Book Title: Umaswami Shravakachar Pariksha
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उमास्वामि श्रावकाचार परीक्षा जुगलकिशोर मुख्तार Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर सेवा मन्दिर दिल्ली क्रम मंग्या ४ काल न Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक-पुस्तकमालाका चतुर्थ पुष्प उमास्वामि-श्रावकाचार-परीक्षा । [ऐतिहासिक-प्रस्तावनी सहित] __लेसका जुगलकिशोर मुस्तार, 'युगवी सरमावा जिसमास [ग्रन्थपरीक्षा ४ भाग,स्वामी समन्तभद्र, जिनपूजाधिकारमीमांसा, उपासनातत्त्व,विवाहममुह श्य, विवाहक्षेत्रप्रक. जैनाचार्योंका शासनभेद, वीरपुष्पाञ्जलि, हम दुखी क्यों हैं, मेरीभावना, निल्यभावना,महावीरसंदेश, सिद्धिसोपान और मुत्साधुम्भरण-मंगलपाठ आदि अनेक ग्रन्थोंके रचयिता तथा अनेकान्तादि पत्रांक सम्पादक । ] प्रकाशक दीर-सेवा-मन्दिर सरसावा जि० महारनपुर प्रथमावृत्ति पाश्विन,वीरनिर्वाण सं०२४७० मूल्य विक्रम संवत् २००१ ५०० प्रति । सन् १६४४ । सत्य-विवेक Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पEvereververvedavervRIUEIVEvermevereverevereveuarya בתלתלתלכתבהפופובהטמפפרבובת בובתתלבשותפם धन्यवाद shsmaharananadaneeleem इस पुस्तकके प्रकाशनार्थ मुनि श्रीमिद्धसागरजी महाराजने श्रीपंचान दिगम्बर जैन मन्दिर दीवान वृद्धिचन्द्रजी जयपुर आदिसे १५०) रु० की आर्थिक सहायता भिजवाई है। सन्मार्गकी रक्षार्थ आपकी इस लगनके लिये हार्दिक धन्यवाद है । साथ ही, दातारों को भी धन्यवाद है। UCLEUEUEUEUELS VELENEUEUEUEUEUEUEUEUEUEUE SEEKEnEENEnाटाचEETENEVEMEnEnEVEDEI प्रकाशक Sh55555555SSLSLS USUSUSLUSELS U USLENNenreite Eee evanevaalaMELIEREALEnatRAINMENT ___समा मिटिंग वर्क्स, चावड़ी बाज़ार, देहली। Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना यह प्रन्थ-परीक्षा, जिसमें उमास्वामि-श्रावकाचारको एक जाली ग्रन्थ सिद्ध किया गया है, आजसे कोई इकतीस वर्ष पहले देवबन्द में ( मेरे मुख्तारकारी छोड़नेसे प्रायः तीन मास पूर्व ) लिखी गई थी, सबसे पहले जैनहितैषी भाग १० के प्रथम दो अंकों (कार्तिक व मार्गशीर्ष वीरनिर्वाण सं० २४४०) में प्रकाशित हुई थी और इमी परीक्षा-लखसे मेरी उस 'प्रन्थ-परीक्षा' लेख-मालाका प्रारम्भ हुआ था, जो कई वर्ष तक उक्त जैनहितैषी पत्र में बम्बईसे निकलती रही और बादको 'जैनजगत' में अजमेरसे भी प्रकट हुई है। इस परीक्षा-लेखका अनुमोदन करते हुए ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजीने इस उमी समय अपने 'जैनमित्र' पत्रमें उद्धृत किया था, और दक्षिण प्रान्तकं प्रसिद्ध विद्वान् सेठ हीराचन्द नेमिचन्दजी ऑनरेरी मजिस्ट्रेट शोलापुरने इसका मराठी भापामें अनुवाद प्रकाशित कराया था। और भी कई परीक्षा-लेखोंका मराठी अनुवाद आपने प्रकाशित कराया था, और उसके द्वारा यह प्रकट किया था कि इस प्रकारके लेखोंका जितना अधिक प्रचार हो उतना ही वह ममाजके लिए हितकर है। ___इस परीक्षा-लग्चके बाद जब 'कुन्दकुन्द-श्रावकाचार' की परीक्षा का लेंग्व'जिनसेन-त्रिवर्गाचार' की परीक्षाके तीन लेव + और ___यह लेग्व ता० १७ जनवर्ग ५६१४ को देवबन्दमें लिया गया और पोप वीरनिर्वाण मंवत २४४ ० के जैनहिनैपी अंक ३ में प्रकट हुआ। ये लेग्य क्रमशः १२ जून, ८ जुलाई, १५ अगस्त सन् १९१४ को देवबन्दमें लिये गये और जनहितैषीक चैत्र-बैसाग्व, जेष्ठ तथा अमाढ़ वीरनिर्वागा मंवत् २४४० के अंकोंमें प्रकट हुए। Page #6 --------------------------------------------------------------------------  Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना दामोंमें चलाया करते हैं। इस भूलके कारण ही आज हमारे यहाँ भगवान् कुन्दकुन्द और सोमसन, समन्तभद्र और जिनसेन (भट्टारक ), तथा पूज्यपाद और श्रुतसागर एक ही आसन पर बिठाकर पूजे जाते हैं। लोगोंकी सदसद्विवेकबुद्धिका लोप यहाँ तक हो गया है कि वे संस्कृत या प्राकृतमें लिखे हुए चाहे जैसे वचनोंको प्राप्त भगवानके वचनोंसे जरा भी कम नहीं समझतं ! ग्रन्थपरीक्षाके लेखोंसे हमें आशा है कि भगवान महावीरके अनुयायी अपनी इस भूलको समझ जायेंगे और वे आप अपनेको और अपनी सन्तानको धूर्त ग्रन्थकारोंकी चुंगलमें न फंसने देंगे। जिस समय ये लेग्व निकले थे, हमारी इच्छा उसी समय हुई थी कि इन्हें स्वतंत्र पुस्तकाकार भी छपवा लिया जाय, जिससे इस विषयकी ओर लोगोंका ध्यान कुछ विशेषतासे आकर्षित हो; परंतु यह एक बिलकुल ही नये ढंगकी चर्चा थी, इसलिये हमने उचित समझा कि कुछ समय तक इस सम्बन्ध में विद्वानोंकी सम्मतिकी प्रतीक्षा की जाय । प्रतीक्षा की गई और खूब की गई। लेखमालाके प्रथम तीन लेखोंको प्रकाशित हुए तीन वर्षसे भी अधिक समय बीत गया; परंतु कहींसे कुछ भी प्राइट न सुन पड़ी; विद्वन्मण्डली की ओरसे अब तक इनके प्रतिवादमें कोई एक भी लेख नहीं निकला; बल्कि बहुतसे विद्वानोंने हमारे तथा लेखक महाशयके समक्ष इस बातको स्पष्ट शब्दोंमें स्वीकार किया कि आपकी समालोचनाये यथार्थ हैं।" इन लेखोंके बाद ता.८ अगस्त १९१७ को बम्बई में 'धर्मपरीक्षा' (श्वेताम्बरीय ) की परीक्षा लिखी गई, जो उसी समय जैनहितैषी भाग १३ अंक ७ में प्रकट हुई थी। फिर कुछ वर्षोंके बाद कई मित्रोंका यह तोत्र अनुरोध हुआ कि 'सोम-सेन-त्रिवर्णचार'को भी परीक्षा लिखी जाय उन्होंने इस त्रिवर्णचारकी परीक्षा के लिखे Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकोणक-पुस्तकमाला जानेको तब बहुत ही आवश्यक महसूस किया; क्योंकि मगठी अनुवादात्मक संस्करणके बाद उस समय वह त्रिवर्णाचार हिन्दी अनुवादक साथ भी प्रकाशित हो गया था और उससे बड़ा अनर्थ हो रहा था। तदनुसार, यथेष्ट समय पासमें न होते हुए भी, मुझे दूमरे जरूरी कामोंको गौण करके इस त्रिवर्णाचारकी परीक्षामें प्रवृत्त होना पड़ा और उसने मेरा डेढ़ वर्षके करीबका समय ले लिया ! परीक्षा खूब विस्तार के साथ लगभग ३० फार्मकी अनेक लेखोंमें लिखी गई, और जन्मभूमि सरसावामें ज्येष्ठ कृष्ण १३ विक्रम संवत् १९८५ (ता. १७ मई सन १९२८) को लिग्वकर समाप्त हुई। ये परीक्षालेव* उस समय 'जैनजगन' पत्रमें मई मन् १९२७ से प्रकाशित होने प्रारंभ हुए थे। और इनके प्रकाशित हो चुकनेसे कोई तीन महीने बाद ही सिनम्बर मन् १६२८ में जैनग्रन्थरत्नाकर-कर्यालय बम्बईने इन्हें ग्रंथपरीक्षा-तृतीय मागके रूपमें अलग प्रकट किया था, और इनके साथमें उक्त 'धर्मपरीक्षा के परीक्षालेखको भी दे दिया था तथा अकलंक-प्रतिष्ठापाठकी जाँचो और पूज्यपाद-उपासकाचारकी जाँच नामक मर दो और लेखोंको भी शामिल कर दिया था। ग्रन्थपरीक्षाके इस तृतीय भागकी 'भूमिका' (भाद्र कृ० २, सं० १९८५)में पं० नाथूरामजी प्रेमीने जैनसाहित्यमें विकार,भट्टारकीययुगके कारनामों और दिगम्बर तेरहपन्थकी उत्पत्ति तथा उसके कार्य एवं प्रभावादिका कुछ दिग्दर्शन कराते हुए इन * इन लेखों की संख्याका स्मरण नहीं: और लेखोंकी मूल कापियाँ अथवा जैनजगत्की फाइल मामने न होनेस उनकी अलग अलग तारीख आदि भी नहीं दी जा सकीं। । यह लेख २६ मार्च सन् १९१७ को देवबन्दमें लिखा गया । + यह लेख २५ नवम्बर सन् १९२१ को सरसावामें लिग्बा गया । Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना परीक्षालेखोंकी विशेषतादिके सम्बन्धमें जो कुछ लिखा है उसमें के कुछ वाक्य इस प्रकार हैं :____“मैं नहीं जानता हूँ कि पिछले कई सौ वर्षों में किसी भी जैन विद्वानने कोई इस प्रकारका समालोचक ग्रन्थ इतने परिश्रमसे लिखा होगा और यह बात तो बिना किसी हिचकिचाहटके कही जा सकती है कि इस प्रकारके परीक्षा लेख जैन साहित्यमें सबसे पहले हैं और इस बानकी सूचना देते हैं कि जैन समाजमें तेरहपन्थ द्वारा स्थापित परीक्षा-प्रधानताके भाव नष्ट नहीं हो गये हैं। वे अब और भी तेजीके साथ बढ़ेंगे और उनके द्वारा मलिनीकृत जैनशासन फिर अपनी प्राचीन निर्मलताको प्राप्त करने में समर्थ होगा।" x x x "ये परीक्षालख इतनी सावधानीसे और इतने अकाट्य प्रमाणोंके आधारपर लिखे गये हैं कि अभी तक उन लोगोंकी ओरसे जो कि त्रिवर्णाचारादि भट्टारकी साहित्यके परमपुरस्कर्त्ता और प्रचारक हैं, इनकी एक पंक्तिका भी खण्डन नहीं किया गया है और न अब इसकी आशा ही है । ग्रन्थपरीक्षाके पिछले दा भागोंका प्रकाशित हुए लगभग एक युग (१२ वपे) बीत गया। उस समय एक-दो पण्डितमन्योंने इधर उधर घोषणायें की थीं कि हम उनका खण्डन लिखेंगे, परन्तु वे अब तक लिख ही रहे हैं। यह तो असंभव है कि लेखोंका खण्डन लिखा जा सकता और फिर पण्डितोंका दलका दल चुपचाप बैठा रहता; परन्तु बात यह है कि इनपर कुछ लिखा ही नहीं जा सकता। थोड़ी बहुत पोल होती, तो वह ढंकी भी जा सकती; परन्तु जहाँ पोल ही पोल है, वहाँ क्या किया जाय ? गरज यह कि यह लेखमाला प्रतिवादियोंके लिये लोहेके चने हैं, यह सब नरहसे सप्रमाण और युक्तियुक्त लिखी गई है।" Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक-पुस्तकमाला प्रेमीजीके इन सब अनुभवपूर्ण वाक्यों और हृदयोद्गारों से यद्यपि यह सहज ही समझा जा सकता है कि ये परीक्षालेख किस प्रकृति के हैं और इन्होंने जैन समाजको कितना प्रभावित एवं जागृत किया है, फिर भी मैं यहां इतना और बतला देना चाहता हूँ कि श्रीमान माननीय पं० गोगलदासजी वरैय्याने जिस 'जिनसे विचार' को खतौलीके दस्सा-बीसा केसमें अपनी गवाही के साथ बतौर प्रमाणके उपस्थित किया था उसकी परीक्षाके जब मेरे लेख निकल चुके और उनसे वह स्पष्ट जाली प्रन्थ प्रमाणित गया तब उन्होंने अपने मोरेना विद्यालयके पठनक्रमसे सभी विचारोंको निकाल दिया था और यह उनके हृदय परिवर्तन, गुण-प्रहण और भूल शंशोधनका एक ज्वलन्त उदाहरण था । दूसरे शब्दों में यह उस शब्दहीन हलचलका ही एक परिणाम था जो विद्वानोंके हृदयों में मेरी लेखमालाके निकलते ही पैदा हो गई थी और जिसके विषय में प्रेमीजीने यह भविष्यवाणीकी थी कि 'वह समय पर कोई अच्छा परिणाम लाये बिना नहीं रहेगी ।' प्रेमीजीकी यह भविष्यवाणी अक्षरशः सत्य निकली और उस शब्दहीन हलचलका स्थूल परिणाम उस समय देखने को मिला जब कि सितम्बर सन् १९३८ में 'चर्चासागर' जैसा भ्रष्ट ग्रन्थ प्रकाशमें आया और बाबू रतनलालजी झांझरी कलकत्ताके द्वारा उसका कुछ प्राथमिक परिचय पाते ही सैकड़ों विद्वान तथा प्रतिष्ठित पुरुष 'चर्चासागर' को लेकर ऐसे दूषित ग्रन्थोंका विरोध करनेके लिये मैदान में आगये - उन्होंने विरोध में आवाज ही नहीं उठाई, पंचायतों द्वारा प्रस्ताव ही पास नहीं कराए बल्कि कितने ही विद्वानोंने जोरदार लेखनी भी उठाई है। कलकत्ताके सेठ गंभीरमलजी पांड्याने तो पश्चात्तापपूर्वक यह भी प्रकट किया है कि उन्होंने ८ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना चर्चासागरके प्रकाश र्थ द्रव्यकी सहायता देने में धोखा खाया है। उक्त 'प्रन्थपरीक्षा' लखमालासे पहले आमतौर पर समाजके विद्वानों तकमें इतना मनोबल और साहस नहीं था कि वे जैनकी मुहर लगे हुए और जैन मन्दिरोंके शास्त्र-भण्डारों में विराजित किसी भी ग्रन्थके विरोधमें प्रकट रूपसे कोई शब्द कह सकें। और तो क्या, मेरे परीक्षा-लेखोंको पढ़कर और उनपर से यह जानकर भी कि वे ग्रन्थ धूर्तीके रचे हुए जाली तथा बनावटी हैं बहुतोंको उनपर अपनी स्पष्ट सम्मति देनेकी हिम्मत तक नहीं हुई थीहालाँ कि उसे अच्छी जाँच-पडनाल-पूर्वक देनेके लिये मैंने बार वार विद्वानोंसे निवेदन भी किया था। उनका वह संकोच चर्चासागरकी चर्चाओंके वातावरणमें विलीन होगया और वे भी अपने लेखादिकोंके द्वारा उन ग्रन्थपरीक्षाओंका अभिनन्दन करने लगे । कुछ विद्वानोंको आर्यसमाजके साथके शास्त्रार्थों तकमें यह धाषित कर देना पड़ा कि हम इन त्रिवर्णाचार जैसे प्रन्थोंको प्रमाण नहीं मानते। यह सब देखकर जैनजगतके सह-सम्पादक बाबू फतह चन्दजी सेठीने अपने २३ नवम्बर सन् १९३१ के पत्र में मुझे लिखा था___“ 'चर्चासागर के सम्बन्धमें जैनसमाजमें जो चर्चा चल रही है, उसमें प्रत्यक्षरूपसे यद्यपि आप भाग नहीं ले रहे हैं, किन्तु वास्तवमें इसका सारा श्रेय आपको है। यह सब आपक उस परिश्रमका फल है जो आजसे करीब १०-१२ (५८) वर्ष पहले से आप करते आ रहे हैं। जिस बातके कहनेके लिये उस समय आपको गालियाँ मिली थीं, वही आज स्थितिपालकदलके स्तम्भों द्वारा कही जा रही है।" इसी समयके लगभग पं० परमेष्ठीदासजी न्यायतीर्थने, जिन्होंने पहलेसे मेरी ग्रन्थपरीक्षाओं तथा दूसरी विवेचनात्मक पुस्तकों Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक-पुस्तकमाला को नहीं पढ़ा था, ग्रन्थपरीक्षाके तृतीय भाग और 'विवाह-क्षेत्रप्रकाश' को पढ़कर अपने १६ नवम्बरके पत्र में लिखा था "आपकी इन पुस्तकोंको पढ़कर बड़ा ही आनन्द आता है। ये सब पुस्तके विद्यार्थी-जीवनमें ही पढ़ लेना चाहिये थीं, मगर दुःग्वका विपय है कि उन पांजगपोलों या कांजीहाउसों (कानीभीतों) में विद्यार्थियोंकों ऐसे साहित्यका भान भी नहीं कराया जाना है। मेरी प्रबल इच्छा है कि आपकी और प्रेमीजी की नमाम रचनायें पढ़ जाऊँ । क्या आप नाम लिखने की कृपा करेंगे ?...... खेद है कि मामाजिक संस्थाओंमें हम लोग इन झान व्यापक बनाने बाली पुस्तकांस बिल्कुल अपरिचित रक्वे जाते हैं । इसी लिये विद्यार्थी ढब्बू निकलते हैं।" ___ इन्हीं पं० परमेष्ठीदासजीने, दूसरी ग्रन्थपरीक्षाओंको भी पढकर, चर्चामागरकी समीक्षा लिखी है । यद्यपि आपने और दूसरे भी कुछ विद्वनोंने मुझे चर्चासगरकी भी साङ्गोपाङ्ग परीक्षा लिग्य देनेकी प्रेरणा की थी परन्तु मैं उस ममय चर्चासागरके बड़े भाई 'सूर्यप्रकाश' की परीक्षाके कामको हाथ में ले चुका था और पासमें अवकाश जरा भी नहीं था, इसलिये क्षमा याचना ही करनी पड़ी थी। इन पं० परमेष्ठीदासजीने ग्रन्थपरीक्षाके मागको अपनाया है, और भी दानविचार तथा सुधर्मश्रावकाचार जैसे ग्रन्थोंकी समीक्षाएँ इन्होंने बादको लिखी है, जो सब प्रकट होचुकी हैं। इस तरह ग्रन्थपरीक्षाका जो गजमार्ग खुला है उसपर कितनों ही को चलता तथा चलनेके लिये उद्यत देखकर मेरी प्रसन्नता का होना स्वाभाविक था, और जिसे मैंने उस समय व्यक्त भी किया था। यहाँ पर मैं यह भी बतला देना चाहता हूँ कि 'सूर्यप्रकाश' ग्रन्थकी गोमुखव्याघ्रता चर्चासागरसे भी बढ़ी चढ़ी है। यह भी जैनत्वस गिरा हुआ जैनप्रन्थोंका कलंक है, भ० महावीरके पवित्र Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना नामको कलंकित तथा जैनशासनको मलिन करनेवाला है, सिरसे पैर तक जाली है और विषमिश्रित भोजनके समान त्याज्य है। इसका अनुवाद भी अधिक निरंकुशता, धूर्तता एवं अर्थके अनर्थको लिये हुए है। ये सब बातें इस ग्रन्थके परीक्षा-लेखोंमें दिनकर-प्रकाशकी तरह स्पष्ट करके बतलाई गई हैं। परीक्षा-लेव जैनजगत' में १६ दिसम्बर सन १६३१ के अङ्कसे प्रारम्भ होकर पहली फर्वरी सन् १९३३ तकके अङ्कोंमें प्रकट हुए थे, जिन्हें बादको जनवरी सन १९३४ में ला जौहरीमलजी जैन सर्राफ, दरीबाकलाँ देहलीने, मुझसे ही संशोधित कराकर, पुस्तकरूप में प्रकाशित कराया है और यह ग्रन्थपरीक्षाका चतुर्थ भाग है। जब इम प्रन्थ-परीक्षाको 'जैनजगतमें प्रकट होते हुए सालभर होगया था तब रायबहादुर माहू जुगमन्दरदासजी जैन रईस नजीबाबादने भा० दि० जैन परिपके नवम अधिवेशनमें सभापतिपदसे जो भापण सहारनपुर में ता० ३० दिसम्बर सन १६३२ को दिया था उसमें ग्रन्थपरीक्षाके पिछले तीन भागोंके साथ इस ग्रन्थपरीक्षाका भी अभिनन्दन किया था और कहा था कि " उसे (सूर्य प्रकाश-परीक्षको) दग्बकर तो मेरे शरीर के रोंगटे खड़ होगये । भगवान महावीरके नामपर कैसा कैसा अनर्थ किया गया है और जैन शासनको मलिन करनेका कैसा नीच प्रयास किया गया है यह कुछ भी कहते नहीं बनता ! पं० टोडरमलजी आदि कुछ समर्थ विद्वानोंके प्रयत्नसे भट्टारकीय साहित्य लुप्तप्राय होगया था परन्तु दुःखका विषय है कि अब कुछ भट्टारकानुयायी पण्डितोंने उसका फिरसे उद्धार करनेका बीड़ा उठाया है। अतः ___* यह १७६ पृष्ठोंको पुस्तक उक्त ला० जौहरीमलके तथा बा० पन्नालाल जैन, १६६५ मुहल्ला चर्खेवाला, देहलीके पाससे छह आनेमें मिलती है। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ प्रकीर्णक-पुस्तकमाला समाजको अपने पवित्र साहित्यकी रक्षा के लिये सतर्कताके साथ सावधान हो जाना चाहिये और ऐसे दूषित अन्थोंका जोरोंके साथ बहिष्कार करना चाहिये, तभी हम अपने पवित्र धर्म और पूज्य चाय की कीर्तिको सुरक्षित रख सकेंगे ।" इस ग्रन्थपरीक्षा (चतुर्थ भाग ) के साथमें पं० दीपचन्दजो वर्णी 'मेरे विचार' लगे हुए हैं, जिनमें परीक्षाका अभिनन्दन करते 'हुए इस ग्रन्थको सोमसेन - त्रिवर्णाचारसे भी अधिक दूषित, शास्त्रविरुद्ध तथा महा आपत्तिके योग्य ठहराया है। साथ ही, साहित्यरत्न पं० दरबारीलालजी न्यायतीर्थकी महत्वपूर्ण 'भूमिका' ( ७ नवम्बर सन १६३३) भी लगी हुई है। उस समय भट्टारकानुयायी कुछ पण्डितोंको जब ग्रन्थपरीक्षाओं के विरोध में कुछ भी युक्तियुक्त कहने के लिये न रहा तब उन्होंने अन्तिम हथियार के रूप में यह कहना शुरू किया था कि १. " बस ! परीक्षा मत करो। परीक्षा करना पाप है। सरस्वतीकी परीक्षा करना माताके सतीत्वकी परीक्षा करनेके समान निन्द्य है । जब हम माँ बापकी परीक्षा नहीं करते तब हमें सरस्वती की परीक्षा करने का क्या हक है ? दुनियां के सैकड़ों कार्य बिना परीक्षा के चलते हैं ।" २. " जिन शास्त्रों से हमने अपनी उन्नति की उनकी परीक्षा करना तो कृतघ्नता है ।" ३. “हम शास्त्रकार से अधिक बुद्धिमान हों तो परीक्षा कर सकते हैं ।" भूमिका में इन सब बातों का खूब युक्ति-पुरस्सर उत्तर दिया गया है और उन्हें सब प्रकार से निःसार तथा निर्लज्जता मूलक ठहराया गया है । साथ ही, ग्रन्थ और उसकी परीक्षाके सम्बन्धमें जो कुछ लिखा है उसके कुछ वाक्य इस प्रकार हैं Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ३ "कुछ लोग ऐसे हैं जिन्होंने ग्रन्थपर तो अपना नाम दिया है परन्तु उसमें भ० महावीर आदिके मुखसे इस प्रकारके वाक्य कहलाये हैं जो जैन धर्मके विरुद्ध, क्षुद्रतापूर्ण और दलबन्दीके आक्षेपोंसे भरे हैं। इसी श्रेणीके ग्रन्थोंमें 'सूर्यप्रकाश' भी एक है, जिसकी अधार्मिकता और अनौचित्यका इस पुस्तकमें मुख्तार साहबने बड़ी अच्छी तरहसे प्रदर्शन किया है । इम प्रकारके जाली ग्रन्थोंका भण्डाफोड़ करनेके कार्यमें मुख्तार साहब मिद्धहस्त हैं। आपने भद्रबाहु-संहिता, कुन्दकुन्द-श्रावकाचार, उमाम्वामिश्रावकाचार, जिनसेन-त्रिवर्णाचार आदि जाली ग्रन्थोंकी परीक्षा करके शास्त्र-मूढताको हटानका सफलता पूर्ण और प्रशंसनीय उद्योग किया है।" "संक्षेपमें इतना ही कहा जासकता है कि जाली ग्रन्थों में जितनी धूर्तता और क्षुद्रता होसकती है वह सब इस (सूर्यप्रकाश) में है. और उसकी परीक्षाके विषयम तो मुख्तार माहब का नाम ही काफी है। यह खेद और लज्जाकी बात है कि सूर्यप्रकाशसरीखे भ्रष्ट ग्रन्थोंके प्रचारक ऐसे लोग हैं जिन्हें कि बहुतसे लोग भ्रमवश विद्वान और मुनि समझते हैं । ..... ... 'आशा है इस परीक्षामन्थको पढकर बहुतसे पाठकोंका विवेक जाग्रत होगा।" । इस ग्रन्थपरीक्षा (चतुर्थ भाग) के माथमें कुछ विद्वानोंकी मम्मतियाँ भी लगी हैं, जिनमें से न्यायालंकार पं० वशीधरजी 'सिद्धान्तमहोदधि', इन्दौरकी सम्मति इस प्रकार है: "अापकी जो अति पैनी बुद्धि सचमुच सूर्य के प्रकाश का भी विश्लेपण कर उसके अन्तर्वति तत्त्वोंक निरूपण करने में कुशल है उसके द्वारा यदि नामतः सूर्यप्रकाशकी समीक्षा की गई है तो उसमें का कोई भी तत्त्व गुह्य नहीं रह सकता है। अनुवादकके Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक-पुस्तकमाला हृदयका भी सच्चा फोटू आपने प्रगट कर दिखाया है। अपकी यह परीक्षा तथा पूर्व-लिखित ग्रन्थपरीक्षाएँ बड़ी कामकी चीजें होंगी।" __ इस प्रकार यह 'प्रन्थपरीक्षा' लेखमाला और उसके प्रभावादिकका संक्षिप्त इतिहास है। इस लेखमालाने जनताको सत्यका जो विवेक कराया है, जाली मिक्कों को परखनेके लिये परीक्षा और जाँचकी जो दृष्टि तथा कसौटी प्रदान की है, परीक्षा-प्रधा. नता और मत्य-वादिताको अपनानकी जो शिक्षा दी है, बड़े आचार्योके नामस न ठगाये जाकर वास्तविकताको मालूम करने की जो प्रेरणा की है, अन्धानुसरण कर अहिनमें प्रवृत्त होनेसे रोकनेकी जो चेष्टा की है, प्राचीन ऋषि-महषियोंकी निर्मल कीर्ति को मलिन न होने देकर उसकी सुरक्षाका जो प्रयत्न किया है, और शास्त्र-मूढ़ता अथवा अन्धश्रद्धाके वातावरणको हटाकर विचारवातंत्र्य एवं सुनिीतके ग्रहणको जो प्रोत्तेजन दिया है, वह सब इस लेखमालाक लेग्यों को पढ़नेस ही सम्बन्ध रखता है. और उससे लग्बमालाका उद्देश्य भी स्पष्ट हो जाता है। ____ अब मैं इतना और भी प्रकट कर देना चाहता हूं कि इस प्रन्थपरीक्षाके कार्यमें मेरी प्रवृत्ति कैसे हुई , मेरे हृदयमें गृहस्थ धर्मपर 'गृहि-धर्मानुशासन' नामसे एक सर्वाङ्गपूर्ण ग्रन्थ लिखनेका विचार उत्पन्न हुआ. जो गृहस्थ-धर्म-सम्बन्धी अपटु-डेट सब बातोंका उत्तर दे सके और जिसकी मौजूदगीमें बहुतस श्रावकाचार्गाद ग्रन्थोंस विषयक अनुसन्धान आदि की जरूरत न रहे । इसके लिये प्राचार-विषयक सभी प्राचीन ग्रन्थोंको देखलन की जरूरत पड़ी, जिससे कोई बात अन्यथा अथवा अगमक विरुद्ध न लिखी जा सके। ग्रन्थ-सूचियों में उमास्वामि-श्रावकाचार और कुन्दकुन्द-श्रावकाचार जैसे ग्रन्थोंका नाम मिलनेपर सबसे पहले उन्हींको मँगाकर देखनकी ओर Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना प्रवत्ति हुई। और उन्हें देखते हुए जब यह मालूम पड़ा कि ये ग्रन्थ जाली हैं-कुछ धूर्तीने अपना उल्लू सीधा करनेके लिए बड़े आचार्योंके नामपर उन्हें ग्चा है; तब मुझसे न रहा गया और मैं लोकहितकी दृष्टिसे परीक्षाद्वारा उन अन्थोंकी असलियतको सर्वसाधारणपर प्रकट करनेके लिये उद्यत होगया । बादको जिनसेन-त्रिवर्णाचार, मोमसेन-त्रिवर्णाचार और भद्रबाहु-संहिता जैसे और भी कितने ही जाली तथा अर्ध जाली प्रन्थ सामने आते रहे और उनकी परीक्षाके लिये विवश होना पड़ा। प्रमन्नताका विषय है कि मुझे इस काममें अच्छो सफलताकी प्राप्ति हुई है और मेरे इस कार्यने एक प्रकारसे विद्वानोंकी विचार-धागको ही बदल दिया है। वे इस प्रकारके माहित्यसे अब बहुत कुछ सावधान हो गये हैं और तुलनात्मक-पद्धतिसे अध्ययनमें रुचि भी रखने लगे हैं। अस्तु । ___ अभी कितने ही ग्रन्थ दिगम्बर तथा श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायोंके शास्त्र भण्डारों में ऐसे पड़े हुए हैं जो जाली हैं. जैनत्वसे गिरे हुए हैं और जिनका असली रूप परोक्षा-द्रारा सर्वसाधारणपर प्रकट करना समाजके लिए हितकर है। अभी भी ऐसे कई ग्रन्थोंकी परीक्षाकं लिये मुझे प्रेरणा की जा रही है, परन्तु मेरे पास जरा भा अवकाश नहीं, इसलिये मजबर हो रहा हूँ। इस कार्यके लिये दूसर अनेक विद्वानोंक आगे आने की जरूरत है, और तभी वह मुसम्पन्न हो सकेगा। । अन्त में मैं इतना और भी निवेदन कर देना चाहता हूँ कि ग्रंथपरीक्षाके प्रथम तीन भाग समाप्त हो चुके हैं, मिलते नहीं । अनेक सजन इधर उधर तलाश करने पर भी जब उन्हें नहीं पाते तब मुझे लिखते हैं और मैं भी उन्हें भेजने तथा भिजवाने में प्रायः असमर्थ रहता हूँ। अतः कुछ समाज हितैपियोंको उन्हें फिर से Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ प्रकीर्णक पुस्तकमाला छपाने की जरूरत है। साथ ही, इस बातकी भी जरूरत है कि ये परीक्षाग्रंथ विद्यालयोंकी उच्चकक्षाओंके विद्यार्थियोंको पढ़नेके लिए दिए जावें, जिससे उनका ज्ञान व्यापक बन सके और वे यथेष्ट रूप में प्रगति कर सकें । ऐसा होनेपर पं० परमेष्ठीदासजी न्यायतीर्थं की विद्यासंस्थाओं पर की गई वह आपत्ति भी दूर हो सकेंगी जो उनके उक्त पत्र से प्रकट है । पाठकों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि हालमें भट्टारकीय साहित्य के कुछ पुरस्कर्त्ताओंने उमास्वामि श्रावकाचारको भाषाटीका साथ प्रकाशित करने की धृष्टता की है। इसीसे मुनि श्री सिद्धिसागरजी महाराजने उस प्रन्थसे होनेवाले अनथको टालने तथा भाले जीवोंको चहककर अथवा मुलावेमें पड़कर मिध्यात्वकी प्रवृत्ति करनेसे रोकने के लिये, मुझे इस ग्रंथपरीक्षाको फिर से प्रकाशित करनेकी सानुरोध प्रेरणा की है। उसीके फल स्वरूप यह परीक्षा वीर सेवा मन्दिर से प्रकाशित की जा रही है। इसका अधिकांश श्रेय उक्त मुनिजीका ही प्राप्त है । प्रस्तावना लिखते समय मैं यह चाहता था कि उक्त प्रकाशित बन्धको इस दृष्टि देख लिया जाय कि उसकी भूमिकादिमें इस ग्रन्थपरीक्षाके सम्बन्ध में कुछ लिखा तो नहीं है, यदि लिखा हो तो उसका भी विचार साथ में कर दिया जाय । परन्तु खोजने पर भी यहाँ देहली में, जहाँ मैं कोई दो महीने से स्थित हूँ, उसकी कोई प्रति अपनेको नहीं मिल सकी और न लिखनेपर जयपुरसे ही वह आ सकी है। इसीसे उसके विषयका कोई खास उल्लेख इस प्रस्तावना में नहीं किया जा सका । आश्विनी मा वि० सं० २००१ जुगलकिशोर मुख्तार Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उमास्वामि-श्रावकाचार-परीक्षा जैनममाजमें उमाम्वामी या "उमास्वाति' नामके एक बड़े भारी "विद्वान श्रानार्य होगये हैं, जिनके निर्माण किये हुये तत्त्वार्थमूत्रपर मत्राथमिद्धि, राजवानिक, श्लोकवातिक और गंधहम्तिमहाभाष्यादि अनेक महत्त्वपूर्ण बड़ी बड़ी टीकाये और भाष्य बन चुके हैं। जेन सम्प्रदायमें भगवान् उमास्वामीका श्रासन बहुत ऊँचा है और उनका पवित्र नाम बड़ ही श्रादरके माथ लिया जाता है। उमास्वामी महाराज श्रीकुन्दकुन्द महाराजके प्रधान शिध्य गिने जाते हैं और उनका अस्तित्व विक्रमकी पहली शताब्दीके लगभग माना जाता है। ' तत्त्वार्थमत्र' के सिवाय, भगवत उमात्रामीन किमी अन्य ग्रन्थका प्रणयन किया या नहीं? और यदि किया तो किस क्रिम ग्रन्थका? यह बात अभी तक प्रायः अप्रसिद्ध है । ग्रामतौरपर जैनियाम, यापकी कृतिरूपमे, तत्वाथसूत्रकी ही मर्वत्र पमिद्धि पाई जाती है। शिलालेन्वों तथा अन्य प्राचार्योंके बनाए हुए ग्रन्याम भी, उमाम्वामीके नामके माथ 'तत्त्वार्थमृत्र' का ही उल्लेख मिलता है । * * यथाः "अभूदुमास्वातिमुनिः पवित्रे वंशे तटीये सक्लार्थवेटी । मृत्रीकृतं येन जिन-प्रणीनं शास्त्रार्थजातं मुनिपुङ्गवन ।।" -श्रवणवल्गोलस्थ-शिलालेख "श्रीमानुमास्वातिरयं यतीशस्तत्त्वार्थसूत्रं प्रकटीचकार । यन्मक्तिमागाचरणोद्यतान। पाथेयमो भवति प्रजानाम् ।।" -वादिगजरि Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकोणक-पुस्तकमाला " उमास्वामि-श्रावकाचार" भी कोई ग्रन्थ है इतना परिचय मिलते ही पाठकोंके हृदयोंमें स्वभावसे ही यह प्रश्न उत्पन्न होना संभव है कि, क्या उमास्वामी महागजने कोई प्रथक् ' श्रावकाचार' भी बनाया है ? और यह श्रावकाचार, जिमके साथमें उनके नामका सम्बन्ध है, क्या वास्तवमें उन्हीं उमास्वामी महाराजका बनाया हुआ है जिन्होंने कि ' तन्वार्थ मूत्र' की रचना की है ? अथवा इसका बनाने वाला कोई दूमग ही व्यक्ति है? जिस समय मबसे पहले मुझे इस ग्रन्थके शुभ नामका परिचय मिला था, उस समय मेरे हृदय में भी ऐसे ही विचार उत्पन्न हुए थे। मेरी बहुत दिनांसे इस ग्रन्थके देखनेकी इच्छा थी। परन्तु ग्रन्थ न मिलनेके कारण वह अभीतक पूरी न हो सकी थी। हालमें श्रीमान् माहू जुगमं. दरदासजी रईम नजीबाबादकी कृपासे मुझे ग्रन्थका दर्शनसौभाग्य प्राप्त हुआ है, जिमके लिए मैं उनका हृदयस अाभार मानता है और व मर विशेष धन्यवादके पात्र हैं। इस ग्रन्थपर हिन्दी भापाकी एक टीका भी मिलता है. जिमको किमी 'हलायुध' नामके पंडितने बनाया है । हलायुधजी कब और कहाँ पर हुए और उन्होंने किम सन्-सम्बत्म इम भाषा टोकाको बनाया इसका कुछ भी पता उक्त टीकासे नहीं लगता। हलायुधजीने इस विश्यमें, अपना जो कुछ परिचय दिया है उसका एक मात्र परिचायक, ग्रन्थक अन्त में दिया हुअा, यह पद्य है: चंद्रवाड कुलगोत्र सुजानि । नाम हलायुध लोक बखानि । तानैं रचि भाषा यह सार । उमास्वामिको मूल सुसार ॥" इस ग्रन्थके श्लोक ० ४०१ की टीका, 'दुःश्रुति' नामकै अनर्थदंडका वर्णन करते हुए, हलायुधजीने मोक्षमार्गप्रकाश, ज्ञानानंदनिभरनिजरसपूरितश्रावकाचार, सुदृष्ट्रितरंगिणी, उपदेशसिद्धान्तरत्नमाला, रत्नकरंडश्रावकाचारकी पं० सदासुखजीकृत भाषणवचनिका और विद्वज्जनबोधकको पूर्वानुसाररहित, निर्मल और कपोलकल्पित बतलाया है । साथ ही, यह भी लिखा है कि " इन शास्त्रों में Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ سم उमास्वामि-श्रावकाचार-परीक्षा श्रागम-विरुद्ध कथन किया गया है: ये पूर्वापरविरुद्ध होनेसे अप्रमाण हैं, वाग्जाल हैं; भोले मनुष्योंको रंजायमान करें हैं; ज्ञानी जनोंके आदरणीय नहीं हैं, इत्यादि । " पं० सदासुखजीकी भाषावचनिकाके विषयमें स्वास तोरसे लिखा है कि, “ रत्नकरण्ड मूल तो प्रमाण है बहुरि देशभाषा अप्रमाण है । कारण पूर्वापविरुद्ध, निन्दाबाहुल्य, आगमविरुद्ध क्रमविरुद्ध, वृत्तिविरुद्ध, मृत्रविरुद्ध, वार्तिकविरुद्ध कई दोषनि करि मडित है यानै अप्रमाण, वाग्जाल है।" इन ग्रंथोंमें क्षेत्रपाल-पूजन, शासनदेवतापृजन, सकलीकरणविधान और प्रतिमाके चंदनचर्चन आदि कई बातोंका निषेध किया गया है, जलको अपवित्र बतलाया गया है, खड़े होकर पृजनका विधान किया गया है; इत्यादि कारणोंसे ही शायद हलायुधजीने इन ग्रंथोंको अप्रमाण और अागमविरुद्ध टहगया है । अस्तु: इन ग्रंथोंकी प्रमाणता या अप्रमाणताका विषय यहाँ विवेचनीय न होनेसे, इस विषयमं कुछ न लिखकर मैं यह बतला देना जरूरी समझता हूँ कि हलायुध के इम कथन और उल्लेखसे यह बात बिलकुल हल हो जाती है और इसमें कोई मंदेह बाकी नहीं रहता कि आपकी यह टीका 'रत्नकरंडश्रावकाचार' की (पं० सदासुग्वजीकृत) भाषावनिका तथा 'विद्वजनबोधक' की रचनाके पीछे बनी है: तभी उसमें इन ग्रंथोंका उल्लेग्व किया गया है। पं० सदासुखजीने रत्नकरंडश्रावकाचारकी उक्त भापावनिका विक्रम सम्वत् १६२० की चैत्र कृष्ण १४ को बनाकर पूर्ण की है और 'विद्र जनबोधक' मंघी पन्नालालजी दूगीवालांके द्वाग, जो उक्त पं० सदामुग्वजीके शिष्य थे, माघसुदी पंचमी संवत् १६३६ को बनाकर ममात हया है। इसलिए हलायुधजीकी यह भापाटीका विक्रम मंबत् १६३६ के बादकी बनी हुई निश्चित होती है। हलायुधजीने अपनी इस टीकामें स्थान स्थानपर इस बातको प्रगट किया है कि यह 'श्रावकाचार' सूत्रकार भगवान् उमास्वामी महाराजका बनाया हुआ है । और इसके प्रमाणमें आपने निम्नलिखित श्लोकपर ही अधिक जोर दिया है। जैसा कि उनकी टीकासे प्रगट है : Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्शक पुस्तकमाला " सूत्रे तु सप्तमेप्युक्ताः पृथक् नोक्तास्तदर्थतः | अवशिष्टः समाचारः सोऽत्र वै कथितो ध्रुवम् ॥ ४६२ ॥” टीका - " ते सत्तर श्रुतीचार मैं सूत्रकारने सप्तम सूत्रमें को है ता प्रयोजन ते इहाँ जुदा नहीं कह्या है। जो मतम सूत्रमें अवशिष्ट समाचार है सो यामैं निश्चयकरि को है । अब या जो प्रमाण कहै ताक अनंतसंसारी, निगोदिया, पक्षपाती कैसे नहीं जाण्यां जाय जो बिना विचारया याका कर्त्ता दूसरा उमास्वामी है सो याकूँ किया है (ऐसा कहें ) सांभी या वचनकर मिथ्यादृष्टि, धर्मद्रोही, निंदक, अज्ञानी जागना ।" C इससे भगवामीका ग्रन्थ-कर्तृत्व सिद्ध हो या न हो परन्तु इस टीकासे इतना पता जरूर चलता है कि जिस समय यह टीका लिखी गई है उस समय ऐसे लोग भी मौजूद थे जो इस 'श्रावकाचार को भगवान उमास्वामी सूत्रकारका बनाया हुआ नहीं मानते थे बल्कि इसे किसी दूसरे उमास्वामीका या उमास्वामीके नामसे किसी दूसरे व्यक्तिका बनाया हुआ बतलाते थे। साथ ही यह भी स्पष्ट हो जाता है कि ऐस लोगों के प्रति हलायुधजीके कैसे भाव थे और वे तथा उनके समान विचारके धारक मनुष्य उन लोगों को कैसे कैसे शब्दोंसे याद किया करत थे । 'संशय तिमिरप्रदीप' में, पं० उदयलालजी काशलीवाल भी इस ग्रन्थको भगवान उमास्वामीका बनाया हुआ लिखत है। लेकिन इसके विरुद्ध पं० नाथूरामजी प्रेमी, अनेक सूचियां ग्राधारपर संग्रह की हुई अपनी 'दिगम्बर जैन ग्रन्थकर्त्ता और उनके ग्रन्थ' नामक सूचीद्वारा, यह सूचित करते हैं कि यह ग्रंथ तत्त्वार्थसूत्रके कर्त्ता भगवान् उमास्वामीका बनाया हुआ नहीं है, किन्तु किसी दूसरे (लघु) उमास्वामीका बनाया हुआ है । परन्तु दूसरे उमास्वामी या लघु उमास्वामी कब हुए हैं और किसके शिष्य थे, इसका कहीं भी कुछ पता नहीं है। दरयाफ्त करनेपर भी यही उत्तर मिलता है कि हमें इसका कुछ भी निश्चय नहीं है । जो लोग इस ग्रन्थको भगवान् उमास्वामीका बनाया हुत्रा बतलाते हैं उनका यह कथन किस आधार पर अवलम्बित है ? और जो लोग ऐसा माननेसे Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उमास्वामि-श्रावकाचार-परीक्षा इनकार करते हैं वे किन प्रमाणोंसे अपने कथनका समर्थन करते है ! आधार और प्रमाणकी ये सब बातें अभी तक आमतौरसे कहींपर प्रकाशित हुई मालूल नहीं होती; न कहींपर इनका ज़िकर सुना जाता है और न श्रीउमास्वामी महाराजके पश्चात् होनेवाले किसी माननीय श्राचार्यकी कृतिमें इस ग्रन्थका नामोल्लेख मिलता है। ऐसी हालतमें इस ग्रन्थकी परीक्षा और जाँचका करना बहुत जरूरी मालूम होता है। ग्रन्थ-परीक्षाको छोड़कर दूसरा कोई समुचित साधन इस बातके निर्णयका प्रतीत नहीं होता कि यह ग्रंथ वास्तवमें किसका बनाया हुआ है और कब बना है? ग्रन्थके साथ उमास्वामीके नामका सम्बन्ध है, ग्रन्थके अन्तिम श्लोकसे पूर्वके काव्यमें 'स्वामी' शब्द पड़ा हुआ है और खुद ग्रन्थकर्ता महाशय उपर्युक्त श्लोक नं० ४६२ द्वारा यह प्रगट करते हैं कि 'इस ग्रंथमें सातवें सूत्रसे अवशिष्ट समाचार वर्णित है, इसीसे ७० अतीचार जो सातवे सूत्रमें वर्णन किये गये हैं वे यहां पृथक् नहीं कहे गये' इन सब बातोंसे यह ग्रन्थ सूत्रकार भगवदुमास्वामीका बनाया हुआ सिद्ध नहीं हो सकता । एक नामके अनेक व्यक्ति भी होते हैं; जैन साधुओंमें भी एक नामके धारक अनेक प्राचार्य और भट्टारक हो गये हैं; किसी व्यक्तिका दूसरेके नामसे ग्रंथ बनाना भी असंभव नहीं है । इसलिये जबतक किसी माननीय प्राचीन प्राचार्य के द्वारा यह ग्रन्थ भगवान् उमास्वामीका बनाया हुश्रा स्वीकृत न किया गया हो या खुद ग्रंथ ही अपने साहित्यादिपरसे उसकी सादी न दे, तबतक नामादिकके सम्बन्ध-मात्रसे इस ग्रंथको भगवदुमास्वामीका बनाया हुश्रा नहीं कह सकते । किसी माननीय प्राचीन श्राचार्यकी कृतिमें इस ग्रंथका कहीं नामोल्लेख तक न मिलनेसे अब हमें इसके साहित्यकी जाँच-द्वारा यही देखना चाहिये कि यह ग्रंथ, वास्तवमें, सूत्रकार ___ * अन्तिम श्लोकसे पूर्वका वह काव्य इस प्रकार है :"इति हतदुरितौघं श्रावकाचारसारं गदितमतिसुबोधावसकथं स्वामिभिश्च । विनयभरनतांगाः सम्यगार यन्तु विशदमतिमवाप्य ज्ञानयुक्ता भवंतु ॥४७३।। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . प्रकीर्णक-पुस्तकमाला भगवदुमास्वामीका बनाया हुआ है या कि नहीं ? यदि परीक्षासे यह ग्रंथ सचमुचही सूत्रकार श्रीउमास्वामीका बनाया हुआ सिद्ध हो जाय तब तो ऐसा प्रयत्न होना चाहिये जिससे यह ग्रंथ अच्छी तरहसे उपयोगमें लाया जाय और तत्त्वार्थसूत्रकी तरह इसका भी सर्वत्र प्रचार हो सके। अन्यथा, विद्वानोंको सर्व साधारणपर यह प्रगट कर देना चाहिए कि यह ग्रंथ सूत्रकार भगवदुमास्वामीका बनाया हुआ नहीं है, जिससे लोग इस ग्रंथको उसी दृष्टिसे देखें और वृथा भ्रममें न पड़ें। __ ग्रंथको परीक्षा-दृष्टि से अवलोकन करनेपर मालूम होता है कि इस ग्रन्थका साहित्य बहुतसे ऐसे पद्योंसे बना हुआ है जो दूसरे प्राचार्योंके बनाए हुए सर्वमान्य ग्रंथोंसे या तो ज्योंके त्यों उठाकर रक्खे गये हैं या उनमें कुछ थोड़ासा शब्द-परिवर्तन किया गया है। जो पद्य ज्योंके त्यों उठाकर रक्खे गये हैं वे 'उक्तं च' या 'उद्धृत' रूपसे नहीं लिखे गये हैं और न हो सकते हैं, इसलिए ग्रंथकर्ताने उन्हें अपने ही प्रगट किये हैं। भगवान् उमास्वामी जैसे महान् आचार्य दूसरे प्राचार्योंक बनाये हुए ग्रन्थोंसे पद्य लेवें और उन्हें सर्वथा अपने ही प्रगट करें, यह कभी हो नहीं सकता । ऐसा करना उनकी योग्यता और पदस्थके विरुद्ध ही नहीं, बल्कि एक प्रकारका हीन कर्म भी है। जो लोग ऐसा करते हैं उन्हें, यशस्तिलकमें, श्रीमोमदेव प्राचार्यने साफतौरसे 'काव्यचोर' और 'पातकी' लिखा है । यथा :"कृत्वा कृतीः पूर्वकृताः पुरस्तात्प्रत्यादरं ताः पुनरीक्ष्यमाणः । तथैव जल्पेदथ योऽन्यथा वा स काव्यचारोऽस्तु स पातकी च ॥ लेकिन पाठकोंको यह जानकर और भी आश्चर्य होगा कि इस ग्रंथमें जिन पद्योंको ज्यांका त्यों या कुछ बदलकर रक्खा है वे अधिकतर उन श्राचार्योंके बनाये हुए ग्रंथांसे लिये गये हैं जो सूत्रकार श्रीउमास्वामीसे प्रायः कई शताब्दियोंके पीछे हुए हैं। और वे पद्य, ग्रंथके अन्य स्वतंत्र बने हुए पद्योंसे, अपनी शब्दरचना और अर्थगांभीर्यादिके कारण स्वतः भिन्न मालूम पड़ते हैं । और साथ ही उन ग्रंथ-मणिमालाओंका स्मरण कराते हैं Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उमास्वामि-श्रावकाचार-परीक्षा जिनसे वे पद्य-रत्न लेकर इस ग्रन्थमें गॅथ गये हैं। उन पद्यों से कुछ पद्य, नमूनेके तौरपर, यहाँ पाठकोंके अवलोकनार्थ प्रकट किये जाते हैं:(१) ज्योंके त्यों उठाकर रक्खे हुए पद्य क-पुरुषार्थसिद्धय पायसे "आत्मा प्रभाषनीयो रत्नत्रयतेजसा सततमेव । दानतपोजिनपूजाविद्यातिशयैश्च जिनधर्मः ॥६॥ ग्रंथार्थोभयपूर्ण काले विनयेन सोपधानं च । बहुमानेन समन्वितमनिहवं ज्ञानमाराव्यम् ॥२४॥ संग्रहमुच्चस्थानं पादोदकमर्चनं प्रणामं च।। वाकायमनःशुद्धिरेषणशुद्धिश्च विधिमाहुः ॥४३७॥ ऐहिकफलानपेक्षा क्षान्तिनिष्कपटतानसूयत्वं । अविषादित्वमुदित्वे निरहंकारत्वमिति हि दातगुणाः ॥४३८॥ ये चारों पद्य श्रीअमृतचंद्राचार्य-विरचित 'पुरुषार्थसिद्धय पायसे' उठाकर रक्खे गये हैं। इनकी टकसाल ही अलग है; ये 'आर्या' छंदमें हैं। समस्त पुरुषार्थसिद्धय पाय इसी आर्याछंदमें लिखा गया है। पुरुषार्थसिद्धय पायमें इन पद्योंके नम्बर क्रमशः ३०, ३६, १६८ और १६६ दर्ज हैं। ख-यशस्तिलकसे “यदेवाङ्गमशुद्धं स्यादद्भिः शोभ्यं तदेव हि । भंगुलौ सर्पदष्टायां न हि नासा निकृत्यते ॥४॥ संगे कापालिकात्रेयीचांडालशवरादिभिः । आप्लुत्य दंडवत्सम्यग्जपेन्मंत्रमुपोषितः ॥ ४६॥ एकरात्रं त्रिरात्रं वा कृत्वा स्नात्वा चतुर्थके। दिने शुभ्यन्त्यसंदेहमृतौ व्रतगताः खियः ॥४७॥ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक-पुस्तकमाला मांसं जीवशरीरं जीवशरीरं भवेन्न वा मांसम। यद्वनिम्बो वृक्षो वृक्षस्तु भवेन्न वा निम्बः ।।२७६।। शुद्धं दुग्धं न गोर्मासं वस्तुवैचित्र्यमीदृशं । विषत्रं रत्नमाहेयं विषं च विपदे यतः ॥२७॥ तच्छाक्यसांख्यचार्वाकवेदवैद्यकपर्दिनाम । मतं विहाय हातव्यं मांसं श्रेयार्थिभिः सदा ॥२४॥" ये सब पद्य श्रीसोमदेवसूरिकृत यशस्तिलकसे उठाकर रक्ग्वे हुए मालूम होते हैं । इन पद्योंमें पहले तीन पद्य यशस्तिलकके छटे आश्वासके और शेष पद्य सातवें आश्वासके हैं । ग-योगशास्त्र (श्वेताम्बरीय ग्रन्थ) से "सरागोऽपि हि देवश्चेद्गुरुरब्रह्मचार्यपि । कृपाहीनोऽपि धर्मश्चत्कष्टं नष्टं हहा जगत् ॥ १६ ॥ हिसा विघ्राय जायेत विघ्नशांत्यै कृतापि हि। कुलाचारधियाप्येषा कृता कुलविनाशिनी ॥ ३३६ ॥ मांस भक्षयितामुत्र यस्य मांसमिहाम्यहम । एतन्मांसस्य मांसत्वे निरुक्तिं मनुर ब्रवीत् ॥ २६५ ॥ उलूककाकमार्जारगृध्रशंवरशूकराः । अहिवृश्चिकगोधाश्च जायंते रात्रिभोजनात् ॥ ३२६॥" ये चारों पद्य श्रीहेमचन्द्राचार्यविरचित 'योगशास्त्र से लिये हुए मालूम होते हैं। इनमेंसे शुरूके दो पद्य योगशास्त्रके दूसरे प्रकाशमें (अध्याय ) क्रमशः नं० १४, २६ पर और शेष दोनों पद्य तीसरे प्रकाशमें नं० २६ और ६७ पर दर्ज हैं । तीसरे पद्यके पहले तीन चरणों में मनुस्मृतिक वचनका उल्लेख है । Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उमास्वामि-श्रावकाचार-परीक्षा ध-विवेकविलास( श्वे० प्रन्थ )से "प्रारभ्यैकांगुलादिम्बाद्यावदेकादशांगुलं । (उत्तरार्ध)॥१०३।। गृहे संपूजयेद्विम्बमूवं प्रासादगं पनः। प्रतिमा काष्ठलेपाश्मस्वर्णरूप्यायसां गृहे ॥ १०४ ॥ मानाधिकपरिवाररहिता नैव पूजयेत् । (पूर्वार्ध ) ॥ १५ ॥ प्रासादे ध्वजनिर्मक्त पूजाहोमजपादिकं । सर्व विलुप्यते यस्मात्तस्मात्कार्यों ध्वजोच्छ्रयः ।। १०७ ॥ अतीताव्दशतं यत्स्यात यच्च स्थापितमुत्तमैः । तद्वंथगमपि पूज्यं स्याद्विम्बं तनिष्फलं न हि ।। १०८ ॥" ये सब पद्य जिनदत्तमूरिकृत 'विवेकविलाम के प्रथम उल्लासमें क्रमशः नं० १४४, १४५, १७८ और १४० पर दर्ज हैं और प्रायः वहींसे उठाकर यहाँ रक्खे गये मालूम होते हैं । ऊपर जिन उत्तरार्ध और पूर्वाधोंको मिलाकर दो कोष्टक दिये गये हैं, विवेकविलासमें ये दोनों श्लोक इसी प्रकार स्वतन्त्र रूपसे नं० १४४ और १४५ पर लिखे हैं। अर्थात् उत्तराधको पूर्वाध और पूर्वाधको उत्तराधं लिखा है । उमास्वामि-श्रावकाचारमें उपर्युक्त श्लोक नं० १०३ का पूर्वार्ध और श्लोक नं० १०५ का उत्तरार्ध इस प्रकारसे दिया है :-- "नवांगुले तु वृद्धिः स्यादुद्वेगस्तु षडांगुले ( पूर्वार्ध) १०३॥" "काष्ठलेपायसां भूताः प्रतिमाः साम्प्रतं न हि (उत्तरार्ध)१०॥" श्लोक नं० १०५ के इस उत्तराधसे मालूम होता है कि उमास्वामिश्रावकाचारके रचयिताने विवेकविलासके समान काष्ठ, लेप और लाहेकी प्रतिमाओंका श्लोक नं० १०४ में विधान करके फिर उनका निषेध इन मुद्रित विवेकविलासमें 'स्वर्णरूप्यायसां' की जगह 'दन्तचित्रायसां' पाठ दिया है। - -- - -- - - - Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० प्रकीर्णक-पुस्तकमाला शब्दोंमें किया है कि आजकल ये काष्ठ, लेप और लोहेकी प्रतिमायें पूजनके योग्य नहीं हैं। इसका कारण अगले श्लोकमें यह बतलाया है कि ये वस्तुयें यथोक्त नहीं मिलतीं और जीवोत्पत्ति श्रादि बहुतसे दोषोंकी संभावना रहती है । यथा :"योग्यस्तेषां यथोक्तानां लाभस्यापि त्वभावतः । जीवोत्पत्त्यादयो दोषा बहवः संभवंति च ॥ १०६॥" ग्रन्थकर्ताका यह हेतु भी विद्वजनोंके ध्यान देने योग्य है । -धर्मसंग्रहश्रावकाचारसे "माल्यधूपप्रदीपाद्यैः सचित्तैः कोऽर्चयजिनम् । सावद्यसंभवाद्वक्ति यः स एवं प्रबोध्यते ॥१३७॥ जिना नेकजन्मोत्थं किल्बिषं हन्ति या कृता । सा किन्न यजनाचारैर्भवं सावद्यमंगिनाम् ॥१३८।। प्रेर्यन्ते यत्र वातेन दन्तिनः पर्वतोपमाः। तत्राल्पशक्तितेजस्सु दंशकादिषु का कथा ॥१३॥ भुक्तं स्यात्प्राणनाशाय विषं केवलमंगिनाम् । जीवनाय मरीचादिसदौषधविमिश्रितम् ॥१४०।। तथा कुटुम्बभोग्यार्थमारंभः पापकृद्भवेत् । धर्मकृद्दानपूजादौ हिंसालेशो मतः सदा ॥१४॥ ये पाँचों पद्य पं० मेधावीकृत 'धर्मसंग्रहश्रावकाचार' के हवें अधिकारमें नम्बर ७२ से ७६ तक दर्ज हैं । वहींसे लिये हुए मालूम होते हैं। च-अन्यग्रंथोंके पद्य "नाकृत्वा प्राणिनां हिंसां मांसमुत्पद्यते कचित् । न च प्राणिवधः स्वर्ग्यस्तस्मान्मांसं विवर्जयेत् ॥२६४॥ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उमास्वामि श्रावकाचार - परीक्षा आसन्नभव्यताकर्महानिसंज्ञित्वशुद्धपरिणामाः । सम्यक्त्वहेतुरन्तर्बाह्याप्युपदेशकादिश्व ||२३|| संवेगो निर्वेदो निन्दा गर्दा तथोपशमभक्तो । वात्सल्यं त्वनुकम्पा चाष्टगुणाः सन्ति सम्यक्त्वे ||७८|| I इन तीनों पद्यों से पहला पद्य मनुस्मृतिके पांचवें अध्यायका ४८ पद्य है । योगशास्त्र में श्रीहेमचन्द्राचार्य ने इसे तीसरे प्रकाशमें उद्धृत किया है और मनुका लिखा है। इसीलिये या तो यह पद्य सीधा 'मनुस्मृति' से लिया गया है या अन्य पद्योंके समान योगशास्त्र से ही उठाकर रक्खा गया है । दूसरा पद्य यशस्तिलकके छठे आश्वासमें और धर्मसंग्रहश्रावका - चारके चौथे अधिकारमें 'उक्तं च ' रूपसे लिखा है । यह किसी दूसरे ग्रन्थका पत्र है -- इसकी टकसाल भी अलग है— इसलिए ग्रन्थकर्त्ता ने या तो इसे सीधा उस दूसरे ग्रन्थसे ही उठाकर रक्खा है और या उक्त दोनों ग्रन्थोंमेंसे किसी ग्रंथसे लिया है। तीसरा पद्य 'वसुनन्दिश्रावकाचार' की निम्नलिखित प्राकृत गाथाकी संस्कृत छाया है: : "संवे oिdi गिंदा गरुहा य उवसमो भत्ती । वच्छल्लं अणुकंपा अट्ठगुणा हुंति सम्मत्ते ॥४६॥ ११ इस गाथाका उल्लेख 'पंचाध्यायी' में भी, पृष्ठ १३३ पर, 'उक्तं च' रूपसे पाया जाता है। इसलिए यह तीसरा पद्य या तो वसुनन्दिश्रावकाचारको टीकासे लिया गया है, या इस गाथापरसे उल्था किया गया है । (२) परिवर्तित पद्य अब, उदाहरण के तौरपर, कुछ परिवर्तित पद्य, उन पद्योंके साथ जिनको परिवर्तन करके वे बनाये गये मालूम होते हैं, नीचे प्रगट किये जाते हैं । इन्हें देखकर परिवर्तनादिकका अच्छा अनुभव हो सकता है । इन पद्योंका परस्पर शब्दसौष्ठव और अर्थगौरवादि सभी विषय विद्वानोंके ध्यान देने योग्य हैं। -- Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक-पुस्तकमाला १-स्वभावतोऽशुचौ काय रत्नत्रयपवित्रिते। निर्जुगुप्सा गुण गीतिमता निर्विचिकित्सिता ॥१३॥ -रत्नकरण्डश्रावकाचार स्वभावादशुचौ देहे रत्नत्रयपवित्रिते। निघृणा च गुणप्रीतिर्मता निर्विचिकित्सिता ||४शा --उमास्वामिश्रावकाचार २-ज्ञानं पूजां कुलं जाति बलमृद्धिं तपो वपुः । अष्टावाश्रित्य मानित्वं स्मयमाहुगतस्मयाः ॥ ५॥ +रत्नकरण्ड श्रा० ज्ञानं पूजां कुलं जाति बलमृद्धं तपो वपुः । अष्टावाश्रित्य मानित्वं गतदर्पा मदं विदुः ॥ ८५॥ -उमा० श्रा० ३-दर्शनाचरणाद्वापि चलतां धर्मवत्सलैः। प्रत्यवस्थापन प्राज्ञैः स्थितीकरणमुच्यते ॥ १६ ॥ -रत्नकरएड० श्रा० दर्शनज्ञानचारित्रत्रयाद्भ्रष्टस्य जन्मिनः । प्रत्यवस्थापनं तज्ज्ञाः स्थितीकरणमूचिरे ॥ ५८ ॥ -उमा० श्रा० ४-स्वयूथ्यान्प्रति सद्भावसनाथापेतकैतवा। प्रतिपत्तिर्यथायोग्यं वात्सल्यमभिलप्यते ॥ १७ ॥ रत्नकरण्ड० श्रा० *साधूनां साधुवृत्तीनां सागाराणां सधर्मिणाम् । प्रतिपत्तिर्यथायोग्यं तज्ज्ञैर्वात्सल्यमुच्यते ॥ ६३ ॥ --उमा० श्रा० * यह पूर्वार्ध 'स्वयूथ्यान्प्रति' इस इतने ही पदका अर्थ मालूम होता है। शेष 'सद्भावसनाथा' इत्यादि गौरवान्वित पदोंका इसमें भाव भी नहीं पाया। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उमास्वामि श्रावकाचार - परीक्षा ५- सम्यग्ज्ञानं कार्यं सम्यक्त्वं कारणं वदन्ति जिनाः । ज्ञानाराधनमिष्टं सम्यक्त्वानंतरं तस्मात् ॥ ३३ ॥ - पुरुषार्थसिद्धय, पाय सम्यग्ज्ञानं मतं कार्यं सम्यक्त्वं कारणं यतः । ज्ञानस्याराधनं प्रोक्तं सम्यक्त्वानंतरं ततः ।। २४७ ।। -उमा० श्रा० ६ - हिंस्यन्ते तिलनाल्यां तप्तायसि विनिहिते तिला यद्वत् । arat जीवा योनौ हिस्यन्ते मैथुने तद्वत् ॥ १०८ ॥ - पुरुषार्थमि० तिलनाल्यां तिला यद्वन हिस्यन्ते बहवस्तथा । जीवा यानी च हिंस्यन्ते मैथुने निद्यकर्मणि ।। ३७० ।। -उमा० श्रा 给 ** *** ७- मनोमोहस्य हेतुत्वान्निदानत्वाञ्च दुर्गतेः । मद्यं सद्भिः सदा त्याज्यमिहामुत्र च दोषकृत || —यशस्तिलक मनोमोहस्य हेतुत्वान्नदानत्वाद्भवापदाम् । मद्यं सद्भिः सदा यमिहामुत्र च दोषकृत् || २६१ ।। -उमा० श्रा *ts - मूत्रयं मदाश्चाष्टौ तथानायतनानि षट् । शंकादयश्चेति हग्दोषाः पंचविंशतिः ॥ ८० ॥ — यशस्तिलक मूढ़त्रिकं चाष्टमदास्तथा नायतनानि षट् । शंकादयस्तथा चाष्टौ कुदोषाः पंचविंशतिः ॥ ८० ॥ -उमा० श्रा० # १३ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक-पुस्तकमाला १-साध्यसाधनभेदेन द्विधा सम्यक्त्वमिष्यते । कथ्यते क्षायिकं साध्यं साधनं द्वितयं परं ॥२-५८ ।। -अमितगत्युपासकाचार साध्यसाधनभेदेन द्विधा सम्यक्त्वमीरितम् । साधनं द्वितयं साध्यं क्षायिकं मुक्तिदायकम् ॥२७॥ -उमा० श्रा १०-हन्ता पलस्य विक्रेता संस्कर्ता भक्षकस्तथा। क्रेतानुमन्ता दाता च घातका एव यन्मनुः ॥३-२०।। -योगशास्त्र हना दाता च संस्कर्तानुमन्ता भक्षकस्तथा। क्रेता पलस्य विक्रता यः म दुर्गतिभाजनम् ॥२६॥ -उमा० श्रा ११-स्त्रीसंभोगेन यः कामज्वरं प्रति चिकीर्षति । स हुताशं घृताहुत्या विध्यापयितुमिच्छति ॥२-८॥ -योगशास्त्र मैथुनेन स्मरामिं यो विध्यापयितुमिच्छति । सर्पिषा स ज्वरं मूढः प्रौढं प्रति चिकीर्षति ॥३७१।। -उमा० श्रा० १२-कम्पः स्वेदः श्रमो मूर्छा भ्रमिग्लानिर्बलक्षयः । राजयक्ष्मादिरोगाश्च भवेयुमैथुनोत्थिताः ॥२-७४।। -योगशास्त्र स्वेदो भ्रान्तिः श्रमो ग्लानिर्मुर्छा कम्पो बलक्षयः । मैथुनोत्था भवन्त्येते व्याधयोप्याधयस्तथा ॥३६८॥ -उमा० श्रा० * इसके आगे 'मनुस्मृति के प्रमाण दिये हैं। जिनमेंसे एक प्रमाण "नाकृत्वा प्राणिनां हिंसा ....." इत्यादि ऊपर उद्धृत किया गया है। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ उमास्वामि-श्रावकाचार-परीक्षा १३-रजनीभोजनत्यागे ये गुणाः परितोऽपि तान् । न सर्वज्ञाहते कश्चिदपरो वक्तुमीश्वरः ॥३-७०।। -योगशास्त्र रात्रिभुक्तिविमुक्तस्य ये गुणाः खलु जन्मिनः। सर्वज्ञमनरेणान्यो न सम्यग्वक्तुमीश्वरः ॥३२७|| -उमास्वा० श्रा० योगशास्त्रके तीसरे प्रकाशमें, श्रीहेमचन्द्राचार्य ने १५ मलीन कमांदानोंके त्यागनेका उपदेश दिया है। जिनमें पाँच जीविका, पाँच वाणिज्य और पाँच अन्य कर्म हैं। इनके नाम दो श्लोकों (नं. ६९-१००)में इस प्रकार दिये हैं : १ अंगारजीविका, २ वनजीविका, ३ शकटजीविका, ४ भाटकजीविका, ५ स्फोटकजीविका, ६ दन्नवाणिज्य, ७ लाक्षावाणिज्य, ८ रसवाणिज्य, केशवाणिज्य, १० विपवाणिज्य, १५ यंत्रपीड़ा, १२ निलीछन, १३ असतीपोपण, १४ दवदान योर १५ सर शोष। इसके पश्चात् (श्लोक न० ११३ तक) इन १४ कर्मादानांका पृथक् पृथक स्वरूप वर्णन किया है। जिसका कुछ नमूना इस प्रकार है : "अंगारभ्रष्टाकरणांकुंभायः स्वर्णकारिता । ठठारत्वेष्टकापाकावितीचंगारजीविका ।।१०।। नवनीतवसाक्षौद्रमद्यप्रभृतिविक्रयः । द्विपाश्चतुष्पाद विक्रेयो वाणिज्यं रसकेशयोः ॥१०८।। नासावेधोङ्कनं मुष्कच्छेदनं पृष्ठगालनं । कर्णकम्बलविच्छेदो निलांछनमुदीरितं ॥११॥ सारिकाशुकमार्जारश्वकुर्कटकलापिनाम् । पोषो दास्याश्च वित्तार्थमसतीपोषणं विदुः ।।११।। -योगशास्त्र Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक-पुस्तकमाला इन १५ कर्मादानोंके स्वरूपकथनमें जिन जिन काँका निषेध किया गया है, प्रायः उन सभी कोंका निषेध उमास्वामिश्रावकाचारमें भी श्लोक नं० ४०३ से ४१२ तक पाया जाता है। परन्तु १४ कर्मादान त्याज्य हैं, वे कौन कौनसे हैं और उनका पृथक् पृथक् स्वरूप क्या है. इत्यादि वर्णन कुछ भी नहीं मिलता । योगशास्त्रके उपर्युक्त चारों श्लोकोसे मिलते जुलत उमास्वामिश्रावकाचारमं निम्नलिखित श्लोक पाये जाते हैं, जिनसे मालूम हो सकता है कि इन पद्यामं कितना और किम प्रकारका परिवर्तन किया गया है : "अंगारभ्राष्टकरणमयः स्वर्णादिकारिता। इष्टकापाचनं चेति त्यक्तव्यं मुक्तिकांक्षिभिः ॥४४॥ नवनीतवसामग्रमध्वादीनां च विक्रयः । द्विपाचतुष्पाञ्च विक्रयो न हिताय मतः कचित ॥४८६|| कंटनं नामिकावेधो मुष्कच्छेदोंधिभेदनम् । कर्णापनयनं नाम*निलाछनमुदीरितम् ।।४११।। केकीकुक्कटमार्जारसारिकाशुकमंडलाः । पोप्यंत न कृतप्राणिघाताः पारावता अपि ॥४०॥ -उमा० श्रा० रत्नकांडश्रावकाचारादि ग्रंथोंके प्रणेता विच्छिरोमणि स्वामी समन्तभद्राचार्यका अस्तित्व विक्रमकी दूसरी शताब्दीके लगभग माना जाता है; पुरुषार्थमिद्धिय पायादि ग्रन्थोंके रचयिता श्रीमदमृतचद्रसूरिने विक्रमकी १० वीं शताब्दीमें अपने अस्तित्वसे इस पृथ्वीतलको मुशोभित किया ऐसा कहा जाता है, यशस्तिलकके निर्माणकर्ता श्रीसोमदेवसूरि विक्रमकी ११ वीं शताब्दीमें विद्यमान थे और उन्होंने वि० सं० १०१६ (शक सं०८८१) में शस्तिलकको बनाकर समास किया है, धर्मपरीक्षा * 'निलांछन' का जब इससे पहले इस श्रावकाचारमं कहीं नामनिर्देश नहीं किया गया, तब फिर यह लक्षणनिर्देश कैसा ? Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उमास्वामि-श्रावकाचार-परीक्षा तथा उपासकाचारादि ग्रन्थोंके कर्ता श्रीअमितगत्याचार्य विक्रमकी ११वीं शताब्दीमें हुए हैं; योगशास्त्रादि बहुतसे ग्रन्थोंकी रचना करनेवाले श्वेताम्बराचार्य श्रीहेमचन्द्रसूरि राजा कुमारपालके समयमें अर्थात् विक्रमकी १३ वीं शताब्दीमं (सं० १२२६ तक) मौजूद थे; विवेकविलासके का श्वेताम्बर साधु श्रीजिनदत्तसूरि वि० की १३ वीं शताब्दीमें हुए हैं; और पं० मेधावीका अस्तित्व-समय १६ वीं शताब्दी निश्चित है। अापने धर्मसंग्रह-श्रावकाचारको विक्रम संवत् १५४१ में बनाकर पूरा किया है। अब पाठकगगा स्वयं ममझ सकते हैं कि यह ग्रन्थ (उमास्वामि-श्रावकाचार ), जिममें बहुत पीछेसे होनेवाले इन उपयुक्त विद्धानोंके ग्रन्थोंमे पद्य लेकर उन्हें ज्योंका त्यों या परिवर्तित करके रक्खा है, कैसे सूत्रकार भगवदुमास्वामीका बनाया हुआ हो सकता है। सूत्रकार भगवान् उमास्वामीकी अमाधारण योग्यता और उस ममयकी परिस्थितिको, जिस ममयमें कि उनका अवतरण हुअा है, मामने रखकर परिवर्तित पद्यों तथा ग्रन्थके अन्य स्वतन्त्र बने हुए पद्योंका सम्यगवलोकन करनेसे माफ. मालूम होना है कि यह ग्रन्थ उक्त सूत्रकार भगवान्का बनाया हुअा नहीं है। बल्कि उनमे दशां शताब्दी पीछेका बना हुआ है। विरुद्धकथन इम ग्रन्थके एक पद्यम व्रतके, सकल और विकल ऐमे, दो भेदांका वर्णन करते हुए लिखा है कि मकल व्रतके ५३ भेद और विकल व्रतके १२ भेद हैं । वह पद्य इस प्रकार है :-- "सकलं विकलं प्रोक्तं द्विभेदं व्रतमुत्तमं । सकलस्य त्रिदश भेदा विकलस्य च द्वादश ।। २५६ ।। परन्तु सकल व्रतके वे १३ भेद कौनमे हैं ? यह कहींपर इम शास्त्र में Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक-पुस्तकमाला प्रकट नहीं किया। तत्त्वार्थसूत्रमें सकलव्रत अर्थात् महाव्रतके पाँच भेद वर्णन किये हैं । जैसा कि निम्नलिखित दो सूत्रोंसे प्रगट है : "हिंसानृतस्तेयब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम् ॥ ७-१ ॥ "देशसर्वतोऽणुमहती" ॥ ७ ॥ संभव है कि पंच समिति और तीन गुप्तिको शामिल करके तेरह प्रकाएका सकलव्रत ग्रन्थकर्ताके ध्यानमें रहा हो। परन्तु तत्त्वार्थसूत्रमें, जो भगवान् उमास्वामीका सर्वमान्य ग्रन्थ है, इन पंच समिति और तीन गुप्तियोको व्रतसंज्ञामें दाखिल नहीं किया है। विकलव्रतकी संख्या जो बारह लिखी है वह ठीक है और यही सर्वत्र प्रसिद्ध है। तत्त्वार्थसूत्रमं भी १२ व्रतोंका वर्णन है, जैसा कि उपर्युक्त दोनों सूत्राको निम्नलिखित सूत्रांके साथ पढ़नेसे ज्ञात होता है :-- "अणुव्रतोऽगारी" ।। ७-२०॥ "दिग्देशानथदण्डविरतिसामायिकप्रोपधोपवासोपभोगपरि भोगपरिमाणातिथिसंविभागवतसंपन्नश्च" ||७-२१ ॥ इस श्रावकाचारके श्लोक नं० ३२८* में भी इन गृहस्थोचित व्रतोंके पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षावन ऐसे बारह भेट वर्णन किये हैं। परन्तु इसी ग्रन्थके दूसरे पद्यमें ऐसा लिखा है कि "एवं व्रतं मया प्रोक्त त्रयोदशविधायुतम् ।। निरतिचारकं पाल्यं तेऽतीचारास्तु सप्ततिः ॥ ४६१ ।। अर्थात-मैंने यह तेरह प्रकारका व्रत वर्णन किया है, जिसको अतीचारोंसे रहित पालना चाहिए; और वे (व्रतोंकै) अतीचार संख्या में यहाँपर व्रतोंकी यह १३ संख्या ऊपर उल्लेख किये हुए श्लोक नंग २५६ और ३२८ से तथा तत्त्वार्थसूत्रके कथनसे विरुद्ध पड़ती है । तत्त्वा * "अणुव्रतानि पंच स्युस्त्रिप्रकारं गुणवतम् । शिक्षाव्रतानि चत्वारि सागाराणां जिनागमे" || ३२८ ।। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उमास्वामि श्रावकाचार-परीक्षा १६ मूत्र में 'सल्लेखना' को व्रतांसे अलग वर्णन किया है । इस लिये सल्लेखनाको शामिल करके यह तेरहकी संख्या पूरी नहीं की जासकती । व्रतों प्रतीचार भी तत्त्वार्थसूत्रमें ६० ही वर्णन किये हैं । यदि सल्लेखनाको व्रतोंमें मानकर उसके पांच प्रतीचार भी शामिल कर लिये जावें तब भी ६५ (१३५ = ६५) ही प्रतीचार होंगे । परन्तु यहाँपर व्रतोंके चारोंकी संख्या ७० लिखी है, यह एक आश्चर्य की बात है । सूत्रकार भगवान् उमास्वामीके वचन इस प्रकार परस्पर या पूर्वापर विरोधको लिये हुए नहीं हो सकते । इसी प्रकारका परस्परविरुद्ध कथन और भी कई स्थानोंपर पाया जाता है। एक स्थानपर शिक्षाव्रतों का वर्णन करते हुए लिखा है : "स्वशक्त्या क्रियते यत्र संख्या भोगोपभोगयोः । भोगोपभोगसंख्याख्यं तत्तृतीयं गुणवतम् ॥ ४३० ॥” इस पद्यसे यह साफ प्रकट होता है कि ग्रन्थकर्ताने, तत्त्वार्थसूत्र के विरुद्ध, भोगोपभोगपरिमाणव्रतको शिक्षाव्रतके स्थानमें तीसरा गुणव्रत वर्णन किया है ! परन्तु इससे पहले खुद ग्रन्थकर्त्ताने 'अनर्थदण्डविरति ' को ही तीसरा गुणत वर्णन किया है। और वहाँ दिग्विरति, देशविरति तथा नर्थदण्डविरति, ऐसे तीनों गुणव्रतोंका कथन किया है। गुणव्रतोंका कथन समाप्त करनेके बाद ग्रन्थकार इससे पहले ग्राद्यके दो शिक्षाव्रत ( सामायिक, प्रोषधोपवास) का स्वरूप भी दे चुके हैं । अब यह तीसरे शिक्षावतके स्वरूप कथनका नम्बर था, जिसको आप 'गुणवत' लिख गये ! कई चायने भोगोपभोगपरिमाण व्रतको गुणव्रतांमें माना है । मालूम होता है कि यह पद्य किसी ऐसे ही ग्रन्थसे लिया गया है, जिसमें भोगोपभोगपरिमाण व्रतको तीसरा गुणव्रत वर्णन किया है और ग्रन्थकार महाशय इसमें शिक्षाव्रतका परिवर्तन करना भूल गये अथवा उन्हें इस बातका स्मरण नहीं रहा कि हम शिक्षाव्रतका वर्णन कर रहे हैं। योगशास्त्रमें भोगोपभोगपरिमाणव्रतको दूसरा गुणत्रत वर्णन किया है और उसक स्वरूप इस प्रकार लिखा है : Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक-पुस्तकमाला भोगीपभोगयोः संख्या शक्त्या यत्र विधीयते । भोगोपभोगमानं तद्वैतीयीकं गुणत्रतम ॥३-४।। यह पद्य ऊपरके पद्मसे बहुत कुछ मिलता जुलता है। मंभव है कि इसीपरसे ऊपरका पद्य बनाया गया हो और 'गुणव्रतम् इस पदका परिवर्तन करना रह गया हो। __ इस ग्रन्थ के एक पद्यमें 'लोच' का कारण भी वर्णन किया गया है। वह पद्य इस प्रकार है : अदैन्यवैराग्यकृत कृतोऽयं केशलोचकः । यतीश्वराणां वीरत्व व्रतनैर्मल्यदीपकः ॥५०॥ इस पद्यका ग्रन्थमें पूर्वोत्तरके किसी भी पद्यसे कुछ सम्बन्ध नहीं है। न कहीं इससे पहले लोंचका कोई जिकर आया और न ग्रन्थमें इमका कोई प्रसंग है । ऐसा असम्बद्ध और अप्रासंगिक कथन उमास्वामी महाराजका नहीं हो सकता । ग्रन्थकर्ताने कहाँपरसे यह मजमून लिया है और किस प्रकारसे इस पद्यको यहाँ देनेमें गलती खाई है, ये सब बातें जरूरत होनेपर, फिर कभी प्रगट की जायेंगी। इन सब बातोंके सिवा इस ग्रन्थमें, अनेक स्थानोंपर, ऐमा कथन भी पाया जाता है जो युक्ति और अागमसे बिलकुल विरुद्ध जान पड़ता है, और इसलिये उससे और भी ज्यादह इस बातका समर्थन होता है कि यह ग्रन्थ भगवान् उमास्वामीका बनाया हुआ नहीं है । ऐसे कथनके कुछ नमूने नीचे दिये जाते हैं : (१) ग्रंथकार महाशय, एक स्थानपर, लिम्वत हैं कि जिस मंदिरपर ध्वजा नहीं है, उस मंदिरमें किये हुए पूजन, होम और जपादिक सब ही विलुप्त हो जाते हैं अर्थान् उनका कुछ भी फल नहीं होता। यथा : प्रासादे ध्वजनिर्मुक्तं पूजाहोमजपादिकं । सर्व विलुप्यते यस्मात्तस्मात्को ध्बजोच्छ्यः ॥१०॥ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उमास्वामि-श्रावकाचार-परीक्षा इसी प्रकार दूसरे स्थानपर लिम्बन हैं कि जो मनुष्य फटे पुगने, यंडित या मैले वस्त्रोंको पहिन कर दान, पूजन, तप, होम या स्वाध्याय करता है तो उसका ऐसा करना निष्फल होता है । यथा :"खंडिते गलिते छिन्नं मलिने चैव वाससि । दानं पूजा तपो होमः म्वाध्यायो विफलं भवेत् ||१३६।। मालूम नहीं होता कि मंदिरक ऊपरकी ध्वजाका इस पूजनादिकके फलके साथ कौनमा सम्बन्ध है और जैनमतकं किस गूढ सिद्धान्तपर ग्रंथकारका यह कथन अवलम्बित है। इसी प्रकार यह भी मालूम नहीं होता कि फटे पुराने तथा खंडित वस्त्रोंका दान, पूजन, तप और स्वाध्यायादिके फलसे कौनसा विरोध है जिसके कारण इन कार्योंका करना ही निरर्थक हो जाता है । भगवदुस्वामीने तत्त्वार्थ सूत्रमें और श्रीअकलंकदेवादिक टीकाकारोंने 'राजवार्तिक' श्रादि ग्रंथोंमें शुभाशुभ कमांक अास्रव और वन्धके कारणांका विस्तारके साथ वर्णन किया है। परन्तु ऐसा कथन कहीं नहीं पाया जाता, जिममे यह मालूम होता हो कि मन्दिरकी एक ध्वजा भी भावपूर्वक किये हुए पृजनादिकक फलको उलटपुलट करदेनेमें समर्थ है। सच पूछिये तो मनुष्यके कमाका फल उसके भावोंकी जाति और उनकी तरतमतापर निर्भर है। एक गरीब आदमी अपने फटे पुराने कपड़ोंको पहने हुए ऐसे मन्दिरमें जिसके शिवरपर ध्वजा भी नहीं है, बड़े प्रेमके साथ परमात्माका पूजन और भजन भी कर रहा है और सिरसे पैरतक भक्तिरसमें डूब रहा है, वह उस मनुष्यसे अधिक पुण्यउपान करता है जो अच्छे सुन्दर नवीन वस्त्रांको पहने हुए ध्वजावाले मन्दिरमें बिना भक्तिभावके, सिर्फ अपने कुलकी रीति समझता हुआ, पूजनादिक करता हो । यदि ऐसा नहीं माना जाय अर्थात् यह कहा जाय कि फटे पुराने वस्त्रोंक पहनने या मन्दिरपर ध्वजा न होनेके कारण उस गरीब आदमीके उन भक्ति-भावोंका कुछ भी फल नहीं है तो जैनियोंको अपनी कर्म-फिलासोफीको उठाकर रख देना होगा। परन्तु ऐसा Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक-पुस्तकमाला नहीं है । इसलिये इन दोन पद्योंका कथन युक्ति और भागमसे विरुद्ध है। इनमसे पहला पद्य श्वेताम्बरोंके 'विवेकविलास'का पद्य है, जैसा कि ऊपर जाहिर किया गया है। (२) इस ग्रंथके पूजनाध्यायमें, पुष्पमालाओंसे पूजनका विधान करते हुए, एक स्थानपर लिखा है कि चम्पक और कमलके फूलका उसकी कली आदिको तोड़नेके द्वारा भेद करनेसे मुनिहत्याके समान पाप लगता है। यथा :-- “नैव पुष्पं द्विधाकुर्यान्न बिंद्यात्कलिकामपि । चम्पकोत्पलभेदेन यतिहत्यासमं फलम् ॥१२७॥” यह कथन बिलकुल जैनसिद्धान्त और जैनागमक विरुद्ध है। कहाँ तो एकेद्रिय फूलकी पंखड़ी आदिका तोड़ना और कहाँ मुनिकी हत्या ! दोनोंका पाप कदापि समान नहीं हो सकता । जैनशास्त्रोंमें एकेंद्रिय जीवोंके घातसे लेकर पचंद्रिय जीवोंके घातपर्यंत और फिर पंचंद्रियजीवोंमें भी क्रमशः गौ, स्त्री, बालक सामान्य मनुष्य, अविरतसम्यग्दृष्टि, व्रती श्रावक और मुनिके घातसे उत्पन्न हुई पापकी मात्रा उत्तरोत्तर अधिक वर्णन की है। और इसीलिये प्रायश्चित्तसमुच्चयादि प्रायश्चित्तग्रंथों में भी इसी क्रमसे हिंसाका उत्तरोत्तर अधिक दंड विधान कहा गया है । कर्मप्रकृतियोंके बंधादिकका प्ररूपण करनेवाले और 'तीव्रमंदज्ञातभावाधिकरणवीर्यविशेषेभ्यस्तद्विशेषः' इत्यादि सूत्रोंके द्वारा कर्मासवोंकी न्यूनाधिकता दर्शानेवाले सूत्रकार महोदयका ऐसा असमंजस वचन, कि एक फूलकी पंखड़ी तोड़नेका पाप मुनि हत्याके समान है, कदापि नहीं हो सकता । इसी प्रकारके और भी बहुतसे असमंजस और अागमविरुद्ध कथन इस ग्रन्थमें पाये जाते हैं, जिन्हें इस समय छोड़ा जाता है। जरूरत होनेपर फिर कभी प्रगट किये जायेंगे । __ जहाँतक मैंने इस ग्रन्थको परीक्षा की है, मुझे ऐसा निश्चय होता है और इसमें कोई संदेह बाकी नहीं रहता कि यह ग्रंथ सूत्रकार भगवान् Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ उमास्वामि-श्रावकाचार-परीक्षा उमास्वामी महाराजका बनाया हुश्रा नहीं है। और न किसी दूसरे ही माननीय जैनाचार्यका बनाया हुआ है। ग्रन्थके शब्दों और अर्थोपरसे, इस ग्रंथका बनानेवाला कोई मामूली, अदूरदर्शी और तुद्रहृदय व्यक्ति मालूम होता है। और यह ग्रंथ १६ वीं शताब्दीके बाद १७ वीं शताब्दीके अन्तमें ग उसमे भी कुछ काल बाद, उस वक्त बनाया जाकर भगवान् उमास्वामीके नाममे प्रगट किया गया है, जब कि तेरहपंथकी स्थापना हो चुकी थी और उमका प्राबल्य बढ़ रहा था। यह ग्रंथ क्यों बनाया गया है ? इसका सूक्ष्म विवेचन फिर किसी लेखद्वारा, जरूरत होनेपर प्रगट किया जायगा । परन्तु यहाँपर इतना बतला देना ज़रूरी है कि इस ग्रंथमें पूजनका एक खाम अध्याय है और प्रायः उसी अध्यायकी इस ग्रंथमें प्रधानता मालूम होती है । शायद इसीलिये हलायुधजीने, अपनी भाषाटीकाके अन्तमें, इस श्रावकाचारको "पूजाप्रकरण-नाम-श्रावकाचार" लिखा है। अन्तम विद्वजनोंसे मेरा मविनय निवेदन है कि वे इस ग्रंथकी अच्छी तरहसे परीक्षा करके मेरे इस उपर्युक्त कथनकी जाँच करें और इम विषयमें उनकी जो सम्मति स्थिर होवे उससे, कृपाकर मुझे सूचित करनेकी उदारता दिग्बलाएँ । यदि परीक्षासे उन्हें भी यह ग्रंथ सूत्रकार भगवान् उमास्वामीका बनाया हुआ साबित न होवे, तब उन्हें अपने उस परीक्षाफलको मर्वसाधारणपर प्रगट करना चाहिये । और इस तरहपर अपने साधारण भाइयोंका भ्रम निवारण करते हुए प्राचीन प्राचार्योंकी उस कीर्तिको संरक्षित रखनेमें सहायक होना चाहिये जिसको कपायवश किसी समय कलंकित करनेका प्रयत्न किया गया है। ___ अाशा है । विद्वजन मेरे इस निवेदन पर अवश्य ध्यान देंगे और अपने कर्तव्यका पालन करेंगे । इत्यलं विज्ञेषु । Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक महोदयके दूसरे ग्रन्थ १ स्वामी सशन्तभद्र (इतिहासका महान् प्रन्थ ) (अप्राप्य) २ जिन-पूजाधिकार-मीमांसा, (अप्राप्य) ३ प्रन्थ-परीक्षा, प्रथमभाग (उमास्वामिश्रावकाचार, कुन्दकुन्द __ श्रा० और जिनसेनत्रिवर्णाचारकी परीक्षा) (अप्राप्य) ४ ग्रन्थ-परीक्षा, द्वितीय भाग ( भद्रबाहुसंहिताकी विस्तृत आलोचना और परीक्षा) (अप्राप्य) ५ ग्रन्थ परीक्षा, तृतीय भाग ( सोमसेनत्रिवर्णाचार, धर्मपरीक्षा (श्वेताम्बरी) अकलंकप्रतिष्ठापाठऔर पूज्यपादउपासकाचारकी परीक्षा) (अप्राप्य) ६ ग्रन्थ-परीक्षा चतुर्थ भाग (सूर्यप्रकाशकी परीक्षा) ) ७ उपासनातन्त्व ( उपासनाक रहस्यका प्रतिपादक) )। ८ सिद्धिमापान ६ विवाह-समुद्देश्य(संशोधित और परिवर्द्धित तृतीयावृत्ति)(अ) १० वीर पुष्पांजलि ( शिक्षाप्रद पद्यावली) (अप्राप्य) ११ विवाह-क्षेत्र-प्रकाश १२ जैनियोंका अत्याचार (बड़ी मार्मिक पुस्तक है) । १३ अनित्यभावना (संशोधित और परिवर्द्धित द्वितीयावृत्ति) ०) १४ जैनी कौन हो सकता है ? १५ शिक्षाप्रद शास्त्रीय उदाहरण १६ मेरी भावना (राष्ट्रीय नित्यपाठ) १७ मेरी दृध्य-पूजा ५८ हम दुखी क्यों हैं? १६ वेश्या-नृत्य-स्तोत्र २० समाज-संगठन २१ भगवान महावीर और उनका समय नोट-अप्राप्य ग्रन्थोंके फिरसे छपनेकी जरूरत है । मुख्तारसाहबके ये सभी ग्रन्थ पढ़ने तथा संग्रह करने के योग्य हैं । ཇ༠༤ རོར རྔ རོང Page #43 --------------------------------------------------------------------------  Page #44 -------------------------------------------------------------------------- _