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तीन दिन में
कथा
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जैन चित्रकथा आपके बच्चे को जैन संस्कृति से परिचित कराती है। इस पुस्तक की कथा संस्कृत सुकमाल चरित्र पर आधारित है। अनेक विद्वानों की राय में यह कहानी प्रतीकात्मक है। आज इस बात की जरूरत है कि दुनिया के विकसित धर्मो में हमारे लिए जो आवश्यक बातें कही गयी हैं उन्हें हम समझे और अपने जीवन में उनपर चलने की कोशिश करें।
नई पीढ़ी को सही समझ और शिक्षा देने के लिए ऐसे विचार उनके समक्ष रखना जरूरी है, जिससे वे आदर्शों की तरफ प्रेरित हों और जिन्दगीका सही रास्ता उन्हें मिलसके कहानियां इस तरह रखी गयी है कि बच्चों को वे उपदेश नहीं जीवन से जुड़ी हुई मालूम हो और आसानी से समझ में आ जाये। मुझे आशा है कि बच्चों के माता-पिता भी इन कहानियों को दिलचस्पी से पढ़ेंगे और अपनेजीवन को समृद्ध करेंगे।
मुझे उम्मीद है कि इस प्रयास को पसन्द किया जावेगा इसपर अमल किया जावेगा और इसका प्रचार किया जावेगा। यह प्रथम प्रकाशन 'तीन दिन में सुधी पाठकों के हाथों सौंप रहे हैं।
प्रकाशक : आचार्य धर्मश्रुत ग्रन्थमाला , जयपुर सम्पादक : धर्मचंद शास्त्री लेखक : डा. मूलचंद जैन, मुजफ्फर नगर चित्रकार: बनेसिंह, जयपुर
श्रीमति वसन्ती देवी, धर्मपत्नी स्व. श्री महावीर सहाय बैराठी, जयपुर के सौजन्य से
प्रकाशन वर्ष : १८६६
अंक : १
मूल्य:10.00रू.
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जब जागो तभी सबेरा। सुकुमाल-शरीर से अत्यन्त कोमल,पूरी आयु भोगों में व्यतीत हुई। जब आयु के तीन दिन शेष रहे तभी अवसर मिला-.... मुनि वचन सुनने व मुनि दर्शन करने का। और बस निकल पड़े आत्मकल्याण के पथ पर | ध्यानस्थ होगये। महान उपसर्ग हुआ। स्यालनी उनके शरीर का भक्षण करने लगी और वह आत्म चिन्तन मेंलीन समाधिपूर्वक प्राण त्याग किया और बन गये अहमिन्द्र स्वार्थ सिद्धि में ।
देविये कहां तो सुकुमाल भोगों में मस्त और कहां कठिन तपश्चरण सब कुछ सम्भव है, बस केवल दृष्टि बदलने की आवश्यकता है। बाह्य से अन्तर की ओर दृष्टि कीजिये और देखिये काम कैसे नहीं बनता।
बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुध ले। जोहमारी आपकी बीत गई, उसका विचार न कीजिये। बस आज ही लग जाइये आत्म-कल्याण में। अभी भी देर नहीं हुई है। सुकुमाल तो केवल तीन दिन में ही कहीं से कहीं पहुंच गये। जैन कथाओं में सुकुमाल मुनिका विशेष स्थान है। आइये इसे पढ़ें और कुछ प्रेरणा लें इससे।
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उज्जयिनी नगरी में धार्मिक वसुशील दम्पत्ति धनी सेठ सुरेन्द्रदत्त और उनकी पत्नी यशोभद्रा रहते थे। सर्व प्रकार की विभूति-सोना,चांदी,कोठी बंगला, दास दासियों से वे सम्पन्न थे। एक ही अभाव था उनके जो उन्हें सदैव अशांत बनाये रहता था-उनके कोई पुत्र न था।
तीन दिन में
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हे सखी! यह डोंडीवाला क्या कह रहा है?
एक दिन- नगर में राजा वृषभांक ने डोंडी पिटवाई सेठानी ने डोंडी सुनी।
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नगर के उद्यान में नन दिगम्बर जैन मुनिराज वर्द्धमान पधारे है। उनके दर्शनार्थ चलने के लिएराजा वृषभांक ने डॉडी पिटवाई है।
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नगरोधान में
भद्रे । तेरे पुत्र अवश्य होगा, और वह भी बड़ा भाग्यशाली, सुन्दर, गुणवान, जगत में
मान्य,
परन्तु.......
. पुत्र का मुख देखते ही तेरा पति संसार, शरीर, भोगों से विरक्त होकर तपोवन में जाकर निर्ग्रन्थ मुनि दीक्षा ले लेगा । और तेरा पुत्र भी जब किसी मुनिराज के दर्शन कर लेगा तथा उनके वचन सुन लेगा उसी दिन वह भी घर गृहस्थी का त्याग कर देगा ।
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हे महात्मन । मैं बहुत दुखी हूं। कृपया बतलाइये कि मेरे पुत्र होगा या नहीं ?
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...परन्तु क्या महाराज ?
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हे दासी ये कपड़े तू किसके चो रही है ?
यशोभद्रा गर्भवती हुई, परन्तु उसने इस रहस्य को गुप्त ही रखा। और बालक को जन्म भी भूमि-ग्रह में दिया ताकि सेठको बालक के जन्म का पता नलग सके।
तुम्हें पता नहीं विप्रराज
सेठानी ने सुन्दर बालक को जन्म दिया है, मै उसी के कपडे धो रही
हूँ।
एक दिन
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अहा! हा! कितना शुभदिन है। चलू सेठ जी को पुत्रजन्म की बधाई दू और खूब इनाम
पाऊँ।
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सेठजी! सेठजी। बधाई हो | आपके भाग्य जागे हैं। सेठानी जी ने पुत्र को जन्म दिया है।
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अच्छा ! यह बात है। चलता हूँ बालक का मुंह देखने लो विप्रराज
यह आपका
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महात्मन् ! मुझे संसार से डर लगा है। कृपया मुझे वह दीक्षा दीजिये जिससे मुझे सच्चे सुख की प्राप्ति हो ।
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सेठ सुरेन्द्रदत्त अब सेठ नहीं रहे। वह नग्न दिगम्बर साधु बन गये।
सेठानी के महल मे : सेठानी तू बड़ी भाग्यशाली है, तेरे पुत्र हुआ है बधाई है तुझें अच्छा, हमचलते हैं मुनि
दीक्षा लेने
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बड़ा सुन्दर सोचा है भव्य तेरा कल्याण हो
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और उधर-सेठानी यशोभद्रा पुत्र जन्मोत्सव मना रही है।
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बालक का नाम रखा गया सकमाल बाल क्रीड़ा देखदेख माता यशोभद्रा फूली नहीं समा रहीहै।
कितनी भाग्यशाली हूँ मैं । परन्छ- मुझे ऐसा प्रबन्ध अवश्य करना चाहिए कि मेरा
सुकुआल किसी मुनिराज के दर्शन
न कर सके।
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सेठानी ने एक बहुत सुन्दर 'सर्वतोभद्र' महल तैयार कराया उसके चारों ओर ३२ और महल बनवाये । और इन महलों के चारों ओर द्वारपाल नियुक्त कर दिये।
इन महलों में कोई मुनि न आने पाये
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सुकुमाल-बड़ा कोमल सा बच्चा- रहने लगा महलों में-उसे मालूम नहीं दिन क्या होता है, रात क्या होती है, संदी, गर्मी क्या होती है ? आमोद प्रमोद के, शरीर की सुविधाके सभी साधन वहां उपलब्ध जोथे
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सुकुमाल जवान हुआ... और.... आज मैं कितनी प्रसन्न हूँ। मेरा स्वप्न साकार हुआ। कितनी सुन्दर हैं, कितनी आकर्षक हैं ये मेरी बहुए- अब देखती हूं कैसे जाता है इनके मोह-पाशसे निकलकर मेरालाडला सुकुमाल ।
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एक दिन... ... ... राजन ! मैं रत्नकम्बल का व्यापारी हूं-कृपया इसे देखिये और पसन्द आये तो खरीदने की कृपा कीजिये। आपकेहीलायकहेयह रत्नकम्बल
रत्नकम्बल तो बहुत ही सुन्दर है परन्तु इसका मूल्यचुकाना मेरे बस की बात नहीं
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माताजी! आप की बहुत प्रशंसा सुनी है। आप के लिए रत्न कम्बल लाया हूँ। इसे देखिये न अवश्य पसन्द आयेगा।
हे सुकुमाल ! देख तेरे लिए कितना सुन्दर रत्न कम्बल खरीदा है मैंने- ले इसे काम में ले/
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कमाल है - तुम्हारे रत्नकम्बल का जवाब नहीं बड़ा ही सुन्दर है। लो इसका मूल्य |
मां कम्बल तो बहुत सुन्दर है। परन्तु बहुत कहा है ये। मेरे को तो यह चुभता है । मेरे मतलब का यह नहीं है तुम ही रखलो ना मां इसे
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अब क्या करूं इस रत्न कम्बल का। हाँ। समझ में आगया। क्यो न अपनी ३२ बहओ की जूतियां बनवाढूँ इस रत्न कम्बल
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एक दिन सुकुमाल की एक स्त्री सुदामा रत्नकम्बल से बनी जूतीपहनकर महल के ऊपर चली गई और जूती निकाल कर वहां
बैठ गई....
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चील जती लेकर राजमहल की छत पर पहुंच गई। मांस समझकर खाने लगी। जबखाई नहीं
गई तो वहीं छोड़ कर उड
गई.०० ००० ००० ०००
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मंत्री जी पता लगाओ यह जूती किसकी
हैं यह क्या? कितनी सुन्दर है यह रत्न-जूती किसकी हो सकती है यह कौन इतना धनवान है? जिसकी स्त्रीकीयह जती है
अच्छा राजन् । बहुत जल्दी पता लगा कर आपको
बतला दूंगा।
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कुछ दिन बाद... राजन! पता चल गया है। यह जूतीयहांके नगरसेठ सुरेन्द्र दत्त के पुत्र सुकुमाल की पत्नी की है।
कितना भाग्यशाली है यह सुकुमाल... मंत्री जी एक दिन हमें भी उस पुण्यशाली के दर्शन कराओ। हमारी उससे मिलने की बड़ी
इच्छा
है।
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ADMuयशोभद्रा को जब सूचनामिली कि राजा वृषभांक स्वयं उनके घर पर पधार रहे हैं तो उसने उनके स्वागत की खूब तैयारी की।
आइये राजन| आपका स्वागत है, कृपया यहां आसन पर विजिये
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कहिये राजन! कैसे पधारना हुआ ?
कुछ नहीं सेठानी हम
तो केवल आपके पुत्र के दर्शन करने आये हैं
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आओ बेटा, यहां विराजो।
यह बालक सुकुमाल स्थिर होकर क्यों नहीं बैठपा रहा २इसको आवों में पानी क्यो बहरहा है?
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राजा वृषभांक और सुकुमाल दोनो भोजन करने लगे
हैयह क्या?सुकुमाल एक एक चावल चुन कर क्यों खा रहा है?
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परन्तु क्या? राजन्!
सेठानी जी। आपने मेरा स्वागत किया, भोजनकरायामै आपका आभारी हूँ। आपके पुत्र से मिलकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई
सेठानी जी, ऐसा लगता है कि आपके पुत्र को कुछ रोग है, कृपया इनका इलाज
अवश्य कराइयेगा।
परन्तु
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क्या रोग हैं मेरे पुत्र को ? जरा मैं भी तो सुनूं ।
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मेरी दृष्टि में पहला रोग इसे यह है कि यह स्थिर आसन से
नही बैठ सकता है।
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राजन यह रोग नहीं । मेरा बेटा बहुत सुकुमार है, सदैव अत्यन्त कोमल शय्या पर ही सोता है और वैसी ही गट्टीपर बैठता है। आज मैंने मंगलस्वरूप आपके ऊपर कुछ सरसों डाली
थी जिसके कुछ दाने इसके आसन पर भी गिर गये होंगे। वेही सरसों के दानें मालूम होता है इसके चुभ रहे हैं इसलिए वह स्थिर होकर नहीं बैठ पा रहा है।
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अच्छा यह बात है ! यह तो बताइये कि आरती के समय इसकी आंखो। में आंसू क्यो आये?
राजन। आंखों मे गसू आने का कारण बीमारी नहीं है। यह मेरा पुत्र सदैव रत्नों के प्रकाश में रहता आया है। आज आपकी आरती घृत दीप से की है । घृत दीप का प्रकाश इसकी अखे सहन नहीं कर पाई इसलिए आंखों से
बहने लगा।
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सेठानी जी एक शंका मेरी और है। जब हम भोजन कर रहे थे तो उसने एक एक चावल चुन कर क्यों स्वाया?
रात्रि में चावलों को कमल की कली में रख दिया जाता है। प्रातः जब वह चावल सुगन्धित व कोमल हो जाते हैं तब उन्हें पकाकर सुकुमाल को खिलाया जाता है। आज आपके आने के कारण कुछ साधारण चावल उन चावलों में मिला दिये गये थे, अत: वह कोमल चावलों को ही चुन चुन कर सारहा था ।
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अच्छा
क्या खूब? वाह रे सुकुमाल । कमालं है तेरी कोमलता को । ऐसा सुकुमार मैंने कभी नहीं
देखा।
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राजन! यह तुच्छ भेंट स्वीकार कीजियेगा। आपके पधारने का बहुत बहुत धन्यवाद । फिर भी कभी पधारकर इस
कुटियाको पवित्र करने की कृपा
कीजियेगा।
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हाय विधाता! अब क्या करूँ ?
चातुर्मास ग्रहण करने का दिन-पहुंचगये। सुकमाल के महल के पास बगीचे में बने जिन मन्दिर में, सुकुमाल के मामा यशोभद्र जो मुनि होगये थे और जिन्होंने अपने ज्ञान से जान लिया था कि सुकमाल की आयु बहुत थोड़ी रह गई हैं अतः किसी प्रकार उसको कल्याण मार्ग में लगाना ही चाहिए। सेठानीजी गजब होगया। एक नया साधु जिन मन्दिर में आकर बैठ गये हैं, क्या कर अब उन्हें कैसे निकालूं ?
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और सेठानी पहुंच गई मुनिराज यशोभद्र केपास
महाराज ! मैं किस मुंह से कहूँ। मेरा एक ही पुत्र । भद्रे! हमने यहां है यदि उसने आपके वचन सुन लिये,आपके चातुर्मास योग दर्शन कर लिये तो वह तपस्वी बन जायेगा। धारण कर
मै कहीं की नहीं रहूंगी । मुझे लिया है। अब किलना क्लेश होगा सोच हमयहां से भी नहीं सकती।
अन्यत्र नहीं शायद उस आर्तध्यान
जासकते। में मेरी मृत्युहीन हो जाये। अत: आप कृपा करके यहां से चले जाइये और कहीं जाकर
ठहर जाइये।
चातुर्मास पूर्ण होने का दिन- कार्तिक कृष्ण अमावस्या- चौथे प्रहर का समय मुनिराज यशोभद्र ने जान लियाकि अब तो सुकुमाल निदासे जाग गया है | उसे संबोधते हए वह जोर जोर से पाठ करने लगे ।
अधोलोक, मध्यलोक व उर्वलोक में कहीं भी तोसुख नहीं है। नरकों के दुखों को सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते है। भरव, प्यास,सर्दी,गर्मी की असह्य वेदना यह वहां सहताहै तिर्यञ्च तथा मनुष्यगति के दुख तो सर्व विदित ही हैं और स्वर्गा में भी अपार मानसिक वेदना) देखो-अच्युत स्वर्ग के पागुल्म विमान में पदानाभ देव की विभूति का क्या ? ठिकाना था । इतनी विभूति से भी उसे
तृप्ति नहीं मिली।
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सुकुमाल ने मुनि यशोभद्र के वचन सुने और |: "ज्यों ज्यों भोग संयोग मनोहर मनबांछित जन पावें । उन्हें जाति स्मरण हो गया-विचारने लगे.... तृष्णानामिन त्यो त्यों डके, लहर जहर की आवे_1".
शरीर जिसको मैं मान रखा है, मल मूत्रविष्टा की स्वान
है, नश्वर है इसमें पोषण में सुख कहां? इस संसार में सुख की खोज मैं ही तो था पदानाभदेव । जब वहां के भोगो से भी तत्तिमही हुई तो यहां के भोगतो न कुछ
करना मूर्खता नहीं तो क्या है? चारों गलियों में दुखही दुख है। के बराबर है। उनसे प्तिकहाँ ये भोग
"जो संसार विषैसल होता, तीर्थकर क्यो त्यागे । काहे को शिवसाघन करते. निस्सार हैं, पराधीन है।
संयमसो अनुरागें।" बस अब मैं जागगया हूं चलूं अपना कल्याणकरने
परन्तु
कैसे निकलूं इस महल से? सब द्वार बंद है, द्वार पर पहरा है कहीं से भी निकला नहीं जा सकला। अरे हा! दिवा- यह जो रिवड़की है इससे ही निकला जा सकता है परन्तु कैसे? प्रश्न तो यह है। समझ में आया। क्यों न अपनी पत्नियों की साड़ियों को आपस में बांधकर एक रस्सी पी बना लं और उसको खिड़की से बांधकर नीचे लटका कर उसके सहारे सहारे नीचे उतर जाऊ- - - ... बस काम बन गया । ।
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और सुकुमाल पहुंच गया
मुनि यायोभद्रके चरणों में
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..और हा, तेरी आयु
भी अब केवल तीन दिन की बाकी है।
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व चार किया... ... ... महात्मन में आगया हूँ आपके चरणों मे । भोगों में भुला हुआ था अपने को अब जाग गया हूँ। अपने को पहचान गया है। संसार,शरीर भोग निस्सार दीखने लगे हैं मुझे। कृपया दे दीजिये न मुझे भी मीन | दीक्षा लाकि मैं भी अपना कल्याण
कर सकू
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सुकुमाल ने त्याग कर दिया सब ही प्रकार के परिग्रह का-१० प्रकार काबहिरंग परिग्रह औ १४ प्रकार का अन्तरंग परिग्रह । नग्न दिगम्बर मुनि बन गये और चल पड़े दसरे जंगल को और प्रायोगमन संन्यास धारण
करके निश्चल खडे हो गये
और महलों में
हैं यह क्या हमारे पति कहांचले गये? आओ उन्हे ढूंढें ।
माताजी । माताजी! रात्रि में हमारे पति सुकुमाल न जाने कहांचले गये पता ही नहीं
चलता।
हा!. सुकुमाल...
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चेत होने पर....
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कहां गया मेरा पुत्र, मेरा सुकुमाल... कितना सुकुमार हैरे तूक्या बीत रही... होगी तुझ....
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हो न हो मेरा बेटा मुनि यशोभद्र के पास ही गया होगा ।।
चलो वहां चलकर उसे
ढूंढें
हैं। यह क्या। यह साड़ियों की रस्सी इस खिड़की से..... क्यों बंधी है। समझी। अवश्य ही मेरा लाड़ला इन्ही साड़ियों से बनी रस्सी से नीचे उतरा होगा ।
यहां भी तो नहीं है, मेरा सुकुमार और न हैं यहां मुनिराज यशोभद्र
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खूब खोज की गई सुकुमाल की- पर वह नहीं
और उधर जंगल में घोर तपस्या में मिले... नही मिले.. सब्र करके सब बैठ गये।
लीन खड़े हैं मुनिराज सुकुमाल HAVE
अहाहा!
ध्यानस्थ कितना मीठासून है कितनास्वादिष्ट हैकिसका है यह
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है। यह कौन है। ओह याद आया । किसी पहले जन्म में मैं इसकी भौजाई थी। मै अग्निभूत ब्राह्मण की स्त्री सोमदत्ता थी और यह मेरा देवर वायुभूति था।
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इस मेरे देवर वायूभूति ने क्रोध मे आकर मुझे लात मारी थी। बस मै
तड़फ उठी थी निश्चयकर लिया था कि आज नसही, कभीनकभी इससे बदला
अवश्य लूंगी और इसके इसीपरको तोड तोडकरखाऊगी। आज मौका है क्योंन अपना. बदला चुकालूँ
जिस शरीर को यह स्थालनी खा रही है वह मै हे ही नहीं। मैं इस शरीर से बिल्कुल भिन्न है। मैं चेतन हूँ और यह शरीर अचेतन है। मै तो ज्ञान दर्शन स्वभावी,चैतन्यरूपी, एक आत्मतत्वहूँ। शरीरके नाश होने पर भी मेरा नाश नही। मैं तो अजर अमर: फिर क्यों मैं खेद कर, क्यो अपने स्वरूप से डिगू। शरीरको खाया जा रहा है मुझे तो नहीं शरीर नष्ट होगा में तो नही। बस अपने में ही रमाइसी मे मेरा हित है।
और बढ़ गई ध्यानस्थ मुनि की ओर और खाने लगी उनका दायां पैर और उसकी बच्ची लग गई उनके बायें पैर को खाने
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प्रथम दिन
दूसरे दिन
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इन विचारों तथा अन्य ऐसे ही विचारो के (१२ भावनाओ)आदि के चिन्तन के बल पर इस महान उपसर्ग मे भी वह विचलित नहीं हुए और उस वेदना को वेदनान गिनते हुए अपने आत्म ध्यान में ही लीन रहे। स्यालनी अपना काम कर रही है और मुनिराज अपना ।
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अहा। हा। मैं कहां आ गया।
सर्वार्थसिद्धि में.... यहां बस आनन्द ही आनन्द है किसी प्रकार का दुख नहीं । ३३ सागर की आयु। तेतीस हजार वर्ष पश्चात भूख तभी कण्ठ से अमृत झरना और भूख का तृप्त होना । १६1⁄2 माह में रंच मात्र स्वांस लेना क्या कष्ट है मुझे और यह सब क्यों मिला मुझे । पूर्व जन्म में तप जो किया था। बस यहां से मनुष्य भव और उसी भव से मोक्ष । अहा हा ।
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________________ अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त लोकप्रिय प्रकाशन जैन साहित्य प्रकाशन में एक नए युग का प्रारम्भ आचार्य धर्म श्रुत ग्रन्थ माला से प्रकाशित आधुनिक साहित्य 30/ 2. साधना और सिद्धि 100/3. ज्ञान विज्ञान 20/4. मंत्र महाविज्ञान 5. ज्योतिष विज्ञान 60/6. कर विज्ञान 7. साधु परिचय 50/8. वरांग चरित्र 50/6. बोलती माटी 250/10. आखन देखी आत्मा 60/11. जैन रामायण सचित्र 25/12. भक्तामर सचित्र हिन्दी, अंग्रेजी, गुजराती 500/13. जैन चित्र कथाएं प्रति अंक १५/१४.सुनो सुनाएं सत्य कथाएं प्रति अंक 20/15. आओ बच्चों गाये गीत, सचित्र ५०/प्राप्ति स्थान :-जैन मंदिर गुलाब वाटिका लोनी रोड, दिल्ली फोन 05762-66074