Book Title: Tattvarthadhigama Sutra
Author(s): Umaswati, Umaswami, Vijaydarshansuri, Yashovijay
Publisher: Motiji Kapurchand Tarachand
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We shall work with you immediately. -The TFIC Team. Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 101010101010101010 सकलस्वपरसमयपारावारपारीण-शासन सम्राट्-तपागच्छन भोनभोमणि जनतातापापहारिवाग्विलास - सकलसूरिमण्डलनायक - भट्टारकाचार्य श्रीविजयने मिसृरिसद्गुरुभ्यो नमः | Y oppoddot RJAASRAJEDUBOARAJUL तत्पट्टमौलिमुकुट-न्यायवाचस्पति शास्त्रविशारद श्रीविजय दर्शनसूरिस. दृब्ध - गूढार्थदीपिकाख्यविवृतिसमन्धितेन कृतसकलस हृदयहृचमस्कृतिकृदऽनल्पग्रन्थ-न्यायविशारद - न्यायाचार्य महोपाध्यायश्रीચોવિજ્ઞચમાં પ્રીતપ્રધમાાવિવરણેન સૂષિત स्वोपज्ञभाष्यसंवलितं वाचकावतंसश्रीमद्उमास्वातिवाचकप्रवरविरचितं . ॥ श्रीतार्थाभिगमनं ॥ इदच मरुदेशस्थ शिरोहीसमीपवर्त्ति - जावालग्रामनिवासि निर्मितश्रीकदम्यगिरितीर्थश्री ऋषभदेव मन्दिरादि सद्धर्मप्रवीण-श्रमणोपासक मोतिजीसुपुत्रसकपुरचंद ताराचन्देन मुद्राप्य प्रकाशितम् । प्राप्तिस्थान - शामजीभाई माधवजी ठे. जिनदास धर्मदास पेढी-महुवा (सौराष्ट्र ) श्री वीर सं. २४८१ श्री नेमि. सं. ६ विक्रम सं. २०११ इस्त्री. १९५५ भावनगरे “आनन्द प्रीं, प्रेस" मुद्रणालये गुलाबचन्द देवचन्द इत्यनेन मुद्रितम् ॥ अस्य प्रयस्य पुनर्मुद्रणाद्याः सर्वेऽधिकारः प्रकाशकेन खायचीकृतारसन्ति ॥ [ प्रथमावृत्ति ] [ प्रतय: ६५० ] .. djojolok loloto? 199 पु Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ !! Ի LINKNININKONANYİNİ आभार ન્યાયવાચસ્પતિ સાવિશાર ગ્રાસનપ્રમાન-પાન્ઘકળેતા-પૂન્યપાવ-પ્રાતઃસ્મરળીય—બાવાર્ય મહારાન શ્રી વિનયરશનસૂરીશ્વરી—પિત–બા “શ્રી તવાયૅ સૂત્રવિવરણ ચૂર્ષે પિના ટીજા”નાં સત્ન તેમન યંગમ પ્રસ્તાવના તેઓશ્રીના શિષ્યરત્ને-ન્યાયનિય વિચાર-વિદ્વર્યપૂન્ય પાસથી નાનવિલયની નાળ મહારાને પોતાની રમ્ય શાળ હવી આપી છે તે માટે તેયોશ્રીનો આામાન વ્યક્ત વરવામાં આવે છે. 小 ઞા મહાન્ ગ્રંથના પ્રાશન માટે દ્રવ્ય રૂપધારે વાનવીરशासन रसिक श्राद्धवर्य जे जे सद्गृहस्थोए ज्ञानमक्ति निमित्ते आर्थिक સહાય રી છે તેનો પણ આમાર માનવામાં આવે છે. WOWOWING WWWANN **************************** વાચૌપાયે નુકૂä કળતનનાળામીષ્ટદે વિશ્રામે, શ્રીમન્નેનેયુોમેં સ્વપરવવનામો ધારીળદૂરેઃ । દસ્તામોનેઽર્પિત રાન્નધાન માંરેમમયેન્દ્ર, મુતાતુલ્યું દ્દિ ધો વૃદ્ઘાવાવિત જિન્ન મૂળપમ્ III પાŘ! ક્ષીરપાનરાજારાન્તો મુળર્વાદળો, ને વાવા પ્રતિન્યનિરતાોષો ડવેષિળઃ । હત્યા૰ોગ્ય નીનિમિાંમિમાં સંશોધિષ્ણનો, ધાન્યન્તે દાંત હૈ બહેરાર્વિ ચે તાન્ રાસ્તુનોનિશમ્ *****HJ***** Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સર્વતંત્રસ્વતંત્ર-શાસનસમ્રાસૂરિચક્રચક્રવર્તિ તપગચ્છાધિપતિ જગદગુરુ-ભટ્ટારકાચાર્ય શ્રીમાન વિજયનેમિસૂરીશ્વરજી મહારાજ સાહેબશ્રી , 5 2 ( . . * . . s. 1 , IS * * : , ર૬:. E [ * * અને * બીજા અમારા ડE * * * * * * * ભાજપ * ' , ', i ક પ - Mડા - - --- - miળળળms * 5 છે. - -- - - - 'I . E» જન્મ-સંવત ૧૯૨૯ કાર્તિક સુદ ૧ શનિવાર મધુમતી (મહુવા) દીક્ષા સં ૧૯૪૫ જેઠ સુદ ૭ ભાવનગર ગણિપદ સં ૧૯૬૦ કાતિક વદ ૧૦ પંન્યાસપદ માગશર સુદ ૩ વલા (વલભીપુર) આચાર્યપદ સં. ૧૯૬૪ જેઠ સુદ ૫ ભાવનગર સ્વર્ગવાસ સ ૨૦૦૫ આસો વદ ૦)) દીવાળી, શુક્રવાર મહુવા ©©p Page #6 --------------------------------------------------------------------------  Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शासनसम्राट-तीर्थोद्वारक-परमोपकारि-पालब्रह्मचारिकल्याणनिधि-जगद्गुरु-पूज्यपाद-प्रातस्मरणीय ॥ श्रीविजयनेमिसूरीश्वर-सुर्वष्टकम् ॥ नम सूरीशा-मल ! विजयनेमेऽभयगुरो !, नमस्ते गीर्वाणालयगत ! चिदान-दनिलय ! । नमस्ते श्रीजनश्रुतमननसाम्राज्यपदभृत् ।, नमस्ते भव्याजाश्रितदिनमणे ! मुक्तिशरणे ! ॥१॥ મુરો ! નામથ્રાહં તવ મુખવાં તુમમાં, कदा स्यां धन्योऽहमपरसुरस्तोत्रविमुखः । अभीष्टार्थः सर्वो भवतु मम चित्ते तव परप्रसादास्पद्रुपस्मरणसतताभ्यासलसितात् ॥ २॥ स्वमर्थानां मूलं भवसि वियुधोपास्यचरणो, निसर्गात् त्वयानं फलति सततं धर्मप्रवरम् । गुणस्तुत्या को वा तव विजयने मे ! न लभते, सभायां विज्ञानां विजयमुपमातीतमचलम् ॥ ३॥ गुरो ! नेमे ! नेमे गुरुकविगणेशादिविबुधाः, त्वदीयं विद्वान सदसि ननु मातुं पटुधियः । દવાની તાક્યતિથિ વિધિવશાત્યનિધિતિ, सुरेशाध हें लयमुपगताऽख्यातिभयतः ॥ ४ ॥ न भेदात्यतिस्ते गुरुवर ! सुरेज्यादिषु सती, असत्यात्मख्यातिर्वहिरुपगते वाS विषये । अनेका- कान्ते तव वचनतासिद्धिपथगे, अलौकिया। ख्याते: कंचन न हि चर्चा मितिमा ॥ ५॥ ( 43 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र Sm FA PUR परेषामेकान्ते तक पंचनतो माधिनतरे, परख्यातिः सर्वा भवति विपरीताऽसुमला । जिनोपयाऽऽस्थामूलं मितिनय सुभङ्गीपरिगतं, त्वदीयं व्याख्यानं श्रुतिमुपगतं मुक्तिफलदम् ॥६॥ चस्ते तत्मार्थाऽधिगमनियतं पावरहितम् , श्रुतग्रामोन्नीनं जिनमतसमुशासनपरम् । समभ्यस्त भूरीश्वर! भवभयभ्रापिहरणम् , . बहुग्रन्थारू जनयति भृशं मुक्तिशरणिम् ॥७॥ गुरो! त्वं मे माता भवसि च पिता बन्धुप्रवरी, धनं धर्मों मित्रं सकलमपि यद्यद्धिततरम् । कपायप्रध्वंसाछुचितरपदं प्राप्य भगवन् !, कृतार्थाय काले जिनवरसमो मुक्तिनिरतः ॥८॥ इदं स्तोत्रं भरिप्रवर शुरुनेस्यष्टकमर, पठेत्प्रातः सायं सयमनियमो दर्शनकृतम् । भवभ्रान्त्युच्छेदी भवति नियतं तस्य सुकृतम् , परानन्दालासं जनयति सुजन्मा भवति सा ॥९॥ अपूर्वा मन्त्रोऽयं सुरतरुरिवाऽभीष्टफलदः, ध्रुवं वादिनातं जयति जपनादस्य सुझती। . अवासं स्यात्सर्व न च किमपि दुःप्रायमभितो, गुणग्रामविासो भवति जपिताऽस्याशु नियतम् ॥१०॥ । । ARCHI Hain ॥ इति श्रीविजयदर्शनसूरिविरचितं श्रीष्टकम् ॥ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ प्रस्तावना ॥ जिनवाणीनी भन्यता अने विशाळता अनुपम छे, जगतमा एनी जोड शोधी न मळे. कोई एवी वस्तु नथी के कोई एवी विचारसरणी नथी, जे जिनवाणीए स्पर्शी न होय. श्री सर्वज्ञ देवे एमना संपूर्ण ज्ञानमा विश्वनी समग्र व हस्तामलकवत् निरखीने एना उपर एमनी दि०५ वाणीवडे अनुपम प्रकाश पाथर्यो छे. ए तेजना अंबारमा आंखो अंजाई जाय छे. एनी विशालता निहाळीने हैयु चकित बने छे. ___ मर्यादित बुद्धिना मानवीना हैयामां ए अगाध ज्ञानने उतारवा माटे एने योग्य मर्यादामा संकलित करीने पू. गणधर देवोए द्वादशांगी गूंथी. ए द्वादशांगीनी विशाळता पण कल्पनातीत छे, एवी द्वादशांगीमा रहेला मात्र गणत्रीना सूत्रोमा वाचकवर्य पू. श्री उमास्वातिजी भगवंते अद्भुत ज्ञानवळथी अनेक मूढ तत्वोने समावीने एक कप कार्य कयु. अजब ज्ञानप्रतिभावडे जैन तत्वज्ञाननी सर्व वस्तुओ अतिशय सुंदरताथी, मनोहर गीर्वाण गिरामां, तलस्पशी रीते, तेओश्रीए तत्वार्थाधिगमना सूत्रोमां गोठवी, ढूंका ढूंका सूत्रोमां, गीर्वाणगिरानी सुंदर गूंथणीमा, योग्य क्रमपूर्वक समग्र तत्वज्ञान, तेओश्रीए आ सूत्रमा भयु.. सम्यग्ज्ञानमीमांसा अने सम्यगदर्शनमीमांसा, सम्यचारित्रमीमांसा अने जगत्मीमांसा अपूर्व भाववाही आगमिक शैलीए तेमणे निरूपी छे, नवतस्वनी गूंथणी आकर्षक बनावी छे. एक एक सूत्रमा अनेक भाववाही हकीकतो तेमणे समावी छे. 'अल्पाक्षरैः बहान् सूत्रयातीति सूत्रम्" ए उक्तिने एमणे संपूर्ण न्याय आप्यो छे. महत्वनी अनेक बाबतो थोडा ज शब्दोमां कही देवी ए खूब ज मुश्केल वात छे. एक वस्तु विषयक सर्व बाबतो एकाद सूत्रमा समावी देवा माटे सर्वदेशीय ज्ञाननी आवश्यकता रहे छे. वाणीविलासना आजना युगमा आपणे तो जाणीए ज छीए के एक नानांशी बात कहेपा माटे कलाकोना कलाकों लेवाय छे अथवा पानानां पानाओ भराय छे. विशाळताने टुंकाणमा समाववानुं काम वाचकवर्थ श्री उमास्वातिजीने स्वभावसिद्ध जहतुंएम सिद्ध थाय छे. जैन दर्शननी समग्र वातोएमएवी सरस रीते प्रकाशित करी छे के-आजे लगभग बे हजार वर्ष पछी पण जैन दर्शन संबंधी ट्रंकमा एकी साथे माहिति मेळयवा माटे आपणी नजर तचास्त्र उपर ठरे छे. जैनोनो समय तत्ववाद एमां ठलवायो छे. नयवाद अने निक्षेपवाद, प्रमाणवाद अने अनेकांतवाद अने गहन कर्मवाद : एमां समाया छे. अहिंसा अने सत्यना सोनेरी सूत्रो एमा अलंकृत बन्या छे. आत्मानी अनंत शक्तिनी घोषणा एमां थई छ. आत्मा समक्ष राखg जोईतुं अनुपम, ध्येय एमां Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए ध्येयने अनुकूळ मार्ग पण एमां वताबायो छे. कठोर संयमना मृदु सूरो एमां गुंजी रखा छे.. पद्रव्यनुं स्वरूप एमां विशद रीते सुचवायुं छे. वर्ग अने नारकीर्नु निरूपण एमां सुंदर रीते कर्यु छे. सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्ररूप मोक्षमार्ग उपर एमां ज्वलंत - प्रकाश पथरायो छे. श्री तत्त्वार्थ सूत्रनी महता ए ग्रंथे सोने आकर्ष्या छे. वर्षों पछी अने युगो पछी आजे पण एनी मोहिनी सौने । लागी छे. तत्चार्थनुं ज्ञान मेळयवा अनेक विद्यापिपासुओ तलसी रहे छे. एना ज्ञान विना अभ्यास अधूरो भासे छे. एना आश्रय विना पांडित्य पूरु विकसतुं नथी. अनेक विद्वान् आचार्योए तत्त्वार्थ उपर विस्तृत विवेचना (टीका ) करी छे, ए हकीकत ज ए सूत्रनी अण-. भोलता दर्शावया पूरती छे. श्वेतांबराचार्य रचित होवा छता, जे कृतिने दिगम्बरोए पोतानी मानाने अपनावी छे अने जेनी उपर अनेक विस्तृत टीकाओ रची छे, ते कति सत्य अने निष्पक्षपातथी भारोभार भरी होय एमां नवाई शी ? पांडित्यनुं प्रदर्शन करवा पार्थिव हेतुने सिद्ध करवा के कोईने शिवबा आ ग्रन्थनी रचना नथी थई. मोक्षप्राप्तिना एक मात्र आदर्श ध्येयने पहोंची वळवा अने सौने एनी प्राप्ति हो, ए शुभामिलापाथी प्रेराहने पू. श्री उमारवातिजीएं' "तवार्थाधिगम सूत्र"नी रचना करी छे. एटले तो प्रथम सूत्रमा ज तदन थोडा शब्दोमांज एमणे मोक्षमार्ग दर्शात्री दीधो. सूत्र रचान पू. श्री उमास्वातिजी अटक्या नथी. वरचित सूत्रो उपर सुंदर छणावर तेओश्रीए पोताना ज हाथे "तत्वार्थभाष्य" ग्रन्थ द्वारा करी छे. प्रत्येक सूत्रमा ज्ञाननो ज भंडार भयों छे. तेनी कंईक झाखी तेओश्री "तत्वार्थमाय" द्वारा आपणने करावे छे. तत्वार्थभाष्य. चोप नथी, ए जातनी दिगंबर मान्यता पाया विनानी छे.. सूत्र अने भाप्य उपर अनेक टीकाओ लखाई छे. इतिहासनी अधूराश छे के तत्वार्थमन्त्र उपर फेटली टीकाओ छे ? क्यारे क्यारे ते लखाई छे ? प्रत्येकना का कोण कोण छ । विगेरे धावतो विपे चोकस निर्णय लेवानुं मुश्केल बने छे. प्रवर्तती केली मान्यताओ सत्य होय तो पण आजना शंकाशील युगमा ते ते मान्यताओ उपर शंकाओ उठावपातुं सहेलु बन्युं छे. विद्वानोमा मतभेद प्रवत छे. ए मतभेदनों जेटलो पहेलो अंत आवे एंटलु सा. .. . श्री तरवार्थ सूत्र उपरनी टीकाओ श्री सिद्धसेन नि पूज्य श्री हरिभद्रभूरिजी, पू. श्री यशोभद्रसुरिजी, पू. श्री मलयगिरिजी, तया पू. उपाध्यायजी श्री यशोविजयजीए तत्वार्थवत्र उपर चिओ लखेली छे. पू. श्री हरिभद्रसूरिजीनी वृत्ति मात्र साडापांच अध्याय ३५५ रचाई छ. शेष भाग पू. श्री यशोभद्रसविरजीए तथा तेमना शिष्ये पूर्ण करल छे. पू. आचार्यश्री मलयगिरिजीनी टीका हाल उपलब्ध नथी श्री चिरंतन मुनिए पण तरवार्थ उपर केल्लुक टिप्पण.लखेलं छे. पू. उपाध्यायजी Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री यशोविजयजी "तपार्थविवरण" नामनी वृत्ति लखी छे, तेनुं प्रमाण केटलुं छेते आपणी जाण बहार छे. ए ग्रन्थ विषे अन्य कोई ग्रंथमा उल्लेख (साक्षिपाठ) मळतो नथी. एटले ए ग्रन्थ संपूर्ण लखायेल छ के नहि ते विषे कई कही शकातुं नथी, ग्रन्थनो प्रस्तुत भाग उपलब्ध थया पहेला ए ग्रन्थ लेखाएल छे, एटली हकीकतनी पण माहिति नहोती. अत्यारे तो आपणी पासे तपार्थसूचना प्रथम अध्याय उपरनी एमनी टीका छे अने ते पण त्रुटक छ तत्त्वार्थविवरणना शरूआतना पांच श्लोको आपणा पासे नथी. परिणामे पू. श्री शास्त्रवाचस्पति-न्यायविशारदविरुदालंकृत पूज्यपाद आचार्य महाराजश्री विजयउदयसूरीश्वरजी महाराज साहेबे एमनी शास्त्रानुसारी प्रखर विद्वत्ताथी आरंभनो अधुरो भाग रचीने ते त्रुटी दूर करी छे. श्वेतांवर वृत्तिओ सामान्यतः सूत्र अने भाष्य बनेने अनुसरीने रचाई छे. अनेक दिगम्बर विद्वान् आचार्यो! पण तत्वार्थाधिगम सूत्र उपर विवेचनो कर्या छे. श्रीपूज्यपादे " सर्वार्थसिद्धि" श्री भट्ट अकलंके "राजवार्तिक" श्री विद्यानंदिए " श्लोकवार्तिक " अने श्री अमृतचंद्राचार्ये "तत्वार्थसार" नामनी टीकाओ लखी छे. श्री श्रुतसागर, श्री विबुधसेन, श्री.योगीद्रदेव, श्रीयोगदेव, श्री लक्ष्मीदेव अने श्री अभयनंदनसरिए तत्त्वार्थसूत्र उपर व्याख्याओ लखी छे. आ सूत्रनी केटलीक टीकाओ कनडी-कर्णाटकी भाषामां पण लखाई छे, ... श्री तत्वार्थ सूत्रना कर्ता श्री उमास्वाति पाचक . . . अथाग परिश्रम लईने ज्ञाननी अनन्य उपासना करीने जेमणे जैन शासनने अनेक ग्रन्थीनो वारसो आप्योअने श्री सिद्धहमव्याकरणमा "उपोमास्वातिसंग्रहीतार" ए पाक्यथी सर्वश्रेष्ठ संग्रहकार तरीके ओळखावीने जेमनी कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचंद्राचार्ये प्रशंसा करी एवा पू.श्री उमास्वातिजीने कोई पणप्रकारनी कीर्तिनी मोह न हतो. स्वजातिने विपे एमणे कशुंज नथी जणाव्यु. परिणामे आपणा एक महान उपकारीना जीवन विषे आपणे लगभ। अज्ञात छीए. तेओश्रीनो जन्म क्यारे थयो ? तेओश्री क्यारे दीक्षित थया? क्यारे तेओश्री काळधर्म पान्या? कथा कथा अगत्यना कार्यो तेओश्रीए जीवनमा काँ? तेओश्रीतुं वर्तुल कयुं हतुं १ तेओश्रीनी विहारभूमि केटली विस्तृत हती विगेरे बावतोथी आपणे अनभिज्ञ छीए. जे कई हकीकतो मळे छे ते चोकस निर्णय उपर आवा माटे पूरती न होईने अनेक अनुमानोने स्थान मळे छे. इच्छीए के वधु संशोधन थाय अने तेओश्रीना जीवन विषे चोकस निर्णय उपर आधी शकीए. तत्त्वार्थ भाव्यना अंते तेओश्रीए लखेली की प्रशारित एमना विषेना आपणा ज्ञाननो आधार छे, एम कहीए तो चाले. तेमना दीक्षागुरु, दक्षिाप्रगुरु, विधायुरू, विद्याप्रगुरु, माता पिताना नाम, गोत्र, जन्मस्थान, ग्रन्थरचना, स्थान अने पदवी.ए बाबतो संबंधी प्रशस्ति आपणने थोडंक कही जाय छे. प्रशस्तिमा जणावाथु छे के :__ "अगीआर अंगना धारक 'घोपनन्दि' नेमना दीक्षागुरु हता, वाचकमुख्य 'शिवश्री' जेसना प्रगुरु हता, वाचकाचार्य 'भूल' जेमना वाचनागुरु हता, अने महावाचक क्षमण Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भुण्डपाद' जमना वाचनाप्रमुरु हता; 'न्यग्रोधिका जेमनी जन्मभूमि हती, कौभापणि गोत्रीय 'स्वाति' नामना जेमना पिता हता, पारसीगोत्री 'उमा'नामना जेमनी माता हता, अने उच्च नागर जमनी शाखा हती, ते श्री उमास्वातिवाचक सम्यग्गुरुपरंपराथी प्रास थयेल जिनपाणीने सारी रीते अवधारीने आ स्पष्टतावालं " तत्वार्थाधिगम " नामर्नु शास्त्र ऐहिक सुखोपदेशना तुच्छ शास्त्रोवडे हणायेल बुद्धिवाळा अने दुःखित लोकने जोईने प्राणीओनी अनुकंपाथी प्रेराईने, विहार करता करतां 'कुसुमपुर-पाटलीपुत्र' नामना नगरमां पधारी रथु. जे आ तत्वार्थाधिगम शास्त्रने जाणीने ते मुजब आचरण करशे, ते अन्यायाध परमार्थ सुखरूप मोक्षने अल्प समयमा प्राप्त करशे." ओश्रीना जन्मसमय अंगनी मान्यताओमा विवाद होवाथी ते अंगे निश्चित रीते कहवानुं आजे शक्य नथी. न्यग्रोधपुर नगरमां तेओ जन्न्या. जगनुं नाम तो जाण बहार छे, परंतु माता उमा अने पिता स्वातिनी स्मृति अविचळ जळवाई रहे ते माटे मातापितानी विज्ञप्तिथी दीक्षित अवस्थामा तेओश्रीतुं नाम 'उमा(वाति' पाडवामां आवेलु, ए हकीकत विदित छे. दिगम्बरो उमास्वाति तथा उमारवामि, ए पन्ने नामथी तेमने ओळखे छे. कई वयं तेमणे जेना दीक्षा अंगीकार करी तेनो उल्लेख मळतो नथी. उच्च नागर शाखामा तेओ दीक्षित थया. वाचकपदवीना तेओ धारक बन्या. विहार करता करतां कुसुमपुरमा वर्तमान पाटलीपुत्रमा तत्वार्थाधिगम सूत्रनी रचना तेओश्रीए पूर्ण करी. आ उल्लेख भाष्यमा होवाथी तत्वार्थभाष्य पण कुसुमपुर नगरमा रच्युं होय तेम संभवे छे. आ हकीकत, एमनी विहारभूमि उत्तर दिन्दुसानमा हती एम दशावे छे. तेओश्री श्वेतांवर मतानुयायी हता, परंतु दिगम्बरो तमने दिगम्बर मतानुयायी तरीके माने छे. दिगनर मान्यता आधार रहित जणाय छे. . "पाचकाःपूर्वविदः" एम.पन्नवणास्त्रनी टीकामा जणावायुं छे. ए वचनने आधारे तेओश्री. पाचक होवाथी पूर्वधर हता, एम मानकाने कारण मळे छे. तेमणे रचेल ग्रन्थोमा रहेली विद्वत्ता तेओश्री विशिष्ट ज्ञानी होवानी मान्यताने पुष्टि आपे छे. पांचसो ग्रन्थोना रचयिता तरीके तेओश्री प्रसिद्ध छे, परंतु एमांथी आंगळीना वेढे गणी शकाय ५८ला ग्रन्थो आपणी पासे रखा छे.. ____ एमना दीक्षागुरु अगियार अंगना धारक 'धोपनंदि' हता, अने एमना दीक्षाप्रशुरु 'शिवश्री' वाचकमुख्य हता. बनवाजोग छे के एमना दीक्षागुरु घोपनन्दि पूर्वघर नहि होय एटले पाचक तरीके तेमनी ओळखाण नथी अपाई. एटले ज काच- पूर्वनुं ज्ञान तेओश्रीए 'मूळ' नामना वाचकाचार्य पासथी लीधुं होय, अने विधागुरु तरीके तेमनी स्थापना करी होय. घोपनन्दि पूर्वधर नहि होवा छता वाचक हता एवी समजने लईने पंडित सुखलालजी तत्वार्थसूत्रनी एमनी गुजराती व्याख्याना परिचयमा 'वाचक शब्द वंशसूचक छ एम जणावे छे, एमा भूल थती होय ए वनवाजोग छः . तत्वार्थटीकाप्रशितिमा "घोष नन्दिक्षमाश्रमणस्यकादशाविदः" ए पंकि, Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वारा पू. भाष्यकार श्री घोषनन्दि क्षमाश्रमणने अगियार. अंगना ज्ञाता तरीके ओळखावे छे. तेओश्री जो वाचक होत तो तेमना विद्यागुरुनी जेम तेमनी पण वाचक तरीके ओळखाण आपत, आथी तेओ वाचक न हता तेम मानधुं व्याजवी जणाय छे. तत्वार्थ विवरणनो संक्षिप्त विषय तरवार्थाधिगम सूत्र अने भाष्य उपर, उपर जणाव्युं तेम, पू. उपाध्यायजी श्रीयशोविजयजीए " तत्वार्थविवरण" नामनी टीका लखी छे, तेमां शब्दशः भाष्यने अनुसने विवरण करवामां आव्यु छे. सूत्रनी मात्र एक अध्याय पूरती टीका आजे उपलब्ध छ, एमां तत्त्वनी अनेक हकीकतो पूज्यश्री उपाध्यायजीए दर्शावी छे. सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान अने सभ्यचारित्रनुं अव्याप्त्यादिदोषरहित अनुगत लक्षण, तेनुं प्रतिपद विवेचन, अने सम्यग्दर्शन, सम्याज्ञान, ते बन्नेना भेदोना अनुगत लक्षणो तथा तेनुं विवेचन, जीव, अजीवादि सात तत्पनुं सयुक्तिक विवरण, निक्षेप, निक्षेपर्नु अनुगत लक्षण, प्रत्येक निक्षेपमा यो नय फेटला निक्षेपभेद स्वीकारे छे, निक्षेप मानवानुं प्रयोजन, प्रतिनिक्षेपर्नु अनुगत लक्षण, नयनु विवेचन, प्रमाण साथेनो नयनो भेद, नय सामान्यतुं अनुगत लक्षण, तथा तेनुं स्पष्टीकरण, नयना भेद-प्रभेदो, प्रत्येक भेद-प्रभेदनुं विवेचन सह अनुगत लक्षण, नथनी व्यवहारिक प्रमाणभूतता, तथा नैश्चपिक अप्रमाणभूतता, ज्ञानात्मकनय विषेनी मान्यता, निर्देश आदि छ व्याख्याद्वार तथा सत् संख्या आदि आठ व्याख्याद्वार, गति आदि तेर द्वार पांच ज्ञान तथा तेना प्रतिभेदो विगेरे अनेक बाबतो उपर पू. श्री उपाध्यायजीए झळहळतो प्रकाश पायर्यों छे. सत्तरमी सदीना महान् ज्योतिर्धर उपा. श्री यशोविजयजी तत्त्वार्थविवरण- प्रत्येक वाक्य सयुक्तिक छे. तेमांनी चर्चा तर्कानुगामी छे. सूत्रमा रहेल भावनो तेमां सुंदर फोट थयो छे. न्यायविशारदता अने बहुश्रुतता एमां पाने पाने तरचरे छे. ते कृति जो पूर्ण मळती होत तो सत्तरमा अने अढारमा सकामां थयेल भारतीय दर्शनशास्त्रनो नमूनो पूरो पाडत, एम अत्यारे उपलब्ध एक नाना खंड उपरथी कहेवार्नु मन थई जाय छे. मात्र एक अध्याय पूरती टीका पण पू. उपाध्यायजीनी अगाध विद्वत्ता अने न्यायविशारदतानो परिचय आपी जाय छे. एमनी ए विद्वत्ताने लईने सो वर्ष बाद आजे पण तेओश्री अनेक जैन हैयामां जीवंत छे. श्री जिनेश्वर देव उपरनी पू. उपाध्यायजीनी अविहड भक्ति, श्री जिनाज्ञानुं एमर्नु अनुपम पालन, श्री जिनवाणीनु एमनु" पारगामीपणुं, एमनी न्यायविशारदता, एमनी तर्कानुगामी बुद्धि, तत्वज्ञाननुं एमर्नु ऊडाण, विरुद्ध जणाता भावोनो समन्वय करवानी एमनी प्रखर शक्ति, भिन्न भिन्न मिथ्या नयोने लडावीने पाछा सम्यक रूपे शांत करवानी एमती कुशळता, एमनी अजब स्मरणशक्ति, नास्तिकवाद ना कुरुक्षेत्रमा एमनी अजेयता, एमनी शेरडी. ना रस करतो पण अधिक मिष्ट भाषा अने मधुर काव्यशक्ति, तथा एमनी सुंदर लेखनशक्ति Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भुण्डपाद' जेमना वाचनाप्रगुरु हता; 'न्यग्रोधिका जेमनी जन्मभूमि हती, कौमपिणि गोत्रीय 'स्वाति' नामना मना पिता हता, पारसीगोत्री 'उमा'नामना जेमनी माता हता, अने उच्च नागर जमनी शाखा हती, ते श्री उमास्वातिवाचक सम्यगगुरुपरंपराथी प्राप्त थल जिनचाणीने सारी रीते अवधारीने आ स्पष्टतावा " तत्वार्थाधिराम" नाममुं शखि ऐहिक सुखोपदेशना तुच्छ शास्त्रोपडे हणायल बुद्धिवाला अने दुःखित लोकने जोईने प्राणीयोनी अनुकंपाथी प्रेराईने, विहार करता करता 'कुसुमपुर-पाटलीपुत्र' नामनानगरमां पधारी रच्यु, जे आ तवार्थाधिगम शास्त्रने जाणीने ते मुजन आचरण करशे, ते अन्यायाध परमार्थ सुखरूप मोक्षने अल्प समयमा प्राप्त करशे." ओश्रीना जन्मसमय अंगेनी मान्यताओमा विवाद होवाथी ते अंगे निश्चित रीते कहानुं आजे शक्य नथी. न्यग्रोधपुर नगरमा तेओ जन्म्या. जगनुं नाम तो जाण पहार छे, परंतु माता उमा अने पिता नातिनी ति अविच जनाई रहे ते मारे मातापितानी विज्ञतिथी दीक्षित अवस्थामा तेओश्रीतुं नाम 'उभावाति' पाडवामा आलु, ए हकीकत विदित छे. दिगम्बरो उमारवाति तथा उमानामि, ए पन्ने नामथी तेमने ओळखे छे. कई ५५ तेमणे जेन दीक्षा अंगीकार करी तेनो उल्लेख मळतो नथी. उच्च नागर शाखामा तेओ दीक्षित थया. वाचकपदवीना तेओ धारक बन्या. विहार करता करता कुसुमपुरमा वर्तमान पाटलीपुत्रमा तत्वार्थाधिगम सूत्रनी रचना तेओश्रीए पूर्ण करी. आ उल्लेख भाष्यमा होवाथी तवार्थमाय पण कुसुमपुर नगरमा च्युं होय तेम संभवे छे. आ हकीकत एमनी विहार भूमि उत्तर दिन्दुस्तानमा हती एम दावे छे. तेओश्री श्वेतांबर मतानुयायी हता, परंतु दिगम्बरो तमने दिगम्बर मतानुयायी तरीके माने छे. दिगम्बर मान्यता आधार रहित जणाय छे. ' "वाचकाःपूर्वविद"एम पन्नवणास्त्रानी टीकामांजणवायुं छे. ए वचनने आधारे तेओश्री पाचक होवाथी पूर्वधर हता, एम मानकाने कारण म छे. तेमणे रचेल ग्रन्थोमा रहेली विद्वत्ता तेओश्री विशिष्ट ज्ञानी होवानी मान्यताने पुष्टि आपे छे. पांचसो ग्रन्थोना रचयिता तरीके तेओश्री प्रसिद्ध छे, परंतु एमाथी आंगळीना वेढे गणी शकाय एटला ग्रन्थो आपणी पासे रखा छे.. मना दीक्षागुरु अगियार अंगना धारक 'घोषनंदि' हता, अने एमना दीक्षाप्रगुरु 'शिवश्री' वाचमुख्य हता. वनवाजोग छे के एमना दीक्षागुरु घोपनन्दि पूर्वधर नहि होय ५८ले पाचक तरीके तमनी ओखाण नथी अपाई. एटले ज कदाच पूर्वद् ज्ञान तेओश्रीए 'भूळ' नामना वाचकाचार्य पासेथी लीधुं होय, अने विधागुरु तरीके तेमनी स्थापना करी होय. घोषनन्दि पूर्वधर नहि होवा छतां पाचक हता एवी समजने लईने पंडित सुखलालजी तत्वार्थसूत्रनी एनी गुजराती व्याख्याना परिचयमा 'वाचक' शब्द वंशसूचक छे एम. जणावे छे, एमां भूल थती होय ए वनवाजोग छे. . . . . . . . . .. तवाटीकाप्रशारिसमा. " घोषनन्दिक्षमाश्रमणकादशाङ्गाविदः" ए पंकि Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'द्वारा पू. भाष्यकार श्री घोषसन्दि क्षमाश्रमणने अगियारः अंगना ज्ञाता तरीके ओळखावे छे. तेओश्री जो पाचक होत तो तेमना विधागुरुनी जेम तेमनी पण पाचक तरीके ओळखाण आपत, आथी तेओ वाचक न हता तेम मानj ०याजवी जणाय छे. - तत्वार्थ विवरणनो संक्षिप्त विषय ' तत्त्वार्थाधिगम सूत्र अने भाष्य उपर, उपर जणाव्यु तम, पू. उपाध्यायजी श्रीयशोविजयजीए " तस्वार्थविवरण" नामनी टीका लखी छे, तेमां शब्दशः भाष्यने अनुसरनि विवरण करवामां आव्यु छे. सूत्रनी मात्र एक अध्याय पूरती टीका आजे उपलब्ध छे. एमां तत्वनी अनेक हकीकतो पूज्यश्री उपाध्यायजीए दर्शावी छे. सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान अने सम्पचारित्रनुं अव्याप्त्यादिदोपरहित अनुगत लक्षण, तेनुं प्रतिपद विवेचन, अने सम्यग्दर्शन, सम्य ज्ञान, ते बन्नेना भेदोना अनुगत लक्षणो तथा तेनु विवेचन, जीव, अजीवादि सात तत्वतुं सयुक्तिक विवरण, निक्षेप, निक्षेपर्नु अनुगत लक्षण, प्रत्येक निक्षेपमा क्यो नय केटला निक्षेपभेद स्वीकारे छे, निक्षेप मानवानुं प्रयोजन, प्रतिनिक्षेपर्नु अनुगंत लक्षण, नयनु विवेचन, प्रमाण साथेनो नयनो भेद, नय सामान्यनुं अनुगत लक्षण, तथा तेनुं स्पष्टीकरण, नयना भेद-प्रभेदो, प्रत्येक भेद-प्रभेदतुं विवेचन सह अनुगत लक्षण, नयनी व्यवहारिक प्रमाणभूतता, तथा नैश्चपिक अप्रमाणभूतता, ज्ञानात्मकनय विपेनी मान्यता, निर्देश आदि छ व्याख्याद्वार तथा सत् संख्या आदि आठ व्याख्याद्वार, गति आदि तेर द्वार पांच ज्ञान तथा तेना प्रतिभेदो विगेरे अनेक बाबतो उपर पू. श्री उपाध्यायजीए झळहळतो प्रकाश पायर्यो छे. ' सत्तरमी सदीना महान् ज्योतिर्धर उपा. श्री यशोविजयजी तत्त्वार्थवियर गर्नु प्रत्येक वाक्य सयुक्तिक छे. तेमांनी चर्चा तर्कानुगामी छे. सूत्रमा रहेलं भावनो तेमां सुंदर स्फोट थयो छे. न्यायविशारदता अने बहुश्रुतता एमां पाने पाने तरवरे छे. ते कृति जो पूर्ण मळती होत तो सत्तरमा अने अढारमा सैकामां थयेल भारतीय दर्शनशास्त्रनो नमूनो पूरो पाडत, एम अत्यारे उपलब्ध एक नाना खंड उपरथी कहेवानुं मन थई जाय छे. मात्र एक अध्याय पूरती टीका पण पू. उपाध्यायजीनी अगाध विद्वत्ता अने न्यायविशारदतानो परिचय आपी जाय छे. एमनी 'ए विद्वत्ताने लईने घणसो वर्ष बाद आजे पण तेओश्री अनेक जैन हैयामां जीवंत छ. . . . श्री जिनेश्वर देव उपरनी पू. उपाध्यायजीनी अविहड भक्ति, श्री जिनाज्ञानुं एमर्नु अनुपम पालन, श्री जिनवाणीनु एमनु' पारगामीपणुं, एमनी न्यायविशारदता, एमनी तर्कानुगामी बुद्धि, तत्वज्ञान- एभर्नु ऊडाण, विरुद्ध जणाता भावोनो समन्वय करवानी एमनी प्रखर शक्ति, भिन्न भिन्न मिथ्या नयोने लडावीने पाछा सम्यक्रूपे शांत करवानी एमनी कुशळता, एमनी अजब स्मरणशक्ति, नास्तिकवाद ना कुरुक्षेत्रमा एमनी अजेयता, एमनी शेरडीना रस करतां पण अधिक मिष्ट भाषा अने मधुर काव्यशक्ति, तथा एमनी सुंदर लेखनशक्ति Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अने अजोड वक्तृत्वकळा आले पण जैन हैयाने नवावी रह्या छे. (मना नाम मात्रथी जैन हैर्यु ढकी पडे छे, ए तत्वज्ञानी महापुरुषनी अजब कलमयी लखायेल अनेक न्यायग्रन्थना अबलो. कनथी जेनेत प्राज्ञशिरोमणि विद्वानो पण अति चकित थई शिर झुकावे छे. पाटणनी नजीक कनोड गामे पिता 'नारायण' अने माता 'सोभागदेना आंगणे तेओ अवतर्या. स्वाति नक्षत्रमा मेषवृष्टि द्वारा छीपमाथी मोती प्रगटे तेम मातानी कूक्षिथी एका मोती प्रगटयुं. वाल्यवयथी ज एमनी अद्भुत स्मरणशक्तिनो सौने परिचय थयो. एकाद । पार सांभळेल के वांचेल सूत्रो एमने कंठाग्र थई जतां. अतिबाल्यवयमा ज पू. श्री नविजयजीनी साथे समागम थयो, अने संवत १६८८ मां बुद्धिमा अग्रशिरोमणि अनुपम वैरायमूर्ति तेओश्री अति लघु सुकोमल वये कठोर संयमना मार्गे संचर्या अने जिनेश्वरदेवना चरणमां एमर्नु सर्वस्व सौंपी दीधुं. संथमनी साधनामां अने विद्यानी आराधनामां, वीतरागनी भक्तिमां अने शासननी सेवामा एमणे न जोयो दिवस के न जोई रात. अजोड उत्साह अने तीव्र खतथी त्यागना विकट पण सुखद मा जीवनभर प्रयाण जारी राख्यु, परिपही अने उपसर्गाने सहन कर्या, विरोधीओ सामे अणनम झझूमीने एमने हंफाया. एक वीतराग देवनो आश्रय स्वीकारीने अनेक असत्य मतोने एमणे मूळथी उखेडी नांख्या. एमनी अजय तार्किक शतिथी वादीओ अभया. एमना बहुश्रुतपणामां सौ अंजाई गया. .:. उपाध्याय जीने महत्ता खूब परी, पण अभिमान तो लेश नहि. प्रभुनी आगळ पालकनी जेम लाड करवा मंडी जाय अने प्रभुप्रेममां जातने पण भूली जाय. वीतराग प्रभुधर्ममां अस्थिमज्जा प्रेमानुरागी ए महापुरुपनी अनुपम देवभक्ति लोहचुंबक शक्ति-लोहाकर्षकनी जेम मुक्ति आकर्षक हती. राजनगरमा संवत १६९९ ना चातुर्मासमां तेओश्रीए अष्टावधान कर्या अने श्रेष्ठी धनजी सुरानी विज्ञप्तिथी न्यायाभ्यास माटे काशी जवानुं नकी थयुं, न्यायाचार्य श्री भट्टाचार्य पासे अभ्यास शरू को. तार्किक कुलमां सूर्य समान, पड्दर्शनना अखंड रहस्यने जाणनार श्री भट्टाचार्यना सातसो शिष्योना तारागणमां चंद्रनी जेम तेओ दीपता. अल्प समयमा तेमणे अनेक शास्त्रोनुं अवगाहन करी लीधुं. न्यायशास्त्रनो तो कोई ग्रन्थ एवो नहि होय के जे एमना हाथ नीचे पसार न थयो होय. पड्दर्शननो पण सुंदर अभ्यास कर्यो, खूब ज कठिन गणातो गंगेश उपाध्यायकृत " तत्वचिंतामणी" ग्रंथ कंठान करी लीधो. पा, श्री यशोविजयजीनीअद्वितीय विद्वत्ता " अजेयवादी" तरीके ओळखाता दिग्गजपंडित साथे ज्यारे काशीनों कोई पंडित चर्चा करवा तैयार नहोतो त्यारे पू. श्री उपाध्याय जी एनी सांमे बुद्धिना रणांगणे चढया. दिग्गजने घडीमां परास्त कर्यो. एमना ए विजयने परिणामे काशीना सर्व विद्ववाए "न्यायविशारद"नुं महामोल लेखातुं विरुद तेमने अप्यु. ए वातनुं " पूर्व न्यायविशा Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ बिरुदं कारयां प्रदतं बुधैः " आ पोताना कथनथी ज समर्थन थाय छे. एमनी न्यायविशारदता एमने जंपीने बेसवा दे एम नहोती. ए विशारदताए एकसो नवीन ग्रन्थनी रचना करवा एमने प्रेर्या. सो ग्रंथो रचीने तेओए "न्यायाचार्य" नुं विरुद मेळ, आवातनुं समर्थन " न्यायाचार्यपदं ततः कृतशतग्रन्थस्य यस्थार्पितम् " आ वाक्यथी तेओश्रीए ज करेल छे, एमनी अद्वितीय विद्वत्ताए एमने पदशास्त्रषेचा तरीके प्रसिद्धि आपी. जैनदर्शन अने जैन न्यायमां तेओ पारंगत थया एमां तो पूछधुं ज शुं ? सम्मतितर्क अने स्याद्वादरत्नाकरनुं तो तेओ पान करी गया होय एम लागे ! काशीमांत्रण वर्ष एकचित्ते निरंतर पूर्ण परिश्रमपूर्वक अभ्यास कर्यो तो पण जाणे के अभ्यास अधूरो रह्यो होय एम जाणी आग्रामां फरी अभ्यास करवा मंड्या, अने चार वर्ष त्यां अभ्यासमां विताव्यां, षड्दर्शननो अभ्यास पूर्ण कर्यो. राजनगर आवीने अढार अवधान कर्या. औरंगझेबना सूवा महोब्बतखान एमनी अनधानशक्तिना दर्शन करवा आव्या. एमनी स्मरणशक्ति सौने मुग्ध कर्या, राजनगरथी काशी जतां पहेलां अष्टावधान कर्या हता, पाछा आवीने अढार अवधान करीने अभ्यासवेळा पण अवधानशक्ति ने खीलनवानुं चालु राखेलुं तेम सिद्ध कर्यु. गच्छनायक श्री विजयप्रभसूरिजीए उपाध्यायना ( वाचकना ) विरुदथी विभूषित कर्या अने योग्यनुं योग्य सन्मान कर्यु. उपाध्यायजीए करेल सरस्वती - आराधना ज्ञाननी आराधना ग्रन्थो वांची विचारीने मात्र करी एम नहि, परंतु सरस्वती देवीनी आराधना " ऍकारजापंवरमाध्यं कवित्वविश्व - वाञ्छासुरद्रुमुपगङ्गमं भङ्गरङ्गम् " आ पूर्वार्द्ध पंचसिद्ध 'ऐं'काररूपवीजपूर्वक सरस्वती मंत्रना जापथी पण करी. परिणामे वाग्देवी प्रसन्नता एमने वरी. पू. उपाध्यायजीनुं पांडित्य सर्वतोमुखी हतुं विद्वद्भोग्य साहित्य रचवानी साथै ज बाळकोने पण सरळताथी ज्ञान मळे एवं साहित्य एमणे रच्युं गीर्वाणगिरामां ग्रन्थो रच्या अने गुजराती भाषामा पण रच्या, अर्धमागधी भाषामां पण एमणे साहित्य रच्युं न्यायग्रन्थो अनेक लख्या तो आध्यात्मिक ग्रन्थो ओछां नथी लख्या व्याकरण, साहित्य, अलंकार, छंद, काव्य, सिद्धा., आगम, नय, प्रमाण, सप्तभंगी, अध्यात्म, योग, स्याद्वाद, आचारधर्म, कर्मवाद विगेरे अनेक बाबतो विषे एमणे वणुं धणुं लख्युं छे. तच्चज्ञाननो तो तेओश्रीए वरसाद वरसाव्यो छे. तेमनुं साहित्य जेटलुं विशाळ छे एटलुं ज आकर्षक छे. पू. श्री उपाध्यायजीनुं विहारक्षेत्र पण विस्तृत हतुं सौराष्ट्र, गुजरात, मारवाड, माळवा, आग्रा, बनारस, विगेरे स्थळोए तेओ विहर्या हता, छेत्रटनुं 2. Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भां सुरतमां करीने त्यांथी विहार करी संवत १७४३ मां डभोई गाममां पधार्या, अने डभोई माममा ज तेओश्रीए आ अस्थिर देहनी समाधिपूर्वक त्याग कय?. . पू. श्री उपाध्यायजीनुं आयुं जीवनचरित्र तो लभ्य नथी, परंतु तमना समकालीन मुनिश्री कांतिविजयजीरचित 'सुजसवेली' माथी उपलब्ध थाय छे, ते पदल पू. श्री कांतिविजयजीनो आपणे उपकार मानीए. . पू. उपाध्यायजी रचित साहित्य पू. गुरुदेव न्यायवाचस्पति, शास्त्रविशारद आचार्यदेव श्रीमद् विजयदर्शनसूरीश्वरजी महाराज साहेबने अत्यंत आकर्षे छे, एमनुं जे महादुर्गम साहित्य आजे मळे छे तेनो तेओश्रीए रसपूर्वक खूब परिश्रमथी अंडो अभ्यास कर्यो छ, ए अभ्यासमा एमणे जोयुं के स्वरचित ग्रन्थोनी साक्षी एमना अन्य ग्रन्थोमां केटलीक बार आवे छे. "तत्वमनत्यं मत्कृतमंगलवादादवसे यम् । " "अधिक प्रमारहस्य" "अधिकं मत्कृतन्यायालोकस्याद्वादरहस्ययोरबसेयम्" इत्यादि शास्त्रवार्तासमुच्चयनी पंक्तिओ दर्शावे छे के उपाध्यायजी भगवते मंलपगाद, प्रमारहस्य, तथा स्याद्वादरहस्य नामना ग्रन्यो बनावेला छे. कमनसीबे हाल ते मळतां नथी, एने माटे शोध करत्री आवश्यक छ, अनेकांतव्यवस्था ग्रंथ हमणां ज मळी आव्यो छे. निशाभ, कूपटांत, ज्ञानार्णव तथा तत्त्वविवरण, तिङन्ययोति अधूरां मळी आव्या छ. सिद्धांतमंजरीटीका, विषमता, वाद, आर्षभीय चरित्र, विचारविन्दुबो तथा मुसूति" उपलव्ध पार्नु . सांभळ्यु छे. . तत्यार्थविवरणग्रन्थनी साक्षी अन्य ग्रन्थोमां न जणापाथी पू. श्री उपाध्यायजाए तत्वार्थ- .. भूत्र उपर टीका रची नहि होय एम मानवामां आवतुं हतुं; परंतु राजनगर डेलाना उपाश्रयमांना ज्ञानभंडारना पुरतकोतुं पत्रक बनावतां तत्वार्थवत्राना प्रथम अध्यायनी "तत्त्वार्थविवरण" नामनी टीका प्राप्त थई. ते टीका शासनसम्राट, शासनप्रभावक पृथ्वीमंडळमुकुटायमान पूज्यपाद प्रातःस्मरणीय श्रीमद् गुरुभगतना उपदेशथी शुद्ध करीन मुद्रित करवामां आवी. एनो अभ्यास खूप खंतपूर्वक पू. गुरुदेवे कों, अने एमने लान्यु के ए ग्रन्थमा पीरसेली अनेरी वानगी सरळ भापामां विस्तारीने सौ विद्यापिपासुओने परिसवामां आवे ए अत्यंत इच्छनीय छ. ए कार्य हाथ पर लेवानी तेओश्रीने लगनी जागी. तेमनी लगनीने शासनसम्राट् पू. आचार्यदेव श्रीमद् विजयनेमिसूरीश्वरजी महाराजश्रीजीना आशीर्वाद सांपडया. दश दश वना लांबा गाना सुधी सतत परिश्रम लईने पू. गुरुदेव १७००० श्लोकप्रमाण "तत्वार्थविवरणपूढार्थदीपिका " नी रचना करी, संवत २००१ मां मृगशिर शुद. एकादशीना सर्वोत्कृष्ट कल्याणक दिवसे ए अन्य पूर्ण थयो, तेओश्री कृतकृत्य न्या. अंधारामा रहेल ग्रन्याने प्रकाशमां आणवानुं काम तो घणाए संशोधकोना हाथे तुं हो, परंतु महापुरुषे रचेल अन्य उपर सतत चिंतन अने परिशीलन करीने तेनी विद्वत्ताभरी विरत टीका रचना, कार्य तो Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्य गुरुदेव जेवा कोईक विरल मानवना हाथै ज बने. पूज्य गुरुदेवनी बहुश्रुतता गूढार्थदीपिकामां खूब झळके छे; तत्वार्थविवरणमां भरेलो भाव पूज्य गुरुदेवे अत्य.। प्रस्फुट करी बतायो छ, एमांनी प्रत्येक बाबतो उपर तेओश्रीए गूढार्थदीपिकामां खूब प्रकाश पाथयों - छ, सुंदर अने सरल संस्कृत भाषामां गहन तत्वोनी तेओश्रीए सरस छणावट करी छे. न्यायशास्त्रमा अति विद्वान पंडितोने पण जणाती तयार्थविवरणनी कठिनता दूर करीने मांना गूढ तलो पूज्य गुरुदेवे सरळ रीते अने रोचक भाषामा विस्तारयी समजाव्या छ, मूल ग्रंथनो यथार्थ भाव गूढार्थदीपिकामा प्रगट थयो छे अने तत्त्वज्ञाननी अनेक बाबतोनुं विवरण रसमय बन्यु छे, न्यायशास्त्रविषयक निरन्तर सुंदर अभ्यास. विशाल पांचन अने सतत तत्वविचारणाने परिणामे एक कठिण कार्य तेओश्री पूज्यपादश्री गुरुभगवंतनो असीम कृपादृष्टिथी सुशक्य वनावी शया छे. "पूढार्थदीपिका" रचाती हती ते समय दर यान बीजा पण वे ग्रंथो पू. गुरुमहाराजश्रीए रच्या छे. 'पर्युषणपर्वकल्पप्रभा' अने 'पर्युषण पर्वकल्पलता' नामना आबे ग्रंथोथी जनता अज्ञात नथी. पू. गुरुमहाराजश्रीए सर्वप्रथम " स्थाद्वापपिंदु" नामनो ३००० श्लोकप्रमाण ग्रंथ रच्यो छे. त्यारबाद परमपूज्य न्यायाचार्य न्यायविशारद उपाध्यायजी यशोविजयजी महाराजश्रीजीकृत "न्यायखंडनखा" अपरनाम "महावीरस्त" ग्रंथनी "महावीरस्तवकल्पलनिका" नामनी २५००० पच्चीस हजार श्लोकप्रमाण एक सुंदर टीका रची छे. तदुपरांत तेओश्रीए पूज्यपाद श्री सिद्धसेनदिवाकररचित "सम्मतितक" नामना द्रव्यानुयोगमय-अति प्राचीन-अतिविषम जैन न्याय ग्रंथ उपर “सम्मतितकमहार्णवावतारिका" नामनी अनुपम लधु टीका १६००० श्लोकप्रमाण रची छे. "सातितर्क " नामना प्राचीन ग्रंथमा अल्प शब्दोमां समायेला अतिमूढ भावो ओश्रीए टीकामां सरलताथी स्फुट करी पताच्या छे. सन्मतितकनी प्राचीन भाषाशैली अभ्यासीने कठिन पडे तेस होवाथी वर्तमान न्यायशैलीमा पूज्य गुरुमहाराजश्रीए ते ग्रंथ पर सुंदर तेमज सर्वमूल श्लोकगत दरेक पदोना रहस्यभूत अर्थने प्रदर्शन करनारी विस्तृत टीका रची विद्यापिपासुओने सरलता करी आपी छे. आवी रीते सुंदर साहित्य जैन समाजने चरणे धरीने पूज्य गुरुभगवते. जैन माहित्य तेमज जैन समाजनी अपूर्व सेवा बजावी छे. एटलं ज नही पण अनेक पाठशाळाओ, उपाश्रयो. भव्य जिन मंदिरो, जीर्णोद्धार विगेरे अनेक स्थलोए अनेक शुभ कार्यों तेओश्रीए सदुपदेश द्वारा कराया छे. श्री सिद्धगिरिजी आदि अनेक तीर्थसंघ कढावी भाग्यवंत श्रायकोने संधपति विरुदवई अलंकन कर्या छ. सौराष्ट्रथी मांडीने मारवाड, मेवाड, माळवा सुधी विहार करीने " जिनवाणी "नो सुंदर प्रचार करीने ते प्रोत्रीए शासननी अनुपम सेवा बजावी छ । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवित्र तालध्वज तीर्थमां बम्बे चार तेओश्रीना वरद हस्ते दीर्घकाल स्मरणीय भन्य प्रतिष्ठा थई छ. वि. सं. १९८० मां थयेलं अति मनोहर अभूतपूर्व प्रथम प्रतिष्ठामहोत्संपने ३० वर्ष वीती गया पछी ताजेतरमा वि. सं. २०१०मा वैशाख शुदि पंचाना शुभदिपसे पीजी प्रतिष्ठा थई. स्मृतिप८ उपर सदाने माटे याद रहे तेवो म०५ प्रतिष्ठामहोत्सव याद करतां आजे पण जैन समाजनां हैयां पुलकित बने छे. वि. सं. १९७८ जेठ वद ५ जेसर गाममां वर्तमान सिननायक श्री महावीर प्रभुनो प्रतिष्ठा महोत्सव तथा मारवाडना सुप्रसिद्ध शहेर 'शिरोहीना भव्य-महाविशाल-प्राचीन चौद जिनमंदिरोनो वि. सं. १९८५ मां अनार अभिपेशादि अष्टाह्निका महामहोत्सव तेमज गोधा गाममां वि. सं. १९८७ मां दंडप्रतिष्ठा महोत्सव, जसपरा गाममा वि. सं. १९९५ मां अति मनोहर प्रतिष्ठा महोत्सव तेमज कपडवणज गामे सं. २००९ मां अतिसुंदर प्रभुप्रतिष्ठामहोत्सव तथा वि. सं. २०११ जे० सुदि ५ तणसा गाममां प्रभुमंदिर दंडध्वज प्रतिष्ठामहोत्सव इत्यादि अनेक गाममा प्रतिष्ठा महोत्सवो पूज्यपाद श्री गुरुभगतना परदहस्ते थंया. अंजनशलाका आदि शुभ कार्यो पण महुवा तथा सुरेन्द्रनगरमा तेओश्रीनी निश्रामां थया हता. प. पू. श्री गुरुदेवना वरद हस्ते अनेक स्थळोए शांतिस्तात्र-अर्हत्पूजन-उपधानउजमणा विगेरे शासनप्रभावनाकारक अनेक शुभ कार्यों थयेल छे. विद्वत्ता पूज्य गुरुदेवने परी होवा छतां तेनुं तेओश्रीने लेशमात्र अभिमान, नथी. एमनी सरलता अने कोमळता सौ कोईने आकर्षी ले छे. भवभीरता तेओश्रीना स्वभावमा ज रहेली छे. निरभिमानता अने निरावरिता तेओश्रीना स्वाभाविक ज गुणो छे. तेओश्रीना सद्गुणो तथा अपूर्व विद्वत्ताथी आकर्षाईने पूज्य गुरुदेव शासनसत्राट शासनप्रभावक पृथ्वीमंडळ मुकुटायमान पूज्यपाद प्रातःस्मरणीय पालनह्मचारी आचार्य महाराजाधिराज श्रीमद् विजयनेमिसूरीश्वरजी महाराजश्रीए तेओश्रीने अनेक पदवीओथी अलंकृत कर्या. वि. सं. १९६९ ना अशा सुदि पंचमीना रोज 'कपडमां विधिविधानपूर्वक 'गणिपदवी अने ते ज वर्षमा अशाड शुद नवमीना दिवसे सविधि पन्यास ५६वी समर्पण करी. वि. सं. १९७२ ना मागशर वद ३ ना दिवसे मारवाडना सादडी' शहरमा विधिपूर्वक उपाध्याय' पदवी अर्पण करी. तदुपरांत जिनागमो, दर्शनशास्त्रो अने न्यायशास्त्रोना अतिगहन परमरहस्यभूत तचना सुंदरतम अपूर्व योधथी आकाइने "न्यायवाचस्पति-शास्त्रविशारद"र्नु मानतु विरुद-अनेक गामना मंघ समक्ष शासनसम्राट्-सकलतार कसाधुमंडलनायक-शासनप्रभावक पू. पा. विजयनेमिसूरीश्वरजी महाराजाए तेओश्रीने विक्रम संवत १९७२ मा उपाध्याय पदप्रदाननी साथोसाथ अर्पण कयु. तथा वि.सं. १९७९ ना शाखपद २ वीजना शुभ , વિવારે “કંમત” શહેરમાં વિદ્યાપીઠાદ્રિ પવબસ્થાનમય સૂરિમંત્રની પૂર્વ ધારાધનાપૂર્વવિધિ ' Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहित सुरिमंत्रयु 'आचार्य पदवी तेओश्रीए अर्पण करी, अने तेआश्रीना पट्टधर तरीके पू० गुरुदेवनी स्थापना करी अने पूज्य गुरुदेव पण ते पदने आजपर्यन्त शास्त्रोक्त 'मर्यादापूर्वक शोभावी रया छे. . पूज्यपाद गुरुदेवनो ज. वि. सं. १९४३ ना पोष शुद पुनमना रोज थयो हतो. पाल्य अवस्थाथी ज तेओश्रीतुं अंत:करण धर्मभावनाथी पासित हतुं. पूज्य मातापिताश्रीए तेओश्रीमां सुंदर संस्कारो रेध्या हता. मुनिसत्तम महनीय, मान्य पूज्यश्री खान्तिविजयजी दादानी छने पारणे ७४ आदि अ तपश्चर्या तथा तेमना तीव्र राज्य अने उत्तम चारित्रनी तेओश्रीना जीवन पर सुंदर छाप पडेली, तेमज तेवा वचनसिद्ध महापुरुषना उपदेशथी अपरिणीत अवस्थामां पूज्य गुरुदेवने भव-निद प्रगव्यो, अने ते भवनिर्वेद-पैराग्यभावनाने शासनसम्राट् तीर्थोद्धारक परमोपकारक-पूज्यपाद प्रातस्मरणीय-आचार्यमहाराज श्रीमद् विजयनेमिसूरीश्वरजी महाराजश्रीए सचोट उपदेश आपी विकसावी अने विक्रम संवत् १९५९ ना अशाऽ शुद १० ना रोज भावनगरमां भागवती दीक्षा आपीने पूर्ण करी. मात्र सो वर्षनी वये परम पवित्र भागवती दीक्षा अंगीकार करीने तेओश्रीए वीशाश्रीमालिपंशदीपिका-अर्हद्धर्मउपासिका पूज्य माता धनीवाई तेमज वीशाश्रीमालि वंशशिरोमणिश्राद्धवर्य पूज्य पिताश्री कमळशीभाईर्नु ॐ अजवायुं अने शासनप्रभावक नररत्नोथी विभूषित “मधुमति" (मदुपा) नगरीचे भाग्यशाळी वनावी. संसारी अवस्थाना श्री सुंदरजीभाई मटीने गुरुदेव पू. महाराजश्री दर्शनविजयजी पन्या, आ शुभ प्रसंगथी पूज्यश्री धनीमाता तथा कसळचंद, हेमचंद तथा जीवराज त्रणे पडील भाईओना हृदयमां आनंदोर्मि उछळी. दीक्षानी अनुमोदनाथी तेओ अपूर्व पुण्यभागी न्या. आ शुभ अवसरे कमनसीवे पूज्य पिताश्री कमळशीभाई आ सुंदर प्रसंग निहाळवा माटे हैयात न हता. दीक्षित अवस्थामा प्रतिदिन सतत वाचन, मनन अने निदिध्यासन द्वारा तेओश्रीए थोडा वर्पोमां सारी प्रगति साधी अने दरेक आगमशास्त्रानुं तेमज जैन अने जैनेतर न्यायशास्त्रानुं सारी रीते परिशीलन तेमज अवगाहन कयु अने तेना परिणामे तेओश्रीए विद्वभोग्य अने उच्च कोटीना न्याय आदिना उत्तम ग्रंथो रच्या छे. तेओश्रीनी विहारभूमि अति विशाळ छे. सौराष्ट्र, गुजरात, मारवाड अने मेवाड. उपरांत विविध स्थळोए तेओश्री विचर्या छे. प्रत्येक स्थळोए तेओश्रीए सरल अने आकर्षक भाषामां जिनवाणीनो प्रचार कर्यो छे. तेओश्रीना विचाभर्या अने सरळ प्रवचनोए अनेक भव्य आत्माओने मुग्ध कर्या छे. केई भावुक हैयामओए भागवती दीक्षा अंगीकार करीने तेओश्रीना चरणकमलोमा जीवन स ... Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ર. ર્યું છે. તે વૈજો લમ શિષ્યો તો વાવલી પ્રાતઃસ્મરણીય ન્યાયવાપત્તિ-શાસ્ત્રવિશારદ્--પૂષાશ્રી ગુરુમહારાજ્ઞશ્રીની નિશ્રામાં -પરવર્શનમાં વિદ્વત્તા પ્રાપ્ત શાલની સુંવર સેવા જી રહ્યા છે, તેઓશ્રીના શિષ્યો સરળ અને શાંત સ્વમાની સવવો મુનિશ્રી જીવનવની તથા “તોત્રમાળા” અને “ફ્રેમધાતુભાt”ના રાયતા ન્યાયવ્યાજના વિદ્વત્વય વાર્તા અન્નસ્થામાં વક્ષિત-મુનિશ્રી નુ વજ્ઞયો, તથા તેવી મુનિશ્રી અહોવાંવાચની તથા મુનિશ્રી યાવિનયન અનુપમ સંયમની બારાધનારીને વર્ષે સંવર્યા છે. તેઓશ્રીના પ્રશિષ્ય તપસ્વી મુનિશ્રી નિવિનયનો (મુનિશ્રી યુનિયન”ના શિષ્ય) પણ સમાધિપૂર્વક જાળધર્મ પામ્યા, ઉપરોપ સર્પત સર્વે સુનિયોની સંયમની બારાધના હની સ્મૃતિપટ ઉપર સર્જીત છે. તેલોઓના શિષ્યરત્ન પન્યાસપ્રવર શ્રી પ્રિયવિનચની માધ સંયમની સુંવર ગાિ ધના નવાપૂર્વ અામ ચાજ્યે ગિનામ પવેશદ્વારા શાસનની શોમાં વધારી રહ્યા છે. તેબોના પ્રાં(વ્યો (મારા શબ્દો) તપસ્વી મુનિશ્રી શાન્તિવિજ્ઞયની, રત્ના વિનયી, વાન્મુનિશ્રી મવિનયનો તથા સુયોવિનચની પર સેલોનો જાતિ જ્ઞ મૂળી રાજ્ય તવો ગુવાર છે. વાલ્યવાન મને વર્મÀરમાં રીને શ્રી પુરુર્વવે મારું લવને સાથે જ્યું. પાસે જે પચવાદ વનતા મારા શ્રી ગુરુદેવનો પાર ન્યા રવા મારી પાસે તેવા શબ્દો નથી. જાકે પર્શનશાસ્રોતસ્પર્શી અભ્યાસ ીને અલ્પ સમયમાં ન તેયોોણ્ વર્મોપારી પૂ. પાશ્રી ગુરુમવંતની ઋષાદિથી પસિદ્ધાંતની અપૂર્વ વિદ્વત્તા ગામ ધરી, તેના પારામહત્વ અતિ ઉત્તમ જોઈીની બા ાંત નોને હું અત્યંત હર્ષ અનુમવું છું. પૂ. ચુનારાવશ્રીની મારા પર સૂચન છૂપા છે, ૬ માટે હું તેમોસ્ત્રીનો અતિ મળે છું. તેયોશ્રીનો મારા પરત્યે હરહંમેશ ધ્રુવપ્રસાદ્ વરસતો રહે, ” શુમ મહાપાપૂર્વ વિરમું છું, વિ. સં. ૨૦૨૬ | શ્રી નેમિ. સ૦ ૬ શ્રાવણ કે ? ગુવાર તા. ૨૬-૭-૧૬ प्रस्तावना संपूर्तिस्थान - मधुमती પ્રસ્તાવના, પૃષ્ઠ ૮ નં. ૬૨ ૮řee ג ન્યાયવાવસ્પાંત શાસ્રવેશાર—પૂન્યપાલ-પરમોપાર-તપ છાવાય શ્રોત્રિયર્શનન્નોનપાવાશ્મોનનચરીયા પન્યાસશ્રી નાનંદવિનય માળ EN અનત્વનો સુધારો ચર . મંજવાર્ teno શુદ્ધ મરજીવાત્ १६००० Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જે સ્વ શાસનસમ્રાટતપાગચ્છાધિપતિસવંતત્રતત્રસુરિચક્રચક્રવતિ-પ્રોઢપ્રભાવશાલિ જગદગુરૂ -પ્રાતઃસ્મરણીય પૂજ્યપાદ જ ભટ્ટારકાચાર્ય શ્રીમદ્ વિજયનેમિસૂરીશ્વરજી મહારાજશ્રીજીના પટ્ટામ્બરભાસ્કર ભટ્ટારકાચાર્ય શ્રીમદ્ વિજયદર્શનસૂરીશ્વરજી મહારાજશ્રીજી . E * * * = . * * * * * * P * * AU .' ' છે ? 1 - - - - - - - . . . - છે. જ . ' 1 . 11- 1 * મ ** 1 - ** + \ K '*, ** {* \ જન્મ-સ ૧૯૪૩ પોષ સુદ ૧૫ મહુવાબ દર, દીક્ષા-સ, ૧૯૫૯ અષાડ સુદ ૧૦ ભાવનગર ગણિપદ–સં ૧૯૬૯ અષાડ સુદ ૫ (કપડવ જ ). પન્યાસપદ-સં. ૧૯૬૯ અષાડ સુદ ૯ કપડવંજ, ઉપાધ્યાયપદ-ન્યાયવાચસ્પતિ–શાસ્ત્રવિશારદ પદપ્રદાન-સં ૧૯૭૨ માગશર વદ ૩ સાદડી (મારવાડ). આચાર્યપદ સ. ૧૯૭૯ વૈશાખ વદ ૨ ખંભાત Page #24 --------------------------------------------------------------------------  Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. . १-१९ | | તાર્યવિવારનવાર્યતાપવિષયાનુમળવા ! વિજ્ઞાન વિષયા ૨. તત્ત્વાર્થવિવરણાતમહંતશરણાત્મ મન્નાવરણી १-१६ ૨. ગૂઢાર્થીપિવીસમોવળે વિનવિષાતત્ત્વ નિનાગુતિ પદવુમમ્T - ૨. શાસન બ્રાન્ મુહમવતશ્રીવિનયનેમિસૂઃ તારણમ્ | ૪. વાકયમાથાયોપહવયં શ્રીમદ વિનયોપાધ્યાયાવરણ, તદુપર ટીઝરને પ્રયત્નત્યાનુપદાસનીયત્વાર્થને ત્રિમ પ છે. મન્ડમતીનાં નામાજ્ઞિાનાર્થ તિપદ્ધતિનુપાતેયં ગૂઢાર્યવપિતિ તત્વયત્નો , ગુરુવરણાતત્ય નિષ્ણ કૃતિ ભૂન્દ્રિતમ્ ! २-२० ૨. સવનચકિત્સાવેતરવર્યા રાપગ્રસ્ય યત્રુટિત યશોવિનયોપાધ્યાય ચાલ્યાન તન્યૂણે પ્રવૃત્તશ્રીમતુલ્ય રિસ્કૃત “પેન્દ્ર પય” ત્યાઘમમવતીર્ય વિવૃતમ્ ! –રક ૭. ત્રિપદ્ધપુતિપસ્ય “છતા ” કૃતિ મલ્મિદ્વિતીયવસ્ય વિવરણમ્ ! રૂ–૨૮ ૮, મછાર્થ પ્રતિસ્ય મુરોઝીને સ્તુતિક્ષળલ્ય તૃતીયપદસ્થ વિવરણમાં ૪–૨૨ ૧. કપાધ્યાયઠ્ઠાવિશિષ્ટતરહ્મતતચ્છિન્નાશપૂરણય ૨ સમક્ષત્વ નેતિ નિરભિમાનતા- સૂવનપરં વતુર્યપર્વ વિવૃત્ત ! ૨૦. ગુકિતશ્રીનશોવિનયપાધ્યાયજ્ઞવિકૃતિપશ્ચરાવ્યાસ્થાનપ્રતિજ્ઞાપત્ય પદ્મમાવસ્ય વિવરણમ્ ! ૨૨. (૨) તત્ત્વાર્થવિવરણે સ ર્જનશુદ્ધામિત્કારિડવતરણે મોક્ષય પરમપુરુષાર્થત્વ, તન્નપ્રણેતાશ્વ સેડ વસ્વામિમત વનિત્યપળપરમપ્રયોગનતયા મુત્તિવાદૃવન્ત તિ તાર્બન્યાવિસૂત્રોનેન માવિતસ્ત્ર | ૨૨ ટેાિયાં મલય પરમપુરુષાર્થa૫, અને વિધવમવેત્યાયુવતેમિકાય “અચાતો ધર્મ વ્યાવ્યાસ્ત્રોમ "તિ સૂત્રાર્થો વર્શિતા, અથ શસ્થ મજ્જાઈંતે “#ારણ્યા શ -' ફતિ પર હરિતમ્ | ૨૩. વિ. મુવઃ પમયોનનો પાદ્રિ “ભાવાર્યવાન પુરુષો ને ફત્યાતિ શ્રુતિહવતા ૭ ૧ ૪. ટી. “યતોમ્યુનિએયલસિદ્ધિ ફત્યવિવૈરોષિમૂત્રાર્થો વાર્શિતઃ - ૭ - ૭ . “સુત્રામિષાહાત્ ' ફ્રત્યાવધિમ્બારિશા તમાવાર્થ વૃતિઃ ૭ ૨૨ સિદબનાર્યવાનું પુજો વેવ ” ફૂલ્યાબ્રુિત્યર્થોપવર્ગની -૭ ૨૨ ૨૭. વિ. તત્તતીર્થની સખતરુક્ષણાતમુદ્દે બેલાવનુપાવેલા ધનવેડબેનેન્ત- ' વાહિલખતસ્કુળાક્ષતાયાતવાતાયન કેલાવાવળીયત્વે વરિત ૮૨ ૧-૨૨ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [૨] ૨૮. ટી. “મિરાતે હૃદયઃિ ફત્યાદ્રિસ્થાળે તિઃ | ૨૧. તૈયાયિામમતક્ષ્ય સમાનારખેહું સ્તબાપામાવાસંતવૃત્તિ વિદેશમંત્ર મુ ગટ્ય સટ્ટનમ્ ૨૦. સમાનધરળદુઃખાનામાવાસમાનાર્જીનયુવાધન વંસત્ય મુરિંક્ષણય સન્નાના ૮-૩ ૨૬. મારામિમતસ્ય ચાત્યન્તિકાવત્રામાવા મુક્લિંગોપનિપુરા સંમેન ટ-૨૦ ૨૨. “દુર્વેનાયત્વે વિમુક્યૂરતિ” તિ શ્રુતિમવશ્વમાનસ્ય સંમ્મત ટુવાત્યન્તમાંવત્સાનુ િ. ક્ષણમુલાવિત ૮–૨૭ ૨૩. કુકરવāસતામંપમુત્તિક્ષળમાવો તિ ર૪. “નિત્તમેવ હિ સંસારો'તિ વવનવીરસ્યનુપઢવૃત્તિખ્તતિક્ષણો મોલો વૈદ્ધાવુપાંતર ત્યુપર્શત ૨. પ્રશ્નતિતાિપનવિસનુભૂતપુહલત્વહૃપાવસ્થાનાં મુસિાત્યસિદ્ધાંધવતા ૬િ-૨૦ ૨૬. કાત્મહાનિષ્ફળા મુસ્થિર્વસમ્મતિ દ્વતિનું ! ૨૭. નિત્યનિતિશયલુવામિત્તેિિરતિ મઝુમતમુપરિતા ९-१८ ૨૮. અવિવાનિવૃત્ત્વપધાજ્ઞાનકુલભવપ્નાદ્ધક્ષળ મુક્ટિરિતિ વેદાંતિમતમ્ ૨-૧૮ ૨૨. (નર્મક્ષયત્રફળા તેગ્નન્યપરમાનન્વેષ વા નસમ્મતા મુન્વેિષણીયાનૈવેતિ માવિતનું ૨૦. સિદ્ધિસિયુપી “હમનોવૃાતા” ફતિ વાવMવરપર્યમુપતિમ્ ! –૨૮, રૂ. નૈનામિમતા મુસ્તિસ્યાં સુકાર્બવિ માવિતનું ! ૨૦–૧૨૨. મોક્ષમાપરા “ સપનરુદ્ધ તિ પ્રમારિ સરનશાન વારિત્રામાં મોક્ષમારે ત્યાનસૂત્રસજ્ઞતર્યાવિતિ તા. ૨૨. “વિષયાધરી ” ફત્યનુવધુવતુષ્ટયતિપાત પચંછિત્યાનુવર્વેક્ષણતત્યક્રમનહિ કૃતમ્ ! ૦-૨૬ રૂ૪. મુિિનપળતઃ પ્રથમ તત્સાધનનિરૂપણે અંતિશતા | – ૨૧. “સ નરુદ્ધ ફત્યત્ર સભ્યનેનું શુદ્ધ સંખ્યનાય મિત્યવિવિ- હાળાં મધ્યે શસ્ય દુછવં પાયિત્વમિતિ વિવારિત ! ૨. સયૂવીનેનેતિ તૃતીયાચૈત્ર સાધનોથતાક્ષળદેતુત્વ સંક્રમને, તંવર વિશેષાયોનન% વરૈિતન્ ! ૨૭. તૃતીયાર્થસ્ય પાત-વાતઋજીવાત વિશિષ્ટવિહેતુક્ષેખેતૃત્વચં મનનું, તત્વ વિરોષણયોગનગ્ન સર્શિતમ્ !' ૧૮. તૃતીયાઈંસ્ય પ્રપક્વબવલાવિષયવિધિવત્વફળરપાંત્વર્ય “નિયાયાઃ પરિનિપત્તિઃ ” તિ રિસંક્ષિપ્રેમવિતરૂં મન, તત્ર્ય વિશે Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ سا એ જ ! જ કે , - વળeaોપદ્ધતિ १३-२४ રૂ, તૃતીયાહ્ય વિશેઑતાવવધર્મબરગાનનન જ્ઞાનવિષયવરિાઈવરોળ્યતા વછેરમાના ધરણામાવતિયોગિત્વક્ષhસ્થમૂતંત્વોપર્શના ૨૦. અત્ર હેતુત્યન્મેતાર્થતા સમાજો ન સમિતીતિ તૃતીયા ત્વે ખરવું વાડીમુપાવાવે પ્રવૃત્તા સ્થવિત્યાદિતમ્ १३ ३ છે. વિરોગતાવર્જીત્યાર્થિમૂdવક્ષળો પાનપુર સંક્રમનસ્ય : કર. કૃદન્તશુદ્ધપને સહ અવરંગવાથઋતૃતીયાય સમા સન્મવતિ, નૈ તું હેતુત્વેથ* ભૂતત્વાર્થતીયાથી ચોપપાના ૨૨-૨૫ ૪૩. પ્રd #gવંડથું તૂતીય નેત્યંચે મૂ સ્યોપપાદનમ્ ૨–૨૬ ૪. પ્રશ્નપ્રતિવિધાનામ્યા હતૃત્વાર્થવૃતયાય પવૅન સદ સમાતો નસમવર્તીતિ તિમ્ ? કે ૨ છે. નિપાતાતિરિક્સનૉમર્થયોરાતિરિસન્વોડક્યુત્પન્ન તિ ન્યુપર માનyપર્શિતમ્ | ૨૪–૧૭ ૪૬. પ્રથમાન્તર્થવ મુવિખ્યાત મનમતિ નૈયાયિમતે યુરિદ્રિતૈ | ૨૬ ૨ ૨૭. ચત્ર વિશેષ્યવાવલમાનવિમપિર્વ નિપાતપર્વ વા નાહિત તત્ર પ્રથમ ઈસ્ય “ વિશેષમાલસામવો સૌ મુ ખ્યતવ માસને ફતિ મૂશ્વત વિધિ વનનચાથ માંવિર્તક છે. ૪૮. માવપ્રધાનમાન્યાતમિતિ (છત્વનુસાર દ્ધાત્વર્થસ્થવ પ્રાધાન્યમિતિ મૂછોવૈચારગત મુપાદ્રથિતુમ્ “માવપ્રધાનમાવ્યાતનું સર્વપ્રધાનાનિ નામાનીતિ” ચાવવનમુક્ય તર્થન્ચાત્યાને પ્રાનનવીનતૈયારબારીનાં માં અર્જુર્મપ્રત્યયસ્થછે વધવૈદ્ધક્ષણ્યનું તત્ર પ્રમાણાવિશુપતિનું . વાળમતમવન્ય વન્સમાધાન તપસમાધાનમેવેન્યત્ર શ્રીમધવિનયોધ્યા ત્તિયાળમતલખનારાં પ્રથમાનાર્થમુત્યવિરોષ્ય રાવપુરાનૃતૈયા મત મર્થનપરા સમુહ્મવિતા ૧. સ્વાદ્રા સહરીશાનયોરાત્મનોવમેવોપંત વિન્ચારર્જિતસમાધાનર્થ નિરાશરણમ્ છે. સત્વરીનશુમિનને તૃતીયા ફૅસ્વિસ્થ સંતવ મે., મનોવૈત્યનેન વર્ચે બંwitત મીમિતિ સંખ્યવનિરુદ્ધમાનોતીયનોસ્ટિક્ષMોધનને * ત્વાષરિરિતિ સમાધાનમરાજ્ય પારિહંતસ્T : ૧૨. સમાવિત્રહવાસમાનાર્ચન્તનેતિ મૂરમિબા રિત ૬૮-૨ પર નિપાતાતિરિયાત્રુિત્ય પ્રમાળનુપાતા (૨૮-૨૬ - ન્યુ નિપાતાતિિિત વિશેષાપ તા १८-२९ પણ રનરુદ્ધત્યિત્ર સાવનાવશ્ય સવર્ણન છેÚતામિજા , Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ } સમાવિત્રહવાસ્થયોરામાનાર્થસૂત્વાસમેવારીયા પરિહરણન્ .. - ? વ. “સમર્થ પદ્ધવિધિ તિ સૂત્રે ફત્યાદિ મૂર્વ સમાસરાયમ્સપનૂયોરણ-. . . મતવસ્ત્રાપરમવતારચિતું તન્મતબપશ્વનI - - - - ૨૦ ૭. સમાસશવમ્યુઝૂિવૈયાવરણમતાશ્રિત્ય ક્ષે “સમર્થ વિધિ ફતિ સૂત્રે સામર્થ્ય પેલાભ, થિમાવર્લ્ડક્ષળમિતિ પશિલ્ય વતન, તત્ર પ્રજાસતયા માસમાનસ્થ ત્વસ્થ ન વિધવત્વમ્, તત્ર મીમાંસાદ્ધિાન્તસંવતનજી ૨૦ ? ૧૮. તતિવિધાને મીમાંસનસ્થ સમારે શવનમ્યુપથ વ્યવસ્થાપિતા, તત્ર “નિષદુર્ઘપતિ યાન લિતિ “ સ્ત્રીરા વેવમયાતમિતિ” વિધિનિષેધયોસ્તનુન્નતા વ્યાવળના ૨૦ ૮. ૧૨. “વષd પ્રથમક્ષ” ફત્યત્ર પ્રાર્થ સ્વાવિયત્વે “પ્રાણે ફળ” ત્યાતિવનનું પ્રમાણયા વારિતમ્ | ૬૦. “પ્રાસે મળિ” ફત્યાવિ પર્યાય વિસ્તરત ડપતિ : ૨–૨૮ . સમાસે શક્યૂમાવેઈર્થવવામાવાન્નામલાડમાવતtતડુત્તરવિમવયનુપપરિરિતિ - પ્રશ્નપ્રતિવિધાનમાં - ૨૨, ૪ ૨૨. વૃત્તિમવીષયપ્રતીત્યવિષયત્વક્ષળસ્ત્રાવ વચેત્યાદ્ધિ મૂકવતા વિવૃતમ્ ! ૨૨-૨૨ ઘરૂ. સર્જિનશુદ્ધામિત્વત્ર સ નેન શુક્રમિતિ વિહે તૃતિયાવા ગાર્ચન્દ્ર વિખ્ય પ્રતિક્ષિણમ્ | - ૨૩ ૨. ૪. તપણે સર્જનરત્વચ શુદ્ધજ્ઞાનેનવાત સર્જનશુદ્ધજ્ઞાનામિતિ - પ્રાપ્તિતા ન ૨૨, ૮ વૈયાકરણમતે ગૌરવય ન્યાયમતે વિર્ય પદ્ધતિ “અનન્તાનાં સમાતાના” ફત્યાદિમૂહમવતાર્ય ચાલ્યા જૂ! - ૬. બકૃત કળત્વ વ્યાપારવત્સારણત્વ જર્ણવ્યાપારાધીનવ્યાપારવત્સારણ– વ ન તે સન્મવતિ માવિતમ્ ! ૭. મિત્તલમમિન્યાહતáવ્યાપારાધીનપારવારણત્વક્ષરણત્વ તૃતીયાચૈત્વે શુક્રજ્ઞાનાપૂર્વમ્ સરનાધેતિ માહિતી - २४८ ૬૮. સ નાય શુદ્ધ સર્જનશુદ્ધમિતિ દ્વિતીયપક્ષે વતુર્થી તાવચ્ચ, નીચ , સબવાનાર્થા, તત્ર સમોસાડમ્બવઃ સન્મવે વા નશુદ્ધાનામિતિ ચાત, * * . ન તુ સર્વરનદ્ધતિ, નવાંધો વ્યક્તિ માવિત ! ર૪-૨૦ ૬૬. વન્યાપારાનન્તર નિષ્પત્તિસ્તવ બદપાવાચિત્ર “નિયાચાર પરિકનિષઃ ” ને ફરિર ચિતા ! ૨૪૭૦. વર્ણવ્યાપારાધનન્યાપારવત્સરળત્વનું ઝરણત્વનિત્યસ્ય સ્વબ્દને ત્રિપરિત્યાદિ હોનતાપાનચ.સ્પણીળા - - - - - . . . ' માલિક !. ૨૪-૧૦ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૭૨. મુત્યમ#િસાધારણેયાવસ...નક્ષળ સમન २४-२३ ૦૨. છળપરિવાયસ્ય સિયાન મતથા સમની २४-३० રૂ. “વતુથી પ્રવ્રુત્યા” ઉતિ સમાવિધાયસૂત્રે તસ્કૃત વોશળતાથર્યા પછી પણ ! રપ ૭ ૭૪. આરામગૃહાશ્વવસાવાવિવ વસ્તુથતિ યો વિમાન માલીપાના વૈયાવરાળાનાં - નાત્રોપોનીતિ વાર્શિત ! ૨૨-૧૪ ૭% સપનામ્બુમિતિ “ગુનાસ્ત્રિયા ન વા ” કૃતિ સૂત્રાહિતા વારણાર્થા પન્ની રત્વ નિખ્ય પ્રત તહસન્મવતોડવાd I पाकृता । २६ ३ ૭૬, “પદ્યમી માં ” ત સૂત્રે જાગ્રુતિ શુદ્ધાવસ્ય પાકાત “પશ્ચમી મન ” ફત્યનેન ઘનિયસમ્મતવિમાન વા સમાસ્ય સન્મવેડપિ તૃતીય પક્ષોવોપાત્પન્નમ પક્ષો ન સર્મવતીતિ રિતિમ્ | ર૬ ૭ ૭૭. વતુર્થીપક્ષોmોષવાસ્તિત્વાગ્નિમિત્તતમવન્ય સગવર્શને શુમિતિ તુરીયપક્ષોડગલુરુ તિ માવિતમૂ ૨૬-૧૦ ૭૮. ડmશ્નકર્તવિધાને તૃતિયાયાઃ સ્વાર્થકત્વમાચિત્ય સભ્ય વર્ગને શુદ્ધ સભ્યર્શનચક્રમિતિ પક્ષધ નિર્વત્વબતિપાન ૨૬-૧૨ ૧. અત્ર પક્ષે તૃતીયાઃ રણાર્થત્વમેત્યવ્રુપપાદિતમ્ | ૮૦. વળાળિભળીના સિવારે વહિવછન્નતિ ન તૃણત્વાદ્રિના રળવ, વદ્ધિ વૈજ્ઞાત્યે પ્રખ્ય તવવાછિન્ન પ્રતિ તૃત્યાદ્રિના રણત્વરૂપની ગૌરવગ્રસ્તયે શનિવેનવ તિષા રણમિતિ વિવારિતમ્ ! २७ २२ ૮. શક્સિરેવ રળત્વમિતિ પક્ષે શ સલ્ટિપારાવ છેવત્વે સમર્થિત ૨૮ ૨ ૮૨. થઈ જાય તે જાતિવૈનાત્યજ્યનેન તૃળાકીનાં છારત્વે નિવદતિ તથા નૈનમતે જ્ઞાનાતશુદ્ધિબિયાતવૈનાચાનેન તવછિન્ન પ્રતિ સભ્ય વનસ્થ રળવં નિવેહતીતિ પ્રશ્ચિત ૨૮-૧૨ ૮૩. શુદ્વિત્રિયાતવૈજ્ઞાત્યચાત્ત્વચિંતાનવજીંજવેડપિ સંખ્યકીનન તાવ છેવત્વ સમર્થતા ૮૪. “સત્ર ફાર કૃત ' ફેતિ સમાસ, શ્રેયસી વનમૂત્વેન વર્ગનપૂર્વસ્ય જ્ઞાનય શુદ્ધત્વ, તત્ર “અરેનાડ નરિત્રાહિતિ” વાવનું નિર્ણાયક ૮. સમ્પર્શનાદિતસ્ય જ્ઞાનશુદ્ધ નનમિત્વત્ર “બ્રાહશામ િકૃતમિતિ” વવનસવાડા ૩૦ ૬ ૮. કરીનાચૂર્વ જ્ઞાનમજ્ઞાનત્યસમાનસ્ય ન વ શ્રુતસ્યા...માત્મજ્ઞાનનનત્વ હત્યાઘારા#ાયા પરણે વિસ્તરતઃ | ૨૦-૨૫ ૮૭. ક@ાડા#પ્રતિશે શુદ્ધ નિર્ચે તસ્યાઃ કૃતમધયાનાનામપિ વનવિશ્વાના જ્ઞાને ન સમેવા, કૃતાથયનાન્યથાનુપપજ્યા પૂર્વ શનૈશુદ્ધ સતવમાશય પરિહૃતસ્ત્રી રૂર છે Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८. उक्तयुक्तितः सम्यग्दर्शनाच्छुद्धम् सम्यग्दर्शनशुद्धमिति पञ्चभीपक्षत्योपपन्नत्वम्, ... : * तत्र व्यतिरेकव्यभिचारपरिहारश्च । । । ४९. निसर्गसन्यगदर्शनाधिगमसम्यग्दर्शनयोर्विजातीयत्वमेव, अन्यथा तदुमयानुगतसम्यम्- - - . दर्शनत्वावच्छिन्न प्रति व्यभिचारेण निसंगाध्ययनाधोः कारणत्वं न सम्भवतीः . .. त्याशङ्कायाः परिहरणम् । ३२-१२ ९०. अधिरामसभ्यगदर्शनामिप्रायेण सम्यग्दर्शनाय जुई सन्यदर्शनसुद्धमिति चतुर्थी- ., पक्षोऽप्युपपन्न. 'हितादिभिः' इति सूत्रात्समासश्च सम्भवति । ३३ ५ ९१. 'हितादिभिः ' इति सत्रादित्यादिमूलप्रेन्योपपादने यद्धमावच्छिन्नोत्पादने यस्यारामिया अपेक्षा भवति तस्याः प्रपञ्चन । ३३-१८ ९२. शुद्धरेव सम्यग्दर्शनार्थत्वं न तु शुद्धीय, शुद्धौ च "पदार्थः पदार्थना-वेति" इत्यादिव्युत्पतिविरोधेन न पदार्थान्तरान्वय इत्याशङ्काची उक्तव्युत्पत्तिविषयक प्रमाणोपदनोपेतोपपादनपुरःसरमाकरणपरस्य मालस्य स्पष्टीकरणम् । ९३. सत्सप्तमीमाश्रित्य सप्तमीपक्षस्योपपन्नत्यमुक्तम् । ९४. मतिश्रुतावधीना व्यभिचारित्वस्यापि सन्मवाद्विधावतकतया सम्यादीनशुद्धमिति - विशेषणं, मनायिकेवलज्ञानयारपरक्षक तदिति दर्शितम् । ९५. लिविपरिणामन विरतापदं विशेषण मारिचिरतिकल्पविरतिव्यवच्छेदकमिति दर्शितम् । ३६ ६ ९६. विरतिभवेत्यत्रैवकारोपादानप्रयोजनं दार्गतम् । . ३५ ८ ९७. " सन्यग्दर्शनज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्ग.” इति सूत्रे मोक्षमार्ग इत्येकवचनकत्व विवक्षितमिति न “यत्र विशेष्यवाचकपदोत्तरविभक्तीत्यादि नियमय म इति भावितम् । ३६ १ ९८. स्वसजातीयनिष्ठत्यादिस्वरूपस्यविचनार्थैकत्वस्य प्रकृते मोक्षमार्गपदार्थवावच्छेदके . मोक्षजनकरवे नावयः सम्भवतीत्याशङ्काया उपपादनपुर९२।२मपाकरणम् । ' ३६ ४ ९९. यत्र विशेष्यवाचक पदोतरेत्यादिनियमार्थस्योपदर्शनम् । ३६ ८ १००. सजातीयनिष्ठेत्यायकलवरूपे प्रविष्टस्य, साजायस्व निर्वचनम् , एकरवा-बय योग्यस्य समुदायत्वेन कारणत्वस्य न सम्भव इत्युपदर्शितम् । १०१. उक्तनाशकरणे मोक्षमार्गशवलक्ष्यतावच्छेदके मोक्षोत्पादप्रयोजकतावच्छेदक समुदायत्वे एकरवाऽन्वयः समर्थितः । तथा शपिक पऽतिरिक्त वा कारणत्वे एक स्वान्वयः सम्भावितश्च । .. १०२. विरतिमेव चेत्यत्र चकारस्य सम्वन्वार्थत्वविकल्पार्थत्वे दर्शिते । ३७-१२ १०३. अवस्थितस्वतन्त्र कर्तृप्रतिपादनाप्नोतीत्यनेन क्षणिकविज्ञानवाचायुरातत्यालयविज्ञान सन्तानातकर्तृत्वस्य व्यवच्छेद इति दर्शिनम् । १०४. दुःखनिमित्तमित्यस्य दुःखाना निमितमिति विग्रह पक्ष संवादकतयोपास्य दुःख ३६-२३ ____३७ ७ । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ G m cc w [७] जन्मत्यादिगौतमसूत्रस्यार्थी- दर्शितः, तत्रैव "न खशरीरम् " इत्यादि श्रुतिर नुप्राहिता । ३८ ३ १०५..दुःखस्य निमित्तं दुःखं निमित्तमस्येति वा विश्रहे दुःखं संसारः युक्त्या व्यवस्थापितः। ३८ ७ १०६. "इदमः प्रत्यक्षगतम् १ इति पचनानुसाराद् दुःखनिमित्तमपीदमितीदम्पदेन मनुष्य- जन्मनो ग्रहणम् , युक्रिपि तत्र प्रदर्शिता । . . .. . - ३८-१० १०७. तेनेत्यत्र तत्पदस्थ यो ज्ञानमित्यत्र यत्पदस्थार्थविशेषोपदर्शनम् , तत्र “यं सर्वशैलाः" . इति " तदन्वये शुद्धिमति " इति, " तस्याप्यत्र मृगाक्षि ! " इति पद्योपदर्शनम् । २९ ३ १०८. सुलव्धमिल्यस्य भावोपवर्णनम् , भवतीत्युक्तिसमर्थनम् । - १०९. (२ कारिका) अवतार्य जन्मनि कर्मक्लेशैरिति द्वितीयकारिकोल्लिखिता। ४१ १ ११०. निरुक्त्या कर्मपदार्थोपदर्शनम् । ४१ ४ १११. मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकपाययोगाख्यैरिति मूलविवरणे मिथ्यादर्शनादीनां स्वरूपं . विविच्य दर्शितम् । . , १.१२. मिथ्यादृष्टेमिथ्यादर्शनहेतुकोऽविरतसम्यग्दृष्टेश्चाविरतिपरिणामहतुकः सर्वविरतस्य च प्रमा ___ दवतः प्रमादहेतुकः, अप्रमादिनोऽपि संज्वलनकायवतस्तस्य कपायहेतुक उपशान्तमो-, हादिगुणस्थानत्रयवर्तिनः केवलयोगहेतुको बन्धोऽन्वयव्यतिरेकाभ्या व्यवस्थापितः। ४१-३० ११३. सयोगिकेवलिनो योगसद्भावेऽपि तन्निमित्तको पन्धो न भवतीति दिगम्बरमतस्य . खण्डनम् , तत्र पञ्चमागसूत्रवचनं प्रमाणीकृतम् । ४२-१६ ११४. अकैकहेतुक एव पन्ध इत्याशङ्काया अपाकरणं पूर्वस्मिन् पूर्वस्मिन्नुत्तरोत्तरवन्धहेतोयथा सद्भावस्तथा विवरणेन । ... ४२-२२ ११५. संसारस्थानादित्वसाधकमनुमानमुपदर्शितम् । . ४२-२६ ११६. जन्मनः कर्मक्लेशानुबद्धत्वोक्ती हेतुपदर्शनम्य विवरणम् । ४२-२७ ११७. परमार्थस्य कर्मक्लेशाभावस्य भबने शङ्कायतिचारवियुक्तावातदर्शनो हील्लादिना प्रकार उपवर्णितः। . ११८. गर्भवासादिभोद्विग्न इत्यस्य स्पष्टीकरणम् , गर्भवासदुःखस्याऽगर्भोत्पन्ननारकदेवनिगोदा दिदुःखस्य च प्रतिपादकं सिद्धान्तवचनमुपदर्शितम् । ११९. पञ्चविंशतिभावनामावितान्तरात्मेत्यस्य विवरणम् । ४३-२० १२०. द्वादशानुप्रेक्षास्थिरीकृताध्यवसाय इत्यस्य विवरणम् । ४३-२६ १२१. संवृताश्रवत्वादित्यस्य विवरणे द्रव्यभावभेदेन संपरस्य द्वविध्यम्, तत्र प्रवचनसारोद्धार पचनसंवादः। ४३-२९ १२२. रावाद्यतिचारेत्यादिप्रकारोपवर्णनं . टीकाकृत इत्युपसंहृतम् । तत्रानभिभवकमाराम इत्यादेविवचनं टीकायाम् । । ४४ २ ९२३. लोके कर्मक्लेशामाव इत्युक्तेरभिप्राय आवेदितः । ४४ .. २ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४. जन्मादित्रयाणानन्योन्य कारणभावेऽपि कर्मक्लेशी प्रति जन्मनोऽन्वयो न नियतः, जन्म प्रति च तयोरन्वयो नियत इत्यादिविनिगमक उक्त: । १२५. फ्लेशाभावोपादानस्यावश्यकरवे कर्मक्लेशाभाव इति यदुक्तम् तत्प्रयोजन पदर्शितम् । ४४ ८ १२६. कर्मक्लेशेरित्यत्र कर्मक्लेशाभाव इत्यत्र च समस्यैव कर्मपदस्योपादानप्रयोजनमावेदितम् । ४५. २ १२७. कर्मक्लेशाभावस्यैव परमार्थत्वनिपकनेन जन्मनः सुलपत्वं निगमितम्, इति । द्वितीयकारिका । १२८. (३ कारिका) परमार्थालाभे वेति तृतीयकारिकावतरणस्यावतारिका, तत्र मोक्षामिलापुक स्थापि तस्मिन् भने क्रियानुष्ठानेन मोक्षाभावे तस्त्रियानुष्ठानस्यानादरणीयत्वं स्थादित्याशकाया अपाकरणम् । ४५-२० १२९. अभ्यासतः मोमोत्पादकत्याक्रियानुष्ठानस्य साफल्यमित्यत्र " जं अम्भसेइ " इत्यादिसिद्धान्तोक्तेः “ अनेकजन्मसंसिद्धः” इति गीतावचनस्य "यः शुभकर्मासवन-" त्यादिवक्ष्यमाणकारिकायाश्च संवादः । ४५-२९ १३०. परमार्थालामे वेति तृतीयकारिका यथाऽनवचं कुशलानुबन्धमेव कर्म मवेत्तथा यतित व्यमित्यर्थिका, तयाख्यानञ्च । १३१. कुलानुवन्धमित्यादि व्याख्याभावोपदर्शने “ ज्ञानं क्रियेव विरुणद्धि " इति महावीरस्तवप्रकरणोक्तः प्रकृतार्थसमनपरार्थत्यापनम् । ४६-२१ १३२. निरागसमावेनैव मोक्षार्थिना शुभक्रिया कर्तव्यत्यत्र 'नो इह लोग?याए' इत्याचागमेन . भोगफलत्वेनाऽशुभाशंसैव निषिद्धा, न तु शुभाऽऽशंसा, अत एव " वारिज जइवि" इत्याचागमः सङ्गत इत्यभिप्रायकतथा न चैवं शुभाशंसाकृतमिति अन्योऽवतारितः । ४६-२७ १३३. भोगप्राप्तिकलस्य निदानरूपतया “सलं कामा" इत्याचागमन निषेध इति तृतीयकारिका । ४७ ३ १३४. (४ कारिका) कर्माहितमिह चामुत्रेति चतुर्थकारिकाऽधमतमाधमविमध्यमपुरुषकर्मविशेषोपदर्शिका, तव्याख्यानञ्च । ४७- ७ १३५. मजयन्तरेण पुरुषपदक स्वरूपप्रतिपादक महानिशीथसिद्धान्तवचनमुपदर्शितम् । अधमतमत्वलक्षणं दार्शतम् ; तत्परिष्करणं टीकायाम् । . ४७-११ १३६. संभ-समारभारामाणां वरूपोपदर्शनम्, तत्र मतभेदश्च दर्शितः। ४८ १ १३७. सम्भादीनां त्रयाणां प्रत्येकं कायबामनोभेदेन त्रैविध्यतो नवविधत्वमुपपादितम् । - ४८-१४ . १३८. पूर्वोक्तनवभेदानां मध्ये एकैकमेदेन सह कृतकारितानुमतसंयोजनया सप्तविंशतिभेदाः, तत्रापि क्रोधादिसंयोजनया चाष्टोत्तरशतभेदा यथा भवन्ति तथा प्रतिपादितम् । १८-१६ १३९. मूलो तामलक्षणस्य परिष्करणम् । . . १८२७ १४०. अधमस्योलापः “कः पुन: परलोकादागत " इत्यादिक्षितः। - - १९ २ . १४१. विमध्यमस्य लक्षणम्, तलक्ष्यपुरुषा भाविताः । Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ] ૨૩૨. (પ)મથમોત્તમપુરૂષશેષગતિપાદ્રિ “રોહિતાવ”ત્યાદ્રિ પંશ્ચમી વારિ ૪૨-૪ ૨૪. યાવન્નીવેરિત્યાદ્ધિોવાણ મૂવૈતવાદ્ધિમતરહૃાવેશકુપવાત છે ૪૨-૧૮' ૨૪. મધ્યમસ્યા રહેણં મધ્યમવ્યયશનિવૃનમાવેદ્રિતા ५० ३ ૪. “વિશિષ્ટમતિevમો મોક્ષાવિ ધટત” હત્યોપાતનમ્ ! ૫૦ ૭ ૪૬. સત્તમોત્તમોત્તમ યોર્તિવિક્ષળમુપતિ ! ૫૦-૩ ૪૭. શTબયત્નકન્યાક્ષેત્યસ્ય જાત્યાનં તત્ર રૉસ્ટેશીયસ્ય વિસ્તૃપ્રિપદ્યનમ્ ૫૦–૨૨ ૨૮. (૬) નિનુવન્યસ્વામિન ઉત્તમોત્તમોત્તા “વહુ તાડપતિ” પછી વારિ તા ચરોવિનયTધ્યાયવ્યારા ! છું. જ્ઞાનિનો ધર્મતીર્થતિ પરમતપવન્, તરવન્ડને “ધે ને ચાય” તિ પમુદ્રક્રિત પર છે ૨૦. (૭ વ.) પર્વત છત્તમોત્તમત્વપૂગ્યતમ વહેતૂથવા “તમવતિ પૂનામિતિ ” સલમ થાડવતા વ્યાવ્યાતા ૫૭. શરાર્થોપકલાવમહત્તમયતા છે મુળ કૃતિ ઇશ્વર્ય પ્રતિવિધાન ! પુર ૭ ઉપર. બહેતો કથાર્થનામત્વે “રતિ ” ફિતિ સિક્રાન્તત્તિ પ્રમાણત્વેન વર્શિતા ૧૨-૧૦ રૂ. અપપ્રસાચાપ લેવા મીણિતાળહેતુ “અન્નાત શર્થ પ્રાધ્યમ્ ” ઉતિ વનસંવો તઃ ५३-२२ ૨૫૪. કન્યાના સેવમાનાનામિતિ પ્રસ્થાવતરળ ! ५३-२४ મુખોપાત્ત્વનવેન માવતઃ વ્યાસેશ્વોમરૂપતાપજ્યાફ્રાય નિરસન, તત્ર સેગ્ય માર્ચ વિવિત્ત વ્યવહારલક્ષીર્ષતાનિવમ્, તદ્દમના જ ટીજાયામ ! ૫૪ ૩ . (૮ ) મન સારામધૂનામત્યુપર્શ “અનાર્હતા” ફત્યછમાં રિ, તન્ચાત્યાનશ્વ ! ' ૧૫ ૨ ૧૭. (૧ ) તીર્થરનામવયસ્કૃતાર્યો મળવાનુપટિશનચેતસ્મૃતિપાદ્રિા “તીર્થ. પ્રવર્તન ” દતિ નવમી વરિ, તત્ર્યલ્યિાનશ્વ | -૬૨ ૫૮ (૨૦ વ) નિરપેક્ષા જથમ તીર્થંકર[પ્રવૃત્તિીરત્યારાફ્રા વ્યવછેવાર્થ “તા. માખ્યાતિ ” શમી રિવા, શ્વાત્યાનસ્ત્ર ૨૧. પૂર્વતૃતીયમનુષ્યમેવે નિતિયાં વદ્દશ્ય તીર્થરનામકર્મનો વેતન ધર્મશાનવ - મવતી ત્યત્ર વિશેષાવામાખ્યસંવાવોપર્શન, તીરનામામાવા વસ્ત્રજ્ઞાનોત્પત્તિ- - - હાઇ વ મવતીચત્ર “રણ ના.” તિ વનસંવાવો વીતઃ ૨૦. માæરદાન્તન તcવામા પ્રિવૃત્ત માબવવનસંવતઃ ५६-१९ ૨૬. 'મિજામજાનામાના વનતિયા યુ વનેનૈવ સર્વસંરાયાનું જૈવચ્છિ ત્તિ માવાન, તત્ર પ્રમાઈ હ@૫માવ્ય, યુપતંરાયોચ્છવનેગનપુળા ફર્યાત્ર વૃદ્દપમાળ્યવિિ વશ્વમાવામાપિળાં મમવાષામનાનાં યુપને Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ વિસિંચયો-છે-મિત્યાચારસમીન, તત્ર સમવાયોકસંવાIિ દર. વિના ચમોવી પ્રવૃત્યિોરઢાંબુ, પતતુષાવનું રીસાયામ ! 9 ૬૬. પુકાળનસવિલ મોદીદાવ હેતુત્વ, મોદ્દીપદિ નિયતિને મેતિ વિટામપાતું, તસ્પર ચામવાળાતિના ૨૬. ડાગાઢ સમજામવાનમુદતમ ! ૨૬. વનિયતવામિથ્યાત્વે “ સાવયિતિ સમેતિયા પ્રમાળો વિતા ૧૨ ૬૬. વિરક્ષણ દાવાનેવ પ્રવૃત્તિર્વેરિરિ હિરામનપામાં, દિવેવને ચાન્સ ૬૬ ૨૦ , ૨૬૭ ( જા.) અમિતીધો માવસ્ય વરિત્રવને તનમેવૈશિવસ્ત્રાપો “. | ગુમાવતિ શિ , વ્યાન ! ૧૬૮. (૨૨ ) પૂર્વમવાતમાકૃતાવીજ્ઞાનત્રયુ દાનત ત્યાદ્રિ દ્વારા રિ, તાલ્યાનમ્ર ! ૬૨. (૨૨ ) સુમસારાવિયુવત્રિકમવનાયત્વાદ્રિ “ગુલાલ - સંતિ ત્રયોદશી પર તડ્યા ૭૦. ત્રિદરિદ્યાર્નમાળારિત્રાત્યાન માત્રાવિષે “નહ મેહા ફત્યાદ્રિ આચાત્ર, શતાવરમિયાન હત્યપટ્ટા વાઢત્તણેવ સૂરો' ફાતિ માયા ગ્રષ્ટિવિતા ! વા–રક ૨૭૬. (૨૪ ) વવવવતારમાર્ચ-વાધિમવિશેષપ્રતિપતિ “ ત્વમેવ બુદ્ધત” રૂતિ વતુર્વર ર, તારવીનન્ની ૨૭૨ (પ ) સારસંસારામિષમાળખુરસ્તરશતરાયપારિત્યાનપૂર્વદં વીતોહ્ય વીક્ષા કળમિત્યુવ િ “નન્મનરામરળા ” કૃતિ પન્નશૈક્ષારિ, તાયાનન્ન ! ૬૨ ૭ ૨૭૨. વાંરવાં રિચાં સાન્તિરિન્ટેરિત્યનુ સેન્સિરિતિ ક્રિમિન્યુમિતિ પ્રશ્નતિવિધીને “તારક્ષય માફ ફત્યારે સરનામાથાત્રયેં સંવાદ"નુપદિષ્ટમ્ ' ૬૨-૨૨ ૨૭. ( ) . છવા પ્ર ત્યદ્ભનિર્ત પ્રતિ વાસુમરામને 'તિ હસી રા, તાત્યાનગ્ન ૭૫પરાવરિચાત્યાયાં મહાવીરસ્વનિર્બળાનન્તકમેવ સન્નાતે મન-પર્યાયજ્ઞાનમિત્યુ મિર્ચન્ન “વિષ્ણમિ વૃત્તિ” રૂલ્યાવરાપ્યસંવાદ ૨૬. અાન્યમવાનાÊાવે “મને મોક્ષ સિવવનું પ્રમાણ -૭ ૨૭૭. “સામાયિાનામઢ પરમાર્થતશ્ચારિત્રવવું, તેન શાચાયતૂકવરિૉ નારિત્રવન્ત - ત્યાપિન્ન દર ૨૨ ૨૭૮. રોમિ મા ! સામાયિમિત્ય માવત મત્યુષાર સિદ્ધાત્મકદન્તમુક્રિયા ચારાર્થ-ત્યુતવાચબૂચ-તિમિતિમત્તેતિ ન મળ્યત ફત્યુમાવાનૂ દર ૨૪ ६२ २ ૨–૧૪ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५-२६ [११] १७९ (१७ का.) सम्यक्त्वादिषलयुक्तस्य भगवतो मोहनीयादिधातिकर्मचतुथ्यहननं केवल. शानकारणमिति तत्पूर्व तद्भवतीत्यावेदिका 'सम्यक्रवज्ञानचारित्रेति' सप्तदशी कारिका, तव्याल्यानश्च । १८०. ( १८.का.) अनन्तज्ञानदर्शनोपयोगलक्षणकेवलप्राप्त्यनन्तरं लोकहितार्थ कृतार्थस्यापि भगवतो वर्तमानतीर्थदेश नेत्यावेदिका "केवलमधिगन्ये त्यहादशी कारिका, तयाख्यानञ्च । ६४ .७ १८१. (१९ का.) द्वयादिभेदादियुक्तस्य वर्तमानाऽऽगमरूपतीर्थस्य संसाराणवामनदुःखक्षय सामावदिका “द्विविधमनकवादशाविधं " इत्येकानविंशतितमा कारिका, तद् व्याख्यानच! १८२. प्रकृत्या क्लिष्टकर्मणामभव्यानां भगवद्रूपभावसूर्योदयेऽपि प्रबोधाभावे तौभाग्य कारण मित्यत्र "अमव्येषु च भूतार्था" इत्यादि हरिभद्रवचनं, कादम्बयाँ "अपगतमले हि" इत्यादिवचनं च सम्वादिदर्शितम् ।। ६५-१६ १८३. सकलजन्तुभाषापरिणामिन्या भापया भगवान् तीर्थमिदं देशयामासेत्यत्र " देवा देवी नरा नारीम् " इत्यादिवचनं.प्रमाणं दार्शतम् । ६५-२३ १८४. मण्डूकपूर्णसदृशविलक्षणेत्यादिविवरणस्यार्थी भावार्थश्चोपदर्शितः । १८५. (२० का.)देशनीयस्यैतस्य तीर्थस्याऽत्यानभिभवनीयत्वप्रतिपादिका “प्रन्यार्थवचनपटुभिः" इति विशतितमा कारिका तयाख्यानञ्च । ६६ २ १८६. उपमानपदस्योपमेयपदसमानविभक्तिकरवप्रसङ्ग उत्थाप्यापाकृतः । १८७. समानलिकप्रसाऽनाशकीयो "मुख तव तथा भाति" इति भिन्नलिकोपमानो पमेयवचनदर्शनं हेतुतयोद्माव्य समानविभक्तित्वनियमावश्यम्भावतो “ हरीतकी भुक्ष्व " इत्यादिवचनासाधुत्वस्य काव्यप्रकाराटीकोक्तस्योपदर्शनेन समानविभरिकत्वाशकोद्भाव्य समाहिता मूले तथापीत्यादिना । ६६-१९ १८८. (२१ का.) विघ्नविधाताय कृतस्य महावीरनमस्काररूपमङ्गलस्य प्रतिज्ञापा “ कृत्वा त्रिकरणशुद्ध" इति एकविंशतितमा कारिका, तद्व्याख्यानञ्च । ६७ २ १८९. परमर्पये इत्यादि विशेषणचतुष्टयेन चतुर्थ्यन्तेन वचनातिशयादिचतुष्टयस्योक्तिरिति दर्शितम् । १९०. त्रिकरणशुद्धमिति “ शारजग्वादिज्ञापकान्निष्ठापरनिपातः” इति अन्थोऽस्तार्य व्याख्यातः। ६७ १४ १९१. (२२ का.) " तत्त्वार्थाधिगभार्थम् ” इति द्वाविशतितमा कारिका, तयाख्यानच । ६८ २ १९२. अत्र विषयप्रयोजनाधिकारिसम्बन्ध चतुष्टयलक्षणानुबन्धचतुष्टयोक्तिपदर्शिता। ६८ ७. १९३. (२३ का.) जिनवचनमहोदविसमहकरणे न सामर्थ्य तवापीति पराक्षेपपरा “महतो अतिमहाविषयस्य " इति त्रयोविंशतितमा -कारिका, तद्व्याख्यानश्च । . Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..- क्षमार्गत्वप्रतिपादक- ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः ” इति सिद्धान्तवचनयोविरोधाशका प्रतिक्षिता । ७८-२४ २२३. तथा 'नाणं पासयं ' इति विशेषावश्यकभाप्योक्त्या ज्ञानतपःसंयमरूपत्रिकस्य सभुदि तस्य मोक्षमार्गत्वप्रतिपादिकयाऽस्य विरोधो दूरीकृतः, उक्तभाप्योक्तानक्रियान्वा मोक्ष . "इत्यनेनापि विरोधोऽपहस्तितः, तत्र · संजमतबोमई" इति भाप्यसम्वादः । ७९ १ __ २२४. सम्यग्दर्शनादित्रिकस्य समुदितस्यैकशक्तिमत्वावच्छिन्नमोक्षमार्गरवव्यवस्थापनेन " सन्य श्रद्धासंविच्चरणानि मुक्त्युपायाः” इति नन्यसूत्रं सूत्रयता यद् बहुवचनमुक्तं तत्प्रति: क्षिप्तमित्यावेदितम् । ७९-१२ २२५. उत्तक कारणत्वात्तत्वार्थहट्टीकापचनसङ्गतिः। .७९-२१ २२६. एतानि समस्तानि मोक्षसाधनानीति भाग्यव्याख्यानासङ्गतिपरिहारो विस्तरतः। ७९-२३ २२७. प्रकने समस्त १६प्रयोगेऽप्येकवचनमेव न्यायमिति दर्शितम् । ७९-२८ १ २२८. परणेन श्रद्धासंविदोरन्यथासिद्धिरित्याशकापरिहाराय प्रत्येक कारणत्वाधाय बहुवचनस्य न्याच्यत्वमिति पराकूतस्य निरसन, व्यापारण व्यापारिणो नान्यथासिद्धिरिति विचारश्च। ८० ९. __ २२९, 'सलेश्यं क्षायोपशमिकं चारित्रं' क्षायिकभावेन परिणतितो मोक्ष प्रत्यव्यवहितकारणं - 'तथा क्षायोपशामिकसम्यग्दर्शनज्ञाने अपीत्यत्र विचारतां' इति खडसाधवचनसम्बादः, अन्योक्तेर्निरसनम् । . . ८०-२२ २३०. एतत्सूत्रं सकलतत्त्वार्थशास्त्राभिधेयमुररीकृत्य प्रवृत्त, कथं मोक्षोपाया ५५ प्रथम कीर्तिताः, न तु मोक्ष इति प्रश्नप्रतिविधानम् । २३१ सम्यग्पदस्य दर्शनादिमिस्त्रिभिः प्रत्येकमन्वय इत्युपदर्शकस्य भाष्यस्यावतरणम् । ८१ ४ . २३२. प्रथमतो मोक्षानुपदर्शने हेतूतभावोपदर्शनम् । ८१-१४ २३३, कार्याणां कारण यतजन्मत्वेन तदुपादानस्यैवादी न्यायत्वादिति द्वितीयहेतोः स्पष्टी करणम् । २३४. सम्यगदर्शनादीनां त्रयाणां ग्रहणे हेतूपदर्शनम् , ५५ पूर्वलामे उत्तरस्य भजना, उतरला . ... पूर्वलांभो नियतः। ८२ २. २३५. सम्यग्दर्शनादीनां त्रयाणां लक्षणं दर्शितम्। २३६. दर्शनस्य ज्ञानात् पूर्वनिपातऽभ्यहि तत्व हेतु(तस्योपपादनञ्च । - - ८२-१४ २३७. किमर्थ प्रत्येकं सम्यकशब्दप्रयोग इति प्रश्नः, तत्प्रतिविधानञ्च । ८३-२ २३८. मातुपादीनां केवलज्ञानलक्षणकार्यसिद्धिरित्यत्र "एवं सामायिकाद्यर्थेऽपीति" वचनसंवादः।८३-२७ - २३९. उद्देशलक्षणं निष्टक्षितम् । . ८४ ८. २४०. सम्यग्दर्शनादीनि त्रीणि सम्मिलितानि मोक्षसाधनान्येवेत्यवधारणानुपपत्तिराशाकिता ,तत्र "संहननायुरिति " वचनोटकनम् " य सम्बहेतुल" इति हारिभद्रवचन। ८६ १ - ८१-२३, Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१५] २४१. उत्त२ काप्रतिविधानम् । २४२. मानुषत्वसंहननाविशेषादीनामपि मोक्षोपायवात्रयाणामेवावधारणं कुत इत्याचाशङ्का प्रतिविधानम् । २४३. एषां च पूर्वला भजनीयमुत्तरमित्यादिभाष्यस्य स्पष्टीकरणम् । २४४. पूर्वस्य सम्यग्दर्शनस्य लाभ भजनीयमुत्तरं ज्ञानं चारित्रं चेत्यादि व्याख्यानं दर्शन ज्ञानयोर्भदे, स च तयोः कारणभेदात् स्वभावभेदात् विषयभेदाच, कारणभेदादिकं - च यथा तथोपपादितम् । ..८९ . ७ २४९. ज्ञानदर्शनयोर्मेदाभावपक्षमाश्रित्य व्याख्यानान्तरं, तयोर्भेदाभावश्चोपपादितः। . ९० १ २४६. ज्ञानदर्शनयोभदाभावपक्षे कारणभेदस्यान्यथोपपादनम् । २१७. सम्यगदर्शनशानयोमदविषये उत्तराध्ययनसूत्राष्टाविंशाध्ययनटीकायां श्रीशान्तिपूरि कृतायां यदुक्तं तदुल्लिखितम् । २४८. तयोः स्वभावविषयमेदाभावापपादनम् ।। २४९. ज्ञानावरणविशेष एव दर्शनावरणं, तदभिनायकः सम्मतिग्रन्थस्साक्षितयोक्तः । २५०. सम्यगज्ञानेन सह सम्यग्दर्शनस्य सामनेयत्ये साक्षितया " समन्नाणे" .... इति सम्मतिगाथा दर्शिता । २५१. उक्तदिशा चारित्रस्य ज्ञानविशेषत्वं, तत्र “ आत्मानमात्मना वेत्तीति " वचनसंवादः । ९२ ९ २५२. सम्यग्दर्शने सम्यगशब्दस्य दर्शनशनस्य च निर्वचनं भाष्ये, उपाध्यायटीकायां । ' तत्पष्टीकरणम् । २२३. (सूत्र २.) तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ॥ २ ॥ इति द्वितीयसूत्रं सम्यग्दर्शनस्य .. लक्षणप्रतिपादक, तद् व्याख्यानं भाष्ये, उपाध्यायटीकायां तत्स्पष्टीकरणम् । २५४. सम्यग्दर्शनस्य निर्गलितलक्षणम् । . ९५ ३ २५५. तारादृष्टौ स्थितो जीवः शिष्टाचरितमेव पुरस्कृत्य प्रवर्तते इत्यत्र " नास्माकं महती ___प्रति" पचनसंवादो दर्शितः।। २५६. तत्त्वार्थश्रद्धानलिशानां प्रशमादीनां भायोक्तानां लक्षणान्युपदार्शतानि ।। ९६ ६ २५७. निसर्गसम्यगदृष्टी श्रेणिकादौ चोक्तलक्षणाव्याप्तराचार्या अनन्तानुबन्ध्यादिक्षयोपश मादिजनिता एवं प्रशमादयो बाबा इत्यत्र " पढमाणुदयामावो" इति वचनं प्रमाण मुपदर्शितम् । तद्विवेचनं टीकायां-विस्तरतः । २९८. अनुकंपालक्षणनिरुपधिपरदुःखप्रहाणेच्छेत्यस्य व्याख्याने 'दह्रण पाणिणिवहम्' इति वचनमुपदर्शितम् । ९७-१५ २५९. पूर्वपक्ष-सिद्धान्ताशयोद्घाटनम् । ९८ २ २६०. लैझिकपलिस्थापि दुर्घहत्वादज्ञानासिद्धिरित्याशका निराकरणम् । . ९५-१५ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ . v v .ar २६१. प्रशमादयो निश्चयसम्यक्त्वत्यैव लिङ्गमित्यत्र "णिच्छयसम्मत्तं वा"इति गाथासंवादो . . दर्शितः, आस्तिक्यमेव शुद्धं लिमिति च । । २६२. लक्षणशास्त्रस्य लक्षणमुपदर्शितम् । २६३. असाधारणधर्मवचनत्वं लक्षणशास्वमित्यत्र व्यतिरेकिधर्मस्वमसाधारणत्वमिति गोव धनायुक्तस्य खण्डनम् । २६४. उदेश्यता३६५व्यापकत्वं सति लक्ष्यताक्छेच्दकव्याप्यत्वमसाधारणत्वमित्येतद्धटिमा । साधारणधर्मवचनलक्षणेऽतिव्याप्त्याऽऽशानिराकरणाथै तत्परिष्करणमित्येवं गौरीकान्तमतमपाकृतम् । १०० ४ २६५. स्वाभिमत लक्षणशास्त्र लक्षणं लक्षणवलक्षणं तद्बोधप्रकारश्च दर्शितः। १००८ २६६. (सूत्र ३) " तन्निसर्गादधिगमाता" इति तृतीय सूत्रं सम्यग्दर्शनस्य द्विहतुकत्वेन द्वविध्यप्रतिपादक, ताप्यञ्च । २६७. निसर्गाधिगमौ निरुच्य तद्धेतुके निसर्गसम्यग्दर्शनाधिगमसम्यदर्शने प्ररूपिते। . १०१ २६८. सूत्रे असमासकरणस्य प्रयोजनमुपदर्शितम् । २६९. तृणारणिमणीनां पहौ यथाशक्तिमत्वेन कारणत्वं तथा निसर्गाधिगमयोत्पीति दर्शितम् । १०३ २ २७१. तृणारणिमणीनामिति ग्रन्थावतरणे गूढार्थदीपिकायातदुपपादनम् । २७१. पूर्व निसर्गाधिरामयोवैकल्पिकी कारणतोक्ता, इदानीं तयोरेककारणतेति पूर्वापरन्थविरोध इत्याशानिराकरणम् । १०३-१८ २७२. तृगारणिमणीनां वहिगतवैजात्यत्रयमभ्युपेत्य तत्प्रत्येकापच्छिन्नं प्रति विभिन्न कारणतात्रयाभ्युपगमो नैयायिकस्य कथमिति प्रश्नप्रतिविधानम् । - १०३-२६ २७३. परामस्थलेऽपि व्यभिचारवारणाय स्वाव्यवहितोपरत्वं कार्यतावच्छेदककोटी निवे शनीयं, न तु कार्यतावच्छे कजातिभेदाभ्युपगमः श्रेयानिति निसर्गाधिरामयोः कार्यतावच्छेदकोटावपि तत्वाव्यवहितोपरत्वं निवेशनीयमिति । १०४ १ २७४. कार्यानुकूलकशक्त्यभ्युपग-तृमते वैकल्पिककारतास्थलेऽयक कारणतेति प्रकृतेऽपि : तथैवोपगम इति न पूर्वापरयन्थविरोध इति भावितम् । १०४ ६ २७५. मीमांसकमतावलम्बनककारणताभ्युपगमा, न्यायनयावलम्बनेन विभिन्न कारणतोपगता इति अव्यवहितोतरवस्य कार्यतावच्छेदककोटी निवेशोऽनेकनयमये जिनमते " जावइया नयाया" इत्युक्तर्नयदानां विचित्रत्वान्न दोपपोपाय । , १०४-२७ . २७६. निसर्ग परिणाम इत्यादि भाप्यस्य विवरणम् । , २७७. परिणानवाने दृष्टान्तत्रयोपदर्शनम् । . २७८. स्वभावाऽर्थका परिणामोऽत्र ससिको ग्राह्य इत्यधिगतये प्रायोगिकसिकमैदेन .' Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१७] ___ परिणामस्य द्वैविध्यमुपपादितम् । १०५ ९ २७९. उपादानकारणस्य लक्षणं स्वमतानुसारि, न्यायानुमतमुपादानलक्षणमुपदर्य तस्य जनमताविरुद्धत्वमुपदर्शित, तत्र विशेषश्च दर्शितः । १०५-२६ २८०. स्वभावोऽपरोपदेश इत्यस्यावतरणपुरस्रारं भावोपवर्णनम् । २८१. दैव-पुरुषकारभेदोपपादनं तद्विषये उपदेशपदग्रन्थोक्तमुपवर्णितम् । १०६-१९ २८२. उपदेशरहस्यादौ चास्माभिर्विवेचितत्वादिति विवरणस्पष्टप्रतिपत्तये तद्ग्रन्थस्तद्' भावार्थश्च दर्शितौ। १०७-१४ २८३. व्यवहारः सर्वकार्ये देवपुरुषकारयोरन्वयव्यतिरेकाभ्यां हेतुत्वं स्वीकरोतीत्यत्रोपाध्याय' कृतदेवपुरुषकारद्वात्रिंशिकापचं प्रमाणतया दर्शितम् । १०७ १९ २८४. गौणत्वमुख्यत्वयोर्लक्षणमुपदर्शितम् । १०७-२१ २८५. उत्कटत्वप्रयुक्त प्रत्येकजन्यत्व०यवहरणमित्यत्र “ उत्कटेन हि दैवेनेति ” पचनेन । भावना कृता । १०७-२४. २८६. सर्वस्य कार्यस्योभयकृतत्वेऽपि देवकृते पुरुषकारकृतत्वाभावो व्यवहारविषय उपदर्शितः । १०७-२७ २८७. साकारस्य ज्ञानत्वं निराकारस्य च दर्शनत्वं तदुभयात्मकत्वमुपयोगस्येति दर्शितम् । १०७-२९ २८८. "अनादौ संसारे" इत्युक्त्या भाष्यकारः सृष्टिवाद निराचष्टे, तस्य युक्तत्व, पराभिप्रेत सकर्तृकत्वसाधकानुमानस्याप्रयोजकत्वं, यद्विशेषयोरिति न्यायस्याव्यापकत्वमुपदर्शितम्। १०८ ३ २८९. युक्तश्चैतदित्यादितत्वार्थविवरणस्यावतरणपुरस्सरं स्पष्टीकरणं गूढार्थदीपिकायाम् । १०८ ९ २९०. क्षित्यादौ सककत्वसाधकस्य कार्यत्वस्यासिद्धिदोषकलङ्कितत्वं प्रपञ्चितम् । १०८-२९ २९१. यद्विशेषयोरिति न्यायबलात्कार्थत्वेन, कर्तृत्वन कार्यकारणभावोपगमे कार्थत्वकरण स्वाभ्यामपि कार्यकारणभावापत्तितः करणस्याप्येकस्य सकलकार्यकारणस्य सिद्धि स्यादित्यापादितम् । २९२. कार्यत्वावच्छिन्ने उपादानप्रत्यक्षत्वेन हेतुत्वत ईश्वरसिद्धयाऽऽशङ्काया अपाकरणं । १०९- १ . २९३. घटादौ प्रत्यक्षेच्छयोरन्वयव्यतिरेकसिद्धे कारणत्वे तन्निरूपितकार्यतावच्छेदकं लाघ वात्कार्थत्वमेवेत्याशङ्काया निरसनम् ।। २९४. कार्यत्वहतोरसिद्धयुद्भावनं कार्यसमं जात्युत्तरमिति प्रश्नस्य प्रतिविधानम् । १०९-१० २९५. घटत्वावच्छिन्ने कृतित्वेन कारणत्वेऽपि खण्डघटकर्तृतयेश्वरसिद्धिरिति दीधितिकारमतस्य तदीयै पितत्वमुद्भावितम् । ११० ४ २९६. परमाणव एवेश्वरस्य शरीरमिति नैयायिकमतस्य निराकरणम् । . ११०-१५ २९७. जनमतेन शिरोमणिमतस्य दूषितत्वमुपदर्शितम् । ११०-२३ २९८. "न च वैशेषिकनये” इत्यादिग्रन्थस्यावतरणम् । ११०-२७ २९९. पाकस्थले श्यामवादिनाशोत्तरं रक्तवसाधुत्पत्तिरिति वैशेषिकमतमाशयापाकृतम् । १ - १ २००. वैशेषिकमतखण्डनहेतुप्रतिपादकपूर्वसंयोगादीत्यादिप्रन्थस्य स्पष्टीकरणम् । - - पातकारमतस्य Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨. વા વવોવિનાતી સોપાલવૃધેન હેતુત્વ મવતુ નામ, તે બધવાદિશષ્યતવૈવ હેતુ વમતિ ન્યાયમતસ્ય વન્ડના ११२ १ ૨૦૨. સિન્નિકન્યમુખવાનપ્રત્યક્ષમેવ સર્વનન, નશ્વરપ્રત્યક્ષ તરીતિ નતાશ્રય- ' તેવેશ્વરદ્ધિરિત્યાવિત ! ૨૦૨. છૂચમાવછૂટયા ધુમૂત કૃતિ સામાન્યામાવચૈવ સામાન્યામાવ. .. - પ્રયોગwવ, તા તિવેન જાળવે સતિ ગુરુમતિ જ્યાશ્રયતયેશ્વરસિદ્ધિતિ ન્યાયમતસ્ય રવન્ડનમ્ ! - ૬૨-૧૮ ૨૦૪, ગામોમવીરને ધામોમાનામોર્થિનન્યડના મારા શરળ યદ્ધિશેષોરિતિ નાનામોમાનામાં સામાન્યરાત્વતાશ્રિય ચરઃ સ્વાદિયાપાતમ્ ? રૂ ? ૨૦. હિબાવા શરીરવિરહિતત્વેન મુઝપીનાં નવાનાં પુનઃ સુહૈ તેષાધિરળ , સંસારિવાપાતને મુatવનાથાય ત્યાપવિતમૂ | ૨૦૬. કાપત્યુદ્વારબારો નૈયાયિચારાય નિસ ૨૦૭. નાગવીર્થનાનામોર્થિનો મેળ પછીજળી ' ??–?? ૨૦૮. પ્રજ્યામા શત્વસ્ય મોમળ્યાખ્યત્વ નિમિત્ત, પ્રથામાવાસુરમાવ રાતિઃ | ??? ? ૨૦૨. સુંધરસ્ય સુષ્ટિવલને યુપી રમત ! ૩૨. પ્રવામાડનુમાન પ્રમાળનુપશિતમ્ ! ૨૨. મૈસાપેક્ષ નેશ્વરત્વમસમાન નિયાચિઠ્ય પૂર્વપક્ષ કમાન્હાપાતઃ | ११४-१७ ૨૨. સંસારચાનાવિત્વસંધનબાર કપાત છે ११४-२७ ૩૨. આત્મ વિમુડપિ સન્મમરણોપાત્તરારાવાપાતા ! રૂ છે. જ્ઞાનાવાઈયાર્મિળ સાધમનુમા રોત ! ११५-१० રૂ. ૧ર્મગોડઝૂEષરનામત્મકુળä તૈયાયામમતમારા નિરાøત ! ११५-१७ ૨૬. અાત્મનઃ પારતત્રં કરનપ્રતિવિધાનાખ્યાં પ્રસાધ્ય તેના કર્મળઃ પૌજિત્વે વ્યર્વ- ' સ્થાપતમ્ ! ૨૭. “અન્ને ૪ અમુd વિય” ત્યારે સિદ્ધાન્તયુમિઃ જર્મળઃ પૌત્વે સિદ્ધ તત્વ જ્ઞાનાવરણતયા સિદ્ધાંવનુમાનમુદ્ધતમ્ ! ! - ૨૫-૧૬ ૨૨૮. વન્યનિજાવનોચનિર્નશપેલું પુષ્પપપપવિત્ર વનિનનારસ્વરૂપમાં , ટીકા છયા છૂટતાયા નિવનામેવત્વ ાત ! ૨૨. વદ્વછૂછનિતિવરૂપમેદસ્ય નિતીન પરબ ૨૨૭ ૨; ૨૨૦, વનિવિનોદય નિરા વરૂપબપદ્મન તદુપયો%િ માવિતઃ ??૭ ૬ રૂરી. અનામોનિતિન યથાપ્રવૃત્તળનેતિ મૂક્યા જાવાર્ષિત તત્ર યથાપ્રવૃત્તળા- . , પૂર્વનાનિરિણમેન ત્રિવિધાનિ જાબાનિ વિવિ તિનિા ઇ-૨૨ -૨ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [es] ३२२. उक्तानि त्रीण्यपि करणानि भव्यानां, अभव्यानाञ्च प्रथमं यथाप्रवृत्तकरणमेव, अत्र ' करणं अहापवत्तं ' इति भाष्यवचनसंवादः । ३२३. - अनादिकालादारभ्य यावदुन्थिस्थानं तावत् प्रथमं यथाप्रवृत्तकरणं भवतीति प्रतिज्ञाय तदुपपादनं प्रश्नप्रतिविधानाभ्यां कृतं तत्र ' पाएण पुव्वसेवा' इत्यादि भाष्यसंवादः । ३२४. ग्रन्थिभिन्दानस्य द्वितीयमपूर्वकरणं, अभिमुखसम्यक्त्वस्य तृतीयमनिवर्तिकरणं, ' जा गंठी ता पढमं ' इति विशेषावश्यक भाष्यसंवादश्च । ३२५. उत्कृष्टकर्मस्थित्युपवर्णनं तत्र “ वसिसयरोवमाणं " इति विशेषावश्यकवचनं प्रमाणं, तत्र स्थितस्य सम्यग्दर्शनाला " अट्टहं वि पयडीणं " इति वचनं प्रमाणम् । ३२६.- अन्तिमकोटीकोट्याः पल्योपमासंख्येयभागे क्षपिते कठिनरूढ गूढग्रन्थिरुपतिष्ठते इत्यत्र " अन्तिमकोडाकोडीए " इति वचनं प्रमाणमावेदितम् । ३२७, असौ ग्रन्थिः कर्कश्चनरूढवल्कलग्रन्थिसदृश इत्यत्र " ठिति सुदुब्भेओ " इति वचनं प्रमाणम् । ३२८. अमुं ग्रन्थिं यावद् भव्य इवाभव्योऽप्यागच्छति, तत्रागतस्य तस्य श्रुतसामयिकावाप्तिरित्यत्र “ तित्थकराइपूअं " इति विशेषावश्यकवचनं, तदर्थञ्च दर्शितः । ३२९. तत्र सख्येयकालमसङ्ख्यकालं वाऽमन्योऽत्र तिष्ठते इत्याद्युपदर्शकं धर्मसङ्ग्रहवचनसुपनिषद्धम् । ३३०, अभव्यसिद्धिकोऽभिन्नानि दशपूर्वाणि चतुर्दशपूर्वाणि वा नैव लभते इत्यत्र कारणमुपदर्थं तत्र " चोद्दस दस य अभिन्ने ” इति वचनं दर्शितम् । ३३१. भव्याभव्ययोरुक्तविशेषप्रयोजको जातिभेद उपदर्शितः । ३३२. · भव्यजीवो भिन्ने ग्रन्थिस्थाने मोक्षहेतुं सम्यग्दर्शनमासादयतीत्यत्र “भिन्नम्मिं तम्भि” इति वचनसंवादः । ३३३. नैसर्गिकसम्यग्दर्शननिर्वचनं, प्रसंगाद्यथाप्रवृत्त करणापूर्वकरणानिवृचकरणानां निर्वचनपुरस्सरं फलभेदकथनम् । ११७-३० ११८ २ ११८-१८ ११८ - २४ ११९ ४ ११९-७ ११९-८ ११९-१८ ११९-२१ ११९-२७ ११९-३१ १२० १ १२० ८ ३३४. निसर्गसम्यग्दर्शननिगमनपुररसरमधिगमसम्यग्दर्शनप्ररूपणम् । ३३५. जीवाजीवादिसप्ततत्त्वोद्देशात्मक चतुर्थ सूत्रावतरणं भाष्यकृतः, तद्विवरणञ्चोपाध्यायस्य । १२१ ३३६. जीवाजीवादिसप्ततत्त्वोद्देशसूत्रं तुरीयं तद्भाष्यञ्च । ६ १२२ ६ ३३७. जीवाजीवाश्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षाणा संक्षेपेण लक्षणाभिधानं इत्येष सप्तविधोऽर्थ - स्तत्त्वं, एते वा सप्तपदार्थास्तत्त्वानीत्येवमेकत्रच नवहुवचनान्तघटितभाष्यव्याख्यानभेदस्य संगमनञ्च । ३३८. - गूढार्थदीपिकायामेतत्सर्वस्य स्पष्टीकरणम् । १२२ ९ १२२-१२ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३-५ [२०] ३३९. तत्वमिति सौत्र मेकवचनान्तं निरवद्यतयोपपादितम् । _३४०. तत्र जीवानुदिश्य तत्वविधान, तत्त्वमुदिश्य पुनरावृत्या जीवादिविधान कर्तव्यमिति विवेचितम् । - १२३ ..७, ३४ १. जीवादीनुद्दिश्य यतत्वविधानं, यच तत्वमुद्दिश्य जीवादिविधान तयोरवतरणादिनोपपादनम् । १२३-२६ ३४२. अन्यत्र पुण्यपापयोरप्यधिकस्य श्रवणाकथं सप्तैव पदार्था इति प्रश्नप्रतिविधानम् । १२४ ३ . ३४३. आश्रवादीनां पश्चानां जीवाजीवयोरेवान्तर्भावाज्जीवाजीवौ द्वावेव पदार्थो वक्तव्याविति प्रश्नप्रतिविधानम् । १२४ ४ ३४४. विभागलक्षणघटनाऽयुक्तसूत्रं कथं विभागरूपमिति प्रश्नस्य प्रतिविधानम् । १२४-१३ ३४५. “ जीवाजीवा पुण्णं " इति नवतरवप्रतिपादकं नवतत्त्वप्रकरणादौ वचनम् । १२४-२३: ३४६. आश्रयो मिथ्यादर्शनादिपरिणाम इत्यस्यावतरणेन द्रव्याश्रवोऽजीवे भावाश्रवो जीवे. ऽन्तर्भवतीति दर्शितम् । १२४-२४ ३४७. आश्रवादीनां जीवाजीवयोरन्तर्भवतामपि पार्थक्येनाभिधाने हेतुरुपदार्शतः। १२५ ५ । ३४८. द्रव्यसंवर-भावसंवरलक्षणभेदप्रतिपादकं "यः कर्भपुद्गलादान-च्छेदः" इति पारमप्रवचनमुक्षितम् । १२५-१५ ३४९. मोक्षस्येव संसारस्यापि पार्थक्येनाभिधानमुचितमिति प्रश्नप्रतिविधानम् । १२५-२५ ३५०. संवरनिर्जरयोः पार्थक्येनाभिघाने युक्तिः स्वयमावेदिता। १२५-३० ३५१. नामस्थापनेत्यादिनिक्षेपचतुष्टयप्रतिपादकं पञ्चमसूत्रमवतार्य विवृत्तम् । १२६ १ ३५२. 'जत्थ य जं जाणिज्जा' इत्यनेन निक्षेपान्तरकल्पनाया अनुमतत्वमाश्रित्य ‘णाम। ठवण दविए' इत्यादिसूत्रेपृक्तत्वान्निक्षेपाणां पविधत्वं सप्तविधत्वादिकच्चेति कथमत्र निक्षेपचतुष्टयस्यैवाभिधानमिति प्रश्नस्य प्रतिविधानम् । १२६-१३ः । ३५३. तत्र सर्ववस्तुनियतत्वं नामादिनिक्षेप चतुझ्यानामेव, नान्येषां, उक्तञ्च भाष्ये “ नामा दिभेदसइत्थ " इत्यादि, तेन नामादिनिक्षेपचतुष्टयाभिधानं युक्तमिति । १२६-२२ ३५४. अन्येपा निक्षेपाणा निक्षेपचतुष्टय एवान्तर्भाव इत्यत्र " चतुष्काभ्यधिकस्येह "इति पर्य प्रमाणं दर्शितम् । .. १२६-२८ ३५५, सर्वशब्दानां सर्वार्थ वाचकत्वेन जीवादिपदाना जीवादिपदार्थेषु नियताः शक्तयो जैनमते न सन्तीति कथं नियतशक्त्युपपादनेन स्वस्वपदशक्तिमहो जैनानामिति प्रश्नप्रतिविधान, तत्र प्रतिनियतसंकेतहस्याभिव्यञ्जकत्वमुपपादितम् । १२६-३० ३५६. संकेतमहत्यैव शा०दहेतुत्वमाशंक्यापाकृतम् । १२७-१२ ३५७. आशय लक्षणोच्छेद इप्टापत्या परिहृतो यशोविजयोपाध्यायैश्शास्त्रवार्तासमुच्चयटीकायामिति दर्शितम् । १२७-१८ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२१] ३५८. वाच्यवाचकमावलक्षणशक्तिश्च न मीमासकमतवद्धर्मितो भिन्ना, किन्तु भिन्नाऽभिन्ना चे कथञ्चिदिति दर्शितम् । - १२७-२३ ३५९. नैयायिकाभ्युपगतसंकेतलक्षणशक्तिखण्डनम् । १२७-२४ ३६०. पर्यवसितस्य शक्यतावच्छेदकभेदेनकस्य शब्दस्यानेकशक्तिप्रदकिवचनस्पनिक्षेप सामान्यलक्षणस्य नामादिप्रत्येकनिक्षेपवचने न सम्भव, इति प्रश्नस्य प्रतिविधानम् । १२७-२८ ३६१. तत्रानुगत निक्षेपसामान्यलक्षणं तस्य प्रत्येक नामनिक्षेपादिचतुष्टयेषु नानाशक्यता पच्छेदकोपपादनपुरस्सरं सङ्गमन, तदन्तर्गतच " अणुवआगो ६०वमित्यादि" वचनम् । १२८ ६ ३६२. वस्तुमात्रस्य निक्षेपचतुष्टयरूपत्वे एकार्थक शब्दोच्छेदापत्तिरित्याशङ्काया निराकरणम् । १२८-३१ ३६३. 'ययातिजातया। पदार्थः' इत्यभ्युपगच्छझियायिकै व्यस्थापनाभावनिक्षेपत्रय मभ्युपगतमेव, वैयाकरणैर्नामपदार्थः इष्यत इति निक्षेपचतुष्टयाभ्युपगमः परमतेऽपि । १२९ १ ३६४. भावश्च शब्दार्थः, पातिकवचनेन नाम्नो भावत्वमिति नाना शब्दार्थत्वं सिद्धयतीति । १२९ ३ ३६५. नामादीना त्रयाणामप्रस्तुतार्थनिराकरणमात्रफलकत्वेन व्यवहारे भावनिक्षेपस्यैव मुख्यत्वेन मुख्यार्थमादायकार्थकत्वोपपत्तिः, भावधीत्वादेस्ति सामान्यस्य प्रवृत्तिनिमित्तस्यैकत्वात् , अष्टसहस्यामेतद्विषये निष्कर्षश्च । १२९ ५ ३६६. ततश्च निक्षेपचतुष्टयानुगतगोस्वादेः प्रवृत्तिनिमित्तस्यैकत्वाद् गोपदादेरप्येकार्थत्वं, निक्षेपसामान्यलक्षणं नामनिक्षेपादीना पृथगलक्षणञ्च दर्शितम् । १२९-११ ३६७. नानः पदार्थत्वे वैयाकरणाना युक्तिरुपदर्शिता, तत्र 'न सोऽस्ति प्रत्ययो लोके' इति हरिकारिका तत्साधिका दर्शिता । १२९-२४ ३६८. घ८ इति नाम्नो पार्थाऽभेदो व्यवस्थापितः । १२९-२९ ३६९. शब्दाना भावत्वं युक्तमित्युपपादितम् । १३० २ ३७०. प्रमेयत्वादिना हरित्वादिविशिष्ट शक्तिबहाद्धरित्वादिनोपस्थितितो हरित्वादिना शाब्दयोष इत्याशकाया निरासः। १३० ४ ३७१. भगवत्प्रवचने जघन्यतोऽपि निक्षेपचतुष्टयम् । उत्कर्षतस्तु यस्मात्पदान यावन्तोऽर्थासंप्रदायाऽविरोधेनापतिष्ठन्ते तावत्सु निक्षेपप्रवृत्तिरिति दार्शतम् । १३० ६ ३७२. लक्षणोच्छेदारकायाः परिहारः । ३७३. जघन्यतोऽपि निक्षेपचतुथ्यस्य वस्तुनियतत्वे निययं जं' इति विशेषावश्यकभाष्यसंवादः। १३०-२० ३७४. शक्तिसंकोचविकासयोरिति मूलस्थावतरणपुरस्सरमों दार्शतः । १३०-२३ ३७५. शक्तिसकोचतो निक्षेपचतुष्टयस्येव ततो न्यूनस्य कथं न करणमिति प्रश्नप्रश्नपतिविधानाभिप्रायाश्रयेण एभिनमिादिभिरित्यादिभाष्यावतरणम् । १३१ २ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ર૨ ] ૨૭. નામનિર્ણપવિત્રતુદયસ્ય પ્રત્યે નવાનવાઢિપુ સાવંડનાદિમાવેષુ સર્વાનુમતે ' ' ' સ્ટોપાવાનપુરા વ્રત, દ્રનિલે વિવારો વારોતસ્થા ૨૭૭. ઉમાખ્યવિવરણનુપાધ્યાયસ્ય . ' ૨૨–૨૨', ૨૭૮. દ્રવ્યાસ્તિના પ્રવ નામાિિનક્ષેપત્રયનચુપચ્છતિ પર્યાયાસ્તિના પુર્વ માવનિ ક્ષેપમાત્રમવુપાચ્છતિ પત્ર “નામે વેળા” ફતિ સમ્મતિમાથાસંવા ફરૂર છે ૨૭૬. અનુયો સ પિટાઈ હત્યાવિ યશોવિનયપાધ્યાયવવનાર્થક્ય પછીણ / રર-૧૮ " ૨૮૦. તનાવતો તનાવતો વા વદ્ ગીવ તિ નામ ચિતે જ નામનીવ ત્યત્ર “મવામિખાય” તિ વનસંવતઃ | ૨૨૨-૨૬ ૨૮૨. નવનાનામવા નવનામશિર્થસ્થ નામસૂત્રમાવાન્નામનવ તિ વ્યપદેશો સ્થાવિતિ પ્રશ્નપ્રતિવિધાનપરતયા નામનામવત રોપવારવિતિ ગ્રંથોડવારિતઃ ૨૩૨-૨૨ ૨૮૨. નાનાં બીવી નામનવ રૂક્ષ્યત્ર નામદારો વધ નામૈવ નીવો નામની ફત્યત્ર વસ્તુપાધિો નાવિશે વોઇ ફતિ પક્ષમતા વધારે વૈવિમુપાત ૨૩૨ ? ૩૮રૂ. નાસ્ના નવ તિ તૃતીયાસમાસ ગીવાળ્યત્વશિષ્ટવિનામ નામનિક્ષેપવિષયતાવ- - છેવામિત્વત્ર “વદ્વાનોમવા” તિ પસંવાદ १३३ ५ રૂ૮૪. નામ પામવતો મેપનારાદિત્ય રિન્યાતમ્ ! ૨૮. વસ્તુનોડમિધામિત્વચૈવ સમાનાર્થમ્ “પન્નાવાડાભિધેયં તિ વિશેષાવરવનનુપદ્રર્ય તર્થ પર્શિતઃ | - ૩૨–૨૯ ૨૮. અન્ય મિથે ચારોપિત કasધાનાર્થનિરપેક્ષે રૂપયાંયાનધેિ યવ થાવૃષ્ઠિ તદુંમયાન અક્ષણમુપત ! १३४ ७ ૨૮૭. ફત્વરનાને ચાવદ્રમાવિનાન્ન મેળ નિર્વવનમ્ શરૂ8-૧૨ ૨૮૮. નાગેન્દ્રાદિસાધારણમન્યતત્વટિતસ્ત્રક્ષણે વરિતમ્, પુર્વ પુસ્તક્રિદ્ધિવિતાવળં-', વોલ્વરુપના ડાન્યતમત્વેન ફત્યુપતારતમ્ ! આ ર૪–૨૨ ૨૧. સ્થાપના નવનિહાળપરતયા “ વાછત્યાદિ માખ્યવાર્ય ચાલ્યાત ! | શરૂષ ? ' ૨૨૦. સાપનારક્ષણ પદ્ધ તથૈવચુક્યુમતિ' મધમર્થમાવનાપરીને ન્યાદ્યતનું ! રૂ૨૨. સમૂતસમૂતસ્થાપનાક્રયાપદ્રવ “પ્પાથી ફાવિ પદ્યમુર્જિવિતમ્ ! શરૂ6-૨૨ ૨૨૨, ફત્વયાવથિવસ્થાપનાવિનનમ્ | १३५-२५ ૩૦૩, “ને નિરામિતિ વિદિયા ત્યાદિ વૃ ક્ષમાબવવનેન દેવોનયતમાવાનાં. : - શાશ્વતત્વમુપતન્ !. રૂપ-ર૬ ૨૨૪. સમૂતાણભૂતનવસ્થાપનવો સમર્થન સ્થાપનાદષ્ટાન્તોપદ્રતયા “ન્દ્રો રુદ્રઃ” . . ત્યાદિમાધ્યમવારિતમ્ ! १३६ - २ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२३] ३९५. “ जं पुण तयस्थसुन्न" इति विशेषावश्यकपद्यानुसारेणानुगतापनालक्षणं तद्विशेषपादिप्रयोजनं च दर्शितम् । १३६-१० ३९६. उक्तलक्षणेऽस्वारस्याधुमावनपुररसरं लक्षणान्तरमुपदार्शतम् । १३६-१८ ३९७. द्र०यजीवनिक्षेपलक्षणपरतया द्रव्यजीव इत्यादिभाष्यमवतार्य विवृत्तम् । १३७ २ ३९८. द्रव्यजीवनिक्षेपो न सम्भवतीत्युपदर्शक शून्योऽयं भज' इति भाष्यमवतार्थ व्याख्यातम् । १३७ ७ ३९९. निगोदजीवानामप्यक्षरानन्ततमो ज्ञानभागो नित्योद्घाटित इत्यत्र 'सव्वजीवाणं पि' ___ इति सिद्धान्तवचनमुल्लिखितम् ।। १३७-१५ ४००. विद्यमान व भविष्यत्पर्यायकारणत्वात्तदपेक्षया द्रव्यरूपमित्यत्र दृष्टान्तप्रातिपादक "मिड पिंडो द०वघडो" इत्यादिसिद्धान्तवचनमुपदार्शतम् । १३७-२६ ४०१. जीवे द्रव्यानिक्षेपाभावे नामादिचतुष्टयस्थाव्यापकत्वं स्यात् ' जत्थ य जं जाणिज्जा' इत्यादि वचनेन नामादिचतुष्टयस्य व्यापकत्वं सिद्धमिति प्रश्नस्य प्रतिविधानम् । १३८ ५ ४०२. जीवत्वस्यानाधानिधनपारिणामिकभावस्य प्रतिपादकं ‘दव्येणेगं दव्यं " इति विशेषावश्यकभाष्यवचनं दर्शितम् । १३८-२४ ४०३. जीवेऽपि द्रव्यनिक्षेपसमयोपपादक मतान्तरमुपदर्शितं तत्रास्वरस आवेदितः, तत्र द्रव्यजीवत्वभावजीवत्वयाविरोध आवेदितः । १३९ १ ४०४. द्रव्यजीवत्वभावजीवत्याविरोधः स्फुटीकृतः । १३९-२६ ४०५. तयोरविरोधोपपादकप्रश्नस्य प्रतिविधानम् । १४० १ ४०६. द्रव्यरूपं जीवादिकं वस्तुमात्रं द्विधा आगमतो नोआगमतश्चेत्यादि चर्चित . विस्तरतः । १४०-१० ४०७. जीवशब्दार्थज्ञस्तत्रानुपयुक्तो द्रव्यजीव इत्यादिना व्यापित्योपपादक मतातरमुपदर्शितम् । १४१ १ ४०८. भावनिक्षेपोपदर्शक भावतो जीवा' इति भाष्यम् । १४१ २ ४०९. जीवशब्दार्थशास्तत्रानुपयुक्तो द्रव्यजीव इत्यादि मूलमयतार्थ विवृतम् । १४१-१४ ४१०. पचिप्रधानेऽप्यर्थे द्रव्यपदं, तत्र " अप्पाहन्ने वि इहं " इति गाथा, सकलद्रव्यनिक्षेपानुगत द्र०यनिक्षेपलक्षणञ्चोपदार्शतम् । १४१-१८ ४११. सिद्धान्तक्ति भावसामान्यलक्षणं किमिति प्रश्नप्रतिविधाने ' भावो विवक्षितक्रियेति - वचनं, तदर्थश्च दर्शितः।' १४१-२६ __४१२. आगमतो नोआगमतश्च भावो द्विविध इति प्रपञ्चत उपपादितम् । १४२ १ । ११३. अर्थाभिधानप्रत्ययास्तुल्यनामधेया इत्यवलव्यादीना त्रयाणामिन्द्रत्वं भावितम्। १४२-११ ४१४. इन्द्रार्थ जानन् तत्रोपयुक्तो भावेन्द्र इत्यस्य बृहत्करपमाष्ये "न हि जो घडं पियाण" __ इत्यादिगाथाद्वयं प्रश्नोपराभ्यां संवादकमुपदार्शतम् । १४२-१६ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તથા વ્યાયાતઃ | [ ર૪] કપ દુન્દ્રાર્થોપયોગવતો માખ્યત્વે બન્યુપયુજીસ માળવજ્ય માવાનિત્વોડડજાયા કપાળમ્ | '૬૪૨-૨ ૨૬. નગારામતઃ વાયરો વેન્દ્ર તિ વ્યવસ્થાપિતા, १४२-२४ ક૭. નામિત ફર્યંત્ર નોરા ના વેશનિષેધાત્રે મિન્નદાન્તા ઘનમ્ ! १४२-२९ ૪૬૮, પૂર્વ માનવ વવને વિશ્વસ્ય વ્યા ત્યારે માવતો નવા તિ વહુવનનમયુર મિતિ કરનપ્રતિવિધાન ! ૪ ૬. શ્રૌપરામાત્યાયાવન્યવયવન, કવો વ હૃક્ષામત્યુપાદિત : ૨૪૩ ૨ ક૨૦. “પુરુષ પહં સર્વ ત્યાદિ ગ્રંથો ખ્યાલ્યાતા, માવાવનાના માનમુપાર્શત કરૂ—૨૬ કરશે. સૂતાવ-બ્ધત્વવ શક્યતાવના સ્વર્ય મુખ્ય સ્વાહિતિ ગ્રંથ લખ્યો , १४४-१९ ૪૨૨. તત્તરિાષ્ટબ્રહ્મલાયા હવ તdદ્ધર્મપત્ને તત્તબર્જેનિમિત્તતા માવત્વમત્ર “સંધિવાસંતતિ” વાક્યપવી પદ્ધયમુપાતનું ! કર૩. નવવનાવવિશ્વપ નામાવતુષ્ટય વિવિોપર્શનપુરં વ્યાપત્યું નિયમિત ! ૪૬ ૬ ૪૨૪. મિત્તવાનિ નિલેપતુષ્ટયાવતારવવેક્ષ્મપિ વનિ નિક્ષેપવતુષ્ટયાવતાર, તત્ર “હવા વહૂમિહા રૂતિ મામા સમ્મતિરાવિતા “નાત્યાજ્ઞાતિય પવાર્થ ફતિ શૌતમસૂત્રના ૨ વૃતાં १४५-२० રક ભાતવાદનાં દ્રવ્ય-માવનિક્ષેપનારે ટીક્સરામિષાયો માવતઃ - કર૬. નળયોવૃદ્ઘનિષ્ઠત્વ પુનર્વધwવરૂપઝક્ષણa વૃતિ ! ૨૪૬-૨૩. ૨૭. બાવાને દ્રવ્યશઃ સિદ્ધાન્ત યુaો શતઃ | १४७ २, ૨૮. નવાવનાં સામાન્ય નામાનિતુષ્ટયાવતાર ત્યચંતય પર્યાયાન્તરણાત્યાદ્ધિ માધ્યમવાર્ય વ્યારાત ૪૭ ૨૦ ર૬. દ્રવ્યદ્ર પક્ષાન્તરપ્રતિપાવવું વિધ્યારિત્યાદ્રિ માધ્યમવાર્ય વ્યાવ્યાતના, ૨૪૭ ૨ ) ૪૨. વ્યાજ્ઞામાવાઝો. પ્રતિપાદિસત્તા “મવાળા પુળ” તિ માદયમુપહેરાય- ''' વિગતછવિતમૂ | - ૨૪૭-૨૨ ૪૨. સદ્દાતા દત્પાદસ્ય યુવેડા મેવાવર્થ દ્રવ્યોત્પાદ્ધ તિ કરનચ પ્રતિવિધાનો ૨૪૮ ૨ - જરૂર. “અળવ ધા સામેન્ટ્રખ્ય કાન્ત’ ‘મેવાણુ ત ત વાર્થસૂત્ર દ્રવ મૂઢિવિતાવતાર્ય ચાલ્યતા છે ૨૪૮ ૫ ર૩. થ સદ્યાતા દ્રવ્યમુપસ્થત ફત્યાત્રિકરનપ્રતિવિધાનપમૂરગ્રંથોડવતાર્યો ખ્યાલ્યતઃ ૪૮–૧૮૨૪. યુક્તિ મેવ જ દ્રવ્યનનવત્વમિતિ કરને વધાવાપાત, કાવ્યયવ્યા બામરોલોજિ નિરાશ્રયય પરમાણુકન્ન નરિરિતિ પરમતસ્ય નિરાશ્ચિT ૪૧ ૨ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३५. उत्पत्तेः प्रापित्यादिप्रश्नप्रतिविधानादिग्रंथा अवतार्थ व्याख्याताः । १४९-१२ ४३६. परमाणुत्रयेण द्विप्रदेशिकद्वयस्यैवोत्पत्तिः एकपरमाणुविगमे च तद्विप्रदेशिकविगमा देकद्विप्रदेशिकस्याभिव्यक्तिर्न तु भेदादुत्पत्तिरिति शङ्काया निराकरणम् । १५० १ ४३७. दशतन्तुकादेश्वरमतन्तुसंयोगवियोगक्रमण नाशे नवतन्तुकादेभिव्यक्तिरेव, न तूत्पत्ति रिति परमतस्य निराकरणम् । ४३८. " विगमस्स वि एस विही” इति सम्मतिगाथामुल्लिस्य तदनुसारेण विनाशस्य समुदायविभागार्थान्तरभावामनभेदेन द्वैविध्यमुपपादितम् । १५१-१६ ४३९. भावतो द्रव्यमित्येकवचनेनोद्दिश्य भावतो व्याणीति निर्दिशतो भाष्यकारस्याभिप्राय आवेदितः। १५२ १ ४४०. सगुणपर्यायाणीत्यादिभाष्यग्रन्थार्थो दर्शितः । १५२ . २ ४४१. आग न्य।०६स्य भव्यादिपर्यायशब्देनार्थकथनमित्यागमत इत्यादि भाष्याभिमतमिति दर्शितम् । १५३ १ ४४२. जीवादीना द्रव्यशब्दस्येव गुणक्रियाविशद्धानामपि तत्त्वाधिगमार्थ न्यास इत्यर्थक एवं सर्वेषामित्यादि भाष्य याव्यातम् । १५३ ७ ४४३. निक्षेपफलवरवप्रतिपादने 'इदमेव च नामादिभेदोपत्त्यासेन इत्यादिपिण्डनियुक्तिपाठी दर्शितः। १५३-२९ ४४४. 'प्रमाणनयैरधिगमः' १-६ । इति सूत्रभवतायं तद्विवृतिरूप भाष्यं, तत्र प्रमाणं प्रत्यक्षपरोक्षमेदेन द्विविधं वक्ष्यमाणं मतान्तरेण चतुर्विधं, नया नैगमादयो वक्ष्यमाणा इति च दर्शितम् । ४४५. प्रमाणनयरित्यत्र तृतीयाकरणे ०५वस्थापिता। ४४६. ५४सूत्रावतरणिका तरवार्थाधिगम निक्षेपप्रमाणनयानां हेतुत्वमित्युपपादनेनावतारिता । १९५-१७ ४४७. प्रमाणनयरित्यत्र नयस्याल्पान्तरत्वेन पूर्वनिपातः कुतो नेति प्रश्नस्य प्रतिविधानम् । १५९-२४ ४४८. “ तं समासओ दुविहं " इति प्रत्यक्षपरोक्षभेदेन प्रमाणवैविध्यप्रतिपादक नंदीसूत्रवचनमुपदर्शितम् । १५६-१४ । ४४९. बौद्धाः प्रत्यक्षमनुमानं चेति प्रमाणद्वयमभ्युपगच्छन्तीत्युपपादितम् । १५६-१६ ४५०. वैशेषिका अपि प्रत्यक्षमनुमानञ्चेति प्रमाणद्वयमेवान्युपाच्छति शब्दोपमानयोर्यथाऽनु मानेऽन्तमविस्तथा दर्शितः, अर्थापत्त्यनुपलब्विसंभवैतियानां प्रमाणान्तरत्वमपाकृतम् । १५६-२० ४५१. अनुयोगद्वारमन्थे उक्त प्रमाणचतुर्विधत्वं नयनादान्तरण, तद्यथा दुःस्थितं तद् . भाष्यकारो दर्शयिष्यति, शब्दसमभिवभूतानां शब्दसंज्ञया सध्यानयानां पञ्च: વિષત્વમિતિ દ્વારા १९७ ..१ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (૨૬) ૪:૨. પ્રમાબનયયોઃ ઃ ઋનેિરોષ ફીત દરર્ગાવવાનું તંત્ર સર્વેનયાનાં મિથ્યાÐિત્વ સ્વપક્ષપ્રતિવદ્વાનામ્ । ૪૬૨. પરસ્પરાપેક્ષા નૈમાદ્યો નયા:, તૈઃ સમહ્તવસ્તુવધાવવનું જ્ઞાનું નન્યતે સપ્રમાણ મિત્યપરાનાર્ચામાં મતં તંત્ર પરસ્પરનિરપેક્ષામાં તૈયામાસત્વગ્ન વાંરીતમ્ । હ્ર?. અત્ર પક્ષદ્વચવિમાયો વિવિષ્ય નચિંતઃ પ્રમાણેવાયજ્ઞપશ્ચાવિતમ્ । છા. નાયડુનૅચરુક્ષવિમાનો વાંરીતઃ, હોોત્તરપ્રામાખ્યા માખ્યાખ્યાØ નયસ્યોમયરૂપવામિત્રાલેખ “ પ્રિયયવયંળવ્ઝ સા ” ત્યારે પ્રતિપાદ્યત્ત તિ શ્વ | જી. નયન્ત્યાનુંનવુપવામપ્રેત્ય નયોષહેશે “ અયં 7 સંશયઃ જોટે ” રિતિ પદ્મય મર્યા ચોવિજ્ઞચેનોાિંત વારીતમ્ । t ૪૧૭. સર્ચ 7 સંશય ાંત પદ્મયાએઁ માવચ્ચ રિતિઃ । ખુ૮. શ્રમપ્રમાસરોયસમુચયન્ત્રાવૃત્તય નયજ્ઞાનસ્ય થન્ શન્વપ્રમાાન્વયન્યાતરાનાવધા ચિમિતિ પ્રરનન્ય પ્રતિવિધાનમ્ । છુખર. નિમિત્તાપેક્ષયાનંતધર્માભવતિ જ્ઞાશિદે ધર્મોવારળ વનયત્વ વેધર્માવધારમાત્રે, જિન્તુ સ્ત્ર ટુર્નયત્વમેવ, મિમિ નયામીત્યનુમવસાક્ષિો વિષયાવિશેષઃ પ્રમાણનયમેવળ તિ શિતમ્ । ૪૬૦, “ નિર્દેશ સ્વામિત્વસાધના ઘેરાંતિવિધાનઃ । -૭ । ” ાંતે સૂત્રમવાર્ય સાજ્યાનવર્ષ માખ્યનુકૃક્ષિતામ્ । ૪૬૬. નિત્તમ બ્યાર્થષ જળનું ૪૬૨. નિર્દેશાવીનામનુયોગદ્વારાળા માવના, તત્ર ફેનિર્દેશયાળમૅવચન, નીને નિર્દેશજાળસમન્વયÆ દ્રવ્યનય—પચયનયતદુનયાવ ંવનેન વિવેજ્ઞઃ । o૬૨. નૌવે સ્વામિસ્વાતિ ન વર્શિતયાનું માખ્યા, ઉપાધ્યાયતુ નીવો ચસ્થ સ્વામી નાવલ્ય ચે પ્રમવતઘુમય વર્શિતમ્ । ૪૬૪. સાધન નિવ્ય તત્સંામનું નીવે માવિતમ્ | ૪૬૬. ‘નીવો મુળદિવશો ' ાંત માથાથી શિતઃ । ૪૬૬. આધારસ્થિતિવિધાનાનિ મેળ નિજન્મ નીવે માવાને ૪૬૭. સમ્વોનપરીક્ષાયામિાવ માધ્યનવાર્યું સવર્શનપરીક્ષણે જિન્દ્શાવવો વિસ્તરતો માવિતાઃ । ૩૬૮. “સપ્તહુઁચાક્ષેત્રસ્પર્શનાાન્તરમાંવાપવત્તુવૃંઘ ” –૮ । તિસૂત્રમવાચે તાંદ્રવરણરૂપે માધ્યમુકિતમ્ । ૪૬૬. સદ્દાવાનુવાદારળ સમ્બવર્શનતંત્ત્વપરીક્ષાયામાંશજ્ઞાવાચતા સમ્યહીન ર્માિત નાસ્તીતિ માધ્યમવાય ન્યાસ્ત્યાતમ્ । F १५७ १५७ १५८ १ १६० १६० १५९ २ ' 6'? १६१ ५ १ ६ ઊં ५ १६२-१२ १६३ १ १६५ १६९ . १६५-१६ ૬૬ ૨ ૬૬ ૬ १ १६३ ५ ; १७४-२२ १७५-१२ T Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७) ४७०. अस्तीत्युच्यते इत्युत्तरवाक्याकथन, तत्रैव सम्यग्दर्शनस्याचारनिष्टकनम् । १७५-१६ ४७१. तत्र अजीवेषु सम्यग्दर्शनं नास्तित जीवेषु तु भाज्यामित्यादिभाष्यार्थस्फारणम् । १७६-१ ४७२. विशेषावश्यकमाप्यादिवचनोपदर्शनेन नारकप्रभृतिषु गतिषु चतस्वपि पूर्वप्रतिपन्नाः प्रतिपद्यमानाश्च जीवाः सन्तीति मूलग्रंथो व्याख्यातः । १७६-१४ ४७३. किं सम्यग्दृष्टिः सम्यग्दर्शनं प्रतिपद्यते मिथ्याष्टित्यादि प्रश्नस्य निश्चयनयाश्रय गेन व्यवहारनयाश्रयणेन च विभिन्नप्रतिविधानमागी दार्शितः, तद्भावना च सिद्धान्त वचनालंबनेन दीपिकायां विहिता । ४७४. सह्या -क्षेत्र-पर्शनद्वारैः सम्यग्दर्शनस्य परिभावन, तद्विशदीकरणञ्च दीपिकायाम् । १८० ७ ४७५. सम्यग्दृष्टिसम्यग्दर्शनयोर्भेद उपपादितः । १८१ २ ४७६. कालद्वारेण सभ्यग्दर्शनस्य परीक्षणम् । १८१-१० ४७७. अन्तर-भावाल्पवहुत्वद्वारः सम्यगदर्शनविवेचनम् । १८२ ३ ४७८. ज्ञानस्य पञ्चभेदोपदर्शक भितिश्रुतावधिमनःपर्यायकेवलानि ज्ञानम् । १-९ ।' इति सूत्रं तद्भाष्यञ्च । १८३ ४ ४७९. सूत्रे केवलानीति बहुवचन-ज्ञानगित्येकवचनोपन्यासप्रयोजनमुपदर्शित टीकायां तद्विवेचनञ्च । १८३ ७ ४८०. मतिज्ञानस्य श्रुतज्ञानस्य च लक्षणमुपदर्शितम् । १८४ १ ४८१. भूलोक्तमतिज्ञानलक्षणं परिस्कृत्य तत्राव्यातिदोपाऽऽपाकरणं, तद्भावार्थमुपदश्य श्रुतान नुसारित्वे सतीति विशेषणोपादानेन श्रुते मतिलक्षणातिव्याप्तिनिरासश्च । १८४ ३ ४८२. श्रुताननुसारित्वे सतीति विशेषणोपादाने मतिज्ञानविशेषेऽव्याप्त्याशङ्काया अपाकरणं तत्र श्रुतनिश्रिताश्रुतनिश्रितमतिज्ञानलक्षणमुपदश्य विशेषावश्यकसंवादो दर्शितः। १८४-१४ ४८३. मूलोक्तश्रुतज्ञानलक्षणं परिस्कृत्य तत्राव्याप्तिनिरसनम् । १८४-२८ ४८४. श्रुतनिश्रितमतिज्ञानादावधिज्ञानादौ च श्रुतलक्षणातिव्यातिनिरसनम् । १८४-३० ४८५. श्रुतज्ञाने शब्दोपरागे कारणभेदो मतभेदेन दर्शितः । १८५- ५ ४८६. शा०वज्ञानात्मकस्य श्रुतज्ञानस्य नातिरिक्तप्रमात्वं, तत्करणस्याप्यनुमानविधयेव प्रामा ण्यमिति वैशेषिकाशङ्काया अपाकरणम् । १८७. रूपिमात्रविषयमवधिज्ञानमित्यवधिज्ञानेऽध्यातिदोष आशय परिहतः, तत्रावधिज्ञानभेदोपदर्शनपुरस्सरं तदनुगतलक्षणभुपदर्शितम् ।। १८५-१७ ४८८. भावमनापर्यायमात्र साक्षात्कारि मनापायज्ञानमिति मनःपर्यायज्ञानलक्षणप्रसङ्गे દ્રવ્યમાંવમેન મનસો દ્વિવિધ્યપ્રઢપણેન તળે પરીક્ષિતન્ ! १८६ ८ १८९. निरुक्तमानापाथज्ञानलक्षणे मात्रपदप्रयोजन तत्रातिव्याप्त्यादिदोषनिरसन, मनःपर्यायज्ञानिनो बाद्यवस्तुज्ञानं समस्ति न वेत्यादि बहु विचारितम् । १८७ १९ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८ ) ४९०. ज्ञानांतरासहचरितं सर्वविषयं वा केवलज्ञानमिति केवलज्ञानलक्षणे केवलशब्दार्थ एकः, एकत्वं च ज्ञानातरासहचरितत्वं सर्वविषयत्वं वाऽभिप्रेत्येति व्यवस्थापितम् । १८८-२८ ४९१. “ तत्प्रमाणे । १–१० । ” इति सूत्रमवतार्य तद्माप्य मुल्लिख्य तद्विवरणमुपदर्शितं સત્ર મળ્યાતિપવિધાપે જ્ઞાન પ્રમાળ મૃત્યા પરોક્ષ પ્રત્યક્ષ રેલ્વેવ દિવસન્ત્યોपेतमेव भवतीति दर्शितम् । ४९२. इन्द्रियादिनिमित्तसापेक्षज्ञानं परोक्षं, तन्निरपेक्षज्ञानं प्रत्यक्षमिति परोक्षप्रत्यक्षयोलक्षणमुपदर्शितम् । ४९३. निरुक्तपरोक्षलक्षणमवतार्येन्द्रियपदेन येन्द्रियस्यादिपदेन द्रव्यमनसो ग्रहणं, भावे. न्द्रियस्य तत्रापि साक्षात्कारणस्य न ग्रहणमित्यादि चर्चितम् । ४९४. द्विविधेऽपि प्रत्यक्ष परोक्षज्ञाने यः साकाराश. स एव प्रमाणव्यपदेश्य तत्र प्राचां वचनं प्रमाणमुपदर्शितम् । ४९५. सर्व ज्ञानं प्रत्यक्षमेवेति मतमुपदर्थं तद्विशुद्ध शब्द नयाभिप्रायेणेति संप्रदायविदामित्युद्भाव्य विशुद्धः शब्दनय एवंभूत इति दर्शितम् । १९० ४९६. तन्निरपेक्षं प्रत्यक्षमिति प्रत्यक्षलक्षणं परिस्कृत्य सांव्यवहारिकप्रत्यक्षेऽव्याप्याशङ्कां तदलक्ष्यतया परिहृत्यावध्यादेः प्रत्यक्षत्वस्यावश्यकत्वं निश्चयनयतः आत्ममात्र सापेक्षज्ञानत्वं प्रत्यक्षलक्षणं मुख्यवृत्येति निष्टङ्कितम् । ४९७. जीवस्याक्षशब्दवाच्यत्वं तत्र विशेषावश्यकभाण्यवचनं, व्यवहारनिश्चयप्रत्यक्ष साधारणमनुगतलक्षणं च दर्शितम् । ४९८. सर्वज्ञानस्य प्रत्यक्षैकरूपत्वे 'अभित्रि मादृशा ज्ञानमिति सिद्धसेनवचनसंवादः, सङ्ग्रह - नयाभिप्रायेण प्रत्यक्षत्वम्य जातिरूपत्वेऽपि तस्य सर्वज्ञानवृचिलं, विषयांशे परोक्षत्वं तु कल्पितमेवेति दर्शितम् । ४९९. विशेषावश्यक नियुक्युक्तं " वंजण अत्थ तदुभयं एवंभूओ विसेसेह इत्यस्य व्याख्यानं “वंजणमत्थेणत्थं च" इति भाप्यवचननुपदर्थं तदर्थं पदर्शितः । 33 ५००. अभित्रि मादृशामिति सिद्धसेनवचनार्थो दर्शितः । ५०१. विशदाविशद मावेन प्रत्यक्ष परोक्षविषयविभागकांतस्यायुक्तत्वं ज्ञानानवच्छेदकतया विषयस्य विशदाविशदभावस्य तुच्छत्वं च दर्शितम् ५०२. वेदान्तिमते सर्वं वस्तु ज्ञाततयाऽज्ञाततया च साक्षिप्रत्यक्षविषय इत्यत्र साक्षि प्रत्यक्षस्य प्ररूपणम् ५०३. मविज्ञानश्रुतज्ञानयोः परोनत्वप्रतिपादकं ' आधे परोक्षम् ' १ - ११ । इति सूत्रનવતાય તમાિિણતમ્ ! ૯૦૪, તંત્ર તિશ્રુતયોનિમિત્તા સત્યેન પરોક્ષ વારોત } १८९.३ १८९९ १८९-१९ १९० १ १९०-१० १९०-२१ - १९११ १९१ ७ १९१-१९ १९२ -१ १९२-१४ १९३..७ . १९३-१० f Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨ - ૧૦. મતિજ્ઞાને મુત્યતઃ કુતરાને પૌત્વત શાયત્વે સમર્થિત * ૧૧૨-૨૨ ૫૦૬. મા સૂત્રમકામાખ્યાબીમદ્વિતીએ સાઈત્યાદિમાગ્યું પછતાં વિવૃતમ્ ૨૨૪ ૨ ૫૦૭. શ્રુતજ્ઞાન પરોક્ષે પરોપવેશનત્વહિત્યનુમાને માસિદ્ધારીથાપ્ય પરિતા ૨૨૨૨ ૧૦૮ મતિજ્ઞાનું પરોક્ષે ફેન્દ્રિય પક્ષવાદ્ધમાંવનિશાનવહિત્યનુમાને કૂણાન્તય હેતુવૈશક્યા शायाः प्रतिविधानम् । ૧૦૧. ગુણવિરોષનન્યતાવ છેપ્રત્યક્ષત્તામાવાવસ્ય પરીક્ષમિતિ કન્વર્યાવરણ ૨૬-૨૨ ૧૦. “ત્વયા હિ વોનધર્મ ત્યારે ત્યાદ્રિયસ્થય માવાળે તિર ! १९७-१० પ૨૨. ફતેવિનન્યજ્ઞાનત્વ પરોક્ષતામાવગ્યામતિ વિરુદ્ધાર્થ હેરિત્યાખ્યપાતમિતિ મૂઢમચા વિશિષ્ટ તિઃ | १९७ २६ પ૪૨. શદિ વિરોધ નિશાન પરોક્ષત્તે તવા અતિશુતોનૈશ્ચયઃ પરોક્ષત વિધિચંવહારતસ્તુ પ્રત્યક્ષમિતિ રીત, તત્ર “તે સમાજમાં વિહં પUળ” તિ નવીસૂત્ર પ્રમાણમુ. ૧૩. મશ્રિતો પરોક્ષધાં શું પરોવવું વિહં પળ” દ્યારિ વીસૂત્ર વરિતા ૨૨-૨૬ ૧૨. ઇંદ્રિયપર્વ ૨ નોરંદ્રિયપર્વ તિ સૂત્રમન્નિત્ય વિજ્ઞારો ર્શિતઃ ૨૧૮–૨૮ પ૨૫. અત્રેવ દેવભૂવિનવિશેષાવર માખ્યાøવવનાનુપચૈિતાનિ १९९-१६ ૫. ફિન્દ્રિયપ્રત્યક્ષમત્યનેન વ્યવહાર પ્રત્યક્ષતા માતેતિ મૂહગ્રન્થનધિકૃત્ય પ્રશ્નપ્રતિવિધાન મામાન્તતઃ પરોક્ષચૈજાન્તતઃ પ્રત્યક્ષોપવીને ન્દ્રિયમનોમવજ્ઞાનાચ નૈાન્તતા પ્રત્યક્ષત્વપરોક્ષત્વે, gિ સાવહારિકત્સફર્નામત્યત્ર “તેના પરોવવું’ ફત્યાવિશ્વનું પ્રમાણમુપાતિના ૧૭. મતિકૃમચાવળાવિજ્ઞાનત્રય પ્રત્યક્ષત્વકતા “પ્રત્યક્ષમન્યન ૨-૧૨ /' ફતિ સૂત્ર તદ્માષ્યગ્નોર્જિવિતા २०० ४ ૧૮. નિમાવ્યવિવર, તત્રાવધિમન:પર્યાયવમેવાન્નિવઘે પ્રત્યક્ષમેવ મવતિ, નિયમ વોવિમાર્થ વાર્થ પ્રયત્ન તિ તિ, દિવેવિશ્વ ટાયામ્ ! ૨૦૦–૧૨ ૨૧. માત્મામyવત્વક્ષમતન્દ્રિય પ્રત્યક્ષ, પ્રમાણાત્રે શરણે વુ, અર્થે રણપાનિયામ શક્સિવિશેષ કૃતિ ટીજન્મતેડ િર્શિતા ૨૦૨ રૂ પર૦. ઉપયોોન્દ્રિયચૈવ પ્રમાણમતિ વેવરિપ્રવૃતીના મતે, પ્રમાણરાન્ડ સભ્યજ્ઞાને હદ હવ, પરં તુ યથાસમવં કોષનિવૃત્તિ, વરું તુ વયમેવ સમિતિ તા ૨૨ ૨ ૨૨. તસ્માતુોન્દ્રિયવેત્યાદિ મૂઠભ્યોવતાર્ય ચાન્યતા ૨૦૨-૨? પરર. જ્ઞાનસ્ત્ર પ્રમાણતં સ્વાર્થર્સંવરે મહત્વમિયર શ્નમતિવિધાનાખ્યા નિર્ણય તેવ સૂરમાં પશુપતિ ૧૨. મતિજ્ઞાનાલિતો વોષનિવૃતિ તસૂઇ, વિજ્ઞાને તુ યમેવ જછમિત્રત્ર, Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સેનવશ્વનું પ્રમાળમુત્તુરિીત, વ્યવતીનાં વર્તુત્વન પ્રમાળાનીતિ વર્તુવનનોતિઃ । ५२४. साङ्ख्य ધૈર્યાય—પ્રમાર–માવેલા પૌરાળિાઃ ત્રિ-નતુ:-પŻ-ષ૬કેંદ્રમાળાનીત્યુપાતા તિ યં પ્રત્યક્ષરોક્ષે દે વ પ્રમાણે ત્યાશ પરતયા અત્રાદેવ્યઢિમાવ્યઅન્થોવતિઃ । ર. અનુમાનાનીનાં તિવ્રુતયોરન્તર્ભૂતત્ત્વન દે વ પ્રત્યક્ષ-પરોક્ષ પ્રમાણે ત્લેવમત્રાબ્બત ત્યાદિ સમાધાનઃપ્રન્યો વ્યાખ્યાતઃ, તત્રાનુમાનાર્થીના મન્દ્રિયાઐસાર્જન્યત્વમુખપાવિતમ્ । ૧ર૬. વોર્ષાવધર્મતિજ્ઞાનાવિતિ સિદ્ધસેનપવસ્યાએઁ વર્શિતઃ । ૧૨૭. વાર્થસવા “પેક્ષામાવસ્ય ” ત્યૠસહી–પદ્યમુદ્રશ્ય વ્યાવ્યાત્તમ્ । ૨૮. વિતેર્રાનનુપાવિતસ્ । ૧૨૬. પ્રમાળોપવો દેવસૂરિસૂત્રઋવશ્વનુષ ચૈતન્ । ૨૦૨-૨૨ ૧૩૦. પરામ્બુરાતાન્યનુમાનાીન્યપ્રમાળાન્યેવ મિથ્યાનબિહાતિ પક્ષાન્તર માવિતમ્ । ૨૦૦૬ ૧૨૧, મિાદૃષ્ટિસાન્યજ્ઞાનયાજ્ઞાનવું મિતિ પ્રરનપ્રતિવિધાનમ્ । ૨૦૪-૨ બુર્ર્. સભ્ય′′ઘેરપ્શનન્તપર્યાયાત્મવાદ્ગુન શુવય્યયજ્ઞાન જ્યં સામિતિ પ્રરનહ્યોતવિધાન, તત્ર ૮ ને પુરાં નાળ સે સત્મ્ય નાગફ ” ત્યામવનનોપષ્ટ।તઃ સા ધિરે પર્યાયજ્ઞાનસ્યામ્યનન્તપર્યા ભવવાદિતઃ કામાખ્યનુષધાવિતમ્ । २०४-११ ૨૬. મિથ્યાવૃષ્ટિસન્ધિનો જ્ઞાનમાત્રસ્યાજ્ઞાનવે “ નિળયારે " હાંકે વિશેષાવયમાધ્યવનનસવાવો વારોતઃ । * 66 ૧૨૪. “ માં નાખરૂ ” વિશ્વનસ્ત્ય માનાર્થો વર્શિતઃ । રૂખ. અનુમાનાદ્રીનાં નચવાવાન્તરેળ માંતશ્રુતયોરન્તર્યંચમિત્યુપવી નયવાવાન્તરેળવ્યાવિ માર્વ્યમવતાય વ્યાાતમ્ । ૧૧. શનયે મિથ્યાવૃષ્ટિરન્યો વા જ્ઞાતીતિ તન્મતે પ્રમાળાનીત્યેવ વઋમિતિ, સભ્યાદૃષ્ટિસક્વન્વિત્વેન પ્રમાળાન્યનુમાનાને તિદ્યુતયોરન્તમવન્તીતિ વાંર્શતમ્ । રૂ. ‘તિઃ સ્મ્રુતિઃ સોનાન્તાઽમાનવોધ ફત્યનર્થાન્તરમ્ ! ! ! ? 'ત સૂત્રં જ્ઞળપરતાંડવંતાયે તમાવ્યું દિવગશ્ચ વાગતમ્ । ૮. અવત્તાળાસક્રમને તમ્ । ૧૨૨, મતિજ્ઞાનતિજ્ઞાનયોર્જક્ષળ, ધૃત્તિ Ìખ્યાતિવ્યાાંતોષપારદારબ્ધ । ૪૦. સન્ત્રાજ્ઞાન પ્રર્વામજ્ઞાન તરલળનુપાોતમ્ / ખુ૪૬.' પ્રત્યમિીનસ્ત્ય તિર્ય‘વૈıસામાન્યવિષયË સંજ્ઞમિતમ્ । ૪૨. વિસ્તાજ્ઞાનરુણામિનિ ધજ્ઞાનક્ષળન્ન વર્શતમ્ । ખુ૪૨, ચોખ્યાક્ષાત્કાર ત્યસ્ય વિવરણે ચોમ્યતા- સવિત્તારિતા ૨૦૨ k २०३ ३ २०३ ७ २०३-१४ ૨૦૨-૧૮ २०३-२४ २०४-२४ २०९-१६ २०६ १ २०७ २०७ ६ २०७ २४ २०८ ५ २०८ ९ ૨૦૮–૨૨ २०९ १ ર૦૬-૨ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સ ૬૪૪. મતિજ્ઞાનદ્વૈવિધ્યતાવળ “ હિન્દ્રિયાનેન્દ્રિયનમિત્તમ્ 11^oll ” ાંતે સૂત્રં તત્ માળ્યે દ્વિવરણજી | ૪૬. તંત્ર ફન્દ્રિયનિમિત્તસ્ય સ્પર્શનારિમેકેન પશ્ચવિધવું, આનેન્દ્રિયાનામત્તસ્ય મનોવૃત્ત્વોધજ્ઞાનનેવેન વૈવિધ્યનુપાતમ્ । * ત• ૧૪૬, ધૃતપદીરાં પિાયાં, તજૈવ મનસોનિન્દ્રિયત્વે વ્યવાવિતમ્ । ૧૪૭, આવજ્ઞાનનિવર્શનમુદ્રોમનાનામેન્દ્રિયાવસંજ્ઞિપચેન્દ્રિયપર્યન્તાનમિાન્તયામિતમેવ મતિજ્ઞાન, સમનરાનાં વૃક્ષરાવિવ્યાપાર માટેનિન્દ્રિયયનમિત્તે તિજ્ઞાન, નાઋતુરચાયામેિન્દ્રિયાનેન્દ્રિયાનમિત્તે, ધજ્ઞાન ધૈન્દ્રિયાવીનામિતિ વિસ્તાાન્ત્ર મ્મત તિ પોપવયેંન્દ્રિયમનતનુમયજ્ઞન્યતાવ છે. ઘનન્યતાવ∞વાયુપર્શિતાનિા ૨૬ શ્ ૪૪. વણ્યાીનામોધજ્ઞાનં, તંત્ર વિશેષાવવામાધ્યવનન દ્રવ્યોપ્રજાશવષને ઘેં સવારના ૨૨-૨૬ ૧૪૬. સમાવેષમાંતિજ્ઞાનમેલોપવા ‘ અવત્રાપાયધારાઃ ॥ ૨૨૨૦૧।oવા' ફ્તિ સૂત્ર તજ્ઞાખ્યું દ્વિવરØ | २१२ ખ. અવઋહાવીનાં વતુર્ગો સ્પર્શનાિિન્દ્રયાનેન્દ્રિયમનઃપ્રમવાળાં વિશતમ્મદ્રાઃ, તત્ર ન્યજ્ઞનાવઋહાર્યાવબ્રહ્મેનેનાવગ્રહો દ્વિવિધ વર્મનસન્થેાનાવદ્દોન મવતીતિ વર્તુળ† ન્યજ્ઞનાવત્રામાં તંત્ર પ્રવેશેાવિંશતિર્યંના સ્ત્યાઘુપર્શિતમ્ । થયુ?. બવમહાવીનાં પાચેચે મોપાવે જ માનમુગિતમ્ । ૧ર. અવગ્રહવપનુવાદ્વૈતન્ ૧૧૨. બવપ્રદેહાઽમાવેઽવ્યખ્યતે વિષયે પ્રથમત વાવાયોત્પત્તિ, અવાત્રિયં વિનવ પ્રબુદ્ધસારાત્ મૃત્યુત્પત્તિક્ષેત્તિ પ્રરનતિવિધાનું વિસ્તરતઃ । ૧૬૪. ત્યજ્ઞનાવબહાચવશ્રનેતેનાવદ્રશ્ય જૈવિષ્ય, તંત્ર ન્યાનાવદ્રઘ્ધાળું તત્ત્વ જ્ઞાનવEdito સુષાવિતમ્ । બુલબુ, વ્યજ્ઞનાવપ્રજ્ઞા-ત્યસમયેડર્થાંવહ્ તિ નિીચ તસ્યાનિર્દેયસામાન્યમાત્રાદ્િત્ત્વ અવસ્થાપિતમ્ । ૧૧૬. તેન શબ્દ ત્યવાદીત કૃતિ સૂિત્રે વત્રા તોષાત્, મૈં ત્યશશ્વવ્યાવૃત્ત ાંત પ્રથમાવઋહાડપેક્ષયોઞાન્ । ૬૭. ટીજાયામેÍદારો વિસ્તરતઃ અર્વાતિઃ । ૧૧૮. શબ્દ ત્યાષરજ્ઞાનનનાર્થે ન્યજ્ઞનાવગ્રહ પ્રિયળીયો નાર્થવાહ ત્ય નિરાળમ્ । ૧૬૨. ધૃતપીરાં ટીજાયામ્ । ક २१० २ ૧૦. પ્રત્યક્ષમાત્ર વ વિશેપવર્શાવવયેદાયા હેતુત્વ, તેન વાચાઘસમયે સામાન્યજ્ઞાન, . રિવિવિધયસ્ય ત્યાવશશ્રવળસમય વ વિશેનિશ્ચય ાંત લતિમ્ । २१० ५ २१०-१४ ૪ २१२-२२ २१२-३३ २१३ २ २१३-१६ २१४-२ २१६३ २१७ १ २१७ ४ ૨૮ ૨ २१८-११ २१९ १ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સનવનું પ્રમાણમુર્શિત, ન્યવતીનાં વહુન બનાળાનીતિ વદુરનોવિતા ૨૦૨ ? ર૪. સાત્ય નિયાયિ–કમીશ્નર-માદરેવીતિ-પરબ ત્રિ-વતું-પદ્ય-પડધમાળા નીત્યુપતા કૃતિ સાથે પ્રત્યક્ષપરોક્ષે પવ પ્રમાણે હૃત્યોરન્નાપરતયા અન્નક્ષેત્યાદિમાવ્યમન્ચોડવતારિતા __ २०३ ३ પરઅનુમાનાનાં અતિશુતયોરન્તતત્વે દે gવ પ્રત્યક્ષ-પરોક્ષે પ્રમાણે ફત્યેધમત્રોચ્ચત ફત્યાદ્રિ સમાધાનન્ધો વાવ્યાતા, તત્રાનુમાનાનમન્દ્રિયાર્થસર્વિનન્યમુपादितम् । २०३ ७ પર. વોષતિમતિજ્ઞાનાવિતિ સિદ્ધસેનપદાર્થો તઃ २०३-१४ ૧૨૭. કવિતાસંવા “પેક્ષાaમાવસ્ય” ફત્યષ્ટસહ-પરામુપર વ્યાત્યાત २०३-१८ કર૮. વિરતેજ્ઞનપhહત્વનુ પવિતમૂ | २०३-२४ ૧૨. પ્રમાળhોપર્વરી દેવરિત્રગુપદ્ધતિ २०३-३१ ૨૦. પામ્યુwતાચનુમાનાવીન્યપ્રાણાવ મિથ્યાવર્ચનપરિમહાવિતિ પાન્તર માવિત ૨૦૪ ૨ પરૂ. મિથ્યાલિન્યિજ્ઞાનાસાનë મેતિ પ્રતિવિધાન ! २०४-९ ર. સં દેનન્તપર્યાયાત્મવાતુન પર્યાયાનું જ્ઞાનમિતિ કરનારા પ્રતિવિધાનં તત્ર “ હ નાળ લે સર્વે નાબડ્ડ" ફત્યામવાનો મતઃ - ૧ - દૃષ્ટિપર્યાયજ્ઞાનસ્થાનન્તપર્યાયાત્મવવવાહિત્વતઃ પ્રામખ્યિમુપાદિત ૨૦૪-૧૨ જરૂરૂ. મિશ્યાવૃષ્ટિસર્વાધિનો જ્ઞાનમાત્રાનાનત્વે “નિખા ” ફત્યાદિ વિરોષવિરયનમાબવવનસંવાદ વર્શિત - ૨૦૪-૨૪ વરૂ૪. “જે પણ નાળ” ફત્યાદ્રિવનસ્ય વાર્થો ર્શિતઃ | ૨૦૧-દ જરૂ. અનુમાનાઢીનાં નવાવાન્તરણ મતિકૃતયોરન્તણૂતરત્યુપર નવાવાન્તરેછેત્યાદ્રિ માનવતાર્ય ચાલ્યોતમ્ ! २०६ १ ૬૨. શત્વનો મિથ્યાવૃષ્ટિો વા નાતીતિ તન્મતે પ્રમાણાનીયેવ વરૂધ્યામતિ, સચJ દૃષ્ટિસધિત્વે પ્રમાણાન્યનુમાનવનિ મતિકૃતાન્તર્મવન્તતિ વતિના ૨૦૦ ૨ કરૂ૭. મતિઃ ઈતિઃ સા વિન્તાડમનિયો ફૂલ્યનન્તરમ્ ? ૨૨” તિ સૂત્ર ક્ષણપતાડવતા તમળ્યું તદ્વિવરાહ્ય વાત ! ૨૦૭ દ પુરૂ૮. અવતરશાસક્રમનં જીતી ૨૦૭–૨૪ રૂ, મતિજ્ઞાનાતિજ્ઞાનયોર્ટક્ષળ, તિસ્ત્રક્ષળડગ્રાસ્થતિચારિતોષારહાર ૨૦૮ ૬ ૪૦. સંજ્ઞાના પ્રત્યજ્ઞાનં તક્ષણનુપાતમ્ ૨૦૮ ૨ ૪. પ્રત્યજ્ઞાનસ્થ તિર્થપૂર્વતાલીમાન્યવિષયવં સમિતિમ્ ૨૦૮-૨૨' બ૪૨. જેિન્તાનાનક્ષણમાંમિનિધજ્ઞાનક્ષળ% વાર્શિત ૫૪૩. વોયસાક્ષાઋાર ફ્રેન્ચચ વિવરને યોગ્યતા સનિરિતા ! ૨૦૨–૨* Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૪૪. મતિજ્ઞાનદૈવિધ્યપ્રતિપાવ તિિન્ટયાનજિયનિમિત્તમ્ શ?” તિ દૂત્ર - માળ્યું તદ્ધિવરબદ્ધ ! २१० २ પક. તત્ર નિયનિમિત્ત સ્પર્શનાદિમેન પર્યાવકત્વ, નિન્દ્રિયનિમિત્તસ્ય મનોવૃોધજ્ઞાનમેને વિધ્યમુર્શિતમ્ ! २१० ५ ૧૪. તપદીવાળું કપાયાં, તનૈવ મનસોડનિષ્ક્રિયત્વે વ્યવસ્થાપિત ૨૨૦-૨૪ પ૪૭. સાવજ્ઞાનનિવનિમુદ્રિર્યાડમનાં નામે યિારસંપિન્દ્રિય પર્યન્તાનામિદ્ધિનિમિ તમેવ મતિજ્ઞાન, સમનનાં ક્ષદ્વિવ્યાપારમાવેનિન્દ્રિયનિમિતં તિજ્ઞાન, નાગ્રહવસ્થા યામિન્દ્રિયાનેન્દ્રિયનેમિë, મૌધજ્ઞાનસૅન્દ્રિયાતીનામિતિ વિમાસ્તાન્સિસ બૂત કૃતિ વોપન્દ્રિયમન તદુમયનન્યતાવશેઘનચતવછેરાવુપતાના ૨?? ? પછ8. વલ્યાનામાં જ્ઞાન, તત્ર વિરોષ વયમાબવવનં દ્રવ્યોમવવન જ સેવાના ૨–૨૬ ૪૨. મયવયંમતિજ્ઞાનોપદ્ધ “અવશદાપાયધારણા ૨૨ાલા 'તિ સૂત્ર તમાર્થ તદ્ધિવરપાડ્યા २१२ ४ પ૦. વાવનાં વતુર્વી પરનાન્ડિયાનેન્દ્રિયમનઃામવાળાં તુર્વિરાતિર્મેતા, તત્ર ખ્યદ્મનાવટાવમનાવમો દ્રિવિધ વર્ણનોર્થનાવો 7 મવતીતિ વતુર્ણા વ્યજ્ઞનાવાળાં તત્ર પ્રવેશાર્વાતિમૅ રઘુપર્શિતમ્ | ૨૨-૨૨ ૧૧. વાવનાં પાર્થયે મોભાવે જ માન"પદ્ધતિ २१२-३३ ૧૨. બવાસ્વામુપતિ . २१३ २ ૧૨. અમદાડમડખેતે વિષયે પ્રથમ વાવાયોત્પત્તિ, અવધ્યાત્રિર્ય વિનૈવ પ્રવૃદ્ધસંK-રાત પ્રત્યુત્પત્તિસ્થેતિ કરનપ્રતિવિધાનું વિસ્તરતઃ | २१३-१६ ૧૧૪. જ્ઞનાવમહાવિનવગ્રહ દૈવિષ્ય, તત્ર વ્યજ્ઞનાવશ્રધ્વરૂપM તસ્ય જ્ઞાનત્વમુખપતમ્ | २१४-२ ૧૧ન્યજ્ઞનાવબા લ્યમયેડર્યાવબહ કૃતિ નિર્ગીય તસ્યાનિર્વેર સામાન્ય માત્રાહિë વ્યવસ્થાપિત ! २१६ ३ ૧૧. તેન શબ્દ ફર્વગૃહીત કૃતિ નેન્દિરે વત્રો તથોલત, ન વિરાન્દ્રાવૃત્તરશ૩૨ ફતિ પ્રચમાવહાડપક્ષોત્તમ २१७ १ ૬૭. ટામેતદ્ધિવારે વિસ્તરતઃ પ્રતિઃ | २१७ ४ ૧૬૮. શન રૂલ્યારાજાનનન+હાથે નાવમહું હવાશ્રયળીચો નાવેદ હત્યસ્ય निराकरणम् । ૨૨૮ ? ૬૬૬, તિસ્પષ્ટરળ ટીક્રયામ્ ! २१८-११ ૬૦. પ્રત્યક્ષમત્ર યુવવિરપિનવિદાયા દેવું, તેન વાસ્યાસમયે સામાન્યજ્ઞાન , પરિર્વિતાવિલયસ્થ ત્વાશનુશ્રવણસમય ઇવ વિરોષનિશ્ચય હૃતિ વાદ્ધતમ્ | દ ૨ ૨ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૬૨. તથા િત્રમાંકોત્તરત્વે પરિત્યત્યાતિ મૂત્રોડવતાર્ય વ્યાવ્યાતઃ ર૪૨ ૫ ઉદર. માબેનનાજ્ઞાનાનંતરમવગ્રહું ફતિ મતમપાય રૂપાવડ્યાવૃત્તાન્સામાન્ય વિષય હવાર્થાવગ્રહો ના શ૬ ત્યાર ફત્યુસંતની પદ્દર. રાવ ફતિ ત્રૌપરિશ્નોડર્થાવગ્રહ સર્વત્રોત્તરોત્તરવિશેષા+lqયાં પૂર્વપૂર્વપાયસ્યૌષર શ્રાવકવેરાવળ નૈૠયકાવત્રાપાયઃ પૂર્વોત્તતારતમ્યવવવષ્યમાંવ વ વિશાન્તઃ ૨૨? ? ઉદ્દ8. swા સંવાવસ્થ ‘સન્નઘેરાવાયા રૂતિ વિશેષાવરમાળાથાદયદ્યાર્થી વિવૃતઃ ૨૨૬-૧૭ ૧૬. વાવોપરી “વહી’ ત્યાદિમાખ્યાવિવરણન્ ! २२२ १ ઉદ્દ૬. વિજ્ઞાસાપવિદાય ન સંશયાત્વમ્ ! - ૨૨૨ ૭ ૭. “ફય સામેળમાળા ફતિ વિશેષાવરવોવાક્ષણમુપતિના ૨૨૨-૨૬ ૬૮. ફ્રહાવા ફછાયત્વે જ્ઞાનતં ન વિરુદ્ધ તી જ્ઞાનવિશેષરૂપવાન, ફંદા જ્ઞાના વચ્છિન્નાર્થવિષયેચ્છારૂપન નિસાસાહાત્વમMવિરુદ્ધનું, તસ્યાઃ પ્રત્યક્ષનનત્વે તોષરા પરિવાર, મસ્યા તપોસ્ટપવૅનાજ્ઞાનપથ સમન્વય, વિશેષ રનવેન ને સર્વત્ર નિશ્ચયે ઉપયોગ કૃતિ નિરાશ્રિ ! ૨૨૨ ? ૧૧. અવજ્ઞાનન્તરે રાયફ્રારેડપિ તદનન્ત મહાસન્મવા, તસ્યાઃ સંનિધવાખ્યાં વિક્ષષ્યમ્, વોટિસંગ્રયત્સાત્વારા#ાયાઃ પારિવા २२४ ३ પ૭૦. પર્યાવરૈરીહાળ્યોથનરૂપનું “દા કહ્યું ત્યાદ્ધિમાખવતાર્યાપાંથાનત્તપાપ મવકૃતિત્યવિમધ્યમવતરિત ૧૨. ટોક્તા સંશવેદોક્ષગમેવું સ્વયyપર તત્ર માળવવનસંવાવસ્તર્થોપવાર્શિતઃ ૨૨૧-૧૨ ૧૨. અપાવરાત્વવ્યુત્પન્યાતમપાયન્ટક્ષણનુપરય તત્પર્યાપનના ૨૨૬ ૨ ૧૭૨. વુક્ષત્તિવિશે ગ્રાન્તોના જેવા શસક્તાવિરોબાપનયનમષા સમૂતવિશેTવધાર ધારણા રૃતિ હક્ષળથનમયુમિતિ તિમ્ | ૨૨૬- ૭ ૧૭૪. મદુરાકુળવળગો રૂતિ મMવન તર્થ રતઃ | ૫૭૧. બત્ર વિવિત્યાદિ મૂહગ્રન્થમવાર્ય તદુપર્શિતાવાયારબાંન્દ્રક્ષળવા વાવ્યાતઃ ૨૨૬-રરૂ. ૭૬. ધારણનિત્કાબૂ મેવો વળે, તત્ર પ્રથમ-દ્વિતીય–તૃતીયમેદુwોરણ ૨૨૭ ૨ ૭૭. ધારણા પર્યાવાળામુખીને, તegટી રળa २२८ ३ ૧૭૮. ના િધારણા Sલ્યો જ્ઞાનક્ય શ્ચિમે ફતિ પ્રશ્નય યુપપાવિતસ્ય પ્રતિવિધાનપૂ રર૮ ૭ ૧૭૬. તેત્રવાપાચબન્યુતિ વાસના-ઋતિક્ષાયાધિજ્ઞાનવાળા વ્યવસ્થાપનમ્ ! ૨૨૧ ૬ ૧૮૦. વહુવવિત્યાદ્રિ રાહૂત્રવતરણ “વહેત્યાવીના 'તિ વિવરણનવતા ચાલ્યાનમ્ ! ૨૨ ૭ ૮. “વહુવેલિબાનિશ્ચિતસન્ડિકુંવાણાં લેવાણી “-શા' ફેતિ સૂત્ર તમાગવા २३०-१० Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३ ५८२. विवरणे यहोरवाही बहुमवणातत्यनयोरभेदः प्रश्नपूर्वकप्रतिविधानत उपदर्शितः। २३०-२२ ५८३. स्पर्शनावग्रहो यथा वहुमवगृह्णाति तथा-निदर्शनेन स्पष्टीकृतम् । २३०-२५ ५८४. बहऽवग्रहादिभेदप्रदर्शनं व्यावहारिकावाहमाश्रित्य, न तु नैश्चयिकावग्रहमाश्रित्येति भावितं प्रश्नप्रतिविधानाभ्याम् । २३१ २ ५८५. पर्शनाऽवग्रहमाश्रित्यैवाल्पावहादिभेदा विभाविताः । २३१ ६ ५८६. कोलाहलप्रत्यक्षस्याबहुमध्ये एकविधमध्ये वाऽन्तर्भायो दर्शितः । २३२ २ ५८७. स्पर्शनाऽवग्रहमाश्रित्य च क्षिप्रावहादिभेदा भाविताः । २३२-११ ५८८. उक्तापग्रहानुक्तावग्रहविकल्पत्यागे वीजमुपदर्शितम् । २३३ ३ ५८९. निश्रितानिश्रितावग्रहप्ररूपणे "निरिसए विसेसो वा” इति भाप्यवचनसम्वादो दर्शितः। २३३ ९ ५९०. निश्रितावमहानिश्रितापग्रहयोः प्ररूपणम् । २३३-१२ ५९१. ध्रुवाध्रुवावमहयोः प्ररूपणम् , प्रश्नप्रतिविधानाभ्यामध्रुवत्वस्वरूपनिष्टड्कनम् । २३४ ३ ५९२. बादिभेदा अवग्रहोपदशितदिशैयेहादिष्वपि भावनीयाः । २३५ १ ५९३. (सूत्र. १७) 'अर्थस्थ' इति सप्तदशसूत्रमवहादयो मतिज्ञानभेदा अर्थस्य भवन्तीत्य तत्परं चर्चितम् । ५९४. शङ्कासमाधानमुखेन स्पर्शादिवाहकाणामवहादीनां द्रव्यबाहकत्वं व्यवस्थापितम् । २३५ ७ ५९५. पर्यायग्रहणे द्रयग्रहणस्यावश्यकवादित्यस्य व्याख्याने पर्यायव्ययोरविनाभावो गुण पर्यायवद् द्रव्यमिति द्रव्यलक्षणसङ्गमन, निर्गुणमेव द्रव्यमुत्पद्यत इति सिद्धान्तप्रवणन्यायमतखण्डनश्च । २३६-२१ ५९६. चक्षुस्त्वम्मनांसि द्रव्यग्राहकाणि इतराणीन्द्रयाणि द्रव्याग्राहकाणीति नैयायिक ____ मतस्यातिदेशेन निराकरणम् । २३६ ३ ५९७. पद्धस्पृष्टताभिमुख्यस्पृष्टताः प्रत्यासत्तयो यद्वारेव पर्यायेष्वित्युभयग्रहणमित्यस्थी. . पपादन, तत्र 'पुढे सुणेइ सदं ' इति विशेषावश्यकनियुक्तिवचनसंवादः। २३६-२६ ५९८. (सूत्र. १८) अवग्रह मेदस्य व्यञ्जनावहास्यस्य प्रतिपादक 'व्यञ्जनस्थावग्रहः । इत्यष्टादशसूत्रम् । ५९९. व्यञ्जनावग्रहस्य स्वरूपमुपवावहतो मलीमसत्वं तस्य व्यवस्थापितम्। २३७ ७ ६००. व्यञ्जनस्यावाह एव भवति न पोहापायधारणा भवन्तीति दर्शितम् । २३७-१० ६०१. (५० १९) चक्षुर्मनाभ्यां व्यञ्जनावग्रहो न भवतीत्युपदर्शक " न चक्षुरनिन्द्रिया. ...भ्याम् " इत्येकोनविंशतितमसूत्रम् । २३८ ६ ६०२. मतिज्ञानस्य यावद्भेदोपदर्शनपुरारं निगमनम् । २३८ ८ ६०३. उतसूत्र भाष्यस्य प्राचा व्याख्यान न युक्तमिति तदुपदर्शनपुररसरं दर्शितम् । २३८-१० ६.४. इन्द्रिय चतुष्टयस्य प्राप्यकारिस्वाद् व्यञ्जनावग्रहः समिति, न तु चक्षुर्भनसो- ... . ..रित्युपपादितम् । -- २ २३९ ..१३ २३७ ३ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૬૦, વક્ષનો બાબરિવાર્યક્રમનુમાનનુપદ્ધતિ ૨૩૨ ૨ - ૬૦૬. શુષ પ્રાખ્યારિત્રામાવલાધજાનુભાનાપારમાં તૈયાયિમિતકુચિરા નિરાકૃત, અન્યપિ તદુપોદક ન્યુ વિસ્તરતા २३९ ६ ૬૦૭. મનસોડકારિત્વલ્ય સમર્થન, તત્ર મનસા પ્રાધ્યાત્વિસાધજૂર્વ પરામિમત- ' ' યુનિવૃક્વાડપાવરબદ્મ | २४१ ३ હ૦૮. મતિજ્ઞાનસ્ય ધિત્વવતુર્વિધવાછાશતિવિધવાડણવદ્યુત્તરવયંવેં-પશિ- 1 ત્રિરાતમહત્વાને સન્યતાનિ ! २४२ ३ ૬૦. સ્વપ્નજ્ઞાનાવિસ્થાનિન્તાવાડડદાનાં પાનાં મનસા માના નિમિત્તનુપદ્ધતિમાં ૨૪૨-૭ ૨૦. ( સૂત્ર ૨૦) શ્રુતજ્ઞાનકક્ષાપદ્ધ ‘બ્રુતં મતિપૂર્વ યજતિશમે રિ વિંશતિ- તમસૂત્ર તમાળેશ્વ ! २४२-२७ ૬૨. સૂત્રે જ ફળ-વિધાનશા ઉર્શિતા ! २४३-१८ ૬૨. તમિત્વનેન જ્ઞાનવ ળ = શિલ્ય, તિજ્ઞાનપૂર્વમિલ્યન પર્યવસિત તઝક્ષ- પન્ન તિમ્, મત્ર મતિવિશેષ દળa ! २४३ १९ ૬૨. શ્રતે મતિજ્ઞાનમક્ષિારણમેવ જ સમવાધિકારણમ્, મતિજ્ઞાનમેવ સ્નાન શ્રુતજ્ઞાન હળ પરિણમતે ત્યાધુવસનમ તત્ર બનત્ય મહું ક્યારામસંવાદઃ રાક ? 8. શ્રુતમાસવવનક, માન, પવેશ તિવન, આપ્નાય, બવાન, નિનવનનિત્ય.. નcરમિતિ મળ્યસ્ય પ્રત્યેવાવિવેવનેન સન્નમન ! ૨૧. ચક્કાજામેમિસ્ય ખાવાં વ્યાસ્થાન ન ઉસક્રતમસ્તુપાવ રૂશ્વાસ્થાન- મુપર્શિત - ૨૪છે ? . બન્નવાહાકૂબવિયોમેયો પછીણ - - ર૪૬ ૨૭. સામાયિ વતુર્વશતિતવ રૂલ્યાવીનામૃષિભાષિતપર્યન્તાનામવાસ્થાનાં પ્રાર્થના - વસ્ત્રપણે ક્ષતાનિ ! ' ૬૮. ધારઃ સૂત્રકૃમિત્યાદ્રિાદશવિધાનામવાનાં હૃક્ષણાન્યુપંરતાનિ ૨૪-શરૂ ૬૨. મતિવશેષ પદ્ધતિ .२४५ ३ ૬૨૦. શ્રુતજ્ઞાનય દ્રિવિધત્વમવિયત્વે દ્વાદશવિયત્વ ચૈષિમિત્તે કપાધવ કરો રાખ્યાં માળે વર્શિતા, તત્સમના વિનયપાધ્યાઃ ક્રતા - ૨૪૭ ૬ દર. માવ છન્દ્રપ્રવૃતિનિમિત્તોપરિ સિરિયસ્થાતિમામાબા રવિિમ રિત્યજ્યાવરબે રતા २४७ १३ દર૨. સર્વસ્વિસ્ત્ર વિવરણ સર્વજ્યપાન નાનનિ વિશેષતર્તરિત્યાવતરને પ્રતિષ્યિસ્ય વૈદ્ધાવવુપતસર્વજ્ઞસ્યોપવને સર્વે પરથ, વા મા વાત્યાદિષવાના. મુનિવર્જેનન્J : ' - ૨૪૭ ૨૭ ઘરરૂ. માવોના પરમમિરિત્યાવીનાં પરણી - ૨૪૬ રૂ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२४. तत्त्वामान्यादिति भाव्यविवरणे हेतुभूतिनिषेधो न' इत्युदयनकारिकोपदर्शिता। २४८ ५ ६२५, हेतुभूतिनिषेधो नेति कारिकाव्याख्यानम् । २४८-२३ ६२६. परमशुभस्येत्यादेयिवचनस्य विवरणम् । २४९ २ ६२७. गणधरानन्तर्यादिभिरित्यादितदङ्ग वाह्यमित्यन्तभाप्यवचनस्य विवरणम् । २४९ ७ ६२८. तीर्थकरनामकर्मणोऽनुभावादित्यस्य व्याख्याने संवादकतया 'तित्थयरो कि कारणम्' इत्यादि विशेषावश्यकवचनं दर्शितम् । .. २४९-१९ ६२९. अतिशयवद्भिरित्यादेवतरणे 'पहूर्ण भंते' इत्यादि परमर्षिवचनं दर्शितम् । २४९-२१ ६३०. "बुद्धिश्च वीजकोष्ठादिका" इत्यस्य व्याख्याने वीजवुद्धिकोवुद्धी उपवर्णिते। २४९-२४ ६३१. सर्वज्ञप्रणीतत्वादान त्याच ज्ञेयस्य श्रुतज्ञानं मतिज्ञानात्महाविषयमित्यादिभाप्यार्थों स्पष्टीकृत्य दर्शितः। २५० ३ ६३२. अङ्गोपाङ्गनानात्वे हेत्वन्तरोपदर्शकस्य "किश्चान्यत् सुखग्रहणधारणविज्ञानापोहप्रयोगाત્યાદ્ધિમાખ્યત્વે વિવરણમ્ | २५० ६ ६३३. मतिश्रुतयोस्तुल्यविषयत्वे एकत्वमेवास्त्विति शङ्कासमाधानपरस्य 'अत्राह मतिश्रुतयो'___ रित्यादिभाष्यस्य विवरणम् । । ६५०-१७ ६३४. त्रिकालविषयत्वस्य श्रुतज्ञानेऽव्याप्ति मतिज्ञाने पातिव्याप्तिमाशङ्कय तत्प्रतिविधानमुपदर्शितम् । २५१ २ ६३५. उपज्जमाणकालमिति सम्मतिगाथाया विवरणोल्लिखिताया अर्थ उपदर्शितः। । २५१ ८ ६३६. “ संखाइए वि भवे' इत्यादिगाथाया अर्थो दर्शितः। २५१-२६ ६३७. मतिश्रुतयोः कारणभेदाद् भेदस्योपदर्शकस्य किञ्चान्यत् मतिज्ञानभिन्द्रियानिन्द्रिय- .. निमित्तम्' इत्यादिभाप्यस्य व्याख्यानम् । २५२- ३ ६३८. लक्षणमेदादिना मतिश्रुतभेदोपदर्शकस्य जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणमतस्योपपादनपुरसर- मुपदर्शनम् । . . . २५२ ८ ६३९. तत्र मतिश्रुतयोलक्षणभेदस्य प्रतिपादनम्। २५२-१० ६४०. मतिश्रुतयोई तुफलभावाद् भदस्य प्रतिपादनम्। .. २५५ २ ६४१. भेदभेदात् मतिश्रुतयोमदो दर्शितः, एमिन्द्रियभेदादपि । २५७ ७ ६४२. गन्धे पागमावस्येवैकस्यान्यथासिद्धिरपि तुल्यैवेत्यस्याभिप्रायोऽवतरणेन स्पष्टीकृतः । २५७-११ ६४३. वरकसुम्बोदाहरणेन मतिश्रुतयो दो भावितः, तत्रान्येपामाचार्याणां परफसुन्बोदाहरण- . सक्षमना निराकृता । ६४४. भावद्रव्यश्रुतयोभद एव वरकसुम्बोदाहरणसमनुगमनमिति केपाश्चिमतमपि दूषितम् । २५८ ८ ६४५, परकसुम्योदाहरणेन भेद इति ग्रन्थाभिप्रायः प्रश्नप्रतिविधानाभ्यामावदितः। - २५८-१९ ६४६, अतिदेशेन वरकसुम्योदाहरणव्याख्यानान्तरमपि खण्डितम् । - २५९ १ - २५८ ३ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૭. અક્ષરાનારા વિદ્યુતવોર્મ માવતઃ, તત્રાક્ષ વ્યાક્ષરમાવાક્ષરમેન વિર્થ विचारितम् । - - ર છે ६४८. मतिज्ञानमनक्षरं श्रुतज्ञानं चाक्षरवदनक्षपञ्चेति केषाञ्चिव्याख्यानमषाकृतम्। २६१ १ ૪૬. મૂતરમાવત્ તિશ્રતો ડઘાતઃ २६२ ४ હ૧૦. વિવરળતા વછૂતતિકૃતમે વિવારપાત્વામિન્યવયર્થ પદ્યમુનિદ્ધ! ૨૬ , પ. પુત્વવિનયનેમિસુરિલેવાબમાવત નતિર્થે વિદ્ગતિવિર્વિશાસ્ત્ર વાગ્યાનાડડનવા વત્યર્થ« પવવું! ૨૬૪– ૬ : દર. (સૂત્ર. ૨૨) અધિનિત્કાળમવર્ષે “ક્રિવિધ ” ફન્ચે શાતિતમસૂત્રમ્ ! ર૬૪–૨૨. પરૂ, અવમવબવલયોપશમનિમિત્તમેન વિશેષ માળખું ! ૨૪-૨૩ ૫૪. ક્ષણે પૃથે મેચેનચાવ્યાખ્યત્વમિત્યારાફ્રાયા નિરાસ | . . ર૪-૨૫ ૧૬. મવપ્રત્યા ફર્ચસ્વ વડુત્રાદિ દેવનાધજ્ઞાનવત્સપિર્શમાતા ર૬૪–૨૬ ક, મવપ્રત્યયચાવ ક્ષયો રામ વવ મુલ્ય ફાળમિત્વપપાવાઝુદ્ધનતે મેવ રબળતાન્ઝાળમિતિ તર મવકલ્યોતિ તા ૨૬ ૨.. ૬૭. સુદ્ધનયમતે મવય શરળતામાવાન્ મવપ્રત્યયો નાવધિ, ખાપિત તે = ધટ રળત્વનું, હૃષ્ટપ્રયોગત્વજ્ઞાનાવ તત્ર પ્રવૃત્તિ, પ્રપશ્ચિાદ્વૈતવામિથ્યાત્મકતપરી - ક્ષાવાવતિ તી ૧૮. અવધિઃ સચોપરામનિમિત્ત થયા ત તિઃ સ ન્યાયતો ગુણધત્વવાર હું ૨૫. (સૂત્ર ર૨) મવપ્રત્યયમવધિન્ના નારણાં લેવાનાàત્યુપત “તત્ર મવ પ્રત્યય નારહેવાનાફતિ દ્વારા નિતમસૂત્રમ્ માઝા * * ૨૬૬ ૬ - હ૬૦. માળે મવપ્રત્યયમિત્ય મવહેતુ મવનિમિત્તમિત્યચંધનારા પ્રયોગનyપવાતો ૨૬-૦ ૬૪. મવ વ હેતુસ્તસ્ય, ચય પક્ષના માજારામને ફચત્ર “મવષા ” તિ માંગ્ય વનસંવાદઃ | ૬૨. (ન્ન ર૩) ક્ષય પામતુવઃ સ્વવિક્લપ “ ચીનમઃ વિરુપે પાળા ” કૃતિ સૂત્ર માધ્યશ્વી ૨૭ ? . માળે અનાનુમિનન્ આનુમન્ હરમાન વર્ધમાન અનવસિયત અવસ્થત- - - મિä પદ્ધમતા ક્ષયોપશમનિમિત્તાધિજ્ઞાનસ્ય, બષશ્વતત્તેષાં પાર્થસ્પેન સ્ટૉળોપનન્ના ૨૭ ક. દ૬૪. માળોમાત્રસ્વ સુસ્પષ્ટ વિવરણે ભાવાર્થોપર્શનચ - - - ૨૬૭ ૨૪ દક. શાન્તરમમિત્રાન્ત સ્વામિનં વોવનવવાનુમાવધિજ્ઞાનમનુ છત્ર બબુ ગામિત્રોડબુજી ફત્યાદ્રિ વનસંવા રતઃ. - - ૨૭ ૨૨, + દ૬. યમાનવધાનસત્યત્ર “હાયમાર્ગ પુર્વવત્યા ચોડ્યો હા તિ , વનસંવાવ . . - - - - - - - - ૨૬૮- ૬ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७: ६६७. ( सूत्र २४ ) भेदद्वारेण मनःपर्यायज्ञानस्य लक्षकं "ऋजुविपुलमती मनःपर्याय” इति चतुर्विंशतितमसूत्रं तद्भाप्यञ्च । ६६८. ऋजुत्वं विपुलत्वञ्च निरूप्य ऋजुमतिविपुलमतिमनःपर्यायज्ञाने निरूपिते । ६६९. द्विविधेनापि मनःपर्यायज्ञानेन तचदर्थचिन्तनपरिणतानि मनोद्रव्याण्येव गृहयन्ते, चिन्त्यमानास्तु बाह्याः पदार्था अनुमानेनैवावगम्यन्ते इत्यादि चर्चितम् । ६७०. “चारुमारुतधुते यथोर्मयः” इति श्लोकस्य व्याख्यानम् । ६७१. (सूत्र० २५) ऋजुमति - विपुलमतिमनःपर्यायज्ञानयोर्विशेषस्य प्रतिपादकं' 'विशुद्धयप्रतिपाताभ्या तद्विशेषः' इति पञ्चविंशतितमसूत्रं तद्भाष्यञ्च । ६७७. भाप्योक्ताना चतुर्णामपि विशेषाणा भाष्यार्थोभावनपुरररं सङ्गमनम् । ६७८ (सूत्र० २७) मतिश्रुतयोर्विषयोपदर्शकं “ मतिश्रुतयोर्निवन्धः सर्वद्रव्येष्वऽसर्वपर्ययेषु " इति सप्तविंशतितमसूत्रं तद्भाष्यञ्च । ६७९. भतिश्रुताभ्या सर्वाणि द्रव्याणि जानीते न तु सर्वैः पर्यायैरिति दर्शितम् । ६८०. विषयनिवन्धो भवतीत्यस्य विषयनियमो भवतीत्यनेन वाह्यार्थापलापियोगाचारमतस्य सर्वशून्यतावादिमाध्यमिकमतस्य च खण्डनं यथा भवति तथोपपाद्य दर्शितम् शून्ये मानमुपैती”ति पद्यञ्चोल्लिखितम् । २६९-११ २६९-१५ २६९-१८ २६९–२२ ६७२. "विशुद्धतरमित्यस्य विवरणम् । ६७३. अप्रतिपातरूपहेत्वन्तरप्रतिपादकस्य किञ्चान्यदित्यादिभाष्यस्य विवरणम् । ६७४. आकेवलप्राप्तेरित्यस्य व्याख्यानं तत्र ' नट्टम्मि छाउमत्थिए ' इतिसिद्धान्तवचनं प्रमाणं दर्शितम् । २७१ ६७५. (सूत्र० २६) विशुद्धि - क्षेत्र- स्वामि-विषयकृता अवधिमनःपर्यायज्ञानयोर्विशेषा इत्युपदर्शक 'विशुद्धिक्षेत्रस्वामिविषयेभ्योऽवधिमनःपर्याययोः' इति षडूविंशतितमसूत्रं तद्माप्यञ्च । २७१-१२ ६७६. क्रमेणैते विशेषा भाष्ये उपपादिताः, दशमेऽध्याये केवलज्ञानस्य निरूपणं तत्सूत्रञ्च भाष्ये दर्शितम् । ६८९. (सूत्र० २८ ) अवधिज्ञानस्य विषयनियमोपदर्शकं 'रूपित्रवधेः' इति अष्टाविंशति तमसूत्रम् । ६८६. अवधिज्ञानस्यासर्वपर्यायेषु रूपिद्रव्येण्येव विषयनिबन्ध इति दर्शितम् । २७० ६. २७०-११ २७-०१४ ४ २७१-१४ २७१-२४ २७२-१८ २७२-१९ २७३ १ २७३-२१ ६८१. अर्थान्तरसंक्रमितवाच्यनिबन्धपदार्थोऽयमित्यस्यार्थो दर्शितः । ६८२. मृतिश्रुताभ्यां सर्वद्रव्याववोघो निष्टङ्कितः । २७४ ६ ६८३. मति श्रुतयोरसर्वपर्यायविशिष्टसर्वद्रव्यविषयकत्वमुपाध्यायग्रेन्थलभ्यं यथा तथा भावितम् । २७४ ૬૮૪, ધર્માતા નિદ્રામનન્તર્યાવિશિષ્ટતથૈવ વતુર્તો તથૈવ મતિશ્રુતાસ્વા કહળું युक्तमिति प्रश्नप्रतिविधानम् । २७४-१४ د २७५ २ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्ट ... २७६-१९ ६८७. गूढार्थदीपिकायामेतस्य स्पष्टीकरणं, तत्र सिद्धान्तवचनानि संवादतयां दर्शितानि । । २७५ ९. ६८८. (सूत्र. २९) मनःपर्यायज्ञानस्य विषयनियमोपदर्शकं " तदनन्त( तम )भागे मनः पर्ययस्य " इत्येकोनत्रिंशत्तमसूत्रम् । .. . २७६ १. ६८९. अवधिज्ञानविषयस्यानन्ततमभागं मनापर्यवज्ञानी जानीते, रूपिद्रयाणि मनोरहत्यविचार- ... गतानि मानुपक्षेत्र पर्यापन्नानि विशुद्धतराणि चेति भाप्ये यदुक्तं तत्स्पष्टीकरण विवरणे । २७६ ३ ६९०. मानुपक्षेत्र पर्यापनत्यैव ग्राहकत्वमित्यत्र 'मुण३ मणोद०वाई नरलोए सो भणिज्जभाणाई' इति सिद्धान्तसंवादः । २७६-१५ ६९१. (सूत्र० ३०) केवलज्ञानविषयोपदर्शकं " सर्पद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य " इति त्रिंशत मसूत्रम् तमाण्यश्च । ६९२. तत्र केवलज्ञाने सर्वभावाहकत्व-केवलव-परिपूर्णत्व समत्रत्वाऽसाधारणत्व-निरपे-. . क्षत्व-विशुद्धत्य-सर्वभावज्ञापकत्व-लोकालोकविषयत्वान-तत्वपर्याया दर्शिताः। - २७६-२० ६९३. सर्वेऽयुक्ताः केवलस्य धर्माः स्वस्वासाधारणस्वरूपेण लक्षिताः। . २७६-२४ , ६९४. गूढार्थदीपिकायां सर्वेषा समन्वय उपपादितः, सर्वद्रव्यपर्यायष्पित्यत्र द्वन्द्वगर्भकर्मधार • यसमासश्च व्यवस्थापितः। ६९५. (सूत्र० ३१ ) मतिज्ञानादीनां युगपदेकस्मिन् जीवे सम्भवता सङ्ख्यामजनोपदर्शक . .. " एकादीनि भाज्यानि युगपदेकरिगन्नाचतुभ्यः" इत्येकत्रिंशत्तमसूत्रम् तद्भाष्यञ्च । २७९-१६ ६९६. तत्र कस्मॅिश्चिज्जीवे मत्यादीनामेकं, कस्मिंश्चिद् द्वे, कस्मिंश्चित्रीणि, कस्मिंश्चिचत्वारि भवन्तीत्येवं भजना दर्शिता, एवं यस्य श्रुतज्ञानं तस्य नियत मतिज्ञान, यस्य । मतिज्ञानं तस्य श्रुतज्ञानं भवति नवेत्युपदर्शितम् । २७९-१८ ६९७. केवलज्ञानस्य मतिज्ञानादिभित्सहमा केचिन्मन्यन्ते, केचिन्न, उभयत्र तत्तदनुमता युक्तयो दर्शिताः । द्वितीयमते बढ्यो युक्तयो दार्शताः ।। . . २७९-२० ६९८. एकशब्दः प्राथम्ये इति विवरणअन्धमवतारयितुमेकशब्दस्यानेके अर्थाः दर्शिताः। । २७९-३० ६९९. एकादीनीत्यादिशब्दानामा उपदर्शिताः ।। '२८० १ ७.०. एकादीनीत्यत्र तद्गुणसंविज्ञानबहुप्रीहि समास इति निष्टाह्नितम् । २८० ५ ७०१. युगपदेककाले इति विवरणोक्तौ मतिश्रुतावधिमनःपर्यायज्ञानाना युगपावित्वं न . सम्भवतीत्याशङ्कायाः प्रतिविधानम् । २८०-१९ ७०२. आचतुभ्य इत्यत्राड अभिविधौ न मर्यादा यामित्युपपादितम् । ' २८१ १ ७०३. अनुपयोगात्मकतया युगपदवस्थितसत्ताकानां मत्यादिचतुर्मानानां वोधस्वभावत्वाऽवोध- स्वभावत्वयोपिोद्भावनराशाया निराकरणम् , तत्र सिद्धान्तवचनानि अपसिद्धान्तनिरासायोपदर्शितानि । २८१ ६ ७०४. अत्र मत्यादीनां पञ्चानां ज्ञानानामे मतिज्ञानमित्युपौ भगवतीवचनविरोधमाशय तत्परिहार उपदर्शितः ॥ २८१-२० . Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०५. कस्मिंश्चिजीवे एकस्यैव मतिज्ञानस्याभ्युपगमे नन्दी सूत्रविरोधप्रश्नस्य परिहारो विहितः । २८२ ८ ७०६. अत्रैव लोकप्रकाशवचनसंवादो दर्शितः । , २८२-१९ ७०७. श्रोत्रेन्द्रियजन्यज्ञानं श्रुतमेव न तु मतिज्ञानमित्युपगमे मतिज्ञानस्याष्टाविंशतिभेदभङ्गापत्तिरिति प्रश्नस्य प्रतिविधान, तत्र भाज्यसंवादः। २८२-२५ ७०८. कस्मिंश्चित् त्रीणि, द्वे मतिश्रुते, तृतीय चावधिज्ञानमितिप्रतीकं गृहीत्वा, तदनन्तरं सिद्धान्त च द्वे मतिश्रुते, तृतीयं मनःपर्यायज्ञानमित्यप्युक्तमित्युपक्रन्य तद्विचारो दर्शितः । २८२-३१ ७०९. कस्मिंश्चिचत्वारि, त्रीयुक्तानि, चतुर्थ च मनापर्यायज्ञानमित्यभिधाय श्रुतमेकं क्वचित् । किं न प्रदश्यत इति प्रश्नस्य प्रतिविधानम् । २८३ १ ७१०. अत्र गूढार्थदीपिका सिद्धान्तवचनोद्गारपरिपूर्णाऽस्ति । . २८३-१९ ७११. केवलज्ञानस्य मतिज्ञानादिभिस्सहभावो भवति न वेति प्रश्नस्य प्रतिविधाने केपाश्चिदाचार्याणा सहभावप्रतिपादक मतमुपदर्शितम् । .. . .. २८४ २ ७१२. उक्तप्रश्नोपपादनपूर्वकं तत्प्रतिविधाने सहभावप्रतिपादकाचार्यमतस्य सम्यगुपपादन, तत्रागमवचनान्यप्युङ्कितानि । २८४-१२ ७१३. उक्ताचार्यमतस्यायुक्तत्वव्यवस्थापनम् । २८५--६ ७१४. उक्तमताऽयुक्तत्वहेतूपदर्शकस्य पूर्व सतो मत्याधुपयोगस्य कालत एव विरतेरित्यादिग्रन्थस्यागमवचनसंपलित सम्यगविवेचनम् । . २८५-१० ७१५. क्षायोपशमिकाना मत्यादीनां केवलेन सहभावाभावेऽपि क्षायिकानां तेषां विलेन सहभावः स्यादेवेत्याशंकामुाज्य तन्निवारणपरं केवलज्ञानव्यावृत्तज्ञानवव्याप्यजात्यपच्छिन्नं प्रति केवलज्ञानावरणस्यैव हेतुत्वं, तदभावाकेवलज्ञानकाले न मत्यादीनां सम्भव इत्यवतारित 'केचिदप्याहुरिति' साम्प्रदायिकमतम् । २८६ ३ ७१६. उक्तसाम्प्रदायिकमतावतरण सम्यगव्याख्यातम् । २८६-१७ ७१७. भाष्ये साम्प्रदायिकमतोपदर्शितानि यानि केवलिनि मत्यादिज्ञानाभावोपपादकानि तानि सर्वाणि क्रमेण व्याख्यातानि । २८७ ५ ७१८. मतिज्ञानादिषु चतुऱ्या पर्यायेणोपयोगो भवति, न युगपत् , संमिन्नज्ञानदर्शनस्य तु . भगवतः केवलिनो युगपत्सर्वमावग्राहके निरपेक्षे केवलज्ञाने केवलदर्शने चानुसमयमुपयोगो भवतीति' भाष्यस्य सम्यविवरणम् । २८७-१० ७१९. केवलज्ञानकेवलदर्शनयोवरिवारणोपयोग इति प्राचा मत, एक एवोपयोगः सामान्य विषयत्वादशन विशेषविषयवाज्ज्ञानं वारंवारेणोपयोगी नास्तीति नव्याना मतं तन्न - युक्तमिति प्राञ्चः इत्येवमुपदर्शितम् । - .. २८८ १ ७२०. ज्ञानदर्शनयोर्योगपधमिति मठवादिमतं, एक एवोपयोगी यदेव ज्ञानं तदेव दर्शन Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ નિતિ નક્કમત, ધનં ગાને તો ઢરીનમિલ બિજોપયોતિ વૃદ્ધાનાં મત, ". इतिमतत्रययोजना ज्ञानविन्दावुपपादितेति दर्शितम् । ... ૨૮૨ ૨ ૨૨. ડૉમતત્રસાધારો વિઘપિત્તયો તાર 1. ૨૮૧ ૨ કરશે. તત્ર મોપયોગવાદિનાં નિનમાણિક્ષમાંઝળાનાં મતે જેવીબે તે સ્ત્રાવાનપ્રેમાળકમાતમુર્મવિત . - ૨૮૬-૨૨ ___ ७२३. केवलज्ञानदर्शनयोः क्रमणोत्पादेऽपि नाशकाभावान्न नाश इति प्रश्नस्य प्रतिविधानम् । २८९-२६ ૭૨૪. વર્જિન મેળોપયોપામ્યુપામે પ્રતિસમયેં સાન્તસ્ત્રાપજ્યા વસ્ત્રજ્ઞાનવરનો સાડ- , र्थसितत्वप्रतिपादकसूत्रविरोध इति प्रश्नप्रातिविधानम् ।। २९०० - २ હર વઢિનઃ પુન્તરજ્ઞાનવર્શનો યોજ્યુકમે પરાિિહતરોધનાઢસ્ય છતુમતૈિ- ' ' તરજ્ઞાનવર્ચનોત્તરમનપ્રતિવન્ધાડપાળ ! २९० ६ ૩૨. સૂરે યુપદુપયસ્ય નિષેધ હવ, ન તુ વિધાન, તત્રામસમ્મતિતિ ર૧૦-૨૬ કર. યુપિદુપયોnયવાદનાં શ્રી મણનાં મતમુપાતિ સર્ટિબ્રિમિય- . દેવભૂમિ સત્ર ચાલ્ડમાધારા છતાં, તોપતિ, ર૦-રક ૨૮. અન્ન જ્ઞાનવિન્દ શ્રીમદ્વિર્યશોવિનયપધાર્યા સમાનના ઊંત સોપરિતા ૨૨-૨૦ ૭૨૧. સામાન્યગ્રાહિવિશેષાહિ વૈવમેવ સેવનું જ્ઞાનં વર્ણનમ્નેતિ સિદ્ધસેનવિરાણાં મહાતારા મળનાં મતનુવાત ! -, ' ' ૨૨૨-૪, ', ૭૨૦. અત્રે પ્રસજ્ઞi(કુતિરસ્ય “પૂર્વ પિતમેવમતતામતિ” પામુદ્દષ્ક્રિતી ૨૨૪-૨ ૭૨૨. ચત્ર જેવૌપોને હત્વે ચક્ર, યાત્મત્વ નૃસિંદૂત્વવાશિક્ષણાત્યન્તરરૂપત મિત્યે મત, મા ાિધોપાવૈવારિવાતિયમિત્યપરમત, વકત્વમેવાણક્ષયાત, જ્ઞાનત્વે નીતિવિશેષ રનવે જ વિયેતાવિશેષ ક્ષયનન્યતા છે હત્યપધ્યાયમમિતિ તિમ્ | * ૨૬૪–૨૮ ૭૨૨. ડરૂમતત્ર પર મરત્યે પ્રામાળા તવર્ચતામ્યુન્નિધ્યાત્વ : इति प्रश्नप्रतिविधानम् । કરે. કાવવનિગ્નનાં નિનમદ્રસિદ્ધસેનપ્રકૃતીનાં વત્તતારૂવદ્ધવિષયે સૂત્રે પરતપિત્ત મિત્યવિનયપહેરાવૃત્તિન્યા ત્યાનાસ્તો સૂરખાં છેષામપસિદ્ધાન્તોસ્યા મિથ્યાત્વ- * * * પ્રસન્ન મત્યુપાતમા ૭૨૪. વ્યવહારનામાન્ય મામેરો યાત્મો વેવ મેહબધાનીઝવૈજસમયાછો - વિજ્ઞાનવત્રવનમેટું ઘોવૃચ્છમછવાહિન ધ્રુત્યુપર્શતી' ર૬-૧ર ૭૨૧. સઘનયમવર્ઝજ્ઞાનસ્ત્ર વર્જયમેવ જ્ઞાનવનોપાધિમેન મે' 'મુનન્તઃ સિદ્ધસેનવાવર તિ વારતા ' ' ૨૬૧-૨૮ ૭૨૬ ત્રચાળમ્બળે નૈ ષિ વિરે મામનિવેચિમધ્યાત્વકલ ફતિ નિયમિત ર૬- Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३७. उतार्थोपोलनाय श्रीयशोविजयोपाध्यायकृतज्ञानबिन्दुगतानि "प्राचा वाचाम्"इत्यादीनि .. .... .. सप्तपद्यानि दर्शितानि । -- २९५-३१ ७३८. संक्षेपतस्तेषां पद्यानामर्था उपदर्शिताः। . २९६-३१ ७३९. मत्यादीनि चत्वारि ज्ञानानि क्षयोपशम जानि क्षायिकज्ञानवति केवलिनि न सम्भवन्तीति . . निगमनम् । ... ३०१ १ ७१०. नैयायिकाद्यभिमतं योगजधर्मजन्य मानसं विलक्षणं योगिज्ञानमित्यस्य खण्डनम्। ३०१ . ३. ७४१. ( सू०.३२) मत्यज्ञान-श्रुताज्ञान- विज्ञानात्मकप्रमाणाऽभासत्रयप्रतिपादक - मतिश्रुतावषयो विपर्ययश्च ' इति द्वात्रिंशतमसूत्रं तद्भाप्यञ्च । ३०२ ३ ७४२. मत्यादिज्ञानमेव मत्याद्यज्ञानमित्यत्यन्तविरोधान्न सम्भवन्तीति प्रश्नस्य प्रतिविधानम् । ३०२ ५ ७४३. सन्यादर्शनपरिगृहीत मत्यादिज्ञानमन्यथाऽज्ञानमित्येतत्कथनिति प्रश्नस्य प्रतिविधानम् । ३०२ ७, ७११. अभिगृहीतमिथ्यादर्शनाऽनभिगृहीतमिथ्यादर्शनप्रवचनार्थसन्देहिभेदेन मिथ्याध्यस्त्रि विधाः, ते पुनर्भव्यामव्यमेदेन द्विविधा इति दर्शितम् । ७१५. (सू० ३३) मिथ्याष्टिज्ञानस्याज्ञानत्वप्ररूपक - सदसतोरविशेषात् यहच्छोपलब्धे. सन्मत्तवत्' इति त्रयस्त्रिंशतमसूत्रं तनाप्यञ्च । , ३०३-२७ ७४६. एकान्तवाचभ्युपगतस्य प्रमालक्षणस्थानुपपन्नत्वं दर्शितम् । ३०४-११. ७४७, अत्रैव वसतिहटान्तेन विनात्मभावमविश्रान्तरिति विवरणस्य भावार्थों दर्शितः। ३०६ ९ ७४८. अर्पिता नर्पितसिद्धरित्याधुदिशा भजनयैव प्रमाऽप्रमाव्यवस्थितेः' इति विवरणय . . ____-सम्यगर्थो व्यावर्णितः । ७४९. गौरीकान्तायुक्तप्रमाऽप्रमाविवेचनस्य खण्डनम् । .. ३१० ५ ७५०. चतुस्विशतमसूत्रावतरणिकास्वरूपं 'अवसरप्राप्तमपि चारित्रं नोच्यत' इत्यादिप्रन्थं सम पल-० नयविचारकर्तव्योपोद्वलनाय नयसामान्यलक्षणाविष्करणपुरस्कृतप्रमाणनिक्षेपविचारालिङ्गितावतारअन्थोतिपुष्टिनीतः। . ३१०-२७ ७५१. प्रसमान्न समुदाये न सम्यक्त्वमिति प्रश्नस्य निराकरणम् तत्र सम्मतिविशेषावश्यकपचनसंवादो दर्शितश्च। . ३१२-११ ७५२. सपा नयवादानां मिथ्याष्टित्वे तत्समुदायेऽपि न सम्यक्त्वमिति प्रश्नस्य प्रतिविधानम्, . . . तत्र नयाना योगपचाऽसभिवादनावलीदृष्टान्तेन तत्समुदायोपपादनं न सम्भवतीति प्रश्नप्रतिविधानम् । - ०५३. दुनय-सुनय-प्रमाणाना लक्षणान्युपदर्शितानि । ३१३-२५ ७५४. सदेवति दुर्नयवचनं, सदिति सुनयवचनं, स्यात्सदिति प्रमाणवचनमित्यत्र सत्यादि' .. हेमचन्द्रसूविचनसंपादो दर्शितः ।' ३१४-१४७५५. व्यासतोऽनेकविकल्परवं, मूलजातिभेदतः सप्तविधत्वं नानामिति स्थिती सूत्रे पञ्च: विधवं कथमुपमित्याकाडानिवृत्तये तदनेकप्रकारोपदर्शनप्रपञ्चः। . . . . .३११ - ३०७ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨૮ ૭. (ફૂ૦ રૂ૪) મૂઢનાતિમત્તે નચપદ્ઘવિયત્વોપરી નિયમસંગ્રહવ્યવહારનુત્રર ' - નયાઃ”ત્તિ તુસ્ત્રામસૂત્ર, તત્ક્રાખ્યાવિવરણa ૩૨૪–૨૮ ૭૭. ન્નયામાં શનવાનામૌવ સૂત્રે ઝર્સને હેતુહપતિઃ - ૨૨૩ ૬ ૭૫૮. નવસામાન્યaઈ, તત્ર “સ વાંસાવૃતાર્થે તિ વવનસંવાદ - ૩૨ ૨ ૭૬. શનયસ્વરૂપમન્નનમ્ ? %૦. (g૦ રૂ૫) નમો દૃિવિધ શસ્ત્રવિણ લુવર્શ “ભાવશ દ્વિત્રિમ ફતિ પર્વાત્રામસૂત્ર તદ્માષ્પન્ન ! પષ૭. સૂત્રધારાનું નામ પ્રમત્યંતધ્યાતિપાદ્રશ્ન “બાવ ફતિ મૂત્રામનામાગ્યા ત્રિામમાદ તિ માસ્ય વિવરણમ્ ! છઠ્ઠ૨. નિવિધ્યપ્રતિપાદ પરિક્ષેપી સર્વપરિક્ષેપ રતિ માળ0 વિવરણમ્ તત્ર સામાન્ય વિશેષરૂપે ફફ્લેવમનમવાને વનમુપારિતમ્ ! હ૬૨. ટીચાં ઝાળમુનરોદ્ધા પ્રવર્તત્વેનાસ્યામધાન વસ્તૃત તદ્માવતી ३१७ ५ ૭૬૪, શનયત્રિમતાં ત્યાતિ માણા રતઃ '. " ૨૬૭ ૭ ૭૬૬. નુકૃત્તિક્ષણે સામાન્યવેત્યાદિ વિવરણઃ પુષ્ટીતઃ ૨૨૭–૨૦ .. ૭૬૬. જાગતિ સાબરિશ તિ મંતવ્યનિત્યાશિક્ષાબતિક્ષેપ નિવારણ* પ્રભ્યો વિવારિતઃ | ૭૬. ચાં સંગ્રામમિત્તે તાં તાં સમધિરોહ્નતિ સમદ્ર તિ વિવરળકન્યસ્થા માવા સગુનઃ ૨૨૮ ૨ ૬૮. વંતનયપ્રપળ, તત્ર પરિમાષિ બૌપાધિ નિમિત્તિકોમેન સંજ્ઞાવા વિષ્ય સદાન્તમુપર સાપ્રતાનિયત્રયાળાં શસંજ્ઞા વાર્થ વૃતિ રિતિમા ૨૧ ૭૬૬. વચ્ચે વાર્થોપચાં સ્પષ્ટીકરણ ! ૭૭૦. શબ્દસ્ય રે મેહ મિહિતારૂં ના પવનમામિતિ મેઢ તુ નયમેવા વિતિ તમા ૭૭૨. મનુયોગઠ્ઠા સ્થાના નવા ૪જી, તાવાત્રકૃતોપ તરૈવ રતઃ સ્વલા ' તિરસ્ય નવ નવમા નોષિત લ્યા માવતી * ૨૨૦ છ૭૨. બત્રાદ-જિનેવા ક્ષતિ, અત્રો, નિમેષ રેડમેદિતા શાવેલા મર્થ શા- . - પરિક્ષાનસ્ત્ર શસમગ્રાહી મૈ” તિ ન પમ વ્યસ્ય સપર્યાવનમ્પ ૨૨૨ ૫ ૭. નિખ્રિત્યાદ્રિ માધ્યમેવ, તુ સૂત્રમત્યુપાતિમ્ ! રૂરર૭૭. સામાન્યપ્રાઢિળો નામ નાતિમા–પવવત્તામ્યુપામ, વિશેષાહિબdય દ્વિ- - - ત્રિક્રિપામ્યુમિ, તત્ર પર્વ બ્રિજ ત્યવિસંવાદ , , , ૨૨૨ ૨. ૦૭૬. = હે નાતિર્નાનાર્ય તિ પક્ષોધપાદન ; - ' ૨૨૨ ૬ જ જ - ક - ૨૨૦ ૨ જ છે Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७६. केवला व्यक्तिरेवैकः शब्दार्थ इति पक्ष उपपादितः, तत्र 'आनन्त्येऽपि हि भावानामिति . पद्यसंवादः। ३२४ २. ७७७. अत्रैव आकृतिविशिष्टव्यक्ति मार्थः, न चैकपक्षविरोधोऽपीति मतं दर्शितम् । ३२५ ३. ७७८. द्विकमिति जातिव्यक्ती नामार्थ इति पक्षस्योपदर्शनम् । ३२६ १ ७७९. त्रिकमिति जातिव्यक्तिलिङ्गानि नामार्थ इति पक्षस्योपपादनम् , पुंस्त्वस्त्रीत्वनपुंसकत्वઅક્ષણોપરીનડ્યા ३२६ ७ ७८०. लिशस्य वाच्यत्वादेव पशुनत्यादौ न छाग्यादिलाभः, मीमांसाविचारोऽप्येतदुपोद्वलको भावितः। ३२७ १ ७८१. सङ्खयादिसहितमुक्तत्रिकमिति चतुकं नामार्थः, कारकसहितमुक्तचतुष्कमिति पञ्चक नामार्थः, अत्र कारकं प्रत्ययस्यैव वाच्यं न तु प्रकृतरिति प्रश्ने ओमिति समाधान, वाक्यपदीयं 'द्योतिका वाचिका वा स्युईित्यादीना विभक्तयः' इति पधं पक्षद्वयव्युत्पादकमुपदर्शितम् , अस्योत्तरा? दीपिकायां दर्शितः । ३२८ १ ७८२. शब्देन सह पडपि नामार्थाः, २०६स्यापि शाब्दयोधे नियतं भानमुपपादितम्। ३२८ ६ ७८३. अत्र 'न सोऽस्ति प्रत्ययो लोके' इति हरिकारिका दर्शिता । ३२८-२४ ७८४. जयदशादिशदस्य कचिदप्यर्थे शक्त्यमावास्वस्मिन् शक्यसम्ब-धरूपलक्षणाया બન્મવેન શક્સિહવા, તાડનુર્યાનુણવોર્મેદ્રવિલાયાં શનિનુ પેવેતિ भावितम् । । ३२९ १ ७८५. अज्ञातायाश्च वृत्तेरनुपयोगादिति विवरणस्यावतरणपुर२सरं व्याख्यानम् । ३२९ ७ ७८६. अत्र चानुकार्यानुकरणयोरित्यादि विवरणअन्थोऽवतारितः। ३२९-११ ७८७. शाब्दबोधे वृत्त्या शब्दार्थयोरुभयोरप्युपस्थितितो भाने प्रकार उपदर्शितः, तत्र ग्राह्यत्वं प्राहकत्वं चेति पधद्वयं वाक्यपदीयं संवादकम् । ३३० १ ७८८. अनुकार्यानुकरणयोरमेदपक्ष एवेत्यादि विवरणमवतार्य व्याख्यातम् । ३३१-१२ ७८९. 'बुद्धिप्रतिविम्मकान्यापोह एव शब्दार्थ इत्यपि केचित्प्रतिपन्ना' इति विवरणअन्थः . सम्यक्तया भापितः। ३३१-२५ ७९०. 'तेषा विषयतया तदाश्रयस्याक्षेपादेव लाभः' इत्यादि तन्मतोपदर्शकविवरणग्रन्थस्यापतरणपुरतरं व्याख्यानम् । ३३२ १७९१. उपदर्शिताः सर्वेऽपि शब्दार्थाऽध्यवसाया नैगमनये सम्भवन्तीत्युपसंहारः। ३३२ ३ ७९२: "प्रस्थकवसत्यादिदृष्टान्तेन विचित्रस्य तस्य सूत्रे प्रतिपादनात्" इति विवरण ग्रन्थावतरणभूमिका, तत्र प्रस्थकवसत्यादिषु निगमाभिप्रायप्रकारोकनम् ।। ३३२-२२ ७९३. उक्तेषु सर्वेषु शब्दार्थप्रकारेश्वभ्यनुज्ञया च जैनानामपक्षपातित्वं, तत्र स्वोक्त 'अध्यात्म सारप्रकरणे 'शब्दो वा मतिरर्थ एव किमु वा' इति पचमुट्टङ्कितम् । ३३३ . १ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ . . . . ३३४ ३ ७९४. प्रस्थकवसत्यादिष्टान्तेन विचित्रस्य नैगमनयस्य प्रतिपादकं सूत्र मुल्लिखितम् । ३३३ ९ ७२५. 'शब्दो वा मतिरर्थ एव किमु वेत्यादि' पद्यार्थो दर्शितः । ::३३३-१५ . ७६६. एतादृशाध्यवसायवृत्तिद्रव्यार्थिकरवव्याप्यजातिमत्वामित्यादिनगमलक्षणमुपदश्योक्त- ' . 'दिशा नयान्तरलक्षणानि वाच्यानीति प्रतिपादितम् । ७९७. अध्यात्मसारप्रकरणे यशोविजयोपाध्यायनिर्मित 'यत्रानर्पितमिति' मा नार्कमपा करोति' इति च पद्यद्वयमुल्लिखितम् । ___७९८. एतादृशाध्यवसायवृत्तीत्यादिनैगमलक्षणस्य प्रयोजनं तयटकविशेषणप्रयोजनचोप- . . : दयाकारायुक्तान्यपि नैगमलक्षणानि भावितानि । : ३३४-११ ७९९. अर्थाना सर्वैकदेशसणं सङ्ग्रह इति भाण्याओं दर्शितः । ३३५ २ ८००. ग्रन्थान्तरे विषयभेदेन सहस्य द्वैविध्यमुक्तमपि यदत्र नादृतं तत्र हेतुरुपदर्शितः । ३३६ २ ८०१. सहनयाच्छन्दब्रह्मपरब्रह्माधद्वैतदर्शनानि प्रवृत्तानीति दर्शितम् । ३३६ ५ ८०२. 'लौकिकसम उपचारप्रायो विस्तृतार्थो व्यवहारः' इति भाप्यस्यार्थो भावितः। ३३६ ५ ८०३. संगहियेति गाथार्द्धस्य संग्रहः संगृहीतस्येति' पयस्य पार्थ उपदर्शितः। . ३३६-१३ ८०४. संवादकतया 'दपट्टियनयपयडी' इति सम्मतिगाथा दर्शिता .. ३३७, २ ८०६. २०६ब्रह्माधद्वैतदर्शनस्य शुद्धसङ्ग्रहनयजातत्वे 'जातं द्रव्यार्थिकाच्छुदादिति वचनं .. . . नयोपदेशस्य दार्शतम् । ३३७ २ , ८०६. अशुद्धद्र०यार्षिकन्यवहारनयप्रकृतिकत्वं साड्यदर्शनस्य भावितम्, तत्र समिति . नयोपदेशवचनसंवादो दर्शितः ।। . . ३३७ ४. ८०७. श०६ब्रह्मवादो भर्तृहरिणादृतः, तत्र 'अनादिनिधनं ब्रह्म'इत्यादिवाक्यपदीयपधकदम्ब- ... कमुपदार्शतम् । शार्थयोरभेद एव सम्बन्ध इति वैयाकरणमतमप्येतदालम्बन . मित्यादि दर्शितम् । ३३७-१६ ८०८. सच्चिदानन्दब्रह्मवादो वेदान्तिभिरादृतस्तन्मतमुपदर्शितम् । .. ३३७-२५ : ८०९. उपचारबहुलतविस्तृतार्थत्वे व्यवहारस्योपपादित ।. .. ..३३८ ,१ : ८१०. व्यवहारस्य लौकिकसमत्वादिकं विशेषतो भावितम् । ३३८ ४ ८११. व्यवहारस्य लक्षणम् । ३३९ , १ , . ८१२. 'सतां साम्प्रतानामर्थानामभिधानपरिज्ञानजुसूत्रः' इति भाप्यस्य विवरणम्, तत्र भावत्वे वर्तमानवव्याप्तिधीरिति स्वपघसंवादः । । ८१३. 'यथार्थाभिधानं शब्दः' इति भाप्यमवतार्य व्याख्यातम् । ८१४. व्यवहारलअणं परिस्कृत्य दर्शितम् - । ३३९ ७ ८१५. 'पचुप्पन्नहीति' ऋजुसूत्र लक्षणस्थानुयोगद्वारसूत्रोक्तस्योपदर्शनं तभावनच, व्यवहारनयादस्य विशेषो दर्शितः।- . : ३३९-२० Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१६, शब्दनयस्य लक्षणम् , साम्प्रतसमभिर ढवम्भूतध्वनुगतेका जातिनास्ति, ततस्तव्यञ्जकमनुगत . लक्षणं नाश्रयणीयमतः साम्प्रतसमभिस्वम्भूतान्यतमत्वमेव शब्दत्वमुक्तमित्युपपादितम् ।३४० १ । ८१७. 'नामादिषु प्रसिद्धपूर्वाच्छदादर्थे प्रत्ययः साम्प्रतः' इति भाष्यस्य सम्यगथा विभावितः। ३४१ ५ ८१८. दवहिओत्ति तम्हेति सम्मतिगाथार्थों दर्शितः । ८१९. साम्प्रतनयस्य निकृष्टलक्षणं तदुपपादनञ्च । ३४२ १ ८२०. निरुतनिष्कृष्टलक्षणस्य तदुपपादनप्रकारस्य च विवेचनम् । ८२१. “सरवथैवसंक्रम. सममिलतः' इति भाष्यार्थप्रकटनम्, तत्र समभिरूतस्य निष्कृष्ट__ लक्षणम्, तदुपपादनञ्च, तत्र नैकस्य श०स्य शब्दान्तरं पर्याय इति प्रश्नप्रतिविधानसरितविचारण निष्टङ्कितम् ।। ३४३ ६ ८२२. 'व्यञ्जनार्थयोरेदम्भूतः' इति भाप्यार्थविवरणम्, तत्र वंजणअस्थतदुमयं एवंभूओ विससेइति' भद्रवाहुवचन 'एभूत सर्वत्रेति' नयोपदेशपचञ्च संवादकतया दर्शितम् ३४६ २ । ८२३. एतन्मते समभिलढतो विशेष उमावितः। ३१६--४ ८२१. 'अत्राह-उद्दिष्टा भवता नैगमादयो नया , तन्नया इति कः पदार्थः' इति भाष्यप्रश्न. अन्थोऽवतार्य व्याख्यातः । ३४७ ३ ८२५, 'अत्रोच्यते, नयाः प्रापकाः कारकाः साधका निर्वतका निर्भासका उपलमिका व्यञ्जका इत्यनान्तरम् ' इति भाष्यसमाधानअन्थो नयादिप्रत्येकपदव्युत्पत्त्युपदर्शन. द्वारा विकृतः। ८२६. “ जीवादीन् पदार्थान्नयन्ति प्राप्नुवन्ति कास्यन्ति साधयन्ति निवत्तयन्ति निर्भासयन्ति उपलम्भयन्ति व्यञ्जयन्तीति नयाः' इति भाव्यस्य विवरणम् । ८२७. अत्र कतक्रिययोरमेदोपदर्शनेन आख्यातस्थले क्रियायाः प्राधान्यं कर्तुगुणभाव ફતિ નિયોજામેવાડુમનૂણાં વૈયાવરણમેન્યાનાં વીક્ષિતાવીનામાન્ત निरसनम् । ३४८ ७ ८२८. ५३५ मृगो धावतीत्यादिभाष्यसिद्धकवाक्यतानुरोधेन क्रियाप्रधानमाख्यातमिति वाक्या श्रयणेन पाख्यातस्थले क्रियामुख्यविशेष्यक एव शाबोध इति वैयाकरणमतं दर्शितम् । ३४९१ तस्य खण्डन वैयाकरणामिमतस्य पचतीत्यत्रकायिका पाकानुकूला भावनेत्यादिवोधચાયુરૂન્તોન્નાવનેન, રમવ્યાપાર સ્થાનીય કૃત્વા તતિરિક્તાનાં તદ્દનુwાનાં भावनात्वेन भानस्वीकारे " गुणीभूतैरवयवैरिति वचनविरोधश्च दार्शतः। ३९० २ ૧૦. ધ નરસત્યાવાવ ધામનાથ નાશા વ્યાપાર ફત્યવિનોબામ્યુપામે ० दोष उपदर्शितः। . .. ८३१.. जानातीच्छतीत्यादी ज्ञानेच्छाधनुकूलकव्यापारमानस्य खण्डनम् । - ___३४७ ८ ३४८ ६ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३२. पचतीत्यादौ पाकानुकूलयत्नपानित्यादिः प्रथमान्तपदार्थमुख्य विशेष्यकबोध एव नया- ..... — विकाचभ्युपगतः श्रद्धेय इत्युपसंहृतम् । ३९१ ७ ८३३. भावनाप्रकारकबोधे प्रथमान्तपदजन्यपदार्थोपस्थितेहेतुत्वे न गौरव, धात्वर्थभावना- ... • पस्थितः पृथग्धेतुत्वं च वैयाकरणस्य गौरव, पश्येत्यादिवाक्ये तमिति कर्माध्याहार्य मिति दर्शितम् । ८३४, उतार्थोपपादनं दीपिकायाम् । ३५२ . ५ ८३५. पश्येत्यादिवाक्ये वैयाकरणः कथञ्चिद्वाक्यभेदापतिपरिहारस्य कर्तुं शक्यत्वेऽपि 'स्वि ... धति कूणति वलतीत्यादौ दीपिकालकारोदाहरणे वाक्यभेदापत्तिपरिहार: कमिशक्य एवेति, तत्र तत्परिहारश्वाऽऽशक्य व्युदरः । ८३६. एकस्य कारकस्यानेकक्रियाभिसम्बन्ध एव दीपकालकार इत्यस्यावयोधाय दीपकालकारलक्षणं तस्य द्वैविध्यं तदुदाहरणादि च दर्शितम् । ३५३-१२. .८३७. अनेकक्रियास्थले निघातानुरोधादेकक्रियायाः प्राधान्यमिति वैयाकरणाभिप्रेतमुपन्यस्य दूषितम् । ८३८. निधातानुरोधादित्यस्य व्याख्याने निधातस्वस्पतद्विधायकसूत्रतदर्थादिकचोपदार्शतम् । ३५४ ९ ८३९. क्रियाद्वयस्यैकत्र कर्तर्यन्वय एव चकारो पटते, स वैयाकरणमते न स्यादित्यस्य परिहा राय कर्तृपदोतरचकारस्य कद्वये एकक्रियाया इव क्रियापदोतरचकारस्य क्रियाद्वये .. एककन्वयद्योतकत्वादेव नानुपपत्तिरिति वैयाकरणाकूतमाशय प्रतिक्षितम् । ३५५ २ ८४०. अथकत्वादेकं वाक्यमित्यादिमीमासको तन्यायादेकवाक्यत्वोपपत्याशङ्कायाः प्रतिक्षेपः । ३५५ ३ ८४१. कर्तुः क्रियान्यत्वानन्यत्वस्याद्वादोरणार्थ नयाः प्रापका इत्यादिक, न तु कर्तृप्राधान्य- - बाधेन क्रियाप्राधान्यकान्तस्फोरणामित्सुपसंहारः। ३५५ ५ ८४२. फलीभूतशाब्दबोधे वैचित्र्यं नयवैचि-यावीनमिति दर्शितम् । ३५५ ७. ८४३. फलीभूतत्युक्तभन्थस्यावतरणपुररसरं भावोपर्धनम् । - - - ३५५-२६ ८४४. स्याद्वादस्तुतिपरं पद्यम् । ३५६ १ ८४५. 'अत्राह किमते तन्त्रान्तरीया वादिन., आहोस्वित्स्वतन्त्रा एव चोदकपसमाहिणो . . मतिभेदेन विप्रधावित। इति, अत्रोच्यते, नैते तन्त्रान्तरीयाः, नापि स्वतन्त्रा मतिभदन विप्रधाविताः, ज्ञेयस्य त्वर्थस्थाध्यवसायान्तराण्येतानि' इति प्रश्नोत्तरंभावेन प्रवृत्तस्य भाप्यस्य स्फुटीकरणम् । . . . -३५६ २ ८४६. 'तद्यथेत्यारभ्य तेषामेव व्यञ्जनायोरन्योन्यापेक्षार्थवाहित्यमेव भूत इत्येतत्पर्यन्तस्य - तन्नियाव्यवसायप्रतिपादकमाप्यस्य सभ्यविवरणम् । ३९७ २. २४७. सामान्यविशेषयौरवच्छेदकभेदेनाधाराधेयभाव उपपादितः .. ३६७-१० <ટ શાહી નામ તાપમાન્યતનેવમસ્યુપાચ્છ, સર્વાહી નૈમિત્તિક્ષામાન્ય ' , - Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृतमेकत्वमुपेतीति । ३५८ १. <४९. सहाध्यवसायोपवर्णनम्, सङ्ग्रहविषयस्य साम्प्रतविषयत्वमाशइक्य प्रतिक्षितच, तत्र नानार्थकत्वोच्छेदोऽपि परिहतः । ३५८ ४ २५०. साहनये न किञ्चित्पदं नानाथ, न वाऽर्थो नाना, एवं सति वस्तुमानसंकोचे नाम. . घटादिप्वव सकाचे साहः कथमिति प्रश्नप्रतिविधानम्, तत्र 'पज्जवणयवुकत' इति सम्मतिसम्मतिश्च । ३५९ २ ८५१. हन्तवं यथोक्तघटेवेवेति कोऽयं सोच इति ग्रन्थस्थावतरण, भावार्थश्च प्रकटितः। ३५९-११ ८५२. पज्जवणयकतमिति सम्मतिगाथाया अर्थो दर्शितः । ३६० ८ ८५३. व्यवहारनयाभिप्रायोपदर्शकभाष्यविवरणम् । ५४. महासामान्यस्य सामान्यरूपत्वमेव, अन्त्यविशेषस्य विशेषरूपत्वमेवेत्यत्रापसिद्धान्त त्वप्रसङ्गशका निवर्तकस्य 'अयं द्रव्योपयोगः स्यादिति' व्याख्यानगतस्योपदर्शनम् । ३६१ ८ ८५५. *जुसूत्रनयमतविवरणपरमाध्यविवरणम् । साम्प्रताभिप्रायनिरूपकभाष्यविवरणम् । ३६२-१-२ ८५६. सममिल्दाभिप्रायप्रकाशकभाष्यविवरणम् । एवम्भूताभिप्रायाविष्कारकभाप्यविवरणम् । ३६३-१३८५७. एवं नयप्रस्थानभेदे परकीयदोपापादनशङ्कातत्प्रतिविधानपरस्य अत्राह-एवमिदानी- मेकस्मिन्नथ इत्यारभ्य तद्वनयवादा इत्यन्तभाप्यस्य पूर्वपक्ष्यभिप्रायोत्तरपक्ष्यभिप्रा- यस्फोरणस्वरूपं विवरणम् । ३६५ १ ८५८. यथकन सत्वजीवाजीवात्मकत्वाचव्यवसायानां भिन्नत्वादविरुद्धकोटिकत्वाद्वा न विप्रति.. . - पतित्व तथा नयवादेष्वपीत्यादि दर्शितम् । ___ ३६५ ५ ८५९. पहु-बहुतरादिपर्यायवाहित्वान्मत्यादीना यथा विशेषो न च विप्रतिपत्तित्व तथा . - नवादानामित्यन्याचार्यव्याख्यानं दर्शितम् । ३६६. १० ८६०. एवं यथा प्रत्यक्षादाना विषयाभेदेऽपि सामग्रीभेदाभेदस्तथा नयवादानां न च विप्रतिपतित्वमिति दर्शितम् । __ ३६७ १ ८६१. अस्प नयज्ञानस्य संशय समुच्चय-विपर्यय-प्रमाणबोधविलक्षणत्वं, तत एव जात्य. .. तरत्वं, 'अयं न संशयः कोटेरिति पचं 'न समुद्रोऽसमुद्रो वेति' पञ्च संवादकमत्रेति । ३६७ ४ ८६२. संशयसमुच्चययोः को भेद इति प्रश्नप्रतिविधाने बहवः प्रकारा उद्भाविताः। ३६७-१२२ ८६३. संक्षिप्तरुचीनामनुग्रहायोदाहरणोपदार्शतनयलक्षणसाहकस्य भाष्यगतस्य नैगम शब्दार्थानामिति' “यत् संगृहीतवचनमिति” 'समुदायव्ययाऽऽकृतीति' 'साम्प्रतविषय- . ग्राहकमिति' आर्याचतुष्टयस्य विवरणम् । ____ ३६८ ४ ८६४. जीव इति नोजीव इति अजीव इति नोऽजीव इत्येवं पदचतुष्टये उच्चारित केन नयेन . ... फोऽर्थः केन पदेन प्रतीयत इति प्रश्नोत्तरभावमा जानस्य - अत्राह-अथ, जीवो . : - नौजीव इत्यारभ्य एवं सर्वमावेषु नयवादाधिगमः कार्यः' इत्यन्तभाष्यस्य विवरणम् । ३७.१ ९ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૮ - ૮ક-પૂર્વનાજીનાં સરનાણાંક્ષતરવસ્ત્રો પરીક્ષાનાં “શુદ્ધ વ્યંતિ રાવ હૃતિ “પત્તિ વ્યવહારિવતિ” તત્રનુત્રનીતિરિતિ ગ્રતાના તિ’ ‘વિદ્ધઝિતિ” વિવિધતિ “ઝાપતિ નવપદ્યાના મુદદ્દન ! * ૨૭૨–૨૨ ૮૬. નગઃ સર્વનિથાર્થત્વમસમાનાનાં વૈ દૈશિનાં પૂર્વપક્ષ, તત્ર નવ ફૂટ્યત્ર નગ. સંનિધો ના, તથા સતિ સર્વનામાનાપારિક, તાગાત્રાળ ફત્યારે પિતત્વમારોપમાત્ર વા ન, ત્રાહ્મણપચૈવ વ ગ્રહ્મળારોપવિયે સક્ષળા, નપદ્ધ તાતપર્યકાહમતિ વતન ! ૮૬૭. કtબરનો પાવન ! ३७६-१७ ૮૬૮, હરૂખરનપ્રતિવિધાનં વૃદ્ધાનામુવત, તત્ર સૈયદમતમુદ્રાવ્ય પ્રતિક્ષમ તત્સા દરયમમાવતિ પર્વન, પત્નગર્વોપર્શનું સ્વાર્થમિશ્રિત્યે પ્રપદ્ધિતમ્ ૨૭૭ ૨ ૮૬. ગૌણત્વેષ નગ્ન માટે સર્વનામયોપવિત, નેમન્યપાર્થે રહ્યાવાવન વિરોષ્યાનુરોધક્ વ્યવસ્થાપિત ૮૭૦. મૈત્ર વૈયાવરખાફ્રામોધાને સમુહપાવિત, તત્ર પાણિનીયલ્સત્રમાવા સમિતી ૨૮. ' ૮૭. સભ્યતેડનેય સન્નતાપાર્કનૈવવનસ્ય સમર્થન ! - ૨૭૨, ૨ ૮૭૨. – મવતિ વનહં મવામીત્યા પુરુષવનનાતિવ્યવસ્થાપના માવિતઃ ૩૭૨ ૪ ૮૭રૂ. ૩wાસક્રમનાવિ માં વાપર્શનાદિના માવિતમ્ | ૮૭૨. અર્વ માસ અનહં મવામીત્યાત વૈયાવરણમત ન્યાયમને જ શાલ્વોવૈક્ષ મુપતિમા નમસ્યામાવસ્ય પ્રતિયોગિવિરોષણત્વમેવેતિ વૈવારણમાં વર્ષ્યાયિત્વાડમાવસ્ય પ્રતિ વિશેષતયાન્વય તિ નિયમિત નિયમિત ૮૭. « 7 પવીત્યા યાજખમનેન ન્યાયનોન વોવૈક્ષથોપર્સનપુસાર ન્યાયમતવૈવ યુtત્વમાહિતી ૨૮૨ ૬ ૮૭૭. ધ ન પવીત્યા અન્યથાશે ? પરાતત્ય વાંધોપાનબારમુપર બની ત્યત્ર ના નોર્થ ટ્યૂ: સુલતત્વ નિમિતતિ ૨૮૧ ૬ ૮૭૮. નીવોડકીવો નોની નોડની કૃતિ વતુર્વ વિજેવું પર્વમૂતમિત્તાના નૈમાહીનાં સર્વેષાં નયાનાં સમા પ્રવૃત્તિરિત્યુપસંદતમ્ ' ' ' ૨૮૨–૨૦ ૮૧પર્વભૂતનવે નવ યુરતે નોનીવ રઘુવંરતે મનીવ રઘુઘરિતે નોમની . ફત્યુષારિતે મેળ મવસ્થનવ-પરમાણ્વારિદ્ધિ-પરમવામિત્રચ્છનીવાનાં પ્રતીતિ, * " સિદ્ધાનામત્યુપપાહિતી ૮૮૦. સંવાદના માવત્યાદિત નીવ મતે નીવે ત્યા િવનાંચે ડાતઃ ૨૮ર૯૨. નોવેરા તાનિ ભાવયિમિતિ” “સિદ્ધો નિશ્ચયતો નીવ હૃતિ યુનીવર્વ વિદ્વિતિ'. • પદ્યાનિ પ્રસન્નતાનિ તાનિ ' ' . . . . . . ૨૮૨–૨૪ ૨૮૦ ? Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ ८८२. एते चत्वारो विकल्पा एकवचनेन दर्शिताः' तथा द्विवचनबहुवचनाभ्यामपीति । ३८३ २ ८८३. सर्वसअहेण एकवचन द्विवचनान्ता विकल्पा नाभ्युपगम्यन्ते, एतद् भावना कृता। ३८३ ६ ८८४. नगमादयश्च नया एकवचन बहुवचनचाभ्युपगच्छन्ति तत एव सर्वाकारिताग्राहिण इत्युपपादितम् । ३८३-११ ८८५. सर्वसनही बहुवचनमेव सहत इति न युक्त, तस्य सामान्यविषयत्वेनेकवचनसहिष्णुताया एव युक्तत्वादिति पूर्वपक्षः। ३८३-१५ ८८६. तत्र "जात्याख्यायां नवैकोऽसंख्येयो बहुवत् " इति हैमसूत्रं, 'दूरे राज्ञोऽपतन सूता' इति द्व्याश्रयमहाकाव्यपचमुदाहृतश्चेति दर्शितम् । ८८७. अत एव नैगमव्यवहारयोर्भोपदर्शनायामेकवचनबहुवचनाभ्यां पड्विंशतिः , संग्रहस्य तु सामान्याश्रिताः सप्तव भङ्गा अनुयोगद्वारसूत्रे लिखिताः । ८८८. पविशतिभा इत्यस्य व्याख्याने यथा पड्विंशतिर्भाः सम्भवन्ति तथोपपाद्य दर्शिताः।३८५. ४ ८८९. अतएव च वृत्तौ अभेदैकत्वसख्याया एव भानमित्युपदर्शितम् । ८९०. सध्महस्य तु सामान्याश्रिताः सप्तैव भगा इत्यस्योपपादनम् । ३८६-१० ८९१. न चेदेव, तदा राजपुरु५ इत्यादावित्यादिग्रन्थस्य स्पष्टीकरणम् । ३८६-२३ ८९२. उक्तमश्नप्रतिविधानम्, तत्र क्वचित्सग्रहस्यैकवचनं क्वचिवहुवचनामिति विवेको भावितः३८७-२ ८९३. जीवा नीजीवा इत्यादौ तु परसग्रहो बहुवचनान्तमेवेच्छतीति निर्णयो व्यवस्थापितः । ३८७ ७ १९४. प्रमाणे नयविचार कषुकामस्य भाष्यकृतः 'अत्राह-अथ पञ्चानां ज्ञानानां सविपर्य याणामित्यारभ्य प्रत्यक्षानुमानोपमानाप्तवचनानामपि प्रामाण्यमम्यनुज्ञायते इति' इत्यन्तस्य वचनस्य प्रश्नोत्तरभावन प्रवृत्तस्य व्याख्यानम् । ३८८ ७ ८९५. तत्र नैगमसाहव्यवहारा मतिज्ञानमत्यज्ञान-श्रुतज्ञान-श्रुताज्ञानावधिज्ञान-विभङ्गपचनशान कवलशानानात्वष्टा ज्ञानानि श्रयन्त शत दाशतम् । ३८८ ९ ८९६. *जुसूत्रतु मतिज्ञानमत्यज्ञाने त्यक्त्वा पडभ्युपगच्छतीत्युपपादितम् । ३८८-१० ८९७. शब्दनयतु द्वे एव श्रुतज्ञानकेवलज्ञाने श्रयते, नान्यानि, तत्र युक्तिरावेदिता, एतन्मते मिथ्याष्टिरज्ञो वा जीवो नास्तीति, एतन्नयाश्रया प्रभाकरदर्शनप्रवृत्ति रति । ३८८-१५ १९८. सक्ष्मनिगादापर्याप्तजीवेष्वपि सर्वनिकृष्टोपयोगी परीत इत्यत्र आचारावृत्युक्तं सर्वनिकृष्टो जीवस्य' इत्यादिपधद्वयं दाशतम् । । ३८९-२७ ८९९. अस्य मते ज्ञानाभावो न कुत्रापि जीवे इत्यत्र 'सनजीवाणं पीति वचनं प्रमाणमुपदर्शितम् । ३९०- १ ९००. "विण्या 'संसारी सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया” इति दिक्पवचनमपि एतन्नयापेक्षया - समीचीनतामञ्चतीति चर्चितम् ।। ३९० ३ ९०१. "विण्णेया संसारा' इत्यस्या वृदयसमहसकायां गाथाया विवरणम् । ३०- ९०२. कोपाधिनिरपेक्षशुद्धद्रव्यार्थिकैन कोपाधिनिरपेक्षशुद्धपर्यायार्थिकेन ' वियाँ संसारी' इति - Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासङ्घटना यथा न सङ्गता तथोपपादनपुरस्सरं दर्शिता । ९०३. सकलाध्यायार्थोपसंहारपराणां 'विज्ञायैकार्थपदानीत्यादिपञ्चकारिकाणां प्रथमाध्या याऽन्तिममाप्यगतानां विवरणम् । ९०४. तत्र 'विज्ञाय' इति प्रथमकारिकाविवरणम् । ९०५. ज्ञानमिति द्वितीयकारिकाविवरणम् । ९०६., ऋजसूत्र इति तृतीयकारिका विवरणम् । ९०७. मिथ्येति चतुर्थंकारिकाविवरणम् । ९०८ इति नयवादा इति पञ्चमकारिक विवरणम् । ૬૦૨. ડીતઃ સ્યાદ્વાવામિધાનમેયોનિń, નયનાવેષ્વષાવતઃ પ્રવ્રુત્તિષિતેત્યત્ર અશુદ્ધે वर्त्मनीति न्यायः 'सीसमईविप्फारण' इति सम्मतिग़ाथासंवादश्च । * ९१०. स्त्ररूपतोऽशुद्धतेऽपि फलतः शुद्धलं सर्वेषां नयवादानामिति रहस्यमावेदितम् | ९११. प्रशस्तिः, तत्र जिनेश्वरस्तुति - श्रीगुरुवरनेमिसूरीश्वरस्तुति - स्वगुरुनामस्वजन्मयाममातृपितृस्वनामगर्भितगुरुहर जाम्बुजगतैतत्कृतिसमर्पणम् । < > > પ્રસ્થપત્રાક્રાનિ १. आचारांगम् २०५, ३८९ २. समवायाङ्गम् ५७ ३. स्थानाङ्गम् ३२० १. भगवतीसूत्रम् ४२, २८१, २८३, २८७, ३८२ ५. नन्दासूत्रम् १३७, १५६, १९८, २१४, - २१५, २१७, २५९, २६०, २८२, ३८९. ६. अनुयोगद्वारसूत्रम् ~१३४, १३५, १४०, S - १४१, १६६, २६४, २८६, ३१४, ३१५ ३१९, ३३३, ३३९, ३७०, ३०२, ३,७३, ३८३, ३८६, ३८७ - ३९१ १ ॥ तत्त्वार्थविवरणगूढार्थदीपिकाव्यटीका साक्षिभूत ग्रन्थनामानि ॥ ३९२. ६ - ३९२ ७ ३९२-१० - ३९३ ३९४ ३९४ 12 ३९९ .३ ३९६ १ ३९७ १ १ ७ ग्रन्थपत्राङ्कानि ७. प्रज्ञापनासूत्रम् १७७, २८९, २९० ८. दशकालिक २४६ ९. उत्तराध्ययनपाइयटीका ९० १०. बृहत्कल्पभाष्यम् ५२, १७, १२८, १३५, १४२, १८७, १९६, २४८, २८५. ११. विशेषावश्यकभाध्यम् ४, ५०, ५६, ७६, ७९, ८४, ८९, ९०, ११७, ११८, ११९, ' १२६ १२८, १३०, १३३, १३६, १३८०, १४५, १५५, १६५, १७१, १७६, १८०, १८१, १८२, १८४, १८८, १८९, १९० १९१, १९५, १९६, १९९, २० Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थपत्राकानि ग्रन्थपत्राकानि . २०४, २०६, २०७, २११, २१५, २१६, ३११, ३१२, ३२२, ३३७, ३४१, २२०, २२२, २२१, २२६, २२७, २३०, ३६०, ३६१, ३९५ २३५, २३६,२४७, २४९,२५२, २५३, २९. अष्टसहस्री १२९, २०३ २५४, २५७, २५८, २६०, २६४, २६५, ३०. अध्यात्मसारः ३३३, ३३४ २६६, २६७, २७२, २७९,२८०, २८२, ३१. न्यायखण्ड खाद्यम् ४६, ८० २८८,२९०,,३०२, ३११, ३१३, ३१९, ३२. जैनतर्कभाषा ३३६ , ३३६, ३३८, ३३९, ३४०, ३४३, ३४६, ३३. नयोपदेश : तवृत्तिश्च, ८६, १६०, २९५, ३६२, ३८१. ३०५, ३३६, ३३७, ३४०, ३४२, १२. श्रीआवश्यकमाप्यम् ५२, ६०, ६१, ३६१, ३७२, ३७४, ३७५, ३६, ६२, ६३, ७६, १५५, १६३, १७०, ३८२, १८५, १८६, २४८, २५१, २८५. ३४. उपदेशरहस्यम् १०७ १३. आवश्यकचूर्णिः १७९, १८६, २८३ ३५. ज्ञानार्णव : १८४, १८७ १४. जावसमासः १८१ ३६. नयरहस्यम्३ ३८ १५. पिण्डनियुक्तिः १५३ ३७. ज्ञानबिन्दु : २८६, २९५ १६. जीतकल्प : २४६ ।। ३८. यशोविजयजीकृतद्वात्रिंशः १७. प्रवचनसारोद्धार : ४३, ४४, १७६ ___ द्वात्रिंशिका ६६, १०७ १८. पञ्चसडग्रह : ११६, १८१, २९३. ३९. अध्यात्ममतपरीक्षा ५९. १९. पञ्चाशकम् ९०, १४७ ४०. उपदेशपदम् ८६,.१०६, १४१, ११७ २०. नवतत्त्वप्रकरणम् १२४. ४१. पोडशकम् १४७ २१. कमग्रन्थ : २३४ .. ४२. योगशास्त्रवृत्ति: ३० २२. तनन्यायविभाकर : ७९ ४३. अटकम् ६५ २३. धर्मसबह: ९५ ११९ ४१. अन्ययोगव्यवच्छेदिका ३१४ ४५. तत्वाथसूत्रम् ४४, ६२, ७२, १४८, २४. सद्धर्मविशिकायविंशिका ९८. २५. प्रमाणनयतरवालो कालकार : १९९, २०३, ४६. द्रव्यलोकप्रकाशः ८२., १८८, २११, २२२, २४४, ३१४, ३३५. २६. त्याहादरनाकर : २०२, २८१, ३३५. ४७. योगशिसञ्चयः २८६ २७. शास्त्रवातासमुच्चय : १२७ - ४८ तत्वार्थ वानियम, २८५,२८३, ३११, २८. सन्मतितर्क : ५९. ९२, १०४, १३२, १६८ १५१, १५७, १५९, २०६,२३५, २५१, १०, माश्मि २८० Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थपत्राक्कानि ५०. धवलाटीका १३८ ९१ वृहद्रव्यसङ्ग्रहः ३८२, ३९० ५२. लवुनयचक्रम् ३२० ५३. आलापपद्धतिः ३२० ५४. वैशेषिकोपस्कारसूत्रम् ७ १११, १५६, १८५, २१३, ३१७ - ५९. कारिकावली १५६ १६. पक्षता ३४४ ५७. कुसुमाञ्जलिः २४९ ५८. व्युत्पत्तिवादः १३, १८, ३६, ७७, ९९. न्यायसूत्राणि ७७, १४५, २८० ६०. श्रीहर्षखण्डनखाद्यम् ३४६ ६१. वाक्यपदीयम् १२, २४, १२९, १४५,३२८, ३३० ३३७ ६२. मीमांसासूत्राणि ३५५ ६३. मीमांसाश्लोकवार्तिकम् १० ६४. भगवद्गीता ४५, ६०, ७६ : ६५. सर्वदर्शनसङ्ग्रहः ४९ ६६. वाराहिसंहिता ३०० ६७. सिद्धहेमसूत्राणि १३, २४, २६, ३३, ६३, ७२, ७३, ३८९ १८३ عاله 24-4 B ぎ પ્રન્થવત્રાજ્ઞાનિ ६८. पाणिनीयसूत्राणि १३, २२, २३, २५, ३४, १५३, १९१, २८८, ३२७, ३२८, ३३१, ३४९, ३५४, ३७७, ३७८, ३७९, ३८३ ए ६९. हैमवातुपारायणम् ३ Sha 20 II શ્રીતવાર્થસૂત્રપ્રથમ ધ્યાયમાંવવચૂઢાર્થની પા ७०. पातञ्जलमहामाप्यम् १५, १७, १९, い 5 २६, ४०, १६१, ३२९, ३४९, ३५४, ३७८, ३७९ ७१. वार्तिकम् २६, १६३, ३१८, ३५४. ७२. प्रदीपटीका उद्योतटीका २४५ ७३. शब्देन्दुशेखरः २४५ - ܪ ७४ वैयाकरणभूषणसार : १५, १७, ३७७ ७१. काव्यप्रकाशटीका ६६, ७७ ७६. छ्याश्रयमहाकाव्यम् ३८४ ७७. कुमारसम्भवः ३९, ४० ७८. घुवंशः ४० ७९. कादम्बरी ६५ ८०. धनञ्जयकोशः २१ ८१. मेदिनीकोशः २१ ८२. अमरकोशः ९६, १८५ سیک นอ उख्या टीका तपागच्छाचार्यश्री विजय 'दर्शनसूरिणीता समाप्तिमगात् ॥ शुभं भवतु ॥ 3 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ૩ઝ અટ્ટનમ - " - I અને વશ્વિનિધાનમવિક્ટ્રીમતમામને નમઃ ૫ શ્રીતોધિપતિ-શાસનસમ્રીવિનયનેમિતિ-મજાવક્રય નમઃ ને બીવીતરાગમુક્યાદા સિદ્ધાવાવસુધાપાયે યુતિર્થરફળમૂતાત્મૂતાલિમ્મહત્વવ્યાપજજ્ઞર્તિકતાવાર લવરિલાર્વભૌમ-મટ્ટારાવાર્ય વિનયનેમિસૂરિપટ્ટામ્યોવિન્દ્ર મવાસન્યાયવાવપતિશાસ્ત્રવિરાજવહુ-વિનયવનસૂરિકૃત“હાકપાસનાથીøતેન કનુપહજ્યમાનાઘપશ્ચમહારાવિવરણસ્થાનાપન્નસવહાવપરસમયાધારણ મટ્ટારાવાર્યશ્રીવિનયનેમિસૂરિ પટ્ટાવયાદ્રિમાનુ રામવાસાદ્ધિાdવાવપતિ ન્યાયવિચારવિર શ્રીવાયોધસૂરિ| લવૂળ્યાઘમાખ્યપન્નાઇરિવરળસંયોનિત રવિદ્રઢબત્તન્યાયાવાપીપહોપાધ્યાયશ્રીયશોવિઝયમણિ બળતવિવન મૂષિત વપજ્ઞમાખ્યસંવર્જિત વાવવવતંતશ્રીમદુમા સ્વાતિવાવવિરતિ ) “તસ્વાર્થી જામસૂત્રમ” * * * - તવાવિવરણમક્કમ પેન્દ્રપદું યવધય ધિયાતિ, રાસાયતે ધનવતાવનાવાળામું ' તેના સ્વતઃ હરતુ તત્ તમતાં હિન્દુ, નિષ્કૃતવર્મગતાં દલડતાન્નાશા - મૂઢાર્યકીપિવામરૃપાનિ નિરા નાવા પાર મયતિ મવાઘે ચિતપ શિનો યો વન્ડરતે ત્રિદાનરનાથ યમનિામ છે સુધર્માર્થ જન વિજહદ્ધિ નોખ્તમમહમ્, ખાં મિક્ષા થી વઘુ ત વત્તાવિત્રમ્ ? યો યાત દૂર સપતિ વિના દુર્મતિતિ, વારિન્યોરપતિરાપ થયામાનવુ ? Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તવાવિવાળમાં યથાર્થરાદ્ધાવશુતિતમવ વાવેન ફતા, શિવં સ્ત્રીના પશિાન સ હ ના વિદનં વનવિમ્ ારા ધુમ || મહાતીર્ણોદ્ધારાવખતશુમવ્યાતિપs. નિાં સભ્યજ્ઞાના—તરસનિપથી વિનામ્ | સદા શાન્તાવાવ સાવઝનતીતવારિત,...' ' - - મુમિારિર્વિતતુ મતિ વાષવિરામ છે રે . ય વરિયાં વિવુવિનયાત્પયવિરા" રવં જાથાવાર્ધ જાગુત કૃતિતા' . -વહૂ જ્યાં હાલ વિનયન દયાપ્ત રાસાં, - - * યશસંજ્ઞા પત્ર વિનયવમાં તેન કૃતિનr ll ૪ / શતાવાય પ્રમુમતવાઝતાનેન શધ્યાપર્યુત્તવિવરણાત્માવાતા વધ્યસ્યાદ્રાવાવમવિમનસ્વાધમતું, “ થવાચાધ્યાયીય મનમવશિષ્ટ વિવરણમ્ / જ છે, માર્ય તાવ મમ મતિ વિષયા, , તયાન હાન વિવરિતુમના ત્યાં ન વ મના! ગુયાનાં રાગદ્ તદુરિત પથે પત્નજળાત્ સ્વરાયાં યત્ન તેડમિવંત શુને વા િયતઃ | | 0 | ત્રિમિર્વિસેવા | સુવાવર્ષમગુરુવારેવાતટે - ' " " . ત્યતાત્કાર્યો વિવરિતુર્દ વટતંધિયા ? તે નિશ્ચિન મોક્ષાધ્વમિતિનયનિક્ષેપકમૃતિ- ' ' રસ્યજ્ઞાના અવરગનિદૈવવિધ ૧ ૭ | થય સંસાહસ્તિનાં બાળનાં વોવનીતમોનન્ય ગુલં વિશ્રામાનન્યવિનમિત્તવાપમાર્ચ યમેવ, વાસ્તુ મુજનેન્દ્રશુક્યોમાં છાવસ્થાનાનુલ્લાહનતિશય સુવાસમિશન નિરંવાર્ધ વિનાશાળામાવાવનાં મનો. ' જ્ઞવિષયસનધનમત gવ મુદ્રામરવાવમાત્રસંસિદ્ઘ પ્રાળુવનનનન્યૌવિસુલવૈવરીયા- - નાવાવ મોક્ષસુવમેવેન્યુ પહેલાં મકવતામાત્યાત્રિ વિશ્વનનવાન મીત્ર મહાત્યાવ્રણામો શ્રમિનલાઇવ જ્યારૂં રાવ્યાધ્યાયાર બાતસ્યાશ્રેયાત્વાત્ત Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જૂદાયી િ! કિશોરામનાર્થે વ્ય તિ વાન ગાવાય હહિ કૃતં નમાજાભિમાવમાં સવાવાપરમ્પરામ્બાર્તવ્યતા શિખ્યશિક્ષા વ્રયદીમાં કરોતિ “હેન્દ્રપવ ત્યાના પેન્દ્રપનિત્યાદ્રિોવાય વનાવાળાં મરતાં યવાગ્યે ધિયા વેન્દ્રમ્પમતિ સંગાયતે, નિતનર્મનસામમતાં વતઃ તમતાં હિન્દુ તરેનો, ને હળે ઝુરતુ ફર્યાય છે ? અવનાવાળા “ જીવ રક્ષણ અતિ ક્ષત્તિ પ્રતિ-વ્યવસાન-પ્રવેશ-શ્રવણસ્વાર્થ ભાવન-ચ્છિા -હત્યવિા -હિંસા વહન-માવવૃદ્ધિપુ નિર્વિશતાવબૅ” તિ રૈનધાતુપાળવવના “અવને” નીવરક્ષણે, શવને અતિ મોક્ષમાયાને યદ્રા “ જે અત્યારે જ્ઞાનાથ” તિ વવનાશ્વ શાસ્ત્રીયજ્ઞાને અથવા શવને શામવિતર્યતા વધને મવનનાવવોધને, અવને શ્રવણે મુવિ દુષવેશાર્થને ચન્તર્માવતષ્કર્થતયા થોનનાનાં શ્રાવણ વા વાવ સમીવીના પ્રવૃત્તિમાં તેષામત્ય પર્વ યથોચિતમન્વેગ પ્રારા વચૈવ માવળીયા ધમવતામ્ ફન્દ્રિયનિગ્રહવતામ્ ! અથવા પશ્ચમદાવ્રતનિયમપરિપાલનપરાણાં સાધૂનામું, યવવાખ્ય વાર્તાયં યજ્ઞાનાત્માં તેનઃ શાવવષુવા જ્ઞાવા, ધિયા શાશ્વતપોવનગનિતાતિશાયતવુદ્ધયા, પેન્દ્રપદુ પરમૈ ત્વતિવઐશ્વર્યનનુમવતીન્દ્રા, તેવું તત્ય પમિર્થ ! તિમ્મુ-પ્રતિનિસારમ્, સન્નાયતે પ્રતિમાસો, અન્યgછ પ્રતિમાલત રૂતિ વિખુ વરૂ વ્યાતિ માવા યાવૃજ્યાં સવવિશેષળાને “માં” ત્યારે કોન્યાને / તથા ના બનાવવાનામ્ અવને નવાનાં વાર્યયોન ક્ષારણે વાન રક્ષાવાળે યદ્રા શવને જ્ઞાનવારણે માનનાવવોધને થવા શિવને સમાધાપરિણામન્યા યોનનામિન્યા મારવા નાત્તત્તાનાં શ્રાવળે વાતો ચેપાં તપામિત્ય, ચાવતાં ફન્દ્રિયાવિહંયમનવતામ્, નિર્ધતાનમાં તિજ્ઞાનાવરાતિધાતિવર્તીદયાનામ્ | આતાનું પ્રતિ પૂનામત્ય તેવા , વજ્ઞાનમાસ્વસ્ત્રશિત્રિહોવિપાર્થસાર્થવલિશાતિરાયવિજ્ઞાતમાહાક્યવિપાશઘટબાતિહોવમૂતિવિયાનાં નિનાનામ્ | સ્વત-વાદ્યસામગ્રીને વેક્ષ, તમનાં વિદત્ત| મવિનવવ્યાતાજ્ઞાનાન્ધારણ વિનારા મ્, નરેના-ઢોવાવિવારાવલજ્ઞાનતા, તેના. ઘવારવિધ્વંસ કવિત પર્વ, ના-ચમાર્જ, મદ્રાસનાનાં, હૃવ-અવળે, સ્વતઃ કરતુ-વિવલતુ જ્ઞાનાન્ધવાવિધ્વંસ માહિત્યર્થ શત્રાંત તેના જ્ઞાનસ્વરૂપે વાહ્યતવિસ્તૃત્વાસમવાત તમનાજ્ઞાનાધ્યવસાયાદ્રપતિશયોરિટદ્વારકા વસતિનાવૃત્ત “#ાં વસન્ત૦િ તેમનાન ” તિ તક્ષાત યોહાસતા માવતા ત્રિપતી પટિછા, સ્થાતિનાં વિનયવાર્થમ સુમા છે સા મારતી મળધરાશુપની તમા, સન્નીતિમાનમનના નયતાનસમ ારા વોટ્ટાસિતતિ માવતા છાસિતાં ત્રિપ પરિણા સ્યાદાદ્ધિનાં વિનયવાર્યત Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તરવર્થિવવરણમ્ સુમકા ધિરાવુપનતમા સનીતિમાનમનના સા મારતી અનä બતાવ ફલ્ય ગય છે ૨ / 0 માવતા રૂરિય હવ-સિરિ-નસ-ધ-પ્રયતા મયા માલવાવા તે તેલિમતામા, સતિ નો તે મવંત છે૦૪૮ ફતિ વિશેષાવમાબૂવવનાત્ વિવાર્થવતા, ડટ્ટાસિત “અત્યં માસે અહીં” કૃતિ વવના વાયોન બાદીત, ત્રિપ “કમ્પને વાવિયામે વા ધુવે વા” હત્યેવં મહાપત્રયળા, પરિઝ વીવાનામ્ “કન્યાવ્યયૉચયુ સવિત્યારે નિષિાવાર્થતત્તવોતિનિપુળા, સાદ્રાવિનામ વાત પર પરસામેવામેવનિત્યનિત્યવાઘવિદ્ધાનેવ તિવાનાં, વિધવા તત્તલુનયાવભેજાસાતત્તન્મતાપનાવા િવિનાનસ, અર્થમતો ને ત્માનાર્થી ધોરણે, સુમ સુહુ મા બારે યજ્યાં સ તથ, પરસ્પરાવલવાસાદ્રિસિધર્મવારવાવોધનનતાપર્યાધરળસમકથાતિ યાવર મેળrઘુપનેતના જળધરદ્ધિમિરુપની દ્વાવંશા પતય નિહાતો મા વિસ્તારથી થસ્થા સા તથા, પ્રમુમુવાપુનઃ પુનઃ પ્રાપત્ય પૃચ્છદ્ધિક્ષણનષદ્યાત્રા ત્રિપદીમવાય ત~માવત જ્ઞાનાવરણર્મયોપશમેન તવાનીમવાન્તર્ણવામાળ પૂર્વમવમાવતમતિના શ્રીમાળધરમપવિતા છતાયા દ્વાદશીયાપિવિસ્તાર , અથવા મધરાવીનાપુનીતઃ પ્રાતો મા ચયા સા તથા ત્રિષડ્યા પ્રવનમૂત્રવાર્ તાવ મળઘરાવીનાં વતુર્વણપૂર્વવનમાબા, સન્નતિમાનમા નાનીતિને માનધ્યમાર્ગ તો નીતિમાને, સત સમાજને નીતિમાને ફાતિ સમીતિમાને સુનયામાળે રૂતિ યાવત, તામ્યાં મનના ને વાછૂપી થી સાં તથા, સુનયત્રમાણબવુalનેવિાષા, અથવા સતી વિદ્યમાને નીતિમાને નવમા યજ્યાં સ સતિમાના, સા વાસી મનનાં અને વાહવા સા તથા, અથવા સતિમાનામાં મતે સેવ્યતે પ્રમાણીતિ યા સા સનીતિમાનમનના, મારતી હેન્યુલમહામાષિતસ્યાદ્વાદત્રાહ્મણ, બનાસ્ત્ર સન્તાં નયતાત્ સત્ય વર્તતા / ૨ / યાદામુદ્રિતપવાર્થવિવેવનેષ્ઠા, યાડનવા મતિરાઇવિમા નોધે શ્રીનેમિસૂરિરિ મનાતનોતુ, તોડવં મુશ્ચરળને માર સાનુવપદ ધરા યાદ્રાતિ વિદિાશુદ્રિતપદાર્થવિદ્ધા નવા નવે શુષ્કામાં ય માતઃ સોડ્ય નેમિરિક મુસા વરને માથે સાનુપઃ મલમ્ વાતનોતુ ત્ય-નયા | 3 || હ્યાદ્વાદમુદ્રિત પાર્થવિવેવને યાદ્વાન અને સ્વૈન મુદ્રિતા થતા છે પવા વવાનીવાદિતત્તાને, તેવાં વિવેચને નિહાળે, રૂદ્ધ કેદીપ્યમાના નવાં • નિવઘલ્પા, વોકન્યા, શત વશિર્વવિવાઘપ્રવૃષ્યા નથે સંપ્રદાવિલાની વચ્ચે, ‘પદવિમા–પ્રતિહતકમાવા વય મતિવૃદ્ધિ જોડાં વનસૃષ્ટિસાધુવીમૂતા સ્ત્રીમોનસૂરિ વાગે-વારિત્રવાનિ થવા મુપાવોને, તેના વિષયે સુમુ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ૧૯ વાર્થવિવાહૂવીડિવા ! વાતોપવિત્વપુણો દ્ધન્યતે, મધિ સાનુવા સવય વાત દતિ થાવત્ મજૂર્વ જ્યાગમાતનોતુ-વાયતુ રૂ * * * * શીમચરોવિનયવાવયુવાનો, તત્વાર્થવૃત્તિરપરાત્રિતાર્થમાવા ? વાડવામાનનયમાનુષાં વ તાયાં, વિદ્રિતારાપરિપૂરળમાત્રા ઘણા મહિતિ લન્ડમાનનયમાનુષાં, શીઘોવિનવવાવવાનાં, અવરાવીતાર્થમાવા તત્ત્વાર્થવૃત્તિ , તયાં વાવાછિદ્ધિતાં પરિપૂરાં ઘર ત્યાન્વયી થયાયમર્થવિમાનનયમાનુષાં પાને પ્રત્યક્ષપરોક્ષપ્રમાણે જ નવા સઘહાસિનયાતિ માન નયા, ન વહ્યા છે તાદ્રાવિમિનાકમાળી શક્યો રૂત્યવહાળ્યા તેમાનનવાશે ત્યવોહમાનનયાતવાં, મા સુક્ષ્મવિવારથd ગુન્ત સેવન્ત જ્ઞાનન્તિ પ્રતિપવિયન વેલ્ય-, લન્ડમાનનયમાનુષાં, સલમાનનીમાસ્ય વિજ્ઞાન, પ્રતિયાવાનાં વા થશેવિષયવાવપુવાનાં વાવપૂપાધ્યાપુ પુવાર શ્રેષ્ઠ ફતિ વાવપુવાર, શ્રમિન્તઃ જ્ઞાનાવિહિનતે યશોવિનયતિ શ્રીમોનિયા, તે જ તે વાવપુરાવાતિ તે તથા, તેષાં, અપરાતાર્થમાવા, શર્થીનાં નીવાઢિપઢાર્થીનાં માવા પરમોર્થતત્ત્વામિયર્થમાવા, પર સ્વાદ્રિાવત નાનામિ મિથ્યાવામિ, દ્વિતોષજ્ઞાતોર્થમાવો જ્યાર તથા, યદ્રા અર્થ માવયર્થમાવૌ શાર્થતાપથવિતિયાવત , પરિરહિતાવાર્થમા થયા તથા, અથવા ન પર થપ, સ્વીઃ જૈન સમuત ત્રિો જ્ઞાતોર્થમાવો વરિત જ્ઞાતાવર્ચમાવો વા થયા સા તથા, અથવાષતિ પદ્ધચ્છદ્રા મિર્થ, કાતિર્થ ત્ય પૂર્વ વ્યાવ્યાન તેને ન ત્વમેવ ના દવ વિન્તુ તવાનીમવારે વિયેતે પતિ ધ્વનિતમ્ શ? તાં તવાર્થવૃત્ત થવા વિહિતાંશપરિપૂર–કુતિમાસપૂર્તિશનનય ઘાસનો સક્ષત્વ જ ઘટત નિમાવત્ર તિપર્વ નિમિમાનતાશ્વ, ચત્ર જોતિષના વરિ સામપિ સામર્થ્યવરાતિરાયફ્રા પાછા વાદ રિબ્રા પ્રથમમતાં ત્રનત્ય, ઈગ્ના િતદ્રિવૃતિસંસ્કૃતિકતાથી નવૃષ્ટિપદ્ધતિમતા વિકૃતિ તત્તા, પ્રીત્યે સતામુદયરિપાત્તવૃદ્ધિઃ પn યા હારિજા હતિ તદ્રિવૃત્તિ સંસ્કૃતિમcતા ક્રમમતાં ત્રણ વાર પન્ના હારિ વૃદિપદ્ધતિ ની હતા તત્ ત પાત્તવૃદ્ધિકારિક સંત કથિ વિવૃતિત્યાયઃ | તદ્રિવૃત્તિ સંરતિમવિડતા–ધિવૃતિવિ સંસ્કૃતિ વિકૃતિ કૃતિ તવ યશોવિનયવાવકુવા વિસ્કૃતિકૃતિરિતિ તદ્રવૃતિસંસ્કૃતિ ચિત્ર પઇચર્થઃ વાર્યક્ષા સખ્યા, તયા જ શ્રી વિનયવાવપુનિકતુવંર્ય વનિરૂપિતાન્યતા લખ્યધેન વિવૃતિલક્ઝતાવવવારવિવૃતિસંસ્કૃતિરિત્ય તથા મહિલા સુનિશ્ચિત સ્થામિયા વાસ તાર Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तरवार्थविवरण गूढार्थदीपिकी तथोक्ताः, प्रथममलता नजन्यो न्यादी मङ्गलतां गताः, याः पञ्चापि कारिका नो . दृष्टपतिमिता:-अस्माकं दृष्टिगोचरता न गताः, कालानुमान विनत्वात् , तत्ता - . द्वैतोः ताः, सत्ता सत्पुरुषाणां प्रीय लसणया जिज्ञासना तदर्थज्ञानार्थम् , उपात्तनि:निरुपंकृतोपकारिश्रीगुरुकृपया तद्विषये ल० बुद्धिप्रसरः-उदयसिर्विवृणोति व्याख्याति ॥ ५॥ ____इह धर्थिकाममोक्षाणा चतुर्णा पुरुषार्थानां मोक्ष एव परमपुरुषार्थः, तदर्थमेव चानकविधदुःखमयभवोद्विग्नमनसः क्लेंगातिहेतुपरिजिहीर्षवः सुखानन्दनिमित्तोपादानलालसाः प्रेक्षावन्तः क्रियासु प्रवर्तमाना दृश्यन्ते । तन्त्रप्रणेतारोऽपि स्वस्वामिमततत्वनिरूपणपरमप्रयोजनतया मुक्तिमेवारीकृत्य तत्तदशनायरचयन्ति स्म । यतः “ अधातो धर्म व्याख्यास्याम." “ यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिसि धर्मः " ___ इंह धर्मार्थकाममोक्षाणां चतुर्णा पुरुषार्थानां मोक्ष एव परमपुरुषार्थ इति । धर्मार्थकामानां त्रयाणां पुरुषेणाऽयंते प्रार्थ्यतेऽभिलप्यत इति पुरुषार्थ इति व्युत्पत्तिसिद्धपुरुषामिलापाविषयत्वलक्षणपुरुषार्थत्वेऽपि तत्र सुखेन्छयैव जनानां प्रवृत्तेस्तदिच्छा सुखेच्छाधीनवेत्यन्येच्छानधीनेच्छाविषयत्वं मुख्यपुरुषार्थत्वमिति लक्षणसङ्गमनाभावात्ते न परमपुरुषार्थाः कि । मोक्ष एव, तत्र गतानां दग्धाशेपकर्मयाजानां चतुनिकायसंसारक्षेत्रे प्ररोहाभांवादपुनरावृत्तितोऽक्षयश्चित्सुखरूपात् तस्मान्नान्यत्किमपि प्राप्तव्यमित्यन्येच्छानधीनेष्याविषयत्वादिति भावः । अनेकविधदुःखमयभवोद्विानमनस इति-अनेन दुःखनिवृत्तौ प्रतियोगिविधया कारणीभूतस्य दुःखस्य जगति सत्यं प्रोटोद्वेगभावेन जिहासितवं चाइनित्यत्वेन शक्यसमुच्छेदत्वं च प्रदर्शितम् , अन्यथा दुःखनिवृत्तिरेवाऽशक्या स्यादिति भावः । अनिष्टकार्यप्रहाणेछायास्तकारणहाणेच्छाम्प्रति कारणोन दुःखपरिजिपिया तत्कारणपरिजहीपावन्तो भवन्तीति सूचयितुमाह-लेशातति । अनेकविधदुःखमयभवोद्विनमनसो -दुःखजिहासमित्रिण प्रयत्न तदात्यन्तिकी दुःखनिवृत्तिरेव मुक्ति स्यात्, न तु परमसुखानन्दरूपा, न चैवमित्यावेदयितुं विशेषणान्तरमाह-सुखानन्देति, ययस्य प्रबलतरविरोधि तत्तेन नश्यति यथाऽनिना शैत्यं, दुःखविरोधी च सुखात्मकाऽऽनन्द इति तेन तनाशात् तदर्थं तन्निमित्तोपदित्सव इत्यर्थः । मोक्षस्यैव परमपुरुषार्थ तन्त्रान्तरीया अंप्यविधादेन प्रतिपादयतीत्युपपादनायाहतन्त्रप्रणेतारोपीयादि । अथाऽतो धर्मव्याख्यास्याम इति-अथे शब्दयात्रान मर्थः, शिप्यजिज्ञासान रमित्यर्थः । अत इति-यतः श्रवणादिपंटयोऽनसूयकाचा वासिन उपसन्नाः, अतः कारणाजाननिदान धर्म व्याख्यास्यामो निरूपयिष्याम इत्यर्थः । यद्वाऽथशब्दो मङ्गलार्थः "ओङ्कारश्चाऽर्थश०६श्च, द्वापती ब्रमण धुरा ... । क५ भित्वा विनियोती, तेन मालिकांपु भो ॥ १॥ - - .. . इति सारणात् । एतेन शास्त्रं प्रणयता महर्पिणा मङ्गलाचरण शाखादौ संचितम् । यस પરમપુહકાર્યસાર્ધનવં પાઠ્ઠલણમાહ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थविवार्थदीपिका इत्यादिसूत्रयतौलयन -प्रमाणप्रमेयसंशयप्रयोजनदृष्टान्तसिद्धान्तावयवतर्कनिर्णयवादजल्पवितण्डाहेत्वाभासछलजातिनिहस्थानानां तत्वज्ञानानिःश्रेयसाधिगम इति सूत्रयताऽझपादन “अथातो ब्रह्मजिज्ञासा" इति सूत्रयता वेदव्यासेन · दुःखत्रयाभिधाता-जिज्ञासा तदपधातके हेतौ । दृष्टे सापार्था चे-नैका तात्यततोऽभावात् ॥ १॥ ' इति सूत्रयतेश्वरकृष्णेन, अन्येन च अन्यादौ मुक्तिरेव परमप्रयोजनतयाऽऽदृता । श्रतिरपि परैः प्रमाणभूमिषिक्ता-“ आचार्यवान् पुरुषो वेद तस्य तावदेव चिरं यावन्न विमोक्ष्ये अथ सम्पत्स्य " " आत्मा वा अरे श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः साक्षात्कर्तव्यः " " न स पुनरावर्तते - " यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्विः स धर्म इति ।” अभ्युदयस्तत्वज्ञान, निःश्रेयसमात्यन्तिकी दुःखनिवृत्तिः, तदुभयं यतः स धर्मः । अभ्युदयद्वारकं निःश्रेयसमिति मध्यमपदलोपिसमास:, पञ्चमीतत्पुरुषो वा, यद्वाऽभ्युदयः स्वर्गो निःश्रेयसं मोक्षस्तयोः सिद्धिरुत्पत्तिर्यत॥ धर्मः, अन धर्मस्थ स्वर्गसाधनता साक्षादेवाऽपवर्गसाधनता तु तत्वज्ञानद्वारेति विशेष इत्यर्थः। औल्क्येनेति वैशेषिकदर्शनप्रणेचा कणभक्षापरनामकणादमुनिनेत्यर्थः । दुःख–याभिघातदित्यादि-दुःखानामाध्यात्मिकाधिभौतिकाधिदैविकाख्यानामन्तःकरणपतिनां रजःपरिणामानां त्रयेण चेतनाशक्तः प्रतिकूलवेदनीयतयाभिसम्बन्धोऽभिवातस्तस्मात्तया, अत्र हेत्वर्थे पञ्चभीति तदर्थस्य दुःखत्रयाभिधातनिष्ठहेतुत्वस्य स्वनिरूपितजन्यतासम्बन्धेन जिज्ञासायामन्ययः। कस्मिन् विषये जिज्ञासेत्याशङ्कायामाहे-तद५घातक इति । तस्य दुःखत्रयस्याऽपयातको निवर्तकस्तस्मिन्नित्यर्थः, अत्र शङ्कते-दृष्टे साऽपार्था चेदिति। दुःखत्रयोच्छेदके दुष्टोपाये शक्य सति अनेकजन्मास्यासपरम्परायाससाध्यतयाऽतिदुष्करेऽदृष्टोपाये सा जिज्ञासापार्था निरर्थिकेति चेदित्यर्थः, तनिराकरोति नेति । निवेधे हेतुमाह-एकान्तेति । एकान्तो दुःखनिवृत्तरश्यम्भावः । अत्यन्तो निवृत्तस्य दुःखस्य पुनरनुत्पादो, दृष्टोपाये सति तयोरेकान्तात्यन्तयोरभाव एकान्तात्यन्ततोऽभावस्तस्मात्तथेति । एतदुक्तं भवति यथाविधिरसायनादिकामिनीमन्त्राधुपयोगेऽपि दुःखत्रयस्य निवृत्तेदनादनकान्तिकत्वम्, निवृत्तस्यापि तस्य पुनरुत्पत्तिदर्शनाद नामन्तिफत्वमिति तोनापार्था जिज्ञासेति । अनया कारिकयाऽत्यन्तदुःखनिवृत्तिरेव मोक्षस्तदर्थं तद्धती 'यतितव्यमिति सूचितमिति भावः। आचार्यवान् पुरुषो वेदेत्यादि।तस्य उत्पन्नतत्वज्ञानस्थ, चिरं विलय कैवल्यप्रागभाव इति यावत्, न विमोक्ष्य इति-न विमोक्ष्यते उपात्तकमराशेः संकाशात्फलोपभोगेनेति शेषः । अथेति-प्रा०यकर्मनाशान रमित्यर्थः। सम्पत्स्ये सम्पत्स्यते कैवल्येन मुक्तो भवतीत्यर्थः, छन्दसि कालपुरुषादीनामनियमाद् व्यत्यय इति ध्येयम् । श्रोतव्यः शास्त्राधीनश्रवणपदवाच्यशादयोधरूपात्मज्ञान विषयः । मन्त०५ः शास्त्रादिबोधितवैधलिङ्गका स्मपक्षकेतरभेदोनुमितेत्मिा देहादिभिन्नः, अनादित्वात् यनैवं तनैवं, इत्याकारिकायां विषयः, निदिध्यासितव्यः श्रवणादिमूलकसंस्काराधीनतत्समानविषयकध्यानाभ्यासविषयः । साक्षाकर्तव्यः-आत्मतत्वसाक्षात्कार विषयः । न स पुनरावर्ततं इति-न सं पुनशरीरी भवतीत्यर्थः, नं पुनदेहन्द्रियोदिसम्बन्धादात्मनो भोग इति भावः। . .. Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वार्थविवरणदार्थदीपिका । न स पुनरावर्तते " भिधते हृदयप्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः । श्रीयन्ते चास्य कर्मणि, तरिगन् दृष्ट पसार ॥१॥” इत्यादिका मुक्तरेव परमप्रयोजनावमुपपादयन्ती विलोक्यन्ते, मुक्तिश्च समानाधिकरणदुभागभावासहवृत्तिदुःखध्वसरूमा समानाधिकरणदुःखप्रागमावासमानकालीनदुःखसाधनध्वसरूपा आ कदुःखप्रागमावरूपा दुःखात्यन्तामावरूपा दुःखध्वसस्तोमरूपा अनुपलवचित्तसन्ततिरूपा स्वातरूपा भिद्यते हृदय ग्रन्थि-रित्यादिश्लोकस्याऽयमर्थः-तशिन ब्रह्मणि, पो-.. परेऽपरे च, दृष्टे साक्षात्कृते, अस्य-परमात्मसाक्षात्कारिणः, हृदय ग्रन्थिः आत्मशरीरयोरभेदसंस्कारः, भियते विनश्यति, ईश्वरसाक्षात्कारे जाते तसामग्रीनियतसामग्रीजन्यतया जीवात्मसाक्षात्कारो भवत्येव, अतस्तद्विपरतिगोचरात्मशरीराधभेदसंस्कारो नश्यतीति हृदयम् । छिद्यन्ते सर्वसंशया इति । ईश्वरसाक्षात्कारे सति योगजधर्मवलेन दोपविरहानिखिलपदार्थानां यथार्थ एव साक्षात्कारो जायते, ततः कोऽपि संशयो भयितुं नयाऽहति, संशयस्यैककोटौ भ्रमत्वनियमात्, यथार्थसाक्षात्कारस्य च भ्रमविरोधित्वादिति भावः । कर्माणि सञ्चिताहानि, क्षीयन्ते नश्यतीत्यर्थः, नाशका रविरहेण परमात्मसाक्षात्कारवाऽटनाश इत्यर्थः । नैयायिकमतमाह-समानाधिकरणदुःखप्रागभावासहवृत्तिदु:खध्वंसरूपेति स्वसमानाधिकरणदुःखमागमावासमानकालीनदुःखध्वंसरूपेत्यर्थः । दुःखध्वंस स्वेदानीमपि सत्वेन तद्वतामस्मदादीनामपि मुक्तत्वापत्ते वारणाय त्यातम् । मुक्त्यात्मकदुःखधंसस्याऽन्यदीयदुःखप्रागभावसमानकालीनत्वान्मुक्तात्मनामप्यमुक्तत्वं स्यादिति तद्वारणाय वसमानाधिकरणत्वं प्रागभावस्य विशेषणम् , प्रतियोगितानिरूपकावसम्बन्धन प्रागमावस्य दुःख विशेषणं तु संयोगादिमागभावमादायाऽसम्भववारणायेति । दुःखामावेच्छया दुःखसावन ध्वस प्रवृत्त स एव मुक्तिरित्यधुपगच्छतां मतमाह-समानाधिकरणदुःखमागभावासमानिकालीनदुःखसावनध्वंसपेति । प्रभाकरमतमाह-आत्यन्तिकदु:खप्रागभावरूपेति । अत्रात्यन्तिकत्वं स्वसमानाधिकरणदुःखासमानकालानत्वं स्वसमानाधिकरणयावदऽधर्मनाश- - विशिष्टत्वं बा, तेन संसारिताशायां नातिप्रसङ्गः । न चानादित्वना साध्यत्वानायं पुरुषार्थ इति वाच्य प्रतियोगिजनकर्मिनाशमुखेन तस्य कृतिसाव्यत्वात् । न च प्रतियोग्यजनकत्वे प्रागभावत्वक्षतिः, यतः प्रतियोगिजनकोऽभावः प्रागभाव इति लक्षणे जनकत्वं स्वरूपयोग्यतामात्र, न तु फलोपधानरूपं, सामग्री वै जनिति नियमात सामग्रीविरहात् पूर्वकाल इवोत्तरकालेऽपि प्रतियोग्यजननेपि न प्रागभावत्वक्षतिः, सामग्रीकाले प्रतियोगिजनकल्येनोक्तलक्षणसङ्गतेरितिमा दुःखेनात्यन्तं विमुक्तवरतीतिश्रुतिमवलम्बमानानाम्मतमाह-दुःखात्यन्ताभावरूपति प्राचा मते प्रतियोगिनेव ध्यसमागमावास्यामप्यत्यन्तामावस्य विरोधालाय.वामाको नाऽऽत्मनिष्ठतथापि लोष्ठादिनि४ एकाऽऽत्मनि साध्यते, यतस्य , स एव सम्बन्धोऽभ्युपगत इति तस्य साध्यत्वेन तद्वारा नित सति दुःखेनात्यात विमुक्तवरतीति श्रुतिरप्युपपादिता .. 3 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थविवरणहार्यदीपिका । . 'प्रकृतितद्विकारोपधानविलयसमुद्भुतपुरुषस्वरूपावस्थानरूपा आत्यन्तिकचित्तसन्ततिविच्छेद लक्षणा आत्महानिलक्षणा नित्यनिरतिशयसुखाभिव्यक्तिलक्षणाऽविद्यानिवृत्युपलब्धीवज्ञानसुखात्मकब्रह्मलक्षणा वा तीर्थास्तरीयाऽभिमता प्रतिपक्षयुक्तिविक्षोमितात्मस्वरूपाऽऽमलामाद् विभ्यती परमपुरुषार्थतामनासादयन्ती च मा भवतु प्रेक्षावद्भिभुमुक्षुभिविषणीयसाधननिकुरबा, परन्तु अनेकान्तभावनाजनिततत्वज्ञानोपहितरिति पाचिन्मतमाह-दु:खध्वंसस्तोमरूपेति । अत्र स्तोमयदोपादानानकदुःखध्वंसकाले 'मुक्तिव्यपदेशापत्तिः, तत्तदात्मवत्तियावद्दुःखध्वंससंवलनकाल ५५ तथाऽभ्युपगमादिति भावः । चित्तमेव हि संसारो, रागादिक्लेशवासितम् । तदेव तैर्विनिमु, भवान्त इति कथ्यते ॥१॥ - इति वचनस्वारस्याद्रागद्वेषविनिर्मुक्ता चित्तसन्ततिर्मुक्तिरित्यभ्युपगन्तृणां बौद्धानां मतमाह-अनुपपलवचित्तसन्ततिरूपेति । मतान्तर माह-वातन्त्र्यरूपेति । यथा पुकरपलाशमापो न लिष्यन्ति तथा पुरुषमप्यपरिणामित्वान्मुख्यवृत्त्या न कर्म श्लिष्यति, अत एव न विश्लिष्यतीति तस्य बन्धमोक्षौ न भवतः, मूलकारणीभूतायाः प्रकृतेस्तद्विकारस्य च महत्तत्वस्थाऽऽत्मना सह सम्बन्धात्तयोर्मेदारहे कर्तृत्वाधारोपादात्मनस्संसारः, तद्वियोगादग्रहे पुरुषस्य चैतन्यात्मनाचस्यानं मोक्ष इन्युपर्यत इति साङ्ख्यमतोपदर्शनायाऽऽह-प्रकृतितद्विकारोपधानविलयसमुद्भूतपुरुषस्वरूपावस्थानरूपति । न द्रव्यस्य न वा पर्यायस्य कस्यचिदात्मस्थानाभिषिक्तस्य मुक्तावस्थानमिति सफलशून्यवादिमतमाह आत्यतिकचित्तेति । चार्वाकसम्मतमुक्तिमाह आत्महानिलक्षणेति । तौतातिक( कुमारिलम)मतमाह नित्यनिरतिशयेति । वेदान्तिमतमाह-अविद्येति । ननूक्ततत्तद्वाभ्युपगतातलक्षणा मुक्तिः किं प्रमाणभूता किं वा नेत्याशङ्कायामाह-प्रतिपक्षयुक्तीति । उक्ततत्सर्वमतनिराकरणयुक्तयो विस्तारभयानेह प्रतन्यन्ते, विशेषार्थिना न्यायालोकादिग्रन्थादवसेयाः । अवच्छेदकतासम्बन्धेनाऽऽत्मविशेषगुणम्प्रति तादात्म्यसम्बन्धेन शरीरस्य कारणीभूतसाऽभावेन मुक्तौ न तदुत्पत्तिरित्यशेपविशेषगुणोच्छेदलक्षणा मुक्तिनैयायिकैरभ्युपगता तथा जैनर प्युरीक्रियते किंवा यथेत्याशङ्कानिवृत्यर्थमाह-तजन्यपरमानन्दरूपा वेति । यस्स्वाभाविक गुणः परायत्तावृत्तस्वभावः स परस्याऽऽन्छादकस्य समूलक्षये सति सर्वथैवाऽऽविर्भवति, यथा सूर्यस्य प्रकाशगुणः, परमानन्दगुणोऽपि तथेति तदावारकस्य कर्मणसमूलकापं कपणे मुक्तो सोऽपण्डरूपतया प्रादुर्भवतीति तदास्मैव मुक्तिः, सोपाधिकानन्दगुणवनिरुपाधिकपरमानन्दगुणोऽपि न नैमित्तिको, येन निमित्तामा * नैमित्तिकस्यापि तस्याऽभावो मुक्तौ स्यात् , किन्तु निरावरणात्ममात्रजन्य एवेति तजन्यस्य तस्य नाशकाभावान्न मुक्तावभाव इति भावः । उक्तञ्च पाचकचक्रवर्तिना." देहमनोवृत्तिभ्यां, भवतः शारीरमानसे दुःखे । तदभावात्तदभावे, सिद्ध सिद्धस्य सिद्धिसुखम् ॥ १॥” इति । सा मुक्ति केन कारणेन साध्येलत आह-अनेकान्त भावनेत्यादि। मुक्तेरस्वरूपविशेषण Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थविवरणपूढार्थदीपिका । शैलेशीकरणरूपप्रयत्नसाध्या तु कृ कर्मक्षयरूपा तज्जन्यपरमानन्दरूपा वा मुक्तिः पारगतागमसमुद्रीक्षिता युक्तिस्तोमान्नीतपरमपुरुषार्थभावा स्वानुरागानुपाचितरन्वेषणीयसाधनैव, भ्रमप्रमादविप्रलिप्सादि પાપપુરુષોપરિતાપથવિધાવિતસમુધ્ધનનાડપંપાપિ ના શદ્માવતવાણાનાિિક્રતિનિધિ માन्यतरसमुद्भवतत्त्वार्थश्रद्धानात्मप्रशमसंवेगनिर्वेदानुकम्पास्तिक्यामिव्यक्तिलक्षणविशुद्धसम्यग्दर्शनतद्विशुद्ध-.. ज्ञानादिभाग्भिः परिम्पर्यणाध्यवसायविशुद्धिस्थानान्तराण्यवाप्नुवद्भिः सुप्रापैव । निखिलकर्मक्षयोद्भूतरूपत्वादेव चास्याः शश्वदप्रतिपातादात्यन्तिकत्वम्, व्यतिकीर्णसुखदुःखहेतुभावार्थान्तरानपेक्षत्वादेकान्तिकत्वम् , प्राककाठावस्थानादनुत्तरत्वादनतिशयत्वम्, प्राण्युपमर्दनजलौकिक सुखविपरीतत्वेनानाबाधकत्यम्, सर्वद्वन्द्वस्पर्शविषयातिक्रमाद् दुःखक्लेशाकलकितत्वेन केवलवम् , निष्प्रतिद्वन्द्वरत्वादेव निरावाधत्वम्, आत्म-.. तादात्म्याविर्भावमात्रत्वेन मनोज्ञविषयसंसर्गायत्तेोत्पत्तिवियुतत्वेन स्वाधीनत्वं च गीयते प्रमाणनयनिष्णातः, ' अधिगतिरप्यस्थाः संसर्गप्रतिबन्धोपरागोन्मूलनात् पुनर्भवोच्छेदादत्यन्तदुःखोच्छेदादिति सर्वथोपपतिसमलड्कृताया अस्याशासनाच्छास्त्रत्वमाविमाणस्यास्य तत्त्वार्थाधिगमाख्यस्य शासस्य स्वबुद्धौ विपरिवर्तमानस्याभ्युदयफलप्राप्त्युत्सवफलकधर्मार्थकामविमुखान् दुखाभावार्थिनो हिताहितप्राप्तिपरिहारार्थिनः प्रत्युपदेशरूपत्वमालयन् हिताहितविभागोपदेशानुग्रहैकारणो मोक्षमार्ग संक्षेपेणोदेण्टुकाम आचार्य इदमाह सम्यादर्शनशुद्ध, यो ज्ञानं विरतिमेव चाप्नोति। दु:खनिमित्तमपदि, तेन सुलब्धं भवति जन्म ॥१॥ ( य० टीका ) सम्यग्दर्शनसंशुद्धमिति' अनया च कारिकया जन्मनीत्यादिद्वितीयकारिकानुस्यूतया "सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः॥१-१॥ इत्यनुवन्धचतुष्टयप्रदर्शनप्रवणं कृत्स्नशास्त्रार्थसंग्राहकमादिम चतुष्टयमाह-पारगतागमसमुद्वीक्षितेत्यादि । सा मुक्ति कैः पुरुषविशेषैः कीदशसाधनानि . प्राप्नुवद्भिश्च समधिगम्येत्यत आह-शङ्कायतिचाराऽनालिङ्गितेत्यादि सुप्रापैवेत्यन्तम् । मुक्त्यधिगतौ हेतुत्रयमाह-संसर्गप्रतिवन्धेत्यादिना। अभ्युदयफलप्राप्तीति-अभ्युदयफलं स्वर्गफलं तस्य प्राप्तिस्माद्धर्मात् सोऽभ्युदयकलप्राप्तिरित्यर्थः, अस्य धर्मेत्यनेनान्वयः । उत्सवफलकेति-अस्याऽर्थकात्यनेनाऽन्यः । दुःखाभावार्थिन इति-दुःखञ्च किञ्चिन्मे मा भूदित्यभिलाषिण इत्यर्थः । हिताहितप्राप्तिपरिहारार्थिन इनि-हितं सुखं तत्प्राप्तिः,. अहित दुःखं तत्परिहारश्च मे भूयादित्येवं सुखेच्छादुःखजिहासाप । इत्यर्थः। .. विषयश्चाधिकारी च, सम्पन्धश्च प्रयोजनम्। "विनाऽनुवन्धं ग्रन्थादो, मङ्गलं नैव शस्यते ॥ १॥ . . इति पारमापोंक्तिमाश्रित्याह-अनुवन्धचतुष्टयप्रदर्शनप्रवणमिनि, तत्राऽनुवाद.. नाम प्रवृत्तिजनकज्ञानजनकज्ञानविषयत्वं प्रवृत्तिप्रयोजकज्ञानविषयत्वं वा । प्रवृत्तिात्र शास्त्राध्ययनविषयिका तजनज्ञानमिदं शाखाध्ययनं मदिरासाधनमित्याकारक ज्ञानं मरकृतिसाध्यमित्याका- . Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - तत्वार्थविवरणगूढार्थदीपिका । : ११ : सूत्रं सुसंगतार्थतयाऽऽवेदितं भवति, यद्यपि मुक्तिरेवोपादेयतया प्रथमं निरूपणार्हा, तथापि कारणनिरूपणमन्तरेण निरूप्यमाणापि सा न मुमुक्षूणामात्मसाद्भवितुमुत्सहत इति प्रथमं तन्निरूपणमित्यभिसन्धिः । यः सम्यग्दर्शनशुद्धं ज्ञानं विरतिमेव चाप्नोति दुःखनिमित्तमपीदं जन्म तेन सुलब्धं भवति इत्यन्वयः । अत्र सम्यग्दर्शनेन सम्यग्दर्शनाय सम्यग्दर्शनात् सम्यग्दर्शने वा शुद्धमित्येते विग्रहाः सम्भवन्ति, તંત્ર પ્રથમે તૃતીયેયં “ હેતુ ાનખેત્સ્ય- તલો " ॥२-२-४४॥ इति सूत्रविहिता, फलसाधनयोग्य रकं ज्ञानञ्च, तच्च विशिष्टबुद्धौ विशेषणज्ञानं कारणमिति नियमेन तत्र विशेषणीभूतस्य मदित्यस्येष्टेत्यस्य च ज्ञाने सत्येव भवतीति तज्जनकज्ञानमस्य शास्त्रस्याध्ययनेऽहमधिकारीति ज्ञानं एतच्छास्वप्रतिपादिततच्चज्ञानं साक्षान्मोक्षय परम्परया फलमिति तदात्मकेष्टज्ञानञ्च, तद्विपयत्वमधिकारिणि प्रयोजने च वर्त्तते । अस्य शास्त्रस्य मोक्षमार्गप्रतिपादनपरत्वात् तदभिधेयस्य सामान्यतो ज्ञाने सत्येवेदं शास्त्रं मत्कृतिसाध्यमिति ज्ञानं भवति तथा शास्त्रस्याभिधेयेन सह प्रतिपाद्यप्रतिપાદ્દમાવસન્ધન્ય જ્ઞાને સત્યેવેનું ગાલ્લું મસાધનાંતિ જ્ઞાનં સમવતિ પ્રવ્રુત્તિનનૠતિસાધ્યત્ત્વજ્ઞાનનનમિષયજ્ઞાન પ્રવૃત્તિલનસાધનત્ત્વજ્ઞાનનનાર્થે પ્રાંતિયાવાંતયાતમાવસવૃત્ત્વજ્ઞાનમ્, પ્વ પ્રયોગનેન તત્ત્વજ્ઞાનેન સહ શાસનન્યનનોવસસ્ત્રસ્યજ્ઞાનન્ગ્ર तद्विषयत्वमभिधेये सम्बन्धे च वर्त्तत इत्येवमधिकारिप्रयोजनाभिधेय सम्बन्धलक्षणानुबन्धचतुष्टयप्रदर्शनप्रवणमित्यर्थः । नैनु शास्त्रादावनुबन्धचतुष्टयप्रदर्शने किं प्रयोजनमिति चेत्, उच्यते, શેષનાગમાળવાયાનુષ્ઠાના મેધેયમ્, બાનજ્ઞાતિમધેયત્ત્વેના જ્ઞધિારિત્વ, નતાઃનવदनभिमतप्रयोजनञ्च, उन्मत्तवाक्यवढ सम्बद्धं च शास्त्रं प्रेक्षावद्भिर्नाद्रियत एव, प्रेक्षावचक्षतेः । तथा चेदं शास्त्रं मोक्षमार्गादिरूपशक्यानुष्ठानाभिधेयं मोक्षमार्गादिसम्यग्ज्ञप्तिरूपसाक्षात्फलमोक्षरूपपरम्पराफलात्मकाभिमतप्रयोजनञ्च तच्चार्थसूत्रमुपायः, तदर्थावगमचोपेयः, स च प्रयोजनाभिधानादेवाभिहित इत्युपायोपेय मावसम्बन्धकञ्च चतुस्त्रिंशदतिशयशालिनो भगवतोऽर्हती मुखकमलात्रिपदीमवाप्य विदितसकलार्थ स्वभावोऽन्तर्मुहूर्तमात्रेण भव्य सत्वहिताय शब्दतो रचितद्वादशाङ्गोऽनेकलब्धिनिधिर्भगवान् गणधरोऽपूर्वागमार्थतत्त्वं स्वशिष्येभ्य उपदर्शितवान्, ते च स्वशिष्येभ्यस्तेऽपि स्वशिष्येभ्य इत्येवं परिपाट्यैव सातिशयश्रुतधरैचकावतंसश्रीमदुमखातिभिर्मन्द मेधसामनुग्रहाय शास्त्रसमुद्रादपूर्वतच्च रत्नान्याकृष्यतच स्वार्थशास्त्रे निवद्धानीति गुरुपर्वक्रमलक्षणसम्बन्धाश्रयं च एतच्छास्त्राभिहित मोक्षमार्गादितत्त्वजिज्ञासूक्तप्रयोजनाभिलापिलक्षणाधिकारिकं च तस्मादेतच्छास्त्रमादरणीयमेव प्रेक्षावद्भिरिति शास्त्रप्रવૃચર્ચમાવાવનુવઋતુર્થ વર્શનીમતિ માત્ર फलसाधनयोग्यतालक्षणं हेतुत्वमिति । फलं कार्य तस्य साधनं निष्पादनं करणमिति यावत्, तत्र योग्यः सामान्यतो दृष्टसामर्थ्यस्तस्य भावस्तता तल्लक्षणं हेतुत्वमित्यर्थः । ननु फलसाधन तालक्षणं हेतुत्वमित्येवोच्यतां योग्यतापदग्रहणेन किमिति चेत्; उच्पने समाधिः, तदप्रवेशे फलाव्यवहितप्राकालसम्बन्वलक्षणं 'हेतुत्वं लब्धं स्यादिति या फलं साधयति क्रियाऽविशिष्टस्तत्र हेतुत्वप्रतिपत्तिस्थान, न तु फल 2 8 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' तरवार्यविवरण सार्थदीपिका વેક્ષમાં હેતુલ, પારસ્તસ્ત્રારબ્યુનત્ત-વાતવિશિષ્ટક્રિયાપુરવાળે જરૃરયમ, કોપર જવામરજન ‘स्वरूपयोगये, तहणेन तु जनकतावच्छेदकधर्मलक्षणस्वरूपयोग्यतामाप्रप्रतिपत्तो कारणान्तरविरहात्तत्फलमकुर्वनपि हेतुस्स्यादेव, अन्यथासिद्धिशुन्यत्वे सति कार्यान्यवहिताक्षणावच्छेदेन । कार्यसमानाधिकरणात्यन्ताभावप्रतियोगितानवच्छेदकधर्मवलक्षणकारतावच्छेदकधर्मस्य तत्र सत्वाद्धेतृत्वप्रतिपत्तेः । योग्योऽत्र निर्यापारो गृखते, संव्यापारत्वे तु करणत्यं कर्तृत्वमेव पा. स्यात् , ताशयोग्यत्वनिवेशादेव बनेन कुलमित्यादौ धनादीनि कुलादिकमकुर्वन्त्यपि योग्यतामात्रेण तृतीयामुत्पादयन्ति, अन्नेनाऽध्ययनेन वा वसतीत्यादापपि वसनक्रियायामन्नादेयोग्यतामावस्यैव विवक्षेति हेतावेव तृतीयतिभावः। पारतन्त्र्याऽसम्पातयविशिष्टक्रियाहेतुत्वलक्षणं कर्तृत्वमिति-क्रियायां स्वातन्त्र्येण विवक्षितोऽर्थः कर्ता स्यात, न तु पारतन्त्र्येण, यथा रामेण बाणेन हतो बालीत्यत्र रामाभिन्नकर्तृनिष्ठव्यापारप्रयोज्यो यो वाणनिष्ठो व्यापारस्तजन्यं प्राणवियोगरूपं यत्फलं तदाश्रयो पालीति बोधः, अत्र रामः स्वव्यापारे धात्वर्थप्रधानीभूतव्यापाराश्रयत्वलक्षणस्वतन्त्रत्वात्कर्तृसंज्ञां प्राप्नोति, न तु पाणः, रामव्यापाराधीनव्यापाराश्रयत्वेन परत-त्रत्वात् । अयम्भावः-यद्यपि पाणोऽपि हननक्रियायां स्वतन्त्र एव, फलजनकल्यापाराश्रयस्वात् , तथापि यावन्न रामस्वव्यापार प्रयुक्ते तावन्न बाणोऽपि स्वव्यापारण हननक्रिया पनि समर्थ इति बाणे स्वातन्त्र्यस्य पारत-यसम्पृक्तत्वेन न कर्तृत्वमित्यभिप्रायेण स्वातन्त्र्यस्याऽन्यव्यापारानी नव्यापाराश्रयत्वलक्षणस्य पर्यवसितार्थरूपतया विशेषणमाह पारतच्यासपृति । न चाऽन्यव्यापारानधीन०यापाराश्रयस्य स्वतन्त्रत्वे देवदत्तेन यज्ञदरास्तण्डुल पाच-- यतीत्यादिणिजन्तस्थले प्रयोज्यकत्तदेवदत्तव्यापारस्य यज्ञदत्तच्यापाराधीनत्वात्तदाश्रयस्य देव- :, दत्तस्य कर्तृत्वं न स्यादिति तृतीयानुपपत्तिरिति वाच्यं, सर्वेषां स्वरवल्यापारे स्वतन्त्रत्वस्य । निर्विवादत्वात् , न चैवं स्वस्वव्यापार सर्वेषां स्वतन्त्रत्वे प्रयोज्यप्रयोजकव्यवहारो न स्यादिति - वाच्यं, प्रयोज्यकत्तदेवदत्तप्रथमव्यापारस्य प्रयोजकर्तृयज्ञदत्तव्यापाराधीनत्वेनोक्तव्यवहारस्य . देवदत्तीयद्वितीयादिव्यापाराणां तु स्वाधीनत्वेन तत्र स्वतन्त्रत्वाकर्तृत्वव्यवहारस्यापि चोपपत्तेरिति दिक् । स्वातन्त्र्यविशिष्टक्रियाहेतुत्वेत्यत्र वैशिष्टय सामानाधिकरण्यन सम्बन्धन बोध्यम् ।' साधकतमं करणं क्रियासिद्धौ प्रकृष्टोपकारक करणसझं स्थादित्यतः "क्रियायाः परिनिष्पत्तियद्वयापारादनन्तरम् । विवक्ष्यते यदा यत्र, करण तत्तदा पृतम् ॥ १॥” इति भर्तृहरिकारिकावलाच परिष्कृतकरणत्वलक्षणमाह-प्रकृष्टोपकारकत्वमकारकविवक्षाविषयक्रियासाधकतमत्वलक्षणमिति । विवक्षातः कारिकाणि भवन्तीति नियमाद् रामेण वाणेन हतो पालीत्यत्र चाणव्यापारस्य यदा विवक्षा स्यातदा तस्य वाणस्य करणसज्ञा भवति, यदा च न स्यात्तदा निर्यापारसाधारण्येन तस्य वाणस्य हेतुत्वमेव स्यादित्यभिप्रायेण विशेपणमाह-प्रकृष्टोपकारकत्वप्रकारकविवक्षाविषयति । उक्तलक्षणस्योक्तविशेषणमात्र-... परत्वे. निपार हेतुभूते . ५ इदमस्मिन् कार्ये प्रकष्टोपकारक" इति भाराविरक्षाविषs Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Latવાવિવાહાટીવિવાદ | વિક્ષાવિષયનેયાયાધwતમક્ષM વાગતમ્, વિરેષ્ઠતાવòવધર્મકારજ્ઞાનનનશજ્ઞાનવિષયવૈવિસિવિશળ્યતાવરણમાનાળામાવબતિયોક્ષિમિથતë વાર્થ પ્રતિપાથિતું રાજતાડી કૃવત્તશુદ્ધપન સમાસવિધાજશાસ્ત્રાનનુરહતો હેતુથબૂત ક્ષણવાર્થતામાં સમામિલમેના વં - ખત્વે વાર્થભુપાવાદૈવ પ્રવૃતિ વજતન્ય, તત્ર તાવત્સલ્વે સા, મર્મજાતુ “” ધાતો તિરસાવાનિવૃત્ત વિશેષ્યમાહાતાવતમતિ વિશેષતાવવ ધર્મવીજ્ઞાનત્ય નમસ્તાપસ ફાલાસ્થિભૂતક્ષણે તૃતીયા, તત્રોક્ષપાતામન વૈવમ્, વિશેષ્યતવિષ્ણવધર્મસ્તાપર્વ, તમ્બાર જ્ઞાન તપિસોડનિત્યાહાર તન્નનળજ્ઞાનં નાજ્ઞાનં તબિયત્વે નટાયાં વર્તતે, તાપસોડ્યારિજ્ઞાનવિશેષ્યતા વચ્ચે વત્તાપસર્વ તત્સમાજાધિરાણો થોડમાવસ કટમાવતઐતિયોકિત્વિપ તત્ર વર્તત તિ ! તત્ત વ્યુત્પત્તિવા “રૂસ્થમૂતક્ષા ફત્યને રૂક્ષણાવિષાકૃતીયાનુશિષ્યતે, રક્ષપાત્વ જ વ્યવર્તવત્વમ્, તથ વિશેષતાવછેરૂમાનાધારણામાવતિયોવિમ્ તવાશ્રયી ધમાં દ્વિવિઘ વિરોષણમુક્ષગઢ, વિદ્યમાન થાવ વિશેષણ, થથા પુરુષાઢ વર્તમાનવિચ્છેન વિદ્યમાન હાંતિઃ | વેદનાનું સદ્ વ્યાવકૃક્ષિણ યથા તાપસ હાહાન્તરશનદાદ્રિવમ્ | વિશેષાય લખ્યો મતવાહિમિ પ્રત્યાધ્યતે, વીत्यर्थे विहिताना प्रत्ययानां वर्तमानसम्बन्धार्थकत्वात् , अतो जटाभिस्तापस इत्यादापविઘનિના સમ્પલેવલથા મહુવધિનાશાવૃતીતિ, ત્રિ મૂઢાર્થતા તાપસમાત્રય નદયા કમાન તન્દ્રશ્ય વિશે થતાવછેવાતા સિનાધિરવામાપ્રતિયોગિસન્મવ યુદ્ધમ્ ! અમાશય- રૂભૂત શક્ઝિબવા બ્રાસ, બાર્થે થમ્પત્ય, प्राप्त्यर्थकाद् भूधातोः कर्तरि क्त, लक्ष्यतेनेनेति लक्षणं ज्ञापक, किञ्चिद्धर्मविशिष्टस्य ज्ञापक વરદાવતૃતીયા, રથા નામિસ્તપસ ત્યવિૌ, પ્રdfપસર્વ ધર્મ, તે પ્રાપ્ત તર્કવિશિષ્ટય તાપસય જ્ઞાવિ નદી, તય તાપસવાયયાત, રદ્વાવાઝટાપાતીયા, નટાવિષયવજ્ઞાનનન્યજ્ઞાનવિષયમૂતતાપસવાનિતિશયોથ . - તત્ર જ્ઞાનાન્યજ્ઞાન તીર્થ, નિષિવિષસિમ્બન્ધન નાપાર્થય મિwત્ય જશે જ્ઞાનેન્યા, દ્વિતીયજ્ઞાનજ્ય ૨ વિષયસ્વન્વિજોને તાપસપહાથજ તાપણsન્વય હતિ બ્રહન્તશુદ્ધહેન સાવધાથશાસ્થાનનુગ્રહત રુતિ | ત્ર - વરાયતૃતીયા મવતિ તત્ર-“હાળે કૃતા વદુ” તિ પાણિનીયા “ વાર તતિ જૈવિધા છે છત્તેને સર્વે સમાસ મતિ, દેવ દતક્ષને ૨ વિહેિતાવાસ્કૃતીયાયાલબાસ ઝવજોન સહન મતિ, તદ્વિધાત્રામાવત્યિર્થ. બ્રિવે ધતિ-તત્ર નેત્યવિના, શુધંધાતો હáત્યારૂનત્યનિજો શુદ્ધપયેનૈવ ત્વજ્યા- મહિતત્વેન તન્નમિાહિતવમાવાત્રકમિહિર હૃત્યધિરહિતસ્ય “ શરળતલ 9 તિ, સુવરબ્રસિમ્પર્શનેનેતિ તૃતીયાનુપ શૈવેચી- વાત્શવંધ્રા Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपार्थविवरणदार्थदीपिका । -कत्तरि निष्पन्नस्य शुद्धपदस्यैव, कर्तृत्वप्रतिपादनप्रत्यलयेन तेनाभिहितस्य कर्तृत्वस्य तृतीयाया अनभि- . हितकर्तृत्वकरणत्वार्थसमुद्तायाः,प्रतिपादयितुमशक्तेः, न च शुद्धि नादभिन्नैव कथञ्चित्सैव धातुना शुद्धि-क्रियात्वेन रूपेण प्रतिपाद्यते, भावार्थकप्रत्ययेन, तु स्वरूपत्वेनेति भावार्थनिप्पन्नस्य शुद्धपदस्य कर्तृत्वानभिधायकत्वेन. तृतीया कर्तृत्वे उपपनैवेति वाच्यम् , यथा हि शुद्धिक्रिया कथञ्चिज्ञानादाभिन्ना तथा - प्रातिक्रियापीति तदभिन्नाभिन्नस्य तदमिन्नत्वमिति शुद्धक्रियाऽभिन्नज्ञानाऽभिन्नायाः प्रामिक्रियायाः शुद्धक्रियाऽभिन्नत्वेन शुद्धिक्रियाकर्तृत्वस्य तृतीयया प्रतिपादने प्रतिक्रियाकर्तृत्वमपि तया प्रतिपादितमिति तत्प्रतिपादकस्याप्नोतीत्याख्यातस्यानुपपत्तिः । न चाप्नोतीत्यनेनातिक्रियाया विशेष्यत्वेन कर्तत्वं प्रतिपाद्यते, सम्यग्दर्शनशुद्धमित्यनेन च शुद्धिक्रियाया विशेषणत्वेनेति नानुपपत्तिरिति वाच्यम्, एवं 'सति चैत्रेण पचति चैत्र इत्यपि प्रयोगः स्यात् । न च तत्र कर्तेक एवेति तन्निरूपितवृत्तित्वेन कर्तृत्वस्य ज्ञाने . तोरिति । ननूतदोपदिकर्मकान्छुध्धातोः कतरिक्तप्रत्ययो न स्वीक्रियते, कि भाव, तथा च कतरनभिहितत्वेन सम्यग्दर्शनरूपकर्तृपदातृतीयोपपनैव, यथा चोपपत्तिस्तथाऽऽशय निरस्यति-जप शुद्धिरिति । न चेत्यस्य वाच्यमित्यनेनान्वयः, शुध्धातोर्भावार्थे कृत्प्रत्यये । -सति शुद्धधात्वर्थो भाव इति तल्लक्षणाद् य एव शुद्धिरूपोऽर्थश्शुधंधातोरस एव कृदन्तशुद्धपदस्थेति तस्य शुध्यात्वर्यशुद्धिरूपस्य . प्रातिपदिकार्थत्वेन निपातातिरिक्तनामार्थद्वयोरभेदातिरिक्तरसम्बन्धोऽव्युत्पन्न इति नियमेन ज्ञानरूपप्रातिपदिकार्थेऽभेदसम्बन्धेनैवाऽन्वयसम्भवतीति प्रतिपादनीय शुद्धिज्ञानादभिवेत्युतिः। , , . न चोक्तव्युत्पत्तौ किम्प्रमाणमिति बाध्य, भेदसंसर्गावच्छिन्ननामार्थनिष्ठप्रकारतानिरूपितविशेष्यतासम्बन्धेन शाब्दबुद्धित्वावच्छिन्नं प्रति विशेष्यतासम्बन्धेन प्रत्ययजन्योपस्थितिः कारणमिति कार्यकारणभावस्यैव प्रमाणत्वात् , अत एव राज्ञः पुरुष इत्यत्र भेदसम्बन्धावच्छिन्नप्रकारतानिरूपितविशेष्यतासम्बन्धेन शाब्दबुद्धौ विशेष्यतासम्बन्धेन ङस्प्रत्ययजन्योपस्थितेः कारणत्वा संसर्गको बोधो भवति, न हि भवति राजा पुरुष इत्यत्र ताशो वोधः । भेदसंसर्गकवोधे उस्प्रत्ययजन्योपस्थितेः कारणीभूताया अत्राऽभावात् । निषेधे हेतुमाह-यथा हीत्यादि-तृतीययेति । सम्यग्दर्शनेनेति तृतीययेत्यर्थः, तया नृतीयया । न चाप्नोतीयादिनाऽशय तनिषेधति एवं सतीत्यादिना । . .... - .चत्रेण पचति चैत्र इत्यपि प्रयोग यादिति पत्रकर्तृकपाकानुकूल कृतिमा चत्र इति प्रयोगार्थः । पुनरप्याशङ्कते-न च तत्रेत्यादिना । तत्र चैत्रेण पचति चैत्र इत्यत्र । सोयगत एवेति चैत्रेणेत्यनेन स्वनिरूपिरावृत्तित्वसम्बन्धन चैत्रविशिधा कृतिरिति ज्ञाने સંત ઋતિમાનું વૈવ કર્ધા જ્ઞાન સટ્ટાતનેતિ જ્યાશ્રયતા મૈત્રીવ્રત પતિ જુવર્ય५. Hawa Yaतीत्याख्यातेन कर्तृत्वभानं नोपयुक्तमितिभावः । तनिषेधे हेतुमाह- - Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थविवरurjायदीपिका । फर्तृत्वाश्रयतया सोऽप्यवगत एवेति न तत्र कर्तृत्वभानेन कृत्यम् , प्रकृते तु शुद्धिक्रियाकर्तृत्व सम्यग्द नगत शुद्धज्ञानावाप्तिक्रियाकर्तृत्व चात्मगतमित्याश्रयभेदाद् द्विवा कर्तृत्वभान सप्रयोजनमेवेति वाच्यम् , ज्ञानदर्शनोपयोगलक्षणस्याऽऽत्मनः सम्यग्दर्शनाभेदेनाश्रयभेदस्याप्यभावात् । यत्तु " प्रथमार्थः प्रकृत्यर्थविशेषणविधयाऽन्वयिनी संख्यैव, अत एव यत्र विशेष्यवाचकसमानविभक्तिपदं निपातपदं वा नास्ति तत्र प्रथमान्तार्थस्य विशेष्यमासकसामध्यभावादसौ मुख्य विशेष्यतयैव भासते” इति गदाधरग्रन्थपालोचनया प्रथमान्तार्थमुख्यविशेष्यकशाइयोधाभ्युपगन्तॄणा नैयायिकानां मते आख्यातार्थस्य कर्तृत्वस्य प्रथमान्तार्थविशेषणतया धात्वर्थविशेष्यतया च भानस्योपपन्नत्वेऽपि भावप्रधानमाख्यातमिति गृत्यनुसाराद् भाव५ज्ञानदर्शनापयोगेत्यादिना । अत एवेति-प्रकृत्यर्थे विशेषणविधयाऽन्वययोग्यायाः संख्याया एव प्रथमार्थत्वादित्यर्थः । एतेन चैत्रादीनामेकत्वमात्रबोधनाय तत्तात्पर्येण चैत्र इति वाक्याप्रथमान्तार्थचत्रमुख्यविशेष्यकैकत्यप्रकारकबोधस्य लसत्वेन चैत्रः पचतीत्यादावपि. सति सम्भवे प्रथमान्तार्थस्यैव मुख्यविशेष्यत्वमिति सूचितम् । विशेष्यवाचकसमानविभतिकपदं निपात५६ वा नाऽस्तीति। पीन इत्यत्र नील इत्यत्र च विशेष्यवाचकसमानविभक्तिकपदं निपातपदं वा नाऽस्तीति यथाक्रमं पीन एवं नील एव च मुख्यविशेष्यतया प्रथमाविभक्त्यर्थंकत्वञ्च विशेषणतया भासते, पीनचैत्र इत्यत्र नीलो घट इत्यत्र च निपातपदाभावेऽपि पीन इति पदस्य नील इति पदस्य च समानविभक्तिकविशेष्यवाचकं यथाक्रम चैत्र इति घट इति च पदमस्तीति मुख्यविशेष्यतया चैत्र एवं घट एव च भासते, तत्र च विशेषणविधया यथाक्रमं पीनो नीलश्च प्रथमार्थकत्वसंख्या च भासते । चैत्रो नातीत्यत्र विशेष्यवाचकसमानविभक्तिकपदाभावेऽपि नास्तीति निपतिपदमस्तीति न चैत्रो मुख्यविशेप्यतया भासते, किन्तु नास्तिपदबाच्योऽभाव एवेति भावः । भावप्रधानमाख्यातं सत्वप्रधानानि नामानीति यास्कवचनं, तत्र भावप्रधानमित्यस्य कोऽर्थः ? इति चेत् । व्यापारप्रधानमित्यर्थः, " व्यापारी भावना सैपो-पादना सैव च क्रिया" इति कौण्डवचनात्, इति प्राचीनवैयाकरणा दीक्षितादय एवं मन्यते । नागेशास्तु भावप्रधानाभित्यस्य शुद्धधात्वर्थों भावो, धात्वौँ फलव्यापाराविति धात्वर्थप्रधानमित्यर्थः । कुत्रचिच्छदरत्नादौ क्रियाप्रधानमाख्यातमिति दृश्यते, तत्र क्रियाशब्दस्य करणं क्रिया, क्रियत इति च क्रियेति व्युत्पत्तेद्वधर्थकत्वम् । तेन कर्तृप्रत्ययस्थले व्यापारमुख्यविशेष्यको बोधो भवति, कर्मप्रत्ययस्थले फलख्यविशेष्यको बोधो भवति, तत्र प्रमाणं " सुप आत्मनः क्यच्" इति सूत्रस्य माध्यमेव, तत्र हि इण्यते पुत्र इति विग्रहे क्यच्प्रत्ययो न भवति, पुत्रमिच्छतीति विग्रह क्यच्प्रत्ययो भवति, तत्र किं विनिगमकमिति प्रश्ने सत्युत्तरयति भाष्यकारो भिन्नार्थत्वात् , अत्राऽऽशकते किमत्र भिन्नार्थत्यं ? समाधत्ते, एकत्र व्यापारः प्रधानोऽपरत्र च फलं प्रधानम् , इदमेव मिनार्थत्व, व्यापारमुख्यविशेष्यकबोधस्वीकारादेव पश्य मृगो धावतीत्यादौ मृगकर्तृक धावनं शिकियायां कर्म, प्रधानं शिक्रियवत्याशयेनाऽऽह-भावप्रधानमाख्यातमिति स्मृत्यनुसा Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તરવાવિવરણો : તસ્ય ધાત્વર્થપરંતામખ્યુંત્યે પ્રાર્થધૈવ પ્રાધાન્ય અર્થવ્યવચિવુપાર્નાં હૈયાળાનાં મતે સર્જનશુદ્ધમિધ્યેત્રાનોતીયત્ર ૨ વસ્ય ત્રિયાવિશેષળવ માનેન નોવતો પરિતિ સમાધાન તપસમાધાનમેવ, થતા “માઘરા દિત્રિમે”. છે ?–૨૬ // કૃતિ સૂત્રય “નયાઃ બાપા . શઃ સાધ” ફર્યાદ્રિમાર્ગે ચાલ્યાનચક્રિ શ્રીમયિશોવિનોપાધ્યાઃ “ માપ ફક્યા વિના જ વર્ગ શો રતિઃ પ્રસ્તુવન્તાત્યાદિનાં સ વ ત્રિવાડનન્યત્વેન, તેનાલ્યાવસ્થ “ક્રિયા પ્રાધાન્ય, જમાવ ફતિ વૈયાર્મિચાના વીક્ષિતાનામાન્ત નિરક્તઃ” રૂત્યનાન્તવાસ્યાયુવતવિમુપ- વર્ય, “ગંત્ર પર મો ધાવલ્યમાધ્યસિદ્ધવાસ્થત્વાનુરોધેન ક્રિયાત્રધાનમાથાતમિતિ વાસ્થાશ્રયથેન વાલ્યાવસ્થ ક્રિયામુવ્યવિશેષ્ય વ શાત્રવધ” રૂટ્યાદિના વૈપારગમતમુદ્રાવ્ય “નનું પન્નતાંત્યઐષેિત્યાન્શિન તારવન્ડનપુરહાર તહ્મપત્તીત્યા પાનશૂલ્યનવાનું, નયન, તીત્યા નારા તિયોગી, નાનાતચ્છતત્યાત જ્ઞાનાશ્રય હૃચ્છાશ્રય ફત્યાચાર પ્રથમન્ત દ્વાર્થવિશેબgવ વધ થયઃ ફત્યન્તરા ન્યાયમતમુપાવે “સદૂષણે વાહ-વૈયાઝરળમૂવM / ઠે નિર્દૂષળ કુર્મ, સ્યાદા હૈમભૂષણમ્ ? ” ફત્યુપતમિતિ સપર્શનગુનિયત્ર છત્વસ્થ શિયાવિરવળત્વે માનોતીયંત્ર તસ્ય ચિવિશેષ્યમિત્ય ક્યાંયા ના સ્યાદા ધનજ્ઞાનયોરાભનોડમેમ્બ્રોડતિ તવક્ષયાંssઝયમેવોડર્તીતિ વાળુ, તથા સતિ છવૈક્ષળવણસ્ય પાતત્યાસઋતરવાત ચ સમવ્યાયારિભ્રાન્ત વ્યાપારાનીનલિયાનુકૂરુખ્યાપારક્ષાય સવમણિ સભ્યને દુર્ધટમાપવૅત, ચતઃ સ નશુદ્ધત્વવિશિષ્ટજ્ઞાનાવાણિજિયારાત્મનઃ સધનનન્યમૃદ્ધિ તિ વ્યાપારામાવે તવાતિજ્ઞાનાવારિત્રિયા પ્રતિ વ્યાપારસ્યાનુપપન્નતિ તસ્ય સમમિાહત- : વિવાહ, 7 વાગ્નોતીયાતિના પૂર્વાશય થાપ્નોતીત્યાવ્યાતોપત્તિ છતાં, સાં વૈવિરામડિજીના રસમમવતીતિ સમાધાન કૃતં તદ્રવ્યસતમેવ તિમતિ, તત્ર દેતુનાદવન ફૂટ્યાદ્રિના, ફત્ સર્વ વાગ્યે સ્કીમળ્યતિ નg ગુગળનો મેવવોથ્થાન્તવ ગતિ નિશ્ચયનનાગમન સમાનેને સામેવસ્ વ્યવહારનયન મેષ્યિતીતિ શુદ્ધિશિયાત્ત સંપર્શન, યામિબિયાવા વાSSત્યાયમેવાક્ ધિ સ્વમાનં મા ત્યેવ, તાહિ માનોતીતિ તિવાળીતેના માતાવારૂપ સચીનયામમિજત્વારકૂત રૂંવે તેન ને શુદ્ધવત્સ્ય માવાત્યયનિષ્પન્નવાના િતનામત્યનમિહિર સમ્પર્શને તત્કાલ રતીપત પતિ પૂર્વોત્તરાફ્રાં દહીed યોધ્યાશનિ ય ક્યાફ્રા ફાતિના, ન ત્યરૂ વામિનાવવી . . - સમમિટૂિતાવારશાન્તવ્યપારાધીનતાિનુdવ્યાપારક્ષતિ . પ દ્વારા શુદ્ધિવિયા સમિાહતા થા વાલિબિયા તા શુદ્ધિળિયાહારલિયા મિર્જ થતા મામલર્ણ તત્વ્યાપારાશયોન્યા યા શુદ્ધિયિાં તદ્દનુહવ્યાપારક્ષાસ્વૈત્યર્થ | નન્વ સમમિથ્યાતરિયા પરમાત્માં , તથાપિ તસ્ય શુદ્ધિાંબિયાં - પ્રતિ વ્યાપારાનપુને એ દ્રોણ ? ફુટ્યુત શાયત સભ્ય વર્શને શુદ્ધત્વેન્યા છે. Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रास्थार्थविवरणगूढार्थदीपिका' : १७ : क्रियाकारकान्तरस्य व्यापाराधीन एवं सम्यग्दर्शनस्य शुद्धिकियानुकूलव्यापार इत्यभेद एवात्मनः कर्तृत्वं सम्यग्दर्शने, तचेच शुद्धयाप्तिकर्तृत्वेऽभिन्नाश्रयत्वं दुष्परिहरम् किञ्चात्र सम्यग्दर्शनस्य कर्तृतयाऽन्वये शुद्धपदे प्रत्ययस्य क्रियास्वरूपभावार्थकत्वं निरर्थकत्वकल्पं कर्तृत्वस्य कृतिमन्वलक्षणस्यानुपपत्त्या व्यापारविशेषलक्षणं गौणमेवाश्रितं स्यादित्याश्रयत्वलक्षणं कर्तृत्वं ज्ञानगतमेव ' शुष्' धातूअभेद एवाऽऽत्मन इति । आत्मनोऽभेदे सत्येवेत्यर्थः । तत्त्वे च शुद्धयाप्तिकर्तृत्व इतिशुद्धिक्रियाप्तिक्रियाकर्भेद आत्मनः सम्यग्दर्शनरूपकर्तृभिन्नकर्तृरूपतया कारकान्तरत्वप्राप्त्या शुद्धिक्रियानुकूलव्यापारस्याऽऽतिक्रियाकर्त्रात्मव्यापाराधीनत्वेन तदाश्रयस्य सम्यग्दर्शनस्य खातन्त्र्याभावाच लक्षण कर्तृत्वं न स्थादित्यभेदपक्ष एव स्वीकरणीयः, तत्पक्षस्वीकारे चोक्तस्वातन्त्र्यलक्षणकर्तृत्वस्योपपन्नत्वेऽव्याप्नोतीत्यनेनाऽऽप्तिक्रियाकर्तृत्वस्यैव शुद्धिक्रियाकर्तृत्वस्याप्यभिहितत्वेन सम्यग्दर्शनेन शुद्धमित्यत्र तृतीया न स्यादेव । सम्यग्दर्शनेन शुद्धमित्यत्र तृतीयथा कर्तृत्वाभिधाने शुद्धिक्रियया सहामेदादाप्तिक्रियायास्तत्कर्तृत्वस्यापि तृतीययाऽभिहितत्वात्तदभिधायकस्याऽऽप्नोतीत्याख्यातस्यानुपपत्तिरित्युभयतः पाशारज्जुरिति भावः । सम्यदर्शनस्य तृतीयार्थेन कर्तृत्वरूपेण शुद्धिक्रियायामन्त्रये " व्यापारो भावना सैवो-त्पादना सेव च क्रिया । " इति महाभाष्यवचनात् क्रियाभावयोरैक्येन शुधातुनैव क्रियास्वरूपभावार्थस्य लब्धत्वात् शुध्यातूत्तरभावार्थप्रत्ययो निरर्थक इत्याशयकं किञ्चेत्यादिना यदुक्तं तन्न युक्तम्, यतः क्रिया द्विविधा साध्यावस्थापन्ना सिद्धावस्थापन्ना च, यत्र साध्या क्रियास्ति तत्र पचति भवति करोतीत्याद्युक्ते न हि क्रिया- परस्याऽऽकाङ्क्षा भवति, किन्तु किं पचति ? किं भवति - १ किं करोति ? इत्यादिरूपा कारकान्तरस्यैवाकाङ्क्षा जायते । यत्र सिद्धा क्रियाऽस्ति तत्र पाछिन्न भिन्न इत्याद्युक्ते भवत्यभूद्भविष्यतीत्यादिक्रियान्तरस्यैवाकाङ्क्षा जायते, न तु कारकान्तरस्य, इत्युक्ताकाङ्क्षानिवृत्तये भवतीत्यादिक्रियाध्याहारः कर्त्तव्यः, अन्यथा क्रियान्वयित्वं क्रियाजनकत्वं वा कारकत्वमिति नियमात् पाक इत्युक्ते पीकरूपकर्तृकारकस्योलक्षणं कारकत्वं नास्तीति तस्य कारकत्वमेव न स्यादिति तस्य क्रियान्वयित्वमवश्यमेव स्वीकार्यम् । तथा च क्रियान्तराकाङ्क्षानुत्थापकतावच्छेदकरूपं साध्यत्वं क्रियान्तराकाङ्क्षीत्यापकतावच्छेदकरूपं सिद्धत्वमिति पर्यवसन्नमिति वैयाकरणभूषणसार उक्तं कोण्डमट्टेन । तथा चोक्तोभयक्रिययोर्भेदेन प्रतीयमानत्वात् केवलेन शुधातुना साध्यावस्थापन्ना क्रिया प्रतिपाद्यते, तदुत्तर कृत्प्रत्ययेन तु सिद्धावस्थापना क्रिया प्रतिपाद्यत इति शुघ्धातुना शुद्धिक्रियारूपसाध्यक्रियायाः प्रतिपादनेऽपि सिद्धक्रियाप्रतिपादनार्थं शुश्रूधातूतरं भावार्थप्रत्ययो न्याय्यं एवेत्यतो दूपणा परमाह कर्तृत्वस्य कृतिमत्त्वलक्षणस्येत्यादि यथा रथो गच्छति થતો મવતીયાવાવચેતનાવાર્થસ્થ स्यस्य घटस्य च कृतिमच्चाभावातल्लक्षणं कर्तुत्वं न सम्भવીત્યાશ્રયત્ત્વક્ષળ ગોળમેવ તૃત્વ તત્ર સ્વીઋતં તથાસ્ત્રાર્ગી સમ્યગ્દર્શને તિમત્ત્વામીવાત્ તિમત્ત્વવાળું મુછ્યું તું મૈં સમ્મવતીત્યાશ્રયત્વક્ષળમેવ ગૌત્તુત્વ સ્વીળાયાનાંત ३ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aધાવવાવાજાતરપ્રત્યયતિપાઘમિતિ વાર્થવૃતીવાડત્ર શ્રેયસી . વ િર્રાર્થડપિ તૃતીયા વિરહતાવાર સમીતે સુવેન તર્થક્ય લક્ષ્ય ને પ્રારતયા માન, વિનુ સલમર્યાવ, તત્યત્ર દેવાયાતન કૃતેનોપસ્થિતસ્ય ત્વચ માસ્તવ માનમિતિ શુદ્ધિબિયાડડીને પૂર્વીયુયાડમેડમિન્નાશયત્વેડપિ વોક્ષખ્યમયેતિ જ મોતીચી નાનુપારિતિ, તપ = વિનાસ; સમાસાવિ દયો સમાનાર્થવાનુબેન સમરિધટાક્ષર્શનઃસ્ય લખ્યનકર્તુત્વ પાર્થરતાવા વિરામવુમની વાત, ર જ નિપાતાતિરિફ્રેનમાર્થ મેસર્વાસન્ધિના જ્ઞાનવૈવ શુદ્ધયાશ્રયસ્વાદતમેવ શુદ્ધિાર્ચ સુધાતૂરબીયાતિપાદ્ય ચાત, તુ સમ્યહર્શનષતામતિ તત્ર સર્ફીલ્લામાં વાયુ તૃતીયાન સ્વાતિ માવા “શ્રુતાનુમિત ગ્રુતલો * થવાન” તિ પરિમાપાવન ભુતનાન્ય સમતિ સરનાય ન મરતીતિ સન- સુનિયત્ર વૃતવાણા સુલત્યેનાનુમિતતા તઢીય યાત્રુતન તેને સહાય - શુદ્ધપાર્થિય ને સન્મવાત, વનતિત્યત્રાSSધ્યાતતિર્થે ન શ્રુતિન , રુત્યસ્થા નય- ૧ સુપાવતિ, તથા વાહૂમાયા સંસમવવ વવશ્ય સર્જનશુમિત્વત્ર માન, યાયત્ર તુ તિવર્ચન થ્રેતય પ્રાતને માન મર્તવ્યાયાભેડબનાસુસ્પષ્ટ વ મેઢ ફત્યાશય પ્રતિલિપતિ-ધવપિ ત્વાર્થડપ તુર્તા યાયા હત્યાના પ્રતિક્ષેપ હેતુમા–નાવવાનો સમાનાર્વજત્વાનુરોધેનો-િ , વૃજ્યારમા યાનિ પહાને યાદશાનિ તાદરશાસ્થળે પહાનિ વિહે ચિતાને તાનીયે સમાનાર્થવાનુરોધનેલ્યા થયેન્મારો- વિષ્ય માતારમ્ભવધવાનામસમોસાવાયાં યાદશાનિ પ િતાદશહજાળ તેવાં શ્રી વાક્ય, વિદ્યાર્થીનુસારેવ યર્થ લખ્યતે, વ સન્યનેન શુદ્ધમિત્ર સૈવિક વિગ્રહ સંખ્યત્વનશુદ્ધામિતિ ર વૃત્તિ તત્ર ૨ યાદશા વિહે હું તાદશાવિ વૃત્તાવપતિ વિગ્રહે સદ્દીનનેતિ પર્વ સમ્પર્શનાર્દુત્વા - જૈમિતિ વૃત્તાવાર સર્શનવવું તાદશાવિ ખ્યાતિ તદ્દનુરોધેતિ ! શવરામપુ મનીયાવિતિ ' ચાતીયત્રા sળ્યાંતતિપાઘસ્ય તિવર્ચસ્વ હતૃત્વસ્ય બહારતયા યથા માન તથા સમાયસન્યર્શનપસ્ય ઋક્ષાયા સમ્પર્શનાર્યરત્નાવ સમાપિ . પ્રારતવૈવ માનમિતિ વેહલખ્યામાવાત્સમ્પર્શનાવાવ ત્વચ ઢક્ષાયા તબ્ધત્વાદ્ય યાનોતીયારાતતિવર્યન પુનઃ વાવમધાન તર્ વ્યર્થવ પ્રતિમાસ્તતિ પૂવો થા , શાનોત્યનુપત્તિ સા તહેવતિ મા | ર = નિપનાંતિરિ નામર્થયોરમે . સન્વન્યાતિરિસન્વન્ટેનન્વયોવ્યુત્પન્ન જ્ઞાતિ-નવ્યુત્પન્નૌ નિમિતિ વે, ૩ખ્યતે, સત્ય પહાથપસ્થિતિયો તાજ્ઞાનાદ્રિપાળવારે રાનાં પુજ્ય, મૂતાં ઘેટ ત્યાદ્રિવાસયાત્ સ્વત્વસાવધેન નવિશિષ્ટ પુરુષ, સાધેયવસાન્ધન મૂતશિશો કંટ' ત્યાવિધામાવ પવ પ્રમાણે કરૂન્યુ નિપાતાતિરિત વિરોષણાહૂ પઢો થતો ન Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તાર્થવિવરણપૂઢાર્થીપિકા | વિયોડક્યુત્પન્ન તિ સરનર્દૂ નામાન્ચે તસ્ય નિરૂપત્નસક્વન્ધન શુદ્ધપાર્શે શુદ્ધિક્રિયાયામન્વયાયોન સનનિષ્ઠદ્રેતાનિવાર્ય શુદ્ધપાર્થે સુદ્ધાવનાન્વેનું વોયચૈવ સનપતાવસ્થ વીજળતિયા સમાવિગ્રહવાયો સમાનાર્થત્વાસભંવ તિ વાવ્યમ્ ! સમાવિગ્રહવાક્યો સમાનારત્વમસ્યુપાચ્છદ્વિર્તિપાતાતિરિજીનામર્થયોરમેનૈવાન્વય હૃતિ નિયમસ્યાનાવાળું સચવનરાવર્થસ્થ સ નાતૃ વસ્ય નિરૂપવતયા શુદ્ધવિશ્વયે ક્ષમાવાત, ન જોનિયમાનબીજા વિમર્થસ્થ સંતવ માનમિયરૂપમન્વનાં નાનાં મતવાનુમોતિર્મવતિ, તથા ૨ સદ્ધનપજ્વચ સનસ્તૃત્વરિતાપિ નવયી, લચ્છWાર્યાપિ સનસ્ય નિષ્ઠછુંતાનિવસજૅન શુદ્ધપરાર્થે સુદ્ધાવવ્યસન્મવાહિતિ વાગે, તથા સતિ બાપ્નોતીયત્રાપિ વસ્તૃત્વય સંતવ માનેનોસ્ટલબ્ધ તથાખમાવાત્ ા ય “સમર્થ પવિધિઃ ” ફતિ સૂત્રે ત્યત્ર નબળે મેવે વરસ્ય ધબ્રતિયોજિત્વાધેને મેવલ્ય ર પટે વપસન્વજોનાન્વયેપિ मुखं चन्द्र इत्यत्र चेवार्थसादृश्ये स्वप्रतियोगिकत्वसम्बन्धेन चन्द्रस्य मुखे स्वरूपसम्बन्धेन સાદરાજ્ય પાંડપિ ક્ષતિઃ | નિતિતિરિક્ષેતિ નિવેરામાવે તુ નબિયોરપિ નામવા તર્થી વા મેવાનો ને સ્થાિિત માવા | અન્વયે વ્યુત્પન્ન કૃતિ–શત્ર સાક્ષહિતિ વિશેપળીયમ્, ન્યથા રા પુ૫ ફત્યાતો વિમાર્ચસ્વવંદ્વારા રાપના કાર્યય પુરુષહપનામાએંડત્વયાડનુપત્તિસ્થાિિત | સમાનાર્થવાતમવ સુનિ-વિગ્રહવા તૃતીયાર્થી વર્ગનનિષ્ઠ વય નિહાસક્વન્ધન શુદ્ધતા શુદ્ધિશિયાયામ, સમાસવાયે તુ લક્ષણથી સન્માનપાથેય સર્જનનિર્ણત્વનિરૂપવાસંસોળ શુપાર્થે સુબ્રયિાયામન્વય ફલ્યુમયત્ર રમાનાર્થાત્વામિવ ત્યય ! નિયમન રેગેનિ સંસતાવાદ્રિમી રાજ્ઞા પુરુષ ફત્યા નિહાનામર્થિક્ય રાજ્ઞ: પુરુષ નામાર્થે. પુરુષે સ્વવાળમેસંગાથારાવિતિ માવાશથ સર્વ પદ્ધવિધિરિત્રવિધીયત ઉતિ વિધિઃ નિધન, તસ્ય પછએન્તન પશબ્દેન સદ સમાસા, પસ્ય વિધિ પદ્ધવિધિઃ સમર્થવિસ્ય સમતોથૈ, તથા પસન્વન્ધી વિધિ મર્યાશ્રિતો મવતીત્યર્થ છે સામ વિઘં, ઉં વેક્ષાઉં દ્વિતીયમવર્ષ, વિગ્રહવા વૈયાવરણમતે તૈયાયमते च तत्तत्पदानां पृथक्शत्यैव तत्तदर्थोपस्थितिर्भवति, समासे तु वैयाकरणमते समासघटવતરવાનાં છોરા લત્તપહિતિને મવતિ ધિતુ સમુદ્રાયશચૈવ વિશિરાથયિતિર્મવતિ “સંદર્ય સમર્થ ” હતિ મધ્યાવ, તથા વિશેષાવિરોષમાવાવમાહેર્યોપરિતિષનાવસૃક્ષના વચ્છિન્નશમિફવાપર્યવસાનનેવાઈમાવહામત્ર સામર્થ્ય મૃતે, ન તુ gયાર્થીનાં વાનાં છુપરિત્તિનનક્ષમાં નિલનિકમાવાપનવિ તો શાયોનાક્ષશજિહવાર્થપર્યવસાન વ્યવેક્ષાહાં સામ, રવાહિતિવાત , શનિ સમુદાજશાયરીતિ શાર્તિકોષસમાસાનાદ્યાધાતાશ્રવૃત્તિ શ્વેશમાવવું સામર્થ્ય, અત ઉવ ૨નપુરૂષ ત્યાસમાસે વાર્થો પશિ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શરવાવિવાીિપિકાં | સામર્થ = નિઋનિપજમવાપન્નવિષયતારાવો કોનફ્રાશાત્વહૃપજ્યાત્મ પૌવાતિ, શિસ્તુ ધર્માછિન્નમિસ્યાથમાવાત્મક્રમેવ હધુ ભૂમિતિ સમાસે શનિવમસ્યુ- - પાન્તચેત્યયુગનૂગા વૈયાવરખાનામત સમાનરુદ્ધમિતિ સમાસય જીવ સ નિષ્ટકતનિમશુદ્ધિવાયા પ્રતિપાદન ત ારતયા માસમાની જીંત્રય વિધેયત્વે, છેદેરવિધેયોપસ્થિત્યાત્મપૃથyપસ્થિતિરૂપોદ્રવિધેયમાવમાસર્ચ દેતોરમાવાત, ગત 4 “વત્ તું પ્રથમ મેક્ષ ” ફત્ર વષવિરેટમક્ષાચન ને પ્રાથસ્થ વિન, કિન્તુ પ્રાથવિશિષ્ટ મક્ષાન્તાવેતિ મીમાંલાસિદ્ધાન્તા, ગાતત્યત્ર 7 øવસ્ય વિધેયમેવમાસોહેતુલકૂમવાદિવે ત્વમિતિ વોક્ષખ્યહ્મવાન્ન ત્વાર્થત્વે તૃતીયાયા બાનોતરત્યક્ષ્યાવૃત્વમિતિ, તાવનુપાત્રમ્, યતઃ નિષાદ્રસ્થપતિ થાનવિયત્ર તપુરુષે ક્ષણી સમયાન્જર્મધારય સમાસમવુવાચ્છતો મીરાસભ્ય સમારે શ બ્યુરામ પવ, અન્યથા નિષાવામિનWપ ધારવચ્ચેવ નિવાસસ્વસ્થિત તપુપૂજ્ય શારેવેતિ મવામા “ન સ્ત્રી મધીયાતા” ફતિ નિષિદ્ધ વેદાધ્યયનક્સ વાનનાનુ , સદ્ધાિિવશેષણાયત સદ્દસ્ય રાવપુરુષ ફત્યાત્રિકો ન મવતિ, વડા પાના:નેતિ ના પદાર્થોનેતિ વ્યુત્પત્તિ, તિતિાર્થ થનમેવ સવિશેષાનાં વૃત્તિને વૃત્તી જ વિરોધાયમી નેતિ, દેવદ્રત્તસ્ય મુરમિયાહૌ નિત્યસાલવાવ મુહત્વહરે પાર્થે હેશેષ્ય ગય તિ યજ્ઞ સમરિસ્થ વ્યક્ષિાવાનો નૈથિલ્ય સમારે ન શીજુ, રાવપુલ ફત્યા રાનવવસ્ય પાનસર્વાન્વિનિ ફાર્યવ જાન સ્વામિનઃ પુરુષ રૂતિ વધા, તે ઘવ રાજ્ઞા વવાર્થાત્વાન તત્ર દ્ધચેત્યાદ્ધિવિશે વળાવ્યા, સવિરોપાનાં વૃત્તિને વૃત્તસ્ય જ વિષયોનો નેત્યુત્તે નવા યુનરામ નિરર્યું ત્યાવાવિવશાન્તયુદ્ધયોયાપતિ, ક્ષળવોwાર્યતા “કર્થનામશ્રયો” તિ ન્યાયે- નેવાલીના યોહિતિ, તજ, સમાસે શયનમે વિશિષ્ટયાર્થવત્તામાવાન્ કાતિવિજા જ દિત્યશિનાSS૬-યવપિ સમર્થ પવિતરિત્યાવિ ! શાંતિવિશેષાવિષ્યમાવાનાન્નત્ય, મિનપઢાહિતિ રોડ, સ્ય જ પ્રચયુવસ્થિતાન્વય | સમાસે શમ્યુનિમાદેવ “વલતું બમણ” તિ વાક્યાયાવિશિમલાલુદેરોન બાય સ્વસ્થ વિધાન તથા સતિ સમુદાયશક્તિને સિદ્ધયેત, ઉદ્યવિધેયમાનાવયે પૃથyપચિનિયામધેન બાથજ્યસ્ય પૃય શવોપસ્થિતત્વાવ, ધિ સમુહાશિત્તમઋત્ય પ્રાથર્યોશિમલા-તર વિધાનમિયાશ નાદ-ર ઇત્યાદ્ધિ ! તુસદ્ધાવાવતિગાનોતીસ્થasધ્યાતતિપોવ ત્વય પૃપુષસ્થિતિષહેતુસદ્ધાવાદ્રિય અન્યથારાણે શાપુ માવતરૂપે સમુંદ્રા રાજ્યપાછલા સહારવામા ઇન નાગુ કર્નલ સરનામસુવતમાપથેનિ-માવાનિવાસ્થપત્તેિ વાહિતિ વાધે ર્મધારય સમાસે તે નિવાસ્થાની સ્થપતિપિતિ વિઘણે નિપાન રહૃાવજોનોગતં પતિ દ્વામિનું યાનહિત્ય ! “ રિન્ડ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તરવાર્થવિગઢવીપિકા ! : ૨ ધન કર્મધારય સક્રોવનમનુતિમાપત વસ્ત્ર વિષઃ પ્રથમક્ષ યત્ર માલધટાઈમપવામાઅગ્રસ્થ પૃથyપસ્થિયમાવર્મલિતોઃ સમાવેડપિ વિધેયä તત્ “વારે મં િમાજો, વિષા, શક્યતે મુળઃ | ગમાણે તુ વિચિન્ત, વોડખેચનતઃ II ? ” તિ વવનામક્ષ શેવ વહુ-ર્નિયા વ્યાંસુધી ધાનો પિતા રોગથાનીવર વૃતા શ” રૂતિ વનતિ , “નિવાર મેગ, ચાહે ધીવરાત” તિ નેતિની રાવ નિવાઢવા વિશે પરત્વેન તર “ર સ્ત્રી દ્રૌ ઘેનથી તામ” ફિતિ વેહવાન વેદાધ્યયનસ્ય નિદ્ધિને યાનને નિષિદ્ધ, નિવાસ્થતિ યાનવિતિ વેવાયેન થાનનું જ વિહિતનિતિ તત્યાનુપસ્થા તરાષsuથનપદ્ધ નિવારવર્તિ વાહિતિ વેવાવિહિતાપિયુવેવાતિરિજાઘવનવન સાવનમાવસ્થ, તેનૈવ જ નિષાદ્રશ્ય વિશેષતા પ્રાપ્ત ध्ययन भिन्नाध्ययननिषेधः शूद्रान्तरस्य चाऽध्ययनमात्रनिषेधस्सिद्धयतीत्युक्तवेदवाक्ययोश्चरिતાર્થતા કર્તવ્ય તરપુરુ તુ નિવાહનાં તિપિતિ વિગ્રહૈવાપે નિવાદ્રપાર્થ મેવલન્ડજેનૈવ સ્થપતિપવાર્થથે તે બ્રાહ્મક્ષત્રિયાપિ નિવાસqધિસ્થાતિત્વસમ્મન તસ્યા વાળોપયુવાનનિવેધામેaોવાને વયવમેવ પ્રતિમતિતિ માવા પવ–૩યુજ્યા સમાસ શમા લિ રા યવિધેયવંતવિતિકથનમલ મિત્ વાયે પ્રથમમક્ષ કૃતિ સનસવાટવાથમિન બાથસ્થ મલાનન્યમનોસ્થિતિનો મિનાકા ઉપસ્થિતિઃ શાવે તયાં માનું તત્વયોનિજીયાસવેગપિ પ્રાયમ્યસ્ય યન મલામુદ્દિશ્ય વિધેયવં તહિત્ય | તહિત્યસ્યાનુસન્હાનવસ્ત્રગ્ધવિશિષ્ટવિત્યનના સમ્બન્યા છે તે જિ વાક્યો પ્રાપ્તધાતે જળ, થયારૈવ યુગમાનપત્રમાં વિન ડાં મલયતીતિ વાક્યાન્તરેગાંવ્રત રામક્ષપાતાવવળેિ . હા હુતાશકદ્રવ્યવિશેષતાં, થનમાનપશ્ચન વનમાનઃ પશ્ચમો વેષ અત્વિકું તે જનમાનસમા તથા વેડાં થનમાન વિના હોવ્રુદ્વાતાવરનામાનૌત્વારી મલયત્યુtવાર્થ અને મુ-કાશનં વષસન્વયેતિ વિધાતું જ શક્યતે, થતાથા વિધાને પ્રાયનિછવિધેયતાનિઋપિતમલાનિષ્ઠોદ્દેતા હો તો, ચાર વર્ષ લખ્યત્વનિષ્ઠાધેિયતાનિરૂપિતમક્ષણનિકોદ્રયતા વધ વાક્યાતા, તથા રસાલરયા વ પરસ્પનિહાળ્યનિષમાવાનાપન્નવતાવવો નનક્ષણો વાયમેવતોષા સ્વા, તમિવશુવિધાને મરત્યેવ, મવલ્યાણવિધાનંયતાને ગુણવિશિષ્ઠ, વાયાcરાબાસણમપૂર્વવં વર્ષ વિધેયતે તલાશને મુળસંવચિંતાપૂર્વવર્મવિધાને વિશેષળતયાને મુળયાગ વિધાના, તવા-લrreતે તુ વાક્ય રાવબાપ્સનાધિપતે પુનર્વદવોડ મુળા પશ્ચયનતતાવમુળવિશિષ્ઠાપૂર્વવિધાનામયિતો વિધેયો, યથા વત્તું બયમમલ ત્વચૈવ યા જનમાનપદ્મમા ત્રિને ઢાં મક્ષચન્તીતિ વવનબ્રાંસમક્ષણાનુવાન ૧ વષદૂર્વસમ્બન્ધાથી વિધાન, વિ વલમ્નવિશિષ્ટ પ્રાથવિશિષ્ટમાર Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ના : ૨૨ , તવીર્ણવિરળતાથી વષવૃક્ષધ પ્રોબ્ધ ૬ વિધાને વાયમેવાનિસ્ટર વર્જરિઝમક્ષ પ્રાથવિધાનનું તાદામૈક્ષળસ્યાબાવાવાનુન ૧ સતીત્વનુસાનછવિટિવિ, વ. પૃધુનુપસ્થિતિમ્મન સર્જનનિ શુદ્રક્રિયા વક્ષ્ય સમાલનિવિપતિવચધાન્યતઃ પ્રત્યેમાવાદિયત્વચ સન્મવેનો ખ્યાવિહાર્બોર્તાિત્રયાયુકતપણે દુરદરવા સમાસારાતવેડચૈવસ્વામીવાત નામસત્તાયા મા તત્તમવિધિમાયનુપરિતિ, તત્ત, રિમ | | 0 ચૈવ નમીનમાં સનિ હાં મહિતિ શુતિપ્રતિપાદ્યમવર્ષા વિઘાનયુિરીબિયતે તવા વિશિષ્ટ મહિના વપઝૂલખ્યાબાથી મલબા તરીખેવાયત વ વિધી તવાની વિશિષ્ટ નિર્ણવિથતા વાવ શાથે દતિ જ વાક્યમેવ, તથા વાજીવવિનાત્મક્ષ ચુતમાનપત્રમાં ઋત્વિન ઢાં મલયાતિ વવનબાસમતળ, વલસ વન્યનિમિયવિધાને વાજ્યમેવપત્તિકાં પર્વ મવતિ, વર્ષાવિશિષ્ટમક્ષણમુદ્િરવ પ્રાયમ્ફર્વ વિધાનં તુ ન સમવતિ, યો વેવ પ્રમાણે પ્રાપ્ત તવૈવરવિં મતિ, વનમાનામાં વિનતાં મફત્યનેન યજ્ઞમાનસહિતત્વવતું યશ મફળમેવ બાd, ન તુ વર્ષાવિશિષ્ટમાં, તથા વાઝાવાત્તલ્યોદેવત્વાસમ્મવારથિ, , ગ્રામ્યવિધાન = સન્મવર્તસ્યાવાનુ સ્થાનવાદ્ધો વ પેવિશિષ્ટબાયરિણારવિધિ, તળાવ પાણાનુવાન સમસટથમવાતૃપાચિત લેવડ બાથપયાગધેયવ ઇવશ્વ-કવિ પૃથાનુપસિંતત્વાર્યવાગવિધેયવિંગવોનવં ન તુ સમાલવપવિચિતત્વતિ વ્યવસ્થિત ર | સહનશુદ્ધાતિ, સમાસાનવિપતિપાઘસ્યા સળંવનનિશુદ્ધિગિર્વિય પૃથપસ્થિતિમ્મનાવિયત્વબોર્નિયા અન્ય બીજોવાકિયવ સમ્મવેનો લખ્યામ્માવાવાનોયુવાનિયર્ચા સમારે રાજયનન્યુષ્યવાનામાવેન વી કાતિપસંજ્ઞા સ્થાતિ વિધુત્પત્તિ સ્થાહિત્યવિયા ગમતવÇનાવાશ્વ ન્નિતિ શર્યવ૬તુ પ્રત્યયઃ કાતિપશિન્ ! –– ફાતિ પૂર્વગ્વવિધયોધનનવવમવન્દ્ર, હિતમાતા4 –૨–૨૬ ! ફત્યુત્તર ધાર્થીમાન બિયોને પ્રસિદ્ધત્વર્થિવ નામાવતું ૧ પ્રયકાર્યાનાં પાનાર્થી પરિચાતિનનાત્કામિયાણામર્થન ખેં હૈયાર ઔરૂપાતં તોરવાનૈયનિષ્કુલાને, વિવૃત્તિમવિષયકતીવિષયત્વમેવાર્ય નમસ્તુપા તે, આધવા તત્ય નૈવું સમન, વૃત્તિમાન્ શmફગાવતરવાનું રામવિષય ' પ્રતીતી રામપાર્થયાષ્યગ્રંશ થઃ છિન્દુસ્ત, રાષટadgવલય વા પ્રતીતિવિ-યત્વે રામશગપતિ તસાર્થવશ્વમ્, વિમન્વેમ્બવિ શહેવુ #મન #ર્તવ્ય સમાચ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તત્ત્વાર્થવિવસૂર્યતી પા· I : : “ ,, વિષયપ્રતીવિષય વ્રુક્ષમસ્યાથૈવત્ત્વક્ષ્ય તંત્ર સમ્મવેન નામસન્નાસમવાત્, મૈં ચૈવ ગૌરવમ્, અનન્હાના સમાયાનાં પ્રત્યે મેિવત્ત્વના ક્ષયા વેક્ષા સામર્થ્ય “ સમયૈઃ પવિધિ: " તિસૂત્રાપેક્ષિતત્વક્ષ્યો યંત્ર વસ્યું નામસાનિમિત્તવય ૨ જ્યને ગૌરવામાંવાવિતિ વિચ્। નાખીયતૃતીયા , તત્ત્વ શુદ્ધિ પ્રાંત બન્નેં સરૂન્શનધ્યમિમત, શુદ્ધજ્ઞાન પ્રતિ વા, નાવઃ પક્ષ:, વેદાાિતમાપનોવાવિજ્ઞળાયા શુદ્ધૌ શુદ્ધિવસ્ય સèન તસ્યાતિપ્રāતા .સવર્શનનન્યતાનવ છેવત્વાત્ નાવે દ્વિતીયઃ, 'નીબદ્ધત્વની છેતરત્સાવેય શુદ્ધજ્ઞાનાવિન્યતત્તનુાંઇિજોત્પાનસામ ગ્રીસનુ યપ્રયોજ્યાબેન વમયોનસામગ્રીપ્રયોન્યતત્તદ્વાાિàિતત્ત્વક્ષબેન વાર્થસમાનસિદ્ધત્ત્વના જ્ઞજ્ઞિયાતત સતીનનન્યતાવવુવાસક્ષ્મવાત, વિશ્વ યુદ્ધજ્ઞાનવસ્ય સભ્ય વર્શનનન્યતદ્વાને ચાર્વાહ પાને તાવન્તુ સર્વે વૃત્તિવૃત્તિ ફાંત તાવાયા ન વત્તત્તમાસાવિષચિા પ્રતીતિ, વિત્ત્વવિચિત્ર, તત્વવિષયત્ત્વ તત્ત્તમાતે વર્તત ફાંત તત્રાખ્યર્થવયં સુસજ્ઞतमेवेति नामसंज्ञा स्थादेवेत्याशयेनाऽऽह-वृत्तिमदविषयकप्रतीत्यविषयत्वलक्षणस्याङજૈવવચેાવિ | ન્યતાદશાર્થવન્યસ્વીારે વૃત્તિવાન યાનિ યાને પાને તંત્ર તંત્ર' સર્વત્રાર્થવત્ત્વ સ્વાત્તવા રાનપુરુષ વિસમાસે રાનપવાવાને નામસ્ત્યાવૃત્તિઃ, તથા ૨ સાંત તસ્માદિભક્ષુત્તિસ્યાવિત્તિ ચેત્, 7, “યવસિઢુંમુદ્રાયાસાદ્વીયસ ાંત ન્યાયમૂહવૃધ્ધ યાયાત્સમવયાદેવ વિદ્યુત્પત્તિમૅર્થાત, ન ત્યવયવાત, યથા પાતાળમાષ્ટમદ્રે વર્ષોનામચંત્ત્વ ધાંવેશન્દ્રધધાયુત્તરમતિ વિમપુરાત્તાશય વૃક્ષાવળ ન્યાયન સમા હેતું તથાસ્ત્રાર્ગી રાનપૂતે ચૈત્રસ્વેપ ન વિજ્ઞતયુવત્તિ, ઉત્ત્પન્યાયાવિતિ માત્ર 1 રાજ્ઞઃ પુરુષ ત્યાનું વિગ્રહસ્થરે રનિક્ષ્ય રાઽવાવચ્છિને પુરુષવષ્ય પુરુષવાવાજીને શાંત્તઆચારોનવીજતા, તયેવ સમાસડબાનપુાવિતસ્તત્ત્વવે નિાદે ન્યાયમતે નાગાર શજિલ્પના, વૈચારણમતે હૈં સમાસે શયન્યુષાને યાવત્સેચાન પાનિ સત્તપવસંયોગમવત્યુંન તાવŕવ્યાધિસંખ્યતયાગ્નન્તાનાં સમાતાનાં પ્રત્યે મિમિન્નત્તિ જપ્યાં છે. સ્થાહિતિ ગૌરવ તરીતે સ્માત, ન્યાયમતે = હાર્વામાંત હાયવતનજેન નિનિષમાવાપવિષયતા શાોધાયોના શત્વવ્યયેશાત્મ સામર્થે “ સમર્થઃ પવિધિ છે કૃતિ ૠસિદ્ધત્વમસ્યુłપજ્યું, મૈં સ્ત્રધર્માવજીભશાન્તમત્ત્વો માવામસામર્થ્ય, પૌવાંતસન્માન પદ્ધતિવન્ધવંત્ઝા, મુનીયા સમાસે શક્ત્તિળાન્યતરવત્ત્વક્ષળસ્વાર્થ્યવવસ્વ મુચ્યસ્ય વાધેન ગોળમૂત વૃત્તિમ વિષયાતીત્યવિષયક્ષળચવવું તંત્ર નામસંજ્ઞાનિમિત્તત્ત્વ ધ મિસ્ત્યાયેનાએઁનન્તાનાં સમૉસૉનૉમિત્યાવિ સભ્ય વાનઝ ન્યતાનવ છેવત્વ નિતિ અન્યનીતિગત ધર્મસંવા છેતમિતિ નિયમાહિતિ માવા ! સપ્તનેિનેયંત્ર પાર્થે તૃતીયાવીવારે બળત્વસ્ય નિષ્પવસન્ત્રસ્પેન રાજજ્ઞાને ચસ્વીરીયા સ્મૃતિ, તથા સૂતિ તસ્ય વ્યપેક્ષાત્મજ્ઞાનવ વેન સભ્યતીનરેન સમાસે નૃતે વિમછી નૃતે સમ્પન્દનશુદ્ધજ્ઞાનમિતિ યોગાવિયા વેત્યાશયના-ચિ શુદ્ધજ્ઞાનત્વસ્થેતિ | Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તરવાધવા (વાર્થી પિઝા તાવ છેઃ તવ સભ્યનઝરળwtવાતાવજીંજવમુતિમિતિ સધનશુદ્ધજ્ઞાનમિતિ સ્વાત, તુ સાંવરીનશુદ્ધ જ્ઞાનમિતિ, વિશ્વ વિવફાટતસ્ય જળવિર્ય પૂર્વમુપતિસ્ય રસજ્ઞાવિવિધ સૂત્રાપેક્ષિતડપ શાનવો વિક્ષા પ્રાયોડમાનાન્યદેવે ક્રિશ્ચિદ્રવ્ય, તા 7 વ્યાપારવત્સારણત્વમ્, તય સંત પિ ક્રિશ્વિવ્યાપારવત પુર્વ રળત્વે ચૈત્રે પતિ મિત્ય પ્રવાઃ ચાતુ, ચત પુર્વ વ્યાપારાધીનવ્યાપારવારણમપિ ન હતું, ચેષ્ટાદ્વિરૂપ તિ- . પાપારાધીનત્વેનીયાસફૂસ્ય તાવસ્થાતુ, સ્વમિન્નત્વચ વિરોષળલૅડ બૅવે પાકિયા વૈત્રણ જષ્ઠાવિના મિત્રેબ તુષાહિબક્ષેપેન નન્યતે તત્ર ચૈત્ર મૈત્રાધિઃ પતતિત ત્રી,મૈત્ર અર્થે પુનત્યપિ ચાતું, અતઃ મન્નમમવાતહુઁખ્યાપારાનિવ્યાપારવત્સારણવું તદ્વિતિ વાઇવ્યમ્, પવન્ન છિદ્રાસિયાત પૂર્વ પરવાનામિ શુદ્ધરાનાજૂર્વ સન્યનક્ષ્ય સમાપત, ન નૈત ચુપ રાજ્ય, અમિસનસ્ય જ્ઞાનાનન્તાવાત્મામનામ્યુમિતિ / નાય શુદ્ધમિતિ દ્વિતીયપક્ષે વતુર્થી “તા | ૨ / ૨ ૩ ૪ ૫ ” તિ સૂત્રવિહિતા ભૂપાય હાર્વિત્યારાવિવાત્ર સમન્વેત, ન તુ શિવાનન્યભાતિયા રછવિષયવૈર્યવાન્નનુમાસાધારણ સંજ્ઞાવિવિઘાછૂત્રાહિત પતિ નિયાસિદ્ધ પ્રશ્નોપારિજન વિદ્યતે તારણ શું ધ્યાર્થિવ “સાધવત ગમ્” –ર–રક . રૂતિ મૂત્રાશેક્ષિતત્વેગથર્ચ | પ્રારશ્ચાત્ર જાપાન પર વિનિપત્તિવર્ણામ્ થતા થવું “શિવાયા પરિનિષ્પત્તિ-ચાપારાનcરમ્ | વિવસ્થ થવા પત્ર, ર ળ વત્તા નવૃતમ્ | { ” કૃતિ વાપત્તિક્ષામાં સજૂછતે ! ત્રસ્તુમૈત્ર : જોકે વર્તમ સ્વાહિતિ–૩યોએ વરણનાગમત,વશિત્વ ચૈત્રમૈત્રયોદવિરિાતિ ત્રિસ્તરમાવાય, સ્વં જાઉં તબિં ચૈત્રસ્તરમાવાવ પોરકાબસો વધ્યા વમનસમવ્યાયાધુ ર વન પઢિ પૃાતે તુવાલા તક્રિસમમિતિ ધર્તા મૈત્રો, ન તુ મૈત્ર, તત્ત્વવ્યાપારાધીનવ્યાપારવારવં તુવે નાગરિ . થર્વ થ િવ ા ત તદ્ધિનરામિાહતા વાર્તા મૈત્રક વ્યાપારાધીનવ્યાપારવારગર્વ છે નાગતિ નાયબસ ફતિ માવઃ મુમસાજારશિયાખ્યાન્વિત નયા નિવકૂળwવાનીમતિ વથા વૈaો લેવા માં વાતત્યત્ર દાનવાયર્મ તત્સવિનિષ્ઠ રતાનિરૂપિતદેવદત્તનિધિશેતાન યાહન પાનસડૂબ્ધી વેવદ્રત્ત મવવિત્યા રોગમાય, તોખ્યત્વે તેવદ્રત્તે વર્તત કૃતિ તત્ર સમ્બાનત્વ, વધાર્યો મુહ્ય વસ્વનિવૃત્તિપૂર્વ પરવત્તિ પમુક્યો , મુખ્યિાય પદાં વાતત્યત્ર મોળા, કામાવાહિતિ, કરૂક્ષણધાસ્વામિત્વસુપવિલાયાં સુયો, વ્યવસવવલાયાં મારાથી તછમાં સુત્ર પર્યવસમિશિફ્રાયાં તય પરિવાથMાદ-ત્રિયાગમાનિતયા રિછાવિયત્વપર્યવસતિ પર્યન્ ! તસ્ય નૈવે સજન, ક્રિયા હાનયિા. તાન્ય Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वाविवरणपूढार्थदीपिका। २५. क्रियाकर्मसम्बन्धितया कर्बभिप्रेतत्वलक्षणसम्प्रदानत्वमर्थमुपादाय प्रवृत्त। सम्प्रदानचतुर्थी, तस्याः समासविधायकशास्त्राऽविषयत्वेन प्रकृतानुगुण्यामावात्, समभिव्याहतपदार्थे' तादर्थ्यविवक्षाया तहाचकाचतुर्थीत्यर्थे उत्तसूत्रस्य तात्पर्यम्, तत्र तादर्थ्य स एवार्थः प्रयोजनमस्य तत्वमिति निरुक्त्या तत्प्रयोजनकत्वं, तच्च तदिच्छाधीनेच्छाविषयव्यापाराश्रयत्वं, तत्र तेच्छदार्थस्य प्रकृतिलस्यत्वेन- न प्रत्ययार्थे प्रवेशः, एवञ्च यूपेच्छाधीनेच्छाविषयतक्षणादिरूपव्यापारवत्त्वं यथा दारुणः, तथा सम्यग्दर्शनेच्छाधीने:च्छाविपयशुद्धिव्यापारवत्वं शुद्धज्ञानस्येति कृत्वा तादय॑मत्रोपपाचेतापि, परन्तु " चतुर्थी प्रकृत्या ॥३॥ .११ ७० ॥” इति समासविधायकसूत्रे " प्रकृतिः परिणामिकारणम्, चतुर्थ्यन्तमर्थाद्विवतिवाचि नाम प्रकृतिवाचिना नाना सह समस्यते तत्पुरुषश्च समासो भवति" इति विवृतिमुपर चयता सूरिગોuસૂત્રણ સમાસે પ્રકૃત્તિવાર માવસ્ય નિયામwવદ્યાનુમતનયા શુદ્ધાત્ય મુળવાવિન સભ્યનોપા- दानतानवच्छेदकशुद्धत्वप्रवृत्तिनिमितकस्य प्रकृतिवाचिनामस्वाभावेन तेन सह तत्पदार्थनिरूपितोपादेयतानवच्छेदकसम्यग्दर्शनत्वावच्छिन्नवाचिसम्यग्दर्शनपदस्योक्तसूत्रविहितसमासास भवतोऽसाधुत्वं स्यात्, શુદ્ધજ્ઞાન સર્જનાત્મનાં પરિણમત રૂત્યુમમાળે શુદ્ધજ્ઞાનવચેવોપાવાનતાવે છે વેન તત્વच्छिन्नावोधन शुद्धज्ञानेन सह समाससम्भवेऽपि सम्यग्दर्शनशुद्धज्ञानमिति स्यात्, न तु सम्यग्दर्शनशुद्धमिति, एतेन आरामगृहाश्ववासादाविव चतुर्थीति योगविभागेन समासोपपादनप्रक्रियाऽपि शाब्दिकानां व्याख्याता, गृहत्वधासत्वादेरिव शुद्धज्ञानत्वस्योक्तदिशाऽन्वयितावच्छेदकस्यात्, अर्थबाधस्तु 'चतुर्थी पक्षे जागर्थेव, सति हि सन्यादर्शने ज्ञानं शुद्धं भवति, न तु यूपात् पूर्व दारुण इव सम्यग्दर्शस्वस्वत्वनिवृत्तिपूर्वकपर स्वत्वोत्पत्तिलक्षणं तद्भागितया गोसम्बद्धो देवदत्तो भवस्वित्याकारकछायांश्चैत्ररूपकगताया विशेष्यत्वाख्यविषयत्वं देवदत्त वर्तत इति भावः । यूपाधात्मना दावादि . परिणममानं पादः प्रकृतित्वेन विज्ञायत इति तद्वाचिदारनाम्ना 'सह विकृतिवाचियूपनाम समस्यते, प्रकृते तु नैवं सम्यग्दर्शनस्य शुद्धं प्रकृतित्वेन विज्ञायते, तस्य गुणत्वात् , गुणस्य च प्रकृतित्वाभावात् , शुद्धस्य प्रकृतिरूपत्वामान न तद्विकृतित्वं सम्यग्दर्शनस्येति तयोनीपादानोपादेयमावलक्षणप्रकृतिविकृतिभाव इति शुद्धपदस्य प्रकृतिवाचिनासत्याभावेन तेन सह सम्यग्दर्शनपदं विकृतिवाचि नेति न तत्समस्यत इति सम्यग्दर्शनशुद्धमिति प्रयोगस्याड'साधुत्वं स्यादित्याशयेनाऽऽह-परन्त्पित्यादि । परिणामिकारणमिति-उपादान कारणमित्यर्थः । प्रकृतिविकारभावस्थेति-उपादानोपादेयभावस्येत्यर्थः । प्रकृतिपिकृतिभावामावेऽपि चतुर्थीति योगविभागेनाऽऽरामाय गृहमश्वाय धास इत्याद्यर्थे आरामगृहमश्वघास इत्यादिसमासवत्प्रकृतेऽपि समास इति केपाश्चिच्छादिकानां मतमुपदय निरस्पति-एतेन आरामति । एतेनेति व्याख्यातेत्यनेनाऽन्वयः, व्याख्यातत्यस्य निरस्तेत्यर्थः । निरसने हेतुमाह । 'गृहत्वधासत्वादेरिवेति गृहस्याऽऽरामनिमित्तत्वमश्वनिमित्तत्वं च धासस्येव शुद्धज्ञानस्यैव सम्यग्दर्शननिमित्तत्वमिति तेनैव · सह समासे सम्यग्दर्शनशुद्धज्ञानमित्येव प्रयोगः स्यात्, न तु सम्यग्दर्शन, ज्ञानमिति भावः । अर्थवाधवाह-सति ही पदिना । तथा Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २६ 'तत्वार्थविवरणदार्थदीपिका नात्पूर्व शुद्धं ज्ञानम्, तथा सति दाणसाक्षाद्यपकार्यासमर्थत्येन यूपरपेण परिणमनस्यावश्यकत्वेऽपि । शुद्धज्ञानस्य स्वतो मोक्षादिकार्यकारित्वस्य केवलिनि हप्तया तद्रूपेण परिणमनस्यासामञ्जस्य स्यादिति । द्वितीयपक्षोऽपि न विद्वज्जनचेतश्चमत्कारी । सम्यग्दर्शनाच्छुद्धमिति तृतीये पञ्चमीयम् " गुणादस्त्रियां .. न वा ॥ २ । २ । ७७ ॥” इति सूत्रविहिता हेतुत्वमर्थमुपादाय प्रवृत्तेत्यभ्युपगन्तव्यम्, तत्रान्यथा- ... सिद्धिशून्यत्वे सति कार्याव्यवहितप्राक्क्षणावच्छेदन कार्यसमानाधिकरणात्यन्तामविप्रतियोगितानवच्छेदकधर्मवत्वलक्षणं हेतुत्वं स्वयंस युद्धादौ व्यतिरेकन्यभिचारतः सम्यग्दर्शनस्य शुशानं प्रति वक्तुमशक्यमित्यर्थवाधः ॥ पञ्चभी भयाचः ॥ ३ ॥ १ ॥ ७३ ॥ इत्यनेनाकृतिगणे भयादौ शुद्धपदस्य, पा6कल्पनया पाणिनीयसम्मतपञ्चमीति योगविभागसमाश्रयणेन वोक्तसमासस्योपपत्तावपि तृतीयापक्षोक्तदिशा शुद्धित्वस्य कार्यतानपच्छेदकत्वेन शुद्धज्ञानत्वस्यैव सम्यग्दर्शनकार्यतावच्छेदकापस्य वक्तव्यतया सभ्यग्दर्शनशुद्धज्ञानमित्यस्यैवापत्तिश्च । चतुर्थीपक्षोक्तदोपकवलितो निमित्तसप्तमीमवलव्य प्रवृत्तः सम्यग्दर्शने शुद्धमिति तुर्थपक्षोऽप्यलानक एवेति । अत्र ब्रूमः ॥ सम्यग्दर्शनेन शुद्धमिति पक्षे तृतीयायाः कर्तृत्वार्थ- . सति-शुद्धज्ञानस्य सम्यग्दर्शनपूर्वत्वाभ्युपगमे । तद्रूपेण सम्यग्दर्शनरूपेण । गुणादस्त्रियां न वा ॥२।२।७७॥ इति-अस्त्रियां वर्तमानाद्धेतुभूतगुणवाचिनो गौणानाम्नःपञ्चमी चा भवतीत्यर्थः । व्यतिरेक-यभिचारत इति-अधिगमसम्यग्दर्शनरूपकारणाभावेऽपि शुद्धज्ञानरूपकार्यसझावादिति भावः । पञ्चमी भयाथैः ॥३।११७३ ॥ इति । । पञ्चम्यन्तं नाम भयाधैनामभिसह समस्यते, तत्पुरुषश्च समासो भवति, भयादिराकृतिगण इत्यर्थः । पञ्चमी भयेन ।।२।१ । ३७ ॥ इति पाणिनीयसूत्रे योगो विभज्यते, पञ्च- ।. मीत्येको योगः, भयेनेत्यपः । तत्र पूर्वयोगस्य सुसुपेत्यत: सुपेत्यनुवर्तनात्पश्चन्यात सुवोन सह समस्यत इत्यर्थः । उत्तरयोगस्य च पूर्वयोगात्पञ्चमीत्यनुवर्तनात्पञ्चम्यन्तं भयेन सुब तेन समस्यत इत्यर्थः । तत्राऽऽधपक्षमाश्रित्याऽऽह-पाणिनीयसम्मतपञ्चमीति योग विभागसमाश्रयणेनेति । “निमित्तात्कर्मयोगे" इति वातिकन निमित्तयोगे सप्तमी । भवति । यथा-" चर्मणि द्वीपिनं हात, दन्तयोर्हन्ति कुञ्जरम् । केशेषु चमरी हरि, सीनि पुष्कलको हतः ॥१॥" इत्यादी " हतो" इत्यनेन पाणिनीयसूत्रेण हेत्वर्थ तृतीया प्राप्ता, .. तां वाधियोक्तवातिकन निमित्तयोगे सप्तमी भवति । एवं प्रकृतेऽपि सम्यग्दर्शनशुद्धं ज्ञान मित्या निमित्तयोगे सप्तमीति यः पक्षस्तन्निराकरणायाऽऽह-चतुर्थीपक्षो दोषकवलित इत्यादि। अकर्मकायच्यातोर्न कर्तरि प्रत्ययो, येन तेनैव कर्तृत्वस्याऽभिहितत्वेन सभ्यग्दर्शनेनेति तृतीया नोपपधेत, किन्रव तण्ययत्वेन शुधंच्यातोरसकर्मकत्वात् कर्मणि प्रत्यये - कर्तुरनभिहितत्वेन कर्तरि तृतीयोपपद्यत एव । अन्तर्भावितण्यर्थत्पादेव भूलटीकायां स थुपा- ' यैरात्मानं शोधयतीति प्रयोग उपपद्यते इत्युक्तम् , अन्यथा शुधंधातोर कर्मकत्वादास्मानं शोधयतीतिवचन विरुध्येतेति तृतीथापक्षे न कोऽपि-क्षेप इत्याशयेन -समाधत्ते-अत्र बूम-सम्यादर्शनेन शुद्धमित्यादि। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તત્વાર્થવિવરણદાચવીપિ ? [; ર૭ વેડન્તર્મુતખ્યર્થક્ષણિવર્ય શુદ્ધપદસ્ય શોધનત્રિયાઈવે નવતોષાળામવા, તથા હિ શોધનસિયાચાં સરતન , ગાણિનિયામાં વાત્મનઃ જë નેવાનીમમેવવશ્વનામિતિ સમ્પર્શનગુમિત્યનાસિરિયાવસ્યાનમહિતત્વેન તત્વતિપાવસ્થાનાંતીય યુવતર્યું, તત પવ જ તન્વયંતિપાય ચ રતિ નિર્દેશચાખવખ્યત્વમ્, તેન ા સનિશુદ્ધજ્ઞાનાવસ્થાનુયાયિન આત્મનઃ પદ્મતિષતિતમવતિ, વસ્ત્ર “આત્મા હિ સમ્પર્શની કિમિવ વૈચ્છતામન્યા જ્ઞાનાવસ્થામાનોતીતિ, સ હુપારાત્મક્રિ શોધયતીતિ ” ટીમરુદ્ધવનમુપાદ્યતે, સદ્ધિનવાતેવાત્મા જ્ઞાન શોધતીતિ સભ્યતન પ્રાધાન્યવિવેક્ષય વં સમાવીનમેવ | વારણાર્થત્વમેવ વૃથાયા બન્ને પક્ષે સુસજ્ઞત, શુદ્ધ બવ જ સરળત્વે ત્રામિમત, તવ ગાવાનાં મતે વિશેષ પવ, તસ્ય = સન્દર્શનવાતિ વ્યમેવ, તસ્ય ૨ તપેક્ષવા ન્યૂનવૃત્તિર્યું ન હોય, અતઃ . પતિ -પૂર્વે જ સ નાવસ્થામાંતવન ન થવોત્તરતું શુદ્ધજ્ઞાનાવસ્થામાનોતીવમાત્મના પરિણામન વાવાવ ત્યર્થ કાત્મ દિ સવની રાત્રિમિવ સ્વચ્છતમિળ્યાં જ્ઞાનાવસ્થામગ્નોતિ પતિનાવસ્થાપન્ન ન તજૂન મહિનાવસ્થા પરિત્યજ્યપૂર્વ સ્વચ્છાવસ્થામાંપ્નોતિ તદ્રન્નિધ્યાત્વમઢમહીમાં યાંત્મા સભ્યનેન બતવવૃતુલ્યન મિથ્યાત્વમાધુwામસશાનાવસ્થા પરિત્યજ્યા પૂર્વી સંજ્ઞાનાવમાં પ્રાપ્નોતીત્યર્થ | હ શુજારાત્માને શોધયતિતિ-ગરમ સખ્યનાછુપાવૈજ્ઞનહર્ષ શોધતિ, જ્ઞાનમતાસકૂપતાં પરિહર્ય સદ્ગપતાં શારાયતીતિ માં થયુજીનત્યSિSનૈવ શુદ્ધિાિર્તા તથા વિક્ષત જાતિ દ્વામૂિતયા સમર્શન પ્રાધાન્યન શુદ્રિક્રિયામાં વિક્ષયા તર્થે સર્ષીનેતિ તૃતીયોપદ્યતા પ્રેત્યાનાSઠ્ઠ-સપનાનેવાડજોતિ / સમ્પર્શનેન સુમિયત્ર તૃતીયાધાર ત્યાર્થત્યમુપાદ્ય વળાવમુપાતિ-જાર્થિાત્વવેત્યાના શુદ્ધિ પ્રતિ શુદ્ધજ્ઞાન પ્રતિ વાગપિ સન્યનત્ય વળત્વમમિમત, તત્ર યમ થોપવાનાથાણું–શુદ્ધિ પ્રત્યેવ તવક્ષિા શક્સિવિશેષહરતાપેક્ષા / તૃળમગિરિશિત્વાઢિપ્રત્યેના લવાજીન્ન પ્રતિ તેમાં રાધે થવસ્થામાન્યમાન્યુત્પન્થતિરાવ્યોમવાર ફરિ તષિપરિસિદીય કાર્યો વૈનાત્યમવુપાર્થ વિનાતવૃદ્ધિવાવચ્છિન્ન પ્રતિ તૃળવેન વિજ્ઞાતીયવહિવાવાછિન્ન પ્રતિ મણનાગાલૅન વ વરવાયુપામે વિશેષરૂપેળાનેવાર્યધારામાપ્રસાહિતિ થાવસ્તુ વહિંગનોવૂડનુગતશક્તિવિશેષમય તદ્રુપવાડ્યુહરળત્વે સવૅત્રાનુમતમસ્તુપાન્તવ્યમ્, ગત વવ ન તૃવાલીનાં ધર્મવિધયાષ્યજીંદ્રવં નિત્વમવિઘવ, રૂવાંગયારશમિથ્યામિતિ નિયમાન યેન કેન રિપત્તિસ્તત્તતધર્મસ્યાગમનત્વેન તરાદ્ધર્મસ્ય તત્તત્રવૃત્તિતથા શક્ટ્રિવિરોષહરણાપેક્ષે જૂનવૃત્તિગપ ર ક્ષતિ, વાર્થવ્યવહિતાક્ષળાવર્જીન હાર્યસમાનાધિવાળાસ્યન્તામવતિયોતિનિવચ્છવધર્મવસ્ત્રક્ષા સલાહકારતાયા ધવિધયા વવવ વ તપેલૈવાયૂનાગતિ સધર્મવૈવાત ત્વ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧. સ. તરવાવિવઢાર્થી : " કૂબામણીનાં વહિષ્મતિ રથ તત્ય શરિપત્વેન તન્યૂનવૃત્તાનામપિ તૃબરવાલીનાં તમિવક્ષ તતવર્ષોલ્વન્નર્વિવાહ, કરુણાધવતમવરૂપમણિ જળવં સક્રતમન્નવ, સિદ્ધાન્ત શમિવેનવ રળવચૈનાનાતિયા પ્રતિ વિજ્ઞાતીયાનામુપમાત, ન રાજીવ તારણમિતિ પણે શોવ પરબતાવી અવશ્વેતત્વમાત્માશ્રયીષદુષ્ટ સ્વાઢિતિ વાચ, યૂનાનતિપ્રસાધવાવવમિતિ નિયમતઃ વાવધાનપરિણત્વાભાવવત્થરખ્યદ્રષ્ના વર્તમાનસ્ય' ' વન્ડયાને વ્યવદિતપૂર્વજ્ઞાતીયત્વલણસ્વરૂપોતાધારણતાયા વ ત્વમેવ પા. વીર, તત્ર ચા વિશિષ્ટ વાવ વત્વ શુદ્ધક્ય વિશ્લેવમત્યુપાખ્યામાંથયો પરિયિત તેતરપડાપ તાદ્ધવચ્છિન્નપર્યતાનિવૃતવરિટારખતાāનાવચ્છેદ્યત્વે શનિ વાવ છેવારંવમાચિત્ર, શક્તિ તત્તબ્ધતા વ્યક્રયા બ્રિન્નિાડમન્નાવસ્વતૈધવાવવિ, તત્તનુતૃત્વશ્વ વિક્ષળાયાતસ્ય પરિવાયમેવ, ન તુ નિષ્ઠારગત વિચ્છતાયામવર્લ્ડ મિતિ ન તદુનિયતિષિાવારા, વૈનાત્યાખ્યુપરન્તુળાનુ અથા વહિંમતવૈનાત્યાનુપમેન વર્દિ નિમેન ત વાગ્રૉગ્નન્યુપનાદ્રિત્યાયેનાષ્ટ-તત્ત્વળાવમળનાં વહિં પ્રતીવાિ ન જ શરમ ન શહિપાળ પ્રકૃતિનજ્યોથે બારમો માવ ફતિ ન્યાયન શક્તિનિરવં શરિરતિ તાર શક્સિપારણત્યાગછેદ્ર ત્રચ્છેદ્રશસ્ય પરિવાર વિધવા નિમિત્તપેન સ્વસ્ય પેયનાગન્નાયત્વે ચાહત્યાક્ર-ર વારિવા પાવપ્રિતીતિ / સ્વાધ્યક્ષળવારગવદ્યાગબ્બરવવં વહાવ્યં, ન તુ ? હોપધાનહાળશ્વર્ય, તાધિશવૃત્તિતયાગત વાત્તસ્ય, વયોગ્યત્વે જ કારતાવòધર્મવરવામિતિ દુહત્વવ વવ વનિઉં વારત્વે વખ્તત્વવ વ પ્રતિમ પ્રજામતો માત્ર ઇતિ સિદ્ધાન તખ્તવમેવ, તથા ૨ વાર ગર્વ હરયં તવ શરળતાવછેવમયાનાથયો વથા ધદવાવચ્છિભર્યતાનિ પિતારતારવેન રૂપેણ કરાવી મૃતદષ્ટ વાચ્છેદ્યત્વમ્, વિચ્છેદ્રામૃતવય નિરવછિન્નતયાગ્રછત્વવમિમામયિકઃ પરિત, ચૈતાલે ઘટવવવાધિર્મચ્છિન્નમાર્યતાનિવશિષ્ટ રળતા-વેનષ્યિદ્ય શનિ વૃષ્ઠમ્ ! તયાર રવિવચ્છિન્નત્તિનછા- : વખ્સlનિધિત ચા વાદ્ધચ્છનહાર્યતાનિતિશાળતાનાંગ્વચ્છેદ્યતા તાહિરાપિરામિવમુકોઃ રિહરળીય દૃાશનોત્તસ્થતિ–ન્યૂનાનાતિમૈંથાઢિી વત્તાવાર્થનુક્રવાશિદશક્તિમાન શહિપનારણë નાડનુર્તિ ચેન ' 17 જાનુબ્રા વળતા વચ્છેદતાવજે વાપજ્યા તાર્યમેન વાયુtત-િ શિવપિયા વાળમેવાષત્તિ થા, વિનુ તત્તનુવોપક્ષિતજિમોને ન પક્ષનાવવામન તદુપહિતમે અન્યથા તવર્લ્ડ વૃદ્ધિત્વોપક્ષિતતાદ્ધમો, છિ જિલ્પગ્રાપિ તથા સ્વાદિયાનાહ તત્તર્યાત્વે વેતિ | શુદ્ધશા નિ જા સઘર્ષની વમિતિ પિસ્ય સદણાં સમર્થનમાઠું કાર્ય તે Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वार्थविवरणढार्थदीपिका । प्रति तृणाणिमणीनां कारणत्व निर्वहति, तथा ज्ञानगतशुद्धिक्रियागतवैजात्या युपगमेन ताशशुद्धित्व स्यैव कार्यतावच्छेदकत्वाभ्युपगमेन वा सम्बादर्शनस्य करणत्वं निर्वहत्येव, न च तस्य नावयितावच्छेदकतथा परिस्फुरणम्, किन्तु सामान्यतः शुद्धिवस्येय, तस्य च न सम्यग्दर्शनकार्यतावच्छेदकत्वमिति वाच्यम् , इन्द्रियसन्निकर्षजन्य ज्ञान प्रत्यक्ष परामर्शजन्य ज्ञानमनुमितिरित्यादी ज्ञानत्वस्येन्द्रियादिजन्यतानवच्छेदकस्यैवान्वयितावच्छेदकत्वस्य परैरभ्युपगमात् , प्रत्युत प्रत्यक्षत्वानुमितित्वादेतत्तजन्यतावच्छेदकस्यैव तदन्वयितावच्छेदकत्वमचरम् । यथा च परेपामिन्द्रियत्वस्य शब्देतरोद्भूतविशेषगुणानाश्रयत्वे सति शानकारणमन.संयोगाश्रयत्वरूपस्य गुरुभूतस्य जनकतानवच्छेदकत्वेन तदवच्छिन्नसन्निकपत्वस्यापि चाक्षुपादिप्रत्यक्षं प्रति चक्षुष्ट्वादिना विशेषत एवं कार्यकारणभावे जनकतानवच्छेदकत्वेऽपि अन्वयितावच्छेदकत्वं तथा शक्तेः कारणतावच्छेदकत्वपक्षेऽतथाभूतस्थापि सम्यग्दर्शनत्वस्य तत्वमुपपन्नम्, शुद्ध ત્યવિના તાદાશુદ્ધિત્વચૈવ-જ્ઞાનમાતવિજ્ઞાતીય શુદ્ધિવ | તસ્વ-વિનાતીયशुद्धिस्वस्य । तस्य च न सम्पदर्शनकार्यतावच्छेदकत्वमिति-देहशुद्धावपि शुद्धिस्वस्य सद्भावन कार्यतातिरिक्तवृत्तित्वादिति भावः । इन्द्रियसन्निकर्पजन्यं ज्ञानं प्रत्यक्षमिति प्रत्यक्षलक्षणस्य परामर्शजन्यं ज्ञानमनुमितिरित्यनुमितिलक्षणस्य चाऽनुसारेणेन्द्रियसभिकर्षस्पेन ज्ञानत्वेन, परामर्शत्वेन ज्ञानत्वेन च कार्यकारणभावो लभ्यते, न च तथापि तथाभ्युपगतः, तथा सति ज्ञानवावच्छिन्नं ज्ञानमात्रमिन्द्रियसनिकर्पजन्यं परामर्शजन्यं वा स्थादिति सर्वरिगन् ज्ञाने प्रत्यक्षत्वानुमितिचापत्तिस्यादिति, इन्द्रियसभिकादिजन्यतानवच्छेद केऽपि ज्ञानत्वे ज्ञाने स्वनिरूपितजन्यतासम्बन्धेनेन्द्रियसनिकदेर वयात्तदन्यथितावच्छेदकत्वस्थ नैयायिकर भ्युपगमाद् यदेव कार्यतावच्छेदकं तदेवाऽन्वयितावच्छेद कमिति न नियम इत्याशयेन निषेधे हेतुमाह-इन्द्रियसन्निकर्षजन्यमित्यादि । उक्तनियमे प्रत्यक्षबाधमप्याह-प्रत्युतेत्यादिन। इन्द्रियवस्य पृथिवीन्यादिना सातजातिरूपत्वास भवेन तल्लक्षणमाह-शब्देतरेत्यादि । अत्र सत्यन्तविशेषणानाऽऽ मादापतिव्याप्तिः, विशेष्यदलोपादानान कालादावतिव्याप्तिः, शब्दास्यविशेषगुणाश्रयत्वाच्छत्रस्य तत्राऽव्याप्तिवारणाय श०देतरेति । अनुद्भूतरूपादिविशेषगुणाश्रयत्वाचक्षुरादेस्त्राच्याप्तिवारणायोद्भूतेति, उद्भूतत्वस्यैकस्थ शुक्लत्वादिना सायान्न जातित्वं, शुक्लत्वादिव्याप्यनानोद्भूतत्वानां जातित्वसम्भवेऽपि पहिरिन्द्रियजन्यद्रव्यप्रवक्षनरूपितोद्भूतरूपनिष्ठकारणताया न्यूनवृत्तित्वान्न तन्मध्यादेकस्याप्यवच्छेदकत्वं संभवतीति न तेषां जातिरूपतया कल्पनं न्याय्यम्, किन्तु शुक्लत्वादिव्याप्यनानाऽनुभूतत्वजात्यभावकूदरूपमेवोद्भूतत्वं, तस्थय निरूक्तकारणतावच्छेदकत्वमित्येवमुद्भूतत्वस्थानुभूतत्वाभावकूटरूपविपक्षे शब्दतरोद्भूतसंयोगगुणमादाय चक्षुरादावव्याप्तिरिति तन्निवृत्तये विशेषेति । इन्द्रिया यविषयसंयोगस्य प्रत्यक्षजनकत्वपक्षे तमादायेन्द्रियावयवेऽतिव्याप्तिवारणाय मनः पदमिति । अतथाभूतस्थापि कारणतानपच्छेदकस्यापि । ... न Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૦ , સેવાર્થવિવરણગૂઢાર્થહીપાં જ્ઞાનવત્સ્ય વાર્થસમાનસિદ્ધ બન્યતાનવજીવડપ તદ્ધર્મિળો વિશિષ્ટસ્થ વિરોષળતનચતામાવીવધિ સમ્પર્શનવાળવોપત્તિ, “જાર કૃતા' કૃતિ સમાસ, શ્રેયસો નમૂહન ટર્શનપૂર્વજય જ્ઞાનસ્ય શુદ્ધત્વ, છેલો રનમૂઢમવિશ્વ “પ્રના િવરિત્રાર્શનમિદ્ દતાં પ્રતિવ્ય !' સિદ્ધચન્તિ વરળરહિતા, નહિંતા ન સિદ્ધચન્તિ” રૂારામબામાખ્યાયિત, યદ્યમિશન શુતાધ્યયનાહિત ૩પનાયત તિ તસ્ય જ્ઞાનપૂર્વનાવિ, તથા યાવન્ન, સગર્શનનૈવબુદ્ધિમાનુવજ્ઞાનમજ્ઞાનમેવેતિ ન જ્ઞાનશુદ્ધ સમ્પર્શન, સંવતિ નામુમયે “ દ્વાવશામપિ તેં વિનય મિથ્યા ” રૂાવામા ન શ્રુતસ્ત્રાપ્રમાત્મજ્ઞાનનનવત્વે પ્રામાખ્યાખ્યુપો વ્યાજેતેતિ તન્યથાનુપનિહવિતાયિતાવજીંજવશુપનીમાર્થ નધિત્વફ્લેવ શુદ્ધજ્ઞાનવિયાશ્ચર્યસમાના: દ્વત્થાત સમ્પર્શનનન્યતાવછેટુવાવાસન્મ તિ થયુ તરિસનાયાદ-શુદ્ધ નાનત્વફ્લેત્યાદ્ધિ / તદ્ધર્મળ શુદ્ધજ્ઞાનત્વયસ્ય ! વિશિષ્ટય-ગુદ્ધિવિરિટજ્ઞાન વિશેTખેતિ-સુદ્ધાત્ય | રવ તિતિ સમાસ રૂતિ કરવાવાવ તુતીયા યુવાન સમજ્યતિ, તથા વાર હારવવાવિ તૃતીયાન્તસમ્પર્શનપદ્ધ શ્રદ્ન્તન ચુપન સમસ્યાં તિ માવા વર્શનમૂનેતિ નપૂર્વમેવ જ્ઞાનશિયાનુકાન નોલોપાવાં તારેબ, તધા વનનિછાળતાનહપિતાર્થતાથ ત્વનત્ય, “ નાગપિ વરિત્રાજૂદર્શનમિષ્ટ દહત અતિવ્યમ્ ” ત્યા ચૈતર્થસંવાછા ઋષ્ય હિ જ્ઞાનવર–વિયુ માપ દર્શનમ્ ! ' ન પુનર્ણાનવારિત્ર, મિથ્યાત્વમશૂષિતે ? જ્ઞાનવારિત્રહીનોપ, સૂયતે એજ રિ સવનધાદાખ્યાત તીર્થવં પ્રસ્થાને રાહત્યાવિશ્વો રેયા ! " સ ર્જનશુદ્ધ જ્ઞાનમિત્ર હર વર્તાવારી વારે પરશુના હાઈ છિનાર છેનવન પત્તતીયા છિદ્વારા બિયાયા. પરશુછાવેઃ વરણી પૂર્વસમિતિ સુન્યવર્ગનેન શુદ્ધ જ્ઞાનનિયત્ર સમ્પર્શના વર રવ શુદ્ધજ્ઞાનાપૂર્વ સાવનાત, નવાઝ તથેત્યારાફ્રાગધામય- 1 દર્શનમાવાય પૂર્વપક્ષે હતા, અધુના નૈસલિલખ્યદ્રર્શનમાવાય તાં સમાધ–વિખ્યાસભ્યને શ્રાધ્યયનાવિત કપનીયત ફાતિના | વિનતિ . વિત વિરુદ્ધ વા વર્ગને થય રવિનતય, સખ્યાનરહિતતિ થાત્ ! ર વ શ્રુતસ્થાપ્રમાત્માનાના ખાનાવુપમ થાજેતેતિ-મિથ્યાદશીનાં સભ્ય ઘુતમપિ મિથ્યાળિ પરિણમતે સભ્ય દદીનાં મિથ્યાશ્રુતમપિ સંખ્યવયુક્ત પરિણમત , ઇતિ સિદ્ધાપદ્મળતષિ ગ્રુત તવધ્યયનપરાનાં નિશ્ચાદીનાં પ્રમાત્મજ્ઞાનનનવં ચેરવા તસ્ય પ્રાન્તવવનવાઝામાખ્યાપજ્યા કામાખ્યાખ્યુપનો વ્યાહત્ય | ર ત્યય વાધ્યમિયનનાંન્વય ! તન્યથાનુપજ્યા-ત્રામાખ્યાખ્યુપામાન્યથાનુપજ્યા - સન્ય, શ્રુતજ્ઞાનવતા મુમુળા સિદ્ધાવોજીવિવિના યથાર્થરૂપે પાદિતાનાં વિધ્યાર્થીનાં પ્રમાભવમેવ ' તજ્ઞાન લાયતે, ન તદ્ધિ તેમાં જ્ઞાનવું સીનત્વકતા સદષ્ટિવૃકજ તિ વાગ્યમ્, Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તવાવિવÜત થવીવિધ Ke ધન્યા વર્શનાત્પૂર્વે શ્રુતાચનપરાળાં શ્રોતા જ્ઞાનું પ્રમાત્મમાહ્યેયમ્, જ્ઞાને જ માત્યમેવ શુદ્ધિરિન તસ્તુમાં પૂર્વપૂર્વમવીર્યામવાસનાવાસિતાનામેળાપથીનાં નિનોમિમિથમવેત્યાર મુખ્યતત્ત્વાર્થશ્રદ્ધાના માર્યા આવવપત્રાવસ્યાવેવ પ્રમામઽપ મન શ્રૌતજ્ઞાને રૂટ જ્ઞાન પ્રમાત્મ . । . વેત્યાાર તાવિશેષ્યષ્ણામાખ્યતત્વમાવત્રાનોપ્રામાષ્યસંશ, દેવું જ્ઞાનમપ્રનાભમવાાખેત-જ્ઞાનવિશેષ્યાત્રાના ચન્નાર વિપર્યયાત્મમકામાન્યજ્ઞાન તવાની નાયતે, પ્રમામર્થ્યોતજ્ઞાનેન્નામાસન્વેદે તદ્વેિષચેડવ્યસવ્યવસન્દ્રાદ્વિપર્યયામાપ્રામાણ્યજ્ઞાને વા દ્વિષયેબંને પદ્રિપરીતત્ત્વજ્ઞાનાત્તાનમજ્ઞાનમેતિ સભ્યજ્ઞાનામાભિ સભ્ય દાદાસ । સદ્ગુરુમવતતાશાદ્ભુતમ સમીયાના પિ મિથ્યાય હ્રાન્તતમય્મેત્ર સત્યં મન્યો, નવનેાન્તતમિલ્યને તત્ત્વતા શ્રુતનન્યજ્ઞાને પ્રમામòષ માયં સાન્તાહ વિપર્યયાત વા, મૈં તુ સદય ધ્વ શ્રુતસ્ય નિનળીયૈન રખાતું જ્ઞાનં પ્રમામનેતિ નિશ્ચિા, તથા ૨ પ્રામાબવષિ શ્રૌતજ્ઞાને સંચર્યાવચ્ચેચાન્યતરક્ષળું ચકામાજ્ઞાનં ક્રિયામાજીષ્યા 7 મિથ્યાજ્ઞાનું શુદ્ધ, જ્ઞાને ઉદ્દે શુદ્ધિને વબનાવઽક્ષા, તથા ક્ષતિ મિથ્યાદીનાં પરોવારેધુરીમુહSાપિતાનાં થા શ્રુતર્વજ્ઞાને નાતે તત્ર તથાવાસા સુન્યજ્ઞાનાહિતિતત્ત્વ સ્વાત્, વિશ્રામાણ્યજ્ઞાનાના ન્દ્રિતજ્ઞાનવિષયઞાનવ્યમાા, સા ૬ સભ્યઠ્ઠીનાં શ્રૌતજ્ઞીને વતઃ કામાખ્યજ્ઞાને સતિ તદ્યુત્તર નૈત્ર તંત્ર સંવિધ્યેયાન્યતરક્ષા પ્રાપ્યજ્ઞાનું મથસાંતિ તત્ર સવતે, મિથ્યાઘ્ધીનાં તુ શ્રૌતજ્ઞાને સ્વતઃ પ્રામાખ્યજ્ઞાનનેવ ન માત્ત, અન્યથા પ્રતિવન્ધòન તેના તઘુત્તરધ્રુવ્ડીંગ્ઝમાળ્યજ્ઞાનમેવ ન મવેત્, મહંત પતિ તૈયાનામાધ્યજ્ઞાનાના વ્યસ્થિતજ્ઞાનચૈત્ર શ્રૌતજ્ઞોને સ્વતઃ પ્રામાખ્યજ્ઞાનાત્મધામાયન 7 દ્વિષયપ્રામાબજળ શુદ્ધિમતિ તાદશુદ્ધથમાધ્યિાધિજ્ઞાનં ૬ સભ્યજ્ઞાનમ્, તજ્જ્ઞાનતપ્રામાણ્યયાત્રામ ખ્યજ્ઞાન સ્ત્રોતનું શ્રૌતજ્ઞાને યત્ સ્વતઃ પ્રામાણ્યજ્ઞાનું દ્વિષયવાત્ । નેનુ રાષ્ટ્રાપો અકળાશાત્મયૈવામ્બુાતે જ્ઞાને પ્રામાર્થ્ય સ્વતઃ પરતÆ વૃદ્ઘત ાંત પરતો બ્રાહ્યતાયાં ચા સદછે: શ્રુતનન્યજ્ઞાને પ્રામાયજ્ઞાનું ન લાતું તદ્દાનીમત્રામાણ્યજ્ઞાનાના ઋન્વિતજ્ઞાનવિષયવસ્ય સન્માન તપ્રામાણ્યે માત્રાત્તાનું શુદ્ધ હૈં સ્વાતિ વત્, મૈવમ્, સિનૈહરું તત્ત અમેતિ અદ્યતઃ સદછે: શ્રુતાવજ્ઞાન નાયતે તવચા સ્તં શ્રૃજ્ઞાતિ તથા સ્વાતબામાવ્યાંય વ્યુહાત્યેવ, તન્નાનાતપ્રામાણ્યસ્ય નિયમેન સ્ત્રતો પ્રાઘવાત્, પરતો પ્રાઘવ તુ પ્રામાણ્યસ્ય તંત્ર્ય યત્રાપ્રામાણ્યËાવતાર, પ્રૠતે તુ જૈવમ્, અતવ તાદાîદ્વાંશિકજ્ઞાનનનને ચાવિપ્રોપે સજ્ઞઇત રૂતિ વોધ્યમ્ । મેનસ્ય રોકશમને પૂર્વે રેવન‰તરો (જોધારાયસૂિર્યથા સારેળો તો શુદ્ધ વશિષ્ઠજ્ઞાનોત્પત્તૌ તસ્ય સભ્યોનરુક્ષળાશયનૢરાહાળીતિ સમાવે સત્યશ્રામાભ્યજ્ઞાનાન્વિતશ્રૌતજ્ઞાનાને જ્વેર્ગવ તત્સત્ત્વે આામાન્યજ્ઞાનાના વન્દિતજ્ઞાનવિષયઞાનાભ્યવિશિષ્ટજ્ઞાનાત્ત્વન શ્રુતસ્ય કામાગ્યે i Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સેવાવિવર્તુહર્થિીe त्यल्पमिदभुच्यते दर्शनात्पूर्व ज्ञानमज्ञानमेवेति वाच्यम् , 'अप्रामाण्यज्ञानानकिन्दितज्ञानविषयप्रामाण्यस्यैव शुद्धिवेन श्रुतमधीयानानामपि दर्शनविकलानां प्रामाण्यालिजितेऽपि श्रौते ज्ञाने इदं प्रमा न .. वेत्यप्रामाण्यज्ञानविषयत्वलक्षणमलकाप्येनो कलक्षणशुद्धेरभावात् , तादृशशुद्धिविशिष्टज्ञानजनने च श्रुतस्य । सम्यग्दर्शनलक्षणाशयशुद्धिरपि भेषजस्येव दोपप्रशमने सहकारिणीति उक्तसहकारिवैकल्यापूर्व ताशज्ञानाजननेऽपि तत्सहकारिसम्पत्तौ तज्जननेन श्रुतस्य प्रामाण्यं निर्वहत्येव, न च श्रुताध्ययनान्यथानुपपत्त्या रुचिलक्षणदर्शनशुद्धेरपि पूर्व सत्वमिति वाच्यम्, अभव्यानां तदन्तरेणाप्यध्ययनदर्शनात् , न , च शुद्धस्याशुद्धस्य वा ज्ञानस्य दर्शनापूर्वमेव श्रुतेन जनितत्वात् कृतस्य करणायोगेन दर्शनापेक्षा तत्र श्रुतस्य व्यर्थेति वाच्यम्, जनानां सदसरकार्यवादराद्धान्तेऽशुद्धात्मना पूर्व कृतस्थापि ज्ञानस्य सन्यज्ञानात्मना परिणमनलक्षणकरणाभ्युपगमात् , अत एव सम्यग्दर्शनाच्छुद्धमिति पञ्चमीपझोऽप्युपपत्तिपद्धतिमियत्येव, निसर्गसम्यग्दर्शनाधिगमसम्यग्दर्शनयोरुभयसाधारणेन सम्यग्दर्शनत्वेनेकशक्तिमत्त्वेन । वा शुद्धिं प्रति कारणत्वेन स्वयंसम्बुद्धादिषु निसर्गसम्यग्दर्शनस्य शुद्धज्ञानात्पूर्व सत्येन न व्यतिरेकव्यभिचारावकाशः, न च निसर्गसम्यग्दर्शनादधिगमसम्यादर्शनं विजातीयमेव, अन्यथा निसर्गाभावेऽधिगमसभ्य नोत्तरयति-अप्रामाण्यज्ञानानास्कन्दितज्ञानेत्यादि । अत्रेदमपधेयम् यच्च सुगुरुनिरपे- . क्षाणां मिथ्याधीनां पांचितस्त्वपक्षनिबद्धोद्धरानुबन्धानां स्वतरिसद्धान्तावलोकनतो मिथ्याज्ञानं जायते, तदपि न सम्यक् श्रुतस्य प्रमात्मज्ञानजननासामयदोपवलादप्रामाण्यदोपबलाद्वा . किन्तु पूर्वभवीयमिथ्यावासनाजनिताऽयथार्थसङ्कतानुसन्धानसहितमिथ्यात्वदोपप्रावल्यादेवेति . तज्ज्ञानमज्ञानमेव । उक्तदोपविगमन सम्यग्दर्शनाशयशुद्धौ तत्सहकृतं श्रुतमप्रामाण्यज्ञानाना- .. रकन्दितज्ञानविषयप्रामाण्यविशिष्ट्यथार्थज्ञानं जनयति, न च पश्चात्तत्र तद्गते स्वतः प्रामाण्यज्ञाने चेदं ज्ञानं प्रमा न वेति संशयो न वेदं ज्ञानमप्रमात्मकमेवेति विपर्ययज्ञानं भवतीति तत्राऽपि श्रुतस्य प्रामाण्यं निहत्येवेति । तदन्तरेणोति । रुचिलक्षणसम्यग्दर्शनमा तरणेत्यर्थः । विजातीयकारणादेव विजातीय कार्य भवतीति निसर्गस्याऽधिगमस्य च जात्येन निसगापजायमाना सम्यग्दर्शनादविगमोपजायमानं सम्यग्दर्शनं विजातीयमेवेति नोभयसम्यग्दर्शनगतं सम्यग्दर्शनत्वमनुगतमिति न तद्रपेण शुद्धि प्रति कारणत्वं किन्तु विभिन्नरूपेणैवैत्यधिगमसम्यग्दर्शनत्वेन कारणीभूतस्याऽधिगमसम्यग्दर्शनस्य स्वयं सम्बुद्धादावभावेऽपि शुद्धज्ञानरूपकार्यसद्भावेन व्यतिरेकव्यभिचार इत्यभिप्रायकं यदाऽऽशक्तिं तत्परिहारायाऽऽह- .. निसर्गसम्यादर्शनाधिगमसम्य दर्शनयोरुभयसाधारणेनेति । ननु यदि सम्यग्दर्शनत्यमुभयसाधारणं स्यात्तदा तद्रपेण शुद्धि प्रति कारणत्वं स्यात् ? न चैवं, यतो निसर्गाविगमसम्यग्दर्शनोमयस्य सम्यग्दर्शनत्वेन सजातीयत्वे तदवच्छिन प्रति निसर्गाधिगमयोः कारणत्वं न स्यात्, निसर्गरूपकारणाभावेऽपि सम्यग्दर्शनत्वावच्छिन्नस्याऽधिगमसम्यग्दर्शनस्याऽधिगमरूपकारणाभावेऽपि च निसर्गसम्यग्दर्शनस्योत्पादन व्यतिरेकव्यभिचारादि- . Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थविवरणगूढार्थदीपिका दर्शनस्याध्ययनाधभावे.निसर्गसम्यग्दर्शनस्य चोत्पादेन. सम्यग्दर्शनत्यावेच्छिन्नं प्रति तयोः कारणत्वासम्भवादिति वाच्यम् ; उमयानुगतायाः शक्तेः कारणतावच्छेदकत्वस्य तत्रापि, सम्भवात्', निसर्गाव्यवाहितोपरजायमानसम्यग्दर्शनत्वावच्छिन्न प्रति निसर्गत्वेन अध्ययनाद्यव्यवहितोत्तरजायमानसम्यग्दर्शनत्वावच्छिन्नं प्रति अध्ययनादित्वेन कारणत्वमिति तु सम्यग्दर्शनत्वस्य कार्यतावच्छेदककोटी प्रवेशे प्रयोजनाभावापत्तिदोपकवलितत्वादु पेक्षणीयमेवेति । अधिगमसम्यग्दर्शनाभिप्रायेण सम्यग्दर्शनाय शुद्धमिति चतुर्थीपक्षोऽध्युपपन्नः, समासश्च हितादिभिः ॥ ३ । १ । ७१ ॥' इति सूत्रात् शुद्धपदस्याकृतिगणहितादिपाठात् साधुः, अधिगमसम्यग्दर्शनात्पूर्वमपि नैसर्गिकादयाप्तश्राद्धस्य पुंसो विहितकालेऽध्ययनादिप्रभव ज्ञान शुद्धं, तचाधिरामसभ्य दर्शनार्थमिति न पूर्वोक्तार्थवाधावकाशः । न च शुद्धिरेव ज्ञानगता लाशते-न च निसर्गदर्शनादधिगमसम्यग्दर्शन मिति । अन्यथेति सजातीयचैतदेत्यर्थः । तयोरिति-निसर्गाधिरामयोरित्यर्थः । उक्ताशङ्का निराकरोति- भयानुगताया इति-निसर्गाधिरामोभयानुगताया इत्यर्थः । उक्तदोषस्तदा स्थाधदि निसर्गत्वनाऽध्ययनवादिना च सम्यग्दर्शनवावच्छिन्नं प्रति कारणत्वमभ्युपगतं स्यात् , न चैवं, शक्तिमत्वेनैव निस ध्ययनादीनां सम्यग्दर्शनत्यापच्छिन्नं प्रति कारणत्वाभ्युपगमात् । तथा च निसर्गायैकैकसत्वकालेऽपि सम्यग्दर्शनानुकूलनिसाध्ययनाद्युभयानुगतशक्तिमत्त्वावच्छिन्न कारण यस्तो निसंगोधिसमाधन्यतरस्य सद्भावादेव सम्यग्दर्शनोत्पादेन न व्यतिरेकन्यभिचार, न च शक्तिमात यावन्ति कारणानि तावतां सर्वेषां सत्वेन भान्यं, तथा सति न्यायमतेऽपि दण्डस्वादिरूपकारणतावच्छेदकविशिष्टानां सर्वेषां दण्डादानां संवं कार्याव्यवहितपूर्वमापद्यतेति भावः । हितादिभिः ॥३।१ । ७१ ॥ इति चतुयन्तं नाम हितादिभिसमस्यते, तत्पुरुपश्च समासो भवति, हितादिराकृतिगण इत्यर्थः । तद्धविच्छिन्नोत्पादं प्रति तद्धर्मव्याપોપધછિનવાવાસામગ્રી તદ્ધર્મવ્યાખ્યાત્વિઝિદ્ધમાવચ્છિન્નતાવવસામગ્રી : प्रयोजिका, यथाजन्यपृथिवीत्यापन्छिनोत्पादं प्रति जन्यपृथिवीत्वव्यापकजन्यसत्व जन्यद्रव्यत्वावच्छिन्नोत्पादकसामग्री जन्यपृथिवीत्वव्याप्यघटत्यादियत्किञ्चिद्धमावच्छिन्नोत्पादकसामग्री च प्रयोजिका, यद्धर्मव्यापकधर्मो न कार्यतावच्छेदको यद्ध व्याप्यधर्मों पान कार्यताबच्छेद कर सत्र नाथं नियमः, यथा जन्यसत्वावच्छिन्नं प्रति तस्यापकसत्त्वादिधर्मावच्छिन्नसामग्री नापेक्षिता, अप्रसिद्धत्वात्तस्या, एवं घटत्वाधवच्छिन्नं प्रति तद्वयाप्यतत्वाधवच्छिन्नસામધ્યપ નાણતાં, તદ્ધદાત્રીનાં વાતાવર્જીવ તહચ્છત્રસામાં પ્રસિદ્ધ વુિં વિચારશે પવ, તથાઝાવિ સમ્પર્શનલ્વવ્યાપમુખત્વાચ્છોત્પાદસામગ્રીसम्यग्दर्शनत्वयाप्याधिगमसम्यग्दर्शनत्वावच्छिन्नोत्पादकसामग्री च सम्यग्दर्शनत्वावच्छिनोत्पादं प्रति प्रयोजिका, सा च सुद्धज्ञानघटितेति तजन्यवादविगमसम्यग्दर्शनस्य तत्तदर्थमेवल्यभिप्रायेणाह-अधिगमसम्यग्दर्शनापूर्वपीति । न पूर्वोपर्थिवाधावकाश इतिअर्थवाध चतुर्थीपक्ष जांगत्यवत्यादिपूर्वोक्तदोपावकाशो नेत्यर्थः । न चेत्यय याच्यमित्युत्त Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તધાર્થવિહાંર્થી ! સંધનાથ શુદ્ધ જ્ઞાનમિતિ વીર્થાન્વિતવતુબૅર્થ સઢનપત્રોચ્ચસ્ય શુદ્ધાવાયો વા, સ ર પવાથઃ પાર્થનાવૅતિ ન તુ પવારોનેતિવ્યુત્પત્તિ વિરુદ્ધ વોવુ માના માવ, નિત્યપદાર્થસ્થાન ધટડન્વયવો ધામિબાગ પ્રયુચ નિત્યો ધટ ઊંત વાક્યમ્યાકોનાખ્યોપપત્તયે વૃત્તિજ્ઞાની વિષયવાકયોસાંસર્ગિવિષયતાનિરૂપિત્તવાતાવિશિષ્ટ વિશેષતા ધેન રાવવુદ્ધિવાવછિન્ન પ્રતિ મુલ્યવિરોળ્યતાસવષેનોપસ્થિતે જાળવ, વૈશિષ્ટય% વાવ વવવતાવાસ્યાન્યતાસન્નધનત્યેવે કહૃપ્તસ્ય કારણમાવચૈવ પ્રમાણાવ, અન્ન તો સમાસાન્તર્ગપ સમાન હૃતિ વાગ્યમ્, શt પમિતિ પક્ષે શુદ્ધમિત્ર સુધાતો પન તન્નન્યોપાસ્થતીયમુત્યવિશેષ્યવસ્થાપવાર્થવચ્ચે શુદ્ર સવેનોરવુપિવિવિરોધમાવાત, ચથી વા વર્ગને જ્ઞાનતિશુદ્ધિમન્તરાષિ મવચેવ વિક્રતુ સહ સજા ! શુદ્ધાતિ-જીવન્તપ્રત્યનિષ્પન્નરુદ્ધાર્થશુદ્ધવશે શુદ્ધ વેત્યર્થઃ નિત્યો ધર રૂતિ વાયોતિ નવ્ન્વયેતાવઝેશળપસ્થિતપાથે વવ . પાન્તરાચાર્યું નિત્ય વાર્થસ્ય નિત્યસ્ય સ્વાગત પ્રવ ધટાવોપસ્થિત રત્નાવાવન્વયસવેનોત્તશયોમાયાત્રામાખ્યો પત્તરવેતિ વેત, ન, તથાપિ નાતત્વવિશિષ્ટનાતિમત્તાપર્યરતછતિય નાતિવાવચ્છિન્નેમેન નિત્યા વયોધલક્ષ્ય નિત્યઃ સ રૂતિ વાક્યસ્વી કામાખ્યાત્તિયાવિતિ માવા | સમધિરાણે જા –ર–રદ્દ ! ફતિ પાળનાયત્રયમાળવાળ્યાને વિમળોહમ્રાયોગ્ય સમવાય ફતવો સંયો ફતિ નામોશેન શિન્દુરોવરે કરૂત્વાન્ તદ્દનુસારેગ રોમા સંયો વ સન્યઃ પશુપાક્યોમવછાલૂ વચ્છિન્નપાર્થધટ સપતા, તથા ૨ વૃત્તિમાયસંયોગસમ્પન્વનિર્ણવિષયતાનિવતમનિષારતાનિતિ થી વિરોબ્ધતાં સ્વતાયાભ્યતત્ત્વજોન ક્રિશિવિશેષ્યતાસળંજેન યા કાવચ્છિન્નનિષ્ઠવિશેષતાનીવતમારતા વવચ્છેદ્યવસખ્યત્વેન તદ્રિશિદ વિશેષ્યતાસખ્યત્વેન શાબ્દોધો કાઢે વર્તતે, ન જ સત્ર મુથવિશે થતા સમ્બન્ધનો - સ્થિતિવર્તત રંતિ વ્યતિરે વ્યમિવારવારગાય સાંવવિધતાંયા વિરોષણમાહ વૃત્તિજ્ઞાનીવિષયવાબ યોનિ ! તથા ર સા વિષયતાગstહૂમાયા મેલાસિસન, બd - સંયોગનિષ્ટ વિષયતા વૃત્તિમાંતિ વૃત્તિજ્ઞાનીયવિષયત્વાકયોન્યા સા નેતિ નોરોષ ફતિ માવા ગય ષ સમાસાન્તરેડપિ સમાન સતત સભ્યનેન શુદ્ધ સભ્યપદ્રરોનાછુદ્ધ સમ્પરીને નિત્યેવં સમાધિ વન્તપ્રત્યયનિષ્પનશુદ્ધપદાર્થશુદ્ધાત્રયવિશે શુદ્ધાવિ સમ્પર્શનપાર્થયાન્વયાત્પવાર્ય પદાથેનડન્વેતાત્યાટ્રિબ્યુત્પત્તિવિરોધો સમાન પતિ માવ ૪tiાહ્નાં નિરાતિ શtt vમયાદ્રિના નનું દર્શન વિશેષવૃત્ત સધી જ્ઞાનાતશુદ્ધયક્ષ મવતુ, ન જ તથાપિ નતુપક્ષીયં સમ્યાન શુદ્ધ જ્ઞાન-મિતિ સિધ્યત્વતસ્તાä મુદ્દે શાન થવ સમાનાનાં જ છોબ્યુરિવિરોધપારદ્દારાયે Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તત્વોર્થવિહાલીપિ તાત સવમેવ સર્જરીનાનનુમામિ યુનવિશેષવૃત્તિ જ્ઞાનાતાપેક્ષ, વમપિ તદ્વિશિર્વેવર્શનાર્થતા મુદ્દે વિરોષણનિમિત્તસ્થાપિ વિશિષ્ઠ પ્રતિ નિમિત્તત્વમસ્યુરીકૃત્ય તથા વિરોષણક્ષ્ય તર્થ શ્ચિત્તમિત્તસ્ય વિશિષ્ટ સ્થાપિ તથંવમત્યુપત્ય શુદ્ધ જ્ઞાને સમ્પર્શનાર્થવદ્યાન્વયે નોrtવુત્તિવિરોધવાડપીતિ યુત્તમુરામ / સત્સપ્તમીમાશ્રિય સપ્તમીપક્ષોખુષપાનીય સુધીમિઃ | મતિષ્ણુતાવધિમન:પર્યવવધુ ત્રયાળામતીનાં જ્ઞાનાનાં વ્યાખ્યારિવાદ્ધવત્યુપળમર્થવત , ન્યત્ર 7 - પોપદ્મશતઢિતિ વોળ ! સર્જનશુદ્ધમિતિ જ વિપરિણામેન વિરતિમિત્યદ્રાખ્યત્વેતિ, તેને વિરતિક્નમ જ્ઞાત્વાડજ્યુવેલ્યાણમિત્ર્યવંક્ષળક્ષિતૈનાત્ર વિરતિનજ્ઞાનમુદ્રાશયમની, ને ન્યા માર્ગા સંચમનાત્યાદ્રિતમવતિ | વાપીવાનાર્ વર્ગનજ્ઞાનવરતીનાં ત્રયાણામેવ નન્મનઃ સુ માહ પવનપતિ | દ્વિશિષ્ઠનાર્થતા અન્યાવિશિર્શન©વતા શુતિ પડ્યા ગાયત્વર્ધિત્વેન ગુંદ્ધિનિષેત્યર્થ, સમ્પર્વ પ્રતિ જ્ઞાનાતશુર્નિમિત્તવૈરવિ તક્રિશિષ્ટવન પ્રતિ વર્ષે તયા નિમિત્તત્વમ્, પર્વ સભ્યને પ્રતિ જ્ઞાનાતશુર્નિમિત્તવેગપે તદ્વિશિષ્ટજ્ઞાનસ્થાપિ વર્ષ નિમિત્તત્વમેત્યારાફ્રાય નિવૃત્ત તદુમાત્ર પુત્તિનાદ વિશેષણનિમિત્તપતિ સન્મજવાં વઢિોવાં તનિમિત્તસ્થાપત્યર્ચા વિશિષ્ટ-સન્મવવિરિકવન / વિષાક્ય સુદ્ધા તવર્ધત્વે સભ્યનાથેત્રે . તવભિન્નત્ય-ગુદ્રથમિજયા વિશિષ્ટ સ્થાપિગુદ્ધિવિશિષ્ટ જ્ઞાનજ્યાગ . તવર્ધત્વમ્ સર્શનાર્થત્વમ્ ! સમીપક્ષે નિમિત્તસમીપક્ષમાશિયોજવો, ન થતાલ નાડુ તે, અમ્યુપતે જ સત્સતની પક્ષ, સોગ નિતત્પર્શનમાવાયોપાનીય રૂયાનાં હૃ-તત્સતમીમાચિતિ મતિજ્ઞાનું શ્રુતજ્ઞાનવિધિજ્ઞાનં ૨ વિપક્ષતિ તત્ર સમ્પનગુનિતિ વિશેનાં તદ્વિપક્ષીમૂતમત્યજ્ઞાન તાજ્ઞાનવિજ્ઞાનાનિ ન જ્ઞાનાનિ વિન્યજ્ઞાનાત્યમજ્ઞાનવ્યાવૃત્તિdશન સાથે, મનપજ્ઞાન વિજ્ઞાને વાજ્ઞાનવિપક્ષશાતિ નેતિ તત્રો વિશેષાં વપરાશનાહ મતિષ્ણુતાવતિ | મારિવાત જ્ઞાનહાવિવાાિત્ સવિશેષણમ્ થર્શનગુનિતિ વિશેષણો અન્યત્ર | મનાવકજ્ઞાનયો. તેનેતિ જ્યર્શનશુદ્ધાં વિરતિબિયેવમન્વયેને જ્ઞાવા-રાણાતિપાતાઘાથવા નાયુરાહિમહાપાપતિવન્ધારિતયા નાવવિહુતિકપાતાગુમતિ જ્ઞાજ્ઞિયા વુધ્ધા, પુરેલ ચૈવ થદ્ધાય, વાર-ત્યવ્યાનપરિજ્ઞા ત્રિરાયોગેન તેભ્યો નિવૃત્તિરિત્યર્થ તદ્વિપક્ષવિરતે પાઠવાભિધમાહ– ત્વતિા સમ્પર્શનાયિત્રયાળાં લખ્યવનન સવજ્ઞાનત્વેન સમ્યવિરતિન પ્રત્યે વાળ વિમિત્રે વારત્વ, શિ, મોલાનુશામિનાઝુમતળ તપમેવ, તજ મોક્ષાનુકૂહાવિચ્છિન્ન શકિપમતિરિ ત્ય તત, તવ જ મોક્ષમાપવાર્થતાવ , તર્ગવ ા વિયવોમોલમાપવોત્તરસુશ્વિમધૈવસ્વાન્વો વિવક્ષિત $તિ મોક્ષમાતિ વિશેvor Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ‘તરવવિવરગાથપિકા.. ‘ક જાળમિત્યવધાÁતે, તેને “સખ્યાજ્ઞાનવારિત્રાળિ મોક્ષમઃ | | ". તિ" સૂત્રે મોક્ષમાં ઉતિ વિધેયોધતો રવિમવલ્યા વિતેતિ, “ યત્ર વિરોબવાપરો. - ત્તરવિમmતાત્પર્યવિષયસયાવિહંદુસદ્દયીયા વવક્ષેતઉં, તત્ર વિરોધ્વરિશેપળવાયોઃ સમાન--- વનવવમિતિ ” નિયમ0 ન મ યુક્કિતમવતિ, ૧ ૨ સ્વસનાતીયનિષ્ઠમે તયોગિતાનવઓ ઢસનાતીયદિતયરાહિત્યક્ષળચૈત્વવર્નનાર્થર્ચ મોક્ષમાશાભપ્રત્યતાવો મોક્ષત્નાવચ્છિન્નઝન્યતાનિઋપિતંગનડયો વા, હૈ જ તૈોપવેતન ચરિ સપનાતિ પસ્ય વદુવનન્તવિશેષ્યવાવમ્પર્શનાદ્વિપસમાંનવવનત્વાસ 7, નવા યત્ર વિશેળે. વાત્યાદ્ધિનિયમમઘસ ત્યાશનાSsg-તેનેત્યાદ્ધિ ! યત્ર વિશેષવાવ ત્યાદ્રિા યતિ ત્રબ્રત્યય ધટવર્થ, તસ્ય વિશેષ્યવનપડન્વય ! યતિતિ વિશે-' cથવિશેષપાવાવપતિં જ્યના વાવેરાવો વેધપર તેન ાસવિશેષ્યવસ્થછે . નિયમહન, તથા ર ઘર વિશેષ્યવાવવપત્યજ્ય વિખ્યશિવણવાવાદિતવાયધ વિશે ડસવમ તોતિ વ્યવહારત્વેનાનુન્જિીયમોન ' મિત્તેય, તેન સુન્દરં વધીત્યા ધ્યાવિશેષ્યવો ધણોત્તરવિમરથી ર , ક્ષતિ, તત્ર તદ્દનુસખ્યાનસ્થ સવાત 1 વિવતિતત્વમતિ વિશેષણવાવવાદતોત્તરનાં નુસથી માનધિમરજ્યાધિક્ષતત્વામિયા તેનેવું વધીત્યા વિધિપરિવાર , પાનન્તર વિમયસરવે ન ક્ષતિ, તત્ર વિમરનુવાન વિના શીવવાનુપમાત તત્રેયર તદ્દાધવમર્થ, તા ૨ વિશેષ્યવિશેષળપદયોરન્વય | મોક્ષના પુત્યત્ર સિવાયાર્થે વસ્તુ તવ સ્વસનાતીયદ્રિતીયહિત્યકક્ષાં, તય સિધ્યત્યયાતિમૂતમોલમાપદ્ધરાવે મોક્ષવાવચ્છિનવાર્યતાનહપિતારત્વાશ્રયે નાવય વતું શક્ય તય સમ્યગ્દર્શનાદિયામનાડનેપરવાત, વસનાતયિદ્વિતીયસ્ય વિદ્યમાનવેન તદ્રાદિત્યહૃક્ષ વાંગ્યમાનત, જિતુ છક્યતા છે કે તાદશવારપાત્વે, ત્રાગપે , સમવતિ, અનુdય વારળતાવòધર્મસ્થામાવેન રબતાયા અનુતિમાનામવાહિત્યનારાહ્મમુદ્રાબ્ધ તિલિપતિ-ન ચ સ્વજનાતીયનિતિ ન ત્યય : વાયુત્તા લખ્યા, સત્ર નાર્ય સ્વામમિથ્યાતપવાર્થસંપત્વિવિદિત્યઉતાવળે વાળ વાળ. | સમુદાયન સભ્યપદનાહીનાં રાત્રે સાક્ષાવ હારજ યાત, તુ વિન્ દશાવારિવિયા, વાચિ.વ્યાપારવિધયા , સમ્યુપતે જ તે સીન વસ્ત્રજ્ઞાનમનુત્પાદ્ય ન બોલાયાછમિતિ જ્ઞાનાવ વાળન તસ્ વ્યાપારવિધયા છારા, દેવજ્ઞાનમષિ સર્વસંવરહવારિત્રકારેવ નો પ્રતિ હારત્વેન વ્યાપાર વિધયા જ , વિમેવું થાપારવિધ મુશ્વવાળમિતિ પોલિસબ્યુજેન સમ્યનીતિરયાતસમુદાયવં મોલંનિષ્ઠશોર્યતાનિધિતહાળતાવચ્છેદ્રવં હાં . સુમવતીત્યુપર્શના પ . . . . . . . . Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તત્વાર્થવિરામદાર્થથીપિંt ત્રિધે મોક્ષનનેસ્તાવેછે મ7, 7 = તતિયપદ્ધસાત્વત્તા, તથૉ સતિ તેવું વિદ્ વ્યાપારિવિધયા વિવું વ્યાપારવિધયા કારણમિતિ ન સ્થા, હિં વ્યાપારિવિધવા નનä તત્ર પરંપરાખ્યોવછે, યસ્થ તુ વ્યાપારવિધ તત્ર સાક્ષાત્સM ફર્વ છેલખ્યત્વમેતાપિ નવું જાણવ, ત્રેિ સમુદ્વાયત્વચૈવિશિષ્ટાપરવાર્ય વિશેવિરોષણમ વિનિગમન વિરહૃતોનેસ્લપતય તકૂળ હોરણ બુધવચ્છિન્નાનેરળવા, હવાવીનાં સમુદાયત્વેન શરણર્વ, પ્રત્યક્ષેપ તેવા રળવૅડષિ પરસ્પરસારિમાવાપુરીમદેવ નૈવવિરહેડન્વાત્સાયપારિતિ વાળુ, મોક્ષો પાયોગવતવિમુદ્રાવતો મોક્ષમાપદ્રશ્યચેતેશે નિસમુદાયત્વે વર્ષના વયાન્વયપામાત, મોક્ષાવિષયોનવાવર્ગ ક્ષોત્પત્તિશ્યતિનિયતસ્થતિરે પ્રતિયોગિવિં, તવતવૈશ્વ સીમજ્ઞાનાવિત્રિયસમુદ્રાય નનતાનવ છે ત્વેડપિ ત્રયાળાં સહ્મરિમાવાડુપરમિડ્યાહતમે, શક્તિપસ્ય રળવશ્ય રાજ્યવચ્છત્તસ્યાતિરિવતવ થી શાળવચામ્યુપામે તું તસ્ય સર્વમેનિયત્રિતવિમિતિ તરૈવત્વાન્વોર્ડ - દ્રાવિના ન જ પ્રતિષ્ઠતામગ્રતીતિ વિલ્સા વિરતિવિ વેચત્ર વરસવધાર્થ, વિજ્યાચૈતુ હુરુષનિત્યક્ષ્ય સુમિપરત્વે દરય, વસૂત્રસ્વરસ્યાત્ ત્રયાળાં શરણ સભ્યનાન્વિતનનોગનન્તરમોશોપધાનસ્ત્રપલુરુત્વાસ્યાસમેડપિ સરિવિર યુજીનોલારિત્રામાવવાવ• ઢક્ષણોયેવસ્ય સુધસાદૃરયસ્ય સમ્પર્સનાચતમવિનિર્મિતન-મન્યાવૃત્ત સટ્ટાવા, સાક્નો યાંss૬ ન વ ત્રિતિ | તતિ-મોક્ષનનવનવિચ્છેદ્રવ કામિયથા કારાવશ્ય ધાર્યા હતાંક્ષાઓને વીર્યસમાધિવાળાત્યન્તામાવતિયોગિતાનવચ્છધર્મદ્વિપ તર્પ પતીવ્રચ્છેસક્વન્ધધટિતત્વેન જ્વમેવાનિ થાતું, થવો ૨ શનિવચ્છિનશક્તિઉં વારણાત્વમતિ િવ તા તય ધર્મવિધયા સર્વશ્વવિધયાં વાગ્વચ્છેદ્રગ્ધતિન ન સમ્બન્ધમેવાનિ, યવ સમ્પર્શનય જ્ઞાનત્વસ્થ ચારિત્રય જ બૉલનિષ્ઠર્યતાનિષિતાપિળતા છેવું તત્ત્વિપશ્યાતિરિજીયે વાં વારત્વક્ષ્યામિવ્યક્તવિધવા છુવાન તન્ત ન ધર હવાનીસિહ વાઢે ન ધટે ત્યાદ્રિતીતિસિદ્ધ વેશે છે વગ્વિચ્છેદ્રવામિવ તર્ વિદ્રક્ષાવુિરૂવારત્વ વાળંયો ન હોવા સ્યાદ્રાદિનામિત્યશિના શરિર પી હારત્વયેતિ મૂંઝોકાનાતસ્ય વાય વિવાપાર્થિવે તુ સંખ્યદર્શન તછુદ્ધ જ્ઞાન વા વિરતિમે વા ય બાપ્નોતિ તેર સુનિમિત્તમ હું નન્મ સુબ્ધમિવ મવતિ ક્ષણાર્થે તાત્પર્ય દરમિત્યોહુ | વિન્યાયિત્વતિ સન્યનાથેવિનન્મસુબ્બામ મિયાશાનિકાસાયે તત્ર દેતુમાહ-સૂત્રવારવિતિ | મિથ્યાછિન ન સમ્પનાદ્રિવાન્વિત નવ તત્ત્વ જાન્યતામતિ મુહબ્ધ સુબ્ધામિવ વો ન મવતિ તત્વ્યાવૃજ્યર્થ વિશેષણમાના બનાવવતમવિનિriષા સ્પેનિ* Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : રે૮ઃ તપાવવા વાર્થીપિt તીત્વનેનાવસ્થિત સ્વતન્ત્ર મુર્ધિતા બાવિજ્ઞાનસત્તાન ક્ષળિવિજ્ઞાનવાવવુપત દ્રુત્વચ પ્રતિક્ષેપ. શતઃ વરાત્રિચવાપ્ત વિં પદ્ધમિયાહાવાનાદ કુણનિમિત્તમપબિતિ, સુરક્ષયનીતિ દુધ, શત્ર સુલતાના નિમિત્તમતિ વિહે શારીરમાનહવાનાં વર્તમાનાનાં સાધાનાતાગ્નિ પરમ્પરા નિમિત્ત બન્માવેવિતમ્મવતિ, સત વિ “સુરતન—પ્રવૃત્તિવામિથ્યાજ્ઞાનાનાનુત્તરપિચે તદનન્તરપિાવાપીઃ ” તિ શૌતમસૂત્રે ૩ત્તરોત્તરસ્ય પૂર્વ પૂર્વતિ સરળત્વમેવસ્ટોત્તરોત્તર-માવપારણામાવયોગ્યપૂર્વધૂમાવર્યામવાડીમબેતા, “T Uશરીર વાવ સન્ત બિયાબિયે રાત ફતિ શ્રુતિવેતનમાહિદૈવ, દુધ નિમિત્તે દુ:ઉં નિમિત્તમસ્થતિ ના વિપ્ર સુર સંસાર, મૂર- . ચૈતન્મને જગન્મરણલક્ઝરતો નન્મનઃ સંતરારબત્વ, સંસારW ૨ જન્મવારણë પ્રતીત- - મેવ, પૂર્વસંતરમન્તરેખ ન્મારભવાત, નાડ્યાપિ ન દુઃનિમિત્તમિતિ વિનાપાડપિરાતિનવૃતિ, રિતુ ટુતાનાં નિમિત્તે ટુવચ વી નિમિત્તમિતિ પણે, “તમ પ્રત્યક્ષત, સમીપતરવર્તિ જૈતો ત્ય વિટ્ટઈ, તદ્વિતિ પરોક્ષે વિજ્ઞાનીયાત છે ? ” લ્યનુસારાત્ પ્રત્યક્ષતાનિ ફક્સ પ્રત્યક્ષસ્થ માનુષજ્ઞન્મન હવે વધત્વ, નરતિ હેવગતિષ વિતેરમાવા, પ્રત્યક્ષશ્વાત્ર નનનનનિવયતતિ પરિતાપયતીત્યા બનાતાનાન્ન પરમ્પરાનિધિ નતિ મૂહન વ્યતિક્ટોમસ્ત મહાપાપારમ્ભમત્ર જીવંતતિ તાન્યામને મિનિમરતાપ દુધે ધામિનિ મગફ સુમતિની મીત્યત ના તવામાં નિમિનિત્યર્થ ! મત તિ–નાનો ટુનછાયેતાનિકાવતરણત્વાશ્રયન્તાત્યા ! નિખ્યાજ્ઞાનામવે તોષામાવ, હવામાં પ્રવૃત્વમા તમન્નપામાવા, તાલીમ વાપવી ફતિ તમન્નત્રામાયું રળમાવબર્શનપૂર્વમાહડતરોત્તરત્યાઢિી “ન ઇશર વાવ ! કિયાબિયે શત” તિ ! વતિ સન્વોયને, શરીર શરીરહિતં સમાત્માનં વિવાળિયે સુવણે છૂશ ન સાવMીતા તજ્ઞાનિનો કેન્દ્રિયાશુપાધિવિમને સંસારનવૃન્મામાવાલામાલ હતિ માવા | સાઘરિક્ષાશ્રિત્યાઙ્ગ મટવારિ ! સંસારકારત્વે સંસાર ત્રાતિ પરબ | દ્વિતીયવિગ્રહમસ્થss સંતાય રેતિ | બન્મશાનવમૂત્રાઘબાળસંયોમાનપત્રાવછિન્નાર્યતાનિસવિતરણત્વ ! તન હેતુનાહ પૂર્વસંતરામપારેખેતિ ટુર્વ નિમિત્તમતિ પણે સુરનિમિત્તાત્યવ્રાગપરાવો વિક્લાય ન સન્મવતિ, તથા સતિ શાહુઅદ્વૈતા- સંસારપૂર્વ યાત્ સત્યવિજુ ર તથતિ ચાતુ, ન તત્સવતિ, વીતરાપબન્માનનિતિ ન્યાયન સંસારત્યાગ્નાવ સિદ્ધમાત્રય સરળસંસારપૂર્વવત્યા ત્યારના ૬-નાત્રાપ નેવાય છે મૂહનાના નેતા સુવાનાં સુવર્ય સંસારત્માસ્ય વા નિમિત્ત, નાડવાપ્તસમ્પનાત્રિયાળાં તદ્ભવમોક્ષમાનિનામત્યન્દ્રિો વિ : ભાગલા સમિતિ, પ્રતા પઠુષાર ઉપર વુિ કુવાનાં Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ કયા િવાળાથી પિતા ! વURધક્ષજ્ઞાનનિધિતૌદિવષયતાવવમેવ, તલ વનન્મચેવ સમ્પર્શનારિત્રિયોમપાયેક્ષ, તેન દેવકુવર્મભૂમિષ મામાનાં વર્મભૂમિષ પહેક્ષાનાં વિદ્યમાન તજ્જન્મનો નિયમતઃ -ધવામાડપિ = ક્ષતિ, તેનેતિ, અત્ર તત્પર્વ યત્પનોપસ્થિતિવિષયન વવવૃવૃદ્ધિવિષયતાવઃ ચ્છિન્ને રાજી, યો જ્ઞાનમિત્ર યત્પન્ન તપતિપાચતા વવવૃદ્ધિવિષયતાવવત્ત્વોપઅતિધર્માછ શરૂ, પતવમલાચૈવ ચરોનિત્યસખ્ય તિ શીયતે, તેન વાજપુરુષપૂર્વવારિત પોપ સ્થાપિતરાઝુસ્ય “ચં સૌ પરિક્રખ્ય વર, મેરી સ્થિત હોરિ હિતક્ષે મારૂતિ રત્નાનિ મહૌષધ, ચૂપષ્ટ દુહુર્ધરસ્ત્રી ? ” ફૂલ્યા છન્ચ વોચાર નિમિત્તમિલાવ ! તેના પ્રત્યક્ષવાન શવાદ્રપુરીયાધુપ્રત્યક્ષોવરસભ્ય નાહિત્રિતયામાયણમર્મભૂમિકાતમનુષ્યન ગ્રહના તેનેતિ અત્ર તત્પમિતિયત્પર્વ તત્વજ્ઞાને વિધે, તતઃ શ્ચિદ્યત્વતાયોર્નિયસમ્પન્યા, જ્યોચિન, તત્ર વાદરાય * તત્પર્ય સાપેક્ષત્વે તાદશને તેને ત્યત્ર તવવું, યાદશસ્ય છસ્ય તંત્પાસત્વે તાદશમેવ જ્ઞામિત્વત્ર યમ્, વાંદરાયોર્યતંદ્રતા પરસ્પર સાપેક્ષત્વે તાદશિવં પ્રશ્નતા છવ્વચ્છ વ્યવસ્થવ દર્શનીયમિત્યમિસન્યાય પ્રથમ પ્રકૃતતસ્ય તપ વધતિ, ઐતિ નેતિતૃતીયવિમર્યાદ્રિધટામિન્ય, વય તપત્યિનેના તસ્પામિત્ર જ રૂમને સમ્પન્ય યત્પત્તિ યો જ્ઞાનમાંતિ પૂર્વવાયાં થGહં, તપસ્થિતિઃ સમ્પર્શનશુદ્ધજ્ઞાનવિરત્યાતિમતઃ પુણ્ય વછવુદ્ધિવિયેતીવ છેલ્વેન ધળાપસ્થિતિ, પિયત્વેન વવવૃદ્ધિવિષયારા હવા પુરુષ, સિવિષયૌવષેવને (પુરુતદેવદ્રત્તરવયાત્વાન્યતનામા વિશે, તત્વચ્છિન્ને તપદું શરૂમ્. તથા વોત્તધર્મવિશેષાવચ્છિને શતરપર્વ તહેવ યાત્ ય િથમ મહિતિ તસ્ય યત્પન સહ સન્થઃ ફૂવાની પ્રકૃતિ છવ્વર્યા તવ યતિ-થો જ્ઞાનમિત્રોત વો જ્ઞાનામિતિ વાયથટમત્યર્થ, વય મિત્રને સન્યા, વરંપમિયો જ શરુયુત્તરેણ સ ન્યા તવમતિપાતતિ તત્વ તેને ત્યતદ્ધદશતવું, તત્વતિપાઘતથા વવદવુદ્ધિવિષય સુબ્ધતા સમ્બન્ધવાન્ પુરુષસ દેવદ્રત્તાસ્વિતાસાધાળધમૅવિ તત્પતિપાઘતયા વનવૃત્રિવિષય ભણવજવૃદ્ધિવિષયાવચ્છવલાપહાશિતધમાં દેવત્તવાહિ, તરવાન્ડને શ« યો જ્ઞાનામવેતદ્વારથદાં વપમત્યર્થ, ૩જધર્માછિએ શાત્પર્ય તેવા સાવતિ નિયમેન તત્વવં યાહિતિ તપસાપેક્ષત્વ ધરપક્વેયર્થ છતવમસન્ધાવપતાદશત્પતાનુસન્હાનાવ, અતિશનિવછતષ્ઠવાળા રાયચ્છદ્વતજીવોને નિત્યસમ્બ બ્લ્યુપર્શનાથSS તિ ૩યતત્વોરેશાવશેષોપરનદ્વારા નિત્યસમ્બન્ધત્વોપર્શનેનેચર્થ ક્ષતિરિત્યનેનાવા વવાતિ ! - “જે સૌ” તિ,વાક્યપદ પર્વ તવાર પુર નિવાસ, તર્વેમ્બવેરો--- જ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ::: तनाविधर मूलाचापित पुरुपककपूर्वकालो चरितपदीप थापितशत4 " तदन्वये शुद्धिगनि, प्रस्त. शुद्धिमत्तर: 1 दिलीप इति राजेन्दु-रिन्दुः क्षीरनिवाविच ॥ १॥ इत्यादौ तच्छ०५५ बुद्धिविषयतावच्छेदकत्वोपलक्षितधर्मावच्छिन्नशतस्य तस्याप्यत्र मृगाक्षि ! राक्षसपते. ऋत्ता च कण्ठावी" इत्यादौ च तत्पदस्य नित्यसम्बन्धाभावेऽपि न क्षतिः । सुलब्धमिति, यद्यपि सम्यग्दर्शनादिलाभात्पूर्वमपि संसाराविनामावि जन्म भयनाश्रय तथापि सम्यग्दर्शनादित्रितय भवमोक्षसाधनत्वेन मुलब्धं साध्यं सम्यग्दर्शनादित्रितयभाना श्यादिचतुर्विघसंसारदुःखोपनिपातमयहेतु कर्मक्षयप्रभवात्यन्तिकदुःखनिवृत्तिसधीचीननि प्रतिद्वन्द्वीप्रतिपा- ' तिपरमसुखलाभाभिभूखीभूतेन पुरुषेणैव भवति, अन्यथा क्षुद्रजन्तुनाभित्र मरणाचैवेति भावः । भवतीति यत्रात्यक्रियापदं न श्रूयते इत्याचभ्युपगन्तॄणां सर्वं हि वाक्यं क्रियायां परिसमाप्यत इति चोरीकुर्वतां । नयमवल व्यास्योक्तिरिति बोध्यम् ॥ १ ॥ चरितं पदं " अस्त्युत्तस्यां दिशि देवतात्मा, हिमालयो नाम नगाधिराजः ।" इत्येतटक हिमालयपदं तदुपस्थापितो हिमालयरूपोऽर्थस्तत्र शक्तस्य. यं सर्वशैला इत्यादिवाक्यघटकस्य यच्छदस्य, अस्य नित्यसम्बन्धाभावेऽपात्यनेमान्यः । स्वौचारकति स्वं तद वय इति वाक्यघटकं तत्पदं तदुबारकपुरुषः कालिदासस्तस्ककपूर्वकालोचारितपदं "स्वतो मनुनम" इति पाक्यघटकमानुपदं तदुपस्यापितो भनुरूपोऽर्थस्तत्र शक्तस्य " तदन्वये शुद्धिमति". इति वाक्यघटकस्य तच्छदस्य, असाऽपि नित्यसम्बन्धाभावेऽपीत्यनेनाऽन्वयः, " तसाऽयत्र भृगाक्षि ! राक्षसपतेः कृत्वा च कण्ठाटवी" इत्येतद्वाक्यपटकस्य तु तत्पदस्य बुद्धिपदेन - बुद्धियते, अस्य वक्ता रामचन्द्रस्तबुद्धिविषयो रावणस्तन्निष्टबुद्धिविषयतावच्छेदकत्मोपलक्षितो धर्मो रावणत्वं तदवच्छिन तस्य, एतेषु तत्तच्छक्तिप्रतिनियमपु न यत्तदोः प्रवेश इति नित्यसम्बन्धाभावेऽपि न क्षतिरित्यर्थः । द्रव्यक्षेत्रकालमावभेदमिन्नसंसारदुःखोपनिपातभयं करमावतीत्याशङ्कायां, कर्मणस्त तुगर्भविशेषणमाह-द्रव्यादिचतुर्विधसंसारदुःखोपनिपात भयहेतुकृत्स्नकर्मेति । कारणोच्छेदे कार्योंच्छेद इति नियममाश्रित्य कृत्रकर्मक्षयप्रात्यतिकदुःखनिवृत्तीत्युक्तम् । नैयायिक आत्यन्तिकःखाच्दरूपामेव मुक्तिमभिमनुते इति तदानीं सुखलेशोऽपि न, आत्मविशेषगुणानामिन्द्रियावाधीनत्वेन तदभावे तदंभावादिति त मनिरासार्यमाह-दु:खनिवृत्तिसंधीची नेत्यादि । निरावृतसुखं यात्ममानसमुत्थत्वन स्वाधीनमेवेति शश्वझायन पराधीनदुःखलेशाकलङ्कितत्वेन नि:प्रतिपक्षं, तत्सतिविच्छेदकारणाभावादप्रतिपाति, प्रकर्षकाटावस्थानादनुपममत एव परममिति तदर्थ प्रत्यकतानमनसा-पुरुषेण सुलब्धं मनुष्यजन्म भवतीत्यर्थः । यत्राऽन्यक्रियापदं न श्रूयत इत्यादीति । अत्राऽऽदिपदेन तत्राऽप्यस्तिर्भवन्तीवर्तमानापरः प्रयुज्यत इति प्रायम् . 1नयमवलम्च्यात्योक्तिरिति-अत्र न्यायनिष्णातास्तु धनुर्वरः पार्थ एव घटो नारित हंसीव निमलं जलं करिकलेच्छा : कालात्रय इत्यादिप्रयोगदर्शनाद्वाक्यमा क्रियापदस्य नेयत्याभाव एवेति प्रा .. इति प्रयमकारिका काव्याख्या समाप्ता ॥१॥ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्वार्थविवरणद्धार्थदीपिका। जन्मनो दुःखनिमित्तरवसुलब्धत्वयोः कथम्भावाकासायामाह . . . . . . . .: (भा०) जन्मनि कर्मक्लेश-रनुयद्धेऽस्मिंस्तथा प्रयतितव्यम् । कर्मक्लेशाभावो, यथा भवत्येव परमार्थः ॥ २॥ (व्या० ) जन्मनीति० मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकपाययोगायः स्वस्वहेतुभिः क्रियत इति द्वितीयकारिकावतरणिकामाह-जन्मनि इत्यादिना । मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकवाययोगाख्यैरिति-मिथ्यादर्शनमविरतिः प्रमादः कपायो, योग इत्याख्या येषां ते तथा तैः । तत्र मिथ्या-अलीकमयथार्थ दर्शनं दृष्टिरुपलब्धिरिति मिथ्यादर्शनं, तच यद्यपि जीवादयस्तरयमिति निश्चयाभावरूपानधिगमात्मकं, जीवादयो न- तत्वमिति विपर्ययात्मकं चेति द्विविधं, तदुक्तं वाचमुख्यैः " अनधिगमविपर्ययौ च मिथ्यात्वं" इति, तथाप्युपाधिभेदादाभिहिकमनाभिग्रहिकमाभिनिवेशिक सांशयिकमनाभोगं चेति पञ्चप्रकारम् । तत्राऽऽधमनाकलिततत्वस्याप्रज्ञापनीयताप्रयोजकत्वस्वाभ्युपगतार्थश्रद्धानलक्षणं, यथा यौद्धसायादीनां इदमेव दर्शनं शोभनं नान्यदित्येवं स्वस्त्रदर्शनप्रक्रियावादिनां - स्वाग्रहग्रहपहिलानां स्वस्वाभ्धुपगतार्थश्रद्धानादनिवर्तनीयानामत एवाप्रज्ञापनीयानाम् । द्वितीयं च स्वपराभ्युपगतार्थयोरविशेषेण श्रद्धानलक्षणं, यया " सर्वाणि दर्शनानि शोभनानि "" इति प्रतिज्ञावतां मुग्धलोकानामीपन्माध्यस्थ्यभावनावताम् । तृतीयं च विदुषोऽपि, स्वरसवाहिभगवत्प्रणीतशास्त्र वाधितार्थश्रद्धानलक्षणं, यथा शास्त्रतात्पर्यवाधं प्रतिसन्धायैवाऽन्ययाश्रद्धावतां गोष्ठामाहिलादीनाम् । चतुर्थं च भगवचनप्रामाण्यसंशयंप्रयुक्तः शास्त्रार्थसंशयः सांशयिकं, यथा काशा मोहनीयकर्मोदयाद्भगवद्वचने प्रामाण्यसंशये सति न जाने किमिदं निगोदधर्मास्तिकायोदिकं सूक्ष्मतनं भगवत्प्रोक्तं सत्यं उतान्यथेति संशयवताम , यतो निश्चितभगवचनप्रामाण्य‘काना नँय संशयः, ते एवं तर्कयन्ति-कस्मिविद्हनतरव. मधुद्धिर्न प्रविशति तत्र गाढज्ञानाव: रणकमोद यप्रयोज्यमबुद्धयतिमान्यमेव कारणम्, न तु तत्तत्वाऽभाव, जिनैस्तथैव प्रज्ञप्त वादिति। पञ्चमञ्च साक्षात्परम्परया च संशयनिश्चयसाधारणतरवज्ञानसामान्यामावलक्षण, यथैकेन्द्रियादीनां तत्वातचानध्यवसायवता मुग्धलोकानां चेति । अविरतिहिंसानृतस्तथान: परिग्रहेभ्यः पापस्थानेभ्यो विरतिपरिणामाभावो हिंसादिषु प्रवृत्तिः, असंयम इति यावत् । प्रमादः स्मृत्यनवस्थानं कुशलेवनादरो योगदुष्प्रणिधानञ्च । कपाय: क्रोधमानमायोलोभ. . भेदाचतुर्विधाः, पुनरपि प्रत्येकं तेजन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणसंज्वलनभदाचतु: प्रकारा इति षोडश भेदाः । कपायसाहचर्यातकपायोद्दीपनाद्वा हास्यरत्यरतिभयशोकजुगुप्सास्त्रीपुरुषनपुंसकवेदाख्यानां नवनोकपायाणामपि परिग्रह कार्थः । योगश्च मनोयोगपंचायोगकाययोगभेदेन त्रिविधः । तत्प्रभेदतः पुनरपि पञ्चदशप्रकारः, तद्वितस्तु विस्तारभयान तन्यते । ... मिथ्यादर्शनहेतुको हि पन्धः 'प्रकृष्टतरोऽशुभानुबन्धरूपश्च, मिथ्यादर्शनपरिणाम Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૬, ૪૨ : दीपिका । મેં જ્ઞાનાવરણ થપ્રારમ્, ગુરચર્યાસ્ત વાચનયાત્મતિ શા મોહનીયમેવાઃ ોષાયઃ થાય, નાને પતિ જાચવા મનોહેતુ જર્મ, તતઃ કોષોમાનઃ દેશ, તો રાવિન્હેતુ તીવ્રર્મવન્ધનું, તતા નમવતઃ પુનર્રાપ મેં તતઃ શ, તેથ પુન િનમ્મેત્યેયં ખન્મનઃ વર્મઢેરનુદ્ધË સન્ત તવેષ્ટનાળું સંસારસ્યાનાનિનું દુ:ખ વમાનવ પર્યવતિ, વર્તાયેશા સમય નુત્રવે વિસેવ્યતા ગાન વાપીવાનું પ્રચલવાનાધારāપૂર્વાંતવાદ્ય, અનેન અ દુ:નિમિત્તત્ત્વનન્મન આવ્યુંહતું મતિ, અરિતિ પ્રત્યક્ષ મનુષ્યનન્મનાર્ચ, તથૈવ પુરુષઁવસ પ્રાન્તવાણ્, સથેતૈશબ્દ સભ્ય-શનાર્વાસપૂર્વનિત્યચો ચા મતીયુત્તરચચાાાપેક્ષ, પ્રતિતાંતિ અત્ર મોય બાવર્ચે ના પ્રાન્ત્ર, તથા હૈં પ્રવર્ષે સીભના સર્શ ઢીમાનન્તરમાવેલ વા -તપઃસંચવિષે અતિતમિચર્ચ, પ્રયત્નત્રયોનનમાઢ મેવામાંવો યા મનીતિ થથા ચેન 12 સત્યપન્ન વેન્કમાવાૌમાર્યું જ સમાવાત, ઉત્પન્નસન્ધ-નિવ્યાખ્યાનનસયામાંવેતાવિરતિપરિણામદેતો વધ: મતીયત વૃતિ તદ્વેતુઃ સ।સ ૬ પામમાન્યાત્તતોડपकृष्टवन्धः, अविरत्यभावेऽपि प्रमादहेतुस्ततोऽप्यपकृष्टतरबन्धः कस्यचिद् विरतस्य सति માટે તદુપળ્યે, નિષ્પર્શનાબિતિત્રનાવાડમાંયે વાહેતુ તતોઽવ્યવૠતવન્ત્ર, સભ્ય વિતસ્યાઽપ્રમત્તાથે સંન્ન∞નષાયોયસદ્ધાર્થે તસ્ય સદ્નાવાત્, તતોઽવ્યયઃતો ધન્યો જેવો હેતુ, ઉપશા મોક્ષી મોહસો હિક્ષણમુખસ્વાનત્રયવાતનો વીતરાગલા જોમસમાવે સાતે તાજ્ઞાાત્ । બામ્બરાહુ સયોમાંઈનો ચોપસમાવેય ન તામિત્તો વન્યઃ, તત્ય ઝીવન્મુત્ત્તા મોક્ષતિગ્નેરિયા, તન્ન ચુમ્, યોગપાપગસમાવે તમે દ્વિતાનત્રિલ તાવહનીયવધ પર્યાવશ્યન્માવાત, અન્યથા તૈય જાળમેવ ન સ્થાત્, ન જાડસિદ્ધાન્તઃ “ માત્ર વસ્તુ નવાયાંય વેરાયા સુક્કુમા રિયાવહિયાવળિયા બ્રા માં પસવ પુડ્ડા વિત્તિયસમયતિયા સતીયસમર્યાનોરયા સા વહાં પુઠ્ઠા વૃદ્ધીરિયા વૈક્રિયા નિજ્ઞા સેયારે અમાં વાર્તાને માંત” ાંત શ્રીગ્રમાક્રુષ્ણવજનાત્ ણ જેવો હેતુ વ ગન્ધા, પૂર્વસ્મિન પૂર્વવિદ્ઘત્તરોત્તરસ્થાપિ વહેતોસવાત્, તńદ, સાવચેતના દિ બૅન્કો યોાહેતુળોઽષ, પ્રમાદેતુખ્ય ધાયો હેતુોષિ, વેતિહેતુ જ્ઞ બાપાયોાદે પ્રીયતે, મિવશનદેતુ ધ્યાવેરતિકમાવધાચયોગહેતુતિાસ દૃત્વ, પવિતન, વિરમવાશે વિતત્ત્વતે । સંસારત્યાગનવિë તુલમૂવરવમાવાયેલ પર્યોવસ્થીત ત્ર સંસારોનાવિમાન, મશાનુવદ્રન હન્ય ચાનુત્તરિયનુમાન પયૅવાંત । યચા નાના મોરનુવદ્વત્યું તથા મંજીયોાવે માનુબહૂનવિશિષ્ટમેવાત નનિ બેચૈનુદ્ધેઽાિત થમુમિયાાયાં હેતુમાથું- વિતિ “ હુમઃ પ્રત્યક્ષાત ” પૂર્વા ોમનસત્યાગી બન્યાયમાહબન્યક્ષ કૃતિ | પૃષ્ટિનોખર્ચે । સર્વોત્ખનેતિ-મનોવવાાયદેતુયો( 44 Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तावाविवरणलादीपिका 1 प्रकारेण, स च प्रकार: "शायति चारवियुपातदर्शनी हि शुद्धाशयत्रिभुवनमप्युपहितमाह महेन्धनन् । ज्वलितकर्मदहनक्वाथ्यमानमशरणममलज्ञानागमचक्षुषोऽवलोक्य गर्भवासादिमयोचिनः प्राणातिपातादिविरतिप्रतिज्ञामाय, तहटीकरणार्थं च पञ्चविंशतिभावनामावितान्तरात्मा, द्वादशानुनास्थिरीकृताध्यवसाय संवृताश्रवत्वा . . त्रयेणेत्यर्थः । गर्भवासादिभयोदिन इति-०५०यसमूहरू५कदमपशुचीभूतोजनीयभयानके गर्भे यो वास स आदिस्मिन् गर्भनिष्क्रमणादी स गर्भवासादिस्तत्प्रयुक्त उक्तरूपे गर्भे किमधोमुखेन वसनीयम् ? तत्र च प्रथमतया मातुरात पितुः शुक्रं तदुमय संसृथ्मतिमलिनमप्रेक्षणीय एवं लक्षण आहारः किमाहर्तध्य इत्येवंरूपं यद्भयं तेनोगं संसारीदासीन्याधीनवैराग्यं प्राप्त इत्यर्थः । उक्त सिद्धान्तें गर्भवासःखम् - "ईहिं अग्गिqण्णाहि, संभिन्नरस निरंतरं । जावईअंगोयमी! दुखं, गम्भे अगुणं तओ ॥१॥ भाओ नीहरंतरस, जोणीतनिपीलणे । सयेसाहस्सिों दुक्खं, कोडाकोडीगुणऽपि वा ॥२॥” इत्यादि । आदिनाऽगर्भोत्पन्ननारकदेवनिगोंदादिदुःखं प्राय, त सिद्धान्त भिहितं परमपिणा गरएसु जाई अक्खडाई दुखाई परमतिक्खाई । कोण्णे ताई जीतो विपास कोडीवि १ ॥ १॥ " अच्छिनिमीलणमित्त, नत्थ सुहं दुक्खमेव पंडिबद्धं । नरए नेरईयाण, अहोनिसं पचमाणा ॥ २ ॥ देवावि देवलोए, दिवाभरणापुरनियसरीरा । जं परिवति तत्ता, तं दुक्खंदारु तसिं ॥ ३॥ तं सुरविमाणविभनं, वितियचयणं च देवलोगांओ । अवलियं चियजं न वि, फुइ सयसकर हिययं ॥ ४ ॥ ईसाविसायमयको हमायलोहेहि एवमाईहि । देवाऽवि समभिभूआ, तेसि कत्तो सुहं नाम ॥ ५॥" इत्यादि “जं नए नेरइथा दुक्खं पाति गोयमा ! तिखं । तं पुण निगोअमझे, अणतगुणि मुणेय ॥१॥" इत्यादि च । पञ्चविंशतिभावनाभाषितान्तरात्मेति-प्राणातिपातादिनिचिलक्षणपञ्चमहावतानां दापिादनार्थं मान्यन्तेऽभ्यस्यन्त इति भावनाः, अनभ्यस्यमानाभिविनाभिरनम्यस्यमानविद्यावन्मलीमसीभवन्ति महायतानीति तन्नैर्मल्यार्थ ताः प्रतिदिनं भावनीयाः, ताश्च प्रतिमहावतं पश्च पञ्च भवन्तीति पञ्चमहानताना पंञ्चविंशतिर्या भावनाताभिर्भावतो पासितोऽन्तरात्मा यस्य स तथेत्यर्थः । पञ्चविंशतिर्भावनाः " हरियासमिए सयां जए १, उवह भुजेज व पाणभोयणं २, आयाणनिक्लेवदुगुंछ ३, संजए, समाहिए संजयए मणो ४ वई ५ ॥ १॥ इत्यादि प्रवचनसारोद्धारोक्तपञ्चमायाभिरवसयाः । द्वादशानुप्रेक्षांस्थिरीकृताध्यवसाय इति अनित्याशरणसंसारकत्वान्यत्वाधुचित्वावसंपरनिर्जरालोकस्वभाव. बोधिदुर्लभत्वधर्मस्वाख्याततारूपाभिदिशभिरनुप्रेक्षाभिविनाभिरिस्थरीकतो ढाकतोऽध्यपसाय:-शुभात्मपरिणतिर्थन दिव्यदृष्टिना स तथेत्यर्थः । संताश्रयत्वादिति अनेन संवर प्रतिपादिता, असाऽऽश्रवसंवरणलक्षणत्वात् , संवरच पाद्रव्यभावमेदतः, तत्र Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તરવર્ષિવિદ્યાર્થીપિકા નામનવમ તાસંમાહિમિશ્ચ પૂર્વે પાત્તક્ષયગુટ્ટારીયો મોદાદિમબદ્ધયાદવાસવરુપમૈશ્ચર્ય - વનવતુષ્યતિક્ષયે રામાવાવથામાનોતીતિ ” હતુવતોડવઃ | - નાદ્રિ- ત્રયાણામન્યોન્ય વારણમાડપિ મ પ્રતિ, નન્મનોડક્વો ન નિયત, તાદિનનૈસાડ વોરનુભાવાત, નન પ્રતિ જ તયોરન્વયો નિયત તિ શમાવ ફલૂ, 7 7 નન્મામાવ તિ, રામાવહયારબામા સતિ બન્મામાંવત્સવ કાર્યવોડશ્ચન્દ્રસિદ્ધ હવ, યદ્યપિ નિયતવ્યતિવર્ય નન્સન જમાવે નર્મદૃશામાવો ચનસિદ્ધ હવ, તથાપિ યથા મરોષ પાવ તદુઓ પ્રવૃત્તિ, ન તથા નમ્નનિ મોલાવ્યાણસ નાવિલાધનનેદસાધનતાતિલધાની તબતિવર્ષીય સદ્ભાવાત, વન્યુમોનિયતમાનામાવજનામાવોપવાનફ્લાવર થવા સામાનિ કર્મયુદ્ધહાવાને તો છેતરાધા, મવદેશિયાત્યાર દ્રિતીય : તિ, તd બવવનસારોદ્ધાદિતમારે “બાપ ર ા, દ્રવ્યમાંવવિમેવતા પુતહાનિ-માત્મજાવતો મજે ? તસ્ય સર્વશમ્યાં, દ્રવ્યસંવર ! મહેબિયાયરિંતુ, ત્યારે માવસંવર # ૨ ” કૃતિ / નવ્યવર્મવન્યામાવવું તારુંમહિ નમિનેશનમ તિ-જામિનવાન વ્યાનિ જ તાનિ વર્ષામિનવલપિ, મનવવર્તમાન બારિશ્વન્યો ન વિદ્યતે ર તત્યર્થ ! નવાઝવનિરોધનાSS- - પુનિવસમાજમામાવો, ન જ તપતાં માહિમિનિટશ્ચિતવર્મક્ષય વિના તાત્રે કાર્યશામાવાવસ્થામાનોતીત્યો વિરોધળાપરમાદ–તપસ્વંયસાહિમિતિ | તપસંયમ રળપૂર્વોપાર્મિશયનન્યજી દ્વારા નિર્ચા શવાસવરપરમૈને થર્ય કૃતિ પ્રાપ્તવજ્ઞાનવરના=શ્વવિક્ષણોāશ્વર્ય ફૂત્ય | સૂત્ર હેતુમાંહ-મોરાહિમપ્રવતિ | મોહનર્મજ્ઞાનાવરણાાિર્માત્માનામનજ્ઞાનાઘાભવમાવતૂપાળાં કમળ ક્ષય સમૂહ લઈ તપાદ્રિ ! મોહમણે નિતે . ' તન્યાયાધુતરાનેવ મવતીતિ જ્ઞાતિમત્ર મોહસ્ય પ્રધાનતયા પ્રí કૃતનિતિ કવન્યનશેષનું પ્રતિક્ષા: તિમોક્ષhહતિવશ્વનીયાયુનોત્રWવોપબ્રાહિકર્મ પ્રકૃતિય ત્યારે નિયત ફુતિ–શન ત્રયસમાવેગપિ ન તળિ વારા નિર્વતિ, અન્યથા રામપિ નિદાન તસ્પાર્ગ વારત્વ સ્થાવિતિ ભૂતિયું ! નયમિવારનાયાસ્તરવાતિ, અન્વયે નિયત કૃતિ વણસ નિમેન કમલઠ્ઠાવાહિતિ માવા નિયતા વયવહાર્મિશયોન્મ પ્રતિ વરણત્વે સિદ્ધ તદમા તદ્માવડો વતસિંદ્ધ પત્યાહ- શરમાવતિ | નનું મા મૂત્વયા, બન્મામા વશમા તિ નિવારવત્યેતિ તત્વનામાવ રૂવું રહ્યું. નોકત્યાશાવામા-યજીત્યાદ્રિના ત્તરતિવર્ચે-વબતિવાય ! વન્યમક્ષિનિયત ભાવનાવાશેરામાપાવાનrsષ્યયવાવ રૂતિ | કોશા ધા- : વાયવ તૈકાના વિદ્યા શાત્મના મુખ્ય ધ્યબાના વન્ધ ફમિલીને, ચાહે તવાર્થ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તત્ત્વચનિવળમૂઢ થવીપિ-1 : ૬ : ર્મક્ષયે મારિત્યાયામ વ્યવહારોપબત્તયે પ્રધાના મેસંજ્ઞા તનેદેશાધ્ધ શા કૃતિ જ્ઞાપનાય ક્ર્મબ્રાન્ । અથવા મઢે રજંત્ર મૈશામાત્ર ત્યત્ર પઝેશનેનદ સમતચૈત્ર મેષવચાપાવાનત . ર્મનન્યત્ત્વ છુરોપ્વમિમત, તથા ૬ દેશાનાં દુવાનાં નવેન વિનાગિવતતદ્ઘિનાશાર્થી પ્રવૃત્તિપન્ના, અનપેક્ષ્યત્વે તુ નીવાર્તાવવમાવસમરીવેન તે વિનાશ પ્રવ્રુત્તિનુંયેટા સ્વાત્, અંત વ ૬ પ્રધાનેધરાવિૠતસ્યાપિ વ્યવવ્હેવઃ, તત્ત્વ તુ ધાનેશ્વરાતીનાં જારણાનામનાઘનન્તલેન તાર્યાાં તેષામવિરામ વ સ્વાતિતિ, ષ તિ અનન્તરમવધારળાર્થે વારો દૃશ્ય, તેન = ન્યૂનાધિયોઃ પરમાર્થેશ્વચ્યવન્ઝેવઃ, : પ્રત્યક્ષવૃદ્ધિવિષયઃ જર્નશામાંવ, પરમાર્થઃ પરમઃ પૂન્યમાનો વાર્થઃ પ્રયોનનમ્, અનયા વાયેયા દર્શર્શાવામō મોક્ષમાવેયન્ત્યા ગન્મનઃ સુન્ધન્વં સજ્ઞમિતમિતિ II 5 ॥ સર્વેષાયા/ઝીવ મેળો ચોમ્યાન પુત્પાાંનાવ્ત્તે સ વન્ધઃ | ૮ | ૨ ||તિ। તેષામેત્ર મેપુાજાનાં સર્વથા યે સાત વજ્ઞાનં તતબ્ધ મોક્ષ, તથા ૨ હેગમાવે નિયમેન વન્યસ્તન્માવે શ્વ મોલ ાંત વૃનિયતòશમાવો મૌનિયતÒશામાત્ર ત્યેવ સિદ્ધે સત્યત્રંત્ વિપ્ર તે ક્ન્ધમાલ્હનયતો માત્રામાૌ થલ્ય-સ તતિ । તથા જ્ વનિયતો માવો ચર્ચ મોક્ષનિયતો માવો ચથ હેશસ્ય સ્ વર્ધમોનિયતમાત્ર માપવòશ, તવમાવોષાવાનસ્ય મોલોપયતયાઽવ્યયંત્ર કૃત્યયંઃ । મેં તૢિ મહેરમાવ રૂચત્ર વિમર્થે ભેદોષોદ્દાનં પ્રમેયાશજ્ઞાનવૃચર્યમાતૃ--ર્મક્ષયતિ । જો માવતઃ વાર્થઃ વારગાનન્યસ ન વનારવ ાંત નિયમેન હેશાનાં દુલ્લાનાં બારણાનન્યત્વે નિત્ય વપ્રસાદ દેિનાશા પ્રવૃત્તિદુધદા સ્થાવિયાન-અનપેક્ષ્યત્વે ત્વતિ-બારાપેક્ષવામાવે તુ, જાપાનન્યત્વે સ્થિતિ થાવત, અત વેતિ । મહેશાનાં મૅનન્યારેવેત્યર્થઃ । ત¬àધાનેશ્વરાવઋતત્ત્વ | r કૃતિ દ્વિતીયારિ(વ્યાખ્યા સમાr ॥ ૨ ॥ - નનુ પ્રાણસમ્યગ્દર્શનાતેમોંણો મે શીત્રં સ્વાત્તવા મિત્યેવં મોક્ષમાર્લેમાળ સ્થાવ તારાન્ મવે યિાનુષ્ઠાનેન ગીવારામમાન્યાન્મોલો TM મવર્ત્ય, તથા ૬ યિાનુષ્ઠાન મોમિષિણા 75ડવળાય મોક્ષાનુત્પાવાત્ સાવળિયાાદ્ધતિ ચૈત્, મૈત્ર, વાનીનિશાનુર્વાળિયાનુષ્ઠાનું પરમ્પરયા મોક્ષ પાવ પ્રયુદ્ધસારદ્વારા માન્તરે કહેજાકાર્યન્નશમનાવાત્પાવાત,માવિજ્ઞાનવિત્યુ હેતો સિદ્ધે, તમવીધાન્યવિજ્રયાનુષ્ટાનમારાધનીય સાક્ષારવર પર મોશાવવાનું મુખ્યમ્બર્શનવિિિત સંસ્કૃતિષક્ષાનુમાનેન વાબિતત્ત્વાશ્વ, પશ્ચિમસ્યાવિજ્ઞાનપિ નૈવેવાની મોક્ષોષામિતિ નૈવ તક્ર્વ્યમ્યસુનીય स्यात् | ર્નાન્ધવાનીં તદ્દસ્યામુત્તરોત્તરમને સુર્વાયોગાશ્ર્ચર્યમાનમસાક્ષાયોપમિમાત્રે સ્થિત્ત્વ ક્ષાવિશ્વમાવયેળ પરિણત સત્તલેવ પરમ્પરા મોક્ષાત્પાત્મવતીતીજ્ઞાનીમાંય તદ્દસ્યસનીયમૅવેતિ શ્વેત્, તનુશ્યમંત્રાપિ, તથા “ નું મુત્તે, ધુળ ચોસ ૨ થ નમામ્નિ 1 તું પાવર પાછો, તેળ ય બદ્માસનોÜ ॥ ? ॥ ‰ ફતિ સિદ્ધાન્તોત્તે “ અનેઞસિદ્ધાતો યાતિ પરાં તિમ્ । ' ાંત માવજ્ઞીતો ધ, બત્ર ૬ઃ- શુક્ષ્મા Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તરવર્થિવપૂઢાર્થીપિ ' - પ્રાયેનાલીમાના િતબિનમ મોલ મવસ્થીતિ તૈત્રિનુકાનામધમેતિ વિજ્ઞાથ મા મોક્ષમાડ થાઇરવરતઃ તિ તરશ્વાસનાયા (મા) મધમે વા વારસ્વતપું.. - કુશરાનવેરથમેવ, નવ ધધા ને રૂ . (૦) માલા તિ, વા નથી, પરમાર્થય વર્મૉશામવિ સવિતર્યાવસ્થાજૈવિધ્યતસ્ત્રમવાસ્તવવ4માવાસંતનનષરાખ્યાદિતોડનવાસાવિત્યર્થ, “ોવિતિ ” ચારાથમિતિ રોપા શrઃ તેવુ સસ્તુ, વધભૂતેષુ ? બારમેરવવું, અશુમવનવુિ, તથા પ્રયતતયિત્ર પૂર્વવાદનુવર્તનીયમ્, તથચય થથાપેક્ષત્નાદાહ સુરાહીનુવલ્પમેત્યાતિ, સુરરાનુઉં છુશમોગન, વધારાવનોબાજીરાવુરાતુળોન્ચવ, સ્પતિ સરપૂર્વજળક્ષને ધીરે સપ્તમી, તેન કુશરું સ્વાત્યન્ડિયર્થ, કુશનુવર્ષે વિમિ સેવનમતિમા મધને ખ્રિતિ વક્ષ્યમાળોચ અભ્યાસાર્દુચમ્યાલોમવર્ધત ઇતિ ન્યયા મોલાનુાયાનુષ્ઠાન પૂવપૂર્વમઝમાદ્રમાનSિતમુત્તરોત્તમ સુવિધાપૂર્વનાતિમાન સિદ્ધારાસોપાવિશિશુદ્ધતશુદ્ધતમત્રિયાનુકાના પ્ર છુપમાવાનેન સવારિત્ર ગાયત્તવ પરહયા મોક્ષધામુપાયતીતિ મિત્વા જાવાનુવનિવનિરવઘશિયાનુનમજ્યસામર્થતા-પિ “શોર્વ વિ બુદ્દષિ, બાગવૃદ્દા ધ્રુફ પરમ ! ૦૬ રવિરપર, વઢિલિતિમિર ખાને // ? ” ડ્રત્યાઘહેંખેલૈનિર્ણન જ્ઞાનદ્દર્શનાટ્યતાં વર્થિનાખ્રરયમેવ, ન તુ છાઘનુમાવા પક્ષપાનુપત્તાવરિ તત્રાગા વંssā વિધેયનિત્યે પ્રોત્સાહશાળાથેન હતીવર્યાવતરળમાકાલસર્શનારિત્યાવનો ! તિવનિ ! જર્મ ઢિવિયં સશ્ચિત પ્રારબ્ધ જ, યાહાનોનુ તા, યહુજુર્વ તદ્વિતીયમતિ, દિતીય મનિષેધાર્થ સિદ્ધિતિ વિશેષણમુરમ્ વેશનિવનિઘtીતિ-“જ્ઞાન શિવ વિવાદ્ધિ સાંવર, જર્ન લિથોતિ ૨ પશિનુકવિય” છે હતિ મહાવીરતવાળો વિરતિસંવર્મિતત્વેન ત્રિયાંssaછર્મ ઐતિહાદ્ધિ, શનિ સમ્પtવસંવર તત્વેનાડાછર્ષ પ્રતિહાદ્ધિ, તપશલેન જ સાતિવને ક્ષિોતિ તત સમાખ્યામના વધામાવત માનસ્ય ૨ નિરર્યું પરિક્ષયાદ્ધવાતિ યોનિનો મોલારિરિત્યાર્પતતશ્રદ્ધાનતા શાર્થના હેતુપૂત રાજાનુવલ્પમેવ જ્ઞાનશિયા જ યથા સાથ કથાતિતવ્યનિતિ માવા | નિરાશસમાવેનૈવ મોક્ષાર્થના દુનિશિયા, વર્તવેન્યુ સિદ્ધા, તત્ર “નો દૃ હોદાણ માંધાર મહિદૃન્ના, નો પરોગપાણ પાયાદિષા નો વિજિસદલિતોદિયા ધાયાદિષા, નિજી વાર હૃતિદ્દ ક િયાફિકાત્યાયામેનૈમિષારે ત્રિશુમાસ નિષિદ્ધા, મોમધેન વ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. तवादिपरावीपिका । ___त्याह- अनवधमिति' अनवधमगर्य निष्पापमिति यावत् यया, कर्म शुद्धप्रयोगहेतुकं - कल्याण प्राप्तिकारणं शुभं क्रियानुष्ठानं दया वैराग्यमित्यादि, न चैवं शुभाशंसाकृत निदानत्वम् , भोगप्राप्तिफलस्यैव तस्य निदानत्वेन नियमितत्वात्, तस्यैव चागमे निषेधात् , " सहंकामा विसं कामा, कामा आसीविसोपमा । कामे पत्थेमाणा, अकामा जंति दोग्गई ॥ १ ॥ इत्यादिना ॥ ३॥ gવારવ્યવચ્છેદ્યાગાનુવમેળોડમાધંમવિમધ્યમાજિંતયે સ્વામિન, શાચबन्धस्य च मध्यमः स्वामीति तानुपदर्शयन्नाह (भा.) कहितमिह चामुत्र, चाधमतमो नरः समारभते। - . इह फलमेव त्वधमो, विमध्यमस्तुभयफलार्थम् ॥४॥ . (व्या० ) तत्प्रभृतितिभिः कारिकाभिः समानेऽपि सर्वसंसारिजीवानां जीवत्वे पूर्वोपार्जितशुभाशमक परिणतिशेन पुरुषार्थसाधनभेदादधमत्तमाधमविमध्यममध्यमोत्तमोत्तमोत्तमलक्षणं षड्विधत्वमावेदयत्याचार्यः । आऽपि महानिशीथसिद्धान्ते प्रत्यपादि-पुरुषपदकस्वरूपं किञ्चिद्भङ्गयन्तरेण " गोयमा ! छविहे पुरिसे णेए तं जहा-अहमाहमे, अहमे, विमज्झिमे, उत्तमे, उत्तमुत्तमे, सञ्चुत्तमुत्तमे इत्याद्यालापककदम्बकेन । अहितमकुशल सापायम्, ३६ चामुत्र च इहलोकपरलोकयोः, आद्यश्च एवार्थे, अनेन च इहलोकपरलोकाहितमात्रानुबन्धिप्रवृत्तिमरवमयमतमरवलक्षणमावेदितं भवति । अधमतमः सर्पनिकृष्टः पापीयान् , नर इति पुरुषनिर्देशो व्यवहारप्राधान्यादिभिः । समारभते इत्यनेन द्वितीयावस्थावच्छिन्नत्वं कैमुतिकन्यायेन चाचतृतीयावस्थाविशिष्टत्वमपि सूचितम्, अवस्थात्रयी च संरम्भसमातस्य निदानरूपत्वात्, न तु कुत्राप्यागमे शुभाशंसा, तत्कृतस्याऽनिदानरूपत्वात', अत एव"चारिजेइ जइवि निया-णवंधणं वीयराय ! तुह समये । तहऽवि मम हुज सेवा, भवे भत्रे तुम्ह चलणाणं ॥१॥" इत्यायपि सङ्गच्छत इत्याशयेनाऽऽह न चैवं शुभाशंसाकृतमित्यादि । सल्लमित्यादि । अप्रविष्टं शल्यं कायभेदबलारोग्यपरिहाणिमिवाप्रविष्टः कामोऽपि संयमभेदात्मक्लेशबलाऽरोग्यज्ञानादिपरिहाणि विदधातीति सादृश्येन शेल्यमिव शल्यं, कामाशदादयः । मरणापादकत्वसाधम्र्थेण विषमिव विषं । आशीविषोपमा:-आशीस्तालगता दंष्ट्रा तस्यां विषमस्य आशीविषः सपस्तदुपमाः, अभ्यत्वात् कामान् प्रार्थयमाना अपि अकामा इष्यमाणकामाननाप्नुवन्तः, इच्छाविषयकामकर्मप्राप्त्यमाव। इति यावत् । याति दुर्गतिम् नरकादिगत्याश्रया भवन्तीत्यर्थः । अत एव " भोगे अमुंजमाणा वि केइ मोहा पति अहर गई" इत्युक्तमपि सङ्गच्छते । - इति तृतीयकारिकाव्याख्या समाप्ता। चतुर्थावितरणिकामाह एवकार०यवच्छेचस्येत्यादि। इहलोकपरलोकाहितमात्रानुबन्धिप्रवृत्तिमत्वमिति । ऐहिकपारत्रिकहित. फलाननुबन्धित्वे सत्यहिकपारत्रिकाहितफलानुबन्धित्वविशिष्टसंरभसमारभार भक्रिया यत.मानुकूलकत्याश्रयत्वमधमाधमत्वलक्षणमित्यर्थः । प्रत्येक पुनः कषायादिभेदेनाऽने Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : : सत्वाविवरणदार्थदीपिका रम्भारम्भाख्या । प्रत्येक पुनः पायादिभेदेनानेकविधा । तंत्र प्राणातिपातादिसंकल्पावेशः सभा, तत्साधनसन्निपातजनितपरितापनादिलक्षणः समारम्भः, प्राणानिपानादिक्रियानिवृतिरारम्भः । तदुक्तसंरम्भः सकपायः, परितापनया भवेत्समारम्भः । आरम्भः प्राणिवधः, त्रिविधो योग ततो ज्ञेयः ॥ १॥ अन्यत्र च । “ संकल्पो संरंभो, परितावकरो भवे समारभो । आरम्भो उदवओ,' सुद्धनबाण च सव्वेसि ।। १ ॥ " अन्ये च प्राणव्यपरोपणादिपु प्रमादवतः प्रयत्नावेशः संरम्भः, साधनसमभ्यासीकरण समारम्भः, प्रक्रम आरम्भ इत्याचक्षते । एते चोभयभवविरावकाः सौकरिकमत्स्यवन्धादयोऽबसेयाः । ते हि प्रणटधर्मसंज्ञाः अज्ञातशुभलेश्या सर्वनिन्दिताचरणसादराः शिष्टजनतिर तिजन्मानः स्फुटितकरचरणशिरोरुहा विकृतारणाः क्षुत्पिपासाशीतोप्गझझावाताभिभूता गिरिकन्दराज्यनिईरादिसोपद्रुतस्थानपर्यटनशीला इहापि सापायं जिजीविषयोऽभुत्र च पापानुबन्धिपापकर्मरिता नरकेथूकटयातनाभाजो भवन्ति ॥ द्वितीय पुरुषमाह-' इत्यादि ' इह अरिगञ्जन्मनि फलं प्रयोजनं यस्येताह फलं कर्मेत्युनुवर्तते । एवकारश्च परलोकफलव्यवच्छेदार्थः, तेन न विमध्यमेऽतिप्रसङ्गः । ततश्च हि कलमात्रोद्देश्यकप्रवृत्तिमत्त्वमधमत्वलक्षणं सूचितम् । कर्मण उभयभवफलत्वेऽपि इह फलकत्वमानगोचरा बुद्धि पूर्वस्माद्विशेषं परलोकमनोरथनिवृत्तिं च तुशब्दो दर्शयति । एते राधमाः वार्हस्पत्यमतानुकविधेति । अयमावः कायवाङ्मनाभेदेन योगविध्यात्तद्विशिष्टस्सर भोऽपि त्रिविधायथाकायसंरम्भो वाक्संरम्भो मनस्सरम्भ इति, एवं समारम्भोऽपि, आर भोऽपि च त्रिविध इति नत्र भेदाः। नवभेदेष्वप्येककभेदः कृतकारितानुमतविशेषात् त्रिविधो भवति, तद्यथा-कृतकायसंरम्भः कारितकायसंभोऽनुमतकायसंरम्भ इति भेदत्रयं, एवं वाचा मनसा च त्रित्रिभेद इति संरम्भो नवविधः १ एवं समारम्भोऽप्यार भोऽपि च नवविधः, सन्मीलने सप्तविशतिभेदाः । तन्मध्येऽप्येकैकभेदः कपायाणां चतुर्भेदात्तद्विशिष्टश्चतुर्विधस्तद्यथा क्रोधकृतकायसंरम्भो मानकृतकायसंरभो मायाकृतकायसंरम्भो लोभकृतकायसंरभ इति चत्वारः कृतवि- । शिष्टभेदाः, एवं क्रोधकारितकायसंरम्भ इत्यादिकारितविशिष्टभेदश्चित्वारः, एवं क्रोधानुमतकायसंरम्भ इत्यायनुमतविशिष्टभेदेन चत्वारः, सर्वसम्मीलने कायसंस्मस्य द्वादश भेदाः, एवं वाङ्मनससंरम्भयोरपि द्वादश द्वादश भेदाः, द्वादशानां त्रिभिर्गुणने सरमसर्वभेदा पत्रिंशत् , एवमेव समारम्भस्याऽऽरम्भस्य च पट्त्रिंशद् पत्रिंशद्भेदा ज्ञेयाः, सर्वसम्मिन्डीकरणे त्रयाणां भेदा अष्टोत्तरशतं भवतीत्याबनेकप्रकारेणानेकविधत्वं ज्ञेयमिति भावः । संक.५:-पृथिवीकायादिविनाशानुकूलसंकल्पा-परितावकरो पृथिवीकायादिपरितापकरः । उहवओपृथिव्याधुपद्रवलक्षणः । ३६ फलमात्रोद्देश्यकप्रवृत्तिमत्वमधमत्वलक्षणमिति । उभय भवफलकेऽपि कर्मणि अस्मिन्नेव भव एतत्कर्म में फलप्रदं भवविति भ्रान्तबुद्धिजन्या या पारत्रिकफलानुद्देश्यकत्वविशिष्टैहिकफलोद्देश्यकसंरम्भसमारभार मान्यतानुकूलप्रवृत्तिस्तद्वत्वमधमत्वलक्षणमित्यर्थः । उभयफलकमापि कमैतद्भवफलकमेवेत्याकारकोभयभवफलजनकसविशिष्टकर्मत्वावच्छिन्नविशेषताकतवभिन्नभवफलजनकत्वाभावनिष्ठप्रकारताकर- सत्यत Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ હાઈપલને લિપિt I યાબિત હોમાત્રપ્રતિબદ્ધા શોષવિષયામિષાનુષમાનસી ગર્થમૈત્રછાયોડક સાતસંસારમયા મોહપહાવૃતાન્તરાત્માનોવિધાર્મવિલા ૬ પુનઃ પરોવાતઃ ” મૂઢબવાવડી” “તાવાને એોડાં, ચાવાનિન્દ્રિયોનર’ વાવઝીવે ” હત્યમમુધનનવિધતાળસાઘને પરમવમોહેnછર્મપ્રયત્નવા બ્રિશ્ચિવિહોલુલમનુસૂય યથાર્મનુસરણીવાદિત પર્યન્તિ તૃતીય પુરુષમાહ “વિમધ્યમરિવહ્યાદ્રિ” તુશ થમહનુમયૌવનુપમુન્નતિ વૃદ્ધિસ્ટ પૂર્વતો વિરોધ દર્શયતિ–પરોuોદ્રયપ્રવૃત્તિમર્વ વિમધ્યમત્વ વધ્ય ધમેતિકલવારબાય પરોતિ . મધ્યમતિબેસવાળા વેતિ તે જ વિમળના પરામવાયાં ધર્માર્થામાનાસેહમાના નન્માન્તપુ વર્થ ધર્મમહિમ્ના સમૂધ્યાન પુત્રપૌત્રાદિપરિવારમાનો પસૌમાયાનો વિમવિશ્વાસમાનો મવિખ્યામાં ઉતિ વાનાવિધર્મપરાયણી દુષ્કરીયા વળાઃ પરોપારાવિવું સારું મન્યમાની નિસમદ્રનિલ રૂાલમનુમય પહાડપિ તથા વિધાં યુતિમાનુવન્તિ છે જ ! અંજીરાાનુવન્યસ્વામિનોડમિલાય રાજીરાવાનુવધિવમિનું વતુર્થ gશકાતુવર્ધવામિનં જ પશ્ચાં પુરુષવિરોષે રિવૈયાડડહ (મા) પરોહિતાવ, પ્રવર્તતે મધ્યમ શિયા સવા ક્ષિાવ તુ ધટતે, મિતિeત્તર પુરુષ જો વનનવત્વનિષ્ઠ બતાવવુદ્ધિનન્યપત્રિાનુરાશિદૈહિaહોદ્દેશ્યવપન્મસમાન્મારમ્ભાન્વિતમાનુન્નહબવૃત્તિમામધમત્વક્ષણમિતિ પર્યવાસિતોષ્ય | યાવી વિમિરિતિ “વિવેત સુઈ ન–દળ છવા પૃત પિતા મામૃતસ્ય વેહત્ય, પુનરાઅમને જીત ? ? ” ફતિ સમૂર્વજોના વાહન ગદાનાદ્ધિનાઝન્ય સુવમેવ પુનર્ચતા જટાદ્રિવ્યવાનનં, હુાં નિર્ણય લખ્યતે I ? ત્યાયં મુર્ણ વિષયલક્રમનપુસા સુપરમિતિ પૂર્ણવિરામૈયા | શ્રીહદ્ધિદાતિ હિતોત્તમતાહુલ્યાન, એ નામ મUવળપિહિતાનું હિતાય | ૨ | હોસિદ્ધ મદ્રાના, પરેશો નાગર મૃત | હસ્ય નાશો મુgિ, ને જ્ઞાના-મુાિષ્યિતે | ૩ | ફત્યાદ્રિા ગ્રાહા ! છૂપરnરિયામવૃત્તિમમતા પરમાર્થાનમજ્ઞવહેતોષવિષયોવેક્ષાવૃદ્ધિપૂર્વજોમયમ– સુબ્બાનન્યવાનાદ્ધિવિષયપ્રવૃત્તિમાં વિમધ્યમત્વકક્ષાભિતિ માવઃ વિમધ્યમપુરુષાનિદ્રન મહામવિવાહય, તે હિ પરમાર્થનામિન બનનિમર્સિવાળ્યાન મોક્ષ મત મા વા, ફ્લેવભુપેઢ્યાગનેન મને પરમ સુધી મર્યાર્મિત્યે મત્વ હાનતીર્થયાત્રાપરોપજીરાલિવિષયવાર ફર્વ-પતિ માવા | ત વતુર્યારિજાવ્યાથા સમાપ્તા છે કે - વતુર્યપશ્ચમપુeષવિશેષાભિધાનાય ઘચમહારાગતરાષામાહ-શરાવવાન ફાતિ . Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તસ્વાર્થવિરેનમૂવાંવમાં પ (૦) રોહિવાતિ, પોસ્ય પરાય વા હિત સુર્વ -તર્થ, વાઘેહઢોસ્તૃષ્ણાવ્યવછેવપરા લિફશ્વષ્યવસ્થા સામાન્યતઃ પ્રવૃરૂપવીના વર્તત ફ્રતિ મિનિચોપાવાન યાહુ સાપાતતો ન્યાયામાસમાના સવા ચાવવા પરોતિમાત્રોયપ્રવૃત્તિમ મધ્યમવર્ઝક્ષણે ત્યપિતા તે હલુવનિરપેક્ષા સમિવિનોપવા બ્રહ્મગુવાસ ફ્લાવાવમાના પરતીર્ચિા જોરમતિપન્નાં છે તેવેન્દ્રવર્તમામખ્યાધર્યસમાન ઇમાનસા સૌમાર્યાદ્રિ વી પ્રાર્થમાના નિવાનપરાસ્તવિયેળ પરોવ્રુવમેવ પ્રધાનન્તો મધ્યમાં મીયતે પદ્મ પદ્મમતિમસ્તમાન પુરુષ વર-ક્ષાવૈવેત્યાદ્ધિ, મોક્ષ અને જામાવનાનનિતતરવજ્ઞાન પર્વાહિતશરીવાળવનનન્યા છારા વર્મક્ષય તષ્ણન્યપરમાનન્દો વા, તમે - gવારો વિષય વ્યવચ્છિનતિ તુચલિબ્રીવનેન ધટત હત્યનેન હરીનમાત્ર કાગવાસપરમાર્થ નોડફવરયમમુવતમાડધિનિખ્યામિ મમિતિ વૃદ્ધયા શરપિ થતત લ્યર્થ માહિતઃ | વિશિષ્ટ મતિeત્તમ પુરુષ પૂર્વો વિશિષ્ટ પ્રાપ મુવત્તાના મતાસિ વિશિષ્ટ મતિઃ | ત્ અર્થે તમસા વૈgિવામાષાભાવિત્યુત્તમ ૧ નરતિ વર્તમાન પુરુષાત્ પૂવેરાન્તમેવો માહું પુખ્યવયં જાય થતિ થાવ ન મુખ્યતે તાવાયો વિશિષ્ટપુષવેદાદ્વિપુખ્યવારા મા, વતિ જ પુરુષોતયઃ પુષ્પમતિ રતિઃ | માતે અતિશ્રીવામૃત, તીશતામુત્તમ વેડપિ વિધિનિષેધાતીતલૈં છુપુષવાન ! પર્વ વાઝાન્તમાંવનનનિતત ત્વજ્ઞાનોપવંતરૌઢેર તિસૃષ્ણપિ-રમ્પસમારમ્ભારબ્યુલળીપ | પતાયા મિધ્યાહયતા ધeતુત્ય ન્યાયાનતા સદ્ગપવામાવાહિત શાહ–ાપાતા રૂતિ | રોહિતમત્રોજેરયાગવૃત્તિકર મધ્યમવરુક્ષમિતિ / પારવિદિતાત્રેતરાધેશ્યહવે રતિ પૉરવિવાહિત હોદ્દેશ્યાવૃત્તિમાં મધ્યમક્ષિણનિત્યર્થ | Mાવન જ્ઞાન ધ્યાનતપવાદરuિપલાય હવાઇલ્બવવનમાતિનાં છે યથાર્થપરમમિઝન શનિદાનાસધ્ધદાયો મધ્યમg gવા વર્મવન્તીયાદ- ત્તરના પ્રતિપન્ન પતિ | રાયનાન્ય જ્ઞાતિ-જાવો પિાવન મોક્ષ, તર્ધ મેવન્ય રબવાહિતિ ક્ષાર્થે સમ્પનો સોજવાઢવામીમયે કૃત્વ તતઃ “ શું ઉન્ન 'ફર્યતત્પન્ચાક્ષરહિમાનાં ચા-પાનફૂર્તિ શૈશી રોતિ ફૉસ્ટેશો મેહસ્તસેવાગ્રતા સ્થિરતા યહ્યાવસ્થામાં સા શહેશ, “જે વિ૦ મે સેઢે હે ના તત્વયા રેહૂકો. રૂતિ વિશે વાવવનાના જ શી વાર્થિ, તવેદ નિશ્ચયતઃ સંવરહ ગ્રાહક તથૈવ સર્વોત્તમ સ્વાત, તળેશર શહેશ, તમિવસ્થા , ! “સર્જર સમાહા નિષ્કળો સવસંવરો સે ના તો સહેલો સહેલી હોઈ તવવત્થ રૂ૦૭” ફાતિ વિરોધાવવા મામ્બવવના / તથા જ રોચ્ચાઈનસમાચ્છનાયિાઝતિપતિશુવિહળાનનન્ય હત્યર્થે ! સહસ્ત્રારબ્ધસતિવર્મક્ષયનન્યાવિનવાળોઝેક્ષનો મોક્ષ ફતિ તૈયાયિમતાનિરસનાયાગ્નન્યપરમાનન્તપ રેતિ | ઝિપુરુષોમાઇ વત્વનાં છે Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તત્ત્વાર્થવિવાળવાર્થીપિ ! ! કે, પરમાણવાનુર્વિદ્યાવિશારદ-વ્યાનુગ્રહાનેતવ્યાકરણાવિગ્રન્થબાવાાિ સૂત્રાત્રધાર-તીર્થોદ્ધવિદ્ધવાલાન બ્રાન્તોમચ્છાધિપતિ લાઇરિશિ શેર-માળવાર્યકવિનયનેમિસૂરિવરણમવરીયમાતરFડ્રાફ્રા શિષ્યસિદ્ધાપવાસ્થતિ વાવિશારવીવિનયોરિપ્રતિ ન્યાયાવિશાર૯ વાવાવાર્ય પહોપાધ્યાયશ્રીયશોવિજ્ઞાગણિવિનિર્મિત વાર્થાધિરામચિમા ધ્યાયવિરતિષિતાકાત છપાઘમાખ્યાપિન્નતીવિવરણસન્હાના થોનનું તદ્વિવરણદ્રિ સમા લમ્ ! * (યશોવિ દી) રણકયનાન્યમોક્ષમાત્રેરક પ્રવૃત્તિમત્ત્વગુત્તમત્વ, વિધિનિષેધાતીત લઘુત્તમત્વગુત્તમોત્તમત્વા વાડતિન્યારિવારગાય વિશેષ્યમા ફુવૅ પદ્મવવિષયોને સજ્જર ફતિ તદ્ધિવે છે ! નિસ્તુવન્યવામિનપતિ (મા) તથsધુત્તમ-મવા ધર્મ પરમ્પ પશિતા " નિત્યં સત્તોિ -બઘુત્તમ ત પૂmતમ છવ છે ! (વ્યાં.) વિત્યાદિ / પુન, કૃતાથી વજ્ઞાનબાળે સિદ્ધયોનનોડપિ, વેવેન્દ્રન્દાસકૃદ્ધિનન્યાશ પરમાર્થ તુલસમ્મિસંસારસુહાનુદ્દે લતીન્દ્રિવિપાનવામિનાયિકતત્ત્વજ્ઞાન ન્યાપક્ષસુણોદ્દેશુાવાનુવન્યાનવઘવાનુ કૃતિમવિમુત્તમત્વતિ માવા, પછપુરુષક્ષણં તુ સુસ્પટમેતિ ન તન્યતે | જોજોત્તમેષ મોëાર્થધ્વાતવ્યારિવારગાય વિશેષાહિ-વધિનિષેધાતીત સતત | શાલ્લોવિધિનિષેધવિધાન ઘર્મદા સામાન્યપુરુષાદિચૈવ, ન તુ તર્થવિશિષ્ટપુરુષાદિય, તેષાં હવાતીતત્વાહિતિ તત્ર નોwવેશવાસમેવ તિ તદ્ધટિતો નાખ્યાતિવો ! વિધિનિષેધાતીતત્વમાત્રય ક્ષણ વોગપિ શાસ્ત્રોવિધિનિષેધાતીત પતિ તપિત્રછ ઋક્ષણમનાવાતવ્યાતિસ્થાતિ નિવૃત્ત ડામતિ વિશેષ્યમિત્યાહ-વાહ इत्यादि। રૂતિ ખર્ચમારિભાવ્યા સમાતા / જ છે નનૂરમર્દિ થતા થતિશ્રાવાય બુરહાનુદન્હાવામિના પૂર્વમુtપર્દિ નિરનુવન્યુંસ્વામિના ફત્યારાફ્રાયાં પછઋાવતરપિવામાહ-નિરનુવતિ વેશતરતોતિ તાય દ્વિધા, તત્ર વૉનન્તજ્ઞાનાદ્રિગુણવતુયાગ્યારહજ્ઞાનાવરણાદ્રિતિવાવિત યક્ષોલ્વોવલજ્ઞાન નાઘવાજ્યા શખ્રતાર્થ સોડવશિમોગ્રાદિનામસિમર્મયોત્યમોક્ષાત્માનામપહાવાહિક્ષણમિપૂજ઼તાર્થતા યાવન મવતિ તાવહુપહિરાતી ત્યારના ૬-તાથપતિ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પર ઃ તtવાર્થવિધાર્થીપિt. ઉત્તમ ધર્બ ક્ષમાવિ, વાવધિમાખ્ય, પરણ્ય કશાનર્મદ્રાસ સ્વામી વિવે શ્રો, પશિતિ, નિત્યમાક્ષયાત્ પ્રથમનરમપૌતો, જ ઉત્તમેોડવુત્તમ કૃતિ ગૃજ્યતમ છવાતિશન પૂછ્યું હવે . દા સ ધૂળ્યતમ પતિ દેહત્તમેભ્યોવ્રુત્તમ હૃતિ વ્યત્યેયમ્ તેન નવસૃઈવિધેયાંરાવો: ! ૬ . વૃતાર્થના સતા માવતા લઘુપઢિ પ્રતિનિ વીંધવાહિનકૃતાર્થેન ગતિવિન મ્ય કાવ્યમિત્યત્ર મુિ વળ્યમિત્યવિના સૂચિત સત્તાં ધર્મ ક્ષમાહિમવ્યાતિ–તેન વાહત કામધનપરીવાdayળો વ્યધિત તિ . ગાર્મિક્ષયાવિતિશass માયા ને વમવિધી, ત વ વર્મયાવધેિ છત્ય ન તુ તમિળ્યા, તવાન રામવિવુ શરીરમાવેને મહામાન વોશબવૃજ્યમાવાત, તેિન “જ્ઞાનનો ધર્મતસ્ય, હર્તા પર પણ્ અવાજી મૂયોરવિ, માં તીર્થનિવારત છે ? ” યેતન્મતે નિરસ્તબૂ, “ વને જયન્ત, શ્રાદુર્મવતિ નગર વાવીને તળી છે, રોહતિ મારા ?” ફત્યુ વર્માત્માનામાવેન પુનઃ સંસાહાહબ્રુત્યાનામવા “સૂરુ પૂછમાં, રોમાહિત્નણ પુત્રો પતિ ()” | ૨૮૨ | ફુલ્યાવરવનિર્ણરૂિપાઇ વૃદ્ધામાખ્યપાઇડ્યાનુલ્લાહ-મમવરપૌષ્યોરિનિ નનુ ય, કૃતાર્યો ડુત્ત ધર્મનવાવ નિત્યં પરમ પશિતિ સ બેભ્યો વ્યુત્તમ દતિ દેતો પૂન્યતમ વેત્યવહેં વાર્થ રળે વિમૃણાવિધેયાંશવો, તાહિ વૃતાર્યત્વે સત્યવહેશત્વ હેતુનોત્તમોત્તમવાર્શેલ્યુ વિધેયમૂત સિદ્ધ સત્યાં તદ્દાહૂનિવૃત પુનઃ પૂજ્યતત્વવિઠ્ઠથાબ પૂર્વીત્યા સિકોત્તમોત્તમહેતુના પૂશ્વતમત્વયે વિધેયમૂતય સાધનગવિશ્રુવિધેયાંશવો, વિમુદ ત્રાધાન્ય નાગનિર્વિષ્ટ વિધેયાંશો યત્ર સ થે, બાત કામોત્તમત્વે કહેતુના સિહે તે હેતુત્ય પૂજ્યતમત્વસાધને તવૈવ ત્રાધાન્યું સ્થાન જ વ્યવહિતવાદુત્તમોત્તમત્વયાપ્રધાનત્વ સ્વાતિ, ના પ્રધાનત્વમ્, અનુપસર્ગનીમૂતવે સરવાડડનન્તર્યાબિતિ પ્રાધાન્યTસ્પષ્યમાનવાવેત્યારશાં મનસિ નિધાય યલ છતર્થોડુત્ત ધર્મમવા નિત્ય પરેય उपदिशति स पूज्यतम एवेति हेतोरुतमेभ्योऽयुत्तम इत्यन्वयं कृत्वा व्याख्यातमाह યતિ . પછ પુરુષ ઉત્તમોત્તર વિ વૉર્રત્યુત્તમોત્તમત્વવ નિજ્ઞાતિબ્લેન તરૈવ પૂજ્ય तमत्वहेतुना साधने तस्यैव प्राधान्यानोक्तदोष इत्याशयेनाऽऽह तेनेति । રૂતિ કરાઈ સમાપ્ત દા. મિનું પુજે યોત્તમોત્તમત્વ તમિવ તવ પૂગ્યતત્વે, થમ પુરુ થવા પૂર્વતન તરિશ્ન બેવ તારામત્વનિત્યે કુwારાપેલયા સમાનિયતયોરાયોર્નિંજ્ઞાલિતત્વે हेति तदुभयस्यैव सिद्धिः कर्तव्येति तत्र कृतार्थत्वे सत्युपदेशकत्वमेव हेतु: प्रदर्शनीय इत्याશિયન સપ્તમોલાવતળિમાદ , , , , . . - - - - Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તરવાર્થિવવાળાંધીપિ ! ઉત્તમોત્તમત્વપૂગતમંત્રયો સનિયતયોઃ છતાય સત કરશેવત્વમેવ દેદિત્યમિકાળા ' (મા) તાંતિ જૂના વોત્તમોત્તમ સ્ત્રો દેવર્ષિનરેન્ટેમ્પ પેમ્પષ્યન્યવાના છો. (વ્યારા) વાહિયાદ્રિા સ્માત્ શતાડવુપરિતિ, તસ્મારવ થાર્થનામા, ઉત્તમોરનો હોવે રમતિ, નહેશે, પૂનામહેંતિ ધન્યવાનાં પૂરોગવે તેવે વિમ્યો નરે ચા બન્યતવાના હેવાય પૂર્તિોડગ્વતિ પૂનામત્ય સુતર પૂનામતીતિ વ્યાતમેવ . ન હિ રાતિ સમુત્તિછતિ પર્ષદુસ્થાનું પ્રતિ વિત | સ તાવતુ પૂના, પૂનાનાં તુ છતામશોપકલાયમયતાં શુળ તિ જેત, નૈવું રાક્રય, નેપલાવત્યારે સેવાનામબિતકુળદેતુ ઉત્તરપૂકાતમાહિતિ અન્નિતિ-અમરવરવિનિર્મિંતાશોહિમાપ્રાતિહાર્યાં પૂનામતામિર્થ, ગત વડપથાર્થનાનેતિ ! “હિંતિ વંલગનિ- સના શરિફંતિ પૂર્વસ સિદ્ધિામાં જ રહે, રિહંતા તે યુવતિ છે ? ફતિ સિદ્ધાપોળનિષ્પનાન્યર્થનામેત્યર્થ 1 ચન્ટે વો દિન મનુષ્યોત્રિ પર્વ પૂજ્યતે વિધ્ધધોમધoોત્રય હત્યમાળા –ો. નાતિ, નવા રૂતિ ! મયૂ રવિ નૈનીન્ટેનરેન્દ્રહિમુદું માનું ! મહત્વનો મુખૈરિત્યુપાલન તિ વૃદ્ધયા નિયં પૂજ્યતે તહૈિં સુતરામમિપિ પૂ વ સ રૂત્યમિત્રાયતાં હોવાનાં પૂણિતપૂનવાવભાવ વ્યથાતિ ન્યતવાનાં વેવાય પૂગ્યા રૂત્યાદ્રિના, પૂનિતપૂનવાવમાંવહાલ્યોથે દક્તિમી-ટિ શાન નહિ | શુદ્ધ પ્રતિજૂર્વ પ્રસિધાંનુ મર્વયમ્પર હતું હવાતીતિ કાક્ષસિદ્ધ, માંતુ નોમયવહાર શીખવવાહિતિ તવયનાં નૈવ મા & સ્થા, કામાવે વ તર્વનવિધિ લાવતાં પ્રવૃત્તિપિ નૈવ યુર્જા, દસાધન જ્ઞાનામાવતિ, તમાર્ગ પ્રવૃત્તી પ્રેક્ષાવરીક્ષતિયાવિત્યારાનાગાજૂસતાવતુ ગમત | અવનતિ ઉપક્ષમતવિન્તામાનવાણિવિરોહ ત્પવૃક્ષારિતિ-લવાનાનીક્ષિતકુળદેતુત્વનાવિતિ ડાર્ચ-“શનાર્થે બાળ્યું, જેતલદ્ભત ! પ્રિમિળ્યાય હિં, હત્યપતિના છે ?”તિ | અગ્નિમવિધિના_સેવમાનપાત્ર રહેશે તો માત્ર નૈવાડનૈવ, વૈોપધ્ધવિધિમુહુયાગવેધિનૌસેવનાગહિત ચાત્તત્ર વૈદ્યસ્થ હો, િવાસનાવાસિતાવાશયશૈવ, પર્વ નાકાજુનાવાહિતાવહસ્થાશ્વના મુળનિર્માવતઃ શાસ્ત્રોmવિધિમુત્યુન્ય નિતિનિતિપાલાર્મહુતિરાત્મામવિધિનાંગ્વજોહિતવાસસ્થાાત્ર ને માવતો વો . સ્વીદુદારા વાર , મુશાસને દિ કુમાશુમાત્મપરિણામ પત્ર " ફર્મનન્ધશાર, નિશ્ચયનન રાશયશુદ્ધી મુગાવાતાવશુદ્ધ ર ) Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ૧૪ : વાધવિનામૂળવંટીપિયા સ્વયંરીનાત્ । અનરવ વાહાવનીપ્સિતયિ તસ્માદવિષ્યતીતિ શ્વેત, સત્યમ્, અન્યાયેન સેવમાનાનામને રિવતતોઽનિદોષાવસ્ય (વારીયોનિમિત્તાત્, મુખવìી નિશ્ચયતઃ સર્વક્ષ્ય સ્વાશિિનાવેવ । તવાશ્વનવેન ૬ માવતઃ કેન્યાસેવ્યોમય વાÚત્તરિતિ નેત્, ન, પ્રયોગલેન્યતાવવ્હેવવીતરાયવાવિમુળવતૢ સેયત્વમ્, બદ્ધિયોગતદ્વિપર તા.ધાવિસાધારળ ઈત્યનિત્યમુનાવિયમ્ન૧૫ નાન્યમિત્યેનું વ્યવહારાસ દ્રિતિ વિમ્ છ || નરાંત-અન્યાનેનેયાવિના / તેવાજીવનત્યેન ના માવત ાંતે । મવતુ સ્વાશનિમિત્તો જીવોનો તર્યાય માર્ગેન્તમવયૈવ સ્વાશયશુદ્ધદ્વી તત્વયુñ જ મુળદ્દોષાન વિત્તિ ધારાયબુદ્ધચદ્ધિદ્ધારા માવતો મુળવોષાસ્ત્રનહ્લેનૈયર્થઃ । માવતો મહાવીરસ્વ સેવ્વસેવ્યોમય બતાવાત્તને સમ્મતિ, યતો માત્તયોન લેન્યતાવ છે. વીતરાપાત્માવિશુળનવલાં સેન્વત્વમેવ તત્ર વતુતે, ન ખ઼મપ્રિયોગદ્વિપરીતષિતાનિસાધારણત્વનિત્યમુવાતિધર્મવવામસેત્વમ્ । સક્રમના ચૈત્યં તેા માવતિ મહાવીરે સેવજાનાં થી મહિલા માવદતવીતરા વિષ્ણુનિધનેતિ વીતાવવમુળો મòિપ્રયોલગ્ન, યંત વ વીતવાનો મહાનત વૅ સેવ્વ તિ, મનિષ્ઠા યા સેન્યતા તત્વવત્ઝેક્શેવિ વીતરાવાતશુળ, તહત્ત્વ મતિ વતંત તિ તદ્રુપ સૈન્યસ્વં તત્ર સમ્મતિ, તેનિત્યક્રુ સ્વાતિધર્મયોગિયા પામિમને ધરે તુ રાવનિધારાનાયાવિત્રતારાવજૈવ પ્રતીતેનોહક્ષળસેવમ્, મજાવ્યાઘુપમસેન્યન્તુ મર્યાત મહાવીરે 7 વિદ્યતે, તર્યાદ પરમિમતા ફૈશ્વરે ચા તત્સેવાપરાખ઼ુલાનામમા નૃત્યન્ય માવતઃ િિમતિ વિશ્વસનેનવૃત્તિ ?, સૂર્ગંધ સમુલિન જ્ઞન પાત્ર વૃઽતિ ?, ; મુર્લિનને7 દ્વિપ ીર્ત ઇનસો વિષમત્રવૃત્તિમÕન રાયાતિમાનેવેતિ ઈાત્ર છાત્કાવિન્માનનીય કૃતિ નૃત્વાતિનિષધના, તથા વન્દ્ર ડ્વ મુત્ત્વો મતિ નાવ્દ્ધ તિ નિત્યમુદ્દો મૈં સન્મવત્યેવ, લય રામદ્વેષા∞િક્ષળન્ય ધર્માંધĀઽક્ષળાસ્ય વા વનિમિત્ત' સર્વોદ્રામાøિત્યમુત્ક્રમસ્યોયતે તયા સતિપદાનિન-પવાચેયાષ્યેતાદર્શનત્યમુત્ત્તત્ત્વ સમúીતિ યાદ્દિવેવ ન માનનીય તિ નિત્યક્રુત્ત્તવાતિનિબન્ધનખ્યિમંદિરિTSįત્રિયોનજો મતિ ત્ત્તાવિધર્મ, તથા જ્યું ાદેવ ાહાવિન્નિત્યમુત્ત્વામિત્બાવેવ ચ મહાવિસેન્પા માતે પામિમત આ તિ નદ્વતા યાએબ્ધતા . તવષ છે.જોવ નેતિધર્મદુત્ત્વહક્ષણમસેવ્યત્વ પામિમતે ચર વ, ન તુ માહાવીરે, તસ્મિન્ ઈનિત્યક્રુત્યાવિધર્મવવામાવાત્, પુરુષાર્િ સાધારળતાવિધર્મસ્ય નહસાધારણ્ય નિત્યમુત્ત્તાધિર્મસ્ય વાગ્મકિયોનટ્યું રાતનેત્ર, તતવ Àિબ્ધતાવ∞ત્વમવિ, અન્યથા વ્હાારિષિ મોિષવ્યાપરમાં સેક્ષ મવૃત્યિાશયન નિલેષે હેતુમા વિષયોનસેજ્યતંત્યાદિ નાનાં II કૃતિ.(સમીરજાયે; } ૭ - Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ થાવિલાપૂવાથતી પહો ચઘેવમુજ્ન્મતાં હૈિ તત્ત્વનાત્ વિં હિમિત્યાહ્ (મા૦) અભ્યર્થનાવતાં, મનપ્રભાવતા સમાધિસ્ત્ર | તાપિ નિઃોયલ મતો ૢ તત્પૂનને ન્યાષ્યમ્ ॥ ૪ ॥ (॰િ ) શ્રÅનનાહિત્યાતિ । અન્યર્વૈનાત્સૂનનામિયમનતિવન્દનયુપાસનાયે । બહેતાં સાવતા માળે વી । બહેતોઽર્ભે સ્થિતાનામિર્ચઃ । મતિ ? અનસઃ પ્રસાવો મનસઃ પતિમતા । તતઃ સમાધિરેજામતા, ૧: સમુન્નયે । સમાહિતસ્ય સતઃ સુશ્રૂષાથવળષ્ટદળધારણોદાવોદ્દાઃ તતઃ સંસારત ધિર્મતમાંન્દ્રાહિતાન્તર્વાહા વિત્યેવમાવ્યો મુળા મવન્તીત્યર્થે, તાપિ સમા ધ્યાતિJળાવાસિતારતમ્યાત્, નિઃશ્રેયસમ્મત રૂતિ શેષઃ । યત Ëાળપરમ્પરાતો નિશ્ચયેન તત્ત્વાર્દ પુનને ન્યાસ્થ્ય, ન્યાયાનવેતમ્ । ૮ । નનુ સુરૃ-દેતોđત્સૂનને ન્યાર્થામતિ પ્રાંતપવામહે વયમખેતત્ । ચપ્પુનŕતાËડબ્લ્યુર્ષાવશાત દ્વિન્દ્વમ્, તાર્યક્ષેત્ ચનુ વેતિ ? । તાંત શ્વેત્ યં તાયે દ્દતિ, નહિ ધ્ધિતિનિવા∞ઃ શ્રમદ્રિયમાળો દઇ હત્યાાદાયામહિ ( મા ) તીર્થંગવર્તન, યત્નો મ તીર્થંનામ 1 દુર્થિં પ્રવર્તત ॥ o ૫ તસ્યોવયાતૢતો ( બી॰ ) તીર્યાવર્ત્તનેત્યાાત્ ।ત્તરજ્યનેન મવસમુદ્ર તીર્થં પ્રવનનમ્ । તસ્ય વર્તન પ્રાયનમ્, ત ં પ્રયોનનમત્સ્ય તત્તથા, તીર્થર્નાનમ વસ્ત્રો, તશ્યાયાત્ શ્રૃતાર્થીüર્થિ ૐ નમઃ અમાારાવતનાળાનાદ્વેષમિતિ | મનેસઃ પ્રભાવ તિન્દ્ર દવા ચર્ચા સમુદ્રોવોહ્રાસ થા→નસમયે સુમુલનાં દવાખ્યુંમાંયજ્ઞનચિત્તોાસ ત્યર્થઃ । તથા ૨ અન્નૂનનું વિધેયં મનઃપ્રસન્નતાસળારામાંવેદેિતુત્વાત્વાનાવિદ્યાતિ સિદ્ધમ્ । મનઃઅસામાન્-સમાધિતિ, તમાદ્ ાત્રતત, સમૃનિવાહાવવિધચમ∞મસમનોવૃત્તિ નિથ માનના વછનાયુ પરમાત્મધ્યાનધન ચિત્તત્તેર્થઃ । સમાધિના થૈ મુળા થવાપ્ય પેતાના-સાહિતñ ત્યાંના રાષ્ટ્રદ્ અવળાધારણોદ્દાપોદા જ્ઞાતિ-શ્રુષા શાસ્રતત્ત્વ શ્રોતુમિચ્છા, શ્રવળ શાસ્રતત્ત્વ ળર્નમ્, પ્રહષ શાસ્ત્રાર્થોપાવાનમ્, ધારાં' શાન્નાયારામ, જ્હો વિજ્ઞાતમર્થમવદ્યાશ્રેષુ વાલિધેવુ વ્યાખ્યા વિતળમ્, બોદ વિજિતાં વિરુદ્ધાર્öાવિદ્ પ્રત્યવાચસમ્માનના વ્યાવર્તનમ્ । ચા પ્રયુક્ત્તિાં તત્ત્વનત્તમ્। યત્ર જીવાશ્રવણપ્રાધાનોહાપોહ્રાનાં ચધામ હેતુનેતુનનાવત્ત વ્યાયાન, તેવ્યમિત્યર્થ | ન્યાયાÌમિતિ ધાયપ્રો જૈવમ્ અર્જુનનું વિધેય મોક્ષાાળપરમ્પરાસમ્પાદ્વાન્ સઢમોંમહેશવત્ ચાવું તાવમ્ હિંસાવિના પવેશ દ્વિતિ ! || કૃત્યશ્ચમારિાવ્યાહ્યા સમક્ષા || ૮ || નવમાંરાવળિાનાન્વિત્યાદિના કે તયોચાલિત । સિર્હિનમનમા ---- ક્યાંહેતપૂર્વીયમયે નિયમા મનુષ્ય ાવ્યાત્મ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ વાર્થકMાર્થીના પ્રવર્તયતિ પ્રવનનમુપવિરાતત્યંચૅ છે થમસ્ય મનરપેક્ષા પ્રવૃત્તિરિયારા#ાં છાનો નિર્ધાતિ(૦) તવામાખ્યાવ, પ્રજાપતિ મારો યથા હો ' તીર્થપ્રવર્તિનાથ, પ્રવર્તત તીર્થર છવમ્ ? | * (વ્યારા) તcવામાવ્યાતિ સ્પષ્ટ નન્વેવમ તીર્થંકરનામવાપરતચેંગાયાડતાત ત્, મામૂવમેન્તજ્ઞતાર્થતા ધાંતિવર્મક્ષયકૃત તુ સા નિરપાવ | ચદ્ધાળ્યા “તેમાં જયો, નેગોવિન્ન નિખિતળાને સે ત . વિઘા વા તથાભૂતયાં મન્નાઇપહંતપુરુષષેત્રિમનપુંસન વાં તથાકૂન તત્રા સંતનાસંયને સંધતા તેર વોરામસંહનનેનોસેવિતમ્પવિંશતિસ્થાનના...સવિતદિવ્યાઘન્યતરથાન વા નિતિહતિયાં વદ્ધ તીર્થરનામા તોવાહિત્યર્થ ! ફક્ત વિશેષાવ -તં જ હું ફટ્સ, બિહાણ ધુમ્મસળાર્દ . વૃક્ષ તંતુ માવો, તફયમવો શરૂ vi ૨૭રરૂ છે નિયમ મજુથા, રૂસ્થી કુરિયરો વા સુહસો શાનવદુહૈ જલા સહૈિં ! ૨૪૨૪ . ” રૂતિ / મનુ યત્તીર્થદ્દાના માર્ગ પૂર્વ વવદ્ધ વહુચર્થરમ વરમન મવતીતિ વેત્ વસ્ત્રજ્ઞાનોત્પત્તિશાસ્ત્ર પવ, ત વ તવાની देवदानवनरेन्द्रगणैः पूज्यते भगवान् , उक्तञ्च “ उदए जस्स सुरासुर नरनिवहिं च पूइओ હોદા તેં વિનામ, તરસ વિવાળો દુ વળિ છે ?” તિા !! જ્ઞાતિ નવમરવાવ્યાવ્યા * રામમિતાતિ-મસ્યાના! તcવામાભાવતિ. બનારસસિદ્ધાનુøતાવવામાખ્યા ત્યર્થ મૂકહ્યુંgવમતિપહિતોપદેશવરાવક્ષપાનુ તે પરિમાવ્યાવેર્યા કરતા મારે નં વાયરલ વિ છે, gવય વારિ સામવું . પદિયસયાં, માસયસામખ્યાવિ રાવળો | ૨૦૪ તિ / નનું માવતરામાવાવ તબિવર્તબ્લેડર તવૃતીર્થરનામામયાધીનત્વેનાજીતાર્થતા ત્યાદ્વિત્યાશ-નવેવમવિધિના ત્યજાતિવર્મલયાક્ષય યોન્યજીતાતાર્થત્વોમયપત્નીત્રાવિ યાત્રા પતિ સમાધ-માં મૂત્યના “ બેતિયો , કેળોહિન્ન લિMિદ્રનામ છે ! ” ત. શત્ર “સર્વજ્ઞaછું તારી જ રહેવળોવાળો મેવ નો રૂત્યુત્તરાર્ધમાથા છે૨૦ રૂ નૈન તીર્થક વૃતાર્થો ચેન - નામ “એ” તવીર્થ, dવાગ્યય, વનમહત્વાં ક્ષi ન મવતિ તથા જ પળોપાયો ધર્મનાદ્રિપ ઇત્યત થયતિત્યર્થ ! ત્રેવધેય નુ વેનતિયાં મિમિત્રમૂવ સંશાધનાં વ્યાપાર ન મમવાન વિમેનૈવ નિવેવનેન યુપપહેલે સર્વસંશયાન વચ્છિત્તિ વા મેળવેતિ વેવ, યુપિનવ નિર્વજનેતિ નાનીદિા વિં તત્ર "ગતિ રે ૩ખ્યતે, સાથેના પોપમાન ન સયાતિતાનાં સંશયનાં સંશયવ્યવચ્છિત્તિ મ ળવાપાત્ ન મરે, શત શત મા મહિતિ માવાનું ચાપટુચાગ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તવાવિવળ હાર્થીરિયા | છાં વિના મુદ્દેશો પ્રવૃત્તિતચેતિ તીર્થાન્તરીયારાફ્સાં તુ થયી નીવનયોનિયત્નાવિન્યાવૃવચ્ચે માવલ્યનન્યાવૃત્તચૈવ વૈજ્ઞાચક્ય યત્નતિચેક્ઝાનન્યતાવજીંજવાતુ,gવંહિ બન્યાવિશેષણૌરવપ તીતિ ા ક વૃત્તપમાળે રથોદ્દેશ–“વિશાળ સંઘ ધિ, સંવાધાણ સંસમાં તુ માં સંસથવોચ્છિત્તી, ન હોઝ મવાળ સા”! ૨૦૨૫ રૂતિ / નતુ યુ વ્યજો મુળા ફતિ વેત , ૩ખ્યતે, સર્વજ્ઞાળિg યુનિર્વચન માવતોગવિષપ્રવૃત્તિ વૃતિ હા, અન્યથા તુલ્યસંશયનાં યુગપત્રિજ્ઞાબ્રનાં મેળ સંશયોર્જીને વિષમ કૃપજ્યા માવતો રામવાપત્તિસ્થાત ઋદ્ધિવિશેષયાય સવિતા, યુગપ સર્વસંશાધનામશેષસંશયવ્યવાચ્છાન્તિ વોતિ, તથા મેખ વ્યવરને વસ્યા સંશાધનોગનિવૃત્તશયચૈવ ન મૃત્યુના યાત, તો હાર યુગપમિરે : યુપર્ વ્યવછિનવસાવાનાં તુમાં સર્વજ્ઞ થયોપિ મવતિત્ય , ન્યથા વર્યાનપતસંશય સોગ ન ચાત, તથાચિત્યમુળસંપઢિય માવત, ચૈવ વામપ સ્વયયસંહવ્યચ્છિા, લૈ રળમવાનું યુગપર્ વ્યાંળાતતિ ઉગ્ન હૃદયપત્રથમોધેશજે “સત્ય વિસમાં, રિદ્ધિવિહેતો થશ૦૯ ૧. સંશ્વનુગ્રથો વિચ, તિમુળભૂફ gવં શર૦રૂ ” નનું વસ્ત્રમાષામાપિરાર્થે શ્રોતારો મડ઼ાષિતામદ્ધિમા ધમાકાં નૈવ નાનન્તીતિ તયાં માવાન સેવાનેવધાનું સંરયાનુછિનતિ રે, ડચ, જયા-મેધવાર ધન પાત્રવિશે માય શુnિયાં પતિત મૌક્સિહવેનરપ પતિત માધુર્યહવેળ, સમુણે પતિત વિષપા, કૃષ્ણ-સુરમિકૃત્તિયાં પતિત વચ્છસુવાસરસોળોષરમૂહિયાં પતિતં તદ્વિપરીત પરિણમતે તથા પરમેશ્વરી વળી સર્વેમાં થોડૂળાં વિવરાતિતા સ્વમાકાહળ પરિણમતે / ૩ વૃદ્ધરપત્રથોદ્દેશ “વાસોસ ૬ નહા, વાલી હોંતિ માયાવસા | સર્લિ પિ સમાસ, નિપામાસી પરિણમતે પર્વ ૨૦૪” સમવાયાખ્યુ“સા વિ જ છું માવો દ્વારાહી માસી માસામા તેસિ સર્લિ સાવરિયાળાયરિયામાં હુય વડપથ-મિય-પશુ-પતિ-સિરિવાળે પળો માસત્તા પરિળમ” | તિ નનુ પ્રવૃત્તેિ પ્રતિ વિષ હરણ, માતાં તુ મનોમાવાવશાળવષયમાનસિજર્જીવ નાસ્તીયુવેશાવૌ પ્રવૃત્તિ વસ્થામાશફ્રાફ્રાવ્ય તi નિકિતિ રૂછાં વિમેતિ નિરવિરાળે હેતુ માહ–જીવનનિયનવિધ્યાવૃત્તસ્યત્યાતિ પત્નત્વસામાન્ય વિછિન્ન પ્રતિ વિધિ પાન્ડે નવનનિયત્ન કતીરયત્ન ત્યપિ ર સા ાર ચા, તથા ૨ તાં વિના તદુમર્થ નવ સ્વાવ, મવતિ જ વિતિ તદ્દોનિવૃત્ત વિજ્ઞાતીયયનત્વવિચ્છિન્ન પ્રદેવ વિર્ષા કારણમવુપડાન્તવ્યમ્, વૈનાત્ય નીવનયોનિયને રૂ માવનેગપિ ન વર્તત કૃતિ સ વિકી વિના સ્વાવ, પાવરવચ્ચે ઘાતિવર્મ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ફરવા ગિનાર્થી, પહિત મવતિ પુરબહેબનિલવિપ્રવૃત્તો નોહોચશૈવ હેતુતિ શીળમોહચોપાકિનૈતિવેતિ નેટિવ તુ જ શ્રદ્ધેય, હોયત્યાગ્રન્થતિસ્થામામાવિવૃત્તિવિવો ઇવ દેતુવાત લોથવજ્ઞાનમાનિ માવતર નિત્યેશ્વરેખ્યવિશિષ્ટમિતિ તથભોજાતાવષેધ નાત્રાવાવ વિના તે સ્વાવ, ગત વેશ્વરચનવ્યાવૃચર્થ યુપાવીયમાનનન્યાવિરોધાતાવોપોપ પરિત મત્યર્થે ! . . ! ઘ દ્રિપબિત થવ યોનિ માવળાપુત્રાનું ગૃહીત્રા ભાષામાં પરિણમયે તે માપાં વાવિયોન નિવૃનતિ, નેતર ફુટ્યાયવ્યતિરે વાવેરાન્ડપુત્રીનાં ઘણાનુબ્રવૃત્ત નિસનુકૂબવૃત્ત જે માટે તુ સિદ્ધમ્, વર્તમાતુ વીતરામ રતિ રાષિારીયામ્માવા વમેન દ્રવ્યાળિ પૃહીત્વ વાળોન માત, તો માપપુરાનાં ગામોને જ પ્રવૃત્તિાપ વિના નિ, સા વિ મોહં વિના નેતીછાયાં સાં ન શીળમોવાતિ લીગમોહ પઢેશા પ્રવૃત્તિઃ | નવં સ્નટ્ટ િહેતુવમુપસાતિમિતિ રેત, મમવતોમવ્યાતાનાવ બન્યામ તર નિયતિત, ત્રયં ભાવ-અક્ષર પાયા વાવ વત્નઝન્યનેચ્છાનન્યસ્વાદિનિયમાવધારા સાનિયતિનિયર મુdપૂન વા નિરિત્વરી ધ્વનિરૂપારેવ પાર નેશ્વરી વાવં શ્રોતૃળાં વાવમાપાત્વેન પરબમધ્યાર્ચવિશેષ યન્તકૃપાનિ નનાદા, યહિ મન્તમદ્રા “અનાત્માર્થ વિના , સારો સતો હિતમ્ | વનન શિપુિરબ્યુરઃ વિપક્ષને II, ' ત્યારે વિશ્વરીયમમુપ... નિનાવરોતિ- પુ ત્યાના નિરાકરશે દેત્મા–બોવિયત્યાદ્રિના, વધુપ અને સ્થાનનિષદ્યાવિહારાવ્યો તિછાસાનિરિક્ષા વિનહીંઘમવાલીગનોહર્યો ન ચાવ, સ્વાય શ્રી ધરતીલાપૂર્વત્રિપલીબાન પાનુજ્ઞાબાન-શ્રીલક્ષ્યાપનાવિ શિપ હાર્યમ, વાળમૃત મોદોઢસ્યામ્માન તજ- * વિવિગ્નાન તત્તજાર્યપ્રવૃત્વમવિવિ, તેમાં પોહચચષ્યિ માહિબકૃત્તેિ પ્રત્યે - હેતુત્વમમ્યુનિ, વસ્ત્રવૃત્તિનું નિરારઐતિ Rાં પ્રતિ મા શાળમિતિ તદુમાવેડયુષશાહિકવૃત્તિરપથત થવા નનુ મોત પ્રજ્ઞાપનીયાનાં હતુવેરળયાનાનેવ , વાર્થોનામુખશબવૃત્ત ૨ %ારણ, વિં જાળીમતિ તિ, વેર્માતાનામાનવે માવતોડનુપજીતપરોપા વામાવ્યમેવ ધારણામતિ ગૃહાળો તાદરાવામ- ૨ તીરનામવય પવ પ્રયોગ ન તું રાન, માવલ્વવૃત્તનિરહિન રાષિ વિના દેશના િવૃત્તિમાવતિ ત વ “તો શુધનારું મવિયનળવિવાદળટ્ટા” હત્યાનોરિધિ સક્ચ્છતે . વિશ્વ મવદ્ગો ધ્વનિ તા થવ્યવસ્થતથી વ્યmત્મસી- ' સરધા—પાવયનિજિયોયોપદ્ધળેિ , “બદ્ધમાહિતી માસામ- મર્સિતિ ” અતિ વિરોથી ચાલ, બંનેરવિ પૌરુષેયત્વેનાક્ષરામવાવાતુત્ય ક્ષેત્રેન તૈયાર Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સરવાષિવરીટાર્થીપિ ! પર ! બન્યથા મુવિનયવાધ્યાયાધ્યયનવાનાદિકવૃત્તીનામપિ મૌનન્યુરોપ, નિયતાનિયતે સર્વત્ર શાર્થે વ્યવસ્થિતે માવાયા વીનિયતવવવનસ્યાના નિવા૨ | હૃચ્છા વિના ન પ્રવૃત્તિ, પ્રવૃત્તિ વિના જ રતિ નિદ્ધતિ તસ્ય પ્રસન્વેત, વિક્ષrgયામેવ પ્રવૃત્તિનુરિયડુએંશ્ચ વિલગતાવે-છા હેરિતિ નિપ્રિવૃત્તિ માવતઃ તો નાસ્તુપાચ્છેદિતિ, ધિરમબ્રાધ્યાત્મ રાનિયતવસાવ | નિયવ યત્ન વિના બનેહપતો જ તવૈવ તં ધિનાગરિ ઘરાનુવોપરિ સ્વાહિતિ / વિશ્વ માવાસ્ય ઉત્વે તાર્યાનાર્થી દ્વારા પારિવામિત્વવપનય વાદ્ધત્વેન સંગાતીયતય ન્યાયપિ ધ્વનિરૂપ તય વિજ્ઞાતીયતા તcપનાતિશયોનિ ન્યાવ્યત્વ ! મવદેશનાધા બ્રાન્ચે િવાયોલિન તાદ્રશાશ્વમાત્ર પુરુષબયત્નાનુસાર નિયનાખ્યુપાવ્યમેવ, થાપામામં વધતો મીમાંસાહ્ય દુર્નયત્વાપત્તિવાહિતિ માવા | અન્યથેતિ-પ્રવૃત્તિ સામાન્ય પ્રતિ બોદોડયો તુરિયડુપયા ત્યર્થ, તત્ર વો માહ-મુનિયેત્યાદિ. નૈનમા હિ વહેતુત્વવ્યાપન સ્યાદ્વાદ્રશ્ય તયાયવહેવાયામાત્ર મિજામિનાડુમાનેવ નિયતાનિયમનગપ સ્વાંઢાવાગતિનિતિ માવશિાહિકવૃત્તિ હણાયે પિ વUવશાતિયા નિયતાનિયત તયા સ્યાદ્વાદશત્સ્યવેત્યત્ર નિયતાન્તવને ચાઠાવાનમજ્ઞવવવ વાસस्वभावनियतिपूर्वकृतपुरुषरूपपञ्चकारणानां परस्पराजहद्वत्तीनां कारणत्वेन केवलनियतिवादस्य મિથ્યાહાત્વાd, સાતિતર્વે-“હો સાવલિય, પુત્ર પુષિવર નેતા ! મિચ્છાં તે વેવ, સમાસ દોંતિ સમૂ ? II” તિ ૩wાથેના-નિયતનિયત્વે સર્વત્રંત્યાવિશ વાઢિશ્વિછાયોનન્યત્વેન દવા ક્ષત્રિમોહસ્ય માવતર પ્રવૃત્તિવેરળમૂતાથા છાયા સમાન પ્રવૃત્તિ, તમવા ન પામનામનાદ્રિતિ તા મન્તિો નિશે તેવું વાતે જોતેત્યાહ-છાં વિના ન પ્રવૃત્તિતિ ન વેવસેનાં પૂર્વમુરા સ્થાનાનપદ્યાવિહોરાવયો નૈવ મવનિ, મોલતવીપાં, િહું થોપવિણસ્યોર્થમ વા થવા દેવકજ્ઞાનમુત્પન્ન તતા મૃતિ વિત્યુપરવિદાસજૂર્વે મો વા વાયુ પરિસમાપ્તિ વાઢિયતિ તૂવગ્રાન્નેવશ્વાતિ, નૈવં તસ્ય વિના સમવત, મોહામાન વેદનયોવાસ્ય નિસત્તાવાત, તથા જતા વેદા મોહસહપ્રવૃત્તિવામિન્તરેશrs સ્વતગ્નિરય માની, ત વ નિયતિતતે, તe વિક્ષMાંગાવાહિદાયમેવ બવૃતુવાદ્ધતિ વિસંવાઢિના દિવાખ્યા રાજારાવશ્વનેન યહુતે, તન્ન પુત્તિયુક્તમ્, તથા સતિ માવતિવિધ્યાત્મવાદ્રિવ્રુતવેચ્છાહેતુ મ્યુપામ્યતા, ચેન મોરિબ્બાજાર્યતા બનાઝાન્તલેચ્છ વિનાગપ સપત, તા ૨ નિરીહયા થવના સર્વ સર્વિસ સિધ્ધ, નિત્યારશનાહ- વદાયવેત્યાતિ ! ધિમસ્જિતાદા“પરક્ષિારવાથમિતિ | થ ન્યાગ શિયા માવતાં ન મવતિ શફતે Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પાર્થચિનગગૂઢાર્થટીવિત ! પરીક્ષાવેરવાન્તબદ્ ॥૨૦॥ તહેવું સર્વતીર્થજરોપવેશપ્રયોગને માન્યાતેધુના ચહ્ય તીર્થે પ્રવર્તમાને જ્ઞાનાયઃ શાસ્ત્ર તુમિતિ તસ્ય નન્મનઃ મૃત્યુઢેશપર્યન્ત નાનાત્ર વળચિતુામ વમાદ (મા) ચા ગુમળાંનેવન-માવિતભાવો મનેષ્વનેજેયુડ અને જ્ઞાતે વાયુ, સિદ્ધાર્થનરેન્દ્રપીપા ॥ ૨૨ ॥ ( યા ) થઃ ઝુમમંત્યાદ્રિ } 7: શુક્ષ્મ માઁનુન્પાવર્શનવિજીયાાદંતુ તસ્યાસેવનમમ્યા સપ્તેન માવિતો માવોઽન્તરાત્માલ્ય સતથા, યિત્ ામ્ ?, અનેષુ મવેષુ, અભ્યાસોઽપ પ્રાયઃ પ્રસૂતનન્માનુનો મર્યાત શુદ્ધ ત્યાઘુત્તરનેમવાાસય રુઢિહેતુત્વાત્, સ ૨ “ પન્થ વિર રેસિત્તા ” ત્યામિક્સ્ચેન ગિતો માવત આવયનિર્યુા, બન્ને નાતવાન્, સાતેષુ પ્રતિàવિદ્વાન્નુ સિદ્ધાર્ચનરેન્દ્રશ્ય છે ટ્રીપસદશઃ || ?? | " “વન્ધો પરિણાના સો પુળ નાળા TM વીયમોદાળ | નોળયા વિ હૈં િિરયા તો તેÉિ હોદ્દ બન્નીયા || ૧૭ || ત્યાઇ પ્રત્યપાઠાયિયાત્રાત્રોહિત્યંતે સઃ । કૃતિ વાનારા વ્યાખ્યા સમાતી જાવે શારિાવતરવિદ્યામાહ-તવેવ તીર્થો વેરોતિ યત્તતોનિત્યસમ્બન્ધાવ્ ય ત્યસ્વૈર્નિશાતતમોજા મતેન સૌ કૃતિ પરેન સદાન્ત્યાં નહિ. સૠભિપાતમાત્રોવિન્દ્વોવાળે થયેળનાધાતીતિ ન્યાયેન 7 હેમવ વ નૃતો ખ્યાલો નવિન્દુલમોનામવજીતવીકૃતત્ત્વનન્તપાવનેષાવાળે થયાં શુદ્ધિાળું તું શવનોતિ, વિનેમવેધુ છૂતો દઢાવસ્થાપોઝ્યાસ સતતધારાવહૂનિયતજ્ઞપ્રવાહોષમાં ત્યાશયેનાદઅનેછુ અવેતિ નૈમિન મને ન દોર્યાં મવયો, વિત્ત્વનેષુ મવિત્યર્થઃ । અચવા અનેવુ અનેાિતનોને ાંત વ્યુત્પયા હ્રામેવયોરિત્યર્વ્યયોગ્ઝ મ્યતે, તમે વદુવજનસામર્થ્યવળાવ્ વષુ મવેન્નિત્યર્થ જતન્યઃ । અભ્યાસોઽપ પ્રાયઃ પ્રભૂતજ્ઞન્મનુનો અતિ શુદ્ધ તાંતિ ચાયે શુમસેવનોપનાતસંવારાવિ વળતરમધર્મપ્રમેË માશુમમાત્રનયા યા જ્વાષિ છાં સ્વાત્તવા તજ્ઞાતવ્રુષ્ટસંવારેળોનુસારોર્ગમસૂયત તિ મૈં ત્રાયરમ્ભય તસ્ય તદ્દાની, તથાબંધમૅસòારયે સત્યુદ્દોધોત્તમનુનુર્વાચિત્સ સંòાર હવૃદ્ધાન્ તંત્ર પુનઃપ્તજ્ઞાર્નીયામ્યાલેન ěિ નાતો મવા-હરાનુયાયી મર્વત, તેન પોત્તરમવેનિઋતોઽષિ પુંતઃ પૂર્વમતવતરસંTMારાબ્ધિવાદેવ સગ્ગાવાયો પ્રત્યાક્ષેાં માંત, અત વ પૂર્વાન્ધાસન તેનૈવ દૂતે ઘનશોગી સઃ ” રૂત્યુત્તું મીતાયામાંષ પૂર્વે પાતરમવુંત્તિ નીચેજાજસ્થાઽયે દલ ન વનાશો મનીતિ, અત વ મૃતનાનુનો મત્રતીત માત્ર । “ પંચ ર લેપિત્ત ” ાાંત, બત્રાવસ્યાન્નોજ્ઞા “ વેંચર વેશિત્તા, સામૂળ અપવિવિખળઢામાં | સન્મત્તઢમહંમો, વોધળો બહુમાળalloા” કૃતિસમ્પૂર્ણમાયા િ ત્યેવરારિજાાવ્યા પ્રવૃત્તિ પાતા | | દ્વાદ્શાાિનાદ 44 - F Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તત્ત્વાર્થવિવનામૂઢાર્થનીવિદ્યા । ( મા ) જ્ઞાનેઃ પૂર્વાધિ“તે પ્રતિપતિતેમાંતશ્રુતાધમિ । ત્રિમિતિ શુદ્ધેયુ, ચૈત્ય ુતિજાન્તિનિરવન્તુઃ ॥ ૩॥ ( વ્યા॰ ) જ્ઞાનારિયાન્ । પૂર્વમેવાધિતાને પ્રાપ્તાનિ ચાનિ ત્તિ તાવયો જ્ઞાનાનિ, તૈ, ત્રિમિાંવે અતિાંતેતેનાવૃતૈ, ભત વશુદ્ધે યુદ્ઘોર્ડ્ઝાતો, યુઘ્ધાશ્વ વિછતાવનાન્યદ્ જ્ઞાનમાત્મન હ્યુ ં મતિ । : ફેવ, શૈત્યતિર્ધા-મિરિન્હાદેવ । ચચેન્ડઃ ચૈત્યાનિમિરવિરતિઃ ક્ષેત્રાત્ ક્ષેત્રાન્તરે યાતિ વમસાપિ લર્કાતતિતજ્ઞાનત્રયો વેવસવાવિજ્ઞાાત ત્યર્થઃ || ૧૨ || (મા॰) ગુમસારસવસંહનન-વીર્યમાëાન્ય પશુળચું | નતિ મહાવીર કૃતિ, ત્રિવીર્યુંાત: તામિચઃ ॥ ૨॥ : (વ્યા॰) ઝુમસારેત્યાવિસારો વ, સત્ત્વમવૈવબ્યમ્, સદનને રીતિમા, વીર્યમુત્સાદઃ, માહાત્મ્ય મહિમા જાવિષ્ઠાવિષ્યમ્, મેં નાવૈજ્ઞાવયવનિવેશ, મુળા દાક્ષિળ્યાયઃ । શુમાન્યતાનિ ચચ સ તથા / જ્ઞાતિ સર્વત્ર વિષે, લયમેો મહાવીર કૃતિ હેતો, ત્રિશૈરન્તનુંર્તમાત્રે વાય 44 31 ત્રિમિરર્માત્તાંત રતિ, સઁવુમાવવમાઘ્યે—“ વિĚિ . નાર્દિ સમા, તિથૅચરા નાવ હ્રાંતિ મિાસે ” કૃતિ । “ નાસરો ગ મયવ, લાર્વાદĚ તિતૢિ ૩ નાોહિં । ાંત શ્વ । આત્મનો મિત્રમેવ જ્ઞાનમત્યેવં ચુક્ષુ ળનોરેજા મિસ્વનૈયાયામ્યુક્તિસ્ય લુજીનાયા–ચુ શ્રાવયાતિ, તતલુજીનું સ્વાદાત્વિન્દ્રી વિસ્તરેળ શ્રૃતમતિ તત વાગ્વસેયમ્ । કૃતિ દ્વાવાળાથે સમાપ્ત | ક્ર્ ત્રયોદ્ગાાિમાન્-શુમસારેત્યાવિશુમાન્યતાનીતિ ઝુમત્સ્ય નપુંસવાદશેષ્યવાદ્વૈતયોપવિષ્ટત્યંત∞ન્દ્રસ્થાઽના હિન્નતથૈવ નિર્દેશસ્સામાન્યતઃ ભૃત, હોદ્દે નાશુમનિવધનાનામપ્લેમાં પ્રાયો. દર્શનાત્મક થમેતિવશેષમ, મિષ્ણુસૈનિવૃત્તતિયોનનેચુસ્તસમ્પન્ન ત્યેવ તત્ત્વાર્થવૃહદીાયામુત્ત્તાત્ર સારર્થે સત્ત્વ = સનનં ચ ોય = માહાત્યં આ તું ચ મુળ4 સારસસંદનનવીર્યમાહાત્મ્યમુળા, સુમાત્ર તે સારસત્ત્વસંહનનીચેમાહાત્મ્ય પશુળથ્ય ગુમસારસવસંહનનીયમાહાત્મ્ય વશુળા, મૈથું સસથેતિ સમાસ વેબ, ઝુમાન્યાને યસ્ય સ ચેર્ત્યતત્તુ તાપવિવરણમાત્રમ્ । તૃતીયાઅવસ્થા પ્રાપ્તાતિ ત્રિવા ચેવં ત્રિશાન્વાર્યમા-ત્રરોયિાવ । યમ્મા-તેવો દિર્ઘમાયવેદ મુત્બા વિમò દેવશયનીયે ઉત્પત્તિજાત મુર્તામાત્રે તેવમનગમાવત, મૈં પુનર્મનુષ્યવપુર્વે મિાહારોપયોન્યોષાયત, વિજ્યં યૌવનાવસ્યું શરીર સમ્રુદ્ધાય સુરનિવનયનાનત્ત્વો વિન્હેં વેવાંશુ પરિત્યજ્ઞનું માનુનવત્તવિવ્યશરીર ધારયન્ સમ્પૂÒશારવુચશૌયોત્તિષ્ઠતે, ઉત્તૠ—“નદ મહાળિતિ સિંદ્ર નાવિન્દ્રા સમવો દોડ | પાયા સુભેળ તત્તા, કેવાળ વિ હો જીબી ફ્ સ પુળ મત્તુળ મં, તેદું વિમા ال Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તિવાવિવાહાટીપિકા ૌમારો મતીયાવાપ્તયૌવનવૃત , મુળતો ગુમાશ્રિય, તામિલ છતમારામિષાનારા (મા) સ્વયમેવ બુદ્ધતરવા, સરવરિતામ્યુબ્રતા(ત) વરિ સત્તા • મિન્વિતરામસરુવા, હેન્દ્રભાન્તિ ! (૦) સ્વયમતિ / સ્વયમેવાનુશાલૂ, વૃદ્ધતીવ્રતધામા સરતાર્થમ્યુવતોડ વર્તિ સદ યસ્ય સ તથા, મનન્વિતમામડુતં શુમે સર્વ વસ્ય સ તથા, , સેન્દ્રીન્દ્રિહિતે (મા) જન્મારામરર્તિ, નાગમમિક્ષય નિઃસાહમ | * તમાય રા, રામાય ધીમાન્યવત્રાન | શ . સુરીરં, તિબં તો | ૨ | સુયોનિયો , દિવ્યં દેવંસુયં અદિલિતો માધુરવોહિધરી, પુણે સારયસિ !! દતિ તમરાવરબિધાન ફેતિ STચ “વાઇત્તકવિ છે, પણ ગુરનો મયર્વ વિહોતે નામ, સાં તુવિf Inશા” રૂતિ ત્રીવરાતિર્થ સમાંત રૂ - યત્યયામાઈ-બાપ શાહિતિ રોપવે મળત્યર્ચ યુદ્ધતવ ત્યયાર્ચમાહ-વૈતપરમાર્થ તો ડાન્નાવર મળેલવે સયંવૃદ્ધા” કૃતિ વૃદ્ધતત્ત્વો હિ સત્યાપિ સંસારસ્વામિ વિલાનેશ્વત્યન્ત નિર્ગુખ્યમવધાર્ય મહાશા પર્વ નિયતિ–લો! . ત્રિતત્સત્ય પામેશ્વરે બવવને સફરજોનસિ રુવપરીતતો લ. વિસારને મહા- " મોહાન્યાવિહુન્નસ મૂવમન કે પરિશ્રમાિ, તમેતાનું નિત સંસારાવન બવવનેન યથાયોગમુત્તારવાનીતિ, પર્વ વિધવા ૪ મહાત્મા સવ નત્રિય દ્વારા વરણાદ્રિમુણોપેત પ્રતિક્ષણં પરાશર બગવદ્ધમાનમહારાયો યથા યથા પાકૃપા મવતિ તથા તથા શ્લઘતોડરિતસવી મીત્યાશોના...દત્તવાહિતાર્થનમ્ન તેજસ્વિતં સવં ય સ તથતિ , તરવાર્થવૃદટ્ટીયાં તુ સાહિતાર્થનમ્યુતિ- ' વર્જિત કરવમતિ વિકરણપૂર્વવાહિતામ્યુઘતાવતિસરનું તિ સમસ્તયો ઉત્તર : હોંન્તિવેરિતિ / નનુ સહી-રિરિત્યેવ વજું યુધિમિતિ સેન્ટ્રહરિ બિરિન્યુફ્રેમતિ વે, વિવાનાં માવોને પ્રાધાન્ય વ્યાપનાર્થમિતિ નાનીદ્ધિ, યદ્યપિ માવાનધિજ્ઞાનેન વીલાસમાં વયમેવ જ્ઞાનાતિ તથા ઢોવાસ્તિવા નિશ્ચયો માવતિવરાતિ વાવાબાતાનાથે માવાં સોધ હસાવશ્યમાથે “સાર રાય માડ્યા. વર્લ્ડ વળા જ પતોય જ! સિગા વ્યવાદા, ' બિમિના જેવા રિકા 7 I ? . પણ હેવાનિયા, મયર્વ વોહિંતિ નિળનહિં તુ સવામીવા, મયવં! તિર્થં વવોહિ રા પર્વ મિથુવ્વતો, વૃદ્ધો વૃદ્ધાવસારિસમુદો | છો , વિવાહિં, મને કદાવરો રા” હતિ. રુતિ વતુર્વવાર્ષિ સમાસઃ રઝા Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તથા વિવાન કાર્યકીપિડી (०या०)जन्मेत्यादि, जन्मना जरया मरणेन चातमभिभूतम् , जगत्रिभुवनम् , अशरणमपरित्राणम् , अभिसमीक्ष्य ज्ञानचक्षुषावलोक्य, निस्सारमपगतरामणीयकम् , फीतं समृद्धम् , राज्यम५पहाय, शमाय मोक्षाय, धीमान्निक्रमणानन्तरमेव मनःपर्यायज्ञानोत्पत्तः, अपनाज दीक्षामादते 2 // 15 // किं कृत्वत्याह (भा० ) प्रतिपचाशुभशमन, निःश्रेयससाधक श्रमणलिङ्गम् / / कृतसामायिककर्मा, प्रतानि विधिवत्समारोप्य // 16 // (व्या०) प्रतिपधेत्यादि / प्रतिपद्य गृहीत्वा, अशुभशमनं अशुभकमक्षपणोपायभूतम् , न तु पुण्योपादानम्, अन्यभवानाकारत्वात् , अत एव नि:श्रेयसंसाधकं मोक्षप्रापकम् , श्रमणलिङ्ग श्रमणत्वज्ञापकं पञ्चमुष्ट्यावतारितनिःशेषशादिलक्षणम्, कृतं "करोमि भदन्त ! सामाकिं सर्वान् सावधयोगान् प्रत्याचक्षे " इत्येवं प्रतिज्ञात सामायिकं येन स तथा, नतान्यहिंसादीनि विधिना वक्ष्यमाणानुपूर्या, समारोप्यात्मस्थानि कृत्वा // 16 // भगवतो निरनुवन्धं कर्मेति तत्प्रवृत्तिमोक्षायैव न तु परलोकायेत्यभिप्रायेण शभायेत्यसार्थमाह-मोक्षायेति। धीमचे हेतुमाह-निष्क्रमणानन्तरमेव मन:पर्याधज्ञानोत्पत्ते. रिति / उक्तश्चाऽऽवश्यकभाष्ये " पडिवण्णमि चरित्ते, पउनाणी जाव मत्था " इति / . इति पञ्चदशकारिकार्थः समाप्तः // 15 // पञ्चदशकारिकाऽवतरणिकामाह-किं कृत्वत्याहेति / पुण्योपादानमिति-पुण्यग्रहणकारणमित्यर्थः / निषेधे हेतुमाह-अन्य भवानाकक्षित्वादिति / भवे मोक्षे च सर्वत्र निरहो मुनिसत्तम इति वचनादिति भावः। पञ्चमुष्टयाऽवतारितनिशेिषकेशादिलक्षणमिति / अत्राऽऽदिपदेनाऽटादेशशीलासहस्त्रानुष्ठानाम्युपगतप्रतिज्ञममरोपहितसितकदुकूलकतवैकक्ष्यमत्यन्तसर्पसत्वानुवैजनमसपदप्रापकमिति ग्राह्यम् / शाक्यादय श्रमणलिङ्गधारिणोऽयुपचारतश्चारित्रव, न तु परमार्थतः, अकृतसविसावद्ययोगप्रत्याख्यानादिलक्षणसामायिकत्वात् गृहस्थवत् , ये च कृतसामायिकास्ते परमार्थतश्चारित्रवन्तः, यथार्हन्तो भगवरा इत्युपदर्शनाय हेतुगर्भविशेषणमायामाहकृतसामायिककर्मेति, तदर्थमाह-कृतमित्यादिना / करोमि भ६.! सामायिकमिति। अत्रे तथार्थवृहट्टीकायां न चाऽस्याऽन्यो भदन्तोऽन्यत्र सिद्धेभ्यः, आचारार्थ वनेन सिद्धान्या प्रत्युकामित्येवमुक्तं / आवश्यके तु-" काऊग नमोक्कार, सिद्धाणभभिन्नहं तु सो गिण्हे / सव्वं मे अकरणिज, पावंति चरिममारूढो // 1 // " इति भाष्यगाथाटीकायां स च भदन्तशब्दरहितं सामायिक चारयतीत्येवमुक्तमिति / आहे च चूर्णिकारोऽपि-"भदंत त्ति न मगई, जायम्" इति / समारोप्येत्ययार्यमाह-आत्मस्थानि कृत्वेति / भाववृत्या प्रस्थात्मप्रदेशमोतप्रोतानि कवेत्यर्थः, एतेन ये बाह्यवृत्त्या व्रतानि गृह्णन्ति पार्श्वस्यादि साधुवन ते परमार्थतपारिन इति चितम् / // इति षोडशकारिकार्थः Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ વાવિવાહાટી (મા) રાજ્યવરવજ્ઞાનવારિત્ર-સંવરતપાસમાંવવધુ .મારિ નિત્ય-શુમાર વત્વારિ ધર્માળ . ૭. (વ્યા) યા િસ ક્ષાથિ, જ્ઞાનં વર્ષ, રિડ્યું છે પદ્યાવ્યપરિહાવિશુદ્ધિવર્ણ, સંવર નિરુદ્ધસિવવા (ા, તો વાલમનેવધરાન્તાં તુ વિનયબ્યુલ્સ થધામવા ધ્યાને તુ પ્રધાનમંક્ષારગત્યાત્ શબ્દો તમેવ, અને વસ્કેન મોહાનિ મોહનાનાવરણાન્તરાયાભ્યાનિ, જવાર્યશુમાનિ જાતીનિ વળિ નિહત્ય ૨૭ માં (મા) અધિષ્ણ વિનુ સ્વયમેવ જ્ઞાનવર્શનમનામ ' ' રોહિતાય તા–પિ વેચાયામાસ તથમિવ છે ?૮ . . (વ્યા) વહામત્યાદ્રિ પરું રિવરણમ્, સામાન્ય બાબ્દ, વિ. સર્વતનાનાભા, સ્વયમેવ સ્વાવ, જ્ઞાનનું જ્ઞાન જ વર્શન નેતિ સમાહારદ્વા ના . શ્રી મહાવીરબર્દિનાત્રદ્વૈચ્છરાજ્યોમહારાના નેતા તાધિકસમ્પત્યાવિહસમાશ્રયળે ત્યમિકા #રિવાયાં વિશેષામહં--સવવજ્ઞાનવાન્નિસંવરતપાસમાધિવધુ ફાતિ . સીમાચિવારિત્ર વીક્ષાવિ , સૂક્ષ્મસમ્પરાવારિત્રં દ્રશનપુણસ્થાન, યથાશ્વાતવારિત્ર વિશનુમાનજતિ માંધતાં વાન્નિત્રય યથાવતું સમ્મતિ, નg છોપાનીયરિદારવિશુદ્ધિવારિ, ફયતા છેવોપચાવ્યપરિવશુદ્ધિવામિત્યુ મ્ ! નનું ધ્યાનથSSન્તરતવમેવ વાઢેર્નવ અર્થવાનિતિ પૃથગુહમિયાજ્ઞ- . નિવૃત્યર્થ દેતુનાહ-અધાનાક્ષારસ્વતિ | જોવાતનેતિ સમાધિપૌવોતમિત્ય | સમાધ્ધનહર્ષવાહિતિ માવ સર્વવર્મમાં મળે મોહનીય મુખ્યત્વાક્ષયમેળેવ જ્ઞાનાવાળવાનાં પતિવર્મળ ક્ષય તિ સંવનાથ મોહં બધાની છત્યાગ્દ-દિજ્ઞાન નાવનિતરાયાથનીતિ . પાતાનારિ રાખ્યર્શનાઘાસિયાજમુળધાનીત્યર્થ , નિત્ય-ભાત્મકશેમ્યા પૃથયે વિમાન છતિ યાવત તિ સપ્તવારિજાત સનાતઃ | ૭ || * * * ' . . . સંયુક્રતા હિ વિશબ્દો નાઝ ગ્રાહ્યો હતો તૈયાધિશવનાત્મા નવ વાહપતિરાધ્યાપકોડવુમતા િનયાત્રતાપવિશેષપર્યાયોવેતાવિવવિયવજ્ઞાનાનત્યમિરાળાø-વિમુઃ સર્વેતજ્ઞાનાતિ / સ્વાધેતિ ફતાસહાયમન / સરાહારદ્વન્દ્ર જ્ઞાતિ નતિત માહાદ્વન્દ ૨ ને વિશેષ પતિ વેત ધ્યતે, તોતયોને સાહિત્ય વિશેષાં, દ્રવ્યું તુ વિશેષ્ય, સમાહારે સાહિત્ય પ્રધાન દ્રવં વિશેષાં, થતા gવેતર દ્રાયણ દેવ બધાન્યતા વિશાલ દ્વિવવ વદુવવ વા, સમજદાર ૪ ગુવાનીમવશ્ય સાહિત્યશન્યાકેશવ વનનિતિ જ્ઞાનવિધીવાનાં નવવર્ષાલના Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तायविवरणहाथदीपिया । : ६५ પ્રવાહવિચ્છેદ્રાવળદેત્રમવારહિતી હોવાહિતાય ોાનામાન્નમળ્યાનાં હિતમમ્યુનિश्रेयसे तदर्थम्, कतार्थोऽपि सिद्धप्रयोजनोऽपि, इदं तीर्थं वर्तमानप्रवचनं देशयामास ॥ १८ ॥ कीशमित्याह , .. .. .. (भा०) द्विविधमनेकद्वादशविध, महाविषयममितगमयुम् । - संसाराणवार गमनाय दुःखक्षयायालम् ॥ १९ ॥ (व्या०) द्विविधमित्यादि । वक्ष्यमाणद्वयादिभेदम् , महान् विषयः सर्वव्याऽसर्वपर्यायलक्षणो यस्थ, तत्तथा, अमिता असल्येया मा पन्थानो नया इति यावत्, तैर्युक्त, संसारार्णवस्य पारगमनं यस्मादेतादृशाय दुःखक्षयायालं पर्याप्तम् । एतेन मण्डूकपूर्णसहशविलक्षणतमसह शक्लेशक्षयस्य पदार्थानां द्रव्यार्यनयेन स्थिरीभूतानामपि पर्यायनयेन प्रतिक्षणं विशारुतयोत्पाद विनाशशालित्येन तद्विषयकज्ञानमपि तथेति व्यत्यपेक्षया प्रतिक्षणं भिन्न भिन्नत्वेन पर्याय नयेन साऽन्तमपि प्रवाहापेक्षया द्रव्यनयेन केवलज्ञानमनन्तम् , तद्विनाशककारणाभावात् , समुद्रतरङ्गप्रवाहवदित्याशयेनाऽऽह-प्रवाहविच्छेदकावरण हेत्वभावादन्तरहितमिति । आसन्नभव्यानामिति । अपार्षपुद्गलपयिन्ति विमोक्षाणां शुक्लपाक्षिकाणांमित्यर्थः । एतेन कृष्णपाक्षिकादिजीवलोकानां निषेधः कृत इति । न चै तर्हि भागवतां पक्षपातित्वेन वीतरागत्वक्षतिरिति वाच्य तत्र जीवविज्ञपयैव कारणवाद्, यतो न हि कालदटम जीवयन समुजावितेतर६४को विषभिपगुपालम्भनीयः, अतिप्रसङ्गात, तथा च सूर्योदये उलूकादीनामिवामन्यानामपि प्रकृत्या क्लिटफर्मणां भगवद्रूपभावसूर्योदयेऽपि न तथा प्रयोधरतत्र तदुर्भाग्यमेव कारणम्, यदाह श्रीहरिभद्रसरि:-" अभव्येषु च भूतार्था, यदसौ नोपपद्यते । तत्तेषामेव दौपुण्य, ज्ञेयं भगवती न तु ॥ १॥ दृश्वाभ्युदये भानोः, प्रकृत्या क्लिष्टकर्मणाम्। अप्रकाशो खुलूकानां, तद्वदत्रापि भाव्यताम् ॥२॥" इति । कादम्बर्या पाणोऽपि बभाण "अपगतमले हि मनसि स्फटिकमणाविव रजनिकरगंमत्तयो विशन्ति सुखमुपदेशगुणाः, गुरुवचनममलमपि सलिलमिव महदुपजनयति श्रवणस्थितं शूलमभन्यस्येति । सिद्धमयोजनोऽपीति केवलज्ञानफलापाताविति शेषः । देशयामासेति-अत्र सकलजभाषापरिणामिन्या भाषयेति शेषः । उक्तश्व-" देवा देवी न। नारी, शसश्चापि शावरीम् । तिर्यश्वोऽपि हि तैरवीं, मेनिरे भगवदिरम्" ॥१॥ ॥ इत्यष्टादशकारिकार्थः समाप्तः॥ १८॥ . . . मण्डूकपूर्णसदृश विलक्षणतभस्मसदृशशक्षयस्य प्रवचनाधिगमप्रयोजनत्वमिति-मण्डूकपूर्णसदृशो यः क्लेशक्षयस्तद्विलक्षणान् तद्भस्मसदृशो यः क्लेशक्षयरसस्थेत्यर्थः । अयमत्र भावः-मण्डूकपूर्णरूपो यो मण्डूकनाशस्तत्सदृशो न प्रकृते क्लेशक्षयः, तथा सति पुनरुत्पत्त्यनुकूलशक्यन्वितत्वाचूतिमण्डूकशरीरावयवेभ्यो यथा वर्षासु पुनरपि मण्डूकप्रादुर्भावस्तथा विनष्टोऽपि क्लेशा पुनः स्यात् , न चैवम्, ततो मण्डूकपूर्णसदृशाद्विलक्षणः Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वार्थविवरणदार्थदीपिका । प्रवचनाधिगमप्रयोजनेत्वमुपदर्शितभाचायोति विभावनीयं सुधीभिः ।। १९ ॥ (भा०) अन्थार्थवचनपटुभिः, प्रयत्नवद्भिरपि वादिभिर्निपुणः। अनभिभवनीयमन्य-भास्कर इव सर्वतेजोभिः ॥ २० ॥ (व्या० ) ग्रन्थार्थत्यादि अन्थेऽर्थे वचने च पटुशब्दः प्रत्येकं योजनीयः, सन्ति हि कोविद् यथाधीतग्रन्थ५८वो नार्थपटपः, कोचिच्चानधीतग्रन्था अप्यर्थपः । अन्येऽनधिगतग्रन्थार्था अपि स्वविकल्पितवचनप८वोऽतो विशेषयति त्रिप्वपि ये पटवः, एवंविधा अपि नोदासीनाः प्रयत्नवन्तो विजिगीपोचताः, अथ च निपुणा न्यायकुशलाः, एतादृशैरपि अन्यैर्वादिभिस्तीर्थान्तरीयत्नाभिभवनयिम, कैः किमिव, सर्वतेजोभिर्मणिप्रदीपादिभिर्भारकर इव । यद्यप्युपमानपदस्योपमेयपदसमानविभक्तिकवादीस्करमित्यस्य प्रसङ्गः, तथाप्यात्वादित्थं प्रयोगः, यद्वा यदेताशं तीर्थ तद्देशयामास इति यतयां संस्कारो विधेयः ॥ २०॥ एतावता ग्रन्थेन सिद्धान्तोपोधात सरत्या चिकीर्षितप्रन्थस्य सङ्गतिमत्त्वं महावीरस्य नमस्कतव्यतावच्छेदकगुणवत्त्वं चोपदर्शितम् । अथ विविधाताव कृत महावीरनमरकाररूपं मलं शिष्य शक्षयः, अत एव पुनरुत्पत्तिसत्यभावात्तस्मसदृशः, यथा भण्डूके भरसाद्भूते सति न तस्य पुनः प्रादुर्भावः किन्वत्यन्तमण्डूकविनाश एवं, तथा तद्भस्मसदृशक्लेशक्षये सर्वथा सञ्जाते सति न पुनः क्लेशप्रादुर्भाव इत्येवम्भूतक्लेशक्षयस्येति । विशेषार्थिना द्वात्रिंशद्वात्रिशिकाऽन्तर्गतयोगद्वात्रिंशिकाया “ मण्डूकपूर्णसदृशः, क्लेशध्वंसः क्रियाकृतः । त-इस्मसदृशस्तु साद, भावपूर्वक्रियाकृतः" ॥ २६ ॥ इत्यादि यदुक्तं तदवलोकनीयम् ॥ ॥ इति एकोनविंशतिकारिकार्थः समाप्तः॥ उपमानोपमेयरसमानलिङ्गकत्वनियमो न, " मुखं तव तथा भाति, यथा राजति चन्द्रमाः।" " हरिमिव हरिमिव हरिभिव, सुरसरिदमा पतन्नमत" इत्यादौ तयोभिन्नलिङ्गफत्मदर्शनात्, तथा चोपमेयभूततीर्थपदस्य नपुंसकत्वेऽप्युपमानभूतभास्करपदस्य न पुलिस स्वक्षतिरिति तदाशङ्का न कृता, उपमानोपमेययोरिवादिसमाभिव्याहारे समानविभक्तिकत्वनियमरत्त्वस्त्येव, अत ५५ काव्यप्रकाशे सपादशततमसूत्रटीकायां " हरितकी भुक्ष्व राजन् , मातेर हितकारिणीम् ।" इत्यादि वसाध्य, समानविभक्तिकवाभावादित्यप्युक्तं सङ्गच्छेते, तथा-चात्रोपमेयतीर्थपदस्य विश्वातुकर्मवाद् द्वितीयाविभक्त्यन्तत्वेनोपमानभूतस्य भास्करपदस्य द्वितीयाविभक्त्यन्तत्वप्रसङ्ग इत्येवं यद्यपीत्यादिनाऽऽशझ्य समाधत्ते तथापीत्यादिना । . समान विभक्तिकत्वनियमपरिपालनार्थ समाधानान्तरमाह यद्वेति-तथा चाऽत्र तीर्थपदस्य प्रथभाविभक्त्यन्तत्वेन तत्समानविभक्तिकमेव भास्करपदमिति न विभिन्नाभिक्तिकत्वदोप इति भावः। ॥ इति विशतितमकारिकार्थः समाप्तः ॥ २०॥ . एकविंशतितमकारिकावतरणमाह एतावता अन्यनेति-4: शुभकर्मासवनेस्यायकादशशोकादारभ्य ग्रन्थार्थवचनपदभिरित्यादिविंशतितमश्लोकपर्य- प्रबन्धनत्यर्थः । . Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3६७: તલવાવિવાળવાર્થીપિ ! शिक्षायै निबनस्तदवधानाय प्रतिजानीते (भा.) कृपा निकरणशुद्धं, तस्मै परमर्षय नमस्कारम् । पूज्यनमाय भगवते, पाराय विलीनमोहाय ॥ २१ ॥ - (या०)कृत्येत्यादि द्वाभ्या | कायवाङ्मनांसि त्रीणि करणानि तैः, शुद्धमकल, शुद्धानि वा त्रीणि करणान्यस्मितत्तथा । शांगरजग्धादि'ज्ञापकान्निष्ठापरनिपातः । तस्मै-प्रागुताय, परमर्पये दर्शना दृष्टियथादृष्टवर्णनाच्च परमत्वमिति परमधर्मोपदेशकायेत्यर्थः । पूज्यतमाय-पूज्येभ्योऽपि पूज्याय, भगवतेऽनुत्तरशानशालिने, विलीनमोहाय-निर्दलितमोहनीयकर्मणे, वीराय गहावीरनामधेयाय, नमस्कार छत्वा । अत्र परमर्षय इत्यनेन वचनातिशयः, पूज्यतमायेत्यनेन पूजातिशयः, भगवत इत्यनेन ज्ञानातिशयः, विलीनमोहायेत्यनेन पापायापगमातिशय उत्त:, तेनाहत्यमूलातिशयचतुष्टयोक्तेभगवद्विषयकरतिभावशिष्यशिक्षायै निवघ्नन्निति-मछिया अप्येवं कुर्युरित्यभिप्रायेण ग्रन्थघटकीभूतं कुर्वनित्यर्थः । तदवधानायेति-शिष्यश्रवणकतानताकरणायेत्यर्थः ॥ कि कृत्वेति कपेिक्षाप्रयुज्यमानकर्मभूतनमरकारपदाच्यस्य नमस्कारस्य विशुद्धद्रव्यभावनमस्काररूपताप्रतिपादनाय विशेषणतयोपात्तस्य त्रिकरणशुद्धमित्यस्याऽर्थमाह-कायवामनासीत्यादि । ननु सुद्धानि त्रीणि करणान्यस्मिँस्तत्तथेति बहुव्रीहिकरणे क्तप्रत्ययान्तं सा बहुव्रीहौ पूर्व निपततीत्यर्थकात् " ताः" ।३।१ । १५१। इति हैमसूत्राच्छुद्धपदस्य तप्रत्ययान्तयेन शुद्धत्रिकरणमित्येव प्रयोगस्यादित्याशङ्कायामाह-शशिरजग्धादिज्ञाप कांनिष्ठापरनिपात इति । जातिकालसुखादेनं वा ।३।१।१५२ । इति सूत्राजातिवाचिभ्यः कालवाचिभ्यः सुखादिभ्यश्च शदरूपेभ्यो बहुप्रीही समासे तान्त वा पूर्व निपततीत्यर्थकात् तप्रत्ययान्तशुद्ध पदस्य विकल्पपक्षे परनिपात इति भावः। “शागरजग्धादि" ज्ञापकादितिशाशरस्य वृक्षविशेषस्य विकारः फलं शाङ्गरं तजग्धमनेन स शाङ्गरजग्धः, स आदियस्मिन् स शागरजग्धादिः, स चासौ ज्ञापकश्च शागरजग्धादिज्ञापकः, तस्मादित्यर्थः। प्रागुयेति । यः-शुभकमसिवन इत्यादि पूर्वोक्तेन सह सम्बद्धायेत्यर्थः । परमपय इत्यत्रर्पिगतपरमत्वस्य सर्वातिशायिवागाधतिशयरूपत्वेन भगवतो साधारणसद्धर्मतीर्थोपदेशकवणं सूचयितुं तदर्थमाह -दर्शना दृष्टियथा दृवर्णनाचेत्यादि । ननु भगवतः सर्वान् प्रत्याविशेषेण परमोपदेशदातृत्वेऽपि कस्यचिद्धवाप्तिः कस्यचिन्नेत्यत्र किं नियामकमिति चेत्तत्तदात्मनियतमव्यामव्यस्वसुलभवोधिदुर्लभवोधित्वादिपरिणामलक्षण्यमेवेति जानीहि । अनुत्तरज्ञानशालिनेभगवतो ज्ञानान्न किमपि ज्ञानं श्रेष्टमित्यतोऽनुत्तरं प्रधानं सर्वज्ञानोत्तमं ज्ञानं केवलज्ञान वच्छालिने । कृत्वेति-अस्य "समानक कयोर्धात्वर्थयोर्मध्ये पूर्वकालो यस्य थात्वर्थस्थ तस्मिन् विधमानाद्धातोः क्त्वाप्रत्ययो वा भवतीत्यर्थकात् "प्राकाले" ५।४।४७। इति हैमसूत्रात् पूर्वकालभाविकरणक्रियाककृयातो. याप्रत्ययेन सिद्धस्य कल्पत्यस्य तत्समानातकोत्तरकालभाव्युक्तिक्रियायकवस्थामीत्यग्रेतनश्लोकान्ततिपदेन सह संट: तेनाईत्यमूलाति . . Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . તે વાર્થવિરગતી ! પારધવચ માધ્વનિત્વમાલિત મવતિ | ૨૨ ', તાલિમાર્થ, વહ સારું ધુન્યમ્ ! ) વક્ષ્યામિ શિષ્યતિમિમ-મહેંદ્રવર્નાક્ય / રર . તાવાર્થત્યાદ્રિ તવાર્થોડધિમા તેડનેનાસ્મિન વેતિ તવાધિમાં, તમ્, અમિધામિલેયયોરમેવાશ્રયનાનિધાનમ્, અદ્વિવન દ્વાદ્રશાબિટિય ચ શાસ્ત્ર, ન તુ સર્વસ્ય, મહત્ત્વન સંગ્રહીતુમ યત્વાતી સદ્ગહૃ સમાસ, ધુન્યું જયરાતમંત્રિ, ધહ વિપુલ્હષય, શિષ્યતિ વિસ્તરાસાનાં વીનમાત્રજ્ઞાત્વીત / નં વૃદ્ધિથયું, વક્ષ્યામિ | બન્ને તરવાસંબો વિષય તજ્ઞાન પ્રયોગન, તગ્નિઝારધિનારી, તેન સહ અભ્યસ્ય પ્રતિષાચાતિયામાવથ સર્વે ફત્યનુન્યવતુષ્ટય–ાત્ર મૂછાતિશયવાદથળે વવનાતિશયપૂજ્ઞાતિશય વર્ચસપાપી, અપાપામાતિરાય વિજ્ઞાનાતિશય સ્વાર્થસમ્પત્તિરૂપવિત્વવધેયી વવર્મવદ્વિષયાનુરાપાત્મવતિર્નાનાચિવન્ય વિષયવાર તમનવાદ્રષતામનાંપદ્યમાના માવશધેન વ્યવયિત હત્યાનાSઠ્ઠ મવદ્વિષયજાતિ માવપરિષાવસ્થ માવનિત્વમાહિતમિતિ સત્ર વતિરામાવાનામ્પનામાવા, તવાયવતા ત્યાઘુપિન, તાદ્રિયસ્તવાહિનુમાવા, માવાતતિમાહભ્યાવિસ્મરળાયરશ્ચિારિભાવ, તે પુછો વધતો રતિભવસ્થામાવ દત્યવધેય # પરિતિમારિ સમાપ્ત ૨૭ ચંગુળમાથત્ય ત થતિ મુળનિષ્પન્ન નામ વિહિત ગુજં વર્થિકતિષ રપત્વ નિમિત્તવિધયાધર વચ્ચે વા વિગ્રહમુનાગsg-તરવાડધિનેનામિન્ તિા વહીવાક્ષરદ્ધક્ષમાં સૂત્ર, મૂત્રસમૂહૉત્મSિધ્યાય, તત્સમૂહાત્મયં પ્રત્યે૨વાર્યતિપાવશે નતુ તવાધિમા ફતિ માતા પાર્વાધિમેતિ નામેત્યારફ્રાયમહિ- * માનમિયરમવાબત્તવામિનમિતિ પ્રતિપાદ્યતિપાદુમાવવુન્હો હિનૈત્તિમે વિચારવાશિમે હત્યમેવાગ્ર બાધાવિયો ગ્રન્થન સાગધામવિષયવાર્થસ્થામધેયસ્પામેવાશ્રયનાથ નમોજીમતિ મવા ચક્રનતિવઘાન્નિાદ્વાર્ષિદાબવનિતં તથાથર્થકોળતિમિતિ તદ્રવનયેત્યારે દશાંબિપિજોતિ. પણ માવાવાર્યસ્તસ્ય પિદ રત્નવિ ટિમતિ - મણિબં, દ્વાવસાવ પાપ મિતિ દ્વાશાળપિટ તત્યર્થ. વહાનુભાવમહિના સંક્ષિપ્તવૃદ્ધિવરાયુdહનનાઢીનાં સત્તાનામકલાયમાન નેતાની સહમવવના , નામે સંસાર ત્યતો વર્ષાર્થીમાત્રમત્ય સ્વપરસમવાદત વ્યાપારાસરિલમયતાત્પર્યાવય થથાવસ્થિતવસ્તુતવાવવો ધવન નિશુદ્ધ સભ્ય નવીન મi શિષ્યો ત્યારોનારાતિમિતિ તેન સાતવાઈસશ્વત્મિળ સીનવવતુદાનિશ્ચય કક્ષખંત્રાવોમિતિ ઝુતિ દ્વારાતિતમવારકા રિરા Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તરવાથવિવરળનૂહાથેનીપિા ! : દૂર : હામાત્ત વાર્થેન સહષિ અન્ય સજ્ઞતિઃ સ્પીનતિ, સજા સમ્બન્ધારિોપવેશ તિ નિર્મ્યૂøન્ ॥ ૨૨ I પર્વે તીધમહિનાક્ષિક્ષવુદ્ધિરાજાર્યામિસંમાયોનવેગીયઃ પ્રત્યેવતિષ્ઠતે (મા)મતોઽતમાવિષય ચ દુરીમગ્રન્થનાથપાસ્ય | ૐ શ પ્રત્યાસ, નિનવષનદોવષૅ તુમ્ ॥ ૨૩ ॥ (વ્યા)બદ્દત ત્યાદિ । મહતો મૂયસઃ, ગતિશયેન મહાવિષયસ્ય મહાચૈત્ય, દુૉનો ગ્રન્થમાયો પાંરો નિષ્ઠાસ્ય સ તથા તક્ષ્ય, તંત્ર વિશિષ્ટાનુપૂર્વીસતિવ્ર, તત્ત્વ મહત્ત્વાધ્યયનમાત્રાણિ દુર્રીમઃ પાર, તસ્મૈવાવિવરળ માધ્યમ્, તાવિનયવાઽાનુમત્વવિશયામઃ પારઃ । યૈ લાનમો મહર્ષિ પુરુષાયુવેળાશયો વ્યાવર્ધયિતુમ્, તદ્રિધ્ધમત્સ્ય નિનવવનમહોÈ; પ્રત્યાસ-સબનું હતું જ્હોન જોડપીમિપ્રાયઃ । તેડાં ધારયામીત્રેય મિોડત્રાપાપે પ્રયોાત્ ॥૨૨॥ ક્ષાત્ર મનોરથૈ ધારયેતસાવિત્મવ્યવ્યવસ્ચેવિત્યાદ (મા॰) રિલા મિĚ વિમિત્તે--વિક્ષિપ્તેય ક્ષિ િયોામ્ । પ્રતિતીયન સમુદ્ર, મિત્પ્રેષ પુન: શાત્રે || ર૪ ॥ (૦)શિરસેવે | શિરસા ગિરિ પર્વત, વિમિલેત મેર્નામ∞ત, િિલખેવુોતુંમિત્ઝેન્દ્ર, સાક્ષતિ–TMીસહિતં તમેવ ગિરિમ્, નોર્માં-વાત્તુભ્યાસ, પ્રાતૃતીર્યંત તનુંમિત્ઝેન્ય સમુદ્ર વોૉમિતિ વર્તતે । મિત્ત્તત્ માને વ્હેત્ત્વ શાત્રે તમેવ સમુદ્રમ્ ઙાવન્તુરમાળામમાંય ॥૨૪॥ ત્રયોવિંશતિતમારાવતર ધામાદ્ મિત્યયિમાંશુત્વવપુલ્યવૃનનયસ્ત્યપ્રાધાન્યસંજ્ઞા પ્રશસ્યાર્થસ્ય મહેન્દ્વયાત્ર પ્રહતર્થમા પતો સૂચન તિ। અધ્યયનમાત્રળĪપતિ-ત્રાધિના સુવિનયાથીમુતચશુપાવીયમાનાર્યક્ષેતીમાં પાર ડ્વત્ર વિષ્ણુ મિાંત ૠવિતમ્ । શિવન્ય નિવેદ્યાર્થમમિત્રેયાદ ન જૉપોત્યમિત્રાય કૃતિ । યાંપે ઃ શસ્ત્યનેન જાવા શિબ્દસ્ત નિષેધોડયાં બન્યતે તર્યાને વ્યસનાવૃત્તિનૈયાય ડમ્યુપામ્યત કૃતિ પ્રિ-રાજ્ોમમહાનિધિોશેમ-પ્રશ્ને, નિષેધે, વિત, નિન્દ્રાયાવ્યેયનેન શિદ્ધ્ચ “નિષેધ પાર્થ શત્ત્વનો વ્યાત્રાપ ચિન્હેન રચાશે નિવૈયા પ્રાઘો ન તુ યંત્યાર્થ કૃતિ માત્ર । તવેવ સાન્તમાન તેનું ધામ ત્યાર II કૃતિ ત્રયોવિંશતિતનારિાર્થે સમાસઃ ॥ ૨૩ ॥ ં - ચતુર્વિંશતિતમારિાવતરાિમાઢુ-પશ્ચાત્રેત્યાતિ । યં હ્રારા સુષ્પષ્ટતા વિદ્યુતતિ નન્દ પ્રતન્યતે ॥ ॥ કૃતિ ખતુર્વિતિતમારિાર્થઃ સમાસઃ ॥ ૨૪ ॥ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તાવાર્થપિવળેટૂવ્હાઈટીવિઝન 1 (મા)ન્યાનીનું વિમિવોર્સ પાળિના શિપચિવેત્ સ્પાઇનિનું લિપીવે ‰મલમુદ્ન વિપાસે′ ॥૨૯ ॥ (ભા) ના દ્યોતગમામિ, સોમવુબેન મોર મોિ યોતિમહાપ્રસ્થાર્ય, નિનવશ્વને સન્નિવૃક્ષેત ।। ૨૬ II (૦)લદ્યોતમિ(જે)યા િવદ્યોતક્ષ્ય પ્રમામ જાન્તિમિ, સોમિવુમૂલેત, મિમવિતુમિન્ગેન્દ્ર, મારે સૂર્ય, મોહાર્ જ્ઞાનાત્, ચ: અતિમહાન્તૌ પ્રાચી યસ્ય તાદર્શ, નિનવનને સોલિટ્ટશ્રુત-તબદ્દીનુમિ∞ત્ || ર–૨૬ || (મા)નપિ તુ ખ઼િનવવના-પૉન્નિો તથા નાશવાનુષ્ઠાને ઝિનવષનસબદ મવતઃ પ્રવૃત્તિનુંવત્તુત્યાનાચંદ્રશીર્યનાશકિતે, સર્વનેતવે વન્ તથાપિ વેંચાશત્તિ માવદત્તનોષકેશવૃત્ત્વ જ્ઞાનવિનિયોરીન પરોવાર/માનુન્ચેન જમતિયામમ્નોરચતરોનિત્યનુજ્ઞાપવામાTM પ′′ મતિ1 ચન્ને જાનન્તા, સામયિમાત્રષવસિદ્ધઃ || ૬૭ || (જ્યા) મીત્યાતિ । પુરિયાનું સક્ષપાર્થસદ્બતિ તુશબ્દો વિશેષતિ । બિનવવનાવિત્ર્યવત્ઝેવે પશ્ચી, ચચા સમૂદ્દીન્જુન પ્રાશતે વર્તાવતિ જારણે પદ્યમી વસ્માારળાવ્, નિર્વાહળ મોત્તાત્રે મતિ । અભ્યસ્યમાનય તોત્તરજ્ઞાનાધાનદ્વારા. પરમનિર્ઝરાજાર વિ કોમ્નિ માને, ફવું નન્દ્ર, ચિમિયેત્ મિતું વોન બહુામેન્ટેવ, મેથ ગિરિ મેરુનામશૈલેશે, પદ્મિના હસ્તેન, વિષ્પચિવેત્ યિમિછેત, પ્રત્યાનિ ં સ્વતિયનેન વાયું, નિવત્ -તુમિ∞ત, જામસમુદ્ર-વય‰નસમુદ્ર, વિષાક્ષેત્ પામિઝ્હેતુ I || નચિંતિતમારાર્થે સમાસઃ ॥ ૨ ॥ યશિતિતમારિા વિસ્તૃતૈવીત વિં વિષ્લેષોન, નવરં માિિત પર્વ રિમવિપુ સર્વત્ર સમ્બન્ધુનીયામતિ || ષવિંશતિતમારિાર્ધ સમાપ્તઃ રદ્દી સપ્તવિંશતિતમારાવતરાળામાહ તથા નેત્યાવિધ પ્રવૃત્તિનેતેતિ | પ્રવૃત્તિોં.ીમતેષ્ટસાધનતાજ્ઞાનયજ્ઞાવેઽવિ તત્ત્વારા મૃતøાતસાઘ્યતાજ્ઞાનસ્વ શેષના ારનાંાનવનનસપ્રહેતિપ્રયાસેનાઽષે તેમશજ્યેષ્માવાન વીર્યાં તતો ન ત્તિષિતેતિ માવઃ । परमनिर्जराकारणत्वादिति । 44 બિનવચનવિત્યવછેકે પદ્મમતિ। તથા ૬ બિનવવનધળીભૂતમિત્યયંઃ । માલેગમાં, આવે છુસનયમેવ વત્તો ! અભયરÇિ વિલાપે, સક્ષયમ્ન ય વિમેસેળ ।। ।। તિ । વારસવિદ્ વ તત્રે, સમિંતરવાહિને સહવિક। ન વિસ્થિ વિ આ હોદ્દી, સાયસમં તોમેં || ૨ || ” તથા k જીવનારા, નિશ્વમાસેળ હૅવહપ્પત્તી | મળિયા સુષ્મિ તન્હા, અશ્મિ મહાયરો નુત્તો | 3 || બદ્દો ના નિત્તમેદિ મણિલો લામ્ન મોદવુ, જેનું + 0s ; Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તવાવિવાળા બવાહિત્યર્થ વમનીષિા થતશ્રયન્તના , વરા વીલપત્ર વાપુષ્પષ્ટરુમસમુન્નયા સામાવનાત્રપન “રોમિ મન્ત !સામાયિ', રૂતાવર્તવ માવતઃ યુદ્ધન, સિદ્ધારા કદાહરળમત્ર “માતુશાય” | ૨૭ છે (મા) તમારૂત્વાકાત, સનાતો વ્યાસતä નિનયનમ્ ! શ્રેય રાતિ નિર્વિવાદપ્રાર્થ ધાર્ય વ વાળું વ છે ૨૮ છે ' (ભાવ) તwત્યાદ્રિા તરામપત્રિસ્થાપિ નિર્વાહ વાત, તામિસ્ય બનાવ્યા, નયમમાહ સુમહાયુદ્ધહિ તં સુત્તઓ | સંગાથુળામાં વૃદ્ધિનળમાં તિત્યેનામાંવ, હાયવું વિહિપા સયા નવનવું નાણસ તti || ૪ |” રૂતિ મહર્ષિ વનપદેશ મુમુક્ષુલાછૂત્વાડતિરાયસાવિ સબસરપુરના શ્રુતસમુદ્રગ્રાહિમાનય છતછાયો મેતાવતૈત્યવંકાય ત્યાsgય શ્રદ્ધાન નવજ્ઞાનર પાર્કનોદિનમુશ્વતો મધ્યસવપિયુanયાવચ્છિજજ્ઞાન હિં તો પૂર્વાપૂર્વતવજ્ઞાનપ્રવાહં પ્રવયતeતમૂર્ત વિશુદ્ધવિશુદ્ધતાસંગમસ્થાનાવા સદ્ભાવનાનામુવવૃતયાં સર્વમનુષ્ઠાનં૫ર્વતોથમવાસધાતનિર્નવાઑરિતિ માવાને પ્રશાસને દિ મોક્ષપ્રાસાહસોપાનકા સંઘોમા થતા, તત્રે થોડનન્તનીવાસિદ્ધા, તથા વાંssTH –“ નો નિસાસામિ દુવર્ણવા પરાન્ત પન્ના अणता पट्टता केवली जाया ॥१॥" इति सिद्धान्तमवल व्याऽत्र समतायोगरूपसामाविकનધિત્યાંssg-થતા પતેઇનત્તા સ્થાતિ. | વન પત્રાવપુષ્પસમુયા હતિ / નાપિ ન સવિધિનુવિશુદ્ધમૂહુર્વાવત સવાધિમુવિશુદ્ધમાતમહત્વયમૂછ્યું ધર્મવીનમણિ ધર્મવિ વિક્ષેપારાવિકા મોક્ષારનોરાજ્યoભાવતિ | યુવા - “વપને ધર્મન, સાંસાદ્રિ તદ્દતમ્ ! તવત્તાઘાર થાવ, છાદ્ધિસ્તુ નિતિઃ છે ? / ચિન્તાસત્કૃત્યનુષ્ઠાન વેવમલપ્પા મેળારલાહ-નાપુષ્પસમાં મતા || રા” તિ / સોમવપૂર્વ પર્વ મોક્ષ પ્રતિ વાળમૂતા તે સર્વત્ર માવ થવ મોક્ષ ધાનાણામતિ ધ્રુવયિતમાદમાવતરુતિ! માપતુષાવયે તિતવિથાન સભ્યતાઇતિપ્રથાં તમિતિ નેતા નિર્વાહવાહિતિ-મૌત્તાવાહિત્યર્થ. રૂતિ સપ્તર્વિરાતિતમવરિલાથી સમાત || ર૭ * તાડામય કામાખ્યાહિતિ પુરુષવિશ્વાસે વનવિશ્વાસ રાતિ નાટયોશ્વસનીય વીતરામબળતત્વવિહેત્વન્તરમન્તરે સ્વમહિમ્નવાઝ મચ પ્રામાથાત્યર્થ મોહારવિહુપ્તસત્ય સંસારે ાિહોર્ષ નિનવનવિ શ્રેયક પાપમાનિ. વારણે દ્વિૌપવૅ મહિનવંબંધseત્તશુદ્ધિા જ્ઞામિનાગતિમાનતરમવ્યસત્ત્વવત્તવૃત્તિશુદ્ધિારમપિ તવેવ, નાન્યતિતિ નિરશ મેવા તતૈધ્યે સંવાદ્વિધરા મા વકુભાનાઓ યથાશા ગ્રાહ્ય ધાર્ય વચ્ચે ૨ પુનરનાર્તવ્ય, શ્રદ્ધાદ્વિમુળાનાં નળજ્યબસ. ૩. “થી વનવર શા, વી શ્રદ્ધવ મુળા . ડન્મત્તગતુક્યત્વો છે. Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ७२ : तत्वार्थविवरणगूढार्थदीपिका- 1 समासतः सङ्क्षेपाद्, व्यासतो - विस्तराच, जिनवचनं श्रेयः कल्याणावहमिति निर्विचार सम् अध्ययनश्रवणाभ्यां, धार्यमनुप्रेक्षणादिभिः वाच्यमर्थविचारणादिभिः ॥ २८ ॥ ग्रहणधारणें तावदात्मोपकारिणी, किं पुनर्वाचनयेति चोदितोऽध्यापनस्यैव गौरवख्यापनार्थं આત્મપ્રયત્નદવીરગાથે વાદ ( भा० ) न भवति धर्मः श्रोतु सर्वस्यैकान्ततो हितश्रवणात् । श्रुतोऽनुग्रहा वक्तुस्त्वेकान्ततो भवति ॥ २९ ॥ 1 (०या० ) न भवतीत्यादि । श्रोता हि कदाचिदन्यमनस्को दुष्टान्तरात्मा वा शृणुयादेवंविधस्य श्रोतुर्नहितश्रवणमात्रा देवैकान्तेन धर्मोऽस्ति । हितपदं साभिप्रायम्, हितमपि तावच्छृण्वता न सर्वेषां ધર્મ, જિ પુનરાદ્માત, જ્યમમી શ્રોતારોનુįહોતા મરિયનુપ્રવ્રુત હિત ધ્રુવતો વસ્તુઃ પુનરેાન્તતો भवति धर्मः । एवं च कृत्वा स्वपरिणामी नः प्रवचनेषु शुभाशुभोपचयं प्रति परं प्रमाणमिति दर्शितम् । न चात्रात्मनेपदाशङ्का, निराकृतं हि त्यादिक्रियाफलम्, निरनुबन्धाभिप्रायात्; न च धर्मोऽप्यभिप्रेतो. ऽवश्यं भावी त्वसावित्युक्तम् ॥ २९ ॥ एवं विचिन्त्याह 1 प्रशंसास्पदं सताम् ||१||" इति इत्याशयेनाह - समासतः सङ्क्षेपात् व्यासतो विस्तराच जिनवचनं श्रेय इत्यादि । कर्याह्यं धार्य च वाच्यञ्चेत्याशङ्कायामाह ग्राह्यमध्ययनश्रवणास्यामित्यादि । ग्रहणादिभिः प्राप्तज्ञानादिप्रकर्षः पुमांना कल्याणमग्भवतीति भावः । ।। इत्यष्टाविंशतितमकारिकार्थः समाप्तः ॥ २८ ॥ एकोनत्रिंशत्तम कारिकावतरणिका माह-ग्रहणवारणे तावदित्यादि । यत्र परहितैककामनयाऽपि धर्मोपदेशंस्तत्रापि नियमेन श्रोतुर्धर्भावाप्तिरेवेति न नियमः) व्यभिचारात्, व्यभिचारमेवाह-श्रोता हि कदाचिदन्यमनस्क इति श्रोता हि मध्यस्थः बुद्धिस्वच्वं जिज्ञासुसिद्धान्ततच्च श्रवणैकचित्तस्तद्वेश्य स्तद व्यवसित एंव शुभपरिणामत्वात् सिद्धान्ततच्चाधिगमावाप्त्या लोकोत्तरगुणपात्रतामानीयते वक्त्रा न त्वन्यर को द्विष्टो वा मूढः पूर्व०दुग्राहितच, अशुभ परिणामत्वादिति भावः । ननु तथाविधकर्मदोषान्नावबोधश्श्रोतुरुत्पद्यते तर्हि तत्र धर्मानं किं फलमित्याशङ्कायामाह -कथममी श्रोतार इत्यादि । एकान्ततो भवति धर्म इति । उक्तञ्चाऽन्यत्राऽपि - " अबोधेऽपि फलं प्रोक्तं, श्रोतॄणां मुनिसत्तमैः । कथकस्य विधानेन, नियमाच्छुद्धचेतसः ॥ १ ॥ " इति । ब्रूक्यातोः फलवति कर्तरि “ ईगितः " । ३ । ३ । ९५ । इति हैमसूत्रेणाऽऽत्मनेपदं भवति, तथा न ब्रुवाणस्येति प्रयोगरत्यान्न तु बुचत इत्याशयेनाशङ्गक्य निषेधति न चात्रेत्यादि । निषेधे हेतुमाह-निररकृतं हि स्तुत्यादिक्रियाफलमिति । उपदेष्टा हि न स्वगतक्रियाफलेच्छया प्रवर्तते, किन्तु " नोपकारो जगत्यहिम-स्ताशो विद्यते क्वचित् । याशी दुःखविच्छेदा देहिनां धर्मदेशना ॥ १ ॥ " इत्युक्त्या परोपकारव्याप्तस्यान्ततया परकलेच्छ वैवेत्यन्यगतफलविवक्षणाद्, यश्वाऽनेन पुण्यानुवेन्धा भवत्वितीच्छाम परेणाऽनुग्रहयुद्धद्या प्रवृत्तावपि धर्मोपदेशरूपकुशलानुष्ठानेनान्तर Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સંવવિવરગઢવિ ! -(મા) કામમવિવિજાતિ, તણાયે સોપવેદવ્યા માત્માન વે પર વહિ, હિતોપવેનુશ્રુતિ રૂ. . (૦) જમત્યાદ્ધિ ! તસ્માનુકવુક્યા હિતોષશાન્તધર્મવલ્વા, લાભાર્તિ હત્યશાસ્ત્રક્ષણ, વિનિત્ય નૈતન્મ દુલિમિહૈવ વૈતત્કૃષયુદ્ધ શરીરમિતિ ભાવનાવાળ, સવા શ્રેય-મણિવર્મ, ઉપવેદવ્યમ્ ! નન્વનુ હતુવૃદ્ધયા હિતોપદેશ ધર્મવહ ફત્યુ ઝિવ િમાનમિત્યત્રીહહિતોપદા-પુરુષ, વાત્માનું જ પર વાંનુષાંતિ-શપ્રવૃત્તેિરમોરપિ એમૂલ્લા તથા વાત્ર મંઝિન નાયાહિત્યન્નેવ સિદ્ધસાધ્યમમધ્યાહારે “સિદ્ધ સાધ્યાપિપત” ફતિ ન્યાયાદ્ધિતપાદ્યાનુ હતુર્વ સંધ્યતીતિ માવઃ વડુતોડગમત સાધો સંસ્થા પિ કિયાચાર પરણનાનુમહેતુવં ચાયસિમેવ, તાદુરીવાર્થ –“વિહિતાનુષ્ઠાનપર ત્ય તત્ત્વતો યોગશુદ્ધિસર્વિવયા મિલાદનાદિ સર્વ, પાર્થ તેયતિ || ૨૦ છે સ્વજનનોગમાં પુષ્પવા રોડશ્વસન્નિતિ વિવેક્ષણાત્તાપ્રધાનપવા “શેस्परस्मै" ।३।३ । १०० । इति सूत्रेण परस्मैपदे सति शतप्रत्ययभावाद्रवते इति प्रयोगो ! ફોનર્રિાતમારા પર અનુષ્યદ્રવુતિ-સંવેમનિર્ધારિતોષવાધર્માલ્યાનેનાંનેન છૂપાશ્વયં પ્રતિકુતિ સંસારતુષાર શુતામિતિ વૃદ્ધત્યર્થમૂત્રવાહિતિ-નિશેષછેક્રુિતમોક્ષે પ્રવજ્યાપત્યાહત્યર્થ તથા વાત્ર મહિના સ્નાયાવિત્યàવ સિદ્ધસચ્છિર માદરે “સિદ્ધ સાધ્યાયપ" તતિ ધાદ્વિતો શિસ્થાsz હેતુવંતિથતિ–હિનાનાપતિ વાળે મારિન્યું ખાનવિધાનોદ્દેયં પુરુષમાં સિદ્ધ, શતાનં વિધેયાત્રાધ, તથા જ સિદ્ધસાધ્યમિાહારહ મહિનનાયાવિતિ વાક્ય સિદ્ધિ માર્કિન્ધ સાધ્યાય અપાનાંથોપપુતે, આનાથે મવતિ, રમાનનિમિત્તત્વ મારિન્યા સિધ્યતીતિ થાવત, તહેવાત્માનં ર પર જ હિતપિછાનુંમૃધ્ધતીતિ પ્રવ્રુતવાળે હિતોપદૃવં સિદ્ધ વપરાનુબ્રા સાધ્વસ્તતિવાદ્ધશવનમામિળ્યાહારે સિદ્ધ હિતોપદ્ધત્વ રાધ્યાય રૂપરાનુઘહાયોપજ્યતે, વપરાનુઘાર્થ મવતિ, હિતોપદેશ સ્વપરાનુ હતુર્મવતીતિ વાવ, પડ્યો¢ન્યાયાદ્ધિતપાસ્યાંડનુઘહેતુત્વે સિધ્યતીત્યર્થ ધગર્ચાનવપરાયળાનાં સંસાનિધાનામામૈસાધનવિદ્યારપછામાનિની ત્યાધુપવેશેષ્યનાઘર્થધામવાસનાવન વિરતિવૃદ્ધિાવાતિ તથા તે સાવોપવેશપત્યેન વર્મશગનવેલિંક્ષામાપિોષી, તદ્ધિપતિમાનાવુપ વાગમન છો નમતિ નિવઘોશિર્વેનાંડમવિશુદ્ધિરિવાજોલમાપારિપલિવ સ વારમજીમમાપારવાર મહિતોપદેશો નાન્ય હૃતિ સાથે સંવિનિર્નિવઘાનુષ્ઠાવિમિમવોદ્ધિકાધિપરમહિતાનુગ્રહવૃદ્ધયા વિધાતું યોગ્ય કt-“મવાસદાબહળો, વિવાદળો વિપુંડરીયાાં ધબ્બો નિપજો. પષનફળા વયો શાતિ પ્રાતિના ધનિશીથાધ્યયન,.. Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સરાવિદ્યાર્થીવિકા ! વિધારોત્પાદુપદ્રશેખર હિતવૃદ્ધિહસ્તચિંતામહતીતિ તાધાર્થીના પૂર્વ પ્રતિમા –(મા) નર્ત જ મોક્ષનાજ-દ્વિતોપદેશસ્તિ નતિ કૃતનેડમિન તસ્માંત્પરમિ(મ)મે-તિ મોક્ષમા પ્રવેશ્યામિ રૂ . ' ! તન્યાિ સમાતા | ' , - - * * (વ્ય) નર્ત ત્યાદિ વિતદ્રસાન્નિપાતાવ્યપશાપણતોલાદતે નાખ્યો હતો શા ' Bતર્ભિનું નિમતિ વિતે, તwત્પરમુન્ન, ફુવમેવ હિતોપદનમતિ નિશ્ચિત્ય, મોક્ષમાવૉ વૈશ્યામ ' તાવને શાળાવિ સમ્પનાદિન ક્ષમા પ્રતિપાત શત ફેલોવિ શાસ્ત્રમાસનમબેન મતિમતાં શ્રદ્ધધનયમતેિને શ્રેયમાર્યવાણિતિવ્યમ, મયોહિતાવહત્યાહુપમાસેવનેનૈતવે મવાન્તરે વો મોક્ષપાત, ન તુ વિદ્યાશાળાવિશાત્ર, હોમાત્ર વિષ્ણાંતો હિતાવવાનેવ શા મનોપાર્વનદ્વારા શ્રેzળામાદ્રતિભાવં પ્રવયિતું નિદાતાર્થમાન્તિમરરિયાઝું- ત્યાના વિરતદ્રકન્નિપાતાવ્યય પવધાપરિનિ-વ્યવહારિવસુલવા વિનંતિ નિમિત્તતસ્ય સેન્દ્રિયરમાવાઢિયાતો નષ્ટો દ્વન્દસન્નિપાત સુરવરવસનિપાતો કુમકુમવનક્ષણો યામિન તથા વમૂતં થવયંપર્વ ને તળેય પદ્યતે મુખ્યત ફીત પદ્ધ થાનમ્ . વચ્ચે તત્પન્નાથ પહમ્, નિરાવૃતાત્મમાવમાત્રસમુથક્ષયાગ્ધાવાનબ્રતિકશાશ્વતાનસુરક્ષાવનોક્ષસ્થાને તાદશાવ્ય પર્વ પ્રાપમાં પ્રાણ તન્ય હેતરિત્વર્થઃ | તૌધપ્રૌઢાવંઈ હિરાસત્તધટિતૈs- - તિદ્વાનસ્પમિતિનયામવિષમાં - મહોપાધ્યાયશ્રીવિજ્ઞસંજ્ઞમુનિના ' પ્રણીતાડ્યાધ્યાયે વિતરણુજાપાડામતિમિil? I " , મુવીધાર્થ તયા બ્રિયરનયાનન્ધવિનાયક - " - તિવિજ્ઞાતો ઘાતિવવૃતૈનમુનિ વ્યધાપૂર્તિ વિરપત્ર પ્રેમમવાં, વિશુદ્ધિ માં જીતિન પર્વ મુળિના ૨ / પુ િ ન્યાયાવાર્થ-ન્યાવિશાર મહોપાધ્યાય - - વિનયવિનિર્મિત સન્વન્તરિવાવિવા તપાછાવાર્થવિષયવનસૂરિટ્ટા ' વિપિરથી રડ્યાં સમાપ્ત ... ' જ ! .. . .... Inspir :: ii v TI મસ milipi at Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ૐ અર્થે નમઃ | II અનેøધિનિધાનાય શ્રીગૌતમસ્વામિને નમઃ | ॥ શાસનસમ્રાટ્ સરિખવારેં શ્રીવિનયનેમરિલઘુહો નમઃ । ।। શ્રીતરવાથવિષયકૃતાર્થટીવિકામ જાચરણમ્ ? ધ્યાનાશિવ વિજાનનારું, વિજ્ઞાતવિશ્વત્રયવિશ્વમાત્રમ્ | શિવાય અવેન્દ્રનરેન્દ્રવન્ધ, સર્વીસમુહ્યં પ્રધ્રુવીરમીઅે અનન્તતીર્થ માષિત ચં, નિરામ્ય ધૃત્વા હૃદ્વિ પોષસેવ્ય । શાત્રી વરક્ષમાંર્યું, સિદ્ધા નરાસ્સોઽસ્તુ નવે અવે મે ॥ ૨ ॥ અથ સંસારરાવન્ધનવાનવિકામનોગતડુલસંખ્યાપ્તવાસ્તવ્વુ ઘુમુત્સર્જ તન્મુત્તિજાર પાન્વેષાતત્વરા વીદશ્યન્તુ, 1 ચ તે મિથ્યાશ્રમજ્ઞાજાપ્તા પોષવેશમારા સ્વયમેવ ધ્રુત્તિમા$મુપજમો, પોવિ તત્ત્વનયાશ્રિતતપત્સિાવજસ્વિનો વાહિન વિનિમાત્રમેવ જેવિજ્ઞાનમેવ વિશ્વામિહોત્રાહિનિયામાત્રનેત્ર વિશ્વ ક્યા િતપ વ વેનિલ વૈરામ્યમેવ વિધ વિનયમેવ વિશ્ર્વ જ્ઞાતિજ્ઞજ્ઞાતીયસ્નાન-દાવાનયમનિયમાિ ચાંગેલાાર મોના નામનાં, સમુદ્દિશાન્ત = મહોમ્ । ~ - નૈનામાસા અપિ ખન સર્શનમાત્રમેવ સમ્વજ્ઞાનમેă વા સભ્યાન્નમેવ અસ્તે મોક્ષમાર્યાં પ્રતિષાન્તિ, ન ચાન્તિ તત્ત્વવું - મોક્ષમાપતાં ત્રિપતિ, હાન્તિોિાિનન્તનુવાદ્યાત્મમોક્ષભીંડવ્યવધાનેનાનુપાવવત્ । વિäિ ? સદ્દર્શનસભ્ય જ્ઞાનસમ્યવશ્વાત્રિંત્રિતયં સમસ્તલેવ, સામૠાત્ર નિયસાવેલમાવધમેવ ગ્રાહ્યમ્, તથા ક્રૂ સમ્યગ્દર્શનાવિત્રય મિયઃ સાપેક્ષતાં તમેત્ર બોલૈના ધર્મે, મિચઃ સાપેક્ષત્રિયન્તરે મોક્ષદ્ઘાનુત્પાવાત, કે મિથઃ સાપેક્ષતામ્રુતે સ્વાનુત્પાવાસ્તે નિય: સાપેક્ષમાવેનેત્ર વધાર્યસાધા, થથા મધુપુજાર્યારિષ્યો સક્ષિા, ચચા વા-શિવિજ્રોહનારા પુરુષા, તથા વાય તમત્તા, તતેવું ચા તરવિષિđત્પત્તિજ્ઞાનમન્તરે તúરજ્ઞાનશાાંાિમૃત ચ તત્ત્તવ્યસમુદ્રમુત્તરિતું નૅ શનોતિ તથા મોવચિંતળોષોવીત્યંતસભ્યઢળનવિત્રયાપ સાપેક્ષમાવેનવ મોઐહેતુ, મોક્ષાનુડોપધાનસામર્થ્યવતસમ્યગ્દર્શનવિત્રયસ્ય મોક્ષાનુજીમબેન વેગૈારશાહિનઃ સત્ત્વ મોક્ષજાયસ્ય સત્ત્વમ્, તવમાત્રે તવમાવ ત્યેવમન્વયાંતરેબ્ઝમાળોષાત્, મૈં તુ નિરવેલ સભ્યહીનાથેનાં સ્વરૂપયોયસ્ય સમ્યદ્રર્શનાઘેરેતસ્ય સર્વષ્યવધાનેન મોક્ષાર્યાંમાવાવિત્તિ સિદ્ધમ્ । નનુ પ્રત્યે સવર્ણનાવિપુત્રપુ મોક્ષમા વાપરાયનોબાનુન્નસાનયામાવે તત્સમ્રુદ્રાયેષિ સિષ્ણાસમવાયે તૈહામાનવત્તજૈવ સાવિતિ ચૈત, જૈવમ્, માયન * Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ૭ : તવાવિવરણહાર્યરીપિ વોલાવ, જયનાટિબધવચ્ચેના સમ્પર્શનાદિ દેશો મોક્ષાનુeશક્સિસટ્ટાન પ્રત્યેવાવસ્યાયામપિ વેશપારિત્વેન વપરામર્થ સદ્ભાવાત, દછાજે તુ પ્રત્યેક વેશતોગ તૈકાનુશવત્વમાન વેશપત્વિજ્યાપમાન વપરામર્થ્યસ્થામાવાન્ દૃષ્ટાન્ય, સમૂળસામર્થ્ય સર્જનાવિયસમુદાયત્વાવસ્કેન પરપરાક્ષસમુદતસમ્પર્શના ત્રિજ્યે પર્યાપ્ત ૩ વિવાવરથમાળે હું જ હસવૃશ્વિય, સિતારું જાળામાવો વેવારિયા ના, સા સમવાયાન્મ સંપુળા હૃ૪ ” હૃતિ ! તેને “જ્ઞાનાનઃ સર્વજબિ માહિતેન !” તિ વનના નિર્મનાશે જ્ઞાનમેવ ધારવું, પ્રારબ્ધનર્મના મોમાદેવ, શિયમાશં તુ યોમિર્મ મિથ્યાશાનવાસનામવાજા પામેતિ ક્યારે વારિત્રયો ઉતિ વારિત્ર મીક્ષાત્ય નિતાણું, જ્ઞાનાગ્નિારિયાજ્ઞનાતિમાત્રપરવાત, જ્ઞાનવારિત્રયો વનવનન્યજર્મનાશે પૃથક્વેસુવાવયવત્ વિના વારિત્રવ્યાપારમપિશિવોપમાંય મનુષા સાતત્યાયમર્થ “તપડ્ડા .વા.વર્ક, યથા તાત્રય ત્રિમાં નરતિ કિયા પુંસક પુરાવા તથા મઢમ્ ? ” ફત્યાદ્રિવારિઘન્યાના ! ન જ મરવેલીમાતા વિજ્ઞાનાવાતૌ વારિત્ર વિનાપિ મુફ્રેિમવાતેતિ વ્યતિરેશમિવાર/વારિત્ર ન મોહેતુલિત્યાપિ વાગ્યમ્, થતો દ્રવ્યવારત્વેન , મોજું પ્રતિ વારિત્રય હેતુત્વ, વિનુ સમ્યવારિત્રાત્મજમાવત્રિનેત્ર, તછિનવ સહ મોલન્વય તિરાનુવિધાનાત્, ત પરાછાપભય સર્વસંવરહસ્ય શૈરવચાયાં સટ્ટાવાવ તસ્યા મુસિાવાવ, તાં જ તહાં તસ્યા થવાશકાન્તર્તાલુકાયા વાયુપોઝપાઝતયા દ્રવ્યવારિત્રગ્રહળાહામાન તદ્દમાવેગ નોરંવાલા વં હિં દ્રવ્યવારિત્રે નાવમ્પનીયમિતિ વાગ્ય, પ્રસન્નદ્રારિ દ્રવ્યમિશુદ્ધિારાa , દેવજ્ઞાનોત્પત્તિ થામ્બુન્દ્રાર્થિતમતવીિતવાતિદ્રવ્યવિ પ્રણામાતા સંપાવાવાયા કમાયાવરનાવની ત્વાકાડ્યાવરયશવન્દ્રનધ્યયનાનિયુક્ત“ નવા વાં વ્યાં નાિિત્ત જ છે તે પળમતિ” ત્યા ! તહેવું સમ્પર્શનાત્રિયસમુચવાવવિશાહીબેન મવ્યસબતિવીર્થ સતવાર્થશાસ્ત્રામિયતિધાવના વં મળ્યાભૈરવત્સતાપામાસ્વાતિમાનાહ વનજ્ઞાનવારિત્રાળ મોક્ષમાર્યા ? તિ વાન ને “ દેવવનને પૂર્વ વિધેયં જ તતઃ પરમ્ ” રૂતિ વવનાત પ્રમાસિદ્ધાનિ સુખ્યાનજ્ઞાનવારિત્રાળ્યુરિયાધવદનન્યાયન તવાગ્યાપ્ત મોબારે Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - તવાવિવરણપૂઢાર્થીવિ. : ૭૭ : વિયીતે, મૉક્ષમા મોક્ષારત્વ, તેજ સમ્પર્શનન સમ્યજ્ઞાનત્વેન સવારિત્ર ન જ છૂધ નિવામ્યુ તે તેને યેન શારણૉવચ્છેદ્રામેતિ રળતા મેસબન્યા નાના+બતાયામેળવવનાર્થર્યાવસ્થ વાર્નિવવનાનુપત્તિ વાત, પિતૃ મોક્ષાનુશક્તિમન સંખ્યાતિષ ત્રિષ્યનુપતળેિવ, સીનત્વે સખ્યાજ્ઞાનરવં સમ્યક્વારિત્રગ્ર રાતેમિ વિધવાઝ, તસ્ય ૨ પ્રત્યેકવર્તિનસમ્પર્શનાલોત્રતવર્યવહેંશહિપાળવાપેક્ષ જૂનવૃત્તિત્વેગ ન ક્ષતિ | સંવર્લ્ડ હારબતાયા થવછેવાર્યવાજૂનાગતિરિકૃત્તિનિયમિત ! સવહારળતાયા વ્યાપવામંતા વ્યાપારક્ષાયદાવર્ષો જતાયા ન્યૂનાનાતિરિરૂવૃત્તિ ઘનિષ્ઠત્વનિયમતિ વષેરળતાથ તિરિક્તપવાર્યતા વ્યાપાવાગ્યાદિતત્વેન તદ્રવચ્છ વાતાયાસ્તધૂનવૃત્તિને વેગ ન ક્ષતિરતિ તાત્પર્યમ્ નનુ શક્તિબેન બારાવે કરતાજ્ઞાને તદ્રવચ્છેદ્રવજ્ઞાનક્ષતત્વન રપતાવચ્છેદિયારાવતેસ્કૃનાલ્ઝરૂિપIRપતાજ્ઞાન, સગાને ર શાનમાત્માશ્રય કૃતિ રેત, નૈવ, પ્રતિયોગિતાશાને તિયોતિવિષે જ્ઞાની વારળત્વમિચત્રાંગ ધટામાવીયપ્રતિયોતિયા પ્રતિતિાવાયત્વહત્વપક્ષે મિથિયોપિરિહાંરાય ધટન ધટવારા વર્ષોજ્ઞાન પ્રતિયોગિતાઘેન પદત્યારબધ્ધતિયોગિતાંજ્ઞાનું પ્રતિ વાળાતિ યથ વયિતે તથા શર્િવેનાગચ્છામૃતશત્તિજ્ઞાન લારખાતાન વત્યાત્મજાગતાં જ્ઞાનબ્રતિ પત્યિમ્યુવનોર્વોપમાવા, તથા મોક્ષાનુશક્સિમ વાવચ્છિન્નશહિ મારપાવં પરસ્પર સાંalઠ્ઠસમ્યગ્દર્શનાહપુ ત્રિબ્ધમેતિ તમિનું સિત્ય પ્રત્યર્થતાવષે લિબત્યથાર્યવૈવિધાન્વય “વેવા પ્રમાણ” ત્યત્ર વિશેપળભૂતત્રમાણપવોત્તરવિમરવાવસ્ય સિત્યયબત્યર્થતાવછેલ્વં પ્રમિતિવાળવું થાવજીનિષ્ઠમે મેતિ તત્રાવ, યદ્રા “નાત્યાતિવય પવાર્થ” ત્યત્ર વિશેષળમૂતાવાર્થપોત્તરવિમરચર્થે ઘસ્ય સિત્ય પ્રત્યર્થતાવછે પવાગ્યવં નાત્યાતિવ્યક્તિબ્ધતિ તવાન્નયા, યદ્રા “શિિર્નપુણતા હોવ-વ્યશાશ્વાદ્યવેક્ષણા હાથજ્ઞાલિયાભ્યાસ રૂતિ હેતુસ્તી ” તિ રિયાતિ ત્રયા સમૃદ્ધિતા હેતુરિતિ વાવ્યાખ્યા થા, તત્ર હેતુષોત્તરવિમવયેત્વર્યા સિત્યયબજીયર્થતા છે. હેતુત્વેન્યૂયો થયા તયાઝાપતિ ન થોપતાક્ષતિ, શત થવ વિશેળવવોત્તર વિમતતાત્યવિષયવહુવવ્યાવિહાવસથાયવેવા પ્રમાણમયગેવાંઝાપિ વિક્ષિતત્વાન વિશેષ્યવિશેષળપવો સમાનવનવાસ ! યત્ર વિશે થવાપોત્તર વિમસ્તિતાત્પર્યવિષયવ્યા વિરુદ્ધવિશ્વાયા વિવક્ષિતત્વ તરૈવ વિશેષ્યવેરાવળપયોત્તમાનવજનજાતિ નિયમાત ! નનુ માપવાર્થેશે માત્વે સિબયાર્ચેવાન્વયે જળે સતિ પાર્થ પાનાતિ ના વાળનેતિ વ્યુત્પત્તિવરોબર દતિ વરઘુરૂદણાત્ર સમ્પન્નો દ્રહિત્યિત્ર વધતાં દષ્ટિ, તત્રાવિ સમ્પજ્યાશ્રયાને વીહિષ્યવાવવા વીહિત્ન વાવ્યસ્વરાતિ ! Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તત્ત્વાર્થનિવામૂઢાર્થનીષિના અધ તર્તાને સ્વાશ્રયન હસમ્બન્ધન સિત્યયાચૈવસ સપ્રત્યયંત્રસ્પર્થ વાન્નયારીારાનોવ્યુત્પત્તિવિરોધકતાઁ ાંત વેત્તાંતૢ ઋતેષ્વોદયૈવ પ્રતિતિ વિમાન્યતામ્ | : E. : તથા ૬ વત્તુવનાન્તાવશેષ્યવાવતેઋષનાં વિશેષણ વષતનામવહાદેવ ત્રિવત્રીનવૃતસંતવિશેષ ગાવત જોવાવ્યાન્નાયવેક્ષાપ્રયુનિપુણતા ૨ાજ્ઞશિક્ષાપ્રયુકતોઝ્યાસ: રૂ ાંત ત્રયઃ સમુદ્રિતાઃ જાવ્યોનવ હેરિતિવર્તી સમ્રુહિતાન્યેયૅ સભ્યદ્ર(નજ્ઞાનારિત્રાણે મોહેતુરિતિ સિદ્ધર્થાત, તેન દાળિખાયન વીિિમર્જા લેતાાવદા સમ્બાવરીનું વા સમ્યજ્ઞાન ના સમ્યારિત્ર વા મુવિસ્તારમિત્યેવ વૈર્જાપા *ાર્ળતત્વ પ્રાંતલિપ્તા | તથા પાત્ર મોક્ષવાચ્છનાયતાનિ પિતભિષાવજીન્નાહવાવશિષ્ટા રાāવન્તિ ત્રિસ્ત્રાભબદુવિશિષ્ટમુદ્દીનજ્ઞાનારિત્રાળીતિ સત્રાર્યસંક્ષિપ્તોષઃ । અન્ન ત્રિવાન્મવત્તુનિષ્ઠકારતાને પિતાન્યગ્દર્શનસ્ત્રાજ્કિાવશેષ્યામિવિશેષ્યતાનિતિવ્યે સતિ તાદૃશવદુનિઇદ્રારાાન પિતતન્યજ્ઞાનાન્ઝિસવિશેષ્યામાંવેફ્રેન્ધતાનિરૂપિતત્રે સતિ તાદવદુર્ગાનબા તાનિ વિજ્ઞસવાં તંત્રા ઇલાવશેત્યાાંમવિશે—તાનિરૂપિતા ચનિષ્ઠXારતાનિષિતમ ક્ષત્નાવચ્છિન્નાયતા નરૂપિત ત્તિમેં વાર્તાન્ઝાòિપાનનિષ્ઠવિશેષ્યામિા સ્વરૂપસુન્ધન્યાવાજીના પ્રારા તાંજો વાધ કૃતિ પ્રજાવિરોવ્યમુદ્રા સન્નવાન્યાયવોયઃ । ચંદ્નનિષ્ઠકારનિષિત યા મોક્ષાવચ્છિનાયેનિષિતશતિમ વાઇસવિત્ત પારાત્ત્વનિષ્ઠવિશેષ્યા તમિત્રસ્વરૂપસન્વન્ધાવચ્છિન્નાવારતાાનેપિતવિશેષ્યામજામેવસમ્બન્ધાઃજીવિતાનાનિષ્ણાત નિષિતાં યાં વત્તુત્યાનેકા નિષિતસમ્યાટુરીનĀાઇિવિશેષ્યત્વામિના વિશેષ્પતા તબિજ્યે સતિ બારાનવિતા યાં પ વત્તુનિષ્ઠદ્રારાનિ વિતસમ્યજ્ઞાનાøિવિશેષ્યવામિના વિશેષ્યતા ાત્રે પત્ને સત્પુબંતાનિ પિતા ચા ૬ વદુર્ગાનેઋત્રજારતાનિ વિતસમ્યવાાત્રત્યાધા∞ભાવેશેધ્વામિના વિઘ્નતા નિપજો યોધ જ્ઞાત માનવિશેષ્યમુદ્રા વિરાર્યાધારિતિ । . નૈન્યનેન ત્રણ સહર્શનાવિત્રયસ્ય સમ્રાવિતસ્ય મોક્ષમાદ્વૈત્યં પ્રતિપાતિમ્, “ જ્ઞાનશિયાળ્યાં મોક્ષઃ ” સ્વનેન જ્ઞાાયયોરવિ સમ્રાદ્વૈતયો સિદ્ધાતે નોના ત્યં પ્રતિપાતિમિત્વનયોઃ જાથા ના વિરોધ તિ શ્વેત, ચૈત્ર વદ્દ, લામાયĪાજ્ઞાનાત્, થતો ‘જ્ઞાનશિયામ્યાં મો” રૂચત્ર જ્ઞાનપ્રોન સભ્યસ્યમાખિતે, સમ્યગ્દર્શનમન્તરળ સમ્યજ્ઞાનસ્યા પ્યમાત્રાત્, મિચ્છાદ જ્ઞાનસ્યાજ્ઞાનદ્વેને તાવનાવિંતિ તત્ત્વજ્ગ્યામતિજ્ઞાનાપાયાંશ ઢ્ય સભ્યતત્ત્વમ્, તાજ્ઞાનાર્યતમંત્ર સખ્યામાંતે જ્ઞાનપ્રોન તર્વિ ગૃહીતનેતિ ન જોવિ વોલઃ । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्याधिवरणगूढार्थदीपिका। ७९ : एतेन " नाणं पासयं सोहओ तयो संजमो य गुत्तिकरो। . निव्हपि समाओगे मोक्खो जिणसासणे भगिओ ॥११६९॥” इति । ફતિ વિશેષાવરમાળ્યો ત્યા જ્ઞાનતપ સંયમપત્રિય સમુદ્રિતસ્ય મોક્ષમાવબતિपादनात्कथं न विरोध इत्यपि निरस्तम्, ज्ञानपदेन सम्यग्दर्शनस्थाप्याक्षेपात् चारित्रस्य संयमतपदिद्वयात्मकत्वात्ताभ्यां भेदयाभ्यां चारित्रस्येव गृहतित्वाच ।. .. एतेन "ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः" इत्यनेनाप्युक्तविशेषावश्यकमाध्यविरोधोऽपि न, तपःसंयमयोः क्रियायामकस्थामन्तवाज्ज्ञानक्रियाभ्यामेव तेन भाष्येण मोक्षाप्तेः प्रतिपादनात् । तदुत विशेषावश्यकभाष्ये "संजमतवोमई ज संवरनिजरफला मया किरिया। तो निगसंजोगो वि हु ता चिय नाणकिरियाओ॥११७४ ॥” इति ज्ञानक्रिययोरपि च वस्तुगत्या सम्यग्दर्शनादित्रयात्मकत्वात्तत्त्रयमेव मोक्षमार्ग इति सिद्धम् । एतेन " सभ्यश्रद्धासविच्चरणानि मुक्त्युपायाः "१। इति नव्यसूत्रं सूत्रयता प्रस्तुतभावाकलन मतिमता तत्र मुक्त्युपाया इति यद् बहुवचनं प्रोक्तं तदपि निरस्तम् , तथा सति जस्विभक्त्यर्थबहुत्वस्य मुक्त्युपायधन्वयात् सम्यक्श्रद्धात्वेन सम्यक्सवित्वेन सम्यकचरणत्वेन . प्रत्येकरू पेण मोक्षोपायत्वासरत्या व्यस्तानि त्रीणि सम्यश्रद्धादीनि मुक्त्युपायाररयुः, न तु समुदितानि, मुक्त्युपाय इत्येकवचनोपादाने सत्येव विशेषणीभूतमुक्त्युपायपदोत्तरविभक्त्यर्थै त्यस सिप्रत्ययप्रकृत्यर्थतावच्छेदक मुक्त्युपायत्वं मुक्त्यनुकूलशक्तिमत्त्वेन रूपेण समुदित___ सभ्यश्रद्धादित्रयनिष्ठमेकमेवेति तत्रान्वया प्रमाणसिद्धानि समुदितानि सम्यक्श्रद्धादीनि 'त्रीण्युदिश्य तत्राप्राप्त मुक्त्यनुकूलशक्तिमत्वेन रूपेण मुक्त्यकोपायत्वं विधीयत इति सिध्यति, नान्यथेति । ... अत एव "अस्मात्कारणात् त्रीण्यपि मोक्षमार्गशब्दः समुदितान्यभिधेयांकृत्य प्रवृत्त इत्ये कत्वात्तस्य समुदायस्यैकवचनमेव न्यायम्" इति तयार्थहट्टीकाकारवचनमपि सङ्ग छ । . . . . नन्यं तर्हि एतानि समस्तानि मोक्षसाधनानीति भाष्ये कथं व्याख्यातमिति चेत्, - उच्यते, तत्र समस्तानीति पदोपादानादेव समुदितान्येव सभ्यग्दर्शनादीनि मोक्षानुकूलशक्ति मत्वेन रूपेणैककारणत्ववन्ति सिध्ध्यन्तीति बहुवचनान्तविशेष्यानुरोधात् प्रकारवाचिसाधन.पदेऽपि बहुवचनमेव न्याय्यम् । . . यत्र विशेष्यवाचकपदोत्तरविभक्तितात्पर्यविषयसंख्याविरुद्धसंख्याया अविवक्षितत्वं तत्र विशेष्यविशेषणपदयोरसमानवचनकत्यनियमात् । ननु प्रकृतसूत्रेऽपि समस्तपदप्रयोगादेव तथा 'सेत्स्यतीति चेत्, मैत्रम्, प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दाः प्रमाणानीत्यत्र यथा समस्तपदप्रयोगे Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :ł : સત્ત્વાર્થવિવાંમૂઢાર્થનીવિદ્યા । વિ ત્રબાહ્યં પ્રવક્ષેન્નુનાને વમાને શબ્દે = મિત્ર સિદ્ધતિ તથા પ્રતે સખતપાયો રોષિ મિત્રનેય મોક્ષસાધનત્યં સભ્યશ્રદ્ધાના પુ ત્રિપુ સિદ્ધયેત, ન વેળાંમતિ, તદ્દન્વચાનુવયેવવનમેવ ન્યાત્મ્યમ્ । નનુ કચવાતો પ્રત્યક્ષાવિદ્યાયમહેનતત્વમેવાનૅર્થ માર્ત્યમિતિ દ્ધભમેવ સિદ્ધચક્ષુ, સુશ્રદ્ઘાત્રિયેવુ ફ્લેશમેન મોક્ષસાધનાિંત સમસ્તપત્રયો માત્તત્ત્તસ્થીતિ ચૈત ર્તાદ્દે મુતાં સમંત્ત્તપત્રોત્ર:, તસ્થળે વ્યમિનારાā, સ્ત્રીયિતાં = સમુદ્દાયયૈ વિશિષ્ટાपरत्वरूपत्वेन विशेषणविशेष्यविनिमयेन कार्यकारणभाव वाहुल्यप्रसङ्गतस्तत्त्वेन न कारणत्वं किन्त्वनुगतेन मोक्षानुकूलशक्तिमत्चेन, तच सम्यक्श्रद्धादित्रयेष्वेकमेवेत्यर्थद्योतकं तंत्र कारणले સિવિમથથૈવાન્ધયામિત્રાયેળ મોક્ષેષાય ત્યેવનનમેવ યુવામતિ ?, તેન પરાસર્વે જ્ઞાનવર્શનયેરવવન્માવિત્યેનાનન્વયાસિદ્ધનિયતવૃત્તિપરમેનનેં બાર્યનિર્વાદે શ્રદ્ધાસંવિવરન્ય બિસારાય પ્રત્યેનાંવ, રળતાોધવચાર્યં વિદ્યુત પૂર્વોત્તાત્રીયાં તદ્ધિ પ્રતિક્ષિપ્તમ્, ચારિત્રક્રિયા-ઘેન ન્યાયારરૂપતા તેંદ્ધાર પદ્મમાયારમવ્યાપારદ્વારા મુરારિવ સભ્યતÁનજ્ઞાનયોઃ વ્હારળત્યેન હન્તત્ત્વજ્ઞારિત્રક્રિયા જ્યા પારેળ તયોરચાસિથમવાત, વ્યાપારિળ ારત્વરક્ષળાયામ્બુપાતેના વ્યાપારેળ વ્યાપાળિોઽસ્યચસિદ્ધે જેનાવ્યનચ્યુનમાંત, અન્યથા વ્યાપારધારણત્વગ્રાહનયન વ્યાપારસ્પાવ્યસ્થતિચમ્યુષાનાર્ પર્ધાત્માન્ધશ્રદ્ધાસવિર્સ્થમાં વ્યાપાર વસ્ય સમ્યક્ષરળધાન્યાં બસ વાવ, ન પાનયાસિનૢનિયતપૂર્તિના વરબેન મોક્ષાર્યનિર્વાદે તથવતિયો બઢાસાવવોરન્યચસિદ્ધતિ વાન્, નન્વયંસિદ્ધનિયતપૂર્વતિના શૅહેશ્યવસ્થામાસિયંસંચચારિત્રેળ મોક્ષાર્યો પનેતા તસ્ય વજ્ઞાનાખ્યન્યયાનિબસ સ્યાત્, સ્થાય સર્વાયો નિરોધપત્રેન સર્વાશ્રયત્માપસર્વસંવરપાòશ્યારિત્રળ તથતિસહેશ્યારિત્રમન્યાસિદ્ધમ્ । અથ સહેવું લાવામોત્રં ક્ષાયોપાનમાથું પરિયન્ય ક્ષાયમાત્રન પરામિતું સત્ òવસ્થામાં પરમનિવૃત્તિપરમચૈચર્યું સજ્ઞામાંત તદ્નારા તવષ મોક્ષ પ્રત્યથવહિતારળામાંત વેર્વાદ. શાયોગ્રામસભ્યન્વર્ઝનજ્ઞાને ક્ષાયોષમિમાવરિત્યાગેન ક્ષાવિજ્ઞમાવેન પાિમનવાજીત જ્ઞતિક્ષાયમાવઠારા તડુમયાન મોક્ષ પ્રત્યદિતપૂર્વવત્યંતિ તષિ રથં સ્વાદેવ, તહેવું હતુવાઘે “વિચાહતાં પરમમવનયાāમિન્નરત્નત્રયી જિતવાઘાં વધત્તે શા રૂત્યુનતેસમ્વનાવિત્રયાળાં મોક્ષાનુ શક્તિમત્ત્વનૈારાસ્ત્રાર્વોક્તભજ્ઞાનવિનૃસ્મૃિતમેવ । તેન સોદર્શનસાય મોલાગ્લાવરાવાળું રત્નત્રયે. તાત્પર્યેળ તંત્ર પુરુસ્વામિનાનેન વૃદુનનયોાબ્વેયિ તત્વજ્ઞીળાયામુ નિરસ્તમ્ પત્ર મોહાન Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ કે દરેક | સરવાવિવાળઢાર્થીપિ ! (યશ ) મનવવમુષિથોપશહૂર્વ તહતસ્વાર્થશાસ્ત્રાવમુરબ્રુિત્ય પ્રવૃત્ત, વાજબવવનાર્થસારહિસામાચિસૂત્રવત, ગા વાદ્ધતવ વાવ મોક્ષલ્યો-વ્યન્ત, ન તુ મોક્ષ પ્રતિ વેતન, યુવકલ્લામાવતારયતા વચ્છેદ્રશસ્જળ તત્ર વાવિનામવતિપ, વાળા રળવન” ન તદુપટ્ટાનચૈવા ન્યાય્યાવ. અત્ર સમ્પર્ય વનધેિ ચાળ0 તેનૈવ સન્વય स्थात्, न ज्ञानचारित्राभ्यामिति कस्यचिदाशका सातन्निवारणार्थमाह भाष्यकार: શબિરંવાવઝિબોતનહબૂતરHહાનિતત્ર માનાર્થે દુમિરર વૃત્તિયુવમેત્યાં પદ્ધવિન | સર્જતવાર્થભ્રમિયમુરરબ્રન્ય પ્રવૃત્તમિતિપાછા સાનુકસકતામ્યમવર્શનાહિત્રયાળાં પાર્થાનાં પુતિહાળત્વેન નિહgમાહિતિ હેતુફા તત્ર દાન્ત માહિ-વત્યિા ! નનુ સર્વધુ પુરુષાર્થપુ પક્ષવૈવ ધાનવાહા તપશ વિધાનાર્હ મિતિ ર છતઃ ? િિમતિ સ મોલમાપશે વ છત રૂાશદ્દતે જતિ | તનિધેિ હેતુમાઠું ये मोक्षार्थिनस्ते सर्वे सुखं भूयाद् दुःखश्च मा भूयादित्येवं सुखं दुःखामावञ्चोद्दिश्यैव प्रवर्त्तन्त ત્વદેવતાવòવીમૂન સુવન તુલ્લામાવલ્વેન રૂપેણ મોક્ષ પ્રતિ વાઢનાં વિવાહામાવલિંાથે | યમ્માવા-વઘર તત્તદ્વાદ્ધિના સ્વજનામેક્નિોલ૦ક્ષળશે મોક્ષતત્તબ્ધવંશે વિકતિપદ્યન્ત, ન ર તથાપિ મોક્ષે ગવતિનો વિવન્ત, તસ્ય સરઘમ્યુપન્થમાનવાવ, તો નાસ્તિોડપિ વાવો વેદાન્ન મુિિરતિ પૂરોતિ કથા અન્તવ્ય પાટ૮િપુત્રના પ્રતિ ન થતિ રતિ બ્રિતિપદ્યન્ત, વિનુ વં તન મહમતિ તસ્વહાર નાનાદ્ધિમાવેલિવું, તન્માનું જ વિવવ તથગ્નિાપતિ મજ્યમાન પરિપતમોક્ષલગાંશમશે નિરસની મિતિ શૌ રિપરિપિતતત્તધેહૂનામન્ય વ્યતિરેથમવારપામહેતુત્વ ત્રિવનrદવાહોલિતમોક્ષમામાવાનાં સમુદ્રિતસમ્પર્શનાવિત્રયાણ પ્રમાણપત્યુપર્બ હેતુવન્ન પરથનું સમ્પર્શનાવિત્રયાત્મક્ષિતૂપરામના વિસ્તરસંસારસામાનિમને બાળભૈરાવાર્ય કૃતવનિતિ ! તત્ર દેવન્તરવાહ શર્થાપનામિત્કાત્રિમવયમ્ વારે-ગામાક્ષરનિશાન્ વધારાનશો ન્યાશ્ય , થતો વધર્વો નો રૂતિ, તન મનોરમમ્, સોશ્વાસનાર્યસ્ત્રાવ, પથમિતિ , ૩ખ્યતે– સારવશ્વનવઠ્ઠ બાળી વાવ વધારવગાતારણવરાહમિતિષમ હે વદ્ધાત્મિના મયા વિં વિવાહં થાતવ્યનિતિ વિમેતિ, મોક્ષારવાવેતર!વશાલ રાહુલ્ય વન્દનમુસ્ત્રવ્ય તો મોક્યામત્યસિતિ, તદના સંસારાવાસાગ્યરુદ્ધ ચાર બચાવ વાળાને મધ, મોક્ષરવિણાર, મારમાંsળ્યાપ્ત થાયાદ્વિતિ પ્રવધૂળમજુવારવા મોક્ષારોપશે જીત રતિ | સભ્યશૈનજ્ઞાન , Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ૮૨ : સવાવિવળચૂઢાર્થનું પિા (મા) સન્વટ્રોન સભ્યજ્ઞાન સનિમિત્યેવ ત્રિવિધો મોક્ષમાર્થઃ | ૐ પુરાફેલન ખતો વિષાનતશ્ર્વ વિસ્તરેળો તેમ! ! શાસ્રાનુપૂર્વીવિયાસાર્થે દ્વેશમાર્ઝામરૂપુન્યતે । હાનિ ચ समस्तानि मोक्षसाधनानि । एकतराभावेऽप्यसाधनानीत्यतस्त्रयाणां ग्रहणम् । एषां च पूर्वला मे भजनीयमुत्तरम् | उत्तरलामे तु नियतः पूर्वलाभः || (યશો॰ ટીા) સદ્ધર્શમિયાતિ । તથા ૨ સર્વશાĀપિ ચૌનનીય તિ માવઃ | અનન્તાનુવન્ધ્યાતિક્ષયાનુઢ્યા વિઃ સનીન, ચક્ષણવ્યવહારામિનારામ મઢે સમ્વજ્ઞાનમ્ । ત્રાળીતિ ક્ષેત્રે સામતિ સભ્ય અબેવરીત્યેનાૠતિ પ્રવર્તત તિ સભ્ય, વર્શનગ્ધ જ્ઞાનશ્ચ પારિત્રશ્ચ તૈયાર્મિત તરયાસમાટે વર્શનજ્ઞાનારિચાર્જ, સyક્તિ ૨ જ્ઞાાન દર્શનજ્ઞાનારિત્રાતિ સમ્બવીનજ્ઞાનચારિત્રાતિ દ્વન્દ્વમૈર્મધારયસમાસસેવ ત્તવ્યત્યેન ઇન્દ્રધટસજષવા નાં સમત્રાધાન્યાત્તસમાસધાવાથૅસહૈં તત્સમ વિજ્યવાર્થલાન્નયો સુત્ત ફ્લે તન્ત્ર્ન ન્હાવે દ્વન્દ્વાહો વા યમાણં પર્વ પ્રત્યેનામતવૃઘ્ધત રૂાંત ન્યાયેન ઇન્દસમામાધાન્યપર્વ દ્વન્દ્વસન સધ૰દ્ર્શનઢ઼િપત્રયેળ - સહાયઃ રેવ્ય, મૈં તુ લેવ વર્શનયતેન સહેવ્યાશયેન માવાર્થમા-તથા ન સચવાવાન્નત્તિ યોગનોય તિ બત્રા-વર્શનશબ્દાપેક્ષા નિશબ્વસ્થાપđરાતુ નિયાતઃ પ્રામાતિ, નૈધ હોવા, વોડહિંતસ્ત્રાદર્શનન્ય જ્ઞાનાપૂનિવાતઃ, ગર્સ્થાતંતાનદિંતયોર્મધ્યે દિંતથૈવ વીયાિંત ન્યાયાત્ અદ્ભુિતબ્ધ સર્વતો વહીયઃ । નનુ જીતો િતરૢ વર્શનસ્ય, જ્ઞ પુનઃજ્ઞાનĀ પુરુષાર્થવતુષ્ટસિદ્ધિનિવનતિ ચેત અન્યતે–સભ્યનુંર્શનાત્રા. જ્ઞાનમજ્ઞાનનેવ વિધ્યાછે, નહિ નિધ્યાવસદચરિત્રં સર્દૂરમારિત્ર તથ્ય સ∞પુરુષાર્થસાધનમ્, સમ્યગ્દર્શનોત્ખનૌ શ્વસત્યાઁ તત્સમ્યજ્ઞાનમ્, તાછે મિથ્યાજ્ઞાનચૈવ સમ્પન્નાન પે પરિણમનાતુ, દેવ ચ મોક્ષરૂપપરમપુરુષાર્થસ્થાપિ સાયમ્, તા C જ્ઞાન તિસભ્ય-હેતુત્વાત્ ચારિત્રતસમ્યવાદ્વાન્દ્ સત્શેનમેવાêિમિતિ સિદ્ધમ્ । નનુ વૈવ સગ્દર્શનમ્રુતે નૈવ મતિજ્ઞાનાવરળીયશ્રુતજ્ઞાનાવરણીયમેયોપગમતો મત્યજ્ઞાનવ્રુતજ્ઞાનાનત્તિ રાષયેલા મતિજ્ઞાનું શ્રુતજ્ઞાનવ્યાવિર્ભવત કૃતિ સવર્શનસન્ધ જ્ઞાનયોગદા હેતુહેતુભાવમાવેન નોવાં ચુર્તામાંત વત્, ચૈત્ર, નિશ્ચયનયતઃ પ્રતાપેબાશર્યારેવ યુાયાવિનો પિતચોદંતુદેતુમ જ્ઞાાત્ । ન ધ રપિ નિશ્ચયતો જ્ઞાની સભ્યવશનમવાપ્નોતિ જ્ઞાનચૈવ પ્રાધાન્યનાદિતત્ત્પતિ વામ્, જ્ઞાતિ સભ્યÁર્શનોત્તેરેવ, અન્યથા તપૂર્વમાંવ જ્ઞાતિ વ્યવેશ જીતો નૃત્યત્રાપિ ીયતાં દરિત્ર્યનું પ્રસન 1 સભ્યગ્દર્શન માહ અનન્તાનુઅધ્યાવિક્ષયાનુન્ધા માંરાંતિ-અનન્તાનુર્વાન્ધોધમાનનાયાોમસમ્યક્ત્વમોદનીય મઅમોનીયામાત્રમોદનીય સંત-નૃત્યુપસંયોગશક્ષયાન્યતનોથા યજ્ઞનૈ કી તવે વધ્યું નિશ་નિત્યારા તત્ત્વાર્યશ્રદ્ધાજલના િિરત્યર્થઃ । સભ્યજ્ઞાનક્ષળમાહ–હ્યુ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ લવાર્થવિવાદાવા છે જ્ઞાનપૂર્વ સચિપ્રવૃત્તિનિવૃત્તિક્ષ સચ્ચા વારિત્ર . અથ વિમર્થ પ્રત્યે સગયો, સંખ્યાને સતિ જ્ઞાનવરો સવરવામિાહિતિ , તે જ્ઞાનાવાત્રિનેતૃત્વર્થમિતિ બન્ન. વસ્તુતઃ સતિ વારમાર્થ વારિત્રપરિણામે ગુમૌસંજ્ઞાનતમુહપારતક્ષણનતવિહૃપનાખ્યામપિ માલતુવાદ્રીનાં સિદ્ધિધનાત્ સમીત્ર wત્તરસ્થાપીતરમિયાખ્યવપિwવો વિનિામાદેવ સર્વત્ર પ્રયોગ હતિ સ્મર્તયમ્ | ફતીયાનિતિ શ૬ દયતાવશ, ૫ વૃદ્ધિપ્રત્યક્ષ ત્રિવિત્રિકારો મોક્ષ સ્વભાવસમવસ્થાનહા, મા ગુદ્ધિરિયે અક્ષણવ્યવહાર વ્યપિંજારાત્મ માવ સભ્યજ્ઞાનામિતિ–ઉપયોળ સામેસ્વાર્થને સાતમા , ઉપવન તક્ષળાતિ વ્યવહાર જઈ શકાતે, રાજ્યધા, તથા શ્રાદ્ધ સૂક્ષણામતિ જથાર્થવ્યવહારોનનાં થવાહિયાજ્ઞાન સંખ્યાના મિત્ર | ત્ર જ્ઞાને સભ્યતવમામાવ્યજ્ઞાનાન્વિતજ્ઞાનગ્રાહ્ય ચર્ચામવારિત્વે સટ્ટામેવ યમ્ Iકવોર્થવ્યમિરણિ જ્ઞાનેડામાખ્યદ્વાયા શુદ્ધત્વમ્ ! ખ્યાત્રિક્ષણનાં-જ્ઞાનપૂર્વ લસબિયાપ્રવૃત્તિ નિવૃત્તિક્ષ સર્ષવારિત્રબિતિ દ્વારા મહિનાદહીકૃતસંસારસરતાજ્ઞાનર્મિતવૈરાગ્યાદિ નિપ્રતિદ્રશ્વસુઘામમોહોત્પાદને સાધનધજ્ઞાનતું શાસ્ત્રહિતપન્નમહોત્રતાદ્રિતનુકાનાયોપ્રવૃત્તિ, યાં જ સંસારપરિઝમબહેતુનાનત્તરવવાનખત્યવ્રતયાગનદધનધજ્ઞાનાચ્છાસનિદ્રાધા કામાવિાયા નિવૃત્તિdછલાં સાત્રિામિત્વર્થઃ દેશજ્ઞાનવેરાપત્રિાવૃાર્થમિનિ પ્રજ્ઞા ન મતિષયવાર્થવાન વિરતિષશવત્રિયોસાલાક્ષત્રિ, પિતરમાર્થવિષયે જ્ઞાનસત્રયતિ તત્સલ્યવરિજ્ઞાનાર્થપ્રત્યે સેકશ વો ત્યર્થ ! શુંમૌસંજ્ઞોનુ તપુજારતા જ્ઞાનતरूपदर्शनाभ्यामपीति सामान्याववोधक्रियालक्षणा सामान्यप्रवृत्तिलक्षणा वा शुभा यौधસંજ્ઞા તદ્દનુમત મુહરત જ્ઞાનાધવર્યાયત્વે ચત્તજ્ઞાને ઘોઘો ગુરુષારતજ્ઞાનાનું વૃદ્ધા વિશે તાપેમિપીત્યર્થ ! અથવા શુમનવિપર્યા, બોનસામાન્ય સુવશિક્ષાવાળાક્ષરં સંજ્ઞાન વસ્તુતસંવેદનહાં તક્ષા યા સંજ્ઞા વંદનજd મુક્કારતયં જ્ઞાન ધરાવાયત્ત રજ્ઞા વધ મુક્ષારતન્યજ્ઞાનશ્વિત થી વિદાનં તવૃદ્ધિનગ્ન તાસ્થાપત્યર્થ રાવતુષાવાનાં જ સિદ્ધિદર્શન રાહતિ-વિશિષ્ણુતલતાનામપિ માલયાવીનાં સામાયિષાથંscuસત્તાનામત gવાતિલડવુદ્ધીનાં જ્ઞાન વિજ્ઞાનક્ષળલાસિદ્ધિદરનાહિત્યર્થ ! –“પર્વ સામાઘિયૅડખ્યાત ગુમત્તિતા જ્ઞાનમસૌ , વાત વયમ્ શા” તિા ફિનિવ-પક્ષસ્થાપવંતિવિરહોવિ ! યત્તાવાર તિ–લબ્ધજ્ઞાનદર્શન'વારિઐતત્રયાપેલયા 7 ન્યૂનોધ વે મોક્ષના રૂર્બન્નવ ફર્થ gો પ્રાક્ષ"પ્રાધે પુરોવચેવાર્થ કોડ રૂલ્યવાર્થમાહેં–શુદ્ધિપ્રત્યક્ષ તિ બન્ચકૃદ્ધિસ્થતયા Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • ટ* * યાવિવભૂઢ થવીવિત | મોક્ષ સિદ્ધિધ્ધાનસ્ય માર્ગેઃ પા ત્યપરે, મોક્ષસ્ય જોઇ રાય મા પધાયો કે રતિ વચમ્ । મિતાવઢેલ મોક્ષમાં વેશનમુતાત્ત્વચિત બાહ્ હૈં પુરસ્તાવિત્યાદ્રિ ! તૅ મોબાૉર્ક પુરસ્તાદુરતન ત્રેપુ, રુક્ષત તિ દ્યતેનેનેતિ ફળમ્ । તત્ દ્વિધાડન્તર્વાદેમતેન, વિારે દા નુષ્ઠાનાઃ પૌરુષેમ્બઃ રાવતયોઽન્ત ક્ષર્ગે સવેર્શનાવેઃ । બાહ્યં તુ તન્નુપાવઃ શન્વરાશિ, તતતમા શ્રિત્ય, તથા વિધાન મેતતો, વિસ્તરળ વ્યાસન, વક્ષ્યામઃ । વિશ્વસ્ય પુરસ્તાવવયવ જ્યત્વે સામાન્યાનિધાનચાસ્ત્ર પ્રયોજ્ઞમિયત આદ્ શાણાનુપૂર્વીત્યાદ્રિ શાહ્યાનુપૂર્વી પરિપાટી તા વિન્યાસો રત્તા, ત્તત્ત્વયોગનાર્થમ્, તુશન્વામિશ્રીનાર્ચ, શુશ્રૂષ્ણામાવતિયાવનાર્થે નસ્યૂલમ્ । ઉદ્દેશમાત્રમ્—ાંશિયાર્થીમિધાનમાત્રમ્, મુખ્યતે–દ્રેશવાલયાળમેતાવતા ચાવે વિશેષમિયાનયોગનિજ્ઞાસાનનષ્ણામાન્યામિયાનવું પર્યંવત, તાપિ તત્ર ન તાત્પર્યમ્, અક્ષિતપ્રત્ત્વગ્રાહ્ય ત્યચઃ | સ્વમાવતનવાનપસ્યાત-દ્રવ્યક્ષેન્નાહમામંતન વિશુદ્ધાત્મ વયાવસ્યાન પસ્પેયર્થઃ । આત્મા માધા-શિયાળાનુવવૃમનૅસ્વમાવવિ પુનરાાત્યા સ્થાન પાવા સિધ્ધાંત સંપૂષ્કૃતનૃત્યો માંતે તસ્થાનમાયારમૂર્ત જોક્ષપ્રા મુખપારાત્મોલ મિત્રાયેશાહ-મોક્ષસ્ય સિદ્ધિસ્થાનક્ષેતિ–તિષ્ઠન્તિના માયાવા જ્ઞાનન્તજ્ઞાનતુલવાસિતા શુદ્ધાત્માનોઞાિત સ્થાનક્, સિદ્ધેસ્યાનું સ્જિદ્રસ્યાનેં જોવ્ર વિશિષ્ટક્ષેત્ર તત્ત્વથૈઃ । તતુાં વિશેષાજ્યમાગ્યે હોમનમોમાયો દ્ધિત્ત નિવાર્ય ૫૨૨૬૨ ાંત । યદા સિદ્ધાંતનામસ્થાનત્ત્વર્થેઃ । મોક્ષળ મોક્ષ ાંતે વ્યુત્પત્તિમવન્ય ટજારિĀામિત્રયેળ મોક્ષપદાર્યના-મોક્ષસ્ય જ દક્ષયક્ષળાંત પધાયો હેતુતિ-મોલાવ્યાંહતપૂર્વવત્તી હેતુ, નિયમેન મોક્ષોાવો હેતુ, 7 બસ્થતખ્ત વછેઅપયોયો હેતુઃ, તથા સત્યર”સ્થવન્દેન ધટાનુત્પત્તિવનાપિ સદ્દર્શનાહિયે મુત્સ્યનુત્તિર્ષિ વ્રુિતિ માત્ર રૂક્ષ્યતેઽનૈનેાંત ક્ષમિતિ હશ્યતાવન્ઝેટ્સનનિયતત્વમાં દિલળમ્, સામરૈયત્ય તાપ્યત્વે સાંતે તથાપાંમત્ત્વયે । નિતિહક્ષમિયે । તદ્રુત્યુપાવા શબ્દચિરિત ખ્વાદ્યાત્મલાદર્શનાથઈલાજ્ઞાનગનતત્ત્વાર્યશ્રદ્ધાનું સખ્યાવીનામવિત્તુઝાવતાશિરિત્યર્થઃ । તત્પ્રયોનાર્ચમિતિ-પ્રથમ સભ્યગ્દર્શનં તવનું જ્ઞાનં તતઢ્ય ારિત્રમિત્યેવમનુમેળ વિધાનઽમ્યાં વિવરણમિત્યર્થઃ । હામમપ્રદર્શન માત− મુદ્દાયારામવું સન્મત્ત પાળ, તાહસમારું તુવે નોંખાાંધ, તેં નહા–મનાાં ૨ સુચનાળ ૨ ” રૂતિ વષનાત્ જીવેલયા સભ્યગ્દર્શનજ્ઞાને યુપન્નાયેતે, તતઢ્ય ત્રિમિતિ યદા પૂર્વક નિસાસોને ચાવગામાÜજ્ઞાન નાતિતજ્ઞાનબ્રાહ્યકામાવિશિષ્ટામાવિષયજ્ઞામાવિશિષ્ટજ્ઞાનં તવન પર સન્ધામિતિ પ્રાપ્તિ મંત્રવર્ગનાયે-ર્થઃ । શુશ્રૂષળાનાવરપ્રતિપાવનાયમિતિશાસ્ત્રીયસાં વિષયા મેધાવ્યુશવાયમ મંતōા, મમિત્ઝાયત વિષય ‘તાનીય ફાંત નાગમષયજ્ઞાન, સન્ન્તરળ તવર્થિનામાંય 7 તન્હા શ્રળતાનવિત્તત્તાક્ષળાવ્રત પ્રવૃત્તિ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ વિવમૂઢોચકીપિકા - વિમા સ્થાઉ ક્ષાવાડતિપ્રસવતે, નાષિ- ફ્લાવરિરૂાસાધારણધર્માનુપારોળ વઘુમતિબા વવનમુદ્રા ફત્ય સભ્યશ, ક્ષણવાક્યઐક્ષ્યમાતગ્યાને તથષિ ક્ષણવાક્યાસમાળ્યાહતં સામાન્યામિયાના રૂટ્યત્ર ભાષ્યગ્રતત્તાત્પર્ય એ ન જ સામાન્ય હૃક્ષળપરીક્ષાવાસ્યવિષયમૂર્તિ પ્રાધ્યમ્, અન્યથા ધટ ફૂલ્યાદ્રિવિડતિયાપ્તરિત્યજ્યોન્યાશ્રયાવિત્તિપિતિ રાક્ષચન્ ! શાસ્ત્રવિષચીમૂતસમાજોપાવાને તદ્દોષામાવતિ વિજ! રાવણ્યસ્ય સાધારણત્વાદિ-હર્તાને વતિ | સમglને મિતાનિ, મોલતાધનાને, પતરામાવેડબ્દસાધનાન, સ્વરૂપચોખ્યત્વેષ એપધાનારિતિ તત્રત્યુષાઢનાર્થીમિયર્થ વિશેષાભિધાનપ્રયોગનજ્ઞાસાનનોમાન્યાભિધાનસ્વમિતિ-શસ્ય જૈવંસ, નમમાળ વસ્તુવીર્તનક્ષણોસેન સામાન્યામિધાને સાતિ વિમર્યાદિષ્ટસ્થ હાં જેવા મેવા ફૂલ્યા વિશેષાવિજ્ઞાસા શિષ્યસ્ય સમુદ્ધવાતિ, તયાર શિષ્ય જો તે મુળ સાઘમિધા બિયત રતિ હેતóક્ષણાવવિશેષામિધનિયોલવલણમેદ્રાવિવિજ્ઞાસાનનવત્વમુદેશવા ફ્રતિ તત્ર તાત્પર્યમિત્ર હેતુ માહ ક્ષિતવિમળાત્કાપજે રક્ષણવાડતિપ્રસિરિતિ–ક્ષિત સભ્ય દ્રશન તદ્ધિમાનવલતો નિર્મિલનમમિત નતિ મેવદ્રયાત્મ, તંદુત્થા તાર્યશ્રદ્ધાનનિતિ ૦ઉંધાવાયેતિવ્યારિત્યર્થ, તથાહિ વિરોષામધાન “તનિધિમાદ્વારફતિ જળ નિલખ્યહનધિમસન્યનમેદ્રથમિયાન, તસ્વનિવનિજ્ઞાસા તલવશેન તિવિધાનિત્યારા નિજ્ઞાસા, તનવં સામાન્યામિયા તીર્થશ્રદ્ધાનામિતિ સભ્યનજક્ષણમિધામિતિ તત્રાડજ ક્ષણમાં મતત્વતિવ્યસરિતિ માવા નાત્યસ્વૈત્ય સભ્ય જિત્યનાન્વય | નિષેધે દેતમારું રક્ષવાક્યથ૦મતિવ્યારિતિ-ક્વાર્થશ્રદ્ધાનું સમ્પર્શનમિતિ સૂક્ષણાધીને સમ્પર્શનામિતિ હસ્યોગતિવ્યારિત્યર્થ. ન ત્યા શક્યમયેનાવયા ન્યથા–સ્ત્રપરિક્ષાવાક્યવિષય સામાન્યસ્વાગ્રહ ! વિધ્યારિાતિ વાક્યમય ધટત્વસામાન્યાભિધાનપમિતિ તો દેશવાપત્તિવાહિત્યર્થ બન્યોન્યાશ્રયાપરિતિ વિશદવુદ્ધ વિશેષાજ્ઞાન શાળમિતિ ન્યાયેનો વિશેષળમૂતક્ષળપરીક્ષાજ્ઞાને સતિ તત્વરિતોદેશજ્ઞાનમુદ્દેશે તે સતિ છપ પલા જ બિયત ફ્રતિ હેતોસ્તન કક્ષા પરીક્ષાજ્ઞાનમ્, તથા વોશજ્ઞાને અક્ષણપરીક્ષાજ્ઞાનજ્ય રક્ષણપરીક્ષાજ્ઞાને વિદેશજ્ઞાનયાક્ષિણાન્યોન્યાયારિરિયર્થ ન જ શની નિયંત્ર દેતુનાદુ શાસ્ત્રવિકથીત સામાન્યપાવાને તષામાવતિ ! યદિ સભ્યશનારમનું વક્તયોગ્યત્વે ર યાર્થેિ તાતિસવસામગ્રીસમવયાને તેને મોક્ષ ત્યારે સ્વાહિત્યત શાત્ સ્વાહા થડપતિ મોહસ્ત્રાવચ્છિનવાર્યતાનિપિતારગાતાવચ્છેદ્રવધર્મવીત્યર્થ હોપાધાનામાવાત્ મોક્ષાભિવ્યવહિતળાજક્ષણાવર્જીન મલાત્મસમાનાધારણાયે માવાબાતયોત્વિક્ષામાં ક્ષારવાત્રામાવાવ ચારાક્રનવિત્યાદ્રિના હિત્ય નેતિશત સ્થિષિ વામનેનાના Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तरवार्थविवरणमूढार्थदीपिका। भावात् , इत्यतस्त्रयाणां ग्रहणम् । ननु तथाप्यवधारणानुपपत्तिः, मिलितप्वपि सम्यग्दर्शनादिषु मुमुखी सम्यग्यतमानस्यापि निःश्रेयसभनवाप्योपरतहुशः श्रवणात्, उक्त च अन्यकृतच “ संहननायुबलवीयसपसमाधिवकल्यात् । कातिगौरवाहा, स्वार्थभकृत्वोपरममेति ॥ १ ॥” इत्यादि, अत एव संहननादिस्वेतरसकलकारणाक्षेपकत्वमेव सम्यक्त्पमित्यपि पार्तम् , द्रव्यदेवसाधी व्यभिचारात् , स्वेतरसकलकार जाक्षेपकत्वरूपं सम्यक्त्वं च तथामव्यवव्यपदेशभाजि भन्यत्व एव प्रसिद्धम्, 'ण य सव्वहेतुल्ल, भवत हंदि सव्वजीवाणं । जं तेणेवकिसत्ता, णो तुल्ला . दसणाईआ' इत्यादि हारिभद्र वचनादिति का पाती ताशसम्यक्त्वस्य दर्शनादाविति चेत्, सत्यम्, मोक्षोपधायकतावच्छेदकधर्मविशेषस्यैव सन्यपरवस्यह ग्रहणेन दोषाभावात् । स च धर्मः प्रमाणापणया समूह, समूहान्वयव्यतिरेकाम्यां समूह एक कारणता वार्तम् तुच्छम् । संहननादिस्वेतरसकलकारणाक्षेपकत्वमेवेति-संहननादीनि यानि स्वेतर सकेल कारणानि तदाक्षेपकत्वमेव तत्समवधाननियतसमवधानकत्वमेवेत्यर्थः । द्रव्यदेवसाधाविति-देवभवोपपातयोग्ये साधावित्यर्थः । उक्तश्च-"मिउपिंडो दवघडो, सुसानगो तह य दयसाहुत्ति । साहू अ दनदयो, एमाइ सुए जओ भणि॥१॥" इति । उक्तश्वोपदेशपदेऽपि-"वेमाणिओववाऽत्ति दयदेवो जहा साहू " २५५ । इति । 'माणिओवपाति' .. वैमानिक देवेधूपातो यस्य स तथेत्येवं कृत्वा द्रव्यदेवरसाधुर्देवत्यकारणभावापन्न इत्यर्थः ।, व्यभिचारादिति संहननादिस्वेतर कारणसमवधाननियतसमवधानकावलक्षणसम्यक्त्वशालिनि दर्शने ज्ञाने चारित्रे च सत्यपि द्रव्यदेवसाधौ ‘मोक्षकार्याऽभानेना 14व्याभिचारादित्यर्थः । स्वेतरसकलकारणाक्षेपकत्वरूपमिति स्तरसकलकारणसमवधाननियतसमवधानकत्वमित्यर्थः, इत्युक्तं नयामृततरङ्गिण्यम् । तथाभब्यत्व०यपदेश भाजीतिकालनैयत्यादिना प्रकारेण वैचित्र्यमापनं तथाभन्यत्वं तवयवहारशालिनीत्यर्थः । भव्यत्व इति-सिद्धिगमनयोग्यतावच्छेदकधर्भवलक्षणेऽनादिपरिणामिकमा । चरिमपरियविशिकात्यचतुर्थविशिकागतसप्तदश्या गाथायात्साक्षित्वमाह- य सव्वहेतुलमित्यादि। उत्तरपति-सत्यमित्यादिना । समूहे-सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रैतत्त्रयसमूहे । तत्र हेतुमाहसमूहान्वयव्यतिरेकाभ्यां समूह, एक कारणताग्रहादिति-न सम्यादर्शनमात्रेण न पा सम्यज्ञानमात्रेण न पा सभ्यचारित्रमात्रेण मोक्षकार्य भवति , किन्तु सामग्री वै जनिति न्यायात्परस्परसापेक्षसम्यग्दर्शनादित्रयसमूहे सति भोक्षः, तदभाषे तदभाव एवेत्यन्वयव्यतिरेकाभ्यां समूह एव कारणताग्रहादित्यर्थः । न च पटत्वावच्छिन्न प्रति दण्डत्वेन मृत्वादिना - પર પ્રવાહ વહમૃતાનાં વાળવે સિદ્ધે તસમૂહો ન્યાસિદ્ધ તત્વપિતિ વાગે, प्रमाणविवक्षया परस्परनिरपेक्षप्रत्येक कारणमात्रेण कार्यसिध्ध्यभावेन तां प्रति, परस्परसापेक्षतगत्कारणसमूहसैव कारणत्वात् , अत एव सामग्री वै जनिति सिद्धा-सङ्गच्छते, यधपि . सायिकसयदर्शने सति केवलज्ञानमुत्पद्यते न च सर्वसंवरराख्यचारित्रमिति तेषां व्यापार Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ દ્વવાર્થવિહળધૂઢાર્થીપિ ! : : अहात्, नयार्पणया त्वापापोद्वापाभ्यां प्रत्येकं, परमकारणेऽपि द्वारद्वार्थ-तरस्य विनिगन्तुमशक्यत्वात्, आधुનિવર્શનાવિધ્વપિ મોલાનુøનિરાવિશેષપ્રયોગવશેષાયિત્વ સર્વ પ્રત્યેકમોહમતિ ત્રયાણ तुल्यत्वकारणत्वं नयार्पणया नानुपपन्नम् । एतेन सम्यग्दर्शनादित्रयसिद्धावपि मोक्षप्रासेरनेकान्ता सुरसुखाशं. सायाश्च प्रतिषेधात्प्रयासवैफल्यापत्तिरिति परास्तम्, हेतुत्रयमिलनसाध्यविशिष्टनिर्जरारूपद्वारसम्पत्तौ विशि४प्रवृत्तिसाफल्यस्यानपायत्वात् । नन्येवं मानुपस्वसहननविशेषादीनामपि मोक्षोपायत्वात्त्रयाणामेवावधारणं कुत इति चेत, सत्यम् , तेषा दर्शनादिविशेषाधानेनैवोपक्षीणत्वादशनाधुत्कर्षेण च निर्जरोत्कर्षात्त्रयाणामेव मोक्षहेतुत्वव्यवस्थिते । एतेन दानादिक्रियाणां मोक्षहेतृत्वं व्याख्यात, सम्यक्त्वसाहित्येन घृतं दहतीतिव व्यापारिभावनैव मोक्षकारणत्वं न साक्षादिति तत्समूहस्याऽपि न तत्, तथापि व्यापारकाले व्यापारिणो नाशो नाऽऽ५२यको व्यापारलक्षणे द्वारिनाशविशिष्टत्वाप्रवेशादिति सर्वसंवराख्यचारित्रकाले सयुदितैतत्रितयस्यैव मोक्षफलोपयोगितया व्यापारा मुख्यत्वाविशेषात्प्रमाणविवक्षया तत्समूहस्यैव मोक्षकारणत्वमिति समूह एवोक्तलक्षणसम्यक्त्वमिति भावः। नवविवक्ष्या त्वन्वयव्यतिरेकाम्या किमपि सम्यग्दर्शनादिकं कारणमित्यत्र हेतुमाह चरमकारणेऽपीनि । न च चरमकारणमात्रेणैव कार्ये सिद्धे तत्पूर्ववर्तिनोऽन्यथासिद्धिरिति वाच्यम् , चरमकारस्य तत्पूर्ववर्तिनः कारणत्वरक्षणार्थमेव यत्र व्यापारविधया कल्पनं न च तन्न व्यापारण व्यापारिणोऽन्यथासिद्धिः, अन्यथा दण्डादेरपि चक्रभ्रमणक्रिययाऽन्यथासिद्धिः स्यादिति तस्य कारणत्वे सिद्धे व्यापार एव कारणं न व्यापारी व्यापार्येव कारणं न व्यापार इति विनिगंतुमशक्यत्वादित्यर्थः । मोक्षोपधायकतावच्छेदकधर्मविशेषलक्षणसम्यक्त्वस्थाऽऽधुनिकसम्यग्दर्शनादिप्ववटमानत्वेन लक्षणान्तरमाह-मोक्षानुकूलनिजरेत्यादि । ननु सम्यग्दर्शनादित्रयात्मक कारणप्राप्तावपि तेन तझये मोक्षफलं भवत्येवेति नैव नियमः, तत्समावेऽपि तदानीं जीवपरिणाममान्धात् केपाञ्चिन्मोक्षफलाभावात् । अथ नृसुरवैभवसुखार्थ सम्यग्दर्शनादित्रये प्रवर्ततामित्यपि न च वाच्यम्, " नो इहलोगट्टयाए आयारमहिडिजा, नो परलोगट्टयाए आधारमहिडिजा, नो कित्तिवनससिलीगट्टयाए आधारमहिडिजा, ननत्य अरिहंतहिं हेहिं आधारमहिहिजा" इत्यादिनैहिकपार भविकमोगफलाशंसाया निषेधात्, तथा च सम्पदर्शनादित्रयप्राप्त्यर्थं प्रवृत्तिनिष्फलेवेत्याशक्य निषेधति-एतेनेत्यादिना । निषेधे हेतुमाह-हेतुनयमिलनसाध्येत्यादिना । हेतुत्रयं सम्यग्दर्शनशानचारित्ररूपम् , तमिलनं तत्समुदायः, तत्साध्या तजन्या, या विशिष्टनिर्जरा- तद्रपद्वारसम्पत्तावित्यर्थः । दर्शनादिविशेषाधानेनैवोपक्षीणत्वादिति-मनुष्यत्ववर्षमनाराचसंहननादीनां विशिष्टसम्यग्दर्शनाधुत्पादन एवोपक्षीणत्वादित्यर्थः । तेनैव तेषामन्यथासिद्धत्वादिति भावः । सम्यग्दर्शनादित्रयाणामेव मोक्षहेतुत्वमित्यत्र हेत्वन्तरमाह-दर्शनाद्युत्कर्षणेत्यादिना । एतेनेत्यस्य .. व्याख्यातमित्यनेनान्वयः । व्याख्यातम्-निरस्तम् । तन्निरकरणे हेतुमाह. .. ' Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ! * ° સવા વવર્ણસૂઢાર્થી પિ દુરિતનયેનવ તાલુ તથાવવ્યવસ્થિતઃ । તદ્દિદ્દામપ્રેન્યોરૢ હારમંદ્રાય-“વાળાઆપ થ—મિ જેવ બુદ્ધા કુંતિ નિરિબાર | જ્ઞાનો વિ હૈં નહા, માલધ્વજાઓ પરાોત્તિ ” | તિ શ્વ વ્યવહારનયત્રાન ધાન્યેન પ્રધાનવિમાવસાન્નાખ્યાતિશયાનાં તાસામેય પ્રતિપવિધ્યુત્તમોક્ષä સ્વનિયતે, શ્રેળિવુંદ્વચતિપાત વ્યાપારેળ પત્રમબદ્ધાન્તેન દ્રòિધાયા વૃ માહેતુત્વક્ષ્ય તંત્ર તંત્ર અવર્સ્થાપતા ક્ષે અનનીચે ચાવન્તિ શ્વાન્તરાાનિ તાર્વાન્ત તદ્વ્રારાીતિ જ વિમાન્યતે, તર્જાપ દર્શાયજ્ઞવેન વર્શનાનાલેવાન્તાંવાજાધિયા શા । ન હિ વર્ણનવીયંત્ર વષત વ ગ્રાહ્યા, જિન્તુ હેતુતઃ છત કૃતિન દુધર્માનનું નયામૃતતાંકળીસમ્પન્નવ્યનિના આરોગ્યાર્થિનો ચા મેષ-વિષયવિદ્વિષય પરિજ્ઞા નમપરિહારેળ વિધિના તવાસેત્રનાંયા ઐત્તિ સમવિત્ત વધારો વ્યહેતુતા મારોમ્બાર્જિનઃ યિામેષને ! અંત ોદ્દેશ્યવત્તુવન્તનાપેક્ષામોદ્ય સમુહાય વિષેયાન્મોક્ષમાર્ગે તંત્ર વિધેયૈાપે નૃત્યનેત્યાવિ | ત્રિવેહતીતિ મુકયોયો ન તુ નૃતં વન્દતીતિ, સ ત્યૌષારિજ, સંધ સ્ત્રોતશ્રુણ્યપ્રયોગાનેવુંહઽયાયાં મુબ્યારત્ને સિદ્ધે મરું ધૃત ન તિનિસંહનૃત-વત્યનિસાહિત્યેન ચથા તંત્ર ધૃતસ્થૌપારિમેય જારવું સિધ્ધાંત તથાસ્ત્રાવિ સંખ્યÁર્શનવિના વિના તૃતા વાનશતયા 7 મોક્ષહેતુઃ વિશ્વ તત્ત્તāતા શ્વેતિ તાલુ મૈં મુખ્ય મોબારાવ્યું, ડિ સભ્યસાહિત્યેનૅવત્યૌવનારક્ષેત્ર િિત્ત માત્રા । વિવભિપ્રેત્સોવામાંત સદ્ગુમાવીશાયાં યાામાંત શેષ તત્ર પોત્તપાયા વિશતિતમા શિયાએષપ્નતિ ઢીયાળીનાન્તરો નિવૃત્તિરિતયા શ્રી ચેરમાવવ્રૂપમા ઘોષાકે ક્રિયાત્મમેલે પૂર્વે શ્રદ્ધા તજી નમેષ યૌષધૈ મવરોનિવૃત્તૌ સમોવીનતયાઽસેવનચોખ્યામતિ જ્ઞાન, તતત્વ મવરો દ્વારાામાવષ્યસ્યા તિજ્ઞાપુરાસ દુમનોનવારસંહનતયા નાયમાનશુમામ રળત્યાગ્નાચત્તેન તવાસના યેચૈતન્ત્રય સમુવિતું મવરો ISનો મંહેતુરિત્યર્થઃ । અત વૃત્તિ-શ્રમ (વસ્ત્રોનો ષવિષયર્ણાવતારજ્ઞાનાતજ્ઞાા વિદ્વિષાવધ્યાસેવનરિદ્વારપૂર્વક્તવાસેવનાત્મત્રિતયસમવાય મવરોધનિવૃત્તિહેતુવાદ્દેવત્વચૈ ।દ્દેશ્યવત્તુવનનાપેક્ષાબપોચેતિ-તત્રે દુવનનાવ, વનનાવદ્ધસ્યોદ્દેવિધેયમાયેનાન્વય તિ નિયમેનોદ્દેશ્યાાન સમ્પન્દ્રશનજ્ઞાનજ઼ારિત્રાણ તત્સવોત્તર ચબંદુવનતંતìક્ષાનોઘ પાત્યન્યર્થઃ । અન્ય વૈજ્ઞષમિત્યનેનાયુઃ । લયમાાવસભ્ય-ર્શનજ્ઞાના િત્રાપ્યુદ્દિશ્ય મોનાને ફ્રાંત વિધીયતે, અત્ર સખ્યત્વેન્શનવીનામુદ્દેશ્યાનાં વજ્રવાત્તદ્વાષવોત્તમદુષને સતિ વિશેવિશેષળયોસમાનવવનનિયમાત્ વિધેયવાનન મોક્ષમાર્યપદ્ધતિ ચાય વત્તુત્વનેન માન્યું તાપિ મોક્ષમા` વિધેચ સભ્યન્તુર્શનાવિક સમુદ્રાય પતયૈઋત્યેન તપેલું તપવાત્તરમેનનને વ્યાખ્યમ્, વિરોધ્ધવા બહોત્તરવિમ ન્દ્રિતાપયેસકૂચવિહવસકુચાયા ચન્નાનેવક્ષિતત્ત્વ તત્ર- વિરોધ્ધવિશેષળવા પત્યાહામાનધ્રુવૅનનિયમ, અન્ન નવસ ચાયા, વિવશતાભ વિશેષ્વવિશેષળવાવષયો સમા” મા Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તત્ત્વચનિયળદ્ધાર્થનીવિા * * " " ક્ષમેવનનિર્વ્યાપે યન્તિ | વર્શનારીનાં સ(સા)મનૈયયે તરબ′′નવ પરિતાર્થતા સ્થાનિત્યતતછામે મનનામુતરીયાંતાં નેત્યાદ્રિ 1 પણાં વશૅનાવીનાં, ૬ઃ પૂર્વોતમુત્તયે, પૂર્વેક્ષ્ય સૂત્રોમાત્ સભ્યતુરીનચ, હામે પ્રાતી, મનનીય વિત્ત્તનીય સ્યાદા ન વેચેવમ્ ।ઙત્તરં જ્ઞાન પારિત્ર ૬। યતો તેવનરતિથ્થાં મનુખ્યામાં ૬ વેવિાવમૂતઽપેસીને નમવાનારાવિશ્વમજ્ઞાનજ્ઞવિષ્ટ જ્ઞાનમ્, તથા દેશસર્વનાત્રાવે, તથા પ્રાસેવે જ્ઞાને જેનિસ ારિત્ર નિયમત વ પ્રાધન્ધમ્ । અત્ર જ્ઞાનં શાન્તુ પ્રમાવિશેષમઁ ગૃહ્રીતમ્ । ઉત્તરયોઃ સભ્યજ્ઞાનવર્ષારિત્રયોઃ, જામે તુ, નિયતો નિશ્ચિતઃ, પૂર્વણ્ય સમ્બવશેનસ્ય, ધર્મ, તત્ત વ્યાવ્યાનું સમ્મદર્શનજ્ઞાનયોઃ પારમાર્ચિતપણે ચુખ્યતે । સ વ જારણમવાત્ મારચન્દ્રાદ્વિષયમેવાય, જાણમેવત્ત્તાવવયમ્, સભ્યહનધ્ય ત્રિતય જારનુત્પત્તી યોપશમઃ ક્ષયઃ શમશ્રૃતિ | જ્ઞાનસ્ય તુ ક્ષયઃ ચોપરમાં વા ત્િ ૨ ન તોમૈત્ઃ ાિમતિ દર્શનત્ય ત્રિવિધ ારમિતરસ્ય દ્વિવિિિત | માવનેઢોડક્તિ, જ્ઞાનસ્ય પર∞વમાત્ર સ્વમાવો, વર્શનસ્ય તુ तदेव સત્યં નિઃશ ચાાનઃ પ્રવૃવિતમ્ ' હ્યેવ જૈનેષુ પાથષુ સ્વતઃ પરતો વા નિઃ। વિષયમદ્દોઽવ્યક્તિ સર્વત્રત્વમાવિષયા નિઃસભ્યä ‘ સાયં સમ્મત્તે ' તે વનનાત્, શ્રુતજ્ઞાનં તુ સદ્રયોનરં નવનનાંતિ, દેશસર્વષૉરિત્રમìતત્ર ન મÎત્યનુષ્પળીયાતિ । નરિશ્ચં નિયમત વ માંસમિતિ-તદ્દાવાળીયાવિતિ હેતુરત્ર ગ્રાહ્યઃ । થવા જૈવ(ઘૃતશૅનમવાપ્નોતિ તવેવ તĀહારાત્મિાજ્ઞાનમેવ સભ્યજ્ઞાનહવેળ પરિબખત રૂતિ સભ્યરૢર્શન(છ વ ઋધિપતા સન્ધજ્ઞાનસ્ય તિઃ શાસ્ત્રે યતે, અત્ર ૨ સભ્યસ્વર્ગનામે ચારિત્રવસ જ્ઞાપિ હામે મનનોતેતિ યં ન વિશેષ યાશક્રાયમિાત્ર જ્ઞાન રાજ્યન प्रमाविशेषरूपं गृहीतमिति । श्रीगुरुभगवत्पार्श्वे विनयादिना शास्त्रमधीत्य यदागमार्थज्ञानं નાયતે સત્ર ગૃહોતાંમચર્ચઃ । તમિત્રાયેૌવ દ્રવ્યહોવા(શેઽવ–“બાતું નિસાસમ્બવત્રં, ચેન સ્થાવસ્ય વમ્ । મતિજ્ઞાનમનવા-શ્રુતોષ શરીરિળ: તાદ્દશી વ્રત વ્ મતિયંત્ર, શ્રુતં તત્ર ન નિશ્ચિતમ્ । શ્રુતં યંત્ર મતિજ્ઞાન, તત્ર નિશ્રિત હૈ ॥૬॥ ” ત્યુત્તમ્। તનેં “બ્રવીનિ માન્યાનિ પહેામભાવતુભ્યેઃ । શ્ રૂશ્ તિ સન્નવ્યાખ્યાાં સ્વીમવિષ્યતિ । રા ન-પારમાર્થિ મેઃ । પરિ∞વમાત્ર પર્વ્યવિષયનિશ્ચયમાત્રમ્ | સર્વદ્રવ્યમવવિષયોં વિિિત-નનુ નિનર્યાવિસ તહેવ સત્યં નિશમિયાજારવ હૉવ, ન ચાઽપ્રજ્ઞાપનીય માવાનાનૂનન્તાનાં વજ્રનોવાતીતવ્યેન નિનૈષિ પ્રધાૠતેતિ સવિધવāાખ્યા નથ સર્વદ્રવ્યમાવિષયા સેતિ શ્વેત, ન, યોનિનન્દ્રઃ ધજ્ઞાનેન ચદ્રુપĒ તત્સર્વે સત્યમેવઘેવ નિનોમહાનષિદ્ધમાાવેય શ્રદ્ધામાવાત્તદ્વિષયાપિ સેતિ નો દ્દોષ । તત્ર ચમતિલ્પનાજ્બુવાસાય વિશેષાવશ્યÓાનયુતિપાતના—“ સાયં સમ્મત્ત ” કૃતિ । R + રાજ્વયં સન્મત્ત, ખુરુ પત્તેિ ન વપ્નવા સબ્વે : વૈવિરરૂં પત્તુ, હોન્ગ્યુ વિ રિસેળ શુદ્ધ ॥૩૨॥ (૨૦′) કૃતિ સંપૂળા 1 Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • ९० : तत्वार्थविवरणमूढार्थदीविका । कतिपयपर्यायावलम्बि चेति । अपरे तु ज्ञानदर्शनयोः समीचौर्भेदमप्रेक्षमाणा इत्थं व्याचक्षते-५i पूर्वद्वयस्य सम्यग्दर्शनशानलक्षणस्य लाभे प्राप्ती भजनीयमुत्तरं चारित्रम् , उत्तरस्य सभ्य पारित्रस्य लामे नियतः पूर्वयोः सम्यग्दर्शनसन्याज्ञानयोलभि इति, यदि ताभ्यां चारित्रमनुगतं न स्यातदा सम्यगेव न स्यादिति । कथं पुनस्तैः कारणादिभेदो न ६५ इति चेत्, इत्थं, मतिज्ञानस्यैव रुचिरूपो योऽपायांशस्तत् सम्यग्दर्शनम्, न ज्ञानादृतेऽन्यदर्शनमस्ति । कारणादिभेद(वन्यथोपपादनीयः, तथाहि-योऽसावुपशमोऽ ___ कतिपयपर्यायावलम्बीति एकैकद्रव्यमानस्यानामिलाप्यानमिलाप्यानभिलाप्यपर्याययुक्तत्वेऽपि न तत्सर्वपर्यायविषयकं श्रतज्ञान फिन्त्वनभिलाप्यपर्यायानन्तमागवयंमिलान्यपर्यायविषयकमेवेति हेतोः कतिपयपर्यायावलम्वीत्यर्थः । सम्यग्दर्शनज्ञानयोर्भदविषये उत्तराध्ययनसूत्राथाविशाध्ययनटीकायामपि श्रीशान्तिरिकृतायामेवमेवोक्तम् । तथाहि । " श्रद्धानं सम्यक्त्यमोहनीयकर्माणुक्षयक्षयोपशमोप)शमसमुत्थात्मपरिणामरूपम् । उक्त हि' से य सम्मत्ते पसत्यसम्मत्तमोहणीयकम्माणुवेअणोवसमखयसमुत्थे ५समसंवेगाइलिंगे सुहे आयपरिणामे पन्नते' इति । अवश्यं हि स कश्चिदात्मनः परिणामोऽस्ति, येन सत्यपि जीवादिस्वरूपायोधे कसचिदेव सम्यक्प्रतिपत्तिर्भवति, न पुनः सर्वस्य, यथाहि "सत्यपि दर्शने कश्चित् शखे श्वेतिमान प्रतिपद्यते, अन्यस्त्वन्यथाभावमिति तत्र कारणविशेषोऽनुमीयते, एवमिहाऽपि, ततश्व जीवादिस्वरूपपरिज्ञानस्य सम्यग्भावहेतुरात्मपरिणामविशेषः सम्यक्त्वम् , न तु ज्ञानस्वरूपमेय, अत एव हि ज्ञानादावावरणभेदो विषयभेदः कारणभेदः, ज्ञानकारणत्वञ्च सम्यक्त्वस्य श्रुतफेवलिनोक्तम् , यत्तु तत्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनमपायसद्र्व्यतया सम्यग्दर्शनम्, અપાયો મતિજ્ઞાનયાંશ હત્યાદિ તારણે વાવવા કૃત્વા યુવૃતમયાવિવહિતિ મુવી व्याचक्षत इति । " चारित्रमोहनीयकर्मोदयाचारित्रलाभाभावेऽपि पांचिगव्यात्मनां सम्यग्दशनसम्यज्ञानयोलाभो भवतीति तदुभयलामे तदुत्तरं चारित्रं भजनीयं स्याद्वा न वेति । सम्यक्चारित्रलामे तु नियमेन तत्पूर्ववर्तिसम्यग्दर्शनसम्यग्ज्ञानोमयलाभः, यतो न ह्यविज्ञायाश्रद्धाय वा तच्चारित्रं ग्रहीतुं शक्यम् , ग्रहणे वा तमिथ्यारूपमेव स्थादित्साह-एषाञ्च पूर्वयस्येति । उक्तश्चैकादशपञ्चाशके-"सति एयम्मि उणियमा, नाणं तह दंसणं च विष्णेयं । एएहिं विणा एयं, ण जातु केसि वि सद्धेयं ॥१॥" इति। सायगेव न स्यादिति-भावरूपमेव तन्न स्थादिति भावः। "केवलियनाणलंभो नन्नत्थ खए कसायाण" ११८० इति विशेषावश्यकभाष्यवचनाकिपायाणां केवलज्ञानस्यानावारकत्वेऽपि कायक्षयः केवलज्ञानस्य निमित्तं, तदितरसकलसामग्रीसत्वे सति तत्सत्व एव तद्भावात् तदभावे च तदभावात, एवमनन्तानुबन्धिनां सम्यग्दर्शनसहभाविक्षमादिस्वरूपोपशमादिचरणप्रतिवन्धकानां सम्यक्त्वस्थानापारकत्वेऽपि तदुपशमादिः सम्यक्त्वोत्पत्तौ निमित्तम् , तरिगन् सति तदुत्पद्यते तेन विना तन्नोत्पद्यत इत्यन्वयव्यतिरेकबलात्, यत उदयमागतेषु कपायेषु न ज्ञानावरणादिक्षयतामवाप्नोति, तदनवाप्तौ च न केवलज्ञानोत्पतिद्वन्नान वानुबन्धिपूदितेषु मिथ्यात्वमुपशमादिभावमुपयाति, तदभावाच न सम्म Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તરવાWવિવાળ વાર્થીપિકા નિત્તાનુવાલીનાં સ્વર્ગનજ્યોત વિજ્ઞાનચ મહિનચક્ષા ફવ નિમિત્તમું નાણાવાવરબાપાંચ વિધયા પ્રાધાન્યન, કિન્તવાસીનતયા, શત પુર્વ વિજ્ઞાનત્ય મોહનીયમિવ સમ્પર્શનસ્થાનત્તાનુવાદ્રિ નાવરણમ્, વિનુ જ્ઞાનાવરણમેવ, તત, ક્ષયપામનાન્તરીયજત્વા વનતાનુવન્ડયાઘુપરામય પરત - પામન્યપ, વતા, ક્ષયપરામનોવ તતિ નતિ જાળમેઃ | ત્વમાંવમેવો નાસિત અત્યારોપાયાં વિરસ્ય વિમાવāવાનુ / વિષયમેવો નાસ્તિ, જ્ઞાને સંપર્યાચારો નિવચ્છિન્નપ્રારવાનવેનાડસર્વવિષયવસ્ય, વરીને ૨ સર્વપર્યાય નિરુતત્ત્વાતિ ધિર્માનવચ્છિન્નમારતાત્વેન સવિયત્વચ પરિમાળા , ન જ પરિભાષાઋતો મેવો વાસ્તવમમે ચાન્તીતિ ! અવમવધેય, ન પાયમા વિર્વ વડતું શયં ધટાપાયે તવનનુમવા, નવાનવાસિમૂહાઅન્વનરાનવિરોષ વ, મત gવ શ્રદ્ધાવૈ જ્ઞાનત્વવ્યાપ્યો વિરોધ કૃતિ પર વન્તિ, તચ્છિ જ દર્શનાવરછાયાપરામાનામેશાભિવિના હેતુત્વમિતિ જ્ઞાનાવરણવિશેષ હવે નાવરણ, પૃથવિમાાતિબજિયા તુ જીવૃષન્યાયાત, તમિમો સમ્મત “ પર્વ નિળપળને, સદ્દમાળા કરવોત્પત્તિરિત્યાનાહકનવુિમોનન્તનુવયાવીનામત્યકિ નનુ સન્ય મર્શનવાળું નાનત્તાનુવાવિ, વારિત્રમોહની પ્રકૃતિવાણુ, ત વ ત્રિવિયંવર્શનમોહનીય પંવિંશતિવિધું વારિત્રમોહનીયમિત્યુતં સબ્બતે, વારિત્રાવાલય ૨ સ વારનુષપા, અન્યથાનત્તાનુવન્જિમિતિ સભ્યવસ્થવૃતવાત નિપર મિથ્યાત્વેન યોગન, વાવૃતાયાવરગેડનવસ્થા , વિનુ જ્ઞાનાવરણમેતિ વેર્દિ તલ્લયોપશમ જ્ઞાનાવરણક્ષથોપશમનં સર્જનમિવ પાસ્યા, ત્વનતાનુવધાળુપરામમિતિ વ્યવહારस्यादित्याशङ्कायां तनिवृत्त्यर्थमाह-तत्क्षयोपशमनान्तरीयकत्वाचेत्यादि, अनવિતાનુવધ્યાવીનામુલશને રાઘવ જ્ઞાનાવરણક્ષયપામો મવતીતાવતા વાવરણમજાનનાનુવન્થાલુકામાત્મપરનિમિત્તાવધાનતાનુવઘાઘપશમનં સભ્યપદ્ધનમુખ્યતે, વાવાળાલયાજ્ઞાનાવરણક્ષયપામનવ તત્, તથા જ્ઞાનવત્ સન્વનયાપ સ્વતો જ્ઞાનાવરક્ષયશાળવાહિત રણમેદ્ર તિ માવા નવાનવાઉસમૂહોન્વનજ્ઞાનાવિશેષ પ્રતિ-નવનીવાવિવાર્થનસમૂહાઇન્વનજ્ઞાનાવશેપલૈવ પિતયાગsનાતાહિતિ માવા | જ્ઞાનત્વષ્ઠાથી નાતિવિર ફ્રાતિ-થત પટ્ટવહારજ્ઞાનવેન્દ્ર-વધૂતવરતુતશ્રદ્ધાનાં સમ્પર્શનમણિ જ્ઞાનવિરોપ હવ, સમ્પર્શનત્યારે રસજ્ઞાનત્વવ્યાખ્યાતિ પારંવાદ્વિપતાવિશેષપર્વાત્યુ સચ્છિતી નનુ જ્ઞાત્વિવ્યાનાત્યવચ્છિન્નતિ સમ્પર્શનાવરણાશિમલયેશિયાનાં જ્ઞાનાવરણક્ષયપામસાધારણજ્ઞાનાનુશનિ દેવાત્તયં સભ્યર્શનપ જ્ઞાનનેતિ તવાવાર જ્ઞાનાવરણવ ન વર્શનાવરણં (ર્શનમોહનચં) ય િતા જ્ઞાનયાખ્યા જ્ઞાનાવર હર્શનયામાંsઘારવંતરનાવરણામિતિ પૃથપથપદેશ વિ નિવન રૂલ્યા યામાહવિમા માહિતિ / નોવૃષન્યાયાવતિ થયા વૃત્વજિજ્ઞાતિજનૈ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨ તવાવિવર ટાઈટીપિ માવો માવે પુસ્લિામિળવો, સળસદો હવટું નુt i ?તિ » શ્રદત' સમૂહજીવંનતથાડવળતો “માતા” ઋતિય તથા જ પૂર્વયાએ મનનીયમુત્તરમિતિ વાન ગુત્તિ, દ્વિતીયાને પ્રથમ સ્થાપિ મનનીય વારંવારીત્ ચરિ મુલ્ય સભ્યોને પોmજ્ઞાનાવરણ વ, માનાં પાનાન્તામવાસનોપની સાન્તાવાહિધરાવપાયોડપતિ તદુમસામાન્ય સાતે તવા મવતિ જ્ઞાનેન સમ (સા)મનૈત્યમ્, વિવાહ-સન્મજાને ળિય-T વંસર્ગ કંસને ૩ મદ વ્યં | સમન્નાઈ જ ફર્ક, તિ અર્થે હોદ ડવવન્ન ? | તને તુ માન્યમ્, તિ, હજાન્તની મવચનેશ્વાન્ત તુ મવચેતિ, શોષિત નેન સહ મનના સભ્યપદ્ધવિશપણે, નેયાયાનાહ- સાદપ્રિત્યë સમૂજ્ઞાન, વરાત્રાન્ સાવર્શનમિત્યર્થત ૩૫પન્ન ' મર્યાપરિદ્ધિમિત્યર્થે કૃતિ / રૂ પુનાન્યૉવધેય પૂર્વ સતિ વારિત્રમજ્ઞાનવિશેષ વ, વિષયબ્રતિમાસાત્મજ્ઞાનતાસવ નપુ વૃદ્ધિાનાડસ હેપુ ડ્રયસ્ય સ્થાનેડમિનનયતાત, નવાવાસ્ય ર વારિત્રમોહત્વેન પૃધામેધાન પ્રાદેવ, શનૈશે વિનિમમ વાત્મકુળાનામાભનો જ્ઞસ્વામી વિવૃત્ત ગપિ યથા વિયાં પવિ ગોવં પુંલિ વહીવટું વૃપમતિ પુનામેવકૃત મેવાડાયાત્રાપતિ માવી પર્વ નિપિપળત્ત ફત્યાદિ ફાં માયા લાપતૌ ર–રા દ્રિતીયડે દ્રાવિંદામા ! વમનન્તવિધિનાં નિનબજ્ઞલ્લાન્ માવાનું માવત સહિપતયા થવાનસ્ય સમૂદાનિતયા ઢળ્યાગ્રહ્મત પુજય દ્વામિાનવાધિ મતિજ્ઞાનાપાયશવંતદેવ સભ્યોન, નિનગ્રજ્ઞજ્ઞાનિધિમાવવિધ્યસમૂહાન્વનજ્ઞાનવિશિવાયા રાજ્યનરાન્વાખ્યત્વાલિતિ માવા દ્વિતીયામે પ્રથમ મનનથં ]િ તનિયતતિ પક્ષી માહ-વધિ વ મુહર્ષ સ રનામસ્યાના ! જ્ઞાનેન સમું સભ્યપદ્દર્શનમ્ય સીર્નિયત્વે સન્મતિદ્ધિતીયાત્રશત્તમાથાં સાહિતોપશિતિ-સમ્મન્ના નિયમેળેાવિ ? નનુ સન્યજ્ઞાને સખ્યદ્રનનિયમવશનગર સભ્યજ્ઞાનનિયમ વાર્થ = સ્વાહિત્યાશયિામા–વને તુ મરતબ્ધામિતિ સભ્યજ્ઞાનમિતિ રોષ. મનનાએવાદ -l વાવતિનિતિ-મનનેત્યર્ચ 1 ફર્વાદ્યો પ્રત્યક્ષવિષય વાર્થે મવર્તિત શાહસભ્યદાષ્ટકમિતિ મિત્યજ્ય સભ્યજ્ઞાનમિત્યનેનાવયા, સખ્ય દષ્ટિપ્રત્યક્ષામતિ લબિયવયમૂતમિત્કર્થ | કર્યત ૩૫ પન્નામિતિ અર્થત સામવિપપન્ન મવતિ, તહેવારંપત્તિસિમિય ફાતિ | પર્વ સતિ વિશિષ્ટ વર્તમાન સમ્પર્શના મતિજ્ઞાનાપાયાંશતવા જ્ઞાનવિશેષ સતિ | યસ્ય યાત્રા તથા જ્ઞાનવિશેષસ્થાને / તવાવાળા વારિત્રાવરણય વારિત્રમોહન વારિત્રમોહનલૅન ! વવ વૃષન્યાયાવી નનવદિશા સભ્યનાહિત્રયાળામવાવયે જ્ઞાનમેવ વનવારિત્રે તિવદર્શનમેવ જ્ઞાનવારિત્રે વારિત્રવિજ્ઞાનને ફરમપિ વિમિતિ નો ત ઇત્યત શા-જ્ઞાનેશેષ તિકાત્મકુળાનાં જ્ઞાનસેનવરિત્રામાં જ્ઞાન જ્ઞાનમાત્રહપતયાખ્યધાળે રામનો જ્ઞાવામાવ્યમેવ વિનિમ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તવાર્થવિવાર્થદીપિત । 3. “ ભાભાનમાત્મના વેત્તિ, મોહત્સાવવાŕને । સવેવ તત્ત્વ નારિત્ર, તજ્ઞાનું તષ વર્શનમ્ III” તથા ૪ ઉત્તરાને પૂર્વતૈયયં પતો, ન તુમેર્મતયેતિ વિરૂ। થ સૂત્રોતન્યન્તસમ્વઢર્શનાવવચવાર્થ પ્રતિપાચત્તિ ત્રેત્યાવિના ! (માધ્યમ્) તંત્ર સન્યીિતિ પ્રશંસાથ નિપાત, સમગ્રતા, મા ટ્ૌમિતિ । દો( Áિ )ર{મારિખી સર્વેન્દ્રિયાનિન્દ્રિયાર્થપ્રાપ્તિદેતત્ત્વવ્ર્શનમ્ । પ્રરાસ્તે વાત કન્યવર્ધનમ્ । સાત વા વાને સોનમૂ | પર્વ જ્ઞાનારિત્રયોપિ (ધૉ ટીજા) સર્યા ત નિાતઃ પ્રશંસાર્થ:। તથા પ સમ્યક્ પ્રશંસનીયં ખૂનનીયમિત્યયઃ । - વ્યુત્પત્તિપક્ષાશ્રયનેતત્ । વ્યુત્પત્તિપણે યાદ-સમગ્રતેવી સમ્પૂર્વાંતે પ-નિતિ શેષઃ । તર્થક્વ તિઃ પૂના વા। તત્ર પૂનાયાઃ પ્રાચુવા તિચૌંત્ર બ્રાહ્યઃ। સમતિ પાતિત વ્યાપ્નોતિ સર્વદ્રવ્યમાવાનિતિ સાથેઃ । માવો વચ્ચેનાંમાંત માવલ્લુટો ર્વામમિત્યર્થઃ । હિતાર્થમાહ-શિરિત્યાતિ । દેશ । સ્વવાવ્યવાસ્થ્યĀળયા દારૂનઉરાંતઃ, અમિષારિળી ચાર્જ, સામાન્યવિશેધાન્યતરાતક્ષેપાત, સર્વાળ નિરવશેષાન્ડ્રિયાશ્રિત્રાવીનિ । ન્દ્રિયં મનોવૃત્તિોધજ્ઞાનં જ, તાઁ જમિચય: જ્ઞાનજાયે સમ્મતિમાઃ—જ્ઞવિવનુાંમતિ આત્માનઽમતિ-મોહાયાવાર્માન બાસ્માનનામના યુદ્દાત્ત તહેવ તહેવનમય તસ્ય પુસ વૉરિત્ર જ્ઞાનૢ વર્શનચૈત્યર્થ:। અનેન ત્ર જ્ઞાનમેવવપિતમ્, સ્વરૂપત્ત:-તાįિાત્, મૈં તુ એવાઐતયેાંતિ-વર્શનજ્ઞાનામ્યાં નારિત્ર મિત્રમંત્ર અાપે તત્કાળે નિયમેન તથા ભૈયામતિ નૈર્થઃ । સમિતિ સાંતિઃશબ્દ ત્યચ્: | નાતતિપ્રતિષ્ઠત્યાનષ્પન્ન ઘેનાર્યદ્યોતજો, મૈં તુ નામાવિવવવથવાના, પ્રતિદ્રવ્યયમનાોજ્ય નિસ્યંતેષ્યદ્યોત સચેતિ નિપાત કૃતિ ન્યુપત્તરિત્યર્થઃ । તવશ્ર્ચમા--પ્રશંસાથે કૃતિ-સમ્પૂર્વાચારાત વિષપ્રત્યયાન્તયેાંત શેષઃ। થાનોીતિ-વિષયોરો ચર્ચઃ । સર્વદ્રવ્યમનિતિસર્વદ્રવ્યસર્વપર્યાયામાંનત્યર્થઃ । સ્વાન્ધ્યવયક્ષળયા સ્વં. વૃશિષનું સાજ્યે વચનં તત્સવબાન્યજ્ઞાનપરિળતો લળયા જ્ઞાનપરિાિંતિ-સહર્શનં હિ મુલ્યવૃન્યા માંતજ્ઞાનાપાયાંરાજ્યમેવેતિ પક્ષ અયેપાંતનુત્તમ્ી ચચાઁ બનાવવીધ સ્તાયાદ્રિ નલિન્દ્રબ્યષાનર્યાંનનતિન્ય પ્રવ્રુત્તા, Üવિધા ાંતે શ્વેત, પુજ્યતે, જૈનવિષયસ્ય સામાન્યન્ય વિશેષસ્ય વા દ્રવ્યન્ય પર્યાંગત્સ્ય વા વાન્યતત્તાયૈરાંતિક્ષેષ ત્ર સત્યતા મÎતિ યા દ્રાચિષચંચાચિનવિષયોમાં પરસ્પરસાતૢતા તત્સમ્પન્નતઽક્રિયાવાહિની, તત્ર હેતુમા-સમાન્યવિશેષ ન્યતા પ્રતિક્ષેષાવિતિ ગોધજ્ઞાન શ્રૃતિ-ન્દ્રિયાનેન્દ્રિયવ્યાપારાનાહિત્રિજલલયોપશમનન્ય જ્ઞાનશ્ર્ચત્યર્થઃ, યચામ્ દ્રિયાના—તેવોઃ રાવાવય તિ । નનુ અમિષારિળ સન્દ્રિયાનિન્દ્રિયાર્યપ્રાપ્તિઃ સહર્શન મુખ્યતે, સર્વધામેન્દ્રિયવસમમિન્યાદ્ભુતના શ્રૃત્ય નિરવશેષેન્દ્રિયજ્ઞન્યશદ્રાવિવિષયજ્ઞાનાનાં સતીનાં,વપ્નજ્ઞાનાડી મનોજ્ઞન્યસ્ય તત્ત્વ, નીત્રાધામસÒાજ્ઞાનસ્થાપિ તવું તો હસ્યુતે, તરથ સાત મિથ્યા Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ લવાર્થવિવાળવાર્થીપિ 1. શવાયઃ સ્વપ્નાયો વત્યાવીનાં નીત્રાથમિકળશ્વ તન્નાસ્તિત્પતિ, પતન શાનિકળ્યાલ્યાનમેતત્વ, તન્મજ્ઞાનામાવા, ચાવાર્થમાત્ર વા સર્વ વરિતાર્થમ્ ! શર્થય નિમયતિ . પ્રાતમિત્યાદ્રિ ! પ્રાપ્ત મુuિહેતુત્વાત, સતં સર્વનયાત્રખ્યનેન પ્રવૃત્ત અતિવિશતિ પર્વ જ્ઞાનવારિત્રયોરપિ દિધા સવરë વ્યાચેયમિત્યઃ II શય યોદ્દેશ નિર્દેશ” તિ ન્યાયાત પ્રથમમુકિય સંસ્થાના રક્ષણમાદ સૂત્રમ્ તત્વાર્યશ્રદ્ધાનું રાજ્યનમ્ ૨ તતાબ્દાર સમાસમેન વ્યાસ . (મા) તવાનામનાં અદ્ધાને તન વાનાં લવાર્ધશ્રદ્ધાનમ, તત્ સર્શનમાં તન માવતો નિશ્ચિતમિત્વર્થઃા તરવાલીનિ નીવાલીનિ વક્ષ્યને I a gવ વાર્થવાં શ્રદ્ધાનું તેડુ પ્રત્યયાવધારાન્ ! તહેવં પ્રશામાં નિર્વવાનુiાતિજ્યામિત્ર તવાર્થદ્ધા સયરમિતિ (યશો. ટા) તરવાનામિયાવિ . તવાનાં સ્યાદામનાતનમ્ય સ્થિતાના, અર્થાનાં શ્રદ્ધાન”, “વામિત્વમેવ ઉતિ વિક્ષણનું પરમતોત્રી પાશ્રદ્ધાને તથાપ્તિવાસણાય તવાનામિતિ. દાના શ્રોત્રાવીયાપાશ્વર્ગવતિ, ન કર તવાના શબ્દુત્વાહિમતિ શાહ શવ્વાતિકારવાયાવિ સમ્યકત્વ, તસ્યાન્વિત વાવમાહિતયા મત્યજ્ઞાનવતામાત્, વાહ મનોવિજય પ્રાયો ત્યા વ, તજ્ઞાનનળજ્ઞાનપત્યાના સમ્પર્શન, નવાંધમિસળજ્ઞાનમપિ વિશે પરિચ્છવવિધુત્વાત્યાહ વાહનયવાળાનમેતાવતિ | શવપન સાચ્છતા નવો ગ્રાહ્ય, કાવિહાલ્સમાધિમૂતળમ્ | તન્મતેશવ્વાનિયતે | અજ્ઞાનામાવતિ-સત્રાપવાન્મિયાનોપગ્રહ, વચ્ચે તન્મતે મિચ્છાદદરજ્ઞા નવસ્થામાવત્સિર્વે જ્ઞાનં યથાવ, તત્ર તન્મતે જ્ઞાનામાવાહિતિ દેતા ફતિ તવૈતધ્યાયપભ્રંશસ્ત્રમો યે “મિથ્યાદચજ્ઞાને, ન શયતે નાસ્ય જ્ઞોuિ | જ્ઞાવામાખ્યાજ્ઞવો, મિથ્યને વળજ્ઞા” | | ફત્યનેન પછીમતિ ! અથવા તદ્દતિ તત્કાલ સાંવ્યવહાર થાર્થવં તારાને ખનુમત તવૈતયાળ્યાને સવમમતાષિયાહ-વાયા વેતિ | અર્થવિયાત્વમા યાચાર્ય તન્ના નવઘામસળજ્ઞાનેતિ માવા / કર્યદ્રથમિતિ યુવા સ્વાવ્યુત્પત્તિપર્ણ વ્યુત્પત્તિપલગ્રાશય યો દ્વિવિધળે બાઝતસ્તાનિયા રૂતિ મધમસૂત્રાર્થ રિમસિમજાતુ ા * અ) દ્વિતીયબ્રન્નાવતરાિમાહ-“ નિશા જ્ઞાતિ ન્યાયાવિત્યાદ્રિ ! તત્તાનામર્ચાનામિત્વત્ર તવાનામિત્યય સાર્થમાહ-રમતોન્નતિન્યાહના વક્તવ્હાલોગ્યે પતિ તમર્થતાં પદિત્ય નૈવાdીપોષાવાન વ્યર્યમેવ, િતત્તમૂર્થિવ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थविवरण गूढार्थदीपिका। :१५: अर्थपदेवयष्यभियाऽऽहे-तचेन वार्थानां श्रद्धानं तत्त्वार्थश्रद्धानम्, तत्सम्यग्दर्शनमिति । तस्येनेत्यस्य विवरणं भावत इति । श्रद्धानमित्यस्य विवरण निश्चितमिति, भावे क्तप्रत्ययान्निश्चय इत्यर्थः । "मातापित्रादिदाक्षिण्यानुरोधाचतिरिक्तवारसिकभावेन भगवदुक्तयावदर्थविषयकरुचिः सम्यग्दर्शनम्" इति निगलितोऽर्थः । अतिरित्तान्ते स्वारसिकत्वपरिचायकम् , न तु लक्षणप्रवियम्, यावदिति चार्थानामिति पहुवचनमय दया लभ्यते । शठमावन श्रद्धानऽतिव्याप्तिवारणाय प्रथमं विशेषणं तृतीया-तम्, सकलशिष्टैकवाक्यताप्रयुक्ततारादिदृष्टिसाधारणरुचावप्तिव्यातिवारणाय भगवदुति, आशिकप्रवचनार्थस्वारसिकरुचापतिव्याप्तिवारणाय यावदिति, तपानामर्थानामिति पूर्वकल्पे ५४या विषयत्वालामात् सिंहावलो- ' कितन्यायेनाह उत्पादीत्यादि । तस्यानि जीवादीनि वक्ष्या, त एव चार्था इत्यर्थापेक्षया पुलि. ' निर्देशः । तेषां श्रद्धानं नाम तेषु प्रत्ययावधारणम् । तथा च पठीसप्तम्योरथ प्रत्यभेद इति व्युत्पादित नर्थोऽपि खातदा तन्नित्तिफलकत्वादर्थपदं सार्थकं स्यात्, न चैवमित्यतो विग्रहावरमाह-तत्पेन पार्थानां श्रद्धानमिति । इदमप्यर्थकथनं न तु त्रिपदतृतीयात पुरुषः । विग्रहश्चेत्कर्तव्यदाsथश्रद्धानपदयोबहुवचना-पष्ठीतत्पुरुपं कृत्वा तस्यपदेन सहाथश्रद्धानपदस तृतीयात पुरुषा कर्तव्य इति । स्वारसिकभावनेति-प्रशस्तसम्यक्त्यमोहनीयकर्मानुवेदनोपशमक्षयान्यतमसमुत्यशुभात्मपरिणामभावनेत्यर्थः। परिचायक-स्वरूपोपरकम् , न वितरव्यानर्तकम् , अत एवाहन तुलक्षणप्रविष्टमिति । प्रथम विशेषणं स्वारसिकभावनेति विशेषणम् । वाराष्टौ स्थितो जीवरस्वप्रज्ञाकल्पिते विसंवाददर्शनानानाविधमुमुक्षुप्रवृत्तेः कात्स्र्थेन ज्ञातुमशक्यत्वाच शिष्टाचरितमेव पुरस्कृत्य प्रवर्तते । उ4ञ्च- " नास्माकं महती प्रज्ञा, सुमहान शास्त्रविस्तरः । शिष्टाः प्रमाणमिह त,-दित्यसां मन्यते सदा ॥१॥” इति । तथा च मिथ्याधीनां परमार्यगवेषणपराणां मोक्षकायोजनानां पक्षपात परित्यज्याद्वेपादिगुणस्थानां तारादिदृष्टौ सकलशिष्टोक्तयावदर्थविषयकस्वार सिकरुचिरसम्भवतीति तत्साधारणरुचौ मिथ्यारूपत्वेनालक्ष्यभूतायां लक्षणगमनादतिव्याप्तिरिति तनिवृत्तये भगवदुक्तेति विशेषणमुक्तमित्याह-सकलशिष्टत्यादि। ५यमक्सरपि इक्कंपि जो न रोएइ सुत्तनिद्दिढं । सेसं रोयतो वि हु, मिच्छट्टिी जमालिब ॥१॥ इति पचनाद् भगवत्प्रोक्तप्रवचनस्य सर्वार्थानभिरोचयमानोऽपि यः कोऽपि पुरुष एकमपि पदमक्षरं तदर्थं वा यथार्थ विप्रतिपत्या न रोचयति तद्रचौ " सव्वयं सत्तं " इतिसिद्धा तोक्तलक्ष्यतावच्छेदकस्य सभ्यदर्शनत्वस्याभावनाऽलक्ष्यभूतायां लक्षणामनादतिव्याप्तिस्स्यादिति तनिवृत्यर्थं यावत्पदोपादानमित्याह आंशिकप्रवचनाति । उद्देश्यप्रतिनिर्देश्ययोरक्यमापादयत् सर्वनाम पर्यायण तत्तल्लिङ्गभागिति नियमः, यथा शैत्यं हि यत् सा प्रकृतिर्जलस्येत्यादौ प्रकृतिरूपविधेयापेक्षया तच्छदस्य स्त्रीलिङ्गता, शैत्यरूपादेयापेक्षया यच्छ०दस्य पलीयता, प्रकृते तथैवार्थरूपोद्देश्यापेक्षया. त एवेत्यत्र तच्छदस्य पुल्लिङ्गतत्याशयेनाह-त एव चार्था इत्यर्थापेक्षया पुल्लिङ्गनिर्देश इति । तेषां श्रद्धानमित्यस्य ते५ मत्यापधारणमिति सप्तमीघटितार्थ करणेन । - Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ तत्वार्थविवरण गूढार्थदीपिका भवति, प्रत्ययावधारणमित्यत्रं प्रत्ययेन, प्रत्ययात् : प्रत्यये प्रत्ययस्य वाऽवधारणमिति व्याचक्षते । आधे । પ્રત્યયેનાવનારાનેનાએ ત્યર્થ યા પ્રત્થન ક્ષયપરમાવના રખેન, પ્રત્યયાત્મા, પ્રત્ય सति तस्मिन् । पठीपक्षे प्रत्ययस्य विज्ञानस्यावधारणं प्रामाण्यादिप्रकारको निश्चय इति यावत्, अयमेव निकम्पप्रवृत्तिहेतुः, अत एव सम्यग्दर्शनवान् सुमेरुनिश्चल इति गीयते । एतत्पुनः सम्यादर्शन कयमुत्पन्न । सत्परेण ज्ञायतेत्याकाङ्क्षायां लिङ्गान्युपदर्शयति प्रशमेत्यादि । प्रशमः सुपरीक्षितप्रवक्तप्रवाच्यप्रवचनतत्त्वाभिनिवेशादोषाणामुपशम., इन्द्रियार्थपरिभोगनिवृत्तिा, संवेगः संसारमीतिः, निदो विषयानभिप्वनः । परे तु व्यत्ययमाहुः । अनुकम्पा वो गिरौ तर५ इत्यादिवत् पष्ठीसप्तम्योरथं प्रत्यभेद एवेति ज्ञापितं भवतीत्याह तथा चेत्यादि । “ प्रत्ययोऽधीनशपथज्ञान विश्वासहेतुपु रन्ध्रे शब्दे " इत्यमरकोशवचनात् यद्यपि प्रत्ययशब्द सप्तस्वर्थेषु वर्तते तथाप्यत्र ज्ञानहेतुरूपार्थद्वयमेवोपयुक्तम् , तत्र प्रत्ययनं प्रत्यय इति न्युत्पत्त्याप्रतीत्यर्थकेन प्रत्यय०देन ज्ञानरूपमर्थमाश्रित्याह-आये प्रत्ययेनाऽऽलोचनाज्ञानेनेत्यादि-आलोचनाज्ञानेन श्रुताचालोच्यैवमेव जीवादितचं, नाऽन्यथारूपमित्येवं यथापस्थितजीवादितत्वावगाहिरुचिरूपो निश्चयः प्रत्ययावधारणमित्यर्थः । प्रतीयतेऽनेनाऽस्मादस्मिन्निति प्रत्यय इति व्युत्पत्या प्रत्ययश देन कारणं ग्राह्यम्, तचाने कवियत्वात्प्रकृते दर्शनमोहनीयकमक्षयोपशमादिकमेवेत्याभिप्रायेणाऽऽह-पद्वति । तस्मात् क्षयोपशमादेः, तस्मिन् क्षयोपशमादी, एतत्सर्वस्यायधारणमित्यनेनान्वयः । ये भगवदुक्तयावजीवाधर्थाः सर्वनयविषयताव्यापकविषयताकप्रमाणगोचरत्यात एक सर्वे सत्या इति विज्ञानं प्रमात्मकमेवेति तादृशः विज्ञानविशेष्यकप्रामाण्यप्रकारकनिश्चय एवं यद् यथाभूतं वस्तु तत्तथैव प्रतिपत्तृणां मुमुक्षूणां श्रुतप्रमाणजन्येष्टसाधनत्वग्रहद्वारा भगवदुक्तसदनु४ानविषयिका या निष्कम्पप्रवृत्ति छेतुरित्याशयेनाह-पाठीपक्षे प्रत्ययस्येत्यादि । नन्वेवं तहि यस पुंस उक्तविज्ञानं संजातं, न च तथापि इदं विज्ञानं प्रमात्मकमिति प्रामाण्यप्रकारको निश्चयो जातस्तस्य निक-पप्रवृत्ति स्यादिति चेत्, भैवम् , पूर्वोक्त विज्ञानमत्रामाण्यज्ञानानास्कन्दितं सत्प्रवर्तकमित्याशयात् । यद्वा दृढस्यावादसंस्कारापन्नस्य पुंसोऽभ्यासादेव स्वत एव प्रामाण्यप्रकार कनिश्चयालिङ्गितभवोक्तविज्ञान सञ्जायत इति न कोऽपि दोष इति भावः। प्रशमलक्षणभाह-सुपरीक्षितप्रवक्त प्रवाच्येत्यादि सुपरीक्षितो यः प्रवक्ता प्रकण संशयविपर्ययानध्यवसायनिरासपूर्वकयथार्थभावेन वक्ता तेन प्रवाच्यं यत् प्रवचनं तत्तत्वाभिनिवेशात्प्रमाणावाधितत्वेनेदं प्रवचनत जमिस्थमेवेत्येवं निश्चयरूपादन्यवादिप्रकल्पिततत्वविषयकामिथ्याभिनिवेशादिदोषाणामुपशमा, यो बतत्व विहायात्मना तचं प्रतिपन्न सोऽनेन लिङ्गेन लक्ष्यते सम्पग्दर्शनवानिति । यद्वा दोषाणामुपश. मोऽनन्तानुवन्धिकायदोपाणामुपशम इत्यर्थः । उक्तलक्षणप्रशमलिङ्गेनाननानुमीयते-अयं जीवसम्प्रदर्शनवानीति । पक्षान्तरेण प्रशमलक्षणमाह-इन्द्रियार्थेत्यादि । संवेगलक्षणमाह Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ વાધિવાળાર્થિની િ દિવ ટી નિધિપત્યુલબહાણેચ્છા, અત્યામાવિવાર્થમયેા રિચય 7 આસ્તિ, તાવ આરિતાં તવેવ સત્ય નિશ નિને પ્રવેવિતમ્, રૂવે સ્વારસિ પરિણામ પતેવાં ચાર્ગમળ્યતિઃ સ્પષ્ટતા સા ક્ષvi સિદ્ધ થસ્થ તથા, પછાન્યતાનિ સમતાનિ ચસ્તાન પ્રતીમાનાત્ર મળે સર્જનમનુમાપયન્સત્ય / સ્પષ્ટતા વાત્ર વ્યમિનારવાર વિશેપળસાહિત્ય રહ્યા I તથા નૈનબવાનાનુલારિઝરામારીનાનેવ રિઝર્વનાશ્રયનાવિદિતપરમાર્થનાં મિથ્યાચાર્શવાસન નીતમાં વૈરાયવતાં મિથ્યાદીના પ્રામાયિર્ન મિનાર કૃતિ દાઝતા તથા નિલમેન્ટ કેળા चैतल्लक्षणागतेरनन्तानुबन्ध्यादिक्षयोपशमादिजनिता एव प्रशमादयो लिमयेन ग्राह्या इत्याचार्याः, तदुक्त સંસમિતિરિતિ-નિબવવનાનુણાળિો ના શીતાવિક્ષેત્રવેવનોર્થ કૂદ ખુરાદ્રિનિતિ જ પરસ્પરોવીરિત , તિલ મારારોપવાઘને વિધ, મનુ, દારિદ્રયમદ્ધિ, વેબ્લમ્બ્રિવિપાવપાત્વાઢિ સુદરવમવોતસ્તષ્ક્રાહતય તોપાયમૂર્ત ધર્મ વેતડમ્ય વિદ્યતે સમ્પર્સનામિત્યનુનીયત સંસારમયદ્ધિનેતિ નિર્વસ્ત્રક્ષામાવાનમિષ્ય હૃતિ–દો વ ન જેવાં કાળનાં દુરd મમો પામશ્વને કોપદ્રહ, !િ પરોવે sષ્યતિજના દિવાઘા, તનાવયોગનનેન નિ ન, ન્નતવ્ય વાષ્પતિ, વંવિધાનિસ્વૈછિનાગપિ ફ્યુતેડારિત સમ્પર્શનેમિતિ | અનુષ્પરિક્ષામા–નિરુપધિપરામરાતિ-વાતવત્સર્વત્રીપુ સુલાયો બિયાયિત્વદર્શનેના પક્ષપતિન પરવડાપરિહાચ્છા, પક્ષપાત તુ હા સ્વપુત્રાવ થાઘાવિનામ , સા જ દ્રવ્યો માવતથ મવતિ, દ્રવ્યતઃ સત્યાં શેવતો ફુવતિજોરે, માવત વાદ્રવયત્વેન, હરત-“હા પાળવé મને મવસાયરી તુરંત . વિશેસોળુ દુહ વિ સમરંથો બઘું છે ? ” તિ બનયાપિ ફ્યુતેડરત્યય લખ્યાશેનમિતિ . વાજ્યિકક્ષળમાહ-અત્યાત્માલ્યાના, શ્રદ્યતે તદ્દર્શનયુગામિતિને ધ્યમિવાર ટ્રાતિ-યં સભ્યનવાર સમસ્તકામવેનિદ્રાનુપાતિજ્યાખ્યાનુવાજો, તદન્યતરા થાનુપપત્યનુમાને પરમાર્થતત્ત્વામિપુ પરશાશ્વશ્રામનનનિદિધ્યાસત્યાજ્ઞાનમંતવૈરાગ્યશાહિમાદિપુ રાજ્ય વનવત્તામાવેગ પ્રશમહેતાસટ્ટાન બૂમવારવાવ, તાનિવૃત્ત ડહેત નબવવનાનુ સાહિત્યવિશેષણોધાવાનારાશિકામાવિહેતોમાઈશ્વમાવાન વ્યમિવાર તિ માવા નિસનદ જિાવ તહૃક્ષણાહિતિ-નિયસમ્પર્શનું પ્રવચનમનુઋત્ય યાર્દ પરતૈયાત, ન ચ તત્ પરંત, અન્યથી સંજ્ઞાવિ નધાત, તણાન્તરેખ માવાવ મવતીતિ તત્ર બવવનાનુસારત્રિામાક્ષિીપ્સષદનાખ્યાતિ પર્વ એશિવાળા સાપરાધે નિરપાવડર ૨ પરનું ધાનિ વિષયતૃષ્ણાત તમનસિ ર બરામાઘમનોરંક્ષણાદનાવ્યસિદ્ધ કૃતિ તવાણાયાઉં–શન તાનુવાલિયાપરામાજ્ઞિનિતા છવ મરામાવો સિT_ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તેવાઈવવાળવાર્થીપિકા : (૦ ફુટ ટેવ વિંશિયા-પરમાણુવામાવો, યુવા રો મે સાયા છે તો હું પણ પર્વ, મwા ત4િ-1 સંવેવાણ ત્તિ છે ” પ્રથમપાયોદ્રયામાવનાત્રાધમુપસમારિદ્ધિાને લઇ પ્રાદુબતીતિ પૂર્વપક્ષ અનન્તાનુવાદ્ધિવિપક્ષા વપરામાયtતક્રિાનિ, તુ વારિત્રપરિધાન નિતીપ્રવૃત્તિસ્થિિિદ્ધોપાનુમાવા મનુષ્પાનિર્વે વેકરામાં ઉતિ નુપરિરિતિ સિદ્ધાન્તાચય: " ન્વેવ સર્વદાર હત્યાજ્ઞાનાદ્ધિ વ્યાતિ , ના સુરાપ્રવૃત્તિમવાદ્, વ) ન ગ્રાહ્ય કૃતિ-ૉથા નિલસનસ્થ તરિ૦મૃતા પ્રશમાનનુવાન્વિપાયાલિયાપરામાવિવનિતા વિદ્યા પતિ ને પૂ.વ્યાસ શિવાળા વાગ્નતાનુવસિદૃશપાવાશસંશ્વનાથ યાત્રાધાવિયતૃષ્ણાસટ્ટાન તક્લયોપશમન્નતિપ્રામામાવેગડ નાનુવાધિપાયલયનનિતકશમાવીનાં કિમૃતાનાં તત્ર સટ્ટાવાન પૂર્વોત્તેિિરતિ સાવ ! સદ્ધર્મવિવિંશતિગ્રન્થયાતાયા પડ પાથાવાલાલિત્વમા-માબુદામાવો ફત્યાદ્ધિ વાઝિરપોઝનિતિ છોત્તાધિરસિદ્ધિयोगातु भावा इति इच्छा च प्रवृत्तिश्च स्थिरश्च सिद्धिश्वेच्छाप्रवृत्तिस्थिरसिद्धयः, ताथ પાછાત્રવૃત્તિસ્થિસિદ્ધિવાળા, કન્ધા માળ પર્વ પ્રત્યે વમતીતિ ન્યાયાપદ્રશ્ય કર્તવમોહિછાયો થવૃત્તિવો સ્થિરદ્ધિમા ફત્ય છે ધાનાદિયાવરત્વમેવપાવાગ્ધચ્છાધિપાઃ પરિશુદ્ધવારિત્રવત મુવ નિયમન મવતિ વિશુદ્ધવારિત્રસ્ય તાન પ્રાતિ વાળવાપાં વિશેષણમાઈ-વારિત્રપરિપાનનતિતિ / વારિત્રસ્ય પરિપાઈ વિશુદ્ધિર્તન વનિતા જ રૂછાબવૃત્તિચિરસિદ્ધિ વારિત્રપરિપાલનાનિતેચ્છાશવૃત્તિસ્થિર સિદ્ધિયો, તેમાં યથારમનનુ ઘાટ્ટાવા નુમાવો વાર્થસૂતા મવાલ, તામૃતાત ફૂલેલીયામાહ-નુત્પનિર્વવારામાં રૂતિ ા યદ્યપિ સંખ્યક્રવતે વાર્યતા સિમૃતા પ્રવને પ્રસિદ્ધ તથાપિ વોમાનુમાવસિદ્ધાનાં વિરિાછાનામતપામનુષ્પાવરનામહેચ્છાવિત્વમમિધીયમાન ન વિધ્યતે, નનુ વિજય સદર્શનવ પ્રશમાહિત્રિજ્યાખ્યાત્મપરિણામહપનાખ્યારિવર્તિનાંતન્દ્રિયતવા પુળ જ્ઞાતુમશક્યત્યાન સાં સાથ યાહયગ્રહાદું વ્યાખ્યત્યાસવિવાહત્યારાતે નવેમરાત્રિના 1 નિધિ હેતુનાહ કુશવપ્રવૃત્તિમાંવવિતિ-નિને #નવસનિષ્ઠ નસતતસોપયોગ વિધિપ્રવૃત્તિમાવાહિત્યથી નજૂનુત્તરવાસિહેવાનાં પ્રવાહીનાં ૧ ફેશબાજો મશ¢ન તત્ર રહેતુના નવ રામાવિહેતુ રસ્તાવિત્યારાફ્રીયામાહ. વઘુમાનાવિતિનિનોજીયાં વિના નૈવ મોલાસિરિતિ તો તુંમોપિ નિવ જી શti વારિત્રોનીથયાત રામાન્ચાત્યઘટ્ટમ્, તે ધન્યા રે સા નિર્માલયા નિરવઘરાનાને ફર્વ યે નિનોજીયાવિયતવિષયવન્તરીતિક્ષાવદુમાનબસાઢિમાવાદિત્ય | વધિ પ્રવૃત્તિમાહિતિ પાઠાવા વ૬માના ઉલ્યસ્ત તદ્ધિસેવણી થ િ સમજુત્તિમ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તરવાવિવાહાતીપિt I f૦ ૦ દીવ વૃદુમનાહિતા ( ત ના ) તબહંમેવાતુ -..ચથી પ્રામાયો-નિશ્ચયસભાવાવ શિપ, સામુહિતાનાં તેમાં તદ્દનુમાવત્યાગ ારણાનુમાનજ્ય વિપક્ષવાધતલદાળ વવાત; તેવાદુ ળ છમ્મ વા–હિતિનું સુત્તમવિનિકળવં તુવંવિહો ગોગો, હો હો હંત વ—ત્તિ ” તથા નાસ્તિયમેવ સર્વત્રાળ્યમિરતમનૌપાધિસદુપદેગાપિરિણામન સુદં (શુમં શુદ્ધ) દ્વિતિયુર્જ પરયાકાગથે સ્ત્રક્ષણશાસ્ત્ર, તત્ત્વ જિંરક્ષણમિતિ,તુ, ગણાધારણમવવનવીમતિ વેહવા, અસાધારણત્વ જ ૪ક્યતાવજીંજવ્યાપ સતિરુતાવશ્વેતવ્યાખ્યત્વ, પ્રત્યક્ષપ્રમાણર્વ પ્રમાણધર્મ હત્યાદ્રિવાયાતિ વઘુમાના દર પાસ્તા શબવૃત્ત -લત્યાં મવ પદ્યમાનો થો વદુકાન શાહરથનું પ્રશંસાવ માહિત્યર્થ શwવૃત્તિ વવદુમાનાદ્રિનેતિ પાકે તું તયારોsઃ ર્તિ તિ . શત્ર પુરાવૃત્તિ વવદુમાનાદ્વિતઃ કુરબારેમવદુમાનાહિત્યનો પોર્નાર્થ ચિષિ સન્મવાન્ત સડપિ પાઠસ્તિથાત્ર ધામો ગ્રાહ્ય સુધીમરિતિ . તેષાંશમાહીનામ્ તવનું માવત્થાત્ સમ્પર્શનાર્યવાત વિપક્ષવાવતવતદારનેતિ-વિપક્ષે સર્વનહલાસાધ્યયામાવવત્યવુિ કામાદ્રિતીર્થત્સર તવાસ્તવિવો થાય ારણીમૂત સમ્પર્શ ન સ્ટાર તાર્યમૂતા શમાવ્યોગ ર , ન દિ વારણમાળ વાર્થ વિનુમતિ, તથા સતિ વર્ષ નિત્યત્વમાં રમવાનું વા વાહિયારો વક્તસ્તત્સહાળ તવર્ણ યદ્રા મિશ્રેિપુરુષે પ્રામાવિહેતુરન્તુ સામર્શનક્ષપાતાળું માસિવ યાદ્રપ દેતો સર્વ તવા થી સમ્પન્દર્શનમસ્તે પ્રશાયરવુ તન્યા પર્વ તે જ સ્વરિત્યારો યસ્તતત્સહારે તત્વનેત્વર્થ ! સદ્ધવસ્થિપછીવિશિવતતસરથા માયા લાલિત્વમાંદ-છિયસમ્માં વા ટિરિવાહિ ફર્વ કક્ષરબ્રાનિતિ-હું તરંવાર્યશ્રદ્ધાનું સમ્પર્શન...” તિ સૂત્ર, સપના શાસનામિયા તથ-લારાલક્ષ્ય. પિતૃ ધર્મ તિ વાર્ય થથા ન પોર્ટલણવાક્ય વાત્મવાદ્યવાશે રવા તાત્વેિનાથી તથા ૫ક્ષમાવાળવું પ્રમાણય તિ વાક્યમાં પ્રમાળલળવાય, ફ્લીમૂત માળવોડનુમિતિવાળવાવવૃત્યેિન તાન્યાસિદ્ધાગ્રસ્તત્વાદ્રિતિ પ્રમાણધર્મક્ષળવાક્યક્ષળગફ્ટ પ્રાણપ્રમાવા માગધ તિ વાળે સૂક્ષ્મતાવર્ષોલીમૂત મણિત્વચામાવતિ ને પ્રત્યક્ષત્રમાવાળā વર્તત કૃતિ તી તયાથર્વત્તિત્વતિપાઠવવસન્વેનશ્યતાવચ્છેદ્રવ્યાખ્યધર્મવરनत्वस्वरूपलक्षणवाक्यलक्षणस्य गमनादतिव्याप्तिस्तनिवारणाय सत्यन्तम् , . तदभिधाने च ક્યતાઓમાંગવાનુમતિબાહી વર્તતે, જ તત્ર પ્રત્યક્ષ માહરણત્વમસ્તીતિ તય દયાપરામાવાન તત્વતિપાવવા પ્રમાણેક્ષણવાજ્યકક્ષાતિવ્યસરિત્સાશનાં અન્યક્ષમાળખુર્વ પ્રદાનધર્મ પ્રત્યાવતિ | વુિં વર્ષ કૃતિ વાક્ય, નોન ક્ષણવાછક્યતા વચ્ચે વામાવતિ દિપાવલિતવ સરવેનતવાદ્યવૃત્તિનાતિવ્યાતિ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ૬૦૦ : સરવાઈ ઢાકીપિ વિ ૧૦ ટી વ્યાધિારણા સચન્ત, પવારવં પ્રમાળધર્મ વિાતિવ્યવાણાવ્યાપ્યા, ધર્મપર વેન સત્યેન જાળતા તેના વારિો માર્ચ,તેને સ્મવિશ્વન્કેન ધન્ધાવ્યàત્તાને ધક્ષીત્વના થતુ વ્યતિરધિત્વમસાધારણત્વપિતિ વિર્ષનાઘુ તલત પ્રમેયક્ષને પ્રમાવિયત્વે વાવાળંરેક્યાખે. ન પ્રમાકરળત્વહિપાડલાવાળવને દેશપરીક્ષાવાવતિચારિ ! તદ્ધમવિચ્છિન્નરયતાશ્વતર્મસમવ્યાધવચ્છિન્નવિધેયતાધાન વન તત્ર તર્યો હ#ગવામિત્ર તાત્પર્ધાત્ ! ત વ પૃથિવીવેન ધરમુદિર ડુબવાહિમત થવીતિ કયો ? રક્ષયાસ્તત્વમતિ મૌરીતિસ્તા ૧ યુન્ ! પ્રાિ મો ક્ષત્યિાવિક્ષેડાપ્ત ન બત્ર પૃથિવીમદર માન્યો વિધીવતે, વિનુ ધદિર પૃથવીરક્ષીત્વમિતિ / તસ્માનાય પન્યા - વુિ તત્ર તર્મય રક્ષણન પ્રતિષવિ વવને તત્ર તર્થક્ષણશાસ્ત્રમિતિ ધ્યાલ્યાને ચુ, સફળ તમે વ્યાખ્યત્વે વા સતાવજીંસમાપર્વ વેત્ય તત્વ, તલ્લોથ ઢળાપોપલનાને પ્રાર પિત્તતથા તતિપાલાવાસ્ય લક્ષણક્યત્વાસ મેવાવ, તાધા પવાર્યત્વે પ્રમાણધર્મ ફતિ વાપિ ન માળવાર્ય, તર્ક સૂક્ષ્મતાંવઝેમૂિતબંગાળ–ામાવવટપટાદ્રિવૃત્તિ- - નાતિવાતચ પાવર ઘમાક્ષણનાત્મક પ્રતિપદવેન પ્રમાણસળવાયત્વક સમાવિષે તરિમર વાક્ય સ્વસ્થતાવજીંદામાણવ્યાપારાવધર્મપ્રતિપાવાવ વનત્વમાનીત પ્રમાણ૦ળક્યહૃક્ષણાતિવાણિયાનિવૃત્ત વ્યાખ્યામાહ-પથાર્થત્વ પ્રમ વર્ક વીનિ શતધારવાનવવિલાધર્મપક્રમાદધર્મપત્યાધિ ! ન ધટાબમિનિ-સમવાયસન્વજોન દ્રવ્યત્વ ધટત્વવ્યાખ્યત્વોમાવાહિતિ માવા અત્ર ધરાવસ્ય પૃથિવીવલ્ય ૨ સમવાયેન દ્રવ્યત્વવ્યાખ્યત્વવજિલન્વેન્થન દ્રવ્યત્વવ્યાપી તર્ દ્રવ્ય, સમવાયસન્ડ્રન દ્રવ્યત્વથાપવાવાહિત્યવિ શેયમવ્યતિવિધત્વમિતિ ફતા મેવાનુમાપથર્મવમિર્થ ! વ્યારિતિ પ્રમાવિયત્વચ જેવા–યિત્વેની તંત્ર લક્ષ્ય સ્વૈતરાસિયાતભેદ્રસ્યાખ્યપ્રસિદ્ધત્વેન તદનુમાપત્યકલાવ્યતિધર્મ વાસતતિ માવા ! નનું પ્રમાણમિલ્યુશવનમાં પ્રમાણિદિાયે રક્ષણશાલ , સ્પતિ, માનવ ઝાળવવસ્થતાવ છેવામાનિતર્યત્વેન તત્વતિપાત્વચ તત્ર * માવાન, પુર્વ પ્રમાણપરીક્ષાવાક્યમ પ્રમાણપતમિતિ તન્નાબુદ્દેિશોનાક્ષામનાતિ તયોતિક્ષિરિત્યાક્ય પ્રતિપતિ-ન તિ વિત્યયાતિવ્યાસરિત્યનેનાથી તત્ર હેતુમાહાદૂર્માવાિવિા શ્રત વોતિ પદ્ધમસ્જિોયતાત્યાઘ સાધારાધમેવવનવીમતિ સૂક્ષણવાક્યક્ષાયે તાત્પર્યાવે ત્યા ક્ષણશાસ્ત્રમિતિવવુગ્રીવાહિમવર્ય પૃથવીત્વવ્યાખ્યત્વેગ તદ્દચાપવામાન તામવાપધૉત્રામાવાપ્રય વીતવાચ્છોશ્યતાકાષ્ઠાવીત્વસમવ્યાપકર્ધવસિંવિધેયતાશાવલનનત્વમાાતિ માવા 1 તોપતિ હળવીત્યા ફળાદિપ પસકોને Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સત્તાવિદ્યાર્થીપિાં ૪૦ સૂ૦ ટ ૧૦૨ તથા ન્યત્ર જ રુક્ષણશાસ્ત્રબ્યુત્પત્તિવિરોષમહિમ્ના સંતતિ જ શ્ચિદ્દોષ મત મુવ થવી અધવતી, મધુવાવબજારમાવિશેષ્યત્વા, લ્યોતિન્યાયવાચૈરાગતિનાયામરક્ષણાયાં નાતિવ્યારિરિત્યક્ષપરિતિઃ પત્થા રા. તહેવં હિતસ્ય સભ્યર્શન હેdદ્વારા મેનિઝાલાચામાદ સૂત્રમ્ તન્નિધિમાદ્રા છે મારૂ તછન્દ્રોહિતપૂર્વારૂપરામ સર માનગત્યવિષયઃ સચીનમવેત્યાહ માવ્યા (મા) તતત્તર દ્વિવિધ મવતિ | નિવસનધામતવરણ નિરવધિમાક્રોવર તિ હેતુ દ્વિવિધમ્ | નિત પરિણામ રવમાવઃ બપોપલેસ સત્યાર્થીના મૂ! શાનીનોવોસ્ટક્ષની નીવ પતિ વય, તારા રે પરિભ્રમણ ર્મા પર્વ : વતસ્ય વઘનિજાવન વયનિર્મરાવે નાવતિથોનિમનુથમામવાળેવિવિઘ પુથપાપરુમઝુમવતો જ્ઞાનવરોનોપોલવામાવ્યાત તાનિ તાનિ પરિણીમાધ્યવસાવધારાના મચ્છતોડનાયિમિધ્યદવિ રતઃ ઉરિણામવિરોઘાવપૂર્વવાર તાદરમવતિ નાસ્યાનુવરાજ્યર્શન ગુપત વધેસલિતતાનમ છે અમિત શાનિરમા મામો નિમિ અવ ફિક્ષા કપરા પ્રત્યાર્થીન્દરમ્ પરોપવેરાદ્યત્તરાર્ધશ્રદ્ધાને મવતિ તવષમ વનમિતિ | (યશો. દી) વર્તાત્યાતિ. નિલ કુતુષારહતત્વમાવા, શનિમાન્ મુવલુપાદ્રોપઘત દતિ દેતોહિં હેતુરં દ્વિવિઘં હેતુમેહમયુthયતિયો ત્ય, પ્રજાપતિ-ધિવ્યા અો રક્ષણામિયા અન્વેદિય કક્ષાત્વવિઘાનાવાયત્વેસા પાવાચ્છનથિવીવચ્છિન્નબજારતાનિષિત વૈવા િવિશેષ્યવામિત્રવિષ્યનિધિતક્ષાત્વનિષ્ઠાતા નિહાળવાધાત્ર પ્રારતથી | કન્યત્ર વ ક્ષાત્રવ્યુત્પત્તિવિરોષનદિના સંતતિ ન શ્ચિદ્દોષ રૂતિ કલ્પવતી પૃથિવીત્યત્ર વરિરુક્યતા વચ્છેદ્રવસમાનિયતધર્મવત્તાવાજ્યસમ્બન્ધન અન્ધવત પ્રવરત્વ, રથવા બન્યવતwવાળ્યસમ્પન્વેન બારત્વે ધર્મપાતળ બન્યાય પૃથિવ્યાં કારત્વ, તત્ર તદ્ધર્મવિધિ માલબાન સાત્રાગ માલત તિ ન્યાયાવૃથિવીવેડો સામનત્યસવજોન મન્વય માનનિતિ માવા નાંતિવાસિરિતિ-કૃથિવી જળ્યવતીતિ તિજ્ઞામાં બન્ધવાવણ્ય કક્ષાત્વેર પ્રતિપાલનામાવતિ માવો | રૂતિ દ્વિતીયસૂત્રવૃત્તિન્નપૂર્ણા છે! અથ તૃતીયબ્રજ્ઞાવતાળામાહાદેવં ક્ષિતન્યાવિના દિડુમિતિ હત્પત્ત તુ મે તૌ હેતુ થય તદ્ધિહેતુત્ય | યથાવુરત્વેન પવારશાજ્યફૂયોરપિ વોત્તી ચર્ચાહકારણમેવાદેવ એવા શાપર્યમેસ્તયાઝ નિસર્શનાધિમાસાનોવ્યવૃત્તSિsમપરિણામહાવિ વોત્પત્તિ હૈ નિધિમારામે તીનવ નિયસમ્પર્શનાધિામરખ્યાનકાર્યમેવદ્રય તત્વતિય સમ્પર્શનિવાહ હેતુનેવધુ બેવદ્રયમનિયોની Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ કરે છે તે પાવરહાર્થીપિકા સુવ સૂરી તેન= શિવામિન્વેત્યાવિ મેરાડવરફ્યુમાખવા સૂવર્ય પૃથળે નિર્વીનત્વ હેતુમેમધુમેગિજ્ઞાસાયા પતસૂત્રકૃચરણવીનર્ચ નારાકાવાવ | ગત વોપાત રંતિ નિયાત્રા પૂરળીયા , હેતુમેરાધાન્યવૃદ્ધાપરે સત્ર સૂત્રો વારસન્નતૃષામિબિન્યાના વૈપર્શી જાણતાં સૂવયતિ : તેન નિલનનું સન્માનમન્ય, ધામનન્ય જાન્યરિંતિ મ્યતા મૈથન તહિં ક્રિશ્ચિંદ્રિવં ચા ધૂમાજોમયપરામરીનન્યાનુમતિવંત, અન્યથા પ્રત્યેનન્યતાવનાત્યોત્ર. સાપાતાવિત્યાચિતિ નેતિ-જાળમેઘયુમેતવૈવ કવિયતયા તુમેવશ્વાર્યમેવચ્ચેના બોતિષવિધતામછત્યર્થ. હેતુમેરાયુસ્તાખ્યનમેવનિજ્ઞાનિવૃયર્થવ “ નિસર ધિરામા” તિ સર્વ પ્રમતા હેતુમધુસખ્યનમેદ્ર દવ મુક્યો ? તુ તમેસ્તથા તુમેરા સુયતવૈતન્નાવું તેવા મેત, યાતે “સર્વ ક્ષિતર્ય સિમ્પર્શનસ્ય હેતુમેનિન્નાલાવામાત્યવતરશિયાલવાવતાવિત સ્થાતું મુંહ્યું તુમેવાર્થોપવાના વિધિમાકાલ્પત રૂવકૃતિ તિબિયાયાહતા સમષ્યિવદ્યાવિશેષમાર્યવ જ્ઞાર્થ વરણીય સ્થા, પવત તિ, વિધ્યાહારમાર નિયમો પ્રીમિયuપદ્રપતિપાઘમાળ તે પ્રતિ વરણવાબમાસન્મવાન્ શાયત દ્યાવિકિપાસમખ્યાતશ્ચિમ વિમજ્યોતિ સ્વર્યજ્ઞાનાન્યજ્ઞાનવિયત્વાઘચવો સ્થાપિ સન્મવાત, વૈવમવતરિત સૂત્ર, જિતુ તવ ક્ષતસ્ય સમ્પનિય દ્વારા મેનિન્નાલયામાહત્યમેવાગ્રતાત્તિનું તતો હેતમે છુtવવિજ્ઞાસાવૃજ્યર્થ પ્રવૃત્તસ્ય. સર્વ નિજ્ઞાસિતંતુમધ્યયુમેવાણુથાર્થcવાસ્યોત્પર રતિ બ્રિાધ્યાહારમાળવોઉપૉરિયાધાદારયાનાવરયજવાન હેતુમેવાધાન્યવૃદ્ધિ, હિંમેવ વિષષાવહેતું ત્યોપાત્ત જ મળે નિસર્યાવધિમાકોત્વઘત રૂત્યુતિ, ન તુ વતન્યા હેતુમે પ્રતિપાદ્યત ત્યાનાહબત gવોપયત ફાતિ વિયાગ્ન ન પૂરપતિ-થત ઘય હેતુવાજીમેવૈવે નિજ્ઞાસિતત્વવેવ ! હNઘત ફતિ ત્રિયાપૂરળે તોપમા-દેતુઓ ધાન્યથાઉત્તેરિતિ નામિબિન્યાયેતિ-વાળમળીનધિત્ય પ્રવૃત્ત ન્યાય સર gવનાશન મશિત્વેન વહ્નિાવચ્છિન્નષ્પતિ વારત્વે કામાવેગપિ તન્યમાત્રાડપિ વન્યુત્પત્તેિજોતિ જમવારે નtહળ રળવું, પિ વિધિવિનાયકમ્યુપામ્ય વિનાતી વOાવાછિન્નમ્રતિ કુળવેન વિજ્ઞાતીયવઢિવાવચ્છિનખત્યરત્વેને મળત્વેન પર નિરપેક્ષેપ કર્યધર્મપુરા મરણત્વાગિયે વૈપિવરાત્વસાધજયુક્ટ્રિકક્ષનો નેત્યે કન્યાવિતિ-વિજ્ઞાતીયમિત્યથી સમ્પર્શનાણાતિશાહીતિ યાવત, ધૂમાવો મયપરામરકન્યાનુમિતિવાહિતિ વદિશામવાન્વત લેન પામશે વદિવ્યાવાહોવાનું પર્વત ત્યપર પરામર્શ તમારા મનન્યાં યા_વન્યનુમિતિ દ્વહિત્ય ' અંજતિ- નિધિનયનન્ય સભ્ય વર્શન મિન્નાઈ સાપાતા ' વિતિ- વરાયતોમાસિમનધેિરાયોજધિરાવૃત્તિત્વ સાથે, તથા માન્ય Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તત્ત્વાર્થનિવમૂતાથીપિt * T॰ ૬૦૦ : ૨૦૨::, રા શનિનૃત્યશ્ર્ચમલમાસરળમ્ । અન્યથા નિસર્યાધિનાવિતિ સમાહારદ્વન્દેન ટ્યુબમમેવ ોાધવપ્રિયસ્ચાત્' સૂત્રજારાામ્, તથા ૧ દૃળામિનળીનાં વહાઁ યથા શક્ત્તિમત્ત્વન હેતુત્વ તથા ગ્દર્શને નિસાસÁર્શનવામાંવસમાંના ધરણાંધિામસવÁનર્ત્ય, નિસ$સદ્ધીનધિકામસભ્યદર્શનમાવતમાન બિગ નિયંસભ્યપદર્શનā, તોય નિર્માધિમોમયજ્ઞન્યસમ્યગ્દર્શને સામાનાષિમિત્યેવ સાયંસ ના તવાયસ્ય સદ્ભાવેન નિસઐસભ્ય-નવાધિાનસભ્ય નર્શનયોર્નાતિત્વ ના વિત્યર્થઃ અન્વયેતિ-નિસર્યાધિયોમયજ્ઞન્યમેળં સભ્યસ્ટેશને યવન્ધુધાત સ્વાત્તવેત્વર્થ | છધુપ્રીમમેવ શર્યાતિ-નિમેષામંત્ર નિસા લિંગમાં અનયોામાહારો નિર્માધિમં તસ્માતિસ્યેયં સમાધ્વિન્કે તે સભ્ય‹ર્શનત્વાર્થાન્જી નૈઋાયતાનિ પિતષ્ઠારતાયા નિધિ કોમસ્મિન્ સિદ્ધહ્માપુત્રમેવ જીર્યાવિતિ માવઃ । તંત્ર હેતુમાĒ-હાધવપ્રિયષાત્ સૂત્રરાળીમાંત । યચા તત્રિયાળાં વન્યનુōશ વિતમત્ત્વનું જાળાંમતિ નાનુમતે હવ્વા ઇન્નાયેમ્બાંત તૃષાત્ત્વાતિતત્તભ્રત્યે ધાંચ્છિન્નબારા/પક્ષીયંતિને મારવો, ઍમિથલાવવયાડ છેવીસ્તૃતતૃળાવવōનતૃષ્ણઅન્યચાત્તાપાં વૃદ્ઘિ, અમિષ વિધયાત્રા જાગૃતાળિવિચ્છિન્નારાષજ્ઞન્યાવાળયો વાંહત્યિારે દેશ, ચેન જો હન્યતે તેના તપવેશ ાંત ક્ષેતોઃ । તથા સભ્યદર્શનાનુનવિતમત્ત્વન નિસ ધિામયો ારાવું, તન્નાઽમન્યજ્ઞવિયાય જીવામૃતનિયોદ્યાનચ્છિાનેસમૅનન્યથાઐતિહીનાંમતિ, અમિન્યજ્ઞવિધયાગ્વન્ટેઝીમૃધિ મા વાઇનાધિામઽન્યવાના ધામિસ ંશેનાંમતિ હૈં ચંદ્રેશ ન્યાયેનાહ-તથા ષ તળા R પ્રેમળ નામિવિ । નનુ પૂર્વ નિસર્યાધિમાંવાલ્પી જારળતોલતા, સ્વાના તયારેધર્માવઋતું પ્રત્યે અનેા ારાતોબ્બત ાંત પૂર્વાયબ્રન્થસન્તમવરોધ તિ શ્વેત, ન, વયનેતા શ્રમિઇત્યાનો નૈયાયિમીમાંસાદ્વિમિશ્ર વાપરી ારખતા ત્રીદિાયનું વરાણાયોઃ વાવનાાવશેષાવાઇન વિશેષન્ત્રત્યમ્યુયતે, તત્ર તૈયા વિઘ્નતે સ્વવિશેષનિષ્ઠાયત ધચ્છિા, રિતા તુ દિરાજ્યાનિા ત્રીદિના જ્યામચાવચ્છિનેળા, વરાજ્યાનિંદા ચવરાજ્યાત્યાયજીભાયા, વૈપિજાવ્યા . Üમાવસ્થળે રાર્ત્યગ્રામન્વયમાત્રને, અન્યમાત્રાવેવ તત્ર બાર તાયહોમવ્રતીતિ નિયમઃ, ધમિત્રાબમાળાવવ્યવસ્મયીનાં જ્ઞાનતિવિષ્ણુણાતિ બાપાન્નામ્બુરાનાત્, તથા આ તભયાયેળ પૂર્વ વૈષ્પિો દ્વારળતોા ટૉળાતા, નન્યેય ચવાળા યાતિસ્થળવર્તુળરાળમળીનાં વાંહે ધવિચ્છિન્નમ્બ્રાત શામઘેનું જારખવયાડવયમાત્રામ્યસ સમ્મવન હાથૅનાત્મત્રયન્ય જાયતાવછે તયાŚમ્યુલામોનુંવિત તિ ચૈત, ન, વાહ પ્રદ્રીય પ્રાસાદરાવાળોના મતે તથા વાાનાંનનઢિન્ડ્રોપિ તૃષ્ણાષ્ઠા વેશમવોડનેહ; નતરાં ધ ારીવ ફર્યાવિતસ્તુતિનન્ય હિતહિત્યાયાન્તરવેગાત્યાના પ્રત્યક્ષાસ તવ્યાજી રાયતાનિ વિભાગ વવવ્યતિરેક્ષ્ય સવેર વાળ્વયં : Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સવાથવિધીવાર્થીપિ ! ફુટ g૦ ૦ નિધિમયઃ સખ્યાનેડપતિ વો પરામીડીપ વીવહિતોત્તરત્વે શતાવચ્છેદ્રોટો વે, ન તૂમપરામાન્યતાવવો નાતિઃ ચા, તરવરિયાવરામ પ્રત્યેનન્યતાવછેરુનાવચ્છિન્નોત્પજ્યાપક, તતપરામર્શાવમાંવહેતુત્વપને જ મારવાચિન્યત્ર વિ બત્રાદિ નિધિમય વ્યવહિતોત્તરાખ્યર્શનë પૃથતાંવમતિપુનાગામપિ ન હો, માત્રય બ્રાહત્વે વવત્તરાગામાને ઘમંછાર્યત્વાનુવામાહિત્યનો વૈનાત્યવયર ફાર્યતાવાયામસ્ય સામન્ના, શરણે જાર્યાનુરાજ્યમ્યુમિમાં સાતે તુ વૈલ્પિકારણતાને નવવચ્છિન્ના સ્વવિશે નિષ્ઠા શાતા તથા વિવરણયાત્રહિજાબાવા વાર્યાનુâશનિવસમવારંવચ્છિનાં રળતાપ તમયના સન્મવતિ તત્ર થયા વાયતૈધર્માજૈિવ, વાળતા વાદ્વયનિવ ત૬મયાનુગતરામ વાવચ્છિન્ના, તથા પાર્થિવ શક્તિમન્નાવચ્છિને શારગત, હત શરૂપવામ્યુવનો પસ્થ મીમાંસલામતમેવ ન્યાય ઉત્થરરત્ય વૈજ્યિારબતાવાવ નિલSધામાતિયાવામિ ધર્માસ્કિનનૈત્વમસ્યુપજીતીતિ = સન્દર્યવિધિ વસ્ત્ર શક્તિમાન ધારણપણે સર્જિકતાં ચાવતાં. ર્યાનિથત વર્જિત્વે નાવરા, જિ તન્મયાત્ યસ્ય સ્થિતિ , ન વ્યતિરેગ્યામ, શનિવેન વાળવામ્યુપામો, તથા ૨ વાગવત્રીહિરળયામાયશક્તિનતો ન્યતરજ્ય સર વિશેષત્નાવચ્છિન્નોત્પત્તિ થી નિધિમોરાત્તિનતન્યતાત્ય સરવે સ નવાવચ્છિન્નોત્પત્તિ, શમતો નિલ યહુદ્યત તલસિમ્પર્શન, થા શરિતોધિ માધુત્વઘતે તાધિમમિક્રસમ્પર્શનાભિતિ વાર્દૂિત કૃતિ વેધ્ય મયપરામનન્યાનુમિતિવાતિ યદુત્ત ત િન યુક્ત, જો વિધયો પરામર્શયોાિનુમિતિતિ શાળ પૃમહિલપરામર્શમાવેષાદ્ધિકરણરામનુમિત્યુત્વેન્થતિરેન્થમવારસાહિતિ નિવૃત્ત મણિરામર્શાવ્યવહારના માનવજૂનુમિતિં તિ ઘૂમપરામર્શન પવનારૂપરામર્શાવ્યવહિતોત્તરના માનવન્યનુર્તિત કાઢોષરામન રળત્વ પાખ્યાત્મિહ-પરામરત્યાહા જ્ઞાત્તિવાળાપરામર્શનન્યાનુમિતિષ્પતિ તહેવપરામર્શમા રળમ્યુપાશ્વત ફયુમપરામશસ્થિ ને પ્રત્યે પરામર્શનન્યાનુમિતિક તિ વધુનાયાં નહિ-તરેહા નિસબૅહિતોત્તરના માનસશ્વદર્શનવાવચ્છિનખેતિ નિયત્વેનાધામાન્ય વહિતોત્તરનાયમાનસનવાવચ્છિન્ન પ્રત્યાધિમમત્વેન જ મળત્વામતિ પુનાવા ન દો, “નાવશા નાવાયા, તાવરૂયા વેવ વાળવાયાં નાવા વાળવાયા, તાવડુશા વેવ નાવાયાં છે !” રૂત્યુનેયવાહાનામવિધાહિત્યાહ-ભૂત્રપિ સિધિામરાતિ ! તસ્વ-નિલય ! સ્યાદ્વાદ્રસિદ્ધ બનાવ વિવાહ પરિવાર, 7 દ્વારા સર્વથા સ્ફિય, જ વા Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तरवार्थविवरणगूढार्थदीविका । त० सू० टी० विचित्रत्वान्नयवादानामित्यवधेयम् । कोऽसौ निसर्ग इत्याकाक्षायामाह निसर्गः परिणाम इत्यादि । निसृज्यते त्यज्यते कार्यनिवृत्तौ सत्यामिति निसर्गः परिणामः । उत्पन्ने सम्यग्दर्शनेऽनिवृत्तिकरणानतस्य स्वत एवोपरतिलक्षणस्य त्यागस्यावर्जनीयत्वात्, न चायमत्यन्तं त्यागः, अनिवृत्तिकरणपरिणतस्यैवात्मनोऽनन्तरं सम्यग्दर्शनपरिणतेरभ्युपगमात्, उफणविफणप्रसारिताकुण्डलितमुजावदुस्थितासीनशयितपुरुषवद कुरितकिशलयितपत्रितपुष्पितफलिततस्पद्वा, अवस्थामेदेऽपि तद्वतोऽभेदात् । तकिमनिवृत्तिकरणपरिणामः सम्यग्दर्शनस्योपादानकारणं तत्परिणतमात्मद्रव्यं वेति चेत्, पर्यायद्रव्यनयभेदेनोभयमिति गृहाण । आधनये यवसात्मिका यदुत्पत्तिस्ततस्योपादान कारणम् । द्वितीयनये च यद्रूपावच्छिन्नयध्वंसात्मिका पपावच्छिन्नयदुत्पतिस्तद्रूपावच्छिन्नं तत्तद्रूपावच्छिन्नतदुपाचानकारणमिति विवेकः । सजेः परिणामेऽप्रतीतत्वादाह स्वभान इति । परिणामो द्विधा दृष्टः, प्रयोगेण घटादीनाम्, स्थानाशे तद्वतोऽपि सर्वथा विनाशः, अवस्थातहतोः कथञ्चिझेदाभ्युपगमात्, अन्यथोत्पादव्ययौपयुक्त सदिति सल्लक्षणस्यैवाऽनुपपत्तिस्स्यात्, परिणामबादाभ्युपगमे च पूर्वावस्थारूपेण विनाश उत्तरावस्थारूपेणोत्पत्तिः, पूर्वाप रावस्थानुगामिरूपेण धौव्यमिति त्रिलक्षणोपपत्तिस्यादेव, तदेव सध्यान्तत्रयमुपपादयितुमाह-न चेत्यादिना । न चेत्यस त्याग इत्यनेनान्वयः। तत्र हेतुमाह-अनिवृत्तिकरणेत्यादि । परिणामवादे दृष्टान्तत्रयमाह-उत्पणाविकणेत्यादिना। तत्परिणतभिति-अनिवृत्तिकरणपरिणामेन परिणतमित्यर्थः, आचनये यद्ध्वंसात्मिका यदुत्पत्तिस्तत्तस्थोपादानकारणमिति-पर्यायनयेऽनिवृत्तिकरणपरिणामपर्यायध्यसात्मिका सम्यग्दर्शनोत्पत्तिरिति सपर्यायस्तस्य सम्यग्दर्शनस्योपादानकारणमित्यर्थः। ननु ध्वंसस्थामावरूपत्वेनाऽतिरिक्तत्वान्न तदात्मिका तदुत्पत्तिः किन्तु तेनोत्पत्तिः, यथा पटविनाशेन कपालिकोत्पत्तिरिति यध्वंसात्मिका यदुत्पत्तिरित्युक्त कथं सङ्गच्छत इति चेत् , मैवम् , पर्यायनये हि ध्वंसो नातिरिक्ताभावात्मका, तस्याऽर्थक्रियाकारित्याभावेन तुच्छरूपत्वात् , न हि वविनाशे तत्तत्कपालिका मुक्त्वाऽन्यदुपलभ्यत इत्यनुपलक्ष्यमानत्वाच, किन्तूतपर्यायात्मक एवेति नोक्तदोपः । द्वितीयनये च यद्रूपावच्छिन्नधध्वंसात्मिकेल्यादि-द्रव्यनये चाऽनिवृत्तिकरणपरिणामरूपेण पूर्व परिणत आत्मा सम्यग्दर्शनरूपेणोत्तरकालं परिणमत इत्येवं परिणाम्यात्माऽनिवृत्तिकर परिणामेन विनम्योत्तरकालं सम्यग्दर्शनरूपणोत्पद्यते, तथा चाऽनिवृत्तिकरणपरिणामावच्छिन्नात्मध्वंसात्मिका सम्यग्दर्शनावच्छिन्नात्मोत्पत्तिरित्यनिवृत्तिकरणपरिणामावच्छिन्नात्मद्रव्यं सम्यदर्शनाच्छिन्नात्मन उपादानकारणमित्यर्थः । स्वावच्छिन्नोत्पत्तिकावसબ્રિન્દાવચ્છિન્નાર્યતાનિષિતસ્યાવાચ્છનબંસસિમ્બન્ધાવસરળતાશાશ્વત્વશુપાવાનારत्यमिति भावः । न्यायनिष्णातास्तु यत्र द्रव्यं यद् द्रव्यं समवायनोत्पद्यते तद्रव्यं तद्र्व्यस्योपादानकारणमिति प्राहुस्तदपि जैनानुगानां न विरुद्धम् , इयांस्तु विशेष:-तेषां समवायसम्म Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १०६ : तत्वार्थविवरण भूतार्थदीपिका 1, १० सू० टी० विश्रसातश्चानेन्द्रधनुरादीनाम् । तत्राय वैनसिकः परिणाम इत्युक्तं भवति, नासावन्यन प्राणिना तस्य. क्रियते, किन्तु स्वेनैवात्मनाऽसौ भावो जनित इति स्वभाव इत्युच्यते । ननु सर्वस्य कार्यस्थ, सिद्धान्ते देवपुरुषकारोमयजन्यत्वात् कथमत्र स्वभावत्योपवर्णनमत आह-अपरोपदेश इति । परोपदेशानपेक्षः परिणामो निसर्ग इत्येतन्नाऽर्थान्तरम् । तथा च परोपदेशस्यले यादृशः पुरुषकारव्यापारस्तादृशो - निसर्गस्थले नास्तीत्युत्कटपुरुषकार०यापाराजन्यत्वादन समावव्यपदेश इति भावः, उभयजन्ये एकजन्यत्व- . व्यवहारसोत्कटवस्वव्यापारापेक्षयैवोपदेशपदादाक्तत्वात् , न्धावच्छिन्नकार्यतानिरूपिततादाम्यसबन्धावच्छिन्न कारणताशालित्वमुपादानकारणत्वम् । अस्माकं तु तादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्नकार्यतानिरूपितस्वध्वंसत्वसम्बन्धावच्छिन्न कारणताशालिवभुपादानकारणमिति । अत एव जन्यपृथिवा त्यावच्छिन्ने पृथिवीत्यादिना समवाथिकारणवं. नैयायिकेनाभ्युपगतम्, स्यावादिना तु तादात्म्येन पृथिवीत्वाधवच्छिन्ने स्वध्वंसत्वसम्बन्धेन पृथिवीत्यादिना हेतुत्वं वाच्यम्, विभागजातोत्पत्तिस्थलेऽपि द्वयणुकादिध्वसरूपाया एव परमाणूत्पत्तेः स्वीकारादित्यष्टसहस्रीटीकायामुक्त सङ्गच्छते । इयार विशेषः-द्रव्यार्थिनाज देवादिपर्यायध्वंसविशिष्टात्मत्वेन तदव्यवहितोत्तरपर्यायत्वेनोपादानोपादेयमावः । पर्यायार्थि- . कनयेन तु स्वसत्वसम्बन्धेन देवादिपर्यायस्योपादान मनुष्यादिपर्यायत्यावच्छिन्ने च तादात्म्येन सम्बन्धेनोपादेयत्वामित्युक्तं तत्रैवेति । विवेचयिष्यते चान्यत्र । प्रयोगेणेति । - आत्मप्रयत्नादिव्यापारणेत्यर्थः। विस्त्रसात इति-स्वभावत इत्यर्थः, पुरुषव्यापारमा रेणेति यावत् । अत्र कालादिहेतुपञ्चसामग्रथाः कार्योत्पत्तिमाननियतत्वमङ्गनाऽपसिद्धा भीस्तु गौणमुख्यभावेन तदभङ्गाद्वारणीथा, उक्तद्वविध्यस्य प्रयोगविलसाप्राधान्येनैव व्यवस्थितेरिति भावः । देवपुरुषकारोभयजन्यत्वादिति दैवम्-पुतिकर्म, पुरुषकारो-जीवव्यापार, तदुभयजन्यवादित्यर्थः । अयम्भाव:-अतर्कितोपस्थितमनुकूलं प्रतिकूल वा दैवकृतं, तत्र पुरुषकारस्था प्रधानत्वात, देवस्य च प्रधानत्वात्, तद्विपरीतं पौरुपापादितं, तत्र देवस्य गुणभावात् पोरूपस्य च प्रधानमावात् , न पुनरन्तरस्याऽभावात्, परस्परं सहायत्वेनैव देवपुरुषकाराभ्यामर्थसिद्धेः, न हि किञ्चित्कार्य देवं पुरुषकार वा विना जायत इति सामान्यतो हेतुत्वमनयोरिति । उपदेशपदादावुत्वादिति-देवपुरुषकार विषये उपदेशपदग्रन्थे चैवमुक्तम्-"यवहारो वि हु दोह वि इय पाहण्णाइनिफण्णो ॥३४९॥” इति । देवकृतमिदं पुरुषकार कृतमिदमिति विमागेन प्रवर्तमानो व्यवहारोऽपि द्वयोरपि देवपुरुषकारयोः प्राधान्यादिनिष्पना, प्रधानगुणभावनिष्पनो पति इत्यर्थः । प्रधानगुणभावमेव भावयन्नाह-" जमुद्गं थेवणं, कम्मं - परिणमइ इह पयासेण । तं दइ विवरीयं, तु पुरिसगारो मुणेयव्यो ।। ३५० ॥” इति , यदुदमुत्करसतया प्रासमुपार्जितं स्तोफेनाऽपि कालेन परिमितेन कर्म सद्यादि परिબમતિ થવાનતિ પ્રવીભવતિ, ૮ નો પ્રયાસેનાપબ્લેિન રાનવાદ્રિના પુરુષ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ નવાથવિધિપૂતાધીવિના સૂત્ર ટી. : ૨૦૭૪ અપશરહસ્થતિ વાર્વિતિવાત | ત પુનનિવૃત્તિ દરણા પરિણામ વસ્ત્ર મવતિ ? થે વા પ્રાગત હત્યાહૂાયામાહ-જ્ઞાનીનેત્યાતિ પેનાસ્તાનુશાલ્સનમુત્પત હત્યન્ત , ચેતિ થઈ તન્નોત્તરનું નીવર્ય, િક્ષણોસાવિત્યત્ર વદ્યમાર્ગ સૂક્ષ સાયતિ જ્ઞાન સાર, વર્ગનું નિરાકારમ્ ત વ મિઢિતે પયસ્તત્તાભાર્થનનનશહિલવાહમાઢક્ષણે રેપ તદવે સમૃધુષ્યતિ | વિપરીત તુ યદ્રનુ વદુનાં પ્રવાસન પરિણામતિ પુન:પુરુષો માન્ય તિ . “વહવધુમ્મુદ્દે વિવસાયો છું પુરિસપોરિ વદુ - મિત્તો પુળ, બન્નવસા = દ્રવત્તિ રૂપ છે ” થવાં પક્ષાન્તરોતનાર્થ, પં તુચ્છે વર્ગ વે પુરુષારોપેલયા હેનિમિત્તે સિદ્ધ યત્ર સ તથવિથો વ્યવસાયઃ પુરુષત્રયત્નો મવતિ પુરુષાર તિ, વધું મૂર્ત પુરુષારમાંકિય વર્ગ નિમિત્તે યત્ર જ પુનરધ્યવસાય, રૂa નોપાર્થત્યાતો વ્યવસાયઃ પુનર્લેવમતિ ! યત્ર હિ સિદ્ધાવ૫ વર્ષો માવો વધુ પુરુષપ્રયાસપુ રસાધ્યમુખ્યતે, યત્ર પુનરેવપર્યયસ્તત્વઝતામતિ પૂર્વમાથાયામપુપ્રયાસસાહાન પમ્પનયમાન વર્મ વૈવમુપાદૃ વિર્ય પુષવાર ફહ તુ પુરુષાર વાડપસાહાળ્યોપેત પુષ્પાર પ્રજ્ઞપ્તો વહુધર્મસહિીંધ્યોપદ્ધતિરસ વ પુરુષવારો દ્રાનિયન પ્રજ્ઞાપનયોર્મ રૂતિ ા કપરા વાસ્મમર્તવિક્તવાવિત્તિા “વવહારો ગુણ પ્રત્યે, મુળપણ પવિમો મળ વાં, યં પુ પુરિસનાળિયંતિ Rપરા” તિ મતિ શેપ રૂટું પાર્વે વૈવમેતપુનઃ પુરુપનાનિત શુક્ષાકૃતમિતિ વ્યવહાર, પુનરત્ર વિષે મુખ્યપ્રધાનનાન્યતરાવદુત્વબેન પ્રવિમો મિન્નવિષયતા વ્યવસ્થિત હત્યા માર્યસ્તુ પૂર્વવેવ માવનીયા વિશેષર્થનોપારહયાયામતિ ! વાંધાવાર્યશ્રીયશોવિનયપાધ્યારાવøતાયાં વૈવપુષારશિયામપિ વ્યવહારનયમથિયે–પુર “નયતિરજામ્યાં, વ્યવહારતુ મન્યતે ! દયો સર્વત્ર હેતુત્વ, મૌનમુશ્વત્વશાનો છે” સર્વતિ કાર્ય તિ શેપા નનુ બિલ્વ મુરધ્યત્વ હિં ક્ષણમયારાફ્રીયામા–“નુરજર્વ બવમુવં ૨ મુવ્યતાની દ્રય વનન્ય વ્યપશાનયામહા ત્રિાનુર્વ ગવંર વપરંવવિ, તપસ્યાપિ વહીસો ગૌણાવ્યપશાથવું મુળતા વોલત્વિ, તદ્વયં પ્રત્યેનન્યત્વવ્યપણે નિયામમ્, વન્યથા સર્વસ્ય વાર્થસ્થામાન્યક્તિ પ્રત્યેનન્યત્વવ્યવહારોગ્રામવાસ્થતિ મા દેવ માવયતિ - “ કન દે સૈવેન, શત વક્રત વિતાદોન જ નેન, કૃ િવનાં નનાર ગી” તાંદરોનેતિ કરીને ત્યર્થ ગુ યાદ્રિ સમન્વર્યેળમુરબ્ધમાન વૈવપુરામધર્યવ દેવં તર્ટિ વૈવøતમિદં પુષ્પહારજીતમિતિ વાર્થવ્યવહાર કૃતિ ત , તે તત્ર પુકાર જીતવામાન લવ વિષય તિ જ જો ફતિ / “સામની વંસ વિસેસિયું તુ ના” ફિતિ સિદ્ધાર્થનમનુષ્કૃત્યાSષ્ય સાિાં દર્શન નિરાધારામાતિ પર્વ મિડિપજેમ હૃતિ-તમયાત્મ હત્યર્થયય સ્થાપિ વરિયા વચન જ શરીરાપર Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તેરાર્થવિરાવાર્થી વા . ૪૦ ૪૦ ટીવ ચહ્ય ન તથા વીવ તિ વત તિ, જૂથે પ્રાપ્યત ત્યત્રીઃ તત્યાદિ તત્ત્વ વીવર્ય, વનાવાંવવિછિન્નપ્રવાહે, સંસાર નાવિધાનપત્તિર્યાયાળ, દ્રવ્યતત્વનાવાવનન્ત સંસારે નરાઘુત્પત્તિસ્થાનક્ષણે, મનાવૈ સંસાર તિ વદન માથવા દિવાકં નિરાશે. યુદ્ધ તિ, શીરાવુપાળનિરપેક્ષય પાપોનોસંયુષ્યમાન નાઋતુમ્યુપાતુમયુtવાતુ | સર્વે જ સજ્જ ત્વા ધાવિવતિ પુનરબનમનુમાન, વાવચ્છિન્ને ન હેતુત્વે પ્રમાળામાવાન્ ! “જિયો ફાર્યજાળમાવસ્તત્સામાન્યયોરીએ ” તિ ચાચાચાપત્તાત્ | નિમિત્તવયૅ દg: ન હરિસ્વમુtવ શર્યવં વાદાનુસાર જપના પ્રામાણવી ન ત્વદશાનુસારગતિ શરીરઘુપારખનિમિત્તનિરપેક્ષશ્વેશ્વરસ્ય ન વં નાગપુપતું પુતબુ, અન્યથા મુtહ્યાગરે તવં સ્વાદિયાશનાહ-યુતિથિતિ તત્ર હેતુ માહશરીરિપક્કર નિરપેક્ષત્યાર સર્વ કાર્ય સર્જન કાર્ય–ાવતિ-સત્ર પક્ષતવચ્છર્વ સ્વહસક્વન્ધવિશેષાવાર્ય જતુ તિસાત્વિાદ્ધિ અન્ય સાધ્યસ્યાગપતતૂ‘ાન સંસાધને સ્થા, પલાયે સંસ્થય સિદ્ધક્ય સાધનાનો પક્ષતાવચ્છવ વવવેન સાધ્યહિત્ય પદાધિવાર્યસ્થ સંવસિદ્ધાવણ નક્ષતિ, પક્ષતાવષે વિચ્છે , નાગનુમિતિધ્ધતિ પક્ષતાવચ્છવાસમાનારબેન સાધ્વસિષે બાતિવર્ધીવાત, દેતુમૂર્ત વાર્ય ત્વપ કામાવતિયોત્વિ, નાત પક્ષતાવછંદોબસરા નનુ તયારેયે વલ તિત, , દેતાવર્જીવિયોન બાવીનમતે હેતુમાર પણ રૂયર્થાત્ તથા વામિત્વપનયવસ્થાચ્છાદ્વીધાનુપત્તિ વ પ તા સમયોન શમનુમાનામિતિ–મ વારસજ્ઞાનિવર્તિતાવાહિતિ માવા, નાર્યસ્વં યતિ જનન્ય વન્યમિવાર સ્થાવા જ કન્યતા છેઃબંને સાહિત્યનુતર્વ રવાનાશ્રયોનામિતિ વાગ્ય,ત્વેન બ્રાયન વાર્થ કેરળમા માનામાનોજીતનવતાવિત્યાનાશsઠ્ઠ કાર્યવાવછિન્ને વૅન હેતુ પ્રમાણમાવાદાંતિ જીવાત્યેન ધટનૈવું તત્ત્વવાર્વિન પટન વિરોધ કાર્યરળમાવવહાદેવ પાન વાન સામાન્યધર્મળ વાર્તારામાવો મવિષ્યતિ, શુદ્ધાંતનુવાયો વિરોષર્, વદ વિશેષત્વત્, યશયોરિયા ન્યાયાત્રાવતારહિતિ,, કરૂન્યાયયાજ્ઞાત્રિ વાવિયાર્દાધિશેષો હાર્યા માવ ત્યાદિ કિ ચઢિ લિયા વાર્યત્વસામાન્ય સિદ્ધસ્થાત્તા સ્થાન્તિન સર્ચ સિદ્ધિ, ર જ સ સિદ્ધા, તથાહિ-યાદમૂતં નન્યત્વેન તેવકૂદ્વિવ વય તિવાસ્યાં વ્યાપ્ત જાવૅમુપલ્વે શિયાશિનો વિજ્ઞાવાવુપમ્પમાન પિરીક્ષાસ્તત્ર વપુમતા ના પીવું છમિયારાં તત્વાિવયતિ તાદમૂત ફિત્યાધુ કાર્યવસ્થા સુપરસિદ્ધ જેવો હેતુ હમે વા તંત્ર તો લીવજ્ઞાહિદ્ધિવાગયાનિગમ છતત્વવુદ્ધિસ્યા, ન શૈવયવ્યાતિશાખ્યાં સુવિવિત કાર્યો વારમાં વ્યવિરતિ, તસ્યાદ્વૈતુવન્ના, ચત્ત શિરવાઢિપુ પર્યવર્ઝનાવત્રિવાર્શના કૃતીયનુત્તરો Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्वार्थ विवरहार्थदीपिका । ४० सू० टी० । १०९ : अन्यथा कार्यत्वावच्छिन्ने करणत्वेन हेतुतथैकस्य कर्तुरिकस्य करणस्यापि सिद्धयापतेः, न च कार्यत्वावच्छिन्ने उपादानप्रत्यक्षत्वेन हेतुत्वाद् व्यणुकाधुपादानप्रत्यक्षाश्रयतयेश्वरसिद्धिः, ततत्पुरुषीयवाद्यर्थिप्रवृत्ति प्रत्येक तत्पुरुषीयघटादिमत्त्वप्रकारकोपादानप्रत्यक्षत्वेन हेतुत्वात् । न च प्रवृत्ताविव घटादावपि प्रत्यक्षेच्छयोपरकर्तजन्यत्वेन व्याप्त कार्थत्वं देवकूलादिषु निश्चितं तत्तत्र नारतीत्यसिद्धो हेतुः, केवलं कार्यत्वमात्र प्रसिद्धं तत्र, न च प्रकृत्या परस्परमर्थान्तरत्वेन व्यवस्थितो धर्मशब्दमात्रेणाऽभेदी हेतुस्वेनोपादीयमानोऽभिमतसाध्यसिद्धये पर्याप्तो भवति, साध्यविपर्ययेऽपि तस्य भावाविरोधात् , यथा घटान्तेन पल्मीके धर्मिणि कुम्भकारकृतत्वसिद्धये मृद्विकार त्वमानं हेतुत्वेनोपादीयमानमिति । यत्कर्तजन्यत्वेन व्याप्तं देवकुलादौ कार्यत्वं प्रमाणतः प्रसिद्धं तरिक्षयादावसिद्धं, यच्च क्षित्यादी कार्यत्वमात्रं हेतुत्वेनोपन्यस्यमानं सिद्धं तत्साध्यविपर्यये वाधकप्रमाणाभावात् सन्दिग्धव्यतिरकत्वेनानकान्तिकं न ततोऽभिमतसाध्यसिद्धिः। नन्वतत्कार्यसमं नाम जात्युत्तरं, तथाहिकार्यत्वादनित्य२०८ इत्युक्ते जातिवाधनाऽपि प्रेरयति-किमिदं बटादिगतं कार्यत्वं हेतुत्वेनोपन्यस्तं किं वा शब्दगतमयोभयगतमिति ? आधे पक्षे हेतोर सिद्धिः, न बन्यधर्मोऽन्यत्र वर्तते, तथा च हेतु स्वरूपासिद्धः, द्वितीयेऽपि साधनविकलोवादिष्टान्तः, तृतीयेऽपि एतावदोपापिति, .एतचे कार्यसमं नाम जात्युत्तरम् , तदुक्तम्-" कार्यवान्यत्वलशन यत्साध्यासिद्धिदर्शनं तत्कायसममिति" कार्यत्वसामान्यस्यानित्यवसाधकत्येनोपन्यासेऽभ्युपगते धार्मिभेदेन विकल्पनवत् कर्तजन्यत्वे क्षित्यादेः कार्यत्वमात्रेण साध्येऽभीष्टे धर्मिभेदेन कार्यत्वादेर्विकल्पनात्', असदेतत् , यतः सामान्येन कार्यत्वानित्यत्वयोविपर्यये बाधकप्रमाणबलाद् व्याप्तिसिद्धौ कार्यत्वसामान्यं शदादौ धर्मिण्युपलभ्यमानमनित्यत्वं साधयतीति कार्यत्वमात्रस्यैव तत्र हेतुत्वोपन्यासे धर्मिविकल्पनं यत्तत्र क्रियते तत्सर्वानुमानोच्छेद करवन कार्यसमजात्युत्तरतामासादयति, न त्वेवं क्षित्यादेः कर्तजन्यत्वे साध्ये कार्यत्वसामान्यं सर्वोपसंहारेण व्याप्त्या हेतुस्सिद्धः, तस्य विपर्यये बाधकप्रमाणाभावात्, सन्दिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वेनाऽनैकान्तिकत्वात्', तथा च कार्यत्वसामान्यमात्रस्य हेतोसोपसंहारेण व्याप्स्यसिद्धेस्तेन न क्षित्यादेः कर्तजन्यत्वसिद्धिः, अन्यथा मृद्विकारत्वहेतुना घटवल्मीकस्यापि कुसकारजन्यत्वं सिद्धं स्यात्, तथा चोक्तम्-"अन्यथा कुम्भकारेण, मृद्विकारस्य कस्यचित् । घटादेः कारणात् सिद्धथेवल्मीकस्यापि तस्कृतिः ॥१॥" इति । यच्च कर्तजन्यस्येन व्याप्तं देवकुलादौ कार्यत्वं प्रतिपनं यदक्रियादर्शिनोऽपि जीर्णप्रासादादौ कृतस्वबुद्धिमुत्पादयति तत्तत्राऽसिद्धमिति प्रतिपादितं प्राक, तथा च कर्तृजन्यत्वव्याप्तं न कार्यत्वसामान्यं, किन्तु कार्यविशेषत्वमेव, तच्च प्रायोगिकरवरूपमेयेति तदेव शैलादिव्यावृत्तं देवकुलाधनुवृत्तं सकलजन०यवहारसिद्धं कर्तृजन्यतावच्छेद कमस्त्विति नोक्तानुमाननेश्वरसिद्धिरिति भावः । तथाजनभ्युपगमेऽतिप्रसङ्गदोपमाह-अन्यथेति। सियापत्तरिति-तथा च ६हानिरकल्पनापत्तिस्यादिति भावः। न त्यस्येश्वरसिद्धिरित्यनेनान्वयः, निषेधे हेतुमाह-तत्तत्पुरुषायति। न चेत्यस्य साम्प्रतमिलनेनान्वयः । प्रत्यक्षेच्योरिति-उपादानप्रत्यक्षचिकीर्पयोरित्यर्थः । Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨૦ ! તાર્થવિજળચઢાર્થી િI ૦ રૂ૦ ટી. રન્વયસ્થતિ જામ્યાં હેતુત્વે સિક્કે તાર્યતા છે ચવમેવ સધવા તે, ઘરવપરવારીનામાનન્યા , શરીરધમ સાહધિવ વવ વદિ સાતમ્ ! પર્વ સતિ અનન્યતાવચ્છેદ્રવ ન ધવપરહિમ્, નિરવરરિસ્થાની માત્રાની સિદ્ધચાપ ચદુ ધટવજી તિન દેતુપ વિડધટાવુત્તિ લુટાભાજિતેરસન્ધીધરøતિસિદ્વિરિતિ દ્વિતિતત્ત, તજી તરેવ પિત, વૃદ્ધાઃ વર્ષાવનાતીય તાતાવજીંજામિતિ-ગયબ્રેર્યાવચ્છેમિય, શરીરરાધવમિતિ-બાનમાવબતિયોજિત્વાપર્યું વર્ચસ્વસ્થ સંવષ્કતયા તથા ધટપટવાઢીનાં નાતહપતયાંડરવર્લ્ડન શરીરવામિથઃ | સાત્વાધવતિ-વાર્યમાત્રતિ હવાવાપ્રત્યક્ષપાતાનપ્રત્યક્ષત્વેન ત્રિીય છાવૅન હેતુવેર તથતાંવષે વીમૃતમયે-- વાર્યમાત્ર સહેસમેન સાવધિવત્ય ધટત્વરિત્નાવચ્છિની શરીરમન્તરાઝુસ્તતિ શરીરનાકપ હેતુવા ધટવાલયા સાર્વત્વસ્ય તત્વાર્થતાવજીંદ્રા સહાધવે ફરનિશ્વવનયશરીરમાં માત્રનના સિદ્ધત્યુિત્તરતિપર્વ સનિ શરીરનાન્યતાવ છેમપીત્યાદ્રિ ! મૈત્ર ઘટત્યાં ઘવાછિન્નતિ વેદાનાગ હેતુત્વાસ્થૂર્વવત્કાયવોર તાર્યતાવષે વાર્યમેવા ડુપતિ ર્યમત્રનના નિત્યક્રડ સિત્યાપ ધમ્ નનુ પરમાળવા થવ યત્નવીશ્વરત્મિસનદાત્ત ધરસ્ય નિત્યાન શરીરજ, વિદીયા નિત્યત્વે તુ માનામાવા, નિત્યદાથા તે સર્વે સન્મવાત, રત્નાથનાવતાં સામેવ રેશ્વરશરીરત્વ, ગત વ વવેરાપરા સમેવપરા તિીિતિ રે, મવમુ, પરમાનાં નિત્યેશ્વરારીરત્વે તંતક્રિયયી નિત્યાયાદાપન વાધનાપ, શ્વસમ્બન્ધ સર્વત્રાવળ સવાહિદનેશરીરિમિતિ નિયમોમાત, સર્વાશે સર્વત્ર શિયામાત્રય પેદા–પર્યવસાને વિશ્વભળાવનારયુઓવાપરે શરીરવિચ્છિન્નવિક્ષમન સંયોગના નવલાત્મસંયોવાહપસર્વારા જ પ્રત્યનિયમનોમિનમનઃબોન સંપામુ પાત્રનતયા ધરસ્થાપ, અન્યથાશપાર્થધટનાહિતિ ધ્યેય વસ્તુ ત વ દૂષિતમિતિ-નૈનાનુૌતુ તત્ર ઘટ વત્વપર્યાવસ્થવષમ્યુમિમત, અન્યથા સ વ ધ તિ પ્રત્યજ્ઞાનોપત્તિ, ને જ સાદાવિદ્યાલમૂહન અમરપનિ તેન્દ્ર વ્યવસ્થાપિ સેતિ વાળ, તથા૫નાયાં માનામાવાવ, વત થવું પાનાગપિ નાચવોપત્તિ, વિશિષ્ટ સોમવાવ વિરાઇવર્ષીય ધટાતિદ્રવ્યય સ્થગ્નિવિનાશ વ્યુત્પત્તિસમૈવાહિતિ વ્યક્ત ક્ષતિટીયામતિ / નનુ વૈશેષિ મતે વિદ્ધિના નાના વ્યસંયોગાત્ દ્રયથુરારમ્ભ પરમાળ જર્મ તો વિમાનuતો દ્રવ્યાપૂર્વસોમનારાdતો ચબુનારા, નષ્ટ ૨ ચબુ પરમાળીવનસંગાથામાં નિવૃત્ત યવનાશે જ ત્રસરેણુનાશત્રને મહાગ્યેયવિનારા, માહિનિવૃત્તાન્યાહનિસંયોપાર Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तरवार्यविवरणगूढार्थदीपिका । तृ० सू० टी० । संयोगसम्बन्धेन तत्कालेऽपि सत्वात् । न च वैशेषिकनये श्यामवादिनाशोत्तर रक्तघटाधुत्पत्तिकाले प्राक्तन-परमाणुद्वयसंयोगद्वयणुकादेनामानै सम्भवतीति वाच्यम् । पूर्वसंयोगादिध्वंसपूर्वतयणुकादिध्वंसानामुतरसंयोगवणुकादावन्ततः कालोपाधितयापि जनकत्यातल्कालेऽपि कुलालादिकृतः स्वप्रयोज्यविजातीयसंयोगमाणो र तताधुत्पत्तिः, रक्तोत्पत्तौ परमाणुक्रियानिवृत्तिः, तदन. रमवदात्मसंयोगात्परमाणी कर्म ततो विभातस्ततः पूर्वसंयोगनिवृत्तिः, ततो द्रव्यार मकसंयोगोत्पत्तिस्ततो इयणुकोपत्तिः, तदुत्पत्तौ च तत्र कारणगुणपूर्षिका रक्ताद्युत्पत्तिः, तदुक्तम्-वैशेषिकोपस्कारे-" कारणगुणपूर्वक कार्यगुणो ३४ः” इति । ततो इयणुकत्रयात् त्रसरेणुरुत्पद्यते तद्गुणात्तद्गुण इत्यादिक्रमेणोत्पन्ने महावयविनि तद्गुणोत्पत्तिः, तथा च प्राक्तनपरमाणुद्वयसंयोगरूपासमवाथिकारणनाशाद्द्वथणुकनाशः, तेन च समवायिकारणनाशेन त्रसरेणुनाशः, तत्क्रमेण च यत्र घटादिमहावयविनाश न वटा तरं प्रति स्वप्रयोज्यविजातीयसंयोगसम्बन्धेन कुलालादिकृतेः कारणत्वं सम्भवति, पूर्ववटाक्यवसंयोगस्यैवाभावादित्याशङ्कय निषेधति-न च पैशेषिकनय इत्यादिना, निषेधे हेतुमाह-पूर्वसंयोगादिध्वंसपूर्वद्वयणुकादिध्वंसानामित्यादि । पूर्वसंयोगात्मकपूर्वद्वयणुकासमवायिकारणनाशायणुकनाशे सत्युत्तर द्वयणुकासमवायिकारणसंयोगानुगुणपरमाणुक्रियाविभागपूर्वसंयोगनाशक्रमेणोत्तरसंयोगलक्षणसमयायिकारणोत्पत्तितो द्वयणुकोपत्तिस्ततो द्वयणुकलयसंयोगतस्यणुकोत्पत्तिरित्येवं क्रमेण महावयविघटोत्पत्तिर्भवेदिति पूर्वसंयोगनाशयणुकनाशो मध्यकालमाविनश्चान्येऽपि विभागाधाः परम्परयोत्तरमहावयविघटोत्पतो हेतवः स्युः, परपस्या कारणञ्च प्रयोजकमिति गीयते, परम्परया कार्यश्च प्रयोज्यमिति વ્યવબ્રિયતે, પૂર્વયોધ્વસ પૂર્વસંયો, પૂર્વયજુર્બસે જ પૂર્વદ્રયજુર્વ પ્રતિ મિતાલમ્બન सम्प्रति तादात्म्यसम्बन्धन प्रतियोगिनः कारणत्यमिति नियमतः कारणं भवति, पूर्वसंयोगादौ च कुलालादिकृतः कारणत्वं, तथा चोत्तर बटादिमहावयव्यारम्भकसंयोगोऽपि परम्परया कुलालादिकृतिप्रयोज्य इति स्वप्रयोज्यविजातीयसंयोगसम्बन्धेन फुलालादिकृतिः ताशसंयोगकाले घटायव्यवहितपूर्वक्षणरूपे वर्तते इत्युत्तरपटादिकाप्रति तस्यां निरुक्तसम्बन्धन कारणत्यस्य सम्भवात् , एवं कालस्य कार्यमात्रप्रति कारणत्वं वैशेषिकस्याऽप्यनुमतं, नित्यस्यैकस्य व्यावकस्य तस्य सर्वान्प्रत्यविशिष्टस्य सर्वत्राऽ.वयस्यैव सद्भावाद्, व्यतिरेकासम्मवेन स्वरूपतो जनकत्वं नेति प्रतिनियतोपाधिविशिष्टत्वेन प्रतिनियतक्षणरूपतामाभेजानस्य प्रतिनियतोपाधिविशिष्टवन कारणव स्थादित्यवच्छेदकीभूतस्योपाधरपि कालोपाधितया कारणत्वम् , उपाधित्वञ्च પૂર્વસંવાતિબંસર્વયજુહીનામપિ સમવયેતિ બાહોપાધતા પૂર્વસંયોધ્વંસપૂર્વणुकादिध्वंसानामुत्तरसंयोगादिकम्प्रति कारणत्ने व्यवस्थिते पूर्वसंयोगादीनाञ्च प्रतियोगिविधया वध्वंसम्प्रति कारणत्वक्लप्तौ पूर्वसंयोगादीन् प्रति च फुलालादिकृतेः कारणत्वे सत्युत्तरसंयोगप्रति परम्परया कुलालादिकृतः प्रयोजकत्वसम्भवादित्यतोऽपि स्वप्रयोज्यविजातीयसंयोगवसम्बन्धेन ताशसंयोगकालवत्तिन्याः फुलालादिकृतरुत्तरघटादिकाप्रति कारणत्वसम्भवादि. Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वाविवरणगूढार्थदीपिका । ४० सू० टी० सम्बन्धेन सत्पात् । अन्यथा ५८त्वाचवच्छिन्ने दण्डादिहेतुत्वमपि दुर्वचं स्यात् । आधु दण्डादेः स्वप्रयोज्यविजातीयसंयोगसम्बन्वेन हेतुत्वम् , कृतस्तु लाववाद्विशेष्यतयैव तत्सम् , न च कुलालतिस्तया तत्कालेऽसीति चेत्, न, तथापि वाचवच्छिन्ने विजातीयकृतित्वेनैव हेतुत्वात्, कृतित्वेन व्यापकवर्मणान्यथासिद्धरिति । किश्वोपादानप्रत्यक्षं लौकिकमेव जनकम् , प्रणियानाचर्थ मनोवहनाध्यादौ प्रवृत्तिस्वीकारे त्यर्थः । अन्यथा-उक्तदिशा स्वप्रयोज्य विजातीयसंयोगसम्बन्येन मुलालादिकृतेरुत्तरवटादिके म्प्रति कार णत्वानम्युपगमे । डेति स्वजन्यचमिजन्यत्वसम्बन्धेन ५८ प्रति कारण पूर्वघटम्प्रत्येव तेन सम्बन्धेन पूर्ववटावयपालयतिनस्तस्य कारण सात् , उपरवावयवकपालादिकन्तु न चक्र भ्रमिजन्यमिति तेन सम्बन्धेन तस्योत्तरपटाक्य कपालेऽभावान्न तस्य तम्प्रति कारणत्वमिति पटत्वावच्छिन्ने व्यतिरेकल्याभिचारात्तस्य कारणत्वं न युक्तियुक्त स्थात् , स्वप्रयोज्यविजातीयसंयोगसम्बन्धेन दण्डस्य कारणत्वे तूत्तरवटाव्यवहितपूर्वकाले - प्युक्तसम्बन्धन दस्य समान वस्त्याचवच्छिन्नम्प्रति दण्डादीनां हेतुत्वं निर्वहतीत्यर्थः । नयायिक आशङ्कते-अस्वित्यादिना, तत्व-हेतुत्वम् , तथा च कार्यवानछिनकारणीभूत- . कृत्याश्रयतथेश्वरसिद्धिरिति भावः 1 नतु विशेष्यतासम्बन्वेन कुलालकृतिरेव कारणम् , ... नेश्वरकृतिरिति न तदाश्रयतयेश्वरसिद्धिरित्याशङ्कायामाह-न चेति । अस्थास्तीत्यनेनान्वयः, तयति-विशेष्यतासम्बन्धेनेत्यर्थः । तत्काले-उत्तरवटोत्पत्तिकाले, विजातीयकृतित्व नैव हेतुत्वादिति-त.बायकृतिकाले बटोत्पत्तिवारणाय कुलालकृतित्वनैव हेतुत्वस्यावश्यकत्वादित्यर्थः । अन्यथासिरिति-तथा च कृत्याश्रयतया नेश्वरसिद्धिरिति ।। भावः, न च कृतित्वेन कार्यत्वेन कार्यकारणभावे कारणतावच्छेद कवविच्छिन्नामावस कार्यतावच्छेद कयविच्छिन्नाभावप्रयोजकत्वात् कार्यसामान्यामा कृतित्वावच्छिन्नसामान्याभावस्य । प्रयोजकत्वं सिद्धयति, भवतां तु कुलालादिकृत्यभावकूटस्य प्रयोजकत्वमायुप. ०यं स्यादिति . गौरवमिति वाच्यं, कारणतावच्छेदकवविच्छिन्नाऽभाव एवं कार्यामा प्रयोजक इति न नियमः, कि स्वरूपसम्बन्ध रूपप्रयोजकत्वं प्रतीत्यनुरोधेन लवनतिप्रसक्तधविच्छेदेन फलज्यत इति नियमः, तथा च कारणतानवच्छ कृतित्वावच्छिन्नसामान्यामावस्यकस्य कार्यसामान्याभावप्रयोजकत्वं कृतित्वेन कार्यत्वेन कार्यकारणभावमन्तराऽपि सूपपादमेवेति भावः। किञ्चोपादान प्रत्यक्षमिति-उलालादेः सामान्यलक्षणाचलौकिकपत्यासत्या यद् धाधुपा. . दानगोचरप्रत्यक्षज्ञानमलौकिकं तेन पटादिकार्य नैव जायत इति तस्य कारणतावच्छ दरवर्मानाकान्तत्वसम्पादनाय सामान्यलक्षणाचलौकिकत्रितपप्रत्यासत्यजन्योपादानप्रत्यक्षत्वे- - नेश्वर प्रत्यक्षसाधारणेन गुरुभूतेन कारणत्वं तदा पक्तव्यं स्याचदीश्वरप्रत्यक्षस्य कारणत्वं . सिद्ध भत्, न चाऽद्यापि तसिद्धमिति लौकिकसन्निकर्षजन्योपादानप्रत्यक्षत्वेनैव तत् कारणम् , . न चेश्वरप्रत्यक्षन्तयेति कुतस्तदाश्रयेश्वरसिद्धिः, एवं प्रणिधानाधर्थ चित्तस्य प्रतिनियंत ध्येयपिप Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वार्थविवरणढाथदीपिका । ४० म०टी० त्वनुमित्यादिसाधारणमिति कथं तदाश्रयतयेश्वरसिद्धिः । अपि चाभोगवीर्यजन्येऽन्वयव्यतिरेकाभ्यामाभोगस्येवानाभोगवीर्थजन्ये भुक्ताहारसलरसपरिणामादावनाभोगस्यापि तथात्वे सामान्यपक्षपाते आभोगानाभोगाश्रयो भवदभिमत ईश्वरः स्यादिति महत् सङ्कटमापतितम् । किच, सृष्टेः प्राग् जीवाना शरीरेन्द्रियविषयायसम्बन्धे मुक्तकल्पत्वात्पुनः सृष्टौ तेपामीश्वरेण संसारित्वापादने मुक्तावप्यनाश्वासप्रसङ्गात् , कर्मवीजसम्बन्धात् सृष्टः प्राजीवाना न मुक्तकल्पतेति चेत्, न, प्राक् सृष्टिकालमोन्याना कर्मणां भोगेन क्षये प्रलये तदवस्थित्यस मवान्, अक्षये च भोगकालानुपरमे प्रलयायोगात्, न चानियतविपाकानि कर्माणि जीवाना युगपन्निरोधमनुभवितुमुत्सह-ते, तथाऽदर्शनात् । सुपुप्तौ तथा इष्टमिति चेत्, तर्हि यथादर्शनं कालविपकिषु कर्मसु तत्कल्पनं किराना, न तु जीवविषाक्यादिषु, अन्यथा प्राच्यसृष्टिचरमकालकज्ञानधाराऽव्यवच्छित्तये एकाग्रीकरणाद्यर्थ मनौवहनाडयादिगोचराऽपि प्रवृत्तिरुपेया, न च मनोवहनाडीक्रियोपादानताशनाडयादिलौकिकप्रत्यक्षसम्भव इति तद्विपयकानुमितेरेव तत्कारणत्वं, तदुभयसाधारणकशक्तिमत्वेन कारणत्वमत्र वाच्यम् , न चेश्वरस्य प्रत्यक्षं जन्यमिति नेन्द्रियलौकिकसन्निकर्पजन्यम्, न च नित्यं तल्लिङ्गजन्यानुमित्यात्मकपरोक्षमुपेयते भवद्भिरिति तदुभयसाधारणधर्मात्माकारतावच्छेदकस्य तत्प्रत्यक्षेऽभावादेवमपि तत्प्रत्यक्षस्य कारणतथाऽसिद्धः कयं तदाश्रयतयेश्वरसिद्धिरित्यर्थः । आभोगधीर्थजन्य इति-आमोगवीर्य नाम अभिसन्धिपूर्वकवीर्या रायकर्मक्षयक्षयोपशमान्यतरसमुत्थाऽऽत्मपरिणामविशेषरूपं, वीर्या-- रायक्षयक्षयोपशमान्यतरोत्पन्नवीर्यल०धेसकाशादुपजायमानं यत्सलेश्यस्य वर्यि बुद्धिपूर्वकं धावनवल्पानादिक्रियासु नियुज्यमानं तदाभोगवीमिति यावत् , तेन जन्य इत्यर्थः । अनामोगवीर्यजन्य इति-अनभिसन्धिर्ज भुक्ताहारस धातुमलत्यादिपरिणामापादकं यहीय तजन्य इत्यर्थः। तथात्वे कारणत्वे । सामान्यपक्षपाते-यद्विशेषयोः कार्यकारणभावस्तरसामान्ययोरपीति न्यायानुसरणे । प्रमदिनमाना सृष्टिरिति ब्रह्मादिनानामनेकत्वात्सृष्टिरप्यनेका, ब्रह्मराविमानः खण्डप्रलय इति बलरात्रीणामनेकत्वात् खण्डप्रलयोऽप्यनेका, तथा च सृष्टिकालभोग्यानां कर्मणां खण्डप्रलयाकालरूपसृष्टिकालावच्छेदेन क्ष्यो भवति न वा ?, आधे सृष्टिकाल ९५ कर्मक्षयाण्डप्रलये कर्मसम्बन्धाभापाजीवानां मुक्तकल्पता स्यात्, द्वितीये भोगकालानुपरमे खण्डप्रलयामान इति समाधत्ते प्राष्टिकालभोग्यानामिति । प्रागिति- खण्डप्रलयाकालरूपसृष्टिकाल इत्यर्थः । प्रलय इनि खण्डमलय, इत्यर्थः । न च जीवानां खण्ड प्रलयकाले विद्यमानानामपि कर्मणां खण्डप्रलयकाले युगपનિરોધાવનુમાવાતાર્યાધ્વતિ તદ્વિપાવપવિપોિ નાડનુભૂયત રૂતિ વાગ્ય, युगपनिरोधादर्शनादित्याह न चानियतविपाकानीत्यादि । न चेत्यस्योत्सहन्त इत्यनेनान्वयः । जीवविपाक्यादिविति-जीव एव न पुनः शरीरपुद्गलादिषु विपाकर रवशक्ति. दर्शनलक्षणो विद्यते थेपी कर्मणांतानि जीवविपाकीनि तान्यादिषु । Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थविवरण गूढार्थदीपितृ० ० टी० નર્મ : A વજ્રાસ્યામૃષિ ત્ર મુજ્યેરનું, તસ્માત્ વિસ્ય મોવ્યાપ્યત્વમાંવાબયભાવે દ્યુતઃ સૃÐિ ? <17 જિલ્લ ર્મનિરપેક્ષĂરસ્ય ઇિતૃત્વે પુલનુRsવિનિયમાનુષપત્તિ, મૈસાપેક્ષક્ષ્ય તુ તથાત્વે ક્યાંકવશ્વેશ્વરત્વમ્, શ્વેિશ્વરસિટ્ટાયા મેવવશુદ્ધસંયોતિના દ્યુત્પત્તેિમેળ સૃષ્ટિવર્ધને સિસક્ષાચાઃ સીત્રાશ વૃત્તિર્વાવશિષે ન્હાત્વન હેતુત્વે હાલવાતું સાલ્વેનવ દેતુત્વ યુત્તમ્ | તથા જતાોત્તરાય તત્ક્ષત્વન તદ્દેશÍત્તા ન તદ્દેશડ્વેન હેતુત્વ ન્યાયપ્રાર્તામેત્યવયાચીચયા તથામતથૈવ સર્વોપપત્ની વિ રિચાજી૫નાશ્કરોન । તેન તાર્યામાં કેશાાનિયમ ધરજ્ઞાનેાવિત ર્વલ્યધ્યપાસ્તમ્ | અવચ્છેદ્રતાસમ્બન્ધન ત્રિપિતમાંવતવ્યતાયાં પુત્ર તદ્દેમાાદિનિયામાત્। યન્તિ દિ પામરા અષિ ર્માવતવ્યતૈવ નિયામિયાંમયતા, વિશેષાધિનાઽસ્મતત્ત્વતામિસ્ચસનીયમ્ । તદેવમનાવો સંસારે, રિસમન્તાનું પ્રમતઃ મૈત વોચપ્રાસમાઃ સંધશાદેવ, મેળો જ્ઞાનાવરણીયામે, વિધાયુિ તાર્તાને નીર્વાવિષાયાદીન તૈષ્ચિત્યએ જૉહત્વસ્ય સોમવ્યાખ્યત્વઆવાાતિયંત્ર યંત્ર જાળવું તંત્ર તત્ર મોય્ તિ જ્યારે અહયાત્વનાામમતે જાહેઽવાત્સલ્ય માટે મોાસ્ય વ્યાપસ્યાવશ્યન્માવા દ્રવ્યર્થઃ । પ્રચામાત્ર કૃતિ-હોરાત્રસ્યાદ્દોરાત્રપૂર્વઘેન સદ વ્યાસેરહોરાત્રમહોરાત્ર અહોરાત્રાહિત્યનુમાનમત્ર પ્રમાણમ્ । સુલતુલાવિત્ર તિનિયમાનુષપત્તિરિત ક્ષરસપÀત્તાગવશેષેપ સર્વેષાં સુક્રમેય અંત, અન્યથા વૃષાતાઽપ્ત્સ્યાનીશ્વરત્ત્વ સ્થાત, નિશ્ચેત્તા સર્વેમાં દુઃલમેવ યંત્ત, તથા જોઢુતપુણ્યમાનઃ સુલિન વતાયશાહનો દુલિન કૃતિ પરિદૃશ્યમાનપ્રતિનિયતજીવવું વ્યવસ્થા ન સાહિત્યચે | નેશ્વરસ્વામાંત-નિરપેક્ષસૅવેશ્વરાિત માત્ર ! નન્નુ સર્વસત્તાધીશોપ નૃત્યશ્રૌર્યાતિર્મસાપેક્ષ વ તરાવે; છવાતા થથા સથેશ્વરોગયે સત્તત્પુરુષીયતાત્ક્રમસાપેક્ષ ત્ર - તત્તરપુરુષેમ્યઃ શુમાશુમા ં વાતીતિ નાનીશ્વરપ્રસઙ્ગ તિ શ્વેત, હૈં નૃષયીશ્રરોગી પુરુષાળાં વાયવશુમર્મોનુ પ્રેરણામાંયે નૈવ ત, ન ોત્યેવતિ શ્વેત્, ન, જાયમાત્રસ્કેવેલ(વસ્તૃતામ્બુધામાવતિ માત્ર । મેવવશુસંચો વેનેતિ પરમાણુયે શિયા તતોત્રમાાતઃ પૂર્વસંધ્યામનાશ, તતઃ પ્રમાણુદ્રયસંયોગ ાંદ્રનેત્યર્થઃ । નગે ાાત્નેનેતિ-નૈવદ્યારળ વિધિષ્ઠાતા ત્તવદેિવસ્ય વ્યવoવ્ ત્રિયેત તા િસિક્ષાયા ાત્રમાંનું સ્વાવતઃ સમ્મેત્રાવાવેન સદ્મકાવ્યા ધરળત્યું ને તે વૃધિકાબાળત્તિવિશèછાવેન સવ્રુક્ષાયાઃ બારણાંમત્યેવ વ્યવન્હેન્દ્ગાર્શી યોધ્યઃ । અધિòતરમભર્તુ વ્યસતત પ્રયમમાચાની તોમ્બસેયમ્ ! અનાવો સંસાર તિસનાત્મત્યાત્મપ્રહ મિથ્યાજ્ઞાન તત્વમવસંરિત્ર્ય ૬ પ્રવાહતોના વાત્ત 1ફૂસંસારોડબનાવઃ, યતો મિખ્યાજ્ઞાનસહાય ૢ મેં નૈવ પૂર્વ ના દ્રિતિ, પૂર્વેશુદ્ધસ્વામનઃ વચારધર્મયોગેન્જગ્ગુદ્ધાયાત્, અન્યચા મુામનોગંધે તથાત્રસાવેચનાર્વાભિવ્રવાળ પ્રવર્ત્તમાને મેં શુમાશુમ ર્ડાઝંતિ, તેને જ મવપરમ્પરા, સવાત્મ સંસારે ચર્ચા સિમતાન્દ્રમત કૃતિ બતુવેરન્ના ભોજે સવંત્રતત ઇન્દ્રિયાતસેન્દ્રિયા વેળ જ્ઞાનમંત્રિ પત્ર つ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તરવાવિવાિઈાિં . પૂરક હું ૨૨ ! ધાર્મવિચિત્રપરિણવિશેન શરીર પરિમાળાનવતપરિમાણવપ્નાબહેરામાણ્ય પ્રતિદ્રવેશ નન્તવર્મચૈત્સાહમૃતસ્યાસ્પનચતુતિg પરિશ્રમ વત ત્યાગનેનાત્મનઃ પાયિત્વ તિદિન નૈદાયિlઘમ્યુમિત શામવિધુત્વવા નિરસ્ત રાસમદ્રુશ્વતખંતિમહાવાવતરિતો વોડ્રવ્યાન્વેતસ્કેરી રાવર્ઝનાંsષ્યબાણો ના, ત૭શીરાવનન્તિ મોવિયોગો મળમિત્યાત્મવિમુત્વવાપિ તયાત્મનો નામરણાક્ષિણારિઝમMયોપત્તિસ્થાતિ , વિશાત્મનો વિરુયુગમાને પાત્ર બન્મનિ શતધા છિનાનાં હોવાનાં શતાવશેષ યુપીમ્પપિન્મેન તદનુયોપમોમાથે વિત્તાં પ્રવેશ પામતો માયતનવર્ય પ્રસાત, મોમાયતનશતલખ્યત્વાચ્છત બન્માન તારવવવછિનવૃત્યનનવમનયમિત્તાવાન્તિ માનિ જયુરિટ્યમ્બક્ષજ્ઞાનુબસના શર્મા જ્ઞાનાવરમાંથારિતિ-સ્વપજ્ઞમાવસ્યાsત્મનો હીન માર્મિસ્થાનકવેશઃ સ્વાતિરિવ્યસપૂર્વક પુરુષાન્તરાયોન્યત્વે સતિ હીન સ્થાનકવેશત્નાત, મરિન્મા પારપુછપસ્યાગુવિસ્થાનકવેશવાહિત્યનુમાન તથા નમહત્તતાપપર્યાયપિરિોકગરિશેપદ્રવ્યગ્રહણક્ષમજ્ઞાનનિછવિયાગ્રાહત્વ વિશિષ્ટદ્રવ્યસમ્બન્યપૂર્વ તયાતિભેળાંડનુવાદ્યમાનસ્વરિયગ્રાહત્વત્થાત, તદ્માવયુક્સમાવબતિયોજિત્વા, તમદ્યાઢિપુરુષજ્ઞાનાનિષ્ટયાગ્રાહવાવત્યિનુંમાના વિશિષ્ટદ્રવ્યસંખ્યધપૂર્વવલિઠ્ઠો મર્પિતે વિધિવેન વક્રિસિદ્ધ મહાન યાતિવલિંવાધાત' પક્ષધર્મતાંવટાઢા પર્વતીયદ્દિસિદ્ધિવજીતૈન્યદ્રથા વાધા પક્ષધર્મનાવટાઢા દ્રવિરોચૈવ સિદ્ધિ, સ વ ર જર્મસત્તાં મનત રૂત્તિ 1 નનુ નેત્રં યુtમુt વોર્ઝાપુરનામસ્યSS-મમુળદિતિ , મૈવ, તથા સતિ ધર્મળ ભારતનિમિત્તાવં ન યાત, યો હિ થસ્ય મુળ સ ર તય પારત નિમિત્ત થઈ હવાતિઃ પૃથિગ્યા, શાત્મય ધર્મધર્મસંજ્ઞ ગુખ્ય પૌતિ ત આત્મિના પાતવ્યનિમિત્ત યાવિતિ પ્રસન્ન, શાત્મનઃ પારત નિમિત્તશ શર્ષ, તરાન તપુ તિ વિપર્યયઃ | નવૂમન પાતત્યે વિમાનમિતિ વુિં, તે, પરંતન્નો હીનાનપરિગ્રહવરવત્તિ, યથા ઉતિમન્મિત્તપુરુષોશુખ્રિસ્થાનપરિગ્રહવાવાનિતિ પરતત્રસ્તથગ્યમાત્માપીત્યનુમાનમેવ માન, શરીરસ્ય નસ્થાનત્યં તુ વિવામિનો સુવહેતુવાદ્ ?યમ્, સંસાર્યાત્મની તત્પરગ્રહવયં સુતીતનેતિ નષિદ્ધો તુ, વર્મળ પાતળ્યનિમિત્ત સિદ્ધ વર્ષ પૌઝિન, શાત્મનઃ વાતન્યાને નિત્તાવ , નિહાવિવવિયનુમાન રમવતિ પૌદ્ધિધનાતિ / અને કહ્યુત્ત વિય, જન્મ નંતિ શામળાહવું તે તુ જ ઝુ તો, વધાયાળુ માહામવા છે ? . નાઝા વધા, જુમારું વા િળડું સત્તાપ ? ”રૂટ્યાદ્રિસિદ્વાપરયુક્તિમરવિ વર્મળ પૌશિ સિદ્ધ તસ્ય જ્ઞાનાવરણાતા સિદ્ધાવસનુમાનં, સંસારિજ્ઞાનાર્થી પવાલ સાવરપાં તત્રાંsપ્રવૃત્તિમવતિ , યશનિ વિષયેગ્રવૃત્તિમત્તલ્લાવરમાં, યા તૈમરિયે જીવનગાનમે વન્દ્રમાલિ, સ્વોપાર્થિગ્રવૃત્તિમય જ્ઞાનં, તસ્માત સાવળમિતિ ત્રિનહિાથનાં Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : {F तत्वार्थविवरण गूढार्थदीपिका । तु० सू० टी० શ્વેતસ્ય સ્વનૈવ મિથ્યાત્વાનિવૃતિખંતેનાિવો રિતસ્ય, પુખ્યવાનન્નુમવત હ્યુનેન સભ્યભ્યઃ । પુખ્યરૂપ પુછ્યું વર્ષ ૬ ચલ યુવદુ:વિષમ્ ાંતિ વ્યાજ્યેચમ્ , પુણ્યપાપપ્રતિમ મેળ ર્ત્યનેનાનનાપત્તુઃ । બધ ર્માંચારેવ મેવમ્પ, નૈવન્યાપ તનુય ચન્યોન્યાશ્રય તિ શ્વેત્, ન, વીનાન્નુરન્યાયેનાતોષત્થાત્ । ાનીન્તનર્મવન્યે ર્માંતચપૂર્વવતશેનેવિ સર્વત્ર Ë ત્રિશ્ચય તિ ચત્ । સર્વ માઁના ધ્યતે, માત્, ાનીન્તનામવિત્યનુમાનાનિત્યવેદિ । ઊંદશં તત્પુશ્યપાપાંમત્લાદ-વાનાપનોનિઝરાયેલન્ ।વન્ધો નામૈક્ષેત્રાસ્થિતામાં મયોગ્ય જન્મ્યાનાં રાક્રેપનદ્દાવાદ્યતત્કાત્મપ્રવેશેખ્વાહાપુજ્ઞાનામિવ પરિણામઃ સમ્બન્ધઃ નિષ્ઠાષના તુ → સામાન્યવિશૉમાંશપર્ત્યન સામન્નાĒ હંસળી વિસિયં તુ નાળું છે કૃતિ - વવનાત્તેયાં વિશેષરૂપે॥ યજ્ઞાનું તત્તવશે સાવનમિત્યુત્તહિટ્રેન સિદ્ધે તેષામેવાર્થીનાં સામાન્યજ્યેળ ચર્શને તદ્રવ્યુહોનેવ તત્વો સારાં, થાનામિછાપુસ્થાપિ પુંસો રાખવીનું સ્વાવષયેડપ્રવૃત્તિમત્ત્વાર્ દ્વારપાવરપોના સાવરળ તથા ઋતુગંષ, યચાત્રાવર, તદેવ જામ, ધ્વ બારે સિદ્ધસ્ત્ય મેળો જ્ઞાનાવરણીયદર્શનાવરણીયારિત્યર્ચસ્વનૈવૈતિજ્ઞાત્મનૈવ । જૈવવારસાઽન્યયોાવછેવાર્થતયા 7 તુ કાળા નૃત્યા વેત્વર્યઃ । અનેન નિર્માણળમેળ ગભૅય, ન તુ ત્રાકઋત્યાવિતિ જ્ઞાપિતમ્। સોપિ મિથ્યાત્વાસિષ્કૃત વ મૈતેંતિ પ્રતિપાવનય વિશેષણમાહ-મિથ્યવિષાંતે,તિ-વિષવેના વતિષાયયોગાનાં પ્રમિતિ । પુષ્પપાપમતિ-પુણ્યશ્ચ પાપદ્મ પુષ્પાપે તોયેત સુવુાવિષ્ઠધં છું તત્પુષ્પવામિત્વર્થઃ । તનેવાડ-પુÄ પાપ વિના । અત્ર પુણ્યશ્ચ પાર્શ્વ તીમાંત ચતુર્જા તળાયે જારણોવવાર નૃત્યેતિ જ્ઞેયમ્। સર્વત્રંતિતમવ વ સવારેઞીત્યર્થઃ | સુ પાયત્રાવાડમા ચેમ્બ્રાળાશને શેવ રાજસ્તાદેશાવવાહાત્ મયોગ્યપુત્સાહાનાવત્ત, નૈત્યનારાવવાઢાનું પરમ્પરવિચાહાત્ વા, ન વા તત્ર સ્થિતાનષ્યનન્તાનન્તાનું ોિયાન યપુાતાનાંત સૂચનામાદ-ક્ષેત્રાસ્થિતાનાં મેયો ચાન્દાનામતિ । તથા જોવર્ડ પશ્ર્ચ સાદે-ષસો વાઢે, સન્વષષ્તાદ મળો નોો । નીયો પોદ્દએ, વિષ્ઠ સાથે બળા પ I[છગા” કૃતિ । ! વેચાવાનાનીતિ-શબ્દોમિન્નાર્થવાની, યથા ઢોરખ્યાવયોરે છુટુમ્બમ્, તતોઽવમર્થ: વેજા,પ્રવેશેબંધનાહા લીવનેશાન્તેષ્યેવ સમવનાહાને ખેંયોયાનિ પુર્વીદ્રાળ દીવો ચળતીતિ। મિત્તૌ ધૃવિĂદવાદીયંહિસ્યાયનનસન્વધવવાત્માન રાગદ્વેષનેંદવાવેવ વર્ષાાિયમપુત્રાસ“ધાંત જ્ઞાનાય વેરોળમાદા દ્વેષ સ મેાવર દેતિ । હસ્તાવિર્યેાવયુવાવછેતનામના ચુમાશુમાગષ 7 તદ્ઘારા સ્તાષ્ઠિનાત્મકહેશેરવામા Āપુજ્ઞાનવŁાંત; વિન્તુ સ્વોયસર્વવેદેવ, શૃદ્ઘાવન્દ્વન્યાચેન બનાતન્તુવૃદ્ધા સમિપ્રદેશોનાં મિથસ‰Āસદ્ધવિાવું, હાઘવજ્ઞાત્મપ્રવેશાન પ્રાધાન્યન પાયારેષિ તાંવેતરપ્રદેશનાથે ચૌળàયા વ્યાપારમાદ્રિત્યાયન વિશેષામાદ્ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ r तत्वार्थविवरणगूढार्थदीपिका । तु० सू० टी० : ''s સ્મ્રુષ્ટતાનન્તરમાવિની વૃદ્ધત્ત્વ મેળઃ સરળાયોગ્યતાવા / ધૃષ્ટતા તુ નિાશ્વનામેય ડ્વતિ પ્રધા નોત્તેતિ ટીશ્ચંત ! વઢે નામ ર્માસ્મતેનેઃ સદ Æિાં, વધ્યા સૂવચઃ જાપવ્રુતાઃ પરસ્પર વહા અન્ત ! તા વારનો પ્રલિપ્તાર્તાઃતાઃ સમમિન્યગ્યમાનાન્તરાઃ સ્પૃષ્ટા તિ વિચત્તે, તા પુનઃ પ્રતાપ્ય યુવા ધનેન તાડિતાઃ પ્રાપ્તવિમાના ષિષ્ણુતાનિતાતા નિષિતા રૂતિ વ્યપદ્રેશમરનુવતે । વ ર્માંધ્યાત્મપ્રદેશે. ચોનનીયમ્ । તથૈવ નિજતત્ત્વ પ્રત્યાવિવન્ધોળાસ્થિતસ્યોદ્યાર્વાજાપ્રવિણ્ય પ્રતિક્ષણૢ યો ત્રિપાાનુમા ૬ અઠ્યા કે યાનુમવલયનન્તરમેવાપેતાને હેશ શિતિસમયે મેં નિમ્નેરાજ્યપદ્રેશમનીજરોતિ । વન્યાય. નૃતવ્રુન્દ્રાતાં અપેક્ષત તિ મેળ્યમ્ । યં પુનઃતારું બન્ધાપેક્ષત તિ શ્વેતુ, તે, તો વાગ્વિસત્તુ ન તત્સમ્મવકૃતિ ટીાષ્કૃતઃ । વર્ષાના નનયોચદ્વારા ર્ત્યનેબત્ત, નિર્ણરાયતુ ધારાઽવત્ઝેવેન તરિપુષ્ટી નેતુતેવિ સામાતિ વાનુમત્ર નૃત્યંત આ—નારા તથ્યોોનિરુત્ત્પત્તિસ્થાનમ્ , મનુષ્યાસ્થાનનાર્શ્વ તેવા મવક્રાન્તિ શરીરાદ્વાનાનિ તેવુ વિવિધમનેવિધ પ્રતિમેàન મેવાત ! થમનુમવત ફાદ જ્ઞાનવર્શનોપયોગવૉમાવ્યાત્ । ચા યોષ(૩)ક્ તના તવા મુખ્યદં તુ વિતોડાંમતિ સાધરાનારોપયોાવહાશ્વેતયતે તેનાયાનુમત્ર નૃત્યર્થઃ । ત્તસ્ત્રન્થનાસ્ય સમ્બન્ધ તર્ધાન તાનીયાટ્િ જ્ઞાનવીનોયો ત્યાગુ સચ્ચારવામાધ્યાદેવ તાનિ જ્ઞાનિ ર્પારેબામાન્તરાળિ તિ । ńન તાનીતિ મુત્ત્તમ્યન્તરેઽપે મનસધ્ધવાર્ વનિાન્તિ નિ વેદ શુમાનિ શ્રાદ્ઘાળિ | સમ્યદર્શનમાવ્યધિારાત્। વત્તુોતિર્ધ વીપ્સા । વ્યથવા ચાન્યને પૂર્વાવસાયાન્તરાળ સાચેવ પરાવસાયતયા વર્તન્ત ચન્વયંપ્રતરીના વીલ્સા । રામચ નેતનાનેતનસાધારણવાવનીવર્ષારે મધ્યાવૃત્યર્થમધ્યવસાય સ્થાનબળનું । સ વર્જી નીવત્તાનિ ચુમધ્યવસાયાન્તરાખ્યાન્દ્રજ્ઞનામોનિÚતંતેન ચચાપ્રવૃત્તરહેન સતિ પરણામ ાંત-પરિણામાનુ∞ રૂત્યર્થઃ । નિષ્ઠાષનેતિ નિાયંસે સઇજરાયોગ્યઘેનાચવઘતા વ્યવસ્થાખતે મેં નવિન યયા સાનિાવનેત્યર્થઃ। વધા વચ: હૃત્તદા કૃતિ-વચ્ચે નિષના ચોથ નિર્ઝા = વાનાષનો નિરા ત્યર્યઃ । તત્પરિપુષ્ટ –રિપુણૅ ચૈતનખેતનસાધારણત્વ રીત-વતનરળામાઅંતનારામમેહેન દ્વિવિધાયર્થઃ । અનામોળાનેવેતિતેનેતિ-અમિર્ઝાન્યનિતેનેત્યર્થ કે ચંચપ્રવૃત્તાંનેતિ યયાત્રવૃત્તાપૂર્વકળાનિયંત્તામેવેન જળાનિ ત્રિવિ ધાનિ, તત્રગ્નવિસંસિદ્ધધ્ધારણ પ્રવૃત્ત થાત્રવૃત્તમ્, ચિતે મેમનેતિ રામ્, સર્વત્ર ગૌવર્ષારામાંવશેષ છોબ્બતે, યથાપ્રવૃત્ત હૈં તરાસ્ત્ર વંચાત્રવૃત્તાળમ્, મુત્તષિ શબ્દેન ર્મધારય, અાિત્કમલપ્રવૃત્તોઽવસાયાર્યોો થયાપ્રવૃત્તરળમિત્યર્થ:, બાલપૂર્વ-પૂર્ણમ્ સ્થિતિયાત સધાતાદ્યપૂર્વી,નિર્વને પૂર્વમ્, નિવૃત્તના ં નિવાસઁ, ન નિવૃત્તિ અનિવાર્ત્ત, બ્રાસહીનહામાત્ર નિવર્તન થશેઃ । તાનિ ત્રિયિ યોત્તર વિશુદ્ધવિશુદ્ધતાવિશુદ્ધતમ વ્યવસાયાાથે મળ્યાનાં રળનિમન્તિ, અમન્યાનાં તુ પ્રથમમવ્ યાપ્રવૃત્તરાં, નેતરે કેવા માબ્વેન્દ્ર અહાવત્ત પુનિટ્ટિયમેવ મન્નાાં | ૨ - K ' Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮: વાવિવરજૂઢાર્થીપિન્ના 70 ફૂટ થી તાં તામુત્કૃષ્ટ સ્થિતિમવન્ના વોટaોલ્યા સારોપમનિમન્તઃ ક્ષપર્યાવત્ યાતિ ચાવત્તા પદ વિર મન પરિણામો ૨૦રા” તન્નાનાદિકાકાર થાવ ચિહ્યાન તાવથમ યથાશ્રવૃત્ત મતિ, વલપળનવન્ધનાધ્યવસાયણિર્ય સંવેવ મારા, બિછાનાં પ્રકૃતીનામુદ્રયગ્રાહીનાં સવેવ ક્ષણાતિ નુ વ્યક્તિ પ્રમેિજૂિર્વ સભ્યતાદ્વિમુખનિજોયિ નીવર મુવીર્થી મસ્થિતિ પથતિ ર્ફિ તનેન્તર શવમાં જર્માત સર્જાહિમુળાનું વિનય ક્ષયતુ, તત મોલમનલિત ખ્યાવિગુણ ઈવે નંવ વાલાયતું વિમ મિતતુમૃતસરમુતિ વે, , સિધયિતિમવિદ્યાયાઃ પૂર્વસેવ પૂર્વે , સ્થિતિક્ષણે જ થાબવૃત્તનળત્રિયા સા નાતિપુર્વ વિખ્ત વસૂિકી મતિ, મહાવિદ્યાલાધનબાવચ્છભાવિ યા પુનમેવાઢા મોક્ષાથને સમ્યકર્શનનાંનવર્જિતવાત્રિ - બિયાં સાતવમુવી સુબાપા સવિબા રમવાત, ન ઘાયુષ્ટ પૂર્વમાંબિયાસણોત્તર શિયામ, રંતરે માવદ્યારિદ્ધિને મવતિ તવેતો સાવનજ્ઞાનાન્વિતવારિવામિન્તરેલ છે. વાદવિષિ મોક્ષો મતિ, તહેવં સખ્યાદ્રિળિયાવસ્થામાં ક્ષતિવદુર્ગાઢપાવતવદુપર્વ નવ રશ્વિમેવાર્થ વયમેવ વારસામગ્રીમદ્દાવાત સમ્યકત્વાદ્રિમુખવાસ્તત્સત -- દવે વીવો મોક્ષમવા મોતીતિ સિંદ્ધમા કાર્ચ માગે-“TET પુવા , પરિયડ તામિ પુર : તરિયા હોટ મહાવિજ્ઞg, શિરિયા પયં સવિશ્વ જ ?? તદ વર્માફિયછે, પરિમ :मोक्खसाहणे गुरुई । इह ईसाइकिरिया, दुलहा पायं सविग्धा य ।। १२०० ॥ अहब ओ. વિય સુવડું, વિવે તે નિમુળ ન સંપ . સ નો હમણ, સમ્મત્ત સુવાડાગામ fi૧૨૦શા ” કૃતિ ! સ્થિમિન્દ્રનિસ્ય દ્વિતીયમ્, કનકશુદ્ધતરષ્યિવસાયમાં તેને પ્રત્યે મેવાત ! મિમુલસમ્યવવસ્થ સ્વતીયમ્, તમારે વિશુદ્ધતમાં થવસાયનિન્તર સન્યવહામાતા વિશેષાવવામાળે-“ના માટે તા પેઢાં, કંઠસમજી લપુવં તુ નિયદિશા માં પુળ, સન્મત્તપુરાવો નીવે ૨૦ગ્રાફતા મિથ્યાદિપિ નીવો મિસિરિતક- ક મિથીર્વાઇનાન્યાન યથાપ્રવૃત્ત દળેનાગ્નામત વર્ધીતનામત વર્ગની પ્રજદુત વર્ગ વિવાદ્ધ ક્ષયનું પોતે નળ્યું વન વિંવિધાં Íસ્થિતિમવદૂાર્ય , યહ્મામાનું વાવયાતીયાફ્રાથમિાહ નાં નાખુષ્ટાં સ્થિતિમિળ્યાય ૩જીદી શસ્થિતિશૈવવંશાવદિતાપમાન જ્ઞાનાવરાવનાવાળવેનીયાર ચિહપ- - વતાનાં નામોત્રયોર્વિશતિસાગરોપમદાદીમાના સતતિમા પમરાટીનાના મોહેંનીલવર્મળ સ્થિતિ : ડૉચ વિશેષાવને –“વસિયરોવાળ, હાલો નામોથાળ ! સારી નોહાર લેસ તસજોલા ૧૩૮૭ ” તત્ર પાં ખાણુત્કાસ્થિત વર્તમાન પ્રવાહોદ્દાચ્છાહિતત્વન મિપિ સમ્પર્શને રમતે, ડગ્ન-“વર્લ્ડ ર્ષિ વીતી, ડોસઠ વાળ. હમતિ સમૃદંત, મિચ્છof વિદિાશો છે ? ”રુતિ.? - Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __तत्वार्यविवरणमूढार्थदीपिका । तृ० स० टी० अपि पल्योपमासंख्येयभागः क्षपितो भवति, तस्मि-स्थाने प्राप्तस्यातिप्रसधनरागद्वेषपरिणामजनितः । वज्रामवदुर्भदः कठिनलागूढग्रन्थिरुपतिष्ठते, तत्र कश्चिद्भव्यसत्त्वस्त मित्त्वाऽपूर्वकरणवलेन प्राप्तानिवृत्तिकरणस्तत्वार्थश्रद्धानलक्षणं सम्यग्दर्शनमासादयति, ननु तावत्पर्यन्तकर्मणि क्षपित किमाविर्भवतीत्याशङ्कायामाह-तस्मिन्स्थाने इत्यादि। उक्तश्च"अंतिमकोडाकोडीए सबकाणमाउचज्जाणं। पलियासंखिजइमे भागे, खीणे भवई गंठी । ।११९४।" इति। कठिन ८.० ४.६ प्रन्थिरिति कशवनर गूढवल्कलग्रन्थिरिव ग्रन्थिरित्यर्थः । उक्तञ्च-"गंठित्ति सुदु-भेओ, कक्खडधणर ढगूढगंठिन्य । जीवस्स कमजणिओ, पण रागहोसपरिणामो ।११९५।" इति । नन्वमुं ग्रन्थि याबद्भव्य एव समागच्छति कि वाऽभव्योऽपीति चेत्, उच्यते, अभव्योऽपीति, तथाहि-अमुं ग्रन्थि यावद भव्यजीवोऽप्यनन्तशो यथाप्रवृत्तकरणेन कर्म क्षपयित्वा समागच्छति, तंत्राऽऽगतस्य तस्य श्रुतसामायिकस्यावाप्तिरपि, उक्तश्च-विशपावश्यके"तित्थकरराइपूअं, दणणेण वाऽवि कज्जे । सुअसामाइअलामो, होइ अभयरस गठिम्मि ।१२१९।" इति । अयमयः-अदादिविभूतिमतिशयवतीं दृष्ट्वा अहो ! कीदृशं तपसः फलम् ? धदिवविधस्सत्कारो देवराज्यादयो वा प्राप्यन्त इत्येवमुत्पन्नबुद्धरभव्यस्याऽपि ग्रन्थिस्थान प्राप्तस तद्विभूतिनिमित्तमिति शेषः । देवत्वनरेन्द्र त्यसोभाग्यबलादिलक्षणेनाऽन्येन या प्रयोजनेन सर्वथा निर्वाणश्रद्धानरहितस्याऽभव्यस्याऽपि संयमतप आदि कटानुष्ठान किश्चिदङ्गीकुर्वतो मिथ्याज्ञानरूपस्य श्रुतसामायिकमात्रस्य लाभो भवेत् , तस्याप्येकादशाङ्गपाठानुज्ञानात् , न पुनस्सम्यक्त्वादेलभिः, अभव्यावहानिप्रसङ्गात् । ननु तत्रामव्यात्मा भव्यात्मेव कियकालं तिष्ठतीति चेत्, उच्यते, संख्येयमसंख्ययं वा कालमिति । उक्तञ्च धर्मसङ्ग्रह-"ग्रन्थिप्रदेशं यावत्वभन्योऽपि संख्येयमसंख्येयं वा कालं तिष्ठति, तत्र स्थितश्चाभन्यो द्रव्यश्रुतं भिन्नानि दशपूर्वाणि यावल्लभते जिनद्धिदर्शनात् , स्वर्गसुखार्थित्वादेव दीक्षाग्रहणे तत्सम्भवादिति । ग्रन्थिस्थाने चैवं पूर्वप्रदर्शितकालं यावस्थित्वा पुनः पश्चात् प्रतिनिवर्तते इति । नन्वभव्यसिद्धिका किमभिन्नानि दश पूर्वाणि चतुर्दश पूर्वाणि वा नैव लभते, ओमिति चेत्, तत्रास्ति किमपि कारणम् ? अस्तीनि त्रूमः, तथाहि-यस्य चतुर्दश पूर्वाणि यावदश च पूर्वाणि परिपूर्णानि सन्ति तस्य पुंसः नियमात्सम्यक्त्वम् , यस्य च किञ्चिदूनदशपूर्वादियावसामायिकपर्यन्तश्रुतं तस्य सम्यक्त्वं भवेत् मिथ्यात्वं वा। उक्तश्च-" चोदश दश य अभिन्ने, नियमा समं तु सेसए भवणा” इति । तथा चामन्यात्मनः सम्यग्दर्शनाभावप्रयुक्तभिन्नदशपूर्वाधिकपठनयोग्यत्वाभाव एब कारणमिति । ननु भल्याभव्ययोजींवत्वेन साम्यानोक्तविशेपो युक्तियुक्त इति चेत्, मैवम् , जोत्याजात्यरत्नयो रत्नत्वेनेवतयोजीवत्वेन साम्येऽपि स्वभावसाम्यासिद्धेनोक्तविशेषोऽयुक्तः, तत्र मुक्तत्वप्रयोजिका सामान्यतोऽभव्यावृत्ता जातिव्यत्यमिति गीयते, तद्विपरीता जातिरभव्यत्वभात्मनोनादिपरिणामभावलक्षणमिति । ननु भव्यजीवो ग्रन्थिस्थाने भिन्ने किं लभत इत्याश"कायामाह जन कश्चिदित्यादि । सायदर्शनमासादयतीति-च-"मिमि तमि Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । १२० : तस्वार्थविवरण गूढार्थदीपिका । त० सू० टी० ___कश्चिद् अन्थिस्थानादधो निवर्तते, कश्चित्तत्रैवावतिष्ठते, न परतो नाधःप्रसपतीति । अत्र - चोपदेष्टारमन्तरेण यत् सम्यक्त्वं तनैसर्गिकम् । तदाह-अनादीत्यादि । नास्या(आ)दिरस्तीत्यनादिः, अनादिमिथ्या दृष्टियस्य स तथा, अप्राप्तपूर्वसम्यक्त्वलामस्येत्यर्थः। अपिशव्दात् सादिमिथ्यादृष्टेरपि, सतो भवतः, परिणामविशेषादध्यवसायविशेषात् , स चेह यथाप्रवृत्त करणाख्यो गृखते । ततः परमपूर्वकरणम् । अप्राप्तपूर्व तादृशमध्यवसायान्तरं जीवेनेत्यपूर्वकरणमुच्यते । तच प्रन्थि विदारयतः । ततश्च ग्रन्थिभेदोत्तरकालभाव्यनिवर्तिकरणमासादयति, यतत्तावन्न निवर्तते यावत्सम्यक्त्वं न लव्धमिल्यतोऽनिवर्तिकरणम् , तद् ग्रन्थान्तरसिद्धत्वाद्धाप्यकारेण नाक्त, कार्यसहभाविकारणत्वेन तस्यावश्य लाम - इत्यभिप्रायाहा । निगमयति यदेवमुपजातमेतत् (निसर्ग)सम्यग्दर्शन मिति । एवं जीवस्योपयोगस्थामाव्यात् तदधिगमादपि प्राप्यते । तत्र कोऽधिगम इति निर्णयार्थमाह-अविराम इत्यादि । अधिकं ज्ञानमधिगमः । गुरुमाभिमुख्येनालय यद् ज्ञानं सोऽभिगमः, आगमः सिद्धान्तः, कारणे कार्योपचारः, निमित्तं सम्यग्दर्शनोत्पादकं बाह्यं वस्तु प्रतिमादि । श्रवणं विचारसहितवाक्यश्रुतिजनित सत्ताईण मोक्खहेणं " इति । कश्चिद्धन्यिस्थानादधो निवर्तत इति-ग्रन्थि भेत्तुमसमर्थः, रागादिभिर्जितात्मा पुनरपि ग्रन्थिस्थानात् व्यावृत्य संक्लेशवशादुरकटस्थितीनि कर्माणि बनातीति भावः । उक्तश्च "ग्रन्थिप्रदेश तु सम्प्राप्ता, रागादिप्रेरिता पुनः । उत्कृथ्वन्धयोग्याः स्युश्चतुर्गतिजुपोऽपि ते ॥१॥” इति । कश्चित्तत्रैवावतिष्ठत इनि-कश्चित्पुनरसंख्येयं संख्येयं वा कालं तदयस्थपरिणामः कर्मणस्थिति वर्धयितुं हापयितु पाऽसमर्थस्तत्रैवावतिष्ठत इत्यर्थः । नपथः कोऽपि पुरुषोऽ८च्यामितस्ततः परिभ्रमन् कालान्तर मार्गानुसारिप्रज्ञतया स्वयमेवोहापोहं कृत्वा भाग लमते, कश्चित्तु मार्गज्ञपरीपदेशात्तम्प्रामोति एवं कोऽपि सर्वथा नसत्पथो भव्यात्मा संसाराटच्यां पर्यटन् ग्रन्थिस्थान प्राप्त सन् ग्रंथि भित्वा स्वयमेव सभ्यत्वादिसत्पथं लभते, कोऽपि मोक्षमार्गपरोपदेशात्, तत्राधभेदमधिः । कृत्याह-अन्न चोपदेष्टारमन्तरेणेत्यादि । द्वितीयभेदश्वाश्रित्य प्रतिपादयिष्यति, एवं जीवस्योपयोगस्वाभायात् तत् अधिगभादपि प्राप्यत इत्यादिना । सादि.. मियादृष्टेरपीति-पूर्व यत्सम्यक्त्वं प्राप्तं पश्चादनन्तानुबन्धिकपायोदयात्तद्वमित्वा पुनरपि मिथ्यामा गतस्याऽपीत्यर्थः, मिथ्याष्टित्वे प्राप्ते तस्य संदित्वभावादिति भावः। ननु कियत्काल मिथ्यामाचे स जीवस्तिष्ठतीति चेत्, उच्यते, जयन्येन कश्चिद् भव्योऽ.मुंहूत; कश्चिचोत्कर्ष- , णापापुद्गलपवतं यावत्, तदनन्तरं पुनरपि सम्यक्त्वावाप्तिरिति । अधिगमसम्पदशेन • यथावाप्यते तथा चाह-जीवस्येत्यादि । ये धातवो गत्यस्ति ज्ञानार्थी इति गमेर्गत्यर्थवाज्ञानार्थत्वमित्यभिप्रायेणाह-अधिकं ज्ञानमधिगम इति-आगमस्य वर्णपदवाक्यराशिरूपत्वेऽपि यदधिगमसम्यग्दर्शनरूपत्वमुक्तं तंत्र कारणमाह-कारणे कार्योपचार इति।। यथा नवलोदकस्य पादरोगकारणत्वात्तत्र पादरोगकार्योपचारेण नड्डलोदकं पादरोग इत्युच्यते .. तथाऽमस्य, तत्मपर्यालोचनद्वाराऽधिगमसम्यग्दर्शनजनकत्वात्तत्राधिगमसम्यग्दर्शनकाय/५. पार नामरसवधिरित्युतमिति भाषा । पाषं पर प्रतिमादीति-प्रतिमादि Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તે¥વાવિવરણપૂઢાર્થ વિના 1 . ફૂગ ટૌe : ૨૨ : જ્ઞાનમ્ | શિક્ષાપ્રસ્થમ્યાનનિત વિફળ, પતે પા લિક્વિટું પ્રતિપામાન નિલખ્યામેવમુપાયન્તોડનઃરમેશપ્રયોગના સપિક્યાહ-તહેવમત્યાદ્રિના, પરોપવેશવિતિ-પ્રતિમાદ્રિનિમિત્તાપક્ષમતા પર પશાચ્છાવિત્યેવ નિરખેડડ્યાાપરે છે મતિ હિ યર્િ મચંહ્ય પ્રતિમાથાશ્યાપિ તવબાિિરતિ. સ્વાસન્નિહિતનિમિત્તાપેવેનૌતાનો નાતિસેવો વ્યર્થત કૃતિ. નિચાવ્યો રૂ . કારસૂત્ર સ્વયમેવ માયન્નાહ, (મા) અન્નાહૂ તરાર્થથદ્ધા સભ્યમિત્યુ તત્ર તરતિ ? | મત્રોને (યશો )-ત્રાહત્યાદ્ધિ-નન્વયુત્તોડગે પ્રશ્ન / તીવીનિ નીવાલીનિ વક્ષ્યત્ત રૂતિ માધ્ય પવોwવાતું, , તતઃ વરૂપજ્ઞાનેડપથરાયા અજ્ઞાનાવિતિ ટીકૃતઃ | પર્વ પતિ ઋતિવિઘે તવતિ પ્રખર્ચ સ્થા, હતિ વે, અત્રેમામાતિ, વિમાનજ્ઞાસાયા મૂતવિમાનાનવિષયોદેયસ્યપિ મgથત્વાલ્વિમુનિ નિમેલૈં) ૪ (૧) િતિવિધું વેચનોમાં વૃદ્ધિસ્થત્યાત ! હું વાહનમિત્તાત્ વત્સરીનમુનાતે તામિત્તલનમિતિ નીયત મૂહે પવેશ રૂતિ- વિજાતીયુ મુહરેવ, દેવવશ્વસંસ્કાર, તો યત્નાદુરસ્ત ! પરોપવેશાયિત્રોપક્ષબન્યોના પ્રતિભાવનિમિત્તગ્નિનુસરળ થસ્થાત્તવાહ-પરોપશાચ્છાવિત્યાદ્રિ अव्याप्तिमेवाह-भवति हीति । वासन्निहितनिमित्तापक्षत्वनैतनिटो जातिभेदोव्यज्यत इति-स्वं सभ्यग्दर्शनं तदसान्निहितं तदनधिकरणं यानिमित्तं तदपेक्षत्वेनाधिगमसम्य. જનનિ નિમર્શનાવૃત્તિ નાવિશેષરસ વ્યસ્થત રૂાર્થ / રૂ . ! તૃર્તાયસૂત્રટીશ સમણિમા ચતુર્થતત્રવતરળિક્કામહિ૩ત્તરસૂત્ર વયમેવેન્યાવિ . તંત્ર જિં? તરવમિતિ માધ્યમ્, કર્યા તવાર્થિવ્યનિધિદશમૂતં તવં હિં, તનવીન્હવાગ્યે મિતિ ક્યા ? ફથી પ્રશ્નાયુત્વે હેતુમાદરવાનાવા માળે દ્વિતીયસૂત્રમા પૂર્વ સંતતિવિયર્થ વમિતિ નિયતરાંવ્યાજ્ઞાનાર્થ જો સતીત્યર્થ. સ્વમૂત-વિમાનજ્ઞાસા વિમા જ્ઞાનં મે નાયતાત્યારિવા, પ્રશ્નો પવાર્થધક્ષતર્વસવસામાન્યધર્મવ્યાયપરવિરુદ્ધ નાનાધર્મકારવિરોધ્ધતપત્તિનનવાજ્ઞાનવિધીછા, તસ્ય પહાભૂત નિહસ્તેચ્છા ઋથિતુવેચ્છાયા ઉત્તરવિધાપુરુષે જ્ઞાનપત્ત પ્રક્ષવાક્ય, તત ઉત્તરથિતુર્નિાતે છાજ્ઞાન, તને હૃચ્છાવિષયમૂતત્તિમામ જ્ઞાનાવોત્તરવા, તત, ઉત્તવમાજ્ઞિાનમિત્યાં વિમાજ્ઞિાનં, તપિયો જ ઉદ્દેશ્યસામાન્યધર્મવાન, વિમાશાને સામાન્યધર્મવાધ્યારાવિરુદ્ધનાનાવર્ષાળા વિધેયત વિષયરૂં, સામાન્યવતોદ્દેથયા વિઘતિ તસ્યાપિ છગ્ગવાત્રક્ષાવિષયાત્, ઉદ્દેશ્ય સામાન્યતઃ પ્રશ્નાવિયત્વે તડું વિશેષબારજ્ઞાનવિષયોચ્છાવો બક્ષસન્મવાત, ત્વમુth-વિન્તવમયેવમુક્તિ, નનું સામાન્યધર્મવત ઉદ્દેશ્ય વાવ તરવપમતિ તન્ય પિસમમિથ્યારિતdદ્ધાર્ચસ્વ ટ . ' Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ १२२ तत्वार्थविवरण गूदार्थदीपिका। च० सू० टी० पद्यतां, तद्विशेषप्रकाराभिधायि पदं तु न प्रश्नध-कामिति कथं तथोक्तितो विभागजिज्ञासावनिरित्यत आह-किमैव चेति-अयमेवान पाठो युक्तः, न तु किमेव चेति, किमा किशब्देन,- . ५वकारोऽन्यदच्यवच्छेदका, कि तत्वमित्येतद्ध८ककिशब्दनः च किं कतिविधं वेत्यनयो- . . लाभः, क इति पाठवत्र नोपयुक्तः । तथा च किं कतिविधं का तत्वमिति प्रश्नाकारः, कथं . लाभ इत्यपेक्षायामाह बुद्धिस्यत्वादिति-प्रश्नयितबुद्धिविषयत्वादित्यर्थः । सूत्रम् जीवाजीवासवबन्धसंवरानर्जरामाक्षातत्त्वम् ॥१॥४॥ (भा०) जीवा अजीचा आनया बन्धः संवरो निर्जरा मोक्ष इत्येपः सप्तविधोऽर्थरतत्त्वम् ।। पते वा सप्त पदार्थास्तत्वानि । ताँल्लक्षणतो विधानतश्च पुरस्ताहिस्तरेणोपदेक्ष्यामः ॥ (यशी०टीका) जीना अजीवेत्यादि-जीचा उपयोगवन्तः, अजीवास्तविपरीताः। आश्रय आत्मधर्मत्वे सति कर्मवन्धासाधारणकारणम् । बन्धोऽभिनवकमग्रहणम् , आभिनवपदेन संक्रामव्यवच्छेदः । । संवर आश्रवविपरीतः । विपाका तपसा वा कर्मपरिगाटो निर्जरा, कर्मपरिवार: कर्मात्मसंयोगव्यंसः, '. यद्यपि "स आश्र"६-२-इति सूत्रेण त्रिविधोऽपि कायमचोमनोयोग शुभाशुभयोः कर्मणोरावरणादाम इति पटाध्याये वक्ष्यते, योगवात्मकायाधीश्रयत्वेनोमयाश्रयत्वादुमयधर्म इति । तल्लक्षणासयोऽप्युभयधर्मस्तथापि तस्य कार्यादिसहकृतात्मव्यापाररूपत्वेन तत्र चात्मन एवं प्राधान्यादात्मधर्म तद्वयतिरेकेण कवन्धाभावात् शुभाशुभकर्मवन्धाऽसाधारणहेतुश्च स इत्यभि- ' प्रेत्य तद्धटिततल्लक्षणमाह-आश्नच आत्मधर्मत्वे सतीत्यादि, मिथ्यादर्शनादिपरिणाम- - ... लक्षणाश्रवपक्षे सूक्तलक्षणं सुसङ्गतमेव, मिथ्यादर्शनादेशमधर्मत्यादिति । संसारानादित्वान्यथानुपपत्यकैकाऽऽत्मानसन्तत्या कर्मबन्धोऽप्यनादिरेवेति पूर्वपूर्ववद्धकर्मप्रेरित आत्मा प्रतिक्षणमभिनवं कर्म बध्नाति, यतः कर्मणैव कर्म वध्यते, नान्यथा, सिद्धात्मनोऽपि कर्मवन्धापत्तरित्या- । - शयेन बन्धलक्षणमाह-बन्धोऽभिनवग्रहणमिति । सङ्कमेति-"भूलप्रकृत्यभिन्नाः . . सङ्ग्रामयति गुणत उत्तराः प्रकृतीः । नन्वात्माऽभूतत्वादध्यवसायप्रयोगेण ॥ १॥" इत्युक्त्या ' ,' तत्स्वरूपं ज्ञेयम् , तस्याभिनवकर्मग्रहणरूपत्वाभावादभिनवपदेन तद्वयवच्छेदः कृत इत्यर्थः । । संवर आश्रयविपरीत इति-काययोगादेराश्रवस्य द्वयधिकचत्वारिंशद्भेदस्य यो निरोधस्तद्ध-.. तुस्संपर इत्यर्थः । विपाकादिति-अबाधाकालपरिपूरा यत्कर्मोदयावलिकायां प्रविष्टं तद्रसानुभावादित्यर्थः । नेवायं नियमो यदपायाकालपरिपूत्यैव कर्म विपान क्षीयत इति, कि चिर- . . तरकालपरिमोग्यं निकाचितमपि कर्म प्रागपि तपसा क्षीयत एव "तवसा उ निकाइयाणं वि" . . इति वचनादिति ज्ञापनायाह-तपसेति । ननु कर्मपरिशाटो निर्जरत्येव लक्षणमुच्यताम् , किं ।' हेतुस्तितल्लक्षणाभिधाने त्याशङ्कानिवृत्यर्थमाह-कर्मपरिशाद इत्यादि वेत्यन्त पर्य-समिति । अयम्भावः-विपाकातपसा वेति विशेषणोपादानाद् विपाकतपोऽन्यतरजन्यो यः प्रायोगिकनि- . . रात्मक कर्मपरिशाटः सोऽन ग्राह्यः, नात: सिद्धारगवतासिककर्मद्रव्यसंयोगध्वंसलक्षणपरि- . Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - स्वार्थविवरणमूढार्थदीपिका । 'च० सू० टी० : १२३ : तथा च सिद्धात्मक द्रव्यसंयोगध्वंसेऽतिव्यातिवारणाय येत्यन्तम् , विपाकतपोऽन्यतरजन्यत्वं तदर्थः । आत्मनः स्वभावसमवस्थानं मोक्षः । तत्वादस्य व्युत्पतिपक्षे जीवादीनां या स्वसत्ता सैव तत्वम् । तस्याश्च प्रतिविशेष यो वस्तुमेहस्तमनहित्यकवचनम् , सामान्यस्य विशेपानतिरिक्तत्वात्तमाहत्य च बहुवचनम् , इत्ये५ सप्तविधोऽर्थस्तत्वम् । एते वा सप्तपदा तवमि(स्थानी )ति व्याचष्टे भाप्यकारः । वस्तुतत्तत्पदं स्वाभिमतमोक्षजनकसमूहालम्बनशानविषये रूढम् , ताशज्ञानविषयत्वमेव चैक भाक्तम् । तच बहुत्वापच्छेदेन पर्याप्तमिति, करितुरगरथाः सेनेतिवज्जीवादयस्तत्त्वमिति निरचयः सौत्र प्रयोग. । एवं च जीवादीनुदिश्य तत्त्पविधानात् , तत्त्वमुद्दिश्य पुनरावृत्या जीवादिविधानं कर्तव्यम् । शाटेऽतिव्याप्तिः, तस्य स्वाभाविकपुद्गलक्रिययैव जन्यत्वादिति । निखिलकविरणापगमेन सर्वथाऽऽविभूतेऽनन्तज्ञानदर्शनावात्मके स्वस्वभाव आत्मनो नित्यावस्थान मोक्ष इत्याह-आत्मनः स्वभावसमवस्थानं मोक्ष इति । तत्पशब्दो व्युत्पत्तिसिद्धोऽव्युत्पत्तिसिद्धश्चेति द्विधा, तत्राऽ•युत्पत्तिपक्षे परमार्थरूपार्थे रूढस्य तत्वशस्य नादतिरत्र कृता, किन्तु तस्य भावस्तस्वामिति यौगिफतवसदस्येवेति व्युत्पत्तिपक्षमाश्रित्याह-तत्वश०दस्य व्युत्पतिपक्ष इत्यादि। जनमते सत्ता जीवादिभ्यः कथञ्चिशिनाऽभिन्ना च, न तु नैयायिक झिनैव, तथा चाधपक्षे तस्याः प्रतिव्यक्ति यो भेदतमानङ्गीकृत्य तस्या एकरूपत्वात् , "इत्येप सप्तवियोऽर्थस्तत्वम्" इत्येकवचनम् । द्वितीयपक्षे च नैयायिकवत्तस्या अतिरिक्तत्वानभ्युपगमेन व धर्मतया तत्तद्वयविभेदापेक्षया भेदमङ्गीकृत्याऽनेकरूपत्वाद् "एते वा सप्त पदार्थास्तत्वानि " इति बहुवचनमित्याशयेनाहतस्याश्च प्रनिविशेषमित्यादि । तमादृत्येति-भेदमङ्गीकृत्येत्यर्थः । वहुवावच्छेदेनेति-बहुत्वञ्चात्र लक्षणभेदज्ञानजनितपरस्पर भेदज्ञानविषयत्वरूपं तदवच्छेदेनेत्यर्थः । करितुरगरथाः सेनेतिवदित्यादि-जीवादिषु जस्प्रत्ययार्थबहुवावच्छेदेन पतिसम्बन्धेन सिप्रत्ययार्थस्य तादृशभाक्तकत्वस्य तत्वात् , करितुरगरथाः सेनेत्यादाविन बहुवचनावरुद्ध एकपचनाऽवरुद्धस्योदेश्यविधेयभावेनान्यो नाऽनुपपन्न इति भावः । अथवा करितुरंगरयाः सेनेत्यत्र સેનાપસ્ય રિતુથસમુદા સ્વાવચ્છિનાર્ચન તવારા સમુદાય સેનાપવોત્તરવાવવનफरवस्याऽन्वयः । करितुरंगरथा इत्यत्र बहुवचनार्थबहुत्वावच्छेदेन करितुरगरथेषु समुदायत्वावच्छिन्नात्मकसेनाविधानं तद्वदनाऽप्युक्तज्ञानविषयत्वमेव तत्त्वं तदेकदेशे ज्ञाने तत्वपदोत्तरकपचनार्थस्यैकत्वस्याऽन्यः, उक्तलक्षणतत्वस्य च बहुवचनार्थबहुत्यावच्छेदेन सप्तपदार्थेऽन्वय इति । अदबदहनन्यायेन यावद प्राप्तं तावद्विधेयम्, अत एव दना जुहोतीत्यत्र दनः प्रत्यक्षसिद्धत्वाकरणत्वमा विधेयमिति प्रामीमांसकाः । अतो जीवादिपदार्थाभिज्ञ जीवादिपदार्थानुदिश्य तत्वविधान, सामान्यतः वाभिज्ञे तमुद्दिश्य च जीवादिपदार्थविधानमित्युद्देश्यविधेयभावे प्रतिपाथपुरुषापेक्षेत्यभिप्रायेणाह एवच जीवादीनुदिश्येत्यादि । अथवा प्रश्नवाक्य उद्देश्यस्योत्तरवाक्ये विधेयत्वमिति नियमा, एवञ्च किं तमिति प्रश्ते Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સાવાભિવર્ધીજિલ્લા ર૦ ફૂટ સત્ર ૨ વમળે તમને શર્ત ! હવે વોટ્ટવિયાવી વિધવચ્ચેના વિધવચ ઢામાવાધિલ્પવતોડવામcવાવ જ ન્યૂનત્વચૈવ જેવો હમ્મત તિ પ્રતિષત્તન્યા અથ સૌવ પાથ ફતિ કુત, પુખ્યપાપોરન્યત્ર શ્રવણા , ફોત , તો હવાન્તર્માન મેનાનુપાવાનાત, ચવેવમાશ્રવવોડીપ પન્ન ર્તા નીવાનીવાખ્યાં મિચન્તા તથા હિ-આશ્રવો હીમૂતવિમાન જ્ઞાનથાળ નીવાપાર્થનામેવો ત્વાપાત્તરવા વિધેય, ક્ષાગુરધનવાથવિધીમાવવ્યવસ્થિતરિયાદ તરવમુદિયપુનરાવૃત્યારે તંવદિશ્ય નીવવિવિધાનપણે પરમપદ્ધસ્ય સૂત્રઝમકામાખ્યા.પોણપસ્ય નવાસસપઢાન્યતને નિતઅક્ષણ, વવાદ્રિપદ્ર તાર્વગ્રાહીં, તેન ર પ્ર વાહિતાર્થે તસ્વપતાયા કામ ફિલ્હીદ-ત્ર વ વર-પ૬ ફત્યા ! વિધેયતાવ છેવા પતિ-વિધેયતાવચ્છઆઝાતમવં તદ્રત્યથા વિધેયસ્થ માહિતિ-વિધેયસ્ય નીવાનીવહિતાવાર્થી ન્યતસ્ય તત્વવ્યાપવામાહિત્ય વિજ્યવ્યવહેવ સિસવવ્યાધિવ્યવ્યવચ્છેદ્ર ત્યજી . ન્યૂનત્વવ્યવ૬ તિ સસલાન્યુનાં વાવ્યવચ્છેદ્ર ફત્યર્થ છે નનું સામાન્યધર્મધ્યપરસ્પરુદ્ધનાના ધર્મિપ્રતિપાલન વિભાગ, સ જ નવાનવેત્યાવિશ્વને જ સમ્મવતિ, શ્રવરવાહીનાં નવાનવત્વવિદ્વત્તામાવાહિતિ વેત, નૈવ, સમિવારાહીનાં દુષ્ઠાનાં હેતુનસફ્રનાં પરસ્પરામિજાનામપિ વિમારા પ્રતિપાદ્રિતવેનબસાથે. જ વિમાગ્યા વાત, વિધિસાફૂર્યમેવ, કષયસાડવુપાર્થસાહિતિ વવનાત્, તો પ્રશ્નપ નાસ્તિ, સવ્યમિનારત્વવાધિતત્વવિદ્ધાનામિવ વીવાની વસ્ત્રાહીનામુપાથીનાં સ્વાસાધારણાલપાક્ષિતાનાં પાઝિલ્લાફ્રષિ પરમ્પરા વિમાનતાવષે નામમતાનાં વીવત્વવાનવત્વવાશવત્વસ્ત્રાહીમાં પ્રમ્પરોપાનાં પરસ્પર વિરૂદ્ધનાક્ષાયોન પેળ વવાવાવાદ્રીનાં વિમાનો નાનુવાન ! હુહેતુવિમા મારો સવારવાધિતત્વાનામમિનું કમિતિ સાવિ પરમ્પરા સમવાર ત્વવાધિતત્વવાહીનામમાકૂત્તિકૂળ સુહેતુવિમા મવતિ તદ્ધત્વજીતેષતિ મા | અન્યત્રતિ નવાનવા પુષ્પ, પાસવસંવરે નિરળા વંધો કુવો જ તહ, નવ તત્તાં હૃતિ નાચવા ॥१॥" इति नवतत्त्वप्रकरणादावित्यर्थः । न हि कस्यापि पुसो मिथ्यात्वमोहनीयादिकर्मादयं विना मिथ्यादर्शनादिपरिणामलक्षणभावाश्रव इति तजनकस्थोदितमिथ्यात्वमोहनयिकमा- " વિપુલભદ્રવજ્યાંઝીવપરિણામસ્વાલ્પરિણામપરિણામિનોચમેવાની, તમિપામોહિનીયાતિવનપતિવતવવૃદ્ધયાભવપરીતરિણામલામાવાશ્રવક્ષ્ય ૨ નવધન લવેડમ ત્યમિત્યા€- મિથ્યાવરાવપરિણામ જ્ઞાતિ | સત્ર માનિમિત્તાવ દ્રષ્પમિતિ દ્રવ્યામુપા૫ મિયાના પરિક્ષણાત્મયમા ' ઐતિ નિમિત્તવવવ વનરાતિમિથ્યાત્વમોહનવપુલ્હા દ્રવ્યશવ તિ તઝનિચ્યા , Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थ धिवरार्थदीपिका । च० सू० टी० मिथ्यादर्शनादिपरिणामो द्रव्यमावविवेचनेन जीवाजीक्योः परिणाम एव । वन्धस्तु कर्मपुद्गलजीवसंयोगः, સોડપિ નિરન્તરપિાત રમવસ્વભાવ વ | સંવરોડપિ વર્મપુછાતાનઝેમવહેતુયાંત્યાક્ષણો जीवाजीवात्मक एव । निर्जरापि निर्जयनिर्जरकोमयस्वभावव । मोक्षोऽपि सनिर्जरारूप: सुतरा तथा । आत्मनिष्ठफलजनकत्वे चाश्रवादयः सन्त्वात्मधर्मा एव । तथा च जीवा अजीवाश्चेत्युभे एव तत्त्वे इति चेत्, सत्यम् । मोक्षार्थिनः खल्वत्र तत्वज्ञाने प्रवर्तयितव्याः, तत्र च हेयस्य संसारस्थाश्रवन्धलक्षणं कारणद्वयम् , उपादेयस्य च मोक्षस्य च संवनिर्जरालक्षणम् , मोक्षश्च परमप्रयोजनतयाऽवश्यवक्तव्य इति मोक्षार्थितयाऽवश्यवक्तव्याना सप्तानामपि तत्वानामुपादानस्थ न्याय्यत्वात् , न च कारणजिज्ञासया एकमेव वक्तव्यमन्यथा बहून्यपि वक्तव्यानि स्युरित्यपि कुचोधमाशङ्कनीयम् । एककारणे ज्ञाते कारणान्तरजिज्ञासाया औत्सर्गिकत्वात् , न च परतोऽपि तदनिवृत्तिमध्यमरुचेम्तावतैव चरितार्थत्यादिति दिक् ॥ ४ ॥ शनादिपरिणामो भावाश्रव इत्युक्तम् । अग्रे तु भावसमवाधिकार णत्वं द्रव्यत्यमिति द्रव्यलक्षणमभिप्रेत्य द्रव्याश्रव आत्मसमवेताः पुद्गला अनुदिता रागादिपरिणामेन । भावाश्रवस्तु त एवोदिता इत्युक्तमित्यनयोर्न विरोध इति सुधिया भाव्यम् । बन्धस्तु कर्मपुङ्गलजीपसंयोग इति-वन्धो नामाश्रयातकर्मण आत्मप्रदेशैस्सह वाक्षिततायोगोलकन्यायेनकलीलीभावेन प्रकृत्यादिविशेषप्रकारात्मक संयोग इत्यर्थः । उभयस्वभाव एवेति-प्रतियोग्यनुयोग्युभयात्मवेत्यर्थः । “ यः कपुलादान छेदः स द्रव्यसंपरः । भवहेतुक्रियात्यागः, स पुनविसंवरः ॥ १॥” इति पारमर्पयचनमनुसृत्याह-कर्मपुलादानच्छेदभवहेतुक्रियात्यागलक्षण इति । विपाकात्तपसा वा कर्मणां यः परिशाट तल्लक्षणनिरामि पार्थक्याएनजीवपुलोमयस्वभावयेत्याह-निर्जरापीति । तथेति-निर्जयनिर्जर कामयस्वभाव एवेत्यर्थः । यद्वा मोक्षस्य समस्तकनिर्मुक्तशुद्धात्मलक्षणत्वेन सोऽप्यात्मवत्यप्यत्र ज्ञेयम् । हयोपादेययोस्संसारमोक्षयोः कारणजिज्ञासयैककारणाभिधानेनैव जिज्ञासापरिपूर्तः किं कारणद्वयाभिधानेनेत्याशङ्कते-न च कारणजिज्ञासयति-न चेत्यस्साशनीयमित्यनेनान्वयः । निषधे हेतुमाह- कारण इति-संसारस्य मोक्षस्य चैकस्मिन् कारणे ज्ञाते कि संसारस्य मोक्षस्य च कारणान्तरमिति जिज्ञासायास्वत उत्पद्यमानत्वेन तनिवृत्तये संसार कारणान्तरं मुक्तिकारणान्तरञ्च वक्तव्यमेवेत्यर्थः । मध्यमरुचस्तावतव चरितार्थवादित कारणयज्ञानमात्रेण विषयनिष्पत्या मध्यमप्रमातुर्जिज्ञासापरिपूरित्यर्थः, ननु तथापि मोक्षस्योपादेयतयेव हेयतया संसारस्थापि पृथगभिधान कार्य स्थादित्यस्तचापत्तिरिति चेत्, न, अनागतजन्मावभावरूपसंसारहानः स्वातन्त्र्येणाऽसाध्यतया संसारहेतूच्छेदे पुरुषव्यापाराभ्युपगमेन तद्धेतोरेवाऽभिधानात् , संसारहानेक्षिस्वरूप एवानुप्रवेशात्, माक्षोपस्थितौ संसारस्य प्रतिपक्षत्वनावश्योपस्थितिकतया पृथगभिधानस्याउनतिप्रयोजनवाच्चति सम्प्रदायपरिकार वस्तुतसंवरनिर्जस्योमक्षि दचक्रादिन्यायेन हेतुता, न तु तृणारणिमणिन्यायेनेति बोधयितुं Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: १२६ : तत्वार्थविवार्थदीपि।। पं० २० टी० : - नन्वते सत पदार्था तत्त्वानीत्युक्तम्, पदार्थत्वं च पंदशक्तिविषयत्वं, तथा च जीवादिपदशक्तिबह एव कथमिण्यत इत्यत आह सूत्रम् नामस्थापनाद्र०यभावतसन्न्यासः ॥ १॥ ५॥ (यशो० टीका०) तृतीयार्थे तसिः, एवं च नामस्थापनाद्रव्यभावस्तेषां जीवादीनां न्यासः स्वस्वपद- .' 'याभिधानम् , बन्धपदेन संसारस्थाश्रवस्य च तत्कारणतयाभिधानमित्ययं संसारनिवृत्ति- । मोक्षप्रवृत्तिप्रगुणः प्रवक इत्यपि युक्तं पश्यामः, न चैवं सम्प्रदायातिक्रमः, अनेकन यसमूहात्मकत्वाद्भगवत्प्रवचनस्येति सूक्ष्मभीक्षणीयमिति तातपादश्रीयशोविजयोपाध्याया अनेकान्त तत्वव्यवस्थायां प्राहुरिति । तदेवं जीवाजीवादीनि सप्तैव तत्वानीति व्यवस्थितम् । यदि चाभ्युदयहेतुतया पुण्यस्य तत्प्रतिपक्षतया पापस्यापि च पृथा निरूपणमावश्यकम् , तदाऽभ्यु-... दयनि श्रेयसहेतुप्रवृत्यनुकूलज्ञानविषयतया जीवाजीवादयो नचैव पदार्था निरूपणीया इति परममुनिसिद्धान्तसरणिः । तदेवं चतुर्थसूत्रटीका परिपूर्ति गतेति। પશ્ચમબ્રજ્ઞાવતર મિાહતે હત્યાના શhવષયત્વમિતિ-વાળ્યુંपाचकमावसम्वन्धरूपशक्तिहद्वारा पदजन्यबोधविशेष्यत्वमित्यर्थः । ननु नामस्थापनाद्रय. भावतस्तन्यास इति सूत्रमयुक्तमुक्तम् । “जत्थ य जं जाणिजा, निक्खे निक्सिवे णिरवसेसं " इत्यनेन यथापरिज्ञानं निक्षेपा र कल्पनाया अप्यनुमतत्वेन तमाश्रित्य-" णाम .. मणी दविएँ, खित्ते काले तहेव भारे अ । एसो खलु निक्खेयो, दसगस उ छविहो होइ ॥१॥ इति । णामं ठरणा दविएँ, मा य पर्यसंगहे किए चेव । पजर्व भाव य तहा, सत्तेए एकमा होति ॥ २ ॥ इति च । नाम उवणा दैविए, ओहे भर तभवे य भोगे य । संजम जस कित्ती" जीवियं च भण्णत्ती दसहा ॥३॥ इति च । नौमं । दविएँ, खेत द्धा-उ उवरती पसंही । संजर्मप्पागलै जोहे", अचल गणण संघणा भावे ॥ ४ ॥” इति । च तत्तत्सूत्र उक्तत्वानिक्षेपाणां पविधत्तं सप्तविधत्वं दशविधत्वं पञ्चदशविधत्वादिकश्चेति । नीमादिचतुष्टयाधिकानिक्षेपस भवादिति चेत्, उच्यते, यद्यपि सम्भवन्ति करिगश्चित्पदार्थअविका अपि निक्षेपाराथापि न ते सर्ववस्तुषु नियताः, नियता नामस्थापनाद्र०यभावनिक्षेपा एव, तेषामेव वस्तुत्यव्यापकत्वात् , न हि किमपि तस्त्वरित यन्नामादिचतुश्यव्यभिपारि स्यात् । उक्तञ्च माये-" नामादिभेदसत्य-बुद्धिपरिणाममाओ णिययं । जं वत्थु अस्थि लाए, चउपाय तयं सव्वं ॥ १॥” इति । नियतनिक्षेपाभिप्रायेणेत तातपादोमास्वातिभगवता सिद्धातोपनिषदिना प्राणायीति नायुक्तमुक्तमिति । एतत्तवमग्रे स्पष्टीभविष्यति ।। ५६ निक्षेपचतुष्टय एव तत्वविद्भिदधिकनिक्षेपान्तवः कर्तव्यः । उक्तञ्च-"चतु काम्यधिक स्पह, न्यासो थोऽन्यस्य दयते । एतद र्गितः सोऽपि, ज्ञातव्यो धाधनान्वितः ॥ १॥” इति । रपदशनिग्रह इति-ननु सर्वे शब्दासर्वार्थवाचका इत्यभ्युपगमाजिनानुगैररावर .. Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - तत्वार्थविवरणपूढार्थदीपिका। पं० सू० टी० : १२७ : वाचकस्वभावत्वेन शब्दानां विचित्रार्थवोधानुकूलशक्तिमत्वात्, अर्थानाश्वाऽनेकशद वाच्यत्वस्वभावेनाऽनेकप्रतीतिनिवन्धनानेकशक्तिमत्याजीवपदशक्तिजीव इवाऽजीवादावपि, अजीवपदशक्तिरजीव इव जीवादावपि, एवमन्यपदादावपि ज्ञेयम् , तथा च सपा पदानां सर्वार्थवाचकन्वेन सर्वार्थानाञ्च सर्वशब्दवाच्यत्नेन जीवादिपदार्थेषु जीवादिपदानां नियताः शक्तयो नेति जीवपदाजीव एवं शक्तिमहाज्जीवस्यैव बोध इत्यस्याजीवपदादजीव एव शक्तिबहादजीवस्यैव बोध इत्यस्य चाभावात्कथं नियतशक्त्युपपादनेन स्वस्वपदशक्तिहो जनानां सङ्गच्छते इति चेत्, सत्यम् , तथापि शब्दार्थवाच्यवाचकभावसम्बन्धरूपशक्तिग्रहो हि न तदावरणीयकर्मक्षयोपशम विना, उक्तक्षयोपशमोऽपि न सङ्केतग्रह विनेति सङ्केतस्साऽभिव्यञ्जकत्वेन यस्य पुरुषस्य यरिमन्नर्थे सकतग्रहस्तदपेक्ष्य यदर्थशक्तिमहायस्य यस्याऽर्थस्य येन येन पदेन बोधस्स एव तत्तत्पदवाच्य इति नियमात तत्पदस्थ सङ्केतसहकृतशक्ततत्तदर्थ एव सत्त्येन तया तत्रैव तद्ग्रहभावात्स्वस्वपदशक्तिग्रहो भवत्येव, नियतसकेतसहकृतस्य सदस्य सर्वार्थान् प्रत्यविशिष्टत्वासिद्धीवादिशदादीवादियोधप्रसङ्गाभावात् । न चैवं शक्तिव्यञ्जकत्येनाऽभिमतो य+सङ्केतहस्यैव शादयोवहेतुत्वमस्तु किमन्तर्गडुशक्त्येति वाच्यम् , पवम्यासे सकेतमननुरत्याऽपि वाच्यતાજ્ઞાનેન શોધોયેન મિનારાના નવં સતય ક્વોર્થશરૂગ્રહાનુન્નક્ષયપામनिमित्तत्व क्षीणाशेपज्ञानावरकर्मणां योगिनां वाचकप्रयोगार्थ सङ्केतप्रतिसन्धानान्वयव्यतिकानुविधानं न स्यादिति चेत्, मैवम् , इष्टत्वात् , तेषां सङ्केतापेक्षां विनाऽपि स्वयमेव वाच्यवाचकभावं ज्ञात्वा तत्तच्छन्दप्रयोगादिति । न चैवं तत्र व्यतिरेकव्यभिचारः, क्षायोपशमिकमायस्थल एवोक्तहेतुहेतुमावास्युपगमात् । न चैत्र व गते गङ्गापदस्थापि गङ्गाताररूपशथार्थत्वेन शक्त्येव निर्वाह शक्यसम्बन्धलक्षणलक्षणोच्छेदप्रसङ्ग इति वाच्यम् , गङ्गापदस्य गङ्गाप्रवाहरू५शक्याथै सङ्केतवद्गङ्गातीररूपार्थान्तरेऽपि शक्तिमहनियामकतया सङ्केतान्तराऽऽवश्यकतया तत्रैव तयपदेशाद् , वस्तुतो लक्षणा नास्त्येव, युक्तश्चैतत् , शादयो शक्तिलक्षणान्यतरत्वेन प्रयोजकस्वापेक्षया शक्तित्वेनैव तत्चौचित्यादित्युक्तं शास्त्रवासिमुच्चयटीकायां पूज्यपादश्रीयशोविजयोपाध्यायैरिति । वाच्यवाचकभावसम्बन्धरूपशक्तिरपि न मीमांसकानामिव जैनानां धर्मितो भिन्नवा, किन्तु धर्मधर्मिणोः कथञ्चिदऽभेदात्कथञ्चिदभिन्नाऽपि, एतेन तत्तत्पदजन्यबोधविषयत्वनिष्ठप्रकारतानिरूपितेश्वरेच्छानिरूपितविशेष्यतावस्वं तादृशप्रकार तानिरूपितविशेष्यतासम्बन्धेन तदिच्छावत्वं वा तत्तत्पद वाच्यत्वमिति नैयाथिकमतमप्यपातम् , लक्ष्यार्थादावतिप्रसक्तत्वात् , ईश्वरमनङ्गीकुर्वतामपि वाच्यत्वव्यवहाराल्लाववाच्च तत्पदयोध्यत्वरूपस्यार्थधर्मस्यैव तत्त्वादिति। नन्वनुगतधर्मावच्छिन्ना शक्तिरेका भिन्न भिन्नविच्छिना च शक्तिभिन्ना, तथा चात्र निक्षे. ५चतुष्टयानुगतधर्माभापानका शक्तिश्चतुर्यु, किन्तु नामेन्द्रत्वस्य स्थापनेन्द्र त्यस्य द्रव्येन्द्र त्वस्य भावेन्द्र त्यस्य च प्रवृत्तिनिमित्तस्य भेदाशिव, तथा च शक्यतावच्छेदकभेदनकस्य शन्दस्याने कशक्तिप्रदर्शक वचनं निक्षेप इति निक्षेपसामान्यलक्षणं पर्यवसितम्, तप Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थविवरण गूढार्थदीपिका | पं० सू० टी० 3 , , - नामस्थापनाद्रव्यभावेन्द्रा इन्द्रपदवाच्या इति निक्षेपसामान्यवचने वर्त्तत इति लक्षणसामान्यसम्भवेऽपि नामादिप्रत्येकनिक्षेपवचने न च वर्तत इति नोक्तलक्षणस्य सम्भवः, नामेन्द्र इन्द्रपदवाच्य इति नामनिक्षेपवचनस्य स्थापनेन्द्र इन्द्रपदवाच्य इति स्थापनानिक्षेपवचनस्य च द्रव्येन्द्र इन्द्रपदवाच्य इति द्रव्यनिक्षेपवचनस्य च भावेन्द्र इन्द्रपदवाच्य इति भावनिक्षेपवचनस्य च प्रत्येकं नामेन्द्रत्वस्थापनेन्द्र त्वादिप्रतिनियतधर्मावच्छिन्ननिरूपित प्रतिनियतशक्तिबोधकत्वनैकपदस्याऽनेकशक्तिबोधकत्वाभावादिति चेत्, मैवम् शक्यतावच्छे दकभेदेनैकस्य शब्दस्यानेकशक्तिप्रदर्शकवचनविपयताव्यापक विषयताकवचनत्वस्य निक्षेपलक्षणत्वे दोषाभावात् अत्र चोचरवचने किञ्चिदुर्भावच्छिन्ननिरूपितशक्तिप्रतिपादकत्वं विशेषणं देयम् तेन नामघट इत्यस्य घटपदस्येत्यस्य वाच्य इत्यादेश्व विशकलितस्य न निक्षेपत्वप्रसङ्ग इति । अथवा नामनिक्षेपादयः स्वरूपेणाऽपि निरुक्तलक्षणयोगिनो भवन्त्येव तथाहि -नामेन्द्र इन्द्रपदवाच्य इति नामनिक्षेपे नामेन्द्र त्वस्य प्रवृत्तिनिमित्तत्वं प्रतीयते तच्च नैकम्, यत इन्द्र इति इकारोत्तरनकारोत्तरदकारोत्तररकारोत्तरात्वरूपानुपूर्वीविशिष्टं नामस्वरूपं नामेन्द्रो, गोपालदार-: कोsपि चेन्द्रनाम्ना सङ्केतितस्तथा, तयोथ नैकासाधारणधर्मयोग इति शक्यतावच्छेदकभेद आवश्यक इति | स्थापनायास्सद्भूतासद्भूतभेदेन द्विविधत्वात् सतेन्द्र स्थापनागतो सद्भूतेन्द्र स्थापनागतश्च धर्मो भिन्न एवेति तलक्षणशक्यतावच्छेदकभेदाद्भवत्येव सामान्यलक्षण -- सङ्गतिः, यो जीवो मनुष्यस्सन्निन्द्रोऽभूद् भविष्यति चेति भूतभविष्यदिन्द्रपर्यायकारणत्वाद् यथा द्रव्येन्द्ररतथेन्द्रपदार्थज्ञस्तत्राऽनुपयुक्तोऽपि द्रव्येन्द्र:, तथैव योऽपि इन्द्रस्य गुणान् परस्मै परिकथयति, परमनुपयुक्तः सोऽपि द्रव्येन्द्रः । " अणुवओगो द० " इति वचनात् एतदमिप्रायेणैव वृहत्कल्पमाष्येऽप्युक्तम् - "दव्वे पुण तल्लद्धी, जस्सातीता भविस्सते वा वि । जोवा वि अणुवत्ता, इंदस्स गुणे परिह ||१४|| " इति, तथेन्द्रस्योत्तरोत्तरभावेन्द्र पर्यायकारणत्वात्पूर्वपूर्वी द्रव्येन्द्रस्तदनुगामीन्द्रव्यक्तिरपि द्रव्येन्द्रः, द्रवति तांस्तान् पर्यायान् गच्छतीति द्रव्यमिति व्युत्पच्या पर्यायपरम्परानुगता व्यक्तिर्द्रव्यम्, तदेवोर्च्चतासामान्यमित्यु तासामान्यरूपत्वेनानुगामिन्या द्रव्यव्यक्तेर्द्रव्येन्द्रत्वात् । तत्र सर्वत्र नैकं द्रव्येन्द्रत्वमित्यत्रापि प्रवृत्तिनिमित्तभेदादुक्तसामान्यलक्षणसङ्गतिः भावेन्द्रोऽभ्यागमतो नोआगमत इति द्विविधः, तत्राऽगमत इन्द्रपदार्थज्ञस्तत्रोपयुक्तो भावेन्द्रः उपयोगो भावनिक्षेप इति वचनात् । “जहिंदनाणोओगओ तम्मयत्तगं होइ " || ३२५ ॥ इति महाभाष्यवचनाच्च । तत्र तन्मयत्वमित्यस्य परमैश्वर्याध भावेन्द्रियत्वं भवति भावेन्द्र एवायं व्यपदिश्यत इत्यर्थः । नोआगमतथ “ इदि परमैश्वर्ये " इति वचनात् परमैश्वर्यादिगुणगणालङ्कृतः पुरन्दरो भावेन्द्रः परमैश्वर्यवान् साक्षादिन्द्रनामगोत्राणि कर्माणि वेदयन् इन्द्रपदवाच्यो भावेन्द्र इति भावः । न च तदुभयसाधारणं, भावेन्द्रत्वमेकं प्रवृतिनिमित्तं सम्भवतीति श्रवृचिनिमित्त भेदादाऽप्युक्तसामान्यलक्षणसङ्गतिरिति । नं च घटपटादिवस्तुमात्रस निक्षेप चतुष्ट्यरूपत्वे तद्वाचकपटपटादिशब्दस्य नामघटस्थ 46 : १२८ : Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ વાવિત્રીવૃત થતીપિલા । ૐ કૂ ટી : ૬ : શનિમહઃ જાય ત્યર્થઃ | ‘ વ્યયાત્ક્રાંતનાતયડુ પવાર્થા ' કૃતિ તાવનૈયા મિષિ પ્રતિબન્નમેવ । તંત્ર (બાંસ’ગ્રેજ્યમ્, ‘આતિ” સ્થાપના, ‘નાતિ'ર્માવતિ નિક્ષેપત્રયમાાતમ્ । નામ ૪ વૈચારણૈઃ પદ્માર્ચ હબ્બતે । યદા ‘સર્વે માવાઃ સ્વેનાર્થેન મર્વાન્ત સ તેમાં માવ' તિ વાતિો, ‘મવન્તિ’વાવ પનાયા દુનામપસ્થાપનાષાવિનિક્ષેપષતુષ્ટયાચેજ્મેનેન્દ્રાર્યાપિ તત્ત્વ નાનાર્થવાપત્તિરિત્ર્યાર્યશબ્દોન્ઝેન્દ્રòિરિતિ વાવમ્, નામથાયનાદ્રવ્યનક્ષેળામકઘુતાનિવારણમાત્રછત્તા ધવદારે શૌખતયા માનિક્ષેપāવ ચ મુવન માધલમાવયુવાને યજ્ઞામાન્યસ્વાન્રુતિય પ્રવૃત્તિનિમિત્તથૈવન તવચ્છિન્નાર્થતા ઘટાવિંશજ્વાઽવ્યેષ્ઠાયત્ત્વન વ્યવહારવિતિ ગાસહસ્યાં પૂન્યાવશ્રીયશોષનયોષાધ્યાય. “તથા 7 મોવશયતાન છે. વ નિક્ષેપઋતુપ્રયાનુ ાતત્ત્વમેૐ તથાપ્પાનિ ૬ માયોયાવનિ નાનેતિ નિર્ધ મત્યુતમ્” તથા જ ગોદ્દાથāૉવછેત્ાસ્ય ગૌત્રસ્ય નામાવતુ નક્ષેપવન તફાચ્છાવિ ગોપવ ને ાઈમેવ, દ્યું ધપાવેસર્વષવેળાયેš જ્ઞેયમ્, દ્વેષ શક્યતાવ છેમતેનેધમેળવયાએ નિક્ષેપવતુષ્ટયે તયેોષત સ્થળનવા વર્ષનું નિશ્ચેષ તિ નિલેષસામાન્યહક્ષણં સિદ્ધમ્ । તાલુશં વનનચ મોઢું નામ યાપના દ્રવ્યમાનમતેન વતુછું નોપુ મોસ્કેન રાત્મિત્યાારમ્ વાગેન્દ્રપનું નામેન્દ્રસ્થાપનેન્દ્રાએંન્દ્રમાલેન્દ્રબિન્દ્રત્યેન શામિયાારમ્,વ યષપષવા વિષિ જ્ઞેયમ્ । શોષવ્નાનિક્ષેપસ્ય પોષવસ્થાપનાનિક્ષેપક્ષ પોષવદ્રનિલેષણ્ય પોષવમાનિક્ષે૫૫ X પૃથક્ષો ર્રાન્ચે તુ નામ પતશયતાવન્હેલ નામોત્યું મોત્સવ્યાખ્યું સર્વેષુ નામાઁરમવુ મોક્રેમ્, તાડ્યુંભ સ્થાપનાંગોવશક્યતાવછે સ્થાપનાનોવં ગોવાખ્યું સર્વેપુ સ્થાપુનામજી પોએમ્, દ્રવ્યાત્મદ્વેષ ચોથુ દ્રવ્યોમળ ગોત્ત્વવ્યાખ્યમ્ માવામજી ચોપુ માયોત્રમેળ ગોત્વવ્યાખ્યમિતિ મિચો માનિ ગોત્રજ્યાવ્યાનિ નામોાહીત્યસ્યુષમતાનીતો નામમોત્યુંનૈશવતાવજ્જીવન નામાભળેષુ શોધ્યુસિબતો વનનં શોષવનનિક્ષેષ, સ્થાપનામોત્લેનૈશયતાવન્ટેન સ્થાપનાત્મòયુ બ્રેકિવો વચનં મોવસ્થાપનાનક્ષેષ, દ્રોત્યુંનૈાન્યતાવન્ટેજૈન દ્રશ્યાત્મજીવોલ્વેન્તિકા વનનું પોષવદ્રવ્યનિલેષઃ, મવડોવેન માવો પતાસા રળધર્મક્ષળિિનયતશક્યતાવ‰ન માત્રાત્મક્ષેષુ મોલ્વેશ્વરાન ત્રિો વવન પોષવ્માર્નાનક્ષેપ ાંત હતાં નૈમિતિ વિ। નામ ષ તૈયારૌ पदार्थ ફષ્ચત રૂતિ-ધમુચાયત ત્યાઽાવચેોષારાગામવેન ધટન્દ્ર પવાર્થમિષ્યતે, પાચેષતાબ્વે ધન્ય ક્ષળાં વિનાગી શāવ નિર્વાદે તંત્ર હક્ષણામાં માનામા‘વાઈ, “ન સોગરા પ્રત્યયો છો, યા શવ્વાનુમાદતે। અનુવિદ્ધમિવ જ્ઞાન, સર્વે શબ્જેન માંસતે” કૃતિ ારર્જાયા સર્વત્ર ચન્દ્ર પવાર્થતા સિદ્ધતિ, અત વ ૧। પ્રાર્થદ્રા સહુચારિ4પૠતિવિાચેતોષ નામાર્ગય યષ્ઠ પ્રાતિતિાયે ફાંત-સ્વીત્ઝતું શાબ્દિરિતિ સફ઼ેપઃ । ધવ કૃતિ નામાવિ ષત વ, બર્મિંધાનઋત્યયાઘુત્ત્વનામધેયા મિયાનાત્, જ્યવાષજ્યોર Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તવાર્થીપૂતર્થીપિક ! - ટo go ત્યેન પ્રવર્તન્ત ફતિ માવા ખ્યાવેન સ્વાર્થ મવતિ પ્રવર્તતેડતઃ સ તેષાં માન્ય પ્રવૃત્તિ, નિમિત્તમિતિ ત ા યુદ્ધ વૈત હરિહરનફવારિવરિષ્ઠાવિશસ્તત્તપવા દ્વારા દ્વિતિ શુન્દ્રબારગોધ સર્વાનુમવસિદ્ધતા ન્યથા વનધિનયરિન પ્રતિ બ્રહ્યા ત્યારે, ન જ પ્રમેયત્વહિના હવાવિશિષ્ટ શરિબહાદ્ધમહિપાત્રમેયાંશે દોવિરદે સુદમિટિનોપસ્તિથ શાંન્ધોપારિતિ વચમ્ | ધટાઢિપડવેવ વરુપના એ સર્વાઈવાવ' ફતિ ન પ્રવેશપત્ત, પ્રસિદ્ધાર્થસિદ્ધપવિમાનુષપ%, અતઃ સર્વનયંસહ્યાળિ મનાવ...વનને ધન્યતોડપ નિક્ષેપવાધ્યમમત વર્ષતસ્તુ ચહ્માપવા યાવતોડ: સંપ્રદાયાવિરોધનોપતિજો તવત્યુ નિક્ષેપખવૃત્તિવ, ક્રોવેવાયોuત્નમાલાવીનત્રા નવું ઢક્ષણોવો થો ત્યમેકે તિનિયતઃાજ્યનુવપતિાર સ્વરૂપે બાયૅનેતિ-શબ્દસ્યહાત્માનાર્થે સ્પર્થાત શબ્દસ્વરૂપાત્માઈરોબારાવધતિ-રાખ્યત્વસક્વન્ધનૈતિશેષઃ સવનુભવસિદ્ધવાવિતિ-અષ્ટાર્થહારિહામહેડુતત્તષ્કન્ધવાવ્યર્નવ વધ સર્વસિસવાd, હરિત્રાદિનાં શોધપાવતુમશક્યત્વ, હરિહર લીનાં હરિત્નાવિકો વાવોથ- - માન વિશેવળબ્રહામાયા રિત્વવિદિાવો શરૂaહાસમન પર્વનન્યદારિવાવિશિષ્ટપાંથલ , સ્થિરમાંવાઢિતિ માવો પર્વ પનયા-મેથીપાત િશનિયા : સત્ર મેયવ બનિમિત્તાપક્ષન ધરાવપશ્ય ન નાનાર્થવાળત્તિ થા તપસ્ય શુદ્ધિસ્થપતિ વચ્છિન્ને રાજસ્ય પ્રવૃત્તિનિમિત્તાક્ષસ્ય વૃદ્ધિસ્થત્વસ્પે જ્યાન નાનાર્થમિતિ ચ ોડપ ડ્યૂયાત્તાવ્યા સિદ્ધાપ્રસિદ્ગપવિમાનનુY- , તેચેતા નધન્યતિપિનિટોપતુષ્ટયમમિમતામિતિ-નધન્યતોપ નામથાપનાવ્યમાવફાવતુદયપર્યાયાબૂમેવ વસ્તુમાત્ર નહિ ધિમપિ નામાઢિવાદયપર્યાયાતિ મેળ વત્તેતે ! હવાગ્ન વિપાવરયજમાળે-નિયય લઘુમથિ કોઇ પુન્નાયં ત સર્વે કરી’ હતિ | નિયમિતિ-નિયત નિશ્ચિત મત્યર્થ વતુપમિતિ દ્વારા પર્યાધી નામાવા દ્રવ્ય ' માવલણ યત્ર તન્વાખ્યામત્યર્થ. “નર્ચે ય વં કાળજ્ઞાનિધિ નિવરૂલ્ય- ' મોનિનુરભા-૪ષતાપરમાત્પવાવિત્યાવિ . નન્નપદ્રવ વર્ષ નિક્ષેપે, શપદ્રવ શર્યાવિત્પવય નિક્ષેપુ, પવ વિપશ્ય વાસુ નિક્ષેપુ, સ્થાનપદ્રવ વવત્પર્ય પુત્રરાસુ નિક્ષેતુ શધિરિત્ર નિયામમિત્યાંરાજ્જાયામા-શસિવિવિલાસયોરિતિ–પત્ર તાવનામાપના દ્રવ્યક્ષેત્રમષમાવાહૃક્ષના નિક્ષેપ ન જ્ઞાયજે તત્રા નામાદ્રિતુન વધુ નિક્ષેપળીયમેવ, સર્વવ્યાપજત્વાક્ય ન ઘા બિપિ વધુ યાત્રામાવિતુર્થ વ્યમવરતીતિ થત્ર સત્ર નિક્ષેતુદય તત્ર-તત્ર સત્તાદ્રશસિદ્દીન ચત્ર યત્ર નિક્ષેપવાયાધવનિક્ષેપાત્ર તત્ર તત્તસ્પર્શાવેવિશાલ તિ તક્ષળયો(યોરિયર્થ રત્નમાલવ્યાસવનત્વતિ-નિક્ષેપવાયફળતસંક્ષેપતનિક્ષેપણવિધા હેતુવાવર્ય જેવા વિસ્તિનપાના૨ તા નિતિ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वार्थविवरण सार्थदीपिका । पं० सू० टी० शक्तिनियन्त्रणं तदंशस्य मुख्यत्वेन मुख्यार्थवाचादिस्थले तस्या अपि-सावकाशवात् , केवल विहितनिक्षे-- पान्तरस्थले सा निरूता, अन्यत्र तु प्रयोजनवती, तळून्या च निषिद्धा इति विवेकः । ननु यदि निक्षेपचतुष्टयं शक्तिसङ्कोचनोच्यते - तर्हि -ततोऽपि नूनं क्रियतामिति चेत्, सत्यम् , तदिदं नयाणिया भविष्यति । न तु प्रमाणापणया, उभयनयावलम्बनेन तस्याः प्रवृत्तः, तदिदमभिप्रेत्याह' भाप्यकार: (भा०) एमिनामादिभिश्चतुर्भिरनुयोगद्वारस्तेषां जीवादीनां तत्वानां न्यासो भवति । वितरण लक्षणतो विधानतश्चाधिगमार्थ न्यालो निक्षेप इत्यर्थः । तद्यथा-नामजीवः स्थापनाजीवो द्रव्यजीवो भावजीव इति । नाम संज्ञा कर्म इत्यनर्थान्तरम् । चेतनावतोऽचेतनस्य पा द्रव्यस्य जीव इति नाम क्रियते स नामजीवः ॥ यः काठेपुस्तचित्रकर्माक्षनिक्षेपादिपु स्थाप्यते जीव इति स स्थापनाजीवो देवताप्रतिकतिवदिन्द्रो रुद्र: स्कन्दो विष्णुरिति । द्रव्यजीव इति गुणपर्यायवियुक्तः प्रज्ञास्थापितोऽनादिपरिणामिकमावयुक्तो जीव उच्यते । अथवा शून्योऽयं महः । यस्य जीवस्य सतो भव्य जीवत्वं स्यात् स द्रव्यजीवः स्यादनिएं चैतत् ॥ भावतो जीवा औपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिको. दयिकपरिणामिकभावयुका उपयोगलक्षणाः संसारिणो मुकाश्च द्विविधा वक्ष्यन्ते ॥ एवमजीवादिषु सवनुगन्तव्यम् ॥ पर्यायान्तरेणापि नामद्रव्य स्थापनाद्रव्यं द्रव्यद्रव्यं भावतो द्रव्यमिति । यस्य जीवस्य पा अजीवस्य वा नाम क्रियते द्रव्यमिति तनामद्रव्यम् । यत्काष्ठपुस्तचित्रकर्माक्षनिक्षेपादिषु स्थाप्यते द्र०यमिति तत्स्थापनाद्रव्यं, देवताप्रतिकृतिदिन्द्रो रुद्रः स्कन्दो विष्णुरिति । द्रव्यद्रव्य नाम गुणपर्यायवियुक्तं प्रक्षास्थापितं धर्मादीनामन्यतमत् । केचिदन्याहुर्यद्रव्यतो द्रव्यं भवति तच्च पुद्गलद्रव्यमेवेति प्रत्येतव्यम् । अव. स्कन्धाश्च सड्यातमेदेभ्य उत्पद्यन्त इति वक्ष्यामः । भावतो न्याणि धर्मादीनि सगुणपर्यायाणि प्राप्तिलक्षणानि वक्ष्यन्ते । आगमतश्च प्राभृतज्ञो प्र०यमिति भव्यमाह ·। द्रव्यं च भव्ये । भव्यमिति प्राप्यमाह । भू प्राप्तावात्मनेपदी । तदेवं प्राप्यन्ते प्राप्नुवन्ति वा द्रव्याणि ॥ एवं सर्वेषामनादीनामादिमतां च जीवादीनां भावानां मोक्षान्तानां तत्त्वाधिगमार्थ न्यासः कार्य इति ॥ - (यशो टीका) एभिरित्यादि । एभिः सूत्रोक्तः,नामादिभिरित्यादिशब्देनेयत्तानवधारणादाह-चतुर्भिः। उपलक्षणमेतत् सन्मवतामन्येषाम् , अनुयोग सकलगणिपिटकार्थः, तस्य द्वाराण्यधिगमोपायाः, तत्वं च जनकशक्तिमहावशेष्यत्वेन, तैरिति, धान्येन धनमितिवदभेदे तृतीया । तदभिन्नानां तेषां जीवादीनां તયાનાં ન્યાસ નીવાદ્વિપદ્ધશક્તિ હો ભવતિ | નાનાવિધારશાત્વોષાર્થમયમુપાય, તવાદ-વरणेत्यादि । नामादिचतुभ्यं लक्ष्येऽवतारयन्नाह-तद्यथा, नामजीव इत्यादि । नाम संज्ञा कर्मत्यनर्थाતનિતિ, નામ સંજ્ઞા વર્ગ ચેતત્વ પર્યાયત્યા તનાવતોડ્યેતનાવતો વ ચત્ વીવ તિ नाम क्रियते स नामेव जीयो नामजीव, चेतनापति तत् स्ववाच्यार्थयुक्तम् , अन्यत्र तु तदयुक्तमित्यर्थः । द्रव्यस्येति गुणक्रिययोरप्युपलक्षणम् । तयोरपि नामादिचतुष्टयप्रवृत्तः । द्रव्यमेव गुणक्रियाकारण परिणमते, न. नानावे ततोऽन्य ते स्त इत्यभिप्रायेण वा द्र०यस्येत्यवधार्योक्तम् यत्र जीवपदाजीवनामप्रकारेणैव शा०दबोधः, तत्र तदुपाधिकैव शक्तिस्तादृशसकेताभिव्यया स्वीकतव्या नामजीवत्वेन Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શરૂર વાવિવશતાવહાષિiા ઉ૦ ફૂ૦ ફી ધામિર્ચેન્નાહિતાયે તત્ર નિહહહૃક્ષના થયા નિકુળહકાર્ય સુશાસ, ત ાં તાતીતિ વ્યુત્પજ્યા રાનપાથે વિદિતન તવ મુત્વાચ્છષિ તજજેવાર્થે, કલી ત્વનાહિતાર્યમૂરિ નિપુણાર્થ ફાતિ માવા, વાતો ક્ષણા નાયેવ, પતવ પ્રાવ વિવૃત! તવવું નયાયાં વિખ્યતીતિન્નેવ્યાdવનય હવે નામાવનિષત્રયમુનરીબોતિ, ને પુનઃ પર્યાયાસ્તિવાનયા, માવનિપાત્ર તુ પર્યાવાસ્તિવનય વસ્તુપાચ્છતિ ભાવમાત્રપ્રાહિવત્તય, ને પુનદ્રવ્યાતિજનય, તસ્ય દ્રવ્યમાત્રપ્રાહિત્યેન માવાનવ - - વિવ ડગ્ન સંપતિત-“નામ વળા વિસિ પક્ષ દ્રક્રિયા નિાવે છે માવો પન્નવક્રિયા, પરવળ હ પરમત્યો . ” તિ ! માળાર્ધતિ દ્રવ્યપર્યાવદ્રયા— વાર્થનુમવદ્વિજ્ઞાન પ્રમાણે તદ્વિવત્યા ! તયાં તિ પ્રભાગાળાથી ત્ય | ત્રિાયમ્મા નવ તત્તન નિક્ષેપણાં સવારને તૈનબવવને પરમાર્થ પતિ , ડગ્યતે, વ્યાર્થિપર્યાયાર્થિન દવેનવ વિમા ઇવ પરમહત્યાકામરૂ, તદુમનવાગ્યતિરિ વિષયવાર્ સર્વનયવાલાનાં, ન હિ પરમાત્મા પરમવયનદ્રયવ્યતિરિ વ યોગસ્તિ, નૈનબવવનસ્ય નયસમૂહાત્મહત્વેન નવિષયતા વ્યાપવિલાયતાબમા--- નિવનિર્મિતત્તદ્રસ્તુવ્યવસ્થાપત્તેહમયનવવાવાહિકમાવાયા વધુમાત્રા નિક્ષેપવતુદાભવન સાિજ વવાર થવ નિલેવા નિતથી ન તુ જૂના, નિતિછયસ્થ સાર્વત્રિન પવાર્યત્વવ્યાપવાવ, તવધિનિષેધાણાં તદ્વિપરીતવાવર્તિ લેવાનુયો થવ નિબવવનમૂ૦મૂતા, તમિયાહ સમ્બતિતપૂર્વોપથિયાં “પણ પરમત્યો ત નિલેસમેન ન્યૂનતાપરિહારયાદ-૩પ૦ક્ષામેતવિતિ સામણિવિરાધકૃતિ જળો છો મુજળોવાસ્યાસ્તતિ , માવાવા, તય પિટવિ પિ મેળાપ દાશાÉ સવજીંજ તબિપિટાં જ સશકપિટ તથા તત્યા તવ પાયત્વમ્ વા નાઝિવિખ્યત્વેનેતિનવનધિયામવર્ગનો ચરાવાર પ્રહો નીલપર્શાસ્તમીવનામાનિતુમિત્યવિરદ્ધિશેષને વિલિતાર્થનાહ - મિશ્નોનાં તેમતિ | નામાવલશા વધાર્થીમિતિ નામાવિવાદથવાનું નીવા ત્યાર નામાદ્વિબજારનાવવિશેષ વફાવવોuઈનિત્યર્થ. તનાવતોગતનાવતો વા ય નવ રતિ નામ નિયત કૃતિ સ્મિન સતને તને વા દ્રવ્ય પરેજીયા વીવ તિ યા સંજ્ઞા ચિતે રૂલ્યા વ રરામબાવવા, સન પયગમય વા વિ” ફતિ નવિનામધારે નેતિ સ્વવાખ્યત્વસંતતિ શેષા તદુષિત Íરિતિ–નીવનામવિષે શર્જિરિત્ય તાદાત્તતમવ્યતિ–નવવસતામેિવત્યા ! નનું નીવડાપ્ના પદ્ધિ વિનામવિશિહોર્થ ૩mતે તદ્દા ત નામાવ૫ત્વમાવાનામનવત્વન નામની જ્ઞાતિ વણશો ન યાદિતિ વ, મૈવ, નામનામત રમે વિવારેળ તથા ચપશ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સરવર્જિવિવાળganીપિ ૦ ૧ ટી. રૂ. પર તર્ધ્યપર્વશ કર્તવ્યો નામનામવતો મેવોપવારાન્ ! નાના નીવ હૃતિ પક્ષ પવ નામદાર વો- ” પ્રશ્નો તુ વસ્તુપાધિશો નામવિરોષ ફ્રતિ પઢોને તુ નીવર્ય નીવનાળેવ શનિ સ્વીકાર્યા, પણ નાનીવ હત્યત્ર જ લશો યો યદચ્છયા તનાવયેતને વા નિયુક્ત કૃતિ વ્યાય, તૃતીયાસમાલ નામનીવનિર્ણપવિષયતાવ છે તુ નવાન્યત્વવિછિનવનામ, તબારૈવ તતઃ શાશ્વવીધાત્ ! બત પોમન્યત્ર “યાહુનોમિયાન, તમન્યાર્થી તર્થનિરપેક્ષનું પર્યાયામ, જ નામ રાદચ્છિ દ્રિત્યાહ-નામનામવતો મેપવરાહિતિના નીવો નામની ફતિ તૃતીયાતપુરુષાશ્રયળપણ અવ નવપદ્દસ્ય નીવનાવિશિષ્ટગ્યે શરૂત્યેન શીવના શતાવષ્ણવવાદિશિકાર્યસ્થ નામનવત્વેન નામવાન્ નીવના બજાર નવનામવિશિરાવિશેષ્યો વો, કજીતે તુ પૂર્વ વીજીતે નામૈવ વીવો નામની ફતિ વર્મધારય સમાસપણે સુનામનિક્ષેપતો યસ્ય - તનસ્વાગ્યેતનસ્ય વા નીતિ નામ છત તદ્દાબવાવ વિનામવિશે વ્યવવ વધો ન તુ પૂર્વે ગોધ તિ પઢોવને તુ નીવાય નવિનાયે શરૂત્વવાતિ ના રાજ્યત્વમેવાડ્યું, ને તુ પૂર્વવચ્છતાવ છેવત્વમતિ નીવ હૃતિ યજામ તમનવ હત્યારાનાહ નાખે નીવતિ પલ યાદિ બત્ર વેતિ નામની તિ માગે ત્યા તૃતીયાતમાસ“નામનીવનિક્ષેત્યાદ્ધિ-નામ વાસોનીવચનમનીવરતિ વર્મધારયે નવપદ્રસ્ય વાવજત્વસંસળ નીવાત્માર્થવિશિષ્ટ નામ વાળ્યમ્, નાગ્ન નામમાત્રા નીવો નામની ફતિ તૃતીયાતપુરુષે તુ નવા નવા વંકિનીવનામવાન્ વાગ્ય, શત્ર નીવપદ્રવ્યુત્પત્તિસદ્ધાર્થ નીવે ના નવા નામનવ શતિ નામનવનિપવિત્વપુરી વીવાન્યત્વવિરોષણમુવારનિતિ માવા નનુ સિવિશ્વેતનવવા ની ઇતિ નામવર સ નામમાળ નવો ન વાવાવેતિ, તત્ર નીવતિ ગાળીન્યાયતીતિ વિ તિ વ્યુત્પત્તિસિદ્ધદ્રવ્યમાવબાગધારપાઠક્ષપાનીવત્વામાવેના પિતાની હત્યાનાના લીવો નામની કૃતિ નિક્ષેવસ્ય નવા વિશિદનવનામવાનું વિવાલિતોતનપાથે નવ વાગ્યે હત્યર્થતિમતિ, પર તનાવતિ મિશ્રિદ્ નીવે નવિ હૃતિ નામા નવા વિશિષ્ટનીવનામવાનું નીવાવાળ્ય તિ સટત તિ વિ, નૈવે સદત કૃતિ સત્યતત્, તત્ર નામ વાસ નવ તિ નામની કૃતિ વિદ્યાર્થિવ લીવ તિ નામાનિ નામનીવનિક્ષેપ સાક્ષસ્થાવિતિ | સ્વસિદ્ધાવિરોધપરિધારાવાત્ર સાતિમુપતિ “વસ્તુનોડમિયાન, સિતમન્યાધે તવનિ પામ્ યાનમિયં વ નામ તથા શા” કૃતિઓ “વજ્ઞાયા મિધાં, ડિયમનળે તયથાનિક નાયિં જ નામ, નાવદ્દવ્યં પાછળ ન ર ” દત્યુ વિશેષાવરયડ, તથૈયાયમ્ સ્તનો નીવાવેર્નામ યથા જે મપાવવા નિવયેન્દ્ર તિ નામ, તથભૂતનિત્યા–રિયતમન્ચાર્ય કૃતિ ફન્દ્ર હતિ ના વાખ્યત્વલમ્બન્ધન પરમાતો દેવેન્દ્રગ્રસ્થાનાતિ, અન્યસ્ક્રિબિન્દાવાર્થ પઐશ્વર્યાતિ યથાર્થન પ્રસિદ્ધ સત્યાન કોપાલદ્વારવાવ ગાયુનિજસતના વિદ્યાવિતનિત્ય ત વાદ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E FO તત્ત્વાપવિવૃવૃદ્ધ પટીવિદ્યા । ૧૦ = h , તવર્ધન ક્ષમિતિ, ફન્દ્રનાનો થ: પ્રધાનાચતાંત્રપેક્ષમ, કૃતિ પરનૈશ્વર્થ કૃતિ પાવર્ચસ્વ વરનૈશ્વર્યથ ગોવાળવું રહેડમાત્રા, પુનઃ મૂર્ત તિયાહ-પર્યાયાનિધ્યેયમિતિपर्यायैस्स्त्रवाच शब्दान्तरैश्शक पुरन्दरादिमिरवाच्यम्, एवम्भूतं नाम, इह नामनामवतार मेટોપચારાત્ પો જાનવસ્ત્રેવ નામોતે। જાળામા7-પાદૃષ્ટિમિતિ-અન્યાયવાન સત્ત્વપનાનિર્મિત તથાવિધન્યુત્પત્તિશૂન્ય વિદ્યુ વિધ્યાવિનામ નામપદ્ધયિાધમિર્ચઃ । અયન્માવાયાર્થી પ્રવતિ થટ્ટજીયા વિવુંસા ાનયજ્ઞસ્યાનો હિસ્થોગ્ય વિદ્ઘોડબિસ્લેવ નામ વિતે તત્વવિ જ્ઞાનપવૅવિશ્વગ્રાહ્યમિતિ | નન્વન્યાસ્માએઁ યદ્ગારોપિતા પ્રધાનનિરપેક્ષ સ્વપર્યાયવાજ્યું યત્ર ચાર્જીિ, તડુમયાનુ ાત ક્ષમિતિ વત્, પુષ્યતે, વહાવાર્થમિત્રે સતિ પર્યાયામિધેયને સતિ ત્રત્યુત્પત્તિનિમિત્તાના િત્તેર્યું શ વાવ્યતાવધ વક્રનનું યન્ત્રાન્ધાગ્નિહતશતિય થાતૃીિ' વર્ઘાત્તવ્યર્થે વાં—તાવોધ વનનું સત્ત્વતત્ત્વ જ્ઞાનિશેષમિત્યનુાતું નામનિશ્ચેષળમ્, ચોવાજ વાત્ર્યમેન્દ્ર રાતે, અત્રેન્દ્રપાનેન્દ્રપદ્વવાાિંતકક્ષળસદ્ધાંત, દ્યું ાયયાવા સ્થિતવિસ્થાઙેશન્તવાન્યતાવાધ, ચંન્દ્વન્દ્વનું તત્રાબ્રુવાળાં વત્તુત રીત । પવસ્ત્રપશન્દ્રા વેર ધાવદ્રત્ત્વમવિ ચ નામ ગ્રાહ્યમ્, તત્ર વર નામાપામાવિ, યથાશ્ચિાત્કાવિ તેવદ્વાહિનામ, વૈષવાહિશબ્દાજ્યાનાં દ્રવ્યાળાં વિદ્યમાનાના મવ્યપરાષરનૉબરાજૈનસ્ય હોદ્દે નાવિન્યુત્ત્ત વિશેષાવવીજાય | યાત્રદ્રવ્યમાત્ર નામથવવેતદ્વાજ્યું દ્રવ્યમતિતે તાવરાજ્યાય, યથા મેન્દ્વીપસમુદ્રગાર્ટૂનૉમ ! ચત્તુ “ ળાનેં આવહિય હોન્ના વળા ત્તરિબા વાં દોના બાવહિયા વા હોન્ના” ત્યનુયોગદાન્ને બામ બાવદેિવ” કૃતિ ચો તત્ પ્રતિનિયતજ્ઞનસંજ્ઞામાશ્રિત્યેવ, ચોત્તર પૂર્વે યાતિ ધ્યેયમ્, નામનાવતો મંતોષવારાઆમ નાગ્લાવિન્દ્રશ્રુતિ વિદ્મહેળ ફન્દ્રાર્યશૂન્યભાના નામમાત્રણેન્દ્રશ્રૃતિ વિદ્મહેળ વા ચાભોપાવારો નામેન્દ્રસ્તથા નામેવેન્દ્રો નામે ત્યંત ન્દ્રબારનીય ન્દ્ર શાંત નામાવિ ન્દ્રરચારાત્મ નામેન્દ્ર, તત્રાવે ચન્દ્રસ્ય શૉમાંનક્ષેપે વોધ્યતેગ્નો િચ નામાંનક્ષેપ 'જૂજવાનું, તંત્ સદ્ઘપ્રાય ચ સ્વામ્ભન્નાTMિ વન્ય જ્ઞાનો વાત્મ્યતાોધા યુદ્ઘનમિતિ વિશિષ્યોધાવાય તવન્યતમત્ત્વ નિરુત્ત નામળમુવાચ તેનTM તત્રાચ્યાતિ માત્ર । ત્ર પુષ્પચિત્રાંવેિિલતત્ત્વ વāભિધાનમૃતેન્દ્ર વિવર્ષાવમાત્રષાવ્યન્યત્ર નમત્ત્વનોબારાવ્યત્રયતમત્સ્યેન સદ્ધામિતિ ન તત્રાવ્યન્યાતિ યજ્ઞા પૂર્વી જોયૅવાનુયોગદાન વામનુસત્યેવમયે તે બ્ય, ચંદ્રતુન હન્દ્રાને, મિધાનમ્ ' ન્દ્ર કૃતિ નામ ન્દ્ર ત્તિ નીવહીયાત્ર ન્દ્રેયક્ષરામમિતિ યાવત્, યજ્ઞોનિત્યસાન્ધાત્તજ્ઞામતિ સઃ । અથબારાન્તરણ નો ક્ષમાદ-સ્થિતમ ન્યાયેં તવનિરપેક્ષ પર્યાયાનભિધેય નૈતિ તવ નામ । સન્થેમ પૂર્વવત તૃતીયાજારે વિ સામાઈયાદા છામતિ તથા ૬ ત્રિવિધસ્યાપ્યુંનામનેિપક્ષાસ્યોત્ઝાન્યતમલેન संग्रहान्नान्रनुगमः, न વાત્રાબર્ડારિતિ 1 , Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थविवरणगूढार्थदीपिका । पं० सू० ટી - G ૬ તથા | ૨ || ” કૃતિ । સ્થાપનાનીય થતિ ઃ રાòત્યાદ્રિના, થઃ સ્થાબતે નૌ કૃતિ સન્જીન્યૂ કે વેચ્યાહ્ન બાબ્બે વાર, પુષ્પ દિતૃતિ સૂત્રીવવિવિરવિતમ્,વિત્ર જિત્રારાવાહિ સ્થિતનૂ, મશબ્દો રત્નનાવનનઃ પ્રત્યેનામાધ્યતે | અર્થાત સાર્માયેયૈજ્ઞા ચન્દ્રનાનામ્, તેવા ચાપાંનક્ષેનિળમાત્ સ્થાપનાનીય થયતીત્યા ઉના પ સ્થાપતે નીવ્ર કૃતિ થઃ સ્થાપ્યતે પ્રતિનિધીયતેલીયોગ્યામનોમિર મિત્રાયેતિસ સ્થાપનાનીય સ્થાપનેન્દ્ર નૃત્યઃ । જાઇમિતિ-અન્ય મેષહેન સાઽમસન્ધુન્ધારાઇમે જાનિકેત મિત્વર્થે, સ્થાપનાક્ષÃવમાંમન્તિ મયા, “ થતુ તાત્રેયુ, તમિત્રાયેળ વઘ સાગ 1 òવ્યાતિમ તસ્થા-૫નીત સ્થિત પારથ ॥શા ં તિ | ગ્રથમર્થ: સુશન નામરુફળસ્થાપનારુક્ષાસ્ય મેવæવા, ચાતું તથાવદ્યુત-માનેન્દ્રાધહિત સર્વે મૃતેન્દ્રાવિક્ષાશૂન્ય, તવા માંચેપાં માનેન્દ્ર તિવ્રુધ્ધા નિયતે સ્થાપ્યતે તદૂતુ સ્થાપનેતિ સંખ્યન્ય, વિશિષ્ટ વિજ્યાદ- યુદ્ઘ તર ' તેન માર્યન્દ્રયના સજ્જ હે સાર્વોચ્ય ચક્ષ તળિ—પસંદૃનિત્યર્થ, વદા રણમ્—ગનુર સાષ્ટ્રમિત થાવત્ ર્ચસ્વાતિ બિ સર્વેશં, તેમ વાળ સરળ તરસવુર્ગામંત્યર્થઃ । સંસેન્દ્રર્ષાવેશમાનાારામાંત પાંચેોથૈઃ । પશબ્દાત્તવુરાણ પાંડવે વસ્તુ નૃાસે સજ્જતેન્દ્રાવાળા શૃમિત્યઃ । પુનવેદ્યવૃત્ત વાયા-રેખ્યાવિક્ષ્મતિ હેપ્પપુત્તહિાવીર્ય, ગઢશાાઠપુજ્ઞાતિ સાાર વૃદ્ધત્તે, અધ્યાય પીનોામ્ । ચમત્ર માત્રના માઘ્રહ્મસમાવે વળા ત્યારેવનનાદ્ માટેન્દ્રય યાં સાંતિસ્તવાનાાં સમાવાયાં ઇòારેયેન્દ્રતિમાયામિન્દ્રોગ્યમિતિ ુધ્ધાં યેન્દ્રસ્ય સ્થાપના નિયતે હૈં સમૃઘ્ધાપનેન્દ્ર ! બન્નેનુÄ મતિસ્થાપ્યમાનસ્યેન્દ્રોહ નુંપા ો િવિજ્ઞાહન તારો ય આાવશેષો વર્શનારક્ષાસાંદ્યમાન વેન્દ્રજિôયતે સ સદ્ભાવસ્થાનેન્દ્ર, માધેન્દ્ર તિઊિનમ્રુધને અતધવાસદ્ભાવષે 46 ,, વાડા ફન્ડ્રોયામાં િવુધ્ધાં યેન્દ્રસ સ્થાપના યતે સૉસંસ્થાનેન્દ્ર કૃતિ । • પાચ‘હેપ્પાહી સ્થિત્તિ પણ સમાયા મદ્રે તંવા ો અસગ્માવે પુળ સ્થિતિ નહિ અનવો !” કૃતિ । જ્યાં ા યિત ફાક્રયામા—બપાÀતિઅલ્પઃ હ્રાંતો ચલ તંત્ત્પiિમત્યર્થ 1 શબ્દાવાવ ચેર્ગી, ઉચ્ચે 'उत्तरमणित वा અળદ ” રૂત્તિ, ત્રેત્વાં વાઢિગતમ્, ફન્દુત્વન ચપ્પુ સ્થાપિત નૈત્થળાન્તરે પુનાજ સઁચા વિધપ્રયોગનલમ્મરે નાહત્ત્વનાવિ સ્થાપ્યુંતે, ચંદ્ર, સ્વાશ્રયંદ્રજ્યે વિદ્યમાનેઽષ વિવન્તરાવ નિવત્તુત શ્યતોપામાંવેની, યાવથિા સ્થાપના તુ શાશ્ર્વતાંતમાં ટ્રું, તસ્યાચાવિરુપે સવવા તાંતિ સ્થાપનેતિ વ્યુત્પન્નેઃ સ્થાપનાત્ત્વમવસેયં, ન તુ સ્થાધવ તિ સ્થાપના, શાશ્વતત્ત્વન નાઽપ સ્વાધ્ધમાનવમાત્રાદ્ગિતિ । છું “ ને નિર્વાિિઢિયા, ૩ ચડાવી તે ય કુંતિ સન્માને, સત્ય પુળ બાવદિયા, ત્તિ એ તેવડોયેલું। ૮ । " કૃતિ નૃપમાળ્યો 44 Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રિવાવપૂઢાર્થી / ૦ ફૂટ છે. નિક્ષેપો વન ! તે પુસ્તાવિત્રવર્માક્ષનિક્ષેપ ગાપિાં તે તથા | શિર માખ્યાં લખ્યનોંધઃ | શબ્દપુસ્તવિત્રયો સદ્ભાવસ્થાપનાપા તથા ક્ષનિક્ષેપો કર્ભાવસ્થાપનાવ તેવુ જ સ્થાગત નીવે ત્યમિકાળ સ સ્થાપનાનીવર! પતતુરત મવતિ-રીરાનુતર્યાત્મનો જ સારો દર લ તન્નાએ હાદ્રિ દરયત ફીત છ થાપના, અનિક્ષેપે નારયતાવાર ફતિ ને,1, વહીપતયે નાસ્તિ વૃદ્ધચારેખ વાંત્યેતિ કે સમાવાત્મવી વિધ્યનુયાગ યત્ર નવાવ ત્યયસ્તત્ર નવાગ્યપશી યુવેતિ માવા દૃષ્ટાન્તમાહ ફન્દ્રો રુદ્રા સન્તો વિષુરિતિ દેવતાબાતિ ફૅવોનિમિત્ત મજસ્થાપનાળ સ્થિતાં ઘટાયો યાવસ્થાપના સેવા, દેવાનિયતમાનાં તરવાનાં શાશ્વતાહિતિ . સદ્ભૂતાઈશૂન્ય સત્તવૃધ્યા તાદ્દશી નિરાપર વાસ્તવુિં વાવશિવ સ્થાતિ સમા સ્થાપનેતિ પર્યવસતોળું ! તમિત્રાગૈવ વિરોલાવશે ધ્વસ્ત“gબ તત્યસુ, તથમિષ્પાળ તાલિમા ! નિરા, ત્તરમારંવ સાવળા છે રદ્દ ”તા અપદ્યાનુસારેગ તદ્દાવાર્થન્ય તિ તર્ક્સવાર્થમાધ્યવસાયિક પાતિવિયત્વે સાત તવાતિમાનાøતિતછૂખ્યા તરહ્યઋક્ષણસ્થાપનાવાહિનિર્ચે તછવિગ્રાહકવવનવું સ્થાપના નિક્ષેપમતિ સ્થાપનાલગનનુતિ વીવતા શત્ર પ્રથમસત્ય વપરધ્વમેવ, માર્થા દ્વિતીયસત્ય-નૈવ વાળા, દ્વિતીયસત્ય તુ નામાદ્રિવ્યાવૃત્ત હેયમેવ, તવાતિલાનાક્રતીત્યાતિ તુ સ્થાપનામેવાવતિસૌમ્પ૦વમેવ, વ્યાવિહળવો વ્યવમિતિ સ્પેલિવાયાં તાવાર્થમાધ્યવસાયબોતિવિષયતાક્ષેપાસ્થાપનાવાહિૉર્થે તછબ્રિાહવનવું સ્થાપના નિક્ષેપમધેવ સમ્પ યદ્યપિ બાહિર્મમૂતાવામિન્દ્રાવિકતિક્રત પ્રયત્નસાધ્યાયાં તે સાધત્વાર્થવિષયવમાવાયોuસ્થાપનાક્ષસમ્પત્તિતિ, ક્ષનિક્ષેપલૌ સ્વયત્નોપતિ ન તથા તિવિષયવં તથા તાદ્રશાધ્યવસાયણયોથા માનતી તિરસવ, ય િવેન્નામેદઘવસાવેને બાતિજ્ઞાતિનિર્માતુમાવ્યા, સા નિર્માતપુરુષાર્તાવિત્તવિવાહિતોષતો “વિનાયવ - વળો, યામાલ વાન”તિન્યાયનાન્યāવોવેન્દ્રા પ્રતિકૃતિર્તિપૂજા, સા ર પ્રતિકૃતિને ન્દ્રસ્થાપના, અથ વાડનુભવો ઋક્ષણે તત્ર તબિયતિન્યાસિન તત્ર સર્ક્યુલેન્દ્રસ્થાપનાવેંસ્થામાવેગધ્યક્ષનાવવસમ્રતેન્દ્રસ્થાનવિમતિ સૂક્ષ્મતવૈવ નાગતિવાસિરિતિવા, ન્દ્રિત(સ્થાપનાવબમિતિવિષયવૈવિરહસહક્કવિયત્વયા ક્ષનિલેષાદ્રાવિન્દ્રસ્થાપિનાત્વિકયોજવાન શ્રતે પેન્દ્રા પ્રતિતિીિતિ ગુદ્ધિમાન તપાસન્મવાત, દ્રિતિક્રતાપ વાવિત્તવન્યપ્રાતિકૃતિત્વવુદ્ધિસમ્મવારદ્રારગાવ પ્રતિતીયેવં વિમાવ્યતે તવા તત્માવાદ્રષ્યિવસાયબયોતિવિષયવતન્યમાવબતિકૃતિત્વબમિતિવૃદ્ધિવિતાવહયો ત્યામાવોમમાહિતેિળે તછમિાહવવવનવું સ્થાપનાનપત્વમ્, તા વાન્યમવેત્તવાલિતોપારાવર્તિત તત્ર દુન્યમાવતિજીવિત્વબતિવૃદ્ધિવિનયવાવયોવવવ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थविवरणगुढार्थदीपिका । पं० सू० टी० : १३७ : कृतिवदिति । यथेन्द्रादीनां प्रतिकृती रचितेन्द्रादिव्यपदेशं लभते, एवं जीवस्य काष्ठादिषु प्रतिकृतिः कृता स्थापनाजीव इत्यभिधीयत इत्यर्थः ॥ द्रव्यजीवनिक्षेपमाह-द्रव्यजीव इति उच्यत इत्यनेन सम्बन्धः । अनादिपारिणामिक भावोऽर्थाज्जीवत्वं तेन युक्तो गुणपर्यायैर्वियुतः ( : ), वास्तवतथात्वासम्भवादाह-प्रज्ञास्यापितः - प्रज्ञया बुद्ध्या कल्पितः । वैज्ञानिकसम्बन्धेन गुणपर्यायवियोगवान् गुणपर्यायवियुक्तत्वप्रकारक बुद्धिविषयो वेति यावत् तादृशो जीवो द्रव्यजीव इत्युच्यत इति वाच्यार्थः । इतिरवास्तवत्वद्योतकः । द्रव्यजीवादिनिक्षेपस्थले द्रव्यपढ प्रवृत्तिनिमित्तं गुणपर्यायवियुक्तत्वप्रकारक बुद्धिविषयत्वं वैज्ञानिकसम्बन्धेन तद्वियोगवत्त्वं चेति निर्गलितोऽर्थः । ननु सता गुणपर्यायाणां बुद्ध्या नापनयः शक्यः कर्तुम् । यतो न ज्ञानायचाऽर्थपरिणतिः, ' अर्थो यथा यथा विपरिणमते तथा तथा ज्ञानं प्रादुरस्ति' इतिवस्तुस्थितिमभिप्रेत्याह-शून्योऽयं भङ्गः । शून्य इति न सद्भावान्नातिव्याप्तिरिति । निक्षेपभेदप्रस्तावे द्रव्यजीव इति यः प्राक्तृतीयभेद उपन्यस्तस्तन्निरूपणायाह- द्रव्यजीवनिक्षेपलक्षणमाहेनि । गुण पर्यायैरिति-स्वानुगतस्वभावसिद्ध चैतन्यसुखादिभिस्सहभाविभिर्गुगैस्स्वाननुगततचत्कालोत्पन्नतत्तज्ज्ञानवैषयिक सुख दुःखहर्प शोकादिभिः क्रमभाविभिः पर्यायैश्चेत्यर्थः । ननु न कोऽपि कदाऽप्यात्मा ज्ञानाद्यशेषगुणपर्यायविनिर्मुक्तो दृश्यते, निगोदजीवानामप्यक्षरानन्ततमो ज्ञानभागो नित्योद्घाटित इति सिद्धान्ते प्रतिपादनात् । यदाह-"सव्यजीवाणं पि य णं अक्खरस्स अनंतमो भागो, निच्चुग्धाडिओ चिट्ठ, सोविअ जइ आवरिजा तेणं जीवो अजीवत्तणं पाविजा " इति । अन्यथा गुणपर्यायवद् द्रव्यमिति लक्षणे सर्वकालनियतसच्वलक्षणनित्ययोगे मतुव्विधानादुक्तलक्षणस्यैवाऽनुपपत्तिस्यादित्याशङ्कायामाह-वास्तवतथात्वासम्भवादाह-प्रज्ञास्थापित इति । तदर्थमाह-प्रज्ञयेति । तस्यापि तात्पर्यार्थमाह-वैज्ञानिकसम्बन्धेनेत्यादि । अर्थो यथा यथा विपरिणमते तथा तथा ज्ञानं प्रादुरस्ति' इति - अर्थो जीवादिवस्तु येन येन पर्यायेण विपरिणमते यं यं पर्याय परिणाम - मासादयति तत्तत्पययिविशिष्टतयैवार्थज्ञानं भवति, तथा च गुणपर्यायानुगामितयैवात्मद्रव्यस्य सर्वदा प्रतीतेर्गुणपर्यायवियुक्तस्यात्मनोऽभावात्तथा बुद्धिरेवासम्भविनीति न तया द्रव्यजीवस्थापना युक्तेत्यर्थः । यद्वस्तु भूतकाले विवक्षितपर्यायरूपेण परिणतं तद्वस्तु भूतपर्यायकारणत्वावर्तमानकाले द्रव्यरूपमुच्यते, अनुभूतदेवस्त्रपर्यायमनुष्यो द्रव्येन्द्रवदनुभूतधृताधारत्वपर्यायरिक्तघृतवटवच, यच्च वस्तु भविष्यत्काले विवक्षितपर्यायरूपेण परिणंस्यति तद्व भविष्यत्ययकारणत्वाद्वर्तमानकाल विद्यमानं सद्भविष्यत्पर्यायापेक्षया द्रव्यरूपमुच्यते " मिउपिंडो दन्त्रघडो सुसागो तह य दव्यसाहुत्ति | साहू य दव्वदेवो एमाइ सुए जओ भणिअं ||१||" इति सिद्धान्तवचनादनु भविष्यत्साधुत्वपर्याया श्राद्धे द्रव्यसाधुत्ववत्, अनुभविष्पदेवेन्द्रपर्याया साधौ द्रव्येन्द्रत्ववदनु भविष्यद्धृताधारत्व पर्यायघृतघटवञ्च यद्वस्तु भूतभावस्य 34.. Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १३८ : तत्त्वार्थविवरणगूढार्थदीपिका । पं० स० टी० सम्भवति । अयं भगो द्रव्यजीनविकल्पः । मृत्पिण्डो द्रव्यघट इत्यादी भावकारणातायामेव द्रवपदार्थत्तिनिमित्तत्वदर्शनादुप्रिकरण प्रयोगाभावात्तत्र निपिद्धलक्षणापत्तेः । तदाह-यस्थ जीवस्येति । यम्य - वस्तुनः । हिजनो यस्मादर्थे, अजीवस्य चेतनारहितस्य, सतः सम्प्र-यननावस्थायाम् , भव्यं प्राग- .. भावप्रतियोगि, जीवत्वं स्यात्स आगामिन्या जीवनावाः कारणं द्रव्यजीवः स्यान्, अनिष्टं चनदन्यु-' . पगन्तुं, जीवत्वस्थानाधनियनपारिणामिकभावस्य सिद्धान्ते प्रतिपादनान । नन्वेवं सति नामादिचतुष्टय याव्यापिता प्राप्ता, द्रव्यजीवविकल्पाभावात् । अभ्युपगतं च सिद्धान्ते व्यापित्वेन नामादिचतुभ्यम् । नदाहे भगवान् भद्रबाहु:- जत्थ य जं जाणिज्जा, णिक्खे णिविश्ववे णिग्यसे । जत्थ वि य न माणिज्जा, चउकयं णिविषये तत्यत्ति ॥१॥" अत्र यत्र निक्षेपान्तरं न जानीवात्तत्र चतुयं निक्षिदित्यनेन चतुझ्यस्य व्यापिता स्फुटीकृतव । यत्तरपदाभ्या निर्देश यो धूमधान स वहिमानित्यत्रेव व्याप्तीभावश्यफत्वादिति चेत्, अत्र वदन्ति प्राय सर्वपदार्थवन्येषु सम्भवति, यद्यत्रै कस्मिन्न सम्भवति, नैतावता भवन्यज्यापितेति, तत्र व्यभिचारस्थानान्यत्वविशेषणानान्न दोषः, इयमेव प्रायिकी व्याप्तिरित्येत-पभाविभावस्य च कारणं तत् पूर्वोत्तर पर्यायापेक्षयाद्रयरूपं-"भूतस्य भाविनो या, मानव हि कारणं तु यलोके । तद् द्रव्यं तन्मज्ञः, सचेतनाचेतनं कथितम् ॥१॥" इत्यादिना सिद्धान्तऽभिहितम् , तथा च भावकारणत्वमेव द्रव्यपदप्रवृत्तिनिमित्तमिति सोदाहरणमाह-मृत्पिण्डो द्रव्यधर इत्यादी भावकारणतयामेव द्रव्यपदप्रवृत्तिनिमित्तत्वदर्शनादिति । अस्तु भावकारणतायां द्र०५पदप्रवृत्तिनिमित्तत्वम्, प्रकृते तेन किम् ? । अत आह- प्रकारण प्रयोगाभावात्तत्र निषिद्धलक्षणांपत्तरिति- बुद्धिकल्पितगुणपर्याववियुक्तत्वविशिष्ट द्रव्यजीवपदप्रयोगाभावात् प्रयोजनाभावाच्च तत्र येयं द्रव्यपद लक्षणा सा निपिद्धति तथा आपत्ति प्राप्तिस्यात् , न च निपिद्धलक्षणाऽऽश्रयणं युक्तमिति भावः । भव्यमित्यस्साऽर्थमाहप्रागभाचप्रतियोगीति-भविष्यकाले उत्पादामुपासमानमिति यावत् , यो वर्तमानकाली- - नाऽजीवो भविष्यकालेजीवत्वं चेतनारहितत्वलक्षणं परिहाय जीवत्वं चेतनाव वलक्षण प्राप्स्यति स एवाऽगामिजीवभावकारणत्वाद् द्र०यजीव स्यात् , न चैतदिमित्याह अनिष्ट चैतदभ्युपगन्तुमिति । तत्र हेतुमाह-जीवत्वस्येत्यादि । सिद्धान्ते प्रतिपादनादिति"दवेणेगं दव्यं संखाईयप्यएसओगाढं । कालेऽणाइ अनिहणो भावे नाणाइयाणता । १३९४ ।" इति विशेषावश्यकभाष्येऽभिहितत्वादित्यर्थः । जत्थ य ज जाणिज्जेति-पतदेव वीरसेनाचार्यकृतधवलटीकायामप्युक्तं "जत्य बई जाणिजा अपरिमिदं तत्य निक्सि णियमा । जत्थ बहुवं ण जाणदि चऽयं णिक्खिये तत्थ ॥१४॥” इति । व्यभिचारस्थानान्यत्वविशेषण- . दानान्न दोष इति-यो यः पृथिवीविकारः स स लोहलेख्य इति व्याप्ती बज्रात्मकं यद्वयभिचार स्थानं तदन्यत्वविशेषणदानवदत्राऽपि द्रव्यजीवद्रव्याजीवात्मकमनभिलाप्यभावेषु नामनिक्षेपाप्रवृत्तेरनमिलाप्यपदार्थात्मकञ्च यद्यद्वयभिचार स्थानं तत्तदन्यत्मविशेषणदानान्नाऽव्यापिता- . दोषः, न च यत्र यन्त्र व्याप्ती व्यभिचारस्तत्तदन्यत्वविशेषणदानेन व्याप्यवासिद्धिदोषनिवारणे Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थविवरणपूढार्थदीपिका । पं० स० टी० रिकारः । अपरे त्वव्यापितातोपभयादेवं वर्णयन्ति-अहमेव मनुष्यजीवो द्रव्यजीवोऽभिधातव्यः । अहं हि तस्योत्पित्सोदेवजीवस्य कारणं भवामि । यतश्चाहमेव तेन देवजीवभावेन भविष्याम्यतोऽहमधुना द्रव्यजीव इति । एतत्तैरुक्तं भवति, पूर्वः पूर्वो जीवः परस्य परस्योत्पित्सोः कारणमिति । अस्मिश्च पक्षे सिद्ध एव भावजीवः स्यात् , नान्यः कश्चित् , प्रथमाप्रथमाधादेशाश्रयणे च सोऽपि न स्यात् , प्रथमसिद्वद्रयाणामप्रथमसिद्धद्रव्यकारणत्वात्, कारणत्वानालिशितबुद्धिविषयस्य भावजीवत्वाश्रयणे च किमपराई वा गुणपर्यायवियुतबुद्धिविषयस्यात्मनो द्रव्यजीवत्वयादिना, येन तत्पक्षे प्रद्वेषः । दण्डादेर्यथा द्र०यत्वादिनाऽन्यथासिद्धत्वं दण्डवादिना च हेतुत्वम् , तथा जीवे द्रव्यत्वं भावत्वं च स्यादिति चेत्, न, तयोरुभयोरुपाध्यो. सप्रतियोगिकत्येनाविरोधात् , अत्र पादिराजीवद्रव्यहेतुत्वं द्रव्यजीवत्वं तदहेतुत्वं च भावजीवत्वमित्यनयोर्विरोधात् । न किमप्यनुमानं दुष्टं स्यादिति वाच्यं, यतो यत्र नानुकूलतर्कस्तत्र व्यभिचार सन्देहस्य व्याप्तिनिश्चयप्रतिबन्धकत्येन तत्राऽनुमानस्य दुष्टत्वम् , नाऽन्यत्रेति भावः । सर्योपसंहारेण व्याप्तिवादिनां मतमाह-अपरे त्वव्यापिनादोषभायादेवमित्यादि । सिद्ध एव भावजीवस्स्थात्, नान्यः कश्चिदिति-सिद्धस्य कर्मसम्बन्धाभावेन सदावस्थितस्वरूपतया न गत्यन्त गमन मिति गत्यन्तरभाविजीवपर्यायकारणत्याभावात् स एव भावजीवस्स्थात्, न संसारिजीवः कश्चित् , न हि तस्य कस्यापि कर्मप्रयोज्यस गत्यन्तरगमनस्याभाव इति तेषां सर्वेषां गत्यन्तरभाविजीवपर्यायकारणवाद् द्र०यजीवत्वस्यैव भावात् । सोऽपि न स्यादिति-सिद्धजीवोऽपि भावजीवो न स्यादित्यर्थः। तत्र हेतुमाह-प्रथमसिद्धद्रव्याणामप्रथमसिद्धद्रव्यकारणत्वादिति-पूर्वपूर्वसिद्धपर्यायाणामुत्तरोत्तर स्वीयसिद्धपर्यायान् प्रति कारणत्वेन द्रव्यजीवत्वमेव स्यात्, न तु भावजीवत्यमिति भावः । कारणत्वानालिझिलवद्धिविषयस्योति-सिद्धजीवस्योत्तरोत्तर स्वीयपर्यायकारणत्वे सत्यपि कारणत्वाभावविषयकवुद्धिविषयत्वेन तस्येत्यर्थः । गुणपर्यायवियुतबुद्धिविषयस्येनि-गुणपर्यायसहितस्यापि तद्वियुक्तत्वेन बुद्धिविषयत्यतस्तस्येत्यर्थः । ननु जीवे गुणपर्यायवत्यपि तद्वियुक्तत्वप्रकारकवुद्धिविशेष्यत्वं चेदभ्युपगम्येत तदा तस्मिक्तबुद्धिविषयत्वाद् द्रव्यत्वमुपयोगरूपत्वाद् भावत्वञ्च स्थादिति दण्डदृष्टान्तपुरस्सरमाशङ्कते-दण्डादेयथेत्यादिन।। जीवे द्रव्यत्वं भावत्वश्च स्यादिति-तथा च तयोविरोधकस्यैवाऽऽत्मनो विरुद्ध नानाधर्माध्यासाद् भेद स्यादिति भावः । सप्रतियोगिकत्वेनेति-सापेक्षकत्येनेत्यर्थः, सापेक्षधर्मयोविरोधाऽभावेन भेदाप्रयोजकत्वादिति भामः । आदिष्टजीवद्रव्यहेतुत्वं द्रव्यजीवत्वमिति-यद्यपि जीवद्रव्यं कालत्रययत्येकमेव तथापि मनुष्यगतिलक्षणप्रथमभवे वर्तमानरस प्रथमतय ऽऽदिश्यते तदनन्तरदेवभवलक्षणाऽप्रथमभवे भविष्यन् अप्रथमतया विवक्ष्यते तत्रोत्तरदेवभवलक्षणेऽप्रथमभये उत्तरोत्तरस्त्रपर्यायकारणत्वादादिष्टं विवक्षितं यदेवजीवद्रव्यं तद्धे- . तुत्वं मनुष्य जीवस्य द्रव्यजीवत्वं तस्यैव मनुष्यजविस्य अप्रथ , 4' •..--... भावजीवत्वमित्यनयोन्यजीवत्वभावजीवत्वयोर्विरोधात्, यस्यैव Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । १४० तत्वार्थविवरणशूढार्थदीपिका । पं० व टी० द्रव्यजीवत्वं सप्रतियोगिक भावजीवत्व तूपयोगवे (मप्रतियोगिकमित्यनयोरविरोध इति चेत्, तथाप्ययमुपाधिसकरपरिहार उपयसरपरिहारार्थश्च यत्न इति न किञ्चिदेतत् । तम्प्रत्यहेतुत्वमित्यस्याघटमानत्यादित्यर्थः । अप्रथमतया विवक्षितदेवजीवद्रव्यनिरूपितहेतुत्यलक्षणं द्र०यजीवत्वं सप्रतियोगिक, तदहेतुत्वलक्षणन्न भावजीवत्यम् , येन सप्रतियोगिकस्य तस्य तेन विरोधः स्यात् , तदभावरूपत्वात् , किन्तूपयोगवरवलक्षणमेव भावजीवत्वमिति परस्परविरहरूपत्वाभावानः पक्षेऽपि नास्ति विरोधगन्धोऽपीति शङ्कते-द्रयजीवत्वमिति । પતાવતોપાધ્યોદ્રવ્યવમવનવાસટ્ટાવક્ષતો પાહિતા મવતિ, ધેયદ્રવ્યનવभावजीपा सङ्कीर्णस्वरूपसिद्धये स्वयं यत्नो निष्फल एप, तारताऽप्येकस्यैव जीवस्य द्रव्यजीवभावजीवोमयस्वरूपानुपङ्गा, न चैकस्य द्रव्यभावोमयरूपताऽन्यत्र दृष्टेत्यदृष्टचरीयं कल्पना न त्याच्या इत्याशयेन समाधत्ते-तथाप्ययमुपाधिसङ्करपरिहार इति । द्रव्यरूपं जीवादिकं वस्तुमात्रं तावद् द्विधा, आगमतो नोआगमतश्च, उक्तञ्चाऽऽवश्यकमुद्दिश्यानुयोमद्वारसूत्रे-" से कि तं दवावस्सयं ? दयावरसयं दुविहं पण्णत्तं, तं जहा-आगमओ अ नोआगमओ अ" इत्यादि, द्रवति गच्छति तास्तान पर्यायानिति द्रव्य-विवक्षितातीत. भविष्यद्भावकारणम् , अनुभूतविवक्षितभावमनुभविष्यद्विवक्षितभावं पा परित्वत्यर्थः, द्रव्यञ्च तदावश्यकञ्च द्रव्यावश्यकम् , अनुभूतावश्यकपरिणाममनुभविष्यदावश्यकपरिणाम पा साधु. देहादीत्यर्थः । तस्यागमतो 'नोआगमतश्चेति भेदद्वयम्, तत्रावश्यकसूत्रे वाचनाप्रच्छना. परावर्तनाधर्मकथाभिर्वतमानोऽप्यावश्यकस्त्रार्थचिन्तनादत्तोपयोगी जीया " आगमतः" . आगममाश्रित्य द्रव्यावश्यकम् "अणुवओगो द" इति वचनात् । न तु ग्रन्थार्थानुचिन्तनलक्षणानुप्रेक्षावर्तमानः, अनुप्रेक्षाया उपयोगमा तरणाभावात् , उपयुक्तस्य च द्रव्यावश्यकत्वाऽयोगादिति । अत्राह-नन्वागममाश्रित्य द्रव्यावश्यकमित्यागमरूपमिदं द्रव्यावश्यकमित्युक्तं भवति, एतचाऽयुक्तम् , यत आगमो ज्ञान, ज्ञानञ्च भाव एवेति कथमस्य द्रव्यत्यमुपपद्यते ?, सत्यमेतत्, किन्वागमस्य कारणमात्मा तदविष्ठितो देहः, शदश्वोपयोगशून्यसूत्रोचारणरूप इह विवक्षितोऽस्ति, न तु साक्षादागमः, एतच त्रितयमागमकारणत्वात्कारणे कार्योपचारादागम उच्यते, कारणञ्च विवक्षितभावस्य द्रव्यमेव भवतीत्युक्तमेवेत्यदोषः। नोआगमतो नोआगममाश्रित्य द्रव्यावश्यक शरीरभव्यशरीरतद्वयतिरिक्तभेदैत्रिविधम् । तन्त्र नोआगमशदयटकनोशन आगमस्यावश्यकादिज्ञानस्य सर्वनिषेधे देशनिषेधे वा वर्त्तते । उक्तञ्च-" आगमसम्बनिसेहै, नोसहो अहव . देसपडिसेहे । सवे जह णसरीरं, भ०वस य आगमाभावा ॥१॥" इति । अस्यां गाथायां 'सधे' इत्यस्य नोशब्दस्य सर्वनिषेधार्थत्वपक्ष इत्यर्थः, तत्रोदाहरणमाह-जह सरीरमितिज्ञस्य जानतोऽतीतकालीनावश्यकपदार्थज्ञानवतोऽतीतमध्वाचाधारत्वपर्यायमधुधदृष्टान्तनातीतभावावश्यक कारणत्वाच्छयादिगतं निर्जीव भूतपूर्वगत्योपचरितजीवाभेदं शरीरं शरीरं नोआगमत इह द्रव्यावश्यकम्। 'भ०वस ' इति-भव्यस्य च योग्यस्यानागतकालोत्पत्स्यमाना Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તવાધિવાળાર્ધીવિના ઉ ટૂ ટી નીવરાંન્ચાર્યાત્રાનુપવુ પ્રત્યેનીવો, નવગાસ્ય થી વચ્છેસર નવરહિતં તે ક્યનીવોડત્ર વિવલિત ફ્લેવું નાખ્યાતિત્યારે આ માવનિક્ષે દુરથતિવવષજ્ઞાનવતા વાહનવરિતમવિષ્યપર્યાયવર્તમાનાગસ્તત્વમ્યુમિનિયાનુવૃન્યા ભવિષ્યવાઘાધારત્વપર્યાયમધુધરહૂદાન યજી તવાપિ નોટામત હ દ્રવ્યાવરય, તત્ર હેતુમા રામામવા કૃતિસામત્યાગ્યવિજ્ઞાનક્ષત વર્તમાન સર્વથાશ્મવાહિત્ય નોરાલ્સ્ય વેબતિધર્યત્વે “રિયામુક્યતો, થાવાસં કુળ માવસુન્ના વિરિયાકામો ન હો, તલ નિલે મને ?” તિ માધોવાહરતોડ્યા તત્ર શિવા-બાંવત્તવિવાં ત્યાધ્યાહાર | શાકમગ્ન વન્દનપત્રાવમુનાયનું માવશૂન્યા કાવર રોતિ સોગ નોશાકમત રૂટું દ્રાવસ્થામતિ શેષ વયમ્ભાવ થાવદ્વિરુક્ષત્રિયાયાં નહાવાં જ્ઞાનરૂપા મારવીમાનામસ્ય નિધિ મવતિ, બિયા સામનો ન મવતીય, તો ના મત તિ 1 રૂહ શિશુ મવતિ ? બામબતિપાઘનાવિશે કિયા કામાવત્રિય દ્રવ્યાવચ્ચમિતામતિ માથાર્થ જ્ઞશરીરમશરીરથતિરિ દ્રવ્ય હરિબાવનિકોત્તરિકમેવત્રયક્ષામનુદ્દિારત્રતોગતિ 1 પૂર્વોનીત્યા દ્રવ્યનવપવાખ્યામતો નોશારામતિ દ્વિવિધા, tત્રામિથિયાર-નવાર્યકર્તાત્રાનુપયુ ટૂર્નવિ નિ ક્રિએસત્યનવાવાસ્ય યાચુસૈનબવવનય નયસમ્રામસિદ્ધ તત્તભ્રત્રપુતાનપ્રવૃત્તિનાદુરૂવાળામાવતુથીવાળામુવાજીનામાવર્યાળામતવ િમાં નવાપરામાયણ પ્રવૃત્તનિતિ ચિતમારે દત્યુમિતિ દ્રવ્યપદ્ધ વાવિધાનધ્યર્થે મુલ્યપાર્થમિને વર્તતે યજ્ઞામ મુશ્વાવલનામાવવાવાન્ દ્રવ્યવાર્ય રતિ વ્યક્તિ શિશધાનાવાર્ય હત્યા ૪જીગ્ન-“બાહ વિ હું, થરૂ હિટો વસત્તિા પરમો નદ, વાવરિયો સવાઝોશ તિ તથા ૨ દ્રવ્યનિલેવાનુમતક્ષાä પર્યવાસિત મૃતસ્ય માવિનો વા માંવધારળ જીતચ્છવ્વાધેતા તો ય જ્ઞાંતતત્પવાર્થ જ્ઞસ્ય શરીરનીવવિપુ, યવ હાર માવિમાવજ્ઞાનાવછે સત્તભૂવીનં શરીરમબધાના તવન્યતમત્વકક્ષળદ્રવ્યત્યાાિ િશતબતિપાવવનવં દ્રવ્યનિક્ષેપમિતિ, હતાશહાપારિજ્ઞાનાન્ન સિદ્દન્તિાભ્યાસસંસ્કારિતમાનસાનાં જ દુમિતિ | માવનિક્ષેપ વધતીતિ-નનુમાવનિપજ્ય સામાન્યપણે પ્રકારે ૨ જ્ઞાત સત્યે વીવો તમુકવયિતું શક્ય હતિ તસ્ય સિદ્ધાર લિં સમાન્યસૃક્ષણામિતિ વ, ઉત-“મા વિશિ-િનુમૃતિયુરો હિ સમાધાત સન્દ્રિાદિ- હિન્દનાિિાનુમવાત શા” નેનોરં નાની હા યાય મર્થ વાર્થિવલિયાયા વિવાલિતપરિણામહેન્દ્રના પરબૈશ્વર્યાદ્રિપર્યાનુભવનમrમૃતિરતયા યુરો થs 8 મતદતોમેવોપવારા મવસમાઘાત ! નિદર્શનમાહ ફુન્દ્રાવિવાિતિ જયેન્દ્રનાિિાનુમવાત્પરમેશ્વર્યાઢિપરિણામેન પરિપતત્વહિન્દ્રાદ્રિ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १४२ : तत्वार्थविवरणगूढार्थदीपिका । पं० सू० टी० उच्यत इति । " आगमतो अ नोआगमतो अ" इत्यनुयोगद्वार वचना-झावोऽपि विविधः, तत्राममाश्रित्य "जाणए उपउत्ते" इत्यायनुयोगद्वारोक्तेभीवेन्द्र इन्द्रे पदार्थस्तत्र चोपयुक्तः, इन्द्रे पदार्थोपयोगलक्षणस्याऽऽगमस तत्र सद्भावात् । एतदभिप्रायेणैव बृहत्वपभायेऽप्युक्तम्"जो पुण हस्थजुत्तो, सुद्ध नयाणं तु एस भाविंदो इंदस्स व अहिगारं, बियाणमाणो तदुवउत्तो ॥ १५ ॥” इति, अत्राह-जन्धिन्द्र शब्दार्थ जाननिन्द्र शब्दार्थे उपयुक्तश्च भावेन्द्र इत्युक्तं कथं सङ्गच्छतं, यतो न हि यो घटं विजानाति स घटीभवति, प्रत्यक्षविरोधादिति चेत् , मैवम् , यतो न हि सर्वथा भिन्नयोरभिन्न योर्वा सम्बन्धः, किन्तु कथञ्चिद्भिन्नाभिन्नयोरेवेतीन्द्र तज्ज्ञानयोधंटतज्ज्ञानयोश्च कथञ्चिदिविशिष्टाभेदाभ्युपगम एव विषयावपयिभावसम्बन्धोऽप्युपपद्यत इत्युक्तसम्बन्धद्वारेन्द्रतज्ज्ञानयोर भेदः, इन्द्रोपयोगरूपेण परिणाभ्यात्मनश्चेन्द्रविषयकोपयोपरिणामानन्यत्यादिन्द्रज्ञानाभेदः, तथा च तदाभिन्नाभिन्नस्य तदभिन्नन्वमिति नियमादिन्द्राभिन्नज्ञानाभिनात्मन इन्द्राभिन्नत्वादन्द्रज्ञस्तत्र चोपयुक्तचैत्राद्यात्मा भावेन्द्रः। यहा "अर्थाऽभिधानप्रत्ययास्तुल्यनामधेयाः, तथाहि-इन्द्रासनस्थोऽपीन्द्र इन्द्रशब्देनोच्यते, इन्द्रशब्दोऽपन्द्रिशब्देन, इन्द्रज्ञानमपीन्द्रशदेनेति, तथा चेन्द्रार्येन्द्रशम्झेन्द्रज्ञानानामेकेन्द्रशब्दवाच्यत्वेनाऽभेदः, ज्ञानञ्चज्ञानि नोऽपृथग्भूतम्, तथा च तदभिन्नामिन्नस्य तदभिन्नत्वमिति नियमबलत इन्द्रज्ञान्यपीन्द्र इत्युच्यते, एवं घटज्ञानवानपि घटः, अन्यथा तज्ज्ञाने सत्यपि नोपलभ्येत, अतन्मयत्वात् । प्रदीपहस्तान्धवत्, पुरुषान्तरपद्वति । तस्मात्सुष्ट्रक्तमिन्द्रार्थ जानस्तत्रोपयुक्तो भावेन्द्र इति । उक्तञ्चाशकोत्तराभ्यां वृहत्कल्पभाष्ये-"न हि जो घडं विवाणइ, सो उ घडीमवई ने य वा अगी। नाणं ति य भावो त्ति य, एगहमतो अदोसोति ॥ १७॥ जमिदं नाणं दो, न व्यतिरिच्चति ततो उ तन्नाणी । तन्हा 'खलु त०भावं, वयंनि जो जत्य उपउत्तो ॥१८॥" इति । नविन्द्रार्थोपयोगवतो भावन्द्रत्वे तद्वदग्न्युपयुक्तस्य माणरकस्य भावाग्नित्वं स्यात् , तथाऽस्तु का नाम नो हानिः, दहनपचनप्रकाशनादितत्कापित्तिरिति चेत् , मैवम् , यतो न ह्यनल सर्व एव दहनादिकार्यप्रसाधको, भरमच्छ नाग्निना व्यभिचारात् । ननु जानाद्वैतनयमतमेतदिति तत्र भवतां प्रवेशरस्यादिति चेत्, किं ततः, सर्वनयमये भगवत्प्रवचने यथाधिकारं यथेतियाऽऽश्रयणे दोपाभावादिति । नोआगमतश्च " इदि परमैश्वर्ये " इति परमैश्वर्यविभूतिविभूषित स्वर्गाधिपो भावन्द्रः, इन्दनादिन्द्र इति व्युत्पत्ति सिद्धेन्द नादिक्रियानुभूतेः । अयम्भावः-नोआगमतो मावेन्द्र इन्द्रनामगोत्रे कर्मणी वेदयन् परमेश्वर्यभाजनम् , सर्वनिषेधवचनवान्नोशब्दस्य, यतस्तत्र नेन्द्र पदार्थज्ञानमिनद्रव्यपदे शनिवन्धनतया विवक्षितम् , कि. । इन्दनक्रियेव, तच्छालित्वानोआगमतो भावेन्द्रः। आगमतो भावघटो घटज्ञानोपयुक्त:, नोआगमतो भाववटश्च रक्ततादिपरिणामपरिणतः, वटचेष्टायां घटते चटत इति ५८ इनि व्युत्पत्तिसिद्धजलाहरणादिक्रियावांश्च । ननु नोश०दस्य सर्वनिषेधार्थत्वे उक्तदृष्टान्तप्रदर्शनं युक्तियुक्त मेव, देशनिषेधार्थकत्ये को दृष्टान्त इति चेत् , उच्यते-तत्तदर्थभावनामावितान्तःकरणो यथोचितव्यापार रातिदेहरजोहरणमुखवस्तिकादिरावश्यकक्रियां कुर्वन् Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -तत्वाविवरणपूढार्थदीपिका। पं० सं० टी० : १४३ : भावतो जीवा इत्यादि । ननु भावजीव इत्येकवचनेन पूर्व विन्यस्य व्याख्यावसरे बहुवचनान्तप्रदर्शनमयुक्तं भावतो जीवा इति, उच्यते, मैवं कश्चिद् ज्ञासीत् यदुत एक एक भावजीवो न भूयास इति । यथाहुः "पुरुषकार णिनः पुरुष एवेदं सर्वमित्यादि"। औपशमियादि । औपशमिकादयो भावा वक्ष्यन्ते, तैर्युक्त। उपयोगलक्षणाः संसारिमुक्तभेदाः, अत्रोपयोग एव लक्षणम्, अन्यस्वरूपकथनं, औपशमिकादिभावपञ्चकस्य क्षायिकसम्यक्त्ववत उपमश्रेण्यां मनुष्यस्यैव सम्भवादन्यजीवप्वव्याप्तरन्यतमभाववत्वस्य चाजीवेऽतिव्याप्तः । यद्वा भावजीवपदप्रवृत्तिनिमित्तोपवर्णनस्यात्राधिकृतत्वाज्जीवत्वमुप साधुश्रावको वा भावावश्यक इति। अत्र "किरियाऽऽमो न होइत्ति" वचनात् क्रियालक्षणे देशे आगमस्थामावानोआगमत्य, नोश०दस्य देशनिपेयवचनत्वात् , देशे स्वागमोऽस्ति क्रियासूत्राणामागमरूपत्वादिति । यद्व। तथाविधज्ञानक्रियारूपो यः परिणामः स नागम एव केवलो न चानागम इत्यतो मिश्रवचनत्वानोशब्दस्य नोआगमत इत्याख्यायत इति । नवागमनोआगमाश्रितभावद्वयानुगतं भावनिक्षेपलक्षणं किमिति चेत् , उच्यते-तत्तत्पदवाच्यतत्तदर्थोपयोगोपयुक्तजिनोक्तक्रियातत्तक्रियास्त्रार्थोपयुक्ततत्तच्छन्दव्युत्पत्तिनिमित्तालिङ्गिततत्तत्परिणामसमुच्चयान्यतमत्वलक्षणभावत्वालिजितेऽर्थे तत्तच्छन्दवाच्यताबोधकवचनत्वं भावनिक्षेपत्यमिति भावनिक्षेपलक्षणं पर्यवसितं जानीहि । भावतो जीवा इत्यादीति-पूर्व यद्वचना । पदं प्रोक्तं तद्वचना तपदमेव व्याख्यातुं योग्यमित्यत्र तत्परावर्तने बीजपरिज्ञानाथाशङ्कते-नन्विति । समाधत्ते, उच्यते, मैवमित्यादिना। पुरुष एवेदं सर्वमित्यादि-अत्र पुरुष एवेदं सर्वं यद् भूतं यच्च भाव्यं उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति यदेजति यन्नेजति यहरे यदु अतिके यदन्तरस्य सर्वस्य यदु सर्वस्यास्य बाबत इत्यादि ग्राथम् , एतच्च ब्रह्मवादिमतं, तन्मते व तेन तेन घटाधात्मनाऽवभासते । यथा चायं सर्प इयं मालेत्यादाविदं स्वरूपमनुगामि तथा सन् १८ः सन् पट इत्यादी सर्वत्र सद्रपमनुगामि, एवं च घटपटादिरूपस्य जगतस्सत्ता ब्रह्मसत्तव, अतरसवं यद् भूतं यच्च भाव्यं तत्सर्वं जगद् ब्रह्मैवेति । ननु भावजीवानां नानात्वे किं मानमिति चेत्, उच्यतेकवित् सुखी कश्चिद् दुःखी कश्चिद्रङ्कः कश्चिद्धनान्यः कश्चिदुचाभिजनः कश्चिन्नीचाभिजनः कश्चिद्विद्वान् कश्चिजाल्म इत्यादिव्यवस्थाऽऽत्मभेदमन्तरेणाऽनुपपद्यमाना साधयत्यात्मभेदम् , अत्र यह वक्तव्यं तथापि ग्रन्थगौरवमयानोच्यते । अन्यत्स्वरूपकथन मिति-औपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकौदायिकपारिणामिकभावयुक्ता इति तु जीवस्वरूपपरिचायकम् , न तु लक्षणप्रविष्टम् , लक्षणप्रविष्टत्याभ्युपगमे को दोष इत्याशङ्कायामव्याप्तिदोपमाह-औपशमिकादिभावपश्चफस्येत्यादिना । अथौपशमिकादिभावपञ्चकन्यतमभाववस्वमेव लक्षणं कक्षीक्रियते, न चोक्ताव्यातिः, भावपञ्चकान्यतमान्तर्गतस्य कस्यचिद्भावस्थाऽन्यजीवेष्वपि सद्भावादिति चेत्, तयजीवत्वलक्षणपारिणामिकभावमादायाऽन्यतमभाववस्वस्य लक्षणस्याऽजीवे गमनादतिव्याप्तिस्स्यादित्याह-अन्यतम भाववत्वस्य चाजीवेऽतिव्याप्तेरिति । अन्यतस्वस्थ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १५४ : तार्थविवरण गूढार्थदीपिका । पं० सू० टी० योगवत्त्वं सिद्धमुक्तान्यतरत्वं भावपञ्चकचद् वृत्तिद्रव्यत्वव्याप्यजातिमत्त्वमित्याद्यखिलमाश्रयणीयम् । व्युत्पनस्य यत्पदात् यावद्धर्मावच्छिन्नमस्खलनृत्योपतिष्ठते तावद्धर्माणा तत्पदप्रवृत्तिनिमित्तत्वस्य न्याय्यत्वात्, लक्ष्यतावच्छेदकत्वस्येव शक्यतावच्छेदकत्वस्य गुरुण्यपि स्वीकारात्, अत एव च प्रकृतिजन्यबोधप्रकारभेदद्वयघटितत्वेन गौरवालक्षणान्तरमाह- भावपञ्चकवद् वृत्तीत्यादि । अत्र भावपञ्चकवद्वृत्तिजातिमत्त्वमित्युक्त द्रव्यत्वजातिमादायाऽजीवेऽतिव्याप्तिः, तन्निवृत्तये द्रव्यत्वव्याप्येति । द्रव्यत्वव्याप्यजातिमच्यमित्युक्तावजीवत्वमादायाजीत्रे तदवस्थातिव्याप्तिरिति भावपञ्चकतीति । ननु तथापि द्रव्यत्वस्यापि तदभाववदवृत्तित्वेन द्रव्यत्वव्याप्यत्वात्तदादाय पूर्वोक्तातिव्याप्तिरिति चेत्, न द्रव्यत्वाऽन्यत्वेनाऽपि जातेर्विशेषणीयत्वात् वस्तुतस्तु द्रव्यत्वव्याप्यत्वं प्रकृते द्रव्यत्यन्नवृत्तित्वमेव लाभात् तच्च द्रव्यत्यसमानाधिकरणभेद प्रतियोगितावच्छेदकत्वरूपं न द्रव्यत्व इति तदादाय नातिव्याप्तिसम्भवः । ननु यद्धर्मेण यदर्थे यत्पदस्य शक्तिग्रहस्तत्वदस्य तद्वर्मः प्रवृत्तिनिमित्तं यथा घटपटादिपदस्य घटपटत्यादिधर्मेण घटपटादिरूपार्थे घटत्वपटत्वाद्यवच्छिने घटपटादिपदस्य शक्तिरित्याकारकशक्तिग्रहाद् घटादिपदस्य घटत्वादिरेक एवं लघुभूतोऽनुगतो धर्मश्शक्यतावच्छेदक इति कथं भावजीवपदस्यानेकधर्माणां प्रवृत्तिनिमित्तत्वमत्रोक्तं सङ्गच्छत इत्याशङ्कायां तन्निवृत्यर्थं न्याययुक्तिमाह व्युत्पन्नस्य यत्पदादित्यादि । अस्खलवृत्त्योपतिष्ठत इति । सङ्केतसहकृतप्रमात्मकशक्तिग्रहद्वारा शाब्दबोधविपयीभूतमित्यर्थः । यत्र विवक्षितशब्दप्रतिपाद्य एक एव भावरूपोऽर्थस्वत्र तद्गतो लघुभूत एक एव धर्मः शक्यतावच्छेदक इति नास्ति नियमः, किन्तु विवक्षितपदेन कस्यापि भावात्मकार्थस्य येन येन धर्मेण स्वगतेन शाब्दबोधस्सम्भवति ते ते धर्मा अन्यतमत्वेन संगृह्य तत्पदप्रवृत्तिनिमित्तत्वेन वाच्या इति भावः । लक्ष्यतावच्छेदकत्वस्येव शक्यतावच्छेदकत्वस्य गुरुण्यपि स्वीकारादिति । गङ्गायां घोष - इत्यादौ गङ्गापदस्य गङ्गातरित्वेन तीरे यदा लक्षणाग्रहस्तदा गङ्गातीरे घोष इति बोधः, यदा पुनस्तीरत्वेन तीरे लक्षणाग्रहस्तदा तीरे घोष इति बोधः, तदर्थं गङ्गातीरत्वमपि गङ्गापदस्य लक्ष्यतावच्छेदकं तीरत्वमपि तथा, एवञ्च तीरत्वापेक्षया गङ्गातीरत्वस्य गुरुत्वेऽपि यथा लक्ष्यतावच्छेदकत्वं तथा यद्धर्माविशिष्टे यत्पदस्य शक्तिग्रहस्तद्धर्मस्तत्पदशक्यतावच्छेदक इति नियमेन यदा गुरुधर्मविशिष्टे शक्तिग्रहादा गुरुधर्मः शक्यतावच्छेदकः, यथा कम्बुग्रीवादिमच्चविशिष्टे घटपदशक्तिग्रहे कम्बुग्रीवादिमत्वं घटपदशक्यतावच्छेदेकं यदा तु घटत्वविशिष्टे घटपदशक्तिग्रहस्तदा घटत्वेन घटवोधाद् घटत्वं शक्यतावच्छेदकमिति दिशा गुरु'धर्मेऽपि लक्ष्यतावच्छेदकत्वस्येव शक्यतावच्छेदकत्वस्य स्वीकरणीयत्वादित्यर्थः । उक्तार्थे वैयाकरणानामनुमतिमुपदर्शयति-अत एवेति गुरुधर्मे शक्यतावच्छेदकत्वस्य स्वीकारादेवेत्यर्थः । प्रकृतिजन्येति- प्रकृतिजन्ययोधे प्रकारीभूतो भावस्त्थतलादिप्रत्ययाभिधेय इत्येवं वैयाकरणैरम्युपगम्यते, प्रकृतिजन्यबोधप्रकारीभूतो यो भावस्तच्चलक्षण गुरुधर्म एव त्वतलादिप्रत्ययशक्य " Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સવાર્થવિરાળ હાર્ચ વિશ્વ જેટૌ ક સ્વાર્થ વૈયાવરણા વ્યાવક્ષતે, તે પર્વ ૨ મા, તત્ર - ધુમુહવિવાર, તાદ્ધર્મવિત્રાલાલ અવ તત્તર્મહત્વન ગૌરવાનિરીક્ષણાતુ, તથા વાક્યપદ્ધી “સર્વાધિમેવાવું નૈવ, મિદ્યમાના વાઢિપુ. જ્ઞાતિરિયુ તયા, સર્વ શબ્દા વ્યવસ્થિતા ? ! તા પ્રતિપાર્થિ 3, ધાવશે જ પ્રવક્ષત ! સા નિત્યા મા મહાનામાં, તામારુતરાય ૨ / ” કૃતિ | પર્વ નીવાર્થે નામાઢિયાસમુદ્રિય પુત્ર ચિતોડન્યત્ર સુજ્ઞાન પર્વ મવતીચંક્તિવિશતિ-વની વાર્ષિત્યાદ્રિ તત્રાની ફતિ નામ વસ્ય ચિતે સ નામાનવ | સ્થાપનાડર્નવઃ છાચિસ્ત, ધર્માસ્તિયારવિ પાપના માહિષ્યાણામિબાયિ મવચેવ ! દિવ્યાનવો મુળ વિવિયો વૃદ્ધિ થાપિત ! માવાની અત્યાધુપ્રહાર ધર્માદિ દ્રવ્યાસંવ બત્મિસમવેતાઃ પુળ રાતિપરિણામેન ! માવાશ્વાતુ ત પડતા / રાવ નિમતિ, મવવન. મકૃત્યાદિ | વ્યસંવરોડપિધાન, બતાવચ્છેદ્ર સરીઝ, સ gવ પ્રતિબન્યોધબારાવ રામાવા-મંવ ત્યમિતે તત્ર-વ-માવેજો માવો ઘટવાહિનાતિક હત્યવિર રવિવાહિં, ઘટત્વટવાતાદ્ધર્મવિચિત્રહલત્તાંય વ પદત્યાદાધિર્મવલ્વેન જ્યાં જુહમૃતાયા થાપ ધટાટાતિપત્તિનિમિનારરાવાહિયાહ–રાનિ. કtળે તૈયાર બબાબ્દમરિસતિમુહર્શનિ-તથા નિર્મિતાત્ વાક્ષસખ્યમેિવાત , સતૈવ બ્રહ્મસ્વપૉવ, મિચનાના મવવિષ નોવૃત્તિતત્વરિત્રહ્મસત્તાં મોજું ઘટવૃત્તિવારિત્રહ્મસત્તા વઢવં પદવૃત્તિવારિત્રહ્મસત્તા પદમયેવં મિઘમાંના ત્રહ્મસૌંવ, જ્ઞાતિરિયુથને-નાતિ-सामान्यादिशब्देनाभिधीयते, तस्यां-उक्तप्रकारेण व्यक्तिभेदेन विभिन्नतया व्यवस्थितासां ત્રમસરાયાં, સર્વે શા વ્યવસ્થિતા-dબવૃત્તિનિમિત્તવન સર્વે શાં વ્યવસ્થિતા, તા-૩જીવમાં સત્તાં, gવક્ષ-યારણા ચાનિ, સા સત્તાં, વમષિ, તાં- સT, દુ-તિવાuિl નનુ યશૈવ મિજવસ્તુનિ નિક્ષેપરંતુદયમવતરિતં તથ્રેમમેવ - વનિ તરવર્તિત ન વેતિ ત, ગવતી તે ઈતિ જ્ઞાનાહિ, થતો દિ બિપિ વધુ વિનામ યાતિ માર્યારબવમઍવા મવગ્ન પરિદાય વહતાં વિમુર્તિયન્યાસ્થિતનામાવવદ્યાવિસ્થાપનાપેક્ષવ સ્વસ્વનામનિનનના માર્યનનનશાહીંબળવતÇપામિળ્યાતિલળવવામાપક્ષયાગ વહુવર્ય નામાનિપાતgrગવનામૃતવાસુમાત્ર વતુર્મનિતિ, ઉકત મહામાથે પક્ષાપાશ્રયન-“વા વઘુ મહાણ, ના ફુવાર તયાા હાળા છે શ્વ, જ્ઞાવ તય મા ! ” તિા મિનું પક્ષે “નાત્યાતિવ્યવય પવાર્થ ” હતિ પતિનીધારી નાયાબ્રતિવ્યપત્યા* રાત્રિ પર્વવાળ્યતા પર્યાપ્તિસન વર્તત હૃતિ યથ થાયતે તથા નામસ્થાપનાકમાવામwવા નિક્ષેપષવાળ્યતા પર્યાદ્ધિસત્યેન વર્તત કૃતિ વ્યાય! પવનવાવિયાઘુગ્રન્થમવતારયતિ-- પર્વ નવ પવા ત્યાદ્ધિના | માનિમિત્તાપાર્વર Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १४६ : तत्वार्थविवरणेगूढार्यदीपिका । पं० सुं० टी० भावसंबरो गुप्त्यादिपरिणामापनो जीवः । द्रव्यनिर्जरा मोक्षाधिकारशून्या बीजादीनाम् , भावनिर्जरा कर्मपरिशाद सम्यग्ज्ञानाधुपदेशानुष्ठानपूर्वक. । द्रव्यमोक्षो निगडादिविप्रयोगः, भावमोक्षः समस्तकर्मक्षयलाञ्छन इति । तथा द्रव्यसम्यग्दर्शनं ये मिथ्यादर्शनपुद्गला भव्यस्य सम्यग्दर्शनतया शुद्धि प्रतिपस्यन्त, त एवं विशुद्धा आत्मपरिणामापन्ना भावसम्यग्दर्शनम् । तथा व्यज्ञानमनुपयुक्ततावस्था, भावज्ञानमुपयोगपरिणतिविशेषावस्था । द्रव्यचारित्रममयस्य भव्यस्य वानुपयुक्तस्य क्रियानुष्ठानम् , आगमपूर्वकं भावचारित्रमिति टीकाकृतः । अत्रावादीनां व्यभावनिक्षेपौ पुद्गलाश्रितावेव वदन् भावसमवाधिकारणतामेव द्रव्यपदाथमभिप्रेति स्म टीकाकारः, न हि भवति मृत्पिण्डो द्रव्यघट इतिव६५डा व्यघट इत्ययमपि प्रयोग इति । एवं च कर्मोदयस्य न्यास्रवत्वं तन्निष्पन्नात्मपरिणामस्य च यद् भावासवावमुपवण्यते तदात्मकर्मणोरेकद्र०यस्वभुपचर्योपचरितनयेनेति द्रव्यम् । हन्तैवं कर्मणामुदयो भावास्रवस्तजनक आत्मपरिणामश्च न्यासक इत्यपि वक्तव्यं स्यादिति चेत् , स्यादेव यद्यात्मविभावप्राधान्य नाश्रीयते, वस्तुतः पूर्वपूर्वस्वकीयभावस्येवोत्तरोत्तरस्योपादेयभावापेक्षया द्रव्यत्वम् । अत एव निश्चयनथे दानहरणादिकमपि स्वात्मनिप्ठमेव, न तु परनिष्ठमिति प्रपञ्चितमन्यत्र । न चैवमाशैलेश्यन्त्यक्षणं यधमानुच्छेदः । आपेक्षिकतदनुच्छेदस्य दोपानावहत्वात् , भावधर्मत्वावच्छिन्नप्रतियोगिकद्रव्यत्वस्य चापुनन्धकादिधर्म एव सत्त्वात् , अत एवापूनर्बन्धकादीनां द्रव्यत्वं किन्तु भावसमवायिकारणत्वमेव द्रव्यत्वमित्यत्र युक्तिमाह-न हि भवति मृत्पिण्ड इत्यादिना । तन्निध्पन्नात्मपरिणामस्थेति-क्रोदयनिष्पनामिथ्यादर्शनादिरूपात्मपरिणामस्येत्यर्थः । स्थादेव यद्यात्मविभावप्राधान्यं नाश्रीयते इति-कर्मविभावस्य प्राधान्य यद्याश्रीयते तदा स्यादेव, यतस्तस्योदितकर्मपुतलरूपत्वेन भावास्रवत्वात् तत्कारणत्वेनात्मपरिपामो द्रव्यासवः, यदि चात्मविभावप्राधान्यं विवक्ष्यते तदा तस्योदितकर्मपुद्गलस्य भावात्रवरूपत्वाभावेन तस्य द्रव्याखवरूपतया नाऽऽत्मपरिणामो द्रव्याखवा, कि भावात्रव इति भावः । यदा च कर्मविभावप्राधान्यं विवक्ष्यते तदाप्यात्मपरिणामस्य न व्याखवत्व, यतस्तस्य तं प्रति निमित्तविधयैव कारणत्वं नोपादानविधया, उपादानविधया कारणत्व तु पूर्वपूर्वपरिणामस्योत्तरोत्तरस्त्रोपादेयपरिणाम प्रत्येवेति तस्यैव तदपेक्षया द्रव्यममित्याशयेनाह-वस्तुत इत्यादि । वस्त्रनित्तिपूर्वकपरस्वत्वोत्पादनानुकूलव्यापारी दान, व्यापारश्च दातुति तल्लक्षणदानमपि तनिधमेव, स्वायसमर्पितद्रव्यवस्वत्योत्पादनानुकूलच्यापारी हरणं, तादृशव्यापारश्च हरेवेति तल्लक्षणहरणं तनिठमेवेत्याशयेनाऽऽह-दानहरणादिकमपि स्वात्मनिष्ठमेव न तु परनिष्ठमिति । यदि च स्वस्वत्वध्वंसविशिष्टपरस्त्रत्वानुकूलच्छव स्व. स्वत्वध्वंसानुकूला परस्वत्वप्रकारिकेछैव वा दानं तदपि तस्या दातृधर्मत्वात्तभिष्टव, एवं परस्वमनिवृत्तिविशिष्टस्वा यसमर्पितद्र०यस्वस्वत्योत्पादनेच्छा हरणं तदापि हतूनिष्ठवेत्याशयः । अपुनबन्धादीनामिति-न पुनरपि बन्धो मोहनीयकोत्कृष्टास्थितिवन्धनं यस्य सोऽपुन• बन्धकः, यो जीवो मोहनीयस्योत्कृष्टां सागरोपमकोटाकोटिसप्ततिलक्षणां स्थिति यथाप्रवृत्तकरणेन क्षपयन् ग्रान्थप्रदेशमागतः पुनर्न ता भन्स्यति भेत्स्यति च ग्रन्थि सोपुन र Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थविवरणगूढार्थदीपिका । पं० स० टी० १७: द्रव्याशा, सम्यगृहल्यादीनां च भावाशेत्युपदेशपदादौ स्थितम् । इदं हि योग्यत्वलक्षणं प्रस्थकन्यायेन - नयमेदतश्चित्रं द्रष्टव्यम् । अप्राधान्येऽपि काचिद् द्रव्य।०८: सिद्धान्ते प्रयुज्यते । यदाह-"अप्पाहन्नेवि. ३६, काय दियो उ दवसहो ति। अंगारमहंगो जह, दवायरिओ सयाऽगव्यो ॥ १ ॥ ति" । इत्थं च द्रव्यचारित्रमभव्यस्य यस्य वाऽनुपयुक्तस्येति यदुक्तं तदप्राधान्यापेक्षया, तदपि द्विविधं विपरीतफलप्रयोजकतयेष्टफलाऽप्रयोजकतया च, आधे मातृस्थानबहुलानाम्, द्वितीयमपि द्विविधं अधिकारसम्पत्तिविरहात् प्रणिधानाधुपयोगपूर्वकस्वरूपेष्टप्रयोजकतावच्छेदकरूपविरहाच, आद्यं प्रन्थिफसानानामभयानां दूरभव्यानां तीर्थकरादिपूजादर्शनेन लब्धश्रुतसामायिकलाभवुद्धीनां, तेषामुपयुक्त कियावत्वेऽप्यनधिकारित्वेनवेष्ट फलासिद्धः। द्वितीयमनुष्टानपराणां शून्यक्रियावताम् । तदुत प्रणिधानादीन्यविकृत्य, “ आशयगेदा एते सर्वेऽपि हि तत्वतोऽनुगन्तव्याः । भावोऽयभनेन विना, चेष्टा द्रव्यक्रिया तुच्छ। ॥ १॥” इति । तुच्छा इष्टफलाप्रयोजिका । एवमन्येऽपि विशेषा उखा । येऽपि येषां जीवादीना सामान्य शब्दास्तेप्वप्यस्य नामादिचतुष्टयस्यावतार इनि कथयन्नाह-पर्यायान्तरेणापाति-पायातिरं सामान्यराना, नामद्रव्यमित्यादि धर्मादीनामन्यतमदित्यन्तं व्याख्यातप्रायम् । द्रव्यद्रव्ये पक्षान्तरमाह फेचिदप्याहुरित्यादिना, अपिः-सम्भावनायाम् , केचिदाचार्या इति सम्भाव्य पदन्तिपद्य तो द्रव्यं भवति-ये सामूय द्रव्य कियत इत्यर्थः । यथा बहुभिः परमाणुमि. सम्भूय (कन्ध. स्त्रिप्रदेशिकादिरारभ्यते । अथवा यद्रव्यातमादेष स्कन्धात्रिप्रदेशिकादेवैकः परमाणुः पृथग्भूतो भवति स परमाणुरपि द्रव्यद्रव्यम् । द्विप्रदेशिकोऽपि च द्रव्यद्रव्यं भवति । तच्चैतद् द्रव्यद्रव्य पुद्गलद्रव्यमेव भवतीति प्रतिपत्तव्यम् । न हि जीवानिद्रव्यमन्यैः सयारभ्यते, न चान्य माद्भिद्यमानातन्निप्पद्यते, परमाणवस्तु समयान्यदारमन्ते ततश्च निप्पयन्त इति । यतः पञ्चमेऽध्यायेऽभिधाम्यते--" अणकः कन्धाः" इत्यादि, स्कन्धात् स्कन्धा भेदादणको निप्पयन्त इति तत्रैव व्याख्यास्यते, अणुपदं भिधमानाउच्यते, स आदियेषां तेऽपुनर्बन्धकादयस्तेषामित्यर्थः। अपुनर्वन्धकस्य लक्षणम्-"पा ण तिवभावा, कुणइ न बहु मण्णाई भयं घोरं । उचियट्टिई च सेवई, सव्यत्य वि अपुबिधोति ॥ ३४ ॥" इत्येवं पञ्चाशके प्रोक्तम् । द्रव्याशति-भावाज्ञाया: कारणत्वाद् द्रव्याज्ञा ज्ञेया, उपदेशपदादी स्थितमिति “गंठिगसत्तापुणवंधगाइयाणं पिदव्यतो आणा ॥ २५३ ।। इति । "भावाणा पुण एसा, सन्मदिहिस होति नियमेण | ५समादिहेउमावा नियाणपसाहणी चेव ॥२५९ ॥” इति च तत्रोक्तमिति । अपुनर्वन्धकादीनां द्रव्याज्ञत्यत्र द्रव्यशब्दसङ्घहन्यवहारनयविशेषतो नानारूप योग्यत्वे वर्तत इत्यभिप्रेत्याह-इदं हि योग्यत्वलक्षणमित्यादि । “तिस्थकराइपूयं दणणेण वाऽवि कजेण । सुयसामाइयलंभो होजाऽभव्नस गंठिमि ॥ १ ॥ " इति पारमपक्तिमनुसृत्याह-तीर्थकरादिपूजादर्शनेन लधश्रुतसामाथिकलाभदानामिति ॥ ' आशयभेदा एते सर्वेऽपि' इत्यादिश्लोकोऽयं सृतीययोडशके, तदर्थस्तु तत एवायसेयः । पर्यायान्तरं सामान्यशब्द इतिविशेषशवाच्यार्थगतसाधारणधर्मावच्छिन्नवाचकशब्द इत्यर्थः। अणवः स्कन्धा इत्यादि, Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थविवरणगूढार्थदीपिका 1 0 ०टी० पेक्षयाऽपकृष्ट परिणामद्रव्यपरम्, त्रिप्रदेशिक भिद्यमाने एकतः परमाणुरकतो द्विप्रदेशिकद्रव्यमुत्पद्यत इत्यभिधानात् । अथ साताद् द्रव्यमुत्पद्यत इति युक्तम् , भेदात्तु कथमुत्पद्यते, जन्यद्रव्यत्वावच्छिन्न प्रति विजातीयसंयोगत्वेनास्यवसंयोगस्यैव हेतुत्वादिति चेत्, न, सङ्घातभेदयोईयोरप्याक्तिमा न जन्यद्रव्यत्वापच्छिन्ने हेतुत्वैचित्यात् , अन्यथा त्रिप्रदेशिकभेदे द्विप्रदेशिकस्याकस्मिकतापतेः, तत्का"अणदः स्कन्धाश्च" ५-२५ । इति तत्वार्थपञ्चमाध्याथे पञ्चविंशतितम सूत्रम् ॥ वन परस्परेणासंयुक्ताः परमाणव इनि संयुक्तास्तु स्कन्धा इति चोच्यन्ते, उक्तञ्च तत्र भाष्ये-- "तत्राणवोऽबद्धाः स्कन्धास्तु बद्धा एवेनि" तथा च परमाणुस्कन्धभेदेन पुद्गलद्वैविध्यप्रतिपादनायतत्त्रप्रवृत्तिरिति । कथं स्कन्धास्ममुत्पधन्न इत्याशङ्कायां सङ्घलभेदेभ्य उत्पा५-२६ । इति पविशतितमसूत्रं मानाद् भेदात्मनातभेदादित्यम्पत्रिभ्यः कारगणेया स्कन्धा उत्पधन्ते विप्रदेशादय इत्येवं त्रिविधस्कन्धोत्पत्तिप्रदर्शनाय प्रवृत्तमिति। तत्र सङ्घातात् तत्तत्परमाणुसंयोगात, भेदात् सङ्घातसंयुक्ततत्तत्परमाणुविश्लेषात्, सङ्घातभेदात् स्कन्धेन सह विभिन्नदेशस्थतत्तत्परमाणुसंयोगात् तस्मिन्नेव समये स्कन्धसंयुक्ततत्त माणुविभागाचेत्यर्थः । ननु स्कन्धवदेव परमाणवरसमुत्पधन्ते कि वाऽन्यथेत्याशङ्कायां " भेदादणुः ।" ५-२७ । इति सप्तविंशतितमं सूत्रं भेदादेव परमाणुरुत्पद्यते, न तु साता समतभेदापेत्येवमेकविधपरमाणूत्पत्तिप्रतिपादनाय प्रवृत्तमिति । द्रव्यार्थनयापेक्षया परमाणोनित्यत्वेन प्रागसतः सत्तालक्षणोत्पत्तिररवरूपतो न सङ्घटते किन्तु स्कन्धसंयुक्तस्य तस्य पृथग्भावलक्षणभेदादेव विभक्तत्वेन रूपेणेति तद्रूपेणैव परमाणुरूत्पन्न इति गीयते पर्यायनयन, तन्मते तस्यानित्यत्वादिति भावः । इयणुनादिमहावयविपर्याजन्यद्रव्ये कतिपयभागावच्छेदेन यावद् भागावच्छेदेन का क्रिया ततो विभाग, तत: पूर्वसंयोगनाशः, ततो द्रश्यनाशा, पुनस्तदवयवा विशकलिता एव केवला:, तदनन्तरमेकस्मिन् परमाणौ परमाणुद्वये वा क्रियाविभागादिक्रमेण परमादयसंयोगादसमवाधिकारणाद्वयकोत्पत्तिः, एवमेव तत्तद्दयणुकारोत्पतिस्ततो दयणुकत्रयसंयोगात् व्यणुकं ततोऽपि चतस्रेणुक्रमेण महती पृथिवी महत्य आपो महत्तेजो महान्वायुरुपयते, इत्येवं तत्तदवयवसंयोगादेव कार्यद्रव्यमुत्पद्यते न तु विभागादित्याशयवान् नैयायिकशङ्कते-अथ साताद् द्र-यमुत्पद्यत इति युमित्यादि। अन्यथेति-जन्यद्रव्यत्वावच्छिन्नं प्रत्येकशक्तिमत्वन संघातभेदयोः कारणत्वानभ्युपगम इत्यर्थः । त्रिप्रदेशिकभेदे इति-त्रिप्रदेशिकरकन्धादेकाणुभेद इत्यर्थः । पुद्गलानां नवपुराणमास्वभावतथा जन्यद्रव्यमाने कतिपयावयवविश्लेषेवयव विभागपूर्वकद्रव्यारम्भकसयोगनाशात् दूयणुकादिनाशक्रमेण महायविपर्यन्तनाशः, तदनन्तरं स्वतन्त्रेषु परमाणुषु कर्मविभागादिनक्रियया परमाणुद्वयादिसंयोगाद्यणुकाधुत्पत्तिद्वारा महावयविपर्यन्तोत्पत्तिकल्पनायां महागौर वाद, नैवोक्तप्रकारेण माऽभ्युपमाऱ्या, किन्तु तत्राशेपात्रयवविशिष्टपर्यायनाशनावशिष्टाक्यविशि- पर्यायत पूर्वद्रश्यस्योत्पत्तिः, विश्लिष्टप्रदेशतयाऽन्यद्रव्यस्य चोत्पत्तिरित्येव प्रक्रिया Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तरवार्थविवरणपूढार्थदीपिका । पं० सू० टी० १४९ : रणसधातविशेषाभावात् , सर्वत्र परमाणुपर्यन्तभेदेन परमाणुद्वयादिसंयोगाद् धणुकाधुत्पत्तिकरपने महागौस्वात् । उत्पत्तेः प्रा भेदाश्रयस्य सिद्धयसिद्धिव्यापाताझेदस्य न प्रयजनकत्वमिति चेत्, न, भेदत स्वाश्रये तादात्म्येन विशिष्टद्रव्योत्पादहेतुत्वे दोपाभावात् । शुद्धद्रव्योत्पादस्य च त्रैलक्षण्यवादिना कुत्राप्यस्वीकारात् , भिधमाने हि त्रिप्रदेशिके त्रिप्रदेशिकदेशत्येन द्विप्रदेशिकं विनश्यति, द्विप्रदेशिकरकन्यत्वेनोत्पते, पुद्गलद्रव्यत्वेन च ध्रुवमिति क्य विरोधावकाशोऽपि । एतेन निराश्रयस्य परमाणुद्रव्यस्य नोत्पत्तिरित्यपि निरस्तम् । द्रव्यसामान्यस्याश्रयस्य तत्रापि जागलकत्वात् , आश्रितैकत्वमावस्य सामाप्रमाणाऱ्या, अत एव सुवर्णका व्यापाकिटकस्य फेयूरभावेऽर्थान्तरभावगमनलक्षणविनाश एवानु. भूयते, न तु तत्र कटकस्य के चिझागेषु क्रिया ततो विभागः, तदनु पूर्वसंयोगनाशतत्पश्चाद् द्रव्यनाशः, पुनस्तदयवा विशालता एवं केवला, तदनन्तरमेकस्मिन् परमाणो परमाणुढथे वा क्रियाविभागपूर्वसंयोगनाशपरमाणुढयसंयोगप्रक्रियया इयणुकोत्पत्तिः, तदनु ज्यणुकाद्युत्पतिक्रमण केयूरभावः प्रमीयते, तथाऽपि तथा कल्पनायां गौरवदोपमाह-सर्वत्र परमाणु पर्य.तभेदेनेति । विभागो हि विधमानद्रव्ययोर्भवतीति निप्रदेशिकरकन्धे द्विप्रदेशिकस्कन्धः परमाणुश्चोत्पत्तः पूर्वमस्ति, न पा, अस्ति चेत्, कथमुत्पादः, पूर्वमेव सत्यादिति भेदस्य न द्रव्यजनकत्वम् , नारित चेत्तर्हि न तयोविभागः, तथा च कथं ततस्समुत्पत्तिरित्याशकते यौगिक उत्पत्त: प्रागिति । तभिषेधति-नेति । निषेधे हेतुमाह-भेदस्य पाश्रय इत्यादि। त्रिप्रदेशिके द्विप्रदेशिकस्कन्धस्तदवयवत्वेनास्ति, एवं परमाणुरपि, तयोविभागे च सति तदवयवत्वेन विनश्यति द्विप्रदेशिकरकन्यत्वेनैवं विविक्तपरमाणुत्वेन चोत्पद्यत इति कथञ्चिदुत्पाद एवेष्ट इति स्कन्धात्परमाणोइयणुकरय वा भेदे सति तस्य विभागपर्यायविशिटपरमाणुयणुकद्रव्योपादहेतुत्वं न दोपावहम् । अत एव परमाणोरपि पूर्वद्रव्येण सह संयुक्ततया विनाशः, वियुक्ततयोत्पत्तिश्च, परमाणुस्वरूपत्वेन पुलद्रव्यत्वेन वा धौव्यमिति लक्षण्यमातगायते, कुत्रापि कदापि नचिद्रूपेण कस्यापि पूर्वमसतो नव्यद्रव्यस्योत्पत्तिमात्माननुभवेन स्याद्वादिमितस्वीकारादिति भावः। एतदेव विवृणोत्ति- भिद्यमाने हीत्यादिना । एतेन निराश्रयस्थ परमाणुद्रयस्य नोत्पत्तिरित्यपि निरस्तमिति-अवयवी स्वाक्य समवायिकारणे उत्पद्यत इति द्वयणुकसावयविनः परमाणुरूपे स्वाश्रयेऽवयव उत्पत्तिसम्भवति, परंभाणोस्तु निरवयवत्वादाश्रयरहितस्य नोत्पत्तिसम्भवतीत्यप्यतेन निरस्तमित्यर्थः । निरसने हेतुमाहद्र०यसामान्यस्थाश्रयस्येत्यादि । एकप्रदेशत्वेन यः परमाणुरुत्पन्नस्तस्यैव द्रव्यरूपेणावस्थितस्य सत आश्रयस्य तत्रापि विद्यमानत्वादित्यर्थः । एतेन सामान्यं करिमश्चिदाश्रितमेव, न तु कस्याप्याश्रय इत्याश्रितकस्वभावं तदिति द्रव्यरूपेणावस्थितत्वात सामान्यरूपस्य परमाणोरकप्रदेशत्येन यः परमाणुरुत्पन्न दाश्रयत्वं नेत्यपि निरस्तम् , पूर्वोत्तर कटेककेयूरादिपर्यायानुगामितयोचंतासामान्येऽपि सुवर्णे कुण्डलमुत्पन्न मिति प्रतीत्या कुण्डलपर्याथाश्रयत्वस्थानुभूयमानत्वादित्याशयेनाह -आश्रितकस्वभावस्य सामान्यस्येत्यादि । ननु Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । १५० : नपार्थविवरणमूढार्थदीपिका । पं० स० टी० न्यस्य नाश्रयत्वमिति तु सुवर्णे कुण्डलमुत्पन्नमित्यादिप्रतीत्या पसहतं कर्तव्यम् । अथ परमाणुत्र येण विप्रदेशिकद्वयमेवोत्पद्यते, एफपरमाणुविगमे च तत् द्विप्रदेशिकविगमादेकहिप्रदेशिकस्याभिव्यक्तिन तु भेदादुत्पत्तिरिति चेत्, न, युगपत्रिषु परमाणुषु त्रिप्रदेशिकजनकस्यैव संघातविशेषस्य स्वीकागत्, अन्यथा त्रिषु कपालेषु वयोईयोटान्तर्गत्पत्यापत्तेः, एतेन दशतन्तुकादेश्वरमतन्तुसंयोगवियोगक्रमेण नाशे नवतन्तुकादेरभिव्यक्तिरेव, न तृपतिः, प्रथमतन्तुसंयोगक्रमेण नाशे चास्तु तदैव दातन्तुकनाशानन्तरं नवतन्तुकोत्पत्तिः, अम्तु वा दशतन्तुकोत्पत्तिकाल एव चरमतन्तुपर्यन्तं द्वितीयमादाय नवतन्तुकोत्पतिः । न चैवं प्रतिलोमक्रमणानन्तपटकल्पनापत्तिः, द्वितीयमादाय नवतन्तुकस्येव तृतीयमादायातन्तुकस्यापि स्वीकर्तु- : मुचितत्वादिति वाच्यम् । यस्त्वयाऽये स्वीक्रियते तस्यैव मया प्रथमत. स्वीकारान्नवत-तुकादौ दशतन्तुकादिवसम्य हेतुत्वे भानामावात, अन्यत्र प्रागभावाभावेनैव तहिरहोपपत्तरित्यादिकमपास्तम् । परमाणुत्रयेण द्विद्विप्रदेशिकं द्रव्यद्वयमुत्पद्यते, नत्रैकपरमाणोः क्रियाविभागादिना संयुतावस्थारूपेण विगमे सति विहिप्रदेशिकयोध्यादकं द्विप्रदेशिकं द्रव्यं विनष्टम् , अन्यच व्यवस्थितमेवाभिव्यज्यते, न नेकपरमाणुभेदादुत्पधत इत्याशते अथ परमाणुत्रणेत्यादि । समाधते-नेति, तथाऽनभ्युपगमेऽतिप्रसङ्गदण्डमाह-अन्यथेति । अथ दशतन्तुकपटस्थले चरमतन्तुमंयोगस्य दशतन्तुकपटं प्रत्येव कारणत्वेन तनाशात्तस्यैव नाशः, न तु नवतन्तुकपटस्य, तस्य दशमतन्तुसंयोगात्यागेवोत्पन्नत्येन चरमतन्तुर्मयोगासमवाविकारणकत्वाभावेन तन्नाशेन तन्नाशाऽसम्भवात् , किन्तु तदानीमवस्थितस्यैव तस्याभिव्यक्तिरेव, न. तूत्पत्तिः, आधमयोगनाशे तु भवत्येव दशतन्तुकपटनाश इव नवतन्तुकपटनाशः, आधत-तुसंयोगस्य द्वितन्तुकपटादारभ्य दशतन्तुकपटपर्यन्त प्रत्यसमवायिकारणत्वात् , असमाथिकारणनाशे च समवेतकार्य नश्यत्येव, अनन्तरं चान्यस्यैव नवतन्तुकपटस्योत्पत्तिरित्यज्यतेन खण्डितमित्याह-एतेन दशतन्तुकादेरित्यादिना । एतेनेत्यस्सापास्तमित्यनेनान्वयः। तदेवे. त्यस्य विशिष्यार्थोपदर्शनं-दशतन्तुकनाशानन्तरमिति। द्वितीयमादायेति-द्वितीयत-- मादायेत्यर्थः । एतेनाधतन्तुपरिहारातत्संयोगनाशेन दशतन्तुकपटनाशेऽपि न नवतन्तुकपटनाश धितन्तोत्समवायिकारणत्वाभावादिति सूचितम् । अ.रा शङ्कते-न चैवमित्यादि। न त्यस्य वाच्यमित्यनेनान्वयः । एवमिति-द्वितीयमादाय नवतन्तुकोत्पत्तिरित्ययुपगम इत्यर्थः । निषेधे हेतुमाह-यस्त्वयाऽग्रे स्वीक्रियते तस्यैव मयाप्रथमतः स्वीकारादितियस दशतन्तुकपटनाशानन्तरं नवतन्तुकपटस्य नवतन्तुकपटदिनाशानन्तरमष्टतन्तुकपटादश्चोत्पत्तिस्त्वया स्त्रीक्रियते तस्मैव भया दशतन्तुकपटोत्पत्तिकाल एव स्वीकारादित्यर्थः । न च नवत-कपटत्वाधवच्छिन्नम्प्रति दशतन्तुकपटादिध्वंसस्य हेतुत्वात् कथमेतत्सत छत इति वाच्यम्, उक्त कार्यकारणभावे मानाभावादित्याह-नवतन्तुकादाविति, तत्र हेतुभाह भन्यत्रेत्यादि शत-तुकपट ध्वसस्य यत्र सचं तत्रय नवतन्तुकपटस्योत्पत्तिान्यत.. Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वाविवरणपूढार्थदीपिका । पं० सू० टी० परमाणुत्रयजनितत्रिप्रदेशिकभेदे द्विप्रदेशिक (द्विप्रदेशिकस्य) विना भेदहेतुत्वमसम्भवात् , अन्वयव्यतिरेकाभ्यां नवतन्तुकादौ दशतन्तुकादिध्वंसस्य हेतुताया एवं युक्तत्वात्, एकैकतन्तुद्वयसंयोगेन द्वितन्तुको दिक्रमेण दशतन्तुकोत्पत्तावपि द्वितन्तुकादीनामर्थान्तरभावगमनलक्षणस्य विनाशस्यावर्जनीयत्वेन पुनर्न तन्तुकोत्पत्तये दशतन्तुकोपादाने नवतन्तुकवावच्छिन्नोत्पत्तौ दातन्तुकत्वावच्छिन्नध्वंसस्य हेतुतयैव पालथुवादिभावेन ध्वस्तोत्पन्नानुगतदेवदत्तवत्तपटानुगतस्य लक्षण्यस्य सिद्धेरित्यधिकमुपरिष्टाद्वक्ष्यामः । वित्येतदर्थमेव नवत. तुकपटम्प्रति दशतन्तुकपट ध्वंसस्य कारणत्वमभ्युपगम्यते भवता, परं तदनभ्युपगमेऽपि प्रतियोगिनम्प्रति प्रागभावस्य कारणत्वेन नवतन्तुकपदमागमायो नवत. तुष्वेव वर्तत इति तेष्वेव नवतन्तुकपटोत्पत्तिः, तद्भिन्ने च तत्मागभावस्याभावादेवन तस्योत्पत्तिरित्यत एवान्यतन्तुषु तद्विरहोपपत्तेरित्यर्थः । अपासने हेतुमाह-परमाणुत्रयजनितत्रिप्रदेशिकभेद इति-द्विप्रदेशिकमिति स्थाने द्विप्रदेशिकस्येति पाठो युक्तः । परमाणुत्रयजनित द्विद्विप्रदेशिक द्रव्ययमुत्पद्यते इति यत्पूर्वमुक्त तदयुक्तमुक्तम् , एकस्यैव त्रिप्रदशिकस्कन्धिद्रव्यस्योत्पन्नत्यात, तस्माद कपरमाणोः पृथक्त्वलक्षणभेदे च विभक्ततथैकपरमाणोटिप्रदशिकरकन्यस्य चोल्पत्तेः भेदहेतुत्वमन्तरेण तदुत्पत्त्यसम्भवादित्यर्थः। नवतन्तुकादौ दशतन्तुकादिध्वसस्य हेतुत्वे मानाभावादित्येतन्निरासे हेतुमाह-अन्वयव्यतिरेकाभ्यामित्यादि । एतदेव विवृणोतिएकैकतन्तुद्वयसंयोगेनेत्यादिना । द्वितन्तुकादीनामिति-अत्रादिपदेन नवतन्तुकापटपरिग्रहः । “विगमस्स बि एस विही, समुदयजणियम्मि सो उ दुवियप्पो । समुदयविभा गमतं, अस्थंतरभावगमणं च ॥११॥" इति स मंतित उक्तत्वाद् विनाशो द्विविधः, तत्रैका समुदाय. विभागरूपः, यथा पटादेः कार्यस्थ तत्कारणतन्तुपृथकरणे तन्तुविभागात्मा विनाशः, अर्था. परभायगमन विनाशो द्वितीयो यथा मृत्पिण्डस्य घटरूपान्तरभावेन परिणमनात्मा विनाशः, न च मृत्पिण्डावस्थाया यो घटात्मकाऽर्थान्तररूपविनाशस्ताहनाशे मृत्पिण्डप्रादुर्भावप्रसक्तिरिति वाच्यम्, पूर्वोत्तरकालावस्थयोर सङ्कीर्णत्वात् , अतीततरत्न मृत्पिण्डलक्षणप्राक्तनावस्थाया उत्पत्त, अतीतस्य वर्तमानत्वायोगात् , तयोस्त्वस्वभावाऽपरित्यागत तथानियतत्वात् । तथा च प्रकृते न विभागलक्षणो विनाशः, किन्वर्थातरभावलक्षणः, द्वित्रियावनवतन्तुकपटानामकैकतन्तुसंयोगे त्रिचतुःपञ्चयावशतन्तुकपटरूपेण परिणमादिनि तस्य विनाशस्यावश्यंभावित्वेन दशत-कपटविनाशे सति तदनन्तरं पुनर्नवतन्तुकोत्पत्तये दशतन्तुकपटसमवायिकार तन्तुषु नवतन्तुकपटत्वावच्छिन्नोत्पत्तौ दशत. तुकपटत्वावच्छिन्नध्वंसस्य ...हेतुतयेव प्रा+कालीनमालाधवस्थाविनाशमन्तरेण पुरुषो नैव युवादिरूपेणोत्पद्यत इति तस्य बालादिरूपपूर्वावस्थारूपेण विनाशो युवादिरूपेणोत्पत्तिः पुरुषत्वेनाऽऽत्मत्वेन वा पुरुषस्वरूपस्यानुगतत्वाद् धौव्यं यथा तथाञापि दशतन्तुकपटत्वेन नाशः नवतन्कपटत्नोत्पत्तिः ५४. खेन च ध्रौव्यमिति तत्पटानुगतं त्रैलक्षण्यं सिद्धमित्याशयेनाहः अनिरभा.. गमनलक्षणस्य विनाशयावर्जनीयत्वनेत्यादि। Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १५३ : तत्वार्थविवरणपूढार्थदीपिका । पं० सू० टी० भावतो व्यमित्येकवनोदिश्य भावतो द्रव्याणीति बहुत्वेन निर्दिशतोऽयमभिप्रायः, बहून्येतानि वन एव सत्ता दधति, न त्वेकमधिष्ठान परमार्थसत्यमन्यानि च संवृतिसन्तीति, सगुणपर्यायाणीति गन्याद्यगुरुलधुप्रभृतिपर्यायभाजि । म्यादेतद् यद् येन धर्मेण समन्वितं तत्तं धर्म न जातु जहाति तेनैव सदान्वितमात इत्येतदपि नास्तीत्याह-प्राप्तिलक्षणानि परिणामलक्षणानि अन्यान्यान् धर्मान् प्रतिपद्यन्त इति, जीवातावदेवमनुजादीन् , पुद्गलाः कृष्णादीन् , धर्मादयः पुनस्त्रयः परतोऽन्यान्यधर्मान् प्राप्नुवन्त्येव । यतोऽन्यस्मिन् गच्छति तिष्ठत्यवगाहमाने वा जीवे पुद्गले वा गमनादिपरिणामम्तेषामुपचर्यत इति । स्यादत्राशङ्का यद्येवं धर्मादीनामुपचरिता प्राप्तिः, जीवपुद्गलयोश्चानुपचारिता, तदा पुद्गलबजीवन्यापि कथं न द्रव्यद्रव्यत्वम्, विजातीययपर्यायप्राप्तेम्तस्यापि भावादिति, मैवम् , मनुप्यादिपर्याय जीवपुद्गलयोरुभयोव्यापारेऽपि द्रव्यभावनिवन्धनस्नेह प्रत्ययपरिणामाभावेनाकाशवदात्मन उदासीनत्वादिति । - .......... . .. . .. ___ खत एवेति-अनेन न त्वनिरिक्तसत्तायोगान्सत्तां द्रव्याणि दधतीत्युक्तं भवति, यतसत्ताया स्वरूपात्मकसत्तायोगात् सदूपत्वे भावानामपि तथैवास्तु, अतिरिक्तसत्तायोगात् सद्पत्येऽनवस्थादोपप्रसङ्ग इति भावः । पुरुष एवेदं सर्व यद् भृतं यच्च भाव्यमित्यादिश्रुतिमालवमानानां वेदान्तिनां नीव सद्रूपं मायाद्वारा निमित्त कारणं सहुपादानकारणं जगतः, न त नैयायिकानामिवश्वरामिन ब्रह्म निमित्तकारणमात्रम् , तत्कार्यन्तु घटपटादिकमसद्रियम् , अवियोपकल्पितत्वादित्यादि यन्मत तन्निरसनाथाह-न त्वेकमधिष्ठानमित्यादि । तन्निरासश्चैवम्-अविधोपकल्पितत्वहेतुस्सन् असन् वा, आये तापातो द्वितीय न बसता हेतुना जगतोऽसत्यसिद्धिः, अधिकं गौरवभीत्या यदव नोक्तं तदस्मद्दधसम्मतितर्कमहार्णवावतारिकातोअसेयम् । भाष्योक्तस्य सगुणपर्यायाणीत्यस्यार्यमाह-गत्यायेत्यादि । प्रातिलक्षणानीत्यस्यार्थमाह-परिणामलक्षणानीलि। तस्याप्यर्थमाह-अन्यान्यानिति । तेषामुपचर्यत इनि जीवपुद्रलयोरेव मुख्यवृत्या गमनादिपरिणामः, स एव धर्मास्तिकायादिघूपचयेत इत्यर्थः । तत्तजीवतत्तत्पुरलगतो यो गमनपरिणामस्तदुपग्रहकारित्वस्वभावो धर्मास्तिकाये स्यितिपरिणामस्तदुपग्रहकारित्वस्वभावोऽधर्मास्तिकायेवगाहनापरिणामस्तदुपग्रहकारित्वस्वभाव आकाशास्तिकाये परापेक्ष इत्यत उपचर्यत इत्युच्यत इति भावः । कथं न द्रव्यद्रव्यत्वमिति-द्रव्यात्मककार्योपादानकारणत्वं जीवनिष्ठं कथं नेत्यर्थः । तत्र हेतुमाह- विजातीयद्रव्यपर्यायास्तस्यापि भावादिति द्रव्यविजातीयपर्यायप्राः पूर्वदेवादिपर्यायत्यागेनोत्पधमानोत्तरमनुष्यादिपर्यायपरिणामरूपाया जीवस्यापि भावादित्यर्थः । द्रव्यभावनिबन्ध नस्नेहप्रत्ययपरिणामाभावेनेति-द्रव्यभावो द्रव्यात्मक कार्यता तन्निवन्धनं तत्कारण स्नेहप्रत्येयपरिणाम रहाधीनपरिणामः, तस्याभावेनेत्यर्थः । द्रव्यरूपकार्यकारणीभूतस्नेहाधीनपरिणामः पुद्गलद्रव्य एवं वर्तते, न तु जीवद्रव्य इति तस्याकाशवदासीनत्वानदूव्यदूपत्वमिति भावः। कर्मसाधनत्वपक्षे भूमाताविति चौरादिकभूधापाकल्पिक्रणिप्रकृतिवया Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सवार्यविमूढार्षदीपिका । ६० ० टी० प्राप्तिलक्षणानीति यदुक्तम्-सा न स्वमनीषिकेत्याह-आगमतश्वेत्यादि, तसिः सप्तम्यर्थे । आगमत आगमे पूर्वाख्ये, प्रामृतज्ञो व्याकरणोत्पत्तिमूलशप्रामृतनिष्णातो गुरुः, द्रव्यामिति भव्यमाह-द्रव्यमिति भव्यमिति पर्यायशब्देन च व्याचष्टे इत्यर्थः । तावतापि प्राप्त्यर्थता कथमत आह-भव्यमिति प्राप्यमाहअतो न स्वमनीषिकेयमित्यर्थः । नन्विदमसङ्गतं भवतेरकर्मकस्य सत्ताभिधाथित्वेऽपि प्राप्त्यनभिधायित्वादत आह-भू प्राप्तावात्मनेपदीति, चुरादिगणपठितोऽयं प्राप्त्यर्थ., न तु भ्वादिगणपठितः सत्तार्थ इत्यर्थः । निगमयति तदेवमिति, भव्यशब्दस्य कर्भसाधनत्वपक्षे प्राप्यन्ते स्वधर्मर्यानि तानि भव्यान्युच्यन्ते । फर्तृसाधनत्वपक्षे तु प्राप्नुवन्ति तान्येव धर्मादीनीति व्याख्येयमिति भावः । उक्त जीवादीना न्यासमन्यत्रातिदिशन्नाह-एवं सर्वेषामित्यादि । एवं यथा जीवादीनां द्रव्यशब्दस्य, तथा सर्वेषां गुगक्रियादिशब्दानाम् , अनादीनां भव्यामव्यादीनाम् आदिमतांच मनुष्यादीनां पर्यायाणाम् , जीवादीनां भावानां, जीवादिभ्यो. ऽनन्यवृत्तीनाम्, तत्त्वाधिगमार्थ तत्वस्य भावस्य परिज्ञानाय, नतु नामस्थापनाद्रव्याणा, तेषामनुपयुक्तस्यात्,, न्यासो निक्षेपः कार्यः । भावनिक्षेपे कार्ये त्रयमप्यायातीति चेत्, आयातु प्रस्तुतार्थव्याकरणादप्रस्तु. तदभावपक्षे भूयन्ते प्राप्यन्ते स्वधर्मेंर्गत्यादिभिसम्बध्या यानि तानि भव्यानि, द्रव्याणीत्यर्थः, इत्याशर्थनाह-भव्यय कर्मसाधनत्वपक्ष इत्यादि। कर्तव्युत्पत्तिपो तु णिच्सन्निवानाभावे भव प्राप्नुवन्ति तान्यव स्वधर्मादीनि गत्यादिरूपाणीति भव्यानि, द्रव्याणीत्यर्थः, एततात्पर्येणाह-कर्तृसाधनत्वपक्षे त्विति "भव्यगेयवचनीये"त्यादि (३।४।६८) पाणिनीयसूत्रे निपातनात् भव्यशब्दसिद्धिः। भावस्य परिज्ञानायेति-नामादिचतुष्टयप्रकारेण पनि निक्षिप्ते सत्येव भाववस्तुनाऽत्राधिकार इति ज्ञातुं शक्यते, नान्यथेत्येवं भावस्य परिज्ञानायेत्यर्थः । अयम्भावः-विवक्षितस्याङ्गस्थानङ्गस्य वा श्रुतस्य वा स्कन्धादेर्वा, निक्षेपचतुष्टये प्रदर्शिने सति -प्रका प्रकरणे भावाङ्गेन भावानङ्गेन वा भावश्रुतेन वा भावस्कन्धादिना वाऽधिकारः, तस्यैव प्रस्तुतप्रकरणेऽधिकारत्मात् , न तु नामाङ्गादिस्थापनाङ्गादिद्र०याङ्गादिमिः, तेषामनधिकृतत्वादवेत्येवं प्रकरणवशेन भावस्य परिज्ञानाय निक्षेपो विधेयो, न तु नामस्थापनाद्रयाणां परिज्ञानाय, तत्र हेतुमाह-तेषामनुपयुक्तत्वादिति, प्रस्तुतप्रकरण इति शेषः । अत्र वाधाशङ्कतेभावनिक्षे५ इत्यादि । उत्तरयति-आयात्वित्यादिना । प्रस्तुतार्थव्याकरणदिनस्तुतार्थापाकरणाच्चेति कस्यचिदेकस्य जीवादेवर नचतुर्धा निक्षेपेऽनगते सति - भावनिक्षेपात्रोपयुक्तः, तत्साधिगमफलकत्वात् , नामादित्रयन् न, प्रस्तुतेऽनुपयुक्तत्वेन हेयवादित्येवं प्रस्तुतस्य भावनिक्षेपस्य व्युत्पादनात् , तदन्यस्य नामादिनयस्य च परिहरणा-दित्यर्थः । अत एवं "इदमेव च नामादिभेदोपन्यासन व्याख्यायाः फलं यदुत यावन्तो -- विवक्षित।०६वाच्या पदार्था पटले तान् सर्वानपि यथा स्वरूपं वैविक्रयेनोपश्य येन केन चिन्नासाधन्यतमेन प्रयोजनं स युक्तिपूर्वकमाधिक्रियते, शेपास्त्वपाक्रियन्ते, तथा चोक्त अप्रस्तु- तार्थाऽपाकरणात् प्रतार्थव्याकरणाच निक्षेपः फलवानिति" पिण्डनियुक्तिप्रोक्त सङ्ग छत इति । Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ६५४ : तत्त्वार्थविवरण गूढार्थदीपिका | पं० सू० टी० तार्थपाकरणाच्च निक्षेपस्य फलवत्त्वेन प्रधानाङ्गत्वात्तन्निक्षेपस्त्वानिष्टा (ष्ठा) वह त्वात् प्रतिषिध्यते, लक्षणलक्षणादिवत् क्लेशमात्र फलत्वादित्याशयात् ॥ ५ ॥ निक्षेपस्य फलवत्वेन प्रधानाङ्गत्वादिति-प्रकरणवशेनाप्रकृतनिराकरणद्वारा यथास्थान विनियोजनेन तच्चभूतप्रकृतार्थनिश्चयफलकत्वेन भावनिक्षेपस्य तच्चाधिगमे प्रधानाङ्गत्वात् सोऽस्युपगन्तव्य इत्यर्थः । ननु भावनिक्षेपस्य भावस्वभावतच्चाविगमोपायत्वेन प्रधानत्वमतो भावनिक्षेपः कार्यो भवति, निक्षिप्यमाणो भाव एवोपादेयो, न तु निक्षिप्यमाणा नामादयस्त्रय इत्यप्रस्तुतार्थायाकरणाय नामनिक्षेपादयोऽपि निरूपणीया भवन्ति, एवं तचत्स्वरूपनिष्टकनं तनिक्षेपत इति भावस्वरूपनिष्टङ्कनाय यथा भावनिक्षेपः क्रियते एवं नामादिस्वरूपनिष्टङ्कनाथ नामनिक्षेपादयो यथा क्रियन्ते तथा भावनिक्षेप स्वरूपनिष्टङ्कनाय भावनिक्षेप निक्षेपोऽपि नामनिक्षेपादिचतुष्टय रूपेण सम्भवीति करणीयः स्वात् एवं नामनिक्षेप निक्षेपादयोऽपि कर जीयाः स्युः, यथा चानिक्षिप्ते भावादौ तत्स्त्ररूपपरिज्ञानं न सम्यक् सम्भवति, तथाऽनिक्षिप्ते भावनिक्षेपादों भावनिक्षेपादिस्वरूपपरिज्ञानमपि न सम्भवत्येव, तनिक्षेपमन्तरेण तत्परिज्ञाने वा भावनिक्षेपादिकमन्तरेणापि भावादिपरिज्ञानसम्भवाद् भावनिक्षेपादयोऽव्यकरणीयास्स्युरित्यत आह तन्निक्षेपस्त्विति-भावनिक्षेपनिक्षेपः पुनरित्यर्थः अस्य प्रतिषिध्यते इत्यनेनान्वयः, तत्र हेतुः अनिष्ठावहत्वादिति-निष्ठा - विश्रान्तिस्तदद्भावोऽनिष्ठा, अविश्रान्तिः अनवस्थेति यावत्, तदात्वात् अनवस्थापादकत्वादित्यर्थः । यदि भावनिक्षेपस्य निक्षेपः क्रियते तक्तयुक्त्या भावनिक्षेप निक्षेपस्याऽपि निक्षेपः करणीयः एवं तनिक्षेपोऽपि करणीयरस्यादित्येवमनवस्थांनाभिक्षेप निक्षेपो निषिध्यत इत्यर्थः । अत्रानुरूपं दृष्टान्तमाह-दक्षण लक्षणादिवदिति । यथा पृथिव्यादिलक्ष्यस्वरूपविज्ञानाय तल्लक्षणं क्रियते तल्लक्षणस्यापि लक्ष्यत्वेन तत्स्वरूपविज्ञानाय लक्षणलक्षणमपि करणीयम् एवं तल्लक्षणमपीत्येवमनवस्थानाद्यथा लक्षणलक्षणादिकं न करणीयं तथेत्यर्थः भवत्वनवस्था तथापि लक्षणलक्षणं किमिति न क्रियते इत्यत आह क्लेशमात्रेति । अनिष्टावहत्वादिति पाठे त्वनवस्थारूपानिष्टापादकत्वादित्यर्थः । अन्त्रेदमप्यवधेयम् - नानार्थक शब्द स्थळे प्रकरणमपि शक्तिग्राहकम्, यथाहि सैन्धवपदं लवणेऽश्वे चेति कोशेन लवणाश्वात्मकार्थद्वये तस्य शक्तिर्व्युत्पादिताऽस्तीति सैन्धवमानयेत्यादौ सैन्धचपदाद् भोजनप्रकरणे सति तत्सहकारादश्वात्मकामस्तुतार्थनिराकरणेन लवणात्मकप्रस्तुतार्थावगतिः, तथा प्रशस्तभावसम्बन्धिनां सर्वेषां निक्षेपाणां तु प्रशस्तत्वमेव निर्व्यूढमित्युत्तर देतां भग वतां भावनिक्षेपस्य प्रशस्ततथा तन्नामादिनिक्षेपचतुष्टयमपि प्रशस्तमिति प्रणिवातृ शुभभावजननद्वारा निर्जराकारणत्वेन परमश्रेयोर्थिमिस्स्तुत्यर्हमिति नामात् स्थापनाई - द्रव्याहेतू - भावार्हनिक्षेपार्य कार्हस्पद । तच्छक्यार्थोपस्थितिद्वारा नामस्तवाधिकारप्रकरणवशात् प्रधानतया नामानिक्षेपावगतिरिति प्रस्तुतं नामान्तमुद्दिश्यैव "लोगरस उज्जोअगरे" इत्यादी तत्स्तुतिबिंधीयते, “चोबीसत्यएणं दंसणविसोहिं जणयः" इति सिद्धान्तोक्त्या चतुर्विंशतिस्तवाराश्यताविज्ञैः ܐ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थविवरणपूढार्थदीपिका । १० सू० टी० તેષાદિ નિક્ષિણાનાં તવાનાં છાશાખ્યા ન દેતુના વિસ્તરાધામો અવતતિ વિજ્ઞાસાયામાં€ सूत्रम् प्रमाणनयरधिगमः ॥ १॥६॥ (भाष्यम्) ५षां च जीवादीनां तत्वानां यथोहियानां नामादिभिधस्तानां प्रमाणनविस्तर. धिगमो भवति ॥ तत्र प्रमाण द्विविधं प्रत्यक्ष परोक्षं च वक्ष्यते, चतुर्विधमित्येके नयबादान्तरेण ॥ भयाश्च ( पञ्च ) नेगमादयो वक्ष्यन्ते ॥ किञ्चान्यत् ॥ (यशोट, का) प्रमाणे प्रत्यक्षपरोक्षे। नयाः पञ्च वक्ष्यमाणाः, तैः करणैः, अधिगमो ज्ञानं भवति । अत्र करणे तृतीया, न कर्तरि । 'ककर्मणोः कृती 'त्यनेन पठीप्रसङ्गात् । भाष्ये, एपा जीपादीनां, भोक्षफलेच्छया भन्यत्रातः । स्थापनास्तवाधिकारप्रकरणे सति तशात्' स्थापनाहनिक्षेपविगतिरिति स्थापनान्तमुद्दिश्यैव "अरिहंतचेइआण करेमि कासगं" "ज किंचि नामतित्यं" इत्यादौ तत्स्तुतिः क्रियते, द्रव्यस्तवाधिकारप्रकरणे सति तेन द्रव्याहन्निक्षेपबोध इति द्रव्याहन्तमुद्दिश्यन "जे अ अइआसिद्धा, जे अ भविसति जागए काले " इत्यादौ तस्तुतिराद्रियते, अत एवं " ण वि ते पारिवाज, दामि अहं ण ते इहं जन्मं । जं होहिसि तित्थयरो, अपच्छिमो तण वंदामि ।" ४२८ ॥ इत्यावश्यकसूत्रोक्त मरताधिपतिमरतचक्रिणा मरीचिः प्रोक्तः, मरीचे ! तव पारिवाज्यं न बन्दै किन्तु भावितीर्थकर स्वामिनि पन्द इति सङ्गछते । भारतवप्रकरणे सति तत्प्रयोज्यभाचाहनिक्षेपावबोध इति भावान्तमुदिश्यैव-" नमोत्थु णं अरिहंताणं भगवंताणं " इत्यादौ तरतुतिमक्षिार्थिना विधीयते इति तद्रूपयथास्थानविनियोगफलवयन फलवन्तो निक्षेपा इति ॥ ५॥ अथ सूक्ष्मेक्षिकया निक्षेपनयप्रमाणैरभिसमीक्षामन्तरेणाऽ नामविचारितरमणीयतया युक्तायुक्तत्वविभागो न च कस्यापि पुंसो भवति, अन्यथा प्रतिपत्तेः, उक्तश्व-प्रमाणनयनिक्षेप-र्योऽर्थो नामिसमीक्ष्यते । युक्तञ्चायुक्तवद्भानि, तसायुक्तश्च युक्तवत ॥१॥" इति । भाप्यकारोऽप्याह-"अत्यं जो न सम्मिस्वइ, निक्खेवनयप्पमाणओ ; विहिणा । साजुत्तं जुत्तं जुत्तमजुत्तं व पडिहाइ ॥२२७३॥” इति-तदेवं यथार्थतत्वनिश्चयार्थ निक्षेपनयप्रमाणतः सूक्ष्मपरिभाबनाया आवश्यकत्वे सति जीवादीनां चतुर्भेदनिक्षेपेण समीक्षायां पञ्चमसूत्रेण कृतायामधुना तेषां नयप्रमाणेस्समीक्षाया अवसर इति तत्करणार्थ ५४सूत्रावतरणिकामह-अथैतेपामित्यादिना ।प्रमाणनयैरधिगम इति-न चास्मिन् सूत्र प्रमाणञ्च नयाश्चेति इन्क प्रमाणापेक्षया नयसाल्पान्तरस्यात् पूर्व निपातः कुतो नेत्याशङ्कनीयम् , वस्तुगतसकलांशग्राहित्येन प्रमाणस्य वस्त्वेकांशग्राहिनयापेक्षयाऽभ्यर्हितत्वेन प्रमाणप्रतिपयवाथेषु नय- प्रवृत्तियवहारहेतुरित्यतोऽपि च प्रमाणस्याम्यर्हितत्वेन "अभ्यर्हितं पूर्व निपतति" इति न्याथेन लक्षणहेत्वोरिव पूर्वनिपातादिति । करणे तृतीया न कर्तरि " कतकर्मणोः कृतीत्यनेन पष्ठीप्रसङ्गात् प्रमाणनयर धिगम इत्यत्राधिगमपदस्य भावप्रत्ययान्तत्वेन कृ६तत्वात् प्रमाणनयरित्या कर्तृत्वार्थे तृतीयास्वीकारे " कर्तृकर्मण Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ભરાઈવવાદાઈપિયા 1 ઘ૦ ફૂટી વરાછાનામાનાન્ન, તાનાયુિમવત્ર સબ્ધ જૂથોહિદાનામિત્વાતિ, નિપદના . પતઃ શાવવમાત્રામ વિતરણ સામાન્યવિરદ્ધિવાવતા વિવાવિવાદ્ધિમાન વાધામ બનાળા ને મત ! સત્યનિયમમાર્યું પતિ, તત્ર પ્રસિદ્ધ નન્દા સિદ્ધા, દિવિષે પ્રમાણમુજબ ! વિચ્ચે ર પ્રત્યક્ષમનુમાનં વધુ, વાહનવી વૈશિાળવુિં, કે ધોળે ર્ષિવાપરોષછી સ્વાહિત્યથન પછી બન્નતિ, વત્તા કૃતિતહુસ્ય પા યાવિનિ માવા. મત્ર સંવર્ધ ફતિ તથા ૧ વીવાનાં વાનાં નામ નાં જ તાપાનામનિ માવા વાલીવાવસંવરનિરાશાસ્તવ દેશળ – રાવ્યાનવાલવવાદિસ્વાસાધારણ વિનવાનાં જ્ઞાને નાતે નીતિશત્રુવાબ : જિં વાન દત્યાશકુનિવૃજ્યર્થ નિક્ષેપર્સ, તેના પર નવાશિવાળ્યો નોર્થ, ધિતુ રામાનુર્વિધ ફત્યેતાવન્માત્ર સંક્ષિપ્તજ્ઞાન વાત, તુ લીવવિધતા ચેન્નધર્માસ્તવિધવિશિષ્ટનીવાદિજ્ઞાન વિસ્તૃતં પ્રતિનિયત ધર્મવિશિનીવાદિજ્ઞાન જ સંક્ષિહતા, નવું ર્તા તજ્ઞા શિવાશિકહાં જો બળેવતીતિ પ્રત્યક્ષ રીક્ષામાળાજ્યાં સંહાના નાનત્યારાનાહું દેશનિક્ષેપનિત્ય નચાવો સિદ્ધાને કિવિધ કમળમુતમિતિ ( સમાસવો વિટું પાપં, તું વહા- પર્વ ૨ પવર્ષ વિત્યાદિનેતિ શેપા ! માસૂન શેષિામિનિ રૌદ્ધવાળાનામત્ય | વૌદ્ધ હિં પ્રચલમનુમાન વેતિ માપદ્રયમવુચ્છત્તિ, 7 શ મેની ધિરાણકાળાનિ, યતવ્ય સ્વક્ષણેનાઈન સહ સધર્યવાડમાવઃ “વિશtવયોનવરશા વિના રાજ્યોના | જતા તે સાર્ધ શા મૃત્યવિ ? ” કૃતિ તેવામુક્કારો શબ્દાર્થપાવાવસગ્નન્ધાનમ્યુ જયો વિયાવાશ્વ ફલ્યુમિનિકાળમુપમાનં માળનત્યપ તરાતે નેતિ ! વૈશેશિ વિ “ શાપમાનવોને, પૃથકકામાખ્યામિળ્યો ! થનુમાનતાવા-વિતિ શેવિં મત છે ?” ફતિ વિદ્યા “તેન શાળ્યું વાઘાત ! ૨. રૂ તિ વૈશેબ્રિકોપર નવમા દિતીય દિ સુતીને જીવાત્ મનુમાન ચેતિ કમાલયમેવાવુપાચ્છદ્ધિ, શોપમાન ઢીનામનુનાવિધવ બાવરાત , તથાદ્ધિ-પત પાર્થ ચિíલવન્ત શાહૂતિમપિર્વરમાણિતા મામાનતિ પવાર્યસાચવ, તંત્ર વિવિમલવસ્વરમાણિત4 પાનાં વિચરર્સ વધ્યાર્થ કૃદન મિસંસર્વેનનુપિનોતિતિ પતીयप्रमाण मावेन शक्षेन । तत्र हेतावाप्तोक्तत्वमपि विशेषण देयम् , तेन नदीतीरे पश्चफलानि સર્જાયનાથે રથમવાર વિમુમાનનુમાન પાન્તર્યુ, તથાઢિ વિશો વિધવા મતિ વૃત્તને વૃદ્ધnત્ર પ્રચુર માનવત, શનિ વૃવત્તરે વરવો ચત્ર શિદે પ્રકારે ૨ વર્લ વાજૂ, પો મોરિસ્થનુમાનવ વયસંજ્ઞાવિયરૂષાર્થેશ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ધાર્થવિના મૂલાધંટીપિ૪) ૧૦ સ્ ટી : ૯૭ : વિન્તુ પ્રત્યક્ષ પોલ સ્ટેનમિત્તિ વક્ષ્યતે। દ્વં હિ સંમવવવિપ્રનોબાન્તર્યાવાલ ન્યૂનતા | ઘેવ તર્દિ ચમનુયો દ્વારાગ્યે વતુર્વિધમુપન્વતમ્ । તત્રા-પતબિંધનિત્યે બાપાર્યાં વવન્તિ । પ્રચક્ષાનુમાનોપમાનારામમેવાત્ । નયવાવા પોળ નૈતિનયમેવેન, યા નેતન્નાનિધ્યે દુઃસ્થિત તથા માધ્યાન વોહેરત્ર હરીચિતિ । નયાશ્ચ વચ્ચે નૈામાન્ય ફાંતે ! શવલર્મામ જીવંમૃતાનામેથૈવ શાસંન્યા સજ્ઞાતિ સાવઃ । અર્થે પ્રમાણનયયોર્ગોનાત્મત્ત્વાસામાન્ત્રવિશેષાત્મવસ્તુúરચ્છેદ્રિાન ઃ પ્રતિવિશેષ વૃત્તિ જંતુ, અત્ર ાિત સર્વનયાંશાવન્ત્રિજ્ઞાન પ્રમાણમ્ ! અનેધર્માભજે વસ્તુન્યધર્માવધારાં જૂ નથઃ | સત્ત મિચ્યા, યારેવવ્રુદ્ધિવત્ । યવાહ— પર્વે સવ્વુ વિચા, મિીિ સપવન્નત્તિ ! ' અપરે રવાનુંઃ–પરપરાપેક્ષા નૈમાનો નયા, તૈઃ પરસ્પરાપેઐશ્ર્ચત્ જ્ઞાનં સમતવસ્તુવામ્બનું નન્યતે તવનવા ܕ 1 સમ્મદ ન્તિર્યાજ્ઞાનાતંત્રય સત્રનામ વેતાઁવ ાંત વ પનોવત્રમાળમા માનેનેતિ । ૪ શ્રુતો વાગ્યોંન્ધયા નોવષઘતે રૂત્યÆલ્પનાવિત્તિષિ વૈવવતો વહિસ્સન્ નીવિલ્વે સાત શ્રૃહાડસવ્વાસ્થયનુપત્ત, પીનો લેવવત્તો રાત્રીમોની વિનામોનિત્યે સતિ પીનસ્ત્યાચાર્યોન્યોનુપત્તરિત્યાઘનુમાનદ્ધવાન્નાતિનિ પ્રમાણમાવું મનતેણં સૂતાવાવમાગ્રામનુજમાવ્યું પ્રમાામષિ મ≠ાસ્તુપાત નાતિરિ પ્રમાળમ્, ચક્ષુરાદ્રિનRsમાત્રાત, ન ચેન્દ્રિયનધિાપ્રદ વોપક્ષીળામાંત વાજ્યમ્, ભાવપ્રપર્યન્ત તથા રસાત્ ણં સમ્મવૈતિષે પૌષિજાન્યુાતે નાંતરિત્ત માપવે, સન્માંત હાર્યાં કોમિસ્ત્યાઘુવારસિદ્ધ સ્વાનુમાનેનૈવ ચરિતાર્થયાત, લારી દેખતી તદ્ઘટિતત્ત્વાત્ ઘેન ટિત ત્તેન તહત્, ચાઅચવવાનું ધટ રૂર્યનુમાનપાત્તસ્ય ! વિજ્ઞાતપ્રવેંબતુસ્ત્રાવાયલઐતિહસ્ય વનાસો વાવેવ 7 કામાખ્યમ્, આમા લેંગી તત્ત્વ ચન્દ્રેત્રમાળવનુમાન સ્વાન્તક તિ સપઃ । યથા વ્ યૌવંશાષા પ્રત્યક્ષમનુમાનચેસ્થેવારે માધ્યમ મ્યુરાન્તિ ન તથા સ્યાદ્વાહિનઃ વિન્તુ પ્રજાનાન્તરે, સહેવા વિત્યાદિ અનન્ય નત્યં ઋતુમાત્ર નિત્યનિત્યવાધનન્તધહ્ન ન સ્વેના વૈધર્માંમાંમતિ નું નિત્યમેવ સ્માનિત્વ વ ધટવાહિનિત્ય વેસ્પેવમેશાંચડ ધારણામો નથો મિથ્યા, તંત્રવારસ્યાયોન્યવચ્છેદુપર ઘેન વિષયેતર ધર્મનિષ્ઠાપરાવાદ સત્ર મથ્થતિ । વૃાન્તાએઁ - ત્યારે વાઢવિત્તિ-મત્સ્યાવચ્છેદેન ઘટતોમાસ્મન્ સમયત્ન ત્તતે ને ત્વમિત્યુ મચવાવ∞તુંને માવતિ તત્રેવદ્વિષા વિઘ્નાતિમા તથા વસ્તુમ ગ્રેડનોંધોમાં અનંતે ન લેવાન્ત ધમિમિતિ સામાનાચિસન્ધન ખેતરર્નામાવિશિષ્ટત-મેંસામાયિતિતા શત-મરચાનયોજિ મિબામ, તિ માવી લત્ર સાતિબંધનાટે વિતતમ મા પૂર્ણાસંવાવમાહ-છ્યું સને વિ પાયા, મિષ્ટાન્ની સવલત્ત વન્નીતિ। ાત્ર ‘‘ જુનિસિયા કુળ, વંતિ સન્મત્તસમાવાઁ ” ૦? IR1ત્યુત્તરાનમાં અયોત્તાદ્વૈત્ય વિવેષનો વક્ષ્ય, ાંમસ્ત્યત્ર સૈન્હા કૃષિ-દિવા ત્ત્તત્ર પહિત્રદ્ધા કૃષિ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सवार्थविवरणगृहार्थदीपिका । ६० सू० टी० तपस्तुपरिच्छेदाभ्युपायत्वात् प्रमाणम् , ये पुनर्न मादयो निरपेक्षाः परस्परेण, ते नयाभासा इति । अत्र प्रथमपक्षे सपा धर्माणा सविच्छेदेन धर्मिणि न पर्याप्तिः, किन्तु प्रत्येकामित्खनन्तधात्मकेऽप्येकवविधारપ્રશ્ય દોરેલ્વવૃદ્વિવત્તાબામાખ્યમ્ | द्वितीयपक्षे च सकलनयघटितसप्तभड्यात्मकमहावाक्यैकदेशस्य नयन्वसिद्धावप्युदासीनतवाऽसह इति सप्तधात्मकत्वबोधकता५त्यधिकरणं वाक्यं प्रमाणम् , च पाठा आरम् । एवं सः नि नया मिच्छट्टिीति-उक्तानीत्या सर्वेऽपि नया मिथ्यादृष्टयः, तर हेतुगर्भविशेषणमाह-" सपपडियाना" इति, स्व आत्मीयः पक्षोऽभ्युपगमः स्वपक्षस्तं प्रनिपचा अभ्युपगन्तार, नान्यं पक्षं यतस्ततः, स्वपक्षान्यपक्षविषयव्यवच्छेदनपत्यादिव्यर्थः, पाठान्तरे तेन स्वपक्षण प्रतिबद्धाः प्रतिहता यतनत इति, पामेकावधारणलक्षणनयानां मिथ्यात्ने च तत्तनयविषयस्यासम तदभिधानस्य च पिथयात्वमेव, ज्ञानाप्रामाण्ये सति विषयासत्यत्वस्य वाक्यरचना प्रति वाक्यार्थज्ञानस्य कारणत्वेन संत्राप्रामाण्ये सति वाक्यरूपे तत्तनपविषयाभिधानेप्रामाण्यस्य चानुभवसिद्धत्वात् , अनुमानमुद्रा चैवम् सर्वनवादा मिथ्यास्मकाः स्वपक्षेणैर प्रतिहतत्वात् चौर वाक्यवदिति । उत्तपक्षद्वयेऽपि यथाश्रुतार्थे दोपानावन- .. पुरस्सरं स्वाभिप्राय ग्रन्थकारः प्रकटयति-अन्नत्यादिना । प्रथमपक्षे इति-प्रमाणं सम्यग्ज्ञानं नपश्च मिथ्याज्ञानमिति पक्ष इत्यर्थः, किन्तु प्रत्येकमिनि-कि स्वीयावच्छेदकावच्छेदेनेत्यर्थः । द्वयोरेकत्वबुद्धिवन्नामामाण्यमिति-न्योरेकल्लयुद्धर्व्यतिरेकदृष्टान्तवपक्षे तस्सा यथा पूर्वोक्तनीयाप्रामाण्यं तथा नाप्रामाण्यम् , अन्यायपक्षे तु यया घटपटयोरुअयत्व वर्मावच्छेदेन द्वित्वमिवैकत्वमपि प्रत्येकवयि छेदेन वर्तत एवेति तत्रैकमबुद्धेन प्रामाण्यं किन्तु प्रामाण्यमेव तथाऽनन्तधर्मात्म के वस्तुनि अनन्त धर्मवत् समुदायत्वावच्छेदेन यत्तेत इति तदवगाहित्या प्रमाणस्य ग्रामाण्यमिव स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावपावच्छेद कावच्छेदेन सत्तादिधर्मस्य परद्रव्यक्षेत्रकालमावर पावच्छेदकावच्छेदेन तदभावपासचादिधर्मसकैकस्य विधमानत्वेनेतशिसापेक्षततदेकधर्मनिश्चयात्मकस्यापि नयस्य नाप्रामाण्यम्, किन्तु तद्वति तत्प कारकत्येन प्रामाण्यमुपपन्नमेवेति नये सुनयत्वस्यापि व्यवस्थितौ प्रथमपक्षे स च मिथ्येत्येकान्तोकितने युक्तेति, तथा चैतन् पक्षे नयो दुर्नयः प्रमाणमिति त्रिविधनिभागो न स्यात् , अस्ति च स सिद्धान्त इति सिद्धान्तयाकोपोऽप्यन दोषः। द्वितीयपक्षे परस्परापेक्षा नैगमादयो नया इत्युक्त्या यन्त्र नयान्तरेण सह नयान्तरवाक्यस्य सञ्चटना तत्रैव परस्परापेक्षभावानयत्वमिति । सप्तमशीघटकीभूतककधमप्रतिपादकमङ्गाना नयवाक्यत्वं स्वाद , सतभङ्गीवहिभूतकैकयमेप्रतिपादकानामितरथमर्माप्रतिषेधकानामपि परस्परापेक्षया मायेन नयवास्यत्वं न स्यादिति नयत्वेन सम्मते सप्तममयघटकवाक्यरूप उदासीननये यातिपादनः प्रमाणन यदुनथानां नोक्तप्रकारण लक्षणविभागो यथाश्रुतसङ्गत इत्याह-द्वितीयपक्षे च संकलन येत्यादि। पक्षद्वयं निराकृत्य -दितीयपक्षं परिष्कृत्य तत्र स्वनिर्भरं प्रदर्शयति सप्तधर्मात्मकत्वबोधकत्यादिना। Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थविवरणगृहाथदीपिका । प० ० टी० : १५९ : तदेकदेशवोधकतापर्याप्त्यधिकरणं तदितरादूषकं नयः, तदितरदूपकं तु दुर्णय इत्ययमेव लक्षणविभागो युक्तः । लौकिकलोकोत्तरप्रामाण्याप्रामाण्याभ्यां च नयस्योभयरूपत्वमभिप्रेत्य " णिययत्रयणिञ्जसचा " इत्यादि. अत्रोक्तप्रमाणलक्षणे पर्याप्तिनिवेशात् सप्तभङ्गयात्मक महावाक्यैकदेशे प्रत्येकमङ्गे नातिव्याप्तिः, पर्याप्तिसम्बन्धेन तादृशवोधकताच त्वाभावात् । तदेकदेशेत्यादि - सप्तधर्मात्मकस्येकदेशबोधकता पर्याप्त्यधिकरणत्वे सति तदितराद्रूपकं वाक्यं नय इत्यर्थः । अत्रापि पर्याप्तिनिवेशाल प्रमाणवाक्ये नातिव्याप्तिः, तत्र पर्याप्तिसम्बन्धेन सप्तधर्मात्मकवस्त्वेकदेशबोधकताधिकरणत्वाभावात् । तदितरादूषकत्वविशेषणोपादानाच्च दुर्नये नातिव्याप्तिः । निरुक्तलक्षण एव तदितरादूपकमिति स्थाने तदितरदूषकमित्यस्योपादाने दुर्नयलक्षणमित्याशयेनाह तदितरदूषकमित्यादि । उक्ते दुर्नयलक्षणे सत्यन्तमानन्तु सुनयेऽतिव्याप्तमिति विशेष्यविधया तदितरदूपकमित्युक्तमिति । अत्र पूर्वोक्तसुनयलक्षणे तदेकदेशबोधकतेत्युक्त्या स्यादस्तीत्यादि सप्तभङ्गा यत्र नोच्चार्यन्ते तत्र स्यादस्तीत्याद्येववाक्येऽपि नयरूपे उक्तनयलक्षणसङ्गमनाभोक्ताव्याप्तिरिति सूचितम् । अत एवेत्यञ्च तदन्तर्भूतस्य तद्वहिर्भूतस्य वाऽन्यतरमङ्गस्य प्रदेशपरमाणुदृष्टान्तेन नयवाक्यत्वमेवेत्यर्थतो लभ्यत इति नयोपदेशवृत्तौ तातपाद न्यायाचार्य श्रीयशो विजयोपाध्यायैरुक्तं सङ्गच्छत इति । लौकिक लोकोत्तरमामाण्याप्रामाण्यास्यामितिसुनयात्मकवोधस्य लौकिकप्रवृत्तिमात्रौपयिकं लौकिकप्रामाण्यम्, इतरांशसापेक्षस्य तद्ग्राह्यवस्त्वेकांशस्य सत्यरूपतया तद्वति धर्मिणि तत्प्रकारकज्ञानरूपत्वात्, सिद्धा-विचारौपयिकस्य लोकोत्तरप्रामाण्यस्याभावश्च, प्रमाणरूपसतभङ्गयात्मक महावाक्यजन्य सप्तधर्मप्रकारकाखण्ड समू हालम्बनशाब्दबोधरूपत्वाभावाद, ताभ्यामित्यर्थः । उभयरूपत्यमिति प्रामाण्याप्रामाण्यो भयरूपत्वमित्यर्थः । णियय क्यणिजसचा इत्यादि, “णिययत्रयणिञ्जसच्चा, सन्त्रणया परवियालणे मोहा | ते पुणण दिट्ठसमओ, विभयह सचे व अलिए वा | १|" गा० १-२८/ इति सम्मतिमता सम्पूर्णगाथा । अस्या अयमर्थः - निजकवचनीये स्वांश परिच्छेद्ये सत्याः सम्यग्ज्ञानरूपा सर्व एव नयाः सङ्ग्रहादयः, गजनिमीलिकान्यायेन तेषां नयानां स्वाशेवर रांशाऽप्रतिक्षेपित्वेन स्वविपयस्य सत्यरूपत्वेन तद्वभिष्ठविशेष्यतानिरूपिततभिष्ठप्रकारतानिरूपकत्वात्तेषाम्, ननु किमेकान्ततः सङ्ग्रहादयस्सर्वे नया उक्तरूपा एवेत्याशङ्कायां तत्रानेकान्तत्वप्रतिपादनायाह-' पर वियालणे मोहा' इति परविचालने परविपयत्खनने, स्वविषयमात्रस्यैव सत्यरूपतया व्यवस्थापनेन परनयविपयस्वासत्यत्वेन ज्ञापने सतीति यावत् मुझतीति मोहा मिथ्याप्रत्यया विपरीतज्ञानरूपाः, परनयत्रियस्यापि सत्यत्वेनोन्मूलयितुमशक्यत्वात् परस्पराऽविनाभावित्वेन तदभावे स्वविपयस्यापि सत्यत्वनाऽव्यवस्थितः, तस्मात् तानेव नयान् पुनश्शब्दस्यावचारणार्थत्वाद् नेति प्रतिषेधो विभ जनक्रियायाः, इष्टसमयः सविधिस्वगुर्वभ्यस्तार्हसिद्धान्ततया निर्णीतानेकान्तवचः सत्यान् वा इलीका वा न विभजते, अपि वितरनयविपयसव्यपेक्षतया 'अस्त्येव द्रव्यार्थतः' इत्येवं भवनया Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १६० : तत्वाविवरण (थदीपिका । प० सू० टील प्रतिपाद्यते, अनुभवल्यत्वं चामिप्रेत्याभ्यधिष्महि, "अयं न संशयः कोटे-क्यान व समुच्चयः । न विभ्रमो यथार्थत्वा-पूर्णत्वाच न प्रमा ॥ १ ॥ न समुद्रोऽसमुद्रो वा, समुद्रागो यथोच्यते । नाप्रमाणे प्रमाण वा, स्वनयाभिप्रेतमर्थं सत्यमेवावधारयति, अय-भावः-नयप्रामाण्याप्रामाण्ययोनेकान्तनमनधास्यति किन्धित संशसापेक्षो यदंशो यदपेक्षया यत्र तत्र तरय तदपेक्षया ग्राहकले ततनयानां प्रामाण्यम् , अन्यया ग्राहक चाऽप्रमाण्य मित्येवमनेकान्तत्वमेव निश्चिनोति, अत एव सुनयत्वं दुनयत्वं च तन गीयते सैद्धान्तिकरिनि । अभ्यधिष्महीति-नयोपदे२॥ इति देश: । " अयमिति" अयं नयात्मको बोधः संशयों न, तन हेतुमाह-कोटेरैक्याविति-ककोटिकत्वादित्यर्थःएकप्रकारतासात्रनिरूपकत्वादिति भावः । संशयो हि विरुद्धकोटिद्वयत्रकारकः, तनिष्ठप्रकारतानिरूपिता सती तद्विरुकोटिनिकारनानिरूपिता या धमिनिटेकविशेषता तनिरूपक इति पर्यवसितोऽर्थः, न चायं तयेनि न तदात्मकः, अत्रानुमानप्रयोगश्चवम्-नयात्मको बोधः संशयो न भवति, एकाकारतामात्रनिरूपकवान , उभयसम्प्रतिपन्न निश्चयवदिति । चकार स्थाप्यर्थकत्वात् समुच्चयोनी न, यद्यपि सदुचरित२२०६सकृदेवार्थ गमयतीति न्या यात् कोट क्यादित्यस्य नात्र पुनरन्धयस्तथाप्यावृत्त्याऽस्य हेतुविधयाऽन्वयः, समुचयो वैकस्मिन् धर्मिण्यविरुद्धनानाधर्मप्रकारकनिश्चयरूपः, अर्थात् मिन्नप्रकारतानिरूपितकधामिनिष्ठमिन्नविशेष्यतानिरूपकनिश्चयात्मस, न चायं तथा, एकप्रकार तामात्रनिरूपकत्वादिति न तदात्मकः। विभ्रमो न, तत्र हेतु नाह-यथार्थत्वादिनि-जीयादिधर्मिणसवासस्वाधनन्तधर्मशालिन समस्या समस्यापि च जीवधर्मत्वेन जीवस्सनिति द्रव्यार्थिकनयस्थापि सनवति जीव सत्यप्रकारकत्वलक्षणयथार्थत्वात् , एवं जीवोऽसनिति पर्यायार्थिकनयस्याप्यसत्वपति जीवेऽसत्प्रकारकावलक्षायथार्थवादित्यर्थः । नयः प्रमात्मकोऽपि न, तन हेतुः-अपूर्णत्वादितिएकथर्मिविशेष्यसत्यासत्वादिसप्तधर्मप्रकार काखण्डसम्पूर्णवोवरूपत्याभावात् , अनेनालोकिकप्रामाण्याभाव आवेदितः, लौकिकं तु प्रामाण्यं तद्वति तत्प्रकार कमरूपं न बृधितमिति न व्यवहारविरोध इत्यर्थः । उक्त मेनार्थ लोकिकदृष्टान्तेन समर्थयति न समुद्र इति । समुद्रांशो यदि समुद्रस्तर्हि तदन्यांशा अपि तद्वत्समुद्रास्युः, तथा च सत्येकस्यापि समुद्रस्य यावतोऽशास्तावत्सस याकत्वं स्यादिति भावः । असमुद्रो वेनि समुद्रांशो यदि न समुद्र तर्हि तदेकांशयत्तदन्यांशानामप्यन्त्यांशान्तानामसमुद्रत्वापत्त्या मचिदपि समुद्रत्यव्यवहारो न स्यात् , पूर्वपूशिविशिष्टान्त्यांशस्येव समुद्रत्वमित्यपि न, प्रत्येकांशानिामसमुद्रत्वे तस्यापि समुद्रत्वाभावादिति भावः। नाप्रमाणमिति-प्रधानतया वस्त्वेकदेशग्राही घटोऽस्तीत्याधाकारो नयो ह्येकदेशेन संवादिप्रवृत्तिजनकत्वेन यथार्थत्वान्नाप्रमाणमित्यर्थः । न प्रमाणमिनि-अत्र कात्स्न्येन संवादिप्रवृतिजनकत्वाभावादिति हेतुरूपः, सा च प्रतिशेपवर्माणामस्तित्माभिन्नत्वेनास्तिस्वरूपेण वस्तुगतसकलधर्मावगाहियरियादतीत्या. 55 Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थविवरणगूढार्थदीपिका । प० सू० टी० : १६१ : प्रमाणांशस्तथा नयः ॥ २ ॥ " इत्यादि । यद्येवं भ्रमप्रमासंशयसमुन्वयव्यावृत्तं नयज्ञानं तदा कथं तत्र शब्दप्रमाणान्वयव्यतिरेकानुविधायित्वमिति चेत्, न, तथात्वेऽपि तत्त्वमस्यादिवाक्यजन्यज्ञाने वेदान्तिनाभित्र व्यञ्जनावृत्तिजन्यज्ञाने चालङ्कारिकाणामिव तात्पर्यवैचित्र्येण वैचित्र्यस्याप्रत्यूहत्वात् शाब्दत्वजात्यनतिक्रमेऽपि च श्रुतचिन्ताभावनाज्ञानानां शब्दस्य दीर्घदीर्घतव्यापारेणावान्तरजातिवैचित्र्यं शास्त्रसिद्धमेव, शब्दजप्रत्यक्ष इव वा शब्दजन्यज्ञाने वैचित्र्यं भावनीयम् । अनन्तधर्मात्मकत्वप्रतिपत्तिविशिष्टे एकधर्माकारकज्ञाने सत्येव भवति, न च कोऽपि नयस्तयाकारः, येन प्रमाणं स्यादिति भावः । नन्त्रप्रमाणनिषेधे नयः प्रमाणमेव स्थात्, “द्वौ नत्रौ प्रकृतं गमयतः" इति न्यायात् प्रमाणनिषेधे नयोप्रमाणं स्यात् परस्परविरोधे हि न प्रकारान्तरस्थितिरिति न्यायाद्, गत्यन्तराभावात् ) सकृदेकस्य प्रमाणत्वाप्रमाणत्वोभयनिषेधाऽसम्भवादित्याशङ्कायां गत्यन्तरमाह - प्रमाणांशस्तथा नय इति । एतच्चाग्रे विवेचयिष्यते । ननूक्तदिशा भ्रमाद्यनात्मकस्य नयस्य प्रमाणतो भेदाभ्युपगमे शब्दजन्यशाब्दबोधात्मकप्रमाणभिन्नत्वमपि तस्येति शाब्दप्रमाणभिन्नस्य तस्य शब्दान्त्रयव्यतिरेकानुविधायित्वमपि न स्यात्, तजन्यतावच्छेदकवैजात्याभाववति तदन्वयव्यतिरेकानुवि घाविवस्यान्यत्रादृटेरित्याशयेन शङ्कते यद्येवमिति, लौकिकवाक्यतः परोक्षात्मकमेवोपजायते शाब्दज्ञानमिति तादृशज्ञानवृत्तिवै जात्यशून्यमपि निर्विकल्पका साक्षात्कारस्वरूपं ज्ञानं तत्वमस्यादिवाक्यतो यथा वेदान्तिनाम्मते जायते यथा वालङ्कारिकाणां मते विभावानुभावसश्चारिभिरभिव्यञ्जकै सहकृतेन शब्देन व्यञ्जनावृच्त्याऽखण्डानन्दब्रह्माकारवृत्ति सहोदरः स्थायि - भानावबोधो लौकिकप्रमाणादिव्यतिरिक्त एव जायते, शब्दजन्यत्वेऽपि तत्र यथा विचित्रतात्पयदिघटितसामग्री प्रयोज्यं वैजात्यं, तथा प्रमाणनययोः शाब्दत्वाविशेषेऽपि तद्वान्तरं वै जात्यं स्यादेवेति समाधत्ते नेति । तथात्वेऽपि भ्रमप्रमासंशयादि भिन्नत्येऽपि । ननु प्रमाणनययोः शाब्दत्वाविशेषे कथमुक्तवैचित्र्यमन्यत्रादृष्टमभ्युपेयमित्यत आह शाब्दत्वजात्यनतिक्रमेऽपि चेति | शब्दात्प्रथमतश्रुतज्ञानं यथा श्रुतार्थानुमारि समुत्पद्यते तदनन्तरं चिन्वाज्ञानं ततो विशिष्टभावनया भावनाज्ञानं तेषां यथा शाब्दत्वाऽविशेषेऽपि तदवान्तरवैचित्र्यं शास्त्रप्रसिद्धं नापलपितुं शक्यं शृणोमि चिन्तयामि भावयामीति विचित्रानुभवात्, तथा प्रकृतेऽपीत्याशयः । यथा वेदान्तिमते इन्द्रियजप्रत्यक्षे घटमहं जानामीत्यादौ घटत्यादिवैशिष्ट्यावगाहित्वेन सविकल्पकत्वमेव, तच्चमसीत्यादिशब्दजप्रत्यक्षे च सर्वज्ञत्वादिविशि-ચૈતન્યવાનતત્પદ વ્યાપજ્ઞāાવિવિશિષ્ટ ચૈતન્યવાષચંષતસ્યો વિશેષળાવનિનું ચૈતન્યમાત્રે तात्पर्यसच्चेन लक्षणया तन्मात्रस्यैवोक्तवाक्येन संसर्गानवगाहिबोधान्निर्विकल्पकत्वमेवेति वैचित्र्यं तथा शब्द जज्ञानेऽपि विभिन्नसामग्रीप्रयोज्यं नयत्यप्रमाणत्ववैचित्र्यं नानुपपन्नमित्याह-शब्दप्रत्यक्ष इव वेति । सनिमित्तापेक्षयैकयमविधारण एव नयत्वं न त्वकधर्माविधारणमात्रे, अपेक्षामन्तरेणैकधर्माविचारणे दुर्नयत्वस्यैव भावादित्याह २१ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १६२ : तपार्थविवरण गूढार्थदीपिका । स० स० टी० त्मकत्वावधारणं नय इति भतेऽप्यनेकान्तप्रतिपत्तिमत आसत्तिपावाभ्यासप्रयोजनार्थित्वान्यतरेणैकधर्मावधारणे न नयत्वम्, किन्पपेक्षयकधविधारण इति प्रमिणोमि नयामीत्यनुभवसाक्षिको विषयताविशेषः प्रमाणनयभेदकोऽवश्यमभ्युपगन्तव्य इति दिक् ॥ ६ ॥ इति-प्रमातरीति शेषः, एतेनैकान्तप्रतिपत्तिमतः पुंसोयदेकधर्मावधारणं तद् दुर्नय एवेत्यावेदितम्, अपेक्षयैकधविधारण स्यावादिन एवेति नयलक्षणे स्वनिमित्तापेक्षाप्रवेशस्थाऽवश्यकत्ये अनन्तधर्मात्मकत्वप्रतिपत्तिविशिष्टे इत्यस्य लक्षणे प्रवेशस्य नावश्यकतत्याशयेन मतेऽपीत्युक्तम् , आलत्तिपास्वाभ्यासति तत्र पदद्वयादीनामव्यवधानमासत्तिः। कर्मक्षयोपशमविशेषजन्यनिपुणताविशेषः पाटयम् , अभ्यासः पुनः पुनरावर्तनमित्यर्थः । अपि च प्रमिणोमि नयामीत्यनुभवसिद्धविषयताविशेषस्यविश्यकत्वे स एव प्रमाणनयभेदकः, लाववादित्याह । प्रमिणोमीति-प्रमिणोमीत्यनुभवसिद्धो विषयताविशेषो प्रमाणस्य लक्षणम् , नयामीत्यनुभवसिद्धो विषयताविशेषो नयस्य लक्षणं, तल्लक्षणभेदालक्ष्यीभूतप्रमाणनयभेद इति भावः ॥६॥ किं चान्यदित्यनेनोत्तरसूत्र सम्बन्धयति । नैतापतेव विस्तराधिगमस्तत्त्वाना, यतोऽन्यदपि विस्तराधिगतौ कारणमस्ति, किं तत् ? निर्देशादि, के पुननिर्देशादय इत्यत आह सूत्रम् निर्देशस्वामित्वसाधनाधिकरणस्थितिविधानतः ॥ १॥७॥ (भाग्य) एभिश्च निर्देशादिभिः पइभिरनुयोगद्वारेः सर्वेषां भावानां जीवादीनां विकल्पशो विस्तरेणाधिनमो भवति । तद्यथा-निर्देशः को जीवः ? औपशामिकादिभावयुक्तो द्रव्य जीवः । सम्यग्दर्शनपरीक्षायां किं सम्यग्दर्शनं द्रव्यम्, सम्यग्दृष्टिजीवोऽरूपी नो स्कन्धो नो ग्रामः ॥ स्वामित्व-कस्य सम्यग्दर्शनमित्येतदात्मसंयोगेन परसंयोगनोभयसंयोगेन चेति वाच्यम् । आत्मसंयोगेन जीवस्य सम्यग्दर्शनम् । परसंयोगेन जीवस्याजीवस्य जीवयोरजीवयोजीवानामजीवानामिति विकल्पाः । उभयसंयोगेन जीवस्य नोजीवस्य जीवयोरजीवयोर्जीवानामजीवानामिति विकल्पा न सन्ति, शेषाः सन्ति ! साधन-सम्यग्दर्शनं केन भवति ? | निसर्गादधिः गमाद्वा भवतीत्युक्तम्। तत्र निसर्ग: पूर्वोका। अधिगमस्तु सम्यगव्यायामः। उभयमपि तदावरणीयस्य कर्मणः क्षयेणापशमेन क्षयोपशमाभ्यामिति ॥ अधिकरणं त्रिविधं आत्मसन्निधानेन परसनिधाननाभयसन्निधानेनति वाच्यम् । आत्मसन्निधानमभ्यन्तरसन्निधानमित्यर्थ । परसन्निधान वाहसन्निधानमित्यर्थः । उभयसन्निधान पाह्याभ्यन्तरसन्निधानमित्यर्थः । कस्मिन्सम्यग्दर्शनआत्मसन्निधाने तावत् जीवे सम्पदर्शन जीवे ज्ञानं जीवे चारित्रमित्येतदादि । बाह्यसन्निधाने जीवे सम्यग्दर्शन नाजीव सम्यग्दर्शन मिति यथोक्ता विकल्पाः । उभयसनिधाने चाप्यभूताः सद्भूताश्च यथोक्का भङ्गविकल्पा इति ॥ स्थिति:-सम्यग्दर्शन कियन्त कालम् । सम्पादृष्टिद्विविधा-सादिः सपर्यवसाना सादिपर्यवसाना च । सादिसपर्यवसानमेव च सम्यग्दर्शनम् । तजयन्येनान्तर्मुहर्त टेन पदूषष्टिः सागरोपमाणि साधिकानि । सम्यग्दृष्टि. सादिरपर्यवसाना । सयोगः शैलेशीप्राप्तश्च केवली सिद्धश्चेति ॥ विधान हेतुविध्यात् क्षयादित्रिविधं सम्यग्दर्शनम् । तदावरणीयस्य कर्मणा दर्शनाहनीयस्य च क्षयादिभ्यः । तद्यथा-क्षयसम्यग्दर्शनम्, उपशमसम्यग्दर्शनम् , अयोपशमसम्यग्दर्शन मिति । अत्र चौपशमिकक्षायोपशमिकक्षायिकाणां परतः परतो विशुद्धिप्रकर्षः ॥ किचायत । Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તત્ત્વવિવાદોર્યરીવિલા ૦ ૦ ટી. (यशो० टीका) निर्देशस्वामित्वेत्यादि । पूर्व सम्बन्धवाक्यमेव समर्थपति-(भिश्वेत्याવિના નિશાહિમિર મિરનુઢોરન્થા સામિયનેન વ્યાપિતામહ-માવાનાં પ્રમાદધતાનાં, તેને સાંત્યામમતનિસાસા નીવાીનાં તત્તાનાં શ્રુતજ્ઞાનયુક્તશ્રદ્ધાવણયાળાં, तेनाप्रज्ञाप्यमापनिरासः । विकल्पशो विविधप्रकारः, विस्तरेण शब्दव्यासेन, अधिगमो भवतीत्यनुवर्त्य व्याख्येयम् । सम्बन्धं लगयित्वा सूत्रं व्याचष्टे तद्यथेत्यादि । यथैते भाज्यन्ते निर्देशादयस्तथा कथ्य-ते, निर्देशमुपक्रम्य को जीव इत्युद्देशवाक्यमुच्चास्यतो नाप्रस्तुतोपन्यासः, उद्देशवाक्यमन्तरण નિર્દેશવાસ્થય માWવાત સામાન્યાર્થીનિધાનમુદેશ, તક્રિપતિપિપાયિષાપૂર્વક વાં निर्देशः । ' अविसेसियमुद्देसो विससिओ होइ निसो' ति भगववाहुवचनात् । तत्र को जीव હતિ શ્વમુળાન્યતાનિકકળાવિયતાાાિસવા શે વિશકશાહિમાવયુક્સો દ્રષે ની सप्तमसूत्रमवतारयति किं चान्यदित्यनेनेत्यादिना । नैतावतैवेति-न प्रमाणनयमात्रेणैव, न केवलं प्रमाणनयैरेवेति यावत् । निर्देशस्वामित्वेत्यादिसूत्रे निर्देशादीनामितरतरयोगे द्वन्द्वसमासः, एपा कारणत्यं तु करणार्थकतृतीयाबहुवचनार्थ तसिविधानाद् ज्ञेयम् । अत्र निर्देशपूर्वकत्वात्स्वामित्वादिनिरूपणस्य पूर्व निर्देशग्रहणं, स्वामित्वादीनां तु सम्यदर्शनादिकं वस्तु कस्य स्वामिनः केन साध्यते कस्मिन् तिष्ठति कियचिरमवतिष्ठते कतिविध चेति प्रश्नवशात्क्रम इति । पद्भिरिति-अनेन निर्देशादित्वव्यापकपद्वसहयाविधानेनाधिकसङ्ख्याव्यवच्छेदः कृत इति । ननु किं कतिपयानां भावभूतजीवादितवानां निर्देशादिभियाख्याप्रकारधिगमो भवति किंवा निश्शेषाणामिति चेत्, उच्यते-निश्शेषाणामिति। तदेवाह-सपामित्यनेन व्यापितामाहेति । भावानामित्यस्य प्रमाणबोधितानामिति विशेषणोपादा. नस्य फलमाह तेनेत्यादि । सायवैशेषिकनैयायिकाधम्युपगतपञ्चविंशतिसप्तपोडशादित. चानामप्रामाण्यं ज्ञापितमित्यर्थः । जीवादीनां तमानां कथम्भूतानामित्यत आह-श्रुतज्ञानप्रयुश्रद्धाविषयाणामिति । एतद्विशेषणोपादानफलमाह-तेनाप्रज्ञाप्यभावनिरास इति-कृत इति शेषः, अप्रज्ञापनीयास्सद्भूता अप्यनन्ता भावाः श्रुतज्ञानेन प्रतिपादयितुं न शक्यन्त इति तेषां श्रुतज्ञानाप्रतिपाधानां निर्देशादिमिरधिगमोऽपि श्रीजनानां कमशक्य ५५ परमोपकारिभिस्सूत्रकारभगवद्भिरिति तेन तनिषेधः कृत इति भावः। अधिगमो भवतीत्यनुवर्य व्याख्येयमिति-अनुवर्तनं पूर्वस्त्रोक्तस्यैवेत्यधिगमपदस्य पत्रोक्तत्यादनुवर्यं तद् व्याख्येयम् , पूर्वस्त्रानुक्तस्य भवतत्यिस्य तु सर्व हि वाक्य क्रियायां परिसभायत इति भाष्यवचनानुसारि " यत्रान्यत् क्रियापदं न श्रूयते तत्राप्यस्तिर्भवन्ती वर्तमानापः प्रयुज्यते" इति वार्तिकवचनमनुसृत्य अत्राध्याहारः कर्तव्य इति भावः । "अविसेसिययुदेसो विससिओ होइ निदेसो" "त्ति । एमेव य निदेसो अविहो सो वि होइ णाययो । अविससियमदेसो विससिओ होइ निदेसो । १४३ ।" इत्यावश्यकनियुक्तिसम्पूर्णगाथा । तत्र को जीव इति द्रव्यगुणान्यतरनिलक्षणविधेयताकजिज्ञासयेति-अ. Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ : तत्त्वार्थविवरणगूढार्थदीपिका | स० सू० टी० इति द्रव्यार्थनये उत्तरं द्रव्यमिति क्तप्रत्ययार्थाश्रयविवरणम्, अन्यथा विधेयप्राधान्येन युक्तमित्यापतेः, न च घर्मस्यैव विधेयता युक्ता, वह्निमानित्यत्र तादात्म्येन वह्निमत इव प्रकृते औपशमिकादिभावादिष्टद्रव्यस्य विधेयताया युक्तत्वात्, पर्यायार्थिकनये तु कर्तृप्रत्ययस्य भावपरत्वादपशमिकादिभावयोगो जीव इत्येवोत्तरं द्रष्टव्यम् । तन्मते पर्यायातिरिक्तजीवस्य वौद्धस्यैवानूद्यत्वात् । उभयनयावलम्बने तु न केवलं द्रव्यम्, नापि केवला भावाः, किन्तुमयात्मकं जीववस्तु प्रतिपत्तव्यम् । तथा च प्रकृतानुपूर्वीज्ञानस्य नियमत उमयविधविधेयताकशाब्दबोधहेतुत्वं कल्पनीयम् । इत्थं च प्रमाणं लक्ष्यं प्रमाकरणत्वं लक्षणमित्येकान्तनिर्धारणमयुक्तम्, प्रमाकरणं लक्षणमित्यस्यापि वक्तुं युक्तत्वात्, सकरपरिहारप्रकारश्च त्वस्योपशमिकादिभावात्मकगुणत्वस्य वा जीवलक्षणत्वसामान्यधर्मव्याप्यावान्तरधर्मरूपत्वेन तत्प्रकारकज्ञानविपयिणी जीवस्य किमुक्तद्रव्यरूपं किं वोक्तगुणरूपं लक्षणमित्या कारिका या जिज्ञासा तया को जीव इति प्रश्न इत्यर्थः । औपशमिकादिभावयुक्तो द्रव्यं जीव इति-अत्रौपशमिकादि मावयुक्तो जीव इति लक्ष्णवाक्यम्, તત્રૌપમિતિમાવયુ इति लक्षणनिर्देशः, जीव इति च लक्ष्यनिर्देश इति बोध्यम् । युक्त इत्यत्र प्रत्य यार्थ आश्रयः, स च द्रव्यमेवेति प्रतिपादयितुं द्रव्यमित्युक्तं, न तु तल्लक्षणघटक, तथा सति तस्य विधेयत्वेन तद्विशेषणतया युक्तमिति स्यात्, विशेष्ये पङ्गिं तद्विशेषणेऽपीतिन्यायात्, न तु युक्त इति स्यादित्याशयेनाह - द्रव्यमिति प्रत्ययार्थाश्रयविवरणमिति । न चेत्यस्य युक्तेत्यनेनान्वयः, धर्मस्यैवेति- औपशमिकादिभावस्यैवेत्यर्थः । निषेधे हेतुमाह हिमानित्यत्रेत्यादिना, कर्तृप्रत्ययस्य भावपरत्वादिति-युक्त इत्यत्र कर्त्तरि प्रत्ययस्य भावरूपार्थे विहितत्वादित्यर्थः । नतु पर्यायनये जीवस्यैवाऽभावेन कथमुद्देश्यत्वमित्याशङ्कायामाह तन्मत इत्यादि । बौद्धस्यैवान्यत्वादिति-बुद्धया कल्पितस्यालय विज्ञान सञ्ज्ञकस्य पूर्वापरज्ञानसन्तानरूपस्योदेश्यत्वादित्यर्थः । उभयनयाव लम्बने इति प्रमाणपर्यालोचनायामित्यर्थः । उभयात्मकमिति द्रव्योपशमिकादिभावरूपोभवात्मकमित्यर्थः । प्रमाणार्पणया द्रव्योपशमिकादिभावो भयात्मकं जीवाख्ययस्त्विति सिद्धौ को जीव इति प्रश्नोत्तरस्त्ररूयौपशमिकादि भावयुक्तो द्रव्यं जीव इति भाप्यवाक्यज्ञानस्योभयत्वनिष्प्रकार तानिरूपितद्रव्यत्वावच्छिन्नविशेष्यत्वाभिन्नप्रकारतानिरूपिता योभयत्वनिप्रकारतानिरूपितोपशमिकादिभावत्वावच्छिन्नविशेष्यत्वाऽभिन्न प्रकारतानिरूपिता जीवत्वावच्छिन्नविशे-' तानिकदोषहेतुलं पर्यवस्यति, तत उक्तानुपूर्वीज्ञानेन द्रव्यनिष्प्रकारतानिरूपितले सत्योपशमिकादि भावनिष्ठाकारतानिरूपिता या जीवनिष्ठविशेष्यता तनिरूपकश्शाब्दबोधो भक्तीत्याशयेनाह तथाच प्रकृतानुपूर्वीनस्येत्यादि । इत्यं चेति-अभेदेऽप्युद्देश्यविधेभावस्वीकारे चेत्यर्थः । वक्तुं युक्तत्वादिति -प्रमाकरणत्वधर्मस्य स्वरूपसम्वन्धेन प्रमाणरूपलक्ष्यगतत्वाद्यया लक्षणत्वं तथा प्रमाकरणरूपधर्मिणोऽप्यभेदसम्वन्धेन प्रमाणरूपलक्ष्यमात्रे सच्चाह्मक्षणत्वं सम्भवतीति भावः । सङ्कर परिहारमकारश्चेत्यादि, यथा पृथिव्याः पृथिवीत्व Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थ विवरण गूढार्थदीपिका । स० सू० टी० य ५५ लक्ष्यतावच्छेदकलक्षणयोः स एव लक्ष्यलक्षणयोरिति विमापनीयं नैगमनयनिष्णातः । अत्र यो नयाभ्यन्तरस्यसमयविचारः स प्रपञ्चितो " जीवो गुणपडिपन्नो " इत्याद्यावश्यकमन्यमुपन्यस्य महाभाष्यतकोपहिताभियुक्तिमिरनेकान्तव्यवस्थायामस्माभिरिति तत एवावधारणीयः । स्वामित्वादयो जीवेऽभ्यूया अनया दिशेति न दर्शितवान् भाष्यकार, वयं तु दर्शयामः । स्वामी प्रभुः, तद्भावः स्वामित्वम् । तत्र जीवः कस्य प्रभु, जीवस्य वा के प्रभव इति प्रश्ने उत्तर-जीव एको धर्मादीनामस्तिकाथाना स्वामी, यतः सर्वेषु मूछों याति, सर्वानुपलमते, कांश्चित्परिमुक्ते, गरीरतया चादते । जीवस्याप्यधिकृतस्य सर्वे जीवा अन्ये तन्मूच्छादिकारिणः स्वामिनो भवन्ति । साध्यते येन तत्साधनम् । केनामा साध्यते ? उच्यते-नान्यनासौ, सततं समय परममित्यस्थ गन्वसमानाधिकरणद्रव्यत्यव्याप्यजातिमत्यमित्यस्य वा लक्षणत्वे परार्थानुमानस्थले उपमेयवाक्य उद्देश्यतावच्छेद कविधेययोरैक्यापच्या विरूपोपस्थितिरूपकारणामावात् ततशादवोधानुपपत्तिस्यादिति तन्निवारणं स्वरूपतः पृथिवीत्वे लक्ष्यतावच्छेदकत्वम् , उक्तलक्षणे जातरुल्लिख्यमानत्वेन आये लक्षणे पृथिवीत्वत्येन द्वितीये च तादृशजातित्वेन लक्षणत्वं स्वीकृत्य कृतं तथाऽस्मन्मतेऽपि प्रमाणे स्वरूपतो लक्ष्य प्रमाकरणे लक्षणलं प्रमाकरणत्वेनेत्येवं लक्ष्यलक्षणयोरभेदपरिहारप्रकार समान एवेति भावः ॥ " जीवो गुणपडिबनो" इति जीवो गुणपडियनो, यस दहियस सामइयं । सो चेव पञ्जवष्ट्रिय नयस्स जीवस एस गुणो ।। २६४३ ॥ इति सम्पूर्णगाथा । अस्या अवमर्थः द्रयार्थिकन यस्याऽभेदवादितयाऽनुगतद्रव्यमात्रस्यैवाभ्युपगन्तत्वेन तन्मते आत्मनि ज्ञानं पटे रूपमित्यादिप्रतीतिचित्रे निगिनतत्यप्रतीतिवद् भ्रान्तवाऽभ्युपगतेति परमार्थतो द्रव्यव्यतिरिक्तगुणा न सन्त्येवेति गुणानामौपचारिकत्वेन द्रव्यस्यैव प्राधान्येन गुणविशिष्ट आत्मा सामायिकम् , न तु समभावगुपलक्षणपर्यायात्मक तत् । पर्यायार्थिकनयस तु भदवादित्येनातीतस विनसत्येनानागतस्स चाऽनुत्पन्नत्वेनार्थक्रियाकारित्याऽभावेनासद्रूपतयाऽभ्युपगमात्, तन्मते न नित्यं द्रव्यं किञ्चित्परमार्थतोऽस्ति, किन्तु तत्तत्क्षणपतिपर्यायात्मकमेव पस्तु सत् अर्थक्रियाकारित्वात् , नन् तर्हि कथमात्मनो ज्ञानादिगुणो घटस्थ रूपादिगुण इत्यादि प्रतीतिरिति चेत् , उच्यते समाधिः, तैलस्य धारा राहोश्शिर इत्यादिप्रतीतिवत्सा भ्रान्तव, यतः तैलधारातिरिक्त किमपि न तैलम् , राह्नतिरिक्त न शिर इतिवसानातिरिक्त नामद्रव्यं किमप्यस्ति, पष्ठीविभक्तिस्वऽभेद एव, तथा च द्रव्यस्यौपचारिकत्वात्पर्यायस्य च प्राधान्यात्पर्यायार्थिकनयमते समभावगुणात्मकमेव सामायिकमिति भावः । याविषयकमूछवान् यः स तत्स्वामी यथा वनस्वामी पुमान् , सर्वद्रव्यविषयकभूच्छीवाश्चात्मा, तस्मात्तत्स्वामीत्याह यतः सवित्यादि । धर्माधर्माकाशकालात्मनामरूपित्वात्परिभोगाऽसम्मवादाह कांश्चित्परिभुयते इति कांश्चित् पुद्गलान् परिभुज इत्यर्थः । तथा च सर्वपां जीवः स्वामीति भावः । सततं समवस्थितत्वादिति-यो नित्य Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थविषाणमूढार्थदीपिका । स० सू० टी० स्थितत्वात् , बाबान् वा पुद्गलानपेक्ष्य देवादिजीवः साप्यते, तत्तत् स्थानं नीयत इति यावत् । अधिकरणमाधारः। कस्मिन्नामा, निश्चयनये सर्वस्य स्वात्मप्रतिष्ठत्वात् स्वात्मनि, व्यवहारनये शरीराकाशादौ । स्थितिरामरूपादनपगमः । कियन्तं कालमेष जीवभावेनापति४ते । भवाननीकृत्य सर्वस्मिन् काले । देवादास्तु भवानीकृत्य यावती यत्र स्थितिस्तावन्तं कालं तत्रावतिष्ठते, विशेषरूपेण सामान्यसत्तेयं । विधान प्रकारः, कति प्रकारा जीवाः, बसस्थावरादिभेदाः । एवं शेषा अपि सिद्धान्तानुसारेण पाच्याः । अथ यदर्थ शास्त्रप्रवृत्तिस्तत्रापि योजना निर्देशादीनां कुर्वन्नाहસિમ્પર્શનપરીક્ષાવામિત્કાઢિ | થવા સાવન રીતે, તવા સમ્પર્શન વિ. દ્રવ્ય गुण इति प्रश्ने, निर्दशोऽयं द्रव्यं तत्, ये जीवेन शुभाध्यवसायेन विगोध्य पुद्गलाः प्रति-- समयमुपभुज्यन्ते, मुख्यथा तु वृत्या रुचिरात्मपरिणामो ज्ञानलक्षणः श्रद्धासंवेगादिरूपः सम्यतया सदा समयस्थितः स न केनापि साध्यत इति भावः । अनुयोगद्वारसूत्रे वसतिदृष्टान्त "तिण्हं स६णयाणं आयभाने वसई" इत्युक्तेशव्दादिनयत्रयाणां मते सर्वोऽपि वस्वरूपे वसति, अन्यस्यान्यत्र वृत्त्ययोगादित्येवं स्वस्वरूपस्यैव स्वाधारत्वात् स्वस्मिन्नात्मा तिष्ठतीत्यभिप्रायेणाहनिश्वयनये सर्वस्येत्यादि,शरीराकाशादाविति-स्वशरीरे येषु चाकाशप्रदेशेवयमाढस्तेवित्यर्थः । जीवो जीवत्वेन कियन्त काल भवतिष्ठत इति प्रश्ने देवादिभवापेक्षयोत्तरदानं नोचितमित्यत आह-विशेषरूपेण सामान्यसत्तेयमिति देवादिभवविशिष्टजविलेन रूपेण जीवसामान्यस्य स्वस्वरूपादप्रच्युतियादिभवस्थकजीवायुःकालमाननियतेति तत्तद्भवविशिष्टजीवत्वेन रूपेण जीवसामान्यस्य सत्तयं तत्पशवायुःकालमाननियता प्रदर्शितेत्यर्थः । आयुर्वे घृतं , नड्वलोदकं पादरोग इत्यादाविव कारणे कार्योपचारं कृत्वाह-द्रव्यं तदिति । द्रव्यस्थाप्यनेकविधत्वान्नान्यरूपं तद् ग्राह्यम्, कि ये जीवकत शुभाध्यवसायकरणकविशोधनक्रियोत्तरकालभाविवदेनक्रियाकमसम्यक्त्वमोहनीय पुद्गलावलक्षणमित्याशयेनाह-ये जीवेनेत्यादि । अयमाव-शोधिता हि मिथ्यात्वपुगला यथावस्थिततवरुध्यध्यवसायरूपस्य सम्यक्त्वस्यावार का न भवन्ति, यथा स्वच्छाभ्रपटलगृहं प्रदीपस्य रखेर पि च काञ्चिदाकृतिं न करोति, उक्तश्च-" तद्यथेह प्रदीपस्य, स्वच्छाभ्रपटलहम्। न करोत्यावृति काचि देयमेतद्रवेरपि ॥ १ ॥” इति । तद्वत्प्रकृतेऽपि, अतस्ते सम्यग्दर्शनस्य निमित्तभूताः, तदुपट भजन्यत्वात्तस्पेति कारणे कार्योपचारात्तदात्मकं द्रव्यं सम्यग्दर्शनमुच्यते । परमार्थत जिनप्रज्ञतसद्रिव्यसर्वपर्यायविषयकश्रद्धानलक्षणं सम्यग्दर्शनम्, नयविचारणया पुनद्रव्यार्यिकनयस्य मते श्रद्धासंवेगनिर्वेदादिगुणपरिणत आत्मैव सम्यग्दर्शनं, तस्यैव कालत्रयानुगतत्वेन तात्विकरूपत्वात् , न तू क्तगुणरूपं, तागते गुणानामौपचारिकत्वात् , " आ- ' दावन्ते च यन्नास्ति वर्तमानेऽपि तत्तथा" इत्यादि न्यायापामुत्पाद०ययशालित्वेन पूर्वोत्तरकालयारे नुपलम्भन न सत्यमिति वर्तमानकाले यसदूपत्वात् । ननु यदि द्रव्यभिन्ना गुणा न सन्त्येव नहि रूपवान्धटो ज्ञानवानात्मेत्यादि भेदप्रतीतिः कथमिति चेत् , सा भ्रान्तव, चित्रे Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थविपरणगूढार्थदीपिका | स० ० टी० ग्दर्शनम्, तदप्यात्मद्रव्यमेव द्रव्यनयस्य, पर्यायनयस्य गुणमात्रम् । यदि सच्यापादकाः कर्मपुद्गलाः सम्यग्दर्शनमिति भण्यन्ते तदा क्षीणमोहस्य तन्न स्यादित्याशङ्कायामिष्टापत्तिं पुरस्कुर्वनाह सम्याष्टिीय इति । सम्यक् शोभना दृष्टियस्य स तथा, जीव एव, न पुद्गलः, तथा च क्षीणमोहः सम्यग्दृष्टिर्भण्यते, न सम्यग्दर्शनीति सिद्धसाध्यतैव, स किं रूपी ? ! नेत्याहअरूपी, अविद्यमानरूपमस्येत्यरूपी सर्वधना(मी)दिषु क्षेपः, नासौ रूपादिधर्मसमन्वितः, किन्त्वमूर्त आत्मेति, छमस्थफेवलिनीयद्यपि कर्मपटलापेरागः, तथाप्यात्मा न स्वभावमुपजहाति, आगन्तुकं हि फर्मरजो मलिनयत्यात्मानमभ्रादीव चन्द्रमसम् , सिद्धः सर्वथाप्यरूप एव सम्यग्दृष्टिः । स किं धो ग्रामो वेति शङ्कायामाह गोस्कन्धः, पञ्चास्तिकायसमुदितेः स्कन्धपदाभिधेयत्वात् , अस्य च तदे. कदेशत्वात् ,, एवं नोग्रामः चतुर्दशभूतमामैकदेशत्वात् । स्वामित्वं परीक्ष्यते तदा कस्य स्वामिनः, सम्यग्दर्शनमित्सुद्देशवाक्यं प्रवर्तते । तत्र स्वामित्वं समवायेन सम्बन्धान्तरेण वा, उच्यतेनिश्चयतः समवायेन, व्यवहारतः सम्बन्धान्तरेणापि, तदिदमभिप्रेत्याह-आत्मसंयोगेनेत्यादि । संयो शब्दोऽत्र सम्बन्धसामान्याभिधायी, पाखनिमित्तानपेक्षयोत्पद्यमानं सम्यग्दर्शनमात्मनि समवायसम्बन्धस्योत्कटस्य विवक्षयाऽऽमस्वामिकं भण्यते । साधुप्रतिमादिवानिमित्तापेक्षया चोत्पद्यमानं तत् सम्बन्धस्योत्कटस्य विवक्षया परस्वामिकम् । उभयसम्बन्धसमप्राधान्यविवक्षया चोभयस्वामिकमिति । तत्र ५९संयोगे ५५ विकल्पा जीवस्येत्यादयः, यदा जन्तोः परमेकं मुनिमालव्य क्रियानुष्ठानयुक्त सा निम्नानादिप्रतीतिवदित्याह-तदप्यात्मद्रव्यमेव द्रव्यन यस्यति । पर्यायार्थिकमते च सम्यक्श्रद्धानसंवेगादिगुण एवं सम्यग्दर्शन, न जीवद्रव्यम् , तन्मते तत्वश्रद्धानादिगुणव्यतिरिक्तस्य जीवद्रव्यस्यानुपलब्धेर सत्त्वात् , थाराव्यतिरिक्तानुपलभ्यमानतैलस्येव । ननु यदि गुणव्यतिरिक्तं द्रव्यं नास्त्येव तर्हि जीवस्य ज्ञानं तैलस्य धारेत्यादिप्रतीतिर्नोपपद्यतेति चेत्, मैवम् , राहोश्शिर इति प्रतीताविवात्राप्य भेदाथिकैव पठीयुक्तदोपाभावादित्याशयेनाह पर्यायनयस्य गुणमानमिति । क्षीणमोहस्येति क्षीणः सर्वथा विलीनो मोहो यस्य तस्येत्यर्थः, क्षीणमोहमस्थकेवलिसिद्धजीवस्येति भावः । क्षीणमोहः सम्य दृष्टिमण्यत इति “ भण्णइ सम्मट्टिी" इति वचनाद् दर्शनत्रिके क्षीणे विशुद्धसम्यग्दृष्टिभण्यतेऽसावित्यर्थः । अस्य च तदेकदेशत्वादिति “अमानोना निषेधे" इति वचनानोरकन्ध इत्यत्र न सर्वनिषेधवाचको नोशन्दः, किन्तु "नोसदो अहब देसपडिसेहे" इति वचनाद् देशप्रतिषेधेऽपि तस्यागमे उक्तत्वेन (कन्धदेशविशेषार्थपरः, एका गुल्याः पञ्चाशुलिसमुदितिरूपहलकदेशत्ववद् जीवस्य पञ्चारितकायसमुदायरूपस्कन्धैकदेशत्वाज्जीवो नोस्कन्ध इति भावः । नोग्राम इति-अप्रैतद्धटकामशब्दवाच्यः चतुर्दशभूतग्रामसमुदायः, यथोक्तम्-" एगिदियसुहुमिया, सनियरपणिदिया य सबितिचऊ । पजत्तापजत्ता भेएणं चोइस गामा ॥१॥" इति । नोग्राम इत्यत्र हेतुमाह-चतुर्दशेत्यादि । द्रव्यद्वयस्यैव संयोग इति जीवनाजीवन च येण सह गुणात्मकसम्यदर्शनस्य संयोगसम्बन्धाभावादाह संयोगशदोऽत्रेति। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १६८ : तत्वार्थविवरणदार्थदीपिका । स० सू० टी० रूचिरुपजायते; क्षयोपशमस्य द्रव्यादिपञ्चकसव्यपेक्षत्वात् , तदा तस्य बहिरवस्थितस्य साधारुत्पादयितुः सा रुचिः, कुम्भ इव कुम्भकारस्य । न च यथेष्टविनियोक्तृनिष्ठमेव स्वामित्वमिति कथमतदेवमिति शनीयम् , भुक्तिस्वामित्वाधिकार एव तथोक्तेः, अयं तूत्पत्तिस्वामित्वविचार इति।। एवमेकमजीवाख्यं पदार्थ प्रतिमादिकं प्रतीत्य यदा क्षयोपशमः सजायते, तदा तस्यैवाजीवस्य सम्यग्दर्शनं नात्मन इति । न चाजीवे स्वामित्वव्यवहारो बुद्धिरचितत्वादपारमार्थिकः, द्रव्यादिपञ्चकमध्यपेक्षत्वादिति-द्रव्यक्षेत्रकालभावमवनिमित्तवादित्यर्थः । उक्तञ्च'उदयक्खयक्खओवसमोवसमा इत्थ कम्मुगो भणिया। दव्यं खित्तं कालं, भावं च भवं च संप५ । १।' इति । झुम्भ इव कुम्भकारस्येति यद्यपि घटो मृद एक, तस्था एवोपादानकारणत्वात् , तथापि कुम्भकारस्थ निमित्तकारणत्वात्तस्यापि स तद्वदित्यर्थः । यथेसन्निविनियोगकर्तृनिष्ठमेवेष्टानस्वामित्वं, न तु पाचकनिष्ठं, यो यस्येश्स्य विनियोगकर्ता स एव तस्य स्वामी यथेष्टानस्य चैत्र इति व्याप्तेः, तथैव प्रकृतेऽपि भाव्यमित्याशङ्कय निषेधति-- न च यथेष्टविनियोक्तृनिष्ठ मेवेत्यादि । निपेथे हेतुमाह-सुरिस्वामित्वेत्यादि । अयं तूत्पत्तिस्वामित्वविचार इति-यदि साधुसमालम्बनं न स्यात्तदा जन्तोस्सम्यग्दशनं नोत्पन्नं स्यादिति साधुमालम्व्यैव सम्यग्दर्शनस्योत्पत्तेरुत्पाद निमित्तकारणविषया साधोरेव सम्यग्दर्शनस्वामित्वमिति भावः । समग्दर्शनं च यस्मिन्नात्मनि कश्चित्तादात्म्यसम्बन्धेनोत्पनं सद्वर्त्तते स एव आत्मा तत्स्वामीत्यजीवे स्वामित्वव्यवहारः काल्पनिकत्वान्न पारमार्थिक इति न च वाच्यमित्याह न चाजीवे स्वामित्वव्यवहार इत्यादि-- यद्यपि निश्चयनये जीवस्सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रस्वरूप इति गुणगुणिनोरभेद ' ५५, स यद्यपि सर्वदा तथा नोपलभ्यते तथापि विवेकसमाधिकाले तथोपलभ्यत एव, तदानीश्च जीवस्य सम्यग्दर्शनं स्वस्वरूपमेव, न चाभेदे स्वस्वामिभावः, न हि भवति राजा राज्ञ एव स्वामी, किन्तु स्वभिन्नानां पुरुषादीनामेव स इति स्माभिन्नस्य सम्यग्दर्शनस्य न भवति जीवस्स्थामीति, यदा यस्मिन् जीवे सम्यग्दर्शनमभिमतं सोऽपि जीयो द्रव्यत्वादाधारस्सयदर्शनञ्च गुणत्वादाधेय इति व्यवहारनयसमाश्रयणाझेद आश्रीयते तदैव तस्य भिन्नं सम्यग्दर्शनम्प्रति - स्वामित्वमुपचर्यत इति व्यवहारोपरचितभेदबुद्धिपरिकल्पितमेव सभवायिकारणतयाऽभिमतस्य जीवस्थाऽपि सम्यग्दर्शनस्वामित्वम् । भेदकल्पना त्थं-सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रैतत्रितयस्वरूपे जीवे यदा व्यवहारतो ज्ञानचारित्राभ्यां सम्यग्दर्शनस्य भेदो विवक्ष्यते तदा शानचारित्रस्वरूप आत्माऽऽधारः स्वामी च, सम्यग्दर्शनश्चाधेयम् , स्वञ्चेति, एवं सम्यग्दर्शनचारित्राभ्यां ज्ञानस्य यदा भेदो विवक्ष्यते तदा सम्यग्दर्शनचारित्रस्वरूप आत्मा आधार:-स्वामी. च, ज्ञानमायं स्वञ्चेति । एवं सम्यग्दर्शनशानाम्यां चारित्रस्य यदा भेदो विवक्ष्यते तदा सम्यग्दर्शनज्ञानखरूप आत्मा आधार स्वामी च, चारित्रं चाधेयं स्वञ्चेति । विवक्षा च पुरुषपरतना Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थविवरणदार्थदीपिको । ल० ० टी० जीवेऽपि विवेकसमाधिशाया तदभावेन तस्य व्यवहारसत्यत्वाविरोधात् । यदा पुन साधू निमित्त क्षयोपशमस्य विवक्षितो, नात्मा, तदा जीवयोः सम्यादर्शनम् । यद्दा पुनरजीवी प्रतिमाख्यावुभौ निमितीतो, तदा तयोस्तत् सम्यग्दर्शनम् । यदा च बहवो जीवाः साधवस्तस्योत्पत्तौ निमित्तानि, तदा जीवानां सम्यादर्शनम् । यदा च वहीः प्रतिमा भगवतो दृष्ट्वा तत्त्वार्थश्रद्धानमाविर्भवति, तदा तासामेव, ततस्कर्तृकत्वात् , नात्मन इति । उभयसंयोगेन जीवस्येत्यादयो ये त्याज्या विकल्पा ૩mતે પ્રમાહિત્ની ક્રિતવદુત્વયોગ્ય પ્રશ્નતવાદવા દ્રષ્ટા, મયોપાસ્યાત્ર प्रकृताप्रकृतोभयनिरूपितत्वात्, नोजीवस्येत्यत्र नोजीशब्दोऽजीवपरः । ये च प्रकृतमविरहथ्य प्रवतन्ते ते पडपि भवन्त्येव । यथा जीवस्य स्वस्थ जीवस्य साघोः १। यस्य स्वस्य याम्या च साधुभ्यामुत्पन्नं तयोश्च २ । यस्य स्वस्य यैश्च साधुभिरुत्पादितं तेषाम् ३ । एते जीवाश्रिताः । तथा जीवस्य स्वस्थाजीवस्य च प्रतिमादेः ४ । जीवस्य स्वप्याजीवयोश्च प्रतिमयोः ५। जीवस्य स्वस्थाजीवानां च प्रतिमानाम् ६। एतेऽजीवाश्रिता इति । तृतीयद्वार परामृशन्नाह साधनमिति-साध्यते निवर्त्यते येन तत्साधनं । तत्र पृच्छा सम्यग्दर्शनं केन भवति, यासौ रुचिः सुविशुद्धसम्यक्त्वदलिकोपेता सा केन भवतीत्यर्थः । उत्तरं निसर्गादाधिगमाद्वा भवतीत्युक्तमिति । अयमाशयः-न तावेव निसन वस्तुपरतन्त्रा इति व्यवहारात् सोपचारबहुला वतीति व्यवहारनयकल्पितत्वमुक्तस्वस्त्रामिमावस्येति न पारमार्थिकत्यम्, किन्तु व्यवहार सत्यत्वमेवेति । अत एव " न च ज्ञानदर्शनचारित्राणि विरह यान्यो जीवोतीति काल्पनिकमपदिशति । कथम् ? यदा तावजीवे सम्यग्दर्शनं तदा ज्ञानचारित्रे आधारमा प्रतिपद्यते, ज्ञानचारित्रात्मनि जीवे सम्यग्दर्शनम् । यदा जीवे ज्ञानं तदा दर्शनचरणयोराधारता । यदा जीवे चारित्रं तदा ज्ञानदर्शनयोधिारता चारित्रमाधेय " इत्यपि तत्वार्थहट्टीकोक्तं सङ्गच्छते । अत्र समुदायेषु एकस्य समुदायिन आधारत्वमन्यस्य चाधेयत्वं परिकल्प्याधाराधेयभावेन व्यपदेशो भवतीत्येवं काल्पनिकमपदिशतीत्यस्वार्थः। तथाऽजीवेऽपि प्रतिमादौ निमित्ते वौद्ध सम्यग्दर्शनस्वामित्वं स्था। देवेत्याशयेन निषेधे हेतुमाह-जीवेऽपि विवेकसमाधिदशायामित्यादि। जीवेऽपीतिसभवायिकारणीभूत इति शेषः । तदभावन-स्वामित्वव्यवहारस्य पारमार्थिकत्वाभावनेत्यर्थः । तस्येति स्वामित्वव्यवहारस्येत्यर्थः । केवलसमवाधिकारणीभूतयोः केवलनिमित्तकारणीभूतयोश्च द्वयोः फेवलसमवायिकारणीभूतानां केवलनिमित्तकारणीभूतानाञ्च पहूनां सिद्धान्तकारविवक्षणादाह-द्वित्वबहुत्वयोश्च प्रकृतबहिर्भावादिति । तत्र हेतुमाह-उभयसंयोगस्येति । प्रकृताप्रकृतोभयनिलपित्तत्वादिति-समवायिकारणनिमित्त कारणोभयनिमित्तत्वादित्यर्थः । प्रकृतमविरहव्येति-उपादनिकारणं परित्यर्थः । स्व. स्येति--एतत्पदं सर्वत्र यस्मिन् समवायसम्बन्धेन सम्यग्दर्शनमुत्पन्नं तत्परमित्यर्थः। जीवस्य साधोरिति यं निमित्तहेतुं साधुमालन्योत्पनं तस्येत्यर्थः । एमग्रेऽपि । २२ . . . . . Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १७० : तवार्थविवरणगूढार्थदीपिका । स० सू० टी० धिगमौ तादृशीं रुचि जनयतः, किन्तु निसर्गाधिगमाभ्यां क्षयोपशमादयः कर्मणां जन्यन्ते, ततः क्षयोपशमादेः सन्यदर्शनं . सम्भवति, तावपि च निसधिगमी कर्मणां क्षयोपशमादेरेव भवतः, ततस्ताभ्यामुत्तरोत्तरक्षयोपशम विशुद्ध विशुद्धतरमापदियमानाभ्यां यश प्रतिविशिष्टः क्षयोपशम आपादितो भवति तद। तस्मात् सम्यग्दर्शनभुत्पद्यत इति । तत्र निसर्गः पूर्वोक्त पर्यायशब्देनेत्यर्थः । अधिगम वभ्यर्हितत्वात्पुनर्लक्षयति-अधिगमस्तु सम्या व्यायाम इति, गुरूपदिष्टा दर्शनापारक्रियेत्यर्थः । उभयमपीति-उभयं निसर्गाधिगमसम्यक्त्वलक्षणम्, तदावरणीयस्थ, रुचिरूपज्ञानावरणीयस्य नान्तरीयकतयाऽनन्तानुबन्ध्यादेरिति भावितं प्राक, तस्यैव क्षयादित्रयं सङ्गच्छते, तेनैतनिहेतुकमुत्पद्यते। तुर्यद्वार परामृशति-अधिकरणं त्रिविधमित्यादि । एतच प्रायः स्वामित्वद्वारपद् व्याख्येयम् । तत्र ' यदात्मसंयोगनेत्याधुक्त तत्स्थानेऽत्रात्मसन्निधानेनेलादि वयम् । संयोगः सम्बन्धः, सनिधानमाधारतेति विवेकः । ननु यधुत्पादकत्वेनाजीवे प्रतिमादौ सम्यग्दर्शनशानचारित्राण्युच्यन्ते तदा दण्डे घट इत्याद्यपि स्यादिति चेत्, न, असाधारण्येन परिहारादधिकरणानुयोगदारव्युत्पन्न प्रतीष्टापत्तेर्वा ॥ पञ्चमद्वार परामशति-स्थितिरिति । सम्यग्दर्शनमुत्पन्न सकियन्तं कालमपतिष्ठत इति प्रश्नः । उत्पत्तिमत् किञ्चित् सादि सपर्यवसानं दृष्टम्, मनुष्यत्वादिवत् , किञ्चित् साद्यपर्यवसान दृष्टं, सिद्धत्वादिवत् । तदिदं कथ स्यादिति प्रष्टुर्मूढः संशयः । आचार्योऽपि तदभिप्रायानुरूपमुत्तरमाह-तस्यदृष्टिविविवेत्यादि । सम्यग्दृष्टिः शोभना दृष्टिः । सा चैकापायसद्व्यवर्तिनी, तदा तस्मात् सभ्यग्दर्शनमुत्पद्यत इति । उक्तवाऽवश्यकत्रे-" सत्तहं पयंडीणं, अमितरओ उ कोडिकोडीणं । काऊण सागराणं, जइ लहइ चउण्हमध्यरं ।।११९३॥” इति, एतच्च प्रागेव विवेचितमिति । तस्यैवेति-अनन्तानुवन्ध्यादेरेवेत्यर्थः, तेनैतत्विहेतुकमुत्पद्यत इति । अन्नानन्तानुबन्ध्यादिसप्तप्रकृतिक्षयक्षयोपशमोपशमरूपत्रिविधपरनिमित्तविधया सम्पदशनस्योत्पादात् क्षायिकादित्रिविधत्वं ज्ञेयम्, न तु स्वनिमित्तापेक्षया, एतच्च प्रागेव भावितमिति । यचुत्पादकत्वेनेति-निमित्तकारणविधयेति शेपः । निषेधे हेतुमाह-असाधारण्येन परिहारादिति-यदसाधारणमुत्पादकं तदेवाऽऽधारतया विवक्षितं भवतीति प्रेतिमादिकं दृष्ट्वैव केषाविरसम्यग्दर्शनोत्पत्तेः सम्यग्दर्शन प्रति प्रतिमादिक भवत्यसाधारणमिति तत्र सम्यग्दर्शनामिति व्यपदेशः सम्भवति, न तु दण्डे घट इति, तत्र हेतुरसाधारण्येन परिहारादिति । भवतु वा दण्डे ५८ इति प्रयोगः, का नो हानिरित्याशयन समाधानान्तरमाह-अधिकरणेति। शोभनेतिअविसरीतेत्यर्थः, अर्थानामिति गम्यते । अपायसदद्रव्यवर्तिनीति-अपायो निश्चयज्ञान मतिज्ञानांशा, सद्रव्याणि पुनः शोभनानि प्रशस्तत्वात विद्यमानानि वा द्रव्याणि मिथ्यादर्शनदलिकानि अध्यवसायविशोधितानि सम्यग्दर्शनतयाऽऽपादितपरिणामानि, अपायश्च सद्पाणि च अपायसद्व्याणि ताम्यां सह वर्तिनीत्यर्थः, यावत्कालं तदुभयं तावत्कालवतिनीति यावत् । अयम्भावः-मतिज्ञानस्यैव निश्चयज्ञानात्मको योऽपायांशः, यानि च विशुद्धाध्यवसायत Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्वार्थविवरणगूढार्थदीपिका । स० सू० टी० * ૨૭ : અવરા સ્વગુદા વસન્દ્વન્દ્વાામે લોળવીનમોહાનાં શ્રેળિીિનામ્ । દ્વિવિધાયી સાઢું સર્ચવસાના ઉત્પત્તિા, બામવાત, આઘાયા મિથ્યાપુજ્ઞોએ દ્વિતીયાયાર્થી વજ્ઞાનોત્પત્તૌ મતિજ્ઞાન• તૃતીયાંશાપાચાપમેનાપામાન્ । યા તુ મવધવાનો દ્વિવિધય સિદ્ઘચ વા વર્શનમોહનીયસમ્રાયાવધિચલચાવોનાંને સા સાત્રિપર્યવસાનેતિ) સાવિસર્યનસાનમેવ ચ સભ્યગ્દર્શનામતિ સાવિસર્વવસાનનેવેત્તિ થવુ ં ત′ાજ઼્યાનમેતત્—ચવષાયસદ્ધર્વાન્ત યજ્ઞ સર્જાવામેપાયસાર તત્ર સર્શનાવ્ , વ હ્રદ: | સદષ્ટિશન્તુ ચોપાશ્રયમેન પ્રતિત તિ માવ ! શુદ્ધાતહવત્તિની દ્દ હન્નિઃ વિજયન્ત જાળ મવી તે માવલલાદ-તજ્ઞધન્યનેત્યાર્થાત્ । તત્ સમ્યદર્શન નવત્યેના દૂતમ્ । મુર્તો ખાાર્યં તસ્ય મધ્યમન્તમુત્તમત્તિષ્ઠતે । સાથે સતીનું ચિન્નદ્ઘિટિાન્તરનુય મિથ્યાદિમાંત વેવહી વા પરતઃ ।ઽષો(સોન)ને પેગ ક્રિયન્ત માત્તે પટ્ટિક સારવાળ સાધિષ્ઠાને તાદિમ્બિવૠવર્ષ: સભ્યતÁનર્માધાન્ય સમાસાવિત ક્ષઃ પૂર્વાટીમૠવર્ષોના વિદ્યાર્ખારદ્યુતસમ્યકરોનો વિનદ્રિતુરન્ધતાંવમાને ઉત્પન્નૠયાસંગત્સાગરોપમાંતમનુ તતદ્યુતઃ સર્શનો મનુગમાં પ્રાપ્ય તેનૈવ પ્રજારણ સંયમમનુથ હેવ વિમાનં તાવાસ્થતિ પ્રાપ્યાંપ્રવ્રુતસભ્ય દ્રોનો મનુનમ સંયમ શ્વ પ્રાપ્ચાવયન્તયા સિદ્ધાંત, તત્ત્વ ચોષ તિિતક્ષ્યત ાંત । વમન્યુતંત્રયપ્રાપ્તિઋમેષિ મિઝ્હાવૌંચાવાયામાયુ નિમંઝીવૃતસમ્બઢ્યોહોય જાનિ તામ્યાં સદ્ધત્તિની તતુમયબ્રાવધાનયતસત્તાાંત્ત ચવત્ અપરા ષશુચિ પસંદ્રબ્યાપનમેતિ । બાયસહારિણીતિ રાષઃ । અપના યશ,તિ પાત્સ્યાને અપાતુ શુદ્ધેત્તિ પામ્સન્મતિ રાખવાનો દાનાંમાંત-છોળદર્શનમોહનીયાનન્તાનુવાવિસબનિામિત્વર્થઃ ।વજ્ઞાનોત્પત્તૌ મતિજ્ઞાનતૃતીયારા પાયાપમેનાપદ્દમાવતિ-મતિજ્ઞાના હેતુસ્ય અસ્ત્રાવીયમલયોવામાપેક્ષત્ત્વ જ્ઞાનાવરણીયા યાંતિમ વસ્તુ ચલયાપેલક્ષેત્રજ્ઞાનોúત્તાવમાયેતિ મતિજ્ઞાનવત્ર તત્તુતીયમેદાનેવાયાંશસ્થાવ્યય (મેનાવામા દ્રવ્યર્થ:। વિધમૅનિસયોવ્યોમેઘેચશેઃ । તનુન્યવીર નધન્યેનાન્તમુદૂમિતિ, યવાદ-માનુધામોધિ:-- ગોમુદુાંમત્તે નહાય” ૨૭૬૨ / તિ વાદઃ સારોપમાને સાધિક્ષાનીતિ | યદ્ગાહ માધ્ધારઃ-‘હો વારે બિનયાતુ, યસ તિન્નદ્ગુણ્ બહવ તાગનું નામાવયં, નાનાનીવાળ સુ‰દ્ધ ।।૪૩૬।। શાંત ના તો વારે વિનવાસ, યસ તિબ્ન્નુT છાવઠ્ઠી! નાનપુ~ જોડી-પ્રવ્રુત્તમુદ્દોલો ભાયં૭૬] તિન્ના વિનયાહીતિ-અન્નાહના વનયા—નયન્તાપરાાનવિમાનાનિ પ્રાણિ । નનું પદ્મમસ્યાનુત્તવિમાન સર્વાર્થસિદ્ધનાનાત્ર પરિહારે મિસ્તિ कारणम्, अस्तीति ઘૂમ, ાિમતિ શ્વેત, કબ્બતે, તવ્રતાનાંનીયાનામાવાઽરલમૈવેત્તિ ! પોઇજતસંચરવામાાં જન્મ્યોચય, ન તૂયોગાયેલા, “વલાંતમુ ફેફ્યુજેતવું વૅલયન્તિમું માનવાવિતિ જ્ઞેયમ્ । તેનૈવ પ્રજારેખેતિ-ડ‰ૠતોષ્યોનપૂર્વજોઢિકારણેત્યર્થઃ, અશ્રુતદેવજો કાર્વિતિસયરોષમાંતિપુ તેનેપુ ીન્ વારાન્ માતસ્ય સાધિષઘટિસ રોષમામાના સ્થિતિ યેત્સાહ-નર્મદ્યુતત્રયસિમેળાપ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Rાર્થવિરગાહીપિ ! લ૦ • ટી સવનીય / સદષ્ટિ સવિરદ્ધિવિષય યા રારિ સા સાવરપર્યવસાના સહયોગ શૈલેશીબા જેવકી સિદ્ધસ્થાશ્રયમેન ત્રિવિધા, સ્ત્રીકિપુષ્ટિજામ્યાં નિર્દેશો વિનિમતોરમેલ્યાપના | સાષ્ઠિર્યાદિતા નામનુમતિ જયોતિરિતિ વા નેય વિધાનદાર પામ્રશતિવિધામિતિ વિધીવત કૃતિ વિધાન–મે પ્રશ્નાર હૃતિ પર્યાયાઃ | નનુ સધનદ્વારેડમિહિત ઇવ મેઃ િપુનરિહ મેદાન્યાનેન, મ, તત્ર ક્ષયાવિહેતુમેવચૈવ પ્રતિપિપાવાતિવાત, મત્ર તુ તગ્નન્ય મેવસ્ય તથાતા, ત ણવ વૈમાગાંઠ્યાદ્રારાવધ્યસ્થ મેદ્ર બત્ર વિધાનં ક્ષયાશુપાધિસ્ટ સીનસ્ય મેવલં વિવાયમ્, સંત્યારે તુ તાશ્રય મે ફતિ સ્પષ્ટને મેવાત ! તત્ર વિયત સભ્ય નમિતિ પ્રશ્ને ચિન્તઃ સમ્પર્શનિન ફૂટ્યર્થ, નિયવાચેડાંગધેયાનિ સભ્યપદ્ધીનાનત્યસિન્નિસંત્યેચા સ નિન ત્યાઁડમેતોપારાત, મનુષાર સાઢિપાડાન્યતરાશ્રયને તુ વિધેયાનુરોધન છીવત્વ સ્માત, વાવડન્યtત્વેન તત્સમેવડ નિયવાળે તો પાદ્રિતિ વિવારÍચમ્ | તમાત્રયાળાં સાધનવિધાનસંલ્યાદ્વારાળાં સિદ્ધાં મેવઃ | નનું તનિધિામાતિ સૂત્રણ હેતુમેકયુમેવામિધાનાવિમેવો:વ્યર્ધાતુt પતિ મિત્રામિયિમિતિ ત , સત્ય, તત્ર નિલધિઆવનયમિતિ. ધ વિહાનુત્તરવિનાનપણે નમસક્વન્તિ ફેશન પૂર્વજોત્રિય, શબ્યુતવોપણે તેને પૂર્વ દિવાકય દ્રવ્યધુ સમ્યગ્દર્યા સાવિરપર્યવસાના સ્થિતિ પ્રા છો તો પ્રતિપાયિતમાહ સમ્મટ્ઠષ્ટ સાષ્ટિપવહાવિષથતિ ! પુખ્યિાં નિશા રૃતિ લખ્યષ્ટિ સાવિ પર્યવસાનેતિ વીટિયા શશીકાસ વહી સિદ્ધતિ = પુર્ણતયા નિર્લેશ ફત્યર્થ. મેવધિવાન થાન્તિરાહિ સબ્ધીછર્યા મિિિાવિા તન્નતિ-સાધનદ્વાર રૂલ્યા તન્નતિ સજૂનવ્યાકાર રૂાર્થ શત્ર તાવાર્થવૃદક્તુ પામેતોષવાર શર્શ શાઢિ પાડાત્યનેન समाधानं यत्कृतं तत्सम्यान वेति केनचित्प्रश्ने कृते तदुत्तरमाह-तुलोपा आदिपालाન્યતરાયણે સ્વિતિ : વિકાનુન વત્વ જ વિતિ સર્જનહાવિધેજાનુરોધેન નપુંસર્વ યુદ્ધતિ તબ યાત્વિર્થ | યથા આનન્દઘદ્ર નિત્યપુષ્ટવૅગ “શાનત્વે ત્રણ ” ફલ્યગ્ર વિશેષ વાળો નિત્યનjલવાનાર્શ યાપિાવાવ “ શર્શ શાહ મ્યો” તિ સૂત્રવિહિતમર્યાવાયાસ્થાનન્દ નપુંસાત્વ તથા પ્રશ્નને સુખ્યનિશ વસ્ય નિયનપુંસક્રખ્ય યાદ્રિવાડે પુબ્રિકવું થાવ, વિશેષ્યસ્ય સર્શનવતર પુર્વ ખ્રિવાન્ , તમામેતોપારાશયમેવ યુતિ માવા વાજsmaર તંત્સમવેશ નિયા તવરાવિતતિ ! વિમહં ક્ષવાક્ય સમ્પર્શ નમુદિ પ્રવૃત્ત જિં વા સભ્યપદ્ધનિ પુંસ ડદતિ પૂર્વ ર જ્ઞાયતે, તથા ૨ યાવદુત્તર ન પ્રતિસયત તવાષરદ્ધનમુદ્રિસ્થાપિ સામાન્યતો નપુંસર્વસમ્મઘુત્તરવાપસન્હાને સમ્પર્શનેનિન દિāવોત્તર દ્રા તિ સક્લનવિશિણાનાં પુંસાં પુનિ તત્રાર્જીવિવાહપ્રત્યયાન્તત્વમાન્ય જ્ઞાન સન્યનાનાંતિ નપુંસાનિર્દેશ ન યુ વિશેષ્યા Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તાવાર્થવિવાહાઈટીવિકા ર૦ રૂ૦ ટી ૨૭૩ | મોર્નેહિતારત્વેન નેમેવાનાપાવાવ, સત્ર ક્ષયાનામવ્યવહતાળવેન નિમેવાક્ષેપ મિતિ વિરોષાત્ ! હેતુવિધાવ ક્ષયહિત્રિવિધું સ ર્જનમિતિ | હેતુનૈવિધ્યાત્રિવિધે સમ્પર્શનામિત્યન્વય ! ક્ષયાતિ વિરાળ શરણે છાપવાળ સાહિત્યનન્યતા-નાતિયોર્તિનપરા તેન ર સામાન વિશેષતાધનામ્બવઃ | 7 = ત્રિમ સંય બન્યતે મૃદુધવારિવોપવેશન, વિનુ લગાવ્યે રુચિરાત્યન્તિ સોષરહિતાગડર્મિતે, યોપશમના વાચાદરવ, તો રામનત્યાદ્રિ વતઃ ટીાિરસ્વાધ્યાયમેવામિકા શર્થ પૂર્વ મવદ્ધિમાનન્યતાવતિ નતિઃ વખતેતિ વેત, ન, ક્ષયો પગમસ્ય માવાન્ત, પ્રત્યક્ષચોપરામોમહત્યામાવાત, વન્ય પ્રવેશોતવાચનનુવિદ્વતાપ, पुल्लिङ्गत्वेनाप्रत्ययान्तस्यापि पुलिङ्गतयैव निर्देशस्य युक्तमादिति भावः । व्यवहितका૨ણનીતિ- નિધિમતા વર્ણનમોહનીયાર્ષિયઉદ્વારા જાર જીત્યર્થ ! ક્ષયપારણામાવેગ પામેનોપશમન કા તથ્થર શોપશમહારનામાવેગ ક્ષણોપશમેન વા, મહારગામા પાન ફળ વા સભ્યને સર્જન પસામાન્યવાર્યસ્મૃતિ ભયાવીનાં પ્રત્યે વ્યતિક્રમવારિન ર ક્ષયાના વિશેષ વાળસમા, સનાતવૈનાત્યાયને તુ મારામાન ક્ષયત્વાના પ્રત્યેન ઢોળ શાળવું સ્થાન, વિજ્ઞાતીવલદ્દર્શનચ્છતિ શાન રળવં વિનાતીયસંખ્યપર્શનબ્રતિ પિશાર્નિવસૃષરામન રળમાં વિશેષાળિમાવોમાહિત્યારાજ્યનાહ-લયાહીતિ વિશેષળબિલ્લાહ તઝમટિં–તે ન જ હતામાં . વિશેપસાધના સમવતિ . વૃદ્ભવવા સહૈવયમયાન વ ત્રિ િવજ્રત્યવિના ! યથા શેળો રાબેન શોપશમેન વાન્યાન્વેવ હરિસ્વતિ તથા નિતાયાધિમતોડન્યા દ્વાચાં નિધિમાખ્યાં રાખ્યા વિના વિશ યાત, તથા નિસધિામમયનાન્યતાછવિવાયાં નતિઃ “ઉમિયનન્ય હૈં વિશ્ચિદ્ધિનં સ્થાત ” હત્યાહિના પૂર્વવત બ્રહ્નવવરણથેનાપરિવાર ને વિક્ર વીમતિ સુદ્ધાન કૃતિતહીતિ | લોકરામ માવાન્તરસ્ય કારણવં ન તુ ક્ષયપારિતિ પ્રતેણે નોમયજ્ઞતાવચ્છવા નતિરાથી તે ફક્ત તતકાર નિસાધામોમયનન્યતવષેશ નાતિસિદ્ધિરિત્યાયનોત્તરથતિ-ફાધામ માવતરત્નાવિતિ પૃથજ્ઞાતિયાલય પૃથઅજ્ઞાતીય ઉપામ, તદુમામૈવ શરામ, ન તુ વિનાતીય રૂત્યમ્યુપામે માહ-અન્યચેતાપ્રવેશવાંચનનુવિદ્વતાપરેરિતિ-ચત્રાદ્વિપન સનવાવનુમાવામાવાપત્તિધા, તથાહ-ક્ષ પામે સત્યવાવનુમોતિ, ન શકે, તે જ વિશેષઃ શોપરામ નાય વ ધટત, અન્યથૌપશમિજન્ય ફેવ લાયોપશમાલખ્યત્વેગપિ મિથ્યાત્વાવિવટિવ શિયસ્ય સભ્યત્વનોદનીયત્રિાનુમાવસ્થ વામાવયાવિતિ. તથા બહેશોઘન્ય• થાનુપજ્યા વિનાતીય હવ શોપશોમ્યુન્તિવ્ય, ન તુ તદુમયાત્મતિ માવા નનુ યદ્ધિ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ×૭૪ : તત્ત્વાર્થવિવરળમૂતાથતીપિયા ! ૪૦ સ્ક્રૂટી વિજ્ઞાતીય આ ારં વિનાયાર્ચમારમત વ્ । ક્ષયાયઃ ચેયાદ વાવનીયસ્વાતિ । તત્ર્ય લ નુરોનચાવીચમા∞ાવ મત્યાઘાવરમિત્યર્થઃ, તત્ત્વ, અનેન સભ્યહર્શનસ્ય જ્ઞાનરુપવનાવેવિતમ્, દુર્જનોનીયન્ય પાનાનુવધ્યાવિસઋદ્ર્ય, વર્શનમોહનીયસ્યંતિ કુવતા ડ્વમમ્બુવાતમ્-દર્શનબાંદનીયસ્ય વિષુ સત્તુ તત્કાવુર્માવો 7 પુનર્દેશનમોહસ્ત-વિરામતિ, ક્ષાવિાર્યતાવ છેવાય(ચ)ત્ર નિર્નાવિશેષનનતાવ, તાપિ વિવનાામાંક્રાત્સાહ-અત્ર ચેત્યાદ્રિ ! પરતઃ પરતો વિશુદ્ધપ્રપે હાંત-પાનાત્ ક્ષાયોપમિ, તતધ્ધ ક્ષાયિપ્રવિદ્ધિનનામઐઃ । વિક્રમો નિર્મત્ઝા, તત્ત્વરિત્ઝેવિતત્યોને વિશુદ્ધચૌળયેક તા જ્ઞાતિમવાક્ષતિ, ન તુ વિક્ષા વિાંચતાં, વાધામાવાત્। ઔપર્શમ॰ સભ્યä સર્વમીમસન, અપાવાનૢ સૂયર્થી મિથ્યાામનાવું, તતઃ ક્ષાયેશને વિશુદ્ધતરમ્, વહુબ્રા વાયવાત, તતોર્ઝપ ફ્લાય વિશુદ્ધતમ વત્તુતરાવસ્થાચિત્માત્ સ્ત્ર ́વસ્તુર્ધાર∞વાઘેતિ સિદ્ધાન્તત્ત્તવઃ || ૭ || ોશમે મિન્ધ્યાાને પ્રદેશોદ્યો વિદ્યતે તૢિ વયં ન સમ્પન્દ્ર્શાવવાતો મીતિ શ્વેત, મુખ્યતે, પ્રવેશ મેળો મન્વાનુમાત્રાવતિ નાન્દે। ક્ષયોપશમ વિજ્ઞાનીયત્રાવેલ તારાં યોનિહવં વિજ્ઞાતીયાય નનયઘેવ, મિત્રજ્ઞાન્યવઋન્નારપાસ્ય વમિત્રનાટ્યત્રચ્છન્નાયાત્પાદનવમા દ્રાદ-વજ્ઞાતીય નૈતિ-પૂર્વળાધ્યવસાયેનાનીતમિચ્યાસ્વમાયા શુદ્ધમિાલપુર શોધિતમવનજોદ્રવસ્થાનીયા વિરુદ્ધતા વિદ્રવ્યત્ત્પન વિધ્યાવેન મિશ્રિત સસ્તા મિથ્યાભાવમવાનુ, તીર્થસંતાતા પાઅવળાવિનિતારેગામાદા વિન્દ્રવદુરસૌથ્રા મિથ્થાવધતાં વિદ્યત્ત્ત, તતસ્તથૈવ મિથ્થાદષ્ટિમૂવા પુનઃ સંસારનીરદ્ધિ વાતિ । સ વૈવસ્તૃતોપાયઃ ક્ષયિષ્ણમ્પત્યે નાસ્તિ, સાનર્ધાનાં સુહાનાનશુદ્ધાનાં વા મિથ્થાવધુતાનાં પિતત્ત્વનાસત્ત્વાત્, સમાત્ ક્ષાયોષમહેશદ્દતમં સાયિસ‘નવમ્, માજીન્દ્વાશ્રયનઋષિને મનુષ્યસ્ય વિશ્રુતનાં નેત્રદિરિવેયાયેનાહસતગંજ ક્ષાધિ વિદ્યુતમિતિ। સસમસૂત્ર વિવૃત્તિસમાધિમષાત્ ॥ગી સૂત્રમ ન જેવોમરેવ નિશ્ચય. વાયેઃ જિન્દ્વન્ચરપીત્સાહ-સસંદ્ધાક્ષેત્રસ્પર્શનાહાન્તરમાવાલ્પવદ્યુઐશ્ર્વ ॥ ? ૫ ૮ n સતઃ સંઘેયાનત્ત્વચક્રોનનાસાય વિવિધાર્થીનું દર્શાંત માધ્યાર ( મા૦ ) સત્ સંસ્થા ક્ષેત્ર પરીનું શાળા અંતર માત્રઃ અલ્પવતુમિસ્ચેતેશ્ર્વ સદ્ભૂતપદ્ તિમિમિનુયોતકાર: સર્વમાંવાનાં વિશ્વવંશો વિસ્તરાધિમાં મર્યાત । અતિ ચૈત્ જયંતે । સવું, ર્શન શિસ્તિ નાસ્તિ, અસ્તીત્યુત્ત્વને | નવાહીતિ શ્વેત્, યંત્રે ! બીવેલુ તારાાિ 1 નીચેજુ તું માન્યા । તથથા-તીન્દ્રિયાયયોધવા વેશ્યાલયજ્ઞાનદ્રાન ચારિત્રહારોપયોોવુ થોવનુયોગદ્વારેપુ ચચાલવું સદ્ભૂતપ્રઋષના સઁવ્યા । સંસ્થા-યસભ્યશનું જ સંગ્યેથમપ્તસ્થેયમનમિત્તિ ! ન્યતે–ત્રસંધ્યેયનિ સચવર્શનાનિ ! સર્રેપ્રયત્ત્વનન્તઃ॥ ક્ષેત્ર-ઘર્શન વિત્તિ ક્ષેત્ર હોવાનુંઘેચમાો | સ્પર્શનમ્ લબ્ધ ફરીનેન કે પૃષ્ઠમ્ ? । જો ચાસંઘેયમાઃ। અટા ચતુર્વંશમાના દેશોૉઃ । સભ્ય દ્ધના તુ પેલો તિ મંત્રાત્-સ લોનયોઃ : પ્રતિવિશેષ ક્રૂત્તિ ? । હન્યતે-ન્નપાયલ Ky Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्याविषयूढार्यदीपिका । अ० हूँ० टी० द्रव्यतया सम्यन्दर्शनम् , अपाय आभिनियोधिकम् , तद्योगात्स यादर्शनम्, तत्केवलिनो नारित । तान केवली सन्यादर्शनी, सन्याप्टिस्तु भवति ॥ कालः । सायग्दर्शन कियन्तं कालमिति, अत्रोच्यते । तदेकजावत नानाजीवश्च परीक्ष्यम् । तद्यथा । एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त, उत्प्ट न पट्पटिसागरोपमाणि साधिकानि । नानाजीवान् प्रति सर्वाद्धा ॥ अन्तरम्-लम्यग्दर्शनस्पको विरहकालः । ५६ जी प्रति जयन्येनान्तर्मुहूत उत्कृष्टेन उपार्थपुद्गलपरिवर्त. । नानाजीवान् प्रति नारयन्तरम् ॥ मायः सम्यग्दर्शन मौपशमिकादीनां भावानां त्रिपु भावेषु भवति ॥ अल्पबहुत्वम्-अनाह सम्यग्दर्शनानां त्रिपु भावेषु वर्तमानानां किं तुल्यसंख्यत्वमाहोस्विदल्पबत्वमस्तीति ?, उच्यते, सस्तोकापशमिकम् । ततः क्षायिकमसंख्येयगुणम् । ततोऽपि क्षायोपशामिका मसंस्येय गुणम् । सम्यग्दृष्टयस्त्वनन्तगुणा इति । एवं सभावानां नामादिमिन्यासं कृत्वा प्रमाणादिगिरभिगमः कार्यः ॥ उक सयदर्शनम् । ज्ञान वक्ष्यामः ॥ । (यशो० टीका)-सत्संख्येत्यादि । फलितमाह-सद्भूतपदप्ररूपणादिमिरित्यादि । सर्वभापानामित्यनेनेपामष्टानामनुयोगदाणा च्यापितामाह-आधद्वारे आशावाक्यं दर्शयति-सम्यग्दर्शन किमरि। नास्तीति-सभ्यग्दर्शन।०३. प्रामाणिकार्थबोधको न वेत्येतदर्थः । शब्दो हि कश्चिदप्रामाणिकेऽप्यर्थे शशविषाणादिक. प्रवर्तमानो दृष्टः, कश्चिच प्रामाणिकऽ धादिः, अतोऽयं संशयः । यत्तु शशविपाणशब्दो वाक्यात्मकत्वादयोधक एव, वाच्यार्यज्ञानेऽयोग्यतानिश्चयस्य प्रतिवन्यकत्वादिति, तन्न, रूपकादाविवेच्छाविशेषस्योत्तेजकत्वात् । उत्तरमाह-अतीत्युच्यते । सन्यादर्शनशब्द. प्रामाणिकाथयोधक एवासोपदिष्टत्वात्प्रमादिलक्षणार्थप्रवृत्तश्चेत्यर्थः । सम्यग्दर्शनस्यास्तित्वे निश्चिते आधारशका कर्मक्षयोपशमवैचित्र्यातदधीनबुद्धयोऽपि विचित्रकार। इति तद्वत: शिष्या विविधरूपयः, तत्र ये संक्षेपरुचस्तान प्रति प्रमाणनयरविगम इति पष्ठं सूत्रमाहाचार्यः, ये च मध्यमरचयस्ता प्रति निर्देशस्वामित्वसाधनाधिकरणस्थितिविधानतः' इति सप्तमसूत्रं, ये पुनविस्तर रुपयस्तान् प्रति तत्त्वभूतसमानानिगम सदादिमिरसंदिदर्शथिपुरम सूत्रं रचितवानिति तदवतरणिकामाह न केवलमेभिरेवेत्यादि। सच्छदः प्रशंसादिपु पर्वते तयथा-प्रशंसायां तावत् सद्धर्मः सत्कुलमिलादी, क्वचिदतित्वे सन्नात्मा सन्परलोक इत्यादौ, क्वचिदादरे सत्कृत्याचार्यान् शृणोतीत्यादी, तह प्रामाणिकत्वलक्षणाऽस्तित्वाऽर्थकत्वं व्यवस्थापयितुमाशङ्कामुत्थापयति सत्यदर्शनं किमस्ति नास्तीति । तदर्थमाह सम्यादर्शनश०८ इत्यादि । आशङ्काबीजमाह २०दो हीरादिना । यत्त्वित्यादिनाऽन्यमतं प्रदश्य तन्निपेधति-तन्नत्यनेन, निषेधे हेतुमाह रूपकादाविवेच्छाविशेषस्योत्तेजकत्वादिति मुखचन्द्र इत्यादि रूपकस्थले मुखचन्द्रयोर्मेद निश्चयरूपाऽयोग्यताज्ञानदशावामपि सुखे चन्द्रवज्ञान में जायतामितिजिज्ञासया मुखे चन्द्रामेदाविषयकाऽऽहार्योधस्योपगमेन शशविषाणादिवाक्यादपि विषाणे शशीयत्वामविज्ञानरूपाऽयोग्यताज्ञानशायामपि विपाणे शशीयत्वज्ञान में जायतामिति - जिज्ञासया विषाणे शंशीयाऽभेदविषयकाऽऽहार्ययोवस्थादेवेति : तजन पशब्दो नाबोधक इति भावः, प्रामाणिकावोधकरवे . Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थविवरण गूढार्थदीपिका । २० स० टी० यामाह-वास्तीति चेदुच्यते, ये पदार्थी जीवा अजीवाश्च । तत्राजीवेषु धर्मादिषु नास्ति, निश्चयतश्चेतन गुणस्यचितनेऽसमवेतत्वात् , स्वामित्वचिन्तायामजीवस्य सम्यग्दर्शन मिति यदुक्तं ततृपचारात्, स्वामित्वस्योपचरितस्यैव व्यवहार्थत्वात् , अनुपचरितस्य गुणगुणिभावानतिरेकादिति टयम् । जीयेषु का पातत्यत आह-जीवेषु तु भाज्यम् । तुगद एवकारार्थ, मान्यमेव, नावश्यंभावि सर्वेषु, भजनां दर्शयति । तद्यथा-गतीन्द्रियेत्यादिना, गत्यादीनि चान्यनावश्यकादौ प्रपञ्चनोक्तानि, स्थानाशून्यार्थं तु किञ्चिदुच्यते-गत्यादिषु पूर्वप्रतिपन्नाः प्रतिपथमानाश्च सम्यक्त्वं चिन्त्यन्ते । तत्र नारकप्रभृतिषु गतिपु चतसृष्वपि पूर्वप्रतिपन्नाः प्रतिपद्यमानाश्च जीवाः सन्ति । नरकतियादेवगतिषु क्षायिकमायोपामिके स्याताम् । मनुजगतौ त्रीण्यपि । इन्द्रियाणि सामान्येनाश्रित्य सन्ति पूर्वप्रतिपन्नाः प्रतिपद्यमानकाच । मार्थप्रवृत्तेश्चेति-प्रशमसंवेगनिर्वेदानुकम्पाऽऽस्तिथान्यतमलिङ्गनातुमानसिद्धलादित्यर्थः । धर्मादिषु धर्मास्तिकायाधर्मास्तिकायकिाशास्तिकायलास्तिकायालेषु पञ्चसु, नास्तित्वे हेतुमाह-निश्चयत इत्यादि । ननु चेतनगुणो नाचेतने समवेतस्तहिं कथपजीवे सम्यदर्शनमिति पूर्वमुक्तमित्याशङ्कायां तदुतरमाह-स्वामित्वचिन्तामानिनि । ननु किं चतुःप्रकारा गतिपु सम्यग्दर्शनं प्रतिपन्नाः प्रतिपद्यानाच जीवास्सन्ति न वेति प्रश्ने तदुत्तरमाह-त्र नारामभृतिवित्यादि । प पीति । यदाह विशेषावश्यकमाये-" चउसु विगतीसु नियमा समसुयरस होई पडिवत्ती । २७११ ।" इति । अनेन सम्यक्त्वं श्रुतञ्च विवक्षितकाले प्रतिपयमानका जीवास्सन्ति तर्हि तत्प्रतिपन्नास्तु सुतरा सदैव सन्त्यवेत्युक्त भवति, अत एक तट्टीकायां पूर्वप्रतिपन्नाननयोस्सदेव लभ्यन्त इत्युक्तं सङ्गन्छने । ननु सर्वदा प्रतिसमयं पूर्वप्रतिपन्ना नियमतो यथा सन्ति तथा प्रतिपद्यमानशास्सन्ति ल वेति प्रश्ने कदाचियन्तिा कदाचिनेत्युत्तरम्, तत्र प्रतिपद्यमानका अभिधीयन्ते ते, ये तत्प्रयमतया सम्यग्दर्शनं प्रतिपचारा, तेऽपि प्रथमसमय एवं प्रतिपयमाला उच्यन्ते, शेपसमयपु तु पूर्वप्रतिपन्ना एव भवन्तीत्यनयोविशेषः । एवमेवांग्रेऽपि ज्ञेयम् । लरकतिर्यग्देवगतिधु क्षायिकशायोपशामिके स्मातामिति । प्रवचनसारोद्वारे एकोनपश्चाशद विकशततमे द्वारे तु-" आई पुढवीसु तिसु सय १ वसम २ वेय३ च सम्मतं । वेभाणियदेवाण पणिदितिरियाण एमेव १९६१।" इत्येवं दृश्यते, तत्र 'खओरसमवेय ' ति सूचकत्वात्सूत्रस्य क्षायिकापशमिक वेदकं च सम्यक्त्व भवन्तीत्ययः, अत्र वेदकमिति-वचन्त-अनुभूयन्ते शुद्धसम्यक्त्वपुञ्जपुरला अस्मिन्निति वेदक क्षायोपशामिक सम्यक्त्वमुच्यते, यत्पुनः क्षप्यमाणसम्यक्त्वजपुरलचरमग्रासलक्षणं वेदकसम्यपत्वं तन्नात्र पृथा विवक्षितम् , पुनलवेदनस्य समानत्वेन क्षायोपशमिकसभ्यतत्व एव तस्यान्तभावात् , ततोऽयमर्थः-आधनरकपृथिवीत्रयवर्तिनाराणां क्षायिकौपशमिकक्षायोपशमिकानि त्रीण्यपि सम्यक्त्वानि सम्भवन्तीति, तथाहि-योनादिमिथ्यादृष्टिनारका प्रथमं सम्यक्त्वमवामोति तस्यान्तरकरणाकालेश्तर्मुहूर्तमीपशामिक सम्यक्त्वं भवति । औपशमिकसम्यक्त्वाचान Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थविवरण गूढार्थदीपिका । अ० स० टी० : १७७ एकेन्द्रियेषु न पूर्वप्रतिपन्ना न प्रतियद्यमानकाः । द्वित्रिचतुरिन्द्रियेष्वसंज्ञिपञ्चेन्द्रियेषु च पूर्वप्रतिपन्ना भाज्याः सास्वादनसम्यक्त्वं प्रति, प्रतिपद्यमानास्तु न सन्त्येव । संज्ञिपञ्चेन्द्रियेषु द्वयमप्यस्ति । कायान् पृथिव्यादीनाश्रित्य सामान्येन द्वयमप्यस्ति । विशेषेण धरणिजलानलानिलस्यु द्वयं न सम्भवत्येव । द्वित्रिचतुरिन्द्रियासंज्ञिपञ्चेन्द्रियेषु पूर्वप्रतिपन्नाः स्युन प्रतिपद्यमानाः । संज्ञिपञ्चेन्द्रियन सकाय द्वयमपि स्यात् । योगे मनोवाकायेषु सामान्येन द्वयमपि । काययोगमाजा पृथिव्यादीना तरूपर्यन्ताना न द्वयम् । क.यवानयोगयुजा द्वित्रिचतुरसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाणां पूर्वप्रतिपन्नत्वमेव | मनोवाकाययोगयुजा द्वयम् । कषायेऽनन्तानुवनन्तरं शुद्धसम्यक्त्वपुजपुदलान् वेदयतस्तस्यापि क्षायोपशमिकं सम्यक्त्यमबाप्यते, मनुष्यतिर्यग्भ्यो वा यः क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टिनरिकेपुत्पद्यते तस्यैतत्पारभविकं लभ्यते, विराधितसम्यक्त्वो हि षष्ठीपृथिवीं यावद् गृहीतेनापि सम्यक्त्वेन सैद्धान्तिकमतेन कश्चिदुत्पद्यते, कार्मग्रन्थिकमतेन तु वैमानिकदेवेभ्योऽन्यत्र तिर्थङ्मनुष्यो वा बान्तेनैव क्षायोपशमिकसम्यक्त्वेनोत्पद्यते, न गृहीतेनेति, यदा पुनः कश्चिन्मनुष्यो नारयोग्यमायुर्वन्धं विधाय पश्चा• क्षपकश्रेणिमारमते, पद्धायुकत्याच तां न समापयति, केवलं दर्शनसतकक्षपयित्या क्षाविकं सम्यक्त्वमवाप्नोति, ततश्च मनुवायुःक्षयसमये मृत्वा नारकपूयते तदाऽऽयपृथिवीजयनारकाणां पारभविक क्षायिकं सम्यक्त्वमवाप्यते, न तु ताझविकं, मनुष्यस्यैव तद्भवे क्षायिकसम्यक्त्वा मत्यादिति । तथा “ वेमाणियदेवाणं " वैमानिकदेवानां " पणिदितिरियाणति " व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिन्यायेन पञ्चेन्द्रियाणां मनुष्याणां तिरश्चां वा त्रीण्यपि सम्यक्त्वानि भवन्तीत्यर्थः । विशेपार्थस्तु तत एवावसेयः । नन्विन्द्रियद्वारे पञ्चेन्द्रियजीवा अप्यागता इत्यत सामान्येन पूर्वपतिपन्नाः प्रतिपयमानाश्च भवन्तु, पृथिवीकायायेकेन्द्रियेषु किमुभयरूपासन्ति न वेत्याशङ्कायां " उभयाभावो पुढवाइएसु" इति " उभयाभावो एगिदिएसु सम्मतलद्धीए" इति चागमवचनमनुसृत्याह-एकेन्द्रियेषु नेत्यादि । सास्वादनसम्यक्त्वयुक्तस्यापि पृथिव्यादिपुत्पादाभावात्सायक्त्वप्रतिपत्यभावाचेति भावः । एतदपि सैद्धान्तिकमतेन, यदुक्तं प्रज्ञापनायां " पुढविकाइयाणं पुच्छा, गोयमा ! पुढविकाइया नो सम्मविट्ठी मिच्छादिही नो समामिच्छादिही, एवं जाव वण कइकाइया " इति । कार्मग्रन्यिकास्तु लब्धिपर्याप्तवादर पृथिव्यवनस्पतीन् करणाऽपर्याप्तान् पूर्वप्रतिपन्नानिच्छन्ति, पारभविकसास्वादनसम्यक्त्ववतस्तेपुत्पत्तः, तन्मतेनैकेन्द्रियेषु पूर्वप्रतिपन्नासन्ति न तु प्रतिपद्यमानका इति । द्वीन्द्रियाघसंज्ञिपञ्चेन्द्रियान्तजीवेषु ये केचित्सास्वादनसम्यक्त्वेन सह पूर्वभवादागच्छन्ति, त एवाऽपर्याप्तावस्थायां पूर्वप्रतिपतिमङ्गीकृत्योभयमतेन स्युः सम्यग्दर्शनस्य पूर्वप्रतिपन्नाः, उक्तञ्च-" विगलेसु होज उपवनो" इति । सम्यग्दर्शनस्य प्रतिपद्यमानकास्तु न भवन्त्येव, तेषां तथाविधविशुध्ध्यभावादित्याशयेनाह द्वित्रिचतुरिन्द्रियेष्वसंज्ञिपश्चेन्द्रियब्धित्यादि । द्वयं न स भवत्येवेति च पूर्वत्रज्ञेयमिति । कपायेऽनन्तानुवन्धिनामुदथे Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थविवरणमूढार्थदीपिका । अं० सू० टी० न्धिनामुदये न द्वयम् । शेपकायोदय द्वयम् । वेदे सामान्येन द्वयं, विशेषेणाऽपि स्त्रीवेदपुरुषवेदयोर्द्वयम् । नपुसकवेदे एकन्द्रियाणां न द्रयम् । विकलेन्द्रियाणामसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाणा च पूर्वप्रतिपन्नत्यमेव । संज्ञिपञ्चे. न्द्रियनपुंसके द्वयम् । लेश्यासूपरितनीधु द्वयम् । आधासु प्रतिपन्नाः म्युनं तु प्रतिपद्यन्ते । किं सम्यग्दृष्टिः प्रतिपयते हिच्यादृष्टिा ? । अत्र निश्चयस्य सम्पादृष्टि. प्रतिपद्यते, अभूतं नोत्पद्यते शशविषाणादिवत् । न द्वयम्-सास्वादनकालस्याल्पत्वात् तदविवक्षां कृत्वोक्तमेतत् , अत एव विशेषावश्यक त्रयोदशोत्तर चतुश्शततमगाथाटीकायां मतिज्ञानमुदिय कपायहारे तु चतुर्थनन्तानुबन्धिषु सास्वादनमझीकृत्य पूर्वप्रतिपन्नो लभ्यते न प्रतिपयमानक इत्युक्तं सङ्गच्छते । लेश्यास्थितिश्लेषयन्त्यात्मानमष्टवियन कर्मणा सहेति लेन्या, कायाद्यन्यतमयोगवतः कृष्णादिद्रव्यसम्बन्धादात्मनः परिणामा भानलेश्याः, तास्वित्यर्थः । उक्तञ्च-"कृष्णादिद्रव्यसाचियात्, परिणामोऽयमात्मनः । स्फटिकस्येव तत्रायं, लेण्यादः प्रवर्तते ॥१॥" इति । आधलेश्याप्रयाणामविशुद्धत्वेऽपि तन सम्यग्दर्शनस्य कचित्प्रतिपन्नारस्युः " पु०पडिवण्णओ पुण अण्णतरीए उ लेसाए " इत्युक्तः । न तु प्रतिपयमानाः, उपरितनलेग्यात्रयाणां विशुद्धत्वेन तत्र प्रतिपन्नाः प्रतिपयमानाश्च स्युरित्याह लेश्यासूपरितनीधु द्वयम् , आचासु प्रतिपन्नाः स्युः, न तु प्रतिपद्यन्त इति । नन्वेवं सति लेण्याद्वारे-'सम्मत्तसुयं सयासु लहइ' इत्यावश्यकभाप्यविरोधारयादिति चेत्, भैवम्, तत्रावस्थितकृष्णादिद्रव्यरूपां द्रव्यलेश्यामधिकृत्यैवोक्तत्वात् , अन तु भावलेश्याया एवाधिकारादिति । अथ निश्चयनयमतेन यस्स. म्यग्दृष्टिस्स एव सम्यग्दर्शनं प्रतिपद्यते, न तु मिथ्याष्टिः, यतत्सम्यग्दर्शनात्मककार्य पूर्वमसत्स्यात्तहि नोत्पत, अविधमानत्वात् , सपुष्पवत् , अथाविधमानमपि जायेत तर्हि प्रागभूत शंशविषाणमपि पश्चादुत्पद्यत, प्रागसत्ताविशेषात् । तरमात् क्रियाकालनिष्ठाका योरक्याचरमक्रियाक्षण एवं प्रारभ्यते कार्य, तस्मिन्नेव क्षणे निष्पद्यते तदित्याशयन निश्चयनयमतमाह अन निश्चयस्थ सम्यग्दृष्टिः प्रतिपद्यते इति । ननु सामग्री वै कार्यजनिका, सा च नैकक्षणमात्रभाविनी, किन्तु दीर्घकालभाविनीत्युत्पद्यमानानां घरदीनां दीर्घकालो लगन् किनावलोक्यते ? निश्चयवादिना, ततो न यस्मिन्समये घटादिः प्रारभ्यते तस्मिन्नेव समये निष्पयते, मृदानयन तत्पिण्डविधान-चकारोपण-शिवकादिविधानादिचिरकालनैव तदुत्पत्तः, एवं प्रकृतेऽपि मिथ्यादृष्टेजीवस्य प्राकर्मक्षयोपशमप्रमानिसगांधः शुभाध्यवसायस्तदुत्पन्न कर्मक्षयोपशमादिसामग्र्याः श्रीगुरुभगवत्समीपमनसिद्धान्तश्रवणधिન્તનેહવિકારત્વમાનમાષ્યવસાયનસ્પર્મયોપામાવિસામા સન્મત્તાવેવ વિરलेन सम्यग्दर्शनमुत्पद्यत इत्यतो यः पूर्व मिथ्यादृष्टिस्स एव सम्यग्दर्शनं प्रतिपयते, न तु सन्यदृष्टिः, पूर्वमात्मन्यसद्भूतस्यैव सम्य दर्शनस्य स्वकारणोत्तर कालाबच्छेदन प्रतिपत्तिमावात् , न हि लोकेऽपि कारणीभूते मृद्रव्ये ५८कार्य पूर्व सत् क्रियते, किन्त्यसदेव, यदि च Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તરવાર્થવિવાદૂઢાર્થનીપિત્રા 1 ૦ સ્ક્રૂટી : ૨૦૨ : વ્યવહારશ્ય મિથ્યાષ્ઠિઃ પ્રતિષવતે, પ્રતિષત્તેરમૃતમાવિષયત્વાર્, સત્ જાણે ામિતિ વર્શનાત્ । અન્યનિયાાંછેડસદ્ધિ યિાજાળે સદેવ જાય તે, શિયાાર્છાનેાાજ્યો મેવાવિતિ શુદ્ધર્નુલત્રાનિશ્ચયાઽશ્રયોઽપે સુન્ધાવ્યરેવ સભ્યત્રં પ્રતિષદ્યતે । મૈં જ્ઞાની નિશ્ચયનયજ્ઞાની વ્યવહારનયસ્ય | વર્નેશન દ્વયમ્, મક્ષિજાવનેષુ પૂર્વત્તિપન્નાઃ હ્યુને તુ તિષથમાનાઃ । નિપથેન્દ્રિય-હ્યુર્વેનિ યમ્ । અન્નક્ષુર્રશનિ વૃથિવ્યાપિૠતુ નાપ્તિ, શેપે દિત્રિનારોન્ક્રયાસ બિનફ્યુશનિપુ પૂર્વપ્રાંતપાઃ હ્યુન તુ પ્રતિપદ્યન્તે । સંન્નિષચેન્દ્રિયાષર્દેશન દયને । ચરિત્રી પૂર્વત્તિપન્ન પુત્ર 1 અનારિત્રઃ પૂર્વતિષત્રઃ પ્રતિષદ્યમાનÆ સ્વાત્ । બહારપુ સદેવ તે તાંતૢ યિતાં નિત્ય, સવિશેષાવિત્તિ નિયાનુપમપ્રસન્ન, મૈં ચૈવ સત્યેન્દ્રસ્થાપિ જાયંસ્ય પોરસાણ, દ્યું પ્રસ્તુતે સભ્ય વચ્ચેનાપિ તપયનવસ્થા, તવેવં 7 યિાાછે ાર્યમસ્તિ, અનુજમ્પમાનત્વાત, ન્તુ ાંનષ્ઠા C તારા, તદેવોપહમાનસ્ત્રાહિતિ પૂર્વા કારસ્થને, વરાળયાક્ષળે ધ નિબ્બતે, નિયાિિનષ્ઠાાયોઃ પૂર્વોત્તર જીંવિત્ત્વનાત્ત્પન્નમેવાત્, તમન્મથ્યાદિવ સવીન પ્રતિષઘતે, ન તુ સરિત્યેવ વ્યવહારનયમતમા –વ્યવહારસ્ય મિથ્યાદષ્ટિ; પ્રતિપદ્યત્ત જ્ઞાતિ । T પ્રતિસમય ચિત્રા વ યિા, મિન્નાન્યેત્ર 7 મૃવાનયનĮદ્ધિનાંવેધાન ચિત્રા વ્યાસ-હોશ હાનિ વ્હાર્યાંગ માંન્ત, ઘટતુ ચરમૈયાક્ષળમાત્રમાન્યે તે તંત્ર વ્યવહારનયા તેના યદીયશિયાજાબેનળ યતે તત્તસ્યાજ્ઞતા વમેવ, યતો 7 પ્રથમ પ્રારમ્ભસમયે ચંદ્રઃ પ્રારબ્ધ, જિન્તુ મસ્તૠષિદ્ધ રોષળાન્યુવારાને, તત્ર ૬ ઢીવાળો મવતુ, મિત્ર હન્ત ? ધટવાયાતમ્, તદેવમળિયામાછો ન વસ્ય, વિન્તુ મિમિન્ના ળનેતિ તદ્દાની વોગ્સબાંધે સ્ત્રોત્પત્તિક્ષળવાવાઝે સજેવોત્પવર્તે, નાસત્, થૈ = ચાંડ્ સવે યિતે હૈં યિતાં નિર્મિત્ઝાહિબાબો વધાĞબંધન, ચઘસત્ યતે હૈં યિતાં નિત્યુંનેત્ર, સત્ત્તાવિશેષાત્, ન ચૈવમે પાપિ જાર્વસ્થ નિષ્પત્તિયુ—તે, સરવિાળપે વાગ્મતિ જાયે ત્યાંઘે ત્રિય વૈશ્વર્યામવિવેષસામ્પાત્, તથા ચર્યાદ્રપૂવૅતરારાનિ વવાયે ોપક્ષીયાનીતિ વિત્તત્તા સ્વાત્તાને સર્વત્ર ગારખાનુત્પવર્તે, Żનિસગાંધિામસમ્યગ્દર્શનતંત્તારાનું નિમત્રતા પૂર્વ પ્રર્શિતાને તાપિ વસ્ત્રજાયે ોવક્ષીબાીયન્યસિદ્ધાર્થાન, વાર્તાને સુવનન્ત્રત્યાશ્ચિાત્યેન ન સમ્યગ્દર્શન પાવાનીતિ તવાનીબસવિ સુવર્ણનું વર્મયોગમા સહીત પરમશિ Tાન્ત્યક્ષ લાÁાયા છે સહેવ સદદિઃ પ્રતિષઘત તિ યુદ્ધનુંન્નનિશ્ચયનયમતમાહઅન્યાયાઽડસપીત્યા, ત્ત્વજ્ઞાની નિશ્ર્ચયનયસ્યાજ્ઞાની ચવદ્વાનચેત—અત્ર મતે સભ્યત્ત્વે પ્રતિષવત વ્યનુાતે । “નાહ્ય પરિત્ત સબત્તાવળ વંસળં તુ મળતું ” ત્યાવશ્ય પૂળિયાડાતુ વારિત્રી સ‹Áનસ્ય નિયમેન પૂર્વતિન ધ્વનિનો-હલશ્રદ્ધાનમન્તરે માચારિત્રામા વત્સાહ પુત્રી પૂર્વમતિપન્ન સમુ 12 " બા જેવ 5. Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्यार्थविवरणpstart अ० स० टी० द्वयम् । अनाहारकः पूर्वप्रतिपन्नः, न तु प्रतिपद्यमानकोऽन्तरगती संभविता, साकारोपयुक्तः प्रतिपद्यते तानाकारोपयुक्त इति ? । उच्यते-साकारोपयुक्तः प्रतिपद्यते पूर्वप्रतिपन्नश्च, अनाकारोपयुक्ततु पूर्वप्रतिपन्न एवं स्थात्, न तु प्रतिपद्यमानकः, यतः किल " सर्वा ल०धयः साकारोपयोगोपयुक्तस्य भवन्ति "इति पारमर्षप्रसिद्धम् । एतेषु त्रयोदशस्वनुयोगद्वारेषु व्याख्यान यथासम्भवं यत्र यत् सम्भवति तथा सद्मूतपदार्थस्य सम्यादर्शनपदस्य प्ररूपणा कर्तव्या । भापकपरित्तादयस्तु नाता मायकृता, भापकपरित्तपर्याप्तसूक्ष्मसंजिभवचरमाणामिन्द्रियकायादिद्वारम्वेवावतारादिति वदन्ति । सत्येति द्वितीयद्वारपरामर्श. । किं सम्यग्दर्शनमिति-किं परिमाणाः सम्यग्दर्शनिन इत्यर्थः । ઉત્તરવાક્યૂડસંવાનિ સમ્યગ્દર્શનનતિ સિદ્ધસ્વયંવત્સરવવવાપેક્ષા, સદઇયस्त्वनन्ता इति भवस्यकेवलिसिद्धापेक्षया । क्षेत्रमिति तृतीयद्वारम् । क्षियन्ति निवसन्ति यत्र जीवादिव्याणि तत्क्षेत्रमाकाशम्, य एतेऽसंख्येयतयानन्ततया च निर्धारिता एतैः कियदाकाशं व्याप्तમિતિ સંચયે પૃચ્છતિ વ્યર્શન વિયેતિ ક્ષેત્રે, માવસ્યુતપસ્યા સર્ષદપિ ગ્ર, લાક્ષેપોદ્રા, સ્ય વા विवक्षितस्य अहम् । लोकस्यासंख्येयभाग इत्युत्तरम् । एकोहि विवक्षितः सन्यादर्शनी लोकस्यासंख्येयमागे भवति । सर्वानधिकृत्य प्रश्नेऽपि अधिकतरे लोकासंख्येयभाग एव, सम्यग्दृष्टि क्षेत्र तो लोकेऽपि स्थात्, न स्यात्, अवगाहकतावच्छिन्नाकाशस्यैव क्षेत्रपदार्थत्वात् , तस्याश्च द्वयोर ल्यपरिमाणवेs गुल्योरिवास मवात् । स्पर्शनं चतुर्थद्वारम् । तत्पर्य तवर्तिदेशावच्छेदेन सम्बन्धः । तत्र सम्यग्दर्शनिना कि स्पृष्टमिति प्रभे, उत्तरं लोकस्यासंख्येयभागः, पर्यन्तदेऔरधिकस्य क्षेत्रसम्बन्धस्यैव स्पर्शनापदार्थत्वात् , उ च परमाणुमविकृत्य महामायकृता-एगपएसं खितं सत्त ५९सा य से फुसग त्ति । द्वयमिति-उक्त विशेषावश्यकनियुक्ती " आहारगो उ जीपो पडिवजई सो चउण्हम यरं" इति । पूर्वप्रतिपन्नावस्त्येवेत्याल्लभ्यत एवेति । अनाहारकः कश्चिद् देवस्सम्यक्त्यसहितो मनुष्यगतो मनुष्यो वा देवगतापुत्पद्यमानः सम्यग्दर्शनस पूर्वप्रतिपन्नो भवति, न तु प्रतिपयमानक, अपा. बरालगतौ तथाविधविशुद्धयमायादित्याशयनाह अनाहारका पूर्वप्रतिपन्न इत्यादि । अन्तरगताविति-अपा- लगतौ सम्यक्त्वसामध्यभावात्प्रतिपद्यमानको न सम्भवतीत्यर्थः । यदाह विशेषावश्यके-'सम्मत्त-सुए सिया इयरो' इति, इतरोनाहारका पर्याप्तश्च, तत्रानाहारकोऽपान्तरालगतौ सम्यक्त्वश्रुते अङ्गीकृत्य स्वाभवेत् 'पूर्वप्रतिपन्नः, अतिपद्यमानस्तु नैव' इति चास्यशेषः । फेवलिसमुदाते शैलेश्यवस्थायाञ्चाऽनाहारकन्तु पूर्वप्रतिपन एवेति । "सबाओलीओसागारोवओगोवउत्तम उववजंति" इत्यागममनुसृत्याह-यत: किलेत्यादि । लास्यासंख्येयभागे भवतीति-विवक्षितसम्यग्दर्शनी असख्येयप्रदेशात्मको जीवोsसंख्येयप्रदेशात्मके यस्मिन्नाकाशमागेऽनगाह्य स्थितः स भागो बुद्धचा कल्पिता संख्येयखण्डस्य लोकस्यैकोऽसंख्येयमा। इति तत्र स्थित इत्यर्थः । सर्वे च सम्यग्दर्शनिनो जीवास्ततोऽप्यधिकतरे लोकस्यासंख्येयभागे वर्तन्त इत्याह-सनिधिकृत्येति । स्पर्शनलक्षणमाह-तत्५यन्तवत्तिदेशावच्छेदेन सम्बन्ध इति-तत्र तत्पदेन सम्यग्दर्शनिना यदगाद क्षेत्र तद् ग्राह्यम् । " एगपसं खित्तं सत्त पएसा 4 से फुसणा" इति-अन "अवगाहणा Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ક્વિાર્થવિવરાહર્થિીપિકા a૦ ફૂટ રી : ૧૮ સન્મદાના તુ છો. તિ | તુગનું Uવાર | સમુદ્યતન વતુર્થસમયર્તિના સમૈિત્ર સર્વોજ તિ . ગયા મન્નઈં રામેવાર્થમે શાકાત કૃતિ પૃચ્છતિ-સદસિમ્પર્શનો પ્રતિવિશે | પ્રસિવિશેષ મેર સૂચિસ્તરમા-થપાયેત્યાતિ અપાયો નિશ્ચયાપરષો મતિજ્ઞાનવૃતવાડા, દ્રવ્યાણ શુક્રમિથ્યાત્વપુદ્દત વ તથા તાલ, સાબરકવણતેત્યાવાવિવ વચૈતરું તતસૂતક્ષળા તૃતીયા , ચાવપીવો થવઠ્ઠી સદ્દવ્યાબે તાવત્ સત્વ નમિત્યર્થ અપાયશન્વર્યા વિનાશર્થિર્વશ્રમ નિતિ . પાંચ મિનિધિમિતિ, તેના યોત્તમઃ | સર્શનપુલાવુ સંવત્યુ સમવતીતિ વ્યાત્વિાક્ય કળા અપાય દ્રવ્યોમપ્રથમવાન્સમેથાપના, રુક્ષમાં વપાયવતી જે સ મયે થાય ફતિ નિશ્વિતોડર્થા તત્સર્ગનમપાયામફળ, રિનો નાસ્થત ન સાર્શની વહી, સમ્યગ્દષ્ટિ, સ્થાન કયા ન માન્યુવા યાતિ તુશન ત્યતા છે કૃતિ પત્રમાં દ્વાર ! સ્થિતિફત્તિ પિ કુસર વહિં નહાઉgnોડમિતિ પૂર્વાર્ધનાથા, રૂઢ મહામાખ્ય દ્વાāિશવધિવત શતતમાં થા/ રિમિન્નાશાશો પરમાણુવાદિતમ્, ન્યાય પરિવધિના પ રમશાન કૃશતીતિ શરમાળોસત દેશ ના 1 મિનું પ્રવેશે ઘરમાણુરવમહાપલેત્રમેસબમતિ પરમાણુદાન ક્ષેત્રપનોવિશે ઃ દૌ વતુર્વર માવેશના તિ તરંવાર્થમાળ, ગૃહટ્ટીતિક્ઝતા ૨ નૈવ વિચિતમ્, હારમદ્રવિનિતારવાર્થમાથે મુદ્રિતે ૪ નવ ( પાઠો દરથતિ, તત્ર તરાં વાન સ્વયમેવ માનીયમ્ અત્ર ત્તવમાસે “મિચ્છહિ તો , સાગરહિં વનહિં ! પુટ્ટા વડસ મામાવારસ કઈવ ” પssll તિ જાથાદીવાયાં “અવિરત દgयोऽप्यष्टरज्जू: स्पृशन्ति, भावना विह सभ्यग्मिथ्यादृष्टिबदवेत्युक्तमतिदेशवाक्येन । पञ्चस-- પ્રગર “ સહસાવંતય હે, નારીને વિંતિ તરુવં નિર્વાતિ અનુયં ના, વુિ વેગ ફુરસુરા | ૨૨ મે ” કૃતિ નાથાવાયાં “વરતાયદઈનામથ્થરનુપરનાં માનવેલ્યુમિતિ સીતેન્દ્રશ્ચતુર્યચિવાં જાળવનાશનાર્થ તદ્ભયત ફત્યવિરતસાદતિન્દ્રનીવનિરન્તરપરાયાધુરૂનાગવિધેિન વિમવનીતિ | વાલિયુદ્વાતાવસ્થામાં વતુર્થસમયાન્શન સાથેના ત્રિના પ્રતિકશાહ્યબ્સશાસ્મો નિરશેવો રોસ્કૃg, વિતરણ કાળિયાહૂ-મુન્ધતાન વતુર્થનમઃ વર્તિના સમદષ્ટિનવ સર્વોજ તિા કા વિશેષાવરમાળે સ્પર્શનાદ્વારે “ત્તરાલહિયાં સળં હો નિવસે” ૨૭૮૨ ફતિ / સાનપુરy સંવિત્તિ-લક્ષીણાનત્તાનુવાવસાવતિ શેપડા જલસ્વિાતિ-લીગાહર્શનમોહનીયસજતિ સેવા સ-પાપા પાયસદ્રવ્યવર્તી હવા સરનામતિ કક્ષાર પોષાયસઢરિતે લાક્ષિgવનેશ્વાસસ્થાદિત્યવ્યાપાહિદોષરહિતં ક્ષણમાઈ-ક્ષમાં વપાયવતી રિતિસાદ મવતીતિ માળ્યો#gશવરિયાર્થમા-હલ્યા નૈવામિન્યાતિ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । १८२ : तत्वाविवरणदार्थदीपिका । ३० स० टी० द्वारेण तार्थत्वेऽप्ये सर्व जीवाश्रयणेन पुनरभिधानम् । एकजीयेन नानाजीवेश्च परीक्ष्यमिति । एक प्राप्त तत्कियन्त कालमनुपाल्यते, नानाजीवैश्च किय-तं कालं धार्यत इति परीक्ष्यमित्यर्थ.। नानाजीवाद प्रति सद्धिा सर्वकाल महाविदेहादावविच्छेदात् । अन्तरमिति पठं द्वारम् । विरहकालः सम्यादर्शन प्राप्य पुनस्यपत्वा यापत्तन्नासादयति स काल इत्यर्थः । औपगमिक आयोपशामिके आश्रित्येयं चिन्ता, एक जीवं प्रतीत्यादि । एको जातुरोपामिकं क्षायोपशामिकं वा प्रायोज्झित्वा पुनः कश्चिन्मुहूर्तान्ते, कश्चित्त्वनन्तेन कालेन, स चानन्तकाल उपाईपुद्गलपरावतः । युगलपरावर्तस्य समयसिद्धस्याधाऽर्धपुद्गलपरावर्त., असमेऽर्थे पुंस्त्वम् , उपगतोऽव. किञ्चिन्यून इति प्रादिसमासः । नानाजीवानिति सजीवानादित्य, नात्यन्त महाविदेहादिषु सर्वकालमस्थानादिति, अायिकस्य वनपतमानात्यातरम् । भान इति सप्तमं द्वारम् । त्रिषु औपशमिकक्षायोपामिकभाषिकेषु ! अष्टमहारेऽन्यबहुत्यम् , आश्रयभेदेन, सर्वतोकमीशभिक, यत ईदृशी परिणति श्रेण्यारोहादिस्वभावां न बहवः सत्त्याः संप्राप्नुवन्तीत्यागमः । ततः क्षायिक्रमसंख्येय गुणमिति, छअस्थवर्तिन औपशमिकस्यापवितयोपात्तत्वादवधिमतापि तादृशेन भवितव्यमिति श्रेणिकादीनां छमस्थानां क्षायिकस्योपादानादियमुक्तिः। ततोऽपि छमस्थस्वामिकझायिकात् सायोपशमिकं भवत्यसंख्ययगुणं, सर्वगतिपु बहुस्वान्याधारस्वात् । यत्तर्हि क्षायिकं केवल्याचार तत् कियत् ।। ४च्यते सर्वपालनामानात्यानन्तगुणम् । अत आह-सम्यादयस्त्वन(न्तगुणा).if इति । कालद्वारोक्त एकजीवं प्रति जधन्येनान्तर्राहमिति भाष्यम्-अन्तर्मुह दिल मिथ्यात्वगमनात् केवलज्ञानावाप्तवेति भावः । यदाह-" अंतोमुत्तमित्तं जहन्नयं ॥ २७६३ ॥" इति । उत्कृष्टेन षट्पष्टिः सागरोपमाणि साधिकानीति भाष्यम्, एतच्च प्रागेव विवृतमिति । नानाजीवान् प्रति सवालि-इयं तु स्थितिः क्षायोपशमिकस्य चिंतिता, औपशमिकस्य तु यथासम्भवं अन्तर्मुहूर्तप्रमाणेति । कश्चिन्मुहन्ति इति-पुनरपि सम्यग्दर्शनमामोतीति तस्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त निरहकाल इत्यर्थः । उक्तं भाष्ये-"हीणं भिण्णमुहुत्तं सव्वेसिमेगजविस्त ॥" २७७६ । इति । कश्चित्वनन्तेन कालेनेति-लभते इति शेषः । अयं चोत्कृष्टतो देशोनापार्द्धपुरलपरावर्तलक्षणविरहकालः केप जीवानां भवतीति चेत , उच्यते, कृताशातनादिदोपप्रचुराणां जीवानामिति । उक्तश्च-"तित्यगर-पवयण सुर्य, आयरियं गणहरं महड्डीयं । आसायंतो वहुस, अगंतसंसारिओ होइ ॥१॥" इति । अनन्तसंसारपरिभ्रमणानन्तरं निसर्गादधिगमाद्वा तस्य पुनः सम्यग्दर्शनसमुपलब्धिरित्युत्कृष्टतस्सम्यग्दर्शनस्य विरहकाल उक्तलक्षणो भवतीति भावः। तत इति-तच्छदादयधिरूपपञ्चपर्थे तसिल् प्रत्ययः । अवधिचावधिमदपेक्षक इति छमस्थगतस्पात एवापायसहचारितस्योपैशमिकस्थाबाधितयोक्तत्वादत्राव. धिभत् क्षायिकसम्यग्दर्शनमपि छनस्थगतमेवापायसह चरितं ग्राह्यम् , सा६२५ एवावध्यवधिमहावादित्याशयेनाह-मस्थवर्तिन औपशमिकस्येत्यादि । ताशेनेति-छमस्थवतिना क्षायिकेणेत्यर्थः । इयानुतिरिति-ततः क्षायिकमसङ्ख्येयगुणमित्युक्तिरित्यर्थः ॥ ८॥ पूर्व सभ्यदर्शनं सभेदं जिज्ञासितमिति तन्निरूपणं सम्पूर्णरीत्या न समाप्यते तात Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वाविवरणमूढार्थदीविका । न० सू० टी० : १८३ सम्यग्दर्शने या निर्देशादियोजना कृता सा ज्ञानादिवपि कार्यत्यतिदिशति-एवमिति ॥ ८ ॥ सम्यग्दर्शन પરિસમાપ્ય જ્ઞાનં વનતુમવસરગતિ પ્રવચન્નહિ-સમ્યગ્દર્શન, જ્ઞાન વી. મિત્યનેન प्रतिबन्धकजिज्ञासापरामः, वक्ष्याम इत्यनेन पावश्यवा०यत्वं प्रकाशत इति जातमवसरसंगतिशरीरम् ।। सूत्रम् मतिश्रुतावधिमनःपर्याय केवलानि ज्ञानम् ॥१॥९॥ (भाष्यम्)मतिज्ञानं श्रुतशानं अवधिनानं मन पर्यायज्ञान केवलज्ञानमित्येतन्मूलविधानतः पञ्चविधं ज्ञानम् । प्रमेवास्त्वस्य पुरस्तावक्ष्यन्ते ।। । । (यशो० टीका) न पञ्चभि. संभूयक जानमवग्रहादिचतुभिरिव भवतीति सूचनाय केवलानीति पहुवचन, ज्ञानमित्यत्रैकवचनं तु प्रतिज्ञानुरूपत्वात् प्रतिवचनस्य । लक्षणानि चैवं बोध्यानि । द्विषयकजिज्ञासारूपप्रतिवन्धकवलेन न तदुत्तरं ज्ञाननिरूपणं कर्तुं शक्य, तन्निरूपणसमाप्ती चोक्तजिज्ञासारूपप्रतिबन्धकविगमेनातः परं किं वक्तव्यमिति जिज्ञासया तदनन्तरोवित्वेन क्रमायातज्ञाननिरूपणासरः प्राप्त एवेत्यक्सरसङ्गति सङ्गमयन्नाह सम्याद शनं परिसमाप्येत्यादि । अवसरब १०यत्वमिनि-तल्लक्षणावसरसङ्गतिमित्यर्थः । अनेन नवमसूत्रस्यामसूत्रेण सहा सम्बद्धवारका निरस्तेति । नवमसूत्रव्याख्या अवग्रहावायधारणाः १ । १५ । इत्यग्रिमसूत्रस्थावग्रहावायधारणात्मकभेद चतुझ्यशाल्यक मतिज्ञानमित्येवं यथार्थस्तथा मतिश्रुतेत्यादि सूत्रस्य मतिश्रुतावधिमनःपर्यायकेवलात्मकभेदपञ्चकशाल्येकं ज्ञानमिति नार्थः कर्तव्यः, किन्तूक्तमेद पञ्चकेन ज्ञानं पञ्चविधमेवेति सूचनाय केवलानीति बहुवचनमित्याह-न पञ्चभिः सम्भूयकमिति । अत ५५ भाष्ये एकैकं ज्ञानं विभिन्नभेवेति प्रख्यापनाय प्रोक्तम्-मतिज्ञानं श्रुतज्ञानमित्यादि । नन्वेवं तर्हि ज्ञानस्य पञ्चप्रकार पाहुस्वेन ज्ञानानीत्येवं बहुवचनत्यापत्तिरित्याशङ्कायामाह ज्ञानमित्यत्रैकवचनं त्वित्यादि । नं च ' ज्ञानं वक्ष्यामः" इति प्रतिज्ञामनुसृत्य विशेष्यवाचकज्ञानपदोत्तरमकवाचनमभ्युपगत स्यात्तदा विशेषणवाचकमतिश्रुतावधिमनःपर्यायकेवलपदोत्तरमप्येकवचनमेव स्यात्, न हि. फोऽपि व्युत्पन्नो नीलपतिरक्ता घट इति प्रयुडो, विशेष्यविशेषणवाचकपदयोरसति विशेषानुशासने समानवचनकत्वनियमादिति वाच्यम्, प्रकृते विशेषणवाचकपदोत्तर विभक्त्या विशेष्यपाँचकपदोत्तरविभक्तितात्पर्यविषयकत्वसङ्खयाविरुद्धाया वहुत्वसङ्खयाया विवक्षितत्वात् , नीलत्यादिप्रयोगे तु तदभावात् , तथा चाऽत्र यत्र विशेष्यवाचकपदोत्तरविभक्तितात्पर्यविपयस ख्याविरुद्ध सख्याया अविवक्षित तत्र विशेष्यविशेषणवाचकपदयो समानवचनकत्वमिति नियममनुसृत्य बहुवचनमेव युक्तमिति भावः। अथ ज्ञानपदोत्तरसिप्रत्ययार्थस्यैकत्वस्य कुत्रान्वयः, न च समावायसम्बन्धेन ज्ञान इति वाच्यम् , मत्यादिभेदैस्तस्य बहुत्वात् । न च ज्ञानपजाताविति वाच्यम् , ज्ञानमित्यत्र ज्ञानत्वजातनुल्लिख्यमानत्वेन स्वरूपतो ज्ञान५६शक्यता पच्छेदकतयाऽन्वयितावच्छेदकरूपेणानुपस्थितस्तत्र सिप्रत्ययायकत्वस्य पदार्थान्तरस्यन्नियानुपपत्तेरिति चेत्, उच्यते. समाधिः, स्वाश्रयलचसम्बन्धेन सिरत्ययार्थस्यैकत्वस्य पदार्था Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८४ : तत्वाविवायूढार्थदीषिका न० सू० टी० . इन्द्रियानिन्द्रियव्यापारजन्य ज्ञान मतिज्ञानम् , शब्दशतिजन्य ज्ञानं श्रुतज्ञानम् , न्तरस्य सिप्रत्ययप्रकृत्यर्थे ज्ञान एयान्वयस्थीप्रियते, अत एव पदार्थः पदार्थेनान्वेति न तु पदार्थ कदेशेनेति ० त्यतरपि न विरोध इति । इन्द्रियानिन्द्रियव्यापारजन्य ज्ञान सलिज्ञानमिति इन्द्रियव्यापारमनोव्यापारान्यतजन्यं यदवग्रहादिजानं तन्मतिज्ञानमित्यर्थः। तेन ताशयापारोमयाजन्य मनोव्यापारमात्रजन्ये मतिज्ञानात्मके मानसशाने नायाप्तिः, अस्थायस्मविः इन्द्रियत्वावच्छिन्नेन्द्रियनिष्ठकारणतानिरूपितकार्यताशालिज्ञानमिन्द्रियजं मतिज्ञानम् , मनस्त्वावच्छिन्नमनोनिष्ठकारणताशालिज्ञानमनिन्द्रिय मतिज्ञानमिति, तन ज्ञानमा - प्रत्यात्ममनःसंयोगस्य कारणत्वेन तद्रूपमनोव्यापारजन्यमेवेन्द्रियव्यापारजन्यमपि ज्ञानमिति तत्र नोक्तान्यतरवटिनलक्षणं सङ्गतमित्यपि नितम् , असाधारणकारणविधयेन्द्रियस्यैव कार सत्येन तद्व्यापारजन्यमेव तत्, मनसश्वासाधारणकारणविषया कारणत्वं मानसज्ञान एवेनि तद्वयापारजन्यं तदेव, ज्ञानमात्रे मनस्तु साधारणकारणमित्यदोपा, तातपादश्रीयशोविजयोपाध्यायरेतट्टीकाकारैरेव स्वकृतज्ञानार्णव श्रुताननुसारित्वे सतीन्द्रियमनोजन्यं ज्ञानं मतिरिति लक्षणस्योक्तत्वेनात्रापि श्रुताननुमारित्वे सनीति विशेषण देयम् , नातः श्रुतज्ञानस्यापि इन्द्रियमनोजन्यत्वेनोक्तलक्षणेऽतिव्याप्तिः, तस्य श्रुतानुमारित्वादिति । नवागमे श्रुतनिश्रिताश्रुतनिश्रितभेदेन मतिनानं विविधं प्रोक्तं, तत्रावग्रहादिभेदचतुष्टयं श्रुतनिश्रितम् , औत्यातिश्यादिमतिचतुकमश्रुतनिश्रितम् , श्रुतसंस्कारानपेक्षतया सहजत्वात् , तथा च श्रुताननुसारित्वविशिष्टोतलक्षणं लक्ष्यामृतमतिज्ञानकदेशेऽनहादिचतुके न पति इत्यव्याप्तिदोपअस्तत्वान युक्तमिति चेत्, मैवम् , व्यवहार कालात्पूर्व परोपदेशागमग्रन्थात्मकश्रुताऽऽहितसंस्कारमतिकस्य व्यवहार काले श्रुतनिरपेक्ष महादिलक्षणं यानमुपजायते तच्छुतनिश्रितम् , यत्पुनः पूर्व श्रुताऽपरिकर्मित मतेः क्षयोपशमपटीयस्त्वात् औत्पत्तिक्यादिलक्षणमुपजायते तदश्रुतनिश्रितम् , इत्येवं नयोलक्षणे । उक्तत्र भाववामिविशेषावयके-"पु० सुयपरिक म्मिय-मइयस जे संवयं सुयाईयं । तं निस्सियमियरं पुण, अणिस्सियं मइयचउक तं ।। १६९ ।।" इति । तथा च पूर्वकालावच्छिन्नश्रुतपरिकर्मितमतेरेवावग्रहाद यः समुपजायन्त इत्येतावता श्रुतनिश्रितास्ते उच्यन्ते, न पुनव्र्यवहारकाले श्रुतानुसारित्वमेतेष्वस्तीत्युक्तविशेषणस्य व्यवहार कालीनश्रुताननुसारित्वपर्यवसितस्य तत्र भावानोक्ताऽयाप्तिदोषः । अत्र श्रुताननुसारित्वविशिष्टेन्द्रियव्यापारानिन्द्रियव्यापार (ऽन्यतरजन्यज्ञानवृत्तिज्ञानवसाक्षाद्वयाप्यजातिमचं मतिज्ञानत्वमिति पयवसितोऽर्थः । नातो पल्ल्यादीनां नीत्राथमिसर्पणज्ञाने ओघज्ञानसंज्ञके मतिज्ञानावरणश्योपशमविशेषजन्ये च्याप्तिरिति भावः । शब्दशतिजन्य झानं श्रुनज्ञानमिति-साक्षाच्छशक्तिमहजन्यज्ञानवृतिज्ञानत्वसाक्षावयाप्यजातिम श्रुतज्ञानत्यम् , तेनानक्षश्रुतज्ञानादो नाव्याप्तिः, तत्र शशक्तिमहजन्यकामावेऽपि साक्षाच्छन्द - अतिमहजन्यज्ञानारतिज्ञानवसादास्याप्यश्रुतवजातस्सद्भावात् । नापि श्रुतनिश्रितमवि Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 तत्वावि O o .C । ' : १८५ : ____ रूपिमात्रविषयमपविज्ञानम्, ज्ञानादापतिव्याक्षिः, तत्र साक्षाच्छशक्तिजन्यत्वाभावात् । श्रुते सर्वत्र शब्दोपरानपक्ष, २२०६ानुपरागेणार्थावगाहिज्ञानावृत्तिज्ञानत्वसाक्षाद्वयाप्यजातिम वा श्रुतज्ञानस्य लक्षणम् , अवविज्ञानादिकमपि शब्दानुपरागेणार्थावाहि भवतीति नावृत्यन्तमवधिज्ञानवादाविति तहति नातिव्यतिरिति । सर्वत्र श्रुते शब्दोपरागोऽथदर्शनोबुद्धसंस्कारवशादेव इत्येव के प्राहुः । अपरे च श्रुतज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमप्रयोज्य एव सः, अत एवैकेन्द्रियाणां तादृशसंस्कार विरहेऽपि न क्षतिरिति ब्रुवन्ति । अन्ये चाविभासिनि श्रुते समान संविसंवेद्यतयैव पदोपराग इति साङ्गरन्ति । प्रत्यक्षे विद्यमानत्यमित्र श्रुतज्ञाने पदवाच्यत्वं संसर्गतयैव भासते, न तु पूर्ववत्प्रकारनया, अतस्तस्य पदादनुपस्थितत्वेऽपि शादयोधे भानम् , तदेव शब्दोपराग इत्यपि चान्ये बदन्ति । ननु शाब्दज्ञानात्मकं श्रुतज्ञानं नातिरिक्तप्रमात्मकमिति तत्करणस्य श०स्यापि न स्वतन्त्रतया प्रामाण्यम् , किन्त्वनुमानवियर्यव, न च शब्दस्याऽव्याप्यत्वात् कथमनुमानमिति वाच्यम् , एते पदार्थां मिथः संसर्गवन्तः, आकाशादिमापदकदम्बस्मारितत्वात् गामानयेति पदार्थसार्थवदित्यादिदिशाऽनुमानादिति चेत् , उच्यते, श्रुताज्ज्ञातमेतदिति व्यवहारान्ययानुपपत्त्या श्रुतादर्थ प्रत्येमीत्यनुव्यवसायसिद्धं श्रुतज्ञानमपि प्रमाविशेषरूपमेव । यथाहि-अनुमिनामीति श्रिया प्रमा विशेपसिद्धेः प्रमाणान्तरसिद्धि तथा शायामीति धिया प्रभाविशेषसिद्धस्तत्रापि प्रमाणान्तरसिद्धिरत्यूहब, व्याप्त्यादिज्ञानं विनापि शब्दादाहत्यार्थप्रतीतेश्च न तस्यानुमानत्वम् , अत एक "एतेन शाब्दं व्याख्यातम्" ९-२-३ इति वैशेषिकोपस्कारसत्रमपि निमिति दिक। पिमात्रविषयमवधिज्ञानमिति-ननु" मात्र कात्स्न्येऽवधारणे" इत्यमरकोशवचनाद् मात्रपदं कात्स्न्यविधारणामयार्थकम् , कास्य यथा जीवमात्र न हिस्यात, अवधारणे तु पयोमात्र मुक्त, तथा पात्र मात्रपद महिना रूपिपदार्थतरारूपिपदार्थाऽपिपयकत्वं सति निखिलरूपिपदार्थविषयकज्ञानत्वमवधेलक्षणं सिद्धयति, न च तद्युक्त, अवधिज्ञानस्यासङ्खयेयभेद त्वेन जयन्यादितत्तदयधिज्ञानभेदे पूक्तलक्षणाऽसङ्गत्याच्या तेरिति चेत्, भैवम्, रूपिद्रव्यत्वसमनियतविपंयताकज्ञानवृत्तिज्ञानवव्याप्यजातिमत्त्वमविज्ञानत्वमित्येवमनुगतलक्षणकरणेनोक्तदोपाभावात, ज्ञान परमावधिज्ञान " परमोहि असंखिजा, लोकमिता समा असखिजा । रूवाय लहइ सय, सित्तोवर्मिज अगणिजीवा ॥ ४५ ॥" इत्यावश्यकनगायाया स्वाय लहइ सव्य' 11" -: . तथाहि-परमावादमदामन्नसन गाहित्व रूपद्र०यत्वसमानयता n i इत्युक्त . ., - नत्वव्याप्याजात नेतचायाधज्ञान मानवत्तत हात अवघरासद तर रात । उालणघटकाव तापदन तत्तद्धमावच्छिन्नतत्तद्धामान 14 यता ग्राह्या, अतोत्र तेन स्प४विशेषाकारग्रहणं कतव्यम्', नतिः पुला रूपिण इतिशा०९बोधे रूपिद्रव्यत्वसमनियतविपयताकेऽतिव्याप्तिः, अक्तिलक्षणे समनियतत्व तवयाप्यत्वे सति २९ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :१८६ तवार्थविवरणदार्थदीपिका । न० सू० टी० भावमनःपर्यायमात्र साक्षात्कारि मनापर्यायज्ञानम् , तयापकत्वलक्षणं तेन केवलज्ञानीयविषयतायां रूपिद्रव्यत्यव्यापकत्वेऽपि रूपिद्रव्यत्वाभाववत्यरूपिद्रव्यादावपि केवलज्ञानीयविषयतायास्सत्वेन तन तद्वयाप्यत्वाभावान केवलज्ञानेऽतिव्याप्तिः, न वा मनापर्यायाने तिव्याप्तिः, तद्विषयतायां रूपिद्रव्यत्यव्याप्यत्वसत्वेऽपि तथापकपामावात् । यतो व्यापकत्वं तत्सामानाधिकरणात्यन्ताभावप्रतियोगितानवच्छेदकधर्मवत्व, तच्च रूपिद्रव्यत्याधिकरणे मनोद्रव्यभिन्नघटपटादिलक्षणरूपिद्रव्ये विद्यमानस्य मनःपर्याथज्ञानविषयत्वाभावस्य प्रतियोगितावच्छेदकमेव मनःपर्यायज्ञानीयविषयतात्वमिति ताशानवच्छेदधर्मवत्वस्य मनःपर्यायज्ञानीयविषयतायामभावेन तत्र न सङ्गच्छत इति । भावमन:पर्यायमात्रलाक्षात्कारिमनःपर्यायज्ञानमिति-मनो द्विविधं द्रव्यमनो भावमनश्च, तत्र पृथुबुध्नोद राधाकारभावघटकारणत्वान्मृद्रव्यं द्रव्यघटवत् भावमन कारणत्वाद् द्र यमनो मनोवर्गणाः । तदुक्तं वृहट्टीकायां-" तत्र द्रव्यमनो मनोवर्गणा" इति तन्निवृत्यर्थमंत्र भावपदमुपातम्, भावमनस्तु येष्वाकाशप्रदेशेषु स्वात्मप्रदेशा अवगाहारोवेवाकाशप्रदेशेषु स्थिताभ्यो मनोवर्गणाभ्यसंज्ञिनी कार्ययोगेन गृहीत्या मनोयोगेन मनस्त्वेन परिणामितानि यानि तत्तदर्थचिन्तनागुणानि मनोद्रव्याणि तल्लक्षणम् । तदुक्तं बृहट्टीकायां" भावमनस्तु ता एव वर्गणा जीन गृहीताः सत्यो मन्यमानाश्चिन्त्यमाना भविमनोऽभिधीयते " इति । चि. त्यभाना इति मनोयोगेन मनस्त्वेन परिणामिता इत्यर्थो विशेषा१२यकमायटोकायां कृत इति । तस्यैव नानावस्थात्मका ये पाया जीवाजीयादिपदार्थचिन्तनानुगुणाः परिणामाः, न पुनश्चिन्तनीयवायघटादिताः, न वाऽऽकाशस्थमनोवणास्कन्धपर्यायाः, तन्मात्रसाक्षाग्राहक मन पर्यायज्ञानमित्यर्थः, न च द्रव्यमानसो भावमनसश्चैव लक्षणोक्तो " मणपजत्तिनामकम्मोदयओ तजोगे मणोदव्य घेत्तु मणत्तेण परिणामिआ दया दनमणो भणइत्ति, जीवो पुण मणणपरिणामकिरियापनो भावमनो, कि भणियं होइ ? मणदचालवणो जीवरस मणणवावारो भावमणो भण्ण" इति चूर्णिकारवचनेन सह तथा मनस्वपरिणतान कन्धसमूहमयस्य द्रव्यमानसः पर्यायान् न तु भावमनसः, तस्स ज्ञानरूपत्वात् ज्ञानस्य चामूतत्वात् छमस्थस्य चामूर्तविषयाऽयोगादिति विशेषावश्यकभाष्यटीकावचनेन सह च विरोधस्स्यादिति वाच्यम् , अभिप्रायाऽपरिज्ञानात् , तथाहि-न्यवहार नयेन मृद्रव्यमेव घटाकारेण परिणमत इति मृद्रव्यस्य पृथुचुनोदराधाकारपरिणामलक्षणभावधटोपादानकारणत्वाद भावपटापेक्षया द्रव्यघटत्वम् " भूतस्य भाविनोवा भावस्य हि कारणं तु यल्लोके । तद् द्रव्यं तत्वज्ञः सचेतनाचेतनं कथितम्" इति सिद्धान्ते द्रव्यलक्षणोक्तः, पृथुबुध्नोदराधाकारघटस्य च मृद्रव्योपादेयकार्यत्वाद्रव्यापेक्षया भावघटत्वमभ्युपगतम् , निश्चयनयेन त्वस्यापिद्रव्यघटत्वं, घटोपयोगस्यैव वस्तुगत्या भावधटनाम्युपगमात् यथा तथाऽत्रापि यच्वाकाशन Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ વાવિવાળદાયીપિકા ૪૦ ફૂટ ર૦ ૨૮૭: શિષ્યાત્મા ગાઢસ્તસ્ત્રાર્થમનોવબા વ મના પ્રવર્તમાન પરિણામ નવપ્રયોગાત્પરિમા ફતિ તદુપાવાનારગત્યાત્તામાં તપેલાં દ્રવ્યમનસ્વયં દ્રવ્યમામનોવલોપાયાર્યવાહુદ્રવ્યમનોલિયા મનન હોઇ પરિણતમને દ્રવ્યાણ માંવમનસ્વમ્, તેપામેવ માવેન્દ્રિયદ્રિતીય બજાર પોન્દ્રિયાપેલયા તુ દ્રવમન, કક્ષળદ્રવ્યમનોલયા પાનનવ્યાપારય મવમન, ગત તિટ્ટાવ ઝુતજ્ઞાનાથે દ્વિતીયતર “શિષ્ય મવમનો ઓદ્ વર્કિંબનનોગથી નાઘ શરીરવૃત્તિ વાલ્મિનોકનિમિઠાહિક વ્યાવ્યાયાં પ્રથમ વિજ્યો ન , મવમનસ વિન્તાજ્ઞાનપરિણામરૂપી વીવાનન્યો , વવ વ શરીર માત્રવૃત્તિત્વેન તદ્રપાવનામિવ વહિનિમ:સમવાહૂ ! શાહ –“દ્રવં ભાવમળો વા, વણજ્ઞ વીવો જ દેદ મોવમા વેદવ્યાવિત્તળો, ન હવાહૈિં તો ગુત્તો ? ”નેનોમ સાતે તથા ૧ મનુષ્યક્ષેત્રવર્તિiaનવગૃહીત મનોદ્રવ્ય મનરત્વેને પરિણામવય મનોવળાહપદ્રવ્યમનોપેક્ષિયા માવમનવમ્, ઉપયોહામનવ્યાપારાત્મકુંવ્યમાલમનોપેક્ષા તુ તીષ દ્રવ્યમનસત્વનિવાયૅવ મનોદ્રવ્યાપેક્ષેશદ્રવ્યમનામામનહિવાન સિદ્ધાધિકસા, તાવાલિયાણામેવચૈવ વિક્ષિતન વાતોષ્યા , તો વિશેષાવ - મુપ મળોહવા' રૂત્યુત્ત, તત્ર માન્તિાબવાનિ દ્રવ્ય મન દ્રવ્યાયઃ કૃતઃ ? મામનાં મનન્તાબવર્તન મનવપરિતદ્રવ્યત્વેવમુમતે મનોદ્રવ્વપર્વ સમાવિ, સરથયાત્રાને હિ રયાનાં વિવિત્રપતિનવેનાતિનાવિયજવા તત્તપૂજાવાળાં વિક્ષાવશાત્તાત્કામેવાનું દ યામાહો ને કર્તવ્ય ફતિ વિરથ મન પર્યાયજ્ઞાનરૂહલને માત્ર પોપાલાનં વિમર્થમિતિ તિ, હન્યતે, મદ્રવ્યગ્રાષિધિજ્ઞાને વિજ્ઞાને વાતવ્યાણિનિવૃજ્યર્થ, તદુપાવાને ર સા ને, તસ્ય સ્પર્ધા,રસ્થાપિ સાક્ષાત્કારિત્વેન મનો માત્રસાલારામાવાન્ ! ને ૨ મનોપવિશિરિણામપરિળતાનન્તબ્ધમયમનપવિતાનું વાહનવ્યર્થનું મન:પર્યાજ્ઞાન સાક્ષારોતીતિ તસ્ય અને માત્રસાક્ષાત્કારિત્વમસિદ્ધમિતિ વાગ્યમ્, ચેન પ્રમબેન મનઃwયજ્ઞાન સિદ્ધ તેનૈવ મનોદ્રવ્યમાંત્રસાલાવારિતવૈવ સિદ્ધ, નન્હેવું તર્દિ મન પર્યાયજ્ઞાની સંશિનીર્મનસા વિહત વાસ્થવ વિનવ નાનાતિતિ , શાહ નાનાતીતિ, તદ્ધિ વિ વેરિ ? વાચ્છવ, વઘવધિજ્ઞાન યાજ્ઞવા તેના સંક્સિની વ્યક્તિતપ, નો તાર ૬ તત5માવાર્યમવાનું શામિત્રાયવાન શોતિરાખ્યથાનુપિૉરિલેવનનુમાનનારતેવાસી વિનયમૂર્તિ પૂન્યાવામિકાયં નાનાતિ “નામાં જ જિંદુ વળો વિદુ, મુડમાપાટું મારું માથું મેવ ચ તસુવા, મળદ્રવ્યપાસણ વધે છે રૂદ્દ ”તિ ગૃહપમાળવવનાન્ ! યદ્રા મહીમાં પ્રશા વા મુવાર વાશેપવરવં વા તતોષ્ય પુરુષો તુર્મના સુમનો વા કુવન . Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - સર્વાર્થરિવરહાર્થીપિકા | R૦ ૦ જ્ઞાનાન્તરાસારિત વાંધીનુષરિત્યનુનાનેતાન્યાøાપુભોજીતપુલ્પ રદ માનસ મા વેરિ કથા તથા બોદ્રવ્યપરિણામ સ્વરૂઘવનમાવને કા તો મોદ્રાનાશપરિણામન્થથાનુપર નેન સંજ્ઞનેવં તન્માવિવસતુ મૂર્તિનાત્મામૂ વિ%િાતમાdયનુમાન મૂર્નામૂર્તિ પિ યે મનપર્યાવજ્ઞાની , ન તુ સાક્ષાધ્યક્ષતા, તચિત્તે મૂર્તિ પરમાવાલમૂર્તમાત્મા જ્ઞાના િ વન્તિ , ન નેન મુન પયયજ્ઞાનેન સાક્ષd સ્થિતિ, તો જ્ઞાયતે મોદ્રાણાં તથાગ્રસ્થાપિરિબામાન્યથાનુપષત્તિકાનુમાનદેવ - વિન્તર્નવું વરવછતીતિ ! વિશેષાવરમાળે-“ તળાવમાસિક હળ જ્ઞાન વજોગબુમાળuf ” કૃતિ / નર મનોદ્રવ્યપર્યાયમાત્રસાલાયિં મનયજ્ઞાનય ક્ષgમમઝૂત, તરવાર્થવૃદ્દીક્ષા –“ભાવમનસ વધારે વિવિઘા, વઢ વુિં વિન્તયે િમાવે ચામાં જ્ઞાનવમાવોમૂર્તિ જત્ત સુવાલીનામનુમાવતા ફાવયો વિષયાધ્ય વસાયા પરતાં તેઅજ્ઞાનં તેષાં વા યજ્ઞાનં તન્મન:પર્યાવજ્ઞાન”,”ફતિ કલ્ફળ સૂત્વા, તેને રિપિતિ વેત, તે-ત્ર દેવું જ્ઞાનં વાનાં વા જ્ઞાનમાવાવ તેવુ તેષાં ત્યત્ર સન્માષય વા વિષયવાર્થ ત્વમ્, તથા ૨ પરતધ્યવસાયવિયવજ્ઞાનં મન પર્યાયજ્ઞાનાતિ સિદ્ધમ્, અધ્યવસાયે જ જ્ઞાનવાદ્, જ્ઞાન વાત્મપર્યાવાત્તા સાક્ષારિરિરિતિ વાગ્યમ્, મિત્રાયાપારિજ્ઞાના, ત્રીષ્યવસાયપદ્ધ હૃક્ષપાયાSધ્યવસાયનિમિત્ત પછી સમીમિકલ્યોવિયત્વઅર્થ, તથા ર ત ૨ વાધ્યવસાયનિમિત્તમૃતમામ પર્યાયવયમનપયજ્ઞાનામિર્થ સિદ્ધતિ . વાન નાનાવસ્થભમાનના પર્યાયાનાહ નિમિત્તયાખ્યશિર્વાવસ્થ વિનાની પાવ sધ્યવસાય સાત પઢિયકં મન પર્યાયજ્ઞાનમતિ માવા વયે પુરુષી પુત્રપત્રય પિતૃત્વપુવૅન્મનના પરિણામતાનિ વાન દ્રવ્યાપા તન મનાવાહિકમનોજન્યવાદ્રપક્ષી મલિમનોરૂપાળ, મનોદ્રોપષ્ટોત્તાતોથોપારૂમામનોગત્વાક્ષ દાનનો પારવિ મનાવેણાવાયુpદ્રવ્યમીમહાયિતો પૂર્વપ્રણાલ્યા માવનનસsuપદ્રિવ્યમનસ્વહત્વનું, “હમણોપન્ના નાળરૂ પાસ , તાણ અંતે ડ્રાંત વિશે વિરાજમાન સ તથા “જનદ્રષ્ય પર્યાયા, નાનાવસ્થામૂલા હિ તેvi જ્ઞાને ૧૩ મન-યજ્ઞાનમુક્તિ છે ? ”ત દ્રાબશન સહાધ્યત્ર ના વિરોધઃ | तया च सिद्ध मेतद् भावमनःपर्यायग्राहकत्वे सति साक्षात्तद्वयतिरिक्तद्रव्यपर्यायाग्राहक यज्ञान નનના પર્યાયજ્ઞાનમિતિ હિ લેવા પર્થ, જ્ઞાને વૈરવં શાશં દિવેવથતિ : નાનાત્તાતતિ વિષેન મનજ્ઞાનામાના ધામેત્ય | 1“ નમિ છાડ મણિ જાણે તેના વર્ષ ફુવા મુવચનમાં Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थविवरणपूढार्थदीपिका ! द० टी० सविषयं वा केवलज्ञानम् । भाप्ये मूलविधानत इत्यस्य ज्ञानत्वव्याप्योपाधिभिरित्यर्थः । प्रसेदारिमति ज्ञानत्यच्याप्यच्याप्योपाधय इत्यर्थः ॥ ९॥ अथ पुरस्तात् प्रमाणनयैरधिगम इत्युक्ततत्र न ज्ञायते किं प्रमाणमित्यत आहे सूत्रम्-तत्प्रमाणे ॥१॥ १० ॥ (भाप्यम ) तदेतत्पञ्चविधमपि ज्ञानं हे प्रमाणे भवत' परोक्षं प्रत्यक्षञ्च ॥ (यशो०टीका) अत्र प्रमाणत्वं द्वित्वसंरक्या च विधेयेति द्विविधतात्पर्यभुन्नयन्नाह भाप्यकार:तदेतदित्यादि । तच्छ एनदित्यस्यार्थे, पञ्चविधमपि मत्याविज्ञानं द्वे प्रभाणे भवतः प्रमाणं भूत्वा द्वित्वसंध्योपेतमेव भवति । कथमित्याह-परोक्षं प्रत्यक्षं चेति । प्रमाणानां संतामन्येषाभत्रैवातावात्, एतच्चानुपदमेव स्फुटीमविप्यति । अत्रेन्द्रियादिनिमित्तसापेक्षं ज्ञानं परोक्षम् । ततम् । केवलं सकलमित्यर्थमभिप्रेत्याह सर्वविषयं वेति । ननु प्रयमित्यपि ज्ञान प्रमेयत्वेन रूपेण सकलार्थविषयमिति तत्रातिव्याप्तिरिति चेत् , मैवम् , निखिलधर्मप्रकारकत्ये सति निखिलधर्मित्रिगेष्यकं यज्ञानं तत्केवलज्ञानमिति तदर्थत्वेनोक्तातिव्याप्त्यभावात् । न च तथापि प्रमेयवदिति ज्ञानेऽतिव्याप्तिः प्रमेयभूतानां सर्वधर्माणां प्रमयत्वेन रूपेण तत्र प्रकार त्वादिति वाच्यम्, निखिलधर्मनिष्प्रकार तायारसामान्यधर्मानवष्छिन्नत्वेन विशेषणीयत्वात् । केवलदर्शनेऽतियाशिवारणाय सत्यन्तम् । निखिलधर्मिविशेष्यकमिति विशेष्यभागोपादानान पर्यायवाघभिमतप्रतीत्यसमुपाद पन्तानविषयकेनिखिलधर्मप्रकार जानेऽतिव्याप्तिरिति । यह निखिल याकार त्वमेव केवलज्ञानत्वं, न च केवलदुर्शनेऽतिच्यातिः, तत्र निखिलदृश्याकारवत्वस्यैवायुपामादिति ।। ९ ।। दशमभूत्रावतरणिकामाह-अथ पुरस्तादित्यादिना । इन्द्रियानिन्द्रियनिवन्धनस्य सांव्यवहारिकप्रत्यक्षस्थापि इन्द्रियानिन्द्रियसापेक्षोपयोगन्द्रियलक्ष्णात्मव्यापारसम्पाद्यत्वाद् वस्तुतः परोक्षत्वमेव जिनानुगैरभ्युपगतम् , संशयविपर्ययादिभावाच, अनुमानाभासवत् , उक्तश्च विशेषावश्यकभाष्ये " इन्दियमणोणिमित्त, पोवभिहसंसादिभावाओ । तकारणं परोक्ख, जहेह साभासमणुमाणम् ॥ ९३ ॥” इत्यभिप्रायेण परोक्षलक्षणमाह-अत्रेन्द्रियादिनिमित्तसापेक्षं ज्ञानं परोक्षमिति-अत्रादिपदेनानिन्द्रियं मनो ग्राह्यम् , तदुभयमपि द्रव्येन्द्रियं ग्राह्यम्, न तु भावन्द्रियम्, तथा सस्थवधिज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमलक्षपलब्धीन्द्रियात्मव्यापारलक्षणोपयोगेन्द्रियरूपनिमित्तसापेक्षतया अवधिज्ञानादेरपि परोक्षवं स्यात्, द्रव्येन्द्रियग्रहणे त्यधिज्ञानादेः क्षयोपशमविशिष्टात्ममानापेक्षत्येन द्रव्येन्द्रियानपेक्षतया न परोक्षत्वापत्तिरिति । निश्चयतः परोक्षज्ञानेऽपि मुख्यविधयोपयोगेन्द्रियस्यैवा०यवहितकारशस्वेन તત્વ્યવતિ દ્રન્દ્રિયસ્થાપિ ગૌ વારબર્વ ય નનુ દ્રન્દ્રિયસ્થાણુપરન્દ્રિયનિतीन्द्रियभेदेन वैविध्यात् कारणभेदेन कार्यमपि विविधं स्यादिति चेत् , भैवम् , उपकरणेन्द्रि Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १९० तरवार्थविवरदार्थदीपिका । ६० स० टी० तनिरपेक्षं च प्रत्यक्षमिति विभागः । द्विविधेऽपि च प्रत्यक्षपरोक्षरूपज्ञाने यः साकारशिः स प्रमाणव्यपदेशमश्नुते, यथाभिहित “ साकारः प्रत्ययः सर्वो, विमुक्तः संशयादिना । साकारांशपरिच्छेदात् , प्रमाण तन्मनीषिणाम् ॥ १ ॥” इति। केचित्तु सर्व ज्ञानं प्रत्यक्षमेव । मनइन्द्रियजीवप्वक्षशब्दस्य वाचदन्यतराभिमुख्यन च सर्वज्ञानप्रवृत्तः, सावरणानावरणविशेपा भियते। सावरणानां तावदस्मदादीनां त्रित. याभिमुल्येन यथायथं सर्वं ज्ञान प्रत्यक्षमेव, तद्यथा-आत्माभिमुख्येन भयह परागमनाराज्यलाभादि, मनआभिमुख्येन स्मरणप्रत्यभिज्ञानवितर्कविपर्ययनिरिणादि, इन्द्रियाभिमुख्येन रूपादिज्ञानमित्याहुः । एतच्च विशुद्धशदनयाभिप्रायेण युज्यत इति सम्प्रदायविदः, विशुद्धश्च सदनयोऽत्रै भूतो न्यः, तस्य व्यजनार्थतदुभयविशेषकत्वाद्विशेषितं च त्रयमक्षस्य त्रितयत्वप्रदर्शनादिनेति ध्येयम् । यस्य नितीन्द्रियगतशक्तिरूपतया शक्तिमत्वेन रूपेण निवृत्तीन्द्रियस्यैवैकस्य कारणत्वेन कार्थानुकूलशक्तिमान कारणत्वमभ्युपगच्छद्भिरस्माभिरभ्युपगमादिति । तन्निरपेक्षभिति-इन्द्रियादिनिरपेक्षमित्यर्थः, तत्तज्ज्ञानावरणीयकर्मक्षयोपशमक्षयान्यता विशिष्टात्ममात्रजन्यमिति यावत् । न च प्रत्यक्षस्यैवं लक्षणकरणे सांव्यवहारिकप्रत्यक्षेऽच्यातियादिति वाच्यम् , तस्यालक्ष्यत्वात् , तत्रोपचारेच प्रत्यक्षत्यव्यवहारात, न हि वाहीको गोव्यवहारात गौरव, न चेन्द्रियजन्यज्ञानत्वमेव प्रत्यक्षत्वम् , अवध्यादौ तु तदौपचारिकमिति वाच्यम् , लिङ्गाधजन्यत्वे. नाध्यादेः प्रत्यक्षत्वावश्यकत्वात् , प्रत्यक्षपरोक्षातिरिक्तज्ञानस्य चालीकत्वादिति । न यक्षमिन्द्रिय प्रति गतम् कार्यत्वेनाश्रितं यत्तत्प्रत्यक्षम्, तथा चेन्द्रियाधीनतया यदुत्पद्यते तत्प्रत्यक्षमिति , प्रत्यक्षशदव्युत्पत्तिसिद्धमिन्द्रियादिसापेक्षज्ञानत्वमेव प्रत्यक्षलक्षणं मुख्यवृत्या सिद्धयति । अत एव नैयायिका इन्द्रियार्थसन्निकर्पोत्पन्नज्ञानत्वं प्रत्यक्षलक्षणमाहुरिति पूर्वोक्तं न युक्तियुक्त मिति चेत्, उच्यते, भवतु नाम चैवं व्यवहारनयापेक्षातः, न पुननिश्चयनयतः, तदपेक्षया त्वक्षं जीवप्रति साक्षागतमिन्द्रियनिरपेक्षं वर्तते यशानं तत्प्रत्यक्षमिति व्युत्पत्तिभावात्तत्सिद्धमात्ममानसापेक्षज्ञानत्यमेव मुख्यवृत्या प्रत्यक्षलक्षणमिति प्राज्ञनिीयते । नन्वक्षशब्दवाच्यो जीवः कथमिति चेत्, उच्यते, 'अश् भोजने " अश्नातेर्भोजनार्थत्वात् भुजेश्च पालनाभ्यवहारार्थत्वात् , अश्नाति समस्तत्रिभुवनान्तर्वतिनो देवलोकसमृद्धयादीनान् पालयति भुङ्क्ते वेत्यक्षो जीवः । " यदि वा अशोद व्याप्तौ" अश्नुते ज्ञानेन व्यामोति सनि ज्ञेयानिति अक्षः-जीवः । उभयत्राप्योणादिका सक्प्रत्यय इति, विशेषावश्यकभाष्ये चोक्तम्-" जीवो अक्खो अथवावण-भीषणगुणणिओ जेण । तं पद पट्टइ नाणं, जं पञ्चवं तयं तिविहं ॥ ८९ ॥” इति ॥ व्यावहारिकप्रत्यक्षपारमार्थिकप्रत्यक्षगत स्पष्टत्ववयस्य स्पष्टतात्वनानुगतीकृत्य व्यवहारनिश्चयप्रत्यक्षसाधारणमनुगतलक्षणं तु स्पसत्यवत्वमेव नातोऽवधिज्ञानादौ मतिज्ञाने चाव्याप्तिरिति । शब्दनयो हि साम्प्रतसमभिरूढयम्भूतभेदैत्रिविध इति प्रकृते शदनयग्रायः को नय इत्याशकायामाह-विशुद्धश्च शब्दनयोऽनप भूतो दृष्टय इति । विशुद्धशदनयपदेनैव भूतनयस्यैव ग्राह्यत्वे हेतुमाह-तस्य व्यञ्जनार्थतदुभयविशेषकत्वादिति व्यञ्जनं चार्थश्व Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ વાર્થનિવળમૂઢાર્થેટીપિૉર્૦ સ્ક્રૂટી : ×× : માળ સવિલમાહ મનાયીસદ્ધસેનોઽષે માત્ર માદશા માન્ય ખ્યામં તુ સ્વયંદેશામ્ । મચયારેય તજજ્ઞયતઃ ॥॥ "વ્હેવયમ્' અર્થેય, શ્રુતઃ તાળવાન્ । અત્યંત પામ્યતે રિ∞િયતેઽક્ષેષેત્સર્ચ તિ શ્રુત્વવ્યાઽચૈયારિત્યર્થઃ । ચઢિ શ્વ સંમનામિાયે પ્રત્યક્ષસ્ત્ય જ્ઞાતિબ્બતે, તાપિ સા સર્વજ્ઞાનવ્રુત્તિઃ સ્વીgનુચિતા, મિતિમાતૃપ્રત્યક્ષાનુરોધાત્, પરાક્ષત્વ તુ વિષયાશે સ્પિતમૌપાધિવાત્ત્વમેવ | દ્વિષયત્નાવત્ઝેવેન જ્ઞાનનન્યભં સક્રિયત્નાવત્ઝેવેન પરોક્ષામસ્ત્યાપિ વર્ષામ 44 ન્યજ્ઞનાથો તો હૈં તદ્રુમયં ચ ન્યજ્ઞનાર્યતતુમયું, દેશેષતિ-નૈયત્યેન સ્થાયીતિ વ્યજ્ઞનાર્થસહુમવિશેષ, તસ્ય માવસ્તત્ત્વ સન્માદ્રિત્યર્થઃ । હાં ચ વિશેષાવનિયુક્ત્તૌ−યંના બચ સરુમય, સ્થં મૂળો વિસેસેક્ । '' ૨૨૮ । તિ । તાવળે માર્ ધમુદ્દિશ્ય જૈવલ્ ૮૮ ચૈનળબહેબર્ત્ય જ્ વનળોમથં વિસેસેફ નન્હેં ધહસદું ચઢ્ઢાવ્યા તેંદ્દા તાપે તેણેવ ’’ ।। રરખરો તથૈયાયનું અન્યતેજ નેનેતિ બન્નેનું રાષવા શબ્દો ધાદ્દિશસ્ત્ર, સં ચેષ્ટાવđતદ્વાજ્યનાથૅન વા(નાંદે, સ વ વસ્ત્રો શ્વેદાન્તમર્થં પ્રતિપાતિ, નાન્યમ્, વ્યેવું મિર્જેન નૈયત્યેન વ્યવસ્થાપાંત । તથા, થેમપ્લુરુક્ષળાંતિદ્વેગ થાનેન વિશેષઅંતે, ચેષ્ટાના સૈવ થા ઘટનુવાપત્યેન સિદ્ધા યોવન્મક્તાહસ્ય વસ્ય મહારાદ્રિશિયાળા, મૈં તુ સ્થાનમરળાયાત્મિત્યેવમય શવ્હેન નૈયત્યેના વ્યવસ્થાપયતીત્યર્થ, વજ્જુમ વિશેષયાંત, શબ્દમર્થન, અર્થ તુ શબ્દેન નૈસ્પેન સ્થાયીત્યર્થઃ । તલેવા-‘નદ યહસવું ' ાત્ । મત્ર હચમ્—વવા યોન્મિતા હશ્રેષ્ઠાવાનશેં ધટતુંનોઅંતે તા સ ધદ્ધક્ષળોર્થ:, સ ૨ તદ્દાદ્દો દ્રાવ્, અન્યતા તુ વનવન્તરત્યેવ ચેષ્ટામાવાવ્યતત્ત્વ યદ્રધ્વનેચાયાષવમ્, “ શવશાવામિત્રેયનમિષયવશાય શબ્દઃ ” સ્પુષોનપરચાવેવëતનયસ્ય, વક્રમવિશેષધ મૂત ાંત, તપ નયબળે વવેચિત્તે । અભિતિ-ત્રીજ્મનન્દ્રિયજ્ઞીવાનમિાંમત્રિ, ત્રિયામમુલ્યેનત્યર્થઃ ।ત્ર ‘ રુક્ષોનામપ્રતી ગામિમુલ્યે ' ાંત પાપિનીયન્નેળાથીમાવસમાસઃ । માતૃŕાયાનામ્ | માન્યં વિલ્પનીયમ્ । અભ્યાત્મમિતિ-ગાત્માનમમાંત વિગ્રહેળો ઋદ્વેળાયીમાટે અનશ્રૃતિ જ્ઞેળ સમાતા પ્રત્યયે ‘ હૂંતે ’ ાંત સ્ક્વેળા નત્યસ્ય ટેીપે સ્વાત્મામાંત, આત્માના મમુલીનૃત્યેત્યયેઃ । સ્વયંદ્રશામિતિ વયમેવાત્ખનવ પશ્યતિ સ્વયંકુશ તેષામ્, અનાવરળસૃષ્ટીના મતિ થાવત્ । સર્વજ્ઞાનવૃત્તિ પ્રત્યક્ષત્વ જ્ઞત્યમ્યુષાને ચૈતુમ દ મિતિમાતૃપ્રત્યજ્ઞાનુરોધાવિતિ સન્માનને વેવાન્તર્ગે જ્ઞાનમાત્ર સ્વબાશીમતિ વ્યવસાયસ્વાનુવ્યવસાયવઘેન દિત્રત્યક્ષજ્ઞાનમય ચૈત્યમિત્યવિજ્ઞાનમાંપે ત્યાંશે પ્રમાભ્રંશે પ પ્રત્યક્ષાાંત તનવિથૅ / અમિતાઁ નિતિમા વષયાન્ઝેવેન પરામર્શાત્મજ્ઞાનઅન્યત્યં નેતિ તવંશે પ્રત્યક્ષરૂં, પક્ષસાધ્યાય વલ્ઝેવેન પરામર્શનન્યાત્તવંશે પરોક્ષત્વમિપિ જ્ઞ = વસ્તું રામા-દ્રિયાવ છેતેનેાવિ અશષ્યત્વે હેતુનાદ્ ગદું Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थविवरणदार्थदीपिका । द० सू० टी० शक्यत्वात् , अहं ज्ञानवान् सुखमयादित्यादौ मितिमात्रंशेऽपि तदापत्तः । विशदाविशदमायन प्रत्यक्षपरोनविषयविभागैकान्तोऽपि न युक्तः । परोक्षस्थलेऽपि ज्ञानावच्छेदकतया विषयस्य विशदत्वात् । तदादुरन्येऽपि सर्व वस्तु ज्ञानतयाऽज्ञानतया वा साक्षिप्रत्यक्षविषय इति, सर्वप्रकारेण विगदत्वं तु न स्तम्भादावपि, परमानायवच्छेदेनातथात्वात् । ज्ञानानवच्छेदकतया विषयस्य विशदाविशदभावो विभाजक इत्यपि वार्तन, व्यवसायानुव्यवसायोमयस्वभावस्वप्रकाशज्ञानानीकारे ज्ञानस्य विषयावच्छिन्नत्यत्रौव्यात् । परिणामेन झान बानित्यादि । अहं ज्ञानयानित्यनुमितो प्रमातुरेव पक्षत्येन ज्ञानस्यैव च साध्यत्वेन तद्वियस्वत्य परामर्शजन्यतावच्छेदकत्वेन परोक्षवापत्या तदंशे प्रत्यक्षत्वं न स्यात् , एचञ्चज्ञानमात्रय मिनिमात्रशे प्रत्यक्षत्वमित्युच्छेद स्यादिति भावः । तदापत्तरिति-परोक्षत्वापतेरित्यर्थः । अयुक्तत्वे हेतुमाह-परोक्षस्थलेऽपीति। ज्ञानांवच्छेदकलयेति-विषयितासम्बन्धेन तद्विशेषणनवेत्यर्थः । विषयस्य विशवत्वादिनि सर्वज्ञानस्य प्रत्यक्षत्वात्परोक्षार्थस्यापि प्रत्यक्षत्वेन विशदत्यादित्यर्थः । तथा च प्रत्यक्षविपयस्येव परोक्षविषयस्याप्युक्तनीत्या विशदत्वेन विशदाविशदमावस्यवाभावान्न स प्रत्यक्षपरोक्षविभाजक इति भावः । अन्यऽपि-दान्तिनोऽपि, ज्ञाननयनि-ज्ञानविषयतयेत्यर्थः, अज्ञाततयेति-अविद्याविषयतयेत्यर्थः । साक्षिप्रत्यक्षविषय इति-अन्त:करणावच्छिन्नचैतन्यं प्रमात चैतन्यम् , अन्त:करणोपलक्षितचैतन्यं साक्षिचैतन्य, यद्यपि चक्षुरादिनाऽपि यत्प्रत्यक्षम्भवति तदपि साक्षिणेव, न हि साक्षिणमन्तरेण कस्यापि प्रत्यक्षम् , तथापि इन्द्रियादिव्यापारमा तारेण यत्प्रत्यक्षम्भवति तत्साक्षिप्रत्यक्षमभिमतम् , अयं पटोऽयं ५८ इत्यादिवृत्तश्चक्षुरादिव्यापारजनितत्वात्तदवच्छिनचैतन्यलक्षणप्रत्यक्षमिन्द्रियादिजन्य प्रत्यक्षं, वृत्याचा कारवृत्तिश्च नेन्द्रियादिना जन्यते, किन्त्यविधयेव, तद वच्छिनचेतन्यलक्षणप्रत्यक्षं साक्षिप्रत्यक्षम्, तद्विपयो वृत्तिः सुखादिकं च साक्षिप्रत्यक्षविपर्यः, एवमुक्तवृत्तिविषयतालक्षणज्ञातताऽपि साक्षिप्रत्यक्षविषय एवं तथा बटादिकमपि साक्षिप्रत्यक्षविषयः, एवं यदा बटादो न चक्षुरादिव्यापारक्तदाऽपि बटोऽविद्यात्मकाज्ञानविषयत्पाद ज्ञातस्तदानीमज्ञाततारूपेणाविद्यावृत्तिस्तंत्र तस्यास्साक्षिण भानमिति अज्ञाततया वादिरपि सांक्षिप्रत्यक्षविपयः, साक्षिप्रत्यक्षवलादेव चैतावन्तं कालं पटोऽज्ञातो मयेत्यवभासः, शुक्तिरंजतादिकमपि प्रातिमासिकं साक्षिप्रत्यक्षविषय एवेत्यर्थः । अत्यात्वादिति-प्रत्यक्षाभायनाविशदत्वादित्यर्थः। ज्ञानानवच्छेदकतयेति-ज्ञानावच्छेदकत्वविवक्षामन्तरेणं, स्वस्वर पणेति यावत् । वार्तम्-तुच्छम् , पर्तित्वे हेतुमाह-व्यवसायेत्यादिना। क्रमेणवायं घटों घटमहं जानामीति ज्ञानद्वयं समुत्पयते, यच्च व्यवसायोऽनुव्यवसायादभिन्न इत्युच्यते तत्वज्ञानस्य व्यवसायस्योत्तरानुव्यवसायज्ञानरूपेण परिणमनात् , तथा च व्यवसाय विपर्यस्य ज्ञाननियच्छदकलयेवं भानमिति स्वस्वसामग्रीतो विशदरूणाऽविशदरूपेण वात्पन्नत्वादेव विशदाविशंदविभाग इति न तदप्रसिद्धिरित्याशङ्कते परिणामेनेत्यादि । व्यवसायस्यानु०यनमायस्पलेंनी पादाद व्यवसायऽपि निपयस्य ज्ञानात छेदकतयन मानमिति ज्ञानानछेदकरया Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તાવિવાદાર્થવિજ 1 go જૂ૦ ટી. : ૨૨૩ : વસોયાનુક્યવસાયોમચૈત્વેડપિ મિજાજરમેવો નાનુપપન ત વે , 7 અનુચવાયતત્વેનૈવાપાયસ્ય નિશ્ચયવસિદ્ધ, અન્યથાડનનુરાસિતનજ્ઞાનતુત્યતાબા ૨ નિશ્ચિતપ્રામાળવાવન્યતિરાવવું નામ, અતધામયોહૅિક્રિયતુલ્યવહેવાશિત્વચૂવારા, અનુમિતિdવીનાં માનસરવવ્યાખ્યત્વન ૨ બુતરા પ્રત્યક્ષેખમાળ સામ્રાજ્યમ્, પ્રણામેવાસાવે પ્રમાણમેવાસિદ્ધ, જ્ઞાનાદ્વૈતનચે વ સ્વીકારત્વે વિધ્યારિસ્થ સ્વતઃ કાશવામ્પ્રત્યક્ષમાત્ર પ્રમાણમ્, સ્ત્રવ્યવહાર રૂવ વિષયવ્યવહાડપિ સંવિદ્વત્તાનક્ષત્વેન પ્રત્યક્ષત્વવિશેષાહિત્યન્દ્રિયો નયસુઘોર્મય. પરિનિયા નિતૈિ || ૨૦ | મથામવાની વિવે નાવદ્યુતઃ પવિધક્ષ્ય મથે કિં પરોક્ષે દિવા પ્રત્યક્ષમતિ તદ્ધિવેજાવવાછાયાદેં સૂત્રમ્ માથે પરોક્ષમ છે ? ?? (મમ્) aો મવમાદ્યમ્ આ સૂત્રમામાથાત્ કથાદ્ધિતીથે રાતિ / તવા __ मतिज्ञानश्रुतक्षाने परोक्षं प्रमाणं भवतः । फुत ?-निमित्तापेक्षत्वात् । अपायसद्व्यतया मतिः જ્ઞાનમ્ તથિાનિથિ નિમિત્તપતિ વસે છે તપૂર્વશરવાઘનત્વાં છતાન ! (યશોલ્ટીવા) વિમર્થમાનોનારણક્ષણ દ્વૈતાનધિશ્વરક્ષણવૃત્યુષારવિષયો મુત્રમાર્ચ, મૌર્ષ ૨ तदव्यवहितोत्तरक्षणकृत्युपचारस्तत आद्यं पाद्यं चेत्येकशेषाद् द्विवचनम् । इत्थं च आदौ भवमाचं વિષયમાવાઝસિદ્ધિોવેલ્યાશન સમાઇ-કનુભવનિતનિત્યારે-૩પદ્યમાન સTયાત્મવ્યવસાયજ્ઞાનમનુવ્યવસાયાત્મવત તિ dય નિશ્ચયાત્મવૈવ સિરિત્યર્થ ! તવનવુમે હદમાહ-જન્યતિ | મનસુવ્યવસિતમેવ યાનિ નક્કે તનુત્યતાબા , ત૬ યથા જ નિશ્ચિતમનબુવ્યવસિતવાવ, તથા પૂર્વોત્તરજ્ઞાનયોવાસ્તુપમ પૂર્વોત્પન્ન વ્યવસાયજ્ઞાનવિ જ નિર્તિ સ્થાવ, વેલડનનુવ્યવસિાત્વાતિ માવા તથાભૂતયોરિતિઅનિશ્ચિતત્રામાખ્યોરિત્યર્થ. ૨૦ જ્ઞાનું વિધમિતિ વિજ્ઞાસાયાં નવમવેદ જ્ઞાન વિધામતિ નિર્ણત, જૈનમતિ પ્રમાણે તિવિધીમતિ વિજ્ઞાસાયાં વશમલા પરોક્ષે ક્ષતિ પ્રમાણવિષ્ય સામાન્યતગત न च तथापि पञ्चविधज्ञानस्य मध्ये कतिसङ्खयकं किं परोक्षं कतिसङ्ख्यकं किञ्च प्रत्यक्षमिति નિતામતિ વિજ્ઞાસામૂરિજાનવતરશાશ્વત્રવાહ કયમિરાનીમિયાના ! ચાવૌ મવમાઘ, વાઘડ્યાઘડ્યાઘે દ્વિવયે વિશ્વનાથવા વિષેનાઘદ્વયે પરોક્ષ માંછત્વવિધાનમ્ “ સાથે પરોક્ષમ્” તિ સૂળ શાત, દ્ધિત્વવચ્છિનાઘવચ્ચે પડ્યજ્ઞાન મળે મતિજ્ઞાનવ્રુતજ્ઞાનયોતિ મતિજ્ઞાનં શ્રુતજ્ઞાનમય પરોક્ષમાળામિતિ સિદ્ધ યાંતુ વિશે મતિજ્ઞાને પુથમાઘë યુતજ્ઞાને ૨ નૌગણ, થે તાત્યાગદ્દાય તર્જક્ષણમાંહ-વિમકયમનેવિ-વિમળ્યમાને પરોક્ષતયા વિમા વાળી મતિશ્રુતજ્ઞાને, તદુખ્યારબક્ષણ આઘક્ષણ, તર્ધ્વતાધિવાળલળો દ્વિતીયદ્રિક્ષણ, નરપક્ષના પ્રથમક્ષ જવ તલૂજ્યવાર મતિજ્ઞાનસ્ય, દ્વિષયો મતિજ્ઞાનતિ તવ મુરબ્ધમાઘ તહવ્યવાહિતોત્તરક્ષાવત્ર તદ્રવ્યવદિત રક્ષણવં તળવંતાધિકારપક્ષપર્વાસાનધિશર વચ્ચે સતિ તૈક્ષળબંસ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । १६८ : तपार्थविवरणागूढार्थदीपिका । ए० सू० टी० दिनादित्वान् यदिति व्युत्पत्तिरपि विवक्षावशा न्नासंभविता, उक्तविवक्षया द्वयोरपि तदर्थान्वयात् , तदाहआधे मिश्रामाण्यात प्रथमद्वितीये शास्ति, सूत्रक्रमो मतिश्रुतेत्यादिसूत्रस्थोच्चारणानुपूर्वी .. तत्प्रामाण्यं तदवाधितत्व तस्मात्तदाश्रित्य तद्विवक्षयेत्यर्थः, प्रथमद्वितीये आभिनिवोधिकश्रुते शास्त्युपदिगानि ग्रन्थकार. सूत्र कारभाष्यकारपायमेदादित्थमुक्ति । मतिश्रुतयोः परोक्षत्वे हेतुं आते । कुत इति, ' उत्तरमाह-निमित्तापेक्षत्वादिति । भतिश्रुते परोक्षे निमित्तापेक्षत्वाद् धूमादग्निज्ञानवदिति प्रयोगः । अवविज्ञानमनःपर्याययोरान्तर क्षयोपशमम् , केवलस्य चावरणक्षयम् , त्रयाणामपि बाह्यं च विषय निमित्तमपेक्ष्योत्पद्यमानत्वाद् व्यभिचारमाशय निमित्तापेक्षत्वादिति हेतोरिन्द्रियांपेक्षत्वादित्यर्थ. फत०५ इत्यभिप्रायबानाह । अपायसद्य तया मतिज्ञान, धर्मित्वेनोपात्तं यन्मतिज्ञानं तदपायो निश्चय , मद्रयाणि च शुद्धढलिकानि तत्तया तद्भावन, सद्रव्यानुगतोऽपायो धमित्वनोपात्त इत्यर्थ. । धिकरणत्यम् , तत्पदेन मतिज्ञानम् , तत्क्षणः-आचक्षणः, तद्ध्वंसाधिकरणक्षणों द्वितीयक्षणः, तध्वंसस्याधिकरणं तृतीयक्षणादि, अनधिकरणं द्वितीयक्षण इत्र प्रथमक्षणोऽपीति तनिवारणाय तत्क्षणध्वंसाधिकरणत्वरूपविशेष्यदलम् , तथा च द्वितीयक्षण एव तदव्यवहितोत्तरक्षण इति तवृत्तिश्रुतज्ञान, तस्मिन्नावत्यस्योपचारो मतिज्ञानसदृशमलिका लक्षणेत्यर्थः । दिगादित्याद् दिगादिगणपठितत्वात् । दिशादिभ्यो यदिति सूत्रेण यत्प्रत्यये सति " यस्येति च” इति सूत्रेणेकारलोपे आचं सिद्धं भवति । उक्तविवक्षया-विभज्यमानेत्यादिविवःया । द्वयोरपिमतिज्ञानश्रुतज्ञानयोरपि । तदर्थान्वयात् आधशदार्थस्य घटमानत्वात् । ननु य एव भूलकास एवं भाष्यकार इत्युपदिशतीत्यर्थशास्तीत्ययुक्तमुक्तं, परात्मन्येव तथाप्रयोमादित्याशङ्कायामाह- - सूत्रकारभाष्यकारपर्यायभेदादित्यमुतिरिति- ' तथा 'च भावकारपर्यायापेक्षया सूत्रकारपर्यायस्य परत्वात्तत्र शास्तीति प्रयोगो युक्त एवेति । ननु मतिज्ञानश्रुतज्ञाने परोक्षप्रमाणे निमित्तापेक्षवादित्यनुमान मतिज्ञानं परोक्षं निमित्तापेक्षत्वात् , श्रुतज्ञानं परोक्षं निमित्तापेक्षत्वादित्येवं रूपं पर्यवस्यति । तत्र मतिज्ञानत्वरूपपक्षतावच्छेदकावच्छेदेन साध्यत्वेऽवग्रहयोरपि मतित्वेन तद्र पपक्षकदेशे मिथ्यादृष्टयपाये च-परोक्षप्रमाणत्वाभावनिश्चयात् सामानाधिकरण्येन पावनिश्चयरूपस्य तस्यावच्छेदकावच्छेदनानुमिति प्रति प्रतिबन्धकायेन मतिज्ञानं परोक्षप्रमाणमित्यनुमितिर्न स्थादित्याशङ्काया पक्षविशेषणमाह-अपायसद्य तया मतिज्ञानमिति-न सर्वेव मतिः पक्षीक्रियते, किन्तु सद्रव्यानुगतापायत्वविशिष्टैव, तत्र च परोक्षप्रमाणत्वसाध्यं विद्यत एवेति नोक्तसामानाधिकरज्येन बाधः । यथा सत् गुणवत् क्रियायवाद् यादिवदित्यनुमाने समावच्छेदेन गुणवत्व । साध्ये पक्षकदेशे गुणे कर्मणि च गुणवत्वसाध्याभावनिश्चयात्तस्य चाबच्छेदकावच्छेदेनानु. मितिप्रतिवन्धकरवात -पक्षतावच्छेदकावच्छेदनानुमितिौदेतीति सद्रपपक्षे गुणकर्मान्यत्वे सतीति विशेषणप्रक्षेप यथा निरुक्तबाधो न भवतीति तत्रानुमितिनिरावाधा तथा प्रकृतेऽपीति Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थविवरणमूढार्थदीपिका । ए० म०टी० मिथ्याय पायव्यवच्छेदाय सद्रव्यानुगत इति विशेषणम् , विशेप्यालेनावग्रहहयोरनिश्चितयोव्र्यव छेदः । क्षीणदर्शनसप्तकस्य तु केवल एवापायांशोऽर्थतो ग्राह्यः। यथाऽपायश्चापायश्चापायौ सद्रव्यं च, सद्यं च सद्रव्ये । अपायौ च सद्रव्ये चापायसद्याणि तेषां भावस्तयेत्येकशेपादुमयसङ्ग्रहः । अक्षीणदशनसप्तावस्थायामपायसद्व्ययोः क्षीणदर्शनसप्तकावस्थायां चापायरूपस्य सद्द्रव्यस्य तत्परिणतशुभात्मस्पस्य समन्वयात् । एवं श्रुतज्ञानस्याप्यपायांशः प्रमाणयितव्य इति. टीकाकृतः । स च पदार्थमहावाक्यानुसन्धानोत्तरभावी महावाक्यार्थपरामर्श ऐदंपर्यार्थपरामर्शो. पेति यमनुपश्यामः, अपश्चितमेतद् ज्ञानविन्दौ । व्यभिचारोद्धारकहेतुपर्यवसानार्थमाह तदित्यादि। तन्मतिज्ञान, इन्द्रियाणि श्रोत्रादीनि, अनिन्द्रिय मन ओवज्ञानं च, तानि निमित्तं यस्य तत्तथा । न ही.. न्द्रियाण्यनिन्द्रियं च विरह य तस्य ज्ञानस्य संभयोऽस्ति । तथा च निमित्तापेक्षत्वादित्यत्र निमित्तमिन्द्रियरूपं विवक्षितं मयेतीन्द्रियनिमित्तत्वादिति हेतूकरणे न कोऽपि दोप इति भावः । श्रुतज्ञानस्यापीन्द्रियनिमि वापरोक्षत्व मिद्धयत्येव । तथापि निमित्तभूयस्त्वेनाम्युच्चयमाह पूर्वकत्वादिति, तन्मतिज्ञानं पूर्व पूरक पालकं यस्य तस्य भावस्तत्वं तस्मात्, भवति हि भतिज्ञानं श्रुतज्ञानस्य पूरकं पालकं च, मत्युकर्षण श्रुतोकान यावन्मतिस्तावच्छ्तावस्थितेच, परोपदेशस्तीर्थकरादिवचनं, तज्जत्वाच्च श्रुतज्ञानं परोक्षम् । भाः । मिथ्यादृष्ट्यपायव्यवच्छेदाय-मिथ्यादृष्टयपाये पक्षतावच्छेदकनिरासाय । व्यवच्छेदः-पक्षतावच्छेदकन्यवच्छेदः । तथा च मिथ्यादृष्टयपायस्यावग्रहहयोश्च पक्षतावच्छेदकानाक्रान्तत्वान्न तत्र परीक्षप्रमाणत्वरूपसाध्यस्थामावनिश्चयेऽपि वाध इति भावः । स्वरूपासिद्धिदोपनियत्यर्थमाह-न हीन्द्रियाणीति । न कोऽपि दोष इति-निमित्तापेक्षत्वादित्येतावन्माअहेतु करणेऽवधिज्ञानादित्रयमपि निमित्तापेक्षमेवोत्पयत इति तत्रोक्तहेतुर्वर्तते, न च परोक्षयसाध्यमिति यो व्यभिचारः प्रदर्शितसोऽपि नेत्यर्थः । तत्पूर्वकत्वादिति-यभाष्ये प्रोक्तं तत्' "महपुवर्ग सुयं ' इत्यागमवचनमनुसृत्यैव, पू पालनपुरणयोरिति जुहोत्यादिगणपठितधातोः पिपत्तीति विग्रहं कृत्वा पूर्वमितिरूपं निपातनात् सिद्धयति, ततश्च पूर्व पूफिरूपं पालकर पञ्चेति विविधमिति तदुमयार्थकपूर्वशतवाटितसमासमाह-तन्मतिज्ञानं पूर्व पूरकमित्यादि । मतिज्ञानं श्रुतज्ञानस्य कथं पूरकमित्याशङ्कायां हेतुमाह-मत्युत्कर्षेण श्रुतोत्कर्षादितिअनुप्रेक्षादिकालेऽभ्यूहनाच्छ्तपर्यायवृद्धिर्भवतीत्यनुप्रेक्षादिकालीनोहादिलक्षणमतिज्ञानपाटवविभवप्रकर्षण श्रुतज्ञानपटुताविभवप्रकादित्यर्थः । पालने हेतुमाह यावन्मतितावच्छ्तावस्थितेश्च । गुर्वादिगृहीतं सच्छुतज्ञानं परविर्तन-चिन्तनद्वारेण मत्यैव पाल्यते स्थिरीक्रियते भत्यभावे तद्गृहीतमपि प्रणायेदेव, यदाह भाष्यकार:-"पुरिजइ पाविजइ, दिजइ वा जं मईए नाऽमइणा | पालिलइ य मईए, गहियं इहरा पणस्सेजा॥१०६॥" । इति । तथा च यावत्कालमवि‘मृत्यनुकूलपरावर्तन चिन्तनलक्षण-धारणाच्यापाररूपमतिज्ञानं तावत्कालं श्रुतज्ञानावस्थितेरित्यर्थः । श्रुतज्ञानं परोक्षं परोपदेशजत्वात् परार्थानुमानवदित्यनुमानेनापि श्रुतज्ञानस्य परोक्षत्वमित्यत्र हेत्वर्थमाह परोपदेशस्तीर्थकरादिवचनम्, तज्जत्वाच्चेति । नन्वन ... Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જાહેરાદૂહાર્થીપિt g૦ રૂટી ૨૪ જાનુમાનાવિદાન્ત વાળા નનુ મતિજ્ઞાને પરોક્ષ, યિાપેક્ષવાન્ મનિસાનવહિત્યત્ર હેતુરિશ્વો દદાત્તોડનુમરિયાક્ષિત્નસિક પ્રસિદ્વાનુમાને શુરાધન્વય તિરાનુવિધાના હેતુ શાન ઉઘણીબવાત , કન્યાક્ષાત્કારત્વસ્વૈશ્વિયનચતાવચ્છેદ્રવિતિ , 7, ફન્દ્રિયનન્યત-એઋોટૌ નાનાવિધનન્યત્વનવેરા પેન્દિયત્વચૈવ નિવેશચતુર્વિતતાત્, શેન્દ્રિય ર ાને કન્યાપારસાન્વેનેન્દ્રિયસ્ય હેતુ હેતુનાનાવિપક્ષયાયોતિ, 7 િબ્દો ધટે પ્રખ્યાહિનો પીળો નતિ ! અનુમિનોમિ ને સાક્ષાત્કરોમીતિ પ્રત્યયg વિધ્યતાવિશેષાધીનો ૧ તિક્રિયાનખ્યત્વનિ, પર્વતાંડવે તબલજ્ઞાત ! પિકતિ હેતુર્માદ્ધિ -તથા શ્રુતજ્ઞાનં સર્વમાપ મૂમેવાપયા દ્વિવિધ, જાતિ પરાશરમુ, તાદ્ય પ્રત્યેવૃદ્ધાનાં પાનુસારપ્રજ્ઞાનાં વાં, દ્વિતીયા - ઉના વમિહિર્ત પૃહસ્પષ્ય–“ તં પુજન સમાતિસમુહ્યું, પરોવહેલા ૨ સર્વાલિ છે ૪૨ ” કૃતિ ! તેથી જ પ્રત્યેવૃદ્ધાનાં શ્રુતજ્ઞાનસ્ય (વત વ નાયમાનવેને પક્ષાત્તિને તત્ર હતોરમાવતિ જેત, શ્રવણ, તદ્ધિત્વેન ઘક્ષા વિરોળીયસ્વાત, શત થવા વિપશ્યનાખે “પણ વરાહીમાં, વિશ્વ પરપોરય !” ૮૨૬ / સુત્ર પ્રત્યેવૃદ્ધાવીનાં શ્રુતત્ય સ્વયમેવ માવાયબ્ધાર્થ પ્રાયોગ્રફળામિત્યુત્તે સદ્છતા હેતુજ્ઞાન પ્રશ્નાવતિ-વલ્લુરાઘન્તવ્યતિરેજાનુવિધાના ધૂમાદ્રિતત્રત્યક્ષજ્ઞાનોત્પાદનમીત્રએવ પમિતિ તદુપત્તૌ સત્યાં સિદ્ધaહત્વેન તિર્થવોહિત્ય | વન્યસાક્ષાત્કારત્યાવાચ્છન્ન પ્રતીન્દ્રિયત્વેનેન્દ્રિય પરત્વતિ બ્રાજારામાવવાન્યાહન સાક્ષારિત્વ તિ- પત્ર નન્યત્વવશેષણવીશ્વર સાક્ષાન્નિારે વ્યતિરામિવારવારવત્તિામતિ રામાવવિશિત્વહક્ષમાં શ્વસવિશેષરૂપથવા બાકસતા વક્ષામથવા તનિષ્ઠાન્યથાસિયનિરૂપા લતિ તદ્દવ્યવાહિતોત્તરવાં યામિનન્ય નાના–માઠિયા–નાનાવિધન્યત્વનિરપેક્ષતિ ! હેન્દ્રિજવતિ-ન્યતન્વેન્દ્રિયશવમહોપાઘલઘઉં નવો, રુન્દ્રિય સ્વરૂપ ત વતાવવધ્યાહિતિ માવા પ્રયોગव्यापारसम्बन्धेनेति-स्त्रमिन्द्रियं तत्प्रयोज्यो यो हेतुज्ञानरूपो व्यापारस्तत्सम्बन्धनेत्यर्थः । કપાતિ -વ્યાપારે જ વ્યાપારિખોન્યથાસિદ્ધયોમાહિતિ માવા તત્ર દૃષ્ટાન્ત મહૂિ દીતિ નવલુમિતિરિન્દ્રિયાન વાધીન ઇવાડનુમિનોમોતિ પ્રત્યય ફત્યારાફ્રાનિયર્થબાદ અજુનિનોમીત્યાત્રિ | વિષયવિષયીન ફાતિ વિધેયતાથવિયતાધાન ત્ય છે તથાકયુપામેગત સમાઈ જતાંગપિ તત્વસાહિતિ-વિધેયાત્મ વઢ્યા વાલ્મિવિશેષનમિતેન્દ્રિયાન વાત્તધીનો વધિમનુમિનીયન વ્યવસાયવસ્પર્વતનનુમનોમંત્યિનુષ્યવસાયપ્રત્યથરાવાહિત્યર્થ ! ગુણવિશેષનન્ય પ્રત્યક્ષમતિ ક્ષય રુસવું, તત્ર સુખવિરોપોગ્રાધિજ્ઞાને વાધજ્ઞાનાવરાવવામાં મન પર્યાયજ્ઞાને Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તવાવિવાહાર્યનીપિt | ૬૦ સ્ક્રૂટી : ૨૨૭-૧ મુળવિશેષનન્યતાવન્ઝેવપ્રત્યક્ષત્વામાત્રાનુષ્યસ્ય પરક્ષિત્વમસિદ્ધમ્ । ચાદિ યોાનધર્મપ્રત્યાસત્તેર્નિવિજ્ઞાત્યશે નિરવચ્છિન્નપ્રાનતા પ્રત્યક્ષત્વનન્યતાવ∞તુ વાત્મ્યમ્, મા તુ પ્રત્યક્ષમાત્રમિતિ વીયતમાં જાધવે દાંÈઃ । તેનેન્દ્રિનન્યજ્ઞાનત્વ પરોક્ષામાવવ્યાįતિ વિરુદ્ઘોડયું હેતુરિયખ્યપાત્તમ્ 1 વિજાતિનેન્દ્રિયજ્ઞન્યત્વચ તખ્તાનાવરપાભયોષશમ, ક્ષેત્રજ્ઞાને ૬ વળજ્ઞાન વરીયર્મક્ષય, તાન્યસ્રાવધિજ્ઞાનવીનાં ત્રયાળાં પ્રત્યક્ષસ્ત્ય, ચન્દ્રિયજ્ઞન્યજ્ઞાને મતિજ્ઞાનાવરળીય£ક્ષયોપશમાઁચુવિશેષ પ્રયોનોસ્થેાત તાન્યજ્ઞાનલ ાિમતિન પ્રસમિાશોદ્ભવત્યેવ, તચાન્દ્રિયનિરપેક્ષ્ચુર્ણાવશેષચૈવ પ્રત્યક્ષયાનત્ત્વેનતજ્ઞન્યëાવધિજ્ઞાનાવિત્રયાણમેવ પ્રત્યક્ષત્ત્વમ્, ફૅન્દ્રિયસાપેક્ષ = પરોક્ષĀત્રયોનāનેન્દ્રિયજ્ઞન્યજ્ઞાનન્ય પરોક્ષત્વમેવેત્યાયેનાનુાંવરોષજ્ઞન્યતા વચ્ચેવાવે ! ત્યાદિ યોગનધર્મપ્રત્યતત્તરિતિયેત, ચચા–વૈયાયિòન, ન્યાયમતે થયું ધડ ત્યારેધાવિનન્ય જાત્યક્ષસ્યાંય પ્રત્યક્ષત્રેન તક્ષ યોાનધર્મપ્રત્સાસત્તિ વિનવોત્પાદ્વૈન મિત્રોળ પ્રત્યક્ષમાત્ર 7 યોાનધર્મપ્રયાસત્તિનન્યતાવન્ઝેક, નાપિ સાવષયઋત્યક્ષસ્ત્ય તઅન્યતા છે.વ, પ્રમેયત્વેન વેળ વિસ્ફામેાંવષય પ્રત્યક્ષસ્ય યોપનધર્મપ્રત્યાન્તિ વિનાગપે સામાન્યઽક્ષળાકત્યાસત્તિતો નાય માનસ્ત્રેન સત્ર યંતરેમિષારાત્, તો નિવિન્દ્રનાëશે નિષ્કિબારતાઘ્ધત્યક્ષનું તાન્યતાવઋદ્રામાંત તાદૃશૅપ્રત્યક્ષશ્વત વ સર્વજ્ઞત્વમ્, તે ગૌરવમ્, સ્યાદાવિના તુ ચક્ષુરાવિકમત્રજ્ઞાનસ્ય પારમાર્થિ૭ત્યક્ષત્વ નામ્બુપામ્યતે, વસ્તુતઃ સર્વજ્ઞપ્રત્યક્ષરૂંવ તથાત્યેનાન્યુમાહિતિ પ્રવર્ત્યસ્ય ચોમનધર્મપ્રત્યાક્ષત્તિનન્યત વછેઝ્ડ લેવનાનુાંાિંત છાવવમ્, અવધમન:પર્યાયજ્ઞાનયોઃ પ્રત્યક્ષદ્વેષ તૈયોયો ધનધર્મપ્રત્યાસત્ત્વનન્યત્વે સબત્યક્ષત્વમેવ ચોપનપ્રત્યાક્ષત્તિનન્યતાવ‰વુમમ્યુવ{ામિયાયઃ । ન્દ્રિયધમ્બતિ સમાઁમેનેન્દ્રિયાપ્યુપાડુ નવિધયાારત્વેનેન્દ્રિયસાપેક્ષત્રમિન્દ્રિયવૅવિ વર્તાતે, ૬ ૬ તત્ર પરોક્ષત્રમાળષસામિતિ ચો મિનારáબિચારાય નિમિત્તવિધયેન્દ્રિયસાપેક્ષત્વ વિષપતે તવેન્દ્રિયસે મિષાર, તસ્કૃતિ પ્રતિયોગિવિધયાન્દ્રય બ્રારાવાહિતીન્દ્રિયનન્યજ્ઞાનવર્ધામેન્દ્રિયસાપેક્ષત્સ્ય વામ્,ન્દ્રિયનન્યજ્ઞાન પ્રક્ષેત્લેન યંત્રોન્દ્રયનન્યજ્ઞાનત્ત્વ તત્ર પરોક્ષધામાવ′′મિન્દ્રિયનન્યજ્ઞાનવ્યસ્ય પરોક્ષામાવવ્યાવ્યાદ્વિન્દ્વ વાટ્ટુ નિવેશ્ચંત તેન્દ્રિયજ્ઞસ્પજ્ઞાનત્વનિત્યાય । તેનયસ્થાવામિસ્ત્યનેનાન્વયઃ । હેતુ રતિ-માંતજ્ઞાને પરોક્ષત્રસાધન્દ્રિયજ્ઞન્યજ્ઞાનહેરિત્યર્થઃ । નિષેષે હેતુમાદાજિાતિનેત્યારે-હાહિાદ્રિનેત્વર્યેન્દ્રિયજ્ઞન્યવે સમ્બન્ધવિષયાન્વયે સાંત વિશ્વન સમ્બન્ધેન પરોક્ષજ્ઞાનેન્દ્રિયજ્ઞન્યસ્ત્ર વીતે પોક્ષલ્લામાયો ન વત્તુત શ્તીન્દ્રઅનન્યત્ત્વસ્વ પરોક્ષવામાત્રજ્યાવ્યામાદ્વિોયાસિદ્ધિ, અથેન્દ્રિયનન્યવસ્ય સમ્વલપામશે વિદ્યક્ષીય કૃતિ સ્વરૂપસન્વસ્થેનેન્દ્રિયજ્ઞન્યત્રય પરોક્ષામાવામાવાંત પરોક્ષ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ताविपरमार्थदीपि । ए० सू० टी. स्थापि पोऽभ्युमगनेन विरोधासिद्धेः, स्वजन्यविलक्षणव्यापारसम्बन्धेनेन्द्रियजन्यत्वग्रहे च तदः .००५ मावान्, न च बलवत्तकोपहितं हेतोः सामान्यथानुपतिमहं निलो विरोधी पाधितुमसत इति न किञ्चिदेतत् । यदि चेन्द्रियशान लोके प्रत्यक्षवेन प्रसिद्धत्वातदपाकरणे लोकविर्गवः, ६६ रूपनिति प्रनीता विदन्तोल्लेखोऽपि प्रत्यक्षाधीन एवं, न ह्यनुमितोऽग्नित्यमिति प्रशाने, इदन्ताया. प्रत्यक्ष तावच्छिन्नववरपायाः स्वीकारेऽनुमितेऽपि तत्प्रसङ्गात्, ज्ञानाशे स्वत्यश्वस्य सर्वित्रिकवादितीदं रूमित्याचा विषयाने प्रत्यक्षत्वानुगमे स्वप्रतीतिविरोधोऽवी-- सुपते, तवाऽयं मतिश्रुतयोः परोक्षवविधिनैश्चयिको, यहारततु प्रत्यक्षत्वमिप्यत एवेति न. विरोधः । यतोऽभिहितं नन्या-तं समासओ दुविहं ५जत-इंदियपञ्चक'वं च नोऽदियपञ्चवं च ।' -- --- ज्ञानेऽवृतित्वेन विरोधस्स्यादेवेत्यर्थः स्वजन्यविलक्षणव्यापारसम्बन्धेनेत्युत्तरप्रन्यपर्यालीचनया न सङ्गतः, किन्तु कालिकादिनेन्द्रियजन्यं यत्तत्तथा तस्य भारतत्वमित्येवमर्थः, सनीचीनः, अत्रादिपदेन संयोगोऽगि ग्रायः, तथा च शरीरं प्राणन कालिका संयोगेन, वा- इन्द्रियवमादित्यनुमानयोक्तान्यतरसम्वन्यनेन्द्रियलक्षणहतुजन्यत्वात्तत्र परोक्षवस्येव सन परोक्षसामावाभावति तस्मिन्ननुमाने इन्द्रियजन्ययस्य वृत्तित्वेन परोक्षस्वाभावच्याप्यसामासात् परोझत्येन सहेन्द्रियजन्यत्वस्य विरोधाऽसिद्धरिति भावः । स्वजन्यविलक्षणव्यापारतवन्येनेन्द्रियजन्यत्वग्रहे इनि स्वजन्यविलक्षणव्यापारसम्बन्धनन्द्रियजन्यत्यस्येन्द्रियजन्यज्ञानत्वं परोक्षवामावव्याप्यमिलनेन्द्रियजन्यपदेन ग्रहणे इत्यर्थः । तद्न्यस्याप्यमावादिति-विरोधान्यस्याप्यऽभावादित्यर्थः । उक्त सम्मन्यनेन्द्रियजन्यज्ञानं परापेक्षकमित्यतः परोक्षत्येनाभ्युपगमादिति भावः । यदि परोक्षं न स्थादिन्द्रियजन्यं न स्यादवध्यादिवदिति तकणेन्द्रियजन्यत्वहेतोः परोक्षत्वसाध्येन सहान्ययानुपपत्तिलक्षणाविनामावस्य ग्रहो भवति, तद्राधने बलवत्तरप्रमाणाननुगृहीतो विरोधो दुर्वलत्यान्न समर्थ इत्याह-न चेति । तदपाकरणे इन्द्रियजज्ञानस्य प्रत्यक्षत्यापकिरणे । अनुमितेऽर्थे इदन्तालेखामावादिदन्तालेखस्य प्रत्यक्षाऽऽनिलमित्याह-नहीति । अथेदन्त्यं प्रत्यक्षज्ञानावच्छिनत्वम् , तच नानौ तस्यानुमिस्वग्नित्वादिति तत्र नेत्रप्रतीतिरित्ययुगमेऽतिप्रसङ्गमाह-इदन्ताया इत्यादि। अनुमितेऽपीति अनुमितापीति पाठो युक्तः। तत्प्रसङ्गात् इदायाः प्रसङ्गात् । सर्वे ज्ञान स्त्रांशे प्रत्यक्षमित्यनुमितिरपि स्वाशे प्रत्यक्षरूपेति तदवच्छिन्नत्वयानुमित्यात्मकविषयः सत्वेन तद्रूपदन्त्वं स्थादित्याह ज्ञानांइति । परोक्षत्वविधिरिति " परोक्वं दुबिई पतं, तं जहा-आभिणीवोहियनाणपरोक्खं. सुअनाणपरोक्खं च " इति भूत्रेणेति अयः । इंदियपचक्खं च नोइंदियपचक्खं पेनि-अप्रेन्द्रियं श्रोत्रादिपञ्चविधम् , तन्निमित्त सहकारिकारण यस्योत्पित्सोस्तदलैङ्गिक शरूपरसगन्धस्पर्शविषयकज्ञानमिन्द्रियप्रत्यक्षं । उक्तश्च नन्याम्-"से किं तं इन्दियपचय? इंदियपचख. पंचविहं पन्नत्तं तं जहा Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वार्थविवरणगूढार्थदीपिका । ऐ० सू० टी० . १९९ : इन्द्रिय प्रत्यक्षमित्यनेन व्यवहारप्रत्यक्षता भणिता भवति । सोइंदियपचसमित्यादि । व्यवहारत इन्द्रियजन्यप्रत्यक्षमुक्त्या निश्चयतो नोइन्द्रियप्रत्यक्षमाहनोइन्दियपचसमिति-अत्र नोशदस्य सर्वनिषेधपरत्वात् नोइन्द्रियेण इन्द्रियाभावेनेन्द्रियप्रवृत्ति विनवात्ममात्रेण यत्प्रत्यक्ष प्रवर्तते तन्नोइन्द्रियं प्रत्यक्षम्-अत एवात्ममात्रजन्यज्ञानसं तल्लक्षणं पर्यवस्थति, तचावधिमनःपर्यायकेवलज्ञानाख्यम् , तस्यातीन्द्रियत्यादिति । आहननु " नोइन्दियपञ्चक्वं च " इत्यत्र नोइन्द्रियं मनः, तस्येन्द्रियैकदेशत्वात्, नोशब्दस्य चैकदेशवाचकत्वात् , ततश्च नोइन्द्रियं मनः, तन्निमित्तकं यत्प्रत्यक्षं तन्नोइन्द्रियप्रत्यक्षमिति, तदयुक्तम् , आगमार्थाऽपरिज्ञानात्, यदि पुनर्नोइन्द्रियं तत्र मनो व्याख्यायेत तदा नोइन्द्रियनिमित्त अत्यक्षमिति मनोनिमित्तमेवावध्यादिज्ञान प्रत्यक्षं स्यात् , तथा च सति मनापर्याप्त्याऽपर्याप्तस्य मनुष्यदेवदिवधिज्ञानं न स्यात् , मनसोऽभावात् , तचायुक्तम् , " चुएमित्ति जाणा" इति वचनेन सिद्धान्त तस्यावधिज्ञानामुपगमात् , किञ्च सिद्धानामपि प्रत्यक्षज्ञानामावस्यादित्यादिविशेषावश्यकभाष्यपञ्चनवतितमगाथाटीकोक्तः । अत्र " इंदियपचक्वं" इत्यनेनेन्द्रियजन्यं ज्ञान प्रत्यक्षं व्यवहारतो यथोक्त तथोपलक्षणन्यायेन मनोभवज्ञानमपि प्रत्यक्षं व्यवहारतो पाच्यम्, इन्द्रियलिङ्गादिकमन्तरेणैव यन्मनसा ज्ञानमुपजायते तत्प्रत्यक्षमिति लोकेऽपि ०५4हारराव, श्रोत्रेण शब्द, चक्षुपा-रूपं, साक्षात्करोमीत्यादिवन्मनसा सुखदुःखादिकं साक्षात्करो. मीत्यनुव्यवसायात् , अत एव भगवच्छीवादिदेवसूरयः प्रमाणनयतत्वालोकालङ्कारे "-तद् द्विप्रकारम् सांव्यवहारिक पारमार्थिकञ्च" २-४ । तत्राचं द्विविधमिन्द्रियनिवन्धनमनिन्द्रियनिवन्धनञ्च-२-५ । इति सूत्रद्वयन सांव्यवहारिकप्रत्यक्षस्य-भेदद्वयं प्राहुः, विशेषावश्यकभाष्येऽपि-" इंदियमणोभयं जं तं संपवहारपचख" इत्युक्तमिति । अकलकोप्याह-"विविध प्रत्यक्षज्ञान-सांव्यवहारिक मुख्यं च, तत्र सांव्यवहारिकमिन्द्रियानिन्द्रियप्रभवं, मुख्यमनीन्द्रियज्ञानम्" - इति-। अस्यायं भावः-संव्यवहारप्रयोजनकत्वात् तत्प्रत्यक्षतया व्यवहियते स्पष्टतया चोपचते, न तु वस्तुगत्या प्रत्यक्षम् , अक्षमात्मानं प्रत्यगतत्वात् , साक्षादात्मसम्पायमेव प्रत्यक्षं, तदेव 'च पारमार्यिकम् , तवावध्यादिकमवेत्याशयेन संव्यवहारशदोपदर्शनेन सांव्यवहारिकाख्यः प्रत्यक्षप्रथमभेद उपदर्शित इति । इन्द्रियप्रत्यक्षमित्यनेन व्यवहार प्रत्यक्षता मणितेति-ननु कथमिदं सूत्रं सांव्यवहारिकप्रत्यक्षमाश्रित्यैव प्रवृत्तमित्यवसयित इति चेत् , उच्यते, "-परोक्खं दुविहं पण्णत्तं तं जहा-आमिणिवोहियनाणपरोक्समित्याधुत्तरसूत्रे" श्रोत्रेन्द्रियाचा. -श्रितापग्रहादीनां निश्चयनयतः परोक्षत्वेन प्रतिपादनाद, तस्मानन्धामुत्तरसूत्र , इन्द्रियाश्रितज्ञानस्य परोक्षत्वेनाभिधानादिन्द्रियप्रत्यक्षमित्यनेनेन्द्रियाश्रितं ज्ञान-व्यवहारतः प्रत्यक्षमुक्त न परमार्थतः, परमार्थतत्वध्यादिज्ञानत्रयमेव प्रत्यक्षं तद्वदत्रापि ज्ञेयमिति । नन्वनुमानरत्यादेः • कस्मिन् ज्ञानेऽ.वि इति चेत् , उच्यते, ऐकान्तिकपरोक्षात्मकमतिज्ञान एपेति । तथा चैका ति: परोक्षमनुमानादिकमेव, एकान्ततः प्रत्यक्षमवध्यात्रिय, इन्द्रियमनोभय ज्ञान लेकान्ततो न Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : 260 : तत्वार्थविवरणदार्थदीपि। १० स० टीभाष्यकार स्थापि योगविभागादिन्द्रियजन्यज्ञानस्य सिद्धा प्रत्यक्षता, स चैवं योगो विभजनीयः, आधे परोक्षं निश्चयतः, प्रत्यक्ष चाद्ये व्यवहारत इति ॥ ११ ॥ परोक्षं दर्शयित्वा प्रत्यक्षं दर्शयति ॥सूत्रम् प्रत्यक्षमन्यत् ॥ १॥ १२ ॥ (भाष्यम् ) मतिश्रुताभ्यां यदन्यत् त्रिविधं ज्ञान तत्प्रत्यक्ष प्रमाणं भवति । कुतः ? । अतीन्द्रियत्वात् । प्रमीयन्तेऽस्तैिरिति प्रमाणानि || अत्राह-इह अवधारितं द्वे ५५ प्रमाणे प्रत्यक्षपरोक्षे इति, अनु. मानोपमानागमार्थापत्तिसम्भवाभावानपि प्रमाणानीति केचिन्मन्यन्ते, तत्कथमेतदिति ? । अत्रोच्यतेसर्वांग्यतानि मतिश्रुतयोरन्तभूतानीन्द्रियार्थ सन्निकर्वनिमित्तत्वात् । किं चान्यत्-अप्रमाणान्येच वा, सुतः ? । मिथ्यादर्शनपरिग्रहाद्विपरीतोपदेशाच्च । मिथ्यादृष्टहि मतिश्रुतावधयो नियतमझानमेवेति । वक्ष्यते । नयवादान्तरेण तु यथा मतिश्रुतविकल्पजानि भवन्ति तथा परस्ताद्वक्ष्यामः ।। अत्राहउक्तं भवता मत्यादीनि ज्ञानानि उद्दिश्य तानि विधानतो लक्षणतश्च परसाद्विस्तरेण वक्ष्याम इतिः। दुच्यतामिति । अत्रोच्यते ॥ (यशोल्टीका) प्रत्यक्षमन्यदिति । अवधिदर्शनपूर्वकं व्याचष्टे । मतिश्रुताभ्यां यदन्यत् त्रिविधं ज्ञानम् अवधिमनःपर्यायकेवलभेदात् तत् प्रत्यक्ष प्रमाणं भवति, अवधारणपरत्वाद्वाक्यस्यैकान्तेन प्रत्यक्षमित्यर्थः । आद्ये परोक्षमित्यत एवार्थादवशिष्टस्य प्रत्यक्षत्वलाभे नियमार्थ योगविभागार्थ चायं प्रत्यक्षं, परोक्षवेनाप्यभ्युपगमा, नाप्येकातः परोक्षं, सांव्यवहारिकप्रत्यक्षत्वेनाप्युरकिारात् । उक्तञ्च "एगंतेण परोक्खं लिगिअ-मोहाइअं च पचनसं । इंदिअमणोम जं, तं संववहारपञ्च ॥ ९५ ॥” इति ॥ ११ ॥ ___ द्वादशस्त्रावतरणिकामाह परोक्षं दर्शयित्वा प्रत्यक्षं दर्शयतीति । प्रत्यक्ष मन्यदिति सूत्रेऽन्यदित्यस्योदेशपद त्वेन प्रत्यक्षमित्यस्य च विधेयपदत्वेन प्रमाणमित्यस्यानुवृत्तरत्यत्पदग्राखावव्यादिज्ञानत्रयस्य सिद्धत्वात्तदु६ि२५ तत्र प्रत्यक्षप्रमाणत्वमनेने सूत्रेण विधीयत इत्यर्थः । केनापि पुंसा इदमन्यदित्युक्ते केन काम्यां न्यिदिति परेषा जिज्ञासोत्पत्ते निवृत्तये तदवधिभूतं प्रदर्शनीयम् , प्रत्यक्षमन्यदिति सूत्रेऽप्यन्यदित्यस्य तद्वधिसाकाक्षात्यात्तदुपदर्शनपूर्वकमुक्तसूत्रस्थार्थमाह मतिश्रुताभ्यां यदन्यत् त्रिविधं . ज्ञानमित्यादि । उक्तश्च विशेषावश्यकमाये “ पत्थं च मइ सुयाई परोक्खामियरं च पचनसं ।। ८८ ॥” इति । ननु " आधे परोक्षं" इत्यनेन सूत्रेण मतिश्रुतयोः परोक्षत्व विधाने परिशेषादवक्ष्यादिज्ञानत्रयस्य प्रत्यक्षत्वमायतिमेवेति किमर्थमस्थ सूत्रस्यारम्भ इत्याशङ्काव्यबच्छेदार्थमाह-नियमार्थमिति । एकान्तेन प्रत्यक्षमवध्यादिज्ञानत्रयमेव नान्यमिति नियमाथमित्यर्थः । योगविभागार्थ चेति-आधे परोक्ष प्रत्यक्षमन्यदित्येकसूत्रे मतिश्रुतयोः परीक्षत्वमेव, तदन्यस्य च प्रत्यक्षत्वमेवेति स्यात् , आधे परोक्षमित्येक सूत्रं प्रत्यक्षमन्यदिति द्वितीय सूत्रमित्येवं सूत्रे विभक्ते सति आधे परोक्षमित्येकयोगा, प्रत्यक्षमन्यदित्यत्र प्रत्यक्षं प्रथमस्त्रीपापन आधे इत्यनेनापि सम्बध्यते, अन्यदित्यनेनापि, उत्तप्रकारेण योगविभागे आये परोक्षं Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थविवरणगूढार्थदीपिका ! डा० सू० टी० प्रयत्नः । अन्यस्य प्रत्यक्षत्वं कुत इत्याशङ्कयाह- अतीन्द्रियत्वात् । योगिसाक्षात्कारानुरोधेनात्माभिमुखत्वलक्षणमतीन्द्रियत्यमेव प्रत्यक्षलक्षणमभ्यर्हितमिति भावः । तत्प्रमाणे इति द्वित्वसंख्यां विभागेनोपदर्थं प्रमाणशब्दार्थं कथयति-प्रमीयन्ते इति, प्रमीयन्ते यथावन्निश्रीयन्तेऽर्था जीवादयो यैस्तानि प्रमाणानीति करणे ल्युट्, आहितप्रधान कारणस्य स्वतन्त्रस्य कर्तुरनेककारकशक्तिप्रयुक्तस्य साधकतमत्यविवक्षात्रशादवच्छेदिका शक्तिरर्थस्य करणव्यपदेशमस्तुत इति टीकाकृतः । एवं सति लब्धीन्द्रियं प्रमाणं स्यात्, तच्चायुक्तं, शक्तिरूपस्य तस्य कार्यार्थापत्त्यैव गम्यत्येन 'स्वपरूयवसायि ज्ञानं प्रमाणम्' इत्यस्य भङ्गापत्तेः, द्रव्यार्थ प्रत्यक्षतायाश्या तिप्रस] कवात्, : २०१ : 1 निश्वयतः, आधे प्रत्यक्षं व्यवहारतः, अन्यदित्यनेन सह प्रत्यक्षमित्येव सम्बध्यते, न परोक्षम्, तथा च ततोऽन्यत् अवध्यादित्रयमेकान्तेन प्रत्यक्षमेवेति योगविभागतो लभ्यत इति तदर्थं "प्रत्यक्षमन्यत्" इति सूत्रकरणमित्यर्थः । अतीन्द्रियत्वादिति - उत्पत्ताविन्द्रयमनोनिरपेक्षत्वादित्यर्थः । व्यवहार प्रत्यक्षत्वे इन्द्रियजन्यस्त्रवनिश्चयप्रत्यक्षत्वे इन्द्रियाद्यजन्यत्वस्यापि प्रयो जकत्वादिति । न च प्रत्यक्षत्वमेवेन्द्रियजन्यतावच्छेदकं लाघवादितीन्द्रियव्यापाराभावेऽतीन्द्रियप्रत्यक्षानुपपत्तिरिति शङ्कनीयम् परेणापीश्वरत्रत्यक्षव्यावृत्यर्थं प्रत्यक्षनिष्ठवै जात्यस्यैथेन्द्रियजन्यतावच्छेदकत्त्रोपगमात्, अस्माभिस्तत्र निश्चयप्रत्यक्ष व्यावृत्यर्थ सांव्यवहारिकत्वाख्वस्य प्रत्यक्ष निष्ठवैजात्यस्येन्द्रियजन्यतावच्छेदकत्वापगमे दोषाभावादिति भावः । " अश व्याप्तौ " अश्नुते व्याप्नोति ज्ञानात्मना सर्वार्थान्, " अश् भोजने " अश्नाति स्वःसमृद्ध्यादीन् पालयति भुङ्क्ते वेति उणादिनिपातनाद् अक्षो जीवः, तम्प्रति साक्षाद्भतं तमेवाभिमुखीकृत्य. प्रवृत्तमिति प्रत्यक्षशब्दस्य वास्तविकार्थमनुसृत्याह योगिसाक्षात्कारेत्यादि । अवच्छेदिका शक्रिर्थस्येति- अर्थस्यावच्छेदिका निश्चायिका शक्तिः, अर्थनिश्चयानुकूलशक्तिरिति यावत् । शक्तिरूपस्य तस्य कार्यार्यापत्त्यैव गम्यत्वेनेति-शक्तिर्हि कार्यानुमेया, तस्या अतीन्द्रियत्वात् न हि केनापि चर्मचक्षुपा वहन्यादिगतरूपमिव तद्गतशक्तिरपि साक्षाद्दृश्यत इत्यर्यग्रहणशक्त्यात्मफलब्धीन्द्रियमन्तरेण प्रमात्मकत चदर्थविषयकज्ञान कार्यानुपपत्तिरूपलिङ्गेनैव शक्तिरूपस्य प्रमाणस्याऽनुमीयमानस्येनेत्यर्थः । भगापत्तेरिति उक्तसूत्रेण तादृशज्ञानं प्रमाणमित्युक्तम्, न तु शक्ति: प्रमाणमित्यभिहितम्, ज्ञानश्च स्वप्रका शत्वा तदात्मकप्रमाणं स्वेनैव सिद्ध्यति, न त्वनुमानेनेति तद्विरोधस्स्यादित्यर्थः । किञ्चार्थग्रहणश-क्तिलक्षणस्य लब्धीन्द्रियस्य प्रमाणत्वे तस्योपयोगात्मना करणेन फले व्यवथानात्, सन्निकर्षादिबंदुपचारत एव प्रमाणत्वमभ्युपगतं स्यादिति, द्रव्यार्थतः प्रत्यक्षाग्रहणशक्तिः, पर्यायार्थतस्तु परोक्षेत्यभ्युपगमे दोषमाह-द्रव्यार्थप्रत्यक्षतायाश्चातिप्रसज्ञ्जकत्वादिति-अयमर्थ:-- स्वपरपरिच्छित्तिरूपात् फलात्कथञ्चिदपृथग्भूते आत्मनि परिच्छिन्ने तथाभूता तजननशक्तिरपि પરિઋિષતિ દૂન્વાર્યતા પ્રત્યક્ષુતિ વેત્, વર્ધમÄનામતતાનાાતવર્સેનાનીચાણામ २६ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २०२: तत्वार्थविवरणपूढार्थदीपिका । द्वा० सू.टी. तस्मादुपयोगन्द्रियमेव प्रदीप इव प्रकाशस्य स्वाभिन्नप्रमायाः करणमे-यमिति देवसरिप्रभृतयः । प्रमाणशेवः सम्यग्ज्ञाने ४ एव, फलं तु यथासम्भवं दोपनिवृत्तिः केवलं तु स्वयं फलभेवेति तु युक्तम् । शेषाणामपि द्रव्यार्थतः प्रत्यक्षवाद्यथा ज्ञानं स्वसंविदितमेवं तेऽपि वसंविदिताः किं न स्युः ?, तथा च बौद्धाप्रति सुखादीनां स्वसंविदितत्वप्रतिपेवप्रयासो निसार एवं स्यात् , तदिह यत् स्वयमात्मानं वेत्ति तत् संविदितमुच्यते, उपयोग एवं तादृशो, न शक्तिः सुखादयश्च । शक्तिहि द्रव्याधिगमद्वारग्रहणा, सुखादयश्च पुनरुपयोगात्यपर्यायान्तरसमधिगम्या इति । किञ्च यदि द्र०यार्थतः प्रत्यक्षत्वात् स्वसंविदिता ज्ञानशक्तिस्तदाऽहं पटज्ञानेन वर्ट जानामीति करणाल्लेखों न स्यात् , न हि कलशसमाकलनलायां द्रव्यार्थतः प्रत्यक्षत्वेऽपि प्रतिक्षणपरिणामिनामततिानागतानां च कुशलकपालादीनामुल्लेखोऽस्ति, तत उपयोग. एवं साधकतमः प्रत्यक्षेऽपि प्रमाफलं प्रतीत्य सिद्धः, तस्यैव तत्र घटमानत्यादिस्थाशयेनोपसंहारमाह-तस्मादुपयोगेन्द्रियमेवेत्यादि । साभिन्नप्रमायाः करणमेटव्यमिति-प्रदीपः स्त्र प्रकाशात्मना स्वेनैव प्रकाशयतीनि प्रतीतेः प्रदीपात्मनः कः कथञ्चिदभिन्नस्य प्रकाशात्मककरणस्य प्रकाशनक्रियायाश्च प्रदीपात्मिकायाः कथञ्चिदभेदसिद्धेयथा प्रकाशनक्रियात्मकफलस्य. स्वाभिन्नप्रदीपः करणं. तथा स्वार्थव्यवसितिरूपग्रमात्मकज्ञप्तिफलस स्वामिन्नोपयोगन्द्रियमेव करणमभ्युपगन्तव्यम् , ज्ञानं स्मात्मनैव स्मं प्रकाशयतीति प्रतीतेः । एतेनोपयोगात्मकज्ञानस्य प्रमाणत्वे फलत्वं कस्य कथ्यते जिनानुगः, स्वार्थसवित्तरेवेति चेत्तर्हि स्त्रपरव्यवसायित्वं प्रमाणे कथं घटनामियादित्यारेकाऽपि निरस्ता, प्रमाणप्रमाफलयोः कथञ्चिदभेदे दूषणकणस्थाप्यनवकाशात्, नन्ये कस्मिन्नेत्र ज्ञाने प्रमाणत्वप्रमात्वविरोध एवं दुद्धरो दोपोति चेत्, स्यादेतत् यधेकस्वभावेन तदुभयाभ्युपगम स्यात्, न चैवम्, पावको दहत्यायनत्यत्र यथा दहनक्रिया तत्करणमौष्ण्यं च पावके युगपदाहकत्वस्वभावेनौण्यत्वरममावन च स्वीकृत तथा साधकतमत्वस्वभावेन ज्ञाने प्रमाणत्वं ज्ञप्तिक्रियात्वस्वभावेन प्रभाफलस्वमित्येवमुरलीकारा । घटाभावीयप्रतियोगितावान् ५८ इत्यत्र प्रतियोगितामा प्रतियोग्यात्मकत्वपक्षे एकत्रच घटत्वेन प्रतियोगितात्वनाश्रयत्वाश्रितत्ववत् प्रतियोगिताया अवच्छेदकात्मकत्वपक्षे च घटामावीयप्रतियोगिता- घटत्वावच्छिन्नत्यत्रैकत्रैव पटवन प्रतियोगिता नावच्छेदकत्वावच्छिन्नत्ववच्च नैव तत्र स्वभावभेदापेक्षयोस्तयोः कोऽपि विरोधः, प्रमाणप्रमालयोश्च कथञ्चिदभेदात्तदुभयस्य स्वपरव्यवसायित्वमप्युपपद्यत एव । यदुक्त स्थाद्वादरत्नाको प्रथमपरिच्छेदे १४-"ज्ञानस्याथ प्रमाणत्वे, फलत्वं कस्य कथ्यते ? । स्वार्थसवित्तिरस्स्येव, ननु किं न विलोक्यने ? ॥ ४० ॥ स्यात्कलं स्वार्थसंवित्ति-यदि नाम तदा कथम् ।। पर०यवसायित्वं, प्रमाणे घटनामियातः॥४१॥ उच्यते स्याद भेदात्प्रमाणस्य, स्वार्थव्यवसितः फलात् ।। नैव ते सर्वथा. कश्चिद्, दूषणक्षण ईक्ष्यते ॥ ४२ ॥ आश्चर्यमाश्चर्यभहो तदेतद्, , · · विलोक्यतां अपलपटाङ्गितानाम् । ज्ञानं यदेकं नितरा विरुद्ध-प्रमाप्रमाणत्वपदं वदन्ति ॥४३॥ . Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ atवार्थविवरणपूढार्यदीपिका । सू० टी० यदाह श्रीसिद्धसेनः-" दोपपक्तिमतिज्ञाना-न्न किश्चिदपि केवलात् । तमःप्रचनिःशेष-विशुद्धिफलमेव तत् ॥ १॥ " इति । प्रमाणद्वयेऽभ्युपगते प्रमाणानीति पहुवचनमयुक्तमिति चेत्, न, व्यक्ति पक्षसमाश्रयणान्मत्यादिकाना पचाना व्यक्तीनां पहुत्वेन बहुवचनस्य समीचीनत्वात् । ननु प्रत्यक्षानुमानागमा प्रमाणानीति सांख्याः । प्रत्यक्षानुमानापमानामाः प्रमाणानाति नैयायिकाः । अर्थापत्त्या सहैतानि पञ्च प्रमाणानीति प्राभाकराः । अभावेन सहतानि पडिति भाटा वेदान्तिनश्च । संभवैतिधयुक्तानि तान्यष्टेति पौराणिकाः, तत्कथं निर्णीतं द्वे ५५ प्रमाणे प्रत्यक्षपरोक्षे इत्याशते-अत्राहेत्यादि । समाय-अनोच्यत इति, सर्वाण्येतान्यनुमानादीनि, इन्द्रियार्थयोर्यः सन्नि१५.सबन्धस्तन्निमितत्वाम्मतिश्रुतयोर-तर्भूतानि । तथाहि-अनुमान तापचक्षुरादीन्द्रियधूमाद्यर्थसन्निकर्षजम् , अत्रोच्यते-आश्चर्यमाश्चर्यमहो तदेतद्, विलोक्यतां भस्मकणाङ्कितानाम् । कथञ्चिदेकेन मतौ वदनित, प्रमाप्रमाणत्यविरुद्धतां यत् ॥४४॥” इति । एतेनोपयोगस्य स्याद्वादसिद्ध कर्तुरभिन्नत्वात स एव कर्चा करणञ्चेति सिद्धम् , एतच्च विरुद्धमित्यारेकाऽपि निरता, परिणामपरिणामिनोः कथञ्चिद्भेदविवक्षायामुक्तविरोधाभावात् , ज्ञानपरिणामो हि करणमात्मनः कत्तुः कथञ्चिद्धिनम् , अन्यथा स्वप्रयव शास्त्रसन्दर्भगमनममीति विभक्तक कारणानिदेशानुपपत्तिस्यादिति । दोषपनिरिति-अज्ञानदोपनिवृत्तिरित्यर्थः । अत्र ज्ञानाजाननित्योसहभावेऽप्यभेदे हेतुफलभावः प्रदीपप्रकाशयोरिति द्रव्यम् । न किञ्चिदपि केवलादिति अनेनेशानियोपादानपरिहार धीरूपभिन्नफलापेक्षया केवलज्ञानस्य निकलत्वमुक्तम् , अतः फेवलिनां सिद्ध प्रयोजनत्वेन जिहासोपादित्सयोरभावेन न मतिज्ञानवद्धयोपादेयसंवित्तिरूपं भिन्नं फलं केवलज्ञानस्येति, केवलज्ञानस्याव्यवहितमभिन्नफलमाह-तमःप्रचयनिःशेषेत्यादि । अत ए३ " उपक्षाफलमाधस्य, शेपस्यादानहानीः। पूर्वा वाऽज्ञाननाशो भ, सर्वस्यास्य स्वगोचरे ।।१०२॥" इत्यष्टसहस्सामुक्तम् । तत्रायस्य केवलज्ञानस्य व्यवहितं फलं सर्वत्रोपेक्षा, कुत इति चेत्, उच्यते, हेयस्य त्यागार्थमुपादेय५ च ग्रहणार्थ प्रयोजनार्थिज.नां प्रवृत्तिदृश्यते, न च केवलिना तथा प्रवृत्तिः , हेयस्य संसारतत्कारणस्य हानेनोपादेयस्य मोक्षतत्कारणस्योपात्तवन सिद्धप्रयोजनत्वादिति केवलज्ञानस्य सर्वत्रीपेक्षाफलम् । शेषस्यादानहानधीरिति मत्थादेयवहित फलं ग्रहणपरित्यागसवित्तिः, उपादित्सानिका जिहासाजनिका च बुद्धिरिति यावत् , अत एवं તંદ્ધા પાવે પાવાનાનાગૂમિ વિરતિ િપd સબ્બતે, તદુવાવ વાવવવ "ज्ञानस्य फलं विरतिविरतिफलं चाऽऽश्रयनिरोधः" इति । उक्तद्वारद्वारिभाष:-"सवणे नाणे य विनाणे, पञ्चपाणे य संजमे । अणहए त चेव, योदाणे अकिरिया सिद्धी॥१॥” इति समहथिया ज्ञातव्यः । अत्रोपलक्षणन्यायेनोपेक्षाऽपि वहिप्रवृत्तिनिवृत्तिविषयान्तरसञ्चारशून्यनिभृतज्ञानरूपा मत्यादेः फलत्वेन ज्ञेयेति । पूर्वाद्धन व्यवहितफलमुक्त्योत्तरार्द्धनाव्यवहितफलप्रतिपादनायाह-पूर्वति, अव्यवहितं तु फलं केवलज्ञानस्याज्ञाननिवृत्तिरव, मत्यादेः (नविषयाऽज्ञानाविच्छेदवदित्यर्थः । एतदभिप्रायेणैव तातपादश्रीवादिदेवसूरयोऽपि-" यत्प्रमाणेन प्रसाध्यते Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ૨૦ : વોલિવળાથવિશt go અન્યથા તસ્યાસમા, તે જ સન્નિષ સંયોગો નિરન્તરોયા કામમુર્થ વેલ્યન્યતત્ : ૩પમાનમાં કરફ્યુરાહીન્દ્રિયવિધાર્વસન્નિઈન, ચા મોડપિ શ્રોત્રેન્દ્રિયન્નિન, રાર્થાપત્તરવેવમેવ, અર્થાથપત્તિ, ક્ષુરિન્દ્રિયસ્ય નીકાલે પત્ય ર્ષિત gવોપનાયત, સમવોર્ડ પ્રસ્થમથે દવા છુ વા પ્રાદુરસ્તિ, લોપ રસુશોત્રયો પ્રાર્થઘWશત્રયો સન્નિષુવોપનાતે, અમાવોબનુ~છિમનુમાનવ, તિથૈ શ ષવમેતાનિ વબોળવરમચીપારદ્વારા અપાયમન્દિયાનિન્દ્રિયાર્થસનિ ફર્ષનિમિત્તાનિ સન્તિ મતિજ્ઞાનાન્ન મિચન્તા િવાન્યાવિતિ ક્ષાન્તરમાંથતિ, પ્રમાણ જોવ ઘા પરજ , રિપતાન્યનુમાનાવનિ પ્રમાાનિ, નિયનપરિગ્રહાત–પવનયાશ્રયાત,વિપરીતો શાહ-જાન્તાપત્તા, ડમરવાવત્ I વક્ષ્યમાળે સ્માર્યારિ-માદ િનઃોતિશ્રુતાવયો નિયd નિશ્ચિત અજ્ઞાનમેવ સિતોનમેવેતિ વફ્ટટ્યુરિટાતા નનુ મિથ્યાણના જોડપરાધ છતો યેન તત્સવધિ ! સર્વમાનમ્, સ ન્ધિ ૨ સર્વે જ્ઞાનમતિ વેત, અનુત્તિન્યાવૃત્તિપર્યાય દ્વારા સર્વ સમસ્યાનતપસ્ય વસ્તુન પર્યાવસારે પ્રણાદિત્યહિ ! નનું સરિષિ ધાવિવસ્તુન સ્મિન્ના તઃ પ૦ દિશા તર્ ક્રિમિનલ પારગ જાદરા તત્રાનન્તર્યોમાં સર્વબમાળાનામજ્ઞાનનિવૃત્તિ હમ્ – પરમ્પ જેવશીનસ્ય તાક્ષરમાલીન્ય-શેલબમાપાનાં પુનહાવાનહાનપેક્ષવૃદ્ધ – ” હત્યાહુદ્ધનવમૂલ્પતિમૂતભૃગુત્રનાં સગાશિયા-નિરન્તરારૂતિ વ્યવધાયદેશરાહત્યનોત્પાઢ હત્યર્થ તિર્થ વ શ4 ફર્િનતિશવવવવવૃદ્ધપરધુરાગ્યાત વાસ્થતિસ્થામતિ કક્ષાચ્છવ્વસ્ય તસ્ય શ્રોત્રનિયેજ સર્ભિવે જ્ઞાન વાવત તીન્દ્રિયનિમિત્તમ તાનમિતિ મતિજ્ઞાનેન્તમૃત તદ્વિતિ મારા નિયત નિશ્ચિમજ્ઞાનતિ-આરતાં તાવસંશયાવિહા, નિયપિ, વતt દિરિથા વિરેન્દ્રમાં પ્રજ્ઞસમન અવધ વસ્તુ તથા નૈવવાછતિ, શત વ તથા નાસ્તુપાચ્છતિ, હિમાવદયથાવસ્થિતવમ્યુપામત્ય સભ્યજ્ઞાનાધીની સંખ્યજ્ઞાનામાને પરમાર્થવૃન્ય મિથ્યાદ વાવિદ્રથમવાવ, જન્યથા મિથ્યાદાદિત્વમેવ તસ્ય ન સ્વતિ તથા ૧ સાપેક્ષમાવેન તતતત્વમમિ વસ્તુન પાૌધર્મવારે જ નિશ્ચય- - સ્મશાનય ગ્રાવાત છાસિનત્તર્ણ નિશ્ચય સંશયોહિ ર સર્વ જ્ઞાનમજ્ઞાનવમેવ | વિશાવરમાણે-નિપાયા વિ જ ન તહોંર્વ વિવાતિ તે વધું મિચ્છદ્દિદી તન્હા સબંવિા તેસિપા !” રરર ફરિ ! અનુવૃત્તિવ્યાવૃત્તિપર્યાવદ્રાતિ સાક્ષાસંઘેન હવાનિષ્ટ છે સ્વીકાર્યાધાન્તનવૃત્તિવયા, જે ૨ પરવતુરાતત્વેન પરથયા રે સ્વામીવિવરવાપરવરબ્લિવે સ્વતાતે વ્યાવૃત્તિપર્યાયા, તદ્દારત્યર્થે | - નુતન વૃત્તિને સ્વનિgવપર્યાયપરપર્યાય દ્વાતિ ચાવત ! સર્વય સર્વોવાતિ-થગ્રિફ્રિજામિન સત્યેવ ધર્મમા ઉતિ સવથમેયરવાહો વો ધટાઅનુવૃત્તિવામાં ધરસેન સમં શિત્તાવારૂં ટાવરયમપુપને પદાપિ, તથા ' ૨ તામિત્ર તમન્નમતિ નિયર્િ ઈટામિનબયાઘામિનેશ્ય પહોર્ધટામિત્વ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थविवरणपूढार्थदीपिका । हा० सू० टी० : २०५ : एकमेव कश्चिद्धत्वादिपर्याय गृहणायतोऽनन्तपर्यायमपि वस्त्वेकपर्यायतया गृहणत तस्यापि कथं ज्ञानमिति चेत्, सत्यम् , यद्यप्यसौ प्रयोजनादिवशदिकं पर्यायं गृह्णाति, तथाहि-सौवणे घटे दृष्ट यस्य घटमात्रेण प्रयोजन स घटोऽयमित्यध्ययस्यति, सुवर्णार्थी यः स सुवर्णमिदमिति, जलाहरणार्थी जलमाजनमिदमिति । एवं ब्राह्मणे द्वारि दृष्टेऽभ्यासवशाद् भिक्षुकोऽयमिनि, यस्तत्समीपेऽधीते स प्रत्यासतिवशान्मदीयोपाध्यायोऽसाविति, अन्यस्तु पाटबवशा ब्राह्मणोऽयमिति । तथापि 'जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ' सर्वमनन्तपर्यायात्मकमित्याचागमार्थश्रद्धानोपनीतसर्यात्मकनानन्तपर्यायात्मकत्वावगाहित्वं वस्तुनि सन्याहमित्येवं दिशाऽनुवृत्तिपर्यायद्वारा सर्वस्य सर्वात्मकत्वम् , तथा स्वाभाववस्वस बन्धन परगतधर्मा ये घटादौ वन्ति तैस्सममपि धर्मधर्मिभावानुरोधेन कयश्चित्तादास्यभेपितव्यम् , तेषां च यादिभिर्यथाऽभेद तथा पटादिभिरित्युक्त नियमाद् वटपटादीनामऽभेद आयात्येवेति व्यावृत्ति पर्यायद्वारा सर्वस्य सर्वात्मकत्वम् , इत्यं सर्वस्य सर्वात्मकस्य स्वयगनन्तपर्यायात्मकल्वे सत्यपि मिथ्यादृष्टिज्ञानमेकपर्यायप्रकारेणेव त्वचङ्गातीति तदज्ञानमित्यर्थः । एकपर्यायतया तरतस्यापि कथं ज्ञानमिलि-यवस्तु यदात्मकं तद्रूपेणैव तद्ग्रहणे सन्यज्ञानमन्यथा तु मिथ्याज्ञानम् , न च केवलकप यात्मकंवा जैनसिद्धा, किन्त्वनन्तपर्यायात्मकमित्येकस्मिन् काले एकपर्यायमात्रेण धादिवस्तुग्रहणेन्यथावग्रहप्रसक्त्या सम्यग्दृष्टिनोऽपि कथं सम्यग्ज्ञानं स्वादिति भावः । “जे ए जाणइ से सर्व जाणई"ति-अत्र "जे सव्यं जाणइ से एगं जाणइ" इत्युत्तराद्ध ज्ञेयम् । अयमानः इह जगति परमावादिकमेकक वस्तु स्वपरपर्याय समस्तत्रिभुवनमयम् , तथाहि-परमाणौ तावदेकगुणकालत्यादयः पड्गुणहानिद्धिलक्षणा वर्ण-गन्ध-रस (पदियो भिन्नाभिन्नकालांना अनन्तास्वपर्याया इन तत्तत्क्षेत्रतत्तकालयतिपरमाणुद्वयणुकन्यणुकाधनन्तपुलस्कन्धान जीवादिसमस्तवस्तुभ्यो व्यावृत्तत्वात्तद्व्यावृतिलक्षणाअना परपर्याया भव. ति, एवं द्वयणुकादिष्वपि भावनीयम् , न चान्यसमस्तवस्तुल्यावृत्तयोऽभावरूपत्वारस्वरूपसबन्धन विवक्षितपरमायादिवस्तुनि विद्यन्त इति तद्धमत्वात् धर्मस्य च पर्यायरूपत्वेन भवत्वन्यव्यावृत्तिलक्षणानन्तपर्यायावलीढं तत्, न चैतावताऽन्यसमस्तव तुमयं तसिद्धयति, व्यावृत्तिप्रतियोगिनां समस्तबधूनां तत्राऽसत्वादिति वाच्यम् , स्वाभाववत्वसम्बन्धन प्रतियोगिनामपि तत्र सत्नात् , तथा च प्रतियोगिभूतानां तेषां तद्धमत्याद् धर्मधर्मिणोश्व कथ श्चिदभेदात् सिद्धत्येव सर्वमपि वस्तु सर्वमयम् । तथा च य एकं किमपि व सर९३५९पर्यायैर्युक्तं जानाति स सर्व लोकालोकगतं वस्तु सर्वस्वपपर्याययुक्त जानाति सर्ववस्तुपरिज्ञाननान्तरीयकत्वाद् याथात्म्यनैकवर ज्ञानस्येति । यश्च सर्व सर्वपर्यायोपेतं १४ जानाति स एकमपि घटादिवर सर्वपर्यायान्वितं जानाति, ययावस्थितैकवस्तुज्ञानना जरीयकत्वात् सर्ववस्तुज्ञानस्य, तथा चैकं 4 हतः सर्वयन्तुग्रहणं निराबाधं सिद्धम् , यत एक वस्तु (चान्यसयतच्यावृत्त, व्यावृत्तिश्चामावः, न च प्रतियोगिनि सर्ववन्यज्ञाते तदमायो ज्ञातुं शक्या, अमावज्ञान प्रतियोगिज्ञानस कारणत्वात् । यह। मयूराण्डकरसीय Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २०६ : सवार्थविवरणदार्थदीपिका । द्वा० सू० टी० टिजाने सर्वत्रैवेति तदेव प्रमाणमिति स्थितम् । यद्येवं कथं तर्हि मतिश्रुतयोरन्तर्भूतानीत्युक्तमत आहेनेत्रपिच्छोदरचरणादितत्तदनेकावयवतद्गततत्तद्र परसायनुकूलानन्तशक्तिवत्पुद्गलपरमाणुषप्य- .. तीतानागतवर्तमानानन्ततत्तत्पुद्गलपर्यायपरिणमनशक्तिसद्धावादनन्तकालेन विससप्रियोगादित ; तत्सामग्रीसमवधाने सति सर्वेण वस्तुना सर्वावस्थानी परस्परानुगमेनासादितत्यादवस्थातुधान'स्थानां कथञ्चिदनन्यत्वात्सर्वे यदासर्वरूपेणापि विवृत्ता विवर्तन्ते विवर्तिष्यः । इति सर्व सीस्मकं कथञ्चिदिति सिद्धम् । तथा च यः कश्चिदविशेपित एकं परमाण्वादिद्रव्यं पश्चात्पुरस्कृतपर्यायं स्त्रपरपर्यायं वा जानाति परिच्छिनत्ति स सर्व स्वपरपर्यायं जानाति, अतीतानागतपर्यायिद्र०यपरिज्ञानस्य समस्त स्तुपरिच्छेदाविनाभावित्वात् , इदमेव हेतुहेतुमद्रावन । लगयितुमाह-जे सध्यमित्यादि, यः संसारोदर विवरवत्ति सर्व वस्तु जानाति, स एक घटादिवस्तु जानाति, तस्यैवातीतानागतपर्यायभेदस्तत्तत्स्वभावापत्याऽनाधनन्तकालतया समस्त- .. वस्तुस्वभावगमनादिति । तदुक्तं सम्मतौ-"एकदावियस्म जे अत्यपजया, वयणपजवा पानि। तीयाणागयभूया, तावइयं तं हवइ दव्यं ॥ ३१ ॥” इति । अथैवंविधं परिज्ञान केवलज्ञानिन । अगवन्तं विना नान्यस्यास्मदादेछिमस्यस्यातीन्द्रियज्ञानाभावात् सम्भवतीति चेत्, सत्यम् , सभ्य दृष्टिन२७मस्थस्य साक्षात्तथापरिज्ञानाऽभावेऽपि “जे एग जाणइ से सव्वं जाण" इत्याधागमप्रामाण्याभ्युपगमद्वारा स्वपरपर्यायापेक्षयान राधर्मात्मकरमेनकै व सर्वमयं सर्व च सर्वमयमिति श्रद्धानोपनीतवासनावतस्तस्यापि भावतो तथापरिज्ञानमस्त्येव, तदानी तस्य मतिज्ञानावर णकर्मक्षयोपशमजनितस्याद्वाद संस्कारसद्भावेन भावतोऽनन्तपर्यायात्मकतया वस्तुग्रहणपरिमाणस्याऽक्षयात् । उक्तश्च विशेषावश्यक भाष्ये-"पजायमासयन्तो, एकं पि तओ पओयणवसाओ । तत्तियपजायं चिय, तं गिण्हइ भावओ वत्थु ॥३२२॥" तस्माजाग्रतस्पतस्तितश्चलतो वा यथोक्तागमश्रद्धानद्वारा परमगुरुप्रणीतयथोक्तवस्तुस्वरूपज्ञानपरिणामस्थ सर्वदेव भावात् सम्यग्दष्टिज्ञानं सर्व प्रमाणमिति सिद्धम् , अत एव " सम्मदिहोणं भंते ! कि. नाणी अन्नाणी ? गोयमा ! नाणी नो अन्नाणी इत्यागमोऽपि सङ्ग छते । अत्रेदमप्यवधेयम् ननु त्रिभुवनान्तर्गतसर्वद्रव्यसर्वपर्याया अपि विवक्षितवस्तुनः पर्याया इति सिद्धाो गीयते, यतो न ह्यन्यसबद्रव्यपर्यायवज्ञातेषु विवक्षितवस्तुसम्पूर्णाशैर्ज्ञायते ज्ञातेषु च ज्ञायत. इति हतोस्ते तस्य धर्माः, प्रयोगः-येषामनुपलब्यौ यनोपलभ्यते उपलब्यौ चोपलभ्यते तस्य ते धर्माः, यया घटपटादेटित्व५८त्यादयः, नोपलभ्यते च याथात्म्येन विवक्षितवस्तु तदन्यसईद्रव्यपर्यायाणामानुपलब्धौ, उपलभ्यते च तदुपलब्धौ इति ते तस्य धर्मा इत्येतत्कथं सग च्छते, यतो न हि परधनं स्वधनम् , न हि कोऽपि कोविदः परधनेन धनवानयं पुरुष इति व्यवहरतीति न्यायात् , एवं परद्रव्यपर्याया अपि कथं विवक्षितवरपर्यायाः , तेषामवि- . घरमावसम्बन्धनान्यद्रव्यनिष्ठत्वेन स्वावृत्तित्वादिति चेत्, सत्यम्, यदि साक्षात्सम्बन्धन ५५द्रव्यपर्यायविशिष्टं विवक्षित पस्त्विति मन्येत तदा स्यादुक्तदोषः, न चैवम् , स्वाभाव- । Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्यविवरणमूढाथदीपिका । ० स० टी० : २०७ : नयादातरेणेत्यादि । नया नैगमादयस्तेषा पाद: स्वरुचितार्थप्रकाशन तस्यान्तरं भेदस्तेन मतिश्रुतयोर्विकल्पा ये भेदास्तज्जानि यथाऽन्योक्तप्रमाणानि भवन्ति तथा परस्तान्नयविचारणाया वक्ष्यामः । शब्दनयस्व मिथ्यादृष्टिरन्यो वा नास्तीति वक्तव्यम् , तन्मतेन प्रमाणानीति, वस्तुतः परैः पृथक्वेनाशाङ्कतान्यनुमानादीनि प्रमाणानि सम्यग्दृष्टिसम्बन्धीनि मतिश्रुतयोरन्तर्भवन्तीति तात्पर्य न कोऽपि दोष इति स्मतव्यम् ॥ १२ ॥ विधानतो लक्षणतयति प्रभेदास्वस्य पुरस्तादृश्यन्त इत्यनेनास्योक्तत्वं द्रव्यम् । भिद्यतेऽनेनेति भेदः, प्रष्टो भेदः प्रभेदः । प्रभेदश्च प्रभेदाश्च प्रभेदा इत्येकशेपाश्रयणात् । अत एवात्र विधानस्य प्रागुपरावेऽप्यर्थक्रमस्य बलवत्त्वात् प्रथमं लक्षणमाहपवरूपपरपरसम्बन्धेनैव तत्र वैशिध्यस्साङ्गीकारात् , अत एव परद्रव्यपर्याया विवक्षितपनि परपर्याया इत्याख्यायन्ते, सामावयवसम्बन्वरूपपरपसम्बन्धेनैव तत्र तेपां सत्वात् , तथा च यथा भिपवरो महाविपमप्योपधिप्रयोगादमृतमिव करोति तथा सम्यदृष्टिलीयोऽपि महाविपाद प्यतिक्रान्तरूपमज्ञानं भगवचनौपधिप्रयोगादमृतोपमज्ञानरूपं करोति, भारतादिमिथ्याश्रुतस्य सम्यग्दृष्टिपरिगृहीतस्य सम्यग्ज्ञानरूपेण परिणमनात् । उक्तश्च । " सम्मत्तपरिग्गाहियं सामसुयं" इति । नन्वं तर्हि स्वातिनक्षत्रजलमहिमुखप्रविष्टं विपरूपणेव मिथ्याष्टिपरिगृहीतमङ्गानङ्गप्रविष्टं सन्यश्रुतमपि मिथ्याश्रुतरूपेण परिणतं स्यादिति चेत्, तत्तद्वत्परिणामस्येव श्रुतपरिणामस्यापि पात्रानुसारित्वाद् यथापा तथा स्थादेव, सम्यग्दृष्टयथावस्थिततत्वबोधतो मिथ्याश्रुतस्यापि विषयविभागेन याथार्थेन योजनात्. तत्परिगृहीतं मिथ्याश्रुतमपि सम्यश्रुतम् , मिथ्याश्वाऽयथावस्थितयोधतरसाय+श्रुतस्थापि परीत्येन योजनात्. तत्परिगृहीतं सश्रुतमपि मिथ्याश्रुतम् । यदाह भाष्यकार:-"अंगाणंगपबिटुं, सम्मसुयं लोइरं तु मिच्छसुयं । आसज उ सामित्तं, लोइअ-लोउत्तरे भयणा ॥ ५२७ ॥” इति । तथा च परप्रवादिभिर्मिनप्रमाणत्वेन प्रोक्तान्य प्यनुमानादीनि सम्याष्टिपरिगृहीतत्लेन सम्यग्ज्ञानरूपाण्येव, सम्यग्ज्ञानं च प्रकृते मतिज्ञानं श्रुतज्ञानश्चेति तत्रैव तान्यन्तर्भवन्तत्यिाशयेनाह वस्तुतः परित्यादि । १२ ॥ ' भाष्ये त्रयोदशसूत्रावतरणिकामाह अत्राह-उ भवतेत्यादिना; प्रथमाध्याये नवमसनमायोक्तेन "प्रभेदात्वस्य पुरस्ताद्वक्ष्यन्ते" इति पाठेन, विधानत इत्यस्य लक्षणतश्चेत्यस्य च ग्रहण यथा कृतं तथा चाह भिद्यतेऽनेनेति, प्रभेदश्चेत्यनेन लक्षणत इत्यस्य प्रभेदाश्चेत्यनेन च विधानत इत्यस्य ग्रहणं कृतम् । कथमिति चेत्, उच्यते, मतित्यायन्यतमज्ञानत्वरूपस्य. मतिज्ञानलक्षणस्यैकत्वात् प्रभेद इत्येकवचनापदेन. ग्रहणम्, विधानस्यावान्तरभेदरूपस्यानेकत्वाद्ववचनान्तेन प्रभेदा इत्यनेन ग्रहणमिति बोध्यम् । पाठक्रमापेक्षयाऽयक्रमस्य वलवारमाद्विधानतो लक्षणतश्चेत्यत्र विधानस्य पूर्वमुक्तत्वेऽपि लक्षणतरसामान्यज्ञाने सत्येवावान्तरधर्मजिज्ञासया विभागप्रवृत्तलक्षण पूर्वपश्चाविभाग इत्यर्थक्रमे लक्षणमेव पूर्व निरूपणीयमित्याह अत एवेत्यादि। . Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २०८ : तत्वार्थविवरणगूढार्थदीपिका । ३० सू० टी० सूत्रम् भतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ताभिनियोध इत्यनान्तरम् ॥१॥१३॥ (भाष्यम्) मतिनानं स्मृतिज्ञानं साक्षानं चिन्ताज्ञान आभिनियोधिज्ञानमित्यनान्तरम् । (4शो० टीका) तथा च मत्यायन्यतरज्ञानं मतिज्ञानमित्यत्र लक्षणे तात्यर्थम् । अनयन्तिरमिति यावद्विशेषाणामेव सामान्यरूपत्वादित्यर्थः । मतिज्ञानमित्यादि भाष्यम्, प्रत्येकं ज्ञानशब्दो विशेषाणां पृथगूलक्षणीयत्वद्योतनार्थः । मतिज्ञानं नाम यदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तं . वर्तमानकालविषयपरिच्छेदि । रतिज्ञानमतीत कालावच्छिन्नार्थपरिच्छेदि । न च प्रमृष्टतत्ताकस्मरणेऽव्याप्तिः, तस्यापि वस्तुत ईशत्वात् ,. न च प्रत्यभिज्ञानेऽतिव्याप्तिः, अनुभवाजन्यत्वेन विशेषणात् , प्रत्यभिज्ञानं चानुभवर तिहेतुकं तिर्यतासामान्यविषयं प्रसिद्धम् , अनुभवानन्यत्वमपि साक्षाद्विवक्षणीयम्, अन्यथा स्मृतिमात्रस्य संस्कारद्वाराऽनुभवहेतुकत्वादसम्भवापत्तेः । संज्ञाज्ञानं प्रत्यभिज्ञानं पूर्वापरसंकलनात्मकम् । अत एव संज्ञासंज्ञि सामान्यरूपत्वादिति-मविज्ञानवतित्यादीनां मतिज्ञानत्वरूपसामान्यधर्मव्याप्यावातरधर्मत्वेन मतिस्मृत्यादिपु तत्सत्वे तचापक्रीभूतमतित्वसामान्यधर्मस्यापि तत्र सत्वेन तेषां तद्रूपेण मतिसामान्यस्वरूपत्वादित्यर्थः, तथा चाम्रनिभ्वाशिंशपादियाबवृक्षाविशेषान्यतमस्त्ररूपव्यतिरेकेण वृक्षसामान्यस्वरूपस्यानुपलम्भात्ताशवृक्षविशेषाणामेव वृक्षत्वावच्छिनसामान्यस्वरूपत्वमिव मतिरमृत्यादियाबविशेषान्यतमस्वरूपव्यतिरेकेण मतित्वावच्छिन्नसामान्य स्वरूपस्थानुपल मान्मतित्वावच्छिन्नसामान्य निरुक्तविशेषस्वरूपतां परिहाय नैव स्वस्वरूपतां यत्तुं शक्नोतीत्यतसामान्यविशेषयोः क्रयश्चिद्भेदेऽप्यभेदसद्भावादनान्तरत्वं ज्ञेयमिति भावः । स देवदत्त इत्याकार के स्मरणे ततांशभानादेवानुभवकालरूपातीतकालावच्छिन्नार्थस्य भानम् , तत्तांशप्रमोपे च न तद्भानमिति प्रमृष्टतत्ताकस्मरणेऽव्याप्तिरित्याशय निषेधति नचति । निषेधे हेतु. माह-तस्थापनि । तस्यापि प्रमतत्ताकस्मरणस्यापि, वस्तुत:-परमार्थतः, ईशित्वात्अतीतकालावच्छिन्नार्थपरिच्छेद रूपत्वात् । अतीतकालावच्छिन्नत्वं छुपलक्षणम्, न त्वर्थस्य विशेषणमिति तद भानेऽपि न क्षतिरिति भावः। यहाऽतीतकालावच्छिन्नार्थपरिच्छोदज्ञानवृतिमातिज्ञानत्वच्याप्यधर्मवर स्मृतिज्ञानत्वमित्येवं लक्षणकरणे नोक्ताव्यातिदोष इति । तिर्यगूतासामान्यविषयमिति-देशानुतिसशपरिणामलक्षणतिर्यसामान्यविषयक तजातीयोऽयं घट इत्याधाकारं परापरविवर्तव्यापिद्रव्यलक्षणोध्यतासामान्यविषयकं कुण्डलाङ्गदादिषु तदेव सुवर्ण स एवायं जिनदत्त इत्याधाकारमित्यर्थः । तथा च प्रत्यभिज्ञानस्यानुभवजन्यत्वादनुभवजन्यत्वघटितोततिलक्षणस्य तत्र सङ्घटनामानानातिव्याप्तिरिति भावः । सज्ञाज्ञानमिति-अस्थार्थमाह-प्रत्यभिज्ञानमिति। तदर्थमाह-पूर्वापरसङ्कलनात्मकमिति-पूर्वोत्तरकालावच्छिभव्यत्यभेदाचाहि य एव पूर्व मया दृष्टस्स एवायमित्याधकिारमित्यर्थः। एवं तजातीयोऽयं घटः अंपण्डलादिषु तदेव सुवर्णमित्यादिज्ञानमपि संज्ञाज्ञान प्रत्यभिज्ञानापरनामक शेयम् । . Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -वार्थ विवरणगूढार्थदीपिका । त्रयो० सू० टी० : २०१.: सम्बन्धोऽप्यनेनैव गृह्यते इति संज्ञाशब्दोऽन्वर्थः । चिन्ताज्ञानमागामिनो वस्तुन एवं निष्पत्तिर्भवत्यन्यथा नेत्याकारम् । आभिनिवोधिकमभिमुखो निश्चितो यो विषयतत्परिच्छेदोऽशेऽप्ययोग्यस्पर्शरहितो योग्यसाक्षात्कार इति यावत् ॥ १३ ॥ . .. अनेनैव संज्ञाज्ञानेनैवेत्यर्थः । एतेन गयो गवयपदयाच्य इत्युपमितिफलमपि संज्ञाज्ञानरूपमेवेति तस्य मंतिज्ञान एवान्तावान तज्जनकमतिरिक्तमुपमानप्रमाणमभ्युपगन्तव्यमिति सूचितम् , न चोपमिनोमीति प्रत्ययरलात्तद्भिनं सिद्धमिति वाच्यम् , अनुमितित्यादिकमियोपमितित्वमपि भतिज्ञानवव्याप्यमेवेत्य युपगमे दोपाभायात् । अभिमुख इति-सन्मुखः यथार्थबोधोत्पादनक्षम इति यावत्, एतेन भ्रमात्मकनिश्चयाविषयस्य व्यवच्छेदः कृतः । अभिमुखोऽपि विषयः क्षयोपशमाधपाटवे निश्चितोऽपि स्थादित्यत आह निश्चित इति । एतेन सन्दिग्धविषयस्य व्यवच्छेदः कृतः । यो यसाक्षात्कार इति-अत्र योग्यताऽऽभिनिबोधिज्ञानप्रतिवन्धकीभूतस्त्रावरणकर्मक्षयोपशमलक्षणा, सैव च तत्तत्प्रतिनियतप्रत्यक्षविषयत्वे प्रयोजिका, न तु स्वजनासनिकश्रियत्वं तन्त्रम्, नाप्यर्थः, तथा च प्रत्यक्षस यद्विपयत्यावच्छेदेन सावरणकर्मक्षयोपशमलक्षणयोग्यताऽऽविर्भवति तद्विपक-यमेव भवति, नान्यविषयकत्वम्, एवं विषयस्यापि स्वावच्याविभूतावरणक्षयोपशमादिलक्षणयोग्यताविशिष्टं जन्यतासम्बन्धेन यज्ज्ञानं तद्विपयत्वमेव, नान्यज्ञानविषयत्यम् । अत एव परोक्षज्ञानस्यार्थसन्निकर्पाद्यऽजन्यतया परेणाप्यभिप्रेतस्य प्रतिनियतविषयत्वव्यवस्थोपपत्तिः, यदर्थांशे परोक्षज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमलक्षणयोग्यता तदर्थविषयकत्वस्यैव भावात् । नन्वय द्रव्यचाक्षुषादौ तत्प्रतिबन्धककर्मक्षयोपशमत्यादिना हेतुता वाच्या, तद्धतुता च चक्षुःसनिकदिश्व, तथा च तद्धतोरित्यादिन्यायेन प्रत्यक्षे इन्द्रियार्थसनिकस्य हेतुत्वं युक्तमिति चेत्, मैवम् , यतोऽन्तरजाहिरङ्गयोमध्येऽन्तरण स्यैव बलीयस्त्वमिति न्याय एकातरङ्गरूपक्षयोपशमस्य हेतुत्वे विनिगमक इति स एव हेतुर्युक्तः । एतेन स्थैर्यपक्षे विषयनिष्ठाया योन्यताया अपरावृत्तेनयनसन्निकर्षस्या हेतुत्वे भित्याधावृतस्य चाक्षुपापत्तिरित्यादिकमपातम् , भिन्यादिना चाक्षुषजनककर्मक्षयोपशमस्य प्रतिवन्यात् , अप्रतिवन्धे वा तद्वतां चाक्षुषापत्तेरिष्टत्वात् । अपरेषां तु मते दिव्याञ्जनादिसंस्कृतचक्षुषामनुभूयमानाभित्याद्यावृत्तार्थचाक्षुपानुपपत्तिः, चक्षुस्सन्निकाभावात् , तत्र चाक्षुपत्यापलापे च घटादिज्ञानेऽपि तदपलापप्रसङ्गः । किञ्च प्रत्यासत्तिहेतुत्ववादिना नेत्राञ्जनसूक्ष्मतारकाचप्रत्यक्षत्वायाऽत्यासचतिदुरत्वयोपित्वं वाच्यम्, आदर्शसा मुख्याञ्जनादिसन्निधाने च तत्प्रत्यक्षत्वाय तत्तद्विपये तदभावविशिष्टतत्तदासत्यतिदूरत्वाभावस्य चाक्षुपहेतुत्वं वाच्यमित्यतिगौरवम् । मम तु क्षयोपशमे आदर्शसा ख्याञ्जनादिसन्निधानस्य विशिष्य हेतुता, न तु चाक्षुषादौ, तत्र तु सा विलक्षपक्षयोपशमत्वेनैव समानप्रत्यासत्येति लाववम् , किश्वेन्द्रियप्रत्यासत्तेरपि क्षयोपशमाधायकत. यैव प्रत्यक्षहेतुता वाच्या, असल्येयसमयप्रविष्टानामेव पुद्गलानां ग्रहणयोग्यताथी: पारम२७ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તત્ત્વવિવમૂઢાર્થીપિન | ચતુરચર્સે ટી સૂત્રમ્ તાન્ડ્રિયા નિમિત્તમ્ ॥o ॥ ૪ ॥ (માયૂ) તવેતમતિજ્ઞાન દ્વિવિધ મતિ યિનિમિત્તનિન્દ્રિયનિમિત્તે । તત્રેર્ગદ્ધનિમિત્તે પરોતાષ્ટ્રીનાં પશ્ચાનાં સ્પŕવિવુ પÃÕવ વિષયેલુ 1 અતિર્વાિમિત્તે મનોવૃત્તિોયશાન = ! (યશો॰ ટી!) ફન્દ્રિનિમિત્તે સ્પર્શે તમેવેન પશ્ચાધિમ્ કે સઁવાદ ન્દ્રિયાનામેર્નામાનિ ન્દ્રિયાનમિત્તે દ્વિવિધક્—મનોર્મિનોનન્યમ્, ોધ ન્દ્રિયાનેન્દ્રિયવ્યાપારાનાહિતિશયક્ષયોસિદ્ધાન્તર્ગમયાનાત્, સત્સમ્યગ્યે ચોધાનનુમત્રેન તસ્યાર્થી યુńયુત્ત્તત્ત્રાત્, બસહુચયંત્ર સમયૈ લયોપમઘેરવૅ સિદ્ધે, તા ૬ ચોર્યાન્દ્રર્યાવષયસન્ધન્ધાનામેન પે ક્ષયોપશમહેતુત્વેનાનુ મ મુખ્ય પ્રવૃક્ષહેતુતાં વવતા વિલયોપશમત્વનૈવ હેતુતાયાં જ હાર્વે નોહ્રીયતે ? । બાંત હત્યાનીનાં વિગ્નિવંશન મેહેર્ણય માત્તત્ત્વના વિશિષ્ટત્વમતગ્નર્યો નવમેળાથવાનsસફ્ળતા‰ન્દ્રાનામ્, ગતો માંતવિશેષો મતિજ્ઞાનવિમ્યા માંવિશેષાાંમાનવો ધસ્ય વૈજયંાંતપત્તયે યોગ્યસાક્ષાત્કારપત્તયા તેંડુવાને ચોપિાર્થમવન્ધ્ય, હથથમવત્ઝર્વે ત્રનુમાનવિરોક્ષજ્ઞાને મિનિોધિષ્ઠાબિિતિ વોખ્યમ્ ॥ ૨૩ II તુતંત્રવતળિામાહ ક્ષેમુત્વા વિધાનમત થીન્દ્રિયાનેન્દ્રિનિવસ્પનત્ય મતિજ્ઞાનયેન્દ્રિયાનિન્દ્રિયવહિતા-વ્યાપારસમ્પાવવાઢતુતઃ પરોક્ષત્વમેવ, ત્રેન્દ્રિયવેન દ્રવ્યેન્દ્રિયમેવ ગ્રાહમ્, મૈં તુ માલૅન્દ્રયસુપયોગક્ષળમ્, તસ્ય સાલાવાાવ્યાપાહ્યુન વ્યવધાનાવોનાત્, તથા વ્યાપામરસાધારણ વિબત્તિનિત્તિ વ્યવહાર ત્ત્વન વિષયે દેશતો વિશવર્ત્યન = મન્દ્રમૌર્યષ પ્રત્યક્ષત્થામતિ પક્ષે સહિત ર્યાલયયાત્રેનૈષિ પ્રત્યક્ષામન્દ્રિયમેવેનૈત્ર મિમિનબવેશું મત ત્યાશયના ફાન્દ્રનિમિત્ત સ્પર્શનામેિવેન વિમિતિ સ્પર્શનેૉન્દ્રયવાઘસ ધાળધર્મોમાં∞ત્રસ્પર્ધાનાીન્દ્રિયનિર્ધારણતાનિયેતસાંવ્યવહારિપ્રત્યક્ષવવ્યાપ્યુંધમાં∞ાર્યતાસાહિત્યમિન્દ્રિયાનમિત્ત * ૨૨૦ : लक्षणमुक्त्वा विधानमाह રવમ્, સાંવરિષ્ઠત્યક્ષત્ત્વવ્યાપ્યધર્મય સ્પાશેનવાસનાવિરતિતત્વ વઋભાયેતાશાવ્યું સ્પાર્જનનાસનાવો, તથા ધ ાર્યમેવસ્ય જાળમેવાયત્તત્ત્વન વાર ભૂતસ્પર્શનારીન્દ્રિયાળાં પશ્ર્વમેન્ટ્સેન તત્ત્વયોવ્યપાર્જનવિદ્રત્યક્ષત્મવાર્યમેવોગી પશ્ચવિધ તિ માવઃ । અનિન્દ્રિયનિમિ મિતિ-ન્દ્રિયાન્માનન્દ્રિયં મન લોચેતિ ાંમત્ત યહ્ય મતિજ્ઞાનસ્ય સનિન્દ્રિયનિમિત્તમ્, બસ ડ્વાદ દ્વિનિમિત । દ્વવિયનેવા-મનોવૃત્તિરિત્યાદિના નનુ સુઢિસાક્ષાત્હાર સર્જાતા પ્રત્યક્ષત્બાર્નાશ્રુતિવ્રત્યક્ષર્ષાવૅત્યનેન સરળત્ને સિદ્ધે મન ફન્દ્રિયં સુવિસાક્ષાત્કાર પાત, યવત્પ્રત્યક્ષરાં તત્ત્તવન્દ્રિયં યથા વલ્લુરાવે, સુર્વાવિસાક્ષાોરરમાં ક્રૂ મન, તમાાતિન્દ્રિયમિયનુમાનેન મનસ હન્દ્રિયત્વે સિદ્ધે જ્યાંનન્દ્રિયામાંત શ્વેત, મૈવમ્, મનોઽનન્દ્રિયં ઍનિયતાવિષયજ્ઞાનાષાવનાત્ આત્મવત્ રજ્ઞા મનોગનન્દ્રિયં પદ્માવાસ્યંત ાત્ અસમ્પૂર્ણાદા અનુવન્ત્યાવદ્વિત્યનેન મને Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ વીર્યવિવાળવાર્થીપિw I ago ટુ ટીવ ૨૨૨૪ પંરામ યથા વાઢીનાં નીત્રાથમિકબ્દસાધનતારાનમ્ ત્રિન્દ્રિયનામાંપિગ્નેન્દ્રિય પર્યન્તાનામના જાનામિન્દ્રિયનિમિત્તવ મતિજ્ઞાનમ્ ! તેમનાનાં ક્ષુરાવિધ્યાપારમા તિજ્ઞાનમનિન્દ્રયનિમિત્તનું, નાવસ્થામાં પનાવિના મનસા વોયુક્સચેન્દ્રિયનિન્દ્રિયનિમિત્તમ્ યજ્ઞાનં વૈવેન્દ્રિયાતીમિતિ વિમા વન્તિ તાંત્રિજોતન્નેન્દ્રિયનન્યતાવાઝે મૈન્દ્રિયë, મનોઝન્યતાવર્જીવ તીર્ષાહિफत्वम् , उभयजन्यता સોનિન્દ્રિયવસિ, નિન્દ્રિયનિમિત્તાનેન્દ્રિયનિષ્ઠાવાતા નિતિસવ્યવહારિભ્રત્યસત્વવ્યાંથધર્મવિર વાવચ્છિન્નતાશાહિત્યમ્, સાંવ્યવહારિત્યક્ષત્વવ્યાખ્યધર્મ વિશેષ માનસવધિજ્ઞાનતિ તદ્ધવચ્છર્યતાશા માનસ પક્ષમાં જ્ઞાનતિ તદ્વયમનિન્દ્રિયનિમિત્ત, વરૂક્ષ કુંપતિઘરાક્ષગતિવાણં, સવ્યવહારિજાત્યક્ષજ્ઞાનમાર્ગે મનસા વાપરત્વેન જ્યારે મનોપાનિન્દ્રિયનન્યાદિતિ વાગ્યમ્, યતાત્ર મનોનપિતાર્યતા સાંવ્યવહારિશજ્ઞાનવત્નસામાન્યધર્માવચ્છિનૈવ, ન તુ સાંવ્યવહારિાયક્ષત્વવાથધર્માવચ્છિનેતિ . ફન્દ્રિયવિષયનિમિત્તાત્કાતિજ્ઞાનય પરોક્ષત્વમતિ તૈયવિપક્ષે ત્વપેક્ષમાળાનામર્થહોવાહનાં સાધારણવાળવાન હૈ તત્તર્યમેઃ gિ તત્તવસાધારણારત્યક્ષા ધારાસળી મૂતતત્તવિન્દ્રિયમેનેન્દ્રિયનિમિત્તમતિજ્ઞાનય યો મેવાdવ્યતિપાતનાયાહ ફન્દ્રિયનિમિત્ત સ્પનાવિમેન પદ્મવિશ્વામિતા વથા વન્યાવીનાં નવાથમિસપછસધિનતાજ્ઞાનામાંતિ-ઉચ વિશેષાવવામાળે “વષ્યમૂહસMા” || પરસે II ફતિ ! તક્ષ્ય ૨ ગ્રાનાં પૃથિવ્યસનોવાયુવનસ્પતિનામૂવૅસંજ્ઞા વૃજ્યારોહૃપાદ્યમિકા પૌથસંજ્ઞા મવતીર્થ નાત્ર પર્શનેન્દ્રિય નિમિત્ત, ન વા મના, જિતુ વર્લ્ડ મત્યજ્ઞાનાવરાવર્મયોપશમ તિ . તવામબાયેવ દ્રવ્યહોવા શેપ વિજ્ઞાનમવિમસ્તાં થપિ છક્યતે. વયાવીનાં વૃત્તિનીત્રાથમિસર્ષક્ષણમ્ + ૨૮ | તપનિન્દ્રિયનિમિત્તાવિ વીર્યને ! દેતુમાવે મગ , નાક્ષામાં ને મનોગપ થવું / ર૧ મત્યજ્ઞાનાવરીયલોપશમ થવ હિ. ઈ હેતુતામો જ્ઞાનેગેમજશુતે ર ય . ૨૦ ” દત્યુમિતિ. ૩જીને ફન્દ્રિય જાનિન્દ્રિયં ૨ ફન્દ્રિયાનેન્દ્રિયે જ ફન્દ્રિયાનેન્દ્રિયાળ, તાનિ નિમિત્ત વંન્દ્રિયાનેન્દ્રિયનિમિત્તવિશે સમાસાલ્ટન્ચે મતિજ્ઞાનનૈવિધ્ય વિવૃતિ શેન્દ્રિયાતીનામિયાના નાવસ્થામાં સ્પર્શનાવિના મનસવોપયુtન્દ્રિયનિન્દ્રિયનિમિત્તમિતિ-નનુ પતાશાનં જિં પાર્શનાવિજ્ઞાનમતિ પદે વિવા માનસજ્ઞાનમિતિ , ૩ખ્યતે, કૃશત્રુષ્ણમહં શીત વેતિ વૃદ્દો સ્પાર્શનાદિજ્ઞાનામિત્વેવ થપયમ્, તાત્ર પર્સનાલીન્દ્રિયાગામેવ સ્પર્શનાહીન્દ્રિયસ્વાહિનાસાધારણારણવાહિતિ સંશિષન્દ્રિયાળાં વા વાહીનાવિન્તના નુબ્રા વધાવિહંજ્ઞા સા મનોજ્ઞાનાવરણહર્બલ પિરામર્ઝાનિત માનસિવજ્ઞાનરૂપૈવેતિ તત્ર મન વાસાધારણરત્નમતિ તન્યતા છે મિત્કાલફ્રાયામાહ-નોનવતાવવાં વર્ધારિમિતિમયનતિ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તાવાર્થવિવાધિદીપિ ઈવવા પૂ૦ થી aઈલમાંના, વર્ષાવિયાવસ્થાવિવ્યાવૃત્તન્દિયત્વવ્યાખ્યત્વ સ, શોધનન્યતાવ વિષ્યજીજ્ઞાનત્વમ્, મત્યacર્વે વોnત્રયાખ્યત્વે ગતિવિશેષો વા, વેનૌસંજ્ઞાવાઃ કાળિયારબ્ધ ક્ષવિધાનામ્યામુજીય મતિજ્ઞાનય મેવાના સૂત્રમ્ અવદ્યાપાધરણા છે ? ૨૫ | (માધ્ય) તામતિનાબુમનિમિત્તામળેજારાએંતુર્વિધે અવતિ | તારા-વધ૬ હાડકો ઘંબા તા તા થાવનિર્વિદ્યાર્થીમાન્ડોવનાવધાળમવઃ | વહો પગમા વનમવઘામિન થતમ્ અવ હીતે વિષયાર્થરાવાનુ મન નિશ્ચવિરોષનિન્નાલાંચેષ્ટા . હા હું તને પરીક્ષા વિવાળા વિકાસેલ્યનથતિમ્ | અવગૃહો વિષ . સજિતિ કુળોષવિવારપષ્યવાણાપનો પાયા વાળો પામર, અપનો અપવ્યાધર તમને તમામનુત્તરવરતમ્ | ધારા પ્રતિત્તિર્યાવં મત્યથાનમવઘા =ા શાળા प्रतिपत्तिरवधारणंभवस्थानं निश्चयोऽवगमः अवबोध इत्यनर्थान्तरम ॥ (યશોટા) વારા ફતિ હસ્ય, પર્શનેન્દ્રિયનિમિત્તે વધુ િવવિન્મનોનિર્વિ વિવિઘમિત્રેવં વાળ્યમત્ય | વીરતાથૈતો વિઠ્ઠી હત્યા-મવગ્રહ હાષાયો ધારોતિ ! પરેરાઅનાનિદ્રામના નાનન્દ્રિયામોમાન્યતેત્વર્થઃ | કર્થનાવિતિ-સ્વ ધર્મવચ્છિનસામગ્રીસમુદ્રિત્યર્થ ન સર ટ્રાતિ-વધિન્નામાવતિ માનસે વા િવર્ષિાવુિં વર્તતે, વર્જિવામાવવસ્થવધિવેશધર્વ વત, ૩મય રીSિaધજ્ઞાને સટ્ટાવાલામતિ, , મનોમન્યતાવચ્છેદ્ર યજ્ તાત્વેિ તવધ્યારિવ્યાવૃત્તમેવ સ્વીબિયત સુત્યવધિત્વસામાનવિયસ્ય તત્રામાવાવ, ન્દ્રિયનમ્યાં વન્ય જ્ઞાને થીજાહેિવં વન્દ્રિયાત્વવ્યાયમેવ સ્વીનિયત ફતે તન્દ્રિયામાંવસામનવરખ્યામાવાદ્રિયના સાહૂમિથેર | ૪ || પદ્મશત્રસ્થાવતરાળામાહ-ક્ષણવિધાનાખ્યામુત્યના છે યાવન્મનમિત્ત વતુર્વિધાનિતિ-શત્ર યાવત્પાદ્રસનેન્દ્રિયનિમિત્ત વતુર્ઘ પ્રાણેન્દ્રિયનિમિતું ચતુર્વિધું વક્ષુરિન્દ્રિયાનાાિં વાર્ષેિ શ્રોત્રેન્દ્રિયનિમિત્ત તુર્વિધામતિ રાઘ, ગાયત્તવન્મનાં રણમેનમેદ્ર વિદ્યાવિતુર્થી વાર્તાનાં શરળાને સ્પર્શનસનાછોળવ@ોન્દ્રિયમનોવૃક્ષણાનિ પવિધાનીતિ તત્રત્યેાર્યપાળાં વાળ વન મુળને વાર્ષિ તિર્મવાર, તત્રવઠો યજ્ઞનાવગ્રહાથવગ્રમેન દ્વિવિધા, તત્રાઘસ્ય જ્ઞનાવશ્ય વધુમનોતિરિરૂપનરસનદાશોન્દ્રિયાળેવ વરણાનીતિ તદ્ધને તાર્યમૂતવ્ય ન્નનવિહાળાં જાતુર્વિધ્યામતિ તેવાં તત્ર ક્ષે મતિજ્ઞાનયાષ્ટવંશતિવાર | તેવાં મેવાનાં વહુવહાવિદ્વાદશમેશને મતિજ્ઞાન ધરાવધાનિ ત્રિી શતાનિ મે, તે જ મહામૃતનિતિમતિજ્ઞાનસ્થતિ તત્રામૃતનિશ્ચિતૌત્તિવૃદ્ધયાદ્ધિમેદ્રવતુષ્ટયબરે મતિજ્ઞાનય રાવાશિવધિવત્રશતાન મા ! તતન્મતિજ્ઞાનન્દ્રિયનિન્દ્રિયનિમિત્તમારા મવતિ સામાન્યજ્ઞનિત સામાન્યજ્ઞાનયોગ વિશેષજ્ઞાસામૃતાત્ મેવાનાહવાપાપો ધારા તતિ પામવઘીનાં પાર્થ માનામાવતિ વુિં, Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'स्वार्थविवरणदार्थदीविका | पंचदश सू० टी० १ ३ 'ऽवग्रहः, स्पर्शनेहा, स्पर्शनावा(पा)यः, स्पर्शनधारणेति । एवं सर्वत्र दृश्यं याव-मनोधारणेति । अपग्रहादीना स्वरूपमाह पत्राव्यक्तमित्यादिना, तत्र चतुष्पग्रहादिपु मध्येऽव्यक्तमस्फुटम् , इन्द्रियः स्पानादिभिः; यथास्वं यथाशको वीप्सायाम, ये ये आत्मीयास्तेपामित्यर्थः । विषयाणा पशादीनाम्, 'आलोचमैवम् , यतः 'अबलामि' 'ई' 'अवैमि' स्थिरीकरोमि' इति प्रत्यया एवं प्रतिप्राण्यनुभवसिद्धा अवग्रहादिभेदे प्रमाणम् , एतेनावग्रहस्यवहादयः पर्याया एवेत्यपि निरस्तम् , पृथ भेद वाचकत्वात् तेपामिति । नन्वेवं तर्खेषामेवमनुक्रमोपन्यासे को हेतुरिति चेत् क्रमोत्पदिणुना हि कारणेन - स्वकार्यमपि क्रमेणैव जनयितव्यमित्यतः क्रमिक एव हेतुरिति जानीहि, तथाहि-अवगृहीतमींद्यतेविचार्यते नानगृहीतम् , अनवगृहीते वस्तुनि वर्षऽसिद्धौ निरालम्बनविचाराऽयोगात् , तेनादविवावग्रहो जायते, तदन्यीहा, ततोऽपायः, यत ईहितमषेयते निश्चीयते नानीहितम् , अपायस्य निश्चयरूपत्वात् , तस्य च विचारपूर्वकत्वात्, न च विचारं विनाऽपि कारणमहिना तदुत्पादो युक्तः, विचारस्थापि तत्कारणत्वेन तद्विरहे कारणमहिम्न एवाऽसिद्धेः, तेनापाया-पू मीहा प्रवर्तते, अपेतं धार्थते, नानपेतमपायेनानिश्चितम् , अन्यया सन्देहादपि धारणाप्रसाद, ततश्च धारणायाः पूर्वमपाया प्रवर्तते इत्येवमन्वयव्यतिरेकमूलकात् तेपामवग्रहादिचतुणा क्रमनिवन्धनकार्यकारणभावादेव क्रमेणोत्पादः, अत एव नोरक्रमेण व्यतिक्रमण वोत्पाद, न चैषां मध्येऽन्यतमस्याप्यमावे व स्वभावावयोधः, ततः क्रमेण सर्वेऽग्यमी ए४०या, न को द्वौ त्रयो वा, युगपद्धा नैते जायन्ते । नन्वभ्यस्ते पुरुपेनग्रहाद्वयमन्तरेणैवायं पुरुष इति निश्चीयते, पूर्वकालीनानुभवविपये चोबुद्धसंस्कारावग्रहाऽपायरूपत्रयं विनैव स इति स्मृतिरूपधारणा समुपजायते इति कथमवग्रहाधन्यतरामाये वस्तुस्वभावात्रबोधो नेति सङ्गतमिति चद, उच्यते, शतपत्रवेधन्यायेन कालातिसौक्षायादेव क्रमिकावग्रहाधनुपलक्षणमिति, न चैतावता तदपलापः कत्तुं शक्या, अन्यथा भयंतानि पमपत्राणि युगपद्विद्धानीत्यनुभवात् क्रमिकोपजातपयपत्रशतच्छेदस्याप्यपलापरस्यात् , यथा च तत्र कालातिसौक्ष्म्यात् क्रमिकल्छेदानुपंलक्षणं तथाऽभ्यासदशापन्नस्य शीघ्रं शीघ्रतरं जायमानानामवग्रहादीनां कालसोक्षम्यादनुपलक्षणम् । यद्वा दीर्घशुकश कुलीभक्षणकाले तद्रूपदर्शनतजनितश६ श्रवणतन्याघ्राणतद्रसाસ્વાનસ્પધિયું મનાયમાનાસુ હારદ્િધરસપર પુત્રિત્યેતિ પૌષિधाभिमानम् , आत्मन एकदैकोपयोगस्वभावत्वान्मनसः सन्द्रिय सह युगपद सम्बन्धात् , मनसवासुसञ्चारित्वेनैव तेन तेनेन्द्रियेण सह शीघ्रं सम्वन्यात्तना कार्यार्जनात् । अत एव "मनसः युगपज्ञानानुत्पत्तिहि लिङ्गम्" इति वैशेषिकसूत्रेऽप्युक्तं सङ्गच्छते । यथा चात्र कालभदेस दुर्लक्ष्यत्वात् कारणक्रमजनितीतोपलब्धिक्रमस्यानुपलक्षणेऽपि प्रमाणसिद्धत्वात् नैवालाप: कत्तुं शक्यते तथा प्रकृतेऽपि । एतेन भवत्येतद् मनसोऽणुत्वपक्षे, - भवद युपगते तनुव्यापकत्वपक्षे तु नै सङ्गतम्, पञ्चेन्द्रिय सह मनसो युगपत्संयोगसझावादित्यपि निरम् , अणुत्वपेक्षेऽपि मनसो रसनेन्द्रियसंयोगकाले वसंयोगस्य दुर्निवारत्वात् युगपदुमयज्ञानोत्पत्तनि Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ૨૪ : તવાધિવાળાર્ધતીપિકા પંજવર સૂ૦ ટી. नावधारणमालोचनाऽपरपर्यायं ज्ञानम् , अवग्रहः नामादिसंस्परहितं सामान्यमात्रज्ञानमवमह इत्यर्थः । તપર્યાયાના-શવાહ યાદ્રિ / રાયમવા દેવા-યજ્ઞનાવૌહાવ હમેવાત તત્ર વ્યચેતે કરીબિયતેડડનેનેતિ વયજ્ઞનમુરિગેન્દ્રિય, તેન સહુ શઢિપરિતદ્રવ્યલગ્નગ્ધ, નારિવારિતદ્રવ્યાળિ Rા તો વ્યષ્યનેન વ્યક્તનચાવ ન્યગ્નનાવ ફતિ મઝમપદ્રોથી સમાસઃ શાઢિપરિતદ્રવ્યાબામર્થસ્વાર્થ વ્યજ્ઞનત્વમતિ તુ નાશશ્નનીય, નરમસમયવિહીનાવાર્થત્યાત, મધ્યપ્રતિરોધદા વર્યા, વરિયમરિ તારો જૈવન્દ્રિયનન્યજ્ઞાનાવરણીયકર્મયોપશમસ્યવાચૈવ સદ્ગનિ જ્ઞાનોપયોગમા લેવાવહાઢિજ્ઞાનને ત્યાં વિન મન્યતે || નામાંતિસંપરતિનિતિ-શત્રવિપન નાતિક્રિયાપુળદ્રવ્યાધેિ ઘાધિ, તથા ર નામનાત્યાદ્રિપ્રાળથવાહિતારહિતમિસ્યા સામાન્યમાંત્રજ્ઞાનામિતિ સામાન્યમાળા ફ્રાવણ વસ્તુનો ગ્રહળધાર્થ, સર માત્રપન વિશે વાવમાસનસ્ય નિષેધા કૃતા, તથા વિશેષાનવપાહિ સતિ સાવિવાહપાવાહિશાનમતિ માવા, શત પવ તારાનું નિષ્કરણ, વિરોલાવમાસિંજ્ઞાનવ સારસ્વનિયમાત ! પત મુશ્વર્ય નૈવિવિઘદલૈવ તમ્ શત gg “ડમાહે સમયે” ફેતિ નેન્વિત્રવનારટ્યૂસમયમાનમાં સર્જીતે, ન તુ વ્યાવહારિવગ્રહય, પાયા તદુત્તરેહામાયાવલિયૌવારિવાવહકપત્યેન માવવિશેપાપેક્ષતામાન્યવિષયના વ્યવહારનવેનામ્યુપામાત્ર સામાન્ય શિવિરોધમાન સારSતદૂછીનેમિહિતરક્ષાસઘંટનાગ્માવતિ / નગ્નતત્તરેહાપાયાપેક્ષયૌપવારિજાવવા વિ. ફાતિ ત્, ઉખ્યતે, યાધિશેષા–માતુર્વિજ્ઞાસા નિવતે વવવધ કૃતિ નાનીહિ ! થશ્વનાથમવિષયવિધ્યાવહ દ્વિવિઈ ફત્યાહ-યમવગ્રહ ધેતિ | જોદ્ધજ્યવ્યત્તનરાવવાખ્યાર્થમાહ તત્રત્યાના ! પરોન્દ્રિયાવિવિ છેચ્છને તીવધારવ શવાલિયગ્રહણે સમર્થ, મિગુપદ્ધતે નિવૃત્તીન્દ્રિયપદ્ધવિગેરે વિયં ને મૃતીયેવં સૂક્ષમાં પ્રવેન્દ્રિયદ્વિતીયમેદ્રવમુપરન્દ્રિયામત્યર્થ. વ્યગ્નનેન વ્યા સ્થાવર થી નાવદ ધ્રુતિ-ડપારગેબિયરુક્ષનેન વશ્વનેન શબ્દાધિપતિદ્રવ્યસન્હાવાક્ય જ્ઞનાવો બનાવગ્રહ + અથવા થનનો વરબેન્દ્રિયેળ વાદ્ધનાનાં શબ્દાવરિતદ્રવ્યાપામવઃ પરિચ્છેવો વ્યર્બનાવગ્રહું ત્યર્થ માત્રાવેવસ્ય વ્યબ્રના હો રહા સભાસ ફતિ . રથ જૈસમય િયાવત્સલૂથતિસમયવખારાપુતાશ્રોત્રેન્દ્રિયેળ સર્વદ્ધયમાના અર્થાવગ્રહક્ષણવિજ્ઞાનગ્રાહ્યાં મવકિપ ન્વેિસલ્શયસમયદ્રવિછાવા લયમેવ શ્રોસેન્દ્રિય સહ શવ્પબિતપુદ્રતાનાં પ્રતિસમય રતજીતશયોપશમસહ9તામસમયવિદા વ શબ્દપુકા શર્યાવગ્રહોન્યાને સમથી અવન્તીતિ તેષાવાથગ્રગ્રવિયસ્વાર્થત્વ, તપૂર્વવાર્વિનાં તુ સહારવધયા તળાનવાદ્રથન્નમરવાનોત્તરથતિ-વરસમાવેણાનાવાર્થત્વાતિ ! મન્નુમતિવાદ: Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ વિધિવળગૂઢાર્થીપિકા . ટી : રેલ નાખ્યાં સૂત્રે તવ પ્રતીતે ગર્ચ ન્યજ્ઞનામો ન જ્ઞાન ધરાવીનામિવ તજ્જા સંવેવનાકાલિનથીનાદ્વિતિ વૈત, ન, વામાવે જ્ઞાનસામાં સત્યમતરાસાચ્ચે જન્નનાવ હત્યજ્ઞાનોત્પત્તેિરવર્નની વાત, અને જ્ઞાનવનાપૂર્વમપિ તવનુમત ફક્યાયમેવાભૈ પ્રશ્નનોડવયવબજાવ સૂત્વના પટ્ટમ્યતે, જ્ઞાન વ્યર્જ વસમિતિ તુ સુસમાનદાન્તન સમર્થનીચ, टान्तास्यामिति-एतत्स्वरूप नन्दिसूत्रे "वंजणोग्गहस्स परूवणां करिस्सामि पडियोहकादितण ___ य इत्यारम्य जाहे तं वंजणं पूरियं होइ, ताहे हुंति करइ, नो चेवणं नाणइ के वेस साइ" इत्यन्तन ચોરૂં વિશેષાર્થિના તત વાવ, ગ્રન્થોરવમીદ તન્ન વિવિયત ધિરાવનાારિત્તિપતન્વોપરુક્ષગયું, તેનો હતપ્રાણેન્દ્રિયાનામપિ વર્ષ કર્તવ્ય “તવંતે તો ચિય કવકંપાળો તો નાાં ૨૫ ” ફિતિ મહામાબૂવવનમનુષ્કૃત્યાહુ અને જ્ઞાનવર્શનાર્ પૂર્વમપિ તવનુમતે તિ–વશ્વનાવગ્રહમયો જ્ઞાનવા તત્યસમયે જ્ઞાનોત્વ, અન્ય જ્ઞાનમુત્પતિ સક જ્ઞાનવા , થેTSsઘસમય, યહિ વ ારસાગ્રી fપ બાપુ જ્ઞાનોત્પત્તિને સ્થાત તર્ધન્યસમયેગ ર સ્થા, વિશેષાવ, તથા ર તયામMવસ્યાયામવ્ય¢ જ્ઞાનમાત્રા પ્રમાસિમનાSત્યસમયે તમેવનાન્યથાનુપપામ્યુમિન્તવ્યા, ચુત, નિશ્ચયતોગવિજ0ારણમેવ જાર્યોત્પત્તિવ્યાધું, વિવું જ નાં જ્ઞાને પોન્દ્રિયમેવ, તે વિશ્વનાવગ્રાહે હલ્પસત્તા વાર્થ = સ્વાર્થ જ્ઞાન નનયિતિ ? નવમનુષહતેન્દ્રિયસખ્યાદ્ધિનાવહા જ્ઞાનમારહિં થે નપજત ત્યાફ્રાનિવૃજ્યર્થ તત્ર દ્રશાન્ત હેતુ માટું-પાનવયવમારાવસ સૂત્વાપરું તે રૂતિ તેન પ્રજારામાવે જ્ઞાનેશ્વરૂતાં નો વઘતે, હિબાશાવમા વ્યસ્તતા વવવિધિ દ્રષ્ટાચફ્રાગ નિરસ્તા, યતઃ બવુરતરતેનાંવવા બાવમાવા વ્યસૂતયા દ્રષ્ટિ જોવા અપિ થવો તેનોગ્રયવ કયારામાવો ખ્યાતિસૂક્ષ્મતયા જ દૃષ્ટિમોવર હતિ તંત્રા #તાવર્ગ વ્યવ્રુનાવપજ્ઞાનાવમાવ્યરુત ભાવનીતિ ડૉ વિશેષાવરયમાળે “તા િવિ નાનું તત્વત્યિ તળું તિ તો તેમાં 1 ઉદ્દ ”તિ યા વધાનમતિ દૃષ્ટાન્તોપન્યસનં તવણસંત તેષાં વ્યક્વનન્નનપૂર્તિધરવાવામાવેન જ્ઞાનાતળામાવાવ્યtત્યારે જ જ્ઞાનયામાવાન્ ડજ્જર્ચ-“ વહિલા પુળ તો અજાણે તદુમયામાવા કદાતિ વિરોધમારાફ્રાતે વાવી-જ્ઞાન વ્યાં જામતીતિ તત્તરાતિ-સુક્ષમત્તાવિજ્ઞાનદૃષ્ટા તેના સમર્થનીયામતિ ાનનુ સુતમામૂચ્છિતાનાંમળ્યt જ્ઞાનમેવ નૈવ સિદ્ધ, તાનસ્ય વહિતપુત્વાદ્રિતિ ક્વિં તદાન્તન જ્ઞાનમવ્યજં સિદ્ધ દ્વિતિ નૈવમ્, ચતાણાવાવયપિ તવાઝભ્ભયાવજ્ઞાન નૈવ સંયત્તિ તિસ્રાવાતા નન્નેવવિધતમત્તાવિજ્ઞાનં તત્ર માનામાવેન ફુકયમિતિ વાગ્યમ્ સુતમત્તાઘવાયાં વિલ ‘મારે મૃત્યન્તિ ક્રિાફ્રા ૨ પિ ખૂબ ખૂયતે નવા યા»ી ક્રિયા Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :>2-8: वार्थविवरणहार्थदीपिका - पं० सू० टी०. न च तदपि दुःश्रद्धानम्, जायदपि हि दिवसमध्ये तित्रजन्त्यध्यवसायस्थानान्यसङ्ख्येयानि न सर्वाणि जानाति, किं पुनः सुप्तादिरित्यस्यार्थस्य सुश्रद्धानत्वात् तस्मात्तन्तुसम्बन्धसमयेषु पटेप्लिव ( पट इव ). સર્વૈપ્લવકસમયેવુ જ્ઞાનવિરોધળાન્યતત્તુલક્ષ્યસમયે મહાપ૮ વ્યસનાબહાન્ત્યસમયે વર્ષાવહ इति प्रतिपत्तव्यम् । स चानिर्देश्यसामान्यमात्रग्राही, सा सा मतिपूर्विका दृश्यत इति प्रभाषणादिका क्रिया मतिपूर्विकैवाभ्युपगन्तव्येति धूमेन चनेरिव वचनचेष्टादिकार्यलिङ्गेनैव मत्तादिज्ञानरूपकारणस्यानुमीयमानत्वेन न तज्ज्ञानं श्रद्धेयमिति । अत एव " सुखमहमस्त्राप्यं न किञ्चिदवेदि " इति सुपुप्तोत्थितपुरुषीयानुमवविरोधो न भवति, तस्यापि न किञ्चित्पदोपरागेणाव्यक्तज्ञानावगाहित्यात् । सुप्तोत्थितस्य सुखस्मरणदर्शनात् स्मरणस्य चानुभवपूर्वकत्वात्सुषुप्तिकालेऽपि सूक्ष्मसुखानुभवस्य सिद्धेश्च । नन्वात्मीयमपि चेष्टितं किं किञ्चिद् न जानाति १ येन सुप्तादीनां સ્વ-ધિત સંવેદ્નમુખ્યતે ? ફ્રાંત શ્વેત, ન્યતે, નાઋષિ સ્થઃ વયોવર સર્વ ज्ञानावरणवैचित्र्यान्नैत्र जानीते, आस्तां पुनः सुप्तादिः, यत एकस्यात्मनरसूक्ष्माध्यवन साथ स्थानान्येकेनाप्यन्तर्मुहूर्तेनासयेयानि अतिक्रामन्ति, किं पुनः सर्वेणापि दिवसेन, न चैतानि छद्मस्थः सर्वाण्यव्यवगच्छन्ति, उक्तञ्च "जग्गन्तो वि न जाण, छमत्थो हिययगोचरं सं । जं तज्ज्ञवसाणाई, जमसंखेजाई दिवसेण ॥ १९९ ॥ " इति न चैतावता तदभावः, केवलज्ञानगोचरत्वात्तेषाम्, यानि यानि केवलज्ञानगोचराणि तानि तान्यतीन्द्रियाण्यपि सन्त्येव यथा धर्मास्तिकायादयः, यथा च केवलज्ञानिदृष्टत्वादव्यकान्यपि तानि श्रद्धेयानि तथाऽव्यक्तमपि व्यञ्जनावग्रहज्ञानं श्रद्धेयमित्याशयेनाह - न च तदपि दुःश्रद्धानमित्यादि । उपसंहारमाह-तस्मादित्यादिना । यद्याद्यद्वितीय संयोगादियादुपान्त्यसंयोग पर्यन्तमंशतः पटोत्पत्तिर्नाभ्युपगम्येत तदा चरमत. संयोगेऽपि महापटोत्पचिर्न स्यात् खण्ड पटोत्पत्तिक्रमेण महापटोत्पत्यभ्युपगमादित्याद्यद्वितीयाद्युपान्त्यान्ततत्तत्चन्तु संयोगसमयेष्वंशतः पट इवार्थविग्रहात्पूर्वसमयेष्वपि ज्ञानं भवति, नैकस्मिँश्वर समय एव, यतो यदि प्रथमसमयादिश्वव्यक्तं ज्ञानं न स्यातहिं चरमसमयेऽपि न स्यात्, अस्ति च चरमसमये ज्ञानम्, तस्मात्तत्पूर्वसमयेष्वपि तदस्युपगन्तव्यम्, तदेव च ज्ञानमतीवास्फुटं व्यञ्जनावग्रह इति व्यपदिश्यते, अन्त्यतन्तु संयोगसमये महापट इव व्यञ्जनावग्रहान्त्वसमये तु तदेव ज्ञानं किञ्चित्स्फु तरावस्थामानमवग्रहइत्युच्यते, अतो यद्यपि सुप्तमचमूर्च्छितादिज्ञानस्येव व्यञ्जनावग्रहज्ञानस्यानुमापकं व्यक्तं तथाविधं लिङ्ग न विद्यते तथापि यथोक्तयुक्तितरसुप्तादिज्ञानमिवाव्यक्तं व्यञ्जनावग्रहज्ञानमस्तीत्यभ्युपगन्तव्यमिति भावः । सः - अर्थावग्रहः, अनिर्देश्यसामान्यमात्रग्राहीति नामजातिक्रियागुणद्रव्यप्रकारेण केनापि शब्देन निर्देष्टुमशक्यं यत्सामान्यं तमात्रग्राहीत्यर्थः । अत्र मात्रपदेन तत्र विशेषग्रहणं निषिद्धं, नैचयिकावग्रहस्यैक સામાવિત્ત્વનું તંત્ર -વિશેષ(ગ્લોમાત્, વિશેષશ્રાદ્ધ પાનેસમયમાનિાહિતિ માવ 1 Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्यार्थविवरणदार्थदीपिका | पंचदशसू० टी० : २१७ . यसात्किञ्चिदिदं ज्ञातमित्युल्लेवः, कथं तर्हि मूत्रे तेन २०६ इत्यवगृहीत इत्युक्तमिति चेत् , सत्य, वक्त्रा तथोक्तवान्, अशच्यावृत्ताचप्रहे पाय वस्य दुरित्वात् , स्तोकविशेषग्राहित्यस्योत्तरोत्तरापेक्षयाऽज्यवस्थितत्वात् । न च स्तोकस्वाच्छन्नोऽयमित्याकार आयोऽयविग्रह इति युज्यतेऽपि, उक्तलक्षणावग्रहस्याकारमाह पलात् किञ्चिविदं ज्ञातमित्युल्लेख इति । एवमुक्ते सनि पर आशङ्कते कथं तहत्यिादिना । सूत्रे नन्धध्ययनबने, “से जहा नामए के पुरुसे अनत्तं सई सुणेजा, तेण सद्देति उग्गहिए, न उण जाणइ के बेस सदाहत्ति " पाठनति शेषः । वक्त्रा नयो त्वादिति तेन शब्द इत्यवगृहीत इत्यत्र शब्द इति प्रज्ञापन प्रोक्तम् , अथवा शब्दमात्र रूपरसादिविशेपच्यावृत्याऽनवधारितत्याच्न तयाऽनिश्चितं गृहातीत्येताबतशिन शब्दस्तेनावहीत इत्युक्तम्, न पुनः अश६०यात्तशब्दोऽयमित्यवग्रहापेक्षयोक्तम् , एकसामयिकेऽधीवग्रहे०५व्यात्यवभासाऽसम्भवात् , अश०६०यावृत्तिमत्तया शब्दोल्लेखसान्त हत्तिकसान एवं भावादिति नास्यात्राक्तन साधुल्हे पर हितसामान्य मात्र ग्राहीत्यनेन सह विरोध इति भावः । नन्नश-दश्यावृत्तशब्दोऽयमिति ग्रहाभ्युपगमे को दोप इत्याशङ्कायामाह अश०६०यावृत्ता-दहे त्वायत्वस्थ दुचरित्वादिति । तदा विशेषावमासिवादपाय एवासों स्यात्, न त्वर्थावग्रहः, विशेषग्राहितया निश्चयस्थापायरूपत्वाद, ततश्चार्थावग्रहाऽभाव एवं स्यात्, न चैतद् दृष्टम् , इष्टं चेति भावः । ननु शब्दाव्यमिति निश्चयो विशेषावमासिवादपाय एव स्यादित्युक्तं न युक्तम् , यतस्स शमात्रस्तीकविशेषनाहकत्येनावग्रह एव, नापायः, कः पुनस्तापाय इति चेत्, उच्यते, dવદ્યોત્તર પ્રHigોપનિશાલીયાં શહેન ન મતિમિર્યારિક હોસ્પદ્યતે तदुत्तरं तया जायमान शाव एवायं शब्द इति निश्चयात्मक एवं सः, अवग्रहापेक्षयाधिकस्तोकविशेषग्राहकवादित्याशङ्का मनसि धृत्वा तदुत्तरमाह-स्तोकविशेषग्राहित्वस्योत्तरोत्तरोपेक्षयाऽयवस्थितत्वादिति । ५३मभ्युपगमेऽयायज्ञनिक व्युच्छिन्ना सात् , शाह्वोऽयं शब्द इत्यपायस्यापि तदुत्तरं किं मन्द्रो मधुरो वेति संशयोत्तरं जायमाना या मन्द्रेणानेन भवितव्यमित्याकीरिकहा तदुत्तरं तयोत्पन्नस मन्द्रोऽयं शब्दोन मधुर इत्यपायसापेक्षया स्तोकविशेषग्राहकत्वनावग्रहरूपत्वात् , एवं' मन्द्रोऽयमित्याप्ययं शब्दो न मध्यमद्धपुरुपीयः, न था वैणः, किन्तु तरुणपुरुषीय इत्यपायापक्ष्यां स्तोकविशेषग्राहकत्वनावहरूपत्वं स्थादित्येवमुक्तरोत्तरविशेषग्राहिणामपि ज्ञानानां तदुत्तरोत्तरभेदपिक्षया स्तोकविशेषग्राहित्वादवग्रहरूपत्वापत्यापायवाभावो भावनीय इति भावः। न चेत्यस्य युध्यतेऽपात्यननान्वयः। सद्भुतासद्भुतવિધાતાનયાણામમુવાવાર નિમવોદયાં હપાવ્યોવૃત્તિત્રણે સત્યવાવ્યાવૃત્ત રોડयमिति नियरिया', विशिबुद्धिप्रति विशेपणज्ञानस्य कारणत्वात् , अन्यथा' तस्याकरिम कत्व स्थान, पूर्वोक्तहाऽपि न हि सामान्यरूपतया०यक्तश०दधर्मिण्यज्ञाते जायते, " - Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २१८ : तत्त्वार्थविवरणभूढार्थदीपिका । पंचदशसू० टी० ततोऽप्यायस्य तत्कारणेहाजननार्थमाश्रयणीयत्वात् । व्यञ्जनावग्रह एव तदर्थमास्थीयताम् , अव्यक्तेन तेनाव्यसामान्यम्य ग्रहीतुं योग्यत्वादिति चेत्, न, अर्थो न व्यजनम्, अन्यथा सङ्करप्रसादित्यस्योक्तायत्वात् । किं चार्थावग्रहे शब्द इति स्तोकविशेषोल्लेखम्वीकारे एकस्मि समये उपयोगबाहुल्यं स्यात्, तथा हि-प्रथमं तावद् रूपादिभ्योऽध्यावृत्तमव्यक्त शब्दसामान्य ग्राह्यम्, ततस्तद्विशेषविषया त६५:२६पादिविशेषविषया चेहा एतैरेतैश्च धर्मः किमयं शब्द आहोश्चिद् रूपादिरित्याकारा, तदनन्तरं च श०सामान्यविशेषाणां ग्रहणमन्येपा तु रूपादिविशेषाणा तत्राविद्यमानानां परिवर्जनमित्येवम्भूतेन क्रमेण हि तत्र निश्चयोत्पत्तिः स्यादिति । न च संशययावृत्तिमात्रेण निश्चयत्वनिहिः, कत्वात्तस्या इति तदर्थ तत्पूर्ववत्तिनोऽयक्तशब्दसामान्यमानग्रहात्मकर्मिज्ञानस्याभ्युपगमः कर्तव्यः, स एव चार्थावग्रह इत्यनायासेनेवास्मात्समीहितसिद्धिरित्याशयन निषेधे हेतुमाह---- ततोऽध्यायस्य तत्कारणेहाजननार्थमाश्रयणीयत्वादिति । तत्कारणति-शब्दोऽ. यमिति निश्चयकारणेत्यर्थः । तदर्थ इहाजननाऽर्थम् । तेन पञ्जनावग्रहेण, अर्थावग्रहे अर्थों रूपादिभेदेनानिर्धारिताऽव्यक्त२०६सामान्यात्मक एव भासते इत्यभ्युपगत शास्त्रे, यदि च तस्मिन्नपि व्यञ्जनावग्रहेऽसावयक्तशब्दः प्रतिभासते इत्यभ्युपगम्यते भवता तदा व्यञ्जनायग्रहो न स्यात्, एवञ्च ०पञ्जनावग्रहकथेवोच्छित, यतस्तस्योपकरणन्द्रियशन्दादिपरिणतद्रव्यसम्बन्धमात्रविषयत्वेन न हि तत्र सामान्यरूपो विशेषरूपो वा कश्चनार्थः प्रतिभाति, तदा मनोरहितेन्द्रियमात्रव्यापारात्तत्रार्थप्रतिभासायोगात् , भवता तु तत्राव्यक्तशब्दरूपार्थग्रहणस्योक्तत्वात् । तन्यितार्थग्रहणे किमसौ स्यादिति चेत्, उच्यते, अर्थावग्रह एवेति, एवं सत्ययस्य ०५जनावग्रहत्वाभ्युपगमे यार प्याविशेषरयाद, मेधकमणिप्रभाव सङ्करो वा स्थादित्याशयेनोत्तरयति अर्थो न व्यञ्जनम् , अन्यथा सङ्करप्रसङ्गादिति । अपि चार्थावग्रह शब्दोऽयमिति विशेषबुद्धिर्भवदभ्युपगता शदत्वमानप्रकारकत्वेन तदभावाप्रकारकत्वानिश्चयरूपा सात निश्चयश्च नाकस्मात् , किन्तु पूर्व . शब्दसामान्यग्रहणम् , . ततः किमत्र श्रोत्रग्राबत्यादयो धर्मा घट किं वा चक्षुर्वेदत्वादय इत्येवं विचारणात्मिकहा, तदन.परं नात्र चक्षुर्वेद्यत्वादिधर्मा उपलभ्यन्ते किन्तु श्रीजग्राह्यत्वादिधर्मा इत्येवं व्यतिरेकान्वयधर्मविचारणाक्रमेण साव, तथाऽभ्युपगमे चोपयोगबहुत्वमापयते, न चैकरिगन् समये तथाऽभ्युपगत सिद्धा इत्याशयेन दोपारमाह किश्वार्थावग्रहे २००८ इतीत्यादिना । एतैरतैरिति श्रोत्रग्राह्यत्वादिभिश्चक्षुयित्वादिभिरित्यर्थः । २०६सामान्यविशेषाणामिति २०दसामान्यगतश्राग्राह्यत्वादिधर्माणामित्यर्थः । रूपादिविशेषाणामिति रूपादिगतचक्षुधित्वादिधर्माणामित्यर्थः । न हा संशयाङ्गिना तत्पूर्वकत्वात् ययत्पूर्वक तत्ततो मिन, यथा त. पूर्वका ५८ इत्येवं संशभिन्नत्वमानहाया निश्चयत्व निर्वाह इत्याह न - च संशयच्यावृत्तिमात्रेण निश्चयत्पनियहि इति । तथापि कार्यकारणभावानुरो Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ uवार्थविवरणपूढार्यदीपिका । पंचदशम० टी० : २१९ : તથા િમત્તાવોત્તરë પવિત્યષ્ય જાધવા પ્રત્યક્ષમત્રે વિશેષર્શનધાયા હેતુન તાં વિના તવयोगात् । एतेन बालस्य सर्वविशेषविमुखत्याचसमये सामान्यज्ञानम्, परिचितविषयस्य तु समय एव विशेषनिश्चय इत्यप्यपातम् । पटुत्वैचित्र्येण समय एवं विशेषविज्ञानोपनमेऽवप्रहादानामुक्तमव्यात कामप्रसङ्गात् । तथा च परममुनिनिर्देशोलनापत्तेः । धेनेहा निश्चयात्मिका, तथाहि-प्रत्यक्ष प्रति विशेषदर्शनं कारणम् , न च तत्र कार्यकोटी भ्रमसंशयोत्तरत्न नैयायिकाभिमतं प्रवेश्यम् , गौरवात् , येनापायात्मकप्रत्यक्षस्य भ्रमसंशयोत्तरत्वामा वेनेहात्माविशेपदर्शनस्याऽनपेक्षीयत्वं तं प्रति स्यात् , ननु प्रत्यक्षमा प्रति विशेपदर्शनस्य हेतुत्वं यथा ने रजतमिति प्रमोत्तर मेवामिदं रजतं न येति संशोत्तरमिदं रजतमिति प्रत्यक्ष प्रति रजतत्वयाप्यधर्मविशेषदर्शनस्येवायं वटोऽयं प८ इत्यादि प्रत्यक्षं प्रत्यपि विशेषदर्शनस्य हेतुत्वं स्यादिति चेत्, भैवम् , जैनमते व्यवसायात्मकप्रत्यक्षस्याप्यपायात्मकनिश्चयरूपतयेहापूर्वकत्वेन तत्कारणतयात्रापीहात्मकविशेपदर्शनस्याऽभ्युपगमादिति, तथा चहात्मकविशेषदशनस्य प्रत्यक्षं प्रत्यपेक्षणीयत्वे सिद्धे तयतिरेकेण निचयात्मकप्रत्यक्षायोगादपायात्मकनिश्वयात् पूर्व कारणविषयाऽभ्युपग-व्यस्य विशेपदर्शनस्य ग्राह्यच्याप्यनिश्चयात्मकत्वेन तदात्मिकाया हाया अपि निश्चयात्मकममभ्युपगन्तव्यमित्याशयेनाह-तथापि भ्रमसंशयोत्तर. त्वं परित्यज्यत्यादि। अत्र रूपाचव्यात्तशब्दसामान्यग्रहणस्यैवार्थावग्रहत्य, न तु शब्द त्वेन शग्रहणस्य तत्त्वम् , तस्येहापूर्वकत्वेन वस्तुनोऽपायत्वमेव, औपचारिकमेव चार्थावग्रहत्वामित्येतद्वयवस्थापनायैव चात्रेहाविचारः प्रसङ्गागतः, न तु स्वातन्त्र्येण तद्विचारोनाधिकृतो, येनैकाधिकार परिसमाप्त एवान्याधिकारोऽग्राप्तकालत्वादयुक्त इति शङ्कया पराभूतो भवेदिति बोध्यम् । अथास्मिनेवाऽविग्रहे परवाधभिप्रायं निराचिकीर्षुराह-एतेनेत्यादि । एतेन त्यसापास्तमि य. नेनान्वयः बालस्येति-अनेन शब्देनाध्यमर्थो बोधयः इदम्पदममुमर्थं बोधयत्वित्यादिपुरुपे छालक्षणसङ्कतादिविकलत्वेनापरिचितविषयस्य तत्क्षणजात शिशोरित्यर्थः । सामान्यज्ञानमिति-अशेषविशेपानवगाहि महासामान्यसन्मात्रावगाहिज्ञानमित्यर्थः, अर्थावग्रह इति शेपः । परिचितविषयस्य विति-गृहीतसङ्केतादिकस्य पुंसः पुनरित्यर्थः । समय एवेति-आधशदश्रवणसमय एवेत्यर्थः। विशेषनिश्चय इति-तत्त०६शक्तिग्रहसमन्वितत्वात्तखेति शे५ः । ततश्च शब्दोऽयमिति विशेषनिश्चयात्मकावग्रहमाश्रित्य "तेणं सद्देति उग्गहिए" इत्यादि यथाश्रुतमेव व्याख्यायत इति । अपासने हेतुमाह-पटुत्वेति । अपग्रहादीनामुत्क्रमव्यतिक्रमप्रसङ्गादिति-मतिज्ञानावरणीयकर्मक्षयोपशमपाटवचित्र्येण कस्यापि प्रथमं धारणा ततोऽपाय: ततोऽयीहा तदन्वग्रह इत्येवं पश्चानुपूर्वीभवनलक्षणोत्क्रमेणोत्पत्तिप्रसङ्ग स्यात् । अन्यस्य कस्यचित्पुनरवग्रहमुलक्थ्य प्रयममेवहा, तदन्यस्य तु तामप्यतिक्रम्य प्रागवापायरस्थात्, कस्यचित्पुनस्तमप्यतिक्रम्य प्रथममेव धारणेत्येवमानानुपूर्वीभवनलक्षणव्यतिक्रमेणोत्पत्तिस्यादित्यर्थः । तथाऽभ्युपगमे च “उगहोई। अवाओ य धारणा एक होति चत्तारि"इति सिद्धान्तनिदिपक्रमभङ्गापत्तियादित्याह-तथा च परममुनिनिर्देशेलच न पत्ते Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તરવાર્થવિવવૃદ્ધાથટીવિયા ! વૈચાલૂ ટી ચવાનેશ્વનાજ્ઞાનીનન્તરમર્થાવગ્રહઃ સ્થિતિપ્યંત, સવિાતરમીયમ્। તસ્ય વ્રજ્ઞનાવગૃહનામાંન્તરવાત્, તતઃ પૂર્વે વ્યાનાર્જસન્ધામાવેન તસિક્રેઃ । સન્તે નાર્થીવદયૈવ સિદ્ધાન્તેઽમિધાનાત્।રૂ નવમપૌદ્ધિ, યજ્ઞનાવાયાડઈર્ષાશૂન્યાત્કામાર્થાનાપને વિશેપ ચચાવબોતુમશયાત્ । તમાકૃષાવન્યાવૃત્તાન્ડસામાન્યાં ન્યવિષય વાર્થાવગ્રહો નતુ શન્ડ ફ્લોરિ : ૨૨૦ : , I હોય(પુન્ત્રમાä વતિ તસ્ય સામળ્યું કે યમહત્ત્વવિહાò સહેત્તિનિષ્કિળ ! ૨૭૩ ૫/ હાંત માધ્યમ થોúાન્યાયિમત પ્રથમ સામાન્યા 47સ્તુ દાળોજનાજ્ઞાન ત્તવનુ (જોષ્યમિસ્ત્યાચારો હ્િવાનૃત્તશવિશેષયાએાવપ્રજ્જા, ઉર્જા જોષનાજ્ઞાનમાઇન્પ “સ નવા નાનદ્ હૈં પુનિસે અન્યત્ત સદ્ સુન્ન ' તિ સૂŻપ્રવૃત્ત, ક્ષાર્થીવપ્રમવજય એ “તેળ સદ્દત્તિ હિ” કૃતિ સૂત્ર પ્રવૃત્તનિત્યેનું તત્ત્વ સફ઼ેષતઃ પ્રવર્ષે નિરાંત । ચવજો જનાજ્ઞાન(નન્તરમિયાવિવિ જ્ઞનાવગ્રહ વાછોષનાજ્ઞાનમ્ યા િબ્યજ્ઞનાવવ્રતપૂર્વ તત્ સત્ત્વે યંતિ વિશ્વપત્રયમધ્યે આવિનેસને હેતુના–તસ્ય યગ્નનાશ્રીં નાસ્ત્રવિતિ તયેાંત-બાળોષનાજ્ઞાનક્ષેત્યર્થઃ । તથા 7 નામમાત્ર પ્ણ 7 નો વિવાર, પરમાયાર્યા યેનુયોગ્યÄાત, ન્નમન્યુપામેપ ન્યજ્ઞનાવગ્રહસ્થાવિષયામાનાર્થીહો અનજ્ઞાનાભર્યં ન સન્મવતીતિ માઃ । દ્વિતીયત્રિનિરાક્ષે હેતુનાઢુ તતઃ પૂર્વામાંવે અલનેન શ્રોત્રાન્ડ્રિયા સહુ થજ્ઞનસ્ય શબ્દાર્થસાપ્ર ્ા સમ્બન્ધો ન્યજ્ઞનાવગ્રહું ત્યવં સિદ્ધાન્તેઽમ્યુલામાર્વેલ યજ્ઞનાવગ્રહપૂર્વ બક્ષનાર્થસમ્બન્ધ કૃતિ વસ્તુમધ્યશષ્યમ્, નહિં બ્રહ્માત્ ચં પૂમિતિ જોવિ પ્રાજ્ઞો વત્ત્તત્ત્તતિ, તતઃ પૂર્વમ્રુત્ત સમન્ધવામાવેન નાહોષનાજ્ઞાનું સ્થાત્ ? । તત્ત્વ માટે વા તવાની સત્તાવગ્રહઐવેત્લેન તર્વાજતા તસ્ય હૈં, દ્રિતિ પૂર્વનિહારગામથેનાજોજનાજ્ઞાનાનુષપત્તિવેત્વર્ય:। તૃતીયવિપવશ્વને હેતુસાદ તવન્ત નૃત્યવિ। વ્યલાપ્રભસયેડા પ્રત્યેવાવóસામગ્રીસદ્ધાર્યનોત્તરસ્યુંષામ્યતે સિદ્ધાન્તા, વાત્તવન્તુષ્પાજોષનાજ્ઞાનં 7 યુદ્, નિવારાવાત્, નહિ અજ્ઞનાવપ્રાવિપ્રયોરન્તુરાઝોસ્ત, યેનાછોષનાજ્ઞાન મવદ્ગશ્યુષાä તંત્ર સ્થાહિતિ માત્ર ! નવુ પડ્યુંનાપ્રત્યેબાજોનાનામિતિ નામાતરમન્તુ જો વો ? મહિન્દ્વમાહોપનાજ્ઞાનું સામાન્યપ્રાદશ માયિતિ, બચપ્રસ્તુ વિશેષપ્રા કૃતિ ચૈત, મમ્બુમેઽષ ન મળેસિહ, યતઃ-ધંનપાછો સો અત્યરિતુળો” કૃતિ વધનાર્, અજ્ઞનાવપ્રધ્ધાજોચે શૂન્ય શ્યતો મૈં અલનાબદ્દે સામાન્યો મેશેવો ચા ચિર્ય પ્રતિતિ, તવા પક્ષુર્યને વિત્તેન્દ્રિયમાત્રવાપારાત્, તત્ર ચાડધંતિમાલાયોપાત્ । તથા ર્ વ્યજ્ઞનાવપ્રદેળ સામાન્યાપ્રહાઽમાવે સતિ યં સામાન્યશ્રળું અન્નનાવઢવર્યાયાન્તરાજોપન જ્ઞાનેનાવિ સ્વાત્, ચેન માંહિ પ્રમોદઃ પૂર્ત્તિમાત્રમાનુયાત્, જ્રન પ્રદૅનામાન્તરાહોનનાજ્ઞાનેન સામાન્યપાર્થપ્રદામાને શ્વ અર્થ વિશેષાધિપ્રદોષિ યાત્, સામાન્યપ્રાપૂર્વા શેષશ્રાઘેયાશયનાTM ચૈત્રમ પૌસિદ્ધિતિ તત્ર હેતુમાહ-અનાત્રપ્રદેત્યાદિ | યસંહારમાહ ઘો " → * ~ ૧) Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्वार्थविवरणगूढार्थदीपिका । पंचदश• टी० २२२ : यदि च ता. एवेन्यते तदा स औपचारिको द्रष्टव्यः । सर्वोत्तरोतरविशेषाकाङ्क्षायां पूर्वपूर्वापायस्यौपचारिकापमहत्वेनाश्रयणानेश्वयिकापमहापाययोः पूर्वोत्तरतारतम्यपदनध्यमाव एव विश्रान्तः । तदुक्तम्" सम्वत्येहावाया-णिच्छयओ मोतुमाइसामन्नं । संववहारथं पुण, सवत्यावहोवाओ ॥१॥ तरतमजोगाभावे-वाओ चिय धारणा तदंतमि । सव्यस्थ वासणा पुण भणिया कालंतरे सइअ ॥ २॥ ति" वृत्तसन्दसामान्य विषय एवार्थापग्रह इति-रूपाचव्यावृत्तेति रूपरसादिविशेषव्यावृत्ततयाऽनवधारितेत्यर्थः । अनिर्देश्यसामान्यमात्रप्रतिभासात्मकत्वादविग्रहस्य शब्द एवेष इत्याका रकनिश्चयात्मकरस न सम्भवतीति भावः। यधपि पूर्वमवग्रहमीहा चान्तरेणानुपपद्यमानत्वात् तत्पू करशब्दोऽयमिति निश्चयोऽपाय एव तथापि यदि सोचहरू प एवेत्याग्रहस्तदा सोऽस्तु किंशा शाओं वेति शब्दविशेषविषयकेही शाल एवार्य शब्द इत्य पायं चापेक्ष्य भाबिविशेषापेक्षया च सामान्यग्राहकत्वात्सांव्यवहारिकावग्रहरूपत्वेनौपचारिकः, न तु मुख्यः, तस्यैकसामायिकत्वात् , एकसमये च निश्चयायोगात् , निश्चयस्था-मुहूर्तिकत्वादित्याशयेनाह-यदि च तादृश एवेष्यते तदा स औपचारिको द्रष्टव्य इति तदेव विवृणोति-सर्वत्रोत्तरोत्तरविशेषांकाक्षायामित्यादिना । पूर्वोत्तरतारतम्यवदवध्यभाव एव विश्रान्तरिति-यथा ज्ञानस्य पूर्व तारतम्यविश्रान्तिक्ष्मनिगोदजीवज्ञान, तदपेक्षया कस्यापि ज्ञानस्य जधन्यवाभावेन तत्पूर्वावध्यमावात्, उत्तरतारतम्यविश्रान्तिः केवलज्ञान, तदपेक्षया कस्यापि ज्ञानस्योत्कृटत्यामायनोतरावध्यमावात् , तहद् यदपेक्षया पूर्वावधिर्नास्ति तनावग्रहत्वस्य यदपेक्षया चोत्तराधिनास्ति तत्रापायत्वस्य विश्रान्तरित्यर्थः । उक्तार्थे विशेषावश्यकमायसंवादमाह-सवत्थेहेत्यादि। आयत्वविशेषणान्यथानुपपत्याऽऽसामान्यं सामान्यमेव तत्पूर्वसामान्यान्तराभावेन तदपेक्षकविशेपरूपं न तदिति तद्विषयको नैश्चयिकोऽवग्रह एव, तस्यैकसमयवर्तिनः परमयोगिनैव निश्चयवादिनानामादिति तद्रूपप्रथमज्ञानं मुक्त्वा सर्वत्र विषयपरिच्छेदे कर्तव्ये निश्चयतः परमार्यत ईहापायौ भवतः, ईहा पुनरपायः, पुनरीहा, पुनरप्थपायः, न पुनस्तत्रान्तरा क्वाप्यवग्रहः, इत्येवं क्रमेण यावदन्त्यविशेषः, न तदुत्तरमीहा पायौ, अन्यथाऽन्त्यत्वविशेषणमेवानुपपन्नं स्वादिति निश्चयनयमतं पूर्वार्द्धन प्रदर्य व्यवहार नयमतप्रदर्शनार्थमुत्तरार्द्धमाह-संववहारस्थमित्यादि, संव्यवहारार्थ व्यावहारिकजनप्रतीत्यपेक्षं पुनः, सर्वत्र यो योऽपाय: स स उत्तरोत्तरेहापायापेक्षया भाविविशेषापेक्षया च सामान्य ग्राहकल्लाच्चोपचारतोऽविग्रहः, एवं तावद् नेयं यावत्तारतम्ये. नोत्तरोत्तरविशेपजिज्ञासा प्रयत्तत इति ॥२८५।। नन्वेवं तर्हि तनिवृत्तौ तदुत्तरं किं भवतीत्याशङ्कायामाह-तरतमजोगाऽभावे इत्यादि, तरतमयोगाभावेऽपाय एक, न तस्थावग्रहत्वम् , जिज्ञासोक्तદુત્તવિશેષાવોøવિશ્રાન્તસ્તાિમિત્તેહગાયામાવાનવમાિમાવાયોત્તરની હાય ન મવાિ तर्हि किं भवतीति चेत्, धारणव तदोपयोगाप्रच्युतिरूपा, ननु धारणाऽपि च्युतिवासनारगृतिभेदेन त्रिविधेति वासनास्मृतिरूपभेदद्वयस्य व सम्भव इत्याशङ्कायामुत्तरार्द्धमाह-सव्वत्थ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २२२ : तत्वाविरणार्थदीपिा । पंचदश० टी० एवमवमहमुक्त्वा ईहायाः स्वरूपं व्याविख्यासुराह-अवगृहीतेत्यादि । अवगृहीतेति क्रमप्रदर्शनं अवगृहीतमेवेह्यत इति । अवग्रहगोचरीकृतो यो विषयस्यार्थस्य सामान्यविशेषात्मकवाउन एकदेशः सामान्यम् , तस्मादनन्तरं शेपस्य भेदस्य विशेषस्येति यावत् , अनुगमनं विचारणम्, ईहाशब्दस्यच्छायां रूढिमनुरुध्याह-निश्चयेति । निश्चीयतेऽसाविति निश्चयः, विशिष्यते भिधतेऽस्मादिति विशेषः, ततः कर्मधारयः । तस्य ज्ञातुमिच्छ। जिज्ञासा सेहा। किमयं मृणालीस्पर्श उताहो सर्पस्पर्श इत्याकारति टीकाकृतः । सा चे व्यावहारिकावाहजन्या द्रष्टव्या। नैश्चयिकावाहजन्या तु किमयं स्पर्श उतास्पर्श इत्येवंरूपा विशेषावश्यकप्रसिद्धा समुन्नेया । जिज्ञासारूपत्वादेवास्या न संशयरूपत्वम् । वासणेत्यादि सर्वत्र वासना तथा कालान्तरे तिश्च, सा च सर्वत्र भणिता । अयमत्र भाषा-अविच्युतिरूपा धारणाऽायाव्यवहितोत्तरसमय एव भवति, वासनास्मृतीतु सर्वत्र कालान्तरेऽप्यविरुद्ध इति । अनुगमनं विचारणमिति-भाष्यकारोऽप्यभ्यधात् “भेयमग्गणमहेहा" इति । १८०। भेदा वस्तुनो धर्माः तेषां मार्गणमन्वेषणं विचारणं, प्रायः काकनिलयनादयः स्थाणुधर्मा अत्र वीक्ष्यन्ते, न तु शिकण्डूयनादयः पुरुषधर्मा इत्येवं परंतुधर्मविचारणहित्यर्थः । निश्चीयतेऽसाविति निश्चय इनि-निश्चित इत्यर्थः। विशेषपदस्य व्युत्पत्तिमाह-विशिष्यते भिवते. ऽस्मादिति विशेष इति । तस्य-निश्चितविशेषस्य । विशेषावश्यक प्रसिद्धा समुन्नेयेतिविशेषावश्यके मतिज्ञानद्वितीयभेदेहालक्षणनिष्कर्ष एवमुक्तः। " इय सामण्णहणाणतरमीहा सदत्यवीभसा । किमिदं सदोऽसदो को होज व संखसंगाणं? ॥२८९।।" इति । इत्येवं प्रागुक्तप्रकारेणाऽनिर्देश्या व्यक्तसामान्याऽर्थमात्रग्रहणलक्षणनश्चयिकार्थावग्रहो यः यश्चोत्तरविशेषापेक्षया शब्दादिसामान्यग्रहणलक्षणव्यावहारिकार्थावग्रहस्तदनन्तरमीहा जायते सा कि लक्षणेत्यत आह-सदर्थमीमांसति सतस्तत्र विद्यमानस्य गृहीतार्थस्य विशेषविमर्शद्वारेण मीमांसा विचारणा फिमिदं पर मया गृहीतं शब्दोऽशदो पा रूपादिरित्येवं स्वरूपा, इदं नैश्चधिकार्थावग्रहान तरभाविन्या ईहायास्वरूपमुक्तम् , व्यावहारिकार्थावग्रहानन्तरसम्भविन्या स्थावरूपमाह को होज वेत्यादि । शासशाङ्गयोर्मध्ये कोऽयं भवेच्छन्दः शासः शाङ्गोवत्येवं स्वरूपहा प्रवर्त्तते । नक्तप्रकारा विचारणा संशयात्मिका, न त्वीहात्मिकेति चेत्, सत्यम् , तथापि परमार्थवृत्त्याऽवगृहतिार्थस्य भवितव्यताप्रत्ययरूपतयापायाभिमुखः आधपक्षे प्रायः शब्देन भाव्यं न रूपादिनेत्याकारको द्वितीयपक्षे च प्रायः शाञ्जेन शब्देन भाव्यं न शाङ्गेनैत्याकारको मतिविशेष एवेहा ज्ञातव्या, तद्यथा-"अरण्यमेतत्सवितास्तमागतो, न चाधुना सम्भवताह मानवः। प्रायस्तदेतेन खगादिभाजा, भाव्यं स्मरारातिसमाननाना ॥१॥” इति । एतेन स्थाणुर्वा पुरुषो वेति संशयानन्तरं पुरुषधर्मव्यतिरेकनः स्थाणुधर्मभसन्वयतश्च प्रायः स्थाणुरेवायमिति बोध ईहेत्युपदर्शितम्भवति । अत एव प्रमाणनयतत्वालोकालकारे" अवगृहीतार्थविशेषाकाणमीहा" २-८ इत्युक्तलक्षणमपि सङ्गच्छते । हा न संशयरूपेत्यन हेतुमाह-जिज्ञासारूपत्वादेवेति । अस्याः-इहायाः । न संशयपत्य. Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपार्थ विवरणगूढार्थदीपिका | पंचदशसू० टी० इच्छापत्वेन च न ज्ञानत्वविरोध', इच्छाया अपि भाव्यत्वप्रकारकज्ञानविशेषरूपत्वात् , भाव्यत्वमर्थे प्रकार इति जिज्ञासात्वोक्तिविरोधी ज्ञानविषयिण्या इच्छाया एव जिज्ञासात्यादित्यपि न शङ्कनीयम्, अत्र जिज्ञासापदेन ज्ञानावच्छिन्नार्थविषयकेच्छाया एव ग्रहणात् , अत एव जिज्ञासायाः प्रत्यक्षहेतुत्से घटायोन्मीलितं पटं न प्रकाशयेदित्यादि दूषणमपि परास्तम् । ज्ञानविषयकेच्छायाः स्वातन्त्र्येण हेतुत्वोक्तो तहोपावतारेऽप्यर्थकथंता पायातस्या हेतुत्वे दोपाभावात् । अस्याः स्थाणुत्वव्याप्यचक्रकोटरादिमत्वज्ञानपुरुषत्वव्याप्यकरचरणाद्यभावज्ञानभाविज्ञानप्रामाण्याऽप्रामाण्यरूपसम्भवासम्भवादिज्ञानपर्यायै. समन्वयो दीर्घोपयोगत्वे सम्भवी, परेषा तु तावता पर्यायाणामेकदानवस्थानात् क्रममाविना च मेलकाभावात् सर्वमेव दुर्घटम् । अथालोकादिसाधारण्येन मिति तथा चास्था नाप्रामाण्यमिति भावः । ननु जिज्ञासा इच्छाविशेष एक, तद्रूपत्वे च ज्ञानरूपत्वमपि न भवेदिति मतिज्ञानविशेषत्वं कथमस्था इत्यत आह-इच्छारूपत्वेन चति । न नैयायिकमत इव स्याद्वादिमते ज्ञानतो भिन्ना भवतीच्छा, किन्त्वभिन्नैव-इद भवतु इद भूयात् इत्याद्याकाराया भाव्यत्वप्रकारकज्ञानविशेषरूपाय। एक तस्या अभ्युपगमादित्याहइच्छाया अपीति । ननु नेच्छामात्र मीहा, किन्तु जिज्ञासा पा सा, ज्ञानविपयिणी चेच्छा जिज्ञासा, भाव्यत्यप्रकारकचार्थविशेष्यकं ज्ञानं तु न ज्ञानविषयकमिति नास्या जिज्ञासात्वसम्भव इत्याशङ्काम्प्रतिक्षिपति भाव्यत्वमर्थे प्रकार इतीति । प्रतिक्षेपे हेतुमाह-अत्रेति-ईहा. स्थले इत्यर्थः, ज्ञानीयविषयताविशेष एव भाव्यत्वं, तस्याविशेषणत्वे ज्ञानावच्छिनत्वमर्थे समागतमेव, इदं ज्ञातं भवमित्याकारकत्वेऽपि ज्ञानावच्छिन्नार्थविषय त्याहाया इत्याशयः, अत एव-ज्ञानावच्छिन्नार्थविषयक छाया एक जिज्ञासात्वादेव, अस्य परास्तमित्यनेनान्वयः, घटविषयकज्ञानविषयकेच्छाया घटप्रत्यक्षहेतुत्वे ततो घटप्रत्यक्षमेव स्थात्, पटविषयकज्ञानेच्छायाः पटप्रत्यक्षकारणीभूताया अभावेन ५८प्रत्यक्षं न स्यादिति दोपस्तदा स्थादि तथाकार्यकारणभावो भवेत् , न चैवम् , किन्तु माश्यत्वप्रकारकार्थविशेष्यकज्ञानविशेष पजिज्ञासाया एवावायलक्षणप्रत्यक्षहेतुत्वस्य स्वीकारेणोक्तदोषाभावादित्याह ज्ञानविषयकच्छाया इति । अर्थकयन्तेति-अर्थस्य प्रकारविशेषसम्भावनलक्षणजिज्ञासेर अर्थकथन्ता, तद्रूपाया ईहाया अवायलक्षणप्रत्यक्षहेतुत्वे दोपाभावात्, यस्येहा तस्यैवावाय इति नियमात् । अयमाशयः, घटप्रत्यक्षायोद्घाटितं चक्षुर्यत्र तत्र पस्य सन्निकटत्वे तस्थावग्रहेहासद्भाव एवावायो भवति, न सन्यथेति पटावग्रहात्मकज्ञानविषयीभूतार्थविशेष्यकभाव्यत्वप्रकारहालक्षणजिज्ञासात एक पटस्यावायात्मकप्रत्यक्षं भवतीति तं प्रत्युक्तजिज्ञासाया। त्रापि कारणत्वं निर्वहतीति नोक्तकार्यकारणभावे व्यभिचार इति तादृशव्यभिचारप्रदर्शकं पटं न प्रकाशयेदिति वचो न युक्तमिति । इयश्वेहा स्याद्वाद एव दीर्घोपयोगरूपत्वात्सङ्गतिमङ्गति, न परमत इत्याह-अस्या इति। परेषां-नैयायिकादीनाम् । इहानन्तरमेव निश्चयलक्षणापाय इति नियमप्रतिक्षेपणाय शकते-अथेति । आलोकादिसनाचे चक्षुरादिग्रहणयोग्योों भवति, न Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :२२४ तत्त्वार्थविवरणपूढार्थदीपिका | पंचदशसू० टी० . भ्रमादिविरोधित्वेनैव विशेषदर्शनस्य हेतुत्वादीहीया न सर्वत्र निश्चये उपयोग इति चेत्, न, आलोकादिनाऽर्थस्यैव योग्यतापादनम् , निश्चयस्त्ववाहादिक्रमेणैवेत्यभ्युपगमात् । अनुभवसिद्धं चेतत् सामान्यज्ञाने सति । विशेपो जिज्ञास्यते ततश्च निश्चीयत इति । अथावग्रहे सति धर्मिज्ञानकोटिद्धयोपस्थितिसामन्या संशयेनैव भवितव्यमितीहाया अनवकाश एवेति चेत्, न, तथापि तदनन्तरमेककोटिसहचरितभूयोधर्मानुगमन०या- . पारस्येहासाध्यत्वात् , संजयादुत्तीर्णत्वेन निश्चयाभिमुखत्वेन च तस्या विलक्षणत्वात् , अस्तु तर्हि उक- . कोटिक एव संशय ईहा, ज्ञानान्तरकल्पनलाधवादिति चेत्, सत्यम् , तथापि तुल्यकोटिद्वयं संशयमुपमृद्य । एककोटिसह चरितभूयोधर्मावगाहनेन तदुत्कटत्वमनुभवन्त्यास्तस्याः प्रायोऽनेन स्थाणुना भवितव्यामत्या- . काराया दीर्घविचारात्मिकायाः संशयाद्भिन्नत्वात् , एककोटिसह चरितभूयोधर्मज्ञानेन प्रागेवोत्कटकोटिकः .. संशयो भवन्नीहाव्यपदेशभरनुन इति तु स्वहंगोष्ठीमात्रम् , तापद्विचारस्य ज्ञानान्तरनिबन्धनत्वात् , विशेषदर्शनसामग्रीत्वेनोत्तरकाल इव संशयनिवर्तकत्वाच्च । स्वालोकादितः साक्षादेवार्थनिश्चयः, किन्यवहादिक्रमेणवैति निश्चये ईहाया उपयोग आवश्यक इति समाधत्ते-नेनि । अवग्रहेहाबायानां क्रमिकत्वे-नुभवं प्रमाणयति-अनुभवसिद्धमिति । अवग्रहानन्तरं संशयसामग्रसिद्भावात्संशय एव स्थात्, न त्वीहेति शङ्कते-अयेति । भवतु अवनहानन्तरं संशयस्तथापि तदनन्तर मीहाव्यापारोपलव्धेरीहाप्यभ्युपेवेति समाधत्ते-तथापीति ।' तदनन्तरं-संशयानन्तरम् । इहायाः संशयनिश्चयाभ्यां बैल झण्यमावेदयति-संशयादुतीर्णत्वेनेनि सामान्यावग्रहे सति साधारणधर्मदर्शनात् कोटिद्वयप्रकारकसंशयः, ततोऽपि प्रभातुर्विशेष- - लिप्सायामनेन भवितव्यमित्येवमीहा जायते इति संशयोत्तरकालभावित्वेन तत्कार्यतयेत्यर्थः । ईहायासंशयाद्धिनत्वे हेत्वन्तरमप्याह-निश्चयाभिमुखत्वेनेति। तस्या-हायाः। पराभिमतसम्भावनारूपत्येनेहायासंशयेऽतविमाशङ्कते-अस्तु तहीति । उत्कटकोटिकत्वमस्या भवतुः नाम तथापि संशयमुपमृद्य जायमानाया अस्यास्संशयाद्भिनत्वमेव, आकारतोऽपि संशयाद्भिनत्वमेवास्या अनुभवपथमायातीति समाधत्ते-सत्यमिति । तदुत्कटत्वम्-एककोटे कटत्वम् , तस्या-ईहाया। पूर्व कोटिद्वयविषयक संशयो भवति तदनन्तरमीहा भवतीत्येव नास्ति, येन संशयोत्तरकालीनत्वेन संशयाद् भेदो भवेत् , किन्तु संशयकालत्वेनाभिमतकाल एवैककोटिसहचरितभूयोधर्मज्ञानेन जायमान उत्कटकोटिकसंशय ईहेतिः कथमस्थाः संशयाद् भेद इत्यत आह-एफकोटीति । दीर्घोपयोगरूपत्वे सत्येवास्था स्थाणुत्वव्याप्यवकोटरादिमत्रज्ञानादिपर्यायसमन्ययो भवितुमर्हतीति- ज्ञानान्तरत्वमेवास्या न संशयत्वमित्याहतावद्विचारस्येति-पत्र च न संशयः किन्तु प्रथमत ईहाया एव भावस्तत्रापि तस्याः विशेषदर्शनसामग्रीत्वेन उत्तरकाले संशयानुत्पादकत्वलक्षणसंशयनिवर्तकत्यवत्पूर्वकालेऽपि संशय- .. निवर्तनयोग्यत्वं समस्त्येव, संशयाभावाच न तन्निवृत्तिः, संशये च न संशयनिवर्स त्वमितिः । संशया दोनश्यमस्या दीविचाररूपाया इत्याह विशेषदर्शनसामग्रीत्वेनेति | Sh रीत्या भेदकसौलभ्येऽपि यस्यासंशयेऽन्तविरहि निश्चयत्वेनाभिमतज्ञानस्याप्यनुत्कोटिक Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ uपार्यविवरणदार्थदीविका । पंच। सू० टी० : २२५ : न चेदेवं तदाऽनुकटकोटिकसंशयन निश्चयोऽप्यपोधेत । वदन्ति छापातनिश्चयमीशमेव वेदान्त्याभासा इति न किञ्चिदेतत् । एवं स्वचित्तगतामहा निरूप्य पर्यायशर्थती नानात्वमप्रतिपद्यमानरसन्मोहार्थ तामेव व्याचष्टे । ईहा ह इत्यादि। अपायं निरूपयति-अवगृहीतेत्यादि । अनेनापि क्रममाचष्टे, अवगृहीत स्पर्शादिसामान्यविषये किमयं स्पर्शोऽस्पर्शो वा किं मृणालस्पर्श उताहि स्पर्श इति वेहाया संशय एवान्तवोऽस्तु, संशयस्वाभाव्याद् द्वितीयकोटि सद्भावेऽन्यनुत्कटत्वान्न तदाकारालेख इत्यस्य वक्तुं शक्यत्वानिश्चयकथैव समुच्छिन्ना स्यादित्याह न देवमिति । संशयनिवर्तकत्वेनहाया संशया दो नाङ्गीक्रियते चेदित्यर्थः । ननूकटकोटिकज्ञानस्य संशयत्वं नैयाथिका अभ्युपगच्छन्ति ततस्तन्नीत्याश्रयणेनेहाया संशयत्वं वक्तुं शक्यत, अनुत्कटकोटिकसंशयस्य निश्चयत्वं न केनाप्युररीक्रियत इति कथमनुत्कटकोटिकसंशयरूपता निश्चयस्येत्यत आहवदन्ति हीति-तथा च नावृष्टचरीत्थं कल्पनाऽपि । निश्चयज्ञानस्य निश्चिनोमीत्यनुव्यवसायाधदि न संशयत्वं तर्हि इहाया अपि सम्भावामीत्याध नुव्यवसायो न तु सन्देहीति न तस्या अपि संशयत्वमित्याशयः । ननु संशयहयो_लक्षण्यं न वीक्षामहे इति चेत्, सोऽयं पुरुपदोपः, न तु वस्तुदोपः, तयोर्भेदस्पानुभविकत्वात् , तथाहि-" एकवर्मिणि विधिनिषेधोभयज्ञान संशयः, हेतूपपत्तिव्यापारप्रवणं ज्ञानमीहा" इति लक्षणभेदेनानयोर्मेद स्फुटमनुभूयते प्रेक्षावद्भिः। यदाह भाष्यसुधासुधाम्भोधिः-"जमणेगत्थालम्बण-मपज्जुदासपरिकुंठिअं चित्तं । सेय इस सपप्पयओ, तं संसयरूवमणाणं ।। १८३॥" इति । “तं चिय सयत्थहेऊ-बत्तिवावारतप्परममोहं । भूआभूअविससा-याणचायाभिमुहमीहा ।। १८४॥" इति । अत्रानेकार्थाल वनमित्यत्रालम्बनपदेन कालम्बनत्वविवक्षणात्, अनेकार्थपदेन विरुद्धार्थत्वलाभात् “एकथर्मिनिष्ठ विशेष्यतानिरूपितविरुद्धधर्मनिष्ठप्रकार तानिरूपकं ज्ञानं संशयः" इति संशयस्य लक्षणम् , तस्वरूपविशेषणमाह-अपर्युदासपरिकुण्ठितमिति-उपलक्षणन्यायेनाविधिपरिकुण्ठितमिति ज्ञेयम् , न पर्युदासोनिषेध इत्यपर्युदास, विधिरिति यावत्, तेनोपलक्षणन्यायलब्धेनाऽविधिना च परिकुण्ठित जडीभूतं वस्तुनिश्चयकरणाऽसमर्थमित्यर्थः । संशयपदव्युत्पत्यर्थमाह-शेत इव स्वपितीव सनीत्मना न किश्चिच्चेतयते तदेवविधं चित्तं संशय उच्यते, तच वस्तुगत्याज्ञानमेव व तत्वनिश्चयाSक्षमत्वादित्यर्थः।। १८३॥भाष्यकार ईहालक्षणमाह-तं चियेत्यादि, यच्च ज्ञानं सदहतूपपतिव्यापारतत्परं तदीहा, सदर्थेऽण्यादौ विधमानस्थावादिविपये हेतुल्यापा: स्थाणुरयं पल्ल्युपसर्पणकाकादिनिलयादित्याकार, उपपत्तिव्यापारश्च सम्भवपालोचनं यथा सूर्यास्तसमये महति तमिसे स्थाणुरयं सम्भाव्यते, न तु पुरुषः, तदनुमापकशिरःकण्डूयन करनीवाचलनादिहेतोरदर्शनादिति, तदेवंविधहेतूपपत्तिव्यापारप्रवणमाहात्मज्ञानमिति सिद्धं भवति । तस्वरूपविशेषणमाहभृयाभूयेति । भूतो विद्यमानो विवक्षितप्रदेश स्थावादिरर्थः, अभूतस्तत्राविधमानार्थः पुरुषादिः, તાવ વિરોૌ તવરાઘલ થવાવાનું પ્રહ દિયા યત્યાસ્તવમમુર્ણ, જ્ઞાનમહત્યર્થ, २९ । । Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૬ : તત્ત્વાર્થવિવરણચૂઢાર્થનીવિષા Íવવું) સૂ॰ ટી પ્રવૃત્તાચા, મુળદોષયોસ્તવૃત્તિતવૃત્તિધર્મયોર્યિનારાયા ચોડવસાયઃ સ્પર્શીઃ સહ્યા નાસ્પરીીદ્યુંખાપર્શથીઃ સત્યા નાદિસ્પર્શથીરત્યેનું સન્યાસામાંત વિિવતો ચોઽધ્યવસાય સપનુતિ તત્રાર્પાદિત ધર્માનિત્યપનોઃ ? મૂળાāવાર્ય સ્પર્શીડ્યન્તીવિષ્ણુળસન્વિતાહિત્યેવમાારોબાય હન્યતે। હૈહાપ્રજારીભૂતદેતૂર્ણાત્તમાનમત્ર, પરેલા જિજ્ઞોહિતêજ્ઞિાનવત્ સમાધેયમ્ । પર્યાયાના અપાયોામ ત્યાર। વૈતીષાય નિશ્ચિનોતીત્યર્થઃ । અપા∞તીત્યધામ | અનુવતીસપનોત્। અવિષ્યતીત્યપન્યાય્ । ત્રૈર્યમુપસનનોત્ય માવાર્થે પ્રધાનીત્સાહ-પેમિત્યાદ્રિ । અત્ર વિપાયનષનયપાચ કૃતિ વ્યુત્પત્યર્થમ્રાન્તા અમૃતાર્થવિશેષાપનયન-વાપાયે ઘ્રુવતે, અવધારળ ધારોત્તિ વ્યુત્પત્યર્થમ્રાન્તાશ્ર સઘૂમૂવિશેષાવધારાં ધારામિતિ, તનુમ્ | જ્યા તા થૈદાસંશયોહાઽક્ષળમેવાનુંાસદ્ધ તિ માત્ર / ધ ધ વિશેષાર્થીના વિશેષાવશ્ય માખટીલાતોવસેવામાંત । અથાવપ્રહસ્ય નૈાયન્યાવહાર મેદ્દન વિધવાન્તાન્યાદ્રવિધહોત્વશ્રાપ્તયસ્થાપિ દ્વવિધ્યાસ્ત્રાદયા-યોઽધ્યવસાય:૨૫ોયઃ સત્યેયાનુપામ્ય વયં સ્પોંત્ર્યાશીતાવિશુખસમન્વિતત્ત્વવિયેવમાારોપાય ઙજ્જત રાત, તત્તવું સમુદ્દિશ્ય માયાનોઽવ્યા-‘મદુરાદ્ગુળજ્ઞળયો વચ્ચેત્તિ બંન સંપન્સ । વિશાળ સોગ્ગાળો શુામ પાવાગો॥૨૬૦।।”તિ બન્યા અથનર્થ:-‘મધુન ધ ટ્યુબત્યાત્ રાજ્જુબૈવાય શત્રુ ન શૂન્નસ્ય' રાત ચાંદુÀાંવજ્ઞાન સોપાય, તંત્ર હેતુમાહ–શુામવફ્રેમમાવત્ત, પુરોવત્તિપાર્થે વિદ્યમાનધ ગામમમવાિિનશ્ચયાત્ જ્ઞવિદ્યમાનધર્માંળાં શું વ્યતિરેઞાવાનૢ નાયિાત્યાનશ્ર્ચયાત્ । ગયં વ્યવહાર પ્રાનન્તરમાવી અપાય ત્ત, ત્રિયાવદ્રાન પરમાì તુ શ્રોત્રપ્રાઘા પુતઃ શબ્દ વયં ન વેિરિતિ વૃષસ સ્વયમેવાડવવોખ્ય વૃતિ । વહિવ્યાખ્યઘૂમવાન્ પવંત ત્તિ પરામર્શે ારીમુતજૂમદેતોવૅયા નહિ બંધૂમવાન્ પર્વતો હિમાનિત્યાારાનાંમતો હિજ્ઞોહેિત જ્ઞાનપક્ષે માન તથાગ્યાયેપોદાકારોમૃતદેષોત્તમાનમારાાંમત્યાશયના દૃામારીભૂતદેતૂપપત્તિમાનમન્ત્રત્યાવિ। બન્નતિ અપાય ત્યર્થ “ક્તયવિસેસાવાળમેÄ અવામિઝ્ઝાંત / સસ્પૃયત્મ્યવિસેલા-વધારાં ધારાં વેંતિ ॥૮॥” ાંત માથો મેં વાર્થમનુષ્ય-ભત્ર વિવૈપાયનાંમત્યાદિ । સદ્ભુતવિશેષાપનયનમેવાપાંચામાંતિ- વિક્ષિતરવેશે અસદ્ભુતઃ–વિદ્યમાનો→ઃ પુરુષíવેઃ તસ્ય યે વિશેષાઃ શિયન પન પદ્દનાદ્ય, તેષામપનયન પુરોને સત્કૃતે સ્થાનાવચૈનયત્રં નિષેધનમસન્મુતાવિશેષાપનયનમ્, સપનેવાપાયમિત્યર્થઃ । પુરુષવ્યાશિરાના ધર્માવવાનયામતિ જ્ઞાનળમષાય ચઢોળયામાપ્રજા જ્ઞાનેન સ્થાણુરવાયામતિ જ્ઞાનબયામાંમાંત માય | સંવું મૂર્તાવરોલાવધારાળમાંત सद्भूतस्तत्र વિક્ષિતરવેશે વિદ્યમાનઃ સ્થાÜાવિ, તસ્ય વિશેષાઃ વોટરાવચહેલાં પુરોક્ત્તિસ્થાવાવ વવધારળાં સ્થાળુન્યાવાવવાનાત્ સ્પાઇરેવાાિંત Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તાવિળમૂઢાર્થીપિા | વેવ રૂ. ર૦ : રર૭ : પ્રતોદિવ્યાખવત્તાજ્ઞાનાતિદિવ્યાખ્યધમાવેજ્ઞાનાયુમયજ્ઞાનાન્ન મુવતોડાયચૈવાવિશે વાત, અન્યથા ઋતે પશ્વમેત્યાધિયોમયજ્ઞાનનનિતસ્થાપાયવાળાસંમેવસ્ય જ પ્રસન્ના / ધારણામાહધારોત્યાદ્રિ ! પારખેતિ અર્ચ, પ્રતિપત્તિર્યધામિત્યનાથં મે વયતિ . પુત~ાટે નિશ્ચિતધાર્થ સ્વાર્થનાનુપયો ચાવદર્શનાબવુતિઃ પ્રતિપત્તિર્યથાનિત્યુતે | પ્રતિષત્તિરપ્રવુતિર્યધારવું થવષયમ્ ! મત્યવસ્થાનમિત્યનેન નિશ્ચય વા તૈરવધારનાં સ્થાળુદેવાયામતિ નિયમિત્યર્થ | યુજીવે હેતુમાહ-પ્રત દિવ્યાંથધર્મવત્તાજ્ઞાનાવિદ્યાવિ વિલિતબાવર્તિસ્થાળ વાર્યાબ્રિતિષgઃ સ્થાણુવાળો યો વોહરાહિમવધ વહ્યુસ્સાવયોનિયનાહિમ વ તાર જ્ઞાનાત સ્થાળુવામિત્વપયજ્ઞાનમુદ્યતે, પવિત્યુના સ્થાણુર્ઘતરપુષત્વથીવાર ક્યનાધિÍમાવારજ્ઞાનાવોરુITયજ્ઞાનમુશ્મવતિ, વાર્ષિ પુરા થાણુવ્યાવ્યવહન્દુસંધાલય ધર્મારામાક્ષ્યન્ત ન પુનઃ પુષત્વવ્યાખ્યશિરછક્યનાથ ત્યાહાહતદુમયકવાર સમૂહાશ્વનજ્ઞાનાપાયાને નાતે, તત્સર્વે જ્ઞાનમય હવ, નિશ્ચયત્વફળાપા સામાન્ય તિયા મદ્રામાવા તથાનડુપને વધeમાહ-પતિ-અવિન્યુતત્ત્વમાનન્યિાયે વાસનાથા, મૃતાવન્તતતયા વિનાન્યત્રાહબ્ધતાવાર તિરૂપમેદસ્ય પ્રસરવા ! નવિન્યુતિવાસનાતિક્ષણાનાં ધારણામેવવાળાં પ્રવુતિવિધિનૈતયા વિલાભ તેર્ધારણા પાર્થમિતિ ન તથા પશ્ચમમેવાસંમતિ વહે વ ગૂંથાત્તાપ દૂધળાન્તરમાહ-૩મયજ્ઞાનજ્ઞાનિનવાવા ત્રેવમવયમ્ ધ પુત્વવ્યાખ્યાશિ પટ્ટીનાં માવો વટ વ્યમિનારાજ સ્થાણુત્વવ્યા, યેન તદ્રવથાણજ્ઞાનેન સ્થાળુત્વવ્યાપવિજ્ઞાન સ્વાવ, તથાખ્યોટિનિયતઘમાવજ્ઞાનજ્યાદિનિયાવાન સ્થાણુતિ નિશ્ચય સબુકનાયતે, અથવા શિવજયનાદમાવસ્ય પુત્વામવિખ્યાન તદ્રુપવ્યાબિજ્ઞાનાશન પુરામાવવ્યાપજ્ઞાનાપુરુષ–ામાવાવ રોછોતરવહસાધારણધર્મસ્ય પુરાવ્યાવૃત્તત્ત્વના સાપુત્વવ્યાબતયા તરાનાવાયં સ્થાણુરતિ નિશ્ચય, સોગાય પત્યમ્યુમિતિ વિજ ૩mઝક્ષણા ધારણાગવવુતિવાસનાતિમેટાત્રિધા મવતિ, શતઃ મેવા િતાં“તયાંતરે તાત્યાવિવાં નો જ વાસનાનો ! વાસંતરે જઉં છુપરબુસર ધારણા સા ૩ || ર? ” કૃતિ મળ્યોછૂપાયામાવામૈિતામહ-યારબામાત્યાયન-મનવિષયક જ્ઞાનસામગ્રી પૂર્વજ્ઞાનસત્તાનપ્રતિવન્વિતિ તત્સવે મિનારાયણજ્ઞાનને સમૃત્યવતે, તુ પ્રશાન્તાવિયધારાવાહિશજ્ઞાનાયિત ચાનારાનુપયો ચાવાતિ બાબુતિનિતિન્તર્ત યાવહુથોસાતત્યાનાશ હત્યર્થ ન ધારાવાહિક જ્ઞાનસત્તાનટ્સપાયસ્ત શામાથ, અહીંતહેવા થી પ્રથમgોવાતિવિ વયિમન્યપુરુષોનુવતિ, તત્ર પ્રથમપુનર્વવ વાવયં તત્રાર્થે ભાવાયું, ન ચનુવાજવાક્યમ્, ચતોનુવાહા પુરુષ પણ મિચર્ય ફર્વ પૃદત્તર તિ, નાત્રાર્થે પ્રવ્ય, પ્રથમતો યેન પુલા Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ : तरवार्थविवरणदार्थदीपिका 1 पंचदश सू० टी० द्वितीयां लब्धिरूपां धारणां कथयति । यदाऽपाय स्पदिविषयस्य कृत्वाऽन्यत्रीपयुक्तो भवति तदाप्यसो लब्धिपा धारणा समस्त्येवेति । अवधारण त्यनेन तृतीय भेदं कथयति । यदा कालान्तरे तमेव प्रागनुभूतं विषयमालाव्य ज्ञानमुदेति तदा तदवधारणमिति । पर्यायानाह-धारणा प्रतिपत्तिरित्यादि । धारणा प्रतिपत्तिर्नाम परिच्छिन्नेऽर्थे यावदन्यत्रोपयोग न याति तावदनाशः । अवधारणं कालान्तरानुस्मरणं गृहीतम् । अवस्थानमित्यनेनान्यत्र पदार्थे उपयुक्तस्य लब्धिरूपा धारणा, निश्चय इति प्रतिपत्तिरित्यस्य पर्यायः । अवगम इत्ययं कालान्तरानुस्मरणरूपावधारणस्थ, अवयोध इत्ययं तु मत्यवस्थानस्य लब्धिरूपस्येति । नवविच्युतिः प्रध्वंसानवच्छिन्ना सत्ता घटादेखि ज्ञानस्य न कोऽयमर्थस्स एव प्रष्टव्य इति, तथा चानुवाकवाक्यजन्ययोवस्यानुवाद्यवाक्यजन्यबोधविषयमाहित्येन यथा न प्रामाण्यं तथा प्रकृतेऽपीति । किञ्च प्रथमनिश्चयात्मकज्ञानेनैव तत्पूर्वसंशयनिवृत्तद्वितीयज्ञानेन कार्यान्तराकरणेन तस्य निष्फलत्वादप्रामाण्यामिति वाच्यम् , तत्तत्कालभेदेन तत्तविशिष्टत्वेन पटपटतरपटतम मिनधर्मवासनाजनकत्येन वा भिन्नस्यैव स्वसजातीयस्थार्थस्य ग्रहणात्, तथा च भिन्नभिन्न स्वसजातीयार्थग्राहित्वनापूर्वार्थग्राहकत्वात् प्रामाण्यम् । भिन्नभिन्नवासनाद्वारा दृढदृढतरदृढतमस्मरणादिलक्षणकार्यजनकतयाऽपि प्रामाण्यमिति । चतुतो गृहीतग्राहित्यमप्रमात्वव्यवहारे न प्रयोजकम् , कि तदभाववनि विशेष्यतानिरूपिततनिष्ट प्रकारतानिरूपज्ञानत्वमेवेति यथार्थावगाहिन्यासा नाप्रामाण्यम् , अत एव तजन्यस्मृतेरपि प्रामाण्यमिति दिक् । द्वितीयां लब्धिरूपामितिस्मृतिज्ञानावरणीयकर्मक्षयोपशमरूपा सा यधपि न ज्ञानरूपा तथाप्यायकार्यत्वेन स्मृतिकारणत्वेन ज्ञानोपचार त कृत्वा धारणाभेदत्वेनात्रोक्तति भावः । यदा काला रे तमेव प्रागनुभूतमित्यादि-समानविषयत्वप्रत्यासत्यानुभवत्योः कार्यकारणभावात् पूर्वानुभव. , विषयविषयकं स्मृतिरूपं प्रत्यभिज्ञानरूपं । यदा ज्ञानमुद्भवति तदा तदुभयमवधारणमित्युच्यते, नात तेरिव प्रत्यभिज्ञानस्यापि पूर्वापायजन्यत्वेन तद्भदेनाधिकभेदप्रसङ्गः, धारणातीय भेदरमृतिपदेन तत्ताविषयकज्ञानविशेषग्रहणात् प्रत्यभिज्ञानस्यापि तद्रूपत्यादिति भावः । अत्र धारणाभेदत्रयाणां भिन्नलक्षणानामपि धारणात्वनावग्रहभेदयस्थावग्रहत्येनेवैक्यानाधिक मेदकल्पनाप्रसङ्ग इति भावनीयम् । कालान्तरानुगरणरूपावधारणस्यत्यस्य लव्विरूपस्येत्यस्य च पर्याय इत्यनेनान्वयः । अविच्युतिवासनास्त्यात्मकभेदत्रयवती धारणाऽपायानातिरिच्यते, तस्या अपायातिरिक्तत्वेनाऽवमानत्वादिति मतिज्ञानस्य भेदान्तरात्मिका धारणा नास्ति किन्त्यपायविशेषरूपैव सेत्याशयेन पर आशङ्कते-नवविच्युतिरित्यादि । प्रध्वंसानवच्छिन्ना सत्तेति-अपायज्ञानस्य यावन नाशस्तावत्कालीनसत्तेत्यर्थः । घटादेवि ज्ञानस्य न भेदान्तरमिति घटादियविन्न नश्यति तावत्कालीनवटसत्ता घटात्मिकैव, न तु तत्तत्क्षणभेदेन भिन्ना, तद्वदुक्तलक्षणा स्वरूपसत्ता तावत्कालीनापायस्वरूपानातिरिक्ता किन्दपायविशेषरूपैवेति ज्ञानस्य नाविच्युतिलक्षणं भेदातरम्, न हि काल Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તત્ત્વાર્થવિવાળમૂઢાર્થીવિકા | પંચ સૂ૦ ર રરર ? મેવાન્તર, મેતાન્તરે વેદીમત વેરા, સોડપ મેવાસાદરાવળ ન મેદવૃદ્ધિમાધાતુમ, તેનોપયોગસાતત્યજીલગાડવિડ્યુનિસ્તા, ધાવાળસાતત્યતુલ્યોગક્ષેત્વાત, તુ તસ્મિન્ ધરાવુપચોને પોતે સતિ સયમ સત્યેયં વા વાસનામ્યુપામ્યતે, ફાં તવેવેતિ ક્ષળ કૃતિ, સા મન્ચરાપ ધારણા ન મવતિ, મત્યુપયોગી ઝાકોવ વિરતતા , ફ્રાન્તરણ નામોને યોગડન્વચમુવચાપાયચૈવ પ્રવૃતિ નાતિ ધારણાસ્ત્રો મેદ્રઃ શ્ચિહિતિ વેત, શત્રોત, 7 હિ ધટાવિવાનસ્ય જ્ઞાનરા ચાવલ્લામેનોૌવાવસ્થાન, શિસ્તુ પ્રવીપસ્થાપર/પરપિરિવાપરા પરીવાજેવપ વ, તત સિગ્ન સમયે પુરવાથમિતિ નિશ્ચયપોષાય પ્રવૃત્તઃ, તતઃ સમયાહૂર્વમપિ થાણુરવાયું ચાલુવામિત્યવિવુલ્ય યાડન્તર્ત વિવિપાયપ્રવૃત્તિ સા પ્રથમ પ્રવૃત્તાપાયાવધિ તીર્તન્યા ! હતેન ધારાવાહિલં ચાલ્યાત ! તામવિચુતચૈવ તરૂવાત ! વુિં જ પૂછપષ્ટતાપwતમમિન્નવાસનાનન+વસ્તુવિષયત્વેનાપાયારૂTગવન્યુનેમિંન્નત્વમાવ્યમ્ વાસના ઋતિવિજ્ઞાનાવરણમાયોપરામર્જા તાદિજ્ઞાનનનનશક્તિરૂ વ ાર્યાખ્યાનુપચૈવ પનીયા / તિરપિ ફર્વ વસ્તુ તવેવ બાપુવૅ મચેત્યારે પૂર્વપ્રવૃત્તાપાયાનિર્વિવાધિદૈવ, મન વસ્તુમેવો નામ, તથાનમ્યુપામેગતબસમાહર્મવાન્તરે સ્મ ત વેરા રૂતિ મેન વમેવાવુ ફળમાન વૌદ્ધમતસાગ્રા= સ્વાહિતિ માવા નન્વયં સતિ સ મેલો મેવદ્ધિ ાં જ વિધારિયાદફ્રાથમિાહsષતિ જ્ઞાનય પ્રતિક્ષણમેન મેતોપ પૂર્વોત્તરજ્ઞાનવ્યવસ્થા પૂર્વોત્તરજ્ઞાનવ્યtીનાં વા મિત્રોંઢું સારવાર ન મેહબુદ્ધિમાધાતું સમર્થ તિ માવા ! ધટાવિજ્ઞાસા થતુરાજક્ષેત્રાહિતિ-ધરાવિલાસાતત્યં ધરાહિમેવ જ તો મિન્ન તથા સાતત્યક્ષનાવવુતિરથપાય વાન્તતતિ ન તો વ્યતિરિતિ માવઃ | વાસના ય િવવિઘવા વેત્તા તરિવારો હેતુ માહ-મહુપયોકાર્ય પાર વિરતત્વવતિ / સંજોયમાં વા ૪ વાસનાયા દત્તાવેતાવ તું તદસ્તુલિપાડ્યોમાહિતિ માવા તિજ્ઞાનાવરણવર્મયોપામાં તકશાનનનનશક્તિeષા વા સાવવા તત્યા જ્ઞાનવન તિવાસમ વેતિ | યા વાનુમતાર્થ વાકાનરોગોમક્ષતિ, મિયાં સાપ પૂર્વોત્તરઘરાવાવમાંનમુન નાયમાનાં નિશ્ચયપાડપાયારિવામિયાહુ વાજાતિ નારિર ધારણા મેવા ચિયિતિ . તથા ૨ મતિવિધેવ વતુર્વેતિ પૂર્વપલામિકાથડા વચ્છરન્સમા–ત્રોmત્ત ફુવારા અપાપવિષયવાર્યા રેતિ-સામનપિરાપરફળાવિશિષ્ટય વિયામિનવ, વિશેપમેન તદ્વિરિટામેતિ નિમિત્તાવિયાગ્રાહનપર્યાવૈ. રત્ય, અસ્યાવસ્થાનમિયનેનાવૃજ્ય સક્વન્યા વિવુતિ-વિચ્છિન્નપ્રવાહપતયેયર્થ હજારવિધુતસ્થિતિ વિહં વાવ7માનાવિયાગ્રુત્યજ્ઞાનધારાવાહીત્ય દેવ મધ્યાહ-વિતિ તદિજ્ઞાનઝનનાશિકતિ-નાથત્યાત્મવિજ્ઞાનોત્પાહાનુશાહિત્ય નનુ મવપતે ધારણાનાં મેયાત્મવત્વેન Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २३० : तत्वार्थविवरणगूढार्थदीपिका | वोडश सू० टी० પૂર્વાપરવર્ણનાનુસા પૂર્વપ્રવૃત્તાપાચરે તસ્યા અમાવાવું, સાપ્રતાપાયસ્ય વસ્તુનિશ્ચયમાત્ર नायोगात् तस्माद्धारणात्रयमप्येतद्धारणात्वेनानुगतमवग्रह्नयमिवावग्रहत्वनावश्यकमम्युपगन्तव्यमिति न मतिज्ञानस्य भेदचतुष्ट्वव्याकोप इति ध्येयम् । अवग्रहादीना सूत्रे कर्तृसाधनानां श्रुतत्वात्कर्माभिधानद्वारा भेदानाह देवेत्यत आह-तरणाद् धारणात्रयमप्येतदित्यादि । एतच पूर्वमेव विवृत्तमिति नेह अतन्यत इति ॥ १५ ॥ पोडशसूत्रावतरणिकामाह अवग्रहादीनामित्यादिना । सूत्रे " अवग्रहेहापायधारणाः" इति पूर्वसूत्रे । तत्कर्माभिवानद्वारा भेदानाहेति महाद्यर्थानंवगृहाती त्यवग्रहः, ईहत इतीहा, अपैतीत्यपायः, धारयतीति धारणा इत्येवं कर्तृप्रत्ययनिष्पन्नावग्रहाऽपायधारणाविषयीभूतार्यात्मक कर्माभिधानद्वाराज्ञग्रहादीनामेकैकानां प्रभेदनिश्रयार्थं भेदानाहेत्यर्थः । अवग्रहादि चतुर्णां मतिज्ञानत्वेनैक्येऽपि यथा स्वस्वविषयभेदापेक्षयैव भेदस्तथा तेपामवदादीनामेकैकानामपि विपयभेदप्रयोज्य भेदप्रतिपिपादयिपया कानर्थानवगृह्णाति कानर्थानीहते इत्यादिकर्माऽऽकाङ्क्षाप्रयोज्यावग्रहादिविपयात्मकत्वादिकर्माभिधानद्वारा भेदानाहेति भावः । सूत्रम् बहुबहुविधक्षिप्रानिश्रितसंदिग्धभुवाणां सेतराणाम् ॥ १॥ १६ ॥ (भाष्यम्) अवग्रहादयश्वत्वारो मतिज्ञानविभागा एपां पह्रादीनामर्थानां सेतराणां भवन्त्येकश. । सेनराणामिति सप्रतिपक्षाणामित्यर्थः । चह्नगृह्णाति । अल्पमत्रगृह्णाति । बहुविधमवगृह्णाति । एकविधमवगृह्णाति । क्षिप्रमवगृह्णाति । चिरेणावगृह्णाति । अनिश्रितमवगृह्णाति । निश्रितमत्रगृणाति । अनुक्तमवगृह्णाति । उक्तमवगृह्णाति । ध्रुवमवगृह्णाति । अत्रमत्रगृह्णाति । इत्येवमादीनासपि विद्यात् ॥ ( यशो० टीका ) भाष्ये अवग्रहादयश्चत्वारो मतिज्ञानस्य प्रकृतस्य विभागा भेदाः, एषां बह्वादीनामर्थानां सेतराणामवह्नादिप्रतिपक्षयुक्तानाम्, एकशः प्रत्येकं, ग्राहका भवतीत्यर्थः । उक्तमेवार्थे प्रपञ्चयति-वह्नगृह्णातीत्यादिना । नन्ववग्रहादयः प्रथमान्ताः श्रुता पूर्वसूत्रे वह्वादयश्चेह षष्ठ्यन्त। इति तत्रैवमर्थः कथनीयो भवति - महारर्थस्यावमहोल्लस्यावग्रह इत्यादि, उच्यते, वहोर ग्रहो વવું શ્રૃહાીયનયોરડમેનાાય હોષ. । વહોરવત્ર ત્યસ્ય વસ્તુવિષયોર્ ત્યઃ। વહુમવાન્દ્તીયંત્ર ન વસ્તુનિપિતાવીવિળયાંનાંતે । તત્ર સ્પર્શનાસ્તાનેવં વઘુમવવૃદ્ધાંત, શય્યાય—મુર્યાવેષ્ટઃ ઘુમાંıત ધોષિતપુષ્પનન્દનગવિસ્પર્શે વઘુસત્તમે મંદ્રનાવવષ્યતેવું ચોર્ષિસ્પર્શોથ सम्बन्धार्थे पष्ठी, सम्बन्ध ज्ञानज्ञेययोविपयविपयिभावात्मेति घटस्य ज्ञानमिव बहोर - वग्रह इत्यत्रापि विपयत्वलक्षणपष्ठ्यर्यमभिप्रेत्याह-बहोरवग्रह इत्यस्येति । बहुमत्रगृह्णाती त्यस्य भावार्थमाह निरूपितावग्रहीयविषयितावानिति - अवग्रहयत्रिपायितेत्यस्थावग्रहनिष्टविपयितेत्यर्थः । विषयविषयित्वयोश्च निरूप्यनिरूपकभावसम्बन्ध इति बहुनिरूपितेति तद्विशेषणम्, तद्वत्वञ्च स्वरूपसम्वन्धेनावग्रे वाच्यमिति । भेदेनेति-स्वस्खा साधारणधमंत्रकारण, पृथक्पृथगुजातिप्रकारेणेति यावत् । " अत्थोग्गहो जहभो समयं " इति विशेषावश्यक Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तरवार्थविवरणदार्थदीपिका । षोडश ६० टी० .२३१: तरलमपुप्पस्पशेऽयं च तद्नात्रानुलग्नचन्दनस्पोऽयं चैतत्परिहितवस्त्रस्पर्शोऽयमेतदाबद्धरसनास्पर्श इति । नन्यवग्रह एकसामायिकः शास्त्रे निरूपितो न चैकस्मिन् समये एकैकापग्रह एवंविधो युक्तोऽल्पकालत्वादिति चेत्, सत्यम् , ५वमेवैतत् , नैश्चयिकोऽवग्रह एकसामयिक एव, व्यावहारिक चावग्रहमझीकृत्येदमुच्यते यदुत तत्तत्पशाकारतानिरूपितेदमाकारताकः स्पीयो ववाह इति, ताश्चाकारताः क्रमवत्य एव, तत्तत्क्षणा4प्छेदेनैव ज्ञाने इदमाकारतोत्पतेः, आनुपूर्यकत्वाच्च पदवाक्यादाविव तदवग्रहेऽप्येकत्वं भावनीयम् । बहित्यस्य प्रतिपक्षं कथयति-अल्पमवगृह्णाति यदा तेपामेव योपिदादिस्पर्शानां यं कंचिदेकं स्पर्शमवगृ जात्यन्यान् सतोऽपि क्षयोपशमापकन्नि गृह्णाति तदा अल्पमेकमेव गृलातीत्युच्यते । बहुमेहेऽपि बहुत्व व्याप्यसंख्याऽग्रहात्प्रत्येक तज्जात्यग्रहाद्वाऽबहुत्वमित्याये । बहुविधमणाति-बन्यो विधा यस्य स यथा तं, यदा योपिदादिस्पर्शमेकैकं शीतस्निग्धमृदुकठिनादिरूपं गृह्णाति, तदा बहुविधगुणोपेतग्रहणाद् बहुभाष्यवचनानैश्चयिकाविग्रहस्यकसमयमात्रकालत्वेन कारण कार्थधर्मोपचारं कृत्वोपचारवृत्या बाधवग्रहदो घटमानोऽपि मुख्यवृत्या न घटते, घटते च पूर्वज्ञानापेक्षया विशेषग्राहकत्वेनापायरूपे उत्तरज्ञानापेक्षया सामान्यग्राहकत्येन व्यावहारिकार्थावग्रह ५५, तस्यान्तर्मुहतिकत्येन प्रतिक्षणं भिन्नाभिन्नाकारतयोत्पत्तेः, विशेषग्राहकत्वेन बहुबहुविधादिग्रहणस्थापि घटमानवादित्याशयेन समाधत्ते सत्यम् , एवमेतत् , नैश्चथिकोऽवग्रह एकसामयिक एवेवादि । अत्र व्यञ्जनावग्रहादीनां द्वादशविधत्वात्तत्र बहादिविशेषणविशिष्टत्वमेकसन्तानगामित्वरूपयोग्यता पुरस्कृत्य सम्मवाभिप्रायेण शेयमित्युक्त ज्ञानार्णवे इति । व्यञ्जनावग्रहादयः कारणमपायादीनाम् , तानन्तरेणाऽपायाद्यभावात् , ततश्चापायादिगतं बह्वादिपरिज्ञानं तत्कारणभूतेषु व्यञ्जनावग्रहादिष्वपि योग्यतयाऽभ्युपगन्तव्यम् , न हि सर्वथाऽविशिष्टात् कारणाद्विशिष्ट कार्यमुत्पत्तुमर्हति, कोद्रपवीजादेरपि शालिफलादिप्रसङ्गादिति विशेषावश्यकभाष्यदशोत्तरत्रिशततमगाथाटीकायामुक्तमिति । ननु व्यावहारिकववग्रहस्याप्युक्तप्रकारेण स्वस्वासावारणधर्मेण भिन्नभिन्नयोपित्पुपचन्दनवस्त्रादिस्पर्शावगाहित्येन भिन्नभिन्न समयाव छेदेन विचित्रक्षयोपशमोत्कर्षवलेन भिन्न भिन्नाकारतोत्पत्तेराकार भेदेनाकारणोऽपि भेदात्तस्य भेदापत्यैकत्वक्षतिरित्याशङ्कां मनसि धृत्वा तदुत्तरमाह आनुपूल्यकत्वाचेत्यादि । बहुविषयकावग्रहस्य पूर्वोत्तरज्ञानानुपूर्वा एकत्वादेवकत्वमिति भावः । तत्र दृष्टान्तमाह ५दवाक्यादाविवेति । अन्याचा यमतमाह बहुअहेऽपीत्यादि। अन्यस्त्वल्पक्षयोपशमस्वातत्समानदेशोऽयवहुमवगृह्णातीत्यत्र हेतुमाह बहुत्वव्याप्येत्यादि। योपिरस्पर्शे ये ये शीतत्वयित्वमृदुत्वादयो बहुविधधर्मास्सनिल तत्तद्धर्मोपेतं तं जानाति, एवं योपित्संलग्नपुष्पादिस्पर्शमपि ततशीतत्वमृदुत्वादिबहुविधधर्मोपेतं क्षयोपशमविशेषाद् जानाति तदा बहुविधापग्रह इति सिद्धान्ते गीयत इत्याशयेनाह बहुविधमवरणातीत्यादि । बवग्रहादितो बहुविधावग्रहादविशेष्यांशावगाहित्वसाम्येऽपि प्रकारांशावगाहनेऽस्ति पैलक्षण्यं, बपग्रहाद्यपेक्षया बहुविधापग्रहादरेककस्मिन्नपि विशेष्ये बहुधर्मप्रकासववोधरूपत्वादिति भावः । तथा चाशेपस्ववि Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २३२ : तत्वार्थविवरणदार्थदीपिका । पोडश मु० टी० विधावग्रह इत्यर्थः । गुणा जात्यादिरूपाः । यदा तु योपिदादिस्पर्श कैकगुणसमन्वितं शीतोऽयमिति वा स्निग्धोऽयमिति वा मृदुरयनिति वेत्यवच्छिनति तदा एकविधमणातीत्युच्यते । कोलाहलप्रत्यक्षं प्रत्येक ततज्जात्युपरागेण वहूनां ग्रहणं पहवाह इति पक्षेऽबहुमध्ये, अन्यथा त्वेकविधमध्येऽन्तर्भावनीयम् , अगृहीतकरयादिनानाशब्दसमुदायस्यैव कोलाहल पदार्थत्वात् , कोलाहले दोपविशेषेण प्रतिबन्धान कत्वादिप्रत्यक्षमिति तु मन्दम् , बहुबहुविधक्षयोपशमवतस्तदापि तत्प्रत्यक्षात् । न च कोलाहले कत्यादिग्रहवारणाय तत्तदोषाभावानां तत्तत्पुरुषायकत्वादिप्रत्यक्षहेतुत्वमिति नैयायिकादिकल्पितं ज्यायः, अनन्तदोपाभावाना हेतुत्वमपेक्ष्यानुगतक्षयोपशमहेतुताया एव युक्तस्वात् । तस्य हि कार्यतावच्छेदक नानाविषयस्थलीयनानाधर्मप्रकारकप्रत्यक्षत्वमिति कार्यतावच्छेदकेऽपि लाघवमेवमाश्रितं भवति, प्रतिनियतद्विवादिधर्मप्रकारकबहुविधप्रत्यक्षानुरोधेन च बहुविवत्वादिव्याप्यधर्मावच्छिन्नमयोपशमविशेषस्य हेतुत्वमावश्यकम् , दोषाभावे जातिरूपविशेषासम्भवात् , तथा च यद्विशेष इति न्यायेन सामान्यतोऽपि क्षयोपशमस्यैव हेतुत्वं युक्तमिति विभावनीयं प्रामाणिकैः । तमेव भूयो योपिदादिस्पर्शमाशु स्वेनात्मना यदावच्छिनत्ति तदा क्षिप्रभव पातीति भण्यते । यदा तु तंबहुना कालेनावच्छिनति तदा चिरेणावगृह्णातीत्युच्यते, स्वल्पास्वल्पेहा कृतोऽत्र विशेषो द्रष्टव्यः । अनिश्रितमवणातीति निश्रितो लिङ्ग प्रमितोऽभिधीयते, यथा यूथिकाकुसुमानामत्यन्तशीतमृदुस्निग्धादिरूप. स्पर्शोऽनुभूतस्तेनानुमानेन लिङ्गेन विना यदा तं विषयं परिच्छिनत्ति तदाऽनिश्रितमयणातीत्युच्यते, अनिश्रितमलिङ्गमित्यर्थः । यदा त्वेतस्मादाख्यातालिलझापरिच्छिनत्ति तदा पयनिष्ठानेका साधारणच्याप्यवहुतरधर्मावगाह ज्ञानं बहुविधावग्रह इति लक्षणं पर्यवस्यति । जात्यादिरूपा इति-शीतत्वस्निग्धत्वादिजातिरूपा इत्यर्थः । अबहुमध्ये इति-तत्तजात्युपरागेण बहूनां विषयाणां ग्रहणाभावात् कोलाहलप्रत्यक्षे बहूनां विषयाणां प्रातिरिखकधर्मप्रकारकमहत्वं बह्ववग्रहत्वमिति लक्षणसङ्गमनाभावेन न तद् बह्वग्रहरूपमिति तदवह्नवग्रहमध्येऽन्तर्भाव नीयम् , कोलाहलोऽयं श्रूयत इत्येवमव्यक्तस्वरूपतया जानाति, अल्पक्षयोपशमत्वात्, न तु विभिन्नस्वस्वजातिरूणेति हेतोस्तद्भिन्नज्ञानत्वात् , तत्त्वञ्चासाधारणधर्मानुपरागेण बहुविषयमाहित्वमनवग्रहत्यम् । तस्य च लक्षणस्य विभिन्नजातीयाने कशब्दसमुदायो हि कोलाहल इति तेषां सर्वेषां शब्दानां स्वस्वाऽनावारणधर्भानुपरागेणाऽव्यक्तस्वरूपेण नाना शब्दा एते इति सामान्यज्ञानसद्भावेन तत्र सङ्गतिर्भावनीयेति । अन्यथेति-विभिन्नजातीयानां तेषां शब्दानां मध्ये अशेपस्वविषयनिष्ठा साधारणधर्मव्याप्यस्वल्पतर वर्मग्रहणे इत्यर्थः । लाघवमिति रातपपीयकवादिप्रत्यक्षाऽनिवेशादिति भावः। दोषाभावेजातिरूपविशेषास भवादितिदोषाभावस्य तुच्छरूपत्वेन तत्र तत्तत्पुरुषीयकत्यादिप्रत्यक्षकारणतावच्छेदकजातिरूपविशेषाऽसम्भवादित्यर्थः। यद्विशेष इति न्यायेनेति-यद्विशेषयोः कार्यकारणभावस्तसामान्ययोरपीति न्यायेनेत्यर्थः । आश्चिति-शीघ्रमित्यर्थः, झटित्युपनतसामग्रीकत्वादिति भावः । स्वेनात्मनेति-स्वगतासाधारणधर्मेणेत्यर्थः, बहुना कालेनेति कालान्तरावच्छेदेनैव तत्सामग्रीस भावादिति भावः । अनिश्रितमित्यस्यार्थमाह अलिङ्गमित्यर्थ इति यन लिङ्गानिश्रामपेक्षते Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवार्थविवरणपूढार्थदीपिका । षोडश० टी० निश्रितमवलातीति भण्यते । तद्विषयकानुमितिसामयां सत्यां तल्लिङ्गकप्रत्यक्षेच्छया जायमानं प्रत्यक्षं तल्लिङ्गनिश्रितमिति बोध्यम् । तेन न पर्वतो पहिमानिति प्रत्यक्षसत्त्वे धूमलिकवयनुमित्सया धूमलिङ्गेन जायमानानुमितेनिश्रितापग्रहत्वम् ।। अत्र स्थले उक्तमवतृष्णाति अनुक्तमवणातीति विकल्पो कैश्चिदुतो, तौ चोक्तानुक्तत्वयोः शव्दधर्मत्वेन श्रोत्रावाहविषयावेव, न सर्वव्यापिनाविति त्यक्तौ । यदि च रूपविशेषवामणिः पद्मराग इत्युपदेशसहकृतचक्षुरादिजन्योऽयं पराग इत्याचवग्रहे उक्तत्वमन्यत्र चानुक्तत्वम् , उक्तोपदेशस्य तत्पदवाच्यत्वोपमितावेवोपक्षय इति तु लिङ्गनिश्रितस्थलेऽपि शक्यं वक्तुम् , तत्राप्येतलिवानेतत्पदवाच्य इत्याभिप्रायिकोपदेशस्य कल्पयितुं शक्यत्वादियुद्भाव्यते तदा निश्राऽस्ति जनकत्वेन यत्र स निश्रित इति व्युत्पत्तनिश्रापदेन च लिझोपदेशयाईयोरपि संग्रहान्न दोषः । अतस्मिंस्तद्ग्रहो निश्रित इतरोऽनिश्रित इत्यपरे । यद्भाव्यसुधांभोनिधिः-निरिराए विसेसो वा परचम्महि विमिस्सं पिस्सिअमविणिस्सिों इयरं । ' निश्रिते विशेषो वा वक्तव्यः । परधरस्वादिवस्तुधमैनिश्रितं युक्तं गपादिवस्तु गृहणतो निश्रितं भवति । व्यश्वादिधीनिश्रितमित्यर्थः । इतरदावि गोज्ञानमनिश्रितमित्यर्थः । निश्चितमवजातीति निश्चितं सकलसंशयादिदोषरहितम् , यथा तमेव योषिदादिस्पर्शमवलज्ज्ञानं योषित एव पुष्पाणामेव चन्दनस्यैवायं स्पर्श इति निश्चयव्यापार प्रवर्तते । अनिश्चितमनगलाति-यदा तमेव स्पर्श संशयापन्नः परिच्छिनति, अन धर्माशे निश्चय एवं योषिदादिसम्बन्धाशे तु संशयो बोध्या, तदनिश्रितमिति भावः । तल्लिङ्गकप्रत्यक्षेच्छया जायमानमित्यस्य फलमाह तेनेति । निश्रितावग्रहत्यमिति-अस्य नेत्यनेनान्वयः। धूमलिङ्गापरामव्यवहितोत्तरजायमानायाः पर्वते वह्नेः प्रत्यक्षं मे जायतामितीच्छाया अभावादिति भावः । इत्याचवग्रहे उत्पमिति-मुख्यवृत्योक्तत्वं शब्दात्मकविषयगतमेव, अवग्रहे तूपचारत उक्तमिति भावः । पाविशेषवान् मणिः पराग इत्युपदेशवाक्यं परागपदवाच्यत्वविषयकोपमितावेव जनकं, न तु चक्षुरादिजन्येऽयं पराग इति प्रत्यक्षे इति नोपदेशजन्यत्वेन प्रत्यक्षस्योक्तत्वमिति यदि कश्चिद् यात्तदा लैङ्गिकस्थलेऽप्यतालिवान् एतच्छ०६वाच्य इत्युपमिताव लिङ्गज्ञानस्य हेतुत्वं न तु लैङ्गिकप्रत्यक्षे इत्यपि वक्तुं शक्यं स्यात् , अतो यथा तस्य प्रत्यक्षस लिङ्गज्ञानजन्यत्वं तथा चक्षुरादिजन्येऽयं पारा॥ इति प्रत्यक्षेऽच्युपदेशजन्यत्वं स्वीकरणीयमित्यराशकोत्तराभ्यामाह उतोपदेशस्य तत्पदवाच्यत्वो पमितापित्यादि । अपरमतेन निश्रितानिश्रितयोव्याख्यानान्तरलक्षणविशेषमाह-अतस्मिद्ग्रहो निश्रित इति । इतरोऽनिश्रित इति द्वति तद्वनिष्ठविशेष्यतानिरूपिततनिष्ठप्रकार तानिरूपको ग्रह इति तात्पर्यको निश्रित इत्युच्यत इत्यर्थः । सकलસંરયાતોષરહિતમિતિ બામાથસંપાયાદ્રિપવિષયસંચયસામર્થનાન્વિતાંત્યિર્થ ! धर्य निश्चय एवति स्पर्श एवेत्येवं पर्शधर्मिणि निश्चय एवेत्यर्थः । संशय इति Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २३४ : तत्त्वार्थविवरण पूढार्थदीपिका ! पोडशसू. टी. तेन नापायस्य निश्चयरूपत्वव्याधातः, ज्ञानप्रामाण्यादिसंशयादर्थसंशयपरिणते वाचनहे सन्दिग्धत भावनीयम् । भूतलं घटवदिदं ज्ञान प्रमा न वा भूतलं घटवन्न वेत्येतेपाभेकोपयोगत्वात् ।। ध्रुवमबहाति सत्युपयोगे यदाऽसौ विपयः स्पृष्टो भवति तदा तमवजात्यवेत्यर्थः । अध्रुवमनशृलाति सतीन्द्रिय सति चोपयोगे सति च विपरसम्बन्धे कदाचित विषयं तथा परिच्छित्ति कदाचिन्नेत्यर्थः । ननु कारणसामये सति कदाचिदभावप्रतियोगित्वं नाध्रुवत्वम् , वदतो व्याघातात् । यत्किञ्चि कारणवैकल्ये च तथात्वमन्यत्राप्यतिप्रसक्तम् , न च क्षयोपशमविशेषजन्यतावच्छेदकतयैवाध्रुवत्वजातिसिद्धेर्न प्रश्नावकाश इत्यपि वक्तुं शक्यम् , कार्यगतविशेषासिद्धौ कारणगतविशेषासिद्धेरिति चेत् । भैवम् । इन्द्रियोपयोगविषयादिसत्त्वेऽपि कदाचिद्भावाभावाभ्यामभिव्ययस्याध्रुवत्वस्य जातिविशेषस्यानुभवसिद्धस्यैवाश्रयणा दवच्छिन्ने क्षयोपशमविशपेहतुताकर नस्य चोत्तरकालिकत्वेन बाधकामापादिति दिगू । इत्येवमिति यथा विषयस्य वहादभेदाद् द्वादशप्रकारोऽवग्रहोऽभिहितः । अयं स्पा योपितोऽन्यस्य वेति संशय इत्यर्थः । तेनेति-धशे निश्चय एवेत्युक्त्येत्यर्थः । अपायस्येति-निश्चयनयापेक्षया पायस्योत्त(विशेषापेक्षया सामान्यप्राहितया व्यवहार नया- - पेक्षयाऽवग्रहरूपस्येत्यर्थः। न निश्चयरूपत्वव्याधात इति-स्पर्शत्ववति स्पर्शधर्मिणि निश्चयरूपत्वाइयायस्येति भावः । नन्नवग्रहस्य निश्चमात्नकत्वेन सिद्धान्तेऽभ्युपगमादनिश्चितमवगृहातीस्युक्त्यातस्य संशयरूपत्वे कथं, निश्चयात्मकत्वमुपपद्यते प्रकारांशे सन्देहरूपत्वेऽपि धम्बशे निश्चयरूपत्वमस्त्येवेति चेत्तहि संशयगात्रस्य निश्चयरूपत्वंसात् , ज्ञानमात्रस्य धन्यशे निश्चयरूपत्वादित्याशकीयां पक्षातरमाह-ज्ञानप्रामाण्यादिसंशयादित्यादि। भूतलं घटवदित्येकं ज्ञानमिदं ज्ञानं प्रमान वेति द्वितीयं ज्ञानं भूतलं घडवन्न वेति तृतीयं ज्ञानमित्येतत्त्रयाणां ज्ञानानां दीपियो रूपत्वेनस्यात् ज्ञानप्रामाण्यसंशयोपजातार्थसंशयरूपारामज्ञानस्य संशयरूपत्वेन तदमिनस्य निश्चयरूपस्यापि प्रथमज्ञानस्य संशयरूपत्वं तत्रापि पूर्व निश्चयात्मकतयैवावग्रहो भवति पश्चापत्र प्रामाण्यस देहादसन्देह इति तदात्मकतया परिणते तरिगन् प्रथमज्ञाने निश्चयरूपेऽपि सन्दिग्वत्वं भावनीयमित्यर्थः। ध्रुवमयगृहातात्यसार्थमाह-सत्युपयोगे यदेत्यादि । असो विषयः स्पृष्टइति-शख्यिविषयः स्पर्शनेन्द्रियसम्बद्ध इत्यर्थः । विशेषावश्यकद्वृत्तौ ध्रुवम्, सोऽर्थः ? अत्यन्त, न तु कदाचिदिति । इदमुक्त भवति-यथेकदा बवादिरपणावात सदर तथा वयुद्धयमानो ध्रुवमवजातीत्युच्यते । या कदाचिद् पवादिरूपेण कदाचित् त्वपक्षदिरूपेण सोऽधुवावगृह्णातीत्येवमर्थः कृत इति । यदेकदा गृहीतं तत सर्वदेवावश्यं गृह्णाति, न पुनः कालान्तरे तद्ग्रहणे परोपदेशदिकमपेक्षते तद् ध्रुवम् , यत्पुनः कदाचिदेव गृह्णाति, न सर्वदा तदध्रुवम् । इत्युक्तं प्रथम कर्मग्रन्थीकायामिति । तथा च कालान्तरेऽपि पसेपदेशादिवटि તવિજ્ઞાતીયતા નક્ષતથા સિદ્ધાતુ- સવા સનાતીયતાનિયતોમર્નાિવિષય: ज्ञानत्व ध्रुवावग्रहत्व, अतादृशस्वम ध्रुवावग्रह त्वमिति । यथा विषयस्य बहादेदाद द्वाद शमकारोऽपग्रहोऽभिहित इति दलक्षणं विषयमाश्रित्य पवादिद्वादशविधापनहार्थमाइ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ વોર્થવિવળમૂઢાર્થીપિકા ! તારાકૂ ટી. રરૂપ છે યોપશમલ્ટપર્પશાવીહાલીનામપિ નાનયામતિ શેષઃ | વહતેક્ષમીત્તે ત્યાઘારેખ પ્રદ્યુમેહથીયે યાપિ ગ્રાહત પૂર્વાવમા તે તમેશ્ચ પ્રuિતે હત્યચોડન્યાયા, તથાસ્ત્રના • સંસારડબ્લ્યુ વોની સ્થાનીયનાહો ! દેવાની પિામેવાનાં વિષયે નિર્ધાય સૂત્રમ્ અર્થી છે ? ૧૭ | (માય ) વિરાવ નંતિફાવળજ્યાં સત્યે અતિ | (અશોટીવ) વર્જ્યોતિન્દ્રય વિષયથાવગ્રહયો ગ્રાફ્રા ફતિ યચ્છઠ્ઠાણે, તત્રાસુતરમ્ શર્થસ્થ સ્પસમાધવર્ણરાન્તાત્મ / નનુ વધે સ્પર્શેર્વિષયસ્થ ગ્રા ગવાયોડવુપમને ન તર્દિ દક્યસ્ય જ્ઞાન ક્ષતિના યાત, મવમ્, સ્પર્શાસ્ત્રીના દ્રશ્યપર્યાયત્વેના પર્યાયથળે દ્રવ્ય પ્રહળાવવા , હાળાવાછિન્નાના વિરોધમાવાનાં સામાન્યમવત્વફ્લેવ પર્યાયાળા દર્થતંત્ર્ય માખ્યો -“નાળા સમુહૂં, વધું પહં મુાં મનન િવદુષિમળે, પક્ષે નિદ્ધ હિં રૂંવા વિશ્વમાવિષે તં વિય, સરવો સિવમા નિચ્છિયમંય , ધુવમવંત ન જ્યારે રે ” દતિ | ૨૬ છે. સવાશ્વત્રાવતરાળામાહ રુવાનીમેષમેવાવાવનાં વિષયં નિર્ધારિયેન્નતિ-વિનિ પર્વ હિ જ્ઞાનમતિ વિયં જ્ઞાનમદ્વિપમેવ વિધામે તવ પ્રમાણોટિમારોહતત્યવબ્રહામતિજ્ઞાનમેવાનાં પ્રતિપાદ્ધ તાલિતિપદ્િમMાવર્તિ વાનરત્ર વિરાસવાશ્વત્રમાહિત્ય તત્રાર્થઘુત્તરમતિ-સ્પર્શનાવરધાળા મંતિજ્ઞાને મેવા પર્સમર્થ રાસનવગ્રહાય લાભાર્થ ઘાલવગ્રહ જવામર્થી કુંપાવગ્રહા હાર્મથય શ્રાવMાંવહાલા શબ્દાવાર્થ પ્રાદશા ફુટ્યુત્તરમાથે | શનાં શ્વપર્યયનેતિ વરસાદ્રિ સામાન્ય पूर्वोत्तर पर्यायानुगामिलक्षणद्रव्यस्य सहभाविगुणपयित्वेन तत्तत्कालभाविशीतादितत्तत्स्पर्शमપુરોહિતાદ્રીનાં મમાવિયત્વેને વર્થઃ | Tબંને દ્રાબાssવરવાહિતિ “ર્શ્વ પ્રવિડ ટુંકત્તા ય પર નથિ ” ર્તિ સન્મતાવુવાદું પથવિનિpય દ્રવ્યર્ય, દ્રવિનિનાં પધાળાં પાકમાવાન્ ટૂથપથરનુત્યુ દ્વિવાદ્રિતિ હેતુપત્રોઘ ત વ મુખપર્યાયવદ્રવ્યમતિ દ્રાક્ષનું સભ્ય, તત્ર નિાળો મતખત્ય, યા સા , જ થગ્નિસંવર્જિતાવાત્મતિ દ્રવ્યપર્યાયવો પ્રતિક્ષણમનું ચૂર્વ સિદ્ધતિ, તથા હૈયેહવ્યયવ્યયુક્ત સદ્વિતિ વિક્ષણમહુવપદ્યતે, હતેન દ્રશ્ય જુગમવાયત્વેન વળવયે વાવેથારિદ્ધિશૂન્યત્વે રાજ્યવ્યવાહિતપૂર્વ લગન દ્રવ્યયુત્પત્તિલણાવછેટેન નિગમેવો, તેનું કારણમુળપૂર્વજો હિં કાર્યમુળ ફતિ વહોરીનુણેમ્પ યમુના રૂપાય ઉલ્લંઘનતે રૂથ નિરરત, તો વર્તેવ મૃદ્ધા પાપૂર્વપર્યય પરિત્યજ્ય વહિવેળોત્તરપળ પરિમિતે તાવ મવિપક્ષમી વાહિયાતપૂર્વરામવાથી પરિત્યજ્યોત્તરીયકૃષ્ણાદ્રિ પર્યાધાન્ત - હવેબ પરિવાતે ફતિ તથા જર્ચાળ દ્રવ્યધર્મણ્યેન બ્રહળે . Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ર૬ : તત્ત્વાર્થચિવાળધૂતાર્થ ીપિકા 1 સસરા॰ ટી વ્યપદેશાત્, ધરળતાચાધા મેનેઽવે ઘટામાંવે ધટામાવ ત્યાથી સનાત, પાર્ટીય સેન પેખ મુખ્યમવનાવિરોપાત પ્રતીન્દ્રિયકાવ્યા દ્રવ્યÅવ હૅર્ષાવવિશેષળમાત્ત્વાત્, વિધાવાશ્વ પ્રધાનનુળમાવસ્ય ગેની મ્યુપામાન્ । તેના વક્ષવમનાંસિ દ્રબાહાળીતરાળાંન્દ્રાને ત્રાડસાહાળીતિ તૈયાચિકાયુતં નિરક્તમ્। રાઈરાવાને યં શરતિ રાસનાવિકનસાક્ષા(રાષ્યનુમસિદ્ધાત, લક્ષ્ય માન્તત્વપનેડન્યત્રાબનાધ્યસાત્, રસાદ્રિના દ્રવ્યાનુમાન ચ રૂાતિના દ્રવ્યાનુમાનનુયોગક્ષેમન, સમ્ = દ્રવ્યમાઋત્યાસર્થેપનાવવાંવ । અમારું તુ વન્દ્વપૃષ્ઠમિમુત્ત્વધૃષ્ટતાઃ પ્રાસત્તયો દ્રવ્યનારૈવ પર્યાચેન્દ્રિયુબૅયહર્પી માઃ । નનુ પર્યાયાળાં ધ્રૂવ્યત્વન્યપર્વશે તેષાં તદ્ન મેસે મેટ્ વાધારાધેયમાનામાવાળૅ પટે વમાત્માને પ જ્ઞાનમિયતવદ્યા: મિત્ત્વાશકાયામાદ-અધિપતાયામ્બ્રાનેટેમ્પાતિ પ્રતીન્દ્રિય સ્ત્યા અથૈવ પાવિરોપણ માત્ત્વાતિ પરિન્દ્રિ ચસન્ધન્ધાર્ટૂન્યથૈવ સવાત્મવિશેષ ચિત્રાદિત્યર્થઃ 1 વિવિશિષ્ટતા દ્રવ્યશૈવ નાવિજ્ઞાને મામિતિ માઃ । નનુ સત્તહિન્દ્રિયસમ્પ્રધાત્ ટ્રન્યચૈત્ર પરસાતિસંજ્ઞાબેન દ્રષચૈવ ઘસ્મતા પારેળમનાઽપામે તૈયોરમેહાતૂપ ઘટ રૂતિ પ્રીતિયાદ્રિતિ ચૈત્ર, સ્યાદ્રેષ ચઘેન્તિામેવન્યુમાત, 7 જૈવમ્, યશ્ચિત્ મનવાષ્યમ્યું (માત્, અત વ પર્વે પ્રાધાન્ય દ્રવ્યન્ય મૌમિતિ વિષયો ધટસ્થ હું પામ્મતિ પ્રત્યયઃ, દૂધન્ય પ્રાધાન્ય તુ હર્ષાવશિષ્ટ ધટ પયાતિ પ્રત્યય ત્યારયેનાઃ-વિજ્ઞાવાવેત્યાવિ અન્યત્રવ્યનાશ્વ સાહિતિ-ધાવિષાક્ષુષત્વાનાવિષ્ઠત્યક્ષેવ્થનાધાસત્રસન્ના,ત્યચે સત્રાવિ અન્તત્ત્વ સ્વાતિહિ માવઃ । અથ નૈવ રસનાપ્રાળોત્રેન્દ્રિયેમ્પો દ્રવ્યન્ય પ્રત્યક્ષ વિન્ડ તેમ્યતાતાનાં રસાન્ધવાનામેવ તત્, દ્રવ્ય હૈં રસમાવિષ્ણુળજિલ્લાનુમાનનેવેદ્યુમાને વાત્સ્ય′′નોમિરિન્દ્રિયનૈવ થાહેરાત્મનન્ત્ર દ્રવ પ્રત્યક્ષ માંત, જિન્તુ વસ્પર્શયુલાવિમુર્ખાજજ્ઞાસુમાનમેવાં નવતો નૈવ વસ્ત્ર વીમવેત્, ઇમયત્ર યુવતેલ્લાાહિત્યાયનાઃસવિના દ્રવ્યાનુમાંનમિતિ । અનુમાનશ્ચાત્ર ત્ર્યં શરાપૂર્વોપન્થનાધુર્યસનાતીયમાધુ વૈવસ્વાત, ન્ય સ્તાર પૂર્વીયાન્ધસનાતીયાન્ધવર્તી, થયમુત્ત્વના પૂર્વોપહન્ધ ચેતના યસ્પર્શવવાહિત્યાઘાૉરમવાન્તવ્યમ્ । હ્રપાલનેતિ-પૂર્વોપષસનાતીયપવતિહેતુને ત્યર્થ ! વિના હેતુનાં દ્રન્વાનુમાનામ્બુવાને શ્વે હાવવામખ્યાહ સમક્રે ંત। નનુ દ્રવ્યગ્રાહષ્ણસ્યાસāલ્પને મવામાંષે પન્નુરાવિના જ્યં દ્રવ્યન્નમિત્યંત આહ. અસ્મા પતિ । અત્ર વૃઘ્ધપ્રવૃત્તાપ્રસ્થાન વર્માળરસનાસ્પર્શનન્દ્રિયાનેષયાન્થરસસ્પર્શીવારનું પસ્થિતદ્રપક્ષે, આમિમુ“પ્રયાત્તિસ્તુ નૈિષયાા પરિણતદ્રન્યપ્રત્યક્ષે સ્પષ્ટતાઁપ્રયાસત્તિથ શ્રોત્રન્દ્રિયવિષયરાજુ મદ્રવ્યપ્રત્યક્ષ હેતુમૃત જ્ઞેયા, પવિગ્રહળ દ્રવ્યપ્રધાન કારવ, ન વન્યા, યત્ર સ્પર્શનેન્દ્રિયેળ સ્પર્શે ખ્રુશામિ, રસનાવીન્દ્રિયેળ રસવિમાવાયાનીત્યાવિત્રતીતિ।ત્રાહિ સ્પર્શદ્રયં વિદ્રવ્યમનુમાનોત્યેવમર્થઃ । સ્પર્શી ગ્રહો દ્રવ્યગ્રળાવગ્રંથમાવિવાહિત્યાશયના-દ્રષદારવ પાયેષ્ચિત્યુઅયત્રામાંતોØ વિશેષાવયનિર્યુ ો—“પુરું મુળદ્ સવું, વં પુળ પાસ બપુરું તું।Üરસં પ ાસં ચ, વહક્ક વિયારે રિ૬૬” Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्यार्थविवरणदार्थदीविका । अष्टादशसू० टी० : २३७ : युक्तमिति दिए। मतिज्ञानविकल्पा भतिज्ञानभेदाः ॥ १७ ॥ अथान्योऽप्यस्ति भतिज्ञानस्य विकल्पो योऽर्थ न गृह्णाति ? । अस्तीत्याह सूत्रम् व्यञ्जनरयावग्रहः ॥१॥१८॥ (भाज्यम् ) व्यञ्जनस्थावग्रह एव भवति, नेहादयः । एवं द्विविधोऽवग्रहो व्यञ्जनस्यार्थस्य च । ईहादयस्त्वर्थस्यैव ॥ (यशो० टीका)नियमपरतया व्याचष्टे । व्यञ्जनस्थावग्रह एव भवति, नेहादय इतिव्यञ्जनभुपकरणेन्द्रियस्पर्शायाकारपरिणतद्रव्यसम्बन्धस्तस्यावग्रह एवैको भवति । यत्र किमप्येतदित्यपि न संवेधते, अर्थावग्रहे तु किमप्येतदिति संवेधत इति, ततोऽप्ययं मलीमसः । अत्र ग्राह्यस्याव्यक्तत्वाद्प्राहकस्याव्यक्तत्वम् , चरमसमयप्रवेशाहितातिशयानां शब्दादिद्रयाणा वर्थपर्यायतापत्या व्यक्तत्वातनाहकस्यार्थावग्रहस्य ०यञ्जनावग्रहापेक्षया व्यक्तत्वम् । अत एव न तद०यक्त व्यञ्जनमगाहते । इहापायइति । अस्थायमर्थः स्पृष्टं तनौ रेणुवत् सम्बद्धं श०६विषयं श्रोत्रेन्द्रियमु लमते, इदमुक्तम्भवति स्टमात्राण्येव श६द्रव्याणि श्रोत्रमुपलभते, यतो घ्राणेन्द्रियविषयभूतद्रव्येभ्यस्तानि सूक्ष्माणि, वहूनि, भावुकानि च, पटुतरं च श्रोत्रेन्द्रियं विषयपरिच्छेदे घ्राणेन्द्रियादिगणादिति । रूपं पुनः ‘पश्यति चक्षुरस्पृष्टं तु, तुशब्दस्यैवकारार्थत्वादसम्बद्ध मेर, चक्षुपोप्राप्यकारित्वात् , तदपि योग्यदेशस्थत्वेनाभिमुखमेव, न तु तद्विपरीतम् । गन्धं रसं च स्पर्श च बद्धस्ट, स्पृष्टं च बद्धं चेत्यर्थः । स्पृष्टं तनुसम्बद्धरेणुवदात्मसम्बद्धं सन्तं नवशराव तोयवदात्मप्रदेशैाढतरमाश्लिष्टं यथाक्रम घाणेन्द्रियं सनेन्द्रियं स्पर्शनेन्द्रियं च माति, यतो घ्राणेन्द्रियादिविषय भूतानि गन्धादिद्रव्याणि श०८द्रव्यापेक्षया स्तोकानि, पादराणि चाऽभावुकानि च, विषयपरिच्छेदे श्रोत्रापेक्षयाऽपनि च प्राणेन्द्रियादीनि, अतस्पृथ्वद्धमेव गवादिद्रव्यसमूह गृहन्ति, न पुनस्पृष्टमात्रमित्येवं व्याझीयात् प्ररूपयेत् प्रज्ञापक इति ॥ १७ ॥ अादशस्त्रावतरणिकामाह-अथाऽन्योऽयस्तीत्यादि । यत्र घटापर्थेनग्रहस्तहाउपायधारणा भवन्तीत्यतो व्यञ्जनेऽन्यवहभावे तत्पूर्वकाणामपीहाउपायादीनां सत्त्वं प्रसज्येत अतस्तत्प्रतिषेधार्थो नियमो व्यञ्जनस्वावग्रह एव, न त्वीहादय इत्याह-नियमपरतया व्याचष्ट इति । नवस्य सूत्रस्य नियमपरतया व्याख्याने सूत्र एवकारः कर्तव्य: स्यादिति चेत्, मैवम् , सामावधारणप्रतीतेः, अभक्षस्तपस्वीत्यादौ यथा अप एवं भक्षयतीति सामदिवधारणं प्रतीयते तद्वत्प्रकृतेऽप्येवकारानुक्तावपि सामादेवानवारणं प्रतीयते इति । ततोऽपि-अर्थावग्रहादपि । अयम्-व्यञ्जनावग्रहः । ननु व्यञ्जनापग्रहावग्रहयोनास्ति भेदो ग्रहणाविशेषात् , न हि शादिग्रहणं प्रति विशेषोऽस्तीति चेत्, નૈવમ્, વ્યવ્યમેવેન વિષયસ્ય ધિમેહત્વેન તઘહિન્થનાવગ્રહાર્થાવગ્રહયો છે अव्यक्तग्रहणं व्यञ्जनावग्रहो व्यक्तग्रहणमविग्रह इत्याशयेनाह-अत्र ग्राखस्येत्यानि Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २३८ : तत्वार्थविवरणपूढार्थदीपिका । एकोनविंशतिसू० टी० धारणा व्यञ्जनस्य ग्राहिकाः सर्वथा न भवन्त्येव, स्वांशे भेदमार्गणनिश्चयधारणाये तासां नियतत्वात्। एवं सूत्रद्वयोक्तप्रकारेण, द्विविधोऽवग्रहो विषयद्वयात् , तदाह व्यञ्जनस्यार्थस्य च, ईहादयत्व थस्य स्पशदिरेव विशेषका भवन्ति ।। १८ ॥ __अथ किं स्पर्शनादीनामिन्द्रियाणा सर्वेषां व्यजनावग्रहः सम्भवत्युत कस्यचिन्नेति, उच्यते-- कस्यचिन्न भवत्यपि । एतद् दर्शयति सूत्रम् । चक्षुरनिन्द्रियाम्याम् ॥१॥ १९ ॥ ( भाष्य ) चक्षुषा नोइन्द्रियेण च व्यसनावग्रहो न भवति । चतुभिरिन्द्रियः शेषैर्भवती. त्ययः । एवमेतन्मतिक्षान द्विविध चतुर्विधं अष्टाविंशतिविधं अपठ्युत्तरशतविध पदशित्रिशतविधं च भवति ॥ अवाह । दृलीमस्तान्मतिज्ञानम् । अथ श्रुतज्ञान किमिति । अत्रोच्यते ॥ (यशो० टीका) करणे सहाथै चैपा तृतीया । चक्षुपोपकरणायचपुरिन्द्रियेग, अनिन्द्रियण च मन ओपज्ञानरूपेण च सह ते रूपाकारपरिणता- पुद्गलाश्चिन्त्यमानाश्च वस्तुविशेषाः संश्लेप न यान्ति, અતો વ્યર્ન વર્લ્ડકપણેન્દ્રિયનોન્દ્રિયોને મવતિ / તદ્દમાવા તરગોડવથોડપિ નાસ્તીતિ મળે प्राञ्चो व्याचक्षते । तचाभिमत।०६पूरणवाक्यभेदौ विना न सुस्थम् , गवि शशशृङ्गं नास्तीत्यत्र यथा गवाधिकरणकं शृहं शशीयत्वेन नास्तीत्यर्थः, तथाऽत्र चक्षुर्नोइन्द्रियकरणकोऽवग्रहो व्यञ्जनीयत्वेन नास्ती-. त्यर्थः, शबोधश्च तत्तदानुपूर्वीज्ञानस्य तथावधिजनकत्वज्ञानात् , तथा च करणतृतीययैवोपपतिरिति तु द्विविधोऽवग्रहो विषयहरू प्यादिति । उक्तश्च तत्थोग्गहोदुरूको गहण जं होइ वंजणत्थाणं ॥ १९३ ।।" इति । १८ । ___ एकोनविंशतिसूत्रावतरणिकामाह-अथ किमित्यादिना । तचाभिमत२००८पूरणवाक्यभेदी विना न सुस्थमिति प्राचां पक्षे सहार्यकतृतीयाघटिताधवाक्य तत्तच्छ०६ पूरणं विना न बोधक्षममिति तत्राभिमतश०६पूरणदोष, करणार्थकतृतीयावटितद्वितीयवाक्याङ्गीकारे च पास्यभेददोपः, उक्तवाक्यद्वयस्य परस्परनिरूप्यनिरूपकमावापनविषयताकै कवोधजनकत्वाभावादित्यर्थः । किञ्च चक्षुरुपकरणेन्द्रियनाइन्द्रिययोव्यञ्जना भावात्तत्करणकोऽवग्रहोऽपि नास्तीति द्वितीयवाक्येऽवग्रहे चक्षुर्नोइन्द्रियव्यञ्जनकरणकत्वस्या -- सिद्धया तत्र तनिषेधायोगोऽप्यधिकदोपोन ज्ञेय इति भावः । जिनानुगळधिकरणधर्मावच्छिनप्रतियोगिताकाभात्रोऽयम्युपगत इति तत्पुरस्कारेणोक्तमाध्यमेकवाक्यतया सदृष्टान्त व्याख्याय २०दपूरणवाक्यभेदाकल्पनप्रयुक्तलाव स्वमते टीकाकार आह- 'गवि शशशृङ्गनास्तीत्यादि। य नीयत्वेनेति-व्यञ्जनकरणकत्वेनेत्यर्थः । तथा च सामान्यव्यञ्जनकरणकत्वं ससनादिप्रत्यक्ष एवास्ति प्रसिद्धं, न तु चक्षुर्नोइन्द्रियकरणयग्रहे इति तद्रूपेण चक्षुनोंइन्द्रियकरणकोऽवग्रहो नास्तीत्युच्यमाने नाऽप्रसिद्धस्य निषेधाज्योगदोपः, चक्षुनोंइन्द्रियकरणकावग्रहस्वार्थावग्रहरूपतया प्रसिद्धत्वादिति भावः । नन्वेवमुक्त शाश्वोध एवं तत्कारणाभावात्कथमुत्पतेत्याशङ्कानिइत्ययमाह:-ईदृशवोधश्च तदानुपूज्ञानस्य तथाघोषजनक (पज्ञानादिति । आकाशाज्ञानस्य सादरोधहेतुत्वेनोक्तशादेवोधं प्रत्यपि हेतुभूतस्य- तत्तदानुपूर्व Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तवाविवरणदादाविक । एकोनविंशतिसू० टी० : २३९ : न्यायमाभाति । अयमत्राशयः-इन्द्रियचतुष्टयस्य प्राप्यकारित्वाद् व्यञ्जनावग्रहः सम्भवति । नयनमनसोस्त्वप्राप्यकारित्वान्न तत्सम्भवः । प्रमाणं च तत्र, नयनमनसी अप्राप्यकारिणी विषयकृतानुग्रहोपात. शून्येन्द्रियत्वात् , व्यतिरेके त्वगादिष्टान्त इति, स्वादीना चानुग्रहोपातौ चन्दनानादिस्पर्शनक्षीरશરાવાવાનÍપુદાદ્યાબાળમૃવુમન્દરાવાવાઈનરાશ્વવિપત્રિફુવા સ્વાવનાજીયાदिपुद्गलावाणमर्यादिशश्रवणस्थले दृष्टौ, नयनस्य तु निशितकरपत्र चन्दनाचालोकने मनसश्च तच्चिन्तने न दृश्येते तौ, ततो न नयनमनसी प्राप्यकारिणी इति । एतेन चक्षुर्न प्राप्यकारि अधियानासम्बद्धाथाहकत्वात् , यत्प्राप्यकारि तन्नाधिष्ठानासम्बद्धग्राहकं, यथा रसनादीत्यनुमान न चक्षुरप्राप्यकारित्वसाधकम्, प्रदीपप्रभावामनैकान्तिकत्वात् , चक्षुपा हि गोलकमिव प्रभाया अपि दीपोऽधिष्ठानं तदसम्बद्धार्थवाहकलं च प्रभाया न चाप्राप्यकारित्वं तत्रेति नैयायिकोक्तमपास्तम्, प्रभावन्नयनरश्मीना विषयपर्यन्तं गमताभ्युपगमे तस्कृतानुग्रहोपातप्रसङ्गदोपस्य दुर्निवारस्वाद्विपतिबावकतणामदुक्तानुमानस्य वलपत्वात् । सूक्ष्मत्वास नसावाच नयनरमीना नाञ्जनदहनादीना सम्बन्धादनुहोपवाताविति परिहारो न रमणीयः, प्राप्तचन्द्रसूर्यादिकिरणैस्तदप्रसङ्गात् , अधिष्ठानगतानुग्रहोपवाताभ्यां तदन्यथासिद्धिरित्यपि वार्तम् , आत्मगतसुखदुःखरूपौ तौ प्रतीन्द्रियातयोरेव तयोर्हेतुत्वात् , अन्यथोपहतघ्राणस्य कुसुमादिनानुग्रहप्रसङ्गात् , अत एवात्माकं विलक्षणसुखावच्छिन्ने चक्षु.कपूरसंयोगवादिना हेतुत्वम्, तब त्यधिष्ठानावच्छिन्नचक्षुःकपूरसंयो. गत्वादिनति महागौरवम् । यत्तु चक्षुषोऽप्राप्यकारित्वे मित्यादिव्यवहितस्यापि ग्रहः स्यात् , मित्यादिकं हि वीज्ञानरूप[काशाज्ञानस्य सत्येन तेन तदुत्पत्तिर्भवतीति भावः । नयनमनसोस्त्वप्राप्यकारिस्वान्न तासाभव इति-अत एव व्यञ्जनावग्रहस्य चातुविध्यं सिद्धान्त प्रोक्तम् । त्वगादीनामिति-स्पर्शनेन्द्रियरसनेन्द्रियवाणेन्द्रियश्रोत्रेन्द्रियाणामित्यर्थः । प्राप्यकारिणीति स्टार्थनाहिणीत्यर्थः । एतेनेत्यस्याऽपास्तमित्यनेनान्वयः । अपासने हेतुमाह-मभावदित्यादि।तत्कतानुग्रहोपघातप्रसङ्गन्दोषस्थति-जलरूपविश्यावलोकनकृतशैत्यलक्षणानुग्रहरविकिरणरूपविषयावलोकनकृतदाहलक्षणोपधातप्रसङ्गदोपस्येत्यर्थः । नयनरमानां तत्तद्विपयेण सह संयोगसम्बन्वद्वारे प्रत्यक्षजनकत्येऽप्यञ्जनसम्बन्धकृतशैत्यलक्षणानुग्रहदहनकृतदाहलक्षणोपधातप्रसङ्गो नेत्यत्र नैयायिकवादी हेतुमाह-सूक्ष्मत्वात्तैजसत्वाचेति । तदप्रसङ्गादिति-अनुग्रहोपचाताऽप्रसङ्गादित्यर्थः । प्राप्तचन्द्रसूर्यादिकिरण ख्यवृत्या गोलकलक्षणाधिष्ठान एवानुग्रहोपाती तत्सम्वन्याचक्षुपि तूपचारवृत्त्येव तारित्याशयेनाशङ्कय निषेधति-अधिछालगतेति। निषेधे हेतुमाह आत्मगतेत्यादि। तयोः-अनुग्रहोपवातयो । अनुग्रहासङ्गादिति-प्राणेन्द्रियाधिन छापत्य विद्यमानस्यन तत्रानुग्रहप्रसङ्गादित्यर्थः । यत्वित्यस्य-तत्तुच्छमित्यनेनान्वयः । चक्षुषों उप्राप्यकारित्वे भित्त्यादिव्यवहितस्यापि ग्रह स्वादिति क्षुषोऽप्राप्यकारित्वेऽर्थेन सह संयोगसनिक विनव वसाधर्थप्रत्यक्षजनकत्वात्तत्सन्निकस्य प्रयक्षं प्रत्यनियामकत्वे सति चक्षुर्गमन प्रतिवन्धद्वारा सन्निकर्पप्रतिरोधकस्य भित्त्यादिव्यवधानस्य चाक्षुपप्रत्यक्षानुत्पादाऽप्रयोजत्वा तत्सारवेऽपि तथाहितपनश्चक्षुपा ग्रहण स्थादित्यर्थः । तदेव विकृणोति-मित्या Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २४० : तपार्थविवरणदार्थदीपिका । एकोनविंशतिसू० टी० प्रातिविधातकतयैव विरोधि, न तु स्वरूपसत्या, तथात्वे तस्मिन् सति क्वचिदपि कार्य न । स्यादिति परैरुच्यते, तत्तच्छम् , काचादिना न प्राप्तिविघातो भित्त्यादिना तु तद्विघात इत्यत्र परेपामिव काचादिना न चाक्षुषप्रतिवन्धो भित्त्यादिना तु तत्प्रतिबन्ध इत्यत्रास्माकं स्वभावस्यैव शरणी- .. करणीयत्वात् , तन्निर्वाहार्थं च यदि स्वप्राचीस्थपुरुषचाक्षुपे स्वप्रतीचीवृत्तित्वसम्बन्धेन तद्भित्यादेः प्रतिवन्धकत्वं करप्यते, तदा न गौरवं बाधकम् , प्रामाणिकत्वात् । यदि च व्यवहितमयोग्यत्वादेव न गृह्यते, तदापि न दोषः, व्यवधानाभावरूपनरन्तर्येण चनुायतानुकूलयोम्योत्पादस्य स्थूल सूत्र नयेनाश्रयणेऽस्माकं बाधकाभावात् । एनेनायोग्यत्वं हि न स्वरूपायोग्यत्वम् , स्थैर्यपक्षे तस्यैव कालान्तरे ग्रहात् । क्षणिफत्वपक्षेऽपि प्रत्यासन्नाना सहकारिणामेव तत्रातिशयजनक नाप्रत्यासन्नाना , प्रत्यासत्तिश्च बौद्धानां निरन्तरोत्वादोऽस्माकं व्ययोः संयोगस्तदुभयमपि कृष्णसारस्यार्थेन न सम्भवति, किन्तु तदाश्रितस्यन्द्रियस्यातीन्द्रियस्य गतिक्रमणेति निरस्तम् , तत्तद्व्यवधानामावकूटविशिष्टतयोत्पन्नस्यैव घटायोज्यत्वात् । किश्चानन्तचक्षुरवयवगतिसंयोगादिकल्पनापेक्षया तद्धेतुत्वेन कल्प्यमानस्य ततव्यवधानाभावकूटस्य दिक हीति । तथात्वे स्वरूपसत्तया भिस्यादेविरोधित्वे । खप्राचीस्थ पुरुषचाक्षुप इति- . अत्र विषयत्वं प्रतिबध्यतावच्छेदकसम्बन्धो ज्ञेयः, उभयत्र च स्वपदेन तत्तरियादग्रहणम् , एवं विषयतासम्बन्धेन स्त्रप्रतीचीस्थपुरुषचाक्षुपप्रत्यक्षे स्वप्राचीवृत्तित्वसम्बन्धेन रवावाचीस्थपुरुषचाक्षुपे स्वोदीचीवृत्तित्वसम्बन्वेन च तत्तद्धित्यादीनां प्रतिवन्यकत्वं बोध्यम् । कल्प्यत इति-अस्माभिरिति शेषः। प्रामाणिकत्वादिति-उक्तप्रतिवध्यप्रतिवन्धकभावे तत्तत्पुरुषप्रवेशकृतगारवस्य फलबलकल्प्यत्येन प्रामाणिकत्वात् प्रामाणिकगौरवस्य चादोपत्वादिति भावः । एतेनेत्यस्य । निरस्तमित्य नेनान्वयः । स्वरूपायोग्यत्वमिति-फलजनकतावच्छेदक भावववमित्यर्थः । निषेये हेतुमाह -स्थैर्यपक्षे तस्यैव कालान्तरे ग्रहादिति-यदि व्यवहितार्थरस्वरूपाऽयोग्य- ... स्स्यात्तर्हि तस्य कदापि ग्रहो न स्यात्, भवति च व्यवधानाभावकाले ग्रह इति न स्वरूपाऽयोग्य-. . स्वलक्षणमयोग्यत्वं युक्तम् । ननु व्यवधानाभावकाले चाक्षुषप्रत्यक्षानुकूला योग्यताऽस्ति व्य धानदशायां च सा नास्तीति चेत् , तन्न सम्भवति, स्थिरस्यैकस्वभावत्वादिति भावः । अतिशयजनकत्वमिति-प्रत्यक्षकुर्वद्रपात्मकविषयजनकत्वमित्यर्थः । निरन्तरोत्पाद इतिनिरन्तरतत्तदेशोत्पादक्रमेण विपयदेशे नैरन्तर्येणोत्पाद इत्यर्थः । निरसने हेतुमाह - तत्तद्वयवधानाभापकूटविशिष्टतयोत्पन्नस्यैव घटादेयोग्यत्वादिति-तथा च भिस्यादिव्यवधानविशिष्टतयोत्पनस्य योग्यत्वाभावादेव न चाक्षुपप्रत्यक्षं, न तु चक्षुरिन्द्रियसन्निकर्माभावादिति न चक्षुस्संयोगसन्निकर्षस्य चाक्षुषप्रत्यक्ष प्रति हेतुत्वं, किन्तु तत्तद्विषयगतयोग्यताविशेषस्यैवेति भावः। तत्तद्वयवधानाभावकूटस्थति-एकं पुरुपं प्रति यदेव चाक्षुषप्रत्यक्ष०५वधानरूपं तदेवान्यपुरुष प्रति न तद्रूपमित्यनतिप्रसक्तस्यानुगतस्य 'व्यवधानत्यस्य चयन व्यवधानत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकसामान्यामावस्यापि दुर्वचत्वात् यत्प्रत्यक्षे यस्य यस्य व्यव.. Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थ विवरणदार्थदीलिका । एकोनविंशतिसू० टी० : २४१ : तत्सम्बन्धेनाभिमुल्यस्यैव वा चातुपहेतुत्वं युक्तम् । यदपि सूक्ष्मवस्त्राचावरगे पटादेल्पप्रकाग-, स्तदभावे च महाप्रकाश इति व्यवस्था स्वल्पभूयोऽवयवावच्छेदेन चतुःसंयोगवाद एव घटत इति, तदपि तन्नियामकादेव तदुपपत्तौ ताहशसंयोगकल्पनायां गौरवादेव निराकरणीयमिति दिग्। मनसोऽप्यप्राप्यकारित्वं चिन्त्यमानविषयसम्बन्धकृतानुग्रहोपधातशुन्यत्वात् समर्थितमेव । यश्वेह मृतनादिकं वस्तु चिन्तयतोऽत्यारोमानप्रवृत्तस्य दौर्बल्योर क्षतादिलिरुपयातः, इटसङ्गमविभवलाभादिकं च चिन्तयतो हपदिभिरनुहोऽनुमीयते, स इटानिष्टाहाराभ्यवहारसहशमानविपरिणतष्टानिध्पुद्गलमाहातानिमित्तकः, न तु चिन्त्यमानसम्बन्धकृत इति न दोषः । न च सूक्ष्ममनापुद्गलैः स्थूलचयोपचासभर इत्यपि शकनीयम् , स्थूलरपि पुद्गलः सूक्ष्मापनयनद्वारैव तत्करणाभ्युपगमात्, अन्यथा प्रतिक्षणं बालादिशरीरवृद्धयनुपपत्तेः, सुप्रसिद्ध चैतत् सः पिबन्ति पवनं न च दुर्वलास्ते' इत्यादौ, न च मनसाऽभनि प्राप्त एवं ज्ञानं जन्यते, चिन्त्यमानास्तु पदार्था उपनीता एव तत्र भासन्त इति तस्य प्राप्यकारित्वमेवेति युक्तम् । चिन्ताદટાવૃદ્ધાંwitોદાનામબિ પાનાં મનોયોગ્યત્વ, સ્વમાનવજાગ્રમૂહનાનાદિસ્થ તેvi धायकत्वेन प्रतिववकत्वं तत्तदभावकूटस्येत्यर्थः। तत्सम्बन्धेनेति-तत्तद्वयवधानाभावकूटवत्वसम्बन्धेनेत्यर्थः । स्वल्पभूयोऽवयवावच्छे देनेति-स्वाल्पावययावच्छेदेन भूयोऽवयवावच्छेदेन चेत्यर्थः। तन्नियामकादेवेति-स्वल्पभूयोऽवयवावच्छेदेन चक्षुस्संयोगीनयामकादेवेत्यर्थः । तदुत्पती स्वल्पमहाप्रकाशोपपत्तो, अत्र मनो मृतनष्टादिव चिन्तननिमित्तकोपघातवत् मृतनष्टादिवस्तुचि नारिं दौर्बल्योरक्षतादिमाखात , मन इष्टसङ्गमविभवलाभादिचिन्तननिमित्त कानुग्रहबत् इससङ्गमविभवलाभादिचिन्तनान परं वदनविकासरोमाञ्चोद्गभादिममादित्यनुमानाभ्यां मनस उपधातानुग्रही यौ नैयायिकेनानुभीयेते तौ न मनसः, येन ताभ्यां तस्य प्राप्यकारित्यसिद्धिस्यात्, कि जीवस्यैवेत्युपपादनायाह-यश्वेह भूतनष्टादिकमित्यादि । अनुग्रह उपवातश्च जीवस्य यनिमित्त कस्तन्निमित्तमाह स इष्टानिष्टेत्यादि । सूक्ष्ममनस्त्वपरिणतधानिपुगलसवातस्यूलशरीरहानिलक्षणचयतत्पुष्टिलक्षणोपचासम्भव इत्याशय निषेधति-न च सूक्ष्ममान पुनलैरिति । निषेधे हेतुमाह-स्थूलर पीति । सूक्ष्मपुर सयूलशरीरोपचयने दृष्टा- माह-सपा इति-सूक्ष्मपचनपुद्गले स्थूलसर्पशीरोपचयो भवति यथा तथा प्रकृतेऽपि तथात्वं ज्ञेयमिति भावः । न चेत्यस्य युक्तमित्यनेनान्वयः । मनसाऽऽत्मनि प्राप्त एव ज्ञान जन्यत इति-आत्ममन संयोगसन्निकण मनसा प्राप्त एव सन्निकट एवात्मनि ज्ञानं जन्यत इत्यर्थः। उपनीता एवेति-ज्ञानलक्षणाप्रत्यासरया सन्निकृष्टा एवेत्यर्थः । तत्र-ज्ञाने अयुक्तत्व हेतुमाह पिटाधुबुद्धसंस्कारारूढानामिति । तदेव विवृणोति-स्वमज्ञानकविकाव्येत्यादिना । अयभावः विशेषणतया प्रतिमासमान १५ ज्ञानलक्षणाप्रत्यासत्तरुपगमेन खमज्ञाने पदार्थानां विशेष्यतय मानेन विकायमूलवाक्यार्थज्ञाने प तथैव मानेन च तत्र व्यभिचारण मनसः प्राप्यकारित्वस्थासम्भव इति । आत्मवातिमात्रेण Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । २४२ : - तत्वार्थविवरणगूढार्थदीविका । विशतिसू० टी० विशेष्यतया मनसाऽवगाहनात् , तेप्वप्राप्य ज्ञानजनने आत्मप्राप्तिमात्रेण मनसः प्राप्यकारिवासिद्धेः, विशेप्यतया स्वजन्यज्ञानव्याप्यत्राप्तिकत्वस्यैव प्राप्यकारिवपदार्थत्वादिति दिगू। एवमेतदिति । लक्षणविधानाभ्या यन्निरूपित मतिज्ञानं तस्य सम्पिण्ज्य भेदान् कथयति-द्विविधमित्यादिना, द्विविधमिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तभेदात् । चतुर्विधर्मवग्रहादिभेदतः। अष्टाविंशतिविधं स्पर्शनादीनां मनोन्तानां पण्णां प्रत्येक मर्थावत्रहादिभिश्चतुर्मिश्चतुर्दिशती भेदेषु नयनमनोवर्जानां चतुर्णा व्यञ्जनावग्रह रूपभेद चतुष्टयक्षेपात् । अपयुत्तरशतविधं तस्या एवाष्टाविंशतेरेकैकभेदस्य बादिभेदेन पोढा भवनात्, पदिशत्रिशतभेद तस्या एवाष्टाविंशतेहादिमि. सेतरैदशधा भवनात् । अत्राष्टपष्टयुत्तरशतभेदचिन्तायां बहवहाचन्यतरत्वं विभाजकोपाविश्व्यः , तेन न न्यूनत्वाद्विभागव्याधातः, सतामपि भेदानामविवक्षया तत्प्रवृत्ताववाहविनिमैकिण त्रिविधस्यापि विभागापत्तरिति सूक्ष्ममीक्षणीयम् ॥ १९ ॥ मनसः कथं न प्राप्यकारित्वसिद्धिरिति चेत्तदर्थस्यैवाऽघटमानत्वादिति जानीहि । कहि तदर्थ इत्याकाणायामाह तदर्थमाह विशेष्यतयेत्यादि, स्वजन्यज्ञानव्यायप्राप्तिकापः । स्यैवेति-विशेष्यतासम्बन्धेन स्वजन्यज्ञानच्याप्यं यस्यास्सा वजन्यज्ञान०याप्या, स्वजन्यज्ञानव्या या प्राप्तिर्यस्य तत्स्वजन्यज्ञानव्याप्यप्राप्तिकम् , तस्य भावतयं तस्यैवैत्ययः, तत्र यत्र यत्र विशेष्यतासम्बन्धेन स्वजन्यज्ञानं तत्र तत्रेन्द्रियसन्निकलक्षणप्राप्तिरिति व्याप्तिस्वरूपम् । तथा च मानसज्ञानं विशेभ्यतासम्बन्धेन चिन्ताऽदृष्टाधुवुद्धसंस्कारादपदार्थेष्वपि पतते तत्र मनसः प्राप्तिनास्ति, तेषां पदार्थानां स्वभज्ञानाचव्यवहितपूर्वकाले ज्ञानाऽभावेन ज्ञानलक्षणप्रत्यासत्तेरपि तत्राभावात् , तथा च मनसो न प्राप्यकारित्वम् । नन्वेवं तर्हि चिताऽदृष्टाधुवुद्धसरंकारारूढानां पदार्थानां स्वमज्ञानादिस्थले मनसा भानं किं निवन्धनमिति चेत्, उच्यते, मानसज्ञानावरणीयकर्मक्षयोपशमलक्षणयोग्यतावशादेवेति जानाहीति । बवह्वाचन्यतरत्वमिति-अत्रादिपदेन पहुविधाबहुविधान्यतस्त्वक्षिप्राक्षित्रान्यतरत्यादीनां पञ्चानां परिग्रहः कार्य इति । अन्यतरत्वेन रूपेण द्वादशभेदपरिग्रहफलमाहतेन नेति । बहादीनां पण्णामेव खवासाधारणधर्मेण विवक्षायामतिप्रसङ्गदोपहेतुमाह सतामपीति । बादीतराणामवहादिभेदानां सतामपीत्यर्थः । अविवक्षयेतिअन्यतरत्वेन विवक्षाया अकरणेनेत्यर्थः । तत्प्रवृत्ताविति-विभागप्रवृत्तापित्यर्थः ॥ १९॥ . अनामिन्नवकाशे चोदक आह गृणीमो जानीमस्तापल्लक्षणविधानादिना प्ररूपित मतिज्ञानम् , तदनन्तरं श्रुतज्ञानमुदिष्टम् , तरिक.लक्षणमिति । एवमुद्देशक्रमसत्या पृष्टे गुरुह-उच्यते मयेति । सूत्रम् श्रुतं मतिपूर्व द्वयनकवादशभेदम् ॥१॥२०॥ ( भाष्यम् ) श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वकं भवति । श्रुतमातवचनमानम उपदेश ऐमिह्यमानायः अवचनं जिनपचनमित्यनान्तरम् । तद्विविधमझयाह्यसङ्गप्रविष्टं च । तत्पुनरनेकविधं द्वारशविध व यथासख्यम् । अङ्गवाह्यमनेकविधम् । तथा । सामायिक चतुर्विशतिवो वन्दनं प्रतिक मणं कायव्युत्सर्गः प्रत्याख्यानं दशकालिकं उत्तराध्याया दशा. कल्पव्यवहारी निशीथमृषि भाषितान्येवमादि ॥ अङ्गप्रविष्टं द्वादशविधम् । तद्यथा-प्राचारः सूत्रकृतं स्थानं समवायः व्या. Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वाविवरणदार्थदीपिका । विंशतिसू० टी० : २४३: याप्रति ज्ञातधर्मकथा उपासकाध्ययनदा अन्तकृमदशा मनुत्तरोपपातिकदशाः प्रश्नव्याकरण विपाकसूत्रं दृष्टिपात इति अत्राह-मतिज्ञानश्रुतज्ञानयोः कः प्रतिविशेष इति । अत्रोच्यते । उत्पन्न विनष्टार्थग्राहकं साम्प्रतकालविषयं मतिज्ञानम् । श्रुतशानं तु त्रिकालविषयं उत्पन्नविनष्टानु. त्पन्नायग्राहकम् ॥ अत्राह गृहोमो मतिश्रुतयोनानात्वम्, अथ श्रुतशनिस्य द्विविधमनेकद्वादश विधमिति किं कृतः प्रतिविशेष इति । अत्रोच्यते । वस्नृविशेषाद द्वैविध्यम् । यद्भगवद्भिः सवः सर्वदर्शिभि. परमपिभिरह भिस्तस्थामाव्यात्परमशुमस्य च प्रवचनप्रतिष्ठापनफलस्य तीर्थकरनामकर्मणोऽनुभावादुक्तं भावन्छियैरतिशयवस्तिमातिशयवाग्बुद्धिसंपन्नगंगधरैईधं तदप्रविष्टः । गणधरानन्तर्यादिभिस्त्वत्यन्तविशुद्धाममः परमप्रकृवाङ्मतिबुद्विशक्तिभिराचार्यः काल संहननायुर्दोवादल्पशक्तीनां शिष्याणामनुग्रहाय यत्प्रोक तदनबाह्यमिति ॥ सर्वप्रणीतत्वादा. नम्त्याच ज्ञेयस्य श्रुतशानं मतिज्ञानान्महाविषयम् । तस्य च महाविषयत्वात्तांस्तानर्थानधिकृत्य प्रक रण मापस्यपेक्षमङ्गोपाङ्गनानात्वम् । किं चान्यत्-सुखग्रहणधारणविज्ञानापोहप्रयोगार्थ च । अन्यथा धनिबद्धमगोपागशः समुद्रमतरणवद् दुरध्यवयं स्यात् । एतेन पूर्वाणि वस्तूनि प्राभूनानि प्राभृतप्राभृतानि अध्ययनान्युद्देशाश्च व्याख्याताः ॥ अत्राह । मतिश्रुनयोस्तुत्यविषयत्वं वक्ष्यति । द्रव्ये ध्वसर्वपर्यायेविति । तस्मादेकत्वमेवास्त्विति । अत्रोच्यते । उक्कमेत साम्प्रतकाल विषयं मतिशान श्रुतज्ञानं तु त्रिकाल विश्यं विशुद्धतरं चेति । किं चान्यत्-मतिज्ञानमिन्द्रियानिन्द्रियनिमि तमात्मनो जवाभाव्यात्पारिणामिकम् । श्रुतज्ञान तु तत्पूव कमातोपदेशाद् भवतीति ॥ अत्राह-उस्तं श्रुतज्ञानम् । अथावधिज्ञानं किमिति । अत्रोच्यते ॥ - (यशो० टीका ) अत्र श्रूतमिति लक्ष्यम् । मतिपूर्वमिति लक्षणम्, द्वयादिविधानम् । अत्र, श्रूयते स्म श्रूतमिति व्युत्पत्त्या शब्दो न प्रायो, ज्ञानविचारप्रस्तावात् । किन्तु भावव्युत्पत्या ज्ञानमिति व्याचष्टे श्रतज्ञानमिति, मतिपूर्वमिति विवृणोति मतिज्ञानपूर्वकं भवतीति, श्रुतग्रन्थानुसारिमतिज्ञानजन्य ज्ञान श्रूतज्ञानमित्यर्थः । तादृशी च मतिः पदसङ्केतव्युत्पत्त्यादिविपहापोहरूपा प्राधा । तेन न धूम विशतितमसूत्रमवतारयन्नाह-अत्राणिनाश इत्यादिना । अति-उक्तस्त्रे इत्यर्थः। व्युत्पत्त्येति-कर्मव्युत्पत्त्येत्यर्थः । यद्यपि प्रागभावावच्छिन्नकालसम्बन्ध एवं पूर्वपदार्थों न तु कारणत्नम् , गौरवात् , पापूर्व ५८ उत्पन्न इत्यादावकारणेऽपि पूर्वपद व्यवहाराच, तथाप्यन्वયુવતિજ્યાં અતિશ્રુતજ્ઞાનહેતુસ્ત્રાવધારણાત્ર “સ જ્ઞાનપૂર્વ સપુષ્પાદ્ધિ ” ત્યાदाविव पूर्वपदस्य तात्पर्यान्ययानुययत्तिमूलिका कारणत्वे लक्षणां कृत्वा तद्घटितमर्थमाह-श्रुतग्रन्थानुसारिमतिज्ञानजन्यं ज्ञानमिति-श्रुतग्रन्थानुसारिमतिज्ञाननिष्ठकारणतानिरूपितकार्यताशालिज्ञानमित्ययः । उक्तलक्षगमतिग्रहणफलमाह-तेनेति-धूमज्ञानस्य चाक्षुवमतिज्ञानपत्वेऽपि पदसङ्केतार्थोपस्थितिशक्तिप्रहादिरूपत्वामावेन न तजन्यवाहिज्ञानादौ श्रुतज्ञानस्वप्रसङ्गलक्षणातिव्याप्तिरिति भावः । तथास्त्रामाव्यात्कमोत्पन्नोपयोगापेक्षया न तु लक्ष्यपेફિયા મતિજ્ઞાનવ્રુતજ્ઞાનયો ઈ ર વિdવદિત ત, બિા કરી . Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તાવિહળદાયીપિ વિંતિકૂળ ટી. શૈક્ષષ્ઠિ ૨ો ગમ્ય કાવાસાકાવિન્યો વાાં મિન્ન, નવાવાલાપુ પ્રવિદમાવેવા સવા નજેનાથરતા, શ્રુતત્વેના વતી ! તદ્ધિવિર્ય પુનર્વાસમને દ્વાદશવંતાનેવેન્, પ્રવિણે દ્વામિત્યર્થ સામાય નમાવો ચીધ્યયને વર્બત પૂરળસ્વાર દુષmળિો ચત્ર રોપાળાં તi વસતિ બળાનો રાત્રે તે તદ્દનમ્ | અવસ્થા પ્રાપ્ત *** નિવ વત્ર મામ્ | dય પાપલ્ય યત્ર ચાનનિયાનાં સાત્યારે જ મૂઢોરણથીરી ચત્ર ત્યારે તwત્યારથી રાવરચ્યું વિશ પુત્રહિતા સ્થાપિતા ધ્યવનને દશવૈત તઃ પૂર્વ વો થવસ્તનોત્તરાધ્યયનાનિ પૂર્વે... સાની સ પ્રાયશ્ચિત્તવાનના વિવો પનાદિનાક્ચરહરણ, જતા હમવત્ર પર્વ દ્વિત્વવિઝાન્તપોનિજ્ઞાનનું પ્રવુબિબીતાનિ શાસ્ત્રીયાનિ, હવાવિત્ર તઘયો -જાવરો શાનાર્થેત્ર તે સલવાર જૂ, --ચઐશનિ પર્યાયાન્તરાણ - - - - વ્યાત્યાયી વારિતાય , પળા જ પાવાવ ધ વત્ર ધ્યતે ત. તા ૩યાસકશી સત્તસર્વતીર્થજ્ઞતાં તો અન્તદ્રશ મહું તને ચાવી નાં ર લહું વાત છે મ િસે હસ્તાદ પ્રાણ મિક્ષ રવિ 11 s ત્યારે 1 વાહ-“મા પદુ તો લય જામ શરૂ રાતું પદ્યમાન - વૈl પ્રગાનાધ્યયનાન કvયનાની« લાવાર ૩ વરિ, કરણવાળો િન હોંતિ ૩ ? ” તો તિ-જ્ઞાનાદ્યાસેવનવિરિત્ય | અજ્ઞાત .શૌરામિતાં દિવાન તુરા કalરા વૈનાયિા યેવ ત્રિવચ્ચરિતત્રસલ્યl . Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તવાર્યવિવાદાયીપિ વિંશતિકૂળ ટી ર૪૭ પ્રતિસ્ય નીવાર્યત્ર વિશ્વને માવતા દત્ત તરન્નવારણ વિષાઃ વર્મગામનુમં સૂત્રગતિ હતિ અદ્વિપક્ષત્રદદીનામાનીનાં લગ્ન પ્રસ્ત્રાણા ત સ દષ્ટિવાવ તારા વા તો વત્ર સ ષ્ટપાત ! પતાવવન્યતરણુતાન્ય જ્ઞાન ગ્રુતજ્ઞાનમ્ ! તન્મતિવિરોષ જિં જ સ્વાદિતિ પૃચ્છીતિ મતિધૃતયોરિતિ 1 ચોગ્યત-ક્યારોત્તર, સંવન્દ્રવર્તમાનમાત્રાહિમતિજ્ઞાનવૃત્તિનાસ્ત્રિાવ શુતે નાસ્તીતિ તતત્તતિરિત ફર્યા તં સ્વયં મન્ચે રૂ શ્રુત્વ નાનામવાદનુમવાવ તયોર્મેદ્ર લ્યાનુમાવનાર અથ શ્રુતજ્ઞાન દ્રિવિધવાવિ વિશ્વમુનાધિતામિત્વારા તે પૃીમ ફાવિના, ઉત્તરમાહ-વતિ વવવવશેષાવિત્યાદિ, વવારdય પ્રાનિવાર્તા વિગેપ મેસ્તસ્મા વિર્ય દ્વિમેતા પરિમાળવા, વદ્દાવરિત્યાર્ચ સમુદાયાર્થે. તીર્થર્થિ . ત. તે બધળધરાશે. ખ્યાદ્ધિમિધ રતિ તિ બરાસ્તદ્રાર્વિનશ્ચ એ વારસ્તા દ્રિવિધમિતિ દવ વ તૈમવક્રિશ્વર્યાવિ, સર્વદ્રર્ચર્યાનું જ્ઞાનન્તિવિશેષતૈ. . તાનું પરાન્તિ સામાન્યતતૈઃ સર્વિિમ, નિયનં સભ્ય નિશ્ચય તિ થાવ તીર્થ થિત જાળવેરિળ્યાંવિમિ વિત કૃતિ-વિરતિપુષ્પ માહિાફળ નિવદ્ધ પુર્વ તર્થવિમુવેનચરિતો વોસ પધરાવર્તિજીવ્યાસમૂત્રફળ નિવેન્દ્ર ફર્થ”લરિયહવ-સિરિ-વર-ધ-પત્તા મધામિરવા તે સિમલામળા તિ તેમાં માવંત છે ?૦૪૮મા”તિ મહામાધ્યમનુસુય માચ્છશ્વાર્યમાહ-શૈશ્વવિિિરત્તિ-પ્રાકૃતપુરુષાતિશાયપારમાર્થિઘવિધર્મસમન્વિતરાર્થો નાતો માયાવપુ માવલ તિ ! છેલ્પતિમાનું વૌદ્ધમતાનુવામિનિ સુચવવુપતા, ૧ ૨ ૨ શાહબ્નતનધિદ્રવ્યનિતિહાયજ્ઞનૈરવુપતિઃ લિત્વિછતત્તજ્ઞ શ્વ, ચતુરં–“સર્વ પરવતવા મા વાં, ત નમ તું પયત | જીલ્લચારિજ્ઞાન, વૈશ્ય ના કોપયુવતે ? I ? / તસ્માનુષ્ઠાન તિ, જ્ઞાન વિવાર્યતામ્ | કમાઈ દૂર –તે બ્રાનુપાત્મહે શા” રૂતિ તન્મતસ્ય, “હેવાયતત્ત્વ0 સાધ્યોપાસ્ય વેલા પ્રમાણમા, ન તુ સર્વસ્વ વેલા શા”રતિ દ્રિષ્ણુ પાતા મત -“જ્ઞાનમતિઘં વસ્ત્ર, વૈરાગ્યું ૨ ના ! (શ્વ જૈવ ધર્મ, સહસિદ્ધ વાયમ્ II ” ત્યાઘુત્તે નાિિસવિલમન્વિત રમપુરુષપ્રતિપાદુનારનવાર્ય જ કુમારિકૃમિમાંસરવૈજ્ઞ ય નૈવાનુમતે તિ તન્મત ૨ વૈશ્ચાત્તવાહિમિશેવિનયથાસાહ્યવuિiવિમિથાત્ર સોશવશરિત્રહ્મજ્ઞાતિનાં સ્વતયા વાનનું પ્રતિપાયે સર્વજ્ઞડિસ્કુપાતdન્મતા જ નિ/સાથેમુપાવશાળી વેરિયસ્વાર્થેમાઃ સર્વદ્રવ્યથાન નાના વિરવતસ્વૈરિતિ . હમતનિસાસો મલ્ટાતાદ્રાવિહુન્નતિતમાનેવાવતારાતાગ્રસ ગ્રન્થોરવમયાઝ નોબૂત કૃતિ છે વૈષ્નાવરાવવાનિસ્તવેજ્ઞાનયુક્તિ ન તુ સવેશન, વિશેષાંતરે સામાન્યસ્થે વમાવેનાઈલ્ડવુસ્વાનુમતિસામાન્યમાંatતયા નક્યોuત્તરગ્યોમાંતિ તન્મનિરાસાથેમુપાવવષય સર્વશમિરત્યસ્વાર્થમાહું તાન જરૂતિ સામાન્યત રિતિસંવૈજ્ઞાનિ સામાન્ય વરિનો મીત્યોદ્દત વસુલાકાતહાતિરાયાસિમ્પત્તિકાલ્યા તે સામાન્યપક્ષવાથુદા ફુવમહેંદ્ધિશેડ્યાસામાન્ય વવધિ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .: २४६ : तपार्थविवरणगूढार्थदीपिका । विंशतिसू० टी० ह्यमप्रविष्टं च । अङ्गेभ्य आचारागादिभ्यो वायं भिन्न, अमेवाचाराङ्गादिषु प्रविधमाधेयतया सम्बद्धम्। . अमरनाधारता, श्रुतत्वेनाघेयता । तद् द्विविधं पुनर्यथासयमनेकविधं द्वादशविधं च । अपाबमनेकविधम् , अङ्गप्रविष्टं द्वादशविधमित्यर्थः । सामायिकं समभावो यत्राध्ययने पर्यते, पतुविशतीनां पूरणस्यारादुपकारिणो यत्र स्तवः शेषाणां च तीर्थकृतां (वण्यंत) स चतुर्विशतितमः । पन्दनं गुणवतः . प्रणामो यत्र दण्यते तद्वन्दनम् । असंयमस्थान प्राप्तस्य यतस्तस्मात् प्रतिनिवर्तनं यत्र वयेते तत्प्रतिकमणम् । कृतस्य पापस्य यत्र स्थानमौनध्यानरूपकायत्यागेन विशुद्धिराख्यायते स कायव्युत्सर्गः । मूलोत्तगुणधारणीयता यत्र ख्याप्यते तत्प्रत्याख्यानम् । एतरध्ययनरावश्यकश्रुतस्कन्ध उक्त: । दश विकाले पुत्रहिताय स्थापिता-यध्ययनानि दशकालिकम् । आचारात्परतः पूर्वकाले यस्मादेतानि पठितपन्तो यतयस्तनोत्तराध्ययनानि । पूर्वेभ्य आनीय सञ्चसन्ततिहिताय स्थापितान्यध्ययनानि दशा उच्यन्त, दशा इति व्यवस्थावचनः शब्दः काचित्प्रतिविशिष्टावस्था यतीनां यासु वय॑ते ता दश इति । आमवत्प्रायश्चित्तदानप्रायश्चित्तयोः कल्पनाभेदनाद्वयवहरणादानाच्च कल्पव्यवहारी, उभयविधप्रायश्चित्तज्ञापकताया उभयत्र पर्याप्तत्वाद् द्वित्वविश्रान्तपदाभिज्ञानम् । निशीथमप्रकाशं सूत्राभ्याम् । ऋषिभापितानि प्रत्येकबुद्धादिप्रणीतानि कापिलीयादीनि, एवमादिसर्वमङ्गवाखं दृश्यम् । अङ्गप्रविष्टं द्वादशविध मण्यते। तघया-आचारो ज्ञानादिर्थन कथ्यते स आचारः। सूत्रीकृता अज्ञानिकादयो यत्र वादिनस्तत्वकृतम्, पत्रकानि पर्यायान्तराणि पर्यन्ते तत्स्थानम् । सम्यगवायनं वर्षधरनधादिपर्वतानां यत्र स समवायः। व्याख्याया जीवादिगताया यत्र नयद्वारेण प्ररूपणा क्रियते सा व्याख्याप्रज्ञप्तिः । ज्ञाता दृष्टान्तास्तान- पादाय धर्मो यत्र कथ्यते ता ज्ञाताधकथाः । उपासकैरवं स्थातव्यमिति येवध्ययनेषु दशसु वयेते -ता उपासक शाः । अन्तकृतः सिद्धास्ते यत्र स्था(दया)यन्ते वर्द्धमानस्वामिनस्तीर्थ एतावन्त एवं सर्वतीर्थकृता ता अन्तदशः। अनुत्तरोपपादिका देवा येषु ख्याप्यन्ते ता अनुत्तरापपादिकदशाः । माद् वृत्तिन स्यात् । ननु शिवस्य भगवता सामर्थेऽपि भागवतेनासामर्थात् कथं समासोऽd ., आह अवयवेति ॥ भक्ति सेव्यः कर्मणि क्तिन् । शिवभागवताः कापालिकाः । ते हि शूल- .. हस्ताः प्रायेण भिक्षां चरति॥ इत्युक्तम् । (अ. ५, पा. २, सू.७६) दशविकाले पुत्रहिता . येत्यादि । यदाह-" मणगं पञ्च सेज्ज-भवेण निजूहिया दसज्झयणा । वेथालियाइ ठविया - तम्हा दसकालियं णामं ॥१॥” इति । उत्तराणि श्रीदशकालिकनिष्पत्तेः प्राक् आचाङ्गिपठनोत्तरकालं पच्यमानत्वेन दशवैकालिकनिष्पत्तेरनु च तत एवोर्ध्वमधीयमानत्वेनोतराणि पा प्रधानाध्ययनानि उत्तराध्ययनानीत्याह आचारात्परत इत्यादि । उक्तञ्च जीतकल्पे "आयारस उ वरि, उत्तरजयणाओ आसिं पुब्धि तु । दसवेवालिय उत्ररिं, इयाणि ते किं न होंति उ ।। १ ।।" इति । पर्याप्तत्वादिति-उभयत्वविच्छेदेनेति शेषः । ज्ञानादिरिति-ज्ञानाधासेवन विधिरित्यर्थः । अज्ञानिकादय इति सतपठीसङ्ख्याका अज्ञानिना, ,अशीत्यधिकशतमिताः क्रियावादिनः, चतुरधिकाशीतिसङ्ख्यका अफ्रियावादिनः, द्वात्रिंशत्प्रकारा पैनयिका इत्येवं विपश्यधिकशतत्रयसङ्खयका इत्यर्थः । सम्यगवायनमिति सम्प Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थविवरण गूढार्थदीपिका । विशतिसू० टी० : २४७::. प्रनितस्य जीवादयंत्र प्रतिवचनं भगवता दत्तं तत्प्रश्नव्याकरणम् । विपाकः कर्मणामनुभवस्त सूत्रयति दर्शयति यत्तद्विपाकसूत्रम् । टीनामज्ञानिकादीनां यत्र प्ररूपणा ता स दृष्टिवादः । तासा वा पातो यत्र स दृष्टिपातः । एतावदन्यत श्रुतजन्य ज्ञानं श्रुतज्ञानम् । तन्मतिविशेप. किं न स्यादिति पृच्छति मतिश्रुतयोरिति । अत्रोच्यत-इत्यारभ्योत्तरम्, संवद्धवर्तमानमात्राहिमतिज्ञानवृत्तिजातिस्त्रिकालविपये श्रुते नास्तीति ततस्तदतिरिच्यत इत्यर्थः । इदं स्वयं मन्ये इदं श्रुत्वा जानामीत्याधनुभवादेव तयोर्भेद इत्यानुभाविकाः । अथ श्रुतशानन्य द्विविधत्वादिकं किमुपाधिकृतमित्याशते गृह्णीम इत्यादिना, उत्तरमाह-उच्यते विशेषादित्यादि, वक्ता तस्य अन्यराशेनिवन्धकास्तेपा विशेपो भेदस्तस्माद् द्वैविध्यं द्विभेदता परिभाषणीया, यद्भगवद्भिरित्यादेश्य समुदायार्थः । तीर्थभिरर्थ. कथित. स गणधरैणधरशिप्यादिभिश्च रचित इति गणधर(स्तशवर्तिनश्च ये वक्तरस्त दाद् द्विविधमिति इदमेव यदुक्तं तैर्भगवहिरवादिभिः, सर्वद्रव्यपर्यायान् जानन्ति विशेषतस्तैः सर्वज्ञः, तान् पश्यन्ति सामान्यतस्तैः सर्वदर्शिभिः, निचयनं सम्यम् निश्चय इति यावत्। तीयकृद्भिरर्थः कथितः स गणधरेवर शिष्यादिभिश्च रचित इति-विशफलितपुष्पौषो मालाकारालारूपेण निबद्ध इव तीर्थकृत्रिमुखेनोचरितो योऽर्थः स गणधर भगवद्भिस्तच्छिप्यादिभिश्च सूत्ररूपेण निबद्ध इत्यर्थः ।" ईसरियरूव-सिरि-जस-धम-पयत्ता भाभिक्सा । ते तेसिमसामण्णा संति जओ तेण भगवंत ॥ १०४८ ॥” इति महाभाष्यमनुसृत्य भगवच्छदार्थमाह-ऐश्वर्यादिमद्भिरिति-प्राकृतपुरुषातिशायिपारमार्थिकैश्वर्यादिपधर्मसमन्वितरित्यर्थः । नातो मायाविषु भगवत्वप्रसङ्ग इति । ऐश्वर्यादिमान् बौद्धमतानुयायिभिरणि सुगतदेवोऽभ्युपगतः, न च स जगदन्तर्गतनिखिलद्रव्यनिखिलपर्यायज्ञस्तरमयुपगतः किन्त्यिष्टतत्वज्ञ एव, यदुक्तं-"स पश्यतु वा मावा, तत्त्वमिष्टं तु पश्यतु । कीटसङ्खयापरिज्ञानं, तस्य नः पयोपयुज्यते ॥ १ ॥ तस्मादनु४ानगतं, ज्ञानमय विचार्यताम् । प्रमाण दूरदर्शी चे-देते गृधानुपास्महे ॥२॥” इति तन्मतस्य, "हेयोपादेयतच. स्य साध्योपायस्य वेदकः । यः प्रमाणमसाविष्टो, न तु सर्वस्य वेदकः ॥१॥" इति कैश्चिदम्यु पगतस्य मतस्य च-"ज्ञानमप्रतिषं यस्य, पैराग्यं च जगत्पतेः । ऐश्वर्य चैव धर्मश्च, सहसिद्धं चतुश्यम् ॥१॥” इत्याधुक्तरनादिसिद्धेश्वर्यादिसमन्त्रितपरमपुरुषप्रतिपादुनपरनयवादस्य च कुमारिलमादिमिर्मीमांसकत्सर्वज्ञ एव नैवाम्धुपगत इति तन्मतस्य च यैश्चैकान्तवादिभिशेविकनैयायिकसायवेदान्तादिमियथाक्रमं सप्तपोडशपञ्चविंशतिब्रह्मतत्वादिकमेका स्वरूपतया जानन् प्रतिपादयंश्च सबैज्ञोऽभ्युपगतस्तन्मतस्य च निरासार्थमुपात्तविशेषणस्य सर्वज्ञरित्यस्यार्थमाह सर्वद्र०५पर्यायान जानन्ति विशेषतस्तैरिति । उक्तमतनिरासो मत्कृतस्याद्वादविन्दुसम्मतितकमहार्णवावतारिकातोऽवसेयः, ग्रन्थगौरवभीत्याज नोच्यत इति । ये चैकान्तविशेषादिनरसर्वज्ञमभ्युपगच्छन्ति न तु सर्वदर्शिनम् , विशेषातिरिक्तसामान्यस्यैपामावनाखिलस्वस्वानुगतसामान्यधर्माकारतया दर्शनस्थोत्पत्तेरऽयोगादिति तन्मतनिरासार्थमुपात्तविशेषणस्य सर्वदशिमिरित्यस्यार्थमाह तान् पश्यन्ति सामान्यतीरितिसर्वज्ञासर्वदशिन सामान्यकेवलिनोऽपि भवन्तीत्यतोहतां चतुस्त्रिंशदप्रातिहार्याधतिशयादिसम्पत्तिप्राप्त्या ते सामान्य केल्यपक्षयाऽप्युत्कया इत्येवमहद्विशेष्यकसामान्यपल्यवधि ३ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २४८ : । तपार्थविवरणदार्थदीपिका । विशतिम० टी० ऋषयः सामान्यकेवलिनस्तेभ्यः परमैः परमर्षिभि., पूजा त्रिदशादीनामर्हन्ति तैरहभिः कृतकृत्या अर्हतः , कुतोऽर्थ गणधरेभ्यः कथयन्तीत्यत्र हेत्वपेक्षायामाह-तत्स्वाभाव्यात्, तीर्थकृत उत्पन्नशाना अर्थ प्रकाशयन्त्येवेति तेपा स्वभावात् । न हि स्वभावे पर्यनुयोगोऽस्ति भास्करप्रकाशवत् , किमर्थनमंशुमाली जगत्प्र. काशयतीति प्रश्नानवकाशात् । नित्ये स्वभावे नास्ति पर्थनुयोगोऽनित्ये तु कुत इति हेतुप्रश्नो भवत्येव, नियतावधिककार्योत्पत्तिस्वभावस्य कारणनियम्यत्वात् , अत एव " हेतुभूतिनिधो न, स्वानुपारुप्रविधिर्न च ॥ स्वभाववर्णना नैव फोत्कृष्टत्वप्रकारकप्रतिपत्ति श्रोतृणां जायतामित्येतदर्यमुत्तविशेषणस्य परमर्पिमिरित्यस्यार्थमाह ऋषयः सामान्यकेवलिनः, तेभ्यः परमैरिति । उक्तविशेषणरन-वज्ञानानन्तदर्शनलक्षणस्वार्थसम्पत्ति प्रदर्थ परार्थसम्पत्ति प्रदर्शनायोपात्तविशेषणस्याहद्भिरित्यस्थाथमाह पूजां त्रिदशादीनामर्हन्ति तैरिनि । पूजाम् --अशोकांदिप्रातिहार्यलक्षणाम् , नन्वहन्तः कृतकृत्याश्चेत्तदा गणवरेभ्योऽर्थकथनं निरर्यक, प्रयोजनविरहात् , प्रयोजनमन्तरेण च तत्प्रयासस्यायुक्तत्वात् , प्रयोजनमस्तीत्यत उपदिशन्तीति चेत् तहि कृतकृत्यत्वानुपपत्तिस्यादित्याशयेन प्रश्नयति-कृतकृत्या अर्हन्त इत्यादि, गणवरेभ्य इति-उपलक्षणमतदन्येषाम् , सुरासुरनरोरगतिर्यसाधारण्या योजनगामिन्या वाण्या शेषभव्यजीवानामपि निश्श्रेयसाम्युदयसाधनोपदेशदानात् , उक्तवावश्यकसूत्रे वृहत्कल्पभाष्ये च " तित्यपणाम , काउं कहेइ साहारणेण सदेणं । सधेसि सणीण जोयगणीहारिणा भयवं ॥५६६॥ ११९२ ॥” इति । तीर्थकद्भवतातीर्थकनामकर्मवियाकोदयप्रयोज्यजगत वप्रकाशकवस्त्रमावस्यापर्यनुयोज्यत्वे दृष्टान्तमाह-भास्करप्रकाशवदिति, कारणनियम्यत्वादिति कारणाधीनत्वादि- ' त्यर्थः, कारणस्य नियामकस्य पूर्वकाले सत्चे सति भावादिति भावः । अत एवेति-उक्तस्वभावस्य कारणनियन्यत्वादेवेत्यर्थः । अकस्माद्भवतीत्यत्र किंशब्दो यदा हेतुपरस्तदा तस्य ना समन्या त्वभावाद् भवनमित्यर्थो लभ्यते, यदा तु भवनक्रियाया ना सम्बन्धस्तदा प्रसज्यप्रतिषेधे भवननिषेधोऽर्थो लभ्यते किंशब्दसमस्थमानेनापि ना सह भवतीत्यस्यान्वयात् । तदु. भयनिरसनायाह हेतुभूतिनिषेधो नेति-हेतुनिवेधो न, भूतिर्भवनं तनिषेधोऽपि नेत्यर्थः । हेतुनियेथे भवनस्यानपेक्षत्वेन सर्वदा भवनप्रसङ्गा, भवनप्रतिषेधे प्राक्पश्चादिव मध्येऽप्यभवनसङ्ग अथापा(माद्मवतीत्यस्य स्वस्माद् भवति अथवा अनुपाख्याद्भवतीत्यर्थश्वेत्तत्राहखानुपास्यविधिन पनि 'स्वं कार्य तस्मान च विधिविधान भवनमिति यावत् । यता वोत्पत्तेः पूर्वं यदि स्त्रं भवेत्तदा नियतकालीनकार्योत्पत्तौ हेतु स्यात्, न चैवम् , अनु. पाख्यादलीकान्न च विधिः कार्यभवनं कार्योत्पत्तिरिति यावत् । यतोऽनुपाख्यस्य न कार्यकारित्वम् , तथापि तथा युपगमे प्रागप्यनुपाख्यस्यानुपाख्यतया भावान्ततः कार्यस्य सत्यप्रसक्ती सदातनवं स्यात् । अथाकरमादित्यस्य स्वभावादेव कार्यस्य 'कादाचित्वत्वमित्यर्थः, तबाह (भाववर्णना नैवमिति । स्वस्य भावः स्वभावः, किं वा स्वमेव मा स्वभाव इति Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તત્વાર્થવિણભૂલાયેલીપિ. વૈરાતિ- ટી. ર૪૬ ૪ ગાર્નિયતત્વતઃ ” રૂત્યુયનશ્ચિાયા સ્વભાવમાવીયાજન્માવપક્ષો વૈદ્ધાંતિ દૂષિત ફત્યત ગ્રાઃ પરમમોસ્કૃષ્ટપુષ્યાત્મનો મિન્નડુતેડાતાવ્યા છે પ્રશ્નાયોડશુમાં ન સ્વવપા પુર્વ દર્શથિતુમ[, ક્ષીરાડમૂતિgમે પિવુમન્વરસાવવુવત્ તથા પ્રવરં કૃતં સો વા તાતિઝાપન પાર્ક ચર્ચ તાદશ તર્થિકારનામર્મળોમવાદ્રિપાયા ચતુરં તર્યાદ્રિ સ્તરાર્થનાd મૃત્વ જમાવછળે, તુ વયં તિ, શિવમર્થકાવટસલનિમ પસતવિશિષ્ટાવક્યુપે, ઉત્તરમાં ધાના ગતિશવ પ્રતાવાયો વાવાળી વૃદ્ધિ થીનtવિશે તામિ સંભૈરવિહૈ, દઉં રવિવં તકવિ મળ્યતે | પ્રવાહ્ય તતોડર્વામિ શ્રમિતિ તદુષ્યતે | જળધરા ફન્દ્રભૂત્યાવર્તામાનન્તયે વેપા તે વ્યાયતે મહિપા તે પ્રમવાયેલૈં, અરવન્તવિશુદ્ધાદ્વૈરતિનિર્મક્ષયપર, પરમપ્રદ વાતિરાવતો ચેપ તૈ, લાવા પવિધાવારદ્વથી પતિ, તત્ર નાઘ, યતિતસ્વસ્ય મય વધર્મ, તથા ૨ સ્વધર્માસ્વત્પત્તિ પ્રતિજ્ઞાત સ્થા, સા જ ન યુt, ધર્મળ સ્વર્યાનુત્પ, સ્વપૂર્વ વધમંરવામાવાવ, વાયામને આધિનાનુ, દિયોગપ, પર્યાનિત જાર્યધારણમાવામનું વરંતુ સમ્મવાવ, નહિં સ્વમેવ બર્મતિ પૂર્વમુત્તરગ્ન મતતિ | સર્વત્ર નિ હેતુમાદુ વેનિંયતત્વત રૂરિ–નિયતવાળાર્યવશેના, નિયતાધિવે વિવુિં ને સ્થાતિ માવા વિશેષાર્થના સુમાંન્નત્તિીષ્યોવનતિ ! તીર્થરનામ :ગુમાવાવિતિ-જાતિવર્મયોથવસ્ત્રજ્ઞાનાવાસ્યાર્દનતો માવ7 dબ્રુત્યા કપિ નૈવ સર્વથા તથા, સ્વર્વતીયમવાસેવિવિશુદ્ધતાશારિસ્થાન તપોવન વિતતીર્થનામવિવાહય જ્ઞાનશાકુમવાહીનયા સટ્ટાન સર્વથા સિદ્ધાર્થત્વમાવાતુ, તક્ષાર્થ તે શુદ્ધિશક્તિ, કવિશેષાવરથ–“તિસ્થયરોજિંદાર, માસ$ સામાફિયં તુલક્ષયાં રાતિચેંયરગામ, મેયāતિ રસરા તંઘ દ્ધ ? ચાજાણ થમ્પલળાહિાવજ્જતં તુમાવવો, તમારા ઘf l/રરા રૂતિ “ii મત! વડાપૂર્થી ઘટાગો ધસાપવાળો વહસહસ્તંડવત્તાહંતા પEી ત્યાહારમાવિનમચિત્યાë–તિરાયવર્ધિાનું વરસસ્ત્રનિર્માણાધુપક્ષિતવિશિષ્ટરાવલ્યપરિતિ વનછવિ કૃતિ નિવૃદ્ધિ વૃદ્ધિચઢિયા સા તત્યર્થ તત્રોન્યાયધ્રૌવ્યપુરું ધાવવાનેનૈના િવનમૂતન પનાધિપતેર મથુતમ યથાવસ્થિત પ્રમતમર્યમવાહ યા વૃદ્ધિ સા નિવૃદ્ધિ સા જ શીતમાળવરમમાવત મેર સર્વોત્તમ પ્રષિબાણ છે ધાન્યમા યા વૃદ્ધિરાવાર્યમુવાદ્વિનિતૌ તદ્રવાવિ જ્ઞાથ ધારવતિ, ધિમપિતા બ્રમ્રાર્થો વાહ રેગણ મતિ સા છવૃદ્ધિ થાપિન પવાનુલારિદ્ધિઘટ્યા, એ વૃદ્ધિરાવાર્યમમવન્યુવાશપિ ઘaષમધાર્ય શેષશ્રુતમપિ તવસ્થવ ગ્રુત વાહિતે સા વદ્વાનુલારિણી વૃદ્વિરિત્યર્થ તુ ધ્યવયમરાજ્યજ્ઞાનોપાય વર્ષ વિત્યારફ્રાયાં નિવૃજ્યર્થ ૨૨ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ! ૧૦ : સત્યાર્થવિવÜમૂઢાર્થદ્રીપિયા । વિતિર્• ટી સુછાયમિ:, જાજો દુ:ખમિયાન, સહનન છે.તિ, આયુરપીવિતમ્, તેમાં રોષસ્તથાપરિણામહ્તમાત, અલ્પેશીનાં હીનસામર્થ્યનામ્, શિષ્યાળામનુગ્રહાયાપેનૈવ અર્થેન સુવન્નુમ$મેતેડવાન્ત મીન્દ્વયા, યંત્ પ્રો પ્રવષનાનુત્ય વવૈજિાતિ, તવ વાદ્યમ્ । બત ાનૂવિત્રાષઁળ સર્વજ્ઞાળીતત્વાનપવન જ્ઞેયસ્ય વિષયસ્ય, મહાવિધય દ્વિવિધમાંપે શ્રુતજ્ઞાનું સામ્પ્રતાર્થમાપ્પિા મતે, તસ્ય TM શ્રુતજ્ઞાનય, મહાવિષયવાūહાનોનું નીવાતીર્, ગાંધૠત્ય, પ્રરળ વિવક્ષિતનીવાવિન પળ, તસ્ય સમાંતતાદ્યોધતાધર્યા સસ્તામપેક્ષતે યત્તત્તા, અજ્ઞોપાજ્ઞનાનત્વ તત્તનામેઃ । નિયંત્રÆ જારબાજ્ઞોપાસનાનાવદ્ સુપ્રોત્સાવિ, સુલેનાનાયાસેનાપૂર્વક્ષ્ય પ્રાં રેવ્યન્તિ, યુલેન જ ગૃહીત ધાયિન્તિ, સુવેન વિજ્ઞાનં તમિરર્થે ઉત્પાાયન્તિ,સુલેનાપોરૢ નિશ્ચય રિાન્ત, મેષોથ સ્થિત ાંત । સુવૅન જ પ્રયોનું વ્યાપાર ાિન્ત પ્રત્યવેક્ષળાાિળે તેન વિનિતનેતિ । વ્યતિરેòનુષત્તિમાન-અન્યયા હયાતિ । અન્યથા મેવવનામાવે, હિઁ નિશ્ચિત ્, અદ્ભાષાજ્ઞશઃ અન્નોાજ્ઞામ્યાં, અપાચ્છિ, અનિકનું મિત્તાન્તનયા ત્રિતમ્, સમુદ્રબતર વત્ત્તુર વસેનશયજ્ઞાનોપાયં ચાવર્ષારચ્છિન્નિિત માત્રઃ । બૅજ્ઞો રખના પરિચ્છે, તુ નહીત(વિતરળવદનિબ્બાનનુન્ધિવાન્છરોપાયતના તંત્ર શિખ્યાળા પ્રવ્રુત્તિન્યાહતા ચાહિત્યવષેયમ્ । પૂર્વાવસનાયામયમેવતવેરા ત્યાઃતેનેસ્થાન-તેનાજ્ઞાાન મેવપ્રયોનનેન સુવઋહાવિના, પૂર્વાથ્યુત્પાતપૂર્વીનિ, વસ્તુનિ તવંશા, પ્રારૢતાનિ વત્ત્વશા, પ્રાવૃતપ્રાકૃતાનિ પ્રભૃતાશા, અયનાનાિ તતોઽપતરાળ, ઉદ્દેશાપતોઽપતરા, તે સર્વે યાતા, સુલમળાવેરેવ તÈવરનનાયા પ્રથોનનત્વાઢિતિ માવઃ। તત્રેવું શ્રુતસ્ય દ્વિવિધાતરણે પ્રયોગનનુન્, તથાવ્યસર્વપર્યાંયસવદ્રવિષયસાધારણ મંતર્શનાતિશ્રુતયોરેનયં શક્રમાનસ્તમે વહેતી પૂર્વી તેડાંતુબન શ્ચિત્ પ્રત્યતિત ત્યાં બત્રાદેાાવે, સમાયો-અન્નોન્યત વૃત્તિ, ત્તમેવ હેતુ ભારાંત ઉત્ત્તમાંનુંત્યાવિ, ચપિ ર્માંતતિવિસ્તાવેજ્ઞ મતિજ્ઞાનાપિ ત્રિભવિષયત્વનુર્વાગતમ્, શ - ' તંત્ર હેતુના અપરિચ્છિન્નષાવિતિ-અમિતનાનાવું, યથા સમુદ્ર ના તરશોષાય• મનાનતઃ પુંઃ સુણેન વાઘુમ્યાં કતરામÎતિ નૈવ પિત્તવૃત્તિમાંતિ, અતિસાદસવ્રજ્યા પ્રતરપ્રવ્રુશોપ્થલ્પમાત્ર તો લુત્ત્તરોગ્યમિતિ મગાર્ડાલિન પ્રત્યાનિવૃત્તો નૈવ પારં કાષ્ઠુયાર્ક - મિદાપિ સૌર્થદુર્ગાષ્ઠત્વેનારિનિતાર્યાષ્કૃતસ્યાજ્ઞા મેવેન રચનાય મારે સમુદ્રોષમં સન્મન્નાહૂલ્યેનાનધિ ાતપ્રવેશમાય શિલ્પ નૈવ સુશષાવાદું સ્થાત્, સત્તા જ્વવિત્સોસાદઃ સોંગ્ઝમાંદું યત્તવાવિ નૈવ શ્રુતજ્ઞાનસ્ય પારં કાજીયાત, વર્તમાનાર્યવિષયTMતિજ્ઞાનાપેક્ષયા ત્રિધાળાવચ્છિન્નાર્થવિષયલ તત્ત્વ મહાવિષયત્વાવારમિતાયત્ત્વન તયત્તાજ્ઞાનામાહિતિ માર્ગ 1 માંતશ્રુતિરૂપેણ માંતજ્ઞાનસ્યાપ ત્રિtછાવષયમિતિ વિ ાસાતી ડ્વેન હૈં ત્રિવિષયટ્યું આંતિતિષિપાંનાં, ચેન તક્ષેપ મતિજ્ઞાનાય ત્રર્યાવષયત્રં સ્વાત, તથાપિ ચયાળનું નન્નુમાનાતીતાનાતળાોષક્ષિતાર્થવિષયજ્જેન વાસાં ત્રિશવિષયમિતિ પેણ માંતજ્ઞાનાવિ તથામિતિ માઁ | Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ કરવાáરિવાળવાર્થીપિ રિતિકૂળ ટી. : રવા : બતથાપિ ત મિત્રોળાવછેરેન, શ્રુતે ક્રોપોવન ત્રિાવિક્યત્વમિતિ ન પૂર્વે પારિતોઃ ૌર્ય તિ માવા નવિવાનીમ ધોડર્તીયાપલેગનન્ય ઐશિ તિમાં શહેí તેમાં સમણ” ફત્યાદિનન્ય -વાવિક કૃતનાને ત્રિવિષયત્વે નાસ્તાત્યજ્યાણિ, “ડપ્પન્નમાળ, ડબ્ધwાંતિ વિયં વિસ્તૃત ! વિર્ય પાળવવંતો, તિવિષય વિસ” ફત્યાદ્રિ ચાવડ્યુમિહિમ્ના ત્રિવિષયત્વે તુ સદરો મતિજ્ઞાનડગચાહતમિતિ , સત્ય, ત્રિવિષયમત્યજ્ય સંતાપ વિ મ’ ફત્યાદ્રિતિપાઢિ. ત મોપોનોવછેરેનેતિ-તિતિવિન્તાનાં મિત્રોદ્યમાનવાત પૃથયુયો ક્ષતયા તત્વઝેન ત્રિાવયમિત્ય / શ્રુતજ્ઞાનયોપવષેહેન ત્રિવાહયત્વે પ્રતિપાદ્રિત સતિ વાવી તત્રાવ્યાપ્તિમાશકૂતે નવયા “બ્દમાળા” ત્યાદ્વિપાથેયં સતત તૃતીયે જાણે સપ્તશત્તમા હાથમાનામ્ તત્પન્નમ્, વાતપુપ્રવેશત્રિયાસમય વીત્વદ્યમાન પટદ્રવ્યમાઘાંઘળોત્પન્ન, તો તત્પન્ન ન વેવાઈનિયામયવત્ દ્વિતીયતીયાયિાસમયથાવત્સ્યાયાલયેબીપિ તત્પન્ન સ્વાહિત્યમg નર્ણનમેવ યાત, ન વિધિન્નાનેવ પુનરાવ્યુત્તરોત્તરવિદ્યતે, તથા પતિ તાવન્માત્રપદાધિદ્રવ્યોપત્તિકાજોલ, વત્તરોત્તરયિાયાસ્તાવનાત્રnoોપાવન પર્વ પારિતાર્થત્યાત્, - વિવુન્યાન્યાશેનૈવ, તથા કમાવાક્ષો નાનોત્પન્ન સદુત્તરોત્તર શિયાળેન્યાખ્યાંશેન વઘપૂર્વનર્વત્વ તે તદ્દોત્પન્ન મ, નાન્યતિ પ્રથમતનુબશાવાસ્યાન્વત સંયોપાવધિ યાત્મવનાત્પરામાનં તત્તનોત્પન્ન તવ વાકાર્યતોત્પિાd ફત્યુત્પમાનમુનમુસ્વમાન મતિ, વકૃત્વમળ્યુત્પદ્યમાનમુતવલ્યમાન જ મવતિ, તથોત્પર્યાનમવ્યુત્પમાનમુત્પન્ન વેલ્યવમેમુનાહિત્રયેળ શૈલ્ય યથા પ્રતિપદ્યતે, તથા વિછાદ્ધિાત્રયેળાપુરપદ્યમાનાહવા વૈશાલ્ય પ્રતિપદ્યતે, તથા થર્ થવોત્પમાન તત્તવૈવ વિઝિશન વિગત વિચ્છત્ વિધમિધ્વજ, તથા વવ વવપિન્ન તેવ તવા વિક્રેતાદ્ધિાત્રયપર્શ શેયમ્, gવવોત્પલ્પમાનમાપ દ્રયં તવ તદ્રએ યમ્, વિમેવોત્પત્મિઘમાનોત્પલ્પમાનમેઢા પ્રવાશો વિતવાચ્છાદ્ધિમિધ્યકૂપરિવે સ્થિતિg@ાલદ્રपैरपि सप्रमेदा ज्ञेयाः, एवं स्थितिविगमावपि कालत्रयस्पर्शिविलक्षणयोगनोत्पत्तिप्रणालिकया સામે પ્રદર્શનીયાિિત સંવર્ધિ ત્રિવકિપર્શિમિરવિનામૃતં સૂરાં પ્રજ્ઞા ત્રિવિધ વિશપથતિ, અને બાળ ત્રિવિષયં દ્રવ્યવહાં પ્રતિપાદ્રસિઘં ઘમાળ, તતિરિ તુ વાકયમમાા, ન્યારી દ્રાક્ષમાવાહિતિ થાર્થ / સંવકિવિ મને ત્યારીતિ-વાઘ વિમ, સહ વં વા પ૩ પુચ્છિન્ના ઇ જ í ચાલેલી, ધિયાળ ga છ૩મો પરા” કાવય નધિપતિતમેયં ગૃહસૂત્રે સતવાવિકાશ શતરમાં જ માયા ! સાહત્તિ શીવવના વયિતીત્યર્થવ ત્રિયાપદં, ત લાક્ષમિતિ તપેલાયામાહ સંવર્કિંપ વિ મ નં વ પ ૩ પુચ્છિક તિ, સહ્યાતિતાન િમવા ચઢા પUવદ્વાઈનાત કૃષ્ણેત યોર્નિત્યસર્વત્થાત્તાવત્યિ માવા સદરહમવીય Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ": ૨પર : સવાવવાનગૂઢાર્થીપિ તિરૂ૦ ટી તવિશિષ્મત્રિક્ષાવિષયતાવાદિજ્ઞાનવૃત્તિનાતિમાહિત્યર્થે ડોપામવાત ત્તવાહવિશુદ્ધતર તિ . નજરો વાર્થ, સ વ્યવસ્થા, સા વોવનૈવ, વિશુદ્ધતરે વરતવબજ્ઞાનેમિર્થશાહિત્કાતિ વતછોડયમેવશય ગત વૈતત્તર કિં વાળ્યહિતિ મરળાન્ત મહિમતિજ્ઞાનગિન્દ્રિયાળિ સ્પર્શ નાલીનિ શનિન્દ્રિય મન ગોધરા ૨ નિમિત્તમાં પ્રવર્તમાનમાલ્મનો વિસ્ય, જ્ઞમાવા-ઢાવપ્રધાનનિશા જ્ઞત્વવમવાત, પરિણામમનાવિપરિણામમવિવર્તિ, જીવત્વવ્યવથાપત્તાત, ન તુ પિ સંસારે પર્યત પતરમ્, શ્રુતજ્ઞ તુ નૈવ વાતનમ્, જિતુ તિપૂર્વ મત્યવિનામાવ સત્, સાપ્તપદેશાવવનમાચિત્ય, મવતિ ! તવં નિત્યવાનિયતામ્યાં મતિજ્ઞાનથુતજ્ઞાનયોત સિદ્ધો મવતિ વિનમદ્રાક્ષમાશ્રમવાસ્તુ “બાવળયા દેજમાવો મય હૃતિ વિમા વાવમૂકામેવા મેગી મસુગાળે II ગી” ફત્ય પ્રત્યેનું ઋણમેવાવિન મતિકૃતવોર્મેહમુદ્ધિશક્તિ ! તત્ર ક્ષvમેવો થા–ન્દ્રિયમનોનિમિત્તે શ્રતાનુસાર જ્ઞાનં શ્રુતજ્ઞાનમિતન્મતિજ્ઞાન, શ્રુતાનુસાર જ તવ્યને થતું સક્રેતવિષ્યપરોપવેશે છુતકળે વાશ્રિ ધો ૮ રૂલ્યાવન્તપાવર મવતિ સ્વતિમૂતમવિખ્યત્વવાર્થનાલં વર્તમાનમાં વહિતવિકઝરહ્માસ્ત્ર પ્રશ્નસમૂહવાપૂર્વ વસ્તુના ના તત્સર્ગ થયતિ, અને જળધરમપવિતોશેષામિકાવાર્થાત પાનશક્તિઢti | નર્વે હૈિં ય મહનીયમાચાળધરમવાનું છવધે ફતિ sષ્ય ધ્યાઢિજ્ઞાનવિહવેનાનતિશયજ્ઞાનવાનું પણ જિં નાનાતિ ને ત્યાસક્રૂાયામુત્તરાર્ધમાહ ત્યાદ્ધિ, ન નૈવ, ઇતિ વારાહ, યદ્રા “i ” તું પણ “વળાફલત્તિ” નિતિરાથી પજ્ઞ બાજીતપુરુષો વિનાનાતિ ઈ છારી તિ, યશપબશ્નોત્તરબવાનાનુઈ- . શનિવાર, વિજ્ઞાનિશ્રુતજ્ઞાનિનોરંબાગાયાં શ્નોત્તરવાને જ મેવાસાવાતિ થાર્થ ! જમાવતિ-stહૌ કૌ િર શ્રુતજ્ઞાને શ્રુતજ્ઞાનવિજ્ઞાતિમાવાયોક્ષપાસમન્વયાત્રાથસિરિતિ માવ થાપશાહિત્યયાર્થભાદ-વાવિવવનમાોિતિ | ક્ષમતાવિતિ-સત્રા ન દેતુaહમાવવિમાનેન્દ્રિયવિમા વારકૂતર મેહપરિવહળેાથમિતિ દૃન્દ્રિયમનોનિમિત્તે સુતાનુસારિજ્ઞાનં શ્રુતજ્ઞાનમિતર તિજ્ઞાનામિતિ-ન્દ્રિયમનોનિમિત્તમિલેહિતન્મતિજ્ઞાનમયચૈવ વિશેષi ન તુ શ્રતાનુસારજ્ઞાનનિત્ય, તત્ર ત વહાવરોબળત્વેનાન્યાગાવૉશવંત, મતિજ્ઞાનસ્ય શ્રુતનનુસારજ્ઞાનવિયેતાવનાત્રસૃક્ષારગ્રધિજ્ઞાનાય શ્રુતાનનુસારજ્ઞાનવેન તત્રોક્ષતિગસરસ્થાિિત તદ્દચાવવૅન મતિજ્ઞાનક્ષણે તોપયુવા શિતલવ–“ન્દ્રિવમળોનિમિત્ત, વં વિના સુણાબુલાળા ગિયારશુત્તિસમર્થ, તં માસુમ સેકં ? ” તિ વિશેષાવરમાધ્યથિતન્દ્રિયમનોનિમિત્તમિતિ વિશેષમાં શેષામિત્ર યોજ્યમ્, શ્રુતાનુસારવશ્રુતક્ષાત્વે નિઝર્થોસિમવાય સ્વાવિશેષણનાભ્યાવર્તત્વહિન્દુત્તે જ્ઞાનાવે સચ્છતા જ શ્રુતજ્ઞાનયૅવં અક્ષણત્વે રૂંઢાપાયાવીનાં શોષેવહdવાત રોòવર સતાઘાંતશાનુસરળ મારેગામાન શ્રુતાનુસારિત્યાઘ્રુતજ્ઞાનત્વ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તવાવિવરણપૂઢાર્થીપિ રિતિકૂ૦ ર૦ : ર૬રૂ : માસમાનાર્થપ્રતિપાવ () શબ્દનનમ્ ! જૈવમહાપાયાનાં મતિજ્ઞાનમેવાનામપદાર્તુકલ, પૂર્વ તદ્વિપ તાપેક્ષાયાપિ વ્યવહારના તકિયાળામાવીત , ન હિ પૂર્વકવૃત્તલના અધીકૃતગ્રાહ્ય વ્યવહાભ તિવિપતિજીÇવષ્યનૈતન્યૂર્વેયાવાતમમુજાથે વાદમિતિ પ્રતિયન્તિ, અભ્યાસપાટવારનુકરણમન્તરેખાષ્યનવરતવિજ્યપ્રવૃત્ત / નવેવં શશબિંદુનન્ય વ્યવહારા ગૃહીતશક્તિહરીનન્ય વ શુતજ્ઞાન પ્રારમ્, તથા વૈશેન્દ્રિયાળાં તજ ચાત, શ્રયન્ત તે નિયમા કંચજ્ઞાનિનઃ સૂત્રત્યેષિઃ સ્વાતિ ! () દ્રવ્ય કૃતામાવે તેvi સ્વાવસ્થામાં સાધોરિવારશાળાશવાર્થબુતાવરણક્ષયપરામમાત્ર નિમાવશુતામ્યુપામી ન માલાશ્રોત્રમાવે તેષાં માથુતામાવ, પ્રસાગતા હત્યારા નિતિન યાવિના, ન તદ્રુશવાસઃ નેનાन्वयः, निषेधे हेतुमाह पूर्व तद्विषय इति । तदाश्रयणाभावादिति-अस्य सदस्य વાંખ્ય યાર્થ, અસ્ય વાર્થ વાવવું શબ્દ રૂવં વાળવામાન પૂર્વ પૃહતાદ્દશરીનાં પુંસાં ]વહાર પૂર્વગ્રહીતશક્ટ્રિ-મરણાર્થોપસ્થિત્યાઘાથથામાન શ્રુતાનુલારિત્વમ7ળાવીહાપાઢિપ્રવૃત્તિ માહિતિ માવા તવેવ વિવૃતિ ન હત્યાના તારામ રાજતિ-સતવિષયપરોપજ્ય શ્રતગ્રન્થ વાતુસર વિનાશ્વત્યર્થ નથજીશુतज्ञानलक्षणे परोऽव्याप्तिमाशङ्कते नन्वमित्यादिना । एकेन्द्रियाणां तन्न स्थादितिશ્રુતજ્ઞાનશાળમૃતશર્જિા હિં મનમૃતિસામગ્રીમવર, તસ્યાન્દ્રિયાળામમવેન શરિપ્રહામાવાવ્રુતજ્ઞાન સ્વાદ્રિતિ મારા યન્ત જ તે નિયમાન્યજ્ઞાનઃ સૂત્રરાતિ -“વિયા નિયમ સુથાળી, તું નહ-માલજા સુયશના ” તિ | समाधत्ते, न, द्रव्यश्रुताभावेऽपीत्यादि । तेषाम्-एकेन्द्रियाणाम् , ननु स्वायावस्थायां સારિતદ્રવાનુપપન્ન, વન્યજ્ઞાનવાવાછિનચ્છતિ ર્મનોવોસ્ય વિનાયામનવો વા હેતુનાલિટેન્દ્રિયવૃત્તિનિરોધરૂપાયાં સ્વાપાવસ્થાથી તદ્માવે નન્યજ્ઞાનમાત્રવાનુત્પરિતિ રે, મૈવ, કનિદ્રયવૃત્તિનિરોધેડપિ તવાન મન્દ્રિયજ્ઞાનસન્મવાંવ , દર્શનાવરણાતિવાયાઃ સુપુત્તેર્યાવક્ષુનાવો પધાાતિવેન તત્રાવ્યરૂશ્રુતજ્ઞાનાપુપામે તોપમાવત' મિત્ર માનમિતિ ત, વાદ્યવોત્તાવન વ્યત્તધૂન માવથુન નિ તપૂર્વાદવજીભાવતશ્રુતજ્ઞાનય પથતિ સર્ષલ રૂવનુનીયમાનનાનુમાનવ પ્રમાણ, મિન્યથા તત્ર થાસાશ્વ સાહસનપત્તિયા, ત વ સુકચ્છતાનાં વસતિતિશાળTSઘરૂચૈતન્યમેવમવ્યયત રૂનુમવા, મુસોથિતયેં સુવમgમાપ ન ક્રિશ્ચિમિયનુમવસ્તુ ન લિશ્ચિતપોવાળા જીજ્ઞાનમેવાવમાહતે રતા થત વોત્તકૃતજ્ઞાનક્ષામાણિકતત્પરિહાસાખ્યાં સમર્થન વિશેષાવરવામાsધ્યાહ-“નર મુકવણળય, તો જ તમે વિવિયા મવડું હસુથામાવામિ વિ માવસુä સુત્તનળ વ // ૨૦ મે ”રુતિ નનુ યા નીવર્સ માવાબ્ધિઃ શ્રવણેન્દ્રિયા તવ માવઠુમતિ તદુમધુમતસુતલા ધોબ્ધિ તથા તત્સમવતિ, ^ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તરવાર્થવિહીઈટીવિસt. ધરતિકૂળ ટી. द्रव्येन्द्रियाभावेऽपि भावेन्द्रियज्ञानपद् द्रव्यश्रुताभावेऽपि भापश्रुताविरोधात् । न चावच्यादावतिप्रसङ्गः, તસ્ય પતિપાવનપરોવીરિતાથવણાદ્રિકલામાવશુતાર્થનહિનાનુપમનિર્વાહ, एकेन्द्रियाणां तु तदुभयलब्धिराहित्येन कदाचिदपि भावश्रुतकार्यादर्शनेन तदस्तीति कथं श्रद्धीयेत ? ततस्तेषां तदभाव एवेत्याशयेनाशङ्कय निषेधति-न त्यादिना। निपथे हेतुमाह द्रव्येन्द्रियाऽभावेऽपीति । एतद्विपये भाष्यसुधाम्भोधिरपि "भावसुयं भासा सोयलद्धिको जुजए न इयररस । भासामिमुहरस जयं सोडण य जं हवेजाहि ॥ १०२ ॥” इति गाथया आशङ्कामुद्भाव्य तदुत्तरमाह-"जह सुहुमं भाविदियनाणं दबिदियावरोहे वि । तह दसुथामा भावसुयं पत्थिवाईणं ॥ १०३ ॥” इति । अयम्मावा-एकेन्द्रियाणां द्रव्येन्द्रियपञ्चकाभावेऽपि स्पर्शनेन्द्रियादिमायेन्द्रियपञ्चज्ञानं किञ्चिदभ्युपगन्तव्यम् , अशोकादिद्रुमेषु निप्पिटपमरागपूर्णशोणतलकामिनीपाद पाणिप्रहारेण वकुलादिषु शृङ्गारितकामिनीवदनातिचारुमदिरागण्डूपण चम्पकादिष्वतिसुराभिगन्धोदकसकेन तिलकादिषु कामिनीकटाक्षविक्षेपेण विरहकादिषु पञ्चमोद्गार श्रवणेन च पुष्पपल्लमाधाविर्भावात्मकस्पतलिङ्गोपल भात् । नन्वतेन लिङ्गन सिद्धयतूक्ततत्तक्षेन्द्रियजज्ञान, प्रत्येकतत्तवृक्षेषु पञ्चेन्द्रिय रूपादिविषयकपञ्चज्ञानानि तु कथामिति चेत्, उच्यते, मुख्यवृत्यैकैकैन्द्रियजज्ञानमेव, गौणवृत्या तु तदतिरिक्ताखिलेन्द्रियजन्यज्ञानान्यपि सम्भाव्यन्त । न चै तर्हि तेपा बकुलादीनां पञ्चेन्द्रियत्वप्रसङ्ग इति वाच्यम् , तद्वयवहारप्रयोजकस्य द्रव्येन्द्रियपञ्चकस्साभावादिति । उक्तश्च भाण्येऽपि-" जंकिर बउलाईणं, दीसइ सेसेंदियोवल भोऽवि । तेणस्थि तदावर णखओवसमसंभयो तेसि ।।३०००॥ पंचदिव्य बउलो नरो व्य, सव्वविसओवलंभाओ। तहवि न भण्णइ पंचेंदिउत्ति वोदिआभावा॥३००१॥" इति। ततश्च बकुलादिषु द्रव्येन्द्रियपञ्चकाऽभावेऽपि भावन्द्रियपञ्चकावरणक्षयोपशमाद् भावन्द्रियपश्चकज्ञानं मतिજ્ઞાનાત્મવં યથારીøાં તથા મારાવિશ્વોત્રસૃધ્યમાવતાં તેમાં દ્રવ્યુમાવે પિ માથું तावरणक्षयोपशमसझावात् तत्राऽव्यक्तभावश्रुतमप्युरीकर्तव्यम् , तथोररीकारे विरोधाभावादिति भावः । किञ्च मनुष्यशरीर इव वनस्पतिशरीरेऽपि जलायाहारभेषजादिप्रयोगतो वृद्धिक्षतभग्नसरोहणादिकं दृश्यत इति तदन्यथानुपपचिलिङ्गेन वनस्पत्यादिष्वाहारसंज्ञा हस्तस्पादिभीत्या यवसङ्कोचनादिलिङ्गेन सङ्कोचनवल्ल्यादिवनस्पतिषु भयसंज्ञा कामिनीभुजलताजगृहनजनितपत्रप्रसारणलाइमादिलिङ्गेन तिलकचम्पकहरुबकादिवृक्षेषु मैथुनसंज्ञा च निधानीकृतद्रविणोपरिमूलपत्रादिस्थापनादिलिङ्गेन विल्वपलाश मल्ल्यादिवृक्षेषु परिग्रहसंज्ञा चारतीत्यनुमीयते, न च तथाऽभ्युपगमेऽपसिद्धान्तप्रसङ्ग इति वाच्यम् । "रुक्खाण जलाहारो संकोअणिआ भएण संकुचइ । नियतनुहि वेढइ, वल्लीरुस्खे परिग्गहेणं ॥१॥ इत्यिपरिरंभएणं कुरुष वरुणो फलंति मेहुने"। इति सिद्धान्ते प्रतिपादनात्, न चैताः संज्ञा भावश्रुतमन्तरेणोपपधन्त इति तदन्यथानुपपत्या तत्कारणीभूतं भावोन्द्रयपञ्चकावरणक्षयोपशमजभावोन्द्रयपञ्चज्ञानवद् भापश्रुतापरण Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थविदार्यदीपिका । विशतिसू० टी० : २५५ : क्षयोपशभेन प्रतिनियमात् । ओघश्रुतं जात्यन्तरमेव, तदतिरिक्तस्य च यथोक्तं लक्षणमव्याहतमिति रहस्यम् । हेतुफलमावा भेदो यथा गतिपूर्व श्रुतमुक्तम्, तत्रानुप्रेक्षादिकालेऽभ्यूह्याभ्यूब श्रुतपर्यायवर्धनेन भत्यैव श्रुतज्ञानं पूर्यते पुष्टिं नीयत इत्यर्थः । तथा मत्यवान्यतस्तत् प्राप्यते, मत्यैवान्यस्मै दीयते, तथा गृहीतं सचिन्तनद्वारेण मत्यैव पाल्यते स्थिरीक्रियते, अन्यथा गृहीतमपि नश्यदिति श्रुतपूरणादिकरणामतिः कारणं श्रुतं कार्यमित्यतस्तयोर्भेदः, अभेदे पटतत्स्वरूपयोरिव कार्यकारणभावानुपपत्तेः । न च मतिश्रुतयोः समकालत्वनिर्देशादेतदनुपपत्तिः क्षयोपशमसाबाद् द्रव्यश्रुताऽभावेऽपि भावश्रुतं तत्रावश्यं खीकर्तव्यमिति । नन्वेवं तकन्द्रियेवव्यक्तमतिज्ञानश्रुतज्ञानवदन्यतावधिज्ञानादिप्रसङ्गः, विनिगमनाविरहादित्याशङ्कय निषेधतिन चेति । निषेधे हेतुमाह क्षयोपशमेन प्रतिनियमादिति । अयम्भावः यज्ञानापरणीयकर्मणः क्षयोपशमः क्षयो वा तदेव ज्ञानमभ्युपगन्तव्यम्, स्तश्चैकेन्द्रियाणां मतिश्रुतज्ञानावरणीयकर्मक्षयोपशमो, तत्कार्यदर्शनादिति तदुभयं तत्रास्ति, न सति चावधिज्ञानमनापर्यवज्ञानावरणीयकर्मक्षयोपशमो केवलज्ञानावरणकर्मक्षयश्च तकार्याsदर्शनादिति नावध्यादिज्ञानत्रयप्रसङ्गः, कारणाभावात्कार्याभाव इति न्यायादिति । न च श्रुतानुसारि यज्शानं तच्छ्तज्ञानमिति श्रुतज्ञानलक्षणस्यकेन्द्रियोधश्रुते श्रुताननुसारित्वेन सङ्गमनाभावात्तत्र तस्याव्याप्तिरिति वाच्यम् , व्यक्तश्रुतज्ञानस्यैव लक्षणकरणात्, एकेन्द्रियोघश्रुतज्ञान वयक्तमिति जात्यन्तररूपत्वेनालक्ष्यत्वानोक्ताव्याप्तिरित्याशयेनाह-ओघश्रुतं जायन्तरमेवेति योक्तलक्षणस्य श्रुतानुसारिज्ञानवृत्तिज्ञानत्वव्यायजातिमनार्थकत्वेन तादृशश्रुतज्ञानवजातिमत्वस्यैकेन्द्रियाव्यक्त श्रुतज्ञानेऽपि सद्भावनोक्ताव्याप्तिदोपोद्धारोऽभ्यूह्य इति । " मइपुष्वगं सुतं" इत्यागमवचनमनुसृत्याह-मतिपूर्व श्रुतमु मिति । अनेन श्रुतस्य भतिहेतुकत्वं प्रतिपावते, पूर्वपदस्य हेतुत्वार्थकत्वात् , ' सन्यज्ञानपूर्षिका पुरुषार्थसिद्धिः' इत्यादौ तथादर्शनादिति । अनुप्रेक्षादिकालेऽभ्यूयाभ्यूोत्यादि-अनेनानुप्रेक्षादिकालीमोहापरपर्यायस्य मतिज्ञानस्य श्रुतज्ञाने हेतुत्वं ज्ञापितम् । मत्यैवेति ।ऽमत्या, न मतिज्ञानमन्तरणेत्यर्थः । प्राप्यत इति गृह्यत इत्यर्थः । एतेन परोपदेशश्रवणादिमतेरेव तदाहित. संस्कारद्वारा श्रुतज्ञान प्रति हेतुत्वं व्यञ्जितं भवति । एवञ्च श्रुतमात्र एव द्रव्यश्रुतग्रहणस्थ हेतुत्वं लभ्यते । दीयत इति व्याख्यायते इत्यर्थः । एतेन व्याख्यानुकूलश्रुतसङ्कल्प तदिष्टसाधनतामतेहेतुत्वं न्यज्यते । स्थिरीक्रियत इति-इत्थञ्चाविस्मृत्यनुकूलधारणाच्यापाररूपाया मतेस्तरकोलिकपरिस्फुतिरूपश्रुतहेतुत्वं व्यवस्थाप्यते । अन्यथेति-मत्यभाव इत्यर्थः । श्रुतज्ञाभस्यैते पूरणादयोऽर्था विशिष्टाम्यूहधारणादीनन्तरेण कत्तुं न शक्यन्ते, अभ्यूहादयश्च मतिज्ञानमैव, इति सर्वया श्रुतस्य मतिरेव कारणम्, श्रुतं तु कार्यमित्याह-श्रुतपूरणान्मतिरित्यादि। न चेत्यस्यानुपपत्तिरित्यनेनान्वयः। समकालत्वनिर्देशादिति-" जत्थ महनाणं तत्य सुअमाणं " इति नन्दीसूत्रवचनादिति भावः । उक्तसिद्धान्तवाक्यं हि.. Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २५६ : तत्वार्थविवरणगूढार्थदीपिका । विंशतिसू० टी० लपियोरेव तयोस्तन्निर्देशात्, उपयोगरूप तु श्रुते मतिरेवावहादिसपा कारणमित्यदोषः । श्रुत्वा या भतिस्पचते सा श्रुतपूर्वा सादित्यविशेष इति चेत्, न, तस्या द्रव्यश्रुतपूर्वकत्वेऽपि मावश्रुतपूर्वकरनामावात् । भा२श्रुतादनन्तरं तु मतिः कार्यतया नास्ति, क्रमेण भवन्ती तु ता न निवारयामः, अन्यथा मरणावधि श्रुतमात्रोपयोग सङ्गात् । कारणान्तरसिद्धचोपरमकालीनस्थितिकसुवर्णस्थानीयमत्या स्वविशेषरूपकणादिस्थानीयश्रुतोपयोगजननाच्छुतस्यैवकार्यत्वं मतिश्रुतयोलन्धिरूपयोर समकालत्या कार्यकारणभावाभावः, मतिपूर्व श्रुतमिति तु श्रुतोपयोगमाश्रित्यैवोक्तमिति स एव भतिज्ञानप्रभवः, उपयोगरूपयोमतिज्ञानश्रुतज्ञानयोस्तथास्वाभाव्यात्क्रमिकोत्पादानुभवादित्येवमन्युपगमेन नोक्तदोष इत्युत्तरयति-लब्धिरूपयोरित्यादि-श्रुत्वेत्याद्याशङ्कय तन्निपेवे हेतुमाह-तस्याद्रयश्रुतपूर्वकत्वेऽपि भाव श्रुतापूर्वक्रत्याभावादितिपरमाच्छन्दं श्रुत्वा जायमानाया मतेश्श्रावणप्रत्यक्षात्मकमतिज्ञानानुकूलक्षयोपशमोद्रोधकस्य सदस्य मतिहेतुत्वात्तद्रूपद्रव्यश्रुतहेतुकत्वेऽपि भावश्रुतहेतुत्वामान न मतो भावश्रुतपूर्वकत्वमित्यर्थः । ननु भाव श्रुतादूध नतिः किं सर्वथा न भवतीत्याशङ्कानिवृत्यर्थमाह-भावश्रुतादनन्तरन्त्यिति । क्रमेण भवन्ती तुतां न निवारयाम इति-एकस्मिन्नर्थे श्रुतोपयोगो ह्यान्तर्मुहतिक इति तन्नाशान्तरं निजकारणालापा-मत्युपयोग उत्पद्यते, तस्याप्य कस्मिन्नर्थे आन्तर्मुक्तिमत्वातदुपरमे श्रुतोपयोगः, पुनरपि तद्विनाशे मत्युपयोग इत्येवं क्रमेणोत्ययमानां तु मति न निवारयामः, श्रुतोपयोगाच्च्युतस्य मत्सुपयोग एवावस्थानादिति भावः । तथाऽनभ्युपगमेऽतिप्रसङ्गमाह-अन्यथेति । कारणान्तरसिद्धं यत्पूर्वोत्तरविशेषानुगतं सत्वकापिरमेऽप्यवतिष्ठते तत्कारणमेव, न स्वविशेषरूपस्य कार्यरूपं, तद जन्यत्मात् , यया सुवर्णद्रव्यं तथा मतिरित्याशयेनाह-कारणान्तरसिद्धत्यादि-कारणान्तर सिद्धं सत् स्वस्य स्वविशेषरूपस्य कणादेयं उपरमो विनाशः, तत्कालीनस्थिति कञ्च यत्सुवर्ण तब सामान्यरूपत्वेन तत्स्थानापनमयेत्यर्थः । इदमुक्तं भवनि कणाशुलीयकादिषु पूर्वोत्तरपर्यायेष्वनुगतत्वात् स्थायिभूतेन सुवर्गेन कङ्कणादयो जन्यन्ते अतस्ते तत्कार्यभूताः, सुवर्ण तु कङ्कणादिपर्यायाजन्यत्यान्न तत्कार्यव्यपदेशं लभते, तस्य कारणान्तरेभ्यस्सिद्धत्वात् , कङ्कणादिरूपत्वपीयोपरमे तु सुवर्णभेवावतिष्ठत इति तद वस्थानं क्रमेण न निवार्यते, एवं मत्यापि सामान्यभूतया स्त्रविशेषरूपश्रुवोपयोगो जन्यते अतस्तकार्य स उच्यते, मतित्वतजन्यत्वात् तत्कार्यतया न व्यपदिश्यते, तस्या हेत्वन्तरासदासिद्धत्मात्, स्वविशेषभृतश्रुतोपयोगोपरमे तु क्रमायातं भत्यवस्थानं न निवार्यते, अन्यथाऽऽमरणान्तं केवलश्रुतोपयोगप्रसङ्गादिति । ननु सुवर्णद्रव्यं यथा कालत्रयानुगतं न तथा मत्युपयोगः, कारणं हि कार्यरूपेण परिणममानं तदानीमपि वर्तते इति स्वकार्यभूतणादिकाले सुवर्णवन्न स्वकार्यभूतश्रुतोपयोगकाले मत्युपयोगी विद्यत, सिद्धान्त હાવિનોપયોકાવુપમાદ્રિતિ સુવર્ણદ્રવ્યદાન્તન ચુપચારત્વ मत्युपयोगस्योक्त सङ्गच्छते इत्येतदशियानित्तये श्रुतोपयोगकारणत्वं द्रव्यार्थिकनयेन लब्धि Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તરંવાવિવાદ્વાર્થીપિ વિંરાતિસૂ૦ ટન : ર૭: જ મરતિ માવા તવ શરણë મતધિત્કપાયા વ્યાર્ધનો હંમવનિ, તન્ન કૃત૮ર્મત્યુમેડી અવવનયોરતુલ્યરુત્વનિયમાન, મળે પદ્માવસ્યવૈચાડચૈત્ર ન્યથાસિદ્ધિષિ તુલ્યા, મત્યુ વિશિષ્ટદ્રવ્યસ્ય પર્યાયાર્થિન મત્યુપોચૈવ વા દેતુત્વો = શ્રતનનિતમવન્વયવ્યતિરાખ્યાં કૃતોપયોગવિરિદ્રવ્યસ્ય શ્રત પયોધૈવ વા હેતુત્વ જુવમિતિ મતિપૂર્વ કૃતં ન મતિ શુતપૂર્વિતિ યદ્યપિ વિગેપો જ વમત્કારી તથાપિ મતે ઝુતેડવછે વિશ્કેવેન હેતુત્વ, પજ્ઞાનસંજ્ઞાનાટ્ઝરણાત્વવ્યાખનાર્ય હેતુત્વાન્ , મૃત મનૅ તુ સામાનાધિરબેન હેતુત્યમિત્ય વિશે દ્રષ્ટ, મેટુમેવાક્ મે મતિજ્ઞાનમછરાતિવિધં થતજ્ઞાનં વતુર્ત વિધમત્યાધિના સ્પષ્ટ વા રૂન્દ્રિયમાટુ મે યથા અતં શ્રોત્રોન્દ્રિયો પરેવ, रूपाया मतेश्चेदुच्येत तदा तन्नयमपेक्ष्य श्रुतल थेरपि मत्युपयोगकारणत्वं सुवचं स्थात्, . મતિયુતટોલમાછવાનવમાત્યા તવ વારત્વ અતિથિી ત્યાદ્રિ ! તતિ શારાત્વામિત્વા કાર્ય સ્વામી વિ રણમિતિ તેન તત્સમનાહીનો તતિરકામ માવો ન્યાસિદ્ધ કૃતિ રુમ્બતિ રથયાં પ્રતિયોનિમજ્ઞાનરૂપાળલાવાद्रूपारामावस्य शीघ्रोपस्थितिकवादुपस्थिति कृतलाय रूपम्प्रति रूपप्रागभावस्य कारणत्वे, एवं વાવિવશ્વાતિ બાપામવા રખત્વેગ, ચપાનાનાં પાનાં વાળ સમનિયત ન્યાયન, તેનું પાલનહાવિધ્ધતિ કામાવાળ્યમિવાર વેવ ન રળત્યાતિ પાકારસ્થ માર્યો તારોની મુબાજમાન તત્સમીનાહીના રૂપબામાવસ્ય વાર્થે જ તારીમૂન બબાલમાન તેત્સામાનવીનત્યારે અન્ધશ્રામાવસ્ય વાચથસિદ્ધિવન્મત્યુ ને બુહબ્ધન્યથાસિદ્ધિએર્નાર્દબુપિયો મતિરબ્ધન્યથાસિદ્ધિપિ તુલ્યવેત્યાહુ બળે ૫કમાવવૈયા ગ્રાન્યાદ્ધિપિ તુતિ ગ્રન્યોર સ્વાશયનેન સમા ધરે તથાપિ મને સુકવવશોવ એવેનેતિ-બુતમા2 મતિજ્ઞાન પજ્ઞાનસતજ્ઞાનાદિક્ષી ધારણાવવ્યાવસાતિહળ હેતુત્વે યા તથા મતિમાત્રે મૃતક્ષ્ય, નિતુ મતિવિશેષ વ શ્રુત હેતુત્ર, તથા ૨ થતોપો વાવચ્છિનવાર્યતાનિરૂપિતારગતારબ્ધવધર્મવયં મતો, અને તુ મતિજ્ઞાનત્વવાળધમાવચ્છિનાર્યતાનિ તિવારબતાવચ્છવર્ષમજ્વામિતિ વિશપતિ માવા વવવવેનેતિ-શ્રુતજ્ઞાનવાવર્ષેદ્રનેત્યર્થ નામાનાધાપનેતિ નતિજ્ઞાનવામાનવિષ્યનેત્યર્થ. “મેય વિસરામવાસવિદ્દામા” તિ મહામાબૂમાથામનુવૃત્માહ મેવાવામિત્વત્યાદિ. “દ્ધિવિમા , મને સુમો નાગમિહિ” તિ માધ્યમથોરાદ્ધમyત્યાહુ રૂન્દ્રિયદા મે તો તહેવ વિવૃળોતિયથા શ્રુતં ોત્રેન્દ્રિયપાલ્પતિàવજાત્યાયવ્યવચ્છેદ પરત્વેન જીત કોન્દ્રિયોપબ્લેિરે, રાત્રોન્દ્રિપબ્ધિ ધૃતવ, ચતરસી ચુત મતિર્વા મવતિ, તેન ચુતત્વવાછિને કોન્દ્રિયપાશ્વત્યાગો વ્યવછિદ્યતે, ન તુ ગ્રુતજ્ઞાનાન્યમાતિજ્ઞાને થોન્દ્રિવોપથિયોને વ્યવછિદ્યતે,કોન્દ્રિયપષે વહેહાદ્રિષાવાં માતત્વેન તાન. . Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧ ૨૬૮ : તધાર્થવિવાદાધેસીવિડ ! વિંશતિ ટી. શેબ્રિપિ ગ્રુતાનુલારિખોડક્ષરામચ શ્રોત્રેન્દ્રિયળયાવન પરમાર્થત શ્રોત્રેન્કિોપરુધિત્વાત, ટોન્દ્રિયદામાપવતર્થગ્રહણચ જ શ્રુતજ્ઞાનરૂપત્થાત ! મતિજ્ઞાન તુ તદ્ધિયર્થ સેન્દ્રિયવિર્ય ૨ સિદ્ધ મવતીતિ વસુવાળે મેવો થા, વહ#ીમાં મતિ, મુન્નસદર્શ માવકૃત | થા હિ વ સુવાવર્ગ તથા મતિરષિ માવકૃત માં થથા ૩ સુવં વાનાં શર્ટ તથા માવઠુતમપિ મતે, તો મત્ય વિન્તચિત્વા શ્રુતરિપટિનનુસરતિ વવતિ વાંદુર્વદરી મતિ, શૈવ વનનિતગોહિતી માવઠ્ઠતમુખ્યતે, તાવ હુવાદ વનનિવરિજાતુમિતિ ! તાત્ માવઠ્ઠતામાવલા , કાર્યાધામનત્યેન તરિશેપણતમે સ્થાનિવિદ્યાન્, અન્યથા શ્રુતજ્ઞાનવજોહાજ્ઞાનમ" વાગ્યે સ્થાવાની પ્રિયસ્થ ! વપિ વિલાસ્ટમવકૃતં વર્જસદર્શ, શસ્ત્ર કૃતં તુ મર્યવાવ સુન્દ્રપ્રતિમમિતિ શાંવિનંત, તંખ્યામત, મતિયોવામિધાનાવસરે જ્યજ્ઞાનેગર શ્રોત્રોન્દ્રિયોવાળ્યત્વ લિફ્રાવાવ, અન્યથા બોન્દ્રિયગોપાઉં મતિજ્ઞાનમેવ ન દયા, તથા ૨ દ્રિયાવગ્રાઘમાન મતિજ્ઞાનયાવંશતિ મેવા નવ યુરિતિ માવ ! વરું શોત્રન્દ્રિયોપ િધૃતમ્, િ ય રેવેન્યુ તુવું વલ્રાહીન્દ્રિયg શ્રુતાનુલારિસામિવિજ્ઞાનપોક્ષરછામસ્તો ચુતમિત્યા–ન્દ્રિવ પતિ સુતાનુનારિબSક્ષરામતિ- સતવિયાળ્યાનુસારી સર્વજ્ઞવરનાક્ષી વા વિશિષ્ટથુતાલીમ સંસ્યરાઈ વજુવારને મેદ તિ–નનું પૂર્ય હેતુશરમાન મતિધૃતયોકોમિહિતા, વત્રા વાહપાળસુખ્યામાર્યદ્રકાન્તન સ વ મેવોfમથી તે ઊંત વષ્ય વિશેષ હૃતિ ત , ૩ખ્યતિ, તુમાન પૂર્વ ચેરમેન છે, સત્ર મેરિટમેદ્રસાધનમિત્યનશિપ ! તથાહિ–બ્રુત મમન રતિ ક્રિમ, વદ્રવ્યત્વે સતિ તતવત્ . થર્ દ્રવ્યત્વે રાતિ તવ તત્તવામિત્રત્વે સતિ તો મિર્જ થથી વજદ્રવ્ય સુવું વાહેતુતિ તવમિન સતિ ત મિન્ન, તથા વાયં તસ્માતિ ! પ્રાપ્તિ માત્રચૈત્ર વિજ્ઞાંતિન તન્માત્રવૈવામિધાનું યુદ્ધ, નામેતિ વાળ્યું, ને હેન્દ્રાન્તિમનો કાર્યભારામાવત, ધિત્વમેવજિતવિશિલ્ય દાહોરમાવહારિવાતિ તદુપન્યાસીડખત્રાયુ વેતિ | મુન પરિપાટિમનુસરતાનિ શ્રુતગ્રન્થતત્તજૂત્રવાન્યાર્થપ્રતિપત્તિ રોતીત્વર્થ ! “ ને મન્નતિ મ, વલમાં સુંવારસાં ૫૪ છે” રૂરિ માધ્યમનુશ્રુત્ય પરમત વધતુમા-અન્ય વાદુરિત્યાદ્રિ સૈવ વનનિતરાપદ્ધિતા માવત્રુતમુકત રૂાતિમાતિસેવ તન્નનિયા શબ્દ નિછતિ તવા તડુ શત્રુ સહિતા મુતમુતે, તથા ૨ ધૃતપર્વ વર્મવ્યુત્વથા શામિત્વ માવશ્રુતભાવપ્રસાહિતિ મત્યુત્તર વાવ છે તેને શમાત્રત્યેવોત્પન તસ્ય દૃશ્રુતત્વેન માવડ્યુતામાવબત્યિર્થ માતાનિત શબ્દાવરીન્ટેન મવિશ્રતત્વાર્ટુપ દૂથળાન્તનમાહ શાખામાનનેવાલા શન્કો હિ મતિજ્ઞાની મિતિ તદ્વિરિન મેહે તદ્દત વગામાનન્ટેન તાત્યવિદિન બાળમેવા જ્યાખ્યત્વે સાહિતિ માવા વેટાજ્ઞાનમપતિ-શશ્વ વ વાગી મતિજ્ઞાનગતિ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तवायविवरणदार्थदीपिका । विशतिसू० टी० १२५९: भावश्रुतयोरप्रस्तुतत्वेनाप्रस्तुताभिधानप्रसङ्गात् , एतेन श्रुतानुसारिस्वरहितशतमात्रपरिणामाविता मतिर्वएकसोशी, तज्जनित शब्दरूपं तु द्रव्यश्रुतं सुम्बसहशम्, रहितेत्यन्तेन भावश्रुत०यवच्छेद इति व्याख्यान. मप्यपहस्तितम् , श्रुतज्ञानेन सहैवास्य मतभेदस्य प्रक्रान्तत्वेन द्रव्यश्रुतस्याचिन्तनीयत्वात्, भतेर्धनित्वापरिणामेन हटान्तवैषम्यात्, न चैकं वचनमेतावन्तं विपाकमापन्नमितिवदत्र तत्परिणामे उपचार आश्रयणीयः, सति गत्यन्तरे तदाश्रयणानौचित्यादिति दिग् । अक्षरानक्षराम्यां भेदो यथा-इहाक्षरं द्विविध, द्रव्याक्षरं भावाक्षरं च । द्रव्याक्षरं पुस्तकादिन्यस्ताकारादिरूपम् , ताल्वादिकारणजन्यः शब्दो वा । एतच्च व्यज्यतेऽर्थोऽनेनेति व्यञ्जनाक्षरमप्युच्यते भावाक्षरमन्तःस्फुरदकारादिज्ञानरूपं, अकाराधाकारतेति यावत् , तत्र भतिज्ञानं भावाक्षरमाश्रित्य साक्षरमनक्षरं च भवेत् । इहादीनामभिलापजनकत्वेन साक्षरत्वात् , अवग्रहस्य च तद्वैपरीत्येन निरक्षरत्वात् , यजनाक्षरं पाश्रित्य तदनक्षरं, न हि मतिज्ञाने पुस्तकादिन्य'स्तमकारादिकं २०६ो का व्यञ्जनाक्षरं विद्यते, तस्य द्रव्यश्रुतत्वेन त्वाद् द्रव्यमतित्वेनाऽप्रसिद्धत्वात् । तज्ज्ञानमपीत्यर्थः। एतेनेत्यस्थापहस्तितमित्यनेना-यः । श्रुतानुसारिश०६परिणामान्त्रिता मतिविश्रुतमेवेति तनिषेधः श्रुतानुसारित्वरहितेति विशेषणेन कृत इत्याह-रहितत्यन्तेन भावश्रुतव्यवच्छेद इति । मतिज्ञानश्रुतज्ञानयोर्भेदस्य प्रक्रान्तत्वेन तमुपेक्ष्याप्रस्तुतस्य मतिज्ञानद्रव्यश्रुतयोभदस्य चिन्तया किमित्युत्तरयति-श्रुतज्ञानेन सहवास्येति । मतेलनित्वाऽपरिणामेन दृष्टान्तवैषम्यादिति-चल्काः सुम्वरूपेण परिणमन्ते, शुम्बपरिणामापन्नाना पकानामेव शुरूपत्वेनाभेदरूपत्वात् , न तु तद्वत् मतिशब्दरूपेण परिणमते, मतेनिरूपत्वेनात्मधर्मत्वम् , शब्दस्य च मूर्तत्वेन पुद्गलधर्मत्वमित्येवं तयोश्चेतनाचेतनधर्म त्वेन सादृश्येन परिणामपरिणामिभावाभावादिति दृष्टान्तदान्तिकोषम्यादुक्तदृष्टा-वान्मतिज्ञानद्रव्यश्रुतयोर्न भेदो युक्त इति भावः । भतिज्ञानादर्थान्तरभूतोऽपि २०६ः तत्प्रभवत्वात्त. न्मयः, यद्यस्मात् प्रभवति तत्तन्मयमिति व्याप्तेः, तथा च मतिज्ञानपरिणामरूपे शब्दे मतिः ज्ञानानात्मकेऽपि मतिगता ज्ञानमयतोपर्यते इति वल्कसुम्बदृष्टा साम्यात् भतिज्ञानद्रव्य श्रुतभेदः सेत्स्यतीति सदृष्टान्तमाशय निषेधति-न चैकं वचनामत्यादि । निषेधे हेतुमाहसति गत्यन्तरे तदाश्रयणानौचित्यादिति । मुख्यार्थवाधे सत्युपचारः फलवान्, स चात्र नास्ति, पूर्वोक्तीत्या मुख्यार्थस्य सद्भावादिति तदाश्रयणं न न्याय्यमिति भावः । तस्य द्रव्यश्रुतत्वेन रूढत्वाद् द्रव्यमतित्वेनाप्रसिद्धत्वादिति-अत्र तस्येत्यस्य द्रव्यश्रुतस्येत्यर्थः । नन्वत्र भावाक्षरेणावग्रहरूपं मतिज्ञानमनक्षरम् , ईहादिरूपं तत् साक्षरमित्येवं भावाक्षरेण भतिज्ञानं साक्षरानक्षरोभयरूपं प्रतिपादितम् , भावश्रुतज्ञानमपि द्रव्याक्षरेण भतिज्ञानवदनक्षर भावाक्षरेण साक्षर मित्येवं साक्षरानक्षरोभयरूपं प्रतिपादितं भवता, तथा च प्रत्येकं द्वयोरप्यक्षराऽनक्षररूपत्वेनोक्तत्वात् कस्तयोस्ताभ्यां विशेष इति चेत् , उच्यते, केरलं सामान्येन 'श्रुतं' इत्युक्तं तन्मध्ये द्रव्यश्रुतमपि लभ्यते इति कृत्वा तत्र द्रव्यश्रुतमाश्रित्य द्रव्याक्षर मस्ति, मतौ तु तन्नास्ति तस्या द्रव्यमतित्वेनाइलढत्त्वा । ३६मुक्तं भवति-पुस्तकादिन्यताकारा Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपार्थविवरणदार्थदीविको । विशतिसू० टी० व्यवहारातुरोधेन (अनि४यत्वनिरूपकतासम्बन्धेनारोपितस्वपरिणामितासम्बन्धेन वा व्यञ्जनाक्षप त्वं श्रुत एवं करप्यते न मताविति रहस्यम् । श्रुतं तु यतो भावतोऽयक्षरवदनक्षत-, पुस्तकादिन्यस्ताकारादरक्षरस्योच्छ्वसितादेनक्षरस्य बोभयस्यापि न्यश्रुतत्वेना नानात् प्रत्येकं तदाकारस्थ भावश्रुतस्यापि च श्रुतसिद्धत्वात् , न चोच्छ्वसितादिविषयिणी मतिरेव न श्रुतमिति वाच्यम् । व्यञ्जनादिवृत्या तज्जन्यनिषेधादियोवस्य श्रुतत्वात् , न च चेप्टादितुल्यत्वं, पर्युदासवृत्त्यानक्षपदेनोच्छ्वसितादेव क्षररूपं पुस्मतामादिव्यापारजन्यं च यद् द्रव्यश्रुतं तद् द्रव्यमतिशब्देन वाध्यमित्येवं करिगश्चिदपि सिद्धान्ते सङ्केताभावान्न तन्मतिरूपमिति द्रव्यश्रुतस्य द्रव्यमतित्वेनासदत्वाद् द्रव्याक्षरेणानक्षरव मतिः, श्रुतं तु द्रव्यश्रुततया सकेतितं शास्त्र इति द्रव्याक्षरेण साक्षरं तदित्येवमनयोव्याक्षरापेक्षया साक्षरानक्षरत्यकृतो भेदो ज्ञेयः । उक्तञ्च "उभयं भावसरओ, अपक्सर होज पंजगावरओ । मइनाणं सुसं पुण, उभयपि अणखरखरओ ॥ १७० ॥" • इति । तया च मतिज्ञानं श्रुतज्ञानाद्भिन्न द्रव्यश्रुत्व्यवहाराविषयत्वात् , अवधिज्ञानाद, अन्यथा द्रव्यश्रुतमितिवद् द्र०यमतिरित्यपि व्यवहारसया, अर्थाऽभेदादिति माना । આરોપિતસ્વપરિણામતાસજેનેતિ સત્ર નવું નાક્ષર, તત્ર પુત્રદ્રવ્યાત્મ पुद्गलद्रव्यञ्च पुद्गलात्मक कार्यरूपेण परिणमत इति तत्परिणामरूपं मुख्यवृत्या न भाव श्रुतज्ञानं, तस्यात्मगुणत्वेन तत्परिणामरूपत्वाऽयोगात् , किपचारत इत्यत आरोपितति विशेषणम् । श्रुतं द्रव्यमावभेदेन द्विविधम् , तदुभयमपि साक्षरनिक्षरभेदेन द्विविधम् , तत्र દ્રવ્યદ્ભુતં પુસ્તઢિન્યસ્તાશારઘિલ સાક્ષર, ઉલ્લાસિતાવિ વનક્ષણમ્, માવઠુતમપિ श्रुतानुसार्यन्त परिस्फुरद कारादिवर्णविज्ञानात्मकत्वात् साक्षरम्, पुस्तकादिन्यताकाराधक्षरानवमासाद नक्षमित्येवं लक्षणं श्रुतं प्रतिपादयितुमाह-श्रुतं तु द्रव्यतो भावत इत्यादि। उच्छ्वसितादेर नक्षत्स्येति-अत्रादिपदेन " अससि नीससि, निन्दं खासिकं च छीअं च । निस्सिधिअमणु सारं, अगक्खरं छेलिआईअं ॥१॥” इति नन्दीस्त्रवचनानिश्वसितादिकम् ग्राह्यम्। नन्वेवमुञ्चसितादिवत्करमुखनयनभृकुट्यादिष्टायभिसन्धिपूर्विका क्रियमाणा तत्कर्तुविश्रुतस्य फलं द्रष्टुश्च भावश्रुतस्य कारणमिति तत् तस्या अपि द्रव्यश्रुतस्वसङ्ग इति चेत्, मैवम् , अनक्षरमित्यत्र पर्युदासवृत्याऽक्षरमिन्नमक्षरसदृशं यत्तदनक्षरमुच्यते, सादृश्यञ्च श्रूयमाणत्वेन ज्ञेयम् , तथा च श्रुतमित्यत्रावाश्रयणाधच्छ्यते तच्छुतमित्युच्यते, न चोयसितादिवत्कादिचेष्टाऽपि श्रूयते, ततद्वत्तस्या अपि न द्रव्यश्रुतत्यप्रसङ्ग इत्याशयेनाद न च चेष्टादितुल्यत्वमिति । यहाऽयं पुरुष एवमभिप्रायवान् एवम्भूतसन्यथानुपपरित्येवं चेटालिङ्गेन यथानुमितियोच्छ्वासतादिलिङ्गेनाप्यनुमितिः, साच भनिज्ञानर पवेति चेदादिवाच्छ्वासितादिक भतिज्ञानव कारण न तु द्रविश्रुतस्य कारणम् , येन द्र०५ श्रुतत्वं तस्य स्यात् , अन्ययोच्छ्वासादेरिव घटाया अपि द्रव्य श्रुतत्वप्रसङ्गस्पादित्याशय निषेधति न च चेष्टादितुल्यत्वमिति-निषेध हेतुमाह-पर्युदास Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તત્ત્વાર્થવિવમૂઢાર્થનીપિા 1 વિતરૢ ટી : ર૬૧ : પ્રાત્, દ્રષ્યશ્રુતત્ત્વદ્રવ્યમાંતવામ્યાં ચઢી વાત્ર મેળે ફાંપે વાંન્ત । મતિજ્ઞાનમનક્ષર શ્રુતજ્ઞાનું વાક્ષરવનનાવાત નિત્ વ્યાપક્ષતે, તે ગ્રાન્તા, મતિજ્ઞાનમાત્રસ્થાનક્ષત્રે દાવો વિશ્પામાવપ્રસન્નાત્ । વિવ: ગŽપ્રયોગઃ સન્નારજ્ઞાનનિમિત્ત, ન તુ સાક્ષરજ્ઞાનનમત્તાંત શ્વેત્, મૈં ! પદ્મરામપ્રદે ચોખા ત્તવેન પદ્મરામત્વનાતેવિ બન્ધ્રૌવ્યે તંત્ર પદ્માવયોમાચ રાજ્યતાસંવન્દેન પદ્મરા પવૅત્તાજ્ઞાનામાવાવેવોષપત્તૌ સર્વત્ર સૈન્જીન્દ્વવત્તાજ્ઞાનચૈવ તન્દ્વન્દ્વપ્રો હેતુસ્રોનિત્યાત્ । શ્રુíનેશ્રિતવનનાવીહાવી વિજ્યવ્યાપારઃ શ્રુતત્ત્વવ 7 મરિતિ વ્રત, તૢિ બવદાભ્રં ત્ત્પત્તિ--તથૈર્થી પૂર્વતિ | મતિજ્ઞાનમનક્ષરમંત્ર શબ્દાપ્રતિમાસાત્, શ્રુતજ્ઞાનં તુ શ્રુતરુવં સાક્ષ રમુ સાહિબ્હાનલમિત્યુમયા-મિત્યેવ મતિશ્રુતયોમવાંમમન્યમાનાનાં રેષાૠિા ચોળાં મતમાહ મતિજ્ઞાનનનક્ષમતિ | વિત્ત્પમાનપ્રસઙ્ગાાિંત દાવા શબ્દ નિર્માતાભાવે પ્રદવવીહાવીનામનયતિને ધર્મપરામાંવાવોવ ન સાવિતિ પ્રાયઃ ધાણુના માાંમતિ વિન્સ્પાયા$હાનતે હ્યાજીવાય મતિ વિવાાંયાવેલોછે વાસત્િ, ચતો ન હન્તરવhારાવનિર્માસ વિના વિત્ત્પત્યું નામેત્યર્થઃ । નનુ શન્ને ચોવવિયં પ્રાંત પ્રાનજ્ઞાનત્રેનેવ હેતુટ્યું, ન તુ સાક્ષરજ્ઞાનસ્પ્લેને વિજ્ઞાનય સાક્ષરજ્ઞા નવામાવેગંધ સબારવે જ્ઞાનપત્રાત્તપે તો ક્ષવિજ્રર્લીંગનö માધ્યાિકૂથ નિષેધાત–વિન્પઃ રાન્કુપ્રયોધરૂપ નૃત્યાવિના નિષેધ હેતુમાંદ- પદ્મરામ તિ પઢાવેતાપામ વ્યવહારત્નેન તારે કારવિધયા બા બ્રહસ્ય માટે સાંત તવત્બાવાઇજ્ઞાનગનિતસ્ય ધટોમિતિ વ્યવહારહ્મસ્યવાદી ધાવિષયો યાવ્યવયમાત્ત પત્ર સુબ્રા જ્ઞાનસ્થ નિમિત્તોરરાજાસમવેગો પદ્મામાંને સજ્જનનવ્યવહારવીચોમવત ત ત્રિપુષિવેવ માચવતઃ પુંસારમાપચયનારોગ્ન વંશજળસમ્પો વિશેષઃ પદ્માપ ાંત સસ્ફૂતગ્રહવત વ પદ્માયે પદ્મપત્રોમ ધ ાંત તત્ર શયતાસમ્બન્ધન દ્મરામવત્તૉનસ્ય રાયતાસમ્બન્ધન પદ્માપોથારાપશનિત્ય ધારિય પદ્માસન્દ્વ હિન્રાય ારાર્થે વ્યવસ્થિત યયિ તઅન્દ્રયો વિશ્વને શયતાસમ્બન્ધન તઋ′વત્તાજ્ઞાનય હેતુત્વમિતિ દ્રો વિ૫ત્ત્વ સાક્ષરજ્ઞાનનિમિત્તòત્ત્વયસ્થિતિવિયેઃ । પારા-પપ્રયોગમવસ્થતિ-પદ્મવો વળાયામાવયે સર્ચ | પદ્માવત્તાનાનામાવાવુંતિ-ધđાસ-વેન પદ્મરામપાત્ત્વનપર્ય બારપાયામાવાવેવેત્યઃ સજીવત્તાજ્ઞાનસ્થતિ-ત્ર શપતાસ ધન્વંતે શેષ | નન્નામે શુદ્ઘનશ્રિતધન વપ્રતિ વતુયતિજ્ઞાનપો ચીહા વિષ્પવ્યાપારોઽક્ષરાત્મા′તાવેવ, મૈં મતે સાશાત્, તાĂયમુનામહ્માત્, તથા 7 નિશ્ર્વિતમીહાવિશ્રુતમેÀત્યાશયના તે શ્રુતનિશ્રિતવષનાદીાવવાંત। સમારે તદર્શાવના—વમમ્બુવામે દાિયાયો મતિમવાસવેંબારામા‰તજ્ઞાનાત્મા" યુરિત્ર્યતોઽક્ષરામિઽા હિતત્ત્વાવાસ્ય તસ્માત્ર મતિજ્ઞાનું સ્વાત્, મૈં પુનરીહાપાયાવિ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .:. २६२ : • तत्वार्थविवरणदार्थदीपिका । विशतिम्र० टी० .मतिः स्यान्नेहादिरूपम् । भवतु तर्हि तदा मतिश्रुतोभयव्यापार इति चेत्, न, युगपदुपयोगईयનિષેધાત્ ! વિવિન્દ્રિયમનોરવ મતિકૃતજોર્યાપારાદુમામેકં શા મવતુ, વ્યવહારતતુ तस्य पुष्कलसामग्रीकत्वान्मतावेवेति चेत् , न, अवग्रहाभावप्रसङ्गात् , तदुत्पत्तिकालेऽपि लब्धियव्यापारस्य प्रत्याख्यातुमशक्यत्वात् , मनोद्रव्याणां त्वयग्रहानन्तरमेव ग्रहणोपगमेनानुपपत्त्यभावादिति दिगू। मूोतर. भावाद् भेदो यथा-परप्रत्यायनहेतुद्रव्याक्षराभावेन मूकं मतिज्ञानं, प्रत्याक्षरसमावेन स्वपरप्रत्यायकावा• गुप्खरं तु श्रुतज्ञानमिति । ननु मतिहे तयोऽपि करादिचेष्टाविशेषाः परं प्रत्याययन्त्येवेति भतिज्ञानमपि कि न मुखरं स्यात्, दृश्यते हि करवक्त्रसंयोगे कृते भुजिक्रियाविषयाया मतेरुत्पत्तिरिति । मैवं, तेभ्य शेपभेदात्मकं तत्स्यादित्यर्थः । अथोक्तदोषभयादर स्थाणुपुरुषविवेककाले मतिश्रुतापयोगव्यापारद्वयम् , तथा च स्थाणुपुरुपविवेकज्ञानं मतिज्ञानं श्रुतज्ञानश्चोभयरूपं स्वीक्रियते, केवला 'तु मतिर नक्षरैव भविष्यतीत्याशयेनाशङ्कते-भवतु तहीति । " जुगवं नस्थि दो उपओगा" इति सिद्धान्तवचनमवला०य तनिषेधे हेतुमाह युगपदुपयोगदयनिषेधादिति । पुनरप्याशङ्कते ईहादावित्यादिना, व्यवहारतस्तु तस्य पुष्कलसामग्रीकत्वा मतावेवेति यदीहादिकमुभयात्मक किमिति मतावेहादेशास्त्रे परिगणनम्, न श्रुत इति न शङ्कयम्, मतेरेव सामग्री ईहादौ पुकलेति ततश्रुतात्मकत्वेऽपि व्यवहारतो मतावेपार्भाव इत्यर्थः, व्यवहारस्त्पिति पाठोत्र युज्यते, तथा च तत्र मतावत्यनन्तरमन्त र्भाव इति पूरणस्य नापेक्षेति योध्यम् । समाधत्ते नेति । निषेधे हेतुमाह-अवग्रहाभावप्रसङ्गादिति-अवग्रहे मतिश्रुतलब्धियव्यापारस्याऽप्रत्याख्येयत्वेन विकल्पव्यापारापत्याऽनिर्देश्यसामान्यमानावगाहित्वेन निर्विकल्पात्मकतया सिद्धान्तेऽभ्युपगतस्य तस्याभावप्रसङ्गादित्यर्थः । नन्वयग्रहोत्पत्तिकाले मतिलब्धिव्यापार एवाभ्युपगम्यते न श्रुतलब्धिव्यापारोऽपीति नोक्तदोष इत्यत आह-तदुत्पत्तिकाले पीति । न चैवं तर्हि भवन्मतेऽपीन्द्रियमनसोपारस्थावग्रहकाले प्रत्याख्यानाशक्यत्वात्तदानी मनोव्यापाराद्विकल्परूपत्वप्रसक्त्याचग्रहत्वानुपपत्तिस्तदवस्यैवेति वाच्यम् , ईहादावेव मनोव्यापारस्थाभ्युपगमेनावग्रहकाले तदभावनोत्तदोपामावादित्याह-मनोद्रव्याणामिति । अय भावः ज्ञानत्वावच्छिन्नोत्पादानुकूलशक्तिमत्तया मनोव्यापारस्य सर्वत्र विद्यमानत्वेऽप्यस्मान्मनोव्यापाराद्विकल्पोत्पादानुकूलशक्तिमतोमनोव्यापारस्य विलक्षणत्वेनाऽवग्रहकाले तदभावादेव विकल्परूपापत्यभावान्नास्मन्मतेऽवग्रहत्वानुपपत्तिरिति । स्वप्रत्यायकत्वस्वपरप्रत्यायकत्वरूपविरुद्धधर्माभ्यां मतिश्रुतयोदमाहभूकतरभावाद् भेदो यथेति। ननु यथा भाव श्रुतज्ञानं न साक्षाद्विज्ञानात्मकस्वस्वरूपेण परपुरुपगतबोधजनक, विज्ञानस्यात्मधर्मत्वेन स्वयं मूकत्वेन परपुरुषीयबोधजननाकूलशक्त्यभावात् , किन्तु द्रव्याक्षरूपतत्कारणहारैव, तथा मतिज्ञानमपि करशीपादिचेष्टारूपकारणद्वारा परबोधकभेवेति श्रुतज्ञानमिव स्वकारणहारा मतिज्ञानमपि मुखरं स्यादेवत्याशकते-मनु मतिहेतवोऽपीति । समाधत्ते मैवमिति । तत्र हेतुमाह तेभ्य आहत्येत्यादिना। तभ्यः मतिहेतुभ्यः । चविषयायग्रहायुत्पत्यनमयं पुरुषो भोक्तुमिच्छतीत्याकार यशान Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " વવાવિવગૂિઢાર્થીવિત વિરાતિકૂળ ટી आहत्य स्वविषयावहादीनामेवोत्पादात्, अनन्तरं भुजिक्रियादिविषयं यदज्ञानमुत्पद्यते तद् यदि व्याप्त्यादिज्ञानद्वारा तदा चेष्टादीनां लित्वमेवागत, लिङ्गं च न स्वपरप्रत्यायक, स्थाधिकरणगतप्रतीतिजनकत्वे सति स्वाधिकरणभिन्नगतप्रतीतिजनकत्वस्यैव तदर्थत्वात् , अत एव परार्थानुमानादिकं २०३८५भेवोक्त, न तु लिान्तरम् , वस्तुत. करादिचेष्टाभिराभिप्रायिकशब्दोन्नयनेन गा०दयोधरूपं श्रुतमेव जन्यत इति न तत्र मतेः कारणत्वम्, न वा तद्द्वारा मतेमुखरत्वम् , कारणकारणत्याच तथास्तु(तासु) द्रव्यश्रुतत्वव्यवहारोऽपि, लिप्यक्षरस्य तु व्यञ्जनाक्षरवत्साक्षाच्छूतकारणव श्रुतवलसिद्धति न तत्प्रतिबन्धवकाशः। मुत्पते तयदि यो यः करवस्त्रसंयोगलक्षणचेष्टाविशेपवान् स स भोक्तुमिच्छति यथा चैत्र इति व्यातिज्ञानद्वारा तदनुमातुस्वार्थानुमितिजनक तदा करवस्त्रसंयोगलक्षणचेष्टादीनां हेतु-व मेव सिद्धमित्याह अनन्तरं भुजि क्रियादिविषयमित्यादि । तदर्थत्वादिति स्वपरप्रत्यायकत्वस्योवार्यकत्वादेवेत्यर्थः । न तु लिङ्गान्तरभिति-शब्द भिन्नं यलिङ्ग तत्स्वानुमितिहेतुरेवेति धूमेनेव शब्दानात्मकेन तेनापि स्वस्यवानुमितिस्स्थात्, न तु परस्य, भवति च परार्थानुमानेन लिङ्गपरामर्शद्वारा तस्य सा, तगात्तत्परार्थानुमान शब्दात्मकमेवेति भावः । एतावता करचेयादीनां लिङ्गविधया तद्रष्टृणां भुजिक्रियाविषयकस्वगतानुमितिरूपमतिज्ञानजनकत्वेऽपि परगतप्रतीतिजनक लामावान्न तद्वारा मतिज्ञानस्य स्वपरप्रत्यायकत्वमिति न तन्मुखरमित्युपपादितम् , अधुना करचेयादिना व्यातिप्रतिसन्धानहारा स्वार्थानुमितिरपि नोत्पते, तथा सति शवाद प्यर्थप्रतीतिरनुमानेनैवेति शब्दप्रमाणमप्यतिरिक्त नव सिद्धयेत, किन्तु करादिचेष्टादिभिरनुमितेनाभिप्रायिकशब्देनार्थविशेषविषयकसङ्केतग्रहाधीनपदार्थोपस्थितिद्वारा शादबोधरूपश्रुतज्ञानमेवोत्पद्यते, न तु मतिज्ञानमिति, अत एव यत्र शब्दोदरणासामयाभावेऽपि प्रतिपिपादपिपनस्तथा तथा चेटमाना दृश्य.ते, तत्रापि चेष्टोनीतविवक्षितशद्वारव चेदादीनां शादप्र- तीतिजनकत्वमेव, न तु मतिजनकत्वमिति न करचेष्टादिद्वारा मतेर्मुखरत्यमित्युपपादयन्नाह वस्तुतः करादिचेष्टादिभिरित्यादि। नन्वेवं तर्हि करादिचेष्टादीनां स्वोनीतशब्दवारा शब्दपाच्यार्थविषयकशा०दयोधात्मकमावश्रुतजनक शब्दवत्तास्वपि द्रव्यश्रुतत्यप्रसङ्गरस्यादित्याशकानिवृत्यर्थमाह-कारणकारणत्वाच्चति-श्रुतज्ञानकार मनुमितः शब्दः, तत्कारणत्वाच्च करादिचटासु द्रव्यश्रुतत्वव्यवहारोऽपीत्यर्थः। न प्रतिबन्यवकाश इति-कारणकारणत्वाधथा चेष्टादिषुद्र०५श्रुतत्वव्यवहारस्तथा लिप्यक्षस्थापि कारणकारणत्वात्तथा व्यवहारोऽस्त्विति प्रतिपन्देवकाशो नेत्यर्थः। लिप्यक्षरे साक्षाच्छ्तज्ञानकारणता श्रुतप्रमाणसिद्धा न करचेष्टादिष्विति विनिगमकस्य सद्भावादित्यर्थः । ननु "न श्रुतमिदं किन्तु चेष्टादिभ्यो मतभिति प्रतीतेः" चेयादि. भ्योऽनुमितिरेव जायते न श्रुतज्ञानमिति चेत् , मवम् , यतस्तत्र मतमित्यस्य साक्षाद्वयञ्जनाक्षराजन्यज्ञानार्थकत्वेन चेष्टादिभ्य आभिप्रायिकशदज्ञानेन पदार्थोपस्थितिद्वारा श्रुतज्ञानमेव जन्यते, नानुमितिरिति चाऽपि परम्परया श्रुतज्ञानकारणत्वात् , श्रुत एवान्तर्भवति शब्दवत् , न मताविति । एतेन चेष्टाजन्यज्ञानस्य शान्दयोधरूपत्वे शब्दात्प्रत्येमीति तत्र प्रतीतिरस्यात् Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २६४ : વાર્થવિગૂઢાર્થીપિન્ન પતિ ટીવ न श्रुतमिदं किन्तु चेष्टादिभ्यो मतमित्यत्र तु साक्षाद्वयञ्जनाक्षराजन्यज्ञानत्वमेव मतत्वं बोध्यम्, लिपिस्थलेऽपि तथाध्यवसायादिति बोध्यम् । करादिचेष्टानां पर प्रत्यायकत्वेऽपि तासु द्रव्यमतित्वेन सयभावान्न मतिज्ञानं परप्रत्यायकमिति *जयः। “आधीयतां हृदि मतिश्रुतभेदचिन्ता, दिड्मात्रभेतदिह भाष्यमहार्णवस्य ॥ नव्योक्तिमेरुमथनेन ततोऽर्जिता या, सा ज्ञानाविन्दुनिहितैक्यसुधापि लेखा ॥१॥" न तु सज्ञया प्रत्येमीत्यपि निरस्तम् , तस्य ज्ञानस्य साक्षाचार्यमाणशदाजन्यत्वादेव शब्दाप्रत्येमीति प्रतीत्यभावात् । अयम्माव:-शब्दात्प्रत्येमीति प्रतीतो शब्दजन्यत्वस नियामकत्वेन चेष्टाजन्यज्ञाने तदभावादेव नोक्तप्रतीतिः, न तु शाब्दबोधरूपत्वाभावादित्याह-न श्रुत. . मिदमिति । भवतु वा मतिज्ञानस्य कारणं करादिचेष्टा परप्रबोधिका च, तथापि सा 'द्रव्यमतिः' इत्येवमागमे क्वचिदपि न रूढा, पुस्तकादिन्यस्तं व्यञ्जनाक्षररूपश्च द्रव्यश्रुतं पुनः श्रुतम्' इत्येवं सर्वत्र रुदम् । यदाह विशेषावश्यकभाष्यकारोऽपि-"ढंति व दव्यसुयं सुयं ति रूढानदयमई ।१७४।" इति । ततश्च यधपि करादिचेष्टा मतिज्ञानस्य कारणं परप्रतीतिजानिका च तथापि द्रव्यमतित्वेनारूढत्यात् कारणे कार्योपचारं कृत्वा मतिरूपतया न व्यवहियते, अतो भतिज्ञानरूपासा नेति न तद्वारेण तस्य परप्रत्ययोत्पादकत्वम् , द्रव्यश्रुतं तु कारणे कार्योपचारं कृत्वा श्रुतज्ञानत्वेन शास्त्र व्यवाहियत इति तद्वारेणास्य परमत्यायकत्वमुपपद्यत एवेत्याशयत्रतामृजूनां मतमाहकरादिधानां पर प्रत्यायकत्वेऽपीति।। " भाष्यार्थसंमिश्रतया प्रभूत-न्यायोक्तिपूढार्थतया मतेश्च । श्रुतस्य चेतद्विवृतेरशक्य-प्ररूपणाया अपि नेमिसूरेः॥१॥ प्रभावतो दर्शनपूरिणेयं, वृत्तिः कृताऽत्र स्खलनां भ्रमोत्थास् । कृत्वा कृपा मययतुलां विशोध्य, जैर्वाच्यमाना प्रमुदं तनोतु ॥२॥” युग्मम् । इति श्रुतज्ञानव सभ्यतासमाप्तौ मतिश्रुतज्ञानवक्तव्यता परिसमाप्ता ॥१॥२०॥ उक्त श्रुतज्ञानमयावधिज्ञानवक्तव्यतायामाह । अत्राहेत्यादि-किमिति किं लक्षणं सूत्रम् विविधोऽवधिः ॥ १॥ २१ ॥ (भाष्यम् ) भवप्रत्ययः क्षयोपशमनिमित्तश्च ॥ (यशो०टीका) द्वे विधे भेदौ यस्य द्विविधः । ते एव द्वे विधे दर्शयति भवप्रत्यय इत्यादिना । न च लक्षणे पृष्टे भेदकथनमन्याय्यम् , आम्रप्रश्ने कोविदारकथनवदिति वाच्यम्, भेदज्ञाने तदन्यतरत्वेन लक्षणसम्भव इत्यभिप्रायात् । भवो देवनारकान्यतरभवलक्षणः स प्रत्ययो निमित्त कारणं यस्य स तथा, अवश्य खुत्पन्नमात्रस्यैव देवस्य नारकस्य वाऽवधिरुभवतीत्येतावता स भवप्रत्यय इत्यभिधीयते, तद्भावे अथावधिज्ञानादिवक्तव्यताप्राभाय एकविंशतितमस्त्रावतरणिकामाह-अथावधिज्ञानवक्तव्यातायामाह, अनाहत्यादि इति । ननु " खओयसमिआ ओहिनाणलद्धी" इत्यनुयोगदारवचनात् क्षायोपशमिकभावरूपमपविज्ञानम् , नारफमवश्च नरकगतिनामकर्मणो नारकायुपश्चोदयात् , देवभवश्व देवगतिनामकर्मणो देवभवायुपचोदयाद् भवतीति तापौदायिक Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તવાવિવાહાટીવિત વરાતિ : ર૯ : માવાવમા વામાવાત, મુ તુ શરણે તાવ ક્ષયપશમ થવા ન ઘવધિજ્ઞાનદર્શનાવMયસ્ય ફર્મળઃ કોપરામપહાચ વનાવાળામવહારિરસ્તીતિ, તવ તુ ક્ષયો પરામર્ચ ન મવો નિમિત્તતાં વિમર્તિ, તતઃ શરણારત્વાશુદ્ધનયમ ૨ કારણે મળ્યત ફત્યેવં મવપ્રત્યયતા 1 નન્વયં શુદ્ધનયમ વખત્યમેવો જ સ્વાદ્રિતિ 7, 7 સ્ત્રાવ, વ્યવહારશૈવ મેવાશુદ્ધરળતાાહિત્રાત, હવે વખ્યા ધરા હાળતા ને સ્થાવરમાણેનાથસિદ્ધવાવિતિ રે, શુદ્ધનયે ન ચાવ, પ્રવૃત્તબિયોનનાજ્ઞાનાગ્નિવ સન્મવાદ્વિતિ વિપશ્વિમ્ભતથાસ્મમતપરીક્ષાવાવહ્મામિઃ | ક્ષયપરામનિસ્થિતિ પવિતાનાં જ્ઞાનનાવરણીયશર્મળાં ક્ષય પરિશાદોડનુદ્રિતાના વોટ્યવિવારક્ષણતામ્યાં ય માવહાવિતિ તદ્દન્યતા મવા રથમવધિજ્ઞાનય હેતુ, તં પ્રતિ ક્ષયપરામર્થ્ય હેતુત્વાવિત્યાગદ્દાબાદ-મુક્યું તુ ગિનિતિ વાહ માખ્યjધાસુમોધિઃ “ગોહી હવામિક, માવે માલો મવો તહોદ્દા | તો વિઠ્ઠ મવપત્તો જુત્તાગ્રહી હોખં? | પ૭રૂ રૂલ્યાશક્ય તદુત્તરમાહ “સ વિ દુ હોવસમો, વિ તુ સ વ વવલોવતમામ | તમ્પિ સહુ હો વસ્તુ, મારું મવપક્વ તો તો Iધ98ા” ફતિ તવૈવ તુ ક્ષીપરામજ્ય સ મ નિમિત્તતાં વિમર્તતિ–નનું હેવનારાણામધજ્ઞાનવર્શનાવરણવર્મયોપરામ પ્રતિ સ્વમવ પર્વ નિમિત્તતા વિમર્સ સહિ કૃત તત્સવોપરાવિયમ્ વાળતાપે યે સાવશેનાહિતિ વેત, રવાયાવિશુદ્વિતરિતાહિતિ નાનહિ, તથિ તત્તરારગાધીનગન્માન્તરી વિશુદ્ધિવાહિતિ માવા ! નવયુદ્ધનયમન પરમ્પરાજારામ રમાડુમાદ્ધવત્વ વધેર્મવહનમિત્તારણમેન મેદ્રશુદ્ધના સાક્ષાત્કારળમેવ હારત્વેનામ્યુનિચ્છતિ, ન પુનઃ પરમ્પરાકારમિતિ તન્મોન સ મેવો જ યાવિત્યાશાય તત્સલ્યદ્ભારતયા સમાધજે , સ્થાતિ! તત્ર હેતુનાહ થવા િ તથા ૧ બકૃતઘર્ગ વ્યવહારનયશ્રેત્યોત્તમ્, તુ નિશ્ચયનયમિતિ માવડી રાતે-વમિતિ / તદ્દમ્યુપામવાવેન નિરાકરોતિ–શુદ્ધનય ફાવે ! નવુ વઢિ વરત્નાવચ્છિન્નતિ વઝમળશિવ શુદ્ધજન હારાષ્ટ્ર, તંદ્રવ્યવહિતોત્તળ વહો, પુનઃ પરમ્પરાળમૃતં દ્રષ્ટાવ, તસ્ય વકઝમળાયાઘરમારનાન્યથાસિદ્ધવાન્ siારે થાપાળિો નાન્યથાસિદ્ધિરિત્યજ્ય સ્વગૃહૈ વોટ્સેપપાયાવિતિ હિંધાર્યા ચરષચ્ચેન્ડાનયનપ્રવૃત્તિને નૈવર્યાદ્રિત્યત વહ પ્રવૃત્તેિરિષ્ટ નાતાજ્ઞાનેનૈવ સન્માવતિ-પ્રય નવાવર્ચી સાક્ષાતનારણપરમ્પરાવરણાત્મમયાનુતમિતિ નોરૂપ રતિ માવ! નારાણા દેવાનાશ્વ રવીયાવાધિજ્ઞાનદર્શનાવરણીયલવિશર્મવહેતુવાદ્વાધેર્યથા મવપ્રત્યયસ્તથા નરાળાં તિરવાં કર યાવધિજ્ઞાનહર્શનાવરીયર્મયોપશમયો સમ્પર્શનતપોત્રતાળહેતુઋત્વોત્તવધિપિ અપાવ્યત્યય લવ, Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ૨૬૬ : વ્રુત્તિ સ ક્ષય઼ોપશર્માનાંનો ન્યાયતો મુળપ્રત્યય ત ચવત્ ॥ ૨૨ ll ન્યાયયુ સામ્યાહિત્યાદ ન્યાયતો મુખપ્રત્યય તિ યાતિ ર્ફ્ ॥ અવધમેન્દ્વયમધ્યે ષાદ્યોક્વાધ ષા દ્વિતીયોધરતિ શિષ્યાનજ્ઞાસાયાનાદ્યમેટ્ મુદ્રિતીયપુૠત્રાને દ્વાવંશતિતમ ક્ષેત્રમાદસૂત્રમ્ તત્ત્વાર્થવિવાįદ્ધાર્થનીપિા ! દ્વાવિજ્ઞતિર્॰ ટી” તંત્ર મવપ્રત્યયો નારદેવાનામ્ ॥ ! ॥ ૨૨ ॥ ;a (મયમ્ ) તત્ર નાળાળાં દેવાનાં આ ચારવમયપ્રત્યયમધિજ્ઞાન, મતિ । મવપ્રત્યયં અવહેતુ વૃનિમિત્તમિત્યર્થઃ । તેષાં દ્દેિ સવોત્પત્તિવ તત્ત્વ હેતુર્મતિ, પક્ષામાજારામનવત્, ન શિક્ષા ન તપ ક્રાંતિ ' (ચશોજીા) તત્ર તયોદ્ધેયોર્મધ્યે । તૃિળોતિ નારાળમિત્યાદ્રિના, નરજી મા નારા, વિન્યન્તીતિ દેવાતેષાં, યશાસ્ત્ર સ્થાનયોગ્યતાતિમેળ, મૅપ્રચર્યામત્યત્ર પ્રત્યયશન્દ્રસ્ય જ્ઞાનાર્ધક્ત્વ મમપારો ત—મનિમિત્ત મવહેતુ (મહેતુ સર્વામિત્તામિસ્ત્યર્થ તિ, પર્યાયયોળીતેનેનાર્થવાવર્ષમ, દેવતાના જાળામવધેપત્તૌ મવ વ વો હેતુઽરયત્ર જાવિશેષે તથાવાનું પ્રમાળતિ–પશ્ચિમિત્યાવિના, પક્ષિળાં મયૂરથ્રુસ રિતીનાં યથાૠાશાનનત્તિ, શિક્ષામન્યોપદેશરામ, તપધ્ધાનશવિવેળ (પમન્તરે) તેંદ્વશારદેવાનાં શિક્ષા તવશ્વાન્તરે તવધિજ્ઞાન પ્રાતુર્મવતીતિ માવઃ ॥ ૨૨ || દ્વિતીય મેવું વોયન્નાદ— F નંદુ દેવનારાળાં મવમેવાત્ ચં મસ્તવયે વારાં સ્વાતિ નાથ, સવચસ્ય મવત્વસામાન્યધર્મો વિવક્ષળાવતા ટોન્યન્ત તિ વિવિધપ્રામાં સ્વેન્છાનુાં અષ્ટપ્રુથ્થામાંલબમાં નિવમીડાનુમત્રન્તીર્થઃ । નારાળાં પ્રતિન: પ્રતિકતાં જ લેવાનાષિ પ્રાંતવિમાન પ્રતિતનસ્ત્ર વસ્થાનમેમિવ ધજ્ઞાનાવરણીય મલયોપશના પप्रभेदप्रयुक्तं च विविधमवधिज्ञानं सआयत इत्यभिप्रायेणाहत्ययास्वमिति, तदर्थमाह स्थानચોચતાન તમેોતિ -સ્વાનન્ય યોગ્યતાના મેણેત્વર્થ યદા વવસ્થાનય વસ્ત્રબોધતાયાશ્વાન તમે શૈત્યચે તેના મજેવન બંતરસ્યાને તત્તખારામે સ્મિએવ વિમાનપ્રતરસ્યાને તત્ત્વદેવાના વિશુદ્ધવિદ્ધમેમિનવાધીશ્વર્યષ્ય નાનુષપાત્ત, વસ્ત્રા નીચતાનામાંયે તત્તજ્ઞાવાનાં મિન્નામાવધિજ્ઞાનાવાળા મામાણેમ જ્ઞાનાવરાવ ચોપશમક્ષળયોગ્યતાાનત્યસ્ય સંજ્ઞાવાવેતિ માત્રઃ । પ્રત્યયઃ શપથે જ્ઞાને, હેતુવિદ્યાસાંનશ્ચયે ” ાંત શૅશોપોાત્ર પ્રત્યયશબ્દો જ્ઞાનાર્થ,વિસ્તુ હેત્વર્થ છેત્યાશયના પ્રત્યયવસ્યુંરવિ । નારામને દેવમયે ચ સાંત નારાળાં દેવાનાં પાવધિજ્ઞાનપુષ્પવતે તવ માટે, ૨ નોન્પથત ફ્ન્વય તરેબાસનું મારવું છે પતંત્રતા દ્રષ્ટાન્તનોષાયતુમાવેવતાનારાળામવયેત્સત્તાવિતિ । બાધજ્ઞાનવર્શનાવરમેયાષર્શમસ્યાત્વે ઔદાસીન્ય મવચ ધ બારાત્યે પ્રાચાર્યા શ્યાયયવાદ વ વ વરો હેતુરિતિ। આ માળારોગી મળવા નાયસુરાાં, પલ્લી” વા નમોનમાં * ૧૭૨ | ‰ કૃતિ II દવિાંતતમસૂત્રતાાં સમૉસા ॥ ૨૨ ॥ અપ યોપણમહેતુષ્ઠોધિા માં સ્વાત્ વિશ્વેસ્બીશયન સોવિંશતિતમ '' ! → ' 46 Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ વાર્યવિદ્યાર્થીપિશા યોશિતિસૂ૦ ટી ર૬૭૪ મૂત્રમ્ યથોનિમિત્ત ષવિવ૫ વાળા ? ૨રૂ | (માધ્યમું) શનિમિત્તઃ સોપશમનિમિત્ત ફાર્થ તવેતરવિજ્ઞાન સોમનિમિત્તે પવિ મવર્તિ રોવાળા રોપાળામિતિ નાર રોપાળાં તિથોનિકનાં મનુષ્યના જ અવશાનાંવાળીયસ્ય વાર્તાઃ લોપામખ્યાં મવતિ પવિંધમાં તથા નાનુમિલ નાનુમામિ હીયમાન વર્ધમાનવું અનવરાતં વસિથતમિતિ તત્રાનાનુનિનં યત્ર ક્ષેત્રે સ્થિતત્પન્ન તત પ્રયુતક્ષ્ય પ્રતિપતિ, પ્રશ્નારાપુeષાનવત્ છે આનુમામિ યત્ર ઘાટુત્પન્ન ક્ષેત્રાન્તાકાત વ ર પ્રતિપતિ, માજીવ ધટરજીમાવવત્ત માન આપુ કીધુ કરેલું gવિધુ વિમાને, તિજર્વત ચડુત્પન્ન શમશઃ સંક્ષિયના પ્રતિતિ મહાસંઘેયમાત, પ્રતિપતયે રિછિન્નેન્શનોનસત્યજ્ઞિશિવાવત્ વર્ધમાનવ પુરસ્વાધેયમતિqરાં વધતે બાહોશ અધોરાળિનિર્મથનો પત્તોપાત્તશુષ્કોપવીમાનાધીયમાને ધારાશિવ અનવસ્થિત હોય તે વઈ જ વતે રીતે જ પ્રતિપતિ વોuતે જોતિ પુરઃ પુનર્વિવત્ / ધવત ચાવત ક્ષેત્રે ઉત્પન્ન મતિ તો પ્રતિ તત્યાવકા મામવક્ષયોદ્ધાં નોત્યન્ત સ્થાવા મવતિ હિબ્રુવ I spવધિરાતમ્ મા ચાર્જ વફ્લામઃ || * * * * " (યશોબી) થયો તે નિમિત્ત મોડપતિ થથાપન વૃદ્ધિત્વેન ક્ષયોપશમનિમિત્તત્વ પ્રાર ઉપનયત ફત્યાયવાના માધ્યશ-યોનિમિત્ત સંયોપશમનિમિત્ત રૂથે હૃતિ, પર્ વિજપ મેવા યસ્ય સ તથા, રાત્રેડવધિસખ્યાત પુત્વ, માળે જ્ઞાનસન્નધાનપુંસતા તોહ ત ત્યાધિ, શેવાણાયિત્ર પ્રતિયોનિ શાહનારદમ્ય તિ, તિર્યનનાનાં મનુષ્યનાં તિ, તે યોગ્ય ગ્રાહ્યઃ | ૐ તત્ ર્થ પવિધમત માહ વધતિ, ચોપશમય પધિત્વવિધ વિધવમિતિ માવઃ પવિઘ gવોપચસ્થ તળે પ્રપશ્ચતિ તઘત્યાદ્રિના, તત્ર તેવું પલ્લુ મેષ, અનુगच्छत्यवश्यमानुगामिकं, तद्विपरीतमनानुगामिकं, कोऽर्थः ? यत्र क्षेत्रे प्रतिश्रयस्थानादौ, स्थितस्य જાયોનિયાદ્રિપબિતસ્ય, હત્પન્નમુભૂત મતિ, તેને તાત્ સ્થાનાત્ ચાવજ નિર્યાતિ તાજ્ઞાનાત / તતડાન્તસ્ય સ્થાનાન્તર તય, તિવતત નરથતિ, વિત, ક્ષો ધાતુનીવસૂાની પૃચ્છા સૂત્રનૈઃ શાન સન્વાન્નતિ -મૂજે ધિરાવસ્ય મુઘલ્વેના વિક્ષણાત પુશ્ચિાત્તા, માળે ૨ વવજ્ઞનવિરોષણતયા દ્રતિજ્ઞાનયૅવ મુખ્યત્વેને વિવેક્ષપણાનપુંસતિ મા1 તિનિઝાનાં મનુષ્યનાં તિતિ કરૂન્ન માળેગપિ “ મુળ પરિણાનિમિત્તા સાળ પાકોવલયો ર૭ર” રૂતિ નન્દ્રવૃધિજ્ઞાનવિરર્મિલામનિમિત્તે ડેવ્યવસ્થા સર્વેમાં તિરાં મનુષ્કાળાં વાગવશેષતા િમવતિ વિડન્યથૅત્યાશફ્રાનિવૃજ્યર્થના તેપિ પથ ગ્રાહ્ય કૃતિ તિર્યોનિના મનુષ્યોથાપિ જે સમ્પર્શનતપશ્ચરણાવિમુળપરિનામામૃતાવધિજ્ઞાનાવરણવર્મયોપશમા સંાિવન્દ્રિયનીવાસ્તવમેવ લોપશમનિમિત્તમ વધિજ્ઞાનમુત્પદ્યતે, નાચેમિતિ તાદ્રશક્ષપામવન્ત અવ નવાં શસ્ત્ર બ્રાહ્ય સૃતિ માવા વામિલેત્રે સ્થિતજ્ય પુસઝધિજ્ઞાનમુત્પન્ન તસ્મારક્ષેત્રાદુન્યત્ર ક્ષેત્રે તસ્યાપિ યવનુવતે તાંssનુપાશિવધિારાની તરક્ષામાથું અનુછાવયાનિત વનવાસ વરવાને શાન્ત મામિત્રેનન્તમિતિ શેપા ડૉગ્ન-“મા મોળુજી માચ્છન્ત હોલમાં નહા પુરો Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ૨૮ : તત્ત્વાર્થવિવાદ્યૂતાર્યનીવિજ્રા ત્રયોવેતિણૂ ટી તાવિતિ ચઃ પુરુષસ્તસ્ય જ્ઞાનવત્, વ્યથા નૈમિત્તિઃ ઋધ્ધિવાવિશન મિશ્ચિદેવ સ્થાને શોતિ સંવાચિતું, મૈં પુનઃ સર્વત્ર પૃ∞થમાનમર્યંમ્, મૈં તત્વપ્નધિજ્ઞાનં યત્ર સ્થિતયોપનાતં તત્રસ્ત્ય જુવોપત્ઝમતે નાન્યવ્રુતિ । આનુનિનેન્દ્રિપરીત, ચત્ર વાંચવાશ્રયાવાવુત્પન્ન તતઃ ક્ષેત્રાયતાપે 7 પ્રવ્યવતે માબાશવત્, ચથા પ્રાનીપતાંવેત્યમઽક્ષ્ય પ્રાશઃ પ્રાશનીયં પ્રાશર્યાત તથા પ્રતીનીગતપ, મારતાવત્ માનનીયમ્, નહિં ધણ્યાપાાદુષ્કૃતસ્ય તાયાવિત્તિસ્ય રત્ત્તતા શમશ્રુતે, તદ્મવાનુ મિધિજ્ઞાનમિત્તિ, પૂર્વેદાન્તે કાવીપ્રતીનીન્ધમાનુપ્રાશય તાવતું ક્ષેત્રાંર વ્હેન્દ્રઃ પરોક્ષત્વન સાંવધ કૃતિ પ્રત્યક્ષશ્વરત્તાદાન્તાનુ/વનમાવાસ્ય | હોયતે મેળાપીમતિ તદ્નીયમાન, અસહ્ ધ્યેયેષુ દીવેષુ નવ્રૂદ્રીપાવેિજી, સમુદ્રેષુ જીવળાવિયુ, પ્રથિવીષુ રત્નપ્રમાાવાયુ, વિમાનેષુ જ્યોતિવિમાનાવિલુ, તિયમાં દ્વીપસમુદ્વેષુ, અબ્ધ વિમાનેવુ, અધઃચિવી, વવવધિજ્ઞાનમુત્ત્પન્ન મતિ, તતઃમશઃ સક્ષિષ્યમા” ફ્રીયમાન, દાયમાન ઋષાત ચાવીયાનપત્તેષામ ાશં પુનર્ન પ્રેક્ષતે શેષ પતિ, પુનરચોનનં ૬ પાત, પવ તાવ દ્વીયતે યાવ ાત ધ્યેયમા, તવાદ આ અન્યાસ-યમાયાવિતિ, કુરિમાણક્ષેત્રસ્ત્યાસર્થેયલનોતર્યે સ્મન્નસદ્વ્યેયનો યાર્વાન્ત દ્રવ્યાખ્યાંસ્થાનિર્વાન પરશ્યતીત્યર્થઃ । તતઃ જ્વાનિર્વાતષ્ઠતે, વાષિર્ તિતત્યેક વા, તાન્યપિ = પશ્યતીત્યર્ચઃ । બદ્ગુરુશોત્ર સમવર્ષાનેમાપયા ુછવા વોન્ચચાશુવસર્જ્યેયમાત્યનેન ાવેતત્ત્વમ્ દશાન્તનુષન્યર્થાત પરિચ્છિÀાતિ, રિતઃ સર્વાસુ વિદ્યુ છિન્ના યવનન્તરે નેન્થનપ્રક્ષેષતાદી, ફન્કનોષાવાનસતિઃ પાવિષ્ઠઃપદ્મરન્તય ચહ્યાં તાદશી ચાઽર્માશા તદ્વત્ । ચાપનીતેન્ધમા નાશમાજી પ્રાંતશ્ર્વતે તદવેતવર્ષાતિ । વર્ધમાન યદ્ જાસત્યમ વેપુ-અભ્યાસવેવમામાત્રે ક્ષેત્રે પૂર્વમ્, તતો. જીમાત્રે, તો ઉત્તમાત્રે, વમુત્સવ તાવધૃતે ચાવત્સવો છો, તદ્દાહ આસર્વોાતિતિ યમેવ વર્ષત તંત્ર દાન્તમાનૢ ધરોત્તરેત્યાદ્રિ, બધરોત્તરાવષર્ખારવર્તિની ચાવી તામ્યાં ર્યાન્નમૅચન પરસ્પર સંધર્ષ તેન નિષ્પન્ન(સ)ઽવ્દ્ભૂતતથા પાત્ત ક્ષિપ્ત શુ ચત્ઝરીયાતિ તેનોપાયમાનો તૂં છાથ જૂ આયીયમાનઃ પુનઃ પુનઃ લિવ્યમાળ ફ્રેન્ધનાનાં પાનીનાં શિયંત્રાની તદ્વત્ । યાનઃ પ્રયત્નાનુષનાતઃ સન્ પુર્વારેધનાદિદ્ધિનુષા ઋત્યેવું પરમગુમાવ્યવસાયાનાવસૌ પૂર્વોત્પન્નો વષૅત થૈઃ । બનાસ્થાંતિ તિષ્ઠતે વિનેસ્મિન્ વસ્તુનિ શુમામાનેસંયમસ્યાન∞ામાન્ । તવાદ હોયતે ચોગમ દī તથૈવાર્થમવાતિ, પુનસ્તયાર્યમ્, ત્ત્વ વધેતેધોશ ઇર્ષ્યા કોર્શે નાનાતિ । તતોડ્યુંયોગનું યોગનમેવ । તથા પૂર્વ વધેતે પશ્ચાદ્વીયતે । ચક્ર પ્રતિષાંત નતિ, પુનઃ જાન્તર યરો T નાણુાઇફે ઠેબબડ઼ેવો મૈં માર્જીત ૭” ાંતે ! નાન્યત્રંતિ-યંત્ર વેશારે પુરુષો રાજ્કતિ તત્ર તેન પુંસા સહ તનાનુનનો નિયત્રિતગૃતિ પર્વાતિ તેન દેશન્તરાતા નોધમતે ચર્ચઃ હ્રીયનામિાંત દીવમેય વિપ્રમા–ટ્રીયતે મેળાપી મતિ તરૢીયમાનાંમાંના બામવિદ્ધતેિત્તરોત્તર દાયમાનસ્ત્રાવિત હેતુરત્રોધ ાંતે । પૂર્વાવસ્થાતો ચઢવોધો દૂતમ્રપાનૃત્ય ધજ્ઞાન તદ્ગીયમાનઋમિતિ માત્રઃ ડિ.—દ્રીયમાળ પુન્ત્રાવસ્થાળો બોઞ્જો દાવાળું ” કૃતિ । દૃષ્ટાન્તાતષાવરયાદ્ધતાઇન્દ્રલમ્બનું જોમા Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ હવાવિવાહીતીપિ ચતુર્વિશતિ ટી. : રદ કતિ ક્ષયપરાનિચાત / વિન્ ? “વા વામાહdબુતે ચોર્મ સ્વચ્છબિ સરસ્યનારાં શાતિમિતિ તાન્તવૃશ્વિન, સંમવન્ય તથSનવસ્થિત થવસ્થિતમિતિ-ગવતિeતે આ ભવચ્છિદં થયાં માત્રયો ત માત્રાં ન નહાતીતિ થાવત્ ! તવાદું વર્તાત્યાદ્રિાયાવતિ રિમાળે ક્ષેત્રેડછુટાસત્યેયમાાવાયુત્પન્ન થાસર્વોવાતુ તતઃ તમાત ક્ષેત્રા પ્રતિપતિ ન નરથતિ, વિનુ સામાન્ત મર્યાદામાહ-વધ્યારે વોર્યા વાવતા પ્રાપ્ત તુ જેવટે છાત્રાસ્થજ્ઞાનમાત્ર નરતિ છે વાર્તાડલ્યાવસ્થિતસ્ય . વાઘવા, ચામવલયન ચાવવા તે . તતઃ પર ૨ નયતિ, નાત્યન્તરસ્યા વા મવતિ વવિનાત્યન્તરપિ મચ્છન્ત નીવ ન મુક્યતીર્થ | વિંવત્ ? હિવત્ ! થે નનન્યુપાવાય પુષવેવારિખિલં કાળી ગાયત્તરમાધાવલ્યધમધમપતિ રરૂા. અધિનિહષાસ્ય સિદ્ધતાં જ્ઞાયિત્વા મન:પર્યાયનિહાળ પ્રતિમાનીતે હમાવિના, તપિ મેક્રો સ્ટફથતિ સૂત્રમ નુ વિપુમતી મનઃપયૌ ? . ૨૪ (માધ્યમ્) મનઃgવજ્ઞાન દ્ધિવિન્ ! કાનુનરિમન પર્યાવજ્ઞાન વિપુમતિવર્યાવજ્ઞાન = 1 બત્રાહ. જોડનઃ પ્રતિવિરોલ તિ! અત્રો થતા (યશ ટા) મનોમાત્ર સાક્ષારિ જ્ઞાનં મન:પર્યાયજ્ઞાનામિતિ વ્યુત્પત્તિદ્વારે સ્ત્રક્ષણમયાતીત્યમિઝયનું વિમાન પરતવા મન:પર્યાયજ્ઞાન દ્વિવિવામિત્યાદ્રિ = હનુવં વિપુછવું જ ન મૂતË, જ્ઞાને તાત્ | વિનુ સામાન્ય હિë વિશેષાહિત્વ , સામાન્યમવિ ન મુ ગ્રાહ્ય, મનઃચનાન્યુમાત, શાંતિ અવ તય વિશેષરપિત્ત, વિન્ત તિપથવિશેષાન્તિનપરિણતમનાવ્યસાક્ષારિઝનુમતિ, વદુતરાવિશેષત્તિનપરિબાતમનોવ્યથાપ્તિ ૨ વિપુમતિમન:પર્યાવજ્ઞાનમુતે, ફ્રિવિધેનાપિ વાન મનઃપર્યાયજ્ઞાનેન તત્તરાર્થતિનપરિષતાનિ મનોદિવ્યાબેવ મૃાન્ત, વિજ્યમાનાઃ તમેqન્મવયતુ વાઘા પવાર્થી બનુમાનનવાવા , તાત્પર્યનમેજો પામ્યુપામે વિષયારશે પરોક્ષે મિતિમાત્ર પ્રત્યક્ષવન્મનોદચારો પ્રત્યક્ષડખ્યત્ર વધારો પરોક્ષત્વનુપજાવનીયમ્, શ્નન્તપ્રત્યક્ષતાં તુ “વામાહર્તપુતે યોજ” ફત્ય-વાર્મનો શત શો માહdવાયુસ્તન પુરે પુતે વાસમાહતયુ, વનિર્મરું વારિ મિન્ તસ્કર તેમનું વછવારાળ, તિહુમયવિશેષાવિશિષ્ટ સરસ મહાસરોવરે થોમૈયા સટ્ટા થનારાં વારંવાર તદાન્તવાન્વિનર તદાન્તરપર્સન શક્ટ્રિતિ ત્રિીયો, અથ તદ્દન્તાં સમરિન પુનામિધાતવિશેષાહુઘને, તો થોપને વિહીપજે રનવરતમૂર્ત રૂત્યનવરિતા તે તથા જ્ઞાનમથાત્મિવિશુદ્ધિપરિણામહાનિવૃદ્ધિપાત લોપામવાનસ્થિતમત્યર્થ. ૨૨ છે ગોવિંરાતિતમસૂત્ર સમાપ્તા | તુર્વિશતિતમવાવતરાશિમાદ અવધિનિપજ્યા વિના તે સામાન્યમાપિ ન મુષં પ્રસ્થમિતિ પુe સામાન્ય તહાં ગ્રાહ્ય સ્થાન વ્યક્તિ તલ્લાહબં મન પર્યાયન સિદ્ધાડપુરાત સ્થાત, ન જૈવમ્, મન પર્યાવજ્ઞાનં પક્ષયો રામબાવવાન્ વિશેષમેવ મૃદુત્પતે ન સામાન્યાતિ જ્ઞાનાત્મવાવ તામ્યુપામાં, ત વ વર્શનવતુષ્ટયમેવોë સિદ્ધાન્તા અનુમાનેનૈવાવાજો ફ્રતિ સંવતિ પાત્ર “નામ વલ્લેજુમાળેળે” તિ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :२७० તવાWવિવાવાગૂઢાર્થીપિ વરાતિસૂ૦ ટી. स्वाखापच्छेदेनैव पाच्या, लैशिक एकान्तपरोक्षताया अपीत्थमेवोपपतेरिति “ एगन्तेण परोक्ख लिगिअमोहाईअं च पच्चक्वं" इत्यस्य न विरोधः । अदि च मन.पर्यायज्ञानोपगृहीतो बायाानुमानोपयोगी भिन्न एव, कालसौम्याचावनिशा तत्रैकवाभिमान इति मन्यते, तदा न चाशङ्का न चोत्तरम् ॥२४॥ ___मन.पर्यायष्कृत्वातीन्द्रियत्वाभ्यामनयोरक्यं जानन् विशेष पिच्छिधुराह-अत्राहेत्यादि । પ્રતિવિશેષ વાતો મે તે પુરા सूत्रम् विशुञ्जयप्रतिपाताभ्यां तद्विशेषः ॥ १ ॥ २५॥ (भायम् ) विशुद्धिकृतश्चाप्रतिपात तश्चानयोः प्रतिविशेषः । तद्यथा । जुमतिमन पर्यायज्ञानाद्विपुलमतिमन:पर्यायज्ञान विशुद्धतरम् । किं चान्य-जुमतिमनःपर्यायज्ञान प्रतियतत्यपि, भूया विपुलमतिमनःपर्यायशानं तु न प्रतिपततीति ॥ २५ ॥ अत्राह । अथावधिमनःपर्यायज्ञानयोः कः प्रतिविशेष इति । अत्रोच्यते । (यशो० टीका) पञ्चम्यर्थ कृतशब्देन व्यापट । विशुद्धिकृतश्चेत्यादि । विशुद्धतरमिति यव्यं यावद्भिः पर्यायरवच्छिनति ऋजुमतिस्तदेव द्र०य बहुतरैः पर्यायविपुलमतिरवगच्छति । यथा घटे चिन्तिते ऋजुमतिमन पर्यायज्ञानेनैतापद् व्यज्ञायि घटोऽनेन चिन्तितः,' विपुलमतिमनःपर्यायज्ञान पुनस्तमेव घटं पार्थिवत्वरक्तचत्रमाणादिभिर्बहुभिर्भेदैरवबुध्यतेऽतो विशुद्धतमुच्यते । कि चान्यदितिहेत्वन्तरसमुच्चयार्थम् , ऋजुप्रतिमनःपर्यायज्ञानम् , प्राप्तमप्यप्रमत्तसंयतेन प्रतिपतति प्रच्यवते । अपिभायम् । एतच पूर्वमेव विस्पष्टीकृतमिति किं पिष्टपेप गेन ? । स्वग्राद्यावच्छेदेनैवेति वं मनःपर्यायज्ञानं तद्बाह्यं संज्ञिपञ्चेन्द्रि यतत्तदर्थविचारणानुकूलपरिणत मेनोद्रव्यं तदवच्छेदेनवेत्यर्थः । तत्र दृष्टान्तमाह लैङ्गिक एकान्तपरोक्षताया अपीत्थमेवोपपत्तेरितिज्ञानस्य स्वप्रकाशवपक्षेऽनुमिताका-परोक्षत्वं साध्यविशिष्टपक्षावच्छेदेनैव, न तु भितिमात्रंशेऽपि, तदवच्छेदेन स्वप्रकाशत्वपक्षे ज्ञानमात्रस्य प्रत्यक्षत्वाऽभ्युपगमाव , तथा चानुभित्या: त्मकज्ञानस्य स्वांशे प्रमात्रंशे च प्रत्यक्षवेऽपि तत्र परोक्षत्योपपादनं स्वग्राह्यावच्छेदेन यथा क्रियते तथा मनःपर्यायज्ञानस्य संज्ञिजीवमनःपरिचिन्तितयसपटाधरूपवाद्यांशे परोक्षवेऽप्ये. कान्तप्रत्यक्षत्वोपपादनं स्ववाद्यावच्छेदेनैव कर्तव्यमिति भावः ॥ २४ ॥ चतुर्विंशतितमसूत्रटीका समापना। पञ्चविंशतितमसूत्रमवतारयन्नाह मन पर्यायद्रष्ट्टत्वातीन्द्रियत्वाभ्यामिति । अनयोः गजुमतिविपुलमतिमन पर्यायज्ञानयोः । यया घः चिन्तिते जुमतिमनःपर्यायज्ञानेनेत्यादि घटोऽनेन चिन्तित इत्यध्यवसाय निवन्धनभूता कतिपयपर्यायविशिष्टमनोद्रव्यपरिच्छित्तिः जुमतिमनःपर्यायज्ञानम् । घटोऽनेन चिन्तितः स च सौवर्णः पालिपुत्रकोऽयतनो महान अपवर कस्थितः फलपिहित इत्याधध्यवसायहेतुभूता प्रभूतपर्यायविशिष्टमनोद्रव्यपरिच्छितिविपुलमतिमनःपर्यायज्ञानम् , तथा चधिभेदापेक्षयैतद् द्वितीयभेदरूपमधिकतर पर्यापावाहित्याद्विशुद्धतरमित्यर्थः । प्राप्तमध्यप्रमत्तसं यतेनेति-अनेनाप्रमत्तसंयतस्यैव मन:पविज्ञानं समुत्पद्यते तस्यापि न सर्वस्य, किन्त्यामपपिध्यायन्यतमद्धिप्राप्तस्यैवेति ज्ञापितम् પ્રતિપાતીર્થના પ્રવતે દૃાતિ વારિત્રમોહાયમાનવારિત્રપરિણામતિ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ uपार्थविषार्थदीपिका । पविशतिसू० टी० : २७१ : શવ્વાત્કાવિન્ન પ્રતિપતત્યપ, મૂયર વસ્ય પુનઃ વિપુમતિમયજ્ઞાન સમનિ, તત્ય નૈવ प्रतिपतत्याकवलाप्रेरिति ॥ २५ ॥ .. शेषः। न प्रतिपत्तत्यपाति-प्रवर्धमानचारित्रपरिणामस्येति शेषः । तस्य नैव प्रतिपत्ततीति प्रवर्धमानचारित्रपरिणामत्वादिति भावः । आकेवलप्रतिरिति केवलज्ञानं यावन्न प्राप्यते तावदित्यर्थः । केवलज्ञानाधक्षणप्रागमाबाधिकरणक्षणमागभावानाधिकारणत्वे सति केवलशानाधक्षणागभावाधिकरणो-यः क्षणस्तत्क्षणपर्यन्तस्थितिकम् , तदनन्तरक्षणे तस्यैव केवलज्ञानरूपेण परिणतिभावन स्वस्वरूपेणानवस्थानात् "नहग्गि छाउमथिए नाणे केवलनाणं उजइ" इति सिद्धान्तवचनादिति भावः ॥ २५ ॥ पञ्चविंशतितमसूत्रटीका समाप्ता॥ एवं भेदे *जुविपुलमत्योः प्रतिपादितेऽवधेनापर्यायस्य चातीन्द्रियत्वे रूपिद्रव्यनिवन्धनत्वे च समाने विशेषमपश्यन् जूते-अथावधिमनःपर्यायज्ञानयोः कः प्रतिविशे५ इति, विशेपहेतून विशुद्धयादीन् पश्यन् गुरुराह । अत्रोच्यते सूत्रम् विशुद्धिक्षेत्रस्वामिविषयेभ्योऽवधिमन:पर्याययोः ॥१॥ २६ ॥ (भाष्यम् ) विशुद्धिकृत: क्षेत्रकृत स्वामितो विषयकृतश्चानयोविशेपो भवत्यवधिमन.पर्यायज्ञानयोः । तद्यथा-अवधिज्ञानान्मनःपर्यायज्ञान विशुतरम् । यावन्ति हि रूपीणि द्रव्याण्यपधिज्ञानी जानीते तानि मन पर्यायज्ञानी विशुद्धतगणि मनोगतानि जानीते ॥ किं चान्यतक्षेत्रकृतश्चानयोः प्रतिविशेषा-अवधिज्ञानमड्गुल यासंख्येयभागादिपूत्पन्नं भवत्यासर्वलोका । मनापर्यायज्ञान तु मनुप्यक्षेत्र एव भवति नान्यक्षेत्र इति ॥ किं चाय-स्वामिकृतश्वानयोः प्रतिविशेषः-अवधिज्ञानं तु संयतस्यासंयतस्य वा सवैगतिपु भवति, मन.पर्यायशानं मनुष्यसंयतस्यैव भवति,, नान्यस्य ॥ किं चान्यत्-विषयकृतश्चानयोः प्रतिविशेषः । रूपि द्रव्येवसर्वपर्यायवधेर्विषयनिवन्धो भवति । तदनन्तभागे मनःपर्यायस्येति । अत्राह । उक मनापर्यायज्ञानम् । अथ केवलजाने किमिति । अत्रोच्यते-केवलज्ञानं दशमेऽध्याये वक्ष्यते । मोहक्षयाज्ञानदर्शनापरणान्तरायक्षयाच्च केवलमिति ॥ . अनाह-एषां मतिज्ञानादीनां मानानां कः कस्य विषयनिवन्ध इति । अत्रोच्यते (यशो० टीका ) विशुद्धीत्यादि । विशुद्धिर्बहुतरपर्यायपरिज्ञानकारणत्वम् । क्षेत्रं विषयाधार आकाशम् । स्वामी ज्ञानस्योत्पादयिता । विषयो ज्ञानगम्यः पदार्थः । एभ्यो हेतुभ्योऽवधिमन:पर्याय"ज्ञानयोर्विशेषोऽवगन्तव्यः । पञ्चम्यर्थे कृतशब्देन व्याचष्ट-विशुद्धिकृत इत्यादि । यानि हि यावत्येव, हिरेवार्थे, रूपमेषामस्ति रूपाणि-रूपरसगन्धस्पशव्दवन्ति, गुणसङ्घातात्मकानि द्रव्याणीति बोधनायेत्थमुक्तिः, अवधिज्ञानी जानीते पश्यति चेति दृश्यम् । तेपामवधिज्ञानोपल०धाना रूपिद्रव्याणां यावन्ति मनःपर्यायज्ञानिनो. विषयभूयमास्कन्दन्ति तान्यसौ , मनःपर्यायज्ञानी विशुद्धतराणि बहुतर __ पविशतितमस्त्रमवतारयन्नाह एवं भेदे जुविपुलमत्योरिति । रूपी'जीति-अत्र रूपपदेनोपलक्षणन्यायेन तत्सहवातिरसादेरपि ग्राह्यत्वा तदर्थमाह रूपरसगन्धस्पर्शशब्दचन्तीति । अत्र शब्दोपादानं नैयायिकाधम्युपगतं सदस्याकाशगुणत्वमपाकृत्य पुनलात्मकत्वख्यापनाय कृतमिति । रूपिणी त्यत्र नित्ययोगे मतुप्प्रत्ययः, नित्ययोगश्च कश्चिदविशिष्टाभेदे सत्येति . तत्प्रतिपादनीयाह -गुणसवातात्मकांनीति । Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २७२ : तत्वाविवरणमूढार्थदीपिका । सप्तविंशतिस्० टी० પર્યાયાળ, તાન્ય મનોગતાને મનોવ્યાપારમાર્જાિ, નાની, અનન્યમાનાનિ તુ નૈવ સાક્ષાજ્ઞાનીને इत्यर्थः । क्षेत्रकृतविशेषमाह-किंचान्यदित्यादि । अवधिज्ञानं जघन्यमङ्गलस्य यान्यसयेयानि खण्डानि । જ્ઞાનિ તરૈસ્મિન્નધ્યેયમારામાત્રે ક્ષેત્રે વાવતિ ઋપિડ્યાબ સમવાદાનિ તાન્તિ પરથતિ તો वर्धमानं बहूनि वहुतराणि यावत् सर्वलोकावस्थितानि रूपिद्रव्याणि पश्यति शुभाध्यवसायविशेषात् , मनःपर्यायज्ञानं तु मनुष्यक्षेत्र एवार्धवृतीयद्वीपसमुद्रेषु भवति, नान्यत्र वैमानिकेषु शर्कराप्रभादिषु वा। किं चान्यत स्वाभिकृत इत्यादि । अवधिज्ञानं संयतस्य साधोः असंयतस्याविरतस्य संयतासंयतस्य देशविरतस्य वा, सर्वगतिषु नारकादिषु, भवेत् । मनःपर्यायज्ञानं तु मनुष्यसंयतस्यैव भवति । मनुप्यग्रहणान्नारकादिव्युदासः । संयतग्रहणान्मिथ्याध्यादीनां प्रमतान्तानाम् । एतदेय स्पष्टार्थमाहनान्यस्येति । किंचान्यद्विपयकृत इत्यादि, रूपिद्रव्येषु परमाण्वादिषु सर्वेष्वऽसर्वपर्यायवेकज्ञानविषयतया सर्वपर्यायरहितेषु, अवधेरवधिज्ञानस्य, विषयनिवन्धो गोचरनिबन्धः, तस्येकैकस्य परमाणोः कदाचिदसंख्येयान् पर्यायान् जानाति, कदाचित्संख्येयान् जघन्येम चतुरो रूपरसगन्धस्पर्शान्, न तु कदाप्यनन्तान् , केवलज्ञानस्यैवानन्तपर्यायग्राहकत्वात् । मनःपर्यायज्ञानस्य तु रूपिद्रयाणि न सर्वाणि ' विषयो, यतः, नेपामवविज्ञानज्ञाताना द्रव्याणामन-तभागीकृतानां य एकोऽनन्तमामास्मिन्नेवास्य विषय: निवन्धः, तस्मादतीन्द्रियवादितौल्येऽप्यवधिमनःपर्याययोर्भेद इति सिद्धम् । केवलज्ञानं त्ववसरप्राप्तमप्यत्र नोच्यते, दशमे वक्ष्यमाणत्वादित्याह- अबाहेत्यादिना ॥ २६ ॥ एवं मतिज्ञानादीनां पञ्चानामपि ज्ञानानां खरूपेऽवधृते यस्य मत्यादेयों विषयस्तमजानन् पृच्छति । अत्राह-पामित्यादि । गुरुराह-उच्यते सत्रम गतिश्रुतयोनिबन्धः सर्वद्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु ॥१॥२७॥ (भाष्यम् ) मतिनश्रुतज्ञानयोविषयनिबन्धो भवति सर्वद्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु । ताभ्यां हि सर्वाणि द्रव्याणि जानीते न तु सर्वैः पर्यायः। (यशो० टीका ) व्याचष्टे, मतिज्ञानश्रुतज्ञानयोर्मतिश्रुतयोरित्यस्यार्थः । विषयनिवन्धो प्रमत्तान्तानामिति-पण्णां प्रथमपगुणस्थानवर्तिनामित्यर्थः । अत्र व्युदास इत्यस्यानुकर्षः । नान्यस्येति-अप्रमत्तसंयतत्वेनैव मनःपर्यायज्ञानत्वावच्छिन्नं प्रति कारणत्वाद् तद्भिभस्य मिथ्यादृष्टयादिप्रमत्तसंयतान्तमनुष्यस्य देवनारकादेश्च नैतदुत्पयत इत्यर्थः । तद्धयेककस्य परमाणोः कदाचिदसङ्खयेयान् पर्यायान् जानाति कदाचित्संख्येयानिति-तदेवाहभाष्यकारोऽपि-" द पेच्छ, संधमणुं पा स पजवे तस । उकोसमसंखेजे, संखिजे पेच्छए कोई ॥७६१॥" इति । जघन्येन चतुरो रूपरसगन्धपनि न तु कदाप्यनानितिसंवदति चात्र भाष्यम् “दो पजवे दुगुणिए सवजहन्नेण पेच्छ५ ते य । बनाई य परो नाणते पेच्छइ कवाइ ॥७६२॥” इति ॥२६॥ इति पविशतितमसूत्रटीका समातेति। सप्तविंशतितमस्त्रावतरणिकामाह-एवं मतिज्ञानादीनामिति । प्रकृते ज्ञानस्य प्रस्तावान्मतिश्रुतयोरिति मूलोक्तपदस्य ज्ञानुगर्भमर्थमाह-मतिज्ञानश्चतज्ञानयोरिति । विषयनिबन्यो Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તત્વાર્થવિવરતાર્થતીપિશા ! સવરાતિતમ દી : ર - - મતિ-વિષયનયમો મવતિ, અર્થાન્તરસંક્રમિતવાનિવલ્વપતાર્થો, સર્વદ્રષ્યિત્વત્ર પર્વ પર્યાયે સર્વ મધતત્યાર્થતાહ-વિષયનિયમો મતતિા હતેન મતિવ્રુતજ્ઞાને ન વહાઈકમ્પને પ્રત્યથવાત સ્વાત્યવિહિતિ થોમવારમાં નિરસ્ત, મનુમનમા વેત્તા તેન ને વાતસિદ્ધિા પ્રમાણે વેત્તા વિષયવ્યવસ્થા પ્રમાણાધીનત્વેન તપસ્ય પક્ષસાધ્યારિવાનુમ-- नान्तरविषयस्यापि तस्य बहिर्भूतस्य सिद्धापत्या न ज्ञानाद्वैतमतसाम्राज्यम् । अथ ग्राह्यं ग्राहकञ्च જ્ઞાનતિ પક્ષસધ્ધારનુમાનલિવિછત્યાત જ્ઞાનપાન વાહેર્યાણિજ્ય દ્વતમતિ વેવ, ન, માળામાવેન વાળ જ્ઞાનમાત્રાસ, ન્યથી વિપરીતા સિદ્ધચાપ | વિઘેટું મમય વાળનેતિ જ્ઞાનામા પાવાનાદ્યાનયોરોપાવે વિધાન પીવરા વ પ્રવૃત્તિર્ધા યાત, વમયં પક્ષા સઘં સાધ્ય થયં હેત્વાદ્રિસિદ્ધિ મેદજ્ઞાનામા ન કર પ્રેક્ષાવાનનુમાતુમુત્સહતે . જે ૨ વારણ થવસ્થા પક્ષસાધ્યા વ્યવસ્થા ૨ ગ્રાતિમાત્રામતિ, નિ વાદ્યાર્થસિદ્ધિતિ વાગ્યમ્, શ્રાન્તિવનામાવત, તથાપિ તવે વાઘવ જ્ઞાનયાપ વિવારે વાઘે સતિ સતત ગ્લવાયા શૂન્યતાત્તિસ્થા રથ સર્વાન્યતામ્યુપયત પતિ વેર્દિલા પ્રામાણિી જિં વાઝામાપિવી, સાથે જ સર્વાન્યતાસિદ્ધિ પ્રમાણિજ્ય સિદ્ધ ન્યતાયા પારમાર્થિવેનામ્યુપામત ! સથ પ્રમાણને વ્યવસ્થા ગ્રામૂહિતિ પ્રમાણમારે વસ્તુ ત્યાઝમાળનેતિ સિદ્ધાન્યતાગષ ને પરમાર્થી, ગત વ શૂન્યતાગ શૂન્યપતિ પતિ રતિ દ્વિપક્ષ વાવુપત પતિ વહેં પારમાર્થિવામાનમન્તન ચામ્યુપામે લાવવલતિપ્રસાત, ન હિ કપિ શેક્ષાવાન પ્રમાણસિદ્ધમરોમમ્યુપાચ્છનુન્મત્તપુwવત્ અપક્ષો મવતિ “શન્ય માનમુતિ વેનનુ તવા, શૂન્યાતા સુચિતા, ને વેત્તર્દિ તથાપિ વુિં ન સુતરાં, ન્યાત્મતા સુસ્થિતાં ! વળ્યા ને નનનીયમુસશી-ગાશ્રય શૂન્યતા, શ દુરશસાહસૈસિરા, સ્વામિનલ લૌમત ” ઉતિ વ્હોર્યોગપ પ્રકૃતાર્યોપયોતિયાઝ સુધીમાનુસળે . વિસ્તૃતર્પત્યા નેહ વિતન્યા કર્યા. ર મતવારિવધૂ પાડમિતિ શક્યતા વચ્છેદ્રવિચ્છિનરાયાથમિન્નેન ધિષયવિદ્યાજૈન સહ સમતો વિનિશ્ચિતો ધટિત કૃતિ થાવત વાળ્યો નિવપોર્ગો લોથ્થરસિમિતવાનિવલ્પપા તસ્યાથગ્યમિત્યર્થ વિષયપદ્યાર્થીન્વિનિવર્ધીવશક્યાર્થવિપાવવો બનtવહળાનદર્શક્ષણાનિકપઅપહત્વાનિવલ્વપમત્રાંગદર્શીક્ષામતિને મારા “સર્વદ્રશ્વત્ર સર્વપર્વ પર્યાયે સત્યઘતિવાર્થમ” તિ પાઠ યુક્ત, સર્વદ્રષ્યિત્યત્ર જતસર્વપદ્ધ તત્વ પર્યાપુ સર્વત્ર વિધાર્થીમિયર્થ જયમત્ર માવા સર્વપર્યાપુ દ્રવ્યપુ વિષયવિન્ય તાવન્માત્રોરાવપ સર્વદ્રવ્યપુ વિષયનિવસ્થિત પવ, વસતિ વાઘ કહેર તાવજીંજવઝેન વિધેયાન્વય તિ નિયમવાહુસર્વપર્યાયવશિદ્રવ્યત્વવ્યાપકત્વસ્ય મતિ બુતવિષાણુમાવું, હું પર્યાયે યે વિષયનિવવું વર્ષમાવાણાક્ષનિવૃત્ત Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । २७१: aपार्थविवरणदीपिका । सप्तविंशतितमसू० टी० . स्वप्रतिषेधात्', असर्वपर्यायेष्धिति प्राश्वत् व्याख्येयम् । पश्यति-ताम्या हाति, यस्माताभ्यां मतिश्रुताभ्यां, सर्वाणि द्रव्याणिधर्मास्तिकायादीनि, जानीते, न तु तेषां सर्वान्पर्यायानुत्पादादीनिति । कथं पुनस्ताभ्यां सर्वद्रव्यविषयो बोधः ? उच्यते-श्रुतज्ञानिन तावत् श्रुतग्रन्थानुसारेण, मतिज्ञानिनस्तु श्रुतज्ञानोपलव्धेप्वप्वक्षपरिपाटीमन्तरेण पट्वभ्यासपशायां सर्वव्याणि ध्यायतः, सर्वपर्यायग्रहणे तु नैव शक्त मन इति ॥२७॥ द्रव्यपदसमभिव्याहतसर्वपदोक्तिः, एवं च पर्यायेषु न संपु विषयनिवन्धः किन्तु कतिपये वेव तेष्विति लभ्यत इति । सर्वद्रव्येष्वियन सर्वपदं पर्याये सर्वत्वप्रतिषेधादिति पाठप्रामाण्ये त्वसर्वपर्यायेष्वित्यत्रासवर्षदोपादाननासवपर्यायविशिष्टद्रव्यस्य मतिश्रुतज्ञानविषयत्वमित्येतावता सर्व- . द्रव्यस्य मतिश्रुतज्ञानविषयत्वं न लभ्यते, यथा सनि पर्यायान् मतिश्रुतज्ञाने न गृह्णतः तथा द्रव्याण्यप्यसपर्यायविशिष्टानि कतिपयान्येव ते गृहीयाताभित्याशङ्कापनोदार्थ द्रव्यपदसम्भिव्याहृतसर्वपदोपादानमित्यवोधाय पर्याये सर्वत्वप्रतिपेयादित्युक्तम् , तथा चाऽसपर्याथविशिष्टानि सर्वाण्येव द्रव्याणि ते गृह्णीत इति सिद्धम्, यदि तयोर्मतिश्रुतज्ञानयोत्सर्वपर्यायविषयकरवं स्यात् किमिति ते सर्वपर्यायविशिष्टसर्वद्रव्याणि न गलीयाताम् , न च तथा गृहत इति न सर्वपर्यायविषयकत्वं तयोः, ततश्च कतिपयेषु पर्यायेषु तयोर्विषयनिबन्ध इत्यालभ्यत इति । ननु यदि धर्मास्तिकायादिद्रव्याण्यन पर्यायावलीढान्येव त्वं समाश्रयन्ति, तदा मतिश्रुतज्ञानाभ्यामन पर्याय विशिष्टतयैव तद्ग्रहणेन भवितव्यमिति चेत्, मैवम् , मतिश्रुतज्ञानयोत्सापरत्वेन तद्विशिष्टतया तद्ग्रहणयोग्यत्वाभावात्, तद्ग्रहणयोग्यता चोदितत्वावरणविच्छेदे सत्येव, नान्यथेति तत्तद्विषयग्रहणे योग्यतैव कारणम् , तथाहि-मतिज्ञान तत्वदिन्द्रियानिन्द्रिघयोग्यार्थग्राहकम्, तत्र च योग्यता मतिज्ञानाचरणमक्षयोपशमलक्षणेति सा यस्य यस्य विषयस्य तस्य तस्य मतिज्ञानेन ग्रहणम् , नान्यस्येति तेन धर्मिग्रहणे न स ततः पर्याया गृह्य कि। कतिपया योग्या एक, न हि चक्षुषा योग्यदेशस्थवधिभिग्रहणे तद्ता अनावपरपर्याया गृह्यते, कि.रूपसंख्यासंयोगादिनियतसङ्काचक्षुर्विषयभावमापना एव । नन्वे तर्हि धर्माधर्माशिास्तिकायादीनां द्रव्याणामतीन्द्रियत्वान्नैव मतिज्ञानेन ग्रहण स्थादित्यसर्वतस्पोथग्रहणे का वाति मतेरसर्वपर्याय सर्वद्रव्यविषयनिवन्ध इत्युक्तमयुक्तमिति चेत्, न, यत-' श्रुतज्ञानपरिकर्मितमतभतिज्ञानोपयुक्तस्य तत्कालाब छेदेन श्रुतपरिपाटीमा रेणापि पट्वभ्यासादसर्वपर्यायधर्मास्तिकायादिसर्वद्रव्यविषयकापायादिमानसमतिज्ञानं स्थादेव, अन.पर्यायग्रहणे तु मनो नव व्याप्रियते तथाशक्त्यमाचार | श्रुतज्ञानमपि श्रुतानुसारेण जायते तत्र श्रुत सतविषयपरोपदेशः श्रुतग्रन्थश्चेति शक्तिस्मरणद्वारा तद्वाच्यार्थगोचरेण तेन श्रुतज्ञानेन नककद्रव्यंगताः सर्वे स्वस्वासाधारणधर्मरूपेण पर्याया अभिलाप्यानभिलाप्यागका विषयीक्रियन्त इति श्रुतज्ञानी सर्वव्याणि जान नपि न तद्गतान् तान् सर्वान् जानीते, तेषां सर्वेषां श्रुतज्ञानावरणीयकर्मक्षयोपशमलक्षणयोग्यत्तस्याभावादवेत्याशयेनाह-यस्मात्ताभ्यां मनिQताभ्यामित्यादि ॥२७॥ इति सप्तविंशतितमसूत्रटीका समाप्ता। Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमार्थविवरणदार्थदीविका । अथाविशतितमसू० टी० : २७५ अवधिज्ञानस्य विषयनिवन्धः कथयति-- - सूत्रम् विश्ववधेः॥१॥२८॥ (भाष्यम् ) रूविष्वेव द्रव्येववधिज्ञानस्य विषयनिबन्धी भवति असर्वपर्यायेषु । सुविशुद्ध नाप्यवधिज्ञानेन रूपीण्येव द्रव्याण्यवधिज्ञानी जानीते, तान्यपि न सर्वैः पर्यायरिति (यशो० टीका) नियमपरतया व्याचष्टे रूपिष्वेव द्रव्येवाधिज्ञानस्य विषयनिवन्धो भवति, असपर्यायनित्यनुवृत्तिलभ्यम् । उक्तमुपपादयति सुविशुद्धनापीत्यादि ॥ २८ ॥ ' 'अष्टाविंशतिस्त्रावतरणिकामाह-अवधिज्ञानस्य विषयनिबन्यं कथयतीतिरूपियवधेरिति-एतरत्रस्य नियमसूत्रतया रूपिद्रव्यत्वसमनियतविषयताकत्वमवधेर्लभ्यते । एतदेवाह-नियमपरतया व्याचष्ट इत्यादिना । ननु ययाधिज्ञान मृत्कृष्टतोऽपि पुरस्नलोकप्रतिनिखिलानि रूपीण्येव द्रव्याणि जानीते तहि लोकप्रमाणान्यलोकेऽसंख्यखण्डानि परमावधिः पश्यति, उक्तञ्च-"परमीहि असंखेजा लोकमिता" इति । क्षेत्रस्यारूपि. त्वातत्कथं सङ्गछते इति चेत्, उच्यते, यदि तत्र तानि रूपिपुद्गलानि द्रष्टव्यानि स्युस्तदा पश्येदेवावधिज्ञानी, न च तानि तत्र सन्तीत्यतरसामर्थमात्रवर्णनमेतदिति नोक्तविरोधः । उक्तञ्च भाष्यकता “सामत्थमेत्तमेयं, जइ दहवं हवेज पेच्छेजा । न य तं तत्यत्थि जओ, सो रूविनिवन्धणो भणिओ ॥६०५॥” इति । सुविशुद्धनापीति-"परमोहिनाणविओ, केवलमन्तोसुस्तमित्तेण ॥ ६८९ ॥” इति भाष्यवचनाद् यदुत्पत्यानन्तरमन्तर्मुहूर्तकालमात्रेण नियमेन केवलज्ञानमुत्पद्यते तेन "रूवगयं लहइ सव्यं " इति माण्यवचनात्सर्वलोकान्तर्गतपरमावादिभेदाभिन्ननिखिलपुद्गलद्रव्यागाहिना केवलज्ञानभास्करोदये प्रथमप्रभास्फोटकल्पनाऽऽत्मीयातिविशुद्धिसमुत्पनेन परमावधिनापीत्यर्थः । अपिशब्देन यदि सुविशुद्धनावधिज्ञानेन रूपीण्येव द्रयाणि न त्वरूपीणि जानीतेऽवधिज्ञानी तयविशुद्धेन तेन वान्येव जानीते इत्यत्र किमु वक्तव्यमिति सूचितम् । तान्यपि न सर्वैः पर्यायैरितिभाषयम् अवधिज्ञानेनानन्तेषु द्रव्येषु समुदितेष्वनन्तान् पर्यायानवधिज्ञान्येकदा जानाति, आधारद्रव्यानन्तत्वेन तेषामनन्तत्वात् , न त्येकैकद्रव्यगतानुत्कृष्टतोऽप्यनन्तान् सर्वपर्यायान् , अवधिज्ञानस्य तथाविधावधिज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमाभावेन तथाविधशाक्यभावात् , किन्तु जघन्यतो प्रतिद्रव्यं चतुरः पायान् , उक्तञ्च “पेच्छइ पउग्गुणाई जहणओ मुत्तिमंताई ॥ ८०७॥." इति । प्रतिद्रव्यं चत्वारो गुणा धर्माः पर्याया येषां तानि चतुर्गुणानि मूर्तिमन्ति द्रव्याणि जयन्यतोवधिज्ञानी जानाति पश्यति चेत्यर्थः । उत्कृष्टतस्त्वसंख्येयपर्यायान् । अयम्भावः उकतिस्त्वकैकद्रयमाश्रित्यासंख्येयपर्यायाणि मूर्तिमन्ति सर्वाणि द्रव्याणि जानाति पश्यति चेति । उक्तञ्च-" पदवं संखाईयपजयाई चसयाई ।।८०८॥" इति ॥२८॥ (यशो० टीका ) मनःपर्यायज्ञानस्य विषयनिवन्धमाह एकोनत्रिंशत्तमसूत्रमयतारयाह-मनापर्यायज्ञानस्य विषयनिबन्धमाहेति । Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. २७६ : पार्थविवरणदार्थदीपिका । एकोनत्रिशत्-विशत्तम०टी० सूत्रम् तदनन्त(तम)भागे मनःपयरय ॥१॥ २९ ॥ (भाप्यम् ) यानि रूपीणि द्रव्याण्यवधिज्ञानी जानीते ततोऽनन्तमागे मनःपर्यायस्य विषयनिवन्धो भवति । अवधिज्ञानविषयस्यानन्तभागं मनःपर्यायशानी जानी रूपिद्रव्याणि मनोरहस्यविचारणतानि च भानुषक्षेत्रपापनानि विशुद्धतराणि चेति ॥ (यशो० टीका ) तेषां तदर्थप्रतियोगीन्यादाय व्याचष्टे-यानि रूपाणि रूपवन्ति, जानात्यवधिज्ञानी तेषामन तिमभागे मनःपर्यायज्ञानस्य विषयनिवन्धो भवति । तत्कर्मककत्रुक्तिमाहअवधीत्यादि, रूपिद्रव्याणीत्यत: पूर्व तानीत्यध्याहार्य, तानि मनःपर्यायज्ञानाखाणि रूपिद्रव्याणि, न . कुट्याधाकारव्यवस्थितानि, किन्तु, मन एव यद्रहस्यमप्रकाशखरूपं तत्र यो विचारः कथमय पदार्थो व्यवस्थित इत्येवंरूपस्तत्र गतानि प्रविष्टानि पि.त्यमानानि जीवेनेति यावत् । तान्यपि न सर्वलोकवानि, किन्तु मनुष्यक्षेत्रे पर्यापन्नानि व्यवस्थितानि, तान्यपि विशुद्धतराण्यवधिज्ञानिनः सकाशाद् वहुतपर्यायाणि ॥२९॥ न त्याचा कारव्यवस्थितानीति न कुटीघरपटाधाकारण वायवर्तिद्रव्याणीत्यर्थः, एतच्च पूर्वमेव विवेचितमिति किं पिष्टपेषणेन ? । चिन्यमानानि जीवेनेति संज्ञिपञ्चेन्द्रियजीवन काययोगेन गृहीत्वा मनोयोगेन मनस्त्वेन परिणमितानि मानसिकविचारणानुगुणानीत्यर्थः । मनुष्यक्षेत्र इति-अर्धतृतीयद्वीपसमुद्रद्वयपरिमाणे मानुपक्षेत्रे इत्यर्थः, एतेन मनापर्यायज्ञानी न तबहिर्भूतप्राणिमनास्यवगच्छतीति ज्ञापितम् । उक्तञ्च "मुणइ मणोदवाई नरलोए सो मणिज्जमाणाई ।। ८१३ ॥” इति ॥ २९॥ एकोनत्रिंशत्तमसूत्रटीका समाप्ता॥ (यशो० टीका) केवलज्ञानविषयमाह त्रिंशतमसूत्रमवतारयन्नाह केवलज्ञानविषयमाहेति । सूत्रम्-विद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य ॥ १॥ ३० ॥ (भाष्यम्) सर्वद्रव्येषु सर्वपर्यायेषु च केवलशानस्य विषयनिवन्धो भवति । तद्धि सर्वभावग्राहक संमिन्नलोकालोकविषयम् । नातः परं ज्ञानमस्ति । न च केवलज्ञानविषयात्परं किञ्चिदन्या नेयमस्ति । केवलं परिपूर्ण समग्रमसाधारण निरपेक्षं विशुद्धं सर्वभावशपक लोकालोकविषयमनन्तपर्यायमित्यर्थः ॥३०॥ मत्राह । एषां मतिज्ञानादीनां युगपदेकरिगजीवे कति भवन्तीति। अत्रोच्यते (यशो० टीका) व्याचष्टे सर्वद्रव्येष्वित्यादि । हेतुमाह पद्धीत्यादि, हि यतः, तत् केवलज्ञान, सर्वेषा भावानां द्रव्यक्षेत्रादीनां ग्राहक, तथा संमिन्नी सम्पूर्णौ यौ लोकालोको तद्विषयम् । अतोऽस्मारकेपलापरं प्रधानतरं,न ज्ञानमस्ति, जात्या परत्वं भविष्यति, न विषयव्याप्त्येत्यत आह-न चेति । केवलज्ञानविषयात् सर्वद्रव्यपर्यायराशेः, परम्, उत्कृष्टम् , अन्यत् किंचित ज्ञेयमति, यदप्रकाशितं भवेत्केवले. સર્વદ્રવ્યપર્યાપુ વરુતિ હસે, વ્યાગિ જ પર્યાપા દ્રવ્યપર્યાયા इततिरतरयोगलक्षणो द्वन्द्वो विधेयः, न तु द्रव्याणां पर्याया द्रव्यपर्याथा इति तत्पुरुषः समासः, तथा सति द्रव्यपदमनर्थकं स्यात्, यतो नाद्र०यस्य पर्यायासन्ति, किच तत्पुरुषस्योत्तरपदार्थप्रधानत्वात्रोत्तरपदार्थरूपपर्यावाणामेव ज्ञानं केवलिनस्यात्, न तु प्राधान्येन पूर्वपदार्यरूपद्रव्याणां ज्ञानं स्यात् । ननु द्वन्द्वसमासोऽपि - तत्रैव - भवति यत्र Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તાવાર્થવિજળમૂઢાર્થીકિ રાતમજૂ૦ ટી : ર૦૭: નેતિ . હવે વિજ્યમાત્માય જેવજય પર્યાયાનાહ છેવ મત્યાઘસહવૃત્તિ, પરિપૂર્ણ તરજ્ઞાનવિષયતાવ્યાપવિષયતા, સમગ્રં પદાર્થત્વવ્યાપવિયતાજી મેવ, તથા જ પઝલ શોધવ દ્રપર્યાયાળાન્તમે ગ્રામોતીતિ રે, મૈવ, ત્વ જ મૉપિત્ત વહિાવિન્ધર્વ કન્વર્ય થનન્યત્વેગ વર્શનાત પ્રવેગપ તથા મન્તવ્યમ્ શિથ નવોર્નાિતિવ્યવોરેશાન્તમેપત્તાત્યાધ્યમમેતહિતિ, નૈ હો, વામિત્વે સખ્યો ન જાવ ત્વામતિ પ્રતીત્વમવિત્રસાહિતિ, ધરમતરવાસવત્યાં નાખ્યત | તહ્માસ્તાધુt દ્વન્દ્રોગ્યમતિ સતપન સહ વર્મધારયસમાસા, સર્વે જ તે દ્રવ્યપર્યાયા સર્વદ્રવ્યપર્યાયા, ખ્રિત્યર્થ. સર્વદ્રવ્ય, સર્વપર્યયોખ્રિતિ મારા “નદૃમિ ૩ છાડમOિણ નાળે વહનામાં હવા” તિ વવનમા વહામત્યસ્વાર્થમાહઅત્યાધરવૃત્તીતિ કરાવચ્છિન્નમર્યાદિજ્ઞાનવતુષ્ટયાસમાનાધિળામિત્વાર્થ વેવતજ્ઞાનાશ્રુત્તિજ્ઞાનવ્યાખ્યાતિવિશેષાવચ્છિન્ને વેવલજ્ઞાનાવરાય ફ્રેતુત્વેને વસ્ત્રજ્ઞાનોત્પતી સત્યાં તદ્રપારણામાવાન મતિજ્ઞાનત્વ શ્રુતજ્ઞાનત્વવાધિજ્ઞાનવમનપર્યાયજ્ઞાનવલખતાનાતિવિશેષાવચ્છિન્નોત્પત્તિ, વારણામાવાયાવ રૂતિ ન્યાયા, તેન થર્ થવાનું વસ્ત્રાવો જર્મયોપશને લતિ મવતિ નિપસ્તાવારર્મક્ષયે સતિ રિમિતિ તત્તનું ન મવર્તયાજાળ નિરસ્તા, વિજ્ઞાનાવળીયાળોઈપ તુવેન તદ્દમાવાવ ન મજૂધમ તથા વકજ્ઞાનોત્પાસિયાવર્જીન મત્યાદિજ્ઞાનવતુમ્ભાવાન તત્સમાનાર વિજ્ઞાનમતિ માવા વત્ર તરજ્ઞાનવિયતાં તત્ર તત્ર વસ્ત્રજ્ઞાનવિયત્વમિતિ વ્યાપ્તહસ્તર્યાદિત પરિપૂર્ણમિત્કાર્યમા€ તરજ્ઞાનવિષયતા વ્યાપવષયત્તામતિ દ્ધ વજ્ઞાન દ્વિતરજ્ઞાનાનિ મત્યાનિ વાર, તદ્વિયતાસમાનાધારણTયતામાંવાઝતિયોનિ વિષયતા થા તત્તથત્યર્થ. મત્યવિજ્ઞાનવત્યવિષયવાર પૂજ્યન્તામાવો ન વસ્ત્રજ્ઞાન વિષયત્વમાંવ, વિવંન્યામાવા, તકતિયોત્વિરી લેવકજ્ઞાનીયવિષયતામાં સત્તાવારવિષયતાનિવાતિ માવા હું નતિ ન છોગલ સૂક્ષ્મવાવરમેહમિના પાઈઃ જેવજ્ઞાનવિષયવાનાહિતિ, તથા ૨ યત્ર યત્ર પવાર્થરાં તત્ર તત્ર વિજ્ઞાનપિયત્વમિતિ વ્યસિદિત સમમિત્વાર્થભાઈ પવાર્યત્વવ્યાપવિવૃવતાંજનિતિ-વાર્થસમાનાધિરણાત્યન્તામાવાઝતિયોમિન વિષયતા ચસ્ય તત્તથ૦થે | પર્થત્વ ધર ગવૃન્તામાવો ૨ વાજ્ઞાન વિષયત્વમાવા, વિન્યામાવા, તપ્રતિયોજિત્વ વવજ્ઞાનનિષિતવિષયત્વે વર્તત રૂતિ તાદ્રશવિષયતાનિવ વસ્ત્રજ્ઞાનમ્ ! નવુ વજ્ઞાનવિષયવયદોમયમાવનાવાય વજ્ઞાનવિષયત્વપ પાર્થસમાનાધિવાળામાંવતિયોતિ , મૈવ, તાદ્રશાતિયતાવછતા ત્યધારા ધર્મપર્યાન્ય માધવપિયત/મિતિ વિરક્ષણે તોપામાવાહિતિ તથા વ તાદ્રશતિયોતિાવછેવળતાપર્યાપિ વેવકજ્ઞાનવિષયત્વત્વધામ બ્રિતિ તવાધિકારણ કે હ. * સ્થિતિ વઢજ્ઞાનવિયત્વોમર્યાસ્મિન ના વિજ્ઞાનવિ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २७८ : तवार्थविपरमार्थदीपिका । शिसमसू० टी० असाधारण सजातीयद्वितीयरहितम् । निरपेक्षम्-आलोकेन्द्रियावग्रहप्रणिधानाधपेक्षारहितम् । विशुद्ध निःशेषावरणमलरहितम् , सर्वेषां भावानां ज्ञापक प्ररूपकं, तादृशशब्दसमूहरूपप्रवचनमूलकारणमित्यर्थः। . लोकालोकविषयं क्षेत्रत्वव्यापकविषयताकम् । अनन्तपर्याय शेयानन्त्यात् । पद्विपयताकमेव केवलज्ञानम् , अर्थात् तादृशपर्याप्त्यनाधारविषयता केवलज्ञाने वर्तते इति नोक्तदोषः । असाधारणमित्यस्यार्थमाह-सजातीयद्वितीयरहितमिति साजात्यं चात्र ज्ञानवेन, तथा च ज्ञानत्वेन रूपेण केवलज्ञानसजातीयं मतिज्ञानादिकं तद्रहितमेककालावच्छिन्नतत्समानाधिकरण नेत्यर्थः । केवलज्ञानमात्ममानसापेक्षत्वान्नास्मदादिप्रत्यक्षपद् बाबालोकेन्द्रियाँर्थसम्बन्धादिसामध्यपेक्षं, न वा युक्तयोगिज्ञानवत् प्रणिधानाधान्तरसामग्र्यपेक्षमित्यभिप्रायेण निरपेक्षमित्यस्यार्थमाह आलोकेन्द्रियावनप्रणिधानाधपेक्षारहितमिति, यथा भा. स्करस्य जगत्प्रकाशस्वभावोऽतिसमुन्नतधनाधनघनपटलाडम्बरेणानाभिव्यक्तो यः स प्रतिकूलवावादिनासर्वथोक्ताडम्बरविगमे सति तेन सर्वकलांशैरभिव्यक्तस्वरूपतयोत्पधमानो नान्यसामग्रामपेक्षते तथात्मनो जगत्प्रकाशिकेवलज्ञानसभावोऽतिनिविडितमज्ञानावरणकर्मावरणेनावृत२शुक्लध्यानादिना निश्शेवातावरणविध्वंसे सति सर्वथा विरावतस्वरूपतयोत्पद्यमानो नान्यसामग्रीमपेक्षते किन्त्यात्ममात्रमेवेत्युक्तबाह्याभ्यन्तरसामयनयेक्षं केवलज्ञानमिति भावः । अत एवातिनिर्मलतमित्याह विशुद्धमिति । तदर्थमाह निश्शेषावरणमलरहितमिति । सर्वेषां भावानां ज्ञा५ प्ररूपकमिति-यधपि मत्यवधिमनःपर्यायज्ञानानामिव केवल ज्ञानस्यापि पराऽप्रत्यायकत्वलक्षणमूकत्यान तत्सर्वेषां भावानां ज्ञापकं प्ररूप तथाप्युत्पन्न वलज्ञानो भगवान् भाषापर्याप्त्याहितवाग्योगजन्यभाषया श्रोतृणां भावश्रुतकारणतया द्रव्य श्रुतत्वमास्कन्दन्त्या भविकमनविवोधनार्य प्रज्ञापनीयान् भावान् ग्रहीतुर्ग्रहणयोग्यान भाषते तत्के-- वलज्ञानं द्रव्यश्रुतद्वारा सर्वेभावानां ज्ञापकं प्ररूपकमित्यर्थः । मुख्यवृत्या प्रमुभगवत्केवलज्ञानमेव गगधरभगवद्रचितद्वादशाङ्गीरूपप्रवचनमूलकारणम् , केवलज्ञानिभगवत्प्रतिपादितत्रिपदीसमालम्पनेन श्रीगणधरभगवता द्वादशाङ्गयात्मकप्रवचनप्रणयनादित्याशयेनाह-तादृशशब्दसमूह पप्रवचनमूलकारणमित्यर्थः । लोकालोकविषयमिति-अस्थार्थमाह-क्षेत्र. त्वव्यापकविषयताकमिति । अनन्तपर्यायमिति-अत्र हेतुमाह शेयानन्त्यादिति । यद्यपि केवलज्ञानं स्वरूपत एकमे। तथापि निखिलरूप्यरूपिविषयानन्त्येन तदवाहितयान तपर्यायमित्यर्थः । अयम्भावः-यमेकं विषयं येन स्वभावनावाहते केवलज्ञानं न तेनैव स्वभावेन विषयान्तरं किन्तु भिन्नेनैवेति विषयाणामानन्त्येनाशिलतत्तद्विपयावगाहनस्वभावा अपि पर्याया अनन्ता एव तस्मिनित्येकस्मिन्समयेऽप्यनन्तपर्याय, समयान्तरेऽपि निखिलपदा नामुत्पादादित्रयात्मकत्वान्यथानुपपत्त्या कथञ्चित्परावर्तनस्वभावानामत एव प्रतिसमर्थ भिनानां प्रत्येकं भिन्नभिन्नस्वभावतयावगाहित्वेनानन्तपर्यायं तदिति । नन्वतीतकाले निखिलपदार्या थेन येन रूपेण परिणताः, वर्तमानकाले च सर्वे पदार्थी येन थेन रूपेण Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वायविवरणपूढार्थदीपिका । एकत्रिशतमसू० टी० : २७२ પરિમપિ, અનામતા ન દેનારા પરિસ્વન્તિ તાનું સર્વાન મિમિત્ર १५मावतया केवलज्ञानी भगवान् जानाति ययाऽऽद्यसमये तथा द्वितीयादिसमयेष्वपि तथैव जानाति किं वा प्रकारापरणेति चेत्, प्रकारान्तरेणेति जानीहि, कथामिति चेत्,' उच्यते, द्वितीयसमयोत्पस्यमानपदार्था तेन तेनाकारण परिणस्यन्तीत्येवमाघसमये भविध्यपेण ये ज्ञातास्तानेव भावान् द्वितीयसमये केवलज्ञानेन तथा तथाऽऽकारेण परिणमन्तीत्येवं वर्तमानरूपेण जानाति, ये चाघसमये तेन तेनाकारण परिणमतीत्येवं वर्तमानरूपेण ज्ञातास्तान तयाप्रकारेण परिणता इत्येवमतीतरूपेण द्वितीयसमये जानाति, ये च तत्पूर्वप्रथमद्वितीयाऽऽदिसमयवर्तिनोऽतीतभावाः, तत्पूर्वप्रथमद्वितीयादिसमयवर्तितया तथा तथाऽऽकारेण परिणततया च प्रथमसमये ज्ञातास्तानेव भावान् तत्पूर्वद्वितीयतृती यादिसमवर्तितया तत्पूर्वद्वितीयतृतीयादिसमयावच्छिन्नविभिनपरिणतिस्वभावतया च केवलज्ञाने द्वितीयसमयेऽवगच्छति इत्येवमग्रेऽपि ज्ञेयम् , अत एव स्वरूपतो ध्रुवमपि केवलज्ञानं तत्तद्रूपेण तत्तद्विषयाऽत्रग्राहित्यात्मकपूर्वस्वभावपरावर्तनकालावच्छिन्नतत्तद्रूपावच्छिन्नतत्तद्विषयावगाहित्वात्मकोत्तर स्वभावोत्पादनेनोत्पा५०ययशालतिया विलक्षणोपेतं सिद्धयतीति ॥३०॥ त्रिंशत्तमसूत्रटीका समाता ।। (यशो० टीका) एवं मत्यादीनां विषये प्रकाशिते सहभावजिज्ञासुः पृच्छति-अाहेत्यादि । अत्रोच्यत इति प्रतिज्ञायोत्तरसूत्रमाह सूत्रम्- एकादीनि माज्यानि युगपदेकस्भिन्नाचतुर्यः ॥१॥३१॥ (भाष्य) एषों मत्यादीनां ज्ञानानामादित एकादीनि भाजधानि युगपदेकस्मिजीव आचतुभ्यः करिश्चि जीवे मत्यादीनामेकं भवति । कस्मिंश्चिजीवे द्वे भवतः । कस्मिंश्चित्त्रीणि भवन्ति । करिमश्चिबत्वारिभवन्ति श्रुतज्ञानस्य तु मतिज्ञानेन नियतः सहभाव','तत्पूर्वकत्वात् । यस्य श्रुतमानं तस्य नियतं भतिजानम् । यस्य तु मतिज्ञानं तस्य श्रुत्तज्ञानं स्याद्वान वेति ॥ अवाह । अथ केवलजानस्थ वर्मतिज्ञानादिभिः किं सहमावो भवति, नेति । अत्रोच्यते, केचिदाचार्या व्याचक्षते, नाऽभावः, किं तु तदभिभूतत्वादकिंचित्कराणि भवन्तीन्द्रियवत् । यथा वा व्यत्रे न मसि आदित्य उदिते भूरिते. जस्त्वादादित्यनाभिभूतान्यन्यतेजांसि ज्वलनमणिचन्द्रनक्षत्रप्रभृतीनि प्रकाशन प्रत्य किंचित्कराणि भवन्ति 'तद्वदिति । केचिदन्याहुः । अपायसद्यतया मंतिज्ञानं तत्पूर्वकं श्रुतज्ञानम्, अवधिज्ञानमनःपर्यायशाने च रूपिद्व्यविषये, तस्मातानि केवलिनः सन्तीति ॥ किं चान्यत् -मतिज्ञानादिपु चतुर्यु पर्यायणोपयोगा भवति न युगपत् । संसिन्नज्ञानदर्शनस्य तु भगवतः केवलिने। युगपत्सर्वभावनाहके निरपेक्षे केवलनाने केवलदर्शने चानु समयमुपयोग भवति ॥ किं चान्यत्-क्षयोपशम जानि चत्वारि सानानि पूर्वाणि, क्षयादेर केवलम् । तस्मान्न केवलिनः शेषाणि जानानि सन्ताति ॥ - एकत्रिंशत्तमस्त्रमवतारयन्नाह एवं मत्यादीनां विषये प्रकाशिते इत्यादि । एकशब्दः क्वचित्संख्यायों वर्तते, यथैको द्वौ बहव इति, संचिदन्यत्वे, यथैके आचार्या: पुनरेवमाहुः, तत्रैके अन्ये इत्यर्थः, क्वचिदसहाये, यथैक एव वीरप्रभुर्विहरति, तत्रैक एव असहाय एवेत्यर्थः । क्वचित्प्राथम्ये यथैकमागमनम्, प्रथमभागमानमित्यर्थः, Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તાવાર્થવિહળદાર્થવિ પરામgo રી૦ (यशो० टीका) एकशब्दः प्राथम्ये । तत एकादीनि प्रथमादीनि, भाज्यानि विकल्पनी-'. यानि, क्वचितप्रथमम् , क्वचित् द्वे इत्यादिप्रकारेण, युगपदेककाले, एकस्मिन् प्राणिनि, आचतुर्थ इत्याधनेकार्ये एकशब्दः प्रवर्तते, तत्रैहैकशब्दो विवक्षातः प्रायम्यवाचक इत्याह-एकशदः प्राथम्ये इति, तथा अकादीनीत्यस्यार्थमाह-प्रथमादीनीति ज्ञानप्रस्तावाद पञ्चज्ञानमध्ये पूर्वानुपूर्या प्रथमं मतिज्ञानमादि येषु तानि तथेत्यर्थः । लवकर्णमानयेत्यादावित्रापि बहुव्रीहिस्तद्गुणसंविज्ञान एव "तस्थान्यपदार्थस्य गुणा विशेषणानि समस्यभानपदानामा अन्यपदार्थे विशेषणतया विज्ञायन्ते यत्र" इत्येवं लक्षणो ग्राह्यः, न तु दृष्टसागरमानयेत्याहावित्रातद्गुणसंविज्ञानसः, तथा सति समासावयवदृष्टसागरपदार्थस्येव समासावयवैकपदवाच्यमतिज्ञानस्याप्युपलक्षणविधयव भानापत्तेस्तद्वत्तद्ग्रहणं न स्यात, तद्गुणसंविज्ञानबहुव्रीह्याश्रयणे तु लम्बकर्णभानयेत्यादौ समासावयवलम्वकर्णपदार्थसापि विशेषणतया भानमिव एकादीनीत्यत्रापि समासावयवैकपदार्थस्य मतिज्ञानस्यात्यपदार्थे विशेषणतया भानमु. पपद्यत एवेति मतिज्ञानग्रहणमपि स्यादेवेति । एतेन प्राथम्यवचन एकशब्दः, आदिशब्दश्चात्यकवचनः, तेनैतदुक्तं भवति एकस्यादिरेकादिः, प्रथमस्यावयवः, प्रथमश्चात्र परोक्षज्ञान, तसावययो मतिज्ञानम्, ततोऽन्यपदार्थे वृत्तावेकस्यादिशब्दस्य लोपः, उष्ट्रमुखवत, यथोष्ट्रस्य मुखमुष्ट्रमुखम् , उष्ट्रमुखात्मुखमस्येति वृत्तावेकस्य लोपः, एवमिहापि एकादिरादियेषां तानीमान्येकादीनीत्येकस्थादिशब्दस्य लोप इति तत्वार्थराजवार्षिकोत्तमपि निरस्तम्, यत उसाक्लिप्टकल्पनाऽपेक्षया लाघवादेकादीनी त्यत्र तद्गुणसंविज्ञानबहुव्रीहिसमासाभ्युपगम एव श्रेयानिति । युगपदित्यसार्थमाह - एककाले इति तथा च एककालावच्छिन्नभिन्नज्ञानसमानाधिकरणानि मतिश्रुतावधिमना: पर्यायज्ञानानि भाज्यानीति समुदितार्थः । ननु मतिश्रुतावधिमनापर्यायज्ञानानि न युगपद्भवन्ति भिन्न कालावच्छिन्नभिन्न सामयुत्पद्यमानत्वात् , चाक्षुपसिनादिज्ञानवत् , प्रत्यक्षानुमानादिवद्वत्यनुमानेन योगपद्यनिषेधेनार्थतः क्रमभावित्वसिद्धेनॊक्तं युक्तम् । अथ शकुलिभक्षणे पञ्चेन्द्रियजन्यपञ्चज्ञानानि युगपत्सनिहितरूपादिपञ्चविषयाणि भवन्तीति तटान्तेन मत्यादिज्ञानान्यपि युगपद्भविष्यन्तीति चेत् , न, शकुलीभक्षणस्थलेऽपि क्रमभाविपञ्चज्ञानेष्वेव लधुवृयोगपधभ्राः न्तिभावात् , अत एव नैयायिकादयोऽप्येकदैकमेव ज्ञानमभ्युपगच्छन्ति, यस्य ज्ञानस्य प्रबलतरसामग्री तदन्यज्ञानं प्रतिवध्य तस्यैव ज्ञानस्योत्पादाद, अत एव " युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिमनसो लिङ्गम" १-१-४ इति गौतमीयसूत्रमपि सङ्गच्छते इति चेत्, उच्यते, उक्तानुमानादुपयोगाभकानामेव ज्ञानानां योगपधनिषेधः सिद्धयति, से विष्ट एवास्माकमपि, "जुग दो नत्थि उपओगा" इति विशेषावश्यकमाण्यवचनात् । अनेन भाष्यवचनेन युगपदुपयोगद्वयं निषिध्यते, जवन्यतो यस्य ज्ञानस्यैकं समयमुत्कृष्टखोजतर्मुह वा स्थितिः तज्ज्ञानकालावच्छेदेनोपयोगात्मकज्ञानान्तरानुत्पादाद, न स्वनुपयोगात्मकानां मत्यादिज्ञानानां शक्तिया योगपर्व निराक्रियते, सेवा सिद्धान्त पट्पटिसागरोपमस्थित्यादिकालमानस्य प्रतिपादना, 'उक्तञ्च-जैनस्यापि हि Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ વાવિવાદાયીપિ પિરામરૂ દી. ૨૮૨ : ફત્યામિવિધી, થાય, તદ્રિવક્ષાયાં લૂ પ્રાગ્રહળવ્યાત્ ! ચથી “વિશ્રાવતી સંસારણ પ્રા વતુર્ચ” “વેશતોલંક્લેયમુળ પ્રા સૈનસાત્ ” ત્યા જસ્મિન્ નીવે સંભવન્તી મનના નૈઋાન્તન શાસ્ત્ર મનાવૌ વિજ્ઞાન દ્રપાર્શ્વરિષ્ઠવં સિદ્ધ, ડપયુઝૂર્ય કમાતુને જ્ઞાનસત્રભાન માવિત્યેનો પાકાત, અનુયુજીસ્ય શક્સિતો યૌપિબસિદ્ધરતિ સ્વીકારત્નાવદ્વિતીયપરિચ્છેદ્રીયત્રવિંશતિતમવ્યાયામતિ | નિત્વનુયોગાત્માયયુિપદ્રવસ્થિત સત્તાનાં માવિતુર્ણોનાનાં વાંધર્વમાવતાંવેત્તાવ વોવાર્થવિષયભજ્ઞાનોપોના સાનિયમન મતવ્યમેવ, અન્યથી નવાજ્યા વધત્વમાંભાનુપસ્થિતિ મૈવ, નિયમમવાત, મિન્યથી “ડોસે છાવર સમારોહમારું સારું” તિવવનાન્સત્યાવિજ્ઞાનત્રયજ્યોત પલાસા રોપમાનિતત્વમ્, ડોળ વેળા પુર્નેહી” ત વવનાન્મનાર્થવજ્ઞાનરથ રહેશોનપૂવોટિસ્થિતિશચં સતે, ૩eતોપ છવાશજ્ઞાનોપયાન્તર્કવિતા સ્વતથષ્યિસ્થિરથમવા, તથા વોનિયમોનાનિત , તમાત્ર વસ્ત્રોગ્યાર્થવિષયજ્ઞાનાनुकूलशक्त्य परनामल०ध्यपेक्षयोक्तज्ञानानां योगपद्यमवसेयम्, न चात्रापसिद्धान्तत्वप्रसङ्गः, નાદ્ધિાઁ અંતે ! વિહા પત્તા ? માયા! પંવિહા પત્તા, તં નહીં કામિળવહિનાણા ના વનાણી” ઉતિ મત્યમશતાદ્રિતીયોદ્દેશકાળ પડ્યજ્ઞાનાનાં કાબ્ધિસ્વિસ્થ “યામિવિહિયનાદ્વિધામાં મત ! વીવા નિીિ વનાળી ? પોયમ ! ના નો અભાળી ? અતિયા સુજા વત્તારિ નાંણામયગાણ” ફત્યાવિશ્વગામિનિયોજ્ઞાનબ્ધિવાનાં પીવાનાં મીતિશ્રુતજ્ઞાનયો પાચિવ મતિધૃતાવધિજ્ઞાનાનાં મશ્રિતમનપર્યાયજ્ઞાનાનાં વા પવિત્ર મતિધૃતાવમન પર્યાયજ્ઞાનાનાં હ૦થયા વાઘસ્ય પ્રતિપાદુનાહિતિ ! માવતથમરતબોદ્દેશ–“હમવિણ મતે ! નાથે પરમણિ ના તમયમણિ નાળે ? નાથમાં ! રમણિ વિ નાળે પરમાણ રે નાણે તદુર્મયમવિધિ નાખે” ફત્યમાહિતત્વતિદ્રવોત્પન્નય મતિધૃતજ્ઞનદ્રયસ્થ મતિધૃતાધિજ્ઞાનત્રય વા હસ્થમૈવેમકે પરમ તહુમયમ વાનુામાં સફચ્છ, નાહીને માથાનીત્યારય સૂત્રસ્ય “વીવાળું મત ! વિં નાળ માળી? મા ! નવાં નાળી વિ જાળી વિ, ને નાળી તે અrg હુન્નાળી સ્થાતિયા તિજ્ઞાળી અત્યંતિયા વીના ત્યેતિયા નાખી, જે ટુનાથી તે કામવોહિનાની ૨ સુચનાળી , તે તિજાળી તે શામળદિયનાળા સુથના હિનાણી, અથવા વાણિહિંયના સુચનાળી માપવનાણી, ને વડના તે ગામિણવોહિયાળ યુનાળ ગોહીનાની પાપાવનાળી, જે બનાળી તે નિયમ વહનાની” હતિ માવત્યષ્ટમસંતતિયોદ્દેશા સહ વિરોધરહાવ , તતત્ર મતિજ્ઞાનદ્રય નિયત સદમાવત્વેનોwવાત વેવલજ્ઞાનમુત્ત, ન તુ પતિ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । २८३ : तत्वार्यविवरणगूढार्थदीपिका एकशित्तम० टी० વરતિ મિર્ચાિના, મિશ્ચિન્મનુષાવાળી, મત્યાવીનાં પન્નાનાં નાનાનાને मतिज्ञान सम्भवति, येन निसर्गसम्यग्दर्शन प्राप्तमचापि सामायिक श्रुतं नाधीतं तस्य अन्यानुसारि विज्ञान श्रुताख्यं न भवतीति । करिंगश्चिद् द्वे भवतो, येनाधिगमसम्यग्दर्शनं प्राप्तं तस्य श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिः श्रुतं द्वादशाङ्गम् , शेषेन्द्रियोपलव्धिर्मतिज्ञानमिति । कस्मिश्चित् त्रीणि-द्वे मतिश्रुते, तृतीयं चावधिज्ञानम् । ज्ञानमिति । अत्र तु मत्यादीनां पञ्चानां ज्ञानानामक मतिज्ञान सम्भवतीत्युक्तमिति पेत् , मैवम् , आचार्यकृतविवक्षाभेदमावस्यैवात्र प्रयोजकत्वात् , अत एव तयार्थश्लोकवार्तिके त्रिंशतमस्त्रटीकायां-" प्राच्यभेक मतिज्ञान, श्रुतभेदानपेक्षया । प्रधानं केवलं वा स्यादेकत्र युगपरि ॥२॥" इत्युक्तमपि सङ्गच्छते । ननु जीवो मिथ्यात्वं परित्यजन् यदेव सम्यग्दर्शनमुत्पादयति तदैव तन्माहात्म्यात् सन्यज्ञानरूपे मतिश्रुते युगपरसमुत्पयेते, यदि च मतिज्ञानभावेऽपि श्रुतज्ञानं नाभ्युपगम्यत तदा-"जस्थ आभिणियोहियनाणंतत्थ सुअनाणं, जत्थ सुअनाणं तत्थ आभिणियोहियनाणं, दोषि एयाई अण्ण[ममणुगयाई" इति नन्दीस्त्रोक्तविरो. घरस्थात् , तत्र तयोनियतसाहचर्यभावस्यैव प्रतिपादनादिति चेत्, नैप दोपः, यतः सम्यक्त्वोत्यत्तिकाले समकालं मतिश्रुते लघिमात्रमेवाङ्गीकृत्य प्रोच्यते, न तूपयोगम् , उपयोगस्य तथा जीवस्वामान्यतः क्रमेणव सम्भवात् । उक्तञ्च "इह लद्धिमइसुयाई समकालाई न तूपओगो सिं" इति । अत्र तु तातपादश्रीगुरुभयचरणकमलनिरन्तरोपासनकतत्परस्य निरसमानुपकृतकृपामर०याप्ताऽन्तःकरणश्रीगुरुमुखाच्छास्त्रमधीत्य शाब्दप्रमाविशेषरूपं यदागमातिगहनार्थज्ञानं जायते तस्मैव लब्धिकार्यरूपस्य विवक्षणात् , तस्य च विशिश्श्रुतज्ञानस्य निसर्गसम्यग्दर्शनकालेऽभावानोक्तदोपः, एतच्च प्रागेव भक्तिम् । एतदभिप्रायेण द्रव्यलोकप्रकाशेऽपि "मा निसर्गसम्ययेन स्यात्तस्य केवलम् । भतिज्ञानमनवात,-श्रुतस्यापि शरीरिणः॥६१ ॥ अत एव मतियंत्र, श्रुतं तत्र न निश्चितम् । श्रुतं यत्र मतिज्ञान, तत्र निश्चितमेव हि ॥ १२ ॥" इत्युक्त सङ्गच्छते इत्याशयेनाह-येन निसर्गसम्यादर्शनं प्रप्तिमचापि सामाथिक श्रुतं नाधीतमित्यादि । 'सेसयं तु मइनाण" इत्युक्तिमनुसृत्याह शेषेन्द्रियोपलब्धिमतिज्ञानमिति-श्रोत्रेन्द्रियव्यतिरिक्तचक्षुरादीन्द्रियचतुझ्यजन्यं ज्ञानं मतिज्ञानमित्यर्थः। नन्वेवं तर्हि किं श्रोनेन्द्रियजन्यमवग्रहादिरूपं ज्ञानं तन्मतिज्ञानरूपं नैव, ओमिति चेत्तर्हि मतेर साविशतिभेदमङ्गापत्तिरिति चेत् , उच्यते, “सोइंदियोवलद्धी होइ सुअं सेसयं तु मइनाणं” इत्यादिगाथोक्ततुशब्दोऽनुक्तसमुच्चयार्थक इति तेन तदप्यवग्रहादिरूपं श्रोत्रेन्द्रियोपल०ध्यागमन मतिज्ञान ग्राह्यमिति नोक्तदोपः। यदाह भाष्यकार: " तुसमुच्चयवयपाओ व काई सोइंदिओवलद्धी वि । भइरवं सइ सो उगहादओ हुँति मइभेदा" । १२३ । इति । अधिकं विशेषावश्यकमायटीकातोsसंयम् । तृतीयं चावधिज्ञानमिति-सिद्धान्ते च द्वे मतिश्रुते तृतीयं मनापर्यायज्ञानमित्यप्यु Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ વાર્થહિવાર્થીપિ પક્ષશરમજૂ૦ ૦ ૨૮૨ દ્વિવારિ ત્રીબ્યુalનિ વતુર્થ = મન:પર્યજ્ઞાનતિ | શ્રત વત્ = પ્રવરતે? | ઉચ્ચતે પ્રત્યે મતિજ્ઞાનામિરિવાતેતુ મૃતહારિન્ટેડ તાપમાવા, તવાહ-સુતજ્ઞાનત્યઢિ રેવશરાર્થઃ | શ્રુતજ્ઞાનયૅવ મતિજ્ઞાનેન સહ નિ તોડખ્યામવારિતા, સમાવે સામાનારિર્થ, વ્યારિતિ ચોવ ત , તપૂર્વમતિપૂર્વવાભાતિ/રળવાહિતિ થાવત્ | રૂમ, તાહિ મળવત્યમશતદ્ધિતીયોદ્દેશ “વવા મંત! જિં ના ના ” તિ પ્રશ્નોત્તર ધટવર્તયા વિવારે બાવ–ને તિજાળી તે ગામવોહિલના સુચનાળ શોના હવે ગામિળવોહિયાળી સુચનાથી મળાવનાળી” તિ, તથા “તા શીયા vi મતે ! નીવા વિનાની નાની ? બોયના નાળી વે જાળ વિ, gવું કોહિનાવવત્તારું વિસ્તાર નાણા” ફત્યાત્રિટાયાં વિજ્ઞાનજ્યોછબ્ધિ જે જ્ઞાનના દ્વિજ્ઞાના, મતિમૃતમવિ, ત્રિજ્ઞાના વા મતિવ્રુતમનપથમવાહિતિ વાહિતમ્ “મનપજ્ઞવનાળ૦દ્રીય મતે ! નીવા જિ નાખી જાળી નો મા ! ના, નો જન્મ | સહિયા તિશાળી, શલ્યરૂશા વનાળી, તે તિજાણી તે કામિળવોહિયાળ જુના જળપાનાણી, જે વાનાણી તે આમિળવોદિરનાળી સુનાણી હિનાથી માપવાળી” હત્યપિ “માવડાવલાપારેવડí નૈહા માપનાળદ્ધિવાતિ તત્રો ! તાવાર્થવશેવધુમ “ યા મતિવૃતે સ્થાતિ, તે વાવધિ વિત મનવય જ્ઞાન , ત્રીજી પેન યુતે તથા શા” તટ્ટી જૈવ વવનિપુન મતિયુતે, કવિને ધાંગૃધિયુતે મપાયુતે નેતિ ત્રીજી જ્ઞાનનિ સવાતિ, વનિત્તે વાધમના પર્યાયન યુતે વવારિ જ્ઞાનાને મીનીતિ . ત વ દ્રવ્યોવાશેર્ગ-“મતિજ્ઞાનવ્રુતજ્ઞાન- મવતઃ સહી ગ્ર િતે સાવાધિજ્ઞાને, સમનપીવે તું વા રા” ફલ્યુમિતિ નનુ કથા મતિજ્ઞાનમેજમેશામિનાત્મર પ્રતિ તથા શ્રુતજ્ઞાનવ શર્માશિવાલ્મિનિ ર્ધાિ ન ઘટ્યૂત રૂટ્યાશક્તે-શ્રુત વિત વિ ન પ્રવત? કૃતિ ! શ્રુતજ્ઞાન મતિજ્ઞાનામવા, મતિજ્ઞાનસ્ય વારણી પૂર્વે નિયન સાવ પવ શ્રુતજ્ઞાનોત્પાવાવ, તમારે જે તદ્દમાવત્વિવધવ્યાતિ માવત્ યય ચુત ચાનુસાર શ્રુતજ્ઞાનં તરસ્ય નિયમેન મતિજ્ઞાનમિમિનું પ્રાળને મતિશ્રુતજ્ઞાને દે રતન, મતિજ્ઞાને તુ જ કૃતજ્ઞાનાવ્યમવારિ, નિલસિનિનોનવાદ્યુતાક્ષર શ્રુતાનુલારિશ્રુતજ્ઞાનમાળાન્દ્રિયાનિન્દ્રિયનમતિજ્ઞાનોત્વાકાંવિતિ તદ્વતશ્રુતજ્ઞાનામાવા મતિજ્ઞાનમેમેમિનાત્મન્થાપત્યશન સમાધન ૩થ--ત્તર્ણ મતિજ્ઞાનવ્યામિવારિત્વતિ | તા-પુતજ્ઞાન તુ મુતારિપ તથાપત્યમાવાહિતિ-શ્રુત ગુરુબિધ પઢિવા યય થવ્રુતજ્ઞાન સસ્પદ્યતે તાજુહો મતિજ્ઞાનય તછૂતજ્ઞાનસામાનાધિવેગપિ નિસાના શ્રુગ્રંન્યાનુસારશ્રુતજ્ઞાનામાવેન તદ્ધતિ, પર્વ અર્થ સ્થાપિ બ્રુત નાધી લે તમિસ્ત્રી પુરબે ઘુતજ્ઞાનામાવતિ વૃત્તિવેન શ્રુતજ્ઞાનવ્યમારિવાત્તરય તથાસ્યમાહિત્ય પતિપૂર્વજવંવિતિ-નૂર્ણવિષિ-સુર્ગવે મધુવયં સુયંતિ વિજ્ઞા પુર્વ મનાઈ જયં, તેલ પિટ્ટો સુર્ય” તિ! Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ૨૮૪ : - તવાઈવવા દાર્થતીપિકા પáરાતમજૂરી હાર્ચ ૨ રળવાર્થ મવતિ, ધૂમ વ વલ્લે, તવાદ થય શ્રુતિ! કારણે તુ ફાર્યય ન વ્યાખ્યું, વિિરવ ધૂમા તહિ યસ્ય સ્વિતિ પૂર્વ મનનાયાં હરિતાયા વિહ-અ વજ્ઞાન પૂર્વે પૂર્વાધ્યાà, મતિજ્ઞાનાવિમિ સમાવ સાવસ્થાન, મધતિ ન વેતિ | શત્રોવ્યતે મતના તત્ર વિહાવર્યા વ્યાવક્ષતિ-નામાવ જુવાસ્તિ પૂર્વપ્રાણાના મતિજ્ઞાનાવીનાં, નાશઝામીવાત, પાધિજણાવચ્છિવપૂર્વવર્તિતામધેન વચૈવ વલમાનારણપુળનારા જ્ઞાનવતુષ્ટયવત્ રામવીર્યતનસુલિતત્યાવીના નારા સન્ના, ન ર તન્ના, પરસ્થાપિ સન્મવાત, તસ્માભાવસ્થાનમસ્તે અત્યાવીનાં વન, તતઃ ક્રિમિતિ તાનિ સ્વમર્થ ન કરાયતિ, કતે, મમવાત, તા િરામમૂતવાતમીવાત, વિવિશે જાર્યાનારીલિ, મવવિવાવિત્, ધૂવવ વહેરિતિ, કારણય વિપર્યય ધૂમ માવા, મા વામાવહત્યન્વયવ્યાતિપ્રત્યક્ષમાળવાન્ ધૂમય વળ્યમિવાતિયાં સિદ્ધયાખ્યક્ષ તદ્વત્યિર્થ છે કારણક્ય જાવ્યાખ્યત્વે છાપામાર વહિરિવધૂમધેતિ-યોગો ધૂમામાવવાત વાતન ધૂમ વારિવાર્ વદ્ધિને ધૂમ વ્યાયા, તદ્દત્ય ચદ્ધિ મત્યાહીને જ્ઞાનાને સ્વાવરક્ષયોપશમમાગપ બાહુષ્ય તવા નિરોષતા નવાવરણ સુતરાં મયુ, વારિત્રપરિબાવત, તરંક્ય રવજ્ઞાન છે તાનિ ને સ્યુ ? સારું -“શાવરણવિએ નાછું વિસ્તૃતિ મસુયાધિ સાવરપાલવિ, વાઈ તા હૂંતિ નીવર” શા હતિ તથા ર તવાની નિશાનવસ્વાવરણવિમમિવાળાં માંદીના ભાવ પવ, નામીવ ફળાહાવજીન જેવજ્ઞાનસમાનાધારણાવ માવિતજ્ઞનાનીત્યાર્થ મનસિ વિગ્નતાં પશ્ચિદ્રાવાઆંબાં મતમાહેં-તત્ર વિવાવ વાવક્ષતે રૂવાંવનનુ લાયોકશામજમાવવાળાં વમત્વવશિદમત્યવિજ્ઞાનાનાં વવાતાવધિવત્વેન વસ્ત્રાપૂર્વો તેમાં વોત્તરવર્તિવઢજ્ઞાન ક્ષાવિમાન પરિણામોત્તેન તેષાં વિનાશ, વઘદ્રપમાં પરિણમતે તત્તેર વિનાતે યથા મૃપિન્ડ ધટેનેતિ સામાન્ય વ્યાસ, તથા વૈવવધ્યાવચ્છિન્નપૂર્વવૃત્તિવસન્વજોન વિજ્ઞાનચૈવ તિમિતાસજૅન સમાનાધિવાળામુળનારાાતિ હેતુત્યમિત્યમ્યુપામે તોપમાદ નવકુદાવત્ રામવીર્યવર્જન સુવિતત્વાનામપિ નારાકસવિતિ | “૨ નાશ પરસ્થાપિ સન્મવીત” તિ સ્થાને “જ તેના પર સમ્મતા” ફતિ પાઠો પુત્ત, શમવર્ષાવિનાશમાનામછાપજ્યાં પરિહનું તદ્દા શક્યત વેવજ્ઞાન શાવર્યાદ્ધિ નારા વરસમા સ્થાન વૈવામિત્વ | ઉપસંહતિ–તાતિરવિ તત ફત્યાદ્રિનાઝશદ્દ સમાધ-4થત રૂાના ય પ્રવકતરતિનાવનાં સબાપતેનાંતિ વલિંગિરિનક્ષત્રીવનિ તિરોહિતાને સત્યપિ વિનરો હવક્રાયમરિવારવાની સતતિ વિક્ષ્યન્ત તથા મતિજ્ઞાનાવીન્યપિ સોવિત્યા હવા ન થાત્રયન્ત રૂલ્યવાવ ર તવાન ને વિક્ષ્યન્ત | યવાહ “ શામળિયોહિનાબાળ વિ નિણરૂ વિનિતા સાથે જ સુરત નવ નક્ષ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તરંવાવિવળ વાચેતીપિ] પત્રિરાત્તમલ્લૂ ટી } ચાહિ—ર્વાનઃ સર્વાષે વારાવીન્દ્રિય વિષયઋહળ પ્રાંત 7 પ્રિયતે, પ્રવાશેન રિતાર્થાત્, પુર્વે મત્યાવિદુષ્ટયમતિમાઃ। અન્નદાન્તી સન્તેહાવસાન્ધ દાન્તમાહ યથા વ સ્ત્ર ત્યાદ્રિ । ચા યા ગ્રેડદ્રતૢિતે, નમસ્ત્યાાશે, આહિત્યે સૂર્વે, છાંવતે મારતેનસ્ત્વાત પ્રવરણાત, આદિત્યનામિમૃતાને તિરોહિતસામર્થાનિ, વનોઽમ, મર્માળઃ સૂર્યાન્નતિ, વન્દ્રઃ શશી, નક્ષત્રમાંધન્યાવિ, તાનિ પ્રસૃતિયેષાં જ્ઞાનિ તેનાંસિ, પ્રાશન વ્યાવવમાસનું પ્રિિવરાળિ મન્તિ તથા વહેન મૂરિતરપ્રવાશેનામિમૂતાનિ મત્યાવીન્યપતિ । ત= મતમચુમ્ । પૂર્વે સતો મત્લાદ્યુયોાસ્ય જાત વ વિરતેઃ, તક્ષ્યોપશમનાશતાયાશ્ચ પળ લજી નિવા ત્યાવિના જેવજ્ઞાનાપિ જ્ઞાર્જીસદ્ધત્વાત્, યોષશમામાનેન ક્ષાયોપશમિજાના મસ્ત્યાવીના વહિયમાવાત્ TMમાર્રેષિ II & II” ત્યાાયં દૃષ્ટાન્તાન્તરમા-થયા વા વ્યÆ ત્યાવીતિ। પૂર્વોત્તમત નિરાંત-તથ મતમયુમિતિ અયુત્રે હેતુમા-પૂર્વ સતો મર્ત્યાઘુપયોગચ જાહત 7 વિતરિતા “વળનું વજી પદિવા” હત્યાવિને તા અત્ર “ પાવૈં વહુ પદિવા, તત્યેો તેવમાત્રમાસ ! મધુ રોમાયા, વ—મિત્તામળે ના * ||૨|| તીય માર્યો નૃપમાધ્યો।સેયા ! તસ્યાત્રાયમયે શ્રૃતઃ– પ્રતિષાતે ’ પ્રતિપાવિષયેં લતુ પશ્ર્વમ્, શ્રુતજ્ઞાનસ્ય પશ્ચમિ સ્થાનૈઃ પ્રતિપાત ત્યથૈ । તત્ર પ્રાંતપાતો દેવમાવમાસાઘ વેતિઃ । દ્વિતીયો મનુષ્યે રોપાત્ । તૃતીયો મનુષ્યમવે વ પ્રમાવાત્ । તુર્થઃ જૅવળમાવે । મો મિથ્યાત્વમને । તત્ર પ્રથમં પ્રતિપાત તેવમાત્રમાસાઘ માર્યાત-પત્ન સપુળ્યો મજીલો, વેબને તું ન સમરર્ફે સન્ત્ર | વેસશ્મિ હોર્ફે મથા, સદૃાળમવે વિ મચળાં ૐ ।।” ॥ ૨૨૮ || ઋતુવંશી મનુનો વેવત્વે બાણે સતિ ‘ તત્ ' શ્રુતં સર્વે જ્ઞ સ્મરતિ, વિષયપ્રમાદ્તરસ્તાવિષયોમાવાત્ । વેશે મતિ ‘ મનના ' વિક્લ્પના, સાત્યેવમ્ ચિદેશં નાંત, ચિદેશસ્યાપિ વેશમ્ , ચિપુનરાવશજ્ઞેષુ સર્વે સ્મરાંત, ચિત્તેષામાંયે દેશમાંતે । વેવ માવતો તેમવમાસાઘ પ્રથમ પ્રતિપાતઃ । સન્મતિ ચેષાનું માત“ સદાળમવે ત્રિ મળ્યા હ ” સ્વસ્થાનું મનુષ્યત્વ ાસ્યપિ મને રોમિઃ મનના વિપના ! હિરોમે સમ્રુત્યને તાવિધીહાવશતઃ તેનનાત્ર ૫રતિ, પ્રમાવતો ના મુળનામાવતોપાત્ત્તાંત શ્રુતમીતમ્, વજ્ઞાનમાવે વા શ્રુતજ્ઞાનત્ત્વ ક્ષય, નવૃશ્મિ ૩ છાણમસ્થિ નાળે 1 (આવ॰ નિ॰ પાયા રૂ૧) ાંતે વચનાત, મધ્વાઈનગમને ના સર્વશ્રુતામા ં, અજ્ઞાનીમવનાવિતિ । ૮ । શ્રુતજ્ઞાનવશ્ર્વ શ્રુતજ્ઞાનાવાળમંક્ષયોપશમવસ્ય શ્રુતજ્ઞાનારાસ્ય સદ્ભાવે ન સમ્મવૃત્તિ ૫ đજાશે સથે, તભાશઽનતા 7 શ્વસ્થાના પોતવળજ્ઞાનેવ્યનેન સિદ્ધા “ નક્રશ્મિ ૩ છાસ્થિ નાળે ” કૃતિ વર્ષનાત્, તદ્દત્મત્યાવિજ્ઞાનાવરણમેયો મનાશનના ૬ માત્રનીયસ્ત્યાશયનાદ વજ્રજ્ઞાના િશાઅસિત્તુત્વા વૃિત્તિ 1ક્ષોપરામામાવેન ફ્લાયોપાનિાનાં મૃત્યાવીનાં ‘વયોવસનિગા ગામિાળોહિયળાપદ્ધી નાવ રહ્યુબોવાતા 45 વાતિ *** ૨૮: * 40 ** Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २८६ : स्वार्थविवरणदीपिका । एकत्रिंशत्तमसू० टी० शमादयोऽपि क्षायोपशामिकाः केवलिनि नाभ्युपगम्यन्त ५५, अपकणिसमेतद्वितीयापूर्वकरणभाविधर्मसंन्यासकाल एव तन्नाशात् । किन्तु क्षायिका विलक्षगा इति मत्याद्यभावे शमाधभावोऽपि स्यादित्यह परमार्थानामुपाल-भः । इदं तु स्थात् मत्यादयः क्षायोपशामिकाः केवलिनि मा भूवन्, क्षायिकास्तु केवलज्ञानसमकक्षा भवन्तु केवलज्ञानावरणक्षये मतिज्ञानावरणादीनामपि क्षयस्थ ध्रुवत्वात् , अयं तु दोषः सूर्याभिभूतान्यतेजोईया तेन दुष्परिहरः, क्षायिकत्वेनोभयो वानुभवतोल्यात् । द्वस्त्रिोक्त्या श्योपशमभावभावनानां मत्यादिचतुर्मानानां-" अरहा जिणे केली खीजाभिणिवाहियणाणावरणे खीणसुअगाणावरणे सीओहिणाणावरणे खीणमणपजणाणावरणे खाणकेवलणाणावरणे" इत्यनुयोगद्वारोक्त्या क्षीणज्ञानावरणपञ्चके केवलिनि मत्यादिज्ञानावरणीयकर्मणामेवाभावेन केषां क्षयोपशमस्यादिति तदभावनाऽभावादित्यर्थः । शमवीर्यसुखितत्वादीनामपि नाशप्रसङ्गादिति यदनिष्टापादनं प्राकृतं तदपीपस्या परिहरति-शमादयोऽपि क्षायोपशमिका केवलिनि नाभ्युपगम्यन्त एवेति । तत्र हेतुमाह-क्षपक श्रेणि गतेत्यादि । तन्नाशादिति बायोपशमिकशमादिनाशादित्यर्थः । उक्तञ्च ज्ञानपिन्दौअत एव द्वितीयापूर्वकरणे तात्तिकधर्मसंन्यासलाभे क्षायोपशमिकाः शमादिधर्मा अपि अपगच्छन्तीति तत्र तेत्र हरिभद्राचार्यनिरूपितमिति" । अत्र तत्र तत्रेति योगदृष्टिसमुच्चयादावि. वर्थः । तथा च तत्पा:-द्वितीयापूर्वकरणे प्रथमस्तात्विको भवेदिति, तट्टीका प्रथमः धर्मसंन्याससंज्ञितः सामर्थ्य योगः ताचिकः पारमार्थिको भवेत् क्षपक श्रेणियोगिना, क्षायोपशमिकक्षान्त्यादिधर्मनिवृत्तेरिति । मतिज्ञानाधावरणपञ्चकक्षये एकमेव केवलज्ञानमुत्पघते यतः केवलज्ञानावृत्तिज्ञानत्वव्याप्यजात्यवच्छिन्नं प्रति फेवलज्ञानावरणस्य हेतुत्वातदानी तदभावान तदुत्पत्तिरिति नैककालावच्छिन्नतत्सामानाधिकरण्यं केवलज्ञानस्येति साम्प्रदायि. कानाम्मतमुपदयितुं भूमिकामारचयति-इदं तु स्यादित्यादि । क्षायोपशमिकमत्यादिकम्प्रति क्षयोपशमस्य कारणत्वेन केवलिनि मत्याचावरणक्षयोपशमस्याभावात्तत्कार्यभूताः क्षायोपशमिका मत्यादयो मा भूवन्, किन्तु क्षायोपशमिकमतिज्ञानविलक्षणा ये क्षायिका मस्थादयस्ते क्षायिकत्वात्केवलज्ञानसमकक्षाः किन भवेयुः, तदानीमावरणमात्रविलये केवलज्ञानकारणकेवलज्ञानावरणक्षयवन्मतिज्ञानादिकारणमतिज्ञानाधावरणक्षयस्यापि नियमेन भावादित्यर्थः, नन्दम्भूता मतिज्ञानादयस्वदानी जायमाना अपि सूर्याभिभूतान्यतेजोव. स्केवलज्ञानाभिभूता एवेत्यनभिभूतमतिज्ञानादिसाहित्यं न केवलज्ञानस्येति तत्साहित्यप्रसङ्गलक्षणदोषो न भवतीत्यत आह-अयन्तु दोष इति । प्रकृष्टप्रकाशत्वेन सूर्यतेजसो पलववेन दुवैलानां नक्षत्रादीनामभिभवस भवेऽपि क्षायिकत्वेन सभषलत्याविशेषादि केवलज्ञानेन मत्यादीनामभिभवस्तर्हि मत्यादिभिरपि केवलज्ञानस्याभिभवो भवेत् , यदि वा मत्यादिमिन केवलज्ञानस्याभिभवस्तर्हि केवलेनापि न मत्यादीनामभिभव इति यादृशं केवलज्ञानं तादृशमेव मत्लादिज्ञानमिति तसाहित्य तस्य दुपरिहरमेवेलाह-क्षायिकत्वेनति, उभयोः Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ વિધાર્થીપિ . પશ્ચિમ ટી ૨૮૭ શાવરણવિષયકાર્યોત્પાવાવરણયરા દેતો ખ્યનમમવસ્ય વિનિનુમાનચત્ની, વજીવત્સનાતચવકને વમિમવો, વવત્વે માત્ર તુમિતિ, તમાત જેવજ્ઞાનવ્યવૃત્તજ્ઞાનત્વવ્યાખનાત્યવચ્છિન્ન પ્રતિ વિજ્ઞાનાવરણચૈવ દેતુત્વાવ, વત્રજ્ઞાનત્યાન્ને ૨ છોધવા જ્ઞાનાવરણક્ષયત્વેનૈવ હેતુત્વા, જ્ઞાનાવરણપન્નક્ષય વસ્ત્રજ્ઞાનમેવોપર્વતે જ મત્યાવીનીતિ તૈઃ સાહિત્ય ને વસ્ત્રજ્ઞાનત્યામપ્રાયવત્તા સાબવાદિયાનાં મતમોહ-નિવવાદુરિત્યાદિ વિહુનર્ણવતે, નૈતાન મત્યાનિ, વેવાનિ સિપિ, ચશ્માનાતિજ્ઞાનમપાયસદ્રવ્યતયા મવતિ પાયો નાવિહેદાનમેળ શ્રોત્રાઘુપધાર્થનિશ્ચયો, નિવવધનવાન સ વેનિોડસ્તિ થાવર શોમર્નાન સચવરવર્જિનિ સતિ તાવન્મતિજ્ઞાન, તાપિ જેવટનો ન સન્તીતિ વૃતસ્ત મતિજ્ઞાન / તવવાર તપૂર્વ શ્રુતજ્ઞાન દૂરોત્સારિતમેવ | અવધિમનપયજ્ઞાને રૂપિમાત્રનિયત કૃતિ તે પે જસ્ટિન, તસ્યાછિન્નસાનવા તરગાહુપપરિવાત જેનો જ્ઞાનવાયામાવ. કિં વાચન મતિજ્ઞાનાgિ વર્ષ, પર્યાયેળ મેળ, ડાયોયુપસ્મિન્સાન થવા મતિજ્ઞાનોપયુત્તો ન ત કૃતાવનામન્યતન વેનેવિત્, ચા શુતોષયુક્સો ન ત મચાવનામ તમેનેતિ | નિતુ ન મેગૈતત્ત્વજ્ઞાન તોડાવુપયોગ તવાદ મનેત્યાદિ સંમિને વંદ્રવ્યપર્યાયગ્રા જ્ઞાનવીને વસ્ય તદાચ, માવતો માલ્યામાજ્ઞિાનવિજ્ઞાનયો. નનુ વિજ્ઞાન વિષયો નાખsfમમ્રતા, મત્યજ્ઞાનાવળક્ષય, તેનામિપૂત રૂલ્યમિપૂત રામવી મયાવયોગમમતા, વકત્વનામમૂત પબમવાનમિમૂતમિયત ગ્રાહ-વરાવવધાર્યો પત્તાંવિતિ, મતિજ્ઞાનાઘાવરણે મતિજ્ઞાના િવનાળોતિ, વિજ્ઞાનાવરણે વજ્ઞાનમાળોતિ, તથા ૧ વેવજ્ઞાનાવરણક્ષ વજ્ઞાનાવરણવિષયમૃતત્વ વિજ્ઞાનક્ષણસ્ય વાર્યોત્પત્તિ, પર્વ અતિજ્ઞાનાલ્યાવરણ મતિજ્ઞાનાધાવરણવિષયમૃતસ્ય મતિજ્ઞાનાદ્ધિક્ષણાર્યોત્પત્તિરિત્યેમવિશળવાળવિયાત્પ સત્યાં વિજ્ઞાન વિજ્ઞાનાવરાક્ષસ્થાનમમવા, મતિજ્ઞાનાવિહેતોતિજ્ઞાનાવાવાયામમવ ત્યય વિનિમાતરમાવેન વિનિમ્નરાજ્યાહિત્ય, વઢવલ્લઝાર્તાયસંવરને વવવ વવવું વોમિયત્ર તુમિતિ વાંચાસૌ સનાતી વવત્સગયા, વછવાન તેના કોઇ નક્ષત્રાહિતનાતો જૂનાપનાવિના નજીત્રાહીનાં સંવનમાંચ્છા રામમવાર વાત્ર ને સન્મવતિ, મતિજ્ઞાનાલ્યાવરણક્ષયે વિજ્ઞાનાવરબેલ વાયત્ર તુલ્યવઢવાહિતિ ન વાજ્યામિમવાવા, તથા ૨ વકજ્ઞાનાવરણ મતિજ્ઞાનાલ્યાવરણલક્ષ્યામિમવ તિ ભૂમિષ્ટ્રતાન્યતેનોને નવ વાતું પુરું, કૂવાછન્તિવયોવૈવાહિતિ માવા નન્વયં ર્તા જિં વકજ્ઞાનશાસ્ત્રાર્જીન તવામિનિ ક્ષાનિયાવિજ્ઞાનવતુદયમવુપાવ્યમ્ શોમતિ વેત્તા-“ને નાળ તે નિયમી વનાળી” તિમવિત્રાઇમરાતતોદ્દેશકવચનવિધબસ ફૂલ્યાફ્રાનિસાસાર્ય સામ્રાથિમતે તનિા મનમાહ તદ્માવજ્ઞાનકથાવૃત્તજ્ઞાનત્વવ્યવઝાવછિન્ન પ્રસ્તાવ તપરિછિન્નજ્ઞાનત્વહિતિ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ : तत्वार्थविवरणगूढार्थदीपिका 1 एकत्रिशतमनु० टी० दिगुणान्वितस्य, केवलिनो युगपदेकस्मिन्समये, सर्वभावग्राहके निरपेक्षे इन्द्रियाद्यनपेक्षे च, केवलज्ञाने केवलदर्शने च युगपदेकस्मिन् समयेऽनुसमयमनुगतोऽव्यवहितः समयो यत्र कालसन्ताने तं , च्याप्य, उपयोगो भवति, कालाध्वनोरत्यन्तसंयोग " इति द्वितीया, वारंवारेण केवलज्ञानदर्शनयोरुपयोगः सर्वकालं भवतीति यावत् , तथा च सामयिककेवलज्ञानदर्शनोपयोगप्रवाहे दुरापास्तव शानान्तरोपयोगसंकथा । अत्र केचित्पण्डितम्मन्यास्त रसिका वारंवारणोपयोगो नास्तीत्याहुः । तन्न प्रमाणयन्ति सम्प्रदायवृद्धाः । आम्नाये भूयसां सूत्राणां 'सवस्स केवलिस्सा जुगवं दो पत्थि उवओगा' इत्यादीनां वारंवारणोपयोगप्रतिपादकानामुपलभात्, न च तेषां सूत्राणामन्य एवार्थो विधेयः, सर्वेषा सूत्रणासन्धस्थानीयानामाप्तसम्प्रदायोपहितसन्यबुद्धया गृहीतानामवार्थव्यापार शक्तत्वात् , केवलिनोऽपरिमितार्थगोचर केवलज्ञानशालित्वादित्यर्थः । युगपदित्यस्यार्थमाह ' एकस्मिन् समय इति । अनुसमयमित्यस्यार्थमाह अनुगतोऽयवहितः समयो यत्र कालसन्ताने तं व्याप्येति । “कालाध्वनोरत्यन्तसंयोगे" इति द्वितीयेति पाणिनी-- योक्तसूत्रेण २-३-५ अनुसमयभित्यत्र द्वितीया सप्तमीवाधिकेत्यर्थः । वारंवारे केवलज्ञानकेवलदर्शनयोरुपयोगः सर्वकालं भवतीति-केवलज्ञानं किं प्रथमसमये भवति किं वा... केवलदर्शनमित्यत्र " सवाओ लद्धीओ सागारोवओगोवउत्तरस" इत्याधापचनस्य विनि'गमकत्वात् केवलज्ञानस्थापि लब्धित्वात् साकारोपयोगकाले तस्य - भावादाघे समये तत्, न च तदेव केवलदर्शनोत्पत्तिः, " जुगवं दो नत्थि उपओगा” इति सिद्धान्तवचनात् , किन्तु द्वितीयसमये, केवलदर्शनोपयोगस्य क्रमभावित्वेनार्थसिद्धत्वात्तदानीम् , तदनु क्रमिकोपयोगद्यधारायास्वरसत ५५ प्रवृत्तेस्तुतीयसमये केवलज्ञानोपयोगः, चतुर्थे च केवलदर्शनोपयोगः, एकमग्रेऽपीत्येवं सर्वकालं प्रतिसमयं क्रमेणैक एव केवलज्ञानकेवलदर्शनान्यतरोपयोग इत्यर्थः । ज्ञानान्तरोपयोगसंकथेति-क्रमिकमत्यादिज्ञानोपयोगचर्चेत्यर्थः। यद्यपि केवलज्ञानं केवल दर्शनं चोभयं धातिकर्मक्षयसहकृतात्ममात्रापेक्षकत्वादे कसामयुत्पाद्यामिति क्रमोत्पादहेतुक्रमिकसामध्यभावात् प्रतिवन्धकान्तराभापाच ते उभे युगपदेवोत्पद्यताम् तथापि-" सनाओ लद्धीओ सागारोवोगावउत्तस्स" इत्याधार्षवचनस्य विनिगमकत्वात् आधसमये केवलज्ञानोपयोगोत्पत्तिः, द्वितीयसमय एव च केवलदर्शनोपयोगोत्पत्तिः, तत्र च हेतुः प्रागेवोक्तः "जुग दोनत्थि उपओगा" इति । अथ छमस्थज्ञानदर्शनोपयोगापेक्षया तद्वचनमिति चेत्, मैवम् , विशेषानभिधानात्, छमस्थोपयोगविषयत्वेनोक्तवचनस्य सङ्कोचकरणे बीजाभावात् , द्वितीयसमयादन्यपि पूर्वोत्तरीत्या प्रतिसमयं सर्वकालं क्रमिक एव. केवलज्ञानकेवलदर्शनान्यतरोपयोग इत्येवं सिद्धान्तावलम्विश्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रमणमतम् । तर्कनिष्णाता युक्तिबलावलम्बिनः पूज्यपादाश्रीसिद्धसेनदिवाकर। मल्लवादिनच तन्नानुमन्यन्त इत्याह अत्र केचित्पण्डितमन्यास्तकरसिका वारंवारणोपयोगोनाल्लिाहुरिति। सव्वस्स केवलिस्सा(स्स) जुग दो नत्थि उवओगा इति । अत्र "नाणमिदंसम्मि य, एत्तो एगयर शिव उवउत्तो" Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वार्थविवरणगूढार्थदीपिका । एकत्रिंशत्तम० टी० : २८९ : आप्तसम्प्रदायस्य च सुधर्मस्वामिन आरभ्याद्य यावद्वारंवारणोपयोग एवं प्रगल्ममानत्वादित्यधिकमत्र त्यं तत्त्वं विशेषावश्यकादेरवसेयम् । मतत्रयनययोजना चामत्तज्ञानपिन्दोः। किं चान्यदित्युपपत्यइति पूर्वाद्ध ज्ञेयम् । मतत्रयनययोजनेति-अत्र क्रमोपयोगवादिनां जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणपूज्यपादानां युगपदुपयोगदयवादिनां च तातपादश्रीमल्लयादिप्रभृतीनां यदेव केवलज्ञान તવ વાર્શનમિત્યમેવાનારા મહાદ્વિપૂ શ્રી સિદ્ધનવિવાદાનાં વસ્ત્રજ્ઞાનવત્રીને एकात्मनि युगपदुत्पते न पा, केवलज्ञानं स्वसमानाधिकरणकवलदर्शनोत्पत्तिक्षणोत्पत्तिकं न वेत्यर्थपर्यवसायिनी प्रथमा विप्रतिपत्तिः, केवलज्ञानकेवलदर्शने क्रमेणैकात्मनि समुत्पद्यते न पा, केवलज्ञानं स्वसमानाधिकरणकवलदर्शनोत्पत्तिक्षणाव्यवहितपूर्वक्षणोत्पत्तिक न वेत्यनुगतार्था च द्वितीया, इत्याद्याः साधारण्यो विप्रतिपत्त्यः। आधविप्रतिपत्तौ विधिपक्षः पूज्यपादश्रीमल्लबादिसिद्धसेनदिवाकराणां, तत्रापि केवलज्ञानं स्वसमानाधिकरणकेवलदर्शनसमानकालीनमपि केवलदर्शनार्जिनमेवेति तातपादश्रीमल्लयादिना, वादिमुख्यश्रीसिद्धसेनादिवाकरार केवलदर्शनादभिन्नमेवेति पाहुः, निषेधपक्षो भगवच्छीजिनभद्रगणिक्षमाश्रमणानामिति । द्वितीयविप्रतिपत्तौ चोक्तवैपरीत्येन विध्यंशे निषेधांशे च ज्ञेयम् । तत्र विश्वविश्वााचार्यश्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रमणानामेवं मतम्-"केवली गं भंते ! इमं रयणप्पमं पुढवीं आगारेहिं हेतूहिं उत्रमाहिं दिलुतेहिं वण्णेहिं संठाणेहिं पमाणेहिं पडोयारेहिं जं समयं जाणति तं समयं पासइ जं समयं पासइ तं समयं जाणइ ? गोयमा ! नो इणडे सम, से केपटेणं भंते ! एवं बुञ्चति केवली णं इमं रयणप्पमं पुढवी आगारेहिं जं समयं जाणति नो तं समयं पासति जं समय पासइ नो तं समय जाणइ ? गोथमा ! सागारे से नाणे भवति अणागार से दंसणे भवति, से तेण्डेणं जाव णोतं समय जाणति एवं जाव अहे सत्तमे " इति प्रज्ञापनात्रिंशत्तमपश्यताख्यपद गतसूत्रपाठदर्शनात् केवलिभगवतामेकस्मिन् समये केवलज्ञानकेवलदर्शनान्यतरोपयोग एच, न तु युगपत्केवलज्ञानोपयोगकेवलदर्शनोपयोगस्यम् । ननु लोके भिकसामग्रीभेदादेव क्रमिककार्यभेदो दृश्यते, न चात्र ‘स इति कथं केवलिनां क्रमिकोपयोगरूपकार्यभेद इति चेत्, मैवम् , केवलज्ञाने केवलज्ञानान्योपयोगसहकृतवलज्ञानावरणक्षयस्य केवलदर्शने च केवलज्ञानोपयोगसहकृतकवलदर्शनावरणक्षयस्य हेतुत्वेनात्रापि क्रमिकसामग्रीभेदस्य सत्वात् , आधकेवलज्ञानात्पूर्व केवलदर्शनस्याभावाद्वयभिचाररसादतः केवलदर्शनसहकृत्यनुकत्या केवलज्ञानान्योपयोगसहकृतति केवलज्ञानकारणकोटायुक्तम् । नन्वेवं तर्हि तथोत्पधेतां केवलज्ञानोपयोग केवलदर्शनोपयोगच, तनाशर समयान्तरे न स्यादेव, नाशकहत्वभावादि त्यपि न चाशनीयम् , अर्हत्प्रवचनस्यानेकनयसमूहमयस्वात्तत्तनयविवक्षैव प्राधान्येन तत्तत्कार्योपयोगिनीत्यत्रर्जुसूत्रनयावलम्बनेन भावमात्रस्य विनाश માવાનિયતત્વેન સ્વનાશબ્દતિ વાહિતોત્તરક્ષાવર્તિાવાનપેક્ષન સ્વત પુર્વ નાશ, શત "एवं स निहतुक इति तन्मतेनोच्यत इति केवलज्ञानस्य केवलदर्शनस्यापि च स्वत एव Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ ३९० तत्वार्थविवरणदार्थदीविका । एकाशितमसू. टी क्षणारे विनाशात् । यद्वोक्तनयमतेन स्वस्थ स्त्र एवं नाशक इति केवलज्ञानस्य केवलदर्शनस्य च विनाशे प्रतियोगिन एव हेतुत्वाद् द्वितीयक्षणे स स्यादेवेति भावनीयम् , ननु केवलिन क्रमेणोपयोगाभ्युपगमे केवलज्ञानकेवलदर्शनयोः प्रतिसमयं सातत्यप्राप्त्या "केवलनाणी णं पुन्छ। गोथमा! साइए अपज्जवसिए" "केवलदसणी णं पुच्छा, गोयमा ! सातीए अपजवसिते" इति प्रज्ञापनाऽादशपदोक्तस्त्राविरोधस्यादिति चेत् , मैवम्, पट्पटिसागरोपमस्थित्यादिनतिपादकमतिज्ञान्यादिसूत्रस्येव ल०ध्यपेक्षयैतत्सूत्रस्थापि प्रवृत्तः, एतेन समयान्तरेऽन्यतरोपयोभाभावात् सर्वज्ञत्वसर्वदर्शित्वयोरसातत्यं न स्थादित्यारेकाऽपि निरस्ता, ल०ध्यपेक्षया तत्सद्भावादेव । एतेन केवलज्ञानदर्शने युगपत्सर्वथाऽपनी तस्वस्वावरणे चेत्ततः कथं ते क्रमेण स्वप्रकाश्य प्रकाशयतः, यतो न हि सर्वथाऽपनीतावरणौ द्वौ प्रदीपौ क्रमेण प्रकाश्यप्रकाशकारिणो केनापीक्ष्येते, दृष्टानुसारिणी च कल्पना प्रमाणकोटिमाटीकते, तथा च केवलज्ञानवलदर्शने युगपत्स्वप्रकाश्यप्रकाशके युगपत्सर्वथाऽपनीतावरणत्वात् प्रदीपयवदित्यनुमानेन युगपदेव ते निखिलान् स्वप्रकाश्यान् प्रकाशयत इत्यभ्युपगन्तव्यम् , अन्यथा तदापरणक्षयो मिथ्या स्यात् , यस्मिन्समये यस्योत्पादस्तेन तदन्यस्याऽऽतत्वात् , तथाऽनभ्युपगमे च यदनुत्पन्नमन्यतरं तस्य निष्कारणमावरणं स्यात् , तथा च सति-"नित्यं सत्त्वमसत्त्वं वा, हेतोरन्यानपेक्षणात् ।" इति प्रसज्यते, किश्च केवलदर्शनोपयोगकाले नैव त्यन्मते केवलज्ञानोपयोग इति तदानीमसर्वज्ञत्वस्य केवलज्ञानोपयोगकाले केवलदर्शनोपयोगभावात् तदानीमसर्वदर्शित्वस्य च प्रसङ्गरस्यादित्येकसमयावच्छेदेन निश्शेषसामान्यविशेषविषयकज्ञानदर्शनोभयमभ्युपगन्तव्यमिति. दोपजालमपि प्रतिक्षितम् , छमस्थस्याप्येकान्तरदर्शनज्ञानोपयोगाभ्युपगमात्तत्रोक्तदोपजालस्य समानत्वात् । अत्रापि हि शक्यत एवं वक्तुम् दर्शनकाले ज्ञानानुपगमे छमस्थस्याज्ञानित्वं ज्ञानकाले दर्श- , नानुपगमे पुनरदर्शनित्वम् , तथाऽऽधरणक्षयो मिथ्या इतरेतरावरणत्वं वा निष्कारणावरणत्वं वेत्यादि । तदेव केवलिनो द्वावुपयोगौ युगपद्भवेतामित्यागमे यदि विहितं स्यात्तदेवं कस्यानुमत न स्यात्, आगमोक्तस्य सर्वसम्मतत्वात्, न च तत्र तत्र सूत्रविहितौ युगपदावुपयोगी, कि.। बहुशो निषिद्धाव, यदवाचि "करस व नाणुमयमिण, जिणरस जइ होज दोनि उपओगा। नूर्ण न होंति जुगवं जओ निसिद्धा सुए बहुसो ।। ३१३२ ।।" इति । યુપદુપયોદ્રયવાનાં મહની મહતાં શ્રમજીંવાદ્રિનાં મત વૈમૂર્ધનમેધાવર - ऽतिप्रबलतरवायुवेगवशात् सर्वथा विनष्टे सति सूर्यस्याविभूतनाऽतिस्वच्छस्वभावेनैव युगपदुत्पद्यमानप्रकाशतापाविवात्मनस्वीयविशुद्धिप्रकर्षविशेषादावरणभूते धनधातिकर्मणि समूलकाप कपिते सति सर्वथाऽऽविर्भूतेन स्वरवभावेन युगपरफेवलज्ञानोपयोगकेवलदर्शनोपयोगौ भवतः, न च प्रक्षीणाशेषधनधातिकर्मणः केवलिन प्रतिवन्धकान्तरम्, येन યુપત્તદ્ધિત ર યાત, બોચત્ર વહિન વિજ્ઞાનવર્શનાપયોગહીન, युगपदप्रतिहताऽऽविभूतस्वभावत्वात् , यौ युगपदप्रतिहताऽऽविर्भूतस्वभावात्मको तापेककालीनो यथा र प्रकाशतापो, न च युगपदुपयोगद्याभ्युपगमे प्रज्ञापनात्रिंशतमपश्यतापपदोक्तेन Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . સત્તાવાળવાયેલીવિઝા | પરાતમજૂરી “છી મતે ફ રયેળવ” રૂાહિત્રે સહ વિરોધ, તોમૌવમર્થ બિયતે વહી બમિતિ વાક્યાત, મને ફતિ મદ્રત ! ફમાં રાબમાકૃથિવીમાશાત્વાદિભિઃ “ સમય નાગતિ તં સમય” તિ વાઈબ્દનોરત્યય ફાતિ ૨-૨-૫ સૂત્રેબ દ્વિતીય સતવાધિ, તેન ચં સમય નનાતિ યામિન સમયે નાનાંતિ “તં સમય તાપાન સમયે પથતિ? યાનું સમયે પરવતિ તસ્મિન્સમયે નાનાતિ? ફાતિ માવતા શીખતમેન અન્ને ઋતે માવાનાહ પૌતમ! નવમર્થ સર્ચ,નૈવ યાનું સમયે નાનાતિ તસ્મિત સમયે પયતીરથ યુવયુપપન તોડન્યા રાયે નાનાતિ વન્યક્તિ પરયતીતિ માવા તાવમઝાનાનપુનઃ પૃચ્છતિ–“ જેનાં મતિ !” ફત્યાધુવારપીય, માવાનાહ–“સારે સે ના મવતિ પામરે સે ઢસળું હવત્તિ” સાવા વિશેષ “ તા રેટિન જ્ઞાનં મતિ, વન્યથા જ્ઞાનવાયોપા, જનાવાર અતિન્તિવેરો સામાન્યપ્રાહિ દર્શન મવતિ “સામાહર્ષ વંસળગેય વિલિયં ના” ત વચનાત ! જ્ઞાનવરને વૈયાવચ્છેન મિયો વિરુદ્ધ પરંપરામાવનાતરીયશવંતિ, પરમાણુમતશીતળાવ, ત્રિ પરમાણુમતિ વિશેષણા જૈનમતિ પારિવાજવયસમયાંવર્ષોહેન મિનાવયવન્ડલેન શીતળત્વયોગ ન ક્ષતિ, હરિન પરમાળ તોuTત્વયોર્ધિદ્ધવોસમયાવચ્છેદ્રનાંનમ્યુમિતિ / તથા વૈવિ સમયે નિરાવરણસ્થાપિ વાસિનત્તે તથા ડોકાત્મનાં યુગપટ્ટવિતું નાહંતો તહેવં વિશેષાહિનાનો યોઃ સામાન્યગ્રહિતીને યોજનાન્તરિત, સામાવાવન્વિર્શનોપયોચ વિશે પ્રતિમાણિજ્ઞાનોપયોમાન્તરિત, સ્વાસાવ્યાદ્વિતિ ગુપદ્રનેત્યાનુત્પત્તૌ સ્વભાવ વ ારાં નાન્યત, યથા સન્નિહિતેગ ૨ દ્વયાત્મ વિષયે સવિશેષાવિ વિજ્ઞાનં સર્વસામાન્યાને લેવાનું ક્રાતીયત્રાનોસમાવ વવ વોરા, તથા પ્રશ્નો માર્ગ સ્વભાવ વ ારા પ્રોત્ર-સ્માતે દેવજ્ઞાનવરોને મિહાવોપાત્ત સમયવર્ઝન પરસ્પર વિરુદ્ધાપરમાણુનશીતોષાત્વવ , મમાવિશ્વમાવઠા, વર્ષાનશ્રોત્રજ્ઞાનવતા अथवा केवलज्ञान केवलदर्शने मिथोऽन्तरिततर्यवाभ्युपगन्तव्ये तत्स्वाभाव्यात्, यस्य यर. માવતર તથૈવાયુન્તવ્ય થથા વસ્ત્રજ્ઞાનસ્થ વિશેપગ્રદિવસ્વમાવઃ વર્શન જ સામાન્ય દિવસ્વમ તિ . ર વાય માતોઃ સમીવીનતાગ્રતિ, યોરિન હ સમયમતિ પર્વ સમયાથશાહવાવ, જિતુ સમવે. તુલ્યમયથેવાવમ્, તથા ૨ અથ નાર્થેન મન્ત ! વિકૃતિ, પછી ફમાં પબમાં પુથિવી વૈરારામિડ સમ તુવે जानाति न तैराकारादिभिस्तुल्यं पश्यति, वैराकारादिभिः समकं तुल्यं पश्यति न तैराભારવિસ્લિમ તુર્થે નાનાતીતિ ક્ષે તે તત્વતિવર મિનાશ્વન દર્શન, વ. કિન જ્ઞાન સાથે મવતિ, તેય દર્શને વિના મવતીયતો મિનાશ્વનાત -प्रत्ययावित्याहुः सम्मतिटीकाकृदभयदेवसू रिपादाः । पूज्यपादश्रीयशोविजयोपाध्यायास्त्वत्रै સમાવયન્તિ જ્ઞાનવિન્દૌ-શત્ર યદ્યપિ = સમયાયિત્ર “G” તિ શમાવ બાઝતક્ષળાવ, Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थविवरण गूढार्थदीविका | एकत्रिशतमसू० टी० यकृतमित्यत्र 'जं कथं' इति प्रयोगस्य लोकेऽपि दर्शनादिति वक्तुं शक्यते, तथापि तृतथान्त. पदवाच्यैराकारादिभिः थैरसमकं यत्समकमिति लुप्ततृतीयान्तसमासस्थयत्पदार्थस्य समक पदार्थस्य चान्यूनानतिरिक्तधर्मविशिष्टस्य रत्नप्रभायां भिन्नलिङ्गत्याद नन्वय इति 'यत्समकम् । इत्यादि क्रियाविशेषणत्वेन व्याख्येयम् , रत्नप्रभाकर्मकाकारादिनिरूपित यावंदन्यूनानातिरिक्तविषयताकज्ञानवान् न तादृशतावदन्यूनानतिरिक्तविषयताकदर्शनवान् केवलीति फलितोऽर्थः । यदि च तादृशस्य विशिष्टदर्शनस्य निवेध्यस्याऽप्रसिद्धर्न तन्निषेधः, 'असतो नत्थि निसहो' विशेपा० भा० १५७४ इत्यादिवचनादिति सूक्ष्ममीक्ष्यते, तदा 'क्रियाप्रधानमाख्यातम्' इति वैयाकरणनयाश्रयणेन रत्नप्रभाकर्मकाकारादिनिरूपितयावदन्यूनानतिरिक्तविषयताकं ज्ञानं न तादृशं फेवालि फत के दर्शनमित्येव बोधः, सर्वनयात्मके भगवत्प्रवचने यथोपपन्नान्यतरनयग्रहणे दोपाभावादिति । अन न तादशं केवलिकत कं दर्शनमित्यस्य रत्नप्रभाकर्मकाकारादिनिरूपितयावदन्यूनानतिरिक्तविषयताकत्वाभाववत् केवलिकत्तक दर्शनमिति पर्यवसितोऽर्थः । तेन ज्ञानतुल्यविषयताकदर्शनसाऽप्रसिद्धत्वेऽपि न क्षतिरिति । ननु केवलज्ञानवलदर्शने समकालीन केवलज्ञानापरणक्षयकेवलदर्शनावर णक्षयहेतु केऽपि क्रमभावित्वस्वभाबादेव क्रमेणवोत्पते । न हि स्वभाव पर्यनुयोग इति न्यायादिति पूर्वोक्त कि विस्मृतमिति चेत्, उच्यते, नै। विनम् , कि युक्तिवलसाम्राज्ये सति न हि स्वभावमात्रेण सन्तोष्टव्यम्, यतो युगपत्कार्ययोत्पादकाऽ. तुलसमवलकारणद्वयसभावेऽपि स्वभावमात्रेण कार्यक्रमाभ्युपगमे सर्वत्र स्वभावेनैव निर्वाह बारमात्रस्योच्छेदप्रसङ्ग स्यात् , तथा सति स्वभाववादस्यैव साम्राज्यं सात, तस्मादनन्यगत्या कार्योत्पत्तिस्वभावः कारणेनेव कार्यक्रमस्वभावोऽपि कारणक्रमेणैव जननीय इत्यभ्युपगन्तव्यम्, न चात्र कारणक्रमः, येनाभिलषितकार्यक्रमोऽपि स्यात् । एतेन सर्वव्यक्तिविषयकत्वसर्वजातिविषयकत्वयोः पृथगेवावरणक्षयकार्यतावच्छेदकत्वादर्थतस्तदवछिन्नोपयोग पासिद्धिरित्यपि निरस्तम् , तत्सिद्धावपि तत्क्रमाऽसिद्धः, आवरणयक्षयकार्ययोः समप्राधान्यनार्थगतरप्रसराच । न च मतिश्रुतज्ञानावरणयोर्युगपत्क्षयोपशमेऽपि यथा તદુપયો મસ્તથા વઢજ્ઞાનવર શેનાવળિયોપલ્ફગેપ વનિત્યુપાત્રમાહિતિ शङ्कनीयम्, तत्र श्रुतोपयोगे मतिज्ञानस्य हेतुत्वेन शाब्दादौ प्रत्यक्षादिसामयाः प्रतिबन्धकत्येन चोपयोगक्रमसम्भवात् , अत्र तु क्षीणावरणत्वेन परस्पर कार्यकारणभावप्रतिवध्यप्रतिवन्धकमावायभावेन विशेषात् । तदेवं यथा क्षीणावरणे जिने मत्यादिज्ञानचतुष्टयमवग्रहादिरूपं वा मतिज्ञानं न सम्भवति तथा केवलज्ञानोत्पत्तिसमयभिन्नसमयोत्पत्तिकदर्शनमपि न सम्भवति, क्रमोपयोगत्वस्य मतिज्ञानाद्यात्मकछामस्थिकज्ञानत्वव्याप्यत्वात सामान्यालबनविशेषाऽऽलम्बनक्रमोपयोगत्वस्य चावग्रहाधात्मकत्वव्याप्यत्वात् , केवलज्ञानकेवलदर्शनयोः क्रमोपयोगत्वे तत्वापत्तिः, व्याप्यसचे व्यापकस्यावश्यम्भावादिति केवलज्ञानावरणकेवलदर्शनावरणक्षययोथुगमाविलेन तत्कार्ययोः सर्वव्यक्ति सर्वजातिविषयकयोः फेवलज्ञान केवलदर्शनयोरयुगपदुत्प Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તત્ત્વાર્થમિવા મૂદાયનીપિોં! ઘાÜશત્તમસૂટી : ૨૨૨ : ,, ચયોગાત્ પ્રતિવન્ધા હામાત્રાત્ર યુપટ્ટાવોમ્યુવ/S:, પ્રમાશ્ચિાત્ર વóજ્ઞાનવવોને સમયાવ∞િાંત્તરે સામયિસામગ્રીવાંત, વહેસામાયસામગ્રી સત્તવેલમ ચાચ્છિન્નોત્પત્તિ, “સમ્મત્ત-રિત્તારૂં જીાવ” ફર્તિ વશ્વનાત્ “સમત્તેÜ સમાં સજં હેત ચ જો પત્તિએ ” ાંત પ્રÃલાહવષનાથ, જાનવર્શનમોહનીયર્મેયોપામાત્રમોહનીય િયોપશમવતઃ વિપુસા સભ્ય નિરિત્રે -, યુવદ્યુત્પĀવિત્ઝાનાયુ+/વદ્યુત્પદ્યમાનધરસાતિવદા !નનુ “સબ્યાલો ટ્વીલો સાધારોવગોોધડત્તત્ત્વ ' ત્યાઘાર્યવનનએવું વળજ્ઞાનવ્વરીનમોપાવે પ્રમાળ પૂર્વોત્તમિતિ જેવ, સત્યમુક્, ન તુ યુર્જાયુ" મુખ્, તંદ્વવનસ્ય સાળારોપયોાયુજ્ય છાયાષવ વ સાજિત્થાત, યોામામયોરાવાસીન્યાત, વજ્ઞાનવર્શનયોોંઘેપ નિર્વાદે‘દર્શનેડનોત્યાંસહે, ક્ષગત્પત્તિવજ્ઞાનયોરે ન્યૂના ધાયુષ્યો જિનો મિજાષયો ધારાયા નિર્વાહાથેતુમશયાથ, યોનિનુળસ્થાન વરનાળે સ્ત્ય ધારા મેળ વળજ્ઞાનું સ્વાત્, તવન્યસ્ય ૨ વીમાંત તવૃત્તસિાહસમયેર્ગય તથા સ્થાત્, ન હૈં ઘુમ્, સિદ્ધિજન્ધુસ્સા રોયોપાછ વ માત્રાદ્વિતિ । મહાાિંશોમાંળમાવીસિદ્ધસેનાંઢારાળ મતક્ષેત્રમ્− જીવાવ વો નાત્ય વગોવા' ત્યાર્યવપનાવે. સામાન્યવિશેષ-દ્રામ વજ્ઞાનમેવવવર્શનં, ન તુ તેતો—ત્તાંનુંતિ તદ્ગમયધ્યાન્ન મોયોધવત્ કાનુયો પ્લેમ્નિન્સમયે વર્વાહનાઙ્ગĐã} { નવક્ષય દ્વિરોધિપ્રવત(યુસમૂહતિહતાશ્વ, તાહિ સિદ્ધાન્તે ચામશેષ સમયે વેવદર્શનાત્રરાલયામલે સમયે વજ્ઞાનાવરોડબ્લ્યુષાત ત્યજીનતષવ્હારણે સમાને સતિ સ્ય પૂર્વમુપાવો મલેત, પૂર્વ થય વાળન્યતરોપાનું વિતરસ્યાવ્ય विकलसामग्रीसद्भावेनोत्पादप्रसङ्गात् अन्यतरसा अन्यतरप्रतिबन्धकत्वे च विनिगमनावि રહાડુમોરમપ્રસન્નાત્। તત્ત્વયં તહ્યું મારણે સતિ હ્રાર્વાવ્ય માત્રો હોકે દૃશ્યને દાંત વજ્ઞાન ઋદર્શનોષયોનો યુદુઘેયાતામ્યસ્તાવનાંચધર્મક્ષયોનું પજ્ઞાાાંતતિ શ્વેત, સોડવ પક્ષો ન ત્રાળા, સિદ્ધાન્ત ચુડુયોચિસ્થાનસ્કુવામાત્, સામાન્યવિશેષ િછેËાવજ્ઞાનસ્યંતિ યહેવ જ્ઞાનં તહેવ વર્ણમિત્યમ્બુ૧૫૫મ્, નવ વૃંદાનુસારળી ૫ના ન તુલ્બનાનુસારી સૃષ્ટિ, ન ચૈવ વિદ્ દાયોનરામચરિત્ત્પનાપત્તિરવમવમેધાહિતિ વૈજ્યં તનુમયસ્ય યુયુ પ્રતિમાસત ાંતે વામ્, ઉમયહેતુસમાને સમૃહાજનૈવૈજ્ઞાનવાન્યત્ર દષ્ટિયોત્તરત્નાતક नात्रादृष्टिपरिकल्पनाक्लेश इति । तदेवमा सामान्या वेलावशेषोभयविषयक समूहालयવૈજ્ઞાનીમ્યુષા ધ્વ સર્વે દ્રવ્યર્થાંયામાં સામાન્યવિશેષામ મદ્રેસમયન સર્વજ્ઞો જ્ઞાનાતીતિ યુન્યતે, બન્યા સામાવિશેષામ નિશેવષવાર્થનાત્ર સર્વજ્ઞો 7 જ્ઞાનયાત્, દેશોપયો વા વાત, મત્યાજ્ઞાનવત્ । તથા ચોષયોષહુયોય વમતેડેવવેજ્ઞત્યમસર્વવશિવસ્ત્ર ધાત્। ન ચ તથામ્બુપાતું યુ માંતે સર્વજ્ઞત્માન્યધાનપપયા ચઢેલ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २९४ : तत्वार्थविवरण गूढार्थदीपिका | एकत्रिंशसमसू० टी० केवलज्ञानं तदेव केवलदर्शनमित्यभ्युपगन्तव्यम् । किञ्च ज्ञानस्य स्वरूपं व्यक्तता दर्शनस्य पुनरव्यक्तता, न च क्षीणावरणेऽईति व्यक्तताऽव्यक्तते युज्येते, ततः सामान्यविशेषज्ञेय मात्र संस्र्युभयैकस्वभाव एवायं केवलिप्रत्ययः । न च ग्राह्यद्वित्वाग्राहकद्वित्वमिति वाच्यम्, केवलज्ञानस्य ग्राह्यानन्त्येनानन्ततापत्तेः । विश्व क्रमोपयोग ज्ञानकालेष्टं दर्शनकाले चाज्ञातं युगपदुपयोगद्वयपक्षे च सामान्यांशेऽज्ञातं विशेषांशे चादृष्टं केवली सर्वदा भावते, तत एकस्मिन् समये सर्वाशे ज्ञानं दृष्टच भगवान् भापते इत्येष वचनविशेषो नोपपद्यते, अज्ञातं पश्यन्नञ्च जानानः किञ्चिजानाति किञ्चित्पश्यति न तु सर्व जानाति न वा सर्व पश्यतीत्यखिलसामान्यांशाखिल विशेषांशोभयविषयक ज्ञानामावात्सर्वज्ञत्वं च न सम्भवति । ननु यदेव केवलज्ञानं तदेव केवलदर्शनमित्याकारके भवन्मतेऽपि पञ्चमाष्टादशशतके दशमोदेश के "सोमिला दण्ड्याए एगे अहं नागदंसणट्टयाए दुविहे अहं " इत्यनेनोत्पन्नकेवलज्ञानेन भगवता स्वयमेव स्वात्मनो ज्ञानदर्शनार्थतया भेदद्वयोक्त्या केवलज्ञानकेवलदर्शनयोररपष्टाक्षरमेद प्रतिपादनात् कथं नोक्तागमविरोध इति न चाशङ्कनीयम्, तत्र ज्ञानत्वदर्शनस्वधर्माभ्यां ज्ञानदर्शनभेदविवक्षयैवोक्तम् । यदभिहितं स्तुतिकारण “ एवं વિષતમે“તિતં સર્વજ્ઞાા∞ન, સર્વેમાં તમસાં નિહન્તુ જ્ઞપવામાોને શાશ્ર્વતમ્ । નિત્યં पश्यति बुध्यते च युगपन्नानाविधानि प्रभो, स्थित्युत्पत्तिविनाशयन्ति विमलद्रव्याणि ते केवलम् || १ || " इति । वस्तुगत्या केवलज्ञानधर्मी त्वेक एवेत्युक्तविरोधाभावात्, अत एवोपयोगस्य न द्वादशभेदक्षतिः, अत्रान्पाक्षेपपरिहारौ सम्मवितर्कज्ञानवितोयसेयौ, गौरवमत्या नोच्येते । तदेवमक्रमोपयोगद्वयात्मक एक एव केवलोपोगोन्तव्यः तत्रैवं व्यक्त्या, द्वयात्मकत्वञ्च नृसिंहत्ववदांशिक जात्यन्तर रूपत्वमित्येके, मापे स्निग्धोष्णत्ववयाप्यवृत्तिजाविद्वयरूपमित्यपरे, महनीयमान्यमतिवै भवन्यायाचार्य श्रीयशोविजयोपाध्यायास्तु केवलत्वमावरणक्षयात्, ज्ञानत्वं जातिविशेषः, दर्शनत्वं च विषयताविशेषो दोपक्षयजन्यतावच्छेदक इत्याहुः । नन्वहच्छास्त्रग्रन्थिस्थान नगमे दिवत्रोपममतिवैभव महनीय महत्तमाचार्यत्रय सत्कप क्षेत्रयान्यतमस्यैकस्यैव पक्षस्य वस्तुगत्या प्रामाणिकत्वेन तद्भिभपक्षद्वयस्यार्हच्छास्त्रवाधितत्वाच तत्पक्षाभ्युपगन्तृणामर्हच्छास्त्रविपरीतश्रद्धाशालित्वान्मिथ्यात्वप्रसङ्ग इति न चात्र शास्त्रतच्चज्ञैराशङ्कनीयम्, प्रत्यात्मप्रदेशानुस् ताविच्छिन्ना ईच्छासनानुरागशु भोपा4 त्रवाम विच्छिन्नगुरुपरम्परायातसूत्रता पर्यमपक्षपातेन तन्त्रतां विदुषां मिथ्याभिनिवेशाभावात् । तथाहि स्वाग्रहाऽग्रहिलस्वा न्तास्त्रयोऽपि सूरयः स्वस्वाम्युपगतमर्थं शास्त्रतात्पर्थबाधं प्रतिसन्धायाऽपि पक्षपतिन न प्रतिपन्नवन्तः, किन्त्वविच्छिन्नस्वस्त्रगुरुपरम्पराऽज्यातभिन्नभिन्नप्रावच निकपरम्परया शास्त्रतात्पयमेव स्वाम्युपगतार्थानुकूलत्वेन प्रतिसन्धायेति न ते मिथ्याभिनिवेशिनः वीतरागप्रभुप्रणीतशास्त्र तात्पर्यवाप्रतिसन्धान पूर्व काऽन्यथाश्रद्धानाभावात् किञ्चानेकनय समूहात्मके भगवत्प्रवचने " नत्थि नएहिं विहूणं सुतं अत्थो अ जिणमए किंचि " इति सिद्धान्तव● નાહનેન નયનેવું સૂત્ર પ્રવૃત્તમ્, નેન નયન પમિતિ સન્માનેવતત્તયસમાછોષનાં વિનાં 14 " Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपार्थविवरणपूढार्थदीविका । एकत्रिंशत्तमसू० टी० : २२६ ! नैव तत्तत्राणि याथार्थेन ज्ञायन्ते इत्यत्र स्वस्वगुरुसम्प्रदायाऽविच्छिन्नतत्तनयगर्भवाचनाप्रवाहाऽऽयातास्त्रयोऽपि रिपक्षाः प्रमाणकोटिप्रविष्टाः । अत एव "प्रावचनिकानां जिनभद्रसिद्धसेनप्रभृतीनां स्वस्थतात्पर्यविरुद्धविषये सूत्रे परतीर्थिकपदं मिनपरम्पराऽऽयाततात्पर्यानुसारिपरमिति न केषामपि प्रावचनिकत्यक्षतिः, तत्तन्नयामिप्रायेण प्रवृत्तत्वात्" इति नयोपदेशवृत्तौ व्याख्यातमिति तेषां सूरीणां केषामपि नापसिद्धान्तोक्त्या मिथ्यात्वासः, तथाहि-यत्सतत्क्षणिकमिति सामान्यव्याप्त्या निखिलवस्तुनस्सदूपत्वेन क्षणिकत्वमिति पूर्वपूर्वक्षणिकवस्तुनस्वोत्तरोत्तरक्षणिककार्थकुर्वद्र पात्मकतथा कारणत्वेन पूर्वपूर्वक्षणिकनोत्तरोत्तरक्षणिक कार्य जायते इति पूर्वोत्तरक्षणवतिक्षणिकवस्तुद्वयकार्यकारणभावाऽभ्युपगन्तुवाद्धमतप्रकृत्यजुसूत्रनयापेक्षया केवलज्ञानकेवलदर्शनसूत्राभिप्राय व्यवस्थापयन्तः पूर्वोत्तरक्षणवर्तिनोजुसूत्राभ्युपगतकार्यकारणभावांश एवं प्रस्तुत उपयुक्तः, न जुसूत्राऽभ्युपगतनिखिलतवभाग इति तत्रौदासीन्यमुक्त कार्यकारणभावे च प्राधान्यमभिसन्दवानाः केवलज्ञान केवलदर्शनक्रमिकोत्पादं पूज्या*श्रीजिनमद्रमणिक्षमाश्रमणाः प्रतिपादयन्ति । यद्यपि चेतनालक्षणसामान्यात्मना केवलोपयोगलक्षणसामान्यात्मना वा केवलज्ञानकेवलदर्शनयोरैक्यमेव तथापि सामान्यविशेपभेदग्राहितया तदुभयभेद ग्राहकवैशेषिकनैयाविकमतप्रकृतिव्यवहारनयापेक्षया केवलज्ञान केवलदर्शनसूत्राभिप्रायमुररीकुर्वन्तो व्यवहारनयाभ्युपगतभेदान्यतवभागे औदासीन्येन तदस्युपगतभेदमात्रस्य प्रस्तुतोपयुक्तत्वात्तं प्रधानीकृत्य एकसमयावच्छिन्नोत्पत्तिककेवलज्ञान केवलदर्शनभेदं जगदर्यक्रमाजश्रीमल्लवादिन ऊचुः । ___" सदेव सौम्येदमय आसीत् , एकमेवाद्वितीयम् , नेह नानास्ति किञ्चन " इत्यादिश्रुत्या घट सन् पटरान्नित्यानुगतप्रत्ययगोचरीभूतेन सत्त्वेन रूपेणेकस्यैव सर्वजगतो घटत्वपटत्वाधुपाधिभैदैन यः काल्पनिकभेदो यद्वाऽखण्डसचिदानन्दात्मकस्थैकस्यैव ब्रह्मणो मायावच्छिन्नत्वाकरणावच्छिन्नत्योपाधिभेदेन यः काल्पनिकभेदस्तग्राहियेदान्तिमतप्रकृतिसहनयापेक्षया केवलज्ञानकेवलदर्शनसूत्रामिप्रायमभ्युपगच्छन्तो प्रवचनोपनिषद्वेदिमहातपादिभगवच्छीसिद्धसेन दिवाकरा न तु व्यक्त्या भेदं, केवलज्ञानव्यक्तरेकत्वात् , किन्तु ज्ञानवदर्शनवधर्मोपाधिभेदेनैकसापि केवलज्ञानस्य भेदं कथयामासुः । तथा चाविच्छिन्नप्रावनिकपरम्पराऽऽयाततत्तनयगर्भसूत्रतात्पर्य वायुपगतार्थानुकूलत्वेन प्रतिसन्याय प्रतिपन्नवतां त्रयाणामपि भूरिभगवता मध्ये नकोऽपि स्वाभ्युपगतेऽर्थे भगवत्प्रणतिशास्त्रतात्पर्यवाधं प्रतिसन्धायव पक्षपातेन तमर्थं श्रद्धत्ते इति तत्र शास्त्रतात्पर्यवाधप्रतिसन्धानाभाववति “ विदुपोऽपि स्वरसवाहिभगवत्प्रणीतशास्त्रकारितार्थश्रद्धानमाभिनिवेशिकम् ," इति लक्षणासङ्गत कस्मिन्नपि रिवर आभिनिवेशिकमिथ्यात्वप्रसङ्गः । उक्तं च न्यायाचार्यश्रीयशोविजयोपाध्यायैनि विन्दौ :: प्राचां वाचां विमुख मेक्षिकाया Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :२९८ : तपार्यविवरणदार्थदीपिका । एकवित्तमसू० टी० गस्य केनचिद्रूपेणोत्पादः केनचिद्रूपेण विनाशः केनचिद्रूपेण प्रौव्यमभ्युपेयमेवेति, तत्र पूर्व- । પૂર્વવલ્ડરોત્તરોત્તર વ હેતુત્વાવુપીમત થવ દેવોપયોધરોપંપત્તિપિતિ તત્ર शुद्धर्जुनसमाश्रयणेन केवलदर्शनकुर्वपात्मकन केवलज्ञानेन केवलज्ञानकुपात्मकस्य केवल.. दर्शनस्योत्पत्तिस्तथाविधेन केवलदर्शनेन तथाविधस्य केवलज्ञानस्योत्पत्तिरित्येवं केवलोपयोग । धारा निसाधैव, तदपेक्षयापर्यवसितत्वमपि सुसङ्गतम् । यथा च घटविषयकविज्ञानपटविषयकविज्ञानमविषयकविज्ञानाधविच्छिन्नप्रवाहस्य प्रवृत्तिविज्ञानसन्तानत्वं प्रवृत्तिविज्ञानत्येन ५८पटादिविज्ञानानां साजात्यमुपादाय निर्वहति, अन्यथा घटविज्ञानत्यादिना चटपटादिविज्ञानानां प्रत्यक्षत्वानुमानत्यादिना वा प्रत्यक्षानुमानादीनां च साजात्याभावात्प्रवृत्तिविज्ञानस-नतिरपि जाग्रदशाभाविनी न स्यात् , तथा केवलज्ञानकेवलदर्शनयोः केवलज्ञानत्वेन केवलदर्शनत्वेन वा साजात्याऽभावेऽपि केवलोपयोगत्वेन साजात्यात्प्रथमं केवलज्ञानं ततः केवलदर्शनं ततः केवलज्ञानमित्येवं केवलोपयोगाविच्छिन्नप्रवाहलक्षणा केवलोपयोगसन्ततिरनाकुलमवतिष्ठत इत्यभिप्रायवता पूज्यानां जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणानां मतमतिमनोहरमेवेति। सिद्धसेनःकेवलज्ञानमेव केवलदर्शनं, न तयोर्भेद इत्यभ्युपगता सम्मतिप्रणेता सिद्धसेनदिवाकर, भेदोच्छेदोन्मुख-केवलज्ञानदर्शनयोर्यो भेदस्तदुच्छेदपरं तयार+यमेवेत्यभ्युपगमपरं संग्रहमधिगतः-उक्तसङ्ग्रहमवल+०य केवलज्ञानदर्शनयोरैक्यं स्वीकृतवान्, केवलज्ञानदर्शनयोरक्ये यदेव केवलज्ञानावरणं तदेव केवलदर्शनावरणमिति तत्क्षयलक्षणकारणघटितसाम या एकत्वासामग्रीभेदाभावान योगपधं तयोः, नापि च केवलदर्शन प्रति केवलज्ञानस्य कारणत्वान्तरं गौरवावहं कल्पनीयमिति न तयोः क्रमोऽपि, फिन्त्येकस्याप्येकसामग्रीतो जायमानस्य केवलोपयोगस्याशेषसामान्यविषयकवादर्शनत्वमशेषविशेषविषयकवाज्ज्ञानत्वमित्युपाविप्रयुक्तो भेदः, न तु परमत्येति युक्तम् , तथा च सर्वनयमय स्थाद्वादे तत्तन्नयभेदावलम्बनेन तत्तत्पक्षत्रणसूत्रधारास्त्रयोऽपि सूरयः स्याद्वादसेवकरसिका एंवेति तेषां पक्षा युक्त्युपपन्नत्वान विषमा इत्युपसंहरति मादिति (पटम् । अत्र 'अपि' इत्यस्य स्थाने ' अमी' इत्यपि पाठ: ॥२॥ यथा चोपयोगलक्षणो जीव इति निरुपयोगस कदापि न भवतीति चिसामान्य मुपयोगापराभिधानमनाय नन्तमेव तद्रूपं यत्पुरुषपदेनोच्यते तस्यैव च केवलोपयोगो विशेषस्सादिरनन्तश्चेति केवलोपयोगात्मना तदपि चित् साधपर्यवसितमिति गीयते, तथा तदेव चित्सामान्यं सविशेषस्य केवलोपयोगस्य यो विशेषौ ज्ञानदर्श नस्वभावौ साकारोपयोगनिराकारोपयोगौ तद्रूपसूक्ष्मांशापेक्षया क्रमिकमपि स भवति । तथा च केवलोपयोगस्यैव चिसामान्यविशेषस्य मुख्यतया विवक्षितत्वे तदंशयारवान्तर विशेषयो साकारानाकारोपयोगयोस्तद्रूपप्रविष्टत्वेन 'गौणतया विवक्षितत्वे साधपर्यवसितत्व, साकारानाकारोपयोगयोरेवं मुख्यतया विवक्षितत्वे उपयोगसामान्यस्य च गौणतयाऽऽश्रयणे क्रमिकस्पमित्येव व्यवस्था पूरीणामभिमता सूपपावत्याशयेनाह.. વિલ્સામાન્યનિતિ જેવા વિરોષે પુરુષપમારિ વકૃષિ શેતે હતિ પુરુષા Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपाय विवरणदादावि । एकत्रिंशत्तमसू० टी० : २९९ : आत्मा, पुरुषपदं भजते स्ववाचकत्वसम्बन्धेन सेवते इति पुरुषपदभाव, गुणगुणिनोरभेदादास्मवाचिपुरुषपदयाच्यं यदेव चित्सामान्यं तदेव तद्रूपेण-कैवलरूपेण साधनन्तं फुट. यथा स्यात्तथाऽऽगमे अभिहित-गदितम् , ३६-तदेवेदं चित्सामान्यं सूक्ष्मरंशः शानदर्शनोपयोगलक्षणः क्रमवदयुच्यमानं-पूज्य भिधीयमानं न दुष्ट-दुन्न भवति, अपेक्षाभेदेनानन्तत्वक्रमिकत्वयोरेका सत्वे विरोधाभावात् , तत्-तस्मात्कारणात्सूरीणामियं मुख्यगौणव्यवस्थाऽभिमतत्यर्थः ॥३॥ यदेत्थं नयभेदावलम्बनेन रिपक्षत्रयाभिमतमुख्यगौणव्यवस्था सामस्यञ्जमञ्चति तदा विस्मयोऽपि नात्र करणीयः, आगमे यथाऽन्ये नय विवादपक्षा तथैतेऽपि सुसङ्गता एवेत्याह-तमोपगमेति । यद्यपि निराकृताऽजन्यसर्वदावस्थितस्वयमाવિસ્મૃતનૈતન્યવાહીં વાત્માં નિશ્ચયતત્ત્વયાપ વ્યવહારતો મતિજ્ઞાનાવરણમૈકક્ષાતમો:पगमे सति चिज नुः-चैतन्यस्य जन्म भवति, क्षणभिदा-प्रतिक्षणं चैतन्यमन्यदन्यदेव विशिष्टविशिष्टतरं भवति निदानोभवः स्वस्वप्रतिनियतकारणतोऽस्योद्भव इत्याचा नथवि. वादपक्षा बहुतरा या श्रुते-आगमे श्रुता-अभिहिताः, अपेक्षाभेदेन तेपामुपपन्नत्वान तेषु कथमेतदघामानं घटामटतीति विस्मयो भवति यथा, तथा सूरिपक्षत्रयेक इच विस्मयो भवतु, न कोऽपि विस्मयः, पक्षत्रयस्यापि नयभदावलम्वननापेपादितवाद, तु-वितर्फ, क्व परिपक्षत्रयमध्ये कस्मिन् पक्षेधियां प्रधानपदवी दवीयसी दृश्यते ?, काया न कुनापीत्यर्थः, सूरिपक्षत्रयमप्यपेक्षाभेदेनोपपद्यत एवेति भावः ॥४॥ ननु विरोधे जाग्रति सति कथं पक्षत्रयमपि समीचीनतयाऽभ्युपगन्तुमर्हमित्यत आह प्रसोति, यत्र स्पसमयेजनसिद्धान्ते प्रसह्य हठादेव एकान्तत इति यावत् , सदसत्त्वयोः-सत्चासत्रयोः, एतच नित्यत्यानित्यत्वादीनामप्युपलक्षणम्, विरोधनिर्णायकं यत्र सवन्तत्र नासचामित्येवमेकाधिकरणावृत्तित्वलक्षणस्य विरोधस्य निर्णायकं-निर्णयजनकं, हि यतः, न-नैव किञ्चित् , सत्वाસરવનિત્યવાગનિત્યવાઘોર્વિરપેક્ષામવેનવિહત, સ્વદ્રવ્ય ક્ષેત્રામાવાવર્જીન सत्त्वस्येव परद्र०यक्षेत्रकालभावावच्छेदनासत्त्वस्यापि द्रव्यापेक्षया नित्यत्वस्येव पर्यायापेक्षयाsनित्यत्वस्यापि चैकस्मिन् वस्तुनि सत्चे वाधकप्रमाणाभावात् , कपिसंयोगतदभावयोरिव सत्यासत्चनित्यत्वानित्यत्वादीनामव्याप्यवृत्तित्वेन भिन्नावच्छेदेन साभावसामानाधिकरण्याऽनुभवात् , तथा विशेषणविशेष्ययोरपि नियामकं न-इदमस्य विशेषणमिदश्चास्य विशेष्यमित्येवं प्रतिनियतविशेषणविशेष्यभावस्थापि नियामकं न किञ्चित् , यस विशेषण तत्तस्य विशेष्यमपि सम्भवति, यद्यस्य विशेष्यं तत्तस्य विशेषणमपि सम्भवतीत्यर्थः । गुणेति-स्यापदात् स्यादस्तीत्यादिवाक्यात्स्यात्पदवलादस्तित्वादः प्रधानतया नास्तित्वादेगुणतया अपेक्षया स्वस्वनिमित्तभेदापेक्षया मतियाँधो भवतीत्यतो भजनोर्जिते-अपेक्षाभेदेन विरुद्धयोरयाविरुद्धतया प्रतिपादके अत्र-अस्मिन् स्वसमये-जैन सिद्धान्त किन सछते- सर्वमेव सङ्गछरो, स्वाधोगपधं - . नदर्शनयोः, स्थान Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રૂeo : તtવાર્યવિવધૂતાર્થકીપિકા | પરામરૂરી મિક જ્ઞાનનો, સ્થાવસિતત્વ સ્થાતિગ્ર તપોરિવ યાત્પયોગના જૈન સિદ્ધારે સર્વમેવ નયમેવવન્યુનેન વારામતિ માવા ! વમવિયેગ્નેવ સ્વાદ્વારા પિતુ ત્યાાડપિ ત્યદ્વાવોને વાન્ડેડનેતા, જ્યાદા ત્યારે પ્રવાઃ સ્થાનેdવધુ ફાતિ, નેત્તર સ્વાધેશા સ્થાને તિ, કમળાપેલા સ્યાદ્વાવત્વમાન્ત જ નક્ષશૈક્ષત્તિવાદ્દિવન્તિત્વગ્ન, યમને ધર્નવય પ્રાધાન્યતાતામ્યાં વિવાનો . નવરતાપગ્ન જીવનન્તિવાળુપાધેસંહિતાર્થવાહની સતર ગુસ...વાયબ્રમવા મવતિ પ્રત્યુતેશ્વમેવ સદર્શન વીઘા જતા સર્વોપન્નતારવું ચન્તાત્યાહાકાતિ, સ્વસમ stપ-નૈનાસિદ્ધાન્તકપિ, સ્યાદા અને પ્રત્વે ૨, નેત્તી સ્થાત્રિ વાવબ્રિજ્યાદ્વાલ્વોમયબર વાuિત્વવાથશ્ચિદાન્તવાર વા વૃદ્ધિ, પાળનાસતા-માનવન્દ્રનાનેન્તિવારિવાષિયમૃતાર્થે પ્રવૃત્તાં નયસ્થ પર स्मयोऽभिमानः प्राधान्यमिति यावत् , या च नयस्य तटस्थता-प्रमाणस्य प्राधान्ये नयस्य મૌખતા, તામ્પામુહસ્રસન્તો વસ્તુનિ કરતયામાસમાના થે ઉપાધયોગનેન્તવાહિધર્મઃ શિરિતા-ચિંત્રિતા તાતૃશાપધવાહિનીતિ યાવત્ હવભૂતા સતી મુમુસલમ્બવાય , બ મુગુરુપરમ્પરાવુપતાર્યપરિપાટી વાવ ન વાધતે, પ્રત્યુતવવિધ નેવાન્તથીuત્વરિપોષિવ મવતિ, હિચતા, ધરા ધીમવશાન્ટિન મગ્નપર્વ-સમન્નક્ષસ્થાને વચમ્યુપને સતિ સર્વે સમન્નાં મવતિ સમુપતે તત્ સદ્દનં વવા, તવ સર્શન યત્ર સવાલવાવ સર્વમસિ વસ્તુનિ સમિતિ થવસ્મૃતી સ્યાત્ પતિ સ્યાદ્રા વ સદનમતિ માવ ૬ છે જે કા નયાનાં તપમનાના હ રિપક્ષેપુ વિરોધમુદ્દોષવનિત તાનઝત્યાહ–રદૃસ્યમિતા વત-ગા, યા શ્વેતવ, વહા-દુર્ગના તધિયોનસવૃદ્ધો નાનાં-સસ્થાતિનયાનાં, રહસ્ય તાત્પર્થ, વિમાપ ન નાનજો માત્રમાં નૈવાવાચ્છાતિ, તવ વિવિધqધપક્ષે-તન્નાનાવિધવવૃદ્ધચ્છવાયયાતતન્મયાક્ષતત્તન્નવામિબરિત્રનિષ્ણુપૂર્વોત્તસ્ત્રાજ્ઞાણે વિવં માબતે, વન્દ્રાધિत्यप्रकृतिविकृतिव्यत्ययगिरा(रः) चन्द्रस्वभावं स्वादिरन्ति रविस्वमा चन्द्रे प्रलप-तीરહેવું દામાવાવીયાતિત્વ7માવં દતવન્ત, બદ–વે, સુત્રાપ-સ્માદ્રિવિ વિ, નિત ન જુવેષણપરા-નિરા મવમવનરૂારૂત્તિો યથાં તથા પ્રાપિનો જ ગુણાળપર જિતુ પલળવણતત્પર વેતિ માવા | Tદ્વાશ્રમ વન્દ્રાતિत्यप्रकृतिविकृतिव्यत्ययगिरः । “सलिलमये शशिनि रवेर्दीधितयो मूर्छितास्तमो नैशम् । શપથતિ નિહિત વ મન્દિરાન્તઃ છે ?” તિ વરાહહિતાવનાત્ સમયે चन्द्रमसि सूर्यकिरणानां प्रवेशादेव तमोनाशकत्वं चन्द्रमसो भवतीत्यवगमात् चन्द्रमसो विकृ. તિ ઝુતિ ગાદ્રિતિ સિદં મવતિ, તત્ર વન્દ્રાસ ઇવ પ્રકૃતિવં સૂર્યચૈવ વિશ્વતિ ત્યાર થયું ત્યાસં રિન્તો નના યથા વયજ્ઞત્વમેવ દયક્તિ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवार्यविवरणदार्थदीपिका । एकत्रिंशत्तम• टी० : ३०१ : तरम् , पूर्वाणि चत्वारि ज्ञानानि मत्यादीनि, क्षयोपशमजानि भतिज्ञानावरणादिक्षयोपशमजनितानि, केवलं तु कर्मक्षयादेव। तस्मान केवलिनः शेषाणि छानस्थिकानि ज्ञानानि भवन्ति, मन्दप्रकाशे आवरणमेव हेतुरियुक्तत्वात् । ये तु नैयायिकादयो योगजधर्मप्रत्यासतिजन्यं मानसं विलक्षणं योगिज्ञानमिच्छन्ति, रतीन्द्रियं योगिज्ञानं कथमुपपादनीयम् , मनसोऽपि तन्मते इन्द्रियत्वात् , कथं च चाक्षुपादिसामग्रीकाले योगिनामपि तदुत्पाद, मानससामन्याः सर्वापेक्षया दुर्वलत्वात् , मानसेतरज्ञानસામથ્થા પ્રતિવધ્યતાવચ્છેદ્ર મોમાન્યત્વવત્ત સાક્ષાત્કારાન્યત્વમપિ મત્યમ્યુપામે માતાमध्याः इव तत्त्वसाक्षात्कारसामयाः सर्वतो बलवत्वात् योगजधर्भवतां ज्ञानान्तरोत्पतिर्न स्यादेव, किन्तु, तपसाक्षात्कारधारेव स्यात् , तथा चानन्ततदुत्पत्तिध्वंसकल्पनायां गौरवात् योगजधर्मजन्यमेकमनन्तं शानमेव कल्पयितुं युक्तम् , तदेवासहाय केवलनामधेयमिति किं तत्र मनः प्रत्यासत्यन्तरकल्पनया, एवं भूरिपक्षेषु विरोधप्रदर्शनेन स्वीयमनवयोधमात्र प्रकाशयन्तोमी जना अपि अहह कुत्रावि निरातका न गुणान्वेषणपराः । तदर्थ । पूर्ववत् । अभी चन्द्रादित्यप्रमृतिविकृतियत्ययगिर 'इति पाठे तु चन्द्रादित्यप्रभृतीनां चन्द्र सूर्यादीनां परस्परविरुद्ध स्वभावानां विकृतेः विकारस्य शीतोष्णस्पर्शादेः व्यत्ययं व्यत्यासं चन्द्र उष्णस्पर्शवान् सूर्यश्च शीतस्पर्शवानित्याकारकं विप. रिवर्तनं ये गिरन्ति तद्वत् सूरिवचनेषु त्रयेषु विरोधमुद्भावयन्तः स्त्रीयमज्ञानमेव प्रदर्शय तोऽभी अहह कुत्रापि निरातका न गुणान्वेषणप, तदर्थ। पूर्ववत् ॥ ७ ॥ इत्सलं पल्लवितेन । . ननु भवतु मतिज्ञानादीनि चत्वारि ज्ञानानि क्षयोपशमजानि तथापि तानि केवलज्ञानोत्पत्तौ तस्यामिनि कयं नोत्पधा। इत्याशङ्कायामाह मन्दप्रकाशे आवरणमेव हेतुरित्युत्वादिति-फेवलज्ञानावरणावृत्तस्य जीवस्य घनपटलाच्छादितस्य सूर्यस्येव यो मन्दप्रकाशो मतिज्ञानादिसंज्ञकस्मिन्केवलज्ञानावरणमेव हेतुरिति केवलज्ञानोत्पत्तौ तदभावातकार्यभूतानि मन्द प्रकाशात्मकमविज्ञानादीनि क्षायोपशमिकानि नोत्पधारे इत्यर्थः । योगजधर्मप्रत्यासत्तिजन्यमिति-योगाभ्यासजनितो युक्तयुञ्जानयोगिद्वैविध्याद् द्विप्रकारो योधर्मस्तल्लक्षणप्रत्यासत्तिजन्यमित्यर्थः । मानससामग्र्यास्सपिक्षया दुर्बलत्वादितिरूपरसादिज्ञानज्ञानतज्ज्ञानादिमानसज्ञानसामग्र्यात्सर्वत्र विद्यमानत्वेन तद्वित्तिपर परोत्पादअसक्त्या रूपरसादिचाशुपसिनादिप्रत्यक्षात्मकविषयान्तरसञ्चारोन स्यादिति मानसप्रत्यक्ष प्रति चाक्षुषादिसामग्रया मानसेतरज्ञानसामग्रीत्वेन प्रतिबन्धकत्वकल्पनेन चाक्षुषादिसामाज्यास्त चाक्षुषादिप्रत्यक्षस्यवाद येन तदानीं विद्यमानाया अपि मानससामथ्या अकिञ्चित्करत्वादिति भावः । मानसेतरज्ञानसामध्याः प्रतिवध्यतावच्छेदककोटाविति-मानसेतरज्ञानसामीनिष्ठप्रतिवन्धकतानिरूपिता या मानसप्रत्यक्षनि प्रतिवध्यता तदवच्छेदककोटावित्यर्थः । भोगान्यत्ववदिति-मानसेतरज्ञानसामग्रीकाले विद्यमानयोरपि सुखदुःखयोर्मनसा साक्षात्कारो न स्यात् , न चैवमस्त्विति वाच्यम्, सुखदुःखयोरवश्यं वित्तिवेधत्वाभ्युपगमाद, तदन्यथानुपपत्त्या सुखदुःखसाक्षात्कारलक्षणभोगान्यत्वविशेषणमुपादेयं तद्वदित्यर्थः । कि तत्र मनः प्रत्यासत्यन्तरकल्पनयति-एतेन या प . Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वार्थविवरणदार्थदीपिका यात्रिंशवमसू. टी. अन्यथाऽबध्यादिस्थानीयज्ञानान्तरेऽपि प्रत्यासत्यन्तर कल्पनापरिति युक्त त्व३यामः ॥ . एवं मत्यादिज्ञानपञ्चकं प्रमाणं प्रदर्थ प्रमाणामासमाविष्करोति सूत्रम्-मतिश्रुतविधयो विपर्ययश्च ॥ १ ॥ ३२ ॥ (भाप्यम्) भतिक्षानं श्रुतमानमवधिज्ञानमिति विपर्ययश्च भवति, अशाने त्ययः । मानविपर्ययोजानमिति अत्राह । तदेव मानं तदेवाहानमिति, ननु छायातपवीतो गवय तइत्यन्त वि. रुद्ध मिति । अयोध्यो, मिथ्यादर्शन गरिग्रहाद्विपरीतपाइकाय तेषाम् । तस्मादशानानि भवन्ति । तद्यथा-मत्यक्षानं श्रुताक्षान विमङ्गज्ञान मिति । अवधिविपरीतो विमत इत्युच्यते ॥ अमाह उकं भवता सम्यग्दर्शनपरिगृहीतं मत्यादिज्ञानं भवति, अन्यथाऽनमे येति, मिथ्यायोऽपि च भव्याया. भध्याश्चेन्द्रियनिमित्तानविपरीतास्पर्शाटी नुपलभन्ते उपदिशन्ति च स्पर्श स्पर्श इति, संरसति, एवं शेषान् , तकथमेतदिति । अत्रीच्यते । तेषां हि विपरीतमेतद्भवति । (यशो० टीका) ज्ञानाधिकाराद्विपर्ययोऽज्ञानमिति । चकारीद् ज्ञानान्यज्ञानानि चेत्यर्थ इत्याशयवान् व्याचष्टे-मतिज्ञानमित्यादि । विरोधमाशते अवाहेत्यादिना, आश्रयभेदेन परिहरति अत्रोच्यत इत्यादिना, मिथ्याष्टिपरिगृहीता मतिमत्यज्ञानं. मिथ्याष्टिपरिगृहीतं श्रुतं श्रुवाज्ञान, क्षात्कारवजातेनिसत्वव्याप्यतयैव कल्पयितुं युजवेन तवच्छिन्न प्रति योगजधर्मलक्षणमन:प्रत्यासत्तिरेव कारणमित्यपि निरस्तम् , निदिध्यासनादेः कर्मान्तरस्येव विहितत्वेन दोपक्षयरूपसरवशुद्धावेनोपयोगात्, तजन्यतावच्छेदकतवसाक्षात्कारवजातेनिसावृत्तिताया एवं युक्तत्वात् , अन्यथैकतरोत्पत्तिकाले तदन्योत्पत्तिवारणाय तवसाक्षात्काराच्यमानसे तदितरमानसे चं हेत्वारादिकल्पने महागौरवं स्यादिति ॥ ३१ ॥ द्वात्रिंशतमसूत्र मवतारयन्नाह एवं मयादिज्ञानपञ्चकं प्रमाणमित्यादि । विपययोऽज्ञानमिति- मूलसूत्रोक्त विपर्ययशब्देनात्राज्ञानं वाच्यमित्यर्थः। तत्र हेतुमाह. ज्ञानाधिकारादिति-जह दुनयणमवयणं, कुच्छियसीलं असीलमसईए । भणइ तह नाणं पि हु, मिच्छद्दिष्टिस अन्नाणं । ५२० । इति भाष्योक्तेः अवचनं-अशीलमित्यत्रेवाज्ञानमित्यत्र ना कुत्सार्यत्वात् कुत्सितं वचनमबचनमिव कुत्सितं शीलमशीलमिव कुत्सितं ज्ञानमज्ञानम् , अप्रमाणवलक्षणकुत्सितत्वश्च मिथ्यात्वसंचलितत्वात् । चकारादिति सूत्रस्थचकारादित्ययः । ज्ञानान्यज्ञानानि चेति-मतिज्ञानश्रुतज्ञानावधिज्ञानानि यथाजस्थितार्थावगाहित्येन तद्वति तत्प्रकारकत्वाद् यथार्थानि प्रमाज्ञानात्मकानीति यावत् । मत्यज्ञानश्रुताज्ञानविमङ्गज्ञानानि चार्थव्यभिचारित्वेन तदभाववति तत्प्रकारकत्वाद यथार्थानि अप्रमाज्ञानात्मकानि ज्ञानामासानीति यात्रदित्यर्थः । विरोधमाशङ्कत इति एकत्र स्थले छायापदेकस्मिन्नेव पुरुषे यदेव मत्यादिज्ञानत्रयमर्थाऽन्यभिचारित्वात्सम्यग्ज्ञानरूपं तदेव पार्यव्यभिचारित्वान्मिथ्याज्ञानरूपमिति विरुद्धमान युक्तमित्याशङ्कत इत्यर्थः । नैकस्मिवाधारे ज्ञानत्रयमज्ञानत्रयञ्चेति ब्रूमः, किन्तु भिन्न एवाश्रये इत्येवमुक्ताशक्षा परिहरति-आश्रयभेदेन परिहरतीति । क्व तर्हि ज्ञानं क्व चाज्ञानमित्याशकानिवृत्यर्थमाह मियादर्शनपरिगृहीतेत्यादि । मिथ्यादृष्टिपरिगृहीता ॥तिपदा Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "ખાવિધળમૂતાનીવિજ્ઞ'I ગયાત્રરાત્તમમૂળ.ટી • ૦+ મિષ્ટિાચહોતોગ્યાધાનૈિમન હ્યુજ્યતે વિપરીતકાર શ્યર્થઃ । નત્ત્વજ્ઞાામન્યત્ર નન્ ત્તાયાં, તથા નાપ્રમાળમિત્યર્થે, ગામાખ્ય ૬ તમાવત તબારમ્, તખ્તાનામવિતોષવતઃ સભ્યદક્ટેર્રાપ શરૢ પીત્ત તિજ્ઞાને મતિ, પ્રામાખ્ય જ્ તિ તત્પ્રારમ્, તન્ન મિથ્યાદલ્ટેરોષે બટાવી ધાવિષ્કારજ્જાને સમવતીતિ - જોય સવૃષ્ટિમિચ્છાદષ્ટિરિશેષ તિ રાતે । અત્રાદેાવિના, મિથ્યાયોર્ગષ ખેતિ, મિથ્યાદર્યિિવધા મિાહીનિબ્બાનશના ૧, અનમિશ્રૃહીમિધ્યાવીનાઃ ૨, પ્રવનના$સન્તેહિનશ્ર્વ ૨, અપ સમ્ભાવને, ન્નઃ સમયે । તે મિથ્યાદયો દ્વિધા—મવ્યાયામન્યાક્ષ । સેયન્તો મળ્યાઃ । બસયન્તોન્યાઃ ।તે દ્વિવિધા પિન્દ્રિય શ્રોત્રવિનિમિત્તે સહરિારમં યેવુ તાન્, આવ તાન્ યથાસ્થિતાન્ પર્શરસાન્ધશબ્દાનું, ૭૫૦મન્તુ, વિશન્તિ વાન્યમ્યઃ । તથા નાવિસંવાદ્યનિયાઝાવેિનાપિ પ્રામાખ્યન, āવપરીત્વ વર્રાતિ । સ્પર્શે શીતાવિમ્, પશામત્મવ્યવસતીર્યવૈવરીયમ્ । રસ નસ ાંત । ડ્વ શેષાવ્ યાન્ધયાન્દ્રાનવૈપરીત્યેન । તથમાંતિ-રાધò ફ્રિ પ્રત્યયે સત્યયથાર્થતા પ્રત્યયાન્તરસ્યાયિતું રાજ્યા, ચચા ત્તિયાં રગતયુદ્ધે તંત્ર વિશેવવર્ગનાવતા તું ન રનમિતિ વાધવર્શનાત્, નૈવમત્ર વા ત્તિપ્રત્યયં પરયાનો યજ્ઞાનાદળોનાં તયથાર્થ જ્ઞાન મન્થેમાંહે । ત્રોજ્યતે, તેષાં મિથ્યાદીના સત્સ્વર્ગાવિજ્ઞાન વિધીતમેવ અર્થાત । તઃ ? । મત્યજ્ઞાનાંમતિ નિદ્રિશ્યતે, થાશ્ચિત્તવૃત્તgમયાનેૉહ્મવસ્તુનો નિયવૈધર્મવવક્ષÎજાન્તતા ગ્રાહિત્યેન મિબ્બાÊમંતિમંત્ત્વજ્ઞાનમ્, શ્રાપમતિજ્ઞાનાંમન્યુઅતે । વં શ્રુતાવાર્તાવ જ્ઞયમ્ । સભ્યદ્રષ્ટિયરિગૃહોતા ચેન્નતિ તવા માંતજ્ઞાનશદ્રેન વાળ્યા માંત, અનેાત્મિક્ત વડુપ્રહત્ત્વન મત્સ્યાત્મ સતૃષ્ટિજ્ઞાન પ્રમામમતિ માત્રઃ । નિમજ્ઞજ્ઞાનોંમતિ માધ્યે વિમળૠ તજ્ઞાનશ્રૃતિ વિમજ્ઞજ્ઞાનમ્, ઇ જ કુત્તા વિમન્નાબ્વેનૈત્ર ગમિતિ ન જ્ઞાનશબ્દો નબા વિશેષતઃ । ત્ર વિદ્ધા મન્ના' વસ્તુવિા વ્યĒિમમિ યદા વિષરીતો મજ્ઞા પરિøિત્તિXારો યસ્ય ક્રિમજ્ઞપ્તષ જ્ઞાનંષ વિમજ્ઞજ્ઞાનમિયાાાપ શાત્રે વ્યુત્પત્તિદૃશ્યતાંત 1 વિમવસ્પાર્થના-વિષઉતાર ચર્ચ કૃતિ-અન્યથાવસ્તુરજ્યેવીતિ માવ। અત્ર હેત્વાતિમાબ્વે થવાદિત 'તતિવિધાનહેતુથનાંવધયા ત્રાસ્ત્રાર્ત્તત્રપીઠાનોમાં માધ્યમત્રતાાંત-નન્યજ્ઞાનનિત્યશ્રેત્યાના વપરત્નેનેતિઅત્રાવયંતીëનુષ્યતે | o ॥ ૨૨ ॥ ત્રવિશત્તમસૂત્રમવાતિ-ત કૃતિ । સૂત્રમ્ રાવ્સતોવિશેષાત્ યદ∞ોપજ્યેન્મત્તવત્ ॥ છુ ॥ રૂર્ ॥ ( માધ્યમ્ ) ચેમ્મિત્ત માયારૂપ તેન્દ્રિયતિëિરીતત્રાહીમાંત રોડöોવિધ્યવસ્પતિ માઁ નામ્ય કૃતિ જોઇ ઘુમિતિ સુવા જોઇ કૃતિ કઇં ચ જોઇ કૃતિ જીવળ સુવતિમ, સ્થિત્રવિરોળ જોટં સુવા જીવળ હોમિતિ નિીતમધ્યવયતો નિયતમજ્ઞાનમેષ માંતે સમૂ મિરનોપહતેન્દ્રિયાàર્મતિઐતાવધયોઽવ્યાનું મન્તિ ની હળ જ્ઞાન, ચારિત્ર નવમેધાયે સંચામાં 1 પ્રમાળે ોણે રચાવામી તદ્યા .i . . . c Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपार्थविवरणपूढार्थदीविया । प्रयस्त्रिंशतमसू० टी० (यशो० टीका ) सद्विधमान वरूपणोत्पादादि, असदविधमान परपेण तत्, तयोरविशेषोऽ.. भजना, तस्मान्मिथ्यात्वमेकनयाश्रितमिथ्याष्टिज्ञानस्य, स्पर्शोऽयमित्यादितदीयप्रत्यक्षस्थाप्यकान्तनय- . वासनासंवलेनैकान्तनयात्मकत्वं भावनीयम् । द्वितीयहेतुं भाष्यकृदयाचष्टे यथोन्मत्त इत्यादि। यथा उन्मत्तः पिशाचादिगृहीतः, कोदयात्-कर्मणां पुराताना विपाकात् , यदा उपहन्द्रियमतिः-उपहतेन्द्रियमनाः संवृतो भवति, तदा विपरीतग्राही अन्यथावस्थितवर परिच्छेदी, भवति । यतः, स उन्मतिः, अश्वं सन्त, गौरयमित्यध्यवस्यति, गां च सन्तमश्वोऽयमिति, सर्वेष्वेव पदार्थपून्मत्तस्य यदृच्छयोपलब्धिर्न कतिपयेष्वित्युदाहरणभूयस्त्वेन कथयति । लोटं पृथिवीपरिणाम मृदादिकं, सुवर्णमित्यध्यवस्यति, सुवर्ण वालोष्टमिति, कदाचिच लोटं लोष्टमेवावधारयति, कदाचिच्च सुवर्ण सुवर्णमित्येव, तस्योन्मत्तस्य 'एवम् उक्तन, अविशेषेण लोष्टं सुवर्ण सुवर्णमध्यवस्यतो यथा नियतं निश्चितमज्ञानमेव । तद्वन्मिथ्यादर्शनोपहतेन्द्रियमनकस्य, मतिश्रुतावधयोऽप्यज्ञानमेव भवन्तीति, बहुप्रकारमा-तज्ञानप्रवाहपतितं किञ्चिदंशेऽभ्रान्तमपि ज्ञानं तेषां भ्रान्तमेव, भ्रमशक्तेरनपगमादिति भावः । इदमत्र बोध्यम्-तद्वति तत्प्रकारकज्ञानत्वं प्रमात्वमिति प्रमालक्षणं परेपा मतेऽनुपपन्नम् , निर्विकल्पकेऽध्याः , तदभावति तत्प्रकारकज्ञानत्वं भ्रमत्वं तद्भिन्नज्ञानत्वं प्रमात्वम्, एवं च निर्विकल्पकसमह इत्यपि, न सम्यग, भूतलं घटवत्पटवचेति ज्ञानेशे भ्रमप्रमात्मकेऽव्याप्तेः । निर्विकल्पकमनुभयात्मकं तृतीयमेवेत्यभ्युपगमे चोक्तमुभयात्मकं तुरीयं प्रसज्यतेत्यपसिद्धान्तः । किं च तद्वतीत्यादौ तच्छदार्थस्थाननुगतत्वाद्रजतत्ववद्विशेष्यकरवे सति रजत ननु सम्याहटेरपि मिथ्याष्टेरिय स्पर्श स्पर्शोऽयमित्येवमेव प्रत्यक्षज्ञानं भवतीति तज्ज्ञानस्य मिथ्यात्वे किं वीजमित्याशङ्कायामाहः स्पीऽयमित्यादितदीयप्रत्यक्षस्थापीत्यादि परमार्थत्या स्पर्श स्पर्शवधर्मवत्तदितरान धर्मसद्भावेऽप्येका सनयवासनासंवलिततया मिथ्यादृष्टेस्स्पर्शत्वमावस्यैकस्यैव धर्मस्य ग्राहकं स्पर्शोऽयमिति प्रत्यक्षात्मकं यज्ज्ञानमुत्पद्यते तदेकन यगोचरैकधर्ममात्रावाहित्येन मिथ्याज्ञानम्, यतो घटगतस्पर्शस्याप्यनेकान्तात्मकतयाऽनन्तस्त्रपर्यायाणां साक्षात्सम्बन्धेन परपर्यायाणां च स्वाऽ. भाववत्वरूपपरपरासम्बन्धेन परमार्थवृत्या तत्र सद्भावेऽपि मिथ्यात्वदोपवलातज्ज्ञानामावेन तन्निराकरणपूर्वकवस्त्वेकदेशमात्रग्राहिमिथ्यानयज्ञानेन सर्वथा पर्शोऽयमित्येवमेकान्तस्पर्शवावधारणातज्ज्ञानं भ्रान्तमेव, एकस्मिन्नपि कलानिधौ तिमिरादिदोषवलाद् भ्रान्तद्वित्वप्रत्ययवद्, अत एव तस्वीजमिति गीयते त्रिभुवनगुरूपदिष्टानेकान्तात्मकवस्तुतत्वज्ञः, सम्यग्दृष्टेतु जिने• भगवन्मुखारविन्द विनिर्गतस्याद्वादस्थ पदार्थत्वव्यापकत्वेन ज्ञानादनेकान्तवासनावासिततया स्पर्शे ऽपि कयश्चित्स्पर्शोऽयमित्येवं प्रत्यक्षज्ञानम् , तत्रानन्तधर्मात्मकत्वद्योतककथञ्चित्पदनैवानुवृत्तिव्यावृत्तिवर्मद्वारा सर्वधर्मज्ञानमिति तज्ज्ञानं सम्यग्ज्ञानं प्रमाणज्ञानमिति यावत्, अत एव मोक्षौपयिकमिति मनीषिभिर्गीयते इति भावः ।' अंशे भ्रमप्रमात्मकेऽव्याप्तेरिति-भूतलं घटवत्पटवचेति समूहालम्बनज्ञानमंशे प्रमात्मकमिति लक्ष्यीभूते तस्मिनंशे भ्रमात्मकतया भ्रमभिन्नज्ञानत्वलक्षणस्या ऋचेरव्याप्तिस्स्यादित्यर्थः । अनुभयात्मकमिति-न प्रमात्मकं न वा भ्रमात्मकमित्यर्थः। मुभयात्मकमिति-तल, Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ બરવાવિવરબાઈજીપિની I ગર્જરત્તમ ટી. : ३०९. निवेश विनाऽगतः । तथा च तदवच्छेदकावच्छिन्न प्रकारतायां विशेष्यताया सांसर्गिकविषयतायां पा. निवेशनीयमित्यत्र विनिगमकामाव एव त्याद्वादसाधकः । अपि च तत्सम्वन्धवद्विशेप्यकत्वदाने शब्दे गगन ધટત્વે ધટો વર કુણ્ડત્યાબિતીતીનાં પ્રમાત્વાપત્તિ, તશિખ્યઋત્વાને જ મને શબ્દ હૃદ્યાવિજ્ઞાનેધ્વપ્રમારિનાશ્રિતસ્યકાન વાળીયા? તશ્રિયળે તુ સર્વાન્યમાત્રાપેક્ષાયાં પ્રમાત્માધારતાક્ષાયાંत्वप्रमासमिति सुकर एव विवेकः । सप्तम्याः अतन्त्रत्वात् । अपि च शुक्ताविदं रजतमित्यत्रापि “सर्व शानं धर्मिण्यमान्तम्” इति न्यायाधस्यशे प्रमात्वमेव, रजतत्यप्रकारांशेऽपि नाप्रामाण्यं, वैज्ञानिकसम्बन्धन तत्सनादिति समवायांशे तद्वक्तव्यम् , तदपि विविक्तविवेके न सम्भवतीति विषयताविशेष ए१ प्रमात्र विशेष्यतायां तन्निवेश प्रकार संसर्गयोरन्यकालादिवैशिष्ट्यावसाहिभ्रमे संसर्गतायां तन्निवेशे प्रकार વિશેષ્યોરન્યાવિવરિયાવાહિશ્ર વાતિવ્યાસે, સર્વત્ર તનિશે હવાલે કનૈવ पदव गाहिन्यां प्रमायामन्याः स्याद्वादाश्रयणं विना गत्यभावात्तत याद्वादो बलादापततीतीत्यमेकान्तवादे यो विनिगमकामावरस एव स्याद्वादसाधक इत्यर्थः । तत्सम्बन्धवाद्विशेष्यकत्वदाने 'सम्बन्यो हि द्विनिष्ठ इति शब्दे समवायसम्बन्धावच्छिनाधेयत्वात्मकस्य सम्बन्धस्यानुयोगतया, प्रतियोगितयां गगने च सत्येन, घटत्यानुयोगिकस्य च तस्य प्रतियोगितया घटे सलेन बदरानुयोगिकस्य संयोगसम्बन्धविच्छिनाधेयत्वस्य च प्रतियोगितया कुण्डे सत्त्वेन शब्दघटकबदरसम्बन्धवद्गगनघटकुण्ड विशेष्यकशघटत्ववदरप्रकारकत्वाच्छ०दे गगनं घटत्वे घटो पदर कुण्ड मित्यादिप्रतीतानां प्रमात्वापत्तिः, प्रमालक्षणे तद्वद्विशेष्यकत्वविशेषणोपादाने च शदे गगनं घटत्वे घट इत्यादिप्रतीतिषु समवायसम्बन्धावच्छिन्नाधेयतासम्बन्धेन शब्दवजस्य गगने घटत्ववनस्य च घटेऽभावात् प्रभावप्रसङ्गाभावेऽपि गगने शब्द इत्यादिप्रतीतीनामप्रमावापत्तिः, आधेयत्वसम्बन्धस्य वृत्यनियामकतया तेन सम्बन्धन गगनवत्वस्य शब्देऽभावाद, स्थावादाङ्गीकार च कथञ्चिद् गगनवतस्य शब्दे स्वीकारेण अथवा प्रथमा विभक्तिः, विशेष्यत्वप्रथोजिकेत्यस्यातन्त्रत्वेन समवायसम्बन्धेन शब्दस्यैव प्रकारत्याभ्युपगमेन नाप्रमावापतिरित्याह-अपि च तत्सम्बन्धवद्विशेष्यकत्वदान इति । ननु गगने शब्द इत्यनधेियत्वे सप्तमीविधानादाधेयत्वसम्बन्धेन गगनसम्बन्धित्वस शब्दे सत्याप्रमात्वं युक्तमाधारत्वसम्बन्धेन सम्बन्धित्वं तत्र विवक्षितुमशक्यमिति कथं तदुपादाय भ्रमत्वोपपादनमत आहसप्तम्या अतन्त्रत्वादिति-विवक्षानुसारेण विभक्त्यर्थो भवति, आधारत्वेन सावन्धित्वविवक्षायां तदपि विभक्त्यर्थतया स्त्रीकर्तुमर्हमेवेति आधेयत्व मात्र प्रतिभासने सप्तम्या अप्रयोजकलादित्यर्थः । वैज्ञानिकसम्बन्धेन तत्सत्वादिति (चप्रकारकज्ञानविशेष्यत्वसम्बन्धन शुक्तौ रजतत्वस्य सचादित्यर्थः । तदपि विविविवेके न सम्भवतीति-तदपि शुक्ताविद रजतमिति ज्ञानस्य समवायांशेप्रमात्वमपि, विविक्तविवेक-विविक्त ये प्रभावाप्रमावे प्रमात्वाधिकरणे नाप्रमात्वं तदधिकरणे न प्रमात्वमित्येवं ते विविक्ते तयोविवेके विविक्तलक्षणादिकान्तवादिनोपदयितुमशक्ये सति न सम्भवति, यद्यदेकान्तवादिना तयोर्लक्षणमभिधानी Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - વાઈવિવાળવાર્યતીથિ - થારામ દવે णात्मकर्ममेक्षिकाऽभावान जीवाजीवादिवरतुनो यथार्थपरिभावनं स्यादिति यथार्थज्ञानाभावे नायुक्तमपि युक्त युक्तमप्ययुक्त प्रतिमासेत । किञ्च परसमयरूपं यदनित्यत्यादिधर्मप्रतिपादकमेकनयमतं तन्नित्यत्वादिधर्मप्रतिपादकेन तत्प्रतिपक्षभूतेनान्येन नयेन नयविधिज्ञो यदि स्यापदा निराकुर्यात् । किञ्च स्वसिद्धान्तऽपि यदज्ञानद्वेषादिकलुपितस्सन् कोऽपि दोपबुद्ध्या किमपि यज्जीवादिवस्तु अन्यथा परिगृह्णीयात् तदपि यो नयविधिज्ञस्स ५५ नयोक्तिभिर्यथार्थतया स्थापयेत्, अन्यथा तु कथं, तस्मात्कर्तव्यो नयविचारः । उक्तञ्च भाष्ये "परसमएगनयमयं तप्पडिसनयओ निवत्तजा । समए व परिग्गहियं परेण जं दोसबुद्धीए ॥ २२७४ ॥” इति । नन्वेवं तर्हि सर्वत्र नयानामेव सावकाशत्वात् प्रमाणानि निष्प्रयोजनानि स्थुः, एवं निक्षेपा अपीति चेत्, उच्यते, श्रुतात्यप्रमाणविषयी कृतस्य वस्तुनो य एकोऽशः यौ वा द्वाशौ ये वा प्रतिनियतवशास्तदितरांशौदासीन्येन तत्प्रतिपादनमात्रमेव नयफलम् , सशिविशिष्टवस्तुप्रतिपादनं प्रमाणफलम् , नामादिवस्तुभेदप्रतिपादन निक्षेपफलमिति त्रयाणामपि जैनशासने साफल्यमेव, नयप्रमाणनिक्षेपसामान्यलक्षणत प्रतिभेदस्वरूपलक्षणयथार्थज्ञान एव वस्तुनो यथार्थज्ञानं तत्त्वजिज्ञासुमध्यस्थश्रोतजनावबोधनाय यथार्थवाक्प्रयोगश्च स्यात्, नान्यथा । उक्तञ्च विशेषावश्यकभाष्ये"अत्थंजोन समिक्खइ निक्खेव-नयप्पमाणओ विहिणा। तस्साजुत्तं जुत्तं जुत्तमजुत्तं व पडिहाइ २२७३।" इत्यादि लक्षणा नया मिथस्सापेक्षारसुनयाः, स्वाभ्युपगतकवतरधर्मतिरस्करणे सति मिथो निरपेक्षा मिथ्यानया:, ते चापरिमिताः, यतस्ते तपादिभिनिजाभिप्रायेण प्रदर्शिवास्सदेवासदेव वा वस्तु नित्यमेवानित्यमेव वा भिन्नमेवाऽभिन्नमेव वा क्षणिकमेवाक्षणिकमेव बत्यधिककांशप्रतिपादका वचनप्रकारा यावन्तस्तावन्त ५५, वचनपथतुल्यस-ख्यपरसमयतुल्यत्वानयानाम् । उक्तञ्च सन्मता-"जावइआ क्यणप्पहा तावइआ चेव होति नयवाया। जावइआ नयवाया तावइया चेव परसमया ॥१॥” इति । ते च नया: परस्परनिरपेक्षा अत एव स्यावाकवाक्यताऽनापन्नास्सावधारणाः स्वपक्षप्रतिहतत्वान्मिथ्यारूपास्वविपयस्य स्वविषयामिधानस्य च मिथ्यात्वस्यापकाः परसमयरूपा अपि विरुद्धयोसंचासत्वाधारविरोधभावनियामकं सापेक्षभावं गतास्ते निरवधारणार त्याच्छन्दलाञ्छितासमुदिता सत्तोऽन्योन्यनयविषयापरित्यागवृत्तय इतरनयविषयसापेक्षतविषयसत्यत्वनिश्चायका स्वसमयरूपा इति ते प्रमाणभावलक्षणसम्यक्त्वं प्रतिपद्यन्ते । उक्तञ्च विशेषावश्यकभाष्ये"ते चेव य परसमया समत्तं समुदिता सव्वे । २२६५ ।" इति । ननु नयानां प्रत्येका स्थायां मिथ्यादृष्टित्वात्समुदायेऽपि प्रचुर विपलवसमुदाये विपप्राचुर्यवत् महामिथ्यावृष्टिल्य{प्रसक्त्या न ते समुदिता सम्पत्विं प्रतिपद्यन्ते, नापि परस्पर विवदमाना वस्तुगमका भवन्ति, प्रत्युत मिथो विरोधित्वावस्तुविधावायवे भवन्तीति चेत्, मवम् , परतवानवपोधात्, यतः मधुर विषलवा अपि प्रौढमानवादिनाऽतिप्राज्ञकुशलक्रियपीयूपपाणिमहाधन Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपार्थ विवरणदार्थदीपिका । त्रयस्त्रिंशत्तमसू० टी० : ३१३: " प्रमाणनयैरधिगम " इति यत् सूत्रितं तत्र प्रमाणे च प्रत्यक्षपरोक्षे उक्त, चकार आधसूत्रस्य चारित्रं वक्ष्यमाणं समुचिन्वन् जिज्ञासितनिरूपणान्यूनत्वेन नयनिरूपणेऽवसरसंगति प्रयोजयति तथा च प्रतिजानीते नयान वक्ष्यामस्तथा ।। ३३ ॥ “न सम्मतवत्युगमगा पीसुं स्यणावलीए मणउ० । सहिया सम्मत्तगमगा मणओ यणावलीएव्य ।। २२७१॥" नन्वेयं सर्वेऽपि नयवादा मिथ्या स्वपक्षेणैव प्रतिहतत्वात् , चौरवाक्यवदित्यनुमानात् सर्वेषामेव नयानां मिथ्याष्टित्वे तत्समुदायेऽपि सम्यक्त्वं न स्यादिति चेत्, न, ३तरनयविषयीकृतरूपाऽव्यवच्छेदकत्वलक्षणेन अन्योऽन्यनिश्रितत्वेन समुदाय सम्यक्त्वसम्भवात् । अथ प्रत्येक मिथ्यावधारणानां तेषां नयानामन्यनिश्रितसमुदायेऽपि कथं सम्यक्त्वम् , तत्तत्स्वगोचराऽपरित्यागेन तत्रापि तेषां विषयान्तराप्रवृत्तरिति चेत् , मैवम् , यत एकैका अप्पेक्षितेतशिस्त्रविषयग्राहकतयैव सन्तो नयाः, तद्वयतिरिक्त-पतया त्वसन्त इति सतां तेषां समुदाये सम्यक्त्वे न कश्चिदोपः । ननु तत्काल विधमानानामेव रत्नानामेकसूत्रक्रमानुस्यूतानां समुदायो रत्नावली, तथैव प्रत्यक्षप्रमाणेन दृश्यमानता, न चेतरेतर विषयापरित्यागवृत्तीनां ज्ञानानामेकदोत्पत्तिसम्ममः, "जुग दो नत्यि उवआगा" इति वचनात् , येन रत्नावलीदृष्टान्तेन तत्समुदाय सम्यक्त्यमभ्युपगतं शोभावहं स्थादिति चेत् , अनु कोपालम्भ (५ः, न ह्येकदाऽनेकज्ञानोत्पादतस्तेषां समुदायो विवक्षितः, अपि त्वपरित्यक्तेतरधर्मवस्त्वेकधर्मविपाध्यवसाय एव समुदायः, अन्योन्यनिश्रिता इत्यनेनाप्ययमेवार्थः प्रतिपादितः, न हि द्रव्यार्थिकपर्यायायिकाभ्यामत्या। पृथग्भूताभ्यामलिद्वयसंयोगवदुभयवादोऽपरः प्रारब्ध इत्येवं सम्मतिवृत्तावप्युक्तमिति । तादेशाध्यवसायश्च मिथ्यात्वालिङ्गितानामेकान्तक्षणिकत्वाक्षणिकायभिन्नत्वामिन्नत्वादिधर्मप्रतिपादकसौगताक्षपादादिनिखिलमतानां यत्समुदायस चेत्, स्यास्पदलाछित यात्तदैव स्यात् नान्यथा, पर सिद्धान्तोक्तकान्तवस्तुतत्वज्ञानेषु स्थाद्वादतत्मनिर्णायकयुक्तिमिरेका ततवसाधकयुः तीनां निरासेन एकान्त तत्वसाधकहेतूनां स्थाद्वादसाधकप्रतिहेतुभिर्वाधितत्वप्रदर्शनेन चापामायनिश्चयात्तद्विपयाभावनिश्चये स्याहादसिद्धा-सिद्धः, अत एव सम्यग्दृष्टिना स्याद्वादमर्यादा विषयविभागेन व्यवस्थापितसर्योऽपि परसिद्धान्तरससिद्धान्त एवेति सिद्धान्त गीयते । उक्तञ्च भाष्य-" मिच्छत्तमयसमूहं सम्मत जं च तदुवगारम्मि | पट्टई परसिद्धतो तो तस्स तओ ससिद्धतो ॥ ९५४ ॥” इति । नन्वेवं तर्हि दुनयसुनयप्रमाणानां लक्षणानि यावन्नेव ज्ञायों ताव तत्स्वरूपयथार्थज्ञानं जायत इति तेषां तानि कानीति चेत्, उच्यते, इतरधर्मप्रतिक्षेपित्वे सति वस्त्वेकधविगाही प्रतिपत्तुरभिप्रायविशेषो दुनयः, श्रुताख्यप्रमाणविषयीकृतस्य वस्तुनोऽनन्तधर्माध्यासितस्य गजनिमीलिकान्यायेन तदितर धौदासीन्यतस्वाभिप्रेतकधर्मावगाही प्रतिपत्तुरभिप्रायविशेषो नयः, अत्र श्रुतास्यप्रमाणविषयीकृतत्वं पस्तुनः परिचायकविधया विशेपणम्, उपलक्षणमिति यावत् , न वितव्यावर्तकतया विशेषणम्, तथा सति श्रुताख्यप्रमाणेन Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पेक्षार्थवाहित्वमेवम्भूत इति ॥ अत्राह-वमिदानिकस्मिन्नर्थेऽध्यवसायनानात्वाननु विप्रतिपत्तिप्रसर इति । भोच्यते । यथा सर्वमेकं सदविशेषात् , सर्व हित्वं जीवाजीवात्मकत्वात् , सर्व वित्वं द्रव्यगुणपर्यायावरोधात्, सर्व चतुष्टुं चतुर्दशनविषयावरोधात, सर्व पञ्चवं पञ्चारितकायात्मक स्वात्, सर्व पद्त्व पद्रव्यावरोधादिति । यथैता न विप्रतिपत्तयोऽथ चाध्यवसायस्थानान्तराण्ये. तानि तद्वन्नयवादा इति । कि चान्यत्-यथा मतिज्ञानादिभिः पञ्चभिनिर्धर्मादीनामरिकायाना• अन्यतमोऽर्थः पृथक् पृथगुपलभ्यते पर्यायविशुद्धिविशेषादुत्कण, न च ता विप्रतिपत्तयो भवन्ति तद्वन्नयवादाः । यथा वा प्रत्यक्षानुमानोपमानाप्तवचनः प्रमाणेरेकोऽथै प्रमीयते स्वविषयनियमात्, न च ता विप्रतिपचयो भवन्ति तन्नयवादा इति । माह च " नैगमशाना-मेकानेकार्थनामापेक्ष । देशसमग्रमाहो, व्यवहारी नैगमो शेयः ॥ १ ॥ यत्संगहीतवचनं, सामान्ये देशतोऽथ च विशेपे । तत्संग्रहनयनियतं, शानं विद्यान्नयविधिज्ञः ॥ २॥ समुदायव्यक्त्वाकृति-सत्तासंज्ञादि. निश्चयापेक्षम् । लोकोपचारनियत, व्यवहारं विस्तृतं विद्यान् ॥ ३॥ साम्प्रतविषयमाहकभृजुसूत्रनय समासतो विधात् । विद्याधथार्थशब्द, विशपितपदं, तु शब्दनयम ॥४॥" इति । अत्राह-अथ जीवोलोजीवः अजीको नोऽजीव हत्याकारिते केन नयेत कोऽर्थः प्रतीयत इति । अयोग्यते। जीव इत्याकारिते नैगमदेशसंग्रहव्यवहार सून साम्मतसमभिरून पश्चस्वपि गतिवन्यतमो जीव इति प्रतीयते । कस्मात् । एते हि नया जीवं प्रत्यौपशमिकादियुतभावग्राहिण.। नोजीव इत्यजीव द्रव्य जीवस्य वा देशप्रदेशौ । अजीव इत्यजीवद्रव्यमेव । नोऽजीव इति जीव ५८, तस्य वा देश. प्रदेशाविति ॥ एवम्भूतनयेन तु जीव इलाकारिते भस्थो जीवः प्रतीयते । कस्माद । एष हि नयो जीचं प्रत्यौदयिकभावग्राहक एत्र । जीवतीति जीवः प्राणिति प्राणाधारयतीत्यर्थः । तच जीवन सिद्ध न विद्यते, तस्माद्भवस्थ एव जीव इति । नोजीव इत्यजीवद्रव्यं सिद्धो वा । अजीव इति अजीव. गव्यमेव । नो अजीव इति भवस्थ एव जीव इति । समग्रार्थवाहित्वाचास्य नयस्य नानेन देश । प्रदेशौ गृह्यते । एवं जीवो जीवा इति द्वित्व हुत्वाकारितमपि । सर्दसंग्रहणे (सर्वस हेण ) तु जीयो नोजीयः अजीयो नोऽजीव जीची नोजीची अजीवी नोऽजीशे इत्येशत्वद्वित्वाकारितेषु शू-यम् । कस्मात् । एष हि नयः संख्यानन्त्याज्जीवानां वहुत्वसेवेच्छति यथार्थवाही । शेषास्तु नया जात्यपेक्षकस्मिन्महुवचनत्वं बहुपु च बहुवचनं लाकारितग्राहिण इति । एवं सर्घभावेषु नवादाधिगम' कार्य । अनाह-अथ पञ्चानां सालानां सविपर्ययाणां कालि को नयः समाश्रयत इति । अत्रोच्यते । नेगमादयस्त्रय. सर्वाण्यष्टौ श्रयन्ते । जुसूत्रनयो मतिज्ञानमत्यज्ञानवजानि ५ । अत्राह-कलमान्मति सविपर्ययां न श्रयत इति । अत्रोच्यते । श्रुतस्य सविपर्ययस्योपत्रह त्यात् । शव्दनयस्तु वे एव श्रुतज्ञान केवलज्ञाने श्रयते । मनाह-अथ करमान्नेतराणि श्रयत इति । अनोच्यते। भत्यवधिमनःपर्याशणां श्रुतस्यवोपन हकत्वात् । चेतनासाभाव्याच्च सर्वजीवानां नास्य कश्चिन्मिथ्यादृष्टिरको वा जीरो विद्यते । तस्मादपि विपर्ययान श्रयत इति । अतश्च प्रत्यक्षानुमानोपमानाप्तवचनानामपि प्रामाण्यपश्यनुशायत इति । आह च-"विज्ञायैकार्थपदान्यथ पदानि च विधानमि च । विन्यस्य परिक्षेपानये. परीक्ष्याणि तत्त्वानि ॥ ॥ज्ञानं सविपर्यासं, त्रयः श्रयन्त्यादितो नयाः सर्वम् । सल्यान, मिथ्याविपर्यासः ॥२॥ जुसूत्र. पटू श्रयते, मतेः श्रुतोपनहादनन्यत्वा । श्रुतकेयले तु शदः श्रयते नान्यच्छ्रताइत्वात् ॥३॥ मिथ्या६४यज्ञाने, न श्रयते नास्य कश्चिदशोऽस्ति । ज्ञानाभाव्यान्जीवो, मिथ्याष्टिने चाप्यश (sस्ति) ॥ ४ ॥ इति नयवादाश्चित्राः, क्वचिद्विरुक्षा इवाथ च विशुद्धा लौकिकविषयातीता-स्तत्वज्ञानार्थमधिगम्या. ॥ ५ ॥" (यशो० टीका) आद्यौ च तो शब्दो चेति समानाधिकरणसमासाशक्षायामाह-आध इतीत्यादि । आदौ भव आद्य इत्यनेन सूत्रकारो नैगममाह-कुन., सूत्रस्योक्तविभागसूत्रस्य क्रमः परिपाटी ---- [324] Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वार्थविपरणार्थदीपिका । पंचरितमसू. टी० : ३१७ तत्प्रामाण्यात् , उत्क्रमे बाधत्वं न स्यादपीति । स-आधो नैगमो द्विमेद:-द्वौ भेदी यस्य स तथा । तावे. पाह-देशपरिक्षेपी सर्वपरिक्षेपी च । देशं विशेष परमावादिगत परिक्षेप्तुं शीलं यस्य स तथा, सामान्यवाहीति यावत् । सर्व सामान्य परिक्षेप्तुं शीलं यस्य स तथा, विशेषमाहीति यावत् । सामान्यविशे५५स्तु नोक्तम् ( नोक्तः, ) अनुवृत्तिलक्षणं सामान्यमेव, व्यावृत्तिलक्षणो विशेष एवेति भिन्नविषयाभावात् । अयं च काणभुजराद्धान्तप्रवर्तकः टीकायामभिहितः, तन्मते च यद्यपि न सामान्यमानं विशेषमात्रं वा वस्तु, द्रव्यगुणक्रियाश्रितस्य सामान्यस्य नित्यद्रयाश्रितस्य चान्त्यविशेषस्याभ्युपगमात् , तथापि तन्मूलमिदं प्रथमाभ्युपगममाश्रित्येत्यमुक्तमिति भावनीयम् । शन्दनयास्त्रिभेदा इति ( शब्दस्त्रिभेद इति) शब्दनयस्व्यंश इत्यर्थः । तानेव भेदानाह साम्प्रत इत्यादिना । संप्रति काले भवं यद्वस्तु तदाश्रयन् ननु सामान्याद्विशेषाच्यातिरिक्त सामान्यविशेषोभयरूपः कथं नोक्त इत्याशङ्कायां तत्र हेतुमाह-अनुवृत्तिलक्षणमित्यादि । द्रव्यादिषु सत्सदिति द्रव्यमिदं द्रव्यमिदं गुणोऽयं गुणोऽयमित्याधनुगतप्रत्ययजनकं यत्सत्ताद्रव्यत्वगुणत्वादिकं तत्सामान्यमेव, परमाणोः परमानन्तरण यो ०यावृत्तप्रत्ययस्तजनकोऽन्त्यविशे५ एवेति तदतिरिक्तविषयाभावादित्यर्थः । यद्यपि द्रव्यभिदं द्रव्यमिदमित्याधनुगतप्रत्ययजनकत्वे सति नायं गुणः नेदं कर्मेति विशेषप्रत्ययजनकत्वाद् द्रव्यत्वादीनां सामान्यत्वं विशेषत्वं चाभ्युपगत वैशेषिकदर्शनानुगैरिति सामान्य विशेषोभयात्मकं द्रव्यत्वादिकमस्येव, अत एव-" द्रव्यत्वं गुणत्वं कर्मत्वञ्च सामान्यानि विशेषाश्च" १-५ इति वैशेषिकसत्रे सामान्यानि विशेषाश्चेत्यत्रासमास: सामान्यत्वे सति विशेषत्वं यथा ज्ञायते तदर्थम् , अन्यथा सामान्यविशंपा इत्युक्तो पठीसमासभ्रमररयात्, तथा च सामान्यत्वे सति विशेषत्वं न प्रतीयेत तथापि यदेव द्रव्यत्वादिकं सामान्यरूपं तदेवापेक्षिकविशेषरूपमिति तदतिरिक्तस्य सामान्यविशेपोभयात्मविषयस्याभावादिति भावः । अयं चेति-नैगमनयश्च वैशेषिकदर्शनप्रवकतातपादश्रीसिद्धसेनमाणिवरकृततत्वार्थटीकायाभाभिहितः । तन्मते चेत्यादि-वैशेषिकमते च यद्यपि सामान्यमानं विशेषमात्रं वा वस्तु न सम्मन, द्रव्यगुणक्रियाश्रितस्य सामान्यस्य नित्यद्रव्याश्रितस्यान्त्यविशेषस्य वैशेषिकेणाभ्युपगमात् , यदि सामान्यमेव वस्तु तन्मते भवेत् तर्हि द्रव्यादिव्यक्तिलक्षणविशेषाभावात्तदाश्रिततथा सामान्यस्याभ्युपगमस्तन्मते कथं सङ्गच्छेत, एवं यदि विशेषमात्रं पस्तु तन्मते भवेत्तर्हि नित्यद्रव्यस्यैव तन्मतेऽभावप्राप्तौ तदाश्रिततयाऽन्त्यविशेषाम्युपगमोऽप्यसमञ्जस एवं स्यात् , एवञ्च देशपरिक्षेपी सामान्यमानाही सर्वपरिक्षेपी विशेषमात्रग्राही यो नैगमो नय. लकत्वञ्च सामान्यविशेषोभयाभ्युपगमप्रयणे वैशेषिकदर्शने न सम्भवति, तथापि-उक्तदिशा सामान्य मात्राम्युपगमप्रवणविशेषमात्राम्युपगमप्रवण गमाविशेषद्वयमूलकत्वास भवेऽपि, सामा. न्यतो नैगमः सामान्यमभ्युपगच्छति विशेपश्चाभ्युपगच्छतीति देशसमग्रग्राही नैगम इति प्रथमा. भ्युपगममाश्रित्येदं नेगमवचनं नैगममननं पावैशेषिकदर्शनमूलमित्यभिप्रायेणेत्थमुक्त टीकाकतेति सुधीभिर्विचारणीयमित्यर्थः । सम्प्रतिशदाद् "कालान्" इत्यनेन प्रत्यये तत्र ञ् इत्यस्यले Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ : तत्वार्थविवरणगूढार्घदीपिका | पंचत्रिंशत्तमसू० टी० " साम्प्रतः । न च कालानिति साप्रतिक इति भवितव्यम् संप्रतिशब्दस्य वर्तमानवस्त्वध्यवसाये लाक्षणिकत्वेन तद्भवशब्देप्रत्यायकाप्रत्यये प्रज्ञादित्वात् स्वार्थिकाश्रयणे वा दोषाभावात् । यां या संज्ञा“ठस्येकः” इत्यनेन ठसेकादेशे आदिवृद्धौ "यथेति च" इत्यनेन कारलोपे साम्प्रतिक इति प्रयोगेण भाव्यमित्याशय निराकरोति-न चेति, निरासे हेतुमाह-सम्प्रनिशन्दस्येत्यादिनासम्प्रतिशब्दो नात्र शक्त्या वर्तमानकालात्मकार्थवाचकः किन्तु लक्षणया वर्तमानवस्त्वध्यवसायार्थक इति कालवाचित्वाभावात् ठञोऽप्राप्त " तत्र भव:" इत्यनेनाणि प्रत्यये साम्प्रत इति सिद्ध्यति । अथवा “ प्रसादिभ्योऽण् इत्यनेन स्वार्थिकाणि प्रत्यये साम्प्रत इति प्रयोगसाधुरेवेति भावः । एष साम्प्रतनयो मूलशब्दनयामिप्रायाऽविशिष्ट इति न पृथगुदाहरणैर्विभावित इति । यां यां संज्ञामभिधत्ते इत्यादि । यां यां संज्ञां घटः कुम्भः कलश इत्यादिरूपामभिधत्ते वदति तां तां भिन्नभिन्नार्थवाचकत्वेन समभिरोहति प्रमाणीकरोतीति सममिष्ठः, यद्यपि अर्थक्रियाकारित्वात् सल्लक्षणं वर्त्तमानक्षणवर्त्तिनमृजुमुत्रास्युपगतमेकमपि वस्तु वटस्वटी तटं, दारा कलत्रं, यास्यसि त्वं, यास्यति भवान्, वभूव भवति भविष्यति सुमेरु, संतिष्ठते अवतिष्ठते इत्यादौ यथाक्रमं लिसङ्ख्या पुरुप कालोपसर्गभेदभिन्नशब्दवाच्यं चेत्तदा शब्दनयतदैक्यं नाभ्युपगच्छति, स्त्रीपुंनपुंसकलिङ्गादीनां गुणानां भिन्नत्वात् तथाप्यभिभलिङ्गकपर्यायशब्दवाच्यमर्थमेकमुरीकरोति सः, समभिरूडनयस्तु नैवं प्रमाणीकरोति, अभिन्नलिङ्गकपर्यायशब्द मेदेनापि तदर्थभेद इति मूलत एवं शब्दभेदेन तद्वाच्यार्थभेदस्यैव प्रमाणहत्यात्, यतो यो घटशब्दवाच्योऽर्थस्वं कुटकुम्भकलशादिपर्यायशब्दवाच्यं नेच्छत्यसौ, एतन्मते व्युत्पत्तिनिमित्तस्यैव प्रवृत्तिनिमित्तत्वेन तद्भेदेनार्थ भेदाभ्युपगमादित्यर्थः । अयमत्र भावार्थ: इन्द्रपुरन्दरादिशब्दान् घटकुटकुम्भादिशब्दश्चानन्तरं शब्दनयेनैकाभिधेयत्वेनेष्टानसौ विशुद्धतरत्वात् प्रत्येकं मिनाभिधेयानभिमन्यते भिन्नव्युत्पत्तिनिमित्तकत्वात् सुरमनुजादिशब्दवत्, तथाहि इन्दति परमैवमनुभवतीति इन्द्रः, शक्नोतीति शक्रः पुरन्दारयतीति पुरन्दरः, “ घट चेष्टायां " घट विशिष्टयां करोतीति घटः, कुट कौटिल्ये " कुटति कौटिल्यं करोतीति कुट:, उभ उम्भ पूरणे " कूम्मनात् कुस्थितिपूरणात्कुम्भः, कं जलमुम्भति पूरयतीति वा कुम्भः, शकन्ध्यादिषु च " इति वार्त्तिकेन पररूपम् ॥ इह परमैश्वर्यादीनि भिन्नान्येवात्र व्युत्पत्तिनिमित्तानि, एत्रमध्ये कार्यत्वे घटपटादिशब्दानामप्येकार्थत्वापचिस्स्यात्, युक्तेरसास्यात् न च पर्यायशब्दानामेकार्थत्वमभ्युपगम्यत इति नेन्द्र पुरन्दरादिषटकुटकुम्भादिशब्दवद् घटपटादिशब्दः पर्यायशब्दाः एकार्थवाचकत्वाभावादिति नैकार्थास्ते इति वाच्यम् । एवं सतन्द्रश०दस्य शक्रादिशब्देन सहकार्यतयेन्द्रार्थे शक्रादिप्रयोगे इन्द्रार्थस्य परमैश्वर्यस्य शक्रशब्दार्थे शकनलक्षणे वस्त्वन्तरे संक्रान्तिः कृता स्यात्, तयोरेकत्वमापादितं भवेदिति यावत्, तच्च न युक्तम्, यतो न हि य एव परमैश्वर्यपर्यायः स एव शकनपर्याय भवितुमर्हति, अन्यथा सर्वपर्ययसाङ्कर्यापतिस्स्यात् तस्मादेतन्मतेऽयैक्याभावात् 46 46 66 75241 TYTOW Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वार्थविवरणदार्थदीपिका | पंचशित्तमसू० टी० मभिधत्ते ता तां समभिरोह तीति सममिततः । एवं व्युत्पत्तिनिमित्तपुरस्कारेण भूत एवंभूतः । इह संज्ञा तावत् त्रिविधा भवति-पारिभाषिकी, औपाधिकी, नैमित्तिकी च । तत्र नामकरण संस्काराधीनसंकेतशालिनी पारिभाषिकी । यथा चैत्रादिः । उपाधिप्रवृत्तिनिमित्तका औपाधिकी, यथा पशुभूताकागादिः जातिप्रवृत्तिनिमित्तिका नैमित्तिकी, यथा पृथिवीजलादिः। तत्रेयं शब्दसंज्ञा त्रयाणा पारिभाषिकी; " तिहं सदणाणं जाणए अणुवडते अवस्थू " इत्यादौ लापवार्थ त्रयाणा शदनामकरणात्, अन्यथा पर्यायशदा एव न, शब्दभेदेनार्थभेदाभ्युपगमादिति भिन्नार्थसमभिरोहणात् सममिरूढो नय इति सिद्धम् । सममिरूढनयो हि वर्तमानक्षणे व्युत्पत्तिनिमित्तां तत्तक्रियां कुर्वन्तमकुर्वन्तमप्यर्थमम्युपगच्छति, एवम्भूतस्तु तद्विशुद्धतरत्वात् ता क्रियां कुर्वन्तमेवाथेमभ्युपगच्छति, नाकु वन्तमिति स योपिन्मस्तकार जलाहरणादिक्रियानिमित्तं घटमानमेव चेष्टमानमेव घदं मन्यते, न तु गृहकोणादिव्यवस्थितम् , अचेष्टमानत्वात् वस्त्वन्तरमिय, घशदेमप्येतद्वाः च्यचेटावदर्थप्रतिपादनपर मेवाभिमन्यते, न त्वन्यम् , यदैव पेटां करोति तदैव घटरूपार्थस्य घटशब्दवाच्यत्वम्, पवनेश्च पाचकनिम्, अन्यदा तु वस्त्वन्तरस्येव वटलक्षणार्थस्य: चाऽभावाद वटत्वं वटवनेश्वावाचकत्यामिति । तथा च पद वाच्यव्युत्पत्तिनिमित्त क्रियाकालव्या-- पकपदार्थसत्ताऽभ्युपगमपर एवम्भूतनय इति निष्कर्ष इत्याशयेनाह एवं व्युत्पत्तिनिभितपुरस्कारण भूत एचभूत इति । एवं यस्य यस्य शब्दस्य या या व्युत्पत्तिनिमित्तीभूतक्रिया तत्तत्पुरस्कारेण तत्तक्रियाविशिष्टतया शब्दार्या यथावस्थितस्तथैव योऽयो वर्तते सं एवंभूतो विधमानः, अन्यथा त्वभूतोऽविद्यमानः, तत्त्वतश्शदार्थ एव न भवतीति माया भाष्यकारोऽप्याह-एवं जह सदत्यो संतो भूओ तदन्नहाऽभूओ। तेणेवंभूयनओ सदत्थपरो विसेसेण । २२५१ । इति । ननु व्युत्पत्तिनिमित्तक्रियामात्रेण तत्तच्छन्दवाच्यत्वाभ्युपगमें गमन क्रियाविशिष्टायां यथा गवि गोशब्दप्रवृत्तिस्तथा गमनक्रियाविशिष्टे पुरुषेऽपि गोशब्दप्रवृत्तिस्यादिति चेत्, मैवम् , यस्मिन्नेव पराभ्युपगतप्रवृत्तिनिमित्तधर्माकान्तेऽर्थे यदा तत्तच्छन्दव्युत्पत्तिनिभित्तक्रियायास्सझवस्तस्मिन्नेवार्थे तदेयम्भूतनयेन तत्तच्छन्दवाच्यत्वोपगमान्न पुरुपे गोव्यवहारः, गोत्वात्मकप्रवृत्तिनिमित्तधर्मोपलाक्षितगोशब्दव्युत्पत्तिनिमित्तगमनक्रियाथा(नामावादिति युक्तमुत्पश्याम इति । आधुनिकसङ्केतशालिनी संज्ञा पारिभाषिकोत्याह-नामकरणति । अनुगतोपाधिना या संज्ञा प्रवर्तते सोपाधिकीत्याह-उपाधीति । यथा पशूभूताका शादिरिति लोभवल्ला पूलावच्छिन्नत्यं पशुत्वं, तच्च न जातिरूपम् , समवायेनाऽवृत्तित्वात्। भूतत्वमपि न जातिरूपम् , मूतत्वेन सह साक्षात् , आकाशत्वकालत्यादिकमपि न जातिलं. पम् , एकव्यक्तिवृत्तित्वात, कि.पाधिरूपं, तद्रूपप्रवृत्तिनिमित्तका पशुभूताकाशादिसंज्ञेत्यर्थः। जालवच्छिन्नसङ्केतवती नैमित्तिकात्याह-जातीति । त्रयाणामिति शब्दप्राधान्येनार्थोपसर्जनत्वेन प्रतीतिजनकत्वेन रूपेण सङ्केतितकरवानां साम्प्रतसममिलढव भूतानां त्रयाणामित्यर्थः । अत्रानुयोगद्वारसूत्रसंवादमाह-" तिहं सक्ष्णयाण" इत्यादि । उक्तानभ्युपगमे दोपमाहअन्यथेति Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ३२० : तत्वार्थविवरणमूढार्थदीपिका : पंचत्रिशतमसू० टी० त्रयाणामिति विरुध्येत । व्यक्तिपक्षे आनन्त्याज्जातिपक्षे च जातियवस्वेकजातिशब्दासमावेशात्, न हिं घटपटतात्रयो घटा इति केनापि वक्तुं शक्यम् । तस्माच्छन्दस्य ये भेदा अभिहितास्ते नयभेदा एव, नयत्वसाक्षाद्व्याप्यजात्यवच्छिन्नत्वात् । नैगमस्य च यो भेदावभिहितौ तौ नयप्रभेदौ, नयत्वव्याप्यजाति. व्याप्यजात्यवच्छिन्नत्यादिति स्मर्तव्यम् । अत एवासंकीर्णजातिपुरस्कारेण नयप्रमाणे सप्तैव नया अनुयोगबारेऽप्युक्ताः । तथा च तत्सूत्रं - "से किं तं नयप्पमाणे ? नय पमाणे सत्तविहे पण्णत्ते । तंजहा-णेगमे, संगहे, पवहारे, उज्जुसुए, सदे, सममिढे, एवंभूपति सव मूलगया पण्णता " इत्यादि । स्थानाङ्गेऽपीस्थमेवोक्तम् । न च परिमर्षप्रसिद्धं विभागक्रममुलक्यान्यथा विभजन्ते आनायविद इति । शब्द त्रिभेदमाचक्षाणाना वाचकचक्रवर्तिनामपि सप्तधा नयविभाग एव घेतःवरसः, पञ्चेत्युक्ति परिभाषाप्रयुक्ताऽऽदेशान्तरेणेति सुदृढमवधेयम् । एतेन नव नया द्रव्यार्थिकः पर्यायार्थिको नैगमः संग्रहश्चेत्यादि विभागो जैनाभासस्थ दिक्पटदेशीयस्य देवसेनस्य निरस्तो द्रष्टव्यः, भेदप्रभेदानां सहोक्तौ विभागवाक्यज्याघातात्, न हि भवति मूर्तामूर्तपृथिव्यप्तेजोवाय्याकाशकालदिगात्ममनास्येकादश द्रव्याणीति विभजतो वैशेषिकबालस्य चतुर्दशभूनग्रामे त्रसेतरभेदद्वयं प्रक्षिप्य षोडशधा विभजतो वाऽऽहतवालस्य नोपहास व्यक्तिपक्षे त्रमाणामिति प्रयोगाऽनुपपत्ती हेतुमाह-परित पक्षे आनन्त्यादिति । जातिवयवत्स्येकजातिशब्दाऽसमावेशादिति-साम्प्रतत्वसममिरूढत्वैवम्भूतत्वजातित्र याधारेषु नयत्र येषु शब्दत्वरूपैकजात्यवाच्छिन्नवाचकशब्दनयप्रयोगासम्भवादित्यर्थः जातित्रयाधारेषेकजात्यवच्छिन्नवाचकशब्दव्यवहाराभावे दृष्टान्तमाह-न हीति। नयत्वव्याप्यजातिव्याप्यजात्यवच्छिन्नत्वादिति-नयत्वव्याप्यजाति गमत्वं तद्वयाप्यजाती देशपरिक्षेपित्वसर्वपरिक्षेपित्वे तद्विशिष्टत्वादित्यर्थः । नयममाग इति-नयप्रमाणद्वार इत्यर्थः । स्थानालेऽपीत्वमेवोक्तमिति-सत्त मूलनया पन्नता, तं जहा नेगमे संगहे पबहारे उज्जु, सुत्ते सदे समभिरूडे एवंभूते । सू. ५५२ इति । शब्दनयभेदानां सा-प्रतादिनयत्रयाणां नवविभाजकोपाधिव्याप्यविभाजकोपाविमत्वाभावान शब्दावान्तर भेदत्वं किन्तु नय विभाजकतावच्छेदकमूलजातिरूपेण सप्तनथानामनुयोगद्वारठाणाङ्गसूत्रादिष्येक एव विभागः प्रतिपादितः, न तु विभक्तविभाग इति मूलभेदत्वमेवेति वस्तुगत्या नयानां सतविधत्वमेवेति सूत्रकार स्वारस्यमाहशब्दं त्रिनेदनाचक्षाणानामित्यादि । नये तर्हि चतुर्विंशत्तमसूत्रभाष्ये पञ्चनया इति करमुक्तमित्याशङ्कानिवृत्त्यर्थमाह पञ्चेत्युतिस्त्वित्यादि । साम्प्रतादिनयत्रयाणां शब्दप्राधान्येनार्थोषसर्जनतया प्रतीतिजनकत्वेन रूपेणकरवातत्र शब्दनयेतिसकेतशालिनी या परिभाषा तत्प्रयुक्ताऽऽदेशान्तरेणेत्यर्थः । नानाटदेशीयदेवसेनदृधलधुनयचक्रे-"दो चेव मूलिभणया भणिया दव्यत्यपञ्जयत्यया(गया)। नैगम संगह ववहार तह य रिउसुत्त सद्द अभिरूढा। एवंभूयो पचविह णावि तह उरणया तिणि ॥१॥" इत्युक्तस्य तकृतालापपद्धतौ च द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिका नैगमः संग्रहः व्यवहार गजुसूत्रः शब्दः समाभिरून ५३ भूत इति नवनया इत्युतस्य निरसनायाह-एनेनेति । अस्य निरसो द्रव्य इत्यनेनान्वयः । निरासे हेतुमाह-द. . Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्यार्थविवरणदार्थदीपिका । पञ्चत्रिंशत्तम० टी० :३११ : इति । न च जीवाजीवादितत्त्वविभागवदुपपत्तिः, तत्र द्रव्यपर्यायगतजातिभेदेन विभाजकोषाधीनां मिश्रीसांकर्यात्, अत्र च सप्तानामप्युषाबीना द्वयोः सांकर्यात् । किं च सप्ततत्वविभागे प्रभेदानामिति । अथ सप्तवा नवधाच जीवाजीवादितत्त्व विभागवनयविभागोऽपि नानपान इत्याशक्य निति-नच जीवानीवादिनत्यविभागवदुपपत्तिरिति निषेधे देतमादतत्रेत्यादिना । तत्र-जीवाजीवादितचविभागे । द्रव्येति-जीवद्रव्यगता या जीवत्व जातिः, धर्माधर्मास्तिकायाधजीवद्रव्यगायाजीवत्वजानिः आसनसंवरन्यादीनां जीवाजीवद्रव्ययायवन तयोर मावस भवेऽपि पर्यायत्वमेव न द्रव्यत्यमिति पर्यायत्वेन प्रधानन्या विधक्षपानी जीवाजीवद्रव्याम्या कथविभेद एवेति याचाचवादिपर्यायता प्रायमादिजान यस्तायां पयर भेदन विभाजकोपाधीनां जीवत्वाजीवत्वाववादिजातीनां परम्परात्यन्तामायामानाधिक ये सत्येकाविकरणकृतित्वलक्षणसार्यामानात , मायाविशेषणीभूतसत्य. मात्रऽपि वि. भूतकाधिकरणवृतित्वामावान् , ०५ गतायाः पयाय पर्यायातायात्र जानेद्रव्य मात्रान, पर्यायाणां चाऽन्योन्यभिन्नवन तनुजातीनामध्यकाविका गनिन्धामाबाद , एच नववि. भाजकावाधीनां जीववादीनाममाश्यांनद्रग विभाग उत्पन्न इत्यामयः । अत्र नत्रा नयविमनने पुनः, सतानामिति-नगरवादीनामपि मुनानां नविभाजकोषाधानामिल यः । या प्रत्यार्थिकत्वयायार्थियो सायांविनि-मिथः पदासममित्याहा सन मायाँदिय प्रत्यन्तामविसामानाविक ये भनि सामानावितस्यादित्ययः। नया नाम- વાદ્યમાનામાનાજી નિ નામાદિકાબનાવિવિ ભાગ મધિયાત્ર 14 यायिकत्वपर्यायाकिलोमियां नयन्वयाध्ययययय विवभिनयन नय व्यापार्थिक वयायिक व्यायवादव योग्य मुनि भुयायाच्यार्थEनायनामनाविश्वमायण रविन मनुश्य मंत्र साद, ममका विमान तुयायाणियानपानि त्रिशन इनि नथा या ३५ . माय; याकरिम 2-1माया। यहाथ-यावपिनदिया जिन्य सुगन्दaniसिमबाबा:ini हाय निधि यायाम कर लिया xe. चिकिचन त्रिकी महादिया भविमानना यानि पवन मिलि मा भावनामाव: किमार्थ भाव अविना द्र०यार्षिक पायाधिक यानिमिअधय महालियन, धादिका मानि स मा Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ३२२: तत्वार्थविवरणगूढार्थदीपिका । पञ्चत्रिशत्तमसू० टी० प्रयोजनभेद उक्त एव, नवनयविभागे च न कश्चित्प्रयोजनभेदः । किं तु तीर्थकरवचनसंग्रहविशेषण(विशेष)प्रयोजनाभ्यामादिता द्वयोरव निरूपणं विधेयम् । तदजिज्ञासायां च सप्त निरूपणीया इति विभक्तविभागोऽयमेकप्रथट्टेन । नवानां मोलभेदानामभिधानं तु बालिशविलसितम्। तदिदमभिप्रेत्याह महावादी सिद्धसेन:" तित्थयरवयणसंगह-विसेसपत्थारमूलबागरणी । दवढिओ य पज्जय-जयो य सेसा विगप्पा सिं ॥१॥" ति । अधिकं मत्कृतानेका ०५वस्थादौ । अत्राहास्मिन्नवसरे लक्षणजिज्ञासुः पृच्छति-किमेषां नैगमादीनां, लक्षणमिति, गुरुराह-अत्रोच्यते-निगमेवित्यादि । न चैतानि सूत्राणि, अवृत्तित्वात् , केचितु प्रान्त्या सूत्राणीति प्रतिपन्नवन्तः । निश्चयेन गम्यन्ते उच्चायन्ते प्रयुज्यते येषु शब्दास्त निगमा जनपदास्तप्वभिहिता उच्चारिता ये श०५। पादयस्तेषामों जलाहरणादिसमर्थः, शदार्थपरिज्ञानं च-अयं शब्द एतस्यार्थस्य वाचकोऽयमर्थ एतस्य श०स्य पाच्य इत्येवं वाच्यवाचकमावपरिज्ञानं च, नंगमनयः । यधपि नयस्य ज्ञानरूपत्वा दसमुच्चयार्थकचकारानुपपत्तिः, तथापि ५रामृश्यमाणं लिमनुमानभितिवत्परि- . शायमानः शब्दार्थ एव नैगम इति पझे प्रथमाभिधान, लिङ्गपरामर्श एवानुमानं न तु परामृश्यमाणं लिङ्गइति विभक्तविभागोऽपि युक्तः, न तु भावाऽभावद्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायप्रागभावध्वंसात्यन्ताभावान्योन्याभावा द्वादश पदार्था इतिवद् द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनगमसहव्यवहारसुसूत्रशब्दसमभिरूढवम्भूता न नया इति मूलविभागो युक्तः, द्रव्यत्वगुणत्वादीनां सप्तधर्माणां मिथो विरोधिधर्मत्वातद्रूपेण पदार्थविभागसम्भवेऽपि भावत्वस्य न द्रव्यत्वगत्वादिभिरसह मिथो विरोधिधर्मत्वम् , अभावत्वस्य च न प्रागभावत्वादिभिसह मिथो विरोधिधर्मस्पमिति तद्धटितधविभागाभाववद् द्रव्यार्थिकत्वपर्यायार्थिकत्वयो गमत्वसङ्ग्रहत्वादिधरैराह मिथो विरोधिधर्मत्व नेति तद्धटितनवधमर्मूलनय विभागामाव एवं युक्त इति । प्रयोजन भेद ॥ एवेतितत्वार्थचतुर्थवनव्याख्यायामिति शेषः । बालिशविलसितमिति-अनुयोगठाणास्त्राभिहितं सप्तधा नविभागमुलक्ष्य नवधा तत्करणस्य सूत्राशातनाकलङ्कितत्वादिति भावः । वित्थयरवयसंगह-विसेसपत्यारमूलवागरणी । दयाडिओ य पजव-णओ य सेसा वियप्पा सिं ।।३।। इति नयकाण्डे तृतीयगाथा । अस्याः सङ्क्षपाश्चैवम् तीर्थकरवचनमाचाराङ्गादि• दृष्टिवादासम् “ अत्थे मासेइ तित्ययर। इति वचनादर्थतस्तस्य तदुपदिष्टत्वात् , तस्य तीर्थक- . ९वचनस्य सङ्ग्रहविशेषौ द्रव्यपर्यायो सामान्यविशेषशवाच्याभिधेयौ तयोः प्रस्ताः सङ्ग्रहविशेषप्रतारः, तस्य मूलव्याकरणी-आधवक्ता आधज्ञाता वा द्रव्यातिकश्च पर्यवनयश्व, तीर्थकरवचनसमहविशेषप्रस्तारमूलभूतनयो द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनयावित्यर्थः, तत्र सामान्य બાહ્ય સંગ્રહાનિયાભાસ્ય મૂડમૂતો દ્રાર્થના, વિશેષણ/રત્યક્ષવશબ્દાદિનरूपस्य मूलभूतः पर्यायारितकनय इति यावत् । शेपास्तु सङ्ग्रहाजुत्रादयो विकल्पा भेदा अनयोन्यायिकपर्यायाथिकनययोः। महातकवादिशिरोमणिश्रीसिद्धसनदिवाकरमते नेगमस्य सामान्यग्राहिणसअहे विशेषग्राहिणश्च व्यवहारनयेऽन्तर्भूतत्वाद्यार्थिकनयभेदो सग्रहव्यवहाराच्या, पर्यायास्किनयभेदा जुसूत्रसदसमभिवभूताः, सिमिति प्राकृतशेल्या Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्यविवरणदार्थदीपिका । पंचशित्तमसू० टी० : ३२३: भितिवच्छदार्थपरिज्ञानमेव नैगमो न तु परिज्ञायमानः शब्दार्थ इति पक्षे च द्वितीयाभिधानमिति मत. भेदानानुपपत्तिरिति युक्तं पश्यामः । स च सामान्यविशेषावलम्बीत्येतदर्शयति देशो विशेषः समय सामान्यं, अयं हि सामान्यत्राही जातिमेव पदार्थमाह-विशेषनाही च द्विकनिकादिकं, तथा च विचित्रप्रकार नैगमनयमाश्रित्यानुस्मथते । “एक द्वित्रिक पाथ चतुष्कं पञ्चकं तथा ॥ नामार्थ इति सभी पक्षाः शास्त्रे निरूपिताः ॥ १ ॥” इति, एकं जातिनामार्थः, लाधवेन तस्या एव वाच्यत्वौचित्यात्, अनेक०यक्तीनां वाच्यत्वे गौरवात् । न च व्यक्तीनामपि प्रत्येकमेकावाद्विनिगमनाविरह, एवं कस्यामेव व्यक्तौ शत्त्यभ्युपगमे व्यत्यन्तरे लक्षणायां स्वसमवेताश्रयत्वं संसर्ग इति गौरवम् , जात्या तु सहाश्रयत्वमेव संसर्ग इति लाघवम् , किं चैवं गौः स्वरूपेण न गौरित्यादिन्यायाद्विशिष्टस्य वाच्यबहुवयणेण दुवयणमिति द्विवचनस्थाने बहुवचनमिति । अधिकमरमब्धसम्मतितकमहार्णपाऽवतारिका टीकातोऽवसेयम् । जातिरिति-तत्तत्पदार्थासाधारणो धर्म इत्यर्थः । तेनाभावत्वाकाशत्यादीनां नित्यानेकसमवेतत्वरूपजातित्वाऽभावेऽपि न क्षतिः । लायवेनेति व्यक्त्यनुगताया जातेरकत्वेन तताया२श तेरप्येकत्वसम्भवादिति भावः । ननु गामानय गां नय घटमानय घटं नयेत्यादिवृद्धपुरुषव्यवहारेण व्याव शक्तिमहात्कथं जाती शक्तिसिद्धिरित्यत आह-अनेकव्यसनामिति-पूर्व व्यवहारेण व्यक्ती शक्तिहेऽप्यानन्यात् तावतीषु शक्तिमहाऽसम्भवातदाश्रयभेदभिन्न नानाशक्ति कल्पने गौरवात् पश्चाजातावेव शक्तिनिवार्थत इत्यर्थः । ननु गोपद शक्यं गोत्वमिति पक्षेऽपि शक्यतावच्छेदक गोत्वत्व स्थात्, तच गतराऽसमवेतत्वे सति सकलगोव्यक्तिसमवेतत्वरूपमिति सखण्ड रूपत्वाद् गौरवं समानमेवेति चेत्, मैवम् , गौश्शक्येति पक्षे गोत्यादिजात्यंशे शक्यतावच्छेदकता यथा निरवच्छिन्ना तथाऽमन्मते गोत्ने शक्तिरपि निरवच्छिन्नेति न गोत्ववप्रवेशाद्गौरवामिति ॥ ननु गोत्यादिजातिवत् प्रत्येकगवादिव्यक्तिरप्येकवेति तत्र शक्तिकल्पनायां यथा सकलगोव्यक्ति भानार्थं तावद् गोव्यक्तिषु शक्तिकल्पनापक्षे गौरवज्ञानं बाधकं विनिगमकं तथैकल्यक्तिशक्तिपक्षे तन्न, जातिव्यक्त्योरेकत्वाविशेषादित्याशक्य निषेधति-न च व्यसनामपीतिनिषेधे गौरवज्ञानमेव पाधकं विनिगमकमाह एवं कस्यामेवेति । व्यत्यन्तरे लक्षणायामिति व्यक्त्यन्तरे लक्षणानभ्युपगमे तद्योधो न स्यादिति तदन्यथानुपपत्तिरेव तद्वीजमिति भावः । शक्यसम्बन्धो हि लक्षणा, सम्बन्धश्चात्र क इत्याशकायां तमाह स्वसमवेताश्रयत्वमिति-स्वं शक्यत्वेनाभिमतव्यक्तिविशेषः, तत्समवेता, जातिः, तदाश्रयत्वं तत्समवायित्वमित्यर्थः । आश्रयत्वमेव-शक्त स्वरूपेणाश्रयत्वमेव । यक्ष आश्रयत्वमित्यस्य स्वसमवायित्वमित्यर्थः । लाघवभिति-तथा चोक्तलाधवं जाती शक्त्यभ्युपगमे विनिगमकमिति न विनिगमनाविरह इति भावः । नन्वनुगतजात्यवच्छिन्नयावव्यक्ति५ शक्तिस्वीक्रियते सा चानुगतधर्मावच्छिन्नैकैव, अनुगतेककारणतावच्छेदकधर्मावछिन्नकारणतावदिति नानन्तशक्तिकल्पनादोषप्रसङ्ग इत्यत आह किश्चैवमिति । एवम्जातिविशिष्ट शक्त्यभ्युपगमे । गौः स्वरूपेण न गौरिति-गौरस्वरूपेण न गौना. Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ३२४ : तस्त्रार्थविवरण गूढार्थदीपिका | पंचत्रिशमसू० टी० त्वमाश्रयणीयं, तथा च नागृहीतविशेषणान्यायाज्जातिरेव वाच्येति युक्तम्, व्यक्तिबोधस्तु लक्षणया, एवं हि तत्र विभक्त्यर्थान्वयोऽप्युपपत्स्यत इति दिग् । यद्वा केवला व्यक्तिरेवैकः शब्दार्थः, केवलव्यक्तिपक्ष एबैकशेषाद्यारमस्य शास्त्रसिद्धत्वात् । युक्तं चैतद्, व्यवहारेण व्यक्तावेव तद्द्महणात्, संबंधि तावच्छेदकस्य (दिकाया) जातेरक्याच्छा च्छक्तिरप्येकैवेति न गौरवमपि । न चैवं शक्यतावच्छेदकत्वात् घटत्वमपि वाच्यं स्यात्, नागृहे।तविशेषणान्यायादिति वाच्यम्, अकारणत्वेऽपि कारणतावच्छेदकत्ववदशक्यत्वेऽपि शक्यतावच्छेदकत्वसम्भवात् । गोत्वाभिसम्बन्धात्तु गौरिति सम्पूर्ण न्यायस्वरूपं ज्ञेयम् । तथा च गोत्ववि शिष्टस्य गोपदवास्वीकारे च । नागृहीतेति-नागृहीतविशेषणा बुद्धिर्विशेष्यमधिग च्छतीति न्यायशरीरम् । विशेषणाऽविषयबुद्धिर्विशेष्यं नावगाहत इति तदर्थः । तथा च વિશિષ્ટ વાતે વિશિષ્ટશનિદે વિશેષ્યનિષયવૅડમ્બુવાતે સાત નિયમેન વિશેષાંવચāપ્યાવશ્યામિતિ તનુમવિષ્યત્વે પાઔપચિયાદ્ગનિદ્ઘતિશયિનિષ્ઠાતાतावच्छेदकत्वस्य कल्पनापेक्षया विशेषणविषयकत्वमात्र एव तस्य कल्पनं लाघवेन युक्तमिति जातावेव शक्तिस्तिद्ध्यतीति भावः । लक्षणयेति - स्वशक्य जात्याश्रयत्वसम्बन्धरूपलक्षणयेत्यर्थः । न चात्राऽनुपपत्तिप्रतिसन्धानं विना कथं लक्षणेत्याशक्यम्, निरूढलक्षणायां तदनपेक्षणात् यद्वाऽन्वयानुपपत्त्यभावेऽपि तात्पर्यानुपपत्तेरत्र सच्चानोक्तदोषः । वस्तुतो ગાનિયેચાવ્ાાનય નબત્યારે તાવ વચાનુષત્તિતસન્માનમેવ જક્ષળાવીનામાંત વોમ્ । ननु लक्षणाभ्युपगमे लक्षितव्यक्तेः पदार्थत्वाभावात् ' प्रत्ययानां प्रकृत्यर्थान्वितस्त्रार्थबोधकत्थेम्' इति व्युत्पतेर्गामानयेत्यादौ गोव्यक्तौ द्वितीयाविभक्त्यर्थकर्मत्वान्वयो न स्यादित्याशङ्कायामाह एवं हीति तथा च लक्षितव्यक्तेरपि प्रकृत्यर्थत्वात्तत्र न विभक्त्यर्था: वयानुपपत्तिः पदवृत्तिजन्योपस्थितेरेव शाब्दबोधे हेतुतया व्यक्तेरशक्यत्वेऽपि लक्षળ ન્રુત્યુસ્થાય તસ્યાં 7 વિમથ માઘવયવોવાનુાિંિાંત મા । द्विकं त्रिकमित्यादिश्लोकोक्तकपदस्य केवल व्यक्तिरेवार्थ इति पक्षान्तरमाह पद्धति -4क्तिरेवेत्यनेन जातिव्यवच्छेदः । व्यक्तिः पदार्थ इत्यत्र प्रमाणमाह- केवल व्यक्तिपक्ष इति । एकशेषाद्यारम्भस्येति-जातिपक्षे एकेनैव शब्देन द्वयोर्वहूनां वा प्रत्यायनसम्भवादेकशेपग्रहणमनर्थकं सद्व्यक्तिपक्षज्ञापकमित्यर्थः । युक्तिमेवाह-व्यवहारेणेति- 'घटमानय' इति वाक्यप्रयोगानन्तरकालिकप्रयोज्य वृद्धकर्तृकानयनरूपव्यवहारेण प्रथमतो व्युत्पित्सोबलस्य व्यक्तावेव शक्तिग्रहादित्यर्थः । एतत्कल्पे पूर्वोक्तं शक्त्यानन्त्यदोषं समुद्धरति - सम्बन्धितावच्छेदकस्येति शक्तिग्रहे धर्मितावच्छेदकस्य, शक्यतावच्छेदकस्येति यावत् । तथा च जातिरूपसम्बन्धितावच्छेदकाञ्नुगर्तीकृतनानाव्यक्तिष्वेकधर्मावच्छिन्नाया एकस्या एव शक्तेरूपगमान्न तन्नानात्वप्रयुक्त गौरवमिति भावः । अकारणत्वेऽपीति-दण्डत्वादीनामन्यथासिद्धत्येनाऽकारणत्वेऽपीत्यर्थः, शक्यतावच्छेदकत्वसम्भवादिति शक्यत्वे सति शक्य Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તરવાર્યવિવમૂઢાર્થદ્રીવિત પંચત્રિશત્તમકૂ॰ to : ૩૧ : હા ૬—“ઞાનન્ત્યપિ હિમાવાનામે ોપāળમ્ | શબ્દ સુંરસમ્બન્ધો, મૈં 7 વ્યમિचरिष्यति સ્ ॥” તિ | મિત્યાનર્ધારિતાનનેરોન તતિર્વાù વખ્તોપાધર્વાડન્યાયોદ્દો ના વૃદ્ધિાવશેષો વેત્યત્ર નાંદ તિદનન્યતે। વિત્તુ ન લાòતિવાર્થસ્ય દ્રવ્યં ન પવાર્થ તિ માવ્યાદ્ધિશિષ્ટ વાત્ત્વમ્, ચૈાવરોધ, ધશિયોકે ધતત્વાંોડન્યાઽપ્રારષત્વશક્તિ વૃત્તિત્ત્વ સાંત શક્યોષસ્થિતિકારત્વ શયતાવજીવમિતિ નિયમે નવામ્બુવાતે નાનામાવિત્તિ ધન્ધાવેર્યા વષવરાજ્યામાવેગષેશવાનન્ઝેક્Ä સ્થાનેવેતિ માવઃ । પત્તાથે સન્માંતમાં ફસ્રતિ જ્ઞાનન્વેઽપ હૈં માવાનામિતિ-માવાનાં વ્યાનાં નાનાત્માઋòિકાવિષય(વીર્ય ! પ્રમ્ અનુાતનાત્યાધિર્મમ્ । નૃત્યોપાળમૂઅશયત્વેઽવે શયન્યાવમન્યુાન્ય રિજ્જુ સુરત-T:-વાદ્યાત્મશ૬ સુબ્રાજ્ઞાતિનિષ્ઠરાજ્યનિતિવા-તાસભ્યq) = ૫ મિસ્થિતિ-પુરોક્ત્તિવ્યસ્ત શાંાિદેગંધ તવિષયીમૂતાં વ્યક્ત્તિ વોયિતીત્યર્થઃ 1ાવિસામાન્યક્ષળયા પ્રત્યાસન્ત્યા સર્વોત્રેત્ર શયનધારાંતિતિ માત્ર । નનુ દૈન્તિપન્થયન્તરે સભ્યહે વજ્ર હસ્તિપ સમ્બન્ધો નેં ગૃહીતખ્તાપે ાંસ્તીને સમાપયા તર્યાòવિધસવપ્રહસ્ય તદ્રુકન સ્થિતિનિયામઋષયાવતયા થમાંવિષયક્તિજ્ઞાનાદપરિિવષયજાર્પાતિ, સામાન્યળિયાં પ્રત્યાસસ્યા સાવિષિ, નૈ, તસ્યા વ્યાપાતરમીયાાત્યાશયવતાં ષાચિન્મતના વાતિ । બાૠતિપવર્થસ્યેતિ-ચૈત્રાકૃતિઃ પવાર્થો યસ્યેતિ વદુત્રીિ શબ્દસ્પેતિ શેષ | વિરાાિંત જ્ઞાતિવિશિષ્ઠ વ્યા, ન્યાવિશિષ્ટા જ્ઞાતિવત્યયંઃ । ચર્ચાપ “આદ્યતિષવાર્થસ્ય દ્રવ્યં ન પવાર્થ, દ્રવ્યવાર્થય જાતિને પવાય હ્યુમયોમયં પાર્થ” કૃતિ માધ્યાદેશહિતયોરવાøતિવ્યસ્ત્યોઃ શપ્રિવિયતાતે, તાય “સ્યષિત શિશ્ચિત્ મુળમૂર્ત નિશ્ચિભ્રધાનમ્” ત્યુત્તરમાયાછોષનયાં તત વિશદે શત્ત્વનધારણાત્ તથોúાવાનમાંવહમ્, ના તેવોવંશહિતયોઃ શક્યત્વે પોષવાન્ ગોત્યું યંતિ સમૃદ્ધિ-નવોધાત્તે, શaિજ્ઞાનપવાર્થીપસ્થિતિશાવોધાનાં સમાનારનિયમાિિત । નાત્યવન્ડોષાાિર પાથૅસ્વ િિશ્ચદ્ધ છિન્નામતિ નિયમેન નિરવચ્છિન્નાયા વ્યસનસ્યંશે માન નેતિ વિષાોવિશિષ્ટયોવવાધાનનુમયેનોાગ્સિમવે તુ નાંતવિશિષ્ટાંત્તરેવ શષ્યેતિ તથૈ ! = = વિશિષ્ટત્ત્વ પવાર્થતાસ્ત્રારે મિતિ વક્ષસ્ય વિસેષ્ઠ હત્યા–ન અપવિરોધ તિ ! અમાપવાવેતથૈવોયો માંાંત શત્ત્વજ્ઞાર્નાનઃશાવ્નોધહેતુતાયાં કારતાવ્∞ાવાયાં ન તરેયાત્તપક્ષોત્તિરિત્ર્યશયન નિષેધ હેતુમાદ ધતત્ત્વવિશિષ્ટવ ધ ાંતે ત્રપતો-ધત્વકારવોધ ર્થઃ । ધત્ત્વો ત્યાપ્રભાઋતિ વિશેષળાત્ જ્ઞાતિમાન્ યતઃ' તિ નોંધત્ત્વ ધટવાંગે નાતિત્વત્રાવનોòશhિજ્ઞાનાચેતાવ છેવતાનાાતત્ત્વન ને તાત્તિ | ગતિમાન ધટ ાંત વોધબ્બા તુ ષવૉશે નાતિચઞાનશક્ત્તિજ્ઞાનસ્ય હેતુત્વાન્તર પનીયામાંત તત્ત્તત્ત્વ વ તત્સત્ત્વમ્, તથા ૨ નિરવ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તરવાષિવળ હાઈવીપિ સન ટીવ ज्ञानत्वेन हेतुतया तदविरोधादित्याहुः । द्विकमिति जातिव्यक्ती इत्यर्थः । न च लक्ष्यतावच्छेदक इव शक्यताब छेद केऽपि शक्यभावान्नैतत् सांप्रतं, यद्धर्मविशिष्टे वृत्तिवहस्तद्धर्मप्रकारेणोपस्थितः शक्ति विनापि सम्मपादिति वाच्यम् । लक्ष्यतावच्छेदके शक्यसंवन्धरू पाया लक्षणाया बाधेऽपि शक्यतावच्छेदक विशिसवेतविषयावरूपायाः शक्तेरऽवाधात् , विषयताया विशेष्यविशेषणसाधारण्यात् , शक्यतावच्छेदकस्य लक्ष्यताप छेदतुल्यत्वे तद्वदेवानियतत्वप्रसङ्गात् , कोशादित एव विशिष्ट शक्तिसिद्धेश्व, अन्यथा शक्यैक्ये शक्यतापच्छेदकभेदेन पर्यायभेदानुपपत्तेः, यथा त्यजिगन्यादेरिति भावनीयम् , व्युत्पत्तिविशेषेण बोधनियमेऽविनिगमादेव वा द्वयमर्थः । त्रिकमिति जातिव्यक्तिलिशानीत्यर्थः । सत्वरजस्तमोगुणानां साम्यावस्था नपुंसकत्वम् । आधिक्यं पुंस्त्वम् , अपचयः स्त्रीत्वम्, तत्तच्छन्दनिटं तद्द्वाच्यं च, तमेव विरुद्धधर्ममादाय तदादिशब्दा भियन्ते, पाश्चि निकलि वन्यवहारस्तु समानानुपूर्वीकत्वेन शब्दानामभेदारोपात् । तच लि*मर्थे परिच्छे. दकत्वेनान्वेति । एवं च पदार्थपदे पुंस्त्वमेव, व्यक्तिपदे स्त्रीत्वमेव, वस्तुपदे नपुंसकत्वमेवेति, सर्वत्रायं छिनप्रकारताकतद्विशिष्टबुद्धिम्प्रति निरवच्छिन्नतत्प्रकारताकतच्छतिज्ञानस्य सावच्छिन्नतत्प्रकरताकतद्विशिष्टवुद्धि प्रति च सावच्छिन्नमारताकशक्तिज्ञानस्य हेतुत्वमिति भावः । जातिव्यती इति-विशेष्यविशेपणभावापन्ने ते इत्यर्थः । न चेत्यस्य वाच्यमित्यनेना-जयः। સાશ્વત હેતુ માહ-દ્વશિષ્ટત્યાદિ. તાવ છેવો-દ્વાહિતાવછે तीरत्वे । शक्यसबन्यरूपाया-गङ्गापदस्य योजलप्रवाहविशेषरूपयार्थ सामीप्यलक्षातत्सम्बन्धरूपाया। विशिष्ट शक्त्यनभ्युपगमे जातिसक्यतावच्छेदिका न स्यादिति शक्यतापच्छेद कभेदेन पर्यायभेदो न स्यादित्याह अन्यथेति । तद्भदेन त दः कुत्रेत्याशङ्कायां तत्र धान्तमाह-यथेति । त्यज्यात्वर्थः पूर्वदेश विभागानुकूला क्रिया, गम् धात्वर्थ उत्तरदेशसंयोगानुकूला क्रिया, ये क्रिया विभागजनिका सैव संयोगजनिकेत्येवमुभयधात्वर्थक्रियाया ऐक्येऽपि . पूर्वदेशविभागानुकूलत्योत्तरदेशसंयोगानुकूलत्वरूपप्रतिनिमित्तयोदादेव पर्यायभेद इत्यर्थः, विशिष्टे शक्त्यनभ्युपगमे स न स्यादिति भावः । लिङ्गानीति-लिङ्गत्वञ्च प्राकृतगुणगतो धर्मविशेषः, तद्विशेपश्च नपुंसकत्वादिरित्याशयेनाह सत्वेति । तत्तच्छन्दनिष्ठमितिजातिगुणक्रियादिभेदभिन्न दनिष्टमित्यर्थः। तत्तद्वांच्यं पति-स्वाश्रयसवाच्यं चेत्यर्थः । तमेव विरुद्धधर्ममिति समानानुपूर्वीकत्वेऽपि सत्पादिगुणत्रयसाम्यावस्थादिरूपं नपुंसकस्वमित्याधुक्तलक्षणं परस्पराऽसमानाधिकरण लिङ्गभेनेत्यर्थः । भियन्ते पुरत्वादिलिङ्गानेतर. व्यावृत्ततयानुमाया। ननु लिङ्गस्योक्तावस्थारूपत्वे तासां परस्परविरुद्धानां तादित्रिलि. शब्देवस्थानासम्भवेन कथं 'तट त्रिपु' इत्येवं तत्र त्रिलिङ्गावच्यवहार इत्यत आह केषाश्चि. दिति-पाश्चित्तटादिशानां समानानुपूर्वीकत्वानिवन्धनाभेदाध्यासादनेकलिकायव्यवहारोपपत्तिरित्यर्थः । परिच्छेदकत्वेनेति-विशेषणत्येनेत्यर्थः । लिङ्गविशेषविशिष्टस्यवार्थविशेषपाचकतया लिङ्गानुशासनसिद्धतया च स्वाश्रयनाच्यत्वसम्बन्वनाविशेषणत्योपपत्तिरिति भावः । एवञ्चेति निकेशवती नारी लोमशः पुरुषः पृतइत्यादितिलक्षित लौकिकस्त्री Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वार्थविवरणगूढार्थदीपिका । पंचत्रिंशत्तमसू० टी० : ३२७ : पदार्थ इयं व्यक्तिरिदं वस्थिति व्यवहारस्तटतटी तटमिति चोपपद्यते । अत एव पशुनेत्यादौ पुल्लिङ्गपशु५दप्रयोगान्न छाण्यादिलामः। न च ०यपत्यादिशब्दोक्तलिंगवत् पश्यादिशब्दाक्तस्य साधारण्यं शक्यम् , व्यक्तिशब्दस्य नित्यस्त्रीलिङ्गत्वेन तथासम्भवेऽपि पशुशब्दस्य नित्यपुंलिङ्गत्वे प्रमाणाभावात् । मीमासायां चतुर्थे पशुना यजेतेत्यत्रैकत्वपुरत्ययोर्विवक्षितत्वान्नानेकपशुभिः पशुस्त्रिया वा याग इति प्रतिपादितत्वाच्च । यदि च विशेषविध्यभावे उप्रत्ययान्ताना 'स्वस्थ व्याकरणे निर्णीतत्वात्पशब्दस्य नित्यपुर निीयते, तदा पशुनेत्यादिविधौ मन्त्रवण यायनेवै छागो मीमासकैः प्रतिपादनीयः, कामधेनुरपि या पशुरेवेत्यादौ च त्पादिकमर्थनिष्ठ लिङ्ग नैतच्छास्त्रथिप्रक्रियानिर्वाहकम् , दारानित्यादौ शस्प्रकृत्यर्थे तदभावेन नत्वाधनापत्तेः, एकस्मिन्नर्थे “ पुष्यस्तारका नक्षत्रम्” इति लिङ्गनानात्वदर्शनाच, किन्तु पारिभाषिक शब्दनिष्ठमुक्तलिङ्गमवेत्यर्थत्वे चेत्यर्थः। उपपद्यत इति-अर्थनिष्टस्य लिङ्गस्य व्यवहारोपपयिकत्वे तु स्त्रीव्यक्तिवस्तुपदार्थपदाभ्यां पुरुषादिरपि व्यक्त्यादिशब्दनै व्यवस्थितेति भावः । अत एवंति-शब्दनिष्ठस्यैव पारिभाषिकलिङ्गस्य स्त्रीपुंसादिव्यवहारोपयोगित्वादे वेत्यर्थः। पशुनेत्यादौ पुल्लिङ्गपशुपदप्रयोगान्न छाम्यादिलाभ इति-यदि स्त्रीपशुर्यागाङ्गत्वेन विवक्षितोऽभविष्यत्तदा अस्वीपिहितनामावं विभक्त्यन्ते न प्रयोक्ष्यत् । तद पशुपदप्रयोगात्तु पुम्पसुरव यागागामिति निर्णायत इत्यर्थः । स्त्रीलिङ्गार्थकपशुशब्दात् "आङ्गो नाऽस्त्रियाम् " (पा० सू०७।३।१२० । ) इति सूत्राविहितनामावस्य तृतीय कवचनेसम्भवेन तदपशुशब्दप्रयोगात् तदर्थस्य पुंस्त्वावगतेरिति भावः । न चेत्यस्य शक्यमित्यनेनान्वयः। यत्यादीति-अत्रादिना वस्त्यादिपदसंग्रहः । साधारण्य मिति-स्वाश्रयवाच्यत्वसम्बन्धेन स्त्रीवृत्तित्वमित्यर्थः । निषेधे हेतुमाह-व्यक्तिसदस्येत्यादिना । नित्यस्त्रीलिङ्गत्वेन व्यक्तिशब्दस्य तेन रामादीनां पुंसां बोधसम्भवेऽपि पशुशदो न नित्यपुलिग इति न तेन छायादिस्त्रीवोध इत्यर्थः । ननु पशुना यजेत इत्येष पैदिकप्रयोग एवं पशब्दस्य नित्यपुंस्त्वे मानमिति चेत्, मैवम् , ऋग्वेदे " पश्वाऽनतायुं गुहा चरन्त " " पश्व नृभ्यो यथा गवे" इत्यादिप्रयोगदर्शनात् पशुशदस्य स्त्रीलिङ्गत्वस्यापि दर्शनेन नित्यपुल्लिङ्गत्वाभावात् , तथा च तस्य न व्यक्त्यादिशब्दसाम्यमिति न पुल्लिजैन पशुशब्देन छायादेवोध इति भावः। स्योक्तेऽर्थे मीमांसकसम्मतिमाह-मीमांसायामिति । विशेषविध्यभाव वाधकसूत्रामा। निर्णीतत्वादिति-लिङ्गानुशासने " उप्र. त्यया-:" इति सूत्रेण निर्णीतत्वादित्यर्थः । नित्यपुंस्त्वं निर्णीयत इति पशुशदस्य नित्यपुल्लिङ्गत्वे च पशुत्वावच्छिन्नवाचकवन छाया: पशुत्वविशिष्टतया तेन तद्योधोऽपि स्यादिति न पु-पशोरेय यागाङ्गत्वनिर्णय इत्यत आह-तदत्यादि । मन्त्रवर्णन्यायेन “ छागो वामन्त्रवर्णात् " इति न्यायन । अयमभिप्रायः मन्त्रवणे हि "छागस्य पाया - मेदसः" इति श्रूयते तत्र पुंस्त्वविशिष्टछागपदोपादानादत्रापि पुल्लिङ्गपशुपदेन पुम्पशुरव यागाङ्गतया निर्णीयते, न स्त्रीपशुरिति । कामधेनुरपि या पशुरेवेत्यादी चेति. अत्र कामधेनुवोधकस्य यच्छदस्य विशेष्यवाचकस्य स्त्रीलिङ्गत्वेऽपि विधयीभूतपशुबोधकस्य Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ३२८ : तत्वार्थविवरणलादीपिकी । पंचत्रिशतमनु० टी० पशुपदस्य विधेयालिङ्गव न तु विशेष्यलिझतेति स्मर्तव्यम् । चतुष्क संख्यादिसहितं त्रिकमित्यर्थः । पञ्चक कारकसहित चतुष्कमित्यर्थः । नन्वन्वयव्यतिरकाभ्यां प्रत्ययस्यैवे तद्वीच्यमरंतु, तत एवं लिमदीनामुपस्थितौ प्रकृतिवाच्यत्वे मानाभावादिति चेत्, सत्यम् , प्रत्ययवर्जिते दधि पश्येत्यादौ प्रत्ययमानतोऽपि बोधात् प्रकृतेरेव वाचकत्वं कल्प्यते, तथा लिहाधनुशासनाच, न वा लिादीनां प्रकृतिवाच्यत्वे निबन्धः, प्रत्ययस्यैव वाचताया युक्तत्वात् । " द्योतका वाचिका वा स्युत्विादीनां विभक्तय" इति बाक्यपदीयेऽपि पक्षद्वयव्युत्पादनात् । शब्देन सह पडपि नामार्थाः, तस्यापि नियतं शा०६वोधे भानात् , अन्यथा विष्णुमुच्चारयेत्यादावगतः, अर्थोचारणासम्मवात्, न च लक्षणया निर्वाहः, जबगडदशमुचारयेपशुशदस्य पुल्लिंगस्यैवाभिधानम् , यदि नित्यपुल्लिंगपशुशब्दो न भवेत्तदा विशेष्यवचिकपदसंमानलिङ्गत्वमेव विधेयपद स्पेति नियमतः स्त्रीलिङ्गत्वमेव स्यात्, न पुलिंगत्वम् , तथा च "सः" इति सूत्रेणोउिप्रत्यये सति परित्येवं प्रयुज्येत, अत: पुल्लिंगस्यैव पशुशदयात्र प्रयोगो न स्त्रीलिंगस्येति नित्यपुल्लिंग एव पशुशब्द इयर्थः । सङ्ख्यादिसहितमितिअत्र सङ्ख्यासहितमित्यपि पाठ। लिङ्गसङ्ख्याकारकाणां नामार्थत्वं साधयितुं शकते नन्विति । अन्वयव्यतिरेकाभ्यामिति टाबादिसमभिव्याहारे अश्वादिपदास्त्रीत्ववोधात्तदभावे च तदवोधादेवरूपाभ्यामित्यर्थः । एवमन्यत्राप्यूह्यम् । तथा च ताभ्यां लिादेः प्रत्ययार्थत्वावधारणान्न लिङ्गादित्रिकस्य प्रकृत्यर्थत्वामित्यर्थः । तत एवेति-प्रत्ययादेवेत्यर्थः । बोधादिति-कर्मत्यादिवोधादित्यर्थः । तथा चानेन व्यतिरेकव्यभिचारो दर्शित इति प्रत्ययस लिङ्गादित्रयवाचकत्वं नेति भावः। वक्ष्यमाणयुक्त्या संख्याकारकयोः प्रत्ययार्थत्वेऽपि लिङ्गस्य प्रकृत्यर्थत्वमेव युक्तमित्याशयेनाह तथा लिङ्गाधनुशासनाचेति--लिङ्गयोधकशास्त्राचेत्यर्थः। प्रकृतिप्रत्ययोरन्यतरस्य वाचकत्वे युक्त साम्यादाह-नवेति । निबन्ध इति- इदमेव मतं मुख्यमित्यभिनिवेश इत्यर्थः । युत्विादिति-अन तानां प्रकृतीनां वाचकत्वकल्पनापेक्षया कतिपयस्वादीनामेव तत्करपने लोपवादिति भावः। अस्मिन्नर्थे हरिसम्मतिमाह .. चोति का वाचिका वेति-प्रत्ययभागस्य संख्याकर्मादयो वाच्यत्वेन द्योत्यत्वेन वार्था इति भावः । “यद्वा सङ्खयावतोऽसि समुदायोऽभिधायक " इति त्वस्योत्तरार्द्धम् । प्रकृतिप्रत्ययसमुदाय एव संख्यादिविशिष्टस्यार्थस्य वाचक इति तदर्यः। “न सोऽस्ति प्रत्ययो लोके, यः शब्दानुगभादते । अनुविद्धमिव ज्ञान, सर्व शब्देन भासते ॥१॥” इति हरिकीरिकॉमनुसृत्यौह-२०५न सहेति । तस्थापि-शस्यापि । अन्यथेति-शाबोधे शब्दभानानभ्युपगम इत्यर्थः। अर्थाचारणासम्भवादिति-तथा च विना शब्दविषयं शाब्दबोधानुपपत्ते शब्दोऽपि प्रातिपदिकार्थ इति भावः । न्याय मते विष्णुमित्युच्चारय इत्येवं तस्यार्थ इति शाब्दवीधे न शभानमिति । लक्षणया 'स्ववाच्यवाचकत्वसम्बन्धरूपया । निर्वाहा-शादयोधे विशेष्यतया शब्दभानोपपत्तिः । यद्यपि विष्णुपदं विष्णुपदार्थवाचकमेव तथापि विष्णुपदस्य रसवाच्यवाचके विष्णुशब्द लक्षणाश्रयणात्तया शब्द भानं स्यादेवेति भावः । तनिधेि हेतुभाह जगडदशमिति Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पयार्यविवरणपूढार्यदीपिका । पंचशित्तमसू० टी० : ३२९ : त्यादौ शक्यामहेणं शक्यसम्बन्धरूपलक्षणाया अज्ञानात्, अज्ञातायाश्च वृत्तेरनुपयोगात् । अत्र चानुकायानुकरणयोर्भेदविवक्षायामनु कार्यस्य पदादनुपस्थितत्वात्तत्सिद्धये शक्तिरुपेया, अभेदे. प्रत्यक्षे विषयस्य हेतुत्वात् स्वत्रत्यक्षरूपा पदजन्योपस्थितिमादाय शाब्दबोधोपपत्तिरिति, यद्यप्याकाशादेः समवायितया शक्याग्रहेणेति कुत्रापि समुदायरूपशक्यग्रहाभावेनेत्यर्थः । कुत्रापि शक्यं गृहीतं चेत्तदा तत्सम्बन्धरूपलक्षणया बोधस्यात्, न चात्र कुत्रापि शक्यं गृहीतमिति तत्सम्वन्धरूपलक्षणाज्ञानाभावेन तया कथं लक्ष्यबोधस्यात् , मन्मते तु तादृशसमुदायस्यैव तत्पदशक्यतया न बोधानुवपत्तिरिति भावः। ननु तत्र समुदायस्थाशक्यत्वेऽपि तद्बटककारादिवर्णानामेकाक्षरको. शादी जैत्रादौ शक्तिप्रतिपादनात्तत्तदर्थवाचकवरूपलक्षणायास्तत्र नानु५५चिरत आह अज्ञातायाश्च वृत्तेरनुपयोगादिति-गङ्गापदस्य स्वशक्य जलप्रवाह विशेपसामीप्यरूपसबन्धस्याग्रहे लक्ष्यार्थबोधस्यानुदयेन ज्ञाताया एव लक्षणायाः पदार्थोपस्थित्योपयिकत्वेन प्रकृते तदप्रहात्तलक्ष्यार्थबोधानुपपत्तिस्तवस्यैवेति भावः । ननु विष्णुभुचारयतीत्यादी विष्णुपदस्य स्वस्मिन् शक्त्यभावेऽपि विष्णुरूपार्थे शक्तस्सद्धानात् स्वशत्यविष्णुरूपार्थवाचकवलक्षणस्वशक्यसम्ब. न्यस्य स्वस्मिन् सम्भवेन तद्रूपलक्षणाबलाद्वि णुपदाद्विष्णुपदस्योपस्थितिसमवेन तत एव शाब्दबोधे भानसम्भवेन विष्णुपदस्य पस्मिन् शक्तिोंपेया, अनन्यलम्यो हि शार्थ इति वचनात् , तथा च कथं २०६५८पमादाय पोढा शार्थ इति चेत्, सत्यम् , कि तु पुरुषोचरितगावशब्दं श्रुत्वा पर एवं त्रीति अयं गावमुचारयति, तत्र ग्रामीणप्रसिद्ध गायशदस्याप्य न क्वचिन्छक्तिरिति तदनुकरण यस्य गावशब्दस्थापि तत्समानस्वभावर नास्त्येव सचिदर्थे शक्तिरिति तस्य शक्यार्थाभावाच्छ+यसम्बन्यरूपलक्षणाया अप्यभावेन न ततोऽनुकार्यस्य गाव. शवस्योपस्थितिरिति गविमुचारयतीति वाक्यजन्यबोधेतझानं न स्याद् , भवति च तहानमिति तदुपयेऽनुकरणस्यानुकार्यशब्द वा पे शक्तिरवश्यमुपेयस्यतः शब्दस्वरूपमादाय पोहा प्रातिपदिकार्थोऽनुकार्याऽनुकरणशयोर्भद पक्षे उ५५यते । शन्दजन्योपस्थितिविषय एव दार्थ उपेयते, न तु वृत्तिग्रहद्वारा श६जन्योपस्थितिविषय एवेत्येवम युपमे त्वनुकार्यानुकरणयों मेंदपक्षे अनुकरजन्यं तच्छावणप्रत्यक्षं तद्रपोपस्थितिविषयत्वादयतुकार्यपदय पदार्थत्वं नादશોપરિવતિત વ સ શા માનતો શબ્દ પ્રતિપાલિતાર્થતં સમિક્રના नाह-अत्र चानुकार्यानुकरणयोरिति । पदादनुपस्थितत्वादिनि शुगरमा वादिः। तथा च शक्यभावेऽनुकास्य पदादुपस्थित्यसमादित्यर्थः । तसिन्दयात्री पदजन्योपस्थितिसिद्धये । शतिरुपैयनि-तया च तवृविज्ञान प्रावितिय द्राकानी शायाधोपपत्तिरिति भावः। अभेदे इति-अभेद विवझायामिन्यथः मिनिअनुकरणशयस श्रावणप्रत्यक्षरूपामित्यर्थः । अयमाशयः । अनु i ls:रिक्तशक्ति विनैव स्त्रविषयक त्रावण प्रत्यक्षरूपामुपस्थितिमादाय र Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थविवरणगूढार्थदीपिका | पंचत्रिंशचमसू० टी० घटादिपदादुपस्थितस्य शाब्दबोधे प्रवेशवारणाय वृतिजन्यपदार्थोपस्थितिरेव हेतुः तथाप्यत्राश्रयतया वृत्तिमत्त्वस्य सत्त्वान्नानुपपत्तिः, निरूपकताश्रयतान्यतरसम्वन्धेन वृत्तिमतः शाब्दबोधे वृत्तिज्ञानत्वेन हेतुत्वकल्पने दोषाभावात्, सम्बन्धस्योभयनिरूप्यत्वात्पदादर्थस्येवार्थादुद्बोधकत्वेन शब्दस्यापि ज्ञानसम्भवाच्च । तदुक्तं वाक्यपदीये "ग्राह्यत्वं ग्राहकत्वं च द्वे शक्ती तेजसो यथा । तथैव सर्वशब्दानामेते पृथभानं तथैव घटमानयेत्यादौ घटादिपदानामपि तां सामग्रीमादाय मानस्य दुर्वारतया शाब्दबोधमात्रस्य शब्दविषयकत्वसिद्धिरिति । प्रवेशवारणायेति-घटोऽस्तीत्यादिवाक्यजन्यशाब्दबोधे भानापत्तिवारणायेत्यर्थः । वृत्तिजन्येति-वृत्तिज्ञानजन्येत्यर्थः । वृत्तिजन्यपदाथपस्थितिरेव हेतुरिति-अत्र यद्यपि शाब्दबोधे समानविषयत्वप्रत्यासत्या वृत्तिजन्योपस्थितिरेव हेतु:, यत्र पदार्थे यस्य पदस्य वृत्तिः तत्पद वृत्तिजन्या तत्पदार्थस्योपस्थितिर्भवतीत्येतावता वृत्तिजन्यपदार्थोपस्थितिः शाब्दबोधे हेतुरित्यभिधीयते, न तु कारणावच्छेदकतया पदार्थविपयकत्वमप्युपस्थितौ निवेश्यत इति लाघवम्, आत्मनिष्ठप्रत्यासत्योपस्थितिशाब्दबोधयोः कार्यकारणभावे तु समवायेन तत्पदार्थविषयकशाब्दबोधम्प्रति समवायेन वृत्तिजन्यपदार्थोपस्थितिर्हेतुरिति गौरवं स्यात् एवञ्च वृत्तिजन्यपदार्थोपस्थितिरेव हेतुरित्यत्र पदार्थविषयकत्वेनोपस्थितेरभिधानमसङ्गतमित्र प्रतिभाति, तथापि घटमुच्चारयतीत्यादानुच्चारणकर्मत्वस्य कम्बु ग्रीवादिमत्यभावाद् घटपदस्यैव कर्मान्त्रिततया शाब्दबोधविषयत्वमिति वृत्तिजन्या पदरूपस्य पदार्थस्य योपस्थितिः सैव हेतुर्न तु सम्बन्धान्तरजन्यपद रूपपदार्थोपस्थितिः, शाब्दबोध हेतुरि त्यर्थे नासङ्गतिः, अत्र पदार्थविषयकत्वं न कारणतावच्छेदककोटौ निवेश्यते, किन्तु कारणीभूतोपस्थितिः पदार्थविपयिकेति पदस्यापि पदार्थत्वेन तद्विषयकत्वं तत्र समस्तीति तद्बलात्पदरूपपदार्थस्य शाब्दबोधे भानोपपत्तिरित्यभिप्रेत्य तदुक्तिरिति । सत्त्वान्नानुपपत्तिरिति-शब्दे सत्त्वात्तस्य न शाब्दबोधविषयत्वानुपपत्तिरित्यर्थः । नन्वाश्रयतासंसर्गेण वृत्तिमत्यस्यैव शाब्दबोधविपयत्येतन्त्रत्वे निरूपकतासम्बन्धेन वृत्तिमतोऽर्थस्य शाब्दे भानानुपपतिरत आह निरूपकेति । वृत्तिमतः शाब्दबोध इति-उक्तान्यतरसम्बन्धेन वृत्तिमानर्थः शब्दचेति तद्विपयकशाब्दबोध इत्यर्थः । ननु पदाद् वृत्तिज्ञानद्वारा तद्वाच्यार्थशाब्दबोधोत्पत्तौ तत्र वृत्तिज्ञानद्वारोपस्थितार्थमानसम्भवेऽपि तत्र शब्दस्यापि मानं कथमित्याशङ्कानिवृत्यर्थमाह सम्बन्धस्योभयनिरूप्यत्वादिति-सम्बन्धस्योभयनिष्ठत्वेनोक्त सम्वन्धाश्रयस्यार्थस्येव श ०दस्यापि शाब्दबोधे भानं स्यादेवेत्यर्थः । हेत्वन्तरमप्याह- पदादर्यस्येवेत्यादि-यत्संज्ञास्मरणं तत्र न तदप्यन्यहेतुकम् । पिण्ड एव हि दृष्टस्सन संज्ञां स्मारयितुं क्षमः ॥ १ ॥ इति । अस्मिन् श्लोके दृष्ट इत्यस्योपस्थित इत्यर्थः । अत्रार्थस्मरणजन्यशब्दस्मरणं शाब्दबोधार्थमेवीपन्यस्तमिति तज्जन्यशाब्दबोधः शब्दस्मरणानन्तरमेव भवितुमर्हतीति क्षणविलम्बोऽर्थादवगभ्वते । उक्तार्थे हरिसम्मतिमाह प्रात्यत्वं ग्राहकत्वं चेत्यादि । यथा तेजरत्रोपलब्धौ તૈનોન્ડાનપેહ્લેન વિધયીભાવમાપનમેવવવા દેવાઘાહિન્દી મિતિ તંત્ર તેનસિ : ३३०: Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपार्थविवरणगूढार्थदीविका । पञ्चत्रिशत्तमसू०टी० : ३३१ : गपस्थिते ॥१॥” इति, विषयत्वमनाइत्य शब्दैर्नार्थः प्रकाश्यत ” इति । अनुकार्यानुकरणयोरभेदपक्ष एवं च गवित्याह-भू सत्तायामित्याचनुकरणशदानामर्थवदादिसूत्राविषयत्वेन पदत्वस्य प्रातिपदिकत्वस्य वाऽभावेऽपि साधुत्वम् । बुद्धिप्रतिविम्वकान्यापोह एव शब्दार्थ इत्यपि केचित्प्रतिपन्नाः, ज्ञानविषयावलक्षणबाह्यत्वं बाह्यार्थज्ञानजनकत्वलक्षणग्राहकत्वञ्चति द्वे शक्ती विद्यते तथा शब्दोऽपि स्ववाचकशान्तरानपेक्षत्वेन शाब्दयोधे विषयीभावमापन एवार्थान् शाब्दवोधेबमासयतीति बाघार्थोपलब्धौ कारणमिति तत्र ग्राहकत्वम् , स्वयञ्च तत्र भासत इति ग्राबवञ्च, एतच शक्तिद्वयमकशब्दनित्याद भिन्नमपि भिन्नकार्यकारित्वात्पृथगिवाय. स्थितम्, पृथकार्य यत्र शब्दस्य जबगडदशादिस्थले तवाच्यार्थाऽभावन नार्थसनिधान तत्र शादर्थबोधो न भवतीति तत्र विद्यमानाऽपि ग्राहकत्वशक्तिनोपयोगिनी, पत्र વાગ્યાર્થસદ્ધાનાર્થસંનિધાનં તત્રોપોલિશનીતિ તત્ર શક્તિદ્વયય સમૂય કાર્યરિત્નમતિ भावः । तस्यैव पचान्तरमाह विषयत्वमनादृत्येति-स्वस्य विषयतामसम्पाद्य शब्दैरों न बोध्यत इत्यर्थः । वजन्यार्थयोधत्वस्य स्वविषयकलव्याप्यत्वादिति भावः । प्रसङ्गादनुकार्यानुकरणयोर भेद पक्षे साधकमाह-अनुकार्यानुकरणयोरिति-स्वतन्त्र पुरुषोचारितो 'गो' इति शब्दोऽनुकार्य:, स विभक्तिरहित एवोचारित इति तस्वरूपज्ञापन परेण निर्विभक्तिक एव : गो' इति २०६ उचार्यते सोऽनुकरणात्मकः समानानुपूर्वीकरवे सत्येपानुकार्यानुकरणभावमासादयति, एवञ्च तयोरभेदपक्ष एक गावित्याहेत्यत्रानुकरणस्य 'गो' इत्यस्यार्थववाभावेन “अथवदधातुरप्रत्ययः प्रातिपदिकम् " (पा० सू० १।४।४२ ॥) इति प्रातिपदिकसंज्ञाविधायकस्त्राविषयत्वेन प्रातिपदिकत्वाभावात्प्रातिपदिकादेव प्रत्ययोत्पत्तिरित्यप्रातिपदिकान्न ततः प्रत्ययोत्पत्तिसम्भव इति पदत्वस्याप्यभावात् " न केवलं प्रकृतिः प्रयोक्तव्या" इत्यादिनियममूलकस्य "अपदं न प्रयुञ्जीत" इति निषेधविधेः प्रत्यययोग्यस्य प्रत्ययं विना प्रयोगेऽसाधुतापत्तिप्रयोजकस्य प्रत्ययायोग्येऽनुकरणेऽप्रवृत्तस्तदतिक्रमणेऽ4प्रत्ययस्यानुकरणस्य साधुत्वमिति तस्यावदिशतो गावित्याहेति भवति साधुः, एवमेव “भू" सत्तायामित्यत्र निर्विभक्तिकस्य भूशब्दस्य साधुत्वम् , अनुकार्थतोऽनुकरणस्य भेदे तु तस्यार्थवावस्यावश्यकतया प्रत्यययोग्यस्य तस्योक्तनिषेधविधिविषयत्वेन तदतिक्रमणेऽसाधुत्यमेव स्यादिति भावः । वुद्धिप्रतिविम्वकान्यापोह एवेति-पुद्धिप्रतिविम्बको वासनाविशेषतोसदर्थविषयक एव बुद्धर्य आकारविशेषस युझ्यात्मैव, तदात्मको योन्यापोहो दशरथव्यावृत्यादिः स ५५ दशरथादिशब्दार्थ इत्यपि केचिदपोहपदार्थवादिनः प्रतिपन्ना:स्वीकृतवन्तः, इत्यपीत्यपिश०देन यत्र जात्यादीनां पूर्वोक्तानामर्थानामनुभूयमानत्वं तत्र जात्यादयोऽपि शब्दार्थ इत्यर्थः सूचितः, अथवा सशदानां बुद्धिप्रतिविम्बात्माऽन्यापोह વાર્ય, શત વાળ નાટ્યાદ્રીનાં પાર્થવ્યવચ્છવ, ચિંદ્રિયનેનન્યિાપહમાત્ર પ૦र्थत्ववादिना पौद्धविशेषाणां तदनुयायिनां वैयाकरणविशेषाणां वा ग्रहणम् , ननु बुद्धिप्रतिविम्ब'स्य शब्दार्थत्वे शब्दात्तस्यैवोपस्थित्या शाब्दे भानं स्यान्न बाह्यस्यार्थस्य, तस्य शब्दार्थत्वामावे Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ३३२ तरवार्थविवरणपूढार्थदीपिका । पञ्चत्रिंशत्चमसू०टी० पां विषयतया तदाश्रयस्याक्षेपादेव लाभः, तेषामदृष्टदशरथादीनामपि दशरथादिपदाददशरथव्यावृत्तिधीविषयत्वेनोपस्थितिरत्यन्तासतोऽपि चार्थस्य वासनाविशेषोपनीतबुद्धिप्रतिविम्वविषयत्वेन धीः सुलभा । एवमेते सर्वेऽपि शब्दार्थाध्यवसाया नैगमनये संभवन्ति, शब्दत उपस्थित्यभावात् , यद्यपि बौद्धमते शब्दानां प्रामाण्याभावानार्थविषयकशाब्दयोषजनक स्वं, न वाऽपोहस्यापि श०६जन्यबोधे प्रतिभासनम् । “विकल्पयोनयः शब्दाः, विकल्पाः २०६योनयः। कार्यकारणता तेषां, नार्थ शब्दाः स्पृशन्त्यपि" ||१|| इति वचनाद् विकल्पमात्रजनकत्वमेव शदानाम् , तथापि नैगमनयप्रसूते मते जुसूत्रप्रस्तबौद्धमतस्य न प्रताव इति य एवापो शब्दार्थवादिनो वाबस्थापि प्रतिभासनं शा०दे रीकुर्वन्ति त एवापोहशदार्थाऽभ्युपगममात्रण बौद्धसजातीया अत्राधिकृता इति तेषां सतेऽर्थस्थापि सति सम्भवे शादे प्रतिभासनं तदर्थानुपस्थिती कथं स्यादित्यत आह-तेषामिति-मत इति शेषः, विषयतया तदाश्रयस्थापादेव लाभ इति-बुद्धिप्रतिविम्वरूपस्यान्यापोहस्य विषयतासम्बन्धेनाश्रयस्य पाह्यवस्तुनो घटादेराक्षेपादेव लक्षणात एव लाभः-शाबोधविषयत्वम् । यद्यपि विषयं विना बुद्धिप्रतिविम्योनोपपद्यते इत्येवमर्थापत्तिलक्षणादाक्षेपाललाभ इत्यप्यर्थः सम्मुखीनः, तथापि वृत्तिविषयस्येव शान्बोधविषयत्व, शाब्दबोधविषय एव श्रुतत्यव्यवहारो नार्थापत्तिविषय इत्यत आक्षेपादित्यस्य लक्षणात इति व्या. ख्यानम् , अत एव जातिशक्तिवादिमते आक्षेपादेव व्यक्तिलाभ इत्यत्राक्षेपादित्यस्य लक्षणात इत्यर्थोऽन्यत्र कृत इति । तेषाम्-अन्यापोह शब्दार्थवादिनाम्, मत इति शेषः, दशस्थादिपदस्थ दशरथादिरूपार्थे शक्तिग्रहणं न सम्भवति, प्रत्यक्षप्रमाणप्रतीत एवार्थे शक्तिग्रहो व्यवहारादितो भवति, ये चेदानीन्तनाः प्रमातारोऽतीतानां दशरथादीनां न प्रत्यक्षज्ञानचन्तस्तेषां तत्र शक्तिमहाभावान शाब्दबोधविषयतासम्भवः, किन्तु तेषामपि दशरथादिपदावसिनाविशेषसहकवाददशरथच्यावृत्तिधीविषयत्वेना थानामपि दशरथादीनामुपस्थितिः सम्भवति, अघटितघटनापटुमायास्थानीया वासना, तद्विशेषादुपनीतं यद्बुद्धि प्रतिविम्वविषयत्वं तेन तेषां बुद्धिर्नाऽसमाव. नापथमवरतीत्यर्थः, उपसंहरति एवमिति-अथवेद नैगमस्य लक्षणं द्रष्टव्यम् “अनियनाऽर्थसंकल्पमात्रग्राही नैगमः" इति । निगमो हि सङ्कल्पस्तत्र भवत्प्रयोजनो पा नैगमः। यथा कश्चित्पुरुषो गृहीतकुठार: पथि गच्छन् किमर्थं भवान् गच्छतीति केनचित्पृष्टः प्रतिवक्ति प्रस्थकमानेतुमिति, अटयां गतस्सन् काष्ठं छिन्दानः " भवान् कि छिनत्ति ?" इति पृष्ट सन् प्राह प्रस्थकं छिनभि । मार्गे चागच्छन् पृटः किमिदं स्कन्धे त्वयाऽऽरोपितम् ?, स आह'प्रस्थकः । एमाश्यन् , घटयन् , उत्किरन् , श्लक्ष्णीकुर्वन् , नाम च तत्राऽऽकुश्यन् यावद् धान्यमाने च व्यापारयन् किमिदं ? इति पृष्टस्सन्नाह प्रस्थकोऽयमिति । एधोदकाधाहरणे वा कश्चित्पुमान् व्याप्रियमाणः किं करोति भवानिति केनापि पर्यनयता पाह-ओदन ५चामीति । न च प्रस्थपर्याय ओदनो वा निष्पनः, तनिष्पत्तये कारणे कार्योपचा२वृत्या तस्मिन् तदध्यवसाय सङ्कल्पमात्र प्रस्थादिव्यवहारात् । अयम्भाव: प्रस्थकमानेतुमित्यत्र प्रस्थकरदस्थ प्रस्थकदलयोग्यवृक्षे उपचारः, प्रस्थकं छिननीत्यत्र प्रस्थकपदस्य Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थविवरणदार्थदीपिका । पंचत्रिशतभसू. टी० : ३३३ : प्रस्थकवसत्यादिष्टान्तेन विचित्रस्य तस्य सूत्रे प्रतिपादनात् । यावत्सु त देवभ्यनुज्ञया च जैनानामपक्षपातित्वम् । यदवदामः, अध्यात्मसारप्रकरणे " शब्दो वा मतिरर्थ एव किमु वा (वसु वा) जातिः क्रिया वा गुणः, शब्दार्थः किमिति स्थिता प्रतिमतं सन्देहश कु०यथा । जैनेन्द्र(ऽनुमतेन)तु मते न सा प्रतिपदं जात्यन्तरार्थस्थितः, सामान्यं च विशेषमेव च यथा तात्पर्य-विच्छति ॥१॥” इति । छेदनक्रियायोग्ये काष्ठे उपचारः, प्रस्थकाकुयामि घटवामीत्यादिप्रश्नोत्तरेयाकुट्ट नघटनादिक्रियायोग्य काठेवूपचाराः क्रमेण विशुद्धविशुद्धतरा भवन्ति, अत एव तन्मूलकविविधसङ्कल्परूपो नैगमनयोऽपि शुद्ध शुद्धतरशुद्धतमो ज्ञेय इति । यथोक्तम् " सङ्कल्पो निगमतत्र, भवोऽयं तत्प्रयोजनः । तथाप्रस्थादिसङ्कल्प-स्तदभिप्राय इष्यते ॥१॥” इति । एतदभिप्रायेणाहप्रस्थकर सत्यादिदृष्टान्तेन विचित्रस्य तस्य सूत्रे प्रतिपादनादिति-"से किं तं नय५माणे ? नय५माणे तिविहे पनत्ते तं जहा-पत्यगदिढतेणं वसहिदिढतेणं पएसदिढतेणं । “से कि तं पत्यादितणं १२ से जहां नामए केइ पुरिसे परसुं गहाय अडवीसमतो गच्छा , तं पासित्ता के वएजा कहिं भवं गच्छसि ? अविसुद्धो नेगमो भणइ-पत्थगस गच्छामि" इत्यादिना ग्रन्थेन प्रदर्शितविस्तृतदृष्टान्तत्रयप्रकारेणानुयोगदारसने विचित्रस्य नानाप्रकारस्य तस्य नैगमनयस्य प्रतिपादनादित्यर्थः । जैनानां यापत्तत देषु स्वीकारवृत्याऽपक्षपातित्वेऽध्यात्मसारग्रन्थसक्तजिनमतकविशतितमस्तुत्यधिकारशमश्लोकसंवादमाह-श-दो वा मतिर्थ एवेत्यादि । शब्दार्थः तत्तच्छ०६वाच्यः । य२२०६ार्थस्तमाह-२००८ इत्यादि। एकत्यस्य सर्वत्रान्वयाच्छन्द एव, वा विकल्पे, अथवा मतिरेव-बुद्धिप्रतिविम्बात्मकान्यापोह एव, किमु उत अर्थ एवतत्तद्वयक्तिरेव । किमुस्थाने परिवति पाठश्च, वस्वेव द्रव्यमेव, पा अथवा जातिरेव, किम् इत क्रियैव गुणो वा, इति इत्येवं, प्रतिमतं सन्देह शव्यथा स्थिता, शब्दवाच्यार्थनिश्चयाऽभाववता जिज्ञासूनां तत्तविरुद्धमतानि दृष्ट्वा संशयपशकुजन्यव्याबाधा भवत्येव, શવ્વાધ્યાર્થનિયામાવાવ, જૈનેન્ટેતુ મતે-ત્ર સુદ પૂર્વોક્સમેતે વૈકક્ષાર્થ સુવર્યાતિ, ના सन्देह शकुव्यथा न, तत्र हेतुमाह प्रतिपदं जायन्तरार्थस्थितेरिति तत्तच्छदवाध्यस्थाऽन्योन्यसापेक्षसामान्यविशेषोभयांशात्मकजात्य रत्वेनाभ्युपगमादित्यर्थः । नन्वेवं तर्हि फेनपिच्छ०देन सामान्यार्थस्यैव बोधः, केनचिच विशेषार्थस्यैवेति किं निवन्धनस्स स्यादित्यत आह-सामान्यं च विशेषमेव च तथा तात्पर्थमन्विच्छतीति-कस्यचिच्छदस्य प्राधान्येन सामान्यमेव वाच्यं गौणतया विशेषः, कस्यचित्तु प्राधान्येन विशेप एव पाच्या, गौणतया सामान्यमिति यथा वक्तृतात्पर्य तथैव तत्तच्छब्दात्तथा तथा बोधः, जैनमते एकमेव वस्तु सामान्यविशेषोभयांशात्मकमिति तत्तन्मतप्रयोज्यवक्तात्पर्यविषयतत्तदंशप्राधान्यतदितरांशगौणत्वविवक्षणेन तत्तच्छ०६जन्यप्रधानीभूतकांशगोणीभूतदितरांशविशिष्टवस्तुबोध पत्तन्यप्रयोज्यो वस्तुगतेकांशतात्पर्यावलम्बनेनालौकिका सम्पूर्णाशतात्पर्यावलम्बनेन साभायात्मकप्रमाणवाक्यजन्यालोकिकश्च सम्पूर्णवोधो निरावाधो Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :३३४ : પાર્થવિવાદાધેસીધા ચિત્તમજૂરી તાદશાāવસાયવૃત્તિર્યાત્વવ્યાખ્યાતિમત્તે त्येव, उक्ततापानवलम्बनेन तु जायमानकांशमात्रविषयकलौकिकयोधो भवेत् , स च व्यवहारतः प्रमात्मकोऽपि वस्तुगत्याऽप्रमात्मक एवेति भावः । तदुक्तं तत्रैव-" यत्रानर्पितमादधाति पुणतां मुख्यं तु वस्त्वर्पितम् । तात्पर्याऽनपलबनेन तु भवेद् बोधः पु. लौकिकः । सम्पूर्ण त्ववभासते कृतधियां कृत्स्नाद्विवक्षाक्रमात् । ती लोकोत्तरलङ्गपद्धतिमयों स्याद्वादमुद्रां स्तुमः ॥११॥" इति । तदेवमुक्ताउलोकिकनयवाक्यजन्यबोधोक्तालौकिकप्रमाणवाक्यजन्यबोधक्षम सर्वनयैकभावगरिमस्थानं भगवत्प्रवचन वाधितुं तत्तदेकान्तांशप्रतिपादकतत्तदशनसङ्कथा न क्षमा, तदुक्तं तव सदृष्टान्तम्"उमा नाकमपाकरोति पहनं नैव स्फुलिङ्गविली, नाब्धि सिन्धुजलपला सुरगिरि ग्रावा न चाभ्यापतन् । एवं सर्वनयकभावगरिमस्थानं जिनेन्द्रोगम, तत्तदर्शनसङ्कयांशरचनास्पान हन्तुंक्षमा॥७॥" इति । एतादृशाध्यवसायवृत्तिद्रयार्थिकत्वव्याप्यजातिमत्वमिति सामान्यविशेषग्राहिणो ये सदार्थाध्यवसायाનવૃત્તિદ્રધ્યાર્થિવવ્યાખ્યાતિમામિ નામના નાનાબારદ્વાજૈમત્વજ્ઞાતિનાવાય तत्सर्वप्रकार संग्रहार्थ द्रव्यार्थिकत्वव्याप्यजातिपर्यन्तानुधावनमत्र कृतम्, तवृत्तिजातिमात्र निवेश नैगमत्वजातिमादाय नानाप्रकारसर्वनगमनयसङ्ग्रहेणाव्याप्तिदोपनिवृत्तावपि महासामान्यसत्ताजातिमादाय वस्तुमात्रेऽतिव्याप्तिस्यात् , तनिवारणाय तवृत्तिज्ञानत्वव्याप्यजातिनिवेशे नयत्वजातिमादाय पर्यायार्थिकनयेऽतिव्यातिरस्यात्, तद्वारणाय तवृत्तिनयत्वव्याप्यजातिनिवेशे द्र०यार्थिकत्वजातिमादाय सङ्ग्रहादावतिव्यातिस्थादित्यतस्तवृत्तिद्रव्यार्थिकत्वव्याप्यजातिनिवेशः कृतः । न चैवमपि द्रव्यार्थिकत्यजात स्वाभाववृत्तित्वात्स्वव्याप्यत्वेन तामादाय सङ्ग्रहनयाद वितिव्याप्तिस्तदवस्थैवेत्याशङ्कनीयम्, तत्समानाधिकरणभेदप्रतियोगितावच्छेदकविलक्षणन्यूनवृत्तित्वार्थकस्य व्याप्यत्वस्यात्र ग्रहणार, यदि तदभावववृत्तित्वमेव व्याप्यत्वमित्येवाग्रहस्तदा स्वस्य स्वच्याप्यत्वचारणाय स्वभिन्नत्वेनापि ०पायजातिविशेषणायेति । एवमग्रेऽपि भावनीयम् । अत्र प्राधान्येन सामान्यविषयकाध्यवसायवृत्तित्वे सति प्राधान्येन विशेषविषयकाध्यवसायवृत्तिद्रव्यार्थिकत्वच्याप्यजातिमत्त्रं गमत्वमित्याद्यपि लक्षणमूह्यम् । अत्र सत्यन्तनिवेशान व्यवहारेऽतिव्याप्तिः, सुनयवृत्तेर्व्यवहारत्वस्य गौणवृत्त्या सामान्यविषयकाध्यवसायवृत्तित्वेऽपि प्राधान्येन तद्विषयकाध्यवसायवृत्तित्वाभावात् , व्यवहार नयेन प्रधानतया विशपविषयकाध्यवसायस्यैवान्युपगमात् , प्राधान्येन विशेषविषयकेत्याधुपादानान सहनयेऽतिव्याप्तिः, सुनयवृत्तेस्संग्रहत्वस्य गौणतया विशेषविषयकाध्यवसायवृत्ति त्वेऽपि प्रधानवृत्या तद्विषयकाव्यवसायवृत्तित्वाभावात् । प्राधान्येन सामान्यविषयकत्ये सति प्राधान्येन विशेषविषयकाध्यकसायत्त नगमत्वमित्येतावन्मात्रोक्तौ च यद्यपि प्रमाणात्मकज्ञाने नातिव्याप्तिः, यतस्तस्य प्राधान्यन सामान्यविशेषोभयविषयकत्वेऽपि सामान्यविशेषोभयात्मकत्वेन जात्यावरूपवस्त्यवाहित्वत एक तस्य निरुतामयावसाहित्यमिति तन सामान्य विषयत्वविशेषविषयत्वयोरकवस्ववच्छे Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्यार्थविवरणमूढार्थदीपिका । पञ्चाशत्तमसू० टी० :३३५: ताशान्यतस्त्वविशेपो वा नैगमनयलक्षण योध्यम् । एवमग्रेऽप्यध्यवसायविशेषान् परिगृह्य तवृत्तिजातिगर्माणि भेदगर्माणि वा लक्षणानि वाच्यानि ॥ संग्रहं लक्षयति-अर्थानामित्यादि । अर्थानां घटादानां सर्व देन समानाधिकरणयोरवच्छेयावच्छेद कभावः, नयनिरूपितयोश्च तयोरेकवस्तुविभिन्नांशमात्रगतयोनविच्छेयावच्छेदकभाव इति मियोऽबच्चाबच्छेदकभावानापन्नयोरेव सामान्यविशेषविषयत्वविशेषयोनिरुक्तनगमलक्षणे प्रवेशात् , तथापि-" धर्मयोधर्मिणोधर्म-धर्मिणोश्च विव. क्षणम् । गुणप्रधान भावन नैगमस्तद्विदा मतः ॥१॥” इत्युक्तलक्षणनगमस्य सचैतन्यमात्मनि १ वस्तु पर्यायवद्र०यम् २ क्षणमेकं सुखी विषयासक्तजीवः ३ इत्युदाहरणत्रयेवव्याप्तिस्स्यात् , तत्र प्रधानोपसर्जनभावविवक्षणादिति तद्वारणाय प्राधान्येन सामान्यविषयकाध्यवसायवृत्तित्वे सति प्राधान्येन विशेषविषयकाध्यवसायवृत्तिद्रव्यार्थिकत्वच्याप्यजातिमत्त्वमित्युक्तम् , तथा च धर्मद्वयविषयो धर्मियुग्मगोचरो धर्मधालम्बनश्चेति नेगमभेदत्रयेऽपि नैगमत्यजातिमादायोक्तलक्षणसमन्वयानाव्याप्तिः । एवञ्च घटोऽयं पटोऽयमित्याधेकैकधर्मभात्रावगाह्यध्यवसायेष्वपि तादृशाध्यवसायवृत्तिद्रव्यार्थिकत्वव्याप्यनगमत्यजातिवर्तत इति न तेष्वप्यव्याप्तिः । अत्राप्यन्यत्सर्वं पूर्ववदूधमिति “धर्मयोधर्मिणोधर्म-धर्मिणोश्च विवक्षणम् । गुणप्रथानभावेन, नैगमस्तद्विदा मतः ॥१॥" इति श्लोकेन "धर्मयोधर्मिणोधर्मधर्मिणोश्च प्रधानोपसभावेन यद्विवक्षणं स नैकगमो नैगम इति" १७-७॥ प्रमाणनयतत्वालोकालङ्कारसूत्रानुसारिणोक्तस नैगमनयलक्षणस्य पर्यवसानश्चैवं ज्ञेयम्पर्याययोव्यवस्तुनोः पर्यायव्ययोश्च मुख्यामुख्यरूपतया यो विवक्षात्मकाऽभिप्रायस्तवृत्तिद्रव्यार्थिकत्वव्याप्यजातिमा नैगमनयत्वमिति । अत्र नैगमस्य धर्मद्वयगोचरप्रथमभेदस्यो. दाहरणम्-"सचैतन्यमात्मनीति" तत्र चैतन्याख्यस्य व्यञ्जनपर्यायस्य विशेष्यतयामुख्यत्वेन सत्तास्यस्य च व्यञ्जनपर्यायस्य चैतन्यविशेषणत्वनामुख्यत्वेन विवक्षणम् । नैगमस्य धर्मियगोचरद्वितीय भेदस्योदाहरणम्-" वस्तु पर्यायवद्र्यमिति" अत्र पर्यायवद्र्व्यं वस्तु वर्तत इति विवक्षायां पर्यायवद्रव्याख्यस्य धर्मिण उद्देश्यतया विशेष्यत्वेन प्राधान्यम्, वस्त्वाख्यस तु धर्मिणो विधेयत्वेन प्रकारतया गौणत्वम् । यद्वा किं वस्तु पर्यायवद्र्व्यमिति विवक्षायां वस्तुनो विशेष्यत्वात्प्राधान्यं पर्यायवद्र०यस्य विधेयतया प्रकारत्वविवक्षणाद् गौणत्वम् । धर्मधर्मिगोचरतृतीयभेदस्योदाहरणम्-"क्षणमेकं सुखी विषयासक्तजीव इति" । अत्र विषयासक्तजीवाख्यस्य धर्मिणो मुख्यता, विशेष्यत्वात् , सुखलक्षणस्य तु धर्मस्याप्रधानता, तद्विशेषणत्वेनोपात्तत्वादिति । न चास्यवं प्रमाणत्वानुपङ्गः, धर्मधर्मिणोईयोः प्राधान्ये नात्र ज्ञप्तरसम्भवात्। तयोरन्यतरदेव हि नैगमनयेन प्रधानतयाऽनुभूयते, प्राधान्य द्रव्यपर्यायद्वयात्मकं चार्थमनुभवद्विज्ञानं प्रमाणं प्रति-पत्तव्यं नान्यदित्युक्तं प्रागेव । सङ्ग्रहादिनयचतुष्टयनिष्ठा पक्षा. तरेण सङ्ग्रहादिनयत्रयागतां यदि द्रव्यार्थिकत्वजाति कोऽपि नाभ्युपगच्छेत्तदाप्याह-तादृशान्यतरत्पविशेषो वेति । अध्यक्षसायविशेषाणां नैगमस्वरूपाणां नानात्वेऽप्यन्यतरत्वेन यत्तेषामुपादानं तदनेकभेदावच्छिन्नप्रतियोगिताकभेद एवान्यतत्वमित्यभ्युप्रेत्य, न तु भेदद्वयावच्छिन्नप्रतियोगिताकभेदलक्षणम् । इत्थ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ३३६ : तत्वार्थविवरणपूढार्थदीपिका । पञ्चत्रिंशत्तमसु. टी.' सामान्यमेकदेशो विशेषस्तयोः संग्रहणमेकीभावेनाश्रयणं सर्वमेकं सदविशेषादित्यव्यवसाय इति यावत् स संग्रहो भण्यते । यद्यपि 'संगहि अपिडियत्थं, संगहवपण समासओ विति'त्ति सूत्रस्वरसात् “संग्रहः संगृहीतस्य पिण्डितस्य च निश्चयः । संगृहीतं परा जातिः पिण्डितं त्वरा स्मृता ॥१॥ इति अन्थेनास्माभिरन्यत्र विषयभेदेन संग्रहस्य विभेदत्वमुक्तं, तथापि ५६०युत्पत्तिनिमित्त संग्राहकत्वकरूपमाश्रित्य तदत्र नाहतम् । इतः २०६ब्रह्मपरब्रह्माचद्वैतदर्शनानि प्रवृतानि । व्यवहार लमयति-लौकिकेत्यादि । लोके मनुष्यलोकादौ सेव स्वसमयेऽन्यतमस्थानेऽन्यतरोपादानं तत्र तत्र १२यत इति । संदविशेषादितिजीवाजीवादिपदार्थमाने सन् सन्नित्यनुगतप्रतीतिभावात्तद्विषयीभूतसत्त्वेन रूपेणाशेषार्थानामविशेषाद मेदादित्यर्थः, तथा चाशेषविशेषेष्वौदासीन्य भजमानो यसत्तारूपेण वस्तुमात्राभेदाध्यवसाय तवृत्तिद्रव्यार्थिकत्वव्याप्यजातिम सहनयत्वमिति पर्यवसितोऽयः । तेनापरसंग्रहस्य द्रव्यत्यादिरूपेण धर्मास्तिकायादिद्रव्याऽभेदाचगाहिन उक्ताव्यवसायत्वाभावेऽप्युक्ताध्यवसायवृत्तिद्रव्यार्थिकत्यव्याप्यसंग्रहत्व जातोत्र सत्यानाव्याप्तिः। न वा नगमनयेऽतिव्यातिः, तन्मते द्रव्यादित्रयवर्तिसत्ताजातिस्वीकारेऽपि तद्रपेण निखिलवस्तुन्यभेदाध्यवसायानभ्युपगमादिति । " संगहियपिंडियत्थं संगहवयणं समासओ विति" ॥ २१८३ ॥ इति विशेषाव कनियुक्ति गाथापूद्धिम् , तस्य चायमर्यः-"अहवा महासामन्नं संगहियपिंडि यथमियरं ति" २२०५ इति तद्भाष्यवचनात् अथवा सत्ताख्यं महासामान्यं संगृहीतमुच्यते, इतरतु द्रव्यत्यादिकमयान्तरसामान्य पिण्डितार्थमभिधीयते, ततः संगृहीतपिण्डितार्थ पपरसामान्यार्थ संग्रहवचनं समासतः संक्षेपतो त्रुवतीत्यर्थः । संग्रहः संग्रहीतस्येत्यादिश्लोकसायमर्थः संगृहतिस्प पिण्डितस्य च निश्चयः सङ्ग्रहः, तत्र संगृहीतं परा-सर्वव्यापिका जाति:-सत्ताख्यमहासामान्यमिति यावत् , पिण्डितं त्वपरा देशव्यापिका जातिता, द्रव्यत्वादिकमान्तरसामान्य कथितमिति । यदप्येतदुभयग्राहित्य प्रत्येकाहिसंग्रहेऽव्याप्तं प्रत्येकदाहित्वं चाननुगतं तथापि सामान्यमानाभ्युपगमप्रवणकदेशयोधत्वं संग्रहनयत्वमिति लक्षणं योध्यमिति । अन्येन-नयोपदेशग्रन्थसत्कद्वाविंशतितम श्लोकेन । संग्रहस्य विभेदत्वमु समिति-उक्तञ्च जैनतर्कभाषायां पूज्योपाध्यायैः स च द्वेधा परोपरश्च, तत्राशेपविशेषेष्वौदासीन्यं भजमानः शुद्धद्रव्यं सन्मात्रमभिमन्यमानः परसंग्रहः, यथा विश्व मेकं सदाविशेषादिति । द्रश्यत्वादीन्यवापरसामान्यानि मन्बानस्त देषु गजानिमीलिकामचलनमानः पुनरपरसंग्रहः, यथा धर्माधर्माका पुद्गलजीवद्रयाणामक्यं द्रव्यत्वामेदादिति । पदव्युत्पत्तिनिमित्तमिति संगृलाति सामान्यरूपतया सर्व वस्तु क्रोडीकरोतीति संग्रह इत्याकारिका सर्वेऽपि भेदारसामान्यरूपतया संगृह्यन्तेऽनेनेति संग्रह इत्याकारिका वा वजातं " सम्" एकीमायेन मातीति संग्रहः इत्याकोरिका या या व्युत्पत्तिस्तनिमित्तमित्यर्थः । तत् द्विभेदत्वम् । इतः शब्दब्रमपरवेमाचद्वैतदर्शनानि प्रवृत्तानीति २०६ब्रह्माद्वैतदर्शनं २०६सन्मात्रयरूपब्रह्मवादः, परब्रमाधदैतदर्शनं सचिदानन्दस्वरूपब्रह्मवादः, एतदुभयवादः शुद्धसंग्रहनयंप्रकृतिकत्वाततः प्रकृपा, Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थविवरणगूढार्थदीपिका । पञ्चत्रिंशत्तमसू० टी० T 1 66 • ३३७ : विदिता सत्त्वा लौकिका ये पुरुषास्तैः समस्ततुल्यः, यथा लौकिका विशेषैरेव घटादिभिर्व्यवहरन्ति तथाऽयश्ञ्च सम्मत "दयिनयपयडी सुद्धा संगहरूचणाविसओ" इति । नयोपदेशेऽपि "जातं द्रव्यार्थिकाच्छुद्धादर्शनं ब्रह्मवादिनां । तत्र शब्दसन्मानं चित्समानं परे जगुः । ११० । " 'इत्युक्तम् | आदिपदात्रिगुणात्प्रधानात्प्रवर्त्तमाना महदादयः कार्यविशेषास्तदात्मका एव कार्यकारणयोस्तादात्म्यादिति कारणस्य प्रधानस्य यत्रिगुणात्मकत्वं सत्यं तदेव तत्कार्याणामपि तथा चात्मभिन्नं सर्वमेकं त्रिगुणायकत्वादित्याद्यभिप्रायशालि यत्सांख्यदर्शनं तस्य परिग्रहः कार्यः । तस्य व्यवहारयाम्युपगतभेदसंमिश्राभेदाभ्युपगमपरत्वेनाशुद्धसंग्रहन्यप्रकृ विकत्वात्तत्प्रवृत्तत्वं ज्ञेयमिति । ईश्वरभिन्नप्रकृतिप्रक्रियांशे सांख्यदर्शनेन सह साम्यात्पातअलदर्शनस्यापि त्रिगुणात्मकत्वेन रूपेण प्रकृतितद्विकारयोर्योऽभेदस्तदंशमादायाऽशुद्धसंग्रहनयप्रकृतिकत्वात्तदप्यादिपदेनात्र श्राह्ममिति, वस्तुतरसांख्यदर्शने चेतनाचेतन वस्तुयाम्युपगमेन भेदाभ्युपगमपरत्वात्तस्य व्यवहारनयप्रकृतिकत्वमेवेति । उक्तञ्च सम्मतिटकायाम् द्रव्यार्थिको व्यवहारनयावलम्बी एकान्तनित्य चेतनाऽचेतनवर द्वयप्रतिपाद कसांख्यदर्शनाश्रित" इति । नयोपदेशेऽप्युक्तम् - "अशुद्धाद्वयवहाराख्यात्ततोऽभूत्साख्यदर्शनम् । चेतनाचेतन द्रव्यानन्तपर्यायदर्शकम् ॥ १११ ॥” इति । वेदान्तप्रकृतिभूतसंग्रहनयेनैकतथा विषयकृतस्यात्मनः भेदकरणेन संग्रहविप्रयभेदकत्वलक्षणसमन्वयाद्वयवहारप्रकृतित्वं सांख्यदर्शनस्य विवक्षितमिति 'तात्पर्यम् | शब्दझवादो हि भर्तृहरिणादृतः उक्तश्च तेन वाक्यपदीयग्रन्थे प्रथमकाण्डे -- "अनादिनिधनं ब्रह्म, शब्दतचं यदक्षरम् । विवर्त्ततेऽर्थ भावेन, प्रक्रिया जगतो यतः ॥ १॥ न सोि प्रत्ययो लोके, यः शब्दानुगमादृते । अनुविद्धमिव ज्ञानं, सर्वे शब्देन भासते ॥ १२४॥ वाग्रूपता 'चेद्वयुत्क्रामेदवबोधस्य शाश्वती । न प्रकाशः प्रकाशेत सा हि प्रत्यवमर्शिनी || १२५ ||" इत्यादि । शब्दार्थयोरभेद एव सम्बन्ध इति वैयाकरणाभ्युपगतिरप्येतद्वादावलम्बिन्येव, एतन्मते शब्द'ब्रह्मत्वेन रूपेण सर्वस्यैक्यं वोध्यम्, शब्दस्वभावात्मकं ब्रह्म च प्रणवस्वरूपम्, तच्च सर्वेषां शब्दानां सर्वेषां चार्थानां प्रकृतिः । अयञ्च वर्णक्रमरूपो वेदस्तदधिगमोपायः, प्रतिच्छन्दन्यायेन तस्यावस्थितत्वात् तच परमं ब्रह्म अभ्युदयनिश्रेयसफलधर्मानुगृहीतान्तःकरणैरव गम्यते । अत्र च प्रयोगः-ये यदाकारानुस्यूतास्ते तन्मयाः, यथा घटशरावोदञ्चनादयो मृदाकारानुगता मृन्मयत्वेन प्रसिद्धाः, शब्दाकारानुस्यूताथ सर्वे भावाः तस्मात्तन्मया इति । सचिदानन्द ब्रह्मवादो हि वेदन्तिभिरादृतः, तन्मते हिं ब्रह्मभिन्नस्याशेपस्य जगतो नामरूपात्मकस्य मिथ्यात्वम्, ब्रह्मणरत्वद्वितीयसच्चिदानन्दात्मकस्य सत्यत्वम्, यतो ब्रह्मैव तेन तेन वटाद्यात्मनाऽवभासते - तथा चायं सर्प इयं माला इदं वस्त्रमित्यादाविदं स्वरूपमनुगामि तथा घटस्सन् पटस्सन् मठस्ते"नित्यादों सर्वत्र ब्रह्मात्मकसद्रूपमनुगामि, एवञ्च घटपटादिरूपस्य जगतस्सत्ता ब्रह्मसत्तैव, અનો ત્રાહર્ષળ સર્વસ્વૈવામાંત સાહનયમૂળ વાહનસ્ય સિદ્ધમિતિ । વિશેपैरेवेति-अत्रैवकारस्यान्ययोगव्यवच्छेदार्थकता तेन सामान्यनिषेधात्केवलविशेपैरित्यर्थः १४३ अशुद्ध Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ३३:: तवार्थविवरणगूढार्थदीपिका । पंचत्रिंशत्तमसू० टी० मपीत्यतस्तत्समः। उपचारो नामाऽन्यत्र सिद्धस्यार्थस्थान्यत्रारोपः, यथा कुण्डिकास्थे उदके श्रवति कुण्डिका श्रवतीति, पुरुषे च गच्छति पन्था गच्छति, गिरितृणादौ दह्यमाने गिरिदयत इत्यादौ, तत्प्रायस्तबहुलः । विस्तृतो विस्तीर्णोऽनेकेषां विशेषाणां ज्ञेयत्वादर्थो विषयो यस्य स तथा, सामान्यानभ्युपगमे सति विशेषाऽभ्युपगमादिति भावः । अत एव विशेषतोऽवह्रियतेनिराक्रियते सामान्यमनेनेति व्यवहार इति व्यवहारस्य व्युत्पत्तिर्गीयते सिद्धान्ते। तथाऽयमपीत्यतत्सम इति-तथा च विशेषानाऽऽश्रित्य लोकन्यवहारप्रधानो 'नयो व्यवहारनय इति भावः । अत एव " लोकव्यवहारोपथिकोऽयवसायविशेपो व्यवहारः" इति नयरहस्योक्तं व्यवहारलक्षणं सङ्गच्छने । नन्वयं नयो यदि सदित्युक्ते विशेषानेव घटपटादीन प्रतिपद्यते, तेषामेव व्यवहारहेतुत्वात् , तथाहि-लोके घटपटगवादयो विशेषा एव जलाहरणाच्छा. दनवनादिक्रियास्पयुज्यमाना दृश्यन्ते, न पुनरतदतिरिक्तसामान्य, यतो न हि घटमानय पटेनाच्छादय गांवधान " इत्युक्ते कश्चिद् घटत्वमानेतुं पटनाच्छादयितुं गोत्वं वधुमध्यवस्तीति जलाहरणाधुपयोगिनो घटादिविशेषानेवायमङ्गीकरोति, अर्थक्रियाकारित्वलक्षणसचोपेतत्वात् , न तूक्तत्वलक्षणरहितानि विधि पाणि घटलपटत्वादिसामान्यानि, उक्तञ्च"जं च विसेसेहिं चिय, संववहारो वि कीरए सक्छ । जम्हा तम्मतं चिय, फुडं तदत्यंतरमभावो" २२१५ । इति । नन्वेवं तर्हि निखिलघटपटादौ वटोऽयं घटोऽयं पटोऽयं पटोऽयमित्याधनुगत- । प्रतीतिरेतन्मते कथं स्थादिति चेत्, उच्यते, अस्वण्डातद्वयावृत्तितस्सोपपादनीयेति, तत्राखण्डाभावनिवेशाच नान्योन्याश्रयः, अस्तु वा शब्दानुगमादेवानुगतत्वव्यवहारः, दण्ड चक्रादिष्वनु. गतसामान्याभावेऽपि दण्डः कारणं चक्रादिरपि कारणमित्यनुगतव्यवहारवदिति । लोकव्यवहारसमत्वादेवास्य नयस्य पञ्चवर्णात्मकेऽपि भ्रमरादावुद्भूतत्वात् बहुतरत्वाद्वा कृष्णादिवर्णअकमेवाभ्युपगच्छति स नयः। एवं तर्हि भ्रा.विप्रसक्तिस्यात् पञ्चवर्णात्मके एकवर्णवोधादिति न च वाच्यम् , कृणादिपदस्योद्भूतकृष्णादिपरत्वेन विवक्षणात् , तेनैव लोकव्यवहारात, यतो न खुद्भूतकृष्णरूपं परित्यज्यान्यरूपाणीक्ष्यन्ते लोरिति व्यवहार नयोऽप्येवमेवाभ्युपगच्छति, प्रत्यक्षमात्रप्रमाणाभ्युपगमपरत्वात्, न नैश्चणिकपञ्वरूपादिकम् । उपचारप्राय इत्येतद्धकोपचारपदस्थार्थमाह उपचारो नामेत्यादिना, कुण्डिका अवतीत्यत्र कुण्डिकापदस्य कुण्डिकास्थजले लक्षणा, तीजंतु-अनिविडत्यप्रतीतिः प्रयोजनम्, यद्वा कुण्डिफापदार्थस्याद्रवत्वेन श्रवणेऽन्वयस्य तात्पर्यस्य वा अनुपपत्तिरवेति बोध्यम् । पन्या गच्छतीयत्र पयिपदस्य पथि गच्छति पुरुषसमुदाये लक्षणा, तीज तु नरन्तर्यप्रतीतिः । यता स्थिरस्थ पथिपदार्थस्य गम्धात्वर्थेऽन्वयस्य तात्पर्यस्य वाऽनुपपत्तिः । गिरिदयत इत्यत्र गिरिपदस्य गिरिस्थत पादौ लक्षणा, तीज तु भूयोदधत्वप्रतीतिः प्रयोजनम् । गिरेरदह्यमानत्वेन दहनक्रिया.याऽनुपपतिरेव वा। तत्प्राय इत्यस्यार्थमाह तबहुल इति-उपचारबाहुल्येन व्यवहारकारीति भावः । भाष्योक्तस्य विकृतार्थ इत्यस्यार्थमाह-विस्तृतो विस्तीर्ण इत्यादि। Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परवार्थविवरणपूढार्थदीपिका । पंचत्रिंशत्तम० टी० : ३९ : एतादृशोऽध्यवसायविशेषो व्यवहार इति निगद्यते । ऋजुसूत्रं लक्षयति-सतामित्यादि । सतां परमार्थसतां, न तु खपुष्पादीनामत्यन्तासता, प्रधानादीना वा संवृतिसतां, तेषामपि सांप्रतानां मध्यमक्षणपतिना, नातीतानागतानाम् , अभिधानपरिज्ञानं समाहारद्वन्द्वादभिधानं परिज्ञानं च, आश्रित्येति शेषः, ऋजुसूत्रनयो भवति, .. इदमुक्तं भवति-अर्थमभिधान परिज्ञानं च वर्तमानमेव योऽध्यवसायोऽभ्युपैति स ऋजुसूत्र इत्यर्थः । अवदाम च-" भावत्वे वर्तमानवव्याप्तिधीरविशेषिता ।। ऋजुसूत्रः श्रुतः सूत्रे " इति । भेदत्रयसंग्राहक परिभाषित व्यवहारनये विशेष प्राधान्यादेप विस्तृतार्थः, तत्प्राधान्यञ्च व्यक्ति वोपयुक्ततया सङ्केसाश्रयणादिना बोध्यम् । एतादृशोऽध्यवसायविशेषो व्यवहार इति-लौकिक-यवहारप्रधान उपचारबहुलो विस्तृतार्थविषयको योऽध्यवसायस्तवृत्तिद्र०यार्थिकत्वयाप्यजातिम व्यवहारवमित्यर्थः । लौकिकव्यवहार प्रधान इत्यनेन सूत्रादौ नातिव्याप्तिः, तन्मते क्षणिकपदार्थस्यैवाभ्युपगमन घटादिपदार्थानां स्थैर्य सत्येव दृश्यमानस्य तदानयनादिलौकिकवृत्यादिव्यवहारस्यैवानुपपत्ते, उपचारबाहुल्यञ्च स्तरनयापेक्षया विचक्षणीयम् , नातः संग्रहनये नैगमनयेऽपि च स्वस्वसिद्धान्तोचितोपचार सद्भावेऽप्यतिव्याप्तिः। अन्य नयापेक्षयोपचारबाहुल्यस्यास्मिन्नेव व्यवहारनये सद्भावात् । नानाव्यक्तिकश०सङ्केतग्रहणप्रवण इत्यर्थकं विस्तृतार्थ इति विशेषणं नया तरतो व्यवहारस्य विषयलक्षण्यप्रदर्शनेन विविक्तानेकविशेषविषयकलौकिकव्यवहारस्वरूपाक्योधार्थमुपात्तम् । उक्तव्यवहारलक्षणे नयत्वव्याप्यजातिनिवेशे द्रव्यायिकत्वजाति मादाय संग्रहादावविव्याप्तिस्स्यात् , अतवारणाय द्रव्यार्थिकत्वव्याप्यजातिनिवेशः कुन इति। नाजुभूत्रलक्षणाऽभिधानायाह-जुमूत्रमित्यादि । संवृतिसतामित्यस न वित्ये. नान्वयः । समाहारद्वन्द्वादिति-अभिधानञ्च परिज्ञानञ्चाभिधानपरिज्ञाने, अनयोस्समाहारोऽभिधानपरिज्ञानमिति समाहारन्द्रादित्यर्थ । स्वकृतनयोपदेशसमितिमाह-अवदाम चेति । ऋजुसूत्रः श्रुतः सूत्र इति । “५च्चुप्पन्नगाही उज्जुसुओ णयविही मुणेययो" इत्येवमृजुसूत्रनयलक्षणमनुयोगदारसूत्रे विशेषावश्यकनियुक्तौ २१८४ चोक्तमित्यर्थः । तस्य चायमर्थः साम्प्रतमुत्पन्नं प्रत्युत्पन्नभुच्यते वर्तमानक्षणोत्पन्नमेवार्थक्रियाकारित्वेन सद्रपमिति तहतुिं शीलभस्येति प्रत्युत्पन्नग्राही, देशकालान्तरसम्बद्ध स्वभावरहितं वस्तुतत्त्वं साम्प्रतिकमेकस्वभावमकुटिलमजु सूत्रयति इति ऋजुत्रो नयविधितियः । उक्तञ्च "सुत्तय का जमुजु वत्युं तेणु-जुसुत्तेति ।२२२२।" अत एव । "अतीतानामताकार, कालसंस्पर्शवर्जितम् । वर्तमानतया सर्व-मृजुमुत्रेण सूत्र्यते॥१॥” इत्युक्तमपि सङ्ग छ । व्यवहार नयेनातीतानागतकालभेदेनार्थभेदो नान्युपातः, अतीतानागतकालावच्छिन्नार्थस्योत्पत्तिकालादारभ्याऽऽविनाशमेकत्येनवायुपगमात्, ऋजुसूत्रनयेन (वतीतानागतार्थयोपिनाशाऽनुत्पत्तिभ्यामसवात् , असदम्युपगमश्च कुटिल इति हेतोः सोऽप्यभ्युपगतः, तद्विशुद्धत्वात्तस्य, स्वदेशकालयो संलक्षणात्मकाऽर्थसत्ताविश्रामादतीतानागतकालमैदेन तद्विशिष्टार्थभेदवत्तद्वाचकशब्दोऽपि भिन्न एव, वाच्यभेदे वाचकभेदस्याऽयवश्यंभावात्, न तु ०५यहारनयवदृजुसूत्रनये काले Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ३४० तत्वार्थविवरण गूढार्थदीपिका । पंचत्रिशत्तमसू० टी० शब्दनय लक्षयति यथार्थाभिधानं शब्द इति । भावत्वव्याप्यविषयता *जुसूत्रविषयत्ताव्याप्यविषयताको वोऽध्यायः शब्द इत्यर्थः । वातुतः साम्प्रतसमभिल्व भूतान्यतमत्वमेव सदत्वम् । अयांवच्छिन्नेकार्थवाचक एक२०दोऽभ्युपगतः, तज्ज्ञानमपि भिन्नभेव, न तुं व्यवहारनय इ. तन्नये एकम् , अतीताविनाहित्वस्वभावानागतार्थावाहित्यस्वभावधर्मभेदेने ज्ञानधार्म में- दस्थापि भावादिति भावः । अत्र यद्यपि वर्तमानक्षणमात्रयचिपरमार्थसंदर्यशब्दपरिज्ञाना स्पानिध्यवसायविशेषवृत्तिपर्यायार्थिकरवायजातिमवजुसूत्रस्य लक्षणं पर्यवस्यति तथापि शब्दादिनयत्रयेऽतिव्याप्तिवारणाय लिङ्गसङ्ख्याकारकपुरुषसंज्ञानियाभेदप्रयु भार्थभेदानभ्युपगतृत्वे सतीति विशेषणीयं तल्लक्षणम् , तया चर्जुमूत्रनयो लिङ्गवचननामादिमिनमप्येकमेव वस्तु प्रतिपद्यते, तन्मते वर्तमानं वर लिङ्मादिभिन्नमपि न स्वरूपमुज्झतीत्येवमभ्युपगरि तत्र लक्षપ્રાંસમન્વય શર્વાનિયત્રયસ્તુ તટપટી તદપો નમન્યા વિનાનાર્થમે-वास्थुपगच्छतीति न तत्रातिव्याप्तिरिति । यद्वा विशेषार्थबाहिणि शब्दादिनयत्रयेऽतिच्याप्तिता-रणाय शब्द नयाधुभिमतविशेषाऽनभ्युपगन्तृत्व सतीति विशेषणोपादानमध्यवसायविशेषस्य कर्तध्यम् , अत एव पूज्योपाध्यायनयोपदेशे " भावत्वे वर्तमानत्वव्याप्तिधार विशेपिता." - ફોર્થવમવિપિતિ પમૃત્તમ્ ! ડૉક્ષણે માત્રપલોપાલાના નામાવતિન્યારિ, तेनकस्यैवार्थस्य कालत्रयवर्तितयाऽभ्युपगमात् । जातिगर्भलक्षणोक्त नाजुसूत्रत्वजातिमादाय . सर्प सूत्रप्रकारोपसंग्रहान्न कुत्राप्यव्यातिः । जातेश्च पर्यायार्थिकत्वव्याप्यति विशेषणान पर्याथाथिकायनयत्यादिजातिमादाय शादिनये नैगमादिनये चातिव्यातिः । • यथार्थाभिधानं २००८ इति-यथैति-येन प्रकारेण भावरूपेण नामस्थापनाद्रव्यवियुतन वर्तमानोऽर्थो घटादियथार्थः, तस्याभिधानं तहाचकशब्दो यथार्थाभिधानं तदाश्रयी तत्प्रयोजको चा योऽध्यवसायः स शब्दनयतयाऽभिधीयते । साम्प्रतसमभिरूढयम्भूतभेदभिन्नो ह्ययं नयो पत्तेमानमीत्मीय भाषेवटमेवाश्रयति, नेतरान्जुसूत्रनयावन्नामस्थापनाद्रव्यघटान् , यत२००६प्रधानो होप नयः, चेष्टालक्षणश्च घटशब्दस्यार्थः “वट चेष्टायाम्" परतें चेटत इति घट इति व्युत्पत्तः, ततश्च य एव जलाहरगोंदिक्रियाबीन प्रसिद्धो घटस्तमेव भावरूपं घंटेमिच्छत्यसौ, शब्दार्थोपपत्ता, ने तु नामांदिवटीन् , यशदार्थानुपपत्तेरिति, उतञ्च भाष्ये-"तंचि ये रिउसुत्तमयं, पप्पन विससिययरं सो । इच्छई भावघड चियजं न उ नामाद५ तिनि" इति च। तत्पर्यव सितार्थ'पाध्यायभगवान्नाह भावत्वव्याप्यविपर्थतांक इत्यादि ऋजुत्रनयो हिं भावत्वसम याप्तविषयताका, तटकसमव्याक्षिश्च तद्वयाप्यत्वे सति तद्वयापकत्वमिति तदन्तर्गततया भावस्वच्याप्यविषयताकत्वमपि तत्रर्जुसूत्रे पति इति तत्रातिव्याप्तिस्यादिति तनिवृत्तये लक्षणान्तरमाह- कसूत्रविषयताव्याप्यविषयताक इनि-अत्र न्यूनवृत्तित्वमेव व्याप्यत्वं सन्निविष्टमतो न नाजुभूत्रविययताव्याप्यत्वमृजुसूत्रविपयंतीयामिति न तत्रातिव्याप्तिः। भावमात्रविधयकसूत्रापेक्षया साम्प्रतादिनयत्रयस्य विशेषविशेषतरविशेषतमभावविषयताकत्वनाल्पविषयक Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाविवरणदार्थदीपिका 1 पंचविंशतमसू० टी० : ३४१ : मनुगतनवजातरमावेन तयञ्जकस्थानुगतलक्षणस्यावश्यानाश्रयणीयत्वात् , अन्यथा चतुर्वर्थत्वमप्येका जातिरनुगतं च तयञ्जकमपेक्षणीय स्यात् । अर्थशव्दनयविभागरपाधिभ्या, नैगमलक्षणे द्रव्यार्थिकत्वव्याप्यजातिनिवेशस्तु यदि कश्चित्परो ब्रूयादित्यभ्युपगमाभिप्रायेण । परमार्थत " दवटिओत्ति कोई स्थि णओ णियममुद्धजातिओ। णयपज्जवष्टिओ णाम कोइ भयणाइ उ विसेसो” । इति सम्मतिग्रन्थपर्यालोचनयाऽनुगतजात्यसिद्धेरिति संक्षेप. । सांप्रतं लक्षयति' नामेत्यादि । नामादिषु नामस्थापनाद्रव्यमावेषु मध्ये प्रसिद्धो नितिः पूर्व संज्ञासंजिसम्बन्धग्रहकाले भावमात्रवाचकत्वेन निश्चित इति यावत्, प्रपर्दैन प्रमारूपो निश्चयो प्रायः, तेन विपरीतव्युत्पन्नपुरुपीयशब्दमादाय नैगमादौ नातिव्याप्तिः, एताशाच्छन्द्वात् , स्वातंत्र भवति लक्षणसम 44 इति । अनुगतशदत्वजारभावेनेति-शद नयशब्दवाच्य साम्प्रतादिनयत्रये लक्ष्यीभूतेऽनुगताया लक्ष्यतावच्छेदकश त्वजातेरभावनेत्यर्थः । नन्वनुगताविशन्दवजात्य भावे नैगमादयश्चत्वारो नया अर्थनयाः साम्प्रतादित्रयो नया२शद नया इत्यर्थनयशब्दनयविभागः कथं स्यादित्याशङ्कायामाह अर्थशदनयविभागस्त्विति । उपाधिभ्याम्-नैगमसंग्रहव्यवहार सूत्रान्यतमत्वमर्थनयंत्वं साम्प्रताधन्यतमत्वं शदनयत्वमित्येवमुपाधिभ्याम् । यदि कश्चित्परो यादिति द्रव्यार्थिकावयाप्यजातिरतिरिक्ताडस्तीत्यन्यो यदि ब्यादित्यर्थः । “दहिओत्ति तम्हेति" सम्मतिप्रथमानयकाण्डसके. नवमीगाथा, तस्याश्यायमः तस्माद् द्रव्यार्थिक इति नयः शुद्धजातीयः सामान्यभात्रविषय. ताको नास्ति नियमेनेत्यवधारणार्थः, विशेषविनिर्मुक्तसामान्यविषयाभावेन विषयिणोऽध्यभावाद, न च पर्यायाथिकोऽपि कश्चिन्नयः, नाभेति प्रसिद्धार्थः, नियमेन शुद्धखरूपः स भवति, सामान्य विकलात्यन्तच्यावृत्तविशेषविषयाऽभावेन विषयिणोऽप्यभावात, विशेषविनिर्मुक्तद्र०यस ट्रव्यविनिर्मुक्तपर्यायस्य चाभावेनैकान्तद्रव्यमानाविषयकस्य द्रव्यार्थिकस्यैकान्तपथमात्रवि यकस्य पर्यायार्थिकस्य चाभाव एवेति भावः । यदि विषयामानादिमी नयाँ न तर्हि यदुक्तं तीर्थंकरवचनसंग्रहत्यादि तद्विरुध्यते इत्याह-भवणाई उ बिसेसो। भजनायास्तु विवक्षायो एक विशेषा, इदं द्रव्यमयं पर्याय इत्ययं भेदः, तझेदाच विषयिणोऽपि तथैव भेदः, अयमभिप्राय:-भजनी च सामान्य विशेषात्मक वस्तुत उपसर्जनीयकृतविशेष यदन्वयिरूपं तद् द्रव्यमिति विवक्ष्यते यदा तदा द्रव्यायिक नयविषयः, यदा तूपसर्जनीकृतान्वयिरूपं तस्व पस्तनो यदसाधारण विशेषरूपं तद्विवक्ष्यते तदा पर्यायनयविषयस्तद् भवतीति । अत एवं द्रव्यपर्यायविषयताम्या तदितरोविषयतया पा न शुद्धजातीयद्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकभावव्यवस्था, किन्तूपसर्जनीकृतान्यार्थप्रधानीकृतस्वार्थविषयतयाऽनेकान्तानुप्रये शादेवत्यनेकान्त व्यवस्थापन्योक्तमपि संगछतं इति । अनुगतजात्यसिद्धरति. तथा चैतादृशाध्यवसायवृत्तिद्रव्यार्थिकत्यव्याप्यजातिमा चमितिः पूर्वोक्त जातिघटितं लक्षणं परायुपगमवादेनैव, परमार्थतस्तु न सम्भवतीति यस्य नयस्य यावन्तोऽध्यवसीय विशेपास्तस्य नयस्य तायदध्यवसायाऽन्यतमत्वमेव लक्षणमिति भावः । प्रसिद्धपदघटकप्रपदग्राह्यप्रमात्मकनिश्चयफलमाह तेनति केनचित्पुंसा बटशब्दो भावधामात्रवाचक यथार्थसते कृतेऽपि Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थविवरणमूढार्थदीपिका । पञ्चत्रिंशत्तम०टी० अर्थे भावलक्षणे, यः प्रत्ययः स सांप्रतनय इत्यर्थः । भावमात्र प्रमितशक्तिकावजन्यं ज्ञानं साम्प्रतं . . इति निष्कर्षः । जन्यता च नयत्वसाक्षाव्याप्यजात्यवच्छिन्ना ग्राह्या, तेन विचित्रत्वान्नैगमस्य भावमात्र- . ग्राहिणि तद्भदे नातिव्यातिः । जनकता च निरुक्तशदत्वेन, न सममिव मूतयोः सा, तत्र घटकु-भातेन संकेतेन घटनामादिनिक्षेपचतुष्टयात्मकार्यवाचको घटशब्द इति भ्रमात्मकशक्तिप्रहो यस पुंसो जातः, तत्पुरुषीयशब्दप्रवृत्तघटनामादिनिक्षेपचतुष्टयलक्षणार्थविषयकप्रत्ययात्मके नैगमादी यातिव्याप्तिस्सा नेत्यर्थः । शब्दनयापरसंज्ञकसाम्प्रतनयस्य फलितलक्षणमाह भावमाश्रेति । तेनेति साक्षात्पदोपादानेनेत्यर्थः । तद्भेदे नातिव्याप्तिरिति-नैगमावा. जरभेदे . उक्तजन्यता न नयत्वसाक्षाद्वयाप्यनगमत्वजात्याच्छन्ना, कि। नयत्वव्यायनैगमस्व. . व्यापजात्यवच्छिन्नेति नातिव्याप्तिरिति भावः । सेति-जनकतत्यर्थः, तत्र हेतुमाह , तत्रेत्यादिना-समामिलढनये हि संज्ञाभेदेनार्थभेद इति घटकलशकु भनिपादिसंज्ञाम्यो भिन्नाम्यवस्वाच्यभिन्नभिन्नार्थविषयका भिन्ना एव बोधाः, न तु साम्प्रतनयवत् घटकलशकु भादिपर्यायसंज्ञावाच्यैकवात्मकार्थविषयक एक एव बोधो पटकलशादिपदभ्यः, तन्मते एकार्थवाचकपर्यायशब्दाऽभावादिति कार्यकारणभावोऽपि ततत्पदविषयकज्ञानत्वेन तत्तच्छब्दवाच्यार्थविषयकज्ञानत्वेनैव, न तु घटात्मकैकार्थवाचकवटकु भकुटकलशादिशब्दसामान्यविषयकज्ञानत्वेन घटकुमादिशब्दवाच्यघटरूपकार्यविषयकज्ञानत्यनेति, एव भूतनये च न्यु. त्पत्तिनिमित्तक्रियाभेदेनापर्यभेद इति साम्प्रतनयोक्ता कार्यकारणभावोऽपि नाभ्युपगतः, किन्तु तत्तक्रियाव्युत्पत्तिनिमित्तकतत्तत्पदाविषयकज्ञानत्वेन तत्तक्रियासत्ताकालविशिष्टार्थविषयकयोधत्वेनैवेति न सममिडैवम्भूतनययोरुतसाम्प्रतनयलक्षणस्यातिव्याप्तिरिति भावः । ऋजुत्रनयो ह्येकमेवार्थ त्रिलिङ्गविशिष्टशब्दवाच्य मेकवचनबहुवचनान्तशब्दवाच्यमुत्तममध्यमप्रथमपुरुषवाच्यञ्चाभिमन्यते, न त्वं साम्प्रतनयः, तटस्सटी त स्वातिः तारा नक्षत्रमित्यादी पुल्लिजस्त्रीलिङ्गनपुंसकलिङ्गाभिधानवाच्यार्थानामन्यलिङ्गभेद लक्षणेन धनि भेदेन भेदस्य एकस्मिनेत्र गुरौ - मानार्थे बहुवचनं तदपि तन्मते नेति गुरुगुरव इत्यादौ चैकवचनबहुवचना-शदवाच्यानामर्थानाञ्च वचनभेदलक्षणेन धनिभेदेन वैधम्र्येण भेद स्थाभ्युपगमात्, उक्तञ्च : "विरोधिलिङ्गसङ्ख्यादि,-भेदाझिनस्वभावताम् । तस्यैव मन्यमानोऽयं, शब्दः प्रत्यवतिष्ठते ॥ १ ॥” इति । तया च साम्प्रतनयेऽपि भावमात्रप्रमितशक्तिकशब्दजन्यज्ञानवृत्तिनयत्वसाक्षाद्वयाप्यजात्यवच्छिन्न प्रति भावप्रमितशक्तिकादत्वेन कारणत्वमिति पूर्वोक्त कार्यकारणमाको भावात्मकतगुर्वार्थमात्रप्रमितशक्तिकभिन्नलिङ्गकभिन्नवचनकतर्यादिशब्दरूपकारणसझावेऽपि भावात्मकतटगुदिन पैकार्थबोधरूपकार्यामानान्वयव्यभिचाराधदिन समिति तदापि समानलिङ्गवचनकश०६वाच्यार्थविषयकशान्दयोधप्रति समानलिङ्गकसमानवचनकशब्दज्ञानत्वेन कारणत्वमित्येवमनुगत एव कार्यकारणभावोऽभ्युपगन्तव्यः, साम्प्रतनयमतेऽपि समानलिङ्गसमानवचनादिशब्दानामेकार्थवाभ्युपगमात् , तथाहि- यस्मिन्वाक्ये पुंस्त्वैकत्वा Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थविवरणदार्थदीपिका । पंचविशत्तम० टी० : ३४३ : दिविषयकादयोधत्वावच्छिन्न घरकुमादिपज्ञानत्वेन ततलियाविशिष्टविषयकशाब्दबोधत्वावच्छिन्ने, तपक्रियापदलेन च प्रत्येकं हेतुत्वात् । यदि च लिङ्गसंख्यादिभेदेन साप्रतेऽप्यर्थभेदाद् विशिप्य कार्यकारणमाः, तदापि समानलिङ्गकसंख्याका कारणतावच्छेदकोटौ ताशार्थविषयकत्वं च कार्यतावच्छेद ककोटौ कथञ्चिदनुगतं कृत्वा निवेशनीयम् , न तु प्रातिस्विरूपेण कार्यकारणभाव इति सर्व सुस्थम् । परत 'इच्छ३ विसेसियतरं पच्चुप्पण्णं णओ सहो' इत्यादिपर्शलोचनया ऋजुसूत्राद्विशेपिततरेऽध्यवसाये या नयावसामान्याप्या जातिस्तामादायैव लक्षण कार्यम् । समभिरूढं लक्षयति-सरिस्वत्यादि । सत्सु वर्तमानेषु भावरूपेषु च धादिष्वर्थेषु, असंक्रमः स्ववाचकत्वाभिमत।०६।-तरस्यावाच्यत्वं समभिः । વ્યુત્પત્તિનિમિત્તમે ધ્વરા નામેામ્યુમિબંધળો મિજન્યુત્પત્તિનિમિત્તાનિકારખતાબધુજીમેशालिकार्यताश्रयः शाश्वोधो वा समभिरून इति निर्गलितोऽर्थः । भवति वेतन्मते इन्द्रशादिपदयोर्घरकुटादिपदयोश्च भिन्न एवार्थः, पटलनादिवभिन्ननिमित्तत्वात् । यथा हि-शव्दनयमते सम्बन्धविशेषण शब्दार्थगतो लिअसल्यादिभेदो भेदक., तथैतन्मते व्युत्पत्तिनिमित्तभेदोऽपि । अथ स्वार्थप्रतीतिनियतप्रतीति दिविशिष्टोऽय: पुल्लिङ्गवचनादिनियतं वाचकं न व्यभिचरति तदभिधानं, तस्य चैकोऽर्थः। अर्थात्पुलिङ्गशब्दस्य पुस्त्वविशिष्ट एवार्थः, न तु स्त्रीत्वनपुंसकत्वविशिष्टोऽर्थः, स्त्रीलिङ्गशदस्य सीत्वविशिष्ट एवार्थः, न तु पुंस्त्वनपुंसकत्वविशिष्टोऽर्थः, एवं नपुंसकेऽपि ज्ञेयम् , न वा पुंस्त्वविशिष्टस्यायस्य स्त्रीलिङ्गविशिष्टो नपुंसकविशिष्टश्च शब्दो वाचकः किन्तु पुल्लिङ्गशब्द एव, अत एव तद इति शब्दान तयादेवधिः । एवं स्त्रीत्वविशिष्टस्थार्थस्य वाचकस्त्रीलिङ्गशब्द एव, नपुंसकविशिधार्थस्य च वाचको नपुंसकशब्द एव, एवमेकवचनादावपि शेयमित्येवं यत्र शब्देन व्यभिचरितार्थस्तदभिधानं, तवाच्यश्वार्थः प्रमिता, उक्तञ्च-"यत्र ह्यर्थों वाचन व्यभिचरत्यभिधानं तत्" इति । तथा च पुंस्त्वैकत्वादिविशिष्टोऽर्थो यत्र तत्र पुल्लिङ्गैकवचनादिप्रयोग एवोचित इति समानलिङ्गसमानवचनकादिशदानां घटकलशकुमादिपर्यायात्मकानां साम्प्रतनयेय. कार्थत्वं सिद्धमिति तदनुसृत्यैव पूर्वोक्त कार्यकारणभावोऽभ्युपगन्तव्य इत्याशयेनाह यदि च लिङ्गमयादिभेदेनेत्यादि । “३०छ विससियतरं पच्चु५५ नओ सक्षे ॥ २१८४ ॥” इति विशेषावश्यकनियुक्तिदलार्थः पूर्वमेवोक्तः । "जं जं सणं भासइ, तं तं चिय सममिरोहए जहा । सणंतरत्थविमुहो, तओ नओ समाभिरूढोत्ति । २२३६ ।" इति भाष्यगाथां यां यां संज्ञा घट इत्यादिरूपां भापते तां तामेव यस्मात्संज्ञा-रार्थविमुखः कुटकु मादिशयाच्यानिरपेक्षः सममिरोहति तत्तद्वाच्याविषयत्वेन प्रमाणीकरोति ततस्तस्मानानार्थसमभिरोहणासमभिरूढो नयः, यो ५८०दवाच्योऽर्थस्तं कुटकुमादिपर्यायशदवाच्यं नेच्छत्यसौ, संज्ञाभेदनियतार्थभेदाभ्युपगन्तृत्वात्तस्येत्यार्थिकामनुमृत्य सममिरूढनयलक्षणमाह समभिरूढं लक्षयति-सस्वित्यादि । इन्द्रशब्दपर्याया एव पुरन्दरादिशब्दा इति पर्यायवाचाशते-अथेति । स्वार्थप्रतीतिनियतमतीतिकार्थकवनति स्वमिन्द्रशब्दः तद्वाच्यो य इन्द्रात्मकोऽर्थस्तत्प्रतीतो सत्यां नियमेन जायमाना प्रती Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ३४३: तत्त्वार्थविवरणगूढार्थदीपिका । पचत्रिंशत्तमम० टी० क्लार्थकत्वेन स्वार्थप्रतीतावसमुह्यमानार्थकत्येन चन्द्रशब्दस्य पुरन्दरादिशब्दाः पर्याया भविष्यन्ति । एतदप्या सत् । एवं हि सामान्यविशेपशव्योरपि पर्यायत्वं स्यात् । प्लक्ष इत्युक्ते द्राग वृक्षेऽपि संप्रत्ययात् । वृक्षाऽ स्तित्वेऽसंमोहाच्च । किं चैवं प्रविश पिण्डीमित्यत्र नियतं गम्यमानस्य गृहस्य भक्षणस्य प्रथमपुरुषे प्रयुज्य. मानेऽस्तीत्यस्य च गम्यमानस्य पर्यायतापत्तिः । न चैकशक्यतावच्छेदकत्वमेव पुर-दरादिशब्दानां पर्यायस्वमित्यपि सम्यक्, जातिवदाकृतेरपि.शक्यतावच्छेदकत्ये तथा वक्तुमशक्यत्वात् । न चैकपदशक्यताकतिर्यस्थार्थस्य स स्वार्थप्रतीतिनियतप्रतीतिकार्थः, सोऽर्थो वाच्यत्वेन यस्य पुरन्दरादिशब्द स्म तद्धावस्तत्वं तेनेत्यर्थः । यदैवेन्द्रशब्देन तद्वाच्येन्द्रार्थप्रतीतिस्तदैव तन्नियतपुरन्दराद्यर्थप्रतीतिजर्जायते इति नद्विषयीभूतार्थवाचकत्येनेति यावत् , असंमुद्यमानार्थकत्वेनेति-संमोहः-अज्ञान तंद भावोऽस मोहः तद्विषयीभूतोऽर्थोऽसम्मुह्यमानार्थः, सोयों वाच्यत्वेन यस्य तद्भावस्त तेनेत्यर्थः । असंमुह्यमानार्थवाचक्रत्वेनेति यावत् । " नहि स भवन्तो यावन्त एव दोषी उद्भाव्याः किन्तु यथाकाममेकः" इति न्यायेन यथा दोषाणां मध्यादेकस्यैव दोषस्योद्भावनं युक्त तथैवोक्तन्याये दोषो गुणस्याप्युपलक्षणमित्यनुमापकतया गुणरूपस्य हेतोः एप्पेकस्यैवोझानं यद्यपि युक्तम् , तथापि " प्रत्यक्षपरिकलितमप्यर्थमनुमानेन बुभुत्सन्ते तकरसिका" इति वचनाद्यथा प्रत्यक्षप्रमाणप्रसिद्धेऽपि वस्तुनि तत्प्रसिद्धि दाढर्यायानुमानप्रवृत्तिः, तथैकलिङ्गप्रसिद्धेऽप्यर्थे तद्दाढर्याय लिङ्गारोपन्यासो युक्त एव, अत एव च पर्वतो वह्निमान् यूमादालोकाचेति वह्वयधिगतये धूमलिङ्गोपादानवदालो कलिङ्गस्याप्युपादानमिति प्रकृते हेतुद्वयोपादानं -नासङ्गतम् । इन्द्रपुरन्दरादिशब्दानां व्युत्पत्तिभेदप्रयोज्यार्थभेद सद्भावेऽपि पर्यायत्वाऽभ्युपगमेऽतिप्रसङ्गदोषापादनेनोक्ताशकोत्तर माह-एतदप्यसदिति, एवं हीति-हि-यतः, निरुक्तहेतुभ्यां पर्यायत्वसाधने । विशेषवाचकशब्दसखार्थप्रतीतिनियतप्रतीतिकार्थवाचकत्वं सामान्यवाचकशब्दे व्यवस्थापयतिप्लक्ष इत्यु इति । न च प्लक्षशब्दपर्यायत्वं वृक्षशब्दखेति प्रथमहेतुर्व्यभिचारित इत्यभिसन्धिः । विशेषवाचकसदस्य स्वार्थप्रतीतावसंमुद्यमानार्थवाचकत्वं सामान्यवाचकशब्दे उपपादअति-वृक्षास्तित्व इति-अत्रापि प्लक्ष इत्युक्त इत्यनुवर्तते, प्लक्ष इति वचनाद् वृक्षविशेषरस प्लक्षस्य प्रतीतौ वृक्षोऽस्ति न वेत्यादि संशयादिलक्षणसंमोहो न भवति, किन्तु वृक्षास्तित्वस्य निर्णय एव भवति अतः प्लक्षाऽपर्याये वृक्षशब्दे गतत्वाद् द्वितीयहेतुरपि व्यभिचारित इत्याशयः । दाध्याहारपक्षे प्रविशेत्युक्तौ गृहभित्ययाहृत्य गृहं प्रविशेति पाक्यत एवं पिण्डीमित्युक्तो -पिण्डी भक्षयेति वाक्यतो देवदत्त इत्युक्तो देवदत्तोऽतीति वाक्यतश्चान्वयबोधोदयात्तत्र सर्वत्र गम्यमानपदान्तरार्थस्य श्रूयमाणपदार्थप्रतीतिनियतप्रतीतिकवेन तद्वाचकपदस्य पर्याय तापतिरिलाह-किश्चैवमिति । आशङ्कते --न चेति । अस्येत्यपि सम्यगित्यनेनान्वयः। निषेधे हेतुमाह-जातिवदाकृतर पीलादि। तथा च पुरन्दरादिशदानामपि भिन्नप्रवृत्तिनिमित्तकत्वादेशक्यतावच्छेदककत्वं पर्यायत्वमिति वक्तुमशक्यत्वादित्यर्थः । न चेत्यस्य पर्यायस्पमित्याने- ' Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमार्थविवरणमूढार्थदीपिका । पञ्चविंशत्तमसू० टी० : ३४५:' च्छेदकत्वसामानाधिकरण्येनापरपदशक्यतावच्छेदकत्वावच्छिन्नभेदाभाव एव पर्यायत्वम् , हरिपदस्य सिंह-' पदपर्यायवानापतेः, हरिपदशक्यतावच्छेदकत्वसामानाधिकरण्येन कृष्णत्वाद्री सिंहपदशक्यतावच्छेदकत्वावच्छिन्नभेदसत्वात् । तत्र तत्पयित्वानभ्युपगम च शब्दमात्र एव तदनभ्युपगमः श्रेयान । किच घटपटादिजन्यतावच्छेदकशाबोधनि विषयताभेदादेव वाद्यर्थभेदः, घटपरत्यकुमपदत्यादिना प्रतिस्वं हेतुन्थे कार्यताच्छेदककोटावश्यवहितोत्तरत्वदाने च महागौरवात् । बटपदकुमपदाद्यन्यनरत्वेन हेतुवेऽप्यन्यतरत्वस्य तभिनवे सति तभिन्नो यस्तभेदरूपतया विशेषणविशेष्यमावे विनिगमनाविरहादीवाच्च । वटपदविपथकत्वमप्यतन्त्रं पड़ादर्थोपस्थितिवदर्यास्पदोपस्थितिरिति पदे तद्विपयस्थकम्य सदस्य शाबोधे विनिनान्मयः । निषेधे हेतुमाह हरिपदस्यत्यादि । नत्र तत्पयित्वानभ्युपगम इनिसिंहपदे हरिपपवित्वाऽजभ्युपगम इत्यर्थः । घर-पार्थविषयकचोवं प्रनि थपदत्वेन (मयदत्वेन कलशपदत्यादिनामानिस्विकर पेण कारत्वे वटपदामावऽपि कुम्मादिपदादुक्त शान्दबोधोंस्पत्तव्यतिरकव्यभिचार स्यात् , तन्निवारणाय ५८पदाव्यवहितोत्तर बाबयोधम्प्रति वटपदत्यन उम्मपदाच्यवहितोचरवाशान्याचं प्रति कुम्मपद त्वेन कारणत्वा धुपगमे नानाकार्यकारणभावारपनापस्या गौरवदापमा पदपदवकुम्भपदत्यादिनेति । अय घ2५६ जन्यशायावे ५४५६ मपि मासने, च न जुम्मपदजन्यमानाचे भासते इत्यर्थम् पविषयस्यकावपि यह याविषयमाछामावलमण्ये व्यमित्रा मायानाव्यवाहिनीत्तर कार्याय दककोटा निवेश नीयम् , तथा च घ८५६विषयकवायशाब्दबावम्प्रति थपदवन कारणवमिलपि न च वाच्यम् , १८५६ाइ वः पार्थोपस्थिनिक पर यातिल मपदोपस्थिनिरिति पर उपस्थिताद 4-मार्था चुम्मपदस्था सुपस्थिनिभूमवेन वादधि नहानसमवेन न तनः कार्यनाबरकोलमण्यसमा, अतोऽव्यवहिनोत्तर कार्यतावच्छेदक निमनीयमेवेति पायपले गौवं दुनिया मेवेत्याह-५-५६विषयकायमसन अभिलादि । अनवम्व्यभिचार वारकम् , एतदेव भावयति-पदादिति, पदापस्थित पार्थात् ५८१६ यापन थितिः, न तु कस्यापि भाविपस्येति वटपदावस्थिनयर पार्थविषयको वपदाविषयक एवं भावाचीन मादिषद विषयक इति ब४५६विषयक व्यभिचा वारकं न्यादिश्चन आइ-द्विपयायनि-अनन्य पदोपस्थितिविषयलयः अपि तुत्तक्रियामणधुत्वनिनिमिनमानमिचिनायन मिलेन मायमिति बच्छम्मादिनन्दा मिनार्थी बटनटन मिनादिनियानभव्त्पचिनिमिच महाय, तथापि 45 का बटननियाथामपि य एब, ५५दा इटननियायामपि - वित्या युति समभिनया, नैवमंत्रानुननया, यमने अन्धामिनियापरिनिवलायमिव न, नान्यदा, अनियमझान नयाहिबदा 01724न नाव याटियन का तदा दिव्यपदम भूतनी सान बनमयात्रा: वाइवा जयसिमामाती Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वार्थविवरणमूदार्थदीपिका | पंचविशत्तमसू० टी० गन्तुमशक्यत्वाच्छन्दान्तरविषयत्वस्य चातिप्रसङ्गभिञ्जकत्वादिति विभावनीयं सूक्षावुद्धिभिः। एवंभूतं लक्ष- : यति व्यञ्जनार्ययोरेंव भूत इति, व्यञ्जनं शब्दोऽर्थोऽभिधेयस्तयोविशेषक इत्यध्याहार्यम्, स एवम्भूतः । - तथा च भाद्रवाह वचनं वंजणअस्थतदुभयं एवंभूओ विसेसेइत्ति' । एतदनुसृत्य नयोपदेशेऽप्युक्तम् ।। "एवंभूतातु सर्वत्र व्यञ्जनार्थविशेषणः ॥ राज्ञश्चिर्यथा राजा नान्यदा राजशनभाग्" ॥१॥ इति । एतन्मते । षटपदजन्यतावच्छेदकं जलाहरणकर्तृत्वविषयकशाब्दबोधत्व, कर्तुर्योधश्चाक्षेपात्, जलाहरणकर्तृत्वविशिष्टविषयकशाबोधत्वमेव वा तथा, समभिरूढमते व्युत्पत्तिनिमित्तमुपलक्षणीकृत्य बोधः, तथा च नियतत-- द्भानं न स्यादिति मम तद्विशेषणत्वादरः, व्यवहारबाधश्च क्वचित्कथञ्चित्सर्वस्यापि, सर्वे शब्दा व्युत्पन्ना एवेति व्याकरणपक्षव्यवहारानतिलचनं तु ममापीत्यस्याशयः। गच्छतीति गौरिति व्युत्पत्त्यर्थो गमनकर्तर्यनयमतमुपदशयितुमाह एवम्भूतं लक्षयतीति जणअत्थतदुभयं एवंभूओ विसेसेइ' ॥ २१८५ ।। ति नियुक्तिदल, ०५ज्यतेऽथोऽनेनेति व्यञ्जनं-शब्दः, अर्थ तदभिधेयवस्तुरूपः, व्यञ्जनं चार्थश्च व्यञ्जनाओं, तौ च तौ तदुभयं चेति समासः, व्यञ्जनार्थशदयोन्यस्तनिर्देशः प्राकृतत्वात् , एवम्भूतनयो व्यञ्जनार्थतदुभयं विशेषयति, शब्दमर्थनार्थ शब्देन नैयत्येन स्थापयति, एवमुभयं विशेषयतीत्यर्थः । एतत्तात्पर्यन्तु पूर्वमेव विवृतमिति नेह विस्तार्यते । उपलक्षणीहत्येनि ननूपलक्षणविशेषणयोः किंलक्षणमिति चेत्, उच्यते, क्रियानन्वयि सद् व्यावसकमुपलक्षणम् , क्रियान्वयि सहयावर्तकं विशेषणमिति । ननु जलाहरणकतत्वविशिष्टस्य पटस्यैव धट.. पदाच्यत्वे यदा पटो जलाहरणादिकार्य न करोति तदाऽपि घ८ इत्येवं व्यवढूियते, गमनक्रियाविकलाऽपि गौगोरित्येवं व्यवड़ियते इति व्यवहारवाध एवम्भूतनये दुष्परिहार इत्यत आहव्यवहारवायश्चेति । जलाहरणकर्तृत्वोपलक्षितवटरूपार्थे वटपदवाच्यत्वाभ्युपगन्तुरसममिलढस्यापि मते यदोत्पनो यो घटो जलाहरणादिक्रियामकृत्वैव विनष्टतदाऽपि स घटो घट इति व्यपहियते, उत्पन्नोऽयं घटो विनष्टोऽयं घट इति च व्यपड़ियत इति ताशिव्यवहारस्य एवं गमनादिक्रियामकृत्वैवोत्पत्यनतरं विनायां गवि गौरुत्पना विनया गौरित्येवं व्यवहारस्य चाबालगोपालप्रसिद्धस्य बांध समस्त्येव, यतस्थिर स्वरूप एवार्थे प्रतियोगिव्याधिकरणाक्रियाकारित्याभा. वाभानववलक्षणमर्थक्रियाकारित्वोपलक्षितत्वं सम्भवति, तत्रोत्तरकालावच्छेदनार्थक्रियाकारित्व रूपप्रतियोग्यधिकरणे पूर्वकालायच्छेदेनार्थक्रियाकारितामावस्यैव सत्त्वेन प्रतियोगिव्यधिकरणस्यार्थक्रियाकारित्वाभावस्य तत्रामावात्, न तूत्पत्त्यनारबिनटेऽथै तत्सम्भवति, तत्र प्रतियोगिव्यधिकरणस्यार्थक्रियाकारित्वाभावस्यैव सत्यात्। एवमेवान्यत्राप्यन्यमते व्यवहारबाध इति "यत्रोभयोरसमो दोपः, परिहारोऽपि वा समः । नैकः पर्यनुयोज्य: स्यात् , तादृश्यर्थविचारणे ॥१॥" इति वचनास्यवहारवाददोपो नेयम्भूतनये परेणोद्योष्य इत्याशयेनाह-क्वचिदिति। यशदाना व्युत्पत्तिनिमित्तमेव प्रवृचिनिमित्तमित्येतदुपए मेन सर्व शब्दा व्युत्पन्ना एव, व्यु५५त्यभावे प्रतिनिमित्ताभावात्तत्प्रतिरेव न स्यादिति वैयाकरणमतानुग्रही यथा समभिरूढस्य ततम्भूतस्यापीत्याह... सर्व इति । ममापि-व-भूतनयस्यापि । अस्य-एवम्भूतनयस्य । Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તરવાર્યવિવ‘તાર્યનીપિયો કે વૈષત્રિશત્તમકૂ ટ બ્રેડતિવ્રસા ાંત તોષવાળાય મોમાત્રવૃત્તિમાં પઢાવો માહ્યક્તના પોત્થાવચ્છિન્નામનમાવાયાધાંન્તરસંíમેતાવ્યો હોવસધન્ધમાતાયાત્યન્ત તિવાસ્થ્યો વા પ્રયો વિચયકૃતિ સ્વેયંભૂતોપયુતસંમતિનયમત, ન તુ શુક્ર તસ્કૃતિ વ્યુત્પાદ્રિતમન્યત્ર 1 રૂલ્લું નામાવીનાં પ્રત્યે ફળે તે પ્રશ ચતિ ઋશ્ચિત્—-બન્નાહત્યાવિ, ટ્ટિા સ્ત્યતઃ કાચ્ ચઢીતિ શેષઃ । તત્તેહિઁ ના તિ, નયા ત્યમ્ય ગન્દુસ્વ : પાર્થ તિ ! નનુ જોડથ નીયસિદ્ધે પદ્મ રિવ્યતે, મૈવમ્, શન્દ્રસ્ય હિ દ્વિવિધોડો વાંજ્યો પામ્યઘ, ચા ગુડ ફ્યુત્તે દ્રવ્યં વાવ્યમ્, માધુર્યાનચતુ પામ્યાઃ, પર્વામહાવિ વાવ્યોય શ્રિદ્ધ વિષઃ, રાધા અન્ય ફાંત, તત્રેહ્ વાન્યમર્થ્ય પદ્મોન પ્રતિ, નયવરસ્યા વાન્થઃ તિ । સૂરિાહ-અત્રોતે નૈયા બાવા રાતના, ત્રૂચઃ પ્રાયતેય તિ નૈયા, સામાન્યાયિ : ૨૭ તોષવાળાય-અતિપ્રસન્નક્ષતોષવાય, તૅવ્રુત્તિસ્રાવપ્રિય તત્રેય તત્ત્વમિતિ નિયમાત્ પ્રાંતાિમળિયામિજૈવેયયાદા ગોમાત્રબને નાથ્યાવિતિ ને તત્ર નોવ્યવેશમા ક્ષણાતિત્રસજ્ઞ, ધત્ત્વચૈાધ્ધાત્વર્થે, નોમાત્રવૃત્તિપમનાશ્રયસ્ય સામાનઽધિ”સન્વન્સેન મોવિશિષ્ટયમનાયત્ત્વન મેળ શોધવાયેત્રે હોદ્રમા હરસમિતવામ્, યતોાન્તર્ વામિત્ર ચોવ તેન સમિત દે શછું વામિનાશ્રયનું ચર્માંત દવા, સ્વાશ્રયવૃત્તિ મિનાશ્રયવમુમ્બન્ધન ત્રિશિસ્ય શોષવાચેત્રે મોટ્મસ્યન્તતિરતવાજ્યમ્, મનાશ્રયધર્વે વાવ્યસ્ય પ્રાતવિધયા વિઘ્ધિવિધયા વા વાન્પોડો સર્વથા પ્રવેશદ્વત્યાદ મોāાવચ્છિન્નતિ જ્ઞાનાધિપ્થલમ્બેન પોશિયે, ગોવસÁત્ત્વનું ચોવચ સ્વયિવૃત્તિયમનશ્ચયત્ત્વત્ઝામ‰ન્ધમ્, સર્વસામાન્ય નર્મ્યુષાન્તરે તર્યંતન્મતું ન સમ્ભવતીયત બા–વભૂતોપનોને-હિષ્ઠ જૈમનસ્ય ગ્રહળમ્, તસ્ય-વસ્તૃત ! Ë પ્રત્યે નળમાવિનયાવ્ય સમ્પ્રત્યુત્તરમાë અત્યંતુમવતાયાંત વમિતિ । તંન્નયા તિ માળે તત્ત્વસ્તત્ત્વાર્થ, પૂર્વે ચીતિ પત્ર પૂર્વ વદ્યુતિ તત્કાપેક્ષાવતુમહેતીત્યત બાદ કદ્દિદા કૃત્યતઃ પ્રાપ્ યીતિ હોવ इति । तथा च यदि उद्दिष्टा भवता नैगमादयो नयास्तर्हि नया इति कः पदार्थ इत्येસદ્દાર્થં નિરાકુ ચાવવોધાય પ્રમત્તુતિ મા ! નવા કૃતિ : પવાર્થ તિ માથ્યોતષ त्रिवरण- नया इत्यस्य शब्दस्य का पदार्थ इनि । नया इत्यस्य शब्दस्य कोऽर्थ इत्येताવન્માત્રાના બાંધર્વાતસમ્ભવે પાર્થ યંત્ર ૫ પ્રદળમનથૈભવતિ શદૂતે નનિયતિ । વાંચ્યામ્પમેનુંનાર્થળ વૈવિઘ્ને સાંત યશશ્ર્વય સ્થોડો મૈં વૃદ્ઘાવિષય, વિન્તુ ચાજ્ય ખાયે ચેવું પાર્યકતિષત્તયે પાર્થ ચત્ર પદ્મળ ાંતિ સત્રછાનાં સમાયને નૈમિતિ દ્દાપિ યાન્વેઽષિ, નયાઃ પ્રાપા રૂસ્યાયઃ ત્રા, ાંમત્સ્યવેક્ષામાં તદ્યુત્પન્સુવર્ણનેન વચ્ચે માળ વૃ સ્પી≠તે ત્યાથેનાદાએ જાવંત તિનય। ાંત નવા દાંત કે તથૈમાહ સામાન્યાવીતિ । 1 Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ३४८ : तत्वार्थविवरणगढार्थदीपिका । पंचत्रिशमस० टी० रूपेणार्थ प्रकाशयन्तीत्यर्थः । प्रापका इत्यनेनातिनातण्यर्थतारख्यायते, प्रापयंति तं तमर्थमात्मनि स्वाभिमताभिरुपपत्तिभिरिति हेतोः । प्राप्नुवयित्र तु तांस्तानानिति दृश्यम् । कुर्वन्तीत्यादिना तु नयतेरर्थान्तरमपि शक्य कलयितुमिति दर्शयति । तच्च करणं साधनं निवर्तनं निर्भासनमुपलम्मन ०यञ्जनं च,' करणमात्मनि तत्तद्विज्ञानोत्पादनम् । साधनमन्योन्यव्यावृत्त्यात्मकत्वज्ञप्तिः । निवर्तन तथाध्यवसायनाप्रच्युतिः । निर्मासनं वस्वसविविक्तीकरणात्मिका दीप्तिः । उपले मनं सूक्ष्मार्थावगाहनम् । व्यञ्जन प्रतिनियताभिप्रायस्फुटीकरणम् । प्रापका इत्यादिना यः कत्रशो दर्शितः प्राप्नुवन्तीत्यादिना स एव क्रियाऽनन्यखेन, तेनाल्यानस्थले क्रियायाः प्राधान्यं कर्तुगुणभाव इति वैयाकरण मन्यानां दीक्षितादीनामकान्तो निरस्तः । यत इह नात्यन्तिकः कर्तक्रिययोर्भेदोऽस्ति । स एव पदार्थः कति व्यपदिश्यते स्वतन्त्रत्वात्, . स एव साध्यात्मना वर्तमानः क्रियेत्याख्यायत इति नानयोरत्यन्त भेदः। प्रापयन्ति तमित्यादि, अत्र स्वाभिमताभिरूपपत्तिमिरात्मनि तं तमर्थ प्रापयन्तीति सम्बन्धः। प्रापका इत्यस्येत्यं व्युत्पत्तिष्टीका कारण स्वयमावेदिता, प्राप्नुवन्तीति प्रापका इति भाष्यव्युत्पत्तों निराका-प्रातिपत्तये वाह प्राप्नुवन्तीत्यति । नय इत्यस्यार्थः कारका इत्यनेन यः प्रतिपादितः, तदुपोद्वलिका कारयन्तीति व्युत्पत्तिः, एवं साधका इत्यादीनां नयवाच्यार्थोद्रोधपराणां साधयन्तीत्याद्या व्युत्पत्त यो ज्ञेयाः । किं तन्मयतेरयन्तिरमित्यपेक्षायामाह । तचेनिअर्थात चेत्यर्थः । करणसाधनादीनां कथञ्चिद् भेदाधिगतये क्रमेण स्वरूपात्मकलक्षणान्युपद. शयति-करणमिति । तत्तद्विज्ञानोत्पादनम्-सामान्य विशेषादिविषयकविज्ञानोत्पादनम् । अन्योऽन्यनि-सामान्य विशेषतो व्यावृत्तं विशेषस्सामान्यात यावृत्त इत्येवं ज्ञानम् , तथाध्य. वसायेनामव्युतिरिति-सामान्यविषयकाध्यवसायात्मना विज्ञानस्य कश्चित्काल मस्यानमित्यर्थः, वस्त्वंशति-एतन्निमित्तापेक्षया सामान्यात्मकमेतन्निमित्तापेक्षया विशेषात्मकमेतदपेक्ष्या नित्यमेतदपेक्षयाऽनित्यमित्येवं दिशा विवक्तीकरणात्मिका दीप्तिरित्यर्थः, सूक्ष्मेतिस्थूलवुद्धयमभ्येत्यर्थः । तथा च प्रतिविशिष्टक्षयोपशमापेक्षसूक्ष्भावगाहममिति भावः । प्रति. नियनेति-पग्रहस्यायमभिप्रायः, नैगमस्येदं रहस्यम्, व्यवहारस्यैदम्पर्यमिदम्, ऋजुत्र इदमित्यमभ्युपैनि, साम्प्रतस्येदमा तम् , समभिरूडस्पेत्यमुपगमेऽयम्भावः, एवम्भूतस्यात्रार्थे ईदं. तापयमित्येवं प्रतिनियतानां तत्तद्वाअभिप्रायाणां सष्टीकरणमित्यर्थः । भाष्यं निगमयन्नाहप्रापका इत्यादिनेति, स एव-कत्रंश एव । क्रियानन्यत्वेनेत्य नन्तरं दर्शित इत्यस्यानुकपः। तेन-क्रियाकरिनन्यत्वेन क्रियायाः प्राधान्ये तदनन्यस्य कर्तुरपि प्राधान्यं, कर्तुः प्राधान्यान तदनन्यभूतायाः क्रियाया अपि प्राधान्यं, क्रियायागौणत्वे तदनन्यस्य कर्तुरपि गौणत्वम्, कत्तुगोंपत्ये तदनन्यभूतायाः क्रियाया अपि गौणत्वमिति पर्यवसानेन, अस्य निरस्त इत्यनेनान्वयः,तेने यतिदिटमेव हेतुमुपदर्शयति-यत इति, इह-स्याद्वादे, आत्यन्तिक इत्युपादाना(कथाञ्चिद्भेद: करीक्रिययोस्स्यावादिनामप्यनुमत इति लभ्यते, कत्र्तक्रिययोरत्य-भेदाभावमेवोपपादयति-स एवं पदार्थ इत्यादिना नानयोरत्यन्तं भेद इति-क्रियाक्रियापतोः कथञ्चि दादिति भावः-- Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवार्थविवरणदार्थदीपिका । पंचशित्तमम० टी० अत्र पश्य मृगो धावतीत्यादिभाष्यसिद्वैकवाक्यत्वानुरोधेन क्रियाप्रधानमाख्यातमिति वाक्याश्रयणेन चाल्या. तस्थले क्रियामुख्यविशेष्यक एव शा०६बोधः, तथा च पचतीत्यत्रै काश्रयका पाकानुकूला भावना, पच्यत इत्यत्रकायिका या विक्लितिस्तदनुकूला भावनेति बोधः । शतादीनां व्यापारफलयोराश्रयान्वयद्योतकत्वात् । देवदत्तादिपदप्रयोगत्वाख्यातार्थकादिभिस्तदर्थस्याभेदा-वयः । वटो नश्यतीत्यत्रापि घटाभिन्नाश्रयको नाशानुकूलो व्यापार इति बोधः । स च व्यापारः प्रतियोगित्वविशिष्टनाशसामग्रीसमवधानम् । अत ५५ तस्यां सत्यां नश्यति तदऽत्यये नटस्तदभावे नंक्ष्यतीति प्रयोगोपपत्तिः । देवदत्तो जानातीच्छतीत्यादौ च वैयाकरणमतं प्रतिक्षेप्तुमुपन्यस्यति-अत्रेति-पश्येत्यारभ्य रीत्योधमित्यन्तं तन्मतम् । पश्य भृगो धावतीत्यादिभाष्यसि द्वैकवाक्यत्वानुरोधेनेति-पश्य मृगो धावतीत्यत्र धावनानुकूल कृत्याश्रयमृगकर्मकदर्शनाभ्युपगमे मृगस्य दृशिवात्वर्थनिरूपितकर्मत्वाद् द्वितीयापत्तिः, तमित्यध्याहारे मृगो पावतीत्येक वाक्य, तं पश्येत्यपरमित्येवं वाक्यभेदापतिरित्यतो मृकtकवर्तमानधावनक्रियायाः कर्मत्वसम्बन्धेन दृशिक्रियायाम-चयः, तथा च न द्वितीयापत्तिशङ्का पि, मृगस प्रातिपदिकत्वेऽपि कर्मत्वाभावात् , क्रियायाः कर्मत्वेऽपि तद्वाचकस्य धाविधातो: धावतीति तितस्य च प्रातिपदिकन्याभावाच तस्याः प्रसकेरेवाभावात् । आदिपदग्राह्ये पचति भवतीत्यादाकवि देवदत्तकर्तृकपचिक्रियाया वर्तमानभवनक्रियायामन्वयः, "सुवन्त हि यथाऽनेक, तिअन्तस्य विशेषणम् । तया तिङन्तमप्याहु,-स्तिङन्तस्य विशेषणम् ॥१॥" इत्युक्तेः तिङन्तक्रियायां सुबन्तविशेषणमिव तिअन्तविशेषणमपि युक्तियुक्तमेवेति । भाष्यसिद्धति-क्रियाऽपि कृत्रिमं कर्म, क्रियापि हि क्रिययेप्सिता भवति, कया-संदर्शनप्रार्थनादिक्रियया" इति "कर्मणा यम" पा० सू० ११४।३२॥ इति सूत्रस्थभाष्यमिद्धेत्यर्थः । विकृतिरिति विक्लितिलक्षणविकृतिरित्यर्थः । शप्तकादीनां व्यापारफलयोराश्रयान्वयद्योतकत्वादिति-कर्तृप्रत्ययस्थले शश्नभानमादीनां धात्वर्थे व्यापार आश्रयान्न यस्य कर्मप्रत्यस्थले तङ्न्यकचिणादीनां धात्वर्थे फले आश्रयान्वयस्य द्योतकत्वात्तात्पर्यग्राहकवादित्यर्थः । देवदत्तादिप्रयोगे त्वाख्यातार्थकत्रादिभिस्तदर्थस्याभेदान्वय इति-तथा च देवदत्तः पचतीत्यादौ देवदत्ताभिन्नैकातको विक्लितिफलानुकूलो वर्तमानो व्यापार इति शाब्दबोधः । तत्र व्यापारी भावनाकारनामिका साध्यत्वनाऽभिधीयमाना क्रिया । एतेन समानविभक्ति कयोरेवाभेदान्य इति नैयायिकोक्तो नियमोऽपि निरस्तः, स्तोकं पचतीत्यादौ व्यभिचाराच, अकर्मकस्थलेऽपि फलव्यापारोभयार्थकत्वं धातोरन्यैरपि स्वीकार्यमिति सूच-छाब्दयोधप्रकारमाह-घटो नश्यतीत्यत्रापीति । तयापाराशायामाह-स चेति । प्रतियोगित्वविशिष्टेति-अत्र वैशिष्टयं निरूपकता. सम्बन्धेन-बोध्यम् । सामग्रीसमवधानभिति-तदनुकूलो व्यापार इत्यर्थः। अन्य प्रतियोगिकनाशसामग्रीसमधानेऽपि घटो नश्यतीत्यप्रयोगात् स्वप्रतियोगित्वविशिष्टार्थक मुक्तविशे; पणमुपात्तम् , अत एवेति-नग्धातोः प्रतियोगित्वविशिटनाशकलकतत्सामग्यर्थकत्वादेव, तदत्यये प्रतियोगित्वविशिष्टनाशसामग्रीविनाशे । तदभावे उत्सामग्रीमानमात्रे । Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :३५० તરવાર્થવિધાળકીર્થીપિશ્ચાત્તાપૂ૦ ટી. देवदत्ताभिन्नाश्रयको ज्ञानेच्छाधनुकूलो वर्तमानो व्यापार इति बोधः । स चान्तत आश्रयतैवेत्यादिरीत्योचामिति ये वदन्ति, त एव प्रष्टव्याः? ननु पचतीत्यत्रै काश्रयिका पाकानुकूला भावनेति बोध इति यदुक्तम् , तत्कथं, युक्तम् , पच्यर्थानां बुद्धिविशेषविषयतावच्छेदकल्यावच्छादिताधःसन्तापनत्यादिना भानस्वीकारेण तदनुकूलव्यापारस्थातिरिक्तस्याभानात् । धातुसामान्यार्थे व्यापारे धातुविशेषार्थस्य व्युत्पत्तिवैचित्र्येण भानस्वीकारे चामेदेना-क्यास्यात्, न स्वनुकूलतया, चरमं व्यापार फलस्थानीयं कृत्वा तदितरेषा तदनुकूलानां भावनात्वने भानस्वीकारे च “गुणीभूतैरवयवैः समूहः क्रमजन्मनाम् । बुद्ध्या प्रकल्पिताभेदः क्रियेति व्यपदिश्यते ॥१॥” इत्यादिना समूहस्य तुल्यवद्भानोक्तिविरोधः । वटो नश्यतीत्यत्रापि घटाभिन्नाश्रयको नाशानुकूलो व्यापार इति बोधस्वीकार कपाले घटो नश्यतीति प्रयोगानुपपत्तिः, प्रतियोगित्वविशिष्टनाशसामग्रीसमवधानात्मन उक्तव्यापारस्य कपालावृत्तित्वात् , घट घटो नश्यतीति प्रयोगापत्तिश्च, उक्तव्यापारस्थ घवृत्तित्वात् , घटपटौ नश्यत इति प्रयोगस्थानुपपत्तिश्चोभयाभिन्नाश्रयकस्य प्रतियोगित्वविशिष्टनाशसामतद्भावित्वे इत्यपि पाठः। स चेति-ज्ञानानुकूलव्यापार इच्छाधनुकूलल्यापारश्चेत्यर्थः । अन्तत इति. अन्यच्यापारानुपस्थितावित्यर्थः । आश्रयतैवेति- तस्या अनवयंवसेऽपि सावयवत्यारोपाद्वयापारत्वं निर्वाह्यमित्यतो जानातीत्यादौ न सकर्मकत्वक्षतिरिति भावः । ये इति वैयाकरणा इत्यर्थः । तन्मतस्यायुक्तत्वावगतये आह त एव प्रष्टव्या इतिते वैयाकरणा. एव प्रष्टव्या इत्यर्थः, किं पृच्छाकर्मेत्यपेक्षायामाह नन्विति । पचिधातुप्रवृत्तिनिमित्तानामधस्सन्तापनत्वादीनामननुगतत्वेऽपि बुद्धिविशेषविषयतावच्छेदफरवस्य तदुपलक्षकस्यानुगतत्वेन तद्रूपेणोपलक्षिताथरसन्तापनत्वादिविशिष्टस्यैव धात्वर्थतया भानम्, न तूक्तधात्वर्थानुकूलभावनायाः, तस्या अबसन्तापनफूत्कारचुल्ल्युपरिधारणादिक्रियासमूहान्तःपातिव्यतिरिक्ताया अभावादित्याह पच्यर्थानामिति । धातुत्वेन सामान्यरूपेण पच्यादिधात्वर्थों व्यापार शाब्दबोधविशेष्यः, पचिधातुत्वेन विशेषरूपेण परिधात्वर्थः पाका प्रकार इत्येवं सामान्यविशेषार्थयोविशेषणविशेष्यभावेन भानसम्भवेऽप्यभेदेनैवावयास्यात्, न त्वनुकूलत्वादिसंसर्गेणेत्याह धातुसामान्यार्थ इति । पूर्वपूर्वव्यापाराणामुत्तरोत्तरव्यापार प्रति कारणत्वेनोपात्यान्तानां व्यापाराणां केवलफलरूपत्वाभावादुक्तम्-व्यापारस्य चरमेति विशेषणम् । गुणीभूतैरवयवैरित्यादि-क्रमितद्व्यापारसमूहम्प्रति गुणीभूतस्ततद्रूपेण भासमानरचयवैरुपलक्षितः सङ्कलनात्मकैकत्वबुध्या प्रकलितोऽभेदो यस्य तद्रूप: समूहः क्रियेति व्यवहियते इति कारिकार्थः। तत्र क्षणनश्वराणां व्यापाराणां वस्तुभूतसमुदायाभावाद् बुध्ध्यत्यु तम् , पूर्वापराभूतक्षणविनश्वरक्रमिकव्यापाराणां मेलनासम्मवेऽपि आख्यातप्रतिपाद्यक्रियकत्व यवहारः सङ्कलनात्मकयुद्धिविशेषात्मकावच्छेदकै+यसकारण निर्वहति । तथा चावयवाश्रयणे पौवीपर्येऽपि समुदायाश्रयमेकत्वमादायाख्यातप्रतिपाद्यक्रियैकत्वव्यवहारसिद्धिरिति भावः । समूहस्य तुल्यबदुभानोक्तिविरोध इति-समूहस्य क्रियापत्वेन समहिनामशेषाणां' तपयवानां समूहकर पतया यानं तदुक्तसमूहान्तर्गतचरमव्यापारस्य फलतया तदन्तर्गताs Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाविवरणपूढार्थदीपिका । पंचतिशतमस्० टी० : ३६१. ग्रीसमवधानस्यैकस्याभावात्, उभयव्यापारग्रहे च क्रियाभेदाद्वाक्यभेदापत्तिः, प्रतियोगित्वविशिष्टत्यत्रविशेषणविशेष्यभावे विनिगमनाविरहादपि विशेष्यभेदध्रौव्यम् , मिन्नतथा भासमानयोः क्रिययोरपि कल्प-- नयाऽभेदस्वीकारे च क्रियामात्र भेदोच्छेदापत्तिः, धात्वर्थत्वादिना सर्वाविशेषात् । एतेन जानातीच्छतीत्यादौ. शानेच्छाचनुकूलकव्यापारमानमप्यपाम्, तादृशव्यापार मानाभावात् , एककर्तृकाणामनेकककाणां च क्रियाणां यौ?क्यमात्रादरे च जीवति प्रियतेऽयमित्यादिरपि प्रसङ्गात् , जानातीच्छतीत्यादावन्तत आश्रयतैव ज्ञानेच्छाद्यनुकूलो व्यापारो जीवति म्रियतेऽयमित्याद्यप्रयोगस्त्वनाकाङ्क्षत्वादित्युक्तिः शिष्यधन्धनमात्रम् । एवं सत्याख्यातार्थस्य धात्वर्थमध्ये प्रवेशनेन त्वसत(त् )यापारासिद्धेः । तस्मात्पचतीत्यादौ पाकानुकूलयत्नवान्, नश्यतीत्यादौ नाशप्रतियोगी, जानातीच्छतीत्यादौ ज्ञानाश्रय इच्छाश्रय इत्याचाकारकः प्रथमान्तपदार्थविशेष्यक एव बोधः श्रद्धेयः । नश्यति नश्यति नष्ट इत्यादौ नश्वातारों नाश उत्पत्तिश्चेत्युस्पत्ती कालत्रयान्वयस्य चरमव्यापाराणां भावनात्वेन तदनुकूलतया भानाभ्युपगमे विरोध इत्यर्थः । सर्वाविशेषादिनि-धात्वर्थक्रियामात्राणामभेदादित्यर्थः । एतेनेत्यस्यापारमित्यनेनान्वयः, अपासने हेतुमाह तादृशव्यापारे मानाभावादिति-वर्तमानज्ञानकाल एव जानातीति प्रयोगः, एवं वर्तमानेच्छाकाल एवेच्छतीति प्रयोगो भवति, न तु ज्ञानेन्छायनुकूलव्यापारकाले, ज्ञानेन्छयोः काले तदनुकूलव्यापाराऽभावादिति भावः । पच्यादिधात्वर्थानां पूपिरीमावापन्नानां चैत्रात्मककककाणां चैत्रमैत्रोभयकत्रीकाणां च समूहकरूपत्वेन बौद्धक्यकल्पनाऽपि न युक्ता, तथा सति जीवनमरणक्रिययोरपि बौद्धैक्यं स्थात्, यतो जीवनादिमरणान्तक्रियाणा मप्यविच्छिन्नक्रियासमूहरूपत्वेन बौद्वैक्यं कल्पयितुं शक्यत एव । तथा च जीवनावस्यायामपि जीवति देवदत्त बुझ्या जीवनक्रियाऽभिन्नमरणक्रियायाराहावेन जीवति पुरुषे जीवतीतिपन्नियनेऽयमिति प्रयोगः प्रसज्येतेत्याशयेनाह एकक काणामनेकाकाणां चेति। जानातीच्छतीत्यादावित्यत्रादिपदाद् यतते हत्यिादरुपग्रहः । त्वसत(त् ) व्यापारासिद्धरित्यबातयापाराऽसिद्धेरिति पाठो भवितुमर्हति, तत्रायमर्थः-एवं सति आश्रयत्वस्य व्यापाररूपतयाऽभ्युपगमे सति, आख्यातार्थस्य धात्वर्थमध्ये प्रवेशनेन आश्रयत्वमान्यातार्थः । तस्य धात्वर्थमध्ये यद् भवता प्रवेशनं कृतं तेन, अतदः तदन्यस्य धात्वर्थव्यापारव्यतिरिक्तस्येति यावत्, व्यापारासिद्धेः आख्यातार्थस्य व्यापारस्यासिद्धेः, आश्रयत्वमाख्यातलभ्यमेव, तस्य धात्वर्थमध्ये प्रवेशनमज्ञानविजृम्भितम् , आख्यातस्य तत्र निरर्थकत्वापादनमात्रफलकमेव, न तु तेन धात्वर्थव्यापारः सिध्यतीति भावः । पचतीत्यत्र पचिधात्वर्थस्य पाकस्याख्यातशयार्थे कुतावनुकूलत्वसंसर्गणान्वयं नश्यतत्यित्र नश्यात्वर्थस्य नाशस्य निरूपितत्वसंसर्गेणाऽऽख्यातलक्ष्यार्थे प्रतियोगित्वेऽवयं जानातच्छितात्यत्र ज्ञाधामर्थस्य ज्ञानस्येप्चात्यर्थस्येच्छायावारूपातलक्ष्यार्थे आश्रयत्वे तस्य च देवदत्तादावन्वयं च कृत्वाऽर्थमाह-तस्मात्पचतीत्यादाविति । उत्पत्ती कालत्रयान्वय सम्भवादिति-तथा च नश्यतीत्यस्य वर्तमानकालानोत्पति. Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ३५२ : तरवार्थविवरणपूढार्थदीपिका । पंचत्रिंशत्तमसू० टी० सम्भवात् , आख्यातजन्यसंख्याभावनाप्रकारकबोधे च प्रथमान्तपदजन्यपदार्थोपस्थितेरेवेतरविशेषणवतात्य याविषयत्वावच्छिन्नविशेष्यतयाहेतुत्वान्न गौरसम् , संबन्धगौरवस्यादोषत्वात् , केवलं भावनाप्रकारको प्रति धात्वर्थभावनोपस्थितेः पृथग्वेतुत्वे तवैव गौरवम् । पश्य मृगो धावतीत्यत्र तु तमिति कर्माध्याहार्यमेव, विशिष्टनाशप्रतियोगीत्येवं बोधः, नश्यतीत्यस्य भविष्यत्कालीनोत्पत्तिविशिष्टनाशप्रतियोगीति जोधः, न४ इत्यस्यातीतकालीनोत्पत्तिविशिष्टनाशप्रतियोगीति वोधः । आख्यातजन्यसंख्याभावनाप्रकारकबोधे चेति-विशेष्यतासम्बन्धेनेति शेषः । यथा चैत्र पचतीत्यत्र पाकानुकूल कृतिमान् एकत्नयाँश्च चैत्र इत्याकारके पाकानुकूलकृतिनिष्ठप्रकारताकत्वे सत्येकत्वनिप्रकार: ताकचैत्रनिष्ठविशेष्यताको धात्वर्थविशेष्यतया भासमाना कृतिः एकत्यसंख्या पाख्यातार्थः प्रथमान्तपदार्थे चैत्रै प्रकारतया भासते, विशेष्यतासम्बन्धेनोक्तयोथे च विशेष्यतासम्बन्धेन प्रथ- . मान्तपदजन्योपस्थितिः कारणमिति प्रथमा तार्थ ख्यविशेष्यक एव शाब्दबोधः, तत्र चेत्यर्थः । चैत्र ३२ मैत्रो गछतीत्यादौ चैत्रे संख्याअन्वयवारणाय सम्बन्धमध्ये इतरविशेषणवतात्पर्याऽविषयत्वावच्छिन्नान्त विशेष्यताया विशेषणमुपात्तम् । अथ चैत्र एव गच्छत्तीत्यत्रात्ययोगव्य बच्छेदरूपैवकारार्थेकदेशेऽन्यत्वे प्रतियोगितासंसर्गेण चैत्रस्यान्वयादितरविशेषणत्यतात्पर्यविषयस्यादितर विशेषणत्यतात्पर्याविषयत्वावच्छिनविशेष्यतासम्बन्धेनोपस्थितेश्चैत्रेऽभावात्कथमेकत्वाबयस्तत्र, पश्य मृगो धावतीत्यत्रापि च धावनमृगस्य कर्मतासम्बन्धेन दर्शनेऽन्वयादितरविशेषणत्वतात्पर्यविषयत्वात्कथं तत्र संख्या-यय इति न च शक्यम् , इतर विशेषणत्वमात्रतात्पर्याविषयत्वावच्छिन्नत्वस्य विशेष्यताविशेषणतया विवक्षितत्वात, चैत्र एव गच्छत्तीत्यत्र चैत्रस्य पश्य मृगो धावतीत्यत्र मृगस्य च विशेष्यतयाऽपि तात्पर्यविषयत्वेन संख्यान्वयसम्भवादिति । केवलं भावनाप्रकारकबोधम्प्रतीति-प्रकारतासम्बन्धेनेति शेषः । धात्वर्थभावनोपस्थिते. रिति-भावनानिष्ठविशेष्यतासम्बन्धेन थातुजन्योपस्थितेरित्यर्थः । भावनापदमत्र तनिष्ठविशेष्यतालाभार्थमेव । प्रथमान्तार्थे आख्याता संख्या-वयानुरोधेन विशेष्यतासम्बन्धनाख्यातार्थकत्वप्रकारकशाब्दयोधम्प्रति विशेष्यतासम्बन्धेन प्रथमान्तपदजन्योपस्थितिः कारणमिति कार्यकारणभावोऽपि पूर्वकार्यकारणभाववदावश्यको भवतामित्यभिप्रायेणाह-तवैव गौरवमितिन्यायमते तु विशेष्यतासम्बन्धेनाख्यातार्थभावनाप्रकारकत्वे सत्याख्यातासङ्ख्याप्रकारक' शान्दबोधप्रति विशेष्यतासम्बन्धेन प्रथमा पद जन्योपस्थितिः कारणमित्येक एवं कार्यकारण भाव इति लावतम् । कर्माध्याहार्थमेवेति तथा च व्याकरणमतेऽपि तत्र वाक्यभेद स्वीकार्य एवेति भावः। ५३य मृगो धावतीत्यत्र मृगकर्तकधावनक्रियाकमकसम्बोध्यपुरुषककदर्शनक्रियाविषयकशाब्दयोधस्याऽभ्युपगमेन बाक्यभेदाऽसम्मवेऽपि यत्रैककटकानेकक्रियाया बोधतत्र नियारूपमुख्यविशेष्यभेदेन वाक्यभेद ९५यादेव, तत्रापि यककटकाणामने क्रियाणां यथा कथचित् परस्पर साकारत्वमाश्रित्यकवाक्यार्थयोधगम्य वाक्यभेदः परिहियते तदापि यतकर्द- .. Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वार्थविवरणमूढार्थदीपिका । पञ्चत्रिंशत्तमसू० टी० । ३५३, अन्यथाऽत्र वाक्यभेदापत्तिमिया साकाङ्क्षककर्तृकक्रिययोर्थथाकथञ्चिदन्योपपादनेऽपि "स्विधति कुणति (कूगति) वल्लति निमिपति तिर्थग विलोकयति सद्यः । अन्तर्नन्दनि चुम्बितुमिच्छति नवपरिणया वधूः आयने ॥ १॥” इत्यादायककतकनिराकाक्षानेकक्रियाणा प्रत्येक प्राधान्येन तदनुपपत्तौ बहुवाक्यभेदापत्तावजांनिकाशयत क्रमेलकासमन्यायापातात् । न चात्र नवपरिणतववभिन्नकर्तृक वेदनाचनुकूल एकव्यापारोऽत्य-- नुभूयते वा। एकत्रानेकक्रियासम्बन्धघटितदीपकोदाहरणतयवास्याभिहितत्वात् । न चात्रोत्थाप्याकाङ्क्षाया तत एककर्तृकत्यसम्बन्धेन सर्वासा क्रियाणामेकत्र क्रियायामन्वयः स्वाभाविकक्रियान्तराकांक्षाविषयतानव. च्छेदकल्पवत्वाचन क्रियात्वभङ्ग इत्युतावनेऽपि वाक्यभेददोप उद्धर्तुं शक्य., विनिगमनाविरहेण प्रत्येक क्रियाणां प्राधान्येन तस्य तदवस्थत्वात् , सर्वक्रियाणामाख्यातार्थद्वारकत्र द्वयमिति न्यायनैकस्मिन् कर्तर्य . काणामनेकक्रियाणां न यथाकथञ्चित्साकवित्वं तत्र वास्यभेद रस्यादेवेलाशयेनाह-अन्यथाऽ:, वेति । वाक्यभेदापत्तिभिधेनि-मृगो थावतीत्येक वाक्यम् , तं पश्येति द्वितीयं वाक्यमित्येवं वास्यभेदापत्तिभियेत्यर्थः। तदनुपपत्तो-अन्वयाऽनुपपत्तौ । न चेत्यस्यानुभूयते येत्यनना- यः। दीपकोदाहरणतया- दीपकालकारोदाहरणतया । " अप्रस्तुत प्रस्तुतयो दीमकं तु निगद्यते । अथ कारकमेकं स्याद-नेकासु क्रियासु चेत् ॥१॥" अनेन दपिकालङ्कारो द्विविधो दार्शितः, तत्र प्रस्तुताप्रस्तुतयोरेकधर्मसम्बन्धोपवर्णनं प्रथमो दीपकालङ्कारः, स अप्र तुन इत्यनेन दर्शितः, एकस्य कारकस्यानकक्रियाभिः सम्बन्धोपवर्णनं द्वितीयो दीपकालङ्कारः, तस्योपदर्शनमथ कारकमित्यादिना, प्रथमस्थोदाहरणं यया "बलावलेपादधुनाऽपि पूर्ववत, प्रवाध्यते तेन जगजिगीषुणा । सतीय योपित्प्रकृतिश्च निश्चला, पुंमांसमभ्येति भवान्तरेष्वपि ॥१॥" इति । अत्र प्रतायाः कंसप्रकृतेः अप्रस्तुतायाश्च सत्या भवान्तरकालीनतत्पुरु५कर्मकाभिप्रातिरूपैकधर्मसम्पन्धात् प्रथमं दीपकमिति । द्वितीयस्योदाहरणम् स्विधति कूणतीत्यादिकमत्रोपदर्शितभेव, नवपरिणीतबधूरूपे एकस्मिन् कर्तृकार के स्वेदनकूणनादीनां पहूनां क्रियाणां सम्वन्यात् । तथा-" दूरं समागतमति त्वयि जीवनाथे, मिना मनोभवशरेण तपस्विनी सा । उत्तिष्ठति स्वपिति वासगृहं त्वदीय-मायाति याति हसति श्वसिति क्षणेन ॥१॥" इति । एकस्य कारकस्यानेकक्रियाभिसम्बन्ध एवायं दीपकालङ्कारः स न स्याव, उक्तदिशेकव्यापारपरत्वेन व्याख्याने इति । यतस्तत्रानेकक्रियानुकूलकव्यापारस्य नवपरिणीतवधूरूपकारकन्वयादिति । न त्यस्योद्धत्तुं शक्य इत्यनेनान्वयः । न हि क्रिया क्रियान्तरमाकानातीति न्यायेन क्रियायाः क्रियान्तरेऽधयाऽसम्भवमाश याह-स्वाभाविकेति । तथा चोक्तन्यायघटकाकासतीत्यत्राकारक्षोत्थिता ग्राखा, प्रकृते चोत्थाप्याकाशयान्वयानोक्तन्यायविरहः, उक्तन्याय उस्थितक्रियाया एव ग्रहणादिति । अत्र स्वाभाविकैति आकाक्षाया विशेषणम् , सा पोस्थितरूपा ग्राथा, तद्विपयतानवच्छेद करूपं स्वेदनत्वादि तत्याचेत्यर्थः, तत्र हेतुमाह विनिगमनाविरहेणेति । तस्य-वाक्यभेदस्य । आख्यातार्थद्वारेति-आख्यातसार्थः Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :३५४ : तत्वार्थविवरणदादाविका । पंचविशमसू० टी. न्वय एव स्वयमुद्धत शक्यः । यत्यत्रापि निधातानुरोधादेकक्रियाया एव प्राधान्यम् , अन्यासा साधनत्यावे.. कवाक्यत्वं तिड तिङ इति सूत्रयता तितानामप्येकवाक्यत्वस्वीकारात् 'एकति वाक्यम्' इत्यस्य वार्तिकवचनस्य चैकति ख्यविशेष्यकं वाक्यमित्यभिप्रायादिति । तत्र निवातोऽपि कुत्रेति विनिगन्तुमशक्यत्वाच. रमपठितवस्यापि ५२५ मृगो धावतीत्यत्रैव व्यभिचारात् । किं च साध्यसाधनवर्तितया क्रिययोः प९८५रमन्यस्वीकारे पाकेन भूयत इत्यर्थे पचति भूयत इत्यस्य पठन् गच्छतीत्यर्थे च पठति गच्छतीत्यस्य प्रसंगात्, कृतिः, तद्द्वारेत्यर्थः । अयम्- वाक्यभेदः । उदतु शक्य इति- तथा च मुख्यविशेष्यतया भासमाने एकतर्येव प्रकार तयाऽनकक्रियाणां कृतिहारा भानादकवाक्यत्वापपत्तित्यायमते, व्यकिरणमते तु सर्वासा तासां क्रियाणां मुख्यविशेष्यतया प्राधान्याद्वान स्यभेदो दुष्परिहर एवेति भावः । निधालानुरोवादिति “समानवाक्ये निवातः" इत्या. दिवार्तिकनैकवाक्ये निघात इट इति तदनुरोधादित्यर्थः, निधातविधायकत्रच “ति ति " पा. सू० ०। १ । ८८ । इति । अतिङन्तापरं ति। निहन्यते इति तदर्थः । अस्मिन् सूत्रे " अति पदं पचति भवतीत्यादौ तिङन्तात्परस्य निधातवारणार्थम् । तिडमानामप्येकवाश्यत्वस्वीकारादिति-तिङन्तसमुदायस्यैकवाक्यत्वाभावे निधातस्याप्राप्त्या “ अतिङ् " पदं व्यर्थमेव स्यात् । तथा च तदेव ज्ञापकं तिङन्तसमुदायस्यक वाक्यतायामिति भावः । " एकतिङ् वाक्यम्" इनि-अत्रैकत्ये सति तित्य वाक्यत्वमित्युक्त पचतीत्यस्यापि वाक्यमापत्तिः, एक तिङ् यस्मिन्निति बहुप्रीवाश्रयणे एकतिब्याटितपदसमुदाय वाक्यत्वमिति पर्यवसानं, तच्च पचति भवतीत्यादाकवाक्यतयाऽभ्युपगतेऽव्याप्तमित्याशथेन तदभिप्रायमाह एकतिङ्मुख्यविशेष्यकमिति एकतिङन्तार्थमुख्यविशेष्यकोधजनकपदसमूहो वाक्यमित्यर्थः । तेन पचति भवति, ५२५ मृगो धावति, शृणु गति मेवः, नटो मायति शृणु इत्यादावित्र स्थिति कूणतीत्यादावपि नैकवाक्यत्ययावातः । एतेन शा पदं तत्समूहो वाक्यमिति घट इत्यत्र घटपदं पटवावच्छिन्ने सुम्पद चैकरने शक्तमिति पदयात्मकत्वादेकत्यप्रकारकवटत्वावच्छिन्नविशेष्यकशाब्दबोधजनक ५८ इति । वाक्यमित्यपि नैयायिकमतं निरस्तम् , " न हि क्रियाविनिर्मुक्तं वाक्यमस्ति" इति भायात् " अस्तिर्भवन्तीपरः प्रथमपुरुषः" इत्यादिकात्यायनरगरणाच सर्वत्रोचितक्रियाध्याहारे सत्येबैंकवाक्यत्वस्वीकारात् । तथा च प्रकृतेऽस्तिक्रियाध्याहारेणेवैकवाक्यं मन्तव्यम् । ननु हरदशापातारा इत्यत्र का क्रियाऽध्याहार्येति चेत् भवन्तीत्यवेहि । परन्तु यत्राऽयोग्यता न तत्र लइथेवर्तमानस्वादयः, अविवक्षितत्वात् । वर्तमानसामीप्ये वा लम् । सामीप्यञ्च भूतभविष्यद्रूपम् , अत एव जयन्ति कृष्णस्य दशावतारा इत्युक्त सङ्गच्छते, इत्यलं प्रसङ्गानुप्रसङ्गेन । उक्तवैयापारणमतनिरसने हेतुमाह तत्र निधातोऽपीत्यादिना । निघातोऽपि कुत्रेति निधातकत प्राधान्यमपि कुत्रेत्यर्थः । व्यभिचारादिति-धावतीत्यस चरमपठितत्वेऽपि तदर्थस्प मुख्यविशेष्यत्वाऽभावेन व्यभिचारादित्यर्थः, प्रसङ्गादिति-पचति भूयते इत्येत्रापि Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्थ विवरणदार्थदीपिका । पञ्चविंशत्तम०टी० : ३५५६ पठति गच्छति चेत्यत्र चकारार्थानुपपतिश्च, क्रियाद्वयस्थकत्र कर्त-वय ५५ तदर्थस्य ५८मानत्वात् । कर्तृपदोत्तरचकारस्य कर्तृय एकक्रियाया इव क्रियापदोतरचकारस्य क्रियाद्वये एककर्तुरन्वयद्योतकत्वादेव नानुपपत्तिरिति चेत्, तर्हि प्रयानक्रिया दाद वाक्य भेदापतिः । अथैकत्वादेक वाक्यं साकाङ्क्ष द्विभागे स्यादिति मीमांसकोक्तन्यायादुद्देश्यबोधरूपाथै येन नैकवाक्यत्वव्यापात इति चेत् , न, तथाप्येकति वाक्यमिति त्वदुत्वायत्वव्याधातानुद्वारादिति यत्किञ्चिदेतत् । तस्मन्नियाः प्रापका इत्यादिना कर्तृप्रत्ययक्रियारूपभेदोपदर्शनं कर्तुः क्रियान्यत्वानन्यस्यस्याद्वादस्फोरणाय, न तु कतृप्राधान्यबाधेन क्रियाप्राधान्येका तस्फोरणाय । फलीभूतशा०वोधे वैचित्र्यं तु नयव्युत्पत्तिवैचित्र्याधीनं भवत्येव । तत्र च भूधात्वर्थे भवने पचिधात्वर्थस्य पाकिस्य कारणविधयाऽवयसभवात् , एवं पठति गच्छतीयत्रापि एकायिका स्वकर्तृकत्यसंसर्गण पठनक्रियाविशिष्टवर्तमानकालीना गमनक्रियेत्येवमन्वयबोधसम्मत्रादिति भावः । अनुपपत्तो हेतुमाह क्रियाद्वयस्थति देवदत्तो यज्ञदत्तश्च गच्छत इत्यादी यथा भवतां मते कद्वये एकस्या गमनक्रियाया अन्ययस्येवाऽस्मन्मतेऽपि १४ति गच्छति चेत्यादौ मुख्यक्रियाद्वये एककर्तुरन्वयस्य घोतकर्यकार इत्यतो गमनक्रियानुकूलकृतिमन्ती देवदत्तयज्ञदत्ताविति शाबोधदकाश्रयं वर्तमानगमनपठनक्रियाहयामिति शादयोधस्यापि सम्भवेन न चकारानुपपत्तिरित्याशयेन शङ्कते कर्तृपदोत्तरमित्यादि। समाधत्ते-तींति, मीमांसको न्यायादिति पू० मी० अ० २, पा० ११ अ० १४, मू०४६ इति जैमिनिसूत्रादित्यर्थः । तत्र साकाडसत्वं तन्निवर्तनीयाकामोत्थापकत्वतदुत्यिताकासानिवर्षकत्वान्यतावलक्षणं ज्ञेयम् । तथा चास्य मूत्रस्य विच्छिद्यपाठे साकारहत्व सत्येकार्थप्रतिपत्तिजनकत्वमेकवाक्यत्वमित्ययों लभ्यते । उद्देश्यबोधरूपाक्येनेति-पठति गछति च. त्यादौ एककर्तृकपठनगमनक्रियायविषयकोदेश्ययोधपप्रयोजनक्येनेत्ययः । नैकवाक्यत्वव्याघात इनि साकक्षित्वे सत्येकार्थप्रतिपत्तिजनकत्वलक्षणेकनाक्यलय भङ्गप्रसङ्गो नेत्यर्थः । एवमभ्युपगमे ५२य मृगो यावतीत्यत्रापि तमित्युक्त कमित्याकाशसिचायथाकथञ्चिद्वाक्यद्वयस्य धावनानुकूलकृतिम गकर्मकदर्शनाश्रयसयोध्यपुरुपरूपैकार्थप्रतिपत्तिजनकत्वान्न वाक्यभेदप्रसङ्ग इति प्रथमान्तार्थविशेष्यकोधाभ्युपगमेऽपि न कापि क्षतिरिति दूपणसद्भावेऽपि दूपणा र माह-तथाप्येकनियास्यमिनि। पठति गच्छति चेत्यत्र पठनगमनक्रियाइयस्यापि मुख्यविशेष्यत्वेनै कतिङ्मुख्यविशवयोवजन कादसमूहत्वलक्षणे वाक्यत्वस्यावटमानत्वेन तव्यापातानुद्धारादिति भावः ।। उपसंहारमाह-तस्मादिति । ननु नैगमनयप्रकृतिकनैयायिकमतस्यैवाश्रयणेन प्रथमान्तार्यमुख्यविशेष्यक एव शा०वोध इत्यभ्युपगमे एकान्तत्यप्रसक्त्या स्थाद्वादपक्षअतिरित्यत आह-लीसूतशाब्दबोध इत्यादि । तथा च स्थावादस्य ततनयसमूहरूपत्वेन यस्य नयस्य यदा प्राधान्यं विवक्षितं तदा तन्नयाश्रितव्युत्पत्याश्रयणेन शादनोथोपि तन्नयाभ्युपगतप्रकारक एवेति नेगभनयप्रकृतिकनैयायिकमताश्रयणे प्रथमान्तार्थमुख्यविशेष्यक एव शान्दवोधः। २०६नयप्रकृतिक क... -- नग Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३५६ : वायविवरणपूढार्थदीपिका । पंचशिसमसू० टी० -तत्तदर्शनाश्रयणमपीत्यनाविलः स्याद्वादमार्गः “ ज्ञात्वा सदूपणं वायवैयाकरणभूषणम् । कण्ठे निर्दूपर्ण . कुर्मः स्याद्वादं हैमभूषणम् ॥१॥" अत्र नयशब्दाथै निरूपिते प्रेरक आह-किमेते वस्त्वंशपरिच्छे. दयापृता नैगमादयो नयाः तन्त्रान्तरीयाः, तन्यन्ते विस्तार्यन्ते जीवादयः पदार्था अस्मिन्निति तन्त्रं जैनं प्रवचनं, तम्मादन्यत् काणभुजादिशास्त्रं तन्त्रान्तरं तस्मिन् भवाः कुशला वा, वादिनी वैशेषिकादयः, आहोश्चिदिनि पक्षान्तरे, स्वताना एव स्वं आत्मीयं तन्त्रं शास्त्र येषां ते तथा, जिनवचनमेव स्वबुद्धया विभजन्त इत्यर्थ. | चोदकस्य दोपसूचकस्य परस्य पक्षमाहिणो मतिभेदेन विप्रधाविता अयथार्थनिरूपका इति । तन्त्रान्तरीयत्वे एकत्र स्वसमयाभ्युपगतभागभावावलम्बित्वेनापादयिष्यमाणविप्रतिपत्तित्वानुपपसि., स्वतन्त्रत्वे चाशननिक्षेपित्येन मिथ्यादृष्टित्वप्रसङ्गः । एकस्यापि पदस्यारोचनातद्भावस्यावादिति चोदकस्याशयः । सूरिस्तूभयमप्येतत् त्यतया पक्षान्तरमाश्रयन्नाह अत्रोच्यत इति । ते तत्रारीया नापि स्वतन्त्रा-मिन्नमतयः । किन्तु ज्ञेयस घटादरच्यवसायान्तराणि ज्ञानभेदा, एतानि नैगमादीनि पञ्च । इदमुक्तं भवति-वस्त्वेवानेकधर्मात्मकमनेकाकारेण ज्ञानेन निरूप्यत इत्यतः स्वशास्त्रनिरूपशान्दबोधः । तथा च देवदत्तो गच्छतीत्याकवाक्यादेव ततनयभेदेन विभिन्नाकारशाब्दबोधोपपत्तरापक्षिकतथाविधशाब्दबोधन नकवाक्यस्य स्याहादत्वं युक्तियुक्त मेवेति भावः । यावन्ति तीर्थकरवचनानि तावन्ति नयगर्भितान्येव अत एवं तीर्थकरवचनमूलभूता नया इति सपा स्वरूपप्रदर्शनेन सुनयत्वप्रतिपत्तये भाष्ये भूमिकामाह-अत्राह-किमेते तन्त्रान्तरीया वादिन इत्यादि । क एवमाहेत्यत आह अत्र न यशव्दार्थ निरूपिते प्रेरक आहेत। तन्त्रान्तरीया इत्यस्यार्थमाह-तन्यन्त इत्यादि । मतिभेदेनेति विभिन्नाभिप्रायेणेत्यर्थः । स्याद्वादविषयाने कान्तात्मकवस्तु नस्त तदंशानादाय विज्ञानविशेषलक्षणाध्यवसायनानात्वात् पूर्वपूर्वनयाभ्युपगतविषयापेक्षया सूक्ष्मसूक्ष्मतरसूक्ष्मतमायंशविषयका उत्तरोत्तरनया इति तत्तत्रयप्रतिपाद्यविरु द्वधर्मप्रकार कविप्रतिपत्तित्वप्रसङ्गः "एवमिदानीमकस्मिनऽध्यवसायनानात्वान्ननु विप्रतिपत्तिप्रसङ्गः" इत्युत्तरग्रन्येनापादयिष्यमाणोऽसङ्गतस्स्यादित्याधपक्षे दोपमाह तन्त्रान्तरीयत्वे एकत्रेत्यादि । “पय मक्खरंपि इक्कंपि, जो न रोएइ सुत्तनिदि । सेसं रोयतो वि हु. मिच्छदिट्ठी जमालिव्ध ॥१॥" इति पारमोक्तिमनुस्मरन्मियादृष्टित्वप्रसङ्ग हेतुमाहे-एकस्थापि पदस्यारोचनादिति । सत्यासत्यभेदाभेद नित्यत्वानित्यत्वादयो धर्माः परस्परविरहरूपत्वेन वह्निनद भाववद्विरुद्धा इति नैकस्मिन्नेवार्थेऽवच्छेद कभेद मन्तरेणावतिष्ठन्ते इति तेपामविरोवद्योतनायावच्छेद कभेदोऽपेक्षणीयः, तथा च नितम्बशिखरावच्छेदेन पर्वते वहितःभाववत् भिन्नभिन्नतत्तदवच्छेदकावच्छेदेनैकार्थे तेवतिष्ठमाना अपि न विरुद्धः, अवच्छेदभेदश्च नयभेदेनैव प्रतिपादनीय इत्यविरोधप्रतिपत्तयेऽपेक्षणीया नया न तन्त्रान्तीयाः, स्याहादासद्धान्तानभिमतकान्तधर्माप्रतिपादकत्वात् , न वा स्वतन्त्री, आर्हतसिद्धान्तविरुद्ध स्वमतिकल्पनाकल्पितांशमादायाप्रवृत्तत्वात् , किन्तु स्याद्वादलक्षणप्रमाणराजमार्गानुगमनपरोनोमयविलक्षणा एवेत्याशयकमत्रोच्यत इत्यस्यावतरणमाह-सूरिस्तू भयमप्येतदितिा अनेकाकारेण ज्ञानेन निरूप्यत इति एकमेव वस्तु महदपेक्षयाई, अण्यपेक्षया Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રાસ્વાર્થવિવજ્ઞમૂઢાર્થકીપિન્ન | પદ્મત્રિશામણૂક ટી : PL : ળમેવવમ્, તજ્ઞન્યજ્ઞાને મિોમિ નયાનીતિ પ્રતીતિસા‚નાતિમેદ્રસ્યાનપ૫નીચાહિતિ માત્રઃ । વૈનાયવ્યક્તમુત્ર પ્રાંતનું વર્ચયતિ તવ્ યસ્રાહના, પટ રૂત્યુયતે તેમમધ્યવસાય પૂર્વે મચંતે, યોગ્તાવિત્તિ ોલિન્દ્વઃ, વેાનિવ્રુત્ત ભાવે નિષ્પન્ન, બૈમુર્ખાને દઢ ધૃત્તાવાળો વિ શેવી યહ્ય સ તથા, બાયતાં ઊભું વૃત્તા સમાધીના ચસ્ય | પૂરે તાવનુંનમાારઃ ધૃસ્તાપારમઇન્ડઃ સનેતાવ્ ધૃત્તઃ ॥ ૨ાયસ્ય ક્ષમાદ નહાતાનાં નવૃતક્ષીરાવીનામ, બાદરને દેશદેશાન્તરનયને આનીતાના જ ધારળે પતન તવશ્વે સમર્થ પ્રચઃ । -ત્તરયુનિવર્તનયા પગરસ્તાવિશુબલિમાખ્યા નિવૃત્તો નિષ્પન્નો, દ્રવિશેષઃ । ત્તમુળનિવ્રુત્તિર્યંન્તાનુવાવનેન સ્મૃદ્ધિાવસ્થાનિયામધાવિ માવાસ્ય મેત્રમાદ નેિવમાભ, સ્મિનું વિશેષા ચે જીવપીતાયઃ નરનતાવશ લડદુંખ્વાનો વા તવ્રુતિ, તન્નાયેષુ ના સર્વેપુ ોસિદ્વેષ, વિશેષામેકેન પાંરજ્ઞાન નિશ્ચિંતાવવોધો, સૈાના વેશસમગ્રપ્રાદ્દીત્યસ્ય પ્રદ્યોગ્યમ્ । અત્ર દ્રવ્યત્વનાધારતાયાં વિશેષાળાં મુખત્યપŕથાાતિના, યત્વે ધારતામાં રત્ત્તત્ત્તત્રસૌવળવાહિના, સામાન્યવેત્તાધારતાયા વિદ્યત્ત્વેન, અસામાન્યઘેનાધારતાયાં મહત્, દૂાવેયા વીય, વીર્યારેયા ચ ઇચ્ચું, પેલયા શુ, મુવવલયા ધૈ શ્રૃત્યનેજાજાર 5પેલિબ્રમાણાત્મજ્ઞાનેન નિષ્યતે તથામાવે વાયે દ્રવ્યાપેલયાઽમિત્ર નિત્રમેલ પ્રતિભ્રમિત્રમિત્રયાયાવેશયા મિશન નેત્બમને ચેં સ્વદ્રવ્યક્ષેત્રાદ્યપેશયા સતુ પરંદ્ર ક્ષેત્રાઘવેલા પારિત્યાઘ્રનશાળ જ્ઞાનેન નવાપહિવત્ અપેક્ષામતા વ્યાધિનાય સૌજા થે મહામેવાનો ધર્માન્તદ્દન્યતમે વન્ય પ્રાધાન્યન દ્વૈિત ધર્માણાવાસીન્થેન વાદિના નયામકે નૈવમંડ્ડલેન મિન્નતદ્દન્યાશેષધર્માંત્રહિના પ્રમાણાત્મòન ચ જ્ઞાનેન નિસબત નૃત્યચે તત્ત્વજ્ઞાને પ્રમિબોનિ નથામતિ પ્રીતિનાશ્ચદનાતિમૅવસ્થતા હ્રાત્રમાંળાત્મજ્ઞાને સતિ સ્યાદામાંમૈિતવ્રુદ્ધોનાં મિલોમાંતિ ચોપ્સુવ્યવસાયત્રત્યય ૭ જાનાત્મજ્ઞાને પતિ નયામૃતિ વાનુવ્યવસાયપ્રચર્યત્સિત્રમાળવનવનનાંતિનેસ્પચર્ચ વિનાસ્વયંનેવેતિ-પ્રમાાવિનીયનયા પરજ્ઞાતિન્યજ્ઞ મેત્વર્થઃ । વિશેષવર્તાયસ્યાર્થેમાવિશેષણ્ ય હત્યાfયા નન્નત ચેષુ-તત્ત્વનાીયેવુ । આવિોવાવિષયાર્થમાર્ચે-ગમેતેને તાજ્ઞિાનમિત્યસ્યર્થમા–નિચનાનોય તિ।૩ વાયમિતિ પ્રજ્ઞાતીયોધ્ધમિતિ ધ જ્ઞાનાંમત્યયંઃ ! નનુ ઘટે માતે આત્માને 7 જ્ઞાનવતીાઘુર્યેત્ર હરિ લેસ્બિન વિશેષવતીસ્ત્યાઘુનયાધારાયો જ્ઞાતિ તિ સ સામાન્યવિ જૈન પેપોત્સાશામા અત્ર દ્રવ્યત્વનાયાનાયામિાવ | Jળવાચવાવિને નિશ્ચાત્રેયન્તેયનેનાન્સવઃ, નૈામનયન સુપર્યાયવામતિ જ્યારે સન્નપૂર્ણાત્તરપર્યાયાનાન્દૂ ળતાસામાન્ધાવ્યદ્રવ્યન્ય દ્રષણેનાવારતાયાં વિદ્યાધાયાં વિશેષામાં સમાધિમુળત્યેન નમાવેલાપર્યાપત્યુંન વાગ્યવતા વિવાઁચાં, ધડો રત્નાનું સોંવર્ધનનાનું પાર્થિવનાને વ્યવહારે વટ્વેન-વારા વિવાિયાં પત્નત્વન સાવર્ષાવર્ત્યન પાવિત્યાદ્રિના પાવેયતા વિલીયા, બરવ્યૂમાંમંતિ કે નસ્ત્રાધારાઇસમો વિ મેરે સત્યેવ અતિમૂરિવતિ સેનોજ્ઞાાધેયોમેનિયાનેગી તો એનું વિ # Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૮: તાવાર્થવિહળવાર્થીવિકા વંચિત્તમ ટી જ નહિવટાતિના ધેયતા થાયથનનુસરળીયા ત્વમખ્ય માહી કર્વતાસામાન્ય, સર્વદાહી ૨ तिर्थक्सामान्यकृतमभ्युपैति । अत एव स एवायमिति तज्जातीय एवायमिति प्रत्यभिज्ञयोरुपपत्तिः । समहः મિતીયાહ -- વા ઘટે, વદુષુવી નામાંવિશેષતપુ નામથાપનાવ્યમાધુ, સાધ્ધતાતાનાં તિષત્રિાપુ, વધુ સંવત્યો ધરોડથું ટોડમિત્યનુમતા ધ્યવસાય સંખ્યા નાનારિપુ વાપું વધુ નાનુાતનાતિનાગમર્દાનુપમ, જિતુ રિરિરિતિવ છાનુનામ ઇવ, સ ર સામudવિષય [વ સંમતિ, ન સપિય રૂતિ વેત્, , વીવી વન્યાનુસારનાથનુપમ વિના શન્કાગુમાવ્યસન્મવાતુ, કપડખ્ય ન્યતાત્કાતિનાર્ષ્યાનુગામ સુરëÇ વહેં તે સબ્રહનય હવા નિમિત્ત રૂાક્ષાથી માથામતિ . શાં-નૈના, મ્યુતિતિ લવસ્થા, શાળી મર્થતા સામાન્યતૈત્વોચુપનુભાવ સર્વગ્રાફળો નૈમિ તિર્થમામાન્યતવાડવુપારંgવાવ ૨ શુકપીતર વિનર બતાવિશ્વ—દુહવિતરધદત્તક્ષણવિશેષાનાં પૂર્વોત્તરપર્યાયવહતિયા મિજાનાં ત૬નુ તોર્થતા સામાન્યાથપટલામાન્યપણામેવાવાહિની ર વિધિમતિ પ્રસ્થમજ્ઞા તત્તવિશવર્ત ત્રિવેવવિરાગતપાલવિનિવિટાનાં સદસપરિણામરુક્ષતિલામીન્યા સામાન્ય રમેળાનુમતે નમેવાવાહિની તરજ્ઞાતિય હવાથમિતિ પ્રમશાં વાપપને ત્યાનાહ-ત pોતિ નામાદ્રિય નામ વટસ્થાપનાં દ્રવ્યધેટમાવેદાન મથો મિત્ર નામ્યુપાચ્છપિ, તત્રાપ વનતિ નામધારdધાં પાં નામધન એ સ્થાપનાધાસ્ત સર્વેલાં થાપના ધરલૅન થે જ દૂધટાર્તવાં દ્રવ્યવાન ને જ માવટાહિતેષાં તેમાં મોયદત્યેશ્ય મમ્યુપ , નિર્વ સંગ્રહ, ચતસ નિઢિાનાં નામથસ્થાપનાવદ્રવ્યઘટમાવઘટીનાં ધટનામ્યુચ્છતિ, ૧ પુનર્ચતુર્ણ મદ્ર, તાતે સામાન્યમેવ પરમાર્થસવ નાચે વિવાદન્તીતિ નામાવિષ્યનુગત વત્વસામાન્ય પ્રધાન ધોયં યોગ્રમ નુમત ત્વચ ફૂારના નામથાપન દ્રવ્ય માધ્વતિ | શારાતે નીમાવિશ્વાવિના ! વાનરમ પ્રતિ કૃધ્ધાવવાહરિશવે સિંહવાવહારિશ થવું શ્વાવિવાહશિવે હારિરિરિત્યનુતરા લવ, તુ નુ તોર્થતંત્રબધટસ્થાપનાવદ્રવ્યવર્ટમાંવધવું ઘટોગ્ય ઘોષ્યમિત્યનુતિ વાનુભૂયત ફતિ તત્ર શદ્વાનુમ વેત્ય | સ વ સીમ્મતવિષા જ્ઞાતિ સેવાના સામ્પતાશબ્દનાય ત્યર્થ ૩mશાં નિતિ-નેતા કન્યતાત્યાદિને તિ-વિષ્ણુર્તિહધાન્યતરાત્રિનેત્ય : તમિતિ-વિષ્ણસિંહgશ્વાઘન્યતરાધિનાથનુરામમિત્વ: ત્રામેવાછતિયોગિતામે વોતરશો પ્રથામિમત, નાન્યતતામિધાનસ્થાને વ્યખ્યતરત્યનિમિતિ વૈધ્યા શસિંહાવ્યથાર્થતાન્યતન સિકળ હરિપઢાર્થીનાં વિષ્ણસિંહાલના રિપત્નન્ય સંપ્રદનધવજીદ્નગ માનું સ્વાઈ જ્યારા તતૂપેશીતાંબાતિવાવેન હરિપવાદ નાનાર્થવોચ્છવ ન જ તેન તથા માન Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्थविवरणगूढार्थदीपिका | पंचत्रिंशत्तमसू० टी० : ३५६ : गृह्णाति, न तु शब्दनयः, तज्जन्यशाब्दबोधे ततः कृष्णत्वादिनैव भानादिति न नानार्थकत्वोच्छेदः । सङ्ग्रहनये तु न किंचित्पदं नानार्थं नवाऽर्थो नाना । हन्तैवं यथोक्तटेष्वेवेति कोऽयं सङ्कोच; वर मात्र भ्युपगतम्, तत्र हेतुमाह-तज्जन्यशाब्दबोध इति । कृष्णत्यादिनैवेति- कृष्णत्व सिंहत्यादिप्रत्येकधर्मेणैवेत्यर्थः, अत्रैवकारेण संग्रहनये यथाऽन्यतरत्वेन भानं न तथा शब्दनय इति प्रतिपादितम्, तन्मते नाऽन्यतरस्याद्यनुगतधर्मानभ्युपगमादिति भावः । न नानार्थकत्वोच्छेद इतिकृष्णत्व सिंहत्वादीनां प्रवृत्तिनिमित्तानां शब्दनये भेदाभ्युपगमेनार्थभेदाभ्युपगमादिति भावः । न किश्चित्पदं नानार्थमिति घटपटादिशब्दानां तद्वाच्यव्यक्तिभेदान्नार्थभेदः, तथा सति घटशब्द'स्यापि तद्वाच्यतत्तद्घटव्यक्ति मेरे नार्थ भेदः स्यात्, किन्तु प्रवृत्तिनिमित्तभेदादेव, न च हर्यादिपदे सोऽस्ति, विष्णुसिंहादिगतान्यतरत्वरूपस्य प्रवृत्तिनिमित्तस्यैकत्वादिति हर्यादिपदसपिन नानाकमित्यर्थः । नवाऽर्थो नानेति अनुगतेनान्यतरत्वेन रूपेण नानार्थानामै क्यादिति भावः । ननु जगदन्तवर्त्तिनिखिलपदार्थानामेव सच्चेन रूपेणानुगताध्यवसायः सङ्ग्रहरसम्भवतीति नामस्थापनाद्रव्यभाववटेष्वेव घटत्वेनैकत्वाध्यवसायः सग्रह इति किमिति महासामान्यापेक्षयाङचान्तरसामान्यस्य सङ्कुचिताश्रयकत्वेन तद्ग्रहणस्य सङ्कोचरूपत्वात्सङ्कोचः क्रियत इति चेत्, उच्यते, पूर्व यद्धर्मप्रकारेण वस्तुनो ग्रहणमाश्रित्य पचाद्विशेपाssकलनपूर्वकं तत्परित्यज्य तद्वान्तरधर्मप्रकारेण ग्रहणलक्षणविमजनं नयान्तरेण क्रियते तत्र तद्धर्मप्रकारेण वस्तुन एकरूपतया ग्रहणमेवापरसग्रहोऽभिमन्यते इति यदा घटलेन नामघटस्थापनावटद्रव्यवभावघटाना+यं पूर्वं तेन गृहीत्वा पञ्चाद्विशेषपर्यालोचनेन तत्परित्यज्य नामघटस्थापनावटद्रव्यघटभाववटानां घटत्वावान्तरथ रूपनामवटत्वस्थापनावटत्वादिभिः पृथगेव ग्रहणं व्यवहारनय उरीकरोतीति स तेषां तत्प्रकारेण भेदमेव मनुते, तत्र घटत्वेन रूपेण तेषां नामस्थापनादीनामैक्यग्रहणमेवापरसंङ्ग्रहः समाश्रयति । महासामान्याख्यसचेन यद्यपि सर्वेपामैक्यं समस्त तथापि न कोऽपि सङ्ग्रहृतरनयः पूर्वं तथाऽभ्युपेत्य पश्चाद्विशेषपर्यालोचनेन तत्परित्यज्य तद्वापरसामान्यरूपेण वस्तुविभजनं करोति ततो न महासामान्यं नयान्तरविषय इति तद्रूपेण सर्वेषामैक्याध्यवसायलक्षणसङ्ग्रहो नेतरनयग्रहस्य विनिर्मोकः, किन्तु सङ्ग्रहस्य तत्र विश्रान्तिरेवेत्यतः परनयविपयीकृतानेकस्वरूपनामादिषटेष्वेकत्वाध्यवसाय मपरसङ्ग्रह सङ्कोचितस्वरूपमादृत्याशङ्कोत्तराभ्यामाह हन्तेवं यथेोघदेष्वेति कोऽयं सङ्कोच इति । यद्यपि नैगमनयो महासामान्यमपि गृह्णाति, अवान्तरसामान्यादिकमपि तथापि स पूर्व महासा मान्यं गृहीत्वा पश्चात्तद्विशेषाकलनेन न तत्परित्यजति तेन नैगमनयेनापक्षपातितया महासामान्यावान्तरसामान्योभयस्य स्वीकृतत्वात्, न वा महावादिश्रीसिद्धसेनदिवाकरमते नैगमनयोऽतिरिक्तोऽस्ति, महासामान्यविपयकस्य तस्य संग्रहरूपत्वात्, अवान्तरसामान्यादिविषयकस्य तस्य व्यवहाररूपत्वात् व्यवहारनयग्रहस्तु महासामान्यप्रकारको न भवत्येवेति तत्प्रकारक ग्रहणं पूर्वमासाद्य पश्चात्तद्विशेषपर्यालोचनेन न तद्विनिमत्तत्परित्यागः, किन्दारं , Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्यार्यविवरणगूढार्थदीपिका । पञ्चत्रिशमसू०टी० सामान्यादिकमेव पूर्व गृहीत्वा पश्चापद्विशेषपालोचनेन तहस्य विनिर्मोकः परित्यागः, एपञ्च यद्धमत्यनेनावान्तर सामान्यादिधर्मस्य ग्रहणं तत्प्रकारकस्य संग्रहेतर व्यवहारादिनयेन ... ग्रहस्योक्तदिशा विनिर्माको भवतीत्यया रसामान्यादिप्रकारकद्रव्योपयोगस्यैवापरसङ्ग्रहनयेनोत्थानादु वात् , तेन चापरसग्रहनयेनावान्तरसामान्यग्रहात्, महासामान्ये तु कोऽपि विशेषग्राहको पर्यायनयः प्रवर्तत एव नेति सकलपर्यायनयेन ग्रहस्य प्रथमत एवं विनिर्मोक एवेनि महासामान्यमन्यनयाऽविषय एव सङ्ग्रहविषय इति तदुपयोगात्मकसङ्ग्रहस्य विश्रान्तेः, ततो ह्यनुगतस्यातिरिक्तस्याभावात् ततः परं द्रव्योपयोगाप्रवृत्तेरिति निर्गलितोऽर्थः ॥ उक्तार्थे सम्मतितर्कनयकाण्डाटम गाथासम्मतिमाह-" पजवणयवुकतं" इत्यादि । अत्र-पजवणययुक्त, वत्थु दव्यडियस चयणिज ।। जाय दरिओगो, अपच्छिमबियप्पनिब्धयणो ॥ १-८॥ इति सम्पूर्णगाथा । अत्र न विद्यते पश्चिमे उत्तरे विकल्पनिर्वचने सपिकल्यधीव्यवहारलक्षणे यत्र सः अपश्चिमविकल्पनिर्वचनः, संग्रहावसान इति यावत् , ततः परं विकल्पवचनाप्रवृत्ते, इदृशो यावद् द्रव्योपयोगः प्रयतते तावद् द्र०यार्थिकस्य वचनीयं वस्तु, तच पर्यायनयेन व्युत्क्रान्त वि-विशेषेण उत्-ऊर्ष कान्तं-विषयीकृतमेव, पर्यायानाक्रान्तसत्तामात्रसद्भावग्राहकस्य प्रत्यक्षस्थानुमानस्य वा प्रमाणस्थाभावात् पर्यायान्तिस्यैव सर्वदा सत्तारूपस्यार्थस्य ताभ्यामवगतः, वटः सन् पटः सन् मठसन्नित्यादिप्रत्यक्षप्रतीतिभ्यो विशेष्यविधया वटपटादीनां पर्यायाणामपि सिद्धः, तेपां काल्पनिकत्वे प्रकारीभूताया: सत्ताया अपि तथात्वापत्तेः, तादृशवतीतिविपयत्वस्य तत्रापि समानत्वादित्येकोऽर्थः । यद्वा यतु सूक्ष्मसूक्ष्मतरसूक्ष्मतमादिधुद्धिना पर्यायनयेन स्थूलरूपं त्यजतोत्तरोत्तरतत्तत्सूक्ष्मरूपाश्रयणात् व्युत्मान्तं गृहीत्वा विचारेण मुक्तं, किमिदं मृत्सामान्य घटादिविशेपैविना प्रतिपत्तिविषयः, यावत् सूक्ष्मतमरवरूपोऽन्त्यो विशेषतावत्स द्रव्यार्थिकस्य वचनयिम् , पूर्वपूर्वस्योत्तरोत्तरापेक्षयाऽनुगतरूपत्वादेवोत्तरोत्तर नयेन सूक्ष्मसूक्ष्मतरतत्तद्विशेषग्राहिणा परित्याग इति तस्य पूर्वपूर्वरूपस्य सामान्यात्मकस्य द्रव्यत्वमायात मेवेति तद्विप यकस्य नयस्य द्रव्यार्थिकत्वम् , तद्ग्राह्यस्य पूर्वपूर्वरूपस्योत्तरोत्तरसूक्ष्मसूक्ष्मतरपर्यायनयत्यत्तस्यार्थस्य द्रव्यरूपत्वम् , उत्तरोत्तरस्य च पूर्वपूर्वरूपापेक्षया विशेषरूपत्वेन पर्यायरूपतया तग्राहिणो नयस्य पर्यायार्थिकत्वम् , तद्यायस्य चोत्तरोत्तरपर्यायरूपत्वम् , यदेव चोत्त. सपेक्षया पूर्वरूपत्वात् सामान्यरूपं तदेव व स्वपूर्वापेक्षया विशेषरूपमित्येकस्यापि वरतुनः सामान्यविशेपोमयरूपत्वेन द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनयविषयत्वम् , यतो यावदपश्चिमविकल्प निर्वचनोऽत्यो विशेषतावद् द्रव्योपयोगो द्रव्यज्ञानं प्रवर्तते, न हि द्रव्यादयो विशेषान्ताः सदादिप्रत्ययाऽविशिष्टका व्यावृत्तबुद्धिग्राह्यतया प्रतीयन्ते, न च तथाऽप्रतीयमानायाऽभ्युपसमाहर्हाः, अनिप्रसङ्गात् , तदेवं न सत्ता विशेषविरहिणी नापि विशेषासत्ताविकला इति सिद्धम् । ननु महासामान्यस्य तत्पूर्व सामान्यामानात शुद्धसतरनयविषयत्वाभाविन विशेषरूपत्वानवासामान्यः पवमेव पात्, एम.त्यविशेषस्थापि तदुपर विशेषाभावात्ता Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्यार्थविवरणदार्थदीपिका । पञ्चविंशतम०टी० : ३६१ : एवं संग्रह-यापारप्रवृतेरिति चेत्, सत्यम्, यद्धर्मप्रकारकेतरनयनहस्य विनिर्मोंकतद्धर्मप्रकारकद्रव्योपयोगस्यैव संग्रह नयनोत्थानादवान्तरसामान्यग्रह संभवा सकलपर्यायनयग्रहविनिमोक एवं महासामान्योपयोगात्मकसंग्रहविश्रान्तः । तदुक्त वादिमुख्येन- पज्जवणयवुकंत' इत्यादि । व्यवहारनयाभिप्रायमाह रो येत्यादि, तेष्वद्विवनामादिरूपेषु घटेषु, लौकिका लोकविदिताः, परीक्षकाः पालोचकाः, तेषां प्रायेषु अभिलापविषयेषु जलाहरणार्थप्रवृत्तिविषयेषु च उपचारगम्येषु मुख्यत्वेन पूजाविषयेषु 'लक्षणाविषयेषु च, यथा स्थूलेषु सूनसामान्योपसर्जनेषु, संप्रत्ययो । हकेण केनापि पर्यायनयेन ग्राह्यत्वाभावात्सामान्यरूपत्वाऽभावेन विशेषरूपत्वमेव स्थादिति चेद्, भवतु तथा, का नाम क्षतिः । अपसिद्धान्तत्यप्रसङ्ग इति चेत्, मवम् , " अयं द्रव्योपयोगः साद्, विकल्पेऽन्त्ये व्यवस्थितः । अन्तरा द्रव्यपर्याय-धीः सामान्यविशेषवत् ॥१५॥" इति श्लोकव्याख्यायां अयं द्रव्योपयोगः द्रव्यार्थि कनयजन्यो बोधः अन्त्ये विकल्पे शुद्धसङ्ग्रहाख्ये व्यवस्थित पर्यायबुद्धयाऽविचलितः सादित्युक्त्या शुद्वसङ्ग्रहविषये महासामान्ये पर्यायार्थिकनयो न प्रवर्त्तत इति तत्सामान्यरूपमेव न पर्यायरूपमित्युक्तम्भवति । अन्त्यविशेषविकल्प च शुद्धर्जुमूत्रलक्षणे कारणाऽभावादेव द्रव्योपयोगो व्यवस्थित स्यात्-व्युपर तरयादित्युक्त्या शुद्धर्जुनलक्षणस्य शुद्धपर्यायावगाहिनयस्य विषयेऽन्त्यविशेषे द्रव्योपयोगो द्रव्यार्थिकनयजन्यवोधो न प्रवति इति स विशेष एव न सामान्यमित्युक्तम्भवतीति नापसिद्धान्त प्रसङ्ग इति, विशेषार्थिना नयोपदेशवृत्तिरवलोकनीया, न च महासामान्यस्य सामान्यकारूपत्वेऽन्त्यविशेषस्य च विशेषकान्तरूपत्वेऽनेकान्तत्वविरोधस्स्यादिति वाच्यम् , महासामान्यस्यापि तदुपरविशेषापेक्षयैवान्त्यविशेषस्यापि च तत्पूर्वसामान्यापेक्षयैव सद्रूपत्वेन विषयतासम्बन्धेन परस्परसापेक्षोभयविषयताकत्रोधम्प्रति तादात्म्यसम्बन्धेनोभयात्मकविषयस्य कारणतया प्रत्येकस्याप्युभयरूपत्वनानेकान्तत्वविरोधाभावात् । अत एव द्रव्यार्थिक केवलमहासामान्यात्मकद्रव्यविषयताकत्वेन पर्यायार्थिकश्च फेवलविशेषात्मकपर्यायविषयताक वन सुखजातीय इति सिद्धान्ते नाभ्युपगतम्, प्रत्येकनयस्याप्युपसर्जनीकृतस्यान्यविषयप्रधानीकृतस्त्रविषयतया प्रधानगौणभावेन सामान्यविशेषोभयविषयताकत्वेनाभ्युपगमात् । उक्तश्व सागतो-"वडिओ ति तम्हा, नस्थि णओ नियमसुजाईओ । ण य पजबडिओ णाम, कोइ भयणाइ उ विसेसो ।। १-९॥" इति द्वितीयोऽर्थः । उपचारपदस्य पूजालक्षणारूपार्थद्वयविवक्षनाह-मुख्यत्वेनेति। ये हि मुख्या अर्थक्रियाकारित्वात्प्रधानास्ते पूजनीया भवन्ति व्यवहार नयविषयतयाऽभिमतेषु विशेषरूपार्थेषु लौकिकप्रवृत्तिनिवृत्तिलक्षणव्यवहारसम्पादकतया मुख्यत्वेन पूजाविषयेषु लोके पन्था मच्छति कुण्डिका सवति इत्यादि व्यवाहियते तदुपपादनाय पथिशब्दस्य पान्थे कुण्डिकापदस्य कुण्डिकास्यनले लक्षणेत्येवं लक्षणाविषयेषु चेत्यर्यः । सूक्ष्मसामान्योपसर्जनेविति-आचालगोपालद्धयग्राह्यत्वात्सूक्ष्मं यत्सामान्यं तस्योपसर्जन Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : દર : તત્ત્વાર્થવિવરણચૂઢાર્થટીવિશ્વા। Ğવત્રિશત્તમકૂ ટી 66 વિશેષત્રધાનઃ પર∞વો, વ્યવહાર ! ઋનુત્રનયમતં વિદ્યર્થાત તેબંતિ । તેધ્યેષ ષટે, સત્પુ વિદ્યમાને, સાતેષુ પ્રયોાધારક્ષળનાત્રવૃત્તિષુ, સંપ્રત્યય શ્રુનુન્ના | સાસ્ત્રમિત્રાયં નિર્યાત તેષ્મેશ્વેર્થાત્ । તેબેવ નુ મિતેષુ, સામ્બૂતેષુ વર્તમાનાિધિ, ધનેષુ ષટશન્દેપુ, ખુસૂત્રઽમિમતત્વપ્રદ્રોનું સામ્પ્રતવાંશે 7 તુ શ′ાશે, પૂર્વદ્યાર્ધનયાવુત્તરીય હૈં શબ્દનયાવિતિ પ્રતિષત્તવ્યમ્ । જોદશેષ પટેવુ, નામાત્રીનાં નામાનાદ્રવ્યમાવધતાનાં મધ્યે, અન્યતમગ્ર હજી ચત્ય શન્વય નમાનઃ શુળમાવો ચેપુ બર્થઃ । વ્યવહારનયમતે દિ સામાન્યધ્રુવસર્ગનોનૃત્ય પ્રાધાન્યેન શેષશેવ ટોડપ પટોડમિસ્ત્યાદ્રિ તિમ્પવદાર મિત્રાયેળ સમ્પ્રત્યય ત્યાંયનાદ વિરોષપ્રધાનઃ પરિચ્છેર રૂતિ । પૂર્વસ્વાર્થન સ્વતિ નૈમાદ્રિનયનયાŠપ્રાધાન્યન પદ્મારાવેિનાર્થનયત્રાહિત્ય:। ઉત્તરથી જ શનયત્વવિદ્વતિ શરૂ હનયત્રઅન્ય રચ્યું. પ્રધાનોનૃત્ય વ્યવહારબવત્તલેન શનયાહિત્યયંઃ । ચૉહિત મહામાથે બચ્ચનાં સદ્દોવલનનું વઘુમુત્તુનુન્નતા સબામટ્યોસાળ સેકયા વિંતિ રર૬” इति । ऋजुसूत्रतये हि घटशब्दस्यैव नामादिचतुष्टये शक्तिः, साम्प्रतनये तु तत्र न સા, જિન્તુ પ્રત્યે મિનૈત્ર, તથા ૬ નાયડાથયાનો વટરજો મિત્ર, સ્થાપનાવવાવો ઘટશજો મિત્ર, ટૂથથાપો વશો મિત્ર, માધા૨ેવાનો પશબ્દો भिन्न इत्याशयेनाह यस्य शब्दस्येत्यादि । न+यमान इति મધીયમાન ત્યચેઃ । “સેવા રૂ་તિ સનિકક્ષેત્રે” કૃતિ “માથું યિ સાયા" કૃતિ = વશ્વનાત્ માત્રાનેક્ષે મેવ શબ્દનયા લમ્પુરાøન્તીતિ થ તેમાં યસ્ય શસ્ત્ય નમાન તિવિધિ વાષર્વે મુત્ત્ત યુત્ત્ત, જ્ઞાનાવિનિક્ષત્રયચૈવ તૈનમ્બુવામા હત્યારા તુ કૃત્ય નિવારણીયા, તર્વાદ સ્થમાનવવાથૅસ્વ પોગ્લાધારણો ધર્મસ્તકૂપેણ નīમાનપાએઁ માત્ર વૈં, તદૂષણૈવ તત્ત્વ શેવ્ કાવ્યમ્, મૈં તુ સ્થાપ્યમાનહિતધર્મળ તસ્ય શજુવાત્ત્વત્વમ્, યય શન્ત્સ્ય સ્થાપના વાવ્યા તસ્ય સ્થાવાન ગ્લાધારળધર્મક્ષેત્ર સ્થાપના વાન્યા માંત, વધારૢવળ સ્થાપનાર્ગી માવ વ, ન તુ સ્થાપનાં નક્ષ્યમાઽવિધર્મ વાવ્યા મતિ, યસ્ય રાસ્ય દ્રવ્યં વાજ્યું તત્ત્વ દૂષતાઽસાવરધમળેલ દ્રવ્યં વાન્હેં મતિ, ન તુ નિયતવસ્ત્રાયનિષિતોષાવાનાવચ્છ ધર્મવઘેન ચન્દ્રવ્યત્યં તેન હોળ દ્રવ્યં વાજ્યમ્, સાધારણ વેળ 7 દ્રવ્યમાંવે માવ ત્ત્વ, ન તુ નમ્યાન વિવિધર્મપિ તસ્ય વાōાંમત્યેવું માત્રમાર્ગાનક્ષેવામ્બુપાતૃત્વે શજુનવક્સાવસાતમ્, નાવિનિક્ષેપનયસ્ય સર્વાષિત્વે જ્ઞાાનતુષિ તથાપવમ્, તવયા-ઘટ કૃતિ દ્વથસં યવેતનામ તાસ્માન્તિ સદ્દસ્યતે ટું નામ ધટનામાંત તમામ, ધડ ાંત શવષત્સ્ય ત્રેષિત્રધારોટ્ટક્રૂનું તામસ્થાપના, વૃદ્ભાષામેળાપુરજીકન્ધ ઘટ ફાંત નાનવે પરિપત પરિÜતિ ના તમામદ્રત્ત્વમ્, ય વારોત્તરાવ્યાોત્તરઃહિરાસમાંધાત તદ્ભાવનામંતિ, વં સ્થાપનાવાય, તત્ર દ્વૈતનાત્રનામ યા ૬ વિન્યાયના 4 માત્રદ્રવ્યં તવધુ પછાંયે શબ્દનયો માનિક્ષેપામ્બુવા વતિ સૂક્ષ્મધિયા h Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • प्रत्वार्थविवरणगूढार्थदीपिका । पंचविशतमसू. टी० : ३६३ : पदार्थो वाच्यः, न तस्य स्थाप्यमानो यस्य स्थापना, न तस्य द्रव्यम्, यस्य द्रव्यं, न तस्य भाव इत्येवं विविक्तवाचकत्वेन स्थितेष्वित्यर्थः । एकस्यापि सदस्य निक्षेपचतुष्टयप्रवृत्तः । कथमेवं वाच्यभेदादाचकभेदः स्यादत आह. प्रसिद्ध पूर्वेषु-पूर्व सिद्धाः सिद्धपूर्वाः प्राग्गृहीतशक्तिका इत्यर्थः, प्रकर्षेणाभिधानियन्त्रणलक्षणेन सिद्धपूर्वाः प्रसिद्धपूस्तिषु, यः संप्रत्ययः स साम्प्रतशदनयः। एकस्य शब्दस्य नानानिक्षेपत्वेऽपि यत्रैवाभिधानियन्त्रणं तत्रैव पाचकत्वं तच्च प्रकरणादिनेत्यभिधानियन्त्रणाद्वाचकत्वभेद इत्यर्थः । अर्था-तरं तु तत्र गम्यमेवेत्यवसातव्यम् । यचैतस्य शब्दविषयत्वमुक्तं तदेतानि पदानि स्वस्मारितार्थसंसर्गज्ञानपूर्वकाणि आकाक्षादिमपदकदम्बकत्वाद्दामभ्याज વર્ષેતિ વિિિત શાવવજ્ઞાતિમવનુમાનવિશેષાગૃપમપક્ષે, ફર્વ વાતવર્ગમતિ તાત્પર્યપર્યસિતशाबोधाभ्युपगमपक्षे वा संगमनीयम् । अर्थावच्छेदकत्वेन शब्दविषयत्वस्य सार्वत्रिकत्वसमर्थने तु -- नामादीनामन्यतमवाहित्यमसमर्थितं स्यात् । समर्थ्यतां वा तदपि घटमुच्चारय, घटं प३५, धर्ट मर्दय, घट जलाहरणार्थं गृहाणेत्यादावन्यतमस्य मुख्यविशेष्यत्वपुरस्काराभिप्रायेण, शब्दस्यावाच्यत्वस्थलेऽपि व्यञ्जनयोपस्थितस्य सर्वत्रार्थावच्छेद सम्भवात् । न चैवं पक्षमेदेवानिधरणापत्तिः, एकैकस्य शतभेदत्येम तत्संबोमानां चासंख्यत्वेन पक्षभेद एव विविक्तविवेकेन निर्धारणोपत्तेरिति दिग् । सममिरूढाभिप्रायं प्रकाशયતિ તેવાવ નામાદ્રિધટાનાં, સાચ્છતાનાં વર્તમાનવર્સેિના, અધ્યવસાયસિંચમો મિજાન્તાક विचारणीयम् । यत्रैवाभिधानियन्त्रणमिति-शक्तिग्रहकाल इति शेषः। यस्मिन्नेव शब्दे अयं शदोस्यार्थस्य वाचक इति शक्तिहप्रवृत्तिरिति भावः । तत्र गम्यमेवेतिन च पाच्यमिति शेषः । यचैतस्येति साम्प्रतनयस्वार्थविषयकत्वेऽपि यच्छ०६विपयत्कर्ष व्यवाहियते तच्छन्दस्यानुमानविधयव प्रामाण्यम् , अनुमिती च शब्दः पक्षविधया विपयो भवतीत्यभिप्रायेणोक्तम्, तत्रानुमानप्रकारमाह-एतानि पदानि स्वस्मारित. संसर्गज्ञानपूर्वकाणीति । अत्र पक्षान्तरमप्याह इदं वाक्यमेतदर्थकमितीति । साम्प्रतनयेऽर्थविशेषणत्वेन सर्वत्र शाबोधे शब्दो भासते इत्यभिप्रायेण तत्र शब्दविषयत्वसमर्थने अस्य नयस्य नाममात्रग्राहित्वं अस्य च स्थापनामात्रग्राहित्वमित्यादिनियमव्यवस्था न स्थादित्याह-अवच्छेदत्वेनेति-अर्थविशेषणत्येनेत्यर्थः । तदपि-नामादीनामन्यतममा. हित्यम् । यथाक्रमं नामादीनामुदाहरणान्याह घ८मुच्चारयेत्यादि । घटसुच्चारयेत्यत्र स्थापनावटादेनोंच्चारणं किन्तु नामघटस्यैवेति धटमित्यस्य घटनामेत्यर्थः । वदं पश्येत्यत्र ५८ इति नानो दर्शनामावाद् घटमित्यस्य घटाकृतिमित्यर्थः । घटं मर्दयेत्यत्र नामघटादेमदनामावाद् घटमित्यस घटोपादानकारणमृदमित्यर्थः । चतुर्थीदाहरणे घटमित्यस्य भावभूतધટામિત્યર્થ. તદુપાં નામધટાનાં છાંદરણામ માવાતિ માવા / રાવર્યાवाच्यत्वस्थलेऽपीति-अर्थमात्रस्य वाच्यतया भानस्थले पीति भावः । उपस्थितस्येतिअत्र शब्दस्येत्यस्यानुकर्षः। अथ यत्र नानापक्षस्तत्र न.निर्णयः किन्तु संशय एवेति साम्प्रतनयस्य तत्तत्पक्षभेदेन शब्दविषयत्वसमर्थने सति पक्षभेदेन संशयापत्तिरस्यादित्याशङ्कय तन्नियति-एकैकस्य शतभेदत्वेनेति, नयस्येति शेला Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : રૂદક . નવાર્યવિવળમૂઢાર્થીવિકા ! પશ્ચાત્તમહૂદી. પિતાના વ્યવસાય, સમામિકા િવત્ ? વિધાનવૃત્વવેતવિવાદાસ્યગુરબાનાદ્વિતીય વવવત્યા બાઘસ્ય સવેતન્યૂડપ સવિશ્વાત્વાજ્યાઃ | ત્ર વેટલુટાહિશે એવાર્થવર્તી નામધટનામટાહિશ મેવાનામાઘાતમાછૅડમિધાનિયત્રણા વાર્યમેવ કન્યઃ હવું જ સાત વાગ્યું પાર્શ્વ વાર્થ પ્રતિ વ્યક્તિ સામેવાડમ્પયત sવૃત્તિપક્ષ સાથળીય કૃતિ સંક્ષેપર વમૂતામિબાયવિજ્ઞાતિ પામેવાનન્તપતિધરાનાં, મૈ ચેન્નનાથ તયોરન્યોન્યાણયાત્રાહી મધ્યવસાય , ચૂત પુનરન્યોન્યાલ. કન્ય-ધટ ધટનત્રિયાવરિષ્ઠવિષયાત્રીધનનતંત્રમાં ચયા વાવવં ધટ૬૮નન્યષટનાયબરશીવાથવિધ્યત્વ ધટે વાખ્યત્વમપિ તત્યન્યોન્યાતિવાવાવજમાવસખ્યત્વે વ, નાલ્લુરાનીયતાન્કા ન્યાશ્રયસ્થાપત્યં, વમન્વેન્યાપેક્ષા ન ચાદ્વાચવાનમાવગ્રહ વ ન ચાતા ગૌરયાપેક્ષયા હિ પ્રારારૂવૅ અાશાપેક્ષા જ પ્રારય, તદ્રવત્રાપ વાધ્યત્વેને વિતધ્યાનવહિત્યનેન ગુજથ્થાનાદ્વિતીયમેદ્રારિબ્રહાર્થે તમાહ - વિતતિ-વામિનું શુધ્યાનદ્વિતીયમેકર્થવ્યજ્ઞનયોતિરાદ્રિતત્ર તથા મનામૃતીનામન્યતરમાન્યત્ર અશ્વપક્ષો વિવાર વિશ્વને યથા તથાગાન સમામદન કુટશસલ્ફનસ્ટવવાળવાવમખ્વજોન ન ધરમદિરાદ્વાન્તરે વર્તત થવું નામgટશબ્દસમ ન નામધદનામામાશવારે વર્તતે, અર્થાત્ દશવવાર્થો ધરાશિષ્યવખ્યોગ, ઘટવુમશિવાગ્યે જુદાશિવાળ્યો ૧ શબ્દનવેમ્યુપતા, ઉદધાપર્યાયશાનામાવાવષેનાડુમાવ, હવે નામશુટશબ્દવીગ્યો નામયટનામા સ્વીતા, નૈવ સમમિરૂદ્ધન, તહેવ પિતૃણોતિ–ત્ર ત્યાંના નામધટનામદાવ મેવાવિતિ નામધટશવ્સ્થાપનાવટશહૂદ્રવ્યવદશમાવટશ મેવા નામરાવ્સ્થાપનાશવિદ્રાદશદ્માવદરમાહિત્ય | શબ્દમેવાવમેવાડુપને સતિ વાગ્ધાર્થ મુખ્યાર્થી માચ્છદ્રોમ્યુવેય કૃતિ સમિતિન પારમાર્જિવાતુમયાચોથો ન મવતિ શિખૂદ્રય પુનરાવૃજ્યા મનવાપુનેનેત્યાહું વં ચ સતિ વાળ્યું મિતિ ધટધટના યાવિષ્ટવષયશવધિનનજત્વામતિવશિષ્ટ પુરુષ રૂતિ ગુદ્ધિર્વરિયાઇ પવ, ને વન્ય, દીપાક્ષિત પુરુષ તિ વૃદ્ધિ પુરુષે યહાં શાપ દુકસાય સદૃષિ, વાવ શિવૃદષ્ણુપક્ષિતવુ , તથા વાત્ર ટપવે ધનવાવેશિયલશાદ્ધનનcવામિન્યુનત્ય ધટનશિયાઇ પવ વટપદ્રશ્ય વટનથવિશિષ્ટ વિષયોધનનજત્વમ્, અર્થાત્ ધટવાત્તવાન વૈવસ્મૃતનના તાદૃશોધ, ને વહા, વૈવ ધતિ તવૈવ ધટાર્ચસ્વ ઘટવાગ્યવારાQ, સમમિહનોન વર્તમાનાવસ્કેવેન પટનાયરિયામાવેગષ પૂર્વોત્તરશાસ્ત્રાવાછિન્નપતનાશયાહરિત્યાહુ પક્ષિત વટાભાર્થસ્ય ધટવહવળ્યવંથાવુપત વ—તનનાનડુપમાહિતિ સાવિતસ્થદ્યાપિ પવાર્થમાત્રય ક્ષણિવાહૂ ધનાવટનાયાવતર્મિનવમુમયનયમતવિશિડ્યું તથાપિ સનમિહાન ધટનવિાષ્પાવતોગ ધટ ધટનાથાશ્રયધટસનાતત્વમ્ વ—તનતુ તદ્ધિ Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તાવાર્થવિળોટી િ ત્રિરામપુર भावनीयमिति संझेपः । एवमवस्थिते नयनस्थाने यो दोष आपद्यते तमबलम्बमानः शकते। अत्राह-वमित्यादि, एकस्मिन्नर्ये विरुद्वानाकोटयवगाहवे ने षा विप्रतिपत्तित्वं म्यादिति पूर्ववक्षिणोऽभिप्रायः । બાવાનાં તેવાં નાના ચાહિa નાતિ, ઉમે ઘોડી વાત સૈમિષણanaसंगकोपयोगबातया मिलिवानामध्यपेक्षाभेडेन विरुद्धकोटिकवपरिहारान्नार्य दोष इत्यभिप्रायवान, સમાગ્રોવ્યા ત્યાના, ચૈત્ર સાવવાનીવાભાવશ્વગુપિયાબંm:વેનુવઇનધિપત્યંબડ્યાનાતત્વમિર્યા વિરુદ્રાના વિમાનતિ સામાન્યપદ્ધતિ ચિતાર્યત્વેલાળા વાવટનામાનિધવાથમિલેર્થિવભાવમાત્રાવરદ્ધિટિપર્યાયવ્વામિત્વનવનમિ દ્વાદિષુત્તિનિમિત્તાિનાવિન્યુનિમિત્તયાગવત્વવત્વવાહિત્યને ! પનિષ-વનવાનાં, રિતિપત્તિત્વ વિનિપત્રિ! ને મે વસ્તુ સામાન્યું ન હતું મને, શ્ચિા પુનઃ ધ મવતિ, નિલેષનુકવાબ ન માત્રા મવનિ, પ સત્તનમિય, ત્રિપાનવિર્દ પુનઃ વિવિદ મતિ, તથાપિ તથા+ પુનમબાપપાયા વિપત્તિત્વ સ્વાવ, ર વિરતિષ્યિ નિ એક, જે નિશ્ચિત સાવાઝુવા રવિ માવા નાનાં શાશ્વર્માત્રાવાદિન દ્ધિનાના વ્યાત્રિમેવ નાજી, વય નૈનવીર લેવા વિવિધ વિનાનાયાત્વિાદિતિ પૂર્વપટ્ટીવાનુમાન પત્રમાવા gaોનિક નાવા -કિનાનાં તનિતિ ! બાપનનાથનુમાને રાખતા નવા વિન્ડ રતિ વ પ ગ્રુપના પારિવાહિ વાંચન મા બંધનકુબવાવેન વાવાવ, વિન નાના ટિકિએ જણાવ ત્રિ નિહારતનાં પ્રારંવમાંamદિનાં વિનાને ન વિનિ. તારા : - બનાવ :કાવ્ય • પુરા ક્વનરાંઝવાકાવિવિકિપીરિજન રાજા ફિર જવા બિન શિવ પરિવાર જે કરપિવિત્રનાનુ નિઃશ્વર ઝr : રાજકોટ લવા માં માત્ર કિાકી સરકાર - અને ૨ રે વરમાં ધ ને રિના દ િ ન ૪ વિનિમય, રકતવિક જીવ જાના દિકર દિનાકવિદુર - ૨ - “અ- ” સર ક » કન, રિટર્ડ સંવાલા Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वार्थविवरणपूढार्थदीपिका । पंचत्रिशतमसू० टी० स्तिकायावरुद्धत्वषद्रव्यकोडीकृतत्वधमैरेकत्वद्वित्वत्रित्वचतुष्टुपश्चत्वषट्वाध्यवसायानां भिन्नत्वादविरुद्धकोटिकत्वाद्वा न विप्रतिपत्तित्वं तथा नयवादेवपीति पिण्डार्थः । स द्वित्वमित्यादौ धर्मिणि विधेये धर्मे विधानं धर्मधर्मिणोरभेदाभिप्रायेग। असद्धर्माध्यारोपाभावेन विप्रतिपत्तित्वं परिहत्य क्षयोपशमविशेषात् पृथम् विशेषग्राहित्येन तां परिहर्तुमाह किं चान्यदिति । पर्यायविशुद्धिविशेषादुत्कणेति पर्याया-भेदा मत्यादयः, तेषा विशुद्धिः स्वावरणापामजनिता स्वच्छता, तस्या विशेपो भेदस्तस्मादुकों विषयताभेदस्तेनेत्यर्थः । यथा मतिज्ञानी मनुष्य जीवस्य मनुष्यपर्यायं वर्तमान चक्षुरादिनेन्द्रियेण साक्षात्परिच्छिनत्ति, " तमेव श्रुतज्ञानी आगमेनानुमानस्वभावेन, तमेवावधिज्ञानी अतीन्द्रियेण ज्ञानेन, तमेव मनःपर्यायज्ञानी तस्य मनुष्यपर्यायस्य यः प्रश्ने प्रवर्तते तद्तानि मनोद्रव्याणि दृष्ट्वाऽनुमानेनैव, केवलज्ञानी पुनरत्यन्तविशुद्धेन केवलन, न चैता विप्रतिपत्तथो विरुद्धाः प्रतिपत्तयः, स्वसामर्थन विषयपरिच्छेदात्, तद्वयवादा इत्यर्थः । वहुबहुतरादिपर्यायवाहित्वान्मत्यादीनां यथा विशेषो न च विप्रतिपतित्व तथा नयवादानामित्यन्थे व्याचश्यते । एकविपये प्रवर्तमानानामेषां प्रत्यक्षादिवद्विलक्षणत्वादेव न- विप्रतिपत्तित्वमित्याह-यथा इति जीवाजीवात्मकत्वधर्मेण सर्वस्य द्वित्वाध्यवसाय:, 'सर्व यात्मक द्रव्यगुणपर्यायात्मकत्वाद' इति द्रव्यगुणपर्यायात्मकत्वधर्मेण सर्वस्य त्रित्वाध्यवसायः, “सर्व चतुष्टयात्मकं चतुर्दर्शनविषयत्वाद् ' इति चतुर्दर्शनविषयत्वधर्मेण सर्वस्य चतुष्ट्वाध्यवसायः, सर्वं पञ्चात्मकं, पञ्चास्तिकायावरुद्धत्वाद्' इति पञ्चास्तिकायविरुद्धवधर्मेण सर्वस्य पञ्चत्वाध्यवसायः, 'सर्व षट्स्वरूपं पद्धयक्रोडीकृतत्वाद्' इति षड्द्र०यक्रोडीकृतत्वधर्मेण सर्वस्य पट्याऽध्यवसाय इत्येवमुक्तानां पणामध्यवसायानामित्यर्थः । पर्वते धर्मिणि वह्नौ विधेये सति पर्वतो पतिमानिति विधानवत् पदार्थमात्रे धर्मिणि द्वित्वे विधेये सति सर्व द्वित्ववदित्येवमुद्देश्यविवेयभेदसम्बन्धार्थकमतुष्प्रत्ययघटितमेव विधानं युक्तं न सर्व द्वित्वमित्याशक्षा मनसि कृत्वा तनिवृत्त्यर्थमाहसर्व द्वित्वामित्यादाविति । धर्मास्तिकायादीनामन्यतमो यः कश्चिदेकः पदार्थस्तस्य मत्यादिज्ञानैरन्यान्यप्रकारेणोपलब्धौ हेतुमाह पर्यायविशुद्धिविशेषादुत्कर्षेणेति । तदथेमाह- पर्याया भेदा इत्यादिना । तस्य मनुष्यपर्यायस्य यः प्रश्ने प्रवर्तते तद्गतानीति मनुष्यपर्यायविषयकप्रश्नकर्ता यस्ततानि तेनैव काययोगेन गृहीत्वा मनोयोगेन मनस्त्वेन परिणमितानि, तद्विचारानुगुणानीति यावत् । अनुमानेनैवेति-अयं पुरुषः मनुष्यपर्याय प्रष्टुमभिलपति तदाकारमन:परिणत्यन्यथानुपपत्तरित्यनुमान वेत्यर्थः । अथवा एतत्पुरुषहृद्रातप्रश्नो मनुष्यपर्यायविषयक, तदाकार मनःपरिणामान्यथानुपपत्तरित्यनुमानेनवेत्यर्थः । एकस्मिन्नेव विषये कारणभेदेन मत्यादीनां भेदमुपदय विषयभेदेन तदुपदर्शनप्रवणमन्येपातमुपदर्शयति बहुवहुतरादिपर्यायवाहित्यादिति, अस्थायम्भाव:-मतिज्ञानी मनुध्यादेजीवस्याल्पपर्यायान् परिच्छिनत्ति, ततश्श्रुतज्ञानी बहुपर्यायान् अवधिज्ञानी च बहुतरपर्यायान मन:पर्यायज्ञानी च विशुद्धिप्रकर्षाद बहुतमपर्यायान् केवलज्ञानी च सर्वपर्यायानिति ।। यथैतेऽल्पाधिकतरादिपर्यायग्राहियेन मत्यादिज्ञानविशेषरूपा ज्ञानभेदा अपेक्षाभेदप्रयोज्याविरो Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्थविवरणार्यदीपिका । पंचत्रिशत्तमसू० टी० ३६७ : वेति । स्वविषयनियमात्-स्वविषयस्य सन्निकर्ष लिङ्गसाश्वपदवृत्यादिना नियतपरिच्छेदकत्वात् । यथा प्रत्यक्षादीनां विषयाभेदेऽपि सामग्रीभेदाभेदस्तथा नयवादानां, न च विप्रतिपतित्वमिति स्पष्टोऽर्थः । इदन्तु ध्येयम्, एकशब्दजन्यानामपि शक्यलक्ष्यव्यङ्ग्यप्रतीतीना यथा वृत्तिभेदाद् भेद तथा नयधियामपि स्वस्तार्थवृतितदितरोपचाराभ्याम् , एतच्च नयज्ञानमेककोटिकापात्संशयसमुच्चयाभ्यामतस्मिंस्तन्निश्चायकत्वाभावाद्विप्रमासंपूर्थिवाहित्वाभावाच्च महावाक्यजन्यप्रमाणबोधाद्विलक्षणमिनि जात्यन्तरमेव । तदवदाम , धशालिविविधपर्यायग्राहिणोऽपि न विप्रतिपत्तिरूपास्तथा नयवादा अपीति । स्वस्वार्थवृत्तितदितरोपचाराभ्यामिति वं द्रव्यार्थिकन यस्तस्य यः स्वार्थः स्वविषयोऽभेद स्तन वृत्तिर्मुख्याश्रयणं तदितरस्मिन् भेदरूपे विषये उपचारो गौणवृत्याश्रयणम् , एवं पर्यायनये तपिरीयं, ताम्यामित्यर्थः । एतच नयज्ञानं संशयसमुच्चयाभ्यां विलक्षणमित्यन्वयः। तस्य संशयसमुच्चयबैलक्षण्ये को हेतुरित्यारेकायामाह एककोटिकत्वादिति । एकप्रकार तामात्रनिरूपकत्यादित्यर्थः । अत्र नयज्ञानं संशयात्मकं न एकप्रकार तामात्रनिरूपकत्वात् , उभयसप्रति पन्ननिश्चयवदित्यनुमानप्रयोगः । उक्तहेतोरेव तन्न समुच्चयात्मकमपि । ननु संशयसमुच्चययोः को भेद इति चेत् , उच्यते, एकत्र धर्मिणि विरुद्धनानाधर्मप्रकारकज्ञानं संशय इति लक्षणे एकस्मिन् वृक्षे विभिन्नावच्छेदेन कपिसंयोगतदभावप्रकारकज्ञानस्य प्रमात्मकस्य संशयत्वं मा प्रसाङ्गीदित्येदर्थ विरुद्धत्वस्य नानाधर्मविशेषणत्वं परेणापि स्वीक्रियते, विरोधभाने चाऽव्याप्यवृत्तित्वज्ञान प्रतिवन्धकमिति तदभावः कार्यसहभावेन प्रतिवन्धकामावविधया कारणमिति कारणीभूताऽव्यावृत्तित्वज्ञानाभाववाटितसामन्या संशये धर्मविशेषणतया संसर्गतयाचा विरोधो भासते, न समुच्चये, यद्वा संशये सन्देनीत्यनुव्यवसायसिद्धा विलक्षणविषयता स्त्रीक्रियते, न समुचये, तत्र समुच्चिनोमीत्यनुव्यवसायसिद्धविषयतास्वीकारात्, अन्ये तु संशये प्रकार ताद्वयनिरूपिता एका विशेष्यता, अभिनेत्र विशेष्यता, समुचये तु यद्यपि संशयवद् विशेष्यवयक एव तथापि तनिष्टा विशेष्यता प्रकारताभेदेन भिन्नत्याहुः, तथा च संशयज्ञानधर्मिनिष्टविशेष्यतानिरूपक तनिष्टप्रकार करने सति तद्विरुद्धतदमावनिष्ठप्रकारताकम् , यद्वा तनिष्ठप्रकारतानिरूपिता या तद्विरुतद भावनिष्ठप्रकार तानिरूपितकर्मिनिष्ठा विशेष्यता तन्निरूपकज्ञानम् , समुच्चयज्ञानञ्च नानाधर्मनिष्ठप्रकारताकैकधर्मिनिष्ठनानाविशेष्यताकम् , य?कधर्मनिष्टप्रकारतानिरूपितमिनिष्ठविशेष्यताभिन्नविशेष्यतानिरूपिततदन्यधर्मनिप्रकारताकज्ञानमिति, ताभ्यां नयज्ञानं मुख्यविधयैकधर्मनिष्ठप्रकारतानिरूपितैकधर्मिनि४विशेष्यतानिरूपकत्वाद् भिन्नमिति भावः । विभ्रमाद्विलक्षण नयज्ञानमित्यत्र हेतुमाह-अतस्मिन्निश्चायकत्वाभावादितितदमानवनि विशेष्यतानिरूपिता या तनिष्टप्रकारता तन्निरूपकत्वेनायथार्थ विभ्रमज्ञानम् , नयब्रानं तु तद्वनिष्टविशेष्यतानिरूपिततनिष्टप्रकारताकत्वेन यथार्थमिति तद्विलक्षणं तदिति भावः । सतमात्मकमहावाक्यजन्यप्रमाणवोधाद्विलक्षणमित्यत्र हेतुमाह-सम्पूर्णार्थवाहित्वाभावाचेति-सप्तमात्मकमहावाक्यजन्य सप्तधर्मनिषकारताकै धमिनिष्ठविशेभ्यताकासण्डा०६-. Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ३६८ : तत्वार्थविवरणमूढार्थदीपिका । पञ्चत्रिंशत्तम. टी. " अयं न संशयः कोटे रक्यान्न च समुच्चयः । न विनमो यथार्थत्वा-दपूर्णत्वाच्च न प्रमा ॥१॥” इति, : तथा “ न समुद्रोऽसमुद्रो वा, समुद्रांशो यथोच्यते । नाप्रमाणं प्रमाण वा, प्रमाणांशस्तथा नयः ॥१॥ इति, तवभत्र त्यमस्मत्कृतनयामृततरङ्गिण्याम् ।। उदाहरणदर्शितमेव नयलक्षणं संक्षिप्तरुचीनामनुग्रहार्थमा- .. याभिर्वतुकामः प्रक्रमते । आह-चेत्यादि । आह चेत्यात्मानमेव पर्यायान्तरवर्तिन निर्दिशति । नैगमः निगमो जनपदस्तत्र भवा ये शब्दास्तेषामर्था अभिधेयास्तेषाम् , एको विशेषः, अनेक सामान्यमनकव्यक्तिवृत्तित्वात् , तावेव यावौँ तयोर्नयः प्रकटनं स एव गमोऽन्यव्यावृत्तिप्रकार तभपेक्षतेऽभ्युपैति यः स तथा, देशसमग्रे विशेषसामान्ये ग्रहीतुं शीलं यस्य स तथा, व्यवहारी सामान्यविशेषाभ्यां परस्परविमुखान्या अस्ति वस्त्विति व्यवहाँ शीलं यस्य स तथा, नैगमो नयो ज्ञेयः । परस्परविमुखत्वं च तयोः पदा. बोधात्मकं प्रमाणज्ञानम्, नयज्ञानं त्येकै कमङ्गजन्य वस्तुगतकधर्मप्रकार कखण्डवोधरूपमिति ततस्तद्विलक्षणमिति भावः । यद्यपि नयज्ञानस्य तद्वति तत्प्रकारकत्वाल्लौकिकप्रवृत्युपयोगिप्रमात्यमस्त्येव, अन्यथा लौकिकन्यवहार एव न स्यात, तथाप्यत्रालौकिक तत्वविचारोपथिक प्रधानमावार्पितसकलांशावगाहिज्ञाननिष्ठप्रमात्वं नास्त्येवेति प्राधान्यनकाशावगानिस्तस्य ना लौकिकमामाण्यम्, न वाप्रामाण्यम् , लौकिकत्रामाण्यस्यापि सत्वात् , संशयसमुच्चयविपर्ययविलक्षणत्वाचेति तज्जात्यन्तरमेवेत्याह-जात्यन्तरमेवेति । स्वकृतनयोपदेशग्रन्थतिमाह-अयं न संशय इत्यादि। एतच्च पूर्वमेव विकृतम् । एतेन नयस्य प्रमाणत्वनिषेधेप्रमाणत्वं स्थात् , तनिषेधे प्रमाणत्वं स्यात् , विरोधिद्वयमध्ये एकनिषेधस्यापर विधानरूपत्वाव, राय रामावात् , तथा च प्रमाणानयस्य पृथगुपन्यासो व्यर्थ एवेत्यपि निरस्तम्, प्रमाणविषयकदेशवाहित्येन तस्य रूपान्तरस्यात् । एतदेव समुद्रांशदृष्टान्तेन व्यवस्थापयितुमाह न समु. द्रोऽसमुद्रोवेत्यादि। समुद्रैकदेशस्य समुद्रत्यासमुद्रत्वनिषेधवत् प्रमाणकदेशस्य नयस्थ प्रमाणत्वाऽप्रमाणत्वनिषेधोपपत्ति व्या। उक्तश्व समानतान्त्रिकैरपि तत्वार्थश्लोकवार्तिके "नाऽप्रमाण प्रमाणं वा, नयो ज्ञानात्मको मतः । स्वात्प्रमाणेकदेशस्तु, सर्वथाऽज्यविरोधतः ।।" इति । अधिक पूर्वमेव भावितमिति । एको विशेषः, अनेक सामान्यमनेकन्यनिवृत्तित्वादिति यद्यपि यावन्ति नित्यद्रव्याणि तावन्तो विशेषा इति नित्यद्रव्याणामान त्याद् विशेषा अनन्ताः, सामान्यन्त्वनेकव्यक्त्यनुगतमेकामिति वैशेषिका अभ्युपगच्छन्ति, एवञ्चैकं सामान्यमनेको विशेष इत्येवं वक्तुमुचितम् , एको विशेषः अनेकं सामान्यमिति तु विपरीताभिधानभित्र प्रतिभासते, सकलविशेषापेक्षया सकलसामान्यापेक्षया चाभिधाने यथाविशेषाणामानन्त्यं तथा परापरभेदभिन्नानां सामान्यानामपि आनन्त्यमिति विशेष सामान्यमपि अनेकमित्येक सामान्यमित्यपि ' वक्तुभयुक्तम् , तथाप्यत्र विशेषव्यक्तिसामान्यव्यक्त्यपेक्षयेकानेकनिर्वचनं, तत्र विशेषव्यक्तिरेकैकय वर्तत इति न तस्या आश्रय भेदात् स्वरूपतश्च भेद इति भवत्येको विशेषः, सर्वथैकस्यानेक . वृत्तित्वं न सम्भवति, यतः कथञ्चिभेदाभेद एवाधा राधेयभाव इति सामान्यसाधारण सह कथश्चिदभेदादाधारभेदे तस्यापि भेद इत्येकस्य सामान्यस्यानेकाधारकृत्तित्वादनेकत्वामिति भवत्यनेक . Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તરંવાઢેર દાર્શપિકા પંáિરામ છે જીંતરત્વેન, યત્સામાન્ય સ ન વિશેષ યો વિશેષઃ સ સામાન્યમિત્યે વૈવિયેન , ચર્ચે દિ માં ગૃા સામાન્યવ પરથતિ, મળી પિવિ, ન તુ સ્થાઢિોપતિનત્યન્તરત્વેનેતિ | II હિતિ યજ્ઞ જ્ઞાનામિતિ સવઃ | સંત સામાન્ય કત તિ વન સંય રહ્ય તથા સ્વાદૃ સામાન્ય સત્તાપે, વેશત ફતિ કે સામાન્ય વિગેરે સ્વાતિ, જી ન્યથવા, વિધવાવિ, સાબી મહાસામાન્ય પાવરવાનૃખાનાને મૃદ વ સર્વત્ર મેવાડનુતત્રનામાવનિક્સ - વારત્રામા(ત) વ હિ સર્વજ્ઞાનના દ્રિપાન કામાર્થ દીનાન્તરોપનાનિતમે વાસેના યુદ્ધમત્રામ સંશવં પુનરપતિમહાવાકીદાર ફત્યાત્રિઢતન્નોત્થાપિતાન્તરવું, તનુજ્ઞાનમ! સદનએન નિયત નિશ્ચિત, વિદ્યાન્નાનયાત, નવ નવમેવાતા ૨ / ઝુવાતિ સમુદાય સદ્દાતઃ પ્રાલાવાવિષાદાનાવિ. વ્યક્તિવવવ વોરાપિનો ત્રચી, શાને? સંસ્થા નનવવવાનાં, ના માલાનાન, સંજ્ઞાદો નામ-થાનમાવા ઘણા નિશ્ચિનાકા નિવાં વિરાવા જ્ઞાનતડપતિ ઃ સ તથા ૫ પુતી દિ મત માનિશ્ચિત સમાચાર સમુદાવાદ વ્યવહારમ, નિશ્ચિતવિશપતિરિનાં તેષામાવાન, દિ સમુદાવાદયાસામાન્ય સ્થાનેવાવાય વજનનેજિત્તિજાતિ નિચિંતિમઘઉંટ-જતતાનનારાવિશે વાવાઝુનિ ચાવવાથ- વાવ વાવાળા જ સામાન્ય મત્તાવા દ્રવ્યસ્ત્રાપવા જ વિષ, પર્વ જવાવિ ત્રિમાદિત્યધ્ધિન સત્યાવિશ ત્રિનિર્ચ ! નમાવાનિ-ત્ર જન વિ િત્રમાકાનું પામૃત ત્રહ્મલામાન્ય માનવા, ડમચાગ નમદિર મામતિ ના પદો ગુજ: 1 નં. જ્ઞાનાનાં કનેતિ-બ ઘટનાનું પદયાત્રા નુ શાન દવુખ્યત્રવ, નર સદૃપત્તા, મૃત્મવવાાિનવ થા કિનામછે તેમાં જ્ઞાનાનાં ત્રાજવાર્થ વાકયા દક્તિ કેન્દ્રન નવમીનિવાં મહાવા , એનુક્કાવાવનના, અખાત્રીજ મર્ચન્ટાતિવિવિખ્યાનકત્રદિનન્યાયાધાર વાગ્યાના વિવિ માવજન નાબત ધવાયાબળા નિચન્હોને નવાવન્ય જીવા બુદતનવાવ, વિચાર્ગ જ દંત્ય પૂર્વાનુમાનન્ના ના નાક રિકવા નિબનિનાદવાળ્યુદિનમાત્રનો ઉપવા મત બિજી, માં 2 Mા ધર્મ, કન્યાદાન, અન, હાં કી લકવાગ્યવંઝુત્રાિિાિન્ય ધરા નાકદુકામાં રિપનાં સાનિધ્ધ કાનન :મન કા કા ય કતન્નતિ નદિન! દારા ઇદ-અસ્કૃતિ ! નઢેર ઢેર ન્યૂ નિઝા મિશ્રા Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ૩૭૦: ભરવાજૈવિવનામૂઢાર્થીપિશાપંરાંત્તમ ટો હિસ્રણ સમુદ્રાવ્યાદિતિરિ# મનુ યન્ત, વિપવ સ્વપ્રત્યક્ષતાત્, અમાવ વ માડી સામાન્યસ્ત પિતન તુછવાત, તાદરામ િવ તાનિલપેન સામાન્ય પ્રત્યાત્તિધર સ્વતિ તિ ન વ્યાણિજ્ઞાનાવૌ વાક્યોમાનાનુપત્તિ સાતત્ય મતક્ષ્ય સ્વભ્યાપવષયતાધૂમ ચલે હેતુત્વજવનાન સ્વામિમતોડપિ વિયોવૅન વધ્યમાનો વિષયપ્રાધાન્ય ઈન્તા ચા સંગ્રહસ્થાનુપૂર્વી વ્યાખ્યો રાશિ ત્મિત્ર રાશિત્વષટશષ્યોનાવનાર્થવદુત્વવિશેષચ નાશ્રયળડખ્યાનુપૂર્વીવલામાચનિતૈઋત્વપ્રાધાન્યૂ સંગ્રહડક્સાહતમતિ વ્યવસ્થાપિતમનુયોદ્ધાપુ દ્રવ્યપ્રમાણનિન્તાયાં તદ્રવત્ર આવનચમિતિ હિમ ! તથા એ વરવારો ગિરિધત ફર્યાદ્ધિtતત્ર નિયત નિષ્પન્નમ્, વ્યવહારનયમ્, વિદ્યુત વારિતાનુપારિતાર્યાશ્રયળકિર્તા, વિવાહવવુષ્યત રૂ ત કર્થમાંહ-વિશેષા રૃતિ | નનું સામાન્ય રિપતત્વેનોસકૂપ વૃત્વसामान्यप्रत्यासत्या कथं सकलधूमज्ञानं स्थात्, तदभावे च कथं सर्वोपसंहारेण जायमाने વ્યાતિજ્ઞાને લજપૂનમાન યાવિત્યારફ્રાનિવૃજ્યમાહ તાદ્રશમ િવ તાજાતિ-સુખમાં જ સામાન્યમિત્ય વૈજ્ઞાનિસપેનતિ-વઘર જ્ઞાનવિષયવસમ્પન્થને વિષયોનેતિ-વિષયો ધૂમબરાક્ષ ધૂમ, તસ્ય વોન સન્વધન, ધૂમસામાન્યઅક્ષણ પ્રત્યાયતમાડૌશિનિવાર્યત્વેનેતિ થાવત. “સંહસ્ત કાળુપુત્રીવાડું વિં. સંવિઝાઝું સન્નારું અળતારૂં ?, ને સંજ્ઞા નો જ્ઞાઉં, ને બંતા, નિયમા ખો જાણી” રૂત્યનુવાદ્વારસૂત્રટાયાં નનું થતું સન્થયાદ્રિપાળ [તાન્યાનુપૂર્વદ્રવાળ મવ િતર્દિ છે શિરિત્ય નો વપઘત, દ્રવ્યવાદુળે સતિ તસ્વોપદ્યમાનવાદ્, વૈધારિરિપુ તથૈવ ફર્શના, સત્ય, શિલ્વે શિરિતિ વહત માયા?, વજૂનામાં તેવામાનુપૂર્વસામાન્યૌન શોવીઝાદેવમેવ, વિ યથા–વિશિષ્ટપરિણામપરિતે સર્વે તારમાવવાનાં વાદુઘેડતૈયે મુળ્યા, તવત્રાનુપૂર્વીદ્રવ્યવાદુપિ તત્સામાન્યāજેવા મુરથમ નવા પ્રતિપદ્યતે, તદ્દનૈવ તેવામાનુપૂર્વાસિત અન્યથા તદ્માવબસા, તમભુથલૈવસ્વાન વક્ષબ્રુિતત્વોવ સંધેયાતાનિયા, મુળમૂતાનિ નુ દ્રવ્યાખ્યાત્યિ પરિમાવોગ ન હિ ધ્યત પ્રત્યુત્ત, તથા ૨ તત્ર રાશિમાવીપપાનાર્થે યથssyપૂર્વદ્રવ્યતવદુત્વસંધ્યાય મુળમૂતાયા થથળે ખ્યાનુપૂર્વાલામા ટ્વન તકૂળાનુપૂર્વીદ્રવ્યાપારિવામિતિ તસ્ત્રાધાન્ય વામ્યુપd સંગ્રહનવ્યાહૃત તથા વ્યવહારનો સામાન્ય પ્રવાસવિયા ગુમૂતસામાન્યાશ્રયોગ સ્વામ્પત विशेषप्राधान्यमव्याहतमित्याशयेनाह यथा सङ्ग्रहस्यानुपूर्वीद्रव्याणीति । तृतीया રદ્ધિમાહૃતથા વા રૂઘરા નિરિર્વશ્ચત રૂાવવા ફ્રાતિ મિત્ર રિપસ્ય મિરિયાળા ઢક્ષખા, પિવાય પર્વતસ્ય વાહે ન્વયાત્મવેગ તબદ્રાહુતાત્પર્થસ્થાનુષ ક્ષણવનસ્ય સત્તાવ! સંયોગનું મૂયો વઘાતિ, વાઢિપદ્રનાણાવદ્યા યાતત્યાદ્ધિ પ્રાધ્ધ, ત્રિાવક્ષ્યાનિ જતિ પુરુષાબુદ્દાથે હલા, Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थविवरणगूढार्थदीपिका । पञ्चविंशचमसू० टी० : ३७१ : सातत्यादि । साम्प्रतो वर्तमानो यो विषयस्तस्य ग्राहकम्, समासतः संक्षेपतः, जुत्रनयं. विधात् । समासत इत्यनेन वर्तमानकालस्य स्थूल सूक्ष्मतया स्थूलसूक्ष्मताभ्या भेद आत्मीयनामादिविषयभेदश्च विस्तरेणास्थाभ्यूह्य इति सूचितं भवति । उत्तरार्धेन २०६स्वरूपमाह-विधात यथार्थशब्दमिति । यथार्थ व्युत्पतिनिमित्तसमव्यापकपदवाच्यताभ्युपगमप्रवणमध्यवसायम्, शदनयं विधादित्यर्थः । अनेन चैव-मूत एव प्रकाशितो लक्ष्यने, सर्वविशुद्धत्वेन तस्य व्यञ्जनार्थविशेषणत्वात् । साम्प्रतसमभिरूढी तर्हि फरमान्न मारिताविति चेत्, स्मारितावे | तदाह-विशेषितपदं तु श०दनयमिति, विशेषितपदं विशेषज्ञानं, नामादिषु प्रसिद्धपूर्वाच्छन्नादर्थप्रतीतेः साम्प्रते, शब्दान्तरवाच्यार्थः शब्दान्तरस्य नाभिधेय इत्येवं च समभिरूढे विशेषितपरत्वं बोध्यम् । इतिर्नयानुस्मरणपगिनिष्ठासूचकः । अत्राह पर:-घटाधजीवपदार्थोद्देशेन नैगमादयो नया विभाविताः। अथ जीव इति शुद्धपदे आकारिते उचारित अध्नपदार्थस्य स्थिरस्य गमनेऽन्वयानुपपत्तेः पुरुषतात्पर्यानुपपत्तेर्वा हेतोरक्षतत्वात् । तत्प्रयोजन नरन्तर्यप्रतीतिः, जुत्रस्वरूपं सझेपत आह साम्प्रतेत्यादीति । वर्तमानकालस्य स्थूलसूक्ष्मतया स्थूलसूक्ष्मत्वाभ्यां भेद इति-ऋजुत्रविषयीभूतस्य वर्तमानकाल. स्थापि नैकर किस्थूलसूक्ष्मरूपत्वात् स्थूलत्वेन सूक्ष्मत्वेन स्वस्वभावेन भेद इत्यर्थः । नामादीति-अत्रादिपदेन स्थापनाद्रव्यमावपरिग्रहः कार्यः । अस्य गजुबानयस्य । यथार्थमित्यस्वार्थमाह व्युत्पत्तिनिमित्तेत्यादि । यत्रार्थे यदैव यच्छदव्युत्पत्तिनिमित्तक्रिया पर्वते तत्रार्थे तदेव तच्छवाच्यता, यत्रायें यदेव यच्छन्दवाच्यता तत्राथै तदैव तच्छ०६. व्युत्पत्तिनिमित्तक्रियेत्यभ्युपगमप्रवणमध्यवसायमित्यर्थः । विशेषितपदमित्यस्यार्थमाह-विशेपज्ञानमितिा नामादिषु प्रसिद्ध पूर्वाच्छादर्थप्रतीतिः साम्प्रत इत्यस्य शब्दान्तरवाच्यार्थः सदान्तरस्य नाभिधेय इत्येवं च सममि इत्यस्य चार्थः पूर्वमेव कृत इति । संक्षिप्तवुद्धिसत्वानुग्रहामिलापुकपूर्वाचार्योक्तास्सतनयंसाक्षप्तस्वरूपप्रदर्शिका श्लोका अत्रोપરિવાષ્ટિથળે "शुद्धं द्रव्यं समाश्रित्य, संग्रहदशुद्धितः । नैगमव्यवहारों स्ता, शेषाः पर्यायमाश्रिताः ॥१॥ तथाहि-अन्यदेव हि सामान्य-मभिन्नज्ञानकारणम् । विशेषोऽप्यन्य एवेति, मन्यते नैगमो नयः२॥ सद्रूपताऽनतिक्रान्त, वस्त्रमावमिदं जगत् । सत्तारूपतया सर्व, समन् सग्रहो मतः ॥३॥ व्यवहारस्तु तामेव, प्रतिवर व्यवस्थिताम् । तथैव दृश्यमानत्वाद् , व्यापारयति देहिनः ॥४॥ तत्र सूत्रनीति: स्यात् , शुद्धपीयसंश्रिता। नश्वरस्यैव भावस्य, भावारिस्थतिषियोगिनः॥५॥ अतीतानागताकार कालसंपविर्जितम् । वर्तमानतया सर्व सूत्रेण सूज्यते ॥६॥ विरुद्धलिङ्गसङ्ख्यादि,-भेदामित्वमावताम् । तस्यैव मन्यमानोऽयं, १०८: प्रत्यवतिष्ठते ॥७॥ तथाविधस्य तस्यापि, १९४नः क्षणवार्चन । बृते सममितु, संज्ञाभेदेन भिन्नताम् ॥ ८॥ एकस्यापि ध्यनेर्वाच्य, सदा तन्नोपपद्यते । क्रियाभेदेन भिन्नत्वा, देव भूतोऽभिमन्यते ॥९॥" इति । आकारित इत्यस्यार्थमाह-उच्चारित इति, नैगम समयमाहि विहायति । 4. Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ३७२ । तस्वार्थविवरणदार्थदीपिका। पंचत्रिशतमसू० टी० . नौजीवोऽजीव इति देशसर्वप्रतिषेधयुक्तयोजीवशब्दयोरुचारितयोः, नोअजीव इति प्रतिषेधद्वयसमन्धिते जीवशब्दे उच्चारिते केन नयेन नगमादिना कोऽर्थः प्रतीयत इति वक्तव्यम् , अस्मिन्नुक्ते हि सर्वत्र विधिनिषेधयोनयज्ञान व्युत्पन्नानामीपकर स्यादिति । सूरिराह-अत्रोच्यते-शुद्धपदे जीव इत्याकारित नैगम समयग्राहिणं विहायैवंभूतं च शेषैर्देशनैगमादिभिः सर्वासु गति वर्तमानो जीवोऽभ्युपगम्यते । तदाह-नैगमदेशेत्यादि । नैगमेन देशग्राहिगा, तथा व्यवहारेण विरोपमाहिगा, जुसूत्रेण वर्त- . मानवस्तुग्राहिणा, साम्प्रतेन वर्तमानभाववाहिणा, समभिरूढेन च प्रतिशब्दं भिन्नार्थग्राहिणा, पञ्चस्वपि नरकतिर्यड्मनुष्यदेवसिद्धिगतिधु, अन्यतम इति नरकादिवर्ती, जीवः प्राणी प्रतीयते । अत्र देशसमपदस्वरसादौ पशमिकादिभाकोश जीवस्वरूपपारिणामिक भावनाहिसंग्रहग्रहगेऽपि न क्षतिः, जीवापेक्षया तस्य सर्वसमहत्वेऽपि भावापेक्षया देशसञहत्वात्, व्यक्तिहस्य च उक्तमतं कियतां नयानामित्याह "नगमो देशसाही, व्यवहार सूत्रको । २०६: समाभिरूढवेत्येवमेते प्रचक्षते ॥४५॥ " नैगम इति-जैगमो सैगमनयः, देशसमाही अवान्तरसब्ग्रहः, सर्वसङ्ग्रहस्य सन्माचार्यत्वात्तयागः, व्यवहारजुसूत्रको व्यवहारनय जुमूत्रनयञ्च, २०६: लमभि७४श्वेत्येवमेते प्रवक्षते ।। ४५ ।। इति नयोपदेशवृत्तिपाठमनुसृत्य नैगम समग्राहिणं विहायेत्यस्य सत्ताख्यमहासामान्यग्राहिणं परसग्रहं विहायेत्यर्थः । एतेनैव सत्तारूयमहासामान्यग्राहिनैगमं विहायेत्यपि लभ्यते, तथाभूतस्य नैगमस्य परसङ्घह एवान्तर्भावस्य श्रीसिद्धसेनदिवाकर भगवसम्मतत्वादिति बोध्यम् । अत एव नगमेन देशग्राहिगेल्यत्र नैगमेनेत्यस्य देशवाहिणेति विशेषणं चरितार्थम् , परसंग्रहान्तर्गतसर्वग्राहिनैगमध्यविकिरपात्तस्येति । भायोक्तदेशसङ्ग्रहेतिपद स्वारस्यलम्यार्थमाह-अत्र देशसङ्ग्रह पदस्वरसादिति-औपशभिकादिभावैकदेशजीवत्व०५पारिणामिकभावग्राहिसंग्रहग्रहणेऽपि न क्षतिरिति-औपशमिकादीनां पञ्चानां भावानां य एकदेशो जीवत्वरूपपारिणामिकभावस्तग्राहिसहग्रहणेऽपि न क्षतिरित्यर्थः । तत्र हेतुमाह जीवापेक्षयेत्यादि । जीवत्वरूपपारिणामिकमारूपेण सर्वजीवानां संग्रहो भवतीति जीवापेक्षया जीवत्वरूपपारिणामिकमावग्राहिसखग्रहस्य सर्वसङ्ग्रहत्वेऽपि पञ्चविधभावापेक्षया जीवत्वरूपपारिणामिकभाव एकदेश इति तद्ग्राहिणो देशसग्रहत्यादित्यर्थः । ननूक्तदिशा जीवत्वरूपपारिणामिकभावनाहिसङ्ग्रहेण जीवशब्देन जीवत्वरूपपारिणामिकभाव. ग्रहणेऽपि कथं जीवव्यक्तिप्रतीतिरित्यत आह-व्याग्रिहस्य चेत्यादि । अथ भावः યદ્યપિ વિરુદ્ધસહન સપાં ત્રિકશિક્ષાવનોમનulyપર્યન્તાનાં કન્યાનામાનું, पूर्वीत्वसामान्याव्यतिरेकात्सर्वाऽप्येकैवानुपूर्वी तथाप्यविशुद्धसंग्रहनये "तिपएसिए आYपुची चउपएसिए आणुपुची जाब दसपएसिए आणुपुब्बी संखिजपएसिए आणुपुत्री असंखिजपएसिए आणुपुत्री अणंतपएसिए आणुपुत्री" इत्याद्यनुयोगद्वारसूत्रे यथा सर्वेऽपि । त्रिपदोशिका स्कंधास्त्रिप्रदेशिकत्वसामान्यायतिरेकादे कैवानुपूर्वी, एवं सर्वेऽपि चतुष्प्रदेशिकाच Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... तपार्यविवर्थिदीपिका | पंचशित्तमस्० टी० ३७३ : तत्रानुपूर्वीद्रव्यमाहिसावदेवोपपतेरिति द्रष्टव्यम् । कस्मादिति किमत्रोपपत्तिरत्युत स्वेच्छया नैगमादयोऽभ्युपगच्छन्त्येमिति हेतुप्रश्नोऽयम् । सूरिराह-अत्युपपत्तिः, तामाह-एते हि नया इत्यादिना, हि यस्मात्, एते नया जीवं प्रति जीवादार्थमधिकृत्य, औपशामिकादियुक्तो यो भावोऽर्थस्तग्राहिणः, सर्वासु च नरकादिगतिषु अवश्यमोपशामिकादीनां यः कश्चित्स भवति भावः सिद्धिगतौ च यद्यप्योपशमिकक्षायोपशमिकौदयिका न सन्ति, तथापि क्षायिकारिणामिको सम्भवत इत्यमावपि जीवः । यचप्योपशमिकादीनां मिलितानामव्यापकत्वादलक्षणत्वं, तदन्यतमवत्वस्य च पारिणामिकभावमादाय धर्मास्ति तुष्प्रदशिकत्वसामान्याव्यतिरेकादेकैवानुपूर्वी, एवं यावदनन्तप्रदोशकत्वसामान्याऽव्यतिरेकात् सर्वेऽपि अनन्तप्रदेशिका कन्धा एकवानुपूर्वी प्रोक्ता, अत एव सङ्ग्रहनयस्य सामान्यचादिखेन सामान्यस्य चैऋत्येन सर्वत्र कवचनं न बहुवचनम् , तथा च तत्र त्रिप्रदेशिकस्कन्यादीनामिनन्तप्रदेशिकस्कन्धपर्यन्तानां देशसहनयेन विशेपागां सामान्यरूपेण ग्राहिणा त्रिप्रदेशिकानुपूर्तत्वाधनन्तप्रदेशिकानुपूर्वीत्वसामान्याऽव्यतिरकोत्रिप्रदशिकानुपूर्यादिशब्देन ग्रहमस्येय जीवत्वरूपपारिणामिकमावग्राहिदेशसंग्रहेण जीवशब्दवाच्यतादृशमावाव्यतिरेकाजीवयीनां जीवरक्षन ग्रहणस्थाप्युपपत्तिया देव, नरकाचन्यतमगतिवर्तिजविव्यक्तिर्देशस ग्रहनयेन जीवस्वरूपपरिणामिकभावसामान्याऽभिन्नत्वात् पञ्चस्वपि गतिपु जीवशब्देन प्रतीयते, जीव इति कथ्यत इति, औदायिकक्षायोपशामिकपारिणामिकमावत्रयनिष्पन्न एकस्त्रिसंयोगः ५००भा०क्षण: औदायिकौपशमिकक्षायोपशामकपारिणामिकमावनिष्पन्नश्चतुकतंयोगान्तीय मङ्गलक्षण एकः, अन्यश्चौदायिकक्षायिकक्षायोपशमिकपारिणामिकमावनिष्पनश्चतुर्थभङ्गलक्षण इत्येवं द्वौ चतुष्कसंयोगावित्येते त्रयोऽपि प्रत्येकं चतसृष्वपि गतिषु सम्भवन्तीत्याशयेनाह-सातुच नरकादिगति अवश्यमापशमिकादीनां यः कश्चित्सम्भवति भाव इति। "कयर से णामे खइएपरिणामिअनिष्फण्णे ? खइ समत्तं, पारिणामिए जीये, एस णं से णामे खइअपारिणामिअनिफण्णे ।९।" इति वचनाद् दशदिकसंयोगान्तर्गतनवमभङ्गस्य सिद्धिगतौ सम्मवादाहतथापि क्षाधिकारिणामिको सम्भवत इति । अथ मिलितोपशमिकादिपञ्चभावावितत्वं जीवस्य लक्षणं क्रियते किं चौपशमिकादिनिखिलभावान्यतमवयम्, तत्राचं चेत्तदा तन्न, युक्तम् , " कयर से नामे उद३५ उपसमिए खइए खओरसामिए पारिणामिअनि कण्णे ? उदइएत्ति मणुरसे, उपसंता कसाया, खई सम्मतं, खओक्समिआई इंदियाई, परिणामिए जीव" इत्यनुयोगदारसत्रोक्तपञ्चकसंयोगभङ्गः क्षायिकसम्यग्दृष्टिः सन् य उपशमणिं प्रतिपयते तस्य जीवस्य सन्मपति नान्यस्य, समुदितभावपञ्चकस्यास्य तत्र भावादिति तस्मिन् जीये उक्तलक्षणस्य धटमानत्वेऽपि तदन्यजीवश्वसम्भवनाव्याप्तः, द्वितीयं चेचदपि न, तस्य तादશાન્યતમપછાાં માપ માવનાવાય સર્વનg ધમાનનોવ્યાસંનિવારગિપિ તદ્દશાतमपदप्रासं पारिणामिकमा धर्मास्तिकायत्वाधर्मास्तिकायत्वादिलक्षणमादाय तवस्य धर्मा Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ૩૭૪ : તાવિળઢાર્થીપિ . પંર્વાનંરાત્તમહૃ૦ ટકા ચાવાવતિચાપવા, તથાપિ નવત્વમળ્યમવસ્ત્રપતિપરિણાકિમાવાળે દ્વિપક્ષે न दोषः । न चैवं जीवत्वं जातिरेवानुगतं लक्षणमस्त्विति शङ्कनीयम् । एकलक्षणस्य लक्षणान्तरानपवाद વાત, ફતરમવાનુમાને, પક્ષતા છેવટેરમેનો¢નાતરક્ષણાત, સામાન્યાનમ્યુપાનૂદ્ધપર્યાયનયાનનુગ્રાતિ દ્રવ્યુ નોની ફત્યુત્તરિતે વિં પ્રતીય સૈન હન્યતે–ચા ના પ્રતિષધે વતતે, ત નમ્યુમિવ યુi વેત્યના પનવા વરવતવ પ્રતીતે, નામાવા, તવાઝવદ્રવ્યું પુત્ર અતિમિર્ચો I થી તુ નેશન્ઝો વેશપ્રતિષેધસ્તી વેશદ્યાનિષિદ્ધવાવસ્ય વેરશ્ચતુર્માદ્રિા , પ્રવેશ વાલ્વન્તાડવમનનીય ચેતે નોનવશતિ ટlઝતઃ | ત્ર સર્વપ્રતિષેધપક્ષે વવન્તાબતતિ, નોરાવસ્થાન્યામાવવર્થવં નવપર્યસ્થ જૈોડવન્યોન્યામાન્જી ફત્યામાળ નીવપદ્રય નવાન્યમવતિ સૃક્ષણા નાશબ્દાર્થ મિબાળ વા, રિતૈયાવ સાવતિથરિત્યારામાં યદ્યપીત્યાવિનોજવા તત્સમાધજે-તથાત્રિના ' દ્વિતીયપક્ષે રૂતિ-તન્યમવરવપક્ષ કૃત્યર્થ છે તથા વોwાન્યતમવક્ષળધરપરિણામમાવે નીમવામળ્યવાન્યતમંત્મહત્વ વિશેષ હેમિતિ નtોષ ફતિ માવા ફત્તરદ્વાનુમાન રૂતિ–ઉતરવાનુમાપ હૃક્ષમિતિ તસ્ય મિતરમવાનુમતિતિ નવ હતમનો વીવત્વાહિત્યનુમાનત્ય પક્ષતાવ છેવત્વોર મેવેતિ-નનુ તયારમે હો હો તિ ત, તે, ધ ધ તિ વાવતિદ્રવ્યાખ્યનીવવાંઢાય નીવ હત્યુષનવાજ્યાદ્રિરોગ્યતાવ છેવારતાવ જ્યારે મે વિહળસ્થિતિહપારણામાવાવ વાવયવધાનુવાવ, નનુ ળિપસ્થિતે જળ ક્નિાનામિતિ વેત, રામેવાનો ધો વિપસ્થિતયોનિ વ્યુત્પત્તિરવેતિ, તત્રા િ િમાનમિતિ વે, તે તદ્ધવચ્છિનામેવસવ્વૂવિછુિંભારતનિહપતવિશેષ્યતાવૈષ્ણવછતાલક્વન્કેન શાબ્દોમ્બાતિ તદ્રુમેન્ટ વાળમિતિ વાર્યરામાવ વોડ્યુત્પૌ માનામત માવા દૂષણમધ્યાહ–સામાન્યાનયુપત્તશુદ્ધયરયાનનુપ્રાનિ ા નોનવ ફત્યત્ર નોરવૂ સર્વચૈવ નીવહાનિધિચિંતા નિયમાન નિષેધ વાત્ર પર્વદ્યાસહાયૅવ ગ્રાહ્યત્વેન નીવવાવચ્છિન્નતિયોગિતન્યોન્યામાવવાનું પવાર્યત્વેન પણ વિશો યોગ્ગવાસ લવ નોનવશબ્દેન પ્રતીયત હત્યાવિદા નોરાજ્યાવિ, નવુ મિવ યુમિતિ-અન પતાસાત્મનિધોત્ર ગ્રાહ્ય કૃતિ વિતમૂ વરતાર પ્રધાન રતિ-નોનવ રાતિ પવનન્યશાશ્વવો પુદ્રાદ્ધિદ્રવ્ય વિધથીમવ તત્યાર્થી પ્રસન્નતિ ધાનધમદ-જમાવતા હેનિસ વિ તદ્દો ત્તિ વવનાત્ શાનેવર્ય વેરાગ્યનુજ્ઞાના જવાનોનીવાવાળ્યો નવરા નવબહેશો ત્યાદ–વેરાસ્થાન sનપદ્ધત્વજ્ઞdયાવા ગત વર્ષનીવત નૌશલ્વેઝીવ સનિષેધા પ્રદેશો લીવસ્ય તને વંશનિધિ” mજરાત નોપદેશવને સજ્જને તિા નનુ નાવ્યાખ્યોન્યામાવર્ધન્યોન્યામાં પાર્થનાવવત્તત્રાપ નીવવિજેતરપટ્ટાન્ડયોજ પવાર્થ પઢાર્થનાતિ નતુ વાગેનેતિ વ્યુત્પત્તિ ધારયાલિશફ્રાનિવૃત્ત થૈ વક્ષાHE-નવાર વાળ્યો માવતિ ક્ષતિ! ક્ષળા દિ ચત્ર તાવનુર , Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ વાચવિવધૂત પિૉ ! ત્રિશત્તમપૂ॰ ટી : ૨૭૧ : નોશરૂમ્યાન્યોન્યોમાવ પવાર્થ, પ્રતિયોચિત્રમાશ્રયÄ € સંસમાંરાજામાંમાયેગેન વા, વેરાતિષયÆ વિવેગે સર્વતિષેત્ર, ચા દ્વાવાળાંપિટક નોઆમતો માવદ્યુતમત્યત્ર પારિત્રિયાવિશિષ્ટમાવશ્રુતે ધર્માંદ્યુતે યિાપવેશે સર્વેમાવત્રુર્તાનેષેત્રે, અન્યથાડઽવારે સૂત્ર‰તાવાત્સ્યામાવાવાખાનારૂં તો બાગમતો માવશ્રુíમયવ્યાપ્યાંપત્ત, વારસસ્મિન દેશાંતષેધો, ચથાડીવ વિશિષે સસ્મિન્નાાનપદેશમાંતિવેષ, નીર્જીવશિષ્ટધટે પોર્તાનષેધવત, અત્ર નોશ′āદેશામાવર્થાત રક્ષા, પ્રદેશે પામવામેવેનન્વયઃ । બાંવશે સર્વત્તા નિષેધ, ચથા નીવચ નીચે ના પ્રવેશો નોનીય વૃતિ શસ્ત્રનયોવાદ જ્ઞાનપ્રવેશે ધી તે નીવવૃત્તિયાવ વસન્ત્યાપર્યાપ્ત્યાશ્રયતયા, સત્ર ચાવવપર્યાપ્ત્યનાપ્રયત્વે નોરાન્ત્રાર્થ, ચાવત્ત્વ ઝીવપવાચેય વ્રુત્તિત્વેનાન્વયઃ । ખાનદેશે વૈશસ્ય પ્રતવેષઃ । ચા પ્રતોનારખે, અત્ર નીવતસ્યાધિનૃતનીવનેશતપ્રદેશો વા ફળયાએ નોચન્દ્રસ્ય તિરનેશનષેધ ાંત વ્યવસ્થા જ્ઞાતા | લાવ ત્યનીવદ્રવ તીયતે યુદ્ધ~વિમ્ । નોંધનીય ાંત પુનિિદંત નારાારયોઃ સર્વપ્રતિષેધષત્તિસ્તત્રવ, મૈં પાત્ર સતિ નીવયવસ્ય શ્વાર્થવામાવેન ન નૌશબ્દત્તાત્પર્યગ્રાહ ચિત્ત્વયો ન્યામાવાનાયાર્થે ત્ત્વ, યુદ્ધોત્તપણે તાત્યયંત્રાત્ત્વ નોરાન્ડ નિયંત્ત્વમેવ સ્વાતિत्याशयेन तृतीयपक्षमाह-नोशब्दस्यान्यो भाव एवार्थ इति । शाब्दबोधे चै+पदार्थेऽपरपવાર્થસ્ય સંસñ સંતોમહયાં માસત નૃત્યનુઋત્યા-પ્રતિયોગિત્વમાશ્રયત્વ સંસ$મોવાજાંમાંત પદ્દાર્થયન્ય Tઃ સસમૅમ્સ બ્રાાિમાસ્ય વેસ્યાજટ્ટામાત્યેન પ્રાયોમિત્રસંસા નીવપવ(ચસ્વ નૌવસ્વ નોખવાષઁન્યોન્યામાથે તપ પત્રસંસા વિદ્રવૈય સ તે માવઃ । વેશાંતષધ ત્યસ્ય દ્વેગે સર્વસ્વ પ્રતિષેધ, સદ્રસ્મિન દેશસ્ય પ્રતિવેલ, વેશે સર્જનયા પ્રતિવેદ્ય, વેશે દ્વેશસ્ય પ્રતિષેર્વે ત્યેત્રે તુમેયાર્થોત્ર પ્રાંતષાવની, તન્નાઘમજ્ઞમાં દેશપ્રતિપધાર્યા ષહેરો સર્વતિષધ જ્ઞાાન શિયાપવેશે ાંત, દાદ્દાજ્ઞમિત્યત્ર ઝાહુશાપરું ખારિત્રળિયા વાશેશજ્ઞાવશાજ્ઞાર્ય વિક્ષિતમિતિ તવેદેશે. પારિત્રળિયાપે શ્રુતમિનઘેનાનાયમાત્મ હત્યર્થઃ । તથાનચ્યુષાને તિવ્રતાનાદ-અન્યતિ વેરો દેશાંતÒધાન્યુપામે ત્યર્થઃ । સદૃષ્ટા ં દ્વિતીયમ મા વષત્સર્વાન્નિત્તિ । તૃતીયમનું દૃષ્ટાન્તોષેત વિદ્યોતિ વષદ્દેશે સર્વતયા નિષેધ ાંત । વવૃત્તિયાવસથાપત્યા અમૃતયેાંત અન્ય નિષેધ રૂત્યનેનાન્વયઃ ર્તન્ય રૂતિ । દ્વેષ્ટાન્તાન્વિત ચતુર્થમ નિયંત— વર્ષાવશે. દેશસ્ય પ્રતિષધ કૃતિ । અધઢમાનવેતંત્ર વિમયર્થસ્ય પ્રારતાઁ માનપક્ષે વધાઇનિન્ગ્યુત્સ્થાનયાારદ્વાઃ પ્રસન્ધાવોયન્તાનજેવો જ્ઞ, તĀાનયનર્મભેસ્ત્વયાગ્યોાત્ પર્યુંતાસાવ્યસર્જનષેધ ગાયતે તથાઝ્ઝીવ ત્રાપ હાર્નવસ્થાનીયાજારવાજ્યઃ સત્ર નિષેધ આશ્રિત ત્યારે યથા મિત્રય-સત્રો પતાવે પ્રતીયતે તથાગ્નીવટ્રેન નોર્વામનનીવસનૢશ પુદ્ધષ્ઠાવિનીવદ્રવ્યમેવ હોયતે, ગત વ 4 નાંગ સર્વનિવેધાર્થે પયુવાસે ૨ સંત્રિત મનીષ ાંત સજ્ઞિતમ્ ॥ ૪૨ ।। કૃતિ નયૉપલેસવર્ષનું સઙ્ગો "" પ્રાચતે 無 Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ૩૭૯ : વાર્થનિવમૂઢાર્થી પિઝા । પશ્ચાત્રાત્તમનૂ ટી॰ વૃત્તો દયોઃ પ્રતિષયો: પ્રતિમાસ્રીવ પ્રતીયતે | નોનગોવંશ નિષેધવૃત્તી નવÅવ (અનાવÅવ) ફેશબહેશો | અત્ર તૈયાર બૈદ્ધેશન પ્રેર્યાન્ત | નન્વીય તંત્ર નઞઃ સર્વાંનષેધો નાથ, વ સર્જાત નમામે ૭ત્તરપત્ર શંકાવાન્ધેતિસર્ય ત્યાવાવિવાિિન્નત્યા સર્વનામાર્યાનાપને, અનાર્વાવષયચોથે દ્વિ ખટો જ્ઞાતીયાવાવમાનથૈવ વિવ્યતાવશેંનેનાન્નિત્યાૌ તત્વર્થે તત્ત્વ વિશષાતથા ગૌત્સ્ય સર્વનામાર્થ થ ન વાધેત । તસ્માત્રાાળ ત્યાવાવષે આરોપિતત્વ નનથઃ, આરોપમાત્ર વાર્થ, વિષયત્વ તુ સંસŕ:, બાહ્મગારોવિષયે શ્રાહાળવÅવ વા હક્ષળા, નગ્ધનું સાયંત્રાન્ । અત વ તત્ત્વ દ્યોતત્ત્વમ્, પુત્ર T∞તિમિતિ | પ્રકૃતિએંચાકૃિતિ-ઢૌ નબૌ પ્રદ્યુતમથૈ ગમયત ાંતે વષનાસ્ત્રતાર્યપ્રતિષવિવાહિત્યયઃ । ની પ્રતીયતાંતનો અન્નાહ્યા બાયાતાઁ નો સાધવ આયાતા રૂત્યત્ર ત્રાના આયાતા કૃતિ સાધવ લાયાા ાંત ૨ પ્રતીયતે તોબનીય રૂત્યત્રાષિ નૌશન્ત્સ્ય જીતTMપસ્થાનીયાળાનવત્ સાનધાયેત્રે નોંધઃ પ્રયત કૃતિ માઃ। આ મા નો ના પ્રતિવેષે રૂત્યનુશાસનતોઘેડાવ સમયરિમાયાનોશન્દ્રય ફેશનિષેધાર્થલે છાનવસ્થાનીયાવ્હારસ્ય કુંવાસાપસનિષેધાર્થઘે નાનીવપોસ્ય નીમિત્રનીવસનૢશાનીવહૈંદેશા પ્રવેશો વા નોબીત્રવેન વ્રતીયત ત્યા-નોન વૈશલનિષેધવૃત્તાવનીવચૈવ ચેરાપ્રવેશાવાત—નોશબ્દચ ફેરા લેવેધવૃત્તો નગશ્ચ સર્વતિષેધવૃત્તાવનીવવ દેશદેશો મન્યેતે વર્થ અત્ર નીવથૈવ ફેશવેશ વિતિ મુદ્રિતાઠોડ્યુઢ પ્રાંતમાસતે। અત વ “નીવો વાગ્નીદેશો વા, પ્રવેશો વચ્યનોવાઃ । અનયંત્ર ઉદ્દેશ જ્ઞેયો, નોબનૌવધવાર્ષિ ” || ૪૪|| ાંત નયોષ-શેડ્યુ સઙ્ગતે । ત્યુ ં નથવદેશે। બારોષિતઃ સર્વ નૃત્યર્થઃ અસને ત્યાઘનુરોધનારોષિતાયંત્રવિ નગોઙ્ગોરખીયામત્યમ્બુવાને સર્વનાĒ તજ્જેજ્ાાવના સથે નમાસે ઉત્તરપૂર્વ ભઋતુજી વાર્થસ્ય પ્રાધાન્યાત્ સર્વનામસંજ્ઞા સતિ, બતવે ત્યત્રાતાન્નિત્યત્ર ૨ નળો. મેવાર્યત્વે તુ તંત્ર પ્રતિયોગિતયાન્વિતસ્ય સર્વષવાર્થસ્ય તપવાર્થસ્થ રોપસર્નનત્ત્વન સંજ્ઞોપસનેનાનાં સર્વાતિહિષ્કૃતત્ત્વનાતિસર્વ શ્યાવાત્રિંત્ર સા 7 યાત્, તથા નવગ્સર્વĂ ાંત તસ્મૈ ાંત ચકયોાનુષપત્તિયાવિત્ર્યાયેનારૂં સતીત્યાઁવ । નન્નઃ સીનેવેધાર્યત્વે સાંત નબાસે પૂર્વપવાર્યયૈવ પ્રાધાન્યન ‘તિસÀ” ત્યત્ર સર્વાંતાન્ત ચચેતનાપ્રધાન થા ન સર્વેનામસંજ્ઞા તથા “અસ્મિન” હત્યાનો વિયાય નિષેધ પૂર્વપદ્ ચેયાનતયા સર્વનામસંજ્ઞા ન સ્વાત્, તથા હૈં સર્વનાનાર્ય ન મર્યાતિ મા । નૅન્વસર્વે ત્યત્ર મેઘ્ધાંતેયોની સર્વ તિ ‘‘ગ્રામ” કૃત્યત્ર 7 મેવપ્રતિયોગિનિ તાાિંત જ વોધાન્યુામાજોત્તરપદ્દાયેલ સર્વસ તત્પુહાર્ચસ્વ જ પ્રાધાન્યાંíરાંત સર્વનામસંજ્ઞા ત્યારેવેન્યત બાદ-આાવિષચવ(ધ ત્યાવિ વિરોધ્ધતાવર્ગનેનેત્રિનઞર્ચામાવવસ્વસ્ય વિશેષ્વતાયાં ત ત્રાહિતિ માવઃ । નવચ્ચેનઞર્યું। નસ્ત્ર-તઇન્ફથસ્ય યંત્ર વાહેત તથા રાષ્તસ્મૈ તિયોમાનુષપાત્તસ્યાદ્રિતિ માત્ર । વિષયવસ્ડ સંસમિાયંત્ર હ્રામાનન્યહાોપચૈત્ર નઞર્થ ં, ન ત્વારોપિયન્ત્રાચૈરોવિતત્વસ્ત્ર, પૌત્રાદિત્યાશયન પારિમા આરોપમાત્ર વાયેતિ કે અત્ત વ '' 7 SE Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ३७८. संस्वार्थविवरणदार्थदीपिका । पंचविंशमसू० टी० गौणत्वेऽपि न ममासे 'एतदोः सुलोपोऽकोरन समासे हलि" इति ज्ञापकात् सर्वनामसंज्ञानुपपत्त्यमापात्, यस.शिव इत्यत्र सुलोपवारणायानसमास इति विशेषणम् , नसमासे च तच्छन्दस्य सर्वनामता गौणत्वाद् दुवचा, अकोरित्यकसहितव्यावृत्या च सर्वनानोरेव तत्र ग्रहणलाम इत्यनसमास इति ज्ञापकमेक, असमासभयुक्तगौणत्वं सर्वनामसंज्ञा नापपदतीत्याचष्टे । न गौण इत्यत्र च नसमासप्रयुक्तगौणत्वातिदिनाभावपन्न पदित्ययमे वार्थः कर्तव्यः । अनेकमन्यपदार्थे इत्यादाकवचन विशेष्यानुरोधात्, - पादिलोधनाय यनालणादिपदोपादान तत्सादृश्यादिनाबोधनार्थमित्यूहमूलकक्षत्रियादियोधरस देवतियोगी ब्राह्मण इत्यादिशक्यार्थयोवोत्तरमेव सन्मादिति भावः। ननु वैयाकरणमते "ra" हत्योत्तरपदार्थस्य प्राधान्येन तच्छन्दस्य सर्वनामत्वेन तत्कार्य सादेव, नैयायिकमते तु तत्र अावे तच्छदार्थस्था-नयेन गौणत्वापरया तत्पदादेः “संज्ञोपसर्जनीभूतातुन साया" इति भाष्यवचनेन सर्वादित्वाभावात् "सर्वादीनि सर्वनामानि" इति सूत्रेण सर्वनाअसंज्ञा न स्यात् , तथात्माभ्युपगमे चातदिति रूपं स्थान , न लस इति, "सदादीनामः" इस्पस्य सुनस्याऽप्रवृत्तेः, यत्र हि सर्वनामत्वं तत्रैव तस्य प्रवृचिरित्यत आह-गौणत्वेऽपीतिनसमातवटपोतदार्थस्य नअर्थविशेषणत्वेऽभीत्यर्थः । ज्ञापकादिति-तत्रस्थाऽनसमा. सपहशाज्ञापकादित्यर्थः, गौणत्वेऽपि ' असः शिवः' इत्यादौ सर्वनामसंज्ञाप्रवृत्तौ ज्ञापकतामेव सूचयति असा शिव इत्यत्रेति " एतपदोः" पा० सू० ३६-१-३२। इत्यनेन परस्परसाहचीन सर्वनामतत्तयां परस्य सोहलि लोपो विधीयते । न तत्पुरुपान्तर्गततपदारुपतर्जनतया सर्वनामत्वामाबादेवानतिप्रसङ्गे व्यर्थ सदन समासग्रहणं नसमासे गुणीभूत- .. स्थापि दिः सर्वनामताज्ञापनेन चरितार्थभितिभावः । साहचर्यज्ञापकत्वस्या सार्वत्रिक सूच. यन् मन्त्रे सर्वनाश्वोरेव ग्रहणे मानान्तरमाह-अकोरिति । एतत्तदोरित्यादि अकोरित्यनेनाक- . सहिन०या तत्सदृशसर्वनाम्नोरेव ग्रहणात् न समासस्थले च सर्वनामस्वाभाववत् सुलोपापातरनतमासग्रहणं व्यर्थ सत्तापकमेव । अयम्भाव:-"एतत्तदोरित्यादिवत्रम् , अकविशिष्टभिन्न नन्तदन्धिनः सोलाप शास्ति । अन् तु "अ०५यसनामिक प्राक् टेः" इति सूत्रण सनान एव भवति, तद्विशिष्टभिन्नैतत्तच्छन्दोऽपि “नजिव युक्तमन्यसदृशाधिकरणे तथा थंगतिः " इति न्यायात् सर्वनाम एवेति अस इत्यत्र सुलोपो न स्यात्, तच्छदस्योपसर्जननासर्वनामत्वात् , एवञ्चानतमासग्रहणं व्यर्थीभूय न समासप्रयुक्तगौणत्वं सर्वनामसंज्ञा नायकदतीति ज्ञापयति, तथा च " त्यदादीनामः" इति सूत्रेण 'असः' इत्येव प्रयोगस्यात् न 4. तदिति । अनेकमित्वन नभयस्य प्राधान्ये स्वीक्रियमाणे एकमिन्नस्य तस्य द्वित्वबहुत्वान्वययोग्यत्वाद् द्विवचनबहुवचनयोरापत्तिः, एकत्वार्थस्य तत्र वाचात्तबोध कवचनस्यानुपपत्तिश्चेत्यत आह अनेकमन्यपदार्थ इति, अस्य सूत्रस्याने प्रथमान्तमन्यपदार्थे वर्तमानं समस्यते स बहुव्रीहिरित्यर्थः । विशेष्यानुरोधादिति-असति विशेषानुशासने विशेषणवाचकपदस्थ विशेष्यवाचकपदसमानचनात्यनियमाद, तथा चात्र -सुवाऽऽमन्त्रिते परामरकर ॥ पा०. Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ઘવાર્થ હળવાર્થીપા શિરામણ , “હુવામંત્રિતે પાર્વત સ્વ” ફયતોડનુવર્તમાનં કુર્બળે વિરોગવિનાન્સમેતિ નામિકાયું વા તત, સેવ્યક્તિને સન્નતાપાંત્યત્રા યોથેતિ વિશેષ્યાનુરોધાતુ પ્રત્યેજસેવનાન્વયુવાધનાય વૈવના ન તુરતાર્થનાધાન્યમયુક્તમ્ શ્રત હવ પતન્યને જે ગધેરિવોફત્યામિ ભૂપપાયા - થર્વ મવાર ન મવામીત્યા પુરવવનાદ્રિવ્યવથા ૨ વમસિ કહું વમસ્મત્યદ્વાવો વારે H૦ ૨૪ ૨. તિ સુત્રાનુવર્તમાન સુબદ્ધ વિશેષ્યવાવત્રિવનાન્તત્યિક્રમત્યત્ર तदनुरोधेनैकवचन मिति भावः । तदिति एकवचनमित्यर्थः । अनेकशदाद् द्विवचनोपादाने વ૬નાં વવવનોપાવાને દ્રયોદ્ત્રીહિને સિદ્ધિહુમય હર્ધવાવિન નાયર્થમિતિ માવા ઢેિ ત્વનાન્વિોપવાનોવવ યોઃ વિટ વહૂનાં વા પાનાં વાવીસમાસ વિવનવદુવવનયોરપિ સમયપરિપાનાર્થવસંમતિ હવને વ્યર્થતિ ધિમાંધ્યતે તા “હવનકુલ્લતઃ વરિષ્ય” કૃતિ માધ્ધસદ્ધાન્તાવ ચૌલંક્લેવ વવનમિતિ વોદ્રવ્યમ્ | સતિ તાત્ય પવિત્સાર્થમવાવનાષિત પા–મચેત્યાદ્ધિ ! મનનોપસ્થિતાણુ થોવાનું પ્રવેદં સેવનવિયવોયર્થ ઉપસંહાતિ-- વિતિ | અને ત્યવાને ત્યત્ર વૈરાપણોત્તરપવાધ્વર્ય વસ્ત્રાધાન્ય તબધુરં પ્રધાનમૂલ્ય તત્વવિહાન વૈયાવરણમ્યુમિત, તત્વોથેયમ્, તાન્યથાસિદ્ધવાવિતિ માવા | મત તિ-અર્નેશશશ્વમાર્થાવાર્થ, અને શવ્વાગ્યાના પ્રતિયોઝિમેવતાં વહુવાહૂ વદુરનિતિ માવઃ | Twવનિતિ-મેવબતિયોદ્ધાર્થ તુ તત્ દુરુપયાવં યાત્ + મવતિયોપેહપાર્થસ્થા મેવશ્વન ચંદુત્વવિશિષ્ટ મૈપવાથંsન્યૂયાસન્મવાહિતિ માવ, નશ્વે, ય, ઇતિ છે, જે અને હવે પૂર્વમેવાશ્વર્ય પોષ વા પશ્ચાત્ નમસમાજે જ અને ફરારા મવતિયોર્થિવસ્થામાં સમય હત્યનેન ન્યયવધે નાનુપત્તિા વિરાવશિષ્ટતયા નાનાર્થવધિવતવાહિતિ તું ને વાળ થળ સમર્થનસ્ય અતિતિવાત્ શત્ર દુનિયાનુસારણ સૂક્ષળયા વૈયાવર તેન ત્વસિદ્ધાત્માશકિપાયા મતે સર્વતિ નનુ વૈયમિતે સમયે નબર્થય વિશેષાવપક્ષે થવં મવલીયા મેવબતિવિમિનાશ્રય મવનવિમવન તિ યુબાલામાતામિળ્યાન્મધ્યમપુરુષત્વમ્, નહિં મવામીરસાવૌ ૨ મેવતિયોનિમામિનાઓ. अयिका भवनक्रियेत्येवमन्वयेन तिडोऽस्म सामानाधिकरण्यादुत्तमपुरुषत्वमिति पुरुषव्यवस्थावोऽत्वं भवसीति मध्यमपुरुषप्रयोग एव, अनहं भवामीत्युत्तमपुरुषप्रयोग एव समुचितः, નિવર્થિધાવે તુ ચંદ્ધિાશકિw મવનક્રિયા, માથિ માનક્રિયા, વમન્વયવધેન સર્વ મવતિ વનહં મવતીયેવં પ્રથમપુર બોજ વાપયત વાહ–જવં મવસાતિ–ડપવાસ્થ મુશ્ય પ્રાધાન્યું ન હોયત ફાતિ જ લવ યુHવર્થ gવ યુધ્ધદ્ધિનનप्रचरितः, अस्मदर्थ एव च मद्भिन्नत्वेनोपचरित इत्यत्वमित्यस्य त्वद्भिन्नार्थकत्वेऽपि युष्मदर्थસાધાપરિત્યાધાવલ્યમવરીતિ મયમપુછયો,નામિત્વસ્થ મમિનાથથર્મવર્થ Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - । . .. 1 -MAn nuary Preramanar t ---- । ३४ विवरणशूटा दीपिका । सात डी. मुख्ययुष्मदायर्षप्राधान्यापरित्यागादुपपादनीया । तब भाकरणतये • गुमनामासमोसमा गज्योतकः, तथा च मिताभ्यो सुष्णदत्ताभ्यो तिजो सामानाधिकरवाना , Amit , नायिका महिनामिनायिका च भवनक्रिगति शाबरलोभी, भागनने लाने मनोs स्वझिनो भवनाथयो भाइतो भानामय शत शाबोधी मामाभलीमा चारतानमा व्युत्पत्तिचिव्याच पुरुषव्यवस्था, अन्यथा मास्मातामहराइ संगोगा मतमस्यामापा में नावं घटो भवतीति न प्रयोग इति ध्येयम् । य नमस्यामातस्य प्रतियोगिविशेषण, मान भवसि, अनहं भवामीत्यत्र भेदप्रतियोगित्पदभागिका मागिताविन नगनिमगन इति पुरुषव्यवस्थेति वैयाकरणैः पक्षान्तरमुच्यते, तसा । लामाणस list Naqातयोगी ब्रामग इत्यन्वये पुरुषाविपर्यासागसेरनिवारणा, भावागाति प्रतियोगी गिलमोति सिलग भेदे ब्राह्मणस्य विशेषणलादुसरपदाप्राधान्याप । गाविसमाSARA [[ । प्राधान्यापरित्यागादनहं भवामीत्युत्तमपुरुषभयोग इत्येवं पुरुपयस्मा सादेव, गथा ममाहअसीत्यादौ युष्मदर्थोऽहन्त्वनारोपितोऽपि वस्तुतो न मत्स्परूपान्तु राम्पोमपुरुषारूप एने. त्यतस्तत्र मध्यमपुरुषः, अहं त्वमस्मीत्या च सम्भोध्यपुरुषरूपायोपारितोयमयी तो भास्वरूप एवेत्यतस्तत्रोत्तमपुरुष इति व्यवस्थेति निर्गलितो । अ सीस्माना भासे युष्मदाधर्थस्य प्राधान्ये पुरुषव्यवस्था क्रियाशामान्यनियमाननियानिशा . बोधनकारञ्चोपदर्शयति- नत्रेत्याविना । तिने-सिमिप्रत्यगयो, न्याय प्रमानाथमुख्यविशेष्यकशाब्दबोधनकार पुरुषव्यवस्था दर्शयति--स्यायनाग r| argard उक्तदिशा पुरुषव्यवस्थाया अनभ्युपगमे, आरुपातलि-सिरूपानमालासपुरुषमिप4sitवान्यपुरुपयोर्मध्यमोरामपुरुपयोर्भदात्संभवेन मिश्रणेन पप सम्बोधनावस्या प्रासी . पुरुषः स एव सम्बोध्यतयाऽविवक्षिततो उत्तमरुप निमिया ). गतिसम्भवे तदन्याख्यातस्य पवैयध्यं तदभावः कथम्, it आपाय Herita यादिति भावः । दूपणान्तरमाइः --कथं चति । नाममासस्थलीयामदाब उपरित यव्युत्पतिविधियात्पुराव्यवस्थास्युपगमे त्वनिमय लागतमाणानिधान पति मriपुरुषो निर्विशिष्ट भवनादिधात्वर्थविवक्षायाम् , मशिनस्य गरिन माणापान निगम पुरुषा निर्विशिष्ट मानादिधात्वर्थविवक्षायामिनि त्यतिवनियमाश्रीयत, मो . देशकोटी विधेयकोटी वा प्रोग्रत उपयोगोन सम्भवति, याकरणमा पनि वैचित्र्यस्यानाश्रयणाद् घटस्यामंदनादयविपणय घरपाया घामपामारा, धात्वयंव वा युत्मदप्राधान्यात उपयोगापतिला प्रतिविशामलियनयागिनि विशेषणं प्रतियोगिविशेष नमामित्यर्थ: waiamarriraft. बामणस्य तुतीय पुपयन पचतीनि प्रयोगापमा मात्र नॉल-यniilim. - यथः । विशष्यतयाक्यपक्ष इति-स्यामा प्रतिपयमा us Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्थविवरणगूढार्थदीपिका | पंचत्रिंशतमसू० दी० I : ३५१ : एवं त्वं न पचसीर्त्यत्र त्वदर्मिन्त्राश्रयकृपा कानुकूल भावनाभावः घटो नास्तीत्यत्र घटामिन्नाश्रयकास्तित्वाभाव इति रीत्या बोध: । 'असमस्तनञः क्रियायामेवान्वयात् । स चाभावो ऽत्यन्ताभाववान्योन्याभावत्वरूपेण शक्यः, तत्तद्रूपेण बोधादिति शब्दविदः । तत्र स्वं पाकानुकूलयत्नाभाववान् षटोऽस्तित्वाश्रयत्वाभाववनित्येवमेव बोधः, प्रतियोग्य भावान्वययोस्तुल्ययोगक्षेमत्यात्प्रतियोगिनश्चाख्यातार्थस्य प्रथमान्तपदार्थ एवान्वयादिति तु न्यायविदः । एतन्मतमेव युक्तं नः पूर्वमतम् । घटो न पचति अतीतघटो नास्तीत्यादौ घटामिन्नाश्रयकपाकानुकूलभावनाया अतीतघटामिन्नाश्रयकास्तित्वस्य च निषेव्यस्याप्रतीतेः, अभावविशेष्यकबोधे येत्याकाङ्क्षानुपस्माच्च । अन्ध आकाशं न पश्यतीत्यत्र चाकाशकर्मकत्वाभाववद्दर्शनाश्रयलाभाववानव इत्येव बोधो नञो द्वेधान्ययादित्यादिकं भावनीयम् । तस्मात्सुष्ठुक्तं अजीव इत्यत्र नञः सर्वनिषेघोऽर्थं इति । नोशब्द्रस्य तु न नञ् समानशीलत्वं परिभाषानुरोधेन देश सर्वनिषेधयोः प्रवृत्तिदर्शनादिति किमतिप्रसङ्गेन ||'प्रकृतं प्ररुमः, एवं तावन्नैगमादयश्चतुर्षु जीव इत्यादिषु विकल्पेषु प्रवृत्ता, एवंभूतस्तु नैव' इत्यर्थः ॥ तथा चोत्तरपदार्थनिष्ठविशेषणतानिरूपितविशेष्यतया भावान्वय पक्ष एव श्रेयानिति भावः । प्रसज्यप्रतिषेधार्थकनको व्यवस्थामाह एवं त्वमित्यादि । नञ्जर्थे युष्मदर्थान्वये तु प्रकृते पुरुषव्यवस्था न सिद्ध्येदिति सूचयितुं पचसीति मध्यमपुरुषनिर्देश इति । क्रियाप्रतियोगि काभावविशेष्यकमोघे हेतुमाह - असमस्तनत्र इति - एवं त्वमित्यादिना व्याकरणमतमुपदः न्यायमतमाह-तत्रेत्यादि । नञावटितवाक्यार्थे यस्य विशेष्यलं नञ्यतिवाक्यार्थेऽपि तस्य विशेष्यत्वमित्यभिप्रेत्याह-प्रतियोग्य भावान्वययोरिति । तथा च त्वं पचसीति नञवटिते वाक्ये पचसीत्याख्यातार्थस्य पाकानुकूलकृतिरूपस्य प्रथमान्तत्वंपदायें विशेष्येऽन्वयात्प्रकारत्वमिति त्वं न पचसीति नञ्घटितवाक्पेऽपि पाकानुकूलकृतिरूपस्याख्यातार्थस्य प्रतियोगितासंसर्गेण नञर्थेऽभावेऽन्वयः, तस्य च प्रथमान्तसंपदार्थे विशेष्येऽन्वयात्प्रकारत्वमेवेति भावः । अप्रतीतेरिति-तथा चालीकप्रतियोगि कनिषेधाऽयोगात निषेधोधो न स्यादिति भावः । अभावविशेः व्यबोधे क्वेत्याकाङ्क्षाऽनुपरमाचेति सोऽभावः कुत्र वर्त्तत इत्याकाङ्क्षाऽनुपरमाच्चेत्यर्थः । नैगमनये न हि व्युत्पत्तिनिमित्तमेत्र प्रवृत्तिनिमित्तम्, तथा सति गच्छतीति गौरिति व्युत्पत्तिनिमित्तगमनक्रियाकर्त्तरि महिषेऽपि गोव्यवहारस्स्थात्, किन्तु ततो भिन्नमेव तदिति जीवति - दशविधप्राणान् धारयतीति जीव इति व्युत्पत्तिनिमित्चदशविधप्राणधारणक्रियायाः 'सिद्धजीवेऽभावेऽपि जीवपद शक्यतावच्छेदकजीवत्व जातेस्तत्रापि सद्भावेन सिद्धोऽपि तन्मते जीव एव, एवम्भूतनयस्तु व्युत्पत्तिनिमित्तमेत्र प्रवृत्तिनिमित्तमम्युपगच्छतीति जीवति यथायोगं दशविधप्राणधारणमनुभवतीति जीवः, स च संसार्येव, न तु सिद्ध:, जीवन परिणामरहितस्वेन जीवशब्दार्थांघटनादिति स आयुष्मान् प्राणीत्यादिवजीव इत्यपि न व्यपदिश्यते, किं तर्हि, सत्तायोगात् सत्त्वः, अति ताँस्तान् ज्ञानदर्शनसुखादिपर्यायान् गच्छतीत्यात्मा इत्यादिशब्दैरेव निर्दिश्यते, उक्तञ्च विशेषावश्यकमाण्ये - "एवं जीवं जीवो, संसारी प्राणधारणानुभवो । सिद्धो पुणरजीवो जीक्परिमाणरहिओचि ॥२२५६॥” २९ -एवम्भूतस्तु नैव Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • ૨૮૨ : તરવાર્થવિવરણયૂોર્જીવિ 'ત્રિશમનૂ• ટી ** તિય । મિતિ ચૈત્ર, યંતે-બંમતનયનેતિ મૂલનયન -લી. હ્યુર્વારતે, અવસ્થા સંસારી, નીવ તીયતે | યં સિદ્ધસ્ત્યયંત ફત્યા—દુ યાત્, વૃ વમૂતનયો, નીતં તિ औदयिकभावस्यैव गतिकषायादिस्वभावस्य ग्राहकः । गतिकषायाद्यौदयिक भावयुक्तमेव जीवमसाविच्छति, યતઃ રાનાય વ વ્યયિનો, નીવતીતિ લીવર ત્રિમુ ં મતિ ! પ્રાપ્તિતીતિ ધાતોઃ સğત્વે સ્પષ્ટતિ । પ્રાળા ન્દ્રિયાળિ પદ્ય મનોવાાયાષયઃ પ્રાળાવાનાવેજ આયુશ્રુતિ પરા, તાન્ યાતિ યથાયોગ 7 મુદ્ઘાંત યાવત્તાવવસો નીવ રૂતિ મન્તવ્યઃ । ત(T)ત્તુ નાવને કાળધારળક્ષળ સિદ્ધે ન વિદ્યતે તસ્માદ્ધવસ્ય 7 નવો ન સિદ્ધ તિ । નોનીવ હ્યુચરિતે નૌશબ્દઃ તન્મત્તે સર્વતિષેધ , સમાનશીત્થાત્, ન વેનિષેધ, વેશĂવામાવાત્, વેશ્યેવ દિ વેશો ન વન્દ્વન્તરમ્, ન = વેશિનો વેશો મિત્ર રૂત્યમિત્રાનું ચુરૂમ, તિ મિત્રઃ યાત્, નાસૌ તત્ત્વ, મિત્રન્નાદેવ, વવન્તરવર્તી, થામિત્રો, વેરયેવ તહસ્તિ ન શ્ચિદ્દેશો નામેતિ । ન ચ વૃક્ષે ઋષિસંયોગત-માવાવછેતથા, વેાાંઢ, પરમા નિશે ષવિસઁયોનામિવાવ છે પનામાત્રેળ વર્વાસઢે, લાપતક્ષ્ય ૨ વેશનઃ ાંપતેન વેચેન ન તાવાત્મ્યમ્ પ્રતિયોગ્યમાવયોરિવતિ, મૈં નોશન્ટેન વેશનિષેધાવી, તમાજોનીવ હ્યુવતેઝીવદ્રવ્યં પરમાવિ, સિદ્ધો વા પ્રાણધારળામાવાન્ તીયતે । બોવ ાંત તૂરિતેવદ્રવ્યમેવ પરમાīાવિન્દ્ર પ્રતીયતે, નનઃ નિષેધાત્ । નો બનીવ તુ ઢૌ પ્રતિષેવો પ્રશ્રુતિ મયત તિ મવસ્થ પ્રતિપદ્યુત કૃતિ તતુ ખોવન પ્રાધા૫ક્ષાં સિદ્ધે ન વિદ્યુત ફાંત ઙજ્જ મા વન્યìગવ—‘“નીયર મતે ! લીધે, લીધે લીવરૂ? ગોયમા! લીવરૂ તાર નિયમા ઝીવે, નીચે પુળ સિય ગૌવરૂ, સિય નો ગૌવરૂ ”તિ। અવાયતયેઃ ગૌવરૂ ’ચન્દ્રેન દુવિધઞાળહક્ષાં ગૌવન નીવિતમુતે, તત્ર ગૌત્રનું યવત્તાત્ નિયમો, બનીચે તત્ત્વ - સર્વથાગ્યુગ્મવાત્, નીવ પુનઃ સ્થાીતિ સ્થાન નૌતિ સિદ્ધનીવોક્ષાનીવનાષ્તષ્મવિતિ । તેન *વિશાલે ૨-૩ પાળા ક્રિયમાન ગાળાળા ય । વહારો સૌનીનો નિ॰યવો દુ વળા નત" ાંત વ્રુન્દ્ન્યતત્ત્વો નિશ્ચયનયાપેલયા સિદ્ધ નવ તિ મતમાંયે નિસ્તમ્, ભૂતનવÑય ગુનિશ્ચયનયત્રેન તથયાપેલયા સિદ્ધો ન નીય ત્યેવ સિદ્ધે, ગૌચિમાવાત તત્કાસિદ્ધ, તિષાચાૌયિમાવયુ ચૈત્ર જ તન્મતે નવલામ્બુ૫માત્ । તત્ર્ય સયોલેરો “ માત્રમૌયિત્રં શ્રૃક્ષન્, વર્માંતો માંસ્થતમ્ । નીવ્ર પ્રવસ્ત્યનીવ તુ, સિદ્ધ વા પુદ્ધવિમ્ ॥૪૬ll સિદ્ધો નિશ્ચયતો ગૌત્ર, રૂત્યુત્ત્વ ચિન્નરઃ । નિરાઋત તવેતેન, તયે ત્યેથા થા | ૪૮ | ” ાંત । નનુ “ નૌવા- મુત્તા સંસારયો ય ” તિ વવનાનીયાનાં મેચનાચૈતન્યક્ષળમાવાળધારાત્સિત્પ્રોગંષે નીવાંતે મન્છાસુગંષ શૂયતે, તથામતિ વત્, તદ્ વિવિત્રઐયમનયામિત્રાયેતિ નાનીદ્િધ વધTM નયોષહેશે-ધણી(વં વિત્ દ્રબ્યમ વર્ગોપાત્ત્વયંસ્મૃિતમ્ । વિચિત્રનૈમાતાન્ તબ્જેયં ન તુ નિશ્ચયાત્ ॥નગી” રૂતિ । ધિ નયોઙેશવૃત્તિસોવસેયાંમતિ । જ્યોરિત્ર ન તાવાસ્ક્યામત્યારાયાના " }} પ્રતિયોગ્યમવયોવૃતિ-વિત્રમાવવો યોગ્યમાયોરવેશે Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्पार्थविपरमागूढार्थदीपिका । पाशितमल-ठी संसायव जीवो गम्यते 1 मादनेन नोशब्दादेशप्रदेशी न बोध्येते । तन्नाह-समनार्थेत्यादि । भावितप्रायमेतत् । एवं तावच्चत्वारों विकल्पा एकवचनेन दर्शिताः, तद्विवचनबहुवचनाभ्यामपि जीवौ नौजीवा, अजीवो, नो अजीवी जीवा नीजीवा अजीवा नोअजीवा इत्येवं चत्वारश्चत्वारो द्र०याः } . तदाह-एवं जीवो जीवा इति । इतिशब्द आद्यर्थे, द्वित्वबहुत्वाकारितेषु द्विवचनबहुवचनाभ्यामुंचारितेषु, एवमेवाभ्युपगमी नैगमादीनाम् । अथ संग्रहस्य का वातत्याह-सर्वसंग्रहणेत्यादि । सर्वसंग्रहेण सामान्यवस्तुप्राहिणा एकवचन द्विवचनान्ता विकल्पा नाभ्युपगम्यते । तांश्च विकल्पान् दर्शयति-जीवो नोजीव इत्यादि। एकद्वित्वाकारितेषु एकद्विवचनान्तपूच्चारितेषु, शून्यं भवति, एकद्विवचनान्तपदमबीधमिति व्युत्पत्तिमततो बोधो न भवतीत्यर्थः । हेतुमाह-५५ होति । ए५ संग्रहो, यस्मात्संख्याया जीवगताया आनन्यं प्रतिपद्यते, पञ्चगतिवतिना तेषा पहुयात् । यथार्थवाही चायमिति पईन् बहुवेनैव गृह्णाति । ततो जीवा नोजीवा, अजीवा नोअजीवा इत्ययभेवास्याभिलापः कार्यः । उदाहरणान्यपि च बहुत्वेनैव वाच्यानि । शेषास्तु नैगमादयो नयाः, एकस्मिन् जीवशब्दार्थे. ऽभिधेये, व्यक्त्येकत्वादेवकवचनं, जीवसामान्येऽप्यभिधेये सामान्यैकत्वादेकवचनप्राप्तौ " जात्याख्यायामेकस्मिन् बहुवचनमन्यतरस्याम् ” इति लक्षणेन जात्यपेक्षं सामान्य विषयापेक्षं बहुवचनं बहुषु जीवेष्वभिधेयेषु व्याशिबहुत्वादेव बहुवचनमिच्छन्ति । यतस्तत इति शेष. । साकारित्वग्राहिण एकवचनादिभिराकारितान् द्वादशापि विकल्मान् गृह्णन्तीत्येवंशीला भवन्ति । ननु सर्वसंग्रहो पहुवचनमेव सहत इति यदुतं तत्कथं युक्तम् , तस्य सामान्यविषयत्वेनैकवचनसहिष्णुताया एवं युक्तत्वात् , पाक्षिकबहुवचनप्राप्तेरपि जात्याख्यायामिति समाख्यानुरोधेन सामान्यरूपेण व्यक्त्यभिधानस्थले नैगमादिमिरेव चरितार्थीकतुं शक्यत्वात । समप्रार्थत्यादीति-समग्रो देशप्रदेशकल्पनारहितो निरवयव एकाभिधानाभिधेयो यः प्रतिपूर्णोऽर्थोऽखण्डवस्तु, न तु सांश, तागते वास्तविकदेशदेशिनोरभावेनांशांशिभावाभावात् स समग्रार्थः, तं ग्रहीतुं शीलमस्य स समग्रार्थग्राही तस्य भावस्तत्वं तस्मादित्यर्थः । उक्तश्चानु. योगद्वारे " एवं पयंत समभिरूढ़ संपइ एवंभूओ भणई जं जं भणसि तं तं सर्व कसिणं पाडपुण्णं निरवसेस एगगहणगहियं देस वि मे अवत्थू पएसेऽवि मे अवत्थू" इति । जात्याख्याथामेकस्मिन् बहुवचनभन्यतरस्यामिति १-२-५८ । जातिवाचिनि शब्दे एकव्यक्तावपि विकल्पेन बहुवचनं भवतीत्यर्थः । जात्यपेक्षमित्यस्यार्थमाहसामान्यविषयापेक्षमिति । तत्किमित्यत आह बहुवचन मिति । अत एवैकस्मिन्नपि साधौ साधवः पूज्याः साधुः पूज्य इति विकल्पेन प्रयोगो भवतीति भावः । जीवशब्दस्य यदि बहवो जीवा वाच्या इति विवक्षा तदा नोक्तसूत्रेण बहुवचनं किन्तु " बहुषु चैव बहुवचनम् ॥ इति सूत्रणेत्याशयेनाह--बहुषु जीवेष्विति । सामान्यरूपेण व्यक्त्यभिधानस्थले इतिः विशेषरूपेणाविवक्षितव्यक्त्यभिधानस्थल इत्यर्थः । चरितार्थीकर्तुं शक्यत्वादिति-उक्तनानुरोधेन सामान्यरूपेणैव ... Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -૨૮૪ : ધાયવિભૂતાર્થટીવિયા પાયા મલ્ટી * સંપન્નો ત્રૌઢી:, સંપન્ના ત્રૌદ્યુતિ યોગાસ્મત પોપવયિતું શયાત્ અત વ સંખ્યાવાન પંતોપસંતાનમેતરનાંવાંને માત્તુદ્રપવાન્ । તા નાનુહતં શ્રીહેમાનોમાં, “ નાત્યાછાયા નવેશે ડસંયેયો(ડા યો)મહુવ” રૂતિ, વાત ન દ્વાશ્રયમહાિગ્યે “તે રાજ્ઞોગ્યતન ભૂતા વિત્રઃ સૌંડન ન્તિવવત્ । ન્હાવું પુરુરાશાત માયનાન્ધ્યાન્તિ નવુઃ ર્ ॥” ાંત । બન્ન નૃતયનાનાં સામાન્યવેનિધાને વહુવનનું વિષ્ણુ ધૈવત્તમિતિ સામાન્યન્ય પ્રાધાન્યનામિધાને સ્વેવવનમેવ સમસિદ્ધમ્ - મિાનય∞ વ્યવત્તેણં બહુશ્ર્ચાત્તે વડુીચાવાય સદ્મવતીતિ તથા મ્યુપામપરો નૈગમાવિ, મૈં તુ સબ્રહઃ, તત્ત્વ સામાન્યવરૂપમત્રિસ્યુપામપરત્વેન ાિતત્વવદુવાસ્થુળ હવામાવત્ । તથા ર તત્ર તૈમમાંતેમિવ વધુવનનું ાંતાયતું શમ્, યંતસ્તદાબ્યસ્ય વક્રુશ્ય તંત્ર સદ્ભાવાત્, યત્રં તુ પિતાવ્યા વિવા તંત્રેઋત્વસબ્યા વિક્ષિતૈલપનેનવામિધાતું રયાં, નદુઘસા વિક્ષત દુલનનેનેવામધાતું શવેતિ ન તંત્ર વૈપિવષનવદુષનાંતપાવો ક્ષત્રપ્રવૃત્તિવિર્યજ્ઞાનાય સામાન્યપે વ્યમિ ધનસ્થળે ન્નુમ્ નૈગવિનયમતાંત્રિય સામાન્યરૂપેણ વ્યવયમિધાનયહીયદૃષ્ટા યિસહ-સમ્પન્નો પ્રદેશ સમ્પન્ના ત્રીય રૂત્તિ-નાયાાયાં નવૈજોસછ્યો વદવ” ૨ ૨-૨૨૧ ફાંત જૈનન્નોમયત્ર જ્ઞાતિવાાાન હિશબ્દે વજન વહુવન ચ વિત્ત્પન મવતીત્યર્થઃ । તન્મતે નૈતિમતે નૈમિનબેન હિત્સાતેસૌહિતાયાં ત્યેનીન્યુપામો સવપેક્ષમવચન, શ્રીહિન્દ્રયો વજ્જો ન્યુપાતા ફાંત તપેક્ષ વષનું 1 સાનયસ્તુ સામાન્યમાત્રામ્બુામપર તે બ્યન્તીનાં સામાન્યરૂપેળવવૈવામ્બુપતિ તન્મતે નૈવ વજ્જુવશ્વનું પરમાર્થવૃયા યુાંમાંત માવઃ । અત વેતિ મિત્રાયવેત્વર્થઃ । સયાવા ' 1 ર 66 પોપસન્વાન મતિ તથાવાનવસમામબ્યાહારચીયાવપનવદુવવનયાયેન નૈ૫સવિનયેન તેંદ્વાવ્યાર્યક્યોપત્તિસ્તેનેવ ચેન સમ્મત્ર ફાંત ન તત્ર વૈપિતદ્વિધાયોહસૂત્રપ્રવ્રુત્તિરિતિ સ ુચાવાવષોષસન્હાનું તત્રત્રવૃત્તિાધળામત્યયેઃ । નાત્યાય એંવેજોડલ ુચો વઘુવર્” ||૨||૨| શ્રી ॥” ાંતે નાતરેજાવવન પ્રાસે પક્ષે બહુવચનાર્થં વહુવડ્રાય હન્યતે । નાતરાવ્યાગમાનું નાત્યાવ્યા તસ્યાનેોગ્યઃ નાતિહોગ્સથઃ સહુવેરહિતો વત્તુદા મવીત્યર્થઃ । રે રાજ્ઞોપતાશાંત–ચત્ર મુદ્રિતહૂઁચાશ્રયમહાજોળ્યે દૂર રાજ્ઞોપ્પન્ છતા ચિત્રઃ સર્વાંગ તòન તુ । ન્હાવ્યુાશાસ્ત ગાયના િનયુ ! ” ત્યેવ તૃતીયસTM અક્ષતિતમ જાઃ । તત્ત્વાર્યક્ષેત્રં તંત્ર તા, રાજ્ઞો નૃપક્ષ્ય સુધાડા દૂર હતા મટા ઞયન્ । વિત્રન્તુ ત્રાલળના તઃ, પુનઃ સર્વાંગરે રૉજ્ઞોર્ગન્સ વેદ્મન્ ! ગુરુ પુરોહિતતિઃ સાપ રાજ્ઞોગંન્તજાતનીય આશાહ, આશિષ વત્તવા નૃત્યવિધિમયયદા । પાયનાથ રાોપ નિદે નર્યુરિતિ સૂતવયનાના માતદ્ભૂતાયિનવ્યવતીનામિત્વર્થ 2 સીંયા ત્રક્ષિતત્કાવત્ર પેનનવનસ્ય વધ્રુવષનસ્ય પોત્રે કારાંત માત્ર સામાન્યય પ્રાધાન્યનેતિ-નાતે કાત્રાન્થેન વિવો Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्पार्थविवरणगूढार्थदीपिका | पंचत्रिंशत्तमस्० टी० अत एव नैगमव्यवहारयोर्मज्ञ पदर्शनयामक्कवचनबहुवचनाभ्यां पविंशतिर्भङ्गा', तस्या एकत्वेनैकवचनमेवौत्सर्गिकमिति न तत्र विकल्पेन विधायकोत सूत्रस्य प्रवृत्तिरिति प्रकृते સાહનયસ્ય પ્રાધાન્યેન સામાન્યો. મતેન નોત્રે વૈલ્પિબદુવનનોપાત્તરિતિ भावः । षड्विंशतिर्भङ्गाः इति-आनुपूर्व्यनानुपूर्व्यवक्तव्यकपदत्रयेणैकवचनान्तेन त्रयो भङ्गाः, एवं बहुवचनान्तेन तेन पदत्रयेण त्रय एव भङ्गाः, एवमेतेऽसंयोगतः प्रत्येकं भङ्गाः षड् अवन्ति, संयोगपक्षे तु पदत्रयस्यास्य त्रयो द्विक्संयोगाः, एकैकस्मिंस्तु द्विक्संयोगे एकवचनबहुवचनाभ्यां चतुर्भङ्गीसद्भावतः त्रिष्वपि द्विक्संयोगेषु द्वादशमङ्गास्सम्पद्यन्ते, त्रिकयोપતંત્ર ધ્વ, તંત્ર દૈવનવત્તુવનનાસ્થામો भङ्गाः सर्वेऽप्यमी षड्विंशतिः । आनुपूर्वी १ आनुपूर्वी १ अनानुपूर्वी १ अनानुपूर्वी १ अनानुपूर्व्यः ३ અવાવ્ય ? अनानुपूर्वी १ अनानुपूर्व्यः ३ आनुपूर्व्यः ३ अनानुपूर्णः ३ अवक्तव्यकाः ३ - ४९ બાનુપૂર્વી 17 " "7 आनुपूर्व्यः " " 11 १ . १ १ बहुवचनान्ताख्यः इत्येकवचनान्तास्त्रयः અનાનુપૂર્વા " आनुपूर्व्यः 59 १ 59 आनुपूर्व्यः ३ ३ બનાનુપૂર્વી 77 अनानुपूर्वी आनुपूर्वी १ अवक्तव्यकः १ १ अवक्तव्यकाः ३ " आनुपूर्व्यः ३ अवक्तव्यकः १ - ३ अवक्तव्यकाः ३ " अनानुपूर्व्यः 17 બનાનુપૂર્વ્યૂ: " " १ अवक्तव्यकः १ अवक्तव्यकाः अवक्तव्यकः अवक्तव्यकाः my m १ १ ३ mr room my १ ३ १ ३ अवक्तव्यकः अवक्तव्यकाः अवक्तव्यकः સવવ્યા अवक्तव्यकः લવન્યા अवक्तव्यकः अवक्तव्यकाः १ ३ १ ३ १ : ३८५ द्विक्संयोगे चतुर्भङ्गी द्विकसंयोगे ४ द्विक्संयोगे ४ त्रिकसंयोग्ऽष्ट ै भङ्गाः Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ३८६ : तत्वार्थविवरणदार्थदीपिका । पंचत्रिंशत्तम० टी० संग्रहस्य तु सामान्याश्रिताः सप्तैन भजा अनुयोगद्वारसूत्रे लिखिताः। अत एव च वृत्तावभेदेकत्वसंख्याया एप भानं न्यायसिद्ध वैयाकरणैरभ्युपगम्यते । सामान्यात्मनाऽविभागेन संख्याविशेषाणामवस्थान हि सा, अस्या भानं च कपिजलाधिकरणे त्रित्वस्येवात्रैकत्वम्य प्रथमोपस्थितत्वात्, न देवं तदा राजपुरुष इत्यादौ राज्ञः राज्ञोः राज्ञा वेति जिज्ञासा न स्यात्, तस्याः सामान्यज्ञानपूर्वकनात् , तस्मान्न्यायवलानन्वियमानुपूादिका संज्ञा, अयं च तदभिधेयस्यणुकादिरः संज्ञीत्येवं संज्ञासंजिसम्मन्ययनस्य त्रिप्रदेशिक स्कन्ध आनुपूर्वी एवं यावदनन्तप्रदेशिन्ध आनुपूर्वीत्येवमेकवचनानिर्देशमानेणव सिद्धत्वात् त्रिप्रदेशिका यावदनन्तप्रदेशिका आनुपूव्र्य इत्यादिबहुवचननिदेशः किमर्थ इति चेत्, उच्यते, आनुपू०यादिद्रव्याणां प्रतिभेदमनन्तव्यनियाख्यानार्थो नैगमव्यवहारयोरित्यभूताभ्युपगमप्रदर्शनार्थश्च बहुवचननिर्देश इति । नैगमव्यवहारयोविचनाभिङ्गाभ्युपगमेऽपि प्राकृत द्विवचनाऽभावात् अनुयोगद्वारे पविशतिर्भशा इत्युक्तम् । सङ्ग्रहस्य तु सामान्याश्रिताः सप्तव मझा इति-अस्ति आनुपूर्वी अस्ति अनानुपूर्वी अस्ति अवक्तव्यक इत्येकवचनान्तात्रय ए4 भङ्गाः, संग्रहस्य सामान्यबादित्वेन व्यक्तिवत्याभावतो बहुवचनाभावात् , आनुपूादिपदत्रयस्य च त्रयो विकसंयोमा भवन्ति, एकैकस्मिश्च द्विकयोगे एकवचनान्त एक एव भङ्गः, त्रिकयोगेऽप्येक एवैकवचनान्त इति सर्वेऽपि सप्तमाः सम्पयन्ते, शेपास्कोनविंशतिहुवचनस भवित्वान्न भवन्ति । नन्वेवं तर्हि सङ्ग्रहस्थ सामान्यबादित्येनानुपूर्वीसामान्यस्य सर्वकल्वेन तेनाभ्युपगमात् सत्पदनरूपणायां आनुपूद्रियाणि सन्ति अनानु. पूर्वीद्रव्याणि च सन्।ि अवक्तव्यकद्रव्याणि सन्तीति बहुवचन निर्देशः कथं सम्भवतीति चेद, सत्यम् , मुख्यरूपतया सामान्यमेवास्ति, गुणभूतं च व्यवहारमात्रनिवन्धनं द्र०यबाहुल्यमप्यसो पदतीत्यदोष इति भावः। अत एव-सामान्यस्यैकत्वादेव । वृत्ताव भेदैकत्वसङ्ख्यायाःसमासे अभेदरूपैकत्वसङ्ख्यायाः। सा-अभेदैकत्वस-ख्या । कपिजलानालभेतेत्या बहुवचनेन त्रित्वचतुष्ट्यादीनां सर्वेषां सख्यानामुपस्थितावपि प्रथमोपस्थिती तत्परित्यागे मानाમાન ત્વચૈવ યથગ્રહણં તથાષ્યાપિ નપુરુષ હત્યૌ પ્રથમપસ્થિતત્કામેવૈધ્યાય ए4 ग्रहणमित्याह-अस्या भान चेति । तथाऽनभ्युपगमे दण्डमाह-न चेदेवं तदेति । तस्याः सामान्यज्ञानपूर्वकत्वादिति-विशेषजिज्ञासायाः सामान्यरूपेण सख्याज्ञानपूर्वकत्वादित्यर्थः । ननु सामान्यज्ञाने सति विशेषजिज्ञासा कथं भवतीति चेदित्यम्, राजपुरुष इत्यत्र राजा चासौ पुरुषो राजपुरुष इति कर्मधारयसमासः, (राज्ञः पुरुषो राजपुरुष इति पठीतरपुरुषसमासः, तन कर्मधारये राजपदशक्याऽर्थस्य पुरुषेणाभेदान्वयसम्भवान लक्षणा, किन्तु तत्पुरुष एव राजपदशक्यार्थस्य राज्ञा भिन्ने पुरुषपदार्थेऽभेदेनान्वयस्य पाधितत्वादभेदान्वयोपपत्यथं राजपदस्य राजसम्बन्धिनि लक्षणाअयथा, तथा च तत्र तत्पुरुषसमासखरूपाधिगतये राज्ञः पुरुष इत्यादिविग्रहवाक्यानुसन्धानमावश्यकम् , इत्थश्चानुसन्धीयमानराज्ञा पुरुष इति विग्रहके (राजपुरुष इत्यत्र राजपदस्यैकराजसम्बन्धिनि लक्षणा, अनुसन्धीयमानको Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वार्थविवार्थदीपिका। पञ्चविंशत्तमसू० टी० : ३८७ : जिज्ञासानुरोधेन तद्रूपेण वाच्यत्वाचा वृत्तौ तवगम इति, किंबहुना ? लोकलोकोतरन्यायविरोधेनानुगतार्थबाहिणि सर्वसंग्रहे बहुवचनानीकरणं न कथमपि विचारसहमिति चेत्, अत्रेदमामाति, यत्र लोके लोकोत्तरे वा सामान्यप्राधान्येनाऽभेदेकत्वसंख्याया एवाश्रयणम् , तत्र श्रौतमार्थ वा एकवचनमेव युक्तम् , यत्र तु बौद्धमेकत्वं प्रकृतिपर्यवसितं क्रियते, तत्र सर्वसंग्रहनयोऽपि बहुवचनमेव प्रयुक्त, यथा का सेनति प्रश्ने हत्यश्वरथपातय इति, किं पनमिति प्रश्ने पुन्नागनागसहकारतालतमाला इति । तेन व्यणुकादीन्यनताणुकपर्यवसानानि द्रव्याण्युद्दिश्य यत्रैकमानुपूर्वीसामान्य विधीयतेऽनुयोगद्वारादौ तत्र बौद्धमेकत्वं संग्रह विषयः, इह तु व्यवहाराभिधित्सितस्य विधिप्रतिषेधाभ्या जीवपदार्थविभागस्थ पुरुष इति विग्रहके तत्र राजपदस्य राजद्वयसम्बन्धिनि लक्षणा, एवमनुसन्धीयमानराज्ञा पुरुष इति विग्रहके तत्र राजपदस्य बहुराजसम्बन्धिनि लक्षणेति वस्तुस्थितौ विग्रहवाक्यविशेषाप्रतिसन्धाने तत्पुरुषोऽयमित्येतावन्मात्रज्ञाने राजपुरुष इत्यादौ राज्ञः राज्ञोः राज्ञां वेति भवत्येव जिज्ञासेति बोध्यम् । तद्रपेणेनि-अभेदैकत्वसङ्ख्यात्वेन रूपेणेत्यर्थः । वृत्ती तदवगम इति. समासे अभेदैकत्वसङ्खयाऽवगम इत्यर्थः । विरोधेनेत्यस्य न कथमपि विचारसहमित्यनेनाचयः । सामान्यप्राधान्येनेति-व्यक्तिविशेषमविवक्षित्वेत्यर्थः । श्रोतमिति-आगमसिद्ध मित्यर्थः । सौत्रमिति पाठस भवति सूत्रसिद्धमित्यर्थः । आर्थमिति युक्तिसिद्धमित्यर्थः । यत्र तु बौद्धमेकत्वं प्रकृतिपर्यवसितं क्रियते, तत्र सर्वसंग्रहनयोऽपि बहुवचनमेव प्रयुक्ते इति यत्र तु जीवानां स्वरूपतोऽनेकत्वेऽपि तेषां सामान्यरूपेण यदेकत्वं बुद्धया परिकल्पितं तद्वौद्धमेकत्वं प्रकृतिपर्यवसितं क्रियते बहुत्वमेव जीवत्वेनैकीकृतमतस्तदेकत्वस्य प्रकृतिभूलस्वरूपं बहनो जीवाः, अर्थात् जीवगतबहुत्वं तत्पर्यवसितं तत्स्वरूपविधानपरं विवक्ष्यते तत्र जीवव्यक्तीनां भिन्नत्वेन बहुवचनमेव न्यायमिति सर्वसंग्रहनयोऽपि बहुवचनमेव प्रयुङ्क्ते, तत्र दृष्टान्तद्वयमाह -यथेति-यथा सनेत्यत्र सेनागत बौद्धं हस्त्यश्वादीनामनेकेषां तत्समुदायत्वरूपसामान्यरूपेण बुध्या परिकल्पितं यदेकत्वं तत्प्रकृतिरश्वगजादिगता बहुत्वसंख्या तत्पर्यवसितं तदेकत्वं विवक्ष्यते इति, की सेनेति प्रश्ने एकत्वविशिष्टाया एव सेनाया विषयत्वेनोत्तरवाक्येऽपि तस्या एव विधेयत्वमिति हत्यश्वरथपदातय इत्यत्र बहुत्वविशिष्टानामेव विधेयत्वेऽपि न प्रश्नोत्तरभावानुपपत्तिः, प्रश्ने बहुत्वे पर्यवसितस्यैवैकत्वस्य विषयत्वात् । यद्यपि बहुत्वरूपमेकत्वं प्रश्नविषय इति सेनेत्यत्र बचनेन भाव्यम् तथापि तत्र प्रकृतिपर्यवसिनं बौद्धमेकत्वं नाश्रीयते इत्यकवचनम्, हस्त्यश्वरथपदातय इत्यत्र तु तत् प्रकृतिपर्यवसितमाश्रीयत इति बहुवचनामिति भावः । अनुयोगद्वारादौ " से कि तं संगहस्स अट्ठपयपरूवणया ? तिपएसिए आणुपुयी, चप्पएसिए आणुपुषी, जाव दसपए. सिए आणुपुथ्वी" इत्यादिस्त्रेण बहूनि द्रव्याण्युदिश्यकमेवानुपूर्वी सामान्य विधेयमिति सामान्यस्यैव प्राधान्येन ततयौ कत्वमेव विधित्सितं, न तु तत्प्रकृतिपर्यवसितं क्रियते इत्येकवचनमेव न्यायमित्याशयेनाह-तेनेत्यादि । इह विति-जीवा नौजीवा इत्यत्र स्वित्यर्थः। Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ૨૮૮ રવિવાર્થનમૂઢાર્થીપિકા પંચામg૦ હીર ઘમિતાંવન્ઝવૃદ્ધિબજારવિયા પ્રતિવર્ધવસંત તત્ નિયત તિ વહુવનમેવાવિરુદ્ધમ્ | ગત, gવ સર્વસંગ્રહ ફૂટ્યત્ર એવાં ઘર્મિન સંડ્ઝ ફત્યર્થ વિથ શત્વમવિરુદ્ધમે, વૌદ્ધવંવદુત્વવિષયોરનતિમિત્તવાન્ ! સાક્ષત્વનિરાહાક્ષત્વે તુ શાળંમવશેળેવેતિ સર્વનવરાતમ્, મીરં વા માબૂવવનમિમન્યા સુધી સમર્થનીયમ્ ! પુત્ર રિતા વિન અન્યત્ર સુન દરથિતું રાજયન્ત ફત્યાતિવિરાતિ-gવું સમાવિત્યાદ્ધિના, અવગુત્તમજણ સમાવેષ ઘતિમયવિવું, નથવાનાનુપમ શાર્થવાયાનત્રપ ર્ય તે વૈષિમાં પૂર્વ તાવતું પ્રમ નવિવાર છત, પ્રમાણે તે શર્તમ શાહ બત્રાત્યાદ્ધિ વિપયગામજ્ઞાનસતાનાં પાનાં જ્ઞાનનાં મધ્યે શનિ જ્ઞાનાન્યજ્ઞાનાનિ વે જો ના નામવિશ્રયત ફતિ પ્રશ્ન સૂરિરાહ સત્રોગ્ય-નૈમાવવો નૈમિલંબ વ્યવહાર, સર્વ નિવારોવાળ, નિયતિ ? યૌ પ્રયજ્યયુપાચ્છન્તિા =હનુમૂત્રના મતિતિજ્ઞાન મત્યાનં જ તક્રિપતિ તર્નાનિ, વત્ શ્રુતજ્ઞાનવ્રુતાશાનાધિજ્ઞાનવિમાનમન:પર્યવ જ્ઞાનસાન્યાશ્રયતા શત્રહિ-થે મર્તિ સાવિપર્યયાં ત્યજ્ઞાનહિતા ન શયતે સૌ શત્રોન્ગતિ-યુતર પાંપર્યયોપદ્મહત્વાક્ વ્યવહારાવધારણાયામુવઃત્યા, તથા ૪ થુનમુનેરી રાત્મતે ચિરત્વેનાનાશાળામત્યુદં મવતિ યરિવન્દ્રિયજં જ્ઞાનમુવઘતે તન્નાવગ્રહમાળ પ્રવર્તમાન વસ્તુનો નિશ્ચયે તુંમરું, યહાં તું શ્રુતજ્ઞાનેનાસાવર્થ માનતો મવતિ તવા અથવાનિયત ફતિ તહેવાયુમ્નન્ય શ્રુતજ્ઞાન, વુિં મતિજ્ઞાનેનેત્યાયઃ | શબ્દધર્મનાવજીવવુજારવિષય હત્યા-ધર્મતાવર્ઝવવાદ્ધિ નવનિકાતાનિતનવનિકાળતાનિધિવા નવ રૂતિ વૃદ્ધિ, તજ્યાં પ્રારા નવત્વ તદ્વિધા તત્વશારે નવસામાન્યવર્મા તદ્રૌદ્ધવં પ્રકૃતિપર્યવસાં નવવદુત્વાર્યવાસિતં બિયત તસ્તવ્રતિપાદ્રવ વધુવનમેવ ન્યાધ્યમિર્થ નવ ફૂત્ર નવત્વે શ્નલિયા, તથા સતિ તસ્વપમેવ વજીર્થ સ્થાવ, રિતુ નીવવ્યજ્ય હત્યમાળા-મત તિા ધિ તત્વમવિરુદ્ધમેતિ સામાન્ય પય પ્રધાન વિધાને સામાન્યસ્થ ત્વમેવ વિધિમિતિ વિવાવેવમવિરુદ્ધમેર્યા તત્ર હેતુ માહ-વઢેલાવા તત્ર પ્રતિપર્યવસાન વિવણિતમતત્વ વદુર્ગમનāષ્યવનપ્રતિપાઘત્વમેવ ન્યાધ્યમિતિ માવા વત્ર યાતૃશાવરશાવ્યોધઃ કર્તવ્યસ્તત્ર તદ્દનુસૂયૅવવના વેરવવં તદ્દનનુ જાનિરહૂિર્વ, તેન વિધિપત્ય સામાન્ય ચૈવ પ્રાધાન્ય વિલિત તરૈવ વવનં સાવ, વત્ર તુ વિધિબારણાં વિશેષાણાં બાન્ય વિવલિતં તત્ર વદુવનમેવ સાહત્યિ -સાલાલવનિરાલ ત્રિાતિ | શ્રુતસ્ય વિપર્યયોપહવાહિતિ માધ્યસ્વાર્થમાહ વ્યવહૃારાવધારાશાધામુપવિત્તાવિતિ-સાપર્વશ્રુતજ્ઞાનાનપીવ્યતાનિધ્યતિપનીવાતાવરવાહૂ વિપર્યયમતિજ્ઞાનવર્ધ મતિજ્ઞાનું ભૂત્વા શ્રુતજ્ઞાનમુનિન્ય મત્યજ્ઞાન શ્રુતજ્ઞાનમુપનાર્થનિચર્ય પરેષાં હતા, નવતઃ ફત્યર્થનિશ્ચયે તો પરાવીનત્વાદ્વિતિ મા ! તાર મિત શાહ વિ વિવાદના વર્ચિચેવાશેયમાર થવવિ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपार्थविवरणदार्थदीपिका । पंचत्रिंशत्तम० टी० : ३८९ : नयतु भावार्थावलम्बी, द्वे एवं श्रुतज्ञानफेवलज्ञाने श्रयते, नान्यानि । अथ करमान्नेतराणि श्रयते ।। अत्रोच्यते-मत्यवधिमनःपर्यायाणां श्रुतस्यैवोपग्राहकाया स्वालोचितार्थस्य परप्रत्यायने श्रुतस्यैव मुखनिरीक्षकत्वादिस्यर्थः। यधपि तद्वत्केवलज्ञानमपि भूकमित्यनाश्रयणाहम् , तथाप्यशेषार्थपरिच्छेदकत्वेन प्रधानत्वातदाश्रीयत इति भावः । तथा विपर्ययान्नाभ्युपैत्ययमित्याह-चेतनेत्यादि । चेतना सामान्यपरिकत्वम् , ज्ञ इति भावप्रधाननिर्देशाद् शत्व विशेषपरिच्छेदिता, तयोः स्वाभाव्यं तथाभवनम् , तस्मात् , सर्वजीवानां पृथिवीकायिकादीना, नास्य नयस्य मते, कश्चिन्मियादृष्टिरज्ञो वा जीवो विद्यते, अयथार्थपरिच्छेदित्वं हि मिथ्यादृष्टित्वम् , न च पृथिवीकायिकादीनामपि यत्किचित् स्पशधिशेऽ. यथार्थपरिच्छेदिता नाम, यदपि शुक्तिकाशकले रजतज्ञान, तदप्यगृहीतभेदं ज्ञानद्वयं ग्रहणस्मरणात्मकं, न त्वेकं, कारणाभावात्, एतदवलम्बनेनैव सर्व ज्ञानं यथार्थमेवेति वदतोऽन्यथाख्यातिप्रतिक्षेपिणः प्राभाकरदर्शनस्य प्रवृत्ति । अज्ञत्वमपि ज्ञानाभाव., न्द्रियमित्यादि । मत्यवधिमनःपर्यायाणां श्रुतस्योपग्राहकत्वादिति-भत्यवधिमनापर्यायज्ञाननिष्ठोपकारकतानिरूपितोपकार्यत्वाच्छूतज्ञानस्यवेत्यर्थः । उक्तमेव व्याख्यातिवालोचितार्थस्य परप्रत्यायने इति खानि मत्यवधिमनःपर्यायज्ञानानि, तैः प्रत्येकभालोचितो गोचरीकृतो योऽर्थस्तस्य, अत्र पष्ठयों विषयत्वमिति परेषां श्रोतृणां तद्विषयकशाब्दबोधात्मकप्रत्ययोत्पादने इत्यर्थः । श्रुतस्यैव मुखनिरीक्षकत्वादिति-यैर्यस्य मुखं निरीक्ष्यते तानि तदुपकारकाणि भवन्ति, यच्चोपकार्य तदेव प्रधानतया कार्यकारणमिति लोकव्यवहारन्यायेन प्रकृते परेषां श्रोतृणां मत्यादिभिरालोचितार्थविषयकशाब्दयोधकरणे श्रुतस्य मुखं निरीक्ष्यत इति तानि मतिज्ञानादीनि तदुपकारकाणि इत्युपकार्य श्रुतमेव शाब्दं साक्षाजनयतीति प्रधानतया तदेवाङ्गीकरोति शदनय इति भावः। तद्वदिति-मत्यवधिमनापर्यायज्ञानपदित्यर्थः। मूकमिति-न स्वापेक्ष्यपरोपदेशक्षमामित्यर्थः । न स्वातिरिक्तकारणानपेक्षपरोपदेशसमर्थमिति यावत् । अज्ञत्वमित्यत्र नम्पदवाच्यः प्रसज्यप्रतिषेधात्मको निषेध एवेत्यभिप्रेत्य तदर्थमाह ज्ञानाभाव इति । अशो जीवस ५५ स्यात् , यस्मिन् सर्वथा ज्ञानं न विद्यते, न चास्मिन् मते तथा सम्भपति “सु वि मेहसमुदए होइ पहा चंदपुराणं " इति नन्दीस्त्रवचनाद् घनमेघाडपराच्छादने सत्यपि चन्द्रसूर्ययोदिनरजनीविभागकदव्यक्तप्रकाशवदतिनिविडतमकर्मावरणे सत्यपि सर्पनिकृष्टोपयोगः सूक्ष्मनिगोदापर्याप्तजीवेष्वपि । विधत, तत्र जीवाजीवविभागकदव्यक्तज्ञानाभ्युपगमात् । तथा चौक्तमाचारावृत्ती " सनिकृष्टो जीवस्य दृष्ट उपयोग एष वीरेण । सूक्ष्मनिगोदाऽपर्याप्तानां स च भवति विज्ञेयः॥१॥ तस्मात्प्रभृतिज्ञानविद्धिदृष्टा जिनेन जीवानां । लब्धिनिमित्तकः करणः कायेन्द्रियवाङ्मनोवृग्भिः ॥२॥" इति । ન્યથાયોક્ષપાસ્યાયટમાનવેન વીવો ખ્યનીવત્વ પ્રાપ્નયાવિતિ ન વયાખ્યાત્મનો Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ३२०: पार्थविवरणदार्थदीविका । पंचत्रिशत्तमसू० दी? स चास्य मते न कस्यापि “स०जीवाणं पि य णं अक्सरस अणतभागो णिच्युपाडिओ चि” इति वचनात् । न च प्रतियोगिसमानदेशत्वममावस्य संमपति, तास सम्यादृष्टयः, सर्वे च ज्ञानिन इत्यस्याમિપ્રાયઃ વિધેયા સંસારી સર્વે મુદ્ધાસુદ્ધળયા’ તિ સમાનતાન્નિશૈર્ય, તતનયા લિયા થથमानं समीचीनतामञ्चति । कर्मोपाधिनिरपेक्षशुद्धद्रव्याथिकैन तादृशशुद्धपर्यायाथिकैन वा तद्द्योजनाया तु ज्ञानाभाव सम्भवतात्याशयेनाह-स चास्य मो न कस्यापीति । न च यथा घटाधिकरणभूतले घटाभावो विद्यते, तथा न च ज्ञानवत्याऽऽत्मनि ज्ञानाभावोऽपि सम्भवति, .. ननु शाखावच्छेदन कपिसंयोगवति वृक्षे मूलावच्छेदेन कपिसंयोगाभावदृष्टान्तेन ज्ञानसमानदेशत्वं ज्ञानामावस्य भविष्यतीत्यपि न. चाशनीयम्, कपिसंयोगवशानसाऽव्याप्यवृत्तित्वाभावात् । किञ्च तन्मते देश्येवास्ति न देश इति देशस्यैवाऽभावेन कपिसंयोगोऽपि नाव्याप्यवृत्तिरिति न तदृष्टान्तावलम्बनमपि युक्तमित्याशयेनाह न च प्रतियोगिसमानदेशत्वमिति। "विष्णेया संसारी सव्वे सुद्धा हु(उ) सुद्धणया" इति " मग्गणगुणठाणेहि य चउदसहि हवंति तह असुद्धणया। विण्णेय। संसारी सव्ये सुद्धा हु सुद्धणया" इति वृहद्व्यसंग्रहसत्यं सम्पूर्णा गाथा । अस्याश्चायम्भावार्थ:-सर्वे संसारिजीवा अशुद्धनयात्' अशुद्धनयापेक्षया चतुर्दशमार्गणास्थानचतुर्दशगुणस्थानश्च चतुर्दशप्रकारा भवन्ति सम्भवन्तीति विज्ञेया ज्ञातव्याः । चतुर्दशमार्गणास्थानचतुर्दशगुणस्थानसहिता भवन्तीति यावत् , त एव सर्वे संसारिणः शुद्धनयात् शुद्धनिश्चयनयात् शुद्धनिश्चयनयापेक्षया शुद्धाः सहजशुद्धबुद्धकस्वभावाः शुद्धपारिणामिकपरमभावग्राहकेण शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन शुद्धनिश्चयात्मकेन मार्गणास्थानगुणस्थानरहिता जीवा इति यावत्', ननु शुद्धपारिणामिकपरमभावग्राहकसुद्धनिश्चयनयेन मार्गणास्थान गुणस्थानरहिता इत्युच्यमाने मार्गणास्थानमध्येऽपि भव्यभिव्यभेदेन पारिणामिकभावस्थ द्विधोक्तत्वातन सह विरोषारयाद, यतः पारिणामिकमावता जीवानां मानणास्थानसहितत्वेनोक्तत्वादिति चेत्, उच्यते, पारिणामिकमावो हि शुद्धाशुद्धभेदेन द्विविधः, तत्र शुद्धचैतन्यं जीवत्वमाविनश्वरत्वेन शुद्धद्रव्याश्रितत्वाच्छुद्धद्रव्यार्थिकसंज्ञः शुद्धपारिणामिकमायो भण्यते, यत्पुनः " जीवमन्यामव्यत्वानि च" इति तत्वार्थसूत्रोक्त कमजनितदशप्राणरूपं जीवत्वं भव्यत्यममन्यत्वञ्चेति त्रयं तद्विनश्वरत्वेन पर्यायाश्रितत्वात्पर्यायाथिकसंज्ञवशुद्धपारिणामिकभाव उच्यते, अशुद्धत्वं कथमिति चेत्, यद्यप्येतदशुद्ध पारिणामिकमावत्रयं व्यवहारेण संसारिजीवेऽस्ति तथापि " सधे सुद्धा हु सुद्धणया" इति पचनाच्छु निश्चयेन नास्ति वयं, मुक्त जीवे पुन सर्वथैव नास्ति, इति हेतोरशुद्धत्व भण्यते, तथा च मार्गणास्थानपतितः . પરિણામવોશુદ્ધ ડm, તદ્ધિનtતુ શુદ્ધચૈતન્યક્ષેપરશુદ્ધ હજી કૃતિ પારિવામિનાવસ દ્વિમેવ વિરોધ ફતિ | કન્વિમિતાહનાર્થમાહેરાતિ સમાનતાગ્નિવર્યदुच्यते इत्यादि । एतन्नयापेक्षयति शद नयापेक्षयेत्यर्थः । तादृशेति कोपाधिनिरपेक्षेत्यर्थः । तद्योजनायामिति "विष्णया संसारी" इत्यादि योजनायामित्यर्थः । Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . तरवार्थविपरणार्थदीपिका । पंचविशत्तममृ० टी०, : ३९१ : केवलज्ञानं केवलज्ञानपर्यायान् वाऽऽहाय सर्वसंसारिषु, शुद्धत्वं समर्थनीयं स्यात्, तत्र फर्मोपाधिनिरपेक्षत्वं विषये काँपाधिप्रयुक्तभेदग्रहाविषयत्वम् , तच्च यधपि भेदग्रहप्रतिपक्षसामयनुप्रवेशविधया द्रव्ये निरुपचरितसंग्रहेण प्रतिपादयितुं शक्यम् , तथापि पर्याय न कथञ्चित्, पर्यायस्य संग्रहाविषयत्वात्, पर्यायनये च भेदस्यैव पुरःस्फूर्तिकत्वात् सदृशापरापरक्षणोत्पत्त्या भेदबुद्धितिरोधान तु कोपाधिसाक्षेपतामेव समर्थयेत्, न तन्निरपेक्षताम् , उपपलवावस्थायां सहशापरापरक्षणानां कर्मसापेक्षाणामेवोत्पत्तेः, न चोपलवानुपप्लवसाधारणं सादृश्यमेकमस्ति, विसमागपरिक्षयादेव मोक्षप्रतिपादनात्, संग्रहानुगतीकृतविषयपुरष्कार च न शुद्धः पर्यायनयः समर्थितः स्यात् । भाविनि वर्तमानोपचाराश्रयणे च नैगमव्यवहारावाश्रितौ भवेयाताम् , न चैवं कथमपि प्रत्युत्पन्नपृथिवीकायादिस्पादिपरिच्छेदव्यक्तयः केवलज्ञानं केवलज्ञानपर्यायान् वाऽऽदाय सर्वसंसारिषु शुद्धत्वं समर्थनीयं स्यादिति-केवलज्ञानरूपद्रव्याश्रयणेन मत्यादिसर्वज्ञानानामभिन्नत्वात् केवलज्ञानशुद्धत्वेन शुद्धत्वं सर्वथा कर्मोपाधिविलयानन्तरमाविकेवलज्ञानपर्यायाणामाश्रयणेन तच्छुद्धत्वात् पूर्वपूर्वमत्यादिज्ञानपर्यायाणामपि फेवलज्ञानरूपद्रव्यपर्यायरूपतयाऽभेदाच्छुद्धत्वं वा समर्थनीयं स्यादि . त्यर्थः । न तत्समर्थनं समीचीनतामञ्चतीति प्रतिपादनायाह-तत्रेत्यादि । विषय इतिज्ञानस्वरूपविषय इत्यर्थः । उपपलवावस्थायामिति-सरागचित्तसन्तत्यवस्थायामित्यर्थः । विसभागपरिक्षयादेवेति-विसभागाः विसभागसन्ततिरूपाः केवलज्ञानपर्यायापेक्षया मत्यादिज्ञानपर्यायाः, विभावपरिणतिरूपत्वात्तेषाम् , तत्परिक्षयादेव तानाशादेवेत्यर्थः । मोक्षप्रतिपादनादिति पर्यायनयेनेति शेषः । संग्रहानुगतीकृतविषयपुरस्कारे चेति. संग्रहनयाभ्युपगतानुगतधर्मेण केवलज्ञानपर्यायैस्सहाऽभेदीकृतानां मत्यादिज्ञानपर्यायाणां केवलज्ञानपर्यायशुद्धत्वन शुद्धत्वाभ्युपगम इत्यर्थः । भाविनि वर्तमानोपचाराश्रयण इति-भाविनि केवलज्ञाने वर्तमानत्वोपचारेण मतिज्ञानादिकालेऽपि केवलज्ञानस्य सद्भावातछुद्धत्वन तच्छुद्धत्वाश्रयण इत्यर्थः । तत्र दोषमाह नैगमव्यवहारावेपाश्रितो भवे. यातामिति-तन्मत एपोपचाराश्रयणस युक्तत्वादिति भावः । अयमभिप्रायः शुद्धसंग्रहो द्रव्यमेवाभ्युपगच्छति, अतोऽस्याभेदज्ञानसामग्रीघटकत्वेन भेदज्ञानपरिपन्थित्वात् केवलज्ञानस्य द्रव्यरूपत्वाभ्युपगमेन मत्यादिज्ञानानामपि भिन्नानामनाश्रयणेनाभेदाश्रयणा स्व. विषयकेवलज्ञाननिष्ठकोपाधिप्रयुक्तभेदग्रहाऽविषयत्वलक्षणं शुद्धत्व सम्भवति, अतस्तदाश्रयणेन सर्वज्ञानानां यद्यपि शुद्धत्तमुपपादयितुं शक्यम् , तथापि त छक्त्यैव, न तु व्यक्त्या, यतस्स ग्रहनयेन केवलज्ञानस्य वर्तमानमत्यादिज्ञानकाले शक्तिरूपेण सत्वेऽपि न तत्तन्मत्यादिज्ञानव्यक्त्यात्मनावस्थानमिति तमित्यादिज्ञानव्यक्तीनां व्यक्त्यात्मना संग्रहनयो न कथा मपि - शुद्धत्व प्रतिपादयितुं - शक्तः, पर्यायनय केवलज्ञानं पर्यायरूपतयैवाऽभ्युपगच्छति, तद युपगमश्च पूर्वोत्तरज्ञानानां भेदाश्रयणेनैव, भेदश्च केवलज्ञानपूर्वभाविनां मत्यादिज्ञानानां कर्मोपाधिप्रयुक्त ५१, नात स्वविषयज्ञानगतकोषाधिप्रयुक्तभेदग्रहाविषयत्वं शुद्धत्वं तत्र Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ૩૨૨ : સવાનવયુદ્ધાથર્ીપિા ! પત્રાત્તમબૂટ ટી 66 નિતશ્રમ ધારાશ્ચાદ્દાઃ સાંધતાઃ સુરિત્યજ્ઞાર્નામય્યાનિરપેક્ષ શુદ્ધર્યાર્થિયો અન્યકૃત્તિવિધાન દશાઁવશ્યમÁષાન્તવ્યઃ । તસ્માષિ વિષયેયાન્ મત્યજ્ઞાનાવીનાશ્રયંત્તે ! સાંષ પ્રતિપક્ષજ્ઞાાન-પામતભાનાનમ્યુંષામં સમુદ્ઘિનોતિ । યોગ્ય નયો નિશ્ર્ચયાત્ર સત્ત્ત, યતÆ છદ્મસંજ્ઞાર્તાને સર્વાષેિ શ્રુતેડતર્માન્ત અો યત્ “ પ્રત્યક્ષમાવતિ ” સૂત્રે ńતજ્ઞાતં નયવાદ્વાન્તરે તુ ચા માંતશ્રુવિન્પાને માન્ત તથા પાતાદ્દશ્યામ કૃતિ તદ્રુપપર્શમાહ-ત‰ત્યાદ્રિ । પ્રમાણનવિશ્વરમનન્તરે સારું વાધ્યાયાર્યનુષસંદૂરનું રાઃ વાત | બાદ શ્વેત્યાં, विज्ञाय ज्ञात्वा, एकार्थानि पानि जीवः प्राणी जन्तुरित्यादीनि, अर्थपदानि च पदनिरुक्तान् अक्षं પ્રતિા પ્રત્યક્ષ બક્ષેન્ચઃ પરં પરોક્ષ્મત્યા૰ીનિ, વિધાનું નામસ્થાપનવિન્ ! હું હૈં નિર્દેશસ્વામિત્વસત્સંતિ, તો વિન્ધન્ય નામાવિમિનાિ:શિષ્ય, પશ્લેિષાત્ સર્વન્યાલેઃ, નયેઃ પ્રમાણે પ્રમેય પ રિપોરિતેને મદ્રેમિઃ, પરફ્યાયમર્થ રથ ન તેિ । તત્ત્વાને નોવાીીને સત ॥ ? | જ્ઞાનમિતિ જ્ઞાનં મત્લાવિ, વિપર્યાસ મત્યજ્ઞાવિત્રયાનુમત, નૈનાચાયઃ, અર્થાન્ત વસ્તુપાન્તિ, આવેત આવેરારમ્ય, તેનાયંત્રયવ્યવવ્હેર, સર્વમવિયમ્ । મિનેનમાર્હ સભ્ય છેäવમિાંહતતત્ત્વશ્રદ્ધાયિન, વિન્દ્રિયજ્ઞમાંનેન્દ્રિયનું શ્વ, તત્સર્વ જ્ઞાનં, મિથ્યા૨ે સર્વમેવ વિપર્યાસોનમ્ । જોજોત્તરવ્યવહારાસન્મતિ, મતિજ્ઞાનાવિત્રજ્ઞાનાન્તજ્ઞાનપર્યાયાળ સર્વેષાં સદૃશીધરાધરોત્સા મેવાઢતિરોધાનેગષેત્રજ્ઞાનપૂર્વમાંવિતિજ્ઞાનાવી સહુશારાનોત્પત્તિઃ ર્માંષધિયુક્તને ત માંધાવિયુદ્ધ મૅગ્રહાવિષયત્વમેય મતિજ્ઞાનાવિયાળાં, મૈં ચ ત્રજ્ઞાનોત્તપર્યાયતપૂ વાંતિજ્ઞાન વિષીયાળાં સાનુશ્યમસ્તિ, ચેન વળજ્ઞાનોત્તેરસટ્ટારાપરોપત્તૌ નરપેક્ષત્રે તપૂર્વમતિજ્ઞાન વિષયંચપરમ્પરોત્સત્તાધિતાંજાયેલતામશ્રિત્યૌષાધિયુદ્ધમેઝવિષયત્વનાત્રાયતું શક્ષેત, તસ્માતુતિ શુદ્ધયાર્થીનયાળેન જ્ઞાનાનાં શુદ્ધત્ત્વન નવશુદ્ધત્વમુખાયિતુમશયમે, વિન્તુ શનયમૂળમામાશ્રયળનૅવેતિ । તસ્માવર્ષાંતે શબ્દનયમસે મિથ્યા છે.માત્રાત્, અજ્ઞવામાંવાતિ હેતુવાપીત્યર્થઃ । Sપિના તન્મતે મતિજ્ઞાનાઘનખ્યુપામેન દ્વિપક્ષમત્ત્વજ્ઞાનાવેરષ્યનામાવતિ દેર સમ્રાચનોતીત્યા ત્યા। અયં નયતિ શબ્વનય ત્યયેઃ । યતિત્યસ્ય પ્રાંતજ્ઞામિત્યનેનાન્નયા, પઘ્ધતિજ્ઞાત તહેવા-નયવાવારેપ ત્વાંાવે | નયા નૈમાલ્યા, તેમાં બઃ સ્ત્રાવિતાયંત્રસાશન તસ્યાતર મે, તેન માંતશ્રુતવિશ્પા ને માતજ્ઞાતાને ચીંઝ્યો બમાળાને માન્ત તથા પરસ્તાવિન્નારણાયાં વસ્યામ તી તદ્રુપપન્નામાઅતધૈયારીતિ | શનયસ્ય મતે માતિજ્ઞાનાનાં શ્રુતજ્ઞાન વાધવ, તસ્ય જૂ પ્રમાણૈ વત્સ્યેન પ્રત્યક્ષાનુમાનોપમ નાપ્તવત્તાનાયિ તન્ત્રવાહમાંવાત્કામાખ્યનસ્યનુંજ્ઞાયત રૂત્યર્થઃ । આઘારાયમા–વિજ્ઞાય જ્ઞાત્વેત્યાંવે! પરિસ્કોર રાત-તત્ત્વમાળ-તત્રયાયેક્ષ્યમેતપ્રમાણ ચૈતયાવશ્યમ્, દ્વેષયઃ તયયાષા, દ્વેષ વૃંતોષર ત્યેવં વત્તત્ત્રમાતૃત્તદ્વેિષવિવેત્તનાય પ્રાચિđીરત્યયંઃ ર્॥ દ્વિતીયરિાર્થનાહ્વામિત ર Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -वार्थविवरणदार्थदीपि । पंचत्रिंशत्तमस. टी० :३९३ : नुरोधेनाय विभागः ॥२॥ सूत्र इति-जुत्रः षण्मतिज्ञानमत्यज्ञानरहितानि श्रुतादीनि श्रयते । मति तु सविपर्यासां न श्रयते । कुतः ? । श्रुतोपग्रहात् श्रुतोपकारकरनेन, अनन्यत्वादभिन्नत्वात् , श्रुतादिति गन्यं । (य)तस्य हि फलं प्रमाणं न कारणे मोक्षोपयोगिक्रियायाम्, अपि च श्रुतं कारणं न मतिः, तस्याः श्रुतेनान्यथासिद्धत्वादिति । श०स्तु श्रुतज्ञानकेवलज्ञाने श्रयते नान्यत् । किं कारणं, श्रुता त्वात् , श्रुतस्य प्रतिविशिष्टबलाधानहेतुत्वात् , अवधिमनःपर्यायाभ्यां हि स्वगृहीतार्थविवक्षारूपं भाषश्रुतं स्वस्मितज्जनितशब्दद्रयराशिल्पद्रव्यश्रुतद्वारा श्रोतरि च शब्दार्थोपयोगरूपं तत्पुष्टिं नीयते, तदेव च तृतीयकारिकार्थ विवृण्वन्नाह गाजु सूत्र इतीति । श्रुतोपकारकत्वेनेति-श्रोतृणां शाद. प्रत्ययजनने श्रुतज्ञाननिष्ठोपकार्यतानिरूपितोपकारकतावनेन मतिज्ञानस्येत्यर्थः। यद्यपि श्रोतृणां शाब्दप्रत्ययजनने श्रुतज्ञानमेव प्रधानम् , तथापि मतिज्ञानोपकृतमेव तच्छाब्दप्रत्ययं जनयति, तथा च मतिज्ञानं शब्दशक्त्याद्यवग्रहस्वरूपं श्रुतज्ञानमुपकरोतीति तदुपकारकरण एवोपक्षीणं मतिज्ञानम् , शा०प्रत्ययं तु श्रुतज्ञानमेव विदधातीत्यर्थप्रत्ययजनने श्रुतज्ञानस्यैवोपकार करोति मतिज्ञानमिति हेतुनेति भावः। तदेवाश्रयणीयं भवति यन्मोक्षोपयोगिक्रियाकारणम् , मतिज्ञानन्तु न तथा, किन्तु मतिज्ञानाच्छ्रतं, ततश्च मोक्षोपयोगिक्रिया. भवतीति श्रुतमाश्रयणीयं भवतीत्याहतस्य हीति, हिर्यतः, मतिज्ञानस्य फलं प्रमाणं-प्रमेयपरिच्छेदकम् , मतिज्ञानमर्थ प्रमिणोत्येव केवलमिति यावत् , मोक्षोपयोगिक्रियाया। कारणं न भवतीत्यर्थः। अपि चेति-अ चस्य स्वर्थकस्मात् अपि तु श्रुतं मोक्षोपयोगिक्रियायाः कारणमित्यर्थः । मतिः करमान कारणमित्यपेक्षायामाह-तस्या इति-मतेरित्यर्थः, यस्य हीति पाठे तु यस्य फलमधिगतिनिबन्धन-स्वात् प्रमाणभेव भवति, न तु मोक्षोपयोगिक्रियायाः कारणं भवति तदाश्रयणं न युज्यते इति शेषः। अपि चेति-अपि वित्यर्थः, तथा च मोक्षोपयोगिक्रियायाः कारणत्वाच्छूतस्याश्रयणं तदभावात्मतेरनाश्रयणमित्यर्थः । मतेर कारणत्वे हेतुमाह तस्या इति । श्रुताङ्गवादित्यस्यार्थमाह श्रुतस्थ, प्रतिविशिष्टबलाधानहेतुत्वादिति । एतद्विवेचयितुमाह . अवधिमान पायाभ्यां हीति । हियतः, अवधिमनःपर्यायज्ञानाभ्यां करणाभ्यामवधिमनःपर्यायज्ञानगृहीतार्थविवक्षारूप-विवक्षाया इच्छारू पाया आहेतमते ज्ञानविशेषत्वाद् भावश्रुतं स्वस्मिन् पतरि पुष्टिं नीयते, ताभ्यां करणा-यां स्वगृहीतार्थविषयकविवक्षारूपं भविश्रुतं श्रोत्ज्ञानो. -पादनसमर्थ भवति, उक्तविवक्षारूपभावश्रुतजनितशद्द्य राशिरूपद्रव्यश्रुतद्वारा श्रोतरि सदा..थोपयोगरूपं २०६वाच्यार्थविषयकशाबोधात्मकोपयोगरूपविश्रुतं ताभ्यां करणाभ्यां पुष्टिं नीयते, पति मुखोचारितपुरलात्मक रूपद्र०यश्रुतद्वारा श्रीतयुपजायमानं शवाच्यार्यविषयकशादयोधोपयोगरूपं भावश्रुतं विशिष्टचारित्रक्रियास्पार्थक्रियानुकूलसामथ्यरूपपुष्टिवद् भवतीति तदेव विशिश्चारित्रार्थक्रियाकारित्वेन प्रधान, न तु करणरूपे अवधिमनःपर्यायाने विशिष्टचारित्रार्थक्रियाकारितामविन प्रधाने, तयोः करणयोश्रुतज्ञानेनान्यथासिद्धत्वादिति मतिज्ञानवायो. Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ३९४ : स्वार्थविवरणदार्थदीपिका । पंचविसमस्० टी० विशिष्टचारित्रार्थक्रियाकारित्वेन प्राधान्यमास्कन्दतीति तदङ्गयोत्तयोभतिज्ञानस्येव न गणना ॥३॥ मिथ्येति-मिथ्यादृष्टिमिथ्यादर्शनं चाशानं च ते द्वे, अयं शब्दो न श्रयते । किं कारणम् ? । अस्य शब्दनयस्य मते न कश्चिदशोऽज्ञानवानस्ति । कुतः ? । ज्ञवाभाव्यात-सर्वप्राणिनां ज्ञातृस्वरूपत्वात्, अत एवं चास्य न कश्चिन्मिथ्यादृष्टिरप्यस्ति । नन्वेवमज्ञानमिथ्यादर्शननिवृत्यर्था प्रवृत्तिः कथमुपपद्यते, तस्यां स्वत: 'सिद्धत्वज्ञाने इच्छाया एवासंभवादिति चेत्, मैवम्, तत्र स्वेटसाधनस्वस्वकृतिसाध्यत्वासंसर्गाग्रहात्तदुपपत्तेः, यत्रैव परस्य विशिष्टज्ञानं कारणं तत्रैव मम 'तद्धतोः' इत्यादिन्यायेन विशेषणासंसर्गाग्रह एवेति किमनुपपन्नम् ॥१॥ इतीति-इसनेन प्रकारेण, नवादा-नगमादिविचास्त्रः, चित्रा बहुप्रकाराः, शेयवैचित्र्यात् । क्यचित्-स्वरुचितसामान्याचशे विशेषादिग्राहिनयविचारावतारे, विरुद्धा इव-प्रतिवध्यमानोत्पत्तिका इव, अथ च सम्यगालोचनायां नयान्तरजन्यवाघज्ञानस्य नयान्तरजन्यज्ञानेऽप्रतिबन्धकत्वात्, गणना, श्रुताङ्गत्वादिति भावः। तदेव-श्रुतज्ञानमेव । तदङ्गयोस्त योरिति-प्रधानकारणीभूत श्रुतस्याङ्गयोगौणतया कारणीभूतयोवधिमन:पर्यायज्ञानयोरित्यर्थः ॥३॥ चतुर्थकारिकार्थमाहमिथ्येतीति आशङ्कते-नन्विति, एवं-अज्ञानमिथ्यादर्शनाभावे सति। प्रवृत्तेरनुपपत्तौ हेतुभाह-तस्यां स्वतः सिद्धत्वज्ञाने इच्छाया एवास भवादिति-अज्ञानमिथ्यादर्शननिवृत्तौ स्वतः सिद्धत्वज्ञान सा स्वत एव सिद्धा, अर्थात् ज्ञस्वाभाल्यादेवोक्तनिवृत्ति स्वतोऽस्तीति ज्ञाने मम सा भवयितीच्छाया एवास भवादित्यर्थः । उत्तरयति मैमिति । तत्र अज्ञानमिथ्यादर्शनानिवृत्तौ । तदुपपवेरिति-प्रवृत्युपपत्तरित्यर्थः । नैयायिक प्रवृति प्रतीष्टसाधनत्यप्रकार केदत्वावच्छिन्नविशेष्यकमिदामिष्टसाधनमित्याकारक एवं कृतिसाध्यापप्रकार केदविशेष्यकमिदं कृतिसाध्यमित्याकारकं विशिष्टज्ञानं कारणमभ्युपगतं, तचेष्टसाधनत्वरूपस्य कृतिसाध्यत्वरूपस्य च विशेषणय योऽसंसर्गो विशेष्येभावस्तस्य ग्रहे सति न भवितुमर्हति, तद्वत्ताबुद्धि प्रति तदभावज्ञानस्य प्रतिवन्धकत्वादिति तदभाव: प्रतिबन्धकाभावविधया कारणत्वनाम्युपगन्तव्य एवेति तेनैवास्माकं मंतेऽपि प्रवृत्तिसिद्धौ किमुक्तविशिष्टज्ञानस्य कारणत्वकल्पनेनेसाह यत्रैव परस्थेत्यादि ॥४॥ पञ्चमकारिका विवृणोति-इतीतीति । शेयवैचित्र्यादिति-नैगमादिनयमन्तव्यतत्तत्प्रकारवैचित्र्यादित्यर्थः। क्वचिदित्यस्यार्थमाह, स्वरुचितेत्यादि । विरुद्धा ३५ इत्यस्यार्थमाह प्रतिबध्यमानोत्पत्तिका इति । सम्यगालोचनाथाम्- परमार्थदृष्टया यथार्थवस्तुत विचारणायाम् । नयान्तरजन्यबाधज्ञानस्य नयान्तरजन्यज्ञानेऽप्रतिवन्धकत्वादिति-तत्तायुद्धिं प्रति तदभाववत्तानिश्चयरूपबाधिज्ञानस्य प्रतिबन्धकरवे मूलावच्छेदेन वृक्षे कपिसंयोगाभावज्ञाने सति शाखापच्छेदेन वृक्षे कपिसंयोगवलज्ञानमेव न स्यात्, भवति च, तस्मादच्याप्यवृतित्वज्ञानाभावविशिष्टमेवोक्तमाधज्ञान प्रतिवन्धकं वाच्यम्, तथा च प्रकृते अक्षणिकत्वसामान्याधम्युपगन्तनविषया સામાન્ય દ્વિધર્મસ્ય ક્ષવિશે વાઘમ્યુપન્નયક્ષ ત્વવિધર્મસ્થ चोभयस्य मिनापेक्षयकस्मिन् वस्तुनि वृवित्वेनाव्याप्यतित्वमिति तज्ज्ञानस्योत्तजकस्य . Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वार्थ विवरणमूढार्थदीपिका । पञ्चत्रिंशत्वमसू०टी० : ३९५ : विशुद्धा-अव्याहतोत्पत्तयोऽन्याहतयाथार्थ्याश्च । अंशग्राहित्वेऽपि पारमेश्वरप्रमाणप्रतिपन्नानन्तधर्मात्मकवस्तुस्पर्शन लौकिकविषयान् वैशेषिकादिशास्त्राण्यऽतीताः, तज्ञानार्थ-समयनयसामग्रीसंपावसप्तमायात्मकमहावाक्यार्थपरिज्ञानार्थम् , अधिगम्या अभ्यसनीयाः । उत्सर्गतो हि पारमेश्वरप्रवचनपरिणतबुद्धीना स्याद्वादाभिधानमेवोचितं परिपूर्णवस्तुप्रतिपादकत्वात्, तद्व्युत्पत्त्यर्थितया तु शिष्याणामंशमाहिषु, नयवादेष्वप्यपवादतः प्रवृतिरुचितव । " अशुद्ध वर्मनि स्थित्वा, ततः शुद्धं समीहत " इत्यादि. न्यायादिति भावः । तदिदमाह-सम्मतौ महावादी-" सीसमईविस्फारण-भेतत्थो यं कओ समुल्लायो । इहरा कहामुहं चेव, पत्थि एयं(व) ससमयंमि ॥ १॥” इति ॥ सत्येन तज्ज्ञानविशिष्टतया नैगमनयजन्याक्षणिकत्वसामान्यादिप्रकारकज्ञानरूपयावज्ञानस्यजुमत्रानयजन्यक्षणिकत्वविशेषादिप्रकारकज्ञानं प्रति न प्रतिवन्धकत्यमित्यत इत्यर्थः । विशुद्धा इत्यत्र हेतुं प्रदर्य तदर्थमाह अव्याहतेत्यादि । लौकिकविषयातीता 'इत्यस्यार्थमाह-अंशग्राहित्वपीति । ततनयानां प्रकारविधया तत्तदंशग्राहित्वेऽपि तदितशाप्रतिक्षेपित्वेन श्रुतप्रमाणप्रतिपनानन्तधर्मात्मकरस्त्वेकदेशग्रहणलक्षणस्पर्शनेकान्तास्मकलौकिकविषयमरूपकवैशेषिकयौद्धादिशास्त्रविषयकान्तागोचरत्वेन तान्यतीतास्तत्तन्नयवादा इत्यर्थः। तत्वज्ञानार्थमित्यस्यार्थमाह-समननयोति । अधिगम्या इत्यस्यार्थमाह-अभ्यसनीया इति, दृढसंस्कारमापना यथा स्युस्तथा सन्ततप्रवृत्या स्थैर्यभावनात्मसात् कर्तव्याइति भावः। यहसिद्धान्तोक्तानेकान्ततत्याभ्यासजन्यतद्विषयकपरिपुष्टबुद्धीनां सप्तमङ्गयात्मकप्रमाणवाक्य. स्यैव सप्तविधजिज्ञासानिवर्तकसप्तधर्मप्रकारकैकवर्मिविशेष्यकाखण्डवोधजनतापर्याप्तिमत्वात् उत्सर्गतस्याद्वादरूपप्रमाणवाक्याभिधानमेवोचितं तर्हि ततनयवादविषयाप्रवृत्तिदुर्घटव, तत्तनयवाक्यानां मिथो विरोधितया विरुद्धनयवाक्यप्रतिपादनप्रवृत्तर नुचितत्वादित्याशङ्कायामाह तयुत्पत्त्यथितयेति-स्थावादवाक्यतजन्याशेषांशविशिष्टपरिपूर्णवस्तुविषयकनिराकाशीद. वोधात्मकज्ञानविशेष कार्यकारणभावविज्ञानरूपा या व्युत्पतिस्तदर्थितयेत्यर्थः । अस्य च शिष्याणामित्यनेनान्वयः । अंशग्राहिषु नयवादेष्वप्यपवादतः प्रवृत्तिरुचितैवेति-न हि प्रत्येकतत्तदशज्ञानाभावे निखिलांशविशिष्टार्थज्ञानं भावतुमर्हतीत्यशेषांशविशिष्टार्थबोधे एकैकत. पदंशविषयकानयज्ञानानामपि हेतुत्वात्तजनके वंशवाहिषु नयवादेष्वपि प्रवृत्तिरुचितैवेत्यर्थः। ननु तदितरशिनिरपेक्षतत्तदंशविषयकनयवादानां मिथोविरोधिनां तद्विषयासत्यत्वेनायथार्थज्ञानजनकत्वाचवतो मिथ्यात्वादशुद्धत्वेन तदुक्तयुक्त्याश्रयणं नोचितमित्याशङ्कायामाह-अशुद्ध वर्त्मनि स्थित्वेति-तथा चोक्तन्यायेन शिष्यमतिविस्फारणार्थ तदुक्तयुक्त्याश्रयणमपि न्याच्यम् । परमार्थतस्त्वेकान्तनयभाषाप्रयोग एव नास्ति, कुतस्तदुक्तयुक्त्याश्रयणमिति बोध्यम् । उक्तार्थे स-मतिकृतीयकाण्डसत्कपञ्चविंशतितमगाथासंवादमाह-"सीसमईविष्फारणे ति"। अस्था अयमः शिव्यमतिविस्फारणमात्रार्थोऽयं विनीतविनेयबुद्धिविकाशनमात्रफलकोऽयं, अति Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ : ३९६ : तत्वार्थविवरणपूढार्थदीपिका । पंचविशतमसू० टी० स्वरूपतोऽशुद्धत्वेऽपि फलतः शुद्धत्वं सपा नयवादानां स्याद्वादव्युत्पादकतयेत्यवतिशायां । सर्वथा तदाश्रयण न्यायमिति परमार्थः ॥ DE=== = == _ 5 مو موجهه ن 20 و ge in u . o oc - e-eka & Gove @ ॥ इति महोपाध्याय-श्रीकल्याणविजयगणिशिष्यमुख्यपण्डित-श्रीलाभविजयगणिशिव्यावतंसपण्डित-श्रीजीतविजयगणितीयतिलकाण्डित-श्रीनयविजयगणि चरणकमलचश्चरीकेण पण्डितश्रीपद्मविजयगणिसोदरेणोपाध्यायश्रीयशोविजयगणिना विरचितायां भाष्यतानुसारिण्यां तत्त्वार्थटीकायां प्रथमाध्यायविवरणं समाप्तम् ॥ _ _ _ _ _ Don ath G - As ៧១១ ១១១១១៦ .. ॥ न्यायविशारद-न्यायापार्थ-महोपाध्याय श्रीयशोविजयाणि विनिर्मितायां भाज्यतर्कानुसारिण्यां तत्त्वार्थटीकायां प्रथमाध्यायविवरणं सम्पूर्णम् ॥ de.net.inwerment..... ..marat.... -Merenni... नम्रविनयभक्ति नावेनाहन्छास्त्रीयद्रव्यानुयोगतत्वाभ्यासैकनिष्ठानां शिष्याणां सप्तभङ्गयात्मकमहावाक्यजन्यप्रमाणात्मकाखण्ड शाब्दबोधजनकावन्तिरवाक्यार्थज्ञानोत्पादनार्थ इति यावत् । कृतः समुल्लापः, विहितः प्रबन्धः । इतरया एकान्तवाकवाक्यतापन नयवाक्यप्रतिपाधेकातरवथैवैषा जैन सिद्धान्ते नास्ति, एकान्तनय विषयासवेन तत्कथायां असम्भवान्न सा प्रतिपादनीया, अत एव "नवावधारणी भाषी भाषेत" इति सिद्धान्तक्तिमपि सङ्गच्छते, अयश्च निषेधः स्वतन्त्रनयविषय एव, तेन स्याद्वाकवाक्यतापभनयवाक्यस्येतरधर्माऽप्रतिक्षेपितयाs. न्याशेपदेशसापेक्षकदेशवोधजनकस्यानन्तधामकारकदेशोऽपि स्यद्विादरूप एवेति तत्प्रतिपादकत्वादेव सुनयवाक्यरूपतया तत्वार्थाधिगमकारणत्वेन तत्कथा तुप्रतिपादनायवेत्यायातम् , अत एव "प्रमाणनयरधिगमः" इति सूत्राविरोधोऽपि नेति भावः । ननु किमेकान्तनवादाश्रयणं नन्यायमित्याशङ्कायामाह स्वरूपतोऽशुद्धत्वेऽपीति । एकान्तविषयासत्यत्वेन तद्विपयाणां एकान्तनवादानामग्रामाण्येऽपीत्यर्थः । फलतः शुद्धत्वे हेतुमाहे सर्वेषां नयानां स्थाद्वादव्युत्पादकतयेति-अशेपनयानां प्रमाणात्मकमहावाक्यजन्याखण्डशाबोधजनका. वान्तवाक्यार्थज्ञानजनकवयत्ययः ॥ 1 . Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ૨૨૭ : તથા વિચળ છૂટા થવું પિત્તા !પ્રશસિ ॥ ગય પ્રશાસ॥ સંતાનયિવ્યામિ મન્ધિમનાન, સમાયિમિ હિતથિમાન્ નિશેષનાવિધર્મબન્ધાત્, પ્રવર્ષે નૈધ્યામિ શિવં મુખ્ Ë નોવૃતિમાવનાર્યું, શ્રીવિાંતસ્થાનતપળમાત્। (1પ્રાતીયે રૃમને હુક્કોષ, નિાતિશ્રીનિનનામમાં ગૃહીતતીલો વિષુવાપસ દૈવિ નૈવ બ્બો તમોહશત્રુઃ | વિજ્ઞાત∞ોબ્ઝર્વમા, સક્રિમષાનુદેશનાત हितार्थिभव्यात्मगंणान् प्रबोध्य, चोप्ट्वाङ्गिचेतोभुवि बोधिबीजम् । ષયિતાપસિઁહ વરિષ્ઠ, સબ્રાહ્ય વિજ્ઞાનરિત્રરત્નમ્ મોક્ષ નવાવિવાધસૌë, નિનેશ્વરો યો મતતિપ્તાન્ । સા સ નાચોખ્ખુ મવે મવે નો, મવાત્ત્વ નિશ્વાર્ય શિવં રોતુ | હોમ યજીનસૂરિતિ ઝુળીષતીયાયસૂરસૂરિમ્ | મા સવ(S>નન્દ્રનાં, વિશુદ્ધવિજ્ઞાનવિશિરિન્ – || ? || મળ્યાત્મપદ્મોઇલના તારમ્, વિદ્યુતવસ્તૃતાયિસૂરિમ્ | પૂવષ્યવાર્ત્તિ, તૂરા સૌતિ નનેમિસૂરિમ }{ ૨ }} ॥ ૨ ॥ મહતાં પૂર્યાં, યાગ્લાય્યમાપ સાધયેત્ ।' ટીાવિ સેવા થૈ, ઋતુગમાવતઃ ।। ? || વિમનન્દ્રાળાશ દૂરતવર્ષેધમતિ ચ । વીરસંવŁાંડવેવષમત T શ્રીવીરમિનિન્દ્રા- દિવૌદ્દિને। શ્રીતીથૅયુદ્ધ-માનસન્ય યશસ્વિનઃ ।। ઓશ્રીનેમિસૂરેલ, નિશેષસૂરિશિઃ । પટ્ટામોલિનેશેન, વર્ઝનમિયા || શાશ્ત્રવિશારત-ન્યાયીષસ્પત્યુવîજ્ઞના । શ્રીરાખનારે શ્રેષ્ઠ, જૈનધમધાનિ 11411 પૂન્યા/હળા સાર્દ્ર, વતુર્માસ્થિતેન વૈ । નીતા સમાપ્તિમામેરુમ્, મતુ પ્રીતયે સતામ્ ॥૬॥ || વૃદ્ધિઃ જીહમ્ ॥ અનુયોગતો નાતા, સ્પ્લેન્ડના ાનિવત્ર સામ્। મુળ ઇયસન્ત, ક્ષમન્તામિતિ પ્રાથયે હવા નિર્વાચનસ્તુ વિદ્યુતિવ્યૂહાત્યસંપિા, ટેન્શેનાવ્યુવારી યાંયે મનેહિં પ્રયત્ન પછી નો ચેચ્છાવિષારવ્યનિત તોડાવૃત્તય-સત્તના ખ્વાસવિષ્ટિતો મમ મનાંશુદ્ધયે જ્ઞાયતામા શાળા ॥ ફ્ ॥ ॥ ૨॥ ॥ ૨ ॥ || 8 11 || 、 || ગુણમ્ | Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थविवरणदार्थदीपिका । प्रशस्तिः सद्धर्मभ्रमधुमनीपुरभूपणस्य, तुल्यास्यकैश्च शशिनाथमभीषिवर्गः । आविकृतोत्तमयथार्थगुणोत्करस्य, विद्वत्सभाविजयविस्तृतकान्तकीर्तः ॥ ९ ॥ श्रीनेमिसूरिसुगुरोर्वरतत्पुरस्था-हद्धीधनीक मलशीवर पतीजः। , हस्ताम्बुजे विजयदर्शनसूरिना भया नतः कृतिमहञ्च समर्पयामि ॥१०॥ युग्नम्॥ ॥इति श्रीतत्वार्थाऽधिगमत्रप्रथमाध्यायविवरणगढार्थ दीपिकाऽऽख्या टीका माता ॥ .. SudENTERastricks salralsakselseksistaraksasia. Freleasedardsaeksanasalsasalsasalsassassallasasalsasaks is alsks kaiseksiksei इति श्रीविश्वातिशायिसर्वज्ञशासनानुपमानल्पतत्त्वावलोकनसमुत्पन्नविज्ञानविकाशातिशयप्रकाशिताखिलमेदिन्यचिन्त्यचिन्तामणिकल्पद्रुमो. पमपरमात्मसद्धर्ममर्मप्रस्तशशभृद्धवलकीर्ति भरधवलितभूवलयप्राप्ताखण्ड विजय-तीर्थोद्धारैकधुरीण-श्रीतपोगच्छनभोनभोमणिभट्टारकाचार्य-विजयनेमिसूरीश्वर-पट्टाम्भोजविकाशदिनमणि आनन्यायवाचस्पतिशास्त्रविशारदोपनाम-भट्टारका चार्य--विजयदर्शनसूरिविरचिता-वाचकावतंसभगવઠ્ઠીમદુમાસ્વાતિવાવણ્યતિત્વોપજ્ઞમાખ્યો पेतश्रीतत्वार्थाधिगमसूत्रप्रथमाध्यायीय सर्व...स्वतंत्र-न्यायविशारद-न्यायाचार्यમહોપાધ્યાયશ્રીયશોવિજ્ઞયાગીતविवरणस्य " पूढार्थदीपिकाऽऽस्या". टीका समाप्तिमगात् ॥ ... TASHATRAPATRINARTHEATHARTIYEINITIEEETTERTppyHITTERanauri Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , ३-१७ रक्षाकारणे) इति प्रयोगद्वयं करपि दकि ॥ तत्वार्थ विवरणपूढार्थदीपिकासहिततत्त्वार्थविवरणस्थ शुद्धिपत्रम् ॥ पृ. पं. अशुद्धम् शुद्धम् पृ. पं. अशुद्धम् • शुद्धम् ३- २ ऐन्द्रपदम् ऐन्द्रम्पदम् १५-१० वलुप्त क्लप्त ३-१३ ऐन्द्रपदम् ऐन्द्रम्पदम् १६-१ गन्तृणा : गन्तृणां कार्ययोगेन काययोगेन १६-६ कर्नर्गुण कर्तुगि १९-१९ प्रेरणार्थविवक्ष२०-६ भिक्षाघद्दे भिक्षाधुद्दे शानकारणे णादिति ज्ञेयम् । ३-१७ लिङ्गियातत २३-८ लिक्षिततया ३-२२ विहन्तु विहत '४-६ २३-१८ "युक्त दि विग्रह दिविग्रह युक्त गत पर गतपर २४-४ कर्त्तरपि ४-१६ तया द्वन्द्वे तयोर्द्वन्द्वे २५-१६ चतुर्थी पक्षे चतुर्थीपक्षे ५-१८ टीके साक्षाद्यप २६-१ साक्षायूप । ५-२४-२६ तद्विवृत्ति तद्विति २७-१० एवेञ्चति एवञ्चेति तत्तईश- तत्तदर्श२८-३ मत्वेनव मत्तनव दौ सू दौ कृतमिति सू २८-५ . पच्छेदक ७-१९ श्यम्भावः श्यम्भावः, भिव्यङ्गया २८-९ भिव्यङ्ग्या कर्माणि २९-१४ तथापि त्वयापि .. ८-२ વિક્ટોયને વિહોક્યતે. ३०-६ मपि तं मपि श्रुतं "८-११ संशयस्यक संशयस्यक ३०-२१ सत्वमिति सत्पभिव लव्धोव लव्धति ३१-१४ यथा श्रुता यथाश्रुता , ९-१५ पवान - पधान ३३-१७ आपद्यतति आपतेति . १०-१३ णोद्दे , णोपदे ३३-२१ सत्व जन्य- सत्व-जन्य११-३१ विशिष्ट * વિષ્ટ ३४-२ पदाथक पदार्थंक १३-१८ थम्पत्ययः थम्प्रत्ययः ३५-२ रीकृत्य १४-५ । शुद्धक्रि शुद्धिक्रि३५-१० સુદ્ધિ ,शुद्धि । १४-११ कर्तृर कपुर ३५-१९ ज्ञान ता ज्ञानश्रुता १४-२६ चत्र इति चैत्र इति ३५-२६ पिरतः। ___ . रितेः १४-२७ गत ए - गत ए -३६-८ विशेष १४-२८: : : कत्तुश्चै : - कश्चैि .. ३७ २६ । मित्याह । -मित्याह वच्छदक कर्मणि कित्य, , - विशेप्य Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४०० ] समुत्थत्वेन ४०-२५ ४१-३ ४१-५ ४३-८ ४३-२५ ४७ ५ ४८-२३ ४८-२७ ४९-१६ ५०-१९ ५२-२ ५५-२१ ५९-४ मनसस संट, ડર્મવ दिशति, ५९-६ दुपदेश तत्रव समुत्थत्वन ६४-१९ यादीनां णीयादीनां મવવા મવત્યષ ६४-२९ વર્યા पत्यखिला जन्मनि इ जन्मन ६५-१७ तदुर्भाग्य તર્યાય लक्षण लक्षण વિનમ્ મનીયમ્ सजयए संजयए ६६-१८ शतिका શતિતમાં ऽधमाधम ऽधमाऽधमाधम ६७ १७ कान्निष्ठा कानिष्ठा मनसं ६७ ३१ संदમવા मत्व ६७-३१ मूलाति शय मूलातिशय ६८-२९ तेन सह । तेन सह. પારવિ પારૌશિવ ७०-६ મોહા-જ્ઞાનાત્ મહાજ્ઞાનાત્ दिशति- ७०-६ अन्थार्थों ग्रन्थार्थों हितसत हितस्य सत ७०-२१ नुचितेति । नुचितेतिमस्मकृता मस्मकृता ७२-३१ धा बन्धो दुपेश ७३-६ त्रैव स्थान स्स्थान ७४-१२ न्तिमकारिकास्किया न्तिमकारिकया ___दम ७७ १५ कारणता कारणताचेष्टा वि अष्टावि- -७७ ,२७ संख्या संख्याવેજીતુ વેચ્છી હેતુ ७९-२ इति । इति विशेषा इति. विशेषा क्रान्तयेच्छां कान्ततयेच्छा ७९-६ विरोधोऽपि न, विरोधो न, तदेव तीर्थ तदेवं सर्वतीर्थ ८१-४ '-यमाणस्य श्रूयमाणस्य एक्त्याश एवेत्यांश ८२-११ - वा.श्रयमाणं वा श्रूयमाणं कमाशुभ વર્માસુમ ८४-२२ तद्वत्युपादकः तदव्युत्पादक प्रपूति ८४-३० रणत शैत्यति शैत्यद्युति ८५-३ मति ता मतिश्रुता "८५-९ दि-विशेष दिविशेष रिन्दुरिव 'रिन्दुरिव ८६-६ વાર્તા वार्ता तूतीया -तृतीया ८६-८ यतिरेकाम्यां व्यतिरेकाम्या सिंद चाव 'વિવાવ -८६-१५ વેતર સ્વરલર इति - इति। '८६-२६ મૃત્વાદ્રિના મૃવાતિના . .जीयम् ८७ ३ तुल्यत्वका तुल्यका दिसाधु८८-६ धिक्या शक्षा । धियाराका ५९-२१ ५९-२१ ५९-२५ ५९-२७ ५९-२८ ६०-१३ ६०-१७ ६०-२२ ६०-३१ -६१-२ ६१-३ ६१-५ ६१-२४ ६१-२९ ६२-१० -६३-२९ -६३-३० चंदम इत , हृ स्वतर दि साधु Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुत्व ८८-७, सम्पलवसम्लप ९०-६ - ध्यानमिलाप्या . प्यानन्ता त्वाऽऽयुधृत वाऽयुर्वं धृत ९०-३० . परणादिक्षयता वरणादि क्षयता तत्, क्षयोतक्षयो . ९२-७ विशेषणे, नेय विशेषणे. नेय ९३-११ दृशिः । शिः “९३-११ दृष्टिज्ञान दृष्टिीन .९३-१२ तदर्थाः तदर्थाः - २३-२५ भवतीति या-द्र०या भवतीति या ९४-८ . वार्थानां - वार्थानां श्रद्धान ९४-१५ यैवापेगमात् यवोपगमात् ९४-१६ नवाब નીવાવ त्तयेत्याह, तथेत्यत आह ९४-३१ । तत्तभावेऽ तपस्वभावोs ५. ९५-१ अर्थपद अर्थपद अतिरिक्तान्ते अतिरिक्तात वतियाति वतिव्याप्ति त्वालामात् । वलाभात् ग्दर्शनबानीति ' पर्शनवानिति १९९-१० शेषः। शेषः, १०१-२० इतिगन्धः इति-गन्ध १०५-२ कार्यनिकृती कार्यनिवृती १०५-२६ नाच्छिना નાવચ્છિના १०६-१८ द्वविध्यस्यद्वैविध्यत्व दवकृतं देवकृत उपयागे - उपयोग १०८-२१ विशेध विशेषधर्मेष १०९-२४. कारणात करणात् ११.०-१२ लाधव इसे लाघवमित्ये ११०-२४ तत्र-पट'. " तत्र घटे १११-१४. - लक्षणसम. लक्षणासम १११-२२. पूर्वक्षणरूपे व पूर्वक्षणरूपे वर्त दण्डेति-स्व । दण्डेति-दण्डस्यास्त ११३-२९ शररि शरीर .१५-२३ हनिस्थानत्वं हीनस्थानत्व ११६-६ निर्जरा निर्जरा ११६-१२ स्वनैवैति वनवेति ११६-१७ तत्त यरल ११७ १५ वहुप १.१९-१६ पाठानुना पाठाभ्यनुज्ञा ११९-२९ भन्यात भन्यन्याता १२०-२४ સવિત્વ - सारित १२१-७ तत्वादीनि तत्त्वान १२१-२२ तस्वरूप तलवर-प १२२-६ પાનેરા , रनिर्जरा १२२-१५ धमः, त १२३-४ थस्तत्वम् यस्ततम् । १२३-२० स्वात् , करित्वात् करि १२३-२८ તદિરય तत्वमादिश्य १२६-१ पदार्थात. पदार्थास्त १२६-१५ तमाश्रित्य सदाश्रित १२७ १२ - स्तमहस्यैव स्वहस्यैव १२७ १८ गङ्गातरि गमातीर १३०-४. धर्मादि र्यादि १३१-७/२६/२७ संज्ञा कर्भ सं शाक १३४-२१ नामन् --नामेन्द्र १३४-२३ सहप्राय ' ' सहाय १३५-५ यमिता -यमित्या प्रकुणिो १३७-८ १३९-१८ 'दि बुद्धि धर्मत Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४०२] १३९--२७ तयऽऽदिश्य १३९-२९ जविस्य १४२-६ सप्छत १४३-११ बर्भिन्नत्वादि तयाऽऽदिश्य जीवस्य सच्छते न्नाभिन्नत्यादि १७२-७ विचायम, विचार्यम्, ' १७२-१० विचारणयिम् । विचारणीयम् । १७२-१६ - सादिसप सादिर १७२-१७/२२-२५ नित्यपु . नित्य १७२-३० सम्यग्दर्शननिन सम्यग्दर्शनिन १७४-२ र्थः, तस्य, यः तस्य, १७४-३१ क्षेत्र। क्षेत्र। १७४-३२ भागः । अष्टौ भागः अष्टौ । १७५-५ पुदगल . पुद्गल १७५-९ स-भा । सर्वमा १७७ ७ . નન્ત ૨૮૨–૬ સિદ્ધાર્થો સિદ્ધક્યા १८२-१४ न(न्तगुणानन्ता(न्तगुणा) १८२-२७- रितस्यांपै रितस्योप १८२-३१ १८३-१२ अवसर વિરથ (ાર્મેધાવ તભાવિ १८८-१३ सप्तम्या: १९०-३० दृष्टव्य . દ્રવ્ય उच्छ : - तु १९१-१० तेऽयो . . तेऽर्थों १९१-२० વાનનમિત્ય ડીવાનમીત્યું १९२-३ . જ્ઞાનયજ્ઞાન જ્ઞાતતયાજ્ઞાત १९३-१४ મવિ भाना મિનોમય મિનત્ય १९७ २५ દ્ધ ફત્યાં રદ્ધત્વનિત્યા २०१-२६ धानात्, स पानात् स २०५-९ વૃત્તિ પર્યા * વૃત્તિપર્યા २०६-१४ सम्याष्टिन२७ सम्यादृष्टश्छ २०६-२४ वस्तुसम्पू व सम्पू २०७-१३ भवन्तरिया । भवन्तीत्या १४४-१-४ - વ વૃત્તિ વર્તિ १४४-१५ हीत । सकेत इति रात १४४-२५ ग्रहदा महत्वदा १४५-२४ निक्षेपार्द निक्षेपादि १४६-२३ स्वस्वनि સ્વત્વનિ लामबुद्धी लामबुद्धी १४९-२२ •णोति१५३-१३ सन्निवाना નિયાનાડ प्रवाना -अंधाना १५६-२६ સત્વ સંવત १५७.११ रात्रीमोजी ત્રિકોની १५७ १५ द्रोणमित्या द्रोण इत्या धर्मस्यकै धर्मस्यक १५८-३० श्रुतसत श्रुते सात १५९-१२ अत एवेत्थ अत एव."इत्थ १५९-१३ હમ્મત ફતિ ટ્રમ્પતી ફીતિ १६०-५ चाप्रमाण्य चाप्रामाण्य १६०-१५ त्मक स्मकरस, १६३-२६ भक्तत्यिस्य भवतीत्यस्य १६५-२१ भ्युपगमात्, - भ्युपगमात् १६५-२५ राहति . राहति १६६-२० विपदेनक्रियाकमर्स विवेदनक्रियाकर्मस १६६-२३ प्रदपिस्य प्रदीपस्थ , १६७ १३ तत् सम्बन्ध, तत्सम्बन्ध विवेककस विवेकस १७०-१९ सह-पतिनी सहवानी १८८-२ Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४०३ ] , તત્રન્વિનિ बाधे प्रयक्ष २०८-१६ । नयान्तर नर्थान्तर २:८-१८ व्यासिरि व्याप्तिरि २०८-२५. भवजन्य भवाऽजन्य -२१०-३ तत्रेन्द्रियनि २१.-४ (पशना પરના २१२-२७ તદ્રવને तदन २१९-१९ મિયને મિત્યને २१९-२० बोधव्यः વક્તવ્ય २२१-१८ न्य सामा न्यं सत्तासामा २२१-२९ धारणाऽपि यु धारणाऽविच्यु २२२-२६ भवतहि भवतीह २२२-२८ धर्ममस ધર્મસમ २२४.३१ प्यनुत्कटको २२७-१५ नक्यतया नेकतया २२८-१३ कायर्जनक જાનન २२९-१९ रूपा चदा रूपा तदा २२९-२३ तिः, तदेवे २३०-१६ कश। कशः। २३०-१७/१८ गृहणाति ગૃહતિ २३०-२२ बह बलव २३०-२७ થોવિષય योविषय २३१-९ यथा २३२-१२ हा कृतो २३३-५ . ! जन्योऽयं २३३-१६ लिक २३३-२६ तद्वति तद्वन्निष्ठ तद्वनिष्ठ २३४-९. शषहतुता શેહેતુત २३४-१५ कथं, निश्च कथं निश्च २३४-१५ તે પ્રજા ઘતે, પ્ર २३५-१४ મેવ સવિ थः। स्पर्शा २३८-८ ज्ञान विविध ज्ञान द्विविध २३८-८' શત્રિરાત શશિત २३८-९ श्रुतज्ञान ..श्रुतज्ञान २३८-१५ ". बोध २३८-१८ વિતિ વિંશતિતમન્ન २३९-१८ હારિખેતિ રિળ તિ २३९-१९ ,हिणीत्यर्थः । हिणी इत्यर्थः। २३९ २९ । प्रत्यक्ष २४०-२ तपच्छ, तपछा २४१-१३ स्वारपा स्वल्पा २४१-१४ સંયોનિ संयोगनि २४२-१२ ज्ञानव्याप्य २४२-१९ जाना- : जानी २४२-२६ तत्किल तकिल २४२-३० चतुर्विस · .... चतुर्विश २४३-१ । शति ज्ञात शतिः ज्ञाता २४३-२ શ્રી દશા ૮ શ્વશા २४३-३ - उत्पन्न विन उत्पन्नविन २४३-११ रण समाप्त्य रणसमास २४३-१६ शान तु तत्पूर्वक ज्ञानं तु तत्पूर्वक २४३-१९ व्युत्पत्या । व्युत्पत्त्या २४३-२०/२१ श्रूतज्ञान, श्रुतज्ञात २४४-२/३ श्रुत । २४४-२३ मित्यशः मित्याश २४५-८ स । बध्यते सम्बद्धयत २४५-२४ शेख। રોવરે २४८-१४ वाण्या शे वाण्याऽशे २४९-२३ , पटान् घ८ धाद् घट २५०-८, ति, एवं ति एव २५०-१९ ... हेतु मा हेतुं स्मा २५०- प्रत्या . प्रति તિસ્તવેવે E तथा हाकृती નજોડવું मेव, सवि 44 Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६-१४ Lg Gasly ५९-१५/१६ _५९-३१ २६२०२० २६२-३२ २६३०३० १६६-१३ २६८-१० २७०-८ २०३-१९ નારાવનન્તર્ नाशान्तरं कारी तथापि । कारी, तथापि शुम्भ સુશ્ર્વ रूढतत्वा “रूढत्वात् जननानुकूल याऽवम त्वात् श्रुत नशनादि' मानं हीयमानं त्यपि भूयो, जननाकूल ગાયત્ર त्वात् श्रुत नशनीद २९४-३२ २९६-६ २९७-१७ २९९७ २९९-१४ ३००-१ ३०२-०५ ३०२-७ मानं, हीयमानं त्यपि, भूया મધ્યાય तिसूत्र २७५-७ २७६-२८ सूत्रे, द्रव्याणि २७७-७ २७७ २०-२५ वृत्यन्ता मप्याश्रयन् वितमसूत्र सूत्रे द्रव्याणि न्तरप्रसक्त्या વૃદ્ધા नन्त्यात् । नन्त्यात् | १० | त्पन्नक द्वितीयतृतीया न्तरत्वप्रसक्त्या २७८-३ २७८-१७ त्पञ्चके २७९-९ વિયિતૃતીયા २७९-२७ पशम २८०-३ तत्रैक २८४--१० व्याप्यारा २८७-१५ २९२-१३ भूत कारण હેતુ બ્રેડવે વિનાં સુવ योरस [ ४०४ ] सामस्त्यज वनेनापेपाद पशम तने क वाप्यहसः भूतकारण हेतुके अपि विना न्मुख ज्योस्स सामञ्जस्य वनेनोपपादि रित्येव रित्येवं मिति अत्राहमिति । अग्राह था । नवि सानवि ३१०-३ ३१०-९ ३१०-२६ ३१२-२२ ३१२-२५ ३१२–६ ३१२-७ ३१३-१९ ३१५-१९ ३१५-३१ ३१६-९ ३१६-११ ३१६-२९ लभते दर्शना ३०२-७ ३०३-५ ३०३-२० ३०३-२८ ३०३-२९ ३०३-२९ ३०३-२९ ३०३-२९ ३०४-३२ तलमूं ३०६-२२ सत्वात्, प्रतिसमय सत्त्वात्, इत्यादि मि ३१६-३५ ३१८-१६ ३१९-२५ ३२१-१७ ३२१-२१ ३२१-२७ ३२१-३० भङ्ग यद्वा गौरित्वध्यव હોઇ लोष्ठ इति હોઇ ત सुवर्णतिमि વનવિકા तमवि साका व्यवहारः । नाणिप्रत्यये પ્રિત્યયે चेत्, सिंहः સો માહ a, 'स्यैवोप हात् } पशुम् હમતે -दर्शनाः भङ्गम्, यद्वा गौरित्यध्यव विभाज હોĒ હોર્કામાંત लोष्ठ इति सुवर्णमिति भूतलं प्रतिसमयं इत्यादिि खण्डाखण्ड तमसूत्रवि साका 7 व्यवहारः, नाण्प्रत्यये ' જાપત્યયે चेत् संग्रह: त्वयो .: आही, तं, रष्टिन નિ प्रमाणहत्व प्रमाणार्हत्वा स्येवोप आहकत्वात् "पशुम् विभाज तथा विभागः तथाविभागः સાતે मते, चतु સજ્જ ∞તે मते चतु Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ વેતા येनेव [५] ३२३-१० रिका टिका रिकाटिका- ३४४-२४ ३२३-१६ निवार्यत निर्धार्यत ३४६-११ ३२३-२१ तावद् गोव्यक्ति. तावद्गीव्यक्ति ३४६-२६ ३२३-२६ वेता, ३४७-२० - ३२३-३० क्रियते, ३४७-२७ ३२४-१६ , गामानय : गामान्य ३४७ २८ - ३२४-१८-२० कंत्वम्। वयं कल्पम् नवया ३४८-१३ ३२५-१ उक्त . उक्त ३४९-२३ ३२५-२२ पत्तेः , पत्तिः , ३५०-५ ३२७-६. यने, - ३२७२०,२३,२७ पुल्लिंग . पुल्लिङ्ग ३५१-२० ३२९-१५ - कि तु . . किन्तु ३५१-२२ ३३०-१० कारण कारणता ३५१-२७ ३३१-१७ . अथवद अर्थवद. ३५१-२८ ३३१-३० अतएवव अतएवैव ३५१-३० ३३१-३२ . भावे ३५३-४ ३३३-१४ . . सक्त सत्क ३५३-८ ३३३-२० दृष्ट्वा ३५३-२३ ३३४-३० प्राधान्यन प्राधान्येन ३५४-४ ३३६-१८ संगृहात ३५५-११ ३३६-२० यद्यये । दिना । दिनाम् । ३३७-१४ विषयक - विषयी ३३९-१७ वित्येन: वित्यने २५६-२९ ३३९-१९ दित्यर्थः। वित्यर्थः। सनीयकृत सर्जनीकृत, वच्छिन्ने, " वच्छिन्ने ३६९-११ ३४३-१२ चैकोऽर्थः। कोऽयः, ३५९-२७ ३४३-१६ वाचकस्त्री ... वाचक स्त्री३४३-१६ नपुंसकवि, नपुंसकत्ववि-: प्रतीतिकार्थः, प्रतीतिक, २६१-१ , ३४१-९ मानार्थः, मानः .. ३६१-८ त्यादि संशया त्यांदिसंशय तौ च तो तदुभयं तौ च तदुभयं सत्त्वात् । संवात् यदीति पद यदीतिपद - मिति । सदृ मिति सदृकाः , - कर्थाः दितः । तदु दितः तदु भावना भावनाऽप भावनात्वने भावनात्वेन शिष्य शिष्यद्धयड दृष्टयादेष्टीत्यादे तार्थः। तार्थः नश्यात्यन नश्यतत्यित्र च्छित्यित्र तीच्छतीत्यत्र कार्लानो कालीनो शयत क्रमे शयतः क्रम द्वारकत्र स्यात्, उक्त स्थात् 5 किययोः क्रिययोः इत्यादौ यथा) इत्यादी) - भवतां । भवता । स्ततदंशा दशा स्वतन्त्र स्वतन्त्राः, स्तेषां द्रव्य स्तेषां सर्वेषां द्रव्य । जगदन्तर्व पटेवेति घटेप्येवेति दविओगो दविओवओगो वच यम्, वचनीयम्, न्योपया- द्रव्योपयोंमवम्, 'मैवम्, संगृहीत વચ્ચે ३५८-१७ जगदन्तव ३६१-८ Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ] [४ ३६१-९. करपे . विकल्प ३६३-१ . मानो -' - मानो, ३६३-२. प्रवृत्तः। प्रवृत्तः . ३६३-६ द्वाचकत्वमेद्वाचको ३६३-८. पदवदि पदकदमयदि ३६३-१७ • विषयक विषयकल ३६३-१९ (मारित- गरितार्थ३६४-५ विष्करोति। विष्करोति३६४-६ भूतः। भूत:३६४-१३ . सकम । सड़म निति निति, ३६७ २० विशेष्यता, विशेष्यगता तमशानम् । तज्ज्ञानम् । ३६९-१० . संस्था न , संस्थान ३६९-१५ . . सामान्य सामान्य ३६९-२३ वं पदा स्वत्वंपदा ३७०-२५ . पगंतं पगतं ३७१-२० नयंसक्षिप्त नयसंक्षिप्त ३७१-२६ भावास्थिति भावास्थिति ३७२-३ ધોનિયા योनय ३७३-७ प्रर्दोश प्रदेशि ३७६-२ ३७३-१३ । जविव्यक्ति जीवव्यक्ति ३७४-३ माने, पक्ष माने पक्ष, स्तिकायादा स्तिकायादौः ३७५-१६ संसर्गेण - .संसर्गेणा. ३७५-२८ सश- सहश ३७६-२ एवं सति एवं सति ३७६-११ तौल्येप तौल्येऽपि - ३५६-१७ सरच्छते । इत्युक्तं ) सप्छते।। नयोपदेशे। आरो आरो। ३७१-४ ३७७-२१ ३७७-२३ यह कैयट ३७८-१ एततदोः - एतत्तदोः ३७८- ३ ज्ञापकमेव, न ! ज्ञापकमेव न ३७८-५ यमे वार्थः . यमेवार्थः ३८०-२५ - पुरुषा पुरुषो ३८०-२८ स्वामति वमिति ३८१-९ . नम् समान न समान ३८३-१ प्रदेशो प्रदेशों ३८४-१ त्रीहीः,सं त्रीहिः सं ३८४-१६ वचनं वचनम् । ३८५-१ भा. भा ', १८८-१२ श्रुतस्य मवि श्रुतस्य सवि ३८८-१३ श्रुतमुव 'श्रुतमुख. ३८८-२५ तेन विधि तनयंत्र विधि . ज्ञत्व विशेष शत्वं विशेष ३९०-३ नया पेक्षया नयापेक्षया ३९२-६ ५पाठ आह पपाठ-आह __ कृतस्या . . . कु. ?. ' जीव ३९४-३ कुतः ?। ३९४-३ सर्वप्र सर्वप्रा. ३९४-६ । मन । मम ३९५-७ कारक कारकम् ३९१-२ प्रतिभव प्रतिबन्धक, ३९९-२६ नोचितीमत्या . नोचितमित्या ३९६-११ . कवेषा -- कथैवेषा ३९६-११ वि-क्ति केसी विक्ति-वेस्ली ३९६-१९..' बाधि . . . बोध ३९७ १९ वृद्धधक .. ३९७.२४ गुणैकष्ट . . . བ་ཡིན ३९८-५ सत्र . . - सूत्रः. निवृत्त Page #472 -------------------------------------------------------------------------- _