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“અહો શ્રુતજ્ઞાનમ” ગ્રંથ જીર્ણોધ્ધાર ૪૦
કાવ્ય ગ્રંથ
તિલકમગ્નરી ભાગ-૩
: દ્રવ્ય સહાયક:
પૂજ્ય શાસનસમ્રાટુ શ્રીમદ્ વિજયનેમિસૂરીશ્વરજી મ.ના સમુદાયના
પરમવિદૂષી પૂજ્ય સાધ્વીશ્રી ચારિત્રશ્રીજી મહારાજના શિષ્યા પૂજ્ય શ્રી હેમલતાશ્રીજી મહારાજના શિષ્યા
પૂજ્ય શ્રી સુવિદિતાશ્રીજી મહારાજની પ્રેરણાથી શ્રીમતી સુ. ચી. જૈન પૌષધશાળા (ચિંતામણી સોસાયટી)ની
સાબરમતી, અમદાવાદનાં બહેનો જ્ઞાનખાતામાંથી
સંયોજક
શાહ બાબુલાલ સરેમલ બેડાવાળા
શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાન ભંડાર શા. વીમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન
હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-૩૮૦૦૦૫ (મો.) ૯૪૨૬૫૮૫૯૦૪ (ઓ.) ૨૨૧૩૨૫૪૩ (રહે.) ૨૭૫૦૫૭૨૦ સંવત ૨૦૬૬ ઈ.સ. ૨૦૧૦
"Aho Shrutgyanam
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अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६५ (ई. 2009) सेट नं.-१
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। પુસ્તકનું નામ
ક્રમાંક
પૃષ્ઠ
કર્તા-ટીકાકાર-સંપાદક पू. विक्रमसूरिजी म.सा.
पू. जिनदासगणि चूर्णीकार
पू. मेघविजयजी गणि म. सा.
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
संयोजक - शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद - 05.
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श्री नंदीसूत्र अवचूरी
श्री उत्तराध्ययन सूत्र चूर्णी
श्री अर्हद्गीता भगवद्गीता
श्री अर्हच्चूडामणि सारसटीकः
श्री यूक्ति प्रकाशसूत्रं
श्री मानतुङ्गशास्त्रम्
अपराजितपृच्छा
शिल्प स्मृति वास्तु विद्यायाम्
शिल्परत्नम् भाग - १
शिल्परत्नम् भाग - २
प्रासादतिलक
काश्यशिल्पम्
प्रासादमञ्जरी
राजवल्लभ याने शिल्पशास्त्र
शिल्पदीपक
वास्तुसार
दीपार्णव उत्तरार्ध
જિનપ્રાસાદ માર્તણ્ડ
जैन ग्रंथावली
હીરકલશ જૈન જ્યોતિષ
| न्यायप्रवेशः भाग-१
दीपार्णव पूर्वार्ध
| अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग - १
| अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग-२
प्राकृत व्याकरण भाषांतर सह तत्त्पोपप्लवसिंहः
शक्तिवादादर्शः
क्षीरार्णव
वेधवास्तु प्रभाकर
पू. भद्रबाहुस्वामी म.सा.
पू. पद्मसागरजी गणि म.सा.
पू. मानतुंगविजयजी म.सा.
श्री बी. भट्टाचार्य
| श्री नंदलाल चुनिलाल सोमपुरा
श्रीकुमार के. सभात्सव शास्त्री
श्रीकुमार के. सभात्सव शास्त्री
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
श्री विनायक गणेश आपटे
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
श्री नारायण भारती गोंसाई
श्री गंगाधरजी प्रणीत
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
શ્રી નંદલાલ ચુનીલાલ સોમપુરા
श्री जैन श्वेताम्बर कोन्फ्रन्स
શ્રી હિમ્મતરામ મહાશંકર જાની
श्री आनंदशंकर बी. ध्रुव
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
पू. मुनिचंद्रसूरिजी म. सा.
श्री एच. आर. कापडीआ
श्री बेचरदास जीवराज दोशी
श्री जयराशी भट्ट, बी. भट्टाचार्य
श्री सुदर्शनाचार्य शास्त्री
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
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शिल्परत्नाकर
प्रासाद मंडन
श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-१ | श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-२ श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-३
(?)
श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय - 3 (२)
(૩)
श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय -५ વાસ્તુનિઘંટુ
તિલકમન્નરી ભાગ-૧
તિલકમન્નરી ભાગ-૨
તિલકમન્નરી ભાગ-૩
સપ્તસન્ધાન મહાકાવ્યમ
સપ્તભઙીમિમાંસા
ન્યાયાવતાર
વ્યુત્પત્તિવાદ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક સામાન્યનિર્યુક્તિ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક સપ્તભઙીનયપ્રદીપ બાલબોધિનીવિવૃત્તિઃ વ્યુત્પત્તિવાદ શાસ્ત્રાર્થકલા ટીકા
નયોપદેશ ભાગ-૧ તરઙિણીતરણી
નયોપદેશ ભાગ-૨ તરઙિણીતરણી
ન્યાયસમુચ્ચય
સ્યાદ્યાર્થપ્રકાશઃ
દિન શુદ્ધિ પ્રકરણ
બૃહદ્ ધારણા યંત્ર
જ્યોતિર્મહોદય
श्री नर्मदाशंकर शास्त्री
पं. भगवानदास जैन
पू. लावण्यसूरिजी म.सा.
पू. लावण्यसूरिजी म.सा.
पू. लावण्यसूरिजी म.सा.
पू. लावण्यसूरिजी म.सा.
पू. लावण्यसूरिजी म.सा. પ્રભાશંકર ઓઘડભાઈ સોમપુરા
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી
પૂ. વિજયઅમૃતસૂરિશ્વરજી
પૂ. પં. શિવાનન્દવિજયજી
સતિષચંદ્ર વિદ્યાભૂષણ
શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા)
શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા)
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી શ્રીવેણીમાધવ શાસ્ત્રી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી
પૂ. દર્શનવિજયજી
પૂ. દર્શનવિજયજી
સં. પૂ. અક્ષયવિજયજી
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288
520
578
278
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302
196 190
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210
274
286
216
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શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાન ભંડાર
ભાષા |
218.
|
164
સંયોજક – બાબુલાલ સરેમલ શાહ શાહ વીમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન
हीशन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, महावाह-04. (मो.) ८४२७५८५८०४ (यो) २२१३ २५४३ (5-मेल) ahoshrut.bs@gmail.com महो श्रुतज्ञानमjथ द्धिार - संवत २०७5 (5. २०१०)- सेट नं-२
પ્રાયઃ જીર્ણ અપ્રાપ્ય પુસ્તકોને સ્કેન કરાવીને ડી.વી.ડી. બનાવી તેની યાદી.
या पुस्तsी www.ahoshrut.org वेबसाईट ५२थी ugl stGirls sी शाशे. ક્રમ પુસ્તકનું નામ
ता-टी815२-संपES પૃષ્ઠ 055 | श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहदन्यास अध्याय-६
| पू. लावण्यसूरिजी म.सा.
296 056 | विविध तीर्थ कल्प
प. जिनविजयजी म.सा.
160 057 लारतीय टन भए। संस्कृति सनोमन
पू. पूण्यविजयजी म.सा. 058 | सिद्धान्तलक्षणगूढार्थ तत्त्वलोकः
श्री धर्मदत्तसूरि
202 059 | व्याप्ति पञ्चक विवृत्ति टीका
श्री धर्मदत्तसूरि જૈન સંગીત રાગમાળા
श्री मांगरोळ जैन संगीत मंडळी | 306 061 | चतुर्विंशतीप्रबन्ध (प्रबंध कोश)
| श्री रसिकलाल एच. कापडीआ 062 | व्युत्पत्तिवाद आदर्श व्याख्यया संपूर्ण ६ अध्याय |सं श्री सुदर्शनाचार्य
668 063 | चन्द्रप्रभा हेमकौमुदी
सं पू. मेघविजयजी गणि
516 064| विवेक विलास
सं/. | श्री दामोदर गोविंदाचार्य
268 065 | पञ्चशती प्रबोध प्रबंध
| पू. मृगेन्द्रविजयजी म.सा.
456 066 | सन्मतितत्त्वसोपानम्
| सं पू. लब्धिसूरिजी म.सा.
420 06764शमाता वही गुशनुवाह
गु४. पू. हेमसागरसूरिजी म.सा. 638 068 | मोहराजापराजयम्
सं पू. चतुरविजयजी म.सा. 192 069 | क्रियाकोश
सं/हिं श्री मोहनलाल बांठिया
428 070 | कालिकाचार्यकथासंग्रह
सं/. | श्री अंबालाल प्रेमचंद
406 071 | सामान्यनिरुक्ति चंद्रकला कलाविलास टीका | सं. श्री वामाचरण भट्टाचार्य
308 072 | जन्मसमुद्रजातक
सं/हिं श्री भगवानदास जैन
128 मेघमहोदय वर्षप्रबोध
सं/हिं श्री भगवानदास जैन
532 on જૈન સામુદ્રિકનાં પાંચ ગ્રંથો
१४. श्री हिम्मतराम महाशंकर जानी 376
060
322
073
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'075
374
238
194
192
254
260
| જૈન ચિત્ર કલ્પદ્રુમ ભાગ-૧ 16 | જૈન ચિત્ર કલ્પદ્રુમ ભાગ-૨ 77) સંગીત નાટ્ય રૂપાવલી 13 ભારતનાં જૈન તીર્થો અને તેનું શિલ્પ સ્થાપત્ય 79 | શિલ્પ ચિન્તામણિ ભાગ-૧ 080 | બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૧ 081 બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૨
| બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૩ 083. આયુર્વેદના અનુભૂત પ્રયોગો ભાગ-૧
કલ્યાણ કારક 085 | વિનોરન શોર
કથા રત્ન કોશ ભાગ-1
કથા રત્ન કોશ ભાગ-2 088 | હસ્તસગ્નીવનમ
238 260
ગુજ. | | श्री साराभाई नवाब ગુજ. | શ્રી સYTમારું નવાવ ગુજ. | શ્રી વિદ્યા સરમા નવીન ગુજ. | શ્રી સારામારું નવીન ગુજ. | શ્રી મનસુબાન મુવામન ગુજ. | શ્રી નન્નાથ મંવારમ ગુજ. | શ્રી નન્નાથ મંવારમ ગુજ. | શ્રી ગગન્નાથ મંવારમ ગુજ. | . વન્તિસાગરની ગુજ. | શ્રી વર્ધમાન પર્વનાથ શત્રી सं./हिं श्री नंदलाल शर्मा ગુજ. | શ્રી લેવલાસ ગીવરાન કોશી ગુજ. | શ્રી લેવલાસ નવરીન લોશી સ. પૂ. મેનિયની સં. પૂ.વિનયની, પૂ.
पुण्यविजयजी आचार्य श्री विजयदर्शनसूरिजी
114
'084.
910
436 336
087
2૩૦
322
(089/
114
એન્દ્રચતુર્વિશતિકા સમ્મતિ તર્ક મહાર્ણવાવતારિકા
560
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
क्रम
272 240
सं.
254
282
466
342
362 134
70
316
224
612
307
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६७ (ई. 2011) सेट नं.-३ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। | पुस्तक नाम
कर्ता टीकाकार भाषा संपादक/प्रकाशक 91 | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-१
वादिदेवसूरिजी सं. मोतीलाल लाघाजी पुना 92 | | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-२
वादिदेवसूरिजी
| मोतीलाल लाघाजी पुना 93 | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-३
बादिदेवसूरिजी
| मोतीलाल लाघाजी पुना 94 | | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-४
बादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-५
वादिदेवसूरिजी
| मोतीलाल लाघाजी पुना 96 | पवित्र कल्पसूत्र
पुण्यविजयजी
साराभाई नवाब 97 | समराङ्गण सूत्रधार भाग-१
भोजदेव
| टी. गणपति शास्त्री 98 | समराङ्गण सूत्रधार भाग-२
भोजदेव
| टी. गणपति शास्त्री 99 | भुवनदीपक
पद्मप्रभसूरिजी
| वेंकटेश प्रेस 100 | गाथासहस्त्री
समयसुंदरजी
सं. | सुखलालजी 101 | भारतीय प्राचीन लिपीमाला
| गौरीशंकर ओझा हिन्दी | मुन्शीराम मनोहरराम 102 | शब्दरत्नाकर
साधुसुन्दरजी
सं. हरगोविन्ददास बेचरदास 103 | सबोधवाणी प्रकाश
न्यायविजयजी ।सं./ग । हेमचंद्राचार्य जैन सभा 104 | लघु प्रबंध संग्रह
जयंत पी. ठाकर सं. ओरीएन्ट इन्स्टीट्युट बरोडा 105 | जैन स्तोत्र संचय-१-२-३
माणिक्यसागरसूरिजी सं, आगमोद्धारक सभा 106 | सन्मति तर्क प्रकरण भाग-१,२,३
सिद्धसेन दिवाकर
सुखलाल संघवी 107 | सन्मति तर्क प्रकरण भाग-४.५
सिद्धसेन दिवाकर
सुखलाल संघवी 108 | न्यायसार - न्यायतात्पर्यदीपिका
सतिषचंद्र विद्याभूषण
एसियाटीक सोसायटी 109 | जैन लेख संग्रह भाग-१
पुरणचंद्र नाहर
| पुरणचंद्र नाहर 110 | जैन लेख संग्रह भाग-२
पुरणचंद्र नाहर
सं./हि पुरणचंद्र नाहर 111 | जैन लेख संग्रह भाग-३
पुरणचंद्र नाहर
सं./हि । पुरणचंद्र नाहर 112 | | जैन धातु प्रतिमा लेख भाग-१
कांतिविजयजी
सं./हि | जिनदत्तसूरि ज्ञानभंडार 113 | जैन प्रतिमा लेख संग्रह
दौलतसिंह लोढा सं./हि | अरविन्द धामणिया 114 | राधनपुर प्रतिमा लेख संदोह
विशालविजयजी सं./गु | यशोविजयजी ग्रंथमाळा 115 | प्राचिन लेख संग्रह-१
विजयधर्मसूरिजी सं./गु | यशोविजयजी ग्रंथमाळा 116 | बीकानेर जैन लेख संग्रह
अगरचंद नाहटा सं./हि नाहटा ब्रधर्स 117 | प्राचीन जैन लेख संग्रह भाग-१
जिनविजयजी
सं./हि | जैन आत्मानंद सभा 118 | प्राचिन जैन लेख संग्रह भाग-२
जिनविजयजी
सं./हि | जैन आत्मानंद सभा 119 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-१
गिरजाशंकर शास्त्री सं./गु | फार्वस गुजराती सभा 120 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-२
गिरजाशंकर शास्त्री सं./गु | फार्बस गुजराती सभा 121 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-३
गिरजाशंकर शास्त्री
फार्बस गुजराती सभा 122 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-१ | पी. पीटरसन
रॉयल एशियाटीक जर्नल 123|| | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-४ पी. पीटरसन
रॉयल एशियाटीक जर्नल 124 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-५ पी. पीटरसन
रॉयल एशियाटीक जर्नल 125 | कलेक्शन ऑफ प्राकृत एन्ड संस्कृत इन्स्क्रीप्शन्स
पी. पीटरसन
| भावनगर आर्चीऑलॉजीकल डिपा. 126 | विजयदेव माहात्म्यम्
| जिनविजयजी
सं. जैन सत्य संशोधक
514
454
354
सं./हि
337 354 372 142 336 364 218 656 122
764 404 404 540 274
सं./गु
414 400
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
754
194
3101
276
69 100 136 266
244
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६८ (ई. 2012) सेट नं.-४ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। क्रम | पुस्तक नाम
कर्ता / संपादक
भाषा | प्रकाशक 127 | महाप्रभाविक नवस्मरण
साराभाई नवाब गुज. साराभाई नवाब 128 | जैन चित्र कल्पलता
साराभाई नवाब गुज. साराभाई नवाब 129 | जैन धर्मनो प्राचीन इतिहास भाग-२
हीरालाल हंसराज गुज. हीरालाल हंसराज 130 | ओपरेशन इन सर्च ओफ सं. मेन्यु. भाग-६
पी. पीटरसन
अंग्रेजी | एशियाटीक सोसायटी 131 | जैन गणित विचार
कुंवरजी आणंदजी गुज. जैन धर्म प्रसारक सभा 132 | दैवज्ञ कामधेनु (प्राचिन ज्योतिष ग्रंथ)
शील खंड
सं. | ब्रज. बी. दास बनारस 133 || | करण प्रकाशः
ब्रह्मदेव
सं./अं. | सुधाकर द्विवेदि 134 | न्यायविशारद महो. यशोविजयजी स्वहस्तलिखित कृति संग्रह | यशोदेवसूरिजी गुज. | यशोभारती प्रकाशन 135 | भौगोलिक कोश-१
डाह्याभाई पीतांबरदास गुज. | गुजरात बर्नाक्युलर सोसायटी 136 | भौगोलिक कोश-२
डाह्याभाई पीतांबरदास गुज. | गुजरात वर्नाक्युलर सोसायटी 137 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-१ अंक-१,२
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 138 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-१ अंक-३, ४
जिनविजयजी
हिन्दी । जैन साहित्य संशोधक पुना 139 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-२ अंक-१, २
जिनविजयजी हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 140 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-२ अंक-३, ४
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 141 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-३ अंक-१,२ ।।
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 142 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-३ अंक-३, ४
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 143 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-१
सोमविजयजी
गुज. शाह बाबुलाल सवचंद 144 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-२
सोमविजयजी
| शाह बाबुलाल सवचंद 145 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-३
सोमविजयजी
गुज. शाह बाबुलाल सवचंद 146 | भाषवति
शतानंद मारछता सं./हि | एच.बी. गुप्ता एन्ड सन्स बनारस 147 | जैन सिद्धांत कौमुदी (अर्धमागधी व्याकरण)
रत्नचंद्र स्वामी
प्रा./सं. | भैरोदान सेठीया 148 | मंत्रराज गुणकल्प महोदधि
जयदयाल शर्मा हिन्दी | जयदयाल शर्मा 149 | फक्कीका रत्नमंजूषा-१, २
कनकलाल ठाकूर सं. हरिकृष्ण निबंध 150 | अनुभूत सिद्ध विशायंत्र (छ कल्प संग्रह)
मेघविजयजी
सं./गुज | महावीर ग्रंथमाळा 151 | सारावलि
कल्याण वर्धन
सं. पांडुरंग जीवाजी 152 | ज्योतिष सिद्धांत संग्रह
विश्वेश्वरप्रसाद द्विवेदी सं. बीजभूषणदास बनारस 153| ज्ञान प्रदीपिका तथा सामुद्रिक शास्त्रम्
रामव्यास पान्डेय सं. | जैन सिद्धांत भवन नूतन संकलन | आ. चंद्रसागरसूरिजी ज्ञानभंडार - उज्जैन
हस्तप्रत सूचीपत्र हिन्दी | श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार २ | श्री गुजराती श्वे.मू. जैन संघ-हस्तप्रत भंडार - कलकत्ता | हस्तप्रत सूचीपत्र हिन्दी | श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
274 168
282
182
गुज.
384 376 387 174
320 286
272
142 260
232
160
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
| पृष्ठ
304
122
208 70
310
462
512
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६९ (ई. 2013) सेट नं.-५ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। | क्रम | पुस्तक नाम
कर्ता/संपादक विषय | भाषा
संपादक/प्रकाशक 154 | उणादि सूत्रो ओफ हेमचंद्राचार्य | पू. हेमचंद्राचार्य | व्याकरण | संस्कृत
जोहन क्रिष्टे 155 | उणादि गण विवृत्ति | पू. हेमचंद्राचार्य
व्याकरण संस्कृत
पू. मनोहरविजयजी 156 | प्राकृत प्रकाश-सटीक
भामाह व्याकरण प्राकृत
जय कृष्णदास गुप्ता 157 | द्रव्य परिक्षा और धातु उत्पत्ति | ठक्कर फेरू
धातु संस्कृत /हिन्दी | भंवरलाल नाहटा 158 | आरम्भसिध्धि - सटीक पू. उदयप्रभदेवसूरिजी ज्योतीष संस्कृत | पू. जितेन्द्रविजयजी 159 | खंडहरो का वैभव | पू. कान्तीसागरजी शील्प | हिन्दी | भारतीय ज्ञानपीठ 160 | बालभारत पू. अमरचंद्रसूरिजी | काव्य संस्कृत
पं. शीवदत्त 161 | गिरनार माहात्म्य
दौलतचंद परषोत्तमदास तीर्थ संस्कृत /गुजराती | जैन पत्र 162 | गिरनार गल्प
पू. ललितविजयजी | तीर्थ संस्कृत/गुजराती | हंसकविजय फ्री लायब्रेरी 163 | प्रश्नोत्तर सार्ध शतक पू. क्षमाकल्याणविजयजी | प्रकरण हिन्दी
| साध्वीजी विचक्षणाश्रीजी 164 | भारतिय संपादन शास्त्र | मूलराज जैन
साहित्य हिन्दी
जैन विद्याभवन, लाहोर 165 | विभक्त्यर्थ निर्णय गिरिधर झा
संस्कृत
चौखम्बा प्रकाशन 166 | व्योम बती-१
शिवाचार्य
न्याय
संस्कृत संपूर्णानंद संस्कृत युनिवर्सिटी 167 | व्योम वती-२
शिवाचार्य न्याय
संपूर्णानंद संस्कृत विद्यालय | 168 | जैन न्यायखंड खाद्यम् | उपा. यशोविजयजी न्याय संस्कृत /हिन्दी | बद्रीनाथ शुक्ल 169 | हरितकाव्यादि निघंटू | भाव मिथ
आयुर्वेद संस्कृत /हिन्दी | शीव शर्मा 170 | योग चिंतामणि-सटीक पू. हर्षकीर्तिसूरिजी
| संस्कृत/हिन्दी
| लक्ष्मी वेंकटेश प्रेस 171 | वसंतराज शकुनम् पू. भानुचन्द्र गणि टीका | ज्योतिष
खेमराज कृष्णदास 172 | महाविद्या विडंबना
पू. भुवनसुन्दरसूरि टीका | ज्योतिष | संस्कृत सेन्ट्रल लायब्रेरी 173 | ज्योतिर्निबन्ध ।
शिवराज
| ज्योतिष | संस्कृत
आनंद आश्रम 174 | मेघमाला विचार
पू. विजयप्रभसूरिजी ज्योतिष संस्कृत/गुजराती | मेघजी हीरजी 175 | मुहूर्त चिंतामणि-सटीक रामकृत प्रमिताक्षय टीका | ज्योतिष | संस्कृत अनूप मिश्र 176 | मानसोल्लास सटीक-१ भुलाकमल्ल सोमेश्वर ज्योतिष
ओरिएन्ट इन्स्टीट्यूट 177 | मानसोल्लास सटीक-२ भुलाकमल्ल सोमेश्वर | ज्योतिष संस्कृत
ओरिएन्ट इन्स्टीट्यूट 178 | ज्योतिष सार प्राकृत
भगवानदास जैन
ज्योतिष
प्राकृत/हिन्दी | भगवानदास जैन 179 | मुहूर्त संग्रह
अंबालाल शर्मा
ज्योतिष
| गुजराती | शास्त्री जगन्नाथ परशुराम द्विवेदी 180 | हिन्दु एस्ट्रोलोजी
पिताम्बरदास त्रीभोवनदास | ज्योतिष गुजराती पिताम्बरदास टी. महेता
264 144 256 75 488 | 226 365
न्याय
संस्कृत
190
480 352 596 250 391
114
238 166
संस्कृत
368
88
356
168
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543. E-mail : ahoshrut.bs@gmail.com
शाह विमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-380005. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०७१ (ई. 2015) सेट नं.-६
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की डिजिटाइझेशन द्वारा डीवीडी बनाई उसकी सूची।
यह पुस्तकेwww.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं।
क्रम
विषय
|
भाषा
पृष्ठ
पुस्तक नाम काव्यप्रकाश भाग-१
| संपादक / प्रकाशक पूज्य जिनविजयजी
181
| संस्कृत
364
182
काव्यप्रकाश भाग-२
222
183
काव्यप्रकाश उल्लास-२ अने ३
330
184 | नृत्यरत्न कोश भाग-१
156
185 | नृत्यरत्र कोश भाग-२
___ कर्ता / टिकाकार पूज्य मम्मटाचार्य कृत पूज्य मम्मटाचार्य कृत उपा. यशोविजयजी श्री कुम्भकर्ण नृपति श्री कुम्भकर्ण नृपति
श्री अशोकमलजी | श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव
248
504
संस्कृत
पूज्य जिनविजयजी संस्कृत यशोभारति जैन प्रकाशन समिति संस्कृत श्री रसीकलाल छोटालाल संस्कृत
श्री रसीकलाल छोटालाल संस्कृत /हिन्दी | श्री वाचस्पति गैरोभा संस्कृत/अंग्रेजी | श्री सुब्रमण्यम शास्त्री संस्कृत/अंग्रेजी | श्री सुब्रमण्यम शास्त्री संस्कृत/अंग्रेजी | श्री सुब्रमण्यम शास्त्री संस्कृत/अंग्रेजी | श्री सुब्रमण्यम शास्त्री संस्कृत श्री मंगेश रामकृष्ण तेलंग गुजराती मुक्ति-कमल-जैन मोहन ग्रंथमाला
448
188
444
616
190
632
| नारद
84
| 244
श्री चंद्रशेखर शास्त्री
220
186 | नृत्याध्याय 187 | संगीरत्नाकर भाग-१ सटीक
| संगीरत्नाकर भाग-२ सटीक 189 | संगीरत्नाकर भाग-३ सटीक
संगीरनाकर भाग-४ सटीक 191 संगीत मकरन्द
संगीत नृत्य अने नाट्य संबंधी 192
जैन ग्रंथो 193 | न्यायबिंदु सटीक 194 | शीघ्रबोध भाग-१ थी ५ 195 | शीघ्रबोध भाग-६ थी १० 196| शीघ्रबोध भाग-११ थी १५ 197 | शीघ्रबोध भाग-१६ थी २० 198 | शीघ्रबोध भाग-२१ थी २५ 199 | अध्यात्मसार सटीक 200 | छन्दोनुशासन 201 | मग्गानुसारिया
संस्कृत हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
422
हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
304
श्री हीरालाल कापडीया पूज्य धर्मोतराचार्य पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य गंभीरविजयजी एच. डी. बेलनकर
446
|414
हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा संस्कृत/गुजराती | नरोत्तमदास भानजी
409
476
सिंघी जैन शास्त्र शिक्षापीठ
444
संस्कृत संस्कृत/गुजराती
श्री डी. एस शाह
| ज्ञातपुत्र भगवान महावीर ट्रस्ट
146
Page #10
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543. E-mail : ahoshrut.bs@gmail.com
शाह विमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-380005. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०७२ (ई. 201६) सेट नं.-७
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की डिजिटाइझेशन द्वारा डीवीडी बनाई उसकी सूची।
पृष्ठ 285
280
315 307
361
301
263
395
क्रम
पुस्तक नाम 202 | आचारांग सूत्र भाग-१ नियुक्ति+टीका 203 | आचारांग सूत्र भाग-२ नियुक्ति+टीका 204 | आचारांग सूत्र भाग-३ नियुक्ति+टीका 205 | आचारांग सूत्र भाग-४ नियुक्ति+टीका 206 | आचारांग सूत्र भाग-५ नियुक्ति+टीका 207 | सुयगडांग सूत्र भाग-१ सटीक 208 | सुयगडांग सूत्र भाग-२ सटीक 209 | सुयगडांग सूत्र भाग-३ सटीक 210 | सुयगडांग सूत्र भाग-४ सटीक 211 | सुयगडांग सूत्र भाग-५ सटीक 212 | रायपसेणिय सूत्र 213 | प्राचीन तीर्थमाळा भाग-१ 214 | धातु पारायणम् 215 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-१ 216 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-२ 217 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-३ 218 | तार्किक रक्षा सार संग्रह
बादार्थ संग्रह भाग-१ (स्फोट तत्त्व निरूपण, स्फोट चन्द्रिका, 219
प्रतिपादिक संज्ञावाद, वाक्यवाद, वाक्यदीपिका)
वादार्थ संग्रह भाग-२ (षट्कारक विवेचन, कारक वादार्थ, 220
| समासवादार्थ, वकारवादार्थ)
| बादार्थ संग्रह भाग-३ (वादसुधाकर, लघुविभक्त्यर्थ निर्णय, 221
__ शाब्दबोधप्रकाशिका) 222 | वादार्थ संग्रह भाग-४ (आख्यात शक्तिवाद छः टीका)
कर्ता / टिकाकार भाषा संपादक/प्रकाशक | श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री मलयगिरि | गुजराती श्री बेचरदास दोशी आ.श्री धर्मसूरि | सं./गुजराती | श्री यशोविजयजी ग्रंथमाळा श्री हेमचंद्राचार्य | संस्कृत आ. श्री मुनिचंद्रसूरि श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती | श्री बेचरदास दोशी श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती | श्री बेचरदास दोशी श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती श्री बेचरदास दोशी आ. श्री वरदराज संस्कृत राजकीय संस्कृत पुस्तकालय विविध कर्ता
संस्कृत महादेव शर्मा
386
351 260 272
530
648
510
560
427
88
विविध कर्ता
। संस्कृत
| महादेव शर्मा
78
महादेव शर्मा
112
विविध कर्ता संस्कृत रघुनाथ शिरोमणि | संस्कृत
महादेव शर्मा
228
Page #11
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________________
5 श्रीविजयनेमिसूरीश्वर ग्रन्थमालारत्नम् - ५२ 5 धाराधीशासादितसरस्वतीबिरुदेन विप्रवर्गाग्रगेन कमनीयकवितालतालवालकल्पेन परमार्हतेन धनपालविदुषा विरचिता
* तिलकमञ्जरी
[ तृतीयो विभागः ] फ्र
तदुपरि —
पूर्णतल्लगच्छीय-विबुधशिरोमणि - श्रीशान्त्याचार्यविरचितं टिप्पनकम् ।
तथा
शाससम्राट् - सर्वतन्त्र स्वतन्त्र - तपोगच्छाधिपति
श्रीमद्विजयने मिसूरीश्वरपट्टालङ्कारेण 'व्याकरणवाचस्पति
शास्त्रविशारद - कविरत्न' इतिपदालङ्कृतेन
श्रीमद्विजयलावण्य सूरीश्वरेण विरचिता परागनामा विवृतिः ।
wwwwww.w
wwwwwwwwwwww.mmmmmm
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卐
卐
प्रकाशकम् -
श्रीविजयलावण्य सूरीश्वरज्ञानमन्दिरम् बोटाद सौराष्ट्र.
नेमिसं० ९
वीरसं० २४८४ ]
सम्पादक:---
पन्यास प्रवरश्रीदक्ष विजयगणीन्द्रः
卐
卐
"Aho Shrutgyanam"
卐
[विक्रमसं० २०१४
Page #12
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प्रकाशकःश्रीविजयलावण्यसूरीश्वरज्ञानमन्दिरना
कार्यवाहकशाह-ईश्वरदास मूलचंद
[बोटाद-सौराष्ट्र
rwwwwwwwwwwan
સહાયક સદૂગૃહસ્થ શેઠ કેશવલાલ અભેચંદ તથા શેઠ મણીલાલ મગનલાલ મુંબઈવાળા તરફથી આ ગ્રંથ પ્રકાશિત કરવામાં ઉદાર
સહાયતા મળેલી છે. wrurururummurumun
AMMV
[२]
प्राप्तिस्थान[१] श्रीविजयलावण्यसूरीश्वरज्ञानमन्दिर,
बोटाद, सौराष्ट्र.
सरस्वतीपुस्तकभंडार, ठे. रतनपोल, हाथीखाना, अमदावाद (गुजरात).
मुद्रकलक्ष्मीबाई नारायण चौधरी, निर्णयसागर प्रेस, २६।२८ कोलभाट स्ट्रीट, मुंबई नं. २
"Aho Shrutgyanam"
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॥ अहं ॥
आशैशवशीलशालिने श्री नेमीश्वराय नमः ।
श्री जिनेन्द्रशासनैकरसिक - धाराधीशासादितसरस्वती बिरुद - कवीन्द्रविप्राग्रणी - परमार्हत-श्रीधनपालसुधीशेन विरचिता
तिलकमञ्जरी ।
[ तृतीयो विभागः ] तदुपरि
www.
विबुधशिरोमणि श्रीशान्त्याचार्यवर्यविरचितं टिप्पनकम् । श्रीमत्तपोगच्छाधिपति-सर्वतन्त्र स्वतत्र - शासनसम्राड्-जगद्गुरुश्रीविजयनेमिसूरीश्वरपट्टालङ्कारेण व्याकरणवाचस्पति-शास्त्रविशारद - कविरत्नेति पदालङ्कृतेन विजयलावण्यसूरिणा
प्रणीता परागविवृतिश्च ।
नरेन्द्रतनयस्तु वीक्षितेन सर्वातिशायिना तस्य चारुत्वेन श्रुतेन चास्याः कुतूहलविधायिना विदग्धाला पेन जनितप्रीतिर्गृहीत्वा तमादरेण 'भद्रे ! किमत्र लिखितम्' इत्यभिदधानः संनिधाने समासीनायाश्चामरग्राहिण्याः समुपनिन्ये। सलीलवलितभ्रूलतालक्षिताज्ञया च तया तत्क्षणमेव विस्तारिते पुरस्तात् तत्र निहितदृष्टिरत्युत्कृष्टरूपां रूपिणीमिव भगवतो मन्मथस्य जयघोषणामुदारवेषसविशेषचारुगात्री मचिरप्राप्तयौवनां कन्यकारूपधारिणीमेकां चित्रपुत्रिकां ददर्श, विममर्श चादृष्टपूर्वाकृतिविशेषदर्शन दूर विकसत्तारया दृशा त्रिभुवनातिशायिनीमस्याः
नरेन्द्रतनयस्तु युवराजस्तु, हरिवाहनस्त्वित्यर्थः । वीक्षितेन अवलोकितेन, तस्य चित्रपटस्य, सर्वातिशायिना सर्वोत्तमेन चारुत्वेन सौन्दर्येण च पुनः श्रुतेन श्रवणगोचरीकृतेन, कुतूहल विधायिना औत्सुक्यजनकेन, अस्याः प्रतीहार्याः, विदग्धालापेन नैपुण्यपूर्णेन आभाषणेन, जनितप्रीतिः उत्पादितस्नेहः, तं चित्रपटम्, आदरेण आदरपूर्वकं, गृहीत्वा त्वा, भद्रे ! कल्याणिनि । अत्र अस्मिन् पटे, किं लिखितम् अङ्कितम् इति इत्थम्, अभिदधानः ब्रुवाणः, सन्निधाने समीपे समासीनायाः समुपविशन्त्याः, चामरग्राहिण्याः बालव्यजनधारिण्याः स्त्रियाः समुपनिन्ये समर्पितवान्। च पुनः, सलीलवलित भ्रूलतालक्षिताज्ञया सलीलं - लीलासहितं यथा स्यात् तथा, वलितया - वक्रतामापादितया, भ्रूलतया-नेत्रोपरितन रोमराजिलतया, लक्षिता-प्रतीता, आज्ञा- तद्विस्तारणादेशो यया तादृश्या, तया चामरग्राहिण्या, तत्क्षणमेव तत्काल एव पुरस्तात् अग्रे, विस्तारिते प्रस्तारिते, तत्र चित्रपटे, निहितदृष्टिः निवेशितदृष्टिः सन् अत्युत्कृष्टरूपाम् अत्यन्तोत्कृष्ट सौन्दर्याम्, रूपिणीं रूपवतीं, भगवतः प्रभुत्वशालिनः मन्मथस्य कामदेवस्य, जयघोषणामिव जयध्वनिमिवेत्युत्प्रेक्षा, उदारवेषस विशेषचारुगात्रीम् उदारवेषेण - उत्कृष्टवेषेण, सविशेषचारु-निरतिशयसुन्दरं, गात्रं-शरीरं यस्यास्तादृशीम् अचिरप्राप्तयौवनां प्राप्ताभिनवतारुण्यां, कन्यकारूपधारिणीं कुमारिकाकारवतीम्, एकां, चित्रपुत्रिकां चित्रितपुत्री, ददर्श दृष्टवान् । च पुनः अदृष्टपूर्वाकृति विशेषदर्शन दूर विकसत्तारया अदृष्टपूर्वस्य-पूर्वमनवलोकितस्य, आकृतिविशेषस्य, दर्शनेन, दूरं विकसन्ती - प्रसरन्ती, तारका- कनीनिका यस्यां तादृश्या, दशा
"Aho Shrutgyanam"
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________________
टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता। शरीरावयवसमुदायचारुतामतिचिरम् । अनुपरतकौतुकश्च मुहुः केशपाशे, मुहुर्मुखशशिनि, मुहुरधरपत्रे, मुहुरक्षिपात्रयोः, मुहुः कण्ठकन्दले, मुहुः स्तनमण्डले, मुहुर्मध्यभागे, मुहुर्नाभिचक्राभोगे, मुहुर्जघनभारे, मुहुरूरुस्तम्भयोः, मुहुश्वरणवारिरुहयोः, कृतारोहावरोहया दृष्टया तां व्यभावयत् [अ] । अनुरागभावितमनाश्च परिवृत्य किञ्चित् तदाकारदर्शनोत्सुकचेतसः समरकेतोः कमलगुप्तप्रमुखानां च प्रधानराजपुत्राणामदर्शयत् । अपृच्छच्च तां प्रसादप्रहितदृष्टिभरपालिकां-'वज्रार्गले ! कुतः समासादितमिदमसंभाव्यदर्शनमन्यत्र दिव्यलोकाच्चित्रम्' इति। अब्रवीच सा—'कुमार! विज्ञापयामि, श्रूयतां , यतः प्राप्तमिदम् । इदानीमेव द्वारदेशमशून्यं विधाय कौतुकाकृष्टा द्रष्टुमुद्यानलक्ष्मीमितो गतास्मि, सविस्मयप्रहितचक्षुषा च तत इतः प्रसर्पन्या मया सरित्तटासन्नतरुणतरुखण्डमध्यवर्तिन्यतिमुक्तकलतामण्डपे तत्क्षणानीतसलिलार्द्रनलिनीपलाशकल्पितं तल्पमधिशयानो मनसिशय इवातिशयतीव्रामीशाननयनाग्निदाहवेदनां विनोदयितुमायात एको दर्शनीयाकृतिः पञ्चदशवर्षदेशीयो वैदेशिकः पथिकदारको दृष्टः [आ] | पृष्टा च तेनाहमन्तिकोद्देशमागता
नेत्रेण, त्रिभुवनातिशायिनी लोकत्रयोत्कृष्टाम् , अस्याः चित्रपुत्रिकायाः, शरीरावयवसमुदायचारुतां शरीराङ्गासमूहसौन्दर्यम् , अतिचिरम् अतिदीर्घकालं, विममर्श समालोचयाञ्चकार । च पुनः, अनुपरतकौतुकः अनिवृत्तौत्सुक्यः सन् , केशपाशे केशविन्यासविशेषे, मुहुः अनेकवारम् , पुनः मुखशशिनि मुखचन्द्रे, मुहुः, पुनः अधरपत्रे ओष्ठपल्लवे, मुहुः, पुनः अक्षिपात्रयोः नेत्रपुटयोः, मुहुः, पुनः कण्ठकन्दले कण्ठनाले, मुहुः, पुनः स्तनमण्डले वर्तुलस्तने, मुहः पुनः मध्यभागे कतिप्रदेश, मुहः, पुनः नाभिचक्राभोगे नाभिमण्डलविस्तारे, मुडः, पुनः जघनभारे कटिपुरोवर्तिमण्डले, मुहुः, पुनः ऊरुस्तम्भयोः जानूपरिभागरूपस्तम्भयोः, मुहुः, पुनः चरणवारिरुहयोः चरणकमलयोः, मुहुः, कृतारोहावरोहया कृतः, आरोहः-उत्क्षेपणम् , अवरोहः-अपक्षेपणं च यस्यास्तादृश्या, दृष्ट्या नेत्रेण, तां चित्रपुत्रिकां, व्यभावयत् विमृष्टवान् [अ]।
च पुनः, अनुरागभावितमनाः प्रीत्याकृष्टहृदयः, किञ्चित् ईषत् , परिवृत्य परावृत्य, तदाकारदर्शनोत्सुकचेतसः तस्याः-पुत्रिकायाः, आकारदर्शने, उत्सुकम्-उत्कण्ठितं, चेतः-हृदयं यस्य तादृशस्य, समरकेतोः तदाख्यनृपकुमारस्य, च पुनः, कमलगुप्तप्रमुखानां कमलगुप्तादीनां, प्रधानराजपुत्राणां मुख्यनृपकुमाराणाम् , अदर्शयत् दृष्टिगोचरतां प्रापितवान् । च पुनः, प्रसादप्रहितदृष्टिः प्रीतिप्रेरितदृष्टिः, तां प्रकृतां, द्वारपालिकां प्रतीहारीम् , अपृच्छत पृष्टवान् , किमित्याह-वज्रार्गले! तत्संज्ञिके। दिव्यलोकात स्वर्गलोकात्, अन्यत्र अन्यस्मिन् लोके, असम्भाव्यदर्शनम् असम्भाव्य-सम्भावयितुमप्यशक्यं, दर्शनं यस्य तादृशम् , इदं चित्रं, कुतः कस्मात् , समासादितं सम्प्राप्तम् । च पुनः, सा द्वारपालिका, अब्रवीत् उक्तवती, किमित्याह-कुमार! युवराज!, विज्ञापयामि अवबोधयामि, श्रूयतां श्रवणगोचरीक्रियताम् , यतः यस्मात् , इदं चित्रं, प्राप्तं लब्धम् । इदानीमेव अधुनैव, द्वारदेश द्वारस्थानम् , अशन्यं स्वप्रतिनिधिसनाथं, विधाय कृत्वा, कौतुकाकृष्टा औत्सुक्यवशीकृता सती, इतः अस्मात् स्थानात् , उद्यानलक्ष्मी क्रीडाकाननरामणीयक, द्रष्टुं दृष्टिगोचरीकर्तु, गता अस्मि; च पुनः, सविस्मयप्रहितचक्षुषा साश्चर्यप्रेरितदृष्ट्या, तत इतः अत्र तत्र, प्रसर्पन्त्या भ्राम्यन्त्या, मया सरित्तटासन्नतरुणतरुखण्डमध्यवर्तिनि सरित्तटस्य-नदीतटस्य, आसन्नः-निकटो यः, तरुणतरुखण्ड:-परिणतवृक्षसमूहः, तन्मध्यवर्तिनि, अतिमुक्तकलतामण्डपे मुक्ताम् अतिक्रान्तःशुक्लत्वेनेत्यतिमुक्तः, तदाख्याया लतायाः-माधवीलतायाः, मण्डपे-तत्पिहितोदरगृहविशेषे, तत्क्षणानीतसलिलार्द्रनलिनीपलाशकल्पितं तत्कालानीतजलक्लिन्नकमलिनीदलरचितं, तल्पं शय्याम् , अधिशयानः वपन्, अतिशयतीव्राम अतिदुस्सहाम्, ईशाननयनाग्निदाहवेदनाम् ईशानस्य-शिवस्य, नयनाग्निना-तृतीयनेत्ररूपाग्निना, यो दाहः, तद्वेदनांतदुःखं, विनोदयितुं शमयितुम् , आयातः आगतः, मनसिशय इव कामदेव इवेत्युत्प्रेक्षा, एकः, दर्शनीयाकृतिः मनोहराकारः, पञ्चदशवर्षदेशीयः पञ्चाधिकदशवर्षवयस्ककल्पः, वैदेशिकः विदेशोत्पन्नः, पथिकदारकः पथिकबालकः,
"Aho Shrutgyanam"
Page #15
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तिलकमञ्जरी समुपविश्य द्वारि दर्शितादरेण—'सुन्दरि! क एषः ? कस्यात्मजः ? किमभिधानश्च राजपुत्रः ? यस्य विधृतातिरुचिरवेषोऽयमितस्ततः संचरति बाह्योऽप्यनुचरवर्गः' इति। निशम्य चेदं नूनमद्यैवायमन्यदेशादागतोऽन्यथा नैवं यदृच्छया पृच्छतीति चिन्तयन्त्या मया प्राञ्जलमेवोदितम्— 'भ्रातः ! शृणु, निवेदयामि, एष निःशेषभारतवर्षविख्यातगुणसंपदखिलभूपालवृन्दवन्दितपादारविन्दयुगलः सकलविपक्षराजराजयक्ष्मा राजलक्ष्मीनिवासजङ्गमकमलखण्डस्त्यागतृप्ताप्तचारणपरम्पराप्रवृत्तिजनिततीव्रमन्मथोन्मदाभिरखिल दिङ्मुखख्यातरूपसौभाग्यसंपद्भिपान्तरमहाराजकन्यकाभिरनुदिवसमपहार्यमाणचित्रफलकारोपित विद्धरूपो रूपतुलितनलकूबरश्चतुरम्बुराशिवेलावनावच्छिन्नभूमण्डलपतेरैक्ष्वाकक्षोणिपालकुलतिलकस्य त्रैलोक्यनाथेन भगवता पाकशासनेनाप्यनेकशस्त्रिदशसंसदि श्लाघितमहिम्नो महाराजमेघवाहनस्य निजशिरश्छेदसाहसप्रसादितराजलक्ष्मीवरप्रदानलब्ध एकसूनुर्नृत्यगीतचित्रादिकलाशास्त्रपारदृश्वा हरिवाहनो नाम कुमारः क्रीडार्थमिदमुद्यानमागतः
टिप्पनकम्-धनदपुत्रः- नलकुबरः [इ] ।
दृष्टः [आ] । च पुनः, अन्तिकोद्देशम् निकटोर्ध्वदेशम् , आगता अहम् , द्वारि तन्मण्डपद्वारदेशे, समुपविश्य सम्यगुपविश्य, दर्शितादरेण प्रकटितादरेण, तेन बालकेन, अहं पृष्टा अनुपदवक्ष्यमाणजिज्ञासां ज्ञापिता, किमित्याहसुन्दरि! मनोहरे।, एषः अयं, कः? कस्य आत्मजः, च पुनः किमभिधानः? किन्नामा ?, राजपुत्रः नृपकुमारः, यस्य यत्सम्बन्धी, विधृतातिरुचिरवेषः गृहीतपरमोज्वलवेषः, अयं बाह्योऽपि किमुताभ्यन्तरिकः, अनुचरवर्गः किङ्करगणः, इतस्ततः अत्र तत्र, सञ्चरति विचरति, इति । च पुनः, इदं तद्वाक्यमेतत् , निशम्य श्रुत्वा, अद्यैव अस्मिन्नेव दिने, अयं बालकः, नूनम् अवश्यम् , अन्यदेशात् विदेशात् , आगतः, अन्यथा एतद्देशीयत्वे, यदृच्छया यथेच्छम् , एवं न पृच्छति पृच्छेत् , इति इत्थं, चिन्तयन्त्या विमृशन्त्या, मया, प्राञ्जलमेव सरलमेव, स्पष्टमेवेति यावत् , उदितम् उक्तम् । किमित्याह-भ्रातः ! शृणु खप्रश्नोत्तरं श्रवणगोचरीकुरु, निवेदयामि विज्ञापयामि, एषः अयं, निःशेषभारतवर्षविख्यातगुणसम्पदखिलभूपालवृन्दवन्दितपादारविन्दयुगलः निःशेषे-समस्ते, भारतवर्षे, विख्याता-प्रसिद्धा, गुणसमृद्धिर्येषां तादृशानाम् , अखिलभूपालानां-समस्तनृपाणां, वृन्देन-गणेन, वन्दितम्-अभिवादितं स्तुतं वा, पादारविन्दयुगलंचरणकमलयुगलं यस्य तादृशः; पुनः सकलविपक्षराजराजयक्ष्मा सकलाना-सर्वेषां, विपक्षाणां-शत्रुभूतानां, राज्ञा, क्षये राजयक्ष्मा-तदाख्यरोगराजः; पुनः लक्ष्मीनिवासजङ्गमकमलखण्डः लक्ष्म्याः , निवासः-निवासास्पदभूतः, जङ्गमः-गमनशीलः, कमलखण्डः-कमलकाननरूपः, पुनः द्वीपान्तरमहाराजकन्यकाभिः अन्यद्वीपवासिमहानृपकुमारिकाभिः, अनदिवसं प्रतिदिनम् , अपहार्यमाणचित्रफलकारोपितविद्धरूपः अपहार्यमाणं-क्रियमाणापहरणं, चित्रफलकारोपितंचित्रपट्टिकानिहितं, विद्धं चित्रितं, रूपम्-आकृतिर्यस्य तादृशः, कीदृशीभिः ? त्यागतृप्ताप्तचारणपरम्पराप्रवृत्तिजनिततीवमन्मथोन्मदाभिः त्यागेन-दानेन, तृप्तानां-तुष्टानाम् , आप्तचारणपरम्पराणां-विश्वस्तबन्दिगणानां, प्रवृत्त्या-वार्तया, जनितः, तीव्रः-उत्कटः, मन्मथोन्मादः-कामविकारो यासां ताभिः, पुन: अखिलदिनखख्यातरूपसौभाग्यसम्पद्भिः अशेषदिगन्तविश्रुतरूपलावण्यसम्पत्तिकाभिः; पुनः रूपतुलितनलकूबरः रूपेण कान्त्या, तुलितः-उपमितः, नलकूबरःकुबेरात्मजो येन तादृशः; पुनः चतुरम्बुराशिवेलावनावच्छिन्नभूमण्डलपतेः चतुर्णाम् अम्बुराशीना-समुद्राणां, या वेलाः-तटाः, तद्वर्तिवनैः, अवच्छिन्नस्य-परिच्छिन्नस्य, भूमण्डलस्य, पत्युः, पुनः ऐक्ष्वाकक्षोणिपालकुलतिलकस्य इक्ष्वाकुकुलोत्पन्नभूपतिगणश्रेष्टस्य, त्रैलोक्यनाथेन त्रिभुवनस्वामिना, भगवता ऐश्वर्यशालिना, पाकशासनेनापि इन्द्रेणापि, अनेकशः बहुशः, त्रिदशसंसदि देवसभायां, श्लाघितमहिम्नः प्रशंसितमहत्ताकस्य, महाराजमेघवाहनस्य मेघवाहनाख्यमहानृपतेः, निजशिरश्छेदसाहसप्रसादितराजलक्ष्मीवरप्रदानलब्धः स्वमस्तककर्तनसाहसप्रीणित. राजलक्ष्मीकर्तृकवरप्रदान प्राप्तः, एकसूनुः एकमात्रपुत्रः; पुनः नृत्यगीतचित्रादिकलाशास्त्रपारदृश्वा नृत्यादिकलानां यानि शास्त्राणि-आगमाः, तेषां पारदृश्वा- पारं गतः, हरिवाहनो नाम हरिवाहनाख्यः, कुमारः युवराजः, क्रीडार्थ क्रीडानिमि
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टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता। सविध एवास्य मार्गतरुशाखान्तरालेन विरलोपलक्ष्यमाणरक्तांशुकपताकस्य कुसुमायुधवेश्मनः कल्पितमनल्पेन परिगतं चूतखण्डेन जलमण्डपमध्यास्ते [इ] । प्रस्तुतविचित्रकथाविनोदं चैनमागत्यागत्य नगरनिवासिनो वैदेशिकाश्च लोकाः कलासु शास्त्रेषु शिल्पेषु च प्रकाशयितुमात्मनो विचक्षणतामनुक्षणं पश्यन्ति । यदि च कौतुकं प्रयोजनं च दर्शनेन ततस्त्वमपि सज्जो भव, अनुभव भूयसः कालादविकलं जन्मफलम् अहमेव गत्वा दर्शयामि द्रष्टव्यलोकदर्शनाधिकारनियुक्ता महाभागम् ।' इत्युक्ते मया प्रीतिविकसितेक्षणः स क्षणं ध्यात्वा गदितवान्-'वाग्मिनि! किमप्यानन्दितोऽहममुना त्वदालापेन, यदि यथावेदितस्तथैवासौ कुमारः, तत् प्रवर्तस्व शीघ्रम् , अस्ति मे महत् प्रयोजनमस्य दर्शनेन, यथा च मम तथाऽस्यापि मद्दर्शनेन, केवलमिदं कुरु-गृहाण चित्रपटमेनम् , अत्र सप्रयत्नेन भूत्वा लिखितमेकं मया दिव्यकुमारिकारूपमनुरूपपरिवारपरिकरम् , तदस्य कुरु कलाशास्त्रकुशलस्य कौशलिकम् , अहमपि त्वामनुप्राप्त एव ।' इत्यभिदधानः संनिधानस्थापितायाः प्रकृष्टचीनकर्पटप्रसेविकायाः सयत्नमाकृष्य चित्रपटमेनमुपनीतवान् [ई]।'
टिप्पनकम्-प्रसेविकायाः कोत्थलिकायाः [ई]।
त्तम , इदम् एतत् , उद्यानं क्रीडाकाननम् , आगतः, मार्गतरुशाखान्तरालेन मार्गवर्तिवृक्षशाखामध्येन, विरलोपलक्ष्यमाणरक्तांशुकपताकस्य विरलम्-अनिरन्तरम् , असमग्रमित्यर्थः, उपलक्ष्यमाणाः-दृश्यमानाः, रक्तांशुकपताकाः-रक्तश्लक्ष्णवस्त्रपताका यस्मिस्तादृशस्य, अस्य पुरोवर्तिनः, कुसुमायुधवेश्मनः कामदेवगृहस्य, सविध एव निकट एव, कल्पितं रचितम् , अनल्पेन प्रचुरेण सान्द्रेणेति यावत् , चतखण्डेन आम्रवणेन, परिगतं व्याप्तं, जलमण्डपं जलमयं गृहम् , अध्यास्ते अधितिष्ठति [इ]। च पुनः, नगरनिवासिनः नागरिकाः, च पुनः, वैदेशिकाः विदेशादागताः, लोकाः जनाः, प्रस्तुतविचित्रकथाविनोदं प्रस्तुतः-प्रवर्तितः, विचित्रकथाभिः-अपूर्वकथाभिः, विनोदः-प्रीतियन तादृशम् , एनम् इमं हरिवाहनमिति यावत् , आगत्य आगत्य असकृदागत्य, कलासु नाट्यादिषु, शास्त्रेषु आगमेषु, च पुनः, शिल्पेषु चित्रणादिषु, आत्मनः खस्य, विचक्षणताम् अभिज्ञता, प्रकाशयितुम् उद्भावयितुम् , अनुक्षणं प्रतिक्षणं, पश्यन्ति दृष्टिगोचरीकुर्वन्ति। यदि कौतुकं तद्दर्शनौत्सुक्यम् , च पुनः, दर्शनेन तत्साक्षात्करणेन, प्रयोजनम् , अस्तीति शेषः, तर्हि त्वमपि, सज्जः सन्नद्धः, भव, भूयसः अतिबहोः, कालात् , अविकल सकलं, जन्मफलं जन्मप्रयोजनम् , अनुभव प्राप्नुहि। द्रष्टव्यलोकदर्शनाधिकारनियुक्ता दर्शनीयजनदर्शनाधिकारनियुक्का, अहमेव, गत्वा, महाभागं महानुभावं, हरिवाहनमित्यर्थः, दर्शयामि दृष्टिगोचरतां नयामि' मया इति उक्त कथिते सति, प्रीतिविकसितेक्षणःहर्षोत्फुल्ललोचनः,स बालकः, क्षणं ध्यात्वा विचिन्त्य, गदितवान् उक्तवान् , किमित्याह-वाग्मिनि! प्रशस्तवादिनि!, अनुना तेन, त्वदालापेन त्वदाभाषणेन, अहं, किमपि अत्यन्तम् , आनन्दितः प्रसादितः, यदि यथा येन प्रकारेण, आवेदितः वर्णितः, तथैव तत्प्रकार एव, असौ कुमारः युवराजः, वर्तत इति शेषः, तत् तर्हि, शीघ्रं सत्वरं, प्रवर्तस्व तद्दर्शनाय प्रवृत्तिं कुरु, अस्य बुद्धया सन्निकृष्टस्य हरिवाहनस्य, दर्शनेन, मे मम, महत् उत्कृष्टं, प्रयोजनम् , अस्ति, च पुनः, यथा यादृशं, मम तद्दर्शनेन प्रयोजनमिति शेषः, तथा तादृश, मद्दर्शनेन, अस्यापि हरिवाहनस्यापि । केवलम् , इदं मम बुद्धिस्थं कार्य, कुरु, किमित्याहएनम् इभ, चित्रपटं चित्राधिष्ठितवस्त्रं, गृहाण धारय, अत्र अस्मिन् चित्रपटे, सप्रयत्नेन प्रयत्नवता, भूत्वा, मया, अनुरूपपरिवारपरिकरम् अनुरूपः-अनुगुणः, परिवारपरिकरः-परिच्छदसमूहो यस्य तादृशम् , एकं दिव्यकुमारिकारूपं कमनीयकन्यका कृतिः, लिखितं चित्रितम् , तत् तस्मात्, कलाशास्त्रकुशलस्य शिल्पविद्याविचक्षणस्य, अस्य प्रस्तुतयुवराजस्य, कौशलिकं माङ्गलिकं, चित्रितकुमारिकोद्वाहमित्यर्थः, कुरु सम्पादय, अहमपि, त्वाम् , अनुप्राप्त एव अनुगत एव, अस्मीति शेषः । इति इत्थम् , अभिदधानः ब्रुवाणः, सन्निधानस्थापितायाः निकटधृतायाः, प्रकृष्टचीनकर्पटप्रसेविकायाः उत्कृष्ट चीनदेशीयवस्त्रखण्डमञ्जषायाः सकाशात् , सयत्नं यत्नसहितम् , आकृष्य निष्कास्य, एनम् इम, चित्रपटं चित्राधिष्ठितवस्त्रम् , उपनीतवान् दत्तवा
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तिलकमञ्जरी इति निवेदयन्त्यामेव तस्यां स पथिकदारकः पार्थिवसुतस्य दर्शनपथमाययौ। आजगाम चाभिमुखमस्खलितया गत्या स्वभावपाटलं चरणयुगलमङ्गलतासङ्गवेल्लिताभिर्मार्गवल्लिभिर्निजपल्लवकान्तिलोपाशङ्कयेव कुसुमरजसा धूसरीकृतमुद्वहन् , गूढजानुपर्वणा वृत्तानुपूर्वेण प्रेङ्खता पादक्षेपेषु सविलासमूरुदण्डयुगलेन चलितबाल. रम्भास्तम्भमिव तमुद्यानदेशमादर्शयन् , ज्वलदनेकपद्मरागशकलया तानवप्रकर्षादतिकष्टदृश्यमुदरदेशमाविष्कर्तु मुपसंगृहीतप्रचुरदीपयेव तपनीयपट्टिकया गाढावनद्धशुकह रितपट्टांशुकनिवसनः, शुष्कचन्दनाङ्गरागसंदेहदायिना हारच्छविपटलेन छुरितोरःकपाटः, स्खलद्विशृङ्खलप्रकोष्ठहाटकवलयवाचालस्य पाणियुगलस्य विलसन्तीभिरुभयतः सलिलधाराधवलाभिनखमयूखसंततिभिरापूरयन्नासन्नतरुलतालवालानि [उ], नीलपीतपाटलैरुल्लसद्भिरङ्गुलीयकरत्नरागैरनुरागवृद्धये राजसूनोरपरमिव चित्रकर्मनर्मनिर्माणमम्बरे कुर्वाणः, सूक्ष्मविमलेन पाटलाकुसुमपाटलकान्तिना शरत्कालदिवस इव बालातपेन दूरमाहितच्छायावृद्धिधृतनेत्रकूर्पासकेन, श्रवणपाशप्रणयिनो
टिप्पनकम्-आलवालं-स्थानकम् [उ] ।
इति इत्थं, तस्यां द्वारपाल्यां, निवेदयन्त्यां विज्ञापयन्त्यामेव सत्यां, स पथिकदारकः पथिकबालकः, पार्थिवसुतस्य युवराजस्य, दर्शनपथं दृष्टिमार्गम् , आययौ आगतवान् । च पुनः अङ्गलतासङ्गवेल्लिताभिः अङ्गलतासनेनअङ्गरूपलतासम्पर्केण, वेल्लिताभिः-उद्भूताभिः, मार्गवल्लिभिः-मार्गवर्तिलताभिः, निजपल्लवकान्तिलोपाशङ्कयेव निजायाःखकीयायाः, पल्लवकान्तेः- पल्लवतुल्यद्युतेः, लोपस्य-विध्वंसनस्य, आशङ्कयेव-सन्देहेनेव, कुसुमरजसा पुष्पपरागेण, कृत किश्चित्पीतश्वतीकृत, चरणयुगल पादद्वयम् , उद्वहन् धारयन् , अस्खलितया अप्रतिहतया, गत्या, अभिमुखं समक्षम् , आजगाम आगतः; कीदृशः ? गूढजानुपर्वणा आवृतजानूरुसन्धिस्थानेन, पुनः वृत्तानुपूर्वेण वृत्त-वर्तुलम् , अनुपूर्वम् - उत्तरोत्तरं यस्मिंस्तादृशेन, पुनः पादक्षेपेषु चरणोत्क्षेपणेषु सत्सु, सविलासं सविभ्रमं, प्रेक्षता प्रचलता, ऊरुदण्डयुगलेन जानूपरिभागरूपस्तम्भद्वयेन, चलितबालरम्भास्तम्भमिव चलिताः-चलितुमारब्धाः, बालरम्भा. स्तम्भाः-बालकदलीदण्डा यस्मिंस्तादृशमिव, उद्यानदेश क्रीडाकाननप्रदेशम् , आदर्शयन् प्रत्याययन् ; पुनः ज्वलदनेकपद्मरागशकलया दीप्यमानानेकरक्तमणिखण्डविशिष्टया, अत एव तानवप्रकर्षात् कार्यातिशयात् , अतिकष्टदृश्यम् अतिक्लेशेन द्रष्टुं शक्यम् , उदरदेशम् उदरभागम् , आविष्कर्तुं प्रकाशयितुम् , उपसंगृहीतप्रचुरदीपयेव उपसंगृहीताः-राशीकृताः, प्रचुरा:-अधिकाः, दीपा यस्यां तादृश्येवेत्युप्रेक्षा, तपनीयपट्टिकया सुवर्णपट्टिकया, गाढावनद्धशुकहरितपट्टांशुकनिवसनः गाढं-सान्द्रम् , अवनद्धं-नियत्रितं, शुकहरित-शुकजातीयपक्षिवत् हरितवर्ण, पट्टांशुकं-कौशेयश्लक्ष्णवस्त्रमेव, निवसनम्-आच्छादनं यस्य तादृशः; पुनः शुष्कचन्दनाङ्गरागसन्देहदायिना शुष्कस्य चन्दनरूपस्य, अङ्गरागस्य-अगलेपनद्रवस्य, संशयोत्पादिना, हारच्छविपटलेन मालाद्युतिसन्दोहेन, छरितोराकपाट: छुरितः-व्याप्तः, उरः-वक्षःस्थलरूपः, कपाटो यस्य तादृशः; पुनः स्खलद्विशङ्कलप्रकोष्ठहाटकवलयवाचालस्य स्खलझ्यां-निपत यां विशृङ्खलाभ्यां- विघटिताभ्यो, प्रकोष्ठहाटकवलयाभ्यां-मणिबन्धवर्तिसुवर्णकङ्कणाभ्यां, वाचालस्य -शब्दायमानस लस्य हस्तद्वयस्य, उभयतः भागद्वये, विलसन्तीभिः स्फुरन्तीभिः, सलिलधाराधवलाभिः जलधाराशुभ्राभिः, नखमयूखसन्ततिभिः नखकिरणगणैः, आसन्नतरुलतालवालानि निकटवृक्षलताधस्तनजलधारदेशान् , आपूरयन परिपूरयन् [उ ] पुनः राजसूनोः प्रकृतयुवराजस्य, अनुरागवृद्धये प्रीतिवर्धनाय, नीलपीतपाटलैः नीलपीतश्वेतरक्तवर्णैः, उल्लसद्भिः उद्भासमानैः, अङ्गुलीयकरत्नरागैः अङ्गुल्यलङ्करणरत्नद्युतिभिः, अम्बरे आकाशे, अपरम् अन्यत् , चित्रकर्मनर्मनिर्माणमिव चित्रणात्मककीडानिर्माणमिव, कुर्वाणः विदधानः; पुनः सूक्ष्मविमलेन सूक्ष्मखच्छेन, पाटलाकुसुमपाटलकान्तिना पाटलायाः तदाख्यलताविशेषस्य, यत् कुसुमं-पुष्पं, तस्येव पाटला-श्वेतरक्ता कान्तिर्यस्य तादृशेन, धृतनेत्रकूसकेन गृहीतनेत्रावरणेन, शरत्कालदिवसे शरदृतुदिने, बालातपेनेव अपरिणतातपेनेव. दरं दूरपर्यन्तम्, आहितच्छायावृद्धिः आहिता-जानता, छायाय
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टिप्पनक - परागविवृतिसंवलिता ।
रिन्द्रनीलकर्णाभरणयोरधोमुखपातिभिर्मयूखप्ररोहैः पक्ष्मलित पर्यन्ततया समुपजातश्मश्रुलेखोद्भेदमिव वदनमुद्वहन्, ललाटपट्टच्छलादुपरि संनिविष्टाष्टमी चन्द्रशकलस्य मुखसरोजस्य ग्लानिशङ्कया बालदिनकरेणेत्र संयोजितमात्ममण्डलैकखण्ड मखण्डताम्बूलो पयोगबद्धबहलरागमधरपल्लवं दधानः, धीरदृष्टिविक्षेपक्षोभिताभिमुखतेजस्विराजहंसमण्डलः, शशिबिम्बदर्शनेऽपि मुकुलितान्युपहसन्निवापाङ्गनिर्गतेन क्षीरशुचिना चक्षुपः प्रभापटलेन मार्गवा पिकापुण्डरीकवनानि, पट्टांशुकोष्णीषिणा सदृशवर्णतया कूजितानुमित परिमलालीनषट्पदकुलेन विचकिलमालभारिणा केशभारेण भ्राजमानः [ऊ ], यौवनोपचितसर्वावयवेन प्रांशुना विशदनेपथ्येन सावष्टम्भपदनिक्षेप पिशुनितान्तः पौरुषावलेपेन प्रलघुवेत्रकर ण्डिकाक्रोड निहितकतिपयताम्बूलबीटकसनाथां दक्षिणेतरांसस्रंसिनीमजस्रभुजदण्डदोलन चलाचलामुत्कृष्टकर्पटप्रसेविका मनतिलम्बां बिभ्रता खड्ग
६
टिप्पनकम् - धीरविक्षेपक्षोभिताभिमुखतेजस्विराजहंसमण्डलः एकत्र स्थिरनेत्र प्रेरणात्रासितसम्मुखसतेजोनृपप्रधानसंघातः, अन्यत्र क्षोभितादित्यचन्द्रबिम्बः । उष्णीषः- शिरोवेष्टनम् [ऊ] ।
पुनः श्रवणपाशप्रणयिनोः शोभनकर्णस्नेहिनोः, इन्द्रनीलकरणाभरणयोः नीलमणिमयकर्णालङ्करणयोः, अधोमुखपातिभिः अधोमुखप्रसर्पिभिः, मयूखप्ररोहैः किरणाङ्कुरैः, पक्ष्मलित पर्यन्ततया व्याप्तप्रान्ततया, समुपजातश्मश्रुलेखोद्भेदमिव समुपजातः - समुत्पन्नः, श्मश्रुलेखायाः- दाढिकाख्यरोमराज्याः, उद्भेदः - उद्गमो यस्मिंस्तादृशमिव, वदनं मुखम्, उद्वहन् धारयन्; पुनः ललाटपट्टच्छलात् पट्टिकाकारललाटव्याजात्, उपरि ऊर्ध्वभागे, सन्निविष्टाष्टमीचन्द्रशकलस्य सन्निविष्टः - संस्थितः, अष्टमीचन्द्रस्य, शकल :- खण्डो यस्य तादृशस्य, मुखसरोजस्य मुखारविन्दस्य, ग्लानिशङ्कया संकोच संशयेन, बालदिनकरेण बालसूर्येण, संयोजितं सन्निवेशितम्, आत्ममण्डलैकखण्डमिव आत्ममण्डलस्य-स्वबिम्बस्य, एकखण्डमिव - एककलामिव, अखण्डताम्बूलोपयोगबद्धबहलरागम् अखण्डस्य - समग्रस्य, ताम्बूलस्य-सोपकरणनागवल्लीदलस्य, उपयोगेन- भक्षणेन, बद्धः - उत्पादितः, बहलः - प्रचुरः, रागः- रक्तता यस्मिंस्तादृशम्, अधरपल्लवम् ओष्ठरूपं पल्लवं दधानः धारयन्; पुनः धीरदृष्टिविक्षेपक्षोभिताभिमुखतेजखिराजहंसमण्डलः धीरदृष्टिविक्षेपेण-स्थिरलोचनप्रेरणया, क्षोभितं - त्रासमापादितम्, अभिमुखतेजखिनाम्-अभिमुखं तेजः - प्रभावः पराक्रमः कान्तिर्येषां तादृशानां, राजहंसानां - प्रधाननृपाणां मण्डलं- समूहो येन तादृशः, पक्षे धीरदृष्टिविक्षेपेण क्षोभितम् अभिमुखागतं तेजस्विनोः-प्रकाशशालिनोः, राजहंसयोः - चन्द्रसूर्ययोः, मण्डलं-वर्तुलं विमानं येन तादृशः । पुनः शशिबिम्बदर्शनेऽपि चन्द्रबिम्बदर्शनेऽपि, मुकुलितानि संकुचितानि मार्गवापिकापुण्डरीकवनानि मार्गवर्तिदीर्घिकास्थकमलवनानि, अपाङ्गनिर्गतेन नेत्रप्रान्तनिःसृतेन, क्षीरशुचिना दुग्धधवलेन, चक्षुषः नेत्रकमलस्य, प्रभापटलेन कान्तिपुञ्जेन, उपहसन्निव परिहसन्निव पुनः पट्टांशुकोष्णीषिणा पट्टांशुकं - कौशेय सूक्ष्मवस्त्रमेव, उष्णीषं - शिरोवेष्टनं यस्मिंस्तादृशेन, सदृशवर्णतया समानवर्णतया, कूजितानुमित परिमलालीनषट्पदकुलेन कूजितेन - गुञ्जितेन, अनुमितम् - अनुमानविषयीकृतं, परिमलालीनं-परिमलेन - उत्कृष्टसौरभेण, आलीनम् - अन्तर्हितं, षट्पदकुलं-भ्रमरगणो यस्मिंस्तादृशेन, विच किलमालभारिणा विचकिलानाम् - अशोककुसुमानां, या माला तद्धारिणा, केशभारेण केशपुञ्जेन, भ्राजमानः शोभमानः [ऊ ]; पुनः यौवनोपचितसर्वावयवेन यौवनेन तारुण्येन, उपचिताः -पूर्णाः, सर्वे, अवयवानि अङ्गानि यस्य तादृशेन, प्रांशुना उन्नतेन, विशदनेपथ्येन उज्ज्वलवेषेण, सावष्टम्भपदनिक्षेपपिशु निरन्ततः पौरुषावलेपेन सावष्टम्भेनऔद्धत्यपूर्णेन, पदनिक्षेपेण - पादन्यासेन, पिशुनितः - सूचितः, अन्तः पौरुषस्य - आन्तरिकपराक्रमस्य, अवलेपः- गर्वो येन तादृशेन, प्रलघु वेत्रकरण्डिकाक्रोड निहित कतिपय ताम्बूलबीटकसनाथां प्रलघोः - अतिलघोः, वेत्रकर दण्डिकायाः - वेत्रमयपात्रविशेषस्य, क्रोडे – मध्ये, निहितैः - स्थापितैः, कतिपयताम्बूलबीटकैः - कतिपयताम्बूलपुटैः, सनाथां - समन्वितां, दक्षिणेतरांसस्रंसिनीं वामस्कन्धलम्बिनीम्, अजस्रभुजदण्डदोलन चलाचलाम् अनवरतदण्डाकारबाहुदोलनेनोद्वेलन्तीम् - अनतिलम्बाम् अनतिदीर्घाम्, उत्कृष्टकर्पटप्रसेविकाम् उत्तमपटखण्डमयमञ्जूषां, बिभ्रता धारयता, खड्गधेनुका
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तिलकमञ्जरी धेनुकामात्रशत्रपरिग्रहेण पुरुषेणानुगम्यमानः, कृतोपसर्पणश्च द्वारभूमावुत्थाय सत्वरमाकारितः प्रतीहार्या प्रविश्य सरभसमभिमुखप्रहितसप्रसाददृष्टेः कुमारस्य प्रकटितादरः प्रणाममकरोत् । आकारसौन्दर्यातिशयदर्शनोपारूढप्रीतेश्च तस्य किञ्चिदुच्चोच्चारिताक्षरमेहीति कृतसंभाषणस्य समीपमुपससर्प []।
निर्दिष्टसमुचितासनोपविष्टश्च दृष्ट्वा राजसूनोरधःकृतसकलसुरसिद्धविद्याधररूपमाधुर्यमङ्गसौन्दर्यमुपजातविस्मयः परममन्तःपरितोषमुवहत् । अभिमुखप्रहितसस्पृहेक्षणेन च स्तिमितमवलोकितस्तेन कृतपुण्यमात्मानममन्यत [ऋ]।
स्थित्वा च कञ्चित् कालमुपरतवचाश्चित्रपटनिहितनिश्चलनयनमवनिपालतनयं विनयवामनशिराः शनैः पप्रच्छ—'कुमार! अस्ति किञ्चिद् दर्शनयोग्यमत्र चित्रपटे रूपम् ?, उद्भूतरूपः कोऽपि दोषो वा नातिमात्रं प्रतिभाति ?, अद्याप्यनुपजातपरिणतिश्चित्रविद्यायां शिक्षणीयोऽहमखिलकलाशास्त्रपारगेण महाभागेन' इति । हरिवाहनस्तु तं प्रत्युवाच-'बालक! किं शिक्ष्यते तव, स्रष्टा त्वमस्या जगति विद्यायाः, सुजनतेव स्वभावमधुरा जन्मान्तरशताभ्यासादुपागता तवैषा चित्रगतिः, विनीततायामिवास्यामल्पमेव ते यधुपदेष्टा गुरुजनः,
मात्रशस्त्रपरिग्रहेण खगधेनुका-असिपुत्रिका, छुरिकेत्यर्थः, तन्मात्रं यत् शस्त्रं-प्रहरणं, तदेव परिग्रहः-उपकरणं यस्य तादृशेन, पुरुषेण, अनुगम्यमानः अनुस्रियमाणः; च पुनः, द्वारभूमौ द्वारदेशे, कृतोपसर्पणः कृतागमनः; पुनः उत्थाय, प्रतीहार्या द्वारपालिकया, सत्वरं शीघ्रम् , आकारितः आहूतः, पुनः सरभसं सत्वरं, प्रविश्य, प्रकटितादरः प्रकाशितादरः सन् , अभिमुखप्रहितसप्रसाददृष्टः अभिमुखं-सम्मुखे, प्रहिता-प्रेरिता, सप्रसादा-प्रसन्ना, दृष्टियन तादृशस्य, कुमारस्य हरिवाहनस्य, प्रणामं नमस्कारम् , अकरोत् कृतवान् । च पुनः, आकारसौन्दर्यातिशयदर्शनोपारूढप्रीतेः आकारसौन्दर्यातिशयस्य-तत्स्वरूपशोभातिशयस्य, दर्शनेन, उपारूढा-उत्पन्ना, प्रीतिः-स्नेहो यस्य तादृशस्य, पुनः किश्चिदुच्चोच्चारिताक्षरं किञ्चिदुच्चं-किञ्चित् तीव्रम् , उच्चारितम्-अभिव्यजितम् , अक्षरं यस्मिंस्तादृशं यथा स्यात् तथा, एहि आगच्छ, इति कृतसम्भाषणस्य कृतालापस्य, तस्य कुमारस्य, समीपं निकटम् , उपससर्प उपजगाम [क]।
च पुनः, निर्दिष्टसमुचितासनोपविष्टः दर्शितयोग्यासनोपविष्टः सन् , अधकृतसकलसुरसिद्धविद्याधररूपम् अधःकृत-तिरस्कृत, सकलानां-समस्तानां, सुराणां-देवानां, सिद्धानाम्-अणिमाद्यैश्वयेशालिनां, विद्याधराणां-मन्त्रादिधारकाणां च, रूपं सौन्दर्य येन तादृशं,राजसूनोः प्रकृतकुमारस्य, अङ्गसौन्दर्य देह जाचारुतां, दृष्टा दृष्टिगोचरीकृत्य, उपजातविस्मयः उत्पन्नाश्चर्यः, परममनःपरितोषम् अत्यन्तमन्तःसन्तोषम् , उदवहत् प्राप्तवान् । च पुनः, अभिमुखप्रहितसस्पृहेक्षणेन अभिमुखं-सम्मुखे, प्रहितं-प्रेरितं, सस्पृह-सानुरागम् , ईक्षणं-नयनं येन तादृशेन, तेन प्रकृतकुमारेण, स्तिमितं स्थिरं यथा स्यात् तथा, अवलोकितः दृष्टः सन् , आत्मानं खं, कृतपुण्यं पुण्यशालिनम् , अमन्यत प्रतीतवान् [ऋ]।
च पुनः, कश्चित् कालं कियन्तं कालं, स्थित्वा वर्तित्वा, उपरतवचाः निवृत्तवचनः, चित्रपटनिहितनिश्चलनयनं चित्रपटनिवेशितस्थिरदृष्टिम् , अवनिपालतनयं नृपकुमार, हरिवाहनमिति यावत् , विनयवामन शिराः विनयावनतमस्तकः सन् , शनैः मन्दं, पप्रच्छ पृष्टवान् , किमित्याह - 'कुमार! अत्र अस्मिन् , चित्रपटे, दर्शनयोग्य दर्शनीयं, किञ्चित् किमपि, रूपम् , अस्ति वर्तते, वा अथवा, उद्भतरूपः प्रकटरूपः, कोऽपि. दोषः चित्रणत्रुटिः, अतिमात्रम् अत्यन्तं, न प्रतिभाति प्रतीतिपथमवतरति, अद्यापि अधुनापि, चित्रविद्यायां चित्रणकलायाम् , अनुपजातपरिणतिः अप्ररूढपरिपाकः, अनिपुण इति यावत् , अहम् , अखिलकलाशास्त्रपारगेण समग्रशिल्पशास्त्रपारंगतेन, महाभागेन महानुभावेन, भवतेत्यर्थः, शिक्षणीयः शिक्षयितुं योग्यः, अस्मीति शेष इति । हरिवाहनस्तु तं प्रकृतं बालक, प्रत्युवाच प्रत्युक्तवान् , किमित्याह-बालक ! तव किं शिक्ष्यते शिक्षयिष्यते, यतः जगति लोके, अस्याः विद्यायाः शिल्पविद्यायाः स्रष्टा सृष्टिकर्ता, असीति शेषः, सुजनतेव सौजन्यमिव, स्वभावमधुरा प्रकृतिमनोहरा, जन्मान्तरशताभ्यासात् प्राग्भवीयतीवाभ्यासात्, उपागता प्राप्ता, तव एषा चित्रगतिः चित्रकलाभिज्ञता । विनीततायामिव नम्रतायामिव,
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टिप्पनक - परागविवृतिसंवलिता ।
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यत इदमनेक चम्पकाशोकतिलकतालीतमालमा लितकूलमुत्तालकन काम्भोजशोभिभिरम्भोजिनीवनैर्दिव्य मिति बालिशैरपि व्यज्यमानमुचितेन क्रमेण परिणाहिनि क्षोणिधर शिखरपृष्ठे प्रतिष्ठापितमपारपरिसरं सरः । इमान्यतिसुन्दराणि लवलीलता सदनानि पूगगहनानि नागवल्लीपत्र मण्डपकतलकुट्टिमानि च तीरदेशेऽस्य दर्शितानि [ ऌ ] | असावत्र निर्यत्नचारुणि रत्नवालुका सैकते सञ्चरन्ती पादचारेण सहचरीवृन्दपरिवृता राजनीतिरिव यथोचित - मवस्थापितवर्णसमुदाया दिनकरप्रभेव प्रकाशितव्यक्तनिम्नोन्नतविभागा रथाङ्गमूर्तिरिव रुचिरावर्तनाभिः सम्यगभिलिखिता शिखा मणिरखिलस्यापि रमणीचक्रस्य चक्रवर्तिकन्यका [ ऌ ] | एतानि चास्याः परिवारलोकेन प्रचलता पुरस्तरलितानि त्रासाद् विहायस्युड्डीयमानान्युड्डीनानि च साक्षात् सचेतनानीव प्रकाशितानि पक्षिमृगमिथुनानि । सेवाचाटुचतुरश्च निपुणमवस्थापितोऽयमस्याः स्थानस्थानेषु निकटवर्ती प्रवृत्तो निजनिजव्यापारेषु रुचिरवेषो वारयोषिज्जनः, तथाहि - असावुपरि धृतसितातपत्रा गगन मध्यारूढहिमकरेव पौर्णमासी
टिप्पनकम् - राजनीतिरिवावस्थापित वर्णसमुदाया एकत्र व्यवस्थापित ब्राह्मणादिसंघातः, अन्यत्र रोपित नीलादिवर्णसमुदाया, दिनकरप्रभेव प्रकाशितव्यक्तनिम्नोन्नतविभागा प्रकटितस्पष्टनीचोच्चप्रदेशा, समानं विशेषणम् [ऌ ] |
अस्यां चित्रकलायां, यदि ते तव, उपदेष्टा तच्छिक्षकः, गुरुजनः स्यादिति शेषः, तर्हि स अल्पमेव किञ्चिदेव, तत्साधनमिति शेषः, यतः यस्मात्, अनेक चम्पकाशोक-ताली - तमालमालितम् अनेकेषाम्-बहूनां चम्पकादितमालान्तपुष्पद्रुमाणां माला-पङ्क्तिः संजाता यस्मिंस्तादृशम् ; पुनः उत्तालकनकाम्भोजशोभिभिः उन्नतसुवर्णकमलशोभिभिः, अम्भोजिनीवनैः कमलिनीवनैः, दिव्यं मनोहरम्, इति इत्थं, बालिशैरपि मूर्खेरपि व्यज्यमानं स्फुटं प्रतीयमानम्, पुनः उचितेन योग्येन, क्रमेण परिपाठ्या, परिणाहिनि विस्तारिणि, क्षोणिधर शिखरपृष्ठे पर्वतशिखरोपरि, प्रतिष्ठा - पितं सन्निवेशितम्, अपारपरिसरम् अनन्तप्रान्तप्रदेशम्, इदं सरः कासारः । पुनः अतिसुन्दराणि अतिमनोहराणि, इमानि प्रत्यक्षाणि, लवलीलतासदनानि लवलीलतागृहाः, पुनः पूगगहनानि क्रमुकवनानि च पुनः, नागवल्लीपत्रमण्डपकतल कुट्टिमानि नागवल्लीपत्राणां ताम्बूलपत्राणां, ये मण्डपका :- हवा मण्डपाः - गृहविशेषाः, तेषां तलकुट्टि मानि-अधस्तनबद्धभूमयः अस्य सरसः, तीरदेशे तटप्रदेशे, दर्शितानि चित्रितानि [ ऌ ] । पुनः निर्यत्तचारुणि स्वभावसुन्दरे, अत्र अस्मिन् चित्रे, रत्नवालुका सैकते रत्नसिकतामयप्रदेशे, पादचारेण पादगल्या, सञ्चरन्ती विचरन्ती, पुनः, सहचरीवृन्दपरिवृता सखी समूहपरिवेष्टिता, पुनः राजनीतिरिच राज्ञः, नीतिः - प्रजासंग्रहपद्धतिः, सेव यथोचितं यथायोग्यम्, अवस्थापितवर्ण समुदाया सन्निवेशित नीलपीतादिरूपसमूहा, पक्षे सन्निवेशितब्राह्मणक्षत्रियादिवर्णसमूहा, पुनः दिनकरप्रभेव सूर्यप्रभव, प्रकाशितव्यक्तनिम्नोन्नतविभागा प्रकाशितौ- प्रकटितौ, व्यक्तौ- स्फुटयै, निनोन्नतविभागौ - नीचोच्चावयवौ यस्याः, पक्षे नीचोच्चप्रदेशौ यया तादृशी, पुनः रथाङ्गमूर्तिरिव चक्राकृतिरिव, रुचिरावर्तनाभिः रुचिरा - मनोहरा, आवर्तरूपा जलभ्रमाकारा, नाभिः - प्राण्यङ्गविशेषः, पक्षे चक्रावयवविशेषश्च यस्यास्तादृशी, अखिलस्यापि समस्तस्यापि रमणी चक्रस्य सुन्दरीगणस्य, शिखामणिः शिरोमणिभूता, असौ चक्रवर्तिकन्यका अखण्ड भूमण्डलेश्वरकुमारिका, सम्यक् सुष्ठु अभिलिखिता चित्रिता [ ] । च पुनः, प्रचलता प्रगच्छता, अस्याः कन्यकायाः, परिवारलोकेन परिवारजनेन, पुरः अग्रे, तरलितानि चञ्चलितानि, त्रासात् भयात्, विहायसि आकाशे, उड्डीयमानानि उत्पतन्ति, च पुनः, उड्डीनानि कतिचिदुत्पतितानि, एतानि, पक्षिमृगमिथुनानि पक्षिहरिणदम्पतयः, साक्षात् प्रत्यक्ष, सचेतनानीव चैतन्यवन्तीव, प्रकाशितानि दर्शितानि । च पुनः अस्याः कन्यकायाः, सेवाचादुचतुरः सेवायै यच्चाटु-प्रियोक्तिः, तच्चतुरः - तन्निपुणः, पुनः निकटवर्ती समीपस्थः, निजनिजव्यापारेषु खखकार्येषु, प्रवृत्तः संलमः, रुचिरवेषः उज्ज्वलवेषः, अयं प्रत्यक्षभूतः, वारयोषिजनः वेश्याजनः, स्थानस्थानेषु तत्तत्स्थानेषु, निपुणं स्फुटम् अवस्थापितः सन्निवेशितः; तथाहि एतदेवाह, यद्वा हि यतः, तथा तदनुसारम् उपरि तत्कन्यको परि,
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तिलकमञ्जरी रजनिः पृष्ठलग्ना प्रतिपदमिमामनुसरति, एषा सविभ्रमोल्लासितकनकदण्डा प्रावृडिव सतडिद्गुणा नूपुरध्वनिश्रवणधावितानुत्सारयति गतिमार्गरोधिनो राजहंसान् , इयमुरिक्षप्तपाण्डुपत्रबीटका समुपसृत्य सत्वरा प्रसारिते तिर्यगुपनयति करतले ताम्बूलमस्याः [ए]। किं बहुना ? यद्यदवलोक्यते तत् तत् सर्वमपि रूपमस्य चित्रपटस्य चारुताप्रकर्षहेतुः । एक एव दोषो यदत्र पुरुषरूपमेकमपि न प्रकाशितम् , अनेन च मनागसमग्रशोभोऽयम् , तदधुनाऽप्यस्य शोभातिशयमाधातुं प्रेक्षकजनस्य च कौतुकातिरेकमुत्पादयितुमात्मनश्च सर्ववस्तुविषयं चित्रकर्मकौशलमाविष्कर्तुं युज्यन्ते कतिचिदस्या नरेन्द्रदुहितुः प्रकृतिसुन्दराणि पुरुषरूपाणि परिवारतां नेतुम् । अविरुद्धो हि कन्यकावस्थायामङ्गनानां मनुष्यसन्निधिः।' इति व्याहरति हरिवाहने स प्रतिव्याजहारकुमार! युक्तमादिष्टम् , युज्यते तस्य सर्वमेतद् यः सामान्यकन्यकायाश्चरितमालिखति, मया तु नेदं तथा, किन्तु कस्याश्चित् पुरुषविद्वेषिण्या यथादृष्टं रूपं विलासचेष्टितं च प्रकटितम् , इदं चेत्थमेव प्रकाश्यमानमुपपन्नं भवति नान्यथा । तेनापरिज्ञानमनवधानमनुचितज्ञतामनभ्यासं चात्र विषये न मे संभावयितुमर्हति माननाहः, यदि पुनः कुतूहलं कुमारस्य पुरुषरूपनिर्माणविषयमपि नैपुण्यं द्रष्टुं ततस्तान्यपि दर्शयिष्यामि,
धृतसितातपत्रा गृहीतश्वेतच्छत्रा, असौ वेश्या, पृष्ठलग्ना पृष्ठभागं गता, गगनमध्यारूढहिमकरा गगनमध्येआकाशमध्ये, आरूढः-कृतारोहणः, हिमकरः-चन्द्रो यस्यां तादृशी, पौर्णमासीरजनिरिव पूर्णिमारात्रिरिव इमां कन्यकां, प्रतिपदं प्रतिस्थानं, यद्वा प्रतिपादविक्षेपम् , अनुसरति अनुगच्छति, पुनः सविभ्रमोल्लासितकनकदण्डा सविला. सोत्थापितसुवर्णदण्डा, अत एव सतडिहणा तडिद्गुणेन-विद्युद्दान्ना, सहिता, प्रावृडिव वर्षाकाल इवेत्युत्प्रेक्षा, एषा इयं वेश्या, नूपुरध्वनिश्रवणधावितान् नपुरध्वनिश्रवणेन-पादाभरणझणत्कारश्रवणेन, धावितान्-हंसकूजितशङ्कया सत्वरमागतान् , गतिमार्गरोधिनः गमनमार्गावरोधकान् , राजहंसान हसविशेषान् , उत्सारयति अपनयति । उत्क्षिप्त. पाण्डुपत्रबीटका उत्क्षिप्तम्-उद्धृतं, पाण्डूना-पीतश्वेतवर्णानां, परिणतानामित्यर्थः, पत्राणां-ताम्बूलदलाना, बीटकसम्पुटो यया तादृशी, इयं वेश्या, सत्वरा त्वरासहिता, समुपसृत्य सम्यगुपगत्य, प्रसारिते विस्तारिते, अस्याः कन्यकायाः, करतले, तिर्यक् कुटिलं यथा स्यात् तथा, ताम्बूलम् , उपनयति समर्पयति [ए]। किंबहुना? किमधिकेन ?, यद् यद् अवलोक्यते दृश्यते, तत् तत् सर्वमपि समस्तमपि, रूपम् आकृतिः सौन्दर्य वा, अस्य प्रत्यक्षस्य, चित्रपटस्य, चारुताप्रकर्षहेतुः सौन्दर्योत्कर्षकारणम् , अस्तीति शेषः । एक एव अद्वितीय एव, दोषः वैगुण्यं, यत् , अत्र अस्मिन् चित्रपटे, एकमपि पुरुषरूपं पुरुषाकृतिः, न प्रकाशितं चित्रितम् । अनेन च पुरुषवरूपाप्रकाशनेन च, अयं चित्रपटः, मनाक किञ्चित् , असमनशोभः असम्पूर्णशोभाकः, अस्तीति शेषः। तत् तस्मात् , अधुनापि, अस्य चित्रपटस्य, शोभातिशयं शोभाधिक्यम् , आधातुं जनयितुम् , च पुनः, प्रेक्षकजनस्य दर्शकजनस्य, कौतुकातिरेकम् औत्सुक्यातिशयम् , उत्पादयितुम् , च पुनः, आत्मनः खस्य, चित्रकर्मकौशलं चित्रणात्मककार्यनैपुण्यम् , आविष्कर्तुं प्रकटयितुम् , अस्याः चित्रितायाः, नरेन्द्रदुहितुः चक्रवर्तिकन्यकायाः, परिवारतां परिग्रहतां, नेतुम् आपादयितुं, कतिचित् कतिपयानि, प्रकृतिसुन्दराणि खभावतो मनोहराणि, पुरुषरूपाणि पुरुषाकृतयः, युज्यन्ते चित्रयितुमुचिता वर्तन्ते। हि यतः, कन्यकावस्थायां कौमारावस्थायाम् , अङ्गनानां स्त्रीणां, मनुष्यसन्निधिः पुरुषसन्निधिः, अविरुद्धः अनौचित्यरहितः, प्रत्युत उचित एवेत्यर्थः । इति इत्थं, हरिवाहने व्याहरति कथयति सति, स बालकः, प्रतिव्याजहार प्रत्युक्तवान् , किमित्याह-कुमार! युवराज! युक्तम् उचितम्, आदिष्टम् आज्ञप्तम् । एतत् अनुपदोक्तं, सर्वे, तस्य युज्यते चित्रयितुमुचितम् , यः सामान्यकन्यकायाः साधारणकुमारिकायाः, चरितं चरित्रम् , आलिखति चित्रयति, मया तु इदं प्रत्यक्षभूतं, तथा तद्वत्, न आलिखितमिति शेषः, किन्तु पुरुषविद्वेषिण्याः पुरुषस्पर्धिन्याः कस्याश्चित्, यथादृष्टं दृष्टानतिवर्ति, रूपम् आकृतिः, च पुनः, विलासचेष्टितं विलासचेष्टा, प्रकटितं चित्रितम् , इदं च एतत् तु, इत्थमेव अनेनैव प्रकारेण, प्रकाश्यमानम् आलिख्यमानम् , उपपन्नं युक्तं भवति, अन्यथा अन्यप्रकारेण न, तेन तस्मात् कारणात् , माननाहः पूजार्हः, भवानिति यावत् , अत्र अस्मिन् , विषये, मे मम,
२ तिलक.
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टिप्पनक - परागविवृतिसंवलिता ।
सत्वरोऽहमत्र कर्मणि निजेनैव प्रयोजनेन यदिवा किमन्यैः पुरुषरूपैः कुमारस्यैव तावन्मुख्यं मया रूपमभिलखनीयम्, केवलमनभिनवलेखने संप्रति कारणं किञ्चिदस्ति तच्च वर्णयामि संक्षिप्तैरेव वर्णैः आकर्णयतु कल्याणराशि: [ ऐ]।
अस्ति वैताढ्ये शैले सकलभारतवर्षलक्ष्मीविलासतल्पमनल्पकल्पतरुखण्डमण्डितानेक सार्वर्तुको पवनरमणीयमनणुमणिगृहप्रभा प्रभावदुर्विभावदिनविभावरीविभागं चतुरङ्गद्यूतमिव सुनिरूपितत्रिकचतुष्करचनं रथनूपुरचक्रवालं नाम विद्याधरनगरम् । तत्र भरतसगरादिराजसदृशो विश्वत्रितयविख्यात कीर्तिर्नीतिशास्त्रनित्यविहितासक्तिर्व्यक्तशक्तित्रयः शत्रुषड्वर्गनिग्रहपरः पराभिभूतभूपतिशतशरण्यो धर्मारण्यपरिसर इव सततमत्यक्तसंनिधिः संयमैकचनैर्मुनिभिरप्रतिहतविद्याबलो महाबलैरप्यरातिभिरधिपतिः समग्राया अपि दक्षिण
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टिप्पनकम् — चतुरङ्गद्यूतमिव सुनिरूपित त्रिकचतुष्करचनम् एकत्र स्थापितत्रिकचतुष्करचनम्, अन्यत्र सुरचितत्रिकचतुष्कप्रदेशविशेषरचनम् । शक्तित्रयं मन्रोत्साहप्रभुलक्षणम् शत्रुषङ्घर्गः - कामक्रोधलोभमानहर्षमदाः, पराभिभूताः - शत्रुतिरस्कृताः [ओ ] ।
अपरिज्ञानम् अनभिज्ञताम्, अनवधानं प्रमादम्, अनुचितज्ञताम् उचितज्ञताभावम् च पुनः, अनभ्यासम् अभ्यासाभावं, न सम्भावयितुम् अर्हति योग्योऽस्ति । यदि पुरुषरूपनिर्माणविषयमपि पुरुषाकृतिचित्रणविषयक मि नैपुण्यं कौशलं, द्रष्टुं परीक्षितुं, कुमारस्य युवराजस्य भवत इति यावत् पुनः कुतूहलम् औत्सुक्यम्, अस्तीति शेषः, ततः तर्हि, तान्यपि पुरुषरूपाण्यपि, दर्शयिष्यामि चित्रयिष्यामि । निजेनैव स्वकीयेनैव, प्रयोजनेन, अत्र अस्मिन् कर्मणि कार्ये, सत्वरः त्वरान्वितः अस्मीति शेषः । यदिवा अथवा, अन्यैः पुरुषरूपैः पुरुषाकृतिभिः, किं न किमपि प्रयोजनमित्यर्थः, तावदिति वाक्यालङ्कारे, कुमारस्यैव भवत एव, मुख्यं वास्तविकं रूपम् आकृतिः, मया अभिलेखनीयं चित्रणीयम्, केवलं किन्तु अनभिनवलेखने नवीनचित्राकरणे, यत् किञ्चित् किमपि कारणं हेतुः, अस्ति, तच्च तत् कारणं च सम्प्रति अधुना, संक्षिप्तैरेव परिमितैरेव, वर्णैः अक्षरैः, वर्णयामि विज्ञापयामि, कल्याणराशिः कल्याणपुञ्जः, भवानिति शेषः, आकर्णयतु शृणोतु [ ऐ ] ।
वैताढ्ये तन्नामके, शैले पर्वते, रथनूपुरचक्रवालं नाम तत्संज्ञकं, विद्याधरनगरम्, अस्ति, कीदृशम् ? सकलभारतवर्ष लक्ष्मीविलासतल्पम् अखिलभारतवर्षलक्ष्म्या विलासस्थानम्; पुनः अनल्पकल्पतरुखण्डमण्डितानेकसार्वर्तुकोपवनरमणीयम् अनल्पकल्पतरुखण्डमण्डितैः - प्रचुर कल्पवृक्षवनशोभितैः, अनेकैः - बहुभिः, सार्वर्तुकैः सर्वैर्तुभवैः, उपवनैः-क्रीडाकाननैः, रमणीयं- मनोहरं पुनः अनणुमणिगृहप्रभा प्रभावदुर्विभाव दिन विभावरी विभागम् अनणूनां-महतां, मणिगृहाणां-मणिमयप्रासादानां प्रभाप्रभावेण द्युतिप्रभावेण, दुर्विभावः - दुर्लक्षः, दिनविभावरीविभागः -दिनरात्रिभेदो यस्मिंस्तादृशम् ; पुनः चतुरङ्गद्यूतमिव चत्वारि - रक्तहरितपीतश्यामलरूपाणि, अङ्गानि - क्रीडासाधनान्यस्य तादृशं द्यूतमिव, सुनिरूपितत्रिकचतुष्करचनं सुनिरूपिता-सुस्थापिता, त्रिकचतुष्काणां - कोष्ठविशेषाणां रचना यत्र, पक्षे सुनिरूपिता- सुरचिता, त्रिकचतुष्काणां मार्गत्रयमिलनमार्गचतुष्टय मिलनस्थानविशेषाणां रचना यत्र तादृशम् । तत्र तस्मिन् नगरे, चक्रसेनो नाम चक्रसेनसंज्ञकः, चक्रवर्ती अखण्ड भूमण्डलेश्वरः, अस्तीति शेषः; कीदृशः ? भरत सगरादिराजसदृशः भरत-सगरादिनृपतुल्यः, पुनः विश्वत्रितय विख्यातकीर्तिः भुवनत्रयप्रसिद्ध कीर्तिः, पुनः नीतिशास्त्रनित्यविहितासक्तिः निरन्तरं नीतिविद्याव्यासङ्गी, पुनः व्यक्तशक्तित्रयः व्यक्तं - स्फुटं, शक्तित्रयं - प्रभावोत्साहमन्त्ररूपशक्तित्रयं यस्य तादृशः; पुनः शत्रुषड्वर्गनिग्रहपरः शत्रूणां षण्णां काम-क्रोध-लोभ- मान-हर्ष-मदानां, निग्रहे-दमने, परः - प्रवीणः; पुनः पराभिभूतभूपतिशतशरण्यः परैः -- शत्रुभिः, अभिभूतस्य - जितस्य, भूपतिशतस्य- नृपशतस्य, शरण्यः शरणे साधुः, रक्षक इत्यर्थः; पुनः धर्मारण्यपरिसर इव तपोवनप्रान्तप्रदेश इव, संयमैकधनैः संयम एव व्रतमेव, एक मुख्यं धनं येषां तादृशैः, मुनिभिः तपस्विभिः, अत्यक्तसन्निधिः अत्यक्तः-अवर्जितः, सन्निधिः- सामीप्यं यस्य तादृशः; पुनः महाबलैरपि प्रबलैरपि, अरातिभिः शत्रुभिः, अप्रतिहतविद्याबलः अप्रतिहतम् - अव्यर्थितं विद्याबलं - नीतिविद्यारूपं बलं, यद्वा-विद्या
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तिलकमञ्जरी
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श्रेण्या महाभुजपराक्रमश्चक्रवर्ती चक्रसेनो नाम [ओ ] । तस्य शैशवाभ्यस्तनिरवद्यशस्त्रशास्त्रविद्यस्य यौवनारम्भरभसप्रसाधितपूर्वापरपयोधिमर्यादमेदिनी मण्डलस्य नित्यमभिनवानाखण्डलस्येव नन्दनोपवनपादपानासेवमानस्य पञ्चप्रकारानपि विषयानतिक्रान्ते कियत्यपि काले रूपतुलितसकलसुर सिद्धखेचराङ्गनम ने कैर्देवतोपयाचितशतैरतिशुभ स्वप्न सूचितावतारमुदारविद्याधरवंशसंभवायामङ्गलावण्यलक्ष्मीलघूकृत रतिरूपसंपत्तौ पत्रलेखाभिधानायां महादेव्यामेकमखिलत्रैलोक्य तिलकस्तिलकमञ्जरीनामधेयं कन्यकारत्नमुत्पन्नम् [औ ] ।
यस्य रूपलव एष लावण्यनिधिना चित्रपटसंक्रान्तः कृतार्थीकृतो दृष्टिपातप्रसादेन । सा चेयं देवी जन्मदिनमहोत्सवश्रीविश्राणितोभय श्रेणिचरखेच रगणानन्दा, पाञ्चालिका कन्दुक दुहितृका विवाहगोचराभिः शिशुक्रीडाभिरतिवाहित सर्वलोकस्पृहणीयबालभावा, बहुलेतरपक्षशशिलेखेव प्रत्यहमपरापरासु कलासु परिचयं
टिप्पनकम्-नन्दनोपवनपादपान् मन्दारान् [ औ ] । पञ्चालिका - टिउलडी । कला - षोडशो भागो विज्ञानं च [अं] ।
बलं-सैन्यं च यस्य तादृशः पुनः समग्राया अपि सम्पूर्णाया अपि, दक्षिणश्रेण्याः वैताढ्यपर्वतस्य दक्षिणभागवत - मानाया नगरीपङ्कः, अधिपतिः नायकः; पुनः महाभुजपराक्रमः महान् - उत्कृष्टः, भुजपराक्रमः - बाहुबलं यस्य तादृशः [ अ ] | शैशवाभ्यस्त निरवद्यशस्त्रशास्त्र विद्यस्य शैशवे - बाल्ये, अभ्यस्ता - परिशीलिता, शस्त्रशास्त्रयोर्विद्या - विद्वत्ता येन तादृशस्य; पुनः यौवनारम्भरभ सप्रसाधित पूर्वापरपयोधिमर्यादमेदिनीमण्डलस्य यौवनारम्भे-युवत्वावस्थारम्भे, रभसेन - वेगेन, प्रसाधितं खशासनेन परिष्कृतं पूर्वापरपयोधिमर्यादं पूर्वपश्चिम समुद्रावधिकं, मेदिनी मण्डलं - भूमण्डलं येन तादृशस्य, पुनः नन्दनोपवनपादपान् नन्दनोपवनवृक्षान्, आखण्डलस्येव इन्द्रस्येव नित्यं सततम्, अभिनवान् नूतनान् पञ्चप्रकारानपि प्रशस्त रूपरसादिपञ्चविधानपि पक्षे कल्प- पारिजात मन्दार- हरिचन्दन-संतानरूपानपि, विषया भोग्यपदार्थान्, आसेवमानस्य उपभुञ्जानस्य, तस्य चक्रसेनस्यः कियत्यपि कतिपयेऽपि, काले, अतिक्रान्ते व्यतीते सति, पत्रलेखाभिधानायां पत्रलेखानाम्यां महादेव्यां महाराज्यां, तिलकमञ्जरीनामधेयं तन्नामकम्, एक कन्यकारत्नं कन्यकारूपं रत्नम्, उत्पन्नम् ; कीदृशम् ? रूपतुलितसकलसुरसिद्ध खेचराङ्गनं रूपेण - आकृत्या सौन्दर्येण वा, तुलिताः - उपमिताः, सकलाः, सकलानां वा, सुराणां देवानां, सिद्धानां - सिद्धिशालिनां खेचराणां गगनगामिनां विद्याधराणाम्, अङ्गनाः-स्त्रियो येन तादृशम् ; पुनः अनेकैः, देवतोपयाचितशतैः देवताभ्यर्थनाशतैः, अतिशुभस्वप्नसूचितावतारम् अतिशुभखनेन - अत्यन्त शुभावहेन निद्रावस्थायां निरीक्षितेन वस्तुना, सूचितः, अवतारः - उत्पत्तिर्यस्य तादृशम्, पुनः अखिलत्रैलोक्यतिलकः समस्तत्रिभुवन श्रेष्ठम्, कीदृश्यां महादेव्याम् ? उदारविद्याधर वंशसम्भवायां महनीय विद्याधरवंशोत्पन्नायाम् ; पुनः अङ्गलावण्यलक्ष्मीलघूकृतरतिरूपसम्पत्तौ अङ्गलावण्यलक्ष्म्या - खशरी र सौन्दर्यसम्पत्त्या, लघूकृता-तिरस्कृता, रतेः-कामदेवस्त्रियाः, रूपसम्पत्तिः - सौन्दर्यसम्पत्तिर्यया तादृश्याम् [ औ ] ।
यस्य कन्यकारत्नस्य, चित्रपटसंक्रान्तः चित्रितः; एषः अयं रूपलवः सौन्दर्यलेशः, लावण्यनिधिना सौन्दर्यनिधिना, भवतेत्यर्थः, दृष्टिपातप्रसादेन दृष्टिनिवेशनानुग्रहेण कृतार्थीकृतः सफलीकृतः, सा अनुपदमुपवर्णिता, इयं चित्रस्था, देवी विद्याधरकन्यका, जन्मदिनमहोत्सव श्री विश्राणितोभय श्रेणिचरखेच रगणानन्दा जन्मदिनमहोत्सव - श्रिया - जन्मदिनोत्कृष्टोत्सवशोभया, विश्राणितोभय श्रेणिचरखेचरगणानन्दा- विश्राणितः - दत्तः, जनित इत्यर्थः, उभयश्रेणिचरस्यदक्षिणोत्तरश्रेणिवासिनः, खेचरगणस्य - विद्याधरसमूहस्य आनन्दो यया तादृशी; पुनः पाञ्चालिकाकन्दुक दुहितृका विवाहगोचराभिः पाञ्चालिका नाम - पाश्चालदेशोद्भवा वस्त्रमयपुत्रिका, कन्दुको नाम - गेन्दुकः, दुहितृका विवाहः - वस्त्रमयपुत्तलिकापाणिग्रहणसंस्कारः, तद्गोचराभिः - तद्विषयाभिः शिशुक्रीडाभिः कन्यकाक्रीडाभिः, अतिवाहित सर्वलोकस्पृहणीयबालभावा अतिवाहितः - व्यतीतः, सर्वलोकस्पृहणीयः - सर्वजनमनोहरः, बालभावः - शैशवावस्था यया तादृशी; पुनः बहुलेतरपक्षशशिलेखेव बहुलेतरः- शुक्लः, यः पक्षः, तत्र गता शशिलेखेव चन्द्रलेखेव प्रत्यहं प्रतिदिनम्, अपरापरासु अन्यान्यासु,
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१२
टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता । कुर्वाणा, क्रमेण कुसुमबाणकेलिकाननं यौवनमनुप्राप्ता, संप्रति च दृष्टविनयदाक्षिण्यशीलत्रपादिस्टेणगुणगगद्विगुणितापत्यप्रीतिना जनकेन योग्या इति भाजनीकृता समग्राया अपि निजविभूतेः [अं], अनुमोदिता च खेच्छाविहाराय धृतविदग्धवेषविद्याधरीवृन्दपरिवृता पुरः प्रधावता प्रान्तचलितानेकरूपचिह्नकापद्भुततपनमण्ड. लेन मायूरातपत्रवनेन कुलिशत्राससंकुचितसुरशैलशिखराकारं कनकमयं विमानमारूढा गत्वा सत्वरं गगनमार्गेण कदाचिद् दक्षिणार्णवतरङ्गताडिततरुणताडीतरुषु संभोगलालसभुजङ्गललनासततसंकुलतमाललवलीलतागुल्मेषु मलयतटवनेषु विचरनि, कदाचिदासक्तकनकाम्बुजरजोराजिपिञ्जरपलायमानकलहंसकुलेषु मानससर:सलिलेषु कूलासीनसकुतूहलकुबेरकुलकुमारावलोकिता मजनकेलिमनुभवति, कदाचिदितस्ततः प्रवृत्तप्रतनुसुरनिम्नगास्रोतःसूत्रसीमन्तितशिखरेषु नीहारगिरिशिखरेषु वनविहारखिन्ना सुखनिषण्णानां किन्नरकुलानां काकलीगीतमाकर्णयति [अ], कदाचिदच्छिद्रपुन्नागपादपच्छन्नविपुलवालुकापुलिनेष्वविच्छिन्नसंततिश्रूयमाणानेक
टिप्पनकम्-सीमन्तितं-द्विधाकृतम् [अ] ।
कलासु शिल्पेषु विज्ञानेषु वा, पक्षे षोडशांशेषु, परिचयं नैपुण्यं, पक्षे वृद्धिं, कुर्वाणा सम्पादयन्ती, क्रमेण शनैः, कुसुमबाणकेलिकाननं कामदेवक्रीडाकाननभूतं, यौवनं युवत्वावस्थाम् , अनुप्राप्ता प्राप्तवती। च पुनः, सम्प्रति इदानीं, दृष्टविनयदाक्षिण्यशीलत्रपादिस्त्रैणगुणगणद्विगुणितापत्यप्रीतिना दृष्टेन-अनुभूतेन, विनयः-नम्रभावः, दाक्षिण्यंचातुर्य, शीलं-सुन्दरखभावः सदाचारो वा, त्रपा-लज्जा, तत्प्रभृतिना, स्त्रैणगुणगणेन-स्त्रीसम्बन्धिगुणगणेन, द्विगुणिताद्विगुणीकृना, अपत्यप्रीतिः-सन्तानोचितवात्सल्यं येन तादृशेन, जनकेन पित्रा, योग्या ऐश्वर्यरक्षणकुशला, इति अस्माद्धेतोः, समनाया अपि सम्पूर्णाया अपि, निजविभूतेः खकीयैश्वर्यस्य, भाजनीकृता पात्रीकृता [अं]; च पुनः, स्वेच्छाविहाराय यथेच्छपरिभ्रमणाय, अनुमोदिता अनुज्ञाता सती, धृतविदग्धवेषविद्याधरीवृन्दपरिवृता धृतविदग्धवेषाभिःगृहीतमनोहरवेषाभिः, विद्याधरी वृन्दैः-विद्याधरजातीयस्त्रीसमूहैः, परिवृता-परिवेष्टिता, पुरः अग्रे, प्रधावता अतित्वरित. मुद्बलता, प्रान्तचलितानेकरूपचिह्नकापह्नततपनमण्डलेन प्रान्ते-पर्यन्ते, चलितैः-दोलितैः, अनेकरूपैः-नानावर्णकैः, चिह्नकैः-हस्वचिह्नः, अपहृतम्-अपलपितम् , तपनमण्डल-सूर्यबिम्बो येन तादृशेन, मायरातपत्रवनेन मयूरपिच्छमयच्छत्रगणेन, कुलिशत्राससंकुचितसुरशैलशिखराकारं कुलिशत्रासेन-वज्रभयेन, संकुचितस्य, सुरशैलस्य-सुमेरुपर्वतस्य, यच्छिखरं-शृङ्ग, तदाकारं तत्सदृशाकार, कनकमयं सुवर्णमयं; विमानम् - आकाशयानम् , आरूढा कृतारोहणा सती, गगनमार्गेण आकाशमार्गेग, सत्वरं शीघ्रं, गत्वा, कदाचित् कस्मिंश्चित् काले, दक्षिणार्णवतरङ्गताडिततरुणताडीतरुषु दक्षिणार्णवस्य-दक्षिणसागरस्य, तरङ्गैः,ताडिताः-आहताः, तरुगाः-परिणताः, ताडीतरवः-तालवृक्षा येषु तादृशेषु, पुनः सम्भोगलालसभुजङ्गललनासततसङ्कलतमाललवलीलतागुल्मेषु संभोगलालसाभिः-सम्भोगविषयकात्यन्ताभिलाषवतीभिः, भुजङ्गललनाभिः-सर्पस्त्रीभिः, सततसंकुलाः-अनवरतव्याप्ताः, तमाललवलीलताः-तदाख्यलताः, गुल्माःस्कन्धरहितवृक्षाश्च येषु तादृशेषु, मलयतटवनेषु मलयपर्वतपर्यन्तवर्तिवनेषु, विचरति विहरति । पुनः कदाचित् कस्मिंश्चित काले, आसक्तकनकाम्बुजरजोराजिपिञ्जरपलायमानकलहंसकुलेषु आसक्ताभिः-आश्लिष्टाभिः, कनकाम्बुजरजोराजिभिः-कनककमलपरागपुजैः, पिअर-पीतं, पलायमानं-तत्रासादुड्डीयमानं, कलहंसाना-कादम्बानां, कुलं-समूहो येषु तादशेषु, मानससरःसलिलेषु मानसाख्यसरोवरजलेषु, कूलासीनसकुतूहलकुबेरकुलकुमारावलोकिता कूले-तटे, आसीनैः-वर्तमानैः, सकुतूहले:-कौतुकान्वितैः, कुबेरकुलकुमारैः-कुबेरवंशजबालकैः, अवलोकिता-दृष्टा सती, मजनकेलिं स्नानक्रीडाम् , अनुभवति करोति। पुनः कदाचित् कस्मिंश्चित् समये, इतस्ततः अत्र तत्र, प्रवृत्तप्रतनुसुरनिम्नगास्रोतःसूत्रसीमन्तितशिखरेषु प्रवृत्तैः-स्यन्दितैः, प्रतनुभिः-हस्वैः,-सुरनिम्नगास्रोतःसूत्रः-गङ्गाप्रवाहसूत्रैः, सीमन्तितंद्विधाकृतं,-शिखरं-चूडा उपरिभाग इति यावत् येषु तादृशेषु, नीहारगिरिशिखरेषु हिमालयमस्तकेषु, वनविहारखिन्ना वनभ्रमणश्रान्ता सती, किन्नरकुलानां देवविशेषजातीयगणानां, काकलीगीतं सूक्ष्ममधुरस्वरेण गानम् , आकर्णयति
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तिलकमञ्जरी
शकुनिगणरमणीयरुतेषु सागरकूलकच्छेष्वात्मना समानविभवपरिच्छदाभिः परिवृता विद्याधरेन्द्रकुलकुमारिकाभिरुत्तरकुरुभ्यः समानीतेन कल्पतरुफलरसासवेन पानोत्सवं प्रवर्तयति, स्वभवनगता च सर्वदा सर्वकलाशास्त्रकुशलेन सर्वदेशभाषाविदा सर्वपौराणिकाख्यानकप्रवीगेन स्त्रीजनेन चित्राभिः कथाभिर्विनोद्यमाना दिनान्यतिवाहयति, न तु स्वप्नऽपि पुरुषसंनिधिमभिलषति [क]। प्रवर्त्यमानापि च गुरुभिः, प्रबोध्यमानापि धर्मशास्त्रविद्भिः, प्रलोभ्यमानाप्यनेकधा विद्याधरेन्द्रकुलकुमारैः, प्रसाद्यमानापि प्रियसखीभिः, विक्रियमाणापि प्रकटितालीककोपाभिर्बान्धववृद्धाभिः, न ज्ञायते किमात्मनोऽनुरूपं वरमनीक्षमाणा किं पुरुषपरतत्रतया यहच्छाविहारसुखविच्छेदमाशङ्कमाना किमाद्य एव विद्याग्रहणसमये स्वबुद्धिसंकल्पितस्य पुरुषसंप्रयोगपरिहारव्रतस्य समाप्तिकालं प्रतिपालयन्ती किमन्यजन्मजातसंबन्धपुरुषविशेषप्ररूढगाढप्रेमवासनावशेन पुरुषान्तरेषु चक्षुष्प्रीतिमत्रजन्ती नाभिलषति पाणिग्रहणमङ्गलम् [ख]।
दृष्ट्वा च तस्यास्तथाविधां चित्तचेष्टामदृष्टप्रतिविधाना परं विषादमुपगता देवी पत्रलेखा, विधानजप्त
टिप्पनकम्-विक्रियमाणा [क] ।
शृणोति [अ] । पुनः कदाचित् कस्मिंश्चित् काले, अच्छिद्रपुन्नागपादपच्छन्नविपुलवालुकापुलिनेषु अच्छिद्रः-सान्दैः, पुन्नागपादपैः-पुन्नागाख्यवृक्षविशेषैः, छन्नम्-आवृतं, विपुलवालुकापुलिनं--प्रचुरसिकतामयस्थलं येषु ताहशेषु, पुनः अविच्छिन्नसन्ततिश्रूयमाणानेकशकुनिगणरमणीयरुतेषु अविच्छिन्नसन्तत्या-निर्विच्छेदधारया, श्रूयमाणम्, अनेक शकुनिगणाना-नानापक्षिगणानां, रमणीयं-मनोहरं, रुतं-कूजितं येषु तादृशेषु, सागरकूलकच्छेषु समुद्रतटवर्तिजलप्रायप्रदेशेषु, आत्मना खेन, समानविभवपरिच्छदाभिः समानः-तुल्यः, विभवः-धनं, परिच्छदः-परिवारश्च यासां तादृशीभिः, विद्याधरेन्द्रकुलकुमारिकाभिः विद्याधराधिपतिकन्यकाभिः, परित्ता परिवेष्टिता, उत्तरकुरुभ्यः उत्तरकुरुक्षेत्रात्, समानीतेन उपाहृतेन, कल्पतरुफलरसासवेन कल्पवृक्षफलसम्बन्धिमद्येन, पानोत्सवं सुरापानोत्सवं, प्रवर्तयति प्रारभते । च पुनः, स्वभवनगता स्वगृहं गता सती, सर्वदा सर्वस्मिन् काले, सर्वकलाशास्त्रकुशलेन निखिलशिल्पशास्त्रनिपुणेन, सर्वदेशभाषाविदा सकलदेशभाषाऽभिज्ञेन, सर्वपौराणिकाख्यानकप्रवीणेन सकलपौराणिककथाकुशलेन, स्त्रीजनेन, चित्राभिः अपूर्वाभिः, कथाभिः उपाख्यानैः, विनोद्यमाना प्रमोद्यमाना, स्वप्नेऽपि खप्नावस्थायामपि, किमुत जागरणावस्थायां, पुरुषसन्निधिं पुरुषसम्पर्क, न तु नैव, अभिलषति इच्छति [क] | च पुनः, गुरुभिः पित्रादिभिः, प्रवर्त्यमानापि प्रेर्यमाणापि, पुनः धर्मशास्त्रविद्भिः धर्मशास्त्रज्ञैः, प्रबोध्यमानापि निवेद्यमानापि, पुनः विद्याधरेन्द्रकुलकुमारैः विद्याधराधिपतिवंशजयुवराजैः, अनेकधा अनेकप्रकारैः, प्रलोभ्यमानापि अतिलोभ्यमानापि, पुनः प्रियसखीभिः प्रियवयस्याभिः, प्रसाद्यमानापि अनुकूल्यमानापि, पुनः प्रकटितालीककोपाभिः आविष्कृतकृत्रिमक्रोधाभिः, बान्धववृद्धाभिः बन्धुभूतवृद्धस्त्रीभिः, विक्रियमाणापि चित्तविकारमापाद्यमानापि, न ज्ञायते-किम् आत्मनः खस्य, अनुरूपं योग्य, वरं पतिम् , अनीक्षमाणा अपश्यन्ती, किम् उत, पुरुषपरतन्त्रतया पतिपराधीनतया, यदृच्छाविहारसुखविच्छेदं यथेच्छभ्रमणानन्दव्याघातम्, आशङ्कमाना सन्दिहती, किम् आहोस्वित् , आद्य एव प्रथम एव, विद्याग्रहणसमये अध्ययनकाले, स्वबुद्धिसंकल्पितस्य खविचारप्रतिज्ञातस्य, पुरुषसम्प्रयोगपरिहारवतस्य पुरुषसंयोगवर्जनरूपनियमस्य, समाप्तिकालं निस्तारसमयं, प्रति पालयन्ती प्रतीक्षमाणा, किं किं वा, अन्यजन्मजातसम्बन्ध पुरुषविशेषप्ररूढगाढप्रेमवासनावशेन अन्य जन्मनि-प्राग्भवे जातः, सम्बन्धः-दाम्पत्यरूपो येन तादृशे पुरुषविशेष-पुरुषश्रेष्ठे, प्ररूढस्य-जातस्य, गाढस्य-सान्द्रस्य, प्रेम्णः-स्नेहस्य, या वासना-संस्कारः, तदशेन, पुरुषान्तरेषु तदन्यपुरुषेषु, चक्षुष्णीति नेत्रतृप्तिम् , अवजन्ती अप्रा. मुवती, पाणिग्रहणमङ्गलं विवाहोत्सवं, न अभिलषति वाञ्छति [ख]। तस्याः तिलकमञ्जर्याः, तथाविधां तादृशीं, चित्तचेष्टां मनोवृत्तिं, दृष्टा अनुभूय, अदृष्टप्रतिविधाना अदृष्टप्रतिकारा सती, पत्रलेखा तन्नाम्नी, देवी महाराज्ञी,
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टिप्पनक - परागविवृतिसंवलिता ।
मत्रया च तया भर्तृदारिकाया वरमुद्दिश्य विज्ञापिता निशि प्रज्ञप्तिविद्या, निवेदितं च भगवत्या स्वप्नान्तरे'वत्से ! मा व्रज विषादम् मा च विद्याधरकुमार कान्वेषणे च कुरु यत्नम् अखिलनृपचक्रचूडारत्नमस्याः पतिः क्षितिगोचरनरेन्द्रदारको भविष्यति । एषा च हिमगिरिशिखरसद्मनः पद्ममहाहृदस्य पद्मवने कृताश्रयायाः श्रियः किमपि मान्या जन्मान्तरसखी सुकृतानुभावात् तव सुताभावेन संजातेति परिभाव्य सादरं द्रष्टव्या [ग] ।' इति नष्टनिद्रया च तया रूपदर्शनेन विना दुहितुरनुरागोत्पादनं रूपदर्शनं च साक्षादशेषभारतवर्षभूपतिकुमाराणामतिमात्र दुष्करमवधारयन्त्या तस्मिन्नेव क्षणे समाहूय सर्वान्तःपुरप्रतिबद्ध सैरन्ध्रीगणप्रष्ठा प्रेष्ठा प्रकृत्यैव जननी मे भर्तृदारिकाया धात्री चित्रलेखा नाम सादरं समादिष्टा - 'सखि ! चित्रलेखे ! त्वं हि चित्रकर्मणि परं प्रवीणा, चित्रदर्शनानुरागिणी च वत्सा तिलकमञ्जरी, अतोऽस्याः सकलनिजपरिवारवाराङ्गनाचित्रकौशलदर्शनव्याजेन दर्शय निसर्गसुन्दराकृतीनामवनिगोचरनरेन्द्रदारकाणां यथास्वमङ्कि
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टिप्पनकम्-सैरन्ध्री - गन्धवर्तिका ( ? ) [ गन्धर्विका, गन्धर्वनर्तिका वा ] मण्डनयित्री वा । प्रष्ठा प्रधाना, प्रेष्ठा प्रियतमा । अतिसुन्दर भावसारं विद्धरूपम् [घ] ] |
परम् अत्यन्तं विषादं दुःखम् उपगता प्राप्ता । च पुनः, विधानजप्तमन्त्रया सविधिजप्तमन्त्रया, तया देव्या, भर्तृदारिकायाः राजकन्यकायाः, वरं पतिम्, उद्दिश्य अभिलक्ष्य, निशि रात्रौ प्रज्ञप्तिविद्या विद्याविशेषाधिष्ठात्री देवता, विज्ञापिता आवेदिता, च पुनः, भगवत्या महिमशालिन्या, तया विद्यादेव्या स्वप्नान्तरे स्वप्नमध्ये, निवेदितं सूचितम् किमित्याह - वत्से ! पुत्रि !, विषादं दुःखं, मा व्रज प्राप्नुहि च पुनः, विद्याधरकुमार कान्वेषणे विद्याधरयुवराजान्वेषणे, यत्नम् आयासं, मा कुरु न कुरु । अखिलनृपचक्रचूडारनं समस्तनृपमण्डलशिरोरत्नभूतः, क्षितिगोचरनरेन्द्रदारकः भूमिवासिनरेन्द्रकुमारः अस्याः तिलकमञ्जर्याः पतिः वरः, भविष्यति सम्पत्स्यते । हिमगिरिशिखरसद्मनः हिमालय शिखरवर्तिनः पद्ममहाहृदस्य कमलसंकुल पद्मनामका गाच जलाशयस्य पद्मवने कमलवने, कृताश्रयायाः कृतनिवासायाः श्रियः लक्ष्म्याः, किमपि अनिर्वचनीयं यथा स्यात् तथा, मान्या माननीया, जन्मान्तरसखी प्राग्भवीयसखी, एषा इयं तिलकमञ्जरी, सुकृतानुभावात् पुण्यप्रभावात् तव सुताभावेन पुत्रिकारूपेण, संजाता अवतीर्णा, इति इत्थं, परिभाव्य विचार्य, सादरम् आदरसहितं द्रष्टव्या द्रष्टुमुचिता' इति [ग ] | च पुनः, नष्टनिद्रया भनिद्रया तया देव्या रूपदर्शनेन विशिष्य खप्नोतकुमाराकारदर्शनेन, विना, दुहितुः कन्यकायाः, अनुरागोत्पादनं पतिप्रीतिजननम् च पुनः अशेषभारतवर्षभूपतिकुमाराणाम् अखिलभारतवर्ष सम्बन्धिनृपबालकानां, साक्षाद्रूपदर्शनम्, अतिमात्र दुष्करम् अत्यन्तदुःखेन कर्त्तुं शक्यम्, अवधारयन्त्या निश्चिन्वत्या, सर्वान्तःपुरप्रतिबद्ध सैरन्ध्रीगणप्रष्ठा सर्वासां सकलानाम्, अन्तःपुर प्रतिबद्धानाम् अन्तःपुरावरुद्धानां सैरन्ध्रीणां परगृहवासिनीनां स्ववशानां शिल्पिनीनां, गणे-समूहे, प्रष्ठा-मुख्या, पुनः प्रकृत्यैव खभावेनैव, प्रेष्ठा अतिशयेन प्रिया मे मम, जननी माता, चित्रलेखा नाम तन्नाम्नी, भर्तृदारिकायाः राजकन्यकायाः, तिलकमञ्जर्या इति यावत्, धात्री उपमाता, तस्मिन्नेव क्षणे निद्रानाशोत्तरक्षणे, समाहूय सम्यगाहूय, सादरम् आदरपुरस्सरं समादिष्टा आज्ञप्ता; किमित्याहसखि ! चित्रलेखे !, हि यतः, त्वं, चित्रकर्मणि चित्रकार्ये, परम् अत्यन्तं, प्रवीणा कुशला, असीति शेषः, च पुनः वत्सा प्रियसुता, तिलकमञ्जरी, चित्रदर्शनानुरागिणी चित्रावलोकनप्रीतिमती, अस्तीति शेषः, अतः अस्माद्धेतोः, सकल निजपरिवारवाराङ्गनाचित्र कौशल दर्शनव्याजेन सकलानां सर्वासां निजपरिवारभूतानां वाराङ्गनानां वेश्यानां, चराङ्गनेति पाठे तु श्रेष्ठ नारीणां चित्रकौशलदर्शनव्याजेन चित्रणचातुर्यदर्शनच्छलेन, निसर्गसुन्दराकृतीनां खभावतः सुन्दराकाराणाम्, अवनिगोचरनरेन्द्रदारकाणां भूतलवर्तिनृपतिकुमाराणां यथास्वं यथायथं, नामभिः संज्ञाभिः, अङ्कितानि चिह्नितानि यथावस्थितानि यथावत् स्थितानि, विद्धरूपाणि चित्रिता अतिसुन्दर भावसारा आकृतीः, अस्याः
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तिलकमञ्जरी
तानि नामभिर्यथावस्थितानि विद्धरूपाणि वर्णय च तेषामाहितोत्कर्षया गिरा त्यागसौभाग्यविभववैचक्षण्यलावण्यादिगुणगणम्, अचिन्त्या हि दैवशक्तिः, एवमपि कृते कदाचित् कापि विश्राम्यति चक्षुरस्याः [घ] ।' ' तथा ' इति प्रतिपद्य तच्छासनमावेद्य च सविस्तरं तत्रैव क्षणे विसर्जिताः सर्वदिक्षु दक्षाश्चित्रकर्मणि समस्ता अपि स्वप्रतिबद्धाः शुद्धान्तसैरन्ध्रीदास्यः । अहमपि तत्र समये समासन्नवर्ती सादरमभिहितः — " वत्स ! गन्धर्वक ! तवाप्ययमेवाधिकारः केवलं सुवेलगिरिवासिनो निजपितुर्विचित्रवीर्यदेवस् पार्श्वे त्वमद्य कार्यवशेन देव्या पत्रलेखया प्रस्थापितोऽसि, अतो न शक्यसे वक्तमन्यत् किमपि, किन्तु कृतराजकार्येण तस्मात् समागच्छता त्वया विज्ञापनीयमिदमस्मद्वचो नभश्चरेन्द्रस्य [ङ] - 'या सा सकलदाक्षिणात्यसामन्तमौलिविश्रान्तचरणनख मरीचेः काञ्ची नगरीनायकस्य राज्ञः कुसुमशेखरस्य सर्वान्तःपुरप्रमुखा महादेवी गन्धर्वदन्त्तेति नामसाम्यादुपजातसंदेहेन रत्नकूटाद्रिबन्धावुदधिजलपरिक्षिप्तपीठे स्वयंभुवि तत्र दिव्यायतनमण्डले विहितयात्रेण रात्रौ सादरं तथाश्रुता देवेन पूर्वमासीत्, सैव सा देवस्यात्मजा गन्धर्वदत्ता, यतो मया देवादेशमन्तरेणापि गत्वा स्वयं दृष्टा, समाश्वासिता च सर्वस्य ज्ञातिवर्गस्य कुशल
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तिलकमञ्जर्याः, दर्शय दृष्टिगोचरीकारय; च पुनः तेषां नृपकुमाराणां त्याग सौभाग्यविभववैचक्षण्यलावण्यादिगुणगणं त्यागसौभाग्यं-दानशालित्वं, यद्वा त्याग:-दानं, सौभाग्यं - सर्वजनप्रियत्वं, विभवः - धनसम्पतिः, वैचक्षण्यं - कलाकौशलं, लावण्यं-सौन्दर्यं, तत्प्रभृतिगुणपुञ्जम्, आहितोत्कर्षया गृहीतप्रकर्षया गिरा वाण्या, वर्णय प्रकटय; हि यतः, दैवशक्तिः भाग्यमहिमा, अचिन्त्या अवर्णनीया, अस्तीति शेषः, एवमपि अनेनापि प्रकारेण कृते अनुष्ठिते सति, कदाचित् कस्मिंश्चित् काले, अस्याः तिलकमञ्जर्याः, चक्षुः दृष्टिः, कापि कस्मिंश्चिन्नृपकुमारे, विश्राम्यति विश्रान्ति प्राप्नुयात्, तृप्येदित्यर्थः’ [ घ ]। 'तथा' तेन प्रकारेण करोमि, इति तच्छासनं तदादेशं, प्रतिपद्य स्वीकृत्य च पुनः सविस्तरं सप्रपञ्चम्, आवेद्य विज्ञाप्य तच्छासनमित्यर्थः, तत्रैव तस्मिन्नेव क्षणे, चित्रकर्मणि चित्रकार्ये, दक्षाः कुशलाः, स्वप्रतिबद्धाः स्वस्य - आत्मनः, प्रतिबद्धाः - नियन्त्रिताः, अधिकृता इत्यर्थः, समस्ता अपि सकला अपि, शुद्धान्तसैरन्ध्रीदास्यः शुद्धान्तसैरन्ध्रीणाम्-अन्तः पुरस्थानां परगृहवास्तव्य स्वच्छन्दशिल्पिस्त्रीणां दास्यः - दूत्यः, सर्वदिक्षु सकलदिशासु, विसर्जिताः प्रेषिताः । तत्र तस्मिन् समये अवसरे, समासन्नवर्ती अतिनिकटवर्ती, अहमपि, सादरं ससम्मानम्, अभिहितः उक्तः, किमित्याह - वत्स ! गन्धर्वक ! पुत्र ! गन्धर्वक !, तवापि, अयमेव अनुपदमुक्त एव, अधिकारः नियोगः, अस्ति, केवलं किन्तु, त्वम्, अद्य अस्मिन् दिने, देव्या राज्या, पत्रलेखया, कार्यवशेन प्रयोजनवशेन, निजपितुः स्वजनकस्य, विचित्रवीर्यदेवस्य तदाख्यनृपस्य पार्श्वे निकटे, प्रस्थापितोऽसि प्रेषितोऽसि, अतः अस्मात्, अन्यत् विरुद्धं, किमपि वक्तुं प्रतिकथितुं न शक्यसे शक्योऽसि, किन्तु कृतराजकार्येण सम्पादितराजकीयकार्येण, तस्मात् तत्पार्श्वात्, समागच्छता परावर्तमानेन त्वया, नभश्चरेन्द्रस्य विद्याधरेन्द्रस्य विचित्रवीर्यस्येत्यर्थः, इदम् अधुनैवोच्यमानम्, अस्मद्वचः अस्माकं वचनं, विज्ञापनीयं वक्तव्यम् [ ङ ] । किं तदित्याह - सकलदाक्षिणात्यसामन्तमौलिविश्रान्तचरणनखमरीचेः सकलानां समस्तानां, दाक्षिणात्यानां - दक्षिणदिग्भवानां, सामन्तानांक्षुद्रनृपाणां मौलिषु - शिरस्सु, विश्रान्ताः - निविष्टाः, चरणनखमरीचयः - पादसम्बन्धिनखकिरणा यस्य तादृशस्य, काञ्चीनगरी नायकस्य तदाख्यनगरी खामिनः कुसुमशेखरस्य तदाख्यन्नृपस्य सर्वान्तःपुरप्रमुखा समस्तान्तःपुरप्रधाना, या महादेवी महाराज्ञी, सा गन्धर्वदत्तेति नामसाम्यात् तत्संज्ञासादृश्याद्धेतोः, उपजातसन्देहेन उत्पन्न खसुतात्वसंशयेन, देवेन विचित्रवीर्येण राज्ञा, भवतेत्यर्थः, रत्नकूटाद्रिबन्धौ रत्नकूटाख्य पर्वताश्रिते, उदधिजलपरिक्षिप्तपीठे उदधिजलैः-समुद्रजलैः, परिक्षिप्तं परिवेष्टितं, पीठं स्थलं यस्य तादृशे, स्वयम्भुवि खयमुद्भूते, तत्र तस्मिन् कृतपूर्ववर्णने, दिव्यायतनमण्डले दिव्यभवनमण्डले, विहितयात्रेण कृतप्रयाणेन सता रात्रौ पूर्व, सादरं प्रेमपूर्वकं, तथा खसुतात्वेन, श्रुता श्रवणगोचरीकृता आसीत्, सैव कुसुमशेखर महिष्येव सा प्रसिद्धा गन्धर्वदत्ता, देवस्य विचित्रवीर्यस्य राज्ञः आत्मजा सुता वर्तत इति शेषः । यतः यस्मात् कारणात्, देवादेशमन्तरेणापि देवस्य नृपस्य भवतः, आदेशं विनापि,
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टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता । वृत्तान्तावेदनेन, पृष्टया च विजने वैजयन्तीनगरविप्लवात् प्रभृति सर्वस्तया निवेदितो निजप्रवासवृत्तान्त इत्यवधार्य कार्यो न देवेन तां प्रति संदेहः' इति, अतिवाह्य च तस्य नगरे रात्रिमेकामुद्गते समन्तादुद्दयोतिताशेषदिशि दशशतमरीचौ मोचयित्वात्मानमागत्य काञ्चीमुपास्य कश्चित् कालं भर्तृदारिकां गन्धर्वदत्तां क्षिप्रमेवागन्तव्यम् । एष चाधुनैव साधितबहुरूपिणीविद्यश्चित्रमायो नाम विद्याधरः प्रस्थितस्य ते पथि सहायो भविष्यति" इति [च]। तदेतदवश्यकरणीयं राजकार्यमवधार्य धीमता गन्तुमेवाहमादेष्टव्यो न मनुष्यरूपाणि चित्रकर्मणा निर्मातुं यस्मादिदानीमत्यन्तगमनोत्सुकोऽहम् , उत्सुकमनोभिश्च कर्तुमारब्धमतिस्थूलमपि कर्म नोपजायते सुसूत्रम् , किं पुनश्चित्तैकाग्रतातिशयनिर्वर्तनीयं चित्रम् । तदधुना तत्र त्रिकूटाचलकूटचूडामणौ विचित्रवीर्यनगरे काश्चयां च तावन्मया गन्तव्यम् , अन्तरा च यदि कश्चिदन्तरायो न भविष्यति, ततस्ततो निवृत्तेन नियमादिहागत्य पुनरपि द्रष्टव्यमिष्टफलदायकं सकलार्थिकल्पद्रुमस्य ते विद्रुमारुणतलं चरणप्रवालयुगलम् , उपदर्शितबहुविकल्पचित्रशिल्पेन च स्थित्वा दिवसमेकमेकाग्रमनसा तथाभिलेखितव्यं यथावस्थितं महाभागस्य रूपं यथा चित्रपटवर्तिना तेन पुरतो दृष्टमात्रेण सिद्धगारुडमन्त्रेणेव भर्तृदारिकायाः प्रशममुपया
मया खयं गत्वा, दृष्टा दृष्टिगोचरीकृता, च पुनः, सर्वस्य समस्तस्य, ज्ञातिवर्गस्य बन्धुगणस्य, कुशलवृत्तान्तावेदनेन कुशलवार्ताविज्ञापनेन, समाश्वासिता सम्यक् तोषिता । च पुनः, विजने रहसि, पृष्टया जिज्ञासां ज्ञापितया, तया गन्धर्वदत्तया, वैजयन्तीनगरविप्लवात् प्रभृति तदाख्यनगरदुर्घटनामारभ्य, सर्वः समस्तः, निजप्रवासवृत्तान्तः स्वविदेशवासवार्ता, निवेदितः बोधितः, इत्यवधार्य इति निश्चित्य, देवेन नृपेण भवता, तां गन्धर्वदत्ता प्रति, सन्देहः स्वसुतात्व. शङ्का, न कार्यः कर्तव्य इति । च पुनः, तस्य विचित्रवीर्यस्य, नगरे, एकां रात्रिम् , अतिवाह्य व्यतीत्य, उद्योतिताशेषदिशि उद्भासितसर्वदिके, दशशतमरीचौ सहस्रकिरणे सूर्य इति यावत् , समन्तात् सर्वतः, उद्गते उदिते सति, आत्मानं खं, मोचयित्वा ततो विश्लष्य, काञ्चीं तदाख्यनगरीम् , आगत्य, कश्चित् कालं कतिपयकालं, भर्तृदारिकां राजसुताम् , उपास्य निषेव्य, क्षिप्रमेव शीघ्रमेव, आगन्तव्यं परावर्तितव्यम् । च पुनः, अधुनैव इदानीमेव, साधित. बहुरूपिणीविद्यः साधिता-सिद्धिमापादिता, बहुरूपिणी-नानारूपप्रयोजिका, विद्या येन तादृशः, चित्रमायो नाम तत्संज्ञकः, एष विद्याधरः, प्रस्थितस्य प्रयातस्य, ते तव, सहायः सह गन्ता, भविष्यति सम्पत्स्यते' इति [च]। तत् तस्माद्धेतोः, एतत् अनुपदोक्तं, राजकार्यम् , अवश्यकरणीयम् अवश्यकर्तव्यम् , अवधार्य निश्चित्य, धीमता कार्याकार्यविवेकशालिना, भवतेति शेषः, अहं गन्तुमेव तदर्थ प्रयातुमेव, आदेष्टव्यः आज्ञापयितुमुचितः, न तु चित्रकर्मणा चित्रणक्रियया, मनुष्यरूपाणि पुरुषाकृतीः, निर्मातं रचयितुम् , यस्मात येन हेतुना, इदा अहम् , अत्यन्तगमनोत्सुकः गन्तुमुत्कण्ठितः, अस्मीति शेषः। उत्सुकमनोभिश्च कार्यान्तरोत्कण्ठितहृदयैस्तु, कर्तु साधयितुम् , आरब्धमपि उपक्रान्तमपि, अतिस्थूलमपि अतिसरलमपि, कर्म कार्यम् , सुसूत्रं सुसङ्घटितं, न उपजायते सम्पद्यते, किं पुनः किमुत, चित्तैकाग्रतातिशयनिर्वर्तनीयं चित्रं मनःसमाधानातिशयसम्पादनीयं चित्रणकार्यम् । तत् तस्माद्धेतोः, अधुना सम्प्रति, त्रिकूटाचलकूटचडामणौ त्रिकूटपर्वतशिखरशिरोमुकुटरूपे, तत्र तस्मिन्, विचित्रवीर्यनगरे तत्संज्ञकनगरे, च पुनः, काश्यां तदाख्यनगर्या f, मया तावत् प्रथम, गन्तव्यं गमनं प्राप्तकालम् । च पुनः, अन्तरा मध्ये, यदि कश्चित् कोऽपि, अन्तरायः विघ्नः, न भविष्यति आपतिष्यति, ततः तर्हि, ततः तन्नगरात् , निवृत्तेन परावृत्तेन, मयेति शेषः, नियमात् अवश्यम् , इह अत्र, आगत्य उपस्थाय, सकलार्थिकल्पद्रमस्य समस्तयाचककल्पवृक्षभूतस्य, ते तव, इष्टफलदायकम् अभिलषितफलसाधकं, विद्रमारुणतलं प्रवालरक्ताधःप्रदेशम् , चरणप्रवालयुगलं पादपल्लवद्वयम् , पुनरपि द्रष्टव्यं दृष्टिगोचरीकरणीयम् । च पुनः, उपदर्शितबहुविकल्पचित्रशिल्पेन उपदर्शितः-प्रकटितः, बहुविकल्पः-नानाविधः, चित्रशिल्पा-चित्रणकला येन तादृशेन, मयेति शेषः, एक दिवसं दिनं, स्थित्वा वर्तित्वा, एकाग्रमनसा समाहितहृदयेन सता, यथाऽवस्थितं यथावृत्तं, महाभागस्य महानुभावस्य, रूपम् आकृतिः, तथा तेन प्रकारेण, अभिलेखितव्यं चित्रणीयम् , यथा येन प्रकारेण, पुरतः अग्रे,
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तिलकमञ्जरी स्यति समस्तबान्धववर्गदत्तदुःसहोद्वेगः पुरुषद्वेषविषवेगः' [छ]। इत्युदीर्य जिगमिषुः पुनरुवाच–'कुमार! दूरे मया गन्तव्यम् , अनुमोदस्व माम् , आदिश च किमपि प्रयोजनं निजमुद्दिश्य यन्मया विधेयम् , प्रहिणु कुशलोदन्तमादेशं लेखं वा कस्यापि योऽस्यां दिशि मया गन्तुमिष्टायामिष्टस्तवास्ते, वस्तु च व्यक्तीकुरु वचनवृत्त्या यदानेतव्यमेतद्देशदुर्लभं ततः' इति ब्रुवाणं च तमासन्नसमुपनततद्विरहचिन्तासंतप्तमानसः सुचिरमवलोक्य स्नेहगर्भया दृष्टया स्पृष्ट्वा च पाणिना प्रणतशिरसमंसदेशे हरिवाहनः प्रतिव्याहरत्-'गन्धर्वक ! किमहमत्र ब्रवीमि [ज], सर्वात्मना हृदि निविष्टैर्विनयवैदग्ध्यमधुरवादितादिभिस्तव गुणैर्गुणैरिव गाढमस्वतन्त्रतामुपनीतया बुद्ध्या प्रवर्तयितुमपार्यमाणा न मे वाणी जिह्वाग्रमवतरति । कथं गच्छेति भद्रमनुजानामि, किं करोमि ? प्रकृतिरेषा-प्राकृतस्यापि जनस्य जातपरिचयस्य विप्रयोगं न सहते मच्चित्तवृत्तिः, किं पुनस्त्वादशस्य येन च संनिधानवर्तिना प्रवर्तते सुभाषितगोष्ठी, प्रवर्तन्ते विचित्राः कथालापाः, जायते गीतनृत्तचित्रादिषु कलासु व्युत्पत्तिः, आस्वाद्यते नर्मवादश्रवणेन श्रुतिसुखम् , अतिवाह्यते सर्वदा निरातङ्क
टिप्पनकम्–अपार्यमाणा अशक्यमाना । [झ] ।
दृष्टमात्रेण अवलोकितमात्रेण, चित्रपटवर्तिना चित्राधारपटस्थेन, तेन रूपेण, सिद्धगारुडमन्त्रेणेव सिद्धगारुडसम्बन्धिमन्त्रेणेव, समस्तबान्धववर्गदत्तदुःसहोद्वेगः समस्ते-समग्रे, बान्धववर्गे-बन्धुगणे, दत्तः-सम्पादितः, दुःसहः-दुःखेन सहनीयः, उद्वेगः-मनोव्यग्रता येन तादृशः, भर्तृदारिकायाः राजकुमार्याः, तिलकमञ्जर्याः, पुरुषद्वेषविषवेगः पुरुषाप्रीतिरूपविषज्वाला, प्रशमं प्रशान्तिम् , उपयास्यति प्राप्स्यति [छ] । इत्युदीर्य इत्युक्त्वा, जिगमिषुः प्रयातुमिच्छुः, स बालक इति शेषः, पुनः उवाच उक्तवान्, किमित्याहे-कुमार! युवराज! मया दूरे दूरदेशे, गन्तव्यं प्रस्थातव्यं, माम , अनुमोदयस्व प्रयातुमनुमन्यव । च पुनः, किमपि, निजं वकीयं, प्रयोजनम् , आदिश अज्ञापय, यदुद्दिश्य यलक्ष्यीकृत्य, मया विधेयं चेष्टनीयम् । कुशलोदन्तं कुशलवार्ताम् , आदेशम आज्ञां, लेखं पत्रं वा, कस्यापि कस्यचित् पार्श्वे, प्रहिणु मां द्वारीकृत्य प्रेषय, यः, मया गन्तुं प्रस्थातुम् , इष्टायाम् अभिप्रेतायाम् , अस्यां दक्षिणस्यां, दिशि, तव इष्टः अपेक्षितः, आस्ते वर्तते । च पुनः, वचनवृत्त्या वचनद्वारा, व्यक्तीकुरु प्रकटीकुरु, एतद्देशदुर्लभं भवदीयदेशे दुष्प्रापं, यत् वस्तु, ततः, आनेतव्यम् आनेतुं योग्यं, स्यादिति शेषः । इति ब्रुवाणं कथयन्तं, तं बालकम् , आसन्नसमुपनततद्विरहचिन्तासन्तप्तमानसः आसन्न-निकटं यथा स्यात् तथा, समुपनतस्य-समुपस्थास्यमानस्य, यद्वा समुपनतया-समुपस्थास्यमानयेति चिन्ताविशेषणम् , तद्विरहस्य -तद्विश्लेषस्य, चिन्तया सन्तप्त-व्यथितं, मानसं-हृदयं यस्य तादृशः, हरिवाहनः, स्नेहगर्भया प्रीतिपूर्णया, दृष्ट्या चक्षुषा, सुचिरम अतिदीर्घकालम् , अवलोक्य दृष्ट्वा, च पुनः, प्रणतशिरसम् अवनतमस्तकं, तं पाणिना हस्तेन, अंसदेशे स्कन्धदेशे, स्पृष्टा संश्लिष्य, प्रतिव्याहरत् प्रत्युक्तवान् । किमित्याह-अहम्, अत्र अस्मिन् विषये, किं ब्रवीमि कथयामि [जी, सर्वात्मना सर्वांशेन, हृदि मनसि, निविष्टैः प्रविष्टः, विनयवैदग्ध्यमधुरवादितादिभिः नम्रत्व नैपुण्य-प्रियंवदत्वादिभिः, तव गुणैः, गुणैरिव रज्जुभिरिव, गाढम् अत्यन्तम् , अस्वतन्त्रतां परतन्त्रताम् , अधीनतामित्यर्थः, उपनीतया आपादितया, बुद्धया, प्रवर्तयितुं प्रेरयितुम् , अपार्यमाणा अशक्यमाना, मे मम, वाणी, जिह्वाग्रं जिह्वान्तभागं, न अवतरति आरोहति । भद्रं कल्याणवन्तं, भवन्तमित्यर्थः, गच्छेति इतः प्रयाहीति, कथं केन प्रकारेण, अनुजानामि अनुमन्ये । किं करोमि, एषा इयं, प्रकृतिः मम स्वभावः, मच्चित्तवृत्तिः मदीयमनोवृत्तिः, जातपरिचयस्य परिचितस्य, प्राकृतस्यापि तुच्छस्यापि, जनस्य, विप्रयोगं विश्लेषदुःखं, न सहते सोढुं न शक्नोति, किं पुनः किमुत, त्वादशस्य भवादृशस्य, येन सन्निधानवर्तिना निकटवर्तिना सता, सुभाषितगोष्ठी सूक्तिसभा, प्रवर्तते जायते; पुनः विचित्राः
ः, कथालापाः प्रबन्धालापाः, प्रवतन्ते भवन्ति; पुनः गीतनृत्तचित्रादिषु गान नर्तन चित्रणादिषु, कलासु शिल्पेषु, व्युत्पत्तिः कौशलं, जायते, पुनः नर्मवादश्रवणेन परीहासोक्तिश्रवणेन, श्रवणसुखं कर्णयोराहादः,
३ तिलक
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टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता। चित्तैः कालः। सत्पुण्ययोगादयत्नलब्धं पुरुषरत्नं किमबालिशः कोऽपि शिथिलयति [ झ]। तथापि किं क्रियते, पराधीनवृत्तिस्त्वं न शक्यसे दिवसमपि धारयितुमात्मसंनिधौ, उत्तिष्ठ, प्रतिष्ठस्व राजकार्यसिद्धये, मत्कार्यं तु भूयो भवदर्शनमपहाय नास्त्यगस्त्यपरिगृहीतायां ककुभि किश्चित् , यच्च यदा स्वत एवाभ्युपगतं भद्रेण तदा निरर्थकस्तद्विषयो मम प्रार्थनादरः । ततो देशादस्मदेशदुर्लभमिदं त्वया समानेतव्यमित्यत्रापि न भवान व्यापारणीयः, यतः किमेकेनास्मद्देशेन, त्रिभुवनेऽपि यद् दुर्लभं वस्तु तदुपनीतं त्वयेदमपनीतरम्भोर्वशीपुरःसरसुराङ्गनारूपगर्वमस्याः सर्वत एवानवद्यमुपनयता विद्याधरराजदुहितुर्बिम्बम् , अमुनैव कृतकृत्योऽहम् , विरतकौतुकश्च वस्त्वन्तरदर्शने संवृत्तः । ततो निवृत्तेन मया कर्तव्यमेतदिति यदपि किञ्चिदभ्युपगतं तदपि सर्वदानेककार्यव्यग्रचेतसि भवति नावश्यतया संभावयामि, एतत् तु साभ्यर्थनं ब्रवीमि, सविधवर्तिना दूरस्थेन संपत्संपन्नेन विपदमापन्नेन वा त्वया नैष विस्मर्तव्यः सहास्माभिः क्षणमात्रमुपजातो वचनपरिचयः' [अ] इत्युदीर्य दिव्याभरणवस्तुवत्रताम्बूलदानेन तस्मै प्रसादमुपादर्शयत् । उपानयच्च समरकेतुना
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टिप्पनकम्-तदवधार्य तद्-लेखस्वरूपम् , अवधार्य-मनसि कृत्वा [८] ।
आखाद्यते अनुभूयते । किं बहुना, निरातङ्कचित्तैः प्रमुदितहृदयैः, सर्वदा कालः, अतिवाह्यते व्यतीयते । कोऽपि अबालिशः बुद्धिमान् , सत्पुण्ययोगात् सत्पुण्योदयात् , अयत्नलब्धम् अनायासप्राप्तं, पुरुषरत्नं पुरुषश्रेष्ठम् , किं शिथिलयति उपेक्षते, नैवेत्यर्थः [ झ] । तथापि तवाल्याज्यत्वेऽपि, किं क्रियते कर्तुं पार्यते । पराधीनवृत्तिः परतन्त्रस्थितिकः, त्वं, दिवसमपि एकदिनमपि, आत्मसन्निधौ खपार्चे, धारयितुं स्थापयितुं, न शक्यसे शक्तिविषयोऽसि । उत्तिष्ठ प्रस्थातुं प्रवर्तख । राजकार्यसिद्धये प्रकृतविद्याधरेन्द्रकार्यनिष्पत्तये, प्रतिष्ठस्व प्रयाहि, भूयः पुनरपि, भवद्दर्शनम , अपहाय वर्जयित्वा, तदन्यदित्यर्थः, किश्चित् किमपि, मत्कार्य तु मदर्थकर्त्तव्यं तु, अगस्त्यपरिगृहीतायाम् अगस्त्याश्रितायां, ककुभि दिशि, दक्षिण दिशीत्यर्थः, नास्ति । च पुनः, भद्रेण कल्याणभाजा, भवतेत्यर्थः, यदा यदि, यत् कार्य, स्वत एव स्वयमेव, अभ्युपेतं कर्तुमङ्गीकृतं, तदा तर्हि, तद्विषयः तत्कार्यविषयः, मम प्रार्थनादरः प्रार्थनाप्रवृत्तिः, निरर्थकः निष्फलः । ततः तस्मात् जिगमिषितात् , देशात् , अस्मदेशदुर्लभम् अस्मद्देशदुरवापम् , इदं वस्तु, त्वया, समानेतव्यम् उपाहरणीयम् , इत्यत्रापि अस्मिन् विषयेऽपि, भवान् न व्यापारणीयः प्रवर्तनीयः । यतः यस्मात् कारणात् , किं किमुत, एकेन अस्मद्देशेन, त्रिभुवनेऽपि लोकत्रयेऽपि, दुर्लभं यद् वस्तु तत् त्वया, उपनीतं प्रापितम् , कीदृशेन त्वया? अस्याः चित्रगतायाः, विद्याधरराजहितः विद्याधरेन्द्रकन्यकायाः, इदं प्रयक्षवर्ति, बिम्ब चित्रम्, उपनयता प्रापयता, कीदृशम् ? अपनीतरम्भोर्वशीपुरस्सरसुराङ्गनागर्वम् अपनीतः-अपसारितः, रम्भो. र्वशी पुरस्सराणां-तत्प्रमुखानां, सुराङ्गनानां-देवस्त्रीणां, रूपगर्वः-सौन्दर्याभिमानो येन तादृशम् , पुनः सर्वत एव समन्तादेव, अनवधं सुन्दरम् , अमुनैव तेनैव कार्येण, अहं कृतकृत्यः कृतार्थः, च पुनः, वस्त्वन्तरदर्शने अन्यवस्त्ववलोकने, विरतकौतुकः निवृत्तौत्सुक्यः, संवृत्तः सम्पन्नः, अस्मीति शेषः । ततः तस्माद् देशात् , निवृत्तेन परावृत्तेन, एतत् कार्य, कर्तव्यं विधेयम्, इति इत्थं, यदपि किश्चित् मया स्वयमनुच्यमानात्मकं कार्यम् , त्वया अभ्युपगतं कर्तुं प्रतिज्ञातम् , तदपि कार्य सर्वदा सर्वकालम् , अनेककार्यव्यग्रचेतसि विविधकर्तव्यव्याकुलहृदये, भवति त्वयि, न अवश्यतया अवश्यकरिष्यमाणतया, सम्भावयामि आशासे, तु किन्तु, एतत् इदं साभ्यर्थनं सप्रार्थनं, ब्रवीमि कथयामि, यत्सविधवर्तिना समीपस्थेन, वा अथवा, दूरस्थेन दूरवर्तिना, सम्पत्सम्पन्नेन सुखमापन्नेन; वा अथवा, विपदं दुःखम् , आपन्नेन प्राप्तेन, त्वया, अस्माभिः सह, क्षणमात्रम्, एकमात्रक्षणम् , उपजातः सम्पन्नः, वचनपरिचयः आलापप्रयुक्तप्रीतिः, नैव विस्मर्तव्यः विस्मरणीयः [अ] । इत्युदीर्य इत्युक्त्वा, तस्मै बालकाय, दिव्याभरणवस्तुवस्त्रताम्बूलदानेन दिव्यानां-मनोहराणाम् , आभरणवस्तूनाम्-अलङ्करणरूपाणां वस्तूनां, वस्त्राणां ताम्बूलानां च, दानेन-समर्पणेन, प्रसाद प्रसन्नताम् , उपादर्शयत् प्रकटितवान् , च पुनः, समरकेतुना तत्संज्ञकेन तत्प्रियनृपकुमारेण, अभिलिख्य लिखित्वा,
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तिलकमञ्जरी स्वप्रयोजनसंबन्धमभिलिख्य तत्क्षणमेव समुपनीतं लेखम् । अब्रवीच्च तमपवार्य—'गन्धर्वक ! याऽसौ त्वया गन्धर्वदत्ताभिधाना कुसुमशेखरनरेन्द्रमहिषी सुवेलाचलानिवृत्तेन काञ्चयां द्रष्टुमध्यवसिता तदीयदुहितुर्मलय. सुन्दर्या रहस्युपेत्य सादरमयं समर्पयितव्यः' इति [ट]।
अथ 'तथा' इति सोऽभ्युपगम्य दूरानतशिराः प्रणम्य हरिवाहनमाभाष्य च ललाटचुम्बिना पाणिसंपुटेन तत्समासन्नवर्तिनः समरकेतुपुरःसरान् राजपुत्राननुचराप्तिप्रसादप्राप्तवसुभूषणादिवस्तुकलापो जलमण्डपानिर्जगाम । विस्मयोन्मुखद्वारस्थलोकावलोकितश्च विहगपतिपोत इव पवनवेल्लितोत्तरीयपल्लवप्रान्तपक्षतिरन्तरिक्षमुदपतत् । प्रस्थिते च तस्मिन्नगस्त्याश्रमालंकृतां ककुभमारब्धतद्गुणसंकथः स्थित्वा क्षणं क्षोणीपतितनयः स्वावासमगमत् । कृताह्निकविधिश्च विनिविश्य विजने तमेव सर्वतोऽनवद्यमवलोकयन् विद्याधरराजपुत्र्या रूपातिशयमनयद् दिवसम् [8] । अवसिते च वासरालोके संगलत्तिमिरतया मन्दायमानरूपदर्शनसामयाँ कथञ्चित् ततो विनिवर्त्य दृष्टिमुत्थाय च यथाक्रियमाणमावश्यकं सान्ध्यमन्वतिष्ठत् । उपस्थिते च प्रदोषे प्रतीष्य कृतसपर्याणां द्विजन्मनामाशिषमारुह्य च सपर्याणां यामकरिणीं करेणुघण्टारवश्रवणगत्वरेण
तत्क्षणमेव तत्कालमेव, समुपहृतं समर्पितं, स्वप्रयोजनसम्बद्धं खोद्देश्यसम्बद्धं, लेखं पत्रम् , उपानयत् समर्पितवान् ; च पुनः, तं लेखम् , अपवार्य आच्छाद्य, अब्रवीत् उक्तवान् । किमित्याह-गन्धर्वक ! सुवेलाचलात् सुवेलपर्वतात् , निवृत्तेन निर्गतेन, त्वया, असौ प्रसिद्धा, गन्धर्वदत्ताभिधाना गन्धर्वदत्ताख्या, या कुसुमशेखरनरेन्द्रमहिषी तदाख्यनृपपट्टराज्ञी, काभ्यां तदाख्यनगर्या, द्रष्टुं साक्षात्कर्तुम् , अध्यवसिता निश्चिता, तदीयदुहितुः तत्सुतायाः, मलयसुन्दर्याः, रहसि एकान्ते, उपेत्य समीपं गत्वा, अयं लेखः, सादरम् आदरपूर्वकं, समर्पयितव्यः प्रापयितव्यः [ट]।
अथ अनन्तरं, सः बालकः, तथा तेन प्रकारेण, अभ्युपगम्य कर्तुमङ्गीकृत्य, दूरानतशिराः दूरपर्यन्तावनतमस्तकः सन् , हरिवाहनं तदाख्यप्रकृतयुवराज, प्रणम्य अभिवाद्य, च पुनः, ललाटचुम्बिना ललाटस्पर्शिना, पाणिसम्पुटेन संश्लिष्टकरद्वयेन, अञ्जलिनेति यावत् , तत्समासन्नवर्तिनः तत्पार्थोपविष्टान् , समरकेतुपुरस्सरान् समरकेतुप्रमुखान् , राजपुत्रान् नृपकुमारान् , आभाष्य आलप्य, अनुचरार्पितप्रसादप्राप्तवसुभूषणादिवस्तुकलापः अनुचरेण किङ्करद्वारा, अर्पितः-उपहृतः, प्रसादेन-प्रीत्या, प्राप्तः-गृहीतः, वसुभूषणादिः-धनाभूषणप्रभृतिः, वस्तुकलापः-वस्तुसमूहो येन तादृशः सन् , जलमण्डपात् जलाधिष्ठितगृहविशेषात् , निर्जगाम निष्क्रान्तः । च पुनः, विस्मयोन्मुखद्वारस्थलोकावलोकितः विस्मयेन-आश्चर्येण, उन्मुखैः-ऊर्ध्वमुखैः, द्वारस्थलोकैः-द्वारस्थजनैः, अवलोकितः-दृष्टः सन् , विहगपतिपोत इव गरुडशिशुरिव, पवनवेल्लितोत्तरीयपल्लवप्रान्तपक्षतिः पवनेन-वायुना, वेल्लिता-उद्धृता, उत्तरीयपल्लवप्रान्तरूपा- पल्लवसदृशश्लक्ष्णोत्तरीयवस्त्राञ्चलरूपा, पक्षतिः-पक्षमूलं यस्य तादृशः, अन्तरिक्षं गगनम् , उदपतत् उज्जगाम । तस्मिन् गन्धर्वके, अगस्त्याश्रमालङ्कताम् अगस्त्यस्य-तदाख्यमहर्षेः, आश्रमेण-आवासेन, अलङ्कृतां-विभूषितां, ककुभं दिश, दक्षिणदिशमित्यर्थः, प्रस्थिते प्रयाते सति, क्षोणीपतितनयः प्रकृतनृपात्मजः, आरब्धतहणसंकथः प्रवर्तिततदीयगुणगानः सन् , क्षणं क्षणमात्रं, स्थित्वा वर्तित्वा, स्वावासं स्वगृहम् , अगमत् गतवान् । च पुनः, कृताहिकविधिः सम्पादितदैनिकक्रियः सन् , विजने रहसि, विनिविश्य उपविश्य, विद्याधरराजपुत्र्याः विद्याधरराजकुमार्याः, तिलकमञ्जर्या इत्यर्थः, सर्वतः समन्तात् , अनवद्यं प्रशंसनीयं, तमेव दृष्टपूर्वमेव, रूपातिशयं सौन्दर्योत्कर्षम् , अवलोकयन् पश्यन् , दिवसं दिनम् , अनयत् व्यतीतवान् [3] च पुनः, वासरालोके दिनप्रकाशे, अवसिते समाप्ते, क्षीणे सतीत्यर्थः, संगलत्तिमिरतया सम्पतदन्धकारतया, मन्दायमानरूपदर्शनसामर्थ्यां शिथिलायमानतदाकारावलोकनशक्तिका, दृष्टिं चक्षुः, कथञ्चित् कथमपि, क्लेशेनेत्यर्थः, ततः तद्दर्शनकार्यात् , निवार्य विमोच्य, च पुनः, उत्थाय यथाक्रियमाणं यथाविधीयमानं, स्वसाध्यं स्वकार्यम् , अन्वतिष्ठत् कृतवान् । च पुनः, प्रदोषे रजनीमुखे, उपस्थिते समागते, कृतसपर्याणां सम्पादितसायन्तना_णां, द्विजन्मनां विप्राणाम् , आशिषम् आशीर्वाद, प्रतीष्य प्रतीक्ष्य गृहीत्वेत्यर्थः, च पुनः, पृष्ठारोपितरत्नपीठालङ्कता, यामकरिणीं प्रहरहस्तिनीम् , आरुह्य, करेणुघण्टारवश्रवणगत्वरेण करेणोः-हस्तिन्याः,
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टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता । सत्वरं प्रधावता निजगृहेभ्यो गृहीतासिकुन्तकार्मुकेण पदातिसार्थेन सनाथीकृतपुरोभागः पवनविलुलितपुलकाकारस्थूलचूलानामशेषतः प्रज्वलन्तीनां दीपिकानां कनकरेणुकपिलेन प्रसर्पता निरन्तरमालोकेन समुपजातबालातपसमागममिव राजमार्गतिमिरमुपदर्शयन्नाजगाम राजकुलम् [ड]। अवतीर्य च द्वारि संभ्रान्तदौवारिककृतप्रणामः प्रविश्य परिवृतः प्रणयिना राजपुत्रलोकेन विलोक्य प्रदोषास्थानमण्डपावस्थितं पितरमुपास्य सविनयमास्यनिहितनिभृतेक्षणो मुहूर्तमुत्थाय गत्वाभ्यन्तरं प्रणम्य दूरानतेन शिरसा प्रतिदिनमेव दर्शनाभिलाषिणी जननीमागत्य निजमन्दिरं द्वारादेव विसर्जितानुयायिसेवकजनस्तत्कालविरलपरिजनप्रचारमप्रमत्ताप्तशस्त्रिपुरुषशतपरिक्षिप्तमाहतैररक्षिभिर्निरीक्ष्य सम्यक्प्रवेश्यमानतत्कालसेवोपयुक्तकथकगाथकप्रायलोकमस्तोकचन्दनच्छटोपसिक्तमसृणमणिकुट्टिममविरलप्रकीर्णविकचकुमुदेन्दीवरदलोपहारं समारब्धशिशिरोपचारैश्चतुरपरिचारकैः सत्वरमपसारितान्तर्बलत्प्रदीपनिवहमनिलसंपातेऽपि स्थैर्येण शिखायपाति
घण्टारवश्रवणेन-घण्टानादश्रवणेन, गत्वरेण-गमनप्रवृत्तेन, सत्वरं ससम्भ्रम, निजगृहेभ्यः प्रधावता प्रकर्षण धावता, पुनः गृहीतासिकुन्तकार्मुकेण धृतखगप्रासधनुष्केण, पदातिसार्थेन पादगामिवर्गण, सनाथीकृतपुरोभागः सरक्षकीकृताग्रभागः, राजकुलं राजमन्दिरम् , आजगाम आगतः, किं कुर्वन् ? पवनविलुलितपुलकाकारस्थूलचूलानां वायुव्याधूतरोमाञ्चाकारस्थूलशिखानाम् , अशेषतः साकल्येन, प्रज्वलन्तीनां दीप्यमानानां, दीपिकानां, तत्सम्बन्धिना कनकरेणुकपिलेन सुवर्णधूलिपीतवर्णेन, निरन्तरं निर्विच्छेई, प्रसर्पता प्रसरता, आलोकेन प्रकाशेन, राजमार्गतिमिरं राजमार्गस्थमन्धकार, समुपजातबालातपसमागममिव समुपजातः-समुत्पन्नः, बालातपस्य-अपरिणतदिनकरालोकस्य, समागमः-सम्पर्को यस्मिंस्तादृशमिव, दर्शयन् दृष्टिगोचरतामापादयन् [ड]। च पुनः, द्वारि द्वारदेशे, अवतीर्य आगत्य, सम्भ्रान्तदोवारिककृतप्रणामः सम्भ्रान्तैः-सत्वरैः, दौवारिकैः-द्वारपालैः, कृतप्रणामः-कृताभिवादनः, प्रविश्य प्रवेशं कृत्वा, पुनः प्रणयिना स्नेहास्पदेन, राजपुत्रलोकेन युवराजजनेन, परिवृतः परिवेष्टितः सन् , पितरं जनकं, मेघवाहनमिति यावत् , प्रदोषास्थानमण्डपावस्थितं प्रदोषकालिकसभाभवनावस्थितं, विलोक्य दृष्ट्वा, सविनयं सनम्रभावम् , उपास्य आराध्य, मुहूर्त क्षणम् , आस्यनिहितनिभृतेक्षणः आस्ये-मुखे, न त्वन्यविषय इत्यर्थः, निहितं-निवेशितं, निभृतं-निश्चलम् , ईक्षणं-नेत्रं येन तादृशः सन् , उत्थाय, अभ्यन्तरम् अन्तःपुरं, गत्वा, दूरानतेन दूरपर्यन्तनम्रीकृतेन, शिरसा मस्तकेन, प्रतिदिनमेव प्रतिदिवसमेव, दर्शनाभिलाषिणी स्वदर्शनोत्कण्ठितां, जननीं मातरं, प्रणम्य अभिवाद्य, निजमन्दिरं खवासभवनम् , आगत्य उपस्थाय, द्वारादेव द्वारदेशादेव, विसर्जितानुयायिसेवकजनः त्यक्तानुगामिपरिचारकलोकः, वासभवनं स्ववासगृहाभ्यन्तरं, विवेश प्रविष्टवान् । कीदृशम् ? तत्कालविरलपरिजनप्रचारं तत्कालं तत्क्षणं, विरल:परिमितः, परिजनस्य-परिवारस्य, प्रचारः-गमना-ऽऽगमने यत्र तादृशम् ; पुनः अप्रमत्ताप्तशस्त्रिपुरुषशतपरिक्षिप्तम् अप्रमत्तेन-अवहितेन, आप्तेन-विश्वस्तेन, शस्त्रिणा-गृहीतशस्त्रेण, पुरुषशतेन-शतसंख्यकपुरुषैः, परिक्षिप्तं-परिवेष्टितम् ; पुनः आवृतैः सम्मानितैः, द्वाररक्षिभिः द्वारपालकैः, निरीक्ष्य विलोक्य, सम्यक सादरं, यद्वा सम्यगिति निरीक्ष्यतिक्रियाविशेषणम् , प्रवेश्यमानतत्कालसेवोपयुक्तकथकगाथकप्रायलोकं प्रवेश्यमानाः-अन्तः प्रस्थाप्यमानाः, तत्कालसेवोपयुक्ताः-उक्तावसरोचितसेवाधिकृताः, कथकगाथकप्रायाः-कथाख्यायकगायकप्रचुराः, लोकाः-जना यस्मिंस्तादृशम् ; पुनः अस्तोकचन्दनच्छटोपसिक्तमसृणमणिकुट्टिमम् अस्तोकानाम्-अधिकानां, यद्वा अस्तोकाभिरिति छटाविशेषणं, चन्दनानाचन्दनद्रवाणां, छटाभिः-धाराभिः, उपसिक्त-क्षालितं, मसृणं-चिकणं, मणिकुट्टिमं-मणिबद्धभूमियस्मिंस्तादृशम् ; पुनः अविरलप्रकीर्ण विकचकुमुदेन्दीवरदलोपहारम् अविरलं निबिडं, प्रकीर्णाः-परिक्षिप्ताः, विकचानां-विकसिताना, कुमुदेन्दीवराणांकुमुदरूपाणां रात्रिविकासिजातीयानाम् , इन्दीवराणां-कमलविशेषाणां, दलानि- पत्राण्येव, उपहाराः-उपायनानि यस्मिंस्तादृशम् ; पुनः समारब्धशिशिरोपचारैः प्रवर्तितशीतोपचारैः, चतुरपरिचारकैः निपुणसेवकैः, सत्वरं शीघ्रम् , अपसारितान्तज्वलत्प्रदीपनिवहम् अपसारितः-दूरीकृतः, अन्तः-मध्ये, ज्वलन्-दीप्यमानः, प्रदीपनिवहः-प्रदीपगणो यस्मात् तादृशम् ; पुनः माणिक्यदीपैः रत्नरूपदीपैः, समन्तात् सर्वतः, उत्सारिततमोवितानम् उत्सारितः-अपनीतः, तमोवितानः-- अन्धकारराशियस्मात् तादृशम् , कीदृशैः? जनितमुग्धवनिताविस्मयैः जनितः-उद्भावितः, मुग्धानां-रत्नदीपमहिमानभिज्ञानां,
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तिलकमञ्जरी
नामपि पतङ्गकुलानामप्लोषणेन जनितमुग्धवनिताविस्मयैरकज्जलै लद्भिर्माणिक्यदीपैः समन्तादुत्सारिततमोवितानं वितानकावलम्बिभिरविरलैर्मल्लिकामुकुलदामभिस्तुहिनकरमयूखैरिव शैत्यमादातुमन्तःप्रविष्टैर्जटाली. कृतसकलक्षणमभीक्ष्णमापतता परिमलाकृष्टषट्पदकुलेन पर्यन्तोद्यानमारुतेन विस्तारितगवाक्षविन्यस्तमणिभाजनविलेपनामोदं वासभवनं विवेश [6]।
तस्य चैकदेशे निवेशितमायत विशालं हंसविशदप्रच्छदपटाच्छादितमच्छजललवस्राविणा सुधाधवलेन जाह्नवीपुलिनमिव फेनपुञ्जेन जनितसांनिध्यं निद्राकलशेन शयनमध्यासीनः शयनसंनिहितासनासीनाभिनुवेलमाईण चन्दनद्रवेण सान्द्रीकृतकरपल्लवस्पर्शशैत्या भिरिवनिताभिः संवाह्यमानचरणपल्लवस्तत्कालमव्याकुलेन चेतसा संस्मृत्य गन्धर्वकालापमुपजातविस्मयश्चिन्तितवान्-'अहो काप्यद्भुता तस्याश्चक्रसेनदुहितुः शरीरावयवशोभासंपत्तिर्यस्मात् त्रिभुवनातिशायिरूपापि तत्प्रतिकृतिरियं चित्रपटगता रूपलव इति निवेदिता तेन विद्याधरदारकेण [ण]। यदि च सत्यमेव तस्यास्त्रस्तमृगदृशस्तादृशं रूपं ततो जितं जगति विद्याधरजात्या,
वनितानां-वधूनां, विस्मयः-आश्चर्य यैस्तादृशैः, केन हेतुना ? अनिलसम्पातेऽपि पवनसञ्चारेऽपि, स्थैर्येण निश्चलत्वेन, पुनः शिखायपातिनामपि शिखोपरिसञ्चारिणामपि, पतङ्गकुलानां शलभगणानाम् , अप्लोषणेन अदाहेन; पुनः वितानकावलम्बिभिः उल्लोचाधोऽवनमद्भिः, अविरलैः सान्द्रः, मल्लिकामुकुलदामभिः मल्लिकाख्यकुसुमकोरकमाल्यैः, जटालीकृतसकलक्षणं जटालीकृताः-व्याप्ताः, सकलाः-समस्ताः, क्षणाः-अवसरा मध्यभागा वा यस्मिंस्तादृशम् , कैरिव ? शैत्यं विलक्षणशीतलताम् , आदातुं ग्रहीतुम् , अन्तः अभ्यन्तरे, प्रविष्टैः कृतप्रवेशैः, तुहिनकरमयूखैरिव तुहिनाःशीताः; कराः-किरणा यस्य स तुहिनकरः-चन्द्रः, तस्य मयूखः-किरणैरिवेत्युत्प्रेक्षा; पुनः पर्यन्तोद्यानमारुतेन प्रान्तवर्तिक्रीडाकाननपवनेन, विस्तारितगवाक्षविन्यस्तमणिभाजनविलेपनामोदं विस्तारितः-इतस्ततः प्रसारितो वर्धितो वा गवाक्षविन्यस्तानां-वातायननिवेशितानां, मणिभाजनानां-मणिमयपात्राणां, विलेपनामोदः-विलेपनोत्कटपरिमलो यस्मिंस्तादृशम् , कीशेन ? अभीक्ष्णम् अनवरतम् , आपतता आगच्छता, पुनः परिमलाकृष्टषट्पदकुलेन परिमलाकृष्टं-परिमलेन-सौरभेण, आकृष्ट-हठादानीतं, षट्पदकुलं-भ्रमरराशियस्मिन् येन वा तादृशेन [ढ]।
च पुनः, तस्य वासभवनस्य, एकदेशे एकभागे, निवेशितं स्थापितम् , पुनः आयतविशालं दीर्घबृहदाकारम् , पुनः, हंसविशदप्रच्छदपटाच्छादितं हंसविशदेन-हंससदृशशुभ्रेग, प्रच्छदपटेन-आस्तरणवस्त्रेण, आच्छादितम्-आस्तीर्णम् , पुनः अच्छजललवस्राविणा विमलजलबिन्दुस्यन्दिना, सुधाधवलेन चूर्णद्रवशुभ्रेण, यद्वा अमृतसदृशस्वच्छेन, निद्राकलशेन निद्रोपयोगिघटेन, फेनपुञ्जन फेनराशिना, जाह्नवीपुलिनमिव गङ्गासम्बन्धिजलोद्गतस्थलमिव, कृतसान्निध्यं प्रत्यासन्नं, शयनं शय्याम् , अध्यासीनः अधितिष्ठन् ; पुनः वारवनिताभिः वेश्याभिः, संवाह्यमानचरणपल्लव: संवाह्यमानौ-सेव्यमानौ, चरणपल्लवौ-पल्लवोपमपादौ यस्य तादृशः, कीदृशीभिः ? शयनसन्निहितासनासीनाभिः शय्यासमासन्नासनोपविष्टाभिः, पुनः अनुवेलं प्रतिक्षणम् , आईण सरसेन, चन्दनद्रवेण चन्दनपङ्केन, सान्द्रीकृतकरपल्लवस्पर्शशैत्याभिः सान्द्रीकृतं-विस्तारितं, करपल्लवस्पर्शजन्यं शैत्यं याभिस्तादृशीभिः, तत्कालं तत्क्षणं, गन्धर्वकालापं गन्धर्वकाख्यप्रकृतबालकाभाषणम् , अव्याकुलेन शान्तेन, चेतसा हृदयेन, संस्मृत्य सम्यक ध्यात्वा, उपजातविस्मयः उद्भूताश्चर्यः सन् , चिन्तितवान् आलोचितवान् , किमित्याह-अहो आश्चर्य, तस्याः प्रकृतायाः, चक्रसेनदुहितुः चक्रसेनाख्यविद्याधरेन्द्रकुमारिकायाः, तिलकमञ्जर्या इति यावत्, कापि अदृष्टिगोचरा, शरीरावयवशोभासम्पत्तिः शरीरावयवसौन्दर्यसमृद्धिः, अद्भूता विस्मयावहा, वर्तत इति शेषः, यस्मात् यद्धेतोः, त्रिभुवनातिशायिरूपापि भुवनत्रयोत्कृष्टसौन्दर्यापि, चित्रपटगता चित्रपटस्थिता, इयं तत्प्रतिकृतिः तत्प्रतिबिम्ब, तेन प्रकृतेन, विद्याधरदारकेण विद्याधरबालफेन, गन्धर्वकेणेत्यर्थः, रूपलव इति सौन्दर्यलेश इति, निवेदिता बोधिता [ण] । यदि च यदि तु, त्रस्तमृगदृशः त्रस्तः-भीतो यो मृगः, तस्येव दृक्-दृष्टिः-चञ्चललोचनं यस्यास्तादृश्याः, तस्याः तिलकमञ्जर्याः, तादृशम् उक्तप्रकारकं, रूपं सौन्दर्य, सत्यमेव यथाश्रुतमेव, अस्तीति शेषः, ततः तर्हि, जगति लोके, विद्याधरजात्या विद्याधरवर्गेण, जितं सर्वोत्कर्षः
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टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता। दूरमपसारितो निःसारताप्रवादो निजः संसारेण, प्राप्तमवधिमवलारूपकल्पनाशिल्पवैदग्ध्यं विधेः, स्तम्भितो रम्भादिसुरविलासिनीवर्गस्य सौभाग्यगर्वः, निवृत्ता लावण्यगुणगणगणना रतेः, प्रवृत्तः सप्तलोकीलोकलोचनानामचिन्तितो महोत्सवः, प्रकटितः प्रलयकालविप्लवः क्षुभितेन सर्वतो रागजलराशिना शृङ्गारिजनस्य, भ्रान्ता चतुर्दशस्वपि भवनेषु भगवतो मकरकेतनस्याज्ञा [त]। न जाने-कस्य सुकृतकर्मणः सत्वरपलायमानतिमिरमार्गप्रधावितशशिप्रभाप्रवाहधवला पतिष्यति वपुषि तरलायता तस्याः कटाक्षदृष्टिः ?, कस्य सञ्चिताकुण्ठतपसः कण्ठकाण्डे करिष्यति पतिष्यन्त्यास्तद्भुजलतायाःप्रथमसूत्रपातमम्लानमालतीकुसुमकोमला स्वयंवरस्रक ?, कः सुजन्मा जन्मफलभूतानि प्रस्थितः सह तया राजपथवर्तिनः सरागं पुरजनस्य श्रोष्यति श्रुतिसुखानि प्रशंसावचनानि ?, कस्त्रिभुवनश्लाघ्यचरितस्तदध्यासितमधिष्ठितो गजस्कन्धपीठमाकण्ठमुत्तानिततरलतारैः पीयमानवदनलावण्यो नगरनारीलोचनैरवतरिष्यति विवाहमण्डपे वेदिबन्धम् ?, कस्य कन्दर्पबान्धवस्य तत्क्षणाबद्धकम्पस्विन्नसरलाङ्गुलौ तदीयकरपल्लवे लगिष्यति श्लाघ्यशतपत्रशङ्खातपत्रलक्षणो दक्षिणपाणिः [थ]। पुण्यकारी तत्परिजनो यः सर्वदा सविधवर्ती स्वास्थानभवनस्थितां विमाननिवहेन गगनं
प्राप्तः; पुनः संसारेण जगता, निजः खकीयः, निस्सारताप्रवादः असारताप्रसिद्धिः, दूरम् , अपसारितः त्यक्तः; पुनः विधेः विधातुः, अबलारूपकल्पनाशिल्पवैदग्ध्यं स्त्रीरूपसृष्टिकलाकौशलम् , अवधिं सीमानं प्राप्तम् ; पुनः रम्भादिसुरविलासिनीवर्गस्य रम्भाप्रभृतिदेवाङ्गनागणस्य, सौभाग्यगर्वः सौन्दर्याभिमान; स्तम्भितः प्रतिहतः; पुनः रतेः कामदेवप्रियायाः, लावण्यगुणगणगणना सौन्दर्यात्मकगुणराशिसंख्यानं, निवृत्ता विरता; पुनः सप्तलोकीलोकलोचनानां सप्तोर्श्वभुवनवर्तिजननेत्राणां, महोत्सवः तदवलोकनपरमोत्सवः, प्रवृत्तः प्रादुर्भूतः; पुनः सर्वतः समन्ततः, क्षुभितेन संस्यन्दितेन, शृङ्गारिजनस्य शृङ्गाररसिकजनस्य, रागजलराशिना शृङ्गाररससिन्धुना, प्रलयकालविप्लवः कल्पान्तकालिकोपद्रवः, उन्मर्यादस्यन्दनमित्यर्थः, प्रकटितः प्रदर्शितः; पुनः चतुर्दशस्वपि चतुर्दशसंख्यकेष्वपि, भुवनेषु लोकेषु, भगवतः परमैश्वर्यशालिनः, मकरकेतनस्य कामदेवस्य, आज्ञा विलासादेशः, भ्रान्ता प्रसृता [त]। न जाने न निर्णेतुं पारयामि, तस्याः तिलकमञ्जर्याः, तरलायता चञ्चला दीर्घा च, पुनः सत्वरपलायमानतिमिरमार्गप्रधावितशशिप्रभाप्रवाहधवला सत्वरं-शीघ्रं, पलायमानानाम्-अपसरतां, तिमिराणाम्-अन्धकाराणां मार्गे, प्रधावितः-शीघ्र गमितः, शशिप्रभाप्रवाह इव चन्द्रकान्तिधारेव, धवला-निर्मला, कटाक्षदृष्टिः कटाक्षपूर्णदृष्टिः, सुकृतकर्मणः पुण्यकर्मणः, कस्य, वपुषि शरीरे, पति- । ष्यति सञ्चरिष्यति; पुनः अम्लानमालतीकुसुमकोमला अभिनवमालयाख्यपुष्पकोमला, स्वयंवरत्रक स्वयंपतिवरणार्थमाला, कस्य, सश्चिताकुण्ठतपसः संगृहीतसफलतपस्याकस्य, नृपकुमारस्य, कण्ठकाण्डे कण्डनाले, पतिष्यन्त्याः लम्बिष्यमाणायाः, तद्धजलतायाः तिलकमञ्जरीबाहुलतायाः, प्रथमसूत्रपातं प्रथमप्रवृत्ति, करिष्यति जनयिष्यति; पुनः कः सुजन्मा सफलजन्मा, तया तिलकमार्या पल्या सह, प्रस्थितः प्रयातः सन् , जन्मफलभूतानि जन्मफलरूपाणि, श्रतिसुखावहानि कर्णानन्दजनकानि, राजपथवर्तिनः राजमार्गवर्तिनः, पुरजनस्य पुरवासिजनस्य, प्रशंसावचनानि तद्दाम्पत्याभिनन्दनवाक्यानि, सरागं सस्नेह,श्रोष्यति श्रवणगोचरीकरिष्यति; पुनः कः त्रिभुवनश्लाघ्यचरितः भुवनत्रयाभिनन्दनीयचरितः, तदध्यासितं तया-तिलकमञ्जर्या, अधिष्ठितं, गजस्कन्धपीठ हस्तिस्कन्धरूपमासनम् , आकण्ठं कण्ठमभिव्याप्य, अधिष्ठितः अध्यासितः सन् , उत्तानिततरलतारैः उन्नमितचपलकनीनिकैः, नगरनारीलोचनैः नगरस्थवधूनयनैः, पीयमानवदनलावण्यः सस्नेहावलोक्यमानमुखसौन्दर्यः, विवाहमण्डपे विवाहालये, वेदिबन्धं वेद्याख्यबद्धभूमिम् , अवतरिष्यति अधस्तादागमिष्यति; कस्य कन्दर्पबान्धवस्य कामदेवसमसुन्दरस्य, श्लाघ्यशतपत्रशङ्खातपत्रलक्षणः श्लाघ्यानि-प्रशंसनीयानि, शतपत्रं-कमलं, शङ्ख:-प्रसिद्धः, आतपत्रं-छत्रं, तद्रूपाणि लक्षणानि-भाग्यचिह्नानि यस्मिंस्तादृशः, दक्षिणपाणिः दक्षिणहस्तः, तत्क्षणाबद्धकम्पखिन्नसरलाङ्गुलौ तत्क्षणाबद्धेन-तत्कालप्राप्तेन कम्पेन-सात्त्विककामविकारभूतेन, खिन्नाः-खेदााः , सरलाः-ऋजवः, अङ्गुलयो यस्मिंस्तादृशे, तदीयकरपल्लवे तिलकमञ्जरीपल्लवकोमलकरे, लगिष्यति संगस्यते [थ]। तत्परिजन: तिलकमञ्जरीपरिवारः, पुण्यकारी पुण्यकर्मा, अस्तीति शेषः, यः सर्वदा सर्वकाले, सविध
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तिलकमञ्जरी गाहमानामुदधिरोधोवनेषु स्वेच्छया संचरन्ती श्रवणागतस्य प्रेयसो विद्याधरराजकन्याजनस्य सरहस्यमखिलं कलाकलापमुपदिशन्ती तामन्वहं पश्यति । अधन्यः खेचरगणो यः प्रकाममनुरक्तोऽपि दूरवर्ती तदृष्टिपातामृतरसस्य रूपमात्रदर्शनतरलितो वृथैव मन्मथव्यथामहमिवोद्वहति [द ] । अहो मे मूढता, यदसावायतेक्षणा भूमिगोचरनृपाधिपात्मजप्रणयिनी भविष्यतीति वार्तयापि श्रुतया हर्षमुद्वहामि । सत्स्वपि रूपलावण्ययौवनशालिष्वपरेषु भूपालदारकेषु कालान्तरभुवस्तदनुरागस्यात्मानमेव लक्ष्यीकरोमि; काऽहं क सा ?, क भूमिगोचरस्य निकेतनं साकेतनगरं क दिव्यसङ्गसमुचिताचलप्रस्थसंस्थं रथनूपुरचक्रवालम् ? । अपिच विवेकिना विचारणीयं वस्तुतत्त्वम् , नोज्झितव्यो निजावष्टम्भः, स्तम्भनीयं मनः प्रसरदपथे, न देयमग्रणीत्वमिन्द्रियगणस्येत्यपि न गणयामि [ध] । असौ पुनरपरा विडम्बना-यदयमात्मा मदनदाहोपशमाय प्रशममार्गमवतारितोऽप्यधोगति रागिणस्तदनियुगलस्यालोचयति न प्राणिजातस्य, कदलीस्तम्भतुल्यतां तदूरु
टिप्पनकम्-अधोगतिम् अधस्तात् स्थिति नरकगमनं च । कदली-रम्भा । हृदयवासिभिः हृदयं-चित्तं वक्षश्च, अलब्धविवरं निश्छिद्रम् । मध्यस्थां मध्यस्थां मध्यस्थं रूपं च। मुखे वक्त्रे प्रारम्भे च। क्षीरसागरसम धवलं चञ्चलमतिचञ्चलं वा [न]।
वर्ती तन्निकटवर्ती सन् , तां तिलकमञ्जरीम् , अन्वहं प्रतिदिनं, पश्यति साक्षात् करोति, कीदृशीम् ? स्वास्थानभवनस्थितां खसभामण्डपनिषण्णाम् पुनः विमाननिवहेन आकाशयानसमूहेन, गगनम् आकाशं, गाहमानाम् आरोहन्तीम् , पुनः उदधिरोधोवनेषु समुद्रतटवर्तिवनेषु, स्वेच्छया यथेच्छं, सञ्चरन्तीं विहरन्तीम् , पुनः श्रवणागतस्य श्रोतुमुपस्थितस्य, प्रेयसः प्रियतमस्य, विद्याधरराजकन्यकाजनस्य विद्याधरेन्द्रकुमारिकाजनस्य, सरहस्यं रहस्येन-गूढतत्त्वेन सहितम् , अखिलं समग्रं, कलाकलापं शिल्पसमूहम् ; उपदिशन्तीं शिक्षयन्तीम्। खेचरगणः आकाशगामिजनविशेषगणः, अधन्यः अश्लाघ्यः, अस्तीति शेषः, यः, अहमिव, प्रकामम् अत्यन्तम् , अनुरक्तोऽपि तदनुरागवानपि, तल्लोलुपोऽपीत्यर्थः, तदृष्टि
तरसस्य तदीयदृष्टिसञ्चाररूपामृतस्यन्दस्य, दरवर्ती दूरे स्थितः, रूपमात्रदर्शनतरलितः रूपमात्रस्य-आकारमात्रस्य, पक्षे प्रतिकृतिमात्रस्य, दर्शनेन, तरलितः-व्याकुलितः सन् , वृथैव व्यर्थमेव, मन्मथव्यथां कामदेववेदनाम् , उद्वहति अनुभवति [द]। मे मम, मूढता मूर्खता, अहो खेदावहा, यत् यतः, असौ प्रकृता, आयतेक्षणा दीर्धनयना, भूमिगोचरनृपाधिपात्मजप्रणयिनी भूमिवासिनृपेन्द्रकुमारपत्नी, भविष्यति सम्पत्स्यते, इति अनया, वार्तया वृत्तान्तेन श्रुतयापि श्रवणगोचरीकृतयापि, हर्षम् आनन्दम् , उद्वहामि प्रामोमि। पुनः रूपलावण्ययौवनशालिषु आकारसौन्दर्ययुवत्वशोभिषु, अपरेषु अन्येषु, भूपालदारकेषु नृपकुमारेषु, सत्स्वपि विद्यमानेष्वपि, आत्मानमेव खमेव, कालान्तरभुवः उत्तरकालभाविनः, तदनुरागस्य तस्नेहस्य, लक्ष्यीकरोमि लक्ष्यत्वेन प्रत्येमि। अहं क कुत्र, सा तिलकमञ्जरी, व कुत्र, आक्योर्महदन्तरमित्यर्थः । भूमिगोचरस्य भूमिवासिनः, निकेतनं निवासस्थानं, साकेतनगरम् अयोध्याख्यनगर, क्व कुत्र, पुनः दिव्यसङ्गसमुचिताचलप्रस्थसंस्थं दिव्यसङ्गस्य-दिवि-स्वर्गे भवा दिव्या देवाः, तत्सङ्गस्य, समुचितः-योग्यो यः, अचल:-पर्वतः, तस्य प्रस्थे-समभूमिभागे, संस्था-अवस्थितिर्यस्य तादृशं, रथनपुरचक्रवालं तदाख्यनगर, व कुत्र, तयोस्तन्निवासास्पदयोरपि महत्तारतम्यमित्यर्थः । अपिच किञ्च, विवेकिना तत्त्वातत्त्वविवेचनशालिना, वस्तुतत्त्वं वस्तुनो याथार्थ्य, विचारणीयम् आलोचनीयम् , पुनः निजावष्टम्भः स्वकीयमर्यादा, न, उज्झितव्यः अतिक्रमणीयः, यद्वा स्वमानं न त्यजनीयमित्यर्थः, पुनः अपथे उन्मार्गे, प्रसरत् प्रवर्तमानं, मनः, स्तम्भनीयं निरोधनीयम् , पुनः इन्द्रियगणस्य इन्द्रियवर्गस्य, अग्रणीत्वं मुख्यत्वं, न, देयं विधेयम् , इत्यपि एतदपि, न, गणयामि आद्रिये [ध]। पुनः असौ वक्ष्यमाणा, विडम्बना वैगुण्यम् , कष्टमित्यर्थः, अपरा अन्या, वर्तत इति शेषः, यत् यस्मात् , अयं मदीयः, आत्मा, मदनदाहोपशमाय कामाग्निदाहशान्तये, प्रशममार्ग तन्निवृत्तिमार्गम् , अवतारितोऽपि आरोपितोऽपि, रागिणः रक्तस्य, तदङ्कियुगलस्य तिलकमञ्जरीचरणद्वयस्य, अधोगतिम् अधस्ताद् गमनम् , निधुवनकेलौ अधःस्थितिमिति यावत् , आलोचयति
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टिप्पनक - परागविवृतिसंवलिता ।
परिणाहस्य विमृशति न देहनिःसारतायाः, हृदयवासिभिः सङ्गो दुःखहेतुरित्यलब्धविवरं तत्पयोधरद्वन्द्वमवधारयति न कलत्रपुत्रादिवर्गम् ; मध्यस्थां तन्नाभिमुद्रामभिनन्दति न भावनाम, मधुरं मुखे तदधरप्रवालं ध्यायति न भोगसौख्यम्, युगान्तविलुलितक्षीरसागरसमं तद क्षिविस्तारमुत्प्रेक्षते न संसारम्, आरोपितानङ्गचापभङ्गुरं तद्भूलताललितमध्येति न विधेर्विलसितम् [ न ] | अन्या अपि प्रकृष्टरूपलावण्यवत्यः प्राप्तयौवना दृष्टाः क्षितिपकन्याः, अन्यासामपि श्रुतस्तत्त्ववेदिभिरनेकधा निवेद्यमानो विलासक्रमः, न तु कयापि क्वाप्यपहृतं चेतो यथाऽनया । कथमिदानीमासितव्यम्, किं प्रतिपत्तव्यम्, केन विधिना विनोदनीयेयमनुदिनं प्रवर्धमाना तद्दर्शनोत्कठा, कस्यावेदनीयमिदमात्मीयं दुःखम्, केन सार्धमालोचनीयं कर्तव्यम्, कस्य क्रमि - ष्यते तदेशगमनोपायेषु बुद्धिः कस्य साहायकेन सेत्स्यति तया सह समागमप्राप्तिः [ प ] | अपि न दैवमनुगणं स्यादेष्यति स विद्याधरदारकः, न विस्मरिष्यति परिचयम्, करिष्यति पक्षपातम्, द्रक्ष्यति
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विचारयति, किन्तु रागिणः शृङ्गारिणः, प्राणिजातस्य प्राणिवर्गस्य, अधोगतिं नरकगमनं, न, आलोचयति; पुनः तद्गुरुपरिणाहस्य तस्याः-तिलकमञ्जर्याः, ऊरुपरिणाहस्य - जानूपरितनभागविस्तारस्य, कदलीस्तम्भतुल्यतां वृत्ताकारतया कदलीकाण्डोपमां, विमृशति विचारयति, किन्तु देहनिस्सारतायाः शरीरासारतायाः, तदनित्यताया इति यावत्, तत्तुल्यतां कदलीस्तम्भासारतासादृश्यं न विमृशति; पुनः हृदयवासिभिः वक्षःस्थलवर्तिभिः स्तनादिभिः, पक्षे मनोवर्तिभिः, कलत्रादिभिः सङ्गः सम्बन्धः, पक्षे प्रीतिः, दुःखहेतुः भारेण दुःखहेतुः, पक्षे वियोगजन्यक्लेशहेतु:, इति इत्थम्, अलब्धविवरं निश्छिद्रं परस्परं मिलितमिति यावत्, तत्पयोधरद्वन्द्वं तस्याः- तिलकमञ्जर्याः, कुचद्वयम् अवधारयति निश्चिनोति, किन्तु कलत्रपुत्रादिवर्ग भार्यापुत्रादिगणं, तथात्वेन न निश्चिनोति; पुनः मध्यस्थां शरीरमध्यवर्तिनीं, तन्नाभिमुद्रां तस्याः -- तिलकमञ्जर्याः, नाभिमण्डलम् अभिनन्दयति प्रशंसति, किन्तु मध्यस्थां हृदयस्थां, भावनां कामिनीसङ्गवर्जनवासनां यद्वा रागद्वेषपरिहाररूपमाध्यस्थ्ययुक्तविचारणाम्, न अभिनन्दयति; पुनः तद्धरप्रवालं तस्याः - तिलकम अर्याः, ओष्ठ विद्रुमं, विद्रुमवदरुण मोष्टमित्यर्थः, मुखे मुखमध्ये, मधुरं मधुरत्वेन, ध्यायति आलोचयति, किन्तु भोगसौख्यं कामिनीविलाससुखं; मुखे आरम्भ एव, न तु परिणतावित्यर्थः, मधुरं प्रियं, यद्वा प्रान्ते विरसतया दुःखहेतुतया च मधुरमिव- विषमिव न ध्यायतिः पुनः तदक्षिविस्तारं तस्याः - तिलकमञ्जर्याः, नेत्रविस्तारं युगान्तविलुलितक्षीरसागरसमं युगान्ते - प्रलयकाले, विलुलितः - परितस्तरङ्गितः, यः क्षीरसागरः, तत्समं-तरङ्गायमाणधवलिमा कूलतया विस्तारेण च क्षीरसमुद्रसदृशम्, उत्प्रेक्षते सम्भावयतिः, किन्तु संसारं जगत्, , तत्समं - तादृशसागरवदल्पकालिकत्वेन दृष्टपर्यन्तत्वेनातिचञ्चलत्वेन, न उत्प्रेक्षते; पुनः तद्ब्रूलताललितं तस्याः - तिलकमञ्जर्याः, भ्रूलताविलसितं-लताकारनेत्रोपरितनरोमलेखाविलसितम् आरोपितानङ्गचापभङ्गुरम् आरोपितः - मौर्वी मधिरोपितः, आकृष्ट इति यावत् यः, अनङ्गचापः कामदेवधनुः, तद्वत् भङ्गुरम्-अस्थिरम्, अध्येति ध्यायति, किन्तु विधेः दैवस्य, विलसितं चेष्टितं, तादृशत्वेन वक्रत्वेनेत्यर्थः, न अध्येतिः अत्र सर्वत्र क्रियासु कर्तृत्वेनात्माऽन्वेति [ न ] | प्रकृष्टरूपलावण्यवत्यः उत्कृष्टाकृति सौन्दर्यक्त्यः, प्राप्तयौवनाः तारुण्यापन्नाः, अन्या अपि तिलकमञ्जरीव्यतिरिक्ता अपि, क्षितिकन्याः नृपकुमारिकाः, दृष्टाः दृष्टिगोचरीकृताः; अन्यासामपि तद्भिन्नानामपि, कन्यकानां विलासक्रमः विलासरीतिः, तत्त्ववेदिभिः यथार्थज्ञैः, निवेद्यमानः विज्ञाप्यमानः सन्, वर्ण्यमानः सन्निति यावत्, अनेकधा अनेकवारं श्रुतः श्रवणगोचरीकृतः; तु किन्तु, यथा येन प्रकारेण, अनया मनोगतया तिलकमञ्जर्या, चेतः मनः, अपहृतम् आकृष्टं, तथा तेन प्रकारेण, कयापि राजकुमारिकया, क्वापि कुत्रापि स्थाने, न अपहृतम् । इदानीम् अधुना, कथं केन प्रकारेण, आसितव्यम् उपवेष्टव्यम्; किं कार्यं, प्रतिपत्तव्यं कर्तव्याकर्तव्यतया निरूपयितव्यम्; अनुदिनं प्रतिदिनं, प्रवर्धमाना प्रसरन्ती, इयं वर्तमाना, तद्दर्शनोत्कण्ठा तिलकमञ्जरीदर्शनलालसा, केन विधिना प्रकारेण, विनोदनीया निवर्तनीया; इदम् अनुभूयमानम्, आत्मीयं स्वकीयं दुःखं, कस्य के प्रति, आवेदनीयं प्रकटनीयम्; कर्तव्यं कर्तुमुचितं कर्म, केन सार्धं सह, आलोचनीयं विवेचनीयं; तद्देशगमनोपायेषु तस्याः - तिलकमञ्जर्याः, देशः- स्थानं, तत्र गमनसाधनेषु तदालोचनेष्वित्यर्थः कस्य बुद्धिः प्रज्ञा, क्रमिष्यते प्रसरिष्यति तया तिलकमञ्जर्या, सह, समागमप्राप्तिः सङ्गमसौभाग्यलाभः कस्य साहायकेन साहाय्येन, सेत्स्यति सम्पत्स्यते [प]। नामेति वाक्यालङ्कारे, अपि यदि, दैवं विधिः, अनुगुणम् अनुकूलं स्यात् तर्हि सः
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तिलकमञ्जरी
मामिह स्थितम् , निर्वक्ष्यति वचनवृत्त्या स्वयं प्रतिपन्नमर्थम्, नेष्यति तदीक्षणगोचरप्रापणेन मत्प्रतिकृति कृतार्थताम् , कथयिष्यत्यतिशयेन मां गुणवन्तम् । सापि शशिमुखी तथेति प्रतिपत्स्यते तद्वचनम् , भविष्यति मदीयदर्शनाभिलाषिणी, प्रेषयिष्यति तमात्मानुरागप्रकटनाय मत्पार्श्वम्' इत्यनेकसंकल्पपर्याकुलचेतसः प्रबन्धवर्धमानारतेरनवरतमुक्तायतोष्णनिःश्वासस्य मुहुर्मुहुः पर्यङ्कपरिवर्तनैस्तरङ्गितोत्तरच्छदपटस्य प्रभातागमनपर्युत्सुकतया प्रदोषेऽपि नष्टनिद्रस्य निशीथेऽपि देवतार्चनाय परिचारकानुद्यमयतः शतयामेव कथमपि क्षपा विराममभजत [फ।
प्रभातायां च शर्वर्यामुत्थाय निर्वर्तितप्राहेतनावश्यकविधिः प्रतिपद्य सविशेषसंपादितशोभमभिनवं सर्वाङ्गीणमाकल्पमल्पपदातिबलपरिवृतस्तदेवोद्यानमगमत् । तत्र चातिबहलपादपच्छाये हंसपदपङ्किलाञ्छितस्वच्छसुकुमारसैकते संततापतत्कमलरेणुकषायशीतलमरुति मकरध्वजायतनदीर्घिकातीरपरिसरे निषण्णः
टिप्पनकम्-आकल्पः-वेषः । कषायः-सुरभिः [ब]।
शशिमुखी
नाभिलाषण, प्रेषयिष्या चेतः हृदयं यस
आगतपूर्वः, विद्याधरदारकः विद्याधरात्मजः एष्यति पुनरागमिष्यति परिचयं मया साकमालापजन्यसम्बन्धं, न विस्मरिष्यति स्मृतिपथात् प्रच्यावयिष्यति; पक्षपातं परिचयजन्यं मत्पक्षग्रहण, करिष्यति; इह अस्मिन् स्थाने, स्थितं, मां द्रक्ष्यति दृष्टिगोचरीकरिष्यतिः वचनवृत्त्या वाक्यप्रयोगेन, स्वयं खेन. प्रतिपन्नम स्वीकृतम. अर्थ विषयं. करिष्यति तदीक्षणगोचरप्रापणेन तस्याः-तिलकमञ्जर्याः, दृष्टिपथारोपणेन, मत्प्रतिकृति मदीयचित्रं, कृतार्थतां सफलतां, नेष्यति प्रापयिष्यति; माम् , अतिशयेन अत्यन्त, गुणवन्तं रूपलावण्यादिगुणशालिन, कथयिष्यति तां वक्ष्यति । शशिमुखी चन्द्रवदना, साऽपि तिलकमञ्जयपि, तद्वचनं तदीयं मद्गुणवर्णनवाक्यं, तथा सत्यम्, इति, प्रतिपत्स्यते विश्वसिष्यति; मदीयदर्शनाभिलाषिणी मद्दर्शनाकाङ्गिणी. भविष्यति सम्पत्स्यते; आत्मानुरागप्रकटनाय स्वप्रीतिप्रकाशनाय, मत्पार्श्व मन्निकट, तं गन्धर्वकं, प्रेषयिष्यति प्रस्थापयिष्यति। इत्यनेकसंकल्पपर्याकुलचेतसः इति-ईदृशैः, अनेकैः-बहुभिः, संकल्पैः-मनोव्यापारः, पर्याकुलं-व्याप्तं, चेतः-हृदयं यस्य तादृशस्य; पुनः प्रबन्धवर्धमानारतेः प्रबन्धेन-दृढ़बन्धन, प्रकृष्टाधिना वा, वर्धमाना-वृद्धिं गच्छन्ती, अरतिः-चित्तोद्वेगो यस्य तादृशस्य पुनः अनवरतमुक्तायतोष्णनिःश्वासस्य अनवरतं-निरन्तरं, मुक्तः-निर्गमितः, आयतः-दीर्घः, उष्णश्च, निश्वासः-नासिकापवनो येन तादृशस्यः पुनः मुहर्महः अनेकवारं, पर्यङ्कपरिवर्तनैः पर्यके-विशिष्टखट्टोपरि, पार्श्वपरिवर्तनैः, तरङ्गितोत्तरच्छदपटस्य तरङ्गितः-विलोलितः, उत्तरच्छदपट:पर्यकोपरितनास्तरणवस्त्रं यस्य तादृशस्य; पुनः प्रभातागमनपर्युत्सुकतया प्रातःकालोपस्थितिनितान्तोत्कण्ठया, प्रदोषेऽपि निशारम्भेऽपि, नष्टनिद्रस्य क्षीणनिद्राकस्य; निशीथेऽपि मध्यरात्रेऽपि, देवतार्चनाय देवाराधनाय, परिचारकान् सेवकान्, उद्यमयतः प्रवर्तयतः, हरिवाहनस्येति शेषः, शतयामेव शतं - यामा:-प्रहरा यस्यां तादृशीव, द्राधीयसीवेत्यर्थः, क्षपा त्रियामापि रात्रिः, कथमपि केनापि प्रकारेण, विरामम् अवसानम् , अभजत प्राप्तवती [फ]
__ च पुनः, शर्वर्या रात्रौ, प्रभातायां प्रभातावस्थामापन्नायाम् , उत्थाय शय्यामुत्सृज्य, निर्वर्तितप्रालेतनावश्यकविधिः निर्वर्तितः-सम्पादितः, प्राढेतनः-पूर्वाह्नसम्बन्धी, आवश्यकः-अवश्यकर्तव्यः, विधिः-क्रिया येन तादृशः सन् , सविशेषसम्पादितशोभं सविशेषम्-अत्यन्तं, सम्पादिता, शोभा-सौन्दर्य यस्य तादृशम् , अभिनवं नवीनं, सर्वाङ्गीणं सर्वाङ्गव्यापकम् , आकल्पं वेषरचनां अलङ्करणं वा, प्रतिपद्य स्वीकृत्य, अल्पपदातिबलपरिवृतः अल्पेन-कतिपयेन, पदातिनापादगामिना, बलेन-सैन्येन, परिवेष्टितः सन् , तदेव अधिष्ठितपूर्वमेव, उद्यानं क्रीडाकाननम् , अगमत् गतवान् । च पुनः, तत्र तस्मिन्नुद्याने, अतिबहलपादपच्छाये अतिबलम्-अत्यधिकं, पादपच्छायं-पादपानां-वृक्षाणां छाया यस्मिंस्तादृशे, पुनः हंसपदपतिलाञ्छितस्वच्छसुकुमारसैकते हंसपदपतिभिः-हंसपादाकारपरम्पराभिः, लाञ्छितं-चिह्नितं, खच्छम्-अतिशुभ्रम् , सुकुमार-कोमलं च, सैकतं-सिकतामयं स्थलं यस्मिंस्तादृशे, पुनः सन्ततापतत्कमलरेणुकषायशीतलमरुति सन्ततम्-अनवरतम् , आपतन्-सञ्चरन् , कमलरेणुभिः-कमलपरागैः, कषायः-सुरभिः, शीतलश्च, मरुत्-पवनो यस्मिंस्तादृशे, मकरध्वजायतनदीर्घिकापरिसरे कामदेवमन्दिरवापिकाप्रान्ते, निषण्णः उपविष्टः, सन्निधानवर्तिभिः निकटवर्तिभिः,
४ तिलक.
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टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता । संनिधानवर्तिभिश्चित्रविद्योपाध्यायैरन्यैश्च जनपरम्पराजनितकुतूहलैश्चित्रमवलोकयितुमागतैरालेख्यशास्त्रविद्भिनगरलोकैः सह विचारयन्नविचार्यचारुत्वतत्त्वं तस्याश्चित्रपटपुत्रिकाया रूपमपसारितापरविनोदः पूर्वाह्नमनयत [ब] । उपस्थिते च मध्याह्नसमये यथाविधि विसर्जितायातमान्यलोकः सखेदमुत्थाय चिरनिरोधमन्थरैश्चरणविन्यासैरितस्ततो बभ्राम। गत्वा च सुघटितसोपानसुगमावतारे सरसवानीरवीरुधि समासन्ननीरे पुरःसरैरागत्य किङ्करैः समन्ततो विस्तारितरुचिरपरिवस्त्रांशुके शुचिनि सारवे रोधसि, पुरोधसा संनिधापितप्राज्यपूजोपकरणः समाहितेनान्तःकरणेन कृत्वा देवतार्चनम् , उत्थाय गत्वा विविक्ततरमुद्देशं, समनन्तरमेव सत्वरमागतैर्माहानसिकपुरुषैरुपनीतमतिहृद्यवर्णगन्धरसमुत्कृष्टमूल्यसंपद्भिः सूपकारशास्त्रोपलब्धैर्यथावसरमुपकल्पितैरनल्पबहुभिर्नवैर्द्रव्यविशेषैरुपस्कृतानेकभक्ष्यलेह्यपेयप्रकारमास्वादयाञ्चकार परिवृतो राजपुत्रैरुपवने तत्रैवाहारम् [भ] । उपस्पृश्य चाघ्रातधूपधूमवर्तिरुद्वर्तितवदनकरतलः कुरङ्गमदकर्पूरामोदिना चन्दनद्रवेण
टिप्पनकम्-परिवस्त्रा-यवनिका [भ] । उपस्पृश्य आचम्य [ म] ।
चित्रविद्योपाध्यायैः चित्रशास्त्रशिक्षकैः, च पुनः, जनपरम्पराजनितकुतूहलैः जनपरम्परोद्भावितचित्रदिदृक्षोत्कषैः, चित्रम् , आलोकयितुं द्रष्टुम् , आगतैः उपस्थितैः, आलेख्यशास्त्रविद्भिः चित्रशास्त्राभिज्ञैः, अन्यैः चित्रविद्योपाध्यायव्यतिरिक्तैः, नगरलोकैः नगरवासिजनैः, सह अविचार्यचारुत्वतत्त्वम् अविचार्य-विस्पष्टत्वाद् विचारयितुं-विवेक्तुम् , अयोग्य, चारुत्वस्य-सौन्दयेस्य, तत्त्वं याथायेय स्मिंस्तादृशं, तस्याः, चित्रपटपत्रिकाया: चित्राधारपटगतपुत्तलिकायाः, रूपम आकृति, विचारयन् विशिष्य निरूपयन् , अपसारितापरविनोदः निवारितान्यविनोदः, पूर्वालम् अहः-दिनस्य पूर्वभागम् , अनयत् व्यतीतवान् [व] । च पुनः, मध्याह्नसमये दिनमध्यसमये, उपस्थिते प्राप्ते सति, यथाविधि विधानपुरस्सरं, सत्कारपूर्वकमित्यर्थः, विसर्जितायातमान्यलोकः विसर्जिताः-त्यक्ताः, आयाताः-आगताः, मान्याः-मानार्हाः, लोकाःजना येन तादृशः, सखेदं सक्लेशम् , उत्थाय आसनं त्यक्त्वा, चिरनिरोधमन्थरैः चिरनिरोधेन-दीघेकालं गमनावरोधेन मन्थरैः-मन्दभूतैः, चरणविन्यासैः पादविक्षेपैः, इतस्ततः अत्र तत्र, बभ्राम विचचार। च पुनः, सुघटितसोपान सुगमावतारे सुघटितेन-सम्यग्निवेशितेन, सोपानेन-अवतरणिकया, सुगमः-सुकरः, अवतारः-अधस्ताद्गमनं यस्मात् तादृशे, पुनः सरसवानीरवीरुधि सरसाः-अन्तःस्थरसाः, अशुष्का इत्यर्थः, वानीरवीरुधः-वञ्जललता यस्मिंस्तादृशे, पुनः समा- . सन्ननीरे समासन्न-सन्निकट, नीरं-जलं यस्य तादृशे, पुनः पुरस्सरैः अग्रेसरैः, किङ्करैः भृत्यैः, आगत्य, विस्तारितरुचिरपरिवस्त्रांशुके विस्तारित-प्रसारितं, रुचिरं-मनोज्ञं, परिवस्त्रांशुकं जवनिकारूपलक्षणसूक्ष्मवत्रं यस्मिंस्तादृशे, पुनः शुचिनि पवित्रे खच्छे वा, सारवे सरयूनदीसम्बन्धिनि, रोधसि तटे, गत्वा; पुरोधसा पुरोहितेन, सन्निधापितप्राज्यप्रजोपकरणः सन्निधापितानि-उपस्थापितानि, प्राज्यानि-प्रचुराणि, पूजोपकरणानि-पूजासामग्री यस्य तादृशः, समाहितेन एकाग्रीकृतेन, अन्तःकरणेन मनसा, देवतार्चनं देवाराधनं, कृत्वा; उत्थाय पूजाऽऽसनं त्यक्त्वा, विविक्ततरम् अतिनिर्जनम्, उद्देशं प्रदेश, गत्वा; समनन्तरमेव अव्यवहितोत्तरकालमेव, सत्वरं ससंभ्रमम् , आगतैः, माहानसिकपुरुषैः पाकालयीयपुरुषैः, उपनीतम् उपस्थापितम् , पुनः अतिहृद्यवर्णगन्धरससमुत्कृष्टमूल्यसम्पद्भिः अतिहृद्येन, वर्णेनरूपेण, गन्धेन-एलाकेशरादिसौरभण, रसेन-मधुराम्ललवणादिरसषट्केन, समुत्कृष्टा-अत्यन्तोत्कृष्टा, मूल्यसम्पत्-आदानाय देया धनसम्पत्तिर्येषां तादृशैः, सूपकारशास्त्रोपलब्धैः पाकशास्त्रावगतैः, यथावसरं यथाकालम, उपकल्पितैः स अनल्पबहुभिः अत्यन्ताधिकः, नवैः नवीनैः, द्रव्यविशेषैः संस्कारकद्रव्यैः, उपस्कृतानेकलेह्यपेयप्रकारम् उपस्कृताःसंस्कृताः, अनेके-बहवः, लेह्याः-आस्वादार्हाः, पेयाः-पानाश्चि, प्रकाराः-भेदा यस्मिंस्तादृशम् , आहारं भक्ष्य, तत्रैव तस्मिन्नेव, उपवने क्रीडावने, राजपुत्रैः नृपकुमारैः, परिवृतः परिवेष्टितः सन् , आस्वादयाञ्चकार भुक्तवान् [भ] । च पुनः, उपस्पृश्य जलस्पर्श कृत्वा, मुखहस्तं प्रक्षाल्येत्यर्थः, आघ्रातधपधमवर्तिः आघ्राता-घ्राणेन्द्रियगृहीता. धूपधूमा सम्बन्धिधूमशिखा येन तादृशः, पुनः कुरङ्गमदकर्पूरामोदिना कस्तूरिकाकर्पूरपरिमलविशिष्टेन, चन्दनद्रवेण चन्दनरसेन,
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तिलकमञ्जरी स्पर्शसंवेदनानन्दमन्दीकृतभुजपरिस्पन्दाभिरविरतस्यन्दमानहस्तारविन्दसंपादितान्तःप्रीतिभिः प्रसाधिकाभिरधिगात्रमतिचिरेण निर्वर्तितकुङ्कामोद्वर्तनक्रमः शिरसि घटितपाटलाकुसुमसारस्मेरमल्लिकामुकुलमुण्डमालो यथासन्नमुपनीतताम्बूलकुसुममालानुलेपनैः प्रणयिलोकैः सहारब्धविविधसंकथस्तस्थौ काञ्चिदपि वेलाम् । गते च विरलतां विलीनतापे तपनतेजसि तरलितस्तिलकमञ्जरीसंगमाभिलाषेण तत्काल समुपस्थितावधेर्गन्धर्वकस्यागमनमार्गमवलोकयितुमभ्यग्रवर्तिनः शिखाप्रचुम्बिताम्बरकोडमाक्रीडशैलस्य शिखरमारुरोह [म]।
___ तत्र चोर्ध्वस्थितः पुरस्तादवस्थितस्य प्रेयसोऽन्यतमभृत्यस्य प्रत्यंसमर्पिताङ्गभारो निवारितातपः त्र्यस्रीकृतातपत्रेण छत्रधारेण तत्काललब्धावसरैरवारितैः प्रतीहारलोकेन प्रविश्य पार्श्वतः स्थितैः प्रणयवाचालैरुद्यानपालैरावेद्यमानरामणीयकेषु लतामण्डपेषु तरुखण्डेषु सारणिस्रोतस्सु कृत्रिमनदीसेतुबन्धेषु केलिवापीकूलजलयात्रेषु चाभिनवकृतसंस्कारेष्वन्तरान्तरानिक्षिप्तचक्षुरीक्षमाणो दक्षिणाशां तावदास्त यावदस्तशिखर
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उद्वर्तितवदनकरतलः उद्वर्तितं-विलेपनेन सुगन्धीकृतं, वदन-मुखं करतलं च येन तादृशः, पुनः प्रसाधिकाभिः अङ्गालङ्कारिकाभिः स्त्रीभिः, अधिगात्रं शरीरे, अतिचिरेण अतिदीर्घकालेन, निर्वर्तितकुङ्कुमोद्वर्तनक्रमः निर्वर्तितः-सम्पादितः, कुङ्कुमेन-कुङ्कुमद्रवेण, उद्धर्तनक्रमः-विलेपनविधिर्यस्य तादृशः, कीदृशीभिः? स्पर्शसंवेदनानन्दमन्दीकृतभुजपरिस्पन्दाभिः स्पर्शसंवेदनानन्देन-दरीरस्पर्शानुभवजन्यानन्देन, मन्दीकृतः-शिथिलीकृतः, भुजपरिस्पन्दः-बाहुसञ्चारो याभिस्तादृशीभिः, पुनः अविरतस्यन्दमानहस्तारविन्दसंपादितान्तःप्रीतिभिः अविरतं-सन्ततं, स्यन्दमानेन-खेदमानेन, हस्तारविन्देन-करकमलेन, जनिता-उत्पादिता, अन्तःप्रीतिः-तत्स्यन्दनसूचितमदनोद्गमेनान्तःप्रसादो याभिस्तादृशीभिः, पुनः कीदृशः ? शिरसि मस्तके, घटितपाटलाकुसुमसारस्मेरमल्लिकामुकुलमुण्डमालः घटिता-ताभिनिवेशिता, पाटलाकुसुमैः पाटलासंज्ञकलतापुष्पैः, साराणा-शबलवर्णानां, स्मेरमल्लिकामुकुलानां-किचिद्विकसितमल्लीकुड्मलानां, मुण्डमाला-शिरोमाला यस्य तादृशः, पुनः यथाऽऽसन्नं यथानिकटम् , उपनीतताम्बूलकुसुममाल्यानुलेपनैः उपनीतानि-उपस्थापितानि, ताम्बूलानि-सोपकरणानि नागवल्लीदलानि, कुसुममालाः-पुष्पमालाः, अनुलेपनानि-चन्दनादिविलेपनानि यैस्तादृशैः, प्रणयिलोकैः सुहृजनैः सह, आरब्धविविधसंकथः प्रवर्तितनानाप्रकारकालापः, काश्चिदपि कतिपयामपि, वेलां कालं, तस्थौ स्थितवान्।च पुनः, विलीनतापे निवृत्ततापे, तपनतेजसि सूर्यप्रभायां, विरलताम् अल्पता, गते प्राप्ते सति, तिलकमञ्जरीसङ्गमाभिलाषण तत्सम्मेलनकुतूहलेन, तरलितः चपलितः, तत्कालं तत्क्षणम् , समुपस्थितावधेः प्राप्तागमनावधेः, गन्धर्वकस्य तत्संज्ञकस्य प्रकृतविद्याधरकुमारस्य, आगमनमार्गम् , अवलोकयितुं द्रष्टुम् , अभ्यग्रवर्तिनः अभिमुखम् अग्रं यस्य तदभ्यग्रं-समीपं, तत्र स्थितस्य, आक्रीडशैलस्य उद्यानगिरेः, शिखाग्रचुम्बिताम्बरकोडं शिखाग्रेण-चूडाण, चुम्बितं-स्पृष्टम् , अम्बरकोडं-गगनमध्यं येन तादृशं, शिखरम् उपरिभागम् , आरुरोह आरूढ़वान् [म] | च पुनः, तत्र तस्मिन् शिखरे, ऊर्ध्वस्थितः उपरिस्थितः सन् , पुरस्तात् अग्रे, अवस्थितस्य वर्तमानस्य, प्रेयसः अतिप्रियस्य, अन्यतमभृत्यस्य बहूनां मध्ये एकस्य किङ्करस्य, प्रत्यंसं प्रतिस्कन्धप्रदेशम् , अर्पिताङ्गभारः आरोपितस्वशरीरभारः, पुन: व्यस्त्रीकृतातपत्रेण व्यस्रीकृतं-त्रिकोणीकृतम् , आतपत्रं-छत्रं येन तादृशेन, छत्रधारेण छत्रग्राहिणा, निवारितातपः निवारितः-निवर्तितः, आतपः- सूर्यतेजो यस्मात् तादृशः, पुनः तत्काललब्धावसरैः तस्मिन् काले प्राप्तावसरैः, पुनः प्रतीहारलोकेन द्वारपालजनेन, अवारितैः अनवरुद्धैः, पुनः प्रविश्य तत्सविधे प्रवेशं कृत्वा, पार्श्वतः पार्श्व, स्थितैः, पुनः प्रणयवाचालैः प्रणयेन-प्रीत्या, वाचालैः-कुत्सिताधिकवक्तृभिः, उद्यानपालैः उद्यानरक्षाधिकृतपुरुषैः, आवेद्यमानरामणीयकेषु वर्ण्यमानचारुताकेषु, पुनः अभिनवकृतसंस्कारेषु अचिरसंस्कृतेषु, पुनः लतामण्डपेषु लतापिहितोदरगृहेषु, पुनः तरुखण्डेषु वृक्षपङ्क्तिषु, पुनः सारणिस्रोतस्सु क्षुद्नदीप्रवाहेषु, पुनः कृत्रिमनदीसेतुबन्धेषु क्रियया खननात्मिकया, निर्वृत्ताः कृत्रिमाः, तादृशीनां नदीनां, सेतुबन्धेषु-सेतुसङ्घटनेषु, च पुनः केलिवापीकूलजलयन्त्रेषु क्रीडार्थवापीतटवर्तिजलोद्धाटनयन्त्रेषु, अन्तरा अन्तरा मध्ये मध्ये, निक्षिप्तचक्षुः प्रेरितदृष्टिः, दक्षिणाशां दक्षिणदिशं, तस्या दिशो गन्धर्वकागमनमार्गमित्यर्थः, ईक्षमाणः अवलोकमानः, तावत् तावत्कालपर्यन्तम् , आस्त उपविष्टवान् , यावत् यावत्कालम् , अशिशिरगभस्तिः अशिशिराः-उष्णाः, गभस्तयः-किरणा यस्य स सूर्यः,
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टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता। मगादशिशिरगभस्तिः [य] । स्तोकावशेषे च दिवसकरधामनि श्यामायमानेषु दिग्भागेष्वनागमनेन गन्धर्वकस्य किञ्चिन्म्लानमुखकमलशोभो दिवस इव नभसः क्रमेण क्रीडाचलादवततार, जगाम च स्वावासम् । आसीनश्च शयने चिन्तयन् मुहूर्तमात्रेण चेतसा तस्य विलम्बकरणानि कृच्छ्राप्तनिद्रो निशामनयत् । अपरेधुरपि तेनैव क्रमेणोद्यानमगमत् , तेनैव विधिना तत्र सर्वाः क्रियाश्चकार, तथैव तस्यागमनमीक्षमाणो दिवसमनयत् [र]। अकृतागतौ च तत्र क्रमादतिक्रामत्सु दिवसेषु शिथिलीभूततिलकमञ्जरीसमागमाशाबन्धस्य प्रबन्धविस्तारितोदग्रसंतापसंपद् यथोत्तरप्रथितदिवसायामदुस्तरो निरन्तरप्रवर्तितोष्णबाष्पसंततिरपर इव निदाघसमयो जजम्भे जनितनिर्भरव्यथस्तस्य दवथुः । अविरतं सस्मार सस्मरेण चेतसा चित्रपटपुत्रिकानुसारपरिकल्पितस्य चक्रसेनतनयातनुलतालावण्यस्य । सततमन्वचिन्तयच्चारुतामनुदिनोपचीयमानस्य तस्याः
टिप्पनकम्-विस्तारितोदग्रतापसम्पत् तापः-संताप उष्णं च, उष्णबाप्पः-नेत्रजलमुष्णोष्मा च, दवथुःउपतापः [ ल]।
अस्तशिखरम् अस्ताचलशिखरम् , अगात् गतवान् , अस्तमगादित्यर्थः [य]। च पुनः, दिवसकरधामनि सूर्यकिरणे, स्तोकावशेषे किञ्चिदवशिष्टे सति, पुनः दिग्भागेषु दिशामशेषु, श्यामायमानेषु श्यामतामापाद्यमानेषु, गन्धर्वकस्य, अनागमनेन आगमनाभावेन, किञ्चिन्मलानमुखकमलशोभः किञ्चिन्म्लाना-ईषन्मलिना, मुखरूपकमल स्य शोभा-कान्तिर्यस्य तादृशः, हरिवाहन इति शेषः, नभसः आकाशात् , दिवस इव दिनमिव, क्रीडाचलात् क्रीडापर्वतात, क्रमेण शनैः, अवततार अधस्तादाजगाम । च पुनः, स्ववासं स्ववासभवन, जगाम गतवान् । च पुनः, शयने शय्यायाम् , आसीन: उपविशन , आर्तेन व्यथितेन, चेतसा हृदयेन, तस्य गन्धर्वकस्य, विलम्बकारणानि आगमनविलम्बहेतून् , मुहर्त क्षणं, चिन्तयन् आलोचयन् , कृच्छ्राप्तनिद्रः कृच्छ्रेण- आयासेन, आप्ता-लब्धा, निद्रा येन तादृशः सन् , निशां रात्रिम् , अनयत् व्यतीतवान् । अपरेधुरपि उत्तरदिनेऽपि, तेनैव अनुपदोक्तेनैव, क्रमेण विधिना, उद्यानं क्रीडाकाननम् , अगमत् गतवान् , तत्र तस्मिन्नुद्याने, तेनैव अनुपदवर्णितेनैव, विधिना क्रमेण, सर्वाः समस्ताः, क्रियाः कर्माणि, चकार कृतवान् । तथैव अनुपदोक्तप्रकारेणैव, तस्य गन्धर्वकस्य, आगमनम् आगमनमार्गम् , ईक्षमाणः पश्यन् , दिवसं दिनम् , अनयत् व्यतीतवान् [र]। तत्र तस्मिन् गन्धर्वके, अकृतागतौ अकृतागमने सति, क्रमात् पर्यायेण, दिवसेषु दिनेषु, अतिकामत्सु व्यतिगच्छत्सु, शिथिलीभूततिलकमञ्जरीसमागमाशाबन्धस्य शिथिलीभूतः-शैथिल्यमापन्नः, तिलकमञ्जरीसमागमस्य-तत्सङ्गमस्य, या आशा-सम्भावना, तद्रूपः, बन्धः-प्राणबन्धनं यस्य तादृशस्य, तस्य हरिवाहनस्य, जनितनिर्भरव्यथः उत्पादितातिदुःखः, दवथुः संतापः गात्रादिदाहो वा, अपरः अन्यः, निदाघसमयः ग्रीष्मकाल इव, जज़म्मे प्रादुर्बभूव, कीदृशः प्रबन्धविस्तारितोदग्रसन्तापसम्पत् प्रबन्धेन-सान्द्रभावेन प्रकृष्टाधिना वा, विस्तारिता-वर्धिता, उदग्राणाम्-उत्पन्नानां, सन्तापानां-मदनोद्गमजन्यान्तवराणां, पक्षे बाह्योष्मणां, सम्पत्-समृद्धिर्यन तादृशः, पुनः यथोत्तरप्रथितदिवसायामदुस्तरः यथोत्तरम्-उत्तरोत्तरं, प्रथितेन-विस्तृतेन, दिवसायामेन-दिनदैर्येण प्रातिभासिकेन, पक्षे प्रास्तविकेन, दुस्तरः-दुरतिक्रमः, पुनःनिरन्तरप्रवर्तितोष्णबाष्पसन्ततिः निरन्तरम् -अविरतं, प्रवर्तिता-प्रादुर्भाविता, उष्णबाष्पसन्ततिःउष्णाश्रुजलप्रवाहः, पक्षे उष्णतापपरम्परा येन तादृशः, पुनः सस्मरेण स्मरः-कामः, तत्सहितेन, तदाविष्टेनेत्यर्थः, चेतसा हृदयेन, चित्रपटपुत्रिकानुसारपरिकल्पितस्य चित्रपटचित्रितकन्यकाप्रतिकृत्यनुगुणमुत्प्रेक्षितस्य, चक्रसेनतनयातनुलतालावण्यस्य चक्रसेनाख्यनृपकुमारिकाशरीरलतासौन्दर्यस्य, अविरतं निरन्तरं, सस्मार स्मृतवान् । पुनः अनुदिनोपचीयमानस्य अनुदिन-प्रतिदिनम् , उपचीयमानस्य-वर्धमानस्य, तस्याः तिलकमञ्जर्याः, प्रथमयौवनस्य नवतारुण्यस्य, चारुतां मनोहरताम् , अन्वचिन्तयत् आलोचितवान् । पुनः अनवेदनोच्छेदनायेव कामदेववेदनोत्कर्तनार्थमिव, यौवनोपचय परिमण्डलस्तनं यौवनोपचयेन-यौवनावस्थावृद्धया, परिमण्डलो वर्तुलाकारौ, स्तनौ यस्य तादृशं, तद्रूपं तस्याः-तिलकमञ्जर्याः, रूपम्-आकारं, सर्वदा सर्वकालं, हृदयगतं हृदयस्थितं यथा स्यात् तथा, अधत्त धृतवान् । पुनः आविष्कृतानेकभाव
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तिलकमञ्जरी
२९ प्रथमयौवनस्य । यौवनोपचयपरिमण्डलस्तनमनङ्गवेदनोच्छेदनायेव सर्वदा हृदयगतमधत्त तद्रूपम् । आविप्कृतानेकभावविभ्रमाणि लिखितानीव केनापि निपुणचित्रकरेण दिग्भित्तिषु दिवानिशं ददर्श तस्याः प्रतिबिम्बानि [ल]।
दृष्ट्वा च तमकाण्डवैरिणा मन्मथेन धर्मर्तुना च युगपदुपताप्यमानमुत्पन्नानुकम्पो निर्वापयितुमिव चक्रे जगत्यामवतारमखिलविश्वोपकारी वारिदागमः । प्रवर्तितप्रबलधारापतयो भङ्गुमिव तस्य धारागृहस्पृहां क्षिप्रमेवान्तरिक्षमाच्छादयाञ्चक्रुः अब्जिनीपलाशप्रकरनीलाः पयोमुचः । सततयामिनीजागरणजडतारका प्रसादयितुमिव तदृष्टिमविरलोद्भिन्नमरकतश्यामशाद्वला बभूव भूतधात्री। प्रथमजलधरासारशिशिरास्तदङ्गतापमिव निर्वापयितुं निर्वातुमारभन्त संततामोदमकरन्दमांसलाः कदम्बमरुतः । मानसस्मरणसञ्जातरणरणकास्तदनुरागमाख्यातुमिव खेचरेन्द्रदुहितुरुत्तरां दिशमभिप्रतस्थिरे राजहंसाः [व] । तद्विरहदाह विच्छेदाक्षमेण पत्रखण्डाडम्बरेण विहितापत्रपाणीव वर्षासलिलपूरितासु विलाससरसीषु निममजुरम्भोजिनीवनानि । घनधाराभिवृष्टमूर्तयस्तदार्तिदर्शनदुःखिता इव दूरविनतैः पल्लवेक्षणैरम्बुकणिकाश्रुविसरमजस्रमसृजन्नुपवनद्रुमाः ।
विभ्रमाणि आविष्कृताः-प्रकटिताः, अनेके-बहवः, भावाः-अभिप्राया यस्तादृशाः, विभ्रमाः-अपाङ्गभङ्ग्यादयो विलासा येषु तादृशानि, पुनः दिभित्तिषु दिकुज्येषु, केनापि अविज्ञातनान्ना, निपुणचित्रकरण कुशलचित्रकारेण, लिखितानीव चित्रितानीवेत्युत्प्रेक्षा, तस्याः तिलकमञ्जर्याः, प्रतिबिम्बानि प्रतिकृतीः, दिवानिशं रात्रिन्दिवं, ददर्श दृष्टिगोचरीचकार [ल]। अकाण्डवैरिणा अनवसरशत्रुणा, मन्मथेन कामदेवेन, च पुनः, घर्मतुना ग्रीष्मर्तुना, तं हरिवाहनं, युगपत् एककालम् , उपताप्यमानं पीड्यमानं, दृष्ट्वा, उत्पन्नानुकम्पः उदितदयः, विश्वोपकारी सर्वोपकारी, वारिदागमः वर्षतुः, निर्वापयितुमिव तदुभयोपतापोपशमनार्थमिव, जगत्यां लोके, अवतारम् आगमनं, चक्रे कृतवान् । पुनः तस्य हरिवाहनस्य, धारागृहस्पृहां जलधारोत्स्यन्दनयन्त्राधिष्ठितगृहाकाङ्क्षा, भक्तमिव निवर्तयितुमिव, प्रवर्तितप्रबलधारापतयः प्रवर्तिताःप्रक्षिप्ताः, प्रबलाः-प्रकृष्टाः, धारापतयः-जलधाराश्रेणयो यैस्तादृशाः, अब्जिनीपलाशप्रकरनीलाः कमलिनीदलौघवन्नीलवर्णः, पयोमचः मेघाः, क्षिप्रमेव अविलम्बमेव, अन्तरिक्षं गगनमण्डलम्, आच्छादयाञ्चः आच्छादितवन्तः । पुनः सततयामिनीजागरणजडतारकां सततं-निरन्तरं, यामिन्यां-रात्रौ, जागरणेन-निद्रानिरोधेन, जडा-निष्परिस्पन्दा,तारका-कनीनिका यस्यां तादृशीं, तदृष्टिं तस्य-हरिवाहनस्य, दृष्टिं-चक्षुः, प्रसादयितुमिव प्रीणयितुमिव, भूतधात्री पृथ्वी, अविरलोद्भिन्नमरकतश्यामशाला सान्द्रोद्गतेन्द्रनीलमणिसदृशश्यामवर्णनवतृणसंकुला, बभूव सम्पेदे । पुनः प्रथमजलधराऽऽसारशिशिराः प्रथमजलधराऽऽसारैः-नवजलधरधारासम्पातैः, शिशिराः-शीतलाः, पुनः सन्तताऽऽमोदमकरन्दमांसला: सन्ततः-सर्वतो विस्तारितः, आमोदः-उत्कटसौरभ यैस्तादृशैः, मकरन्दैः-पुष्परसैः, मांसलाः स्थूलाः, सम्पृक्ता इत्यर्थः, कदम्बमरुतः कदम्बाश्लिष्टपवनाः, तदङ्गतापं तस्य-हरिवाहनस्य, शरीरतापं, निर्वापयितुमिव प्रशमयितुमिव, निर्वातुं सच्चरितुम् , आरभन्त प्रवृत्ताः। पुनः मानसस्मरणसंजातरणरणकाः मानसस्मरणेन-स्वाभिमतवारिदागमनेन वाश्रयणीयमानसाख्यसरोवरस्मृत्या, संजातम्-उद्भूतं, रणरणकं-तद्गमनौत्सुक्यं येषां तादृशाः, राजहंसाः रक्तचञ्चुचरणा हंसावशेषाः,खेचरेन्द्रदुहितुः विद्याधरेन्द्रकुमारिकामपि, तदनुरागं तस्य-हरिवाहनस्य, अनुराग-प्रीतिम्, आख्यातुमिव कथयितुमिव, उत्तरां दिशं मानससरोवरगमनमार्गमित्यर्थः, अभिप्रतस्थिरे तदभिमुख प्रयाताः [व]। पुनः तद्विरहदाहविच्छेदाक्षमण तस्य-हरिवाहनस्य, यः, विरहदाहः-तिलकमजरीविरहज्वरः, तद्विच्छेदाक्षमेण-तनिवर्तनासमर्थन, पत्रखण्डाडम्बरेण पत्रपुजरूपडम्बरेण, विहितापत्रपाणि विहिता-उत्पादिता, अपत्रपा-लजा येषां तादृशानि, इवेत्युत्प्रेक्षा, अम्भोजिनीवनानि कमलिनीकाननानि, वर्षासलिलपूरितासु वर्षासम्बन्धिजलपूर्णासु, विलाससरसीषु केलिकासारेषु, निममज्जुः निमग्नाः । पुनः धनधाराभिवृष्टमूर्तयः घनस्य-मेघस्य, यद्वा घनाभिः सान्द्राभिः, धाराभिः-जलसन्ततिभिः, अभिवृष्टा-अभिषिक्ता,
शाः. उपवनदमाः केलिकाननवृक्षाः. तदार्तिदर्शनदाखिता इव तस्य-हरिवाहनस्य, या आर्तिःकामव्यथा, तद्दर्शनेन, दुःखिता इव-व्यथिता इव, दूरविनतैः दूरपर्यन्तमवनतैः, पल्लवेक्षणैः नवदललोचनैः, अम्बुकणिकाश्रु
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टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता । प्रकृतिकर्कशास्तदङ्गसंस्पर्शयोग्यानिव कर्तुमात्मनः करानन्तःसलिलेषु जलमुचां कुक्षिषु निचिक्षेप चण्डभानुः । तस्मिन्नसकृदुत्सृष्टबाणविसरं निवारयितुमिव मकरकेतुमाबद्धकुसुमाञ्जलिपुटान्यजायन्त केतकीकाननानि । विनोदयितुमिव तस्यारतिमनारतोदीरितमधुरकेकागीतिभिः समारम्भि ताण्डवमुद्दण्डबर्हमण्डलैर्गृह शिखण्डिभिः [श]। एवं च विकसिताकुण्ठकलकण्ठचातककलकले कठोरदर्दुरारटितदारितश्रवसि विश्रुतापारवाहिनीपूरघूत्कारे घोरघनगर्जितारावजर्जरितरोदसि द्योतमानविद्युद्दामदारुणे विततवारिधाराधोरणिध्वस्तधीरकामुकमनसि सान्द्रकुटजद्रुमामोदमूछितागच्छदुच्छन्नकल्पाध्वगकलापे समन्ताद्विजृम्भितेऽम्बुधरदुर्दिने विधुरीभूतमनसः कोशलाधिपसुतस्य [प], । पङ्कपटलाविलेषु साकेतपुरपरिसरेष्वरम्यतलकुट्टिमेषु लीलालतामण्डपेषु तृणनिरुद्धाध्वसंचारेषु कृत्रिमाचलशिखरेषु पूरानीतकण्टककिलिञ्जककश्मलेषु नगरनिम्नगाकूलेषु खण्डित
टिप्पनकम्-द्यावाभूमी-रोदः, दुर्दिनं-मेघतिमिरम् [प] ।
विसरं जलकणात्मकाथुराशिम् , अजस्रं निरन्तरम् , असृजन् अमुञ्चन् । पुनः चण्डभानुः चण्डा:-तीवाः, भानवः- किरणा यस्य सः, सूर्य इत्यर्थः, प्रकृतिकर्कशान् स्वभावतः कठोरान्, आत्मनः स्वस्य, करान् किरणान् , तदङ्गस्पर्शयोग्यान् तस्य-हरिवाहनस्य, अङ्गाश्लेषार्हान , कर्तुमिव सम्पादयितुमिव, अन्तःसलिलेषु अन्तःस्थितजलेषु, पयोमुचां मेघानां, कुक्षिषु उदरेषु, निचिक्षेप निवेशितवान्। पुनः केतकीकाननानि केतक्याख्यकुसुमलतिकावनानि, तस्मिन् हरिवाहने उत्सृष्टबाणविसरं मुक्तबाणगणं, मकरकेतुं कामदेवं, निवारयितुमिव बाणमोचनान्निवर्तयितुमिव, आबद्धकुसुमाअलिपुटानि रचितपुष्पपूर्णाञ्जलिरूपवृन्तात्मककरपुटानि, अजायन्त समपद्यन्त । पुनः उद्दण्डवहमण्डलैः उद्दण्डम्-उन्नतं, बर्हमण्डलं-शिखामण्डलं येषां तादृशैः, शिखण्डिभिः मयूरैः, तस्य हरिवाहनस्य, अरतिं कामवेदनां, विनोदयितुमिव अपनेतुमिव, अनारतोदीरितमधुरकेकागीतिभिः अनारत-सततम् , उदीरिता-उच्चारिता, मेघागमप्रमोदप्रवर्तितेति यावत् , मधुरा-श्रुतिप्रिया, केका-मयूरवाणीरूपा, गीतिः-गानं यैस्तादृशैः सद्भिः, ताण्डवं नृत्यं, समारम्भि प्रारम्भि [श] । एवं च इत्थं च, विकसिताकुण्ठकलकण्ठचातककलकले विकसिताः-आविर्भूताः, आकुण्ठाः-अप्रतिहताः, कलकण्ठानांकोकिलादीनां, चातकानां-स्वनामप्रसिद्धपक्षिविशेषाणां च, कलकलाः- कोलाहला यस्मिंस्तादृशे, पुनः कठोरदर्दुरारटितदारित श्रवसि कठोरैः-श्रुतिकटुभिः, दर्दुराणां-मण्डूकानाम् , आरटितैः-दुनिनादैः, दारित-पाटितं, श्रवः-कर्णो यस्मिंस्तादृशे, विश्रुतापारवाहिनीपूरघूत्कारे विश्रुताः-विशेषेण श्रुताः, यद्वा प्रसिद्धाः, अपाराणां-पाररहितानां, वाहिनीनां-नदीनां, पूरघूत्काराःजलप्रवाहध्वनिभेदा यस्मिंस्तादृशे, पुनः घोरघनगर्जितारावजर्जरितरोदसि घोरैः-भयानकैः, घनगर्जितारावैः-मेघगर्जनात्मकतीव्रनादैः, जर्जरिते-विदारिते, रोदसी-द्यावा-पृथिव्यौ यस्मिंस्तादृशे, पुनः द्योतमानविद्युद्दामदारुणे द्योतमानया-उद्भासमानया, विद्युद्दाम्ना-तडिन्मालया, दारुणे-भीषणे, पुनः विततवारिधाराधोरणिध्वस्तधीरकामुकमनसि वितताभिःविस्तृताभिः, वारिधाराधोरणीभिः-जलधारावलीभिः, ध्वस्तं-नष्टधैर्य, धीरकामुकानां-धैर्यशालिकामिनां, मनो यस्मिंस्तादृशे, सान्द्रकुटजद्रुमामोदमूछितागच्छदुच्छन्नकल्पाध्वगकलापेसान्द्रः-निबिडैः, कुटजद्रुमाणां-गिरिमहिकावृक्षाणाम् ,आमोदैःगन्धैः, मृच्छितानां मूर्छा प्राप्तानाम् , आगच्छताम्-आगमनं कुर्वताम् , उच्छन्नकल्पानां-नष्टप्रायाणाम् , अश्वगानां-पथिकानां, कलापः-गणो यस्मिंस्तादृशे, अम्बुधरदुर्दिने मेघाच्छन्नदिने, समन्तात् सर्वतः, विजृम्भिते प्रादुर्भूते सति, विधुरीभूतमनसः विप्रलम्भवेदनाव्याकुलीभूतहृदयस्य, कोशलाधिपसुतस्य कोशलस्य-तदाख्यदेशस्य, अधिपः-नृपः, मेघवाहनः, तत्सुतस्यतत्कुमारस्य, हरिवाहनस्य, वर्षासमारम्भः वर्षागमः, ग्रीष्मकालात् उष्णसमयात् , अधिकदुस्सहः अतिकृच्छ्रेण सोढव्यः, बभूव अभूत् [ष] । कीदृशस्य ? पङ्कपटलाविलेषु कर्दमकलापकलुषितेषु, साकेतपुरपरिसरेषु अयोध्यानगरप्रान्तेषु; पुनः अरम्यतलकुट्टिमेषु अरम्यम्-अमनोज्ञं, तल-स्वरूपं यस्य तादृशं, कुट्टिमं-बद्धभूमिर्येषु तादृशेषु, लीलालतामण्डपेषु केलिकुजेषुः पुनः तृणनिरुद्धाध्वसञ्चारेषु तृणैः-तृणराशिभिः, निरुद्धः-निवारितः, अध्वसञ्चारः-मार्गसञ्चारो येषु तादृशेषु, कृत्रिमाचलशिखरेषु कृत्रिमपर्वतशृङ्गेषु; पुनः पूरानीतकण्टककिलिञ्जककश्मलेषु पूरैः-प्रवाहैः।
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तिलकमञ्जरी यदृच्छाविहारकौतुकस्य, कालवशाच्च विश्रान्तेषु यत्रधारागृहप्रवेशेषु मुद्रितेष्वचिरेण चन्दनचर्चाविधिषु अक्रियमाणेषु कमलकुमुदकुवलयशयनेष्वधार्यमाणेषु हारकेयूरमेखलादिषु मृणालाभरणेष्वनारोप्यमाणासु हृदि जलार्द्रास्वसंचार्यमाणेषु ससलिलतालवृन्तकदलीपत्रवातेष्वदीयमानेषु करचरणयोरिन्दुमणिदर्पणेष्वनुद्घाट्यमानेषु भवनवलभीगवाक्षेषु द्विगुणदीप्यमानविरहदाहज्वरोष्मणः [स], स्वभावधीरत्वादनवधीरितयथारब्धकार्यस्य, लज्जया निपुणनिगूहितेङ्गिताकारस्य, द्वेष्यमपि वेणुवीणाविनोदमादरेण विदधतः, प्रस्तुतामपि विद्याधरविलासवार्तामनावर्तयतः, प्रेष्ठमपि नाम गन्धर्वकस्यागृह्णतो, रहस्यपि तदर्पितं चित्रपटमप्रेक्षमाणस्य, रूक्षामपि कुबेरदिशि दृष्टिमक्षिपतः, समरकेतोरपि निजावस्थामप्रथयतः, श्रमेऽप्यायतोष्णान् पुनः पुनः श्वासपवनानमुञ्चतः, परमचिन्तायासजन्मना प्रचीयमानेनानुदिनमप्रतिविधेयेन देहक्रशिम्ना कदर्यमानस्य ग्रीष्मकालादधिकदुःसहो बभूव वर्षासमारम्भः [ह] ।
टिप्पनकम् तदर्पितं गन्धर्वकार्पितम् [स]।
आनीतैः-उपस्थापितैः, कण्टकैः, किलिञ्जकैः-हस्वैर्वंशविकारैः, कश्मलेषु-दूषितेषु, नगरनिम्नगाकूलेषु नगरासन्ननदीतीरेषु; खण्डितयदृच्छाविहारकौतुकस्य निवृत्तयथेच्छभ्रमणौत्सुक्यस्य । च पुनः, कालवशात् प्रकृतकालागमनकारणात्, यन्त्रधारागृहप्रवेशेषु यन्त्रनिस्सारिजलधारालयप्रवेशेषु, विश्रान्तेषु प्रयोजनाभावानिवृत्तेषु पुनः चन्दनचर्चाविधिषु चन्दनलेपनकर्मसु, अचिरेण शीघ्रं, मुद्रितेषु निरुद्धेषुः पुनः कमल-कुमुद-कुवलयशयनेषु कमलानि, कुमुदानि-चन्द्रविकस्वरकमलविशेषाः, कुवलयानि-नीलकमलानि, तदधिकरणकेषु, शयनेषु-शयन क्रियासु, अक्रियमाणेषु असम्पाद्यमानेषुः पुनः हारकेयरमेखलादिषु हारः-कण्ठालङ्कारः, केयूरः-बाहुभूषणम् , मेखला-कटिवेष्टनं, तत्प्रभृतिषु, मृणालाभरणेषु कमलकाण्डमयालङ्करणेषु, अधार्यमाणेषु व्यर्थधिया तत्तदङ्गेषु अनिवेश्यमानेषुः पुनः जलार्दासु जलाप्लुतवस्त्रेषु, हृदि वक्षसि, अनारोग्यमाणासु असंस्थाप्यमानासुः पुनः ससलिलतालवृन्तकदलीपत्रवातेषु ससलिलानां-जलाप्लुताना, तालवृन्तानां-तालव्यजनानां, कदलीपत्राणां च, वातेषु-पवनेषु, असञ्चार्यमाणेषु अवाह्यमानेषु; पुनः इन्दुमणिदर्पणेषु चन्द्रकान्तमणिरूपदर्पणेषु, कर-चरणयोः हस्तपादयोः, अदीयमानेषु अस्थाप्यमानेषुः पुनः भवनवलभीगवाक्षेषु प्रासादोर्ध्वगृहवातायनेषु, अनुद्धाट्यमानेषु अमुच्यमानावरणेषु, द्विगुणदीप्यमानविरहदाहज्वरोष्मणः द्विगुणः, दीप्यमानेनज्वलता, विरहदाहज्वरेण-विरहाग्निकर्तृकदाहरूपज्वरेण, ऊष्मा-तापो यस्य, यद्वा द्विगुणं यथा स्यात् तथा, दीप्यमानो विरहदाहरूपज्वरतापो यस्मिन् तादृशस्य [स]। पुनः स्वभावधीरत्वात् स्वाभाविकधैर्यशालित्वात्, अनवधीरितयथारब्ध. कार्यस्य अनवधीरितानि-अनुपेक्षितानि, यथारब्धकार्याणि-यथाप्रवर्तितकर्माणि येन तादृशस्य । पुनः लज्जया, निपुणनिगृहितेगिताकारस्य निपुणं-सम्यक् , निगूहितं-संवृत्तम्, इङ्गितं-खाभिप्रायानुसारिचेष्टा यस्य तादृशः, आकारः-आकृतिर्यस्य तादृशस्य; द्वेष्यमपि अप्रियमपि, वेणुवीणाविनोदं वंशी-वीणाख्यवाद्यविशेषवादनानन्दम् , आदरेण प्रीत्या, विदधतः कुर्वतः पुनः प्रस्तुतामपि प्रवर्तितामपि, विद्याधरविलासवार्ता तद्विलासकथाम् , अनावर्तयतः अपुनरुदीरयतः; पुनः प्रेष्ठमपि अतिप्रियमपि, गन्धर्वकस्य तदाख्यस्य प्रकृतस्य विद्याधरकुमारस्य, नाम संज्ञाम् , अगृह्णतः अनुच्चारयतः; पुनः तदर्पितं तेन-गन्धर्वकेन, उपहृतं, चित्रपटं चित्राधिष्ठितवस्त्र, रहस्यपि एकान्तेऽपि, अप्रेक्षमाणस्य अपश्यतः; पुनः कुबेरदिशि उत्तरदिशि, रुक्षामपि प्रीतिशून्यामपि, दृष्टिम. अक्षिपतः अप्रेरयतः: पुनः समरकेतोरपि तदाख्यं स्वपरमपि प्रत्यपि, निजावस्थां स्वकीयदुरावस्थाम् , अप्रथयतः अप्रकटयतः, पुनः श्रमेऽपि श्रमे सत्यपि, आयतोष्णान् आयतान्दीर्घान् , उष्णांश्च, श्वासपवनान् नासामारुतान् , पुनः पुनः वारं वारम् , अमुञ्चतः अनिस्सारयतः; परमचिन्तायासजन्मना अत्यन्तचिन्ताप्रयत्नजन्येन, अनुदिनं प्रतिदिनं, प्रचीयमानेन प्रवर्धमानेन, अप्रतिविधेयेन अप्रतिकार्येण, देहकांशम्ना शरीरकाश्येन, कदथ्यमानस्य अभिभूयमानस्य [ह] ।
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टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता। अथ प्रोषिते जलदसमये तद्वियोगादनुदिवसमाविर्भवत्प्रबलातपायामभिनवपतिप्रवासदुःखितस्य विरहिणीजनस्य सदृशावस्थमात्मानमिव दर्शयितुमागतायां शरदि हरिवाहनः सर्वथा गन्धर्वकागमननिष्प्रत्याशस्तिलकमञ्जरीसंततस्मरणजन्मना विक्लवीकृतो गाढमतिदारुणावेगेनोद्वेगेन कथञ्चनाप्यशक्नुवन् गृहेऽवस्थातुम् , एकदा खमण्डलावलोकनविषयमात्मनः कुतूहलमुद्दिश्य प्रधानमत्रिमुखेन पितरं व्यजिज्ञपत् । अनुज्ञातगमनश्च तेन प्रशस्तेऽहनि समस्तनिजसैन्यपरिवृतो विविधयानवाहनाधिरूढेरुज्ज्वलविदग्धवेषधारिभिः समरकेतुपुरःसरैः सुहृद्भिरनुगम्यमानस्तत्कालशून्येषु नागरिकाजनमनस्सु रक्षणमिव निवेश्य निश्चलं रणरणकमतिभूयसा विभवविच्छर्देन साकेतनगरान्निरगच्छत् , अवहच्च वर्त्मनि प्रतिदिनमविच्छिन्नैः प्रयाणैः [१] । प्रयान्तं च तं यदृच्छया तेषु तेषु जनपदेष्वासन्नयायी तत्रत्यराजलोकस्तत्कालोचितैरालापैरकृतनिर्वेदो विनोदयामास, तथाहि-एष निःशङ्कविचरदरण्यगजयूथव्याप्तकन्दरो दूरदृश्यमानोदयशिखरश्रेणिना
टिप्पनकम्-विच्छर्दः-विस्तारः [क्ष] ।
अथ अनन्तरं, जलदसमये मेघकाले, तद्रूपनायक इति यावत् , प्रोषिते प्रवासमापन्ने, समाप्ते सतीत्यर्थः, तद्वियोगात् तद्विरहात् , अनुदिवसं प्रतिदिनम्, आविर्भवत्प्रबलातपायाम् आविर्भवन्-प्रकटीभवन् , प्रबलः-तीव्रः, आतपः-सूर्यप्रभा यस्यां तादृश्याम् , शरदि शरदृतौ, अतः अभिनवपतिप्रवासदुःखितस्य अचिरोत्पन्नभर्तृपरदेशवासव्यथितस्य, विरहिणीजनस्य वियोगिनीजनस्य, सदृशावस्थं तुल्यदुरवस्थम् , आत्मानं खं, दर्शयितुमिव दृष्टिगोचरतामापादयितु मिव, आगतायां उपस्थितायां, हरिवाहनः, सर्वथा सर्वप्रकारैः, गन्धर्वकागमननिष्प्रत्याशः गन्धर्वकागमनप्रत्याशाशून्यः, तिलकमञ्जरीसन्ततस्मरणजन्मना तन्निरन्तरचिन्तनजन्येन, अतिदारुणावेगेन अतिदारुणःअतिभीषणः, सुदुस्सह इत्यर्थः, आवेगः-तीव्रता यस्य तादृशेन, उद्वेगेन उच्चाटनेन, विक्लवीकृतः-विह्वलीकृतः, गृहे, कथञ्चनापि कथञ्चिदपि, अवस्थातुं वर्तितम् , अशक्तवन् अक्षममाणः, एकदा एकस्मिन् समये, स्वमण्डलावलोकनविषयम् खराष्ट्रनिरीक्षणविषयकम् , आत्मनः खस्य, कुतूहलम् अभिलाषम् , उद्दिश्य अधिकृत्य, प्रधानमन्त्रिमुखेन प्रधानमन्त्रिद्वारा, पितरं मेघवाहनं, व्यजिज्ञपत् विज्ञापितवान् । तेन पित्रा, अनुज्ञातगमनः अनुमतप्रयाणः सन् , प्रशस्ते शुभावहे, अहनि दिने, समस्तनिजसैन्यपरिवृतः अशेषखसैनिकपरिवेष्टितः सन् , विविधयानवाहनाधिरूढ़ः विविधानिनानाप्रकारकाणि, यानानि-रथान्, वाहनानि-हस्त्यश्वादीनि, अधिरूढैः-आरूढः, पुनः उज्वलविदग्धवेषधारिभिः विमलयोग्यवेषशालिभिः, समरकेतुपुरस्सरैः तत्प्रमुखैः, सुहृद्भिः मित्रैः, अनुगम्यमानः अनुस्रियमाणः सन् , तत्कालशून्येषु तत्कालं स्वविरहितेषु, नागरिकाजनमनस्सु नगरनिवासिनीजनहृदयेषु, रक्षण मिव रक्षारूपमिव, निश्चलं स्थिरं, रणरणकं चिन्तां, निवेश्य स्थापित्वा, आतिभूयसा अत्यधिकेन, विभवविच्छदेन धनविस्तारेण, साकेतनगरात अयोध्यानगरात्, निरगच्छत् निर्गतः । च पुनः, प्रतिदिनं प्रत्येक दिनम् , अविच्छिन्नैः विच्छेदरहितः, अविरामैरिति यावत् , प्रयाणैः यात्राभिः, अवहत् व्यतीतवान् [क्ष] । यदृच्छया यथेच्छं, तेषु तेषु मार्गमध्यापतितेषु, जनपदेषु देशेषु, प्रयान्तं गच्छन्तं, तं हरिवाहनम् , आसन्नयायी पार्श्वगामी, तत्रत्यराजलोकः तत्तद्देशस्थनृपजनः, तत्कालोचितालापैः प्रयाणकालयोग्याभाषणैः, अकृतनिर्वेदः अनुत्पादितावज्ञः, विनोदयामास प्रमोदितवान् । विनोदप्रकारमेव दर्शयति-तथाहीति, एषः अयं, मन्दरकाख्यः मन्दरकनामा, दुर्गगिरिः दुःखेन गम्यः पर्वतः, अस्तीति शेषः, कीदृशः ? निःशङ्कविचरदरण्यगजयूथव्याप्तकन्दरः निःशङ्क-निर्भयं यथा स्यात् तथा, विचरता-परिभ्रमता, अरण्यगजयूथेन-वनहस्तिगणेन, व्याप्ता-पूर्णा, कन्दरा-गुहा यस्य तादृशः,पुनः दूरदृश्यमानोदग्रशिखरश्रेणिना दूरात् , दृश्यमाना, उदग्राणाम्उन्नताना, शिखराणाम्-ऊर्श्वभागानां, श्रेणिः-पतिर्यस्य तादृशेन, स्थवीयसा अतिस्थूलेन, प्राकारवलयेन प्राकारमण्डलेन,
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तिलकमञ्जरी
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परिगतोपरिस्थनगरः स्थवीयसा प्राकारवलयेन बन्दीकृतानामरिनरेन्द्राणामेकमन्दिरं मन्दरकाख्यो दुर्गगिरिः, असावनेकनिकटग्रामपरिसरविसारिसारणिजला शरावती नाम किमपि सेव्यकूला सरित्, एतदुन्मदचक्रवाकवक्राङ्गकुररकारण्डवाकुलमुद्दण्डकमलिनीखण्डमण्डिततीरमंशावतार इव क्षीरजलधेः पुरा दिग्विजयागतेन देवेन खानितं सरः, एष दशसीरसहस्रसंमितसीमा सूर्यग्रहणपर्वणि पूर्वमपवर्जितो मदिरावतीदेव्या सर्वमण्डलग्रामाणामग्रिमो देवाग्रहारः, इदमतिस्निग्धसान्द्रसकलद्रुमगहनमुन्मुखैर्मुनिभिरनुदिनमुदीक्ष्यमाणमार्गापतदतिथिवर्गमनादरप्राप्यसुन्दरस्वादुफलमूलकन्दं मत्रिणा सुरानन्देन निर्मापितं धर्मारण्यम् [ज्ञ], इह करालकरिकुम्भास्थिकूटस्थपुटिततलायामचलपरिसरप्रान्तसीमनि समारब्धसमरकर्मणा प्रापितः प्रेतनगरमुत्तरदिगन्तदण्डनायकेन नीतिवर्मणा हूणपतिः, इमामविच्छिन्नकुङ्कुमकच्छलाञ्छिततीरदेशां तरङ्गिणीमुत्तीर्य
टिप्पनकम्-अपवर्जितः दत्तः [३] ।
परिगतोपरिस्थनगरः परिगतानि, व्याप्तानि, उपरिस्थानि-ऊर्चलोकसम्बन्धीनि नगराणि यैरतादृशः, पुनः बन्दीकृतानां निगृहीतानाम् , अरिनरेन्द्राणां शत्रुभूतनरेन्द्राणाम् , एकमन्दिरं प्रधानकारागारम् । पुनः अनेकनिकटग्रामपरिसरविसारिसारणिजला अनेकेषां-बहूनां, निकटग्रामाणां-प्रत्यासन्नग्रामाणां, परिसरेषु-प्रान्तेषु, विसारिण्यः-निःष्यन्दिन्यः, सारणयः-कुल्या येषां तादृशानि जलानि यस्यां तादृशी, असौ किञ्चिदूरस्था, शरावती नाम तन्नानी, सरित् पूर्वपश्चिमदेशविभाजिका नदी, अस्तीति शेषः । पुनः उन्मदचक्रवाक-वक्राङ्ग-कुरर-कारण्डवाकुलम् उन्मदैः-मदान्वितैः, चक्रवाकैःनिशि प्रियाविश्लिष्टपक्षिभेदैः, वक्राङ्गैः-कुटिलाङ्गः, बकैरिति यावत्, कुररैः-उत्क्रोशजातीयपक्षिभिः, कारण्डवैः-हंसविशेषः, आकुलं-संकीर्णम् , पुनः उहण्डकमलिनीखण्डमण्डिततीरम् उद्दण्डैः-उन्नतैः, कमलिनीखण्डै:-कमलिनीकाननैः, मण्डितम्अलङ्कतं, तीरं यस्य तादृशम् , पुनः क्षीरजलधेः क्षीरसमुद्रस्य, अंशावतार इव अंशात्मना अवतीर्ण इवेत्युत्प्रेक्षा, पुरा पूर्व, दिग्विजयागतेन दिग्विजयोद्देशेनागतेन, देवेन राज्ञा, मेघवाहनेनेत्यर्थः, खानितं खाननयोद्गमितम् , एतत् प्रत्यक्षं, सरः कासारः, अस्तीति शेषः । पुनः दशसीरसहस्रसम्मितसीमा दशसीरसहस्रैः-दशसहस्रसंख्यकहलदण्डैः, सम्मिता-परिच्छिन्ना, सीमा यस्य तादृशः, सर्वमण्डलग्रामाणां सम्पूर्णराष्ट्रग्रामाणाम् , अग्रिमः अग्रेसरः, श्रेष्ठ इति यावत् , पूर्व, सूर्यग्रहणपर्वणि सूर्यग्रहणोत्सवे, मदिरावतीदेव्या तदाख्यपट्टराज्या, अपवर्जितः दानकर्मीकृतः, एषः अयं, देवाग्रहारः देवसेवार्थ दत्तः क्षेत्रादिप्रदेशः, अस्तीति शेषः, पुनः मन्त्रिणा मेघवाहननृपसचिवेन, सुरानन्देन तदाख्यधार्मिकपुरुषेण, निर्मापितम् , इदं प्रत्यक्षं, धर्मारण्यं तपोवनम् , अस्तीति शेषः, कीदृशम् ? अतिस्निग्धसान्द्रसकलद्रुमगहनम् अतिस्निग्धैः-अत्यन्तमनोहरैः, सान्दैः-निबिडैः, सकलै:-अशेषैः, द्रुमैः-वृक्षैः, गहनं-व्याप्तम् , पुनः उन्मुखैः ऊर्ध्वमुखैः, उन्नमितनेत्रैरिति यावत्, मुनिभिः तपखिभिः, अनुदिनं प्रतिदिनम् , उदीक्ष्यमाणमार्गापतदतिथिवर्गम् उदीक्ष्यमाणः-ऊर्ध्वमवलोक्यमानः, मार्गापततां-मार्गागच्छताम् , अतिथीना, वर्ग:-समूहो यस्मिंस्तादृशम् , पुनः अनादरप्राप्यसुन्दरस्वादुफलमूलकन्दम् अनादरप्राप्याणि-अनायासलभ्यानि, सुन्दराणि-दृष्टिप्रियाणि, स्वादूनि-रसनाप्रियाणि च, फलानि-कन्दल्यादीनि, मूलानि-शिफाः, कन्दानि-शूरणादीनि यस्मिंस्तादृशम् [३] ।
करालकरिकुम्भास्थिकूटस्थपुटिततलायां करालैः-भीषणैः, करिकुम्भास्थिकूटैः-हस्तिमस्तकास्थिराशिभिः, स्थपुटितं-विषमोन्नतप्रदेशीकृतं, तलम्-अधःस्थलं यस्यास्तादृश्याम् , इह अस्याम् , अचलपरिसरप्रान्तसीमनि अचलस्य-पर्वतस्य, यः परिसरः-सीमाप्रदेशः, तत्प्रान्तसीमनि-तनिकटसीमनि, समारब्धसमरकर्मणा प्रवर्तितसंग्रामरूपकार्येण, उत्तरदिगन्तदण्डनायकेन उत्तरस्या दिशो यः, अन्तः-अवसानं, तत्र दण्डनायकेन-सेनापतिना, नीतिवर्मणा तन्नाम्ना क्षत्रियेण, हणपतिः म्लेच्छजातिविशेषाधिपतिः, प्रेतनगरं यमपुरी, प्रापितः प्रेषितः, व्यापादित इति यावत् । अविच्छिन्नकुङ्कमकच्छलाञ्छिततीरदेशाम् अविच्छिन्ना:-निरन्तराः, कुश्माः-काश्मीरजौषधिविशेषा येषु तादृशैः, कच्छै;-जलपायप्रदेशः, लाञ्छिताः
५तिलक.
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टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता। युवराजसमरकेतो क्तिरितः प्रदेशादारभ्य पश्चिमेन समग्रोऽपि ग्रामनगरपामो विलम्भके सेनान्यः कमलगुप्तस्य, इत्येवं च सर्वतो निवेद्यमानमण्डलविभागः सविभ्रम इतस्ततो भ्रमन्नुत्पाककलमकेदारकपिलायमानसकलग्रामसीमान्तमातपक्लान्तकान्तारमहिषयूथाध्युषितपल्वलोपान्तकृष्णागुरुतरुतलमविरलोद्भिन्नकुंसुमगुच्छसप्तच्छदविटपिभिर्बद्धविकटाट्टहासमुद्विकासकमलाकरामोदवासिताशामुखभ्रमन्मदमुखरालिमालमुत्तालशालिवनगोपिकाकरतलतालतरलितपलायमानकीरकुलकिलकिलारावयन्त्रितपथिकयात्रमुच्छ्रितपत्रखण्डपुण्ड़ेक्षुवाटपरम्पराभिरामं कामरूपनाम्ना लब्धव्यपदेशं देशमाससाद [क]।
तत्र च प्रतिदिवसमधिकाधिकोपदर्शितभक्तिना प्राग्ज्योतिषाधिपेन प्रतिबद्धगमनः स्कन्धावारममुञ्चत् । आबद्धनिश्चलाव स्थितिं च तं चारपुरुषेभ्य उपलभ्य सर्वेऽपि सत्वरमुत्तरापथनिवासिनो दर्शनार्थिनः
टिप्पनकम्-प्राग्ज्योतिषः-कामरूपः । सौहित्य-तृप्तिः, लौहित्यः- हृदः । क्षपणं-विनाशः, विधेयः-आयत्तः [ख]।
चिह्निताः, तीरदेशाः-तटप्रदेशा यस्यास्तादृशीम् , इमां, तरङ्गिणी नदीम् , उत्तीर्य अतिक्रम्य, युवराजसमरकेतोः समरकेतुनाम्नो नृपकुमारस्य, भुक्तिः भोजनार्थ भोगार्थ वा प्रदत्ता भूमिः, अस्तीति शेषः । इतः अस्मात्, प्रदेशात् , आरभ्य, पश्चि. मेन पश्चिमायां दिशि अदूरे भवः, समग्रोऽपि अशेषोऽपि, ग्रामनगरग्रामः ग्रामनगरगणः, सेनान्यः सेनानायकस्य, कमलगुप्तस्य तन्नाम्नः, विलम्भके विपुलदाने, जीविकार्पण इत्यर्थः, अस्तीति शेषः । इत्येवम् इत्थं, सर्वतः परितः, निवेद्यमानमण्डलविभागः तत्तत्स्वरूपदर्शनद्वारा विज्ञाप्यमानराष्ट्रविभागः सन् , सविभ्रममिव सविलासमिव, इतस्ततः अत्र तत्र, भ्रमन् विहरन , कामरूपनाम्ना तत्संज्ञया, लब्धव्यपदेशं प्राप्तप्रसिद्धिं, देशं ब्रह्मवगमध्यवर्तिदेशम् , आसामप्रदेशमित्यर्थः, आससाद गतवान् । कीदृशम् ? उत्पाककलमकेदारकपिलायमानसकलग्रामसीमान्तम् उत्पाकाः-परिपक्काः, कलमाः-शालयो येषु तादृशैः, केदारैः-क्षेत्रैः, कपिलायमानः-पिशङ्गायमानः, ग्रामसीमान्तः-तत्सीमाचरमावयवो यस्मिस्तादृशम् ; पुनः आतपक्लान्तकान्तारमहिषयूथाध्युषितपल्वलोपान्तकृष्णागुरुतरुतलम् आतपक्लान्तैः-सूर्यकिरणतापव्याकुलीभूतैः, कान्तारमहिषयूथैः-वनमहिषगणैः, अध्युषितानि-अधिष्ठितानि, पल्वलोपान्तवर्तिनाम्-अल्पजलाशयतटवर्तिनां, कृष्णागुस्तरूणां-कालागुरुवृक्षाणां, तलानि-अधःस्थलानि यस्मिंस्तादृशम् ; पुनः अविरलोद्भिन्नकुसुमगुच्छसप्तच्छदविटपिभिः अविरलं-समग्रं यथा स्यात् तथा, उद्भिन्नाः-उद्गताः, कुसुमगुच्छाः -पुष्पस्तबका येषु तादृशैः, सप्तच्छदविटपिभिः-सप्तसप्त- . पत्रपुटितस्तबकविशिष्टवृक्षविशेषैः, बद्धविकटाहासंबद्धः-निरन्तरं प्रवर्तितः, विकट:-प्रकटः, अट्टहासः-महाहासो यस्मिस्ताहशम् ; पुनः उद्विकासकमलाकरामोदवासिताशामुखभ्रमन्मदमुखरालिमालम् उद्विकासानाम्-ऊर्ध्वमुखविकसिताना, कमलानाम् , आकरस्य-वनस्य, आमोदेन-उत्कटसौरभेण, वासिताना-सुरभीकृतानाम् , आशाना-दिशां, मुखे-अन्ते, भ्रमन्तीविचरन्ती, मदमुखराणां-मदेन गुञ्जताम् , अलीनां-भ्रमराणां, माला-श्रेणी यस्मितादृशम् ; पुनः उत्तालशालिवनगोपिकाकरतलतालतरलितपलायमानकीरकुलकिलकिलारावयन्त्रितपथिकयात्रम् उत्तालानि-उन्नतानि, यानि शालिवनानि-धान्यविशेषवनानि, तद्गोपिकानां-तद्रक्षिकाणां स्त्रीणां, करतलतालै:-हस्ततलवनिभिः, तरलितानां-चपलितानाम् , अत एव पलायमानाना-त्वरितमपसरतां, कीरकुलाना-शुकगणानां, किलकिलारावैः-किलकिलात्मककूजनैः, यन्त्रिता-निवारिता, पथिकानांमार्गगामिना, यात्रा-प्रयाणं यस्मिंस्तादृशम् ; पुनः उच्छ्रितपत्रखण्डपुण्ड्रेक्षुवाटपरम्पराभिरामम् उच्छ्रिताः-उन्नताः, पत्रखण्डाः-पल्लवप्रदेशयुक्ताः, पुण्डेक्षवः-इक्षुविशेषा यस्यां तादृश्या, वाटपरम्परया-वाटिकापरम्परया, अभिरामम्-मनोहरम् [क] । .. च पुनः, तत्र तस्मिन् कामरूपदेश इत्यर्थः, प्रतिदिवसं प्रत्यहम् , अधिकाधिकोपदर्शितभक्तिना अधिकादपि अधिकं यथा स्यात् तथा, उपदर्शिता-प्रकटिता, भक्तिः-प्रीतिर्येन तादृशेन, प्राग्ज्योतिषाधिपेन प्राक्-प्रथम, ज्योतिःप्रकाशो यत्रासौ प्राग्ज्योतिषः-पूर्वदेशः, तदधिपेन, कामरूपदेशाधीशेनेत्यर्थः, प्रतिवद्धगमनः अवरुद्धप्रस्थानः सन् , स्कन्धावार शिबिरम् , अमुञ्चत् सन्निवेशितवान् । चारपुरुषेभ्यः गूढजनेभ्यः, गुप्तचरद्वारेत्यर्थः, आवद्धनिश्चलावस्थिांत कृतः स्थिरस्थिति हरिवाहनम् , उपलभ्य ज्ञात्वा, स समस्ता अपि, उत्तरापथनिवासिनः उत्तरदेशवास्तव्याः, पार्थिवाः
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तिलकमञ्जरी पार्थिवाः समाजग्मुः, उपनिन्युश्च निजनिजदेशजातानि जातप्रीतयः प्रधानानि तस्मै प्राभृतानि । प्रारब्धनवनवोपचारसंभृतप्रणयैश्च तैः प्रत्यहमनुगम्यमानः स्निग्धपत्रलतागुल्मगहनेष्वनेकतरुफलरसास्वादजनित. नानाशकुनिकुलसौहित्येषु लौहित्योपकण्ठकाननेषु विचचार । विहरमाणश्च यदृच्छया तेषु तेषु स्थानेषु कृतावस्थानानेणकानरण्यमहिषान् मृगपतीन् वराहान द्वीपिनश्चमरान द्विपानन्यांश्च नानारूपधारिणः श्वापदविशेषान् सहस्रशो ददर्श । जातकौतुकैश्च मृगयाव्यसनिभिः क्षितिपतिकुमारैः क्षपणाय तेषामनुक्षणं व्यापार्यत, न च प्रकृतिसानुक्रोशतया शस्त्रगोचरगतानपि तान् जघान । केवलं कुतूहलोत्पादनाय प्रधाननृपतीनामनवरततश्रीताडनाभ्यासलघुतराङ्गुलिव्यापारेण सव्येतरपाणिना स्फुटतरास्फालितरत्नवीणस्तद्धनिश्रवणनिश्चल. निमीलितेक्षणानर्भकानपि विधेयांश्चकार [ख] ।
दृष्ट्वा च तांस्तथाविधानुपजातधृतयो विधृत्य ते क्षितिभृतो निभृतमेव तान् कांश्चिदङ्गदत्तस्थूलकुङ्कुमस्थासकान , कांश्चिच्छिरसि विरचितोचकुसुमशेखरान् , कांश्चित् कर्णलम्बितविचित्रवर्णचामरान ,
नृपाः, दर्शनार्थिनः दर्शनाभिलाषिणः सन्तः, सत्वरं शीघ्रं, समाजग्मुः । च पुनः, जातप्रीतयः उत्पन्नस्नेहाः सन्तः, निजनिजदेशजातानि स्वस्वदेशोद्भवानि, प्रधानानि श्रेष्ठानि, प्राभूतानि उपहारान् , उपनिन्युः उपस्थापितवन्तः । च पुनः, प्रारब्धनवनवोपचारसम्भृतप्रणयैः प्रारब्धैः-प्रवर्तितैः, नवनवोपचारैः-नवीननवीनसत्कारैः, सम्भृतः-प्रवर्धितः, प्रणयः-प्रीतियस्तादृशैः, तैः पार्थिवैः, अनुगम्यमानः अनुत्रियमाणः सन् , प्रत्यहं प्रतिदिनं, लौहित्योपकण्ठकाननेषु लौहित्यस्य-तदाख्यनदस्य, उपकण्ठे-समीपे, यानि काननानि-वनानि, तेषु, विचचार विहारमकार्षीत् ; कीदृशेषु ? स्निग्धपत्रलतागुल्मगहनेषु स्निग्धानि-सरसानि, पत्राणि येषां तादृशैः, लतागुल्मैः-लताभिः-प्रसिद्धाभिः, गुल्मैः-स्कन्धरहितवृक्षश्च, गहनेषु-व्याप्तेषु; पुनः अनेकतरुफलरसास्वादजनितनानाशकुनिकुलसौहित्येषु अनेकेषां तरूणां-वृक्षाणां, यानि, फलानि तद्रसास्वादेन, जनित-कृतं, नानाशकुनिकुलाना-नानापक्षिगणानां, सौहित्य-तृप्तिर्येषु तादृशेषु; पुनः यदृच्छया यथेच्छं, विहरमाणः विचरन , तेषु तेषु स्वखोचितेषु, स्थानेषु, कृतावस्थानान् अवस्थितान् , एणकान् हरिणान् , पुनः अरण्य महिषान् वन्यमहिषान , पुनः मृगपतीन् सिंहान् , पुनः वराहान् शुकरान् , पुनः द्वीपिनः व्याघ्रान्, पुनः चमरान मृगविशेषान् , पुनः द्विपान् गजान , च पुनः, अन्यान् तद्व्यतिरिक्तान , नानारूपधारिणः नानाऽऽकारान् , सहस्रशः सहस्रसंख्यकान् , श्वापदविशेषान् वन्यहिंस्रविशेषान् , पशून् , ददर्श दृष्टवान् । जातकौतुकैः उत्पन्नलालसैः, मृगयाव्यसनिभिः आखेटकव्यासङ्गिभिः, क्षितिपतिकुमारैः नृपकुमारैः, तेषां श्वापदानां, क्षपणाय विनाशाय, व्यापार्यत हरिवाहनः प्रेरित इत्यर्थः । च किन्तु, शस्त्रगोचरगतानपि शस्त्रविषयीभूतानपि, शस्त्रसन्निकृष्टानपीत्यर्थः, तान् श्वापदान, प्रकृतिसानुक्रोशतया स्वभावतो दयालतया, न जघान हतवान् । केवलं प्रधाननृपतीनां प्रमुखनृपाणां, कुतूहलोत्पादनाय विनोदोत्पादनाय, अनवरततन्त्रीताडनाभ्यासलघुतराङ्गुलिव्यापारेण अनवरतं-सततं, तत्रीताडनस्य-वीणागुणस्फालनस्य, अभ्यासेन-पौनःपुन्येन, लघुतरः-अतिक्षिप्रताशाली, अङ्गुलिव्यापारः-अङ्गुलिसंचारो यस्य तादृशेन, सव्येतरपाणिना वामकरण, स्फुटतरास्फालितरत्नवीणः स्फुटतरम्-अतिस्फुटं यथा स्यात् तथा, आस्फालिता-ताडिता, रत्नवीणा-रत्नखचिता वीणा येन तादृशः सन् , तद्धनिश्रवणनिश्चलनिमीलितेक्षणान् तद्धनिश्रवणेन-तत्वणनाकर्णेन, निश्चलानि-निःस्पन्दानि, निमीलितानि-मुद्रितानि च, ईक्षणानि-नेत्राणि यैस्तादृशान् , अर्भकान् बाल्यावस्थानपि, तानित्यध्याहारः, विधेयान् खवश्यान् , चकार सम्पादितवान् [ख]।
च पुनः, ते मृगयाव्यसनिनः, क्षितिभृतः नृपतयः, तान् श्वापदशिशुन् , तथाविधान विधेयतापन्नान् , दृष्टवा, उपजातधृतयः उत्पन्नतुष्टयः सन्तः, विधृत्य निगृह्य, निभृतमेव निश्चलमेव, तान् तदर्भकान्, कांश्चित् कतिपयान् , अङ्गदत्तस्थूलकुङ्कमस्थासकान् अङ्गेषु दत्तः-अर्पितः, स्थूलः-महान् , कुङ्कुमस्थासकः-कुङ्कुमद्रवेण हस्तबिम्बं येषां तादृशान् ; पुनः कांश्चित् कतिचित् , शिरसि मस्तके, विरचितोच्चकुसुमशेखरान् विरचितः-निर्मितः, उच्चः-उन्नतः, यद्वा उच्चानां-श्रेष्ठाना, कुसुमानां-पुष्पाणां, शेखरः-शिरोमाल्यं येषां तादृशान् ; पुनः कांश्चित कतिपयान्, कर्णलम्बितविचित्र
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टिप्पनक - परागविवृतिसंबलिता ।
कांश्चिच्छृङ्गकोटिबद्धोत्कृष्टपट्टांशुकपताकान्, कांश्चित् कण्ठघटितवाचाटकनकघण्टिकाभरणान्, कांश्चित् पुच्छनालदोलायमानविपुलपल्लवपूलान्, उदीरितोत्तालकलकलपदातिबलतुमुलतालख तरलितानेक हेलयैवोदस्राक्षुः । तैश्च त्रासवशविलोलतारैर्विकृतरूप दर्शनादन्योऽन्यमसंगच्छमानैस्तुच्छजनविस्तारिताट्टहासरसमसमञ्जसं दिङ्मुखेषु प्रपलायमानैः क्षणमात्र माहितोत्कण्ठाभरविरामो राजपुत्रः प्रतिदिवसमक्रीडत् [ ग ] |
एकदा च प्रातरेव तं मृगारण्यमुपगतमविश्रान्तमदकलजलरङ्कुविरुतौ मारुतानीतजलतुषारासारशीतले शिलातलनि शैलनिम्नगातीरतरुतले निविष्टमन्तिकोपविष्टेष्ट्रसेवकलोकमधिकसुलिष्टसंयोजित कलाया नूतनगुणारोपसविशेषलब्धसौम्यसंपदः सविलासमङ्कदेशोपवेशिताया प्रियवनिताया इव विपचयाश्चटुल
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टिप्पनकम् - अधिकसुलिष्टसंयोजितकलायाः एकत्र विज्ञानं कला, अन्यत्राधारकाष्टम्, नूतनगुणारोपस विशेषलब्ध सौम्यसम्पदः एकत्र नूतनगुणाः कान्तिसौम्यादयः, अन्यत्र नूतनतन्त्री । मन्मनः - अव्यक्तध्वनिः । मेदुर:- पीनः [घ] |
वर्णचामरान् कर्णयोः - श्रोत्रयोः, लम्बितानि - नियोजितानि, विचित्रवर्णानि - नानावर्णकानि चामराणि - महिषाकृतिमृगविशेषपुच्छनिर्मितव्यजनानि येषां तादृशान् ; पुनः कांश्चित् कानपि शृङ्गकोटिबद्धोत्कृष्टपट्टांशुकपताकान् शृङ्गकोटौ-शृङ्गा, बद्धा, उत्कृष्टं पट्टांशुकं-कौशेयवस्त्रं यस्यां तादृशी, पताका येषां तादृशान् ; पुनः कांश्चित् कानपि कण्ठघटितवाचाटकनकघण्टिकाभरणान् कण्ठेषु-ग्रीवासु, घटितानि - निवेशितानि, वाचाटानि - मुखराणि, कनकघण्टिकाभरणानि - सुवर्णकिङ्किणीरूपालङ्करणानि येषां तादृशान् ; पुनः कांश्चित् कानपि पुच्छनाल दोलायमानविपुलपल्लवपुलान् पुच्छनालेषु - लाङ्गूलकाण्डेषु, दोलायमानं, विपुलं - प्रचुरं, पहवपूलं - पलवरा शिर्येषां तादृशान् पुनः उदीरितोत्तालकलकलपदातिवलतुमुलतालरवतरलितान् उदीरितः - उद्गमितः, उत्तालः -- उच्चः, कलकलः - कोलाहलो यैस्तादृशानां पदातिबलानां - पादगामिसैनिकानां, तुमुलैःगम्भीरैः, तालरवैः-करतल ध्वनिभिः, तरलितान्-चञ्चलितान्, सम्भ्रातानित्यर्थः, एक हेलयैव युगपदेव, उदस्राक्षुः त्यक्तवन्तः । च पुनः, त्रासवशविलोलतारैः त्रासवशेन-भयवशेन, विलोला- चञ्चला, तारा- नेत्रकनीनिका येषां तादृशैः, चञ्चलाक्षैरित्यर्थः, पुनः विकृतरूपदर्शनात् विलक्षणरूपदर्शनाद्धेतोः, अन्योऽन्यं परस्परम्, असङ्गच्छमानैः असंघटमानैः; पुनः तुच्छजन विस्तारिताट्टहासरसं तुच्छजनैः - पामरजनैः विस्तारितः, अट्टहासरसः - महाहासकौतुकं यस्मिंस्तादृशं यथा स्यात् तथा, असमञ्जसं प्रतिकूलं च यथा स्यात् तथा, दिङ्मुखेषु दिगन्तेषु, प्रपलायमानैः प्रधावमानैः तैः श्वापदैः क्षणमात्र मुहूर्तमात्रम्, आहितोत्कण्ठाभरविरामः जनितक्रीडनौत्सुक्यातिशयनिवृत्तिः सन्, राजपुत्रः नृपकुमारः, हरिवाहन इत्यर्थः, प्रतिदिवस प्रतिदिनम्, अक्रीडत् क्रीडितवान् [ग] !
एकदा एकस्मिन् दिने, प्रातरेव प्रभात एव, मृगारण्यं मृगवनम्, उपगतं गतवन्तम् ; पुनः शैलनिम्नगातीरतरुतले पर्वतीयनदीतटवृक्षाधःस्थले निविष्टम् उपविष्टम् कीदृशे ? अविश्रान्तमदकलजलरङ्कुविरुतौ अविश्रान्ताअविरता, मदकलानां-मदोत्कटानां, जलरङ्कणां-जलीयमृगाणां विरुतिः - शब्दो यस्मिंस्तादृशे पुनः मारुतानीतजलतुषारासारशीतले मास्तानीतैः - पवनोपस्थापितैः, जलतुषारासारैः - जलकणधारासम्पातैः, शीतले - शैत्यमापन्ने, पुनः शिलातलनि प्रस्तरमये; पुनः अन्तिकोपविष्टेष्ट्रसेवकलोकम् अन्तिके- पार्श्वे, उपविष्टाः, इष्टाः - प्रियाः, सेवकलोकाः - सेवकजना यस् तादृशम् ; पुनः विषयाः वीणायाः, ध्वनिविशेषान् नादभेदान्, अवधारयन्तं निरूपयन्तम् कीदृश्याः ? अधिकसुश्लिष्टसंयोजित कलायाः अधिकसुश्लिष्टं - परस्परमत्यन्तसङ्गतं यथा स्यात् तथा, संयोजिताः - सन्निवेशिताः, कलाः- अवयवाः यस्यां तादृश्याः, पक्षे चतुष्षष्टिप्रकारा वायादिकलाः पुनः नूतनगुणारोपस विशेषलब्ध सौम्यसम्पदः नूतनानाम्अभिनवानां, गुणानां-तन्त्रीणाम्, आरोपेन- संघटनेन, सविशेषम् - अतिमात्रं लब्धा - प्राप्ता, सौम्यसम्पत्-मनोहरतासमृद्धिर्यया तादृश्याः, पक्षे नूतनगुणारोपेण नवनवगुणस्थापनेन, सविशेषं लब्धा सौम्यसम्पद् यया तादृश्याः, पुनः प्रियवनिताया इव प्रियविलासिन्या इव, सविलासं विलासेन - लीलया सहितं यथा स्यात् तथा, अङ्कदेशोपवेशितायाः क्रोड तलोपवेशितायाः, कीदृशान् ध्वनिविशेषान् ? चटुलनखकोटिघट्टनावाप्तजन्मनः चटुलाभिः - तीव्राभिः, नखकोटिभिः नखायैः, घट्टनया
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तिलकमञ्जरी
नखकोटिघट्टनावाप्तजन्मनः स्वभावमन्मनानविरतमवतरतः कर्णकोटराध्वनि ध्वनिविशेषानवधारयन्तम् , 'इयमृक्षसंकुला वृक्षसंहतिः, एष वनमहिषयूथाधिष्ठितो नापकण्ठः, इदमुदरदेशासीनमेदुरवराहमद्रिगह्वरम् , असावन्तरनिभृतभ्रान्तशरभः शरस्तम्बनिकुरम्बः' [घ] । इत्युपेत्योपेत्य सरभसमावेदयन्तमवधानदानेन विदधानमनुचरगणं कृतकृत्यमुपसृत्य सत्वरकृतप्रणामः पुष्करो नाम करिसाधनाध्यक्षः स्फुटाक्षरमवादीत्-'कुमार ! विरमतु विनोदैकफला तावदेषा गीतगोष्ठी, गरिष्ठमन्यत् प्रतिविधेयं राजकार्यम् , अद्य यामिन्याश्चरमयामे वैरियमदण्डाभिधानः प्रधानदन्ती दिगन्तरव्यापिना घ्राणपथमुपगतेन प्रबोधितो मदगन्धेन सविधचारिणमरण्यवारणं रणायानुबध्नन्नवबुध्यमानो निपुणमन्धकारसंपर्कादध्वन्यतय॑माणगतिरेव कठिनकर्करव्यतिकरकष्टसंचारमतिमहत् कान्तारं प्रविष्टः, दृष्टश्च दिनकरोदये पृष्ठतः पदानुसारप्रधावितैस्तत्प्रतिबद्धैराधोरणगणैः, आरब्धश्च शिबिरमानेतुम् , न तु कृतानेकयत्नैरपि पारितो निवर्तयितुम् । तदेष यावन्नातिदूरं याति, दुर्गमं वा वनप्रदेशं न विशति, व्यालबहुले वा वन्यद्विरदयूथे न स्थिति बनाति, तावदादिश्यतां
तन्त्रीघर्षणेन, अवाप्तं-प्राप्त, जन्म-उत्पत्तियस्तादृशान् , पुनः स्वभावमन्मनान् खभावतो मनोहरान् , पुनः कर्णकोटराध्वनि कर्णविवरमार्गे, अविरतं निरन्तरम् , अवतरतः आपततः । पुनः ऋक्षसंकुला भटूकजातीयप्राणिगणसहिता, इयं, वृक्षसंहतिः वृक्षसमूहः । पुनः घनमहिषयथाधिष्ठितः वनमहिषगणव्याप्तः, एषः अयं, नद्युपकण्ठः नदीनिकटप्रदेशः; उदरदेशासीनमेदुरवराहम् उदरदेशे-मध्यदेशे, आसीनाः-उपविष्टाः, मेदुराः-पीनाः, वराहाः-शूकरा यस्मिंस्तादृशम् , इदं सन्निकृष्टं अद्रिगह्वरं पर्वतगुहा । अन्तरनिभृतभ्रान्तशरभः अन्तरे-मध्ये, निभृतं-निश्चलं यथा स्यात् तथा, भ्रान्ताः-कृतभ्रमणाः, शरभाः-मृगभेदा यस्मिंस्तादृशः, शरस्तम्बनिकुरम्बः शराणां-तृणभेदानां, ये स्तम्बाः-काण्डाः, तेषां निकुरम्बः-राशिः, सर्वत्र अस्तीति शेषः[घ] । इति इत्थम्, उपेत्य उपेत्य निकटं गत्वा गत्वा, सरभसं सवेगम्, अनुचरगणं भृत्यगणम्, आवेदयन्तं विज्ञापयन्तम् , अवधानदानेन मनसः सावधानतासम्पादनेन, कृतकृत्यं कृतकार्य, सफलमित्यर्थः, विदधानं कुर्वन्तम् , तं हरिवाहनम् , उपसृत्य समीपमागत्य, सत्वरकृतप्रणामः ससंभ्रमविहिताभिवादनः, पुष्करो नाम तत्संज्ञकः, करिसाधनाध्यक्षः करिसाधनस्य-हस्तिसैन्यस्य, अध्यक्षः-अधिकारी, स्फुटाक्षरं व्यक्ताक्षरं यथा स्यात् तथा, अवादीत् उक्तवान् । किमित्याह-तावदिति वाक्यालङ्कारे, विनोदैकफला केवलकुतूहलफला, इयं, गीतगोष्ठी गानसभा, विरमतु निवर्तताम् , गरिष्ठं गुरुतमम् , अन्यत् अतिरिक्तं, राजकार्य राज्ञः कर्तव्यं, प्रतिविधेयं प्रतिकर्तुमुचितं, यद्वा प्रतिकर्तु प्राप्तकालम् , अस्तीति शेषः । तत् किमित्याह-अद्य अस्मिन् दिने, अहोरात्रमध्य इत्यर्थः, यामिन्याः रात्रेः, चरमयामे अन्तिमप्रहरे, वैरियमदण्डाभिधानः वैरिणा-शत्रूणां कृते, यमदण्ड:-यमराजदण्डसदृश इत्यन्वर्थको वैरियमदण्डनामकः, प्रधानदन्ती सर्वप्रमुखहस्ती, दिगन्तरव्यापिना दिङ्मध्यव्यापकेन, यद्वा अन्यदिग्व्यापकेन, पुनः घ्राणपथं घ्राणेन्द्रियगोचरताम् , उपागतेन प्राप्तेन, मदगन्धेन दानवारिगन्धेन, प्रबोधितः उन्मदितः सन् , रणाय संग्रामाय, सविधचारिणं निकटचारिणम् , अरण्यवारणं वनगजम् , अनुबध्नन् आक्रमन् , अनुधावन्नित्यर्थः, अन्धकारसंपर्कात् अन्धकारसत्त्वात् , निपुणं सम्यक्, अनवबुध्यमानः अविज्ञायमानः, अदृश्यमान इति यावत् , अध्वनि मार्गे, अतळमाणगतिरेव अतय॑माणा-अनालोच्यमाना, गतिः-गमनं यस्य तादृश एव, कठिनकर्करव्यतिकरकष्टसञ्चारं कठिनानां-कठोराणां; कर्कराणां-पाषाणखण्डानां, व्यतिकरेण-सम्पर्केण, कष्ट:-कष्टावहः, सञ्चारः-गमनं यस्मिंस्तादृशम् , अतिमहत् अतिविस्तृतं, कान्तारं महावनं, प्रविष्टः प्रवेशमकार्षीत् । च पुनः, पृष्ठतः पश्चात् , पदानुसारप्रधावितैः पदानुसार-तत्पादविक्षेपानुगुणं, प्रधावितैः-अतित्वरया गन्तुं प्रवृत्तः, तत्प्रतिबद्धः तदधिकृतैः, आधोरणगणैः हस्तिपकसमूहैः, दिनकरोदये सूर्योदये सति, दृष्टः अवलोकितः । च पुनः, शिबिरं सैनिकावासम् , आनेतुं प्रत्यागमयितुम् , आरब्धः प्रवर्तितः, तु किन्तु, कृतानेकयत्नैरपि कृताधिकप्रतिकारैरपि, निवर्तयितुं परावर्तयितुं, न पारितः शक्तः, तत् तस्माद्धेतोः, एषः बुद्धया सन्निकृष्टो हस्ती, यावत् यावन्तं कालम् , अतिदूरम् अतिमात्रदुरं, न याति गच्छति, वा अथवा, दुर्गमं दुःखेन गन्तुं योग्य, वनं न विशति
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टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता । कोऽपि तद्हणाय साधनिकः' इति ब्रुवाणे तत्र हरिवाहनः क्षणमिव ध्यात्वा 'भद्र ! न किञ्चिदादिष्टेनान्येन, वयमेव तं व्यावर्तयिष्यामः' इत्युक्त्वा सत्वरस्तरुतलादुत्तस्थौ [3] ।
शिबिरनिक्षिप्तकमलगुप्तश्च तत्क्षणादिष्टपरिवर्धकबद्धपर्याणमधिरुह्य प्रधानवाजिनमधिष्ठितापरवरवाजिपृष्ठेन वारंवारमभिमुखचलञ्चक्षुषा सिंहलेश्वरसुतेन सार्धमारब्धतत्कालसमुचितसंकथो यथासन्नविनिवर्तितानुयायिमान्यराजलोकः स्तोकपदातिबलपरिवृतो मुहुर्निशावृत्तं गजगमनवृत्तान्तमावेदयता, मुहुर्मार्गभूमेः समविषमस्थानानि कथयता, मुहुश्चिह्नीकृतैरचलसानुभिर्निरन्तरालतरुगहननिद्भुतं यातव्यदेशमुपदर्शयता, सह प्रस्थायिना महामात्रवर्गेण सूच्यमानमार्गोऽभिजवेनाटवीमगच्छत् [च] ।
तत्र चाविरलपत्रतरुणतरुगणे निर्झरिणि विपुलविषमोपलपटलदुःसंचरे शैलपरिसरे कृतावस्थानम् ,
टिप्पनकम्-परिवर्धकः-अश्वाकर्षकः [च]।
प्रविशति, वा अथवा, व्यालबहुले “व्यालो दुष्टगजे सर्प शठे श्वापदहिंस्रयोः" इति वचनाद् दुष्टगजादिसंकुले, वन्यद्विरदयूथे वनसम्बन्धिहस्तिसङ्के, स्थितिं न बध्नाति द्रढ़यति, तावत् तावन्तं कालं, कोऽपि कश्चित्, साधनिकः सैनिकः, तहणाय तन्नियन्त्रणाय, आदिश्यताम् आज्ञाप्यताम्, इति इत्थं, ब्रुवाणे कथयति, तत्र तस्मिन् पुष्करे, हरिवाहनः, क्षणं किञ्चित् कालं, ध्यात्वा इव विचिन्य इव, सत्वरः ससम्भ्रमः, तरुतलात् वृक्षाधःस्थलात् , उत्तस्थौ उत्थितवान् , किं कृत्वा ? 'भद्र ! कल्याणिन् !, अन्येन खभिन्नेन, आदिष्टेन आज्ञप्तेन, न किश्चित् किमपि, प्रयोजनमिति शेषः, किन्तु वयमेव अहमेव, तं हस्तिनं, व्यावर्तयिष्यामः प्रत्यावर्तयिष्यामः' इत्युक्त्वा इत्थं कथयित्वा [6] ।
च पुनः, शिबिरनिक्षिप्तकमलगुप्तः सैनिकावासस्थापितकमलगुप्ताख्यसेनानायकः सन् , तत्क्षणादिष्टपरिवर्धकबद्धपर्याणं तत्क्षणं-तत्कालम् , आदिष्टेन-आज्ञप्तेन, परिवर्धकेन-अश्वप्रसाधकेन, अश्वाकर्षकेन वा, बर्द्ध-निवेशितं, पर्याणपृष्ठस्थरत्नपीठं यस्मिन् तादृशं, प्रधानवाजिनं मुख्याश्वम् , आरुह्य तदुपरि स्थित्वा, अधिष्ठितापरवरवाजिपृष्ठेन अधिष्ठितम्-अध्यासितम्, अपरस्य-अन्यस्य, वरवाजिनः-श्रेष्ठाश्वस्य, पृष्ठं येन तादृशेन, पुनः वारंवारम् अनेकवारम् , अभिमुखचलचक्षुषा अभिमुख-सम्मुखं, चलन्ती-उन्मिषन्ती, चक्षुषी-लोचने यस्य तेन, सिंहलेश्वरसुतेन सिंहलेश्वरस्यसिंहलद्विपाधिपस्य चन्द्रकेतोः, सुतेन-पुत्रेण, समरकेतुनेत्यर्थः, साधंसह,आरब्धतत्कालसमुचितसंकथः प्रवर्तिततत्कालयोग्यालापः; पुनः यथाऽऽसन्नविनिवर्तितानुयायिमान्यराजलोकः यथाऽऽसन्नं-यथानिकटं, निवर्तिताः-खेन सह गमनान्निवारिताः, अनुयायिनः-अनुगामिनः, मान्याः-मानार्हाः, राजलोकाः-नृपजना येन तादृशः; पुनः स्तोकपदातिबलपरिवृतः स्तोकेन-अल्पेन, पदातिबलेन-पादगामिसैन्येन, परिवृतः-परिवेष्टितः, निशावृत्तं रात्री सजातं, गजगमनवृत्तान्तं हस्तिपलायनवार्ता, मुहुः वारंवारम् , आवेदयता विज्ञापयता, मार्गभूमेः मार्गरूपभुवः, समविषमस्थानानि निम्नोन्नतस्थलानि, कथयता वर्णयता, पुनः निरन्तरालतरुगहननिहतं निरन्तरालानां-निरन्तराणां, परमसान्द्राणामित्यर्थः, तरूणांवृक्षाणां, गहनेन-वनेन, निद्भुतम्-आवृतं, यातव्यदेशं हस्तिप्रत्यावर्तनायै गन्तव्यस्थानम् , चिह्नीकृतैः चिह्न संकेतितैः, अचलसानुभिः पर्वतीयसमभूमिमार्गः, उपदर्शयता निर्दिशता, पुनः सह प्रस्थायिना सह प्रयायिना, महामात्रवर्गेण महाहस्तिपकवर्गेण, सूच्यमानमार्गः विज्ञाप्यमानमार्गः सन् , अभिजवेन अतिवेगेन, अटवीम् अरण्यम् , अगच्छत् गतवान् [च]।
च पुनः, तत्र तस्मिन् वने, इमं प्रकृतहस्तिनम् , अद्राक्षीत् अवलोकितवान् , इत्यग्रेणान्वेति । कीदृशं ? शैलपरिसरे पर्वतप्रान्तप्रदेशे, कृतावस्थानम् अवस्थितम्, कीदृशे १ अविरलपत्रतरुणतरुगणे अविरलानि-सान्द्राणि, पत्राणि येषु तादृशाः, तरुणाः- प्रौढाः, तरुगणाः-वृक्षराशयो यस्मिस्तादृशे, पुनः निर्झरिणि जलप्रवाहवति, पुनः विपुलविषमोपलपटलदुस्सश्चरे विपुलाना-विशालानां प्रचुराण वा, विषमोपलानां-निम्नोन्नतशिलानां, पटलेन-समूहेन, दुःसञ्चरे-दुःखेन शक्यगमने;
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तिलकमञ्जरी
३९
अविरतप्रसृतमदजलासारसूत्रिताकालजलदागमम् , अधःकृतप्रलयजलधरस्तनितेन विस्तारिणा कण्ठरसितेन वित्रासितसकलवनचरवृन्दम् , आसक्तवनदन्तिदानपरिमले पुरोवर्तिनि महति पर्वतपादपाषाणे सरोषनिहितोभयविषाणम्, वारंवारमतिदूरोल्लासितेन सरससल्लकीविटपधारिणा करदण्डेन दमयितुमकाण्ड एवोद्यताः शमयितव्या मयैते दुष्टलेशिका न मे दोष इति शाखोद्धारमिव कुर्वाणम् [छ ], कैश्चिदनवरतकृतनिष्ठुरनिर्भर्सनैः, कैश्चिन्मधुरवचनघटितचित्रचाटुभिः, कैश्चिदितस्ततो विसृष्टलोष्टविसरैः, कैश्चिदग्रतः क्षिप्तकोमललतापल्लवकवलैः, कैश्चिदारोढुमध्यासितपृष्ठपीठोपरिस्थपादपशाखैः, कैश्चिद्वद्धुमधः पातितपादपाशैः, आश्रितदुर्गदेशैरपि त्रासतरलेक्षणैराधोरणगणैः सर्वतो निरुद्धं, क्रोधमिव मूर्तम् , अन्तकमिवोपजातगजविवर्तम् , आरब्धान्धकाराविसमरगजासुरभासुराकारमात्मशरीरसंरक्षणविहस्तैरितस्ततो हस्तिपालकैः सशङ्कमुपसृत्योपसृत्य ढौकिताभिः परिगतमपि वशाभिरवशमिभमद्राक्षीत् [ज] ।
टिप्पनकम्-लेशिका-पडिकाराः [छ] ।
पुनः कीदृशम् ? अविरतप्रसृतमदजलासारसूत्रिताकालजलदागमम् अविरतप्रसूतानां-निरन्तरविस्तृताना, मदजलानांदानजलानाम् , आसारैः-धारासम्पातैः, सूत्रितः-बद्धः, अकाले-असमये, जलदागमः-मेघागमः, वर्षाकाल इवेत्यर्थः, येन ताहशम् ; पुनः कण्ठरसितेन कण्ठश्वनिना, वित्रासितसकलवनचरवृन्दं वित्रासितं-भीतिमनुभावितं, सकलं-समग्रं, वनचरवृन्द-वन्यजीवगणो येन तादृशम् , कीदृशेन ? अधःकृतप्रलयजलधरस्तनितेन अधःकृतं-तिरस्कृतं, प्रलयजलधरस्य-प्रलय. कालिकमेघस्य, स्तनितं-गर्जितं येन तादृशेन, पुनः विस्तारिणा विस्तृतेन, पुनः कीदृशम् ? पर्वतपादपाषाणे पर्वतमूलवर्तिशिलायो, सरोषनिहितोभयविषाणं सरोष-सक्रोधं यथा स्यात् तथा, निहितं-स्थापितम् , उभयविषाण-शृङ्गद्वयं येन तादृशम् , कीदृशे ? आसक्तवनदन्तिदानपरिमले आसक्तः-संलग्नः, वनदन्तिनां-वन्यगजाना, दानपरिमल:-मदजलोत्कटगन्धो यस्मिस्तादृशे, पुनः पुरोवर्तिनि अग्रवर्तिनि, पुनः महति विशाले; पुनः कीदृशम् ? वारंवारम् अनेकवारम् , अतिदूरोल्लासितेन अत्यन्तदूरोन्नमितेन, पुनः सरससल्लकीविटपधारिणा आगजभक्षाख्यलतासम्बन्धिशाखाधारिणा, करदण्डेन शुण्डादण्डेन, शाखोद्धारं शाखोन्नयनं, कुर्वाणमिव सम्पादयन्तमिवेत्युत्प्रेक्षा, किमर्थम् ? अकाण्ड एव अनवसर एव, उद्यताः उत्थिताः, एते इमे, दुष्टलेशिकाः दुष्टाः-उपद्राविणः, लेशिका:-जन्तुविशेषाः, मया, शमयितव्या दमयितुमुचिताः, मे मम, दोषःतद्दमनेऽनौचित्यं, न, वर्तत इति शेषः, इति हेतोः, दमयितुं तानुपशमयितुम् , उत्सारयितुमित्यर्थः [छ], पुनः कीदृशम् ? आधोरणगणैः हस्तिपकवृन्दैः, सर्वतः परितः, निरुद्धम् आवृतम् , कीदृशैः ? कैश्चित् कैरपि, अनवरतकृतनिष्ठुरभर्त्सनैः अनवरतं-निरन्तरं, कृतं प्रयुक्तं, निष्ठुरं-रूक्षतापूर्ण, भर्त्सनम्-अप्रियवाक्यं यस्तादृशैः, पुनः कैश्चित् कैरपि, इतस्तत अस्मात् तस्मात् स्थानात् , विसृष्टलोष्टविसरैः विसृष्टः-विक्षिप्तः, लोष्टानां-पाषाणखण्डाना, विसरः-समूहो यैस्तादृशैः, पुनः कैश्चित् कैरपि, अग्रतः अने, क्षिप्तकोमललतापल्लवकवलैः क्षिप्ताः-प्रेरिताः, कोमलानां लतानां पल्लवाः-नूतनदलरूपाः, कवलाः-प्रासा यस्तादृशैः, पुनः कैश्चित् कैरपि, आरोढुं प्रकृतगजारोहणाय, अध्यासितपृष्ठपीठोपरिस्थपादपशाखैः अध्यासिता-अधिष्ठिता, पृष्टपीठोपरिस्था-पृष्ठस्थासनोपरिस्थिता, पादपशाखा-वृक्षशाखा यैस्तादृशैः, पुनः कैश्चित् , बद्धं प्रकृतगजबन्धनाय, अधः प्रकृतगजाधोदेश, प्रविश्य, पातितपादपाशैः पातितः-प्रक्षिप्तः, पादपाश:-पादबन्धनविशेषो यैस्तादृशैः, पुनः आश्रितदुर्गदेशैरपि अधिष्ठितदुर्गमस्थानैरपि, त्रासतरलेक्षणैः भयसम्भ्रान्तलोचनैः; पुनः कीदृशम् ? मर्तम आकृतिमन्तम् , क्रोधमिव; पुनः उपजातगजविवर्त्तम् उपजातः-सम्पन्नः, गजविवर्तः-गजात्मना अन्यथाभावो यस्य ताहशम् , अन्तकमिव यमराजमिव; पुनः आरब्धान्धकारातिसमरगजासुरभासुराकारम् आरब्धः-प्रवर्तितः, अन्धकारातिना-शिवेन सह, समरः-संग्रामो येन तादृशस्य, गजासुरस्य-गजाकारराक्षसस्येव, भासुरः-दीप्तः, आकारो यस्य तादृशम् । पुनः आत्मशरीरसंरक्षणविहस्तैः स्वशरीररक्षणव्यप्रैः, हस्तिपालकैः, इतस्ततः अत्र तत्र, सशवं शङ्कासहितं यथा स्यात् तथा, उपसृत्य उपसृत्य असकृन्निकटं गत्वा, ढौकिताभिः प्रापिताभिः, वशाभिः करिणीभिः, परिगतमपि परिवेष्टितमपि, अवशम् अवशीभूतम् [ज]।
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टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता।
... दृष्ट्वा च तमदृष्टपूर्वचेष्टमुत्सृष्टविनयपक्षमकालक्षेपविस्मृतसमस्तचिरकालाभ्यस्त शिक्षमतिशयप्रवृद्धमदमुद्दामकोपमकाण्ड एव व्यालरूपतामापन्नमुत्पन्नविस्मयो विकल्पयन् मनसा तत्तदतिचिरं तस्थौ, अवततार च निवारितसैन्यकोलाहलः कुतूहलेन तं ग्रहीतुमश्वात् । पुनःपुनरादिष्टपरिचारकचिरोपनीतवीणश्च वेपमानतनुभिः ससाध्वसं दृश्यमानो नृपकुमारैः 'कुमार! दारुणो वारणः, स्वल्पे प्रयोजने न किञ्चिदात्मना संशयमारोपितेन फलम् , अन्यथैव व्यावर्तयितव्योऽयम्' इति निवार्यमाणोऽपि वारंवारमन्तिकस्थेन समरकेतुना दन्तिनं प्रति शनैः शनैरुदचलत् । गत्वा च वञ्चितदृष्टिपातस्तरुलतागुल्मगहनान्तरेण तत्समीपमास्फालयामास मनसि विस्फारिताभिमतग्रामरागवासनः कलितकान्तरत्नकोणया वामपाणिपल्लवप्रदेशिन्या स्थानस्थानसंस्पृष्टतारतत्रीगुणां दक्षिणकरेण वीणाम् [झ] । उच्चचार च तारतममस्यास्तत्क्षणक्षोभितसकलवनदेवतावृन्दमानन्दमुकुलित दृष्टिभिर्गलितनिजगीतस्मयैः सविस्मयमाकर्ण्यमानमभ्यर्णवर्तिषु तरुनिकुञ्जषु बद्धगोष्ठीमण्डलैः
च पुनः, अदृष्टपूर्वचेष्टम् अदृष्टपूर्वा-पूर्वमदृष्टा, चेष्टा-शारीरिकक्रिया यस्य तादृशम् , पुनः उत्सृष्टविनयपक्षम् उत्सृष्टः-त्यक्तः, विनयस्य-नम्रभावस्य, पक्षः-मार्गों येन तादृशम् , पुनः अकालक्षेपविस्मृतसमस्तचिरकालाभ्यस्तशिक्षम अकालक्षेपं-कालातिक्रमणं विनैव, विस्मृताः; समस्ताः-सकलाः, चिरकालाभ्यस्ताः-दीर्घकालानुशीलिताः, शिक्षा:अनुशासनानि येन तादृशम् , पुनः अतिशयप्रवृद्धमदम् अतिशयेन प्रवृद्धः, मदः-दानं गर्वो वा यस्य तादृशम् , पुनः उद्दामकोपम् उद्दामा-उन्मर्यादः, कोपः-क्रोधो यस्य तादृशम् , पुनः अकाण्ड एव अनवसर एव, व्यालरूपतां दुष्टगजताम् , आपन्नं प्राप्तं, तं प्रकृतं हस्तिनं, दृष्टा दृष्टिगोचरीकृत्य, उत्पन्नविस्मयः उत्पन्नाश्चर्यः, मनसा, तत्तत् नानाप्रकार, विकल्पयन् वितर्कयन् , अतिचिरम् अतिदीर्घकालं, तस्थौ स्थितवान् । च पुनः, निवारितसैन्यकोलाहलः निवारितः-निवर्तितः, सैन्याना-सैनिकाना, कोलाहलः-तदद्भुतावलोकनजन्यकलकलो येन तादृशः सन् , तं हस्तिनं, कुतूहलेन औत्सुक्येन, ग्रहीतुं निग्रहाय, अश्वात् , अवततार अधस्तादाजगाम । च पुनः, पुनःपुनरादिष्टपरिचारकचिरोपनीतवीणः पुनः पुनः-अनेकवारम् ,. आदिष्टैः-आज्ञप्तः, परिचारकैः-भृत्यैः, चिरेण-विलम्बेन, उपनीता-आनीता, वीणा यस्य तादृशः, पुनः वेषमानतनुभिः कम्पमानशरीरैः, नृपकुमारैः नृपात्मजैः, ससाध्वसं सभयं, दृश्यमानः, पुनः अन्तिकस्थेन पार्श्ववर्तिना, समरकेतुना ‘कुमार ! वारणः अयं हस्ती, दारुणः उग्रः, अस्तीति शेषः, अतः स्वल्पे अत्यल्पे, प्रयोजने फले सम्भवति, संशर्य जीवनसन्देहम्, आरोपितेन प्रापितेन, तत्संशयास्पदीकृतेनेत्यर्थः, आत्मना खेन, किञ्चित किमपि, न फलम् , अयं हस्ती, अन्यथैव अन्यप्रकारेणैव, व्यावर्तयितव्यः निग्रहीतव्यः', इति इत्थं, वारंवारम् अनेकवारम् , निवार्यमाणोऽपि तन्निग्रहान्निवर्त्तमानोऽपि, दन्तिनं प्रति प्रकृतगजाभिमुखं, शनैः शनैः मन्दं मन्दम् , उदचलत् उच्चलितवान् , प्रस्थित इत्यर्थः । च पुनः, तरुलतागुल्मगहनान्तरेण तरूणां-वृक्षाणां, लतानां, गुल्मानां-निःस्कन्धवृक्षाणां, यद् गहनं-वनं, तद्रूपेण, अन्तरेण-व्यवधानेन, वश्चितदृष्टिपातः वञ्चितः-निरुद्धः, दृष्टिपातः-दृष्टिक्षेपो यस्मिन् तादृशः सन् , तत्समीपं, गत्वा उपस्थाय, मनसि खहृदये, विस्फारिताभिमतग्रामरागवासनः विस्फारिता-उद्बोधिता, अभिमतानाम्अभिप्रेतानां, ग्रामाणां-खरसङ्घातभेदानां, रागाणाम्-अवान्तरस्वराणां च, वासना-संस्कारो येन तादृशः सन् , दक्षिणकरेण वामेतरहस्तेन, वीणाम् , आस्फालयामास ताडयामास, कीदृशीम् ? कलितकान्तरत्नकोणया कलितं-धृतं, कान्तंमनोहरं, रत्नं यत्र तादृशः कोणो यस्यास्तादृश्या, यद्वा धृतः कान्तो रत्नकोणः-रत्नमयवीणावादनसाधनविशेषो यया तादृश्या, वामपाणिपल्लवप्रदेशिन्या पल्लववत् कोमलवामकरतर्जन्या, स्थानस्थानसंस्पृष्टतारतन्त्रीगुणां स्थाने स्थाने-उपयुक्तस्थाने, संस्पृष्टाः-संघृष्टाः, तारतन्त्रीरूपाः-अत्युचधननशीलतन्त्रीरूपाः, गुणाः-तन्तवो यस्यास्तादृशीम् [झ] । च पुनः, अस्याः वीणायाः, रणितं ध्वनिः, उच्चचार उच्चरितम् , कीदृशम् ? तारतमम् अत्युच्चतरम् । पुनः तत्क्षणक्षोभितसकलवनदेवतावृन्दं तत्क्षणे-सद्यः, क्षोभितं-सम्भ्रमितं, सकलं-समस्तं, वनदेवतावृन्दं-वनाधिष्ठातृदेवगणो येन तादृशम् ; पुनः किन्नरकुलैः किन्नरजातीयगायकदेवगणैः, सविस्मयं साश्चर्यम् , आकर्ण्यमानं श्रूयमाणम् , कीदृशैः ? आनन्दमुकुलितहष्टिभिः तदाकर्णनानन्दनिमीलितलोचनैः, पुनः गलितनिजगीतस्मयैः निवृत्तनिजगानाभिमानैः, पुनः अभ्यर्णवर्तिषु निकटवर्तिषु, तरुनिकुओषु वृक्षपिहितोदरगृहेषु, बद्धगोष्ठीमण्डलैः बद्ध-दृढरचित, गोष्ठीरूपं-सभारूपं,
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तिलकमञ्जरी
किंनरकुलैर्मन्दरालोडितजलराशिजलमिव स्पष्टमूर्च्छनागमकरचितं प्रभातकालग्रहचक्रमिव दर्शितप्रकाशसर्वस्वरविशेषं मरुस्थलमित्र कलमविकलग्रामतानमतिशयितसुरतप्रगल्भकेरली कण्ठमणितं रणितम् [ञ ] । आगतं च तच्छ्रवणगोचरमाकर्णयन्ने काग्रेण चेतसा स्वल्पमप्यकृतवारण: कर्णतालैः कपोलमदपरिमलाकृष्टानामलगणानां स वारण: श्रान्त इव सुप्त इव कीलित इव गलित चैतन्य इव क्षणमात्रमभवत् । निःस्पन्दसकलावयवं च तं क्षितित लन्यस्त सरलश्लथकरमपास्तकवलमाबद्धाच्छधवलस्थूलबिन्दुभिः स्रवद्भिरनवरतमानन्दबाष्पैः पारितोषिकप्रदानाय कुम्भमौक्तिकप्रकरमिव सृजन्तमतिचिरमवलोक्य संजातसंमदस्तत्क्षणमेव'
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टिप्पनकम्—स्मयः-दर्पः, मन्दरालोडितजलरा शिजलमिव स्पष्टमूर्च्छनागमकरचितम् एकत्र व्यक्तमूर्च्छभुजङ्गमकरव्याप्तम्, अन्यत्र व्यक्तमूर्च्छनारागान्तरप्रवेशरचितम्, प्रभातकालग्रहचक्रमिव दर्शितप्रकाशसर्वस्वरविशेषम् एकत्र प्रकटितदीप्तिसर्वस्वादित्यशेषम्, अन्यत्र प्रकटितव्यक्तिसकलषड्जादिस्वरभेदम्, मरुस्थलमिव कलमविकलन(मतानम् एकत्र कलमशालिरहितग्रामविस्तारम्, अन्यत्र कलं - मधुरम्, परिपूर्णरागत्रयैकविंशतितानम् [अ] ।
मण्डलं-गणो यैस्तादृशैः; पुनः मन्दरालोडितजलराशिजलमिव मन्दरेण - तदाख्यपर्वतेन, आलोडितं -मथितं, जलराशेःससुद्रस्य, जलमित्र, स्पष्टमूर्च्छनागमकरचितं स्पष्टं-स्फुटं यथा स्यात् तथा, मूर्च्छनायाः - स्वरारोहणावरोहणक्रमस्य, गमकम्अभिव्यञ्जकं, रचितं-रचना यस्य तादृशम्, “स्वरः संमूच्छितो यत्र रागतां प्रतिपद्यते । मूर्च्छनामिति तां प्राहुः कवयो ग्रामसम्भवाम् ॥” इति मूर्च्छनालक्षणम्, पक्षे स्पष्टा मूर्च्छा - नष्टचैतन्यता येषां तादृशैः, नागैः सर्वैः सामुद्रिकैर्गजैर्वा, मकरैःजलचरजातिविशेषैश्च, चितं व्याप्तम् ; पुनः प्रभातकाल ग्रहचक्रमिव प्रातः कालिकग्रहमण्डलमिव, दर्शितप्रकाश सर्वस्वरविशेषं दर्शितप्रकाशाः - दर्शिताभिव्यक्तिकाः, सर्वे- समस्ताः, स्वरविशेषा - निषादादिस्वरभेदा येन यत्र वा तादृशम्, पक्षे दर्शितंदृष्टिगोचरतामापादितं, प्रकाशसर्वस्वं - प्रकाशात्मकसकलसम्पत्तिर्येन तादृशो रविः - सूर्यः, शेषः - अवशेषो यत्र तादृशम् ; पुनः मरुस्थलमिव मरूप्रदेश इव, कलमविकलग्रामतानं कलम् - अव्यक्तमधुरं, पुनः ग्रामः - " यथा कुटुम्बिनः सर्वेऽप्येकीभूता भवन्ति हि। तथा स्वराणां सन्दोहो ग्राम इत्यभिधीयते ॥" इत्युक्तलक्षणः स्वरसंदोहविस्तारः, तानः- “विस्तार्यन्ते प्रयोगाय मूर्च्छना शेषसंश्रया । तालास्तेऽप्यूनपञ्चाशत् सप्तस्वरसमुद्भवाः ॥" इत्युक्तो गानाङ्गस्वरविशेषः, तौ अविकलौ - परिपूर्णौ यत्र तादृशम्, पक्षे कलमैः-शालिभिः, विकलः - शून्यः, ग्रामतानः - ग्रामगणो यत्र तादृशम् ; पुनः अतिशयितसुरतप्रगल्भकेरलीकण्ठमणितम् अतिशयितं - तिरस्कृतं, सुरतप्रगल्भानां रतिप्रौढानां केरलीनां - केरलदेशविलासिनीनां कण्ठमणितं - कण्ठोत्थितं रतिकूजितं येन तादृशम् [ अ ] । श्रवणगोचरं श्रुतिपथम् आगतं आरूढं, तत् अनुपदवर्णितं वीणाकणितम्, एकाग्रेण समाहितेन, चेतसा मनसा, आकर्णयन् शृण्वन्, कर्णतालैः कर्णात्मकतालव्यजनान्दोलनैः, कपोलमदपरिमलाकृष्टानां गण्डस्थलस्यन्दिदानजलोत्कटगन्धकृताकर्षणानाम्, अलिगणानां भ्रमरगणानां स्वल्पमपि किञ्चिदपि, अकृतवारणः वीणाकणानाकर्णनावधानवशेन अकृतापसारणः, सः प्रकृतः, वारणः हस्ती, श्रान्त इव श्रमाकुलित इव पुनः सुप्त इव शयित इव, पुनः कीलित इव शृङ्खलित इव, पुनः गलितचैतन्य इव ध्वस्तचैतन्य इवेति सर्वत्रोत्प्रेक्षा, मूच्छित इवेत्यर्थः, क्षणमात्रं किञ्चित् कालं, अभवत् समपद्यत । च पुनः, निःस्पन्दसकलावयवं निश्रेष्टनिखिलाङ्ग, पुनः क्षितितलन्यस्तसरलश्लथकरं क्षितितले - भूतले, न्यस्तः - निक्षिप्तः, सरलः - अवक्रः, श्लथः शिथिलश्व, करः- शुण्डादण्डो येन तादृशम्, पुनः अपास्तकवलं त्यक्तग्रासम्, पुनः आबद्धाच्छधवलस्थूलविन्दुभिः आबद्धाः- विधृताः, अच्छाः-निर्मलाः, धवलाःशुभ्रवर्णाः, स्थूलबिन्दवः-स्थूलजलकणा यैस्तादृशैः, अनवरतं निरन्तरं, स्त्रवद्भिः स्यन्दमानैः, आनन्दबाष्पैः प्रमोदाश्रुभिः पारितोषिक प्रदानाय पारितोषार्थद्रव्योपहरणाय, कुम्भमौक्तिकप्रकरं मस्तकस्थमुक्ताफलसमूहं, सृजन्तं वितरन्तम्, इ.-. त्युत्प्रेक्षा, तं हस्तिनम्, अतिचिरं अतिदीर्घकालम्, अवलोक्य दृष्ट्वा, सञ्जातसंमदः उत्पन्नहर्षः, तत्क्षणमेव
६ तिलक०
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४२
टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता। बद्धा परिकरं च क्षिप्रतरपातिभिः पदक्षेपैरुपासर्पत् । दूरविततस्तम्भनिश्चलं च क्रमेण निजमिव प्रासादमतितुङ्गमप्युदप्रविकटेन दन्तसंक्रमेणाध्यारोहत् [८] । आरूढमात्र एव च तत्र स द्विपः सपदि तां विमुच्य वल्लकीरवश्रवणजनितामानन्दनिद्रामुन्मुद्रितलोचनश्चचाल तस्माच्छैलपरिसरात् । अङ्कुशोऽङ्कश इति श्रुत्वा च सत्वरं कुमारव्याहारमतिरभसप्रधावितैः संभ्रमस्खलितगतिभिरनवरतकृततर्जनैः प्राजनपाणिभिः परिकरवृन्दैः पृष्ठतः कृतानुगमनो गमनवेगोड्डीनसंध्यारागनिमकुम्भसिन्दूरपूरो दूरोच्छलितशृङ्खलागुणद्विगुणतारटकारेण घण्टाद्वयेन घटिताभ्यर्णवर्तिजनकर्णरोगः, 'एष गच्छति' 'एष गच्छति' 'इतो गतः' 'इतो गतः' इति परस्परमुदस्तदक्षिणकरेण दर्शयता सशोकेन राजलोकेनावलोक्यमानो झगित्यदर्शनमगात् [3] ।
अथाकर्णितकुमारहरणवृत्तान्तभयसंभ्रान्तानि चलत चलतेति सत्वरादिष्टयथादृष्टसनिकृष्टाश्ववाराणि
टिप्पनकम्-दूरविततस्तम्भनिश्चलम् एकत्र स्तम्भः-स्तम्भनम् , अन्यत्र भालानम् [८] ।
तत्कालमेव, परिकरं दृढ़गात्रबन्ध, बद्धा कृत्वा, क्षिप्रतरपातिभिः अतिशीघ्रताशालिभिः, पदक्षेपैः पादन्यासैः, उपासर्पत् समीपमगच्छत् । च पुनः, निजं खकीय, प्रासादमिव राजभवनमिव, दूरविततस्तम्भनिश्चलं दूरविततेन-दूरपर्यन्तविस्तृतेन, अत्यन्तेनेत्यर्थः, स्तम्भन-स्तम्भनेन, अत्यन्तजडीभावेन, पक्षे दूरविततैः-अतिदीर्घः, स्तम्भैः-गृहावष्टम्भकस्थाणुभिः, निश्चलं-स्थिरम् , पुनः अतितुङ्गं अत्युन्नतम् , अपि, तमिति शेषः, उदयविकटेन उन्नतविशालेन, दन्तसंक्रमेण दन्तरूप. मार्गेण, पक्षे दन्तमयसोपानमार्गेण, क्रमेण क्रमिकगत्या, पादेन वा, अध्यारोहत् आरूढ़वान् [ट च पुनः, तत्र तस्मिन् , कुमार इत्यर्थः, आरूढमात्रे कृतारोहणमात्रे, आरोहणानन्तरमेवेत्यर्थः, स प्रकृतः, द्विपः हस्ती, सपदि तत्क्षणे, वल्लकीरवश्रवणजनितां वीणाक्वणनश्रवणजनितां, ताम् अनुभूताम् , आनन्दनिद्रां आनन्दयुक्तनिद्रा, विमुच्य त्यक्त्वा, मुद्रितलोचन: उद्घाटितनयनः सन् , तस्मात् अधिष्ठितात्, शैलपरिसरात् पर्वतप्रान्तात्, चचाल चलितुं प्रवृत्तः । च पुनः, 'अङ्कशः, अङ्कुशः' इति, सत्वरं ससम्भ्रम, कुमारव्याहारं हरिवाहनस्य वचनं श्रुत्वा श्रवणगोचरीकृत्य, अतिरभसप्रधावितैः अतिरभसेन-अतित्वरया, प्रधावितैः-कृतप्रधावनैः, पुनः सम्भ्रमस्खलितगतिभिः सम्भ्रमेण-अतित्वरावशेन, स्खलिता-मार्गभ्रष्टा, गतिः-गमनं येषां तादृशैः, पुनः अनवरतकृततर्जनः निरन्तरोद्धोषितगजभर्त्सनात्मकवाक्यैः, पुनः प्राजनपाणिभिः अङ्कुशहस्तैः, परिकरवृन्दैः परिवारगणैः, पृष्ठतः पश्चात् , कृतानुगमनः अनुसृतः, पुनः गमनवेगोड्डीनसन्ध्यारागनिभकुम्भसिन्दूरपूरः गमनवेगेन-अतिक्षिप्रगमनवशेन, उड्डीनः-उत्क्षिप्तः, सन्ध्यारागनिभः-संध्याकालिकारणधुतितुल्यः, कुम्भसिन्दूरपूरः-मस्तकस्थसिन्दूरराशिर्यस्य तादृशः, पुनः दूरोच्छलितशृङ्खलागुणद्विगुणतारटङ्कारेण दूरम्, उच्छलितैः-उद्धृतैः, शृङ्खलागुणैः-निगडरज्जुभिः, द्विगुणतारः-द्विगुणोच्चः, टङ्कारः-तीवध्वनिविशेषो यस्य तादृशेन, घण्टादयेन स्कन्धोभयभागावलम्बिघण्टायुगलेन, घटिताभ्यर्णवर्तिजनकर्णरोगः घटितः-उद्भावितः, अभ्यर्णवर्तिजनाना-निकटस्थितलोकानां, कर्णरोग:-कर्णव्यथा येन तादृशः, पुनः एषः अयम्, एतत्स्थानस्थ इत्यर्थः, गच्छति पलायते, पुनः एषः अयम्, एतत्स्थानस्थः, गच्छति, इतः अस्मिन् स्थाने, गतः पलायितः, पुनः इतः अस्मिन् स्थाने, गतः, इति इत्थम् , उदस्तदक्षिणकरेण उत्क्षिप्तदक्षिणहस्तद्वारा, दर्शयता दृष्टिपथमानयता, सशोकेन शोकाकुलेन, राजलोकेन
अवलोक्यमानः निरीक्ष्यमाणः स गज इति शेषः, झगिति शीघ्रम् , अदर्शनम् अदृश्यताम् , दृष्टिपथाद् बहिरित्यर्थः, अगात् प्राप्तवान् []। ..अथ अनन्तरम् , अनीकनायकवृन्दानि सेनापतिगणाः, वेगात् सम्भ्रमवशात्, सर्वतः परितः, अधावन्त उपसृतवन्ति। कीदृशानि? आकर्णितकुमारहरणवृत्तान्तमयसम्भ्रान्तानि आकर्णितेन-श्रुतेन, कुमारहरणवृत्तान्तेनप्रकृतगजकृतहरिवाहनापहारवार्तया, यद् भयं तेन सम्भ्रान्तानि-संक्षुभितानि; पुनः चलत चलत अपसरत अपसरत, इति इत्थं, सत्वरादिष्टयथादृष्टसन्निकृष्टाश्ववाराणि सत्वरं-ससंभ्रमम् , आदिष्टाः-आज्ञप्ताः, यथादृष्टं - दर्शनानुसारं, सन्निकृष्टाः
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तिलकमञ्जरी गमनवेगश्रमश्वाससन्नपदातिसैन्यशून्यीकृतपुरोभागानि दूरविच्छिन्नच्छत्रधारपतिस्वशक्तिकृतानुसरणानि केशहस्तैरपि जवानिलार्धप्रसारितकुसुममालैर्द्विरदसंयमनाय सज्जीकृतवरत्रैरिव नयनपक्ष्मभिरपि प्रतिपन्नवर्त्मभि
रोन्मुखैर्वनविभागावलोकनपरैरिव चरणैरप्युभयतश्चलितपादकटकैरश्वपार्श्वेषु निरर्गलं वल्गद्भिर्धावमानैरिव प्रकटिताकूतानि सत्वराध्यासिताशुगत्वरवरतुरङ्गाणि वेगादधावन्त सर्वतः पर्वतोपकण्ठावासितान्यनीकनायकवृन्दानि [3] | समरकेतुरपि तत्कालसंनिहितराजपुत्रपरिवृतः प्रजविनां वाजिनां बलेन कवलयन्निव सपर्वतसरित्तटावटामटवीमितस्ततो दत्ततरलदृष्टिः 'इदमग्रतो धावति तद्दानगन्धावकृष्टमलिपटलम् , इतः श्रूयतेविप्रकर्षादनतिपटु घण्टारणितम् , इतः पूर्णशशिबिम्बमालाविडम्बीनि वननिम्नगावतारकर्दमे घटितपरिपाटीनि जलभृतानि पदमुद्रामण्डलानि, एतन्मार्गतरुशाखा शिखाने विलग्नमभिनवमृणालतन्तुकलापकोमलमनिलाहतं
टिप्पनकम्-प्रतिपन्नवर्त्मभिः एकत्र वर्म-मार्गः, अन्यत्र पक्ष्मोद्गमस्थानम् । [पक्ष्मोद्गमस्थानं च-नेत्रावरक. रोमराज्याधारभूतनेत्रावरकचर्मपुटमयस्थानं च] [ड] ।
सभिहिताः, अश्ववाराः-अश्ववाहका यैस्तादृशानि; पुनः गमनवेगश्रमश्वाससन्नपदातिसैन्यशून्यीकृतपुरोभागानि गमनवेगश्रमेण-धावनजन्यखेदेन, यः श्वासः-नासिकोत्थितवायुः, तेन सन्नैः-क्लान्तैः, पदातिभिः-पादगामिसैनिकैः शून्यीकृतःरिक्तीकृतः, पुरोभागः-अग्रभागो येषां तादृशानि; पुनः दूरविच्छिन्नच्छत्रधारपङ्किस्वशक्तिकृतानुसरणानि दूरविच्छि नया-दूरविघटितया, छत्रधारपतया-छत्रधारिश्रेण्या, खशक्त्या-खसामर्थेन, कृतम् , अनुसरणम्-अनुगमनं येषां तादृशानि; पुनः प्रकटिताकूतानि स्फुटीकृतेङ्गितानि, कैः ? केशहस्तैरपि केशकलापैरपि, कीदृशैः ? जवानिलार्धप्रसारितकुसुममालै जवानिलेन-वेगजन्यवायुना, अर्ध-अर्धभागे, प्रसारिता-विस्तारिता, कुसुममाला-पुष्पमाला येषु तादृशैः, अत एव द्विरदसंयमनाय प्रकृतगजनियन्त्रणाय, सन्जीकृतवरत्रैरिव सज्जीकृता-परिष्कृता, वरत्रा-गजबन्धनरजुयस्तादृशैरिवेत्युत्प्रेक्षा; पुनः कैरपि ? नयनपश्मभिरपि नेत्रावारकरोमराजिभिरपि, कीदृशैः ? प्रतिपन्नवर्त्मभिः प्रतिपन्नम् -आधारतया आरोढुं वा स्वीकृतम्, वर्म-नेत्राच्छादकचर्मपुटं यैस्तादृशैः, पक्षे प्रतिपन्नं-अन्वेषणाय स्वीकृतं, वर्म-मार्गो यैस्तादृशैः, दूरमद्तं मुखम्-अग्रं येषां तादृशैः, अत एव वनविभागावलोकनपरिव वनसम्बन्धितत्तत्प्रदेशदर्शनोद्यतैरिवेत्युत्प्रेक्षा; पुनः कैरपि चरणैरपि पादैरपि, कीदृशैः उभयतः भागद्वये, चलितपादकटकैः चलितौ-चलितुं प्रवृत्ती, पादकटको-पादवलयो, नूपुरावित्यर्थः, येषु तादृशैः, पक्षे पादकटकैः-पदगामिसैन्यैः, पुनः अश्वपार्वेषु अश्वनिकटेषु, अश्वानामुभयतः पीठाधोभागेषु वा, निरर्गलं अप्रतिहतं, वल्गद्भिः गच्छद्भिः, अत एव धावमानैरिव शीघ्रगमनप्रवृत्तैरिवेत्युत्प्रेक्षा; पुनः कीदृशानि ? सत्वराध्यासिताशुगत्वरवरतुरङ्गाणि सत्वरं-क्षिप्रम् , अध्यासिता:-अध्यारूढाः, आशुगत्वराः-क्षिप्रगमनशीलाः, वराः-श्रेष्ठाः, तुरङ्गाः-अश्वा यैस्तादृशानि; तुरङ्गस्थाने 'कुरङ्ग' इति पाठे तु "कुरङ्ग ईषत्ताम्रः स्याद्धरिणाकृतिको महान्" इत्युक्ता मृगविशेषाः कुरङ्गाः; पुनः पर्वतोपकण्ठावासितानि पर्वतान्तिकनिवासितानि []| समरकेतरपि तदाख्यहरिवाहनसुहृदपि, तत्कालसन्निहितराजपुत्रपरिवृतः तत्कालसन्निहितैः-तत्क्षणान्तिकस्थैः, राजपुत्रैः-नृपकुमारैः, परिवृतःपरिवेष्टितः सन् , प्रजविनां अतिक्षिप्रताशालिना, वाजिनां अश्वानां, बलेन शक्त्या सेनया वा, सपर्वतसरित्तटावटां पर्वतैः, सरित्तटैः-नदीतीरैः, अवटै:-गर्तप्रदेशैश्च, सहिताम् , अटवीं अरण्यम्, कवलयचिव प्रसन्निव, इतस्ततः अत्र तत्र, दत्ततरलदृष्टिः क्षिप्तचञ्चललोचनः, "तहानगन्धावकृष्ट तस्य-प्रकृतगजस्य, दानगन्धेन मदपरिमलेन, अवकृष्ठभूभाकृष्ठम् , इदम् , अलिपटलं भ्रमरराशिः, अग्रतः अग्रे, धावति उड्डीयते; पुनः इतः अस्मिन् स्थाने, विप्रकर्षात् दूरत्वाद्धेतो, अनतिपटु अनत्यन्ततीत्रं, घण्टारणितं घण्टाध्वनिः, श्रूयते; पुनः इतः अस्मिन् प्रदेशे, पूर्णशशिबिम्बमालाविडम्बीनि पूर्णचन्द्रमण्डलसमूहानुकारीणि, वननिम्नगावतारकर्दमे वननदीप्रवेशस्थानस्थपङ्के, घटितपरिपाटीनि बद्धपतिकानि, पुनः जलभृतानि जलाप्लुतानि, पदमुद्रामण्डलानि चरणचिह्नगणाः, सन्तीति शेषः; पुनः एतत् प्रत्यक्षभूतं, कर्णचामरं प्रकृतगजकर्णावलम्बिमुगविशेषबालव्यजनं, घूर्णति श्रमति, कीदृशम् ? मार्गतरुशाखाशिखाग्रे मार्गवर्ति।
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टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता । घूर्णति कर्णचामरम् , इदमुभयतः प्रकीर्णमग्रकरपुष्करेण क्षरति पर्यन्तवल्लिपल्लवेभ्यस्तुहिनलवनिकरहारि शीकरबिन्दुजालकम्' इति समासन्नगजगमनशंसिभिः पुरोयायिनां सैनिकानामालापैः कियन्तमपि मार्गमर्पिताश्वासः संकलमपि दिनमटव्यामवहत् [ढ] । अस्ताचलतटाभिलाषिणि च तिग्मदी धितौ धृताध्वधूपिताश्वतत्रैः प्रवर्तितो निवासग्रहणाय राजपुत्रैरेकत्र सुलभतृणकाष्ठसलिले शैलसिन्धुरोधसि स्थितिमकल्पयत् । अतिमात्रमल्पीभूतभूपात्मजपुनदर्शनाशश्च प्रेर्यमाणोऽपि वारंवारमवनिपतिभिराग्रहेण नाहारमग्रहीत् । गृहीतगाढचिन्तामौनश्च दृढसमाधिस्थ इव लक्ष्यमाणः प्रतिक्षणक्षिप्ततप्तायतश्वासपिशुनितासमाधिदेवतास्मरणवन्ध्यां सन्ध्यामत्यवाहयत् । तरुतलप्रसारिते च तुरगपृष्ठास्तरणचर्मणि निषण्णो विषण्णेनान्तरात्मना चिन्तयन् कुमारमुद्दिश्य तानि तान्यनिष्टानि कथञ्चिदपि तामनेककल्पायतैकैकयामां त्रियामामनयत् । उद्गते च दिनपतौ पुरस्तात् प्रतिष्ठासुः प्रेष्ठेन सेनावण्ठवर्गेण नास्ति गतिरप्रतस्तुरङ्गिणामिति निर्वर्तितो गमनात् तत्रैव
टिप्पनकम्-[अनेककल्पायतैकैकयामां] चतुर्युग-कल्पः, युग द्वादशसाहस्यम् [ण]। .
वृक्षशाखोर्श्वभागाने, विलग्नं अवलम्बितम् , पुनः अभिनवमृणालतन्तुकलापकोमलं अभिनवः-नवीनो यो मृणालतन्तूनां-बिसतन्तूनां, कलापः-समूहः, तद्वत् कोमलम्, पुनः अनिलाहतं अनिलेन-वायुना, आहतं-उद्वेलितम् ; अग्रकरपु पुष्करेण अग्रे यः करः-हस्तः, शुण्डेति यावत्, तत्पुष्करेण-तदग्रभागेन, उभयतः भागद्वये, प्रकीर्ण प्रक्षिप्तम् , पुनः तुहिनलवनिकरहारि हिमकणगणवन्मनोहरम् , इदं प्रत्यक्षवर्ति, शीकरबिन्दुजालकं जलकणराशिः, पर्यन्तवल्लिपल्लवेभ्यः प्रान्तवर्तिलतापल्लवेभ्यः, क्षरति स्रवति" इति इत्थं, समासन्नगजगमनशंसिभिः समासन्नं-अतिनिकटभूतपूर्व, यद् गजस्य-प्रकृतहस्तिनः, गमनं, तच्छंसिभिः-तत्सूचकैः, पुरोयायिनां अग्रगामिना-सैनिकानाम् , आलापैः आभाषणैः, कियन्तमपि कतिपयमपि, मार्गम् , अर्पिताश्वासः अर्पितः-प्रापितः, आश्वासः-सान्त्वना यस्य तादृशः, सकलमपि सम्पूर्णमपि, दिनम् , अटव्यां वने, अवहत् व्यतीतवान् [ढ]च पुनः, तिग्मदीधितो सूर्ये, अस्ताचलतटाभिलाषिणि अस्ताचलैकदेशाभिलाषिणि सति, अस्ताचलारोहणोन्मुखे सतीत्यर्थः, धृताध्वधूपिताश्वतन्त्रैः धृताः-अवस्थिताः, गमनान्निवृत्ता इत्यर्थः, अवधूपिताः-मार्गसंतप्ताः, अश्वतन्त्राः-प्रधानाश्वा येषां तादृशैः, राजपुत्रैः नृपकुमारैः, निवासग्रहणाय विश्रान्तये, प्रवर्तितःप्रेरितः सन् , सुलभतृणकाष्ठसलिले सुलभानि-अनायासलभ्यानि, तृणानि-काष्ठानि, सलिलानि-जलानि च यस्मिस्तादृशे, एकत्र एकस्मिन् , यद्वा एकत्र एकस्मिन्नेव स्थाने इति पूर्वविशेषणघटकसौलभ्येऽन्वेति, शैलसिन्धुरोधसि पर्वतीयनदीतीरे, स्थिति निवासम् , अकल्पयत् अकरोत् । च पुनः, अतिमात्र अत्यन्तम् , अल्पीभूतभूपात्मजपुनदर्शनाशः अल्पीभूता-अल्पतामापन्ना, भूपात्मजस्य-हरिवाहनस्य, पुनदर्शनाशा पुनर्देशनसम्भावना यस्य तादृशः सन्, वारंवारं अनेकवारम् , अवनिपतिभिः नृपैः, आग्रहेण आग्रहपूर्वकं, प्रेर्यमाणोऽपि प्रवर्ध्वमानोऽपि, आहारं भोजनं, न अग्रहीत् अकार्षीत् । च पुनः, गृहीतगाढचिन्तामौनः गृहीतम्-अवलम्बितं, गाढ़चिन्तया-अत्यन्तचिन्ताजन्यं, मौनं-मूकत्वं येन तादृशः, दृढसमाधिस्थ इव दृढ़ः-अशक्यव्युत्थानो यः, समाधिः-ध्यानविशेषरूपो योगः, तल्लम इव, लक्ष्यमाणः प्रतीयमानः, अपि, प्रतिक्षणक्षिप्ततप्तायतश्वासपिशुनितासमाधिः प्रतिक्षणं-क्षणं क्षणं, क्षिप्तेन-प्रवर्तितेन, तप्तेन-उष्णेन, आयतेनदीर्घेण च, श्वासेन, पिशुनिता-सूचिता, असमाधिः-समाध्यभावो यस्य तादृश इति विरोधः, असमः-असाधारणः, आधिःअन्तर्व्यथा यस्य इत्यर्थेन तु परिहारः, तस्मादत्र विरोधाभासो व्यङ्ग्यः, देवतास्मरणवन्ध्यां देवतोपासनशून्यां, सन्ध्यां
यं समयम्, अवहत् व्यतीतवान् । च पुनः, तरुतलप्रसारिते वृक्षाधस्तलविस्तारिते, तुरगपृष्ठास्तरणचर्मणि अश्वपृष्ठावरणभूतचर्मणि, निषण्णः स्थितः सन् , विषण्णेन व्यथितेन, अन्तरात्मना मनसा, कुमारं हरिवाहनम् , उद्दिश्य अधिकृत्य, तानि तानि अनेकविधानि, अनिष्टानि अमङ्गलानि, चिन्तयन् आलोचयन् , अनेककल्पायतैकैकयामां अनेककल्पवत्-दैवयुगसहस्रद्वयवत् , आयतः-दीर्घः, एकैकः-प्रत्येकं, यामः-प्रहरो यस्यास्तादृशी, तां त्रियामां रात्रिं, कथश्चिदपि केनापि प्रकारेण, अनयत् व्यतीतवान् , सर्वत्र समकेतुरिति शेषः । च पुनः, दिनपतौ सूर्ये, उद्गते उदिते सति, पुरस्तात् अग्रे, प्रतिष्ठासुः प्रयातुमिच्छुः, अग्रतः अग्रे, तुरङ्गिणां अश्वगामिना, गतिः मार्गो नास्ति, इति इत्थं,
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तिलकमञ्जरी
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क्षणे गमनदक्षमखिलासु दिक्षु सर्वमात्मपदातिबलमवनिपालसूनोरन्वेष्टारमा दिष्टवान् [ण ] | आत्मनापि मार्गतरुमूलवर्ती परिहृतस्नानभोजनादिकर्तव्यो निवृत्त सकला परव्यापारेण क्षुत्पिपासापरिक्षीणवपुषा परिवृतः प्रधानपुरुषवृन्देन पृच्छन्नादरेण सुहृदुदन्तं प्रत्येकमध्वगानादिनान्तमतिष्ठत् । अस्तपर्यस्तमण्डले च कमलबन्धौ बद्धनिर्वेदः कथञ्चिदागत्य वसतिस्थानमधिकमस्वस्थचेताश्चिन्तामयीमिव प्रबलदत्तदाहवेदना वेगदुःसहां सहासन्नवनदीर्घिकाचक्रवाकमिथुनैर्निशीथिनीमनयत् । ईषद्विकसितालोक एव च वासवककुभि वासरे विनिःसृत्य वसतेः पुनस्तदेव पादपमूलमगमत्, अन्वपालयच्च क्षितिपालसूनोर्व्या वर्तनार्थमनु मार्गप्रधावितानापतिष्यतो हस्तिपकपुरुषान् [ त ] |
अथ मुहूर्तावशेषेऽह्नि दूरादेव विद्राणवदनान्, इतस्ततो निहितशिथिलालसपदान्, असक्तचङ्कमणखेदितेन मुक्तानि जीवितेन, श्वेतायताभिरन्तरान्तरापरिस्रवत्सान्द्ररुधिराभिः खदिरतरुशाखा शिखोल्लेख रेखाभि
टिप्पनकम् - उदन्तः - वार्ता [त ] |
प्रेष्टेन अतिशयप्रियेण सेनावण्ठवर्गेण सेनायां समवेता ये वण्ठाः - " वण्ठः कुन्तायुधे खर्वे भृत्याकृतविवाहयोः” इत्युक्ता अनुचरविशेषाः तत्समूहेन, गमनात् पुरः प्रयाणात्, निवर्तितः सन् तत्रैव तस्मिन्नेव, क्षणे, अखिलासु समस्तासु, दिक्षु, गमनदक्षं प्रयाणक्षमम्, पुनः अवनिपालसूनोः कुमारस्य, हरिवाहनस्येति यावत्, अन्वेष्टारं अन्वेषकं सर्वं समस्तम्, आदिष्टवान् आज्ञप्तवान् [ण ] | आत्मनापि स्वयमपि मार्गतरुमूलवर्ती मार्गवृक्षाधः स्तलस्थः सन्, परिहृतस्नानभोजनादिकर्तव्यः परिहृतं त्यक्तं, स्नानभोजनादिकं कर्तव्यं कार्यं येन तादृशः, पुनः निवृत्त सकला परव्यापारेण निवृत्तः, सकलः - समस्तः, अपरः - प्रकृतकुमारापहरणालोचनातिरिक्तः, व्यापारः - क्रिया येन तादृशेन, पुनः क्षुत्पिपासापरिक्षीणवपुषा क्षुत्पिपासाभ्यां बुभुक्षापिपासाभ्यां, परिक्षीणम्-अतिकृशं वपुः शरीरं यस्य तादृशेन, प्रधानपुरुष - वृन्देन मुख्यमुख्यजनतया, परिवृतः परिवेष्ठितः, प्रत्येकं एकैकम्, अध्वगान् पथिकान्, सुहृदुदन्तं सुहृदः - हरिवाह - नस्य, उदन्तं - वार्ताम्, आदरेण प्रीत्या, पृच्छन् जिज्ञासां ज्ञापयन्, आदिनान्तं सायंकालपर्यन्तम्, अतिष्ठत् स्थितवान् । च पुनः, कमलबन्धौ सूर्ये, अस्तपर्यस्तमण्डले अस्तं - पूर्वमंशतोऽस्तं गतं, पश्चात् पर्यस्तं सर्वतोऽस्तं गतं च यद्वा अस्तेअस्ताचले, पर्यस्तं पतितं मण्डलं- बिम्बं यस्य तादृशे सति, बद्धनिर्वेदः आपन्नग्लानिः सन् वसतिस्थानं निजनिवासस्थानं, कथञ्चित् केनापि प्रकारेण, आगत्य उपस्थाय, अधिकं अत्यन्तम्, अस्वस्थचेताः विक्षिप्तहृदयः, आसन्नवनदीर्घिकाचक्रवाक मिथुनैः निकटवर्तिवनवापीस्थचक्रवाकजातीयपक्षिद्वन्द्वैः सह चिन्तामयीमिव चिन्तापूर्णामिव, प्रबलदत्तदाहवेदनावेगदुस्सहां प्रबलम् - अतिमात्रं यथा स्यात् तथा, दत्तायाः - उत्पादितायाः, दाहवेदनायाः - अन्तस्तापदुःखस्य, वेगेन - औत्कट्येन, दुःसहां-दुःखेन सह्यां, निशीथिनीं रात्रिम्, अनयत् व्यतीतवान् । च पुनः, वासवककुभि वासवस्य- इन्द्रस्य, ककुभि - दिशि, पूर्वदिशीत्यर्थः, ईषद्विकसितालोक एव ईषत् किञ्चित्, विकसितः - प्रसृतः, आलोकः - प्रकाशो यस्मिंस्तादृश एवं वासरे दिने, प्रातरेवेत्यर्थः, वसतेः वासस्थानात्, विनिःसृत्य विनिर्गत्य, पुनः तदेव पूर्वेद्युरधिष्ठितमेव, पादपमूलं वृक्षाधःस्थलम्, अगमत् गतवान्। च पुनः, क्षितिपालसूनोः नृपकुमारस्य, हरिवाहनस्येत्यर्थः, व्यावर्तनार्थ परावर्तनार्थम्, अनु मार्गप्रधावितान् प्रतिमार्गं कृतशीघ्रगतिकान्, हस्तिपकपुरुषान् महामात्रजनान्, अन्वपालयत् प्रतीक्षितवान् [त ] |
अथ अनन्तरं, मुहूर्तावशेषे मुहूर्तमात्रावशिष्टे, अह्नि दिने, दूरादेव तान् हस्तिपकजनान् अपश्यत् दृष्टवान्, इत्यश्रेणान्वेति; कीदृशान् ? विद्राणवदनान् म्लानमुखान्; पुनः इतस्ततः अत्र तत्र, निहित शिथिलालस पदान् निहितेनिवेशिते, शिथिले, अलसे - श्रान्ते च पदे-चरणौ यैस्तादृशान् ; पुनः असक्तचङ्क्रमणखेदितेन असक्तम् - अव्यवस्थितं यत चङ्क्रमणं-बम्भ्रमणं, तेन खेदितेन व्यथितेन जीवितेन प्राणैः, मुक्तान् त्यक्तान् इवेत्युत्प्रेक्षा; पुनः श्वेतायताभिः श्वेताभिः-शुभ्रवर्णाभिः, आयताभिः - दीर्घाभिश्च अन्तराऽन्तरा मध्ये मध्ये, परिस्रवत्सान्द्ररुधिराभिः परिस्रवन्ति-: निःष्यन्दमानानि, सान्द्राणि - निबिडानि, रुधिराणि - शोणितानि याभ्यस्तादृशीभिः खदिरतरुशाखा शिखोल्लेख रेखाभिः
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टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता । निरन्तरगवा क्षितेन प्रकामरूक्षत्वचा कायेन दुर्गाटवीपर्यटनमनक्षरं व्याचक्षाणान् , सर्वदा व्यायामेन तक्षितानि तदा तु तेन व्यायामेन क्षुधा च क्षामता परामानीतानि क्षीणजीवनोपायानीव प्रकटवंशपृष्ठमाश्रितानि बिभ्रतो जठराणि, सत्वरचरणपातपरम्परोत्थापितेनारण्यपथरेणुना पाण्डुरीकृतशिरःश्मश्रुकेशान् , अपक्रान्तयौवनावलेपलब्धान्तरया जरयेवागत्य कवलितान् , अप्रसाधितारब्धकार्यचिन्ताश्रान्तपौरुषान, अभिमुखं मुखनिखातदृष्टिमार्गोपविष्टमिष्टस्वामिकुशलवार्ताश्रवणपर्युत्सुकं राजकमवलोक्यावलोक्य लज्जया परस्परस्य पृष्ठे निलीयमानांस्तानपश्यत् [थ] ।
दृष्ट्वा च दूनचेताः समीपागतानकृतप्रणामानेव पप्रच्छ-'भद्राः ! किमाकुला यूयम् , आयात विश्रब्धम् , अवदद्भिरेव युष्माभिरनेन दूरावनतपक्ष्मणा ब्रीडाजडविलोकनेन प्रयत्नरक्षितगलद्वाष्पाम्भसा लोचनद्वयेनैवावेदितमदर्शनं द्विपस्य, तथाप्यलीकाशया खलीकृतः पृच्छामि किञ्चित् , दृष्टः कचिदरण्योद्देशे गच्छत
खदिराख्यवृक्षशाखाग्रभागोद्धर्षणजन्यरेखाभिः, निरन्तरगवाक्षितेन निरन्तरच्छिद्रितेन, प्रकामरूक्षत्वचा प्रकाम-अत्यन्त, रूक्षा-अचिक्कणा, त्वक्-चर्म यस्य तादृशेन, कायेन शरीरेण, अनक्षरं अक्षरोच्चारणं विनैव, दुर्गाटवीपर्यटनं दुर्गादुःखेन गम्या, या अटवी-वनं, तस्या पर्यटनं-परिभ्रमणं, व्याचक्षाणान् व्याहरतः, सूचयत इत्यर्थः पुनः सर्वदा सर्वस्मिन काले, पूर्वकालेऽपीत्यर्थः, व्यायामेन शरीरविस्फारणेन, तक्षितानि तनूकृतानि, तदा तु तस्मिन् काले तु, तेन व्यायामेन, चपुनः, क्षुधा बुभुक्षया, परां अत्यन्तां, क्षामतां कृशताम् , आनीतानि आपादितानि, अत एव क्षीणजीवनोपायानीव क्षीणाः-अपगताः, जीवनस्य-प्राणधारणस्य, उपायाः-भोजनपानादयः प्रतीकारा येषां तादृशानीवेत्युत्प्रेक्षा, प्रकटवंशष्ट प्रकटः-त्वक्क्षयेण प्रकटीभूतो यो वंशः-पृष्ठभागा स्थिपञ्जरः, तस्यापि पृष्ठं-पश्चाद्भागम् , आश्रितानि अन्तर्गतानि, जठराणि उदराणि, बिभ्रतः धारयतः । पुनः सत्वरचरणपातपरम्परोत्थापितेन सत्वराणां-त्वरापूर्वकाणां, चरणपातानापादविक्षेपाणां, परम्परया-धारया, उत्थापितेन-उत्क्षिप्तेन, अरण्यपथरेणना वनमार्गधूल्या. पाण्डरीकृतशिरःश्मश्रकेशान् पाण्डुरीकृताः-पीतसम्बलितशुक्लतामापादिताः, शिरसः-मस्तकस्य, इमश्रणः-दाढिकासम्बन्धिनश्च, केशा येषां तादृशान् । पुनः अपक्रान्तयौवनावलेपलब्धान्तरया अपक्रान्तेन-अपगतेन, निवृत्तेनेत्यर्थः, यौवनावलेपेन-तारुण्यमदेन, तदपगमेनेत्यर्थः, लब्धं-प्राप्तम् , अन्तरं-अवकाशो यया तादृश्या, जरया वार्धक्यावस्थया, आगत्य उपस्थाय, कवलितानिव प्रस्तानिवेत्युत्प्रेक्षा; पुनः अप्रसाधितारब्धकार्यचिन्ताश्रान्तपौरुषान् अप्रसाधितम्-अनिष्पादितम् , आरब्धं-उपकान्तं . च, यत् कार्य-मजाफहतहरिवाहनान्वेषणं, तच्चिन्तया, श्रान्तं-निवृत्तकार्य, पौरुषं-शक्तिर्येषां तादृशान् ; पुनः लजया लज्जावशेन, परस्परस्य अन्योऽन्यस्य, पृष्ठे पश्चाद्भागे, निलीयमानान् तिरोभवतः, किं कृत्वा? राजकं राजसमूहम् , अवलोक्य भवलोक्य दृष्ट्वा दृष्ट्वा, कीदृशम् ? अभिमुखं सम्मुखस्थं, पुनः मुखनिखातदृष्टिमार्गोपविष्ठं मुखे-मुखमण्डलमध्ये, निखातायाः-निवेशितायाः, दृष्टेः, मार्गे-गोचरे, उपविष्ट-स्थितम् , पुनः इष्टस्वामिकुशलवार्ताश्रवणपर्युत्सुकम् , इष्टस्यश्रोतुमाकासितस्य, खामिकुशलस्य-हरिवाहनशुभस्य, या वार्ता-वृत्तान्तः, तच्छ्रवणे, पर्युत्सुकम्-अत्यन्तोत्कण्ठितम् [थ]।
च पुनः, दृष्ट्वा तानवलोक्य, दूनचेताः परितप्तहृदयः, समरकेतुरिति शेषः, समीपागतान निकटमायातान् , अकृतप्रणामानेव प्रणामात् प्रागेव, प्रपच्छ पृष्टवान् , तानिति शेषः । किमित्याह-भद्राः! कल्याणिनः ! यूयं भवन्तः, किं कस्माद्धेतोः, आकुलाः-व्यग्राः, विश्रब्धं सविश्वासम् , आयात आगच्छत; अवदद्भिरेव अकथयद्भिरेव, ष्माभिः भवद्भिः, दावनतपक्ष्मणा दूरम् , अवनतम्-नम्रीभूत, पक्ष्म-नयनोपरिस्थरोमराजियस्य तादृशेन, पुनः ब्रीडाजडविलोकनेन वीडया-लज्जया, जड-शिथिलतामापन्नं, विलोकन-दर्शनव्यापारो यस्य तादृशेन, पुनः प्रयत्नरक्षितगलद्वाष्पाम्भसा प्रयलेन-प्रयासेन, रक्षितम्-अधःक्षरणानिवारितं, गलत्-अन्तःस्यन्दमानं, बाष्पाम्भ:-अश्रुजलं यस्य तादृशेन, अनेन प्रत्यक्षवर्तिना, लोचनद्वयेनैव नयनयुगलेनैव, द्विपस्य प्रकृतहस्तिनः, अदर्शनं दर्शनाभावः, आवेदितं सूचितम् । तथाऽपि तदावेदनेऽपि, अलीकाशया मिथ्याऽऽशया,-खलीकृतः तुच्छतामापादितः सन् , किञ्चित् किमपि, पृच्छामि जिज्ञासाम् भावेदयामि, कचित् कस्मिंश्चित् , अरण्योद्देशे वनप्रदेशे, गच्छतः, उच्छन्नमूर्तेः अदृश्याकृतेः, तस्य प्रकृतस्य, मृगाधमस्य
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तिलकमञ्जरी
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स्तस्योच्छन्नमूर्तेर्मृगाधमस्य गतिमार्गः ।' त एवमनुयुक्ताः समरकेतुना निःश्वस्य दीर्धमाघ्रातमनसो मन्युना प्रणम्य शनकैः सगद्गदं जगदुः -- 'युवराज ! न केवलं गमनमार्गः, सोऽपि दुष्टात्मा पापकर्मभिर्दृष्टोऽस्माभिः । केवलं यद्व्यावर्तनाशया तस्य पृष्ठे प्रधाविताः, यं चान्वेषयद्भिरनुभूतो दिनत्रयमसावसद्यः क्षुत्पिपासाकृतः परिक्लेशः, यं चानीय युवराजेन योजयितास्म इति पुरा चिन्तितमस्माभिः, स नास्ति सकलमेदिनीचक्रचन्द्रमाः कुमारः' इत्यभिधाय बाष्पजललवानधोमुखाः ससृजुः [द] । युवराजस्तु तदकाण्डकुलिशपाशपातप्रख्यमाकर्ण्य तेषां वचनमक्रमोपचितेन पूरितः परमशोकेन – 'भद्राः ! किमद्यापि कथयिष्यथ, श्रुतं श्रोतव्यम्, उपसंहरत वार्ताम्, अतः परमशक्तः श्रोतुमस्मि' इत्युदीर्यावच्छाद्य च त्वरितमुत्तरीयवाससा सोत्तमाङ्ग
'हा सर्वगुणनिधे ! हा बुधजनैकवल्लभ ! हा प्रजाबन्धो ! हा समस्तकलाकुशल ! कोसलेन्द्रकुलचन्द्र ! हरिवाहन ! कदा द्रष्टव्योऽसि' इति विलपन्नेव मीलितेक्षणः क्षणेनैव निकटोपविष्टस्य खड्ग प्राहिणो जगाम पर्यस्त - विग्रहस्तिर्यगुत्सङ्गम् । अत्रान्तरे निरन्तरोदितरुदितरवसंभेदमेदुरो दारयन्निव दयालुहृदयानि रोधोरन्ध्र
टिप्पनकम् - अनुयुक्ताः पृष्टाः । मन्युना दैन्येन [द] |
अधमगजस्य, गतिमार्गः गमनमार्गः, दृष्टः दृष्टिगोचरीकृतः । समरकेतुना एवं अनेन प्रकारेण, अनुयुक्ताः पृष्टाः, ते हस्तिपकजनाः, दीर्घ विस्तृतं निःश्वस्य नासिकापवनं मुक्त्वा मन्युना शोकेन, आघ्रातमनसः व्याप्तहृदयाः सन्तः, प्रणम्य नमस्कृत्य, शनकैः मन्दं, सगद्गदं अव्यक्ताक्षरसहितम्, जगदुः उक्तवन्तः । किमित्याह-युवराज ! केवलं गमनमार्गः गमनमार्ग एव न, किन्तु दुष्टात्मा दुष्टखभावः सोऽपि गजोऽपि पापकर्मभिः दुष्टकर्मवशवर्तिभिः अस्माभिः, दृष्टः साक्षात्कृतः, केवलं किन्तु, यड्यावर्तनाशया यस्य- कुमारस्य, परावर्तनाकाङ्क्षया, तस्य गजस्य, पृष्ठे पश्चाद्देशे, प्रधाविताः सत्वरं गताः, वयमिति शेषः । च पुनः, यं कुमारम्, अन्वेषयद्भिः गवेषयद्भिः अस्माभिरित्यध्याहारः, दिनत्रयम्, असह्यः सोढुमशक्यः, क्षुत्पिपासाकृतः बुभुक्षापिपासाप्रयुक्तः, असौ परिक्लेशः अतिकष्टम्, अनुभूतं भुक्तम्, च पुनः, यं कुमारम्, आनीय उपस्थाप्य, युवराजेन कुमारेण भवता सह, योजयितास्मः सम्मेलयितास्मः, इति इत्थम्, अस्माभिः पुरा पूर्वं चिन्तितं आलोचितं, सकलमेदिनीचक्रचन्द्रमाः समस्तभूमण्डलचन्द्रखरूपः, सः प्रकृतः कुमारः, हरिवाहन इत्यर्थः, नास्ति न वर्तते इति इत्थम्, अभिधाय उक्त्वा, अधोमुखाः अवनतवदनाः सन्तः, बाष्पजललवान् अनुजलबिन्दून्, ससृजुः मुक्तवन्तः [द] |
युवराजस्तु समरकेतुस्तु, अकाण्डकुलिशपाशपातप्रख्यम्, अकाण्डे - अनवसरे, कुलिशपाशस्य - निन्द्यवज्रस्थ, असह्यवज्रस्येत्यर्थः, यः पातः - पतनं तत्प्रख्यं तत्तुल्यं, तेषां हस्तिपकजनानां तत् अनुपदोक्तं वचनम्, आकर्ण्य श्रुत्वा, अक्रमोपचितेन युगपत्प्रवृद्धेन, परमशोकेन अत्यन्तशोकेन, पूरितः व्याप्तः सन्, 'भद्राः ! कल्याणवन्तः 1 अद्यापि अधुनापि, किं कथयिष्यथ वक्ष्यथ, श्रोतव्यं श्रोतुं योग्यं श्रुतं वृत्तं वार्तां प्रकृतवृत्तान्तम्, उपसंहरत समाद्भुत, अतः अस्मात् परं अनन्तरं श्रोतुं तद्वार्ता श्रवणगोचरीकर्तुम्, अशक्तः असमर्थः, अस्मि' इति इत्थम्, उदीर्य उक्त्वा, च पुनः, सोत्तमाङ्गं उत्तमाङ्गेन- मस्तकेन सहितम्, अङ्गं शरीरावयवम्, उत्तरीयवाससा उत्तरीयवस्त्रेण, अवच्छाय आच्छाय, हा सर्वगुणनिधे ! निखिलगुणाकर !, हा बुधजनैकवल्लभ ! विद्वज्जनपरमप्रिय 1 हा समस्तकला कुशल ! अशेषकलाकोविद ! कोसलेन्द्रकुलचन्द्र ! कोसलेश्वरकुमुदकानन विकासकचन्द्र !, हरिवाहन ! तदाख्ययुवराज !, कदा कस्मिन् काले, द्रष्टव्योऽसि द्रष्टुं शक्योऽसि, इति इत्थं, विलपन्नेव क्रन्दन्नेव, मीलितेक्षणः मुद्रितनेत्रः, क्षणेनैव क्षणमात्रेण, निकटोपविष्टस्य समीपोपविष्टस्य, खड्गग्राहिणः खङ्गघारिणः, उत्सङ्गं कोडं, पर्यस्तविग्रहः विक्षिप्तगात्रः सन्, तिर्यक् कुटिलं, जगाम गतवान् । अत्रान्तरे अस्मिन्नवसरे, निरन्तरोदितरुदितरवसम्मेदमेदुरः निरन्तरं -अविरतम्, उदितानां - उत्थितानाम्, रुदितरवाणां - रोदनशब्दानाम्, सम्भेदेन-मिश्रणेन, मेदुरः सान्द्रः, अत एव दयालुहृदयानि सदयहृदयानि, दारयन्निव भिन्दन्निव, दारुणः भीषणः, राजवृन्दस्य राजसमूहस्य, आक्रन्दः विलापः, रोधोरन्ध्र वटवित्ररम्,
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टिप्पनक - परागविवृतिसंवलिता ।
माचस्कन्दं दारुणो राजवृन्दस्याक्रन्दः । तेन च प्रकाममार्तेन बान्धवजनेनेव सत्वरेणोपसृत्य श्रवणमूलमवबोधितः स धीरमुत्थाय शिथिलितविलापश्चचाल सिंहलाधिपसुतः शिबिरम् । अनुचरावलम्बितबाहुयुगलश्च विगलद्भिरविरलैरथुपटलैरनवलोकितपथः कथञ्चिदाससाद शयनीयसदनम् [ध ] |
www
प्रविश्य च क्षितितलावस्थापितकुथास्तरणपर्यस्तदेहो निवारिताशेषपरिजनासत्तिरविरतप्रवृत्तिभिः श्वासपवनैरिवाहतेन प्रसरत।नुपदमास्पदीकृतो दाहदहनेन सततवाष्पसलिलसङ्गादामूलमङ्कुरितमिव निःसंख्यतां गतं दुःखभारमुद्वहन् मानसेन क्षणं निषण्णः क्षणमासीनः क्षणं परावर्तमानो मनुज लोकावासविद्वेषेण द्वैधमत्रजन्तीं महीमपतदुपरि ब्रह्माण्डमदलत् सहस्रधा हृदयमक्षीयमाणमेकक्षणेनायुः पुनः पुनः साधिक्षेपमाक्रोशन् 'भ्रातः, विघटितः स ते शुभग्रहदृष्टिपातः, गता वृथात्वमधिकृत्य तथाविधा नैमित्तिकादेशाः, क्षीणश्चक्रवर्तिलक्षणानामनुभावः, विसंवदितमुदितं राज्यलक्ष्म्या विगतलक्षणस्य मे भाग्यदोषेण, येन भुवन
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टिप्पनकम् - कुथः - [ चित्र ]वर्णकम्बलः [न]
'रोदोरन्धम्' इति पाठे तु द्यावाभूमिमध्यम्, आचस्कन्द आक्रान्तवान् । च पुनः प्रकामं अत्यन्तम्, आर्तेन व्यथिसेन, बान्धवजनेनेव बन्धुवर्गेणेव सत्वरेण त्वरासहितेन तेन राजवृन्दाकन्देन, श्रवणमूलं कर्णमूलम्, उपसृत्य उपगत्य, अवबोधितः विज्ञापितः सन्, सः प्रकृतः, सिंहलाधिपसुतः सिंहलद्वीपाधिपतिकुमारः, समरकेतुरित्यर्थः, शिथिलितविलापः मन्दीकृताक्रन्दः, धीरं शनैः, उत्थाय शिबिरं सैन्यावासं चचाल गन्तुं प्रवृत्तः । च पुनः, अनुचरावलम्बितबाहुयुगलः किङ्करगृहीतोभयभुजः, विगलद्भिः निपतद्भिः, अविरलैः सान्द्रैः, अश्रुपटलैः अश्रुराशिभिः, अनवलोकितपथः अदृष्टमार्गः, शयनीयसदनं शयनगृहं कथञ्चित् केनापि प्रकारेण, आससाद गतवान् [ ध ] | च पुनः प्रविश्य शयनगृहे प्रवेशं कृत्वा, क्षितितलावस्थापितकुथास्तरणपर्यस्तदेहः क्षितितले-भूमितले, अवस्थापितेआस्तीर्णे, कुथास्तरणे - 'झुल' इति ख्याते गजपृष्ठस्थाप्यचित्रवर्णकम्बलमये शयनसाधने दर्भमये वा शयनसाधने, “कुथः स्यादास्तरणदर्भयोः” इत्यनेकार्थसंग्रहः, पर्यस्तदेहः - विक्षिप्तशरीरः; पुनः निवारिता शेषपरिजनासप्तिः निवारिता-निषिद्धा, अशेषाणां समस्तानाम्, परिजनानां परिवाराणाम्, आसत्तिः - सान्निध्यं येन तादृशः, पुनः अविरतप्रवृत्तिभिः निरन्तरनिर्गतिभिः, श्वासपवनैः श्वासवायुभिः, आहतेनेव प्रज्वालितेनेव, अनुपदं प्रतिस्थानं, प्रसरता व्याप्नुवता, दाहदहनेन अन्तस्वापाग्निना, आस्पदीकृतः आश्रयीकृतः, पुनः सततबाष्पसलिलसङ्गात् अनवरतमश्रुजलसम्पर्कात्, आमूलं मूलपर्य न्तम्, अङ्कुरितमिव सञ्जाताङ्कुरमिव, निःसंख्यतां असंख्यतां गतं प्राप्तं, दुःखभारं दुःखसमूहं, मानसेन अन्तःकरणेन, उद्वहन् गृह्णन्, क्षणं क्षणमात्रम्, -निषण्णः स्थितः पुनः क्षणं क्षणपर्यन्तम्, आसीनः उपविशन्; पुनः क्षणं क्षणमात्रं, परावर्तमानः पार्श्वपरिवर्तनं कुर्वन्, मनुजलोकावासविद्वेषेण मनुजलोकानां क्षणिकसंयोगशीलानां मनुष्यजनानाम्, यद्वा मनुजलोकस्य - मर्त्यभुवनस्य, आवासेन - निवासस्थानेन, यो विद्वेषः- अप्रीतिः, तेन द्वैधं द्विधाभावं, खण्डद्वयमित्यर्थः, अव्रजन्तीं अप्राप्नुवत, महीं पृथ्वीम् उपरि ऊर्ध्वभागे, अपतत् तद्विधाकरणार्थमस्रंसमानं, ब्रह्माण्डं उपरितनभुवनराशिम्, पुनः सहस्रधा सहस्रभागैः, अदलत् अवदीर्यमाणं, हृदयं स्वहृदयदेशम् पुनः एकक्षणेन क्षणमात्रेण, अक्षीयमाणं अविनश्यत्, आयुः स्वजीवनकालम्, पुनः पुनः अनेकवारं साधिक्षेपं सधिक्कारम्, आक्रोशन् भर्त्सयन्, 'भ्रातः ! सखे !, ते तव, स सर्वजनप्रसिद्धः, शुभग्रहदृष्टिपातः शुभग्रहाणां - केन्द्र गतबृहस्पतिप्रभृतीनाम्, दृष्टिपातः - सम्मुख वर्तित्वं, विघटितः निवृत्तः, कथमन्यथेदृशी दशा स्यादित्यर्थः ; पुनः त्वां भवन्तं, हरिवाहनमित्यर्थः, अधिकृत्य आश्रित्य ये नैमित्तिकादेशाः नैमित्तिकानां-शुभशकुनाचेदकानां दैवविदामित्यर्थः, आदेशाः - शुभाशंसनानि, ते वृथात्वं निष्फलत्वं, विरुद्धफलकत्वमिति यावत्, गताः प्राप्ताः; पुनः चक्रवर्तिलक्षणानां अखण्डमहीमण्डलाधिपत्यचिह्नानाम्, अनुभावः प्रभावः, क्षीणः ध्वस्तः; विगतलक्षणस्य नष्टशुभलक्षणस्य मे मम, भाग्यदोषेण दैववैगुण्येन, राज्यलक्ष्म्या राजकुलाधिष्ठात्र्या लक्ष्मीदेव्याः, विसंवदितं विसंवाद :- प्रतिकूलोक्तिः, उदितं सर्वत्रोत्थितम्, तद्योग्ययुवराजापहारादिति भावः । येन यस्मात् कारणात्, भुवन
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तिलकमञ्जरी त्रयख्यातविक्रमस्तस्मादपि करटिकीटादापदं प्राप्तोऽसि' इत्यादि विलपन् विलीननिद्रो विद्राणदेहातिर्विस्मृतनिजज्ञातिपक्षः स कथमपि क्षपामनयत् । आचकाङ्क्ष च तत्कालमेव कालं कर्तुम् [न]।
अथ समन्ततः प्रदीपितकाष्ठमवगताशयेनेव प्रभातानेहसा प्रकाशितमुदञ्चदर्चिश्चक्रवालं चिताचक्रमिव चण्डांशुमण्डलमवलोक्य संकलितशोकः सकलशर्वरीजागरणखिन्नानुद्वाष्पचक्षुषः क्षोणिपालानाजुहाव । निकटोपविष्टांश्च तानवनतमुखान् सदुःखानवलोक्य कश्चित् कालमावद्धाञ्जलिरुवाच - 'भो भो भूमिपतयः ! किमेवमुद्विग्नमानसास्तिष्ठथ, किं न कुरुथ प्रस्तुतानि कार्याणि, कृतं भवद्भिः कुमारस्य पुरुषकारोचितं यत् कर्तव्यम् , पृष्ठतः प्रतिष्ठमानैरनुसृतो दिनमशेषम् , अन्वेषितः प्रेषितपदातितत्रैस्तत्र तत्राटवीगहनेषु, प्रतीक्षितः क्षुत्पिपासापरिक्षीणकायैरेष्यतीत्याशया मार्गदेशोपविष्टैरहोरात्रत्रितयम् । अधुना तु किं कुरुथ, निधनं प्रापितो वः पौरुषावलेपो बलघता देवेन, दूरं गतोऽसौ, तदलमेतच्चिन्तया, कुरुत सांप्रतकालोचितं कृत्यम् [प] । अद्यैव कमलगुप्तं पुरस्कृत्य यात साकेतम् , अर्पयताधिकारिणामत्र यत्किञ्चिदर्जितं कुमारेण
त्रयख्यातविक्रमः त्रिभुवनप्रसिद्धपराक्रमः, त्वमिति शेषः, तस्मात् करटिकीटात् हस्तिरूपक्षुद्रजन्तोः, अपि, आपदं विपत्ति, प्राप्तोऽसि अनुभूतवानसि । इत्यादि एवमादि, विलपन् परिदेवयन् , विलीननिद्रः विलीना-निवृत्ता, निद्रा यस्य तादृशः, पुनः विद्राणदेहद्युतिः विद्राणा-म्लाना, देहद्युतिः-शरीरकान्तिर्यस्य तादृशः, पुनः विस्मृतनिजज्ञातिपक्षः विस्मृतःउपेक्षितः, निजज्ञातिपक्षः-स्वबन्धुवर्गो येन तादृशः, सः समरकेतुः, कथमपि केनापि प्रकारेण, क्षपां रात्रिम् , अनयत् व्यतीतवान् । च पुनः, तत्कालमेव तत्क्षणमेव, कालं खमृत्युं, कतुं निष्पादयितुम् , आचकाङ्क्ष अभिलषितवान् [न]।
अथ अनन्तरं, समन्ततः सर्वतः, प्रदीपितकाष्ठं प्रदीपिता-उज्वलिताः, काष्टाः-दिशो येन तादृशं, पक्षे प्रदीपितानिप्रज्वालितानि, काष्ठानि-इन्धनानि यत्र तादृशम् , पुनः अवगताशयेनेव अवगतः- ज्ञातः, आशयः-तस्य मरणाभिप्रायो येन तादृशेनेवेत्युत्प्रेक्षा, प्रभातानेहसा प्रातःकालेन, प्रकाशितं प्रकल्पितम् , पुनः उदश्चदर्चिश्चक्रवालं उदञ्चत्- उद्गच्छत् , अर्चिषां-किरणानां, पक्षे ज्वालायाः, चक्रवालं-मण्डलं यत्र तादृशं, चण्डांशुमण्डलं चण्डांशोः-सूर्यस्य, मण्डलं-बिम्बं, चिताचक्रमिव चितामण्डलमिवेत्युत्प्रेक्षा, अवलोक्य दृष्टा, संकलितशोकः उपसंहृतकुमारापहारशोकः सन् , सकलशर्वरीजागरणखिन्नान् समग्ररजनीनिद्राक्षयश्रान्तान् , उद्बाष्पचक्षुषः उद्गताश्रुलोचनान् , क्षोणिपालान् नृपान् , आजुहाव आहूतवान् , समरकेतुरिति शेषः। च पुनः, निकटोपविष्टान् पार्थोपविष्टान् , अवनतमुखान् अधोमुखान् , सदु:खान् दुःखान्वितान् , तान् प्रकृतनृपतीन् , अवलोक्य निरीक्ष्य, कश्चित् कियन्तं, कालम् , आबद्धाञ्जलिः रचिताञ्जलिः सन् , उवाच उक्तवान् , किमित्याह-भो भो भूमिपतयः! नृपतयः, एवम् अनेन प्रकारेण, उद्विग्नमानसाः उद्घान्तहृदयाः, किं कुतः, तिष्ठथ वर्तध्वे, प्रस्तुतानि उपक्रान्तानि, कार्याणि स्वखकर्माणि, किं किमर्थं, न कुरुथ सम्पादयथ, पुरुषकारोचितं स्वपौरुषानुगुणं, कुमारस्य प्रकृतयुवराजस्य, तं प्रतीत्यर्थः, यत् कर्तव्यं कर्तुमुचितं, तद् भवद्भिः युष्माभिः, कृतं अनुष्ठितम् , पृष्ठतः पश्चात् , प्रतिष्ठमानैः प्रयाणं कुर्वद्भिः, भवद्भिरित्यध्याहारः, अशेषं समस्तं, दिनम् , अनुसृतः पुनः अनुधावितः, स कुमार इति शेषः, पुनः तत्र तत्र तेषु तेषु, अटवीगहनेषु वनदुर्गेषु, प्रेषितपदातितन्त्रैः प्रेषितप्रधानपादगामिभिः, भवद्भिरिति शेषः, अन्वेषितः गवेषितः, पुनः क्षुत्पिपासापरिक्षीणकायैरपि बुभुक्षापिपासालान्तशरीरैरपि, एष्यति आगमिष्यति, इत्याशया अनया सम्भावनया, मार्गदेशोपविष्टैः तदागमनमार्गरूपस्थानोपविष्टैः, भवद्भिरिति शेषः । अहोरात्रत्रितयं दिनरात्रित्रयं, प्रतीक्षितः कृतप्रत्यागमनप्रतीक्षः, सर्वत्र, स कुमार इति शेषः, अधुना तू तत्तत्प्रतिक्रियानन्तरं तु, किं कुरुथ प्रतिकुरुथ, वः युष्माकम् , पौरुषावलेपः पराक्रमाभिमानः, बलवता प्रतिकूलबलेन, दैवेन दुर्भाग्येन, निधनं विनाश, विफलत्वमित्यर्थः, प्रापितः, तत् तस्माद्धेतोः, एतच्चिन्तया एतदनुतापेन, अलं न किमपि फलम् ; सांप्रतकालोचितं प्रातःसन्ध्योचितं, कृत्यं कार्य, कुरुत सम्पादयत [प] । पुनः अद्यैव अस्मिन्नेव दिने, कमलगुप्तं तदाख्यसेनापति, पुरस्कृत्य अग्रतः कृत्वा, साकेतं अयोध्यापुरी, यात गच्छत; अत्र अस्मिन् स्थाने, कुमारेण प्रकृत
७ तिलक.
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टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता। द्रव्यजातम् , आराधयत मुक्त्वा छद्म पादपद्मद्वयं कोशलेन्द्रस्य । मुश्चत च सर्वात्मना मय्यपेक्षाम् , अहं हि प्रथमदर्शन एव देवेन भृत्यतां कुमारस्य नीतः, न तद्विरहितेन मया क्षणमपीह स्थातव्यम् , न च प्रवर्तितेन प्रदेशादितः पदमपि प्रतीपं गन्तव्यम् , तदनुजानीत मां जीवितपरित्यागाय यावदद्यापि न शृणोमि कुमारस्य चरमवार्ताम् , यावच्चैष चिरदर्शनोत्कण्ठितो न मे मार्गमवलोकयति तावत् त्वरित एव लोकान्तरगतं तमनुगच्छामि' इत्युदीर्य चिन्तितचिताप्रवेशश्चरणोत्क्षेपसमकालमुत्थितेन व्योमविवरव्यापिना शिबिरलोकाक्रन्दकलकलेन सूचितगतिक्रमः शैलनिम्नगापुलिनमुद्दिश्योदचलत् [फ] । - अत्रान्तरे पुरुषेणानुगम्यमानः प्रविश्य दौवारिको हर्षो नाम हर्षगद्गदमवादीत्-'कुमार! कुरु दृष्टिदानेनानुग्रहम् , एष परितोषनामा कमलगुप्तसेनापतेरत्यन्तमाप्तो लेखहारकः कुमारहरिवाहनस्य कुशलवार्तामावेदयति । श्रुत्वा चेदमाकस्मिकमतर्कितामृतवृष्टिकल्पं वचो झटिति विघटिताशेषशोकान्धकारं, पातालपङ्कादिवोन्मग्नम् , प्रलयघनदुर्दिनादिव निःसृतम् , कृतान्तमुखकुहरादिवाकृष्टम् , महाकालकरकपालोदरादिवोच्छलितम् , तक्षकाशीविषविषवेगवेदनयेवोन्मुक्तम् , अभिव्यक्तोपलक्षिताकाशकालदिग्विभागमव
युवराजेन, हरिवाहनेनेति यावत्, यत्किञ्चित् यत् किमपि, द्रव्यजातं वित्तराशिः, अर्जितं लब्धं, तत्, अधिकारिणां तत्रत्यधनाध्यक्षाणाम् , अर्पयत अधीनीकुरुत; छद्म व्याज, मुक्त्वा अपहाय, कोशलेन्द्रस्य कोशलाधिपतेः, मेघवाहनस्येत्यर्थः, पादपद्मद्वयं चरणारविन्दयुगलम् , आराधयत सेवध्वम् । च पुनः, सर्वात्मना सर्वथा, मयि, अपेक्षां प्रीति, मुञ्चत त्यजत; हि यतः, अहं प्रथमदर्शन एव प्रथमावलोकनकाल एव, कुमारस्य हरिवाहनस्य, भृत्यतां परिचारकता, दैवेन भाग्येन, नीतः प्रापितः, तद्विरहितेन भृत्योचितकार्यरहितेन, मया, इह इह लोके, क्षणमपि मुहूर्तमपि, न स्थातव्यं स्थातुमुचितं, न जीवितव्यमित्यर्थः । च पुनः, प्रवर्तितेन प्रयातुं प्रेरितेनापि, मयेति शेषः, इतः अस्मात् प्रदेशात् , पदमपि पदमात्रमपि, प्रतीपं प्रतिकूलं, न गन्तव्यं गन्तुं शक्यम्, तत् तस्मात् , अद्यापि अधुनापि, कुमारस्य हरिवाहनस्य, चरमवार्ताम् अन्तिमवृत्तान्तम् , यावत् न शृणोमि श्रवणगोचरीकरोमि, तावदिति शेषः, जीवितपरित्यागाय प्राणविमोचनाय, माम् , अनुजानीत अनुमन्यध्वम् । च पुनः, एषः मनसा सन्निकृष्टः, हरिवाहनः, चिरदर्शनोत्कण्ठितः दीर्घकालं मदर्शनोत्सुकः सन् , मे मम, मार्ग न अवलोकयति पश्यति, मां न प्रतीक्षत इत्यर्थः, तावत् त्वरित एव, लोकान्तरगतं परलोकप्रस्थितं, तं हरिवाहनम् , अनुगच्छामि अनुसरामि, इति इत्थम् , उदीर्य उक्त्वा, चिन्तितचिताप्रवेशः आलोचितचिताप्रवेशः, चिताप्रवेशप्रवृत्त इत्यर्थः, चरणोत्क्षेपसमकालं तत्प्रवेशाय पादोद्वेलनसमकालम् , उत्थितेन उद्गतेन, व्योमविवरव्यापिना गगनरन्ध्रव्यापकेन, शिबिरलोकाक्रन्दकलकलेन सैन्यावासवर्तिजनकृताक्रन्दकोलाहलेन, सूचितगतिक्रमः प्रत्यायितगमनप्रकारः, शैलनिम्नगापुलिनं पर्वतीयनदीजलान्तरालस्थलम् , उद्दिश्य लक्ष्यीकृत्य, उदचलत् प्रस्थितः [फ] ।
अत्रान्तरे अस्मिन्नवसरे, पुरुषेण वक्ष्यमाणलेखहारकजनेन, अनुगम्यमानः अनुस्रियमाणः, हर्षो नाम हर्षसंज्ञकः, दौवारिकः द्वारपालकः, प्रविश्य तत्पार्श्वे प्रवेशं कृत्वा, हर्षगद्गदं हर्षप्रयुक्ताव्यक्ताक्षरं यथा स्यात् तथा, अवादीत् उक्तवान् । किमित्याह-कुमार! युवराज!, दृष्टिदानेन दृष्टिक्षेपेण, अनुग्रहं कृपा, कुरु, कमलगुप्तसेनापतेः तदाख्यसेनानायकस्य, अत्यन्तम् , आप्तः विश्वासास्पदं, परितोषनामा तत्संज्ञकः, अयं लेखहारकः पत्रवाहकः, कुमारहरिवाहनस्य युवराजहरिवाहनस्य, कुशलवाता कुशल वृत्तान्तम् , आवेदयति विज्ञापयति। आकस्मिकं असम्भावितपूर्वम्, अतर्कि कल्पं आकस्मिकामृतवृष्टितुल्यम् , इदम् अनुपदोक्तम् , वचः दौवारिकवाक्यं, श्रुत्वा श्रवणगोचरीकृत्य, विघटिताशेषशोकान्धकारं विघटितः-निवृत्तः, अशेषः-समग्रः, शोकान्धकारः-शोकात्मकान्धकारो यस्य तादृशम् , अत एव पातालपङ्कात् पातालकर्दमात , उन्मन्नमिव उद्गतमिव; पुनः प्रलयघनदुर्दिनात् प्रलयकालि कमेघाच्छन्नदिनात् , निःसृतमिव निर्गतमिव; पुनः कृतान्तमुखकुहरात् यमराजमुखविवरात्, आकृष्टमिव उद्धृतमिव; पुनः महाकालकरकपालोदरात् महाकालस्य - महारुद्रस्य, करकपालोदरातू-हस्त स्थितकपालाभ्यन्तरात्, उच्छलितमिव उत्पतितमिव; पुनः तक्षकाशीविषविषवेदनया
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तिलकमञ्जरी गतात्मीयपरकीयपरिजनमवलोकितासन्नवर्तिसुहृद्वन्धुवर्गमेकहेलोत्तीर्णसर्वाङ्गसंज्वरमुद्वहन्नात्मानमादरप्रहितनयनयुगलो गुरुमिव स्वामिनमिवाराध्यमिव जीवितप्रदमिवेष्टदैवतमिव सुचिरमवलोक्य तं पुरुषमाहूय संभाव्य चासनदानवचनेन ‘भद्रमुख ! भद्रमसदृशसौहार्दशालिशीलामृतमहोदधेः परमसुहृदः कमलगुप्तस्य' इत्यवोचत् [व]।
अथ स तेन संभ्रमवता तस्य संभाषणेन कृतकृयमात्मानं मन्यमानो भृत्यवत् समुपसृत्य सत्वरकृतप्रणामः 'अद्य भद्रं मच्चक्षुषा महाभागदेहारोग्यदर्शनेन' इत्युदीर्योत्तरीयपटपल्लवप्रान्तसंयतं सयत्नमादाय दक्षिणकरेणापतो लेखमक्षिपत् [भ] ।
सिंहलेश्वरतनयोऽपि तं गृहीत्वा निरीक्ष्य च क्षणं तूष्णीमेव दृष्ट्वा किमपि हृष्टचेताः सतर्षमर्पितश्रवणस्य शृण्वतः सकलस्यापि राजकस्य स्पष्टवर्णोच्चारया वाचा स्वयमवाचयत् [म]।
टिप्पनकम्-सम्भाव्य संमान्य [व] ।
तक्षकजातीयस्य, आशीविषस्य-सर्पराजस्य, यद् विषं-गरलं, तद्वेदनया-तत्पीडया, उन्मुक्तमिव त्यक्तमिवेति सर्वत्रोत्प्रेक्षा, पुनः अभिव्यक्तोपलक्षिताकाशकालदिग्विभागं अभिव्यक्तं-परिस्फुटं यथा स्यात् तथा, उ लक्षितः-प्रतीतः, आकाशस्य कालस्य दिशश्च, विभागः-अवान्तरभेदो येन तादृशम् । पुनः अवगतात्मीयपरकीयपरिजनम् अवगताः-परिचिताः, आत्मीयाःस्वकीयाः, परकीयाः-अन्यदीयाश्च, परिजनाः-परिवारा येन तादृशम् ; पुनः अवलोकितासन्नवर्तिसुहृद्वन्धुवर्ग अवलोकितःदृष्टः, आसन्नवी-पार्श्ववर्ती, सुहृदां-मित्राणां, बन्धूनां च, वर्गः-गणो येन तादृशम् ; पुनः एकहेलोत्तीर्णसर्वाङ्गसंज्वरम् एकहेलया-युगपत् , उत्तीर्णः-विमुक्तः, सर्वाङ्गसंज्वरः-समस्ताङ्गसम्बन्धिसन्तापो येन तादृशम् ; आत्मानं खम् , उद्वहन् धारयन्, आदरप्रहितनयनयुगल: प्रीत्या व्यापारितलोचनद्वयः सन् , गुरुमिव आचार्यमिव, पुनः स्वामिनमिव, खाधिपतिमिव, पुनः आराध्यमिव स्वसेव्यमिव, पुनः जीवितप्रदमिव प्राणाधायकमिव, पुनः इष्टदेवतमिव खोपास्यदेवमिव, तं लेखहारकं, पुरुषं जनं, सुचिरं अतिदीर्घकालम् , अवलोक्य निरीक्ष्य, आहूय स्खनिकटमागमय्य, च पुनः, आसनदानवचनेन आसनार्पणादेशवाक्येन, संभाव्य सत्कृत्य, भद्रमुख! भव्यवदन !, असदृशसौहार्दशालिशीलामृतमहोदधेः असशम् -असाधारण, यत् सौहार्द-सुहृद्भावः, तच्छालि शीलं -स्वभाव एवामृत, तन्महोदधेः-तत्समुद्रस्य, कमलगुप्तस्य तदाख्यत्वत्वामिनः, भद्रं कुशलम् , अस्तीति शेषः, इति इत्थं, अवोचत् कुशलं पृष्टवान् [व]
__ अथ अनन्तरं, सः लेखहारकः, संभ्रमवता औत्सुक्यपूर्णेन, तस्य समरकेतोः, तेन अनुपदोक्तेन, संभाषणेन आलापेन, आत्मानं खं, कृतकृत्यं कृतार्थ, मन्यमानः, भृत्यवत् परिचारक इव, समुपसृत्य सम्यगुपगत्य, सत्वरकृतप्रणामः शीघ्रकृताभिवादनः, 'अद्य अस्मिन् दिने, मच्चक्षुषा मदीयनेत्रेण, महाभागदेहारोग्यदर्शनेन महाभागस्यमहानुभावस्य भवतः, देहारोग्यदर्शनेन-शारीरिकस्वास्थ्यनिरीक्षणेन, भद्रं कुशलम् , अस्तीति शेषः, इति इत्थम् , उदीर्य उक्त्वा, उत्तरीयपटपल्लवप्रान्तसंयतं उत्तरीयपटपल्लवस्य-उत्तरीयवस्त्ररूपपल्लवस्य, प्रान्ते-अञ्चलप्रदेशे, संयत-बद्धं, लेखं पत्रम् , दक्षिणकरेण दक्षिणहस्तेन, सयत्नं यत्नपूर्वकम् , आदाय गृहीत्वा, अग्रतः समरकेतोरने, अक्षिपत् प्रक्षिप्तवान् [भ] ।
सिंहलेश्वरतनयोऽपि सिंहलेश्वरस्य-सिंहलद्वीपाधिपतेश्चन्द्रकेतोः, तनयोऽपि-सुतोऽपि, समरकेतुरपीत्यर्थः, तं लेख, गृहीत्वा हस्तेनादाय, च पुनः, निरीक्ष्य अवठोक्य, क्षणं क्षणपर्यन्तं, तूष्णीमेव निर्वचनमेव, किमपि किञ्चित् , दृष्ट्वा, दृष्टचेताः प्रसन्नहृदयः सन् , सतर्ष साभिलाषम् , अर्पितश्रवणस्य दत्तकर्णस्य, शण्वतः तल्लेखवृत्तान्तमाकर्णयतः, सकलस्यापि समस्तस्यापि, राजकस्य नृपसमूहस्य, वाचनविधौ तमनाहत्येत्यर्थः, स्वयं खेनैव, स्पष्टवर्णोच्चारया स्पष्टः-स्फुटः, वर्णानां-अक्षराणाम् , उच्चारः-उच्चारणं यस्यां तादृश्या, वाचा वाण्या, अवाचयत् पठितवान् [म]।
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टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता। पाठावसाने च तं पुरोलिखितरुचिररेखस्वस्तिकमावासगृहमिव मुहुर्निरीक्ष्य सस्पृहं पांशुकणिकाधूसरितवर्णं गुरुचरणयुगमिवावस्थाप्य शिरसि प्रकृष्टपुण्योदयासादितं प्रधानरत्नालङ्कारमिव वेष्टयित्वा यत्नेन निकटवर्तिनः शय्यापालकस्य हस्ते चकार । व्याजहार च प्रहर्षपुलकितकपोलोदरः--'परितोष ! कदा कमलगुप्तेनैष लेखः प्राप्तः, कुतो वा प्राप्तः' इति [य] । सोऽब्रवीत्- 'एष विज्ञापयामि, श्रूयताम्-इतो वासरादतीतेऽहन्यपराह्नसमये नास्ति कुमार इति विरलविरलं प्रवृत्तायामनिष्टवार्तायामाकुलाकुलेषु विशेषोपलम्भार्थमितस्ततो धावत्सु सैनिकेषु शिरोजठरनिष्ठुराभिघातध्वनिघनेषु प्रबलीभवत्सु प्रतिवेलमबलाजनस्याक्रन्देषु सविधचारिचारणकरुणगीतोत्थापितप्रेक्षकवृन्दपरमनिर्वेदेषु मर्तुमुञ्चलितेषु वेलावित्तकेषु हाकष्टशब्दोच्चारमुखरासु वर्णयन्तीषु विरसतां संसारस्थितेः स्थानस्थानपिण्डितासु पण्डितमण्डलीष्वप्रहततूर्येष्वनारब्धमङ्गलगीतिषु वनाय प्रस्थितेन स्थविरसामन्तलोकेन शोकाश्रुमित्रैः पल्बलवारिभिः प्रारभ्यमाणेषु पुत्रराज्याभिषेकेषु
टिप्पनकम्-पुरोलिखितरुचिररेखस्वस्तिकमावासगृहमिव एकत्र अग्रदेशे लिखितदीप्रलेखः स्वस्तिकबन्धो यस्य स तथोक्तस्तम्, अन्यत्र अग्रे लिखिता रुचिररेखाः स्वस्तिका यत्र तत् तथोक्तम् [य] ।
च पुनः, पाठावसाने पाठसमाप्तौ, आवासगृहमिव नृपनिवासालयमिव, पुरोलिखितरुचिररेखस्वस्तिकं पुरः-अग्रे, लिखिता, रुचिररेखा-मनोहररेखा यस्य तादृशं, स्वस्ति-स्वस्तीति पदं यस्मिंस्ता दर्श, पक्षे पुरः-द्वारदेशे, लिखितारचिता, रुचिरा-मनोहरा, रेखा यत्र तादृशं, स्वस्तिकं-"स्वस्तिकं प्राङ्मुखं यत् स्यादलिन्दानुगतं भवेत् । तत्पार्धानुगतौ चान्यौ तत्पर्यन्तगतोऽपरः” इत्युक्तं राजगृहविशेषं, तं लेख, सस्पृहं सानुरागं, मुहुः अनेकवारम् , निरीक्ष्य दृष्वा, पुनः गुरुचरणयुगमिव गुरुपादद्वयमिव, पांशुकणिकाधूसरितवर्ण पांशुकणिकाभिः-धूलिकणैः, धूसरितः-किञ्चित्पीतश्वेतीकृतः वर्णो यस्य तादृशं, तमिति शेषः, शिरसि मस्तके, अवस्थाप्य धृत्वा, पुनः प्रकृष्टपुण्योदयासादितं प्रकृष्टपुण्योदयेन-उत्कृष्टपुण्यविपाकेन, आसादितं-प्राप्त, प्रधानरत्नालङ्कारमिव प्रशस्तरत्नमयालङ्करणमिव, यत्नेन प्रयासेन, वेष्टयित्वा आच्छाद्य, निकटवर्तिनः पार्श्वस्थस्य, शय्यापालकस्य शय्याधिकृतपुरुषस्य, हस्ते, चकार निक्षिप्तवान् । च पुनः, प्रहर्षपुलकितकपोलोदरः प्रहर्षेण-उत्कृष्टहर्षेण, पुलकितं-उद्भिन्नरोमाञ्चं, कपोलोदरं-कपोलमध्यं यस्य तादृशः, व्याजहार उक्तवान् । किमित्याह-'परितोष! तन्नामक !, कमलगुप्तेन तत्संज्ञकेन त्वत्स्वामिना, एषः अयं, लेखः, कदा कस्मिन् समये, प्राप्तः वा अथवा, कुतः कस्मात् , प्राप्तः लब्धः' इति [य] । सः परितोषः, अब्रवीत् प्रत्युक्तवान् , किमित्याह-एषः अयमहं, विज्ञापयामि बोधयामि, श्रूयतां मयोच्यमानं श्रवणगोचरीक्रियताम् । इतः अस्मात्, वर्तमानादित्यर्थः, वासरात् दिवसात्, अतीते अतिक्रान्ते, अहंनि दिने, पूर्वेद्युरित्यर्थः, अपराह्नसमये पश्चार्धकाले, कुमारः हरिवाहनः, न, अस्ति जीवति, इति अस्याम् , अनिष्टवार्तायां अनभिमतजनश्रुतौ, विरलविरलं मन्दं मन्द, प्रवृत्तायां उत्थितायाम् , उच्चारितायामिति यावत् ; पुनः विशेषोपलम्भार्थ विशेषावधारणार्थम् , आकुलाकुलेषु व्यग्रव्यग्रेषु, सैनिकेषु सैन्येषु, इतस्ततः अत्र तत्र, धावत्सु सत्वरं गच्छत्सुः पुनः शिरोजठरनिष्ठुराभिघातध्वनिघनेषु शिरसः- मस्तकस्य, जठरस्य-उदरस्य च, निष्ठुराभिघातेन-निर्दयताडनेन, यो ध्वनिः, तेन, घनेषु-निबिडेषु, अबलाजनस्य स्त्रीजनस्य, आक्रन्देषु विलापेषु, प्रतिवेलं प्रतिक्षणं, प्रबलीभवत्सु प्रवर्धमानेषु सत्सुः पुनः सविधचारिचारणकरुणगीतोत्थापितप्रेक्षकवृन्दपरमनिर्वेदेषु सविधचारिणां-पार्श्वगामिनां, चारणानां-बन्दिना, करुणगीतैः-शोकपूर्णगानैः, उत्थापितः-उद्भावितः, प्रेक्षकवृन्दस्य-दर्शकगणस्य, परमः-अत्यन्तः, निर्वेदः-ग्लानियस्तादृशेषु, वेलावित्तकेषु वित्ता-विचारिता, वेला-प्रयाणमुहूतं येन तादृशेषु, मौहूर्तिकजनेष्वित्यर्थः, मर्तु मरणाय, उच्चलितेषु प्रस्थितेषुः पुनः हाकष्टशब्दोच्चारमुखरासु 'हा कष्टम्' इति शब्दोच्चारणवाचालासु, स्थानस्थानपिण्डितासु स्थाने स्थाने पुञ्जितासु, पण्डितमण्डलीषु पण्डितगणेषु, संसारस्थितेः संसारस्वरूपस्य, विरसतां निःसारतां, वर्णयन्तीषु वाचा विस्तारयन्तीषु सतीषु; पुनः अप्रहततूर्येषु तूर्याख्यवाद्यविशेषाभिघातशून्येषु, पुनः अनारब्धमङ्गलगीतिषु अप्रवर्तितमङ्गलगानेषु, गानरहितेषु इत्यर्थः, पुत्रराज्याभिषेकेषु स्वस्वकुमाराय राज्यसमर्पणेतिकर्तव्यताभूतस्नपनेषु, वनाय, प्रस्थितेन प्रयातेन, स्थविरसामन्तलोकेन वृद्धक्षुद्रनृपजनेन, शोकाश्रुमित्रैः शोकोद्गतनयन
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तिलकमञ्जरी
संभ्रान्तवण्ठहठनिरुध्यमाननिज देह दारणोद्यतद (सदारके चिताभिमुखचलितचेटी परित्यक्तबालापत्यकटुविलापदलितदयालुहृदयमर्मणि प्राणनिरपेक्षाङ्गरक्षविक्षिप्यमाणद्रविणधावद्द्रमक कुलकृतोदामसंमर्दे दुःखमय इवो - द्वेगमय इव विषादमय इव वर्तमाने निवृत्तगीतनृत्यादिसकलप्राक्तनव्यवहारे स्कन्धावारे सेनाधिपतिरात्मसदना जिरोपविष्टः पार्श्ववर्तिना प्रयत्नविनिवर्तितात्मशोकेन प्रवयसा प्रधानलोकेन राजसूनोः साधयितुमनपायमस्तित्वमनेकधोपन्यस्ताभिरुपपत्तिभिर्मन्दीक्रियमाणजीवितपरित्यागबुद्धिरधोमुखो धरणितलनिहितनिश्चलोद्वापदृष्टिरकस्मादिमं लेखमग्रतो दृष्टवान् [र] |
कस्यायमिति चिन्तयंश्च क्षणमात्रमवलोक्य पृष्ठेऽस्य लब्धप्रतिष्ठानि कुमारनामाक्षराणि जातसंक्षोभो गृहीत्वैनमुद्वेष्ट्यावधार्य च प्रत्यभिज्ञातराजपुत्रलिपिनिवृत्ता परप्रयुक्तिसंशय: शिरसि कृत्वैनं शृण्वतः सकलस्यापि नरपतिवृन्दस्य प्रहर्षगद्गदवचाः स्वयमवाचयत् — स्वस्ति, अटव्या महाराजपुत्र हरिवाहनः कुशली
जलसंसृष्टैः, पल्वलवारिभिः क्षुद्रजलाशयजलैः, प्रारभ्यमाणेषु प्रवर्त्यमानेषु सत्सुः पुनः संभ्रान्तवण्ठहठनिरुध्यमाननिजदेहदारणोद्यतदासदारके संभ्रान्तैः - उद्धान्तैःः, वण्ठैः - " वण्ठः कुन्तायुधे खर्वे भृत्याकृतविवाहयोः" इत्युक्तेरनुचरविशेषैः, हठेन- बलात्, निरुध्यमानाः - निवार्यमाणाः, निजदेहदारणोद्यताः - खशरीरशातनप्रवृत्ताः, दासदारकाः - कर्म कर शिशवो यस्मिंस्तादृशे, पुनः चिताभिमुख चलितचेटी परित्यक्तवालापत्यकटुविलापदलितदयालु हृदयमर्मणि चिताभिमुखंचितासम्मुखं, चलिताभिः- प्रस्थिताभिः, चेटीभिः - दासीभिः परित्यक्तानां बालापत्यानां शैशवावस्थसन्ततीनां, कटुविलापैःकरुणक्रन्दनैः, दलितं- विदीर्णं, दयालूनां दयावतां, हृदयमर्म - हृदयसम्बन्धि मर्मस्थानं यत्र तादृशे, पुनः प्राणनिरपेक्षाङ्गरक्षविक्षिप्यमाणद्रविणधावद्रमककुलकृतोद्दामसम्मर्दे प्राणनिरपेक्षैः - प्राणापेक्षाशून्यैः, मर्तुमुद्यतैरित्यर्थः, अङ्गरक्षैःनृपाङ्गरक्षकजनैः, विक्षिप्यमाणेभ्यः - विकीर्यमाणेभ्यः, द्रविणेभ्यः - धनेभ्यः, धावद्भिः सत्वरमुपनमद्भिः, द्रमककुलैः दरिद्रगणैः, कृतः, उद्दामा–उत्कटः, संमर्द :- सङ्घर्षो यत्र तादृशे, पुनः दुःखमय इव केवलदुःखप्रचुर इव, पुनः उद्वेगमय इव विरहजन्यदुःखाविर्भावपूर्ण इव, पुनः विषादमय इव स्वकार्याक्षमताव्याप्त इव, वर्तमाने, स्कन्धावारे सैन्यावासे, निवृत्तगीतनृत्यादिसकलप्राक्तनव्यवहारे निवृत्तः - निरुद्धः, गीतनृत्यादिरूपः - गाननर्तनादिरूपः सकलः - समस्तः, प्राक्तनः - पुरातनः, व्यवहारो यस्मिंस्तादृशे सति, सेनापतिः सेनानायकः, कमलगुप्त इत्यर्थः, आत्मसदनाजिरोपविष्टः स्वभवनप्राङ्गणोपविष्टः, पार्श्ववर्तिना पार्श्वस्थितेन, प्रयत्नविनिवर्तितात्मशोकेन प्रयत्नेन धैर्याधानप्रयासेन, विनिवर्तितः- निवारितः, आत्मनःस्वस्य, शोको येन तादृशेन, प्रवयसा स्थविरेण, प्रधानलोकेन मुख्यजनेन, राजसूनोः प्रकृतयुवराजस्य, अनपायं शाश्वति• कम्, अस्तित्वं अचलकीर्तिमित्यर्थः साधयितुं सम्पादयितुम्, अनेकधा अनेकप्रकारैः, उपन्यस्ताभिः प्रस्तुताभिः, उपपत्तिभिः युक्तिकलापेन, मन्दीक्रियमाणजीवितपरित्यागबुद्धिः मन्दी क्रियमाणा - शिथिली क्रियमाणा, जीवितपरित्यागबुद्धिः - प्राणपरित्यागसङ्कल्पो येन तादृशः सन् अधोमुखः अवनतवदनः, धरणितलनिहित निश्चलोद्वाष्पदृष्टिः धरणितले- पृथ्वीपृष्ठे, निहिता- निवेशिता, निश्चला - निष्परिस्पन्दा; उद्वाष्पा - उद्गताश्रुश्च दृष्टिर्येन तादृशः, अकस्मात् अतर्कितमेष, इमं प्रत्यक्षं, लेखं पत्रम्, अग्रतः अग्रे, दृष्टवान् दृष्टिगोचरीकृतवान् [र]।
च पुनः, अयं, लेखः पत्रं, कस्य किंसम्बन्धी, इति इत्थं, चिन्तयन् आलोचयन्, अस्य लेखस्य, पृष्ठे पश्चाद्भागे, लब्धप्रतिष्ठानि प्राप्तावस्थितिकानि, लिखितानीति यावत्, कुमारनामाक्षराणि कुमारस्य - प्रकृतयुवराजस्य, यन्नाम हरिवाहनेति तत्सम्बन्धीनि, अक्षराणि, क्षणमात्रं क्षणमेकम्, अवलोक्य दृष्ट्वा, जातसंक्षोभः उत्पन्नसम्भ्रमः, एनं लेखं; गृहीत्वा आदाय, उद्देश्य उद्धाट्य, च पुनः, अवधार्य प्रकृतकुमार सम्बन्धित्वेन निर्णीय, प्रत्यभिज्ञातराजपुत्रलिपि - निवृत्तापरप्रयुक्तिसंशयः प्रत्यभिज्ञाताभिः - तदीयत्वेन प्रत्यक्षीकृताभिः, लिपिभिः - अक्षरैः, निवृत्तः, अपरप्रयुक्तिसंशयःअन्यदीयलिपिसंशयो यस्य तादृशः सन्, एनं लेखं शिरसि मस्तके, धृत्वा आरोग्य, शृण्वतः तत्पत्रस्थवृत्तान्तं श्रवणगोचरीकुर्वतः सकलस्यापि समस्तस्यापि नरपतिवृन्दस्य नृपगणस्य, तदनादृत्य वाचनक्रियायामित्यर्थः, प्रहर्षगद्गदवचाः प्रमोदाव्यक्तवचनः, स्वयं आत्मनैव, अवाचयत् पठितवान् कथमित्याह - स्वस्ति क्षेमम्, अटव्याः वनात् अस्य
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टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता । लौहित्यकूलावासिते विजयिनि निजस्कन्धावारे युवराजसमरकेतुकमलगुप्तपुरःसरांश्च राजपुत्रान् सप्रसादमादिशति-अत्रैव कतिचिदिनानि स्थातव्यम् , ताताम्बयोश्च यथा मदपहारवार्ता श्रुतिपथं नायाति तथा प्रयतितव्यम्' इति [ल]। संवर्तितलेखश्च सर्वतः समवलोक्य 'भद्राः ! केनायमानीतः कुमारसत्को लेखः' इति प्रत्येकं लेखहारकानपृच्छत् । यदा च तेषु 'मयायमानीतः' इति कश्चिन्नाचचक्षे तदा समुद्भूतविस्मयः समासन्नसचिवैः सहालोच्य कर्तव्यमकृतकालक्षेपः क्षितिपालसूनोः प्रतिलेखं स्वयमेवालिखत् । महार्हमणिपीठप्रतिष्ठापितं च तं निवेश्य प्रत्यग्रगोमयोपलेपनशुचौ सुरभिकुसुमप्रकरभाजि प्राङ्गणवितर्दिकोत्सङ्गे, गत्वा च सविधमूर्ध्वस्थित एव बद्धा शिरसि करसंपुटमतिस्फुटोच्चारया गिरा सादरमवादीत् - 'भो भो मनुष्यलोकविहारिणो दिव्याः ! विधायानुग्रहं शृणुत सपरिग्रहस्य मे विज्ञापनां, येन केनचिद् भरतकुलपक्षपातिना देवेन वा दैत्येन वा विद्याधरेण वान्येन था दिव्यलोकनिवासिना देवतावरप्रभावलब्धस्य महानरेन्द्रसूनोः सकलविश्वोपकारिणः कुमारहरिवाहनस्यान्तिकादतर्कितमेवानीय लेखमिममनुकम्पितोऽयमेतावान् नृपतिलोकः, स भूयोऽपि भूत्वा सकरुणः साक्षात् प्रकटितस्वाकारो वा नभस्यन्तर्हितो वा
'आदिशति' इति वक्ष्यमाणक्रियायामन्वयः, महाराजपुत्रहरिवाहनः महाराजस्य-मेघवाहनस्य, पुत्रः-युवराजः, हरिवाहनः, कुशली कुशलान्वितः, विजयिनि विजयशालिनि, पुनः लौहित्यकलावासिते लौहित्याख्यनदतटे निवासं प्रापिते, निज स्कन्धावारे खशिबिरे, स्थितानिति शेषः, युवराजसमरकेतुकमलगुप्तपुरस्सरान् तत्प्रभृतीन् , राजपुत्रान् , सप्रसाद सस्नेहम् , आदिशति विज्ञापयति, अत्रैव अस्मिन्नेव स्थाने, कतिचित् कतिपयानि, दिनानि, स्थातव्यं निवसनीयं, मयेति शेषः, अत्र हृदयवर्तितया प्रत्यक्षे, निजस्कन्धाबारे कतिचिद् दिनानि, स्थातव्यं त्वया स्थितिः कार्या, मदपहारवार्ता मदपहरणवृत्तान्तः, ताताम्बयोः मन्मातापित्रोः, श्रुतिपथं श्रवणमार्ग, यथा येन प्रकारेण, न आयाति आगच्छेत् , तथा तेन प्रकारेण, प्रयतितव्यं प्रयत्नः कर्तव्यः, इति [ल]। च पुनः, संवर्तितलेखः समाप्तलेखवाचनः, सर्वतः परितः, समवलोक्य सम्यनिरीक्ष्य, भद्राः! कल्याणिनः!, कुमारसत्कः प्रकृतयुवराजसम्बन्धी, अयं लेखः, केन आनीतः तत्सकाशादाहतः । इति प्रत्येक एकैकं, लेखहारकान् पत्रवाहकान्, अपृच्छत् । यदा च यदा तु, तेषु लेखहारकेषु मध्ये, कश्चित् कोऽपि, अयं लेखः, मया, आनीत इति न, आचचक्षे उवाच, तदा समुद्भूतविस्मयः समुत्पन्नाश्चर्यः, समासन्नसचिवैः समीपवर्तिमत्रिभिः सह, कर्तव्यं कर्तुमुचितम् , आलोच्य विचार्य, अकृतकालक्षेपः अविहितकालातिक्रमः, क्षितिपालसूनोः हरिवाहनस्य, प्रतिलेख प्रतिपत्रं, खयमेव, अलिखत् लिखितवान् । च पुनः, महार्हमणिपीठप्रतिठापित अतिप्रशस्तमणिमयासनारोपितं, त लेख, प्रत्यग्रगोमयोपलेपनशुची अभिनवगोमयांवला कुसुमप्रकरभाजि सुगन्धिपुष्पराशिसहिते, प्राङ्गणवितर्दिकोत्सङ्गे प्राङ्गणवर्तिवेदिकामध्ये, निवेश्य अवस्थाप्य, च पुनः, सविधं निकटं, गत्वा, ऊर्ध्वस्थित एव उत्थित एव, शिरसि स्वमूर्धनि, करसम्पुटं अनलिं, बद्धा विरचय्य, अतिस्फुटोच्चारया अतिव्यक्तोच्चारणया, गिरा वाचा, सादरं आदरपुरस्सरम् , अवादीत् उक्तवान् । किमित्याह-भो भो हे हे, मनुष्यलोकविहारिणः मर्त्य भुवनविहारिणः!, दिव्या देवाः !, अनुग्रहं अनुकम्पा, विधाय सपरिवारस्य, मे मम, विज्ञापनां निवेदनां प्रार्थनामित्यर्थः, शणुतश्रवणगोचरीकुरुत, कीदृशीमित्याह-भरतकुलपक्षपातिना भरतवंशप्रणयिना, देवेन वा सुरेण वा, दैत्येन वा राक्षसेन वा, विद्याधरेण विद्याधरजनेन वा, अन्येन तद्व्यतिरिक्तेन बा. येन केनचित् , दिव्यलोकनिवासिना देवभुवननिवासिना, देवतावरप्रभावलब्धस्य देवतावरः-लक्ष्मीदेव्या स्वीकृतं पुत्रप्रदानं, तत्प्रभावेण-तन्महिम्ना, प्राप्तस्य, महानरेन्द्रसूनोः महाराजकुमारस्य, सकलविश्वोपकारिणः समस्तलोकोपकारिणः, कुमारहरिवाहनस्य हरिवाहनाख्ययुवराजस्य, अन्तिकात् सकाशात् , अतर्कितमेव अकस्मादेव, इमं प्रत्यक्षीभूतं, लेखं पत्रम् , आनीय उपस्थाप्य, पतावान् एतत्संख्यकः, अयं प्रत्यक्षबी, नृपतिलोकः नृपजनः, अनुकम्पितः अनुगृहीतः, स भूयोऽपि पुनरपि, सकरुणः सदयः, भूत्वा सम्पद्य, साक्षात् प्रकटितस्वाकारो वा साक्षाद् दर्शितस्वरूपो वा,
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तिलकमञ्जरी
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श्रद्धेयवाक्यजनवचनसंचारिताक्षरो वा निवेदयत्वेतत्-कस्मिन् प्रदेशे लेखनिर्दिष्टा सा अटवी ?, के विभागमस्याः कुमारोऽधितिष्ठति ?, केन वर्मना तत्र यात्रा संपद्यते ?, इमं च मणिपीठावस्थापितं प्रापयतु तत्पादमूलमस्मत्प्रतिलेखम्' इति वारद्वितयमुच्चारितवान् [व]।
__ तृतीयवेलायां च क्रिश्चिदुच्चरितवचसि तस्मिन्नकस्मादनतिदूरवर्तिनो निबिडपल्लवोत्पीडपिहितनिःशेषशाखासंचयस्य चूतशाखिनः शिखरदेशादवततार शुकशकुन्तिरेकोऽतिरेकरमणीयाकृतिः, आगत्य चातिवेगेन संमुखमवाङ्मुखस्य पश्यत एव तस्य तं लेखमादाय दूरव्यात्तविकटकोटिना च चञ्चपुटेन झटित्येवान्तरिक्षमुदपतत् [श] । सैन्यपतिरपि उपजातविस्मयः सहान्तिकस्थेन पार्थिवसमाजेन 'कोऽयं शुकः ?, किमर्थमभ्यर्थनानन्तरमेव तरुशिखरादितः क्षिताववतीर्णः ?, किंनिमित्तं च लेखोऽयममुना गृहीतः ?, किं वाऽविलम्बितगतिरुदीचीमेव दिशमाश्रित्य प्रस्थितः ?, किं परमार्थतः शुक एवायमुत शुकव्याजेन कश्चिद् दिव्यः ?' इति कृतानेकविकल्पः स्थित्वाल्पमेव कालं तत्कालमनतिदूरस्थमेहीत्यन्तिके समाहूय सादरं मामवदत्
टिप्पनकम्-व्यात्ता-प्रसारिता [श] ।
नभसि आकाशे, अन्तर्हितः निलीनो वा, श्रद्धेयवाक्यजनवचनसंचारिताक्षरो वा श्रद्धेयम्-आदरणीयं, वाक्यं येषां तादृशानां जनानां-वचनैः, सञ्चारितम्-उच्चारितम् , अक्षरं-वर्णो यस्य तादृशो वा, एतत् इदं, निवेदयतु विज्ञापयतु, किमित्याहलेखनिर्दिष्टा पत्रोल्लिखिता, अटवी अरण्य, कस्मिन् प्रदेशे, अस्तीति शेषः, कुमारः प्रकृतयुवराजः, अस्याः अटव्याः, कं विभागं खण्डम् , अधितिष्ठति आश्रयति, केन पथा मार्गेण, तत्र अटवीविभागे, यात्रा प्रयाणं, संपद्यते सिध्यति, च पुनः, मणिपीठावस्थापितं रत्नमयासनाधिरोपितम् , इमं प्रत्यक्षवर्तिनम् , अस्मत्प्रतिलेखं अस्माकं प्रतिपत्रं, तत्पादमूलं तदीयचरणाधःप्रदेश, प्रापयतु उपस्थापयतु, इति इत्थ, वारद्वितयं वारद्वयम् , उच्चारितवान् उदीरितवान् [व] ।
च पुनः, तृतीयवेलायां तृतीयवारे, तस्मिन् कमलगुप्ते, किञ्चिदुच्चरितवचसि ईषदुचरितवचने सति, अकस्मात् अतर्कितमेव, अनतिदूरवर्तिनः किञ्चिदूरवर्तिनः, निविडपल्लवोत्पीडपिहितनिःशेषशाखासञ्चयस्य निबिडानासान्द्राणां, पल्लवानां-नूतनदलानाम् , उत्पीडेन-समूहेन, पिहितः-आवृतः, निःशेषः-समस्तः, शाखासञ्चयः-शाखासमूहो यस्य तादृशस्य, चूतशाखिनः आम्रवृक्षस्य, शिखरदेशात ऊर्ध्वभागात् , अतिरेकरमणीयाकृतिः अत्यन्तमनोहराकारः, एकः, शुकशकुनिः शुकाख्यपक्षी, अवततार अधस्तादाजगाम । च पुनः, अतिवेगेन अतित्वरया, संमुखं अभिमुखम् , आगत्य उत्पत्य, अवाङ्मुखस्य अधोमुखस्य, तस्य कमलगुप्तस्य, पश्यतः अवलोकमानस्यैव, पश्यन्तमपि तमनाहत्ये
मणिमयपीठाधिष्ठित, लेख, दरव्यात्तविकटकोटिना दूरं व्यात्ता-विस्तारिता, विकटा-बृहती, कोटि:-अग्रभागो यस्य तादृशेन, चञ्चपुटेन पुटकाकारचञ्चवा, आदाय गृहीत्वा, झटित्येव शीघ्रमेव, अन्तरिक्षं गगनम्, उदपतत् उडीनवान् [श] । सैन्यपतिरपि कमलगुप्तोऽपि, उपजातविस्मयः उत्पन्नाश्चर्यः सन् , अन्तिकस्थेन निकट स्थितेन, पार्थिवसमाजेन नृपसमूहेन सह, 'अयं प्रत्यक्षीभूतः, शुकः, कः कीदृशः?, अभ्यर्थनानन्तरमेव प्रकृतप्रार्थनाऽव्यवहितोत्तरक्षणमेव, इतः अस्मात् , तरुशिखरात् वृक्षोर्श्वभागात् , क्षितौ पृथिव्यां, किमर्थ किंनिमित्तम् , अवतीर्णः आपतितः, च पुनः, अयं लेखः प्रतिपत्रं, किंनिमित्तं किमर्थम् , अमुना परोक्षतामापन्नेन शुकेन, गृहीतः प्राप्तः, वा अथवा, अविलम्बितगतिः क्षिप्रगतिः सन् , उदीची उत्तरां एव, दिशम् , आश्रित्य प्राप्य, किं किमर्थ, प्रस्थितः प्रयातः, परमार्थतः वस्तुतः, अयं किञ्चिदेव प्राक् प्रत्यक्षः, किं शुक एव, उत आहोवित्, शुकव्याजेन शुकच्छलेन, कश्चित् कोऽपि, दिव्यः दैवः, इति इत्थं, कृतानेकविकल्पः विहितविविधवितर्कः, कमलगुप्त इति शेषः, अल्पमेव कियन्तमेव, कालं, स्थित्वा विलम्ब्य, तत्कालं तत्क्षणम् , अनतिदूरस्थं किञ्चिदूरस्थितं, माम् , एहि आगच्छ, इति, अन्तिके समीपे, सम्यगाहूय समाहूय, सादरं सप्रीति, अवदत् उक्तवान् । किमित्याह भद्र ! परितोष !, त्वम्, इदानीमेव अस्मिन्नेव क्षणे, अविलम्बितगतिः
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टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता। भद्र! परितोष ! गच्छ त्वमविलम्बितगतिरिदानीमेव तमरण्योद्देशं यत्र युवराजसमरकेतुरद्य गृहीतवानावासम् , अगणितायासश्च गत्वा सत्वरं समर्पयान्तर्विसर्पदुद्दामशोकस्य तस्य शोकदाहवेदनाविच्छेदकारिणममुं कुमारकुशलप्रवृत्तिलेखम् , आचक्ष्व चाखिलक्षोणिपाललोकसमक्षमाश्वासनाय यथादृष्टमेतमप्यादितः प्रभृति सर्वजनविस्मयकरं शुकव्यतिकरम् , अतिभक्तिमानसावनुपलब्धकुमारकुशलवृत्तान्तो न जाने किं व्यवस्यति' इत्यभिधाय स्वहस्तेन लेखं मे समुपनीतवान् । अहं तु तत्क्षणमेव दृष्ट्वा समुत्थितः समुपस्थितानुगुणशकुनद्विगुणितोद्यमश्चन्द्रमण्डलप्रभाप्रकटितावटस्थाणुतृणगुल्मवल्मीकदावोल्मुकेन पूर्वावलोकितेनेव वर्मना विलवयाटवीमविनेन भक्तिनिघ्नजनसुखाराध्यमवन्ध्यप्रसादस्य ते पादपङ्कजमूलमनुप्राप्तः' इत्युक्त्वा विरराम [ष] ।
समरकेतुरप्युपजातपरमानन्दः प्रीतिनिःस्पन्देन चक्षुषा सुचिरमवलोक्य दत्त्वा च सक्षौमयुगलं सकलमङ्गस्पृष्टमात्मीयभूषणगणं 'परितोष ! गच्छ स्वावासम् , आयासितोऽसि संततेनामुना वासतेयीप्रयाणेन' इति व्याहृत्य तं लेखहारकं विससर्ज । निर्वर्तितस्नानदेवतापूजश्च पुनरुक्ततर्जितेन गत्वा गत्वा प्रतीहार
टिप्पनकम्-वासतेयी-रात्रिः। कार्माः-कर्मकराः [स]।
क्षिप्रगतिः सन् , तम् , अरण्योद्देशं वन्यप्रदेश, गच्छ प्रयाहि, यत्र यस्मिन् प्रदेशे, अद्य अधुना, युवराजसमरकेतुः समरकेतुकुमारः, आवासं निवासं, गृहीतवान् कृतवान् । च पुनः, अगणितायासः गमनश्रममगणयित्वा, सत्वरं शीघ्रं, गत्वा, अन्तर्विसर्पदुद्दामशोकस्य अन्तः-अन्तःकरणे, विसर्पन्-वर्धमानः, उद्दामः-उत्कटः, शोकः-इष्टवियोगजदु खाफुलाचित्तवृत्तिर्यस्य तादृशस्य, तस्य समरकेतोः, शोकदाहवेदनाविच्छेदकारिणं शोकाग्निदाहदुःखशमनकर्तारम् , अमुं तं, कुमारकुशलप्रवृत्तिलेखं युवराजहरिवाहनकुशलवार्तापत्रं, समर्पय प्रापय । च पुनः, अखिलक्षोणिपाललोकसमक्षं अशेषनृपसमूहसमक्षं, यथादृष्टं यथाऽवलोकितम् , आदितः आरम्भतः, प्रभृति आरभ्य, सर्वजनविस्मयकरं सकलजनाश्चर्यकारिणम् , एतं किञ्चिद्भुतपूर्व, शुकव्यतिकरं शुकसमागमम् , आश्वासनाय उपसान्त्वनार्थम् , आचक्ष्व आख्याहि, अतिभक्तिमान् अत्यन्तप्रकृतकुमारप्रीतिमान् , असौ समरकेतुः, अनुपलब्धकुमारकुशलवृत्तान्तः अप्राप्तप्रकृतयुवराजकुशलवार्तः सन् , किं व्यवस्यति उद्युक्ते, न जाने निश्चिनोमि । इति इत्थम् , अभिधाय उक्त्वा, स्वहस्तेन निजकरण, लेखं पत्रं, मे मम, समुपनीतवान् समर्पितवान् । अहं तु, तत्क्षणमेव तत्कालमेव, दृष्ट्वा अवलोक्य, समुत्थितः प्रस्थातुं प्रवृत्तः, समुपस्थितानुगुणशकुन द्विगुणितोद्यमः समुपस्थितैः-सम्यगुपनतैः, अनुगुणशकुनैः-अनुकूलशुभावेदकवस्तुभिः, द्विगुणितोद्यमः-द्विगुणीकृतोत्साहः सन् ,चन्द्रमण्डलप्रभाप्रकटितावटस्थाणु-तृण-गुल्म-वल्मीक-दावोल्मुकेन चन्द्रमण्डलप्रभाप्रकटितः-चन्द्रबिम्बद्युतिप्रकाशितः, अवट:-गर्तः, स्थाणुः-क्षीणशाखो वृक्षः, तृणानि, गुल्माः-निःस्कन्धलताः, वल्मीकः-पिपीलिकाद्युपचितमृत्तिकाराशिः, दावोल्मुकानि-दावाग्निदग्धार्धकाष्ठानि यस्मिंस्तादृशेन, अत एव पूर्वावलोकितेनेव दृष्टपूर्वेणेव, वर्त्मना मार्गेण, अटवीं अरण्य, निर्विघ्न विघ्नाभावेन, विलवय अतिक्रम्य, अवन्ध्यप्रसादस्य सफलप्रसन्नताकस्य, ते तव, भक्तिनिघ्नजनसुखाराध्यं भक्तिनिनैः-प्रीतिवश्यैः, जनैः, सुखेन-अनायासेन, आराध्यं प्रसाद्यं, पादपङ्कजमूलं चरणारविन्दाधोदेशम् , अनुप्राप्तः उपागतः, इति इत्थम् , उक्त्वा कथयित्वा, विरराम निवृत्तः [ष] ।
समरकेतुरपि तदाख्यकुमारोऽपि, उपजातपरमानन्दः उत्पन्ननिरतिशयानन्दः, प्रीतिनिःस्पन्देन स्नेहनिश्चलेन, चक्षुषा नेत्रेण, सुचिरं अतिदीर्घकालम् , अवलोक्य दृष्ट्वा, च पुनः, सक्षौमयुगलं कौशेयवसनद्वयसहितम् , अङ्गस्पृष्टं कृताङ्गस्पर्श, सकलं समस्तम, आत्मीयभूषणगणं स्वकीयालङ्कारनिकर, दत्त्वा वितीर्य, 'परितोष!, स्वावासं निजनिवासालयं, गच्छ याहि, सन्ततेन निरन्तरेण, अमुना तेन, वासतेयीप्रयाणेन रात्रिकृतमार्गगमनेन, आयासितः श्रमितः, असि वर्तसे' इति व्याहृत्य उक्तवा, तं प्रकृतं, लेखहारकं पत्रवाहक, विससर्ज त्यक्तवान् । च पुनः, निर्वर्तितस्त्रानदेवतापूजः निर्वर्तितं-संपादितं, स्नानं देवतापूजा च येन तादृशः सन्, पुनरुक्कतर्जितेन पुनरुक्तेन-मुहुः कथनेन,
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तिलकमञ्जरी लोकेन सत्वरमुपहूतैरनुभूतदुःसहप्रभुवियोगदुःखक्षामतनुभिरवनीपतिभिरन्यैश्च प्रणयिभिः प्रधानपुरुषैः सार्धमाहारविधिमन्वतिष्ठत् । उपस्पर्शनादिकृत्यावसाने सर्वदा स्वकर्मावहितकार्मनिर्मिततार्णमन्दिरोदरास्तीर्णमध्यास्य शयनीयमपनीय च क्षणमात्रमुपलब्धनिद्रो द्राधीयसा रजनीजागरणेन जनितमङ्गजाड्यमीषद्वलितनयनः शयननिकटे समुपविष्टं शय्यापालकं तं पूर्वमुपसन्निधीकृतं कुमारसत्कं लेखमयाचत [स] । ढौकितं चोत्थाय सत्वरेण तेन गृहीत्वा गृहीतार्थमपि पूर्वमपूर्वमिव सयत्नमुद्वेष्टय विस्तार्य च पुरस्तात् प्रीतिविस्तारितेन चक्षुषा पिबन्निवोपगृहन्निवान्तः प्रवेशयन्निव पुनः पुनरवाचयत् , अकरोच्च चेतसि कुमारस्य लेखोऽयं स्वहस्तलिखित इति लिपिप्रत्यभिज्ञानात् तावदवगतं, यथा चायमद्याप्यनधिगतगाढपाण्डिम्नि नूतने ताडीपत्रशकले निहितसान्द्रधातुद्रवाक्षरो यथा चावचूर्णितः क्षोदीयसा स्वर्णरेणुकणनिकरेण दृश्यते, तथा कापि दिव्यजनसंचारोचिते वनोद्देशे कृतस्थितिना कुमारेण लिखितः [ह] । किमर्थं पुनरिह स्थानमात्मीयमविशेषेण निर्दिष्टम् , नूनमिष्टोऽहं समरकेतोः, स नामतः प्रकटितेषु निकटवर्तिषु ग्रामनगरादिषु चिह्नेषु विगतसंशयो दूरदेशस्थमपि
तर्जितेन-भसितेन, प्रतीहारजनेन द्वारपालजनेन, गत्वा गत्वा तत् तत् स्थानं गत्वा, सत्वरं क्षिप्रम् , उपहूतैः आहूतैः, अनुभूतदुःसहप्रभुवियोगदुःखक्षामतनुभिः अनुभूतैः-उपभुक्तैः, प्रभुवियोगदुःखैः-प्रकृतयुवराजविरहवेदनाभिः, क्षामा-कृशा, तनु:-शरीरं येषां तादृशैः, अवनीपतिभिः पृथ्वीपतिभिः, अन्यैः तदितरैः, प्रणयिभिः स्नेहिभिः, प्रधानपुरुषैः प्रधानजनैश्च, साधं सह, आहारविधिं भोजनकार्यम् , अन्वतिष्ठत् सम्पादितवान् । उपस्पर्शनादिकृत्यावसाने भोजनोत्तरजलस्पर्शनादिकार्यसमाप्तौ, सर्वदा सदा, स्वकर्मावहितकार्मनिर्मिततार्णमन्दिरोदरास्तीर्ण स्वकर्मावहितैः-निजकार्यसमाहितहृदयैः, कामैः-कर्मशीलैः, गृहनिर्माणकुशलैरित्यर्थः, निर्मितस्य-रचितस्य, तार्णमन्दिरस्य-तृणमयभवनस्य, आस्तीर्ण-विस्तीर्ण, शयनीयं-शय्याम् , अध्यास्य अधिष्ठाय, च पुनः, क्षणमात्रं क्षणपर्यन्तम् , उपलब्धनिद्रः प्राप्तनिद्राकः, द्राधीयसा दीर्घतमेन, रजनीजागरणेन रात्रिनिद्राक्षयेण, जनितं उत्पादितम्, अङ्गजाड्यं शरीरशैथिल्यम् , अपनीय दूरीकृत्य, ईषद्वलितनयनः किञ्चिन्निमीलितनेत्रः सन्, शयननिकटे शय्यासमीपे, समुपविष्टं सम्यगासितं, शय्यापालकं शय्यारक्षक, पूर्व शयनात् प्राक् , उपसन्निधीकृतं तन्निकटस्थापितं, तं, कुमारसत्कं कुमारसम्बन्धिनं, लेखं पत्रम् , अयाचत याचितवान् [स]। च पुनः, उत्थाय ऊर्वीभूय, सत्वरेण शीघ्रण, तेन शय्यापालकेन, ढौकितं आनीतं, तं लेखमिति शेषः, गृहीत्वा आदाय, पूर्व गृहीतार्थमपि विदितार्थकमपि, अपूर्वमिव अपठितपूर्वमिव, सयत्नं सादरम् , उद्वेष्टय उद्घाट्य, च पुनः, पुरस्तात अग्रे, विस्तार्य प्रसार्य, प्रीतिविस्तारितेन स्नेहविस्फारितेन, चक्षुषा नेत्रेण, पिबन्निव रसमाखादयन्निव, पुनः उपगृहन्निव आलिङ्गन्निव, पुनः अन्तः अन्तःकरणे, प्रवेशयन्निव निवेशयनिवेति सर्वत्रोत्प्रेक्षा, पुनः पुनः अनेकवारम् , अवाचयत् पठितवान् । च पुनः, कुमारस्य युवराजहरिवाहनस्य, स्वहस्तलिखितः निजहस्तविन्यस्ताक्षरः, अयं, लेखः पत्रम्, इति इत्थं, चेतसि मनसि, अकरोत् निश्चितवान् । तावदिति वाक्यालङ्कारे, लिपिप्रत्यभिज्ञानात् तदीयत्वेनाक्षरप्रत्यक्षात् , अवगतं विदितम् , अद्यापि अधुनापि, अनधिगतगाढपाण्डिम्नि अप्राप्तसान्द्रपाण्डुताके, अत एव नवीने नूतने, ताडीपत्रशकले तालपत्रखण्डे, यथा येन प्रकारेण, अयं लेखः, निहितसान्द्रधातुद्रवाक्षरः निहितानि-निवेशितानि, सान्द्रधातुद्रवाणां-निबिडधातुपङ्कमयानि, अक्षराणि-लिपयो यत्र तादृशः, च पुनः, क्षोदीयसा अतिसूक्ष्मेण, स्वर्णरेणुकणनिकरेण सुवर्णचूर्णकणराशिना, यथा अवचर्णितः उपलिप्तः, दृश्यते दृष्टिपथमवतरति, तथा तद्वत् , दिव्यजनसञ्चारोचिते देवजनसंचारयोग्ये, क्वापि कुत्रापि, वनोद्दशे वनप्रदेशे, कृतस्थितिना कृतनिवासेन कुमारेण प्रकृतयुवराजेन, लिखितः [ह]। पुनः इह पत्रे, आत्मीयं खकीय, स्थानं निवासपदं, किमर्थ किंनिमित्तम् , अविशेषेण सामान्येन, अटवीत्वेनेत्यर्थः, निर्दिष्ट लिखितम् । नूनं अवश्यम् , अहं, समरकेतोः, इष्टः प्रीतिभाजनम् , अस्मीति शेषः, नामतः नाम्ना, विशेषत इत्यर्थः, प्रकटितेषु निर्दिष्टेषु, निकटवर्तिषु निर्दिष्टाटवीसमीपस्थेषु, ग्रामनगरादिषु तत्प्रभृतिषु, चिह्नेषु निवाससंकेतेषु, सः समरकेतुः, विगतसंशयः निरस्तमदस्तित्वसन्देहः सन् ,
८ तिलक०
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टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता ।
मामनुसरिष्यति, आपतंश्च प्रकृतिदुर्विलङ्घये दीर्घकालमध्वनि क्लेशमतिमहान्तमासादयिष्यतीति शङ्कितवान् । अहो मूढतास्य, जानाति स्नेहनिर्भरां मदन्तःकरणवृत्तिम्, न चेदमवगच्छति, यदुत - मत्परोक्षे कथञ्चिदप्येष न गृहे स्थास्यति, अविदिताश्रयञ्च मद्दर्शनाशया समुद्रपर्यन्तां पर्यटन्नटवीमतिमात्रमायासपात्रं भविष्यति । किं वा ममैतेन चिन्तितेन ? न तावन्मया समादिष्टेनापि शिबिरसंरक्षणाय वनभूमाविह स्थातव्यम्, नापि कुमारेण सह निर्गत्य सांप्रतमेकाकिना प्रविश्य साकेतमात्मज प्रवासवार्ता श्रवणविक्लवस्य विलपतो देवस्य मेघवाहनस्य मुखं दर्शयितव्यम्, आश्वासनं वा कर्तव्यम्, तत् किं वृथैवात्र स्थितेन ? [ क्ष ] | व्रजाि वैताढ्यम्, अनुसरन्नमुमेव गजगमनमार्गम्, अन्वेषयामि तदुपान्तवर्तिषु ग्रामेषु नगरेष्वाश्रमपदेषु काननेध्वपरेषु च संभाव्यमानतदवस्थितिषु रम्यस्थानेषु कुमारम्, अनुज्झिताभियोगस्य सततमन्विष्यतो भविष्यत्यवश्यं मम क्वापि तद्वृत्तान्तोपलब्धिः, लब्धनिर्गमा निसर्गविमलाभ्यः कलाभ्यः प्रभेव मृगलाञ्छनं छन्नमि तमाविष्करिष्यति विजृम्भमाणा दिग्मुखेषु सद्गुणख्यातिः । कथं पुनः प्रयातव्यम्, न तावदनवधृतयातव्यदेशे
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टिप्पनकम्-इह लेखे [क्ष ] | निसर्गविमलाभ्यः कलाभ्यः कला - षोडशो भागो विज्ञानं च । उपधिःमाया । तत् कर्तुं तत्-गमनं, तत् तस्मात् [ ज्ञ ] ।
दूरदेशस्थमपि दूरदेशवर्तिनमपि, मामू, अनुसरिष्यति अनुगमिष्यति च पुनः, आपतन् आगच्छन्, प्रकृतिदुर्विल प्रकृत्या-स्वभावतः, दुर्विलङ्घये- दुरतिक्रम्ये, अध्वनि मार्गे, दीर्घकालं चिरकालम्, अतिमहान्तं अत्यन्तदुस्सहं, क्लेशं कष्टम् आसादयिष्यति अनुभविष्यति, इति शङ्कितवान् सन्दिग्धवान् । अहो आश्चर्यम्, अस्य बुद्ध्या सन्निकृष्टस्य हरिवाहनस्य, मूढता अविवेकिता, स्नेहनिर्भरां प्रीतिमयीं, मदन्तःकरणवृत्तिं मदीयमनोवृत्ति, जानाति, च पुनः, इदं, न अवगच्छति वेत्ति, यत्, उत्तेति वितर्के, मत्परोक्षे मदीयविरहे, एषः समरकेतुः, कथञ्चिदपि केनापि प्रकारेण गृहे स्वावासे, न स्थास्यति वर्तिष्यते च किन्तु, प्रत्युतेत्यर्थः, अविदिताश्रयः अज्ञातमदीयस्थानः, मद्दर्शनाशया मदीयदर्शनसम्भावनया, समुद्रपर्यन्तां समुद्रावधिकाम्, अटवीं अरण्यं, पर्यटन परिभ्रमन्, अतिमात्रं अत्यन्तम्, आयासपात्रं श्रमभाजनं भविष्यति सम्पत्स्यते, वा अथवा, मम, एतेन एतादृशेन, चिन्तितेन आलोचनेन किं न किमपि प्रयोजनमित्यर्थः, तावदिति वाक्यालङ्कारे, समादिष्टेनापि सम्यगाज्ञप्तेनापि, मया, शिबिर संरक्षणाय सैन्यावाससंरक्षणार्थम्, इह अस्यां वनभूमौ वनस्थल्यां, न स्थातव्यं स्थातुमुचितम् नापि कुमारेण युवराजहरिवाहनेन सह, निर्गत्य अयोध्यातो निस्सृत्य, साम्प्रतम् अधुना, एकाकिना तद्रहितेन, साकेतम् अयोध्यापुरीं प्रविश्य, आत्मजप्रवास वार्ताश्रवणविक्लवस्य स्वकीयतनयविश्लेषवृत्तान्तश्रवणव्यथितस्य, विलपतः आक्रन्दतः, देवस्य महाराजस्य, मेघवाहनस्य, मुखं स्ववदनं दर्शयितव्यं दर्शयितुमुचितम् वा अथवा, आश्वासनं उपसान्त्वनं, कर्तव्यं कर्तुमुचितम्, नापीत्यत्राध्याहारः । तत् तस्माद्धेतोः, अत्र अस्मिन् स्थाने, वृथैव व्यर्थमेव, स्थितेन, मयेति शेषः, किं न किमपीत्यर्थः [ क्ष ] । अमुमेव तमेव, गजगमनमार्ग हस्तिधावनपथम् अनुसरन् अनुगच्छन्, वैताढ्यं तदाख्यपर्वतं व्रजामि गच्छामि । तदुपान्तवर्तिषु तत्पर्वतनिकटवर्तिषु, ग्रामेषु गृहसमूहेषु, पुनः नगरेषु गृहमहासमूहेषु, पुनः आश्रमपदेषु तापसनिवासास्पदेषु, पुनः काननेषु वनेषु च पुनः, अपरेषु तत्तदन्येषु, सम्भाव्यमानतदवस्थितिषु आशास्यमान हरिवाहनास्तित्वकेषु, रम्यस्थानेषु मनोरमस्थानेषु, कुमारं युवराजहरिवाहनम्, अन्वेषयामि गवेषयामि । सततं निरन्तरम्, अनुज्झिताभियोगस्य अत्यक्तोद्योगस्य, अनवरततत्परस्येत्यर्थः, अन्विष्यतः कुमारं गवेषयतः, मम, क्वापि कुत्रापि स्थाने, तद्वृत्तान्तोपलब्धिः तद्वार्तावगतिः, अवश्यं निश्चितं, भविष्यति । मृगलाञ्छनं चन्द्रं, प्रभा दीप्तिरिव, छन्नमपि तिरोहितमपि तं हरिवाहनं, सद्गुणख्यातिः सद्गुणप्रसिद्धिः, आविष्करिष्यति प्रकटयिष्यति, कीदृशी ? निसर्गविमलाभ्यः स्वभावोज्वलाभ्यः, कलाभ्यः शिल्पविद्याभ्यः, पक्षे षोडशांशेभ्यः, लब्धनिर्गमा प्राप्ताविर्भावा, पुनः दिङ्मुखेषु दिगन्तेषु, विजृम्भमाणा उद्भासमाना । पुनः किन्तु, कथं केन प्रकारेण प्रयातव्यं प्रस्थातव्यम्, यतः, तावदिति वाक्यालङ्कारे,
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तिलकमञ्जरी दुरारोह शिखरिणि दुःखोत्तारसलिलासंख्यनिम्नगाढ्ये वैताढ्यवर्त्मनि सपृतनापरिकरस्य युज्यते गमनम् , नापि निरुपधिस्वामिभक्तौ कुमारमनुगन्तुमुत्सुके सर्वत एव राजलोके कतिपयाप्तपुरुषकृतसाहायकेन शक्यते तत् कर्तुं, तद [त्र] संस्थाप्य परिजनमनापृच्छय बन्धुवर्गमेकाकिना निशीथे प्रस्थातव्यमित्यर्थादुपागतमिति विहितसंकल्पस्तल्पममुश्चत् , अकरोच्च तत्रैव दिवसे यात्राबुद्धिम् [ज्ञ] ।
__ अथावबुद्धतदभिप्रायः प्रयाणशुद्धिमिव प्रष्टुमुपससर्प परिणतज्योतिषमतुषारदीधितिमस्त[स]मयरागः, प्रस्थानवन्दनमालाकिशलयानीव ग्रहीतुमवनीतलादग्रशिखरेषु शाखिनामारुरुहुरातपच्छेदाः, शुभेतरालापसंवरणपरेव विस्तारिता निबद्धकोलाहलानि शकुनिकुलानि तरुकूलायकोटरेष्वसूषुपदुपवनराजिः, लग्नशुद्धयर्थमनेकशोदृष्टसलिलाकृष्टिसामर्थ्यमपराम्भोधिजलकटाहे तपनमण्डलघटीताम्रभाजनं निचिक्षेप क्षपारम्भः, सन्ध्यारागरक्तांशुकधारिण्यो विलासिन्य इव गगनमरकतस्थालसंचारितसतारकतमिस्रदधिलवोन्मिश्र
.
टिप्पनकम्-परिणतज्योतिष ज्योतिः-दीप्तिः, ज्योतिःशास्त्रं च [अ] ।
अनवधृतयातव्यदेशे अनिश्चितगन्तव्यप्रदेशे, पुनः दुरारोहशिखरिणि दुरारोहः-दुःखेन आरोढुं शक्यः, शिखरी-पर्वतो यस्मिंस्तादृशे, पुनः, दुःखोत्तारसलिलासंख्यनिम्नगाढ्ये दुःखोत्तारसलिलाभिः-दुःखेनोत्तरणीयजलाभिः, असंख्यनिम्नगाभिः-संख्यातीतनदीभिः, आढ्ये-पूणे, वैताट्यवम॑नि तत्संज्ञकपर्वतमार्गे, सपृतनापरिकरस्य सेनात्मकपरिवारसहितस्य, गमनं प्रयाणं, न युज्यते योग्यं वर्तते। निरुपधिस्वामिभक्तौ निरुपधिः-निर्व्याजा, स्वामिभक्तिः-प्रकृतयुवराजात्मकस्वामिप्रीतिर्यस्य तादृशे, राजलोके नृपजने, कुमारं प्रकृतयुवराजम् , अनुगन्तुम् अनुसतुं, सर्वत एव समन्तत एव, उत्सुके उद्युक्ते सति, कतिपयाप्तपुरुषकृतसाहायकेन कतिचिद्विश्वस्तजनकरिष्यमाणसाहाय्यकेन, मयेति शेष;, तत् गमनम् , कर्तुं न शक्यते । तत् तस्माद्धेतोः, अत्र अस्मिन्नेव प्रदेशे, परिजनं खपरिवार, संस्थाप्य अवस्थाप्य, परित्यज्येत्यर्थः, बन्धृवर्ग स्वबन्धुगणम् , अनापृच्छय तदनुमतिमनादाय, एकाकिना अद्वितीयेन, निःसैन्येनेत्यर्थः, मयेति शेषः, निशीथे मध्यरात्रे, प्रस्थातव्यं प्रयातुमुचितम् , इति, अर्थात् परिशेषात् , उपागतं सिद्धम् , इति इत्थं, विहितसङ्कल्पः कृतविचारः, तल्पं शय्याम् , अमुञ्चत् त्यक्तवान् , च पुनः, तत्रैव तस्मिन्नेव, दिवसे, यात्राबुद्धिं प्रयाणनिश्चयम् , अकरोत् कृतवान् [ज्ञ] ।
अथ अनन्तरम् ,अवबुद्धतदभिप्रायः अवगततदीयप्रयाणाशयः, अस्त[समयरागः अस्तंगमनकालिकरक्तकान्तिः, लिङ्गसाम्यात् तद्रूपः शुभेच्छुपुरुषः, प्रयाणशुद्धिं प्रस्थानस्य निर्दोषतां, प्रष्टमिव जिज्ञासाज्ञापनार्थमिव, परिणतज्योतिष परिणतानि-प्रौढप्रकाशानि, ज्योतींषि-नक्षत्राणि यस्मिन् तादृशम्, यद्वा परिणतम्-अवस्थान्तरं गतम् , ज्योतिः-प्रकाशो यस्य तादृशम् , पक्षे परिपक्वज्योतिर्विद्यम् , अतुषारदीधितिम् उष्णरश्मिम् , सूर्यमित्यर्थः, लिङ्गसाम्यात् तद्रूपं मुहूर्तज्ञमिति यावत् , उपससर्प उपजगाम; पुनः आतपच्छेदाः आतपखण्डाः, लिङ्गसाम्यात् तद्रूपा भृत्यजना इत्यर्थः, प्रस्थानवन्दनमालाकिसलयानि प्रयाणकालिकतोरणमालार्थनूतनदलानि, ग्रहीतुमिव त्रोटयितुमिव, अवनीतलात् भूतलात् , शाखिनां वृक्षाणाम् , अग्रशिखरेषु चरमोलभागेषु, आरुरुहुः अधिरूढ़वन्तः; पुनः उपवनराजिः क्रीडाकाननपतिः, लिङ्गसाम्यात् तद्रूपा माङ्गलिकस्त्रीत्यर्थः, शुभेतरालापसंवरणपरेव अशुभाभाषणनिवारणोद्यतेव, विस्तारितानिबद्धकोलाहलानि विस्तारिताः, अनिबद्धाः-अनियन्त्रिताः, कोलाहला:-कलकला यैस्तादशानि, शकुनिकुलानि पक्षिगणान् , तरुकुलायकोटरेषु तरूणां-वृक्षाणां, कुलायरूपेषु-नीडरूपेषु, कोटरेषु रन्ध्रविशेषेषु, असूषुपत् खापयामास; पुनः क्षपारम्भः रात्र्यारम्भरूपलग्नशोधकः, लग्नशुद्धयर्थ लग्नशोधनोद्देशेन, अनेकशोदृष्टसलिलाकृष्टिसामर्थ्यम् , अनेकशः-बहुशः, दृष्टं-परीक्षितं, सलिलाकृष्टिसामर्थ्य-जलाहरणशक्तिर्यस्य तादृशं, तपनमण्डलघटीताम्रभाजनं तपनमण्डलरूपा-सूर्यबिम्बरूपा, या घटी-कलसी, तद्रूपं ताम्रभाजनं-ताम्रमयपात्रम् , अपराम्भोधिजलकटाहे पश्चिमसमुद्ररूपजलपूर्णपात्रविशेषे, निचिक्षेप स्थापितवान् ; पुनः संध्यारागरक्तांशुकधारिण्यः सन्ध्याकालिकारुणकान्तिरूपरक्तवर्णसूक्ष्मशाटीपरिधायिन्यः, अत एव विलासिन्य इव विलासवत्य इवेत्युत्प्रेक्षा, पुनः गगनमरकतमयस्थालसञ्चारितसतारकतमिस्रदधिलवोन्मिश्रदूर्वापल्लवाः गगन
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टिप्पनक- परागविवृतिसंवलिता ।
दूर्वापल्लवाः परस्परं संजग्मिरे ककुभः, उत्तरासङ्गशोभि स्वस्त्ययनमिव कर्तुमुज्जगाम व्योम्नि सप्तर्षिमण्डलम् [ अ ] । क्रमेण चातिक्रान्ते प्रदोषसमये, समुल्लासितपौरस्त्यनभसि मन्दमन्दमुद्भिद्यमाने सौधांशवे महसि, शशिकर प्रभासंवलिततिमिरासु तत्काल विकसित सकैरवेन्दीवरवनाभिररण्यसरसीभिः स्पर्धमानासु दिक्षु, विघटितान्तरालतिमिरसंधानेषु विच्छिन्नतया प्रतीयमानेषु तरुषु, तरुतलास्तीर्णपर्णशयने शयाने निर्भरं राजपुत्रान्वेषणक्लान्तवपुषि पृतनापदातिलोके, निभृतसकलसत्त्वे सर्वतः शान्तसैनिकप्रचारसुख संचारविशिखे विजन इव संलक्ष्यमाणे सैन्यसंनिवेशे [ आ ]; समरकेतुर्विसर्जित निशावसरसेवायातराजलोकः प्रस्थाप्य तत्कालसंनिहितमाप्तपरिचारकजनं निश्चित्य निजयैव प्रज्ञया प्रस्थानसमुचितं शुचिमुहूर्तमुत्थाय निवसित - प्रत्यग्रसितदुकूलयुगलो विकचमालतीदामरचितशेखरः कर्पूरसंभेदसंभृतामोदेन संपाद्य सद्यः स्नपितार्चितकुलदेवताच चर्चा व शिष्टेन चन्दनद्रवेणाष्टमीचन्द्रलेखालावण्यालोपिनि स्खललाटफलके तिलकमुल्लासित
टिप्पनकम् - सौधवांशे चान्द्रे । संवलितं - मिश्रितम् । विशिखा - रथ्या [ आ ] | अर्चा-प्रतिमा [इ] |
रूपे - आकाशमण्डलरूपे, मरकतमयस्थाले - नीलमणिमयभाजन विशेषे, सञ्चारिताः - निःक्षिप्ताः, तारकतमिस्ररूपाः - तारकामिश्रितान्धकाररूपाः, दधिलवोन्मिश्राः - दधिखण्डसम्मिश्रिताः, दूर्वापल्लवाः- दूर्वाख्यसत्तृणसम्बन्धिनूतनदलानि याभिस्तादृश्यः, ककुभः दिशः, परस्परम् अन्योऽन्यं, संजग्मिरे संसृष्टाः, पुनः व्योम्नि आकाशे, उत्तरासङ्गशोभि गगनमण्डलरूपोत्तरीय वस्त्रोद्भासि सप्तर्षिमण्डलं मरीच्यादिसप्तर्षिरूपतारागण, स्वस्त्ययनं खस्तिवाचनं, कर्तुमिव, उज्जगाम उदितम् [ अ ] । च पुनः प्रदोषसमये निशारम्भिकघटिकान्त्रये, क्रमेण शनैः, अतिक्रान्ते व्यतीते सति, समुल्लासितपौरस्त्यनभसि समुल्लासितं - सम्यगुद्भासितं, पौरस्त्यं प्राच्यं, नभः- गगनं येन तादृशे, सौधांशवे सुधांशोः - चन्द्रस्येदं सौधांशवं तादृशे, चन्द्रसम्बन्धिनीत्यर्थः, महसि तेजसि, मन्दमन्दं शनैः शनैः, उद्भिद्यमाने उद्यति सति, पुनः शशिकरप्रभासंवलिततिमिरासु चन्द्रकिरणद्युतिमिश्रितान्धकारासु, दिक्षु, तत्कालविकसितस कैरवेन्दीवरवनाभिः तत्काले - रात्रिसमये, विकसितानि - उत्फुल्लानि, सकैरवाणां - कैरवैः- श्वेतकुमुदैः सहितानाम्, इन्दीवराणां - नीलकुमुदानां वनानि यासु तादृशीभिः, अरण्यसरसीभिः वनान्तरगतमहासरोभिः, स्पर्धमानासु श्वेतनीलकान्तिभ्यां पराजेतुमिच्छन्तीषु सतीषुः पुनः विघटितान्तरालतिमिरसन्धानेषु विघटितानि-विश्लिष्टानि, अन्तरालतिमिराणि - मध्यवर्त्यन्धकाररूपाणि, सन्धानानि - सम्मेलनानि येषां तादृशेषु, तरुषु वृक्षेषु, विच्छिन्नतया विभक्ततया, प्रतीयमानेषु लक्ष्यमाणेषु सत्सुः पुनः निर्भरं अत्यन्तं राजपुत्रान्वेषणक्लान्तवपुषि प्रकृतयुवराजगवेषणश्रान्तशरीरे, पृतनापदातिलोके सेनासमवेतपादगामिजने, तरुतला स्तीर्णपर्णशयने वृक्षाधः स्थलविस्तारितपत्रमयशय्यायां शयाने स्वपिति सति; पुनः निभृतसकलसत्त्वे निभृतानि निष्क्रियाणि, सकलानि - समस्तानि, सत्त्वानि - जीवा यस्मिंस्तादृशे, पुनः सर्वतः सर्वथा, शान्तसैनिकप्रचारसुखसञ्चारविशिखे शान्तैः-निरृत्तैः, सैनिकप्रचारैः - सैन्यसञ्चारैः, सुखसंचारा - निर्बाधसञ्चारा, विशिखा - रथ्या यस्मिंस्तादृशे सैन्यसन्निवेशे सैनिकावासे, विजन इव निर्जन इव, संलक्ष्यमाणे प्रतीयमाने सति [ आ ] | समरकेतुः, विसर्जितनिशावसरसेवायातराजलोकः विसर्जिताःपरावर्तिताः, निशावसरे-रात्रिसमये, सेवायाताः - सेवार्थमागताः, राजलोकाः- नृपजना येन तादृशः सन् तत्कालसन्निहितं तत्कालसमीपस्थम्, आप्तपरिचारकजनं विश्वस्तसेवकजनं, प्रस्थाप्य स्वस्वस्थानं प्रयाप्य; पुनः निजयैव स्वकीययैव, प्रज्ञया बुद्धया, प्रस्थानसमुचितं प्रयाणयोग्यं शुचिमुहूर्त शुद्धमुहूर्त, निश्चित्य निरूप्य उत्थाय शय्यां त्यक्त्वा, निवसितप्रत्यग्रसित दुकूलयुगलः निवसितं परिहितं प्रत्यग्रम् - अभिनवं सितं - शुभ्रं, दुकूलयुगलं - कौशेयोत्तरीयाधरीयवस्त्रद्वयं येन तादृशः; पुनः विकच मालतीदामरचितशेखरः विकचानां विकसितानां, मालतीनां तदाख्यकुसुमविशेषाणां, दाना-पङ्कया, रचितः-निर्मितः, शेखरः- शिरोमाल्यं येन तादृशः; पुनः कर्पूरसम्भेदसम्भृतामोदेन कर्पूरसम्भेदेन कर्पूरसंमिश्रणेन, सम्भृतःसंवर्धितः, आमोदः- उत्कटगन्धो यस्य तादृशेन, सद्यः स्त्रपितार्चितदेवतार्चाचर्चाऽवशिष्टेन सद्यः- तत्क्षणे, स्नपितांपूर्वमभिषिक्तां, अर्चिताः - पश्चात् पूजिताः, या देवताचः - देवमूर्तयः, तासां चर्चायाः - विलेपनात्, अवशिष्टेन परिशिष्टेन, चन्दनद्रवेण चन्दनपङ्केन, अष्टमीचन्द्रलेखालावण्यालोपिनि अष्टम्यां तिथौ या चन्द्रसम्बन्धिनी लेखा-रेखा
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तिलकमञ्जरी कोमलनीलकिरणनिवहमवहिताभिः प्रस्थानमङ्गलविधावायुधागारदेवताभिरभिनवदलै किन्दलैरिवावकीर्णमादाय विपदापगासंतरणसेतुमार्ग खड्गमतिगुरुखड्गभारखेदितेनेव स्पन्दमानेन तत्क्षणं दक्षिणेन भुजदण्डेन व्य ञ्जितारब्धकार्यसिद्धिराविजयार्धपर्वतादध्यवसितकुमारान्वेषणो वैश्रवणवल्लभां दिशं प्रत्युदचलत् [इ] ।
चरणपल्लवोत्क्षेपसमकालमुत्थितेन च स्थगयता दिगन्तराणि तारमधुरेणैकतो यामशङ्खरसितेनान्यतो जयतुरङ्गहेषितेन जनितहर्षः सुधापङ्कपाण्डुरं पूर्णकुम्भमिव जम्भारिककुभा पुरस्तादुपदर्शितं वन्दमानस्तुहिनकरबिम्बमविलम्बितगतिर्वासभवनान्निरगच्छत् । अनुसृतदिवसदृष्टवा च तत्क्षणप्रसृतेन पृष्ठतो दक्षिणपवनेन पुरतो वामनासिकापुटश्वसनेन सौम्यगतिनापि सत्वरं प्रवर्यमानः प्रतिपन्नदक्षिणवाममार्गपरैः परं
टिप्पनकम्-जम्भारि:-इन्द्रः । प्रतिपन्नदक्षिणवाममार्गपरैः परं शिवं शंसद्भिरभिप्रेतसाधकैः शैवैरिव प्रधानशकुनैः एकत्र शैवैः कीदृशैः ? प्रतिपन्नदक्षिणवाममार्गपरैः-अभ्युपगतोऽनुकूलो वाममार्गो यस्तेन पृणन्ति-तर्पयन्ति ये ते तथोक्तास्तैः, तथा परं-प्रकृष्टं, शिव-शङ्करम् , शंसद्भिः-स्तुवद्भिर्वा, अभिप्रेतसाधकैः-अभि-समन्तात् समीपे प्रेतंचेताल साधयन्ति ये ते तथोक्तास्तैः, अन्यत्र शकुनैः आश्रितदक्षिणमार्गसव्यपथनिष्ठः, तथा कल्याणं परमं कथयन्द्रिः, अभीष्टार्थकारकैः [ई।
तल्लावण्यालोपिनि-तदीयसौन्दर्यापहारिणि. ललाटफलके भालपट्टे, तिलकं बिन्दुं, सम्पाद्य विरचय्य, पुनः उल्लासितकोमलनीलकिरणनिवहम्, उल्लासितः-उद्भासितः, कोमल:-अतीवः, नीलकिरणनिवहः-नीलद्युतिसन्दोहो येन तादृशम् , अत एव प्रस्थानमङ्गलविधौ प्रयाणकालिकमङ्गलकार्ये, अवहिताभिः सावधानाभिः, आयुधागारदेवताभिः बाणगृहाधिटातृदेवैः, अभिनवदलैः नूतनदलशालिभिः, दूर्वाकन्दलैः दूर्वा मूलैः, अवकीर्णमिव व्याप्तमिवेत्युत्प्रेक्षा, विपदापगासन्तरणसेतुमार्ग विपत्तिसरिदुत्तरणाय सेतुमार्गरूपम् , खगं कृपाणम् , आदाय गृहीत्वा, अतिगुरुखङ्गभारखेदितेनेव अतिगुरुणा-अत्यन्तदुर्वहेन, खगभारेण, खेदितेन-व्यथितेन, इवेत्युत्प्रेक्षा, तत्क्षणं प्रस्थानक्षणं, स्पन्दमानेन स्फुरता, दक्षिणेन वामेतरेण, भुजदण्डेन बाहुदण्डेन, व्यञ्जितारब्धकार्यसिद्धिः सूचितप्रारब्धकार्यसाफल्यः, आविजयार्धपर्वतात् विजयार्धपर्वतादारभ्य, अध्यवसितकुमारान्वेषणः खकर्तव्यतया निश्चितहरिवाहनगवेषणः, वैश्रवणवल्लभां कुबेरखामिका, दिशम् उदीचीमित्यर्थः, प्रति अभिमुखम् , उदचलत् प्रस्थितवान् [इ]।
च पुनः, चरणपल्लवोत्क्षेपसमकालं पल्लवोपमपादोत्थापनतुल्यकालम् , उत्थितेन उच्चरितेन, पुनः दिगन्तराणि दिङ्मध्यानि, स्थगयता व्याप्नुवता, पुनः तारमधुरेण तारेण-उच्चन, मधुरेण-श्रवणावाद्येन च, एकतः एकस्थानात्, यामशङ्करसितेन प्रहरे पहरे नाद्यमानशङ्खध्वनिना, अन्यतः अन्यस्थानात् , जयतुरङ्गहेषितेन जयतुरङ्गाणां-जयार्थाश्वानां, हेषितेन-शब्देन, जनितहर्षः उत्पादितप्रमोदः पुनः सुधापङ्कपाण्डुरं सुधापक्रेन-अमृतकर्दमेन, पाण्डुवर्ण, पूर्णकुम्भमिव पूर्णकलशमिव, जम्भारिककुभा जम्भारेः-इन्द्रस्य, या ककुप्-दिक, प्राचीत्यर्थः, तया, पुरस्तात् अग्रे, उपदर्शितं प्रदर्शितम् , तुहिनकरबिम्बं चन्द्रमण्डलं, वन्दमानः अभिवादयमानः, अविलम्बितगतिः क्षिप्रगतिः सन्, वासभवनात् खवासगृहात् , निरगच्छत् निष्क्रान्तः। च पुनः, अनुसृतदिवसदृष्टवत्र्मा अनुसृतम्-अनुगतं, दिवसदृष्टं-दिनेऽवलोकितं, वर्त्म-मार्गो येन तादृशः, तत्क्षणप्रसृतेन तत्कालविस्तृतेन, सौम्यगतिनापि मन्दगतिनाऽपि, दक्षिणपवनेन दाक्षिणात्यवायुना, पृष्ठतः पश्चाद्भागे, पुनः वामनासिकापुटश्वसनेन वामनासाविवरवायुना, पुरतः अग्रे, प्रवर्त्यमानः प्रेर्यमाणः सन् , पुनः प्रधानशकुनैः शुभसूचकप्रशस्तनिमित्तैः, पदे पदे स्थाने स्थाने, दत्तनिवृतिः जनितानन्दः, शर्वरी रात्रिम्, अगमयत् व्यतीतवान् , कैरिव ? शैवैरिव शङ्करभक्तैरिव, पक्षे शृगालसम्बन्धिभिः, कीदृशैरुभयैः ? प्रतिपन्नदक्षिणवाममार्गागमैः प्रतिपन्नः- स्वीकृतः, दक्षिणतः-स्वदक्षिणदिग्भागतः, वाममार्गे-स्ववामदिग्भागे, आगमःआगमनं यत्र तादृशैः, “दक्षिणाद् वामगमनं प्रशस्तं श्वशृगालयोः" इति शकुनशास्त्रम्, पक्षे प्रतिपन्नः-खीकृतः, दक्षिण:खानुकूलः, वाममार्गस्य-तन्त्रोक्तागम्यागमनमद्यपानाद्याचारस्य, आगमः-प्रतिपादकं शास्त्रं येतादृशैः, पुनः परम् उत्कृष्टं,
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टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता । शिवं शंसद्भिरभिप्रेतसाधकैः शैवैरिव प्रधानशकुनैः पदे पदे दत्तनिर्वृतिः शर्वरीमनयत् [ई ] । उद्गते च स्पष्टिताष्टदिङ्मुखे दशशतमयूखे पृष्ठतोऽन्वेष्टुमापतन्तमात्मनोऽभिलषितस्य प्रत्यूहभूतमभ्यूहमानो भूपतिसमूहमपहाय तमनेकपथिकलोकप्रहतमुत्पांशुलं मार्गम् , अपरेण पतितशीर्णतरुपर्णनिकरावकीर्णेन कान्तारवर्मना प्रयत्ननिहितपदपद्धतिः प्रतस्थे । लजितानेकसमविषमभूधरधराविभागलब्धश्रमश्च तिरश्चीनलुलितरविबिम्बशेखरेण विश्रामार्थमभ्यर्थित इव नतेन किञ्चिन्मध्याह्नसमयेनैकत्र पत्रललतागुल्मगुपिले विपुलसान्द्रच्छायशाखिनि सानुमत्प्रस्थे स्थितिमकरोत् [3] ।
अतिवाहितक्लमश्च कञ्चित् कालमुत्थाय गत्वा गिरिनदीस्रोतसि स्नात्वा कृत्वा च देवतार्चनादिकं क्रियाकलापमल्पप्रयत्नासादितानि स्वादुसुरभीणि पादपफलान्यभ्यवजहार । पीतनीहारशिशिरनिर्झरोदकश्च नीत्वा पराह्नसमयमुपस्थिते सायाह्नि कृतसंध्यावश्यकः प्रविश्य पर्वतगुहां सुष्वाप [ऊ] ।
क्षपावसाने च क्षपितनिद्रः श्वापदारावैरुत्थाय शयनाद् गृहीतशस्त्रस्तमेव मार्गमतिदुर्गमनुसरन् रसा
शिवं कल्याणं, पक्षे शङ्करं, शंसद्भिः सूचयद्भिः, पक्षे स्तुवद्भिः, पुनः अभिप्रेतसाधकैः वाञ्छितार्थसम्पादकैः, पक्षे अभिसमन्तात् सामीप्ये, प्रेतं-वेतालं, साधयन्ति ये ते अभिमतप्रेतसाधकास्तैः [ई]। च पुनः, स्पष्टिताष्टदिङ्मुखे स्पष्टितानि
सितानीति यावत् , अष्टानां दिशां मुखानि-अग्रभागा येन तादृशे, दशशतमयखे सहस्रकिरणे, सूर्ये इति यावत् , उद्गते उदिते सति, पृष्ठतः पश्चाद्भागे, अन्वेष्टुम् अन्वेषणार्थम् , आपतन्तं आगच्छन्तं, भूपतिसमूह नृपगणम् , आत्मनः खस्य, अभिलषितस्य अभिप्रेतस्य, प्रत्यूहभूतं विघ्नरूपम् , अभ्यूहमानः वितर्कयन् , अनेकपथिकलोकप्रहतम् अनेकैः बहुभिः पथिकलोकैः-मार्गगामिजनैः, प्रहतं-पादैरभिहतम् , अत एव उपांशुलं उद्धृतधूलिमयं, तं नृपगणानुस्रियमाणं, मार्ग पन्थानं, अपहाय त्यक्त्वा, अपरेण अन्येन, कान्तारवर्मना वन्यमार्गेण, प्रतस्थे प्रयातवान् । कीदृशः ? पतितशीर्णतरुपर्णनिकरावकीर्णेन पतितैः-गलितैः, शीर्णानां-जीर्णानां, तरूणां-वृक्षाणां, पर्णनिकरैः-पत्रगणैः, अवकीर्णेन व्याप्तेन, आवृतेनेति यावत्, प्रयत्ननिहितपदपद्धतिः प्रयत्नेन-आयासेन, निहिता-स्थापिता, पदपद्धतिः-पादपतिर्येन तादृशः। च पुनः, लजितानेकसमविषमभूधरधराविभागलब्धश्रमःलचितैः-अतिक्रान्तः, अने समस्थलरूपैः, विषमैः-निम्नोन्नतैश्च, भूधराणां-पर्वतानां, धराविभाग:-भूमिप्रदेशैः, लब्धश्रमः-अनुभूतक्लेशः, तिरश्चीनललितरविबिम्बशेखरेण तिरश्चीनं-कुटिलं यथा स्यात् तथा, लुलितं-लम्बितं, रविबिम्बमेव-सूर्यमण्डलमेव, शेखरः-शिरोऽलङ्करणं, मुकुटमित्यर्थः, यस्य तादृशेन, अत एव किश्चित् ईषत्, नतेन नम्रीभूतेन, मध्याह्नसमयेन लिङ्गसाम्यात् तत्समयरूपदयालुजनेन, विश्रामार्थ तदीयश्रमापनयनार्थम् , अभ्यर्थित इव प्रार्थित इवेत्युत्प्रेक्षा, एकत्र एकस्मिन् प्रदेशे, पत्रललतागुल्मगुपिले पत्रलाभिः-पत्राव्याभिः, लताभिः, गुल्मैः-निःस्कन्धतरुभिश्च, गुपिले-संकुले, पुनः विपुलसान्द्रच्छायशाखिनि विपुलाः-प्रचुराः, सान्द्रच्छायाः- निबिडानातपाः, शाखिनः-वृक्षा यस्मिंस्तादृशे, सानुमत्प्रस्थे पर्वतीयसमभूमिभागे, स्थिति विश्रामम् , अकरोत् कृतवान् [उ]।
च पुनः, कश्चित् कियन्तं, कालम् , अतिवाहितक्लमः निवर्तितश्रमः सन् , उत्थाय गत्वा, गिरिनदीस्रोतसि पर्वतीयनदीप्रवाहे, स्नात्वा शरीरशुद्धिं विधाय, च पुनः, देवतार्चनादिकं देवपूजनादिकं, क्रियाकलापं कार्यजातं, कृत्वा सम्पाद्य, अप्रयत्नासादितानि अनायासलब्धानि, स्वादुसुरभीणि मधुरसुगन्धीनि, पादपफलानि वृक्षफलानि, अभ्यजहार भुक्तवान् । च पुनः, पीतनीहारशिशिरनिर्झरोदकः पीतं-पानकर्मीकृतं, नीहारेण - हिमेन, शिशिरं-शीतलं, निर्झरोदकं प्रवाहजलं येन तादृशः, अपराह्मसमयं दिनपश्चिमार्धकालं, नीत्वा व्यतीत्य, सायाह्नि सन्ध्यासमये, उपस्थिते प्राप्ते सति, कृतसन्ध्यावश्यकः अनुष्ठितसायंकालिकावश्यककृत्यः, पर्वतगुहां पर्वतकन्दरां, प्रविश्य, सुष्वाप अशयिष्ट [ ऊ]।
च पुनः, क्षपावसाने रात्र्यन्ते, श्वापदारावैः हिंस्रवन्यपशुशब्दैः, क्षपितनिद्रः त्यक्तनिद्रः सन् , शयनात् शय्यातः, उत्थाय, गृहीतशस्त्रः गृहीतखड्गः सन् , अतिदुर्ग अतिदुःखेन गन्तुं शक्यं, तमेव आरूढमेव, मार्गम् , अनु
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तिलकमञ्जरी
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तलगम्भीरभीमगह्वरया, समरभूम्येव साहसरहितजनदुष्प्रवेशया, शिथिलमूलदुर्बलजटाजालकैः परस्परावकाशमिव दातुमप्रसारितशाखा मण्डलैस्तारकानिकुरुम्बमिव कुसुमस्तबकतां नेतुमम्बराग्रलमैः सरलसर्जार्जुनकरञ्जशाकशल्लकीप्रायैः पादपैरपास्तदिनकरोदयास्तमयदर्शनया, दुरवतातुङ्गतटाभिरुत्को टिपाषाणपटलस्खलन बहुमुखप्रवृत्तमुखर श्रोतोजला भिरनतिनि बिडनिर्गुण्डीलतागुल्म गुपिली कृतोपलवालुका बहुलविच्छिन्नान्तरालपुलिनाभिरुच्छलत्कूलनलव ननिलीन नाहलनिवह्काहलकोलाहलाभिः शैलनिम्नगाभिर्निम्नीकृतान्तरालया [ ऋ ], वनान्तरालसर्पिभिस्तार तुमुलैर्मरुद्भिरिव दिङ्मुखेषु मुखरिताद्रिकुहरकुञ्जः काहलाकूजितैः सूचितापतत्सुचिरसंग लितजनसंघातया, युवजनादतिरेकनिर्विवेकस्थविराभिर्निषादलोकादधिकनिर्दयद्विजातिभिर्दि
टिप्पनकम् — काहलः - अव्यक्तः [ ऋ ] ।
सरन् आश्रयन्, 'अटवीभुवा वन्यभूम्या, गमनाय, प्रावर्तत प्रवृत्तः' इत्यप्रेणान्वेति कीदृश्या ? रसातलगम्भीरभीमगह्वरया रसातलं - पातालं, तद्वद् गम्भीरः - निम्नः, भीमः - भयंकरः, गह्वरः- गुहा यस्यां तादृश्या; पुनः समरभूम्या इव संग्रामभूम्या इव साहसरहितजन दुष्प्रवेशया साहसरहितैः - असाहसिकैः, जनैः, दुष्प्रवेशया - दुःखेन प्रवेष्टुं शक्ययाः पुनः पादपैः वृक्षैः, अपास्तदिनकरोदयास्तमयदर्शनया अपास्तं निवारितं, दिनकरस्य - सूर्यस्य, उदयास्तमययोः - उद्गमनास्तंगमनयोः, दर्शनं यस्यां तादृश्या, कीदृशैः ? शिथिलमूलदुर्बलजटाजालकैः शिथिलं विशीर्ण, मूलं येषां तादृशैः, अत एव दुर्बलं-क्षीणं, विघटितमिति यावत्, जटाजालं - शिफासंघातो येषां तादृशैः, पुनः परस्परावकाशं परस्परस्य - अन्योऽन्यस्य, अवकाशं-अवस्थितिसम्पादकं देशं दातुं सम्पादयितुम्, इव अप्रसारितशाखामण्डलैः अविस्तारितशाखा समूहैः, पुनः तारकानिकुरम्बं नक्षत्रमण्डलं, कुसुमस्तबकतां वपुष्पगुच्छरूपतां नेतुं सम्पादयितुमित्र, अम्बराग्रलग्नैः गगनाप्रसंसृष्टैः, पुनः सरलसर्जार्जुनशाकशल्लकीप्रायैः तत्तज्जातीयवृक्षप्रचुरैः; पुनः कीदृश्या ? शैलनिम्नगाभिः पर्वतीयनदीभिः, निम्नीकृतान्तरालया निम्नीकृतं - नीचैस्त्वमापादितम्, अन्तरालम् - अभ्यन्तरं, मध्यमिति यावत्, यस्यास्तादृश्या, कीदृशीभिः ? दुरवतार तुङ्गतटाभिः दुरवतारः - दुष्करः, अवतारः - अधस्ताद्गमनं येभ्यस्तादृशाः, तुङ्गाः- उन्नताः, तटा यासां तादृशीभिः पुनः उत्कोटिपाषाणपटलस्खलन बहुमुख प्रवृत्तमुखरथ्रोतोजलाभिः उत्-उन्नता, कोटि :- अग्रभागो यस्य तादृशे, पाषाणपटले - प्रस्तरराशौ, स्खलनेन - विनिपातेन, बहुमुखप्रवृत्तानि - अभितः स्यन्दितुमुपक्रान्तानि, मुखराणि - शब्दायमानानि, स्रोतांसिप्रवाहा येषां तादृशानि जलानि यासु तादृशीभिः, पुनः अनतिनिविड निर्गुण्डीलतागुल्म गुपिली कृतोपलवालुका बहुलविच्छिन्नान्तरालपुलिनाभिः अनतिनिबिडाभिः - किञ्चित्सान्द्राभिः, निर्गुण्डीनाम्नीभिर्लताभिः, गुल्मैः - स्कन्दरहिततरुभिश्च, गुपिलीकृतानि - समृद्धीकृतानि, व्याप्तानीति यावत् उपलानां प्रस्तराणां वालुकानां - सिकतानां च यद्वा प्रस्तरसम्बन्धिसिकतानां बहुलेन - राशिना, विच्छिन्न । नि-आवृतानि, व्याप्तानीति यावत्, अन्तरालपुलिनानि - मध्यवर्त्यचिरनिर्गतजलस्थलानियासां तादृशीभिः, यद्वा पिली कृतानि - आवृतानि, उपलवालुका बहुलानि - प्रस्तरसिकताप्रचुराणि विच्छिन्नान्तरालानि संलग्नानि च पुलिनानि यासां तादृशीभिः, पुनः उच्छलत्कूलनलवननिलीननाहलनिवहकाहलकोलाहलाभिः उच्छलन्तः - उद्गच्छन्तः, कूलनलवननिलीनस्य-कूलेषु--तटेषु, यानि नलानां तृणविशेषाणां वनानि तेषु निलीनस्य - प्रच्छन्नस्य, नाहलनिवहस्य - म्लेच्छजातिविशेषसमूहस्य, काहलकोलाहलाः - काहलाः - अव्यक्ताः, कोलाहलाः --ध्वनिविशेषा यासां तादृशीभिः ; [ ऋ ] । पुनः कीदृश्या ? काहलाकूजितैः वाद्यविशेषध्वनिभिः सूचितापतत्सुचिरसंगलितजनसंघातया सूचितः - प्रत्यायितः, आपतन्आगच्छन्, सुचिरसंगलितः - अतिदीर्घकालविघटितः, जनसंघातो यस्यां तादृश्या, कीदृशैः ? वनान्तरालसर्पिभिः वनमध्यव्यापिभिः, पुनः तार तुमुलैः अत्युच्च गम्भीरैः, पुनः मरुद्भिरिव पवनैरिव, दिङ्मुखेषु दिगन्तेषु, मुखरिताद्रि कुहरकुः मुखरितानि - शब्दायमानानि, अद्विकुहराणि - पर्वतगुहाः, कुञ्जाः - लता पिहितोदरगृहाच यद्वा पर्वतगुहास्थ कुजा यैस्तादृशैः; पुनः कीदृश्या ? शबरपल्लीभिः शबराणां म्लेच्छजातिविशेषाणां, पल्लीभिः क्षुद्रतरगृहौघैः, अध्यासितविषमपर्वतोद्देशया अध्यासिताः-अधिष्ठिताः, विषमाः - निम्नोन्नताः, पर्वतोद्देशाः - पर्वतप्रदेशा यस्यां तादृश्या, कीदृशीभिः ? युवजनात् तरुणलोकापेक्षयापि, अतिरेकनिर्विवेकस्थ विराभिः अतिरेकनिर्विवेकाः - अत्यन्तविवेकशून्याः, स्थविराः - वृद्धजना यासु तादृशीभिः पुनः निषादलोकात् चाण्डालजातिविशेषजनादपि, अधिकनिर्दय द्विजातिभिः अधिकनिर्दयाः - अत्यन्तदयाशून्याः, द्विजातयः
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टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता। वानिशमविश्रान्तनिनादैरापानकमर्दलैर्दूरादेव सूच्यमानसंनिवेशामिः प्रतिचुल्लि पच्यमानशूलीकृतानेकश्वापदपिशिताभिः प्रतिनिकुञ्जमाकर्ण्यमानबन्दीजनाक्रन्दाभिः प्रतिवसति विभज्यमानतस्कराहृतवापतेयाभिः प्रतिडिम्भमुपदिश्यमानमृगमोहकारिकरुणगीताभिः प्रतिजलाशयमासीनानायब डिशहस्तकैवर्ताभिः प्रतिदिवसमन्विष्यमाणचण्डिकोपहारपुरुषाभिधृताधिज्यधनुषा निभृतमुच्चारितचण्डिकास्तोत्रदण्डकेन सर्वतः प्रहितभयतरलदृष्टिना त्रयीभक्तनेव गाढाञ्चितहिरण्यगर्भकेशवेशेन देशिकजनेन लघुतरोल्लङ्घयमानपरिसरा भिः [ऋ], 'एत एत शीघ्रम् , इत इतो निरुन्ध्वमध्वानम् , अस्य हस्ते प्रभूतमृक्थम् , अयमुत्पथेन पलायितुकामः' इत्यनवरतमुच्चारयता पञ्जरशुकसमूहेन मुखरिताङ्गणवृक्षशाखाभिरधर्मनगरीभिरिव कृतयुगभयाद् गृहीतवन
. टिप्पनकम् - उपहारः-बलिः । त्रयीभक्तेनेव गाढाञ्चितहिरण्यगर्भकेशवेशेन एकत्र अत्यर्थपूजितब्रह्मविष्णुशङ्करेण, अन्यत्र निबिडाबद्धसुवर्णमध्यकचस्थानेन [ऋ]।
ब्राह्मणाः "ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यस्त्रयो वर्णा द्विजातयः” इति वचनात् ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्या वा यासु तादृशीभिः, पुनः दिवानिशं रात्रिंदिवम् , अविश्रान्तनिनादैः अविरतध्वनिभिः, आपानकमर्दलैः मदिरापानगोष्टीस्थवाद्यविशेषैः, दरादेव दूरदेशादेव, सूच्यमानसन्निवेशाभिः सूच्यमानः-प्रत्याय्यमानः सन्निवेशः-संस्थानं यासां तादृशीभिः, पुनःप्रतिल्लि प्रत्येकचुल्लिकायां. पच्यमानशलीकृतानेकश्वापदपिशिताभिः पच्यमानानि-पाकेन संस्क्रियमाणानि, शूलीकृतानां-शस्त्रविशेषहतानाम्, अनेकेषां-बहूनां, श्वापदानां-हिंस्रपशूनां, पिशितानि-मांसानि यासु तादृशीभिः, पुनः प्रतिनिकुञ्ज प्रत्येकलतापिहितोदरगृहे, आकर्ण्यमानबन्दीजनाक्रन्दाभिः आकर्ण्यमानः-श्रूयमाणः, बन्दीजनानां निगडबद्धलोकानाम् , आक्रन्दः-रोदनकोलाहलो यासु तादृशीभिः, पुनः प्रतिवसति प्रतिगृह, विभज्यमानतस्करापहृतस्वापतेयाभिः विभज्यमानानि-वण्ट्यमानानि, तस्करैः-चौरैः, अपहृतानि चोरितानि, खापतेयानि-धनानि यासु तादृशीभिः, पुनः प्रतिडिम्भं प्रतिबालकम् , उपदिश्यमान मृगमोहकारिकरुणगीताभिः उपदिश्यमानानि-शिक्ष्यमाणानि, मृगमोहकारीणि-हरिणहृदयाकर्षकाणि, करुणगीतानि-करुणरसाप्लुतगीतानि यासु तादृशीभिः, पुनः प्रांतजलाशयं प्रत्येकजलाशयेषु, आसीनानायबडिशहस्तकैवतोभिः आसीनाः उपविष्टाः, आनायबडिशहस्ताः-आनाया:-मत्स्यग्रहणार्थ सूत्रनिर्मितजालानि, बडिशानि-मत्स्यवेधकलोहकण्टकमयाः पदार्थाः, हस्ते येषां तादृशाः, कैवर्ताः-धीवरा यासु तादृशाभिः, पुनः प्रतिदिवसं प्रतिदिनम् , अन्विष्यमाणचण्डिकोपहारपुरुषाभिः अन्विष्यमाणः-गवेष्यमाणः, चण्डिकाया:-नरबलिप्रियाया देव्याः, उपहारः-बलिभूतः, पुरुषो यासु तादृशीभिः, पुनः देशिक- .. जनेन यात्रिकलोकेन, लघतरोलजन्यमानपरिसराभिः लघुतरं--शबराक्रमणभयेन क्षिप्रतरम् , उल्लङ्घयमानः-अतिक्रम्यमाणः, परिसरः-पर्यन्तभूमिर्यासां तादृशीभिः, कीदृशेन ? धृताधिज्यधनुषा धृतं-तदाक्रमणभयेन गृहीतम् , अधिज्यं-ज्यां-मौर्वीम् , अधिरोपितम् , आकृष्टमित्यर्थः, धनुर्यन तादृशेन, पुनः निभृतं निश्चलं अधरस्पन्दनरहितमित्यर्थः, वैखरीध्वनिवर्जितमिति यावत्, यथा स्यात् तथा, उच्चारितचण्डिकास्तोत्रदण्डकेन उच्चारित-उपांशुपठितं, चण्डिकायाः-देव्याः, स्तोत्रं-"दस्युभिर्वा वृतः शून्ये गृहीतो वापि शत्रुभिः । सिंहव्याघ्रानुयातो वा वने वा वनहस्तिभिः॥ स्मरन्ममैतच्चरितं नरो मुच्येत संकटात्" इत्येतादृशमाहात्म्यकं मार्कण्डेयपुराणान्तर्गतस्तोत्रमेव, दण्डक-सप्तशतीश्लोकात्मकतया दण्डाकारकं येन तादृशेन, पुनः सर्वतः चतुर्दिक्षु, प्रहितभयतरलदृष्टिना प्रहिते-व्यापारिते, भयतरले-शबरकर्तृकाक्रमणभयचञ्चले, दृष्टी-लोचने येन तादृशेन, पुनः त्रयीभक्तेनेव ऋग-यजुष्-सामाख्यवेदत्रयोपासकेनेव, गाढाश्चितहिरण्यगर्भकेशवेशेन गाढं-अत्यन्तम् , अञ्चितः - आकुञ्चितः, आबद्ध इत्यर्थः, हिरण्यगर्भः-अन्तर्गतसुवर्णः, केशवेशः-केशविन्यासः, कबरीबन्ध इत्यर्थः, येन तादृशेन, पक्षे गाढ़म्-अत्यन्तम् , अञ्चितः-पूजितः, हिरण्यगर्भः-ब्रह्मा, केशवः-विष्णुः,ईशः-शिवश्च येन तादृशेन. [ऋ पुनः कीदृशीभिः? सीधं सत्वरम एत एत आगच्छत आगच्छत, द्विवचनमत्र सम्भ्रमार्थे बोध्यम् , इत इतः अत्र अत्र, अध्वानं मार्गम् , निरन्ध्वम् आवृणुध्वम् , अस्य पुरोवर्तिजनस्य, हस्ते, प्रभूतं प्रचुरम् , ऋक्थं धनम् , अयं प्रत्यक्षभूतो जनः, उत्पथेन विपरीतमार्गेण, पलायितुकामः धावितुमिच्छुः, अस्तीति शेषः, इति इत्थम् , अनवरतं निरन्तरम् , उच्चारयता यथाश्रुताभ्यासं पठता, पञ्जरशकसमूहेन पञ्जरो नाम-पक्षिनियन्त्रणयन्त्रः, तत्र नियन्त्रितशुकगणेन, मुखरिताङ्गणवृक्षशाखाभिः मुखरिताः
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तिलकमञ्जरी वासाभिः शबरपल्लीभिरध्यासितविषमपर्वतोद्देशया, क्वचिद् दावदहनाश्लिष्टवंशीवनश्रूयमाणश्रवणनिष्ठरष्टात्कारया, कचिदकुण्ठकण्ठीरवारावचकितसारङ्गलोचनांशुशारया, कचित् तरुतलासीनशबरीविरच्यमानकरिकुम्भमुक्ताशबलगुञ्जाफलप्रालम्बया, क्वचिदधःसुप्तहप्ताजगरनिःश्वासनर्तितमहातरुस्तम्बया, कचिदुदश्रुकणिकश्वागणिकशोच्यमानकोलदलितनिःसन्दसारमेयवृन्दया, कचित् प्रचारनिर्गतवनेचरान्विष्यमाणफलमूलकन्दया [ल], क्वचिच्छेकशाखामृगाच्छिन्नपाथेयपथिकनिष्फललोष्टवृष्टिहासिताटविकवर्गया, कचिच्चर्मलुब्धलुब्धकानुबध्यमानमार्गणप्रहतमर्मद्वीपिमार्गया,सापराधवध्वेव प्रियालपनसफलीभूतपादपातनिष्ठया, वीरपुरुषतूण्येव गौरखराच्छभल्लशरभरोचितया, जठरजीर्णानेकदिव्यौषधिसमूहयापि व्याधीनां गणैराक्रान्तया, गन्तुमट
टिप्पनकम्-कण्ठीरवः-सिंहः [ल]। सापराधवध्वेव प्रियालपनसफलीभूतपादपातनिष्टया एकत्र प्रियालापेन सफलीभूतं चरणपतनकष्टं यस्याः सा तथोक्ता तया, अन्यत्र प्रियाल-पनस-प्रियङ्गु-बिभीतकवृक्षातनिष्टया, धीरपुरुष
गौरखराच्छभल्लशरभरोचितया एकत्र गौरखर-अच्छभल्ल-शरभशोभितया, अन्यत्र उज्वलतीक्ष्णस्वच्छ कुन्त
वाचालिताः, अङ्गणस्थितवृक्षाणां शाखा यासा तादृशीभिः, पुनः अधर्मनगरीभिरिव पापपुरीभिरिव, कृतयुगभयात् सत्ययुगभयात्, गृहीतवनवासाभिः गृहीतः-खीकृतः, वनवासः-धर्माचरणार्थ वने वासो याभिस्तादृशीभिः; पुनः कीदृश्या? क्वचित् कुत्रापि प्रदेशे, दावदहनाश्लिष्टवंशीवनश्रूयमाणश्रवणनिष्ठुरष्टात्कारया दावदहनेन-बनामिना, आश्लिष्टेआक्रान्ते, वंशीवने-क्षुद्रवेणुवने, श्रूयमाणः-श्रवणगोचरीक्रियमाणः, श्रवणनिष्ठुरः-श्रवणकठोरः, ष्टात्कारः-ध्वनिविशेषो यस्यां तादृश्या; पुनः क्वचित् कुत्रचित् स्थाने, अकुण्ठकण्ठीरवारावचकितसारङ्गलोचनांशुशारया अकुण्ठैः-अविरतैः, कण्ठीरवाणां-सिंहानाम् , आरावैः-निनादैः, चकितानां-सम्भ्रान्तानां, सारङ्गलोचनानां-हरिणनेत्राणाम् , अंशुभिः-रश्मिभिः, शारया-शबलया; पुनः क्वचित् कस्मिंश्चित् प्रदेशे, तरुतलासीनशबरीविरच्यमानकरिकुम्भमुक्ताशबलगुञ्जाफलप्रालम्बया तरुतलासीनाभिः-वृक्षाधःस्थलोपविशन्तीभिः, शबरीभिः-शबरजातीयस्त्रीभिः, विरच्यमानं-प्रथ्यमानं, करिकुम्भमुक्ताशबलं-हस्तिमस्तकाहृतमुक्तामणिचित्रं, गुञ्जाफलप्रालम्बं-गुञ्जाफलसम्बन्धि ऋजु कण्ठलम्बि माल्यं यस्यां तादृश्या; पुनः क्वचित कुत्रापि प्रदेशे, अधःसुप्तदृप्ताजगरनिःश्वासनर्तितमहातरुस्तम्बया अधः-मूलस्थले, सुप्तानां-शयितानां, दृप्तानां दर्यान्वितानाम् , अजगराणां-तज्जातीयमहासाणां, निःश्वासैः-नासिकोद्गतपवनैः, नर्तिताः-उत्क्षिप्ताः, महातरुस्तम्बा-महावृक्षकाण्डा यस्यां तादृश्या; पुनः क्वचित् कुत्रापि स्थाने, उदश्रुकणिकश्यागणिकशोच्यमानकोलदलितनिःस्पन्दसारमेयवन्दया उद्गताः, अश्रकणिकाः-नेत्राम्बुकणा येषां तादृशैः, श्वागणिकैः-श्वगणेन-कुक्करगणेन, चरन्तीति श्वागणिकास्तैः, शोच्यमानं, कोलैः-शूकरैः, दलितं-खण्डितम् , अत एव निःस्पन्द-निश्चेष्टं, सारमेयवृन्द-कुकुरकलापो यस्यां तादृश्या; पुनः क्वचित् क्वापि स्थाने, प्रचारनिर्गतवनेचरान्विष्यमाणफलमूलकन्दया प्रचारनिर्गतैः-निवृत्तयात्रैः, मार्गनिर्गतैर्वा, वनेचरैः-शबरादिभिः, अन्विष्यमाणानि-गवेष्यमाणानि, फलानि, मूलानि कन्दाः-शूरणाश्च यस्यां तादृश्या [ल]। पुनः क्वचित कस्मिंश्चित् प्रदेशे, छेकशाखामृगाच्छिन्नपाथेयपथिकनिष्फललोष्टवृष्टिहासिताटविकवर्गया छेकैः-गृहासक्तपक्षिभिः, चतुरैर्वा, शाखामृगैः-मर्कटैश्च, आच्छिन्नं-बलाद्गृहीतं, पाथेयं-पथि-मार्गे भोज्यं वस्तु येषां तादृशैः, पथिकैःमार्गगामिभिः, निष्फललोष्टवृष्ट्या-व्यर्थमृत्खण्डप्रहारैः, हासितः-हासमापादितः, आटविकवर्ग:-वन्यजनता यस्यां तादृश्या; पुनः क्वचित कुत्रापि स्थले, चर्मलब्धलब्धकानुबध्यमानमार्गणप्रहतमर्मद्वीपिमार्गया चर्मलुब्धैः-चर्माभिलाषिभिः लुब्धकैः-व्याधैः, अनुबध्यमानः-निरुध्यमानः, मार्गणैः-बाणैः, प्रहतं-व्रणितं, मर्म-हृदयादिस्थानं येषां तादृशाना, द्वीपिनांव्याघ्राणां, मार्गो यस्यां तादृश्या; मार्गस्थाने वर्गेति पाठे अनुबध्यमानः-गाढबन्धनमापाद्यमानः, तादृशो वर्गः समूहो यत्र तादृश्या; पुनः सापराधवध्वेव कृतापराधनार्येव, प्रियालपनसफलीभूतपादपातनिष्ठया प्रियालैः-तदाख्यवृक्षविशेषैः, पनसैः-स्वनाम्ना लोकप्रसिद्धवृक्षः, फलीभिः-प्रियङ्गवृक्षैः, भूतपादपैः-“भूतवृक्षस्तु शाखोटे स्योनाककलिवृक्षयोः” इत्युक्तैर्वक्षविशेषैः, अतनिट्या-समृद्धया, पक्षे प्रियालपनेन-प्रियकर्तृकालापेन, सफलीभूता-पफला, पादपातस्य-प्रियपादयोः पतनस्य, निष्टा-क्लेशो यस्यास्तादृश्या, पुनः वीरपुरुषतूण्येव वीरपुरुषाणां-भटजनाना, तूण्या-बाणाधारपात्रेण, इव, गौरखराच्छ
९ तिलक
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टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता ।
वीभुवा प्रावर्तत []। विलचितालघुपथश्च व्रजन्नपराह्नसमये वनविहारविनिर्गतेन मार्गवर्तिना प्राग्ज्योतिषेश्वरानुजेन मित्रधरनाम्ना समदृश्यत । परिवारविरहाच 'कोऽयम्' इति मुहूर्तमानं कृतविमर्शेन प्रत्यभिज्ञाय विहितप्रणामेन 'युवराज! किंनिमित्तमेवमेकाकिना समागत्य नित्यमसदाचारवनचरप्रचारकलुषा विगतकल्मषा कृतेयमस्मद्भूमिः, अपि कुशली कुमारः' इति ससाध्वसेन पृष्टः समरकेतुरुपविश्य विविक्तदेशे हरिवाहनस्य हस्तिनापहरणमात्मनश्च वैताढ्यभूधरगमनमादितः प्रभृति सप्रपञ्चमाचचक्षे । श्रुताकस्मिकस्वामिदुर्जातजातव्यथेन च स्थित्वा मुहूर्तमवनताननेन तेनोत्थाप्य नीतो निजनिवासमादरेण गृहानीतहरिवाहनप्रायोग्यपूजानिर्विशेषां सपर्यामन्वभूत् [ए]।
प्रभाते च तं कृतगतिप्रतिबन्धमुपपत्तिभिरनेकधा संबोध्य विनिवर्त्य च सुदूरं कृतानुव्रजनमनपेक्षित
बाणसंघातयोग्यया ? जठरजीर्णानेकदिव्यौषधिसमूहयापि व्याधीनां गणैराकान्तया या किल उदरपरिणतनानादिव्यौषधिसंघाता सा कथं रोगैाप्ता, अन्यत्र मध्यशीर्णानेकदिव्यौषधिसमूहया, लुब्धकभार्यासमूहैाप्ता [ल.]।
टिप्पनकम्-दुर्जात-दुःखम् [ए] ।
भल्लशरभरोचितया गौरखरैः-गिलहरीति प्रसिद्धवन्यजन्तुभिः, अच्छभल्लैः-भल्लुकैः, शरभैः-मृगविशेषैश्च, रोचितया-दीप्तया, पक्षे गौरी-उज्ज्वलौ श्वेतौ, खरौ-तीक्ष्णौ, अच्छौ -निर्मलौ च यौ भल्ल-शरौ-कुन्त-बाणौ, तयोर्भरः-पूर्णता, यद्वा-धारणम् , उचितःयोग्यः, यद्वा अभ्यसतः, यद्वा ताभ्यां भरः उत्कर्षों यस्यास्तादृश्या; पुनः जठरजीर्णानेकदिव्यौषधिसमूहयापि जठरेउदरे, जीर्णः- पक्कः, अनेकासां, दिव्यानाम्-उत्तमानाम् , औषधीनां-हरीतक्यादीना, समूहो यस्यास्तादृश्यापि, व्याधीनां रोगाणां, गणैः समूहैः, आक्रान्तया व्याप्तयेति विरोधः, औषधस्य ओषधिविकारतया जीर्णोषधस्य व्याधिगणाक्रमणस्य विरुद्धत्वात् , तत्परिहारस्तु जठरे-मध्ये, जीर्णाः-फलपाकेन शुष्काः, ओषधीनां-फलपाकेन पर्यवसानशीलानां, व्रीहियवादिवृक्षाणां समूहो यस्यास्तादृश्या, व्याधीनां-व्याधस्त्रीणां, गणैः, आक्रान्तयेत्यर्थेन बोध्यः [ल]।
च पुनः, विलचितालघुपथः विलचितः-अतिक्रान्तः, अलघुः-गुरुभूतः, पन्थाः-वन्यमार्गों येन तादृशः, समरकेतुरिति शेषः, व्रजन् गच्छन् , अपरालसमये दिनपश्चाद्भागसमये, वनविहारविनिर्गतेन वनविहारात् प्रत्यागतेन, मार्गवर्तिना मागेस्थेन, प्राग्ज्योतिषेश्वरानुजेन प्राग्ज्योतिषेश्वरस्य-आसामप्रदेशाधिपस्य, अनुजेन-कनिष्ठभ्रात्रा, मित्रधरना केन, समदृश्यत सम्यग् दृष्टः । च पुनः, परिवारविरहात् दृष्टपूर्वादसीयपरिजनाभावात् , 'अयं कः' इति महतमात्रं क्षणमात्रं, कृतविमर्शन विहितभावनेन, प्रत्यभिज्ञाय दृष्टपूर्वः समरकेतुरयमिति प्रतीत्य, विहितप्रणामेन कृतनमस्कारेण, मित्रधरेणेति शेषः, युवराज! कुमार !, एवं अनेन प्रकारेण, एकाकिना अद्वितीयेन, भवतेति शेषः, समागत्य अत्रोपस्थाय, नित्यं अनवरतम् , असदाचारवनचरप्रचारकलुषा असदाचाराणां-दुराचाराणां, वनचराणां-शबरनिषादादीनां, प्रचारैः-गमनागमनैः, कलुषा-दूषिता, इयं प्रत्यक्षभूता, अस्मभूमिः अस्माकं भूमिः, किंनिमित्तं किमर्थ, विगतकल्मषा स्वपादारोपणेन निष्पापा पापरहिता पवित्रेति यावत् , कृता सम्पादिता । अपि किमु, कुमारः हरिवाहनः, कुशली कुशलवान , अस्तीति शेषः, इति इत्थं, ससाध्वसेन तदीयाकुशलभयसहितेन, पृष्टः जिज्ञासां ज्ञापितः, समरकेतुः, विविक्तदेशे विजने स्थाने, उपविश्य, हरिवाहनस्य, हस्तिना वैरियमदण्डाभिधानेन प्रकृतप्रधानगजेन, तत्कर्तृकमित्यर्थः, अपहरणं अपहारवार्ताम् , च पुनः, आत्मनः खस्य, वैताठ्यभूधरगमनं तदाख्यपर्वतगमनवार्ताम् , आदितः प्रभृति आरभ्य, सप्रपञ्चं सविस्तरम् , आचचक्षे उक्तवान् । श्रुताकस्मिकस्वामिदुर्जातजातव्यथेन श्रुतेन-श्रवणगोचरीकृतेन, आकस्मिकेन-अतर्कितोपनतेन, वामिनः-हरिवाहनस्य, दुर्जातेन-दुर्घटनया, जाता-उत्पन्ना, व्यथा-दुःखं यस्य तादृशेन, अत एव अवनताननेन नम्रीकृतमुखेन, तेन मित्रधरेण, महत क्षणं, स्थित्वा मौनमास्थाय, उत्थाप्य उन्नीय, आदरेण प्रीत्या, निजनिवासंखभवन, नीतः प्रापितः, गृहानीतह रिवाहनप्रायोग्यपूजानिर्विशेषाम् , गृहानीतस्य-स्वगृहमुपस्थापितस्य, हरिवाहनस्य-प्रायोग्याप्रयोक्तुमुचिता, या पूजा तनिर्विशेषां-तत्तुल्या, सपर्या पूजाम् , अन्वभूत् प्राप्तवान् [ए] च पुनः, प्रभाते प्रातः समये
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तिलकमञ्जरी तदुपनीतसहायः पुनरचलत् । अनेन च क्रमेण प्रतिदिवसमखण्डितप्रयाणस्य करिकलभकस्येव दूरपातिभिः पदैरध्वनि सर्पतो, यावकरसस्येव वारं वारं लङ्घितमहेलाधरस्य, मारुतेरिव क्रमेणोत्तीर्णदुरवतारसिन्धोः, कदाचिदग्न्याहिताग्नेरिव शुष्कपादपारण्याश्रयिणः, कदाचिदुत्तमप्रकृतेरिव महाजनपदानुसारिणः, कदाचिन्महामुनेरिव फलमूलकन्दैः कल्पिताभ्यवहारस्य, कदाचिदमरस्येव संकल्पमात्रोपनतदिव्याहारस्य, कदाचिदनेरिव शीतलैः प्रस्रवणवारिभिः स्वयंधौतपादस्य, कदाचिदिष्टदैवतस्येव दर्शनानुरक्तजनेन स्नपनवसनाङ्ग
टिप्पनकम्-यावकसरस्येव वारं वारं लच्चितमहेलाधरस्य एकत्र आक्रान्तयोषिदधरौष्ठस्य, अन्यत्र अतिफ्रान्तगुरुपर्वतस्य । मारुतेरिव क्रमेणोत्तीर्णदुरवतारसिन्धोः एकत्र परिपाट्या उत्तीर्णदुःखावतारसमुद्रस्य, अन्यत्र उत्तीर्णदुःखावतारसरितः, मारुतिः-हनूमान् । अग्न्याहिताग्नेरिव शुष्कपादपारण्याश्रयिणः एकत्र शुष्कवृक्षारणिकाष्टाश्रितस्य, अन्यत्र शुष्कवृक्षकान्तारसेविनः । उत्तमप्रकृतेरिव महाजनपदानुसारिणः एकत्र पूज्यजनस्थानानुसृतस्य अन्यत्र बृहद्देशानुगामिनः । महामुनेरिव फलमूलकन्दैः कल्पिताभ्यवहारस्य उभयत्रापि समानम् । अमरस्येव संकल्पमात्रोपनतदिव्याहारस्य एकत्र चिन्तनमात्रोपगतामृताहारस्य, अन्यत्र चिन्तनमात्रागतचारुभोजनस्य । अद्रेरिव वारिभिः धौतपादस्य एकत्र प्रक्षालितपर्यन्तपर्वतस्य, अन्यत्र धौतचरणस्य । इष्टदैवतस्येव दर्शनानुरक्तजनेनापाद्यमानचित्तप्रसादस्य एकत्र दर्शनं -मतम् , अन्यत्र अवलोकनम् , शेषं समानम् । प्रेतसाधकस्येव
कृतगतिप्रतिबन्धं कृतप्रयाणप्रतिबन्धं, तं मित्रधरम् , उपपत्तिभिः स्वप्रयाणसमर्थकयुक्तिभिः, संबोध्य सम्यग बोधयित्वा, प्रतिबन्धाद् वारयित्वेत्यर्थः, च पुनः, सुदरम् अतिदूरं, कृतानुव्रजनं कृतानुगमनं, तं मित्रधर, विनिवर्त्य परावर्त्य, अनपेक्षिततदुपनीतसहायः अनपेक्षितः-उपेक्षितः, तदुपनीतः-तेन-मित्रधरेण, उपनीतः-समर्पितः, सहायः-सार्थगामी येन तादृशः सन् , पुनः अचलत् प्रयातः । अनेन अनुपदवर्णितेन, क्रमेण विधिना, प्रतिदिवसं प्रतिदिनम् , अखण्डितप्रयाणस्य अविच्छिन्नयात्रस्य, समरकेतोरिति शेषः,कमेण पर्यायेण, षड्मासाः, अतिजग्मुः अतिक्रान्ता इत्यग्रेणान्वेति । कीदृशस्य ? करिकलभकस्येव हस्तिशावकस्येव, दूरपातिभिः दूरपर्यन्तोत्क्षेपणशालिभिः, पदैः चरणैः, अध्वनि मार्गे, सर्पतः गच्छतः, पुनः यावकरसस्येव अलक्तरसस्येव, लङ्घितमहेलाधरस्य लचितः-अतिक्रान्तः, महान्-विशालः, इलापृथ्वी धरतीति इलाधरः-पर्वतो येन, पक्षे महस्य-उत्सवस्य, इला-स्थानमिति महेला-नारी, तस्याः, अधरः-ओष्ठः, लङ्घितःआक्रान्तः, व्याप्त इति यावत् , येन तादृशस्य, पुनः मारुतेरिव हनूमत इव, क्रमेण शनैः, उत्तीर्णदुरवतारसिन्धोः उत्तीर्णा-उल्लचिता, दुरवतारा - दुष्प्रवेशा, सिन्धुः-नदी, पक्षे सागरो येन तादृशस्य; पुनः कदाचित् कस्मिंश्चित् काले, अग्न्याहिताग्नेरिव अग्न्याहितस्य-विधिना स्थापिताग्नेः, अग्निहोत्रिण इत्यर्थः, अग्नेरिव, शुष्कपादपारण्याश्रयिणः शुष्काः-नीरसाः, पादपाः-वृक्षा यस्मिंस्तादृशं यत् अरण्य-वनं तदाश्रयिण:-तत्सेविनः, पक्षे शुष्कपादपसम्बन्धी यः, अरणिः-निर्मन्थ्यकाष्ठं, यद्वा पादपः-वृक्षसम्बन्धिकाष्ठं, तथा अरणिः-निर्मन्थकाष्ठं, तदाश्रयिणः; पुनः कदाचित् कस्मिंश्चित् समये, उत्तमप्रकृतेरिव सच्छीलस्येव, महाजनपदानुसारिणः महान्-विशालो यो जनपदः-प्राग्ज्योतिषादिदेशः, पक्षे महाजनस्य-पूज्यजनस्य, यत् पदं-स्थान चरणं वा, तदनुसारिणः-तदाश्रयिणः, पुनः कदाचित् कस्मिंश्चिदवसरे, महामुनेरिव महर्षेरिव, फलमूलकन्दैः कल्पिताभ्यवहारस्य फलेन-कदलीफलादिना, मूलेन-वृक्षशिफया, कन्देन-शूरणेन च, कल्पितः-सम्पादितः, अभ्यवहारः-भोजनं येन तादृशस्य; पुनः कदाचित् कस्मिंश्चित् काले, अमरस्येव देवस्येव, संकल्पमात्रोपनतदिव्याहारस्य संकल्पमात्रेण-चिन्तनमात्रेण, उपनतः-उपस्थितः, दिव्यः-उत्तमः, आहारः-भोज्यवस्तु, पक्षे दिव्याहारः-अमृतं यस्य तादृशस्य; पुनः कदाचित् कस्मि. श्चिदवसरे, अद्रेरिव पर्वतस्येव, शीतलैः शैत्यशालिभिः,प्रस्रवणवारिभिःप्रवाहजलैः,स्वयंधौतपादस्य स्वयं-खेनैव, धौतीप्रक्षालितो, पादौ, पक्षे पादाः-महापर्वतप्रान्तस्थक्षुद्रपर्वता यस्य तादृशस्य; पुनः कदाचित् कस्मिंश्चित् काले, इष्टदै
शित काले दण्व तस्येव इष्टदेवस्येव, दर्शनानुरक्तजनेन तदवलोकनकुतूहलिना लोकेन, पक्षे तन्मतानुरागयुक्तजनेन, स्नपनवसनाङ्गरागकुसुमादिभिः स्नपन-नानीयजलाहरणं, बसनं-परिधानीयार्पणम् , अङ्गरागः- विलेपनद्रव्योपहरणं, कुसुमं-पुष्पमाल्यार्पणं, तदादिभिः-तत्प्रभृतिभिरुपचारैः, आपाद्यमानचित्तप्रसादस्य आपाद्यमानः-सम्पाद्यमानः, चित्तप्रसादः-हृदयप्रीतियेस्य तादृशस्य; पुनः कदाचित्
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टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता । रागकुसुमादिभिरापाद्यमानचित्तप्रसादस्य, कदाचित् प्रेतसाधकस्येव नक्तञ्चराध्यासितासु भूमिषु कुशसंस्तराननुचितानलङ्कणिस्य, कदाचिद् विपक्षभीतभिल्लपतेरिव प्राकृतजनदुरारोहानुपलपल्यङ्कानधिशयानस्य [ऐ], सुहृद्वार्तापलब्धये च मार्गवर्तिषु ग्रामेषु वृद्धार्यलोकानुपसर्पतो, बृहत्सु नगरेषु त्रिचतुराण्यहानि यात्राभङ्गमाचरतः, शबरपल्लीषु रणपराजयप्रतिपन्नदास्यान दस्युसेनापतीनितस्ततः प्रेषयतः, तापसाश्रमपदेषु पृष्टनिमित्तकुलपतिप्रेरितस्य पुरः पुरो गच्छतः, शीघ्रतरलङ्घितानेकसुन्दरार्यजनपदस्य, श्रुतिपरिचितेषु च प्रान्तप्रदेशेषु विकृतभाषावेषसविशेषजनितकौतुकान् कचिदेकचरणान् क्वचिदश्वाननान् कचित् करभकन्धरोदग्रग्रीवान् कचिल्लोमलुप्तसकलावयवदर्शनान् मानुषसमूहानीक्षमाणस्य [ओ], बालचन्दनवृक्षखण्ड
नक्तञ्चराध्यासितासु भूमिषु कुशसंस्तराननुचितानलं कुर्वाणस्य एकत्र नक्तञ्चराः-राक्षसाः, अन्यत्र सिंहादयः, भूमिषु-श्मशानेषु, धरासु, एकत्र संस्तरान् कुर्वाणस्य-विधानस्य, कथम् ? अनुचितानलं-चिताग्निं लक्ष्यीकृत्य, अन्यत्र संस्तरान् अनुचितान्-अयोग्यान् , अलङ्कुर्वाणस्य-भूषयतः, विपक्षभीतभिल्लपतेरिव प्राकृतजनदुरारोहान् पल्लयङ्कानधिशयानस्य एकत्र सामान्यपुरुषदुःखारोहान् पल्ल्या उत्सङ्गान् , अन्यत्र नीचजनदुरारोहान् महार्हस्पस्या()[शय्याः] अधिशयानस्य-आरोहतः [ऐ]।
क्वचिदवसरे, प्रेतसाधकस्येव पिशाचादिसाधनातत्परजनस्येव, नक्तञ्चराध्यासितासु राक्षसाधिष्ठितासु, पक्षे सिंहाद्याश्रितासु, भूमिषु श्मशानभूमिषु, पक्षे पृथ्वीतलेषु, अनुचितान् राजपुत्रायोग्यान् , कुशसंस्तरान् कुशमयकटान् , अलङ्कुर्वाणस्य शोभयतः, पक्षे अनुचितानलं चिताग्निं लक्ष्यीकृत्य, कुर्वाणस्य-विदधानस्य; पुनः कदाचित् कस्मिंश्चित् काले, विपक्षभीतभिल्लुपतेरिव शत्रुत्रस्तवनेचराधिपतेरिव, प्राकृतजनदरारोहान् प्राकृतजनैः-सामान्यजनैः, दुःखेन आरोढुं शक्यान् , उपलपल्यङ्कान् प्रस्तरपर्यङ्कान्, 'प्राकृतजनदुरारोहान् पल्लयङ्कान्' इति पाठे एकत्र सामान्यजनदुःखारोहान् , अन्यत्र नीचजनदुरारोहान् ; एकत्र महार्हशय्याः, अन्यत्र पल्ल्या उत्सङ्गान् ; अधिशयानस्य स्खपतः [ऐ]; च पुनः, सुहृद्वार्तापलब्धये सुहृदः-मित्रस्य, हरिवाहनस्येत्यर्थः, वार्तायाः-समाचारस्य, उपलब्धये-ज्ञानाय, मार्गवर्तिषु मार्गस्थेषु, ग्रामेषु गृहौघेषु, वृद्धार्यलोकान् वृद्धान् आर्यान्-श्रेष्ठांश्च, लोकान्-जनान् , उपसर्पतः उपगच्छतः; पुनः बृहत्सु विशालेषु, नगरेषु, त्रिचतुराणि त्रीणि वा चत्वारि वा, अहानि दिनानि, यात्राभङ्गं प्रयाणधाराविच्छेदम् , आचरतः । कुर्वतः; शबरपल्लीषु शबरजातीयक्षुद्रग्रामेषु, रणपराजयप्रतिपन्नदास्यान् रणेषु-युद्धेषु, पराजयेन प्रतिपन्नं-स्वीकृतं, गृहीतमिति यावत् , दास्य-दासत्वं यैस्तादृशान् , दस्युसेनापतीन् रिपुसेनानायकान् , इतस्ततः अत्र तत्र, प्रेषयतः व्यापारयतः; पुनः तापसाश्रमपदेषु तापसानां-तपस्विनाम् , आश्रमस्थानेषु, पृष्टनिमित्तकुलपतिप्रेरितस्य पृष्टं-जिज्ञासितं, निमित्तं-भ्रमणहेतुर्येन तादृशेन, कुलपतिना-दशसहस्रमुनीनामन्नपानादिभिः पोषणपूर्वकमध्यापकेन प्रेरितस्य-पुरः प्रयातुं व्यापारितस्य, तदुक्तम्-'मुनीनां दशसाहस्रं योऽन्नपानादिपोषणात् । अध्यापयति विप्रर्षिरसौ कुलपतिः स्मृतः ॥; अत एव पुरः पुरः अग्रे अग्रे, गच्छतः, शीघ्रतरलवितानेकसुन्दरार्यजनपदस्य शीघ्रतरम्-अतिसत्वरं, लविताः-अतिक्रान्ताः, अनेके सुन्दरआर्याः-श्रेष्ठाश्च, यद्वा सुन्दराणाम् , आर्याः-श्रेष्ठाः, जनपदा देशा येन तादृशस्य; च पुनः, श्रुतिपरिचिते -श्रवणा मात्रेण, परिचितेषु-श्रुतपूर्वेष्वित्यर्थः, प्रान्तप्रदेशेषु वननिकटवर्तिप्रदेशेषु, विकृतभाषावेषसविशेषज
कान् विकृताभिः-बीभत्साभिः, भाषाभिः, वेषैः-कृत्रिमाङ्गमण्डनैश्च, सविशेषम्-अत्यन्तं, जनितं कौतुकं दिदृक्षारसो यैस्तादृशान् , पुनः क्वचित कुत्रचित् प्रदेशे, एकचरणान् अद्वितीयपादान , पुनः क्वचित कुत्रापि प्रदेशे, अश्वाननान् अश्वस क्वचित् कस्मिंश्चित् प्रदेशे, करभकन्धरोदयग्रीवान् करभः-उष्ट्रः, तस्य कन्धरा-ग्रीवा, तद्वत् उदग्रा-उन्नता ग्रीवा येषां तादृशान् , पुनः क्वचित क्वापि प्रदेशे, लोमलप्तसकलावयवदर्शनान् लोमभिः-रोमसमूहै:, लुप्त-निवारित, सकलावयवदर्शनं-सर्वाङ्गविलोकनं येषां तादृशान् , मानुषसमूहान् मनुष्यगणान् , ईक्षमाणस्य अवलोकमानस्य [ओ]; पुनः बालचन्दनवृक्षखण्डस्येव अभिनवचन्दनवनस्येव, अध्वगमितमार्गसहस्यशिशिरसुरभेः अध्वनि-मार्गे, गमिताः
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तिलकमञ्जरी स्येवावगमितमार्गसहस्यशिशिरसुरभेः, दक्षिणायनान्तविनकृत इव प्रवर्धमानेन तेजसा प्रतिविषसमुत्तर ककुभमाक्रामतः क्रमेण मासाः षडतिजग्मुः [औ]।
__ अथास्ति पश्चिमेनाष्टापदशैलमनतिदूरवर्ती वैताढ्यपर्वतस्य, शिखरोच्छ्रायखर्वितान्तरिक्षो, नितान्तविततावकाशः शिरसि स्निग्धहरिताभिः सर्वत एवान्धकारितो वनलेखाभिः, अनुमेखलं सिद्धायतनमण्डलेषु सिद्धमिथुनैः सततारब्धमङ्गलगीतिः, अगाधसलिलेन सितविशालवालुकापुलिनशालिना समाधिसुखसाधनाय संनिधानाश्रमनिवासिभिस्तापसैः स्थानस्थानरचितचारुमणिशिलावेदिकेन त्रिदशसिन्धुस्रोतसा परिगतः, प्रान्तेष्वविश्रान्तनिर्झरनिनादो, नित्यमुदितनृत्यन्मयूररुतमुखरितासंख्यकन्दरो, लतामन्दिरच्छन्नसुन्दरानेक. सानुरेकशृङ्गो नाम शिखरी [अं]।
तस्य सर्वदा कुसुमफलसमृद्धशाखिनि शिखरपृष्ठे प्रस्थितः समरकेतुरेकदा निदाघसमये महाभोग
टिप्पनकम्-बालचन्दनवृक्षषण्डस्येवाध्वगमितमार्गसहस्यशिशिरसुरभेः एकत्र पथिकक्षुन्नमार्गसमर्थस्य, तथा शीतलसुगन्धेः, अन्यत्र मार्गनीतमृगसिरः पौष-माघ-फाल्गुन-चैत्र-वैशाखस्य [औ]।
व्यतीताः, मार्गसहस्यशिशिरसुरभयः-मार्गः- मार्गशीर्षमासः, सहस्यः-पौषमासः, तदुभयात्मको हेमन्त इत्यर्थः, शिशिरः-माघ
सरभिः-चैत्र-वैशाखात्मको वसन्तऋतश्च येन तादृशस्य, पक्षे अध्वनि-पथि, गमिताः-प्रयापिताः, मार्गसहाः-शैत्यसौरभसाहाय्येन मार्गसहनकर्तारः, पथिका येन तादृशस्य, पुनः शिशिरसुरभेः शीतसुगन्धेः; पुनः दक्षिणायनान्तदिनकृत इव दक्षिणं यत् अयनं-गतिः, मकरसंक्रमणमासादारभ्य मीनसंक्रमणमासपर्यन्तं मासषट्कम् , तस्यान्ते यो दिनकृत्-सूर्यः, तस्यैव, प्रवर्धमानेन अतिदीप्यमानेन, तेजसा मरीचिना, पक्षे उत्साहेन, प्रतिदिवसं प्रतिदिनम् , उत्तरी ककुभं दिशम् , आक्रामतः व्यामुवतः, पक्षे गच्छतः [ औ] ।
अथ अनन्तरम् , अष्टापदशैलं तन्नामकं सुवर्णपर्वतं, पश्चिमेन अदूरपश्चिमदिग्वी; पुनः वैताठ्यपर्वतस्य तन्नामकरूप्यपर्वतस्य, अनतिदूवर्ती किञ्चिदूरस्थः, एकशृङ्गो नाम तत्संज्ञकः, शिखरी पर्वतः, अस्ति वर्तते । कीदृशः ? शिखरोच्छ्रायखर्वितान्तरिक्षः शिखरस्य-शृङ्गस्य, उच्छायेण-औन्नत्येन, खर्वितं-ह्रखतामापादितम् , अन्तरिक्षं-गगनं येन तादृशः; पुनः नितान्तविततावकाशः अत्यन्तविस्तृतचत्वरः; पुनः स्निग्धहरिताभिः स्निग्धाभिः-सरसाभिः, अत एव हरिताभिः-हरितवर्णाभिः, वनलेखाभिः वनपङ्किभिः, सर्वत एव परित एव, अन्धकारितः आवृतः पुनः अनुमेखलं प्रतिनितम्बप्रदेश, सिद्धायतनमण्डलेषु सिद्धानां-देवविशेषाणां यानि आयतनानि-भवनानि, तन्मण्डलेषु-तत्समूहेषु, सिद्धमिथुनैः सिद्धदम्पतिभिः, सततारब्धमङ्गलगीतिः सततम्-अविरतम् , आरब्धा-प्रवर्तिता, मङ्गलगीतिः-माङ्गलिकगानं यस्मिंस्तादृशः; पुनः त्रिदशसिन्धुस्रोतसा त्रिदशसिन्धोः-सुरनद्याः, गङ्गाया इत्यर्थः, स्रोतसा-प्रवाहेण, प्रान्तेषु-सीमास्थानेषु, परिगतः व्याप्तः, कीदृशेन ? अगाधसलिलेन निम्नसीमरहितजलेन, अतिगम्भीरजलेनेत्यर्थः, पुनः सितविशालवालकापुलिनशालिना सिता-शुभ्रा, विशाला-विपुला, वालुका-सिकता, तस्याः पुलिनैः-जलादचिरोत्थितस्थलैः, शालते-शोभते यस्तादृशेन, पुनः समाधिसुखसाधनाय समाधिसौविध्यसम्पादनाय, सन्निधानाश्रमनिवासिभिः समीपस्थाश्रमस्थैः, तापसैः तपखिभिः, स्थानस्थानरचितचारुमणिशिलावेदिकेन स्थाने स्थाने-प्रतिस्थानं, रचिता-कल्पिता, चारुमणिशिलावेदिका-प्रशस्तमणिरूपप्रस्तरमयचतुरस्रभूमियस्मिंस्तादृशेन; पुनः कीदृशः ? अविश्रान्तनिर्झरनिनादः अविश्रान्ताःअविच्छिन्नाः, निर्झराणां-वारिप्रवाहाणां, निनादाः-ध्वनयो यस्मिंस्तादृशः; पुनः नित्यमुदितनृत्यन्मयूररुतमुखरितासंख्यकन्दरः नित्यं-सततं, मुदितानां-मेघागमहृष्टानां, मयूराणां, रुतैः-कूजितैः, मुखरिताः-वाचालिताः, असंख्याः-बहवः, कन्दराः-गुहा यस्मिंस्तादृशः; पुनः लतामन्दिरच्छन्नसुन्दरानेकसानुः लतामन्दिरैः-लतापिहितोदरगृहैः, छन्नाःआवृताः, सुन्दराः-मनोहराः, अनेके सानवः-समभूभागा यस्मिंस्तादृशः [अं]।
सर्वदा सर्वस्मिन् काले, कुसुमफलसमृद्धशाखिनि कुसुमैः-पुष्पैः, फलैश्च समृद्धाः-शाखिनो-वृक्षा यस्मिंस्तादृशे, तस्य प्रकृतपर्वतस्य, शिखरपृष्ठे शिखरो_भागे, प्रस्थितः प्रयातः, समरकेतुः, एकदा एकस्मिन् समये, निदाघसमये
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टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता। परिसरम् , अविरतास्फालिततरङ्गततिना तरलितबालपुष्करेण प्रबलसीकरासारसिक्तककुभा वन्यद्विरदयूथेनेव सद्यो जलादुत्तीर्णेन मरुता दूरत एव सूच्यमानं [अ], निरन्तराभिस्तरुणकुन्तलीकुन्तलकलापकान्तिभि
र्ध्वान्तमालाभिरिव रसातलोल्लासिताभिरुल्लसन्मयूरकेकारवमुखराभिः शिखरदेशविश्रान्तमत्तसारसाभिरिभकलभकरावकृष्टिविघटमानविटपाभिश्चटुलवानरवाह्यमानलतादोलाभिरम्भःपानानन्दनिद्रायमाणश्वापदसंकुलाभिरम्बुगर्भनिर्भरनिभृताभ्रमण्डलीविभ्रमाभिर्वनराजिभिरन्धकारितया भुजङ्गराजमूर्येव मथनायासमण्डलीभूतयाऽभ्रंलिहशिखरोपशल्यया पाल्या परितः परिक्षिप्तम् [क], अर्णःपूर्णमालवालमिव त्रिलोकीलतायाः, कान्तिसंततितिरोहितान्तरालं नाभिमण्डलमिव भूतधात्र्याः, विलासरौप्यदर्पणमिव दिशां, प्रतिबिम्बमिवा
टिप्पनकम्-अविरतास्फालिततरङ्गततिना तरलितबालपुष्करेण प्रबलसीकरासारसिक्तककुभा वनद्विरदयूथेनेव सद्यो जलादुत्तीर्णेन मरुता सूच्यमानं समानि विशेषानि, केवलमेकत्र तरलितबालपुष्करेण चञ्चलीकृतपुच्छशुण्डाग्रेण, अन्यत्र तरलितबालपझेन [अ] । उपशल्यं-समीपम् [क] ।
ग्रीष्मसमये, अदृष्टपाराभिधानं न दृष्टः पारः-अग्रिमोऽवधिर्यस्य तादृशं, सरः कासार, दृष्टवान् नयनगोचरीकृतवान् , इत्यप्रेणान्वेति; कीदृशम् ? महाभोगपरिसरं महान् भोगः-विस्तारो यस्य तादृशः परिसरः-प्रान्तभूमिर्यस्य तादृशम् ; पुनः मरुता पवनेन, दूरत एव सूच्यमानं प्रत्याय्यमानम् , कीदृशेन ? अविरतास्फालिततरङ्गततिना अविरतं-निरन्तरम् , आस्फालिता-संघट्टिता, तरङ्गततिः-तरङ्गश्रेणिर्येन तादृशेन, पुनः तरलितबालपुष्करेण तरलितानि-व्याधूतानि, बालपुष्कराणि बालकमलानि येन तादृशेन, पुनः प्रबलसीकरासारसिक्तककुभा प्रबलानां स्थूलानां, सीकराणां-जलकणानाम् , यद्वा प्रबलैः-अव्याहतैः, शीकराणाम् , आसारैः-धारापातैः, सिक्ताः-क्षालिताः, ककुभः-दिशो येन तादृशेन, पक्षे चञ्चलीकृतपुच्छशुण्डाग्रभागेन, पुनः वन्यद्विरदयूथेनेव वन्यानां-वने भवानां, द्विरदानां-हस्तिनां, यूथेनेव-वृन्देनेव, सद्यः तत्क्षणे, जलात्, उत्तीर्णेन ऊर्वमागतेन; पुनः कीदृशम् ? पाल्या दुर्गस्थानीयरक्षकप्रान्तभागेन, परिक्षिप्तं परिवेष्टितम् , कीदृश्या ? वनराजिभिः वनश्रेणिभिः, अन्धकारितया आवृतया, कीदृशीभिः ? निरन्तराभिः अविच्छिन्नाभिः, पुनः तरुणकुन्तलीकुन्तलकलापकान्तिभिः तरुण्याः-युवत्याः, कुन्तल्याः-कुन्तलाख्यजनपदस्त्रियाः, कुन्तलकलापस्येव-केशपाशस्येव, कान्तिः-शोभा यासां तादृशीभिः, पुनः रसातलोल्लासिताभिः पातालोन्नीताभिः, ध्वान्तमालाभिरिव अन्धकारपङ्किभि- - -रिवेत्युत्प्रेक्षा, पुनः उल्लसन्मयूरकेकारवमुखराभिः उल्लसतां-प्रमोदमाप्तानां, नृत्यतामित्यर्थः, मयूराणां, केकारवैः-केकाशब्दैः, मुखराभिः-वाचालाभिः, पुनः शिखरदेशविश्रान्तमत्तसारसाभिः शिखरदेशे-ऊर्ध्वप्रदेशे, विश्रान्ताः-श्रमापनयनाय स्थिताः, सारसाः-पक्षिभेदा यासु तादृशीभिः, पुनः इभकलभकरावकृष्टिविघटमानविटपाभिः इभकलभानां-हस्तिशावकानां, करावकृष्टिभिः-शुण्डादण्डाकर्षणैः, विघटमाना-विश्लिष्यन्तः, विटपाः-शाखा यासां तादृशीभिः, पुनः चटुलवानरवाह्यमानलतादोलाभिः चटुलै:-चापल्यशीलैः, वानरैः-मर्कटैः, वाह्यमाना-आन्दोल्यमाना, लतारूपा दोला यासु तादृशीभिः, पुनः अम्भःपानानन्दनिद्रायमाणश्वापदसंकुलाभिः अम्भःपानानन्देन-जलपानजनिततृया, निद्रायमाणैः-निद्रामनुभवद्भिः, श्वापदैः-हिंस्रपशुभिः, संकुलाभिः-व्याप्ताभिः, पुनः अम्बुगर्भनिर्भरनिभृताभ्रमण्डलीविभ्रमाभिः अम्बुगर्भाणांजलपूर्णोदराणां, निर्भरनिभृतानाम्-अत्यन्तनिःशब्दानाम्, अभ्रमण्डलीनामिव-मेघमालानामिव, विभ्रमः-विलासः शोभेत्यर्थः, यासां तादृशीभिः, पुनः कीदृश्या ? मथनायासमण्डलीभूतया मथनायासेन-समुद्रमन्थनश्रमेण, मण्डलीभूतया-पुञ्जीभूतया, भुजङ्गराजमूत्यैव सर्पराजमूर्येवेत्युत्प्रेक्षा, पुनः अभ्रंलिहशिखरोपशल्यया अभ्रंलिहस्य-गगनचुम्बिनः, शिखरस्यशृङ्गस्य, उपशल्यया-समीपवर्तिन्या; [क] । पुनः कीदृशम् ? अर्णःपूर्ण अर्णसा-जलेन, पूरितोदरम् , किमिव ? त्रिलोकीलतायाः त्रयाणां लोकानां समाहारः-त्रिलोकी त्रिभुवनं, तद्रूपाया लतायाः, आलवालमिव मूलस्थजलाधारमिव; पुनः भूतधाच्या भूताना-प्राणिनां, धात्र्याः-जनन्या उपमातुर्वा पृथिव्याः, कान्तिसन्ततितिरोहितान्तरालं कान्तिसन्तत्या-कान्तिकलापेन, तिरोहितम्-आवृतम् , अन्तरालं-मध्यं यस्य तादृशं, नाभिमण्डलमिव मण्डलाकारनाभिप्रदेशसदृशम् ;
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तिलकमञ्जरी म्बरतलस्य लीलादुकूलवितानमिव फणीन्द्रस्य, अट्टहासमिव पातालत्र्यम्बकस्य, निःसरणवर्मेव बलिकीर्तिकलापस्य, रसातलप्रवेशद्वारमिव मन्दाकिनीप्रवाहस्य [ख], शेषाहिफणाचक्रवालद्युतिजालमिवोच्छलितं, विधुन्तुदग्रासभयादिन्दुचन्द्रिकापटलमिव गलितं, प्रलयदिवसकरोष्मणाकाशमिव स्रुतम् , अदभ्राभ्रदहनसंपर्केण शरदभ्रवृन्दमिव द्रुतं, मैनाकवियोगदुःखरुदितहिमाचलाश्रुजलमिव संगलितम् [ग], अभ्रमण्डलस्थलमिव जलीभूतम् , अवदाततया स्वच्छतया च सैन्धवीकपोलच्छविभिरिव केरलीदशनकिरणैरिव लाटीकटाक्षच्छटाभिरिव निर्मितं, सर्वतश्च सोपानक्रमरचिता भिराभोगविजितैः पयोधिभिरुपायनप्रहिताभिरिव तरङ्गमालाभिरिन्द्रनीलशिलाश्रेणिभिरवनद्धस्य रोधसो विसारिणा प्रभावितानेन हरितायमान लशैवलमिव सपद्मिनीदलमिव तीरवारि बिभ्राणम् , अदभ्रविस्तारतिरस्कृतेन सेवाविधित्सयेव समग्रग्रहचक्रपरिवृतेन वियता प्रतिमाव्यपदेशेन सर्वात्मना कृतानुप्रवेशं, प्रत्यग्रपलशकलपाटलैरुपान्ततरुपल्लवप्रतिबिम्बैर्विप्रलभ्यमानमुग्धमीनम् [घ ], अम्भःप्रतिफलनच्छलेन च क्वचित्पवनतरलिततरङ्गसङ्गभङ्गुरैः पूगतरुभिस्तरन्महा
पुनः दिशां लिङ्गसाम्याद् दिगङ्गनानां, विलासरौप्यदर्पणमिव विलासोपकरणभूतं रजतमयदर्पणमिव; पुनः अम्बरतलस्य गगनतलस्य, प्रतिबिम्बमिव; पुनः फणीन्द्रस्य सपेराजस्य, लीलादुकूलवितानमिव लीलाये-विलासाय, दुकूलस्यपट्टवस्त्रस्य, वितानम्-उल्लो चमिव; पुनः पातालत्र्यम्बकस्य पातालवास्तव्यशिवस्य, अट्टहासमिव शौक्लयाद् महाहास्यमिव; पुनः बलिकीर्तिकलापस्य बले:-पातालाधिष्ठातुर्दैत्यस्य, यः कीर्तिकलापः-कीर्तिराशिः, तस्य निःसरणवमव निर्गमनमार्गमिव; पुनः मन्दाकिनीप्रवाहस्य गङ्गाप्रवाहस्य, रसातलप्रवेशद्वारमिव पातालप्रवेशद्वारमिव [ख]; पुनः उच्छलितम् उत्पतितं, शेषाहिफणाचक्रवालद्युतिजालमिव शेषाहे:-शेषनागस्य, यत् फणाचक्रवालं-फणामण्डलं, तदीयं द्युतिजालं-कान्तिकलापमिव; पुनः विधुन्तुदग्रासभयात् विधुन्तुदेन-राहुणा यः, ग्रासः-भक्षणं, तद्भयात्, गलितं पतितम् , इन्दुचन्द्रिकापटलमिव इन्दोः-चन्द्रस्य, या चन्द्रिका-ज्योत्स्ना, तस्याः पटलं-समूहमिव; पुनः प्रलयदिवसकरोष्मणा प्रलयकालिकसूर्यतापेन, नृतं स्यन्दितम्, आकाशमिव गगनमण्डलमिव; पुनः अदभ्राभ्रदहनसम्पर्केण अदभ्रस्य-प्रचुरस्य, अभ्रदहनस्य-इरम्मदाख्यस्य मेघस्याग्नेः, सम्पर्केण-संयोगेन, द्रतं गलितं, शरदभ्रवृन्दमिव स्वच्छतया शरत्कालिकमेघमण्डलमिव; पुनः संगलितं सम्पतितं, मैनाकवियोगदुःखरुदितहिमाचलाश्रुजलमिव मैनाकस्यतदाख्यस्वप्रसूतपर्वतस्य, वियोगेन-विश्लेषेण, यदुःखं तेन रुदितस्य-विमुक्ताश्रुकस्य, हिमाचलस्य-हिमालयपर्वतस्य, अश्रुजलमिव [ग]; च पुनः, जलीभूतं जलीभावमापन्नम् , अभ्रमण्डलस्थलमिव मेघमण्डलस्थलमिवः पुनः अवदाततया धवलतया, च पुनः, स्वच्छतया निर्मलतया, सैन्धवीकपोलच्छविभिरिव सैन्धवीनां-सिन्धुदेशस्त्रीणां, कपोलयोःगण्डस्थलयोः, छविभिः-कान्तिगिरिव; पुनः केरलीदशनकिरणैरिव केरलीनां-केरलदेशस्त्रीणां, दशन किरणैः-दन्तरश्मिभिरिव, पुनः लाटीकटाक्षच्छटाभिरिव लाटीनां-लाटदेशस्त्रीणां, कटाक्षच्छटाभिः-अपाङ्गदर्शनशोभाभिरिव, निर्मितं उत्पादितम् ; च पुनः, सोपानक्रमरचिताभिः सोपानक्रमेण-अवतरणिकाऽऽकारेण, रचितामिः-कल्पिताभिः, पुनः आभोगविजितैः स्वविस्तारपराजितैः, पयोधिभिः समुद्रैः, उपायनप्रहिताभिः प्राभृतरूपेण प्रेषिताभिः, तरङ्गमालाभिरिव तरङ्गपति भिरिवेत्युत्प्रेक्षा, इन्द्रनीलशिलाश्रेणिभिः तदाख्यविशिष्टशिलापङ्गिभिः, अवनद्धस्य आबद्धस्य, रोधसः तटस्य, विसारिणा विस्तारिणा, प्रभावितानेन कान्तिकलापेन, हरितायमानं हरितमिवावभासमानम् , अत एव सशैवलमिव तदाख्यजलतृणसंवलितमिव; पुनः सपद्मिनीदलमिव कमलिनीपत्रावृतमिवेत्युत्प्रेक्षा, तीरवारि तटस्थजलं, बिभ्राणं दधानम् ; पुनः अदभ्रविस्तारतिरस्कृतेन अदभ्रेण-भूयसा, विस्तारेण, तिरस्कृतेन-निर्जितेन, अत एव सेवाविधित्सयेव सेवाचिकीर्षयेव, समग्रग्रहचक्रपरिवृतेन अखिलग्रहमण्डलपरिवेष्टितेन, वियता आकाशेन, प्रतिमाव्यपदेशेन प्रतिबिम्बव्याजेन, सर्वात्मना सर्वाकारेण, कृतानुप्रवेशं कृतः, अनुप्रवेशः-पश्चात् प्रवेशो यस्मिस्तादृशम् । पुनः प्रत्यग्रपलशकलपाटलैः अभिनवमांसद्रक्तवणः, उपान्ततरुपल्लवप्रतिबिम्बैः समीपस्थवृक्षनूतनपत्रप्रतिबिम्बः, विप्रलभ्यमानमुग्धमीनं विप्रलभ्यमानाः-प्रतार्यमाणाः, मुग्धाः-असंजातविवेकाः, मीनाः-मत्स्या यस्मिंस्तादृशम् [घ] पुनः अम्भःप्रतिफलनच्छलेन
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टिप्पनक- परागविवृति संवलिता ।
भुजङ्गमिव, कचिदत्यायतैस्तालविटपिभिः कुतूहलान्मृग्य माणगाम्भीर्यमानमिव, समदजलकरिनिनादभीषणाभिरनेकराजहंससंचरणरमणीयाभिश्चतुर्दिशमशेषजलधिविजिगीषया प्रस्थिताभिर्वरूथिनीभिरिव वीचिभिर्वाचालितभुवनम् [ङ ], अभ्यर्णवर्तिवैताढ्यपर्वतावतीर्णानामनेकशः प्रारब्धजलकेलिविभ्रमाणामुभयश्रेणिविद्याधरेन्द्रसुन्दरीणामनणुमेखलादामरमणीयैः फणिराजनद्धमध्यमम्भोधिमथनजातमदमुपहसितुमिव मन्दरमुन्नतिशालिभिर्नितम्बमण्डलैरतिस्फालमास्फालित मुत्ताननलिनी पलाशपर्यङ्कोप विष्टहंसैरमन्दमधु बिन्दुचन्द्रकितवारिभिरपारपरिमलामन्त्रिताभिः सरभसमापतन्तीभिरलिमालाभिर्मुखरितैः समन्तादु न्निद्र हेमारविन्दवनैर्विराजितं [च], प्रत्यूषायमाणं पद्मरागरक्तोत्पलखण्डैः, संध्यायमानमुन्मुद्रविद्रुमलतोपवनैः, प्रदोषायमाणमिन्द्रनीलेन्दीवरगहनैः चन्द्रोदयायमानमिन्दुकान्तकुमुदाकरैर मुक्ताट्टहासमिव पाण्डुफेनपिण्डैः,
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अम्भसि-जले, प्रतिफलनस्य- प्रतिबिम्बस्य, छलेन, क्वचित् कस्मिंश्चित् प्रदेशे, पवनतरलिततरङ्गसङ्गभङ्कुरैः पवनेन - वायुना, तरलितानां - व्याधूतानां तरङ्गाणां सङ्गेन- सम्पर्केण भङ्गुरैः - निपतितैः, पूगतरुभिः क्रमुकवृक्षैः करणैः, तरन्महाभुजङ्गमिव तरन्तः- प्लवमानाः, महाभुजङ्गाः - महासर्पा यस्मिंस्तादृशमिव ; पुनः क्वचित् कस्मिंश्चिद् भागे, अत्यायतैः अतिदीघैः, तालविटपिभिः तालवृक्षैः, कुतूहलात् औत्सुक्यवशात्, मृग्यमाणगाम्भीर्यमानमिव मृग्यमाणम् - अन्विष्यमार्ण परीक्ष्यमाणमिति यावत्, गाम्भीर्यस्य - निम्नतायाः, मानं - परिच्छेदो यस्य तादृशमिवेति सर्वत्रोत्प्रेक्षा ; पुनः वीचिभिः तरङ्गैः, वाचालितभुवनं वाचालितानि - मुखरीकृतानि, भुवनानि - लोका येन तादृशम् कीदृशीभिः ? समदजलकरिनिनादभीषणाभिः समदजलानां मदजलस्यन्दिनां, करिणां - हस्तिनां, निनादैः- चीत्कारैः, भीषणाभिः - भयानकाभिः, पुनः अनेकराज - हंस सञ्चरणरमणीयाभिः अनेकेषां राजहंसानां - हंसविशेषाणां सञ्चरणैः - प्रचारैः, रमणीयाभिः - मनोहराभिः, पुनः अशेषजलधिविजिगीषया अशेषाणां चतुर्दिग्वर्तिनां चतुर्णा, जलधीनां - समुद्राणां विजिगीषया विजेतुमिच्छया, चतुर्दिशं चतसृषु दिक्षु प्रस्थिताभिः प्रयाताभिः वरूथिनीभिरिव सेनाभिरिवेत्युत्प्रेक्षा; [ङ ] पुनः कीदृशम् ? अभ्यर्णवर्तिवैताढ्य पर्वतावतीर्णानां अभ्यर्णवर्तिनि निकटवर्तिनि वैताढ्यपर्वते, अवतीर्णानां आगतानाम् पुनः अनेकशः अनेकप्रकारैः, प्रारब्धजलकेलिविभ्रमाणां प्रारब्धाः - प्रवर्तिताः, जलकेलिविभ्रमाः - जलक्रीडाविलासा याभिस्तादृशीनाम्, उभयश्रेणिविद्याधरेन्द्र सुन्दरीणां दक्षिणोत्तर श्रेणिस्थविद्याधरराजरमणीनाम्, नितम्बमण्डलैः कटिपश्चाद्भागमण्डलैः, अतिस्फालं अतिमात्रम्, आस्फालितम् - आहतम् कीदृशैः ? अनणुमेखलादामरमणीयैः बृहत्काञ्चीसूत्रमनोहरैः; पुनः फणिराजनद्धमध्यं फणिराजेन - सर्पराजेन नद्धं मभ्यं - मध्यावयवो यस्य तादृशम्, पुनः अम्भोधिमथनजातमदं अम्भोधिमथनेन-समुद्रमन्थनसाहाय्येन जातः, मदः - अभिमानो यस्य तादृशम्, मन्दरं मन्दराचलम्, उपहसितुमिव तिरस्कर्तुमिव, उन्नतिशालिभिः उन्नतिशोभिभिः; पुनः समन्तात् सर्वतः, उन्निद्र हेमारविन्दवनैः उन्निद्राणां विकसि तानां, हेमारविन्दानां-सुवर्णकमलानां वनैः, विराजितं - शोभितम् कीदृशैः ? उत्ताननलिनीपलाशपर्यङ्कोपविष्टहंसैः उत्ताने, नलिनीपलाशपर्यङ्के-कमलिनीपत्ररूपपर्यङ्के, उपविष्टो हंसो येषु तादृशैः, पुनः अमन्दमधुबिन्दुचन्द्र कितवारिभिः अमन्दैः-प्रचुरैः, मधुबिन्दुभिः, चन्द्र कितानि - चन्द्रकाराङ्कितानि वारीणि - जलानि येषु तादृशैः, पुनः अपारपरिमलामन्त्रिताभिः अपारैः - अपरिच्छिन्नैः, परिमलैः - विमर्दोत्थितसौरभैः, आमन्त्रिताभिः - रसास्वादनार्थमाहूताभिः पुनः सरभसं सवेगम्, आपतन्तीभिः आगच्छन्तीभिः, अलिमालाभिः भ्रमरपतिभिः, मुखरितैः वाचालितैः [ च ]; पुनः कीदृशम् ? पद्मराग रक्तोत्पलखण्डैः पद्मरागो नाम - रक्तमणिः, तद्वद्रक्तवर्णानाम्, उत्पलानां - कमलानां, खण्डैः- वनैः, प्रत्यूषायमाणं प्रभातवदवभासमानम् ; पुनः उन्मुद्र विद्रुमलतोपवनैः उन्मुद्राणाम् उत्-उद्धृता, मुद्रा-संकोचो येषां तादृशानां, विकसितानामित्यर्थः, विद्रुमाणां प्रवालानां, उपवनैः, सन्ध्यायमानं सन्ध्यावदवभासनम् ; पुनः इन्द्रनीलेन्दीवरगहनैः इन्द्रनीलमणिवन्नीलवर्णकमलवनैः, प्रदोषायमाणं निशारम्भसमयवदवभासमानम्; पुनः इन्दुकान्तकुमुदाकरैः इन्दुः-चन्द्रः, कान्तःप्रियो येषां तादृशानां, यद्वा इन्दोः कान्तानां कुमुदानां - चंन्द्रविकासिकमलविशेषाणाम्, आकरैः- वनैः, चन्द्रोदयायमानं चन्द्रोदयवदवभासमानम्; पुनः पाण्डुकेनपिण्डैः पाण्डूनाम्, ईषत्पीतश्वेतवर्णाना, फेनानां - जलविकारविशेषाणाम्, पिण्डैः
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तिलकमञ्जरी आरब्धस्फोटनमिव प्रतिवेलास्फालितशिलातलोर्मिदण्डैः, कृतकटाक्षक्षेपमिव विवर्तनोत्तानतिमिगणैः, उपक्रान्तताण्डवमिव पवनाहतोद्दण्डवानीरवनैः [छ ], इतस्ततो नभस्तलादवतरतामानतपक्षपुटकण्ठनालानां जलचरपतत्रिमण्डलानां हेलानिपातजन्मना जर्जररवेण मुखरितोद्देशम् , आराधनोद्यतविद्याधरावर्जितहृदयतथा वैताढ्यमधिवसन्तीनां विद्यादेवतानामनवरतमापतद्भिर्वाहनैर्विहितानेकवृत्तान्तम् [ज] । तथाहि-- कचिद्धरणमहिषीफणीन्द्रपीतारविन्दवातम् , कचिच्चक्रायुधागरुडकृतक्रीडाजलप्रपातम्, क्वचिन्महामानसीसिंहचपेटास्फालितघनघटम् , कचिदच्युतातुरगखुरनाट्यवाचालितशिलातटम् , क्वचिन्मानसीहंसजग्धमुग्धमृणालम् , क्वचिद्ववाङ्कशीकुञ्जरकुम्भसिन्दूररञ्जितोर्मिजालम् [झ ], सौमित्रिचरितमिव विस्तारितो
टिप्पनकम् -[फणीन्द्रः-] पारिन्द्रः । अच्युता-अच्छुप्ता । जग्धं-भक्षितम् [झ] ।
पुजैः, आमुक्ताट्टहासमिव आमुक्तः-आविष्कृतः, अट्टहासः-महाहासो येन तादृशमिव; पुनः प्रतिवेलास्फालितशिलातलोर्मिदण्डैः प्रतिवेलं-प्रतितटम् , आस्फालितानि-आहतानि, शिलातलानि-पाषाणतलानि यस्तादृशैः, ऊर्मिदण्डैः-तरङ्गरूपैर्दण्डैः,
आरब्धस्फोटनमिव आरब्धं-कृतम् , आस्फोटन-पाषाणदारणादिजन्यगम्भीरध्वनिर्येन तादृशमिव पुनः विवर्तनोत्तानतिमिगणैः विवर्तनेन-पार्श्वपरिवर्तनेन, उच्छलनेनेति यावत् , उत्तानानां, तिमीना-शतयोजनविस्तारिणां मत्स्यानां, गणैः, कृतकटाक्षक्षेप मिव कृतः, कटाक्षस्य-अपाङ्गभागस्य, क्षेपः-विस्फारणं येन तादृशमिव; पुनः पवनाहतोहण्डवानीरवनैः पवनेनवायुना, आहतानाम्-उद्भूतानाम्, अत एव उद्दण्डानां-उद्धताना, वानीराणां-वेतसानां, वनैः, उपक्रान्तताण्डवमिव उपक्रान्त-प्रवर्तितं, ताण्डवं-नृत्यं येन तादृशमिवेति सर्वत्रोत्प्रेक्षा [छ पुनः इतस्ततः अत्र तत्र, नभस्तलात गगनतलात्, अवरतां आपतताम्, पुनः आनतपक्षपुटकण्ठनालानाम् आ-समन्तात् , नतम्-अधःपतनाय नम्रीभूतम् , पक्षपुट-परस्परसंश्लिष्टपक्षः, कण्ठनालं-कण्ठदण्डश्च येषां तादृशानां, जलचरपतन्त्रिमण्डलानां जलीयपक्षिगणानां, हेलानिपातजन्मना हेलया-क्रीडया, यो निपातः-जले स्खलनं, तजन्मना-तजनितेन, जर्जररवेन परिणतध्वनिविशेषेण, मुखरितोदेशं मुखरितःवाचालितः, उद्देशः-प्रदेशो यस्य तादृशम् ; पुनः आराधनोद्यतविद्याधरावर्जितहृदयतया आराधनाय- अर्चनाय प्रसन्नीकरणाय वा, उद्यतैः-प्रवृत्तैः, विद्याधरैः-वैताब्यवासिविद्याशालिजनैः, आवर्जितम्-आकृष्टं, हृदयं यासां तादृशतया, वैताढ्यं तत्संज्ञकपर्वतम् , अधिवसन्तीनां अधितिष्ठन्तीनां, विद्यादेवतानां विद्याधिष्ठात्रीणां, देवतानाम् , अनवरतं निरन्तरम् , आपतद्भिः आगच्छद्भिः, वाहनैः यानभूतैजींवैः, विहितानेकवृत्तान्तं विहिता:-कृताः, अनेके वृत्तान्ताः-प्रवृत्तयो यस्मिंस्तादृशम् [ज] । विहितवृत्तान्तानेव दर्शयति-तथाहीति । क्वचित् कस्मिंश्चिद् भागे, धरणमहिषीफणीन्द्रपीतारविन्दवातं धरणस्य-नागकुमाराधिपतेः, या महिषी-पट्टराज्ञी, तस्याः फणीन्द्रेण-सर्पराजेन, पीतः-पानकर्मीकृतः, अरविन्दवातःकमलपरिमलाढ्यपवनो यस्य तादृशम् , पुनः क्वचित् कस्मिंश्चित् प्रदेशे, चक्रायुधागरुडकृतक्रीडाजलप्रपातं चक्रायुधायाःचक्रमेव आयुधः-बाणो यस्यास्तादृश्याः, तत्संज्ञकदेवतायाः, गरुडेन-वाहनभूतपक्षिराजेन, कृतः क्रीडया जले, प्रपातः-प्रपतनं यस्मिंस्तादृशम् ; पुनः क्वचित् कस्मिंश्चित् प्रदेशे, महामानसीसिंहचपेटास्फालितघनघटं मनसि भवा मानसी, महती चासौ मानसी महामानसीत्यन्वर्थसंज्ञकदेवतायाः, वाहनभूतस्य सिंहस्य चपेटाभ्यां प्रसृताङ्गुलिकपाणितलाभ्याम् , आस्फालिताआहता, घनघटा-मेघमण्डली यस्मिंस्तादृशम् । पुनः क्वचित् कस्मिंश्चित् प्रदेशे, अच्युतातुरगखुरनाट्यवाचालितशिलातटं अच्युतायाः-खपदादस्खलिततयाऽन्वर्थतत्संज्ञिकाया, देवतायाः, तुरगस्य-बाहनभूताश्वस्य, खुरयोः, नाट्येन-नर्तनेन, वाचालितं-निनादितं, शिलातट-पाषाणमयं-तट-तीरं यस्य तादृशम् । पुनः क्वचित् कस्मिंश्चित् स्थाने, मानसीहंसजग्धमुग्धमृणालं मानस्याः-अनुपदोक्तान्वर्थताकतत्संज्ञकदेवतायाः, वाहनभूतेन हंसेन, जग्धाः-भक्षिताः, मृणाला:-कमलदण्डा यस्मिंस्तादृशम् ; पुनः क्वचित् कस्मिंश्चित् प्रदेशे, वज्राङ्कुशीकुञ्जरकुम्भसिन्दूररञ्जितोर्मिजालं वज्राङ्कुश्याः-वज्रमयाकुशरूपास्त्रवत्तयाऽन्वर्थतत्संज्ञिकायाः, देवतायाः, वाहनभूतस्य कुञ्जरस्य, गजस्य कुम्भसिन्दूरैः-मस्तकस्यन्दिसिन्दूरैः, रञ्जितं-रक्तीकृतम्, ऊर्मिजालं-तरङ्गराशियस्य तादृशम् [स] पुनःसौमित्रिचरितमिव सुमित्राया अपत्यं सौमित्रिः-लक्ष्मणः, तस्य चरितं
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टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता । मिलास्यशोभम् , विलासिनीगमनमिव कलहंसकलापकृतक्षोभम् , कुलाचलत्रयमिव केसरिमहापद्मतिगिञ्छिभूषितं गगनमिव मकरमिथुनाध्यासितम् , दिनकरमिवानेकपत्ररथचक्राक्रन्दमुखरिताम्बरम् , रणाङ्गणमिवोत्कटशरारिबलाकाण्डकबरम् , मद्गुरुतरुचितमपि नमद्गुरुतरुचितम् , बकैरवभासितमपि नवकैरवभासितम् , विषैकसदनमप्यमृतमयम् , शङ्खनिधानमपि स्थैर्योपेतम् , गाम्भीर्येण सत्त्वबहुलतया प्रसादवत्त्वेन
टिप्पनकम्-सौमित्रिचरितमिव विस्तारितोर्मिलास्यशोभम् एकत्र विस्तारितलक्ष्मणभार्यामुखविभूषम् , अन्यत्र विस्तारितकल्लोलनर्तनशोभम् । विलासिनीगमनमिव कलहंसकलापकृतक्षोभम् , एकत्र मधुरनूपुरशब्दविहितक्षोभम् , अन्यत्र मधुरहंसशब्दकृतक्षोभम् । कुलाचलत्रयमिव केसरिमहापद्मतिगिञ्छिभूषितम् , एकत्र केशरिमहापद्म-तिगिञ्छिना हृदालङ्कृतम् , अन्यत्र केशरवबृहत्कमलकिञ्जल्कशोभितम् । गगनमिव मकरमिथुनाध्यासितम् एकत्र मकर-मिथुनराशिसङ्गतम् , अन्यत्र मकरजलचरयुगलाध्यासितम् । दिनकर मिवानेकपत्ररथचक्राक्रन्दमुखरिताम्बरम्, एकत्र नानाश्वस्यन्दनरथानचीत्कारमुखरीकृताकाशम् , अन्यत्र नानापक्षिसंघातमुखरितगगनम् । गगनमिवोत्कटशरारिबलाकाण्डकवरम् एकत्रोद्भटबाणशत्रुसैन्यासमयकर्बुरम्, अन्यत्रोन्मदा बलाकापक्षि-अण्डकश्रेष्ठम् । महुरुतरुचितमपि न महुरुतचितम् मद्गुः-जलवायसः, यदि मद्गुशब्दितशोभितं कथं न मद्गुरुतचितम् , अन्यत्र नम्रमहावृक्षव्याप्तम् । बकैरवभासितमपि न बकैरवभासितम् यदि बकौघैः शोभितं कथं न बकैः शोभितम्, अन्यत्र नूतनकुमुदभूषितम् । विषैकसदनमपि अमृतमयं, विरोधः प्रकट एव, परिहारस्तु जलैकस्थानम् , अमृतेनैव निवृत्तं सुस्वादुजलत्वात् ।
जीवनोपाख्यानमिव, विस्तारितोर्मिलास्यशोमं विस्तारिता, उर्मीणां-तरङ्गाणां, लास्यस्य-नृत्यस्य, शोभा येन तादृशम् , पक्षे विस्तारिता-वर्णिता, ऊर्मिलायाः-लक्ष्मणपत्न्याः, आस्यस्य-मुखस्य शोभा कान्तियस्मिंस्तादृशम् ; पुनः विलासिनीगमनमिव विलासिनीनां-विलासशीलानां नारीणां, गमनमिव, कलहंसकलापकृतक्षोभं कलहंसानां-कादम्बजातीयपक्षिभेदानां, यद्वा कलानांमनोहरणां, हंसानाम् , कलापेन-मण्डलेन, कृतः क्षोभः-संचारो यस्मिंस्तादृशम् , पक्षे कलेन-अव्यक्तमधुरेण हंसकयोःनू पुरयोः, लापेन-ध्वनिना, कृतः क्षोभः-विलासिजनहृदयसम्भ्रमो येन तादृशम् ; पुनः कुलाचलत्रयमिव विन्ध्यशुक्तिमन्मलयेति महापर्वतत्रयमिव, केसरिमहापद्मतिगिञ्छिभूषितं केसरः-किअल्कोऽस्ति येषु तादृशाना, महापद्मानांमहतां कमलानां, तिगिञ्छिः-किजल्को यस्मिन् तादृशं, पक्षे केरि-महापद्मतिगिञ्छिनामकैः, हृदैः, भूषितं-अलङ्कृतम् ; पुनः गगनमिव आकाशमिव, मकरमिथुनाध्यासितं मकराणां-तजातीयजलचरजातिविशेषाणां, मिथुनैः-द्वन्द्वैः, पक्षे मकरमिथुनाभ्यां राशिभ्याम् , अध्यासितम्-अधिष्ठितम् ; पुनःदिनकरमिव सूर्यमिव, अनेकपत्ररथचक्राक्रन्दमखरिताम्बरं अनेकेषां-बहुविधानां पत्ररथानां-पतन्तं त्रायन्त इति पत्राणि-पक्षाः, तान्येव रथा येषां तादृशानां पक्षिणां, चक्रस्य-मण्डलस्य, पक्षे अनेकानि-बहूनि, सप्तेत्यर्थः, पत्राणि-अश्वरूपवाहनानि यस्य तादृशस्य रथस्य यच्चक्रम्-अङ्गविशेषः, तस्य आक्रन्देनकोलाहलेन पक्षे चीत्कारेण, मुखरितं-वाचालितम् , अम्बरं--गगनं येन तादृशम् । पुनः रणाङ्गणमिव रणक्षेत्रमिव, उत्कटशरारिबलाकाण्डकबरं उत्कटैः-उत्कृष्टैः, शरारीणां-पक्षिविशेषाणां, बलाकानां-बकपतीनां च, यद्वा बकजातिविशेषविसकण्ठिकानां च, अण्डकैः, पक्षे उत्कटाः-दुःसहाः, शरा:-बाणा यस्य तादृशेन, अरिबलेन-शत्रुसेनया, अकाण्डे-अनवसरे, वरं-श्रेष्ठम् , अन्यत्र कबरं-शबलम् ; पुनः महरुतरुचितमपि मद्नां-जलवायसानां, रुतैः-शब्दैः, रुचितमपि-मनोहरमपि. नमहरुतरुचितमिति विरोधः, तदुद्धारस्तु नमद्भिः-फलसम्पदा लम्बमानैः, गुरुभिः-विशालैः, यद्वा फलभारजन्यगुरुत्वविशिष्टैः, तरुभिः-वृक्षैः, चितं-व्याप्तम् , इत्यर्थेन; पुनः बकैः पक्षिविशेषैः, अवभासितमपि सुशोभितमपि, नवकैरवभासितमिति विरोधः, तदुद्धारे तु नवैः, कैरवैः-कुमुदैः, भासितम् । पुनः विषैकसदनमपि विषाणां-गरलानाम् , एकप्रधानं, सदनं-स्थानमपि, अमृतमयं सुधामयमिति विरोधः, विषसुधयोः परस्परविरुद्धतयैकत्रसहावस्थानायोगात्, तत्परिहारे तु विषस्य-जलस्य, यद्वा विषाणां-पद्मकेसराणां मृणालानां वा, एकसदनम् , तथा अमृतं-सुधा, तन्मयं-तेनेव निर्वृत्तं सुखादु
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तिलकमञ्जरी
विशालतागुणेन सेव्यतया च न केवलं विबुधानाम् , बुधानामपि मानसमधःकुर्वाणम् , अतिरमणीयम् , आनन्दकारि दृष्टेः, अदृष्टपाराभिधानं सरो दृष्टवान् [अ] ।
वन्येभैर्भृशमपि गाह्यमानकूले, कालुष्यं कलयति यत्र जातु नाम्भः । जात्यैवापहृतमलैः फलैरसक्त, संसक्तं तटकतकट्ठमावलीनाम् [८] ॥
तच्च त्रिभुवनैकसारभूतं सरः सरभसप्रसारिभिदृष्टिपातैर्निरन्तरस्फुटितकैरवाकरमिव कुर्वन्नपूर्वविस्मयाकुलीकृतमानसः सिंहलेन्द्रसूनुर्मनसि कृतवान्-अहो, द्रष्टव्यतामुपेतः संसारः, सारतां गतो जीवलोकः, लोकोत्तरं फलमवाप्तमुत्साहतरुणा, प्रकर्षो लब्धः परिपाकस्य शुभकर्मणा, पर्यन्तभूमिरधिष्ठिता कृतार्थभावस्य जन्मना, कोटिरध्यासिता पुण्यभागित्वस्य लोचनसृष्टया, दृष्टः समस्तरमणीयानां सीमा, विलोकितः
शङ्खनिधानमपि स्थैर्योपेतं यदि शङ्खनिधिः कथं स्थैर्योपेतः, अन्यत्र कम्बुनिधिः स्थिरं च । विबुधानां बुधानामपि मानसमधःकुर्वाणं विबुधानां-देवानां, बुधानां-विदुषां च, सम्बन्धि, मानसं सरश्चित्तं च अधः कुर्वाण-तिरस्कुर्वाणम् [अ]।
जलत्वात् ,पुनः शङ्कानिधानमपि चलनशीलशङ्खनामकनिधिरूपमपि, स्थैर्योपेतं स्थैर्येण-निश्चलत्वेन, उपेतं-युक्तमिति विरोधः, तदुद्धारे तु शङ्खना-कम्बूनां; निधानं-स्थानम् । पुनः गाम्भीर्येण अगाधतया, पक्षे अचापल्यगुणेन, सत्त्वबहुलतया जन्तुपूर्णतया, पक्षे सत्त्वगुणादीनां बहुलतया, प्रसादवत्त्वेन स्वच्छतया पक्षे प्रसादाख्यकाव्यगुणादिमत्त्वेन, विशालतागुणेन विस्तारगुणेन, पक्षे असङ्कुचितवृत्त्या, च पुनः, सेव्यतया सेवितुं योग्यतया, केवलं विबुधानां देवानां, मानसं तदाख्यसरोवरं न, अपि तु बुधानामपि पण्डितानां नराणामपि, मानसं हृदयं, अध:कुर्वाणं अधस्तादाकर्षत्, पक्षे तिरस्कुवाणम् ; पुनः अतिरमणीयं अतिमनोहरम् , पुनः दृष्टेः चक्षुषः, आनन्दकारि आनन्दोत्पादकम् [अ]।
तस्यैव सरोवरस्य जलस्वच्छता वर्णयति पद्येन-वन्येभैरिति । वन्येभैः वनहस्तिभिः, भृशं अत्यन्तं, गाह्यमानकूलेऽपि गाह्यमान-विलोड्यमानं, कूलं-तटं यस्य तादृशेऽपि, यत्र यस्मिन् सरोवरे, जातु कदाचित् , अम्भः जलं, कर्तृ, कालुष्यं आविलत्वं, न कलयति प्राप्नोति, तत्रैव हेतुमाह-जात्यैव जन्मनैव, अपहृतमलैः अपहृतं,-दूरीकृतं मलं यैस्तादृशः,
मलविद्वेषिभिरित्यर्थः, तटकतकमावलीनां तटवर्तिनिर्मलापरपर्यायकतकसंज्ञकवृक्षवनानां, फलैः, असक्तं न वर्तते स्वयं सक्तं-लग्नं यत्र तादृशम् , अनायासमित्यर्थः, यथा स्यात् तथा संसक्तं संलग्नम् [ट]।
___ च पुनः, त्रिभुवनैकसारभूतं त्रिभुवनस्य-त्रिलोक्याः, एकसारभूतम्-एकमात्रतत्त्वभूतं, तत् अनुपदवर्णितं, सरः कासारं, सरभसप्रसारिभिः सत्वरविस्फारिभिः, दृष्टिपातैः चक्षुर्विक्षेपैः, निरन्तरस्फुटितकैरवाकरमिव निरन्तरम्अविरतं, स्फुटितः-विकसितः, कैरवाणां-कुमुदानाम् , आकरः-वनं यास्मंस्तादृशमिव, कुर्वन् आपादयन् , अपूर्व विस्मयाकुलीकृतमानसः अपूर्वेण-अननुभूतपूर्वेण, विस्मयेन-आश्चर्येण, आकुलीकृतं-व्यग्रीकृतं, मानसं-हृदयं यस्य तादृशः, सिंहलेन्द्रसनः समरकेतुः, मनसि हृदि, कृतवान् आलोचितवान् , किमियाह-अहो आश्चर्य, संसारः, द्रष्टव्यतां दर्शनीयताम् , उपेतः आपन्नः, पुनः जीवलोकः मर्त्य भुवनं, सारतां श्रेष्ठता, गतः प्राप्तः, पुनः उत्साहतरुणा उत्साहात्मकवृक्षेण, लोकोत्तरं अपूर्व, फलम् , अवाप्तं प्राप्तम् , पुनः शुभकर्मणा पुण्यकर्मणा, परिपाकस्य परिणामस्य, प्रकर्षः उत्कर्षः, लब्धः प्राप्तः, पुनः जन्मना उद्भवेन, कृतार्थभावस्य कृतार्थतायाः, लब्धार्थताया इत्यर्थः, पर्यन्तभूमिः सीमास्थानम् , अधिष्ठिता अधिरूढा, पुनः पुण्यभागित्वस्य पुण्यवत्तायाः, कोटिः अत्युत्कर्षभूमिः, अध्यासिता आश्रिता, पुनः लोचनसृष्टया चक्षुरुत्पादनया, समस्तरमणीयानां अखिलमनोहरवस्तूनां, सीमा रामणीयकोत्कर्षविश्रामभूमिः, दृष्टः साक्षात्कृतः, पुनः कौतुकविधायिनां आनन्दजनकानाम् , अवधिः सीमा, विलोकितः निरीक्षितः, पुनः
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टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता। कौतुकविधायिनामवधिः, वीक्षितो विस्मयनीयानामन्तः, साक्षात्कृतमद्भुतानामास्पदम् , समासादितं महिनामायतनम् , अधिगतमगाधतानामधिष्ठानम् []। अहो, काष्ठाधिरूढधवलिम्नो जलप्राग्भारस्य प्रसादातिशयचित्रम् , यतो यतो दृष्टिरभिपतति ततस्ततश्चन्द्रिकामयमिव हिमानीमयमिव सुधामयमिव धरातलमालोकयति । किमेष तिमिरगुहान्तरूष्मणा विलीनेन वैताट्यशिखरिणा विस्तारितो रजतोपलजलप्रवाहः, किं वाऽहिलालाविषदूषणभयादिहानीय मलयाद्रिणा विनिहितो रसद्रवौघश्चन्दनानाम् , आहोस्विदमृतमथनोद्यतदेवासुरत्रासादत्र निक्षिप्तः क्षीरसिन्धुना सारः सुधाकोशः [ड] | कष्टं च कृतमिदं यदुपस्थिते मथनोपप्लवे पारिजातमृगलक्ष्मलक्ष्मीप्रभृतीनि रत्नान्यत्र न स्थापितानि, यदि पुनः प्रथममेवास्थापयिष्यत् तदा नैकस्य मन्दरस्य मन्दरशतानामपि न गोचरेऽभविष्यन् । इदं च हेमारविन्दसहस्रसुन्दरमपहाय हिरण्यगर्भग:कपङ्कजाङ्कितोदरं दामोदरवपुः किमर्थमाश्रितं श्रिया, केन वा कारणेन समग्रवरगुणोपेते सत्यस्मिन् पलितपाण्डुकरालशङ्खमण्डलो जलधिर्जगत्रयीतिलकभूतया जढुकन्यया वृतः पतिः [6] । व्यक्त
टिप्पनकम्-समग्रवरगुणोपेते सत्यस्मिन् पलितपाण्डुकरालशङ्खमण्डलः एकत्र वरः-भर्ता, अन्यत्र वरः-श्रेष्ठः, एकत्र पलितं शुभ्रमुद्भट शङ्खमण्डलं-शिरस एकदेशविशेषौ यस्य स तथोक्तः, अन्यत्र श्वेतकेशवद् गौरमुद्भटं शङ्खमण्डलं-कम्बुसंघातो यत्र स तथोक्तः [6] ।
विस्मयनीयानां विस्मयोत्पादकवस्तूनाम् , अन्तः सीमा, वीक्षितः दृष्टः, पुनः अद्भुतानां आश्चर्याणाम् , आस्पदं स्थानं, साक्षात्कृतम् , पुनः महिनां महत्त्वानाम्, आयतनं स्थानम् , समासादितं प्राप्तम् , पुनः अगाधतानां अतलस्पर्शतानाम् , अधिष्ठानं आस्पदम् , अधिगतं प्राप्तम् , अत्र सर्वत्र मयेति शेषः [] । काष्ठाधिरूढधवलिम्नः काष्ठाम्-उत्कर्षम्, अधिरूढः-प्राप्तः, धवलिमा-शुकता यस्य तादृशस्य, जलप्राग्भारस्य जलराशेः, प्रसादातिशयचित्रं खच्छतातिशयवैचित्र्यम् , अहो आश्चर्यम् , यतो यतः यत्र यत्र स्थाने, दृष्टिः चक्षुः, अभिपतति निपतति, ततस्ततः तत्र तत्र, चन्द्रिकामयमिव ज्योत्स्नापूर्णमिव, पुनः हिमानीमयमिव हिमसंघातव्याप्तमिव, पुनः सुधामयमिव सुधाप्रचुरमिव, धरातलं भूतलम् । अवलोकयति दर्शयति । एषः अयं, तिमिरगुहान्तरूष्मणा तिमिराणाम्-अन्धकाराणां, या गुहागिरिविवरम् , तस्याः, अन्धकारमयगुहाया इत्यर्थः, अन्तः-मध्ये, या ऊष्मा-तापः, तेन, विलीनेन द्रुतेन, वैताव्यशिखरिणा तदाख्यपर्वतेन, विस्तारितः स्यन्दितः, रजतोपलजलप्रवाहः रजतशिलाजलस्रोतः, किम् ?; किं वा, अहिलालाविषदषणभयात् अहीना-साणां, या लाला-स्यन्दिनी, तत्सम्बन्धिना विषेण यद् दूषणम्-उपघातः, तद्भयात् , इह अस्मिन् स्थाने, आनीय, मलयाद्रिणा मलयपर्वतेन, विनिहितः संस्थापितः, चन्दनानां रसद्रवौघः रसराशिः, किम् ?, आहोवित किं वा, अमृतमथनोद्यतदेवासुरत्रासात् अमृतमथनोद्यतेभ्यः-अमृतोद्धरणप्रवृत्तेभ्यः, देवेभ्यः, असुरेभ्यः-राक्षसेभ्यश्च त्रासात्-भयात् , क्षीरसिन्धुना क्षीरसागरेण, अत्र अस्मिन् स्थाने, निक्षिप्तः रक्षितः, सारः श्रेष्ठः, सुधाकोशः अमृतौघः ? [ड] । इदं कष्टं दुःखं, कृतं विहितं, यत् मथनोपप्लवे खमथनोपद्रवे, उपस्थिते, पारिजातमृगलक्ष्मलक्ष्मीप्रभृतीनि पारिजातः-देवतरुविशेषः, मृगलक्ष्मा–चन्द्रः, लक्ष्मी च, तत्प्रभृतीनि-तदादीनि, रत्नानि, अत्र अस्मिन् सरोवरे, न स्थापितानि निक्षिप्तानि, समुद्रेणेति शेषः, यदि पुनः यदि तु, प्रथममेव पूर्वमेव, अस्थापयिष्यत् तानि रत्नानि न्यक्षेप्स्यत्, समुद्र इति शेषः, तदा एकस्य अद्वितीयस्य, मन्दरस्य मन्दराचलस्य, न कथैव केत्यर्थः, मन्दरशतानामपि मन्दरसहस्रस्यापि, गोचरे विषये, मथितुं शक्यानीत्यर्थः, न अभविष्यन् भवेयुः, तानि रत्नानीति कर्तृपदमध्याहरणीयम् । च पुनः हेमारविन्दसहस्रसुन्दरं हेमारविन्दाना-सुवर्णकमलानां, सहस्रैः, सुन्दरं-मनोरमम् , इदं सरः, अपहाय, हिरण्यगर्भगर्भेकपङ्कजाङ्कितोदरं हिरण्यगर्भः-ब्रह्मा, गर्भे-मध्ये यस्य तादृशेन, एकेन-एकमात्रेण, पङ्कजेन, अङ्कितं-चिह्नितम् , उदरस्य तादृशं, दामोदरवपुः विष्णुशरीरं, श्रिया लक्ष्म्या, किमर्थ किं निमित्तम् , आश्रितं गृहीतम् ; वा यद्वा, समग्रवर
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तिलकमञ्जरी मिदमिदानीन्तनम् , अन्यथा प्रथमोत्पन्नेऽस्मिन् कथं नाम मानससरः सरोराजशब्दमासादयेत्, कथं वा महत्त्वप्रसिद्धिमुदधिः । मन्ये चास्य महिमानमालोक्य संजातमत्सरा वडवानलच्छलेनान्तःसंतापमुद्वहन्तो भुवः प्रान्तेषु प्रतिवसन्ति जलधयः' इत्यादि चिन्तयन्नेव समुपजातमजनाभिलाषः कूलासन्नवर्तिनि विस्तीर्णे तरुणपल्लवान्तरिततरणित्विषि समुन्मिषत्ताम्रस्तबके मकरन्दपानपरवशालिनीशालिनि विशालमुक्ताशिलापट्टसनाथमध्ये माधवीलतासद्मनि निधाय मण्डलायमग्रबिसपल्लवग्रासविशदकण्ठानां जलदेवतानूपुरनिनादजर्जरै राजहंसानां श्रोत्रहारिभिः कोलाहलैरभ्यर्थित इवाकारित इव कृतस्वागत इव जलाभिमुखमुच्चचाल [ण] । सरभसोल्लासिततरङ्गभुजेन च सरसा चरणयोरुत्सृज्यमानार्घजल इव जङ्घयोर्विश्रम्यमाण इव वक्षसि परिष्वज्यमान इव तोयदर्शनोपजातौत्सुक्ययेव समकालमवतीर्णया पुरः पुरो गच्छन्त्या निजशरीर
गुणोपेते समग्रैः-समस्तैः, वरस्य-पत्युः, गुणैः उपेते-पूणे, अस्मिन् सरोवरे, सति विद्यमाने, केन कारणेन हेतुना, जगत्रयीतिलकभूतया भुवनत्रयतिलकरूपया, जहुकन्यया गङ्गया, पलितपाण्डुकरालशङ्खमण्डलः पलितैः-कर्दमैः, यद्वा पलितवत् श्वेतकेशवत् पाण्डु किञ्चित्पीतश्वेतं, श्वेतं वा करालं-भीषणं, शङ्खमण्डलं-कम्बुकलापो यस्मिन् , पक्षे पलितैः-जरया श्वेतकेशः, पाण्डु, करालं-तुङ्गंभीषणं वा, शङ्खमण्डलं-शिरोऽस्थिपञ्जरं यस्य तादृशः, जलधिः समुद्रः, पतिः वरः, वृतः स्वीकृतः[ढ]। इदं प्रत्यक्षभूतं सरः, इदानीन्तनं आधुनिकम्, इति व्यक्तं स्पष्टम्, अन्यथा चिरन्तनत्वे, अस्मिन् सरसि, प्रथमोत्पन्ने पूर्वमुत्पन्ने सति, मानससर: मानसाख्यं सरः, कथं नाम केन प्रकारेण, करमाद्धतोरित्यर्थः, सरोराजशब्दं सरसां राजा-श्रेष्ठः सरोराजः, तत्पदम् , आसादयेत् प्राप्नुयात्, अस्यैव तच्छब्दव्यपदेश्यतया औचित्यात्, वा यद्वा, उदधिः समुद्रः, कथं केन प्रकारेण, महत्त्वप्रसिद्धिं महत्त्वेन प्रख्यातिम् , आसादयेदिति शेषः । च पुनः, मन्ये
, महिमान महत्ताम् , अवलोक्य दृष्ट्वा, सातमत्सरा सजातः-उत्पन्नः, मत्सरः-एतदुत्कयोसहिष्णुता येषां तादृशाः, जलधयः समुद्राः, वडवानलच्छलेन वान्तर्गतवाडवाग्निव्याजेन, अन्तःसन्तापम् अन्तज्वरम्, उद्वहन्तः धारयन्तः, भुवः पृथिव्याः, प्रान्तेषु सीमासु, प्रतिवसन्ति निवसन्ति, इत्यादि इत्थं, चिन्तयन्नेव आलोचयन्नेव, समुपजातमजनाभिलाषः समुपजातः-सम्यगुत्पन्नः, मज्जनाभिलाषः-नानेच्छा यस्य तादृशः सन् , कलासन्नवर्तिनि तटनिकटवर्तिनि, पुनः विस्तीण दीर्घ, पुनः तरुणपल्लवान्तरिततरणित्विषि तरुणैः-परिणतः, विस्तीर्णै. रित्यर्थः, पल्लवैः, अन्तरिता-आवृता, निरुद्धेत्यर्थः, तरणेः-सूर्यस्य, त्विट् द्युतिर्यस्य, पुनः समुन्मिषत्ताम्रस्तबके समुन्मिषन्तिसमुद्भासमानानि, ताम्राणि-रक्तानि, स्तबकानि-पुष्पगुच्छा यस्मिंस्तादृशे, पुनः मकरन्दपानपरवशालिनीशालिनि मकरन्दपानपरवशाभिः-पुष्परसास्वादव्यासक्ताभिः, अलिनीभिः-भ्रमरीभिः, शालते-शोभते यस्तादृशे, पुनः विशालमुक्ताशिलापट्टसनाथमध्ये विशालैः-विस्तृतैः, मुक्ताशिलापट्टैः-मुक्ताख्यप्रस्तरपीठैः, सनाथं-सहितम् , अभ्यन्तरं यस्य तादृशे, माधवीलतासद्मनि वासन्तीलतापिहितोदरगृहे, मण्डलाग्रं कृपाणं, निधाय स्थापयित्वा, अग्रबिसपल्लवग्रासविशदकण्ठानां बिसानां मृणालानां, पल्लवः-नूतनदलं कमलमित्यर्थः, तस्य यद् अप्रं तद्रासेन-तद्भक्षणेन, विशदः-विशुद्धः, कण्ठो येषां तादृशानां, राजहंसानां हंसविशेषाणां, जलदेवतानूपुरनिनादजर्जरैः जलदेवतानां-जलान्तर्वर्तिदेवतानां, नूपुरनिनादैः-पादवलयध्वनिभिः, जर्जरैः--प्रवृद्धैः, श्रोत्रहारिभिः श्रवणाकर्षिभिः, कोलाहलैः, अभ्यार्थित इव प्रार्थित इव, पुनः आकारित इव आहूत इव, पुनः कृतस्वागत इव कृतम्-उच्चारितं, स्वागतम्-आगमनसौष्ठवोपपादकवाक्यं यस्य तादृश इव, जलाभिमूखं जलसम्मुखम् , उच्चचाल चलितुं प्रवृत्तः। च पुनः, सरभसोल्लासिततरङ्गभुजेन सरभसं-सत्वरम् , उल्लासिताः-उत्थापिताः, तरङ्गा एव भुजाः-बाहवो येन तादृशेन, सरसा प्रकृतसरोवरेण, चरणयोः पादयोः, उत्सृज्यमानार्घजल इव उत्सृज्यमानम्-उत्क्षिप्यमाणम् , अर्घरूपं पादप्रक्षालनार्थ जलं यस्य तादृश इव, पुनः जङ्घयोः ऊरुद्वये, विश्रयमाण इव अध्वगमनश्रमापनोदनमापाद्यमान इव, पुनः वक्षसि उरःस्थले, परिष्वज्यमान इव आलिङ्गयमान इव, पुनः तोयदर्शनोपजातीत्सुक्ययेव तोयदर्शनेन-प्रकृतसरोवरोदकदर्शनेन, समुपजातम्-उत्पन्नम् , औत्सुक्यं-तदवगाहनौत्कण्ठयं यस्यास्तादृश्येव, समकालमेव युगपदेव, उत्थितया उच्चलितया, पुनः पुरः पुरः अग्रे अग्रे, गच्छन्त्या, निजशरीरच्छायया स्वशरीरानात
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टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता। च्छायया निवेद्यमानमार्ग इवाभ्यन्तरं विवेश । तत्र च तिरोभूतदर्शनैः प्रस्तुतपरिहासविलासैरिव जलदेवता. समूहैरद्भुताकारदर्शनोल्लसितावदातच्छविभिरच्छचन्दनरसच्छटाभिरिव दृष्टिभिराहन्यमानः स्नानमकरोत [त] । अपगताशेषाध्वश्रमश्च स्नानलग्नकमलपरिमलाकृष्टाभिः स्पर्शलालसेन सरसा संयमनार्थमिन्द्रनीलशृङ्खलाभिरिव प्रसारिताभिरलिमालाभिराकुली क्रियमाणः करेणुराज इव विलोलयन् कमलिनीखण्डानि, षडभिरिवाजिघ्रन् सहस्रदलकमलामोदम् , इन्दुरिव मोचयन् कुमुदमुकुलोदरसंदानितान्यलिकदम्बकानि, प्रदोष इव विघटयन रथाङ्गमिथुनानि, राजहंस इवोल्लसल्लहरीपरम्पराप्रेर्यमाणमूर्तिरुत्ततार [थ] । शीतोद्गतपुलकजालकानुकारेण सर्वाङ्गसङ्गिना कनकराजीवरेणुकणनिकरेणान्तःप्रविष्टदिनकरातपकणिकाकलापेनेव निपतता विराजमानो नीलकुटिलमन्तर्जलपाननिर्वापितस्य संतापवह्वेलर्ध्वमुल्लसितं धूमशिखाकलापमिव केशभारं वामकरकमलेन विमलीकुर्वाणो विलुलितकचान्तःपातिनीभिरनवरतममलोदबिन्दुसंततिभिः
पेन, निवेद्यमानमार्ग इव निवेद्यमानः-दर्यमानो मार्गो यस्य तादृश इव अभ्यन्तरं सरोवरमध्यं, प्रविवेश प्रविष्टवान् । च पुनः, तत्र तस्मिन् सरोवरे, तिरोभूतदर्शनैः तिरोभूतं-प्रच्छन्नं दर्शनं येषां तादृशैः, पुनः प्रस्तुतपरिहास विलासैरिव प्रस्तुतः-प्रवर्तितः, परिहासविलासः-परिहासरूपः-केलिरूपो विलासः-शृङ्गारचेष्टाविशेषो यैस्तादृशैरिव, जलदेवतासमूहैः जलान्तर्वर्तिदेवतागणैः, अद्भुताकारदर्शनोल्लासितावदातच्छविभिः अद्भुतस्य-विस्मयजनकस्य, अदृष्टपूर्वस्येत्यर्थः, आकारस्य दर्शनेन, उल्लासिता-आविर्भूता, अवदाता-उज्वला, छविः-कान्तिर्यासां तादृशीभिः, अत एव अच्छचन्दनरसच्छटाभिरिव अच्छाना-विमलाना, चन्दनरसानां-चन्दनद्रवाणां, छटाभिः-धाराभिरिव, दृष्टिभिः लोचनैः, आहन्यमानः प्रहियमाणः सन् , स्नानं मजनम् , अकरोत् कृतवान् [त]। च पुनः, अपगताशेषाध्वश्रमः अपगतः-निवृत्तः, अशेषः-समग्रः, अध्वश्रमः-मार्गगमनखेदो यस्य तादृशः, स्नानलग्नकमलपरिमलाकृष्टाभिः स्नानलग्नाना-नानसंपृक्तानांकमलानां, परिमलैः-सौरभैः, आकृष्टाभिः-विलोभिताभिः, पुनः स्पर्शलालसेन तदीयस्पर्शात्यन्ताभिलाषिणा, सरसा निरुक्तसरोवरेण, संयमनार्थ तन्नियन्त्रणार्थम् , इन्द्रनीलशृङ्खलाभिरिव इन्द्रनीलमणिमयनिगडैरिव, प्रसारिताभिः विस्तारिताभिः, अलिमालाभिः भ्रमरश्रेणीभिः, आकुलीक्रियमाणः व्यग्रतामापाद्यमानः सन् , करेणुराज इव गजाधिपतिरिव, कमलिनीखण्डानि कमलिनीवनानि, विलोलयन् प्रकम्पयन् , पुनः षड रिव षड् अङ्ग्रयः-पादा यस्य स षडनि4मरः स इव, सहस्रदलकमलामोदं सहस्रदलान्वितकमलोत्कटसौरभम् , आजिघ्रन् घ्राणेन्द्रियजन्यसाक्षात्कारगोचरीकुर्वन् , पुनः इन्दुरिव चन्द्र इव, कुमुदमुकुलोदरसन्दानितानि कुमुदानां-चन्द्रविकासिकमलानां, यानि मुकुलानि-कुङ्मलानि तेषाम् , उदरे-अभ्यन्तरे, सन्दानितानि-नियन्त्रितानि, अलिकदम्बकानि भ्रमरगणान् , मोचयन् निष्कासयन् , पुनः प्रदोष इव निशारम्भकाल इव, रथाङ्गमिथुनानि चक्रवाकद्वन्द्वानि, विघटयन् विश्लेषयन् , पुनः राजहंस इव हंसविशेष इव, उल्लसल्लहरीपरम्पराप्रेर्यम । उल्लसन्त्या-उद्वेलयन्या, लहरीपरम्परया-महातरङ्गश्रेण्या, प्रेर्यमाणासंचार्यमाणा, मूर्तिः-शरीरं यस्य तादृशः सन् , उत्ततार प्रकृतसरोवरस्योर्ध्वमागतवान् [थ]। शीतोद्गतपुलकजालकानुकारेण शीतेन-शीतलस्पर्शन, उद्गतम्-उत्थितं यत् पुलकजालक-रोमाञ्चसमूहः, तदनुकारेण-तदनुकारिणा, पुनः सर्वाङ्गसङ्गिना सर्वावयवव्यापिना, पुनः अन्तःप्रविष्टदिनकरातपकणिकाकलापेनेव अन्तःप्रविष्टानाम्-अन्तर्गतानां, दिनकरातपकणिकाना-सूर्यकिरणकणानां, कलापेन-समूहेनेव, निपतता विगलता, कनकराजीवरेणुकणनिकरेण कनकराजीवाना-सुवर्णकमलानां, ये रेणवः-परागाः, तदीयकणानां, निकरेण-समूहेन, विराजमानः संदीप्यमानः, पुनः नीलकुटिलं नीलं-कृष्णवर्ण, कुटिलं-वक्रं च, पुनः अन्तर्जलपाननिर्वापितस्य अन्तः शरीराभ्यन्तरे, यत् जलपानं-जलसंक्रमणं, तेन निर्वापितस्य-प्रशमितस्य, सन्तापवढेः सन्तापाग्निसम्बन्धिनम् , ऊर्ध्व शरीरोपरि, उल्लसितं उत्थितम् , धूमशिखाकलापमिव धूम्रजटासमूहमिवेत्युत्प्रेक्षा, केशभारं केशपाशं, वामकरकमलेन दक्षिणेतरपाणिरूपकमलेन, विमलीकुर्वाणः विशोधयन्, पुनः विललितकचान्तःपातिनीभिः विलुलितानां-विक्षिप्तानां, कचाना-केशानाम्, अन्तः-मध्यात् , पतनप्रवृत्ताभिः,
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तिलकमञ्जरी प्रत्युरसमपलप्यमानमुक्ताकलापः कूल एव मुहूर्तमानं स्थित्वा तस्य माधवीमन्दिरस्योदरालंकारभूते नभःपातमूर्छानिःस्पन्दमन्दाकिनीस्रोतस्त्विषि मुक्ताशिलातले तत्क्षणोद्धृतैरमलमौक्तिकावदातजललवावलीलाञ्छितैस्तरणितुरगखुरपुटाग्रखण्डितैराकाशशकलैरिव सतारकैरतिश्रमस्वेदकणिकाङ्कितकुन्तलीस्तनमण्डलाभोगविडम्बिभिस्तल्पीकृतैः पुटकिनीपलाशैर्निरन्तरमाच्छादिते द्वितीय इव सरसि शिरोभागनिहितपिण्डीकृतोत्तरीयांशुकः शनकैय॑षीदत् [द] ।
अथ पल्लवान्तरालपातिभिरुद्वेल्लितारविन्दिनीदलकलापैरुल्लासिताम्बुरुहपरागराशिभिरुत्सङ्गिततरङ्गशिखरशीकरासारैः सरलीकृतसारसक्रेङ्कारविरुतिभिः सौरभाहृतभ्रमरीनिकरझाङ्कारमनोहरैः संतापहारिभिः सरःसमीरैः सरभसपरिरभ्यमाणसर्वाङ्गः, प्रभूतकालपरिहृतदर्शनया प्रस्तुतपरिहासयेव कुतोऽप्यागत्य निद्रया मुद्रितनयनयुगलः, स्वप्ने रसातलात् तत्कालमेवोद्गतम्, अनेकपुष्पस्तबकसंबाधविटपच्छन्नमच्छिन्न
अमलोदबिन्दुसन्ततिभिः स्वच्छजलकणकलापैः, अनवरतं निरन्तरं, प्रत्युरसं वक्षःस्थले, अपलप्यमानमुक्ता. कलापः अपलप्यमानः-अपढूयमानः, मुक्ताकलापः-मुक्तामणिमाल्यं यस्य तादृशः, कूल एव तत्तट एव, मुहूर्तमात्रं क्षणमात्रं, स्थित्वा विश्रम्य, मुक्ताशिलातले मुक्तामणिरूपशिलापट्टे, शिरोभागनिहितपिण्डीकृतोत्तरीयांशुकः शिरोभागे-मस्तकाधस्तात्, उपधानरूपेणेत्यर्थः, निहितं-स्थापितं, पिण्डीकृतम्-आकुञ्चितम् , उत्तरीयम् अंशुकम्-सूक्ष्मश्लक्ष्णवस्त्रं येन तादृशः सन् , शनकैः शनैः, न्यषीदत् उपविष्टवान् इत्यग्रेणान्वेति, तस्य प्रकृतस्य, माधवीमन्दिरस्य माधवीलतामण्डपस्य, उदरालङ्कारभूते अभ्यन्तराभरणरूपे, पुनः नभःपातमूर्छानि स्पन्दमन्दाकिनीस्रोतस्त्विषि नभःपातेन-गगनमण्डलपतनेन, या मूर्छा-नष्टसंज्ञता, तया निःस्पन्दस्य-निश्चेष्टस्य, मन्दाकिन्याः-गङ्गायाः, स्रोतसः-प्रवाहस्येव, त्विट्-कान्तिस्मिस्तादृशे, पुनः पुटकिनीपलाशैः कमलिनीपत्रैः, निरन्तरं समग्रम् , आच्छादिते आस्तीर्णे, कीदृशैः ? तत्क्षणोद्धतैः तत्क्षणो नीतैः, पुनः अमलमौक्तिकावदातजललवावलीलाञ्छितैः अमलमौक्तिकवत्-उज्वलमुक्तामणिवत् , अवदातानां-निर्मलानां, जललवानां-जलबिन्दूनाम् , आवलीभिः-श्रेणीभिः, लाञ्छितैः-चिह्नितः, मिश्रितरित्यर्थः, पुनः तरणितरगखुरपुटाग्रखण्डितः तरणितुरगाणां-सूर्यसम्बन्धिनामश्वानां, खुरपुटैः-पुटितखुरैः, खण्डितैः-त्रोटितैः, सतारकैः तारकासहितैः, आकाशशकलैरिव आकाशखण्डैरिवेत्युत्प्रेक्षा, पुनः अतिश्रमखेदकणिकाङ्कितकुन्तलीस्तनमण्डलाभोगविडम्बिभिः अतिश्रमखेदकणिकाभिः-अत्यन्तश्रमजन्यधर्मोदकबिन्दुभिः, अक्षितानां- लाञ्छितानां, कुन्तलीस्तनमण्डलाना-कुन्त, लाख्यजनपदस्त्रीस्तनमण्डलानां, य आभोगः-विस्तारः, तद्विडम्बिभिः-तदनुकारिभिः, पुनः तल्पीकृतैः स्वशय्यारूपतामापादितैःपुनः कीदृशे ? द्वितीये प्रकृतसरोवरव्यतिरिक्ते, सरसि कासार इव [द] ।
अथ अनन्तरं, पल्लवान्तरालपातिभिः पल्लवान्तरालात्-पल्लवमध्यात्, पतनशीलैः, अवतरद्भिरित्यर्थः, पल्लवाभ्यन्तरवाहिभिरिति यावत्, पुनः उद्वेलितारविन्दिनीदलकलापैः उद्वेल्लितः-उद्धृतः, अरविन्दिनीदलकलापः-कमलिनीपत्रराशियस्तादृशैः, पुनः उल्लासिताम्बुरुहपरागराशिभिः उल्लासितः-उत्क्षिप्तः, अम्बुरुहाणां-कमलानां, परागराशि:-रजःपुजो यैस्तादृशैः, उल्लसितेति पाठे उल्लसितः- उद्गतः, पुनः उत्सङ्गिततरङ्गशिखरशीकरासारैः उत्सङ्गिताः-क्रोडीकृताः, तरङ्गशिखरवर्तिनः-तरङ्गोलस्यन्दिनः, शीकरासाराः-जलकणधारापाता यैस्तादृशैः, पुनः सरलीकृतसारसकेकारविरुतिभिः सरलीकृताः-विस्तारिताः, सारसानां-पक्षिबिशेषाणां, केकारात्मिकाः, विरुतयः-शब्दा यैस्तादृशैः, सौरभाहतभ्रमरीझाङ्कारमनोहरैः सौरभेण-परिमलेन, आहृतानाम्-आकृष्टानां, भ्रमरीणां, झाङ्कारैः-कोलाहलैः, मनोहरैः-सुन्दरैः, पुनः
न्तापहारिभिः सन्तापशमकैः, सर:समीरैः प्रकृतसरोवरपवनैः, सरभसपरिरभ्यमाणसर्वाङ्गः सरभसं-सवेगं परिरभ्यमाणानि-आलिङ्गयमानानि, सर्वाणि-समस्तानि, अङ्गानि-शरीरावयवा यस्य तादृशः, पुनः प्रभूतकालपरिहतदर्शनया प्रभूतकाल-प्रचुरकालं, परिहतं-परित्यक्तं, दर्शनं यस्यास्तादृश्या, प्रस्तुतपरिहासयेव प्रस्तुतः-प्रवर्तितः, परिहासो यया तादृश्येव, निद्रया, कुतोऽपि कस्माच्चित् स्थानात् , आगत्य उपस्थाय, मुद्रितनयनयुगलः मुद्रित-पिहितं,
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टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता। संतानमधुकरसहस्रोपसेवितमुत्फुल्लवल्लीनिकरपरिकरितया किश्चिदासन्नवर्तिन्या परिम्लानसकलावयवयाऽपि प्रतिकालोन्मीलदधिकाधिकसौकुमार्यामङ्गलक्ष्मीमुद्वहन्त्याऽभिनवकल्पलतया समीहिताश्लेषमीषत्प्रौढिमायातं पारिजातद्रुममद्राक्षीत् [ध] ।
दर्शनानुपदमेव च प्रबुद्धः प्रवृद्धविभवेन सख्या सह समागमप्राप्तिमचिरभाविनीं निरचैषीत् ।
विशेषावगतये च स्वप्नस्य कृतयत्नः सहसैवोच्चरन्तमतितारम् 'उत्क्षिप्तगुरुकार्यभारस्य भवतः किमियं प्रमादशक्तिः' इति तर्जयन्तमिव, 'धीरप्रकृते ! सरोदर्शनमात्रेणापि विस्मितोऽसि' इत्युपहसन्तमिव, 'तूर्णमेहि, दर्शयामि रम्यप्रदेशपरम्पराम्' इत्याह्वयन्तमिव, तत्क्षणत्यक्तपङ्कावगाहकेलिभिरुत्कटभटितकर्णैः कर्णपल्लवैरुल्लसितरोमाञ्चभीषणाकृतिभिरुन्नमितघोणैराघर्घरध्वनिगर्भगलगह्वरैर्वराहयूथपतिभिः ससंभ्रममाकर्ण्य
नयनयुगलं-नेत्रद्वयं यस्य तादृशः, स्वप्ने शयनावस्थायां, पारिजातद्रुमं पारिजातवृक्षम् , अद्राक्षीत् दृष्टवान् । कीदृशम् ? रसातलात् पातालात्, तत्कालमेव तत्क्षणमेव, उद्गतं ऊर्वमागतम् , पुनः अनेकपुष्पस्तबकसंबाधविटपच्छन्नम् अनेकैः-बहुभिः, पुष्पस्तबकैः-पुष्पगुच्छैः, संबाधाः-संकुलाः, ये विटपाः- शाखाः, तैः छन्नम्-आवृतम् , पुनः अच्छिन्नसन्तानमधुकरसहस्रोपसेवितं अच्छिन्नः-अविश्रान्तः, सन्तानः-परम्परा येषां तादृशानां मधुकराणां-भ्रमराणां, सहस्रेण, उपसेवितं-संलग्नम् , पुनः अभिनवकल्पलतया नवीनकल्पाख्यदिव्यलतया, समीहिताश्लेषं समीहितः-चेष्टितः, प्रवर्तित इत्यर्थः, यद्वा अभिमतः, आश्लेषः-आलिङ्गनं यस्य तादृशम् , कीदृश्या? उत्फुल्लवल्लीनिकरपरिकरितया उत्फुलैःकुसुमितैः, वल्लीनिकरैः-लतागणैः, परिकरितया-व्याप्तया, पुनः किश्चिदासनवर्तिन्या किञ्चिन्निकटस्थया, पुनः परिम्लानसकलावयवयाऽपि परिम्लानाः-म्लानिमापन्नाः, सकलाः-सर्वे अवयवा यस्यास्तादृश्यापि, प्रतिकालं प्रत्यङ्गम् , उन्मीलदधिकाधिकसौ कुमार्यों उन्मीलत्-उद्भासमानम्, अधिकादपि अधिकम् , अत्यधिकमित्यर्थः, सौकुमार्य-मार्दवं यस्याः तादृशीम् , अङ्गलक्ष्मी अवयवशोभाम् , उद्वहन्त्या धारयन्त्येति विरोधः, तदुद्धारे तु अङ्गलक्ष्मी अवयवसमृद्धिम् , पुनः कीदृशम् ? ईषत् प्रौढिं किञ्चित्तारुण्यम् , आयातं प्राप्तम् [ध]।
च पुनः, दर्शनानुपदमेव प्रकृतपारिजातदर्शनानन्तरमेव, प्रबुद्धः जागरितः सन् , अचिरभाविनी शीघ्रभाविनी . प्रवृद्धविभवेन उत्कृष्टैश्वर्यशालिना, सख्या हरिवाहनेन सह, समागमप्राप्तिं सङ्गमलाभ, निरचैषीत् निश्चितवान् ।
च पुनः, स्वप्नस्य अनुपदोक्तस्वप्नस्य, विशेषावगतये फलविशेषज्ञानाय, कृतयत्नः कृतप्रयासः सन् , अतिमहतः अतिविपुलस्य, अश्ववृन्दस्य अश्वसमूहस्य,श्रवणपरुषहेषाध्वनि श्रवणकठोरहेषात्मकशब्दम् , अश्रौषीत् श्रुतवान् , कीदृशम् ? सहसैव अकस्मादेव, उच्चरन्तं उद्गच्छन्तम् ; पुनः अतितारं अत्युच्चम् ; पुनः उत्क्षिप्तगुरुकार्यभारस्य उत्क्षिप्तः-उदूढः, गुरुः-दुर्वहः, कार्यभारो येन तादृशस्य, भवतः तव, इयं वर्तमाना, प्रमादशक्तिः अनवधानपरता, किं किमर्था, इति इत्थं, तर्जयन्तमिव भर्त्सयन्तमिव; पुनः धीरप्रकृते! धीरस्वभाव! सरोदर्शनमात्रेणापि केवलनिरुक्तसरोवरावलोकनादपि, विस्मितोऽसि अनुभूताश्चर्योऽसि' इति इत्थम् , उपहसन्तमिव उपहासमाचरन्तमिव, पुनः तूर्ण क्षिप्रम् , एहि आगच्छ, रम्यप्रदेशपरम्परां मनोहरस्थानसन्तति, दर्शयामि दृष्टिगोचरीकारयामि' इति इत्थम् , आह्वयन्तमिव आकारयन्तमिव, पुनः वराहयूथपतिभिः शूकरगणाधिपतिभिः, ससम्भ्रमं ससत्वरम् , आकर्ण्यमानं श्रूयमाणम् , कीदृशैः? तत्क्षणत्यक्त. पङ्कावगाहकेलिभिः तत्क्षण-तत्कालं, त्यक्ता निवारिता, पङ्कावगाहकेलि:-पङ्कमजनक्रीडा यैस्तादृशैः, पुनः उत्कटभटितकर्णैः उत्क्षिप्तकर्णैः, कर्णपल्लवैः कर्णाभरणरूपपल्लवैः,उल्लसितरोमाञ्चभीषणाकृतिभिः उल्लसितैः- उद्गतैः,रोमाञ्चैः-भीषणाभयानिका, आकृतिः-शरीरं येषां तादृशैः, पुनः उन्नमितघोणैः उत्- ऊर्च, नमिता घोणा-नासिका यैस्तादृशैः, पुनः आघर्घरध्वनिगर्भगलगह्वरैः आघर्घरध्वनिगर्भः-अत्यन्तघर्घरात्मको ध्वनिः, गर्भ-अभ्यन्तरे यस्य तादृशो गलगह्वरः-कण्ठविवरं येषां तादृशैः; पुनः कीदृशम् ? समन्ततः सर्वतः, विजृम्भितभीमप्रतिशब्दया विजृम्भितः-अभिव्यक्तः, भीमः-भयानकः,
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तिलकमञ्जरी
मानं समन्ततो विजम्भितभीमप्रतिशब्दतया प्रत्युद्गम्यमानमिवारण्यचतुरङ्गहषासहरतिविस्तारितया कम्पयन्तमिव प्लावयन्तमिव तर्जयन्तमिव कान्तारमतिमहतोऽश्ववृन्दस्य श्रवणपरुषहेषाध्वनिमश्रौषीत् [न] ।
'हन्त, कस्मादयमदृश्यमानमर्त्यसंचारे निरन्तरगिरिग्रावदुर्गमाध्वनि मृगाधिपप्रमुखप्रेवत्सत्त्वभीषणे महारण्येऽस्मिन्नकाण्ड एव दिङ्मण्डलाट्टहासानुकारी समुल्लसितो हेषारवः ?, किं तावदत्राभ्यर्णवर्ति किमपि नगरमास्ते ? किं वा कस्यचिद् दिग्विजयागतस्य नृपतेरावासितं सैन्यम् ? उत म्लेच्छराजपुत्रः कोऽपि मृगयाप्रसङ्गेनायातः ? आहोस्विदम्बरात् स्वयमेवावतीर्णः स्नातुं सप्तसप्तिः ?, अथ गन्धर्वसुरविद्याधराणामन्यतमः कतमोऽपि कमनीयोद्देशदर्शनकुतूहली विहरति ?' इति मुहूर्तमिव ध्यात्वा समुपजातजिज्ञासस्तस्माल्लतागृहाद् विनिःसृत्य सत्वरमध्यासिततटविटङ्कः समन्ततो विलोकयामास [प] । विप्रकृष्टतया तस्य प्रदेशस्य, प्रांशुतया सरोरोधसः, सान्द्रतया च द्रुमावलीनां यदा प्रयत्नप्रहितचक्षुरपि न किञ्चिदद्राक्षीत् तदाऽचिन्तयत्-'किमिदानीं सरःपर्यन्तेषु निःशेषतो विचरामि ?, अथवा किमनेन प्रस्तुतकार्यान्तरायकारिणा निरर्थकाध्यवसायेन, सततमचलप्रकृतिना हि पुरुषेण भवितव्यम् । संप्रति च विरतसंतापमुपशान्तशोष
टिप्पनकम्-विटङ्कः-उच्चैः स्थानम् [प] । प्रतिशब्दः-प्रतिध्वनिर्यस्य तत्तया, अरण्यचतुरङ्गहेषासहस्त्रैः अरण्यसम्बन्धि यच्चतुरङ्ग-गजाश्वरथपादगामी सेनाविशेषः तत्सम्बन्धिहेषात्मकध्वनिसहः, प्रत्युद्गम्यमानमिव प्रत्युत्थाप्यमानमिव, पुनः अतिविस्तारितया अत्यन्तविस्तारेण, कान्तारम् अरण्य, कम्पयन्तमिव विलोलयन्तमिव; पुनः प्लावयन्तमिव उद्वेलयन्तमिव पुनः तर्जयन्तमिव भीषयन्तमिव [न] । हन्त इति खेदे, अदृश्यमानमर्त्यसञ्चारे अदृश्यमानः-अलक्ष्यमाणः, माना-मानवाना, सञ्चारः-प्रचारो यास्मिंस्तादृशे, निरन्तरगिरिग्रावदर्गमाध्वनि निरन्तरैः-अविच्छिन्नैः, गिरिग्रावभिः-पर्वतशिलाभिः, दुर्गमः-दुःखेन गन्तुं शक्यः, अध्चा-मार्गो यस्मिंस्तादृशे, मृगाधिपप्रमुखप्रेङ्कत्सत्त्वभीषणे मृगाधिपप्रमुखैः-सिंहप्रभृतिभिः, प्रेडद्भिः-प्रचरद्भिः, सत्त्वैः-प्राणिभिः, भीषणे-भयानके, अस्मिन् प्रत्यक्षे. महारण्ये महावने, अकाण्ड एव अनवसर एव, दिङमण्डलाहासानुकारी दिङ्मण्डलसम्बन्धिबृहद्धासानुकारी, अयं श्रूयमाणः, हेषारवः अश्वध्वनिः, कस्मात् समुल्लसितः समुद्भुतः। तावदिति वाक्यालङ्कारे, अत्र अस्मिन् अरण्ये, अभ्यर्णवर्ति निकटवर्ति, किमपि अपरिचितं नगरम् , आस्ते वर्तते, किम् ?, किं वा आहोखित् , दिग्विजयागतस्य दिग्विजयात्-दिशां विजयं कृत्वा, आगतस्य-परावृत्तस्य, यद्वा दिग्विजयार्थमागतस्य कस्यचित् , नृपतेः राज्ञः, आवासितं स्थापित, सैन्यं सेना, उत किंवा?, मृगयाप्रसङ्गेन आखेटकप्रसङ्गेन, आयात आगतः, कोऽपि, म्लेच्छराजपुत्रः निषादाधिपकुमारः, आहोखित् अथवा, स्नातुं स्नानार्थम् , अम्बरात् आकाशात् , स्वयं आत्मना, अवतीर्णः अधस्तादागतः, सप्तसप्तिः सूर्यः, अथ अथवा, गन्धर्वसुरविद्याधराणामन्यतमः गन्धर्वःगायकदेवजातिविशेषः, सुरः-देवः, विद्याधरः-गगनगमनादिविद्याकलितो जनविशेषः, तदन्यान्यः, कतमोऽपि तदवान्तरजातीयः, कोऽपि, कमनीयोदेशदर्शनकुतूहली रमणीयप्रदेशावलोकनाभिलाषी सन् , विहरति भ्रमति, इति इत्थं, मुहूर्तमिव क्षणमिव, ध्यात्वा विचिन्त्य, समुपजातजिज्ञासः समुत्पन्नहेषारवनिर्णयेच्छः, तदन्वेषणेच्छुरिति यावत् , तस्मात् प्रकृतात्, लतागृहात् माधवीलतामन्दिरात् , विनिःसृत्य निर्गत्य, सत्वरं शीघ्रम् , अध्यासिततटविटङ्कः अध्यासितः-अधिष्ठितः, तटविटङ्कः-तटस्योच्चस्थानं येन तादृशः, समन्ततः सर्वतः, विलोकयामास ददर्श [प] । तस्य हेषारवोद्गमास्पदस्य, प्रदेशस्य स्थानस्य, विप्रकृष्टतया दूरतया, पुनः सरोरोधसः निरुक्तसरोवरतटस्य, प्रांशुतया औन्नत्येन, च पुनः, द्रुमावलीनां वृक्षपतीनां, सान्द्रतया निरन्तरतया, यदा यस्मिन् काले, प्रयत्नप्रहितचक्षुरपि प्रयत्नेन-प्रयासेन, प्रहिते-व्यापारिते, चक्षुषी-नेत्रे येन तादृशोऽपि, किञ्चित् किमपि, न अद्राक्षीत् दृष्टवान् , तदा तस्मिन् काले, अचिन्तयत् आलोचयत् , किमित्याह-इदानीं अधुना, सरःपर्यन्तेषु सरोवरप्रान्तेषु, निःशेषतः समग्रेषु, विचरामि भ्रमामि, किम् ?, अथवा प्रस्तुतकार्यान्तरायकारिणा उपक्रान्तकार्यविनकारिणा, अनेन चिन्तितेन, निरर्थकाध्यवसायेन व्यर्थप्रयत्नेन, किम् ? न किमपि फलमित्यर्थः, हि यतः, पुरुषेण लोकेन, सततं निरन्तरम् , अचलप्रकृतिना स्थिरस्वभावेन, भवितव्यं भवितुमु
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टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता। मुत्तीर्णश्रममुल्लसितसविशेषोत्साहमध्वक्षमं वर्तते वपुः, तरुणदूर्वाप्रतानसुकुमारसमतलाश्च मार्गभूमयः, प्रावृषेण्यजलदश्यामलानि च पुरस्ताद् विभाव्यन्ते पादपवनानि, प्रसन्नदिङ्मुखो मन्दपवनश्वानन्दशंसी चाद्यतनो वासरः, सरःपरपारदर्शनौत्सुक्यपरवशं च मानसम् , न चाद्यापि तिलकयति मध्यभागमम्बरश्रियो वासरमणिः, अनारूढप्रौढयश्च नातिगाढमुद्वैजयन्ति धर्मोर्मयः [फ] । तद् गच्छामि तावत् कियन्तमप्यध्वानम् , पश्चात् कठोरतामुपेयुषि वासरे कस्मिंश्चित् प्रच्छायपादपे सरसि वा शैलप्रस्रवणे वा गिरिनदीस्रोतसि वा तापसाश्रमपदे वा विश्रम्य विस्रब्धनिर्वर्तितदेवतार्चनविधिर्विदग्धकविप्रबन्धैरिव परिपाकमधुरैर्विविधरसशालिभिस्तरुफलैराप्यायितवपुर्दिवसमवलोक्य स्तोकमग्रतः प्रस्थास्ये स्थास्यामि वा' [ब] ।
इति कृतगमननिश्चयः प्रविश्य भूयो लतावेश्मनि निबिडीकृतपरिधानो दृढावनद्धस्नानविरलकेश
टिप्पनकम्-विदग्धकविप्रबन्धैरिव परिपाकमधुरैर्विविधरसशालिभिस्तरुफलैराप्यायितवपुः एकत्र परिणतिमाधुर्ययुक्तैः, अन्यत्र परिपक्वमधुरैः, विविधशृङ्गारादिरसंशोभिभिः, अन्यत्र नानामधुराम्लादिरसयुक्तैः [व] ।
चितम् । सम्प्रति अधुना, वपुः शरीरम् , अध्वक्षम मार्गगमनश्रमसहं, वर्तते अस्ति, कीदृशम् ? विरतसन्तापं निरुक्तसरोवरमजनेन निवृत्तसन्तापम् , पुनः उपशान्तशोषं उपशान्तः-निवृत्तः, शोषः-दौर्बल्यं यस्मिस्तादृशम् , पुनः उत्तीर्णश्रमम् उत्तीर्णः-अपनीतः, श्रमः-मार्गोल्लङ्घनजन्यखेदो यस्य येन वा तादृशम् , पुनः उल्लसितसविशेषोत्साहम् उल्लसितः-उद्भुतः, सविशेषः-अत्यन्तः, उत्साहो यस्मिंस्तादृशम् ।च पुनः, तरुणदूर्वाप्रतानसुकुमारसमतला तरुणानां-परिणताना, दूर्वाणांशतपत्रिकाख्यतृणविशेषाणां, प्रतानेन-विस्तारेण, सुकुमार-कोमलं, समतलं-निम्नोन्नतभावरहितस्थलं यासु तादृश्यः, मागेभमय: मार्गक्षेत्राणि, वर्तन्त इति शेषः । च पुनः, पुरस्तात् अग्रे, प्रावृषेण्यजलदश्यामलानि प्रावृषेण्याः-प्रावृषि वर्षाकाले भवाः, ये जलदाः- मेघाः, तद्वत् श्यामलानि-कृष्णवर्णानि, पादपवनानि-वृक्षपतयः, विभाव्यन्ते लक्ष्यन्ते । च पुनः, अद्यतनः अद्यभवः, अयमित्यर्थः, वासरः दिवसः, प्रसन्नदिङ्मुखः प्रसन्नानि-विमलानि, दिङ्मुखानि-दिगग्राणि यस्मिस्तादृशः, पुनः मन्दपवनः मन्दः-धीरः, पवनः-वायुर्यस्मिन् तादृशः, च पुनः, आनन्दशंसी आनन्दसूचकः, वर्तत इति शेषः । च पुनः, मानसं हृदयं, सरःपरपारदर्शनौत्सुक्यपरवशं सरसः -प्रकृतसरोवरस्य, यः परः-अन्तिमः, पार:-अवधिः, तद्दर्शनौत्सुक्यस्य-तद्दर्शनोत्कण्ठायाः, परवशं-पराधीनं, वर्तत इति शेषः । च पुनः, वासरमणिः सूर्यः, अद्यापि अधुनापि, अम्बरश्रियः आकाशलक्ष्म्याः , मध्यभागं मध्यप्रदेश, न तिलकयति स्वबिम्बात्मकेन तिलकेनोद्भासयति, नोदेतीत्यर्थः । च पुनः, अनारूढप्रौढयः अनारूढाः-अनुत्पन्नाः, प्रौढ़यः-उत्कर्षाः, असह्यता इत्यर्थः, यासां ता धर्मोमयः,-खेदधाराः, अतिगाढं अत्यधिकं, न उद्धेजयन्ति दुःखाकुर्वन्ति [फ] । तत् तस्माद्धेतोः, तावदिति वाक्यालङ्कारे, कियन्तमपि अल्पमपि, अध्वानं मार्ग, गच्छामि लङ्घयामि । पश्चात् कियत्कालानन्तरं, वासरे दिवसे, कठोरतां आतपतीव्रताम् , उपेयुषि प्राप्तवति सति, कस्मिंश्चित्, प्रच्छायपादपे प्रच्छाये-प्रकृष्टा छाया-अनातपो यस्य तादृशे, पादपे-वृक्षे, तस्याधस्तादित्यर्थः, वा अथवा, सरसि कासारे, वा अथवा, शैलप्रस्रवणे पर्वतनिझरे, वा अथवा, गिरिनदीस्रोतसि पर्वतीयनदीप्रवाहे, वा अथवा, तापसाश्रमपदे तपखिनामाश्रमस्थाने, विश्रम्य श्रममपनीय, विस्रब्धनिर्वर्तितदेवतार्चनविधिः विस्रब्धं-विश्वस्त यथा स्यात् तथा, निर्वर्तितः-सम्पादितः, देवतार्चनरूपः-देवपूजनरूपः, विधिः-कार्य येन तादृशः सन् , विदग्धकविप्रबन्धैरिव विदग्धानां-कुशलानां, कवीनां, प्रबन्धैः-काव्यैरिव, परिपाकमधुरैः परिपाके-परिपक्वतायां, मधुरैः, पक्षे परिपाके-रसास्वाददशायां, मधुरैः-मनोहरैः, विविधरसशालिभिः मधुराम्लाद्यनेकरसशोभिभिः, पक्षे शृङ्गारादिनानारसाभिव्यञ्जकैः, तरुफलैः वृक्षफलैः, आप्यायितवपुः आप्यायितं-परितोषितं, वपुः-शरीरं येन तादृशः, दिवसं दिनशेषम् , अवलोक्य दृष्ट्वा, अग्रतः अग्रे, स्तोकं किञ्चित् , प्रस्थास्ये प्रयास्यामि, वा अथवा, स्थास्यामि तदवसाने प्रस्थानादुपरस्यामि, [ब]। इति इत्थं, कृतगमननिश्चयः कृतप्रयाणावधारणः सन् , भूयः पुनः, लतावेश्मनि माधवीलतामन्दिरे, प्रविश्य निलीय, निबिडीकृतपरिधानः निबिडीकृत-सान्द्रीकृतं, दृढीकृतमित्यर्थः, परिधानम्-अन्तरीयवस्त्रं येन तादृशः; पुनः दृढावनद्धस्नान
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तिलकमञ्जरी कलापः प्रावृतोत्तरीयांशुकः कठोरपङ्केरुहानुकारिणा करेण किरणावलीजटालधारं मण्डलाग्रमादाय विकटपदपातकम्पितभूगोलया गत्या विडम्बयन्निव स्थूलोच्चयेन प्रस्थितं गजकलभम् [भ], अनवरतकर्णतालास्फालितकपोलभित्तिभिः सरभसमाहन्यमानप्रस्थानमङ्गलतूर्य इव वनकरिभिः, अनिलचलितशाखाग्रगलितसितकलिकैः शिरसि विक्षिप्यमाणाक्षतकण इव वनस्पतिभिः, अङ्गसङ्गसंवेल्लितलताखण्डोड्डीनैराबद्धमण्डलं ध्वनद्भिरारभ्यमाणब्रह्मघोष इव मधुकरैः, मानुषदर्शननिसर्गकातरैस्त्वरितपदमग्रतः पलायमानैरुपदिश्यमानमार्ग इव मल्लिकार्तः, तत्क्षणनिपीतार्णोभिरुत्तीर्णैः सरोवराद् विरलतृणस्तम्बकवलनार्थमनुवेलमवनमितमूर्धभिः पदे पदे सप्रदक्षिणं प्रणम्यमान इव प्राङ्मुखप्रस्थितैर्वनहरिणैः [म], प्रतिक्षणं च स्फुरता दक्षिणेन चक्षुषा भुज शिखरेण च द्विगुणीक्रियमाणगमनोत्साहः कणदशङ्कजलरङ्कुसंकुलेन केतकीकुसुमरेणुपटलपांशुलेन जल
टिप्पनकम्-स्थूलोच्चयेन मध्यमगत्या [भ] । मल्लिकाक्षाः-हंसाः । अर्णः-जलम् [म] ।
विरलकेशकलापः दृढं यथा स्यात् तथा, अवनद्धः-नियन्त्रितः, स्नानेन विरल:-विकीर्णः, केशकलापः-केशपुञ्जो येन तादृशः; पुनःप्रावृतोत्तरीयांशुकः प्रावृतम्-आच्छादितम् , उत्तरीयम् , अंशुकं-सूक्ष्मश्लक्ष्णवस्त्रं येन तादृशः; कठोरपङ्केरुहानुकारिणा कठोरं-कठिनं, यत् पङ्केरुह-कमलं, तस्य, अनुकारिणा-सदृशेन, करेण हस्तेन, किरणावलीजटालधारं किरणावल्यारश्मिजालेन, जटाला-व्याप्ता, धारा-अग्रभागो यस्य तादृशं, मण्डलाग्रं खड्गम् , आदाय गृहीत्वा, विकटपदपातकम्पितभूगोलया विकटेन-भीषणेन, पदपातेन-पादविक्षेपेण, कम्पितं-दोलितं, भूगोलं-भूमण्डलं यस्यां तादृश्या गल्या, स्थूलोच्चयेन गजमध्यमगत्या गण्डशैलेन वा, प्रस्थितं प्रयात, गजकलभं हस्तिशावकं, विडम्बयन्निव अनुकुर्वन्निव [भ] पुनः अनवरतकर्णतालास्फालितकपोलभित्तिभिः अनवरतं-निरन्तरं, कर्णतालैः-तालपत्राकृतिकर्णैः, आस्फालिताः-आहताः, कपोलभित्तयः-गण्डस्थलरूपा भित्तयो यैस्तादृशैः, वनकरिभिः वनहस्तिभिः, सरभसं सवेगं यथा स्यात् तथा, आहन्यमानप्रस्थानमङ्गलतूर्य इव आहन्यमानः-ताड्यमानः, प्रस्थानमङ्गलतूर्यः-प्रयाणकालिकमङ्गलजनकवाद्यविशेषो यस्य तादृश इव; पुनः अनिलचलितशाखाग्रगलितसितकलिकैः अनिल चलितायाः-पवनकम्पितायाः, शाखायाः, अग्रात्-शिखायाः; गलिताः-पतिताः, सितकलिकाः-श्वेतकुडालानि येषां तादृशैः, वनस्पतिभिः वृक्षः, शिरसि मस्तके, विक्षिप्यमाणाक्षतकण इव विक्षिप्यमाणाः-विकीर्यमाणाः, अक्षतकणाः-आर्द्रतण्डुलकणा यस्य तादृश इव; पुनः अङ्गसङ्गसंवेल्लितलताखण्डोडीनैः अङ्गसङ्गेन-शरीरावयवाश्लेषेण, संवेल्लितानां-कम्पितानां, लतानां, खण्डात्-वनात् , उड्डीनैः-उत्पतितः, पुनः आबद्धमण्डलं मण्डलीभवनपूर्वकं, बद्धपतिकमिति यावत् , यथा स्यात् तथा, ध्वनद्भिः गुञ्जद्भिः, मधुकरैः भ्रमरैः, आरभ्यमाणब्रह्मघोष इव आरभ्यमाण:-प्रवर्त्यमानः, ब्रह्मघोषः-ब्राह्मणकर्तृकाशीर्वाक्योच्चारणं यस्मै तादृश इव; पुनः
नुषदर्शननिसर्गकातरैः मानुषदर्शनात्-मनुष्यावलोकनात् , निसर्गतः-स्वभावतः, कातरः-भीरुभिः, पुनः त्वरितपदं त्वरितं-क्षिप्रं, पदं-चरणं यस्मिंस्तादृशं यथा स्यात् तथा, अग्रतः पुरतः, पलायमानः धावमानैः, मल्लिकाः मल्लिकावच्छुक्लम् , अक्षि-नेत्रं येषां तादृशैः, हंसविशेषैः, उपदिश्यमानमार्ग इव उपदिश्यमानः-विज्ञाप्यमानो मार्गों यस्य तादृश इव; पुनः तत्क्षणनिपीताोभिः तत्क्षणं-तत्कालं, निपीतं-नितरां पानकर्मीकृतम् , अर्णः-जलं यैस्तादृशैः, पुनः सरोवरात
i श्रेष्ठात् , अदृष्टपाराख्यात् , उत्तीर्णैः ऊर्ध्वमागतैः, पुनः विरलतृणस्तम्बकवलनार्थ विरलानाम्-असान्द्राणां, तृणस्तम्बानां-तृणकाण्डानां, कवलनार्थ- चर्वणार्थम् , अवनमितमूर्धभिः नम्रीकृतमस्तकैः, प्राङ्मुखप्रस्थितैः पूर्वमुखप्रयातैः, वनहरिणैः वन्यमृगैः, पदे पदे स्थाने स्थाने, सप्रदक्षिणं प्रदक्षिणक्रमेण, प्रणम्यमान इव अभिवाद्यमान इवेति सर्वत्रोत्प्रेक्षा [म]।
च पुनः, प्रतिक्षणं क्षणे क्षणे, स्फुरता सञ्चलता, दक्षिणेन चक्षुषा नेत्रेण, च पुनः भुजशिखरेण भुजोर्ध्वभागेन, द्विगुणीक्रियमाणगमनोत्साहः द्विगुणीक्रियमाण:-द्वैगुण्यमापाद्यमानः, गमनोत्साहः-प्रयाणोत्साहो यस्य तादृशः, पूर्ववत् प्रागिव, कौबेरी कुबेरस्वामिकाम् , उत्तरामित्यर्थः, दिशम् , उद्दिश्य लक्ष्यीकृत्य, प्रतस्थे प्रययौ इत्यग्रेणान्वेति, केन पथा ? प्राचा पूर्वेण, सरस्तीरेण प्रकृतसरोवरतटेन, कीदृशेन? कणदशङ्कजलरङ्कुशङ्कलेन कणदशकैः-अन्नकणदातृशङ्किभिः, जलरङ्कुभिः-जलीयमृगविशेषैः, संकुलेन-व्याप्तेन, केतकीकुसुमरेणुपटलपांशुलेन केतकीकुसुमानां-केतकीपुष्पाणां,
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टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता । पतत्पक्कतरुफलप्लूत्कृतिकाणचारुणा चक्रवाकचञ्चुगलितार्धजग्धलामञ्जकजटालेन वञ्जुलनिकुञ्जपुञ्जयमानमञ्जकुक्कुटक्कणितेन दूरपातदलिततालोच्छलद्रसच्छटापिच्छिलेन कल्लोलास्फालनस्फुटितशुक्तिमुक्तमौक्तिकप्रकरतारकितहषदा निषादधनुःकोटिकृष्णकन्दस्थपुटितोदेशेन दृश्यमानार्धचर्वितकशेरुग्रन्थिकथितकोलयूथप्रस्थानेन [य], लग्नमृगनाभिपरिमलशिलातलानुमितगन्धमृगविश्रान्तिना लवलीलतामन्दिरोदरनिषण्णरतिखिन्नकिन्नरमिथुनेन विचित्रपत्ररथपदमुद्राङ्कितसिकतिलभूतलेन चलितपवनान्दोलितवनराजिविवरक्षरद्विरलरविरोचिषा प्राचा सरस्तीरेण पूर्ववत् कौबेरी दिशमुद्दिश्य प्रतस्थे [र]।
क्रमाच्च शृण्वन् पुरश्चरणपातरवचकितानां तटशिलातलजुषां जलमानुषद्वन्द्वानामुदकझम्पाझाङ्कतानि, वीक्षमाणः समीरणोल्लसितकल्लोलशिखरशीकरानुसरणव्याकुलानि चातककुलानि, विलोकयन् शकुल
टिप्पनकम्-लामञ्जकं-मृणालम् । कुक्कुटः-पक्षिविशेषः । पिच्छिलेन विजिविलेन । कसेरु:-कन्दविशेषः, कोल:सूकरः [य]।
रेणुपटलैः-परागपुजैः, पांशुलेन-निर्मलेन, जलपतत्पक्वतरुफलप्लत्कृतिक्काणचारुणा जले पततां-गलतां, पक्कानांपरिणतानां, तरुफलानां-वृक्षफलानां, प्लूत्कृतिरूपैः क्वाणैः-ध्वनिभिः, चारुणा-मनोहरेण, चक्रवाकचञ्चुगलितार्धजग्धलामञ्जकजटालेन चक्रवाकाणां-कोकाख्यपक्षिविशेषाणां,चश्वाः-तुण्डात् ,गलितैः-पतितैः,अर्धजग्धैः-अर्धभक्षितैः, लामञ्जकैःवीरणाख्यतृणमूलैः, जटालेन-व्याप्तेन, पुनः वञ्जलनिकुञ्जपुञ्जयमानमञ्जकुक्कटक्वणितेन वजलनिकुञ्जषु-वेतसलतावनेषु, पुज्यमानं-राशीक्रियमाणं, मञ्ज-श्रवणप्रियं, कुकुटानां-चरणायुधानां, क्वणितं-कूजितं यस्मिंस्तादृशेन, यद्वा तत्र पुज्यमानैः, मञ्जुभिः-मनोहरैः, कुक्कुटैः, क्वणितेन-शब्दायितेन, पुनः दूरपातदलिततालोच्छलद्रसच्छटापिच्छिलेन दूरपातात्दूरस्खलनात, दलितेभ्यः-विशीर्णेभ्यः, तालेभ्यः-तालवृक्षफलेभ्यः, उच्छलन्तीभिः-प्रस्रवन्तीभिः, रसच्छटाभिः-रसधाराभिः, पिच्छिलेन-आर्द्रण, पुनः कल्लोलास्फालनस्फुटितशुक्तिमुक्तमौक्तिकप्रकरतारकितहषदा कल्लोलैः-महातरङ्गैः, आस्फालनेन-आघातेन, स्फुटितायाः-विकसितायाः, विदीर्णाया इत्यर्थः, शुक्तः, मुक्तैः-निर्गतैः, मौक्तिकप्रकरैः-मुक्तामणिगणैः, तारकिता-सञ्जाततारका, दृषत्-शिला यस्मिंस्तादृशेन, पुनः निषादधनुःकोटिकृष्णकन्दस्थपुटितोद्देशेन निषादस्यचाण्डालस्य, या धनुःकोटि:-धनुरग्रं, तद्वत् कृष्णैः-श्यामवर्णैः, कन्दैः-सस्यमूलैः, स्थपुटितः-आच्छादितः, उद्देशः-प्रदेशो यस्य तादृशेन, पुनः दृश्यमानार्धचर्वितकशेरुग्रन्थिकथितकोलयूथप्रस्थानेन दृश्यमानाभिः- दृष्टिगोचरीक्रियमाणाभिः, कशेरुग्रन्थिभिः-जलाशयनिकटप्ररूढतृणविशेषपर्वभिः, कथितं-सूचितं, कोलयूथस्य-वराहराशेः, प्रस्थान-प्रयाणं यस्मिंस्तादृशेन [य], पुनः लग्नमृगनाभिपरिमलशिलातलानुमितगन्धमृगविश्रान्तिना लमः-सम्पृक्तः, मृगनाभिपरिमल:कस्तूरिकाविमर्दोद्भूतगन्धो यस्मिंस्तादृशेन, शिलातलेन-पाषाणपृष्ठेन, अनुमिता-अनुमानगोचरीकृता, गन्धमृगाणां-नाभिगन्धाढ्यमृगाणां, विधान्तिः-श्रमापनयनं यस्मिंस्तादृशेन, पुनः लवलीलतामन्दिरोदरनिषण्णरतिखिन्नकिन्नरमिथुनेन लवलीलतामन्दिरोदरे-लवल्याख्यलताविशेषगृहमध्ये, निषण्णं-स्थितं, विश्रान्तमिति यावत् , रतिखिन्नं-रतिश्रान्तं, किन्नरमिथुनंदेवविशेषद्वन्द्वं यस्मिंस्तादृशेन, पुनः विचित्रपत्ररथपदमदाङितसिकतिलभतलेन विचित्रा रथानां-पतन्तं त्रायन्त इति पत्रं-पक्षः, तदेव रथः-यानं येषां तादृशानां पक्षिणामित्यर्थः, यद्वा विचित्राभिः पदमुद्राभिःपादाकृतिभिः, अङ्कितं-चिह्नितं, सिकतिलं-वालुकामयं, भूतलं-भूमियस्मिंस्तादृशेन, पुनः चलितपवनान्दोलितवनराजिविवरक्षरद्विरलरविरोचिषा चलितेन पवनेन-वायुना, आन्दोलितायाः-प्रकम्पितायाः, वनराजेः- वनसमूहस्य, विवरात्रन्ध्रात् , क्षरत्-उद्गच्छत् , रविरोचिः-सूर्यप्रकाशो यस्मिंस्तादृशेन [र।
च पुनः, कमात् शनैः, उत्तरं उदीच्य, तीरं तटम् , अधिरूढः प्राप्तः सन् , पुरस्तात् अग्रे, आरामं कृत्रिमकाननम् , अद्राक्षीत् दृष्टवानित्यग्रेणान्वेति; किं कुर्वन् ? पुरश्चरणपातरवचकितानां पुरः-अग्रे, चरणपातस्य-पादविक्षेपस्य, रवेन-शब्देन, चकिताना-सम्भ्रान्तानां, तटशिलातलजुषां तीरस्थशिलोपरिवर्तिनां, जलमानुषद्वन्द्वानां जलीयमनुष्यद्वन्द्वा
झाङ्कतानि जलोत्पतनध्वनिविशेषान्, शण्वन् श्रवणगोचरीकुर्वन् । पुनः समीरणोल्लसितकल्लोल
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तिलकमञ्जरी
जिघृक्षयाऽन्तरिक्षादवाक्चचुकृतजलप्रपातानि वञ्जुलजातानि बहुमन्यमानः परस्परवितीर्णतामरसकेसरकवलानि क्रौञ्चयुगलानि, श्लाघयन् विलासताण्डवमण्डितलतामण्डपतलानि प्रचलाकिमण्डलानि [ल ], सञ्चरद्विद्याधरीचरणालक्तकरक्तमुक्ता शिलातलमा सन्नाश्रमनिवासिनी भिस्तापसकुमारिकाभिरुपचितालवालवलयितमूलैस्तरुभिराहितानुत्तरशोभमुत्तरं तीरमधिरूढः, [व], पुरस्तान्नेदिष्ठम्, अधिष्ठानमिव
साक्षाद्वस
न्तस्य,
विस्मयावहमतिबहलतया, श्यामलतया च शरन्निशाकरभयाद् बहुलपक्षक्षपान्धकारमिव पिण्डीभूतम्, अम्बुगर्भभारेण तरुणाभ्रमण्डलमिव नभस्तलाद् भ्रष्टम्, एलालवङ्गनागपुन्नागसंकटम्, उत्कटोत्कलितकक्कोलकफलामोदम्, उद्गाढफलितमातुलिङ्गनारङ्गनालिकेरी जम्बीरसुभगम, आभोगभुग्नपनसम्, आपीनफल/पीडपीडितदाडिमीखण्डम्, उद्दण्डराजकदलीमन्दिरप्रभाकन्द लितान्धकारम्, आकारितमधुकरीविसरविसारि
टिप्पनकम् -- प्रचलाकी - मयूरः [ ल ] |
शिखरशीकरानुसरणव्याकुलानि समीरणेन वायुना, उल्लसितानाम् - उत्थितानां कल्लोलानां - बृहत्तरङ्गाणां, शिखरे - उपरि, ये शीकराः-जलकणाः, तदनुसरणव्याकुलानि - तदनुगमनव्यग्राणि, चातककुलानि चातकगणान्, वीक्षमाणः पश्यन्; पुनः शकुलजिघृक्षया शकुलानां - मत्स्यविशेषाणां जिघृक्षया - ग्रहणेच्छया, अन्तरिक्षात् आकाशात्, अवाक्चञ्चकृतजलप्रपातानि अवाची - अवनता, चक्षुः-तुण्डं येषां ते अवाक्चञ्चवः - चकाः, तैः कृतः जले प्रपातः - निपतनं येषु तादृशानि वञ्जलजातानि वेतसराशीन् विलोकयन् पश्यन् पुनः परस्परवितीर्णतामरस केसरकवलानि परस्परस्मै- अन्योन्यस्मै, वितीर्णः-दत्तः, तामरसकेसराणां - कमलकिञ्जल्कानां कवलः -ग्रासो यैस्तादृशानि क्रौञ्चयुगलानि क्रौञ्चानां - कराङ्गुलनाम्ना लोकप्रसिद्ध पक्षिविशेषाणां युगलानि - मिथुनानि, बहुमन्यमानः उत्कृष्टं मन्यमानः; पुनः विलासताण्डवमण्डितलतामण्डपतलानि विलासेन - लीलया, यत् ताण्डवं नृत्यं तेन मण्डिताः - अलङ्कृताः, लतामण्डपतलाः - लतागृहभूमयः यैस्तादृशानि, प्रचलाकिमण्डलानि प्रचलाकिनां प्रचलायते यः स प्रचलाकः- शिखा, तद्वतां मयूराणां, मण्डलानि - गणान्, श्लाघयन् प्रशंसन् [ल ]; तीरं कीदृशम् ? सञ्चरद्विद्याधरीचरणालक्तकरक्तमुक्ताशिलातलं सञ्चरन्तीनां विहरन्तीनां विद्याधरीणां विद्याधरस्त्रीणां चरणालक्तकैः - पादलाक्षाद्रवैः, रक्तं, मुक्ताशिलातलं मुक्तामणिरूपपाषाणो यस्मिंस्तादृशं पुनः आसन्नाश्रमनिवासिनीभिः सन्निहिताश्रमनिवासिनीभिः, तापसकुमारिकाभिः मुनिकन्यकाभिः उपचितालवालवलयित - मूलैः उपचितैः- वर्धितैः, आलवालै:- मूलस्थजलाधारैः, वलयितं - वेष्टितं मूलं येषां तादृशैः तरुभिः वृक्षैः, आहितानुत्तरशोभम् ; आहिता-उत्पादिता, अनुत्तरा - अत्युत्कृष्टा शोभा यस्य तादृशम् [ व ]; कीदृशमारामम् ? नेदिष्ठं अत्यन्तनिकटम् ; पुनः वसन्तस्य ऋतुराजस्य, साक्षात् प्रत्यक्षम्, अधिष्ठानमिव आधारमिव, पुनः अतिबहलतया अतिविस्तारितया, विस्मयावहं आश्चर्यजनकम्; च पुनः, श्यामलतया कृष्णवर्णतया, शरन्निशाकरभयात् शरच्चन्द्रकर्तृका पहरणभयात्, पिण्डीभूतं पुञ्जीभूतं, बहुलपक्षक्षपान्धकारमिव कृष्णपक्षनिशान्धकारमिवः पुनः अम्बुगर्भभारेण जलपूर्णोदर गौरवेण नभस्तलात् गगनतलाद्, भ्रष्टं अधः पतितं, तरुणाभ्रमण्डलमिव परिणतमेघमण्डलमिव; पुनः एलालवङ्गनागपुन्नागसंकटं एलादिलतासंकीर्णम्; पुनः उत्कटोत्कलित कक्कोलकफलामोदं उत्कटः - अतिमात्रः, उत्कलितानां - कोर कितानां, ककोलकफलानां - कक्कोलकाख्यवृक्षविशेषफलानाम्, आमोदः - सौगन्ध्यं यस्मिंस्तादृशम् ; पुनः उद्गाढफलितमातुलिङ्गनारङ्गनालिकेरी जम्बीरसुभगं उद्गाढफलितैः - अत्यन्तफलितैः, मातुलिङ्गादिजम्बीरान्तवृक्षैः सुभगं - मनोहरम् ; पुनः आभोगभुनपनसं आभोगेन विस्तारेण, भुग्नाः - अवनताः, पनसाः - 'कटहल 'शब्देन लोकप्रसिद्धवृक्षविशेषा यस्मिंस्तादृशम् ; पुनः आपीनफलापीडपीडितदाडिमीखण्डं आपीनानां - अतिस्थूलानां फलानाम्, आपीडै: - शिरोमाल्यैः, पीडितःअवनमितः, दाडिमीखण्ड : - दाडिमीवनं यस्मिंस्तादृशम् पुनः उद्दण्डराजकदलीमन्दिरप्रभाकन्दलितान्धकारं उद्दण्डानाम्—उन्नतानां, राजकदलीनां - कदलीविशेषाणां यानि मन्दिराणि - गृहाः, तत्प्रभाभिः - तत्कान्तिभिः, कन्दलिताः - अङ्कुरिताः, बद्धमूला इत्यर्थः, अन्धकारा यस्मिंस्तादृशम्; पुनः पुनः आकारितमधुकरीविसरविसारिपाटलामोदं आकारितः - आहूतः, आकृष्ट इति यावत् मधुकरी विसरः - भ्रमरीगणो येन तादृशः, विसारी- विस्तृतः, पाटलायाः - कृष्णकृन्तायाः,
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टिप्पनक - परागविवृतिसंवलिता ।
पाटलामोदम्, अपनिद्रनीपशा खिशिखर के काय मानमदमुखरशिखिकुलम्, असंख्यरिङ्खत्खञ्जरीटपक्षपुटविक्षिप्तसप्तछदस्तबकम्, उद्विकासरोधकुसुमपांसुधूसरितसारिकानिकरप्रतारिततरुणकपोतम्, अमलकलधौतशला कापञ्जरपिञ्जरप्रियङ्गमञ्जरीजालकान्तर्निलीनच कोरम्, आरब्ध केलिकलह कोकिलकुलाकुलितकलिकाञ्चितचूतमालम्, उन्मीलितमुकुलबकुलानोकह निकुञ्जकूजत्कपिञ्जलं [ श] क्वचिदातपस्पृहयालुकपिपोतसेव्यमान रक्ताशोकपल्लवव्यूह, कचिदालीढपिप्पलीफलकलकण्ठकुहर कुह कुहा यमानदात्यूहं कचित् कृष्णागुरुच्छायानिषण्णरोमन्थायमानचमरमिथुनं, कचिदाकर्ण्यमानग्रन्थिपर्णकग्रासिकस्तूरिकाकुरङ्गदशनबुर्बुरस्वनं [ष], बहुलशो गन्धर्वबालिकावकृष्टस्फुटिततरुवल्कलोद्गीर्णघनसारम्, अनेकशो गुह्यकाभिसारिकासेवित
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टिप्पनकम् - खञ्जरीट:- चटकविशेषः [श ] | आलीढः - आस्वादितः । दात्यूहः - जलपक्षी [ प ] |
आमोदः-उत्कटगन्धो यस्मिंस्तादृशम् ; पुनः अपनिद्रनीपशाखिशिखर के कायमानमदमुख र शिखि कुलं अपनिद्राणां - अपगता निद्रा-संकोचो येषां तादृशानां, विकसितानामित्यर्थः, नीपशाखिनां - कदम्बवृक्षाणां शिखरेषु - ऊर्ध्वभागेषु, केकायमानंकेकाख्यवाणीं व्याहरत् मदमुखरं - मदेन-हर्षेण गर्वेण वा मुखरं- वाचालं, शिखिकुलं- मयूरमण्डलं यस्मिंस्तादृशम् ; पुनः असंख्यरिङ्खत्खञ्जरीटपक्षपुटविक्षिप्त सप्तच्छद स्तबकं असंख्यैः- संख्यारहितैः, रिङ्खद्भिः - गच्छद्भिः, उड्डीयमानैरित्यर्थः, खञ्जरीटैः-खञ्जनाख्यपक्षिविशेषैः, पक्षपुटाभ्यां पुढाकारपक्षाभ्यां विक्षिप्ताः परितः पातिताः, सप्तच्छदस्तबकाः - सप्तच्छदाख्यवृक्षसम्बन्धिपुष्पगुच्छा यस्मिंस्तादृशम् ; पुनः उद्विकासरोधकुसुमपांसुधूसरितसारिकानिकर प्रतारिततरुणकपोतं उत्ऊर्ध्वं उत्कृष्टो वा विकासः - विकसनं येषां तादृशानां, रोध्रसम्बन्धिनां तदाख्यवृक्षविशेषसम्बन्धिनां कुसुमानां पुष्पाणां, पांसुभिःपरागैः, धूसरितानां किञ्चित्पीतसंवलितश्वेतवर्णीकृतानां, सारिकाणां पक्षिविशेषाणां, निकरेण - समूहेन, प्रतारिताः - स्वस्मिन कपोतीत्वभ्रान्त्युत्पादनया वञ्चिताः, तरुणाः -- युवानः, कपोताः - पारावता यस्मिंस्तादृशम् ; पुनः अमलकलधौतशलाकापञ्जरपिञ्जरप्रियङ्कुमञ्जरीजालकान्तर्निलीन चकोरं अमलस्य - उज्ज्वलस्य, कलधौतस्य- सुवर्णस्य, याः शलाका:-पत्रिकाः, तद्रचितं, यत् पञ्जरं-पक्षिबन्धनयन्त्रः, तद्रूपस्य, पिञ्जरस्य - पीतवर्णस्य, प्रियमञ्जरीजालकस्य - कडुमञ्जरीपुञ्जस्य, अन्तः अभ्यन्तरे, निलीनाः, चकोराः - पक्षिविशेषा यस्मिंस्तादृशम् ; पुनः आरब्धकेलिकलहको किलकुलाकुलितकलिकाञ्चितचूतमालं आरब्धः- प्रवर्तितः, केलिकलहः - क्रीडाकलहो यैस्तादृशैः, कोकिलकुलैः - कोकिलकलापैः, आकुलता - व्याप्त कलिकाञ्चिता- कोर कविशिष्टा, चूतमाला आम्रपङ्क्तिः-यस्मिंस्तादृशम् ; पुनः उन्मीलितमुकुलबकुलानोकहनिकुञ्जकूजत्कपिञ्जलं उन्मीलितः - आविर्भूतः, मुकुलः - किश्चिद्विकासोन्मुखकलिका येषां तादृशानां, बकुलानोकहानां - बकुलाख्यपुष्पवृक्षविशेषाणां, निकुञ्जे – कानने, कूजन्तः - गुञ्जन्तः, कपिञ्जलाः - पक्षिविशेषा यस्मिंस्तादृशम् [श ]; पुनः क्वचित् कस्मिंश्चित् स्थळे, आतपस्पृहयालुकपिपोत सेव्यमान रक्ताशोकपल्लवव्यूहं आतपस्पृहयालुभिः - सूर्यारुणकिरणाकाङ्क्षिभिः, कपिपोतैः-वानरशावकैः सेव्यमानः - आश्रीयमाणः, रक्ताशोकस्य - रक्तवर्णाशोकस्य, पह्रवव्यूहः- नूतन दलराशिर्यस्मिंस्तादृशम् ; पुनः क्वचित् कस्मिंश्चिद्भागे, आलीढपिप्पलीफल कलकण्ठकुहर कुह कुहायमान दात्यूहं आलीढं- आस्खादितं, पिप्पल्याः - औषधिविशेषस्य, फलं येन तादृशस्य, कलस्य - अव्यक्तमधुरस्य, कण्ठस्य, कुहरेण - विवरेण, कुहकुहायमानाःकुहकुहेति शब्दायमानाः, दात्यूहाः - पक्षिभेदा यस्मिंस्तादृशम् ; पुनः क्वचित् कस्मिंश्चित् स्थाने, कृष्णागुरुच्छायानिषण्णरोमन्थायमानचमरमिथुनं कृष्णागुरोः - कालागुरुवृक्षस्य, छायायां, निषण्णानि - उपविष्टानि, रोमन्थायमानानि - रोमन्थंचर्वितस्याकृष्य पुनश्चर्वणं, वर्तयन्ति - सम्पादयन्ति, चमरमिथुनानि - चमरो नाम- मृगविशेषः, तस्य मिथुनानि - द्वन्द्वानि यस्मिंस्तादृशम् ; पुनः क्वचित् कुत्रचित्, आकर्ण्यमानग्रन्थिपर्णकग्रासिकस्तूरिकाकुरङ्गदशनबुर्बुरस्वनं आकर्ण्यमानाःश्रूयमाणाः, ग्रन्थिपर्णकग्रासिनां - ग्रन्थिपर्णाख्यतृणविशेषभक्षकाणां कस्तूरिकाकुरङ्गाणां - गन्धमृगाणां, दशनानां - दन्तानां, बुर्बुरस्वनाः-बुर्बुरेति ध्वनयो यस्मिंस्तादृशम् [ष]; पुनः बहुलशः बहुषु स्थलेषु, गन्धर्व बालिकावकृष्टस्फुटिततरुवल्कलोद्गीर्णघनसारं गन्धर्वबालिकाभिः - गन्धर्वाख्यदेवजातिविशेषकन्यकाभिः, अवकृष्टैः - आकृष्टैः, अत एव स्फुटितैः-विदीर्णैः, तरुवल्कलैः–वृक्षत्वग्भिः, उद्गीर्णाः- उद्भाविताः, घनसाराः - कर्पूरा यस्मिंस्तादृशम् ; पुनः अनेकशः अनेकस्थलेषु, गुह्यकाभि
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तिलकमञ्जरी नमेरुवीथिकान्धकारम् , असकृत् सिद्धसुन्दरीनिबद्धबालमन्दारद्रुमालवालं, सततमवतंसलालसभुजङ्गभामिनीभग्नसंतानकानेकप्रवालम् , [स] अन्तरान्तरा च विकचकाञ्चनारविन्दवनराजिनीभिर्मदनज्वरवेदनाविदूनविद्याधरीपरिभुक्तविविक्तोदरैः सान्द्रहरिचन्दनलतामन्दिरैः श्यामलीकृतपरिसरा भिरुपर्युपरिघटितस्फटिकशिलाश्रेणीतरङ्गिततीराभिर्नीरापसर्पणक्रमस्थितस्त्यानफेनराजिभिरिव पयस्यमानपयःपूरपूरिताभिः सरसीभिरुद्भासितम् [ह], अम्भोधिमथनमिव सुरभिपारिजातोद्गमसुभगमुत्सर्पितगरं च, त्र्यम्बकोत्तमाङ्गमिव पतत्रिमार्गाङ्कितमध्यमानीलनागलतावनद्धबालपूगं च, कामिनीकपोलतलमिव पत्रलतालीकृतच्छायमुद्य-मधूक
टिप्पनकम्-घनसारः-कर्पूरः [स] ।
सारिकासेवितनमेरुवीथिकान्धकारं गुह्यकाभिसारिकाभिः-गुह्यको नाम देवयोनिविशेषः, तत्सम्बन्धिनीभिः, अभिसारिकाभिः-जारगामिनीभिः प्रच्छन्ननायिकाभिः, सेवितः-आश्रितः, नमेरूणां-तदाख्यवृक्षविशेषाणां, वीथिकायाः-पतेः, अन्धकारो यस्मिंस्तादृशम् ; पुनः असकृत् अनेकवारम् , सिद्धसुन्दरीनिबद्धबालमन्दारद्रुमालवालं सिद्धसुन्दरीभिः-सिद्धपुरुषसुन्दरस्त्रीभिः, निबद्धाः--निर्मिताः, बालमन्दारद्रुमाणां-ह्रस्वमन्दाराख्यदेववृक्षाणाम् , आलवाला:-मूलस्थजलाधारा यस्मिंस्ताशम् ; पुनः सततं निरन्तरम् , अवतंसलालसभुजङ्गभामिनीभग्नसन्तानकानेकप्रवालम् अवतंसलालसाभिःआभरणाभिलाषिणीभिः, भुजङ्गभामिनीमिः-सर्पस्त्रीभिः, भग्नानि-त्रोटितानि, संतानकस्य-तदाख्यदेववृक्षस्य, अनेकानि-बहूनि, प्रवालानि-पल्लवा यस्मिंस्तादृशम् [स]च पुनः, अन्तरा अन्तरा मध्ये मध्ये, सरसीमिः विशालसरोभिः, उद्भासितं उद्दीपितम्, कीदृशीभिः ? विकचकाञ्चनारविन्दवनराजिनीभिः विकचानां-विकसिताना, काञ्चनारविन्दाना-सुवर्णकमलानां, वनैः, राजन्ते-शोभन्ते यास्तादृशीभिः, पुनः मदनज्वरवेदनाविदूनविद्याधरीपरिभुक्तविविक्तोदरैः मदनज्वरवेदनया-कामज्वरदुःखेन, विदूनाभिः-परितप्ताभिः, विद्याधरीभिः -विद्याधरनारीभिः, परिभुक्तं-सुरतसुखानुभवस्थानीकृतं, विविक्तं-निर्जनम्, उदरम्-अभ्यन्तरं येषां तादृशैः, सान्द्रहरिचन्दनलतामन्दिरैः निबिडहरिचन्दनाख्यदिव्यलतागृहैः, श्यामलीकृतपरिसराभिः श्यामलीकृताः-श्यामतामापादिताः, परिसराः-पर्यन्तभूमयो यासां तादृशीभिः, पुनः उपयुपरिघटितस्फटिकशिलाश्रेणीतरङ्गिततीराभिः उपर्युपरि-समीपोर्ध्वदेशे, घटितया-निविष्टया, स्फटिकशिलाश्रेण्यास्फटिकाख्यप्रस्तरपङ्कया, तरङ्गितानि-सञ्जाततरङ्गाणि; तीराणि यासां तादृशीभिः, अत एव नीरापसर्पणक्रमस्थितस्त्यानफेनराजिभिरिव नीरापसर्पणक्रमेण-जलापसारणप्रकारेण, स्थिता स्त्याना-संहता, फेनराशिः-फेनपुञ्जो यासु तादृशीभिरिवेत्युत्प्रेक्षा, पुनः पयस्यमानपयःपूरपूरिताभिः पयस्यमानानां-पयांसीव-दुग्धानीवाचरतां, पयसां-जलानां पूरैःप्रवाहैः, पूरिताभिः-पूर्तिमापादिताभिः [ह], पुनः कीदृशम् ? अम्भोधिमथनमिव समुद्रमन्थनमिव, सुरभिपारिजातोद्गमसुभगं सुरमेः-सुगन्धेः, पारिजातस्य-तदाख्यदेवतरोः, उद्गमेन-प्ररोहेण, यद्वा सुरभिभिः-सुगन्धिभिः, पारिजातोद्गमैःपारिजातकुसुमैः, पक्षे सुरभेः-कामधेनोः, पारिजातस्य-तदाख्यवृक्षस्य, उद्गमेन-निर्गमेन, सुभगं-मनोहरम् , च पुनः, उत्सर्पितगरम् उत्सर्पिण:-ऊर्ध्व गच्छन्तः, तगरा:-तगरजातीया वृक्षा यस्मिन् , पक्षे उत्सर्पितः-उद्धृतः-गरः-विषं यस्मात् तादृशम् ; पुनः त्र्यम्बकोत्तमाङ्गमिव त्रीणि अम्बकानि-नेत्राणि यस्यासौ त्र्यम्बकः शिवः, तस्य उत्तमाङ्ग-मस्तकमिव, पतन्त्रिमार्गाडितमध्यं पतत्रिणां-पक्षिणा, मार्गेण, अङ्कितं-चिह्नितं, मध्य-मध्यप्रदेशो यस्य तादृशम् , पक्षे पतन्त्या त्रिमार्गया-त्रयः स्वर्ग-मर्त्यपातालरूपमार्गा यस्यास्तया, गङ्गयेत्यर्थः, तदुक्तं महाभारते-"क्षितौ तारयते मान् नागांस्तारयतेऽप्यधः । दिवि तारयते देवांस्तेन त्रिपथगा स्मृता॥” इति, अङ्कितं मध्यं यस्य तादृशम .च पुनः,आनीलनागलतावनद्धबा नीलया नीलवर्णया, नागलतया-नागाख्यलताविशेषेण, पक्षे लताकारेण नागेन-सर्पण, अवनद्धः-आबद्धः, बालपूगः-बालक्रमुकवृक्षः, पक्षे केशकलापो यस्मिन् पक्षे यस्य तादृशम् ; पुनः कामिनीकपोलतलमिव कामिन्याः-नायिकायाः, कपोलतलंगण्डस्थलम् , इव, पत्रलतालीकृतच्छायं पत्रलाभिः-पत्रपूर्णाभिः, तालीभिः-तदाख्यवृक्षः, पक्षे पत्रलतानां तदाकाररचनाविशेषाणाम् , आल्या-पतया, यद्वा पत्रलतया-पत्राकाररचनया आल्या-सख्या, कृता, छाया-अनातपः, पक्ष शोभा यस्मिंस्तादृशम् , च पुनः, उद्यन्मधूकधवलम् उद्यद्भिः-प्रकटीभवद्भिः, मधूकैः-'महुडा'पदेन लोकविश्रुतवृक्षफलैः, पक्षे उद्यन्मधूकवत्
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टिप्पनक - परागविवृतिसंवलिता ।
धवलं च, आपानगोष्टीबन्धमिव मधुकरका मोदितमामत्तनानामधुपमण्डलीमुखरितं च, कश्मीरमण्डलमिव विकसत्कुङ्कुमकच्छकमनीयमनेककीरप्रामानुगतं च, वातरोगोपहतमिव बहुगुल्मसंकुलोदरं श्यामलताक्रान्तं च, सर इवोत्पलाशमल्लिकाक्ष मुरुतरलह रिसेवितं च [ क्ष ], पादपैरपि पवनकम्प्र शिखरैर्विस्मयचलितमौलिभिरिव निर्वर्ण्यमानं, लताभिरपि विकसितस्तबकाभिः कौतुकोत्तानलोचनाभिरिव विलोक्यमानं, विटपैरपि विततपल्लवान्तरितरविकर प्रवेशैरीर्ष्याप्रसारितकरसह सैरिव त्रियमाणम्, ऋतुभिरपि दर्शितनिज निजद्रुमकुसुम
टिप्पनकम्-अम्भोधिमथनमिव सुरभिपारिजातोद्गमसुभगमुत्सर्पितगरं च एकत्र सुरभिगावी - पारिजातवृक्षोत्थानचारु उद्गतविषं च अन्यत्र सुगन्धिपारिजातकुसुमशोभनम् उद्गच्छत्तगरवृक्षं च । त्र्यम्बकोत्तमाङ्गमिव पतत्रिमार्गाङ्कितमध्यमानीलना गलतावनद्धबालपूगं च एकत्र पतङ्गाचिह्नितमध्यं कृष्णफणिलताबद्ध केशसंघातं च, अन्यत्र पक्षिपथाङ्कितमध्यम्, आनीलनागवल्लीश्लिष्टबालपूगवृक्षं च । कामिनीकपोलतलमिव पत्रलतालीकृतच्छायमुद्यन्मधूकधवलं च एकत्र पत्र वेल्या सखीविहितशोभं विकसन्मधूककुसुमगौरं च, अन्यत्र पर्णवत्तालीतरुकृता तपाभावम्, उद्गच्छन्मधूकावदातम् । आपानगोष्ठीबन्धमिव मधुकरकामोदितमामत्तमधुपमण्डली मुखरितं च एकत्र मद्यवार्धटिकावत्, ईषत्क्षीव मद्यपगोष्टीप्राप्त मुखरत्वं च, अन्यत्र भ्रमरानाङ्गमङ्ग (?) [ नङ्ग–भङ्ग ] रुतं क्षीवभ्रमरसंघातमुखरितं च। कश्मीरमण्डलमिव विकसत्कुङ्कुमकच्छ कमनीयमनेक की रग्रामानुगतं च एकत्र विकासि कुङ्कुमगहनप्रदेशरमणीयं कीराख्यजनसंबन्धिसंवसथयुक्तं च, अन्यत्राप्येकं विशेषणं समानार्थं, नानाशुकसंघातसंयुक्तं च । वातरोगोपहतमिव बहुगुल्मसंकुलोदरं श्यामलताक्रान्तं च एकत्र लतागुल्मरोगव्याप्तजठरं श्यामत्वव्याप्तं च, अन्यत्र अनेकलता संघाताकीर्णमध्यं प्रियङ्गुलताव्याप्तं चम्पकादिलताक्रान्तं च वा । सर इवोत्पलाशमल्लिकाक्षमुरुतरलहरिसेवितं च एकत्र प्रबलमांसाशिहंसम् विस्तीर्णचञ्चलमण्डूकसेवितं च, विस्तीर्णतरजललहरियुक्तं च वा, अन्यत्र उद्गतत्रिपर्णविचकिलबिभीतकवृक्षं महाचञ्चलवानरसेवितं च [क्ष ] ।
3
धवलं- गौरम् ; पुनः आपानगोष्ठीबन्धमिव सुरापानसमासन्निवेशमिव, मधुकर कामोदितं मधुभिः - मधूकैः, करकैः - दाडिमैश्व पक्षे मधुकरकैः - मद्यपात्रविशेषैः, आमोदितं - गन्धाढ्यीकृतम्, यद्वा मधुकराणां भ्रमराणां, कामोदितं - स्वेच्छया ध्वनिर्यत्र तादृशम्, च पुनः, आमन्तनानामधुपमण्डलीमुखरितम् आमत्तानाम् - उन्मत्तानां नानामधुपानां - नानाभ्रमराणां, पक्षे नानामद्यपायिनां मण्डल्या-समूहेन, मुखरितं - वाचालितम्, पुनः कश्मीरमण्डलमिव कश्मीराख्य प्रदेशमिव, विकसत्कुङ्कुमकच्छकमनीयं विकसन्ति- फुल्लन्ति, कुङ्कुमानि तदाख्यप्रसिद्धौषधयो यस्मिंस्तादृशेन, कच्छेन - जलप्रायप्रदेशेन, कमनीयं रमणीयम्, च पुनः अनेककीरग्रामानुगतम् अनेकेषां-बहूनां, कीराणां - शुकानां, लतानां वा यो ग्रामः समूहः तेन अनुगतम्अनुबद्धम्, पक्षे अनेकैः - बहुभिः, कीराणां - कीराख्यजनानां, ग्रामैः - संवसथैः, अनुगतं सहितम्; पुनः वातरोगोपहतमिव वातव्याधिकवलितमिव, बहुगुल्म संकुलोदरम् बहुभिः, गुल्मैः - अप्रकाण्डतरुभिः संकुलं व्याप्तम्, उदरं - मध्यं यस्य, पक्षे गुल्मेन - वातगुल्माख्येन व्याधिना, संकुलम्, उदरं जठरं यस्य तादृशम्, च पुनः, श्यामलताक्रान्तं श्यामलताभिः -श्यामाख्याभिर्लताभिः, पक्षे श्यामलतया - श्यामवर्णेन, आक्रान्तं - व्याप्तम् पुनः सर इव कासारमिव, उत्पलाशमल्लिकाक्षम् उत् - ऊर्ध्वं, पलाशानि - पत्राणि यासां तादृश्यः, मल्लिकाः - पुष्पविशेषलताः, अक्षाः - बिभीतकवृक्षाः सूक्ष्मैलका वृक्षा वा यस्मिंस्तादृशम्, यद्वा उतू - उद्गताः, पलाशाः - किंशुकवृक्षाः, मल्लिकाः - निरुक्तलताः, अक्षाः - बिभीतका यस्मिंस्तादृशम्, पक्षे उत्पलानि - कमलानि, अश्नन्ति - भुञ्जन्ते ये ते उत्पलाशाः, यद्वा उत्- प्राबल्येन पलाशं -मांस ये अश्नन्ति तादृशा मल्लिकाक्षा: हंसविशेषा यस्मिंस्तादृशम्, च पुनः, उरुतरलहरिसेवितम् उरुभिः - बहुभिः, तरलैः - चञ्चलैः, हरिभिः - मर्कटैः, पक्षे उरुतराभिः - बहुतराभिः, लहरिभिः-महातरङ्गैः सेवितं - व्याप्तम् [क्ष ] । पुनः पवनकम्प्रशिखरैः पवनेन - वायुना, कम्प्रं- कम्पनशीलं, शिखरं-शिरोभागो येषां तादृशैः पादपैरपि वृक्षैरपि, विस्मयचलितमौलिभिरिव विस्मयेन - सौन्दर्यदर्शनाश्चर्येण, चलितःकम्पितः, मौलिः - मस्तकं येषां तादृशैरिव, निर्वर्ण्यमानं निरीक्ष्यमाणम् ; पुनः विकसितस्तबकाभिः पुष्पितगुच्छाभिः, लताभिरपि कौतुकोत्तानलोचनाभिरिव कौतुकेन - दिदृक्षारसेन, उत्ताने - उन्मीलिते, लोचने - नयने यासां तादृशीभिरिव, विलोक्यमानं दृश्यमानम् ; पुनः विततपल्लवान्तरितरविकर प्रवेशैः विततैः - विस्तृतैः, पलवैः - नूतनदलैः, अन्तरितः
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तिलकमञ्जरी
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समृद्धिभिरन्योन्यबद्धस्पर्धेरिवाध्युष्यमाणम्, एकमन्दिरमिव सकलवनदेवतानां, नन्दनमिव नन्दनस्य, तिलकमिव त्रिलोक्याः, रतिगृहमिव रते:, आयुधागारमिव कुसुमायुधस्य, राजधानीनगरमिव मधोः समन्ततोऽर्धगव्यूतिमात्र परिणाहमशेषतः क्रकचक्षतकरिदन्तक्षोदपाण्डुरतरेण क्षोदीयसा मौक्तिकचूर्णवालुकाप्रकरेण समसुकुमारभूतलमतिबहुलस्निग्धपादपाभिराममाराममद्राक्षीत् [ ज्ञ ] ।
तस्य चारामस्य रमणीयतानिधानं, नानाविधाभिधानत रुसहस्र संबाधमप्यन्धकारनिर्भरतया तमालमयमिवोपलक्ष्यमाणम्, अतिशीतलतया च कन्दरमित्र हिमाद्रेः, उदरमिव क्षीरोदस्य, हृदयमिव हेमन्तस्य, शरीरान्तरमिव शिशिरानिलस्य, तुषार गिरिजन्मभूमिभूतमभ्यन्तरमवततार [ अ ] ।
अवतीर्णश्च तस्मिंस्तापमतापमातपमनातपं तपनमतपनं दिवसमदिवसं ग्रीष्ममग्रीष्मं कालमकालं तुषारपातमतुषारपातं त्रिभुवनमत्रिभुवनं सर्गक्रमममंस्त [ आ ] | समचिन्तयच्च —
टिप्पनकम्-अध्युप्यमाणम् - आश्रीयमाणम् । क्रकचं - करपत्रम्, क्षोदीयसा अतिसूक्ष्मेण [ज्ञ ] ॥
व्यवहितः, रविकरप्रवेशः–सूर्यकिरणप्रवेशो यैस्तादृशैः, विटपैरपि शाखाभिरपि, ईर्ष्याप्रसारितकरसहस्रैरिव ईर्ष्यया-परस्परस्पर्धया, प्रसारितं विस्तारितं, करसहस्रं - हस्तसहस्रं यैस्तादृशैरिव, त्रियमाणं स्वीक्रियमाणम् : पुनः दर्शितनिजनिज द्रुमकुसुमसमृद्धिभिः दर्शिता - आविष्कृता, निजनिजद्रुमाणां - वस्वोचितवृक्षाणां, कुसुमसमृद्धिः - पुष्पसम्पत्तिर्यैस्तादृशैः, ऋतुभिरपि ऋतुषट्केनापि, अन्योन्यबद्ध स्पर्धेरिव परस्परकृतेष्यैरिव, अध्युष्यमाणम् अधिष्ठीयमानम्; पुनः सकलवनदेवतानाम् अशेषवनाधिष्ठातृदेवानाम्, एकमन्दिरमिव प्रधानभवनमिव; पुनः नन्दनस्य इन्द्रोपवनस्यापि नन्दनमिव अभिनन्दकमिव, ततोऽप्युत्कृष्टमित्यर्थः ; पुनः रतेः कामदेवपत्न्याः, रतिगृहमिव रमणमन्दिरमिवः पुनः कुसुमायुधस्य पुष्पवाणस्य, कामदेवस्येति यावत्, आयुधागार मित्र बाणगृहमिव; पुनः मधोः वसन्तस्य, राजधानीनगरमिव राजधानीरूपं नगरमिव; पुनः समन्ततः चतुर्दिक्षु, अर्धगव्यूतिमात्रपरिणाहं गव्यूतिर्नाम क्रोशयुगं तदर्धः - कोशः, तत्परिमाणः, परिणाहः-विस्तारो यस्य तादृशम् ; पुनः क्रकचक्षतकरिदन्तक्षोदपाण्डुरतरेण क्रकचेन करण्त्रेण, क्षतस्य - विदीर्णस्य, करिदन्तस्य - हस्तिदन्तस्य यः क्षोदः - चूर्णं, तद्वत् पाण्डुरतरेण- पीतसंवलितातिश्वेतवर्णेन, क्षोदीयसा अतिसूक्ष्मेण, मौक्तिकचूर्णवालुकाप्रकरेण मुक्तामणिचूर्णरूपसिकतासमूहेन, अशेषतः सर्वतः, समसुकुमारभूतलं समं - निम्नोन्नतभावरहितं, सुकुमारं - मृदुलं च भूतलं - पृथ्वीतलं यस्मिंस्तादृशम् ; पुनः अतिबहलस्निग्धपादपाभिरामम् अतिबलैःअत्यधिकैः, स्निग्धैः - सरसैः पादपैः- वृक्षैः, अभिरामं - मनोहरम् [ज्ञ ] 1
च पुनः, तस्य प्रकृतस्य, आरामस्य उपवनस्य, अभ्यन्तरम् मध्यम्, अवततार प्रविष्टवान् कीदृशम् ? रमणीयतानिधानं रमणीयतायाः - सौन्दर्यस्य, निधानं - निधिभूतम्, पुनः नानाविधाभिधानत रुसहस्त्रसंबाधमपि नानाविधानि-बहुविधानि, अभिधानानि - नामानि यस्य तादृशेन तरुसहस्रेण - वृक्षसहस्रेण, संबाधमपि संकीर्णमपि, अन्धकारनिर्भरतया अन्धकारातिशयेन, तमालमयमिव तमालाख्यवृक्षप्रायमिव उपलक्ष्यमाणं प्रतीयमानम् च पुनः, अतिशीतलतया अत्यन्तशैत्येन, हिमाद्रेः हिमाचलस्य, कन्दरमिव गुहारूपमिव, कन्दमिव इति पाठे मूलभूतमिव, पुनः क्षीरोदस्य क्षीरसागरस्य, उदरमिव मध्यमिव पुनः हेमन्तस्य तदाख्यशीतऋतोः, हृदयमिव अभ्यन्तरमिव, पुनः शिशिरानिलस्य शिशिर ऋतुसम्बन्धिवायोः, शरीरान्तरमिव रूपान्तरमिव, पुनः तुषारगिरिजन्मभूमिभूतं तुषारगिरेःहिमालयस्य, जन्मभूमिभूतं - जन्मक्षेत्ररूपम् [ अ ] ।
च पुनः तस्मिन् निरुक्तोपवनाभ्यन्तरे, अवतीर्णः प्रविष्टः सन् तापम्, अतापं तापभिन्नम्, पुनः आतपं सूर्यप्रकाशम्, अनातपम् आतपभिन्नम्, पुनः तपनं सूर्यम्; अतपनं तत्रान्तरितप्रकाशतया सूर्यभिन्नम्, पुनः दिवसं दिनम्, अदिवस दिनभिन्नम्, ग्रीष्मम् उष्णम्, अग्रीष्मं ग्रीष्मभिन्नम् कालं समयम्, अकालम् असमयम्, पुनः तुषारपातं हिमस्यन्दम्, अतुषारपातम् तुषारपातभिन्नम् त्रिभुवनं स्वर्गमर्त्यपातालाख्यभुवनत्रयम्, अत्रिभुवनं त्रिभुवनभिन्नं, सर्गक्रमं विपरीतसृष्टिप्रकारम्, अमंस्त मेने च पुनः, समचिन्तयत् समालोचितवान् किमित्याह-मन्ये
१२ तिलक०
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टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता । “मन्ये दक्षिणमारुतेन विदितं सेव्यत्वमस्येदृशं,
तेनोत्सृज्य वनानि चन्दनगिरेरुद्दामशैत्यान्यपि । याम्याशाविरहोल्लसहवथुना नाथेन धाम्नां समं,
संजाते शिशिरात्यये धनपतेराशामुखं सर्पति ॥ [इ] व्यक्तं जगत्यदृष्टवशाद् विशालगुणसंपद्भिरप्यसुलभाः स्वल्पगुणैरपि सुप्रापाः प्रसिद्धयो भवन्ति, येनात्र निरन्तरकदलीकलापान्तरितदिङ्मुखे मदमुखरासंख्यशिखिकुलोद्भासिन्यनन्तलतान्तकोटिसंकटैकैकवृक्षविटपे सत्यपि कानने तदेकरम्भाक्रान्तमन्तभ्रान्तसप्तमात्रचित्रशिखण्डि' कतिपयाभिरेव सुमनसां कोटिभिराकीर्णममरोद्यानमावर्ण्यते [ई] । किमिदमसमीक्षितकारिणो जनस्य जाड्यविलसितम् , उत निरङ्कुशगिरां कवीनामलीका भिनिवेशः, आहोस्वित् तस्यैव दूरदेशावस्थानसामर्थ्य, सर्वथा स्वर्णभूमिसंसर्गस्यैवायं प्रभावः; प्रथितगुणस्थान स्थितस्यासतोऽपि हि माहात्म्यमाविर्भवति, पद्मिनीदलोत्सङ्गसङ्गी जलबिन्दुरपि मुक्ताफल
टिप्पनकम्-लतान्तः-पुष्पम् , एकरम्भाक्रान्तं रम्भा-अप्सराः, अन्यत्र कदल्यः, अन्तभ्रान्तसप्तमात्रचित्रशिखण्डि एकत्र चित्रशिखण्डिनः-सप्तर्षयः, अन्यत्र नानामयूराः, सुमनसां कोटिभिराकीर्णम् एकत्र सुमनसांदेवानाम् , अन्यत्र पुष्पाणाम् [ई] ।
उत्प्रेक्षे, यत् , दक्षिणमारुतेन मलयपवनेन, अस्य प्रत्यक्षभूतारामस्य, ईदृशम् एवंविधम् , अनुभूयमानमित्यर्थः, सेव्यत्वं सेवा, विदितं ज्ञातम् , तेन अनुभूयमानसेव्यत्वेन, चन्दनगिरेः मलयपर्वतस्य, उद्दामशैत्यान्यपि उद्दाम-उत्कृष्टं, शैत्यं येषु तादृशान्यपि, वनानि चन्दनकाननानि, उत्सृज्य विहाय, याम्याशाविरहोल्लसद्दवथुना याम्याशायाः-यमखामिकदिशः, दक्षिणस्या दिश इत्यर्थः, विरहेण-विश्लेषेण, उल्लसन्-उद्भवन् , दवथुः- उपतापो यस्य तादृशेन, धाम्नां रश्मिनां, नाथेन स्वामिना, सूर्येणेत्यर्थः, समं सह, शिशिरात्यये शिशिरऋतुसमाप्ती, सआते निष्पन्ने सति, धनपतेः कुबेरस्य, आशामखं दिगन्तं, सर्पति गच्छति, दक्षिणमारुत इति शेषः [इ]।
व्यक्तं सर्वप्रसिद्ध, यत् जगति लोके, विशालगुणसम्पद्भिरपि विशाला-विपुला, गुणसम्पत्-गुणसम्पत्तिर्येषां तादृशैरपि, जनैः, असुलभाः असुप्रापाः, प्रसिद्धयः प्रख्यातयः, अदृष्टवशात् पुण्यवशात् , स्वल्पगुणैरपि अत्यल्पगुणैरपि, जनैः, सुप्रापाः सुलभाः, भवन्ति सम्पद्यन्ते। येन यस्माद्धेतोः, निरन्तरकदलीकलापान्तरितदिङ्मुखे निरन्तरैः-अविच्छिन्नैः, कदलीकलापैः-कदलीपतिभिः, अन्तरितं-तिरोहितं, दिङ्मुखं-दिगन्तो येन तादृशे, पुनः मदमुखरासंख्यशिखिकुलोद्भासिनि मदमुखराणां-मदवाचालानाम्, असंख्यानां-संख्याशून्यानां, शिखिना-मयूराणां, कुलेनसमूहेन, उद्भासिनि-विराजिनि, पुनः अनन्तलतान्तकोटिसंकटकैकवृक्षविटपे अनन्ताभिः-असंख्येयामिः, लतान्तकोटिभिः-लतान्तानां-पुष्पाणां, कोटिभिः-कोटिसंख्यकैः, यद्वा लताप्रान्तभागः, संकट:-संकीर्णः, एकैकस्य एकैको वा वृक्षस्य विटपः-शाखा यस्मिंस्तादृशे, अत्र अस्मिन् , कानने बने, सत्यपि विद्यमानेऽपि, एकरम्भाक्रान्तं एकया-अद्वितीयया, रम्भया-कदल्या, पक्षे स्वर्वेश्यया, आकान्तम्-अधिष्ठितम्, पुनः अन्तर्धान्तसप्तमात्रचित्रशिखण्डि अन्तः-मध्ये, भ्रान्ताः-विचरिताः, सप्तमात्रा:-सप्तसंख्यका एव, चित्रशिखण्डिनः-नानामयूराः, पक्षे चित्रः, शिखण्ड:-चूडाविशेषो येषां तादृशा मरीच्यादयः सप्तर्षयो यस्मिंस्तादृशम् , पुनः कतिपयाभिरेव परिमिताभिरेव, सुमनसां पुष्पाणां, पक्षे देवानां, कोटिभिः कोटिसंख्याभिः, आकीर्ण व्याप्तं, तत् प्रसिद्धम् , अमरोद्यानम् अमराणां-देवानाम् , उद्यानम्-उपवनम् , आ-समन्तात् , वर्ण्यते प्रशस्यते [ई ] । असमीक्षितकारिणः अनालोच्य क्रियाशीलस्य, इदम् अवर्णनीयवर्णनं, जाड्य विलसितम् अविवेकविलासः, किम् ?; उत अथवा, ङ्कशगिरां निरङ्कुशाः-अनियन्त्रिताः, गिरः-वाचो येषां तादृशानां, कवीनाम्, अलीकाभिनिवेशः मिथ्याऽऽग्रहः; अ स्वित किं वा, तस्यैव अमरोद्यानस्यैव, दरदेशावस्थानसामर्थ्य दूरस्थानावस्थितिमाहात्म्यम् ; सर्वथा सर्वप्रकारेण, स्वर्णभूमिसंसर्गस्यैव सुवर्णमयभूम्यधिष्ठानस्यैव, अयं वर्ण्यमानः,प्रभावः महिमा,
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तिलकमञ्जरी द्युतिमालम्बते, मृगाङ्कबिम्बचुम्बी कलङ्कोऽप्यलङ्कारकरणिं धत्ते, कुरङ्गलोचनालोचनलब्धपदमञ्जनमपि मण्डनायते [उ ], इत्यादिसंकल्पजालसंकुलेन रसाकुलीभूतसकलेन्द्रियवृत्तिना तत्कालमन्यतामिवापन्नेनान्तरात्मना मदनमयमिव शृङ्गारमयमिव प्रीतिमयमिवानन्दमयमिव विलासमयमिव रम्यतामयमिवोत्सवमयमिव सकलजीवमाकलयन् , अनिलोद्भूतैः समन्ततः प्रचलितैरतिप्रबलतयाऽकालनीहारवृष्टिमिव दर्शयद्भिः कुसुमधूलिपटलैर्धवलीकृतविग्रहो वसन्त इव विग्रहवान् , इतस्ततः षट्चरणमालास्पर्धयेव धावन्त्या कुसुमनिर्भरद्रुमावकृष्टया दृष्टया कदीमानः [ऊ] । प्रतिलतादोलमुत्पद्यमानान्दोलनस्पृहः, प्रतिदीर्घिकमाविर्भवज्जलक्रीडाभिलाषः, प्रतितरुच्छायमुपजायमानविश्रामेच्छः, प्रतिपत्रमण्डपमुल्लसदिवसातिवाहनवाञ्छः, स्वच्छन्दनिपतितानेकतरुकुसुमप्रकरमेदुरितमेदिनीपृष्ठचारुणा चरणपातमझुशिञ्जानसुकुमारसिकतेन तस्योद्यानस्य मध्यभागेन कतिपयशरक्षेपमात्रमध्वानमतिक्रान्तः [ऋ] । कदाचिददृष्टपूर्वमितरतरुविलक्षणाकार
टिप्पनकम्-असतोऽपि असाधोरपि । करणिः-सादृश्यम् [उ] ।
मेवाचरति जाउयाति
हि यतः, प्रथितगुणस्थानस्थितस्य प्रथितः-प्रख्यातो गुणो यस्य तादृशे, स्थाने स्थितस्य, असतोऽपि महत्त्वशून्यस्यापि, माहात्म्यं महिमा, आविर्भवति प्रकाशते, तथाहि-पद्मिनीदलोत्सङ्गसङ्गी कमलिनीपत्रमध्यवर्ती, जलबिन्दुरपि जलकणोऽपि, मुक्ताफलद्युति मुक्तामणिच्छविम् , आलम्बते प्राप्नोति; पुनः मृगाङ्कबिम्बचुम्बी चन्द्रमण्डलसंसर्गी, कलङ्कोऽपि लाञ्छनमपि, अलङ्कारकराणं अलङ्कारक्रियां, धत्ते पुष्णाति; पुनः कुरङ्गलोचनालोचनलब्धपदं कुरङ्गलोचनानां-मृगाक्षीणां, लोचनयोः-नयनयोः, लब्ध-प्राप्त, पद-स्थानं येन तादृशम् , अञ्जनमपि, मण्डनायते अलङ्करण
इत्यादिसंकल्पजालसंकुलेन इत्यादिना, संकल्पजालेन-आलोचनाचयेन, संकुलेन-व्याप्तेन, रसाकुलीभूतसकलेन्द्रियवृत्तिना रसाकुलीभूताः-अद्भुतरसाप्लाविताः, सकलाः-समस्ताः, इन्द्रियवृत्तयः-इन्द्रियव्यापारा यस्य तादृशेन, तत्कालं तत्क्षणम् , अन्यतामिव अन्यथात्वमिव, आपन्नेन प्राप्तेन, अन्तरात्मना अन्तःकरणेन, सकलजीवं सर्वप्राणिनं मदनमयमिव कामदेवप्रायमिव, पुनः विलासमयमिव शृङ्गारचेष्टाप्रधानमिव, पुनः रम्यतामयमिव सौन्दर्यमयमिव, पुनः उत्सवमयमिव उत्सवाकुलमिव, आकलयन् अवगच्छन् ; अनिलोद्भूतः पवनविक्षिप्तैः, पुनः समन्ततः सर्वतः, प्रचलितैः प्रसृतैः, पुनः अतिप्रबलतया अत्यन्तप्रचुरतया, अकालनीहारवृष्टिमिव असमयहिमवर्षणमिव, दर्शयद्भिः प्रत्याययद्भिः, कुसुमधूलिपटलैः परागपुजैः, धवलीकृतविग्रहः शुक्लीकृतकलेवरः, अत एव विग्रहवान् मूर्तिमान् , वसन्त इव तदाख्यऋतुराज इवेत्युत्प्रेक्षा; षट्चरणमालास्पर्धयेव भ्रमरपकिस्पर्धयेव, धावन्त्या सत्वरं सर्पन्त्या, कुसुमनिर्भरदुमावकृष्टया कुसुमनिर्भरैः-पुष्पपूर्णैः, द्रुमैः-वृक्षैः, अवकृष्टया-आकृष्टया, दृष्टया लोचनेन, कदर्थ्यमानः व्याकुलीक्रियमाणः[ऊ: पुनः प्रतिलतादोलं प्रत्येकलतारूपदोलासु, उत्पद्यमानान्दोलनस्पृहः उत्पद्यमाना-जायमाना, आन्दोलनस्पृहा-उत्कूर्दनाभिलाषो यस्य तादृशः; पुनः प्रतिदीर्घिकं प्रतिवापिकम् , आविर्भवजलक्रीडाभिलाषः आविर्भवन्प्रादुर्भवन् , जलक्रीडाभिलाषः-जलकेलिस्पृहा यस्य तादृशः; पुनः प्रतितरुच्छायं प्रत्येकवृक्षच्छायासु, उपजायमानविश्रामेच्छः उपजायमाना-उत्पद्यमाना, विश्रामेच्छा-श्रमापनोदनाकाङ्क्षा यस्य तादृशः; पुनः प्रतिपत्रमण्डपं प्रत्येकपत्रमयगृहे, उल्लसद्दिवसातिवाहनवाञ्छः उल्लसन्ती-उद्भवन्ती, दिवसातिवाहनस्य-दिनातिक्रमणस्य, वाञ्छा-अभिलाषो यस्य तादृशः; पुनः स्वच्छन्दनिपतितानेकतरुकुसुमप्रकरमेदुरितमेदिनीपृष्ठचारुणा स्वच्छन्दपतितानां-स्वच्छन्द-स्वतन्त्र, निष्प्रयासमित्यर्थः, यथा स्यात् तथा, पतितानां-गलितानां, अनेकतरुकुसुमानाम्-अनेकवृक्षपुष्पाणां, प्रकरण-समूहेन, मेदुरितं-व्याप्तं, यद् मेदिनीपृष्ठं-भूपृष्ठं, तेन चारुणा-मनोहरेण, पुनः चरणपातमाशिानसुकुमारसिकतेन चरणपातेन-पादारोपणेन, मञ्ज-मनोहरं यथा स्यात् तथा, शिक्षाना-ध्वनन्ती, सुकुमारा-स्निग्धा, सिकता-बालुका यस्मिंस्तादृशेन, तस्य प्रकृतस्य, उद्यानस्य उपवनस्य, मध्यभागेन अन्तःप्रदेशेन, कतिपयशरक्षेपमात्रं कतिपयबाणप्रक्षेपपरिमाणम्, अध्वानं मार्गम् , अतिक्रान्तः कृतलङ्घनः सन् , कल्पतरुखण्डं कल्पवृक्षवनम् , अपश्यत् दृष्टवानित्यग्रेणान्वेति [क]। कीदृशम् ? कदाचित् कदापि, अदृष्टपूर्व पूर्वमनवलोकितम् ; पुनः इतरतरुविलक्षणाकारतया इतरतरुभ्यः-अन्यवृक्षेभ्यः, विल
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टिप्पनक- परागविवृतिसंवलिता ।
तयाऽत्यद्भुताकारमुद्रश्मिमरकतच्छदच्छायान्धकारितदिगन्तरमनिलतरललता तरङ्गितैरनेकवर्णचारुभिर्दिव्यांशुककलापैः पल्लवितमुल्लसत्करालकिरणस्तम्बैः शाखावलम्बिभिराभरणनिकुरम्बैः स्तबकितममरकामिनीसंवाहनविलासमसृणिताभिरायामिनीभिर्मणिलतादोलाभिर्दन्तुरितमन्तरान्तरा च तारकिततलभूभागैराली ढफलमधुवारविद्याधरद्वन्द्वोज्झितै रक्तपङ्कजप्रकरानुकारिभिः पद्मरागचषकचक्रवालैरलंकृतमितस्ततश्च चित्रीकृताच्छिद्रच्छायैरध्वखिन्नसिद्धाध्वन्यशयनीकृतैः शाखान्तरालनिपतितातपच्छेदचारुभिश्चामीकरवल्कलैर्विभूषितमशेषतश्च जटालीकृतविटपत्रातैः शिखरसञ्चरद्वनदेवता केशपाशभ्रंशिभिः प्रालम्बायमानैर्दिव्यकुसुमदामभिरामोदितममन्दसान्ध्यरागभिन्नाभिनवघनसंघातकल्पमनल्पं कल्पतरुखण्डमपश्यत् [ ऋ ] ।
तस्य च मध्यभागे झगिति दीपिताशेषदिग्भागम्, आभोगरुद्धवसुन्धरोत्सङ्गम्, उत्तुङ्गशृङ्गोत्तम्भिताम्बरम्, अतिभास्वरत्वाद परिस्फुटविभाव्यमानावयवशोभम्, उद्यानजाड्यपीडया दवाग्निशिखाखण्डमिव
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क्षणः-विशिष्टः, अकारः- अवयवसन्निवेशो यस्य तादृशतया, अत्यद्भुताकारं अत्याश्चर्यजनकाकृतिम् ; पुनः उदश्मिमरकतच्छदच्छायान्धकारितदिगन्तरं उत् - ऊर्ध्वम् उत्कृष्टो वा, रश्मिः - कान्तिर्यस्य तादृशो यो मरकतः - नीलमणिः, तत्सदृशानां, यद्वा तद्रूपाणां, छदानां - पत्राणां, छायाभिः, अन्धकारितम् - अन्धीकृतं दिगन्तरं - दिमध्यं येन तादृशम्; पुनः अनिलतरललतातरङ्गितैः अनिलेन - वायुना, तरलाभिः - चञ्चलाभिः, लताभिः, तरङ्गितैः सञ्जाततरङ्गैः, अनेकवर्णचारुभिः नानावर्णमनोहरैः, दिव्यांशुककलापैः मनोहरश्लक्ष्णसूक्ष्मवस्त्रकगणैः, पल्लवितं सञ्जातनूतनदलम्; पुनः उल्लसत्कराल किरणस्तम्बैः उल्लसन् - उद्गच्छन्, कराल किरणस्तम्बः - उन्नतकिरणात्मककाण्डो येषां तादृशैः, आभरणनिकुरम्बैः अलङ्करणगणैः, स्तबकितं सञ्जातगुच्छम् ; पुनः अमर कामिनीसंवाहनविलासमसृणिताभिः अमरकामिनीभिः - देवाङ्गनाभिः यत् संवाहनं - सम्मर्द्दनं, तद्विलासेन - तत्क्रीडया, मसृणिताभिः - चिक्कणीकृताभिः, पुनः आयामिनीभिः विस्तारिणीभिः, मणिलतादोलाभिः मणिमयलतारूपाभिर्दोलाभिः, दन्तुरितं समेधितम् ; च पुनः, अन्तरा अन्तरा मध्ये मध्ये, तारकिततलभूभागैः तारकितं - सञ्जततारकं, तलं स्वरूपं, पृष्ठमिति यावत्, यस्य तादृशो भूभागः - भूमिप्रदेशो यैस्तादृशैः, पुनः आलीढफलमधुवार विद्याधरद्वन्द्वोज्झितैः आलीढः - आखादितः, फलानां मधूनां मद्यानां पुष्परसानां वा, वार:समूहो यैस्तादृशैः, विद्याधरद्वन्द्वैः - विद्याधराख्यदम्पतिभिः, उज्झितैः - त्यक्तैः पुनः रक्तपङ्कजप्रकरानुकारिभिः रक्तकमलगणानुकारिभिः, पद्मरागचषकचक्रवालैः रक्तमणिमयपानपात्रमण्डलैः, अलङ्कृतम् ; च पुनः, इतस्ततः अत्र तत्र, चित्रीकृताच्छिद्रच्छायैः चित्रीकृता - नानावर्णीकृता, अच्छिद्रा - निरन्तरा, छाया - अनातपो यैस्तादृशैः, पुनः अध्वखिन्नसिद्धाध्वन्यशयनीकृतैः अध्वखिन्नैः - मार्गगमनश्रान्तैः सिद्धैः - सिद्धपुरुषैः, अभ्वन्यैः - मार्गगामिभिः, शयनीकृतैः - स्वशय्यात्वमापादितैः, पुनः शाखान्तरालनिपतितातपच्छेदचारुभिः शाखान्तरालनिपतितैः- शाखाभ्यन्तरादवतीर्णैः, आतपच्छेदैःतेजःखण्डैः, चारुभिः-मनोहरैः, चामीकरवल्कलैः सुवर्णमयत्वग्भिः, विभूषितम् अलङ्कृतम् ; च पुनः, अशेषतः सर्वतः दिव्यकुसुमदामभिः दिव्यानां - स्वर्गीयाणां मनोहराणां वा, कुसुमानां, दामभिः - मालाभिः, आमोदितं सुरभीकृतम्, कीदृशैः ? जटालीकृतविटपत्रातैः टीकृतं - गौरवास्पदीकृतं व्याप्तमिति यावत्, विटपत्रातं - शाखासमूहो यैस्तादृशैः, पुनः शिखरसञ्चरद्वनदेवताकेशपाशभ्रंशिभिः शिखरे - ऊर्ध्वभागे, सञ्चरन्तीनां - विहरन्तीनां वनदेवतानां - वनाधिष्ठातृदेवतानां केशपाशभ्रंशिभिः - केशकलापाधः पातिभिः, प्रालम्बायमानैः शिरोमालायमानैः पुनः अमन्दसान्ध्यरागभिन्नाभिनवघनसङ्घातकल्पं अमन्देन - उत्कटेन, सान्ध्यरागेण - सन्ध्यासम्बन्धिरक्तकान्त्या, भिन्नः - मिश्रितः, यो घनसंघातःमेघमण्डलं, तत्कल्पं - तत्प्रायं तत्सदृशमिति यावत्; पुनः अनल्पं विस्तृतम् [ ऋ ] ।
च पुनः, तस्य कल्पवृक्षवनस्य, मध्यभागे मध्यप्रदेशे, झगिति शीघ्रम्, सुदर्शनं नाम सुदर्शननामकम्, आयतनं मन्दिरं ददर्श दृष्टवान् इत्यग्रेणान्वेति कीदृशम् ? दीपिताशेषदिग्भागं दीपिताः - प्रकाशिताः, अशेषाः समस्ताः, दिग्भागाः-दिक्प्रदेशा येन तादृशम्; पुनः आभोगरुद्धवसुन्धरोत्सङ्गम् आभोगेन - विस्तारेण, अवरुद्धः-आक्रान्तः, वसुन्धरायाः-पृथिव्याः, उत्सङ्गः - मध्यभागो येन तादृशम् ; पुनः उत्तुङ्गशृङ्गोत्तम्भिताम्बरम् उत्तुङ्गेन- उन्नतेन, शृङ्गेणशिखरेण, उत्तम्भितम्-उद्धृतम्, अम्बरम् - आकाशं येन तादृशम् ; पुनः अतिभास्वरत्वात् अत्यन्तोज्ज्वलत्वात्, अपरि
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तिलकमञ्जरी
पिण्डीभूय स्थितम् , अदभ्राभ्रभ्रमिखेदेन सौदामिनीसंदोहमिव लब्धनिद्रम् , उदधिजलात्यशनदुःखासिकया वडवामुखमिवागत्य विश्रान्तम् , उद्दण्डवात्यावर्तवशेन भोगवतीशातकुम्भाम्भोजवनरजोराशिमिवाकाशमुत्पतितम् , अमृतमथनकदर्थितमन्दरक्रोधेन निर्भय॑ वैरोचनिममरशैलमिव पातालमूलान्निर्गतम् [ल ], अशेषतश्च विसर्पता कुसुम्भरसरागलोहितेनातिबहलतया किसलयीकृतप्रान्तवनस्पतिपलाशराशिना प्रवालयष्टीकृतार्ककिरणेन सान्ध्यसमयीकृतवासरेणालक्तकतूलपटलीकृतशिखरासन्नघनमण्डलेन भक्तिभरसुरसुन्दरीसुखावतरणाय सिन्दूरकुट्टिमानीव रचयता ग्रीष्मवशविजृम्भितरजोरोधाय कुङ्कुमजलासारमिव क्षिपता गगनकुट्टिमालङ्करणाय जपाकुसुमनिकरानिव प्रकिरता दाहावलोकनसकौतुकोपवनप्रीतये मिथ्यादवाग्निमिव प्रथयता तरुतलान्धकारतिरस्काराय तरुणातपमिव वर्षता प्रभाजालेन दिवापि ज्वलितौषधिकलापमिव
टिप्पनकम् –भोगवती-पातालगङ्गा, वैरोचनि बलिम् [ल] ।
स्फुटविभाव्यमानावयवशोभम् अपरिस्फुटम्-अविस्पष्टं यथा स्यात् तथा, विभाव्यमाना-लक्ष्यमाणा, अवयवानांप्रदेशानां, शोभा यस्य तादृशम् । पुनः उद्यानजाड्यपीडया उद्यानस्य निरुक्तोपवनस्य, जाडयेन-शैत्येन, या पीडा-दुःखं तेन, पिण्डीभूय संकुच्य, स्थितं, दवाग्निशिखाखण्डमिव दवाग्नेः-वनाग्नेः, शिखाखण्डं-ज्वालाजालमिवः पुनः अदभ्राभ्रभ्रमिखेदेन अदभ्रया-बहुलया, अभ्रभ्रम्या-आकाशभ्रमेण, यः खेदः-श्रमः, तेन, लब्धनिद्रं गृहीतनिद्र, सौदामिनीसन्दोहमिव विद्युद्वन्दमिव; पुनः उदधिजलात्यशनदुःखासिकया समुद्रजलाधिकपानजन्यदुःखावेगेन, आगत्य समुद्राद् बहिर्भूय, विश्रान्तं उपनीतश्रम, वडवामुखमिव वडवायाः-समुद्रान्तरगतायाः अश्वायाः, मुखमुखमण्डलमिव; पुनः उद्दण्डवात्यावर्तवशेन उद्दण्डवात्यया-उद्धतवायुसमूहेन, य आवर्तः-जलभ्रमणं, तद्वशेन, आकाशं आकाशे, उत्पतितं उच्छलितं, भोगवतीशातकुम्भाम्भोजवनरजोराशिमिव भोगवत्याः-पातलगङ्गायाः, यत् शातकुम्भाम्भोजवनं-कनककमलकाननं, तस्य रजोराशिमिव-परागपुञ्जमिव; पुनः अमृतमथनकदर्थितमन्दरक्रोधेन अमृतमथनेन-अमृतालोडनेन, कदर्थितस्य-अवहेलितस्य, मन्दरस्य-तदाख्यपर्वतस्य, क्रोधेन, वैरोचनि बलिं, निर्भय॑ अवज्ञाय, पातालमूलात् पातालतलात् , निर्गतं निष्क्रान्तम् , अमरशैलमिव सुमेरुपर्वतमिव [ल]; च पुनः, प्रभाजालेन दीप्तिसन्दोहेन, दिवाऽपि दिनेऽपि, चन्द्रमन्तरेणापीत्यर्थः,ज्वलितौषधिकलापमिव ज्वलितः-दीप्तः, ओषधिकलापः ओषधिराशियस्मिंस्तादृशमिव, तं स्वाधिष्ठितं, प्रदेशं कुर्वाणमित्यप्रेणान्वेति, कीदृशेन ? अशेषतः सर्वतः, विसर्पता प्रसरता, पुनः कुसुम्भरसरागलोहितेन कुसुम्भस्य-वह्निशिखापरपर्यायरक्तोषधिविशेषस्य, यो रसस्तस्य, रागेण-रक्तकान्त्या, लो रक्तेन, पुनः अतिबहलतया अत्यधिकतया, किसलयीकृतप्रान्तवनस्पति पलाशराशिना किसलयीकृतः-पल्लवीकृतः, रक्कीकृत इत्यर्थः, प्रान्तवनस्पतीना-सन्निहितवृक्षाणां, पलाशराशि:-पत्रपुञ्जो येन तादृशेन, पुनः प्रवालयष्टीकृतार्ककिरणेन प्रवालयष्टीकृतः- रक्तकान्तिसन्तत्या विद्रुमदण्डतामापादितः, अर्कस्य-सूर्यस्य, किरणः-रश्मिर्येन तादृशेन, पुनः, सान्ध्यसमयीकृतवासरेण सान्ध्यसमयीकृतः-सन्ध्यासम्बन्धिसमयतामापादितः, रक्तीकृत इति यावत् , वासरः दिनं येन तादृशेन, पुनः अलक्तकतूलपटलीकृतशिखरासन्नघनमण्डलेन अलक्तकतूलपटलीकृतं-लाक्षारसालक्ततूलराशीकृतं, शिखरासन्नशिखरसन्निहितं, धनमण्डलं-मेघमण्डलं येन तादृशेन, पुनः भक्तिभरसुरसुन्दरीसुखावतरणाय भक्तिभराणां-भक्तिपूर्णानां, सुरसुन्दरीणां-देवसुन्दरस्त्रीणां, सुखावतरणाय-सुखपूर्वकमधस्तादागमनाय, सिन्दूरकुट्टिमानीव सिन्दूरबद्धभूमीरिव, रचयता सम्पादयता, पुनः ग्रीष्मवशविजृम्भितरजोरोधाय ग्रीष्मवशेन-ग्रीष्महेतुना, विजृम्भितानां-विकीर्णानां, रजसां-धूलीनां, रोधाय-नियन्त्रणाय, कुङ्कमजलासारमिव कुङ्कुमजलधारामिव, क्षिपता वर्षता, पुनः गगनकुट्टिमालङ्करणाय गगनकुट्टिमस्य-आकाशमण्डलात्मकबद्धभूमेः, अलङ्करणाय-रक्तशोभोत्पादनाय, जपाकुसुमनिकरानिव जपाकुसुमाख्यरक्तपुष्पराशीनिव, प्रकिरता प्रक्षिपता, पुनः दाहावलोकनसकौतुकोपवनप्रीतये दाहावलोकने-दाहदर्शने, सकौतुकस्य-सतृष्णस्य, उपवनस्यनिरुक्तोद्यानस्य, प्रीतये-प्रसादाय, मिथ्यादवाग्निमिव मिथ्याभूतं वनाग्निमिव, प्रथयता प्रकटयता, पुनः तरुतलान्धकारतिरस्काराय तरुतले-वृक्षाधःस्थले, येऽन्धकारास्तेषां तिरस्काराय-अन्तर्धानाय, अपनयनायेत्यर्थः, तरुणातपमिव
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टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता। पल्लवितरक्ताशोकमिव कुसुमितपलाशमिव विकसितबन्धूकमिव तं प्रदेशं कुर्वाणम् [ 0], उत्कृष्टाष्टापदघटितेन तडित्पाटलत्विषा मरकतकपिशीर्षकप्रभाजटालेन सतिमिरसन्ध्यारागवलयेनेव रविमण्डलममरगिरिरिव प्राकारेण न वप्राकारेण परिवृतम् , अन्तःप्राकारभित्ति समन्ततो निर्मितानामतिरम्याकृतीनां स्फाटिकानामपि संक्रान्ततरुपतिमाभिः श्यामायमानकान्तितया मरकतमयानामिव प्रासादानामासादितपरभागैः शिखरमण्डलाडम्बरधारिभिः प्रतिबिम्बैः परिक्षिप्तशिखरम् , अग्रशिखरसङ्गिनो मृगाङ्कमणिकलशस्य ज्योत्स्नापटलपाण्डुना द्युतिमण्डलेन महत्त्वचरितार्थतापादनार्थं धृतेन धवलातपत्रेणेव विस्तारितच्छायम् [ए] अच्छमणिकुट्टिमोच्छलत्प्रभापटलनिर्मग्नमूलतया प्लवमानमिव, सुघटितस्फटिकोपलपट्टकल्पितानल्पपीठबन्धात्यच्छतयाऽन्तरिक्षस्थितमिव विभाव्यमानं, कृतावलोकनमिवेन्द्रनीलजालकैः, विहिताह्वानमिव पवनचलितोर्ध्वध्वजपताकाञ्चलैः, प्रस्तुतप्रत्युत्थानमिव तुङ्गस्तम्बैः, आरब्धसंभाषणमिव गवाक्षमुखनिलीन
.
टिप्पनकम-अमरगिरिरिव प्राकारेण न वप्राकारेण यदि मेरुवप्राकारेण परिवृतं कथं न तटाकारेण वेष्टितम् ?, अन्यत्र नूतनप्राकारेण परिवृतं, कीदृशेन ? मेरुतटाकारेण [ए]।
परिणतप्रकाशमिव, वर्षता पातयता; पुनस्तेन तं प्रदेश कमिव कुर्वाणम् ? पल्लवितरक्ताशोकमिव पल्लवितः-सञ्जातपल्लवः, रक्तः, अशोकः-तदाख्यवृक्षविशेषो यस्मिंस्तादृशम् ; पुनः कुसुमितपलाशमिव कुसुमिताः-पुष्पिताः, पलाशाः-तदाख्यरक्तपुष्पवृक्षविशेषा यस्मिंस्तादृशम् ; पुनः विकसितबन्धूकमिव विकसिताः-पुष्पिताः, बन्धूकाः-रक्तकापरपर्यायवृक्षविशेषा यस्मिंस्तादृशम् ल पुनः उत्कृष्टाष्टापदघटितेन उत्कृष्टैः-बलवत्तरैः, अष्टापदैः-सिंहव्याघ्रादिहिंस्रवन्यपशुभिः, घटितेनअधिष्ठितेन, यद्वा उत्कृष्ट-प्रधानं, यद् अष्टापदं-सुवर्ण तेन, घटितेन-रचितेन, पुनः तडित्पाटलत्विषा तडित्वत्-विद्युद्वत् , पाटला-रक्ता, त्विट्-कान्तिर्यस्य तादृशेन, पुनः मरकतकपिशीर्षकप्रभाजटालेन मरकतकपिशीर्षकस्य-नीलमणिमयमर्कटप्रतिकृतिरूपशिरस्त्राणस्य, प्रभाभिः-कान्तिभिः, जटालेन-उन्नतेन, अमरगिरिरिव प्राकारेण सुमेरुतटाकारेण, परिवृतं परिवेष्टितम् , अथापि, न नैव, वप्राकारेण तटाकारेण, परिवृतमिति विरोधः, तत्परिहारे नवेन-नूतनेन, प्राकारेण परिवृतमिति, केन कमिव ? सतिमिरसन्ध्यारागवलयेन सतिमिरेण-अन्धकारसहितेन, सन्ध्यारागवलयेन-सन्ध्याकालिकरक्तप्रभामण्डलेन, रविमण्डलमिव सूर्यबिम्बमिव; पुनः अन्तःप्राकारभित्ति प्राकारभित्तिमध्ये,समन्ततः सर्वतः,निर्मितानां रचितानाम् , अतिरम्याकृतीनां अत्यन्तमनोहराकाराणाम् , स्फाटिकानामपि स्फटिकाख्यमणिमयानामपि, संक्रान्ततरुपतिमाभिः श्यामायमानकान्तितया संक्रान्ताभिः-संलग्नाभिः, अन्तःप्रवृष्टाभिरिति यावत् , तरुप्रतिमाभिः-वृक्षप्रतिबिम्बैः, श्यामायमाना-श्यामीभवन्ती, कान्तिर्येषां तादृशतया, मरकतमयानामिव नीलमणिमयानामिव, प्रासादानां मन्दिराणाम् , आसादितपरभागैः प्राप्तोत्कर्षः, पुनः शिखरमण्डलाडम्बरधारिभिः शिखरमण्डलस्य-शिखरसमूहस्य, य आडम्बरः-शोभाविस्तारः, तद्धारिभिः-तवाहिभिः, प्रतिबिम्बैः परिक्षिप्तशिखरं परिवेष्टितशिखरम्; पुनः अग्रशिखरसङ्गिनः चरमशिखरवर्तिनः, मृगाङ्कमणिकलशस्य चन्द्रकान्तमणिमयकलशस्य, ज्योत्स्नापटलपाण्डना ज्योत्स्नापटलेन-चन्द्रिकानिचयेन, पाण्डुना-पीतमिश्रितशुक्लवर्णन, द्युतिमण्डलेन कान्तिकलापेन, महत्त्वचरितार्थताऽऽपादनार्थ महत्त्वसार्थकतासम्पादनार्थ, धृतेन उत्थापितेन, धवलातपत्रेणेव श्वेतातपत्रेणेव, विस्तारितच्छायं विस्तारिता-प्रसारिता, छाया-अनातपो येन तादृशम् [ए] पुनः अच्छमणिकुट्टिमोच्छलत्प्रभापटलनिर्मग्नमूलतया अच्छमणिकुट्टिमात्-उज्वलमणिबद्धप्रदेशात् , उच्छलति-उद्गच्छति, प्रभापटले-द्युतिमण्डले, तद्रूपजलधावित्यर्थः, निर्मग्नं-निश्चयेन मनम्-अन्तर्भूतं मूलं यस्य तादृशतया, पवमानमिव पद्भयां सन्तरदिव, विभाव्यमानमित्यप्रेणान्वेति; पुनः सुघटितस्फटिकोपलपट्टकल्पितानल्पपीठबन्धात्यच्छतया सुघटिताः-सन्निवेशिताः, स्फटिकोपला:-स्फटिकात्मकप्रस्तरा यस्मिंस्तादृशे, पट्टे-फलके, कल्पितस्य-रचितस्य, अनल्पपीठबन्धस्य-विस्तृताधारबन्धस्य, अत्यच्छतया-अत्युज्ज्वलतया, अन्तरिक्षस्थितमिव गगनतलस्थितमिव, विभाव्यमानं प्रतीयमानम् ; पुनः इन्द्रनीलजालकैः इन्द्रनीलाख्यमणिमयगवाक्षः, कृतावलोकनमिव कृतम्, अवलोकनं-स्वस्य दर्शनं येन तादृशमिव, नेत्राकाररन्धेदृष्टव दिवेत्यर्थः; पुनः पवनचलितोर्वध्वजपताकाञ्चलैः
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तिलकमञ्जरी
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कलापिकेकारवैः [ ऐ], कचित् सितभुजङ्गशङ्किमयूरोपरुध्यमान बिम्बागतचलच्चीनांशुकपताकं, कचिद्धूतशुकमुच्यमानदाडिमबीजबुद्धिजग्धसूर्यकान्तवान्ताग्निकणिकं, क्वचित् प्रदीपलोलशलभलङ्घयमानोच्छिखपुष्परागं, कचिदामिषाशनश्येन हेलाक्रम्यमाणकृत्रिम विहङ्गं क्वचिन्मदनपरायत्तमत्तपा पतपरिक्षिप्यमाणनिजप्रतिबिम्बं क्वचिदम्बुधारोत्कचातकचुम्ब्यमानमौक्तिकलताप्रालम्बम [ अ ], वैशम्पायनशापकथाप्रक्रममिव दुर्वर्णशुकनास मनोरमं जीवमिव चित्रकर्मखचितप्रदेशं, विदग्धकामिनीकेलिमन्दिरमिव मणिताराव - भासितोदरम् उत्तमपुरुषमिव विशालनेत्रहृत्कपाटं, चक्रवर्तिसैन्यमिवानेकरत्नशारी कृतमत्तवारणपरिकरं,
पवनेन वायुना, , चलितैः-उद्धतैः, ऊर्ध्वध्वजपताकाञ्चलैः - उपरितनध्वजसम्बन्धिपटाग्रभागैः, विहिताह्नानमिव आहूतवदिव; पुनः तुङ्गस्तम्बैः उन्नतस्तम्बैः, प्रस्तुतप्रत्युत्थानमिव प्रस्तुतं प्रारब्धं प्रत्युत्थानं - स्वस्याभ्युत्थानं येन तादृशमिव; पुनः गवाक्षमुखनिलीनकलापिकेकारवैः गवाक्षमुखे - वातायनोर्श्वभागे, निलीनानां - तिरोभूतानां, कलापिनां - मयूराणां, केका रखैः-केकाख्यशब्दैः, आरब्धसम्भाषमिव प्रवर्तितालापमिव [ ऐ ]; पुनः क्वचित् कस्मिंश्चित् प्रदेशे, सितभुजङ्गशङ्किमयूरोपरुध्यमानविम्बागतचलच्चीनांशुकपताकं सितभुजङ्गशङ्किभिः श्वेतसर्पसन्देहिभिः, मयूरैः, उपरुध्यमाना-निवार्य - माणो, बिम्बागता-प्रतिच्छायात्मनाऽऽपतिता, चलन्ती - उद्वेलन्ती, चीनांशुकपताका-चीनाख्यजनपदरचितसूक्ष्मश्लक्ष्णवस्त्ररूपा पताका-ध्वजाग्रवर्तिपटो यस्मिंस्तादृशम् पुनः क्वचित् कस्मिंश्चित् प्रदेशे, धूतचञ्चशुकमुच्यमानदाडिमबीजबुद्धिजग्धसूर्यकान्तवान्ताग्निकणिकं धूता- कम्पिता, चक्षुः - तुण्डं यैस्तादृशैः शुकैः, मुच्यमानानां विक्षिप्यमाणानां, दाडिमबीजानां, बुद्धया-भ्रान्त्या जग्धाः - भक्षिताः, सूर्यकान्तेन तदाख्यमणिना, वान्ताः- उद्गीर्णाः, अभिकणिका:- स्फुलिङ्गा यस्मिंस्तादृशम् ; पुनः क्वचित् कुत्रापि प्रदेशे, प्रदीपलोलशलभलङ्घयमानोच्छिखपुष्परागं प्रदीपलोलैः - प्रदीपान्तःपतनोत्कण्ठया तरलैः, शलभैः- पतत्रैः, लङ्घयमानः - प्रदीपभ्रान्त्या अतिक्रम्यमाणः, उच्छिखः - उत्- ऊर्ध्वं, शिखा - ज्वाला यस्य तादृशः, पुष्पपरागः-पद्मरागमणिर्यस्मिंस्तादृशम् ; पुनः क्वचित् कस्मिंश्चित् स्थाने, आमिषाशनश्येन हेलाक्रम्यमाणकृत्रिमविहङ्ग आमिषाशनैः-मांसाहारिभिः, श्येनैः - तदाख्यपक्षिविशेषैः, हेलया - कौतुकेन, आक्रम्यमाणाः - हठेन व्याप्यमानाः, कृत्रिमविहङ्गाःकृत्रिमाः-क्रियया निर्वृत्ताः, रचिता इत्यर्थः, पक्षिणः, पक्षिप्रतिकृतय इति यावत्, यस्मिंस्तादृशम् ; पुनः क्वचित् कस्मिंश्चित् स्थाने, मदनपरायत्तमत्तपारापतपरिक्षिप्यमाणनिजप्रतिबिम्बं मदनपरायत्तैः - कृत्रिम कपोतीविलोकन जन्यकामपरवशैः, मत्तपारापतैः-कामाकुलितकपोतैः, परिक्षिप्यमाणः - निकटोड्डीयमानतया सर्वतः समर्यमाणः, निजः - स्वकीयः, प्रतिबिम्बो यस्मिंस्तादृशम् ; पुनः क्वचित् कस्मिंश्चित् प्रदेशे, अम्बुधारोत्कचातकचुम्ब्यमानमौक्तिकलताप्रालम्बं अम्बुधारायै- जलधारायै, उत्कैः-उन्मनस्कैः, चातकैः -लोकविश्रुतैः पक्षिविशेषैः, चुम्ब्यमानं - चञ्चवा स्पृश्यमानं, मौक्तिकलताप्रालम्ब - मुक्तामणिश्रेणीरूपं शिरोमाल्यं यस्मिंस्तादृशम् [ओ ]; पुनः वैशम्पायनशापकथाप्रक्रममिव वैशम्पायनस्य - वैशम्पायननाम्नः शुकस्य यः शापस्तत्सम्बन्धिन्याः कथायाः प्रक्रमं प्रसङ्गमिव, दुर्वर्णशुकनासमनोरमं दुर्वर्ण-रजतं, तन्मयेन, शुकनासेन - सिंहस्थानेन, मनोरमं-मनोहरम्, पक्षे दुर्वर्णे- दुःखेन वर्णनीये, शुकनासमनोरमे - वैशम्पायन - जनकतद्भार्ये यत्र तादृशम् ; पुनः जीवमिव प्राणिनमित्र, चित्रकर्मखचितप्रदेशं चित्रकर्मभिः - चित्रणक्रियाभिः खचिताः - व्याप्ताः, प्रदेशाः - विभागा यस्य तादृशम्, पक्ष चित्रकर्मभिः- ज्ञानावरणीयादिकर्मभिः, खचिताः - व्याप्ताः, प्रदेशाः - आत्मप्रदेशा यस्य तादृशम् ; पुनः विदग्धकामिनीकेलिमन्दिरमिव विदग्धायाः - केलिकुशलायाः, कामिन्याः - विलासिन्याः, केलिमन्दिरं - क्रीडाभवनमिव, मणितारावभासितोदरं मणिताराभिः - मणिमयतारकाभिः, पक्षे मणितैः - नार्या रतिकालिकाव्यक्तशब्दात्मकैः, आरावैः शब्दैः, अवभासितं - उद्दीपितम्, उदरं - अभ्यन्तरं यस्य तादृशम् पुनः उत्तमपुरुषमिव पुरुषश्रेष्टमिव, विशालनेत्रहृत्कपाटं विशालं - विस्तृतं, नेत्रहृत्-नयनहारकं, नयनप्रियमित्यर्थः, कपाटं - द्वारपिधायकफलकं यस्य तादृशम्, पक्षे विशालं दीर्घं, नेत्रं - नयनं यस्य तादृशम् पुनः हृत्कपाटहृत् - वक्षःस्थलं, कपाटमिव यस्य तादृशं विशालनेत्रं च तत् हृत्कपाटं चेति खञ्जकुब्जादिवत् कर्मधारयसमासः; यद्वा विशालं नेत्रं हृत्कपाटं च-कपाटसदृशं वक्षःस्थलं च यस्येति बहुव्रीहिः; पुनः चक्रवर्तिसैन्यमिव चक्रवर्तिनः - अखण्डभूमण्डलेश्वरस्य, सैन्यं - सेनामिव, अनेकरत्नशारी कृतमत्तवारणपरिकरं अनेकैः, रत्नैः, शारीकृतानि - कर्बुरितानि चित्रितानि यानि, मत्तवारणानि-उपवेशनस्थानविशेषाः, तदात्मकः परिकरो यस्य तादृशम्, पक्षे अनेकैः - बहुविधैः, रत्नैः, शारीकृतः-चित्रीकृतः, मत्तवारणानां - मत्तहस्तिनां परिकरः- समूहो यस्मिंस्तादृशम्, यद्वा अनेकाभिः, रत्नशारीभिः - मणिमयगजपर्याणैः कृताः
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टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता । वराङ्गनावपुरिव शातकुम्भस्तम्भधृतपीवरोरुतुलं, वसन्तचूतद्रुममिव चारुमञ्जरीकम [ औ], अनेकमणिमालालकृतमपि रत्नचतुष्कराजितं ध्वजाधिष्ठितमपि सिंहाक्रान्तमङ्गीकृतविमानाकारमपि सर्वतोभद्रम् [अं], अग्रमणिभूमिनिपतितप्रतिमानिभेन च भग्नगतिना दिनकरेणापि सदैन्यमात्मरथप्रस्थानपथमिव प्रार्थ्यमानं, शिखरोल्लेखनदुःस्थितेन व्योम्नापि मन्थरतामिव ग्राह्यमाणं, कृत्रिममृगेन्द्रक्रमघातभीतेन जलदवृन्देनाप्यभयमिव याच्यमानम् , असंभावनीयोच्छ्रायजनितविस्मयेन निजप्रतिबिम्बेनाऽपि निपत्येवालोक्यमानं, प्रलयार्क
टिप्पनकम्-वैशम्पायनशापकथाप्रक्रममिव दुर्वर्णशुकनासमनोरमम् एकत्र दुःखवर्णनीयवैशम्पायनजनकतद्भार्यम् , अन्यत्र रूपमयसिंहस्थानरमणीयम् , वैशम्पायनः-शुकविशेषः । जीवमिव चित्रकर्मखचितप्रदेशम् एकत्र नानाज्ञानावरणीयादिकर्मव्याप्तप्रदेशम् , अन्यत्र आलेख्यक्रियाखचितदेशम् । विदग्धकामिनीकेलिमन्दिरमिव मणितारावभासितोदरम् एकत्र रतिकूजितारावशोभितमध्यम्, अन्यत्र रत्नतारिकाशोभितमध्यम् । उत्तमपुरुष मिव विशालनेत्रहत्कपाटम् एकत्र विस्तीर्णनयनहृदयकपाटम् , अन्यत्र विस्तीर्णनयनहारिकपाटम् । चक्रवर्तिसैन्यमिवानेकरत्नशारीकृतमत्तवारणपरिकरम् एकत्र अनेके-नानारूपाः, रत्नशारीकृताः-मणिटङ्कचेविहिताः (?) मत्तवारणा:क्षीबकरिणः, परिकरः-परिच्छदो यस्य तत् तथोक्तम्, अन्यत्र अनेकरत्नैः शारीकृतानि मत्तवारणानि-आसनस्थानविशेषाः परिकरो यस्य तत् तथोक्तम् । वराङ्गनावपुरिव शातकुम्भस्तम्भधृतपीवरोरुतुलम् एकत्र सुवर्णस्तम्भयोर्धत पीनबृहज्जङ्घाभ्यां सादृश्यं येन तथोक्तम् , अन्यत्र सुवर्णस्तम्भैर्धताः पीनाः-उर्व्यः, तुलाः-पट्टा यस्मिन् तत् । वसन्तचूतद्रममिव चारुमञ्जरीकम् रम्यमञ्जरीयुक्तम् , अन्यत्र शोभनशिखरम् [औ] । अनेकमणिमालालङ्कृतमपि रत्नचतुष्क
रत्नराशिशोभितं कथं रत्नचतुष्टयभूषितम् ? अन्यत्र रत्नरचनाविशेषशोभितम् , ध्वजाधिष्ठितमपि सिंहाक्रान्तं यदि ध्वजेनाधिष्ठितं कथं सिंहेनाक्रान्तम् ? पताकादण्डाधिष्ठित, सिंहस्थाने सिंहाक्रान्तम् । अङ्गीकृतविमानाकारमपि सर्वतोभद्रं यद्याश्रितविमानप्रासादाकारं कथं सर्वतोभद्रप्रासादम् ? अन्यत्र सर्वस्मिन् प्रदेशे कल्याणम् [अं] ।
पर्याप्ताः पूर्णा ये, मत्तवारणाः-मत्तहस्तिनः, तदात्मकः परिकरः-परिवारो यस्मिन् तादृशम् ; पुनः वराङ्गनावपुरिव वराङ्गनायाःउत्तमस्त्रियाः, वपुरिव-शरीरमिव, शातकुम्भस्तम्भधृतपीवरोरुतुलं शातकुम्भस्तम्भैः-सुवर्णमयस्थूणाभिः धृता, पीवराःपीनाः, उरवः-विशालाः, तुलाः-पट्टा यत्र तादृशम् ; पक्षे शातकुम्भस्तम्भयोः-सुवर्णस्तम्भयोः, धृता, पीवरा-महती, ऊरुभ्यांजङ्घाभ्यां, तुला-सादृश्यं येन तादृशम् ; पुनः वसन्तचूतद्रममिव वसन्ततुकालिकाम्रवृक्षमिव, चारुमञ्जरीकं चारु:मनोहरा, मञ्जरी-अभिनवफलसूक्ष्माङ्कुरश्रेणी, पक्षे तोरणलम्बितमणिमयाराकारश्रेणी शिखरं वा यस्मिंस्तादृशम् [औ] पुनः अनेकमणिमालालङ्कतमपि अनेकेषां-बहुविधानां, मणीनां, मालाभिः-पतिभिः, अलङ्कृतं-भूषितमपि, रत्नचतुष्कराजितं रत्नचतुष्केण-रत्नचतुष्टयेन, राजितं-विभासितमिति विरोधः, तत्परिहारे तु रत्नचतुष्केण-रत्नमयचतुरस्रस्थानरचनया राजितम् । पुनः ध्वजाधिष्ठितमपि ध्वजेन-पताकया, अधिष्ठितमपि-सम्बद्धमपि, सिंहाक्रान्तं सिंहव्याप्तमिति विरोधः, सिंहस्य परकीयोन्नत्यसहिष्णुत्वात् , परिहारस्तु-सिंहपदस्य कृत्रिमसिंहपरत्वेन बोध्यः, यद्वा सिंहस्थाने सिंहाक्रान्तम् ; पुनः अङ्गीकृतविमानाकारमपि अङ्गीकृतः-स्वीकृतः, विमानः-मानरहितः, आकारो येन तादृशमपि, सर्वतोभद्रं परिच्छिन्नगृहविशेषरूपम्, इति विरोधः, परिहारे तु अङ्गीकृतो विमानस्य-व्योमयानस्येवाकारो येन तादृशं, सर्वतः-सर्वस्मिन् प्रदेशे, भद्र-कल्याण चेत्यर्थः [अं] च पुनः, अग्रमणिभूमिनिपतितप्रतिमानिभेन अग्रे-सर्वोपरि, यद्वा अग्रा-चरमा, या मणिभूमिः-मणिबद्धः प्रदेशः तत्र, निपतितायाः-संक्रान्तायाः, प्रतिमायाः-प्रतिबिम्बस्य, निभेन-व्याजेन, भग्नगतिना भग्ना- तदीयशिखरेण निरुद्धा, गतिर्यस्य तादृशेन, दिनकरेणापि सूर्येणापि, सदैन्यं सदुःखम् , आत्मरथप्रस्थानपथं खकीयरथप्रयाणमार्ग, प्रार्थ्यमानमिव याच्यमानमिव; पुनः शिखरोल्लेखनदुःस्थितेन शिखरेण यदुल्लेखनम्-उद्धर्षणं, तेन दुःस्थितेन-दुःखितेन, व्योम्नाऽपि आकाशेनापि, मन्थरतां शिथिलतां, ग्राह्यमाणं-प्राप्यमाणमिव; पुनः कृत्रिममृगेन्द्रक्रमघातभीतेन कृत्रिमस्य-क्रियया निवृत्तस्य, निर्मितस्येत्यर्थः, मृगेन्द्रस्य-सिंहस्य, क्रमेण-पादविक्षेपेण, यो घातःप्रहारः, तस्माद् भीतेन, जलदवृन्देनापि मेघगणेनापि, अभयं तत्प्रहारभयाभावं, याच्यमानमिव अभ्यर्थ्यमानमिव; पुनः असम्भावनीयोच्छायजनितविस्मयेन असम्भावनीयेन-सम्भावयितुमप्यशक्येन, उच्छ्रायेण-औन्नत्येन, जनितो विस्मयः-आश्चर्य यस्य तादृशेन, निजप्रतिबिम्बेनापि खीयप्रतिच्छाययाऽपि, निपत्य नीचैः पतित्वा,
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तिलकमञ्जरी मण्डलोत्पत्तिमृत्पिण्डमिव प्रजापतिकुलालस्य, मौलिमुकुटमिव मर्त्यलोकभूपालस्य, तपनीयबुध्नमिव तारकाकुसुमनभःकल्पद्रुमस्य, विद्रुमकलशमिव शेषाहिदण्डधरामण्डलोष्णवारणस्य, तत्क्षणोदितार्कबिम्बबहुलरागाभिः पद्मरागशिलासंहतिभिराहितनिर्माणं निर्मानुषममानुषलोकसुलभदर्शनं सुदर्शननामायतनं ददर्श [अ] ।
___ तच्च तथाविधमपरत्र कुत्रचिददृष्टपूर्वमपूर्वाकारविशेषमशेषाश्चर्यपर्यन्तभूमिभूतमकाण्ड एवाविर्भूत मायतनमतनुविस्मयस्फारितपुटाभ्यामुत्पक्ष्मराजिभ्यां चित्रलिखिताभ्यामिव लोचनाभ्यां किमिदमिति सक्षोभाक्षमीक्षमाणः क्षणमात्रमुपरतापरकरणसंवेदनशक्तिरेकेन्द्रियत्वमिवापेदे [क]।
___ ततश्चन्द्रकान्तसोपानपरम्पराक्रान्ततलभागेन पतत्तरङ्गितगङ्गास्रोतसेवाम्बरविवरेण वरीयसा मरकतमणिगोपुरेणोत्सर्पिचूडामणिमरीचिमांसलितमण्डपद्वारवन्दनमालाप्रवालसन्निवेशः प्रविश्याभ्यन्तरे दूरादेव
टिप्पनकम्-वरीयसा उरुतरेण, गोपुरं-प्रतोलीद्वारम् , नागदन्ताः-घोटकाः, जयन्तिका-पट्टपाशकः [ख] ।
आलोक्यमानमिव दृश्यमानमिव; पुनः प्रजापतिकुलालस्य विधातृकुम्भकारस्य, प्रलयार्कमण्डलोत्पत्तिमृत्पिण्डमिव प्रलयार्कमण्डलस्य-प्रलयकालिकसूर्यमण्डलस्य, उत्पत्तये-सृष्ट्यर्थ, मृत्पिडं-मृत्तिकाराशिमिव; पुनः मर्त्यलोकभूपालस्य मर्त्यलोकरूपस्य भूपालस्य-नृपतेः, मौलिमुकुटमिव शिरोमुकुटमिव; पुनः तारकाकुसुमनभाकल्पद्रुमस्य तारका एव कुसुमानि-पुष्पाणि यस्य तादृशस्य, नभःकल्पद्रुमस्य-आकाशरूपकल्पवृक्षस्य, तपनीयबुध्नमिव सुवर्णमयमूलमिव; पुनः शेषाहिदण्डधरामण्डलोष्णवारणस्य शेषाहिः-शेषनागो दण्डो यस्य तादृशस्य, धरामण्डलोष्णवारणस्य-भूमण्डलातपत्रस्य, विद्रुमकलशमिव प्रवालमयकुम्भमिवेति सर्वत्रोत्प्रेक्षा; पुनः तत्क्षणोदितार्क बिम्बबहुलरागाभिः तत्क्षणं-तत्कालं, निर्माणकाल इत्यर्थः, उदितेन-उद्दीप्तेन, अर्कमण्डलेन-सूर्यमण्डलेन, बहुल:-प्रचुरः, रागः-रक्तवर्णो यासां तादृशीभिः, पद्मरागशिलासंहतिभिः पद्मरागाख्यरक्तमणिश्रेणीभिः, आहितनिर्माणं जनितनिर्माणम् ; पुनः निर्मानुषं मनुष्यशून्यम् । पुनः अमानुषलोकसुलभदर्शनम् अमानुषलोकैः-मनुष्यभिन्नजनैः, देवजनैरित्यर्थः, सुलभ-सुकरं दर्शनं यस्य तादृशम् ; पुनः सुदर्शननाम सुत्रु-मनोरमं, दर्शनं यस्य तादृशमित्यन्वर्थकनामकम् [अ]।
च पुनः, अपरत्र अन्यत्र, कुत्रचित् कुत्रापि, अदृष्टपूर्व पूर्वमदृष्टम् , पुनः अपूर्वाकारविशेषम् अपूर्वःविजातीयः, आकारविशेषः-आकृतिसौन्दर्य यस्य तादृशम् , पुनः अशेषाश्चर्यपर्यन्तभूमिभूतम् अशेषाणां-समस्तानाम् , आश्चर्याणाम् , पर्यन्तभूमिः-अवधिभूमिः, तद्भूतं तद्रूपम् , पुनः अकाण्ड एव अनवसर एव, अकस्मादेवेत्यर्थः, आविर्भूतं प्रकटितम्, तत् प्रकृतम् , आयतनं मन्दिरम् , अतनुविस्मयस्फारितपुटाभ्याम् अतनुना-प्रचुरेण, विस्मयेन-आश्चर्येण, स्फारितौ-विस्तारितो, प्रसारिताविति यावत्, पुटौ-पुटाकारपक्ष्मणी ययोस्तादृशाभ्याम् , उत्पक्ष्मराजिभ्याम् उद्तनयनरोमपटिकाभ्याम् , पुनः चित्रलिखिताभ्यामिव चित्रस्थिताभ्यामिवेत्युत्प्रेक्षा, निःस्पन्दाभ्यामित्यर्थः,लोचनाभ्यां नयनाभ्याम्, इदम् आयतनं, किं कीदृशम्, इति इत्थं, सक्षोभाक्षं सक्षोभे-सम्भ्रान्ते, अक्षिणी-नेत्रे यस्मिस्तादृशं यथा स्यात् तथा, ईक्षमाणः पश्यन् , क्षणमात्रं क्षणमेकम् , उपरतापरकरणसंवेदनशक्तिः उपरता-निवृत्ता, अपरेषा-चक्षुरतिरिक्तानां, करणानाम्-इन्द्रियाणां, संवेदनशक्तिः-ज्ञानशक्तिर्यस्मिंस्तादृशः सन् , एकेन्द्रियत्वमिव एकम्-अद्वितीयम् , इन्द्रियं-चक्षुयेस्य तत्त्वमिव, आपेदे प्राप्तवान् [क]।
ततः तदनन्तरं, चन्द्रकान्तसोपानपरम्पराक्रान्ततलभागेन चन्द्रकान्तसोपानानां-चन्द्रकान्तमणिमयश्रेणिकानां, परम्परया-पतया, आक्रान्तः-व्याप्तः, तलभागः-अधोभागो यस्य तादृशेन, पुनः पतत्तरङ्गितगङ्गास्रोतसा पतत् स्यन्दमानं, तरङ्गितायाः-सजाततरङ्गायाः, गङ्गायाः, स्रोतः-प्रवाहो यस्मिंस्तादृशेन, अम्बरविवरेणेव आकाशरन्ध्रेणेव, वरीयसा अतिविपुलेन, मरकतमणिगोपुरेण इन्द्रनीलमणिमयप्रतोलीद्वारेण, उत्सर्पिचूडामणिमरीचिमांसलितमण्डपद्वारवन्दनमालाप्रवालसन्निवेशः उत्सर्पिभिः-उद्भासिभिः, चूडामणिमरीचिभिः-मुकुटमणि किरणः, मांसलितः-विपुलीकृतः, मण्डपद्वारवन्दनमालायाः-प्रकृतगृहविशेषद्वारार्चनमालासम्बन्धिनां, प्रवालानां-पल्लवानां, सन्निवेशः-पकिर्येन तादृशः सन् , अभ्यन्तरे प्रकृतायतनमध्यं, प्रविश्य प्रवेशं कृत्वा, प्रतिमां मूर्तिम् , अपश्यत् दृष्टवानित्यप्रेणान्वेति; कीदृशीम् ? दूरादेव दूरस्थानादेव
१३ तिलक
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टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता। विभाव्यमाननिरुपमरूपशोभामभिमुखीमभितः प्रतिष्ठितयक्षदेवताप्रतियातनासनाथद्वारभागस्य नागदन्तावसक्तधवलचामरार्चितचारुभित्तेरेकपाविलम्बमानसंकोचितदेवाङ्गजवनिकापटस्य जयन्तिकावलम्बिजाम्बूनदशृङ्खलाकलितवाचालवज्रघण्टस्य दह्यमानप्रबलकालागुरुधूपधूमान्धकारमन्दायमानरत्नदीपदीधितिसंदर्भस्य गर्भवेश्मनो गर्भभागमलङ्कुर्वाणां [ख], ग्रहचक्रालंकृते मृगभाजि सिंहोद्भासिते नभस्तल इवालघीयसि सिंहासने निबद्धपद्मासनाम् , उपर्युपरि विरचितोत्तानकरयुगलकिसलयिताङ्कमध्याम् , [ग] आभङ्गिनीभिः कृष्णागुरुपङ्कलिखिताभिरिव पत्रभङ्गलताभिः केशवल्लरीभिरध्यासितोभयांशपीठाम् , अपाङ्गभागचुम्बितश्रवणान्तेन किञ्चिन्नतपक्ष्मणा निर्विकारतारकेण चक्षुषा विद्योतितवदनेन्दुबिम्बाम् , अंसावलम्बिधवलचामरसुरेन्द्रसेवितसव्यापसव्यपावा, प्रभापहृतबिम्बलक्ष्मीलाभाय भास्वतेव सेवागतेनातिभास्वराकृतिना प्रभा
टिप्पनकम्-गृहचक्रालङ्कते मृगभाजि सिंहोद्भासिते नभस्तल इवालघीयसि सिंहासने एकत्र आदित्यादिग्रहशोभिते मृगशिरोयुक्ते सिंहराशिराजिते, अन्यत्र नवग्रहराजिते हरिणयुग्मयुक्ते सिंहद्वयशोभिते [ग]।
विभाव्यमाननिरुपमरूपशोभां विभाव्यमाना-प्रतीयमाना, दृश्यमानेत्यर्थः, निरुपमा-अनन्यसदृशी, रूपशोभा-आकारसौन्दर्य यस्यास्तादृशीम् ; पुनः अभिमुखीम् सम्मुखीम् ; पुनः गर्भवेश्मनः अन्तर्वतिगृहस्य, गर्भभागम् अभ्यन्तरभागम् , अलङ्कर्वाणां विभूषयन्तीम् , कीदृशस्य ? अभितःप्रतिष्ठितयक्षदेवताप्रतियातनासनाथद्वारभागस्य अभितः-सर्वतः, प्रतिष्ठिताभिः-अवस्थिताभिः, यक्षदेवताना-यक्षरूपदेवतानां, प्रतियातनाभिः-प्रतिमाभिः, सनाथः-साध्यक्षः, द्वारभागःद्वारदेशो यस्य तादृशस्य, पुनः नागदन्तावसक्तधवलचामरार्चितचारुभित्तेः नागदन्तेषु-हस्तिदन्तमयघोटकेषु, अवसक्तैः-अवलम्बितैः, धवलचामरैः-श्वेतचामरैः, अर्चिता-शोभिता, चारुः-मनोहरा, भित्तिः-कुडयं यस्य तादृशस्य, पुनः एकपाश्र्वावलम्बमानसंकोचितदेवाङ्गजवनिकापटस्य एकपार्श्वे-एकस्मिन् कक्षाऽधोभागे, अवलम्ब्यमानः-अवनमन्, संकोचितदेवाङ्गः-संकोचितं-तिरोहितं देवानं-देवमूत्यैकदेशो येन तादृशः, जवनिकापटः-तिरस्करिणीवस्त्रं यस्मिंस्तादृशस्य, पुनः जयन्तिकावलम्बिजाम्बूनदशङ्खलाकलितवाचालवज्रघण्टस्य जयन्तिका-पट्टपाशकः, तदवलम्बिनी या जाम्बूनदशृङ्खला-सुवर्णमयरज्जुः, तत्कलिता-तदवष्टब्धा, वाचाला-वनन्ती, वज्रघण्टा-हीरकाख्यरत्नमयवाद्यविशेषो यस्मिंस्तादृशस्य, पुनः दह्यमानप्रबलकालागुरुधूपधूमान्धकारमन्दायमानरत्नदीपदीधितिसन्दर्भस्य दह्यमानस्य-वह्निसंताप्यमानस्य, कालागुरुधूपस्य-कालागुरुसंज्ञकसुगन्धिद्रव्यस्य, धूमः,मन्दायमाना-मान्द्यमापद्यमाना, रत्नदीपस्य-मणिरूपदीपस्य, दीधितिसन्दर्भ:प्रकाशपरम्परा यस्मिंस्तादृशस्य [ख] पुनः कीदृशीम् ? नभस्तल इव गगनतल इव, ग्रहचकालते ग्रहचक्रेण-सूर्यादिनवग्रहाकृतिभिः, अलते-शोभिते, मृगभाजि मृगाभ्यां-हरिणाकृतिद्वयेन, पक्षे मृगेण-मृगशिरोनक्षत्रेण, विचित्रे, पुनः सिंहोद्भासिते सिंहाभ्यां-सिंहाकृतिद्वयेन, पक्षे सिंहराशिना, उद्भासिते-उद्दीपिते, पुनः अलघीयसि विस्तृते, सिंहासने महासने, निबद्धपद्मासनां निबद्धं-रचितं, पद्मासनं-आसनविशेषो यया तादृशीम : पुनः उपर्यपरि ऊर्ध्वमूर्च, विरचितोत्तानकरयुगलकिसलयिताङ्कमध्यां विरचितेन-निर्मितेन, सन्निवेशितेनेत्यर्थः, उत्तानेन, करयुगलेन-हस्तद्वयेन, किसलयितं-सञ्जातपल्लवमिव, अङ्कमध्यं-कोडमध्यं यस्यास्तादृशीम् [ग]; पुनः आसङ्गिनीभिः संश्लिष्टाभिः, कृष्णागुरुपङ्कलिखिताभिः कालागुरुकर्दमकल्पिताभिः, पत्रमङ्गलताभिरिव पत्रविशेषाकृतिपतिभिरिव, केशवल्लरीभिः केशपाशैः,अध्यासितोभयांसपीठाम् , अध्यासितम्-अधिष्ठितम् , उभयांसरूपं-स्कन्धद्वयरूपं पीठम्-आसनं यस्यास्तादृशीम् ; पुनः अपाङ्गभागचुम्बितश्रवणान्तेन अपाङ्गभागाभ्यां नयनप्रान्तभागाभ्यां, चुम्बितः-स्पृष्टः, श्रवणान्तः-कर्णान्तो येन तादृशेन, पुनः किञ्चिन्नतपक्ष्मणा किञ्चिन्नतम्-ईषन्ननं, पक्ष्म-नयनरोमराजिर्यस्य तादृशेन, पुनः निर्विकारतारकेण निर्विकारा-निर्मला तारका-कनीनिका यस्य तादृशेन, चक्षुषा नेत्रेण, विद्योतितवदनेन्दुबिम्बां विद्योतितः-विभासितः, वदनेन्दुबिम्बः-मुखचन्द्रमण्डलं यस्यास्तादृशीम् ; पुनः अंसावलम्बिधवलचामरसुरेन्द्रसेवितसव्यापसव्यपा.म.अंसावलम्बी-स्कन्धनम्रः धवलः-श्वेतः, चामरः-बालव्यजनं यस्य तादृशेन, सुरेन्द्रेण-देवराजेन, सेविते-अधिष्ठिते, सव्यापसव्ये-दक्षिणवामे, पार्श्व-कक्षाऽधो भागौ यस्यास्तादृशीम् ; पुनःप्रभापहृतबिम्बलक्ष्मीलाभाय प्रभया-कान्त्या, अपहृतायाः-चोरितायाः, बिम्बलक्ष्म्याः-स्वबिम्ब
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तिलकमञ्जरी मण्डलेनोद्भासिताम् , इन्दुमण्डलसितातपत्रत्रयीप्रकाशितत्रिभुवनैश्वर्याम् , अशेषतश्च विविधविमानवाहनाधिरूद्वैरत्युदाराकृतिभिरप्सरोविराजितपार्वैर निमेषलोचनतया रूपालोकनपरैरिव कैश्चिदास्फालितदिव्यतूर्यैः कैश्चिदुत्सृष्टकुसुमवृष्टिभिः कैश्चिल्ललाटघटिताञ्जलिपुटैरम्बरतलवर्तिभिः कृत्रिमसुरसमूहैः परिकरिताम् [घ],
आर्द्रगोशीर्षचन्दनाङ्गरागवाहिनीम् , आमोदितमन्दिरोदराभिर्मकरन्दलोभलग्नैरतिनिस्पन्दतया प्रसुप्तैरिव मूर्छितैरिव प्रथितैरिव मधुकरैः शारीकृताभिः पारिजातकुसुमस्रम्भिरभ्यर्चिताम् , अगाधभवजलधिसेतुबन्धस्य बन्धनिर्मुक्तात्मनो मुक्तिसुखैककारणस्य निष्कारणबन्धोः परमकारुणिकस्य शरणार्थिजन्तुसार्थसाध्वसमुषो निर्निमेषेण केवलज्ञानचक्षुषा साक्षात्कृतसकलभावस्य भुवनत्रयगुरोर्युगादिपार्थिवस्य प्रथमजिनपतेऋषभस्य निर्भूषणामप्यनन्तगुणभूषणाम् , अपहस्तितगभस्तिमालितेजसा विग्रहवतेव केवलालोकेन सर्वालेभ्यो विगलता प्रभापूरेण परितः परीतां, महाप्रमाणां, चिन्तामणिमयीं, प्रतिमामपश्यत् [6] ।
शोभायाः, लाभाय-प्रत्यागमनाय, सेवागतेन आराधनार्थमुपस्थितेन, भास्वतेव सूर्येणेव, अतिस्वराकृतिना अतिदीप्राकारेण, प्रभामण्डलेन विडम्बितदिनकरबिम्बलक्ष्मीके मौलिपृष्ठे वर्तमानेन प्रकृष्टेन कान्तिमण्डलेन, उद्धासिताम् उद्दीपिताम् । पुनः इन्दुमण्डलसितातपत्रत्रयीप्रकाशितत्रिभुवनैश्वर्याम् इन्दुमण्डलसदृश्या-चन्द्रबिम्बसदृश्या, सितातपत्रत्रय्याधवलच्छनत्रयेन, प्रकाशितं-प्रत्यायितं, त्रिभुवनैश्वर्य-भुवनत्रयाधिपत्यं यया तादृशीम् । पुनः विविधविमानवाहनाधिरूढैः विविधं-नानाप्रकारकं, विमानं व्योमयानं, वाहनं-रथादियानम् , अधिरूढः-आरूढैः, अत्यदाराकृतिभिः अतिप्रधानाकारैः, अप्सरोविराजितपार्वैः स्वर्वेश्याधिष्ठितपार्श्वभागैः, पुनः अनिमेषलोचनतया निःस्पन्दनयनतया, रूपालोकनपरैरिव रूपदर्शनासक्तैरिवेत्युत्प्रेक्षा, कैश्चित् कतिपयैः, आस्फालितदिव्यतूर्यैः आस्फालितं-ताडितं, दिव्यं-खर्गीयम् उत्तमं वा, तूर्य-वाद्यविशेषो यैस्तादृशैः, पुनः कैश्चित कैरपि, उत्सष्टकसमवृधिभिः उत्सृष्टा-विक्षिप्ता, कुसुमवृष्टिः-पुष्पधारा यस्तादृशैः, पुनः कैश्चित् कतिपयैः, ललाटघटिताअलिपुटैः ललाटे घटितः-निवेशितः, अञ्जलिपुटः-पुटाकारसंश्लिष्टपाणियुगलं यस्तादृशैः, अम्बरतलवर्तिभिः गगनतलस्थितैः, कृत्रिमसुरसमूहैः निर्मितदेवगणैः, तत्प्रतिमाभिरित्यर्थः, परिकरितां परिवेष्टिताम् [घ ]; पुनः आर्द्रगोशीर्षचन्दनाङ्गरागवाहिनीम् आर्द्र-सरसं यद् गोशीर्षचन्दनं-हरिचन्दनं, तद्रूपाङ्गरागवाहिनीं-तद्रूपाङ्गलेपधारिणीम् । पुनः आमोदितमन्दिरोदराभिः आमोदितम्-अतिसुरभीकृतं, मन्दिरोदरं-प्रकृतायतना भ्यन्तरं याभिस्तादृशीभिः, पुनः मधुकरैः भ्रमरैः, शारीकृताभिः चित्रिताभिः, कीदृशैः ? मकरन्दलोभलग्नः पुष्परसलोभासक्तैः, पुनः अतिनिःस्पन्दतया अत्यन्तनिश्चलतया, प्रसुप्तैरिव अतिनिद्रितैरिव, पुनः मूछितैरिव संज्ञाशून्यैरिव, पुनः ग्रथितैरिव नियन्त्रितैरिवेति सर्वत्रोत्प्रेक्षा, पारिजातकुसुमस्रग्भिः पारिजाताख्यदेवकुसुममालाभिः, अभ्यर्चितां प्रपूजिताम् , अतितर्पितामित्यर्थः, कीदृशस्य कस्य प्रतिमाम् ? अगाधभवजलधिसेतुबन्धस्य अगाधस्य-अतलस्पर्शस्य, अतिगभीरस्येत्यर्थः, भवजलधेः-संसारसागरस्य, तदुत्तरणोपयोगिनः, सेतुबन्धस्य-सेतुबन्धखरूपस्य, पुनः बन्धनिर्मुक्तात्मनः कामादिवन्धनविमुक्तान्तःकरणस्य, पुनः मुक्तिसुखैककारणस्य मोक्षाख्यसुखैकहेतोः, पुनः निष्कारणबन्धोः निःखार्थहितैषिणः, परमकारुणिकस्य अत्यन्तदयालोः, पुनः शरणार्थिजन्तुसार्थसाध्वसमुषः शरणार्थिनः-रक्षकाभिलाषिणः, जन्तुसार्थस्य--प्राणिगणस्य, यत् साध्वसं-भयं, तन्मुषः-तदपहारिणः, पुनः निर्निमेषेण निश्चलेन, स्थायिने यर्थः, केवलज्ञानचक्षुषा इन्द्रियानपेक्षापरिच्छिन्नज्ञानरूपदृष्टया, साक्षात्कृतसकलभावस्य हस्तामलाकवदशेषविशेषपुरस्कारेणापरोक्षीकृताशेषपदार्थस्य, पुनः भुवनत्रयगुरोः खर्ग-मर्त्य-पातालाख्यलोकत्रयसम्यग्ज्ञानप्रदस्य, युगादिपार्थिवस्य युगारम्भिकपृथिव्यधिपतेः, प्रथमजिनपतेः आदिजिनेन्द्रस्य, ऋषभस्य ऋषभदेवस्य सम्बन्धिनीम् ; पुनः निर्भूषणामपि भूषणरहितामपि, भूषणाभावदशायामपीत्यर्थः, अनन्तगुणभूषणाम अपारगुणालङ्कताम् ; पुनः परितः सर्वतः, प्रभापूरेण द्युतिमण्डलेन, परीतां व्याप्ताम् , कीदृशेन? अपहस्तितगभस्तिमालितेजसा अपहस्तितम्-अपहृतं, गभस्तिमालिन -मरीचिमालिन;, सूर्यस्येत्यर्थः, तेजो येन तादृशेन, विग्रहवता मूर्तिमता, केवलालोकेनेव केवलज्ञानप्रकाशेनेव, सर्वाङ्गेभ्यः समस्तावयवेभ्यः, विगलता
महाप्रमाणाम् अधिकप्रमाणाम् , चिन्तामणिमयीं चिन्तामणि म सर्वोत्तममणिस्तन्मयीम् [छ।
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टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता । ____ अनन्तरं च निरन्तरोदञ्चदुच्चरोमाङ्करकदम्बकेन कदम्बकेसरोपहारमिव किरता विग्रहेणोदग्रपक्ष्माग्रलग्नोज्वलाश्रुजलविग्रुषा महार्घमुक्ताफलार्घमिवोरिक्षपता चक्षुर्द्वयेनोपलक्ष्यमाणहृदयानन्दथुना मन्थरमुपसृत्य शिरसि विरचिताञ्जलिमुकुलकरालभालपट्टस्तटघटितैकशुक्तिसंपुट इव जलराशिरतुलया भक्त्या प्रणम्य [च] प्रणतसुरमुकुटकोटिचुम्बितचरणपरागमपरागं तृणवदुज्झितानन्तरायमनन्तरायं त्रिभुवनभवनदीपमभवनदीपं संसारजीर्णरण्यैकपारिजातमपारिजातं सकलभव्यलोकनयनाभिनन्दनं नाभिनन्दनम् [छ] । आनन्दगद्गदया नवोदभारालसरसत्पयोदनादमेदुरया प्रासादभित्तिप्रतिनादच्छलेन सकलमपि गुणकलाप
टिप्पनकम्-विग्रहेण शरीरेण, चक्षुर्द्धयेन चोपलक्ष्यमाणहृदयानन्द इति चकारो द्रष्टव्यः [च] । यदि चुम्बितचरणपरागं कथम् अपरागम् अविद्यमानपरागम् ?, अन्यत्र अपगतरागम् । यदि उज्झितान्तरायं कथम् अनन्तरायम् अनन्तद्रव्यम् ? अन्यत्र अविद्यमानान्तरायकर्माणम् । यदि त्रिभुवनभवनदीपं जगत्रयगृहप्रदीपं, तत् कथम् अभवनदीपं न गृहदीपम् ? अन्यत्र अविद्यमानसंसारसमुद्रम् । यदि संसारजीर्णारण्यैकपारिजातं तत् कथम् अपारिजातं न पारिजातम् ? अन्यत्र अपगतबाह्याभ्यन्तरशत्रुसमूहम् । यदि सकलभव्यलोकनयनाभिनन्दनं तत् कथं नाभिनन्दनं न अभिनन्दनम् ? अन्यत्र नाभिकूलकरपुत्रम्
च पुनः, अनन्तरं प्रकृतप्रतिमादर्शनाव्यवहितोत्तरम् , निरन्तरोदश्चदुच्चरोमाकुरकदम्बकेन निरन्तरम्-अनवरतम् , उदञ्चत्-उद्गच्छत् , उच्चानाम्-उन्नतानां, रोमाङ्कराणां-पुलकाङ्कराणां, कदम्ब-समूहो यस्मिंस्तादृशेन. अत एव कदम्ब केसरोपहारं कदम्बाख्यकुसुमकिजल्करूपमुपहार, किरतेव विक्षिपतेवेत्युत्प्रेक्षा, विग्रहेण शरीरेण, पुनः उदग्रपक्ष्माग्रलग्नोज्वलाश्रुजलविपुषा उदग्रयोः-उन्नतयोः, पक्ष्मणोः-नयनरोमराज्योः, अने, लग्नाः-सङ्गताः, उज्ज्वलाः-भास्वराः, अश्रुजलविनुषः-नयनस्यन्दिजलबिन्दवो यस्मिंस्तादृशेन, अत एव महार्घमुक्ताफला प्रशस्तमुक्तामणिरूपमघम् , उत्क्षिपतेव उत्सृजतेवेत्युत्प्रेक्षा, चक्षुद्धयेन नेत्रयुगलेन, च, उपलक्ष्यमाणहृदयानन्दथुना प्रतीयमानहृदयानन्देन, मन्थरं मन्दम् , उपसृत्य समीपं गत्वा, 'उपलक्ष्यमाणहृदयानन्दः' इति पाठे तु निरुक्तेन शरीरेण चक्षुयेन च प्रतीयमानो हृदयानन्दो यस्य तादृशः समरकेतुरित्यर्थो ज्ञेयः,शिरसि मस्तके, विरचिताञ्जलिमुकुलकरालभालपट्टः विरचितेन-निर्मितेन, अञ्जलिमुकुलेन-अञ्जलि रूपकुङ्मलेन, काराल:-भीषणः, तुङ्गो वा, भालपट्टः-ललाटफलकं यस्य तादृशः सन् , अत एव तटघटितैकशुक्तिसम्पुटः तटेतीरे, घटितः-मिलितः, एकः शुक्तिसम्पुटः-संश्लिष्टशुक्तिर्यस्य तादृशः, जलराशिरिव समुद्र इवेत्युत्प्रेक्षा, नाभिनन्दनं नाभिसुतम् , ऋषभदेवमित्यर्थः, अतुलया अनुपमया, भक्त्या प्रीत्या, प्रणम्य नमस्कृत्य [च], कीदृशम् ? प्रणतसुरमुकुटकोटिचुम्बितचरणपरागं प्रणतानां-नमस्कृतवतां, सुराणां-देवानां, मुकुटकोटिभिः-कोटिमस्तकालङ्करणैः, चुम्बितः-स्पृष्टः, चरणयोः-पदकमलयोः, परागः-धूलियस्य तादृशमपि, अपरागं परागरहितमिति विरोधः, तदुद्धारे तु अप-अपगतो रागः-विषयाद्यभिलाषो यस्य तादृशम् , पुनः तृणवदुज्झितानन्तरायं तृणवत्-तृणमिव, उज्झितः-त्यक्तः, अनन्तः-अप्रमितः, रा:-धनं येन तादृशं, तथापि अनन्तरायम् अनन्तधनकमिति विरोधः, तदुद्धारे तु अविद्यमानः, अन्तरायः-विघ्नो विघ्नजनकमन्तरायकर्म वा यस्य तादृशम् , पुनः त्रिभुवनभवनदीपं त्रिभुवनरूपस्य-लोकत्रयात्मकस्य, भवनस्य-गृहस्य, दीपं - ज्ञानालोकजनकं, यद्वा भुवनत्रयस्य भवनदीपं-गृहदीपं, तथापि अभवनदीपं भवनदीपभिन्नमिति विरोधः, तत्परिहारे तु अभवनस्य-भवो नामोत्पत्तिः, तद्विरुद्धस्य मोक्षसुखस्य, नदीपं-सागरम् , यद्वा न विद्यते भवात्मकः सागरो यस्य तादृशम् , पुनः संसारजीारण्यैकपारिजातं संसाररूपस्य, जीर्णस्य-प्राचीनस्य, अरण्यस्य-वनस्य, एकम्-अद्वितीयं, पारिजातं-देववृक्ष, तथापि अपारिजातं पारिजातभिन्नमिति विरोधः, तत्परिहारे तु अप-अपगतम् , अरिजातं-बाह्याभ्यन्तरशत्रुवर्गो यस्य तादृशम् , पुनः सकलभव्यलोकनयनाभिनन्दनं सकलानां-सर्वेषां, भव्यलोकाना-मोक्षगमनाहजनानां, नयनाभिनन्दनं नयनप्रसादकम् , तथापि नाभिनन्दनं अभिनन्दनभिन्नमिति विरोधः, तत्परिहारे-नाभेः-नाभिनामककुलकस्य, नन्दन-पुत्रम् , ऋषभदेवमित्यर्थः [छ] । आनन्दगद्गदया आनन्दरूपहेतुना अव्यक्तरूपया, पुनः नवोदभारालसरसत्पयोदनादमेदुरया नवोदभारेण-नवीनजलगौरवेण, अलसानां-मन्थराणां, रसतां-ध्वनतां च, पयोदानां-मेघानां, नादवत्-वनिवत् , मेदुरया-सान्द्रया, पुनः सकल
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तिलकमञ्जरी
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मेकरूपेणाभिधातुमशक्यमाकलय्य कृतानन्तरूपयेवातिगम्भीरया भारत्या स्मरयन्निव समवसरणदुन्दुभिध्वनेरिति कर्तुं स्तुतिं प्रस्तुतवान्
"शुष्कशिखरिणि कल्पशाखीव, निधिरधनग्राम इव, कमलखण्ड इव मारवेऽध्वनि भवभीमारण्य इह, वीक्षितोऽसि मुनिनाथ, कथमपि ॥ १ ॥ दृष्टे भवति नयनसृष्टया सममद्य जन्म जिन ! सफलमभून्मम । अकृतपुण्यमपि सुकृतिजनं प्रति, लघुमात्मानमवैमि न संप्रति ॥ २ ॥ [ज"
इत्यादिभिरपराभिरप्यनेकप्रकाराभिरुदारपदवृत्तशालिनीभिरन्वर्थगुणप्रथनहृदयङ्गमाभिः संवेगविस्तारणपटीयसीभिः स्तुतिभिरावर्जितप्राज्यपुण्यभारः [झ] परिक्षीणघनकल्मषसंघातलघुमपि संभावितगौरवमवाप्तनिःशेषतीर्थाभिषेकमिव समग्रग्रहकृतानुग्रह मिव कराग्रलमसप्तलोकराज्यसंपदमिव पादतलाक्रान्तदुःखपरम्पराकूपारपारमिव पावनं च सुखिनं च सुकृतिनं च कृतकृत्यं चात्मानं मन्यमानः [अ], चिरावस्थान
मपि समग्रमपि, गुणकलापं गुणराशिम् , एकरूपेण एकाकारेण, अभिधातुं वर्णयितुम् , अशक्यं शक्त्यसाध्यम् , आकलय्य अवगत्य, प्रासादभित्तिप्रतिनादच्छलेन प्रकृतायतनकुड्यप्रतिध्वनिव्याजेन, कृतानन्तरूपयेव धृतानन्ताकारयेवेत्युत्प्रेक्षा, अतिगम्भीरया परमोच्चया, भारत्या वाचा, समवसरणदुन्दभिध्वनेः तीर्थङ्करसम्बन्धिसभोत्सवभेरीनादस्य, स्मरयन्निव स्मृतिपथमवतारयन्निव, इति अनुपदवक्ष्यमाणप्रकारेण, स्तुतिं प्रकृतजिनेन्द्राभिनन्दनं, कर्तुं प्रस्तुतवान् प्रारब्धवान् ।
मुनिनाथ ! मुनिश्रेष्ठ ! शुष्कशिखरिणि शुष्कपर्वते, कल्पशाखीव कल्पवृक्ष इव, पुनः अधनग्रामे निर्धनग्रामे, निधिरिव धनकोष इव, पुनः मारवे मरुदेशसम्बन्धिनि, अध्वनि मार्गे, कमलखण्ड इव कमलवनमिव, इह अस्मिन् भवभीमारण्ये संसारात्मकभीषणवने, वीक्षितोऽसि दृष्टोऽसि ॥
जिन ! हे ऋषभजिन !, कथमपि केनापि प्रकारेण, आनुषङ्गिकतयापीत्यर्थः, भवति त्वयि, दृष्टे दृष्टिपथावतीर्णे सति, मम, नयनसृष्टया नयनरचनया, समं सह, जन्म, अद्य अस्मिन् दिने, सफलं सार्थकम् , अभूत् संपन्नम् , अकृतपुण्यमपि पुण्यरहितमपि, आत्मानं स्वम् , सुकृतिजनं प्रति पुण्यशालिजनापेक्षया, लघु न्यूनम् , अवैमि जानामि, जानन्नासमित्यर्थः, परन्तु सम्प्रति अधुना, त्वद्दर्शनसौभाग्यवेलायामित्यर्थः, न न जानामीत्यर्थः ॥ [ज] ____ इत्यादिभिः एतादृशीभिः, अपराभिरपि अन्याभिरपि, अनेकप्रकाराभिः बहुविधाभिः, उदारपदवृत्तशालिनीभिः उदारैः-प्रशंसनीयैः, बृहद्भिर्वा, पदैः-स्याद्यन्तत्याद्यन्तैः, वृत्तः-छन्दोभिश्च, शालन्ते-शोर अन्वर्थगुणग्रथनहृदयङ्गमाभिः अन्वर्थ-प्रत्यर्थ, गुणग्रथनेन-गुणानुबन्धेन हृदयङ्गमाभिः-मनोहराभिः, पुनः संवेगविस्तारणपटीयसीभिः संवेग:--वैराग्यं मोक्षाभिलाषो वा, तस्य विस्तारणे-वर्धने पटीयसीभिः-धुरीणाभिः, स्तुतिभिः गुणगाथाभिः, आवर्जितप्राज्यपुण्यसम्भारः आवर्जितः-उपार्जितः, प्राज्यस्य-प्रचुरस्य पुण्यस्य, सम्भारः-समूहो येन तादृशः सन् [झ परिक्षीणघनकल्मषसंघातलघमपि परिक्षीणेन-विध्वस्तेन, घनेन-निबिडेन, कल्मषसंघातेन-दुरितराशिना, लघुमपि गुरुत्वरहितमपि, सम्भावितगौरवं सम्भावितं सम्भावनाविषयीकृतं, गौरव-प्राशस्त्यं येन तादृशम् , आत्मानं खं, मन्यमानः जानन्नित्यप्रेणान्वेति, पुनः अवाप्तानिःशेषतीर्थाभिषेकमिव अवाप्तः-लब्धः, निःशेषेषु-समस्तषु, तीर्थेषु-पुण्यक्षेत्रेषु, अभिषेकः-स्नानसंस्कारो येन तादृशमिव, पुनः समग्रग्रहकृतानुग्रहमिव समप्रैः-सकलैः, ग्रहै:-राहुकेत्वादिभिः, कृतः, अनुग्रहः-कृपा यस्मिंस्तादृशमिव, पुनः करायलग्नसप्तलोकराज्यसम्पदमिव कराग्रे हस्ताग्रे, लग्ना-आश्लिष्टा, सप्तलोकानां-सप्तभुवनाना, राज्यसम्पत्-आधिपत्यसम्पत्तिर्यस्य तादृशमिव, पुनः पादतलाक्रान्तदुःखपरम्पराऽकृपारपारमिव-पादतलेन-पादाधस्तनभागेन, आक्रान्तः-अधिष्ठितः, दुःखपरम्पराऽकूपारस्य-दुःखसन्तानसागरस्य, पारः-सीमा येन तादृशमिव, च पुनः, पावनं पवित्रं, सुखिनं सानन्द, च पुनः, सुकृतिनं पुण्यवन्तम् ; च पुनः, कृतकृत्यं कृतकार्यम् , . आत्मानं मन्यमानः [अ] चिरावस्थानविस्मृतगतिकमामिव चिरावस्थानेन-दीर्घकालिकनिःस्यन्दतया, विस्मृतः
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टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता । विस्मृतगतिक्रमामिव कपोललावण्यपङ्कलग्नामिव दीर्घकालविरतनिमेषस्वेदनिःसहामिव लब्धलोकोत्तरास्पदपरित्यागकातरामिव मुनीन्द्रमुखचन्द्रात् कथश्चिदनुरागनिश्चलां दृष्टिमाकृष्य [2] 'पाटलचञ्चपुटसूच्यमानशुकपेटकावस्थितिरतिप्रभादयोऽयमिन्द्रनीलमत्तालम्बश्चन्द्रिकाशकिचकोरलिझमानवदनेन्दुकान्तिरतिसुन्दरीयमिन्दुमणिशालभञ्जिका भिन्नवर्णरत्नोपलपट्टसंघटनशबलाखण्डलचापखण्डनिर्मितेवेयमाभाति स्तम्भपतिरवलम्बितोज्वलमुक्तावलीकलापमधोमुखमयूखकन्दलमिन्दुमण्डलमिवेदमानन्दयति सितदुकूलवितानम् [3] इति प्रशस्तानेकवस्तुदर्शनरसाक्षिप्तदृष्टिरसियष्टिकरालकरतलैरमलमाणिक्यस्तम्भपातिभिः स्वप्रतिमाशतैरनुगम्यमानमूर्तितया सपत्तिपरिवार इव [ड] सुचिरमितस्ततः प्रासादकुक्षिषु विहृत्य दक्षिणभित्तिप्राग्भागभाजि बद्धगुञ्जप्रभञ्जनावतारचारौ चारणाभिलिखितसुभाषितविभूषितद्वारशिरसि द्यूतरसिकसुरकुमारकोत्कीर्णविविधफलकाङ्किततले भुजङ्गकामिनीजघनपुलिनस्पर्शलालितोत्सङ्गे विनिर्यदसितागुरुधूमवर्तिभ्रान्ति
गतिक्रमः-स्यन्दनप्रकारो यया तादृशीमिव, पुनः कपोललावण्यपङ्कलग्नामिव कपोलतलयोः-गण्डस्थलयोः, यल्लावण्यंसौन्दर्य, तद्रूपे पङ्के, लग्नां-संश्लिष्टामिव, पुनः दीर्घकालविरतनिमेषखेदनिःसहामिव दीर्घकालविरतस्य-चिर निमेषखेदस्य-स्पन्ददुःखस्य, निःसहाम्-असहिष्णुमिव, पुनः लब्धलोकोत्तरास्पदपरित्यागकातरामिव लब्धस्य-अध्या. सितस्य, लोकोत्तरस्य-सर्वोत्कृष्टस्य, आस्पदस्य-स्थानस्य, परित्यागेन कातराम्-अधीरामिव, अनुरागनिश्चला स्नेहस्थिरां, दृष्टिं चक्षुः, कथञ्चित् कथमपि, मुनीन्द्रमुखचन्द्रात् मुनीन्द्रस्य-प्रकृतजिनेन्द्रस्य, मुखरूपात् चन्द्रात् , आकृष्य बलान्निवर्त्य; [टपाटलचञ्चपुटसूच्यमानशुकपेटकावस्थितिःपाटलाभ्यां-रक्तवर्णाभ्यां. चञ्चपुटाभ्यांप्रत्याय्यमाना, शुकपेटकस्य-शुकसमूहस्य, अवस्थितियस्मिंस्तादृशः, अतिप्रभाढ्यः अत्यन्तद्युतिपूर्णः, अयं प्रत्यक्षः, इन्द्रनीलमत्तालम्बः इन्द्रनीलमणिनिर्मितः, मत्तालम्बः-मत्तवारणः, उपवेशनस्थानविशेष इत्यर्थः, अस्तीति शेषः, पुनः चन्द्रिकाशकिचकोरलिह्यमानवदनेन्दुकान्तिः चन्द्रिकाशङ्किभिः-ज्योत्स्नाभ्रान्तिमद्भिः, चकोरैः-चन्द्रप्रियपक्षिविशेषैः, लिह्यमानापीयमाना, वदनेन्दुकान्तिः-मुखचन्द्रच्छविर्यस्याः तादृशी, अतिसुन्दरी परममनोहारिणी, इयम् , इन्दुमणिशालभञ्जिका चन्द्रकान्तमणिमयपुत्तलिका, अस्तीति शेषः, पुनः भिन्नवर्णरत्नोपलपट्टसंघटनशबला भिन्नवर्णाना-नानावर्णानां, रत्नोपलपट्टानां-रत्नमयानां स्तम्भोपरिस्थितानां तिरश्चां स्तम्भविशेषाणां, संघटनेन-सन्निवेशेन, शबला-चित्रवर्णा, इयं सन्निकृष्टा, स्तम्भपङ्किः स्तम्भश्रेणी, आखण्डलचापखण्डनिर्मितेव आखण्डलस्य-इन्द्रस्य, यश्चापः-धनुः, तस्य खण्डेन, निर्मितेवरचितेव, आभाति शोभते, पुनः अवलम्बितोऊवलमुक्ताकलापम् अवलम्बितः-अधोधृतः, उज्वलः-मुक्ताकलापः-मुक्तामणिगणो येन तादृशम् , अत इन्दुमण्डलमिव चन्द्रबिम्बमिव, अधोमुखमयूखकन्दलम् अधोमुखानि-अधःपातीनि, मयूखकन्दलानि-किरणाकुरा यस्य तादृशम् , इदं पुरोवर्ति, सितदुक्रलवितानं शुभ्रकौशेयवस्त्रमयोल्लोचः, इन्दुमण्डलमिव चन्द्रबिम्बमिव, आनन्दयति प्रसादयति [ठ] । इति इत्थं, प्रशस्तानेकवस्तुदर्शनरसाक्षिप्तदृष्टिः प्रशस्तानां-मनोहराणाम् , अनेकेषां-बहूनां, वस्तूनां, दर्शनरसेन-दर्शनकौतुकेन, आक्षिप्ता-आकृष्टा, दृष्टिः-चक्षुर्यस्य तादृशः; असियष्टिकरालकरतलैः असियष्ट्या-खड्गयष्टिकया, करालं-भीषणं, करतलं-हस्ततलं येषां तादृशैः, पुनः अमलमाणिक्यस्तम्भपातिभिः उज्जवलरत्नमयस्तम्भसंक्रामिभिः, स्वप्रतिमाशतैः स्वप्रतिबिम्बशतैः, अनुगम्यमानमूर्तितया अनुगम्यमानापरिवेष्ट्यमाना, मूर्तिः-शरीरं यस्य तादृशतया, सपत्तिपरिवार इव पत्तिभिः-पादगामिभिः, परिवारैः-परिवेष्टकजनैः सहित इव परिवेष्टित इवेत्युत्प्रेक्षा [ड] । इतस्ततः अत्र तत्र, प्रासादकुक्षिषु प्रकृतमन्दिरमध्येषु, सुचिरं दीर्घकालं, विहृत्य परिभ्रम्य, दक्षिणभित्तिप्राग्भागभाजि दक्षिणकुड्यपूर्वभागवर्तिनि, पुनः बद्धगुञ्जप्रभञ्जनावतारचारौ बद्धः-विहितः, गुजः-ध्वनियेन तादृशस्य, प्रभञ्जनस्य-पवनस्य, अवतारेण-आगमनेन, चारौ-मनोहरे, पुनः चारणाभिलिखितसुभाषितविभूषितद्वारशिरसि चारणैः-कीर्तिसंचारकजनविशेषैः, अभिलिखितानि-अभितो लिखितानि, यानि सुभाषितानि-यशोगानानि, तैः, भूषितम्-अलङ्कृतं, द्वारशिरः-द्वारोवभागो यस्य तादृशे, पुनः द्यूतरसिकसुरकुमारकोत्कीर्णविविधफलकाङ्किततले द्यूतरसिकैः-द्यूतक्रीडाकौतुकिभिः, सुरकुमारकैः-देवबालकैः, उत्कीर्णैः-उत्खातैः, फलकैः-द्यूतपट्टकैः, अङ्कितं-चिह्नितं, तलम्-अधोदेशो यस्य तादृशे, पुनः भुजङ्गकामिनीजघनपुलिनस्पर्शलालितोत्सङ्गे भुजङ्गकामिनीनां-सर्पस्त्रीणां, जघन
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तिलकमञ्जरी
दायिना मरीचिचक्रवालेन धूम्रीकृताहिमांशुमहसि महीयसि महानीलवातायने ससंभ्रमोत्पतितदुर्लक्षपारापतमिथुनपक्षरवचकितचक्षुः कृतस्मितमुपाविशत् [ ढ ] |
मत्तवारणोत्सङ्गसमर्पिताङ्गभारश्च तस्य वातायनस्य पाश्चात्यभित्तिगर्भविन्यस्ते स्त्यानचन्द्रिकापटलत्विषि स्फाटिकशिलापट्टे निकुट्टितामतिस्पष्टवर्णतया तद्दिनोत्कीर्णामिव मरकतद्रुतिपूरितनिखिल रेखारन्ध्रमांसलाभिरत्यच्छतयाश्रयस्य निरालम्बाभिरिवाम्बरतलोत्कीर्णाभिरिव समतया प्राञ्जलतया च यत्राकृष्टाभिरिव सरस्वतीकण्ठमणिकण्ठिकानुकारिणीभिर्वर्णपङ्क्तिभिरुद्भासितां प्रशस्तिमैक्षत [ ण ] । तत्क्षणमात्रमर्पितेक्षणश्च तस्यामानन्दनिर्भरेण चेतसा चिन्तां विवेश - ' किं तदस्ति नाम रमणीयमद्भुतं वा जगति यन्न दर्शयतीन्द्रजालिक इव मायाप्रगल्भः शुभकर्मणामासादितोदयः परिणामो, येन यानि वार्तास्वप्यनाकर्णनीयानि स्वप्नेऽप्यनुपलभ्यानि मनसाप्यसंकल्पनीयानि वर्षशतैरप्यननुभवनीयानि जन्मान्तरैरप्यनवलोकनीयानि मर्त्यलोके तान्ये
१०३
टिप्पनकम् - स्त्याना - घना [ण ] ।
पुलिनस्य- जलादचिरोद्गतस्थालायमान कटिपुरोभागस्य, स्पर्शेन - शीतलस्पर्शसौख्येन, लालितः-उल्लासितः, उत्सङ्गः- मध्यभागो यस्य तादृशे, पुनः विनिर्यदसितागुरुधूमवर्तिभ्रान्तिदायिना विनिर्यती - उद्गच्छन्ती, या असितागुरोः - कालागुरुसम्बन्धिनी, धूमवर्तिः-धूमधारा, तद्भान्तिदायिना-तमकारिणा, मरीचिचक्रवालेन - किरणमण्डलेन, धूम्रीकृता हिमांशुमहसि धूम्रीकृतं - कृष्णसम्वलितरक्तवर्णीकृतम्, अहिमांशोः - अहिमः - उष्णः, अंशुः - किरणो यस्य तस्य, सूर्यस्येत्यर्थः, महः - तेजो येन तादृशे, महीयसि विशालतमे, महानीलवातायने इन्द्रनीलमणिमयगवाक्षे, ससम्भ्रमोत्पतितदुर्लक्षपारावतमिथुन पक्षरवचकितचक्षुः कृतस्मितं ससम्भ्रमं - संवेगं यथा स्यात् तथा, उत्पतितस्य - उड्डीनस्य, दुर्लभस्य - दुःखेन लक्षितुं शक्यस्य, पारावतमिथुनस्य- कपोतद्वन्द्वस्य, पक्षरवेण पक्षोत्क्षेपेण ध्वनिना, चकितं विस्मितं चक्षुः नेत्रं यस्य तादृशः सन् कृतस्मितं कृतं स्मितं-मन्दहासो यस्मिंस्तादृशं यथा स्यात् तथा, उपाविशत् उपविष्टवान् [ ८ ] |
च पुनः मत्तवारणोत्सङ्गसमर्पिताङ्गभारः मत्तवारणस्य-मत्तं प्रमत्तं वारयतीति मत्तवारणं, वरण्डिकाख्यं स्थानं तस्य, उत्सङ्गे-मध्यभागे, समर्पितः - निहितः, अङ्गभारः - स्वशरीरभारो येन तादृशः, तस्य - प्रकृतस्य, वातायनस्य गवाक्षस्य, पाश्चात्यभित्तिगर्भ विन्यस्ते पश्चिमकुष्यमध्य निहिते, पुनः स्त्यानचन्द्रिकापटलत्विषि स्त्यानस्य - संहतस्य, चन्द्रिकापटलस्य-ज्योत्स्नागणस्येव, त्विट् - कान्तिर्यस्य तादृशे, स्फटिकशिलापट्टे स्फटिकमणिमयफलके, निकुट्टिताम् उट्टङ्कितां, प्रशस्ति प्रशंसात्मक पदावलीम्, ऐक्षत दृष्टवानित्यग्रेणान्वेति कीदृशीम् ? अतिस्पष्टवर्णतया अत्यन्तोज्ज्वलवर्णतया, तद्दिनोत्कीर्णामिव तद्दिने-तस्मिन् दिने, उत्कीर्णा - उत्खातामिव, विन्यस्तामिवेत्यर्थः इत्युत्प्रेक्षा, पुनः मरकतद्रुतिपूरितनिखिलरेखारन्ध्रमांसलां मरकद्रुतिभिः - नीलमणिपङ्कैः, पूरितैः -पूर्णैः, निखिलरेखारन्त्रैः- समस्तरेखाच्छिद्रैः, माँसलाभिः-स्थूलाभिः, पुनः आश्रयस्य- आधारफलकस्य, अत्यच्छतया अत्युज्वलतया, निरालम्बाभिरिव निराधाराभिरिव पुनः अम्बरतलोत्कीर्णाभिरिव गगनतले उत्खाताभिरिव, तत्रोल्लिखिताभिरिवेत्यर्थः पुनः समतया निम्नोन्नतभावशून्यतया, च पुनः प्राञ्जलतया ऋजुता, यन्त्राकृष्टाभिरिव मुद्रणयन्त्रमुद्रिताभिरिवेत्युत्प्रेक्षा सरस्वतीकण्ठमणिकण्ठिकानुकारिणीभिः सरस्वत्याः वागधिष्ठातृदेव्याः, कण्ठे - प्रीवायां, या मणिकण्ठिका - मणिमयकण्ठाभरणम्, तदनुकारिणीभिः - तदनुकर्त्रीभिः, वर्णपङ्गिभिः अक्षरश्रेणीभिः, उद्भासिताम् उद्दीपिताम् [ण ] । च पुनः, तस्यां प्रकृतप्रशस्तौ क्षणमात्रं क्षणमेकम्, अर्पितेक्षणः निहितदृष्टिः सन्, आनन्दनिर्भरेण प्रमोदपूर्णेन चेतसा मनसा, चिन्ताम् आलोचनां विवेश प्रविष्टवान् कर्तुं प्रवृत्त इत्यर्थः । तथाहि-जगति लोके, रमणीयं मनोहरम्, वा अथवा, अद्भुतम् आश्चर्य, तत् किम् अस्ति, नामेति वाक्यालङ्कारे, यत् इन्द्रजालिक इव इन्द्रजालविद्याभिज्ञ इव, मायाप्रगल्भः मायायां सपदि विविधाद्भुतदृश्योपस्थापने, प्रगल्भः-पटीयान्, आसादितोदयः प्राप्तावसरः, शुभकर्मणां पुण्यकर्मणां, परिणामः परिपाकः, न दर्शयति मुपस्थापयति, येन यस्माद्धेतोः, मर्त्यलोके मर्त्यभवने, यानि वस्तूनि वार्तास्वपि गोष्ठीकथास्वपि, अनाकर्णनीयानि आकर्णयितुं श्रोतुमशक्यानि, पुनः स्वप्नेऽपि स्वप्नावस्थायामपि, अनुपलभ्यानि उपलब्धुम् - अनुभवितुमशक्यानि, पुनः मनसापि,
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टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता । कस्मिन्नहनि मुहूर्ताभ्यन्तरे सहसैवाद्य मे दृष्टिपथमुपागतानि [त] । प्रथमं तावत् पर्यटदनन्तसत्त्वसंघातघोरे संसार इवातिदूरपारेऽस्मिन् महाकान्तारे सारभूतं धर्मतत्त्वमिवानेकभङ्गगम्भीरं सरो दृष्टम् । अथ तदवगाहनकर्मनिर्मलीभूतात्मना त्रिविष्टपमिव त्रिदशोपभोगयोग्यमुन्निद्रकल्पद्रुममालामनोहरमुद्यानमिदं क्रमेण चापवर्गस्थानमिव वर्णनापथोत्तीर्णमाहात्म्यस्वरूपमेतन्जिनायतनम् । अतः परं किमन्यदवलोकनीयम् [थ] ।
संप्रति हि दीयते दर्शनीयकथानां मुद्रा, क्रियते तेजस्विवार्तानां निवृत्तिः, वितीर्यते आश्चर्यदर्शनस्योदकाञ्जलिः, विधीयते लोचनयोरुभयथापि पट्टबन्धः, कथं नु नामास्य प्राणिन इव कार्येन कर्मपरिणतिविशेषा ज्ञायन्ते, ज्ञायमाना अपि केन प्रकारेण वर्ण्यन्ते, वर्ण्यमाना अपि कया युक्त्या परस्य
टिप्पनकम्-पर्यटदनन्तसत्त्वसंघातघोरे संसार इवातिदूरपारेऽस्मिन् महाकान्तारे सारभूतं धर्मतत्त्वमिवानेकभङ्गगम्भीरं सरो दृष्टम् एकत्र परिभ्रमदनेकसिंहादिजीवसंघातरौद्रे, अतिदूरपर्यन्ते च, अन्यत्र संसरदनेकजीवसमूहयोरे, अदृष्टपर्यन्ते च, सारभूतं-प्रधानभूतम् , अनेकभङ्गगम्भीरं च-नानाभङ्गकगम्भीरं तत्त्वं, सरश्च सर्वतडागप्रधानं, नानाकल्लोलालब्धमध्यं च [थ]। उभयथापि पट्टबन्धः उभाभ्यां प्रकाराभ्याम् , पट्टस्य-वस्त्रखण्डस्य बन्धनं, तथा सुवर्णादिपट्टबन्धनम् । कथं नु नामास्य प्राणिन इव कारूयेन कर्मपरिणतिविशेषा विज्ञायन्ते अस्य-आयतनस्य, क्रियापरिणामभेदाः कथं ज्ञायन्ते, नु-वितर्केनापि, नाम-व्यक्तं, न कथमपि, अन्यत्र ज्ञानावरणीयादिकर्मपरिणामभेदाः [द]।
असंकल्पनीयानि संकल्पितुम्-आलोचयितुम् , अशक्यानि, पुनः वर्षशतैरपि अनेकशतसंख्यकवरैरपि, अननुभव
अनुभवितुमशक्यानि, पुनः जन्मान्तरैरपि अन्यान्यजन्मभिरपि, अनवलोकनीयानि अवलोकितुं-द्रष्टुम् , अशक्यानि, सन्तीति शेषः, तानि वस्तूनि, अद्य एकस्मिन् , अहनि दिने, मुहूर्ताभ्यन्तरे मुहूर्तमध्ये, सहसैव शीघ्रमेव, मे मम, दृष्टिपथं दृष्टिमार्गम् , उपगतानि उपस्थितानि [त]। तावदिति वाक्यालंकारे, प्रथमं पूर्व, संसार इव, पर्यटदनन्तसत्त्वसंघातघोरे पर्यटद्भिः-परिभ्रमद्भिः, पक्षे संसरद्धिः, अनन्तानाम्-गणनातीतानां, पक्षे अनन्तसंख्याकानां, सत्त्वानांसिंहव्याघ्रादीना, पक्षे सामान्यतो जीवानां, संघातैः-समूहैः, घोरे-भीषणे, पुनः अतिदूरपारे अतिदूरः-परमदूरः, अत्यन्तदुष्प्राप इत्यर्थः, पारः-चरमावधिर्यस्य तादृशे, पक्षे अदृष्टपर्यन्ते, अस्मिन् , महाकान्तारे महावने, धर्मतत्त्वमिव धर्मस्वरूपमिवसारभूतं सर्वसरोवरप्रधानं, पक्षे प्रधानभूतं, पुनः अनेकभङ्गगम्भीरम् अनेकैः-बहुभिः, भङ्गैः-तरङ्गैः, गम्भीर-निम्नम् , अगाधमित्यर्थः; पक्षे अनेकैः, भङ्गैः-निरूपणाप्रकारैः, विच्छित्तिभिर्वा, गम्भीर-परिपूर्णम् , सरः प्रकृतसरोवरः, दृष्टम् अवलोकि, तम् । अथ तद्दर्शनानन्तरम् , तदवगाहनकर्मनिर्मलीभूतात्मना तदवगाहनकर्मणा-तन्मजनकर्मणा, निर्मलीकृतः-विशो, धितः, आत्मा-देहो येन तादृशेन, मयेति शेषः, त्रिविष्टपमिव स्वर्गमिव, त्रिदशोपभोगयोग्यं त्रिदशानां-देवानाम् , उपभोगयोग्यं-सुखानुभवयोग्यम् , पुनः उन्निद्रकल्पद्रममालामनोहरम् उन्निद्रकल्पानां-विकसितप्रायाणाम् , दुमाणां-वृक्षाणां, यद्वा विकसितानां कल्पवृक्षाणां, मालाभिः-पङ्किभिः, मनोहरम् , इदम् प्रत्यक्षम् , उद्यानं, दृष्टमिति शेषः, च पुनः, क्रमेण तदनन्तरम् , अपवर्गस्थानमिव मोक्षस्थानमिव, वर्णनापथोत्तीर्णमाहात्म्यस्वरूपं वर्णनापथोत्तीर्ण-वर्णनमार्गातिकान्तम् , अवर्णनीयमित्यर्थः, माहात्म्यं-महिमा यस्य तादृशस्वरूपकम् , एतत् सन्निकृष्टतरं, जिनायतनं जिनेन्द्रमन्दिर, दृष्टमिति शेषः, अतः अस्मात्, परम् उत्कृष्टम् , अन्यत् अतिरिक्त, किं वस्तु, अवलोकनीयं द्रष्टव्यम् [था।
हि यतः, सम्प्रति इदानीं, दर्शनीयकथानां द्रष्टव्यवस्तुवार्तानां, मुद्रा अवरोधः, दीयते क्रियते, पुनः तेजस्विवार्तानां दीप्तिमद्वस्त्वनुसन्धानानां, निवृत्तिः त्यागः, क्रियते, पुनः आश्चर्यदर्शनस्य अद्भुतवस्त्ववलोकनस्य, उदकाञ्जलिः जलाञ्जलिः, वितीर्यते दीयते, तत्सम्बन्धविच्छेदः क्रियत इति भावः । पुनः लोचनयोः नयनयोः, उभयथापि उभयप्रकारेणापि, पट्टबन्धः पट्टस्य-वस्त्रखण्डस्य सुवर्णादिपट्टस्य च, बन्धः-बन्धनं, विधीयते क्रियते । नामेति वाक्यालङ्कारे प्रकटार्थे वा, प्राणिन इव जीवस्येव, अस्य प्रकृतायतनस्य, कर्मपरिणतिविशेषाः पक्षे विविधभवप्रयोजकशिल्पपरिणामविशेषा:: पक्षे ज्ञानावरणीयादिकर्मफलविशेषाः, कार्येन साकल्येन, न वितर्के, कथं केन प्रकारेण, ज्ञायन्ते निर्णीयन्ते? पुन
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तिलकमञ्जरी
१०५ प्रतीतिविषयमारोप्यन्ते [द] । वञ्चिताः खलु दिवोकसोऽपि ये परित्यक्तसुरलोकवसतयः सततमिह न वसन्ति । किमन्यजन्मान्तरे कृतमवदातमेभिः पारापतप्रभृतिभिः पत्ररथैः कर्म येन तिर्यक्त्वेऽप्युपनतोऽयमायतनच्छद्मना विमानवासः । न जाने केन सुकृतकर्मणा निर्मापितमिदम् , केन वा निर्मितम् , कुतो वा रत्नशिलाराशिरेतावानेष लब्धः । न तावदतिसमृद्धोऽपि मर्त्यधर्मा कश्चनापि कारयितुमिदमीश्वरः, न विश्वकर्माणमन्तरेण कर्मनैपुणमित्थंभूतमपरस्य शिल्पिनः संभाव्यते, न च रत्नसानुगिरेरन्यत्र रत्नषदामीदृशीनामुत्पत्तिः श्रूयते । सर्वथा देवनिर्मितेनामुना भवितव्यम् , मन्ये च येनैतदायतनमुत्पादितं सरोऽप्यदस्तेनैव खानितमारामोऽप्येषस्तस्यैव, कीर्तिर्या चास्य वृत्तान्तस्याभिव्यक्तेः कारणम् , तस्यामपीह प्रशस्तावष्टादशलिपिव्यक्तिव्यतिरिक्तः कोऽप्यपरो लिपिविन्यासः, स एष व्यक्ताक्षरोऽपि न शक्यते ऊहितुम् , केवलमालोकितपूर्व इव चेतसि चमत्कारमातनोति [ध] । न चात्र संचरन् वनचरोऽपि तथाविधः कश्चिदालोक्यते यमापृच्छय सम्यग्वृत्तान्तमेनमवगच्छामि । यद्वा किमनेन पृष्टेन ज्ञातेन वा प्रयासमात्रफलेन प्रयोजनम् , ज्ञात्वापि कस्य प्रतिपाद्य निर्वृतो भविष्यामि विना कल्पकोटिजीविना कुमारहरिवाहनेन ।
शायमाना अपि निणर्णीयमाना अपि, केन प्रकारेण वर्ण्यन्ते स्तूयन्ते, पुनः वर्ण्यमाना अपि स्तूयमाना अपि, कया युक्त्या रीत्या, परस्य अन्यस्य, प्रीतिविषयं प्रीतिपथम् , आरोप्यन्ते अवतार्यन्ते [द ] । खलु निश्चयेन, दिवोकसो. ऽपि देवा अपि, वञ्चिताः भाग्येन प्रतारिताः, ये परित्यक्तसुरलोकवसतयः परित्यक्तः-वर्जितः, सुरलोके-देवलोके, वसतिः-निवासो यैस्तादृशाः सन्तः, इह अस्मिन् मन्दिरे, सततं नित्यं, न वसन्ति । एभिः प्रत्यक्षभूतैः, पारापतप्रभृतिभिः कपोतप्रमुखैः, पत्ररथैः पक्षिभिः, अन्यजन्मान्तरे अन्यान्यजन्मनि, अन्यजन्ममध्ये वा, अवदातं विशुद्धं, किं कर्म कृतम आचरितं, येन कर्मणा, तिर्यक्त्वेऽपि पक्षित्वेऽपि, आयतनच्छद्मना प्रकृतमन्दिरव्याजेन, विमानवासः व्योमयानवासः, उपनतः आपन्नः । न जाने निश्चिनोमि, सुकृतिकर्मणा सुकृतं-पुण्यजनकं कर्म यस्य तादृशेन, केन, इदम् आयतनं, निर्मापितं विधापितम्, वा अथवा, केन निर्मितं रचितम्, वा अथवा, एतावान् एतत्परिमाणकः, एषः अयं, रत्नशिलाराशिः रत्नात्मकप्रस्तरराशिः, कुतः कस्मात् स्थानात् , लब्धः प्राप्तः । तावदिति वाक्यालङ्कारे, अतिसमृद्धोऽपि अत्यन्तवैभवसम्पन्नोऽपि, कश्चनापि कोऽपि, मनुष्यधर्मा मानवजातीयः, इदं प्रत्यक्षभूतमायतनं, कारयितुं रचयि
ईश्वरः प्रभुः, न अस्तीति शेषः । विश्वकर्माणं शिल्पकलाकुशलदेवजातीयव्यक्तिविशेषम् , अन्तरेण विना, अपरस्य तदन्यस्य, शिल्पिनः कलावतः, इत्थंभूतम् एतादृशं, कर्मनैपुण्यं कर्मकौशलं, न संभाव्यते आशास्यते । च पुनः, रत्नसानुगिरेः सुमेरुपर्वतात् , अन्यत्र अन्यस्मिन् स्थाने, ईदृशीनाम एवंविधानां, रत्नदृषदां रत्नशिलानाम् , उत्पत्तिः, न श्रूयते श्रवणपथमवतरति । सर्वथा सर्वप्रकारेण, देवनिर्मितेन देवरचितेन, अमुना प्रकृतेन आयतनेन, भवितव्यं भवितुं योग्यम् । च पुनः, मन्ये, येन जनेन, एतत् इदम् , आयतनं मन्दिरम् , उत्पादितं रचितम् , अदः प्रकृतं, सरोऽपि सरोवरोऽपि, तेनैव आयतनरचयित्रैव, खानितं खननकर्मतामापादितम् । एषः अयम् , आरामोऽपि उपवनमपि, तस्यैव व्यक्तिविशेषस्य, इति शेषः । च पुनः, अस्य वृत्तान्तस्य वार्तायाः, अभिव्यक्तः प्रकाशनस्य, या कीर्तिः, कारणं हेतुः,
अस्या, प्रशस्तौ. अष्टादशलिपिव्यक्तिव्यतिरिक्तः अष्टादशजातीयाक्षरविन्यासविलक्षणः, कोऽपि अनिर्वचनीयः, लिपिविन्यासः अक्षरसन्निवेशः, अस्तीति शेषः, स एष सोऽयं सन्निवेशः, व्यक्ताक्षरोऽपि स्फुटाक्षरोऽपि, ऊहितुं तर्कयितुं, न शक्यते पार्यते, केवलं किन्तु, आलोकितपूर्व इव दृष्टपूर्व इव, चेतसि मनसि, चमत्कारम् उल्लासम् , आतनोति विस्तारयति [ध] । अत्र उद्याने, सञ्चरन् प्रचरन् , तथाविधः तादृशः, कश्चित् , वनचरोऽपि वन्यजनोशाप, न आलोक्यते दृश्यते, यम् आपृच्छय सम्यक् पृष्ट्वा, एनम् अनुपदोक्तं, वृत्तान्तं वार्ता, सम्यक विस्पष्टम, अवगच्छामि जानामि । यद्वा अथवा, अनेन वृत्तान्तेन, पृष्टेन प्रश्नकर्मीकृतेन, ज्ञातेन ज्ञानकर्मीकृतेन वा, प्रयासमात्रफलेन आयासमात्रफलकेन, किं प्रयोजनं फलं, न किमपीत्यर्थः । ज्ञात्वापि ज्ञानविषयीकृत्यापि, कल्पकोटिजीविना चिरतरजीविना, कुमारहरिवाहनेन विना, तद्वयतिरिक्तस्य, कस्य प्रतिपाद्य कं निवेद्य, निर्वृतः सुखी, भविष्यामि । न जाने
१४ तिलक.
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टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता। न जाने वयस्यः केदानीं वर्तते, इत्यादिचिन्ताव्याक्षिप्तचेतस एवास्य सुरासुरवृन्दनिर्दयाकर्षणभ्रमन्मन्दरतटाच्छोटनसमुच्छलदमृतशीकरासारशिशिरस्तर्पयन्निवादयन्निव हृदयमतिशयपेशलो ध्वनिरतर्कितव्यक्तिरेव श्रवणकन्दरे मन्दमन्दमविशत् [न]।
उपजातसंभ्रान्तिना च मानसेन तस्य शब्दस्य दत्तकर्णः स्तम्भित इवोत्कीर्ण इव लिखित इव निश्चलसर्वाङ्गः क्षणमात्रं सिंहलराजपुत्रः स्थितवान् । अथ सहसैवोद्भिद्यमानपुलकाश्चितकपोलभित्तिना विलोललोचनोत्पलेन मुखशशिना प्रकाश्यमानाधिकसंभ्रमः समचिन्तयत् - 'हन्त, किमिदमकाण्ड एवापरमाश्चर्यमुपनतं यतः कचिदत्र केनापि कलकण्ठकोमलगिरा श्लोक इव पठ्यते, तत्र च हरिवाहनशब्द इवोच्चार्यमाणः श्रूयते, क एष हरिवाहनः । किं वयस्यः ? आहोस्विद् वयस्यनामधेयाभिधेयः कोऽप्यपरः ? कुतोऽत्र ययस्यस्य संभवः, प्रायः केनापि करुणापराधीनवृत्तिना दिव्येन ममेदमाश्वासनं क्रियते, कृतमलीकविकल्पकल्पनाभिर्मनसा खेदितेन, पश्यामि तावत् कः पुनरेष पठति [प], इति कृत्वा मति
निश्चिनोमि, वयस्यः सखा हरिवाहनः, इदानीम् अधुना, क्व कस्मिन् स्थाने, वर्तते तिष्ठति । इत्यादिचिन्ताव्याक्षिप्तचेतस एव इत्यादिभिः-ईदृशीभिः, चिन्ताभिः-आलोचनाभिः, व्याक्षिप्त-व्याकुलीकृतं, चेतः-चित्तं यस्य तादृशस्यैव, अस्य समरकेतोः, श्रवणकन्दरे कर्णविवरे, सुरासुरवृन्दनिर्दयाकर्षणभ्रमन्मन्दरतटाच्छोटनसमुच्छलदमृतशीकरासारशिशिरः सुरासुरवृन्देन-देवदैत्यगणेन, यत् निर्दयं-निष्ठुरम् , आकर्षणम्-उत्क्षेपणम् , तेन भ्रमतः-घूर्णमानस्य, मन्दरस्यतदाख्यपर्वतस्य, तटेन-एकदेशेन, यत् आच्छोटनम्-आस्फालनम् , आलोडनमित्यर्थः, तेन समुच्छलद्भिः-समुत्पतद्भिः, अमृतशीकरासारैः-अमृतबिन्दुधाराभिः, शिशिरः-शीतलः, अतः हृदयं तर्पयन्निव प्रीणयन्निव, पुनः आर्द्रयन्निव सिञ्चन्निवेत्युप्रेक्षा, अतिशयपेशल: अत्यन्तमनोहरः, ध्वनिः नादः, अतर्कितव्यक्तिरेव अतर्किता-आकस्मिकी, व्यक्तिःआविर्भावो यस्य तादृश एव, मन्दमन्दं मन्दप्रकारम् , अविशत् प्रविष्टः [न] ।
च पुनः, उपजातसम्भ्रान्तिना उपजाता-उत्पन्ना, सम्भ्रान्तिः-संक्षोभो यस्य तादृशेन, मानसेन, तस्य प्रकृतस्य शब्दस्य ध्वनेः तमनुसंधातुमित्यर्थः, दत्तकर्णः दत्तौ-प्रवर्तितो करें येन तादृशः सन् , स्तम्भित इव प्रतिबद्ध इव, पुनः उत्कीर्ण इव उत्खानेन निर्मित इव, पुनः लिखित इव चित्रित इव, निश्चलसर्वाङ्गः निश्चलानि-स्थिराणि, सर्वाणिअङ्गानि-हस्तपादादीनि यस्य तादृशः सन् , सिंहलराजपुत्रः समरकेतुः, क्षणमात्रम् एकमात्रक्षणं, स्थितवान् उपरत, क्रियोऽभूत् । अथ अनन्तरं, सहसैव शीघ्रमेव, उद्भिद्यमानपुलकाश्चितकपोलभित्तिना उद्भिद्यमानैः-उद्गच्छद्भिः, पुलकैः-रोमाञ्चैः; अञ्चिता-विशिष्टा, कपोलभित्तिः-गण्डरूपा भित्तिर्यस्य तादृशेन, पुनः विलोललोचनोत्पलेन विलोलं-चञ्चलं लोचनोत्पलं-नयनकमलं यस्य तादृशेन, मुखशशिना मुखचन्द्रेण, प्रकाश्यमानाधिकसम्भ्रमः प्रकाश्यमानः-प्रत्याय्यमानः, अधिकः-प्रचुरः, सम्भ्रमः-उद्वेगो यस्य तादृशः, समचिन्तयत् आलोचितवान् , किमित्याह-हन्त खेदः, इदं किम् , परमाश्चर्यम् अत्यन्तमाश्चर्यम् , अकाण्ड एव अनवसर एव, उपनतम् उपस्थितम् , यतः यस्माद्धेतोः, अत्र अस्मिन्नुद्याने, क्वचित् कस्मिंश्चित् स्थाने, कलकण्ठकोमलगिरा कलकण्ठस्य-कोकिलस्येव, कोमला-मधुरा, गीः-वाणी यस्य तादृशेन, केनापि केनचिजनेन, श्लोक इव पद्यमिव, पठ्यते उच्चायते, च पुनः, तत्र तस्मिन् श्लोके, हरिवाहनशब्द इव हरिवाहनेत्याकारकः शब्द इव, उच्चार्यमाणः पठ्यमानः, श्रूयते श्रवणपथमयतरति । एषः अयं, हरिवाहनः कः? किं वयस्यः? मदीयः सखा ?, आहोस्वित् उत, वयस्यनामधेयाभिधेयः वयस्यनामधेयेन-वयस्यवाचकेन हरिवाहनशब्देन, अभिधेयःवाच्यः, अपरः-अन्यः, कोऽपि, अस्तीति शेषः, अत्र अस्मिन्नारामे, वयस्यस्य मित्रहरिवाहनस्य, कुतः कस्मात्, संभवः आशा, करुणापराधीनवृत्तिना करुणापराधीना-कृपाऽऽयत्ता, वृत्तिः-मनोवृत्तियस्य तादृशेन, केनापि, दिव्येन दैवेन, मम, इदम् , आश्वासनं सान्त्वनं-धैर्याधानमित्यर्थः, प्रायः क्रियते विधीयते, अलीकविकल्पकल्पनाभिः मिथ्यात्मकविविधवितकः, खेदितेन-क्लेशितेन, परिश्रमितेनेति यावत् , मनसा हृदयेन, मनःखेदेनेत्यर्थः, कृतं व्यर्थम् , तावत् प्रथमम् , कः, एषः अयं, पुनः खलु, पठति पद्यमिवोच्चारयतीति पश्यामि गवेषयामि [प], इति ईदृशीं, मतिं बुद्धिं, कृत्वा, उन्मुक्त
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तिलकमञ्जरी
१०७
मुन्मुक्तवातायनस्त्वरिततरमायतनान्निर्गत्य तं पाठशब्दमनुसरन्ना मोदिहरिचन्द नोदकच्छटासिक्तेन मौक्तिकचतुष्कविरचनाचारुणा कुङ्कुमारुणाभिरङ्गनाचरणपद्ममुद्रा भिर्द्विगुणितकनकपङ्कजोपहारेण झङ्कारानुमीयमानपरिमलान्धनिलीन मधुलिहा महानीलमणिकुट्टिमेन व्योम्नेव यामिनीपतिर्याम्यदिङ्मुखाभिमुखः पदशतमात्र मन्तरं जगतीमध्य एव जगाम [ फ ] । गत्वा च संपिण्डितसुरचापपरमाणुनिवहमनोहराकारमनेकवर्णतया, क्वचिद् वधूलोचनयुगमिव कृष्णतारोचितम्, कचिद् विन्ध्याचलमिव धवलताक्रान्तम्, क्वचित् सुग्रीवमिव कपिशतान्वितम्, क्वचिद् दशास्यमिव नीललोहितप्रभावाप्तश्रियम्, विजयार्धशैलमिव मालिकात्रयमनोहरम्, पौर्णमासीदिनावसानमिव सकलशशिखरांशुभूषितम्, विपिनमिव कपोतपालीकलितमुल्लसितकोमलार्करोचिषं
टिप्पनकम् - वधूलोचनयुगमिव कृष्णतारोचितम् एकत्र कालतारिकायोग्यम्, अन्यत्र श्यामत्वशोभितम् । विन्ध्याचलमिव धवलताक्रान्तम्, एकत्र धवतरूचम्पका दिलताव्याप्तम्, अन्यत्र शुभ्रताव्याप्तम् । सुग्रीवमिव कविशतान्वितम्, वानरशतयुक्तम्, अन्यत्र पीतत्वयुक्तम् । दशास्यमिव नीललोहितप्रभावाप्तश्रियम्, एकत्र शङ्करप्रभावप्राप्तलक्ष्मीकम्, अन्यत्र कृष्णरक्ततेजः प्राप्तशोभम् । विजयार्धशैलमिव मालिकात्रयमनोहरम् उभय भूमिकात्रयमनोहरम्, विजयार्धः - वैताढ्यः । पौर्णमासीदिनावसानमिव सकलशशिखरांशुभूषितम्, एकत्र चन्द्रसूर्यशोभितम्, अन्यत्र कलशसहितमञ्जरीकिरणराजितम् । विपिनमिव कपोतपालीकलितम्, एकत्र कपोतपक्षिपङ्क्तियुक्तम्,
वातायनः त्यक्तगवाक्षः सन्, आयतनात् प्रकृतमन्दिरात् त्वरिततरं शीघ्रतरं निर्गत्य बहिर्भूय तं प्रकृतं पाठशब्दं पठ्यमानशब्दम्, अनुसरन् अनुगच्छन्, आमोदिहरिचन्दनोदकच्छटा सिक्तेन आमोदिनीभिः-उत्कटगन्धाढ्याभिः, हरिचन्दनोदकच्छटाभिः - चन्दनविशेष मिश्रित जलधाराभिः सिक्तेन - आप्लावितेन, पुनः मौक्तिकचतुष्कविरचनाचारुणा मौक्तिकचतुष्कस्य मुक्तामणिवेदिकायाः, विरचनया - निर्माणेन, चारुणा - मनोहरेण, पुनः कुङ्कुमारुणाभिः कुङ्कुमद्रवरक्ताभिः, अङ्गनाचरणपद्ममुद्राभिः नारीपदपङ्कजाकृतिभिः, द्विगुणितकनकपङ्कजोपहारेण द्विगुणित:द्वैगुण्यमापादितः, कनकपङ्कजोपहारः - सुवर्णकमलरूपोपहारो यस्मिंस्तादृशेन, पुनः झङ्कारानुमीयमानपरिमलान्धनिलीनमधुलिहा झङ्कारेण ध्वनिविशेषेण हेतुना, अनुमीयमानाः - आनुमित्यात्मकज्ञानविषयीक्रियमाणाः, परिमलान्धाः - सौरभाकृष्टाः, निलीनाः - संश्लिष्टाः, मधुलिहाः - भ्रमरा यस्मिंस्तादृशेन, महानीलमणिकुट्टिमेन इन्द्रनीलमणिबद्धप्रदेशेन, व्योम्ना आकाशेन, यामिनीपतिः निशापतिः, चन्द्र इत्यर्थः, इव, याम्य दिङ्मुखाभिमुखः दक्षिणदिक्संमुखः सन् जगतीमध्य एव भूतलमध्य एव, वप्रमध्य एव वा, पदशतमात्रं शतसंख्यकपदप्रमाणम्, अन्तरं दूरं जगाम गतवान् [फ ] । च पुनः, गत्वा, म छात्रायाश्रमम् ऐक्षिष्ट दृष्टवान् इत्यग्रेणान्वेति; कीदृशम् ? सम्पिण्डितसुरचापपरमाणुनिवहमनोहराकारं सम्पिण्डितानां-सम्पुञ्जितानां, सुरचापपरमाणूनाम् - इन्द्रधनुः - परमाणूनां निवह इव- समूह इव, मनोहरः - सुन्दरः, आकारः - अवयवसन्निवेशो यस्य तादृशम् पुनः अनेकवर्णतया बहुवर्णविशिष्टतया, क्वचित् कस्मिंश्चिदंशे, वधूलोचनयुगलमिव नारीनयनद्वयमिव; कृष्णता रोचितम् कृष्णतया - कृष्णवर्णेन - रोचितम्, पक्षे कृष्णया - कृष्णवर्णया, तारया - कनीनिकया, उचितम् - परिचितं, नित्यमधिष्ठितमित्यर्थः यद्वा कृष्णताराया उचितं - योग्यम्; पुनः क्वचित् कस्मिंश्चित् प्रदेशे, विन्ध्याचलमिव विन्ध्यपर्वतमिव धवलताक्रान्तं धवलतया - शुभ्रतया, पक्षे धवलताभिः - धवाख्यतरुचम्पकादिलताभिः, आक्रान्तं - व्याप्तम् ; पुनः क्वचित् कस्मिंश्चिद् भागे, सुग्रीवमिव तत्संज्ञककपिप्रवरमिव; कपिशतान्वितं कपिशतया - कृष्णशबलितपीतवर्णेन, पक्षे कपिशतेन - शतसंख्यक कपिभिः, अन्वितं - संवलितम् ; पुनः क्वचित् कस्मिंश्चित् प्रदेशे, दशास्यमिव रावणमिव, नीललोहितप्रभावाप्तश्रियं नीललोहिताभ्यां कृष्णरक्ताभ्यां प्रभाभ्यां - छविभ्याम्, अवाप्ता प्राप्ता, श्री: - शोभा येन, पक्षे कण्ठनीलः, केशेषु लोहितः-रक्त इति नीललोहितः शिवः, रावणोपास्यदेवः, तत्प्रभावेण - तदैश्वर्येण, अवाप्ता प्राप्ता, श्री:- राज्यलक्ष्मीर्येन तादृशम् ; पुनः विजयार्धशैलमिव चक्रवर्तिजेयो भूभागो विजयः, तस्य अर्धे - अर्धभागे, यः शैलः - पर्वतः स विजयार्धशैलः, वैतान्यपर्वत इत्यर्थः, तमिव मालिकात्रयमनोहरं मालिकान्त्रयेण - भूमिकात्रण, मूल-नितम्ब शिखरोद्भासिना भूमिकात्रयेणेत्यर्थः, पक्षे उभयपार्श्वयोर्भूखण्डत्रयेण वा मनोहरं - सुन्दरम् ; पुन: पौर्णमासीदिनावसानमिव पूर्णो मासोऽस्यां सा पौर्णमासी, पूर्णचन्द्रोल्लासिरजनी, चान्द्रमासान्तिमतिथिः, तद्दिनान्तमिव, सकलशशिखरांशुभूषितं सकलशस्य - कलशविशिष्टस्य, शिखरस्य
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टिप्पनक - परागविवृतिसंवलिता ।
शिशिरमुद्दाम कुसुमप्रकरशोभनं सुरभिमासन्ननभसं शुचिमशेषमणिशिलाविशेषकृतनिर्माणमुदङ्मुखद्वार मङ्गभारभङ्गुरितकमठराज पृष्ठमलघिष्ठमभिनवं मठमैक्षिष्ट [ब] । प्रविष्टमात्र एवात्र पुरतो दत्तदृष्टिरुत्कृष्टवसनधारिणमुदारदिव्याभरणभूषिताङ्गमङ्गरागपरिम लामोदितदिगन्तरमवतीर्य मणिशिलासोपानमालया शिखरशालायास्तत्क्षणमेव द्वाराभिमुखपरिवर्तिताननमवतरणकम्पादीषदव स्रस्तकुसुमस्रजः शिरसिजकलापस्य तिर्यगुन्नमितेन वामपाणिना शनैः शनैरारब्धसंवरणमानन्दनिर्भरतया हृदयस्य ताम्बूलगर्भतया च गण्डद्वयस्य किञ्चिदविशदोच्चारितपदं प्रत्यङ्गमर्पितेन चक्षुषा प्रसादलब्धामिवावलोक्य वारंवारमनुपमामात्मनो वेषलक्ष्मीमुपजातविस्मयमिमां द्विपदिकां पठन्तमतिसगर्वं गन्धर्वकमपश्यत् [भ] |
अन्यत्र विटङ्कसहितम् । उल्लसितकोमलार्करोचिषं शिशिरम्, विस्फुरित सुकुमारादित्यकिरणं शिशिरमासमिव, अन्यत्र प्रसृतमनोज्ञस्फटिकरश्मिकम् । उद्दाम कुसुमप्रकरशोभनं सुरभि वसन्तमिव उद्भटपुष्पप्रकरमनोज्ञम्, उभयत्र तुल्यम् । आसन्ननभसं शुचिम्, आषाढमिव, कीदृशम् ? सन्निहितश्रावणम्, अन्यत्र सन्निहिताकाशम् [ब] | शिखरशालाशिरोगृहम् [भ] |
ऊर्ध्वभागस्य, मञ्जरीरूपस्य अंशुभिः - प्रभाभिः; पक्षे सकलेन - सम्पूर्णेन, शशिना - चन्द्रेण, खरांशुना -सूर्येण च, भूषितम्- अलङ्कृतम् ; पुनः विपिनमिव वनमिव, कपोतपालीकलितं कपोतपाल्या - गृहैकदेशस्थपक्षिस्थानविशेषेण, पक्षे कपोताना - पारावतश्रेष्ठानाम्, आल्या-पङ्ख्या, कलितम् - अधिष्ठितम् पुनः उल्लसितकोमलार्करोचिषम् उल्लसितं कोमलस्य- मनोहरस्य, अर्कस्य - स्फटिकस्य रोचिः-रश्मिर्यत्र तादृशम्, अत एव शिशिरं शीतलं पक्षे उल्लसितम् - उद्वासितम्, कोमलम् - अतीक्ष्णम्, अर्कस्य - सूर्यस्य, रोचिः-प्रकाशो यस्मिंस्तादृशम्, शिशिरं शिशिरमासमिव, पक्षे पुनः उद्दामकुसुमप्रकरशोभनं उद्दानाम् उत्कृष्टं दाममाला येषां तादृशानां यद्वा उत्कटानां कुसुमानां प्रकरैः - समूहैः, शोभनं -मनोहरं, अत एव सुरभिं गन्धाढ्यम् पक्षे सुरभिं - वसन्तमिव; पुनः आसन्ननभसम् आसन्नं - सन्निहितं नभः- आकाशं यस्य तादृशम् गगनस्पृशमित्यर्थः, अत एव शुचिं शुभ्रम्, पक्षे आसन्नो नभाः-श्रावणमासो यस्य तादृशम्, शुचिम् - आषाढमिव पुनः अशेषमणिशिलाविशेषकृतनिर्माणम् अशेषैःसमस्तैः, मणिशिलाविशेषैः - विशिष्टमणिप्रस्तरैः, कृतं, निर्माणं - रचना, यस्य तादृशम् ; पुनः उदङ्मुखद्वारं उदङ्मुखम् - उत्तराभिमुखं, द्वारं-प्रवेशनिर्गमस्थानं यस्य तादृशम् ; पुनः अङ्गभारभङ्गुरितकमठराजपृष्ठम् अङ्गभारेण - स्वकीयावयवसंस्थानं, भारेण, भङ्गुरितं—भग्नं, कमठराजस्य - कूर्मराजस्य, पृष्ठं येन तादृशम् ; पुनः अलघिष्ठं विशालतमम् ; पुनः अभिनवं नूतनम् [ब] ।
अत्र अस्मिन् मठे, प्रविष्टमात्रे कृतप्रवेशमात्रे सति, पुरतः अग्रे, दत्तदृष्टिः विक्षिप्तलोचनः, गन्धर्वकं वर्णितपूर्वं तदाख्यचित्रपटोपहारकविद्याधरबालकम् अपश्यत् दृष्टवानित्यग्रेणान्वेति कीदृशम् ? उत्कृष्टवसनधारिणम् उत्तमवस्त्रधारिणम् ; पुनः उदारदिव्याभरणभूषिताङ्गम् उदारैः - प्रशस्तैः, दिव्याभरणैः --मनोहरालङ्करणैः, भूषितानि अङ्गानि यस्य तादृशम् ; पुनः अङ्गरागपरिमलामोदितदिगन्तरम् अङ्गरागपरिमलेन - अङ्गविलेपनद्रव्यसौरभेण, आमोदितं - सुरभीकृतं, दिगन्तरंदिङ्मध्यं येन तादृशम् ; पुनः शिखरशालायाः ऊर्ध्वभागवर्तिगृहात्, मणिशिलासोपानमालया मणिरूपपाषाणमयनिश्रेणिकपतिद्वारा, अवतीर्य अधस्तादागत्य, तत्क्षणमेव तत्कालमेव; द्वाराभिमुखपरिवर्तिताननं द्वाराभिमुखं तद्वारदेशाभिमुखं परिवर्तितं - प्रत्यवस्थापितम्, आननं मुखं येन तादृशम् पुनः अवतरणकम्पात् अधस्तादागमन जन्यकम्पकारणात्, ईषत् किञ्चित्, अवस्त्रस्तकुसुमस्रजः अवस्रस्ता- अधः स्खलिता, कुसुमस्रक् पुष्पमाला यस्मात् तादृशस्य, शिरसिजकलापस्य केशराशेः; तिर्यगुन्नमितेन कुटिलं यथा स्यात् तथा उत्क्षिप्तेन वामपाणिना वामहस्तेन, शनैः शनैः मन्दं मन्दं, आरब्धसंवरणम् आरब्धं - प्रवर्तितं संवरणं - संयमनं येन तादृशम् ; पुनः हृदयस्य चित्तस्य, आनन्दनिर्भरतया आनन्दपूर्णतया, च पुनः, गण्डद्वयस्य कपोलयुगलस्य, ताम्बूलगर्भतया ताम्बूलपूर्णाभ्यन्तरतया, किञ्चित् ईषत् अविशदोच्चारितपदम् अविशदम् - अस्फुटम्, उच्चारितम्, कण्ठताल्वाद्यभिघातेनाभिव्यक्तं पदं येन तादृशम् ; पुनः प्रत्यङ्गं प्रत्यवयवम्, अर्पितेन प्रक्षिप्तेन, चक्षुषा नेत्रेण, प्रसादलब्धामिव प्रसन्नतया प्राप्तामिव, अनुपमाम् उपमाशून्याम्, आत्मनः स्वस्य, वेषलक्ष्मीं कृत्रिमाङ्गशोभां वारं वारं अनेकवारम्, अवलोक्य दृष्ट्वा, उपजातविस्मयम् उत्पन्नाश्चर्यम्, इमाम् अनुपदमेव वक्ष्यमाणाम्, द्विपदिकां छन्दोविशेषणम्, उच्चारयन्तम् ; अतिसगर्वम् अत्यन्तमदान्वितम् [भ] ।
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तिलकमञ्जरी
१०९ "आकल्पान्तमर्थिकल्पद्रुम ! चन्द्रमरीचिसमरुचि-प्रचुरयशोशुभरितविश्वंभर ! भरतान्वयशिरोमणे! । जनवन्द्यानवद्यविद्याधर ! विद्याधरमनस्विनी-मानसह रिणहरण! हरिवाहन ! वह धीरोचितां धुरम् ।।" [म] ।
दृष्टमात्र एव च तत्र संजातपरमोच्छासः प्रथमपाथोदाभिवृष्ट इव मरुस्थलाभोगः पार्वणेन्दुचन्द्रिकापरिप्लावित इव ग्रीष्मकुमुदाकरः परां निर्वृतिमवाप [य] ।
मन्यमानश्च तत्र क्षणे साक्षादेव संपन्नमात्मनः सुहृदा सह समागममानन्दजलपरिप्लुतेक्षणो विक्षिपन् विरलविरलानि पदानि तदभिमुखो बभूव । सोऽपि तं तथोपसर्पन्तमुद्वीक्ष्य सहसोपसंहृतपाठनिभृतः कृतावस्थितिश्च तत्रैव देशे समरकेतुरयमिति दृढोपजातप्रत्ययोऽपि तावत्यां भूमौ तथाविधस्य तस्यासंभावयन्नागमनमुपजातसंभ्रमः स्तम्भित इवाकृतोचितप्रतिपत्तिर्मुहूर्तमतिष्ठत् । कृताभिभाषणश्च स्मितादृष्टिना सिंहलेन्द्रतनयेन सत्वरमुपेत्य शिरसि रचिताञ्जलिः प्रणाममकरोत् । प्रसारितोभयभुजपाशकृतहढाश्लेषं च तं
कीदृशीं द्विपदिकाम् ? आकल्पान्तं प्रलयपर्यन्तम् ,अर्थिकल्पद्रुम ! याचककल्पतरो!, चन्द्रमरीचिसमरुचिप्रचुरयशोऽशुभरितविश्वम्भर! चन्द्रमरीचिसमरुचिप्रचुराणि-चन्द्रकिरणतुल्यकान्तिपूर्णानि यानि यशांसि, तदंशुभिः-तत्प्रकारैः, भरिता-पूरिता, विश्वम्भरा-भूमण्डलं येन तादृश! भारतान्वयशिरोमणे! भारतवंशश्रेष्ठ !, जनवन्द्यानवद्यविद्याधर! जनबन्यायाः-लोकश्लाघ्यायाः, अनवद्यायाः-अनिन्द्यायाः, विद्यायाः धर! धारक ! विद्याधरमनस्विनीमानसहरिणहरण! विद्याधरवंश्यानां मानवतीनां स्त्रीणां, मानसानि-चित्तान्येव, हरिणाः-मृगाः, चञ्चलत्वात् , तेषां हरण!-आकर्षक !, हरिवाहन!, धीरोचितां धैर्यशालिजनयोग्यां, धुरं भारं, वह प्राप्नुहि । छन्दोनुऽशासने द्विपदीलक्षणमित्थम्-“पश्चुगौ द्वितीयषष्ठौ जोली द्विपदी" इति; तद्वृत्तिश्चेयम्-“एकः षण्मात्रः पञ्च चतुर्मात्रा गुरुश्च । तथा द्वितीयषष्ठौ चगणौ जोली; द्विपदी" इति [म] ।
तत्र तस्मिन् गन्धर्वके, दृष्टमात्र एव दृष्टिगोचरीभृतमात्र एव, सञ्जातपरमोच्छासः उत्पन्नात्यश्तान्तसान्त्वनः सन् , प्रथमपाथोदाभिवृष्टः प्रथमेन-सर्वतः, पूर्वण, पाथोदेन-मेघेन, अभिवृष्ट:-अभिषिक्तः, मरुस्थलाभोग इव मरुभूमिमण्डलमिव, पुनः पार्वणेन्दुचन्द्रिकापरिप्लावितः पार्वणेन्दोः-पूर्णिमाचन्द्र स्य, चन्द्रिकया-ज्योत्स्नया, परिप्लावितः-अभिषिक्तः, ग्रीष्मकुमुदाकर इव ग्रीष्मकालिककुमुदवनमिव, पराम् अत्यन्तां, निवृतिं सुखम् , अवाप अनुबभूव [य]। .
च पुनः, तत्र तस्मिन् , क्षणे मुहूर्ते, आत्मनः स्वस्य, सुहृदा हरिवाहनेन सह, साक्षादेव, सम्पन्नं सिद्धं, समागम सम्मेलनं, मन्यमानः अवगच्छन् , आनन्दजलपरिप्लुतेक्षणः आनन्दजलैः-आनन्दस्यन्दमानाश्रुभिः, परिप्लुतम्-अत्यादीभूतम्, ईक्षणं-नेत्रं यस्य तादृशः, विरलविरलानि अतिविरलानि, किञ्चिद्विच्छिन्नगतिधाराणीत्यर्थः, पदानि, विक्षिपन् सञ्चालयन् , तदभिमुखः गन्धर्वकाभिमुखः, बभूव अभूत् । सोऽपि गन्धर्वकोऽपि, तथा विरलपादविक्षेपप्रकारेण, उपसर्पन्तम् आगच्छन्तं, तं समरकेतुम् , उद्वीक्ष्य दृष्ट्वा, सहसा सत्वरम् , उपसंहृतपाठनिभृतः उपसंहृतेन-निवर्तितेन, पाठेन-प्रकृतद्विपदिकोच्चारणेन, तत्रैव देशे तस्मिन्नेव भागे, कृतावस्थितिः अवस्थितः सन् , 'अयं समरकेतुः' इति दृढोपजातप्रत्ययोऽपि दृढं यथा स्यात् तथा, उपजातः-उत्पन्नः, प्रत्ययः प्रतीतिर्यद्वा विश्वासो यस्य तादृशोऽपि, तथाविधस्य एकाकिनः, तस्य समरकेतोः, तावत्यां तत्परिमाणायाम् , संकीर्णायामित्यर्थः, भूमौ, आगमनम् , असम्भावयन् सम्भावयितुमप्यपारयन् , उपजातभ्रमः उत्पन्नतदन्यत्वभ्रमः, सम्भ्रमेति पाठे उत्पन्नसंवेगः, स्तम्भित इव नियन्त्रित इव, अकृतोचितप्रतिपत्तिः अकृता-अविहिता, उचिता-योग्या, प्रतिपत्तिः-सत्किया, सम्प्रतिपत्तीति पाठे समीचीनसत्कारो येन तादृशः सन् , महत क्षणम्, अतिष्ठत अवस्थितः । च पुनः, स्मितादृष्टिना स्मिता-किञ्चिद्विकसिता, आर्दी-आनन्दाश्रुक्लिन्ना, दृष्टियस्य तादृशेन, सिंहलेन्द्रतनयेन सिंहलेन्द्रस्य-सिंहलद्वीपाधिपतेः, चन्द्रकेतोः, तनयेन-पुत्रेण, समरकेतुना, कृताभिभाषणः विहितालापः सन्, तदालापसञ्जातपरिचयः सन्निति यावत्, सत्वरं शीघ्रम् , उपेत्य निकटं गत्वा, शिरसि मस्तके, रचिताञ्जलि: सम्पुटितहस्तः, प्रणामम् अभिवादनम् , अकरोत् कृतवान् । च पुनः, प्रसारितोभयभुजपाशकृतदृढाश्लेषं प्रसारिताभ्यां-विस्तारिताभ्याम् , उभयभुजपाशाभ्यां-बाहुद्वयरूपाभ्यां पाशाभ्यां-मृगादिपशुबन्धन
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टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता । नमस्कृत्य भूयः प्रमृष्टरजसि निजवस्त्राञ्चलेन निकटवर्तिन्येकत्र पट्टशालामत्तवारणकमणिपट्टे न्यवेशयत् [२]। प्रस्तुताभिसंवाहनश्च 'गन्धर्वक ! सर्वदाभिवाञ्छितप्राप्तिना कथञ्चिदनुकूलदैवसंपादितेन दर्शनेनैव ते विगतः श्रमोऽस्माकम्' इति निवारितो वारंवारमपसृत्य नातिसंनिधौ तस्यैव मत्तवारणस्यैकपार्श्वे निषसाद । कृतासनपरिग्रहं च तं प्रहर्षपुलकितास्यमानन्दजलवर्षिणा विरतपक्ष्मस्पन्देन चक्षुषा निरीक्ष्य सुचिरमीषत्कृतस्मितः समरकेतुरुवाच—'सखे ! गन्धर्वक ! गाढं दृढस्मृतिर्भवान् , दृष्टमात्रा अपि प्रत्यभिज्ञाता वयम् , विस्मरणशीलः स काममित्येतावतो दिवसानस्माकं त्वयि बुद्धिरासीत् , येन तदानीमयोध्यायामुपवनाध्यासिनः कुमारहरिवाहनस्याग्रतः प्रातरेवाहमागमिष्यामि' [ल ] इत्यभिधाय प्रस्थितेन तत् सुवेलप्रस्थगोचरं
खेचरनगरमतिचिरेणापि न कृता प्रतिनिवृत्तिः, न च स्वकुशलदानमात्रेणापि जनिता नश्चित्तनिर्वृत्तिः, केवलमगाधशोकजलनिधौ निक्षिप्ताः । किं तस्य वृत्तम् , किं व्यसनमापतितं येन नायातः, इति भवन्तमुद्दिश्य तत्तदनभिशङ्कनीयमाशङ्कमानानामनुदिवसमस्माकमतिगताश्चत्वारोऽपि ते वर्षकल्पा वार्षिकाः
रजुभ्यां, कृतः, दृढः-अत्यन्तः, आश्लेषः-आलिङ्गनं यस्य तादृशं, तं गन्धर्वकं, भूयः पुनः, नमस्कृत्य नमस्क्रियया सत्कृत्य, निजवस्त्राञ्चलेन खकीयवस्त्रप्रान्तभागेन, प्रमृष्टरजसि विशोधितधूलिके, निकटवर्तिनि सन्निहिते, पट्टशालामत्तवारणकमणिपट्टे पट्टशाला-फलकगृहं पीठोपरिस्थं गृहं पटकुटीप्रधानशाला वा, तस्या मत्तवारणे-स्थानविशेषे, तत्र स्थापिते इत्यर्थः, मणिपट्टे-मणिनिर्मितपीठे, न्यवेशयत् उपवेशितवान् [र]। च पुनः, प्र वाहनः प्रस्तुतं-प्रवर्तितम् , अद्भिसंवाहनं-पादसम्मर्दनं येन तादृशः, गन्धर्वक इति शेषः, गन्धर्वक !, सर्वदा सन्ततम् , अभिवान्छितप्राप्तिना अभिवाञ्छिता-अभिलषिता, प्राप्तिर्यस्य तादृशेन, पुनः कथञ्चित् केनापि प्रकारेण, अनुकूलदैवसम्पादितेन अनुकूलेन-इष्टकारिणा, देवेन-भाग्येन, सम्पादितेन-कृतेन, ते तव, दर्शनेनैव, अस्माकं, श्रमः मार्गातिक्रमणक्लेशः, विगतः वस्तः, इति इत्थं, वारं वारं अनेकवारम् , निवारितः पादसम्मर्दनान्निवर्तितः, समरकेतुनेति शेषः, अपसृत्य दूरीभूय, नातिसन्निधौ किश्चिन्निकटे, तस्यैव तदध्यासितस्यैव, मत्तवारणस्य-स्थानविशेषस्य, एकपाचे एकभागे, निषसाद उपविवेश । च पुनः, कृतासनपरिग्रहं कृतः आसनस्य परिग्रहः-स्वीकारो येन तादृशम् , पुनः प्रहर्षपुलकितास्यं प्रहर्षेण-अतिहर्षेण, पुलकितंरोमाञ्चितम् , आस्यं-मुखं यस्य तादृशं, तं गन्धर्वकम् , आनन्दजलवर्षिणा आनन्दजन्याश्रुस्यन्दिना, पुनः विरतपक्ष्म- . स्पन्देन विरतः-निवृत्तः, पक्ष्मस्पन्दः-नयनरोमराजिकिञ्चिच्चलनं यस्य तादृशेन, चक्षुषा नेत्रेण, सुचिरम् अतिदीर्घकालं, निरीक्ष्य नितरां दृष्ट्वा, ईषत्कृतस्मितः किञ्चिद्विहितमन्दहासः, समरकेतुः, उवाच उक्तवान् , किमित्याह-सखे! मित्र गन्धर्वक !, भवान् , गाढम् अत्यन्तं, दृढस्मृतिः प्रबलस्मरणशक्तिः, अस्तीति शेषः, दृष्टमात्रा अपि केवलदृष्टा अपि, वयं, प्रत्यभिज्ञाताः सोऽयमिति प्रतीताः, सः गन्धर्वकः, कामम् अत्यन्तं, विस्मरणशीलः विस्मरणप्रकृतिकः, इति ईदृशी, त्वयि त्वद्विषये, अस्माकं बुद्धिः, एतावतः इयतः, दिवसान् दिनानि आसीत् , येन यस्माद्धेतोः, तदानीं तस्मिन् काले, अयोध्योपवनात् प्रयाणकाल इत्यर्थः, अयोध्यायां साकेतनगर्याम् , उपवनाध्यासिनः उद्यानवर्तिनः, कुमारहरिवाहनस्य युवराजहरिवाहनस्य, अग्रतः अग्रे, प्रातरेव प्रभातकाल एव, अहम् , आगमिष्यामि प्रत्यावर्तिष्ये[ल], इति अभिधाय उक्त्वा, प्रतिज्ञायेत्यर्थः, सुवेलप्रस्थगोचरं सुवेलाख्यपर्वतसानुस्थितं, तत् प्रकृतं, खेचरनगरं विद्याधरनगरं, प्रस्थितेन प्रयातेन, त्वयेति शेषः, अतिचिरेणापि अतिविलम्बेनापि, प्रतिनिवृत्तिः परावर्तनं, न कृता विहिता, च पुनः, स्वकुशलदानमात्रेणापि केवलखकीयकुशलप्रेषणेनापि, नः अस्माकं, चित्तनिर्वृतिः चित्तप्रसादः, न जनिता उत्पादिता, किन्तु अगाधशोकजलधौ अतलस्पर्शचिन्तासागरे, निक्षिप्ताः निपातिताः, वयमिति शेषः, तस्य गन्धर्वकस्य, किं कीदृशं, वृत्तं समाचारः, किं कीदृशं, व्यसनं कष्टम् , आपतितम् उपस्थितम् , येन न आयातः आगतः, इति इत्थम् , भवन्तं त्वाम् , उद्दिश्य अधिकृत्य, अनभिशङ्कनीयम् आशङ्कितुमयोग्यमपि, तत् तत् अनिष्टम् , अहर्दिनं प्रतिदिनम् , आशङ्कमानानां संशयानानाम् , अस्माकम् , चत्वारोऽपि चतुःसंख्यका अपि, वार्षिकाः वर्षासम्बधिनः, वर्षकल्पाः वर्षतुल्याः
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तिलकमञ्जरी
१११ मासाः । कथय किं तदा कारणमनागमनस्य । किं सत्यमेव विस्मृता वयम् , उत अवश्यकरणीयेन वा केनापि महता कार्यान्तरेणान्तरैवोपस्थितम् , अथाध्वश्रमादिदोषोत्थापितेन प्रकृतिसुकुमारायास्तनोरपाटवेन कृतः प्रतिबन्धः [व] । किं चास्मदन्तिकादुञ्चलितेन भवता तस्मिन्नेव दिवसे समासादितः सुवेलाद्रिः, आवेदितस्तत्रभवतो विचित्रवीर्यस्य चित्रलेखासंदेशः, उपासिता द्रविडराजमहिषी गन्धर्वदत्ता, प्रापितः स तदुहितुरस्मत्प्रेषितो लेखः, कृताव स्थितिः कायां कञ्चित् कालमासादितः कोऽपि तत्रान्यत्र वा राजपुत्र्यास्तिलकमञ्जर्याः पाणिग्रहणसमुचितो राजपुत्रः, कास्ते स ते सहायश्चित्रमायः [श] । तथा च किंनामधेयोऽयममरगिरिणाप्यनपहार्यरामणीयकश्रीरहार्यः, केन खानितमिदं मानसेनाप्यखण्डितख्यातिमदमसंख्यजलचरविहङ्गवाचालितोपकण्ठकच्छमच्छस्वादुविपुलोदकं पद्मसरः, कस्य सुकृतिनः कीर्तिरेष सुरविमानकल्पः कल्पपादपप्रायतरुणा परिगतः सर्वत एव सार्वर्तुकेन दिव्यारामेण पद्मरागशिलामयः प्रासादः, कश्चास्य त्रिदशसंचरणसमुचितपृष्ठदेशस्य काष्ठाधिरूढशोभासंपदः शिखरभूमिकामधितिष्ठति मठस्य, येन
टिप्पनकम्-तत्र भवतः पूज्यस्य [श] । अनपहार्यरामणीयकश्रीरहार्यः अपराभवनीयरमणीयत्वशोभः, अहार्यः गिरिः । काष्ठा-प्रकर्षः [ष]।
मासाः, अतिगता व्यतीताः । कथय ब्रूहि, तदा प्रतिज्ञातसमये, अनागमनस्य आगमनाभावस्य, किं कारणं हेतुः । किं सत्यमेव निश्चितमेव, वयं विस्मृताः स्मरणपथात् प्रच्याविताः, उत अथवा, अवश्यकरणीयेन अवश्यसम्पादनीयेन, केनापि केनचित् , महता गुरुतरेण, कार्यान्तरेण अन्यकार्येण, अन्तरैव मध्य एव, उपस्थितम् उपस्थानं कृतम् , अथ अथवा, अध्वश्रमादिदोषोत्थापितेन मार्गगमनखेदादिदोषोत्पादितेन, प्रकृतिसुकुमारायाः स्वभावकोमलायाः, तनोः शरीरस्य, अपाटवेन आलस्येन, प्रतिबन्धः प्रत्यागमनप्रतिरोधः कृतः [व] च पुनः, अस्मदन्तिकात् अस्मत्समीपात्, उच्चालितेन प्रयातेन,भवता त्वया, तस्मिन्नेव प्रयाणसम्बन्धिन्येव, दिवसे दिने, सुवेलाद्रिः सुवेलपर्वतः, समासादितः, सम्प्राप्तः किम् ? पुनः तत्रभवतः श्रेष्ठस्य, विचित्रवीर्यस्य तन्नाम्नः पत्रलेखापितुः, चित्रलेखासन्देशः चित्रलेखोक्तसमाचारः, आवेदितः; पुनः द्रविडराजमहिषी द्रविड देशाधिपस्य कुसुमशेखरस्य पट्टराज्ञी गन्धर्वदत्ता, उपासिता आराधिता, पुनः अस्मत्प्रेषितः अस्माभिः सन्दिष्टः, सः प्रकृतः, लेखः पत्रं, तदुहितुः तत्कन्यकायाः, मलयसुन्दयो इत्यर्थः, प्रतिपादित उपस्थापितः; पुनः काश्यां तन्नामकनगर्याम् , कश्चित् कतिपयं, कालं, कृतावस्थितिः कृतनिवासः, राजपुत्र्याः चक्रसेनाख्यनृपकन्यकायाः, तिलकमञ्जर्याः, पाणिग्रहणसमुचितः विवाहयोग्यः, कोऽपि अविज्ञातनामा, राजपुत्रः, तत्र काश्चयां, वा अथवा, अन्यत्र स्थानान्तरे, आसादितः उपलब्धः; पुनः ते तव, सहायः सहगामी, सः प्रकृतः, चित्रमायः तदाख्यो विद्याधरः, व कस्मिन् स्थाने, आस्ते तिष्ठति [श]च पुनः, तथा तेन प्रकारेण, अमरगिरिणापि सुमेरुपर्वतेनापि, अनपहार्यरामणीयकश्री: अनपहार्या-अतिरस्कार्या, रामणीयकश्रीः-सौन्दर्यसम्पत्तिर्यस्य तादृशः, अयं सन्निकृष्टः, अहार्यः पर्वतः, किंनामधेयः किंसंज्ञकः ।मानसेनापि मानससरोवरेणापि, अखण्डितख्यातिमदम् अखण्डितःअव्याहतः, ख्यातिमदः-प्रसिद्धिगर्यो यस्य तादृशम् , पुनः असंख्यजलचरविहङ्गवाचालितोपकण्ठकच्छम् असंख्यैःसंख्यातीतैः, जलचरैः-मत्स्यमकरादिजलजीविजन्तुभिः, विहङ्गैः-पक्षिभिः, वाचालितः-नादितः, उपकण्ठकच्छः-निकटजलप्रायस्तटप्रदेशो यस्य तादृशम् , पुनः अच्छस्वादुविपुलोदकम् अच्छानि-निर्मलानि, स्वादूनि-मिष्टानि, विपुलानि-प्रचुराणि, उदकानिजलानि यस्य तादृशम् , इदं प्रत्यक्ष, पद्मसरः कमलमयकासारः, केन खानितं खननकर्मीकारितम् । पुनः सुरविमानकल्पः सुराणां-देवानां, यो विमानः-व्योमयानं, तत्कल्पः-तत्सदृशः, पुनः कल्पपादपप्रायतरुणा कल्पपादपप्रायाः-कल्पवृक्षकल्पाः, तरवो यस्मिंस्तादृशेन. सार्वर्तकेन षड़तुभाविना, सर्वदैव पुष्पफलसमृद्धिशालिनेत्यर्थः । दिव्यारामेण मनोहरोद्यानेन, सर्वत एव सर्वेष्वेव भागेषु, परिगतः व्याप्तः, पुनः पद्मरागशिलामयः रक्तमणिमयः, एषः निकटतरवर्ती, प्रासादः देवभवनं, कस्य सुकृतिनः पुण्यशालिनः, कीर्तिः-स्मारक यशः, पुनः त्रिदशसञ्चरणसमुचितपृष्ठदेशस्य त्रिदशाना-देवानां,
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टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता । सार्धमधुनैव कृत्वा संलापमुत्फुल्ललोचनः किमपि हर्षेणावतीर्णो भवान्' [प] इत्यादिपृष्टः सविस्तरं सिंहलेन्द्रसूनुना गन्धर्वकः स्थित्वा मुहूर्तमवचनः सत्रप इव शनैरवोचत्-'आर्य ! किं ब्रवीमि, बुद्धिरपि मे न पश्यति वक्तव्यम् , विवक्षापि न प्रवर्तयति वाचम् , वागपि न संसृज्यते जिह्वाग्रेण । प्रनष्टनिःशेषकष्टरूपः प्राक्तनावस्थः स्वस्थचेतास्तथाविधाकार एवाद्य दृष्टः, किमुत्तरं प्रयच्छामि, वितथभाषी च विधिना कृतः, किं तदानीमनागमनकारणमात्मनः कथयामि, अनुपजातप्रतिज्ञातार्थनिर्वाहेण युक्तियुक्तमप्युच्यमानं कीदृशं, किं पुनरसंभाव्यमानतया शिशुजनस्यापि हास्यरसवृद्धिहेतुरीदृशं, यञ्च विशदप्रतिभासमतिदीर्घकालमनुभूतमात्मनापि शक्यते न श्रद्धातुम् , तद् विचारचतुरबुद्धेः कथ्यमानं महाभागस्य कथमिव प्रतीतिपथमवतरिष्यति [स] । तथाहि- दिव्यैरप्यशक्यप्रतीकारं व्यसनमापन्नोऽस्मीति प्रत्यक्षविरुद्धम् , त्वत्कार्यसाधनपराधीनतैव विघ्नहेतुरित्यप्रातीतिकम् , जीवन्नेव पञ्चत्वमापन्न इत्युन्मत्तप्रलापः, शरीरमपि तन्नैतदिति प्रत्यभिज्ञानानुपपत्तिः, एवं च सर्वतो निरवकाशवाक्प्रवृत्तिः, किमनागमनकारणं कथयामि, सर्वथा तिष्ठत्वेषा
सञ्चरणसमुचितः-सञ्चारयोग्यः, पृष्ठदेशः-ऊर्ध्वदेशो यस्य तादृशस्य, च पुनः, काष्ठाधिरूढशोभासम्पदः काष्ठाधिरूढ़ाउत्कर्षापन्ना, शोभासम्पत्-सौन्दर्यसमृद्धिर्यस्य तादृशस्य, अस्य प्रत्यक्षस्य, मठस्य छात्रऋष्यादिनिवासाश्रमस्य, शिखरभूमिकाम् ऊर्श्वभूमिम् , कः, अधितिष्ठति अध्यास्ते, येन सार्ध सह, अधुनैव सम्प्रत्येव, संलापं सम्भाषणं, कृत्वा, उत्फुल्ललोचनः विकसितनयनः सन् , किमपि अनिर्वचनीयेन, हर्षेण प्रमोदेन, भवान् , अवतीर्णः अधस्तादागतः [ष]। इत्यादि अनेन प्रकारेण, सिंहलेन्द्रसूनुना सिंहलेन्द्रस्य-सिंहद्वीपाधिपतेः, चन्द्रकेतोरित्यर्थः, सूनुना-पुत्रेण, समरकेतुना, सविस्तरं सप्रपञ्चं, पृष्टः स्वजिज्ञासां ज्ञापितः, गन्धर्वकः, मुहूर्त क्षणम् , अवचनः मूकः सन् , स्थित्वा, सत्रप इव लज्जित इव, शनैः मन्दम् , अवोचत् उक्तवान्, किमित्याह-आर्य श्रेष्ठ !, किं ब्रवीमि कथयामि, मे मम, बुद्धिः अन्तःकरणम् , अपि, वक्तव्यं प्रतिवक्तुमुचितं वाक्यं, न पश्यति, किञ्च, विवक्षापि वक्तुमिच्छापि, वाचं वाणी, न प्रवर्तयति प्रेरयति, अपि च वागपि वाण्यपि, जिह्वाग्रेण जिह्वान्त्यभागेन, न संसृज्यते सम्बध्यते, प्रनष्टनिःशेषकष्टरूपः प्रनष्टम्-अत्यन्तविलीनं, निःशेषंसमग्रं, कष्टरूपं-क्लेशरूपं यस्मिंस्तादृशः, अत एव प्राक्तनावस्थः प्राचीनावस्थापन्नः, पुनः स्वस्थचेताः प्रकृतिस्थहृदयः, पुनः तथाविधाकार एव तथाविधः-पूर्वप्रकारक आकारो यस्य तादृश एव, अद्य दृष्टः दृष्टिपथावतीर्णः, अहमिति शेषः, किम् , उत्तरं प्रतिवाक्यं, प्रयच्छामि ब्रवीमि । विधिना देवेन, वितथभाषी मिथ्यावादी कृतः, अहमिति शेषः, आत्मनः स्वस्य, तदा प्रतिज्ञातकाले, अनागमनकारणम् आगमनभावहेतुं, किं कथयामि ब्रवीमि । अनुपजातप्रतिज्ञातार्थनिर्वाहेण अनुपजातः-अनुत्पन्नः, प्रतिज्ञातस्य-कर्तव्यत्वेनाध्यवसितस्य, अर्थस्य-वस्तुनः, निर्वाहः-सम्पादनं यस्य तादृशेन, जनेन, युक्तियुक्तमपि सङ्गतमपि, सत्यमपीत्यर्थः, उच्यमान-कथ्यमानं, कीदृशं किंतुल्यम् , मिथ्याकल्पमित्यर्थः, स्यादिति शेषः, पुनः असम्भाव्यमानतया सम्भावनाऽविषयतया, शिशुजनस्यापि बालजनस्यापि, हास्यरसवृद्धिहेतुः हास्यात्मकरसविस्तारकम् , ईदृशम् अनुपदमुच्यमानप्रकारकं, किं कीदृशं भवेत् , च पुनः, यत् दुर्घटनं, विशदप्रतिभासं स्फुटावभासम्, अपरोक्षावभासमित्यर्थः, यथा स्यात् तथा, दीर्घकालम् अधिककालम् , अनुभूतम् अनुभवगोचरीकृतम्, साक्षात्कृतमपीत्यर्थः, आत्मनापि खेनापि, श्रद्धातुं विश्वसितुं, न शक्यते, तत्, विचारचतुरबुद्धेः विवेकनिपुणबुद्धः, महाभागस्य महोदयस्य, तवेति शेषः, कथ्यमानं निवेद्यमानं, कथमिव इवेति वितर्के, केन प्रकारेणेव, प्रतीतिपथं विश्वासमार्ग, तद्विषयतामित्यर्थः, अवतरिष्यति आगमिष्यति [स]। तदेव दर्शयति-तथाहीति । दिव्यैरपि देवैरपि, अशक्यप्रतीकारम् अशक्यः शक्त्यासाध्यः, प्रतीकारः-निवर्तनं यस्य तादृशं, व्यसनं कष्टम् , आपन्नः प्राप्तः, अनुभूतवान् इत्यर्थः, अस्मि, इति प्रत्यक्षविरुद्धं तात्कालिकप्रत्यक्षप्रतिकूलम् । त्वत्कार्यसाधनपराधीनता भवदीयकार्यसम्पादनव्यग्रता एव, विघ्नहेतुः प्रकृतव्यसनकारणम् , इति अप्रातीतिकं प्रतीत्यगोचरम् , अविश्वसनीयमिति यावत् । जीवन्नेव प्राणान् धारयन्नेव, पञ्चत्वं मृत्युम्, आपन्नः प्राप्तवान् , इति उन्मत्तप्रलापः उन्मत्तानां-उन्मादग्रस्तानां, प्रलापः-व्यर्थवचनम् । एतत् प्रत्यक्षभूत, शरीरमपि, तन्न न पूर्वशरीरभिन्नम् ; इति प्रत्यभिज्ञानुपपत्तिः तदेवेदमिति प्रत्यक्षवुद्धिविशेषा सङ्गतिः, तद्विरुद्धमित्यर्थः । एवं च अनेन प्रकारेण, सर्वतः सर्वांशतः, निरवकाशवाकप्रवृत्तिः अवरुद्धवचनव्यापारः, अनागमनकारणम् आग
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तिलकमञ्जरी
कथा, उत्तिष्ठ तावद्, भव प्रष्ठो मे, प्रतिष्ठस्व कतिचित् पदानि [ह] । पश्याद्यैव संसिद्धसकलविद्यमचिरानुभूतभुवनत्रयाद्भुतमहाराज्याभिषेकमङ्गलमासादितमहार्हविद्याधरचक्रवर्तिपदमुन्मयूखमाणिक्यखण्डखचितकाञ्चनकिरीटभास्वर शिरोभिः खेचरेश्वरैः प्रणम्यमानपादपङ्कजं सहस्राक्षमिव साक्षादवनिमवतीर्ण भ्रातरमात्मीयम् । अनुभवाभिमानसलिलसेकसंवर्धितस्य दुःसहानेकमार्गदुःखोपनिपातदुर्वात विद्रवैरप्यनिन्दितप्रसरस्य निरत्ययप्रदर्शितयशः कुसुमसंपदो निजव्यवसायकल्पपादपस्य स्वादुफलम्, अतिचिरकालमनुभूतकष्टां कुरु कृतार्थं नयनसृष्टिम्, अप्रतर्कितामृतवृष्टिकल्पेन कोटिमधिरोहतु परामस्यापि भवदास्यकमलावलोकनेन परमाभ्युदयलाभसंभवः प्रमोदः, पश्चादखिल लोकोत्पादिताश्चर्यमस्मद्वृत्तान्त मपरमप्ययोध्या निर्गमात् प्रभृति यत् पृष्टं तदपि सर्वं क्रमेण ज्ञाताऽसि । देवोऽपि हरिवाहनश्चण्डगहरनाम्नि वैताढ्य - शिखरे खेचरैर्विहितमनुभूय राज्याभिषेकमायातो नातिबहुपरिच्छदः सांप्रतमस्यैव दिव्यकाननस्यानेकफल
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मनाभावहेतुं किं कथयामि निवेदयामि । सर्वथा सर्वप्रकारेण, एषा प्रकृतिविषयिणी, कथा वार्ता, तिष्ठतु निवर्तताम् । तावदिति वाक्यालङ्कारे; उत्तिष्ठ सज्जो भव, सज्जीभूय च, मे मम, प्रष्ठः अग्रगः, भव, त्वमिति शेषः, कतिचित् कतिपयानि, पदानि पादारोपणस्थानानि, प्रतिष्ठस्व प्रयाहि [ह] | अद्यैव अस्मिन्नेव दिने, आत्मीयं स्वकीयं भ्रातरं सोदरकल्पं, सुहृदं हरिवाहनमित्यर्थः, पय अवलोकस्व, कीदृशम् ? संसिद्धसकल विद्यं संसिद्धा - सम्यङ्किष्पन्ना, सकला-समस्ता, विद्या यस्य तादृशम् ; पुनः अचिरानुभूतभुवनत्रयाद्भुतमहाराज्याभिषेकमङ्गलम् अचिरं - किञ्चित्पूर्वम्, अनुभूतं - साक्षात्कृतं, भुवनत्रयाद्भुतस्य-लोकत्रयविलक्षणस्य, महाराज्यस्य - महाधिपत्यसम्बन्धि, अभिषेकमङ्गलम् - अभिषेकोत्सवो येन तादृशम् ; पुनः आसादितमहार्हविद्याधरचक्रवर्तिपदं आसादितं प्राप्तं, महार्हं महतां योग्यं, विद्याधरचक्रवर्तिपदं विद्याधरसम्राट् - पदं येन तादृशम् ; पुनः उन्मयूखमाणिक्यखण्डखचितकाञ्चनकिरीटभास्वरशिरोभिः उन्मयूखैः -- उत् ऊर्ध्वाः, मयूखाः- किरणा यस्य तादृशेन, माणिक्यखण्डखचितेन - माणिक्यखण्डैः - रत्नखण्डैः खचितेन व्याप्तेन काञ्चनकिरीटेन- सुवर्णमुकुटेन, भाखरं-दीव्रं, शिरः- मस्तकं येषां तादृशैः, खेचरेश्वरैः विद्याधराधिपैः, प्रणम्यमानपादपङ्कजं प्रणम्यमानम्, अभिवाद्यमानं, पादपङ्कजं-चरणकमलं यस्य तादृशम् ; पुनः साक्षात् स्वयम्; अवनिं भूमिम्, अवतीर्णम् आगतं, सहस्राक्षमिव इन्द्रमिव, पुनः निजव्यवसाय कल्पपादपस्य स्वकीयोद्योगात्मक कल्पवृक्षस्य, स्वादुफलं मधुरफलम्, अनुभव साक्षाकुरु, कीदृशस्य ? अभिमानसलिल सेकसंवर्धितस्य अभिमानरूपेण - सलिलेन, जलेन, यः सेकः- सेचनं, तेन संवर्धितस्यसम्यगुन्नमितस्य, पुनः दुःसहानेकमार्ग दुःखोपनिपातदुर्वात विद्रवैरपि दुःसहानां - दुःखेन सोढुं शक्यानाम्, अनेकमार्गदुःखानां-बहुविधमार्गलङ्घनक्लेशानाम्, उपनिपातरूपः - उपागमनरूपः, यः, दुर्वातः - विषमपवनः तद्विद्रवैरपि तदुपद्रवैरपि, अनिन्दितप्रसरस्य अनिन्दितः - अव्याहतः, प्रसरः - विस्तारो यस्य तादृशस्य, पुनः निरत्ययप्रदर्शितयशः कुसुमसम्पदः निरत्ययं-निर्बाधं यथा स्यात् तथा, प्रदर्शिता - आविष्कृता, यशः कुसुमसम्पत् - यशोरूपपुष्पसमृद्धिर्येन तादृशस्य । पुनः अतिचिरकालम् अतिदीर्घकालम्, अनुभूतकष्टां भुक्तदुःखां, नयनसृष्टिं स्वनयनरचनाम्, कृतार्थी सफल, कुरु सम्पादय, हरिवाहनावलोकनेनेति शेषः । अस्यापि हरिवाहनस्यापि परमाभ्युदयलाभसम्भवः अत्यन्तैश्वर्यप्राप्तिप्रयुक्तः, प्रमोद : हर्षः, अप्रतर्कितामृतवृष्टिकल्पेन आकस्मिकामृतवर्षणसदृशेन, भवदास्यकमलावलोकनेन भवन्मुखकमलदर्शनेन, परां निरतिशयां, कोटिम् उत्कर्षम्, अधिरोहतु प्राप्नोतु । पश्चात् तद्दर्शनादनन्तरम्, अखिललोकोत्पादिताश्चर्यम्, अखिलानां सर्वेषां, लोकानाम्, उत्पादितम् - अनुभावितम् आश्चर्यं येन तादृशम् । अस्मद्वृत्तान्तम् अस्माकं समाचारं, पुनः अयोध्या निर्गमात् अयोध्यातो निष्क्रमणात् प्रभृति आरभ्य, अपरमपि अन्यदपि, यत् वृत्तं पृष्टं भवता जिज्ञासितं, तदपि, सर्व समग्र, क्रमेण पर्यायेण, ज्ञाताऽसि ज्ञास्यसि । हरिवाहनः तदाख्यः, देवोऽपि विद्याधरचक्रवर्त्यपि, चण्डगह्वरनाम्नि तत्संज्ञके, वैताढ्य शिखरे वैताढ्यपर्वतशिरोदेशे, खेचरैः विद्याधरैः विहितं कृतं, राज्याभिषेकं राज्यनिमित्तकं वैधस्नपनम् अनुभूय गृहीत्वा, आयातः आगतः सन् नातिबहुपरिच्छदः अनत्यधिकपरिग्रहः, परिमित परिग्रह इत्यर्थः, साम्प्रतम् अधुना, अस्यैव सन्निकृष्टस्यैव, दिव्यकाननस्य मनोहरोपवनस्य, अनेकफलकुसुमसमृद्धिपाद
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टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता। कुसुमसमृद्धपादपोत्तरमुत्तरं भूभागमध्यास्ते [क्ष ]।' इत्यावे दिते समरकेतुरेकहेलयोत्तीर्णनिखिलदुःखभारः प्रशान्तनिःशेषहृदयातङ्कतया क्षीरसागरोदर इव क्षिप्तममृतनिर्झरैरिव प्लावितं हरशिरःशशाङ्केनेवाङ्कमारोपितमुद्वहन्नानन्दनिर्भरमात्मानमतिदूरविकसितेक्षणो मत्तवारणकादुदतिष्ठत् [ज्ञ] ।
निर्गत्य च मठात् प्रत्यअखं प्रचलितः क्रमेण तेषां प्रागुपवर्णितानामा दिदेवायतनपर्यन्तवर्तिनां स्फाटिकप्रासादानामन्तःप्रतिष्ठिताः काश्चित् पुष्परागनिर्मिताः समन्ततः प्रसृतबहलोद्दयोतबद्धपरिवेषमण्डलतया समवसतिसालमध्यवर्तिनीरिव विराजमानाः, काश्चित् पद्मरागमयीमहानीलसिंहासनोल्लसितकान्तिसंततिसंगत्या परित लिनकालमेघपटलान्तरितविग्रहं ग्रहग्रामण्यमिव निगृह्णतीः, काश्चिञ्चन्द्रकान्तनिर्वृताः सर्वपथीनदीप्तिपटलाप्लावितभद्रपीठतया क्षीरोदसलिलक्षाल्यमानमेरुपृष्ठां जन्माभिषेकलीलामिव दर्शयन्तीः, काश्चिन्मरकतप्रभवाः प्रभाप्रवाहहरितायमानकान्तिनिर्भरतया शेवालितलावण्यजलानीवाङ्गानि दधती:,
टिप्पनकम्-ग्रहग्रामण्यं चन्द्रम् [अ]।
पोत्तरम् अनेकैः-बहुभिः, फलकुसुमसमृद्धैः-फलपुष्पपूर्णैः, पादपैः-वृक्षैः, उत्तरम्-उत्कृष्टम् , उत्तरम् उदीच्यम् , भूभाग. भूमिप्रदेशम् , अध्यास्ते अधितिष्ठति [क्ष]। इति इत्थम् , आवेदिते विज्ञापिते सति, समरकेतुः, एकहेलया युगपत् , उत्तीर्णनिखिलदुःखभारः उत्तीर्णः-त्यक्तः, निखिलानां-समस्तानां, दुःखानांभारो येन तादृशः, प्रशान्तनिःशेषहृदयातङ्कतया प्रशान्तः-निवृत्तः, निःशेषः-समस्तः, हृदयातङ्कः-हृदयतापो यस्य तादृशतया, क्षीरसागरोदरे क्षीरसमुद्रमध्ये, क्षिप्तमिव निहितमिव, पुनः अमृतनिझरैः अमृतप्रवाहैः, प्लावितमिव प्रवाहितमिव, पुनः हरशिरःशशाङ्केन शिवमस्तकवर्तिचन्द्रेण, अङ्क स्वक्रोडम्, आरोपितमिव अध्यासितमिव, आनन्दनिर्भरम् आनन्दपूर्णम् , आत्मानं स्वम्, उद्वहन् धारयन् , अतिदूरविकसितेक्षणः अत्यन्तदूरपर्यन्तविस्तृतदृष्टिः सन् , मत्तवारणकात् स्थानविशेषात् , उदतिष्ठत् उत्थितवान् [ज्ञ]|
च पुनः, मठात् निरुक्तनिवासात् , निर्गत्य निःसृत्य, प्रत्यङ्मुखं पश्चिममुखं यथा स्यात् तथा, प्रचलितः प्रयातः, क्रमेण पर्यायेण, तेषां प्रकृतानां, प्रागुपवर्णितानां वर्णितपूर्वाणाम् , आदिदेवायतनपर्यन्तवर्तिनाम् आदिदेवस्यनाभिनन्दनस्य, यत् आयतनं- मन्दिरं, तत्पर्यन्तवर्तिनां-तत्प्रान्तवर्तिनाम् , स्फाटिकप्रासादानां स्फाटिकाख्यमणिमयमहागृहाणाम् , अन्तः मध्ये, प्रतिष्ठिताः अधिष्ठिताः, काश्चित् कतिपयाः, पुष्परागनिर्मिता पद्मरागाख्यरक्तमणिमयीः, अत एव समन्ततःप्रसृतबहलोद्योतबद्धपरिवेषमण्डलतया समन्ततः-सर्वतः, प्रसृतैः-विस्तृतैः, बहलैः-प्रचुरैः, उद्योतैःप्रकाशैः, बद्ध-रचितं, परिवेषमण्डलं-परिधिविस्तारो याभिस्तत्तया, समवसतिसालमध्यवर्तिनीरिव समवसरणप्रकारान्तर्वर्तिनीरिव, विराजमानाः शोभमानाः। पुनः काश्चित् कतिपयाः, पद्मरागमयीः रक्तमणिनिर्मिता अपि, स्वयं रक्तकान्तीरपीत्यर्थः, महानीलसिंहासनोल्लसितकान्तिसन्ततिसङ्गत्या महानील:-इन्द्रनीलमणिः, तन्मयं यत् सिंहासनं-महाऽऽसनं, तस्य या उल्लसिता उज्वलिता, कान्तिसन्ततिः-द्युतिधारा, तत्सङ्गत्या- तन्मिश्रणेन, परितलिनकालमेघपटलान्तरितविग्रहं परितलिनं-सर्वतः खच्छं विरलं वा, यत् कालं-श्यामलं, मेघपटलं-मेघमण्डलं, तदन्तरितविग्रह-तत्तिरोहितमूर्ति, ग्रहग्रामण्यं ग्रहपति, सूर्यमित्यर्थः, निगृह्णातीरिव तिरस्कुर्वन्तीरिव । पुनः काश्चित् का अपि, चन्द्रकान्तनिवृता चन्द्रकान्तमणिमयीः, सर्वपथीनदीप्तिपटलाप्लावितभद्रपीठतया सर्वपथीनानां-सकलमार्गव्यापिनीनां, सर्वतोमुखीनामित्यर्थः, दीप्तीनां-कान्तीनां, पटलेन-पुजेन, आप्लावितं-व्याप्तं, भद्रपीठं-सिहासनं यासां तादृशतया, क्षीरोदसलिलक्षाल्यमानमेरुपृष्ठां क्षीरोदसलिलैःक्षीरसागरजलैः, क्षाल्यमानं-सिच्यमानं, मेरुपृष्ठ-सुमेरुसानुर्यस्यां तादृशी,जन्माभिषेकलीलां जन्मकालिकाभिषेकोत्सवं, दर्शयन्तीरिव प्रकटयन्तीरिव । पुनः काश्चित् का अपि, मरकतप्रभवाः हरितमणिमयीः, प्रभाप्रवाहरितायमानकान्तिनिर्भरतया प्रभाप्रवाहेण-दीप्तिधारया, हरितायमाना-हरितरूपतयाऽवभासमाना या कान्तिः, तन्निर्भरतया-तत्पूर्णतया, शेवलितलावण्यजलानीव सञ्जातः, शेवल:-जलतृणविशेषो यस्मिंस्तादृशं, लावण्यजलं-सौन्दर्यरूपं जलं येषु तादृशानीव, अङ्गानि
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तिलकमञ्जरी काश्चिदिन्द्रनीलप्रकृतीरुपान्तज्वलन्मणिप्रदीपप्रतिबिम्बकरम्बितावयवतया निश्चलोल्काकलापदन्तुरमुत्पातान्तरिक्षमिवाक्षिपन्तीः [अ], रूपान्तरनिरीक्षणप्रवर्धमानाक्षेपतया मन्दीभूतहरिवाहनदिदृक्षारसः क्षरदमन्दानन्दबाष्पवृष्टिललाटघटिताञ्जलिपुटः गौरवाकृष्टेनेव सुदूरमवनमता मुहुर्मुहुरुत्तमाङ्गेन वन्दमानो जिनानामजितादीनामप्रतिमशोभाः प्रतिमाः प्रदक्षिणीकृतमूलायतनस्तत्कालम् 'इत इतो गम्यताम्' इत्यभिधाय पुरः स्थितेन स्कन्धदेशारोपितकृपाणयष्टिना गन्धर्वकेणोपदिश्यमानसरणिरुत्तरप्राकारप्रतोलिकया निर्जगाम [आ ] ।
__ गत्वा च किश्चिदन्तरमुत्तरदिग्विभागेनोद्यानस्य दूरादेव रदनविघट्टनजन्मनाऽतिमुखरेण खरखलीनखणखणारवेणाऽनुमीयमानमाननस्रस्तपाण्डुरफेनपिण्डस्तबकतारकितभूतलमालोलकर्णचामरशिखाहतिविषमविकूणितेक्षणं पर्याणवर्धपर्यन्तोद्गतदरार्द्धश्यावफेनराजिव्यज्यमानदूरागमनखेदमितस्ततः शब्दानुसारसंभ्रम
टिप्पनकम्-खलीनं-कविकम् [इ] ।
अवयवान् , दधतीःधारयन्तीः,पुनः काश्चित् का अपि, इन्द्रनीलप्रकृतीः इन्द्रनील:-नीलमणिः, प्रकृतिर्यासांतादृशीः, तन्मयीरित्यर्थः, उपान्तज्वलन्मणिप्रदीपप्रतिबिम्बकरम्बितावयवतया उपान्ते-सन्निधौ,ज्वलता-दीप्यमानानां, मणिप्रदीपानां, प्रतिबिम्बैः, करम्बिताः-व्याप्ताः, अवयवाः-यासां तादृशतया, निश्चलोल्काकलापदन्तुरं निश्चलोल्काकलापैः-तेजोविकारपुजैः, दन्तुरं-पूर्णम् , उत्पातान्तरिक्षं प्रलयकालिकगगनम् , आक्षिपन्तीरिव तिरस्कुर्वन्तीरिवेति सर्वत्रोत्प्रेक्षा अजितादीनां अजितनाथप्रभृतीनां, जिनानाम् , अप्रतिमशोभाः अनुपमशोभामयीः, प्रतिमाः मूर्तीः, रूपान्तरनिरीक्षणप्रवर्धमानापेक्षतया रूपान्तरनिरीक्षणे-अन्यान्यरूपदर्शने, प्रवर्धमाना-अत्यन्तं वर्धमाना, अपेक्षा-आकाङ्क्षा यस्य तादृशतया, मन्दीभूतहरिवाहनदिदृक्षारसः मन्दीभूतः-मान्द्यमापन्नः, हरिवाहनदिदृक्षारसः-हरिवाहनदर्शनौत्सुक्यं यस्य तादृशः, क्षरदमन्दानन्दबाष्पवृष्टिः क्षरन्ती-स्यन्दमाना, अमन्दानन्देन-अत्यन्तानन्देन, बाष्पवृष्टिः-अश्रुधारा यस्मिंस्तादृशः, पुनः ललाटघटिताञ्जलिपुटः ललाटे-भालतले, घटितः-निवेशितः, अञ्जलिपुटः-सम्पुटितपाणियुगलं येन तादृशः सन् , गौरवाकृष्टेनेव अञ्जलिभाराकृष्टेनेव, मुहुर्मुहुः पुनः पुनः, सुदूरम् अतिदूरम् , अवनमता अधोगच्छता, उत्तमाङ्गेन शिरसा, वन्द्यमानः वन्दनं कुर्वाणः, प्रदक्षिणीकृतमूलायतनः प्रदक्षिणीकृतं-प्रदक्षिणक्रमेण पर्यटितं, मूलं-प्रधानम् , आयतनं-मन्दिरं येन तादृशः, इत इतः अत्र अत्र, गम्यतां मार्ग आरुह्यताम् , इति इत्थम् , अभिधाय कथयित्वा, तत्कालं तस्मिन्नेव क्षणे, पुरः अग्रे, स्थितेन कृतस्थितिना, स्कन्धदेशारोपितकृपाणयष्टिना स्कन्धदेशे-स्कन्धतले, आरोपिता-स्थापिता, कृपाणयष्टिःखगदण्डो येन तादृशेन, गन्धर्वकेण तदाख्यप्रकृतविद्याधरबालकेन, उपदिश्यमानसरणिः उपदिश्यमाना-प्रदर्यमाना, सरणिः-मार्गों यस्य तादृशः, समरकेतुरिति शेषः, उत्तरप्राकारप्रतोलिकया उत्तरप्राकारस्य - उत्तरदिग्वर्तिप्राकारभागस्य प्रतोलिकया-द्वारमार्गेण, निर्जगाम बहिर्ब आ ।
च पुनः, उद्यानस्य प्रकृतारामस्य, उत्तरदिग्भागेन उत्तरदिग्वर्तिना मार्गेणेत्यर्थः, किञ्चित् ईषत् , अन्तरं दूर, गत्वा, अश्ववृन्दम् अश्वयूथम् , अद्राक्षीत् दृष्टवानित्यग्रेणान्वेति; कीदृशम् ? दादेव दूरदेशादेव, खरखलीनखणखणारवेण खरस्य-कठोरस्य, खलीनस्य- खुरस्य यः, खणखणारवेण-खणखणात्मकः, रवः-ध्वनिस्तेन, अनुमीयमानम् अनुमितिगोचरीक्रियमाणम् , कीदृशेन ? रदनविघट्टनजन्मना दन्तविश्लेषणजन्येन; पुनः आननस्रस्तपाण्डुरफेनपिण्डस्तबकतारकितभूतलम् आननस्रस्तानां-मुखस्खलितानां, पाण्डुरफेनानां-श्वेतलालानां, पिण्डस्तबकेन-पिण्डपुजेन, तारकितं-सञ्जाततारक, भूतलं-पृथ्वीपृष्ठं येन तादृशम् ; पुनः आलोलकर्णचामरशिखाहतिविषमविकूपितेक्षणम् आलोलयोः-अतिचञ्चलयोः, कर्णचामरयोः-कर्णरूपयोश्चामरयोः, शिखाभ्याम्-ऊर्श्वभागाभ्याम् , आहत्या-आघातेन, विषम-विलक्षणं यथा स्यात् तथा, विकूणिते-निमीलिते, ईक्षणे-नयने येन तादृशम् ; पुनः पर्याणवर्धपर्यन्तोद्गतदरार्द्धश्यावफेनराजिव्यज्यमानदरागमनखेदं पर्याणवर्धपर्यन्ते-पृष्ठास्तरणचर्मप्रान्ते, उद्गताभिः-उत्पतिताभिः, दरार्द्धश्यावाभिः-किञ्चित्कृष्णपीतवर्णाभिः, फेनराजिभिः-मुखस्यन्दिलालापतिभिः, व्यज्यमानः-लक्ष्यमाणः, दूरागमनखेदः-दूरागमनश्रमो यस्य तादृशम् । पुनः इतस्ततः शब्दानुसारसम्भ्रमवलमानस्तब्धकर्णश युगलम् इतस्ततः-अत्र तत्र, शब्दानुसारेण-शब्दश्रवणजन्येन, सम्भ्रमेण
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टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता । वलमानस्तब्धकर्णशुक्तियुगलमनवरतचरणाग्रवल्गनायासितवल्गावलग्नप्रेष्यपुरुषपरुषहुङ्कारपुनरुक्तोन्नमनिमांसमुखनालमापूरितवनान्तरालतरुतलमतुलमश्ववृन्दमद्राक्षीत् [इ]।
___दृष्ट्वा च विस्मितमनसः 'सरस्तीरातिमुक्तकलतामन्दिरोदरप्रसुप्तेन निद्राविरामे मया श्रुतो यः श्रुतिपथोन्माथी हेषाध्वनिः स नूनममुना सरोभ्यर्णचारिणा प्रथममिदमुद्यानमवतरता तुरङ्गव्यूहेन कृतः' इति वितर्कयत एवास्य मकरकेतुसैन्यास्फालितचापसहस्रनि?षमांसलो गृहागतहरिवाहनप्रहर्षप्रनृत्ताया रसनाकलापरव इवोद्यानश्रियो दशनार्धगृहीतदर्भगर्भस्थलीस्थितप्रोथपुटान्युत्कोटिविषाणच्छलेन स्थूलशूलप्रोतानीवातिनिश्चलानि मुखान्युहमानैरामीलित दृष्टिभिः कृष्णसारैः श्रूयमाण इतस्ततस्तारकितभूतलमानन्दाश्रुबिन्दुविसरमिव कुसुमप्रकरमनवरतमुत्सृजद्भिः विरहकविटपैः सूच्यमानपञ्चमस्वरप्रवृत्तिरामन्द्रास्फालितमृदङ्गनादोत्कण्ठितानां च शितिकण्ठवयसामुदञ्चितकण्ठकन्दलीदीर्पण क्रियमाणषड्जस्वरानुवाद इव कूजितेन
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टिप्पनकम्-प्रोथं-तुण्डम् , उदञ्चिता-दीर्घाकृता [ई ] ।
त्वरया, वलमान-कम्पमानं, स्तब्धं-निश्चलं, कर्णरूपं,शुक्तियुगलं-शुक्तिद्वयं यस्य तादृशम् ; पुनः अनवरतचरणाग्रवल्गनायासितवल्गावलग्नप्रेष्यपुरुषपरुषहुङ्कारपुनरुक्तोन्नमन्निौंसमुखनालम् अनवरतं-निरन्तरं, चरणाग्रवल्गनेन-खुराप्रोत्क्षेपणेन, आयासितस्य-श्रमितस्य, वल्गावलग्नस्य-अश्वमुखरजुधारकस्य, प्रेष्यपुरुषस्य-भृत्यजनस्य, परुषैः-कठोरैः, हुङ्कारैःपुनरुक्तः-पुनर्मुखरितः, उन्नमन् , निर्मासः-मांसशून्यः, मुखनालः-मुखकाण्डो यस्य तादृशम् ; पुनः आपूरितवनान्तरालतरुतलम् आपूरितं-व्याप्त, वनान्तरालतरुतलं-बनमध्यवर्तिवृक्षाधःस्थलं येन तादृशम् [3]
__च पुनः, दृष्ट्वा अश्ववृन्दं दृष्टिगोचरीकृत्य, विस्मितमनसः आश्चर्यापन्नहृदयस्य, सरस्तीरातिमुक्तकलतामन्दिर उप्तेन सरसः-निरुक्तसरोवरस्य, तीरे यत् अतिमुक्तकलतामन्दिरं-माधवीलतामण्डपः, तदुदरे-तन्मध्ये, प्रसप्तेननिद्राणेन. मया निद्राविरामे निद्राक्षये सति, श्रुतिपथोन्माथी श्रवणमार्गव्यथकः, हेषाध्वनिः अश्वशब्दः, श्रुतः श्रवणगोचरीकृतः, सः, सरोऽभ्यर्णचारिणा प्रकृतसरोवरान्तिके भ्रमणकारिणा, अमुना दूरपुरोवर्तिना, तुरङ्गव्यूहेन अश्ववृन्देन, इदं प्रत्यक्षभूतम् , उद्यानं प्रकृतोपवनम् , प्रथमम् , अवतरता प्रविशता, नूनं निश्चयेन, कृतः, इति वितर्कयत एव, अस्य समरकेतोः, गीतझात्कारः गानध्वनिः, कर्णमूलं कर्णविवरम् , अविशत् प्रविष्टवान् ; कीदृशः ? मकरकेतुसैन्या- . स्फालितचापसहस्त्रनि?षमांसल: मकरकेतोः-कामदेवस्य, सैन्यैः-सैनिकैः, आस्फालितस्य-आकृष्टस्य, चापसहस्रस्यधनुःसहस्रस्य, निर्घोषैः-टङ्कारैः, मांसलः-सान्द्रः; पुनः गृहागतहरिवाहनप्रहर्षप्रवृत्तायाः गृहागतेन हरिवाहनेन यः प्रहर्षः-अत्यन्तहर्षः, तेन प्रनृत्तायाः-अतिनृत्यप्रवृत्तायाः, उद्यानश्रियः प्रकृतोपवनलक्ष्म्याः , रसनाकलापरव इव काञ्चीनिचयझणत्कार इव; पुनः कृष्णसारैः मृगविशेषः, श्रूयमाणः, कीदृशैः? दशनार्धगृहीतदर्भगर्भस्थलीस्थितप्रोथपुटानि दशनार्धन-दन्तार्धेन, गृहीताः, दर्भाः-कुशाः, गर्भे-मध्ये, यस्यास्तादृश्यां, स्थल्याम्-अकृत्रिमभूमो, स्थितः प्रोथपुटः- नासापुटो मुखपुटो वा येषां तादृशानि, पुनः उत्कोटिविषाणच्छलेन उत्-उत्कृष्टा तीक्ष्णा, कोटि:-अग्रभागो येषां तादृशानां विषाणानां-दन्तानां, छलेन-व्याजेन, स्थूलशूलप्रोतानि इव स्थूलैः, शूलैः-बाणैः, प्रोतानि-व्याप्तानि इव, अतिनिश्चलानि अतिस्थिराणि मुखानि, उद्वहमानैः धारयद्भिः, पुनः आमीलितदृष्टिभिः आमीलिता-मुद्रिता, दृष्टि:-नेत्रं यैस्तादृशैः; पुनः कीदृशः इतस्ततस्तारकितभतलम इतस्ततः-अत्र तत्र, तारकितं-सजाततारक, भूतलं येन तादृशम् , पुनः आनन्दाथबिन्दुविसरमिव आनन्दजन्यनेत्राम्बुकणगणमिव, कुसुमप्रकरं पुष्पपुञ्जम् , अनवरतं निरन्तरम् , उत्सृजद्धिः उत्क्षिपद्भिः, विरहकविटपैः विरहवृक्षैः, सूच्यमानपञ्चमस्वरप्रवृत्तिः सूच्यमाना-प्रत्याय्यमाना, पञ्चमखरस्य-पञ्चमाख्यस्वरविशेषस्य, प्रवृत्तिः-संचारो यस्मिंस्तादृशः; च पुनः, आमन्द्रास्फालितमृदङ्गनादोत्कण्ठितानाम् आमन्द्रम्-अतिगम्भीरं यथा स्यात् तथा, यद्वा आमन्द्रः-अतिगम्भीरैः, आस्फालितस्य-ताडितस्य, मृदङ्गस्य-तदाख्यवाद्यविशेषस्य, नादैःध्वनिभिः, उत्कण्ठितानां-घनगर्जनभ्रान्त्या तेजितानां, शितिकण्ठवयसां नीलकण्ठपक्षिणां मयूराणामिति यावत् , उदश्चित
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तिलकमञ्जरी
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रतिरसतरङ्गिणीपूरायमाणस्तरुगहनान्तरितमूर्तेर्गाथकजनस्य प्रबलवेणुवीणाविलाससंवलनतारो गीतझात्कारः कर्णमूलमविशत् [ई] ।
तेन च मनुष्यलोकदुःश्रवेण श्रवणेन्द्रियाह्लादिना सुहृदवस्थानलीलापिशुनेन श्रवणविषयमुपसेदुषा दिव्यगीतशब्देनोत्सार्य गाम्भीर्य मुद्गताश्रुबिन्दुक्किन्नलोचनोदरेण कठोरपुलकपक्ष्मलितकपोलभित्तिना स्मितज्योत्स्नाविशदेन वदनशशिना व्यक्तीकृतं हर्षवैकृतं नियन्तुमितस्ततो दृष्टिपातैः कृतालीकचित्तव्याक्षिप्तिः, अभ्यर्णेष्टसमागमप्रीतिरसविसंस्थूलैरखिलाङ्गैः परवानिव, अनेकसहस्रसंख्यानामेकनीलवर्णमिव विश्वं दर्शयितुमुत्थितानां पृथक्पृथग्वीथीक्रमनिर्मितानामपि परस्परसंपर्किणातिमांसलेन हसितनीलीरसनीलिन्ना प्रभाप्लवेन निर्विभागानामिव विभाव्यमानानां भुवनविजयप्रवृत्तमकरध्वजगजानीककदलिकासंदोहसंदेहदायिनां कदलीगृहाणामन्तरेण स्तोकान्तरमतिक्रम्य अङ्घ्रिपच्छायाकलापमिव पल्लवितमश्वकान्तिहरितं हरिदश्वरथपताकानिकुरम्बमिव प्रतिबिम्बितमम्बरमन्दाकिनीजम्बालकूटमिव वीचिविघट्टनभ्रष्टमभ्रसमयध्वान्त
कण्ठकन्दलीदीर्घेण दीर्घीकृतकण्ठनालगम्भीरेण, कूजितेन अव्यक्तशब्देन, क्रियमाणषड्जस्वरानुवाद इव क्रियमाणः, षड्जस्वरस्य-तदाख्यखरस्य, अनुवादः - प्रतिध्वननं यस्मिंस्तादृश इवः पुनः रतिरसतरङ्गिणीपूरायमाणः प्रीतिरसनदीप्रवाहायमाणः; पुनः प्रवलवेणुवीणाविलाससंवलनतारः प्रबलैः - प्रचुरैः, वेणूनां - वंशवाद्यविशेषाणां, वीणानां च, विलासैः-ध्वनिसौष्ठवैः, संवलनेन - सम्पर्केण, तारः - अत्यन्ततीत्रः कस्य गीतझात्कारः ? तरुगहनान्तरितमूर्तेः वृक्षवृन्दाच्छन्नशरीरस्य, गाथकजनस्य गानकुशलजनस्य [ई]
च पुनः, मनुष्यलोकदुःश्रवेण मनुष्यलोकैः - मनुष्यजनैः, दुःखेन श्रोतुं शक्येन, श्रवणेन्द्रियाह्लादिना श्रवणेन्द्रियप्रसादकेन, सुहृदवस्थानलीलापिशुनेन सुहृदः - मित्रस्य, हरिवाहनस्येत्यर्थः, अवस्थानं - तत्र स्थितिः, तल्लीला पिशुनेनतद्विलाससूचकेन, श्रवणविषयं श्रवणगोचरताम्, उपसेदुषा प्राप्तवता, तेन अधुनैवोपवर्णितेन, दिव्यगीतशब्देन मनोहरगानशब्देन, गाम्भीर्यं हर्षविकार संवरणकौशलम् उत्सार्य परित्यज्य, उद्गताश्रुविन्दुक्लिन्नलोचनोदरेण उद्गतैःउत्थितैः, अश्रुबिन्दुभिः-अश्रुकणैः, क्लिन्नम् - आर्द्रीकृतं, लोचनोदरं - नयनमध्यं यस्मिंस्तादृशेन, पुनः कठोरपुलकपक्ष्मलितकपोल भित्तिना कठोरैः, पुलकैः - रोमाञ्चैः, पक्ष्मलिता - पूरिता, कपोलभित्तिः - गण्डस्थली यस्मिंस्तादृशेन, पुनः स्मितज्योत्स्नाविशदेन मन्दहासमरीचिधवलेन, वदनशशिना मुखचन्द्रेण व्यक्तीकृतं प्रकटीकृतं, हर्षवैकृतं हर्षोद्गारं, नियन्तुं संवरीतुम्, इतस्ततः अत्र तत्र दृष्टिपातैः दृष्टिविक्षेपैः कृतालीकचित्तव्याक्षिप्तिः कृता-विहिता, अलीका - कृत्रिमा, चित्तव्याक्षिप्तिः–चित्तव्यग्रता येन तादृशः, अभ्यर्णेष्ट समागमप्रीतिरसविसंस्थूलैः अभ्यर्णेन-निक्टेन, इष्टसमागमेनहरिवाहनाख्यप्रियजनसङ्गमेन यः प्रीतिरसः - प्रसादात्मको रसः, तेन विसंस्थूलैः -शिथिलैः, अखिलाङ्गैः सर्वावयवैः, परवानिव पराधीन इव, नियन्त्रित इवेत्यर्थः, समरकेतुरित्यर्थः, अनेकसहस्रसंख्यानां बहुसहस्रसंख्यावताम्, पुनः विश्वं जगन्मण्डलम्, एकनीलवर्ण नीलरूपैकवर्ण, दर्शयितुमिव, उत्थितानाम् उद्गतानाम्, पुनः पृथक्पृथग्वीथीक्रमनिर्मितानामपि भिन्नभिन्नपङ्किक्रमनिवेशितानामपि परस्परसंपर्किणा परस्परसंकीर्णेन, अतिमांसलेन अत्यन्तसान्द्रेण पुनः हसितनीली सनी लिम्ना हसितः - तिरस्कृतः, नील्याः - नीलवर्णौषधिविशेषस्य, यो रसः - द्रवः, तत्सम्बन्धी नीलिमा- नीलकान्तिर्येन तादृशेन, प्रभावेन कान्तिकलापेन, निर्विभागानामिव संश्लिष्टानामिव विभाव्यमानानां लक्ष्यमाणानां पुनः भुवनविजयप्रवृत्तमकरध्वजगजानीककदलिका सन्दोहसन्देहदायिनां भुवनविजये - जगद्वशीकरणे, प्रवृत्तस्य, मकरध्वजस्यकामदेवस्य, ये गजानीकाः - गजसैन्याः, तत्सम्बन्धिक दलिकानां - तत्सम्बन्धिपताकानां, संदोहस्य- विचारस्य, सन्देहदायिनां - सन्देहकारिणां कदलीगृहाणां रम्भास्तम्भमयगृहाणाम्, अन्तरेण मध्येन, स्तोकान्तरं किञ्चिद्दूरम्, अतिक्रम्य लङ्घित्वा, गत्वेत्यर्थः, ‘एकं रम्भागृहं कदलीगृहम् अपश्यत् दृष्टवान्' इत्यप्रेणान्वेति कीदृशम् ? पल्लवितं प्रवृद्धम्, अङ्घ्रिपच्छायाकलापमिव वृक्षच्छायासमूहमिव; पुनः अश्वकान्तिहरितम् अश्वकान्तिभिः - अश्वक्षुतिभिः, अश्वकान्तिवद् वा हरितं - हरितवर्णम् ; पुनः प्रतिबिम्बितं प्रतिबिम्बात्मनाऽऽपतितं, हरिदश्वरथपताका निकुरम्बमिव हरिदश्वस्य - सूर्यस्य, या रथपताका
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टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता । संघातमिव नभसः शर्वरी विरह विनोदनागतम् [उ] अनिलसङ्गतरला भिरुष्णसमयमवजित्यावर्जिताभिर्वैजयन्तीविततिभिरिव प्रान्तपातितपनपादच्छेदनवाञ्छया व्यापारिताभिः परश्वधपरम्पराभिरिव पत्रराजिभिरव्यज्यमानविवराभिर्विराजितम् [ऊ] अविरतारब्धवारिच्छटासेककिङ्करपुरुषमध्यपतितेन शतपत्रकोशरजःकषायमुदकशीकरनिकरमादाय पुनरुक्तमापतता पर्यन्तसरसीसमीरणेन कौतुकादिव चतुर्दिशमुपसिच्यमानम् , उपरचितसिन्दूरकुट्टिमकमनीयाभ्यन्तरम् [ऋ] अन्तःप्ररूढस्य किञ्चिदारूढप्रौढेरुगाढसौकुमार्यावलीढसुदृढमूलस्य मूलभागकल्पितेनानल्पीयसा कार्तस्वरशिलापीठबन्धेन महार्हसिंहासनेनेव यथार्थीकृतसकलवनस्पत्याधिपत्यस्य प्रवालभङ्गमुग्धस्निग्धपल्लवालङ्कृतस्य मरकतहरितहारिपत्रनिवहनिवारितदिनेशदीधितिप्रवेशविशदच्छायस्य विसारिसौरभाहृताभिरपहायोपवनपादपानुपसर्पन्तीभिर्मदान्धमधुपधोरणीभिरहमहमिकयेव विलुप्यमानमञ्जरीजालकस्य मुनिजनमनःस्खलितमार्गणप्रसरामर्षितेन कुसुमधनुषासकृत्सायकीकृतकुसुमस्य दक्षिण
रथाधिष्ठितध्वजः, तन्निकुरम्ब-तत्समूहमिवः पुनः वीचिविघट्टनभ्रष्टं वीचिभिः-तरङ्गैः, विघटनेन-आघातेन, भ्रष्ट-पतितम् ,
बरमन्दाकिनीजम्बालकटमिव आकाशगङ्गाशैवालपुञ्जमिव; पुनः नमसः आकाशात् , शर्वरीविरहविनोदनागतं शर्वर्याः-रात्र्याः , यः, विरहः-विश्लेषः, तद्विनोदनाय-तन्निवारणाय, ३.वरीसम्पादनायेत्यर्थः, आगतम्-आपतितम् , अभ्रसमयध्वान्तसंघातमिव मेघकालिकान्धकारराशिमिवेत्युत्प्रेक्षा [3] । पुनः पत्रराजिभिः दलावलिभिः, विराजितं विशोभितम् , कीदृशीभिः ? अनिलसङ्गतरलाभिः पवनाघातचञ्चलाभिः, अत एव उष्णसमयं ग्रीष्मकालम् , अवजित्य पराजित्य, आवर्जिताभिः वर्षाकालेनावनमिताभिः, वैजयन्तीविततिभिरिव विजयपताकापरम्पराभिरिव, पुनः प्रान्तपातितपनपादच्छेदनवाञ्छया प्रान्तपातिनः-स्वनिकटाक्रामिणः, तपनस्य-सूर्यस्य, पादच्छेदनवाञ्छया-किरणकर्तनाकाङ्कया, व्यापारिताभिः-विक्षिप्ताभिः परश्वधपरम्पराभिरिव कुठारपतिभिरिव, पुनः अव्यज्यमानविवराभिः अलक्ष्यमाणान्तराभिः, सान्द्राभिरित्यर्थः । पुनः कीदृशम् ? पर्यन्तसरसीसमीरणेन प्रान्तस्यन्दिमहासरःपवनेन, कौतुकादिव खोत्कटस्नेहादिव, चतुर्दिशं परितः, उपसिच्यमानम्-आर्द्रतामापाद्यमानम् , कीदृशेन ? अविरतारब्धवारिच्छटासेककिङ्करपुरुषमध्यपतितेन अविरतं-निरन्तरम् , आरब्धः-प्रवर्तितः, वारिच्छटाभिः-जलधाराभिः, सेकः-क्षरणं यैस्तादृशानां, किङ्करपुरुषाणां-भृत्यजनानां, सेचनकर्मनियुक्तजनानामित्यर्थः, मध्यपतितेन-निपत्योपस्थितेन, शतपत्रकोशरज:कषायं शतपत्राणां-कमलानां, कोशेषु-वुङ्गलेषु, यानि रजांसि-पुष्परेणवः, तैः कषायं-किञ्चिद्रक्तम् , उदकशीकरनिकरं जलकणगणम् , आदाय गृहीत्वा, पुनरुक्तं पुनः पुनः, आपतता आगच्छता, वहतेत्यर्थः । पुनः कीदृशम् ? उपरचित । सिन्दूरकुट्टिमकमनीयाभ्यन्तरम् उपरचितेन-निर्मितेन, सिन्दूरकुट्टिमेन-रक्तमणिबद्धभूम्या, कमनीयं-मनोहरम् , अभ्यन्तर-मध्यं यस्य तादृशम् [ऋ] । पुनः कीदृशम् ? पारिजातकतरोः पारिजातकाख्यदिव्यवृक्षस्य, शाखाततिभिः शाखासमूहैः, समन्ततः सर्वतः, स्थगितम् आवृतम् , कीदृशस्य? अन्तःप्ररूढस्य अभ्यन्ताङ्कुरितस्य, पुनः किञ्चिदारूढ़प्रौढेः किञ्चिदारूढा--किञ्चिदवाप्ता, प्रौढिः-प्रागल्भ्य, तारुण्य मित्यर्थः येन तादृशस्य, पुनः उद्दाढसौकुमार्यावलीढदृढमूलस्य उद्गाढेन-अत्यन्तेन, सौकुमार्येण-मार्दवेन, अवलीढम्-आक्रान्तं, दृढं मूलं यस्य तादृशस्य, पुनः महार्हसिंहासनेनेव प्रशस्तनृपासनेनेव, मूलभागकल्पितेन अधोभागरचितेन, अनल्पीयसा अत्यन्तबृहदाकारेण, कार्तस्वरशिलापीठबन्धेन सुवर्णमयशिलाफलकबन्धेन, यथार्थीकृतसकलवनस्पत्याधिपत्यस्य यथार्थीकृतं-सार्थकीकृतं, सकलवनस्पतीनां समस्तवृक्षाणाम् , आधिपत्यम्-अधिपतित्वं यस्य तादृशस्य, पुनः प्रवालभङ्गमुग्धस्निग्धपल्लवालकृतस्य प्रवालभङ्गवत्-विद्रुमखण्डवत् , मुग्धैः-सुन्दरैः, रक्तरित्यर्थः, स्निग्धैः-सरसैः, पल्लवैः-अभिनवदलैः, अलङ्कृतस्य-विभूषितस्य, पुनः मरकतहरितहारिपत्रनिवहनिवारितदिनेशदीधितिप्रवेशविशदच्छायस्य मरकतस्य-तदाख्यहरितमणेः, यः हरितः-हरितकान्तिः, तद्धारिणा-तदपहारिणा, पत्रनिवहेन-पत्रगणेन, निवारितः-निरुद्धः, दिनेशदीधितीनां-सूर्यकिरणानां, प्रवेशो यस्यां तादृशी, विशदास्वच्छा, छाया यस्य तादृशस्य, पुनः विसारिसौरभाहृताभिः विसारिभिः-विस्तारिभिः, सौरभैः-सुगन्धैः, आहृताभिःआकृष्टाभिः, उपवनपादपान् उद्यानवृक्षान् , अपहाय त्यक्त्वा, उपसर्पन्तीभिः आपतन्तीभिः, अहमहमिकयेव परस्पर्धयेव, विलुप्यमानमञ्जरीजालकस्य विलुप्यमानं-विच्छिद्यमानं, मञ्जरीजालं-मञ्जरीपुञ्जो यस्य तादृशस्य, पुनः
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तिलकमञ्जरी
श्रवसि गृहीतसविशेषभूषणया स्मरप्रणयिन्या शतशोऽवतंसिता किसलयस्य दिङ्मुखविसर्पणक्षीणपरिमलेन मलयमरुता सततमापीतपरिमलस्य परिमण्डलतयातिमनोहरस्य नातिमहतः पारिजातकतरोर्निरन्तराभिरविरलस्तबकभारखर्वितशिखाभिः शाखाततिभिः समन्ततः स्थगितम् [ ऋॠ ] उभयतः कृतोर्ध्वावस्थानैः पृथुतरोरुस्तम्भशोभिभिः शरन्नभः सन्निभासितपत्रप्रभाश्यामायमानशरीरकान्तिभिः कदलीद्रुमैरिवापरैरुपरचितपङ्क्तिभिः पुरुषैः पुरोदर्शितदीर्घरध्यामुखम् [ ऌ ] अजिरकुट्टिमोपविष्टनिभृतभूपाललोकम्, एकदेशारब्धमधुरगानगाथकपेटकोपजुष्टम्, उद्धुष्टजयशब्द बन्दिवृन्दाध्यासितसविधभूभागमागृहीत कनकदण्डप्रतीहारमण्डलाधिष्ठितद्वारदेशम्, अभिरामदर्शनम्, आरामलक्ष्म्याः साक्षादिव चतुःशालम्, अतिविशालम्, अकठोर हारीतहरितप्रभं रम्भागृहमपश्यत् [ ऌ ] ।
तस्य च मध्यभागे कृतावस्थानम्, अमलांशुकच्छादिते किंशुकच्छविनि चरणारविन्द रुचिसंतान इव
एकम्,
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मुनिजनमनः स्खलितमार्गणप्रसरामर्षितेन मुनिजनानां - मुनिव्यक्तीनां मनोभ्यः - हृदयरूपलक्ष्येभ्यः, स्खलितेनच्युतेन व्यर्थीभूतेनेत्यर्थः, मार्गणप्रसरेण-बाणगणेन, अमर्षितेन क्रुद्धेन, कुसुमधनुषा कामदेवेन, असकृत् मुहुर्मुहुः, सायकीकृतकुसुमस्य सायकीकृतं - बाणरूपतामापादितं, कुसुमं - पुष्पं यस्य तादृशस्य, पुनः दक्षिणश्रवसि दक्षिणकर्णे, गृहीतसविशेषभूषणया गृहीतं धृतं सविशेषं प्रशस्तं भूषणम् - अलङ्करणं यया तादृश्या, स्मरप्रणयिन्या रतिसंज्ञिकया कामदेवप्रियया, शतशः शतधा, अवतंसिताः अलङ्करणीकृताः, अग्र किसलयाः पल्लवाग्रभागा यस्य तादृशस्य, पुनः दिङ्मुखविसर्पणक्षीणपरिमलेन दिङ्मुखविसर्पणेन-दिगन्तपर्यन्तवहनेन, क्षीणः- ध्वस्तः, परिमल:- श्रीखण्ड सौरभं यस्य तादृशेन, मलयमरुता मलयाचलपवनेन सततं निरन्तरम्, आपीतपरिमलस्य आपीतः - अपहृतः, परिमलो यस्य तादृशस्य, पुनः परिमण्डलतया वर्तुलाकारतया, अतिमनोहरस्य अतिसुन्दरस्य पुनः नातिमहतः अनतिदीर्घस्थूलस्य । कीदृशीभिः शाखाततिभिः ? निरन्तराभिः अतिसान्द्राभिः पुनः अविरलस्तबकभारखर्वितशिखाभिः अविरलानांनिरन्तराणां, स्तबकानां-पुष्पगुच्छानां भारेण, खर्विताः - हस्वीकृताः, अधोनमिता इत्यर्थः, शिखाः - अग्रभागा यासां तादृशीभिः [ऋ]। पुनः कीदृशं रम्भागृहम् ? कदलीद्रुमैरिव कदली वृक्षैरिव, उभयतः पार्श्वद्वये, कृतोर्ध्वावस्थानैः कृतम्, ऊर्ध्वम्उपरि, अवस्थानं-स्थितिर्यैस्तादृशैः पुनः पृथुतरोरुस्तम्भशोभिभिः पृथुतरः- अतिविशालो य ऊरुः - जानूपरिभागः, तद्रूपस्तम्भशोभि, पुनः शरन्नभःसन्निभासितपत्रप्रभाश्यामायमानशरीरकान्तिभिः शरन्नभसा - शरत्कालिका काशेन, तत्कान्त्येत्यर्थः, सन्निभा सिता - सम्यगुपमिता, पत्रप्रभाश्यामायमाना - पत्रप्रभाभिः - पत्रद्युतिभिः, श्यामायमाना - श्यामतामापाद्यमाना, शरीरकान्तिः - शरीरशोभा येषां तादृशैः, यद्वा शरन्नभः सन्निभा - शरत्कालिकगगनतुल्या, असितपत्राणां - श्यामकदलीदलानां, या कान्तिस्तया श्यामायमाना शरीरकान्तिर्येषां तादृशैः, पुनः उपरचितपङ्गिभिः वद्धश्रेणीकैः, अपरैः अन्यैः पुरुषैः पुरोदर्शितदीर्घरथ्यं पुरः - अग्रे, दर्शिता - दृष्टिगोचरकारिता, दीर्घा - विस्तृता, रथ्या- कदलीगृहमध्यवर्तिमार्गों यस्य तादृशम् [ल]। पुनः अजिरकुट्टिमोपविष्टनिभृतभूपाललोकम् अजिरकुट्टिमे प्राणवर्तिमणिबद्धभूमौ उपविष्टाः, निभृताः-स्थिराः, भूपाललोकाः- नृपजना यस्य तादृशम् । पुनः एकदेशारब्धमधुरगानगाथकपेटकोपजुष्टम् एकदेशे - एकभागे, आरब्धं - प्रवर्तितं मधुरं - श्रवणप्रियं, गानं यैस्तादृशानां, गायकानां - गाथकानां, पेटकैः - बाह्यमञ्जूषाभिः समूहैर्वा, उपजुष्टम्अधिष्ठितम् । पुनः उद्धुष्टजयशब्द बन्दिवृन्दाध्यासितसविधभूभागम् उद्घुष्टः - उच्चारितः, जयशब्दो बन्दिवृन्देन - स्तुतिपाठकजनगणेन, अध्यासितः - अधिष्टितः, सविधभूभागः - निकट भूमिप्रदेशो यस्य तादृशम् । पुनः आगृहीत कनकदण्डप्रतीहारमण्डलाधिष्ठितद्वारदेशम् आगृहीतः - उत्थापितः, कनकदण्डः - सुवर्णमयदण्डो येन तादृशेन, प्रतीहार मण्डलेन-द्वारपालगणेन, अधिष्ठितः - आक्रान्तः, द्वारदेशः - अन्तः प्रवेशनिर्गमदेशो यस्य तादृशम् । पुनः अभिरामदर्शनम् अभिरामं - मनोहरं, दर्शनं यस्य तादृशम् । पुनः आरामलक्ष्म्या : उद्यानश्रियः, साक्षात्, चतुःशालमिव अन्योन्याभिमुखशालचतुष्टयात्मकगृहविशेषमिव । पुनः अतिविशालम् अतिविस्तृतम् । पुनः एकम् अद्वितीयम् । पुनः अकठोरहारीतहरितप्रभम् अकठोरा - अतीत्रा, हारीतस्येव - पक्षिविशेषस्येव, हरितप्रभा - हरितकान्तिर्यस्य तादृशम् [ ] | तस्य निरुक्तकदलीगृहस्य, मध्यभागे अभ्यन्तरप्रदेशे, कृतावस्थानम् अवस्थितं, हरिवाहनम् अद्राक्षीत् दृष्टवान्,
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टिप्पनक- परागविवृतिसंवलिता ।
स्त्यानतां गते पृथुनि कुरुविन्दमणिशिलातले निषण्णम्, अच्छशिशिरेण शैलेन्द्रमिव हिमद्रवेण चन्द्रातपरुचा दिव्यचन्दनेनापादमनुलिप्तम्, अतिविमलघनसूत्रेण संख्यानशास्त्रेणेव नवदशालङ्कृतेन श्वेतचीनवस्त्रद्वयेन संवीतम् [ ए ] अखिलदेहाभरणमणिसंक्रान्ताभिरासन्नचामरग्राहिणी प्रतिमाभिर्विद्यादेवताभिरिव सद्यः साधिताभिः सर्वतोऽधिष्ठितशरीरम्, आनाभिलम्बमभिनवं मौक्तिकप्रालम्बमद्याप्यशुष्कमभिषेकवारिकणकला वि हेमाचलशिलाविशालेन वक्षसा धारयन्तम् [ ऐ] निसर्गनिर्मला लोकाभ्यामभिनवं नयमार्गमुपदेष्टुममरगुरुभार्गवाभ्यामिवोपगताभ्यामिन्दुमणिकुण्डलाभ्यामाश्रितोभयश्रवणम्, अलिकतटसङ्गिना विततभास्वरेण कनकपट्टबन्धेन वलयितमुत्तमं मणिमुकुटमरिकुलविनाशार्थमुद्गतं तपनमण्डलमिव सपरिवेषमुत्तमाङ्गस्थमुद्रहन्तम्, इतस्ततः प्रहिततरलतारका भिर्दिग्भिरिव सेवागताभिश्चतसृभिर्वारवनिताभिरुद्धूयमानचामरम् [ओ]
टिप्पणकम् — कुरुविन्दः- पद्मरागमणिः । संख्यानशास्त्रेणेव नवदशालङ्कृतेन श्वेतची नवस्त्रद्वयेन संवीतम् संवेष्टितम्, एकन्न नवदशाङ्ककशोभितेन, अन्यत्र नूतन दशिकाराजितेन, संख्यानशास्त्रं - गणितशास्त्रम् [ ए ] । अलिकं-ललाटम् [ओ ] |
इत्यग्रेणान्वेति । कीदृशम् ? कुरुविन्दमणिशिलातले पद्मरागमणिमयशिलोपरि, निषण्णम् उपविष्टम् कीदृशे ? अमलांशुकाच्छादिते निर्मलसूक्ष्म श्लक्ष्णवस्त्रास्तीर्णे, पुनः किंशुकच्छविनि पलाशकुसुमसदृशरक्त कान्तिशालिनि, अत एव स्त्यानतां संहतावस्थां गते प्राप्ते, चरणारविन्दरुचिसन्तान इव चरणकमलकान्तिकला पश्चेत्युत्प्रेक्षा, पुनः पृथुनि विशाले । पुनः कीदृशम् ? हिमद्रवेण प्रालेयपङ्केन, शैलेन्द्रमिव हिमालयमिव, अच्छशिशिरेण धवलशीतलेन, चन्द्रातपरुचा चन्द्रकिरणकान्तिशालिना, दिव्यचन्दनेन स्वर्गीयचन्दनेन, चन्दनोत्तमेनेत्यर्थः, आपादं चरणपर्यन्तम्, अनुलिप्तम् कृतानुलेपनम् । पुनः अतिविमलघनसूत्रेण अतिविमलधनानि - अत्यन्तस्वच्छसान्द्राणि, सूत्राणि - तन्तवो यस्मिंस्तादृशेन, पुनः संख्यानशास्त्रेणेव गणितशास्त्रेणेव, नवदशालङ्कृतेन नवीनदशिकाशोभितेन, पक्षे नव-दशाङ्ककशोभितेन, श्वेतची नवस्त्रद्वयेन चीनदेशोद्भवधवलसूक्ष्मश्लक्ष्णवस्त्रयुगलेन, संवीतम् आवृताम् [ ए ] । पुनः अखिलदेहाभरणमणिसंक्रान्ताभिः शरीरालङ्करणभूताशेषमणिप्रविष्टाभिः आसन्नचामरग्राहिणीप्रतिमाभिः सन्निहितचामरधारिणीजनप्रतिबिम्बैः सद्यःसाधिताभिः तत्कालोपासनाप्रमोदिताभिः, देवताभिरिव विद्याधिष्ठातृदेवताभिरिव सर्वतः सर्वावयवावच्छेदेन, अधि.. ष्ठितशरीरं व्याप्तदेहम् । पुनः आनाभिलम्बं नाभिपर्यन्तं लम्बमानं पुनः अभिनवं नवीनं, मौक्तिकप्रालम्बं मुक्तामणिमयं कण्ठाधस्तादृग्लम्बि माल्यम्, अद्यापि अधुनापि, अशुष्कं शुष्कतामनापन्नम्, अभिषेकवारिकणाकलापमिव विद्याधरचक्रवर्तिपदाधिरोहणकालिकाभिषेकजलबिन्दुसन्दोहमिव, हेमा चलशिलाविशालेन सुमेरुशिला तुल्यविस्तारेण, वक्षसा उरःस्थलेन, धारयन्तं परिदधानम् [ ऐ ] । पुनः निसर्गनिर्मला लोकाभ्यां निसर्गेण - प्रकृत्या, निर्मल:- स्वच्छ:, आलोकः-प्रकाशो ययोस्तादृशाभ्याम्, अभिनवं नूतनं, नयमार्गं नीतिपथम् उपदेष्टुं शिक्षयितुम्, उपगताभ्यां कर्णान्तिकमागताभ्याम्, अमरगुरु भार्गवाभ्यामिव बृहस्पति शुक्राभ्यामिव, इन्दुमणिकुण्डलाभ्यां चन्द्रकान्तमणिमयकुण्डलाभ्याम्, आश्रितोभयश्रवणम् आश्रितम् - अधिष्ठितं विभूषितमिति यावत्, उभयं दक्षिणं वामं च, श्रवणं कर्णो यस्य तादृशम् । पुनः अलिकतटसङ्गिना ललाटप्रान्तलम्बिना, विततभास्वरेण विस्तृतद्युतिशालिना, कनकपट्टबन्धेन सुवर्णमयपट्टबन्धेन, वलयितं वेष्टितम् उत्तमम् उत्कृष्टम्, मणिमुकुटं मणिमय किरीटम्, अरिकुलविनाशार्थं वैरिवर्गविध्वंमनार्थम्, उद्गतम् उदितम्, पुनः सपरिवेषं परिवेषेण - उत्पातात्मकसूर्यतेजोमण्डलेन, सहितम्, उत्तमाङ्गस्थं मस्तकवर्ति, तपनमण्डलमिव सूर्यबिम्बमिव उद्वहन्तम् उपरि धारयन्तम् । पुनः इतस्ततः अत्र तत्र, प्रहिततरलतारकाभिः प्रहिताः - प्रक्षिप्ताः, तरला - चञ्चलाः, तारकाः-तारा याभिस्तादृशीभिः दिग्भिरिव प्राच्यादिचतुर्दिग्भिरिव, सेवागताभिः निषेवणार्थमुपस्थिताभिः, चतसृभिः चतुः संख्यिकाभिः, वारवनिताभिः वेश्याभिः उद्भूयमानचामरम् उद्धूयमानम्उद्वेल्यमानं, चामरं यस्मिंस्तादृशम् [ अ ] । पुनः कीदृशम् ? नरेन्द्रकन्यया विद्याधरराजकन्यया तिलकमञ्जर्या, सनाथी
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तिलकमञ्जरी
उदारनेपथ्यसहचरीवृन्दपरिवृतया विधूयमानेन कान्त्या विलासिनीसंहत्या च विरल विरलमुज्वलहेमदण्डेन बालव्यजनक व्रजेन वीज्यमानया सखीजनोत्सङ्गनिहितनिः सहार्धदेह योद्धृतैकैकमणिवलयमात्रालङ्कारया ताम्बूलविरहोत्कलितमधुरविम्बाधररागया शरद्दिवेव चन्दनाङ्गरागपाण्डुरपयोधरया राजहंसिकयेव सरसमृणालिकाहारभूषितशरीरया [ औ ] तत्कालमेव सलिलादुद्धृतैः कमलकुमुदकुवलयमृणालैः कल्पितोपधानमब्जिनीपत्रसंस्तरमधिशयानया जगत्र्यातिशायिरूपलावण्यया नवीनवयसा नरेन्द्रकन्यया सनाथीकृतपार्श्वम् [ अं ] अङ्घ्रिपैरपि कृतोर्ध्वावस्थानैरनुजीविभिरिव परिवृतं, कदलीभिरप्यनिलदोलायितदला भिश्चामरग्राहिणीभिरिव वीज्यमानं, धरण्याप्युपरिघृतसरलकाण्डसुरपादपया गृहीतातपत्र येवोत्सङ्गितम्, अह्नापि तरुशाखान्तरप्रवेशितप्रांशुरविकरेण प्रतिपन्नकनकवेत्रेणेव प्रकटितानुभावं हरिवाहनमद्राक्षीत् [ अ ] ।
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टिप्पनकम् - विधूयमानेन कान्त्या विलासिनी संहत्या च एकत्र विधूयमानेन चन्द्रायमाणेन कान्त्या, अन्यत्र प्रेर्यमाणेन विलासिनी संघातेन । शरदिवेव चन्दनाङ्गराग पाण्डुरपयोधरया चन्दनाङ्गरागवद् धवलमेघया, अन्यत्र चन्दनाङ्गरागेण धवलस्तनया । राजहंसिकयेव सरसमृणालिकाहारभूषितशरीरया एकत्र भार्द्वमृणालभोजन पुष्टदेहया, अन्यत्र सरसमृणालहारशोभितदेहया [ औ ] ।
कृत पार्श्व सनाथीकृतं - सहितम्, अधिष्ठितमित्यर्थः, पार्श्व - वामभागो यस्य तादृशम् कीदृश्या तया ? उदारनेपथ्यसहचरीवृन्दपरिवृतया उदारम् - उज्ज्वलम्, नेपथ्यं - कृत्रिमवेषो यस्य तादृशेन, सहचरीवृन्देन - सखीसमूहेन, परिवृतया - परिवेष्टितया; पुनः कान्त्या दीया, विधूयमानेन चन्द्रायमाणेन । च पुनः, विलासिनीसंहत्या विलासशीलाङ्गनागणेन विधूयमानेन प्रेर्यमाणेन, विरलविरलं मन्दं मन्दं यथा स्यात् तथा, उज्वलहेमदण्डेन उज्जवल सुवर्णदण्डावलम्बितेन, बालव्यजनक - व्रजेन चामरगणेन, वीज्यमानया पवनस्पर्शमाणयाः पुनः सखीजनोत्सङ्ग निहित निः सहार्धदेहया सखीजनोत्सङ्गेसखीजनकोडमध्ये, निहितः - स्थापितः, निःसहः - दुर्बलः, अर्धदेहः - देहार्धभागो यया तादृश्या; पुन; उद्धृतैकैकमणिवलयमात्रालङ्कारया विरहक्षीणबलतया उद्धृतः - करमूले परिहितः, एकैकः, मणिवलयमाल - केवलरत्नकङ्कणात्मकः, अलङ्कारःभूषणं यया तादृश्याः पुनः ताम्बूलविरहोत्कलितमधुर बिम्बाधररागया ताम्बूलविरहेण - ताम्बूलरससम्पर्कभावेन, उत्कलितः-उद्दीप्तः, मधुरः - दृष्टिप्रियः, स्वाभाविक माधुर्य रससम्भृतस्य वा, बिम्बाधरस्य - बिम्बफल तुल्यरक्तोष्ठद्रयस्य, रागः- रक्तता यस्यास्तादृश्या; पुनः शरद्दिवेव शरदृतुसम्बन्धिदिनश्रियेव, चन्दनाङ्गरागपाण्डुरपयोधरया चन्दनाङ्गरागेण - चन्दनद्रवः रूपाङ्गोपलेपनद्रव्येण, पाण्डुरौ - किञ्चित्पीतश्वेतवर्णी, पयोधरौ - स्तनौ यस्यास्तादृश्या, पक्षे चन्दनाङ्गरागवत्, पाण्डुरः- धवलः, पयोधरः–मेघो यस्यां तादृश्या; पुनः राजहंसिकयेव रक्तचरणचञ्चुकहंस्येव, सरसमृणालिकाहारभूषितशरीरया विरहानिशान्तये सरसानाम् आर्द्राणां मृणालिकानां - बिसलतानां, हारेण-माल्येन, पक्षे आहारेण-भक्षणेन, भूषितं शोभितं, पक्षे पुष्टं शरीरं यस्यास्तादृश्या; [ औ ] तत्कालमेव तत्क्षणमेव, सलिलात् जलात्, उद्धृतैः ऊर्ध्वमानीतैः, कमल-कुमुदकुवलयमृणालैः कमलस्य - साधारणपद्मस्य, कुमुदस्य - श्वेतपद्मस्य, कुत्रलयस्य- नीलपद्मस्य, मृणालैः - बिसतन्तुभिः, कल्पितोपधानं कल्पितं - रचितम् उपधानं शयन कालिकशिरोभागारोपणस्थानं यत्र तादृशम्, अजिनीपत्र संस्तरं कमलिनीपत्रशय्याम्, अधिशयानया स्वपत्या; जगत्रयातिशायिरूपलावण्यया जगत्रयातिशायि-भुवनत्रयोत्कृष्टं, रूपलावण्यंस्वरूपसौन्दर्यं यस्यास्तादृश्याः पुनः नवीनवयसा यौवनावस्थया [ अ ] । पुनः कीदृशम् ? अनुजीविभिरिव भृत्यैरिव, कृतोर्ध्वावस्थानैः ऊर्ध्वमवस्थितैः, अङ्गिपैरपि वृक्षैरपि परिवृतं परिवेष्टितम् । पुनः अनिलदोलायितदलाभिः, अनिलेन - वायुना, दोलायितानि - उत्क्षिप्तानि, दलानि - पत्राणि यासां तादृशीभिः कदलीभिरपि पुनः चामरग्राहिणीभिरिवेत्युत्प्रेक्षा, वीज्यमानं पवनेन सम्पर्च्यमानम् । पुनः उपरिधृतसरलकाण्डसुरपादपया उपरिधृतः, सरलकाण्डः - सरलः - ऋजुः, काण्डः - स्कन्धो यस्य तादृशः, सुरपादपः- देववृक्षः पारिजात इत्यर्थः, यया तादृश्या, धरण्यापि पृथिव्यापि, गृहीतातपत्रयेव धृतच्छायेव, उत्सङ्गितं स्वकोडे स्थापितम् । पुनः तरुशाखान्तरप्रवेशित प्रांशुरविकरेण तरुशाखान्तरे - वृक्षशाखामध्ये, प्रवेशितः, प्रांशुः - उन्नतः, रविकरः- सूर्यकिरणो येन तादृशेन, अह्नापि दिनेनापि, प्रतिपन्नकनकवेत्रेणेव गृहीतसुवर्णदण्डेनेव, प्रकटितानुभावं प्रकटितः - प्रदर्शितः, अनुभावः- प्रभावो यस्य तादृशम् [ अ ] ।
१६ तिलक०
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टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता। अथोपसृत्य पुरतः सत्वरेण स्खलत्पदप्रसरया गिरा गत्या च सूचितहृदयहर्षप्रकर्षेण 'देव ! दिष्ट्या वर्धसे, परागतो युवराजः समरकेतुः' इत्यावेदिते गन्धर्वकेण संभ्रान्तचेताः सहसैव हरिवाहनः परित्यज्य तया राजकन्यया सह प्रवृत्तां कथां 'कथय कथय, क वर्तते क वर्तते' इति सगद्गदं गदन्नासनादुत्तस्थौ [क]। द्वारदेशावस्थापितेक्षणश्च दृष्टवानीषदवनतदृष्टिम् , आपतन्तमभिमुखं, दुःखविधृतकण्ठदेशागतोद्गाढवाष्पवेगम् , अकृत्रिमानुरागेण सुहृदा प्रथममेव प्रणयिनीकृताया विद्याधरविषयभूमेर्महादेवीपदाभिषेकमिव कर्तुं तुषारनिःष्यन्द शिशिरैरानन्दाश्रुवारिभिराकर्णमायते नयनपात्रे पूरयन्तम् , अविरलकरामुलीगलन्नखमयूखजालजलधारेण रोमाञ्चजालकमुचा मन्दं मन्दं दोलायमानेन प्रांशुना भुजादण्डद्वयेन सद्य एव प्रतीर्णायाः प्रियसुहृद्दर्शनप्रतिज्ञापगायाः पारमाश्रयन्तमिव लक्ष्यमाणम् [ख], अतिशयकर्कशेन वातातपस्पर्शनातिमात्रकर्शितमपि जलनिधिमिवापरित्यक्तसहजलावण्यम् , अभिनवलताप्रताननद्धविकटोर्ध्वजूटम् , अधिजघन
अथ अनन्तरम् , सत्वरेण अविलम्बितेन, स्खलत्पदप्रसरया स्खलन्तः-भ्रंशमानाः, पदानां-स्याद्यन्त-त्याद्यन्तानां, पक्षे पदयोः-चरणयोः, प्रसराः-विस्तराः, पक्षे विक्षेपा यस्यां तादृश्या, गिरा वाण्या, च पुनः, गत्या गमनेन, सूचितहृदयहर्षप्रकर्षेण सूचितः-प्रतीतः, हृदयहर्षस्य-हार्दिकानन्दस्य, प्रकर्षः उत्कर्षो यस्य तादृशेन, गन्धर्वकेण तदाख्यप्रकृतविद्याधरबालकेन, पुरतः अग्रे, उपसृत्य गत्वा, 'देव ! राजन् !, दिष्ट्या भाग्येन, वर्धसे, युवराजः चन्द्रकेतुनृपात्मजः, समरकेतुः, परागतः प्रत्यागतवान्' इति इत्थम् , आवेदिते विज्ञापिते सति, सम्भ्रान्तचेताः त्वराकान्तहृदयः, हरिवाहनः, तया प्रकृतया, राजकन्यया विद्याधरराजपुत्र्या, सह प्रवृत्तां प्रस्तुतां, कथां, परित्यज्य विसृज्य, 'कथय कथय ब्रूहि ब्रूहि, व वर्तते क्व वर्तते कुत्र तिष्ठति कुत्र तिष्ठति' समरकेतुरिति शेषः, इति इत्थं, सगद्गदेन हर्षजन्येन अव्यक्तखरेण सहितं यथा स्यात् तथा, गदन् ब्रुवाणः, आसनात् उपवेशनस्थानात् , उत्तस्थौ उत्थितवान् [क]। च पुनः, देशावस्थापितेक्षणः द्वारदेशे-कदलीगृहप्रवेशनिर्गमदेशे, अवस्थापिते-निहिते, ईक्षणे-नयने येन तादृशः सन्, दृष्टवान् दृष्टिगोचरीकृतवान् , 'समरकेतुम्' इत्यग्रेणान्वेति । कीदृशम् ? ईषदवनतदृष्टिं किञ्चिदधोमुखनयनम् । पुनः अभिमुखं सम्मुखम् , आपतन्तं आगच्छन्तं । पुनः दुःखविधृतकण्ठदेशागतोद्गाढवाष्पवेगं दुःखेन-क्लेशेन, विधृतः-गृहीतः, निरुद्ध इत्यर्थः, कण्ठदेशागतस्य-कण्ठपर्यन्तमागतस्य, बाष्पस्य-ऊष्मवायोः, वेगो येन तादृशम् । पुनः अकृत्रिमानुरागेण खाभाविकप्रीतिमता, सुहृदा समरकेतुना, प्रथममेव प्रागेव,प्रणयिनीकृतायाः प्रीतिविषयीकृतायाः, विद्याधरविषय विद्याधरजनपदभूमेः, महादेवीपदाभिषेकं महादेव्याः-हरिवाहनपाणिग्रहणेन महाराज्ञीभूतायास्तिलकमञ्जर्याः, यत् पद-स्थानं, तस्य, अभिषेक-वैधस्नपनं, कर्तुमिव, तुषारनिःष्यन्दशिशिरैः हिमप्रस्रवणसदृशशीतलैः, आनन्दाश्रुवारिभिः आनन्दजनितनयनजलैः, आकर्ण कर्णपर्यन्तम् , आयते दीर्घ, नयनपात्रे नेत्ररूपं पात्रद्वयं, पूरयन्तं पूर्तिमापादयन्तम् । पुनः अविरलकराङ्गुलीगलन्नखमयूखजालजलधारेण अविरलं-निरन्तरं, कराङ्गुलीभ्यः- करसम्बन्ध्यङ्गुलीभ्यः, गलन्तीपतन्ती. नखमयूखजालरूपा- नखकिरणकलापरूपा, जलधारा-जलप्रवाहो यस्य तादृशेन, पुनः रोमाञ्चजालकमुचा रोमाञ्चगणोद्गामिना, पुनः मन्दं मन्दं शनैः शनैः, दोलायमानेन उद्वेलता, प्रांशुना उन्नतेन, भुजदण्डद्वयेन बाहुरूपदण्डद्वयेन, सद्य एव तत्क्षणमेव, प्रतीर्णायाः उत्तीर्णायाः, प्रियसुहृद्दर्शनप्रतिज्ञापगायाः प्रियसुहृदः-प्रियमित्रस्य हरिवाहनस्य, यद् दर्शनं तत्प्रतिज्ञारूपायाः-तत्संकल्परूपायाः, आपगायाः- नद्याः, पारम् उत्तरतीरम् , आश्रयन्तमिव आगच्छन्तमिव, लक्ष्यमाणं प्रतीयमानम् [ख] । पुनः, अतिशयकर्कशेन अत्यन्ततीव्रण, अतिदुःसहेनेत्यर्थः, वातातपस्पर्शेन वातानांवायूनाम् , आतपानां-सूर्यतेजसां च, स्पर्शन, अतिमात्रकर्शितमपि अत्यन्ततनूकृतमपि, जलनिधिमिव समुद्रमिव, अपरित्यक्तसहजलावण्यं लावण्यं-सौन्दर्य पक्षे क्षारत्वं येन तादृशम् । पुनः अभिनवलताप्रताननद्धविकटोर्ध्वजूटम् अभिनवलताप्रतानैः-नूतनलताविस्तारैः, नद्धः-ग्रथितः, विकट:-विशालः, ऊर्ध्वजूटः-उन्नतसंयतकेशपाशो यस्य तादृशम् । पुनः अधिजघनं जङ्घोपरि, आसक्तसूक्ष्मवल्कलम् सलग्नं सूक्ष्म वृक्षत्वगंशुकम् , पुनः अनिलविलुलितेन पवनोद्भूतेन,
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तिलकमञ्जरी
मासक्तसूक्ष्मवल्कलम्, अनिलविलुलितेन वनतरुपुष्परेणुना धूसरित सकलावयवम्, अनेकदुःखनिधानमानुष्यकद्वेषेण वृक्षतामिव लब्धुमारब्धोद्यममाधारमिव धैर्यस्य, हृदयमिव सौहृदस्य, स्वतत्त्वमिव सत्त्वस्य, परिपाकमिव पौरुषस्य, जयस्तम्भमिवावष्टम्भस्य, दृष्टान्तमित्र कष्टुंसहानाम्, सुदुस्तरव्यसनसागरविलङ्घनैकसेतुं समरकेतुम् [ग]। आलोकितमात्र एव तत्र गलितनिः शेषहृदयातङ्कभारः सहसैवाध्यासितस्वदेशमिव दृष्टसकलस्वज्ञातिलोकमिवानेक सहायशतपरिवृतमिव प्रत्यागत समस्त पूर्वानुभूतनिर्भरक्रीडा सुख समूहमिवात्मानमुद्वहन्नधिष्ठितोभयकपोलेन सिंहलेश्वरसूनुमभि सरभसप्रधावितस्य चक्षुषः प्रसरमपवारयन्तमानन्दाश्रुजलपटलमिव परिमार्ज्जुमनवरतमुत्तिष्ठता पुलकजालकेन पिशुनितान्तः प्रहर्षोदयः किसलयाग्रहस्तपर्यस्तदशमुद्विकाशकुसुमप्रकटितस्मिताभिः पूर्णपात्र संभावनयेव वारं वारमवलम्ब्यमानमासन्नवर्तिनीभिर्वनलताभिराकर्षन् कराग्रेण सत्वरमुत्तरीयसिचयाञ्चलं कदलीगृहाभ्यन्तर एव द्वित्राणि पदान्यभिमुखमगच्छत् [घ] उपसृतं च
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वनतरुपुष्परेणुना वनसम्बन्धिवृक्षपुष्पधूल्या, धूसरितसकलावयवं धूसरिताः - किञ्चित्पीतश्वेतीकृताः, सकलाःसमस्ताः, अवयवाः–अङ्गानि यस्य तादृशम् । अत एव अनेकदुःखनिधानमानुष्यकद्वेषेण अनेकदुःखनिधानस्यविविधदुःखास्पदस्य, मानुष्यकस्य- मनुष्यत्वस्य, द्वेषेण-अप्रीत्या, वृक्षतां वृक्षरूपतां लब्धुमिव प्राप्तुमिव, आरब्धोद्यमं प्रवर्तितोद्योगम् । पुनः धैर्यस्य सहिष्णुतायाः, आधारमिव आश्रयमिव, पुनः सौहृदस्य सख्यस्य, हृदयमिव प्रधानाङ्गमित्र । पुनः सत्त्वस्य बलस्य, स्वतत्त्वमिव स्वकीयसारभागमिव सतत्त्वमिति पाठे वास्तविकरूपमिव । पुनः पौरुषस्य पराक्रमस्य परिपाकमिव परिणतरूपमिव । पुनः अवष्टम्भस्य दृष्टसिद्धिप्रतिबन्धस्य, जयस्तम्भमिव जयध्वजमिव । पुनः कष्ėसहानां दुःखसहनशीलानां दृष्टान्तमिव उदाहरणमिव । पुनः सुदुस्तरव्यसनसागरविलङ्घनैक सेतुं सुदुस्तरस्य-अतिदुःखेन तरीतुं शक्यस्य, व्यसनसागरस्य - कष्टसमुद्रस्य, विलङ्घने - संतरणे, एकसेतुं प्रधानसेतुभूतम् [ग] |
च पुनः, तत्र तस्मिन् समरकेताविति यावत्, आलोकितमात्र एव दृष्टमात्रे सत्येव, गलित निःशेषहृदयातङ्कभारः गलितः - पतितः, निवृत्त इत्यर्थः, निःशेषः- समस्तः, हृदयस्य - चित्तस्य, आतङ्कभार :- शङ्काभारो यस्य तादृशः; पुनः सहसैव शीघ्रमेव, अध्यासित स्वदेशमिव अध्यासितः - अधिष्ठितः, स्वस्य देशः - अयोध्या येन तादृशमिव, अत एव दृष्टसकलस्वज्ञातिलोकमिव दृष्टाः - पुनः साक्षात्कृताः सकलाः समस्ताः, ज्ञातिलोकाः - बन्धुजना येन तादृशमिव पुनः अनेकसहायशतपरिवृतमिव अनेकैः - बहुभिः सहायानां सार्थगामिनां शतैः परिवृतमिव-परिवेष्टितमिव, पुनः प्रत्यागतसमस्त पूर्वानुभूतनिर्भरक्रीडासुख समूहमिव प्रत्यागतः - परावृत्तः, समस्तः - समग्रः, पूर्वानुभूतः, निर्भरक्रीडासुखसमूहः-अतिमात्रक्रीडाजन्यानन्दसन्दोहो यस्य तादृशमिव, आत्मानं खम्, उद्वहन् धारयन्; पुनः पुलकजालकेन रोमाञ्चगणेन, पिशुनितान्तः प्रहर्षोदयः पिशुनितः - सूचितः, अन्तः प्रहर्षस्य - अन्तः प्रमोदस्य, उदयः - उद्गमो यस्य तादृशः, कीदृशेन ? अधिष्ठितोभयकपोलेन अधिष्ठितः - आश्रितः, उभयकपोलः - गण्डमण्डलद्वयं येन तादृशेन; पुनः सिंहलेश्वरसूनुं सिंहलेश्वरस्य-सिंहलद्वीपाधिपतेः, चन्द्रकेतोरिति यावत्, सूनुं पुत्रं समरकेतुम्, अभि लक्ष्यीकृत्य, सरभसप्रधावितस्य सत्वरं प्रस्थितस्य, चक्षुषः, प्रसरं व्यापारम्, अपवारयन्तं निरुन्धन्तम्, आनन्दाश्रुजलपटलम् आनन्दजन्याश्रुजलराशि, परिमाष्टुमिव विशोधयितुमिव, अनवरतं निरन्तरम्, उत्तिष्ठता उद्गच्छता, पुनः कीदृशम् ? किसलयाग्रहस्त पर्यस्तदर्श करपल्लवाग्रेण, पर्यस्ता-व्याप्ता धृतेति यावत्, दशा - अन्त्यावयवो यस्य तादृशम्, पुनः उद्विकाशकुसुमप्रकटितस्मिताभिः उद्विकाशैः-उत्–उत्कृष्टः, विकाशो येषां तादृशैः कुसुमैः प्रकटितानि - प्रकाशितानि स्मितानि - मन्दहासा याभिस्तादृशीभिः, आसन्नवर्तिनीभिः निकटस्थाभिः, वनलताभिः पूर्णपात्र सम्भावनयेव पूर्णपात्रस्य - "उत्सवेषुसुहृद्भिर्यद् बलादाकृष्य गृह्यते वस्त्रमाल्यादि तत् पूर्णपात्रं" इत्युक्तस्य, सम्भावनेव - कल्पनयेव, वारं वारं मुहुर्मुहुः, अवलम्ब्यमानम् आश्रीयमाणम्, उत्तरीयसिचयाञ्चलम् उत्तरीयवस्त्रामं, सत्वरं ससम्भ्रमम्, कराग्रेण हस्ताग्रेण, आकर्षन् लताभ्यो विश्लेषयन्, कदलीगृहाभ्यन्तर एव कदलीगृहमध्य एव, द्वित्राणि द्वे वा त्रीणि वा पदानि, अभिमुखं सम्मुखम् अगच्छत् गतवान् [घ ] |
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टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता । क्षितिचुम्बिना शिरसा कृतप्रणाममुक्षिप्य सरभसप्रसारितबाहुयुगलः प्रवेशयन्निव हृदयमेकतां नयन्निव शरीरेण निर्दयाश्लेषनिष्पिष्टवक्षःस्थलपुलकजालमालिलिङ्ग । शिथिलितपरिष्वङ्गं च भूयः प्रणम्य भूमावुपविशन्तमाकृष्य निजविष्टरैकदेशे न्यवेशयत् , परिष्वज्य च पुनः पुनः प्रीतचेताः पप्रच्छ कुशलम् । स्थित्वा च तन्मुखासक्तदृष्टिरनतिदीर्घकालमीषद्वलितवदनः स्मितोद्भेदविशदमक्षिपत् तस्यां क्षितिपदुहितरि चक्षुः [3]। अवदच्च-'देवि, सोऽयमखिलसिंहलद्वीपभर्तुर्महाराजचन्द्रकेतोरात्मजन्मा स्वयंवृतो वरस्त्वदीयायाः स्वसुर्मलयसुन्दर्याः सकलवीरवर्गाग्रेसरो युवराजः समरकेतुर्यस्नेहमोहितेन मया मनोरथानामप्यपथभूतमप्रार्थिताभिमुखेन भगवता देवेन कथमपि करुणया संपादितमेकपद एव परिहृतं त्वदीयमुखपङ्कजावलोकनसुखमङ्गीकृतः कालमियन्तमेतावानयं क्लेशः' इत्युक्तवति हरिवाहने तां कृतस्मितामुत्थाय समरकेतुः सादरं प्रणनाम । प्रणतोपविष्टं च तमसौ प्रकटितसंभ्रमारम्भसुविकसितपुटेन निश्चलपक्ष्मणा निस्तरङ्गतारकेण चक्षुषा पिबन्तीवालपन्तीवाह्वयन्तीव सविधे समुपवेशयन्तीव सप्रेमबहुमानमपश्यत् [च] । अत्रान्तरे कनकवेत्रहस्ता प्रविश्य
टिप्पनकम्-वरः भर्ता [च]।
च पुनः, उपसृतम् उपगतम् , तं समरकेतुम् , आलिलिङ्ग आलिङ्गितवान् , कीदृशम् ? क्षितिचुम्बिना भूमिस्पर्शिना, शिरसा मस्तकेन, कृतप्रणामं कृतः, प्रणामः-नमस्कारो यस्य तादृशम् , कीदृशः ? उत्क्षिप्य उत्थाप्य, सरभसप्रसारितबाहृयुगलः सरभसं-सत्वरं, प्रसारितं-विस्तारितं, बाहयुगलं-भुजद्वयं येन तादृशः. पुनः हदयं मानसं. प्रवेशयन्निव निवेशयन्निव, पुनः शरीरेण, एकताम् अनन्यतां, नयन्निव प्रापयन्निव, निर्दयाश्लेषनिष्पिष्टवक्षःस्थलपुलकजालं निर्दयाश्लेषण-सुदृढालिङ्गनेन, निष्पिष्टं-सञ्चूर्णितं, वक्षःस्थलसम्बन्धि पुलकजालं-रोमाञ्चगणो यस्य तादृशं, तमिति शेषः । च पुनः, शिथिलितपरिप्वङ्गं शिथिलितः-मन्दीकृतः, परिष्वङ्गः-आलिङ्गनं यस्य तादृशम् , भूयः पुनः, प्रणम्य नमस्कृत्य, भूमौ, उपविशन्तम् उपवेशने प्रवर्तमानं, तमिति शेषः, आकृष्य आनीय, निजविष्टरैकदेशे स्वकीयासनैकभागे, न्यवेशयत् उपवेशितवान् । च पुनः, परिष्वज्य आलिङ्गय, प्रीतचेताः प्रसन्नमानसः, कुशल, पप्रच्छ पृष्टवान् । च पुनः, स्थित्वा स्थिरीभूय, अनतिदीर्घकालं किञ्चिद्दीर्घकालं, तन्मुखासक्तदृष्टिः तन्मुखसंलग्नलोचनः, ईषद्वलितवदनः ईषद्वलितं-किञ्चित् स्पन्दितं, वदनं-मुखं यस्य तादृशः सन् , स्मितोद्भेदविशदं मन्दहासोद्गमशुभ्रं, चक्षुः नेत्रं, तस्यां प्रकृतायां, क्षितिपदुहितरि राजकन्यायाम् , तिलकमञ्जर्यामिति शेषः, अक्षिपत् प्रेरयत् [6]। च पुनः, अवदत् उक्तवान्-देवि ! राज्ञि !, . अखिलसिंहलद्वीपभर्तुः समस्तसिंहलद्वीपाधिपतेः, महाराजचन्द्रकेतोः, आत्मजन्मा पुत्रः, पुनः सकलवीरवर्गाग्रेसरः अशेषवीरगणाग्रणीः, पुनः युवराजः अचिरभाविराज्याभिषेकः, अयं पुरोवर्ती, सः समरकेतुः, त्वदीयायाः त्वत्सम्बन्धिन्याः स्वसुः भगिन्याः, मलयसुन्दाः तदाख्यनृपकुमार्याः, स्वयंवृतः स्वयमङ्गीकृतः, वरः पतिः, यत्स्नेहमोहितेन यत्प्रीतिवशीकृतेन, मया, मनोरथानामपि अभिलाषाणामपि, अपथभूतम् अमार्गभूतम् , अविषयभूतमित्यर्थः, पुनः अप्रार्थिताभिमुखेन अप्रार्थितेनापि अभिमुखेन-अनुकूलेन, भगवता इष्टानिष्टप्रभुणा, देवेन भाग्येन, करुणया कृपया, कथमपि एकपदे सहसा, केनापि प्रकारेण, सम्पादितं साधितं, त्वदीयमुखपङ्कजावलोकनसुखं त्वदीयमुखकमलदर्शनानन्दः, परिहृतं परित्यक्तम् , इयन्तम् एतावन्तं कालम् , एतावान् , अयम् अनुपदमनुभूतः,क्लेशः दुःखम् , अङ्गीकृतः स्वीकृतः, इति इत्थम् , हरिवाहने उक्तवति सति, समरकेतुः, उत्थाय, कृतस्मितां कृतमन्दहासा, तां तिलकमञ्जरीम् , सादरम् आदरपूर्वकं, प्रणनाम प्रणतवान् । प्रणतोपविष्टं पूर्व प्रणतं पश्चादुपविष्ट, तं समरकेतुं, असौ तिलकमञ्जरी, सप्रेमबहमानं प्रेम्णा-स्नेहेन, बहुमानेन-प्रचुरादरेण च, सहितं यथा स्यात् तथा, अपश्यतु दृष्टवती, कीदृशेन केन किं कुर्वतीव ? प्रकटितसम्भ्रमारम्भसुविकसितपुटेन प्रकटितः-प्रकाशितः, सम्भ्रमारम्भः-त्वरोदयो येन तादृशं सुविकसितं-सुष्ठु विस्तृतं, पुटं-पुटाकारो यस्य तादृशेन, पुनः निश्चलपक्ष्मणा निश्चलं-निःस्पन्दं, पक्ष्म-रोमराजिर्यस्य तादृशेन, पुनः निस्तरङ्गतारकेण स्थिरकनीनिकेन, चक्षुषा, पिबन्तीव सौन्दर्यामृतरसमास्वादमानेव, पुनः आलपन्तीव प्रिय वदन्तीव, पुनः सविधे समीपे, समुपवेशयन्तीव सम्यगुपवेशयन्तीव [च]।
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तिलकमञ्जरी
१२५ प्रतीहारी सप्रश्रयमवनिपतिकन्यकां तां व्यजिज्ञपत्--- 'भर्तृदारिके ! देव्या पत्रलेखया त्वज्जीवितपरित्यागव्यवसायवार्तामाकण्य लोकादधिकमुत्पन्नहृदयोत्कम्पया विसृष्टः कञ्चकी द्वारि तिष्ठति' इति, मुखनिहितनिश्चललोचना च सा विलम्ब्य क्षणमलब्धोत्तरा सत्वरमेव निश्चक्राम [छ ] ।
निर्गतायां च तस्यामतिक्रान्ते कियत्यपि कालक्षणे गीतविधिविचक्षणः कोऽपि मध्यंदिनावसरपाठावसाने समासन्नदीर्घिकातीरवर्ती वारं वारमावर्तितपदामार्यामिमामुच्चैरगायत्---
__ "तव राजहंस ! हंसीदर्शनमुदितस्य विस्मृतो नूनम् ।
सरसिजवनप्रवेशः समयेऽपि विलम्बसे तेन ॥" [ज] श्रुत्वा च सुचिरमेतामवगतार्थो विहस्य हरिवाहनस्तां महाराजकन्यामवादीत्-‘देवि ! दैवज्ञावेदितस्य विद्याधरराजधानीपुरप्रवेशलग्नस्य समयातिलङ्घनशक्तिभिः शाक्यबुद्धिपुरःसरैः प्रवर्तितो बुद्धिसचिवैः विराधनामा नरेन्द्रनर्मसचिव एष हंसमिषेण मामितो गमनाय त्वरयति, तदादिश, गच्छाम्यहम् , त्वमपि
टिप्पनकम् -'तव राजहंस!' इत्यादि[ब्याजो]क्तिः, यतो राजहंसव्याजेन नृपप्रधानो हरिवाहन उक्तः, हंसीव्याजेन तिलकमञ्जरी उक्ता, सरसिजवनप्रवेशव्याजेन च विद्याधरराजधानीप्रवेशः सूचित इति [ज।
अत्र अस्मिन् , अन्तरे अवसरे, कनकवेत्रहस्ता सुवर्णदण्डहस्ता, प्रतीहारी द्वारपालिका, प्रविश्य कदलीगृहाभ्यन्तरमुपस्थाय, सप्रश्रयं सादरम् , ताम् , अवनिपतिकन्यकां राजपुत्रीं, तिलकमञ्जरीमिति यावत् , व्यजिज्ञपत् आवेदितवती, भर्तृदारिके ! राजसुते !, देव्या राज्या, पत्रलेखया, लोकाद् जनात् , त्वज्जीवितपरित्यागव्यवसायवार्ता त्वदीयप्राणत्यागोद्योगवृत्तान्तम् , आकर्ण्य श्रुत्वा, अधिकम् अत्यन्तं यथा स्यात् तथा, उत्पन्नहृदयोत्कम्पया उत्पन्नःसञ्जातः, हृदयस्य, उत्कम्पः-प्रकम्पो यस्यास्तादृश्या सत्या, विसृष्टः मुक्तः, प्रेषित इति यावत् , कञ्चकी अन्तःपुरद्वारपालः, द्वारि द्वारदेशे, तिष्ठति, इति, च पुनः, मुखनिहितनिश्चललोचना मुखनिवेशितनिःस्पन्दनयना, सा प्रतीहारी, क्षणं किञ्चित्काल मात्रं, विलम्ब्य स्थित्वा, अलब्धोत्तरा अप्राप्तप्रतिवचना सती, सत्वरमेव शीघ्रमेव, निश्चक्राम ततो निष्क्रान्ता [छ ।
तस्यां प्रतीहार्या, निर्गतायां निष्कान्तायां सत्यां, कियत्यपि कतिपयेऽपि, कालक्षणे कालसम्बन्धिक्षणात्मकांशे, अतिक्रान्ते व्यतीते सति, मध्यंदिनावसरपाठावसाने मध्याकालिकपाठोत्तरकाले, कोऽपि अपरिचितः, गीतविधिविचक्षणः गानकर्मकुशलः, समासन्नदीर्घिकातीरवर्ती अतिनिकटवापिकातटस्थः सन् , वारं वारम् अनेकवारम् ,
आवर्तितपदाम् आवर्तितानि-पुनः पठितानि, पदानि यस्यास्तादृशीम् , इमाम् अनुपदमुच्यमानाम् , आर्यां तदाख्यवृत्तविशेषम् , उच्चैः दीर्घस्वरेण, अगायत् गीतवान्- तव राजहंसेत्यादि, व्याजोक्तिरिय, तथा च हे राजहंस! राज्ञां मध्ये हंससदृश !, हंसीदर्शनमुदितस्य हंस्याः-स्त्रीणां मध्ये गमनविभ्रमादिना हंससदृश्यास्तिलकमञ्जर्याः, दर्शनेन, मुदितस्य-हृष्टस्य, तव, सरसिजवनप्रवेशः सरसिजवने-कमलकाननसदृशे विद्याधरराजराजधानीपुरे, प्रवेशः, नूनं निश्चयेन, विस्मृतः स्मृतिपथात् प्रच्यावितः, तेन विस्मरणेन, समयेऽपि प्रवेशावसरेऽप्यस्मिन् , विलम्बसे कालमतिकामसि [ज]।
च पुनः, एताम् इमामा, श्रुत्वा श्रवणगोचरीकृय, अवगतार्थः ज्ञाततदर्थः सन् , विहस्य अत्यन्तं हसित्वा, हरिवाहनः, तां प्रकृतां, महाराजकन्यां विद्याधरचक्रवर्तिसुतां, तिलकमञ्जरीमिति यावत् , अवादीत् उक्तवान्-'देवि राज्ञि !, दैवज्ञाशावेदितस्य मुहूर्तज्ञबोधितस्य, विद्याधरराजराजधानीपुरप्रवेशलग्नस्य विद्याधराधिपते राजधानीरूपे नगरे प्रवेशस्य यल्लग्नं-राश्युदयः, तस्य समयातिलङ्घनशक्तिभिः कालातिक्रमणशक्तिभिः, शाक्यबुद्धिपुरस्सरैः शाक्यबुद्धिप्रमुखैः, बुद्धिसचिवैः मतिनिधानमन्त्रिभिः, प्रवर्तितः प्रेरितः, एषः, विराधनामा, नरेन्द्रनर्मसचिवः विद्याधरेन्द्रक्रीडामन्त्री, हंसमिषेण हंसव्याजेन, हंसोद्देश्यकान्योक्त्या, इतः अस्मात् स्थानात्, गमनाय तत्र प्रस्थानाय, त्वरयति चपलयति, तत् तस्माद्धेतोः, माम्, आदिश अनुमन्यख, अहं गच्छामि विद्याधरराजराजधानी प्रयामि । त्वमपि गत्वा,
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टिप्पनक - परागविवृतिसंवलिता ।
गत्वा देवीमवलोकय' इत्यभिदधानः सहैव मागधजयध्वनिकलकलेनोदतिष्ठत् [ झ ] । द्वारसंगलितसत्वराङ्गरक्षककरतलप्रचलदुत्खातखड्ग मण्डली परिगतश्च विकचनीलोत्पलवनमध्यचारी राजहंस इव गत्वा सविभ्रमं ससंभ्रमाधोरणढौकितां कुम्भपीठपातिताङ्कुशकोटिघट्टनोपविष्टामनवरतनिष्ठुराक्रोशकर्शितोत्थानयत्नां यानगजबशामग्रतोऽधिरूढेन समरकेतुना समर्पितपाणिरध्यरोहत् [ अ ] | अथोष्णीष पट्टकृतशिरोवेष्टना दृढाकृष्टकज़ुककशाधिककृशोदरश्रियः स्कन्धविन्यस्त वल्गाविह स्ताग्रवामहस्तास्त दितरकरावलम्बमानलम्बाजिनयष्टयः पादकटकप्रविष्टैकाङ्क्षिपल्लवावष्टम्भेन परिवर्धकैरपरकटका क्रान्तिनिश्चलीकृतपर्याणैरुपस्थापितान् पुरः पार्थिवा यथास्वमश्वानारुरुहु: [ ८ ] |
तैश्च तरलायमानतारहारच्छटाच्छोटितवक्षःस्थलैरान्दोलितश्रवणोत्पलगलत्परागपांशुलकपोलपालिभिसहेलव्रजद्वाजिविघटमानसंघट्टमानच्छत्र धारैरागत्यागत्य परि
रालोलमौलिशेखरस्खलनखलीकृतालिजालैः
टिप्पनकम् - संगलिताः - मिलिताः [ अ ] ।
देवीं स्वमातरमित्यर्थः, अवलोकय पश्य, इति इत्थम्, अभिदधानः ब्रुवाणः, मागधजयध्वनिकलकलेन मागधानांमङ्गलपाठकानां, जयध्वनिकलकलेन - जयाकारकोलाहलेन, सहैव, उदतिष्ठत् उत्थितः, हरिवाहन इति शेषः [झ ] । च पुनः, द्वारसंगलितसत्वराङ्गरक्षककर तलप्रचलदुत्खातखड्ग मण्डलीपरिगतः द्वारसंगलितानां द्वारदेशे सम्पतितानां सम्मिलितानामिति यावत् अङ्गरक्षकाणां शरीररक्षणाधिकृत सैनिकानां करतलेषु, प्रचलन्त्या - प्रकम्पमानया, उत्खातयाउत्थापितया, खड्गमण्डल्या - कृपाणश्रेण्या, परिगतः परिवेष्टितः सन् विकचनीलोत्पलवनमध्यचारी विकसितनीलकमल - काननमध्यविहारी, राजहंस इव हंसविशेष इव सविभ्रमं सविलासं गत्वा, यानगजवशां यानरूपां - वाहनरूपां, गजवशां- हस्तिनीम्, अध्यरोहत् आरूढ़वानित्यग्रेणान्वेति कीदृशीम् ? ससम्भ्रमाधोरणढौकितां ससम्भ्रमैः सत्वरैः, आधोरणैः-हस्तिपकैः, ढौकिताम् - आनीताम् पुनः कुम्भपीठपातिताङ्कुशकोटिघट्टनोपविष्टां कुम्भपीठे - मस्तक प्रदेशे, पातितस्य, अङ्कुशस्य, कोट्या - अग्रभागेन, यद् घट्टनम् - आघातः, तेन उपविष्टाम्, पुनः अनवरतनिष्ठुराक्रोशकर्शितोत्थानयत्नाम् अनवरतं - निरन्तरं, निष्ठुरैः - कठोरैः, आक्रोशैः - भर्त्सनैः, कर्शितः- शिथिलितः, उत्थानयत्नः - उत्थानोद्यमो यस्यास्तादृशीम् । कीदृशः ? अग्रतः प्रथमम् अधिरूढेन कृतारोहणेन, समरकेतुना, समर्पितपाणिः अवलम्बनार्थं दत्तहस्तः [ अ ] । अथ अनन्तरं, पार्थिवाः तदनुगामिनोऽन्येऽपि नृपाः, यथास्वं स्वमनतिक्रम्य, स्वकीयं स्वकीयानित्यर्थः, अश्वान्, आरुरुहुः आरूढवन्तः इत्यग्रेणान्वेति । कीदृशाः ? उष्णीषपट्टकृत शिरोवेष्टनाः उष्णीषपट्टेन मस्तकावरणपटबन्धेन, कृतं शिरोवेष्टनं-मस्तकाच्छादनं यैस्तादृशाः; पुनः दृढाकृष्टकञ्चककशाधिककृशोदरश्रियः दृढं - नितान्तं यथा स्यात् तथा, आकृष्टाभ्यां - निगृहीताभ्यां कछुककशाभ्यां चोलका कृति सन्नाहाश्वताडनीभ्याम्, अधिककृशा- अत्यन्तक्षीणा, उदरश्रीः- उदरशोभा येषां तादृशाः; पुनः स्कन्धविन्यस्तवल्गा विहस्ताग्रवामहस्ताः स्कन्धविन्यस्तया - स्कन्धदेशारोपितया, वल्गया - मुखरज्वा, तद्रहणेनेत्यर्थः, विहस्तः - व्याकुलः, अग्रवामहस्तः - वामहस्ताग्रभागो येषां तादृशाः; पुनः तदितरकरावलम्बमान लम्बाजिनयष्टयः तदितरकरात् तदन्यहस्तात्, दक्षिणहस्तादित्यर्थः, अवलम्बमाना - अवनमन्ती, लम्बा-दीर्घा, अजिनयष्टिःचर्मदण्डो येषां तादृशाः; कीदृशानश्वान् ? पादकटकप्रविष्ठैकाङ्क्षिपल्लवावष्टम्भेन पादकटके -पादवलये, प्रविष्टेन एकेन, अङ्घ्रिपल्लवेन-चरणपल्लवेन, यः, अवष्टम्भः - अवरोधः, तेन अपरकटकाक्रान्तिनिश्चलीकृतपर्याणैः अपरकट काक्रान्त्या - अन्यपादवलयाक्रमणेन, निश्चलीकृतं - सुस्थिरीकृतं, पर्याणं - पृष्ठारोपितोपवेशनं यैस्तादृशैः, परिवर्धकैः अश्ववाहकैः पुरः अग्रे, उपस्थापितान् आनीतान् [ ट ] ।
च पुनः, तरलायमानतारहारच्छटाच्छोटितवक्षःस्थलैः तरलायमानया चपलायमानया, तारहारच्छटयाविशुद्धमौक्तिकमाल्यश्रेण्या, आच्छोटितम् - आवृतं, वक्षःस्थलम् - उरः प्रदेशो येषां तादृशैः; पुनः आन्दोलितश्रवणोत्पलगलत्परागपांशुलकपोलपालिभिः आन्दोलितेविधूते, श्रवणोत्पले कर्णकमले, ताभ्यां गलत - प्रवहत् परागपांशुलं-परागस्तस्तेन युक्ताः, कपोलपालयः-मस्तकतटप्रदेशाः ये तैः । पुनः आलोलमौलिशेखरस्खलनखलीकृतालिजालैः आलोलात्
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तिलकमञ्जरी
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वार्यमाणः [3], पर्याणपृष्ठाधिरूढप्रौढपुरुषोत्तम्भितया जृम्भोत्तानकुम्भिकाकुसुमसमभासा श्वेतातपत्रिकया निवार्यमाणातपः [ड ], तापनिर्वापणप्रकीर्णशीकरनिकरकोरकितकरटैः साटोपसर्पणोत्तालताण्डवितकेतुभिः कतिपयैरेव दर्पशौण्डैवेंगदण्डप्रायैरनेकपैरशून्यपृष्ठः [6], प्रतिपिपादयिषितप्रथमसेवासविशेषदर्शितादरेण परस्पराङ्गसङ्गप्रसङ्गाधिगतगतिबाधेनापि बद्धमध्यवेगमन्वक् प्रतिष्ठमानेन पृष्ठापतत्प्रष्ठतुरगखुरगतिगतावधानधावमानाश्वकर्षकेण हेलोच्छलच्छात्रिकेण प्रोड्डीयमानमायूरातपत्रिकेण रयापतत्पतगृहग्राहिणांसस्रंसितासिरेखरित्खड्गधारेण शिखिपिच्छगुच्छाच्छादितैकदेशदारुयष्टिश्लिष्टबाहुशिखरवहद्वारिकरकवाहकेन अनुगम्यमानः परिजनेन निर्गत्य तस्माजिनायतनकाननादनुससार कौबेरदिक्पथम् [ण] । अथातर्किततारका
अतिचञ्चलात्, मौलिशेखरात्-मस्तकमाल्यात्, स्खलनेन-निपतनेन, खलीकृतं-कदर्थितम् , अलिजालं-भ्रमरगणो यैस्तादृशैः; पुनः सहेलव्रजद्वाजिविघटमानसंघट्टमानच्छत्रधारैः सहेलं-सलीलं, व्रजद्भिः-गच्छद्भिः, वाजिभिः-अश्वैः, विघटमानाः-विश्लिष्यमाणाः, संघट्टमानाः-सङ्गच्छमानाः, छत्रधाराः-छत्रधारिणो येषां तादृशः, तैः पार्थिवैः, आगत्य आगत्य उपस्थायोपस्थाय, परिवार्यमाणः परिवेष्टयमानः [3]; पुनः पर्याणपृष्ठाधिरूढप्रौढपुरुषोत्तम्भितया पर्याणपृष्ठेगजपृष्ठासनोपरि, अधिरूढेन-आरूढेन, प्रौढेन-प्रगल्भेन, पुरुषेण, उत्तम्भितया-उद्धृतया, पुनः जर कुसुमभासा जृम्भया-विकासेन, उत्तानभूतस्य-ऊर्ध्वमुखस्य, कुम्भिकायाः-वारिपाः , जलतृणविशेषस्येत्यर्थः, कुसुमस्येवपुष्पस्येव, भाः-छविर्यस्यास्तादृश्या, श्वेतातपत्रिकया धवलच्छत्रेण, निवार्यमाणातपः निवार्यमाणः-निरुध्यमानः, आतपःसूर्यकिरणो यस्मिंस्तादृशः [ड]; पुनः तापनिर्वापणप्रकीर्णशीकरनिकरकोरकितकरटैः तापनिर्वापणाय-तापशमनाय, प्रकीर्णैः-प्रक्षिप्तैः, शीकरनिकरैः-जलकणगणैः, कोरकितः-सङ्कुचितः, करटः-गण्डस्थलं येषां तादृशैः, पुनः साटोपसर्पणोत्तालताण्डवितकेतुभिः साटोपसर्पणेन-औद्धत्यपूर्णगमनेन, उत्तालताण्डविताः-उत्तालम्-उत्कटं यथा स्यात् तथा, ताण्डविताः-नर्तिताः, केतवः-पताका यस्तादृशैः, पुनः कतिपयैरेव परिगणितैरेव, दर्पशौण्डैः गर्वात्यैः, वेगदण्डप्रायः दण्डाकारवेगकल्पैः, अनेकपैः हस्तिभिः, अशून्यपृष्ठः अशून्यं-व्याप्तं, पृष्ठ-पश्चाद्भागो यस्य तादृशः [ढ]; पुनः परिजनेन परिवारवृन्देन, अनुगम्यमानः अनुस्रियमाणः, कीदृशेन ? प्रतिपिपादयिषितप्रथमसेवासविशेषदर्शितादरेण प्रतिपिपादयिषितायां-बुबोधयिषितायाम्, अप्रथमसेवायां-पुनः पुनः सेवायां, सविशेष-सातिशयं यथा स्यात् तथा, दर्शितः, आदरः-अभिरुचिर्येन तादृशेन, पुनः परस्पराङ्गसङ्गप्रसङ्गाधिगतगतिबाधेनापि परस्पराङ्गसङ्गप्रसङ्गेन-परस्पराङ्गसङ्घर्षणप्रसङ्गेन, अधिगतः-प्राप्तः, गतिबाधः-गमनप्रतिबन्धो येन तादृशेनापि, बद्धमध्यवेगं बद्धः-गृहीतः, मध्यः-नात्यन्तो नापि मन्दश्च, वेगो यस्मिंस्तादृशं यथा स्यात् तथा, अन्वक पश्चात् , प्रतिष्ठमानेन प्रचलता, पुनः पृष्ठापतत्प्रष्ठतुरगखुरगतिगतावधानधावमानाश्वकर्षकेण पृष्ठे-पश्चाद्देशे, आपतताम्-आगच्छतां, प्रष्टतुरगाणाम्अश्वेन्द्राणां, खुरगतिभिः-खुरविक्षेपैः, गतं-नष्टम् , अवधानं-मनःस्थैर्य येषां तादृशाः, सम्भ्रान्ता इत्यर्थः, अत एव धावमानाःपलायमानाः, अश्वकर्षकाः-अश्वनियन्तारो यस्मिंस्तादृशेन, पुनः हेलोच्छलच्छात्रिकेण हेलया-लीलया, उच्छलन्तःउत्पतन्तः, छात्रिका:-छत्रधारिणो यस्मिंस्तादृशेन, पुनः प्रोडीयमानमायूरातपत्रिकेण प्रोड्डीयमाना-अत्यन्तमुत्पतन्ती, मायूरातपत्रिका-मयूरपत्रनिर्मितछत्रं यस्मिंस्तादृशेन, पुनः रयापतत्पतग्राहिणा रयेण-वेगेन, आपतन्-आगच्छन् , पतगृहग्राही-पतन्तं-निष्टीव्यमानं ताम्बूलरसादिकं, गृह्णातीति-धारयतीति, पतग्रहः-निष्ठीवनपात्रं, तद्वाही-तद्धारी यस्मिंस्तादृशेन, पुनः अंसस्रंसितासिरेखरिङ्खत्खङ्गधारेण अंसात्-स्कन्धप्रदेशात् , संसिता-पातिता, लम्बितेत्यर्थः, असिरेखाकृपाणधारा यैस्तादृशाः, रिवन्तः-गच्छन्तः, खड्गधाराः-खड्गधारिणो यस्मिंस्तादृशेन, पुनः शिखिपिच्छगुच्छाच्छादितैकदेशदारुयष्टिसंश्लिष्टबाहुशिखरवहद्वारिकरकवाहकेन शिखिनः-मयूरस्य, पिच्छगुच्छेन-शिखण्डमण्डलेन, आच्छादितः; एकदेशः-एकभागो यस्यास्तादृश्यां दारुयष्टौ-काष्ठदण्डे, संश्लिष्ट-संलग्नं, यद् बाहुशिखरं-भुजोर्चभागः, तद्वहन्तः-तद्धारयन्तः, वारिकरकवाहकाः-जलभाण्डवाहका यस्मिंस्तादृशेन, तस्मात् प्रकृतात् , जिनायतनकाननात् जिनमन्दिरप्राङ्गणभूतोद्यानात्, निर्गत्य निःसृत्य, कौबेरदिपथं कुबेरो देवता यस्याः सा कौबेरी, यद्वा कुबेरस्येयं कौबेरी, कुबेरस्वामिकेत्यर्थः, या दिक्उत्तरा दिगित्यर्थः, तत्पथं तन्मार्गम् , अनुससार अनुजगाम, हरिवाहन इति शेषः [ण] ।
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टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता । पथप्रस्थानलीलोत्थापितविस्मयेन समरकेतुना सविस्मयमवलोकिता प्रलयजलधिपङ्कपर्यङ्कलुठितवैकुण्ठकोलकायकाली कुपितकालयवनकालकालितां केलिमिव कालीयस्य, तत्कालकर्कशार्कमरीचिसंपर्कमूछितां मूर्छामिव महीगोलस्य, शकलीकृत्य काश्यपीगोलकमुत्कलितां कण्ठेकालकूटकालिकामिव कालाग्निकण्ठेकालस्य विषमविषधरविषानलोद्वेगवेगोद्गतां पद्धतिमिव पातालपङ्कस्य, बहुशैवलच्छटावच्छादितामपसरणसरणिमिव प्रलयान्तशान्तोत्तराशाजलराशेः, अवनिपीठपर्यस्तपीवरप्रवाहां मदवारिवाहिनीमिव सार्वभौमस्य, भूमौ प्रतिमागतां रथरेखामिवानूरुसारथिरथावर्तामखर्वपर्वतशिखरशेखरितान्तराम् [त], अन्तरान्तरा वहद्विमलजलवाहिवाहिनीप्रवाहाभिरुत्पतत्पांशुमुष्टिस्पष्टिततरुस्तम्बधृतवनस्तम्बेरमस्तोमाभिः पर्यस्तजर्जरभूर्जवल्कलभारसुखसंचाराभिरुजिहानमञ्जिष्ठाकुरजालजालकितजलाशयोपशल्याभिर्निपतिततिरश्चीनप्राचीनामलकतिलकितक्षितितलाभि
अथ अनन्तरम् , 'एकशृङ्गवैताढ्यपर्वतान्तरालाटवीम् एकं शृङ्ग-शिखरं यस्य तादृशस्य वैताळ्यपर्वतस्य, अन्तरालां-मध्यवर्तिनीम् , अटवीं-वनं, वीक्षमाणः पश्यन् , क्षणेनैव क्षणमात्रेणैव, गगनवल्लभनगरम् गगनवल्लभनामक नगरम् , आससाद गतवान्' इत्यग्रेणान्वेति । कीदृशीमटवीम् ? अतर्किततारकापथप्रस्थानलीलोत्थापितविस्मयेन अतर्कितं-पूर्वमनालोचित, यत् तारकापथप्रस्थानम्-आकाशप्रयाणं, तल्लीलया, उत्थापितः-उद्भावितः, विस्मयः-आश्चर्य यस्य तादृशेन, समरकेतुना, सविस्मयं साश्चर्यम् , अवलोकितां दृष्टाम् ; पुनः प्रलयजलधिपङ्कपर्यङ्कलुठितवैकुण्ठकोलकायकालीं प्रलयकालिको यो जलधिः-समुद्रः, तदीयपङ्करूपे पर्यके, लठितस्य-शयितस्य, वैकुण्ठकोलस्य-नारायणावतारभूतशूकरस्य, कायवत्-शरीरवत् , कालीं-कृष्णवर्णाम् ; पुनः कालीयस्य हरिवध्यस्य नागराजस्य, कुपितकालयवनकालाकालिता कुपितः क्रोधयुक्तः, काल:-श्यामश्च,यो यवनकाल:-यवनारिः, हरित्यर्थः, तेन कालितां-श्यामीकृतां, केलिमिव पुनः तत्कालकर्कशार्कमरीचिसम्पर्कमूर्च्छितां तत्काले-तत्समये, कर्कशस्य-तीवस्य, अर्कस्य-सूर्यस्य, मरीचिभिः-किरणैः, सम्पर्केण, मूच्छितां-प्रसृतां, महीगोलस्य पृथ्वीमण्डलस्य, मूर्छामिव नष्टचैतन्यावस्थामिव; पुनः काश्यपीगोलकं भूमण्डलं, शकलीकृत्य विदार्य, उत्कलिताम् उच्छलितां, कालाग्निकण्ठेकालस्य कालाग्नेः-प्रलयकालिकाग्निरूपस्य, कण्ठेकालस्य-रुद्रस्य, कण्ठेकालकूटकालिकामिव कण्ठेकालकूटस्य-कण्ठवर्तिहालाहलपुञ्जस्य, कालिकां-कृष्णकान्तिम्, इव; पुनः विषमविषधरविषानलोद्वेगवेगोद्गतां विषमाणां-भयंकराणां, विषधराणां--सर्पाणां, विषानलेन-विषरूपाग्निना, य उद्वेगः-उद्गमः, तस्य वेगेन, उद्गताम्-उत्थिताम् , पातालपङ्कस्य रसातलकर्दमस्य, पद्धतिमिव मार्गभूमिमिव; पुनः . प्रलयान्तशान्तोत्तराशाजलराशेः प्रलयान्ते-प्रलयावसाने, शान्तस्य-निवृत्तवेगस्य, उत्तराशाजलराशेः-उत्तर दिग्वाहिनः समुद्रस्य, बहुशैवलच्छटावच्छादितां बहुशैवलच्छटया-प्रचुरजलतृणश्रेण्या, अवच्छादिताम्-आवृताम् , अपसरणसरणिमिव निर्गमनमार्गमिव पुनः सार्वभौमस्य समग्रोत्तरभूमण्डलेश्वरस्य, अवनिपीठपर्यस्तपीवरप्रवाहाम अवनिपृष्ठेभूमिपृष्ठे, पर्यस्तः-प्रक्षिप्तः, पीवरः-स्थूलः, प्रवाहो यस्यास्तादृशीम् , मदवारिवाहिनीमिव प्रभुत्वाभिमानजलनदीमिव; पुनः अखर्वपर्वतशिखरशेखरितान्तराम् अखर्वस्य-उन्नतस्य, पर्वतस्य, शिखरैः-ऊर्श्वभागैः, शेखरितं-शोभितम् , अन्तरंमध्यभागो यस्यास्तादृशीम् , अत एव अनूरुसारथिरथावर्ती न विद्यते ऊरू जङ्घ यस्य सोऽनूरुः-अरुणः, स सारथिःरथनियन्ता यस्य तस्य-अनूरुसारथेः-सूर्यस्य, यो रथः, तस्य आवर्ताः-चक्राकारा यत्र तादृशीम् , भूमौ पृथिव्यां, प्रतिमागतां प्रतिबिम्बात्मना आपतितां, रथरेखामिव नेमिपतिमिव [त] । पुनः अन्तरान्तरा मध्ये मध्ये, वनस्थलीभिः वनभूमिभिः, उद्भसिताम् उद्दीपिताम् ; कीदृशीभिः? वहद्विमलजलवाहिवाहिनीप्रवाहाभिः वहन्तः-स्यन्दमानाः, विमलजलवाहिनीना-स्वच्छजलस्यन्दिनीनां, वाहिनीना-नदीना, प्रवाहा यासु तादृशीभिः; पुनः उत्पतत्पांशुमुष्टिस्पष्टिततरुस्तम्बधृतवनस्तम्बेरमस्तोमाभिः उत्पतन्ती-उच्छलन्ती, या पांशुमुष्टिः-मुष्टिप्रमाणा धूली, तया स्पष्टितः-स्पष्टं सूचितः, तरुस्तम्बधृतः-वृक्षकाण्डनियन्त्रितः, वनस्तम्बेरमस्तोमः-वनहस्तियूथो यासु तादृशीभिः; पुनः पर्यस्त
ल्कलभारसुखसञ्चाराभिः पर्यस्तैः-विकीर्णैः, जर्जरभूर्जवल्कलभारैः-जीर्णभोजपत्राख्यलोकप्रसिद्धवृक्षसम्बन्धिकोमलत्वपुजैः, सुखसञ्चाराभिः-अक्लेशविहारयोग्याभिः; पुनः उजिहानमञ्जिष्ठाकुरजालजालकितजलाशयोपशल्याभिः उज्जिहानैः-उद्गच्छद्भिः
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तिलकमञ्जरी
१२९ दरीगृहप्रस्तरगलितगुञ्जाफलकाञ्चीसूचितवनेचरीचित्ररतविमर्दाभिर्गवयखुरखण्डितमनःशिलाशिलातलतलिनितोदेशाभिः क्षुण्णहरितालपिञ्जरजटालजरदृक्षप्रेक्षणीयाभिररण्यमहिषविषाणशिखरोत्खातनीलगिरिकूटाट्टहासिनीभिः कवलितपृदाकुदर्दुरदारणोद्यतनिषादनादितानूपाभिर्वनस्थलीभिरुद्भासिताम् , उर्वीनिर्व्याजभूषणैश्चानेकरूपैर्जातरूपजन्महेतुभिश्च, दुर्वर्णजननवर्णनीयवीर्यैश्च, शुल्वात्मलाभदायिभिश्च, रीत्युपादानकारणैश्च, वङ्गप्रसविभिश्च, नागप्रभवैश्च, कङ्कादिलोहोल्लासकल्पैश्च, नष्टशल्याकृष्टिकृष्टिभिश्चाश्मसारभूमिदृष्टसारैश्च, स्पर्शवेधिभिश्च, पद्मरागादिरत्नपरीक्षाक्षमैश्च, क्षुद्रोपलैरलङ्कृतम् , अनेकसिद्धिश्रद्धालुसिद्धान्विष्यमाणाभिश्च, विचित्रपत्रपुष्पफलमूलोपलक्ष्याभिरक्षुण्णनामभिरवग्रहग्रहादिनिग्रहोपयोगिनीभिश्च, सकलदुष्टदृष्टिमोहदृष्ट
मञ्जिष्ठायाः-तदाख्यौषधिविशेषस्य, अङ्कुरजालैः-अङ्कुरकलापैः, जालकितः-संजातजालकाकारः, जलाशयोपशल्यः-जलाशयसमीपदेशो यासु तादृशीभिः; पुनः निपतिततिरश्चीनप्राचीनामलकतिलकितक्षितितलाभिः निपतितैः-अधोगलितैः, तिरश्चीनैः-कुटिलैः, प्राचीनामलकैः-कालामलकैः, तिलकितं-सञ्जाततिलकाकार, क्षितितलं-भूतलं, यासु तादृशीभिः; पुनः दरीगृहप्रस्तरगलितगुआफलकाञ्चीसूचितवनेचरीचित्ररतविमर्दाभिः दरीगृहप्रस्तरेषु-गुहागृहपाषाणेषु, गलि. ताभिः-पतिताभिः, गुञ्जाफलकाञ्चीभिः-गुञ्जाफलरचितमेखलाभिः, सूचितः-प्रतीतः, वनेचरीणां-शबरस्त्रीणां, चित्ररतविमर्दःविलक्षणकामकेलियुद्धं यासु तादृशीभिः; पुनः गवयखुरखण्डितमनःशिलाशिलातलतलिनितोद्देशाभिः गवयानांवन्यगवाकारपशूनां, खुरैः, खण्डितानां-विदारितानां, मनःशिलाख्यानां शिलाना-प्रस्तराणां, तलैः-स्वरूपैः, तलिनितः-स्वच्छीकृतः, उद्देशः-प्रदेशो यासा तादृशीभिः; पुनः क्षुण्णहरितालपिञ्जरजटालजरदृक्षप्रेक्षणीयाभिः क्षुण्णहरितालवत्-चूर्णितहरितालाख्यद्रव्यविशेषवत्, पिजरा-पीता, जटा येषां तादृशैः, जरद्भिः-जीर्णावस्थैः, ऋक्षः-भल्लूकैहेतुभिः, प्रेक्षणीयाभिः-दर्शनीयाभिः; पुनः अरण्यमहिषविषाणशिखरोत्खातनीलगिरिकटावहासिनीभिः अरण्यमहिषस्य-वन्यमहिषस्य. विषाणशिखरेण-शशो_भागेन, उत्खातस्य-उत्पाटितस्य, नीलगिरिकूटस्य-नीलपर्वतशृङ्गस्य, अट्टहासिनीभिः-महाहास्यकरणशीलाभिः, अत्यन्तनीलाभिरित्यर्थः; पुनः कवलितपृदाकुदर्दुरदारणोद्यतनिषादनादितानूपाभिः कवलितः-भक्षितः, पृदाकुः-सर्पो यैस्तादृशानां, दर्दुराणां-मण्डूकानां, दारणे भेदने, उद्यतैः-उद्युक्तैः, निषादैः-चण्डालैः, नादिताः-ध्वनिताः, अनूपाः-जलाशया यासु तादृशीभिः [थ] । पुनः कीदृशीमटवीम् ? क्षुद्रोपलैः सूक्ष्मप्रस्तरैः, अलङ्कतां विभूषिताम् , कीदृशैः ? उर्वीनिर्व्याजभूषणैः उर्व्याः-पृथिव्याः, निर्व्याजभूषणैः- वास्तविकाभरणरूपैः, पुनः अनेकरूपैः विविधरूपैः, पुनः जातरूपजन्महेतुभिः जातरूपस्य-जातं प्रशस्तं रूपं वर्णो यस्य तादृशस्य, सुवर्णस्य, जन्महेतुभिः-उत्पत्तिकारणैः, च पुनः, दुर्वर्णजननवर्णनीयवीर्यः दुर्वर्णस्य-दुष्टः-सुवर्णापेक्षया निन्धः, वर्णो यस्य तादृशस्य, रजतस्य, जननेन-उत्पादनेन, वर्णनीयं-कीर्तनीयं, वीय-सामर्थ्य येषां तादृशैः, च पुनः,शुल्वात्मलाभहेतुभिः शुल्वस्य-ताम्रस्य, य आत्मलाभः-ताम्रत्वपरिणामस्तस्य हेतुभिः-सम्पादकैः; च पुनः, रीत्युपादानकारणैः रीतेः-पीतलोहस्य, उपादानकरणैः-समवायिकारणैः; च पुनः, वङ्गप्रसविभिः त्रपुजनकैः; च पुनः, नागप्रभवैः नागं-सीसकं, प्रभवः-उत्पत्तिस्थानं येषां तादृशैः; च पुनः, कङ्कादिलोहोल्लासकल्पैः ईषदूनकङ्कादिलोहविशेषाविष्कारात्मकैः; च पुनः, नष्टशल्याष्टिकृष्टिभिः नष्टानां-गाढं निमग्नतया दृष्टिपथातीतानां, शल्यानां-कण्टकानाम् , आकृष्टौ-उद्धरणे, कृष्टिभिः-कुशलैः; च पुनः, अश्मसारभ्रमिदृष्टसारैः अश्मसारस्य-लोहस्य, या भ्रमिः-इतस्ततो गमनं, भ्रमणसम्पादनमित्यर्थः, तत्र दृष्टः सारः-बलं येषां तादृशैः; च पुनः, स्पर्शवेधिभिः स्पर्शाख्यमणिविशेषमित्रैः; च पुनः, पद्मरागादिरत्नपरीक्षाक्षमैः पद्मरागादीनां-पद्मरागाख्यमणिप्रभृतीनां रत्नानां, परीक्षायां-सम्यक्त्वासम्यक्त्वविवेचने, क्षमैःकुशलैः [द]। पुनः कीदृशीम् ? ओषधीभिः फलपाकशोषिवृक्षैः, अवन्ध्यां सफला, सहितामित्यर्थः, कीदृशीभिः ? अनेकसिद्धिश्रद्धालुसिद्धान्विष्यमाणाभिः अनेकासु-बह्वीषु, सिद्धिषु-अणिमादिषु, श्रद्धालुभिः-प्रीतिमद्भिः, सिद्धः विद्यासिद्धादिजनैः, अन्विष्यमाणाभिः इतस्ततो गवेष्यमाणाभिः, पुनः विचित्रपुष्पफलमूलोपलक्ष्याभिः विचित्रैःविलक्षणैः, पुष्पैः, फलैः, मूलैश्च, उपलक्ष्याभिः-परिचेयाभिः; पुनः अक्षुण्णनामभिः अनभ्यस्तसंज्ञकाभिः; च पुनः, अनवग्रहावग्रहग्रहादिनिग्रहोपयोगिनीभिः अनवग्रहः-उच्छृङ्खलो यः, अवग्रहः-वृष्टिप्रतिबन्धः, ग्रहः-सूर्यादिः, तदादेः निग्रहे-वारणे, उपकारिणीभिः, च पुनः, सकलदुष्टदृष्टिमोहदृष्टशक्तिभिः सकलानां-सर्वेषां, दुष्टदृष्टीना-दुष्टदृष्टिमतां, मोहे
१७ तिलक.
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टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता। शक्तिभिश्च, रससमूहमारणमहितमाहात्म्याभिश्च, स्तम्भस्तोभोद्वासनविद्वेषणादिप्रयोगयोग्याभिश्च, शतधारस्यापि धारास्तम्भनप्रगल्भाभिः कालकूटस्यापि रसपाटवापनोदिनीभिस्तक्षकस्यापि विषतीक्ष्णतातिरस्कारिणीभिभुवनत्रयस्यापि सुभगकरणीभिरञ्जनमात्रदर्शितादृश्यदूरान्तरितभावाभिरभिलेपमात्रप्रवर्तितानिलवम॑गमनाभिस्तिलक क्रियामात्रकृतसकलतनुतिरोभावाभिरभ्यवहारमात्रजितजरारोगमृत्युभयाभिर्महाप्रभावाभिरोषधीभिरवन्ध्याम् [ध], कचिदुपलरूपतापरिणतैकदेशेन तृणपलाशादिनार्धमग्नेन गम्यमानशीलैः शिलोदकैरशून्यां क्वचित् पान्थतण्डुलप्रस्थम्पचैः प्रतिगर्तमावर्तिना क्वथनेन कथ्यमानप्रकृतिभिर्दहनोदकैरुपेतां, कचिदुपान्तमूर्छितपतत्रिसूचितसामथ्र्यैः सत्त्वरक्षार्थमाटविकरचितकाण्टिकपरिवेषैर्विषोदकैर्विदूषितां, स्थानस्थानेषु मणिमयोर्ध्वसंस्थानाभिर्महाप्रमाणत्वादुद्दीवपुरुषप्रयत्नदृश्यमुखमण्डलाकृतिभिरन्तरिक्षचारिणा खेचरगणेन
मूर्छापादने, दृष्टा-परीक्षिता, शक्तिः सामर्थ्य यासां तादृशीभिः; च पुनः, रससमूहमारणमहितमाहात्म्याभिः रससमूहमारणेन पारदादिरसराशिभस्मीकरणेन, महितं पूजितं, प्रशंसितमित्यर्थः, माहात्म्यं सामर्थ्य यासां तादृशीभिः, च पुनः, स्तम्भस्तोभोद्वासनविद्वेषणादिप्रयोग्याभिः स्तम्भः-जडीभावः, स्तोभः-प्रवृत्तकार्यप्रतिबन्धः, उद्वासनम्-उच्चाटनम् , विद्वेषणम्अप्रीतिः, तदादिप्रयोगेषु-तत्प्रभृतिसम्पादनेषु, प्रयोग्याभिः-समर्थाभिः; पुनः शतधारस्यापि वज्रस्यापि, धारास्तम्भनप्रगल्भाभिः निशिताग्रभागरूपधाराव्यापारनिरोधनकुशलाभिः; पुनः कालकूटस्यापि विषराशेरपि, रसपाटवापनोदिनीभिः रसतीव्रतोपशमनकारिणीभिः; पुनः तक्षकस्यापि तदाख्यसर्पराजस्यापि, विषतीक्ष्णतातिरस्कारिणीभिः विषतीव्रतोपहासिनीभिः; पुनः भुवनत्रयस्य वर्ग-मर्त्य-पाताल-लोकानामपि, सुभगकरणीभिः सौभाग्यापादनसाधनभूताभिः; पुनः अञ्जनमात्रदर्शितादृश्यदरान्तरितभावाभिः अञ्जनमात्रेण नयनोपलेपनमात्रेण, दर्शिताः-दृष्टिगोचरीकारिताः, अदृश्या:-अतीन्द्रियाः, दूराः-दूरदेशस्थाः, अन्तरिताः-व्यवहिताश्च, भावाः-पदार्था याभिस्तादृशीभिः; पुनः अनिलेपमात्रप्रवर्तितानिलवम॑गमनाभिः अङ्गयोः पादयोः, लेपमात्रेण-लेपनेनैव, प्रवर्तितं-प्रारब्धम् , अनिलवर्मनि-वायुमार्गे, गगनमार्ग इत्यर्थः, गमनं याभिस्तादृशीभिः; पुनः तिलकक्रियामात्रकृतसकलतनुतिरोभावाभिः तिलकक्रियामात्रेण-तिलकरचनामात्रेण, कृतः, सकलानां-सर्वेषां, तनुतिरोभावः-शरीरान्तर्धानं याभिस्तादृशीभिः; पुनः अभ्यवहारमात्रजितजरारोगमृत्युभयाभिः अभ्यवहारमात्रेण-भक्षणमात्रेण, जितम्-अभिभूतं, जरायाः-वार्धक्यात् , रोगात् , मृत्योः-मरणाच भयं याभिस्तादृशीभिः; पुनः महाप्रभावाभिः समधिकशक्तिशालिनीभिः [ध]। पुनः कीदृशीम् ? क्वचित् कस्मिंश्चित् प्रदेशे, उपलरूपतापरिणतैकदेशेन उपलरूपतया-प्रस्तररूपतया, परिणतः-मिलितः, एकदेशः-एकभागो यस्य तादृशेन, पुनः अर्धमग्नेन जलान्तःस्थितार्धभागकेन, तृणपलाशादिना तृणपत्रादिना, गम्यमानशीलैः गम्यमान-प्राप्यमाणं, शीलं-शैत्यादिस्वभावो येषां तादृशैः, शिलोदकैः प्रस्तरोपरिस्पन्दिजलैः, अशून्यां पूर्णाम् , पुनः क्वचित् कस्मिंश्चित् स्थले, पान्थतण्डुलप्रस्थम्पचैः पान्थानांमार्गगामिजनानां, तण्डुलप्रस्थम्पचैः-प्रस्थपरिमिततण्डुलपाचकैः, प्रतिगर्त प्रतिजलाशयम् , आवर्तिना भ्रमिवता, क्वथनेन प्रज्वलत्प्रवाहेण, कथ्यमानप्रकृतिभिः कथ्यमाना-अभिव्यज्यमाना, प्रकृतिः-उष्णभावो येषां तादृशैः, दहनोदकैः अग्निगभिंतजलैः, उपेतां सहिताम्। पुनः क्वचित् कस्मिंश्चित् स्थले, उपान्तमूर्छितपतन्त्रिसूचितसामथ्र्यैः उपान्ते-निकटप्रदेशे, मूर्छितैः-नष्टसंज्ञैः, पतत्रिभिः- पक्षिभिः, सूचितं-प्रत्यायितं, सामर्थ्य-हिंसनशक्तिर्येषां तादृशैः, पुनः सत्त्वरक्षार्थ जीवरक्षार्थम् , आटविकरचितकाण्टिकपरिवेषैः आटविकैः-वन्यजनैः, रचितः-निर्मितः, काण्टिकः-कण्टकमयः, परिवेषः-परिवेष्टनं येषां तादृशैः, विषोदकैः विषपूर्णजलैः, विदूषिताम् उपहताम् । पुनः स्थानस्थानेषु तत्तत्स्थानेषु, प्रसिद्धसिद्धप्रतिमाभिः प्रसिद्धानां-विश्रुतानां, सिद्धानां-देव विशेषाणां, प्रतिमाभिः-प्रतिकृतिभिः, प्रसाधिताम् अलङ्कताम् , कीदृशीभिः ? मणि
नाभिः मणिमयानि-रत्नमयानि, ऊर्ध्वानि,-उच्चानि, संस्थानानि-आकृतयो यासां तादृशीभिः; पुनः महाप्रमाणत्वाद् अतिदीर्घप्रमाणत्वाद्धेतोः, उहीवपुरुषप्रयत्नदृश्यमुखमण्डलाकृतिभिः उदीवैः-उन्नतकण्ठैः, पुरुषैः, प्रयत्नेन, दृश्या-द्रष्टुं शक्या, मुखमण्डलाकृतिः-मण्डलाकारमुखं यासां तादृशीभिः; पुनः अन्तरिक्षचारिणा आकाशगामिना,
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तिलकमञ्जरी शिरसि पात्यमानपुष्पवृष्टिभिरनैदंयुगीनमनुष्यकल्पिताभिः कल्पान्तरस्थायिनीभिः प्रसिद्धसिद्धप्रतिमाभिः प्रसाधिताम् [न], इतश्चेतश्च नाकिमिथुनमन्मथक्रीडोचितैश्चित्तहारितया नन्दनवनोहेशैरिव दिवश्युतैरीासमरविच्छिन्नकिन्नरमिथुनपिच्छलाञ्छितलतासद्मभिरन्योऽन्ययुध्यमानपोत्रिप्रकाण्डप्रहारतुण्डोच्छलितमुक्ताफलधवलितैरशङ्कमृगकुलकलिततापसाश्रमतमालवनखण्डैराहिण्डद्भूरिभारुण्डमण्डलैरारण्यकोच्चोटितवल्कलपट्टकस्थपुटिताग्निशौचशिलातलैरनोकहस्कन्धावतीर्णसरसप्ररोहाभ्यूह्यमानधरणीगतनिधानैः स्वर्णचूर्णावकीर्णभस्मपुञ्जकव्यज्यमाननरेन्द्रधातुवाद क्रियैर्वरार्थिनिरशननरोपरुद्धगिरिशिखरचामुण्डायतनमण्डपैतिककुट्टाकटङ्कशकलिताकृत्रिमशिवलिङ्गैरेकैकधार्मिकाध्युषितनिर्झरप्रपातासन्नाशून्यसिद्धायतनैर्विविक्षुसिद्धविक्षिप्तबलि शबलितासुरविवरद्वारैर्भीतभीताध्वन्यदृश्यमानरसातलसहोदरपतनकन्दर्यदृच्छाप्रवृत्तविद्याधरपुरन्ध्रि
खेचरगणेन गगनगामिजननिकरण, शिरसि मस्तके, पात्यमानपुष्पवृष्टिभिः पात्यमाना-उपक्षिप्यमाणा, पुष्पवृष्टिःपुष्पधारा यासां तादृशीभिः; पुनः अनैदंयुगीनमनुष्यकल्पिताभिः वर्तमानयुगजातमानवैरनिर्मिताभिः, पूर्वयुगजमानवरचिताभिरित्यर्थः, पुनः कल्पान्तरस्थायिनीभिः अन्यकल्पपर्यन्तवर्तिनीभिः[न]। पुनः कीदृशीम् ? इतश्चेतश्च अत्र तत्र च, प्रदेशैः स्थलविशेषैः, उपशोभितां विभूषिताम् , कीदृशैः ? नाकिमिथुनमन्मथक्रीडोचितैः नाकिमिथुनानां-देवदम्पतीनां, मन्मथक्रीडाया:-कामकेल्याः, उचितैः- योग्यैः; पुनः चित्तहारितया मनोहरतया, दिवः स्वर्गात् , च्युतैः स्खलितैः, नन्दनवनोद्देशैः नन्दनाख्येन्द्रोद्यानप्रदेशैरिवेत्युत्प्रेक्षा; पुनः ईर्ष्यासमरविच्छिन्नकिन्नरमिथुनपिच्छलाञ्छितलतासद्मभिः ईर्ष्यासमरविच्छिन्नैः-ईर्ष्यात्मकसंग्रामखण्डितेः, किन्नरमिथुनपिच्छैः-देवविशेषदम्पतिशिखाभिः, लाञ्छितं-चिह्नितं, लतासम-लतागृहं येषु तादृशैः; पुनः अन्योऽन्ययुध्यमानपोत्रिप्रकाण्डप्रहारतुण्डोच्छलितमुक्ताफलधवलितः अन्योऽन्ययुध्यमानानां-परस्परं संग्रामयमाणानां, पोत्रिप्रकाण्डाना-सूकरप्रवराणां, प्रहारतुण्डेभ्यः-अस्त्रभूतमुखेभ्यः, उच्छलितैःउत्पतितैः, मुक्ताफलैः-मुक्तामणिभिः, धवलितैः-शुभ्रीकृतैः; पुनः अशङ्कमृगकुलकलिततापसाश्रमतमालवनखण्डैः अशङ्केन-मारणशङ्काशून्येन, मृगकुलेन-हरिणगणेन, कलितः-अधिष्ठितः, तापसाश्रमः-तपस्विनामाश्रमभूतः, तमालवनखण्ड:तमालाख्यवृक्षसम्बन्धिवनराजिर्येषु तादृशैः; पुनः आहिण्डद्भूरिभारुण्डमण्डलैः आहिण्डन्ति-सञ्चरन्ति, भूरिभारुण्डमण्डलानि -बहुसंख्यकभारुण्डाख्यपक्षिविशेषगणा येषु तादृशैः; पुनः आरण्यकोचोटितवल्कलपट्टकस्थपुटिताग्निशौचशिलातलैः आरण्यकैः-वन्यगजैः, उच्चोटितैः-उच्छिन्नैः, वल्कलपट्टकैः-वृक्षत्वक्फलकैः, स्थपुटितानि-विषमोन्नतीकृतानि, अग्निशौचानिअग्निशुद्धानि, शिलातलानि-येषु तादृशैः; पुनः अनोकहस्कन्धावतीर्णसरसप्ररोहाभ्यूह्यमानधरणीगतनिधानः अनोकहस्कन्धावतीर्णैः-वृक्षस्कन्धायातैः, सरसैः-स्निग्धैः, प्ररोहैः-रत्नप्रभाकुरैः, अभ्यूह्यमानानि-वितर्व्यमाणानि, धरणीगतानिभूगर्भस्थितानि, निधानानि-रत्नानां निधयो येषु तादृशैः; पुनः स्वर्णचूर्णावकीर्णभस्मपुञ्जकव्यज्यमाननरेन्द्रधातुवादक्रियैः स्वर्णचूर्णाना-सुवर्णकणानाम् , अवकीर्णन-इतस्ततो विक्षिप्तेन, यद्वा स्वर्णचूर्णव्याप्तेन भस्मपुञ्जकेन-भस्मसमूहेन, व्यज्यमाना-लक्ष्यमाणा, नरेन्द्राणां-विषवैद्यानां विषविद्यातकमन्त्रविद्याभाजामित्यर्थः,धातुवाद क्रिया येषु तादृशैः; पुनःवराथिनिरशन नरोपरुद्धगिरिशिखरचामुण्डायतनमण्डपैः वरार्थिभिः-वराभिलाषिभिः, निरशनैः-उपवासकर्तभिः, नरैः-मनुष्यैः. उपरुद्धः-व्याप्तः, गिरिशिखरे-पर्वतोपरिस्थः, चामुण्डायतनमण्डपः-चामुण्डायाः-दुर्गादेव्याः, आयतनमण्डपः-मन्दिरमण्डपो येषु तादृशैः,पुनः वातिककुट्टाकटङ्कशकलिताकृत्रिमशिवलिङ्गैः वातिकैः-धातुवादिकैः,वातिकानां-धातुवादिकानां विषवैद्यानां, कुट्टाकैः-छेदनशीलैः, टकैः-तदाख्यास्त्रविशेषैः, शकलितानि-खण्डितानि, अकृत्रिमाणि-स्वाभाविकानि, शिवलिङ्गानि-शिवलिङ्गाकारपाषाणा येषु तादृशैः, पुनः एकैकधार्मिकाध्युषितनिर्झरप्रपातासन्नाशून्यसिद्धायतनैः एकैकधार्मिकैः-प्रत्येकधर्माचरणशीलैः, अध्युषितानि-आश्रयीकृतानि, निर्झरप्रपातासन्नानि-गिरिनदीजलप्रवाहपातस्थाननिकटानि, अशून्यानि-जनसंकुलानि, सिद्धायतनानि-सिद्धाश्रमस्थानानि येषु तादृशैः; पुनः विविक्षुसिद्धविक्षिप्तबलिशबलितासुविरवरद्वारैः विविक्षुभिःप्रवेष्टुमिच्छुभिः, सिद्धैः-सिद्धियुक्तजनैः, विक्षिप्तः, बलिभिः-असुरापणीयभोज्यवस्तुभिः, शबलितानि-चित्राणि-असुरविवरद्वाराणिअसुरगुहाप्रवेशस्थानानि येषु तादृशैः; पुनः भीतभीताध्वन्यदृश्यमानरसातलसहोदरपतनकन्दरैः भीतभीताः
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टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता। सान्निध्यक्षुभितरसकूपिकैः स्मरान्धखेचरानीतभूगोचरवधूविलापवाचालैरर्धजर्जरद्विरदशय्यासहस्रसूचितातिक्रान्तचक्रवर्तिसैन्यसंनिवेशैः प्रदेशैरुपशोभितां [प], सर्वतश्च सर्वविद्याधरनगरनिर्गतैः सर्ववर्णान्तःपातिभिः सर्वारम्भविरतैः सर्वविषयप्रतिषेधलब्धाशयशुद्धिभिः सिद्धिनिमित्तमङ्गीकृतारण्यवासैश्चिरागतैश्चाचिरप्रविष्टैश्च सरित्तटनिवासिभिश्च गिरिगुहाध्यासिभिश्च गह्वरोपगह्वरविहारिभिश्च निर्झरानुसारिभिश्च सदनीकृतलताजालैश्च प्रतिपन्नपर्णशालैश्च परित्यक्ताभ्यवहारैश्च फलमूलपायाहारैश्च पञ्चतपःसाधनविधानसंलग्नैश्चाकण्ठमुदकमग्नैश्च प्रारब्धधूमपानाधोमुखैश्च ब्रनविम्बनिरीक्षणोद्वीक्षणैश्च जञ्जपूकैश्च वाचंयमैश्च कैश्चिदुकन्दमूलोद्धारिभिरवगाढवातातपोपहतवारिभिर्विधृताजिनजटाकलापैस्तापसकल्पं कलयद्भिः कैश्चिदुद्दण्डकोदण्डपाणिभिः प्राणिविशसनोपरतैरन्तिकस्थप्रेयसीभिः संभोगसुखपरामखैः पत्रशबरपरिबर्ह वह द्भिराप्तोपदेशप्रति
अत्यन्तं भयग्रस्ता ये, अध्वन्याः-पथिकाः, तैदृश्यमानाः, रसातलसोदराः-पातालतुल्याकाराः, पतनकन्दराः-पतनस्थानात्मकगुहा येषु तादृशैः; पुनः यदृच्छाप्रवृत्तविद्याधरपुरन्ध्रिसान्निध्यक्षुभितरसकूपिकैः यदृच्छया-यथेच्छं, प्रवृत्तानां-क्षोभणप्रसक्तानां, विद्याधरपुरन्ध्रीणां-विद्याधरपत्नीनां सान्निध्येन -सामीप्येन, क्षुभिताः-सञ्चलिताः, रसकूपिकाः-सुवर्णादिजनकरसभृताः, कूपिकाः-भाजनविशेषा गर्ता वा येषु तादृशैः; पुनः स्मरान्धखेचरानीतभूगोचरवधूविलापवाचालैः स्मरान्धैःकामान्धैः, खेचरैः-गगनगामिजनैः, आनीतानाम्-बलादपहृतानां, भूगोचरवधूनां-भूमिवास्तव्यस्त्रीणां, विलापैः-क्रन्दनैः, वाचालैः-वावदूकैः; पुनः अर्धजर्जरद्विरदशय्यासूचितातिक्रान्तचक्रवर्तिसैन्यसन्निवेशैः अर्धजर्जराभिः-अर्धजीर्णाभिः, द्विरदशय्याभिः-हस्तिशय्याभिः, सूचितः-प्रत्यायितः, अतिक्रान्तचक्रवर्तिनः--भूतपूर्वाखण्डमण्डलेश्वरस्य, सैन्यसन्निवेशःसैन्यावासो येषु तादृशैः [प] । पुनः कीदृशीम् ? सर्वतः सर्वप्रदेशेषु, नानाविधविद्याधरैः अनेकविधविद्याधरजातीयैः, अध्यासिताम् , अधिष्ठिताम् । कीदृशः? सर्वविद्याधरनगरनिर्गतैः सर्वेभ्यः विद्याधरनगरेभ्यः, सर्ववर्णान्तःपातिभिः सकलवर्णसङ्कीर्णैः; पुनः सर्वारम्भविरतैः सर्वव्यापारनिवृत्तः; पुनः सर्वविषयप्रतिषेधलब्धाशयशुद्धिभिः सर्वविषयप्रतिषेधेन-रूपरसाद्यशेषविषयविशेषभोगत्यागेन, लब्धा-प्राप्ता, आशयशुद्धिः-अन्तःकरणशुद्धि पुनः सिद्धिनिमित्तं सिद्धिसम्पत्यर्थम् , अङ्गीकृतारण्यवासैः अङ्गीकृतः-स्वीकृतः, अरण्यवासः-वनवासो यै स्तादृशैः; पुनः चिरागतैः अतिपूर्वप्रविष्टः:च पुनः. अचिरप्रविष्टः तत्कालकृतप्रवेशैः च पुनः, सरित्तटनिवासिभिः नदीतटनिवासिभि च पुनः, गिरिगुहाध्यासिभिः पर्वतकन्दरावासिभिः;च पुनः, गह्वरोपगह्वरविहारिभिः गह्वरस्य-निकुरजस्य, उपगहरेएकान्ते, विहरणशीलैः,च पुनः, निर्झरानुसारिभिः गिरिनदीप्रवाहानुगामिभिः; च पुनः, सदनीकृतलताजालैः सदनीकृतं गृहीकृतं, लताजालं-लताराशियैस्तादृशैः; च पुनः, प्रतिपन्नपर्णशालैः प्रतिपन्ना-निवासस्थानत्वेन स्वीकृता, पर्णशाला पत्रमयकुटी यैस्तादृशैः. च पुनः, परित्यक्ताभ्यवहारैः परित्यक्तः-वर्जितः, अभ्यवहारः-भोजनं यैस्तादृशैः, उपवासपरेरित्यर्थः, च पुनः, फलमूलप्रायाहारैः फलमूलप्रधानकः, आहारः-भोजनं येषां तादृशैः, च पुनः, पञ्चतपःसाधनविधानसंलग्नैः पञ्चानां तपसां सूर्यपञ्चमानिसाध्यतपसां, साधन विधाने-साधनानुष्ठाने, संलग्नैः-प्रसक्तैः; च पुनः, आकण्ठं कण्ठपर्यन्त उदकमग्नैः जलमग्नः, च पुनः, प्रारब्धधूमपानाधोमुखैः प्रारब्धाय-प्रवर्तिताय, धूमपानाय, अधोमुखैः-अवनतवदनैः; च पुनः, ब्रनविम्बनिरीक्षणोद्वीक्षणैः बनबिम्बस्य-सूर्यमण्डलस्य, निरीक्षणाय-दर्शनाय, उद्वीक्षणैः-उत्-उन्नते, वीक्षणेनयने येषां तादृशैः; च पुनः, जअपूकैः जपासक्तैः; च पुनः, वाचंयमैः मौनव्रतिभिः; पुनः कैश्चित् कैरपि, अकन्दमूलोद्धारिभिः कन्दमूलोद्धरणविरतैः; पुनः अवगाढवातातपोपहतवारिभिः अवगाढं-कृतावगाहं, वातातपाभ्यांपवन-सूर्यरश्मिभ्याम् , उपहतं-दूषितं, वारि-जलं यैस्तादृशैः, पुनः विधृताजिनजटाकलापैः विधृतेन, अजिनेन-व्याघ्रचर्मोत्तरीयेण, जटाकलापेन च-जटापुजेन च, तापसाकल्पं तपस्विवेषं, कलयद्भिः धारयद्भिः; पुनः कैश्चित् कैरपि, उद्दण्डकोदण्डपाणिभिः उद्दण्डः-उन्नतदण्डः, कोदण्ड:-धनुः, पाणौ-हस्ते येषां तादृशैः; पुनः प्राणिविशसनोपरतैः प्राणिनांजीवानां, विशसनात् - हिंसनात् , उपरतैः-निवृत्तैः; पुनः अन्तिकस्थप्रेयसीभिः निकटस्थप्रियतमाभिः सह, सम्भोगसुखपराङ्मुखैः कामकेलिसुखनिवृत्तैः, पुनः पत्रशबरपरिबर्ह पत्रचित्रशिखां, वहद्भिः धारयद्भिः; पुनः आप्तोपदेशप्रति
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तिलकमञ्जरी
पन्ननानाविधव्रतैराराधयद्भिः साधयद्भिश्च नानाविधविद्याधरैरध्यासितां [फ ], स्फटिकराजपट्टप्रायोपलां सैकतप्रायभूतलां नीवारप्रायतृणोलपां कस्तूरिका मृगप्रायश्वापदां शिखण्डिपरभृतप्रायाण्डजां किंपुरुषप्रायवनचरां चन्द्रकान्तनिःष्यन्दप्रायनिर्झरां गल्वर्कोद्गीर्णपावकप्रायदावानलं वनदेवता निःश्वसितपवनप्रायमारुतामेकशृङ्गवैताढ्यपर्वतान्तरालाटवीं वीक्षमाणः क्षणेनैव दक्षिणेतर श्रेणितिलकभूतमभिभूतपुरुहूतनगरीरूपविभ्रममुदग्रमणिशिलाशाल शिखरोल्लिखितगगनोदरं गगनवल्लभनगरमासाद [ब] |
प्रतिसदनमुत्तम्भितविविधवस्त्रध्वजेन गन्धजलसिक्तनिजनिजप्रतोलिना सर्वतो विप्रकीर्णपुष्पप्रकरेण ‘निर्यत्नसाधिता खिलप्रधानविद्यः परिगतः समागतसकलतन्त्रैः खेचराधिपतिभिरद्यैवोपजातसमागमेन प्रेयसा सदृशरूपयौवनेन सुहृदा स्वदेशागतेन सार्धमचिरानुभूतराज्याभिषेकसंपदभिनवः प्रभुरस्माकमागच्छति'
१३३
पन्ननानाविधव्रतैः आप्तोपदेशेन - आप्तस्य - प्रत्ययितजनस्य, धर्माचार्यस्येत्यर्थः, उपदेशेन - अनुशासनेन, प्रतिपन्नानि - स्वीकृतानि, नानाविधानि व्रतानि यैस्तादृशैः; आराधयद्भिः तदाराधनां कुर्वद्भिः च पुनः, नानाविधाः अनेकप्रकाराः, या विद्या ताः, साधयद्भिः तत्सिद्धिं कुर्वद्भिः [फ ] । पुनः कीदृशीम् ? स्फटिकराजपट्टप्रायोपलाम् स्फटिकरा जपट्टप्रायाः-स्फटिकश्रेष्ठफलकप्रचुरा उपलाः-प्रस्तरा यस्यां तादृशीम्, पुनः सैकतप्रायभूतलां सैकतप्रायं - वालुका बहुलं, भूतलं यस्यां तादृशीम्, पुनः नीवारप्राय तृणोलपां नीवारप्रायाः - नीवाराः - तृणधान्यविशेषा वनत्रीहयः, तत्प्रायाः- तत्प्रचुराः, तृणोलपाः - तृणानि, उलपाः- सूक्ष्मतृणविशेषाश्च यस्यां तादृशीम्, पुनः कस्तूरिकामृगप्रायश्वापदां कस्तूरिकामृगप्रायाः - कस्तूरिकाभृताण्डशालिमृगप्रचुराः, श्वापदाःवन्यपशवो यस्यां तादृशीम्, पुनः शिखण्डिपरभृतप्राय ण्डजां शिखण्डिपरभृतप्रायाः - मयूरकोकिलबहुलाः, अण्डजाः पक्षिणो यस्यां तादृशीम्, पुनः किंपुरुषप्रायवनचरां किंपुरुषप्रायाः - किन्नरप्रचुराः किन्नरकल्पां वा, वनचराः - किरातादिवन्यजना यस्यां तादृशीम्, पुनः चन्द्रकान्तनिःष्यन्दप्राय निर्झरां चन्द्रकान्तमणिस्यन्दमान जलप्रचुरप्रवाहाम् । पुनः गल्वकदीर्णपावकप्रायदावानलां गल्वर्केण- अग्निपाषाणेन, उद्गीर्णः - उद्भावितः यः पावकः - अग्निः, तत्प्रायः- तत्कल्पः, दावानलः - वनाग्निर्यस्यां तादृशीम् । पुनः वनदेवतानिःश्वसितपवनप्रायमारुतां वनदेवतानां - वनाधिष्ठातृदेवानां निःश्वसितपवनप्रायाः-नासिकावायुप्रचुराः, मारुताः - वायवो यस्यां तादृशीम् । कीदृशं गगनवल्लभनगरम् ? दक्षिणेतरश्रेणितिलकभूतं दक्षिणेतरश्रेण्याः-वैताढ्यपर्वतस्योपरिस्थिताया उत्तरदिगवस्थितनगर श्रेणिस्तस्याः, तिलकभूतं - तिलकरूपम् । पुनः अभिभूतपुरुहूतनगरीरूपबिभ्रमम् अभिभूतः - पराजितः, तिरस्कृत इत्यर्थः, पुरुहूतनगर्याः - इन्द्रपुर्याः, रूपविभ्रमः - रूपशोभा येन तादृशम् । पुनः उदग्रमणिशिलाशाल शिखरोल्लिखितगगनोदरम् उदप्राणाम्-उन्नतानां, मणिशिलाशालानां - मणिरूपशिलामयप्राकाराणां, शिखरैः-शृङ्गैः, उल्लिखितं संस्पृष्टं, गगनोदरम् - आकाशमध्यं यस्मिंस्तादृशम्, गगनवल्लभनगरं नभः प्रदेशे वल्लभप्रायःभूतं नगरम्, आससाद प्राप्तवान् [ब] |
जगाम,
पौरनरनारीजनेन नगरवासिनरनारीनिकरेण, दृश्यमानः - अलोक्यमानो हरिवाहनः मन्दिरं राजभवनं, वव्राज कीदृशेन पौरनारीजनेन ? प्रतिसदनं प्रतिगृहम्, उत्तम्भितविविधवस्त्रध्वजेन उत्तम्भिताः - उच्छ्रिताः, विविधाः अनेकप्रकाराः वस्त्रध्वजाः - वस्त्रपताका येन तादृशेन, पुनः गन्धजलसिक्तनिजनिजप्रतोलिना गन्धजलैः - सुगन्धिजलैः, सिक्ता आर्द्रीकृता, निजनिजप्रतोली - स्वस्वरथ्या येन तादृशेन, पुनः सर्वतोविप्रकीर्णपुष्पप्रकरेण सर्वतः - सर्वभागेषु, विप्रकीर्णः-विक्षिप्तः, पुष्पप्रकरः - पुष्पराशिर्येन तादृशेन, पुनः आकर्ण्य आकर्ण्य श्रुत्वा श्रुत्वा समुपजात कुतूहलेन उत्पन्नदिदृक्षारसेन; किमाकर्यैत्याह-निर्यत्नसाधिताखिलप्रधानविद्यः निर्यत्नम् - अनायासं यथा स्यात् तथा, साधिताःअधिगताः, अखिलाः-सर्वाः प्रधानविद्या येन तादृशः, पुनः समागतसकलतन्त्रैः समागताः - समनुप्राप्ताः, सकलाःसमस्ताः, तन्त्राः, अधीनजना यान् तादृशैः, खेचराधिपतिभिः विद्याधरेन्द्रैः परिगतः परिवेष्टितः, पुनः अद्यैव अधुनैव, उपजातसमागमेन सञ्जातसम्मेलनेन, प्रेयसा प्रियतमेन सदृशरूपयौवनेन सदृशं तुल्यं, रूपं - शरीरशोभा, यौवनं - तारुण्यं च यस्य तादृशेन, स्वदेशागतेन स्वकीयदेशादुपस्थितेन, सुहृदा मित्रेण, समरकेतुनेत्यर्थः, सार्धं सह, अचिरानुभूतराज्याभिषेकसम्पत् अचिरं- शीघ्रम् अनुभूता प्राप्ता, राज्याभिषेकसम्पत्-विद्याधर चक्रवर्तित्वाभिषेकसम्पत्तिर्येन तादृशः, अस्माकम् अभिनवः नवीनः प्रभुः स्वामी हरिवाहनः, आगच्छति, इति इत्थम्, पुनः कीदृशेन
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टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता । इत्याकाकर्ण्य समुपजातकुतूहलेन सहेलमारुह्य हाग्रशिखराणि सस्पृहमहंप्रथमिकोपमर्दितपरस्परेण दृश्यमानः पौरनरनारीजनेन वव्राज राजमन्दिरम् [भ] ।
तत्र च प्रवर्तितोत्सवेन प्रहतपटुपटहझल्लरीमृदङ्गमङ्गलतूर्यवर्धितद्विगुणरभसेन सविशेषसुन्दरवेषधारिणा संनिधापितसितकुसुमदूर्वाचन्दनेन प्रधानविद्याधरवधूजनेन निर्वर्तितावतारणकमङ्गलः प्रतिकलोपनीतविविधवस्त्रविलेपनालंकारं विविधमुपदर्शितादरः प्रस्थाप्य दर्शनागतं प्रधाननगरलोकमनुगम्यमानः परिजनेन भोजनभवनमगच्छत् [म] ।
___ गत्वा च खेचरीवृन्दसंपादितमजनेन निवसितानवाससा प्रतिपन्नसर्वाङ्गीणदिव्याङ्गरागेण महार्हरत्नालंकारधारिणा विधृतमल्लिकामाल्यशेखरेण निजासनान्तिकोपविष्टेन समरकेतुनान्यैश्च यथानिबद्धस्थानविनिविष्टैर्विद्याधरकुमारैः परिवृतो निवर्तयांचकाराहारकर्म [य]।
क्रमातिवाहितदिनश्चोत्थाय भुक्त्यास्थानमण्डपाच्चक्रे यथाक्रियमाणमावश्यकविधिं सान्ध्यम् ।
पौरनरनारीजनेन ? सहेलं सलीलं यथा स्यात् तथा, हाग्रशिखराणि प्रासादशिखरोर्श्वभागान् , आरुह्य, सस्पृहं सकौतुकं यथा स्यात् तथा, अहंप्रथमिकोपमर्दितपरस्परेण अहं प्रथमः-पूर्व द्रष्टाऽस्यामिति यस्यां सा अहंप्रथमिका, अहंपूर्विका बुद्धिः, यद्वा अहं प्रथम इत्यहंप्रथमिका स्वार्थे कः, तया उपमर्दितम्-संघृष्टं; परस्परं येन तादृशेन [भ]।
तत्र तस्मिन् राजमन्दिरे, प्रवर्तितोत्सवेन प्रवर्तितः-प्रारब्धः, उत्सवो येन तादृशेन; पुनः प्रहतपटुपटहझल्लरीमृदङ्गमङ्गलतूर्यवर्धितद्विगुणरभसेन प्रहतेन-ताडितेन, पटुना-तीवध्वनिकेन, पटहादिना, मङ्गलतूर्येण-माङ्गलिकवाद्येनवर्धितः-वृद्धिं नीतः, द्विगुणः-द्विगुणितः, रभसः-हर्षो यस्य तादृशेन; पुनः सविशेषसुन्दरवेषधारिणा अत्यन्तमनोहरवेषभूषाशालिना; पुनः सन्निधापितसितकुसुमदूर्वाचन्दनेन सन्निधापितं-समीपे स्थापित, सित-शुभ्रं, कुसुमं-पुष्पं, दुर्वातृणविशेषः, चन्दनं च येन तादृशेन; प्रधानविद्याधरवधुजनेन मुख्यभूतविद्याधरस्त्रीजनेन, निर्वर्तितावतारणकमङ्गलः निर्वर्तितं-सम्पादितम् , अवतारणकमङ्गलं-स्वागतोत्सवो यस्य तादृशः; पुनः प्रतिकलोपनीतविविधवस्त्रविलेपनालङ्कारं प्रतिकलं-प्रतिक्षणम् , उपनीतं-समर्पित, विविधं-नानाप्रकारकं, वस्त्रं, विलेपनं-चन्दनम् , अलङ्कारः-आभरणं च येन तादृशं, विविधम् अनेकविधम् , दर्शनागतं दर्शनार्थमुपस्थितं, प्रधाननगरलोकं मुख्यं नगरवासिजनम् , उपदर्शितादरः प्रकटितादरः सन् , प्रस्थाप्य परावर्त्य, परिजनेन परिवारजनेन, अनुगम्यमानः अनुस्रियमाणः, भोजनभवनं भोजनालयम् , अगच्छत् गतवान् [म]।
गत्वा भोजनभवनम् उपस्थाय, खेचरीवृन्दसम्पादितमजनेन खेचरीवृन्देन-विद्याधरीगणेन, सम्पादितं, मजनस्नानं यस्य तादृशेन, पुनः निवसितानर्घवाससा निवसितं-परिहितम् , अनर्घम्-अमूल्यं, वासः-वस्त्रं येन तादृशेन, पुनः प्रतिपन्नसर्वाङ्गीणदिव्याङ्गरागेण प्रतिपन्नः-गृहीतः, सर्वाङ्गीणः-सर्वाङ्गव्यापकः, दिव्यः-उत्तमः, अङ्गरागः-अङ्गविलेपनद्रव्यं येन तादृशेन, महारत्नालंकारधारिणा महार्हम्-अतिप्रशस्त, यद् रत्नं तन्मयालङ्कारधारिणा, पुनः विधृतमल्लिकामाल्यशेखरेण विधृतः-धारितः, मल्लिकामाल्यं-मल्लिकाख्यपुष्पविशेषसम्बन्धिमालात्मकः, शेखरः-शिरोऽलङ्करणं येन तादृशेन, निजासनान्तिकोपविष्टेन निजस्य-आत्मनः, यद् आसनम्-उपवेशनाधिकरणपीठादि, तस्य अन्तिके-निकटभागे, उपविष्टेनकृतोपवेशनेन, समरकेतुना तदाख्यखसुहृदा, च पुनः, यथानिबद्धस्थानविनिविष्टैः यथानिबद्धस्थानं विनिविष्टैः-उपविष्टैः, अन्यैः समरकेतुव्यतिरिक्तैः, विद्याधरकुमारः विद्याधरनृपात्मजैः, परिवृतः परिवेषितः सन् , आहारकर्म भोजनक्रियां, निर्वर्तयाञ्चकार सम्पादयामास [य]।
च पुनः, क्रमातिवाहितदिनः क्रमेण-भोजना-ऽम्बुपान-मुखहस्तप्रक्षालन-ताम्बूलचर्वणरूपक्रमिकक्रियाभिः, अतिवाहितं-व्यतीतं, दिनं येन तादृशः, भुक्त्यास्थानमण्डपात् भोजनगोष्ठीभवनात्, उत्थाय, यथाक्रियमाणं क्रियमाणमनतिक्रम्य, सान्ध्यं-संन्ध्यासमये करणीयम्, आवश्यकविधि अवश्यकरणीयधर्मानुष्ठानं, चके कृतवान् । च पुनः,
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तिलकमञ्जरी
१३५ अध्यासितप्रासादशिखरश्च मुख्यैः खेचराधिपतिभिः सह स्थित्वा विचित्रकथाविनोदेन सुचिरमुचिते शयनसमये समीपस्थपरिजनोपदिष्टमार्गः शयनचित्रशालामगच्छत् । अधिशयितपर्यश्च वारंवारमवलोक्य निकटनिहितापररत्नपर्यङ्कनिविष्टमनेकदुर्गदेशान्तरागमनदुर्बलं म्लानवपुषं समरकेतुमधिकमन्तःसंतापमवहत् । अपृच्छच्च खिन्नवर्णोच्चारया वाचा यथावृत्तमादितः प्रभृति मार्गागमनवृत्तान्तम् । अयमप्यस्मै सर्वमात्मवृत्तान्तं न्यवेदयत् । अनन्तरमीषदुपजातनिद्रश्च नीत्वा रजनीशेषमारोहति मृदूकृतान्धकारगर्वे पूर्वशिखरिणमरुणसारथौ सौधवातायनसविधचारिणा चारणेन बहिरुच्चार्यमाणं वृत्तकुलकमेतदोषीत् [२]
"निर्दात्यूहपतद्गिरो रतिगृहाः साक्रन्दचक्रा नदा, विद्राति द्युतिरौडवी निबिडतां धत्ते प्रदीपच्छविः । द्यौर्मन्दस्फुरितारुणा तिमिरिणी सर्वसहा सर्वथा, सीमा चित्तमुषामुषःक्षणदयोः संधिक्षणो वर्तते ॥१॥ जाता दाडिमबीजपाकसुहृदः सन्ध्योदये तारका, यान्ति प्लुष्टजरत्पलालतुलनां तान्तास्तमस्तन्तवः । ज्योत्स्नापायविपाण्डु मण्डलमपि प्रत्यङ्नभोभित्तिभाक्पूर्णेन्दोर्जरपूर्णनाभनिलयप्रागल्भ्यमभ्यस्यति ॥२॥
अध्यासितप्रासादशिखरः अध्यासितम्-अधिष्ठितं, प्रासादशिखरं-राजमन्दिरोर्श्वभागो येन तादृशः, मुख्यैः प्रधानैः, खेचराधिपतिभिः विद्याधरेन्द्रैः, सह, विचित्रकथाविनोदेन अद्भुतोपाख्यानानन्देन, सुचिरम् अतिदीर्घकालं, स्थित्वा, उचिते योग्ये, शयनसमये शयनकाले, समीपस्थपरिजनोपदिष्टमार्गः समीपस्थेन-पन्निहितेन, परिजनेन-परिवारलोकेन, उपदिष्टः-उपदर्शितः मार्गो यस्य तादृशः, शयनचित्रशालां शयनसम्बन्धिचित्रपूर्णगृहम् , अगच्छत् , च पुनः, अधिशयितपर्यङ्कः अधिशयितः-शयनेन व्याप्तः, पर्यङ्कः-खट्वाविशेषो येन तादृशः सन् , निकटनिहितापररत्नपर्यङ्कनिविष्टं निकटनिहिते-समीपस्थापिते, अपरस्मिन्-अन्यस्मिन् , रत्नपर्यके-रत्नमयपर्यङ्के, निविष्टम्-उपविष्टम् , पुनः अनेकदुर्गदेशान्तरागमनदुर्बलम् अनेकेभ्यः-बहुभ्यः, दुर्गेभ्यः-दुःखेन गम्येभ्यः, देशान्तरेभ्यः-अन्यदेशेभ्यः, आगमनेन, दुर्बलं-क्षीणबलम् , पुनः म्लानवपुष मलिनशरीरं, समरकेतुं तदाख्यसुहृदम् , वारंवारम् अनेकवारम् , अवलोक्य दृष्ट्वा, अधिकं प्रचुरम् , अन्तःसन्तापम् अन्तर्वेदनाम्, अवहत प्राप्तवान् , च पुनः, खिन्नवर्णोच्चारया खिन्नः-शैथिल्यमापन्नः, वर्णोच्चारःअक्षरोच्चारणं यस्यां तादृश्या, वाचा गिरा, आदितः प्रभृति आदित आरभ्य, यथावृत्तं यथानिष्पन्नं, मार्गागमनवृत्तान्तं मार्गागमनघटनाम्, अपृच्छम् पृष्टवान् । अयमपि समरकेतुरपि, अस्मै हिरिवाहनाय, सर्व समग्रम् , आत्मवृत्तान्तं खवार्ता, न्यवेदयत् विज्ञापितवान् । अनन्तरं तदव्यवहितोत्तरम् , ईषदुपजातनिद्रः ईषदुपजाता-किञ्चिदुत्पन्ना, निद्रा यस्य तादृशः, रजनीशेषं रात्रिशेषं, नीत्वा व्यतीत्य, मृदकृतान्धकारगर्वे मृदूकृतः-मान्द्यमापादितः, अन्धकारगर्व अन्धकाराभिमानो येन तादृशे, अरुणसारथौ अरुणः-तन्नामा, सारथिर्यस्य तादृशे सूर्ये, पूर्वशिखरिणं पूर्वपर्वतम् , उदयाचलमिति यावत् , आरोहति आगच्छति सति, सौधवातायनसविधचारिणा प्रासादगवाक्षनिकटचारिणा, चारणेन बन्दिविशेषेण, बहिः बाह्यदेशे, उच्चार्यमाणं पठ्यमानं, वृत्तकुलकम् एकार्यान्वितचतुरधिकश्लोकान् , अश्रौषीत् श्रुतवान् [र]।
रतिगृहाः कामकेलिगृहाः, नित्यूहपतद्गिरः निर्गताः-निवृत्ताः, दात्यूहस्य-कालकण्ठस्य, पततः-पक्षिणः, गिरःकूजनानि येभ्यस्तादृशाः पुनः नदा: अकृत्रिमा जलप्रवाहास्तु, साक्रन्दचक्राः साक्रन्दाः-आक्रन्दनेन-दम्पतिविश्लेषजन्यरोदनातिशयेन, सहिताः, चक्रा:-चक्रवाकाख्यपक्षिविशेषा येषु तादृशाः, रतिगृहविपरीता इत्यर्थः, उभयत्र सन्तीति शेषः, पुनः
औडवी उडूनां-ताराणां सम्बन्धिनी, द्युतिः छविः, विद्राति क्षीयते; पुनः प्रदीपच्छविः प्रदीपदीप्तिस्तु तद्विपरीतभावेन, निबिडतां सान्द्रताम् , धत्ते धारयति, पुनः द्यौः आकाशम् , सूर्यसारथिर्यस्या, मन्दस्फुरितारुणा मन्दं-किञ्चित् , स्फुरितः-उदितः, अरुणः तादृशी; पुनः सर्वेसहा पृथ्वी तु, सर्वथा सर्वप्रकरण, तिमिरिणी अन्धकारिणी; उषःक्षणदयोः प्रभात-रात्र्योः, सन्धिक्षणः मीलनसमयः, चित्तमुषां मनोहारिणां, सीमा उत्कर्षावधिः, वर्तते । अत्र युगपद्विरूपघटनासत्त्वाद् विषमालङ्कारः ॥१॥
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टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता। उद्यजाड्य इव प्रगेतनमरुत्संसर्गतश्चन्द्रमाः, पादानेष दिगन्ततल्पतलतः सङ्कोचयत्यायतान् । अन्तर्विस्फुरितोरुतारकतिमिस्तोमं नभःपल्वलाद्धान्तानायमयं च धीवर इवानूरुः करैः कर्षति ॥३॥ सद्यःसंहृतघोरघूत्कृति मनागन्धीभवदृष्टयो, जीर्णानोकहकोटराणि शनकैर्मार्गन्त्यमी कौशिकाः । किञ्चास्कन्दति शैलकन्दरभुवो भिन्नं करैरारुणैरेतदर्पकरालकोलकपिलश्यामं त्रियामातमः ॥ ४ ॥ ताम्बूलद्रवरागराजिरुचिरैर्मध्ये बहिषूसरैः, किञ्चिन्नूतनकाञ्चनारसुमनःपत्रं हसन्त्योऽधरैः । एताः पण्यपुरन्ध्रयो निधुवनक्रीडाजडैरङ्गकैर्निर्गत्य प्रियसद्मनः स्ववसतेर्वीथीरलंकुर्वते ॥ ५ ॥
जाताः सर्वदिशो दिनान्धवयसामन्धास्तवेव द्विषां, प्राप्यन्ते घटना रथाङ्गमिथुनैस्त्वद्वाञ्छिताथैरिव । आरोहत्युदयं प्रताप इव ते तापः पतङ्गत्विषां, द्रष्टुं नाथ ! भवन्मुखश्रियमिवोन्मीलन्ति पद्माकराः॥६॥"[ल]।
सन्ध्योदये प्रभातोदये, तारकाः ताराः, दाडिमबीजपाकसुहृदः पक्कदाडिमबीजसदृशरक्तकान्तयः, जाताः; पुनः तान्ताः ग्लानाः क्षीणा इति यावत्, तमस्तन्तवः तमांसि तन्तव इवेति तमस्तन्तवः, सूत्रसदृशकृशाकारा अन्धकारा इत्यर्थः, प्लष्टजरत्पलालतुलनां प्लुष्टाः-दग्धा ये, जरन्तः-जीर्णाः, पलालाः-धान्यरहिततदीयकाण्डाः, तत्तुलनां-तत्सादृश्यं, यान्ति प्राप्नुवन्ति; पुनः ज्योत्स्नापायविपाण्ड ज्योत्स्नायाः-चन्द्रिकायाः, अपायेन-विनाशेन, विपाण्डु-विशेषेण पाण्डवर्ण, श्वेतपीतवर्णमित्यर्थः, पुनः प्रत्यङ्नभोभित्तिभाक् पश्चिमाकाशरूपभित्तिस्थितं, पूर्णेन्दोः पूर्णचन्द्रस्य, मण्डलं बिम्ब, जरदूर्णनाभनिलयप्रागल्भ्यं जरतः-जीर्णस्य, ऊर्णनाभनिलयस्य-लूतातन्तुमयगृहस्य, प्रागल्भ्यं-प्रतिभा, क्षीणतया तद्वत् प्रतिभासमानतामित्यर्थः, अभ्यस्यति दृढं धत्ते । अत्रोपमालङ्कारः ॥२॥ ....
एषः अयं, चन्द्रमाः, प्रगेतनमरुत्संसर्गतः प्रातःकालिकपवनसंसर्गात्, उद्यजाड्य इव उद्यत्-उद्भवत्, जाड्यं शैल्यं यस्मिंस्तादृश इव, दिगन्ततल्पतलतः दिगग्रभागात्मकशय्यातलात , आयतान् विस्तारितान् , पादान् किरणचरणान्, सङ्कोचयति उपसंहरति; च पुनः, अयं प्रत्यक्षवर्ती, अनूरुः सूर्यसारिथिः, धीवर इव कैवर्त इव, नभःपल्वलात् आकारूपादखातसरसः, अन्तर्विस्फरितोरुतारकतिमिस्तोमम अन्तः-मध्ये, विस्फुरितानि-सञ्चारितानि, उरुतारकाण्येवबहुतरनक्षत्राण्येव, तिमिस्तोमः-मत्स्यविशेषसमूहो यस्य तादृशं, ध्वान्तानायम् अन्धकाररूपं जालं, करैः किरणहस्तैः, कर्षति उद्धरति । अत्र पूर्वार्धे उत्प्रेक्षा, उत्तरार्धे रूपकोपमे ॥३॥
___ सद्यःसंहृतघोरघूत्कृति सद्यः-तत्क्षणे, संहृताः-सङ्कोचिताः, घोराः-भयानकाः, घूत्कृतयः-खकीयध्वनिविशेषा यस्मिस्तादृशं यथा स्यात् तथा, मौनावलम्बनपूर्वकमित्यर्थः, मनाक किञ्चित् , अन्धीभवद्दष्टयः अन्धीभवन्त्य अन्धत्वमापद्यमानाः, दृष्टयो-लोचनानि येषां तादृशाः, अमी विप्रकृष्टभूताः, कौशिकाः उलूकाख्यया प्रसिद्धपक्षिविशेषाः, शनकैः मन्दं मन्दं, जीर्णानोकहकोटराणि जीर्णानां-पुराणानां, अनोकहानां-वृक्षाणां, कोटराणि-रन्ध्राणि, मार्गन्ति दिनान्धतया निवासार्थम् अन्विष्यन्ति; किञ्च, दर्पकरालकोलकपिलश्यामं दर्पण-गर्वेण, करालः, यः कोल:-शूकरः, तद्वत् कपिलंकपिलवण, श्याम-कृष्णवर्णं च, एतत् प्रत्यक्षभूतं, त्रियामातमः रात्रिसम्बन्ध्यन्धकारः, आरुणैः सूर्यसम्बन्धिभिः, करैः किरणैः, भिन्नं विघटितं सत्, शैलकन्दरभुवः पर्वतगुहास्थलीः, आस्कन्दति आक्रामति । अत्र पूर्वार्धे खभावोक्तिः, उत्तरार्धे तूत्प्रेक्षोपमे ॥ ४ ॥
मध्ये अभ्यन्तरे, ताम्बूलद्रवरागराजिरुचिरैः ताम्बूलद्रवस्य-ताम्बूलरसस्य, रागराज्या-रक्तकान्तिकलापेन, रुचिरैः-सुन्दरैः, पुनः बहिः बाह्यभागे, धूसरैः सुरतश्रमेण किञ्चित्पीतश्वेतवर्णैः, अधरैः ओष्ठैः, किञ्चिन्नूतनकाञ्चनारसुमनःपत्रं किञ्चिन्नूतनम्- ईषन्नवीनं, काश्चनारसुमनसः-काञ्चनाराख्यपुष्पविशेषवृक्षस्य, पत्रं, हसन्त्यः तिरस्कुर्वन्त्यः, एताः इमाः, पण्यपुरन्ध्रयः केतव्यस्त्रीविशेषाः, निधुवनक्रीडाजडैः सुरतक्रीडाशिथिलैः, अङ्गकैः अनुकम्पनीयैरवयवैः, उपलक्षिताः, प्रियसद्मनः खप्रियजनगृहात् , निर्गत्य निःसृत्य, स्ववसतेः स्ववासभवनस्य, वीथीः मार्गान् , यद्वा पतीः, अलङ्कुर्वते विभूषयन्ति, अत्र व्यतिरेकालङ्कारः ॥ ५॥ .. हे नाथ! तव द्विषां शत्रुणाम् , इव, दिनान्धवयसां दिने अन्धाना--दर्शनशक्तिशून्यानां, वयसां-पक्षिणाम् , उलूकानामित्यर्थः, सर्वदिशः समस्ता अपि दिशः, अन्धाः दृष्टयगोचराः, जाताः संवृत्ताः; पुनः त्वद्वाञ्छिताथै रिव
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तिलकमञ्जरी
१३७ श्रुत्वा चेदमुन्मिषितलोचनः सलीलमुत्थाय शयनात् ससैनिको नगरबाह्यायां जगाम । परिभ्रम्य च स्वभावरमणीयपरिसरेष्वारामेषु सरस्सु देवतायतनमण्डलेष्वावासमाजगाम । मध्याह्नसमये च दूरादेव दृश्यमानशुभ्रादभ्रविस्तारमदृष्टपारतरुसरित्सरोवराढ्यं वैताढ्यभूधरमध्यारोहत् [व] ।
कृतावस्थितिश्च शिखरदेशे करतलस्थमिव नाकलोकम झिमूले निलीनमिव मध्यमं भुवनमध्यासितानीव दृष्टिमध्यमाशामुखानि मन्यमानः समन्तात् प्रहितदृष्टिरुष्णीषपट्टमिव जम्बूद्वीपस्य, मानसूत्रमिव भारतवर्षस्य, सेतुबन्धमिव गगनसिन्धोः, सीमन्तमिव भुवः, हारमिव वैश्रवणहरितः [श], ताण्डवप्रसृतखण्डपरशुभुजदण्डभस्मेव रेखाकारेण पतितं, प्रलयविप्लुतक्षीरसिन्धुफेनमिव निम्नानुसारेण स्थितं, त्रिदिवदर्शनोस्कण्ठया मन्दाकिनीप्रवाहमिव हेलयोत्पतितं, समग्रमेदिनीभारधारणक्षमं रूपान्तरमिव शेषस्य, विस्फुरद्रत्नकटकाक्रान्तं बाहुमिव क्षीरोदस्य, पातालावधिप्रविष्टमूलनिश्चलबन्धमिव भूगोलस्य, विशालकटकावष्टब्धभूतलं
टिप्पनकम्-खण्डपरशुः-हरः । विस्फुरद्रत्नकटकाक्रान्तं बाहुमिव एकत्र कटकः-प्रस्थः, अन्यत्र कङ्कणम् । विशालकटकावष्टब्धभूतलम् एकत्र कटकं-सैन्यम् , अन्यत्र प्रस्थः। पौलस्त्यः-रावणः [ष] । भवदभिलषितवस्तुभिरिव, रथाङ्गमिथुनैः चक्रवाकद्वन्द्वैः, घटनाः सम्मेलनानि, प्राप्यन्ते; पुनः ते तव, प्रतापः कोशदण्डतेज इव, पतत्विषां सूर्यतेजसा तापः, उदयम् उदयाचलं, पक्षे उन्नतिम् , आरोहति प्राप्नोति; पुनः पद्माकरा: कमलवनानि, भवन्मुखश्रियं स्वोत्कृष्टां भवन्मुखशोभां, द्रष्टुं विलोकयितुम् , इव, उन्मीलन्ति विकसन्ति । अत्र पादत्रये उपमा, चतुर्थपादे तूत्प्रेक्षा ॥ ६ ॥ [ल]।
च पुनः, इदम् अनुपदोक्तवृत्तकुलकं, श्रुत्वा श्रवणेन्द्रियेण प्रत्यक्षीकृत्य, उन्मिषितलोचनः उन्मीलितनयनः, सन् , सलीलं सहर्ष, शयनात् शय्यायाः, उत्थाय, ससैनिकः सैनिकसमेतः, नगरबाह्यायां नगरबहिर्वर्तिभूमौ, जगाम गतवान् , हरिवाहन इति सर्वत्र शेषः । च पुनः, स्वभावरमणीयेषु प्रकृत्या मनोहरेषु, परिसरेषु नगरप्रान्तप्रदेशेषु, पुनः, आरामेषु उपवनेषु, सरस्सु कासारेषु, पुनः देवतायतनमण्डलेषु देवमन्दिरगणेषु, परिभ्रम्य विहारं विधाय, आवासं खनिवासस्थानम्, आजगाम प्रत्यागतवान् । च पुनः, मध्याह्नसमये दिनमध्यकाले, वैताढ्यभूधरं वैताढ्यसंज्ञकपर्वतम, अध्यरोहत् आरूढवान् , कीदृशम् ? दरादेव दूरदेशादेव, दृश्यमानशुभ्रादभ्रविस्तारं दृश्यमानः, शुभ्रः-शुकः, अदभ्रविस्तारः-अत्यन्तबृहदाकारो यस्य तादृशम् , पुनः अदृष्टपारतरुसरित्सरोवराव्यम् अदृष्टपारैः-अदृष्टः पारः-अन्तो येषां तादृशैः, तरुभिः-वृक्षः, सरिद्भिः, सरोवरैः-कासारश्रेष्ठश्च, आढ्य-पूर्णम् [व]।
च पुनः, शिखरदेशे तदूर्ध्वदेशे, कृतावस्थितिः अवस्थितः सन् , नाकलोकं स्वर्गलोकं, करतलस्थमिव हस्ततलवर्तिनमिव, पुनः मध्यम वर्गपातालमध्यस्थं, भुवनं मर्त्यलोकम् , अविमूले पादमूले, निलीनमिव अन्तर्भूतमिव, पुनः आशामुखानि दिगन्तभागान् , दृष्टिमध्यं नयनाभ्यन्तरम् , अध्यासितानि अधिष्ठितानि, इव, मन्यमानः उत्प्रेक्षमाणः, समन्तात् सर्वभागेषु, प्रहितदृष्टिः व्यापारितलोचनः, 'तं वैताव्यपर्वतम् , अवलोकितवान् दृष्टवान्' इत्यग्रेणान्वेति । कीदृशम् ? जम्बद्वीपस्य भारतवर्षादिगर्भितस्य योजनशतसहस्रप्रमाणजम्बूवृक्षघटितस्यास्माकमाधारभूतस्य द्वीपस्य, उष्णीषपद्रमिव शिरोवेष्टनपटमिव; पुनः भारतवर्षस्य भारतदेशस्य, मानसूत्रमिव परिच्छेदकसूत्रमिव; पुनः गगनसिन्धोः आकाशरूपसागरस्य, सेतुबन्धमिव सेतुस्वरूपमिवः पुनः वैश्रमणहरितः कुबेरदिशः, हारमिव मुक्तामाल्यमिव; [श]। पुनः रेखाकारेण रेखारूपेण, पतितं स्खलितं, ताण्डवप्रसृतखण्डपरशुभुज दण्डभस्मेव ताण्डवे-नृत्ये, प्रसृतयोः-विस्तृतयोः, खण्डपरशोः-शिवस्य, भुजदण्डदण्डाकारबाहुसंलग्नं भस्म इव; पुनः निम्नानुसारेण नीचदेशानुसारेण, स्थितं,प्रलयविप्लुतक्षीरसिन्धुफेनमिव प्रलयविप्लुतस्य-प्रलयकालोच्छलितस्य,क्षीरसिन्धो:-क्षीरसागरस्य, फेनमिव-क्षीरविकारमिव पुनः त्रिदिवदर्शनोत्कण्ठया स्वर्गलोकावलोकनोत्कण्ठया; हेलया-क्रीडया, उत्पतितम् उच्छलितम् , मन्दाकिनीप्रवाहमिव गङ्गाप्रवाहमिव; पुनः समग्रमेदिनीभारधारणक्षमं समस्तपृथ्वीभारग्रहणसमर्थ, शेषस्य तदाख्यसर्पराजस्य, रूपान्तरमिव अन्यरूपमिव; पुनः विस्फुरद्रनकटकाक्रान्तं विस्फुरता-उज्वलता, रत्नकटकेन-मणिमयप्रस्थेन, अन्यत्र
१८ तिलक.
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टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता। प्रतिपक्षमिव हिमवतः, पूर्वापरोदधिवेलावलग्नमुदकपानतृष्णया जीर्णसंवर्तकाम्बुदसंघातमिव युगान्तसमयमुदीक्ष्यमाणम् , इन्दुद्युतिमुषा देहप्रभोल्लासेन पौलस्त्यहस्तोल्लासितं कैलासमिव हसन्तं, प्रकटितबहुस्रोतसा निर्झरनिवहेन तुहिनशैलस्पर्धया जाह्नवीसहस्राणीव सृजन्तं [प], दिगन्तरव्यापिभिर्दरीमुखसमीरैः सुमेरुमहिमाभ्यसूयया निःश्वासानिव विमुञ्चन्तम् , अश्रान्तसन्ततिभिः शकुनिकोलाहलैः केशवभुजायन्त्रमन्दीरितं, मन्दरमिवाधिक्षिपन्तं, कुलिशकृत्तपक्षव्रणनिभासु गम्भीरगैरिकखनिषु लम्बमाननिश्चलनिरायताङ्गैरजगरकुलै१ष्टरक्तापकर्षणार्थमायोजितैर्जलौकैरिव दुरालोकपार्श्वभागम् [स], कैश्चिदुद्भिन्नवैडूर्यरत्नाङ्करकलापैरधःकरालकन्दरादर्शनजातरोमाञ्चैरिवातीततारापथैः पृथुपराक्रमाणि क्रीडाकिरातवंश्यानि शबरवृन्दानि, कैश्चिदितस्ततश्चलिततनुसरिद्वेणिकैः स्खलनपर्यस्तसूर्यरथपताकैरिव पतनभीतविद्याधरसङ्घपरिहृतलङ्घनानि सिद्धायत
टिप्पनकम्-भुजायन्त्रमेव मन्दीर-शृङ्खलं संजातमस्य स तथोक्तः [स]। क्रीडाकिरातः-शङ्करः । लयनंगृहम् [ ह]।
मणिमयकङ्कणेन, आक्रान्तम्-अधिष्ठितम् , क्षीरोदस्य क्षीरसागरस्य, वाहुमिव; पुनः भूगोलस्य भूमण्डलस्य, पातालावधिप्रविष्टमूलनिश्चलबन्धमिव पातालावधिप्रविष्टेन-पातालपर्यन्तमग्नेन, मूलेन, निश्चल:-स्थिरो यो बन्धः बन्धनं, तमिव पुनः विशालकटकावष्टब्धभूतलं विशालेन-विस्तृतेन, कटकेन-नितम्बेन, पक्षे सेनया, अवष्टब्धम्-आक्रान्तम् . भूतलं येन तादृशं, हिमवतः हिमाचलस्य, प्रतिपक्षं रिपुमिव; पुनः उदकपानतृष्णया जलपिपासया, पूर्वापरोदधिवेलावलग्नं पूर्वपश्चिमसमुद्रतटसंसक्तं, युगान्तसमयं प्रलयावसरम् , उदीक्षमाणं प्रतीक्षमाणं, जीर्णसंवर्तकाम्बुदसंघातमिव पुराणप्रलयकालिकमेघराशिमिव; पुनः इन्दुद्युतिमुषा चन्द्रच्छविहारिणा, देहप्रभोल्लासेन शरीरदीप्युन्नमनेन, पौलस्त्यहस्तोल्लासितं पौलस्त्यस्य-रावणस्य, हस्तेन-उल्ला सितम्-उद्धृतं, कैलासं तदाख्यं रजतपर्वतं, हसन्तमिव तिरस्कुर्वन्तमिव; पुनः प्रकटितबहुस्रोतसा प्रकटितानि-प्रादुर्भावितानि, बहूनि, स्रोतांसि-प्रवाहमार्गा येन तादृशेन, निर्झरनिवहेन प्रवाहसमूहेन, तुहिनशैलस्पर्धया हिमाचलाभिभवेच्छया, जाह्नवीसहस्राणि गङ्गासहस्राणि, सृजन्तमिव आविष्कुर्वन्तमिव [ष]। पुनः दिगन्तरव्यापिभिः दिङ्मध्यव्यापकैः, यद्वा अन्यान्यदिग्व्यापकैः, दरीमुखसमीरैः कन्दराग्रभागोद्गतपवनैः, सुमेरुमहिमाभ्यसूयया सुमेरुपर्वतमहत्त्वजनितखदेन, निःश्वासान् नासिकापवनान् , विमुञ्चन्तमिव निस्सारयन्तमिव पुनः अश्रान्तसन्ततिभिः अविच्छिन्नपरम्परैः, शकुनिकोलाहलैः पक्षिकूजितैः, केशवभुजायन्त्रमन्दीरितं केशवस्य-विष्णोः, यो भुजायन्त्रः-बाहुरूपसंयमनसाधनं, स एव मन्दीरं-शृङ्खलं संजातमस्य तादृशं, मन्दरं तदाख्यसमुद्रमन्थाचलम् , अधिक्षिपन्तमिव तिरस्कुर्वन्तमिव; पुनः कुलिशकृत्तपक्षवणनिभासु वज्रच्छिन्नपक्षक्षतसदृशीषु, गम्भीरगैरिकखनिषु निम्नगैरिकाख्यधातुसम्बन्ध्याकरेषु, लम्बमाननिश्चल निरायताङ्गैः लम्बमानानि-अवनमन्ति, निश्चलानि-स्थिराणि, निरायतानि-अत्यन्तदीर्घाणि, अङ्गानि-अवयवा येषां तादृशैः, अज कुलैः अजगरजातीयसर्पगणैः,
दुष्टरक्तापकर्षणार्थ विकृतशोणितनिस्सारणार्थम् , आयोजितैः संश्लेषितैः, जलौकैरिव रुधिराकर्षकजलजन्तुविशेषैरिवेत्युत्प्रेक्षा, दुरालोकपार्श्व दुरालोकं-दुर्दर्श, पार्श्व-प्रान्तं यस्य तादृशम् [स]; पुनः उद्भिन्नवैडूर्यरत्नाकुरकलापैः उद्धिन्नः-उद्भिद्योद्धतः वैड्यरत्नाकराणां-विदूरात प्रभवतीति वैडूर्यम् , तद्रूपाणां रत्नानाम्, अङ्करकलापः-अङ्करसमूहो येषु तादृशैः, अत एव अधःकरालकन्दरादर्शनजातरोमाञ्चैरिव अधः-नीचैः, करालकन्दरायाः-भयानकगुहायाः, दर्शनेन, जातःउद्भूतः, रोमाञ्चो येषां तादृशैरिव, अतीततारापथैः अतिक्रान्तगगनैः, गगनादप्युन्नतैरित्यर्थः, कैश्चित् कैरपि, शिखरैरित्यग्रेणान्वेति, पृथुपराक्रमाणि विस्तृतवीर्याणि, क्रीडाकिरातवंश्यानि क्रीडाकिरातः-शङ्करः, तद्वंश्यानि-तद्वंशजानि, शबरवृन्दानि भिल्लविशेषगणान् , 'धारयन्तम्' इत्यग्रेणान्वेति, पुनः इतस्ततश्चलिततनुसरिद्वेणिकैः इतस्ततःअत्र तत्र, चलिता-विलुलिता, तन्वी-कृशा, या सरित् नदी, तदीया वेणिकाप्रवाहो येषु तादृशैः, अत एव स्खलनपर्यस्तसूर्यरथपताकैरिव स्खलनेन-आस्फालनेन, पर्यस्ता-पतिता, सूर्यरथपताका-सूर्यरथसम्बन्धिनी पताका येषु तादृशैरिवेत्युत्प्रेक्षा, कैश्चित् कैरपि, शिखरैः, पतनभीतविद्याधरसङ्घपरिहृतलङ्घनानि पतनभीतैः-अधःस्खलनभयान्वितैः, विद्याधरसङ्घः
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तिलकमञ्जरी
१३९ नानि, कैश्चिदन्धकारगह्वरप्रवेशितसरलनिर्झरसलिलधारैरसुरकन्याधिरोहणार्थमवलम्बितरजुजालैरिव सततसप्तर्षियात्रापवित्रितानि दिव्याश्रमपदानि, कैश्चिदुत्तुङ्गतालतरुवनैत्रिविष्टपमुपस्प्रष्टुमूर्वीकृतभुजैरिव निरातङ्कनाकिमिथुनाभ्यस्यमानमन्मथक्रीडाभणितानि मणिशिलालयनानि शिखरैर्धारयन्तं [ह], निविष्टानन्तवनदेवतानगरमिव लतागृहातैः, आविष्कृतानेकपातालमिव सान्धकारकन्दरैः, प्रसूतनिःसंख्यापत्यमिव दिङ्नागयूथैः, उत्थापितप्रबलबहुलप्रदोषमिव तमालतरुमण्डलैः, आवासितापारवासरमिव स्वर्णसानुप्रभाप्राम्भारैः, प्रकटितानेकरामायणमिव किलिकिलायमानवानरानीकनिकायैः, दर्शितापूर्वप्रजासर्गमिव किंपुरुषवगैः [क्ष], कचिद् बद्धमण्डलगरुडगोत्रपक्षिव्यावर्ण्यमानद्वीपान्तरप्रचारवार्त, क्वचिद् विपक्षवारणविरोधपरिणतगजोन्मूलितगलगण्डशैलं, कचिन्मृगारातिकरकुलिशदारितजलदगर्भोद्गीर्णमुक्ताफलाकीर्णं, कचिन्नृत्तप्रवृत्त
टिप्पनकम्-बहुल:-कृष्णपक्षः । किंपुरुषः-किन्नरः [क्ष] । मृगारातिः-सिंहः । नीलकण्ठः-मयूरः [ज्ञ] ।
विद्याधरगणैः, परिहृतम्-अत्युन्नतत्वात् परिवर्जितं, लङ्घनं येषां तादृशानि, सिद्धायतनानि सिद्धजनमन्दिराणि, धारयन्तम् , पुनः अन्धकारगह्वरप्रवेशितसरलनिर्झरसलिलधारैः अन्धकारगह्वरे-अन्धकारपूर्णदेवखातबिले, प्रवेशिता,सरला-अवक्राकारा, निर्झरसलिलधारा-प्रवाहजलधारा यैस्तादृशैः, अत एव असुरकन्याधिरोहणार्थम् असुरकन्यायाः-दैत्यसुताया, अधिरोहणार्थम-आरोहणार्थम. अवलम्बितरजजालैरिव अवलम्बितम-आनमितं. रजजालं-रजपजो यैस्तादृशैरिवेत्यत्प्रेक्षा. कैश्चित कतिपयैः शिखरैः, सततसप्तर्षियात्रापा वित्रितानि निरन्तरमरीच्यादिसप्तर्षिप्रयाणपूतानि, दिव्याश्रमपदानि उत्तमाश्रमस्थानानि, धारयन्तम् , पुनः उत्तुङ्गतालतरुवनैः उत्तुङ्गम्-उन्नतं, तालतरूणां-तालवृक्षाणां, वनं येषु तादृशैः, अत एव त्रिविष्टपं वर्गम् , उपस्प्रष्टुम् उपस्पर्शनार्थम् , ऊर्वीकृतभुजैरिव ऊवीकृताः-उन्नमिताः, भुजाः-बाहवो यैस्तादृशैरिव, कैश्चित् कैरपि, शिखरैः, निरातङ्कनाकिमिथुनाभ्यस्यमानमन्मथक्रीडाभणितानि निरातकैः-निःशङ्कः, नाकिमिथुनैःदेवद्वन्द्वैः, अभ्यस्यमानं-पौनःपुन्येन क्रियमाणं, मन्मथक्रीडाभणितं-कामकेलिकूजितं येषु तादृशानि, मणिशिलालयानि मणिरूपशिलामयमन्दिराणि, धारयन्तम् [ ह] पुनः कीदृशम् ? लतागृहवातैः लतागृहसमूहः, निविष्ठानन्तवनदेवतानगरमिव निविष्टम्-अन्तर्भूतम् , अनन्तम्-अपारम् , वनदेवतानां-वनस्थदेवानां, नगरं यस्मिंस्तादृशमिव; पुनः सान्धकारकन्दरैः अन्धकारपूर्णगुहाभिः, आविष्कृतानेकपातालमिव आविष्कृतानि-प्रकटितानि, अनेकानि-बहूनि, पातालानि येन तादृशमिव; पुनः दिङ्नागयूथैः दिग्गजगणैर्हेतुभिः, प्रसूतनिस्संख्यापत्यमिव प्रसूतानि-उत्पादितानि, निस्संख्यानि-संख्यारहितानि, अपत्यानि-पुत्रा येन तादृशमिव, तद्वत् प्रतीयमानमित्यर्थः; पुनः तमालतरुमण्डलैः तमालजातीयवृक्षगणैः, उत्थापितप्रवलबहुलप्रदोषमिव उत्थापितं-जनितः,प्रबल:-सान्द्रः, बहुलस्य-कृष्णपक्षस्य, प्रदोषः-रजनीमुखं येन तादृशमिव; पुनः स्वर्णसानुप्रभाप्रागूभारैः स्वर्णसानोः-सुवर्णमयपर्वतकायसमभूमिकायाः, प्रभाप्रारभारैः-द्युतिसन्दोहैः, आवासितापारवासरमिव आवासिताः-निवासिताः, अपारा:-अनवधिकाः, वासरा:-दिवसा येन तादृशमिव; पुनः किलकिलायमानवानरानीकनिकायैः किलकिलायमानानां किलकिलात्मकशब्दं कुर्वतां, वानराणां मर्कटानां, यत् , अनीकं-सैन्यं यद्वा संग्रामः, तस्य निकायैः-निवासस्थानः, यद्वा समूहैः, प्रकटितानेकरामायणमिव प्रकटितानि-आविष्कृतानि, अनेकानि-बहूनि, रामायणानि-रामचरितानि येन तादृशमिव; पुनः किंपुरुषवगैः किन्नरगणैः,दर्शितापूर्वप्रजासगमिव दर्शितः-प्रकटितः, अपूर्वप्रजासर्गः-विलक्षणसन्ततिसृष्टिर्येन तादृशमिवेति सर्वत्रोत्प्रेक्षा; [क्ष] । पुनः क्वचित् कस्मिंश्चित् स्थाने, बद्धमण्डलगरुडगोत्रपक्षिव्यावर्ण्यमानद्वीपान्तरप्रचारवात बद्धमण्डलैः-बद्धपतिकैः, गरुडगोत्रपक्षिभिः-गरुडवंशजपक्षिभिः, व्यावर्ण्यमाना-उपाख्यायमाना उपद्वीपान्तरप्रचारवार्ता-अन्यान्यद्वीपसञ्चार वृत्तान्तो यस्मितादृशम् । पुनः क्वचित् कस्मिंश्चिद्
वारणविरोधपरिणतगजोन्मूलितगलगण्डशैलं विपक्षवारणविरोधेन -शत्रुभूतगजविरोधेन, परिणतैःदन्तप्रहारप्रसक्तः, गजैः, उन्मूलितः-उत्पाटितः, अत एव गलन्-पतन् , गण्डशैलः-च्युतस्थूलपाषाणो यस्य तादृशम् , पुनः क्वचित् कस्मिंश्चित् स्थले, मृगारातिकरकुलिशदारितजलदगर्भोद्गीर्णमुक्ताफलाकीर्ण मृगारातीना--मृगरिपूणां,
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टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता । नीलकण्ठनिवहदर्शिताकालशावलं, कचिन्मुग्धवनमहिषपुरस्कृतपलायमानाश्वमुखसमूह, त्रिविक्रममिव पादाननिर्गतत्रिपथगासिन्धुप्रवाहम् , रथमिव चक्रवर्तिबलचूर्णितासन्नभूतलम् , मेरुकल्पपादपालीपरिगतमपि नमेरुकल्पपादपालीपरिगतम् , वनगजालीसंकुलमपि नवनगजालीसंकुलं तमवलोकितवान [क]।
___ उपजातविस्मयं च तं तस्य शिखरिणः स्वभावरमणीयासु शिखरश्रेणिषु पुनः पुनः प्रहितदृशमुद्दिश्य नग्नाचार्य एकः समुच्चार्य जयशब्दमब्दध्वानजयिना खरेण प्रक्रमागतमिमं श्लोकमपठत्
"दृश्यं भूमिभृतोऽस्य देव! किमिह स्कन्धस्थविद्याधरश्रेणीयस्य वहन्ति यस्य समतामन्येऽपि गोत्राचलाः । द्रष्टव्यस्त्वमनन्यतुल्यमहिमा मध्ये धरित्रीभृतां
येनाधःकृतखेचरेन्द्रततिना बद्धाऽस्य मूर्ध्नि स्थितिः ॥" [ख] । टिप्पनकम्-त्रिविक्रममिव पादाग्रनिर्गतत्रिपथगासिन्धुप्रवाहम् एकत्र चरणाग्रप्रादुर्भूतगङ्गानदीस्रोतसम् , अन्यत्र प्रत्यन्तगिरिशिखरैनिःसृतगङ्गासिन्धुनदीद्वयप्रवाहम् । रथमिव चक्रवर्तिबलचूर्णितासन्नभूतलम् एकत्र रथाङ्गाग्रधाराचूर्णीकृतनिकटभूपृष्ठम् , अन्यत्र चक्रवर्तिराजसैन्यचूर्णितासन्नभूतलम् । मेरुकल्पपादपालीपरिगतमपि न मेरुकल्पपादपालीपरिगतं यदि मेरुतुल्यप्रत्यन्तगिरिपतियुक्तं कथं न मेरुकल्पादिम् , अन्यत्र नमेरुवृक्षविशेषकल्पतरुराजिसंगतम् । वनगजालीसंकुलमपि नवनगजालीसंकुलम् अरण्यकरिसंकुलं यदि कथं न संकुलम्, अन्यत्र नूतनवृक्षगहनव्याप्तम् [क]। सिंहानामित्यर्थः, करकुलिशैः-हस्तवज्रः, दारितस्य-खण्डितस्य, जलदस्य-मेघस्य, गर्भात-उदरात , उद्गीर्णैः-निर्गतैः, मुक्ताफलैःमुक्तामणिभिः, आकीर्ण-व्याप्तम् ; पुनः क्वचित् कस्मिंश्चित् स्थले, नृत्तप्रवृत्तनीलकण्ठनिवहदर्शिताकालशाड्वलं नृत्तप्रवृत्तेन-नृत्यप्रसक्तेन, नीलकण्ठनिवहेन-मयूरगणेन, दर्शितं प्रत्यायितं, शाड्वलं-हरिततृणमयस्थलं यस्मितादृशम् । पुनः क्वचित् कस्मिंश्चित् प्रदेशे, मुग्धवनमहिषपुरस्कृतपलायमानाश्वमुखसमूहम् अविवेकावस्थवनसम्बन्धिमहिषैः, पुरस्कृतःअश्वधिया अग्रतः कृतः, अत एव पलायमानः-धावितः, अश्वमुखानाम्-अश्वमुखसदृशमुखवतां वन्यपशुविशेषाणां, किन्नराणां वा, समूहो यस्मिंस्तादृशम् [ज्ञ]; पुनः त्रिविक्रममिव विष्णुमिव, पादाग्रनिर्गतत्रिपथगासिन्धुप्रवाहं पादाग्रात्प्रत्यन्तपर्वतात्, पक्षे चरणाग्रात् , निर्गताः-निःस्पन्दिताः, त्रिपथगायाः-स्वर्ग-मर्त्य-पातालरूपमार्गत्रयगामिन्याः; सिन्धोः-नद्याः, गङ्गाया इत्यर्थः, पक्षे त्रिपथगायाः-गङ्गानद्याः, सिन्धोः-सिन्धुनद्याश्च, प्रवाहा यस्मिंस्तादृशम् ; पुनः रथमिव चक्रवर्तिबलचर्णितासन्नभूतलं चक्रवर्तिबलेन-अखण्डमण्डलेश्वरसैन्येन, पक्षे रथाङ्गभूतं चक्रं तत्सम्बन्धिना वर्तिबलेन-अग्रधारा शक्त्या, चूर्णितं-पिष्टम् , आसन्नभूतलं-निकटभूमिपृष्ठं यस्य तादृशम् ; पुनः मेरुकल्पपादपालीपरिगतमपि मेरुकल्पानां-मेरुसदृशानां पादाना-प्रत्यन्तगिरीणां, पाल्या-पङ्कया, परिगतमपि-व्याप्तमपि, न मेरुकल्पपादपालीपरिगतमिति विरोधः, तत्परिहारे तु नमेरूणां-तदाख्यानां, कल्पानां-तदाख्यानां च, पादपानां-वृक्षाणाम् , आल्या-पतया, परिगतं-व्याप्तम् ; पुनः वनगजालीसंकुलमपि वन्यहस्तियूथपूर्णमपि, न वनगजालीसंकुलमिति विरोधः, तत्परिहारे तु नवानां-नवीनानां, नगानां-वृक्षाणां, जाल्या-समूहेन, संकुलं-व्याप्तम् [क]।
उपजातविस्मयं वैताड्यपर्वतावलोकनोत्पन्नाश्चर्यम् , पुनः तस्य प्रकृतस्य, शिखरिणः पर्वतस्य, स्वभावरमणीयासु खभावेन मनोहरासु, शिखरश्रेणीषु शिखरपतिष, पुनः पुनः अनेकवारम् , प्रहितदृशं व्यापारितनेत्रं, तं हरिवाहनम् , उद्दिश्य लक्ष्यीकृत्य, एकः, नग्नाचार्यः मङ्गलपाठकः, जयशब्दं जयकारं समुच्चार्य, अब्दध्वानजयिना मेघनादादधिकगम्भीरेण, खरेण, प्रक्रमागतं प्रकरणप्राप्तम् , इमं वक्ष्यमाणं, श्लोकं पद्यम् , अपठत् उच्चारितवान् , भो देव भो राजन् ! स्कन्धस्थविद्याधरश्रेणीय[क]स्य स्कन्धस्था-शिखरवर्तिनी, विद्याधरश्रेणी-विद्याधरपतिर्यस्य तादृशस्य; अस्य प्रत्यक्षस्य, भूमिभृतः पर्वतस्य, इह अस्मिन् शिखरप्रदेशे, किं दृश्यम् ? अपूर्वदर्शनयोग्य वस्तु सम्भवति, यस्य पर्वतस्य, समतां तुल्यताम् , अन्येऽपि गोत्राचलाः कुलपर्वताः, वहन्ति प्राप्नुवन्ति, धरित्रीभृतां पृथ्वीपतीनां पक्षे पर्वतानां मध्ये,
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तिलकमञ्जरी
१४१ आकर्ण्य चैनमुद्भिन्नपुलकः सहर्षमब्रवीत् समरकेतुः-'कुमार ! साध्वनेन मङ्गलपाठकेन पठितम् , किं दृश्यते ? किं च वर्ण्यते ? सकलकुलधराधरसाधारणगुणग्रामगरिमा गिरिरेषः । दर्शनीयो वर्णनीयश्च त्वमेको जगति येन निःसामान्यनिजचरितखर्वीकृतसर्वान्यभूभृता निजभुजादण्डमात्रसहायेन निर्गत्य शिबिरात् परिमितैरहोभिरावर्जितं विद्याधरचक्रवर्तित्वम् , अनुचरीकृताः खेचराधिपतयः, विधेयीकृतं विद्यादेवताचक्रम् , तदास्तां तावदस्य शिखरिणो दर्शनव्यावर्णनानि । तमेवावेदय यथावृत्तमादितः प्रभृति सर्वमात्मीयवृत्तान्तम् । दुष्टकरटी स तावत् लौहित्यतटपर्वताटव्यां भवन्तमपहृत्य व गतः ? क स्थितः ? त्वयापि ततोऽवतीर्य किं कृतम् ? किं दृष्टम् ? किमनुभूतम् ? क प्रदेशे कृतस्थितिना प्रेषितः स लेखः ? केन वा स शीघ्रमेव प्रापितः शिविरम् ? कुत ईदृशीनामाकाशगमनादिकार्यजनितजगद्विस्मयानामखिलानामपि महाप्रभावाणां विद्यानामधिगतिः ? कथमियमतर्कितैव विद्याधरचक्रवर्तिपदप्राप्तिः ? केन वा प्रसङ्गेन तत्र चैत्ररथवनविडम्बिनि जिनायतनकानने कृतमागमनम् ? का च सा त्रिलोकीतिलकभूता रूपगर्वमप
अनन्यतुल्यमहिमा अनन्यसाधारणमहत्त्वशाली, त्वं भगवान् हरिवाहन एव, द्रष्टव्यः दर्शनार्हः, अधःकृतखेचरेन्द्रतत्रतिना अधःकृता-न्यूनीकृता, खेचरेन्द्रततिः-विद्याधरेन्द्रगणो येन तादृशेन, येन अस्य प्रत्यक्षवर्तिवैताढ्यपर्वतस्य, मूर्भि मस्तके, ऊर्चभूमिकायामित्यर्थः, स्थितिः, बद्धा दृढीकृता, च पुनः, एनम् इमं श्लोकम् , आकर्ण्य श्रुत्वा, उद्भिन्नपुलका उद्गतरोमाञ्चः सन् , समरकेतुः, सहर्ष सप्रमोदम् , अब्रवीत् उक्तवान् , अनेन प्रत्यक्षवर्तिना, मङ्गलपाठकेन मङ्गलात्मकश्लोकपाठिना, साधु सम्यक्, पठितं व्यक्तमुक्तम् , सकलकुलधराधरसाधारणगुणग्रामगरिमा सकलकुलधराधरसाधारणः. निखिलकुलपर्वतसाधारणः, गुणग्रामगरिमा-गुणगणगौरवं यस्य तादृशः, एषः समीपतरवती, गिरिः वैताव्यपर्वतः, किं दृश्यते दृष्टिगोचरीक्रियते, च पुनः, किं वर्ण्यते स्तूयते, न किमपि दृश्यं स्तुत्यं वाऽत्रेत्यर्थः । किन्तु जगति लोके, एका एकमात्रं, त्वं भवान् , दर्शनीयः दर्शनार्हः, च पुनः, वर्णनीयः वर्णनाहः, असीति शेषः, निःसामान्य निजचरितखर्वीकृतसर्वान्यभूभृता निःसामान्यचरितैः-असाधारणस्वचरितैः, खर्वीकृताः-लघूकृताः, सर्वे-समस्ताः, अन्ये, भूभृतः-राजानो येन
नः निजभजादण्डमात्रसहायेन निजभुजादण्डमात्रं-खबाहुरूपदण्ड एव, सहायं-सहकारि यस्य तादृशेन, येन, शिबिरात् सैन्यावासात् , निर्गत्य निःसृत्य, परिमितैः परिगणितैः, अहोभिः दिनैः, विद्याधरचक्रवर्तित्वं विद्याधरसम्राट्त्वम् , आवर्जितं प्राप्तम् , पुनः खेचराधिपतयः विद्याधराधिपतयः, अनुचरीकृताः भृत्यतामापादिताः, पुनः विद्यादेवताचक्रं विद्याधिष्ठातृदेवगणः, विधेयीकृतं वश्यतामापादितं, तत् तस्माद्धेतोः, अस्य शिखरिणः पर्वतस्य, दर्शनव्यावर्णनानि दर्शनानि वर्णनानि, आस्ताम आसन्तामित्यर्थकमव्ययम् , तिष्ठन्तु निवर्तन्तामित्यर्थः । आदितः प्रभृति आरभ्य, सर्व समस्तम् , आत्मीयवृत्तान्तम् आत्मीयं-स्वकीयं, वृत्तान्तमेव-समाचारमेव, आवेदय, तावदिति वाक्यालङ्कारे । स प्रकृतः, तावदिति वाक्यालंकारे, दुष्टकरटी दुष्टहस्ती, लौहित्यतटपर्वताटव्यां लोहितस्य-ब्रह्मपुत्रनदस्य, अपत्यभूता नदी-लौहित्या, तत्तटवर्तिपर्वतसम्बन्धिन्याम् , अटव्यां-वने, भवन्तं त्वाम् , अपहृत्य अपहारकर्मतामापाद्य, क्व कस्मिन् स्थाने, गतः यातः, क्व कस्मिन् , स्थाने, स्थितः स्थिरीभूतः, ततः हस्तिनः, अवतीर्य अधस्तादागत्य, त्वयापि, किं कृतं किं विहितं, पुनः किं दृष्टं दृष्टिगोचरीकृतं, पुनः किम् अनुभूतम् अनुभवगोचरीकृतं, पुनः क्व कस्मिन् , प्रदेशे स्थाने, कृतस्थितिना स्थितेन, त्वयेत्यनुवर्तते, सः मत्प्राप्तः, लेखः पत्रं, शिबिरं सैन्यावासं, शीघ्रमेव प्रापितः उपस्थापितः, पुनः आकाशगमनादिकार्यजनितजगद्विस्मयानाम् आकाशगमनादिकायैः-आकाशविहारादिरूपाभिः-फलभूतक्रियाभिः, जनितः-उत्पादितः, जगतः-लोकस्य, विस्मयः-आश्चर्य याभिस्तादृशीनाम् , पुनः महाप्रभावाणाम अधिकशक्तिशालिनीनाम्, ईदृशीनाम् अनुभूयमानप्रकाराणाम् , अखिलानामपि सर्वासामपि, विद्यानां सिद्धीना, कुतः कस्मात, अधिगतिः प्राप्तिः, विद्याधरचक्रवर्तिपदप्राप्तिः विद्याधरसम्राट्पदप्राप्तिः, कथं केन प्रकारेण, अभूदिति शेषः, वा पुनः, केन प्रसङ्गेन उद्देशेन, चैत्ररथवनविडम्बिनि कुबेरोद्यानानुकारिणि, तत्र तस्मिन् , जिनायतनकानने जिनमन्दिरप्राङ्गणभूतारामे, आगमनं, कृतं विहितं, त्वयेति सर्वत्रानुषज्यते, च पुनः, त्रिलोकीतिलकभूता त्रिभुवनशिरोधार्या, पुनः
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टिप्पनक- परागविवृतिसंवलिता ।
हर्तुमिव पार्वती-कमलयोरुत्पादिता कमलयोनिना देवेन लावण्यैकवसतिः सकलस्यापि भवञ्चरणकमलानुवर्तिनो राजलोकस्य मान्या महाराजकन्या ? या तत्र कदलीगृहे गृहीतविरहिणीजनाकल्पा ज्ञापिता कुमारेण मत्स्वरूपम् [ग]।' इति सकौतुकेन पृष्टः समरकेतुना विहस्य हरिवाहनः सहर्षमुवाच - 'युवराज ! कथयामि यदि ते कौतुकम् अवहितो भव, प्रभूतमिदमाख्येयम्, अथवा वृथा ममाभ्यर्थनेयम् अयमेव भूना निरन्तराश्चर्यसरसो मदीयवृत्तान्तः करिष्यत्यवधानवन्तं भवन्तम् । तदा प्रत्यक्षमेव भवतस्तथा मदान्धः स गन्धवारणः स्कन्धदृढबद्धासनं शासनानन्तरमेव साध्वसादाधोरणैरकृत सत्वरोपसर्पणैरनर्पिताङ्कुशमवशमुद्वहन् मामद्रिगह्वरात् ततो निर्गत्य तेनैव गिरितटेन यथोत्तरप्रकटितजवः पृष्ठतो वहद्भिरनवरततर्जितजात्यवाहैर्वाहिनीपतिभिरन्यैश्चाबद्धपरिकरैः परिकारमेण्ठवण्ठप्रायैः प्रजविभिः सैन्ययोधैरनुबद्ध्यमानः कियन्तमपि मार्गमगमत् [घ] । अन्तरितेषु च निरन्तरैर्वनतरुस्तम्बैर्विलम्बितेषु सर्वेष्वनुपदिषु लोकेष्वेकेन मार्गवर्तिना
टिप्पनकम् - चैत्ररथं (थवनं ) - धनदोद्यानम् । आकल्पः - नेपथ्यम् [ग] । अनुबध्यमानः सातत्येनानुगम्यमानः [घ] ] ।
पार्वती- कमलयोः गौरी-लक्ष्म्योः, रूपगर्व सौन्दर्याभिमानम्, अपहर्तुमिव दूरीकर्तुमिव, लावण्यैकवसतिः लावण्यंरूपं, तदेव, एकवसतिः - एकमद्वितीयं निवासस्थानं यस्याः सा, कमलयोनिना कमलोद्भवेन, देवेन ब्रह्मणा, उत्पादिता सृष्टा, पुनः भवच्चरणकमलानुवर्तिनः त्वदीयपादपङ्कजानुसारिणः, सकलस्यापि सर्वस्यापि, राजलोकस्य नृपजनस्य, मान्या आदरणीया, सा दृष्टिगोचरीभूता; महाराजकन्या राजपुत्रिका या तत्र तस्मिन् कदलीगृहे कदलीमण्डपे, गृहीतविरहिणीजना कल्पा धृतवियोगिनीजनवेषा, कुमारेण भवता, मत्स्वरूपं मदीयं स्वरूपं, विज्ञापिता आवेदिता, मां परिचायितेत्यर्थः [ग] । इति इत्थं, सकौतुकेन औत्सुक्यपूर्णेन, समरकेतुना, पृष्टः जिज्ञासां ज्ञापितः सन्न, हरिवाहनः, विहस्य स्मितवदनो भूत्वा, सहर्ष हर्षपूर्वकम् उवाच उक्तवान् युवराज ! कुमार ! यदि ते तव, कौतुकम् औत्सुक्यं, तर्हि कथयामि विज्ञापयामि, अवहितः श्रोतुं सावधानो भव, इदम् अनुपदमुच्यमानम्, आख्येयम् आख्यायिकारूपेण वक्तव्यम्, प्रचुरम् अधिकम् । अथवा इयं तत्कालक्रियमाणा, मम, अभ्यर्थना अवधानप्रार्थना, वृथा व्यर्था, यतः भूना बाहुल्येन, निरन्तराश्चर्यसरसः अनवरतमाश्चर्यरसाष्ठतः, अयं वक्ष्यमाणप्रकारः, मदीयवृत्तान्त एव मदीय समाचार एव, भवन्तं त्वाम् अवधानवन्तं सावधानं, करिष्यति सम्पादयिष्यति । तदा तस्मिन् काले, भवतः तव, प्रत्यक्षमेव समक्षमेव, तथा तेन प्रकारेण, मदान्धः मदमूढः, स गन्धवारणः गन्धाढ्यगजः, स्कन्धदृढबद्धासनं स्कन्धे - ग्रीवाप्रदेशे, बद्धं - कल्पितं, दृढं - स्थिरम् आसनम् - उपवेशनं येन तादृशं, शासनानन्तरमेव दमनाव्यवहितोत्तरक्षणमेव, साध्वसात् भयात्, अकृतसत्वरोपसर्पणैः शीघ्रमनुपगतैः, आधोरणैः हस्तिपकैः, अनर्पिताङ्कुशम् समर्पिताङ्कुशम्, मां हरिवाहनम्, अवशम् अनधीनं यथा स्यात् तथा, स्वच्छन्दमित्यर्थः, उद्वहन् ऊर्ध्वभागे धारयन्, ततः तस्मात्, अद्रिगह्वरात् पर्वतनिकुञ्जत्, निर्गत्य निःसृत्य, तेनैव, गिरितटेन पर्वतैकदेशेन यथोत्तरप्रकटितजवः यथोत्तरम् - उत्तरोत्तरं, प्रकटितःप्रदर्शितः, जवः- वेगो येन तादृशः पृष्ठतः पश्चाद् भागतः, वहद्भिः गच्छद्भिः, अनवरत तर्जितजात्यवाहैः अनवरतंनिरन्तरं, तर्जिताः-भत्सिताः, जात्याः - प्रशस्ताः, वाहाः - अश्वा यैस्तादृशैः, वाहिनीपतिभिः सेनानायकैः च पुनः, आबद्धपरिकरैः कृतगात्रबन्धैः, परिकारमे ण्ठवण्ठप्रायैः कृतगात्रबन्धः, यद्वा, परिकाराः आयुधविशेषधारिणः, 'परिघकर' इति पाठे तु परिघायुधाः, ये मेण्ठाः- हस्तिपकाः, वण्ठाः, कुन्तायुघाः, तत्प्रायैः - प्रचुरैः, पुनः प्रजविभिः वेगोत्कर्षशालिभिः, अन्यैः तद्वयतिरिक्तैः, सैन्ययोधैः सेनासमवेतभटैः, अनुबध्यमानः सातत्येनानुगम्यमानः कियन्तमपि कतिपयमपि, मार्गम्, अगमत् लङ्घितवान् [घ] । च पुनः निरन्तरैः सान्द्रैः, वनतरुस्तम्बैः वनवृक्षगुल्मैः अन्तरितेषु अन्तर्हितेषु सर्वेषु समस्तेषु, अनुपदिषु पश्चाद् गामिषु लोकेषु जनेषु, विलम्बितेषु कृतविलम्बेषु सत्सु, मार्गवर्तिना मार्गस्थेन, पुनः विषमपाषाण
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तिलकमञ्जरी
१४३ विषमपाषाणपटलस्थपुटितावतारेण वनतरङ्गिणीश्रोतसा भग्नगमनत्वरस्तरसान्तरिक्षमुदपतत् । उत्पत्य चातिदूरमूरीकृतकुबेरदिङ्मुखाभिमुखयात्रो गात्रनिर्वापणाय परितः प्रकीर्णेन विस्तारिणा कराग्रशीकरजलासारेण निर्भरान्धकारितगगनगर्तः पुष्करावर्तजलद इव संवर्तकालमरुताहतो वेगमतिमहान्तमतनोत् [3]। तेन चास्य वेगातिशयेन संजातगुरुविस्मयोऽहं मुहुर्मुहुः कौतुकादधोमुखक्षिप्तदृष्टिरस्फुटोपलक्ष्यमाणग्रामनगरां कीटप्रायजनपदां दूर्वाप्रतानोपमानविततवेलावनखण्डां गण्डशैलप्रख्यविन्ध्य-सह्यप्रमुखभूधरामुरगकन्यकानिर्मोकसदृशमन्दाकिनीपुरःसरमहासरित्प्रवाहां नड्वलाकारमानसप्रभृतिदिव्यसरोवरां सर्वत एव चक्षुषा परिच्छिद्यमानविस्तारामतिदवीयस्तया रसातल इव प्रविष्टामन्धकूप इव निपतितां जातानुतापेन मधुरिपोराच्छिद्य बलिनेवात्मसंनिधावानीतामब्धिपर्यन्तामवनिमीक्षमाणः [च], कचित् समासन्नतया तपनमण्डलस्यातिदुःसहेन तापोष्मणा दह्यमानकायः, कचिदयत्नातपत्रतां गतैरम्भोदपटलैरुपरिविस्तार्यमाणमांसल
टिप्पनकम्-संवर्तकाल:-क्षयकालः [ङ] । नवलम्-अखातसरः [च] ।
पटलस्थपुटितावतारेण विषमेण निम्नोन्नतेन, पाषाणपटलेन-प्रस्तरराशिना, स्थपुटित--आवृतः, अवतारः-प्रवेशमार्गो यस्य तादृशेन, वनतरङ्गिणीस्रोतसा वननदीप्रवाहेण, भग्नगमनत्वरः विच्छिन्नगमनवेगः सन् , तरसा वेगेन, अन्तरिक्षं गगनम् , उदपतत् उच्छलितवान् , च पुनः, अतिदूरभ् अत्यन्तदूरम् , उत्पत्य उड्डीय, ऊरीकृतकुबेरदिङ्मुखाभिमुखयात्र: उरीकृता-स्वीकृता, कुबेरदिङ्मुखाभिमुखी-उत्तरदिगन्ताभिमुखी, यात्रा-प्रयाणं येन तादृशः, गात्रनिर्वापणाय शरीरशोधनाय, परितः सर्वतः, प्रकीणन प्रक्षिप्तेन, विस्तारिणा दीर्घण, करायशीकरजलासारेण शुण्डादण्डाग्रसम्बन्धिजलकणधारासम्पातेन, निर्भराधकारितगगनगर्तः निर्भरम्-अत्यन्तम् , अन्धकारितः-अन्धकारसमयीकृतः, गगनगर्तः-आकाशबिलं येन तादृशः, संवर्तकालमरुता प्रलयकालिकपवनेन, आहतः उद्धृतः, पुष्करावर्तजलद इव पुष्करावर्तसंज्ञकमेघविशेष इव, अतिमहान्तम अत्यधिकम् , वेगम् , आतनोत विस्तारितवान् |
ङच पुनः, अस्य बुद्धिसन्निकृष्टस्य गन्धगजस्य, तेन अनुपदवर्णितेन, वेगातिशयेन वेगाधिक्येन, संजातगुरुविस्मयः उत्पन्नात्यन्ताश्चर्यः, अहम् , मुहुर्मुहुः वारं वारम् , कौतुकात् औत्सुक्यात , अधोमुखक्षिप्तदृष्टिः अधोमुखम्-अधोदेशाभिमुखं, क्षिप्ता-प्रेरिता, दृष्टियेन तादृशः सन् , अस्फुटोपलक्ष्यमाणग्रामनगराम् अस्फुटम्-अव्यक्ताकारं यथा स्यात् तथा, उपलक्ष्यमाणाः-दृश्यमानाः, ग्रामाः-गृहसमूहाः, नगराणि च यस्यां तादृशीम् , पुनः कीटप्रायजनपदां कीटप्रायाः-कीटवदणुप्रमाणाः, जनपदाः-देशा यस्यां तादृशीम् , पुनः दूर्वाप्रतानोपमानविततवेलावनखण्डां दूर्वाप्रतानोपमानाः-दूर्वाख्यतृणपुञ्जतुल्याः, वितताः-विस्तृताः, वेलावनखण्डाः-तटवर्तिवनगणा यस्यां तादृशीम् , पुनः गण्डशैलप्रख्यविन्ध्यसाप्रमुखभूधरां गण्डशैलप्रख्याः-पर्वतच्युतस्थूलशिलातुल्याः, विन्ध्यसह्यप्रमुखाः-विन्ध्यसह्यप्रभृतयः, भूधराः- पर्वता यस्यां तादृशीम् , पुनः उरगकन्यकानिर्मोकसदृशमन्दाकिनीपुरस्सरमहासरित्प्रवाहाम् उरगकन्याकानिर्मोकसदृशाः-सर्पकन्याशरीरच्युतत्वतुल्याः, मन्दाकिनीपुरस्सराणां-गङ्गाप्रमुखानां, महासरितामहानदीनां, प्रवाहा यस्यां तादृशीम् , पुनः नङ्गलाकारमानसप्रभृतिदिव्यसरोवरा नडुलम्-अखातं सरः, तदाकाराः, मानसप्रभृतयः-मानसादयः, दिव्याः-उत्तमाः, सरोवरा:-कासारश्रेष्ठा यस्यां तादृशीम् ,सर्वत एव न त्वेकदेशतः, चक्षुषा नेत्रेण, परिच्छिद्यमानविस्तारा परिच्छिद्यमानः-मीयमानः, विस्तारः-दैर्घ्य यस्यास्तादृशीम् , पुनः अतिदवीयस्तया अत्यधिकदूरया, रसातले पाताले, प्रविष्टामिव कृतप्रवेशामिव, पुनः अन्धकूपे अन्धे-अन्धकारपूर्णे कूपे, निपतितमिव अधोगतामिव, पुनः जातानुतापेन उत्पन्नपश्चात्तापेन, बलिना तदाख्यदानवेन्द्रेण, मधुरिपोः विष्णोः, आच्छिद्य बलाद् गृहीत्वा, आत्मसन्निधौ स्वनिकटे, आनीतामिव उपस्थापितामिव, अब्धिपर्यन्तां समुद्रपर्यन्ताम् , अवनिं पृथ्वीम् , ईक्षमाणः अवलोकमानः [च। क्वचित कस्मिंश्चित् प्रदेशे, तपनमण्डलस्य सूर्यमण्डलस्य, समासन्नतया सन्निहिततया, अतिदुस्सहेन अतिदुःखसहेन, तपोष्मणा तदीयकिरणोष्णतया, दह्यमानकायः सन्तप्यमानशरीरः, पुनः क्वचित् कस्मिंश्चित् स्थले, अयत्नातपत्रतां अकृत्रिमच्छत्ररूपता, गतैः आपन्नैः, अम्भोदपटलैः मेघगणैः, उपरिविस्तार्यमाणमांसलच्छायः
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टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता। च्छायः, क्वचिदभ्रवर्त्मनाभिमुखमापतद्भिः सिद्धाध्वन्यमिथुनैः करिभयाद् दूरत एव विहितापसरणः, क्वचित तरलितोत्तरीयपटपल्लवेन तुङ्गगिरिशिखरनिर्झरवायुना स्वयमुद्भूततालवृन्तेनेवापनीतश्रमस्वेदजलकणः क्षणेनैवास्य पर्वतपतेरेकशृङ्गाख्यस्य शिखराप्रवर्तिनमाकाशप्रदेशमासादयम् [छ ] । दृष्ट्वा च निकटवर्तिनं पुरो वैताढ्यमीषद्गलितदाळ इति मनस्यकरवम् – 'एष कुञ्जरः केनाप्यसुरेण राक्षसेन वा पूर्वजन्मनि मया कृतं स्मृत्वा कमप्यपकारमुत्पन्नकोपेनानुप्रविश्य नीयते वश्यम , न हि पशूनां स्वरूपेणाकाशगमने कदाचिदस्ति शक्तिः, न चातिवेगादवगम्यते कियन्तमध्वानमहमनेनानीत इति, तदयमद्यापि यावदतिदूरं न याति क्षितिगोचरैरलङ्घयशिखरोच्छ्रायमचलं वा नैनमुल्लङ्घयति, पयोधिमध्ये द्वीपान्तरे वा न मां प्रापयति, तावदेनं व्यावर्तयामि' इति संप्रधार्य तिर्यगुन्नमितकूर्परः पाणिना दक्षिणेन जघनावनद्धां खड्गधेनुकामस्पृशम् [ज] ।
दृष्ट्वा च तां समुत्खन्यमानामखण्डितोल्लसदसितलोलांशुमालाकरालितदिगन्तामुत्पातविद्युतमिवाम्बरे विस्फुरन्ती स वारणः सहसैव मुक्तार्तभीषणनिनादः सपक्षशैल इव कुलिशोत्रासितस्तथैव स्कन्धबद्धासनं
उपरि-शिरोदेशे, विस्तार्यमाणा-प्रसार्यमाणा, मांसला-सान्द्रा, छाया-अनातपो यस्य तादृशः, पुनः क्वचित् कस्मिंश्चित् स्थाने, अभ्रवर्त्मना आकाशमार्गेण, अभिमुखं सम्मुखम् , आपतद्भिः-आगच्छद्भिः, सिद्धाध्वन्यमिथुनः सिद्धाः-सिद्धियुक्ताः, ये अध्वन्यः-पथिकाः, तन्मिथुनैः-तद् द्वन्द्वैः, करिभयात् हस्तिभयात् , दरत एव दूरादेव, विहितापसरणः कृतत्यागः; पुनः क्वचित् कस्मिंश्चित् स्थाने; तरलितोत्तरीयपटपल्लवेन तरलितः-चञ्चलितः, उत्तरीयपटपल्लवः-पल्लवकोमलोत्तरीयवस्त्रं येन तादृशेन; तुङ्गगिरिशिखरनिर्झरवायुना उन्नतपर्वतशिखरसम्बन्धिजलप्रवाहशीतलवायुना, स्वयमुद्भूततालवृन्तेनेव स्वयंपरप्रेरणमन्तरेणैव, उद्भूतेन-उत्कम्पितेन, तालवृन्तेनेव-तालव्यजनेनेवेत्युत्प्रेक्षा, अपनीतश्रमस्वेदजलकणः अपनीताः-दूरीकृताः, शोषिता इत्यर्थः,श्रमस्वेदजलकणाः-श्रमजनितस्वेदजलबिन्दवो यस्य तादृशः सन् , क्षणेनैव क्षणमात्रेण, एकशङ्कास्यस्य एकशृङ्गसंज्ञकस्य, अस्य बुद्धिसन्निहितस्य, पर्वतपतेः पर्वतराजस्य, शिखराग्रवर्तिनं शिखरोर्वस्थितम् , आकाशप्रदेशम् आकाशमार्गम् , आसादयं प्राप्तवान् [छ । च पुनः, पुरः अग्रे, निकटवर्तिनं समीपस्थं, वैताढ्यं तदाख्यपर्वतं, दृष्ट्वा अवलोक्य, ईषद्गलितदायः किञ्चिन्नष्टान्तर्बलः सन् , इति इत्थम् , मनसि हृदि, अकरवं विचारितवान् । केनापि अनवगतनाम्ना, असुरेण सामान्यदैत्येन, राक्षसेन वा क्रव्यादेन वा, पूर्वजन्मनि प्राग्भवे, मया कृतं कमपि, अपकारम् अप्रियकार्य, स्मृत्वा स्मरणगोचरीकृत्य, उत्पन्नकोपेन जातक्रोधेन, अनुप्रविश्य अन्तर्भूय, एषः अयं, कुञ्जरः हस्ती, वश्यं खवश्यतां, नीयते प्राप्यते, हि यतः, पशूनां पशुजातीयानां, स्वरूपेण स्वयम् , आकाशगमने आकाशविचरणे, शक्तिः सामर्थ्य, कदाचित् कदापि, न, अस्ति वर्तते, च पुनः, अतिवेगात् वेगातिशयाद्धेतोः, अहम् , अनेन हस्तिना, कियन्तं किं प्रमाणकम् , अध्वानं पन्थानम् , आनीतः लङ्गितः, इति न, अवगम्यते ज्ञायते, तत् तस्माद्धेतोः, अयं हस्ती, अद्यापि अधुनापि, यावत् , अतिदूरम् अधिकदूरदेशं, न, याति गच्छति, वा पुनः, क्षितिगोचरैः भूमिवासिभिः, मत्यैरित्यर्थः, अलवयशिखरोच्छायम् अलङ्घयः-लचितुमशक्यः, शिखरोच्छायः- उन्नतशिखरो यस्य तादृशम् , एनम् इभम् , अचलं पर्वतं, न, उल्लङ्घयति अतिक्रामति, पुनः पयोधिमध्ये समुद्रमध्ये, द्वीपान्तरे वा अन्यस्मिन् द्वीपे वा, मां न, प्रेरयति गमयति, तावत् एनम् इमं, हस्तिनं, व्यावर्तयामि अग्रगमनान्निवारयामि, इति इत्थं, सम्प्रधार्य निश्चित्य, तिर्यगुन्नमितकूपरः तिर्यक्-वकं यथा स्यात् तथा, उन्नमितः-उत्क्षिप्तः, कूर्परः-कराधःप्रदेशो येन तादृशः सन् , दक्षिणेन, पाणिना हस्तेन, जघनावनद्धां नितम्बपुरोभागनिबद्धां, खड्गधेनुकाम् असिपुत्रिकाम् , छुरिकामित्यर्थः, अस्पृशम् स्पृष्टवान् [ज]।
__ च पुनः, समुत्खन्यमानां समुद्भियमाणां, पुनः अम्बरे गगने, उत्पातविद्युतमिव उपद्रवजनकतडिदिव, अखण्डितोल्लसदसितलोलांशुमालाकरालितदिगन्ताम् अखण्डितम्-अविच्छिन्नं यथा स्यात् तथा, उल्लसन्त्या-उच्छ
गुमालया-श्यामलचपलकिरणश्रेण्या, करालितः-व्याप्तः, दिगन्तो यया तादृशी, विस्फरन्तीम् उद्भासमानां, तां छुरिकां, दृष्ट्वा, सः प्रकृतः, वारणः गजः, कुलिशोत्रासितः वज्रोद्वेजितः, सपक्षशैल इव पक्षान्वितपर्वत इव, सहसैव शीघ्रमेव, मुक्तार्तभीषणनिनादः मुक्तः-कृतः, आर्तः-दुःखपूर्णः, भीषणः-भयंकरः, निनादः-चीत्कारः पक्षे शब्दो येन
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समुद्वहन् मामुदधिगम्भीरे सरसि तस्मिन्नदृष्टपाराख्ये सत्वरोपसंहृतपुरोगमनमात्मानममुञ्चत् । पतनसमनन्तरमेव च तिरोभावमुपगते तत्र निरवलम्बनोऽहं पतनवेगा न्निमज्ज्य दूरमतिचिरादुन्मग्नोऽप्यजातसंक्षोभः पर्यायेण विहितायतोत्क्षेप - विक्षेपाभ्यां भुजाभ्यामनवरतमभिमुखाकृष्टसलिलस्तूर्णमेव तीर्त्वा सर उरोदन्ननीरं तीरदेशमस्यासादयम् [झ ] |
तत्र चारोहणसमयलग्नेन गात्रोद्धूलनरेणुना गगनगमनवेगश्रमविकीर्णेन च तस्य करिण: करा - शीकरजलेन कलुषीकृतं प्रक्षाल्य सुचिरमङ्गमुत्तीर्य मध्य । दुद्वाप्य निष्पीडिते निबिडमवगलित पर्युषिताङ्गरागविमले दुकूलवाससी कृत्वाऽऽचमनजलपानादिकर्म निविश्यैकस्य कूलासन्नवर्तिनो लतागुल्मस्य मूले मुहूर्त - मतिवाहितश्रमः स्वस्थचेतास्तथा शिलातलोपविष्टमे का किनमनिवारिता पतत्परुषमध्यंदिनानिललुप्यमानवपुषमनवरतजायमानकण्ठास्यशोषमात्मानमवलोक्य संजातविस्मयश्चिन्तितवान् [ अ ] 'अहो विरसता संसारस्थितेः, अहो विचित्रता कर्मपरिणतीनाम्, अहो यदृच्छाकारितायामभिनिवेशो विधेः, अहो भङ्गुरस्वभावता
टिप्पनकम् - उरोदनं वक्षःस्थलोर्ध्वप्रमाणम् [झ ] ।
तादृशः सन् तथैव पूर्ववदेव, स्कन्धवद्धासनं स्कन्धप्रदेशोपविष्टं, मामू, समुद्रहन् धारयन्, उदधिगम्भीरे समुद्रवन्निने, अदृष्टपाराख्ये अदृष्टपारेत्यन्वर्थनानि, तस्मिन् प्रकृते, सरसि कासारे, सत्वरोपसंहृतपुरोगमनम् सत्वरं - शीघ्रम्, उपसंहृतं निरुद्धम् अग्रगमनं येन तादृशम्, आत्मानं स्वम्, अमुञ्चत् पातितवान् । च पुनः पतनसमनन्तरमेव पतनाव्यवहितोत्तर कालमेव, तत्र तस्मिन्, गजे, तिरोभावम् अन्तर्धानम्, उपगते प्राप्ते, अहं पतनवेगात् पतनजनित. वेगवशात्, निमज्ज्य निमग्नो भूत्वा, अतिचिरात् अतिदीर्घकालात्, दूरम्, उन्मग्नोऽपि उद्गतोऽपि, अजातसंक्षोभः अनुत्पन्न - सम्भ्रमः पर्यायेण क्रमेण विहितायतोत्क्षेपविक्षेपाभ्यां विहितौ कृतौ आयतौ दीर्घौ, उत्क्षेप-विक्षेपौ-उत्तानवितानौ ययोस्तादृशाभ्यां भुजाभ्यां बाहुभ्याम्, अनवरतम् निरन्तरम्, अभिमुखाकृष्टसलिलः अभिमुखाकृष्टानिसम्मुखमानीतानि, सलिलानि - जलानि येन तादृशः, तूर्णमेव सत्वरमेत्र, सरः प्रकृतकासारं, तीर्त्वा लङ्घित्वा, उरोदननीरम् उरोदनम् - वक्षः प्रमितं, नीरं जलं यस्मिंस्तादृशम्, अस्य सरोवरस्य, तटप्रदेशम् आसादयं प्राप्तवान् [झ ] ।
तिलकमञ्जरी
च पुनः, तत्र तस्मिन् तीरदेशे, आरोहणसमयलग्नेन हस्तिपृष्ठोपरिगमनकालसंसक्तेन, गात्रोद्धूलनरेणुना गात्रेण-शरीरेण, यद् उद्भूलनं - धूलीमर्दनं, तत्सम्बन्धिन्या रेण्वा-धूल्या, च पुनः, गगनगमनवेगश्रमविकीर्णेन आकाशगमनायासविक्षिप्तेन, तस्य प्रकृतस्य, करिणः हस्तिनः, कराग्रशीकर जलेन शुण्डादण्डाग्रवर्त्तिजलकणेन, कलुषीकृतं मलिनीकृतम्, अङ्गम् शरीरावयवं सुचिरम् अतिदीर्घकालं, प्रक्षाल्य विशोध्य पुनः मध्यात् तत्तीराभ्यन्तरात्, उत्तीर्य ऊर्ध्वमागत्य, पुनः, निष्पीडिते संमर्दिते, निविडं अत्यन्तं पुनः अवगलितपर्युषिताङ्गराग विमले अवगलितैः - निष्पतितैः, पर्युषितैः-पूर्व लग्नैः, अङ्गरागैः - अङ्गविलेपनद्रव्यैः, विमले - मलशून्ये, दुकूलवाससी दुकूले- क्षौमे अधरीयोत्तरीयवस्त्रे, उद्वाप्य निष्कास्य, पुनः आचमनजलपानादिकर्म आचमनं मुखादिप्रक्षालनं, जलपानं पानीयपानं, तदादिकं कर्म क्रियां, कृत्वा सम्पाय, पुनः एकस्य, कूलासन्नवर्तिनः तटनिकटवर्त्तिनः, लतागुल्मस्य लतापुञ्जस्य, मूले अधोदेशे, निविश्य उपविश्य, मुहूर्त क्षणम्, अतिवाहितश्रमः उपशमितखेदः, अत एव स्वस्थचेताः प्रशान्तहृदयः, तथा तेन प्रकारेण, शिलातलो - पविष्टं शिलापृष्टोपविष्टं, पुनः एकाकिनम् असहायम्, अनिवारितापतत्परुषमध्यन्दिनानिललुप्यमानवपुषम् अनिवारितेन अनवरुद्धेन, परुषेण - तीव्रेण, मध्यन्दिनानिलेन - मध्याह्नका लिकवायुना, लुप्यमानं शोष्यमाणं, वपुः शरीरं यस्य तादृशम्, पुनः अनवरत जायमानकण्ठास्यशोषम् अनवरतं - निरन्तरं जायमानः- उत्पद्यमानः कण्ठास्यशोषः कण्ठमुखशोषणं यस्य तादृशम्, आत्मानं खम्, अवलोक्य अनुभूय, संजातविस्मयः उत्पन्नाश्चर्यः सन् चिन्तितवान् आलोचितवान् [ अ ] | संसारस्थितेः सांसारिकावस्थायाः, विरसता अतात्त्विकता, अहो आश्चर्यम्, पुनः कर्म परिणतीनां कर्मविपाकानां विचित्रता विलक्षणता, अहो आश्चर्यम्, पुनः विभवानां धनसंपदा, भङ्गुरस्वभावता नश्वरस्वभावता; अहो
१९ तिलक०
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टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता। विभवानाम् । अद्यैव तादृशि तृणीकृतत्रिदशपतिविमानसौन्दर्यसंपदि निजे सद्मनि सुहृत्समेतो वीणावादनादिविनोदजनितमानन्दमनुभवन्नवस्थितोऽहमद्यैव दुर्गगिरिकान्तारमध्यवर्ती परिवृतो वनश्वापदशतैरन्यवैदेशिकपथिकसामान्यमवस्थाविशेषम् [ट] । एवमस्वस्थमानसो मानयामि न तद् राज्यम् , न ते राजानः, न स मदान्धगजघटासहस्रसंकुलः स्कन्धावारः, न ते छत्रचामरादयो नरेन्द्रालंकाराः, न तानि श्रवणहारीणि चारणस्तुतिवचनानि, सर्वमेव स्वप्नविज्ञानोपमं संपन्नम् । आस्तां च तावदन्यदप्रत्यासन्नम् , आरोग्य येन स्कन्धमात्मीयमहमेतां भूमिमानीतः, यश्च साधं मयैवास्मिन्नगाधसलिले सरसि मग्नः, सोऽपि नास्ति प्राणभूतो मे पट्टवारणः । न ज्ञायते वराकस्य किं तस्य वृत्तम् , किमतिवेगपतनाद् गुरुत्वाञ्च कायस्य गत्वा दूरमस्य सरसो मूलपङ्के विलग्नो गाढम् , उतान्तराल एव गच्छन् हेलया समकालमेव प्रधावितैः शकलीकृत्य कवलितो महाकायैर्जलचरैः, उतापरमवस्थान्तरं किमपि संप्राप्तः [8] । किं चैकमिह शोच्यते, सर्व एवायमेवंप्रकारः संसारः । इदं तु चित्रं यदीदृशमप्येनमवगच्छतामीदृशीमपि भावानामनियतां विभावयतामीदृशानपि दशाविशेषाननुभवतां न जातुचिजन्तूनां विरज्यते चित्तम्, न विशीर्यते विषयाभिलाषः, न भङ्गुरीभवति
आश्चर्यम् । अद्यैव अस्मिन्नेव दिने, तृणीकृतत्रिदशपतिविमानसौन्दर्यसम्पदि तृणीकृता-तुच्छतामापादिता, त्रिदशपतिविमानस्य-इन्द्रव्योमयानस्य, सौन्दर्यसम्पत्-मनोहरत्यसम्पत्तिर्येन तादृशे, निजे स्वकीये, तादृशि तत्प्रकारके, सद्मनि गृहे, सुहृत्समेतः सुहृदा-समरकेतुसंज्ञकमित्रेण, समेतः-सहितः, वीणावादनादिविनोदजनितं वीणाक्वाणनादिक्रीडाजनितम् , आनन्दम् , अनुभवन् आखादयन् , अहम् , अद्यैव अस्मिन्नेव दिने, दुर्गगिरिकान्तारमध्यवर्ती दुर्गस्य-दुःखेन गन्तुं, शक्यस्य, गिरेः-पर्वतसम्बन्धिनः, कान्तारस्य-वनस्य, मध्यवर्ती-मध्यस्थः सन् , वनश्वापदशतैः वनसम्बन्धिहिंस्रपशुशतैः, परिवृतः परिवेष्टितः, अन्यवैदेशिकपथिकसामान्यम् इतरविदेशवासिपथिकसामान्यम् , अवस्थाविशेषं दुरवस्थाम् , अवस्थितः प्राप्तः [2] । एवम् अनेन प्रकारेण, अस्वस्थमानसः व्याकुलहृदयः, मानयामि मन्ये, तत् अनुभूतपूर्वराज्यं न, अस्तीति, शेषः, ते परोक्षभूताः, यद्वा परिचिताः, राजानः, न सन्तीति योगः, मदान्धगजघटासहस्रसंकुलः मन्दान्धानां-मदमूढानां, गजघटानां-गजयूथानां, सहस्रण, संकुल:- पूर्णः, सः अनुभूतपूर्वः, स्कन्धावारः शिबिरं राजधानी, वा न, अस्तीति शेषः । छत्रचामरादयः, ते अनुभूतपूर्वाः, नरेन्द्रालङ्काराः नृपभूषणानि, न सन्तीति शेषः, पुनः श्रवणहारीणि श्रोत्रप्रियाणि, तानि श्रुतपूर्वाणि, चारणस्तुतिवचनानि बन्दिजनस्तुतिवाक्यानि, न, सन्तीति शेषः । सर्वमेव अनुपदोक्तं समस्तमेव वस्तु, स्वप्नविज्ञानोपमं वनकालिकविज्ञानतुल्यं, मिथ्येति यावत् , सम्पन्नं सजातम् , अप्रत्यासन्नम् असन्निकृष्टम् , अन्यत् अनुपदवक्ष्यमाणाद् व्यतिरिक्तं वस्तु, तावत् , आस्तां तिष्ठतु । येन आत्मीयं स्वकीयं, स्कन्धं पृष्ठोपरि, आरोप्य अधिष्ठाप्य, एताम् इमाम् , भूमिम् , अहम् , आनीतः प्रापितः; च पुनः, यो मयैव, साधं सह; अगाधसलिले अतलस्पर्शजले, अस्मिन् अदृष्टपाराख्ये, सरसि कासारे, मग्नः अन्तर्लीनः, यो मम प्राणभूतः प्राणरूपः, सोऽपि पट्टवारणः प्रधानहस्ती नास्ति, न ज्ञायते निर्णीयते, वराकस्य दयनीयस्य, तस्य पट्टवारणस्य, किं कीदृशं, वृत्तं समाचारः, जातं वा, तथाहि अतिवेगपतनाद वेगातिशयेन पतनाद्धेतोः, च पुनः, कायस्य शरीरस्य, गुरुत्वाद्धेतोः, दूरं गत्वा, अस्य प्रकृतस्य, सरसः कासारस्य, मूलपङ्के अधस्तनकर्दमे, गाढम् अत्यन्तं, विलग्नः निषक्तः, किम् ? उत वितळते, हेलया क्रीडया, गच्छन् समकालमेव एककालमेव, प्रधावितैः प्रकर्षेण कृतधावनैः, महाकायैः विशालशरीरैः, जलचरैः मकरादिभिः, शकलीकृत्य खण्डशः कृत्वा, मध्य एव, कवलितः भक्षितः, उत वितळते, अपरम् उक्तावस्थाद्वयभित्र, किमपि अनिश्चितविशेषम् , अवस्थान्तरम् अवस्थाभेदं, सम्प्राप्तः सम्यगनुभूतवान् , सर्वत्र स पट्टवारण इत्यनुवर्तते [3] | च पुनः, इह संसारे, एकं प्रकृतहस्तिमात्रं, किं शोच्यते शोकलक्ष्यीक्रियते, सर्व एव समस्त एव, अयं संसारः, एवंप्रकारः एतादृशः, शोच्य इत्यर्थः । इदं तु चित्रम् आश्चर्यम् , यत् यस्माद् , एनं संसारम् , ईदृशं शोच्यम् - अवगच्छतामपि जानतामपि, पुनः भावानां वस्तूनाम् , ईदृशीम् एवंप्रकाराम् , अनित्यतां विनश्वरता, विभाव, यतामपि विचारयतामपि, पुनः ईदृशान् अनुपदोक्तप्रकारान् , दशाविशेषान् अवस्थाविशेषान् , अनुभवतामपि
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तिलकमञ्जरी
१४७ भोगवाञ्छा, नाभिधावति निःसङ्गतां बुद्धिः, नाङ्गीकरोति निर्व्याबाधनित्यसुखमपवर्गस्थानमात्मा । 'सर्वथातिगहनो बलीयानेष संसारमोहः' इति परिभाव्य मनसा मुहूर्तमुत्थाय तस्मात् प्रदेशात् स्वदेशदर्शनं प्रति निराशो निकटवर्तिनं ग्रामं नगरमाश्रमं वान्वेषयितुकामो निमित्तीकृत्य दिशमेकां शनैः शनैरुदचलम् [ड]।
प्रचलितश्च स्तोकमन्तरमेकत्रातिसूक्ष्मसुकुमारसिकते निरन्तरोद्भिन्नकुसुमगुच्छलतागुल्मोपगूढपर्यन्ते गलितहंसगलरोमस्तोमपश्मलक्ष्मातले मुक्ताशुक्तिसंपुटश्रेणिशारितोदरे विरतशर्वरीविरहशोककोकमिथुनानुभूयमानसान्द्रनिद्रे द्राधीयसि सरस्तीरसैकते विभाव्यमानव्यक्ततरविन्यासा दूरविच्छिन्नान्तरतया क्षितितलाधिकनिमग्नचरणतलतया च प्रकटितगतित्वरातिरेकाः सर्वदिङ्मुखाभिमुखीरनेका मानुषपदश्रेणीरपश्यम [ ढ] ।
दृष्ट्वा च किश्चिदुच्छ्रसितहृदयो निरीक्ष्य निपुणमल्पप्रमाणतया ललितसकलावयवतया च स्त्रीजन
टिप्पनकम्-शारितं कधुरीकृतम् [6]।
भुञ्जानामपि, जन्तूनां जीवानां, चित्तं मानसं, जातुचित् कदाचित् , न विरज्यते वैराग्यमाप्नोति, पुनः विषयाभिलाषः चारुशब्दः रूपरसगन्धाकाङ्क्षा, न विशीर्यते निवर्तते, पुनः भोगवाञ्छा विषयभोगेच्छा, न भङ्गुरीभवति विनश्यति, पुनः बुद्धिः, निःसङ्गताम् अनासक्तिम् , अभिधावति सत्त्वरमभिगच्छति, प्राप्नोतीत्यर्थः; पुनः आत्मा, निाबाधनित्यसुखं नियाबाधं-दुःखासम्भिन्नं, नित्यम्-अविनश्वरं यत् सुखं तद्रूपम् , अपवर्गस्थानं मोक्षस्थानं, न अङ्गीकरोति स्वीकरोति, अभिप्रैतीत्यर्थः, सर्वथा सर्वप्रकारेण, अतिगहनः अतिनिबिडः, अत्यन्तदुःखमयो वा, पुनः बलीयान् बलवत्तरः, एषः अनुभूयमानः, संसारमोहः संसारानुरागः, इति इत्थं, मनसा हृदयेन, परिभाव्य विचार्य, पुनः तस्मात् , प्रदेशात् लतागुल्मरूपात् स्थानात् , उत्थाय, स्वदेशदर्शनं प्रति वाभिजनदर्शनविषये, निराशः आशाशून्यः सन् , निकटवर्तिनं समीपस्थं, ग्राम नगरं, वा अथवा, आश्रमम् ऋषिस्थानम्, अन्वेषयितुकामः अन्वेषयितुमिच्छुः, एका दिशं निमित्तीकृत्य लक्ष्यीकृत्य, शनैः शनैः मन्दं मन्दम्, उदचलं प्रचलितवान् [ड]।
च पुनः, स्तोकं किञ्चित् , अन्तरं दूरं, प्रचलितः प्रयातः, एकत्र एकस्मिन् , सरस्तीरसैकते कासारतटवर्तिसिकतामयप्रदेशे, मानुषपदश्रेणी: मनुष्यपदपती 'अपश्यं दृष्टवानहम्' इत्यप्रेणान्वेति, कीदृशे ? अतिसूक्ष्मसुकुमारसिकते अतिसूक्ष्माः-अत्यणुप्रमाणा;, पुनः सुकुमाराः कोमलाः, सिकताः-वालुका यस्मिंस्तादृशे; निरन्तरोद्भिन्नकुसुमगुच्छलतागुल्मोपगूढपर्यन्ते पुनः निरन्तरोद्भिन्नैः-अविरतप्ररूढैः, कुसुमगुच्छैः-पुष्पस्तबकैः, लतागुल्मैः-लताभिः, गुल्मैः-स्कन्धरहिततरुभिश्च, यद्वा लतास्तम्बैः, उपगूढः-आवृतः, पर्यन्तः-प्रान्तभूमिर्यस्य तादृशे; पुनः, गलितहंसगलरोमस्तोमपक्ष्मलक्ष्मातले गलितेन-पतितेन, हंसगलरोमस्तोमेन-हंसगण्डस्थलसम्बन्धिरोमावल्या, पक्ष्मलं-संकुलं, मातलं पृथ्वीतलं यस्मिंस्तादृशे; पुनः मुक्ताशक्तिसम्पुटश्रेणिशारितोदरे मुक्ताशुक्तीनां ये सम्पुटाः-संश्लिष्टस्वरूपाणि, तदीयश्रेण्या-तदीयपक्या, शारितं-चित्रितम् , उदरं-मध्यं यस्य तादृशे; पुनः विरतशर्वरीविरहशोककोकमिथुनानुभूयमानसान्द्रनिद्रे विरतः-निवृतः, शर्वरी विरहशोकः-रात्रिकालिकविश्लेषदुःखं येषां तादृशैः, कोकमिथुनैः-चक्रवाकदम्पतिभिः, अनुभूयमाना-प्राप्यमाणा, सान्द्रा-निबिडा, निद्रा यस्मिंस्तादृशे; पुनः द्राधीयसि अतिदीर्घे, कीदृशीर्मानुषपदश्रेणी: ? विभाव्यमानव्यक्ततरविन्यासाः विभाव्यमानःप्रतीयमानः, व्यक्ततरः-स्फुटतरः, विन्यासः-विक्षेपो यासां तादृशीः, पुनः दूरविच्छिन्नान्तरतया दूरे विच्छिन्नं- मनम् , अन्तरम्अवकाशो यासां तादृशतया, पुनः, क्षितितलाधिकनिमग्नचरणतलतया क्षितितले-भूतले, अधिकम्-अत्यन्तं, निमग्नम्अन्तलीनं, चरणतलं-पादतलं यासां तादृशतया, प्रकटितगतित्वरातिरेकाः प्रकटितः-प्रत्यायितः, गतित्वरातिरेकः-गमनवेगातिशयो यासां तादृशीः, पुनः सर्वदिङ्मुखाभिमुखीः निखिलदिगन्ताभिमुखगत्वरीः, पुनः अनेकाः अधिकाः, [ ढ]।
च पुनः, दृष्ट्वा तद्दर्शनानन्तरं, किञ्चिदुच्छसितहृदयः ईषदुज्जीवितहृदयः, निपुणं सम्यक्, निरीक्ष्य अवलोक्य, अल्पप्रमाणतया अल्पाकारतया, च पुनः, ललितसकलावयवतया मनोहरसर्वावयवतया, एताः पदपङ्कयः, स्त्रीजनस्य स्त्रीव्यक्तीनामेव, सम्भवन्ति, न तु पुरुषाणां पुंव्यक्तीनाम् , इति इत्थं, विकल्प्य विविच्य, तासु पादपतिघु मध्ये, अतिशय
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टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता। स्यैता न पुरुषाणामिति विकल्प्य तास्वेकामतिशयरम्यदर्शनामागमोक्तप्रमाणप्रतिपन्नसकलसुकुमारावयवामब्जचक्रचामरच्छत्रानुकाराभिरनल्पबहुभिरविच्छिन्ननिम्नाभिः प्रशस्तलेखाभिर्लाञ्छितामनुसरन् पदानां पतिमधिकतराभिरामदर्शनमुत्पत्तिसदनमिव सौन्दर्यलक्ष्म्याः श्लक्ष्णसितसुकुमारसिकताकीर्णभूतलमन्योऽन्यलग्नाभिरविरलोद्भिन्नबालदशबलनीलच्छदकलापाच्छादिताभिर्दिवापि संबद्धसान्द्रसंध्यारागशेषं प्रदोषध्वान्तमिव तन्वतीभिरुत्तानकुसुमस्तबकतारकिततनुभिस्तरुणवनलताभिर्निरन्तरपिनद्धनिबिडनिःशेष भित्तिभागं रङ्गमिव जगत्रयारामव्रततिगणिकानां पानगोष्ठीगृहमिवाखिलमधुव्रतव्रातानामाकरमिव समस्तोदारपुष्पमकरन्दस्य स्वेच्छाविहारमन्दिरमिव मकरकेतोरेकमेलालतागृहमद्राक्षम् [ण]।
आगत्य चास्य द्वारदेशे कृताव स्थितिरूवस्थित एवाभ्यन्तरे झगिति पुञ्जीभूतमुद्द्योतमिव दावहुतभुजो जाततद्दाहकशक्तिभङ्ग पिशङ्गीभूतसर्वाङ्गैः स्फुरद्भिरन्तःस्फुलिङ्गैरिव लताभृङ्गनिकुरम्बैः करम्बिताभोगमशनि
रम्यदर्शनाम् अत्यन्तमनोहरदर्शनां, पुनः आगमोक्तप्रमाणप्रतिपन्नसकलसुकुमारावयवाम् आगमोक्तशास्त्रोक्तेन, प्रमाणेन, प्रतिपन्नाः-प्रमिताः, सुकुमाराः-कोमलाः, सकलाः-समस्ताः, अवयवा यस्यास्तादृशी, पुनः अब्जचक्रचामरच्छत्रानुकाराभिः कमल-चक्र-चामर-छत्रसदृशीभिः, क्वचिद् अब्जस्थाने 'अङ्कुश' इति पाठः, अनल्पबहुभिः अतिमात्रबहुभिः, अविच्छिन्ननिम्नाभिः निरन्तरगम्भीराभिः, प्रशस्तलेखाभिः शुभसूचकरेखाभिः, लाञ्छिताम् उपलक्षिताम् , एकां, पदानां पङ्क्षिपथश्रेणीम् , अनुसरन् अनुगच्छन् , एकम अद्वितीयम्, एलालतागृहम एलालतायाः 'एलाया लोकप्रसिद्धलतासम्बन्धिगृहम् , 'अद्राक्षं दृष्टवानहम्' इत्यग्रेणान्वेति, कीदृशम् ? सौन्दर्यलक्ष्म्याः सौन्दर्यसम्पदः, अभिरामदर्शनं मनोहरदर्शनम् , उत्पत्तिसदनमिव उत्पत्तिगृहमिव, पुनः श्लक्ष्णसितसुकुमारसिकताकीर्णभूतलं लक्ष्णाभिःचिक्कणाभिः, सिताभिः-शुभ्राभिः, सुकुमाराभिः-कोमलाभिः, सिकताभिः-वालुकाभिः, आकीर्ण-व्याप्तं भूतलं यस्य तादृशं, पुनः तरुणवनलताभिः प्रौढवनसम्बन्धिलताभिः, निरन्तरपिनद्धनिबिडनिःशेषभित्तिभाग निरन्तरम् अविरतम् , पिनद्धाः-संबद्धाः, निःशेषाः-समस्ताः, भित्तिभागाः- प्रान्तभागा यस्य तादृशम् , कीदृशीभिः ? अन्योऽन्यलग्नाभिः परस्परश्लिष्टाभिः, पुनः अविरलोद्भिन्नबालदशबलनीलच्छदकलापाच्छादिताभिः अविरलोद्भिन्नैः-निरन्तरप्ररूडैः, बालदशबलनीलैः-बाल:-बाल्यावस्थो यो दशबल:-"दानं शीलं क्षमाऽचौर्य ध्यानप्रज्ञाबलानि च । उपायः प्रणिधिनिं दश बुद्धबलानि वै ॥” इत्यन्यत्रोक्तानि दानादीनि दश बलानि यस्यासौ दशबल:-बुद्धः, तद्वन्नीलवणः, छदकलापैः-पत्रगणैः, आच्छादिताभिः-तिरोहिताभिः, पुनः दिवापि दिनेऽपि, सम्बद्धसान्द्रसन्ध्यारागशेष सम्बद्धः-संश्लिष्टः, सान्द्रस्य-निबिडस्य, सन्ध्यारागस्य-सन्ध्याकालिकरक्तकान्तेः, शेषो येन तादृशं, प्रदोषध्वान्तं रात्र्यारम्भकालिकमन्धकार, तन्वतीभिरिव विस्तारयन्तीभिरिवेत्युत्प्रेक्षा, पुनः उत्तानकुसुमस्तबकतारकिततनुभिः उत्तानानां-विकसितानां, कुसुमानां-पुष्पाणां, स्तबकैःगुच्छैः, तारकिता-सञ्जाततारका, तनुः-मूर्तिर्यासां तादृशीभिः, पुनः, कीदृशम् ? जगत्रयारामव्रततिगणिकानां भुवनत्रयोद्यानसम्बन्धिलतारूपवेश्यानां, रङ्गमिव नृत्यभवनमिव, पुनः अखिलमधुव्रतवातानाम् अशेषभ्रमरगणानां, पानगोष्टीगृहमिव पुष्परसपानार्थसमितिभवन मिव, पुनः समस्तोदारपुष्पमकरन्दस्य निखिलदिव्यपुष्परसरत्नस्य, आकरमिव उत्पत्तिस्थानमिव, पुनः मकरकेतोः कामदेवस्य, स्वेच्छाविहारमन्दिरमिव यथेच्छभ्रमणस्थानमिव [ण]।
__ च पुनः, आगत्य निकटमुपस्थाय, अस्य लतागृहस्य, द्वारदेशे प्रवेशनिर्गमस्थाने, कृतावस्थितिः कृतगतिनिवृत्तिः, ऊर्ध्वस्थित एव उत्थित एव, न तूपविष्टः, झगिति शीघ्रम् , अभ्यन्तरे तन्मध्ये, 'आलोकं प्रकाशम् , ईक्षितवान् दृष्टवान्' इत्यप्रेणान्वेति, कीदृशम् ? दावहुतभुजः वनाग्नेः, पुचीभूतं राशीभूतं, जाततद्दाहकशक्तिभङ्गं ध्वस्ततदीयदाहकशक्तिकम् , उद्दयोतमिव प्रकाशमिव पुनः पिशङ्गीभूतसर्वातः पिशङ्गीभूतं-कपिलीभूत, सर्व-समस्तम् , अङ्गं येषां तादृशैः, पुनः अन्तः मध्ये, स्फुरद्भिः सञ्चरद्भिः, लताभृङ्गनिकुरम्वैः लतासक्तभ्रमरगणैः, स्फुलिङ्गैरिव अग्निकणैरिवेत्युत्प्रेक्षा, करम्बिताभोगं करम्बितः-संकीर्णः, आभोगः-मण्डलं यस्य तादृशम् , पुनः अशनिपाताहतिविलीनसुरशैलशिखर
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तिलकमञ्जरी ....
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पाताहतिविलीनसुरशैलशिखरप्रवृत्तकाञ्चनरसप्रवाहबहलमालोकमीक्षितवान् [त] । उत्पन्नवन्यौषधिप्रकाशाशङ्कश्च क्षणमिव ध्यात्वा दिक्षु निक्षिप्तदृष्टिर्वारंवारं बालरक्ताशोकमूले कृतोर्वावस्थानाम् , अमलकान्तिजलतरङ्गिषु सर्वाङ्गभागेषु समकालसंक्रान्तैरासन्नवल्लीपुष्पफलपल्लवैलतेति संलक्ष्यमाणाम् , अल्पदिवसाधिरूढनवयौवनाम् [थ], अतिनिगूढदृढपर्वाभिरधिकतनुतारताम्रनखपरम्परापरिगतामाभिः कुसुमसायकशरशलाकाभिरिव विरहिजनहृदयशोणिताईशल्याभिः सरलसुकुमाराभिरङ्गुलीभिरुपेतेन साधुलोकेनेव स्निग्धत्वचाऽरुणालोकसुभगेन चरणाब्जयुगेनाचिरकालपीतं लाक्षारागरसमिव सफेनोद्गमं धाराभिरुद्रिन्तीम् [द], उद्भिन्नसुन्दरशोणबिन्दोर्वरकरिकलभशुण्डालदण्डस्य खण्डयितुमिव गुणाधिक्यदर्पमुत्सर्पिणा नूपुरपद्मरागकरकलापेन स्पृश्यमानपीनपरिमण्डलोरुयुगलाम् , एकतः कान्तिजलभृता नाभिमण्डलीकनकभाण्डेनान्यतोऽपि वृत्तानुपूर्वेण परिणाहिनोरुतूणीरद्वयेनाशून्यपार्श्व निशानमणिशिलाफलकमिव कुसुमास्त्रपत्रिणामतिविशाल
टिप्पनकम्-साधुलोकेनेव स्निग्धत्वचारुणा लोकसुभगेन एकत्र स्निग्धत्वमनोज्ञेन जनसौभाग्यवता, अन्यत्र स्नेहवञ्चर्मणा रक्ततेजसा [द]। शुण्डारः-हस्वा शुण्डा, 'शुण्डालः-प्रशस्तशुण्डा' [ध]।
प्रवृत्तकाञ्चनरसप्रवाहबहलम् अशनिपाताहत्या-वज्रपाताघातेन, विलीनस्य-द्रुतस्य, सुरशैलस्य-सुमेरुपर्वतस्य, शिखरात, प्रवृत्तेन-आपतितेन, काञ्चनरसप्रवाहेण-सुवर्णरसप्रवाहेण, बहलं-पूर्णम् [त]।
च पुनः, उत्पन्नवन्यौषधिप्रकाशाशङ्कइव उत्पन्नवन्यौषधेः-वनभवौषधेः, प्रकाशस्य, आशङ्का-संशयो यस्मिंस्तादृश इव, क्षणं किञ्चित् कालं, ध्यात्वा विचिन्त्य, दिक्षु, निक्षिप्तदृष्टिः-व्यापारितलोचनः, “एकां बालिका कन्यकाम् , अपश्यं दृष्टवानहम्' इत्यग्रेणान्वेति, कीदृशीम् ? बालरक्ताशोकमूले बालस्य-लघोः, रक्ताशोकस्य-रक्तवर्णाशोकतरोः, मूले–अधोदेशे, कृतोर्वावस्थानाम् उत्थिताम् , न तूपविष्टामित्यर्थः; पुनः अमलकान्तिजलतरङ्गिषु अमलकान्तिजलानाम्-उज्वलद्युतिरूपजलानां, तरङ्गो येषु तादृशेषु, सर्वाङ्गभागेषु सर्वावयवप्रदेशेषु, समकालसंक्रान्तैः युगपतसंलग्नैः, आसन्नवल्लीपुष्पफलपल्लवैः आसन्नानां-सन्निहितानां, वल्लीनां-लतानां, पुष्पैः फलैः पल्लवैश्च, लतेति संलक्ष्यमाणां प्रतीयमानाम् ; पुनः अल्पदिवसाधिरूढनवयौवनाम् अचिरोत्पन्नतारुण्याम् [थ]; पुनः अतिनिगूढदृढपर्वाभिः अतिनिगूढानिअतितिरोहितानि, दृढानि-बलवन्ति, पर्वाणि-ग्रन्थयो यासां तादृशीभिः, पुनः अधिकतनुतारताम्रनखपरम्परापरिगताग्राभिः अधिकतन्वीभिः-अतिकृशीभिः, ताराभिः-स्वच्छाभिः, ताम्राभिः-रक्ताभिः, नखपरम्पराभिः-नखपतिभिः, परिगतंव्याप्तम् , अग्रम्-अन्यभागो यासां तादृशीभिः, पुनः विरहिजनहृदयशोणिताशल्याभिः विरहिजनानां-वियोगजनितकामावस्थाविशेषसहितानां जनानां, यद् हृदयस्य शोणितं-रुधिरं, तेन आद्र-क्लिन्नं, शल्य-शल्यतुल्याग्रभागो यासां तादृशीभिः, कुसुमसायकशरशलाकाभिरिव कुसुमसायकस्य-कामदेवस्य, शरशलाकाभिरिव-बाणलेखाभिरिव, सरलसुकुमाराभिः सरलाभिः-ऋज्वीभिः, सुकुमाराभिः-कोमलाभिश्च, अङ्गुलीभिः, उपेतेन सहितेन, पुनः साधुलोकेनेव सज्जनेनेव, स्निग्ध त्वचा चिक्कणचर्मणा, अरुणालोकसुभगेन रक्तप्रकाशजनप्रियेण, पक्षे स्निग्धत्वचारुणा स्निग्धत्वेन वात्सल्येन, चारुणामनोहरेण, लोकसुभगेन जनप्रियेण, चरणालयुगेन चरणकमलद्वयेन, अचिरकालपीतं किञ्चित्पूर्वकालपीतं, सफेनोद्गमं विकृतरसोद्गमसहितं, लाक्षारागरसं लाक्षासम्बन्धिविलेपनरक्तद्रव्यं, धाराभिः प्रवाहैः, उद्गिरन्तीमिव उद्वमन्तीमिव [द] पुनः उद्भिन्नसुन्दरशोणबिन्दोः उद्भिन्नः-उद्गतः, सुन्दरः, शोणबिन्दुः-रक्तबिन्दुर्यस्मिंस्तादृशस्य; तारुण्ये हि हस्तिनो देहे रक्तबिन्दवो भवन्ति, वरकरिकलभशुण्डालदण्डस्य प्रशस्तत्रिंशदब्दकहस्तिशिशुसंबन्धिप्रशस्तशुण्डारूपदण्डस्य, गुणाधिक्यदर्प गुणोत्कर्षाभिमानं, खण्डयितुमिव निराकर्तुमिव, उत्सर्पिणा उद्भासिना, नूपुरपद्मरागकरकलापेन पादकटकवतिरक्तमणिकिरणनिकरण, स्पृश्यमानपीनपरिमण्डलोरुयुगलां स्पृश्यमान-सम्पृच्यमानं, पीनं-स्थूलं, परिमण्डलं-वर्तुलम् , ऊल्युगलं-जङ्घाद्वयं यस्यास्तादृशीम् ; पुनः एकतः एकभागे, कान्तिजलभृता कान्तिरूपजलपूर्णेन, नाभिमण्डलीकनकभाण्डेन नाभिचक्ररूपेण सुवर्णपात्रेण, पुनः अन्यतोऽपि अन्यभागेऽपि, वृत्तानुपूर्वेण वृत्तं-वर्तुलम् ,
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टिप्पनक - परागविवृतिसंवलिता ।
मसृणमांसलाभोगं जघनभागमुद्वहन्तीम् [ध ], अविरलविभाव्यमानमरकतेन्द्रनील कुरुविन्दशकलया लब्धुमन्तमिव समन्ततः पर्यन्तेषु भ्रान्तया वेलयेवातिदूरप्रवृद्धस्य शृङ्गारजलधेः समदसारस क्रौन कलविलापया काञ्चितया वलयितविशाल श्रोणिपुलिनाम् [ न ], अगाधनाभिविवरवारितप्रसरामभिनवागतेनाक्षपटलमास्थाय कायस्थेन तरुणिम्ना तत्क्षणाधिगतराज्यस्य रतिपतेरसिताक्षर श्रेणिमिव दर्शितामतिशयश्लक्ष्णसुकुमाररेखा रोमराजिमुदरेणोद्वहन्तीम् [प], ऊर्ध्वरेखाकाररोमावली समविभक्तोभयविभागस्य मध्येऽधिकतनोरतिविशालसारिफलकस्योदरोद्देशस्य शिरसि जातान्योऽन्यघट्टनेन स्वर्णशारद्वयेनेव सुवृत्तकठिनपीनपृष्ठेन स्तनपीठोभयेन स्फुटावेदितमनोभवविजयाम् [फ ], उपरिपर्यस्तकर्णाभरणप्रभाकिरणसंभारेण तद्भरादिवाभितः स्रस्तांशभागेन भिन्नहरितालरोचिषा भुजलताद्वयेन द्विगुणित प्रलम्बचम्पकप्रालम्बवैकक्ष्यकाम् [ब],
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टिप्पनकम् - अभिनवागतेनाक्षपटलमास्थाय कायस्थेन तरुणिम्नाऽसिताक्षरश्रेणिमिव एकत्र कायस्थेनअक्षरजीविना, अक्षपटलं-करणस्थानम् अध्यास्य, अन्यत्र तारुण्येन शरीरवर्तिना, अभिनवायातेन, अक्षपटलम् - इन्द्रियसंघातमध्यारुह्य [ प ] | रेखा - राजि:, उभयत्रापि, शारद्वयेन शारियुग्मेन [ फ ] । वैकक्ष्यकं-स्कन्धलम्बिसूत्रम् [ब] ।
अनुपूर्व - पूर्वपूर्वभागो यस्य तादृशेन, परिणाहिना दीर्घेण, ऊरुतूणीरद्वयेन जङ्घारूपनिषङ्गद्वयेन, अशून्यपार्श्वम् अशून्यंसमन्वितं पार्श्व - समीपं यस्य तादृशं पुनः कुसुमात्रपत्रिणां कुसुमास्त्रस्य कामदेवस्य, पत्रिणां शराणां निशानमणिशिलाफलकमिव निशानार्थ - तीक्ष्णीकरणार्थं, यत् मणिशिलाफलकं-मणिरूप शिलापट्ट तद्रूपमिव, पुनः अतिविशालमसृणमांसलाभोगम् अतिविशालः - अत्यन्तविस्तृतः, मसृणः - चिक्कणः, मांसल :- स्थूलश्च, आभोगः - मण्डलं यस्य तादृशं, जघनभागं कटिपुरोभागम्, उद्वहन्तीं धारयन्तीम् [ध ]; पुनः काञ्चिलतया लताकारमेखलया, वलयितविशालश्रोणिपुलिनां वलयितं वेष्टितं, विशालं, श्रोणिपुलिनं- कटिरूपमचिर जलोत्थितं स्थलं यस्यास्तादृशीं कीदृश्या ? अविरलविभाव्यमानमरकतेन्द्रनील कुरुविन्दशकलया अविरलं- निरन्तरं विभाव्यमानं दृश्यमानं, मरकतस्य - हरित मणेः, इन्द्रनीलस्य - नीलमणेः, कुरुविन्दस्य-रक्तवर्णमणिविशेषस्य, शकलं-खण्डं यस्यां तादृश्या, पुनः अन्तं पारं, लब्धुमिव प्राप्तुमिव, समन्ततः सर्व॑तः, पर्यन्तेषु नितम्बप्रान्तेषु भ्रान्तया विचरितया पुनः अतिदूरप्रवृद्धस्य अत्यन्तदूरमुच्छलितस्य शृङ्गारजलधेः शृङ्गाररससागरस्य, वेलयेव लहर्येवेत्युत्प्रेक्षा, पुनः समदसारस क्रौञ्चकलविलापया समदसारस क्रौञ्चवत्-मत्ततत्तदाख्यपक्षिविशेषवत्., कलविलापया- मधुरनिनादया [न]। पुनः कीदृशीम् ? उदरेण उदरद्वारा, रोमराजिं रोमावलीम्, उद्वहन्तीं धारयन्तीम्, कीदृशीम् ? अगाधनाभिविवरवारितप्रसराम् अगाधेन अतलस्पर्शेन, नाभिविवरेण-नाभिरन्ध्रेण, वारितः-अवरुद्धः, प्रसरः - विस्तारो यस्यास्तादृशीम्, पुनः अक्षपटलम् इन्द्रियसमुदायम्, आस्थाय अध्यास्य, पक्षे करणस्थानमध्याह्य, अभिनवागतेन अचिरागतेन, कायस्थेन शरीरस्थेन, पक्षे कायस्थाख्यलेखकुशलजातिविशेषेण, तरुणिना तारुण्येन, तत्क्षणाधिगतराज्यस्य तत्क्षणप्राप्ताधिपत्यस्य, रतिपत्तेः कामदेवस्य दर्शितां दृष्टिपथमुपस्थापिताम्, असिताक्षरश्रेणिमिव तद्राज्यप्रमापककृष्णवर्णाक्षर पङ्क्तिमिवेत्युत्प्रेक्षा, पुनः अतिशयश्लक्ष्णसुकुमाररेखाम् अतिशयेन श्लक्ष्णाचिक्कणा, सुकुमारा - कोमला च रेखा यस्यास्तादृशीम् ; [प]; पुनः कीदृशीम् ? स्तन पीठोभयेन स्तनात्मक प्रदेशद्वयेन स्फुटावेदितमनोभवविजयां स्फुटं स्पष्टं यथा स्यात् तथा, आवेदितः विज्ञापितः, मनोभवस्य - कामदेवस्य, विजयःउत्कर्षो यथा तादृशीम् कीदृशेन ? ऊर्ध्वरेखाकाररोमावली समविभक्तोभयविभागस्य ऊर्ध्वरेखाकारया - ऊर्ध्वगामिरेखारूपया, रोमावल्या - रोमपङ्कया, समं तुल्यं यथा स्यात् तथा, विभक्तः - पृथकृतः, उभयविभागः - दक्षिणवामविभागो यस्य तादृशस्य, पुनः मध्ये मध्यभागे, अधिकतनोः अत्यन्तकृशस्य, अतिविशाल सारिफलकस्य अतिदीर्घ- क्रीडनपाशकपट्टरूपस्य, उदरोद्देशस्य उदरप्रदेशस्य, शिरसि ऊर्वभागे, जातान्योऽन्यघट्टनेन उत्पन्नपरस्परसंघर्षेण, स्वर्णशारद्वयेनेव सुवर्णमयक्रीडनपाशकद्वयेनेवेत्युत्प्रेक्षा, सुवृत्तकठिन पीन पृष्ठेन सुवृत्तं सुवर्तुलं, कठिनं कठोरं, पीनं-स्थूलं च पृष्टं यस्य तादृशेन [फ ]; पुनः कीदृशीम् ? भुजलताद्वयेन लताकारबाहुद्वयेन, द्विगुणितप्रलम्बचम्पकप्रालम्बवैकक्ष्यां द्विगुणितं द्विगुणीकृतं, प्रलम्बं-- प्रकर्षेण लम्बमानं, चम्पकस्य - चम्पकाख्यपुष्पतरोः प्रालम्बं- कण्ठादुभयतो वक्षसि लम्बमानं पुष्यदाम,
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तिलकमञ्जरी
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अधिक बहन विस्तारिणा मरकतोर्मिकारागपटलेन घटितविनीलबाह्यपत्र परिपाटि द्विधा विपाट्य लक्ष्मीनिवासतामरसमिव निर्मितेनेव सरलकोमलारुणाङ्गुलीदलभृता पाणियुगलेन भ्राजमानाम् [भ], तत्कालमर्जितबलेन निर्जित्यार्पितं कन्दर्पेण हासमिव हारं हारमुरसा स्वधामधवलितस्तन कलशकैलाश भूधरं धारयन्तीम्, अदृष्टपूर्वपार्वणचन्द्रदर्शन कौतुकेन युगपदुपागताभ्यामुदयास्तसंध्यातपस्तबकाभ्यामिव विबुद्धबन्धूकपुष्पपुटपाटलाभ्यामधरोष्ठबिम्बाभ्यामधिष्ठितमुखीम् [म], उद्भावित रतिप्रीतिदर्पण भ्रमेण स्वच्छकान्तिना कपोलयुगलेन स्निग्धनीलालकलता इव छायागताः कुरङ्गमदपत्राङ्गुलीरुद्वहन्तीम् [य], अतिरेकतरलतारमायतस्फारधवलोदरशोभिशफरद्वन्द्वमिव भुवनत्रयजयाय विहितयात्रस्य मकरकेतोः शकुनसंपादना
टिप्पनकम् – ऊर्मिका- मुद्रिका, घटितविनीलबाह्यपत्रपरिपाटि इति निर्मितं क्रियाविशेषणम् [भ] | तत्कालमर्जितबलेन निर्जित्यार्पितं कन्दर्पेण हासमित्र हारं हारमुरसा । स्वधामधवलितस्तन कलश कैलाशभूधरम् हारं - मुक्ताकलापं कीदृशमिव ? हासमिव, किम्भूतं हासं ? हारं शङ्करसत्कम्, किम्भूतम् ? अर्पितम् केन ? कन्दर्पेण-कामेन, किं कृत्वा ? निर्जित्य - अभिभूय, कथं ? तत्कालं तस्मिन् काले, कीदृशं हारं हासं च ? स्वधाम्ना - स्वतेजसा, धवलितः, स्तनकलशावेव स्तनकलशवद् वा कैलाशभूधरो येन स तथोक्तस्तम् [म] |
वैकक्ष्यकाम्-यज्ञोपवीतन्यायेन उरसि तिर्यक्क्षप्तमाल्यं च यस्यास्तादृशीम् कीदृशेन तेन ? उपरिपर्यस्तकर्णाभरणप्रभाकिरणसम्भारेण उपरि पर्यस्तः - ऊर्ध्वविकीर्णः, कर्णाभरणप्रभारूपाणां कर्णालङ्कारकान्तिरूपाणां, किरणानां, सम्भारः - राशि - र्यस्य तादृशेन, पुनः तद्भरादिव कर्णाभरणप्रभाभारादिव, अभितः सर्वतः स्रस्तांशभागेन स्रस्तः- पतितः, अंशभागःस्कन्धभागो यस्मिंस्तादृशेन, पुनः भिन्नहरितालरोचिषा भिन्नस्य - चूर्णितस्य, हरितालस्येव तदाख्यौषधेरिव, रोचिः- पीतकान्तिर्यस्य तादृशेन [ब]; पुनः कीदृशीम् ? पाणियुगलेन हस्तद्वयेन भ्राजमानां शोभमानाम् कीदृशेन ? अधिकबहलेन अतिप्रचुरेण, विस्तारिणा परितः प्रसारिणा, मरकतोर्मिकारागपटलेन मरकतमणिमयाङ्गुलीयककान्तिकलापेन, पुनः लक्ष्मीनिवासतामरसं श्रीदेवीनिवासभूतकमलं, द्विधा द्वाभ्यां प्रकाराभ्यां विपाट्य विदार्य, घटितविनीलबाह्यपत्र परिपाटि घटिता सम्पृक्ता, विनीला - अतिनीलवर्णा, बाह्या - बहिः स्थिता, पत्रपरिपाटी - पत्राकाररचनापतिर्यस्मिंस्तादृशं यथा स्यात् तथा, निर्मितेनेव रचितेनेवेत्युत्प्रेक्षा, सरलकोमलारुणाङ्गुलीदलभृता सरलानि - ऋजूनि, कोमलानि, अरुणानि-रक्तानि च यानि अङ्गुलीरूपाणि दलानि पत्राणि, तद्भृता तद्धारयित्रा [भ]; पुनः कीदृशीम् ? उरसा वक्षसा, हारं मुक्तामाल्यं धारयन्तीम्, कीदृशम् ? अर्जितबलेन अतिशययुक्तसामर्थ्येण, कन्दर्पेण कामदेवेन, निर्जित्य विजित्य तत्कालं तस्मिन् क्षणे, अर्पितं समर्पितं, हारं शङ्करसत्कं हासमिवेत्युत्प्रेक्षा, कीदृशं हारे हासं च ? स्वधामधवलितस्तन कलशकैलाशभूधरं स्वधाम्ना - स्वकान्त्या, धवलितः - शुभ्रीकृतः, स्तनकलशरूपः - कलशाकारस्तनरूपः कलशाकारस्तनवद् वा, कैलाशभूधरः–कैलाशपर्वतो येन तादृशम् ; पुनः कीदृशीम् ? अधरोष्ठ बिम्वाभ्यां निम्नोध्वष्ठरूपविम्बफलाभ्याम्, अधिष्ठितमुखीम् आश्रितवदनाम्, कीदृशाभ्याम् ? अदृष्टपूर्वपार्वणचन्द्रदर्शन कौतुकेन अदृष्टपूर्वस्य - पूर्वमदृष्टस्य, पार्वणचन्द्रस्य तन्मुखरूपपूर्णिमाचन्द्रस्य, दर्शन कौतुकेन दर्शनौत्सुक्येन युगपदुपागताभ्याम् एककालोपस्थिताभ्याम्, उदयास्तसन्ध्यातपस्तबकाभ्यामिव उदयास्तसम्बन्धिसन्ध्याकालि करक्तातपपुजाभ्यामिवेत्युत्प्रेक्षा; पुनः विबुद्धबन्धूकपुष्पपुटपाटलाभ्यां विबुद्धस्य - विकसितस्य, बन्धूकपुष्पस्य - तदाख्यरक्तपुष्पस्य यत् पुटं - संश्लिष्टस्वरूपं, तद्वत् पाटलाभ्यां रक्ताभ्याम् [म]; पुनः कीदृशीम् ? उद्भावित रतिप्रीतिदर्पणभ्रमेण उद्भावितः - स्वस्मिन्नुत्पादितः, रतेः प्रीतेः - रतिनान्याः प्रीतिनाम्याश्च कामदेवपनयाः, दर्पणयोः-आदर्शयोः, भ्रमो येन तादृशेन, स्वच्छकान्तिना विमलद्युतिना, कपोलयुगलेन गण्डद्वयेन, कुरङ्गमदपत्राङ्गुलीः कुरङ्गमदस्य- मृगमदस्य, कस्तूरिकाया इत्यर्थः, याः पत्राङ्गुल्यः- पत्राकाररचनाः, ताः, उद्वहन्तीं धारयन्तीम्, कीदृशीः ? का इव ? छायागताः प्रतिबिम्बरूपेणापतिताः, स्निग्धनीलालकलता इव सरसनीलवर्णचूर्णकुन्तललता इवेत्युत्प्रेक्षा [ य ]; पुनः कीदृशीम् ? अभिमुखं सम्मुखं, नयनोत्पलद्वन्द्वं नयनकमलद्वयं दर्शयन्तीं दृष्टिपथमवतारयन्तीम्, कीदृशम् ? अतिरेकतरलतारम् अतिरेकेण - अतिशयेन, तरला-चञ्चला, तारा - कनीनिका यस्मिंस्तादृशं पुनः भुवनत्रय
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टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता । र्थमुत्पादितं दैवेन नयनोत्पलद्वन्द्वमभिमुखं दर्शयन्तीम् [र], अच्छमणिवालुकापुलिनशङ्कया निशि ललाटमध्यमधिशयितस्य हिमकरकुरङ्गस्य शृङ्गकोटिभ्यामिव तिर्यगुभयतः पर्यस्ताभ्यामसितकुटिलायताभ्यां भ्रूवल्लरीभ्यामुद्भासिताम् , अधिकतरचारुतारोपणाय संचारयितुमतनिष्ठमोष्ठरुचकरागमिव लोचनान्तयोरनवरतकृतगतागतेनात्यन्तसुरभिणा श्वासपवनेन निबिडपुष्पापीडपरिमलहृतानि दूरादेव मधुकरकुलानि स्तम्भयन्तीम् [ल], अधिगतसमस्ताम्भोजगुणसंपदापि नखमणिमयूखोद्भासितेन दक्षिणेतरपाणिना गृहीतचारुपुटकिनीपत्रपुटामासन्नवल्लिविटपेषु पुष्पावचयमाचरन्तीम् , एकाकिनीमेकां बालिकामपश्यम् [व]| .
तस्याश्च दिग्व्यापिना तेन दीप्तिपटलेन रूपलावण्ययौवनपुरोगैश्च मित्रभावमेकत्रागतैरङ्गलतागुणैनितान्तमानीतविस्मयोऽहं मनस्यकरवम्
"ग्रहकवलनाद् भ्रष्टा लक्ष्मीः किमृक्षपतेरियं, मदनचकितापक्रान्ताऽब्धेरुतामृतदेवता। ___ गिरिशनयनोदचिर्दग्धान्मनोभवपादपाद्, विदितमथवा जाता सुभूरियं नवकन्दली ॥ १ ॥
टिप्पनकम्-रुचको-मणिः [ ल] ।
जयाय त्रिभुवनजयोद्देशेन, विहितयात्रस्य प्रयातस्य, मकरकेतोः कामदेवस्य, शकुनसम्पादनार्थ शुभसूचकनिमित्तसिद्ध्यर्थ, दैवेन भाग्येन, उत्पादितम् , आयतस्फारधवलोदरशोभिशफरद्वन्द्वमिव आयतेन-दीर्घेण, स्फारधवलेनअतिशुभ्रेण, उदरेण शोभनशील, शफरद्वन्द्वं-मत्स्यविशेषयुगलमिवेत्युत्प्रेक्षा [र] पुनः कीदृशीम् ? असितकुटिलायताभ्याम् असिताभ्यां- कृष्णवर्णाभ्यां, कुटिलाभ्यां- वक्राभ्याम् , आयताभ्यां- दीर्घाभ्यां च, भ्रूवल्लरीभ्यां नेत्रोपरितनरोमराजिलताभ्याम् , उद्भासिताम् उद्दीपिताम् , कीदृशीभ्याम् ? निशि रात्रौ, अच्छमणिवालुकापुलिनशङ्कया उज्वलमणिरूपवालुकापुलिनशङ्कया-उज्वलमणिरूपवालुकासम्बन्ध्यचिरजलनिर्गतस्थलशङ्कया, ललाटमध्यं भालमभ्यम् , अधिशयितस्य प्रसुप्तस्य, हिमकरकुरङ्गस्य चन्द्रमृगस्य. उभयतः भागद्वये, तिर्यक कुटिलं यथा स्यात् तथा, पर्यस्ताभ्यां प्रकीर्णाभ्यां, शृङ्गकोटिभ्यामिव शृङ्गाग्रभागाभ्यामिवेत्युत्प्रेक्षाः पुनः कीदृशीम् ? अधिकतरचारुतारोपणाय अत्यधिकसौन्दर्यसम्पादनाय, अतनिष्ठम् अतिसान्द्रम् ; ओष्ठरुचकरागम् रुचकाख्यरक्तमणिसदृशौष्टरक्तकान्ति, लोचनान्तयोः अपाङ्गप्रदेशयोः, सञ्चारयितुं संक्रमयितुम् अनवरतकृतगतागतेन निरन्तरकृतगमनागमनेन, पुनः अत्यन्तसुरभिणा अत्यन्तसुन्दरगन्धशालिना, श्वासपवनेन नासिकामारुतेन, निबिडपुष्पापीडपरिमलहृतानि निबिडेन-सान्द्रेण, पुष्पापीडेन पुष्पमयशिरोमाल्येन, हृतानि-आकृष्टानि, मधुकरकुलानि भ्रमरगणान् , स्तम्भयन्ती निवारयन्तीम् ; [ल] पुनः दक्षिणेतरपाणिना वामहस्तेन, गृहीतचारुपुटकिनीपत्रपुटां गृहीतं-धृतं, चारु-मनोहरं, पुटकिन्याः-कमलिन्याः, पत्रपुट-पुटाकारं पत्रं यया तादृशीम् , कीदृशेन ? अधिगतसमस्ताम्भोजगुणसम्पदापि अधिगता-गृहीता, समस्ता-सममा, अम्भोजस्यकमलस्य, गुणसम्पत्-गुणसमृद्धिर्येन तादृशेनापि, नखमणि द्रासितेन न सूर्यकिरणविकासितेन इति विरोधः, तत्परिहारस्तु-नखरूपाणां मणीनां मयूखैः-किरणैः, उद्भासितेन-उज्ज्वलितेन; पुनः कीदृशीम् ? आसन्नवल्लिविटपेषु सन्निहितलतावृक्षेषु, पुष्पावचयं पुष्पत्रोटनम् , आचरन्तीं कुर्वती, पुनः एकाकिनीम् असहायाम् [व]।
च पुनः, तस्याः प्रकृतबालिकायाः, दिग्व्यापिना दिग्विस्तारिणा, तेन अनुपदमनुभूतेन, दीप्तिपटलेन कान्ति कलापेन, च पुनः, रूपलावण्ययौवनपुरोगैः रूपसौन्दर्यतारुण्यप्रमुखैः, एकत्र तदीयशरीररूपे एकस्मिन् स्थाने, मित्रभावं मित्रताम् , आगतैः आपन्नैः, अङ्गलतागुणैः लताकाराङ्गगुणेः, नितान्तम् अत्यन्तम् , आनीतविस्मयः अनुभाविताश्चर्यः, अहं हरिवाहनः, मनसि वहृदि, अकरवम् आलोचयम् ।
इयं पुरोवर्तिनी तरुणी, ग्रहकवलनाद राहुग्रहकर्तृकाद् ग्रासाद्, भ्रष्टा अधश्च्युता, ऋक्षपतेः ताराधिपतेः, चन्द्रस्येत्यर्थः, लक्ष्मीः-शोभा, किम् ? उत अथवा, मदनचकिता मन्मथसम्भ्रान्ता, अत एव, अब्धेः समुद्रात् , अपक्रान्ता निर्गता, अमृतदेवता पीयूषाधिष्ठात्री देवता, विदितं ज्ञातं, यत , इयं पुरोवर्तिनी, सुभ्रूः सुष्ठु ध्रुवौ नेत्रोपरितनरोमराजी
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तिलकमञ्जरी
१५३ जानीथ श्रुतशालिनौ खलु युवामावां प्रकृत्यर्जुनी, त्रैलोक्ये वपुरीगन्ययुवतः संभाव्यते किं क्वचित् । एतत् प्रष्टुमपास्तनीलनलिनश्रेणीविकासश्रिणी, शङ्केऽस्याः समुपागते मृगदृशः कर्णान्तिकं लोचने ॥२॥" [श] ।
निर्वर्ण्य चातिचिरकालमालपितुकामस्तदभिमुखोऽहमभवम् । सापि मां तथागत्य द्वारदेशे कृतावस्थानमेकाकिनमाबद्धनिश्चललक्ष्येण चक्षुषा प्रत्येकमवयवानवलोकयन्तमवलोक्य समुपजातसाध्वसा सहसैव प्रबल. मारुताहता बालकदलीकन्दलीव कम्पितुमारब्धा । दृष्ट्वा च तां तथाविधामुपजातकरुणोऽहं विधायाकार संवरणमर्पितनिर्विकारस्तिमितदृष्टिस्तन्मुखारविन्दे स्थानस्थित एव तां शनैरवदम्— 'बालिके! का त्वम् , किमर्थमेकाकिनी प्रविष्टा शून्ये लताजालकेऽस्मिन्नकस्मादेवमुद्धान्तचित्ता भीतेव दिलु क्षिपसि विकसितेन्दीवरदलदामदीर्घान् दृष्टिपातान् [प] । किं च मां दृष्टाऽनिष्टशकिनीवात्मनो वारंवारमपवारिततनुस्तनीयसा
टिप्पन कम्-उदर्चिः-अग्निः 'जानीथ' इत्यादिश्लोकः, श्रुतशालिनौ श्रुतं-शास्त्रं श्रवणं च । प्रकृत्यर्जुनी स्वभावेन सरले धवले। कर्णान्तिकं श्रवणसमीपम् [श] ।
यस्यास्तादृशी, गिरिशनयनोदर्चिर्दग्धाद गिरिशस्य-शिवस्य, नयनरूपेण, उदर्चिषा-उद्गतम् अर्चिः-ज्वाला यस्मात् तेन, अग्निनेत्यर्थः, दग्धाद् भस्मीकृताद्, मनोभवपादपात् कामदेवरूपवृक्षाद् , जाता उत्पन्ना, नवकन्दली नव्याङ्कुरः, अस्तीति शेषः अत्र सदेन्हालङ्कारः॥
जानीथ श्रुतशालिनौ खलु युवामावां प्रकृत्यर्जुनी । त्रैलोक्ये वपुरीगन्ययुवतेः सम्भाव्यते किं क्वचित् ॥ एतत्प्रष्ट नपास्तनीलनलिनश्रेणीविकासश्रिणी । शङ्केऽस्याः समुपागते मृगदृशः कर्णान्तिकं लोचने ॥ २॥
आवां नयने, प्रकृत्या स्वभावेन, ऋजुनी सरलाकारे, ऊहापोहापटुतया सरलबुद्धिके च, युवा कर्णौ तु, खलु निश्चयेन, श्रुतशालिनौ श्रुतेन-शास्त्रेण, श्रवणगोचरीकृतेन युवतिजनवृत्तान्तेन च शालेते-शोभेते यौ तादृशो, जानीथ वेत्थ, यत् त्रैलोक्ये त्रिभुवने, क्वचित् कुत्रापि, अन्ययुवतेः एतदतिरिक्ततरुण्याः, ईदृक् एतादृशम् , वपुः शरीरं, सम्भाव्यते सम्भवति किम् ?, शङ्के उत्प्रेक्षे, एतत् अनुपदोक्तं, प्रष्टुं जिज्ञासितुम् , अस्याः पुरोवर्तिन्याः, मृगदृशः मृगलोचनायाः, अपास्तनीलनलिनश्रेणीविकासश्रिणी अपास्ता-तिरस्कृता, नीलनलिनश्रेण्याः-नीलकमलपढ़ेंः, विकासश्रीः-विकासशोभा याभ्यां तादृशे, लोचने नयने, कर्णान्तिकं कर्णसमीपं, समुपागते सम्यगायाते, कर्णसंसृष्टे इत्यर्थः । अत्रोत्प्रेक्षालङ्कारः [श]।
च पुनः, अतिचिरकालम् अतिदीर्घकालं, निर्वर्ण्य दृष्ट्वा, आलपितुकामः आभाषितुमिच्छुः, तदभिमुखः तत्सम्मुखः, अभवं संवृत्तोऽहम्। सापि प्रकृतबालिकापि, तथा तेन प्रकारेण, आगत्य, द्वारदेशे एलागृहप्रवेश निर्गमस्थाने, कृतावस्थानम् अवस्थितम् , पुनः एकाकिनम् असहायम् , पुनः आबद्धनिश्चललक्ष्येण आबद्धं-खाभिमुखमारोपितं, निश्चलं-स्थिरं, लक्ष्य-प्रकृतयुवतिरूपदृश्यं येन तादृशेन, चक्षुषा, प्रत्येकम् एकैकम , अवयवान् अङ्गानि, अवलोकयन्तं पश्यन्तं, माम् , अवलोक्य दृष्ट्वा, समुपजातसाध्वसा समुत्पन्नभया, प्रबलमारुताहता प्रबलपवनान्दोलिता, बालकदलीकन्दलीव नवकदलीलतिकेव, सहसैव शीघ्रमेव, कम्पितुम् , आरब्धा प्रवृत्ता। च पुनः, तां प्रकृतबालिका, तथाविधां कम्पमानां, दृष्ट्वा, उपजातकरुणः उत्पन्नदयः, अहम् , आकारसंवरणं विकृताकारगोपनं, विधाय कृत्वा, तन्मुखारविन्दे तदीयमुखकमले, अर्पितनिर्विकारस्तिमितदृष्टिः अर्पिता-आरोपिता, निर्विकारा-कामविकारशून्या, स्तिमिता-निश्चला, दृष्टिः-लोचनं येन तादृशः सन , स्थानस्थित एव अत्यक्तस्वस्थान एव, तां बालिका, शनैः मन्दम् , अवदम् उक्तवान् । बालिके ! त्वं का किंजातीया, कस्य सुता वा, एकाकिनी असहाया सती, शून्ये निर्जने, अस्मिन् प्रत्यक्षवर्तिनि, लताजालके लतापुञ्ज, प्रविष्टा प्रवेशं कृतवती, अकस्मात विनैव कारणम् , एवम् अनेन प्रकारेण, उद्धान्तचित्ता उद्विग्नहृदया, भीतेव भयाकु.लेव, विकसितेन्दीवरदलदामदीर्घान् विकसितानाम् , इन्दीवरदलानां-नीलकमलपत्राणां, यद् दाम-माल्यं, तद्वद्दीर्घान् , दृष्टिपातान् , दिक्षु, किमर्थं किमुद्दिश्य, क्षिपसि प्रेरयसि [ष] | च पुनः, मां, दृष्ट्वा, आत्मनः स्वस्य, अनिष्टशङ्किनीव प्रतिकूलसन्देहिनीव, तनीयसा अतिसूक्ष्मेण, स्तनांशकेन स्तनावरणवस्त्रेण, वारंवारम्
२० तिलक.
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टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता । स्तनांशुकेन संकुचसि रक्ताशोकविटपकस्यास्य मूले, कृतं सुभ्र! संभ्रमेण, मा स्म भैषीः स्वल्पमप्यस्मात् , जाननिहावस्थितामुन्मथ्यमानो मन्मथेन न त्वां निमित्तीकृत्याहमायातः, न च त्वदपहारे कृतप्रयत्नः क्रूरात्मा कश्चिदसुरो वा गुह्यको वा गन्धर्वो वा खेचरो वा भवामि, भूमिगोचरोऽहमखिलदिङ्मुखख्यातकीर्तेरखण्डितप्रसरवाहिनीवाहखुरपुटक्षुण्णदक्षिणापरपूर्वजलधिवेलावनस्य सर्वावनिपालमौलिमुकुटघृष्टाङ्गिनखमणेरिक्ष्वाकुवंशालंकारस्य राज्ञो मेघवाहनस्यात्मजन्मा हरिवाहनो नाम कुमारः कान्तारभूमौ कथञ्चिद्वीणया वशीकृत्य विधृतमात्मीयमेव सेनावारणं प्रधानमधिरूढो निरङ्कुशः केनाप्यविज्ञाततत्त्वेन व्योमचारिणा वैरिणेव तमनुप्रविश्य भूमिमेतामानीतः [स] । समुत्खातशस्त्रिकादर्शनोपजातसंत्रासेन च सहैव दूरनिर्झरिणाञ्जनिनादेन मुक्त्वा निरालम्बमम्बरतलादवाङ्मुखमात्मदेहमिह महासमुद्रगम्भीरोदरे सरसि निक्षिप्तः । समुत्तीर्य च ततो यथाकथंचित् प्रस्थितेन दृष्टा मया दृष्टिहारिणी हरिणाक्षि ! रमणीयवृक्षगुल्मेऽस्मिन् प्रदेशे सूक्ष्मसिकतायां पुलिनभूमावभिव्यक्तशुभलक्षणा चरणपदपतिः । तां च कौतुकादनुसरन् सर
अनेकवारम् , अपवारिततनुः आच्छादितशरीरा सती, किं किमर्थम् , अस्य पुरोवर्तिनः, रक्ताशोकविटपकस्य रक्ताशोकवृक्षस्य, मूले अधस्तनप्रदेशे, सङ्कुचसि सङ्कुच्य तिष्ठसि । सुभ्र! सुन्दरभ्रशालिनि !, सम्भ्रमेण भयेन, कृतं व्यर्थम् , अस्मात् मत्तः, जनात् , स्वल्पमपि अतीषदपि, मा स्म भैषीः भयं न कुरु, मन्मथेन कामदेवेन, उन्मथ्यमानः उत्पीड्यमानः, अहम्, इह अस्मिन् स्थाने, अवस्थितां जानन् त्वां. निमित्तीकृत्य लक्ष्यीकृत्य, न आयातः आगतः। च पुनः, त्वदपहारे बलात् त्वद्हणे, कृतप्रयत्नः कृतोद्योगः, अत एव, क्रूरात्मा निष्ठुरात्मा, कश्चित् कोऽपि, असुरो वा राक्षसो वा, गुह्यको वा तदाख्यदेवयोनिविशेषो वा, गन्धर्वो वा तदाख्यदेवयोनिविशेषो वा, खेचरो वा विद्याधरो वा, न भवामि अस्मि, किन्तु भूमिगोचरः भूमिवास्तव्यः, मर्त्य इयर्थः, अहम्, अखिलदिङ्मुखख्यातकीर्तेः समस्तदिगन्तप्रसिद्धयशसः, पुनः अखण्डितप्रसरवाहिनीवाहखुरपुटक्षुण्णदक्षिणापरपूर्वजलधिवेलावनस्य अखण्डितःअव्याहतः, प्रसरः-प्रसारो येषां तादृशानां वाहिनीवाहानां-सेनासमवेताश्वानां, खुरपुटैः-सम्पुटितखुरैः, क्षुष्णानि-पिष्टानि, दक्षिणापरपूर्वजलधिवेलावानाने-दक्षिणस्य, अपर स्य-पश्चिमस्य, पूर्वस्य, च जलधेः-समुद्रस्य, वेलायां-तटे यानि वनानि तानि
तादृशस्य; पुनः सर्वावनिपालमौलिमुकुटघृष्टाडिनखमणेः सर्वेषाम् , अवनिपालानां-पृथ्वीपतीनां मौलिमुकुटैःमस्तककिरीटैः, घृष्टाः-घर्षणेनोज्वलिताः, अभिनखमणयः-पादनखरूपा मणयो यस्य तादृशस्य, पुनः इक्ष्वाकुवंशालङ्कारस्य इक्ष्वाकुसंज्ञकनृपवंशभूषणस्य, राज्ञः नृपतेः, मेघवाहनस्य, आत्मजन्मा औरसपुत्रः, हरिवाहनो नाम तत्संज्ञकः, कुमार युवराजः, कान्तारभूमौ वनस्थल्यां, वीणया वीणाक्वाणनेन, कथञ्चित् केनापि प्रकारेण, वशीकृत्य खवशम विधृतं निगृहीतम् , आत्मीयमेव खकीयमेव, प्रधान मुख्यं, सेनावारणं सेनासमवेतहस्तिनम् , अधिरूढः आरूढः सन् , निरङ्कुशः तद्दमनसाधनास्त्रशून्यः, अविज्ञाततत्त्वेन अपरिचितयाथार्थ्यकेन, केनापि व्योमचारिणा आकाशगामिना, वैरिणेव शत्रुणेव, तं प्रकृतहस्तिनम् , अनुप्रविश्य, एताम् इमाम् , भूमिम् , आनीतः प्रापितः [स]। च पुनः, समुत्खातशस्त्रिकादर्शनोपजातसंत्रासेन समुत्खातायाः-सम्यगुद्धृतायाः, शस्त्रिकायाः-छुरिकायाः, दर्शनेन, उपजातेन-उत्पन्नेन, संत्रासेन-अत्यन्तभयेन हेतुना, दूरनिर्झरिणा दूरव्यापिना, आर्तनिनादेन दुःखद्योतकचीत्कारेण, सहैव समकालमेव, निरालम्बम् आलम्बनरहितम् , अवाङ्मुखम् अधोमुखम् , आत्मदेहं स्वशरीरम् , अम्बरतलात् गगनतलात् , मुक्त्वा वियोज्य, महासमुद्रगम्भीरोदरे महासागरसदृशनिम्नाभ्यन्तरे, इह अस्मिन् , सरसि कासारे, निक्षिप्तः खेन साकं निपातितः, अहमिति शेषः; हे हरिणाक्षि! मृगनयने! च पुनः, समुत्तीर्य तत्तटमागत्य, ततः तस्मात्
वरात् , यथाकथञ्चित कथङ्कथमपि, प्रस्थितेन प्रचलितेन मया, पुनः रमणीयवृक्षगुल्मे मनोहरवृक्षपुजे, अस्मिन प्रदेशे तत्तटस्थले, सूक्ष्मसिकतायां सूक्ष्मा सिकता-वालुका यस्यां तादृश्यां, पुलिनभूमौ अचिरजलोत्थितस्थल्याम् , अभिव्यक्तशुभलक्षणा प्रकटितशुभसूचकचिह्ना, पुनः दृष्टिहारिणी नयनाकर्षिणी, चरणपतिः पादप्रतिकृतिपतिः, दृष्टा, च पुनः, तां पादपड्रिं, कौत न औत्सुक्यात्, अनुसरन् अनुगच्छन् , सरस्तीरमण्डनं प्रकृतसरोवरतटालङ्कार
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तिलकमञ्जरी स्तीरमण्डनमिमं लतामण्डपमनुप्राप्तः । दृष्टा च भवती, अनुभूतं चिरादनेकजन्मान्तरसहस्रसंचितस्य सुकृतराशेरेककालमवाप्तपरमपरिपाकं फलम् , अवधारितमवधिभावेनाङ्गनारूपनिर्माणकौशलं विधातुः, कवलितोऽ. गस्त्यचुलुकस्पर्धयेवैकहेलया दूरकृतविस्तारेण चक्षुषा समस्तदिङ्मुखोल्लची लावण्यजलधिः निष्फलापि सफलीभूतेयं विदेशयात्रा, सांप्रतं यातुमिच्छामि, पृच्छामि च त्वाम , कथय-'कोऽयं जनपदः, किमाख्योऽयमचलः, केन पुण्यात्मना खानितमिदं सरः, कः प्रशास्ति भुवमेतां भूमिपतिः' इत्यादि पृष्टा मया सा कन्यका प्रसत्तिमगमत् [ह]।
___ अवनतमुखी च स्थित्वा मुहूर्तमदत्तोत्तरैव तस्मादशोकतरुतलादचलत् । आभरणमणिरणितवाचालितलतामण्डपोदरा च किञ्चिद् वामतः कुर्वती मामभिमुखमागमत् । स्थित्वा च स्थिरा द्वारनिकटे मुहूर्तमीषद्वलितकन्धरा त्रपातरलितसितेतरतारकाममरनिम्नगातरङ्गतरलायतापाङ्गनिर्गच्छदच्छप्रभावच्छादितदिगन्तरां सुधारसच्छटामिव सकालकूटामक्षिपन्मे चक्षुषि मुहुर्मुहुर्मोहाह्लादकारिणी कटाक्षदृष्टिम् । ततो लक्षिताभिप्रायेण निर्गन्तुमाकाङ्क्षतीयमिति विचिन्त्य स्तोकमपसृतेन मया द्वारि दत्तावकाशा प्रयत्नकृतविवर्त
भूतम् , इमं प्रत्यक्षवर्तिनं, लतामण्डपं लतागृहम् , अनुप्राप्तः आगतः । च पुनः, भवती त्वम् , दृष्टा दृष्टिगोचरीकृता । पुनः चिरात् दीर्घकालात् , अनेकजन्मान्तरसहस्रसश्चितस्य अनेकेषु-बहुषु, जन्मान्तरसहस्रेषु-पूर्वपूर्वभवसहस्रेषु, सञ्चितस्य-संगृहीतस्य, सुकृतराशेः-पुण्यसमूहस्य, एककालम् , अवाप्तपरमपरिपाकं प्राप्तोत्कृष्टपरिणाम, फलम् , अनुभूतम् आखादितम् । पुनः अवधिभावेन सीमात्वेन, विधातुः ब्रह्मणः, अङ्गनारूपनिर्माणकौशलं स्त्रीरूपरचनानैपुण्यम् , अवधारितं निर्णीतम् । पुनः अगस्त्यचुलकस्पर्धयेव अगस्त्यस्य-तत्संज्ञकस्य मुनेः, यच्चलुक-समुद्रपानार्थ मुकुलितकरपुटं, तत्स्पर्धयेव-तज्जिगीषयेव, एकहेलया झटिति, दूरकृतविस्तारेण दूरविस्तारितेन, चक्षुषा, समस्तदिङ्मुखोल्लची
खिलदिगन्तातिकामी, लावण्यजलधिः सौन्दयेसिन्धुः, कवलितः पीतः, सस्नेहं दृष्ट इत्यर्थः । पुनः निष्फलापि आपाततो व्यर्थापि, इयं वर्तमाना, विदेशयात्रा दूरयात्रा, सफलीभूता वस्तुतः फलवती जाता, साम्प्रतम् अधुना, यातुं परावर्तितुम् , इच्छामि, च पुनः, त्वां पृच्छामि वक्ष्यमाणजिज्ञासां विज्ञापयामि, कथय बोधय, अयं दृश्यमानः, कः जनपद: किमाख्यो देशः, अयम् अचलः पर्वतः, किमाख्यः किन्नामा, पुनः इदं प्रत्यक्षभूतं, सरः कासारः, केन पुण्यात्मना धार्मिकेण, खानितं भूम्यवदारणेन निर्मापितम् , पुनः एतां प्रत्यक्षां, भुवं पृथ्वीं, कः, भूमिपतिः राजा, प्रशास्ति अधिकुरुते । मया, इत्यादि एवम् , अन्यदपि पृष्टा जिज्ञासां विज्ञापिता, सा प्रकृता, कन्यका बालिका, प्रसत्तिं प्रमोदम् , अगमत् अन्वभूत् [ह]।
च पुनः, मुहूर्त क्षणम् , अवनतमुखी अधोमुखी सती स्थित्वा, अदत्तोत्तरैव अकृतोक्तप्रश्नोत्तरैव, तस्मात् प्रकृतात् अशोकतरुतलात् अशोकवृक्षमूलात्, अचलत् चलितुं प्रवृत्ता । च पुनः, आभरणमणिरणितवाचालितलतामण्डपोदरा आभरणमणिरणितेन अलङ्करणात्मकमणिरणत्कारेण, वाचालितं-शब्दायितं, लतामण्डपोदरे-लतागृहमध्यं यया तादृशी, किश्चित् ईषत् , वामतः दक्षिणेतरभागे, मां कुर्वती विदधती, अभिमुखं सम्मुखम् , आगमत् आगतवती। च पुनः, द्वारनिकटे द्वारस्य-प्रवेशनिर्गमप्रदेशस्य, निकटे, मुहूर्त क्षणं, स्थित्वा, स्थिरा स्थैर्यमापन्ना प्रस्तुतकन्यका, ईषद्वलितकन्धरा किञ्चिद्वक्रीकृतग्रीवा सती, मुहुर्मुहुः अनेकवारम् , मे मम, चक्षुषि दृष्टिपथे, कटाक्षदृष्टिं कुटिलाकारदृष्टिम् , अक्षिपत् व्यापारितवती, कीदृशीम् ? त्रपातरलितसितेतरतारकां त्रपया-लज्जया, तरलिता-चपलिता, सितेतरा-कृष्णवर्णा, तारकाकनीनिका यस्यां तादृशीम्, पुनः अमरनिम्नगातरङ्गतरलायतापाङ्गनिर्गच्छदच्छप्रभावच्छादितदिगन्तराम् अमरनिम्नगायाः-गङ्गायाः, तरङ्गवत् तरलाभ्यां-चञ्चलाभ्याम् , आयताभ्या-दीर्घाभ्याम् , अपाङ्गाभ्यां- नेत्रप्रान्तप्रदेशाभ्यां, निर्गच्छन्तीभिः-निःसरन्तीभिः, अच्छाभिः-निर्मलाभिः, प्रभाभिः-कान्तिभिः, अवच्छादितम्-आवृतं, दिगन्तरं-दिङा यं यया तादृशीम् , अत एव सकालकूटां विषविशेषमिश्रितां, सुधारसच्छटामिव अमृतरसधारामिवेत्युत्प्रेक्षा, पुनः मोहालादकारिणी मोहस्य-चेतनाशक्तिध्वंसस्य, आहादस्य-आनन्दस्य च, प्रयोजिकाम्। ततः तदनन्तरं, लक्षिताभिप्रायेण प्रतीततदाशयेन, पुनः इयम् अभिमुखवर्तिनी बालिका, निर्गन्तुं ततो निस्सर्तुम् , आकाङ्क्षति इच्छति, इति विचिन्त्य आलोच्य, स्तोकं किञ्चित् , अपसृतेन दूरीभूतेन, मया, द्वारि द्वारदेशे, दत्तावकाशा दत्तनिर्गममार्गा, प्रयत्नकृतविवर्तनापि
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टिप्पनक - परागविवृतिसंवलिता ।
नापि किञ्चिन्निजैरङ्गावयवैः स्पृशन्ती स्पर्शलोभेनेव समकालोल्लसितसान्द्रपुलकजालकं मदीयाङ्गवामभागममन्दमुखवासामोद बहलितेन स्वभावसुरभिणा श्वासपरिमलेन पवनलुलितेन च दिव्याङ्गरागसौरभेण समन्ततो वासयन्ती तं वनोद्देशं निर्गता तस्माल्लतामण्डापद् गता च स्खलितपद संचारया गत्या प्रावृण्वती वारंवारमुत्तरीयाञ्चलेन स्वेदनिविडासक्तसूक्ष्मसुकुमाराम्बरं नितम्बम् [क्ष ] । अहमपि तरुस्तम्बान्तरेण तां व्रजन्तीं विरतपक्ष्मास्पन्देन चक्षुषा सरागमीक्षमाणस्तत्रैव देशे इष्टं शंसन् क्षणमतिष्ठम् । ईषदुद्विग्नश्चेति चेतस्य करवम्— 'अहो लोकव्यवहारानभिज्ञत्वमस्याः कन्यकायाः, येन द्वारदेशकृतोपसर्पणस्य पुनः पुनः प्रयुक्तप्रियालापस्य दूरदेशागमन खिन्न वपुषः स्वयमाख्यातनिजवृत्तान्तस्य द्रव्यादावदर्शितार्थिभावस्य वचनमात्रेणापि मे न कृता प्रतिपत्तिः । तत् किमनया ? अन्यतो गच्छामि' इति चिन्तयित्वा ततः स्थानात् स्वदेशदिङ्मुखाभिमुखस्तस्यैव सरसः सरसशिशिरच्छायतरुणा तीरदेशेन शनैः शनैरुदचलम् [ज्ञ ] |
प्रस्थितस्य च मे चेतस्यभवत् – 'अहो ! यत् तदानीमुपवनस्थेन मया तत्र वेत्रधारिनिवेदिते दिव्य
प्रयत्नेन महता यत्नेन कृतं विवर्तनम् - अङ्गसंकोचनं यया तादृश्यपि, स्पर्शलोभेनेव तदङ्गसङ्गमस्पृहयेव, समकालोल्लसितसान्द्रपुलकजालकं समकालम् - एककालम् ; उल्लसितम् - उद्गतम्, सान्द्रं - निबिडं, पुलकजालं - रोमाञ्चराशिर्यस्मिंस्तादृशं, मदीयाङ्गवामभागं मदीयशरीरवामपार्श्व, निजैः स्वकीयैः, अङ्गावयवैः शरीरावयवैः किञ्चित् ईषत् स्पृशन्ती सङ्गमयन्ती, पुनः अमन्द मुखवासामोद बहलितेन अमन्देन - उत्कटेन, मुखवासस्य, मुखसौरभापादकताम्बूलादेः, आमोदेन - सौगन्ध्येन, बहलितेन - प्रचुरीकृतेन स्वभावसुरभिणा अकृत्रिम सौगन्ध्ययुतेन, श्वासपरिमलेन नासिकापवनसौरभेण च पुनः पवनलुलितेन वायुक्षिप्तेन, दिव्याङ्गरागसौरभेण दिव्यानाम् उत्तमानाम्, अङ्गरागाणां - शरीरविलेपनद्रव्याणां, सौरभेण-सौगन्ध्येन तं प्रकृतं, वनोद्देशं वनप्रदेशं, वासयन्ती सुरभयन्ती, तस्मात् प्रकृतात्, लतामण्डपात् लतागृहात् निर्गता निष्क्रान्ता च पुनः स्वेदनिबिडासक्तसूक्ष्म सुकुमाराम्बरं खेदैः - शरीरस्यन्दिजलैः, निबिड - सान्द्रं यथा स्यात् तथा, आसक्तः - आप्लावितः सूक्ष्मः - सुकुमारः, श्लक्ष्णथ, अम्बरः- वस्त्रं यस्मिंस्तादृशं नितम्बं कटिपश्चिमभागम्, उत्तरीयाञ्चलेन उत्तरीयवस्त्रप्रान्तेन, प्रावृण्वती समाच्छादयन्ती सती, स्खलित पदसंचारया स्खलितः - यथास्थानमप्रवृत्तः, पदसञ्चारः - पादविक्षेपो यस्यां तादृश्या, गत्या, गता प्रस्थिता [क्ष ] । अहमपि तरुस्तम्बान्तरेण वृक्षगुच्छमध्येन, व्रजन्तीं गच्छन्तीं तां कुमारिकां, विरतपक्ष्मस्पन्देन विरतः - निवृत्तः, पक्ष्मणः - नयनरोमराजेः, स्पन्दः - किञ्चिच्चलनं यस्मिंस्तादृशेन, चक्षुषा, सरागं सस्नेहम्, ईक्षमाणः पश्यन् इष्टम् अभिलषितं शंसन् सम्भावयन्, तत्रैव तस्मिन्नेव देशे, अतिष्ठम् स्थितवान् । च पुनः, उद्विग्नः व्याकुलः सन्, चेतसि हृदये, इति अनुपदवक्ष्यमाणप्रकारम्, अकरवम् आलोचितवान्, किमित्याह - अस्याः प्रत्यक्षीभूतायाः, कन्यकायाः कुमारिकायाः, लोकव्यवहारानभिज्ञत्वं शिष्टजनाचाराविज्ञत्वम्, अहो आश्चर्यम्, येन तदनभिज्ञत्वेन, वचनमात्रेणापि केवलवचनेनापि मे मम प्रतिपत्तिः सत्क्रिया, न कृता, कीदृशस्य ? द्वारदेशकृतोपसर्पणस्य द्वारप्रदेशमुपागतस्य पुनः पुनः पुनः प्रयुक्तप्रियालापस्य अनेकवारोच्चारितप्रियवाक्यस्य, पुनः दूरदेशागमनखिन्नवपुषः दूरदेशागमनश्रान्तशरीरस्य पुनः स्वयमाख्यातनिजवृत्तान्तस्य स्वयं-खेनैव, आख्यातः-कथितः, निजः - स्वकीयः, वृत्तान्तः - वार्ता येन तादृशस्य, पुनः द्रव्यादौ द्रव्यादिविषये, अदर्शितार्थिभावस्य अदर्शितः - प्रकटितः, अर्थिभावः - प्रयोजनं येन तादृशस्य । तत् तस्माद्धेतोः, अनया प्रत्यक्षीभूतया, कुमार्या, किम् न किमपि प्रयोजनम् इत्यर्थः । अन्यतः अन्यत्र गच्छामि, इति चिन्तयित्वा विचार्य, ततः तस्मात् स्थानात्, स्वदेश दिङ्मुखाभिमुखः स्वदेशदिशः - दक्षिणदिशः, यन्मुखम् - अन्तः, तदभिमुखः- तत्सम्मुखः सन्, सरस शिशिरच्छायतरुणा सरसा:- सार्द्राः, शिशिरच्छायाः - शीतलच्छायाश्च, तरवः - वृक्षा यस्मिंस्तादृशेन तस्यैव प्रकृतस्यैव, सरसः अदृष्टपाराख्यकासारस्य, तीरदेशेन तटमार्गेण, शनैः शनैः मन्दं मन्दं, उदचलं प्रस्थितवान् [ज्ञ ] ।
च पुनः, प्रस्थितस्य प्रयातस्य, मे मम, चेतसि हृदये, अभवत् प्रत्यभिज्ञाऽभूत्, अहो आश्चर्यम्, यत् तदानीं तस्मिन् काले, उपवनस्थेन अयोध्याया मत्तको किलाभिधोद्यानवर्तिना, तत्र तस्मिन् पूर्वमनुभूत इत्यर्थः, वेत्रधारिनिवेदिते
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तिलकमञ्जरी
१५७ चित्रपटे प्रकाशितमदृष्टपाराख्यं सरो दृष्टमासीत् तदेवैतत् तर्कयामि, यतस्तत्र ये यथा दर्शितास्ते तथैवात्र तिलकतालीतमालबकुलाशोकलकुचलवङ्गचन्दनादयः पादपा दृश्यन्ते, यानि च यदाकाराणि यद्वर्णानि यत्क्रमाणि तस्य पर्यन्तेषु विनिवेशितानि लतासदनानि सैकतानि देवतार्चनवेदिकावलयानि तान्यपि तथैवात्र परिस्फुटानि प्रतिभान्ति । तत् किं पुनः क्रीडानिमित्तमिह समायाता सापि कन्या न सा मद्धृदयकुमुदाकरशशाङ्कलेखा तिलकमञ्जरी । दृश्यते हि तेन चित्रपटपुत्रिकारूपेण सार्धमखिलस्याप्येतदीयाकारस्य संवादः, तथाहि-तादृशी विकचराजचम्पकच्छदावदाता देहच्छविः, ताहगुन्निद्रकनकारविन्दसुन्दरं वदनशतपत्रम् , तादृशस्तुलितकेतकोदरदलद्राधिमा नयनयोरायामः, तादृक्षा च सकलानामपि नितम्बना भिमण्डलोदरस्तनाधरप्रभृतीनामवयवानामभिरामता, सर्वतः स्फुरदनर्घरत्नाभरणरमणीयाया वेषलक्ष्म्या अपि तथाभूतमेवौदार्यम् [क] । किं बहुना, विहाय चलनस्पन्दनाद्यभावमाङ्गिक प्रमाणमङ्गनापरिवारसंपदं च सर्वमन्यत् संवदति, कथं पुनरनेकविद्याधरीवृन्दसहस्रपरिगतायास्तथा वनेऽवस्थानमेकाकित्वं च तस्याः संवृत्तम् । अथवा
प्रतीहारोपहृते, दिव्यचित्रपटे मनोहरचित्राधिष्ठितवस्त्रे, प्रकाशितं चित्रितम् , अदृष्टपाराख्यं तत्संज्ञकं, यत् सरः सरोवरः, मया हरिवाहनेन, दृष्टं दृष्टिपथमानीतम्, आसीत् , तदेव तदात्मकमेव, एतत् प्रत्यक्षभूतं सरः, तर्कयामि इत्येवमनुमिनोमि, यतः यस्माद्धेतोः, तत्र तस्मिन् पटचित्रे सरसि, ये तिलक-ताली-तमाल-बकुला-ऽशोक-लकुचलवङ्ग-चन्दनादयः तत्तत्संज्ञकादयः, पादपाः वृक्षाः, यथा येन प्रकारेण, प्रतीहारेण, दर्शिताः दृष्टिपथमवतारिताः, ते तथैव तेनैव प्रकारेण, अत्र अस्मिन् सरोवरे, दृश्यन्ते दृष्टिगोचरीक्रियन्ते च पुनः, यदाकाराणि याहगवयवसन्निवेशकानि, पुनः यद्वर्णानि यादृग्रूपवन्ति, पुनः यत्क्रमाणि यादृशपौर्वापर्याणि, यानि लतासदनानि लतामण्डपाः; पुनः सैकतानि वालुकामयानि, देवतार्चनवेदिकावलयानि देवतापूजनार्थकल्पितचतुरस्रपरिष्कृतभूमिमण्डलानि, तस्य सरोवरस्य, पर्यन्तेषु प्रान्तेषु, विनिवेशितानि चित्रणेन संस्थापितानि, तान्यपि तथैव तेनैव प्रकारेण, अत्र अस्मिन् सरसि, परिस्फुटानि विस्पष्टानि, प्रतिभान्ति प्रतीतिपथमवतरन्ति । तत् तस्माद्धेतोः, किं पुनः किं वा, इह अस्मिन् सरोवरे, क्रीडानिमित्तं क्रीडाथ, समायाता समागता, या कन्या कुमारिका सापि, सा चित्रपटे दृष्टपूर्वा, मद्धृदयकुमुदाकरशशाङ्कलेखा मदीयहृदयात्मककुमुदकाननचन्द्रलेखा सदृशी, तिलकमञ्जरी तिलकमञ्जरीनामंकविद्याधरकुमारिकैव, न? अर्थात् सेवाभाति, एतदेवाह-हि निश्चयेन, तेन दृष्टपूर्वेण, चित्रपटपुत्रिकारूपेण चित्रपटे-चित्राधारपटे, या पुत्रिका-कन्यकाप्रतिकृतिः, तद्रूपेण-तदाकारेण, सार्ध सह, अखिलस्यापि समग्रस्यापि, एतदीयाकारस्य अनुपदप्रत्यक्षीभूतकन्यकाकारस्य, संवादः साम्य, दृश्यते दृष्ट्या प्रतीयते तत्संवादमेव विशदयति-तथाहीति, विकचराजचम्पकछदावदाता विकचस्य-विकत्वरस्य, राजचम्पकस्य-चम्पकप्रवरस्य, छदवत् , अवदाता-गौरी, तादृशी चित्रितपुत्रिकादेहच्छविसदृशी, देहच्छविः शरीरकान्तिः, पुनः उन्निद्रकनकारविन्दसुन्दरम् उन्निद्रम्-उन्मीलितं, यत् कनकारविन्दं-सुवर्णकमलं, तद्वत् सुन्दरं, ताहक चित्रितकन्यकामुखारविन्दतुल्यं, वदनशतपत्रं मुखकमलम् ; पुनः तुलितकेतकोदरदलद्राघिमा तुलितः-उपमितः, केतकोदरदलस्यकेतकाख्यपुष्पवृक्षसम्बन्धिगर्भपत्रस्य, द्राघिमा-दीर्घता येन तादृशः; तादृशः चित्रितकन्यकानयनविस्तारसदृशः, नयनयोः नेत्रयोः, आयामः-विस्तारः; च पुनः, नितम्बनाभिमण्डलोदरस्तनाधरप्रभृतीनां तावदवयवविशेषादीना, सकलानामपि समग्राणामपि, अवयवानाम् अङ्गाना, तादृक्षा चित्रितकुमारिकावयवसौन्दर्यसदृशी, अभिरामता सौन्दर्यम् ; सर्वतः स्फुरदनर्घरत्नाभरणरमणीयायाः सर्वतः-सर्वावयवेषु, स्फुरद्भिः-प्रकाशमानैः, अनर्घरत्नाभरणैः-अमूल्यरत्ना लङ्करणैः, रमणीयायाः-मनोहरायाः, वेषलक्ष्म्या अपि वेषभूषाया अपि, तथाभूतमेव तादृशमेव, औदार्य वैशिष्ट्यम् [क]। बहुना अधिकसाम्योपवर्णनेन, किम् न किमपि प्रयोजनमित्यर्थः, चलनस्पन्दनाद्यभावं चित्रकल्पिततया पादविक्षेपाङ्गस्फुरणशून्यत्वम्, पुनः आनिकम् अङ्गसम्बन्धि, प्रमाणं चित्रस्थतया हवपरिमाणं, च पुनः, अङ्गनापरिवारसम्पदं चित्रितविद्याधरकुमारिकात्मकसहचरीसमूह, विहाय वर्जयित्वा, अन्यत् तद्वयतिरिक्तं, सर्व समग्रं तद्वैशिष्ट्यं, संवदति उभयसाम्येन प्रत्याययति । अनेकविद्याधरीवृन्दसहस्रपरिगतायाः अनेकैः बहुभिः, विद्याधरीवृन्दसहस्रैः
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टिप्पनक- परागविवृतिसंवलिता ।
नैतदालोचनीयम्, अदृष्टपारे संसारे भङ्गुरस्वभावेषु विभवादिषु सर्वभावेषु कर्मपरतन्त्राणां प्राणिनां सर्वमपि संभवति, यथा मम स्वसैन्यमध्य विहितावस्थितेरकस्मादुत्प्लुत्य कृतवियद्वर्त्मगमनेन दन्तिना कृतापहरणस्य संवृत्तम्, एवं तस्या अपि कथञ्चिद् भविष्यति । यद्वा युवतिपरिवारोऽपि तस्याः प्रकटितोऽनुमानेन यस्मात् 'सरस्तीरसैकते तत्र परिसर्पता पूर्वमवलोकितास्तदीयपदपङ्क्तिपर्यन्तेष्वनेकशतसंख्याश्चरणविन्यासा मया स्त्रीजनस्य' इति विचिन्त्य कृतनिश्चयस्तद्दर्शनाशया पुनरपि प्रतीपमगमम् [ख] । अनिरूपितविषमसमभूमिभागश्च गत्वा सत्वरस्तं प्रदेशं सर्वतो दिक्षु निक्षिप्ततरलचक्षुस्तस्य सरसः समासन्नवर्तिषु लतामण्डपेषु तरुखण्डेषु नलवनेषु वालुकापुलिनेषु जलजम्बूनिकुञ्जेषु शिलालयनेषु शैलकन्दरेषु वननदी निर्झरणेष्वन्येषु च मनोरमेषु स्थानेषु तामन्वेषितवान् । अनुपलब्धतदुदन्तश्च किञ्चित्सावशेषेऽहनि हृतस्तदनुरागेण पुनरपि तमेव पूर्वदृष्टमिष्टज्ञातिगृहमिव निवासहेतोरेलालतामण्डपमुपागमम् [ग] ।
दृष्ट्वा च तं नष्टसकलपूर्वशोभं निशामुखमिवास्तमित शशिलेखम्, उदधिजलमिवोद्धृतसुधम्, सौध
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विद्याधरजातीयकन्यकागणसहस्रैः परिगतायाः परिवृतायाः, तस्याः तिलकमञ्जर्याः, वने अवस्थानम् च पुनः, एकाकित्वम् असहायत्वम् कथं पुनः कथं तर्हि, संवृत्तं सञ्जातम् । अथवा एतत् तस्या वनेऽवस्थानादिकं, न आलोचनीयं चिन्तनीयम्, अदृष्टपारे अदृष्टः - अनवलोकितः, पारः - अन्तो यस्य तादृशे, संसारे जगति, विभवादिषु धनादिषु, सर्वभावेषु सर्वपदार्थेषु, भङ्गुरखभावेषु विनश्वरस्वभावेषु सत्सु, कर्मपरतन्त्राणां कर्माधीनसुखदुःखभोक्तृणां प्राणिनां जीवानां, सर्वमपि कर्मविपाककालभेदेन सुखं दुःखमुभयमपि, सम्भवति सम्भावनामर्हति यथा येन प्रकारेण, स्वसैन्यमध्यविहितावस्थितेः निजसैन्यमध्येऽवस्थितस्य पुनः अकस्मात् अतर्कितमेव, उत्प्लुत्य उत्पत्य, कृतवियद्वर्त्मगमनेन कृतं वियद्वर्त्मना - आकाशमार्गेण, गमनं येन तादृशेन, दन्तिना हस्तिना, कृतापहरणस्य अपहृतस्य, मम, संवृत्तं वनेऽवस्थानमेकाकित्वं च सञ्जातम्, एवम् अनेन प्रकारेण तस्या अपि तिलकमञ्जर्या अपि कथञ्चित् कयाऽपि दुर्घटनया, भविष्यति भवितुमर्हति । यद्वा अथवा, तस्याः तिलकमञ्जर्याः, युवति परिवारोऽपि युवतिजनसाहचर्यमपि, अनुमानेन पादपङ्किदर्शनजन्यानुमित्या प्रकटितः - प्रत्यायितः यस्मात् तत्र तस्मिन्, सरस्तीरसैकते प्रकृतसर स्तटवर्तिसिकतामयस्थले, परिसर्पता परिभ्रमता, मया, तदीयपदपङ्किपर्यन्तेषु तत्सम्बन्धिचरणपङ्क्तिप्रान्तेषु, अनेकशतसंख्याः बहुशतसंख्याकाः, स्त्रीजनस्य, चरणविन्यासाः पादविक्षेपचिह्नानि, पूर्वम्, अवलोकिताः दृष्टाः, इति इत्थं विचिन्त्य वितर्क्स, कृतनिश्चयः कृततिलकमञ्जरीनिर्णयः, तद्दर्शनाशया तद्दर्शनाकाङ्क्षया, पुनरपि प्रतीपं तत्प्रतिकूलं यथा स्यात् तथा, अगमं गतवान् [ख] । च पुनः सत्वरः त्वरान्वितः, अत एव अनिरूपितविषमसमभूमिभागः अनिरूपितः - अनिर्णीतः, विषमः- निम्नोन्नतः, समश्च नीचोच्चत्वशून्यश्र, भूमिभागः - भूमिप्रदेशो येन तादृशः सन् तं तदधिष्ठितं, प्रदेशं स्थलं, गत्वा, सर्वतः सर्वासु दिक्षु, निक्षिप्ततरलचक्षुः व्यापारितचञ्चललोचनः सन् तस्य प्रकृतस्य, सरसः सरोवरस्य, समासन्नवर्तिषु सन्निकटवर्तिषु लतामण्डपेषु लतागृहेषु, पुनः तरुखण्डेषु वृक्षसमूहेषु, वनेष्विति यावत्, पुनः नलवनेषु नलाख्यतृणकाण्डगुच्छेषु, पुनः वालुकापुलिनेषु सिकतामयाचिर जलोद्गतस्थलेषु, पुनः जलजम्बूनिकुञ्जेषु जलप्ररोहि जम्बूलता पिहितोदरप्रदेशेषु, पुनः शिलालयनेषु पाषाणमयगृहेषु पुनः शैलकन्दरेषु पर्वतगुहासु पुनः वननदी निर्झरणेषु वननदीप्रवाहप्रदेशेषु, च पुनः, अन्येषु तद्वयतिरिक्तेषु, मनोरमेषु मनोहरेषु स्थानेषु, तां तिलकमञ्जरीम्, अन्वेषितवान् गवेषितवान् । च पुनः, अनुपलब्धतदुदन्तः अप्राप्ततद्वार्ताकः किञ्चित्सावशेषे किञ्चिदवशिष्टे, अहनि दिने, तदनुरागेण तिलकमञ्जरी प्रीत्या, हृतः आकृष्टः सन् पुनरपि निवास हेतोः निवासार्थं, दृष्टपूर्व पूर्वमवलोकितं, तमेव प्रकृतमेव, एलालतामण्डपम् एलालतागृहम् इष्टज्ञातिगृहमिव इष्टबन्धुगृहमिव, उपागमम् उपागतवान् [ग] |
च पुनः नष्टसकलपूर्वशोभं क्षीणतिलकमञ्जरीस्थिति कालिका शेष सौन्दर्यम्, अत एव अस्तमितशशिलेखम् अस्तमिता-तिरोभूता, शशिनः - चन्द्रस्य, लेखा - कला यस्मिंस्तादृशं निशामुखमिव प्रदोषसमयमिव, पुनः उद्धृतसुधम्
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तिलकमञ्जरी
१५९ शिखरमिवापनीतपताकम् , कमलखण्डमिबोडीनहंसमालम् , इन्दुवदनया तया विरहितमुपारूढगुरुविषादः स्थितो द्वारदेशे तथैव तां पुरोऽवस्थितां प्रत्यक्षमिवेक्षमाणश्चेतसा सुचिरम् । उत्थाय गत्वा सरसि चिरपरिभ्रमणखेदायासिततलं प्रक्षाल्य चरणयुगलं कृत्वा च किश्चिदेवतास्मरणमभिनवोद्धृतानास्वाद्य कतिचिदपनीतपङ्कोपलेपनिर्मलान् मृणालिनीकन्दानापीय च कराङ्गुलीविवरविगलदिन्दुदीधितिधवलधारं सुधारसस्वादु स्वेच्छया सलिलमात्तकोमलतमालकिसलयस्तस्य प्रियाङ्गलतापरिष्वङ्गसुभगस्य दिव्याङ्गरागपरिमलस्तोकवाहिनो रक्ताशोकविटपकस्य निकटे शयनमरचयम् [घ]!
तत्र च प्रथमदर्शनेऽपि सेयं चक्रसेनतनयेति यन्न निर्णीता, ब्रीडया साध्वसेन वा नेयमुत्तरं प्रयच्छतीति मन्यमानेन यन्न वारंवारमाभाषिता, विहाय रक्ताशोकविटपकं निकटदेशे कृतस्थिरावस्थाना यन्न करतलेनावलम्बिता, मुहुर्मुहुर्मुखावलोकनेन याचमाना निर्गमनवम॑ यद्वारदेशादीषदपसृते नानुवर्तिता, स्पर्शशङ्काविवर्तिताङ्गलता विनिर्यती बहिर्यत्प्रसारितोभयभुजेन गाढं न परिरब्धा, लब्धसुरभिश्वासपरिमलेन सविध
उन्मथितामृतम् , उदधिजलमिव समुद्र जलमिव, पुनः अपनीतपताकम् अपसारितध्वजं, सौधशिखरमिव प्रासादोर्ध्वप्रदेशमिव, पुनः उडीनहंसमालम् उड्डीना-गगनमार्गेणोत्पतिता, हंसमाला-हंसश्रेणी यस्मात् तादृशं, कमलखण्डमिव कमलवनमिवेति सर्वत्रोत्प्रेक्षा, इन्दुवदनया चन्द्रमुख्या, तया तिलकमञ्जर्या, विरहितं वियुक्तं, तं लतामण्डपं, दृष्टा अवलोक्य, उपारूढगुरुविषादः उत्पन्नात्यन्तदुःखः, तथैव पूर्वप्रकारेणैव, पुरोऽवस्थिताम् अग्रतः स्थितां, तां तिलकमञ्जरी, प्रत्यक्षमिव साक्षादिव, चेतसा हृदयेन, भावनयेत्यर्थः, ईक्षमाणः पश्यन् , द्वारदेशे लतामण्डपप्रवेशनिर्गमप्रदेशे, सुचिरम् अतिदीर्घकालं, स्थितः । उत्थाय, गत्वा सरस्तटमुपस्थाय, चिरपरिभ्रमणखेदायासिततलं चिरपरिभ्रमणखेदेनदीर्घकालविचरणश्रमेण, आयासितं-श्रमितं, तलं-स्वरूपम् अधःप्रदेशो वा यस्य तादृशं, चरणयुगलं पादद्वयं, सरसि प्रकृतसरोवरे, प्रक्षाल्य विशोध्य, च पुनः, किश्चित् ईषत् , देवतास्मरणं देवताध्यानं, कृत्वा, पुनः अभिनवोद्धृतान् चिरोन्नीतान् , पुनः अपनीतपङ्कोपलेपनिर्मलान् अपनीतेन-अपसरितेन, पङ्कोपलेपेन-पङ्कसम्पर्केण, निर्मलान्-स्वच्छान् , कतिचित् कतिपयान्, मृणालिनीकन्दान् कमलाङ्कुरान् , आस्वाद्य भुक्त्वा, च पुनः, कराङ्गुलीविवरविगलदिन्दुदीधितिधवलधारं कराङ्गुलीनां-हस्ताङ्गुलीनां, विवरेभ्यः-अवकाशेभ्यः, विगलन्ती-स्रवन्ती, इन्दुदीधितिधवला-चन्द्रमरीचिशुभ्रा, धारा-प्रवाहो यस्य तादृशं, पुनः सुधारसस्वादु अमृतरसमधुरं, सलिलं जलं, स्वेच्छया स्वतृप्यनुसारम् , आपीय नितरां पीत्वा, आत्तकोमलतमालकिसलयः आत्तानि-गृहीतानि, कोमलानि, तमालकिसलयानि-तमालपल्लवा येन तादृशः सन् , तस्य रक्ताशोकविटपकस्य रक्ताशोकह्रस्ववृक्षस्य, निकटे समीपे, शयनं शय्याम् , अरचयम् रचितवान् , कीदृशस्य ? प्रियाङ्गलतापरिष्वङ्गसुभगस्य प्रियायाः-प्रीतिमत्याः, तिलकमञ्जर्या इत्यर्थः, अगलतया-शरीरात्मकलतया, परिष्वङ्गेणआलिङ्गनेन, सुभगस्य-सुन्दरस्य, पुनः दिव्याङ्गरागपरिमलस्तोकवाहिनः दिव्यस्य-मनोहरस्य, अङ्गरागस्य-अनोपलेपनद्रव्यस्य, यः परिमलः-सौरभं, स्तोकम्-अल्पं यथा स्यात् तथा, तद्वाहिनः-तत्सम्पर्किणः [घ]।
च पुनः, तत्र तस्यामशोकवृक्षनिकटरचितशय्यायां, रजनी रात्रिः, क्षयं समाप्तिम् , अगमत् प्राप्तवतीत्यप्रेणान्वेति, कीदृशी ? मम दर्शनात् , उदीर्णदुस्सहोद्वेगेव उदीर्ण:-उद्भूतः, दुस्सहः-दुःखेन सोढुं शक्यः, उद्वेगः-उद्भमो यस्यास्तादृशी, कीदृशस्य ? प्रथमदर्शनेऽपि आद्यसाक्षात्कारेऽपि, चक्रसेनतनया चक्रसेनसंज्ञकविद्याधरेन्द्रसुता तिलकमञ्जरीति यावत् , या चित्रपटे दृष्टाऽऽसीदित्यर्थः, इति यत् न निर्णीता प्रत्यभिज्ञाता, पुनः वीडया लज्जया, वा पुनः, साध्वसेन भयेन, इयम् , उत्तरं प्रतिवाक्यं, न प्रयच्छति ददातीति मन्यमानेन जानता, मयेति शेषः, वारं वारम् अनेकवारं, यद् न आभाषिता आलपिता, पुनः रक्ताशोकविटपकं रक्ताशोकह्रस्ववृक्षं, विहाय सक्त्वा, निकटदेशे समीपदेशे, कृतस्थिरावस्थाना स्थिरमवस्थिता, करतलेन हस्ततलेन, यन्न अवलम्बिता निगृहीता, पुनः मुहुर्मुहुः वारं वारं, मुखावलोकनेन मदीयमुखदर्शनेन, निर्गमनवम निस्सरणार्थमवकाश, याचमाना प्राप्नुमिच्छन्ती, द्वारदेशात् , ईषत् किञ्चित् , अपसृतेन पृथग्भूतेन, मयेति शेषः, यत् न अनुवर्तिता अनुगता, पुनः स्पर्शशङ्काविवर्तिताङ्गलता स्पर्शशङ्कया-मत्स्पर्शसन्देहेन, निवर्तिता-वक्रीकृता, अगलता यया तादृशी, सा बहिः बाह्यस्थानं, विनियंती विनिर्गच्छन्ती, प्रसारितोभयभुजेन विस्ता
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टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता । मागतेऽपि वदनस्य परिणतबिम्बपाटलेऽधरमणौ यन्न परिचुम्बिता, गत्वा किश्चिदन्तरं विवर्तितमुखी मुहुर्मुहुलताजालकान्तरेण स्थित्वा स्थित्वा तिर्यगवलोकयन्ती निर्भरानुरागापि भीतेति यत् संभाविता मुग्धता, निराकृतोचितक्रियाप्रवृत्तिश्च निरनुरोधेति जातावज्ञेन यद् व्रजन्ती पृष्ठतो नानुसृता [ङ]। तेनानेकजन्मान्तरसहस्रनिर्वर्तितेन महापातकसमूहेनेवात्यन्तमन्तरनुतप्यमानस्य, संतापवेदनाविनोदाय विहितैर्वारंवारमसमञ्जसैर्गात्रपरिवर्तनैर्व्यस्तशयनीयस्य, निदाघमध्यंदिनानिलस्पर्धिभिरनारतं वहद्भिरायतोष्णैः श्वासमारुतैर्मर्मरीकृतलतापल्लवस्य, लब्धतदीयगात्रसङ्गं वाममङ्गमनङ्गजनितस्वेदसलिलेन दोष्णा दक्षिणेनार्धमुकुलितेक्षणस्य शम्भोरिवार्धनारीश्वरस्य प्रतिक्षणं परिष्वजमानस्य, घ्राणमुपसर्पता तर्पितप्राणेन रक्ताशोकसङ्गिनस्तदङ्गरागस्य परिमलशेषेण रक्षितोत्क्रामज्जीवितस्य, अश्रुततदीयजल्पं श्रवणयुगमसत्कल्पं कलयतः; निमीलितेक्षणस्य तां सर्वतो दिक्षु पश्यतः, चक्रवाकस्येवैकाकिनः सरस्तीरे निषण्णस्य, कुमुदखण्डस्येव कणद्भिरलिकुलैराकुलीकृतस्य इन्दुना शमितनिद्रस्य मम दर्शनादुदीर्णदुःसहोद्वेगेव दूरानतविपाण्डुशशिमण्डलानना क्षयमगाद् रजनी [च]।
रितबाहुद्वयेन, गाढं निर्भरं, यत् न परिरब्धा आलिङ्गिता, पुनः लब्धसुरभिश्वासपरिमलेन लब्धः-गृहीतः, घ्रात इत्यर्थः, सुरभेः-सुगन्धेः, श्वासस्य-नासिकापवनस्य, परिमल:-सौरभं येन तादृशेन, मयेति शेषः, वदनस्य मुखस्य, सविधं समीपम् , आगतेऽपि प्राप्तेऽपि, परिणतबिम्बपाटले परिपक्वबिम्बफलवद् रक्ते, अधरमणी अधरोष्टरूपे मणौ, यत् न परिचुम्बिता स्वकीयौष्ठाभ्यां संस्पृष्टा, पुनः किश्चिदनन्तरम ईषदर, गत्वा, विवर्तितमुखी वक्रीकृतवदना, स्थित्वा स्थित्वा गमनान्निवृत्य गमनानिवृत्य, लताजालकान्तरेण लतागुल्ममध्येन, मुहुर्मुहुः-अनेकवारं, तिर्यगवलोकयन्ती कटाक्षयन्ती, । रागा सान्द्रस्नेहापि, भीता भयं प्राप्ता, इति अस्माद्धतोः, मुग्धता अप्ररूढानुरागता, यत् सम्भाविता शङ्किता, च पुनः, निराकृतोचितक्रियाप्रवृत्तिः निराकृता-परित्यक्ता, उचितक्रियायांवाचनिकमत्सक्रियायां प्रवृत्तिर्यया तादृशी, अत एव निरनरोधा निःस्पृहा, इति अस्मात् कारणात् , जातावशेन उत्पन्नानादरेण, मयेति शेषः, वजन्ती गच्छन्ती, सा पृष्ठतः पश्चाद् भागेन, यत् न अनुसृता अनुगता [ङ], अनेकजन्मान्तरसहस्रनिर्वर्तितेन अनेकपूर्वजन्मसहस्रसम्पादितेन, महापातकसमूहेनेव महापापपुञ्जनेवेत्युत्प्रेक्षा, तेन तदाभाषणाद्यभावेन, अत्यन्तम् , अन्तः-अन्तःकरणे, अनुतप्यमानस्य पश्चात्तापमनुभवतः । पुनः कीदृशस्य ? सन्तापवेदनाविनोदाय प्रकृतानुतापदुःखापनयनाय, वारंवार, विहितैः कृतैः, असमञ्जसैः अयोग्यैः, गा परिघट्टनैः, व्यस्तशयनीयस्य विघटितशय्यस्य; पुनः निदाघमध्यन्दिनानिलस्पर्धिभिः ग्रीष्मदिनमध्यचारिवायुपराजयेच्छुभिः, अनारतं निरन्तरं, वहद्भिः निर्गच्छद्भिः, आयतोष्णैः आयतैः दीर्घः, उष्णैश्च, श्वासमारुतैः श्वासवायुभिः, मर्मरीकृतलतापल्लवस्य मर्मरीकृताः-रुक्षीकृताः, लतासम्बन्धिनः, पल्लवाः-नूतनपत्राणि येन तादृशस्य; पुनः लब्धतदीयगात्रसङ्गं प्राप्ततिलकमञ्जरीशरीरस्पर्श, वामम् , अङ्गम् , अर्धमुकुलितेक्षणस्य निमीलितार्धलोचनस्य, अर्धनारीश्वरस्य अर्धे-शरीरवामभागे नारीस्वरूपस्य-पार्वतीरूपकस्य, ईश्वरस्य, शम्भोरिव शिवस्येव, अनङ्गजनितखेदसलिलेन अनङ्गेनकामदेवेन, जनितम्-उद्भावितं, खेदसलिलं-धर्मजलं यस्मिंस्तादृशेन, दक्षिणेन, दोषणा बाहुना, प्रतिक्षणं क्षणं क्षणं, परिष्वजमानस्य संश्लिष्यतः; पुनः घ्राणमुपसर्पता घ्राणगोचरीभवता, पुनः तर्पितप्राणेन तर्पितः-तृप्तिमनुभावितः प्राणःशरीरान्तः सञ्चारिवायुविशेषो येन तादृशेन, रक्ताशोकसङ्गिनः रक्ताशोकसंसृष्टस्य, तदङ्गरागस्य तदङ्गविलेपनद्रव्यस्य, परिमलशेषेण अवशिष्टसौरभण, रक्षितोत्क्रामजीवितस्य रक्षितं-स्थापितम्, उक्रामत्-ऊर्व निर्गच्छत् , जीवितं-प्राणो यस्य तादृशस्य; पुनः अश्रुततदीयजल्पम् अश्रुतः-न श्रुतः, तदीयजल्पः-तद्वचनं येन तादृशं श्रवणयुगलं-श्रोत्रद्वयम् , असत्कल्पम् अविद्यमानतुल्यं, कलयतः मन्यमानस्य पुनः निमीलितेक्षणस्य मुद्रितनेत्रस्य सतः, सर्वतः सर्वासु, दिक्षु, तां तिलकमञ्जरी, पश्यतः भावनया साक्षात् कुर्वतः; पुनः चक्रवाकस्येव तदाख्यपक्षिविशेषस्येव, एकाकिनः प्रियाविरहितस्य, सरस्तीरे प्रकृतसरोवरतटे, निषण्णस्य स्थितस्य पुनः कुमुदखण्डस्येव चन्द्रविकासिकमलकाननस्येव, कणद्धिः गुजद्भिः, अलिकुलैः भ्रमरगणैः, आकुलीकृतस्य कामोद्दीपकतया व्यथितस्य, पक्षे व्याप्तस्य; पुनः इन्दुना चन्द्रेण, शमितनिद्रस्य कामोद्दीपनद्वारा क्षपितनिद्रस्य, पक्षे निवर्तितसंकोचस्य, विकासितस्येत्यर्थः [च]।
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तिलकमञ्जरी
१६१ अथारुणकरपरामृष्टेषु प्रकटयितुमिव मे विषादान्धस्य भुवनाभोगमुज्झत्सु दिग्द्वाराणि शार्वरतिमिरेषु, जलतुषारासारवाहिषु विहन्तुमिव मद्विरहदाहहव्यवाहव्यथां वहत्सु मन्थरप्रभातपवनेषु, श्वासशेषावशेषजीवितजीवितमाश्वासयितुमिव मामितस्ततः प्रचलयन्तीषु पल्लवतालवृन्तानि प्रान्तवनलतासु, संध्यातपानुरञ्जितपत्रेषु सर्वरात्रजागरणजिझारुणाक्षमनुकर्तुमिव मामीषन्निमिषत्सु नीलोत्पलवनेषु, अवनितलनिषण्णनिःसहावस्थितेरुत्थापनाय हस्तावलम्बनमिव मे दातुमन्तलताभवनमन्तरालैरवतरत्सु भास्करकरेषु, निराकृतमदीयधैर्योत्कर्षितेन मकरकेतुना समुत्तम्भितासु जयपताकास्विव वियति विततायमानासु सरःशायिसारसक्रौञ्चकलहंसमालासु, जाते स्पष्टभासि प्रभातसमये, भूयोऽपि तामप्रगल्भमृगशावलोचनामन्वेष्टुमनुसृततदीयपदपतिरुदचलम् [छ ।
तां गत्वा प्रगुणमध्वनैकेन पुनरपि प्रतिनिवृत्तामुपरि पतितेन पादपप्रसवरेणुना परामृष्टपूर्वदृष्टसकलावयवशोभां कचित् सत्वरां कचित् सविलम्बां काप्यपथगां कचिन्मार्गलग्नां सरलां सैकतेषु कुञ्चितां कुश
अथ रात्रिक्षयानन्तरम् , अरुणकरपरामृष्टेषु अरुणस्य-सूर्यसारथेः, सूर्यस्य वा, करैः-किरणैः, परामृष्टेषु-आक्रान्तेषु, शार्वरतिमिरेषु रात्रिसम्बन्ध्यन्धकारेषु, विषादान्धस्य प्रकृतप्रियावियोगजन्यखेदान्धीभूतस्य, मे मम, भुवनाभोगं भुवनविस्तार, प्रकटयितुमिव प्रकाशयितुमिव, दिग्द्वाराणि दिक्सम्बधीनि द्वाराणि, उज्झत्सु त्यजत्सुः पुनः जलतुषारासारवाहिषु जलसम्बन्धिशीतलधारावर्षिषु, मन्थरप्रभातपवनेषु प्रातःकालिकमन्दवायुषु, मद्विरहदाहहव्यवाहव्यथां मदीयविरहतापाग्निव्यथां, विहन्तुमिव शमयितुमिव, वहत्सु चलत्सु; पुनः माम् , श्वासशेषावशेषजीवितजीवितं श्वासशेषरूपेण अवशेषजीवितेन-अवशिष्टप्राणेन, जीवितं-प्राणवन्तम् , आश्वासयितुमिव विश्वासयितुमिव, प्रान्तवनलतासु निकटवर्तिवनसम्बन्धिलतासु, पल्लवतालवृन्तानि पल्लवव्यजनानि, इतस्ततः अत्र तत्र, प्रचलयन्तीषु उत्क्षिपन्तीषुः पुनः सन्ध्यातपानुरञ्जितपत्रेषु सन्ध्यातपेन-दिनारम्भकालिकरक्तालोकेन, अनुरञ्जितानि-रक्तीकृतानि, पत्राणि येषां तादृशेषु, नीलोत्पलवनेषु नीलकमलकाननेषु, सर्वरात्रजागरणजिझारुणाक्षं सर्वरात्रजागरणेन-समग्ररात्रिजाग़रणेन जिह्मकुटिलम् , अरुण-रक्तं च, अक्षि-नेत्रं यस्य तादृशं, माम् , अनुकर्तुमिव उपमातुमिव, ईषत् किञ्चित् , निमिषत्सु विकसत्सु; पुनः अवनितलनिषण्णनिस्सहावस्थितेः अवनितलनिषण्णस्य-भूतलोपविष्टस्य, निस्सहावस्थितेः-दुर्बलावस्थस्य, मे मम, उत्थापनाय ऊर्ध्वावस्थापनाय, हस्तावलम्बनं करावलम्बं, दातुमिव, भास्करकरेषु सूर्यकिरणेषु, अन्तलताभवनं लतागृहाभ्यन्तरम् , अन्तरालैः मध्यवर्त्यवकाशैः, अवतरत्सु आपतत्सुः पुनः, निराकृतमदीयधैर्योत्कर्षितेन निराकृतेनअपसारितेन, मदीयधैर्येण-मदीयेन दुःखसहितत्वेन, उत्कर्षितेन-उत्कर्ष-विजयमापादितेन,मकरकेतुना कामदेवेन, समुत्तम्भितासु समुन्नमितासु, जयपताकाखिव जयध्वजेष्विव, सर शायिसारसक्रौञ्चकलहंसमालासु सरःशायिनां-निरुक्त
नशीलानां, सारसक्रौञ्चकलहंसानां-तत्तज्जातीयपक्षिविशेषाणां, मालासु-श्रेणीषु, वियति आकाशे, विततायमानासु विस्तृतायमानासु; पुनः प्रभातसमये प्रातःकाले, स्पष्टभासि स्फुटप्रकाशे, जाते संवृत्ते सति, अप्रगल्भमृगलोचनाम् अप्रौढमृगशिशुसदृशनयनां, तां तिलकमञ्जरी, भूयोऽपि पुनरपि, अन्वेष्टम् गवेषयितुम् , अनुसृततदीयपदपङ्क्तिः अनुगततत्सम्बन्धिपादचिह्नपक्तिः, उदचलं प्रयातवानहम् [छ]।
तां पदपतिम् , एकेन, अध्वना मार्गेण, प्रगुणं सरलं यथा स्यात् तथा, गत्वा, पुनरपि प्रतिनिवृत्तां परावृत्ताम् ; पुनः उपरि पतितेन स्खलितेन, पादपप्रसवरेणुना वृक्षसम्बन्धिपुष्परजसा, परामृष्टपूर्वदृष्टसकलावयवशोभां परामृष्टा-तिरोहिता, पूर्वदृष्टा, सकला-समग्रा, अवयवशोभा-अङ्गुल्यादिचिह्नशोभा यस्यां तादृशी; पुनः क्वचित् कस्मिंश्चित् स्थाने, सत्वरां सवेगां; पुनः क्वचित् कुत्रापि, सविलम्बां विलम्बेन सहितां; पुनः क्वापि कुत्रचित् , अपथगां मार्गभ्रष्टा, पुनः क्वचित् मार्गलग्नां मार्गसंबद्धाः पुनः सैकतेषु सिकतामयस्थलेषु, सरलाम् ऋजुरूपां; पुनः कुशस्तम्बेषु
२१ तिलक.
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टिप्पनक - परागविवृतिसंवलिता ।
बेषु खण्डितां गण्डशैलेषु वलितां वृक्षमूलेषु कुटिलां पङ्कपटलेषु विरलां बालवननदीवेणिकोत्तारेषु स्पष्टामूषरेषु नष्टां शिलाफलकेषु निश्चलया दृशा निपुणमीक्षमाणः पदश्रेणिमेलालतासदनस्य तस्य प्रान्तवर्तिषु वननिकुञ्जेष्वतिचिरं व्यचरम् । उपलब्धपर्यन्तश्च पर्यायेण तस्याः क्षणेनैव शिथिलीभूतसर्वाङ्गसंधिः सविधवर्तिनस्तरोरेकस्य मूले निरवलम्बमात्मानममुञ्चम् [ज] । क्रमातिवाहितविततमूर्च्छान्धकारश्च 'किं करोमि, कं पृच्छामि, कां दिशमनुसरामि, केनोपायेन तां पुनरपि द्रक्ष्यामि शून्येऽस्मिन्नरण्ये' इति विचिन्त्य वारं वारमुत्थाय च ततो वृथाशया तरलिताशयस्तुङ्गमारुह्य तटमेकमुन्मुखः सकलान्यपि समन्ततो दिङ् - खान्यवालोकयम् । अपश्यं च तस्य सरस उत्तरे तीरे दूरतः श्रूयमाणमुखरपक्षारवमेक हेलयोत्पतितमन्तरिक्षे दिङ्मुखान्याश्रयन्तं जलपतत्रिणां समूहम् । उपजातकुतूहलश्च तेन तस्याकस्मिकक्षोभेण गत्वा दृष्ट्वा च सर्वतो दत्तनिपुणदृष्टिस्तं प्रदेशमकरवं मनसि [झ ]- 'हन्त ! यथेदमतिदूरसीम न्तितसान्द्रशैवलप्रतानमभिनवोपलक्ष्यमाणकोमलमृणालिका भङ्गमसकलप्रशान्तपङ्ककलङ्कधूस रसरस्तीरसलिलम्, यथा सरसकर्णिका
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कुशपुञ्जेषु, कुञ्चितां कुटिलां पुनः गण्डशैलेषु पर्वतच्युतस्थूलपाषाणेषु, खण्डितां विच्छिन्नां; पुनः वृक्षमूलेषु वृक्षाधःस्थलेषु, वलितां वत्रीकृतां; वलयितामिति पाठे मण्डलीभूतां पुनः पङ्कपटलेषु पङ्कराशिपु, कुटिलां वक्रां; पुनः बालवननदीवेणिकोत्तारेषु नवीन वनोद्गत नदीप्रवाहावतारेषु विरलां सान्तरां, पुनः ऊपरेषु क्षारमृत्तिकासु, स्पष्टां स्फुटां; पुनः शिलाफलकेषु प्रस्तरफलकेषु, नष्टां तिरोहितां, पदश्रेणिं पादाकृतिपङ्क्ति, निश्चलया स्थिरया, दृशा, निपुणं स्फुटम्, ईक्षमाणः पश्यन्, तस्य निरुक्तस्य, एलालतासदनस्य एलालतागृहस्य, प्रान्तवर्तिषु पार्श्ववर्तिषु, वन निकुञ्जेषु लतापिहितोदरेषु च, अतिचिरम् अतिदीर्घकालं व्यचरं भ्रान्तवान् । पर्यायेण क्रमेण, तस्याः पादश्रेण्याः, उपलब्धपर्यन्तः प्राप्तान्तावधिः, क्षणेनैव क्षणमात्रेण, शिथिलीभूतसर्वाङ्गसन्धिः शिथिलीभूताः - दौर्बल्यमापन्नाः, सर्वाङ्गसन्धयःसमग्राङ्गग्रन्थयो यस्य तादृशः सन् सविधवर्तिनः निकटवर्तिनः एकस्य, तरोः वृक्षस्य, मूले अधःस्थळे, निरवलम्बं चैतन्यशून्यं, मूच्छतमित्यर्थः, आत्मानं खम्, अमुञ्चं त्यक्तवान् [ ज ] । च पुनः क्रमातिवाहितविततमूर्च्छान्धकारः क्रमेण - शनैः शनैः, अतिवाहितः - अतिक्रान्तः, विततः - विस्तृतः, मूर्च्छारूपः - अचैतन्यरूपः, अन्धकारो येन तादृशः सन् किं करोमि प्रतिकरोमि, पुनः कं तदभिज्ञजनं, पृच्छामि तद्वार्तामित्यर्थः, पुनः कां दिशं यस्यामसी मिलेदित्यर्थः, अनुसरामि अनुव्रजामि, पुनः शून्ये निर्जने, अस्मिन्, अरण्ये वने, केन उपायेन प्रतीकारेण, पुनरपि तां तिलकमञ्जरी, द्रक्ष्यामि दृष्टिगोचरीकरिष्यामि, इति विचिन्त्य वितर्क्स, च पुनः, ततः वृक्षमूलात् वारं वारम् अनेकवारम् उत्थाय, वृथाशया निष्फलाशया, तरलिताशयः चञ्चलीकृतचेताः, तुङ्गम् उच्चम् एकं तटं तीरभागम्, आरुह्य उन्मुखः ऊर्ध्वमुखः सन्, सकलान्यपि समग्राण्यपि, दिङ्मुखानि दिगन्तान्, अवालोकयम् अवलोकितवानहम् । च पुनः, तस्य प्रकृतस्य, सरसः सरोवरस्य, उत्तरे तीरे, दूरतः दूरस्थानात् श्रूयमाणमुखरपक्षारखं श्रूयमाणाः, मुखराणां - वाचालानां, पक्षाणाम्, आरवाःध्वनयो यस्य तादृशम्, पुनः एकहेलया एक्क्रीडया, युगपदित्यर्थः, अन्तरिक्षे आकाशे, उत्पतितम् उड्डीनं, दिङ्मुखानि दिगन्तान्, आश्रयन्तं प्राप्नुवन्तं, जलपतत्रिणां जलपक्षिणां, समूहं गणम्, अपश्यं दृष्टवानहम् । च पुनः, तस्य जलपक्षिगणस्य, तेन श्रुतेन, आकस्मिकक्षोभेण अतर्कितोत्पतनेन, उपजातकुतूहल : उत्पन्नौत्सुक्यः, गत्वा च पुनः, सर्वतः सर्वभागेषु दत्तनिपुणदृष्टिः व्यापारिततीव्रलोचनः तं तदुत्पतनावधिकं, प्रदेशं स्थानं, दृष्ट्वा, मनसि हृदये, अकरवम् आलोचितवानहम् [झ ] । हन्त खेदः, अतिदूरसीमन्तितसान्द्रशैवलप्रतानम् अतिदूरे - अधिकदूरे, सीमन्तितः - विन्यस्तकेशपाशवदाबद्धः, सान्द्रशैवलप्रतानः - निविडजलतृणविशेषराशिर्यस्मिंस्तादृशम्, पुनः अभिनवोपलक्ष्यमाणकोमलमृणालिकाभङ्गम् अभिनवाः- नवीनाः, उपलक्ष्यमाणाः - नवीत्वेन प्रतीयमानाः, कोमलाः, मृणालिकाभङ्गाः - बिसखण्डा यस्मिंस्तादृशम्, इदं पुरोवर्ति, असकलप्रशान्तपङ्ककलङ्कधूसर सरस्तीरसलिलम् असकलप्रशान्तेन - असमग्रनिवृत्तेन, पङ्करूपेण कलङ्केन, धूसरं-किञ्चित्पाण्डुवर्णं, सरस्तीरस लिलं निरुक्तसरोवरतट वर्तिजलं, यथा यादृशं 'दृश्यते' इत्यग्रेणान्वेति; पुनः
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तिलकमञ्जरी
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वलयैरविवर्णकेशरकलापैर्विकाशदूरोत्तानपत्रपङ्किभित्रुटितनालैरपि सरोरुहैरलंकृतेयं पुलिनभूमिः, यथा च तोयाद्रपदपङ्किमुद्रितरेणुरेष मार्गे दृश्यते, तथा तर्कयामि - सांप्रतमेव कृतप्रातः स्नानो दत्तदिनकरार्घाञ्जलिः पुरुषेषु नारीषु वा गतः स्थानादितः कोऽपि निजमावासम्, इति संप्रधार्योदङ्मुखस्तेनैव दृष्टेनाध्वना स्तोकमव्रजम् । अपश्यं च तं दिगन्तरव्यापिना दीप्तिनिवहेन दूरत एव सिन्दूरितनभोभागं पद्मरागशिलामयं प्रासादम्, यदीयपर्यन्तोपवनमध्यवर्ती गन्धर्वकोपदिष्टवर्त्मना मठादेत्य दृष्टस्त्वयाहम् । प्रविश्य च तत्र कृतदेवतानमस्कारो नातिनेदीयसि शिलामण्डपद्वारस्य मणिशिलादारुमत्तवारणे समुपाविशम् [ञ ] ।
अपश्यं च तत्राष्टादशवर्षदेशीयाम्, अचिरस्नापितस्य विकासितोत्तानपत्रप्रान्तविगलदम लोदबिन्दुभिस्तत्क्षणप्रतिबुद्धानामुद्यानदीर्घिकाजलदेवतानामीक्षणप्रवृत्तजृम्भिकाश्रुकणिकैर्मुख प्रतिबिम्बैरिव सद्यो जलादुद्धृतैः कनकारविन्दैरुपरचितपूजस्य तत्क्षणोत्क्षिप्तधूपवर्तेर्युगादिजिनबिम्बस्य पुरतो नातिनिकटे समुपविष्टामभि
सरसकर्णिकावलयैः सरसम् - आर्द्र, कर्णिकावलयं - बीजकोषमण्डलं येषां तादृशैः, पुनः अविवर्णकेशर कलापैः अविवर्णःअमलिनः, केशरकलापः–किञ्जल्कपुञ्जो येषां तादृशैः, पुनः विकाशदूरोत्तानपत्रपङ्किभिः विकाशेन दूरम् उत्ताना- औन्मुखेन प्रसृता, पत्रपङ्क्ङ्किः-पत्रश्रेणी येषां तादृशैः, त्रुटितनालैरपि खण्डिताधारदण्डैरपि, सरोरुहैः कमलैः, अलङ्कृता विभूषिता, इयं प्रत्यक्षभूता, पुलिनभूमिः अचिरजलोद्गतस्थली, यथा यादृशी दृश्यते च पुनः, एषः अयं, मार्गः, यथा यादृशः, तोयार्द्रपदपङ्किमुद्रितरेणुः तोयार्द्रया- जलार्द्रया, पदपङ्ख्या - पादाकृतिपङ्क्या, मुद्रिताः - स्तब्धाः, रेणवो यस्मिंस्तथाभूतः, दृश्यते दृष्टिपथमवतरति; तथा तेन प्रकारेण, तर्कयामि सम्भावयामि, यत् साम्प्रतमेव अधुनैव, कृतप्रातः स्नानः विहितप्राभातिकस्नानक्रियः, पुनः दत्तदिनकरार्घाञ्जलिः दत्तसूर्यार्घः, पुरुषेषु नरेषु, नारीषु स्त्रीषु वा, मध्ये, कोऽपि कश्चिज्जनः, इतः अस्मात्, स्थानात् प्रकृतसरस्त प्रदेशात्, निजं स्वकीयम्, आवासं निवासस्थानं, गतः, इति इत्थं, सम्प्रधार्य निश्चित्य, उदङ्मुखः उत्तराभिमुखः, दृष्टेन पूर्वमवलोकितेन, तेनैव पूर्वं गतेनैव, अध्वना मार्गेण, स्तोकं किञ्चित्, अव्रजं गतवान् । च पुनः, दिगन्तव्यापिना दिगन्तविस्तारिणा, दीप्तिनिवहेन प्रभाजालेन, दूरत एव दूरादेव, सिन्दूरितनभोभागं सिन्दूरितः-रक्तीकृतः, नभोभागः- आकाशप्रदेशो येन तादृशं, पद्मरागशिलामयं पद्मरागाख्यरक्तमणिमयं तं प्रासादं देवतामन्दिरम् अपश्यं दृष्टवानहम्, यदीयपर्यन्तोपवनमध्यवर्ती यत्प्रान्तवर्युपवनमध्यस्थः, अहम्, गन्धर्वकोपदिष्टवर्त्मना गन्धर्वकाख्यविद्याधर बालकदर्शितमार्गेण, मठात्, एत्य आगत्य त्वया, अहं दृष्टः साक्षात् कृतः । च पुनः, तत्र तस्मिन्, प्रासादे, प्रविश्य अभ्यन्तरं गत्वा, कृतदेवतानमस्कारः, नातिनेदीयसि किञ्चिन्निकटवर्तिनि शिलामण्डपद्वारस्य निरुक्तशिलामयमन्दिरद्वारसम्बन्धिनि, मणिशिलादारुमत्तवारणे मणिमये दारौ भव्ये, मत्तवारणे - प्रमादिजनवारके स्थानविशेषे, समुपाविशं सम्यगुपविष्टवानहम् [ झ ] ।
च पुनः, तत्र तस्मिन् मन्दिरे, 'एकाम् असहायां, तापसकन्यकां तपखिनीं कुमारिकाम्' इत्यग्रेणान्वेति, अपश्यम् अवलोकितवान् कीदृशीम् ? अष्टादशवर्षदेशीयां किञ्चिदूनाष्टादशवर्षवयस्काम्; पुनः कीदृशीम् ? युगादिजिनबिम्बस्य युगस्य आदिः-सर्वप्रथमावतीर्णः, यो जिनः, आदिनाथ इत्यर्थः, तद्विम्बस्य - तत्प्रतिमायाः, पुरतः अग्रे, नातिनिकटे किञ्चित् समीपे समुपविष्टां सम्यगुपविष्टाम् कीदृशस्य तद्विम्बस्य ? अचिरस्नापितस्य किञ्चित् पूर्वं सम्पादितस्नानस्य, पुनः कनकारविन्दैः सुवर्णकमलैः, उपरचितपूजस्य विहितार्चनस्य, कीदृशैः ? विकासितोत्तानपत्र प्रान्तविगलदमलोद बिन्दुभिः विकासितानाम्—उत्तानानाम्, उन्नतानां पत्राणां प्रान्तेभ्यः - सीमाप्रदेशेभ्यः, विगलन्तः - स्रवन्तः, अमलाः- स्वच्छाः, उदबिन्दवःजलकणा येषां तादृशैः, पुनः तत्क्षणप्रतिबुद्धानां तत्कालजागरितानाम्, उद्यानदीर्घिकाजलदेवतानाम् उपवनवर्ति वापि का जलाधिष्ठातृदेवतानाम्, ईक्षण प्रवृत्तजृम्भिकाऽऽश्रुकणिकैः ईक्षणप्रवृत्ताः - नयनगलिताः, जृम्भिकाम्बुकणिकाःशरीरान्तर्वर्तिवायुकृतवदनव्यादानोद्गत नेत्रजलबिन्दवो येषु तादृशैः, मुखप्रतिबिम्बैरिव मुखप्रतिछायात्मकैरिव, सद्यः तत्क्षणं, जलात् वापीस्थजलमध्यात्, उद्धृतैः ऊर्ध्वमानीतैः पुनः कीदृशस्य ! तत्क्षणोत्क्षिप्तधूपवर्तेः तत्क्षणं-तत्कालम्, उत्क्षिप्ता
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टिप्पनक - परागविवृतिसंवलिता ।
मुखीम् [८], आबद्धपद्मासनाम्, अतिस्थिरतया कायस्य लिखितामिवोत्कीर्णामिव निखातामिव स्तम्भितामिव विभाव्यमानाम्, आयतनभित्तिसंरोधसंभृतस्य निजदेहप्रभा प्रवाहस्य मध्ये मुग्धशशिकला मिव दुग्धाब्धिपयसः कृच्छ्रेणोपलक्ष्यमाणावयवाम्, अच्छललाटलावण्यलीनमतीव महाभोगमपि भगवतो युगादिजिनस्य बिम्बमल्पाश्रयावस्थापनेन तनिमानमानीय भक्तयतिशयादिवोत्तमाङ्गेनोद्वहन्तीम् [ठ ], पृष्ठपीठावलम्बिना विरलविरलस्नानजलबिन्दुदन्तुरेण शापदानाशङ्किनेव मन्दमन्दमायामिना केशभारेण स्पृश्यमानपृथुनितम्बभाराम्, अनवरतमन्त्रोच्चारविघटितोष्ठपुटनिष्ठ्यूतैरमलकान्तिभिर्दन्तकिरणैर्ध्यानमुकुलितायतापाङ्गेषु संगलितमुत्सारयन्तीमतो गर्भगृहगोचरं ध्वान्तजालम्, आमलकीफलस्थूलमुक्ताफलग्रथितमधोमुखमयूखेन चक्षुषा लक्ष्यीकृतमक्षसूत्रमङ्गुष्ठलतया मन्त्रपाठपरिसमाप्तौ दक्षिणाग्रकरपरिगृहीतमावर्तयन्तीं, दिव्यतरुवल्कलदुकूलनिवसनाम्, एकामखिललोकत्रयातिशायिरूपां तापसकन्यकाम् [ ड ] |
उपरि सञ्चारिता, धूपवर्तिः- गन्धद्रव्योत्थधूम शिखा यस्य तादृशस्य [ ट ]; पुनः कीदृशीम् ? अभिमुखीम् आदिजिन सम्मुखीम् ; पुनः आबद्धपद्मासनां रचितपद्माकारासनाम्; पुनः कायस्य शरीरस्य, अतिस्थिरतया अतिनिश्चलतया, लिखितामिव चित्रितामिव पुनः उत्कीर्णामिव मृदादिपुञ्जवदुत्क्षिप्तामिव पुनः निखातामिव स्तम्भादिवदन्तर्वद्धमूलामिव पुनः स्तम्भितामिव जडीकृतामिव विभाव्यमानां प्रतीयमानाम्; पुनः आयतनभित्तिसंरोधसम्भृतस्य आयतनभित्त्यामन्दिरकुड्येन, यः संरोधः - अवरोधः, तेन, यद्वा तद्भित्तिरूपेण, संरोधेन-तटेन, सम्भृतस्य- वर्धितस्य, निजदेहप्रभाप्रवाहस्य स्वशरीरकान्तितरङ्गस्य, मध्ये कृच्छ्रेण आयासेन, उपलक्ष्यमाणावयवाम् उपलक्ष्यमाणाः - प्रभातः पार्थक्येन प्रतीयमानाः, अवयवाः-अङ्गानि यस्यास्तादृशीम्, कस्य मध्ये कामिव ? दुग्धाब्धिपयसः क्षीरसमुद्रजलस्य, मध्ये, मुग्धशशिकलामिव मुग्धा - मूढा मनोहरा वा या शशिकला - चन्दकला तामिव पुनः अच्छललाटलावण्यलीनम् अच्छे-निर्मले, ललाटलावण्ये - ललाटसौन्दर्ये, लीनं तिरोहितम्, अतीव महाभोगमपि अत्यधिक विशालमपि, भगवतः परमैश्वर्यशालिनः, युगादिजिनस्य युगारम्भावतीर्णजिनस्य, आदिनाथस्येत्यर्थः, विम्बं मूर्तिम्, अल्पाश्रयावस्थापनेन सङ्कीर्णललाटप्रदेशावस्थापनेन, तनिमानं कृशताम्, आनीय प्रापय्य, भक्त्यतिशयादिव प्रीत्युत्कर्षादिव, उत्तमाङ्गेन शिरसा, उद्वहन्तीं .. धारयन्तीम् [ ठ ]; पुनः पृष्ठपीठावलम्बिना पृष्ठप्रदेशावलम्बिना, विरल विरलस्नानजल बिन्दुदन्तुरेण विरलविरलैःअल्पाल्पप्रमाणैः, स्नानजलबिन्दुभिः - स्नानजलकणैः, दन्तुरेण - व्याप्तेन, पुनः शापदानाशङ्किनेव अशुभाशंसनसन्देहिनेव, मन्दमन्दं शनैः शनैः, आयामिना अधःप्रसारिणा, केशभारेण केशराशिना, स्पृश्यमान पृथुनितम्बभारां स्पृश्यमानःसंपृच्यमानः, पृथुनितम्बभारः-स्थूलनितम्बमण्डलं यस्यास्तादृशीम् ; पुनः अनवरतमन्त्रोच्चारविघटितोष्ठपुटनिष्ठयूतैः अनवरतं-निरन्तरं, मन्त्रोच्चारेण मन्त्रपाठेन, विघटिताद् - विश्लिष्टात्, ओष्ठपुटात्, निष्ठयूतैः-निर्गलितैः, अमलकान्तिभिः उज्वलच्छविभिः, दन्तकिरणैः दन्तरश्मिद्वारा, ध्यानमुकुलितायतापाङ्गेषु ध्यानमुकुलितेषु-ध्याननिमीलितेषु, आयतेषुविस्तृतेषु, अपाङ्गेषु-नेत्रप्रान्तप्रदेशेषु, संगलितम् आपतितम्, गर्भगृहगोचरम् अभ्यन्तरगृहस्थं, ध्वान्तजालम् अन्धकारसमूहम्, अग्रतः अग्रे, उत्सारयन्तीम् अपनयन्तीम् ; पुनः आमलकीफलस्थूलमुक्ताफलग्रथितम् आमलकीफलस्थूलैः-आमलकीफलवत्-धात्रीफलवत्, स्थूलैः, मुक्ताफलैः - मुक्तामणिभिः, ग्रथितम्, पुनः अधोमुखमयूखेन अधोमुखकिरणेन, चक्षुषा नेत्रेण, लक्ष्यीकृतं गोचरीकृतं, दक्षिणाग्रकरपरिगृहीतं दक्षिणकराग्रधृतम्, अक्षसूत्रं जपमालां, मन्त्रपाठपरिसमाप्तौ मन्त्रपाठावसाने अङ्गुष्ठलतया लताकाराङ्गुष्ठेन, आवर्तयन्तीं पुनः पुनः सञ्चालयन्तीम् ; पुनः दिव्यतरुवल्कल दुकूलवसनाम् उत्तमवृक्षत्वग्रूपपट्टवस्त्रं परिदधानाम् पुनः अखिललोकत्रयातिशायिरूपां समग्रत्रिभुवनोत्कृष्टरूपाम् [ड ] |
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तिलकमञ्जरी
१६५ तस्याश्च चक्षुराह्लादकारिणा दर्शनेन दूरोल्लसितचेताः पुनरचिन्तयम्दत्ते पत्रं कुवलयततेरायतं चक्षुरस्याः, कुम्भावैभौ कुचपरिकरः पूर्वपक्षीकरोति । दन्तच्छेदच्छविमनुवदत्यच्छता गण्डभित्ते-, श्चान्द्रं बिम्बं द्युतिविलसितैर्दूषयत्यास्यलक्ष्मीः ।। १ ।। अस्या नेत्रयुगेन नीरजदलस्रग्दामदैर्घ्यद्रुहा, चञ्चत्पार्वणचन्द्रमण्डलरुचा वक्त्रारविन्देन च। स्वामालोक्य दृशं रुचं च विजितां तुल्यं त्रपाबाधितैर्बद्धा निर्जनसंचरेषु कमलैर्मन्ये वनेषु स्थितिः ॥२॥ [6]।
अथासौ मुनिकन्यका समाप्तमन्त्रजपविधिरुत्थाय कृतदेवताप्रणामा गृहीतपुष्पपटलिकया पृष्ठतः परिचारिकयानुगम्यमाना हसितमदमत्तहंसगतिर्निर्गय मन्थरैः पदन्यासैरायतनपर्यन्तवर्तिषु प्रासादकेषु प्रतिष्ठिता जिनप्रतिमाः क्रमेणापूजयत् । कृतप्रदक्षिणा मूलायतनस्य समुपेत्य पुरतो मे बभूव । दृष्ट्वा च
टिप्पनकम्-"दत्ते पत्रम्” इत्यादि श्लोकः, कुवलयततेः नीलोत्पलराजेः, चक्षुः नेत्रम्, अस्या दत्ते पत्रम् , किमुक्तम् ? तदनुकारि नयनम् , कुम्भावैभौ कुचपरिकरः पूर्वपक्षीकरोति कुचपरिकरः-स्तनविस्तरः, कुम्भौ [ऐभौ ] गजसत्कौ, पूर्वपक्षीकरोति-अनुकरोतीत्यर्थः, अनुवदति अनुकरोति, दूषयति अनुकरोति, वादिपत्रव्यवस्थया काव्यकरणमिदं, केवलं सर्वत्र सादृश्यं प्रतिपाद्यम् ॥ "अस्याः०” इत्यादि श्लोकः, कमलैः हरिणैः पद्मश्च, वनेषु अरण्येषु जलेषु च [6]।
च पुनः, चक्षुराह्लादकारिणा नयनानन्दजनकेन, तस्याः कन्यकायाः, दर्शनेन, दूरोल्लसितचेताः दूरोन्नतहृदयः सन् , पुनः अचिन्तयं वक्ष्यमाणप्रकारेणोत्प्रेक्षितवानहम् । अस्याः प्रत्यक्षीभूतकन्यायाः, आयतं दीर्घ, चक्षुः नेत्रं, कुवलयततेः नीलोत्पलराशेः, पत्रं कर्मतापनं दलं, दत्ते समर्पयति, नीलोत्पलदलसदृशं लोचन मिति भावः, पुनः कचपरिकरः स्तनविस्तारः, ऐभौ इभस्य-हस्तिन इमो, हस्तिसम्बन्धिनावित्यर्थः, कुम्भौ मस्तकभागौ, पूर्वपक्षीकरोति पूर्वपक्षतामापादयति, तादृशकुम्भगतसादृश्याधिक्येन तिरस्करोतीत्यर्थः, गण्डभित्तेः कपोलरूपभित्तेः, अच्छता उज्ज्वलता, दन्तच्छेदच्छविं दन्तस्य-हस्तिदन्तस्य, छेदे-छेदने कृते सति, छिन्नभागे या छविः-पाण्डुवर्णा कान्तिस्ताम्, अनुवदति अनुकरोति, उपमिनोतीत्यर्थः, आस्यलक्ष्मीः मुखमण्डलशोभा, द्युतिविलसितैः कान्तितरङ्गः, चान्द्रं चन्द्रसत्कं, विम्बं मण्डलं, दूषयति सकलङ्कतया आक्षिपति ॥१॥
मन्ये उत्प्रेक्षे, अस्याः प्रत्यक्षवर्तिन्याः कन्यकायाः, नीरजदलस्रग्दामदैर्घ्यद्रुहा कमलदलमालामयरज्जुदीर्घतातिरस्कारिणा, नेत्रयुगेन नयनद्वयेन, च पुनः, चश्चत्पार्वणचन्द्रमण्डलरुचा चञ्चत्पार्वणचन्द्रमण्डलस्येव-उद्यत्पूर्णिमाचन्द्रबिम्बस्येव, रुक-कान्तिर्यस्य तादृशेन, वक्त्रारविन्देन मुखकमलेन, विजितां तिरस्कृतां, स्वाम् आत्मीयां, दृशं नेत्रं, च पुनः, रुचं छविम् , आलोक्य दृष्ट्वा, त्रपाबाधितैः लजाव्यथितैः, कमलैः मृगैः पद्मश्च, निर्जनसञ्चरेषु जनसंचारशून्येषु, वनेषु अरण्येषु जलेषु च, तुल्यं सदृशं यथा स्यात् तथा, स्थितिः निवासः, बद्धा सर्वदा कृता, एतदीयनयनश्रिया तिरस्कृतां खशोभामवेक्ष्य लजितैर्मगैररण्येषु पद्मश्च जलेषु निवासः स्वीकृत इत्युत्प्रेक्षार्थः ॥२॥
अथ अनन्तरं, समाप्तमन्त्रजपविधिः समाप्तीकृतमन्त्रजपात्मककार्या सती, उत्थाय ऊर्वीभूय, कृतदेवताप्रणामा कृतमन्त्राधिष्ठातृपुरोवर्तिदेवतानमस्कारा, गृहीतपुष्पपटलिकया धृतपुष्पपुञ्जया, परिचारिकया मृत्यया, पृष्ठतः पश्चाद्भागे, अनुगम्यमाना अनुत्रियमाणा, हसितमदमत्तहंसगतिः तिरस्कृतमदमत्तहंसगमना, मन्थरैः मन्दः, पदन्यासैः पादविक्षेपैः, निर्गत्य निःसृत्य, आयतनपर्यन्तवर्तिषु निरुक्तप्रधानमन्दिरप्रान्तवर्तिषु, प्रसादकेषु लघुमन्दिरेषु, प्रतिष्ठिताः सन्निविष्टाः, जिनप्रतिमाः जिनमूर्तीः, कमेण, अपूजयत् पूजितवती । पुनः मूलायतनस्य प्रधानमन्दिरस्य, कृतप्रदक्षिणा विहितप्रदक्षिणभ्रमणा, समुपेत्य निकटं समागत्य, मे मम, पुरतः अग्रे, बभूव स्थिता। च पुनः, उपरतनिमेषावेशम् उपरतं-निवृत्तं, निमेषस्य-पक्ष्मस्पन्दस्य, आवेशम्-आसङ्गम् , च पुनः, आकृतिविशेषं विलक्षणमाकारं, सुचिरं दीर्घकालं
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टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता । सुचिरमुपरतनिमेषावेशमाकृतिविशेषं च रचितकरसंपुटा स्वागतशब्दपूर्वमभ्यधित—'महाभाग! भाग्यैर्मादृशामिहानीतोऽसि, उत्तिष्ठ, सर्वदा सुखोचितामपि देहि कतिचित् पदानि गमनखेदस्य तनुम् , अनुगृहाण दर्शनेन वनवासिनोऽस्य जनस्य वसतिम् [ण] । इत्यभिहितोऽहं तया ससंभ्रममवतीर्य मत्तवारणात् प्रणम्य बद्धाञ्जलिः 'यथादिशसि' इत्युदीर्य तन्मार्गमनुसरन् यत्रागतेन त्वया गन्धर्वको दृष्टस्तमेव त्रिभूमिकं मठमागच्छम् । प्रथममारूढे च मयि सा तापसकन्यका समारुह्य नागदन्तावलम्बितनिविडवल्कलास्तरणायां भित्तिमूलघटितोत्तानगण्डोपधानपट्टायामचिरप्रमृष्टकुट्टिमशुचौ शयनशालायामवस्थापिताक्षमाला निर्गत्य धौतकरचरणयुगला कमण्डलुजलेन सकलामपि ममार्घादिकामतिथिपूजामकरोत् । स्वहस्तोपनीतरुचिरपट्टासनया च तया पुरः सविनयमुपविष्टया विलम्ब्य क्षणं पृष्टः सकलमपि संक्षिप्य निजवृत्तान्तमावेदयम् [त] । द्विगुणमुपजातपक्षपाता च सा तदाकर्णनेन तत्कालमागत्य द्वारदेशे दत्तदर्शनामध्वरेणुधूसरचरणयुगलां कन्दफलमूलपूर्णमभिनवं पलाशपत्रपुटकमुद्वहन्तीं बनान्तरादागतां परिचारिकामवलोक्य मामवोचत्
यावत , दृष्ट्वा अवलोक्य, रचितकरसम्पुटा निर्मिताञ्जलिः, स्वागतशब्दपूर्व स्वागतशब्दोच्चारणपुरस्सरम् , अभ्यधित उक्तवती, 'महाभाग! महानुभाव!, मादृशां मत्प्रभृतीनां, भाग्यैः कर्तृभिः, इह अस्मिन् वनोद्देशे, आनीतः उपस्थापितः, असि वर्तसे। उत्तिष्ठ उत्थानं कुरु,सर्वदा सर्वकाले, सुखोचितामपि सुखयोग्यामपि, यद्वा अभ्यस्तसुखामपि, तनुं खशरीरं, कतिचित् कतिपयानि, पदानि पादविक्षेपस्थानानि, गमनखेदस्य गमनश्रमार्थ, देहि अर्पय, वनवासिनः वनवासशीलस्य, अस्य मदभिन्नस्य, जनस्य लोकस्य, वसतिं वासस्थानं, दर्शनेल दृष्टिपातेन, अनुगृहाण अनुकम्पय [ण], तया कन्यकया, इति इत्थम् , अभिहितः उक्तः, अहम् , मत्तवारणात् तन्मन्दिरस्थोचप्रदेशविशेषात् , ससम्भ्रमं सत्वरम् , अवतीर्य अधस्तादागत्य, प्रणम्य नमस्कृत्य, बद्धाञ्जलिः रचिताञ्जलिः सन् , 'यथा आदिशसि आज्ञापयसि' इति उदीर्य उक्त्वा, तन्मार्ग तन्निवासस्थानमार्गम् , अनुसरन् अनुगच्छन् , यत्र यस्मिन् मठे, आगतेन त्वया गन्धर्वकः तदाख्यविद्याधरबालकः, दृष्टः, तमेव त्रिभूमिकं भूमिकात्रयविशिष्टं, मठं तपोमन्दिरम् , आगच्छम् आगतवान् , च पुनः, प्रथमं पूर्व, मयि हरिवाहने, आरूढे तन्मठभूमिकायां कृतारोहणे सति, सा तापसकन्यका ब्रह्मचारिणी, समारुह्य सम्यगारुह्य, नागदन्तावलम्बितनिबिडवल्कलास्तरणायां नागदन्ते-भित्तिनिखातहस्तिदन्ते, अवलम्बितम्-अवस्थापितं, निबिडंसान्द्र, वल्कलास्तरणं-वृक्षत्वगात्मकावरणं यस्यां तादृश्यां, पुनः भित्तिमूलघटितोत्तानगण्डोपधानपट्टायां भित्तिमूलेनिरुक्तमठकुड्याधःस्थले, घटितं-स्थापितम् , उत्तानम्-अनिम्नं, गण्डोपधानपट्टे-कपोलोपधानफलकं यस्यां तादृश्यां, पुनः अचिरप्रमृष्टकुट्टिमशुचौ अचिरप्रमृष्टेन-किञ्चित् पूर्व विशोधितेन, कुट्टिमेन–मणिबद्धस्थलेन, शुचौ-शुभ्रायां, शयनशालायां शयनगृहे, अवस्थापिताक्षमाला मुक्तजपमाला सती, निर्गत्य ततो निःसृत्य, धौतकरचरणयुगला धौतं-प्रक्षालितं, करचरणयुगलं-हस्तपादद्वयं यया तादृशी, कमण्डलुजलेन कमण्डलद्धृतजलेन, अर्घादिकां पादप्रक्षालनादिका, सकलामपि समग्रामपि, मम, अतिथिपूजाम् अतिथिसक्रियाम् , अकरोत् कृतवती । च पुनः, स्वहस्तोपनीतरुचिरपट्टासनया खहस्तेन, उपनीतं-दत्तं, रुचिरं-मनोहरं पट्टासनं-महाऽऽसनं शिलाफलकरूपं वा आसनं यया तादृश्या, तया कन्यया, पुरः अग्रे, सविनयं सादरम् , उपविष्टया निषण्णया सत्या, क्षणं क्षणमात्रं, विलम्ब्य, पृष्टः जिज्ञासां ज्ञापितः सन् , सकलमपि समस्तमपि, निजवृत्तान्तं स्वसमाचारं, संक्षिप्य, आवेदयं विज्ञापितवानहम् [त] च पुनः, तदाकर्णनेन तदावेदितवृत्तान्तश्रवणेन, द्विगुणं पूर्वतो द्विगुणमधिकमधिकं यथा स्यात् तथा, उपजातपक्षपाता उत्पन्ननहा, सा कन्यका, तत्कालं तत्क्षणम् , आगत्य उपस्थाय, द्वारदेशे प्रकृतमठप्रवेशनिर्गमस्थाने, दत्तदर्शनां दृष्टिपथमागतां, पुनः अध्वरेणुधूसरचरणयुगलाम् अध्वरेणुभिः-मार्गधूलिभिः, धूसरम्-ईषत्पाण्डुवर्ण, चरणयुगलं-पादद्वयं यस्यास्तादृशीम् , पुनः कन्दफलमूलपूर्ण तद्याप्तम् , अभिनवं नूतनं, पलाशपत्रपुटकं पलाशसम्बन्धिपात्राकारसंश्लिष्टपत्रम्, उद्वहन्तीं धारयन्तीम् , पुनः वनान्तराद् वनमध्यात् , आगतां, परिचारिकां सेविकाम् , अवलोक्य दृष्ट्वा, माम् , अवोचत् उक्तवती ।
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तिलकमञ्जरी 'राजपुत्र ! निरन्तरलतागुल्मगहनान्तरितदर्शनस्य वननिवासिनस्तपस्विलोकस्य कृताकृतमिव ज्ञातुमम्बरशिखरमारूढोऽयमखिलजगतः कर्मसाक्षी भगवानुष्णरश्मिः, गन्तव्यमधुना मया मध्याह्नकाल क्रियाकरणाय वनमध्यम् , त्वमप्युत्तिष्ठ सहितो मयैव, अनुतिष्ठ मध्यन्दिनकृत्यम् , आसन्नवर्ती भोजनसमयः' इत्यभिधाय चलिता [थ] । गता च क्रमेण रमणीयपरिसरामेकामरण्यसरसीम् । तस्याश्च पृथुलमणिशिलासोपाननद्धे तीर्थरोधसि कृतावस्थाना स्थापयित्वा कमण्डलुमादाय कुसुमान्यासन्नजाताभ्यो वनलताभ्यो निक्षिप्य सलिलक्षालितेऽन्यतमसोपाने कृतस्नाना दत्तदिनकरार्घाञ्जलिर्जपन्ती पवित्राणि गायत्रीपदानि तावदास्त, यावन्मे देवतार्चनकर्म निर्माणमगमत् [द] । अवसिते च तस्मिन्नुत्थाय सा प्रथममेव प्रक्षाल्य पुलिनभूमावुद्वापितं परिधाय हंसधवलं दिव्यतरुवल्कलांशुकमन्तिकं मे समागच्छत् । उपनीतपत्रपात्रा च पुरतो निविश्य सादरं स्वहस्तेनापवर्जितैः सुधारसस्वादुभिः सुरलोकपादपफलैर्विधाय मामपगताहारवाञ्छमच्छशिशिरेण सुरसाम्भसा कारितोपस्पर्शना मदुपनीतशेषं कन्दमूलफलमास्वादितवती, भुक्तावसाने च विहितेतिकर्तव्या समागत्य नातिनिकटे ममोपाविशत् [ध]।
राजपुत्र! युवराज!, निरन्तरलतागुल्मगहनान्तरितदर्शनस्य निरन्तरेण-निविडेन, लतानां गुल्मानां-निःस्कन्धतरूणां च, गहनेन-वनेन, अन्तरितं-तिरोहितं, दर्शनं यस्य तादृशस्य, वननिवासिनः, तपस्विलोकस्य तपस्विजनस्य, कृताकृतं कृतं-सम्पादितम् , अकृतम्-असम्पादितं च, ज्ञातुमिव परीक्षितुमिव, अखिलजगतः समस्तजगतः, कर्मसाक्षी कर्मसाक्षादृष्टा, भगवान् ऐश्वर्यशाली, अयम् , उष्णरश्मिः सूर्यः, अम्बरशिखरम् आकाशमध्यम् , अधिरूढः आरूढवान् , मध्याह्नकालक्रियाकरणाय दिनमध्यकालिककृत्यसम्पादनाय, अधुना इदानी, वनमध्यं मया गन्तव्यं वनमध्यगमनं प्राप्तावसरम् , त्वमपि मयैव सहितः सह, उत्तिष्ठ गन्तुं प्रवर्तख, पुनः मध्यन्दिनकृत्यं मध्याह्नकालिककार्यम् , अनुतिष्ठ सम्पादय,भोजनसमयः भोजनकालः, आसन्नवर्ती, इति इत्थम् , अभिधाय उक्त्वा, चलिता प्रस्थिता [थ] । च पुनः, क्रमेण पूर्वपूर्वप्रदेशातिकमक्रमेण, रमणीयपरिसरां मनोहरप्रान्तप्रदेशाम् , अरण्यसरसीं वन्यमहासरः, गता उपस्थिता । च पुनः, पृथुलमणिशिलासोपाननद्धे स्थूलमणिरूपप्रस्तरमयाधिरोहणीबद्धे, तस्याः सरस्याः, तीर्थरोधसि जलावतारतटे, कृतावस्थाना अवस्थिता, कमण्डलं जलपात्रविशेष, स्थापयित्वा, पुनः आसन्नजाताभ्यः अचिरोद्भिन्नाभ्यः, वनलताभ्यः वनसम्बन्धिलतासकाशात् , कुसुमानि पुष्पाणि, आदाय अवचित्य, पुनःसलिलक्षालिते जलधौते, अन्यतमसोपाने अन्यतमे-बहूनां मध्ये कस्मिंश्चिदेकस्मिन् , सोपाने-निःश्रेणिकायाम् , निक्षिप्य रक्षित्वा, कृतस्नाना नाता सती, दत्तदिनकरार्धाञ्जलिः समर्पितसूर्योद्देश्यकार्घाञ्जलिः, पवित्राणि विशुद्धानि, गायत्रीपदानि गायत्रीमन्त्रान्, जपन्ती उपांशुचारयन्ती, तावत् तावन्तं कालम् , आस्त उपाविशत् , यावत् यावन्तं कालं, मे मम, देवतार्चनकर्म देवाराधनकार्यम् , निर्माणं निष्पत्तिम् , अगमत् प्राप्तम् [द]च पुनः, तस्मिन् गायत्रीजपे, अवसिते समाप्ते सति सा तापसकन्यका, प्रथममेव स्नानात् पूर्वमेव, प्रक्षाल्य जलाप्लावनेन विशोध्य, पुलिनभूमौ अचिरजलोत्थितस्थल्याम् , उद्वापितं शोषितं, हंसधवलं हंससदृशशुभ्रवर्ण, दिव्यतरुवल्कलांशुकम्, उत्तमवृक्षत्वग्रूपसूक्ष्मश्लक्ष्णवस्त्रं, परिधाय शरीरेण धृत्वा, मे मम, अन्तिक समीपं, समागच्छत् समागता। च पुनः, उपनीतपत्रपात्रा आनीतपलाशपत्रपुटका, पुरतः अग्रे, निविश्य उपविश्य, सादरम् आदरसहितं यथा स्यात् तथा, खहस्तेन अपवर्जितैः समर्पितैः, सुधारसस्वादुभिः अमृतरसमधुरैः, सुरलोकपादपफलैः खर्गसम्बन्धिवृक्षफलैः, माम् , अपगताहारवाञ्छम् अपगता-निवृत्ता, आहारवाञ्छा-बुभुक्षा यस्य तादृशं, विधाय कृत्वा, अच्छशिशिरेण अच्छेन-निर्मलेन, शिशिरेण-शीतलेन, सुरसाम्भसा मधुरजलेन, सारसेति पाठे प्रकृतसरोवरजलेन, कारितोपस्पर्शना कारितहस्तमुखग्रक्षालना, मदुपनीतशेषं मत्समर्पितावशिष्टं, कन्दमूलफलम् , आस्वादितवती भुक्तवती। च पुनः, भुक्तावसाने भोजनसमाप्तौ सत्यां, विहितेतिकर्तव्या विहितं-सम्पादितम्, इतिकर्तव्यं भोजनाङ्गभूतं जलोपस्पर्शनाद्यात्मकं काय यया तादृशी सती, समागत्य समुपस्थाय, मम, नातिनिकटे किञ्चित्समीपे, उपाविशत् उपविष्टा [ध] ।
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टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता। स्थित्वा च कञ्चित् कालमवचना पूर्वदृष्टमिव सह संवृद्धमिव दृढमारूढप्रणयमिव चिरसमागतमभीष्टबन्धुमिव सस्नेहमवलोकयन्ती पुनः पुनर्मां तमेव पूर्वमावेदितं विस्तरेण द्विपापहारवृत्तान्तमपृच्छत् [न] ।
दृष्ट्वा च तां तथाविधामतिरेकमन्तःप्रकटितप्रीतिमुत्पन्नदृढतरसौहृदोऽहं सोद्वेगमवदम्-'महाभागे! नैसर्गिकान्तःस्वच्छतापिशुनेन प्रणयिहृदयाह्लादकारिणा सर्वथैवोपलक्षितपक्षपातेन तवामुना शीलेन तरलतां नीतो न शक्नोमि निभृतः स्थातुम् , येन 'आत्मनो महिमानमिच्छता पुरुषेण पूर्वे वयस्यपूर्वा सर्वापि परयोषित् प्रायशो न बहु भाषणीया, विशेषतः प्रथमयौवना व्रतस्था यतात्मनामपि मोहविकारहेतुरेकाकिनी रूपलावण्यादिगुणगणावासस्वादशी' इति विद्वानपि भवत्याः प्रवृत्तोऽहं प्रश्नकर्मणि[प]। कथय-का त्वम् ? कस्मिन्नखिलदोषमुक्ते मुक्तेव देवारण्यवंशे वंशे समुत्पन्नासि ? कानि ते हृदयदाहज्वरहराणि दिव्यमन्त्रपदानीव नामाक्षराणि क्षरन्ति कर्णयोरमृतम् ? केनात्र तव वपुषि देवाङ्गनिवसना गर्हणानपेक्षेण विनिक्षिप्तान्यमूनि वृक्षाणां वल्कलानि ? किं फलमतिशयस्वादुरसमभिलष्य विरसान्यनुदिवसमश्नासि वन्यद्रुमफलानि ? केन
टिप्पनकम्-मुक्तेव देवारण्यवंशे मुक्ताफलमिव सुरवनवेणी, अन्यत्र देवारण्यसम्बन्धिनि कुले [फ] ।
च पुनः स्थित्वा उपविश्य, कश्चित कियन्तं. कालम. अवचना मौनमवलम्बमाना, पर्वष्यमिव प्रागवलोकितमिव, पुनः सह संवृद्ध मिव सह-खेन साकं. संवृद्ध-तारुण्यापन्नमिव, पुनः दृढम् अत्यन्तम् , आरूढप्रणयमिव सञ्जातसख्यमिव, पुनः चिरसमागतं चिरेण-दीर्घकालेन, समागतं समुपस्थितम् , अभीष्टबन्धुमिव अभिमतबन्धुमिव, सस्नेहं सप्रीति, अवलोकयन्ती पश्यन्ती, पूर्वम् , आवेदितं ज्ञापितं तमेव द्विपापहारवृत्तान्तं गजकर्तृकापहरणवार्ता, पुनः पुनः अनेकवारं, मां, विस्तरेण सविस्तरम् , अपृच्छत् पृष्टवती [न] ।
च पुनः. तथाविधां सस्नेहावलोकनपराम, पुनः अतिरेकम अत्यन्तम, अन्तःप्रकटितप्रीतिम अन्तःअन्तःकरणे, प्रकटिता-आविष्कृता, प्रीतिर्यया तादृशीम् , तां तापसकन्यकां, दृष्ट्वा साक्षात्कृत्य, उत्पन्नदृढतरसौहृदः उद्भूतसान्द्रसख्यः, अहम् , सोद्वेगं ससम्भ्रमम् , अवदम् उक्तवान् , महाभागे! महानुभावे ! नैसर्गिकान्त स्वच्छतापिशुनेन स्वाभाविकान्तःकरणनिर्मलतासूचकेन, पुनः प्रणयिहदयाह्लादकारिणा प्रियजनमानसानन्दजनकेन, पुनः सर्वथैव सर्वात्मना, उपलक्षितपक्षपातेन प्रतीतानुरागेण, अमुना अनुभूतेन, तव, शीलेन स्वभावेन, तरलतां चपलता, वाचालतामित्यर्थः, नीतः प्रापितः, अहम् , निभृतः निःशब्दः, स्थातुं न शक्नोमि प्रभवामि, येन यस्मात् कारणात् , 'आत्मनः खस्य, महिमानं महत्ताम् , इच्छता कामयमानेन, पुरुषेण पुंजनेन, पूर्वे, वयसि अवस्थायां, यौवनावस्थापन्नेनेत्यर्थः, अपूर्वा अपरिचिता, सर्वापि सकलापि,परयोषित् परस्त्री,प्रायशः बाहुल्येन, बहु अधिकं, न भाषणीया, आलपनीया, विशेषतः किमुत, प्रथमयौवना नवयौवना, पुनः व्रतस्था ब्रह्मचर्ये स्थिता, पुनः यतात्मनामपि मुनीनामपि, मोहविकारहेतुः मोहस्य-वैचित्त्यस्य, विकारस्य-खेदरोमाज्यादिकामविकारस्य, हेतुः-प्रयोजिका, पुनः एकाकिनी असहाया, पुनः रूपलावण्यादिगुणगणावासः स्वरूपसौन्दर्यादिगुणसमूहास्पदभूता, त्वादृशी त्वत्सदृशी, भाषणीयेत्यर्थः' इति इत्थं, विद्वानपि जानन्नपि, अहं, भवत्याः तव, त्वां प्रति इत्यर्थः, प्रश्नकर्मणि अनुपदवक्ष्यमाणप्रकारकप्रश्नकार्ये, प्रवृत्तः प्रसक्तः [प] । कथय ब्रूहि, त्वं का किन्नामधेया; अखिलदोषमुक्ते समस्तदोषरहिते, देवारण्यवंशे देववनवेणी, अन्यत्र देवारण्यबन्धिनि, मुक्तेव मुक्तामणिरिव, अखिलदोषमुक्ते, कस्मिन् , वंशे कुले, समुत्पन्ना सञ्जाता, असि वर्तसे; पुनः दिव्यमन्त्रपदानीव उत्तममन्त्राक्षराणीव, हृदयदाहज्वरहराणि अन्तस्तापात्मकज्वरशमकानि, ते तव, कानि नामाक्षराणि नामसम्बन्धिवर्णाः, कर्णयोः श्रोत्रयोः, अमृतं सुधां, क्षरन्ति स्पन्दयन्ति; पुनः देवाङ्गनिवसना देवोचित्ताङ्गावरणाहे, अत्र अस्मिन् , तव, वपुषि शरीरे, गर्हणानपेक्षेण अयोग्ययोजनजन्यनिन्दानपेक्षिणा, केन, अमूनि तानि, वृक्षाणां बल्कलानि त्वचः, विनिक्षिप्तानि निवेशितानि पुनः अतिशयस्वादुरसम् अत्यन्तमधुररसं, किं फलम् , अभिलष्य उद्दिश्य, विरसानि अस्वादुरसानि, वन्यद्रुमफलानि वनसम्बन्धिवृक्षफलानि, अनुदिवसं प्रतिदिनम् , अनासि मुझे
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तिलकमञ्जरी
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हेतुना विहाय विख्यातानि वैखानसाश्रमपदानि निर्जनारण्यवासिनी शून्यमेतज्जिनायतनमधिवससि ? किं चैष विषमसायकैकाधिवासे नवे वयसि विषयोपभोगविद्वेषः ? किं चानुवेलस्पन्दिताधरपुटा प्रष्टुकामेव वार्तामिष्टजनस्य कस्यचित् प्रीतिविशदैर्दृष्टिविक्षेपैः सरभसमवेक्षसे दक्षिणां ककुभम् ? कच्चिदास्ते कश्चिदिह गोत्रजः सुहृद् वा हृदयभूतः ? [ फ], इति वदत्येव मयि सहसैव तस्याः प्रकम्पितपयोधरो विधुतगलसरणिरतिपरिस्फुटस्फुरितनासापुटः प्रयत्नरुद्धोऽपि विषवेगवद् व्यापदङ्गमतिक्रान्तवैभवस्मरणयोनिमन्युः, अब्जवनमिव प्रदोषहिमजलेन मुकुलीभूतमीक्षणयुगमपूर्यत विसारिणा बाष्पनीरेण तत्क्षणनिबद्धरागायाश्च लोचनापाङ्गसरित: पूर्वहरित इव तरुणारुणज्योतिराहतायास्तारकासमूहः पपाताजस्रमश्रुकणविसरः [ब] । तां च दृष्ट्वा तथाविधामन्तरुपजातगुरुविषादो मनस्यकरवमहम्- 'अहो पूर्वजन्मान्तरसंचितैरशुभकर्मभिरायोजिताः सुनिपुणमपि निरूपितोपायैर्मनीषिभिरनीषत्कराः परिहर्तुमुपतापाः, येनेयमपहाय परमसंक्लेशहेतुं सकलसङ्गमेकाकिनी विगतमर्त्यसंचारे गुरुणि गिरिकान्तारे कृतस्थितिरने कयोजनशत व्यवहितमेकदेशेनैव संयोज्य
टिप्पनकम् — मन्युः- दैन्यम् [ व ] | अनीषत्कराः अस्तोकक्रिया [भ] |
पुनः केन हेतुना प्रयोजनेन विख्यातानि प्रसिद्धानि, वैखानसाश्रमपदानि तापसाश्रमस्थानानि विहाय त्यक्त्वा, निर्जनारण्यवासिनी निर्जनवनवासिनी सती, शून्यं जनरहितम्, एतत् इदं जिनायतनं जिनमन्दिरम् अधिवससि निवससि ?; च पुनः, विषमसायकैकाधिवासे विषमाः - विषमसंख्याः, पञ्चसंख्या इत्यर्थः सायकाः- बाणा यस्य स विषमसायकः कामदेवः, तस्य एकाधिवासे - प्रधानस्थाने, नवे यौवने, वयसि अवस्थायां विषयोपभोगविद्वेषः रूपरसाद्युपभोगविषयका प्रीतिः, किं किमर्थः ?; च पुनः कस्यचित् कस्यापि इष्टजनस्य अभिमतव्यक्तेः, वार्ता वृत्तान्तं, प्रष्टुकामेव प्रष्टुमिच्छुरिव, अनुवेलस्पन्दिताधरपुटा सततसञ्चालितोष्ठपुटा, प्रीतिविशदै: स्नेहधवलैः, दृष्टिविक्षेपैः नेत्र व्यापारैः, दक्षिणां ककुभं दिशं किं किमर्थम् ? सरभसं सवेगम्, अवेक्षसे पश्यसि गोत्रजः त्वद्वंशजः, वा अथवा, सुहृत् मित्रं, हृदयभूतः त्वदीयहृदयरूपः कश्चित् कोऽपि, इह् अस्मिन् स्थाने, आस्ते वर्तते, कञ्चित् किमु ? [फ ], इति इत्थं मयि वदत्येव प्रश्नावलीवाक्यं कथयत्येव, सहसैव शीघ्रमेव प्रकम्पितपयोधरः प्रकम्पितौ - उद्वेलितौ, पयोधरौ - स्तनौ येन तादृशः, पुनः विधुतगलसरणिः उत्कम्पितकण्ठमार्गः, अतिपरिस्फुटस्फुरितनासापुटः अतिपरिस्फुटम्-अतिविस्पष्टं यथा स्यात् तथा स्फुरितः - स्पन्दितः, नासापुटो येन तादृशः, अतिक्रान्तवैभवस्मरणयोनिमन्युः परित्यक्तपैतृकघनसम्पत्तिस्मरणजन्यशोकः, प्रयत्नरुद्धोऽपि प्रयासवारितोऽपि विषवेगवत् विषज्वालावत् अङ्गं शरीरं, व्यापत् व्याप्तवान् पुनः प्रदोषहिमजलेन रात्र्यारम्भ कालिकहिमवारिणा अब्जवनमिव कमलवनमिव, मुकुलीभूतं ईक्षणयुगं नेत्रद्वयं, विसारिणा विस्तारिणा, वाष्पनीरेण अश्रुजलेन, अपूर्यत पूरितम् । च पुनः तरुणारुणज्योतिराहतायाः तरुणेन - प्रौढेन, अरुणज्योतिषा-सूर्यसारथितेजसा, आहतायाः - आक्रान्तायाः, पूर्वहरितः पूर्वदिशः सकाशात्, तारकासमूह इव तारागण इव, तत्क्षणनिबद्धरागायाः तत्कालधृतरक्तकान्तिकायाः, लोचनापाङ्गसरितः नयनप्रान्तभागात्मकनद्याः, अश्रुकणविसरः नयनजलकणगणः, अजस्रम् अनवरतं, पपात पतितः [ब] च पुनः, तां तापसकन्यकां, तथाविधां दुःखितां दृष्ट्रा अवलोक्य, अन्तरुपजातगुरुविषादः अन्तः - अन्तःकरणे, उपजातः - उत्पन्नः, गुरुःअधिकः, विषादः-दुःखं यस्य तादृशः, अहं मनसि स्वहृदये, अकरवं व्यचारयम् । अहो आश्चर्य, पूर्वजन्मान्तरसञ्चितैः अतिक्रान्तान्यान्यजन्मसंगृहीतैः, अशुभकर्मभिः पापकर्मभिः, आयोजिताः उत्पादिताः, उपतापाः- दुःखानि, सुनिपुणमपि सुष्टुतरमपि निरूपितोपायैः आलोचितप्रतीकारैः, मनीषिभिः पण्डितैः परिहर्तुं निवारयितुम्, अनीषत्कराः असुकराः, येन यस्मात् कारणात् परमसंक्लेशहेतुम् अत्यधिकक्लेशकारणं, सकलसङ्कं सर्वसम्पर्कम्, अपहाय त्यक्त्वा, एकाकिनी असहाया सती, विगतमर्त्यसञ्चारे मनुष्यसञ्चाररहिते, गुरुणि विशाले, गिरिकान्तारे पर्वतवने, कृतस्थितिः कृतनिवासा, अनेक योजनशतव्यवहितम् अनेकैः - बहुभिः, योजनशतैः -क्रोशचतुष्टयशतैः, व्यवहितम् - अन्तरितमपि, मामू, एकदेशेनैव स्वाधिष्ठितदेशेनैव, संयोज्य सङ्गमय्य, दैवेन विधिना, महानुभावा महामान्या, इयमिति शेषः, ईदृशस्य अनुपदोक्तप्रकारकस्य,
२२ तिलक०
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टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता।
मामीहशस्य मानसदुःखभारस्य भाजनं कृता महानुभावा दैवेन' इति सोद्वेगविस्मयः समाश्वास्य तां सुचिरमुत्थाय च कराञ्जलिपुटावर्जितं दीर्घिकाजलमुपानयम् । सापि किञ्चिद्विरलशोका बाष्पजलपरिप्लुतारपक्ष्म भालं प्रक्षाल्य तेन प्रमृज्य चोत्तरीयपल्लवप्रान्तेन वदनमुत्सृष्टदीर्घनिःश्वासा विलम्ब्य कञ्चित्कालमुपचक्रमे वक्तुम् [भ]-'कुमार ! निर्जनारण्यवासिनो जीर्णवल्कलनिवसनस्य वन्यफलभुजः स्थण्डिलातिवाहितनिशासमयनिद्रस्य दुष्कृतकारिणो मद्विधजनस्य प्रागवस्थोपवर्णनमतिशयेन व्रीडाकरम् , पृष्टा च त्वयाहम् , अतो न तूष्णीमासितव्यम् , किन्तु सर्वदा सुखोचितस्य तेन किञ्चिदनेकदुःखपरम्पराविरसेन श्रुतेनानेन फलम् । अथ कुतूहलं ततः शृणु, निवेदयामि, यात्वनेनैव तावद् विनोदेन सर्वदैव दुःखोपतप्ताया दिनमिदं मे । त्वमपि भुवनत्रयप्रथितमहामहिमा महामेदिनीपालसूनुः समानदेशावाप्तजन्मा कथञ्चिद् गृहमुपागतः प्राप्नुहि जनान्निष्किञ्चनादपूर्वं तावदिदमेवातिथ्यम्' [म ] इत्यभिधाय भूयः कृताश्रुपाता शनैः शनैरारभत कथयितुम्
अस्ति निजशोभाजितसमस्तभुवनान्तःपुरा महादेवीव सकलभूचक्रवर्तिनो मर्त्यलोकस्य, लङ्केव लवणसागरेण त्रिदशनगरीवान्तरिक्षेण कृतपरिकरा मकरकुलीरमीनराशिसंकुलेन परिखामण्डलेन, कुण्डलितसागर
मानसदुःखभारस्य हार्दिकदुःखराशेः, भाजनं पात्रं, स्थानमित्यर्थः, कृता सम्पादिता' इति इत्थं, सोद्वेगविस्मयः उद्वेगविस्मयाभ्यां-सम्भ्रमाश्चर्याभ्यां सहितः, सुचिरम अतिदीर्घ कालम् , तां तापसकन्यकां, समाश्चास्य सम्यक सान्त्वयित्वा, च पुनः, उत्थाय कराञ्जलिपुटावर्जितं हस्ताञ्जलिरूपपात्रगृहीतं, दीर्घिकाजलं वापिकाजलम् , उपानयम् आनीतवान् । सापि तापसकन्यकापि, किञ्चिद्विरलशोका किञ्चिन्मन्दशोका, बाष्पजलपरिप्लुतारपक्ष्म बाप्पजलैः- अश्रुजलैः-परिप्लुते क्लिन्ने, आरपक्ष्मणी-प्रान्तभागस्थनेत्ररोमराजी यत्र तादृशं, भालं ललाटं, तेन दीर्घिकाजलेन, प्रक्षाल्य विशोध्य, च पुनः उत्तरीयपल्लवप्रान्तेन उत्तरीयस्य-ऊर्ध्वदेहधार्यवस्त्रस्य पल्लवप्रान्तेन-नूतनदलतुल्यकोमलाग्रभागेन, वदनं मुखं, प्रमृज्य विशोध्य, 'बाप्पजलपरिप्लतारपक्ष्ममालम्' इति पाठे तु वदनमित्यस्य विशेषणमेतद् , बाष्पजलेन परिप्लुता आरपक्ष्ममालापक्ष्मप्रान्तरोमराजी यत्रेति, उत्सृष्टदीर्घनिःश्वासा उत्सृष्टः-त्यक्तः, दीर्घः-महान् , निःश्वासः-नासिकावायुर्यया तादृश्नी, कश्चित् कियन्तं, कालं, विलम्ब्य विश्रम्य, वक्तुं वक्ष्यमाणरीत्या कथयितुम् , उपचक्रमे आरेभे [भ] । कुमार युवराज ! निर्जनारण्यवासिनः निर्जनवनवास्तव्यस्य, पुनः वन्यफलभुजः वनसम्बन्धिफलाहारिणः, पुनः स्थण्डिलातिवाहितनिशासमयनिद्रस्य स्थण्डिले-चत्वरभूमौ, अतिवाहिता-व्यतीता, निशासमयनिद्रा-रात्रिकालिकनिद्रा येन तादृशस्य, दुष्कृतकारिणः अनुपदोक्तदुःखावहकार्यकारिणः, मद्विधजनस्य मादृशव्यक्तेः, प्रागवस्थोपवर्णनं पुरातनावस्थाकीर्तनम् , अतिशयेन अत्यन्तं, ब्रीडाकरं लज्जाजनकम् । च पुनः, त्वया, अहम्, पृष्टा पूर्वावस्थाजिज्ञासां विज्ञापिता, अतः अस्मात् कारणात् , तूष्णीं मौनावस्थया, न आसितव्यम् उपवेष्टव्यम् , किन्तु सर्वदा सर्वकालं, सुखोचितस्य अभ्यस्तसुखस्य, ते तव, अनेकदुःखपरम्पराविरसेन अनेकया-बया, दुःखपरम्परया-दुःखश्रेण्या, विरसेन-नीरसेन, अप्रियेणेत्यर्थः, अनेन मत्पूर्ववृत्तान्तेन, श्रुतेन श्रवणगोचरीकृतेन, किश्चित् किमपि, फलं प्रयोजनं न, अस्तीति शेषः । अथ यदि, कुतूहलम् औत्सुक्यम् , ततः तर्हि, शृणु श्रवणगोचरीकुरु, निवेदयामि, विज्ञापयामि, स्वपूर्वावस्थामिति शेषः । सर्वदैव सर्वकालमेव, दुःखोपतप्तायाः दुःखाक्रान्तायाः, मे मम, इदं वर्तमानं, दिनम् , अनेनैव स्वपूर्ववार्तोपन्यासविषयकेणैव, विनोदेन प्रमोदेन, यातु व्यत्येतु, तावदिति वाक्यालङ्कारे । भुवनत्रयप्रथितमहामहिमा भुवनत्रये-लोकत्रये, प्रथितःप्रसिद्धः, महामहिमा अत्यन्तमाहात्म्यं यस्य तादृशः, पुनः महामेदिनीपालसूनुः महामेदिनीपालस्य-महाराजस्य, मेघवाहनस्येत्यर्थः, सूनुः पुत्रः, पुनः समानदेशावाप्तजन्मा समाने-एकस्मिन्नेव, देशे-जनपदे, अवाप्तं-लब्धं, जन्म येन तादृशः, पुनः कथञ्चित् केनापि प्रकारेण, महता क्लेशेनेत्यर्थः, गृहं मदीयवसतिम् , उपागतः अभ्यागतः, निष्किञ्चनात् सर्वथैवातिथ्यसामग्रीशून्यात् , जनात् मत्तः, अपूर्व विलक्षणम् , इदमेव मत्पूर्ववार्ताश्रवणरूपमेव, आतिथ्यम् अतिथिसत्कार, तावत् प्रथमं, प्रामुहि गृहाण' इति इत्थम् , अभिधाय उक्तवा, भूयः पुनः, कृताश्रुपाता स्पन्दितनयनजला, शनैः शनैः मन्दं मन्द, कथयितुं वपूर्ववार्तामावेदयितुम् , आरभत प्रारब्धवती [ म] ।
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तिलकमञ्जरी
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प्रख्यस्य सर्वतः प्रेङ्खतः परिखाजलप्राग्भारस्य तरङ्गविक्षिप्तेन फेनविसरेणेव दिवसैः स्फातिमुपगतेन स्फाटिकधवलभित्तिना प्राकारेण परिवृता, विधृततट साधर्म्य हर्म्यावलीधृतोभय विभागैरजिरपुञ्जितप्राज्यरत्नप्रभाजालजलनिर्भरैरनवरतवहत्समुद्रयायिजननिवह कलकलाक्रान्तदिक्चकैः क्षितिरिव प्रलय महापगास्रोतोभिः समन्ततः सीमन्तिता विशालायतैर्विपणिपथैः आवासितशरज्जलदशिबिरेव सुरमन्दिरैः, बन्दीकृत समस्त - भोगभूमिरिव परिसरारामैः, एकीकृताशेषविषयान्तरेव सर्वदेशभाषाश्रुतिभिः, उद्घाटित समग्रासुरविवरेव विलासिनीवासभवनैः, अनतिदूरवर्तिनी दक्षिणोदधेरपारधनकनकसञ्चया काञ्ची नाम नगरी [य] । यत्र नागवल्लीलालसा धनिन उद्यानपालाश्च परमतज्ज्ञाः पौराः प्रामाणिकाश्च, सफलजातयः श्रोत्रिया गृहा
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"
टिप्पनकम् - कुलीरः - कर्कटकः । प्रख्यः सदृशः । अनवरतवहत्समुद्रयायीत्यादि विशेषणानि, एकत्र वहन् - मानो यः समुद्रगन्तृलोकसंघातः, अन्यत्र वहन् - गच्छन्, यः समुद्रयायिजनसंघातः, शेषं तुल्यम् [य ] |
काञ्ची नाम काञ्चीनाम्नी नगरी, अस्ति वर्तते, कीदृशी ? निजशोभाजित समस्तभुवनान्तःपुरा निजयास्वकीयया, शोभया-प्रासादादि सौन्दर्येण जितानि - अधरीकृतानि, समस्तानि, भुवनान्तःपुराणि भुवनान्तर्गतानि नगराणि यया, पक्षे निजशोभया - स्वकीयकान्त्या दिगुणोत्कर्षेण, जितानि - अधरीकृतानि, भुवनानां जगताम्, अन्तःपुराणि - राजाङ्गनानिवासस्थानानि यया तादृशी, सकलभूचक्रवर्तिनः अखण्डभूमण्डलेश्वरस्य, मर्त्यलोकस्य मर्त्यभुवनस्य, महादेवीव पट्टराज्ञीव; पुनः लवणसागरेण लवणसमुद्रेण, लङ्केव लङ्काख्यरावणनगरीव, पुनः अन्तरिक्षेण गगनमण्डलेन, यद्वा तद्वर्तिग्रहादिलोकेन, त्रिदशन गरीव देवनगरीव, मकर-कुलीर-मीनराशिसंकुलेन मकराणां-तजातीयजलचरविशेषाणां, कुलीराणां - कर्कटानां, मीनानां - मत्स्यानां च, राशिना - समूहेन, अन्तरिक्षपक्षे मकर - कुलीर-मीनात्मकैः राशिभिः - सपादनक्षत्रयुगलैः, संकुलेन - व्याप्तेन, परिखामण्डलेन परितः कृतगर्त भूमिमण्डलेन, कृतपरिकरा कृतपरिवेष्टना; पुनः प्राकारेण आवेष्टनेन परिवृता आवेष्टिता, कीदृशेन ? कुण्डलितसागरप्रख्यस्य परिखाकारेण वेष्टितसमुद्रतुल्यस्य, सर्वतः सर्वभागेषु, प्रेङ्खतः प्रवहतः परिखाजलप्राग्भारस्य परिखाजलराशेः तरङ्गविक्षितेन तरङ्गोत्पातितेन, पुनः दिवसैः कतिपयदिनैः, स्फातिं वृद्धिम्, उपगतेन प्राप्तेन, फेनविसरेणेव फेनसमूहेनेवेत्युत्प्रेक्षा, स्फाटिकधवलभित्तिना स्फटिकाख्यमणिमयशुभ्रभित्तिशालिना, पुनः विशालायतैः विशालैः, आयतैः- दीर्घेश्च, विपणिपथैः पण्यवीयिका मार्गैः, प्रलय महापगास्रोतोभिः कल्पान्तकालिक महानदीतरङ्गैः, क्षितिरिव भूमिरिव, समन्ततः सर्वतः, सीमन्तिता व्याप्ता, कीदृशैः ? विधृततटसाधर्म्यहर्म्यावलीधृतोभयविभागैः विधृतं - गृहीतं, तटसाधर्म्य - तटसाम्यं यया तादृश्या, हर्म्यावल्या - धनिकगृहपङ्ख्या, धृतः, उभयविभागः - पार्श्वद्वयं येषां तादृशैः, पुनः अजिरपुञ्जितप्राज्यरत्नप्रभाजालजलनिर्भरैः अजिरे- प्राङ्गणे, पुञ्जितानां - संगृहीतानां, प्राज्यरत्नानांप्रचुरमणीनां, प्रभाजालरूपैः - द्युतिसमूहात्मकैः, जलैः, निर्भरैः- पूर्णैः, पुनः अनवरतवहत्समुद्रयायिजननिवह कलकलाकान्तदिक्चकैः अनवरतं - निरन्तरं वहतां - नीयमानानां, पक्षे गच्छतां, समुद्रयायिजनानां - समुद्रयात्रिकजनानां निवहस्यसमूहस्य, कलकलेन - कोलाहलेन, आक्रान्तं पूर्ण, दिक्चक्रं - दिङ्मण्डलं यैस्तादृशैः; पुनः सुरमन्दिरैः देवमन्दिरैर्हेतुभिः, आवासितशरज्जलद शिबिरेव आवासितं - संस्थापितं, शरज्जलदशिबिरं - शरत्कालिक मेघसैन्यावासो यया तादृशीव; पुनः परिसरारामैः प्रान्तवयुपवनैर्हेतुभिः, बन्दीकृत समस्तभोगभूमिरिव बन्दीकृताः - स्तुतिपाठकीकृताः, दासीकृता इत्यर्थः यद्वा कारागारनियन्त्रिताः, समस्ताः - सकलाः, भोगभूमयः -- भोगस्थानानि यया तादृशीव; पुनः सर्वदेशभाषाश्रुतिभिः अखिलदेशभाषाश्रवणैः, एकीकृताशेषविषयान्तरेव एकीकृतानि - ऐक्यमापादितानि, अशेषाणि - समस्तानि, विषयान्तराणि - देशान्तराणि यया तादृशीव; पुनः विलासिनीवासभवनैः निन्नवर्तिसम्भोगवतीवासगृहैर्हेतुभिः, उद्घाटितसमप्रासुरविवरेव उद्वाटितं - मुक्तकपाटं, समग्रं समस्तम्, असुरविवरं - राक्षसबिलं, पातालमित्यर्थः, यया तादृशीव; पुनः दक्षिणोदधेः दक्षिणसमुद्रस्य, अनतिदूरवर्तिनी किञ्चिद् दूरवर्तिनी; पुनः अपारधनकनकसञ्चया अपारः - अपरिमितः धनानां - सुवर्णातिरिक्तधनानां, कनकानां - सुवर्णानां च सञ्चयः -संग्रहो यस्यां तादृशी [य] । यत्र यस्यां नगर्यां धनिनः धनिकाः, च पुनः, उद्यानपालाः उपवनरक्षकाः, नागवल्लीलालसाः आये ताम्बूलात्यन्ताभिलाषिणः, अन्त्ये नागवत् - हस्तिवत् लीलायां-क्रीडायाम्, अलसाः-आलस्ययुक्ताः । पौराः तत्पुरवास्तव्याः, च पुनः, प्रामाणिकाः प्रमाणेन प्रवर्तिनो जनाः, परमतज्ज्ञाः आये
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टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता । रामाश्च, हरिद्रासान्द्ररुचयो रागिणः सुवर्णचम्पकस्तबकनिचयाश्च, प्रगुणविशिखा गृहनिवेशाः सुभटबाणधयश्च, बहुमालिकाः प्रासादाः प्रकृतयश्च, सकुञ्चितालकाः प्रधानापणाः प्रमदाललाटलेखाश्च, सुराभिरामाभिरुचितकारिण्यः पण्यवनिताः पौरयुवतयश्च [२] । यत्र नारङ्गपनसकदलकप्रायमशनम् , नालिकेरीफलरसप्रायं पानम् , मुक्ताफलप्रायमाभरणम् , कृपाप्रायं धर्मानुष्ठानम् , दानप्रायं कर्म, सत्यशौचप्रायमाचरणम्, शास्त्रविचारणप्रायो विनोदो निवासिलोकस्य[ल] । यत्र मुग्धता रूपेषु न सुरतेषु, हरिद्रारागो देहेषु न स्नेहेषु, बहुवचनप्रयोगः पूज्यनामसु न परप्रयोजनाङ्गीकरणेषु, विभ्रमो रतेषु न चित्तेषु [व]।
नागवल्लीलालसा धनिन उद्यानपालाश्च एकत्र करिण इव विलासमन्थराः, अन्यत्र ताम्बूलीलम्पटाः । परमतज्ज्ञाः पौराःप्रामाणिकाश्च एकत्र अन्याभिप्रायवेदकाः, अन्यत्र बौद्धादिदर्शनज्ञातारः। सफलजातयः श्रोत्रिया गृहारामाश्च एकत्र सफलब्राह्मणाः[ण्याः], अन्यत्र सफलजन्मानः, फलयुक्तमालतीवृक्षा वा। हरिद्रासान्द्ररुचयो रागिणः सुवर्णचम्पकस्तवकनिचयाश्च एकत्र हरिद्रया, अन्यत्र हरिद्रावत् , सान्द्रा-बहला, रुचिः-दीप्तिर्येषां ते तथोक्ताः। प्रगुणविशिखा गृहनिवेशाः सुभटबाणधयश्च एकत्र प्राञ्जलरथ्याः, अन्यत्र प्रकृष्टबाणाः, बाणधिः-तूणीरः । बहुमालिकाः प्रासादाः प्रकृतयश्च एकत्र अनेकभूमिकाः, अन्यत्र नानामालाकाराः । सकुश्चितालकाः प्रधानापणाः प्रमदाललाटलेखाश्च एकत्र कुञ्चिकासहिततालकाः, अन्यत्र कुटिलकेशसहिताः । सुराभिरामाभिरुचितकारिण्यः पण्यवनिताः पौरयुवतयश्च एकत्र मदिराभिर्नूतनाभिश्च स्वार्थायोचितकरणशीलाः, अन्यत्र देवरमणीयप्रियतमकर्व्यः । मुग्धता रूपेषु मनोज्ञता, न रतेषु मूढता । हरिद्रारागः हरिद्रारक्तत्वं, देहेषु शरीरेषु, न स्नेहेषु हरिद्रावद् रक्तत्वम्अस्थिरता । बहुवचनप्रयोगः जसादिप्रयुक्तिः, पूज्यनामसु गुरव इत्यादिषु, न परप्रयोजनाङ्गीकरणेषु नानावचनोच्चारणम् , एकवचनेनैवाङ्गीकुर्वन्तीति । विभ्रमो रतेषु न चित्तेषु विभ्रमः-विलासः, अन्यत्र भ्रान्तिः [व] ।
परेषाम्-अन्येषाम् , यद् मतं-मन्तव्यम् , अभिप्राय इति यावत् , तज्ज्ञाः -तज्ज्ञातारः, अन्त्ये परेषाम्--अन्येषां, बौद्धादीनां, यद् मतं-दर्शनं, तज्ज्ञाः-तज्ज्ञातारः। श्रोत्रियाः वेदाध्येतारः, च पुनः, ग्रहारामाः गृहसमीपोद्यानानि, सफलजातयः आद्ये वैदिककर्मानुष्ठानेन सार्थकजन्मानः, अन्त्ये-सफलाः-फलविशिष्टाः, जातयः-मालतीवृक्षा येषु तादृशाः । रागिणः अङ्गरागप्रियाः, च पुनः, सुवर्णचम्पकस्तबकनिचयाः सुवर्णतुल्यवर्णकचम्पकविशेषगुच्छराशयः, हरिद्रासान्द्ररुचयः आये हरिद्राभिः-हरिद्रारसैः, अन्ये हरिद्रावत् , सान्द्रा-निबिडा, रुचिः-कान्तिर्येषां तादृशाः। गृहनिवेशाः गृहपतयः, च पुनः, सुभटबाणधयः सुभटाना-सुयोधानां, बाणधयः-बाणाधारा निषङ्गाः, प्रगुणविशिखाः आये प्रगुणा-सरला, विशिखारथ्या येषु, अन्ये प्रगुणाः-सरलाः, विशिखाः-बाणा येषु तादृशाः। प्रासादाः राजमन्दिराणि, च पुनः, प्रकृतयः पौरगणाः, बहुमालिका आद्ये माला एव मालिकाः, बह्वयो मालिकाः-भूमिकाः खण्डा इत्यर्थः, येषु, अन्त्ये बहवः मालि मालाकारा इति यावत् , येषु तादृशाः । प्रधानापणा: मुख्यक्रय्यवस्तुशालाः, च पुनः, प्रमदाललाटलेखाः स्त्रीविशेषललाटपतयः; सकुञ्चितालकाः आधे कुम्च्यां-कुञ्चिकया सरिताः, तालका येषु, अन्त्ये कुश्चिताः-कुटिलाः, अलका:-चूर्णकुन्तलाः केशा यासु तादृश्यः। पण्यवनिताः वेश्याः, च पुनः, पौरयुवतयः तत्पुरवासितरुण्यः, सुराभिरामाभिरुचितकारिण्यः आये आमाभिः-अपरिणताभिः, नवीनाभिरित्यर्थः, सुराभिः-मदिराभिः, उचितकारिण्यः उचितं-कामिजनार्ह यत् कार्य, तत्कारिण्यः-खार्थार्थ तत्कारणशीलाः, अन्त्ये सुरवत्-देववत् , अभिरामः-रमणीयो यः पतिः, तस्य यद् अभिरुचितं-प्रियतम, तत्कारिण्यः । अत्र सर्वत्र श्लेषानुप्राणिततुल्ययोगितालङ्कारः [र] । यत्र यस्यां नगर्यां, नारङ्ग-पनस-कदलकप्रायं तत्तत्संज्ञकफलप्रचुरकम् , अशनं भोजनम् , पुनः नालिकेरीफलरसप्रायं नालिकेरीफलसम्बन्धिरसप्रचुरकं, पानम् , पुनः मुक्ताफलप्रायं मुक्तामणिप्रचुरकम् , आभरणम् अलङ्करणम् , पुनः कृपाप्रायं लोकानुग्रहप्रचुरकं, धर्मानुष्ठानं धर्माचरणम् , पुनः दानप्रायं दानप्रचुरकं, कर्म क्रियाः, पुनः सत्यशौचप्रायं यथार्थव्यवहारान्तर्बहिःशुद्धिप्रचुरकम् , आचरणं चारित्रम् , पुनः निवासिलोकस्य तन्नगरीवास्तव्यजनस्य, शास्त्रविचारणप्रायः शास्त्रीयचर्चाप्रचुरकः, विनोदः प्रमोदः, अत्र सर्वत्र व्यतिरेकालंकारः [ल] । यत्र यस्यां नगर्याम् , रूपेषु लोकशरीरेषु, मुग्धता सौन्दर्यम् , पुनः सुरतेषु स्त्रीसंभोगेषु, मुग्धता अपाटवं न। देहेषु शरीरेषु हरिद्रारागः हरिद्राद्रवोपलेपनम् , पुनः स्नेहेषु प्रीतिषु, हरिद्रारागः हरिद्रावद्
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तिलकमञ्जरी
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शास्त्रम्,
यत्र मन्दिरोपवनान्यावासनगराणि, तमालतरुनिकुञ्जाः सद्नानि, लवङ्गपल्लवस्रस्तराः पर्यङ्काः, प्रणयकलहाः कलयः, नखदशनविन्यासाः शरीराभरणमणयः, प्रियावदनशतपत्राणि पानपात्राणि, कामसूत्र मध्यात्मवाजीकरणयोगोपयोगो व्याधिभेषजम्, अनङ्गपूजा देवतार्चनम्, सुरतदूतिका गुरवो भुजङ्गवर्गस्य [श ] | यत्र हृन्मर्मभेदिनः कटाक्षाः कुसुमेषवः, लवङ्गककोलपरिमलवाही मुखानिलो मलयसमीर ः, स्फुटितकुमुदोज्वलः स्मितालोकश्चन्द्रोदयः सच्छायतनुलताभिरामो नवयौवनावतारो मधुसमयः, चित्तोन्मादकारिणी वचनचाटुपद्धतिर्मदिरा, कोकिलध्वनिकला कृतकको पहुङ्कृतिः पञ्चमोद्वार:, इति केवलासु प्रमदासु परिसमाप्यते समस्तापि जैत्रा तन्त्रसामग्री कुसुमकार्मुकस्य [स] । यत्र मधुकरध्वनिपटुहुङ्काराणि समुल्लसत्सरससहकारमञ्जरीतर्जनिकानि कृततर्जनानीव प्रियकरोत्क्षिप्तासु मुक्ताशुक्तिषु विलोकयन्ति तालफलरसमधूनि ध्वस्तमानावलेपा विलासिन्यः [ ह ] । यत्र सुलभनागवल्लीदलार्द्रपूगीफलानि क्वणत्कुररकुल
टिप्पनकम् - वाजीकरणयोगोपयोगः शुक्रोपचयचूर्णभक्षणम् [ रा ] |
रक्तत्वं भङ्गुरता न । पूज्यनामसु गुरुजनसंज्ञाशब्देषु बहुवचनप्रयोगः आदरार्थं बहुवचनविभक्तिप्रयोगः, पुनः परप्रयोजनाङ्गीकरणेषु परेषाम्-अन्येषाम्, यत् प्रयोजनम् - उद्देश्यम्, तदङ्गीकरणेषु तत्सम्पादनप्रतिज्ञासु, बहुवचन प्रयोगः अव्यवस्थितार्थकविविधवाक्यप्रयोगो न । रतेषु संभोगेषु, विभ्रमः विलासः, कामिनीचेष्टाविशेष इत्यर्थः, पुनः चित्तेषु लोकानां हृदयेषु, विभ्रमः विशेषेण भ्रान्तिः न । अत्र सर्वत्र श्लेषानुप्राणित परिसंख्यालङ्कारः [व] । यत्र यस्यां नगर्याम्, मन्दिरोपवनानि मन्दिरनिकटवर्त्यद्यानान्येव, आवासनगराणि निवासोपयोगिनगराणि, तमालतरुनिकुञ्जः तमाललतापिहितोदरगृहा एव, सदनानि निवासगृहाः, लवङ्गपल्लवस्त्रस्तराः लवङ्गलतानूतन पत्रमयकटा एव, पर्यङ्काः विशिष्टखदाः; प्रणयकलहाः प्रेमप्रयुक्त कलहा एव, कलयः युद्धानि; नखदशनविन्यासाः नखदन्तसंस्थान्येव शरीराभरणमणयः शरीरालङ्करणरत्नानि; प्रियावदनशतपत्राणि प्रणयिनीमुखकमलान्येव, पानपात्राणि रसपानाधारपात्राणि; कामसूत्रं वात्स्यायनप्रणीतसूत्रात्मककामशास्त्रमेव, अध्यात्मशास्त्रम् आध्यात्मिकविद्या; वाजीकरणयोगोपयोगः सम्भोगकालिकशुक्रस्तम्भनोपायप्रयोगः एव, व्याधिभेषजं रोगौषधम् ; अनङ्गपूजा कामदेवाराधनमेव, देवतार्चनं देवाराधनम्, सुरतदूतिकाः सम्भोगाभिसारिका एव, गुरवः अभिमत मार्गदर्शिका: भुजङ्गवर्गस्य विटगणस्य [ रा ] । यत्र यस्यां नगर्याम्, हृन्मभेदिनः हृदयसम्बन्धिमर्माघातकाः, कटाक्षाः विलासिनीनामपाङ्गदर्शनान्येव, कुसुमेषवः पुष्पबाणाः; लवङ्गकक्कोल परिमलवाही लवङ्गकक्कोलाख्यलताविशेषसम्बन्धिगन्धवाहकः, मुखानिलः मुखमारुत एव मलयसमीरः मलयपवनः; स्फुटितकुमुदोज्ञलः विकसित कैरववद्विशदः स्मितालोकः मन्दहासप्रकाश एव, चन्द्रोदयः चन्द्रप्रकाशः सच्छायतनुलताभिरामः सती छाया - कान्तिर्यस्याः सा सच्छाया तादृश्या, तनुलतया - शरीरलतया, अभिरामः - मनोहरः, नवयौवनावतारः नवीन तारुण्योद्गम एव, मधुसमयः वसन्तकालः; चित्तोन्मादकारिणी हृदयोन्मादजननी, वचनचाटुपद्धतिः प्रियवचनरीतिरेव, मदिरा मद्यम्; कोकिलध्वनिकला कोकिलकूजितवदव्यक्तमधुरा, कृतककोपहुङ्कृतिः कृत्रिमक्रोधहुङ्कार एव, पञ्चमोद्वारः पञ्चमखरः : इति ईदृशी, कुसुमकार्मुकस्य कामदेवस्य, जैत्रा जयनशीला, समस्तापि सकलापि, तन्त्रसामग्री मारण- मोहन वशीकरणोपकरणानि, केवलासु प्रमदासु विशिष्टस्त्रीषु, परिसमाप्यते परिपूर्यते [स]। पुनः यत्र यस्यां नगर्यो, प्रियकरोत्क्षिप्तासु प्रियहस्तोद्धृतासु, मुक्ताशुक्तिषु मुक्तोपादानशुक्तिषु, मधुकरध्वनिपटुहुङ्काराणि मधुकरध्वनयः - भ्रमरगुञ्जितान्येव, पटुहुङ्काराः - स्फुटहुङ्कारा येषु तादृशानि पुनः समुल्लसत्सरससहकारमञ्जरीतर्जनिकानि समुहसन्ती - सम्यगुद्वेलन्ती, सरसा - आर्द्रा, सहकारमञ्जरी - अतिसुरभिचूतमञ्जर्येव, तर्जनी - तर्ज्यते भर्त्स्य यया सा अङ्गुष्टसमीपाङ्गुली येषु तादृशानि अत एव कृततर्जनानीव कृतभर्त्सना नीवेत्युत्प्रेक्षा, तालफलरसमधूनि तालफलसम्बन्धिरसरूपमद्यानि, ध्वस्तमानावलेपाः ध्वस्तः, मानः - चित्तोद्रेक ईर्ष्यति यावत्, अवलेपः - गर्वश्च यासां तादृश्यः, विलासिन्यः विलासशीलाः स्त्रियः, विलोकयन्ति पश्यन्ति [ह]। पुनः यत्र यस्यां नगर्या, वनितासखाः स्वविलासिनीसमेताः, सुखिनः सुखोपभोक्तारो जनाः, वनानि च पुनः, निधुवनानि सुरतानि, समं तुल्यं, निषेवन्ते नितरां सेवन्ते, कीदृशानि ? सुलभनागवल्लीदलाई पूगीफलानि सुलभानि - अनायासलभ्यानि, नागवल्लीदलानि - ताम्बूलपत्राणि,
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टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता । कलध्वनिवर्धितानङ्गोत्साहानि संनिहितचन्दनशिशिरदीर्घिकातरङ्गपवनानि वनानि निधुवनानि च निषेवन्ते समं वनितासखाः सुखिनः [क्ष] । यत्र सायन्तनस्तानार्द्रवपुषां द्रविडयोषितामसान्द्रलग्नस्य हरिद्राद्रवरसस्य च्छायया पिञ्जरिततनुकिरणकन्दलो दलितचम्पककर्णपूरमनुकरोति कपोलदर्पणावलम्बी पार्वणो रजनिजानिः [] । यत्र तीरासन्नजातानां कतकविटपिनामनारतं गलद्भिः फलैः प्रशमितपकोदयानि निर्दयास्वपि कामिमिथुनमज्जनकेलिषु कालुष्यं नानुभवन्ति भवनदीर्घिकाजलानि [क] । यत्रैलालतासदनासूत्रितविचित्रमोहनाभिद्रविडयुवतिभिः प्रियेषु प्रयुज्यमानं बहुप्रकारमुपगृहनोपचारमुपशिक्षितुमिव क्रमुकवृक्षकानावेष्टयन्ति कृतविचित्रवलना नागरखण्डपत्रवल्लयः [ख] । यत्र च युवजनेन दयिताकपोलदशनच्छेदविद्यामभ्यसितुमनुदिवसमाच्छिद्यमानानि परिकर्मितान्यपि न यान्ति परमपरिपाकमजिरसहकारशाखिनांफलानि [ग]।
यस्यां गुणौघजुषि दूषणमेकमेव, यद् वासदन्तवलभीषु विलासिनीनाम् ।। उद्यन्नजस्रमसितागुरुदाहजन्मा, धूमः करोति मलिना नवचित्रभित्तीः ॥ १॥[घ।
आर्द्रपूगीफलानि-सरसक्रमुकफलानि येषु तादृशानि, पक्षे सुलभानि-नागवल्लीदलेन आणि पूगीफलानि येषु तादृशानिः पुनः कणत्कुररकुलकलध्वनिवर्धितानङ्गोत्साहानि क्वणतः-कूजतः, कुररकुलस्य-कुररजातीयपक्षिगणस्य, कलध्वनिभिःमधुरकूजितैः, वर्धितः, अनङ्गोत्साहः-कामोद्रेको येषु तादृशानीत्युभयत्र तुल्यम् ; पुनः सन्निहितचन्दनशिशिरदीर्घिकातरङ्गपवनानि सन्निहितैः-समीपस्थैः, चन्दनैः-चन्दनतरुभिः, शिशिराः-शीतलाः, दीपिकातरङ्गपवनाः वापीतरङ्गवायवो येषु तादृशानि, पक्षे सन्निहितानि चन्दनानि-चन्दनद्रवाः, शिशिरा दीर्घिकातरङ्गपवनाश्च यत्र तादृशानि [क्ष]। पुनः यत्र यस्यां नगर्या, सायन्तनस्नानार्द्रवपुषां सायन्तनेन-सन्ध्याकालिकेन, स्नानेन, आर्द्र-क्लिन्नं, वपुः-शरीरं यासां तादृशाना, द्रविडयोषितां द्रविडदेशवास्तव्याङ्गनानाम् , असान्द्रलग्नस्य विरलसंसृष्टस्य, हरिद्राद्रवरसस्य हरिद्रापङ्करसस्य, छायया प्रतिबिम्बेन, पिञ्जरिततनुकिरणकन्दलः पिञ्जरितं-पीतिमानमापादितं, तनुकिरणकन्दलं-सूक्ष्मकिरणनवाङ्कुरो यस्य तादृशः; कपोलदर्पणावलम्बी गण्डमण्डलात्मकदर्पणप्रतिबिम्बितः, पार्वणः पर्वणि-पूर्णिमायां भवः, रजनिजानिः रजनिः-रात्रिः, जाया-पत्नी यस्य सः चन्द्रमाः, दलितचम्पककर्णपूरं दलितं-विकसितं यच्चम्पर्क-तदाख्यपुष्पविशेषः, तद्रूपं, कर्णपूरं-कर्णाभरणम् , अनुकरोति विडम्बयति []। पुनः यत्र यस्यां नगर्याम् , तीरासन्नजातानां तटनिकटप्ररूढानां, कतकविटपिनां जलमलापनोदकफलप्रसविनां कतकाख्यवृक्षविशेषाणाम् , अनारतं निरन्तरं, गलद्भिः पतद्भिः, फलैः, प्रश-. मितपङ्कोदयानि प्रशमितः-निवर्तित;, पङ्कोदयः-कर्मोद्गमो येभ्यस्तादृशानि, निर्मलानि इत्यर्थः, भवनदीर्घिकाजलानि गृहा. सन्नवापीजलानि, निर्दयास्वपि अतिमात्राखपि, कामिमिथुनमजनकेलिषु कामुकदम्पतिमज्जनक्रीडासु सतीषु, कालुष्यं मलिनता, न अनुभवन्ति आपद्यन्ते [क] । पुनः यत्र यस्यां नगर्याम् , एलालतासदनासूत्रितविचित्रमोहनाभिः एलालतासदने-एलालतागृहे, आसूत्रिता-आवेष्टिता, विचित्रा-विलक्षणा, मोहना-तदाख्यकुटिललता याभिस्तादृशी भिः, द्रविडयुवतिभिः द्रविडाभिजनतरुणीभिः, प्रियेषु पतिषु, प्रयुज्यमानं क्रियमाणं, बहुप्रकारं नानाविधम् , उपगृहनोपचारम् आलिङ्गनोपकरणम् , उपशिक्षितुमिव विज्ञातुमिव, कृतविचित्रवलनाः कृतं विचित्रं-विलक्षणं, वलनं-सञ्चलनं याभिस्तादृश्यः, नागरखण्डपत्रवल्लयः नागराख्यौषधीवनपत्रलताः, मुकवृक्षान् पूगीफलवृक्षान् , आवेष्टयन्ति सर्वतः संयुञ्जन्ति [ख]। च पुनः, यत्र यस्यां नगर्याम् , दयिताकपोलदशनच्छेद विद्यां दयितायाः-प्रियायाः, कपोलयोः- गण्डस्थलयोर्यो दशनच्छेदः-दन्तक्षतं, तद्विद्या-तद्वैदग्धीम् , अभ्यसितुं शिक्षितुं, युवजनेन तरुणपुरुषेण, अनुदिवसं प्रतिदिनम् , आच्छिद्यमानानि संत्रोद्यमानानि, अजिरसहकारशाखिनां प्राङ्गणवर्तिपरमसुरभिचूतवृक्षाणां, फलानि, परिकर्मितान्यपि परिपाका) संस्कृतान्यपि, परमपरिपाकम् आत्यन्तिकपरिपाकं, न यान्ति प्राप्नुवन्ति [ग]।
गुणौघजुषि गुणगणविशिष्टायां, यस्यां काञ्चीनगर्याम् , एकमेव एकमात्रं, दूषणम् , यत् विलासिनीनां विलासवतीनां स्त्रीणां, वासदन्तवलभीषु वासाधिकरणभूतासु हस्त्यादिदन्तमयीषु चन्द्रशालासु, अजस्रं सन्ततम् , उद्यन् उद्गच्छन् , असितागुरुदाहजन्मा कालागुरुसंज्ञकधूपद्रव्याग्नितापजन्यः, धूमः, नवचित्रभित्तीः अभिनवचित्राधारकुख्यानि, मलिनाः कृष्णवर्णाः, करोति सम्पादयति । अत्र निन्दाव्याजेनानवरतसुगन्धिधूमोद्गमस्तुतिव्यञ्जनाद् व्याजनिन्दालङ्कारः ॥१॥ [घ]।
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तिलकमञ्जरी अपि च--पृष्ठप्रेडद्वलीनां श्रुतिशिखरहसच्चित्रमुक्ताफलानां,
पूगत्वग्मार्जिताग्रद्विजमुकुलमिलञ्चन्द्रिकाईस्मितानाम् । तिर्यक्सीमन्तरेखाञ्चितचिहुरचयस्फारितैकेक्षणानामिन्दुर्दास्यं विधत्ते द्रविडवरवधूवक्रपङ्केरुहाणाम् ॥ २ ॥ [3] । किञ्च-संक्रान्तकान्तवनितानवकुङ्कमार्द्र
पादारविन्दपदमण्डललाञ्छितासु । हाग्रभूमिषु सुधाधवलासु यस्यां,
व्यर्थीभवन्ति विकचाम्बुरुहोपहाराः ॥ ३ ॥ [च] । प्राप्तप्राक्छेलकूटा इव कुचतटयोरोदयेनेव लीढा, रागेणोष्ठप्रभायां तिमिरभरमिव क्षेप्नुकामाः कबर्याम् । कुर्वाणास्तारकाभिः प्रणयमिव नखेष्वङ्गरङ्गे लुठन्तः,
स्वर्गङ्गासैकतस्था इव निशि सुदृशां यत्र भान्तीन्दुपादाः ॥ ४ ॥ [छ । टिप्पनकम्-पृष्ठेत्यादिश्लोकः । वलिः-केशरचनाविशेषः, श्रुतिः-कर्णः, हसन्ति-देदीप्यमानानि, अञ्चितः-खचितः प्रशस्तो वा [ङ]।
अपि च-किञ्च, इन्दुः चन्द्रः, द्रविडवरवधूवक्रपङ्केरुहाणाम् द्रविडेषु-द्रविडाभिजनेषु जनेषु ये वरा:-श्रेष्ठाः, तेषां या वध्वः-स्त्रियः, तासां वक्रपङ्केरुहाणां-मुखकमलानां, दास्यं दासतां, धत्ते धारयति, कीदृशानाम् ? पृष्ठप्रेडद्वलीनां पृष्ठे-पश्चाद्धागे, प्रेकन्तः-व्याधूयमानाः, वलयः-चामरदण्डा येषां तादृशानां, यद्वा प्रेयन्ती-दोलायमाना, वलिः-केशरचनाविशेषः रचनाविशेषमापन्नाः केशा येषां तादृशानाम् , पुनः श्रुतिशिखरहसच्चित्रमुक्ताफलानां श्रुतिशिखरे-कर्णो भागे, हसन्ति-दीप्यमानानि, चित्राणि-नानाविधानि मुक्ताफलानि मुक्तामणयो येषां तादृशानाम् , पुनः पूगत्वग्मार्जिताग्रद्विजमुकुलमिलच्चन्द्रिकाईस्मितानां पूगत्वचा-संगृहीतदन्तधावनोपयोगिवृक्षत्वचा, मार्जितं-विशोधितं शुभ्रतामापादितम. अग्रम्-अग्रभागो येषां तादृशैः, द्विजमुकुलैः-दन्तकुडालैः, पक्षे चन्द्रबिम्बेन, मिलन्ति चन्द्रिकारूपाणि, आर्द्राणि-सरसानि, स्मितानि-मन्दहासा येषु तादृशानाम्, पुनः तिर्यसीमन्तरेखाचितचिहरचयस्फारितैकेक्षणानां तिरश्चीनी-कुटिला या सीमन्तरेखा-केशवशरेखा, तया अश्चितः-खचितः प्रशस्तो वा, यः चिहुरचयः-केशपाशः, तेन स्फारितं-विस्तारितम् , एकम् , ईक्षणं-नयनं यैस्तादृशानाम् । अत्र अतिशयोक्तिरलङ्कारः ॥२॥ [ङ]।
किश्च अपि च-यस्यां नगर्याम् , संक्रान्तेति संक्रान्तानि-संलग्नानि, कान्तानि-मनोहराणि, यानि वनितानां-स्त्रीणां, नवकुङ्कमार्द्राणि-नूतनकुङ्कुमद्रवक्लिन्नानि, पादारविन्दानि-चरणकमलानि, तेषां पदमण्डलेन-चिह्नगणेन, लाञ्छितासु-अङ्कितासु, सुधाधवलासु चूर्णद्रवोपलेपनशुभ्रासु, हाग्रभूमिषु धनिकजनग्रहोर्श्वभूमिषु, विकचाम्बुरुहोपहाराः विकसितकमलोपहाराः, व्यर्थीभवन्ति व्यर्थतामापद्यन्ते । अत्र व्यतिरेकालङ्कारो व्यङ्ग्यः ॥ ३ ॥ [च]।
यत्र यस्यां नगर्याम् , इन्दुपादाः चन्द्रकिरणाः, स्वर्गङ्गासैकतस्था इव खर्गङ्गायाः-आकाशगङ्गाया यत् सैकतंवालुकामयं स्थलं, तत्स्थाः-तद्वर्तिन इव, भान्ति प्रतीयन्ते, कीदृशाः ? सुदृशां-सुन्दराक्षीणां स्त्रीणां, कुचतटयोः स्तनप्रान्तयोः, ओदयेन आ-समन्तात् , उदयेन-उद्भासनेन, प्राप्तप्राक्छेलकूटा इव प्राप्तः-अधिष्ठितः, प्राक्छेलकूट:-प्राक्छैलस्य-पूर्वगिरेः, उदयाचलस्येत्यर्थः, कूटः-शृङ्गं यस्तादृशा इव, पुनः रागेण रक्तिन्ना, ओष्ठप्रभायाम् ओष्टद्युतौ, लीढा इव व्याप्ता इव, अन्तर्हिता इवेत्यर्थः, पुनः कवर्यां केशपाशे, तिमिरभरम् अन्धकारराशि, क्षेत्रकामा इव निराकर्तुमिच्छव इव, पुनः नखेषु, तारकाभिः, प्रणयं प्रीति, कुर्वाणा इव उत्पादयन्त इव, अङ्गरले शरीररूपनृत्यशालायां, लुठन्तः आपतन्तः । अत्रोत्प्रेक्षालङ्कारः ॥ ४ ॥ [छ ।
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टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता । तस्यां च निजविभूतिजितसुरेन्द्रसदनसौन्दर्यायां नगर्यामनपवार्यविस्फूर्जथुपृथुप्रतापवज्राग्निजनितसकलारातिकुलपर्वतप्रमाथः स्वर्णाथ इव पार्थिवश्रीपरिभोगवाञ्छया प्रच्छादितसहजरूपो रूपलावण्यलघूकृतकुसुमायुधो धृतायुधैकदक्षिणबाहुसाहायकप्रसाधितानन्तप्रान्तदेशो देशान्तरभ्रान्तशशिकरावदातकीर्तिर्नीतिशास्त्रशाणनिशितनिर्मलप्रज्ञापरामर्शपरशुशातिताशेषविजिगीषुविजयोद्यमद्रुमः कल्पद्रुमः क्रमागतलोकानां वज्रपञ्जरो भीतानामुत्तम्भनस्तम्भो निजवंशवेश्मनः समीरो वैरिसुन्दरीसीमन्तसिन्दूरस्य क्रूरग्रहदृष्टिपातो दुष्टनिग्रह क्रियायामुदात्तनिजचरितचारणीकृतखेचरगणो गुणगरिमातिरेकतृणीकृतभरतसगराद्यादिराजो राजा कुसुमशेखरो नाम [ज] । यस्य मलयाचलस्येव पूर्वापरदिगन्तलब्धायतेर्दक्षिणोदधिवेलावनं व्यापद खिलमपि कटकविस्तारः [झ] ।
टिप्पनकम्-पूर्वापरदिगन्तलब्धायतेः एकत्र आयतिः-दैर्घ्यम् , अन्यत्र आज्ञा, कटकविस्तारः एकत्र कटकःप्रस्थः, अन्यत्र सैन्यम् [झ]।
च पुनः, निजविभूतिजितसुरेन्द्रसदनसौन्दर्यायां निजविभूत्या-खकीयैश्वर्येण, जितं-तिरस्कृतं, सुरेन्द्रसदनसौन्दर्यम्-अमरावतीरामणीयकं यया तादृश्यां, तस्यां प्रकृतायां नगर्या, काञ्चयामित्यर्थः, कुसुमशेखरो नाम तत्संज्ञकः, राजा.अस्ति इति शेषः। कीदृशः? अनपवार्यविस्फर्जेथपथप्रतापवजानिजनितसकलारातिकलपर्वतप्रमाथ: अ वार्यः-वारयितुमशक्यः, विस्फूर्जथुः-विशिष्टस्फूर्तियुक्तः, पृथु:-विशालः, एवंविधो यः प्रतापः-कोशदण्डजं तेजः, तद्रूपवज्राग्निना जनितः-कृतः, सकलारिकुलपर्वतानां सर्वशत्रुरूपकुलगिरीणां, प्रमाथः-विनाशो येन स तथा, पक्षे-अनपवार्य विस्फूर्जथु-विशिष्टवज्रनिर्घोषयुक्तं प्रतापं-प्रकृष्टतापयुक्तं च यद् वज्रं तदग्निना जनितः, सर्वशत्रुभूतपर्वतानां प्रमाथः-विनाशो येन स तथा, पार्थिवश्रीपरिभोगवाञ्छया पृथिवीस्थसम्पत्तिसंभोगेच्छया, प्रच्छादितसहजरूपः तिरोहितस्वाभाविकवरूपः, स्वणोथ इव वर्गाधिपतिरिव, सुरेन्द्र इवेयर्थः, इत्युत्प्रेक्षा; पुनः कीदृशः ? रूपलावण्यलघुकृतकुसुमायुधः रूपलावण्येन-खरूपसौन्दयेण, लघूकृतः-तिरस्कृतः, कुसुमायुधः-कामदेवो येन तादृशः; पुनः धृतायुधेकदक्षिणबाहुसाहायकप्रसाधितानन्तप्रान्तदेशः धृतः- गृहीतः, आयुधः-बाणो येन तादृशस्य, एकस्य-अद्वितीयस्य, दक्षिणबाहोः, साहायकेन-साहाय्येन, प्रसाधिताः-आयत्तीकृताः, अनन्ताः-अपरिच्छिन्नाः, प्रान्तदेशाः-निकटजनपदा येन तादृशः; पुनः देशान्तरभ्रान्तशशिकरावदातकीर्तिः देशान्तरेषु-अन्यान्यदेशे, भ्रान्ताः-प्रथिताः, शशिकरावदाताः-चन्द्रकिरणवदुज्वलाः, कीर्तयो यस्य तादृशः; पुनः नीतिशास्त्रशाणनिशितनिर्मलप्रज्ञापरामर्शपरशुशातिताशेषविजिगीषुविजयोद्यमद्रुमः नीतिशास्त्ररूपे शाणे-निकषोपले, निशितया-तीक्ष्णीकृतया, निर्मलया-विशुद्धया, प्रज्ञया-वुद्ध्या, यः परामर्शः-कर्तव्याकर्तव्यविवेकः, तद्रूपेण परशुना-कुठारेण, शातिताः-कर्तिताः, अशेषाणां, विजिगीषूणां-विजेतुमिच्छता, विजयोद्यमरूपाः-विजयोत्साहरूपाः, द्रुमाः-वृक्षा येन तादृशः; पुनः क्रमागतलोकानां क्रमेण-न्याय्यमार्गेण, यद्वा क्रम-चरणं चरणशरणमित्यर्थः, आगतानाम्-उपस्थितानां, लोकानां-जनानां, कल्पद्रुमः-कल्पवृक्षः, सर्वाभीष्टप्रद इत्यर्थः; पुनः भीतानां भयग्रस्ताना, वज्रपञ्जरः सुदृढ़पञ्जरः, सुरक्षक इत्यर्थः; पुनः निजवंशवेश्मनः खवंशरूपस्य गृहस्य, उत्तम्भनस्तम्भः उत्तम्भनाय-उत्थापनाय स्तम्भः-स्थूणादण्डः; पुनः वैरिसुन्दरीसीमन्तसिन्दूरस्य वैरिसुन्दरीणां-शत्रुरमणीनां, यत् सीमन्तसिन्दूरं-केशविन्यासाङ्गभूतं सिन्दूरं, तस्य समीरः-उत्क्षेपकः, तद्वैधव्यापादक इत्यर्थः; पुनः दुष्टनिग्रहक्रियायां दुष्टजनहननविधौ, क्रूरग्रहदृष्टिपातः पापग्रहाभिमुखीभावात्मकः; पुनः उदात्तनिजचरितचारणीकृतखेचरगणः उदात्तानाम्-उत्कृष्टानां, निजचरिताना-स्वचारित्राणां गायकीकृतः, खेचरगण:-विद्याधरगणो येन तादृशः; पुनः गुणगरिमातिरेकतृणीकृतभरतसगराधादिराजः गुणगरिमातिरेकेण-खगुणगौरवातिशयेन, तृणीकृताः-तृणवत्तुच्छत्वमापादिताः, भरतसगरादयः-भरत-सगरप्रभृतयः, आदिराजानः-प्राचीननृपतयो येन तादृशः[ज मलयाचलस्येव मलयपर्वतस्येव, पूर्वापरदिगन्तलब्धायतेः पूर्वापरदिगन्तयोः-पूर्वपश्चिमदिगन्तयोः, लब्धा-प्राप्ता, आयतिः-प्रभाव आज्ञा वा, पक्षे दैर्ध्य येन तादृशस्य, यस्य कुसुमशेखरस्य, कटकविस्तारः सैन्यविस्तारः, पक्षे प्रस्थविस्तारः, अखिलमपि समस्तमपि, दक्षिणोदधिवेलावनं दक्षिणसमुद्रतटवर्तिवनं, व्यापत् आक्रान्तवत् [झ] ।
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तिलकमञ्जरी येन चाप्रयत्नभग्नसंततवर्धिष्णुभूभृदुन्नतिना भुवनत्रयाभिनन्दितोदयेन कुम्भयोनिनेव प्रसाधिता पवित्रिता च दक्षिणा दिक् [अ]।
___तस्य तेजस्विवर्गाग्रेसरस्य सकलगुणनिधेरीदृशी विगतलक्षणाहमधमाशुशुक्षणेरिव धूमवर्तिरासन्नवर्तिनां जनानामनुपातकारणमेकैवात्मजा जाता, माता तु मे सर्वान्तःपुरपुरन्ध्रिमुख्या महादेवी महिम्नां धाम गन्धर्वदत्ता नाम [ट] । किञ्च
भित्त्वा संपुटमोष्ठयोर्न हसितं निःशङ्कगोष्ठीष्वपि, भ्रान्तं न त्वरितैः पदैर्गृहनदीहंसानुसारेष्वपि । साधं पञ्जरसारिका भिरपि नो भूयस्तया जल्पितं,
न व्यस्रास्तिलकद्रुमेष्वपि चिरं व्यापारिता दृष्टयः ॥ १ ॥ [] । पर्यङ्कापात् क्षणविनिहितः काञ्चने पादपीठे, रक्ताशोकप्रहृतिविहितोग्रापराधः क्रुधेव । वामो यस्याः प्रणतिचटुलैः क्षोणिपालाङ्गनानां, कर्णोत्तंसद्रुमकिसलयैस्ताडितः पादपद्मः ॥ २॥ [3] ।
टिप्पनकम्-अप्रयत्नभग्नसन्ततवर्धिष्णुभूभृत्तदुन्नतिना एकत्र भूभृत्-गिरिः, अन्यत्र नृपाः, प्रसाधिता मण्डिता, आत्मायत्तीकृता च [अ]।
च पुनः, कुम्भयोनिनेव कुम्भः-घटः, योनिः-उत्पत्तिस्थानं यस्य तादृशेन, अगस्तिमुनिनेव, अप्रयत्नभग्नसन्ततवर्धिष्णुभूभृदुन्नतिना अप्रयत्नम्-अनायासं यथा स्यात् तथा, भग्ना निरुद्धा, सन्ततवर्धिष्णुनाम्-अनवरतमुन्नतिशीलानां, भूभृतां-नृपाणां, पक्षे पर्वतानाम् , उन्नतिर्येन तादृशेन, क्वचिद् 'भूभृत्तदुन्नतिना' इति पाठः, तत्राप्रयत्नभन्ना भूभृतस्तदुन्नतिश्च येन तादृशेनेत्यर्थः । पुनः भुवनत्रयाभिनन्दितोदयेन भुवनत्रयेण-लोकत्रयेण, अभिनन्दितः-श्लाघितः, उदयः-समृद्धिः, पक्षे तारकात्मना गगनाङ्गणे प्रकाशो यस्य तादृशेन, येन कुसुमशेखरनृपेण, दक्षिणा दिक्, प्रसाधिता आयत्तीकृता, पक्षे अलङ्कता, च पुनः, पवित्रिता पावित्र्यमापादिता [अ] ।
आशुशुक्षणेः अग्नेः, धूमवर्तिरिव धूमसन्ततिरिव, तेजस्विवर्गाग्रेसरस्य तेजस्विवर्ग-प्रतापिवर्गे, पक्षे दीप्तिमद्वर्ग, अग्रेसरस्य-प्रधानस्य, पुनः सकलगुणनिधेः समस्तगुणाधारस्य, तस्य कुसुमशेखरस्य, विगतलक्षणा शुभलक्षणशून्या, पुनः अधमा तुच्छा, पुनः आसन्नवर्तिनां पार्श्ववर्तिनां, जनानां परिजनानामित्यर्थः, अश्रुपातकारणं दुःखाश्रुपातप्रयोजिका, अहम् , एकैव अद्वितीयैव, आत्मजा सुता, जाता; मे मम, माता तु सर्वान्तःपुरपुरन्ध्रिमुख्या सकलान्तःपुराङ्गनाश्रेष्ठा, महादेवी पट्टराज्ञी, महिम्नां माहात्म्यानां, धाम आस्पदभूता, गन्धर्वदत्ता नाम तत्संज्ञिका, अस्तीति शेषः [2] ।
किञ्च अपि च, तया गन्धर्वदत्तया, निःशङ्कगोष्ठीष्वपि विस्रब्धसखीसमूहेऽपि, ओष्ठयोः सम्पुटं संश्लेषं, भित्त्वा विदार्य, ओष्ठौ विभज्येत्यर्थः, न हसितम् अतिसूक्ष्ममेव हसितमित्यर्थः; पुनः गृहनदीहंसानुसारेष्वपि गृहपार्श्वस्थनदीसम्बन्धिहंसानुगमनेष्वपि, त्वरितैः त्वरान्वितैः, पदैः, न भ्रान्तं भ्रमणं कृतम् , अपि तु मन्दैरेव; पुनः पञ्जरसारिकाभिरपि पञ्जराश्रितपक्षिविशेषैरपि, साधं सह, भूयः अधिकतरं, न जल्पितम् उक्तम् ; पुनः तिलकद्रुमेष्वपि तिलकाख्यवृक्षविशेषेष्वपि, यस्राः त्रिकोणाः, दृष्टयः नेत्राणि, चिरं दीर्घकालं, न व्यापारिताः प्रवर्तिताः । अत्र खभावोक्तिरलङ्कारः ॥ १॥ [7]।
यस्याः गन्धर्वदत्तायाः, वामः, पादपद्मः चरणकमलं, पर्यङ्कापात् पर्यकोर्वभागात् , काञ्चने सुवर्णमये, पादपीठे पादासने, क्षणविनिहितः क्षणमात्रमारोपितः सन् , रक्ताशोकप्रहृतिविहितोग्रापराधः रक्ताशोकप्रहृत्या-रक्ताशोकताडनेन, विहितः, उग्रः-उत्कृष्टः, अपराधो येन तादृशः, क्रुधेव क्रोधेनेव, रक्ताशोकप्रहृतिविहितोग्रापराधक्रुधेवेति पाठे तु तेनापराधेन या क्रुत्-क्रोधः, तयेवेत्यर्थः, प्रणतिचटलैः प्रणामार्थ चपलैः, प्रणामप्रवृत्तरित्यर्थः, क्षोणिपालाङ्कनानां
२३ तिलक०
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टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता । यस्यां ललाटे सदृशद्यतित्वादस्पष्टचामीकरपट्टबन्धे ।
अनति सूक्ष्मालकवल्लरीणां मालाऽरिबन्दीव्यजनानिलेन ॥ ३ ॥ [6] । या च त्रिभुवनख्यातविद्याधरवंशसंभवा भवानीव शंभोर्द्वितीयापि भर्तुरेकं शरीरमभवत् । जातमात्रायामेव मयि समस्तदैवज्ञाग्रतःसरेण सकलनिमित्तशास्त्रतत्त्ववेदिना सहस्रशःसंवादितादेशतया परं संमतेन वसुरातनाम्ना सांवत्सरेण स्फुटीकृत्य तात्कालिकग्रहाणां दशाफलमानन्दाश्रुजलपरिप्लुतेक्षणेन क्षोणीपतेः पुरः स्पष्टाक्षरमिदमादिष्टम् [ण] |-- 'एषा कन्यका निकामं पुण्यभागिनी भाजनं भविष्यति भूयसामुपभोगसौख्यानाम् , ईदृशे च लग्ने लब्धमनया जन्म । योऽस्याः करं ग्रहीष्यति स हेमकूटादिकुलशैलकटकनिविष्टविद्याधराङ्गनोपवर्णितपुण्यचरितप्रशस्तिना पराक्रमाक्रान्तसकलदिक्चक्रेण महानरेन्द्रचक्रवर्तिना संक्रमितनिखिलनिजराज्यभारश्चतुरुदधिरशनागुणायाः क्षितेराधिपत्यं करिष्यति' इत्येतच्चाकर्ण्य कर्ण
टिप्पनकम-द्वितीयापि या द्वितीया द्वयोः पूरणी सा कथम् एकं शरीरम् ? अन्यत्र द्वितीया भार्या सांवत्सरेण ज्योतिषिकः [ण] ।
नृपस्त्रीणां, कर्णोत्तंसद्रुमकिसलयैः कर्णोत्तंसैः-कर्णाभरणभूतैः, द्रुमकिसलयैः-वृक्षनूतनदलैः, ताडितः प्रहृतः । अत्रोत्प्रेक्षालङ्कारः । पद्मशब्दः पुंलिंगेऽपि वर्तते, यद् गौडः- “पद्मोऽस्त्री पद्मके व्यूहे निधिसंख्यान्तरेऽम्बुजे” इति ॥ २ ॥ [ड] ।
सदृशद्युतित्वात् तुल्यकान्तिमत्त्वात् , अस्पष्टचामीकरपट्टबन्धे अस्पष्टः-अस्फुटः, स्फुटमनुपलक्ष्यमाण इत्यर्थः, चामीकरपट्टबन्धः-सुवर्णपट्टबन्धो यस्मिंस्तादृशे, यस्याः गन्धर्वदत्तायाः, ललाटे भालपट्टे, सूक्ष्मालकवल्लरीणां चूर्णकेशपाशानां, माला पतिः, अरिवन्दीव्यजनानिलेन बन्दीभूतानां-कारागारनिगृहीतानाम् , अरीणां-शत्रूणां, व्यजनानिलेनव्यजनपवनेन, अनर्ति आन्दोलिता । अत्र अतिशयोक्तिरलङ्कारः ॥ ३ ॥ [6] ।
च पुनः त्रिभवनख्यातविद्याधरवंशसम्भवा त्रिभुवने-त्रैलोक्यां. ख्यातः-प्रसिद्धो यो विद्याधरवंशः स एव सम्भवः-उत्पत्त्यधिकरणं यस्यास्तादृशी, या गन्धर्वदत्ता, शम्भोः शिवस्य, भवानीव पार्वतीव, द्वितीयापि भिन्नापि, भर्तुः पत्युः, एकं शरीरम् , अभवत् समपद्यत, या द्वितीया द्वयोः पूरणी, खभिन्नेति यावत् , सा कथमेकं शरीरम् , एकशरीररूपेति विरोधः, परिहारस्तु-द्वितीया भार्या, एकं रूपादिना समानं शरीरं चेति, मयि जातमात्रायाम् उत्पन्नमात्रायां सत्यां, समस्तदैवज्ञाग्रतःसरेण सकलदैवज्ञश्रेष्ठेन, सकलनिमित्तशास्त्रतत्त्ववेदिना समग्रज्योतिषशास्त्रसारज्ञेन, सहस्रशःसंवादितादेशतया सहस्रशः-सहस्रसंख्याकाः, बहुतरा इत्यर्थः, संवादिताः-दर्शितफलाः, आदेशाः-भविष्यद्विचारा यैस्तादृशतया, परम् अत्यन्तं, सम्मतेन आदृतेन, वसुरातनाम्ना तदाख्येन, सांवत्सरेण मौहूर्तिकेन, तात्कालिकग्रहाणां तत्कालोपस्थितग्रहाणां, दशाफलम् अवस्थाफलं, स्फुटीकृत्य स्फुटमभिधाय, आनन्दाश्रुजलपरिप्लुतेक्षणेन आनन्दाश्रुजलैः-हर्षजनिताश्रुरूपजलैः, परिप्लुतं-व्याप्तम् , ईक्षणं-नयनं यस्य तादृशेन सता, क्षोणीपतेः राज्ञः, कुसुमशेखरस्येत्यर्थः, पुरः अग्रे, इदम् अनुपदमुच्यमानं, स्पष्टाक्षरं व्यक्ताक्षरं यथा स्यात् तथा, आदिष्टं विज्ञापितम् [ण] 1 किमित्याह-एषा इयं, कन्यका, निकामम् अत्यन्तं, पुण्यभागिनी भाग्यशालिनी, भूयसाम् अत्यधिकानाम् , उपभोगसौख्यानां विषयभोगजन्यानन्दाना, भाजनं पात्रम् , अनुभवित्रीत्यर्थः, भविष्यति सम्पत्स्यते । अनया कन्यकया, ईदृशे एवं विधे, लग्ने राश्युदये, जन्म, लब्धं प्राप्तम् । अस्याः कन्यकायाः, यः करं हस्तं, ग्रहीष्यति परिणेष्यति, सः, हेमकटादिकुलशैलकटकनिविष्टविद्याधराङ्गनोपवर्णितपुण्यचरितप्रशस्तिना हेमकूटादीनां कुलशैलानां-महापर्वतानां, कटकेषुनितम्बेषु, निविष्टाभिः-अवस्थिताभिः, विद्याधराङ्गनाभिः-विद्याधरस्त्रीभिः, उपवर्णिता-उपगीता, पुण्यचरितप्रशस्तिः-पवित्रचरित्रप्रशंसा यस्य तादृशेन, पुनः पराक्रमाक्रान्तसकलदिक्चक्रेण पराक्रमेण-स्ववीर्येण, आक्रान्तम्-आत्मसात्कृतं, सकलंसमग्रं, दिक्चक्रं-दिङमण्डलं येन तादृशेन, महानरेन्द्रचक्रवर्तिना महाराजचक्रवर्तिना, संक्रमितनिखिल भारः संक्रमितः-समर्पितः, निखिलः-समस्तः, निजराज्यभारः-स्वराज्याधिकारो यस्मिंस्तादृशः सन् , चतुरुदधिरशनागुणायाः चत्वार उदधयः-समुद्रा एव, रशनागुणाः-काञ्चीसूत्राणि यस्यास्तादृश्याः, समुद्रचतुष्टयपरिच्छिन्नाया इत्यर्थः, क्षितेः
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तिलकमञ्जरी
परम्परया सर्वेऽपि नगरीनिवासिनः प्रधानपौराः परां मुदमवापुः, आनन्दसंभ्रमाकुलाश्च तत्कालमेव प्रत्यापणं प्रतिगृहं प्रतिचत्वरं प्रत्यायतनमनिलनर्तित विचित्रचीनांशुकव्रजान् ध्वजानाबबन्धुः [त] । बन्धुतेव प्रतिगृहं गृहीतविकटप्रसाधना धिन्वन्ती मङ्गलगीतिभिर्जगजगौ जनता, निष्पर्यायमाहताभिरानन्दतूर्यसंहतिभिरुच्चैस्तरोऽपि चारणानामारवः श्रवसि निविशमानश्चस्खाल, मदविशृङ्खलपदक्षेपक्षोभितकाश्चयश्च सह भुजङ्गजनेन ननृतुर्नृपाङ्गणेषु गणिकाः [थ] । तातोऽपि तोरणबद्धहरितवन्दनमालमुद्दामगन्धोदकच्छटाविच्छर्दविरजीकृताजिरमुपरचितमौक्तिकचतुष्कं पातितपुष्पप्रकरमागत्य मातुर्मे भवनमनेकराजलोकपरिवृतः पुत्रजन्मसदृशमतिमहान्तमुत्सवमकारयत् , अतिक्रान्ते च दशमेऽहनि समागतसमस्तज्ञातिलोकः प्रवर्तितमङ्गलोपचारः स्वगोत्राचारकर्मण्यतिसादरो मलयसुन्दरीति मे नाम कृतवान् [द] ।
अथाहमनुदिनोपचीयमानसुकुमारावयवा चन्द्रमूर्तिरिव दूरस्थितापि दर्शनेनाप्याययन्ती पुरजनं, पदे
टिप्पनकम्-बन्धुतेव बन्धुसमूह इव, धिन्वन्ती प्रीणयन्ती, जनता जनसमूहः । निष्पर्यायम् एककालम् [थ] ।
पृथिव्याः, आधिपत्यं खाम्यं, करिष्यति लप्स्यते, इत्येतत् अनुपदोक्तं फलादेशवाक्यम् , कर्णपरम्परया जनपरम्परया आकर्ण्य श्रुत्वा, सर्वेऽपि नगरीनिवासिनः काञ्चीवास्तव्याः, प्रधानपौराः मुख्याः पुरजनाः, पराम् अत्यन्ता, मुदं हर्षम् , अवापुः अन्वभूवन् ; च पुनः, आनन्दसंभ्रमाकुलाः आनन्दावेगाकुलाः सन्तः, तत्कालमेव तत्क्षणमेव, प्रत्यापणं प्रतिहट्ट, प्रतिग्रहं गृहे गृहे, प्रतिचत्वरं प्रत्यङ्गण, प्रत्यायतनं प्रतिमन्दिरम् , अनिलनर्तितविचित्रचीनांशकवजान अनिलेन-वायुना, नर्तितः-उत्क्षिप्तः, विचित्रः-विलक्षणः, विशिष्टचित्रवर्णों वा, चीनांशुकः-चीनदेशनिष्पन्नसूक्ष्मश्लक्ष्णपटो येषु तादृशान् , ध्वजान पताकाः, आबबन्धुः आरोपितवन्तः [त]। पुनः बन्धुतेव बन्धुगण इव, गृहीतविकटप्रसाधना धृतोज्वलवेषा, जनता जनगणः, मङ्गलगीतिभिः मङ्गलगायनैः, जगत् लोकं, धिन्वन्ती प्रीणयन्ती, प्रतिगृहं गृहे गृहे, जगौ गायति स्म । पुनः निष्पर्यायं युगपदेव, आहताभिः ताडिताभिः, आनन्दतूर्यसंहतिभिः आनन्दवाद्यविशेषसमूहैः, उच्चैस्तरोऽपि अत्युच्चोऽपि, चारणानां बन्दिजनानाम् , आरवः शब्दः, श्रवसि कर्णे, निविशमानः प्रविशन्नेव, चस्खाल मातुमक्षमतया बहिव्यकीयेत । च पुनः, मदविशङ्कलपदक्षेपक्षोभितकाञ्चयः मदेन विशृङ्खलयोः-अनियन्त्रि तयोः, विचलितयोरिति यावत् , पदयोः, क्षेपेण-प्रेरणया, क्षोभिताः-सञ्चलिताः, काञ्चयः-रशना यासां तादृश्यः, गणिकाः वेश्याः, भुजङ्गजनेन विटगणेन सह, नृपाङ्गणेषु नृपाणां-राज्ञाम् , अङ्गणेषु-चत्वरस्थानेषु, ननृतुः नृत्यं चक्रुः [थ]। तातोऽपि मत्पितापि, मे मम, मातुः, भवनं गृहम् , आगत्य, अनेकराजलोकपरिवृतः अनेकनृपजनपरिवेष्टितः, पुत्रजन्मसदृशं पुत्रोत्पादोत्सवसदृशम् , अतिमहान्तम् अतीवोत्कृष्टम् , उत्सवम् , अकारयत् समपादयत् , कीदृशं मातुर्भवनम् ? तोरणबद्धहरितवन्दनमालं तोरणबद्धा-बहिरदेशावनमिता, हरिता-हरितवर्णविशिष्टकिसलमयी, वन्दनमाला-मङ्गलमाला यस्य तादृशम् , पुनः उद्दामगन्धोदकच्छटाविच्छर्दविरजीकृताजिरम् उद्दानाम्-अव्याहतानां, गन्धोदकच्छटानांसुगन्धिजलधाराणां, विच्छेर्दैन-परितो विक्षेपेण, विरजीकृतं-निधूलीकृतम्, अजिरं-प्राङ्गणं यस्य तादृशम् , पुनः उपरचितमौक्तिकचतुष्कम् उपरचितं-निर्मितं, मौक्तिकचतुष्कं-मुक्तामणिबद्धवेदिका यस्मिंस्तादृशम् , पुनः पातितपुष्पप्रकरं पातितः-विकीर्णः, पुष्पप्रकरः-पुष्पराशियस्मिस्तादृशम् । च पुनः, दशमे, अहनि दिने, अतिक्रान्ते व्यतीते सति, एकादशेऽहनीत्यर्थः, समागतसमस्तज्ञातिलोकः समागतः-उपस्थितः, समस्तः, ज्ञातिलोकः-बन्धुजनो यस्य तादृशः, पुनः प्रवर्तितमङ्गलोपचारः अनुष्ठितमाङ्गलिकक्रियः, पुनः स्वगोत्राचारकर्मणि स्वकुलाचारप्राप्तक्रियायाम् , अतिसादरः अतीव संलग्नः, मत्पितेति शेषः, मे मम, मलयसुन्दरीति नाम संज्ञां, कृतवान् [द]।
अथ अनन्तरम् , अहं, शैशवं बाल्यावस्थाम् , अतिवाहितवती व्यतीतवतीत्यप्रेणान्वेति, कीदृशी ? अनुदिनोपचीयमानसुकुमारावयवा अनुदिनं-दिने दिने, उपचीयमानाः-वर्धमानाः, सुकुमारा:-कोमलाः, अवयवाः-अङ्गानि यस्यास्तादृशी; पुनः दूरस्थिताऽपि चन्द्रमूर्तिरिव चन्द्राकृतिरिव, पुरजनं प्रकृतपुरवासिजनं, दर्शनेन दृष्टिगोचरीभवनेन,
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टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता । पदेऽनुगम्यमाना पृष्ठतो, हसिते हसिते चुम्ब्यमाना कपोलयोः, रुदिते रुदिते विनोद्यमाना विचित्रक्रीडनकैः, स्खलिते स्खलितेऽनुभाव्यमानाऽवतारणकमङ्गलानि, गदिते गदिते सहासमारोप्यमाणा वक्षसि क्षितिपाललोकेन, रक्ष्यमाणा च राज्यलक्ष्मीरिव सततमप्रमत्तैः शस्त्रपाणिभिर्वीरपुरुषैः, शैशवमतिवाहितवती [ध]। उचितसमये च यथाशक्त्यधीतराजकन्यकोचितविद्या, सोपनिषदि नाट्यवेदे गीतवाद्यादिषु च कलासु कृतपरिचया, विनयपरतया पितुरेकापत्यतया मातुर्वत्सलतया ज्ञातिपक्षस्य दाक्षिण्यनिन्नतया परिजनस्य प्रियंवदतया पौरलोकस्य परां चक्षुःप्रीतिमादधाना, क्रमेण निर्वापकमविप्रयुक्तरागिमिथुनानां संतापकं दरिद्रकामिहृदयानां प्रसाधकं कुरूपाणामध्यापकमशेषविभ्रमक्रमकलानां सन्नद्धोन्नतपयोधरं वर्षासमयमिन्द्रियस्रोतसां विस्तारितकुमुदविशदस्मितं प्रदोषागममङ्गलावण्यचन्द्रोदयस्य वलितरङ्गितमध्यसरणिं क्रीडारामं
टिप्पनकम्-सोपनिषदि सरहस्ये, नाट्यवेदे नर्तनशास्त्रे, निघ्नतया-परवशतया, प्रसाधकं विभूषकम् , अध्यापकम् उपाध्यायम् , इन्द्रियस्रोतसाम् इन्द्रियनदीनाम् , स्मितं-हासो विकासश्च, वलितरङ्गितमध्यसरणिं एकत्र वलिभिः-वलित्रयेण तरङ्गिता मध्यसरणिः-मध्यदेशोऽस्मिन् स तथोक्तः, अन्यत्र वलिता-भ्रामितारङ्गिता चविस्तीर्णा च मध्ये सरणिः-मार्गो यस्य स तथोक्तस्तम् , उत्कलिका-कल्लोलः, उत्कण्ठा च [न] ।
आप्याययन्ती वर्धयन्ती, अह्रादयन्तीत्यर्थः; पुनः पृष्ठतः पश्चाद्भागेन, पदे पदे प्रतिपादनिक्षेपम् , अनुगम्यमाना अनुस्त्रियमाणा; पुनः हसिते हसिते प्रत्येकं हासावसरे, कपोलयोः गण्डस्थलयोः, चुम्ब्यमाना ओष्ठेन संयोज्यमानाः पुनः रुदिते रुदिते प्रत्येकं रोदनावसरे, विचित्रक्रीडनकैः विविधक्रीडोपकरणैः, विनोद्यमाना अनुरज्यमाना; पुनः स्खलिते स्खलिते प्रत्येकं पतनावसरे, अवतारणकमङ्गलानि अवतारणकोत्सवान् , अनुभाव्यमाना दय॑माना; पुनः गदिते गदिते प्रत्येकं भाषणावसरे, क्षितिपाललोकेन नृपजनेन, वक्षसि वक्षःस्थले, सहासं हासपूर्वकम् , आरोप्यमाणा निवेश्यमाना; च पुनः, सततम् अनवरतम् , अप्रमत्तैः अवहितहृदयैः, शस्त्रपाणिभिः गृहीतशस्त्रैः, वीरपुरुषैः पराक्रमशालिजनैः, राज्यलक्ष्मीरिव राज्यसम्पदिव, रक्ष्यमाणा विप्लवाद् वार्यमाणा [ध] । च पुनः, उचितसमये अध्ययनयोग्यकाले, यथाशक्ति स्वशक्त्यनुसारम् , अधीतराजकन्यकोचितविद्या अधीता-पठिता, राजकन्यकोचिता
काऽध्ययनीया विद्या यया तादृशी; सोपनिषदि रहस्यसहिते, नाट्यवेदे नाट्यशास्त्रे, च पुनः, गीतवाद्यादिषु गानवादनादिषु, कलासु नैपुणीषु, कृतपरिचया लब्धशिक्षा सती; विनयपरतया नम्रतया, पितुः, पुनः एकापत्यतया अद्वितीयात्मजतया, मातुः, पुनः वत्सलतया स्नेहास्पदतया, ज्ञातिपक्षस्य बन्धुवर्गस्य, पुनः दाक्षिण्यनिघ्नतया वैदग्ध्यवशेन, परिजनस्य परिवारजनस्य, पुनः प्रियंवदतया मधुरालापितया, पौरलोकस्य पुरवासिजनस्य, पराम् अत्यन्तां, चक्षुःप्रीति नयनानन्दम्, आदधाना जनयन्ती; क्रमेण शनैः अझैः शरीरावयवैः, यौवनावतारं तारुण्योद्गमम्, अङ्गीकृतवती स्वीकृतवतीत्यग्रेणान्वेति; कीदृशम् ? अविप्रयुक्तरागिमिथुनानां संयुक्तकामिद्वन्द्वानां, सविलासिनीकविलासिनामित्यर्थः, निर्वापकं शान्तिजनकं, सन्तोषाधायकमित्यर्थः; पुनः दरिद्रकामिहृदयानां कामिनीविरहितकामिजनमनसां, सन्तापकं सन्तापजनकम् ; पुनः कुरूपाणां कुत्सिताकृतीनां, प्रसाधकं सौन्दर्यसम्पादकम् । पुनः अशेषविभ्रमक्रमकलानाम् अशेषाः-समग्राः, या विभ्रमक्रमकलाः-विलासक्रमकौशलानि, यद्वा अशेषाणां विभ्रमक्रमाणां याः कलाः, तासाम् , अध्यापक शिक्षकम् । पुनः सन्नद्धोन्नतपयोधरं सन्नद्धौ-परिपूर्णी, उन्नतौ, पयोधरौ-स्तनौ, यस्मिन् , पक्षे सन्नद्धः-वर्षणप्रवणः, उन्नतः, पयोधरः-मेघो यस्मिंस्तादृशम् , इन्द्रियस्रोतसाम इन्द्रियनदीनां, वर्षासमयं वर्षतुम् पुनः विस्तारित कुमुदविशदस्मितं विस्तारितं, कुमुदवत्-चन्द्रविकास्यकमलवत् , विशद-स्वच्छं, स्मितं-मन्दहासः, पक्षे कुमुदानां-चन्द्रविकास्यकमलानां, विशदम्-उज्ज्वलं, स्मितं-विकासो येन तादृशम् , अङ्गलावण्यचन्द्रोदयस्य शरीरसौन्दर्य चन्द्रोदयस्य, प्रदोषागर्म सन्ध्याकालिकसमयम् ; पुनः वलितरङ्गितमध्यसरणिं वलिभिः-निम्नोदररेखाभिः, तरङ्गिता-सञ्जाततरङ्गेव, मध्यसरिणिः-शरीरमध्यभागात्मकमार्ग उदरप्रदेशात्मकमार्गो यस्य, पक्षे वलिता-भ्रमिता, रङ्गिता-विशाला च मध्ये सरणिःमार्गों यस्य तादृशम् , विषमबाणस्य विषमाः-पञ्चत्वात्मकविषमसंख्यकाः, बाणा यस्य तादृशस्य, कामदेवस्येत्यर्थः, क्रीडाराम
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तिलकमञ्जरी
१८१ विषमबाणस्य पुलकजाड्योत्कम्पादिविकारबहुलं शिशिरावतारं तरुणजनहृदयतामरसानां प्रपञ्चितचतुरोक्तिमग्रदूतं प्रगल्भताया उदीरितोत्कलिकासहस्रं प्रलयकालं रागजलधेरङ्गीकृतवती नवयौवनावतारमङ्गैः [न]। सर्वदा च विस्तारितकलाशास्त्रविनोदेन सदृशवयसा सदृशरूपलावण्येन सदृशवस्त्रभूषणादिवेषपरिच्छदेन प्रियवादिना विदग्धेन स्निग्धेन सध्रीचीनजनेनामुक्तसंनिधिरविदितप्रणयिसार्थप्रार्थनाभङ्गदुःखान्यननुभूतभोगचिन्ताज्वरजागराणि धृतिमयानीव निर्वृतिमयानीव कतिचिदिनान्यनैषम् [प]।
____ एकदा च प्रदोषसमये निजप्रासादस्य शिखरशालायां प्रसुप्ताहमाहतानेकपटहझल्लरीमृदङ्गझात्कारमुखरेण श्रवणहारिणा दिव्यतूर्यनिनादेन निद्राममुञ्चम् [फ] । उन्मीलितलोचना च सहसैव सुरविमानसंनिभस्य नभस्तलोल्लेखिशिखरोन्नतेरतिविपुलावकाशोदरस्य साक्षादिव दिवसकरमण्डलस्य तत्कालसंनिहितपन्नगेश्वरश्वासपवनै रसातलान्मर्त्यलोकमानीतस्य किमपि विस्मयनीयाकृतेर्मणिशिलामयस्य जिनवेश्मनः कोणैकदेशे निषण्णमासन्नवर्तिनीभिरूस्थिताभिश्च वातायननिविष्टाभिश्च गृहीतचिन्तामौनाभिश्च शनैः शनैः
क्रीडोपवनम् ; पुनः पुलकजाड्योत्कम्पादिविकारबहुलं पुलकं- रोमाञ्चः, जाड्यं-निश्चष्टत्वम् , उत्कम्पः-प्रकम्पनं, तदादिभिः-तत्प्रभृतिभिः, विकारैः-शैत्योपद्रवः, पक्षे कामवासनोपद्रवैः, बहुलं-पूर्ण, तरुणजनहृदयतामरसानां युवजनहृदयकमलानां, तद्विक्रियाऽऽपादकमित्यर्थः, शिशिरावतारं शीतागमकालम् । पुनः प्रपश्चितचतुरोक्तिं प्रपञ्चिताः-प्रकटिताः, चतुराः-वैदग्ध्यपूर्णाः, उक्तयः-वचनानि येन तादृशम् , प्रगल्भतायाः अभीरुतायाः, अग्रदूतम् सन्देशहारकाणामग्रेसरम उदीरितोत्कलिकासहस्रम् उदीरितं-प्रकटितम् , उत्कलिकासहस्रं-कामकृतमौत्सुक्यसहस्रं, पक्षे तरङ्गसहस्रं येन तादृशं, रागजलधेः प्रणयसिन्धोः, तदुद्वेलकमित्यर्थः, प्रलयकालं युगान्तकालम् [न] । च पुनः, सर्वदा सदा, सध्रीचीनजनेन सहचरीजनेन, अमुक्तसन्निधिः अत्यक्तपार्धा, कतिचित् कतिपयानि, दिनानि अनैषम् व्यतीतवती; कीदृशेन ? विस्तारितकलाशास्त्रविनोदेन विस्तारितः-प्रपञ्चितः, कलाशास्त्रविनोदः कलाशास्त्रेण मनोऽनुरञ्जनं येन तादृशेन; पुनः सदृशवयसा तुल्यवयस्केन; पुनः सदृशरूपलावण्येन समानाकृतिसौन्दर्यकेण; पुनः सदृशवस्त्रभूषणादिवेषपरिच्छदेन सदृशः, वस्त्रभूषणादिरूपः, वेषपरिच्छदः-कृत्रिममण्डनोपकरणं यस्य तादृशेन; पुनः प्रियवादिना मधुरभाषिणा; पुनः विदग्धेन चतुरेण; पुनः स्निग्धेन स्नेहास्पदेन; कीदृशानि दिनानि ? अविदितप्रणयिसार्थप्रार्थनाभङ्गदुःखानि अविदितानि-अननुभूतानि, प्रणयिसार्थस्य-स्नेहिगणस्य, या प्रार्थना, तद्भङ्गजन्यदुःखानि येषु तादृशानि, पुनः अननुभूतभोगचिन्ताज्वरजागराणि अननुभूता भोगचिन्तात्मकन ज्वरण जागरा-निद्राभङ्गो येषु तादृशानि, पुनः धृतिमयानीव सन्तोषपूणोंनीव, पुनः निर्वृतिमयानीव सुखपूर्णानीव [प]।
एकदा एकस्मिन् समये, प्रदोषसमये सायंसमये, निजप्रासादस्य स्वमहाभवनस्य, शिखरशालायां शिरोगृहे, प्रसुप्ता शयिता, अहम् , आहतानेकपटहझल्लुरीमृदङ्गझात्कारमुखरेण आहतानां-ताडितानाम् , अनेकेषां, पटहानांदुन्दुभीनां, झल्लरीणां-झालरशब्देन लोकप्रसिद्धानां वाद्यविशेषाणां, मृदङ्गानां च, झात्कारैः-ध्वनिभिः, मुखरेण-वाचालेन, समृद्धेनेत्यर्थः, पुनः श्रवणहारिणा श्रवणप्रियेण, दिव्यतूर्यनिनादेन मनोज्ञवाद्यभेद वनिना, निद्राम् , अमुञ्चम् अत्यजम् [फ]। च पुनः, उन्मीलितलोचना उद्घाटितनयना सती, सहसैव शीघ्रमेव, आत्मानं स्वम् , अपश्यं दृष्टवतीत्यप्रेणान्वेति; कीदृशम् ? जिनवेश्मनः जिनमन्दिरस्य, कोणकदेशे कोणकभागे, निषण्णम् उपविष्टम् । कीदृशस्य ? सुरविमानसंनिभस्य देवसम्बन्धिव्योमयानतुल्यसन्निवेशस्य पुनः नभस्तलोलेखिशिखरोन्नतेः नभस्तलोल्लेखिनी-गगनतलस्पर्शिनी. शिखरोन्नतिर्यस तादृशस्य; पुनः अतिविपुलावकाशोदरस्य अतिविपुलः-अत्यन्तविस्तृतः, अवकाशः-रिक्तस्थानं यस्य तादृशम् उदरं-मध्यं यस्य तादृशस्य; पुनः साक्षाद् दिवसकरमण्डलस्येव सूर्यमण्डलस्येवेत्युत्प्रेक्षा; पुनः तत्कालसन्निहितपन्नगेश्वरश्वासपवनैः तत्कालसन्निहितैः-तत्क्षणसम्पृक्तः, पन्नगेश्वराणां-भुजङ्गराजानां, श्वासपवनैः-श्वासवायुभिः कर्तृभिः, रसातलात् पातालात् , मर्त्यलोकं मर्त्यभुवनम् , आनीतस्य उत्क्षिप्तस्य; पुनः किमपि अनिर्वचनीयं यथा स्यात् तथा. विस कृतेः आश्चर्यास्पदाकारविशिष्टस्य; पुनः मणिशिलामयस्य मणिरूपा या शिला पाषाणः, तन्मयस्य-तत्प्रकृतिकस्य पुनः कीदृशमात्मानम् ? नरेन्द्रकन्याभिः राजसुताभिः, परिवृतं परिवेष्टितम् , कीदृशीभिः ? आसन्नवर्तिनीभिः पार्श्ववर्तिनीभिः;
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टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता । कृतमिथःसंलापाभिश्च साध्वसनिरुद्धशरीरचेष्टाभिश्च जनशब्दश्रवणसावधानाभिश्च वामहस्तपर्यस्तवदनव्यञ्जितविषादाभिश्च तत इतः प्रहितविकाशोत्ताननयनसूचितान्तःकौतुकाभिश्च महाहवेषधारणीभिरसाधारणरूपशोभाभिर्निभर्सितसुराङ्गनाकाराभिराकारसंभाव्यमानमहाभिजनप्रसूतिभिर्नरेन्द्रकन्या भिः परिवृतमात्मानमपश्यम् [ब]।
___ दृष्ट्वा च समुपजातचित्तसंक्षोभा 'किमेतत्' इति चिन्तयन्ती सत्वरमुत्थाय संयतशिथिलकुसुमापीडा निबिडितपरिधाननीविरवच्छाद्य सत्वरं सव्येतरकरावर्जितेनोत्तरीयवाससाङ्गमङ्गीकृता युगपदुत्थितैः साध्वसप्रमोदविस्मयादिभिर्भावैः स्तम्भितेव लिखितेव संयतेवोत्कीर्णेव मुहूर्तमतिष्ठम् । अनवलोकयन्ती चात्मनो भवनं चित्रशालिकां शयनीयमालीजनं परिजनं च जातविस्मया 'कच्चिन्मया स्वप्नोऽयमनुभूयते, विभ्रमो वायमिन्द्रियाणाम् , इन्द्रजालं वा केनाप्युपदर्शितमेतत्' इति पुनः पुनश्चिन्तयन्ती चकितचकिता द्वारदेशमागमम् [भ] । एकपाविलम्बिनी च विलम्ब्य तत्र क्षणमात्रमुत्सृज्य पर्यायेण स्त्रैणसहजं साध्वसमाधाय
टिप्पनकम्-अभिजनः-कुलम् [व] ।
च पुनः, ऊर्ध्वस्थिताभिः उपरिवर्तिनीभिः; च पुनः, वातायननिविष्टाभिः गवाक्षदेशोपविष्टाभिः; च पुनः, गृहीतचिन्तामौनाभिः गृहीतं-स्वीकृतं, चिन्तया मौनं-वाङ्गिरोधो याभिस्तादृशीभिः; च पुनः, शनैः शनैः मन्दं मन्दं, कृतमिथःसंलापाभिः कृतपरस्परसम्भाषणाभिः; च पुनः, साध्वसनिरुद्धशरीरचेष्टाभिः साध्वसेन-भयेन, निरुद्धानिवारिता; शरीरचेष्टा-अङ्गसञ्चारो याभिस्तादृशीभिः; च पुनः, जनशब्दश्रवणसावधानाभिः लोकोक्तिश्रवणप्रवणाभिः; च पुनः, वामहस्तपर्यस्तवदनव्यञ्जितविषादाभिः वामहस्तपर्यस्तेन-वामहस्तविक्षिप्तेन वदनेन-मुखेन, व्यजितः- सूचितः. विषादो याभिस्तादृशीभिः; च पुनः, तत इतः सर्वतः, प्रहितविकाशोत्ताननयनसूचितान्तःकौतुकाभिः प्रहिताभ्यांव्यापारिताभ्या, विकाशोत्तानाभ्याम्-उन्मीलनोन्नताभ्यां, नयनाभ्यां-सूचितं-प्रत्यायितम् , अन्तःकौतुकम्-अन्तःकरणोत्सुक्यं याभिस्तादृशीभिः पुनः महाहवेषधारिणीभिः मनोहरवेषग्राहिणीभिः; पुनः असाधारणरूपशोभाभिः उत्कृष्ट स्वरूपसौन्दर्याभिः; पुनः निर्भसितसुराङ्गनाकाराभिः तिरस्कृतदेवगनास्वरूपाभिः; पुनः आकारसम्भाव्यमानमहाभिजनप्रसूतिभिः आकारेण-आकृत्या, सम्भाव्यमाना-प्रतीयमाना, महाभिजने-उत्कृष्टकुले, प्रसूतिः-उत्पत्तिर्यासां तादृशीभिः [ब।
दृष्टा तादृशमात्मानमवलोक्य, समुपजातचित्तसंक्षोभा समुत्पन्नान्तःसम्भ्रमा, 'एतत् किम्' इति चिन्तयन्ती वितर्कयन्ती, सत्वरं शीघ्रम्, उत्थाय शय्यामुन्मुच्य, संयतशिथिल कुसुमापीडा संयतः-आबद्धः, शिथिल:-शयनकालिकपार्श्वपरिवर्तनेन शोल्यमापन्नः, कुसुमापीडः-पुष्पमयशिरोमाल्यं यया तादृशी; पुनः निविडितपरिधाननीविः निबिडिता-द्रढिता, परिधाननीविः-परिधानीयवस्त्रकटीबन्धो यया तादृशी सती, सव्येतरकरावर्जितेन वामहस्तगृहीतेन, उत्तरीयवाससा उत्तरीयवस्त्रेण, सत्वरं शीघ्रम् , अङ्गं शरीरम, अवच्छाद्य आच्छाद्य, युगपत् एककालम् , उत्थितैः उद्धतैः, साध्वस-प्रमोद-विस्मयादिभिः भय-हर्षा-ऽऽश्चर्यप्रभृतिभिः, भावैः मानसविकारैः, अङ्गीकृता आक्रान्ता सती, स्तम्भितेव निरुद्धव्यापारेव, पुनः लिखितेव चित्रितेव, पुनः संयतेव नियन्त्रितेव, पुनः उत्कीर्णेव मृदादिवत् पुञ्जितेव, मुहूर्त क्षणम् , अतिष्ठं स्थितवती । च पुनः, आत्मनः खस्य, भवनं गृहम् , चित्रशालिकां चित्रगृहम् , शयनीयं
आलीजनं सखीजनम् , च पुनः, परिजनं परिवारम् , अनवलोकयन्ती अपश्यन्ती, जातविस्मया उत्पन्नाश्चर्या मया, अयं तादृशात्मविषयकः, खप्नः, अनुभूयते, कच्चित् किमु, वा अथवा, अयम् , इन्द्रियाणां विभ्रमः भ्रमणा, वा किं वा. केनापि केनचिदैन्द्रजालिकेन, एतत् इदम् , इन्द्रजालं मायाजालम् , उपदर्शितं दृष्टिपथमारोपितम् , इति इत्थं, पुनः पुनः असहकृत् , चिन्तयन्ती तर्कयन्ती, चकितचकिता अत्यन्तं चकिता, द्वारदेशं तत्प्रासादप्रवेशनिर्गमप्रदेशम् , आगमम् आगतवती [भ] | च पुनः, एकपाचवलम्बिनी तद्धारदेशैकदेशवर्तिनी, तत्र द्वारदेशे, क्षणमात्रं मुहूर्तमात्रं विलम्ब्य स्थित्वा, पर्यायेण क्रमेण, स्त्रैणसहजं स्त्रीगण स्वभावसिद्धं, साध्वसं भयम् , उत्सृज्य त्यक्त्वा, पुनः मनसि,
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१८३ मनसि धैर्यमग्रतः प्रत्याविरचितस्य लम्बितविचित्ररत्नदाम्नो देवाङ्गपटवितानकावगुण्ठितसकलक्षणस्य तत्क्षणानीतसमुद्रविद्रुमद्रुमदारुनिर्मितोदारमकरतोरणस्य द्वारदोलायमाननन्दनोद्यानतरुतरुणमणिप्रवालवन्दनमालस्य गगनमन्दाकिनीकनकारविन्दकृतनिरन्तरोपहारस्य हसत इवावचूलहारैर्नृत्यत इव ध्वजांशुकैर्गायत इव भृङ्गाङ्गनारावैर्विलोकयत इव मणिप्रदीपैश्चुम्बत इव मुखप्रतिबिम्बग्राहिभिः स्फटिकदर्पणैराश्लिष्यत इव दूरप्रसारितकरैश्चामीकरस्तम्भैर्जनसमाज सीम्नः समस्तरमणीयानां धाम्नस्त्रिभुवनाद्भुतानामतिमहावकाशकुक्षेर्माणिक्यमण्डपस्यैकदेशमनेकदिव्यनरनारीनिकुरम्बसंबाधमध्यासितवती [म] । सर्वतः प्रहिततरल. लोचना च तत्कालमङ्कुरितेन कौतुकेनैकदेशस्थितामार्यरूपधारिणीमेकामतिकान्तबहुवयसमङ्गनामुपगम्य सविनयमपृच्छम् -- 'आर्ये ! क एष कमनीयताकदर्थितसकलपृथ्वीदेशः प्रत्यादेश इव गीर्वाणभूमेरतिसेव्यसंनिवेशः प्रदेशः, क एते चित्ररत्नाभरणरमणीयाऽऽकल्पधारिणः कल्पतरव इव जङ्गमाः सौम्याकारवपुषः
टिप्पनकम्-स्त्रैणं-स्त्रीसमूहः [म] । प्रत्यादेश इव निराकरणमिव । आकल्पः-वेशः [य] ।
धैर्य असम्भ्रमम् , आधाय स्थापयित्वा, अग्रतः पुरोवर्तिनः, माणिक्यमण्डपस्य रत्नमण्डपस्य, एकदेशम् , एकभागम् , अध्यासितवती उपविष्टवती, कीदृशस्य ? प्रत्यग्रविरचितस्य अचिरनिर्मितस्य, अभिनवस्येत्यर्थः; पुनः लम्बितविचित्ररत्नदानः लम्बितम्-अवनमितं, विचित्राणां-नानावर्णानां, रत्नानां, दाम-माल्यं यस्मिंस्तादृशस्य; पुनः देवाङ्गपटवितानकावगुण्ठितसकलक्षणस्य देवाङ्गपटरूपेण-देवताङ्गसम्बन्धिवस्त्ररूपेण, वितानकेन उल्टोचेन, अवगुण्ठितः-आवृत्तः, सकल:-समस्तः, क्षणः-मध्यभागो यस्य तादृशस्य; पुनः, तत्क्षणानीतसमुद्रविद्रुमद्रुमदारुनिर्मितोदारमकरतोरणस्य तत्क्षण-तत्कालम् , आनीतस्य, समुद्रविद्रुमद्रुमस्य -समुद्रवर्तिप्रवालवृक्षस्य, दारुणा-काष्ठेन, निर्मितः-रचितः, मकरः-मकराकृति यस्मिंस्तादृशः, तोरणः-बहिरदेशो यस्य तादृशस्य; पुनः द्वारदोलायमाननन्दनोद्यानतरुतरुणमणिप्रवालवन्दनमालस्य द्वारदोलायमाना-द्वारदेशोत्क्षेप्यमाणा, नन्दनोद्यानसम्बन्धी-नन्दननामकदेवोद्यानसम्बन्धी यः, तरु:-वृक्षः-तत्सम्बधिनस्तरुणाः-परिणता ये मणिप्रवालाः-मणिपल्लवाः, तन्मयी, वन्दनमाला-द्वारपूजोपकरणमाला यस्य तादृशस्य; पुनः गगनमन्दाकिनीकनकारविन्दकृतनिरन्तरोपहारस्य गगनमन्दाकिन्याः-आकाशगङ्गायाः, कनकारविन्दैः-सुवर्णकमलैः, कृतःसम्पादितः, निरन्तर:--अविरलः, उपहारो यस्य यस्मिन् वा तादृशस्य; पुनः अ रैः शिरोलम्बिमाल्यैः, हसत इवः पुनः ध्वजांशुकैः पताकापटैः, नृत्यत इव गात्रमुत्क्षिपत इव; पुनः भृङ्गाङ्गनारावैः भ्रमरीगुञ्जितैः, गायत इव गानं कुर्वत इव; पुनः मणिप्रदीपैः मणिरूपैः प्रकृष्टदीपैः, विलोकयत इव पश्यत इव; पुनः मुखप्रतिबिम्बग्राहिभिः मुखप्रतिविम्वास्पदैः, स्फटिकदर्पणैः स्फटिकजातीयमणिरूपैर्दर्पणैः, चुम्बत इव चुम्बनं कुर्वत इव; पुनः दूरप्रसारितकरैः दूरप्रसारिताः-दूरविस्तारिताः, कराः किरणाः पक्षे हस्ता यैस्तादृशै, चामीकरस्तम्भैः सुवर्णस्तम्भैः, जनसमाजं जनगणम् , आश्लिष्यत इव आलिङ्गत इवेति सर्वत्रोत्प्रेक्षा; पुनः समस्तरमणीयानां सर्वसुन्दरवस्तूनां, धाम्नः स्थानस्य, अतिमहावकाशकुक्षेः अतिमहान्-अतिविस्तारः, यः, अवकाशः-रिक्तप्रदेशः, स कुक्षिः-मध्यं यस्य तादृशस्य; कीदृशमेकदेशम् ? अनेकदिव्यनरनारीनिकुरम्बसंबाधम् अनेकैः-बहुभिः, दिव्यनरनारीनिकुरम्बैः-दिव्यस्त्रीपुरुषसमूहैः, संबाधं-सङ्कीर्णम् [म]। च पुनः, तत्कालं तत्क्षणम् , अङ्कुरितेन प्ररूढेन, कौतुकेन औत्सुक्येन, सर्वतः सर्वदिक्षु, प्रहिततरललोचना व्यापारितचञ्चललोचना सती, एकदेशस्थितां तदेकभागेऽवस्थिताम् , पुनः आर्यरूपधारिणी सभ्यवेषधारिणीम् , एकाम् , अतिक्रान्तबहुवयसं व्यतीताधिकावस्थाम् , अङ्गनां नारीम् , उपगम्य समीपं गत्वा, सविनयं सादरम् , अपृच्छम् अहं पृष्टवती-'आर्य! श्रेष्ठे !, कमनीयताकदर्थितसकलपृथ्वीदेशः कमनीयतया-सौन्दर्येण, कदर्थितः-तिरस्कृतः, सकल:-समग्रः, पृथ्वीदेशो येन तादृशः, पुनः गीर्वाणभूमेः देवभूमेः, प्रत्यादेश इव निराकरणमिवेत्युत्प्रेक्षा, अतिसेव्यसन्निवेशः अतिसेव्यः-अत्यन्तसेवनाहः, सन्निवेशः-अवयवसंस्थानं यस्य तादृशः, एषः अयं, प्रत्यक्षभूत इति यावत्, प्रदेशः स्थानं, कः ?; पुनः चित्ररत्नाभरणरमणीयाकल्पधारिणः नानावर्णमणिमयालङ्करणमनोहरवेषधारिणः, पुनः जङ्गमाः गमनशीलाः, कल्पतरव इव कल्पवृक्षा इवेत्युत्प्रेक्षा, सौम्याकारवपुषः मनोज्ञावयवकशरीराः, एते प्रत्यक्षवर्तिनः,
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टिप्पनक - परागविवृतिसंवलिता ।
पुरुषाः, कच किंनामधेयोऽयमेषां मध्यवर्ती मर्त्यलोक इव जगतां मेरुरिव मेदिनीभृतां महात्मा भूमिपतिः [य] | इति पृष्टा च सा निश्चलनिहितदृष्टिरतिचिरमवलोक्य मन्मुखं सकरुणमवादीत् - 'वत्से ! किमन्यदेशादागता त्वम्, अत्रत्या न भवसि येनैवमभिदधासि शृणु, निवेदयामि । एष भूषणं सर्वद्वीपानां पञ्चशैलो नाम दक्षिणस्य सलिलराशेरन्तरद्वीपः, इमेऽपि सत्त्वसाहसैकधनाः प्रसाधनाराधनविधिविधेयीकृतविविधविद्य संपादितात्यद्भुतसिद्धयो वैताढ्यगिरिनगराश्रया गगनचारिणो विद्याधराः, असावप्यमीषामधिपतिः प्रतापिनामग्रणीर्धर्म इव मूर्तिमानार्तजनशरण्यः शासिता दुर्वृत्तानां निर्वृतिपुरं भीतानामद्भुतपराक्रमचक्रवर्ती विचित्रवीर्यो नाम [र] |
अथ सहसैव कनकवेत्रलतापाणिरेकः पुमानुदारगम्भीराकृतिरुपसृत्य तं विद्याधरपति व्यजिज्ञपत्'देव ! दीयतामितः क्षणं दृष्टिः, येयमभिनवप्रियङ्गमञ्जरीपिशङ्गावदातदेहा कनककमलचापयष्टिरिव हरहुता - शनष्प्लुष्टसकलमलकलङ्का कुसुमकार्मुकस्य निजत्विषा तिरस्करोतीव मणिप्रदीपान् इयमखिलावनिपालतिल
पुरुषाः नराः, के ?; पुनः जगतां भुवनानां मर्त्यलोक इव मर्त्यभुवनमिव पुनः मेदिनीभृतां पर्वतानां पक्षे नृपाणाम्, मेरुरिव सुमेरुगिरिरिव, एषां पुरुषाणां, मध्यवर्ती मध्यस्थः, पुनः महात्मा पूज्यात्मा, अयं प्रत्यक्षवर्ती, भूमिपतिः नृपः कः ?, च पुनः, किन्नामधेयः किन्नामकः ? [य] । इति इत्थं, पृष्टा जिज्ञासां विज्ञापिता, सा प्रकृतस्त्री, निश्चलनिहितदृष्टिः स्थिरारोपितलोचना, अतिचिरम् अतिदीर्घकालम्, मन्मुखं मदीयवदनम्, अवलोक्य दृष्ट्वा, सकरुणं सदयं यथा स्यात् तथा, अवादीत् उक्तवती, वत्से ! पुत्रि !, त्वम्, अन्यदेशादागता विदेशादागता अत्रत्या एतद्देशीया, न भवसि वर्तसे किम् ? येन यस्माद्धेतोः, एवम् उक्तप्रकारेण अभिदधासि ब्रवीपि, पृच्छसीत्यर्थः, शृणु, निवेदयामि विज्ञापयामि, सर्वद्वीपानां सकलजलमध्यवर्तिप्रदेशानां भूषणम् अलङ्करणभूतः, एषः अयम्, पञ्चशैलो नाम तत्संज्ञकः, दक्षिणस्य दक्षिणदिगवस्थितस्य, सलिलराशेः समुद्रस्य, अन्तरद्वीपः मध्यवर्तिद्वीपः अस्तीति शेषः पुनः इमेऽपि प्रत्यक्षवर्त्तिनः पुरुषा अपि, सत्त्वसाहसैकधनाः सत्त्वं - पराक्रमः, साहसं - दुष्कर कार्यकारिता, ते एक प्रधानं धनं येषां तादृशाः, पुनः प्रसाधनाराधनविधिविधेयीकृत विविधविद्यासम्पादितात्यद्भुतसिद्धयः प्रसाधनं नाम-विद्याssराधनानुगुण वेषविन्यासः, आराधनं नाम-विद्यानां समीहितसिद्धिसम्पादनौन्मुख्याधानं, ताभ्यां विधिभ्यां - क्रियाभ्यां विधेयीकृताभिः - वशीकृताभिः, विविध विद्याभिः - अनेकविध विद्याभिः सम्पादिताः - जनिताः - अत्यद्भुताः - अत्याश्चर्यावहाः, सिद्धयःअणिमादयो येषां तादृशाः, पुनः वैताढ्यगिरिनगराश्रयाः वैताढ्यनामकपर्वतान्तर्गतनगर निवासिनः, पुनः गगनचारिणः आकाशविहारिणः, विद्याधराः सन्तीति शेषः; असावपि सोऽपि तन्मध्यवर्त्यपीत्यर्थः, अमीषां तेषां विद्याधराणाम्, अधिपतिः प्रभुः, पुनः प्रतापिनां कोशदण्डज तेजस्विनाम्, अग्रणीः नायकः, पुनः मूर्तिमान् शरीरवान्, धर्म इवेत्युत्प्रेक्षा, आर्तजनशरण्यः विपन्नजनरक्षकः, दुर्वृत्तानां दुश्चरित्राणां शासिता निग्रहीता, पुनः भीतानां शत्रुत्रस्तानां निर्वृतिपुरं सुखस्थानम्, अभयप्रद इत्यर्थः पुनः अद्भुतपराक्रमचक्रवर्ती अद्भुतपराक्रमेण - लोकोत्तरविक्रमेण, चक्रवर्ती-अखण्डलभूमण्डलेश्वर इव, विचित्रवीर्यो नाम तत्संज्ञकः, अस्तीति शेषः [र] |
अथ अनन्तरं, कनकवेत्रलतापाणिः सुवर्णमयदण्डात्मकलतामण्डितहस्तः, पुनः उदारगम्भीराकृतिः उदाराप्रधाना, गम्भीरा - विस्तृता च, आकृतिः - शरीरं यस्य तादृशः, एकः पुमान् पुरुषः, सहसैव शीघ्रमेव, उपसृत्य उपस्थाय तं विचित्रवीर्यनामानं विद्याधरपतिं, व्यजिज्ञपत् विज्ञापितवान्-देव ! प्रभो !, इतः अस्मिन् दृश्यमानकन्यकान्दे इत्यर्थः, क्षणं कञ्चित् कालं यावत्, दृष्टिः चक्षुः, दीयतां प्रक्षिप्यताम् । अभिनवप्रियमञ्जरी पिशङ्गावदातदेहा अभिनवानूतना, या प्रियङ्गुमञ्जरी - प्रियङ्गुनामकलतासम्बन्धिनी नवाङ्कुरश्रेणी तद्वत्, पिशङ्गः- पीतवर्णः, अवदातः विशुद्धश्च देहो यस्यास्तादृशी पुनः हरहुताशनप्लुष्टसकलमलकलङ्का हरहुताशनेन - शिवनेत्राग्निना, पुष्टः- दग्धः सकलमलकलङ्कः-समग्रमलरूपः कलङ्को यस्यास्तादृशी, कुसुमकार्मुकस्य पुष्पधन्वनः, कामदेवस्येत्यर्थः, कनककमलचापयष्टिरिव सुवर्णकमलरूपधनुर्दण्ड इवेत्युत्प्रेक्षा, या, इयं पुरोवर्तिनी, कन्यका, निजत्विषा स्वकान्त्या, मणिप्रदीपान् मणिरूपान् प्रदीपान् तिर
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तिलकमञ्जरी
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कस्य यौवनोपचयपी पाञ्चालललनाकुचोन्नाह लालितपृथूरः स्थलस्य कुशस्थलपतेः प्रतापशीलस्य कुसुमावली नाम [ल ] । इयं च मार्जितमणिप्रदीपदीप्तदेहा स्वदेहच्छायया विच्छाययन्ती विद्याधरीगणमग्रतो निषण्णास्ते, एषापि यदुनरेन्द्रवंशविशेषकस्य महेन्द्रमलयाद्रिमध्यवर्तिमेदिनीपाल मौलिसंघट्टमसृणमाणिक्यपादपीठस्य हठगृहीतसकलदुष्टारातिकोशकाञ्चनस्य कानीपतेः कुसुमशेखरस्य मलयसुन्दरी नाम [ व ] । या च निज सौन्दर्यनिर्जिताप्सरोरूपविभ्रमा लक्ष्मीरिव क्षीरसिन्धुफेनपटलस्य पट्टांशुकवितानकस्य तलभागे तरलतारकमवलोकयन्ती वामतोऽवलोक्यते, एषाप्य शेषविद्वज्जन स्वयंग्राह विलुप्त सकल गृहस्वा पतेयस्य कुसुमपुरसततवाससफलीभूतजन्मनो मनस्विनां धौरेयस्य मगधेश्वरस्य सुरकेतोः शकुन्तला [श ] । यापि विरतनिद्रनीलोत्पलश्यामाभिरामवर्णा दानलेखेव सर्वतः परिमलान्धैः स्वैरापतद्भिरलिकदम्बकैराकुलीकृता मत्त
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टिप्पनकम् - उन्नाहः - उन्नतिः [ल ] | विशेषकः - तिलकः [व] । मत्तवारणम् एकत्र करिणम्, अन्यत्र 'सनस्थान विशेषम् [ष ] |
स्करोतीव निन्दयतीवेत्युत्प्रेक्षा, इयं सेयं कन्यका, अखिलावनिपालतिलकस्य समस्तनृपश्रेष्ठस्य पुनः यौवनोपचयपीनपाञ्चालललना कुचोन्नाहलालितपृधूरः स्थलस्य यौवनोपचयेन - तारुण्यपूर्णतया, पीनयोः -स्थूलयोः, पाश्चालललदुनायाः- पाञ्चालदेशाङ्गनायाः, कुचयोः - स्तनयोः, उन्नाहेन - औन्नत्येन, लालितं- विलासितं पृथु - विशालम्, उरःस्थलं - वक्षःस्थ यस्य तस्य, कुशस्थलपतेः कुशस्थलाख्यजनपदाधीशस्य, प्रतापशीलस्य तत्संज्ञकनृपस्य कुसुमावली नाम तत्संज्ञिका, हिता, अस्तीति शेषः [ल ] । च पुनः, मार्जितमणिप्रदीपदीप्तदेहा मार्जितः - विशोधितः, यो मणिप्रदीपः - मणिरूपः प्रकृष्टोलं दीपः, तद्वत्, दीप्तः - उज्ज्वलः, देहः - शरीरं यस्यास्तादृशी इयं पुरोवर्तिनी या कन्यका, स्वदेहच्छायया स्वशरीकान्त्या, विद्याधरीगणं विद्याधरजातीयस्त्रीगणं, विच्छाययन्ती विगता छाया -कान्तिर्यस्य तादृशं कुर्वन्ती, मालिन्यमापादयन्तीत्यर्थः, अग्रतः अग्रे, निषण्णा उपविष्टा, आस्ते वर्तते; एषापि सैषापि कन्यका, यदुनरेन्द्रवंश विशेषकस्य यदुराजवंशतिलकस्य पुनः महेन्द्रमलयाद्रिमध्यवर्तिमेदिनीपाल मौलिसंघट्टमसृणमाणिक्यपादपीठस्य महेन्द्रमलयाद्रिमध्यवर्तिन - महेन्द्रमलयपर्वतवास्तव्यानां, मेदिनीपालानां नृपतीनां, मौलिसंघट्टेन - किरीटसङ्घर्षणेन, मसृणं-चिक्कणं, माणिक्यपादपीठं-मणिमयपादासनं यस्य तादृशस्य, पुनः हठगृहीतसकलदुष्टारातिकोशकाञ्चनस्य हठेन- बलात्कारेण गृहीतम् - आयत्तीकृतं, सकलानां समस्तानां, दुष्टानां दोषवताम्, अरातीनां शत्रूणां, कोशकाञ्चनं संगृहीतवित्तौघवर्ति सुवर्ण येन तादृशस्य, पुनः काञ्चीपतेः काञ्चीनगर्या अधिष्ठातुः, कुसुमशेखरस्य कुसुमशेखरनाम्नो नृपस्य मलयसुन्दरी नाम मलयसुन्दरी नाम दुहिता, अस्तीति शेषः [व] । च पुनः, निजसौन्दर्यनिर्जिताप्सरोरूपविभ्रमा निजसौन्दर्येण - स्वकीय स्वरूपशोभया, निर्जितः–तिरस्कृतः, अप्सरसां - स्वर्वेश्यानां, रूपविभ्रमः - स्वरूपशोभा यया तादृशी, या कन्यका, क्षीरसिन्धुफेन पटलस्य क्षीरसागरफेनराशेः, तलभागे, अधोभागे, लक्ष्मीरिव, पट्टांशुकवितानकस्य कौशेय सूक्ष्म श्लक्ष्णवस्त्रोल्लचस्य, तलभागे अधोभागे, तरलतारकं चञ्चलनेत्र कनीनिकं यथा स्यात् तथा, अवलोकयन्ती पश्यन्ती, वामतः वामभागे, अवलोक्यते दृश्यते, एषापि सैषापि, अशेषविद्वज्जनस्वयं ग्राहविलुप्तसकल गृह स्वापतेयस्य अशेषाणां समस्तानां, विद्वज्जनानां यः स्वयंग्राहः - स्वयमेव ग्रहणं, यथेच्छमादानमित्यर्थः, तेन विलुप्तं क्षीणं, सकलं, गृहस्वापतेयं गृहवित्तं यस्य तादृशस्य, पुनः कुसुमपुरसततवास सफलीभूतजन्मनः कुसुमपुरे - तदाख्यदिव्यपुरे, सततवासेन - निरन्तर निवासेन सफलीभूतं - सार्थकतामापन्नं, जन्म यस्य तादृशस्य, पुनः मनस्विनां बुद्धिशालिनां, धौरेयस्य अग्रेसरस्य, पुनः मगधेश्वरस्य मगधदेशाधिपस्य, सुरकेतोः तन्नाम्नो नृपस्य, शकुन्तला तन्नामा, दुहिता, अस्तीति शेषः [श ] । विरतनिद्रनीलोत्पलश्यामाभिरामवर्णा विरतानिवृत्ता, निद्रा संकोचो यस्य तादृशं यत् नीलोत्पलं- नीलवर्ण कमलं तद्वत् श्यामः - नीलः, अभिरामः- मनोहरश्च वर्णः - कान्तिर्यस्यास्तादृशी, अत एव स्वैरापतद्भिः स्वैरम् - अप्रतिहतं यथा स्यात् तथा, आपतद्भिः आगच्छद्भिः, परिमलान्धैः परिमलेसुगन्धे, अन्धैः–तदन्यदपश्यद्भिः, सुगन्धलम्पटैरित्यर्थः, अलिकदम्बकैः भ्रमरगणैः, दानलेखेव गजमदजलधारेव, आकुलीकृता व्याप्ता, यापि यापि कन्यका, मत्तवारणं उपवेशनस्थानविशेषं पक्षे मत्तकारिणम् अतिलङ्करो विभूषयति, अध्यास्ते
२४ तिलक ०
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टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता । वारणमलंकरोति, असावपि सैन्यभरदलितपाश्चात्यसिन्धुरोधसः क्रीडदवरोधसुन्दरीस्वच्छन्दोपभुक्तरैवतकपरिसरोद्यानस्य सौराष्ट्रमण्डलपतेर्महाबलस्य बन्धुमती [प] । याश्चैता विचित्रवेषधारिण्यः स्फाटिकवितर्दिकोपविष्टाः क्षोभविरतविभ्रमैः ससंभ्रममितस्ततो वलद्भिरीक्षणैर्मण्डपक्षणेषु विकचेन्दीवरदलोपहारमिव पातयन्ति, एता अपि कलिङ्ग-बङ्ग-अङ्ग-कोशल-कुलूतादिदेशस्वामिनामवनिपालाना-मिन्दुलेखा लीलावती-मालतिका-मदनलेखापायाभिराख्याभिरधिगतप्रख्यातयो देशान्तरेषु दुहितरः' [स] । इत्यभिधाय तूष्णीमास्थिते तस्मिन् स राजा स्मेरतारकः सविस्मयमालोक्य ताः समस्ता अपि प्रत्येकं कन्यका मां च किंचिद्वलितकन्धरो नातिनिकटे समुपविष्टामुत्कृष्टवसनालंकारभूषितविग्रहामग्राम्येण मण्डनप्रकारेणाकारेण च परं प्रसाधितामितस्ततोऽभिव्यज्यमानजरसि प्रौढे वयसि वर्तमानामेकां विलासिनी सपरिहासमवोचत्-चित्रलेखे ! त्वं हि वत्सायाः पत्रलेखायाः परं प्रसादभूमिः प्रधानसैरन्ध्री स्वकर्मकौशलेन कृत्स्नेऽपि जगति लब्धजयपताका जानासि विविधाभिर्भङ्गिभिरलंकर्तुमित्यनेकशः श्रुतमस्माभिः [ह ], अमूलमत्रं कार्मणं तव प्रतिकर्म किमपि सुभगङ्करणमङ्गनानाम् । तथाहि
प्रसादपरया त्वया रचितचतुरप्रसाधनाः । परिणतवयसोऽपि सद्यस्तरुणतां प्रतिपद्यन्ते ॥ १ ॥ इत्यर्थः, असावपि सापि, बन्धुमती बन्धुमतीनाम्नी, बलस्य तन्नाम्नो नृपस्य, कन्यकेति शेषः, कीदृशस्य ? सैन्यभरदलितपाश्चात्यसिन्धुरोधसः सैन्यभरेण-सैन्यसम्भारेण, दलितं-विदारितं, पाश्चात्यसिन्धोः-पश्चिमसागरस्य, रोधः-तटं येन तादृशस्य; पुनःक्रीडदवरोधसुन्दरीस्वच्छन्दोपभुक्तरैवतकपरिसरोद्यानस्य क्रीडन्तीभिः, अवरोधसुन्दरीभिः-अन्तःपुरसुन्दरीभिः, स्वच्छन्द-यथाकामम् , उपभुक्तं-लब्धविहारादिसुखं, रैवतकपरिसरोद्यानं-रैवतकपर्वतपर्यन्तारामो यस्य तादृशस्य; पुनः सौराष्ट्रमण्डलपतेः सौराष्ट्रदेशस्वामिनः [ष] । च पुनः विचित्रवेषधारिण्यः विलक्षणकृत्रिमाङ्गमण्डनशालिन्यः, पुनः स्फाटिकवितर्दिकोपविष्टाः स्फटिकाख्यमणिमयवेदिकोपविष्टाः, या एताः इमाः कन्यकाः, क्षोभविरतविभ्रमैः क्षोभेणसंचलनेन, विरतः - निवृत्तः, विभ्रमः-विलासो येषां तादृशैः, ससम्भ्रमं सत्वरम् , इतस्ततः सर्वतः, वलद्भिः व्याप्रियमाणैः, ईक्षणैः नयनैः, मण्डपक्षणेषु मण्डपमध्यभागेषु, विकचेन्दीवरदलोपहारं विकचं-विकसितं, यद् इन्दीवर-कमलं, तत्पत्ररूपोपहारं, पातयन्तीव प्रक्षिपन्तीवेत्युत्प्रेक्षा, एता अपि इमा अपि कन्यकाः इन्दुलेखा-लीलावती-मालतिका-मदनलेखाप्रायाभिः तत्प्रभृतिभिः, आख्याभिः नामभिः, देशान्तरेषु अन्यान्यदेशेषु, अधिगतप्रख्यातयः प्राप्तप्रसिद्धयः, कलिङ्ग चङ्ग-अङ्ग-कोशल-कुलूतादिदेशस्वामिनां तत्तन्नामकजनपदाधिपतीनाम् , अवनिपालानां नृपतीनाम् , दुहि. तरः कन्यकाः, सन्तीति शेषः [स] । इत्यभिधाय एवमुक्तवा, तस्मिन् विज्ञापकजने, तूष्णीमास्थिते मौनमालम्बितवति, सः प्रकृतः, राजा चित्रवीर्यः, स्मेरतारकः विकखरनेत्रकनीनिकः, ताः समस्ता अपि सर्वा अपि, कन्यकाः, प्रत्येकम् एकैकाम्, च पुनः माम्, सविस्मयं साश्चयेम्, अवलोक्य दृष्ट्वा, किञ्चिद्वलितकन्धरः इषद्वक्रितग्रीवः सन् , नातिनिकटे किञ्चिन्निकटे, समुपविष्टां सम्यगुपविष्टाम् , उत्कृष्टवसनालङ्कारभूषितविग्रहाम् उत्कृष्टवसनालङ्करैःउत्तमवस्त्राभरणैः, भूषितः-अलङ्कृतः, विग्रहः-शरीरं यस्यास्तादृशीम् , पुनः अग्राम्येण सभ्यजनोचितेन, मण्डनप्रकारेण वेषविन्यासेन, च पुनः, आकारेण अवयवसंस्थानेन, परम अत्यन्तं, प्रसाधितां शोभिताम् , पुनः इतस्ततः विरलरूपेण, अभिव्यञ्जमानजरसि प्रकाशमानवार्धक्ये, प्रौढे प्रागल्भ्यपूर्णे, वयसि अवस्थायां, वर्तमानाम् , एका, विलासिनी विलासशीलां स्त्रिय, सपरिहासं परिहासपूर्वकम्, अवोचत उक्तवान् , किमित्याह,-चित्रलेखे!, वत्साया: मद्वात्सल्यास्पदभूतायाः, पत्रलेखायाः, परम् अयन्तं, प्रसादभूमिः प्रसादयित्री, प्रधानसैरन्ध्री मुख्यशिल्पिनी, पुनः स्वकर्मकौशलेन निजकार्यनैपुण्येन, कृत्स्नेऽपि समग्रेऽपि, जगति भुवने, लब्धजयपताका प्राप्तसर्वोत्कर्षद्योतकध्वजा त्वं, विविधाभिः बहुप्रकाराभिः, भङ्गिभिः चमत्कारैः, अलंकर्तु दिव्यरूपतामापादयितुं, जानासि, इति, अनेकशः असकृत् , अस्माभिः, श्रुतं श्रवणगोचरीकृतम् [ह] । अमूलमन्त्रं नास्ति मूलम्-उच्चाटनादिप्रयोजकमीषधिमूलं मन्त्रश्च यस्मिंस्तादृशं, कार्मणं दिव्यरूपापादकतान्त्रिकक्रियात्मकं, तव, प्रतिकर्म प्रसाधन मण्डन मिति यावत् , अङ्गनानां स्त्रीजनानां किमपि विलक्षणं, सुभगङ्करणं सौन्दर्यापादकम् । तथाहि-तदेवोच्यते प्रसादपरया प्रसीदन्मानसया, त्वया, रचित
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तिलकमञ्जरी
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प्राजापत्या अपि पराजयन्तेऽन्तःपुरिकाजनस्य रूपम् , कुरूपा अप्यप्सरायन्ते स्त्रियः, वचनचातुर्य तु ते जन्मान्तराभ्यस्तमिव शरीरेणैव सार्धमाविर्भूतम् , अर्भकत्वेऽपि भुजङ्गजनगोष्ठीषु परां प्रतिष्ठामागतासि, प्रागल्भ्येन स्वभावमधुराः सर्वजनहृदयहारिणः क्षणमात्रपरिचितेऽपि जने जनितनिर्भरविश्रम्भाः कस्य नाम न विस्मयमावहन्ति कं वा विधेयं न कुर्वन्त्यपूर्वाभिर्भङ्गिभिरुद्भासिताः पदे पदे तव विनोदकथालापाः । कथयामि वाग्मिनि ! विवक्षितम् , या इमाः पवनगतिना संप्रत्युपदर्शिताः कन्यकाः, इमाः खलु निखिला अपि भारतक्षेत्रदक्षिणार्धमध्यमखण्डवासिनां मण्डलपतीनामात्मजाः, कथञ्चिदवगतस्वरूपैरेवं रूपवत्य एवं कलाकुशला इति पूर्वमेव निवेदिता विद्याधरैरानीताश्च संप्रति कुतूहलतरलितैरलङ्कर्तुमिमं यात्रोत्सवम् , अत्र चास्य भगवतश्चराचरगुरोरभिषेकमङ्गलानन्तरमेव प्रवर्तयिष्यन्ति संगीतकम् [क्ष] । अतस्तथा प्रसाधय, प्रसादय च यथैताः शिथिलयन्ति स्त्रीस्वभावसुलभं साध्वसम् , विस्मरन्त्याकस्मिकबन्धुजनवियोगजनितमुद्वेगम् , आसादयन्ति परतत्रतादर्शनदूरीकृतं प्रमोदम् , गृहन्ति महाजनसमाजलज्जास्तम्भितं लास्यलीला
चतुरप्रसाधनाः रचितं-सम्पादितं, चतुरं-मनोहरं, प्रसाधनं-मण्डनं येषां तादृशाः, परिणतवयसोऽपि जीर्णवयस्का अपि, सद्यः तत्क्षणं, तरुणतां युवतां, प्रतिपद्यन्ते प्राप्नुवन्ति; प्राजापत्या अपि सामान्या अपि, अन्तःपुरिकाजनस्य अन्तःपुरस्त्रीजनस्य, रूपम् आकृति, पराजयन्ते, तिरस्कुर्वन्ति, कुरूपा अपि कुत्सितरूपा अपि स्त्रियः, अप्सरायन्ते अप्सरसः-स्वर्वैश्याः, ता इवाचरन्ति । ते तव, वचनचातुर्य वाग्वैदग्ध्य, वाग्मित्वमित्यर्थः, तु, जन्मान्तरा भ्यस्तमिव पूर्वपूर्वजन्माभ्यस्तमिव, शरीरेणैव सार्धं सह आविर्भूतं प्रकटितं, खभावसिद्धमित्यर्थः; अर्भकत्वेऽपि बाल्येऽपि, भुजङ्गजनगोष्ठीषु विटजनसभासु, प्रागल्भ्येन धायेण, पराम् अत्यन्तां, प्रतिष्ठां सम्मानम् , आगता प्राप्ता, असि वर्तसे । स्वभावमधुराः अकृत्रिममाधुर्यशालिनः, पुनः सर्वजनहृदयहारिणः सकलजनहृदयाकर्षण शीलाः, पुनः क्षणमात्रपरिचितेऽपि क्षणमात्रं-मुहूर्तमात्रमपि यः परिचितः-विज्ञातकुलशीलादिः, तादृशेऽपि जने जनितनिर्भरविश्रम्भाः उत्पादितनिश्चलविश्वासाः, पुनः अपूर्वाभिः अननुभूतपूर्वाभिः, भङ्गिभिः चमत्कृतिभिः, पदे पदे प्रत्येकपदे, उद्भासिताः उद्दीपिताः, तव विनोदकथालापाः मनोऽनुरञ्जककथासम्बन्धिन आलापाः-आभाषणानि, नामेति वाक्यालङ्कारे, कस्य जनस्य, विस्मयम् आश्चर्य, न आवहन्ति अनुभावयन्ति, वा अथवा, के जनं विधेयं ववश्यं, न कुर्वन्ति सम्पादयन्ति। वाग्मिनि! प्रशस्तवाग्वैभवशालिनि !, विवक्षितं वक्तुमिष्टं वृत्तान्तं, कथयामि विज्ञापयामिपवनगतिना अन्वर्थतन्नाम्ना विद्याधरेण, इमाः पुरोवर्तिन्यः, याः कन्यका उपदर्शिताः आनीय दृष्टिपथमवतारिताः, खलु निश्चयेन, ताः निखिला अपि समस्ता अपि, इमाः कन्यकाः कुमार्यः, भारतक्षेत्रदक्षिणार्धमध्यमखण्डवासिनां भारतक्षेत्रस्य-भारतवर्षस्य, यो दक्षिणार्धः-दक्षिणोऽर्धभागः, तस्य यो मध्यमः-मध्यवती खण्डः-भागः, तद्वासिनां, मण्डलपतीनां मण्डलाधिपानाम् । आत्मजाः सुताः, सन्तीति शेषः । कथश्चित् केनापि प्रकारेण, अवगतस्वरूपैः विज्ञाततत्तत्कन्यकास्वरूपैः, विद्याधरैः, एवं रूपवत्यः ईदृशस्वरूपाः, एवं कलाकुशला ईदृक्कलाकौशलवत्यः, ताः कन्यका इति शेषः, इति इत्थं, पूर्वमेव आनयनात् प्रागेव, निवेदिताः विज्ञापिताः, च पुनः, कुतूहलतरलितैः औत्सुक्योद्वेलितः इमम् अनुपदप्रवर्तमानं, यात्रोत्सवं भगवदभिषेकमङ्गलयात्रोत्सवम् , अलङ्कर्तुं सम्प्रति आनीताः उपस्थापिताः । अत्र अस्मिन् स्थाने, चराचरगुरोः स्थावरजङ्गमाधिष्ठातुः, भगवतः जिनेन्द्रस्य, अभिषेकमङ्गलानन्तरमेव स्नपनमङ्गलाव्यवहितोत्तरकालमेव, सङ्गीतकं प्रेक्षणक, प्रवर्तयिष्यन्ति प्रारप्स्यन्ते, इमाः कन्यका इति शेषः [क्ष]। अतः अस्माद्धेतोः, तथा तेन प्रकारेण, प्रसाधय अलङ्कुरु, च पुनः, प्रसादय प्रमोदय, उल्लासयेति यावत्, यथा एताः इमाः कन्यकाः, स्त्रीस्वभावसुलभ स्त्रीणां प्रकृतिसिद्धं, साध्वसं भयं, शिथिलयन्ति मान्द्यमापादयन्ति; पुनः आकस्मिकबन्धुजनवियोगजनितम आकस्मिकेन-अतर्कितोपनतेन, बन्धुजन वियोगेन-मातापित्रादिविरहेण, जनितम्-उत्पादितम्, उद्वेगं तत्सङ्गमौत्सुक्यातिरेकं, विस्मरन्ति उपेक्षन्ते; पुनः परतन्त्रतादर्शनदूरीकृतं पारवश्यानुभवनिराकृतं, प्रमोद प्रसादम् , आसादयन्ति अनुभवन्ति; पुनः महाजनसमाजलज्जास्तम्भितं महाजनसमाजात्-सभ्य जनसमूहात्, या लज्जा तया
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टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता । भ्युपगमम् , अवतरन्त्यनाकुलाभिरङ्गयष्टिभिरङ्गीकृतशृङ्गारचेष्टारङ्गभूमिम् , अभिनयन्ति सम्यगभिनेयमर्थजातम् , आरोपयन्ति प्रेक्षकजनस्य प्रमोदमग्रभूमिम् , आवहन्ति च सहृदयहृदयवर्तिनो रसस्य परमं परिपोषम् , एष ते प्रकाशयितुमतिचिरकालं शिक्षितं प्रसाधनकर्म वचनवैचक्षण्यं च क्षणः' । इति स्मिताननेनाभिहिता नभश्चरभूमिपालेन सा विलासिनी सहासविकसितेक्षणा तत्क्षणमेवोदतिष्ठत् , अन्वतिष्ठच्च सर्वं यथादिष्टम् []।
___ अत्रान्तरे समारभ्यत त्रिभुवनैकभर्तुरभिषेकमङ्गलविधिः, व्यधीयन्त वैणिकैरितस्ततः प्रहततत्रीपरीक्षितकलध्वनिभिर्निश्चलाः कला वल्लकीषु, वितीर्णविविधमार्जनानि सजान्यक्रियन्त नानावादित्राणि भरतपुत्रैः, निचुलकाकृष्टप्रकृष्टवेणवोऽगायनीगणमुपाविशन , वांशिकाः, प्रक्षालनपवित्रपाणिभिरुपानीयन्त पानीयेन सकलतीर्थाहतेन पूरिताः शातकुम्भकुम्भाः पुंभिः, उत्तम्भिताभिषेककाञ्चनकुम्भा इवाभोगशालिभिः पयोधरैरुपलक्ष्यमाणा बभूवुरासन्नाः, बभ्रमुश्च ससंभ्रममितस्ततः काश्चित् कुसुमपटलकहस्ताः काश्चिदनुपलेन
टिप्पनकम्-प्रतिकर्म मण्डनम् । प्राजापत्याः सामान्याः । विश्रम्भः-विश्वासः । संगीतकं प्रेक्षणकम् [१] । क्षणः प्रस्तावः [ज्ञ] । कलाः काष्ठानि । मार्जनं-भोजनम् निचुलकः-निउलकः [अ]। स्तम्भितं-निरुद्धं, लास्यलीलाभ्युपगमं नृत्यक्रीडास्वीकारं, गृह्णन्ति कुर्वन्ति; पुनःअनाकुलाभिः स्वस्थाभिः, अङ्गयष्टिभिः शरीरयष्टिभिः, अङ्गीकृतशृङ्गारचेष्टारङ्गभूमिम् अङ्गीकृताः-स्वीकृता या, शृङ्गारचेष्टानां-कटाक्षविक्षेपादिशृङ्गारोद्दीपनभावात्मकाभिनयानां, रणभूमिः-नृत्यक्षेत्रभूमिः, ताम्, अवतरन्ति आरोहन्ति; पुनः अभिनेयं हस्तादिकचेष्टया दर्शनीयम् , अर्थजातं वस्तुसमूह, सम्यक स्फुटम, अभिनयन्ति हस्तादिचेष्टया दर्शयन्ति; पुनः प्रेक्षकजनस्य दर्शकलोकस्य, प्रमोदम् आनन्दम् , अग्रभूमिम् उत्कर्षशिखरम् , आरोपयन्ति आरोहयन्ति; च पुनः, सहृदयहृदयवर्तिनः सहृदयानां-निरन्तररसाखादस्निग्धहृदयानां, यत् हृदयं तद्वर्तिनः, रसस्य रसात्मना परिणामिनो रत्यादिस्थायिभावस्य, परमं परि. पोषम् अत्यन्तपुष्टिं रसात्मनाऽऽस्वादयोग्यताम्, आवहन्ति सम्पादयन्ति । अतिचिरकालम् अतिदीर्घकालं, शिक्षितम् अभ्यस्तम् , ते तव, प्रसाधनकर्म मण्डनकर्म, च पुनः, वचनवैचक्षण्यं वाग्विलासकौशलं, प्रकाशयितुम् आविष्कर्तुम् , एषः अयं, क्षणः अवसरः। इति इत्थं, स्मिताननेन मन्दहसितमुखेन, नभश्चरभूमिपालेन विद्याधरेन्द्रेण, अभिहिता उक्ता, सा प्रकृता, विलासिनी विलासवती चित्रलेखा, सहासविकसितेक्षणा सहासं-हासपूर्वकं, विकसिते ईक्षणे-नयने यस्यास्तादृशी सती, तत्क्षणमेव तस्मिन्नेव क्षणे, उदतिष्ठत् उत्थितवती, च पुनः, यथादिष्टम् आदिष्टमनतिक्रम्य, सर्वम् , अन्वतिष्ठत् कृतवती [ज्ञ]। . अत्र अस्मिन् , अन्तरे अवसरे, त्रिभुवनैकभर्तुः भुवनत्रयैकनायकस्य, जिनेन्द्रस्येत्यर्थः, अभिषेकमङ्गलविधिः अभिषेकोत्सवक्रिया, समारभ्यत सम्यगारब्धः, इतस्ततः अत्र तत्र, प्रहततन्त्रीपरीक्षितकलध्वनिभिः प्रहताभिःताडिताभिः, तत्रीभिः-वलकीगुणैः परीक्षिताः, कलध्वनयः-मधुराव्यक्तशब्दा यस्तादृशैः, वैणिकैः वीणावादनशिल्पिजनैः, वल्लकीषु वीणासु, निश्चलाः सुदृढाः, कलाः अंशाः, काष्ठानीत्यर्थः, व्यधीयन्त सम्पादिताः । पुनः भरतपुत्रैः नटपुत्रैः, वितीर्णविविधमार्जनानि वितीर्ण-दत्त, सम्पादितमित्यर्थः, विविधम्-अनेकप्रकारकं, मार्जन--विशोधनं येषु, यद्वा वितीर्ण-दत्त, मार्जनं-विशोधनद्रव्यं येषु तादृशानि, नानावादित्राणि विविधवाद्यानि, सजानि निर्मलानि, परिष्कृतानीति यावत्, अक्रियन्त समपाद्यन्त । पुनः निचुलकाकृष्टप्रकृष्टवेणवः निचुलकेभ्यः-चर्मादिमयनालिकातः, आकृष्टाः-आकृष्य बहिष्कृताः, प्रकृष्टाः-उत्तमाः, वेणवः- मारुतपूर्णरन्ध्रण वाद्यविशेषा यैस्तादृशाः, वांशिकाः वंशीवादनशिल्पिनः, अग्रेगायनीगणं गायिकागणस्याग्रे, उपाविशन् उपविष्टाः । पुनः प्रक्षालनपवित्रपाणिभिः प्रक्षालनेन-जलाप्लावनेन, पवित्रौ-विशुद्धौ, पाणी-हस्तौ येषां तादृशैः, पुम्भिः पुरुषः, सकलतीर्थाहृतेन निखिलक्षेत्रानीतेन, पानीयेन जलेन, पूरिताः पूर्णाः, शान्तकुम्भकुम्भाः सुवर्णमयघटाः, उपानीयन्त उपस्थापिता । पुनः, उत्तम्भिताभिषेककाञ्चनकुम्भा इव उत्तम्भिताः-उत्थापिताः, अभिषेकाय, काञ्चनकुम्भाः-सुवर्णमयकलशा याभिस्तादृश्य इवेत्युत्प्रेक्षा, आभोगशालिभिः परिपूर्णतारमणीयैः, पयोधरैः स्तनैः, उपलक्ष्यमाणाः प्रत्याय्यमानाः, वारयुवतयः तरुणगणिकाः, आसन्नाः सन्निहिताः, बभूवुः
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तिलकमञ्जरी
१८९ पात्रधारिण्यः काश्चिद् गृहीतगन्धोदकभृङ्गारा वारयुवतयः [अ] । क्षणेन च प्रथमतरकलशवारिप्रवाहपतनशंसी समकालचलितोभयपक्षताडितनितम्बावलम्बितगर्जन्मेघमुरजैर्भक्तितो दत्तसमहस्तैरिव निशम्यमानः साध्वसादूर्ध्वमुत्पतद्भिरुदधिगोचरैर्गिरिविहङ्गैस्खासतरलिततीरशायिमहानक्रचक्रवालहेलापतनदूरोच्छलितभूरिजलनिवहेन सहसोत्थाय निपुणं निरूप्यमाण इव पुनरप्यमृतमथनोत्प्रेक्षिणा मकराकरेण मुखरीचकार दिक्चक्रमक्रमाहतानां दिव्यतूर्याणामदृष्टमर्यादो नादः [आ] । क्रमेण च समाप्ते परमदेवस्य मज्जनविधौ, निर्मापिते सविस्तरं पूजाकर्मणि, प्रवर्तिते सविस्तरं, गायकगणेन मधुमृदङ्गध्वनिमिश्रे विश्राणितश्रावकश्रोत्रमुदि मङ्गलगीतध्वनौ, प्रनृत्तासु पर्यायेण तासु क्षितिपालकन्यकासु, क्षीणभूयिष्ठायां क्षपायामहं चित्रलेखया विरचितविचित्रवेषा प्रभाबद्धपरिवेषैः प्रलघुभिर्मणिभूषणैः समन्तादलंकृतमनुल्बणधृताङ्गरागमङ्गं दधाना रङ्गमध्यमध्यासितवती, प्रवृत्ता च सखीभिरिव साकं प्रेक्षकमनोवृत्तिभिः प्रनर्तितुम् [इ]। अवसिते टिप्पनकम्-गिरिविहङ्गाः-पर्वतागारपक्षिणः [आ]।
संवृत्ताः; च पुनः काश्चित् कतिचित् वारयुवतयः, कुसुमपटलकहस्ताः पुष्पपुजपूर्णहस्ताः, पुनः कश्चित् कतिचित्, अनुलेपनपात्रधारिण्यः चन्दनपात्रहस्ताः, पुनः काश्चित् कतिचित्, गृहीतगन्धोदकभृङ्गाराः गृहीतः - उद्धृतः, गन्धोदकस्य-सुगन्धिजलस्य, तादृशजलपूर्ण इत्यर्थः, भृङ्गारः-सुवर्णमयजलपात्रं याभिस्तादृश्यः, वारयुवतयः, ससम्भ्रमं सत्वरम् , इतस्ततः अत्र तत्र, बभ्रमुः भ्रान्ताः [अ]। च पुनः, क्षणेन क्षणमात्रेण, दिव्यतूर्याणां महोत्तमवाद्यविशेषाणाम् , अदृश्यमर्यादः अदृष्टावधिः, नादः शब्दः, दिक्चक्रं दिमण्डलं, मुखरीचकार वाचालयामास, कीदृशानाम् ? अक्रमाहतानां युगपत्ताडितानाम् । कीदृशः? प्रथमतरकलशवारिप्रवाहपतनशंसी प्रथमतरस्य-सर्वप्रथमस्य, कलशस्यअभिषेकार्थकुम्भस्य, यः, वारिप्रवाहः-जलनिर्झरः, तत्पतनशंसी-तत्पतनसूत्रकः, पुनः उदधिगोचरैः समुद्रे विहरणशीलैः गिरिविहङ्गः पर्वतागारपक्षिभिः, निशम्यमानः श्रूयमानः, कीदृशैः? समकालचलितोभयपक्षताडितनितम्बावलम्बितगर्जन्मेघमुरजैः समकालचलितेन-युगपत् कम्पितेन, उभयपक्षेन-पक्षद्वयेन, ताडितः-आहतः, नितम्बावलम्बितः-कटिपश्चाद्देशविधृतः, गर्जन् मेघ एव मुरजः-मृदङ्गो यैस्तादृशैः, पुनः चलितः प्रीत्या, दत्तसमहस्तैरिव समर्पितसमानवृत्तिकहस्तैरिवेत्युत्प्रेक्षा, पुनः साध्वसात् भयात् , ऊर्ध्वम् आकाशदेशम् , उत्पतद्भिः उड्डीयमानैः, पुनः मकराकरेण समुद्रेण, सहसा शीघ्रम् , उत्थाय प्रबुध्य, निपुणं सावधानं, निरूप्यमाण इव खमथनध्वनित्वेनावधार्यमाण इवेत्युत्प्रेक्षा, कीदृशेन ? त्रासतरलिततीरशायिमहानचक्रवालहेलापतनदूरोच्छलितभूरिजलनिवहेन त्रासतरलितस्यभयसम्भ्रान्तस्य, तीरशायिनः-तीराधिकरणकशयनशीलस्य, महानकचक्रवालस्य-बृहदाकारनकजातीयजलजन्तुमण्डलस्य, हेलयालीलया, पतनेन-जले निपातेन, दूरम्, उच्छलितः-उत्क्षिप्तः, भूरिजलनिवहः-प्रचुरजलराशियेस्य तादृशेन, पुनः, पुनरपि द्वितीयवारेऽपि, अमृतमथनोत्प्रेक्षिणा स्वरक्षितामृतमन्थनसम्भाविना [आ]।
परमदेवस्य परमेश्वरस्य, जिनेन्द्रस्येत्यर्थः, मज्जनविधौ अभिषेककर्मणि, क्रमेण यथाक्रम, समाप्ते निष्पन्ने सति, पुनः पूजाकर्मणि तदर्चाकार्ये, सविस्तरं विस्तरपूर्वकम् , निर्मापिते निष्पादिते सति, पुनः गायकगणेन गायकसमूहेन, मङ्गलगीतध्वनौ मङ्गलगानध्वनौ, प्रवर्तिते प्रारब्धे सति, कीदृशे ? मधुरमृदङ्गध्वनिमिश्रे श्रवणहारिमृदङ्गनादसंकीर्णे, पुनः विश्राणितश्रावकश्रोत्रमुदि विश्राणिता-दत्ता, सम्पादितेत्यर्थः, श्रावकाणां-श्रोतृणां, श्रोत्रमुत्-श्रवणेन्द्रियानन्दो येन तादृशे, पुनः तासु अनुपदवर्णितासु क्षितिपालकन्यकासु नृपकुमारिकासु, पर्यायेण क्रमेण, प्रनृत्तासु कृतोत्कृष्ट नृत्यासु सतीषु, क्षीणभूयिष्ठायां क्षीणः-व्यतीतः, भूयिष्ठः-बहुतरभागो यस्यास्तादृश्याम् , अल्पावशिष्टायामित्यर्थः, क्षपायां रात्रौ, चित्रलेखया तदाख्यप्रसाधिकया, विरचितविचित्रवेषा विरचितः-निर्मापितः, विचित्र:-आश्चर्यजनको वेषो यस्यास्तादृशी, प्रभाबद्धवेषैः प्रभाभिः-द्युतिभिः, बद्धः-रचितः, परिवेषः-मण्डलं यैस्तादृशैः, प्रलघुभिः अतिसूक्ष्मैः, मणिभूषणैः रत्नमयालङ्करणैः, समन्तात् सर्वतः, अलङ्कृतम् , पुनः अनुल्बणधृताङ्गरागम् अनुल्बणः-अनुत्कटः, धृतः, अङ्गरागः-अङ्गविलेपनं येन तादृशम् , अङ्गं शरीरं, दधाना धारयन्ती, अहं, रङ्गमध्यं नृत्यभवनाभ्यन्तरम् , अध्यासितवती अध्यतिष्ठम् ; च पुनः, सखीभिरिव सहचरीभिरिव, प्रेक्षकमनोवृत्तिभिः दर्शकजनचित्रवृत्तिभिः, साकं सह, प्रनर्तितुं प्रकर्षण
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________________ 190 टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता / च नृत्यकर्मणि कृतरङ्गप्रणामामधिगताधिकोल्लासैः श्रमश्वासोद्गमैः किञ्चित्सायासकुचमण्डलामुल्लसितविरलस्वेदाम्बुकणकर्बुरीकृतकपोलपत्रभङ्गां चित्रलेखायाः समीपे निविशमानामाहूय दर्शितावकाशः स विद्याधरराजराजो निजासनस्यैकदेशे मामुपावेशयत् [ई] / निविष्टायाश्च मे शङ्कासंकोचिततनोरवनितलनिहितनिस्तरङ्गदृष्टेनर्तनायासविघटितसंनिवेशं संयम्य हस्ताभ्यां केशहस्तमारोप्य विस्रस्तमीषद्विलासावतंसपल्लवं श्रवसि किञ्चिदावलितकन्धरो दक्षिणकराङ्गुलियुगेनोन्नमय्य चिबुकदेशे त्रपाभरावनतमाननं सबहुमानमभ्यधित-'वत्से ! मलयसुन्दरि ! दूरमावर्जितानि त्वया सामाजिकमनांसि, कथय कुतस्तवेदृशस्यास्य विद्याधरलोकेऽप्यतिविरलप्रचारस्य सकलखेचरचमत्कारकारिणो नाट्यवेदस्याधिगतिः, कथं शिक्षिता स्वल्पेन कालेन ललितानेतावतः करणप्रयोगान', केन संक्रमिता कृतिनां वरेण समस्तरङ्गरागहेतुरियमङ्गहाराणां गतिः, अतिमहत् कुतूहलं मे, न हि कदाचित् क्षितिचारिणीष्वबलासु दृष्टा श्रुता वास्माभिरेवंविधा वैदग्धी नाट्यकर्मणि' इति स्तुताऽहं खेचराधिपेनाधिकमधोमुखीभूय लज्जया पाणिनखशिखाभिः क्षोणिमलिखम् [उ] / टिप्पनकम्-सामाजिकाः सभ्याः [उ] / नृत्यं कत्तुं, प्रवृत्ता व्यापृता [इ]। च पुनः, नृत्यकर्मणि अवसिते समाप्ते सति, सः प्रकृतः, विद्याधरराजराजः विद्याधरचक्रवर्ती, माम् , आहूय स्वान्तिकागमनादेशवाक्येन स्वसमीपमानीय, दर्शितावकाशः निर्दिष्टस्थानः, निजासनस्य स्वकीयोपवेशनाधारस्य, एकदेशे एकभागे, उपावेशयत् उपवेशितवान् , कीदृशीम् ? कृतरङ्गप्रणामां कृतनृत्यभवनाभिवाद. नम् , पुनः अधिगताधिकोल्लासैः अधिगतः-प्राप्तः, अधिकः, उल्लासः-वृद्धिस्तादृशैः, श्रमश्वासोद्गमैः श्रमजन्यमुखनासिकापवननिष्क्रमणैः, किश्चित्सायासकुचमण्डलां किञ्चित्सायासम्-ईषच्छान्तं, कुचमण्डलं-स्तनमण्डलं यस्यास्तादृशीम् , पुनः उल्लसितविरलस्वेदाम्बुकणकर्बुरीकृतकपोलपत्रभङ्गाम् उल्लसितैः-उद्गतैः, विरलैः-असान्द्रः, स्वेदाम्बुकणैःस्वेदजलबिन्दुभिः, कर्बुरीकृतः-चित्रितः, कपोलयोः - गण्डमण्डलयोः, पत्रभङ्गः-पत्राकाररचना यस्यास्तादृशीम्, पुनः चित्रलेखायाः तदाख्यप्रसाधिकायाः, समीपे निविशमानाम् उपविशन्तीम् [ई। च पुनः, निविष्टायाः उपविष्टायाः, पुनः शङ्कासंकोचिततनोः शङ्कया-नृत्यान्यथात्वसन्देहेन, सङ्कोचिता लिता, तनु:-शरीरं यया तादृश्याः, पुनः अवनितलनिहितनिस्तरङ्गहष्टेः अवनितले-भूतले, अधस्तादित्यर्थः, निहितेआरोपिते, निस्तरङ्गे-स्थिरे, दृष्टी-नयने यया तादृश्याः, मे मम, नर्तनायासविघटितसन्निवेशं नर्तनायासेन-नृत्यश्रमेण, विघटितः-विश्लिष्टः, सन्निवेशः-विन्यासो यस्य तादृशं, केशहस्तं केशसमूह, हस्ताभ्यां स्वकराभ्यां, संयम्य संघटय्य, पुनः ईषत् किञ्चित् , विस्रस्तं विस्खलितं, विलासावतंसपल्लवं विलासविधौ भूषणभूतं पल्लवं, श्रवसि कर्णे, आरोग्य निवेश्य, किञ्चिदावलितकन्धरः ईषद क्रितग्रीवः सन्, त्रपाभरावनतं त्रपाभरेण-लज्जातिशयेन, अवनतम्-अधोगतम् , आननं मुखं, दक्षिणकराङ्गलियुगेन दक्षि गहस्तसम्बन्धिना अङ्गुलिद्वयेन, चिबुकदेशे ओष्ठाधःप्रदेशे, उन्नमय्य उन्नतीकृत्य सबहुमानं बहुमानपूर्वकम् , अभ्यधित उक्तवान्-वत्से ! पुत्रि!, मलयसुन्दरि !, त्वया समाजिकमनांसि दर्शकसमाजसमवेतजनहृदयानि, दरं दूरात् , आवर्जितानि आकृष्टानि / कथय ब्रहि, ईदृशस्य एवंविधस्य, विद्याधरलोकेऽपि विद्याघट देशेऽपि, अतिविरलप्रचारस्य अत्यल्पप्रचारस्य, पुनः सकलखेचरचमत्कारकारिणः समस्तविद्याधरमनोविनोदकारिणः, अस्य अनुपदमनुभूतस्य, नाट्यवेदस्य नाट्यविद्यायाः, कुतः कस्मात् नाट्याचार्यात् , तव, अधिगतिः अध्ययनं, शिक्षेत्यर्थः, ललितान् , मनोहरान् , एतावतः एतत्प्रमाणकान्, करणप्रयोगान् नाट्यप्रयोगान् , स्वल्पेन अत्यल्पेन, कालेन, कथं केन प्रकारेण, शिक्षिता अधीतवती; समस्तरङ्गरागहेतुः समस्तस्य-समग्रस्य, रङ्गस्य-नृत्यस्थानस्य, यो रागः-छविः, सौन्दर्यमिति यावत् , यद्वा तस्मिन् यो राग:-प्रीतिः, तस्य हेतुः, इयम् अनुपदमेवानुभूता, अङ्गहाराणां नृत्यानां, गतिः प्रकारः, केन, कृतिनां नृत्यविद्याविदां, वरेण श्रेष्ठेन, संक्रमिता प्रज्ञायां प्रवेशिता, विज्ञापितेत्यर्थः, मे मम, अतिमहत् अत्यधिकं, कुतूहलं जिज्ञासितविषयज्ञानोत्सुक्यम् , अस्तीति शेषः, हि यतः, अस्माभिः, क्षितिचारिणीषु भूमिगोचरासु, अबलासु स्त्रीषु, एवंविधा ईदृशी, नाट्यकर्मणि नृत्यकार्यविषयिणी, वैदग्धी नैपुणी, कदाचित् कदापि न दृष्टा चाक्षुषप्रत्यक्षगोचरीकृता, वा अथवा, श्रुता, इति इत्थं, खेचराधिपेन विद्याधरराजेन, अधिकम् अत्यन्तं, "Aho Shrutgyanam"
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________________ तिलकमञ्जरी 191 पुत्रि ! जनकनिर्विशेषे मयि किमियमपत्रपा, स्वकीयं तव स्थानमिदमशङ्किता व्याहर' इति च पुनः पुनरुच्यमाना तथैवाधोमुखी शनैरवदम्-- तात ! नैकः कश्चिदुपदेष्टा नाट्यविद्यायां ममाभूद् यं विज्ञापयामि, अपि तूपदेशकाले कुतूहलाविष्टमानसेन मत्पित्रा पृथिव्यामपि ये केचिदुपलब्धाः प्रकृष्टा नाट्यतत्रे भरतपुत्रास्ते समस्ता अप्युपसंगृहीताः, तत्र च कोऽपि कुतश्चिदवगतः प्रयोगः, ये पुनरिहातिरमणीयतया विशेषतः प्रतिपन्नास्तातेन ते स्वयं मया नृत्यन्तीमम्बामवलोकयन्त्या पृच्छन्त्या च तामनवरतमवगताः / वत्से ! तयापि ते कुतो विज्ञाताः, तात ! विद्याधरलोके क्वचित् , वत्से ! किमभिधाना तव जनयित्री, तात ! गन्धर्वदत्ता नाम [ऊ] / श्रुत्वा च मद्वचनमिदमीषदुल्लसितचेताः समीपवर्ती भर्तुरतिपरिणतवया वीर्यमित्रो नाम मत्री शनैर्व्याजहार- देव ! कञ्चिन्न सा देवस्यैव दुहिता राजपुत्री गन्धर्वदत्ता, जन्यते हि नाम्ना नाट्यक्रमेण च सुतासंक्रान्तेन महती मतिभ्रान्तिः; आर्य ! न केवलं नाट्यक्रमो रूपविभ्रमोऽपि भ्रमयति मनः, तथाहि-तादृशमेव शरद्विबुद्धशतपत्रानुवादि वदनम् , तादृशा एव चन्द्रोदयक्षुभितदुग्धोदधितरङ्गायताश्चक्षुषो विक्षेपाः, ताहगेव ग्रस्तसहकारकोकिलाकूजितकल्पं जल्पितममुष्याः [ऋ / स्तुता वर्णिता, अहम् , लजया, अधोमुखीभूय अवनतमुखीभूय, पाणिनखशिखाभिः हस्तसम्बन्धिनखात्रैः, क्षोणिं भूतलम् , अलिखम् अङ्कितवती [उ] / च पुनः, पुत्रि! जनकनिर्विशेषे पितुरविशेषे मयि, इयं दृश्यमाना, अपत्रपा अन्यतो लजा किम् किमर्था ?, तव, इदम् अधिष्ठितं, स्थानं, स्वकीयम् आत्मीयम् , अतः अशङ्किता निःसंशया, व्याहर ब्रूहि, इति इत्थम् , पुनः पुनः असकृत् , उच्यमाना विद्याधराधिपेन प्रतिपाद्यमाना, तथैव तेनैव प्रकारेण, अधोमुखी शनैः मन्दम् , अवदं प्रत्यवोचम् , 'तात !' नाट्यविद्यायां नृत्यशास्त्रे, मम, उपदेष्टा शिक्षकः, एकः, कश्चित् कोऽपि न अभूत् यं विज्ञापयामि निवेदयामि, अपि तु किन्तु, उपदेशकाले शिक्षणसमये, कुतूहलाविष्टमानसेन औत्सुक्या क्रान्तहृदयेन, मत्पित्रा कुसुमशेखरेण, पृथिव्यामपि भूमण्डलेऽपि, ये केचित् , प्रकृष्टाः उत्कर्षशालिनः, नाट्यतन्त्रे नाट्यशास्त्रे, भरतपुत्राः नटवंशजाः, उपलब्धाः प्राप्ताः, ते समस्ता अपि सर्वेऽपि, उपसंगृहीताः समाहृताः। तत्र च तेषु च, कोऽपि कश्चित् , विरल इत्यर्थः, प्रयोगः प्रक्रिया, कुतश्चित् कस्माच्चित् नाट्याचार्यात् , अवगतः विज्ञातः / ये पुनः ये तु प्रयोगाः, तातेन भवता, इह अस्यां, नृत्यभूमौ, अतिरमणीयतया अत्यन्तचमत्कारितया, विशेषतः विशेषेण, प्रतिपन्ना अवधारिताः, ते, नृत्यन्तीम्, नृत्यमाचरन्तीम् , अम्बां स्वमातरम् , अवलोकयन्त्या पश्यन्त्या, च पुनः, तां मातरम्, अनवरतं सन्ततं, पृच्छन्त्या, मया, स्वयं खेनैव, अवगताः विज्ञाताः वत्से पुत्रि!, तयापि मात्रापि, ते प्रकृतः प्रयोगाः, कुतः कस्मात् , विज्ञाताः अधीता, तात पितः ! विद्याधरलोके विद्याधरप्रदेशे, क्वचित् कुत्रापि, वत्से ! तव जनयित्री माता, किमभिधाना किन्नामधेया, तात ! गन्धर्वदत्ता नाम तन्नानी [ऊ] / इदम् अनुपदोक्तं, मद्वचनं प्रतिवाक्यं श्रुत्वा श्रवणगोचरीकृत्य, ईषदुल्लसितचेताः किञ्चिन्मुदितमानसः, भर्तुः स्वामिनः, विचित्रवीर्यस्येत्यर्थः, समीपवर्ती पार्श्ववर्ती, अतिपरिणतवयाः अतिजीर्णवयस्कः; वीर्यमित्रो नाम तत्संज्ञकः, मन्त्री, शनैः मन्दं, व्याजहार उक्तवान् , देव राजन् !, राजपुत्री विद्याधरराजसुता, सा गन्धर्वदत्ता, देवस्यैव भवत एव, दुहिता पुत्री, कञ्चित् किं न, हि यतः, नाम्ना त्वद्दुहितुस्तुल्यनाम्ना, च पुनः, सुतासंक्रान्तेन सुतायांपुत्र्यां, संक्रान्तेन-आहितेन, नाट्यक्रमेण नृत्यप्रयोगेण, महती अधिका, मतिभ्रान्तिः बुद्धिविपर्ययः, जन्यते उत्पाद्यते। आर्य ! प्रशान्तचित्त मन्त्रिन् !, केवलं नाट्यक्रमः नाट्यप्रयोगो न, रूपविभ्रमोऽपि स्वरूपशोभापि, मनः, भ्रमयति संशाययति, तथा हि-शरद्विबुद्धशतपत्रानुवादि शरदि-शरदृतौ, विबुद्धं-विकसितं यत् , शतपत्रं-पत्रशतान्विते कमलं, तदनुवादि-तदनुकारि, तादृशमेव त्वदुहितुस्तुल्यमेव, अमुष्याः तदीयमित्यप्रेणान्वयः, वदनं मुखम् ; पुनः चन्द्रोदयक्षुभितदुग्धोदधितरङ्गायताः चन्द्रोदयेन, क्षुभितस्य-उच्छलितस्य, दुग्धोदधेः-क्षीरसागरस्य, ये तरङ्गाः, तद्वत् आयताः-दीर्घाः, तादृशा एव त्वदुहितुस्तुल्या एव, अमुष्याः तस्याः, चक्षुषः, विक्षेपाः व्यापाराः, अपाङ्गभङ्गय इत्यर्थः; पुनः ग्रस्तसहकारकोकिलाकृजितकल्पं ग्रस्तः भक्षितः, सहकारः-अतिसुरभिचूततन्मञ्जरीति यावत , यया ताः कूजितं-गुजितं, तत्कल्पं-तदीषदूनं तत्तुल्यमित्यर्थः, ताहगेव त्वदुहितुस्तुल्यमेव, अमुष्याः तस्याः, जल्पितं भाषितम् / "Aho Shrutgyanam"
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________________ 192 टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता। देव ! यद्येवं ततः पुनरनुयुज्यतां विशेषावगमार्थमत्रभवती; वत्से ! अपि ध्रियते तव सवित्री; तात ! सर्वान्तःपुरपरीता शुद्धान्तसौधशिखरात् पुरजनप्रवर्तितं कौमुदीमहोत्सवमवलोकयन्ती निरामयशरीरा संप्रत्येव मुक्ता मया; वत्से ! कियत् प्रमाणम् , कीदृशो वर्णविशेषः, कियती वयोऽवस्था, किमनुकारिणी च शरीराकृतिरस्याः; तात ! प्रमाणतो नातिह्रस्वा न चात्यायता, वर्णेन विकचचम्पकावदाता, वयसापि यादृग् मयि प्रथमगर्भसंभवायां संभवति तादृशेनोपेता, रूपेण तु न किश्चित् तादृशमपरमिव सदसि मानुषमङ्गनासु पुरुषेषु वा पश्यामि, यदि परं देवस्यैव किश्चिदनुकरोति [ऋ] / देव ! संवादकानि सर्वाण्यपि चिह्नानि यदि यथा वेदितानि तथैव, ततो निःसंशयं सैव राजपुत्री गन्धर्वदत्ता / वत्से ! कस्तस्याः पिता; तात ! तापसः कश्चित् / आर्य ! दुरितनयादुःखदावाग्निदग्धे मनसि वन इव चिराल्लब्धजन्मा पश्य कथमन्तराले संयोज्य तापसमपास्तकरुणेन विधिना समूलमुद्धृतस्तरुकन्द इव मे मन्दभाग्यस्यानन्दः; देव ! मा विषीद, न जानाति तत्त्वतो राजपुत्री तस्याः पितरम् , अन्यथा न कश्चिदिति कथयेत् [ल] / वत्से ! दृष्टस्त्वया स तापसः, तात ! न कचिद् दृष्टः, जनप्रवादादवगतः, वत्से ! टिप्पनकम्-ध्रियते जीवति, सवित्री माता [ ऋ] / देव ! राजन् !, यदि एवं त्वद्दुहितुस्तौल्यम् , ततः तर्हि, अत्रभवती आर्या, विशेषावगमार्थ विशेषनिर्णयार्थ, पुनः अनुयुज्यतां पृच्छयताम् / वत्से ! पुत्रि !, तव सवित्री जननी, भियते अवतिष्ठते, जीवतीत्यर्थः, अपि किम् ? / ! पितः / सवोन्तःपुरपरीता सण-समस्तेन, अन्तःपुरेण-अन्तःपुरस्त्रिया,परीता-परिवेष्टिता, सती, शद्धान्तसौधशिखरात् अन्तःपुरप्रासादशिखरमारुह्य, पुरजनप्रवर्तितं पुरवासिप्रारब्धं, कौमुदीमहोत्सवं चन्द्रिकामहोत्सवम. अवलोकयन्ती, निरामयशरीरा नीरोगदेहा, जननीति शेषः। सम्प्रत्येव इदानीमेव, मया मुक्ता त्यक्ता / वत्से ! अस्याः त्वजनन्याः, कियत् , प्रमाणम् उन्मानम्, पुनः कियती, वयोऽवस्था वयःक्रमः, च पुनः, किमनुकारिणी कीदृशी, शरीराकृतिः शरीरावयवसंस्थानम् / तात! पितः1, प्रमाणतः प्रमाणेन न अतिहस्वा अत्यन्तहस्वप्रमाणा नेत्यर्थः, च पुनः, अत्यायता अतिदीघप्रमाणा न, किन्तु मध्यप्रमाणेल्यर्थः, वर्णन कान्त्या, विकचचम्पकावदाता विकसितचम्पकवत् अवदाता-स्वच्छा, गौरवर्णत्यर्थः / वयसापि अवस्थयापि, मयि प्रथमगर्भसम्भवायां प्रथमगर्भजाताया, याहक यावद्धमितं वयः सम्भवति, तादृशेव तावद्वर्षमितेन वयसा, उपेता अन्विता रूपेण तु आकृत्या तु, किश्चित् किमपि, तादृशं तत्तुल्यं मानुषं मनुष्यसम्बन्धि अपरमिव अन्यदिव, रूपं सदसि सभायाम् , अङ्गनासु स्त्रीषु, पुरुषेषु वा न, पश्यामि दृष्टिगोचरीकरोमि, यदि पक्षान्तरे, परं केवलं देवस्यैव भवत एव रूपं किश्चित् ईषत् , अनुकरोति उपमिनोति [ऋ]। मन्त्री प्राह-देव! राजन् !, यदि संवादकानि त्वहुहितृत्वप्रमापकानि, सर्वाण्यपि समस्तान्यपि, चिह्नानि लक्षणानि, यथा येन प्रकारेण, वेदितानि अनया विज्ञापितानि, तथैव तादृशान्येव सन्तीति शेषः, ततः तर्हि, निःसंशयं नूनं, सैव तन्मातैव, राजपुत्री भवदीयसुता, गन्धर्वदत्ता तदाख्या। राजाह-वत्से! पुत्रि!, तस्याः गन्धर्वदत्तायाः, कः पिता; तात पितः 1, कश्चित् कोऽपि तापसः तपस्वी। राजा मन्त्रिणमाह-आर्य! श्रेष्ठ !, पश्य अवलोकय, जानीहीति यावत् , वन इव दुर्वारतनयादुःखदावाग्निदग्धे दुर्वारं दुःखेन क्लेशेन वारयितुं शक्यं, यत् तनयादुःख-कन्याविश्लेषव्यथा, तद्रूपेण दावाग्निना-वनवह्निना, दग्धे-भस्मसात्कृते, मन्दभाग्यस्य हतभाग्यस्य, मे मम, मनसि हृदये चिरात् दीर्घकालात् , लब्धजन्मा पुनस्तनयामिलनाशया प्राप्तप्रादुर्भावः, आनन्दः, अपास्तकरुणेन निदयेन, विधिना देवेन, अन्तराले मध्ये, तापसं तपस्विनं, तस्यास्तपस्विपितृकत्ववार्तामित्यर्थः, संयोज्य संघव्य तरुकन्द इव वृक्षाङ्कुर इव, कथं केन प्रकारेण, समूलं मूलसहितम् उद्धतः उत्पाटितः ? / मन्त्री प्राह-देव! राजन् ! मा विषीद न त्वया दुःखमनुभवनीयम्, राजपूत्री मलयसुन्दरी, तत्त्वतः वस्तुतः, तस्याः गन्धर्वदत्तायाः, पितरं न, जानाति निश्चिनोति अन्यथा तन्निश्चये, कश्चिदिति न कथयेत् ब्रूयात् , कश्चिदित्यस्यानिश्चितार्थपरत्वात् [ल]। वत्से ! त्वया स तपितृभूतः, तापसः, दृष्टः साक्षात्कृतः, तात ! कचित् कुत्रापि, न दृष्टः, किन्तु जनप्रवादात् जनश्रुतिद्वारा, अवगतः ज्ञातः, वत्से ! त्वजननी त्वन्माता, किम . "Aho Shrutgyanam"
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________________ तिलकमञ्जरी 193 स्वजननी किमाचष्टे, तात ! न किञ्चिदाचष्टे, प्राक्तनं निजवृत्तान्तं केवलं पृष्टा कथाप्रसङ्गेषु सखीभिरधोमुखी मुक्तदीर्घनिःश्वासा निःशब्दमविरताश्रुबिन्दुदर्शितदुर्दिना रोदिति / आर्य ! किमप्रतिपादने रोदने च तस्याः कारणम् , देव ! सर्वलोकोत्तरनिजवंशव्यसनप्रकाशनलजा बन्धुजनानुस्मरणदुःखं च / वत्से ! यदि न किञ्चित् कथयति, ततः विद्याधरलोके नाट्यप्रयोगास्तयाधिगता इति त्वया कुतो विज्ञातम् , तात ! विज्ञापयामि-अतः समयादतिक्रान्तसंवत्सरे त्रिकालदर्शी मुनिर्महायशा नाम महातपोभिरनेकैः परिवृतो महर्षिभिः काञ्चयामुपाययौ [ल] / बाह्योद्यानविनिविष्टं च तं द्रष्टुमाविष्ट इव कौतुकेन सर्वोऽपि नगरनिवासी निर्गतो जनः, जनन्यपि मे प्रयुक्तान्तर्वे शिकविज्ञापितेन कृताभ्यनुज्ञा तातेन परिमितपरिच्छदा मामादाय गता तदर्शनाय, दृष्टश्च स महात्मा, पृष्टश्च विधिप्रयुक्तपूजया प्रस्तावमुपलभ्य–'भगवन् ! अखिलभुवनख्यातविद्याधरवंशसंभवाहमपुण्यभागिनी शिशुरेव नगरविप्लवे विप्रयुक्ता बन्धुभिः, भूयांश्च कालो वर्तते ममात्र तिष्ठन्त्या, न केनापि निष्करुणेनान्विष्टाहमदृष्टदोषा, स मम गुरुस्नेहोऽपि गुरुजनो जनः संजातः, तत टिप्पनकम्-अदृष्टं-दैवं कर्म वा [ए] / आचष्टे ब्रवीति, तात ! किञ्चित् किमपि न, आचष्टे ब्रवीति, केवलं कथाप्रसङ्गेषु वार्तालापावसरेषु, सखीभिः, प्राक्तनं पुरातनं, निजवृत्तान्तं खसमाचारं, पृष्टा विज्ञापयितुं प्रवर्तिता सती, अधोमुखी दुःखावनतमुखी, मुक्तदीर्घनिःश्वासा मुक्तः-वाहितः, दीघेः, निश्वासः-नासिकामारुतो यया तादृशी, नि:शब्द समौनं यथा स्यात् तथेति रोदनक्रियाविशेषणम् , अविरताश्रुबिन्दुदर्शितदुर्दिना अविरतैः-निरन्तरैः, अश्रुबिन्दुभिः-नयनजलकणैः, दर्शितं-दृष्टिपथमवतारितं, दुर्दिनंवृष्ट्याच्छन्नदिनं यया तादृशी, रोदिति अश्रु विमुञ्चति / मन्त्रिणं पृच्छति-आर्य श्रेष्ठ! तस्याः गन्धर्वदत्तायाः, अप्रतिपादने रोदनकारणानुक्तौ, मौनावलम्बने इत्यर्थः, च पुनः, रोदने अश्रुविमोचने किं कारणं हेतुः ? / देव राजन् !, सर्वलोकोत्तरनिजवंशव्यसनप्रकाशनलजा सर्वलोकोत्तरस्य-समस्तभुवनोत्कृष्टस्य, निजवंशस्य, व्यसनप्रकाशने-विप्लवप्रकटने, या लज्जा-मनसः संकोचः सा, च पुनः, बन्धुजनानुस्मरणदुःखं बन्धुजनानुस्मरणेन, दुःखं-तद्विश्लेषव्यथा, तत्र कारणमिति शेषः, मौनावलम्बने स्ववंशविप्लवोपाख्यानलजा रोदने च खबन्धुजनविरहदुःखं कारणमिति यथाक्रम कारणोपन्यासाद् यथासंख्यमत्रालङ्कारः / वत्से पुत्रि !, यदि किंचित् किमपि, स्ववृत्तं न कथयति ब्रवीति, त्वज्जननीति शेषः, ततः तर्हि, तया गन्धर्वदत्तया, विद्याधरलोके नाट्यप्रयोगाः नृत्यप्रक्रियाः, अधिगताः विज्ञाताः, इति त्वया, कुतः कस्मात् विज्ञातम् विदितम् / तात पितः!, विज्ञापयामि निवेदयामि, अतः वर्तमानात् . समयात कालात् , अतिक्रान्त पूर्ववर्षे, त्रिकालदर्शी भूत-भविष्यद्-वर्तमानज्ञः, महायशा नाम महत्-अधिकं, यशः-अतीतानागतदर्शनजन्यं यस्येत्यन्वर्थः तन्नामा, मुनिः, महातपोभिः उत्कृष्टतपस्याशालिभिः, अनेकैः बहुभिः, महर्षिभिः ऋषिप्रवरैः, परिवृतः परिवेष्टितः, काश्यां काञ्चीपुर्याम् , उपाययौ आगतवान् [ल]। च पुनः, बाह्योद्यानविनिविष्टं नगरबहिर्देशस्थोपवनावस्थितं, तं मुनि, द्रष्टुं दर्शनकर्मतामापादयितुं, कौतुकेन औत्सुक्येन, आविष्ट इव आक्रान्त इव, सर्वोऽपि समस्तोऽपि नगरनिवासी काञ्चीनगरवास्तव्यः, जनः लोकः, निर्गतः तदुद्यानगमनाय नगरान्निष्क्रान्तः, मे मम, जनन्यपि मातापि, प्रयुक्तान्तशिकविज्ञापितेन प्रवर्तितान्तःपुराधिकृतजननिवेदितेन, तातेन पित्रा, कृताभ्यनुज्ञा कृतगमनानुमतिः सती, परिमितपरिच्छदा धृताल्पवेषा, माम् , आदाय गृहीत्वा, तद्दर्शनाय गता; च पुनः, सः प्रकृतः, महात्मा मुनिः, दृष्टः; च पुनः विधिप्रयुक्तपूजया सविधिविहिताचेंया, तयेति शेषः, प्रस्तावम् अवसरम्, उपलभ्य प्राप्य, पृष्टः-अनुपदवक्ष्यमाणविषयज्ञापनार्थमभ्युपार्थितः, भगवन् माहात्म्यशालिन् !, अखिलभुवनख्यातविद्याधरवंशसम्भवा अखिलेषुसमस्तेषु, भुवनेषु-भुवनत्रयेऽपीत्यर्थः, ख्यातः-प्रसिद्धः, विद्याधरवंश एव, सम्भवः-उत्पत्तिस्थानं यस्यास्तादृशी सत्यपि, अपुण्यभागिनी पापिनी, मन्दभाग्येत्यर्थः, अहम् , शिशुरेव बाल्यावस्थायामेव, नगरविप्लवे नगरोपद्रवे, बन्धुभिः पित्रादिभिः, विप्रयुक्ता विरहिता; अत्र अस्मिन् स्थाने, तिष्ठन्त्याः विद्यमानायाः, मम, भूयान् बहुतरः, कालः, वर्तते व्यत्येति; अदृष्टदोषा न दृष्टः-लक्षितः, दोषः-किमपि वैगुण्यं यस्यां तादृश्यपि, अहम्, 'अदृष्टदोषाद' इति पाठे तु-भाग्यवैगुण्याद्, 25 तिलक "Aho Shrutgyanam"
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________________ 194 टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता। किमेवमेव सर्वदा शोकहुतभुजा दह्यमानदेहायाः प्रयास्यन्ति दिवसाः, उत समागमो भविष्यति समं तैः, इत्यभिदधाना श्रुता मया [ए] / वत्से ! ततः किमुक्तं तेन भगवता, किं च तवाम्बया पुनः, तात ! तेनेदमभिहिताऽम्बा - 'वत्से ! मा विषीद, भविष्यत्यचिरेण ते सर्वैर्जातिभिः सह समागमः, अम्बयाऽपि तच्छ्रुत्वा समुपजातपरमपरितोषया पुनर्विज्ञापितोऽसौ प्रणम्य सादरम्-भगवन् ! उद्धृताऽहमनेन तव वचनानुग्रहेण महादुःखपमना, तत्प्रसीद, पुनरादिश-कदा भविष्यति मे समागमो बन्धुभिः [ऐ] / अथ सञ्जातपक्षपातः क्षणं ध्यात्वा मयि सविधवर्तिन्यां मुहूर्तमारोपितादृष्टिः 'महाभागे ! यदा तवेयमायुष्मती दुहिता-इत्यादि किमप्यवादीत् / वत्से ! कथय किमुदीरितम् , तात ! न मया सम्यगवधारितम् , वत्से ! कथमन्तिकस्थयापि नावधारितम् , तात ! तस्मिन् क्षणे मनाग् व्यग्रमानसेवाहमतिष्ठम् / देव ! किं क्रियत इतीहश एव व्यग्रताहेतुरस्याः स क्षणः संपन्नः, आर्य ! ज्ञायते किं तेन ज्ञानिना गदितम् , देव ! किमत्र ज्ञेयम् , यदा तवेयमात्मजा जामातुरासादयिष्यति करग्रहणोत्सवं तदा ते ज्ञातिभिः सह समागम इति / वत्से ! किमेवम् / देव ! दूरावनतविलक्षवदनया करनखशुक्तिभिर्निभृतमुल्लिखन्त्या अहम् , केनापि पित्रादीनां मध्ये कनचिदेकेनापि, निष्करुणेन निर्दयेनेव सता न अन्विष्टा कृतान्वेषणाऽभूवम् , मम गुरुस्नेहोऽपि अतिशयितस्नेहोऽपि, सः अनुभूतपूर्वः, गुरुजनः पित्रादिजनः, मध्यमणिन्यायेन अदृष्टदोषादित्यस्योत्तरत्राप्यन्वयाद् दैवप्रातिकूल्यात्, जनः सामान्य जनः, उदासीन इत्यर्थः, सञ्जातः संवृत्तः, तत तस्मात् , एवमेव अनेनैव प्रकारेण, सर्वदा निरन्तरं, शोकहुतभुजा शोकाग्निना, दह्यमानदेहायाः सन्तप्यमानशरीरायाः, मे मम, दिवसाः किं प्रयास्यन्ति व्यत्येष्यन्ति, उत अथवा तैः बन्धुजनैः, समं सह, समागमः संयोगोऽपि, भविष्यति, इति इत्थम् , अभिदधाना तं मुनि व्याहरन्ती पृच्छन्तीत्यर्थः, मातेति शेषः, मया, श्रुता श्रवणगोचरीकृता [ए]। वत्से पुत्रि!, ततः तदनन्तरं, तेन प्रकृतेन, भगवता महात्मना, किम् , उक्तम् उत्तरं कृतम्, च पुनः, तव, अम्बया मात्रा, पुनः, किम् , उक्तमिति शेषः; तेन मुनिना, अम्बा माता, इदम् अनुपदवक्ष्यमाणं वाक्यम् , अभिहिता उक्ता-वत्से !, मा विषीद न दुःखमनुभव, अचिरेण अविलम्बेन, ते तव, सर्वैः समस्तैः, ज्ञातिभिः बन्धुभिः, सह, समागमः सम्मेलनं, भविष्यतीति शेषः, तत् अनुपदोक्तं, श्रुत्वा श्रवणगोचरीकृत्य, समुपजातपरमपरितोषया अत्यन्तसन्तुष्टया, अम्बयापि मात्रापि, सादरम सश्रद्धं, प्रणम्य अभिवाद्य, असी मुनिः, पुनः विज्ञापितः निवेदितः-भगवन् महात्मन् !, महादुःखपङ्कमना असह्यक्लेशकर्दमलीना, अहम्, अनेन अनुभूयमानेन, तव, वचनानुग्रहेण प्रतिवाक्योच्चारणानुग्रहेण, उद्धता निरुक्तपङ्कादुन्नीता, तत् तस्माद्धेतोः, प्रसीद प्रसन्नो भव, पुनः भूयोऽपि, आदिश आज्ञापय मे मम, बन्धुभिः पित्रादिभिः, समागमः सम्मेलनं, कदा कस्मिन् समये, भविष्यति [2] अथ अनन्तरं, सातपक्षपातः समुत्पन्नमदनुग्रहावधानः, क्षणं मुहूर्त, ध्यात्वा समाधि कृत्वा सविधवर्तियां निकटवर्तिन्यां मयि मुहूर्तम् , आरोपितार्द्रदृष्टिः निहितस्निग्धचक्षुः, महाभागे! महानुभावे ! यदा यस्मिन् काले इयं पुरोवर्तिनी, तव आयुष्मती चिरजीविनी, दुहिता कन्यका, इत्यादि किमपि सम्यगनवधारितसमग्रं वाक्यम् , अवादीत् स मुनिरुक्तवान् , वत्से पुत्रि ! कथय समग्रं ब्रूहि, किम् , उदीरितम् उक्तम् , तात पितः !, मया, सम्यक यथायथं न अवधारितं विज्ञातं, साकल्येन श्रुतमित्यर्थः; वत्से !, अन्तिकस्थयापि निकटवर्तिन्यापि कथं केन हेतुना, न, अवधारितं सम्यगाकर्णितम् ; तात !, तस्मिन् क्षणे तच्छ्वणक्षणे, मनाक किञ्चित् , व्यग्रमानसेव विक्षिप्तहृदयेव अहम् , अतिष्ठम् आसम् ; देव राजन् !, सः तच्छ्रवणसम्बन्धी क्षणः, किं क्रियते किमाचरणीयम्, इतीहश एव खकर्तव्यालोचनात्मिकाया एव, अस्याः मलयसुन्दर्याः, व्यग्रतायाः व्याकुलतायाः हेतुः, सम्पन्नः सम्वृत्तः / आर्य !, तेन प्रकृतेन, ज्ञानिना अतीतादिज्ञानशालिना मुनिना, किं, गदितम् उक्तम्, इति, ज्ञायते प्रतीयते; देव राजन् ! अत्र अस्मिन् विषये, किं, ज्ञेयं ज्ञातव्यम् , यदा यस्मिन् समये, इयं प्रत्यक्षवर्तिनी, तव, आत्मजा पुत्री, जामातुः तव दुहितुभर्तुः, करग्रहणोत्सवं विवाहोत्सवम् , आसादयिष्यति प्राप्स्यति, अनुभविष्यतीति, यावत् , तदा तस्मिन्नवसरे, शातिभिः बन्धुभिः, सह, ते तव, समागमः सम्मेलनं भविष्यतीति शेषः, इति इत्यर्थकं वाक्यं तेनोक्तमित्यर्थः / वत्से पुत्रि!, एवम् अनेनैव प्रकारेणोक्तं किम् ? / मन्त्री प्राह-देव राजन् !, दूरावनतविलक्षवदनया दूर-दूरपर्यन्तम् , "Aho Shrutgyanam"
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________________ तिलकमञ्जरी 195 मणिकुट्टिमं किमयमर्थोऽनया न प्रकाशितो येन वारंवारमेनां प्रश्नेन खेदयसि, शतशोऽपि, प्रेरिता नैनमर्थमियं वचनवृत्त्या व्यक्तीकरिष्यति, आर्य ! तथापि पृच्छामि [ ओ] / वत्से ! किं न कथयसि परमार्थम् , तात ! कथितमेवार्येण सर्वं यथावस्थितम् , वत्से ! प्रस्तुते विवाहोत्सवे केनाप्यनावेदितवृत्तान्तानां कथमिह ज्ञातीनामागमनमिति कस्मान्न पृष्टोऽसौ दिव्यदृष्टिस्त्वन्मात्रा, तात! सर्वमपि पृष्टः / तेनापीदमादिष्टं भगवता-महाभागे ! मा त्वरस्व, स्वत एव ज्ञातवृत्तान्तस्त्वत्पिता स्वगृहमानेष्यति त्वया सहैनामनुष्ठास्यति च सर्वं स्वयमेव करणीयमस्याः, 'इत्युदीरितवान्' / देव ! किमुत्पन्ननिश्चयैरपि प्रश्नानुबन्धेन खेद्यते राजपुत्री, आर्य ! किमुत्पन्नो भवतां निश्चयः, देव ! 'अहमपुण्यभागिनी शिशुरेव नगरविप्लवे विप्रयुक्ता बन्धुभिः' इत्यपि यावदाकर्णितं तावदपि संदेहः, आर्य ! किं करोमि, एतदपि श्रुत्वा न मे निसर्गदुर्विदग्धं श्रद्दधाति दग्धहृदयम् [औ] / देव ! यदि संदेहस्तदादिश्यतां पवनगतिः, अद्यैवानयतु ताम् , आर्य ! गर्हितमस्मद्विधानामकाले परकलत्रदर्शनम् , अलं च पवनगतिना क्लेशितेन, इयमेव चित्रलेखा बालभावात् प्रभृति अवनतम्-अधोगतं, विलक्ष-विस्मयान्वितं, वदनं-मुखं यस्यास्तादृश्या, पुनः करनखशुक्तिभिः हस्तस्थनखरूपशुक्तिभिः, निभृतं निःशब्दं, निश्चलमिति यावत्, मणिकुट्टिमं मणिबद्धभूमिम् , उल्लिखन्त्या उद्धर्षन्त्या, अनया मलयसुन्दा, अयं मयाऽनुपदमुक्तः, अर्थः किं न प्रकाशितः सूचितः, येन, वारंवारम् असकृत् , एनां मलयसुन्दरी, प्रश्नेन तदर्थजिज्ञासाज्ञापनेन, खेदयसि क्लेशयसि, शतशोऽपि शतवाराण्यपि, प्रेरिता प्रवर्तिता, इयम् , एनं मदुक्तम् , अर्थ, वचनवृत्त्या क्यद्वारा, न व्यक्तीकरिष्यति स्फुटीकरिष्यति, अपि तु व्यजनयैव वेत्यर्थः; आर्य श्रेष्ठकुलोद्भव !, तथापि त्वया निवारितोऽपि, पृच्छामि स्वजिज्ञासां पुनरुद्भावयामि [ ओ] ____वत्से ! परमार्थ यथार्थ, वास्तविकमर्थमिति यावत् , किं कस्माद्धेतोः, न, कथयसि वचसा बोधयसि ?; तात पितः ! आर्येण सभ्येन, वीर्यमित्रेणेति यावत् , यथाऽवस्थितं वस्तु सत् , सर्व, कथितमेव वचसा व्यक्तमेव, अतोऽलं मत्कथनेनेत्यर्थः; वत्से पुत्रि!, विवाहोत्सवे त्वत्पाणिग्रहणोत्सवे, प्रस्तुते प्रवृत्ते सति, केनापि केनचिजनेन, अनावेदितवृत्तान्तानाम् अनावेदितः-अविज्ञापितः, असूचित इति यावत्, वृत्तान्तः-तद्वार्ता यान् तादृशानां ज्ञातीनां बन्धुजनानाम् , इह अस्मिन् स्थाने कथं केन प्रकारेण, आगमनम् उपस्थितिः, स्यादिति शेषः, इति, असौ सः, दिव्यदृष्टिः प्रज्ञात्मकचक्षुः, त्वन्मात्रा त्वजनन्या, कस्मात् केन हेतुना, न, पृष्टः जिज्ञासामावेदितः; तात पितः!, सर्वमपि बान्धवागमनप्रकारमपीत्यर्थः, पृष्टः, तेनापि, भगवता मुनिना, इदम् अनुपदमुच्यमानम् , अदिष्टम् आवेदितम्-महाभागे महानुभावे !, मा त्वरस्व व्याकुलीभव, स्वत एव स्वयमेव, ज्ञानवृत्तान्तः विदिततद्वार्तः त्वत्पिता, त्वया सह, एनाम् इमा कन्यकां, खगृहम् , आनेष्यति उपस्थापयिष्यति, च पुनः, अस्या प्रत्यक्षवर्तिन्याः, कन्यकायाः, सर्व समस्तमपि करणीयं कर्तुमुचितं, वैवाहिकविधि, स्वयमेव, अनुष्ठास्यति करिष्यति। मन्त्री प्राह-देव राजन् !, उत्पन्ननिश्चयैरपि गन्धर्वदत्तायां खदुहितृत्वमवधारितवद्भिरपि, भवद्भिरिति शेषः, राजपुत्री मलयसुन्दरी, प्रश्नानुबन्धेन प्रश्नपरम्परया, किं किमर्थ, खेद्यते क्लेश्यते; आर्य साधो !, भवतां, निश्चयः तन्निर्णयः, उत्पन्नः निष्पन्नः, किम् ?; देव राजन् !, यावत् यदा "अहमपुण्यभागिनी शिशुरेव नगरविप्लवे विप्रयुक्ता बन्धुभिः” इत्यपि एतद्वृत्तमपि, आकर्णितं श्रुतं, तावदपि तदापि, सन्देहः खदुहितृत्वसंशयः, वर्तते इति शेषः; आर्य कुलीन !, किं करोमि कर्तुं पारयामीत्यर्थः, एतदपि अनुपदं भवदनूदितमपि निश्चायकं वृत्तं, श्रुत्वा श्रवणगोचरीकृत्य, निसर्गदुर्विदग्धं प्रकृत्या दुर्विवेचकं, मे मम दग्धहृदयं तद्वियोगाग्निसन्तप्तहृदयं, न, श्रद्दधाति विश्वसिति [ औ]। - देव राजन् !, यदि, सन्देहः तत्संशयः, तदवस्थ इत्यर्थः, तत् तर्हि, पवनगतिः अन्वर्थतन्नामा विद्याधरः, आदिश्यताम् आज्ञाप्यताम् , अद्यैव अस्मिन्नेव दिने, तां गन्धर्वदत्ताम् , आनयतु अत्रोपस्थापयतु; आर्य सभ्य !, अस्मद्विधानाम् अस्मत्सदृशानां, सभ्यजनानामित्यर्थः, अकाले अनवसरे, परकलत्रदर्शनं परस्त्रीदर्शनं, गर्हितं निन्दितम् , अनुचितमित्यर्थः; च पुनः, क्लेशितेन आयासितेन, पवनगतिना तन्नाम्ना विद्याधरेण, अलं न किमपि प्रयोजनं, तद्गमनायासो वृथैवेति भावः; बालभावात् बाल्यकालात् , प्रभृति आरभ्य, तस्याः गन्धर्वदत्तायाः, प्रियसखी स्नेहास्पदसहचरी, "Aho Shrutgyanam"
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________________ 196 टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता। तस्याः प्रियसखी निजप्रेम्णैव विज्ञाय कथयिष्यति यथावस्थितं सर्वमपि तद्वृत्तान्तम् / अपरं च यदि सा सत्यमेव वत्सा गन्धर्वदत्ता ततस्तया सह दर्शनमस्माकमचिरकालभावि, स एव भगवता तेन त्रिलोकविख्यातयशसा कालत्रयज्ञेन ज्ञानचक्षुषा प्रत्यक्षीकृतोऽस्या एव मलयसुन्दर्या विवाहसमयो मयैव प्रस्तुतः साधयिता, कृतमौत्सुक्येन' इति चिरं मया मत्रिणा च सार्धमारब्धसंलापस्य खेचरपतेः प्रशंसन्निव वचनमुपतोरणं रराण प्रभातशङ्खः [ अं]। श्रुत्वा च तं स विद्याधरेश्वरो विरतसंगीतकरसावेशो निवेशितमतिः स्नानदेवार्चनप्रभृतिनि प्राभातिके कर्मणि समासन्नोपविष्टानवलोक्य दृष्टया प्रसादस्निग्धया सर्वानेव देवयात्रादर्शनागतान् विद्याधरपतीन् क्रमेण विससर्ज / निक्षिप्तदृष्टिश्च मयि नरेन्द्रकन्यकासु च तासु किमपि स्वचेतसा संप्रधार्य युगपन्न्यञ्चितोभयभ्रु संज्ञया मनोज्ञवपुषं पुरुषमाप्ततममाजुहाव [अ] / ... सजवमुपसृत्य स्थितं च तं पुरस्तादास्यविन्यस्तवखपल्लवव्यञ्जितप्रश्रयम् 'अरे तपनवेग ! त्वरितमस्याः काञ्चीनृपदुहितुः किञ्चिदस्मत्कृतं दर्शयित्वा बहुमानमद्भुतवस्तुदर्शनेन कुरु सफलमिहत्यमागमनम् , एता टिप्पनकम्-साधयिता साधयिष्यति, कृतं पर्याप्तम् , चरमम् इति / वचनस्य विशेषणम् [अं]। न्यञ्चिताअधःखञ्चिता [अ]। इयं सन्निहिता, चित्रलेखैव, निजप्रेम्णैव स्वस्नेहेनैव, यथावस्थितं वस्तुसन्तं, सर्वमपि समस्तमपि, तद्वृत्तान्तं गन्धर्वदत्तावार्ता, विज्ञाय निरूप्य, कथयिष्यति वक्ष्यति। अपरं च किञ्च, यदि सत्यमेव नूनमेव, सा प्रकृता, वत्सा मत्पुत्री, गन्धर्वदत्ता, ततः तर्हि, त्रिलोकविख्यातयशसा भुवनत्रयप्रसिद्धत्रिकालदर्शनमाहात्म्यशालिना, पुनः कालत्रयज्ञेन अतीतादित्रिकालदर्शिना, तेन प्रकृतेन, भगवता मुनिना, ज्ञानचक्षुषा निरवधिज्ञानलोचनेन, प्रत्यक्षीकृतः साक्षात्कृतः, मयैव प्रस्तुतः प्रवर्तितः, उपस्थापयिष्यमाण इत्यर्थः, अस्याः प्रत्यक्षभूतायाः मलयसुन्दर्या एव, स एव तदुपदर्शित एव विवाहसमयः विवाहावसरः, अस्माकं तत्पित्रादीनाम् , अचिरकालभावि शीघ्रभावि, तया गन्धर्वदत्तया सह, दर्शनं चक्षुषा साक्षात्कारं, साधयिता सम्पादयिष्यति, औत्सुक्येन त्वरया, कृतम् अलं, न किमपि फलम् / इति इत्थं, चिरं दीर्घकालं, "चरममिति वचनस्य विशेषणम्” इति टिप्पणिकावचनेन चिरमित्यस्य स्थाने अधिका वा 'चरमम्' इति पाठोऽनुमीयत मया च पुनः, मन्त्रिणा वीर्यमित्रेण, सार्धं सह, आरब्धसंलापस्य प्रवृत्तसंभाषणस्य, खेचरपतेः विचित्रवीर्याख्यविद्याधराधिपतेः, वचनं, प्रशंसन्निव समर्थयन्निव, उपतोरणं बर्हिरदेशसमीपे, प्रभातशः प्रातःकालिककृत्यावेदकः शङ्खः, रराण ननाद [अं]। तं प्रभातशङ्ख, तद्धनिमित्यर्थः, श्रुत्वा, विरतसङ्गीतकरसावेशः विरतः-निवृत्तः, सङ्गीतकरसस्य-सङ्गीतसम्बन्धिप्रीतेः, आवेशः-उत्कर्षो यस्य तादृशः, पुनः स्नानदेवार्चनप्रभृतीनि स्नान-देवताराधनादिके, प्राभातिके प्रातःकालिके, कर्मणि, निवेशितमतिः प्रवर्तितहृदयः, सः प्रकृतः, विद्याधरेश्वरः विद्याधरराजराजः, समासन्नोपविष्टान् निकटोपविष्टान् , सर्वानेव समस्तानेव, देवयात्रादर्शनागतान् प्रकृताभिषेकोत्सवदर्शनार्थमुपस्थितान् , विद्याधरपतीन् विद्याधरराजान्, प्रसादस्निग्धया प्रीतिरसाईया, दृष्ट्या, अवलोक्य निरीक्ष्य, क्रमेण पर्यायेण, विससर्ज त्यक्तवान् / मयि, च पुनः, तासु प्रकृतासु, नरेन्द्रकन्यकासु राजसुतासु, निक्षिप्तदृष्टिः निवेशितचक्षुः, स्वचेतसा निजमनसा, किमपि, सम्प्रधार्य निश्चित्य, युगपत् एककालं, न्यश्चितोभयभ्र न्यञ्चिते-अधोनमिते. उभयभ्रवौ-नयनोपरितनरोमराजी यस्मिंस्तादृशं यथा स्यात् तथा, संज्ञया संकेतेन, 'न्यञ्चितोभयभ्रूसंज्ञया' इति समस्तपाठे तु न्यञ्चितयोरुभयभ्रुवोः संज्ञयेति व्याख्येयम् , मनोज्ञवपुष मनोहरशरीरं, प्राप्ततमम् अतिविश्वस्तं, पुरुषम् , आजुहाव आहूतवान् [अ]। सजवं सत्वरम् , उपसृत्य निकटमुपस्थाय, पुरस्तात् अग्रे, स्थितं, पुनः आस्यविन्यस्तवस्त्रपल्लवव्यञ्जितप्रश्रयं आस्यविन्यस्तेन-मुखनिवेशितेन, वस्त्रपल्लवेन-पल्लववत् कोमलेन वस्त्रेण, व्यजितः-प्रत्यायितः, प्रश्रयः-विनयो येन तादृशं, तम् आहूतपुरुषम् 'अरे तपनवेग!' तत्संज्ञककर्मकर !, अस्याः प्रत्यक्षवर्तिन्याः, काञ्चीनृपदुहितुः काञ्चीनृपस्य "Aho Shrutgyanam"
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________________ तिलकमञ्जरी 197 भिश्च सह समस्ताभिरवनिपालतनयाभिः प्रापयैनां प्रच्छन्नरूपामेव निजसदनम्' इति श्रवसि शिक्षयित्वा कृत्वा च देवताप्रणाममासनादुत्तस्थौ / अनूत्थितासन्नखेचरपरिवृतश्च गत्वायतनमण्डपद्वारमध्यासितमहार्हमणिमयविमानो विलोकयन्त्या एव मे झगिति नवनिशातनिस्त्रिंशनिर्मलमाकाशमुदपतत् [क]। प्रस्थिते च तत्र त्रिकूटाचलाभिमुखमौत्सुक्यतरलेक्षणस्तत्क्षणमेव पुरुषः स तासां क्षितिपकन्यानामाधिपत्ये सगौरवं मामतिष्ठिपत् , प्रवर्तयामास च पुनः पुनः समासन्नरम्योदेशदर्शनाय [ख] / ततोऽहमुत्साहिता तस्य वचनैरुत्थाय ताभिर्गृहीतवेत्रच्छत्रचामराभिरनुगम्यमाना सहचरीभिः प्रथममेव प्रविश्य परितः प्रेषितानिमेषदृष्टिदृष्टमिव पुरा, सेवितमिव भवान्तरे, कारितमिवात्मना, परिमलितमिव सर्वकालमवलोक्य प्रीतहृदया प्रासादम् ; अग्रतो गर्भगृहगर्भे प्रतिष्ठितम् , अदभ्रदेहप्रभाप्रसरदूरापसारितज्वलदुदगुदीपिकालोकम् , इभमृगेन्द्रचक्राध्यासिते सुराचल इव मरीचिमालिनममलरोचिषि हिरण्मये महति टिप्पनकम्-इभमृगेन्द्रचक्राध्यासिते सुराचले इव एकत्र करिसिंहसंघाताध्यारूढे, अन्यत्र गजसिंहधर्मचक्रयुक्ते [ग]। काञ्चीपतेः कुसुमशेखरस्य, दुहितुः सुतायाः, मलयसुन्दर्या इत्यर्थः, अस्मत्कृतं अस्माभिः प्रयुक्तं, बहुमानम् अधिकसत्कार, किञ्चित् ईषत् , दर्शयित्वा, अद्भुतवस्तुदर्शनेन आश्चर्यवस्तूनां दृष्टिमार्गारोपणेन, इहत्यम् अत्रत्यम् , आगमनं, सफलं सार्थकं, कुरु सम्पादय / च पुनः, एताभिः निकटतरवर्तिनीभिः समस्ताभिः सर्वाभिः, अवनिपालतनयाभिः नृपसुताभिः सह, प्रच्छन्नरूपामेव अन्यानभिज्ञानरूपामेव, एनां मलयसुन्दरी, निजसदनं वगृहं, प्रापय उपस्थापय, इति इत्थं, श्रवसि कर्णे शिक्षयित्वा तत्कर्तव्यमावेद्य च पुनः, देवताप्रणाम देवतानमस्कारं, कृत्वा, आसनात खोपवेशनाधारात् , उत्तस्थौ उत्थितः / च पुनः, अनूत्थितासन्नखेचरपरिवृतः अनु-पश्चात् , उत्थितैः, अनुसन्नैःनिकटोपविष्टैः, खेचरैः- विद्याधरैः, परिवृतः परिवेष्टितः सन् , आयतनमण्डपद्वारं जिनेन्द्रमन्दिरप्रवेशनिर्गमस्थानं, गत्वा, अध्यासितमहार्हमणिमयविमानः प्रशस्तमणिमयव्योमयानमारूढः, विलोकयन्त्या एव पश्यन्त्या एव, मे मम, पश्यन्तमपि मामुपेक्ष्येत्यर्थः, झटिति सत्वरं, नवनिशातनिस्त्रिंशनिर्मलं नवा:-नूतनाः, निशाताः तीक्ष्णाश्च, ये निस्त्रिंशाः-खगाः, तद्वत् निर्मलम्-उज्ज्वलम् , आकाशम् , उदपतत् उत्पतितवान् [क]। च पुनः तत्र तस्मिन् विद्याधरेश्वरे, त्रिकटाचलाभिमुखं त्रिकूटपर्वताभिमुखं, तद्दिशीत्यर्थः प्रस्थिते प्रयाते सति औत्सुक्यतरलेक्षणः सम्भ्रान्तलोचनः, स प्रकृतः, पुरुषः तपनवेगनामा राजकीयजनः, तासां प्रकृतानां, राजकन्यानां नृपसुतानाम् , आधिपत्ये तत्त्वावधाने, सगौरवं सादरं, माम् , अतिष्ठिपत् स्थापितवान् , च पुनः, समासन्नरम्यो. देशदर्शनाय अतिसन्निहितरमणीयप्रदेशदर्शनाय, पुनः पुनः अनेकवारं, प्रवर्तयामास प्रेरयामास [ख]। ततः तदनन्तरं, तस्य प्रकृतराजपुरुषस्य, वचनैः प्रवर्तकवाक्यैः, उत्साहिता प्रवर्तिता, अहम् , उत्थाय, गृहीतवेत्रच्छत्रचामराभिः गृहीतं-धृतं, वेत्रं-कनकादिदण्डः, छत्रम् , चामरं-चमरजातीयमृगलोमव्यजनं याभिस्तादृशीभिः, ताभिः राजकन्याभिः, सहचरीभिः सखीभिः, अनुगम्यमाना अनु-पश्चात् , व्याप्यमाना, प्रथममेव अनावृत्तिकमेव यथा स्यात् तथा, प्रविश्य अन्तर्गत्वा, परितः सर्वभागेषु, प्रेषितानिमेषदृष्टिः प्रवर्तितास्पन्ददृष्टिः सती, पुरा पूर्वमपि, दृष्टमिव पुनः भवान्तरे जन्मान्तरे, सेवितमिव आराधितमिव, पुनः आत्मना स्वेन, कारितमिव निर्मा पितमिव; पुनः सर्वकालं सततं, परिमलितमिव कुङ्कुमादिद्रवैर्मर्दितमिव, प्रासादं जिनभवनम् , अवलोक्य निरीक्ष्य, प्रीतहृदया प्रसन्नहृदया सती, अग्रतः अग्रे, बिम्बं मूर्तिम् , अद्राक्षं दृष्टवतीत्यप्रेणान्वेति; कीदृशम् ? गर्भगृहगर्भ अन्तगृहीमध्ये, प्रतिष्ठितम् अवस्थितम् ; पुनः अदभ्रदेहप्रभाप्रसरदूरापसारितज्वलदुदग्रदीपिकाऽऽलोकम् अदभ्रदेहप्रभाप्रसरेण-बहुलशरीरकान्तिविस्तारेण, दूरम् , अपसारितः-अपनीतः, ज्वलन्त्याः -दीप्यमानायाः, उदग्रदीपिकायाः-उन्नतदीपिकायाः, आलोकः-प्रकाशो येन तादृशम् / पुनः इभमृगेन्द्रचक्राध्यासिते मेरुपक्षे इभाना-हस्तिनां, मृगेन्द्राणां, सिंहानां च, यच्चक्र-मण्डलं तेन, सिंहासनपक्षे परिकरे उत्कीर्णो य इभः-गजः, मृगेन्द्रः-सिंहः, चक्र-धर्मचक्रं, तेन, अध्यासिते-अधितिष्ठते, सुराचले देवपर्वते, सुमेरुपर्वते इत्यर्थः, मरीचिमालिनमिव सूर्यबिम्बमिव, अमलरोचिषि उजवलप्रकाशशालिनि, "Aho Shrutgyanam"
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________________ 198 टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता / सिंहासने समासीनम् [ग]. अचिराभिषेकनिष्पन्नपरिकर्माचरणम् , आमोदिना हरिचन्दनेनाङ्गरागेणानुलिप्तम्, प्रतिकुसुमोपविष्टनिःस्पन्दषट्पदनिपीयमानमकरन्दाभिराजानुलम्बिनीभिरभिनवसुरद्रुमसम्भिरुपरचितसर्वावयवपूजम् , उत्क्षिप्तसान्द्रकालागुरुक्षोदधूपम् , अतिमहाप्रमाणवज्रमणिशिलामयम् , अतिशयप्रशान्तदर्शनम् , अपश्चिमस्य भगवतो महावीरजिनवरस्य जन्ममरणार्णवावर्तवर्तिजन्तुनिकुरम्बैकावलम्बनं बिम्बमद्राक्षम् [घ]। दृष्ट्वा च तत्पितरमिव चिरात्प्रवासागतं स्वामिनमिव सर्वदा कृतोपकारमारूढगाढोत्कण्ठा स्मरन्तीव पूर्वसंसृष्टस्य कस्यचिदभीष्टजनस्य निर्निमित्तोदीर्णमन्युवेगकम्पितकुचयुगा कथमपि निरुन्धती कण्ठदेशागतमाक्रन्दशब्दमुपसृत्य सप्रश्रयमग्रतः परमया भक्त्या प्रसारितसकलगात्रयष्टिस्ताडयन्ती कुट्टिमे मुहुर्मुहुर्ललाटमाबद्धकरसंपुटा प्राणसिषम् / उत्थाय च पुरो निविष्टा विष्टपत्रयगुरोरास्यचन्द्रमसि निहितनिस्तरङ्गदृष्टिरनवरतनिर्यद्वाष्पमनिवार्योत्कण्ठमशक्यमावेदयितुं स्वसंवेद्यमानन्दशोकमिश्रं किमप्यवस्थान्तरमनुभवन्ती निश्चला हिरण्मये सुवर्णमये, महति विशाले, सिंहासने महासने, समासीनं समुपविशन्तम् ; [ग] / पुनः अचिराभिषेकनिष्पन्नपरिकर्माचरणम् अचिराभिषेकेण-अनतिपूर्वकालिकनपनेन,निष्पन्न-सिद्धं,परिकर्माचरण-शरीरशोभाऽऽधायककर्मानुष्ठानं यस्य तादृशम् ; पुनः आमोदिना उत्कटसौगन्ध्यशालिना, हरिचन्दनेन हरिचन्दनपङ्करूपेण, अङ्गरागेण विलेपनद्रव्येण, अनुलिप्तं व्याप्तम् ; पुनः प्रतिकुसुमोपविष्टनिःस्पन्दषट्पदनिपीयमानमकरन्दाभिः प्रतिकुसुमम्-एकैकपुष्पोपरि, उपविष्टैः, निःस्पन्दैः-निश्चलैः, स्थिरैरिति यावत्, षट्पदैः-भ्रमरैः, निपीयमानः-नितरां पीयमानः, आखाद्यमान इत्यर्थः, मकरन्दः-पुष्परसो यासु तादृशीभिः, पुनः आजानुलम्बिनीभिः ऊरूपर्वपर्यन्तलम्बमानाभिः, अभिनवसुरद्रुमस्रग्भिः नवीनदेववृक्षकुसुममालाभिः, उपरचितसावयवपूजम् उपरचिता-सम्पादिता, सर्वावयवपूजा-समस्तावयवावच्छिन्नार्चा यस्य तादृशम् ; पुनः उत्क्षिप्तसान्द्रकालागुरुक्षोदधूपम् उत्क्षिप्तः-परिक्षिप्तः, कालागुरोः-अग्नितापेन सुगन्धिभूतद्रव्यविशेषस्य, क्षोदः-चूर्णात्मकः धूपो यस्य तादृशम् ; पुनः अतिमहाप्रमाणवज्रमणिशिलामयम् अतिप्रमाणा-अत्यधिकप्रमाणा या वज्रजातीयमणिशिला, तन्मयं-तद्विकारभूतम् / पुनः अतिशयप्रशान्तदर्शनम् अतिशयप्रशान्तम्-अतिशयसौम्यं दर्शनं ; कस्य बिम्बम् ? अपश्चिमस्य न विद्यते पश्चिमो यस्य तादृशस्य, चरमस्य चतुर्विंशतितमस्य तीर्थकरस्येति यावत् भगवतः परमेश्वरस्य, महावीरजिनवरस्य तदाख्यजिनेन्द्रस्य, पुनः कीदृशम् ? जन्ममरणार्णवावर्तवर्तिजन्तुनिकुरम्बैकावलम्बनं जन्ममरणार्णवस्य-जन्ममृत्युरूपसंसारसागरस्य, य आवर्तः-जलभ्रमिः, तद्वर्तिनां-तत्स्थानां, जन्तूनां-जीवानां, निकुरम्बस्य-समूहस्य, एकं-मुख्यम् , अवलम्बनं तदुत्तरणसाधनम् [1] . च पुनः चिरात् दीर्घकालात् , प्रवासागतं विदेशादागतं, पितरमिव स्वकीयजनकमिव, पुनः सर्वदा सर्वकाले, कृतोपकारम् उपकृतवन्तं, स्वामिनमिव खप्रभुमिव, तत् महावीरजिनेन्द्रबिम्बं, दृष्टा चक्षुषा साक्षात्कृत्य, आरूढगाढोत्कण्ठा उत्पन्नोत्कटौत्सुक्या सती, पूर्वसंसृष्टस्य पूर्वकालिकसंसर्गतः, कस्यचित् कस्यापि, अभीष्टजनस्य अभिमतव्यक्तेः, स्मरन्तीव ध्यायन्तीव, निनिमित्तोदीर्णमन्युवेगकम्पितकुचयुगा निर्निमित्तम्-अकारणमेव यथा स्यात् तथा, उदीर्णेनउद्धतेन, मन्युवेगेन-दैन्यातिशयेन, कम्पितं कुचयुगं-स्तनद्वयं यस्यास्तादृशी, कण्ठदेशागतं कण्ठमार्गमागतम् , आक्रन्दशब्दं रोदनशब्दं, निरुन्धती निवारयन्ती, सप्रश्रयं सविनयं यथा स्यात् तथा, परमया अत्यन्तया भक्त्या प्रीत्या, अग्रतः अग्रे, उपसृत्य उपगत्य, प्रसारितसकलगात्रयष्टिः विस्तारितसमस्तशरीरदण्डा, कुट्टिमे मणिबद्धभूमौ, अनेकवार, ललाट, ताडयन्ती संघर्षन्ती, आबद्धकरसंपुटा रचिताञ्जलिः, अहमिति शेषः, प्राणसिषं प्रणतवती। च पुन उत्थाय, पुरः अग्रे, निविष्टा अवस्थिता, विष्टपत्रयगुरोः त्रिभुवनस्वामिनः, जिनेन्द्रदेवस्येत्यर्थः, आस्यचन्द्रमसि मुखचन्द्रे, निहितनिस्तरङ्गदृष्टिः निवेशितनिःस्यन्ददृष्टिः, अनवरतनिर्यद्वाष्पं निरन्तरनिर्गच्छन्नयनजलम् , पुनः अनिवायोत्कण्ठम् अनिराकरणीयौत्सुक्यम् , आवेदयितुं विज्ञापयितुम् , अशक्यं स्वसंवेद्यं, स्वमात्रानुभवनीयम् , आनन्दशोकमिश्रं हर्षविषादसंकीर्ण, किमपि अनिर्वचनीयम् , अवस्थान्तरम् अवस्थाविशेषम् , अनुभवन्ती, निश्चलानयष्टिः हमेहः "Aho Shrutgyanam"
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________________ 199 तिलकमञ्जरी नयष्टिश्विरमतिष्ठम् / प्रवर्तिता च सहचरीभिरर्णवं द्रष्टुमभ्यर्णवर्तिनैकेन सोपानवर्त्मना दक्षिणां देवतागृहप्राकारभित्तिमध्यरोहम् [3] / तस्याश्च संघट्टविघटमानमुखरवीचिशिखरशङ्खश्रेणिना वारिधिजलेन प्रतिवेलमास्फालितस्फाटिकशिलातलायास्तलविभागे निविष्टदृष्टिरुत्कृष्टनौयानाधिरूढम् , अध्यासितमकरमिव यादसां नाथम् , ईशाननयनानलादुपद्रुतमयुग्मेषुमिवागत्य संश्रितजलदुर्गम् , उदधिसौहृदाकृष्टहृदयमवतीर्णमन्तरिक्षादिव नक्षत्रनाथम्, इतस्ततो विनिहितैरसिगदाचक्रचापैः प्रकाशितपौरुषप्रकर्षमर्णवनिवासिदानवशासनाय शेषशयनमुत्सृज्य चलितमिव जलशायिनं देवम् , उभयतः स्थापितमृदुस्थूलहंसतूलोपधाने धौतनेत्रप्रच्छदाच्छादिते कुमुदगर्भच्छदावदातद्युतिनि दन्तपट्टशयने निविष्टम् [च], अनुपृष्ठमुपहितस्य महतो हेमपीठस्य शिरसि विनिवेशितद्विगुणदक्षिणेतरभुजस्तम्भम् , अभ्यर्णोपविष्टैः कैश्चिदुद्धृतधवलचामरैः कैश्चिदुत्सङ्गितचरणयुगलैः कैश्चित् केशभारविवरणव्यापृतकरैः कैश्चिदुत्क्षिप्तताम्बूलवीटकैः कैश्चित् प्रवर्तितरजनीवार्तालापै स्थिरशरीरयष्टिः, चिरं दीर्घकालम् , अतिष्ठं स्थितवती / च पुनः, अर्णवं समुद्र, द्रष्टुं दृष्टिगोचरीकर्तुं, सहचरीभिः सखीभिः, प्रवर्तिता प्रेरिता सती, अभ्यर्णवर्तिना निकटवर्तिना, एकेन, सोपानवर्त्मना अधिरोहणमार्गेण, दक्षिणां देवतागृहप्राकारभित्तिं जिनेन्द्रमन्दिरप्राकारकुड्यम् , अध्यरोहम् आरूढवती, सर्वत्राहमिति शेषः [3] / च पुनः, संघट्टविघटमानमुखरवीचिशिखरशङ्खश्रेणिना सङ्घट्टेन-आघातेन, विघटमाना-ततो विश्लिष्यमाणा, अपसरन्तीत्यर्थः, मुखराणां ध्वनता, वीचीनां-तरङ्गाणां, शिखरभूता-ऊर्ध्वमवस्थिता, शङ्खश्रेणी-शङ्खपतिर्यस्मिंस्तादृशेन, वारिधिजलेन समुद्रजलेन. प्रतिवेलं प्रतितटम, आस्फालितस्फटिकशिलातलायाः आस्फालितम्-आहतं, स्फाटिकशिला तलं-स्फटिकसम्बन्धि शिलामध्यं यस्यास्तादृश्याः, तस्याः प्राकारभित्तः, तलविभागे अधस्तनप्रदेशे, निविष्टदृष्टिः निहितलोचना सती, अहमिति शेषः, उर्वीपतिकुमारं नृपकुमारम् , अद्राक्षं दृष्टवतीत्यप्रेणान्वेति, कीदृशीम् ? नौयानाधिरूढं नौरूपं यत् यानं-वाहनं, तत् , अधिरूढम्-आरूढम् ; अत एव अध्यासितमकरं मकरमधिरूढं, यादसा जलजन्तूनां, नाथमिव वरुणमिवेत्युत्प्रेक्षा; पुनः ईशाननयनानलात् शिवनयनाग्निना उपद्रुतम् , उपतापितम् , आगत्य उपस्थाय, संश्रितजलदुर्ग संश्रितं-शरणीकृतं, जलदुर्ग-जलात्मकं दुर्ग-शिवनेत्राग्निना दुःखेन गन्तुं शक्यं स्थानं येन तादृशम्, अयुग्मेषुमिव पञ्चबाणमिव, कामदेवमिवेत्यर्थः; पुनः उदधिसौहृदाकृष्टहृदयम् उदधिसौहृदेन- समुद्ररूपपितृस्नेहेन, आकृष्टंवशीकृतं हृदयं यस्य तादृशम् , अन्तरिक्षात् गगनमण्डलात्, अवतीर्णम् अधस्तादापतितं, नक्षत्रनाथमिव चन्द्रमिव; पुनः इतस्ततः अत्र तत्र, विनिहितैः सन्निवेशितैः, असि-गदा-चक्रचापैः असि-नन्दकनामा खगः, गदा-कौमोदकीनामकदण्डविशेषः, चक्रं नाम-सुदर्शनाख्यमस्त्रं चापो नाम-शार्ङ्गनामकं धनुः, तैः, प्रकाशितपौरुषप्रकर्ष प्रकाशितः-प्रकटितः, पौरुषप्रकर्षः-स्वपराक्रमोत्कर्षों येन तादृशम् , अर्णवनिवासिदानवशासनाय समुद्रस्थदैत्यदमनाय, शेषशयनं शेषनागरूपां शय्याम् , उत्सृज्य त्यक्त्वा, चलितं प्रस्थितं, जलशायिनं जलाधिकरणकशयनशीलं, देवमिव विष्णुमिवेति सर्वत्रोत्प्रेक्षा; पुनः कीदृशम् ? दन्तपट्टशयने हस्तिदन्तमयपट्टिकाघटितपर्यङ्करूपशव्यायां, निविष्टम् उपविष्टम् , कीदृशे ? उभयतः भागद्वये, स्थापितमृड सतलोपधाने मृदुनी-कोमले, स्थूले च, हंसतूलोपधाने-हंसजातीयपक्षिलोममयमस्तकाद्युपधाने यस्मिंस्तादृशे, धौतनेत्रप्रच्छदाच्छादिते धौतेन-अचिरक्षालितेन, नेत्रप्रच्छदेन-नेत्रं नाम अंशुकं, सूक्ष्मश्लक्ष्णवस्त्रमित्यर्थः, तद्रूपेण, प्रच्छेन-आस्तरणेन, आच्छादिते-आस्तीर्णे, पुनः कुमुदगर्भच्छदावदातद्युतिनि कुमुदस्यचन्द्रविकासिकमलस्य यो गर्भच्छदः-अन्तःस्थपत्रं, तद्वत् , अवदाता-विशुद्धा, द्युतिः-छविर्यस्य तादृशे; [च]। पुनः अनुपृष्ठं पृष्ठसमीपे, उपहितस्य स्थापितस्य, महतो विशालम्य, हेमपीठस्य सुवर्णमयोच्चासनस्य, शिरसि ऊर्वभागे, विनिवेशितद्विगुणदक्षिणेतरभुजस्तम्भं विनिवेशितः-समारोपितः, द्विगुणः-मध्यादारभ्याकुञ्चनेन द्वैगुण्यमापादितः, दक्षिणेतरः-वामो यो भुजः-बाहुः, तद्रूपः स्तम्भो-बृहद्दण्डो येन तादृशम् ; पुनः अभ्योपविष्टः समीपोपविष्टः तरुणपरिचारकैः यौवनावस्थपरिचारकजनैः, परिगतं परितो व्याप्तम् , कीदृशैः ? कैश्चित् कतिपयैः, उद्धृतधवलचामरैः उक्षिप्तश्वेतचामरैः, पुनः कैश्चित् कैरपि, उत्सङ्गितचरणयुगलैः क्रोडारोपितचरणद्वयैः, पुनः कैश्चित् कैरपि, केशभारविवरणव्यापृतकरैः केशभारस्य-केशराशेः, विवरणे-विस्तारणे, व्यापृतौ-प्रवृत्तौ, करौ येषां तादृशैः, पुनः कैश्चित् कैरपि, उत्क्षिप्तताम्बूल "Aho Shrutgyanam"
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________________ 200 टिप्पनक-परागविवृतिसंवलिता / स्त्रिचतुरैरेव चतुरैस्तरुणपरिचारकैः परिगतम् , अनासन्ननिःसहनिःस्पन्दनिद्राक्लान्तकतिपयकर्णधारम् [छ ], उदारतेजसाऽतुलबलेन दीर्घबाहुना सुवर्णकटकोद्भासितेन प्रशस्तायतिना प्रकामकान्तालोकेन सुकुमारेण सम्राजेव वपुषा जिताशेषभुवनं, भवनमिव सौभाग्यस्य, स्वरूपमिव रूपस्य, लयनमिव लावण्यस्य, किश्चिदधिकाष्टादशवर्षवयसमुर्वीपतिकुमारमद्राक्षम् [ज] // _ टिप्पनकम्-सम्राजेव वपुषा जिताशेषभुवनम् , कीदृशेन द्वयेन ? 'उदारतेजसा' इत्यादिना, एकत्र उदारतेजसा उद्भटवीर्येण, अन्यत्र उदारदीप्तिना; अतुलबलेन एकत्र असमसैन्येन, अन्यत्र अतुलसामर्थ्येन दीर्घबाहुना तुल्यम् ; सुवर्णकटकोद्भासितेन एकत्र शोभना ये वर्णाः-ब्राह्मणादयः तेषां कटकानि-सैन्यानि, तैरुद्भासितेन-शोभितेन, अन्यत्र हेमकङ्कणशोभितेन; प्रशस्तायतिना प्रकृष्टदैर्येण, अन्यत्र प्रधानाज्ञेन, प्रकामकान्तालोकेन प्रकृष्टमन्मथप्रियाजनेन, अन्यत्र अत्यर्थकमनीयप्रकाशेन; सुकुमारेण एकत्र शोभनाः कुमारा यस्य स तथोक्तस्तेन, अन्यत्र मृदुना [ज] // वीटकैः उद्धृतताम्बूलपुटकैः, पुनः कैश्चित् कैरपि, प्रवर्तितरजनीवार्तालापैः प्रसञ्जितरात्रिवृत्ताभाषणैः, पुनः त्रिचतुरैरेव त्रयो वा चत्वारो वा त्रिचतुराः, तैरेव, पुनः चतुरैः परिचर्यानिपुणैः; पुनः अनासन्ननिःसहनिःस्पन्दनिद्राक्लान्तकतिपयकर्णधारम् अनासन्नाः-असन्निहिताः निःसहाः-दुबैलाः, निःस्पन्दा:-निश्चेष्टाः, निद्राक्लान्ताः-निद्राव्याकुलाश्च, कतिपये-कतिचित् , कर्णधारा यस्य तादृशम् [छ]। पुनः सम्राजेव अखिलभुवनाधिपतिनेव, वपुषा शरीरेण, जिताशेषभुवनं जितं-तिर तं, पक्षे वशीकृतम् , अशे येन तादृशम् , कीदृशेन? उदारतेजसा उत्कृष्टद्युतिना, पक्षे महाप्रतापेन, पुनः अतलबलेन निरुपम शक्तिशालिना, पक्षे असाधारणसैन्यकेन, पुनः दीर्घबाहुना आजानुलम्बमानभुजेनेत्युभयत्र समम् , पुनः सुवर्णकटकोद्भासितेन सुवर्णनिर्मितवलयोद्दीपितेन, पक्षे सुवर्णाः-शोभना ब्राह्मणादयो वर्णाः, तेषां कटकैः-सैन्यैः, उद्भासितेन-शोभितेन, पुनः प्रशस्तायतिना प्रशस्ता, आयतिः-दैर्घ्य, पक्षे आज्ञा यस्य तादृशेन, पुनः प्रकामकान्तालोकेन प्रकामकान्तः-अत्यन्तमनोहरः, आलोकः-प्रकाशो यस्य, पक्षे प्रकृष्टः, कामः-कामदेववासना यस्य तादृशः, कान्तालोकः-कामिनीजनो यस्य तादृशेन, पुनः सुकुमारेण कोमलेन, पक्षे सुन्दराः कुमाराः-पुत्रा यस्य तादृशेन; पुनः कीदृशम् ? सौभाग्यस्य सौन्दर्यस्य, सुन्दरभाग्यस्य वा, भवनमिव गृहमिव, आधारमिवेत्यर्थः, पुनः लावण्यस्य सौन्दर्यस्य, लयनमिव मन्दिरमिव; पुनः किश्चिदधिकाटादशवर्षवयसम् अष्टादशभ्योऽधिकानीति-अधिकाष्टादशानि, किञ्चिदधिकाष्टादशानि वर्षाणि वयो यस्य तादृशम् [ज] "Aho Shrutgyanam"