Book Title: Tattvartha Sutra
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसूत्र उनमःसिद्देन्यानमःस्पादादिनेसर्वज्ञायामोक्षमास्पिनेतारनेतारकर्मन in ताज्ञातारंविश्वतवानावदेतगुगलध्याशिमोक्षकमार्गळूषाप्तकरने वालाअरकर्मरूपपर्वतके भेदनेवाला अरसमस्ततत्वकेजाभवालाहै। ताकेगुणनिकीपाप्तिकै अर्थिवंदनाकरूझासूनसम्पग्दनिज्ञानधारि) त्राणिमोक्षमार्गाशासम्पादयनिसम्पकज्ञानसम्पचारित्रशनितीननि कासमुदायसोमोक्षपाहोनिकाउपायहापदार्थनिकानसास्वरुपहर निनिकातिसरुपनशानसासम्पग्दर्शनहविरितिसनिसपकारकरि । नीवादिकपदाचीतष्टेहा तिसतिसपकारकरितिनकासाननासोसम्पक ज्ञानहविरितिसक्रियातेसंसारकेकारणकर्मावेविसतिसक्रियार कात्यागसासम्पकचारित्रहोइनितीननिकीएकतासमस्तककिामनाव। रूपमोक्षहोयह अवसम्पादनिकालक्षणकदेहासत्रातत्यानहानेसर ॥१॥ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + म्यग्दर्शनशानोपदार्थ जैसैतिष्टेहोतितिसकाहानांसोतत्वहा परतवर करिनिश्चयकरिणसातत्वार्थहीतत्वार्थनाजीवादिकपदार्थात निकाप्रधान सासम्पादनिहासासम्पग्दनिकैसे उपजैसाकदहासूत्रातन्निसांदधि माशाजासम्पग्दर्शनवासम्पदशाविनापगटहोयसोनिसर्गसम्पत्वहै। अपरकेअदितितीवादिपदार्थानकामधानहायसा अधिगमसम्पत है। अवतत्वकदाहसोहैदसूनारानीवांजीवांभवबंधसंघरनिशिमोक्षार स्तत्वाधचितमालक्षाजीवहौचितनारहितहोयसामजीवहा शुभनारय व मुनकर्मकागमनकाधारसामानहानात्माकेपदेशभरकर्मपदा निकामिलमांसावधदायावतकर्मकासकामासंवरही एकदेशातकर्मक र यहोनासोनिजगहासमस्तकर्मकावियोगहोमासामोक्षयसप्तबहाना वसम्पग्दर्शनादिकवानीवादिकपदार्थानकायथावतयवहारकै धार्थच्या Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसूत्र रिनिक्षेपकाँहासूत्रानामस्थापनाच्यावतस्तन्न्यासायनिसवस्तका ___ नसानामकहतेसागुणमानहीहीयाअख्यवहारकीपटनिअर्थिनामक रिएसानामनिक्षपहोलसकिसीमनुष्पकानामघातकहीवरिधातुप पाणकाष्टमृतिकादिकनिमसोयाही सस्थापनकरनांसास्थापनाद जैससहरसकेपालमैकाष्टनिकरोगेनिकुंहस्तीघोडाकोवस्त्रागामी कालमैतिसरूपहोयगातातिसाकहनांसोध्यनिक्षेपहीनिसराजाकपुत्र 'कूराजाकहनावारवतमिानसीपयर्यायसहितहाश्ताकूतैसाकहनांसा भावनिक्षपहालिसँगाकरताहायतारानाकहमा अध्यारिद्यारिमिक्ष निकरितीवादिकनिकृस्थापनकरिया। नामनिक्षेपमेतौनाममात्रहीय रहारकैमर्थिकहनाहौरपयाजमनहीसिकिसीकुंझपनकला। . हानामकहदेनेमात्रहीपयोजनह। अरमहाकपाकीस्थापनातदाकार ॥२॥ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतदाकारमै करीनहां साक्षातूक पनही मानिकरियादरस्तवनदर्शपूजनक न खांदे असे च्यारिनिक्षेप नितैपदार्थ निकामवहारघवतैरसोय थावतजानन असे नामादिनिक्षेपनिकरिांगीकार की यपदार्थनिका स्वरूपका ज्ञानका देते होय तातसूत्रक हैहै॥ सूत्रं ॥ प्रमाणनयैरधिगम: ६॥ प्रमाएकओरनयनि करिजीवादिकतत्त्वनिकाजान नाहीय है। वऊरिसम्यकूदर्शनादिक निकेना वः अनेकाउपायकइँदै॥ सूत्रं निर्देशखा मिसाधनांधिकरणस्थितिविधानतः ॥ निर्देशकहिएस्वरूप का कहना।स्वामित्वकहिएअधिपत्तपणा साधनकदिए उत्पत्पकानिभिना अधिकरण कहिए आधार स्थिकेदिएकालकाप्रमाण धानकहिएप्रकार। इनिकारक रिकै सम्पग्दर्शनादिकतथाजीवादिक जानिए है। इसका उदाहरए सम्पकदर्शनकदा है। पैसैंपन होतैंत्तरकदै है। तत्वार्थनिका प्रधानसो सम्पग्दर्शन है। एतौ निर्देश है। सम्पग्दर्शिनिकों न Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नू तत्वार्थ सूत्र के होश असे स्वामीकुंयूचेतो सामान्य करिकेतोजीवकै दोइ है। विशेषकाः रिकगतिके अनुवादकरिनरकगतिविषैकाईजीन के सम्पक्क होयतोसमस्त पृथ्वी विषैनारकी निकैं पर्याप्त अवस्थाविषैऊपशमिकक्षायोपशमिक सम्प कोई है| नरप्रथमपृथ्वी विषेपर्याप्तिप्रपर्याप्तिकजीवनिकै क्षायिकताये पशमिक होइहै। द्वितीयादिप्रदीविफेंस पर्याप्तिप्रचस्थाविषैसम्पक्तनही होइटै तिर्यचचिषैसम्पत्कहोतोऔयामिकपर्याप्तिव्यपर्याप्तिदोऊव स्थाभिहाइपरंतु अपर्यावस्थामैं भोगनू मिके तिर्यञ्चीकै सम्पत्त होइ कर्मभूमिकेति चिके पर्याप्तअवस्थामै उपशमक्षयोपशम होइक्षाइकन टी | ही होश जर तिर्येच एक क्षायिक सम्पत्तदो इही नहीं अखपात्तयोपा सम्पत्तपयप्ति अवस्थाहमिहोश|वऊरिमनुष्यगत्तिविषे क्षायिक क्षायो यशमिक दोयसम्पत्कतोप्यतिपयप्तिदोऊअवस्थाविषै हो डायर JU Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशमसम्पत्कपर्याप्तिअवस्थाहीम होइपर्याप्तिमैं नही होश मनुष्याणी पर्याप्त अवस्थाही में सम्पक्त होश परंतु क्षायिक सम्पत्कनावस्त्रीकै हो स्त्री नही हो||देवगतिमें सम्पक्त्त होइनौ कल्पवासी निमतोपर्याप्ति अपर्याप्त दोक अवस्थाविषैतीनूषका र दीका सम्पत्त होइ है।। प्रश्नवनवा सीव्यंतख्योतिकतीनप्रकारकेदेक्चरदेवांगनां चरकल्पवासी देव निकीसम स्तदेवांगन निकै क्षायिक सम्युक्त होइही नहीं। अस्वप्ामक्षयोपशमदो इसम्पत्क होइ तोपर्याप्तिही कै होइ अपर्याप्त कै नही होश इंद्रिय के अनुचार दकरिसंक्ाकीमकें तीन सम्पक होश। संज्ञीपयतिकै नहीं होइ कर यके अनुवाद करित्र सकायक निकैनी नूसम्पत्क होइ है। स्थावर निकै नही होश|योग के अनुवाद करितीनूंयोगनितीनूसम्पत्क होइहै|अर योगर दिक्तप्रयोगीभगवान्कै क्षायिक वेद के अनुवादक रितीनं वेदनि Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पत्त होई || अरबेदरहितनिकैऊपशमिक क्षायिकदोरही हो है| कषायके अनुवादकरिच्यारूं कु पाथनिमैतीं सम्पत्कहोईहै। रहितनिकै परमकक्षायिक दोइही सम्युक्त होइदा ज्ञानके अनुवाद रिमतिश्रुतःश्रवधिमन:पर्ययच्यारिज्ञाननिदिषैतीनसम्पर्क है कि नविषैज्ञायिक सम्पत्कही है। संयम के अनुवाद करि सामायिकच्छेदो * स्थान दोय संयम विषैती नूंही सम्पत्त हो रहै।। परिहारविश्रुद्धसंयम उपशमेक सम्पक्त्तविनादोय सम्पत्त है। सूक्ष्म सांपराययथाख्यातसेय विपशमिक सम्पत्कञ्प्ररक्षायिक सम्पत्त दोषदे ॥ संयतासंयतविषै नूसम्पन्क है असंयतविषै हतीनू सेम्पत्कदै ॥ दर्शनके अनुवादक सुदर्शनचतुदर्शन अवधिदर्शनविषैतीनूसम्पत्क है । केवलदर्श वर्षे एक ताथिक सम्पत्कहै। ले पाके अनुवादकरिच्चइंलेश्पानिमैत्री तत्वार्थ सूत्र छ 11801 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पकालिपारहित)क्षायिकसम्पत्कहाभपकेअनुवादकरिभव्यनिके तीनसम्पको अनयनिकसम्यक नाहीह। सम्पत्कअनुवादकरित हॉनेसासम्पग्दनिहतहातमाहीजाननां स्मीतीमुबासंबोनिकैतीस रिसज्ञी पत्कही असंज्ञानिकसम्पकमही असंज्ञाप्रसेझीदामपणारहितकैश २ यकहीसम्पन्कही प्रहारकअनुहारकनिकैती,सम्पत्कहै। अनाहारका निकधास्थनिकैतीहासमुदघातगमनाहारकनिकैज्ञायिकहीह नै संस्वामित्वकम।। अवसाधनकारणसकिदैहासोसाधनदोश्यकारहीएक अन्यतराणकवासानन्यतरतादर्शनमोहकाउपशामक्षयतथाक्षयोपशम हीकारणही अवाममारकीनिकेत्तीसरीधाताश्के नारकोनिमाप्तिस्म रातिसम्पाकहीशाअरक्तिकै धर्मश्रिवणतेहोशक्षिनिकवेदनकिलो मिभने सम्पादनउपनेहमरचतुर्थश्चीकूत्रादिलियसनमध्धीताश्ना Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ D % 3D तत्वासूणे एकानिमैकेकिनिकैनातिस्मरणाककिनिवेदनाकाअनुनयकरिम म्पकहोश्वातीसरीष्टश्चाताईधर्मश्रवणकरणहिनीचेंनहीला तीर्थचनिमें कई निशातिस्मरणानिधर्मश्रघाकेनिकैनिनदेवदर्शनसम्पा कम्पन के कारणहिमरमनुष्यनिकैगएहीतीनकारणदिवनिमैंकि तिनेदेवनिकैज्ञानिस्मरणाकितेकनिकै धर्मश्रवणकितनकनितिने केकल्याणकनिकीमहिमाकेदेख करिकितने कैमहाईकदेवनिकोछ । धिकदेखनेकरिसम्यग्दर्शनमत्पन्नहोइहीवारमावर्गपर्यंतएकारणाहन माननपाएसमारणअयुतकेदेवनिकैदेवाधिदर्शनविनातीनहीकार पाहायरमवनवेथिकनिवासीनिकितनेकनिकैताप्तिस्मरणकितनेकै मश्रवणदोश्वीकारणहै|अस्मनुदिशम्यनुत्तरकेनिवासीनिकैयाकल्या नहीं होगकर्वजन्ममैसम्यग्रहणकीयाहोइनिसहीकाउन्याहै l Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. सँसाधनकमाअधिकरणजानाधारसोदोश्यकारदा अन्यतरआधाराशा प्रवासामाधाराशासम्पत्ककाअन्यतस्त्राधारतोसम्यककेउपजनेनोग्य प्रामाहीहमारवाहानाधाराएकरचौडीलंधीचौरदस्तुचीसीधस नालीमादीसम्पादृष्टी हावामानही होनेसेअधिकरणका प्रवस्थिति कहहोऊपशमिकसम्पककीएकजीवकैउलष्टानथानधन्पहअंतर्मु इहितसायिकसम्पककीस्थिगिसंसारी तीवकैनधन्य नेतर्मुहकार। अंतर्मुसपिनियाहिोतायही उत्कृष्टस्थिनितीससागराधेशमु मिहितप्रष्टवर्षदानपूर्वकोरिक्ष्यअधिकहोमरमुक्तजीवकैज्ञायिकसम्म लकास्थितिवादिसहितहाअस्तमहीप्रेमहामरक्षायोपामिकसम्म ककीस्थितिजघन्यनंतरहितकाह। अरबत्कृष्टव्यासचिसागरकाहा सिंस्थितिकही अवविधानकहलामामाम्पतेसम्पत्कएकपकारदैनि Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसूत्र सनिःप्रधिगम जके भेदते दो यप्रकार है। अपशमिकक्षायिक क्षायोपश ६ | भिकने दौंती नर्षका रहे। ससंख्येयभेद है। प्रस्थान करनेवालाअर श्रान करने योग्प्पांचे भेदक्तेप्रसंख्याक्तप्रनेत्तनेद है। जैसे सम्पाद अनि निर्देशादिकञ्चपकार करिवर्ननकीया तसे ही ज्ञान चारित्रम तथा जी जीवादितत्त्वनिपरमागमके अनुसार करियुक्तकरनेंजोंग्प होने र जानने का उपाय क है है॥ सूत्रं ॥ सत्त्वात्क्षे त्रस्परनिकालांतर नावाल्पव ऊत्वैश्व|||सत्क दिएअस्तित्व। संख्या कहिएनेदनिकी गणना। क्षेत्र कहि एवर्तमान काल में निवास स्पर्शनकहिएत्रिकालगोश्वरनिवास कालक दिएसमय की मर्यादि|| अंतरक हिए विरहकाला नाव कहिए क्षयोपशमा दिक अल्पवचकदिएपरस्परकी अपेक्षाकरिदीनअधिक पग इनि टनिकरिकैइ सम्पग्दर्शनादिकनिकूंत था जीवादिकनिकूं जाननो अवस ॥६॥! Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पक्ज्ञानकुंकहैदागमतितांवधिमनःपर्ययोवलानिज्ञानगाणामतिश्रुत अवधिमनपर्ययकवलापंचपकारज्ञानकेनेदहेसाइनियंचपकारकज्ञान; हीपमाणसंज्ञहि।मूत्रारतत्वमाणनितिमत्यादिकज्ञानतहीपभाहै सूत्रमाद्यपरोहा॥आदिकमतिज्ञानगुनझामादोऊपरोक्षपमाण पक्षमन्यतारशमतितविनाअन्यअवधिमन:पर्ययकवलात) तपमाणहै।मूत्रमितिस्मृति संसाधिताभिनिवाधनों '. मनवग्रहादिरूपकरिजाननासोमतिहमरजानन स्नोसोस्मतिहीपूर्वदिष्याथाताळूवर्तमानकालमेरे सायेहासपूर्वकालमैमुनयाकावर्ती ज्ञानकुंपतिभिज्ञानकहिएहसासंज्ञाहा सामरिष्यभिचारलदाहोय असावधा Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसूत्र | व्याप्तिकहिावात कहिाहिमोचितदिधरिलिंगकुंजानिलि जाननासाअनुमानदायानिनिवाधकहिण्यद्यपिमत्तिस्मानिस ज्ञाचिंताप्रनिनिवोधनिकैशदभेद अर्थमदहौतथापिाकमतिज्ञान वक्क्षियोपशमतेपदा ननियमतिज्ञानहीहाअम्पनीबासूत्रातदि भियानियिनिमित्ताधासामन्तिज्ञानयिअस्त्रनिश्यनामनताकेनि२|| मितते उपहासूर नवग्रहांवायधारणामाविषयभारंभियन । निकानोडहोतेहाजोसामान्यसतामात्रकारहणहोश्सोदनिहावारिस योलह साविशेषग्रहणहोनासोनवमहनामभतिज्ञानहायजस्मि वग्रहकरिग्रहणकीयानाशूकरुपतिसविनोविशेषमावाकीछानो श्रुतदीपदसामाजाएगीजायहा सातामसाईहावारिताकानिएयहें| नामोधनाही हा सानिश्चयहोयसाप्रवाहापारिजाकाभिश्ययनयानाm Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ಕ तत्वार्थसूत्र १७|येदोयसेअग्रासन दरुप ज्ञानकेने अर्थक हिइंद्रियनिकेविषय यावे-प्रतिपदार्थकें है। ली| व्यंजनस्यविग्रहः॥ १८ ॥ व्यंजन तो अप्रगटश ट्रादिकत्तिनिका अवग्रही होय ।ईटा अवाय धारणानदी होय ॥स नवकरनिशियान्यो र व्यंजन अप्रगटताकाश्रवग्रनेकसर मन नही होइ है। मारिदियनितेंही होय है॥ सूत्रं ॥ श्रुतं मतिपूर्वान कद्वादशभेदे ॥ श्रुतज्ञान होय है। सो मतिज्ञानपूर्वक होय है। सूत्र । नवप्रत्ययोवधिर्देवनार काएं||२२|| देवनिकेत थानोर किनिक अवधि ज्ञानंहै॥ ताकुंभवक दिएदेव नारक की पर्यायी का कार एरि । जेदिव कीअरनारककीपर्याय्धारैगाता अवधिज्ञानावरणका क्षयोपशम हो यनियमते प्रवधिज्ञानग्प्तेही गा/मिथ्यादृष्टी निकै विनंग। अरसम्पाह टी निकै सम्पक अवधि होय है॥ सूत्रं ॥ क्षयोपरामनिमितः षट्विकल्यः दोय अनेक बारे भेद हैं X ICI Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुंअपकानमैविस्मरणानहीदानामाधारणहवालदिधाविषनिसान कवाणीमिताहीपदार्थवरहियनिकैसंबंधहोतेहीजोनाद्यपदार, कास्वरूपग्रहणहायासाअवग्रहवामहै। सोबतवस्तकाअवग्रहहोय, हिमाल्यवस्तकाहनवग्रहहोयहविरिखतपकारकेवस्तुनिकान वग्रहहोया अरएकपकारकेवरलकाहूनवग्रहहोरहोशीधकाअवनद अधिकालकस्मिवग्रहहायहीसमस्तवस्तवाझपाटमहनिकलीता कानवग्रहहोश्नरंकमाऊवाकाट्नवग्रहदोरहोवरिखस्तकान सासूपहोयत्तसानिरेतरनवग्रहहोयामरक्षाक्षमिभिन्नभिन्नद्प्रय ग्रहहोरह। असैघादापकारवग्रहकमातेसैहाशादापकारशहान वायधारणहभिसएकएकरहियकेहरेनडतालीसअडतालीसदहै। समस्तक्ष्यिभरमननिबाडेकेदायसैअग्रासमिदहोस्।सूत्रोअर्थस Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र्य अवधि तत्वार्थमूत्र सप्तरुद्विनिम को दिनांक पत्याई होय असे वईमान चारित्रसंयुक्तसं || यमीहीकै होइहै वऊरिअवधिज्ञानत्तै मनःपर्यका विषयसूक्ष्म है। मनपर्ययमै विशेष ॥ सूत्रं ॥ तिश्रुतयेोनिविधोइयेर्धं सर्वयययेिषु ॥ १६ ॥२ मतिज्ञानच्अरश्रुतज्ञानइनिकाविषय का नियम है सो समस्त इच्यतेजीवयु फलधर्म अधर्म आकाशकालनिके कितने कपर्याय निमे है।। मत्तिश्रूतज्ञ नपरोक्षचव्यनिहीके कितनैकपर्याय निसहित जाने है। समस्तपर्या यनिकूनही जानँदै॥ सूत्रं ॥ रुपिश्ववधेः ॥ २१॥ श्रवधिज्ञानका विषयकानि यमरुपी इव्य जो एकपुङ्गव्यतितमेारुपीकूं न ही जाने है॥ सूत्रांतर्द नवनागमन:पर्ययस्प अवधिज्ञानका विषयजोरुपी इव्य तिस काय नेत नागकजित्तिसमैं एकनागरुप युगल व्यकूं मन:पर्ययज्ञानजनित र तैमनपर्ययज्ञानका सूक्ष्म विषय ।। सूत्रं सर्वव्यपयथिषु केवलस्प आगा 1 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेषाणां १२शेषक दिएमनुष्परसंज्ञीतिर्यचनिमें कोई कैअवधिज्ञानदो इहै सोअवधिज्ञानावर कर्मके क्षयोपशम होइ है। ता के अभेद है। अनुगा मीशाननुगामीश वईमानाशहीयमानाद्या अव स्थिता५॥ अनवस्थित ही विपुलमतीमनः पर्यवः॥श्रुतुमतिमन पर्यय अरविपुलम तिमनपर्ययदीयप्रकारकामन:पर्ययज्ञान है।। सूत्रं ॥ विशुध्यनिपाता ज्योतद्विशेषः | २|| रु. सुमतिमनपर्यविपुलंमतिमनः यर्यय में विश्व प्र्व्यक्षेत्रकालनावकरिअधिक है। अरजुमत्तिमन:पर्ययतोछूटेड दो प्ररविपुलमत्तिमन:पर्यय केवलज्ञानदीप जावेरे ब्टैन दि॥ सूनां वि शुद्धिक्षेत्रस्वामिविषयेन्यौवधिमन:पर्ययोः। २५।। अवधिज्ञानतै मनपर्यय य ज्ञानकी विशुद्दिताअधिक है।। श्ररक्षेत्रअवधिज्ञानका अधिक है। स्वामी अवधिज्ञानतौ संयमी असंयमी दोऊ निकै होइ है। अरमन:पर्ययज्ञानंदेसो 我不 का Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवादिक समस्तश्वानरसमस्तव्य निकी नूतन विष्पत्वर्तमान त्रिकालव ती अनंत पर्याय निचिषेनाननेका केवलज्ञानका नियमहे ॥ सूत्रं ॥एकादीनि भाज्या नियुगपदेकस्मिन्नीवतुः ॥ एकश्रात्मा र्विषैयुगपत् एक कूंच्या दिलेय च्या रिपर्यत ज्ञान होय है। कहो यत दिकेवलज्ञान होया दोय होइन १ मतिज्ञान=प्ररश्रुतज्ञान होय है। तीनहोयतहामतिश्रुतःप्रवधिहोय॥वामनिर श्रुतमन:पर्ययहोशाच्यारिहोयतदांमतिश्रुक्तप्रवधिमन:पर्यय होइ है। सूत्रो प्रतिश्रुतावध्योर्विपर्ययमतिष्ठत अवधिएतीनज्ञानवियर्थयक हि एमिथ्यानी होइहै जैसकडवी व मिश्राप्तड वाडुग्धकटुक होइ है। तैसें मि थ्याश्रशनीका ज्ञानहू मिथ्या होम है।। सूत्रं ॥ समतोरविशेषाद्यच्बोपलब्धेरु न्मत्तवश ३ः सत्यसन्का अविशेष करिकैजो इच्छा करिखन्तकी नाईग्रहण करनेते ज्ञानकै विपर्ययपणा हो इहै॥ सूत्रं निगम संग्रह व्यवहारऋतुसूत्रश Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसूत्र श्ये मनिरुदैवं नूनानयां जो अर्थ तोयरिपूएनिहीनयान्सर तिस विषैसे कल्पमान का ग्रहणकरने वालानगमनयहै। जैसैको ऊपुरुषइंधन जलादिक ग्रहणकरैथातिसकूं को ऊपूर्वप्रातुमकहाकरोदौप्तदिकही मनातयकाऊं इंतहांभानपयिष्गटनदीनया परंतु जातकाम कल्पकरिकै कार्यकरहे तन्निसंकल्प मात्र का ग्राहनिगमनयहै। शानपनी जातिका अविरोधकरिकैं पयनिकाभेदनही करिकैं समस्त का ग्रहण करनेवालासंग्रहनयहोरासंग्र इकरिकैग्रहणकीयातिसका विशेषज्ञान विनाप्रवृत्ति नही होइयातै जहां शाई दूसरनिदनही होयत होतोई व्यवहारनयपर्वतदोत्र: पूर्वापर निकालविषय नित्याभिवर्तमान विषयमात्रका ग्राहक ऋजुसुत्रनम् है । जातैः प्रतीततोवि नसिग्यावर अनागतउत्पन्ननही नयात्तातै अतीतप्रनागतमै व्यवहार का अभाव है||धा लिंगसंख्यासाधनादिककाव्यभिचारकूं दूर करनेवाला 1120}} Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाहनयहापानानामनिकुंछाडिकारकै कमर्थनैपधानकरित्रारूदहोश्सो समभिरुदनयदाहीतिसस्वरुपकारकैपदार्थहोतिसखापरिकैहानो निश्चयकराचौमाणवेनूतनयहोसिऐश्चर्यक्रियाकंपाप्तहोतेहीक हैयूजनकरतेअभिषेककरसेकुंशनहीकहाशानदमियोस्तत्व नया नांधवलक्षणमझानस्पषमाणत्वमधायस्मिन्निरूपितातितत्वार्थाधिप मेमोक्षशास्त्रेपथमाधायाकामिकासायिौनादौमिश्रजीचस्पस्वः। तत्वमौदायकमारिणामिकौंचाशोपामिकक्षायिकमारभित्रकाहिए। सायोपमिकोदयिकपारियणमिकएपेचमाक्प्रसाधारानीचकास्वता वहा सूत्रा दिनाष्टादशैकविंशतिनिभदायथाक्रमीदोपकारकाम्प शमनावद नवधकारकाक्षायिकमाचाअष्टादशधकारक्षायोपरामिकन भाव एकसपकारमदमिकनावातीनपकारपरिणमिकनावानेसतरे Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्मार्थसूत्र पमनावह।सूत्रसम्पत्कचारित्रशाउपशमसम्पत्कउपशमचारित्रग्रेस दोयपकारकापशमनावह पत्रीज्ञानदर्शनिदानलामनोगापनोगधीर णिचाधाज्ञायिक ज्ञानदर्शनदानलाननोगमपनोगवीर्यअस्वाद करिक्षायिकसम्पत्वक्षायिकचारित्रसेनवपकारक्षायिकमावह।सूत्र ज्ञानीज्ञानदनिलब्धयश्चतुस्वित्रिपवनेदाः सम्यक महिनासयमासंबनाइ मतिश्रुतअवधिमनापर्ययसच्याखकारकाज्ञानकुमतिकुतिक अवधिसतानप्रकारका प्रनामपरचक्षुदनिअरसवतुदर्शनअवधि दनितीनधकारकादमिनारदानलानमोगउपभोगवार्य असापचय कारक्षयोपशमलधिभरक्षयोपशमसम्पत्कभरक्षयोपशमचारित्रअरसं यमासयमसिंअष्टादवायकारक्षयारामनाचहासूत्रागतिकषायलिगमि ध्यादनिशानांसंयत्तासिश्लेपाश्चुतश्यतस्त्रकै कैकपदोंदावी ॥ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यारिखकारगतिच्यारिपकारकवायतीनपकारलिंगअरमिध्यादर्शनमा २. नभयतनाभिहत्यमरखपकारलेल्या अश्कचीसपकारजदयिकनावद सूत्रातीधनव्यानव्यलानिघाजीवत्वमव्यत्वअनयत्वासैतानप कारणारिणामिकमावहःसूत्रोउपयोगालक्षदीपकाउपयोगलक्षण हाम्नासहिधिघोष्टचतुदायमाउपयोगदायधकार एकताज्ञाना पयोगसोअष्टधकारबाडूनादर्शनोपयोगसाध्यासकारानासंसारिणाम काश्चश्विा संसारीओरमुक्त सैंदोयपकारजीधहस्त्रासमानकामना । स्कासमनस्ककहिणमनसहितसंज्ञीअरमनहितमसंज्ञाससंसारी नीचकदोयपकारह। संसारिणस्त्रसस्थावराणप्रसारस्थावरसह संसारीजीवकेदायपकारहोसूत्रापृथिव्यालेनोवायुवनस्पतया स्थावर भटधीअपनेतवायुधनस्पती संस्थावरजीवकपचनेदहाहयिादय Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ तत्वार्थसूत्र सराहोश्यित्रीश्यिचतुरिध्यिपश्यिसेंच्यारिषकास्त्रसहै सूत्रपाध्याणियाश्यियांचहदि।सूत्राविधानिाहीयेश्यि अलावेपिया सैंदोयघकारकीपाचूंख्यिात्राानिस्पकरणे ।। मेडिय॥२७॥निशनरत्यकरण सेदोयनेदरुपयेश्यिहातिन मेंउत्सधागुषकै संख्यामागधमाणाश्रुतात्माकायदेशभत्रादिक इंमिश्रकारहोयइंडियनकेस्थानमैतिष्टैसाअभयानिनिह परनिन इंडियाकारपरणतिरूपमात्मपदेशानिविनामकर्मकानदयकरिमंदिया निकेत्राकारपुरलसमुहतिष्टेसावालनिशिहायरितोनिनिकायपक र करनेवालाहोयसोउपरणहूदायपकारहसिमेनानिशुलछमेडल तोमपतरणपकरदारवांफणीवापाछपादिकावाझउपकरण है। सैंसमस्तरहियनिकास्वरूपताननोविजालथुपयोगौमाश्यिोपलब्धि Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रामपयोग अनधिश्यिद्दोयपकारदोऽश्यितानाधरणकर्मकाच्याप महोनामोलविदो अलधिकीसामर्थतात्माश्व्यापियकारचनापति पवनिकरसोउपयोगहै।असदीयपकारलाभियदा सूत्रस्परभिरसन, आणचतुःोनाविणासपनिाशसनछाणचतुप्रोत्रएपांचश्यि हासूत्रस्परिमगधवशिष्ठास्तदर्थापाससिगधवाशिएपंचशि यकेपटाविषयहै।सून श्रुतमनिश्यिपशिशुतज्ञानहसोमनकाविषय है। साधनसतानामकोशष्टधीकायतलकायतकायवायुकाया। बनस्पतिकाया निषेचधकारकथावरजीवनिकएकस्परनिहीइंडियन कृमिपिपीलिकानमरमनुष्णादीनामकेकरशानिाशाकृभित्रादिकनी घनिस्पनिरसनदायश्यिहै पिपीलिकादिकनिकैस्परनिरसन घाणअसतानवियनमरादिकनिकैचक्षकरिमधिकच्यारिइंडि Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वार्थमूत्र यहामनुष्यादिकनिकककिरिसहितपेचश्या सैनिकैएकरधि १२ यनिकीछहामना मंतिनासमनकामारधामनकरिसहितहतेसंज्ञीह। स्वाधिग्रगतीकर्मयोगापा विग्रहतानबीनशरीरताकैअर्थिगम नरोकेकामणियागहै स्वाअनुशाणिगतियारधानीवभिमरणकेस मयतानवीनसरीरकैअर्थिगमनकरदसोनाकाशकापशानिम... रुपमछनधातिर्यकामनाकारकिशनिकीमधीपंक्तिधिनाधिदि शादिकनिमैगमननही होसूत्रं अधिग्रहातावस्यारजाकमरहितहो हालयकूतायदाताकेकुरिलतारहितकशमनही देशास्त्रीविग्रहवती संसारिणःपाद्यतुः॥२॥संसारीजीवमरणकरिनवीनशरीरक अर्थिगमनकरदातहीकोमजीवतोसुधाहीगमनकरिजायपत्तेहा कोई एकमोडलयमपत्नहै।कोमतीवकैदोयमोडलीऐउपजमोहोरहकोईती ॥३॥ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वतीनमाउलेश्पतेहाचतुर्थमाडले याम्पको क्षेत्रनहींहासूत्राएकसम याँधिनहारिणोमोडाहितमधीगतिलाग्पक्षेत्रमै उपहाताकाकालएक समयकाहै।सूत्रा एकछत्रीचानाहारकाचणालोनीवसुधालायमपोहामा ताभहारकही। अलीएकमोडलेश्पसाएकसमयअनाहारकहसिस मयनहारग्रहणकरहाहादायमोडकरिसपतसोदायसमयअनाअहााकहै। तीनमोडलेश्पनिसोतीनसमयअनाहारकहोचतुर्थमोडलेनेमोम्पकामक्ष जनहींहोरहांपैसाजाननांजातीनसरीषरपर्यान्त्रितापपुलनिकायहण करनामोनहारहमासदारविग्रहातिमेनहाहातानाहारकहामिन्य अवसरमेंसमस्त सारीजीवनहारकहींदापरकर्मविणाकापरणव महगतिमनहितास्त्रीसन्मूर्छनगनीपपादांवन्मात्रैलोक्यविर्षेऊ परिनचितीर्यक्समस्तक्षेत्रमैनीकर्मयोग्यपुदलग्रहणकरिदेहकाउपतर) Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थ सूत्र नांसासन्मूछीनजन्महाअस्विमिकेगदविर्षमाताकारुधिरापताकावीर्य | ग्रहणकरदेहकाम्पजनोमोगर्नजन्महा अरदेवनिकेतथानारकीनिक पपादस्थाननिमपुङलग्रहणकरिखपजनांसोउपपादसन्मदा सेती नपकारजन्महैसूत्रासाधितशीनसंहासमिडियालयोनय शसचिताराअधिताशसचितचितकामिप्रवासीतारामआशासीतमल्ल - रूपमिश्राशसंहताशविरमाश संहतवितदोरुपमिश्राशसेन चपकारकेपुलजीवनिकीमत्पत्तिहानगोम्पनवयानिहानिहीकेचारा लापनदहासनेश नरायुजोडपोतानागाजण्युप्ता अरसायो एतानपकागजन्मकेदाजरापरलमेंउपजेसतरायुनहा अंडमेउपते तिअंडतहमलारापटलमैनहोमपारनेरमेहनही उपनेसोपोतो एतीनधकारकासम्ममातापिताकस्योग उपतहनादेवनारकाणामुप | राधा Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाद ध देवनारकीनिकैउपपादजन्मदानाशिवाणासंगमूर्छनोपानी अप्राकपपादिकानि अन्यतिनकसम्मूछीनतमहमूत्राऊदारिक क्रियाका प्रहारकलैजसकामेणानिशीविश्वाअदारिकाविक्रियका अहारकाशनसाधा कामीण असेपेचपकारकेशरीरहामत्रा परंपरेसन पचपकारकेशरीरकहसिनमैं परेपkमूहमहा-औदारिकवेनियकम् महविक्रियकतअहारकादारकततैतसतसतकामीणसूहमहासूत्राप देशतासययगुण घातलसाविधानोदारिकतक्रियकवारीरकन सामातगुणोपदेशदौचिक्रियतअहारकरारीकियातगुणोपरया सपहले: होमित्रो अनंतगुणपणीअहारकततेजसशरीरकअनेसगुणपदेशहोते जसकामणिशरीरकअनेतगुणपदेशहालप्रपतीघानाधणतिसारीरर कामीणशरीरसमस्तत्रैलोक्यमवबपटलादिकमैहनहीरुकह।सूत्रो Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्यार्थमित्र नादिसंबंधेयाधिशासजीवकैनेजसपरकामीणशारीरकासंबंधअनादिकालसे ५ हैनारमुक्तहीहोयगातहाताईरहेगाना सर्वसाधशतेजमश्ररकामणदो जशरीरममस्तसेमारीजीवनिक है। सूत्रातिदादीनिमामाथिगादेकस्मिार जो चतुःपएकजीवकएककालमैतैनासकारण आदिलेश्व्यारिता एताईहोइदाकोकैतैजसकामीणदायकोमकैऊदारिकतेतसकामीण सैतानातथाकोसधैक्रियकलैजसकामणग्रसतीनकोमकै औदारिकन हारकतेतसकामाच्यारितामनासनिरुपभोगमेत्याधणातका - मणशारीरताकरक्ष्यिहरेराहादिकविषयनिकाउपनोगनहींह॥ निसन्मूनतमाद्याधामनिअरसामूर्खनादोउदारीस्यौदारिकहान ऊपपादिकंक्रियकोधहीऊपपादिकतममैग्पत्याधेत्रियकरारीरहै। सूत्रालधिपत्ययचा तपगपतीऋतिहक्रियकारीरहाइहासन || Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिनसमंधितैजसारिहरु छितै होइहे।। सूत्रं ॥ श्रनंविश्रुद्धर्मव्याधा तिचादारकं प्रमत्तसंयत्तस्यैवाण आहारक शरीरप्रमत्त संयमी साधुकै दी होइहै||सोश्रुनर्मतैग्पज्याता श्रनहै॥॥॥॥॥विश्रुद्द कार्य करै तातें विश्र६है||आहारकःशरीरकाऊपदार्थतेंरुकै नाहीं॥ तातें अच्याद्यात्तिहै॥सू नारक संमूननपुंसका नियणानारकी जीवनिक सरसम्मूर्छनितन्म बलिजीव निकैनपुंसलिंगही होय है। ओरदोइ लिंगन दें। होइहै॥ सूत्रं ॥ नंदेव यशदेवनिकै नपुंसक लिंगनही होई है।। सूत्रं ॥ [शेषांस्त्रिबेदाः ||२| नारक अरमन मूर्ध्निःप्ररदेवनिविनां कर्मभूमिके गर्भजमनुष्पतिर्यचनिकेंती नोवेदहै||अरनोगनूमिके मनुष्प तिर्यच निकै पुरुषवेद अरस्त्रीबेदादोय दहि सूत्रं ऊपपादिकचरमोत्तमदेह संख्येयवर्षायुयानपवत्त्वीयुषः॥५३ देवनारकी श्ररचरमोत्तम देदकाधारी अर असंख्यात्त वर्ष की आयुका धारा Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 । तत्वार्थस्त्र कनोगनूमिकेमनुष्पतिर्यवनिकापायुविषशास्त्रादिकवाझनिमित्ततेन ६ . हाछिदैहै।इतितत्वार्थाधिगमेमोक्षशास्हितीयाध्यायः॥शास्त्रारनश ___का करावालुकापवैधमतमोमहातमापनाभूमयोधनाबुवातांकापशिष्टाः, सनाधाधारनपनाराशर्कएपनाशवालुकापनापेकपानाधूमध नापातमापनाहीमहातमनारासप्तनूमिनीचनाचअवस्थितहासारख गौदधिपवनाराघमपचनाशतनुपथना)अरआकाशनिकरिवेष्टितदोमूत्र तामुनिंशपंचविंशतिपेचदादाविपचानक मकवानसहप्राणिपवय चर थाक्रमानिनिष्पचीनिमें अनुक्रमतीसलाषपचीसलाषपंदरहलाया लापतीनलाघपाचघाटिएकलापअपोचतिचौरासीलापनरकासूत्रो। वि नारकोनित्यांचनतरलपापरिणामदेहदमानियानारकीनीवनि | कनिरतस्अत्यंतश्रुभलेश्यामनिनश्रमपरएणमनतिनभदेहभानिय ॥॥ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ U श्रुनवेदनाश्रक्तिप्रश्शुन्नविक्रियादै॥सूत्रोपरस्परोदीरितद्दुःखाः॥४॥ नारकी जीवप रस्पपरदेखने मात्र ही कोपाप्रग्निकरिज्वलतिनण्नानाप का रकेदुःखनि कूंपरस्परप्रगट करैहै॥ सूत्रं । संक्तिष्टासुरोदीरितदुःखांचं शाकं चतुर्थ्याः ॥५॥ तीसरीष्टधीपर्यंत संक्केशपरिणामके धारक प्र सुरकुमारजातके देवनार निकेंद्रः खनिकुंउपनावेदे ॥ तिष्धक चिसप्तदशाविंशतित्रयस्त्रिंशत्मा सप्तदशः नगरोसत्वापरास्थितिः॥ ६॥ तिनिनरकनिकी सप्पृष्टथी निर्विषैनारको जीव नि काउत्कृष्ट श्रायु एक सागरती न सागर सप्तसागर दश सागर सत्तरेसागरवाईस साग तेतीस सागरप्रमाणअनुक्रमतैहै॥ सूत्र| जेवूद्दीपलचणदौदयः श्रननामानो छीपसमुद्राः|||| जंबूद्दी पादिकापञ्चरलवणोदादिसमुइसुन नामकेधार कसंख्या तेही पसमुदे ॥ सूत्रं द्विद्दिर्विकं नापूर्वपूर्वपरिक्षेपणोवलया कृतयः||८||६ीप समुद्दिगुणद्दिगुण विक्रेन के धारक है- अरदीप को समुद्रवे Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थमित्र होमरसमुकुंछीपद अखलयताकडातथाकंकणताकाकार, .मलदीपसमुहानसनाधमरुनाभितायातनशतसहनविक्षंनो | जंवूछीपणातिनिसमस्तकीयसमुनिकमध्यनक्षयातनकाचाडागाल यमडलकेनाकारजेवूछायही ताकमधमैनानियोंमेरुगिरिहासोमूलमैद शहजारयोजनमोटाहासूर भरतहैमवत्तहारविदेहरम्पकदरएपवते, यसवर्षाक्षेत्राणिनिरताशमवतादाराशविदेहधारम्पकापहिर एपवताहीएण्वता एसप्तक्षेत्र है।सूत्र तहिनामिना पूर्वापरयताहिमय, माहादिमवनिषलीलरूक्लिशिवारणोवर्षधपर्वतारयतिमसप्तने अनिकाविनागकरनेवालपूर्वपश्चिमलबेसहिमवनमहाहिमवननिषध लिरुकिाशिखिएएछवर्षयरपर्वतहै। सूत्र हेमांजुनितपनीयवेड्यरजत 'मया:शाहिमवानपतिसुवाविर्णहोमहाहिमवानम्ननिमयकाहपशु ॥१७॥ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लवदिभिषधपर्वततपाणसुर्वणवर्णहीनीलवचिडूर्यमणिवत्नीलवर दिौरूस्तीपर्वतततकाहिएस्पामयहशिखरीपर्वतसुधाविरहिणसूत्रम जिविचित्रपाश्वउिपरिमूलचतुल्यविस्तारामाराएपदकुलाचलपतिमानाघ एपिनादिगुणसहितमणिनिकरिधिचित्रपसवाडेमिकंधारदीयसपरिसर मूलमेंअरमध्यसमानचोडहसूपडामहापातिनिकेशरिमहापुंरु होकरीकाःशदास्तापसिंघातिनिहिमवदादिषट्पत्तिकैपरि अनुक्रमतीपद्माशमहापद्माशांतिगिंछाशकेशीधामहापुंडरीकापारी काहीएषट्पहालकमरेहासूत्रपिथमायाननमहायामस्तदेहविक्रने दायापद्मनामपथमइहपूर्वपछिमहजारयोजनलेवाहदक्षिणउत्तर पावसयोजनकाबोडाहावडमयानलहनानामणिसूवर्णकरिविचित्रतरह। सूत्रादायोजनांवगाहारहीपथमदायोजउडाहाम्नोसन्मयाजन Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थमन करणानिसपमानामपथमदह विषण्क्याउनपमाणकमलदेवतादि गायिएणजदा:पुक्षणिचारपध्तिीयमहापद्मदहकोलंबाईचोडाई डाईकापमाणपद्मदहतहाभरमहापद्मदहकापमानैतिशिछदा हकाघमाणदोहा असेहीकमलनिकायमाणाहौसूत्रातान्निवाप्तिर न्यदिव्याश्रीशीतिकीर्तिबुद्धिलक्षम्पपल्यापमास्थय समामानिक, र परिषत्कारमालिनिकमलनि वसनवालानाशशीभविमाकर्ट, धावुशियालक्ष्मीईएपदनवनवासिनदिवहितिअपनेसामानिकार। सानानिवासीदेवनिकरियुक्तचसहमित्री गासिंधूराहिमोहितास्पाहरिया रिकांतासीनासीतादानारी नरकातासुधरिपकूलारक्तारक्तोदासरितस्तन्म धागाणाशिनिवशिकमध्यगमनकरनेवालागाशसिंधुाशरोहिता शिहितास्यामाहातोहरकोताहीसातवासातोदारामारीणमरकांतारणे ॥ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुवर्णकूला॥शरुपकूलाशिरताशक्तीदारणाचर्तुददामहानदीहै। ध्याईयो पूर्वाईगाशभिचतुझानदीभिमैदोयदोयमैपथमकहीमा पूछसमुमैंगमनकरनेवालीहासत्राशपरत्वंपरणाशदीयदोयनदीभिम पबँकहींसापश्चिमदिशाकसमुश्मैगमनकरनेवाली है। सूत्रोचतुर्दशनदी महम्पपरिश्तांगगासिंचादयोनद्याशगंगानदीअरमिधुनदीचतुदर्शश्च तुदर्शसहमनदीनिकरिपरिवारितही नाणदायनदीनिकीनगईसनगई महनारदोयनदनिकैछप्पनछापमहतारादोयकैएकलापसम्सविहार परिवारकीनदीहाफिरदायकैछप्पनलप्पनहजाराफिरदोयकैनगई सन॥ गईसहजाराफिरिदायकै चौदस्यौदहहनारपरिवारकीनदीसूत्रोलरत पहितिपद्ययाजनरातधिस्तारःपट्कोनविंशतिनागायोजनस्परिधान तक्षेत्रकादक्षिणउत्तरविस्तारपबिछवीसयोजनमायक्योजनकाउगरण Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवार्थसूत्र सनागमेछनागपमाणहै।सूत्रनयिधिगुणविस्ताराःवर्षधरवर्या विदेहाताः॥२पा मारततेधिगुणविस्तारहिमवत्पर्वतकाततिदूणाति भवनक्षत्रकासँधिदहपर्यतपर्वतनरक्षेत्रका विस्तारसमाधिगुण गुणहब उत्तरदक्षिणतुल्याहीविदेह परस्त्तरदिर तक्षित्रनदीदहकमलादिकदक्षिादिक्षाकारतादिक्क्षेत्रमरहिम वतादिकपर्वतादिकनिकरितुल्परचनाकेधारकहाजिरतगवत योझिासोपसमयान्मामुत्रपिएमसर्पिणीन्यासाभरारराव वा नक्षेत्राधिषदकालरुपनसपिअरअवसणीकनिमितकरिमनुर | निर्यधनिकाआयुकायादिकटेवटैहै।सूत्राताम्यामपरमयावर स्थिता ॥२मानिमिभरतऐरावतमम्पत्रिनिकीभूमिअवस्थितहैतर . दोकालकरिघसिनहीहायसूत्रएकात्रियल्याममा स्थानयाँ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन कहा रिवर के दैवकुरुवकाः॥२७॥ हिमवतक्षेत्रमै उपजे मनुष्पनिका आयु एकपल्यमाणंहे॥ दरिक्षेत्रमैमनुष्पनिका दोयपल्य्यमाणञ्चायु दिदेिव कुरुमैंउपजेमनुष्य् निका-आयुतीनपल्पप्रमाण है॥ सूत्रं तथच तैसे हीउत्तरके जेहैरन्यवत्तरम्प उत्तरकुरु इनिमैंउपजमनुष्य निकी युद्ध एक पल्प दोयपल्पतीन्नयल्प प्रमाण दे ॥ सूत्रं विदेदेषुसं व्ययकालः॥३॥विदेहक्षेत्र विषैमनुष्पनिका संख्यातकाल का आयु है। सूत्रे ॥ नरतस्पविकनोजवृद्दीप स्पंनव निशतनामावूद्दीपकाए कसोनिवॆनागमै एक नागप्रमाणनरत क्षेत्रका विष्कंनद घितिकी खरे। शाधान की खेडद्दीपविषैन रतादिक क्षेत्र दोयदोर्य है। सूत्र कर एच।। रापुकरदीपका अर्द्ध नाग विषैनीनरतादिक क्षेत्र दोयदोय है पांग्मानुषोत्तरानंमनुष्यांशधा मानुषोत्तर पर्वतकैमा दिदी मनुष्प Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसूत्र हावासक्षेत्रमैंनहींहै। सूत्रो-आम्लिाश्याश्या आर्यभोरम्लया सदोयपकारकेमनुष्पहै।सूत्रोभरसरावतविदेहाःकर्मभूमयोन्यत्रंदिवर कुरुतरकुरुम्पारहीपंचनरतपचएएचतदेवकुरुउत्तरकुरुविनापच . विदेहनिपनरहोत्रनिधिपैंकर्मभूमिहसून नृस्थितीपराधरेत्रि पल्यापमातर्मुहती ३३॥मनुष्पनिकायलष्टप्रायुतीनपल्पकीदै अघ पायुअंतर्मुषिमाणहतियोयोनितानाचारातिर्यचनिका दूउत्कृष्टप्रायुतीनपल्पपमाहाजघन्पश्नायुनेतर्मुहर्तमात्र वितत्वार्थाधिगममोक्षशास्वेटतीशयामसूत्रदिनातुर्मिकाया दवनिकाच्यारिनिकायहासत्रोग्रादितास्त्रिधुपीतातलेश्यामवन सीपेतख्यातिगीनितीननिकार्यविषाकजनालकापातपातपर्यंतच्या पहीलसाहासूत्राष्टिपंचशायाधिकल्पाकव्यापनपर्यतामादा ॥७॥ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकास्नवनवासी है॥ अष्टप कारव्यंत्तर है। पंचप्रकारजोकि है॥ ६ादशप्रकार कल्पवासीद॥ सूत्रंत्रसामा निकलायस्त्रिंशत् पारिषदात्मरक्ष लोकपाल नीक पकी एका नियो ग्पक त्विषिका श्चैकशः॥॥॥॥ समस्तदेव निअप रिजा की आज्ञा सोई है ॥ ॥ स्थान आयु वीर्य भोगोपभोगपरिवार करिजे ६ समा नदो||ग्ररुआज्ञाऐश्वर्यनही होयतेइंश्कै पितागुरुउपाध्यायतुल्य सामानि कदेवदे। मंत्री पुरोहिततुव्यतैतीसत्राय स्त्रिंशत्तदेव है।न्। सनानिवासीप रिषददेवहा शस्त्रधारी सनटसमा नआत्मरक्षक देव ||4| कोटपाल ||समान लोकपालदेवदे॥६सिना स्थानीय आनीक देव है ॥ ॥नगर निवार सीसमान प्रकीएकिदेव है। वाहनादिककर्ममेंप्रवर्तने वलिदाससमान आभियोग्पदेवदे॥१॥ चांडालादिसमानइंद्र की सनामैन ही प्रवेशकर ने चाले किल्विषदेव है||रणा असैदेवनिकी निकाय निर्भेदश दशप्रकारकेदे “নি* Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसूत्र वहे ॥ त्रायस्त्रिंशलोकपालवडपी व्यंतरज्योतिकाः |4|| व्यंतस्त्ररयो 22 तिक्कदेव निभेत्रायस्त्रिंशत् अरलोकपालनही है।। सूत्रं ॥ पूर्वयो६ीं शः॥६॥ जवनवासी अरव्यंतर निकी निकायविषेदो यदोयई६ है। सूत्र कायमचीच एसाऐज्ञानात्नवनवासी व्यंत्तख्योतिकरसोधर्मज्ञानताईकेदे वनिकै काय करिमेथुन सेवन है॥ सूत्रं शेषाः स्पर्शरूपरामन: पवीचाएं। सनत्कुमारमहिश्केदेवदेवांगना के ग्रेगका स्पर्शनिमान के ही परमप्री निप्राप्त होईदो बहाबोत्तरलां तव कापिष्टइनिव्यारिवर्गनिके देवदे बागना केरूपमात्र अवलोकनैतैनृप्त होइहै। मुक्रमहा शुक्र सतार सहस्र | किदेवदेवांगनानिकेमधुरगीतनूपणनिकेशन्सु निकरितृप्त होई है। यान नपाएत आरण्यसुत्तस्वर्गकै देवदेवांगना अपनामनमै चितवन करने नकरिवृप्तहोइहै।। प्रेसेंही देवदेवांगना देते। देवनिके स्परस्पिशद्दचितव ॥22 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नकारियनहोश्टापपिवीचा जाऊयालेसमस्तअहमिश्देवानकै काम दिनाकालेशनहींहानातनधीचारहमिथुनरहितहै।सूत्रनवनवासिनो सुरनागविकतसुपसिधातस्तनितादधिहीपदिकुमारा॥रणाएदशप कारनवनवासीदेशिनिकविषनूषणायुधवाहनगममक्रीडमकुमारख नहातात निकीकुमारसंज्ञाहै। असुरकुमाराशनागकुमारासविद्युत्कुमा मशरूपर्णकुमाराधा अग्निकुमारापावातकुमाराहीस्तनितकुमारायान॥ दधिर्मशाहीपकुमारादिककुमारा|अदानदहेासूत्रध्यंतराः। स किंनर किंपुरुषमहोरगगंधर्वयक्षरादॉनूतपिशाचाः॥॥निराशकिपु रुषाशमाहोरगा गधीपक्षापारासाहीभूतपिशाचासेना, नदिशानिमिवासकरनेवालअष्टपकाखेतरहामानोतिक्षासूचिश्म सौग्रहनस्वपकी कितारकाश्चाशमयशिवश्माशमहानत्राधार Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थमन्त्र एकतागापाएपंचपकारकेत्यानिकहै। मेरुपदक्षिणनित्यग १ तयानलोकेशनलोकनाअटाछीपदोयसमुतिमधि|मेरुकीपर क्षिणरुपपेचपकारकजातिकदेवानन्यसासतागमनकर मेरुकूँ म्पारसश्कवीसनोजनडोडिविचरेहै।सूत्रातकृतःकालविभाग गतिकरनेवालेन्यानिधानिकरिकालकाविभागभयाहीसूत्राथदिखा नाश्यामनुष्यलोकवारेपचयकारकज्योतिकदेवगमननहीको केतहाशवास्थितहासूत्राचिमानिकारहीऊपरिचमानिकदवहै। । सूत्राकल्पान्ना कल्पातीमाश्च १ चमाभिकदेवभिभकल्पापपन्न अरकल्पातीतदोयधकारह शादिकदशपकारदवाभिमेकल्पनातहोय २ एसघाडावगनिदेवकल्पोपन्नहाप्रलयरियकादिधिमा ननिमेशादिककल्पनानाहीततिकल्पातीतहासत्राउपर्युपरिमाये ॥२॥ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्पनस्वर्गहतेऊरिहानगरयामादिककाव्यानिएलानदीदा सौधर्मदक्षि एमिसानउत्तरमैपदोउसमक्षेत्रमैहै।तिनकै उपरिपरिदोयदायवर्गहामा त्रासौधर्मशानसनकुमारमाहंपवलवसोत्तरलानघकापिटाक्रमहाश्च|| ऋसतारसहोरधानतया णतयोशरणाचुतयोनधिसुमेधेपघुविजयचे यतमयंतापराखिने सर्वार्थसिौधारणामोधमशिएशाना शमनत्कुमारास माहेशधावसापाबदोसराहीलोनवा प्रकापिष्टाका महाकार मताराशासहश्राबानतीघाणताRधाारण असुनारहीएघाड शवह ऊपरिनवग्रेधयकहे तिनकैऊपरिमनुदिाधिमानभवहाणी तिनकैऊपरिअनुत्तरविमानपाचहीपासवमानिकलोकहास्थिा निधनावसुखयुनिलस्पाविश्वाझ्यावधिधिषयताधिकाः॥चिमानिकदे वपटलपरलपतिआयुकरिवधताहेतापानुग्रहशातिरुपधनावकरिअधिक Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थस्त्र हैझियविषयनिकेतखकरिअधिकदा शरीरवनामादिकनिक | करिअधिकहलियाकीउबलताकस्मिधिक इंघियनिकाविषय जाननकाशक्तिकरिअधिकहाअवधिज्ञानकाधिषयकरिअधिक है। सूत्र . परिय हाभिमानता हताशाचमाभिकदेवनाचलेदेवनिपट लपरलपतिगतिमानमात्रीगमनप्रसारिकीचतामपरिग्रहास्त्र भिमानइनितघटतीघटतीहासूत्रापीतयुक्तलपाहित्रिपघुशव शेर 1 लानीपीतलपातानमैपद्मलपाशपहितिानमैफलेपोहे सूत्रावामेधेयकेन्यःकल्पाः॥शासौधर्मस्वर्गादिकरिषयक . नीकल्पसंज्ञाहसूबाबानोकालयालोकांतिकारक्यालोकांतिकदेवनका उहालाकीस्थानहै।सूत्रासारस्वतादित्यचलरुणगर्दतायतुषितांच्यावाधा स्टाश्याश्यासारस्वता॥आदित्ययनिअरूणगर्दतियतुषित प्रत्यावाधरि ॥३॥ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यसअष्टपकारलोकोनिकदेवदाइनिगमवानस्पोरामेकपकारहादी। ताअधिकतारहितहीएसमस्तदेवनिकरित्यदेवऋषिहावादशंगकेधार कहदिवलाकसूमनुष्पहोइनिर्वाणहीगमनकरहोअपनवनहीधारेहै।। सूत्रीविग्यादिदियरमागरहविजयपैजयंतायतश्रपाजितनथानव अमुक्षिाविमाननिदेवमनुष्णदोयमवधारणकरिनिवणिजायरामा मयपादिकमनुष्यन्य शेषास्तिर्यग्नोनयपाऊपपादिकोदेवनारकी ओरमनुष्पनिअम्पसमस्ततिर्यचयानिमहसूत्रास्थिनिरसरतागकर पहिापशेषाणांमागोपमन्त्रिपत्यापमाईहीनमिताः॥साअसुरकुमारनि कामायुएकसागरकानागकुमारनिकातीनपल्पकासुपकुमारनिकायो डोडपल्पकायायुदास्त्रीसोधमरणान्या सागरपमधिकरणसौधमएँ शानदेवभिकामकृष्टयायुदायसागरकअधिकास्त्र सनकुमार Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थमित्र महिंश्योःसनाणसनत्कुमारमादेश्देवनिकापायुसप्तसागर अधिक - ४ असून निसन बैंकादशत्रयोदशपथदशनिधिकानिनुशवयाबरो तरविदासागरसैअधिकायुहोलातवकापिष्टमैचतुर्दशंसागात.. कायुदोशुक्रमहाश्वमेघोरशसागात अधिकायुहै।सतारसहभागि अष्टादशसागरसैअधिकायुहै। याननषाणतमैवासमागरकाआयुहै। आरणअत्युत्तमैवावीससागरकानायुहै।सूत्रमारणांगुनाह मकैकेन हासनवयकवितादिसटिसिौधार आरएमप्रयुतऊपरिमयर वियकनिधिएकएकसागरअधिक तानवमाधयकर्मश्कतीस गरकाआयुहानवअनुदिशाविषैवसीससागरकाआय है।अरविनयवेज अयतअपराजितनिध्यारिधिमाममिनीपततीससारकाआयुअर सर्वार्थसिदिधिषेनेतीससागरकाहीउसष्टमायुहैसपन्याहीहास्त्री lisvir Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्यापममधिकौशिमोधर्मशानदेवनिकाजघन्यमायुपल्पप्रमाण अधिक सूत्रापरतःपरतापूचीपूर्वानंतरावासोधर्मशानमेनामटा इसागरसकृष्टवायुहासोमनकुमारमहिषमैजधपहासोपहिलास्था नमेनोउमष्टायुसोऊपरिक सधन्यहा सूत्रमारकाणांचक्षितीयादि युयानारकीनिकैहपहलेनरकमैउत्कृष्टयुमाहितीयमैजघन्यहिती यमंउत्कष्टसोतृतीयमैजघन्यासनाचैनीचंतधन्यनत्कृष्टनायुजानना दवासिहस्त्राशिस्थमाचारधीपथमनरकविषैदशहसावर्षकानध पायुहास्त्रीनवापुंचाइजामवनयासिदेवानिकाहनधन्यायुदशाहजा वर्षपमाहासूत्रोयनराणांचाशयेतदेवनिकाहनधन्यनायुदशाह जाखधिमाणहासूभरापल्पाफममधिकरणाव्यतरदेवनिकाउत्कृष्टमार, युएकपल्पत अधिकहासूत्रानोतिकाणेयानोतिकदेवनिकाउत्कृष्ट Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ तत्वार्थसूत्र आयुभीएकपल्पते अधिकहा सूत्रातदमागोपशमोतिहदेवनिकात घनायुपल्पकाअष्टमभागहोनितलाधिाममोक्षशास्त्रेचतुध्यिायः शास्त्रीजीचझायाधमाधमाकाशमला धिमी अधमीनाकाशा जलाए च्यारिपचचेतनारहितहातात अजीबह अखजयदशाहताते कायह।सूत्राध्याjिाएकधर्मश्रधर्मनाकाशकाननिकीपवसं शाहोतेअपनैगुणपयिरुपसमयसमयपरिणामतेपमहसूजीवाश्च जीवनीषयहाासूत्र भित्यावास्थिताम्परुपाधि एकहपांचयतनित्य कहिाअविनासीहायरलवस्थिकहिएनयनेष्यरूपवनावकरिनही चलेहीअरना कहिणनमूतीक है। सूत्ररूपिण:पुलापासिनियर निमपुशलाश्यिरुपीहाओस्मरूपाह सूत्रा आमाकागादेकपयाणि हीधर्मपयारसध्यिाप्रयाकाशयातीमध्याकएकहीही। . ||२|| Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनहीहासूत्रोनि:क्रियाणिद्याधर्मपियअधर्मघव्यप्राकाराषच्यातीन व्यनि:क्रियहाअनिस्थानकदाचित्वलायमाननहींहोयहोमूत्राअसंख का या प्रशिक्षण धर्माधूिजिीवानाधर्मव्यमधर्मव्यएकजीवश्य निकैतु स्पसंख्यातिपदेशहिस्त्रायाकादास्पानतावणा-आकाशमयकैअनं तपदेशह।सूत्रो संखियांसख्ययाचपुलानापरणापुलपयनिकैपदे। रायसंख्यातनाहअसंख्यातनागनाथदकरिननंतपदेशनाह। सूत्री मांगोशपरमाणाकैवतपदेशानदीपकपदेशमात्रामा लोकाकाशेवगाहेश एकधर्मधर्मादिकाश्यतिनिकालाकाक शहीअवगाहहौलाकाकाशवारेंनही। अलोकाकाशमैताएकनाका हीव्यहासूत्र धमाधर्मयोःलाशधर्मध्यानधर्मव्यरनिकाय ... गाहसमस्तलोकमैहै।जिसतिलवियतेलसर्वत्रध्यापकरितिष्टेहाती Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थमन्त्र लोकाकाशकसमस्तोत्रमेंयाप्परिशिष्टेहगएकप्रदेशा गई गुफलानोरापुजलयकाअवगाहलाकाकाशकेचदेशातलगाम संरयातपदेशशता अनिकषकारहास्नानसंचयनागादिपुतीवानोर . पालोककाअसाव्यानवोनागनादिविधजीवनिकामवगाहह मूत्रमय दिशसहारविसणीयोपदीपवनाराजीचकेवशिलाककेदिक मानहगताइसंकोचविस्तारस्वनाधकरितिष्टेहा दीपककानोसान्या धारजाम्पएरहोशनिमत्रमाणअवगाहकरितिष्टे छोटेवड़झारितिष्ट साइलोकपमाणपदेशहैमहीघटैषधहमतिस्थित्यमहोम धर्मयामराकार जागतिकहिणामनस्थितिकक्षितिधनायदाऊउपका उजीवश्यमापुजलश्यानधर्मध्यमस्मधर्मयकाहा जीवपुजलए कक्षेत अन्यक्षेत्रगमनकरशहांचाह्मसहकारीकारणधर्मह रा Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रस्थितिकर अधर्मश्यवाह्यमहकारीकारणासूत्रो आकाशसांवगारैः। पासमस्तपयनिअवगाहदेनोयोआकाशश्यकाउपकारहासूत्राशरी खाङ्मनःप्राणायानाःपुफलामोशणाशीवचनमनपाणकटिबच्चासर अपामकाहिएनिश्वासयपुभलक्ष्यहानीयकैलपकारदशसूत्रसुखदुःख जीवितमरणापमहाश्चारणासुखदुःखजीवनमरणानीउपकारपुलकेर कीएडीजीवनिकैहै। सूत्रापरस्परोपनहोनीवानाशानीवनिकैपरस्परमी उपकार सूत्रावर्तनापरिणामक्रियाःपरवापरत्वेचकालपाशसमस्त चयनिकै अयनीपर्यायकीरचनापतिअपना स्वभावकारहीवर्तमाहसिस वर्तनोकूवारनिभिसकालपचहा वरिष्यअपनीयकपर्यायद्यांडिपार पपर्यायकंपाप्तिहोनासोपरिणामहा जैसजीयकैकोधादिपरणामहापुरु लकैवानिदिधत्रिधर्मभाकाकैअगुरलघुगुणकीहानिधिरूपहो Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्वार्थमन्नापरिणामहायजाक्षित्रपक्षत्रविचलनरूपक्रियासापरकेपया सिंदहोशअरअपनस्वभावतेनीयोइसमेघपटलादिकनिकै माकि याटकालकत्तउपकारही वकसकालनामलगेसोपात्वमस्मल्पकालर मामलगेसोनपरत्वमोसमस्तकालयकतउपकारह।सूनी सरिसगंधव हवितःपुशला शासरिसगंधवर्णशनियारिणणसहितपुजलक्ष्यहै सरसगंधवणच्यारिगाजाकै दोश्सोशलहै।सूत्राशसोदय में पसंस्थामा जस्लाशबाटोतवंत या शोधसूक्ष्मपणास्थूल णासस्थाननेदतमकाहिराअधकारमाछायानातापउद्योतभिपर्याय करिसाहतहपुलपयशवचधादिकसमस्तजलहीकीप Iो अणवारकंधाश्चापअणुप्रास्कंधरापुलपयहींकेपर्यायह। .. नेदसेघतिम्पःउत्पद्यता रईपुलनिककंधोदासंघानतेपनि ॥२७॥ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वामअन्यसानिमितकेयसतैस्कंधविदास्तायसनिदिदापरतभिन्नभिन्न| थतिनिकाएकदोनोसेघानास्त्रनिदादणार/परमाणहैतीदहीनेउप निहासंघाततेमहीउपहासूत्रादिसंघातान्पांचालपारजस्कंधता मतानेतपरमाणुनिकसमुदायकरिमपद निनिमकई कंधमत्रनिकरिः यहणमश्रावतेचातुषहोइहा अरकेतस्कंधनेत्रनिकेमहणमैनही अधिहै| तिमचारतदीपातुकेतस्कंधमूहमपरिणमनकरित्रनिकैगाचरमहाहान थापिउनकामदहोश्मन्परकंधनितमिलनेकरिभत्रनिकैगोचरहोरहार समयलक्षणयकालक्षणमनहालोमतरूपदसोपव्यहै।सूत्र नित्पादव्ययधौघायुक्तंसतारणा अपनी मांतिकूनहीछाडतजेचतननचेत नियतिनिकनिमितकैवसतएकपरतिछोहिअन्यपरतिकूपाप्नहोना साउत्पाददा-अापूर्वपरणतिकाअभावहोनांसोध्ययकहिणनाशहा अरपूर्व Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थमन पिरणतिकानाशअमनरपरणतिकानत्पादहोतेअपनीतातिकान, चाहनांसोधौव्यहानिसमाटीकेपिड घटपर्यायकाउपतनासोउत्पाददाम परपययिकामनायसाध्ययह अरपिंडपयायमैनथाघटयर्यायमै , . र अनावनहींहोनासौधौयहा सेंउत्पादव्ययधौवतीनपरणतिजामेहोर सासतकहाँही असतहसोध्यौमत्रांतवाययंनित्याशिसोपहलेसम यहोश्साहीसमयमैहोश्ताकूतनावकाहिएतनावकानाशनही होनासो नित्पदानाप्रपितामर्पितसिंह|३||माकूमुख्यकहिणमोअर्पितदान कूगोणकरिणसाप्रमार्पतहासाशनिदोऊनयकरिअनिकधर्मस्वरुपयरत | काकहनांसिहोरहरहासत्प्रसत्एकचनकमित्पअनित्पनिदअभद *क तत्तत्मत्यादिकसमकधर्मात्मवस्तुकहीएकातीविरोधादिष्ट दूषणदिखावहातहोएकवस्तुमैसम्असनदोऊविरोधीधर्मकहतबिर ॥९॥ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गधदूषणकदद।असनसत्दोऊनिकाएकाधारकै होइातातेंवैयधि करणदूषणकाँहासत्असतकाप्रयकहिातापहले असतहोश्तवसत कैनापयरहनोवणासायसन्स तकै आश्रयकहैपहलेसानाहा असे दोऊकाअभावरूपापरस्परानयनामादूपणकहीअखासत्काहकार हातहाकही असत्कारासतकहिकरिनन्यसतकरिवसतकाकार अपनसत्करिशम्भैसकईचदरमानाहीतानमन्नवस्थादूषणकाँहै सतमनसत्तमिलाअसतमसनमिलतहायतिकरदूषणहा अरसतमैन सतहोताया अरसत्तमैसत्होजायातहासकरदूषणकाँहासरतही सातकीपतिपत्तितहासातकीपतिपतिनाही असतकीपतिपतितहां सत्कीपतिपतिनोह| अपतिपतिदूषणकहा असतहोजही असतकामभावनसतहोतांसत्काअमावसभावनादूयाणकहैहै| Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निः तत्वाधसूत्र तिसमलदूषणअनकातीनिमहीनावेहासोमेकातमायके अर्पित मर्पितपणाकरितीसिहदोइदासूत्रास्निग्धरुतत्वाध्यः शायुजलपर माणूनिकेसविहाणपणाकरितथालूखापणकरिपरस्पखंधहायहायु जलपरमाणु सञ्चिकर्णपणातथाखायणसदाकालवतेही किसीपरमा एमैंसाधिकापताकाएकत्रविभागपरिछेदहाकिसमिदायकीसमितीनच्यारि संरख्यातनामयातननेतअविनागपरिछेद? अकिसीपुलपरमा . तपणाकाएक नविभागपरिछेदहै किसीमंदोयत्तानाइत्यादिसाव्यात संव्यातअनेतनविभागपरिछेदहा परसमयसमयषगुणीहानिदिरूप सचिवागुणतथारुतगुणनिरन्तरघटेवधेहाअससचिवणपरमाणका दहोश्वारुक्षपरमाणेसाधक्कण्होर। निरूतपणानथाशन सचिहणताअधिनागपारखेदानकेनितकरिसरमाणं तथाटाणुका ] Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिस्कंधर्निकपरस्परवेधहोईहै। सत्रानिनछन्यगुणगाना||घ|| जघन्यगुणक धारक परमाणं हे तिनकै बंधन नहीं होइ है। जिसपरमाणुमै सुत्तपरणं कावा सचिणपणांका एञ्प्रभिभागपरिचे दर हिजायसोवेधकूंयाप्त नही होईदै ॥ जो एक गुएस्निध् होइतिसपरमाणू कै एक गुए स्निग्धकरितथा संख्यात असे ख्यातअनंतगुणस्निग्ध्कखिंधनही होइ है। तैसेही एकगुण स्निग्धपरमाण एक गुणरूक्षपरमां करितथा संख्यातः असंख्यातअनंतगुणरूक्षपरमाणक वेिधकूनंदी प्राप्त होइहै। प्रेस एकगुरु परमाणूहू दोयकुंआदिदेयअ निकरुक्ष स्निग्धगुणकेधारक परमाणं सून दीवधैहै॥ सूत्रं गुणसाम्पसहर शनी॥३५॥गुण निकरिसमान होइ तथा सहरा हो यति निकै द्रवंधनही होइदै॥ दोयगुणस्निग्ध्क्के धारक परमाएफ कैअरअन्य दोयगुणधारकपर माणूनिकै वेधूनही हो॥ तथातीनच्यारपेचसंख्यानश्रसंख्याक्तअनंतगुण Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसूत्र जेनविभाग परिबेसमान होइ तिनिकै बंधनही होइ है। तोकोनकैवेधदो चूछे इहे मोमूत्र करे।। सूत्रहाधिकादिमुरगणानांतुश्दी एकपरमा में दोयगुणाअधिक होश एकमै दोयगुणघटती होय तिनकै बंध दोइ है। दोयगु. एसबिक एनाम होइ पिरेमा कास्की हो गुण स्निग्धरुक्षरित था तीनगुण स्निग्धरुतकाधारीपरमाणू कखिंध नही होई है। अभिच्यारिगुण: स्निग्धताकावारुक्षताका होइसोवधन प्राप्तहोश है। वऊरिदोयगुणधारप स्मारके पांचचदसातयकयादिसंख्यानअसंख्यात अनंतगुणकेधार कपरमाणुक रिबंधन ही होश । असनीनगुण स्निग्धस् तके पोचगुएस्मिग्ध करिषेधहोश-ओर किसीही संबंध नदीदोया स्निग्ध् परमाणू कै अन्य मिग्ध स्त्रीबध हो। अररुक्ष करिनी होश आरक्ष परमाफ के श्रन्यरूक्षपर • करितथास्त्रिग्धपरमाणू करिवेध हो। परंतुनामै दोगुणा अधिक हो ||३|| Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इताहीसबंधहोइ।अन्पहीनाधिकगुणकेधारकपरमाणकरिबंधनहींहोइ रएकगुपजामरहिगयाहोसावधाणघाप्तनही होशम्ससूत्रमैनोदि वादकह्यादसापकास्त्रर्थमेझाननात सिप्रेसाभावजाननाघधिकधकारका रिचयहोरात्रावधिकोपारिणमिकोणापुद्धलनिकोपरस्पखंघहोते तिसपरमाणूमअधिक गुणहोश्साहीनगुणवानीपरमाणकुंभापरूपप रिणमनकरावेहगएकमैदोयगुणानिधताकहोइमाइतीमैयारिगणरुती पणाकहोश्तोदोऊमिलतास्अधिकगुणरूपमारुतपरमात्तिसरूप होरहै असरुततेस्निग्धभिलेतातदिनधिकगुणरुपनोसूझेपरमाणु निसरूपहोइहै। सैरुतलिग्धभिलतोमरसूदमरुत्तमिलेवास्तिर तस्लिमिलवास्निग्धतरुत्तमिलेगोनधिकगानिसपरमाणामेहोश तिसरूपही गुणरूपपरसामूपरिणमिजायसूत्रगुणपर्ययघड्याश्या - Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थस्त्र पदमागुणवाना प्ररपर्यायवान्हा गुणपर्यायविनाश्यनहास्यअनेक परणतिअनेकपर्यायस्यहोतेंद्रगुणकाअनावनही होइहातालगुणनिका समुदायहीच्याहै। असमयसमयतापरणतिहाइसोहीश्यमैपर्यायह सोपीयरहितह किसीकालमैनहसमूचाकालश्शाराणाकालनीश्यहै गुणपर्यायवानह।सूत्रासोनेतसमयाधमाकालनासाननेतसमयदेता कैसाहाराश्यप्रयानिणिागुणा:शानिनकायनाप्रय प्रस्था" पन्नम्पगुणनिकरिरहिततगुणहाश्ससूत्रगुणनिकालक्षणकयागुण दैतपयसूतन्मयहातातपयकेमाश्रयकराणानिनन्यानो ततिनिर्गुणसूत्र ॥ ॥ तनावःपरिणामः॥धशाशा Mull यतिसस्वयकरिपरिणमैतासनावरहितावह सो रिणामहें।। ॥मितशथीधिममेमोक्षशास्त्रपंचोयायः ॥३११३ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प ॥ सूत्रं ॥ कायवाङ्मनः कर्मयोगः॥॥॥कायवचनमनकी क्रिया सोयोगहै. सूत्रांस आश्रयः॥ ॥जोमनवच्चनकाय का योग सो आश्रवदे। जैसे सरोवर केजलआवनें के छारतै सेयेमनवचन कायके योगकर्म श्रावनके द्वार है।। ॥सूत्रांशुनः पुष्पस्पाश्रुनः पापस्पश्रनयोगतैपुष्पकाश्राश्रवहोयहै।। अश्रुनयोगत्ते पाप का आश्रवहोइहै। तिनिमेंप्राणी निकाघात प्रदत्त काय इएमेथुन सेवनइत्यादिकत्तोःश्रश्रन काययोग है। अरकर्कसकवोर निंद्य असत्पत्यादिवचन कहनीसोप्रभवचनयोगरै॥ परजीवनिका घातई षदित्यादिचित्तवन करना सो॰अश्रुन मनोयोगहै।।तर हिंसादिकपापरहि तकायकीप्रवृत्तिसोश्रुनकाययोगहै। हितमित सूत्रकै अनुसार स्वपरका उपप्र वचन बोलना सोनवचनयोगदे॥ अर्हतादिका निकीन क्तिधर्मध्याना दिकशुन मनोयोग है। सूत्रं ॥ कषाया कष्याः सांपरायके यपिथयेोः ॥ ॥ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसूत्र पायसहिततीवकै संसारकाकारणश्रमासापरयिकाश्रयहोरदायर ३२ पायरहितनीधश्यपिथ नाश्वहारहानातैक्यायनिकरिसहितती कैकर्मकाप्रवावहैमिनिसास्थितिपडेदनाकरिदीर्घकाल परिचमणकारणाअरक्यायाहिमतीवकैयाप्रधाहै सोस्थि पावे|बिजीसहीसमयनीनीतायोमूत्रज्यिकमायावतक्रियाः पंचचतुःपपंचविंशतिव्याःपूर्वस्पनेदाः॥पाख्यिपाचकषायया रिसवतपाचक्रियापचीसासांपरायिकआप्रवकेकारणहमतीवमंदर क्यायनिकोउत्कट हाताज्ञानाचाधिकरणवीर्यविशेषेभ्यरवाशेक्ष दीकषायनिकीमद सानीचनावह तातेनापरिणामहोश्सोमदनाचहमिश्सयाकूमारूंग्रेसजाणिकरिमा खपतिकरमांसाशातमाघहोविनोनाणेप्रमादतपतिकरनासाथ तनावही पुरुषकापयोतननाआधारासाअधिकाहिश्यकी ॥२॥ ताजोपरिणामहीय Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिमोवीर्य है। जातै जीव निकै प्रसंख्यात लोकपमा एण्यरिणम है।जिस जिसापरिणाम होयत्तै सातैसा कर्ममैंर सपडैहै।स्थनिपर्डेहै।सोहीअ श्रवमैंनेदज्ञानना।सून अधिक रणंजीचा जीवाः॥॥॥॥ प्राश्रव का प्राधान वपव्य अजीव पव्यप्रेमै दोयने दहै।।सूत्रे :-प्रद्यं सरेन समास्नारेन योगकृत कारितानुमतकषायविषेस्त्रिस्त्रिस्त्रिश्चतुश्चैकशः॥] आदिकाजीवांधि करएहि सोसे रंनस मारेन आरेन एतीन अरमनवचनकाय एतीन योग: अर कृत कारितअनुमोदनोंएतीन अरको ध्मानमायालो भए च्यारि५निक पस्परगुण|| एक सोसावभेदजीवाधिकरणकैहै॥ सूत्रं निवर्त्तनः निक्षे पसंयोग निसर्गाचतुर्द्दननेदाः परै।। (पी/निक्षेपणकरिएरिए सोनि तेपदे निपजाइए सो निर्वसनाहै। मिलावनीसो योजना है। जो पर्वताइए सोनिसर्ग है। तिनमै ससानिक्षेपाधिकरणनाभोगनिक्षेपाधिकर Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्वार्थसूत्र दुःपृष्टनिक्षेपाधिकरणाराअपपुवतितनिक्षेपाधिकरणा। ३ सैनिक्षेपच्यारिपकारदोतहोमयादिककारकैवानन्यकार्यकरनेका . तापलिकरिनाशीघतातपुस्तककमंडलुवारीतथाशरीरकामला क्षेपियेसासहसानिक्षेपाधिकरणहोशवरिशोधतानही होताकूरही विवानहाहा साविद्यारनहीकोअरमवलोकनविनाहीयुस्तकक (शरीरमसारीरसंबंधीमलादिकनिक्षपणकरिएतथावस्तजहांध चाहिएतहानहीधरनासैसैअनेकजायगोधरनासाननानोममिले धिकरणदाशवारिजादुष्टताकरिवायन्नाचाररहिसंपणाकरितो . शरीरादिककालेपनासादुःपपृष्टनिक्षपाधिकरणहाशवहरिजोवि नांदेख्यांचस्तुकानिक्षपणकरणस्थापनकरनासानपत्पुवक्षिनिक्षे धिकरणाला असंघारिपकानिक्षेपकहा।अबदोयपकारनि ॥३॥ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिनमाकहानिपताशामानितिमाह।वारितकुचेष्टाउपनावनांसोदेह । दुःपयुक्तनामनिवर्तनहि अहिंसाकेउपकरणशास्त्रादिककारच नाकरनामोउपकरणानिर्वर्तनादातथाएकमूलगुएनिर्तिनाएकर तरगुणनिर्वर्तनांगतहांमूलपंचपकासारीखचनममउच्चासनिपासका निपतावनापरलत्तरकाष्टपुस्तकचित्रकर्मादिकनिपजाघनश्रेसेंडू दीयपकारनितिनाहावाकरिसंयोजनामोनिसंयोगमोदीयपकार। हातहाताशीतस्परुिपनोपुस्तकतथाकमंडलुशरीरादिकतिमवंता वडाकरितन्तनापिचिकासाकरिपूछनांसाधनोत्सादिकउपकरणसं योजनाही वरिपाननातलादिकतिनिकाअन्यपानमैमिलावन तथा भोजनमैमिनावमा तथा भोजनकूपानमैमिलावनांचामन्यनोननमैमि लावनोमानापानसंयोजनाहोनिसर्गाधिकरणतीनपकारहादुटपकार Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसूत्र कायकापवर्तनकरनासोकायनिसगाधिकरणहोशष्टपकारखचनका क्ष पवर्तनकरनांसोधागनिसर्गाधिकरणाराष्टधकारमनकापवर्त एनोसोमनोनिसर्गाधिकरणहैशानावार्थःजीवनतीधदायकत्र २ रकर्मकाागमनहोरातिमनावनिकेविशेषाकशास्त्री तत्सदोषतिवमात्सतिरायांसादनापघाताज्ञानदानावरणयोः ॥रणाकोमपुरुषमोक्षकाकारणासातवमानकीकथनीकरताहोइन सुणिकरिएपनिाधतेपशंसानहीकमोनरापैताकूषोपकहिणवहू स्थापकूजाकाज्ञानहायनरतामनार्थचाकूकोऊपूरसवस्तका स्वरुपकहाहातदिनापनरतायतमितीनही जानतानिनायकहि बझस्त्रिापर्वसास्त्रकाज्ञानहोयअसिखायनेयोग्पनीहोशतोहपैले विनोहजोसीपनायगातोमरीवरावरीकरैगासाअभिधामकं था? Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मात्सर्य दिणावऊरिकोऊज्ञानान्पास करना होइ तिसंभविघ्नकरिंद पुस्तकत्तथापढावनेवाला का तथा स्थानका वियोगकरिदेसाअंतराय है वरिपरकरिप्रकाशनकीयाज्ञानकुंवनिकरनासायासादन है बहु रिपरास्त ज्ञानकुंडूषण लगाव नोसोऽपघातहै ॥ सोएप्रदोष॥१॥ निवः. शामातसयशन राय॥ध॥ श्रसादनाय॥ उय्घातः ६॥ इनिकरि ज्ञानावरण अरदर्शनावरणकर्मको आश्रवहोइ है। प्रोररूपाचार्यवपाध्या यतेप्रतिकूलत्तारअकालमै अध्ययनश्रधानकाअनाव विद्याकेअन्य समं आलस्पतथा अनादरतैस्त्र का अर्थकाश्रवणधर्म तीर्थका लोपव श्रुतीपणांकागर्वतथामिथ्या उपदेश दिनांत था व श्रुतीनिका अपमान करना सत्यपलापउत्सूत्रवादशास्त्रनिकविचनांहिमादिकमै प्रवर्तना तिसमस्तज्ञानावर्णकर्म के श्राश्रवका कारण है। वरिपरके देखने में मात्स Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थमन्त्र तथाअंतरायतथनिवानिकामनामाष्टकागचइतानिशदिवसमें शयनालस्सनास्तिक्यताकाग्रहणसम्पदृष्टिकूदूषणालगावगाकुती थीनकीघसंसापाणीनिकाघातयतिजनाकीनिंदाश्त्यादिकदर्शनाव एकिर्मकाणचकेकारणहासूत्रांडःखशाकागानंदनवधपरिदेवना न्यात्मपराजयस्थान्यसवेद्यस्परपीडारुपपरिणामसोदुःरवहाम्रप निउपकारकश्यकावियोगहोतैनापरिणामकामनानपणांतिसमेलीन अमिपायरुपहीयचिंताखदरूपहोनांसाशकहीवरिअपवादकान मिततअंतःकरणकीवलुपततितीवपश्चात्तापकरनांसातापहावरि । परितापसेउपत्याअनुपातपूर्वकधिलापादिरूपपगरुदनकरना सोना दिनदेशवहरिमायुध्यिवलपाणादिककावियोगकरमावधदावहारि असाधिलापकरैजोप्रवणकमिवलिकरुणांमुपतिअधिसोपरदेवनहै| २५॥ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारखशोकतापक्रंदनवधपरिदेवनानायकरैतथायरकैदुःखा दिकौतथाआपकपाकैदोऊनिकेकरताकैअसाताघदनीयकर्मकाया श्रावहीवहरिश्चनप्रयागपरका अपवादपरकीचुगलीनिर्दयता परकैनातापकरन-अंगोपांगकाछदनदनताडनवासनतर्जननली नइत्यादिकतथापरकीनिदाअपनीघसंसाकरनातथासक्तशपारक रनोमहामारलमहापरिग्रहधारणकरमारथाविश्वासघातवऋस्वनाव तापापकर्मकरितीवकानिरर्थकदंडदेनाविषमिलावनातथापाशीजाल पंजरवनावनांतीचमकेमारनेकूयंत्रनिकाउपायथायोटेश्योगशस्त्र निकादानपापत्तमिलनावश्त्यादिकमसातचिदनीयकर्मकेआश्रवक कारणहासूत्रान्तिवत्यनुकंपादानमरागसंयमांदियोगक्षोतिशोधमिति सदयस्पशाभूतकहिणसामान्यपाणीमरखतीकहिामाहंसारिव Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसूत्र तर्कधारनकरने वाले निकै पीडा अनि प्रायम जैसे दुःखप्रायतितैपरि र चूर्छ महोनां सोनूनबनी निश्रनुकं पहि। परखीवनिका उपकार केअर्थिन दिक देनोसोदान है। धर्मानुराग सहिनसंयम सोसरागसंयम है। आदिशक्ष करिसंयमासंयत्रकामनिर्जरावाननपनीग्रहणकर नो निर्दोषि क्रियाचि शेषकूंयोगऋहिण्हे,वऊरिक्रोधका अभावसोत्तोत्तिदै अग्लोनकेधक २ ऐका त्याग सो शोध है. सोनूतनती निमअनुकंपादान दिनांसंयमकाधा खोक्षमाकर नानिलेनी रहना इनितैसातावेदनी कर्मका आश्रम होई है तथाअरहंतकीपूजा करने में तत्परतावालवृद्दतपस्वीनिकावैयावृत्प करनेमेंउद्यमी रहन| सरलपरणामधारनचिनयादिक रूप रदनी एसाता वेदनीयके आश्रव के कारणहै। देवलिशुन संघधर्मदेवा वर्णवा दो दर्शनमोहस्य||२३|| केवल केकवला आहार कहना क्षुधातृषारोगा ॥३६॥ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिदोषक हनीसोकेचलीका अव एवाद है मांसभक्षणादिकनिक निर्दोषक दनो सोश्रतका अर्ववाद है॥ मुनिनिके संधक्श्रश्रुचित्वादिरूपकहनांसो संघकाअवर्णवाद है॥ च्यारि निकायके देवनिकै मोसन क्षणमद्यपानकहना सोदेवावर्णवाद है। इनिक रिदर्शनमोहनीय कर्मका आश्रवहोइहै॥ सूत्रं ॥ कषायोदयांत्ती परिणामश्चारित्रमोहस्यश्यायायनिकेउदयनित तीव्र परणाम होनासो चारित्र मोहनी के आश्वकेकारण है। तथा जगत के कर पकाने में समर्थजेशी लब्तत्तिनकी निंदा करना - आत्मज्ञानी तपस्वीनिक १ निदा करना धर्मका विध्वेस करनाधर्मके साधनमैःश्रेत रायकरनो शीलवा निनिशीलतेचगाव नांदेशवती महाती निकुंक्तनिते चलायमानक् नोमद्यमांसमधु के त्यागीनि के चित्तमैन मउपजावनो चारित्रमै दूषणल गावना के एरुपलिंगनषधरनां लेश पतधारना आप कैपर के कपाय् Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ভ तत्वार्थसूत्र उपजावनोत्पादिलेपाये वेदली को भाव मांगा देवैद्ध खित्क टड्सनांदीनदुःखितनाथनेकी हास्पकर नो कामकथा कामचेष्टा करिहास्पकरना। वङ्गत्तवृथापलाप करना एपरिणामदास्पवेदनी कर्मी का आश्रय करें।वरिपर कोई क्रीडामैतत्परता अन्यकै क्रीडाकी साम ग्रीमैग्धमकर नोडे चित्तक्रियाका वनिनही करनोपरकै पीडाकाअ नावकरनंदिशादिकमै उत्स कप का अनाव सोरतिवेदनीकर्मकात्र अवकाकारणं ॥ श्रन्यजीव निकै अतिप्रगटकरना परकीरतिकाविनार | करना पापीनिकी संगतिकरनोखोटी क्रिया में उत्साह करनाए अरति जी कर्मका आश्रवकरें। अपनेशीकदोयतामविषादी होय चिंतव 'परकैडः खप्रगटकरना अन्यकुंशौकमै देखिश्रानंदधर नांसो वेदनी कर्मका आश्रय का कारण है।।वड रिपनानयरूपपरिणा॥३७ t Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मकरमापनियउपनावनानिर्दयपणाकरिपरदूत्रासदेनाश्त्यादिक नयवेदनीकाआअवकाकारणहै। वरिसत्पधर्मकुंपाप्तिमएच्यारिख एकिधारकवाहमात्रियश्पश्रूशतिनकाक्रियाआधारकागतानिक रनापाकाअपवादकरनामोजुगुप्सबिदनीकाप्रवककारणहावडर रिप्रतिकाधकपरणामअतिमानीपणाईर्षाकाव्योहारमसत्यवचम्मति मायाचारमैतत्परपणाअतिगणनावकाकरमापरस्त्रीसबनकरतापरस्त्री कारागनातिनांदरकरनगरस्वकिसनावालिंगनादिकरनइनिनाव नितस्त्रीवेदकाआप्रवहोरासम्पनोधकुटीलताकामावविषय नमेंउसकताअनावनिनितास्त्रीकेसवेधमैसम्परागपनीस्वीमर) संतोषईपक्किाअनाक्रस्नानगधपुष्पमालामरणासनादरस्त्पादित पुरुषवेदकेाश्रवकेकारणहीवरियाकषायनिकापवलपए || ॥ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वार्थसूत्र तथागुह्माइंख्यिकावेरनास्त्रीपुरुषमिकेकामके अंगछांडिअभेगमैव्य सनीपणाशीमवेतनिकुंउपसकिरसाचतीनिकंदुःखदेनागुणवतनि कामथनकरमोदीक्षाग्रहणकरनेवालनिकूदुःखदेन परस्त्रीकास गमकैनिमिततीवरागकरनाअाचाररहित निराधारीहोना। सोनपुंसक चदकाप्रवकेकारणह।सूत्रावकारनपरिग्रहत्येनारकस्पायुधारणा इतनारंगकरनापरिग्रहमैं बहुतममत्वकरनासोनरकायुकाआश्र वकाकारमह मिथ्याआचरणमतिभिमानाशननिदनसमानकाध तीवलोनकेपरिणामनियमोशर्वदनिःसघाउपजियनेछोमशि एमसमरकेघानकरनेकेपरिणामपरकैबंधहोनेकाअभिपायपाणीनि काघातकरनेवालानसत्यवचनपरखच्चकेहरमें परिणाममैथुनमैन तिरागमनतनक्षणदृटरसाधुभिकानिंदातीर्थकरभिकीयानाभंग ! ॥३॥ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र।। छालेपाकेपरिणामोपध्यानकरिमरणश्त्यादिकहमरकायुका चकेकारणहमायत्तियीयानस्प।१६ मायाचारकेपरिणामतिर्यचयोनि कि आप्रवककारहवऊरिमिथ्याधर्मकाउपदावहारनपद्य रिसहमपरिणामकपटकूडमैतत्परपनोपानदसमानक्रोधशील। हितपणेवचनकरिष्टाकरितीवमायाचारकरमापरकेपरिणामनिमें भदापनावनांप्रतिमनर्थयारकरनावर्णधरसम्पनिकाविपरीत करसानातिकूलशालमैट्रपणलगावनाधिसंवादमैषीतिरखनोपरके उतमगुणनिकाछिपाचनाहोतागुणधर्मकरमानीलकपोतलेपा केपरिणामआधिानमरणकरनाश्त्यादिनीर्यचनायुकेआश्रवकेक १ राहैि।सूत्राअल्पारनपरिग्रहत्येमानुषम।२७/अल्पनारेलअल्पप मनुष्यप्रायुकामानवकाकारणहावडशिमिथ्यादनिसाहित Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्यार्थ सूत्र बुद्धिविनयवानरचनावसरलपकनिसावेत्राचरमसुखमाननोअपमा सुखानावनांअत्योधयवहारमसरलपरतिसतोयमेरनिपाएनिक घानविरक्तताकुकर्मनितिहीनोसमस्लअभिवचनवनावहीर मधुरतालोकिकयवहारतेपदासीनताईपरिहितपणाअल्पसले शपएणदेवगुरु अतिथिनिकादानमैपूजाअयनेयमधिनागकरनी कापातलेपाकेपरिणाममरणकाल धर्मधानीपणएमनुष्यमायुके मानवकेकारणहासूत्रास्वनाघमाईचाराधिनासावायाचनार चतेहीकोमलपणोइमनुष्यप्रायुकेमाश्रवकाकारणह||सूत्रीनिशी लवतत्वंयसर्घषणाचराइकरिअल्पारेलीमल्पपरिग्रहीपणाशील रहीतपणाचतारहित समस्तथ्याआयुकेनाश्रवककारण सातैनन्यायुतीवतशीलरहितकैहोश्हीपरंतुनोगनूमिकेउपतजी श्या Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वशीनवताहिहितानीमदकषायकेषनावदेवही होय है।सूत्रीसराग मयमा संयमसंयमांकामनितरावानतयासिदैवस्पारणामाणसंयमतथासंय मासंयमनकाममिशिवालतयादेवनायुकआप्रवके कारणहाता होमरागसंयमतोमहावतीमुनिनिकाहसंयमासंयमदेशवतीभाव कनिकै तिनकैतौकल्पवासीदेवनिकीमायुकानियमहाविद्ध रिपराधीनवास्तुद्यातषाकरिखाधानोगनांतथादिग्रहादिकनि मिवह्मचर्यनूमिशायनमलधारनकरनादुर्वचनादिककातापस हनादीर्घकालरोगदरिधारणसाभकामनिषिदम यातहध्यंतरा दिकनिमैतथामनुष्पतिर्यचभिमैंउपजनाहोरहा वझरिमिथ्या टीकासपकरमाहीमावालापहतिघालतपकेधारकनवनवासीय तरत्यातिषीदेवनिमैतथावारमावर्गपर्यत्तस्वनिमै उतितथामर Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थ सूत्र नुष्यतिर्यचतिमैहरापहीतथाधर्मात्मापुरुषनितमित्रताकासंबंधी धर्मकस्थानआयतनकसियासत्यार्थधर्मकाप्रयाणधर्मकीमहिमाह। सयवर्तनपोषधोपचासादिकाकरमोशीलवानपणादयाचानयर पाप्रति अल्पक्रोधादिकाइदखायुकेमाश्रवकेकारणदासूत्र] सम्पत्वंचारशसम्पत्कृतकल्पवासीदवहीकामायुकाआधार गसूत्रायागवक्रताधिसंवाद चाश्रुनयनान्नारामनवचनकायकी कुटिलताअरविसेवादकरलोनितमशुभनामकर्मकामानवहोर दानश्रुनयोगनिकासाविशेषजाननाभिथ्यादनिधानापरकी पूचिपचिवोटरीकहनाचितकानस्थिरपना तापडीवाटकूडारपना, खोसीयस्ताममिलायवञ्चनाखोरीमाखिजरमांगपंगकाटना स्पर्शरसगेधधकिाधिपरीतताकरसायनिकतावनिकुंदुःखद वारण) Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लक्षेत्रपारिखनावनाकपटकी अधिकतापरकीनिंदा अपनीघसंसा! . गंधवचनवालनांपरकाश्यग्रहणकरनांमहामारंनमहापरिग्रह कामदकरमानवलनाभरणवस्त्रधषकामदकरनारुपकामदक रिनामनगरवचनभिद्यवचनाअसत्यपलापाकोधकेवचनधीचता केषचनकहनासोमापिमैपयोगकरना वशीकरणकपयोगकरन र परजीवनिकैकौतूहलउपनावनोमानराणपहनियादाअनुराग करनोतिनमदिरकेचेदनादिशधरपुष्पमाल्पादिकधूपादिक निकाचारनाहास्पकरना। ईटभिकेपकानिकप्यागदावाग्निके प्रयोगकरनादिवकीपतिमाकाविनाशकरनापतिमाकेस्थानम दिशदिकताकामाशकरनामनुष्यत्तिर्यचंनिकेवैधनरहनेकेस्थान •मलमूत्रादिककरिधिगाडनावागचेवनकाविनाएकरनाक्रोध Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तलार्थस्त्र मानमायालामकानीधपनापापकर्मनित ताधिकाकरमाश्त्यादिकान निशुमनामकर्मका मानवहोरानो तहिपरीतंभुनस्पाराम । नश्चमकायकीसरलतानपूर्वकहतीसूपलटपरिणामतशुभनाम कर्मकाभधकेकारणदातथाधमत्मिाकूदेखिहर्षकूधाप्तहानोसा म्पन्नावाषनाससारसमलिनयनावरहनापमादधनिइित्यादि शुमनामकर्मकाश्रवकेकारणह।सूत्रादिनिधि हिचिनियसंपन्न । मागीलहतेधनतीधारामीक्षाज्ञानोपयोगसंगौशासितस्त्यामतपसी। साधुसमाधियारत्यकरमहाचार्यदइनपचनक्किचन कापरिल्लारिया मगधिनावावधनसल्यामनितीर्थकरलस्वार व धानिष्काउश्पिामाक्षमार्गमरुचिमनिशंकितादिष्ट गानिकीझुलतासादरनिधियुधिहोदनिशानधारित्रमै अनि म Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केधारनकरनेवाले निर्मादरमथाधिनयमोविनयसंपन्नतादाशी) लमोचीतरागतारूपअपनांस्खमाकमस्लाहिंसादिकयातनिर्ममनद्या नकायकरिनिषिपतिकरनांसोशीलवतधनतीचारतदिशाज्ञा नकीनावनोपटनांपडावनाउपदेयाकरतांब्यादिकनिनोपशानुन ज्ञानक्र्थमंभिरतपयागपनोसामनीशाज्ञानोपयोगही संसारकेदुःखासिनित्यनयमीततासासंगहोपाधत्मिापुरुषा निकाउपकारकै अर्थिनहारमोषधसास्त्रमनयदानकासापकनाधा निःभक्तिपूर्वकदनासाशक्तितपागाअपनाचार्यफूनहीछिपा यकारिकैमिनकामार्गकैअनुकूलमनामादितपकरमामाक्तित स्तपदीमुनीश्वरादिकनिकाउंकारतिवतमीलतपयममैवि आतंतिनिकावित्रहरिकरिक्षाकरमासासाधुसमाधिहागुण Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तबार्थ सूत्र वनिकैदुःखातिनिर्दोषविधिकरिएनकादुःखदरिकरमोट २ हलकरमासोबैय्याहत्पीकेवलीनिकेगुणनिमै अनुरागसो अत्तमक्तिहरिण प्राचार्यादिकनिकेगुएनिमें अनुरागसाधा यनितिहाशावरतीनिकेगुणनिमें अनुरागसोबहकतन निदातज्ञानगुनिअनुरागसोपवधानमक्तिहै। घट्नाधरपकनिकायथाकालपवर्तनिकरनासायावस्पकापरि, हाणिहै।धाज्ञानकेपकाशकारितथामहानतपकरिनिनपूर्त. करिजिनधर्मकाउद्योतकरनासामापिनावनाहायाधर्मका यतनमीत्मायुरुषनिमैंघीतिकरनासोपवचनवात्सलवहार एघोडमामाघनहितअधित्यविनतिधिशेषकाकारणउपमाहित है पनायजाकात्रैलोक्यमधिजयरुपत्तीर्थकरनामएपकर्मका Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवकाकारणास्त्रायणमनिंदापशंसेसदसएगाँछादनौनापनेचा नीलत्रिस्याश्यापरकेदाघहोतेवाअणहोतेपाटकरनेकीश्वासापर निदादा परआपधिविद्यमानवाप्रविधमानगुणनिकेषगरकर, कीखा यात्मपामाहापरकेसत्पद्गुणनिळूआछादनकरनामात्र पदइगुणपगटकरनासोएपरनिंदानात्मपशंसानीमात्रा प्रवकेकारणहै तथानातिकुलवलनुतनाज्ञाऐश्वर्यरुपतपनिक) मदकरतापरकीअवज्ञाकरनी परकीहास्पकरतापरकेन्नपवादकर निकास्वनावरखनाधर्मात्मापुरुषाकानिदाकरना अपनीउच्चतादि घावनीपरकेजसकूधिगाडिदना नसत्यकीर्तिउपनावनोगुरुनि कातिरस्कारकरमा गुरुनिकादोपपगरकरनागुरुमिकास्थानविण गाइन-अपमानकरसांगुरूनिकैपीडाउपनावनोअवज्ञाकरना। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छ तत्वार्थ सूत्र गुनिलोपनं गुरुनिकुत्र तुली नहीं जोडनी। गुरु निकी स्तुतिनही करना। गुरुनि के गुनही प्रकाशन।। गुरुनिकुं प्रावर्ते नहीं खडा होना तीर्थक्रादिककी आज्ञाका लोपना एसमस्तनी वगोत्र के प्रावके कार है॥ सूत्रं पियोनीचैन्यिनुत्सेको चोरस्य॥१६, अपनी निदाकर, नीपरक प्रशंसा करती परकेनले गुएनिकुंप्रगट करना। ओगुएनिकुंटा कने गुणवंत निविषैविनयकरिनवीनूत्तर हनी-प्रापमैं ज्ञानादिकगुनिकी धिक्यता होतेंद्र ज्ञानादिकनिकनेमकं प्राप्त नही होतां अहंकारनंदी करना| एउच्चगोत्र के श्राश्रवको का रहे। वह रिजान कुल रुपवीर्यविज्ञ नऐश्वर्यतपश्निक रिहीन होयतात्त यापकी उच्चतानही चित्रवन करना. अन्यजीवनिकीश्रवज्ञानही करना - अन्य जीवनितै उच्चपनाच्चाडणीपरक 1 निदाग्लानिपरकी दास्पपर का अपवादका त्यागक्रन।। वद्गरिय निमाक्षर। धनू Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिनरहनाधर्मात्माजनकीपूतासत्कारकरमादेषःही निवडारहना। अंगुली नोडमाननीनूतहोनावदनाकरनांअवारकेभवसरमै अध्यपुरुषनिकै सिगुणहानोदुर्लनतसगुण आपमें होते हतपणानहीकरनाग्रहकार कामनावकरसोसिमस्ममैढक्यानिकीमाईअपनामदारपणा नहीकरसोगधर्मकिकारणनिमैपरमहर्षकरतोसीसमस्तानञ्चगेत्रके आश्रवकेकारणहासूत्राविघ्नकरणमंतरायस्यारादानदेविघ्न करतैदानातण्यकर्मकायाभवहारका कामकैलानदाताहोति ॥ निलानकारणनिविगांडपतिलानांतरायकमकामाश्रवहोरा परकनोगवीगार्डनतेचीतिरायकर्मकाआश्रयहाइहावद्भरिकाऊ ज्ञानान्यासकरताहोश्ताकनिषेधकरसततथाकोऊकासत्कारही सादोऽतिसकेविनासकर तथादामलानमोगउपभोगवीर्यसा Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ i hi मलाथम मविलपनअतरसुगंधपुष्पमाल्पादिकवलयानरणाय्या प्रामानना क्षणकरयोग्पनशानाजनकरनयाम्पमोत्पपीयनेमोम्पयन्नास्वाद नियाम्पलशाश्त्यादिकानि विघ्नकरमतातथाविनवसमझिदेखिया श्वर्यकरमत तथाअपव्यहोते नहीखरचयकी अतिवाछ तिदेवतानिकेवटीयस्तरमहणकरनेतैनिषिउपकरणकेयागने तेपरकीशक्तिधिनाशनःधकिाछेदकरमितेसुदास्याचारकेधारकत पस्वीगुरुकाघातकरमतेनिनपतिमांकीपूजाकेविगाइते तथा क्षित थाहरिसीदीनानाथमिकुंकोऊवस्त्रपात्रस्थादितहोतिनोनि विधकरीतपरकूचदिग्रहमैरोकनेतेवाधनिंगाभगवदतेकर्ण नाशिकापटकाटतेजीवनिकमारमता अतरायनामाकर्मकाआश्रवही उदासकोममद्यपानामपरीसञ्चिविशेषतमदमाहविनमकरसंवा या Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नीमदिरापीयकरिकैंसरतीसकेउदयके वशक्तप्रनेकविकारकूंप्राप्त हो इहौ तथाने संरोगी-अपथ्यनोतनकरिअनेकवातकफादिजनितविकार निकुंप्राप्तिहोदेति श्राश्रवविधिकरिपट की या अष्टप्रकार कर्मीत थाएकसी अवताली सतथा असंख्यात्त लोकप्रमाणकर्मषक्त तित्तै उपज्या विकारप्राप्त होईहै।। इतितत्वार्थाधिगमेमोक्षशास्त्रे षष्टोध्यायः॥६॥सू हिंसाववस्तेवपरिग्रहेन्या विरते इते शाहिसा कहिये प्राणघात अनृत्य कहिए-असत्याशं स्तेयकहिए चोरी:प्रब्रह्म कहिएकुशीला ४. परिपदापासूनिपचपापनितैवेरम एकहिए विरक्तता सोबत है। सूत्र || देश सर्वतो गुमहत शानिहिंसादिकपंचपाप निकाएक देश त्यागसेो अणुव्रत देअर सर्वप्रकारने त्याग सोमहाबचंदे ॥ सूत्रं ॥ तत्तू स्थेयार्थ नावा 1- IP नाः पंचपंच शातिनिश्रहिंसादिकपंचधन निकास्थिरीकरण के अर्थिग Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्वार्थमत्र एकएकवाकीपचपंचनावनाहानत्रावामागुमीयादा निक्षेपणा || " समित्याक्षिाjaaus निपावचनक्षिाशमभोगुन्निाशा.. समितिमा सादाननिक्षेपणासमितिाधा-मालाकितपानभाजनकाहि . एदेखिशाधिनाजनपानकरमापाएअहिंसावतकीपचनाचनहित चक्रोधलाननीरुत्वहास्पपत्याख्यानानुचीचीमायणचपंचापक्रोध न्य कापत्याख्यानकाहिएत्पागाशलानकात्यानाशाजयकात्यागमहासक र त्पागाणानिध्यारिकासात्यागकरना अरनिमसूत्रमनुकूलवचनयो लगाएसत्पवतकीपचनावनाहासूत्राशून्यागारविमोचितावासपरोपर रे धाकरएनिस्पछिसम्माधिसंवादापंचाही। शून्पघातथापनकीगुर फादिकमवसनशिपरकेडियाधिमोचितावासहैतामैवसनाश निस विकानावचैतहापरको विनाकाबनिनहीकरमातथा आपको full Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोसनेकरीतहानहीवेचनावामआधारांगकाानापमाणशुनिझाग्रह करनाध्यस्थानउपकरणाशिष्यहमारेतुमासाविसंवादनहीकर नाएअयौर्यवतकीपचनावमहिमूत्रास्त्रीरागकथाश्रवणतन्मनोहरा गनिरीक्षणपूरीतानुस्मरणदृष्पष्टरसस्वपारीरसंस्कारत्यागा पंधाशास्त्रीनि मिंगगनावकरनवालीकथाकेशवणकात्यागास्त्रीनिकेमनाहागनि कमवलोकनिकात्यापूर्वनोगमोगतिनकेस्मरणकात्यागाशपुष्टष्ट सः रुपनोजनकात्पागाधा अपनेमारीरका श्रृंगारादिरूपसंस्कारकात्यागापास। बह्मचर्यचतकापचभावनादामनामनोज्ञामनासध्यिविषयगमक्ष वईनानिपघातास्पर्शनादिकपंचश्यिनिकेश्ष्टविषयभिमैंगगकात्याग मनिष्टविषयनिमेषकात्पागा,एपंचनाचनापरिपतकाशासूचाहिं सins मादिधिहामुत्रापायावादनिएपहिंसादिकपंचपापनिविअपनेक । - Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ચ तत्वार्थसूत्र ल्यांणकाना इस नोकपरलोकमै निद्यपणदेखना भावनां कर | हँसाकरनेवाला नित्यही उद्देगरु परदेदै अर निरंतरवेरानुबंध होई है। रसलोकमैवधबंधक्केशादिकनैं प्राप्तदो ऽहै। प्ररपरलोक मैं प्रथ नगतिनैंप्राप्तदोइदै निद्य्ोऽहै। तातै हिंसातै बिरक्त होइ त्याग करना काकल्पासही सत्यवादी समस्तके अप्रतीति योग्य हो को ऊपत्ति तिनही करैहै। इसलो कहीं में तिचिद सर्वस्वहरणादि क्प्राप्तहोइहै। जिनसेंगूचकदै तिनत्तेवडावेखंधैहै॥ प्ररपरलोकमैनिंद्य ]तिकूंप्राप्तदोऽहै। तार्ते-असत्यवचनतै विरक्त दोश त्याग कर नाही जीव का ल्पाणंदे तैसे टीपर5व्यहरनेवाला चोर समस्त कैपीडा करने वाला होइदै लोकमेदीनानां धानवधवेधनहस्तपादिनांशिकार्डष्टकादिस्वर्वस्वा हरणादिकर्तेने प्राप्त होइहे - अरपरलोकमै प्रशुनगति होई हो। अरमहा J Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निछहारततिचोरीवितहोत्यागकरनाहीश्रेष्टहनिमहीकुशीलाइ माहकरिनष्टकार्यभकार्यकाविचाररहितनियचेष्टाघाप्तवानपनाहि तळूनाशकोहाप्रपाकीस्त्रीकामालिंगनमैतिकनिवालाहोवेनिया प्रदोरहालिंग दानवधनसविदरणारिकषाप्तहारहापरलोक मिशचभगतिपातहोरहातातेअघातेंविरक्तहोनाजीचकाकल्याणहै। सेहीपस्मिहवान्चौरदाययादारादिकनितिरस्कार घातहाइहै। भरमचयकरमरक्षणमैंशयहोममैवगतदुःख पानहोरहा या भनिधनकरितप्तिनही होयतेसैपरिसहरतिनहीहोर। मला नीकार्यश्नकार्ययोग्पनयोग्पनही जाने अरपरलोकमैनिंद्यानिया महारहामायालाजीह मनिंद्यहाहातानेपरिवहतंधितहोना जीवकाकल्पाणहासंघतानावनामावदासूझदुःखमेधारण Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसूत्र हिंसादीकपेचपापाखहाहानदुःखरूपही नावनांकरनार ___ . मित्रीपमादकासम्पमाध्यस्थानियसलगुणाधिकलिश्यमानाधिन यशपजीवनिकैदुखनही होनेकाअभिलाषतामैत्रीकहिए मुखकीयसन्नतादिककरितःकरणमैनक्तिरुपाणकाहीनाता प्रमोदकहिदीनदुःखितजननिमैउपकारकरनेकापरिणामसाक र रूएपहै एगध्यपूर्वकपक्षपातकोअनावताकुंमास्यकहिणसम स्तपाणशिविमत्रानावनानावनागसम्पज्ञानादिककरिनधि कहोतिनगुणवतनिमेषमादनावनांनावानिशरूपयानि मैकारुपमावनामावना अधीननितीवकषायीच्यसनीपपिटि। निर्भमायस्थानावनासन्न जगतकायस्वनाचौवासंघगवेएम्पार्थे। शयोनगलनादिनिधनदेवासनमस्नरीमदंगकैमररहोस !] Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमादिसंसारमेंअनंतकाजतेनानायानिनिर्मपरिजमणकोनमणकर तातीवसमतंदुःखभोगवैदीकोऊनित्पनदिजीवनांजलकेयुधुदम मानहाविजुलीचतमेघवभागनिकीसंपदाचंचलहप्रत्यादिङगत। संसात कारखनावचितवनकर मवेगमयहोरह प्रयोकायहसा अनित्य इंदुःखकाकारहनिःसारद अनुचिपापनष्टहारही।इत्यादिचित वनदहतधेरापउपतेहायावतीनिफूसंगमरम्पकैनिमित्तान शतकामरकायकाखमावचितवनकरतांनष्टहै।मत्राधमत्यागादया प्राध्यापणपहिसाक्षायसहितआत्माकापरिणामहानासापमान || हाधमत्तयोगघाणीनिकैयाणनिकावियागकरनासोहिंसाहाम् नामसदभिधानमनतारधाअसमीचीनवधमकाकहमांसामरतहै। असत्पहासूत्रा प्रदतादानस्तयोरयाविनादिश्चस्तकाग्रहणकरना Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SC त्वार्थसूत्र सोलयकदिएचोदात्रामैथुनमबमारहमिथुनहसाबहार | मिराह|रागादिकायतरपरिसहहासरचतमप्रचा नवाह्यपरिमहानिममतापरिणामसोपरिसहहासत्रानिःशल्पाल तामायाशल्पा मिथ्याश-पाशनिदानशल्पानामनितीनशल्य रहितहोयसोवतीहासूत्री अगायनगारख्यारणावदीयपकारहोत्रा गाखाग्रहतामैवसनेवालाअगारीबतादाअरमहकेत्यागीअनगारीख ताहारमणुबत्तांगारीमणमणुकहिानयतकाधारीगृहस्थीम गारीहजित्रिसहिंसाकात्यागस्थूला कात्यागपरधनकात्यागपर कीस्त्रीकात्यागपरिसहकापमाणसांनएफवाहोसूत्र दिग्दर्शन दंडधिरतिसामायिकपोषधोपचास भागो पनाग परिमाणतिथि विभागवतसंपन्नछाायावतजीवपूर्वादिकदिशानिमैनावनेका JUSII Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . निजनकायस्तमगावनैकापमाणकरमासादिग्विातिवतहरयावना जीवनीदिशाकाघमाणकीयातिसमैघरायकालकामयादरूपत्यागक रमांसदिशावतहाशमसयाममधिनाजोपापके-भावनेकाकारणतन्त्र निर्थदरपंचपकारहातिनिमैपरजीवनिकाजीतिहारिखधवेधनगछे दासर्वखहरणादिकप्रनिंपरिणाममैचितवनकरनासाअपध्यानन नपदंडही अथवापरके दोषग्रहणकरमापरकीकलहदेखनाश्त्या दिकइनपधारननामअनर्थदंडहोशवहरिखानिकीपीहाहिंसा कामपाकरांसोपानोपदेशाअनर्थदंडहाशपयाजनादिविनारमा दिछदमभूमिमानलसेचनादिनिंद्यककिरनीसाघमादधरितन नर्थदंडहविषकटकनास्त्रअभियाधुकादंडादिकहिंसाकाउपमा रणदिनासोहिंसादानमामननार्थदं होगागादिकवधावनेवालीहिं परकीलक्ष्मीकावालाकरनापरकीस्त्रीकाम्यादिकअवलोकनकरता .. Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ยก तत्वार्थसून सापापनेथानी दुष्टकथाकाश्चव एशिक्षणादिकनिनेदुः श्रुतिनामस नर्थदंडदै !4! इसपेचपकारःअनर्थकात्याग सो अनर्थदंडविरविनाम सगुण है वहरि समस्तव्यनिभैरागद्वेषछांडिसमता देशकालकी मर्यादाकरिकैं समस्तसावद्ययोग त्यागिपरमात्मा का पचितवनकरनीतथाधर्मध्यानमैलीन पंचपरमेष्टी के गुएनिमेंएकाग्र । होइतीन काल में तिष्ठनांमोसामायिक शिक्षायदे || शव रिएक मा मैदो अष्टमी दोयचतुर्दशी नियारिपन में स्नान विलेपननूपण गंधमाल्या दिसमस्तत्या गिए कार्तमै वा साधु निके निवासमेवचित्याल यमैवाघोषधोपवास के ग्रहमै समस्तम कार्यादिकळांडिसदारादि कपंच इंद्रयके विषयनिकं त्यागिपंचपापनिका षोडशपहरपर्यंत त्या गरिधर्मध्मानसहित सोलह पहर व्यतीत करे सो घोषधोपवासनामा धणी Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीय शिक्षावत है।शवदुरिजिनमै विषय कम सधै अरघातप्रनेकप्रकारुप नतेजीवनिका दोश सिमदिरामा सलूएपो कंदमूल आदि जमीकंदके बडोकेतकी निंवपुष्पादिक 5 निकातोयावजीवत्यागही करता। अरयोग्य विषयनिमेशियां की आकांक्षाला लपताकेघटा वने के प्रर्थिमनिमान का कृषकरनेनिमित्त भोगउपभोग निकायमा एक र नासो भोगोपभोग परिमाणनामानीसरा शिक्षा व्रत है। वह्नस्थितिथिनेमुनीश्वरादिकपा अतिनिकुं अपने पर केउपकारके अर्थिभक्तिपूर्वक जोग्पविधिकरिनि देकिप्रहास्त्रीषधवस्तिकापुस्तकादि उपकरएदिनां । सोअतिथिसंवि भागनामंचोथा शिक्षाबनंदे असे तीनगुणवतच्यारिशिक्षाबत निकरि संयुक्त पंच प्रणतग्रहस्थ धारण करे सोती है। सूना मारखेतिक मच्छ पनाजोषित शाखती श्रावक है सोभर एके अवसर मे सल्लेखनाशी Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसूत्र तिकरे सेवन करेस लेखनानामकश करने कहिसो काम निशा श्रालस्य मादकाजी किंवातपित्त कफा ट्रिक के प्रकोप के प्रभावक नैकंस खियारच नावइरिहनिकूं मार्गत नहीं चिगनें परीसह सदन के उपवा सनी र समदार कंनिकतिनविनाइत्यादिनिन सूत्र के अनुकुल शरीर कुंकस्पकरनोसोकाय सल्लेखनाद ॥ प्ररक्रोधमान माया लोन तथा गद्वेषादिकनिकसरि परमवीत रागंत्ताधारनोसोकषाय सलिए हिजो शरीर संलेखनाकषाय सल्लेषनांक रिपरमवीतरागता पहोश्पंचपरमगुरुनिकुं समरणकरता परमात्मभावना त्याग करना सोसखनाद स्वं शंका कांताधिविहित्सन्पदृष्टिपा शंसास्तवः सम्पग्टष्टेरती चार श्याजिनभाषित तत्व भैरो का का मोरांकहि जिनधर्म सेवनकर इस लोकपरलोक में भोग चाहना करना ॥५॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥साकांक्षाही अशुनरूदेखिमनकामलीनपणाकरतांसाविधिकित्साहै। मिथ्यादृष्टीकाशानदारित्रमैमनकरिगुणकाविचारकरनामा अन्यदृष्टि पांसाहमिथ्या दृष्टिनिहोनेमणहतिगुणनिकावचनकरिसकारा निकरतोसोमिथ्याठिसंस्तवहीएपंचमतीचारसम्यकके हासूत्रावत शोलघुपयचंयथाक्रमापकमावतानिक आरतीनगुणवतयारि शिक्षाबतनिसतशीलनिकपातीचारहातिमनुक्रमतेजाननेास्त्र वंधवैधनदांतिनाराणपणानपामनिराधा-२५॥ मनुष्पतिर्यचनिइंसा कलनवडश्यादिकनिकखिाधनांवातुडनापीजीमैदनामाबंधनामार, प्रतीचारहदिंडवतचावकारस्पादिकंभिकरिमनुष्पतिर्यचनिमार, नामावधनामाप्रतीचारहकिएनिाशिकाहस्लादिकांगउमंगकचिद नामाबेदनामाप्रतीचारदान्मार्पमानिअधिकमारलादनांसा Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मित्र विनागरीपण प्रताधारी मनुष्यतिर्यचनिकामांमपानरोकना प्राधा ननियरोतविलंघनेननपानादिदनांसोमनपाननिरोधनामप्रती चारही असएपकमातीचारुमहिंसामावतकेकामना मिथ्रपद रहोऽन्मानपूटनेचक्रियान्याहामहाराजार मजेदारही स्वर्ग मुक्तिकीसाधनकरनेवालीक्रियानि परखीवनिअन्यथापवनिक खामोमिथ्यादिवानाममतीचारहास्त्रीपुरुषनिकरिएकातरच्याच रणकुंपगटप्रकाशकरमांमारहायाख्यानमाममतीचारका अन्यतो आप डूंनहीकापरतुपरकीचेष्टातजानिकरिअॅसेंयांनेकह्मादिकीयाहै। असपरकेगिनेकैनिमित्तलखिदेमामाकूटलेषक्रियाहाकोऊपुरुष सुवर्णादिकवस्तुप्रायकोसोषिगिणतालिगयापछिल्पसंख्याक रिमागनिंलग्पातदिकहतुमाराहसालापासवचनकाकहनासो ! Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यासापहारकैपयोजनपकरण अंगविकारचकुटीक्षेपादिकतिपरकम शिपायकुंजाणिकरिकैजोधनिावतेषगटकरमामासाकारमानामा अतीचारह अपचतीचारसत्पन्नावतकालदास्नालेमपयोगत दाहतादानविरुधात्याशिकमहीनाधिकमानात्मानपतिरूपकव्यया हार काऊपरधनचोरताहोश्ताकुंघरणांकरमातथाचोरतकीम नुमादनासालेमपयोगनामाप्रतीचारहीधारकूआपचरादूनहीक रजलाइनहीनाम्योपरतचोरकोल्पायाधनग्रहणकरामातदाहतादा ननाममतीचाहिउचितन्यायतेप्रम्पपकारकहैदेनालेमासाही अति ऋमहै। परराज्यविसलोन्नतिक्रमसाविरुधराज्यातिक्रमनामनातीया रहाबद्धरिन्यूनवाटतोलाकरितोलदेमामधिककरिनासाहीनाधिक मानोन्मानमामानतीचारदाशतिमसुवर्णादिकशुधमैमिलायगिने :233 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मित्र रूपव्यवहारकरनामोपतिरुपकव्यवहारनामतीचारहै। सपकमती २ ... स्मघौर्यग्नावतकेहोमनायरिधिवाहकरगैलरिधापतिमाहीतोपरि गृही सामानाकी सामनीकानिचिश अपनसंतानविनार अन्यकाविवाहकरमासापर विवाहकरानामप्रतीचारदाइत्वरिकाजाव्या निधारिणीसादायप्रकारगिएकपरिगृहीताकदियएकनर्तकामरदूतीन परिगृहीताकदिरागणिकाश्त्यादिकतिनिकैजावनांनाचनलिनादनांमार रिकापरिग्रहीतागमनानामतीचारह बझरिकामश्नंगछाडिसम्म नंग मिंत्रीडासामनेगक्रीडानामाप्रतीचारहै। वरिकामकी तीयताकाअनि यसाकामातीनिनिवेशनामाप्रतीचाहि पंचप्रतीचारस्वदारासंतोषः तकेहविवाक्षित्रवास्तहिरएपसुवाधिनधान्यदासीदासकुप्पपमाण क्रमााएगी क्षेत्रवास्तहिरएपसुवर्णधनधान्यदासीदासकुमानिका 94203 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उमाणकीयायानोहमारणताहीयरिग्रहदा अत्यनदीपञ्चमतिलाभकावस निघमाणकाप्राधिक्यकरिखनासोपरिग्रहत्यागपंचमतीचारहास्त्र, गधिस्तिव्यतिक्रमक्षेत्रहित्यंतराधानाविणानीदिशाकाप माणकीयाताकाउलंघनकरनासो अतिक्रमहातहांपर्वतादिकऊपरिच टिरचलनोसामछतिक्रमनामप्रतीचारहै। कूपादिकमैंउतरलांसाअधो विक्रमप्रतीचारह गुफाधिलादिकसुरंगादिकमेषवाकरमांसातिया प्रतिक्रमप्रतीचारह लोनकवसतैक्षेत्रकावधावनामाक्षेत्रहिनाम अतीचारदापमादतसंख्याकामूलनांसारमृत्यंतराधामनामन्नतीचाहि एपंचप्रतीचारदिगविरतिवतकाहारी आनयनधष्पच्योगाबा पानुपातालक्षणांशआपकरिमदिरूपकीयाक्षित्रमिलिष्टतापुर घषयोजनकाबातेंमदिवाहिरकाकुंचुलावनांसोआनयननाममतीचा Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार्थपून रहोमयदिधारपवानिवलिनिकुंकहौतुमनेसकरामोधष्यपयोगनाम या प्रतीचारहावाहाच्यापारकरनेवालपुरुषनिइंशसुनदिनातथाघंघा पत्यादिककरमांसाशनुपातनामन्नत्तीचारहावाह्मव्यापार पवन निघलिनिअपनारूपदिखानरूपसमस्पाकरनासारूपानुपातमतीचे हिहिहाधिरतबतकंपचन्नतीचारहै नार्मदीकोल्लरच्यमोखा समीक्ष्याधिकरपनागपरिमोगांमर्थक्यानिवाराणनावकी आधि पततिहास्यसहितनाचवचनबोलनासोकंदर्यनामतीचारभार हास्परुपनीचश्चनसहितवारीरकीकुचेष्टाकरमांसोकौकुच्यनामना नर्थदंडहाधीवपनातेवदतपलापवकवादकरमासोमाखर्यनाममतीचा हिाविचाररहितपयाअत अधिकरणाकरिदाडमाकूदनांचालनांसान समीक्ष्पाधिकरणअतीचारहै। नितनामर्थकरिअपमानोगउपभोगमधे । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थतति अधिक का संग्रह करना सोउपभोगपरिनोगानर्थच्च नाम अत्ती चार देव पंचप्रती चार अनर्थदंडवी रत्तिनामध्नकेदै॥ सूत्रं/योगदुः प्रणिधा नानादरस्मत्यनुपस्थानानि ॥ नूनू)}योगजेमनवचनकाय के तीनतिन का पोटीप्रवृतिरूप करना तीन अती चारतोए:-प्रखत्सादर दिनश्रनादरतैक नांस अनादरञती चारहै॥] [अरपाठकातथा क्रियाकानूलिजानासो मूल्य अनुपस्थान नाम अतीचा रहे। एपंचप्रतीचा र सामायिकके है॥ सूत्रं अपत्यवे चिताप्रमार्चितोत्सर्गादानसंस्तरोपक्रमणानादरस्मृत्यनुपस्थानानिधा कहानी वह किनही सेविना देख्या तथा कोमलउपकर एतैविना काडना भूमिविषमलादिकशरीरादिकका क्षेपांतथा उपकरणादिककायद नातथाविचावणां सोवनातीन अती चारतो एनएसक्तधादिपीडित रकरनां ॥ प्राक्पकादिक्रियामै उत्साहनदी करना। में Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसूत्र अनादस्पतीचारह क्रिया यावश्पकादिलितानासोरमत्यनुपस्थानम्र पछताचारहापंचानतीचासोषधोपचासकहासनासचिनसंसमिश्रा विषवदुःपकहामाया सचिततोजीचसहितवस्तीहासधिनभिडिर साहोश्सासचितसंबंधहासधिनमिल्पाहोइसोसभिग्रह विविध मादादिक तथा अतिभूपततथातीवरागतेनिकसेवनपतिमा नमतीचारतोहि अरराष्पकहिएपुष्टरमकानोजनकरन मललेपका पक्यानही निरोपदारादिककामोजनकरसाएपाक्प्रतीचारोगायने गपरिमाणवतकेदशासून सचितनिक्षेपापिधानपरब्यदिशमात्सर्यकाला समावहीसचितजापनपत्रादिकतिनमंधरावा अहारदेनांसो.. निक्षेपमतीचारहासचितकरिस्मपिधानकहिएढक्याइवाभाजनसाधु नांसासचिनपिधान प्रतिधारा अन्पदातारकादियकदिएप्रहार ifysia Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सानपनेनामकरिदेनांसोपायपदेशनामाप्रतीचारहाप्रपदातारकरा नहीसहिसकनांनथाआदररहिदिनोसामात्सर्यमामःमतीचारहाका निकाविलंबकरिमकानमैदनासोकानतिक्रमनामतीचारहै। एपचन तीचारअतिथिसंचिनागत केहस्त्राजीवनमरणाशंसामित्रानुरागसुख नबंधनिदानानिमशासन्यासकरिकै जीवनकी प्रासंसाकहियवाडासा जीवितासंसाप्रतीचारहै। शीघ्मरणाचाहनांसामरणासंसापूर्वकाल मिनिममित्रनिसाहितनीडामैपवर्तनकीयातिनिकासमराकरमायादक रमा सामित्रानुरागमतीचारहपूर्वानुभवहीयनदियजनितसुखर, लिनकावारवारचितवनकरनांसासुखानुवघयतीचारहै। भागनिभाग निकीबालारुपचितवनकरनामोनिदानप्रतीचारह असेंएपचमातीचा रसखखनासूत्रोअनुग्रहार्थस्चस्वातिसगोहानामाप्रपनामनु Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसूत्र पहनापुष्पसंचयकरना अपरोपानतिसकेसम्पाज्ञानादिककार ___ यहिहोनासै प्रनिपरकेउपकारकैयर्थियकात्यागसादानतानना स्वादिधिमदारमानविद्रोमांदिशीयः पापानमाएकूतिष्ठति प्रतिष्टसादरपूर्वकवचनकहनांसापतिपदहारा उच्चस्थानदिना चरणनिकुंघाकरमाणीकजलधोवनोपाशुकश्यनि-पूजनाः नमस्कारकरतापामनकीछिताहीवधनकी छिना साकायहीअक्ष्या मोजनकीता एनप्रकारलक्तिकरिदेनांसाविधिवझरिदान देयश्सलाहपरलोकमैंधनसंपदायमाकीर्तिकीनहीचाखाकरनांसोए हिकफलानपक्षनामदातारकापथमगुणहाराहामा कपरहि तमा अदिखसकानावकामभावाभाविधादरहितपणाहपितिपण हीनिरहंकारीपण सगुणदातारकैदीबद्धरिलिसवस्तार Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमसंयमदुःखमयपमादरोणादिकनही उपना अलपकीस्वाध्यायकाध्या नहीवीतरागताकारधिकरलैंवालाहोरसापात्रदानमोगश्वहिावद्भस्त्रि प्रयकेधारकमुभिजकृष्टयानहोचतसहितश्रावकमध्यमपात्रहवतारहि नसम्पकसहित मावतसम्पादृष्टी जघन्यपात्रहा सेंदानकैार्थतीन कारपात्रकहा सदानयोगविधियदारपानकदेशनिमेजोनामाप कारकेकिछोपनिनकविशेषतपुष्पमैविशेषदाथिवीतलपवनादिवि शतिफनविज्ञपकी नाईफलेहातितत्वार्थाधिगमेमोक्षशास्त्रेसनमा ध्यायःशामिथादर्शनाविरनियमादकपाययोगांवधहतवाभियाद निअधिरता शमादायकवायाधायोगापाएपाचपंधककारणहै। तहानत्वानिकाप्रमशानसाकर्मबंधकाकामिथ्यात्वपंचधकारहोत्र पचाझियमाछगमनकाविषयनिळूनहीरोकना अरखकायकेडीवान Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थस्त्र कादयाकाअमावा एवारहवितकर्मबंधकेकारणहाअषमादधिकथ २ __पाई दिकतेस्वरूपकानूननांसोबंधकाकारणाहातथाक्रोधमानमायालोनए यारिसकाखेकपायतबंधकाकारहामनवचनकायकेयोगबंधकका - यो राहतासूत्रासकामालानी-कर्मगाणा गुफामादसंबंधः॥२॥ 'सायसहितपर्णायोजीचकर्मकहोंनेयोग्यमलनिग्रहणकरैसो बंधहसूनाघकृतिस्थित्यनुनागपदेशास्तब्धियः॥ ॥जीवनाकर्म कैः . धधातहोरहसोपतिमाखनाचतामूलीयेचंधेहजिसैनीवकीपछ तिकडचीमगुटकीपकृतिमीवीतेसैपदानिकानहीजाननासोझानावर एकीपकतिकहियस्वभावहादनिावापिदार्थकासामान्यअवलोकन नहींकरदिहाविदतीकर्मकासुखदुखरूपवेदनाकाबनेकाखमापद दनिमोहकाखमाघमात्मतत्यपरतत्वकाशाननदीहानदेहाचा पही! Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ORAMAYANAMAVAL स्त्रिमोहकाखमावसयमापनहीको देने काहानायुकर्मकानयभराष] निकासनावद नामकर्मकारखानावनारकादिकनिकासरीरादिरूपना। मकरनेकाहा गानकर्मकाउच्चनीचस्थानादिक उच्चनीचकहानिकी हामंतण्यस्वभावदानादिकविघ्नकरकाहावारिताकर्मशिनने कालप्रपनाकविनायकूनहीलोडैतास्थितिकादियामिछलीगाय मित्यादिककादुग्धनितनेअपनामधुरखनाचवूनही साहसि तिहै। तैसेंझानाधरणादिकमर्थकानहीजाननरुपपनावतनहाटसे स्थितिहायकमनिर्भरसदेनेकीशक्तिसाभानुभवहनिसेंबलीगाय सिइत्यादिककाडुग्धमैतीवमदनासचिकणताभिटताहोयही तिसकर्मी निमें नीतीवमंदादादिसामर्थ्यमाअनुनागबंधहाया अनुभवकाहियर . हा चरिकर्मभावरूपपरिणयेनेपुलस्कंधतिनकेपरमाएं निकाला Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्वार्थमन्त्र गणतीसाघदवावधास्त्री याद्याज्ञामदनिावावदनीयमोहनी 49 युनाममोनांतरामाआतापकृतिधसोज्ञानाघराशदे निाचणीशावेदनीयात्रामाहनीयाधानायुपानामाईगाना अंत एयास असेंअष्टोदरुपदाचूना पचानवष्टाविंशतिचतुम्चित्वार रिंशाधिपचनेदायथाक्रमोथाज्ञानाचरणकापंचनेदहादमिाव रएकानवमेदविदनीयकादायनेदह माहनीयकाअगसमदद। प्रायुकाध्यारिलदहा नामकर्मकाधियाजीसदहोगात्रकर्मकादा यनेदहा तण्यकर्मकाफ्धनेदह सोभेमनुक्रमनामनामना, मतिमन्नावधिमनःयर्ययकवनानादीमतिज्ञानमाछादनकौसा मनिज्ञानावरणहै। इतनानकुंमाछादनकौसातवानावरहि। अवधिज्ञानाचादनकौसावधिज्ञानावरहिमनःपर्ययज्ञानर 49]] Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगदनकरेसामनःपर्ययज्ञानावाहिकेवलज्ञानकुंबालादार करेसाकेवलज्ञानावहिबायतुंचतुरधिकेवला नांनिशानिशी अचला निशापयसापचनात्यानमध्यचा अभिनश्यिहोरेदनिरोकि सावतुदनिावरदिन अन्यच्याएिक्ष्यिधारदनि•ऐकसोअचह दानाचहि अवधिदर्शनरोकैसो अवधिदर्शितावहिरिवल निएकैसाकेवलदनिाधादिमददगलानिरिकरनेकी सोचना सोनियावारिसिनिंघकाळपरांऊपरिआवनामोनिशानिशह। जोशोकप्रममदानानि जपतीनिक्षत्रात्मा चलायमानकरैत विवेकनेत्रनिर्मशगरविकाररूपकरेसोपघलाहवासा हाफरिसक्तैमाषचनाघचलाहिनिसोचतेट्रपराक्रमसामथ्र्यप गरहोश्स्ताही निकबूकार्यकरीफिरिसचिमरीकनहोरहाना Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मत्वार्थसूत्र मिकुखकीयासोस्त्यानगृझिदर्शनावरणहसनवपकारदर्शनावरण 4 नावा पतिनासाका सदमछानाकाउदयतेदेवादिकगतिम परसंबंधीमुखपातहासासाचदनीयहनाके उदयतेनरकादिकनि मिनिकपकार खानुनसानसातावदलीयंहासनादानिया - मोहनीयांकायकायवेदनीयाच्यालिछिनायोडानेदाःसम्य रस, मिथ्यात्वईतोमयान्यरुपायकायौहास्पतिशोकमयनुगुप्सा . पंसकोदाअनंतानुबंधांपत्याख्यानपत्यारखानसंध्यनमविकल्पा श्चैकरा:काधमानमाया लानाशरदर्शनमाहनीयतीनपकाहाचा रिखमाहनीयहीयपकारहनिसचारीमोहनीय अवार्यवदनीनय पकारहाकषायवेदनाघोहराधकारदातत्वार्थानकाप्रधानमामि .. वह तत्वाधनिकापशनमशानदोऊभिल्याइवाहायमासम्यक् 4533 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्यावही शसम्पतकुंचिगार्डनसमर्थनहीपरतुअज्ञानकुंमलीन करेसाम। प्रकृतिमिथ्या पत्होरा अमितीनपचतिनिमाहानीकाहानाकग्दयतेहास्पपगटहो। यमाहासहै। नाकेउदयते वस्तुमैहस्तमैनाशक्तहोनासोरतिहाशजकिर दयतेकबूसुहानहीमाअातिहासाताकेउदयष्टकाबियोगादिकर परिणाममेषेदितावासाककरलामाशोक है।धाताकेउदयतेंदुःखकारी पार्थतंउट्वगरुपपहनासोमय है। पालाकउदयतेप्रपनांदोषतौलिया। वनांभरपरकादोपदेखिपरिणाममनीसकरनांसानुगुप्सहिदीसकिउद यतिस्त्रासंबंधानाचपाधनांसोस्त्रीवेदद।मानावउदय पुरुषसंबंधाना वहानांसापुरुषवदहमा साकेउदयनैनपुंसकमबंधीनावपचिनोमान सकदहण असंकषायवदनीमचषकारावारिचारित्रमोहन) घोडापकारहै अभिभनेतसंसारकाकारणमिथ्यात्वनावहीयसामने Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थमूत्र नानुबंधानाध्मानमायालामअव्यारिहानाकेउदयनैसर्वथाएकानरूप पण सत्यतत्वमैरागीनिहोइननकातस्यसत्यनत्व पहारीअसायद सत्पत्तथापिपक्षक अपना असत्यार्थताचवूसत्यार्थमानमै अनिमानक रिपपर्यायादिकमैममताकराववालामपनागपदस्थ,सिताचर एविपरीतवानीसत्यपणाकाउच्चपणांकामदकरावनेचालाअनंतानुबंध *क जाकेदयतएकात्यागरुपयायके वाकिंधितमात्र मीनदीझरिस कैमोअपत्याख्यानाधरणक्रोधमानमायालानध्यारिपकारकवायद वहरिहाकेउदयसकलसंयमनहीग्रहणकरिसकै सापत्याख्याना चरणोधमानमायामोनहाजिकिसयतमयाजीमहारह अरणछना मः धौनीनहीलामहोयसकैमासंबलोधमानमायालाही साल हपकारकाधायदा असअगाईसघकारमोहनीकर्मकुंकमाणसूत्रानारद थर्ण Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . - लिम्पनिमानुपदैवानिरिधानाधिउपनि+कारणसोनरकासुहै। तैर्यगमध उपनिकाकारणमातिर्यगायुहीमनुष्यनयमै उपननेकाको रामनुप्पनायु देवावमेंटपानेकाकारणदेवायुदासनगतिनाति शारीरंगोपांगनिमणिबंधनसंधातसंस्थानहसनस्यारिसगध्वणि ना मणिरुन पहातपरघातपाद्योतोछासविहायोगातयःप्रत्येकवारी समुनगसुखरसनलक्ष्मपतिस्थिदिययशःकीर्तिसतराणिती किरखंचाशिजकिउदयनैनात्मानवांतरकुंजायमागतिह।गनियर रिपकारहीमरकगतिशतिर्यगातिमनुष्पगतिश्देवगनिबइरिति सविभिचारीसमाननावकरिणकतारुपमयानोमर्थकास्वरूपमा नातिनातिपचपकारहाणहंडियसानिारयमियनानिध्यि जाति चतुरिध्यिानानिधापंचेश्यिनाशापाताकेउदयतेत्रात्माकै Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसून शरीरापसाशरीरमामाकर्मपद्यपकारहा ऊदारिकारीक्रिय कारीएशहारकशरीरानातैजसवारीराधाकामीणनारीरापाना केदयतेनंगपांगमयतेसा ऑगोपांगहोमोतीनपकारामदारिक अंगिापांगारावक्रियिकमंगापोगाशा प्रहारकअंगोपागाजाकउद यभत्रकरणादियथास्थानहायतथाघमाणहोयसानिमीण नामहैशेश्यिा सकिउदयतिमदारिकादिकशरीतिकपुजलनिकापरस्पस्नुपविश रुपबंधाणहोयसोबंधन है। वाकपचनदहोमदारिकबंधनाशकि यिकबंधनाअहारकोधनाशतिजसवेधनाधाकामणिबंधन जाकेउदयंत नोदारिकादिशारीरनिकालपरस्पस्नुपधशत सारसाफहाताइछिपहितमिलिजायसासंघातनामकर्मदसापच कारहाऊदारिका विक्रियिकसंघाना महारकसंधाताससाई Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घाताधाकार्माणसघातापाजाकेउदयौदारिकादिवारीरनिकमाकृति उपनेसासंस्थाननामछत्रकारहानास्परिनधिसमानरावरिविभागमा मशरीरकेगमपंगभिमैं नाकारहोसुंदरमप्पाइवाअंगहोश्शासमचतुर। स्त्रसंस्थानहोशनिसहरीरकेयजलस्परिलतोबडेहोश्नाचगेटवडवृक्ष काव्योहोशसान्यग्रोधपरिमंडन संस्थान हाशानिमारकेपुजलवेधीकी ज्यानविधिस्ताररूपहोकपरिसकोचरूपहोइसोसातिकसंस्थानहा नाकापीचवीचवडाहोजपरिलीचहलकाहोसाकुडकसंस्थानह नामहस्तपादादिक गछोटेहोशाउदरमतकवडाहोरसाचामनसर्थ नहापानिससरीरमेंसमस्तअंगमपंगनीयम्वद्यारिवादिघिडरुपही यसाइंडकसंस्थानहाहीनिसकेउदयहाडनिकाचंधानमैधिशेषही सामहामनामहेसाछधकारह निसवारीरमसंहननकहियेहाउभार Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थमूत्र रूपन दिएनमनिके वेष्टन अनाराच कहिएबमय होइ सोव ६६ षमनाए बसंहनन है || -रता में हाङ अरसंधु निकेकी नानोमय होइ अरनसनिकेबंधनवज्रमयन ही दो मोव नाराचसंहनन हो शाय विशेषणरहित नाराचक दिएकी नातिन करिकी नितदार निकी होइसो नारा व संहनन है। वह रिजामै हाड निकी संधि केकीले आधे होय सोएकतरफ हूजीतर फनही होइ सोनाराचसंद है। वह जिमिदार निकी संधिछोटे कीनेनिक रिस दिन होइसो कीलक संहनन है। वरि जामै दाइ निकी संधिनमें अंतर होई॥] चौगिरदवडी बोटी लिपटी होयमासा दिकनितैः प्राच्छादित होइसोप्रसंप्राप्पाटिक सेहन है। मोसन वनिक हो रहै। देवनार की एक प्रिय निकै हाडंही नहीत सिंहनन कैसे होइ || बहुरि बिसके उदय शरीरकै साइडिने सो स्पर्शनाम ॥६॥ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विपकारकिर्कशाशाकामलाणामाखों शाहलकासचिवणापाna हीशीताजागाजाकेउदयतेवारीररसनिपतसारसनामकर्मपंधरा कारहताक्षणकटुकासमधुरामा नाम्लाधाकषायपातिाकेउदय शरीरमैंगधनियमोगधनामकर्मदीयपकारहासुगधारादुधिाशाखा केउदयसिंगरीरकावर्णपणरहोसावर्णनामकर्महपंचपकामाला नालाशचतवारताणहरितामासाउदर्यतमरणवायांचनवीनश गिरकैयाम्पसलबाणिग्रहणनहीकरैतपूर्वलाशरीरकाआकारखएपा रहामानानुपूर्वनामकर्मचारिखकारहानाकातिषायाम्पानुपूतिय गतियायाम्पानुपूर्वाशममुष्पगतिमायाम्पानुपूीशदेवगतिपायोग्पानुपू, याधानिमानुपूर्वानिकाउदयतीनसमयमष्टरहहानिसमनुष्यमरण करिदेवगतिकैसामुखलायतहितैदेवसंबंधाना रजाग्ययुजलनहीग्रहा Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसूत्र करैततेकरिहितआत्माकाआकारपूर्वलामनुप्पशरीरसहवारहतंदिर ६२ . यायसन्मुखहारदातादेवानुपूर्वकिहियेहै बङ्गरिजाकादयते, लोहकेपिडकीयोनास्वाहाकरितलेगिरपडेनाहानथाप्राककेफूमर्द कापोहलकासोइडिजायनाहीसोअगुलधुनामकर्मपकतिहायानगुरु लभूरारीरसंबंधानामकर्मकोनदहमगुरुलधूनामास्थानाधिकश्यका वनावनहीं होजाकेनदयतनपनगरीकेगकरिअपनाशीर सागपघातपकनिहाजिसमहामंगलंबसतनवडादर निशनक पहाघातहोरासकिउदयतेमपनअंगकरिपरकाधातहोश्सापाघात नामकर्महजिसेतीगाअंगतिक्षणनखसकिडाटपरकेघातकहोना उदयतेलातापमयशपावसामानापनामहा मासूर्यकेधिमानताट प्रयजीवकहोरदाताकेउदयतेनद्योतरुपशरीरपाधेसोउद्योतनामहै ईशा Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोऽविमानकेपृष्ट्वीकायकजीवनिकेतथा आदितीवनि के है। जाकेउद यादे जा के उदय प्रकाशविषैगमन विशेष होइ सोविहायोगति है। मोदोयघकार है। सोननिकै गमनदोइसोप्रास्तविहायोगत है। चुरीरी. निगमन होय सोप्रशस्त विहायोगति है नाके उदय एकशरीर एकआ माकरिनोगये सागरी रपावैसोपत्येक शरीर नाम है। जा के उदयतैव इतनी बने केनोर्नियोग्पएकशरीर पावैसा साधारणशरीर नामहै; जाकेउदयतेंहिंदि यादिक ने मैसनम होइसोनस नाम है। जाकेउदयतै एकेंद्रिय मेंउत्पत्तिहोय सोस्थावर नाम है। जाके उदयक्तैः प्रन्यकुंष्ण रालागेपीतिनपजावै सोसुनग नाम है। जाकेउदयतैरुपा दिकसुंदरगु हो यत्तौ अन्य के प्रप्रीत्तिउपजा मोदुर्भगनाम है| नाका उदयतै मनोज्ञ सुर होइसोसुरवर नाम है । जाकन दयतें अमनोजवुराश्वर होय सोडुःस्वरनामहै। जाकेउदय ते मस्तकमुखर Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसूत्र हस्तपादादिशरीर के अवयव रमणीकसुंदर होय सोनाम है। ताकि उ ई मस्तकादिशरीर के अवयवश्यकंदर सैनोज्ञहोय सो अशुभ नामदेशना केन्दयते पृथ्वी पहाड अनि जनवज्रपटलादिकमै प्रवेश करतैनही रुकं चाला सूक्ष्मशरीर उपजै सो सूक्ष्मशरीरनाम है। जा के उदय-अन्यकूंचाधा ये कैसा शरीर उपने सो वादसारी नामदे जाके उदयप्रहार आदि पर्याप्तिपूर्ण करे सो पर्याप्तिनामहै नाके ग्ट्यतै एकहपर्याप्तिपूर्णनदी करै। अपर्याप्त अवस्थाही भरण करे सो अपर्याप्त नाम है। जा के उदय सादिक धातुउपधातु अपनेअपनस्थानविषेस्थिस्नावरूप-संगोपा गट होयसेो] स्थिरनामहै । जाकेउदयतरसादिधातुउपधातु यसअस्थिर है। जाके उदद्यतेघना सहित शरीर हो यसो प्रदिय है। जा केउदयतेघनारहितनिः पनाशरीर होय सोअनदिय है। अक्उिदय ॥ ६ ॥ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवित्रगुणलोकपगरहोसायशकीर्तिनामदाताकेउदयतनवगुणप महायसाअयशस्वीर्तिनामदाताकेउदय अचिंत्यविभूतिविशेष सहितसरहंतपणाकाकारणमातीर्थकरमामहै। सतिण्वेषकारता मकर्मकीपकृतिकदी सूत्राउनी चारजकिरदतलोकपूत्पकूलम जन्महाश्साउंगनिहालकिउदयतेलोकअत्यलमैतमहोइसोनी चगानहरा असेंदायघकारणानकर्मकह्मासनादानलाननीगायनोग बीयरिजाहउदयतेदनेकीइलाकरैतोहूदीयानहीलायमादानात यहोरानाकेजयलनिकीरछा होतीहलासनहीहोरसालानांतराय हाजकिउदयनोगनेकीरखाकरैताइनोगिमहीससानागांतर यह किउदयतउपभोगकरनेकारखाकरतानहीनोगसकेसो उपभोगोतयहाधमाकेउदयतकोऊकार्यकरने•उत्साहकरैतो Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसूत्र उत्साहकासामयिनिहीहीयमावीर्याप्तरायहतिण्यकर्मकीचष तहासकीनकीमूलपतिआग्नतएकसाअडतालीसकहीर प्रथएकसमयमैनाकर्मवधेहताहीस्थितिकेकालकूक सूत्रन र दितस्तिमितरायचनिशनसागरोपमाकोटीकोटपस्थिति धाज्ञानावरणदरनिावरणविदनीयादिकाएतीनमस्तण्यभिध्या। रेकनिकीकृष्रतिस्थितीसकोडाकोडीसागरसमाहिासावत्कृष्टस्थि. नवेधमिथ्यादृष्टीसंदीपवेध्यिपशिजीवकहोरहाएकड़ियपर्याप्तके एकमगरकसातमागकनितीमतीनभागहीध्यिपर्याप्तकैपञ्चीससागर केसातजागती-नागात्रीश्यपयतिकैपचाससागरकेसागैरकेसात गि तीनमागचतुरिध्यिपप्तिकैसासागरकेसातनागमेतीनभाग अज्ञापंछियपयतिकैएकहमारसागरकेसातभागमैतीनजागअप ई . Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतिनिमेसज्ञीपचेधियकै अंतकोटाकोटीसागर माहिएकैश्यिादि ककैपूर्वोक्तपल्पकैख्यात वैमागहीननाननमसन्ततिमहिनीयस्तरमा माहनीयकर्मकीकृष्टस्थितिमतरिकोडाकोडासागरकाभिध्यारसिं तीपयतिकैहै। केंद्रीयकएकसागरकाहीस्यिकैपचीससागरकर त्रिीयिकैपचाससागरका चतुरिश्यिकैसोसागरकी असेनापति यकैहजारसागरकीपयतिअवस्थामसष्टस्थितहासाविंशतिन मगानयारही नाममात्रकर्मकीकृष्टस्थितिचीसकोडाकोडी त्र्यस्त्रिंशत्सागरोप सागरकाहानीगावयसिंतरिमोसेयमारको आयुकर्मकारक न्यायुज माएपायुषः स्थितितेतीससागरकाह। अधकर्मकानधन्यस्थितिबंधहहहोस् अपरावाददामुदत्तचिदलीयस्पासावेदनीकर्मनधपस्थिति। हादसामुहिकहिासूत्रानामगायौरष्टौलानामाभिगोत्रकर्मी . Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसूत्र कामधन्पस्थितिअष्टमुहकिहिनाशिधागोमतर्मुहताशेष ज्ञानावरणदीमावर्णमाहनीयमायुअंतण्यरनिपंचकर्मनिकीन म्पस्थितिअंतर्मुर्तपमाणहसिएकसमयमैजोकर्मबंधेहै जघन्यत्कृष्टस्थितिकही सानुभागका सूत्रण विपाकौनुभवः ॥जोकर्मपिकृतिग्दयमैनावताकारसमनधर्मआसामननव ॥सव संयथानामारशनिसापकृतिकानामताकातैसाहीरसदेनेख्य अनुभवहीनि संज्ञानाचरणकर्मीसदेनाझानकामनावदनिावर्णका मनुनबदनिकानंहीहीनदनातिसमस्तकनिकाहसतांततनि जगः॥२॥कमरसदीएपी निरिहानघाप्तहोइहै।सूत्रानामपत्ययाः . नोयोगविशेषातसूमकक्षेत्राचगाहस्थिता-सवत्मिपर्दिशनशाने पदिश्यनामनासमस्तकमकीयकृतिहानिकारएस. • ॥धा। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमैभनवचनयोग विशेषते सूक्ष्म एक क्षेत्रमें प्रवगाहक रितिष्टते समस्त आत्मप्रदेशनिमेअनंतानं तप देश है॥ नावार्थ आत्माकाश संख्यातप्रदेश क देशतिमएकएक प्रदेशविषैः अनंतानंत फलके स्कंध एक एक समयमैवं धरू पहोत्तिष्टेोघदेशवंध्॥ तेपुल स्कंध कैसे कहै।। समस्तज्ञानावरणदि मूलउत्तख्तरोत्तरप्रतिरूप होने कूं कारणहै। वटु रिके से कहै समस्त र त्रिकालवर्त्तनवनिभमनवचन कायरूपयोग के निमित्त आवें है। प्रर सूक्ष्म है इंद्रियगोचरनाही || वरित्रात्मापदेशपर कर्मके प्रदेश ती री स्कीज्यों एक क्षेत्रमैत्रवगाह करि तिष्ठैदे॥ नैसैं प्रदेश वेधकद्या/सूत्र ॥ सद्दे मुनायुन भिगोत्राणिपुर ||२५|| सातावेदनी शुन प्रयुशुभनामशुन गोत्र पुरुपपत्ति है। तिनमैत्तिर्यगायुमनुष्पायुदेवायुएतीनपुएपप्रकृति दे प्रश् नामकर्म की मनुष्यगतिदेवगतिपंचेंद्रियजातिपंचशरीरतीन अंगोपा Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ह मचतुरस्त्रसंस्थानवजहफ्ननाराचसहननपास्तवारिसगंधस्पर्श नुष्यगत्यानुपूर्वीदेवगत्यानुपूर्वमगुरुलघूपरघातउचासआतापर द्योतपशस्तविहायागतिसवादपतिपत्तिकशरीरशुन . . रास्थिस्मादिययवास्कीसिनिर्माणतीर्थकरनाममितीसनामकर्मकी हरिपञ्चगानसातविदनीयएचियालीसपुएपपछतिहास्त्रावतेन्पा पारही। नियुएपप्रकृतिनिअन्यचियासीसापपकन्हि। ज्ञानावकिपंचा। निवर्णकीनचा मोहनीयकाईमतिवधमैदनिमाहनीएकही। होदयसत्वमेतीनहातातेमाहनीयकाचवीसाअंतण्यकर्मकापंच नरकगतितिर्यगातिसँगतिदीय अरपंचेशियविनाध्यारितातिपंचसं. उपवमहामन अयशस्तवपरिमगंधस्पर्शनरकगत्यानुपूछतिर्यगत्यानुपू. वडिपघातपशलविहायागतिस्थापासूक्ष्मअपयन्तिसाधारणवारीस्त्र ही Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वरनायसवरपूर्वक कर्मपुलके ग्रहण करने का अनावसाचण्यासवरहै. EARCH शुनदुर्जगदुःस्वस्थानदियनस्थित्मयशस्फीनिवातीसनामकर्मकार असातावदलीयनरकायुनायगात्राधियासीपापपकतिकही इतितत्वा यधिगममाक्षवामिष्टममोध्यायसूनामाप्रबनिरोधःसंघर नवीनकर्ममानिकाकागासामानहाताकानिरोधकदिएकनासे . संघरहातिम संसारमैपरित्रमणकारण प्रेसीमिथ्यात्वरागादिपरण तिरुपनियाकामनावसासंघरहास्त्री संगुप्तिसमितिधर्मानुपक्षाघहत पार यचारित्रैशासंसारकेकारणमिथ्यात्वरागादिकताप्रात्माकारक्षणमा ग्निपाणीनिकीपीडाकापरित्यागकरिक अस्पहारविहारादिककै प्रार्थसम्पपतिसमिति | सरसत्तमक्षमादिरुपदवाषकास्त्रात्माका धर्मपातहोनासोधर्महा शारीदिकनिकास्वनावचितवनकरनासो अनुपेक्षाहतुद्यादिकवेदनाकीमत्यातहोते कमीनर्जीकैनथिसम Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसूत्र भावनितपरी सद‌निका सदा सोपरी सहजय है। संसार परिभ्रमण ६५ एजो क्रियाता कात्यागसो चारित्र है एएहगुप्तिसमितिधर्मःअनुप्रेक्षायरी सहनिकाज्य चारित्रइन बनावनिक रिसंवर होई है।। त्रातपसा निर्जि रांच॥ ३॥ तप करिनिर्जरा होय है। चका र तै संवरती हो यहै। सूत्रो सम्पग्योग - हों गुप्ति | संसारसुखकी वो बार हितइंद्रियसंयमप्राण संयम के निमित्त मनवचनकाय कीक्क्रियाकारोकनां सोगुप्तिहै॥ सूत्रं ॥ ईमनायेोगादान निक्षेपोत्सर्गाः समितयः॥५॥जीव स्थानयोनि स्थान का जाननहारा धूके सूर्य का उदय होतै नेत्रनितैच्यारिहस्तप्रमाणभूमिकुं अवलोक, नक हस्ती घोडाउंटवल गाडागाडी मनुष्य निकरिमर्दनीनू मिविग्रहार वेहारनिहारगुरुवंदनातीर्थवंदनाकै निमित्तगमनकर नासोईयासा रिपृथ्वी कायादिक निम आरंभ कपिरणार हित कठोरता निष्टरता दिक ॥६॥ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हित यपीडादिरहितमितमधुखचनकाबोलनांसामापासमितिहोलीयालीस दोषबतीसअंतरायचोदहमलरहितनिषाहारकामहणकरनासोए घणासमितिहैवझरिसरीरपकरणादिकनिकादेषिमाधि लेनाधरना सोमादाननिझयणांसमितिदावहारिनखकेरामलमूत्रकफादिकनिकुं| भूमिळूदेषिक्षेपणांसोउत्सर्गसमितिहै। सूत्रातमक्षमामाईचाती वसत्पशीयसंयमतपस्त्यागोविंधन्यबलचणिधर्माहीशरीरको स्थितिताप्राहारतानार्थपरघानिषतिगमनकरतेनेसाधूनिकैदुष्ट निकेत्रोधकवचनहास्पअवज्ञाताइनशरीरकाघातादिकनिहोतेंद्र परिणाममैकलुषताका भनाबसाउतमक्षमादशाड्यात्पादिकनिकामदा काअनायसामावहाशमानवचनकायकीवक्रताका-प्रभावसाआज विहानालोमननितमलिनताकामनावसाशीचहामुनिश्रावनिमै Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थछत्र देखचन कहनासो सत्य है।पा धर्मको वृद्धिकै अर्थञ्चद्दियनिके ६ वषयपरकायके जीवनिकी विराधना का अनावसो संयम है। क केक्षयकै अर्चित थिए सोत है ॥ ॥ संयमी निकै योझ ज्ञानादिकनिक नसो त्याग है || [])] शरीरादिकनिर्मिममत्व का अभाव सोया किंचन्य है। ली gra स्त्रीनिका स्मरणकथा श्रवण अवलोकनका त्याग सोधाचर्य १०.दाधर्मपरमसंवर के कारणं ॥ सूत्रं ॥ श्रनित्यं ससंसारै पशुश्रवसंवर निर्जरा लोकवैधि दुर्जनधर्मस्वाख्यातत्वाद चेतनमेपेक्षा ए-शरीर इंद्रियविषयभोगपरिनोगव्यदैतेजल दवम् अस्थिर मोहते अज्ञानी) स्थिर मान है। संसार मै कोअवरक्त नहीं है। एक आत्मा का ज्ञान दर्शनस्वना वही ध्रुव है, क * तव करनां सोअनित्यभावना है। जैसे - अनित्यचितघन करनेते हो ॥६॥ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिक रिचार्ड से पुष्प माल्पादिक की नाई वियोगका लड्रमैंडः खनद) उपते है। शाजे से वनमें वलवान क्षुधावान व्याघ् करियक खामृगकाव चाकूंको ऊसरणनही । तैसें जन्ममरणव्याधिति के संकर रूपपरिचमण करतेषार्थीके कोऊदेवदानवमंत्रयंत्रतंत्र योगिनीय क्षेत्रपालादिशर नही है। पुष्ट शरीरनोजनप्रति सहाई है। कष्ट आए-आत्माकूं महादुःख उपजावैहै। -अखंडेयन्नकरिसंचयकी याधनपरलोक नही जायदे। बांधवा मित्रादिकरू रोगकुं प्रावर्तेन थामर एकं आवर्तनही रक्षा करेंहै, विषय भोगभोजनादिक वढावदै ॥ औरइःखमें को अपना नही। कर्मक दयतैरोकने को समर्थ नहीं है। सम्यक आचरएकी या धर्म ही एक्झर है। मृत्यु के प्राक्तैशदिक कोऊनशरनही। सैंभावना करणं सोप्रसर चानुपक्षदि जैसे मैं हूं। जैसे चितवन करने ते संसार के पदार्थनिम Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वार्थमन् मत्वकानाशहायतदिअहतसर्वज्ञपणीतमार्गही युक्तहोयहै।शककिव . ई संसार अनादिकालतेपचपरिवर्तनरूपवरिपस्चिमणकरेह प्रन मोनितन्मकुलकोरिनिकेशंकटमें कर्मकपिखाजीवपिताहोरमाईहो महोयुनहोय हो पाताहामाताजगिनीस्त्रीपुत्रीहोरो शत्रुकामिन्नमि नकाशवहोरहानाकारेकरककारानादेवकातिर्यचतिर्यचकादेवस्या . शिनकपरिचमणरुपसंसारमैक्डूस्थिरताहनही अनंतानंतकाल लपलटहोइअनेकदुःखभोगधेही असेससारकास्वरूपचितवनकर मांसासमाएपेक्षाहसंससारनावनोदूनावकैसंसारकेदुःख पहातदिविरक्तवासंसारकेहनिकैनधियनकरैहाशम्ममरण महाड-खनिकलागनमैंएकही कोउमेरास्वतनपरकरकेजमनहींहै।।। यकीनरकादिकनिमैतम्ममहणकरंगमरमरणमरोगमदरियमैमहा Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धोरसंकदीमैएकाकीहूं।अरवगत्यादिकधिनयमोग मैंएकाकीइंग धितन्ममरणादिदुःखहरनमैकाममहानिहाहाचंधुमित्रादिस्मशान अधिकमहीलायदाएकअविनाशीधर्महीसहारमहणामहिमैथि तवनकरएकत्वानुषताही चितवनकरतेकैवजननिर्भधीतिय गते नहीवधेही परमधनंहीमपतदिपरमवीतरागतापातनयामा. कैमर्थिहीयानकर है।धायादारीखधनपतिमेतिएकहोमरलक्षामिदत मिभिन्ना शरीरक्रियरुपहै मैंनतीध्य शरीस्त्रज्ञानामज्ञानीहारी अभिपह। मैंनित्यहाशरीरस्यायतवान है। मैं अनादिननेतासंसार मनानास्थितरुपपरिचमणकरतानमिताकैशरीखइतव्यतीतनए हामध्यपणासनहीहीया असमनाचधारणकरतकैशरीरादिक निर्मवाचानहीउत्पन्नहार्यहा तदितत्वज्ञानपूर्वकवैराग्पकारदिहात निनिशीनिअपई जोगरते ही मेरै अन्य परपोतोवाहपरिग्रहते Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थमित्र अधिनाशीमाक्षसूखकीपानिहोरहापायाशारीरसत्यतप्रश्रुचिहान -तिदुर्गधरुधिरवीर्यतेऽपड्याहै। अवधिमहारकरिवधाहामनवतन धिकानाजनयामकरितक्या अतिदुर्गधरसकूनवहारकारिको है आमितवस्तुकूईनंगाकिन्यो नापसमानअधिकरदमस्नाननी पनधूपपुष्पमाल्यादिकरिहश्सारीरकामाश्रुचिपणारिकनिंदूं: समर्थहाशाहअनुभवकीयावासम्यग्दर्शनादिकआत्माकै अक्षितापगरको है। चितवनकरकिशारीरविरुक्तताहार है। अरघिरतहास्ताहिसंसारसमुपकातरणेकैअर्थिवितधारणकरें है। कर्मकनावश्सलोकपरलाकमैमानाकरनवालाहीमहानदी हवत्तीक्षणाध्यिक्षायअवताहिकहोतिनस्पन्मिादिकम् । की आतापकारिकहीवनकाहस्तीधामसमर्पयांगहरिणादिकक. Mig Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुश्मैपधाकाहातथाकयाय प्रवतादिकदमहीलोकमैंचधबंध - प्रयशक्लेशादिकनिळूउपजविहोआपरलोकमैवातदुःखनिकरिख चलितनानागातिनि परिलमणकरावेदासाप्रवके दोषनिकुंचिं तिघनकरनामोआप्रवानुषक्षा असैचितवनकरतजीक उसमक्षमा दिकपरमधर्मनिधिकल्याणरूपबुदितहीबूटेहातिएसमलदोषक शिवाकीत्याध्यिक्षायादिकनिकरिसंकुचिततामात्माताकैमहीहा हिसिमहानसमुश्मेषशकरतानाधकेछिनिकुंडारजनपक्शिय नहीकरैतदिनाघमैतिष्टतापुसकानासनहीहोमवाचिदिशकुंघा नहारद तेसैकर्मावनिकेशाजाप्रवतिनकूरोक्तसंतकल्याणही का सैंचितवनकरताकसंवरानुषताहोयह सचितवनकतिकैसं नामनितह उद्यमीपणाहारातदिमाक्षयटकीयाप्तिहोरहै|G]] Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ वार्थस्त्र नादायपकारह। एकतौअपनारदियनिरिसासविपाकनिरिह अर पश्चरणकरलेतपरीसहनिकेजीतननिरिहायसोनधिपाकनिजगहै विपाकनीतगतोसमस्तसंसारीनीवनिकैहोमस्मआगामीबंधकुंकार हातातत्यागनियोग्यहमस्मविपाकनिनगमाकाकारणहाता महणकरनेयाम्पहै। सैनिरािपेक्षाचितवनकीताकीकी . . कैमाधहीपतिहोहोलोकसंस्थानादिककाचितवनत । यनिकणपर्यायात्मकखरूपचितवनमालीकानुषक्षाहायाकी नसमस्तपरयनिअपनास्वरुपकूभिन्न अनुनवकारपुष्पपापा . कलाकभिन्नअसामाक्षसाधनमैयनकाएकनिगादार सेहिएशितअनंतगुणजीचही भरनिगाहजीवनितसमस्तलोक हितानाहानथापचपकारथावरतीचनिकरिनिरतरलताहैनिमैं um Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रसपणापावनोवालुकेसमुक्ष्मैपडीवजकणिकाकीयोप्रति नहैमग कदाचित्रसपणापवितिनविकश्यिकापरपणातपञ्चेश्यियण पावनांजेसगुणवंतभिमैं कृतज्ञपणापावनकायोडलनहापंचयिनिमें इनिर्यधनिकीबाहुल्यताबाहटमैरनमिपावनंकीत्यामनुष्पपाणाप र वनानंत्यतदुर्जनही परमानुपनवपायकारकैनाशितायतीफेरिम नष्पपणाकी उत्पत्तिसैदुलना.सैदग्धनयारक्षकापुजलनिका रिहरितहोनालिसेंदुर्लनिहोमनपानवरचितोश्स उत्तमदिवानन्तमर मूलन्यिपरिपूर्णतासंपदानिरोगपणाविलसत्संगतिमनिकापा बनाउत्तरोतलनिह परसमस्तयेदपावप्रजासचिधर्मका नवलंबनन दाहायतौनेत्ररहितमुखकीयोनमव्यर्थतायहायरसनकटतधर्मदप नाया अरफेरिद्रमोगनिमैरागीहानांनस्मकैअर्थगोसीरचंदनवूदग्धकर Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थम् नंयोनिस्फलहा अरविषयसुषमैविरक्तकैहतपनाचनाधर्मपनाचनास धिमरणप्रत्येतदुर्लनिहोसमाधिमराहातेहाबोधिलानफलवान है। सैचितवनकरकैचोधिपायघमादाहमानहाहायहाशयोझिनेछ कोउपपाधर्मनिहिंसालक्षाएदिसत्पआधारहोधिनयाकामूलहै। याकाबलही घाबर्ययाकारशाहोकपायकानावयापधानहै नियमत्यागपरिसहत्यागयाकामालवनहारसधर्मकालानविनायनाहि सारमैपरिलमणकरतेनीवदुष्कर्म के उदयपतनानादुःखनिळू। मनुनहाइसधर्मकालामहोतेनानायकारकेवणीदिककेसुख तिपूर्वकमाक्षघानहायाततिधर्मभावनाचितवनकरके मममनुरागतेषयनहाइहासेवारहनावनांतमहानसंवरही महासूत्रमार्गायधननिर्थिपरिघोढगा-परीषहाः संघरके । -७२) Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ |मार्ग नहीधिगकै अर्थिचुद्यातयादिपरीसहसहनायोग्पदशासूचातुता। पिपासानीतालदंशमकनाग्यातिस्त्रीचयनिषद्यानाय्याकोवावधयाचनाला चाजोगाणस्पमिलसत्कारपुरस्कारपज्ञानानादनिानिमाक्षक तुद्यादिचावीसपरीसहसहनायाम्पहासुद्याकापरीयहाशातयाका शीतकामाउनकाधाडसमसककाम्यानरमपणकादीप्रति स्त्रीकीबाधाकाागमनकाणचिनिकापणनायनकाशकाधानिक शमानिकारायाचनानहीकरसंकाRधालाननही होने कायरोगक रहीतणादिकनिकस्सीकारावारीरकमलादिककााहासत्कार रस्कारकरनेकारीचुहिनीहोनेकााणा प्रज्ञानका अन्दरकाश गावाचीसपरीपाहकासमनावनिकरिसहनापरमसेवरहणसूत्रासूक्ष्म परायंचयस्थवीतरागयोश्चतुर्दवारणा सूक्ष्मासांपण्यअखग्रस्थवीन Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वार्थसूत्र गिनाम्पारमाचारखोगुणस्थानवीजीवातद्यापरषायशीतारा. पादामसकापचयाचीहाय्यवधासम्मलाजाएगाताण - शीरशमलाशयमा अज्ञानारधाराचादहहीपरीपहा प्रत्यपरी 'नकामनाहासूत्राएकादशानियाघातियाकर्मकानाकरि मनापरतताकग्यारहपरीषहानगवानकैघानियाकर्मकअनाव "एकहपरीवहनहाहातथापिवदनीयकर्मकसजावतेउपचारकरिए तारहरीषहकाँहा मुखयणाकदिनीयकर्ममशक्तिकेनाचते जगधनपरीषदोंकूशाक्तिमहाहवादासांपण्येसशाचा पण्यकहियषमतादिकअनितिकरणातीमधमगुणस्थानसांडीसम वाईसपरीपदहीहासूत्राज्ञानावरणपत्रज्ञानाशाज्ञानाचरणक तिषशापरीपहनावानयरीयहोरामादिनिमोहातपय ७४) Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दनिमिानवादनिमाह के होते प्रदानपरीमहहा है। प्रतण्यक किउदयमलामपरीषहहैसूत्रचारित्रमहिनाग्यारतिस्त्रीमिषद्या क्रोशयाचनांसलारपुरस्कारासाचारित्रमोहहोतनापन्याशाप्रति शस्त्रीशनिषधाधाआकोनापायाचनाहीसत्कारपुरस्कारासान परीसरहाहै। सूत्रविदनायशयारसी कहे ज्ञानाचरणादिभिभिन्न संपरीषहातिम प्रधशेषरहमचुद्या तपाशजीताजाधाद नामसापाचर्यापहीनाय्याअवधारणाणाराणसीणेमलार एपारहपरीषवेदनीयकहोहोरहास एकादयांनाड्या युगप दिकस्मिनकोनविंशतिः सायरीमहाकआत्माकयुगपतएकान उणीसताईश्रावैहै बानेशय्याचर्यागमननिषद्यावेचनाइनितीन .. मयुगपतएकहीपीयहोरह अवशीतउलएककालमैंएकहीही Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थमित्र असेंडगणीसपहहीयुगपतहोय है। स्त्री सामायिक होमस्थामा परी . सिंहासचिमुशितदा तापण्यायामातमिसिंचारिक समस्लम *गकामदकरिजामत्यागहोश्सासामायिकचारीनहाराषमादकेव उपत्यादोषताकरिसंयमकालोपनयाहोयताकापायश्चितादि। . लाजकरिसयमकूस्थापनकरनासोछेदोपस्थापनमारिहा तथा इंसादिकतथासमित्यादिझदकरनासछिदोपस्थोपचारित्रहै चरिताणपीडाकापरिहारकरितहाधिपताधिशेषहोश्सोपरिहार हिसयमहै। परिहारविधिप्रेसावित्रीपहसळूधासकर लापुरूषमततीसवर्षकाहोयसर्वहानमुखीवासंताआपदी . झापदणकरिपथकवर्षपर्यत्ततीर्थकरमावनाकेचणीनकमूलमें त्याख्यानमामनवमापूर्वपढाहायसोपरिहारधिझिसंयमक्र . 9ERY भगवान Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंगीकार करितीन संध्याविना समस्त कालमै दोय को शपमा विहार करें? रात्रिचिहार नही करे।वर्षाकालमै नियमसहितदोयजीवनिकीउत्पत्तिमर एक्चेचिकाणेकालकी मर्यादजन्मयोनिकेभेदद्रव्य क्षेत्र के स्वनावविधान काजानन हाराप्रमादरहितमहावीर्यवान होयताकै परिहारविश्रुद्धिसंय महोदे, परिहारविशुद्दिका अधन्यका लअंतर्मुहूर्त जति अंतर्मुहूर्त मैगुणस्थानपलटितायता छूटे है। बवे सातवें दोयगुणस्थाननिदमिर कष्टकालयडती संघर्षघाटिको डिपूर्वकाह जैसे कमलपत्र जलकरिनही लिपेतैसे षट् कायके जीवनिक रिव्याप्तजगतमेविहार करता पापकरिनहीलिये है। सब रिजसूक्ष्मस्थूलपाणीनिकी पीडा कार्यरिदारमेंप्रमादरहितयस्यात्मानुभवविउत्सादयुक्तिअखंड क्रियायुक्त सम्पदानि ज्ञानरूपप्रचंडपथन रिप्रज्वलितनयातेोवि Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थमित्र अनिपायरुपमानिकीत्रिपाकारदग्ध यहिकरुयधमनाकै अर १५ नविशेषकरिक्षीणकायहकषायरुपविषके अंकूरजनिअरनारा सम्मुखादिमोहकर्मनाक यातेपायादसूत्मसापरायनामनाने से सूत्मसायरायसयमदोधावरिमादलीयकर्मकायतैतथाउपशम जैसा आत्माकाखनाचतथाधिकाररहितहखनावकापाटहोनासे थारख्याधचारित्रहोपासाअनशनावमोदर्यत्तिपरिसंख्यानरसपरित्या विविताशय्यासनकायलेशांचाहत्यारणासलाककाफलनाधनधान्न कपशंसाएंगकाअनावमयकामनायमेनसाधनादिफलतयाविषयमा नादिस्यखगीक्षकनिकसुखरूपपरलोककाफलश्त्यादिककीचा २ तसंयमकीसिधियणकाउछिदकर्मकाधिनासध्यानस्वाधायादिककी सेकैिनधिएकदिनाविषमागहस्निातकात्यागकरमासाननवानतय ॥muli Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . होशसंयमकीसिधि अधिनियाकजितने अधिवातपित्तकमादिदाय परामक प्रथिसतोपस्वाध्यायतिकैमाधमलामोडनकरमासो अवमे दर्यतपाशभिताकैअर्थासाधुकैएक सहादिकातथानाजनभोजनादि कहानियमकरना प्रासाकेननावकैनार्थिसावतपरिसंख्यानतपद। इंघियनिकीदर्घकानिमहर्थिनियाकाविजयस्वाधायनिकीस खरुपसिध्धकैअर्थितादिकरसपरत्यागसारसपरित्यागनामतपद।। धातीवनिकीपीडारहितएकातम्यपहादिकमैलायनप्राशनकरना माधिविक्तायनाशननामातपदा यतिबाधाकाअभाववाचर्यवार धायध्यानकीसिविहारापानीघमरुतमैपर्वकिशिधर अखपकिन मिश्कतलासरशीतऋतुमचाहतावहतयकारकायोत्सगांदिकरता साकायतशतपदा यातदेह कष्टोवतकायरताकाअनावमुखियाख . Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तवार्थसत्र माघरहने का अनावमार्गछटनकामनावहोराही संबहपकार ह्यातयात्रामापश्चिमधिनयवैयारपस्वाध्याययुत्सर्गधयानात गंगापमादसैघतनिर्मदापात्पन्नहोतायताकदूरकरनेवूजाकियाक रिएसोपायश्चिततपदेशपूत्यपूरुषनिमनादरकरनासोधिनयतप होशकायकरितथा महाऔषधिधस्तिकादिकरिधर्मात्मानिकाउपा शानाकरसोरहलकरामबियासत्यनामतपहाज्ञानकानावनामै आलस्पकापागसास्वाधायनामतपहादिहमैतदिहकासंबंधी निमैनपनामानरुपसंकल्पकात्यागसाव्युत्महापावितकेविक्षेपक र त्यागसाध्यामनामतपहावीन्सेंछहपकास्मन्यतरतपकराामान चातुर्दापंचहिलेदायथाक्रमंधाग्यानाता२॥ पायश्चितनवपकार है विनयच्यारपकारहचियाचतापकारहास्वाध्यायपंचपकारह पट्टी Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कायोत्सर्गदायपकारधानपहलीकहे पंचतपतिनकेनेदकहा। सूत्रामानाचनपतिक्रमगतदुनयविधकयुमतिपश्छेदपरिवारोंयस्था पनाः॥शापमादनापकैदोषलाग्पादोश्तदिदादोषरहितद्वान रुतिकाअपनांदोषनिवेदनकरनांसोमालोचनाहै।शामादोषलापर तिमिध्याहोद्गनिःफलहोइनेसवचनकरिषगटकहनांसापतिक्रमण हिमा अस्सालोचनामसतिक्रमणदोऊकरनासोतदुलयहागवझ रिदोषकारसहितअन्नपानउपकरणकासंसनियाहीयतातिनकात्या करनांसाविवेकही धाकायोतसर्गादिकरनासाव्युत्माहौषा अनरा नादिअंगीकारकरांसातपहाही दिवसपक्षमासादिककीदीक्षाका रावनामछिदहा शपक्षमासादिकाविनागकरिसंघचारेकरमांसाप रिहारह पिखलीदाक्षादिनवीनदीक्षादनासोउपस्थापनाही Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवार्थमित्र सनवकारसायश्चितकह्मास्त्रानानदीनचारित्रौपचाjिs बहतसन्मानसहितमोक्षकेत्रर्थिज्ञानकामहअन्यासस्मरणत्पादिक नामाज्ञानाधिनयहाशनकादिदोषरहिततत्वार्थकाप्रधानसादी नयहा॥ ज्ञानदानसहितचारित्रमैसमाधानरूपचितकरण? स्त्रधिनयाजाचादिकनिकुंपत्पतहतिखिदाहानासन्म मनकरनाअतुलीकरमाइल्पादिउपचारधिनयहै। असैयारिता रविनयतपहासूबानाचार्योपाध्यायतपखिौशालानगणकुल, साधुमनाज्ञानशानिनवतादिनाचरणकरिएमानाचार्यहो। नकनिकटमोक्षकाकारणाशास्त्रपटिएसोउपाध्यायह महान सादिनाचरणकरनेवालातपसीवाशिक्षाकाअधिकारीमाशिधाऐगादिलदारूपहीयसाग्लानहा रमुनीश्वरनिकीपरिपाSNIA Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीकाहायसोगण्हाहीदीक्षादिनेवलियाचार्यकैशिष्यहोयतेकुलद।। ऋषिमुनियतिमनगारयेच्यारिसकारदमुनिनिकासमूहसासंघहै | वइतकालकादीक्षितहोयसासाधहणालोकमान्यहोयसोमनोज्ञहै। रणनिदायकारकमुनीश्वरनिकैरोगपरीसहमिथ्यात्वादिककासक धवितवअपनीकायकरितथा अन्यन्यकरितथाउपदिशादिकरि। विनिकायतीकारस्लानकरैसरियाहत्यहासूत्रावाचनाचनानुपा क्षाम्नायधमेषिदेवाः॥२या निदोषग्रंथारमार्थप्रर्थदीऊनिकाना नव्यजीवनिशिखावनापढावनोसोवाचनाहावहरिसंशयहरिनि वधितत्वनिश्चयकरनेदूग्रंथकाअर्थकातथाथअर्थ दाऊनिकान पक्षानीनिकुंपलकरलासोपूछनहि जानेहएअर्थकावारवारविंद वनकरतांसाअनुपाहावाहका घोषनांचालनासानाम्नायहै। Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसूत्र धर्मवालीकथाकाउदिासाधर्मकथाह। असैपंचपकारखायायत॥ कुंकह्याासूनचाहाज्यतरपध्या ॥२वीधनधान्पादिकतावाझउपधि कहिएपरिसहह।।अरक्रोधमानादिकमध्यतरपरिग्रहहाकायकीम ताइअन्यतस्पधिदादोपधिकात्यागमादायधकारख्युतर्गतपा हासूझाउत्तमसंहननस्सैकामचिंतनिरोधाधानमातर्मुझतीनामा बधरूषनागचंवधनाएचएतीनतमसंहलनहानिकाधारकपुरू ... चतकाएकाग्रचिंचवनकाररोकनांसाधानहाअनिकपदाथी वनचलायमाननहाहायतदिध्यानहसाउकृष्टपणेमतर्मुहतिं रहा अधिकनहीवहौहान यात्रवधायपलानिया नादुःखताविनाधितवनउपसा प्राधानहीशारुएलान जधायनाविषैउपनसगियानहराधर्मपरिणमरुपचितवनमैउ ]] Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मसाधर्मधानही आत्मकिकषायरहिसक्षलपरिणाम उपजैसामुज धानहधासूबायोमीक्षहेतूपरेकहिएधर्मधानअरशुकधान दाममोक्षकेकारणदशसूत्री मात्तममनाज्ञस्ससंपयोगायरातिसमन्चा गनहियो हाराममानताआपकेवाधाकाकाराष्टजनविषकटकसत्र बुनिनकासयोगहोतैनावाखास्साचितवनहायजामेरैइनकाधिया किसेहोया जैसाअनिघायपथमआधिानह।सूत्र विपरीतमनाचस्प अपनाधनस्त्रीपुत्रमित्रवाधवानीविकाशनिकावियोगहर्तिनिकास योगार्थनावारंवारचितवनकरनासाइसरायआर्तमानहै।सूत्रविद नायांचा सापकोणकीपीडाहति। ताकावाखारचितवनकरमातथा । भिएसवेदनाकाअभाव होशासाचितवनकरमांसातीसरापानी धानहासत्रनिदानचाइना जोगनिकीबाछाकरित्रातुरतापुरुषताके Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्वासन आगामीकालमेंविषयमोगनिकीघातिकवस्लिवाखारसंकल्परहास सर थानाधिानहास्त्रगतदधिरतदेवाधिरतपमत्तसंयतामाधामोयानात धानअधिरतातमिथ्यालदिकच्यारियणस्थानघालकहायतानपरि होयपरंतुषमतसंयमत्तकैनिदानचिनानन्यतानआर्तकदाचितहो है सूत्राहिसान्तस्तयधिषयरतान्यारोमविरताविरयायपाहि तर सानाधानिकाघातअरमन्तअसत्यप्ररस्तयचोरीपरधनहरअर विषयसरतातोपरिसहवाग्रहणरक्षानिविषैनावाखारचितव सोराजधानहा अविरतीकैहोयश्चरारनहिंसाधनरक्षणारि देसवतीकहकदाचितहोमसंयमीकैनहाहोरअरहायतासेयर्म हिनायासूत्रा आज्ञापायविपाकसंस्थानाधिश्चयायधपीरहीए. कारधर्ममानहाताहिक वनानीउदिकिदाकिनाचतें Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनाव अपनी मददुहितकर्मकग्रयके वतिपदानिकसूक्ष्मपणातदेव दृष्टीनताभिविनासर्वशका मागमहापमाणकरिस्मरचितवनकरैः गममैंयहपदार्थकास्वरूपसर्वतकहहिौसैहादसम्पपकारनहाहास तितिरागअन्यथाक नहीं|सैगहनपदार्थकप्रधानमर्थकानि श्यकरमामायाज्ञाविचयधर्मधानहा अथवाआपपदार्थकाखरूप नितेसाहीपसूकहनेकारछानाकासपुरुषकै आपशिशतकेन विरोधकरितत्वार्थदंढकरनेकाजकिपयातनहायसातकनियपमाणका युक्तिमितत्परहवासतिकीआज्ञापकानिकुंवारंखारचिंतवनकरैसार आज्ञाविषयधर्मधानही शाबहरियपाएीसर्वतकाप्राज्ञातपरान्मुखहै? तिस्मस्तधकान्पौमियाष्टाहाप्रमोक्षकअहिपरंतुसम्पन्मातिर रहीपतेह असेसमीचीनमार्गकाप्रपायचितवनकरनांसाप्रयायविध Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थमन्त्र यो अथवाएपाणीमिथ्यादर्शनशामचारिनतेकैसैरहितहोयासाधित चननामा अपायविषयहाशवानावणीरिककर्मनिकायक्षेत्रकालन क्मावकनिमित्तःमयानोफलकामामुनवताकाचितवनकरनांडीएकर्म तेवपत्याककिाफलमतिपरहैमाखरूपनाही नसाचितवनसाधिप यधर्मध्यानहोरालोककामेस्थानदिककाचितवनसासंस्थानविच मधान है। सैधर्मध्यानरुच्याग्निदहापासूत्रलेचा पूर्ववि दमानाटिकदीयश्रलयानपूर्वकलाम वालतकवलीनिकैहो शसूत्रापरेकेलिनामातीनाथाथादायकवानसयोगका कवलीनिकैहायसूत्र पथकैकत्ववितर्कत्रियापति .. पातियुपतक्रियानिवतीनिवाणपथकवितर्कधिचाराशएकत्वधि तकअविचारारासूक्ष्मक्रियापतिपातिशपरतक्रियानिशीधाए Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यारिखकारकेमुलधानहसूत्राध्यक्षयोगकाययोगायोगानाधणार प्रथमयुक्तध्यानतानयोगनिहारतीयलयानकाययोगहीहै। यहाअम्पयागनिकोनहीहीयामचोथायुक्तधानप्रयोगकेवली कहाहायहासत्राएकायसवितकंधाचारपूर्वेछिगाआदिकदीका मलयानातकवलकिआभयहोयहतवितर्ककहियेतारखी। चारकहिएपलटनेसहितहमचारक्षितीयोगादूनाएकववित | कधानहसाबिचारजापलटनाताकरिरहितवित्रावितकीला वितर्कनामश्रतकादशसूत्राविचारार्थव्यतनयोगसंक्रांतिधा अर्थ बाध्यतथापययिदा अंजनवचमहायोगमनवधनकायकाक्रियाहै। मनटनाताळूसंक्रान्तिकहिएहसिाधयममुलधानमैश्यतिपययि मायर्यायव्यमपलटनाहोरहातयातकाक्यम्प्रवचनकार, Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थमन्त्र' अस्मन्यवयनकूमालेबनकर मोयननकापनाना है। मानवधान - एक योगकुंछोडिअम्प ग्रहणकर सामर्थयजनयोग. • पनटनांपहलालधानमहइलामपनरनेकाकारणमाहनीकर्म नहीर्तिमणिदीयवतमचलहै।सत्रासम्पदृष्टिपावकविरतानती जिकदमोहोपकापनामाकॉपशेठमाहापकक्षीणमाहातिमात्र मसाखियामा निसियाकोऊनव्यपदामंतीयप्तिकपथमायर । सम्पत्ककीमत्पतिहोनेअर्थितीनकराकेपरिणामनदेचरमसमय तेवतमानविछिनासहित भिध्यादृष्टितकिजीआयुधिनासप्तकमीन निशिहोरहातातेमसंयतसम्पादृष्टीकैगुणप्रिणिनिशिच्या . ख्यानगुणहितानंदरावतीकेततिसकलसंयमीमहाचतीकाता नतानुवेधीकपायकेविसंयोजनकविालकाततिदनिमाह । म Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काक्षपावलिकतातउपशमकतीनगुणस्थानचलिकतात उपशोत: . माहापारमोगुणस्थानवानकै तातेक्षपणीकेतीनगुणस्थानचालकै तासेक्षीणमाहनामधारमागुणस्थानवालिकातातिनकवलीकै निद शस्थाननिविपत्तोकमानतरदामा संख्यातगुणानगीस्पसमयसमय निरिहापरंतगपरिसपरिघारिघाटिषमाणरुपतर्मुहहणसूत्राय लाकवकुमाकुशीननिर्मथानातकानियागाचहीएपंचपकारकमुनि हितिनकेसम्पादयनिहामखस्त्रसाधनमायुधादिकपरिमहरि रहितहातातेनिग्रंथसंज्ञापाचहीकैहाबद्ररिजकारणमिमाघमार। हितसरनिनिवतमिमको क्षेत्राधिकोमकानपिरिपूर्णतान हीहीततिपुलाकबेसीसंज्ञाह सतिपुलाकमामपालसहितशालि. काहै। ततिमूलगुणनिधिहकोई क्षेत्रकालादिकमैधिराधनामलरूप Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसूत्र पालसहितहाततिषुलाककलाहावीरवाद्यअन्यतरपरिसहका २ थानावरुपमैताग्द्यमीनयातिष्टेहैतनिकैअखंडितहामूलगुण तनाहाकरेंहै। भरवारीहपकरण निकीपासुंदरतामेनिनकैअनु गगहा नातेसंघकनायकाचार्यहोतिकिषभावनादिकमंत्र हीतिसपनावनाकनिमन्तकरिसुंदरशारीरकमंडलपिछिकास्थाना दिकका संदरतामअनुरागकरेंहावारिसंघकेमुनिनिर्मेननुरागतथ तकीपभावनादिककेवास्ताहिकाशरीरकसंस्कारकायकापत्राव तत्परताहपरमार्थतंयइपरिसहहाहानातंगगमनसहितआचरण रितधारेहो परखकुरानामधुरितकाहातातेनिकुंचकुसकोश हरिकुतालदायपकारहगएकपतिसेवनाकुशीलादूजापाय तहाजिनमूलगुणस्तरगुणतोपरिपूएदि अनारीरकमंडलपु. IIGAI Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिष्याहीपरिमातिनमावतिनके परिजहानएकाईकारणपकारविं पतउत्तगुणनिकीविराधनाकरनवाल असमुनिपतिसवनाकुशीलहै चरिजानन्यकषायंकाग्रहादिनयकोअपक्षाकरिनिर्मथनहींहार नासंयमतपतिभवनातीर्थीलगलिश्योपपादस्थान विकल्या साध्याHEAGIDपुलाकमुनिहतसंयमादिकमष्टयनुयोगनिसायाकहिएना नमनख्याखानकरपुलाकवकुंशधतिसेवनाकुशीलएतीनतासाम) यकच्छदोपरथाचनपरिहारविधिसूक्ष्मसोपण्यभिच्यारिसयमनिधि पिवतेही निर्मथस्नातकएकयथायातसेयमैहीचतहीवहीरपुलाक वहातिसेवनाशील नितीननिकलत्कृष्टगतज्ञानदयापूर्वता हार्यहरकषायकुशालनिग्थनिकै उत्कृष्टभुतवादपूर्वताई होमजघन्यतज्ञानपुलाककैतोमाचारोगाचाखस्तुहीतही Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसूत्र ताईहवरिषकुशकुशालनिग्रंथकैअष्टप्रवचनमारकानाई हो या ____ रागपंचसमितितीनगुन्निकाव्याख्यानताश्हारास्नातकहतकेवल नानीहै तिनकै तामहहि वरिपतिसघमाजाधिराधनासापुलाककै चमहावतमाएकरात्रिभोजमपागनिहतानि परवशतेप. १ जबतिएककोश्चतकाविराधनाहोरहाबखिकुहादायपकारहाण उपकरणयकुशाशनाशरीषकुमा शानिममैवइतशोमादिकसहि : मंडलादिकाखनकारछायाहीविराधनाप्रसारिखकुशारीरक स्कारकरनाशोनमीकरहने परिणामसाहीविराधनहि अरपतिसेव पावशीलकमूलगुणनिमतौविराधनांहीमहीलानिमारगुणनिमैके. कविराधनालागसोपतिसवादी सरकषायकुशालथिलाकर -राधनाहीनहाहायरितीर्थकहैहै।एपंचपकारकमुनिसमस्तती Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रनिकेतीयमहातहा अवलिंगकहालिंगदोयपकारहै। एकपलिंगएका नावलिंगा भावनिंगकरितापंचपकारकेमुनिहानिलिंगहासम्पकमही थ तिहामुनिपणामनिरादरलावकाऊकैनाहीह।अरश्यलिंगकरितिनम निदहा कोडआहारकरहै।कोमननशनादितपकरही कोउपदिशक रिहाकोमअधयनकरही कोमतीविहारकरेहीकोऊधानकरदाको मअनेकनासनकरैहै। कामकैदोषलागैहै। कामपायश्चितलेहाको ऊदोषनहानगविहाकोकमाचर्यहाकोऊउपाध्यायंहाकोरुपवर्तक हाकोअभिपिक है। कोमयेयारस्पकरहै।कोमधामधिपणीकात्र र रजकरहै।कोमकैकेवलज्ञानउपतेही इत्यादिमुखगोणबाह्यपरतिर xक्षा |हायपोजिगिनदहाभारदिगंवरलगनवस्वमानरणवस्त्रादिरहि निसिगिकह्या अवलम्पाकहेहै।पुलाकमुनिकेतानमनहीं Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्वार्थमन्त्र नेपाहा वशानथापतिसवनाकुशीनरनिकैयनीलिया है। अन्या. ५ .अनिषायतेतीनशुमहीद कपायकुशीनकै उत्कृष्ट्यारिल हिन्याधानिक अनिवार्यतामानहाहानिधारस्तान शनिककेवलपुलले पाहायोगीनगवानकैलपानहान दोउत्पन्नहोनाक है। पुलाककारकष्टपपादधति थकेधारकसह पारस्वर्गकैदिवनिमनपजेताअगरहसागरघमा१ ‘पधिानखकुनामसतिसेवनाकुशीलकोकृतउपपादनावर (स्वर्गमवावीससागरकीनायुपाचनवालमैंहै। कयायकुशील अरनिर्मथानिकाउपपादसवीथीसशिवितेतीससागरलायुक्तधा कनिमेह अभिपंचधकारकमुनिनिकानघपठयपाददायमा कानायुकेधारकसोधीव है। अरस्नातकरनिर्वाहामध Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपपाद है। मैं सैंउपपाट्कया॥अवस्थानकहै?! कमायनिकैतीमंदप शांत संयमंकीलब्धिकेस्थानक असंख्यात है। तिनमें सर्वन धन्य संयमल स्थानअर कषायकुशल इनिदो निके होते असंख्यात स्थानलाई तौय पतलारजाय या पुलाकतोयु हितिहो। अरपा कषायकुशील संख्यात्तस्थान एकाकी नायपाचे क्षायकुशीलअरपत्ति सेचना कुशी लवकुशपतलारही असंख्यातस्थान गमन करे। पाछे वकुशमु वितिने प्राप्त होई है। तीगपच्चिस संख्यात स्थानजायपतिसेवनाकुशील मुग्दिनेघाप्त होई है!! तीवा पछि असंख्यात स्थान जाय कषायकुशील युधिति प्राप्त होई है।। यतिऊपरिएक स्थानजाय स्नातक निर्वाण प्राप्त होय है।। असे संयम लब्धि स्थान असंख्यात है।। तौ विभागपत्तिळे दनकी अपेक्षा अनंतकागुणकार है। सपु लाकादिक मुनिनिका Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसूत्र चापअधपकारसमऊयोग्य है।इतितलाश्रीधाममोक्षानेनन ८५ मोध्यायामोहनावानज्ञानवनिावरजोतरायक्षांचकेव *क पहलीमाहकाक्षयज्ञपग्रमिकरिखद्वस्तिहक्षिीणक पायनामपायपछियुगपतज्ञानाचरणदानावरणअंतरयकाक्षयकार वनज्ञानमहाराबंधहवनावनिगिन्यांकनकमधिपमोर क्षोमोदः शनधानबंधकेहेतुमिथ्यात्वप्रचिरतादिकतिनकासोन्नर नावनयात्रापूर्वधंधेयकर्मतिनिकीमिशिनिदाऊनिसमस्तक काअंत्यतनमावहानांसोमारहाणसूत्रामपशामकादितव्यमानाची झयसभिकआदिलाबामपरिणाभिकमनयत्वप्रतिमनाचतेमा सूत्रमन्यन्नकवलसम्यक ज्ञानदीन सिहलेच्या केवलस . कशानदनिमित्वनिनाचनिविनासिनिअपनायकामा Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नावहालीवत्वनाथमिलावकारिजाननातवीर्यअनंतसुखहति तिहै अनंतज्ञानदरनिमें तालाजानेमन्तवीर्यादिककारहीनकन सज्ञानादिकमहाहाहा मसुखमैं अज्ञानमभिन्नताहनही त्रात दिसतरगच्छत्याला हानामासमस्तकर्मकामनाक्नणे माताधमई गमनकरै।सोनाककाअंतताईचार्यहाअवकामयाकोनोमन कारलकोनहाकर्मतारहानाहातातहतकाधिनानिमकायार्ड यौहातानेझगमनकूहतक है।सूत्रापूर्वपयोगादसंगलाच्घच्छेद तथातिपरिणामाचाहीपूर्वकेपयोगतैमसंगपणतिबंधचदत थतिसंहीगतिपरिणाम निगरिहतुनितेमगमननिश्चयकलं २ अवरमिच्यारिहेतुमिकासमर्थनकरमेंदूच्यारिदृष्टांतकै होस्वामा २ पिछकुलानन्यागतलेयालादुदैरवीभवदग्निशिखावच्चायः Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र पहल्पमूत्र में कह च्यारिहतुतिनकामनुक्रमतेम्यारिदृष्टांतजानना ६ कुंजकारचाककूदंडहरिचमणकरावतारहितायातोहपहलेपयोग जिहाँताईचाककैफिखकासंस्कारमहामितहोताईफिखोहीकरीत संसारभवस्थामजीवनमुक्तिगमनकरन अर्थिवइतवारमन्या : रिरह्याथासाकर्मटपछेहपूर्वलसन्याससंस्कारतमगम' करावारिसेमारीकालेपकरियाप्तवासलमैवाइवाजीमारी कालयउत्तरजायतवालमैंऊंचाआनायसैकर्मलेपरिसंसारमै यामात्मामी कर्मलपकुंडस्लियमईगमनकरेहावद्भरिसा काचीतोडामवध्याहुवातिष्टेथाजधएरंडकाडोडामकिफास्त भर नऊंचाहीउछलतिसैकर्मबंधनकुंटूटजीवकर्हगमनकरहो। दासपवनरहितअग्निकाञ्चालाकागमनहीवनावहपवन राई Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हितमासिकाचालाकाऊगमनहीवनावहै। पवनकरिमन्यदिशामै गमनकरहै तैसैंकमरहितमात्माकाउगमनहीवनावह असाव्या रिस्तुझियारिदृष्योनकरितीवकाकर्मन्टनेहीकुईगमननिचयकर नो कामकतेमुक्तनापछैनात्माकामगिमनखनावहाही तोलोकके तमैकेसेंव्हस्वाचामिरिक्वोनहीलायताकाहेतरूपसूत्रकहै साधर्मास्तिक्षायांनाघवातलोककेतस्परिगतिउपकारका कारणधर्मास्तिकायकाअनावही तातेधास्तिकायकासहायविनाम रामनझिल्लाकाकामिनहानायहधर्मास्तिकायकासर्वत्रसजाय मानियतालाकालाको विभागकाअनावकायसंगविगणमुकजीच हैनिनिकैगतिनात्यादिनेदकाकारणनही तातिनेदयवहारनही है सा समस्तसमानहाही कथंचिम्दनाहतोक्यनिदसाकहस्त्रादित Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसूत्र कालगतिलिंगातीर्थयात्रिहलेकबुध्योधितज्ञानावगाहनांना __ मानपत्राइवतःसाध्या- क्षेत्रादिकादशअनुयागनिकरिसिर छनिकूनेदरुयकरिणक्षत्रकरिनेदहापत्युतान्नमयकीनपक्षासिक क्षेत्रमेहीसिम्हातथाआपकेषशाहसिहावामाकाशकापदर । मिहीमिवह। अरनूतनाहिमयकी अपेक्षापंचहकर्मचूमिकान ? वितहांहासिकहोइहाअरकर्मभूमिकाजनम्याईंकाईदेवादिक पक्षेत्रमैलेजायतोसमस्तमनुष्पकसिमटाईछापदायसमुश्कस स्तक्षितरिकहोइहै। नूनपूर्वनियकीनपक्षाकरिसामान्यताउत्सर्पिण ? अंवसर्पिणीदाकालमैमिहोइहाविशेषकरिश्वमपिणीकासु . समाजातिसराफालताकतनागमै उपच्यामिरडाख कालः मलखमानीयाथाकालातससर्वमंउपत्यासिहायह। तथाची . Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनम्पापंचमकालमैनासिहाहीय अपंचमकालमैम्पत्यासिनहीं। होयही प्रदेवनिकरिलगयासमस्तगापिणी अवसर्पिणमेसि होय है।गतिअपेक्षाकरिसिगितिहासिकहोशावामनुष्पगतिही मिसिहोयालिंगकरिक यमुत्यन्नमयकोअपक्षाविदपणतिसिध हायहोनूतनाहीनयकीपक्षाकरितामूहविदनिक्षपकाए। चढिमाक्षपाहायवेदकरिपुरुषवदहति मिन्हायतीवर तीर्थकरिककेतीतीर्थकरहोयसिहायता के सामान्यकवली होईसिध्होयहीमोनीदायपकारहाकेतीतीर्थकरविद्यमान हातमोक्षहोयह मरके तिसकालमैतीर्थकरनहीहोरतसिह होयहचारित्रकारपत्युत्पन्नयकाअपहाताचारित्रममावत हासिहायहाभूतनाहीनयकापहानगताहीतायथायात्या Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्वार्थसूत्र स्त्रिकरितिदहा है। तरकापहासामायिकछेदोपस्थापनपरिह र रविश्रुछिरह्मसापण्ययथाख्यातपेचषकारचारित्रमिछहोयहै।। वारिपत्यकछतो अपनी गाक्तिकरिस्वमेवज्ञानपविगअखाष्टि । तकहिणपरक उपदिशतिज्ञानपविसावाधितबुधहाकतोपत्पक माक्षपविही मरकचोधितवुधमोक्षपविहीवानकरिकैपत्युत्स जनयकीनपतातीएककेवलज्ञानतेहीसिहायदोनूतमाही तेक मतियुतदायज्ञानकरिहीकेवलज्ञानउपनायमाझंपविनय हिनाकरितधपतीसाहातीनहाथकीकायकुछघाटिअवगाह गतिसिहायदा तरकहहिसोकदामिछहोयहातिनकैन धन्यनेतरहायतादायसमयह अनेतरलागतामाक्षनायताअष्ट समयकाहबद्धस्निंतरजघन्यताएकसमयहोउत्कृष्टछमहीने ICC Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दि बदमदाने ताईको सिनह। होइदै वइरिसंख्याकरितघन्य तो एक समय में एकही सिद्ध होई है। असलष्टएक समयविषएक सो आवजीवमोक्षपविदेश अध्यवसत्वकरिक हैं। प्रत्युतनयकीस पक्षाकरिता सिद्धक्षेत्र में ही सिद्ध होइहै । तातै अन्यवत्वनांहीं है। नूतपूर्वनयकी अपेक्षा चितवन करिये है। क्षेत्र सिध्दोयप्रकार जन्मते मर संदर एतै अन्य क्षेत्रमेंदरे गए सिल्पहै इनितसंखा २ तगुणें जन्मसिदै क्षेत्रका विभागकरि उई लोकते नए सिम पहेतिनतेसंख्यातगुणा अधोलो कतै सिनाएं है। तिनतसंखार तगुणा अधोलो कतै सिघ्नएहै। तिनतें संख्यातगुणां तिर्यग्लोक तिसिद्ध है। सर्व थोरासमुझतै भए सिद्धदे तिनतेसंख्यातगुणांछी पतै सिनएँ। असें सामान्यकला/विशेषक रिसर्वत थोरानव Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एमिन तत्वार्थमन्त्र लयासमुनसिहतितसखातगुणाकालोदधितगए सितितिचूद्धीपतिनातिसंखातगुणेहैसितसं. तगुणधातकीखंडतेमासिछदाशिनतसंख्यातगुणयुकाई नएसिहनिसहीकालादिककाविनागर्तनल्पवइवतान नाअसेंधादास्प्रनुयागनिकरिमिछनिमेंमेहहै ओरखरुपन दनहाहा निवाधिगमोहास्वदशमोध्यायः॥२॥ धामसंवतनगीसैदवायुनाफाल्गुस्माछिदवामीनि. wayालिमारियाणथानान सदासुखनितिधरियाना इतिप्रीतत्वार्थसूत्रदशनायामयटिप्पागुएाथानस्मानारण) पदिाहानादवचदिनवमीदिमावारत्मज्ञानागुनसिचाली समग्थलिष्यामुथालालातिनुनमस्तकल्याणमस्ता जी Page #178 --------------------------------------------------------------------------  Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ अथकर्मदहनतयमंत्रविधान ॥ २/उहाअष्टकर्मरहिताय श्रष्टा साहतायसिद्धायनमः । ॥ २ उहीसम्यक्तगुणसहितायसि || झीज्ञानगुगसहितायसि ...जायनमः अकीदर्शनगुरासहितायसि शायनमः पानमन्तवीर्यसहितायसि । ६कासमलगुणसहिताय : Iायनमःतायास सिधायनमः Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - ही नवगाहनागुणसंहिता यसिहायनमः । की अगुरुलंधुगुरगसंहिता यसिहायनमः . " की अव्यावा,गुणसहिता यसिधायनमः | १० ईझीज्ञानाबर्णकर्मरहिताय सिघायनमः . (२१. कीमतिज्ञानावरणरहिताया सिहायनमः २ श्रुतज्ञानावरणरहिताया सिझायनमः | १३|ही अवधिज्ञानावरणरहि तायसिहायनमः . 15-25dane Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१४कीमनःपर्ययज्ञानावरण रहिताय सिकायनमः १५/जीकेवलज्ञानाबर्णरहि तायसिहायनमः ९६ क्रीदर्शनावरणरहितायसि हायनमः २७ चतुदर्शनावरणरहिता यसिधायनमः १८ प्रचतुदर्शनावरएर हिताय सिद्धाय नमः एनीअवधिदर्शनांवरपर हितायनिहाय नमः २० झाकवलदर्शनावरणहि तायसिधायनमः Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ |२९ कानिशाकर्मरहितायसिद - n o commarati नयनमः २२/3जीनिशानिश्कर्मरहिताय] सिद्धायनमः ||२३ प्रचलाकर्मरहितायसि त्यनमः २५/क्रीप्रवलाश्वलाकमेरा यसिधायनमः ওইঞ্জিৰিকং|| तायसिहायनमः ।। ||२६/उहीबदनीयकर्मरहितायसि श्यनमः उक्रीसाताबेदनीयकर्मरहिता युसिवायनमः . . Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ D सिधायनमः २८ सीसाताबेदनीयकर्मर | हितायसिकायनमः। HIRVीमोहनीयकर्मरहिताय ३०डीमिथ्यात्वकर्मरहिताय सिद्धायनमः । ॥३१ उहीसंम्पर मिथ्यात्वकर्मर हायसिद्धायनमः .. ||३२ कीसंम्पक्त प्रक्रतिकर्मर हितायसिहायनमः । ३३ प्रिनंतानुवधीक्रोधर । हिताय सिकायनमः इधाउदीअनंतानुबंधीमानर हितायसिधण्यानमा - Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ मुद्रीतानुबंधी मायार ह ताय सिद्धायनमः ३६ की अनंतानुबंधी लोनर हि ताय सिद्धायनमः ३१ की प्रत्याख्यान क्रोधर हि ३८ ताय सिद्दाय नमः प्रत्याख्यान मानरहिता यसिधायनमः ३पी प्रत्याख्यान माया र हिता यसिद्धायनमः ४० की प्रत्याख्यान लोनरहि ताय सिद्धायनमः ४१ श्री प्रत्पारमान क्रोधरहिताय सिद्धायनमः Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२प्रत्याखानमानरहिताया सिधायनमः उनीप्रत्यारव्यानमायाराह ताया। सिधायनमः याहीप्रत्यारयानलोनरहिता यसिधायनमः '५५/सिंचलनक्रोधरहिताय सिहायनमः ॥ ५६ श्रीसंचलनमानरहिताय॥ सिवायनमः महासंचलनमायारहिताया। सिहायनमः धन उहासंचलनलोनरहिता । यसिहाय नमः Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धमकीहास्यकर्मरहिताय सि वायनमः । ५०ीरतिकर्मरहितायसिधा यनमः 47ी प्रतिकर्मरहितास ।यनमः पहाशोककरहितायसि वायनमः पानयकर्मरहितायसिद्धा यनमः | काजुगुप्साकर्मरहिताय] - % 3D - सायनमः हीस्त्रीबदरहितायसिधा यनमः - - Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६, पुरुष बेदरहिताय | सिद्धाय नमः ५७ नुझीनपुंसक वेदरहिताय सिधायनमः ५८ ही प्रायुकर्मरहिताय सिधाय नमः पर ही नारका युकर्म रहि | ताय सिद्धाय नमः ६० मुद्री तिर्थ गायकंर्मरहिता | यसिधायनमः ६१ ड्रीमनुष्यायुकर्म रहित | यसिद्दाय नमः ६२ मुङ्गीदे वायु कर्म र हिताय सिद्धायनमः Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - ३ का नामकर्म रहि तार्यसि चायनमः . ६४ानरकगतिनामकर हितायसिधायनमः । ६५/उनीतिर्यचगतिनामकर्म |हितायुसिवायनमः ६६ उडीमनुष्यनामकर्मरहि तायसिद्धाय नमः उहादवगतिकमरहिताय | सिकायनमः ॥६८ कीएकेंत्रीजातिकर्मरहि, तायसिहायनमः माझी प्रियजातिकमरहि तायसिकायनमः - - Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ f ७० मंत्री प्रियजातिकर्मरहिता व्यसिद्धाय नमः ७१ की चतुरंद्रिय जातिकर्मर | हिताय सिद्धायनमः ७२ की पंचेंद्रिय जातिकर्म र हि ताय सिद्धायनमः ७३ मुकीप्रदारिकारी र नामक र्मरहिताय सिद्धाय नमः ७४ की वैक्रियक शरीर नांम | कर्मरहिताय सिद्धायनमः 64 की हार कशरीर नामक | मरहिताय सिद्धाय नमः ७६ मुड़ी तेजस शरीर नाम कमे BO | रहिताय सिद्धाय नमः Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । amam - 16G|ीकार्माणकारीरनामकर्मर हिता सिद्धाय नमः ७०/उदा औदारिकबंधन नामक मरहितायसिहायनमः । || ७कीबैक्रियकबंधन नामकमा रहितायसिधायनमः Moहीमाहारकबंधन नामकम|| रहितायसिद्धायनमः । ८१ छहीतेनसबंधननामकर्मरहा। तायसिधायनमः ८२ श्रीकार्माराबंधननामकमेर। |हितासिधायनमः । ८३ ईत्रिोदारिकसंघातनामका সহৰিবাৰিষাৰস वहीवैक्रियूकसंघातनामक मरहिताय सिंधाथनमः - - - - Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८५ श्रीश्राहारकसंघात नाम कर्मरहितायसिधायनमः ६ उइतिजससंघात नामकर्म रहितायसिद्धाय नमः। उहीकागिसंघातनामक || मरहितायसिधायनमः । झीसमचतुरस्त्रसंस्थानना मकमेरहितायसिधायनमः यहीनिग्रोधपरिमंझलसंस्था| ननामकमरहितायसिहायनमा १०वहीवल्मीकाकृतिसंस्थान रहितायसिधायनमः उहाकुबजक-संस्थानरहि ॥ /तायसिधायनमः Vाबावन संस्थानरहिताया सिहायनमः = = Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ३ उदीमक संस्थानरहिताय॥ सिधायनमः. । यी बौदारिक त्रांगोपांगना !! मकर्मरहितायंसिधायनमः। ही वैक्रियक अंगोपांरानामा कर्मरहितायसिधायनमः । की प्रादारकअंगोपांगनाम|| कमरहिताय सिधायनमः गीवनपननाराच संहन रहितायसिधायनमः |NCीवज्रनाराचसंहननरहि|| तायुसिवायनमः उकी नारा घसंहननरहिताय सिद्धायनमः वाअर्धनाचसंहनन हितायसिहायनमा - - - - - - Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१ मुद्रीकी लिंत संहनन र हिता य सिद्धायनमः १०२ संप्राप्तस्पारिक सं ननरहिताय सिद्धाय नमः १०३ स्वत बर्णनामकर्म रहि ताय सिद्धाय नमः १०४ झीपीतवर्णनांमकर्म र हि ताय सिद्धाय नमः १०५ की हरितवर्णनामकर्मर हिताय सिद्धाय नमः १०६ उंद्री क्रमवर्णनामकर्म र हिताय सिद्धायनमः " की अरुण बर्णनामकर्म र हिताय सिद्धाय नमः बंडी सुगंध नामकर्म रहित य सिद्धाय नमः Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7 १०९ मुद्री दुर्गंधंनामकर्मरहिता य सिद्धाय नमः ११० केंद्री तिक्तरसनामकर्म र हि ताय सिद्धाय नमः १११, ड्री कटुकरस नामकर्म रहिताय सिद्धायनमः ११२ की कषायरसनामकर्मर हिताय सिद्धायनमः १९३ ग्राम्ल रसनामकर्म रहिताय सिद्धाय नमः ११४ की मधुरस नामकर्मरहि ताय सिद्धायन मः ११५ की मृदुरस नामकर्म रखि तायसियायनमः १९६ की कर्कश स्पर्श नामक रहिताय सिद्धाय नमः गुरु स्पर्श नामकर्म र हि ताय सिद्धाय नमः ११७ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ होलधुस्पर्शनामकर्मरः ।। हिताय सिहायनमः होशीतस्पर्शनामकर्मर हितायसिहायनमः ||१२०/जीवदमस्पर्शनामकर्मर॥ हवायसिहासनमः । ॥२१ कास्निग्धस्पर्शनामकरें। रहिताय सिहायनमः " || १२२ श्रीसूक्षस्पर्शनामकर्मर हितायसिहायनमः । १२३ नर्कगत्यानुयूबीनाम कर्मरहितायसिधायनमः ।। २०ीतिर्यग्गत्यानुपूबीनाम कर्मरहितायसिकायनमः ।। २२५ कामनूष्पगत्यानुपूबीना मकर्मरहितायसिघायुनमः ६कीदेवगतिआनुबीना॥ मकर्मरहिताय सिपायनमः। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - -- - - -- - - - - ॥९२७ झीगुरुलघुनामकर्मर हितायसिधायनमः। १२८ कानपघातनामकर्मरहि|| तायसिहायनमः १२कीपरघातनामक मेराही तायसिधायनमः अातापनामकमेरहि तायसिहायनमः ॥१३१ ज्योतनामकर्मरहि | सायसिहायनमः कीउवासनामकमेरहि तायसिहायनमः कीयस्तबिहायोगतिरी हिताय सिहायनमः ||१३४ अप्रस्तविहायोगतिर| हितायसिकायनमः |१३५ मीत्रसकायनामकमरह) तायसिवायनमः । - - - - Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०९३६ क्रीस्थावरकायनामक ग रहितायसिछायनमः ३७ क्रीबादरनामकर्मरहिता यसिहायनमः . १८ वहीसक्षमनामकर्मरहिता यसिहाय नमः ॥श्या बीयरियातनामकर्म रहिम तायसिकायनमः । ||१४०जीअपर्याप्तनामकमेर हिताससिद्धायनमः ११४१ प्रत्येक नामकर्मरहि तायसिद्दाय नमः घरहीसाधारण नामकर्मर हिताय सिद्वायनमः । '४३ क्रीस्थिरनामकमेर हता सिद्धाय नमः Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- - - १४ी -अस्थिरनामकरहि॥ तायसिहायनमः १४५/ उछन नामकर्मरहिता यसिहायनमः । १५६ वही अशुननामकर्मरहि। - तायसिहायनमः १९७४ीशुनगनांमकर्मरहि तायसिहायनमः। १४० इझीदुर्भगनामकर्मरहि तायसिहायनमः १४४ सुस्वर नामकर्मरहि तायसिवायनमः १५० ही दुश्वरनामकर्मरहि तायसिहायनमः १५१ ४ी प्रादेयनामकर्मर हितायसिहायनमः - - - - - Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ ॥१५२/उदीअनादेयनामकर्मर ॥ हिताय सिकायनमः । १५३ झीयशकीर्तिनामकर्म रहिवायसिहायनमः । ॥ २५ त्रयशकीर्तनांमकम रहितायसिहायनमः |२५५ ही निर्माण नामकर्महि । तायसिहायनमः १५६४ीतीर्थकरनामकरण । तायसिहायनमा १५७ उौगोत्रनामकर्मरहिता यसिहायनमः १५० कामगोत्रकर्मरहिता यसिवायनमः । १५पकीनीचगोत्रकर्मरहि ॥ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - १६. उदीअंतरायकर्मरहिता यसिहायनमः । । १६३ कोतरायकर्मर हिताय सिधयनमः १६२ उझालीनांतरायरंहिता १६३ दानाजानरायरहिताया सिद्धायनमः १६४ की उपजोगातरायर ... हिताय सिहायनमः १६पाहावातिरायकर्मरहि तायसिहायनमः । इतिकर्मदहनहतमंत्रजाय्य विधानसंपूर्णम् मितीजेष्ट विलासंवैतष५५पतमा - - - Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ ईनमा सिझेभ्यः अथवीश्रादिना यजीकीपूजालिष्पते प्रमिला सुषमदुषमाथितिमेटिकमभूया पही पदलजिवैरागभयेप्रभु यही असे श्रादिजिनेसमादित्तीय करा श्रद्धाननविधिक विविधि नमिषरा उही श्रीकृषभनाथा जिमेंदायअनावतरावत्तरसंवौष रस्पा हाननं प्रवतिष्ट्रतिष्ठा टिस्थापन प्रधनमसंत्रिहितो नवनववषट्सविधापनं अथा एकदगीता विमलनारमनी नशीतलसरदससिसमवेतही श्रामादमिश्रितहिमनदीवर वैमझकरणातही Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ D - - जरामरणासंभवनासकारणोकनका भाजनलेयही श्रीश्रादिनाथाजिन इकेयुरा चरणांचरचौधेयही नही श्रीआदिनाथ जिनेहायजन्मजरा मत्युविनाशनायजलनिवेपामि तीस्वाहा उद्यान त्राश्रित्तनी अमिलीआदितस्कटमिष्टही । गोसीरगंधसमीर तैलगिहायचे नसुष्टही सोमलयतैकसमारघ सिभवतापनासनलेयही श्री दिनाथ जिनेंदकेयुगचरणचर चौधेयही चंदनं २सरतिगंगा नी पभोगजोगमनोम्पपि || मिनरलक्ष्मिीपावनी ॥ - - भारमोचीसालिसुभगमुहाव - Page #203 --------------------------------------------------------------------------  Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - पदअधयकार राक्षालिजलते जपेचकरेयही श्रीआदिनानि निदकैयुगचराचरचौधेयही उदायी श्रादिनाथजिनेदाय अक्षयपदप्राप्ताय प्रक्षतेनिवा यामितीस्वाहा३ मंदारमेरु सुपारिजातिसुमनवरासु हावना चंचरीकध्यापन परसचतकूरलियावने सो कामवाध्विंसकाराक निकभाजनलयही श्रीधादि नाथाजनेंडकेयुगचरणाच रचौधेयही -- - % 3D Page #205 --------------------------------------------------------------------------  Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । movemamalandan आदिीयीश्रादिनाथजिनेदायकमम बापाविध्वंसनायपुष्पनिर्वामिती स्वाहाध मुरहियतपकवान सुंदर मयविविधिवनायही दीतिरस धरस्वभाजनलषैमनलतचा यही सोक्षधाभंजनरसनिरं जन चारुबरुचषिपेयही आदिनाथजिनेदके युग चर पचर चौंधेयही उही नैवेय। विलोककेउत्पादवैधौवास मिएकलवायही सममोहपा टलविलायज्योधनपवनतन Page #207 --------------------------------------------------------------------------  Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - memaraa % 3Amer यात - - - - - सिजायही सोज्ञानकारगादीपमण मयतेजभास्करलेयही श्रीआदि ही दीपं.६ प्रारसंगहुतासा रिसुराभतेमकवावही बजध लषिदिगपालचितैनालषितधर।। प्रायने सोअसउकरमविध्वंसका रनमलयचंदनषेयही श्री प्रावि नाजिनेडके युगचराचरचौं। धेयही उही धपं७ मधरपक्षी फलीघसुंदरलूलितरवणसुहा वने सुषदायलोचनक्षधामोच नधारणरंजनपावफलमुनि काराप्रमरतरुकेथालभरिका रिलेयही आदिनाथजिनेदके । द्र फलं - - - Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः खंधप्पएसा परमाणुपोग्गला, ते समासतो पंचविहा पण्णत्ता, तंजहा-वण्णपरिणया गंध० रस० 5 अजीवाफास संठाणपरिणया, एवं ते ५ जहा पण्णवणाए, सेत्तं रूविअजीवाभिगमे, सेत्तं अजीवा- भिगमः भिगमे (सू०५) है सू. ३-४-५ __ अथ कोऽसौ अजीवाभिगमः १, सूरिराह-अजीवाभिगमो द्विविध: प्रज्ञप्त , तद्यथा-रूप्यजीवाभिगमोऽरूयजीवाभिगमञ्च, रूपमे-3 पामस्तीति रूपिणः, रूपग्रहणं गन्धादीनामुपलक्षणं, तद्व्यतिरेकेण तस्यासम्भवात् , तथाहि-प्रतिपरमाणु रूपरसगन्धस्पर्शाः, उक्तं च टू -"कारणमेव तदन्त्यं सूक्ष्मो नित्यश्च भवति परमाणुः । एकरसगन्धवर्णो द्विस्पर्शः कार्यलिङ्गश्च ॥ १॥" एतेन यदुच्यते कैश्चित् 'भिन्ना एव रूपपरमाणवो भिन्नाश्च पृथक पृथग रसादिपरमाणव' इति, तदपास्तमवसेयं, प्रत्यक्षबाधितत्वात् , तथाहि-य एव नैरन्तर्येण कुचकलशोपरिनिविष्टा रूपपरमाणव उपलब्धिगोचरास्तेष्वेवाव्यवच्छेदेन सकलेप्वपि स्पर्शोऽप्युपलभ्यते, य एव च घृतादिरसपरमाणवः कर्पूरादिगन्धपरमाणवो वा तेष्वेव नैरन्तर्येण रूपं स्पर्शश्चोपलब्धिविषयः, अन्यथा सान्तरा रूपादयः प्रतीतिपथमिग्रियुः, न च सान्तराः प्रतीयन्ते, तस्मादव्यतिरेक. परस्परं रूपादीनामिति, रूपिणश्च तेऽजीवाश्च रूप्यजीवास्तेषामभिगमो रूप्यजीवाभिगमः पुद्गलरूपाजीवाभिगम इतियावत्, पुद्गलानामेव रूपादिमत्त्वात् , रूपव्यतिरिक्ता अरूपिणो-धर्मास्तिकायादयस्ते च तेऽजीवाश्वारूप्यजीवास्तेपामभिगमोऽरूप्यजीवाभिगमः॥३॥ तत्रारूपिणः प्रत्यक्षाद्यविषया. केवलमागमप्रमाणगम्यास्तत्त्वत इति प्रथमतस्तद्विपयं प्रभसूत्रमाह सुगम, सूरिराह-'अरुवी'त्यादि ।। अरूप्यजीवाभिगमः 'दशविधः' दशप्रकार: प्रज्ञप्तः, तदेव दशविधत्वमा-तंजहेत्यादि, 'तद्य-5 &थेति वक्ष्यमाणभेदकथनोपन्यासार्थः, धर्मास्तिकायः, 'एवं जहा पण्णवणाए' इति 'एवम्' उक्तेन प्रकारेण यथा प्रज्ञापनायां तथा Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्तव्यं तावद् यावत् 'सेत्तं असंसारसमापन्नजीवाभिगमे' इति, तच्चैवम्-“धम्मस्थिकाए धम्मत्थिकायस्स देसे धम्मस्थिकायस्स पएसा अधम्मत्थिकाए अधम्मत्थिकायस्स देसे अधम्मत्थिकायस्स पएसा आगासत्थिकाए आगासत्थिकायस्स देसे आगासत्थिकायस्स पएसा अद्धासमये” इति, तत्र जीवानां पुद्गलानां च स्वभावत एव गतिपरिणामपरिणतानां तत्स्वभावधारणात्पोषणाद्धर्मः अस्तयः-प्रदेशास्तेषां कायः-सवात: "गण काए य निकाए खंधे वग्गे तहेव रासी य” इति वचनात् अस्तिकाय:-प्रदेशसङ्घात इत्यर्थः, धर्मश्चासावस्तिकायश्च धर्मास्तिकायः, अनेन सकलधर्मास्तिकायरूपमवयविद्रव्यमाह, अवयवी च नाम अवयवानां तथारूप: सक्चातपरिणामविशेष एव, न पुनरवयवद्रव्येभ्यः पृथगर्थान्तरद्रव्यं, तस्यानुपलम्भात् , तन्तव एव हि आतानवितानरूपसङ्घातपरिणामविशेषमापन्ना लोके पटव्यपदेशभाज उपलभ्यन्ते, न तदतिरिक्तं पटाख्यं नाम द्रव्यम्, उक्तं चान्यैरपि--"तन्त्वादिव्यतिरेकेण, न पटाद्युपलम्भनमतन्त्वादयोऽविशिष्टा हि, पटादिव्यपदेशिनः ॥ १॥" कृतं प्रसङ्गेन, अन्यत्र धर्मसङ्ग्रहणिटीकादावेतद्वादस्य चर्चितत्वात् , तथा तस्यैव बुद्धिपरिकल्पितो व्यादिप्रदेशासको विभागो धर्मास्तिकायस्य देशः, धर्मास्तिकायस्य प्रदेशा:-प्रकृष्टा देशाः प्रदेशाः, प्रदेशा निर्विभागा भागा इति, ते चासङ्ख्येयाः, लोकाकाशप्रदेशप्रमाणत्वात्तेषाम् , अत एव बहुवचनं, धर्मास्तिकायप्रतिपक्षभूतोऽधर्मास्तिकायः, किमुक्तं भवति-जीवानां पुद्गलानां च स्थितिपरिणामपरिणतानां तत्परिणामोपष्टम्भकोऽमूर्तोऽसङ्ख्यातप्रदेशासकोऽधर्मास्तिकायः, अधमास्तिकायस्य देश इत्यादि पूर्ववत्, तथा आ-समन्तात्सर्वाण्यपि द्रव्याणि काशन्ते-दीप्यन्तेऽत्र व्यवस्थितानीत्याकाशम् , अस्तय:प्रदेशास्तेषां कायोऽस्तिकायः, आकाशं च तदस्तिकायश्चाकाशास्तिकायः, आकाशास्तिकायस्य देश इत्यादि प्राग्वत्, नवरमस्य प्रदेशा अनन्ताः, अलोकस्यानन्तत्वात् , 'अद्धासमय' इति, अद्धेति कालस्याख्या, अद्धा चासौ समयश्चाद्धासमयः, अथवाऽद्धायाः समयो M Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजीवाभिगमः श्रीजीवा- निर्विभागो भागोऽद्धासमयः, अयं चैक एवं वर्त्तमानः परमार्थतः सन् नातीतानागताः, तेषां यथाक्रमं विनष्टानुत्पन्नत्वात् , ततः काय- जीवाभिवाभावादेशप्रदेशकल्पनाविरहः, अथाकाशकालौ लोकेऽपि प्रतीताविति तौ श्रद्धातुं शक्येते, धर्माधर्मास्तिकायौ तु कथं प्रत्येतव्यौ ? मलयगि- येन तद्विषया श्रद्धा भवेत् , उच्यते, गतिस्थितिकार्यदर्शनात्, तथाहि-यद् यदन्वयव्यतिरेकानुविधायि तत्तद्वेतुकमिति व्यवहर्त्तव्यं, रीयावृत्तिःटायथा चक्षुरिन्द्रियान्वयव्यतिरेकानुविधायि चाक्षुपं विज्ञानं, तथा च जीवानां पुद्गलानां च गतिस्थितिपरिणामपरिणतानामपि गतिस्थिती यथाक्रमं धर्माधर्मास्तिकायान्वयव्यतिरेकानुविधायिन्यौ, तस्मात्ते तद्वेतुके, न चायमसिद्धो हेतुः, तथाहि-जीवानां पुद्गलानां च गतिस्थितिपरिणामपरिणतानामपि गतिस्थिती न तत्परिणमनमात्रहेतुके, तन्मात्रहेतुकतायामलोकेऽपि तत्प्रसक्तेः, अथ न तत्परिणमनमात्रं हेतु: किन्तु विशिष्टः परिणामः, स चेत्थंभूतो यथा लोकमात्रक्षेत्रस्यान्तरेऽत्र गतिस्थितिभ्यां भवितव्यं न वहिः प्रदेशमात्रमप्यधिक, ननु स एवेत्थम्भूतो विशिष्टपरिणाम आकालं जीवानां पुद्गलानां चोत्कर्पतोऽप्येतावत्प्रमाण एवाभूदु भवति भविष्यति वा न तु कदाचनाप्यधिकतर इत्यत्र किं नियामकं ?, यथा हि किल परमाणोर्जघन्यतः परमाणुमात्रक्षेत्रातिक्रममादिं कृत्वोत्कर्षतश्चतुर्दशरज्ज्वासकमपि क्षेत्रं यावद् गतिरुपजायते तथा परतोऽपि प्रदेशमात्रमप्यधिका किं न भवति ?, तस्मादवश्यमत्र किश्चिनियामकमपरं वक्तव्यं, तच्च धर्माधोस्तिकायावेव नाकाशमात्रम् , आकाशमात्रस्यालोकेऽपि सम्भवात् , नापि लोकपरिमितमाकाशम्, इतरेतराश्रयदोपप्रसङ्गात्,* सूतथाहि-जीवाना पुद्गलानां चान्यत्र गतिस्थित्योरभावे सिद्वे सति विवक्षितस्य परिमितस्याकाशस्य लोकवसिद्धिः, तत्सिद्धौ चान्यत्र जीवपुद्गलानां गतिस्थित्यभावसिद्धिरित्येकाभावेऽन्यतरस्याप्यभावः, अथ किमिदमसंबद्धमुच्यते', यत् लोकत्वेन सम्प्रति व्यवहियते क्षेत्रं, तावन्मात्रस्यैवाकाशखण्डस्य गतिस्थित्युपष्टम्भकखभावो न परस्य प्रदेशमात्रस्यापि ततो न कश्चिद्दोपः, ननु तावन्मात्रस्यैवाकाशस्य Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स स्वभावो न परस्य प्रदेशमात्रस्यापीत्यत्रापि सुधियः कारणान्तरं मृगयन्ते, आकाशवमात्रस्योभयत्रापि तुल्यत्वात् , विशेषणमन्तरेण च वैशिष्ट्यायोगात् , कारणान्तरं धर्माधर्मास्तिकायभावाभावावेव नापरमिति स्थितम् , अन्यञ्च-तावन्मात्रस्याकाशखण्डस्य स खभावो न परस्येत्यपि कुतः प्रमाणात्परिकल्प्यते', आगमप्रमाणादिति चेत् तथाहि-तावत्येवाकाशखण्डे जीवानां च पुद्गलानां च गतिस्थितिमतां गतिस्थिती तत्र तत्र व्यावयेते न परत इति, यद्येवं तांगमप्रामाण्यवलादेव धर्माधर्मास्तिकायावपि गतिस्थितिनिवन्धनमिष्येयाता किमाकाशखण्डस्य निर्मूलस्वभावान्तरपरिकल्पनाऽऽयासेनेति कृतं प्रसङ्गेन । अथामीपामित्थं क्रमोपन्यासे किं प्रयोजनम् ?, उच्यते, इह धर्मास्तिकाय इति पदं मङ्गलभूतम् , आदौ धर्मशब्दान्वितत्वात् , पदार्थप्ररूपणा च सम्प्रत्युक्षिप्ता वर्त्तते, ततो मगलार्थमादी धर्मास्तिकायस्योपादानं, धर्मास्तिकायप्रतिपक्षभूतश्चाधर्मास्तिकाय इति तदनन्तरमधर्मास्तिकायस्य, द्वयोरपि चानयोराधारभूतमाकाशमिति तद-1 नन्तरमाकाशास्तिकायस्य, ततः पुनरजीवसाधादद्धासमयस्य, अथवा इह धर्माधर्मास्तिकायौ विभू न भवतः, तद्विभुत्वेन तत्सामर्थ्यतो जीवपुद्गलानामस्खलितप्रचारप्रवृत्तेर्लोकव्यवस्थाऽनुपपत्तेः, अस्ति च लोकालोकव्यवस्था, तत एतावविभू सन्तौ यत्र क्षेत्रे समवगाढौ ता-8 वत्प्रमाणो लोकः, शेषस्त्वलोक इति सिद्धम् , उक्तं च-"धर्माधर्मविभुत्वात्सर्वत्र च जीवपुद्गलविचारात् । नालोकः कश्चित्स्यान्न च संमतमेतदार्याणाम् ॥ १॥ तस्माद्धर्माधर्माववगाढौ व्याप्य लोकखं सर्वम् । एवं हि परिच्छिन्नः सिद्ध्यति लोकस्तविभुत्वात् ॥ २॥" तत एवं लोकालोकव्यवस्थाहेतू धर्माधर्मास्तिकायावित्यनयोरादावुपादानं, तत्रापि माङ्गलिकत्वात् प्रथमतो धर्मास्तिकायस्य, तत्प्रतिपक्षत्वात् ततोऽधर्मास्तिकायस्य, ततो लोकालोकव्यापित्वादाकाशास्तिकायस्य, तदनन्तरं लोके समयासमयक्षेत्रव्यवस्थाकारित्वादद्धासमयस्य, एवमागमानुसारेणान्यदपि युक्त्यनुपाति वक्तव्यमित्यलं प्रसङ्गेन, प्रकृतं प्रस्तुमः, अत्रोपसंहारवाक्यं-सेत्तं अरूविअजीवाभि Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजीवा जीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः रमाण इत्यर्थः कन्धदेशानन्तत्वयलपरिणाममजान्तवख्यापनार्थ, विहे पण्णते,. गमे । अत ऊर्दू मिदं सूत्रम्-'से किं तं रूविअजीवाभिगमे ?, रूविअजीवाभिगमे चउविहे पण्णत्ते, तं०-खंधा खंघदेसा खंधपएसा परमाणुपुग्गला' इह स्कन्धा इत्यत्र बहुवचनं पुद्गलस्कन्धानामनन्तत्वख्यापनार्थ, तथा चोक्तम्-"दव्वतो णं पुग्गलत्थिकाए णं, अनन्ते" इत्यादि, 'स्कन्धदेशाः स्कन्धानामेव स्कन्धत्वपरिणाममजहतां बुद्धिपरिकल्पिता द्वयादिप्रदेशालका विभागाः, अत्रापि बहुवचनमनन्तप्रदेशिकेषु स्कन्धेषु स्कन्धदेशानन्तत्वसंभावनार्थ, 'स्कन्धप्रदेशाः' स्कन्धानां स्कन्धत्वपरिणाममजहतां प्रकृष्टा देशा:-निविभागा भागाः परमाणव इत्यर्थः, 'परमाणुपुद्गलाः' स्कन्धत्वपरिणामरहिताः केवलाः परमाणवः । अत ऊर्दू सूत्रमिदम्-'ते समासतो पंचविधा पमत्ता, तंजहा-वण्णपरिणया गंधपरिणता रसपरिणता फासपरिणता संठाणपरिणता, तत्थ णं जे वण्णपरिणया ते पंचविहा पन्नता, तंजहा-कालवण्णपरिणता नीलवण्णपरिणता इत्यादि तावद् यावत् 'सेत्तं रूविअजीवाभिगमे, सेवं अजीवाभिगमे ॥ से किं तं जीवाभिगमे ?, जीवाभिगमे दुविहे पण्णते, तंजहा-संसारसमावण्णगजीवाभिगमे य असंसारसमावण्णगजीवाभिगमे य (सू० ६) से किं तं असंसारसमावण्णगजीवाभिगमे, २ दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-अणंतरसिद्धासंसारसमावण्णगजीवाभिगमे य परंपरसिद्धासंसारसमावण्णगजीवाभिगमे य । से किं तं अणंतरसिद्धासंसारसमावण्णगजीवाभिगमे ?, २ पपणरसविहे पण्णत्ते, तंजहा-तित्थसिद्धा जाव अणेगसिद्धा, सेत्तं अणंतरसिद्धा । से किं तं परंपरसिद्धासंसारसमावण्णगजीवाभिगमे १, २ अणेगविहे पण्णत्ते, तंजहा-पढमसमयसिद्धा दुसमय जीवाजीवाभि० जीवाभिगमः , *CRORSCLUGARCARROSECRECTOR पण्णत्ते, तंजहा। से किं तं असारसमावण्णगजीवाभिसमावण्णगजीवाभि नारसमावण्णगजीसदा जाव अणेगसितारसमावण्णगजीवादित परसिद्धासंसारमा Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धा जाव अणंतसमयसिद्धा, से तं परंपरसिद्धासंसारसमावण्णगजीवाभिगमे, सेत्तं असं सारसमाषण्णगजीवाभिगमे (सू०७) संसरणं संसारो-नारकतिर्यनरामरभवभ्रमणलक्षणस्तं सम्यग-एकीभावेनापन्ना:-प्राप्ताः संसारसमापन्ना:-संसारवर्तिनस्ते च ते| जीवाश्च तेषामभिगमः संसारसमापन्नजीवाभिगमः, तथा न संसारोऽसंसार:-संसारप्रतिपक्षभूतो मोक्ष इत्यर्थः तं समापन्ना असंसारसमापन्नास्ते च ते जीवाश्च तेषामभिगमोऽसंसारसमापन्नजीवाभिगमः, चशब्दौ उभयेषामपि जीवानां जीवत्वं प्रति तुल्यकक्षतासूचकौ, | तेन ये विध्यातप्रदीपकल्पं निर्वाणमभ्युपगतवन्त: ये च नवानामासगुणानामत्यन्तोच्छेदेन ते निरस्ता द्रष्टव्याः, तथाभूतमोक्षाभ्युपगमे तदर्थ प्रेक्षावतां प्रवृत्त्यनुपपत्तेः, न खलु सचेतनः खवधाय कण्ठे कुठारिका व्यापारयति, दु:खितोऽपि हि जीवन् कदाचिद् भद्रमाप्रयात् मृतेन तु निर्मूलमपि हस्तिताः सम्पद इति, इह केवलान् अजीवान् जीवांश्चानुच्चार्याभिगमशब्दसंवलितप्रश्नोऽभिगमव्यतिरेकेण प्रतिपत्तेरसम्भवतस्तेषामभिगमगम्यताधर्मख्यापनार्थः तेन 'सदेवेदमित्यादि सदद्वैताद्यपोह उक्तो वेदितव्यः, सदद्वैताद्यभ्युपगमेऽभिगमगम्यतारूपधर्मायोगतः प्रतिपत्तेरेवासम्भवात् । तत्राल्पवक्तव्यत्वात्प्रथमतोऽसंसारसमापन्नजीवाभिगमसूत्रम्-से किं तं असंसारसमावनजीवाभिगमे?, २ दुविहे पं०, तं०-अनंतरसिद्धअसंसारसमावन्नजीवाभिगमे परंपरसिद्धअसंसारसमावन्नजीवाभिगमे य' इत्यादि तावद्वाच्यं यावदुपसंहारवाक्यं 'सेत्तं असंसारसमापन्नजीवाभिगमें अस्य व्याख्यानं प्रज्ञापनाटीकातो वेदितव्यं, तत्र सविस्तरमुक्तत्वात् ॥ सम्प्रति संसारसमापन्नजीवाभिगममभिधित्सुस्तत्प्रनसूत्रमाह से किं तं संसारसमावन्नजीवाभिगमे?, संसारसमावण्णएसु णं जीवेसु इमाओ णव पडिवत्तीओ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजीवाजीवाभि मलयगि रीयावृत्तिः ॥८॥ एवमाहिलंति, तं०-एगे एवमाहंसु-दुविहा संसारसमावण्णगा जीवा पं०, एगे एवमाहंसु-तिविहा जीवाजीसंसारसमावण्णगा जीवा पं०, एगे एवमाहंसु-चउविहा संसारसमावण्णगा जीवा पं०, एगे है वाभि० एवमाहंसु-पंचविहा संसारसमावण्णगा जीवा पं०, एतेणं अभिलावेणं जाव दसविहा संसार- * प्रतिपत्तिः समावण्णगा जीवा पण्णत्ता (सू०८) सूरिराह-संसारसमापन्नेषु णमिति वाक्यालङ्कारे जीवेपु 'इमाः' वक्ष्यमाणलक्षणा 'नव प्रतिपत्तयों' द्विप्रत्यवतारमादौ कृला ४ दशप्रत्यवतारं यावद् ये नव प्रत्यवतारास्तद्रूपाणि प्रतिपादनानि संवित्तय इतियावत् ‘एवं' वक्ष्यमाणया रीत्याऽऽख्यायन्ते पूर्वसूरिभिः, है इह प्रतिपत्त्याख्यानेन प्रणालिकयाऽर्थाख्यानं द्रष्टव्यं, प्रतिपत्तिभावेऽपि शब्दादर्थे प्रवृत्तिकरणात् , तेन यदुच्यते शब्दाद्वैतवादिभिः'शब्दमात्र विश्वमिति, तदपास्तं द्रष्टव्यं, तदपासने चेयमुपपत्ति:-एकान्तकस्वरूपे वस्तुन्यभिधानद्वयासम्भवात् भिन्नप्रवृत्तिनिमित्ता-8 भावात् , ततश्च शब्दमात्रमित्येव स्यात् न विश्वमिति, प्रणालिकयाऽर्थाभिधानमेवोपदर्शयति, तद्यथा-एके आचार्या एवमाख्यातवन्तःद्विविधाः संसारसमापन्ना जीवाः प्रज्ञप्ताः, एके आचार्या एवमाख्यातवन्त:-त्रिविधाः संसारसमापन्ना जीवाः, एवं यावद्दशविधा इति, इह एके इति न पृथग्मतावलम्विनो दर्शनान्तरीया इव केचिदन्ये आचार्याः, किन्तु य एव पूर्व द्विप्रत्यवतारविवक्षायां वर्तमाना एवहै मुक्तवन्तः यथा द्विविधाः संसारसमापन्ना जीवा इति त एव त्रिप्रत्यवतारविवक्षायां वर्तमानाः, द्विप्रत्यवतारविवक्षामपेक्ष्य त्रिप्रत्यवतार विवक्षाया अन्यत्वात् , विवक्षावतां तु कथश्चिद् भेदादन्य इति वेदितव्याः, अत एव प्रतिपत्तय इति परमार्थतोऽनुयोगद्वाराणीति प्रतिपत्तव्यम्, इह य एव द्विविधास्त एव त्रिविधास्त एव चतुर्विधा यावद्दशविधा इति तेपामनेकखभावतायां तत्तद्धर्मभेदेन तथा यार्थ्याख्यानं द्रष्टव्यमान संवित्तय इतियातनव प्रतिपत्तयो' विषय Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथाऽभिधानता युज्यते, नान्यथा, एकान्तकस्वभावतायां तेषां वैचित्र्यायोगतस्तथा तथाऽभिधानप्रवृत्तेरसम्भवात् , एवं सति "अष्टविकल्पं देवं तिर्यग्योनं च पञ्चधा भवति । मानुष्यं चैकविधं समासतो भौतिकः सर्गः॥१॥” इति वाड्यात्रमेव, अधिष्ठातृजीवानामेकरूपत्वाभ्युपगमेन तथारूपवैचित्र्यासम्भवादिति, एवमन्येऽपि प्रवादास्तथा तथा वस्तुवैचित्र्यप्रतिपादनपरा निरस्ता द्रष्टव्याः, सर्वथैकस्वभावत्वाभ्युपगतौ वैचित्र्यायोगात् ॥ सम्प्रत्येता एव प्रतिपत्तीः क्रमेण व्याचिख्यासुः प्रथमत आद्यां प्रतिपत्तिं विभावयिपुरिदमाह__ तत्थ(णं) जे एवमाहंसु 'दुविहा संसारसमावण्णगा जीवा पं०' ते एवमाहंसु-तं०-तसा चेव । थावरा चेव ॥ (सू०९) 'तत्र' तेषु नवसु प्रतिपत्तिषु मध्ये ये द्विप्रत्यवतारविवक्षायां वर्तमाना एवं व्याख्यातवन्त:-द्विविधाः संसारसमापनका जीवा: प्रज्ञप्ता इति ते 'णम्' इति वाक्यालङ्कारे ‘एवं' वक्ष्यमाणरीत्या द्विविधत्वभावनार्थमाख्यातवन्तः, 'तद्यथे' त्युपन्यस्तद्वैविध्योपदर्शनार्थः, साश्चैव स्थावराश्चैव, तत्र त्रसन्ति-उष्णाद्यभितप्ताः सन्तो विवक्षितस्थानादुद्विजन्ति गच्छन्ति च छायाद्यासेवनार्थ स्थानान्तरमिति त्रसाः, अनया च व्युत्पत्त्या त्रसालसनामकर्मोदयवर्त्तिन एव परिगृह्यन्ते, न शेषाः, अथ शेषैरपीह प्रयोजनं, तेषामप्यग्रे वक्ष्यमाणत्वात् , तत एवं व्युत्पत्तिः-त्रसन्ति-अभिसन्धिपूर्वकमनभिसन्धिपूर्वकं वा ऊर्द्धमधस्तिर्यक् चलन्तीति प्रसा:-तेजोवायवो द्वीन्द्रियादयश्च, उष्णाद्यभितापेऽपि तत्स्थानपरिहारासमर्थाः सन्तस्तिष्ठन्तीत्येवंशीलाः स्थावरा:-पृथिव्यादयः, चशब्दौ खगतानेकभेदसमुच्चया, एवकारा ववधारणार्थों, अत एव संसारसमापन्नका जीवाः, एतद्व्यतिरेकेण संसारिणामभावात् ॥ तत्राल्पवक्तव्यत्वात्प्रथमतः स्थावरानभिधित्सु13स्तत्प्रश्नसूत्रमाह Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाजीवाभि० प्रतिपत्तिः श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः त ॥९॥ है से किं तं थावरा?, २ तिविहा पन्नसा, तंजहा-पुढविकाइया १ आउकाइया २ वणस्सइकाइया ३॥ (सू०१०) अथ के ते स्थावरा:?, सूरिराह-स्थावरात्रिविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-पृथिवीकाया एव पृथिवीकायिकाः, आर्षत्वात्स्वार्थे इकप्रत्ययः, आपो-द्रवास्ताश्च प्रतीताः ता एव काय:-शरीरं येषां ते अप्कायाः अप्काया एवाप्कायिकाः, वनस्पति:-लतादिरूपः प्रतीत: स एव कायः-शरीरं येषां ते वनस्पतिकायाः वनस्पतिकाया एव वनस्पतिकायिकाः, सर्वत्र बहुवचन बहुवख्यापनार्थ, तेन 'पृथिवी देवते'त्यादिना यत्तदेकजीवत्वमानप्रतिपादनं तदपास्तमवसेयं, यदि पुनस्तदधिष्ठात्री काचनापि देवता परिकल्प्यते तदानीमेकत्वेऽप्यविरोधः । इह सर्वभूताधारः पृथिवीति प्रथमं पृथिवीकायिकानामुपादानं, तदनन्तरं तत्प्रतिष्ठितत्वादप्कायिकानां, तदनन्तरं "जत्थ जलं तत्थ वणं" इति सैद्धान्तिकवस्तुप्रतिपादनार्थ वनस्पतिकायिकानामिति, इह त्रिविधत्वं स्थावराणां तेजोवायूनां लब्ध्या स्थावराणामपि सतां गतित्रसेष्वन्तावविवक्षणात्, तथा च तत्त्वार्थसूत्रमप्येवं व्यवस्थितं "पृथिव्यम्बुवनस्पतयः स्थावराः ॥ तेजोवायू द्वीन्द्रियादयश्च त्रसाः” (तत्त्वा० अ० २ सू० १३-१४) इति, तत्र 'यथोद्देशं निर्देश' इति प्रथमतः पृथिवीकायिकप्रतिपादनार्थमाह से किंतं पुढविकाइया?, २दुविहा पं०, तं०-सुहुमपुढविकाइया य बायरपुढविक्काइया य ॥ (सू०११) अथ के ते पृथिवीकायिकाः?, सूरिराह-पृथिवीकायिका द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-सूक्ष्मपृथिवीकायिकाश्च बदरपृथिवीकायिकाश्च, तत्र सूक्ष्मनामकर्मोदयात्सूक्ष्मा वादरनामकर्मोदयात्तु बादराः, कर्मोदयजनिते खल्वेते सूक्ष्मवादरत्वे, नापेक्षिके वदामलकयो- ५ % 2 Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रिव, सूक्ष्माश्च ते पृथिवीकायिकाश्च सूक्ष्मपृथिवीकायिकाः, बादराश्च ते पृथिवीकायिकाश्च वादरपृथिवीकायिकाः, चशब्दौ स्वगतानेकभेदसूचकौ, सूक्ष्माः सकललोकवर्तिनो बादराः प्रतिनियतैकदेशधारिणः ॥ तत्र सूक्ष्मपृथिवीकायिकप्रतिपादनार्थमाह से किं तं सुहमपुढविक्काइया?, २ दुविहा पं०, तं०-पज्जत्तगा य अपज्जत्तगा य॥ (सू०१२) | अथ के ते सूक्ष्मपृथिवीकायिकाः?, सूरिराह-सूक्ष्मपृथिवीकायिका द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-पर्याप्तकाश्चापर्याप्तकाश्व, तत्र पर्याप्ति माहारादिपुद्गलग्रह्णपरिणमनहेतुरात्मनः शक्तिविशेषः, स च पुद्गलोपचयादुपजायते, किमुक्तं भवति ?-उत्पत्तिदेशमागतेन प्रथमं ये गृहीताः पुद्गलास्तेषां तथाऽन्येपामपि प्रतिसमयं गृह्यमाणानां तत्संपर्कतस्तद्रूपतया जातानां यः शक्तिविशेष आहारादिपुद्गलखलरसरूपतापादनहेतुर्यथोदरान्तर्गतानां पुद्गलविशेषाणामाहारपुद्गलविशेषाणामाहारपुद्गलखलरसरूपतापरिणमनहेतुः सा पर्याप्तिः, सा च पोढा, तद्यथा-आहारपर्याप्तिः १ शरीरपर्याप्तिः २ इन्द्रियपर्याप्तिः ३ प्राणापानपर्याप्तिः ४ भापापर्याप्तिः ५ मन:पर्याप्तिश्च ६, तत्र यया बाह्यमाहारमादाय खलरसरूपतया परिणमयति साऽऽहारपर्याप्तिः १, यया रसीभूतमाहारं रसामृग्मांसमेदोऽस्थिमज्जाशुक्रलक्षणसप्तधातुरूपतया परिणमयति सा शरीरपर्याप्तिः २, यया धातुरूपतया परिणमितमाहारमिन्द्रियरूपतया परिणमयति सा इन्द्रियपर्याप्तिः ३, यया पुनरुच्छासप्रायोग्यवर्गणापुद्गलानादायोच्छासरूपतया परिणमय्यालम्ब्य च मुञ्चति सा उच्छासपर्याप्तिः ४, यया तु भाषाप्रायोग्यान पुद्गलानादाय भाषात्वेन परिणमय्यालम्व्य च मुञ्चति सा भाषापर्याप्तिः ५, यया पुनर्मनःप्रायोग्यवर्गणालिकमादाय मनस्त्वेन परिणमय्यालम्व्य च मुञ्चति सा मनःपर्याप्तिः ६, एताश्च यथाक्रममेकेन्द्रियाणां सञ्जिवर्जानां द्वीन्द्रियादीनां संज्ञिनां च चतुपञ्चषट्सङ्ख्या भवन्ति, उत्पत्तिप्रथमसमये एव च एता यथायथं सर्वा अपि युगपन्निष्पादयितुमारभ्यन्ते क्रमेण च निष्ठामुपयान्ति, Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजीवा-४ तद्यथा-प्रथममाहारपर्याप्तिस्ततः शरीरपर्याप्तिस्तत इन्द्रियपर्याप्तिरित्यादि, आहारपर्याप्तिश्च प्रथमसमय एव निष्पत्तिमुपगच्छति, शेपास्तु जीवाभि० ६ प्रत्येकमन्तर्मुहूर्तेन कालेन, अथाहारपर्याप्तिः प्रथमसमय एव निष्पद्यत इति कथमवसीयते ?, उच्यते, इह भगवताय॑श्यामेन प्रमलयगि ज्ञापनायामाहारपदे द्वितीयोदेशके सूत्रमिदमपाठि-"आहारपज्जत्तीए अपज्जत्तए णं भते! किं आहारए अणाहारए?, गोयमा! रीयावृत्तिः 8 नो आहारए अणाहारए” इति, तत आहारपर्याप्त्या अपर्याप्तो विग्रहगतावेवोपपद्यते नोपपातक्षेत्रमागतोऽपि, उपपातक्षेत्रसमागतस्य ॥१०॥ प्रथमसमय एवाहारकत्वात् , तत एकसामायिकी आहारपर्याप्तिनिर्वृत्तिः, यदि पुनरुपपातक्षेत्रसमागतोऽप्याहारपर्याप्त्या अपर्याप्तः स्यार त्तत एवं व्याकरणसूत्रं पठेत्-"सिय आहारए सिय अणाहारए" यथा शरीरादिपर्याप्तिपु "सिय आहारए सिय अणाहारए" इति, सर्वासामपि च पर्याप्तीनां पर्याप्तिपरिसमाप्तिकालोऽन्तर्मुहूर्त्तप्रमाणः, पर्याप्तयो विद्यन्ते येषां ते पर्याप्ताः, 'अभ्रादिभ्य' इति मत्वर्थीयोप्रत्ययः, पर्याप्ता एव पर्याप्तकाः, ये पुनः खयोग्यपर्याप्तिपरिसमाप्तिविकलास्तेऽपर्याप्ताः अपर्याप्ता एवापर्याप्तकाः, ते द्विधा-लब्ध्या करणैश्च, तत्र येऽपर्याप्तका एव नियन्ते ते लब्ध्याऽपर्याप्तकाः, ये पुनः करणानि-शरीरेन्द्रियादीनि न तावनिर्वर्त्तयन्ति अथचावश्य निर्वर्तयिष्यन्ति ते करणापर्याप्ताः संप्राप्ताः ॥ सम्प्रति विनेयजनानुग्रहाय शेपवक्तव्यतासङ्ग्रहार्थमिदं सद्मणिगाथाद्वयमाह-सरीरोगाहणसंघयण संठाणकसाय तह य हुंति सन्नाओ । लेसिदियसमुग्धाए सन्नी वेए य पजत्ती ॥१॥ दिही दसणनाणे जोगुवओगे तहा किमाहारे । उववायठिई समुग्धाय चवणगइरागई चेव ॥ २ ॥ अस्य व्याख्या-प्रथमतः सूक्ष्मपृथिवीकायिकानां शरीराणि वक्तव्यानि, तदनन्तरमवगाहना, ततः संहननं, तदनन्तरं संस्थानं, तत: कपायाः, ततः कति भवन्ति सज्ञा: इति वक्तव्यं, ततो लेश्या:, तदनन्तरमिन्द्रियाणि, ततः समुद्घाताः, ततः किं सज्जिनोऽसम्झिनो वा? इति वक्तव्यं, तदनन्तरं वेदो वक्तव्यः, तत: पर्याप्तयो जीवाजीवाभि० प्रतिपत्तिः ROCRACREGASCRICALCREACOC0-56 ॥१०॥ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | यथा कति पर्याप्तयः सूक्ष्मपृथिवीकायिकानाम् ? इत्यादि, पर्याप्तिग्रहणमुपलक्षणं तेन तत्प्रतिपक्षभूता अपर्याप्तयोऽपि वक्तव्या इति द द्रष्टव्यं, तदनन्तरं दृष्टिर्वक्तव्या, ततो दर्शनं, तदनन्तरं ज्ञानं, ततो योगः, तत उपयोगः, तथा किमाहारमाहारयन्ति सूक्ष्मपृथिवीका|यिकाः ? इत्यादि वक्तव्यं, तदनन्तरमुपपातः, तत: स्थितिः, तत: समुद्घातः समुद्घातमधिकृत्य मरणं वक्तव्यमित्यर्थः, तदनन्तरं च्यवनं, ततो गत्यागती इति, इति सर्वसङ्ख्यया त्रयोविंशतिराणि, तत्र प्रथमद्वारव्याख्यानार्थमाह तेसि णं भंते! जीवाणं कतिसरीरया पण्णत्ता, गोयमा! तओ सरीरगा पं०, तं०-ओरालिए तेयए कम्मए।तेसि णं भंते! जीवाणं केमहालिया सरीरोगाहणा पं०, गो०! जहन्नेणं अंगुलासंखेज्जतिभागं उक्कोसेणवि अंगुलासंखेजतिभागं॥तेसि णं भंते! जीवाणं सरीरा किंसंघर्यणा पण्णत्ता?, गोयमा! छेवट्ठसंघयणा पण्णत्ता ॥ तेसि णं भंते ! सरीरा किंसंठिया पं०?, गोयमा! मसूरचंदसंठिता पण्णत्ता॥ तेसिणं भंते! जीवाणं कति कसाया पण्णत्ता?, गोयमा! चत्तारि कसाया पण्णत्ता, तंजहा-कोहकसाए माणकसाए मायाकसाए लोहकसाए ॥ तेसि णं भंते ! जीवाणं कति सण्णा पपणत्ता ?, गोयमा! चत्तारि पण्णत्ता, तंजहा-आहारसण्णा जाव परिग्गहसन्ना ॥ तेसि णं भंते! जीवाणं कति लेसाओ पण्णत्ताओ?, गोयमा ! तिन्नि लेस्सा पन्नत्ता, तंजहा-किण्हलेस्सा नीललेसा काउलेसा ॥ तेसि णं भंते ! जीवाणं कति इंदियाइं पण्णत्ताई?, गोयमा ! एगे फासिदिए पण्णत्ते॥ तेसि णं भंते! जीवाणं कति समुग्घाया पण्णत्ता ?, गोयमा ! तओ समुग्घाया पण्णत्ता, तंजहा Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजीवाजीवाभि. मलयगिरीयावृत्तिः र जीवाजी वाभि० प्रतिपत्तिः ॥११॥ वेयणासमुग्घाते कसायसमुग्घाए मारणंतियसमुग्घाए ॥ ते णं भंते ! जीवा किं सन्नी असन्नी ?, गोयमा! नो सन्नी असन्नी ॥ तेणं भंते ! जीवा किं इत्थिवेया पुरिसवेया णपुंसगवेया ?, गोयमा! णो इत्थिवेया णो पुरिसवेया णपुंसगवेया ॥ तेसि णं भंते! जीवाणं कति पज्जत्तीओ पण्णताओ?, गोयमा! चत्तारि पज्जत्तीओ पण्णत्ताओ, तंजहा-आहारपजत्ती सरीरपज्जत्ती इंदियपज्जत्ती आणपाणुपज्जत्ती। तेसि णं भंते ! जीवाणं कति अपज्जत्तीओ पण्णत्ताओ?, गोयमा! चत्तारि अपज्जत्तीओ पण्णत्ताओ, तंजहा-आहारअपजत्ती जाव आणापाणुअपज्जत्ती ॥ तेणं भंते ! जीवा किं सम्मदिट्ठी मिच्छादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्टी?, गोयमा! णो सम्मदिट्टी मिच्छादिट्ठी नो सम्ममिच्छादिट्ठी॥ ते णं भंते ! जीवा किं चक्खुदंसणी अचकखुदंसणी ओहिदसणी केवलदंसणी ?, गोयमा! नो चक्खुदंसणी अचक्खुदंसणी नो ओहिदसणी नो केवलदसणी ॥ तेणं भंते ! जीवा किं नाणी अण्णाणी?, गोयमा! नो नाणी अण्णाणी, नियमा दुअण्णाणी, तंजहा-मतिअन्नाणी सुयअण्णाणी य॥ तेणं भंते! जीवा किं मणजोगी वयजोगी कायजोगी?, गोयमा ! नो मणजोगी नो वयजोगी कायजोगी ॥ तेणं भंते ! जीवा किं सागारोवउत्ता अणागारोवउत्ता?, गोयमा! सागारोवउत्तावि अणागारोवउत्तावि॥ ते णं भंते! जीवा किमाहारमाहारेंति ?, गोयमा! व्यतो अणंतपदेसियाई खेत्तओ असंखेजपदेसोगाढाई कालओ अन्नयर ।। ११॥ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयहितीयाइंभावतो वण्णवं(म)ताई गंधवं(म)ताईरसवं(म)ताई फासवं(मं)वाइं॥ जाई भावओ घण्णमंताई आ०, ताई कि एगवण्णाई आ० दुवण्णाई आ० तिवण्णाई आ० चउवण्णाई आ० पंचवण्णाई आ०?, गोयमा ! ठाणमग्गणं पडुच एगवण्णाइंपि दुवण्णाइंपि तिवण्णाईपि चउवण्णाइपि पंचवण्णाइंपि आ०, विहाणमग्गणं पडच कालाइंपि आ० जाव सुकिलाइंपि आ०, जाई वण्णओ कालाई आ० ताई कि एगगुणकालाई आ० जाव अणंतगुणकालाई आ०१, गोयमा ! एगगुणकालाईपि आ० जाव अणंतगुणकालाइंपि आ० एवं जाव सुकिलाइं ॥ जाई भावतो गंधमंताई आ० ताई किं एगगंधाइं आ० दुगंधाइं आ०?, गोयमा! ठाणमग्गणं पडुच्च एगगंधाइंपि आ० दुगंधाइंपि आ०, विहाणमग्गणं पडुच्च सुन्भिगंधाइंपि आ० दुन्भिगंधाइंपि आ०, जाइं गंधतो सुन्भिगंधाई आ० ताई किं एगगुणसुभिगंधाई आ० जाव अणंतगुणसुरभिगंधाइं आ०?, गोयमा! एगगुणसुन्भिगंधाइंपि आ० जाव अणंतगुणसुन्भिगंधाइंपि, आ० एवं दुन्भिगंधाइंपि ॥ रसा जहा वण्णा ॥ जाई भावतो फासवं(मं)ताई आ० ताई किं एगफासाइं आ० जाव अट्टफासाइं आ०?, गोयमा ! ठाणमग्गणं पडुच्च नो एगफासाई आ० नो दुफासाई आ० नो तिफासाई आ० चउफासाई आ० पंचफासाइपि जाव अहफासाइंपि आ०, विहाणमग्गणं पडच कक्खडाईपि आ० जाव लुक्खाइपि आ०, जाई फासतो कक्खडाई आ० Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजीवाजीवाभि मलयगि-8 रीयावृत्तिः जीवाजी वाभि० 8 प्रतिपत्तिः ॥१२॥ ताई किं एगगुणकक्खडाई आ० जाव अणंतगुणकक्खडाइं आ०?, गोयमा! एगगुणकक्खडाइंपि आ० जाव अणंतगुणकक्खडाईपि आ० एवं जाव लुक्खा णेयव्वा ॥ ताई भंते ! किं पुट्ठाई आ० अपुट्ठाई आ०?, गोयमा! पुट्ठाई आ० नो अपुट्ठाई आ०, ताई भंते! ओगाढाई आ० अणोगाढाई आ०१, गोयमा! ओगाढाई आ० नो अणोगाढाई आ०, ताई भंते! किमणंतरोगाढाई आ० परंपरोगाढाई आ०?, गोयमा! अणंतरोगाढाई आ० नो परंपरोगाढाई आ०, ताई भंते ! किं अणूई आ० बायराई आ० १, गोयमा! अणूइंपि आ० बायराइंपि आहारैति, ताई भंते ! उहूं आ० अहे आ० तिरियं आहारैति, गोयमा! उहूंपि आ० अहेवि आ० तिरियंपि आ०, ताई भंते ! किं आई आ० मज्झे आ० पजवसाणे आहारैति?, गोयमा! आदिपि आ० मज्झेवि आ० पज्जवसाणेवि आ०, ताई भंते! किं सविसए आ० अविसए आ०?, गोयमा! सविसए आ० नो अविसए आ०, ताई भंते! किं आणुपुट्विं आ० अणाणुपुर्दिव आहारति ?, गोयमा! आणुपुब्वि आहारेंति नो अणाणुपुर्दिव आहारेंति, ताई भंते! किं तिदिसिं आहारैति चउदिसिं आहारैति पंचदिसिं आहारेंति छदिसिं आहारैति?, गोयमा! निव्वाघाएणं छदिसिं, वाघातं पडच सिय तिदिसिं सिय चउदिसिं सिय पंचदिसिं, उस्सन्नकारणं पडच वण्णतो काला नीला जाव सुकिलाई, गंधतो सुन्भिगंधाई दुन्भिगंधाइं, रसतो जाव तित्तमहुराई, फासतो ॥१२॥ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कक्खडमउयजाव निद्धलुक्खाइं, तेसिं पोराणे वण्णगुणे विप्परिणामइत्ता परिपालइत्ता परिसाडइत्ता परिविद्धंसइत्ता अण्णे अपुव्वे-वपणगुणे गंधगुणे जाव फासगुणे उप्पाइत्ता आतसरीरओगाढा पोग्गले सव्वप्पणयाए आहारमाहारेंति ॥ ते णं भंते! जीवा कतोहिंतो उववजंति ? किं नेरइएहिंतो उववजंति तिरिक्खमणुस्सदेवेहिंतो उववजंति ?, गोयमा! नो नेरइएहिंतो उच-. वजंति, तिरिक्खजोणिएहिंतो उववनंति मणुस्सेहिंतो उववनंति, नो देवेहिंतो उववजंति, तिरिक्खजोणियपजत्तापजत्तेहिंतो असंखेजवासाउयवजहिंतो उववज्जंति, मणुस्सहिंतो अकम्मभूमिगअसंखेजवासाउयवजहिंतो उववजंति, वकंतीउववाओ भाणियव्वो ॥ तेसि णं भंते! जीवाणं केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ?, गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणवि अंतोमुहुत्तं ॥ ते णं भंते ! जीवा मारणंतियसमुग्धातेणं किं समोया मरंति असमोहया मरंति ?, गोयमा ! समोहयावि मरंति असमोहयावि मरंति ॥ तेणं भंते ! जीवा अणंतरं उच्चहित्ता कहिं गच्छति ? . कहिं उववजति ?-किं नेरइएसु उववजंति तिरिक्खजोणिएसु उ० मणुस्सेसु उ० देवेसु उवव०१, गोयमा ! नो नेरइएसु उववनंति तिरिक्खजोणिएस उ० मणुस्सेसु उ० णो देवेसु उवव० । किं एगिदिएसु उवववति जाव पंचिंदिएसु उ०.१,-गोयमा ! एगिदिएसु उववजंति जाव पंचेंदियतिरिक्खज़ोणिएसु उववजंति, असंखेनवासाउयवजेसु पज्जत्तापज्जत्तएसु उव०, मणुस्सेसु अ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजीवा कम्मभूमगअंतरदीवगअसंखेजवासाउयवजेसु पजत्तापजत्तएसु उव०॥ ते णं भंते! जीवा ११प्रतिपत्ती जीवाभि० ते कतिगतिका कतिआगतिका पण्णत्ता ?, गोयमा! दुगतिया दुआगतिया, परित्ता असंखेज्जा सूक्ष्मपृ___ मलयगि- पण्णत्ता समणाउसो!, से तं सुहुमपुढविक्काइया ॥ (सू०१३) । थ्वीकायाः रीयावृत्तिः _ 'तेषां' सूक्ष्मपृथिवीकायिकानां णमिति वाक्यालकारे 'भदन्त !' परमकल्याणयोगिन् । कति शरीराणि प्रज्ञप्तानि?, अथ कः कमेव- सू०१३ * माह ?, उच्यते, भगवान् गौतमो भगवन्तं श्रीमन्महावीर, कथमेतद् विनिश्चीयते इति चेद्, उच्यते, निर्वचनसूत्रात् , ननु गौतमोऽपि ॥१३॥ भगवान् उपचितकुशलमूलो गणधरस्तीर्थकरभापितमातृकापदत्रयश्रवणमात्रावाप्तप्रकृष्ट श्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमश्चतुर्दशपूर्व विद् विवक्षितार्थपरिज्ञानसमन्वित एव ततः किमर्थ पृच्छति ?, तथाहि-न चतुर्दशपूर्वविदः प्रज्ञापनीयं किञ्चिदविदितमस्ति, विशेषतः सर्वाक्षरसंनिपातिनः संभिन्नश्रोतसो भगवतो गणभृतः सर्वोत्कृष्टश्रुतलब्धिसमन्वितस्य गौतमस्य, उक्तं च "संखातीते वि भवे साहइ जं वा 5 परो उ पुच्छेजा । न य णं अणाइसेसी वियाणई एस छउमत्थो ॥१॥" उच्यते, शिष्यसंप्रत्ययाथै, तथाहि-जानन्नेव भगवान् अन्यत्र विनेयेभ्यः प्रतिपाद्य तत्संप्रत्ययनिमित्तं भूयोऽपि भगवन्तं पृच्छतीति, अथवा गणधरप्रमतीर्थकरनिर्वचनरूपं किञ्चित्सूत्रमितीस्थमधिकृतसूत्रकारः सूत्रं रचितवान् , यदिवा संभवति भगवतोऽपि खल्पोऽनाभोगः छद्मस्थत्वादिति पृच्छति, उक्तं च-"न हि नामानाभोगश्छद्मस्थस्येह कस्यचिन्नास्ति । ज्ञानावरणीयं हि ज्ञानावरणप्रकृति कर्म ॥ १ ॥” इति कृतं प्रसनेन, प्रस्तुतमुच्यते, भगवानाह-गोयमेत्यादि, अनेन लोकप्रथितमहागोत्रविशिष्टाभिधायकनामश्रणध्वनिनाऽऽमन्त्रयन्निदं ज्ञापयति-प्रधानासाधारणगुणेनोत्साह्य ॥ १३ ॥ १ संख्यातीतानपि भवान् साधयति यद्वा पर पृच्छेत् । न चानतिशायी विजानात्येप छमस्थ (इति)॥१॥ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनेयस्य धर्मः कथनीयः, इत्थमेव सम्यक्प्रतिपत्तियोगादिति, त्रीणि शरीराणि प्रज्ञप्तानि, इह शरीराणि पश्च भवन्ति, तद्यथा-औदारिकं वैक्रियमाहारकं तैजसं कार्मणं च, तत्रोदारं-प्रधानं, प्राधान्यं चास्य तीर्थकरगणधरशरीराण्यधिकृत्य, ततोऽन्यस्यानुत्तरसुरशरीरस्यापि अनन्तगुणहीनत्वात् , यद्वा उदारं सातिरेकयोजनसहस्रमानवात शेषशरीरापेक्षया बृहत्प्रधान, बृहत्ता चास्य वैक्रियं प्रति भवधारणीयसहजशरीरापेक्षया द्रष्टव्या, अन्यथोत्तरवैक्रियं योजनलक्षमानमपि लभ्यते, उदारमेव औदारिकं, विनयादिपाठादिकण् १, तथा| विविधा विशिष्टा वा क्रिया विक्रिया तस्यां भवं वैक्रियं. तथाहि-तदेकं भवाऽनेक भवति अनेक भूत्वा एकं तथाऽणु भूत्वा महद्भवात महच भूत्वाऽणु तथा खचरं भूत्वा भूमिचरं भवति भमिचरं भत्ता खचरं तथा दृश्यं भवाऽदृश्यं भवति अदृश्य भूत्वा ६२चामात तञ्च द्विविधम्-औपपातिकं लब्धिप्रत्ययं च, तत्रौपपातिकमुपपातजन्मनिमित्तं, तच्च देवनारकाणां, लब्धिप्रत्ययं तिर्यग्मनुष्याणां २, तथा चतुर्दशपूर्व विदां तीर्थकरस्फातिदर्शनादिकतथाविधप्रयोजनोत्पत्तौ सत्यां विशिष्टलब्धिवशादाहियते-निर्वत्यैते इत्याहारकं, 'कृद्वहुलकमिति वचनात्कर्मणि बुज, यथा पादहारक इत्यत्र, उक्तं च-कैजंमि समुप्पन्ने सुयकेवलिणा विसिट्ठलद्धीए । जं एत्थ आहरिजई भणंति आहारगं तं तु ॥ १॥" कार्य चेदम-पाणिदयरिद्धिदसण सहमपयत्थावगाहहे वा । संसयवोच्छेयर्थ गमणं जिणपायमूलंमि ॥१॥” एतच्चाहारकं कदाचनापि लोके सर्वथाऽपि न भवति, तञ्चाभवनं जघन्यत एक समयमुत्कर्षतः षण्मासान् यावत्, उक्तं च-"आहारगाइ लोगे छम्मासा जा न होतिवि कयाई। उक्कोसेणं नियमा एक समयं जहन्नेणं ॥१॥" आहारकं च शरीर RA-- SERIAL MIL १ कायें समुत्पन्ने श्रुतकेवलिना विशिष्टलब्ध्या । यदनाहियते भणन्याहारकं तत्त॥१॥ २ प्राणिदयाऋद्धिदर्शनसूक्ष्मपदार्थावगाहहेतवे वा । संशय व्युच्छेदाथे गमन जिनपादमूले ॥१॥ ३ आहारकादयो नियमाल्लोके षण्मासान यावन्न भवन्त्यपि कदाचित् । उत्कृष्टतो नियमात् एक समय जघन्यन ॥१॥ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥ १४ ॥ वैक्रियशरीरापेक्षयाऽत्यन्तशुभं स्वच्छस्फटिक शिलेव शुभ्रपुद्गलसमूहात्मकं ३, तथा तेजसां - तेजः पुद्गलानां विकारस्तैजसं 'विकार' इत्यंण्, तत् औष्मलिङ्गं भुक्ताहारपरिणमनकारणं, ततश्च विशिष्टतपः समुत्थलब्धिविशेषस्य पुंसस्तेजोलेश्याविनिर्गमः, उक्तं च- "सेव्वस्स उम्ह सिद्धं रसाइआहारपाकजणगं च । तेयगलद्धिनिमित्तं च तेयगं होइ नायव्वं ॥ १ ॥” ४, तथा कर्मणो जातं कर्मजं, किमुक्तं भवति ? - कर्मपरमाणव एवात्मप्रदेशैः सह क्षीरनीरवदन्योऽन्यानुगता. सन्तः शरीररूपतया परिणताः कर्मजं शरीरमिति, अत एवैतदन्यत्र का - मित्युक्तं कर्मणो विकारः कार्मणमिति, तथा चोक्तम् — “केम्मविकारो कम्मणमह विविचित्तकम्म निप्पन्नं । सव्वेसि सरीराणं कारणभूयं गुणेयव्वं ॥ १ ॥" अ 'सच्चेसि' मिति सर्वेषामौदारिकादीनां शरीराणां कारणभूतं - बीजभूतं कार्मणं शरीरं, न खल्वामूलमुच्छिन्ने भवप्रपञ्चप्ररोहबीजभूते कार्मणे वपुपि शेपशरीरप्रादुर्भावः, इदं च कर्मजं शरीरं जन्तोर्गत्यन्तरसङ्क्रान्तौ साधकतमं कारणं, तथाहि — कर्मजेनैव वपुषा तैजसस हितेन परिकरितो जन्तुर्मरणदेश मपहायोत्पत्तिदेशमभिसर्पति, ननु यदि तैजस सहित कार्मणवपुः परिकरितो गत्यन्तरं संक्रामति तर्हि स गच्छन्नागच्छन् कस्मान्न दृष्टिपथमवतरति ?, उच्यते, कर्मपुद्गलानां तेजसपुद्गलानां चाति | सूक्ष्मतया चक्षुरादीन्द्रियागोचरत्वात् तथा च परतीर्थिकैरप्युक्तम् — “अन्तरा भवदेहोऽपि, सूक्ष्मत्वान्नोपलभ्यते । निष्क्रामन् प्रविशन् वाऽपि, नाभावोऽनीक्षणादपि ॥ १ ॥” एतेषां पश्वानां शरीराणां मध्ये यानि त्रीणि शरीराणि सूक्ष्मपृथिवीकायिकाना तानि नामग्राहमुपदर्शयति — तं जहा - ओरालिए तेयए कम्मए, वैक्रियाहारके तु तेषां न संभवतो, भवस्वभावत एव तल्लब्धिशून्यत्वात् । १ सर्वस्योष्ण्यसिद्ध रसायाहारपाकजनकं च । तेजोलब्धिनिमित्त च तेजस भवति ज्ञातव्यम् ॥ १ ॥ २ कर्मविकारः कार्मणमष्टविधविचित्रकर्मनिष्पन्नम् । सवृषां शरीराणा कारणभूतं, मुणितव्य ॥ १ ॥ १ प्रतिपत्ती सूक्ष्मपृथ्वीकायाः सू० १३ ॥ १४ ॥ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधुनाऽवगाहनाद्वारमाह — 'तेसिणं भंते !' इत्यादि सुगमं, नवरं जघन्य पदोत्कृष्टपदयोस्तुल्यश्रुतावपि जघन्यपदादुत्कृष्ट पदमधिकमवसातव्यम् ॥ संहननद्वारमाह- तेसिणमित्यादि, तेषां भदन्त ! जीवानां शरीरकाणि किंसंहननानि प्रज्ञप्तानि ?, संहननं नामास्थिनिचयरूपं, तच पोढा, तद्यथा-वज्रऋषभनाराचं ऋषभनाराचं नाराचमर्द्धनाराचं कीलिका छेदवर्त्ति च, तत्र वज्रं - कीलिका ऋषभ :-परिवेष्टनपट्ट: नाराचस्तूभयतो मर्कटबन्धः ततश्च द्वयोरस्भोरुभयतो मर्कटबन्धेन वंद्धयोः पट्टाकृतिं गच्छता तृतीयेनास्था परिवेष्टितयोरुपरि तदस्थित्रयभेदि कीलिकाख्यं वज्रनामकमस्थि यत्र भवति तद्वज्रऋषभनाराचसन्ज्ञं प्रथमं संहननं १ यत्पुनः कीलिकारहितं संहननं तत् ऋषभनाराचं द्वितीयं संहननं २, तथा यत्रास्नोर्मर्कटबन्ध एव केवलस्तन्नाराचसां तृतीयं संहननं ३, यत्र पुनरेकपार्श्वे मर्कटबन्धो द्वितीये च पार्श्वे कीलिका तदर्द्धनाराचं चतुर्थ संहननं ४, तथा यत्रास्थीनि कीलिकामात्रबद्धानि तत्कीलिकाख्यं प ध्वमं संहननं ५, तथा यत्रास्थीनि परस्परं छेदेन वर्त्तन्ते न कीलिकामात्रेणापि बन्धस्तत् षष्ठं छेदवर्त्ति, तच प्रायो मनुष्यादीनां नित्यं स्नेहाभ्यङ्गादिरूपां परिशीलनामपेक्षते ६, इत्थं षोढा संहननसम्भवे संशय: - तेषां शरीराणि किंसंहननानि प्रज्ञप्तानि ? इति, भगवानाह गौतम ! छेदवर्त्तिसंहननानि प्रज्ञतानि, अयमन्त्राभिप्राय: - यद्यपि सूक्ष्मपृथिवीकायिकानामस्थ्यभावस्तथाऽप्यौदारिकशरीरिणामस्थ्यामकेन संहननेन यः शक्तिविशेष उपजायते सोऽप्युपचारात्संहननमिति व्यवहियते, शक्तिविशेषश्चात्यन्तमल्पीयान् सूक्ष्मपृथिवीकायिकानामप्यस्त्यौदारिकशरीरित्वात्, जघन्यश्च शक्तिविशेषश्छेदवर्त्तिसंहननविषय इति तेषामपि छेदवर्त्तिसंहननमुक्तम् ॥ गतं संहननद्वारं, | सम्प्रति संस्थानद्वारमाह-- ' तेसिणं भंते!' इत्यादि सुगमं, नवरं 'मसूरगचंदसंठिया' इति, मसूरकाख्यस्य - धान्यविशेषस्य यञ्चन्द्राकृति दलं स मसूरकचन्द्रस्तद्वदनुसंस्थितानि मसूरकचंद्र संस्थिताति, अत्रायं भावार्थ:-इह जीवानां षट् संस्थानानि तानि च समचतुरस्रादीनि Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजीवा जीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥ १५ ॥ वक्ष्यमाणलक्षणानि तेषामाद्यानि पञ्च संस्थानानि मसूरचन्द्रकाकारे न संभवन्ति, तलक्षणायोगात्, तत इदं मसूरचन्द्रकाकारं संस्थानं हुण्डं प्रतिपत्तव्यं, सर्वत्रासंस्थितत्वरूपस्य तलक्षणस्य योगात्, जीवानां संस्थानान्तराभावाघ, आह् च मूलटीकाकारः - " संस्थानं मसूरचन्द्रकसंस्थितमपि हुण्डं, सर्वत्रासंस्थितलेन तलक्षणयोगात्, जीवानां संस्थानान्तराभावाने "ति ॥ गतं संस्थानद्वारमधुना कपायद्वारमाह- 'तेसिणं भंते !" इत्यादि तेषां भदन्त ! सूक्ष्मपृथ्वी कायिकानां कति कपायाः प्रज्ञप्ताः १, तत्र कपाया नाम कप्यन्ते - हिंस्यन्ते परस्परमस्मिन् प्राणिन इति कपः - संसारस्तमयन्ते - गच्छन्त्येभिर्जन्तव इति कषाया:- क्रोधादयः परिणामविशेषाः, तथा चाह - 'गोयमेत्यादि सुगमं, नवरं क्रोधः - अप्रीतिपरिणामः मानो - गर्वपरिणामः माया - निकृतिरूपा लोभो-गालक्षणः, एते च क्रोधादयोSमीषां मन्दपरिणाम तयाऽनुपदर्शित बाह्यशरीर विकारा एवानाभोगतस्तथा तथा वैचित्र्येण भवन्तः प्रतिपत्तव्याः ॥ गतं कपायद्वारं, सज्ञाद्वारमाह- 'ते सिण' मित्यादि सुगमं, नवरं सञ्ज्ञानं सञ्ज्ञा सा च द्विधा - ज्ञानरूपाऽनुभवरूपा च तत्र ज्ञानरूपा मतिश्रुतावधिमनःपर्यायकेवलभेदात्पञ्चप्रकारा, तत्र केवलसञ्ज्ञा क्षायिकी शेषास्तु क्षायोपशमिक्यः, अनुभवसञ्ज्ञा स्वकृता सातावेदनीयादिकर्मविपाकोदयसमुत्था, इह प्रयोजनमनुभवसन्ज्ञया, ज्ञानसन्ज्ञायास्तद्वारेण परिगृहीतलात्, तत्राहारसञ्ज्ञा नाम आहाराभिलापः भुवृनीयप्रभवः खल्वासपरिणामविशेषः, एषा चासातावेदनीयोदयादुपजायते, 'भयसज्ञा' भयवेदनीयोदयजनितत्रासपरिणामरूपा, 'परिमहसञ्ज्ञा' लोभविपाकोदयसमुत्थमूर्छा परिणामरूपा, 'मैथुनसज्ञा' वेदोदयजनिता मैथुनाभिलापः, एताश्चतस्रोऽपि मोहनीयोदयभवाः, एता अपि सूक्ष्मपृथ्वी कायिकानामव्यक्तरूपाः प्रतिपत्तव्याः ॥ गतं सञ्ज्ञाद्वारमधुना लेश्याद्वारमाह- 'ते सिण' मित्यादि सुगमं, नवरं लिश्यति - ते आला कर्मणा सहानयेति लेश्या - कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यादासनः शुभाशुभपरिणामः, उक्तं च - "कृष्णादि १ प्रतिपसौ सूक्ष्मपृथ्वीकायाः सू० १३ ॥ १५ ॥ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यसाचिव्यात्परिणामो य आमनः । स्फटिकस्येव तत्रायं, लेश्याशब्दः प्रवर्त्तते ॥ १॥" सा च षोढा, तद्यथा-कृष्णलेश्या नीललेश्या कापोतलेश्या तेजोलेश्या पद्मलेश्या शुक्लेश्या च, आसां च स्वरूपं जम्बूफलखादकषट्पुरुषदृष्टान्तेनैवावसातव्यम्-"पंथाओ परिभट्ठा छप्पुरिसा अडविमज्झयारंमि । जंबूतरुस्स हेट्ठा परोप्परं ते विचिंतेति ॥ १ ॥ निम्मूलखंधसाला गोच्छे पके य पडियसडियाई । जह एएसिं भावा तह लेसाओवि नायव्वा ॥२॥" अमीषां च सूक्ष्मपृथिवीकायिकानामतिसंक्लिष्टपरिणामत्वाद्देवेभ्यः सूक्ष्मेष्वनुत्पादाच्चाद्या एव तिस्रः कृष्णनीलकापोतरूपा लेश्याः, न शेषा इति ॥ गतं लेश्याद्वारमिदानीमिन्द्रियद्वारमाह-'तेसिण'मियादि, इन्द्रियं नाम 'इदु परमैश्वर्ये' 'उदितः' इति नम्, इन्दनादिन्द्रः-आमा सर्वोपलब्धिरूपपरमैश्वर्ययोगात् तस्य लिङ्गं-चिह्नमविनाभावि इन्द्रियम् , 'इन्द्रिय'मिति निपातनसूत्राद्रूपनिष्पत्तिः, तत्पञ्चधा, तद्यथा-श्रोत्रेन्द्रियं चक्षुरिन्द्रियं जिह्वेन्द्रियं घ्राणेन्द्रियं स्पर्शनेन्द्रियं च, एकैकमपि द्विधा-द्रव्येन्द्रियं भावेन्द्रियं च, द्रव्येन्द्रियं द्विधा-निवृत्तिरूपमुपकरणरूपं च, तत्र निर्वृत्ति म प्रतिविशिष्टः संस्थानविशेषः, साऽपि द्विधा-बाह्याऽभ्यन्तरा च, तत्र बाह्या कर्णपर्पटिकादिरूपा, सा च विचित्रा न प्रतिनियतरूपतया निर्देष्टुं शक्यते, तथाहि-मनुष्यस्य श्रोत्रे नेत्रयोरुभयपार्श्वतोभाविनी भ्रवावुपरितनश्रवणबन्धापेक्षया समे, वाजिनो नेत्रयोरुपरि तीक्ष्णे चाग्रभागे इत्यादि, अभ्यन्तरा तु निर्वृत्तिः सर्वेषामप्येकरूपा, तामेवाधिकृत्य चामूनि सूत्राणि प्रावतिषत-"सोईदिए णं भंते! किंसंठाणसंठिए पण्णत्ते ?, गोयमा! कलंबुयासंठाणसंठिए पन्नत्ते, चक्खिदिए णं भंते! किंसंठाणसंठिए पन्नत्ते ?, गोयमा! मसूरचंदसंठाणसंठिए पन्नत्ते, १पथ. परिश्रष्टा. षट् पुरुषा अटवीमध्यभागे । जम्बूतरोरधस्तात् परस्पर ते विचिन्तयन्ति ॥ १॥ निर्मूलं स्कन्धं शाखा प्रशाखा गुच्छान् (छित्त्वा ) पक्वानि 12 पतितशटितानि (भक्षयाम ) । यथैतेषा भावास्तथा लेश्या अपि ज्ञातव्या ॥२॥ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१६॥ श्रीजीवा- घाणिदिए णं भंते! किंसंठाणसंठिए पनत्ते?, गोयमा! अइमुत्तसंठाणसंठिए पनत्ते, जिभिदिए णं भंते! किंसंठाणसंठिए पन्नत्ते, १प्रतिपचौ जीवाभि० ६ गोयमा खुरप्पसंठाणसंठिए पन्नत्ते, फासिदिए णं भंते किंसंठाणसंठिए पण्णत्ते?, गोयमा! नाणासंठाणसंठिए पन्नत्ते ॥” इति, इह सूक्ष्मपृमलयगि-* स्पर्शनेन्द्रियनिर्वृत्तेः प्रायो न वायाभ्यन्तरभेदः, तत्त्वार्थमूलटीकायोमनभ्युपगमात् , उपकरणं नाम खजस्थानीयाया बाह्यनिर्वृत्तेर्या ध्वीकायाः रीयावृत्तिः खगधारास्थानीया स्वच्छतरपुद्गलसमूहासिकाऽभ्यन्तरा निर्वृत्तिस्तस्याः शक्तिविशेषः, इदं चोपकरणरूपं द्रव्येन्द्रियमान्तरनिर्वृत्तेः कथञ्चि- 5-सू०१३ दर्यान्तरं, शक्तिशक्तिमतोः कथञ्चिद्भेदात् , कथञ्चिद्भेदश्व सत्यामपि तस्यामान्तरनिवृत्तौ द्रव्यादिनोपकरणस्योपघातसम्भवात् , तथाहि -सत्यामपि कदम्बपुष्पाद्याकृतिरूपायामान्तरायां निर्वृत्तौ महाकठोरतरघनगर्जितादिना शक्त्युपघाते सति न परिच्छेत्तुमीशते जन्तवः । 5 शब्दादिकमिति, भावेन्द्रियमपि द्विधा-लब्धिरुपयोगश्च, तत्र लब्धिः श्रोत्रेन्द्रियादिविषयस्तदावरणक्षयोपशमः, उपयोगः स्वस्वविषये ४ लब्ध्यनुसारेणासन: परिच्छेदव्यापारः, तत्र यद्यपि द्रव्यरूपं भावरूपं चेत्थमिन्द्रियमनेकप्रकारं तथाऽपीह वाह्यनिर्वृत्तिरूपमिन्द्रियं पृष्टमवगन्तव्यं, तदेवाधिकृत्य व्यवहारप्रवृत्तेः, तथाहि-बकुलादयः पञ्चेन्द्रिया इव भावेन्द्रियपश्वकविज्ञानसमन्विता भनुमानतः प्रतीयन्ते तथाऽपि न ते पञ्चेन्द्रिया इति व्यवहियन्ते, बालेन्द्रियपञ्चकासम्भवात् , उक्तं च-पंचेंदिओ उ बउलो नरो व्व सव्वविसओवलंभाओ । तहवि न भण्णइ पंचिंदिउ ति बझिदियाभावा ॥१॥" ततो द्रव्येन्द्रियमधिकृत्य निर्वचनसूत्रमाह-'गोयमे'त्यादि । सुगमम् ।। गतमिन्द्रियवारमधुना समुद्घातद्वार, तत्र समुद्घाताः सप्त, तद्यथा-वेदनासमुद्घात:१ कषायसमुद्घात: २ मारणसमुद्घात: ३ वैक्रियसमुद्घातः ४ वैजससमुद्घात: ५ आहारकसमुद्घातः ६ केवलिसमुद्घातश्च ७, तत्र वेदनायाः समुद्घातो वेदनासमुद्घात:, १ पधेन्द्रिय एव बकुलो नर इव सर्वविषयोपत्तम्भात् । तथापि न भण्यते पञ्चेन्द्रिय इति बानियाभावात् ॥१॥ +CES ॥१२ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स चासातवेदनीयकर्माश्रयः १, कषायेण-कषायोदयेन समुद्घातः कषायसमुद्घातः, स च कषायचारित्रमोहनीयकर्माश्रयः २, मरणे भवो मारणः, स चासो समुद्घातश्च मारणसमुद्घात: ३, वैक्रिये प्रारभ्यमाणे समुद्घातो वैक्रियसमुद्घातः, स च वैक्रियशरीरनामकर्माश्रयः ४, (तैजसेन हेतुभूतेन समुद्घातस्तैजससमुद्घातः तैजसशरीरनामकर्माश्रयः) ५, आहारके प्रारभ्यमाणे समुद्घात आहारकसमुद्घातः, स चाहारकशरीरनामकर्माश्रयः ६, केवलिनि अन्तर्मुहूर्त्तभाविपरमपदे समुद्घात: केवलिसमुद्घात: दा७ । अथ समुद्घात इति कः शब्दार्थः ?, उच्यते-समिति-एकीभावे उत्-प्राबल्ये एकीभावेन प्राबल्येन घातः समुद्घातः, केन सहा एकीभावगमनम् ? इति चेद्, उच्यते, अर्थाद्वेदनादिभिः, तथाहि-यदा आमा वेदनादिसमुद्घातगतो भवति तदा वेदनाद्यनुभवज्ञानप|| रिणत एव भवति नान्यज्ञानपरिणतः, प्राबल्येन घातः कथम् ? इति चेद्, उच्यते, इह वेदनादिसमुद्घातपरिणतो बहून् वेदनीयादि४ कर्मपुद्गलान् कालान्तरानुभवयोग्यानुदीरणाकरणेनाकृष्योदयावलिकायां प्रक्षिप्यानुभूयानुभूय निर्जरयति, आसप्रदेशेभ्यः शातयतीति भावः, तत्र वेदनासमुद्घातगत आमा वेदनीयकर्मपुद्गलपरिशातं करोति, तथाहि-वेदनाकरालितो जीवः स्वप्रदेशाननन्तानन्तकर्मपरमाणुवेष्टितान् शरीरावहिरपि विक्षिपति, तैश्च प्रदेशैर्वदनजघनादिरन्ध्राणि कर्णस्कन्धाद्यन्तरालानि चापूर्यायामतो विस्तरतश्च शरीरमात्र क्षेत्रमभिव्याप्यान्तर्मुहूर्त यावदवतिष्ठते, तस्मिंश्चान्तर्मुहूर्ते प्रभूतासातवेदनीयकर्मपुद्गलपरिशातं करोति , कषायसमुद्घातसमुद्धतः कषायाख्यचारित्रमोहनीयकर्मपुद्गलपरिशातं करोति, तथाहि-कषायोदयसमाकुलो जीवः स्वप्रदेशान् बहिर्विक्षिप्य तैर्वदनोदरादिरन्ध्राणि कर्णस्कन्धाद्यन्तरालानि चापूर्यायामविस्तराभ्यां देहमानं क्षेत्रमभिव्याप्य वर्त्तते, तथाभूतश्च प्रभूतकषायकर्मपुद्गलपरिझातं करोति, एवं मरणसमुद्घातगत आयुःकर्मपुद्गलपरिशातं करोति, वैक्रियसमुद्घातगत: पुनर्जीवः स्वप्रदेशान् शरीराद्वहिनिष्काश्य शरीरवि Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजीवा- ष्कम्भवाहल्यमानमायामतः सङ्ख्येययोजनप्रमाणं दण्डं निसृजति, निसृज्य च यथास्थूलान् वैक्रियशरीरनामकर्मपुद्गलान् प्राग्बद्धान् प्रतिपत्ता जीवाभि० दशातयंति, तथा चोक्तम्-"वेउब्वियसमुग्याए णं समोहणइ २ त्ता संखिजाई जोयणाई दंडं निसिरइ, निसिरित्ता अहाबायरे पुग्गले ६ मा मलयगि- परिसाडेइ" इति, तैजसाहारकसमुद्घातौ वैक्रियसमुद्घातवदवसातव्यौ, केवलं तैजससमुद्घातगतस्तैजसशरीरनामकर्मपुद्गलपरिशातं तश्वीकाया: रीयावृत्तिः करोति, आहारकसमुद्घातगत आहारकशरीरनामकर्मपुद्गलपरिशातं करोति, केवलिसमुद्घातसमुद्धतस्तु केवली सदसवेदनीयशुभाशुभना- स. १३ मोचनीचेगोत्रकर्मपुद्गलपरिशातं (करोति), केवलिसमुद्घातवर्जाः शेषाः पडपि समुद्घाता: प्रत्येकमान्तमौहूर्तिकाः, केवलिसमुद्घातः पुनरष्टसामयिकः, उक्तं च प्रज्ञापनायाम्-'वेयणासमुग्घाएणं कइसमइए पण्णत्ते', गोयमा! असंखेजसमइए अंतमुहुत्ते, एवं जाव आहारगसमुग्घाए। केवलिसमुग्घाए णं भंते कइसमइए पण्णत्ते ?, गोयमा अट्ठसमइए पण्णत्ते ॥” इति, तदेवमनेकसमुद्घातसम्भवे सूक्ष्मपृथिवीकायिकानां तान् पृच्छति-'तेसिणं भंते' इत्यादि सुगम, नवरं वैक्रियाहारकतैजसकेवलिसमुद्घाताभावो वैक्रियादिलब्ध्यभावात् ॥ हूँ गतं समुद्घातद्वारं, सम्प्रति सज्ञिद्वारमाह-'तेणं भंते' इत्यादि, 'ते' सूक्ष्मपृथिवीकायिकाः णमिति वाक्यालङ्कारे भदन्त ! किं सज्ञिनोऽसब्जिनो वा', सज्ञानं सज्ञा-भूतभवद्भाविभावस्वभावपर्यालोचनं सा विद्यते येपां ते सज्ञिन:-विशिष्टस्मरणादिरूपमनोविज्ञानभाज इत्यर्थः, यथोक्तमनोविज्ञानविकला असज्ञिनः ?, अत्र भगवान्निर्वचनमाह-गौतम नो सञ्जिन:, किन्वसञ्जिनः, वि शिष्टमनोलब्ध्यभावात् , हेतुवादोपदेशेनापि न सब्जिनः, अभिसंधारणपूर्विकायाः करणशक्तेरभावात् , इहासब्जिन इत्येव सिद्धे नो ४ सज्ञिन इति प्रतिषेधः प्रतिपेधप्रधानो विधिरयमिति ज्ञापनार्थः, प्रतिपाद्यस्य प्रकृतिसावद्यलादिति । गतं सब्जिद्वारं, वेदनाद्वारमाह ४ ॥१७॥ -ते णं भंते!' इत्यादि । इत्थिवेयगा' इति स्त्रियाः वेदो येषां ते स्त्रीवेदकाः, एवं पुरुपवेदका नपुंसकवेदका इत्यपि भावनीयं, तत्र है Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्त्रियाः पुंस्यभिलाषः स्त्रीवेदः पुंसः स्त्रियामभिलापः पुंवेदः, उभयोरप्यभिलापो नपुंसकवेदः, भगवानाह - गौतम । न स्त्रीवेदका न पुरुपवेदकाः, नपुंसकवेदकाः संमूर्च्छिमत्वात्, 'नारकसंमूच्छिमा नपुंसका' इति भगवद्वचनम् ॥ पर्याप्तिद्वारमाह - " तेसि णं भंते ' इत्यादि, सुगमं, पर्याप्तिप्रतिपक्षा अपर्याप्तिस्तन्निरूपणार्थमाह- 'तेसि णं भंते!' इत्यादि पाठसिद्धं, नवरं चतस्रोऽप्यपर्याप्तयः करणापेक्षया द्रष्टव्याः, लब्ध्यपेक्षया त्वेकैव प्राणापानापर्याप्तिः, यस्मादेवमागमः - इह लब्ध्यपर्याप्तका अपि नियमादाहारशरीरेन्द्रियपर्याप्तिपरिसमातावेव म्रियन्ते नार्वाक्, यत आगामिभवायुर्वद्धा म्रियन्ते सर्व एव देहिनः, तजाहारशरीरेन्द्रियपर्याप्तानामेव बन्धमायातीति ॥ स प्रति दृष्टिद्वारमाह- 'ते णं भंते !" इत्यादि सुगमं, नवरं सम्यग् - अविपरीता दृष्टिः- जिनप्रणीतवस्तुतत्त्वप्रतिपत्तिर्येषा ते सम्यग्दृष्टयः, मिथ्या - विपर्यस्ता दृष्टिर्येषां भक्षितहत्पूरपुरुपस्य सिते पीतप्रतिपत्तिवत् मिथ्यादृष्टयः, एकान्तमम्यग्रूपमिध्यारूपप्रतिपत्तिविकलाः सम्यग्मिथ्यादृष्टयः, निर्वचनसूत्रं - 'गोयमे' त्यादि, सुगमं, नवरं सम्यग्दृष्टित्वप्रतिषेधः सासादनसम्यक्त्वस्यापि तेषामसम्भवात्, सासादनसम्यक्त्ववतां तन्मध्ये उत्पादाभावात्, ते ह्यतिसंक्कुिष्टपरिणामाः, सास्वादनसम्यक्त्वपरिणामस्तु मनाक् शुभ इति तन्मध्ये सासादनसम्यक्त्ववतामुत्पादाभाव:, अत एव सदा संक्लिष्टपरिणामत्वात्तेषां सम्यग्मिथ्यादृष्टिवपरिणामोऽपि न भवति, नापि सम्यग्मिथ्यादृष्टिः सन् तन्मध्ये उत्पद्यते, "न सम्ममिच्छो कुणइ काल" इति वचनात् ॥ गतं दृष्टिद्वारमधुना दर्शनद्वारमाह-दर्शनं नाम सामान्यविशेषात्मके वस्तुनि सामान्यावबोधः तच्चतुर्धा, तद्यथा-चक्षुर्दर्शनमचक्षुर्दर्शनमवधिदर्शनं केवलदर्शनं च तत्र सामान्यविशेपाल के वस्तुनि चक्षुषा दर्शनं - रूपसामान्यपरिच्छेदञ्चक्षुर्दर्शनम्, अचक्षुषा-चक्षुर्वर्जशे पेन्द्रिय मनोभिर्दर्शनमचक्षुर्दर्शनम्, अवधिरेव दर्शनंरूपिसामान्यग्रहणमवधिदर्शनं, केवलमेव दर्शनं सकल जगद्भाविवस्तु सामान्य परिच्छित्तिरूपं केवलदर्शनं, तत्र किमेषां दर्शनमिति Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिपत्ती सूक्ष्मप्रबीकायाः सू० १३ श्रीजीवा- जिज्ञासुः पृच्छति-'ते णं भंते' इत्यादि पाठसिद्धं, नवरमचक्षुर्दर्शनिवं स्पर्शनेन्द्रियापेक्षया, शेषदर्शनप्रतिषेधः सुझानः ॥ गतं दर्शन- जीवाभि द्वार, ज्ञानद्वारमाह-ते भंते जीवा' इत्यादि, अज्ञानवं मिथ्यादृष्टित्वात् , तदपि चाज्ञानवं मत्यज्ञानश्रुताज्ञानापेक्षया, तथा चाह मलयगि- -'नियमा दुअण्णाणी त्यादि पाठसिद्ध, नवरं तदपि मत्यज्ञानं श्रुताज्ञानं च शेषजीववादरादिराश्यपेक्षयाऽत्यन्तमल्पीयः प्रतिपत्तव्यं, रीयावृत्तिः । यत उक्तम्-"सर्वनिकृष्टो जीवस्य दृष्ट उपयोग. एष वीरेण । सूक्ष्मनिगोदापर्याप्तानां स च भवति विज्ञेयः ।। १॥ तस्मात्प्रभृति P ज्ञानविवृद्धिद्देष्टा जिनेन जीवानाम् । लब्धिनिमित्तैः करणैः कायेन्द्रियवाग्मनोदग्भिः ॥ २॥" योगद्वारमाह-'ते णं भंते' इत्यादि र ॥१८॥ पाठसिद्धम् ॥ गतं योगद्वारमधुनोपयोगद्वारं, तत्रोपयोगो द्विविध:-साकारोऽनाकारश्च, तत्राकार:-प्रतिवस्तु प्रतिनियतो ग्रहणपरिणामः "आगारो उ विसेसो" इति वचनात् , सह आकारो यस्य येन वा स साकारो-ज्ञानपञ्चकमज्ञानत्रिकं, यथोक्ताकारविकलोऽनाकारः, स चक्षुर्दर्शनादिको दर्शनचतुष्टयासकः, उक्तं च-"ज्ञानाशाने पञ्च त्रिविकल्पे सोऽष्टधा तु साकारः । चक्षुरचक्षुरवधिकेवलद्दग्विषयस्त्वनाकारः ॥ १॥" तत्र क एषामुपयोगः' इति जिज्ञासुः पृच्छति-'ते णं भंते!' इत्यादि निगदसिद्धं, नवरं साकारोपयोगोपयुक्ता मत्यज्ञानश्रुताज्ञानोपयोगापेक्षया, अनाकारोपयोगोपयुक्ता अचक्षुर्दर्शनोपयोगापेक्षयेति ॥ साम्प्रतमाहारद्वारमाह-ते ण भंते इत्यादि, 'ते' सूक्ष्मपृथिवीकायिका: णमिति वाक्यालकारे भदन्त जीवाः किमाहारमाहारयन्ति ?, भगवानाह-गौतम 'द्रव्यतो' द्रव्यस्वरूपपर्यालोचनायामनन्तप्रादेशिकानि द्रव्याणि, अन्यथा ग्रहणासम्भवात् , न हि सङ्ख्यातप्रदेशात्मका असङ्ख्यातप्रदेशात्मका वा स्कन्धा जीवस्य ग्रहणप्रायोग्या भवन्ति, क्षेत्रतोऽसङ्ख्यातप्रदेशावगाढानि, कालतोऽन्यतरस्थितिकानि-जघन्यस्थितिकानि मध्यमस्थितिकानि उकृष्टस्थितिकानि चेति भावार्थः, स्थितिरिति चाहारयोग्यस्कन्धपरिणामत्वेऽवस्थानं प्रत्येतव्यम् , आह च मूलटीकाकारः-काल ॥ १८॥ . Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ तोऽन्यतरस्थितीनि तद्भावावस्थानेन जघन्यादिरूपां स्थितिमधिकृत्ये "ति, भावतो वर्णवन्ति गन्धवन्ति रसवन्ति स्पर्शवन्ति च, प्रतिपरमाण्वेकैकवर्णगन्धरस द्विस्पर्शभावात्, “एवं जहा पण्णवणाए" इत्यादि, ''एवम्' उक्तेन प्रकारेण यथा प्रज्ञापनायामष्टाविंशतितमे आहारपदे प्रथमोद्देशके तावद्वक्तव्यं यावत् “सिय तिंदिसिं सिय चउदिसिं सिय पंचदिसि" मिति, तचैवम् - "जाई भावतो वण्णमंताई आहारेंति ताई किं एगवण्णाई आहारेंति जाव पंचवण्णाई आहारेंति ?, गोयमा' ठाणमग्गणं पडुच्च एगवण्णाइंपि आहारैति जाव पंचवण्णाई पि आहारेंति, विहाणमग्गणं पडुच्च कालवण्णाइंपि आहारेति जाव सुकिल्लवण्णाइंपि आहारेंति, जाई कालवण्णाइंपि आहारेंति ताई किं एगगुणकालाई आहारेंति जाव दसगुणकालाई आहारेति संखिजगुणकालाई आहारेति असंखेज्जगुणकालाई आहारेंति | अनंतगुणकालाई आहारैति ?, गोयमा । एगगुणकालाइंपि आहारेति जाव अनंतगुणकालाईपि आहारेंति एवं जाव सुकिल्लाइंपि आहारेंति, एवं गंधतोवि रसतोवि || जाई भावतो फासमंताई आहारेति ताई किं एगफासाई आहारेति दुफासाई आहारेंति जात्र अट्ठफासाई आहारेंति ?, गोयमा ! ठाणमग्गणं पडुच्च नो एगफासाई आहारेंति नो दुफासाई आहारेंति नो तिफासाइंपि आहारेंति चउ - फासाइंपि आहारेंति जाव अट्ठफासाइंपि आहारेंति, विहाणमग्गणं पडुञ्च कक्खडाईपि आहारेंति जाव लुक्खाईपि आहारेति ॥ जाई फासतो कक्खडाइंपि आहारेति ताई किं एगगुणकक्खडाई आहारेति जाव अनंतगुणकक्खडाइंपि आहारेंति ?, गोयमा ! एगगुणकक्खडाइंपि आहारेंति जाव अनंतगुणकक्खडाइंपि आहारेंति, एवं अट्ठवि फासा भाणियव्वा जाव अनंतगुणलुक्खाईपि आहारैति ॥ जाई भंते! अनंतगुणलुक्खाई आहारेंति ताई भंते! किं पुट्ठाई आहारैति अपुट्ठाई आहारेंति ?, गोयमा पुट्ठाई आहारेंति नो अपुट्ठाई आहारेंति, जाई पुट्ठाई आहारेंति ताई भंते! किं ओगाढाई आहारेंति अणोगाढाई आहारेति ?, गोयमा ! ओगाढाई आहारेंति नो Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 02-6-k जीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः ॥१९॥ अणोगाढाई आहारेंति, जाइं भंते ! ओगाढाई आहारैति ताई कि अणंतरोगाढाई आहारेंति परंपरोगाढाई आहारेंति', गोयमा! १प्रतिपत्ती अणंतरोगाढाई आहारेंति नो परंपरोगाढाई आहारेति, ताई भंते ! किं अणूई आहारेंति बायराई आहारेंति ?, गोयमा! अणूइंपि है सूक्ष्मपृआहारेंति वायराइंपि आहारेंति, जाइं भंते! अणूई आहारेति ताई भंते ! किं उड़े आहारेंति अहे आहारेंति तिरियं आहारेंति ?, थ्वीकायाः गोयमा उडुपि आहारेंति अहेवि आहारेंति तिरियपि आहारेंति, जाई भंते ! उडुपि आहारेंति अहेवि आहारेंति तिरियपि आहारेति सू० १३ ताई किं आई आहारेंति मज्झे आहारेति पजवसाणे आहारेंति ?, गोयमा! आईपि आहारेंति मज्झेवि आहारेंति पजवसाणे(वि)आहारेंति, जाई भंते! आईपि आहारेति जाव पजवसाणेवि आहारेंति ताई किं सविसए आहारेति अविसए आहारेंति ?, गोयमा! सविसए 8 आहारेंति नो अविसए आहारेंति, जाई भंते ! सविसए आहारेति ताई किं आणुपुग्विं आहारैति अणाणुपुर्दिव आहारेंति ?, गोयमा! आणुपुर्दिव आहारेंति नो अणाणुपुब्धि आहारेंति, जाइं भंते । आणुपुर्दिव आहारेंति ताई किं तिदिसि आहारेति चउदिसि आहारेंति पंचदिसिं आहारेंति छघिसिं आहारेंति ?, गोयमा निव्वाघाएणं छद्दिसिं, वाघायं पडुन सिय तिदिसिं सिय चउदिसिं(सिय)पंचदिसिमिति ॥” अस्य व्याख्या-"जाई भावतो वण्णमंताई" इत्यादि प्रभसूत्रं सुगम् , भगवानाह-गौतम! 'ठाणमग्गणं पडुचेति तिष्ठन्ति विशेषा अस्मिन्निति स्थान-सामान्यमेकवर्ण द्विवर्ण त्रिवर्णमित्यादिरूपं तस्य मार्गणम्-अन्वेपणं तत्प्रतीत्य, सामान्यचिन्तामाश्रित्येति ४ भावार्थः, एकवर्णान्यपि द्विवर्णान्यपीत्यादि सुगम, नवरं तेषामनन्तप्रदेशिकानां स्कन्धानामेकवर्णवं द्विवर्णत्वमित्यादि व्यवहारनयमता पेक्षया, निश्चयनयमतापेक्षया वनन्तप्रादेशिकस्कन्धोऽल्पीयानपि पश्चवर्ण एव प्रतिपत्तव्यः, 'विहाणमग्गणं पडुछेत्यादि यावद् [विधानं ॥ १९॥ -विशेपः,] विविक्तम्-इतरव्यवच्छिन्नं धानं-पोपणं स्वरूपस्य यत्तत्प्रतीय सामान्यचिन्तामाश्रित्येति शेपः, कृष्णो नील इत्यादि प्रति CROCALSCREGGALSOAMGAOOLERY Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LeTeen 15 नियतो वर्णविशेष इतियावत्, तस्य मार्गणं तत्प्रतीत्य कालवर्णान्यप्याहारयन्तीत्यादि सुगम, नवरमेतदपि व्यवहारतः प्रतिपत्तव्यं, नि श्वयतः पुनरवश्यं तानि पञ्चवर्णान्येव ॥ 'जाई वण्णतो कालवण्णाई' इत्यादि सुगम यावदनन्तगुणसुकिलाइंपि आहारयन्ति, एवं गन्धरसस्पर्शविषयाण्यपि सूत्राणि भावनीयानि ॥ 'जाई भंते! अणंतगुणलुक्खाई' इत्यादि, यानि भदन्त! अनन्तगुणरूक्षाणि, उपलक्षणमेतत्-एकगुणकालादीन्यप्याहारयन्ति तानि, स्पृष्टानि-आसप्रदेशस्पर्शविषयाण्याहारयन्ति उतास्पृष्टानि?, भगवानाह-स्पृष्टानि नो अस्पृष्टानि, तत्रामप्रदेशैः संस्पर्शनमासप्रदेशावगाढक्षेत्राद्वहिरपि संभवति ततः प्रश्नयति-'जाई भंते'इत्यादि, यानि भदन्त ! स्पृष्टान्याहारयन्ति तानि किमवगाढानि-आसप्रदेशैः सहैकक्षेत्रावस्थायीनि उतानवगाढानि-आसप्रदेशावगाहक्षेत्राद्वहिरवस्थितानि?, | भगवानाह-गौतम! अवगाढान्याहारयन्ति नानवगाढानि । यानि भदन्त! अवगाढान्याहारयन्ति तानि किमनन्तरावगाढानि?, किमुक्तं भवति ?-येष्वासप्रदेशेषु यान्यव्यवधानेनावगाढानि तैरामप्रदेशैस्तान्येवाहारयन्ति उत परम्परावगाढानि-एकद्वित्राद्यासप्रदेशैयवहितानि?, भगवानाह-गौतम! अनन्तरावगाढानि न परम्परावगाढानि । यानि भदन्त! अनन्तरावगाढान्याहारयन्ति तानि भदन्त ! अनन्तप्रादेशिकानि द्रव्याणि किमणूनि-स्तोकान्याहारयन्ति उत बादराणि-प्रभूतप्रदेशोपचितानि?, भगवानाह-अणून्यप्याहारयन्ति बादराण्यप्याहारयन्ति, इहाणुत्वबादरले तेषामेवाहारयोग्यानां स्कन्धानां प्रदेशस्तोकत्वबाहुल्यापेक्षया प्रज्ञापनामूलटीकाकारेणापि व्याख्याते इत्यस्माभिरपि तथैवाभिहिते । यानि भदन्त! अणून्यपि आहारयन्ति तानि किमूर्ध्वप्रदेशस्थितान्याहारयन्ति अधस्तिर्यग्वा', इहोधिस्तिर्यक्त्वं यावति क्षेत्रे सूक्ष्मपृथिवीकायिकोऽवगाढस्तावत्येव क्षेत्रे तदपेक्षया परिभावनीयं, भगवानाह-ऊर्ध्वमप्याहारयन्ति-ऊर्ध्वप्रदेशावगाढान्यप्याहारयन्ति, एवमधोऽपि तिर्यगपि । यानि भदन्त! ऊर्ध्वमप्याहारयन्ति अधोऽप्याहारयन्ति तिर्य Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाभि० मलयनि- ॥२०॥ गप्याहारयन्ति तानि किमादावाहारयन्ति मध्ये आहारयन्ति पर्यवसाने आहारयन्ति ?, अयमत्राभिप्राय:-सूस्मपृथिवीकायिका मन । १प्रतिपच्ची न्तप्रादेशिकानि द्रव्याण्यन्तर्मुहूर्त कालं यावदुपभोगोचितानि गृहन्ति, तत: संशय.-किमुपभोगोचितस्य कालस्यान्तर्मुहूर्तप्रमाणस्यादौ सूक्ष्मपृप्रथमसमये आहारयन्ति उत मध्ये-मध्यसमयेपु आहोश्वित् पर्यवसाने-पर्यवसानसमये?, भगवानाह-गौतम! आदावपि मध्येऽपि वीकाया: पर्यवसानेऽप्याहारयन्ति, किमुक्तं भवति ?-उपभोगोचितकालस्यान्तर्मुहूर्तप्रमाणस्यादिमध्यावसानसमयेऽप्याहारयन्तीति । यानि भदन्त' * सू० १३ आदावपि मध्येऽपि पर्यवसानेऽप्याहारयन्ति तानि भदन्त ! किं खविपयानि-खोचिताहारयोग्यान्याहारयन्ति उताविपयानि-खोचिताहै हारायोग्यान्याहारयन्ति ?, भगवानाह-गौतम स्वविपयाण्याहास्यन्ति नो अविषयाणि । यानि भदन्त स्वविपयाण्याहारयन्ति तानि भदन्त किमानुपूर्व्याऽऽहारयन्ति अनानुपूर्व्या ?, आनुपूर्वी नाम यथाऽऽसनं, तद्विपरीताऽनानुपूर्वी, भगवानाह-गौतम! आनुपूर्व्या, 5 सूत्रे द्वितीया तृतीयार्थे वेदितव्या प्राकृतत्वात् , यथाऽऽचाराङ्गे "अगणिं पुट्ठा" इत्यत्र, आहारयन्ति, नो अनानुपूर्व्या ऊर्ध्वमस्तिर्यग्वा, 8 ६ यथाऽऽसन्नं नातिक्रम्याहारयन्तीति भाव. । यानि भदन्त ! आनुपूर्व्याऽऽहारयन्ति तानि भदन्त ! किं 'तिदिसं'ति तिम्रो दिशः समा हृतानिदिक् तस्मिन् व्यवस्थितान्याहारयन्ति चतुर्दिशि पञ्चदिशि पदिशि वा, इह लोकनिष्कुटपर्यन्ते जघन्यपदेऽपि [-जीवावगाहक्षेत्र-] त्रिदिग्व्यवस्थितमेव प्राप्यते न द्विदिग्व्यवस्थितमेकदिग्व्यवस्थितं वा, अतरिदिश्यारभ्य प्रश्नः कृतः, भगवानाह-गौतम निवाघाएणं । छद्दिसि'मित्यादि, व्याघातो नामालोकाकाशेन प्रतिस्खलनं व्याघातस्याभावो निर्व्याघातं 'शब्दप्रथादावव्ययं पूर्वपदार्थे नियमव्ययीभाव' इत्यव्ययीभावः तेन वा तृतीयाया' इति विकल्पेनाम्भावविधानात् पक्षेऽत्राम्भावः, नियमाद्-अवश्यतया पदिशि व्यवस्थितानि, २०॥ पड्भ्यो दिग्भ्य आगतानीति भावः, द्रव्याण्याहारयन्ति, व्याघातं पुनः प्रतीय लोकनिष्कुटादौ स्यात्कदाचित्रिदिशि-तिसृभ्यो दिग्भ्य% జలు Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगतानि, कदाचित् चतसृभ्यः कदाचित्पश्चभ्यः, काऽत्र भावना? इति चेदुच्यते-इह लोकनिष्कुटे पर्यन्तेऽधस्त्यप्रतरामेयकोणावस्थितो यदा सक्ष्मपृथिवीकायिको वर्त्तते तदा तस्याधस्तादलोकेन व्याप्तत्वात अधोदिकपुरलाभावः आग्नेयकोणावस्थितत्वात पूर्वदिकपुदलाभावोडा दक्षिणदिकपुद्गलाभावश्च, एवमधःपूर्वदक्षिणरूपाणां तिसृणां दिशामलोकेन व्यापनात् ता अपास्य. या परिशिष्टा ऊर्ध्वाऽपरोत्तराच दिगव्याहता वर्त्तते तत आगतान् पुद्गलानाहारयन्ति, यदा पुनः स एव पृथिवीकायिक: पश्चिमां दिशमनुसृत्य वर्तते तदा पूर्वा दिगभ्यधिका जाता, द्वे च दिशौ दक्षिणाधस्त्यरूपे अलोकेन व्याहते इति स चतुर्दिगागतान् पुद्गलानाहारयति, यदा पुनरूर्व द्वितीयादिप्रतरगतपश्चिमदिशमवलम्ब्य तिष्ठति तदाऽधस्यापि दिगभ्यधिका लभ्यते, केवला दक्षिणैवैका पर्यन्तवर्तिनी अलोकेन व्याहतेति पश्चदिगागतान् पुद्गलानाहारयति । 'वण्णतो' इत्यादि वर्णतः कालनीललोहितहारिद्रशुक्लानि, गन्धतः सुरभिगन्धानि दुरभिगन्धानि वा, रसतस्तिक्तानि यावन्मधुराणि, स्पर्शत: कर्कशानि यावद्रूक्षाणि, तथा तेपामाहार्यमाणानां पुद्गलानां पुराणान्' अग्रेतनान् वर्णगुणान् गन्धगुणान् रसगुणान् स्पर्शगुणान् विपरिणामइत्ता परिपालइत्ता परिसाडइत्ता परिविद्धंसइत्ता' एतानि चत्वार्यपि पदान्येकाथिकानि | विनाशार्थप्रतिपादकानि नानादेशजविनेयानुग्रहार्थमुपात्तानि, विनाशः किमित्याह-अन्यान् अपूर्वान् वर्णगुणान् गन्धगुणान् रसगुणान् स्पर्शगुणान् उत्पाद्यामशरीरक्षेत्रावगाढान् पुद्गलान् 'सव्वप्पणयाए' सर्वासना-सवैरेवामप्रदेशैराहारमाहाररूपान् पुद्गलानाहारयन्ति ॥ गतमाहारद्वारं, साम्प्रतमुपपातद्वारमाह ते णं भंते'इत्यादि, ते भदन्त ! सूक्ष्मपृथिवीकायिका जीवाः 'कुतः' केभ्यो जीवेभ्य उद्बत्योत्पद्यन्ते ?, किं नैरयिकेभ्यः? इत्यादि प्रतीतं, भगवानाह-गौतम नो नैरयिकेभ्य इत्यादि पाठसिद्ध, नवरं देवनैरयिकेभ्य उत्पादप्रतिषेधो देवनैरयिकाणां तथाभवस्वभावतया तन्मध्ये उत्पादासम्भवात् , 'जहा वकंतीए' इति, यथा प्रज्ञापनायां व्युत्क्रान्तिपदे तथा Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रीयावृत्तिः । श्रीजीवा-5 वक्तव्यं, तचैवम्-तिर्यग्योनेभ्योऽप्युत्पादः पर्याप्तेभ्योऽपर्याप्तेभ्यो वा केवलमसळ्यातवर्षायुकवर्जितेभ्यः, मनुष्येभ्योऽप्यकर्मभूमिजान्तर- १प्रतिपत्तो जीवाभि. द्वीपजासङ्ख्यातवर्षायुष्ककर्मभूमिजव्यतिरिक्तेभ्यः पर्याप्तेभ्योऽपर्याप्तेभ्यो वेति ॥ गतमुपपातद्वारमधुना स्थितिद्वारमाह-'तेसि णं भंते सूक्ष्मपुमलयगि- इत्यादि सुगम, नवरं जघन्यपदादुत्कृष्टपदमधिकमवसेयम् । गतं स्थितिद्वारमधुना समुद्घातमधिकृत्य मरणं विचिन्तयिपुरिदमाह-'ते थ्वीकायाः णं भंते जीवा' इत्यादि सुगमम् , उभयथाऽपि मरणसम्भवात् ॥ च्यवनद्वारमाह-'ते णं भंते जीवा' इत्यादि, 'ते' सूक्ष्मपृथ्वीका-ॐ सू०१३ यिका भदन्त जीवा अनन्तरमुढ्य सूक्ष्मपृथिवीकायिकभवादानन्तर्येणोद्वृत्येति भावः क्व गच्छन्ति ?-कोत्पद्यन्ते ?, एतेनासनो ॥२१॥ गमनधर्मकता पर्यायान्तरमधिकृत्योत्पत्तिधर्मकता च प्रतिपादिता, तेन ये सर्वगतमनुत्पत्तिधर्मकं चालानं प्रतिपन्नास्ते निरस्ता द्रष्टव्याः, तथारूपे सत्यामनि यथोक्तप्रभार्थासम्भवात्, 'किं नेरइएसु गच्छन्ति' ? इत्यादि सुप्रतीतं, भगवानाह-'नो नेरइएसु गच्छन्ति' इत्यादि पाठसिद्धं 'जहा वकंतीए' इति, यथा प्रज्ञापनायां व्युत्क्रान्तिपदे च्यवनमुक्तं तथाऽऽत्रापि वक्तव्यं, तच्चोत्पादवद् भावनीयXमिति ॥ गतं च्यवनद्वारमधुना गत्यागतिद्वारमाह-'ते णं भंते जीवा' इत्यादि, ते भदन्त जीवा: 'कतिगतिकाः? कति गतयो येपां ते कतिगतिकाः, 'कत्यागतिकाः?' कतिभ्यो गतिभ्य आगतिउँपां ते कत्यागतिकाः, भगवानाह-गौतम व्यागतिका नरकगतेदेवगतेश्च ह सूक्ष्मेपूत्पादाभावात् , द्विगतिका नरकगतौ देवगतौ च तत उद्वृत्तानामुत्पादाभावात् , 'परीत्ता' प्रत्येकशरीरिणः, असल्येया असङ्ख्येय लोकाकाशप्रदेशप्रमाणत्वात् प्रज्ञप्ता मया शेपैश्च तीर्थकृद्भिः, अनेन सर्वतीर्थकृतामविसंवादिवचनतामाह, हे श्रमण! हे आयुष्मन् ! 8 से तं सुहुमपुढविक्काइया' त एते सूक्ष्मपृथिवीकायिका उक्ताः ॥ उक्ताः सूक्ष्मपृथिवीकायिकाः, अधुना बादरपृथिवीकायिकान-8 ॥२१॥ भिधित्सुराह Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से किं तं बायरपुढविकाइया ?, २ दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-सण्हयायरपुढविकाइया य खरयायर पुढविक्काइया य (सू०१४॥ __ 'से कि त'मित्यादि, अथ के ते बादरपृथिवीकायिकाः ?, सूरिराह-यादरपृथिवीकायिका द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-लक्ष्णबादरपृथिवीकायिकाश्च खरवादरपृथिवीकायिकाश्च-श्लक्ष्णा नाम चूर्णितलोप्टकल्पा मृदुपृथवी तदासका जीवा अप्युपचारतः श्लक्ष्णाः ते च ते बादरपृथिवीकायिकाश्च श्लक्ष्णबादरपृथिवीकायिकाः, अथवा श्लक्ष्णा चासौ बादरपृथिवी च सा काय:-शरीरं येषां ते श्ल-1 क्ष्णवादरपृथ्वीकायाः त एव स्वार्थिकेकप्रत्ययविधानात् श्लक्ष्णवादरपृथिवीकायिकाः, खरा नाम पृथिवी सङ्घातविशेष काठिन्यविशेष वाऽऽपन्ना तदासका जीवा अपि खराः ते च ते बादरपृथिवीकायिकाश्च खरबादरपृथिवीकायिकाः, अथवा पूर्ववत्प्रकारान्तरेण समासः, चशब्दौ खगतानेकभेदसूचकौ ॥ से किं तं सण्हबायरपुढविकाइया?, २ सत्तविहा पण्णत्ता, तंजहा-कण्हमत्तिया, भेओ जहा पण्णवणाए जाव ते समासतो दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-पजत्तगा य अपज्जत्तगा य । तेसि णं भंते ! जीवाणं कति सरीरगा पण्णत्ता ? गोयमा! तओ सरीरगा पं०, तंजहा-ओरालिए तेयए कम्मए, तं चेव सव्वं नवरं चत्तारि लेसाओ, अवसेसं जहा सुहुमपुढविकाइयाणं आहारो जाव णियमा छद्दिसि, उववातो तिरिक्खजोणियमणुस्सदेवेहितो, देवहिं जाव सोधम्मेसाणेहिंतो, ठिती जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं वावीसं वाससहस्साइं। ते णं भंते ! जीवा मारणंतियसमु Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजीवा- ग्याएणं किं समोहया मरंति असमोहता मरंति ?, गोयमा! समोहतावि मरंति असमोहतावि १प्रतिपत्ती जीवाभि० मरंति । ते णं भंते ! जीवा अणंतरं उव्वहित्ता कहिं गच्छंति ? कहिं उववजंति ?-किं नेरइएसु श्लक्ष्णखरमलयगि- उववनंति १०, पुच्छा, नो नेरइएसु उववजंति तिरिक्खजोणिएसु उववजंति मणुस्सेसु उव० नो बादरपृरीयावृत्तिः देवेसु उव०, तं चेव जाव असंखेजवासाउवजेहिं । ते णं भंते! जीवा कतिगतिया कतिआगतिया थ्वीकायौ पण्णत्ता?, गोयमा! दुगतिया तिआगतिया परित्ता असंखेज्जा य समणाउसो!, से तं बायरपुढ- सू० १४॥२२॥ विक्काइया । सेत्तं पुढविकाइया ॥ (सू०१५). 'से किं तमित्यादि, अथ के ते श्लक्ष्णबादरपृथिवीकायिका: १, सूरिराह-लक्ष्णबादरपृथिवीकायिका: सप्तविधाः प्रज्ञप्ताः, तदेव ४ ८ सप्तविधत्वं दर्शयन्ति, तद्यथा-कृष्णमृत्तिका इत्यादि 'भेदो भाणियन्वो जहा पण्णवणाए जाव तत्थ नियमा असंखिज्जा' इति, भेदो बा-, दरपृथिवीकायिकानां द्विविधानामपि तथा भणितव्यो यथा प्रज्ञापनायां, स च तावद् यावत् "तत्थ नियमा असंखेजा” इति पदं, स * चैवम्-किण्हमत्तिया नीलमत्तिया लोहियमत्तिया हालिहमत्तिया सुकिलमत्तिया पंडुमत्तिया पणगमत्तिया, सेत्तं सण्हबायरपुढवि-8 काइया । से किं तं खरवायरपुढविकाइया', २ अणेगविहा पण्णत्ता, तंजहा-पुढवी य सकरा वालुया य उवले सिला य लोणूसे । तंबा य तउय सीसय रुप्प सुवण्णे य वइरे य ॥ १ ॥ हरियाले हिंगुलए मणोसिला सासगंजण पवाले । अब्भपडलब्भवालय बायरकाये मणिविहाणा ॥ २ ॥ गोमेजए य रुयए अंके फलिहे य लोहियक्खे य । मरगयमसारगल्ले भुयमोयगइंदनीले य ॥ ३॥8॥२२॥ चंदणगेरुयहसे पुलए सोगंधिए य बोद्धव्वे । चंदप्पभवेरुलिए जलकंते सूरकते य ॥४॥ जे यावण्णे तहप्पगारा ते समासतो दुविहा ABCAROSAROACC00% Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्णत्ता, तंजहा-पजत्तगा य अपज्जत्तगा य, तत्थ णं जे ते अपजत्तगा ते णं असंपन्ना, तत्थ णं जे ते पजत्तगा एएसिणं वण्णादेसेणं गंधाएसेणं रसाएसेणं फासाएसेणं सहस्सग्गसो विहाणाई संखिज्जाइं जोणिप्पमुहसयसहस्साई पज्जत्तगनिस्साए अपज्जत्तगा वक्कमंति, जत्थ एगो तत्थ नियमा असंखेजा” इति, अस्य व्याख्या-कृष्णमृत्तिका-कृष्णमृत्तिकारूपा, एवं नीललोहितहारिद्रशुक्लभेदा अपि वाच्याः, पाण्डुमृत्तिका नाम देशविशेषे या धूलीरूपा सती पाण्डू इति प्रसिद्धा तदामका जीवा अप्यभेदोपचारात्पाण्डुमृत्तिकेत्युक्ताः, | 'पणगमत्तिया' इति नद्यादिपूरप्लाविते देशे नद्यादि पूरेऽपगते यो भूमौ श्लक्ष्णमृदुरूपो जलमलोऽपरपर्यायपङ्कः स पनकमृत्तिका तदासका जीवा अप्यभेदोपचारात्पनकमृत्तिकाः, सेत्तमित्यादिनिगमनं सुगमम् ।। 'से किं तमित्यादि ॥ अथ के ते खरवादरपृथिवीकायिकाः ?, सूरिराह-खरबादरपृथिवीकायिका अनेकविधाः प्रज्ञप्ताः, चत्वारिंशद्भेदा मुख्यतः प्रज्ञप्ता इत्यर्थः, तानेव चत्वारिंशद्भेदानाह, तंजहा–'पुढवी'त्यादिगाथाचतुष्टयम् । पृथिवीति 'भामा सत्यभामावत्' शुद्धपृथिवी नदीतटभित्त्यादिरूपा १, चशब्द उत्तरापेक्षया समुच्चये, शर्करा-लघूपलशकलरूपा २, वालुका-सिकता ३, उपल:-टङ्काद्युपकरणपरिकर्मणायोग्यः पाषाण: ४, शिलाघटनयोग्या देवकुलपीठाद्युपयोगी महान् पाषाणविशेष: ५, लवणं-सामुद्रादि ६, ऊषो यद्वशादूषरं क्षेत्रम् ७, अयस्ताम्रपुसीसकरूप्यसुवर्णानि-प्रतीतानि १३, वो-हीरक: १४, हरितालहिङ्गुलमनःशिलाः प्रतीताः १७, सासगं-पारदः १८, अञ्जनं सौवीराअनादि १९, प्रवालं-विद्रुमः २०, अभ्रपटलं-प्रसिद्धम् २१, अभ्रवालुका-अभ्रपटलमिश्रा वालुका २२, 'वायरकाए' इति बादरपृथिवीकायेऽमी भेदा इति शेषः, 'मणिविहाणा' इति चशब्दस्य गम्यमानलात् मणिविधानानि च-मणिभेदाश्च बादरपृथिवीकायमेदत्वेन ज्ञातव्याः, तान्येव मणिविधानानि दर्शयति-गोमेज्जए य' इत्यादि, गोमेजकः २३, 'चः समुच्चये, रुचक: २४ अङ्क: २५ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजीवा-8 स्फटिकः २६ 'च' पूर्ववत्, लोहिताक्षः २७ मरकतः २८ मसारगल्लः २९ भुजमोचकः ३० इन्द्रनीलश्च ३१ चन्दन() ३२ गैरिकः ४ प्रतिपत्ती जीवाभि०८ ३३ हंसगर्भः ३४ पुलक: ३५ सौगन्धिकश्च ३६ चन्द्रप्रभ: ३७ वैडूर्यः ३८ जलकान्त: ३९ सूर्यकान्तश्च ४०, तदेवमाद्यया गा-6 बादरप्रमलयगि- थया पृथिव्यादयश्चतुर्दश भेदा उक्ताः द्वितीयगाथयाऽष्टौ हरितालादयः तृतीयगाथया गोमेजकादयो दश तुर्यगाथयाऽष्टाविति, स- थ्वीकायाः रीयावृत्तिः र्वसङ्ख्यया चत्वारिंशत् , 'जे यावण्णे तहप्पगारा' इति येऽपि चान्ये तथाप्रकारा मणिभेदाः-पद्मरागादयस्तेऽपि खरवादरपृथिवीका-४ सू० १५ यिकत्वेन वेदितव्याः । ते समासतो' इत्यादि, ते बादरपृथिवीकायिकाः 'समासतः" सद्देपेण द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-पर्याप्तका ॥२३॥ अपर्याप्तकाच, तत्र येऽपर्याप्तकास्ते खयोग्या: पर्याप्तीः साकल्येनासंप्राप्ताः अथवाऽसंप्राप्ता इति विशिष्टान् वर्णादीननुपगताः, तथाहि -वर्णादिभेदविवक्षायामेते न शक्यन्ते कृष्णादिना भेदेन व्यपदेष्टुं, किं कारणमिति-चे, उच्यते, इह शरीरादिपर्याप्तिषु परिपूर्णासु सतीषु बादराणां वर्णादिभेदः संप्रकटो भवति नापरिपूर्णासु, ते चापर्याप्ता उच्छासपर्याप्त्या अपर्याप्ता एव म्रियन्ते, ततो न स्पष्टो व र्णादिविभाग इत्यसंप्राप्ता इत्युक्तम् , अन्ये तु व्याचक्षते-सामान्यतो वर्णादीनसंप्राप्ता इति, तश्च न युक्तं, यतः शरीरमात्रभाविनो वर्णा| दयः, शरीरं च शरीरपर्याप्त्या संजातमिति । 'तत्थ णमित्यादि, तत्र ये ते पर्याप्तका:-परिसमाप्तसमस्तखयोग्यपर्याप्तयस्ते - वर्णादे| शेन-वर्णभेदविवक्षया एवं गन्धादेशेन रसादेशेन स्पर्शादेशेन सहस्रायश:-सहस्रसङ्ख्यया विधानानि-भेदाः, तद्यथा-वर्णाः कृष्णादि| भेदात्पञ्च गन्धौ सुरभीतरभेदाही रसास्तिक्तादयः पञ्च स्पर्शा मृदुकर्कशादयोऽष्टौ, एकैकसिंश्च वर्णादौ तारतम्यभेदेनानेकेऽवान्तरभेदाः, तथाहि-भ्रमरकोकिलकजलादिषु तरतमभावात् कृष्णः कृष्णतर: कृष्णतम इत्यादिरूपतयाऽनेके कृष्णभेदाः, एवं नीलादिष्वप्यायोज्यं, ॥२३॥ ॐ तथा गन्धरसस्पर्शेष्वपि, तथा परस्परं वर्णानां संयोगतो धूसरकवुरत्वादयोऽनेकसल्याभेदाः, एवं गन्धादीनामपि परस्परं गन्धादिभिः Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - समायोगात्, ततो भवन्ति वर्णाद्यादेशैः सहस्राप्रशो भेदाः, 'संखिजाई जोणिप्पमुहसयसहस्साईति सङ्ख्येयानि योनिप्रमुखाणि-योनिद्वाराणि शतसहस्राणि, तथाहि-एकैकस्मिन् वर्णे गन्धे रसे स्पर्शे च संवृता योनिः पृथिवीकायिकानां, सा पुननिधासचित्ताऽचित्ता मिश्रा च, पुनरेकैका त्रिधा-शीता उष्णा शीतोष्णा, शीतादीनामपि प्रत्येकं तारतम्यभेदादनेकभेदत्वं, केवलमेकविशिष्टवर्णादियुक्ताः सङ्ख्यातीता अपि स्वस्थाने व्यक्तिभेदेन योनिजातिमधिकृत्यैकैव योनिर्गण्यते, ततः सयेयानि पृथ्वीकायिकानां योनिशतसहस्राणि भवन्ति, तानि च सूक्ष्मबादरगतसर्वसङ्ख्यया सप्त, 'पज्जत्तगनिस्साए' इत्यादि, पर्याप्तकनिश्रयाऽपर्याप्तका व्युत्क्रामन्तिउत्पद्यन्ते, कियन्तः ? इत्याह-यत्रैकः पर्याप्तकस्तत्र नियमात्तन्निश्रया असङ्ख्येयाः-सङ्ख्यातीता अपर्याप्तकाः । 'एएसिणं भंते! जीवाण'मित्यादिना शरीरावगाहनादिद्वारकलापचिन्तां करोति, सा च पूर्ववत् , तथा चाह-'एवं जो चेव सुहुमपुढविकाइयाणं गमो सो चेव भाणियन्वो इति, 'नवर' मित्यादि, नवरमिदं नानात्वं लेश्याद्वारे चतस्रो लेश्या वक्तव्याः, तेजोलेश्याया अपि सम्भवात् , तथाहि || -व्यन्तरादय ईशानान्ता देवा भवनविमानादावतिमूर्च्छयाऽऽलीयरत्नकुण्डलादावप्युत्पद्यन्ते, ते च तेजोलेश्यावन्तोऽपि भवन्ति, यल्लेश्यश्च म्रियते अप्रेऽपि तल्लेश्य एवोपजायते "जल्लेसे मरइ तल्लेसे उववजई" इति वचनात् , 'ततः कियत्कालमपर्याप्तावस्थायां तेजोलेश्यावन्तोऽप्यवाप्यन्ते इति चतस्रो वक्तव्याः, आहारो नियमात् षड्दिशि, वादराणां लोकमध्य एवोपपातभावात् , उपपातो देवेभ्योऽपि, वादरेषु तदुत्पादविधानात्, स्थितिर्जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतो द्वाविंशतिवर्षसहस्राणि, देवेभ्योऽप्युत्पादात् व्यागतयो, द्विगतयः पूर्ववत् , एतेऽपि च 'परीत्ता' प्रत्येकशरीरिणोऽसङ्ख्येयाः प्रज्ञप्ताः हे श्रमण! हे आयुष्मन् !, 'सेत्त'मित्याद्युपसंहारवाक्यम् ॥ उक्ताः पृथ्वीकायिकाः, अधुनाऽप्कायिकानभिधित्सुरिदमाह Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः १प्रतिपत्तौ सूक्ष्मवादराकाययोः सू०१६ జలాలుగు से किं तं आउक्काइया?, २ दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-मुहुमआउक्काइया य वायरआउक्काइया य, सुहमआऊ दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-पज्जत्ता य अपज्जत्ता य ।तेसि णं भंते! जीवाणं कति सरीरया पण्णत्ता?, गोयमा! तओ सरीरया पण्णत्ता, तंजहा-ओरालिए तेयए कम्मए, जहेव सुहमपुढविक्काइयाणं, णवरं थियुगसंठिता पण्णत्ता, सेसं तं चेव जाव दुगतिया दुआगतिया परित्ता असंखेज्जा पण्णत्ता। से तं सुहुमंआउक्काइया ॥ (सू०१६) . अथ के तेऽप्कायिका:', सूरिराह-अप्कायिका द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-सूक्ष्माप्कायिकाश्च बादराप्कायिकाच, तत्र सूक्ष्माः सर्वलोकव्यापिनो बादरा घनोदध्यादिभाविनः, चशब्दो स्वगतानेकभेदसूचकौ । 'से किंतं सुहुमआउक्काइया?' इत्यादि सूक्ष्मपृथिवीकायिकवनिरवशेष भावनीय, नवरमिदं संस्थानद्वारे नानात्वं, तदेवोपदर्शयति-ते सिणंभंते! जीवाणं सरीरया किं संठिया?' इत्यादि पाठसिद्धम्॥ से किं तं वायरआउक्काइया?,२अणेगविहा पण्णत्ता, तंजहा-ओसा हिमे जाव जे यावन्ने तहप्पगारा, ते समासतो दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-पजत्ताय अपज्जत्ता य, तं चेव सव्वं णवरं थिवुगसंठिता, चत्तारि लेसाओ, आहारो नियमा छदिसिं, उववातो तिरिक्खजोणियमणुस्सदेवेहिं, ठिती जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसं सत्तवाससहस्साई, सेसं तं चेव जहा यायरपुढविकाइया जाव दुगतिया तिआगतिया परित्ता असंखेज्जा पन्नत्ता समणाउसो, सेत्तं बायरआऊ, सेत्तं आउकाइया ॥ (सू०१७॥) ॥२४॥ ॥२४॥ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०५ 'से किं तमित्यादि, अथ के ते वादराप्कायिका: १, सूरिराह - बादरात्कायिका अनेकविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - "ओसा हिमे महिया जाव तत्थ नियमा असंखेजा” इति यावत्करणादेवं परिपूर्णपाठो द्रष्टव्यः - " करगे हरतणू सुद्धोदए सीओदए खट्टोदए खारोदए अंबिलोदए लवणोदए वरुणोदए खीरोदए खोओदए रसोदए जे यावन्ने तह पगारा, ते समासतो दुविहा पण्णत्ता, तंजहा - पज्जत्तगा य अपनत्तगा य, तत्थ णं जे वे अपज्जत्तगा एएसिणं वण्णादेसेणं गंधादेसेणं रसाएसेणं फासाए सेणं सहस्सग्गसो विहाणाई संखिज्जाइं | जोणिप्पमुहसयसहस्साइं पज्जत्तगनिस्साए अपज्जत्तगा वकमंति, जत्थ एगो तत्थ नियमा असंखेज्जा" इति, अस्य व्याख्या - अवश्याय:त्रेहः, हिमं - स्त्यानोदकं, महिका - गर्भमासेषु सूक्ष्मवर्ष, करको - घनोपलः, हरतनुः यो भुवमुद्भिद्य गोधूमाङ्कुरतृणामादिषु बद्धो विन्दुरुपजायते, शुद्धोदकम् - अन्तरिक्षसमुद्भवं नद्यादिगतं वा, तच्च स्पर्शरसादिभेदादनेकभेदं तदेवानेकभेदत्वं दर्शयति - शीतोदकं - नदीत | डागावटवापीपुष्करिण्यादिषु शीतपरिणामम्, उष्णोदकं - स्वभावत एव कचिन्निर्झरादावुष्णपरिणामं, क्षीरोदकम् - ईषल्लवणपरिणामं यथा लाटदेशादौ केषुचिदवटेपु, खट्टोदकम् - ईषदम्लपरिणामम्, आम्लोदकम् - अतीव स्वभावत एवाम्लपरिणामं काखिकवत्, लवणोदकं लवणसमुद्रे, वारुणोदकं वारुणसमुद्रे, क्षीरोदकं क्षीरसमुद्रे, क्षोदोदकमिक्षुरससमुद्रे, रसोदकं पुष्करवरसमुद्रादिषु येऽपि | चान्ये तथाप्रकारा रसस्पर्शादिभेदाद् घृतोदकादयो बादराप्कायिकास्ते सर्वे - वादाप्कायिकतया प्रतिपत्तव्याः, 'ते समासओं' इत्यादि प्राग्वत् नवरं सङ्ख्येयानि योनिप्रमुखाणि शतसहस्राणीत्यत्रापि सप्त वेदितव्यानि । 'तेसि णं भंते ! जीवाणं कइ सरीरगा' ? इत्यादिद्वारकलापचिन्तायामपि वादरपृथिवीकायिकगमोऽनुगन्तव्यो, नवरं संस्थानद्वारे शरीरकाणि स्तिबुकसंस्थानसंस्थितानि वक्तव्यानि, Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजीवा- जीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः ॥२५॥ स्थितिद्वारे जघन्यतः स्थितिरन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतः सप्त वर्षसहस्राणि, शेषं तथैव, उपसंहारमाह-'सेस'मित्यादि । उक्ता अकायिकाः, '. १प्रतिपत्ती सम्प्रति वनस्पतिकायिकानाह- . वनस्पतिसे किं तं वणस्सइकाझ्या ?, २ दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-सुहुमवणस्सइकाइया य यायरवणस्स भेदी इकाइया य ॥ (सू०१७)।से किं तं सुहमवणस्सइकाइया?, २ दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-पज्ज सू० १७ सगा य अपजस्तगा य तहेव गवरं अणित्वंत्य (संठाण) संठिया, दुगतिया दुआगतिया अप सूक्ष्मवनरिसा अणंता, अवसेसं जहा पुढविक्काइयाणं, से तं सुहुमवणस्सइकाइया ॥ (सू०१८)। स्पतिः अथ के ते वनस्पतिकायिकाः ?, सूरिराह-वनस्पतिकायिका द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-सूक्ष्मवनस्पतिकायिकाश्च वादरवनस्पतिकायिकाश्च, चशब्दौ स्वगतानेकभेदसूचकौ ॥ 'से किं तमित्यादि, अथ के ते सूक्ष्मवनस्पतिकायिकाः ?, सूरिराह-सूक्ष्मवनस्पतिकायिका द्विविधाः प्रज्ञप्ता:-पर्याप्ता अपर्याप्ताश्च, 'तेसि णं भंते ! कति सरीरगा' इत्यादिद्वारकलापचिन्तनं सूक्ष्मपृथिवीकायिकवद्भावनीयं, नवरं संस्थानद्वारे सरीरगा अणित्थंथसंठाणसंठिया पण्णत्ता' इति, इत्थं तिष्ठतीति इत्थंस्यं न इत्यंस्थमनित्थंस्थम् , अनियताकारमित्यर्थः, तच्च तत्संस्थानं तेन संस्थितानि-अनियतसंस्थानसंस्थितानि, गत्यागतिद्वारसूत्रपर्यन्ते 'अपरित्ता अर्णता पन्नत्ता' इति है वक्तव्यम् , 'अपरीत्ता' अप्रत्येकशरीरिणः अनन्तकायिका इत्यर्थः, अत एवानन्ताः प्रज्ञप्ता. हेमण ! हे आयुष्मन् ! 'सेत्त'मित्यादि उपसंहारवाक्यम् ॥ * ॥२५॥ से किं तं घायरवणस्सइकाइया ?, २ दुविहा पण्णता, तंजहा-पत्तेयसरीरबायरवणस्सतिकाइया K Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ य साधारणसरीरयायरवणस्सइकाइया य ॥(सू० १९) । से किं तं पत्तेयसरीरबादरवणस्सतिकाइया ?, २ दुवालसविहा पण्णत्ता, तंजहा-रुक्खा गुच्छा गुम्मा लता य वल्ली य पव्वगा चेव । तणवलयहरितओसहिजलरुहकुहणा य बोद्धव्वा ॥१॥से किं तं रुक्खा ?, २ दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-एगट्ठिया य बहुबीया य।से किं तं एगहिया?, २ अणेगविहा पण्णत्ता, तंजहा-निबंबजंजाव पुण्णागणागरुक्खे सीवणि तधा असोगे य, जे यावपणे तहप्पगारा, एतो वपणे तहप्पगारा, एतेसिणं मूलांवि असंखेजजीविया, एवं कंदा खंधा तया साला पवाला पत्ता पत्तेयजीवा पुप्फाइं अणेगजीवाई फला एगडिया, सेत्तं एगहिया। से किं तं बहुबीया?, २ अणेगविधा पण्णत्ता, तंजहा-अत्थियतेंदुयउधरकविहे आमलकफणसदाडिमणग्गोधकाउंबरीयतिलयलयलोद्धे धवे, जे यावण्णे तहप्पगारा, एतेसि णं मूलावि असंखेजजीविया जाव फला बहुवीयगा, सेत्तं बहुयीयगा, सेत्तं रुक्खा, एवं जहा पण्णवणाए तहा भाणियव्वं, जाव जे यावन्ने तहप्पगारा, सेत्तं कुहणा-नाणाविधसंठाणा रुक्खाणं एगजीविया पत्ता। खंधोवि एगजीवो तालसरलनालिएरीणं ॥१॥"जह सगलसरिसवाणं पत्तेयंसरीराणं' गाहा ॥२॥ 'जह वा तिलसकुलिया' गाहा ॥३॥ सेत्तं पत्तेयसरीरथायरवणस्सइकाइया ॥ (सू० २०) 'से कि तमित्यादि, अथ के ते बादरवनस्पतिकायिकाः ?, सूरिराह-बादरवनस्पतिकायिका द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-प्रत्येक Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ** - श्रीजीवा- शरीरबादरवनस्पतिकायिकाच साधारणशरीरवादरवनस्पतिकायिकाच, चशब्दी पूर्ववत् ॥ 'से कित'मित्यादि, अथ के ते प्रत्येक-* १प्रतिपत्ती जीवाभि शरीरयादरवनस्पतिकायिकाः ?, सूरिराह-प्रत्येकशरीरबादरवनस्पतिकायिका द्वादशविधाः प्रज्ञप्ता:, तद्यथा-रुक्खा'इत्यादि, वृक्षा: बादरवनमलयगि- चूतादयः गुच्छा-वृन्ताकीप्रभृतयः गुल्मानि-नवमालिकाप्रभृतीनि लता:-चम्पकलतादयः, इह येषां स्कन्धप्रदेशे विवक्षितोवंशारीयावृत्तिः । खाव्यतिरेकेणान्यत् शाखान्तरं तथाविधं परिस्थूरं न निर्गच्छति ते लता इति व्यवहियन्ते, ते च चम्पकादय इति, वयः-कूष्मा सू० १९ ण्डीत्रपुपीप्रभृतयः पर्वगा-इक्ष्वादयः तृणानि-कुशजुजकार्जुनादीनि वलयानि-केतकीकदल्यादीनि वेषां हि त्वग वलयाकारण ॥२६॥ प्रत्येकवनव्यवस्थितेति हरितानि-तन्दुलीयकवस्तुलप्रभृतीनि औषधयः-फलपाकान्ताः ताश्च शाल्यादयः जले रुहन्तीति जलरुहा:-उदका स्पतिः वकपनकायः कुणा-भूमिस्फोटाभिधानास्ते चायकायप्रभृतयः, 'एवं भेदो भाणियब्वो जहा पनवणाएं' इत्यादि, 'एवम् उक्तेन सू०२० प्रकारेण बादरप्रत्येकशरीरवनस्पतिकायिकानां भेदो वक्तव्यो यथा प्रज्ञापनायाम्, इह तु ग्रन्थगौरवभयान लिख्यते, स च किं याव वक्तव्यः' इत्याह-'जह वा तिलसकुलिया' इत्यादि, अस्याश्व गाथाया अयं सम्बन्धः-इह यदि वृक्षादीनां मूलादयः प्रत्येकमनेकप्रत्येकशरीरजीवाधिष्ठितास्ततः कथमेकखण्डशरीराकारा उपलभ्यन्ते ?, तत्रेयमुत्तरगाथा-"जह सगलसरिसवाणं सिलेसमिस्साण वट्टिया वट्टी । पत्तेयसरीराणं तह होंति सरीरसंघाया ॥ १॥" अस्या व्याख्या-यथा सकलसर्पपाणां पमिश्राणां-श्लेषद्रव्यविमिश्रितानां वलिता वत्तिरेकरूपा भवति, अथ च ते सकलसर्पपाः परिपूर्णशरीराः सन्त: पृथक् पृथक् स्वस्वावगाहनयाऽवतिष्ठन्ते, 'तथा' अनयैवोपमया प्रत्येकशरीरिणां जीवानां शरीरसवाताः पृथक्पृथक्खवावगाहना भवन्ति, इह श्लेषद्रव्यस्थानीय रागद्वेषोपचितं तथाविधं स्वकर्म सकलसर्पपस्थानीयाः प्रत्येकशरीराः, सकलसर्पपग्रहणं वैविक्त्यप्रतिपत्त्या पृथक्पृथकवखावगाहप्रत्येकशरीरवै ॥ २६॥ SANGAMS44 **२-CICICA Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | विषयप्रतिपत्त्यर्थम्, अत्रैव दृष्टान्तान्तरमाह-"जह वा तिलसक्कुलिया" इत्यादिरधिकृतगाथा, वाशब्दो दृष्टान्तान्तरसूचने, यथा 'तिलसकुलिका तिलप्रधाना पिष्टमयी अपूपिका बहुभिस्तिमिश्रिता सती यथा पृथक्पृथकखस्वावगाहतिलालिका भवति कथश्चिदेकरूपा च 'तथा' अनयैवोपमया प्रत्येकशरीरिणां जीवानां शरीरसङ्घाताः कथञ्चिदेकरूपाः पृथक्पृथकवस्वावगाहनाश्च भवन्ति, उपसंहारमाह-'सेत्त'मित्यादि सुगमम् ॥ सम्प्रति साधारणवनस्पतिकायिकप्रतिपादनार्थमाह से किं तं साहारणसरीरबादरवणस्सइकाइया?, २ अणेगविधा पण्णत्ता, संजहा-आलुए मूलए सिंगबेर हिरिलि सिरिलि सिस्सिरिलि किदिया छिरिया छिरियविरालिया कण्हकंदे वजकंदे सूरणकंदे खल्लूडे किमिरासि भद्दे मोत्थापिंडे हलिद्दा लोहारी णीहाठिहथिभु अस्सकण्णी सीहकन्नी सीउंढी मूसंढी जे यावण्णे तहप्पगारा ते समासओ दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-पज्जत्तगा य अपज्जत्तगा यातेसिणं भंते! जीवाणं कति सरीरगा पण्णत्ता?, गोयमा! तओ सरीरगा पन्नत्सा. तंजहा-ओरालिए तेयए कम्मए, तहेव जहा बायरपुढविकाइयाणं, णवरं सरीरोगाहणा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजतिभागं उक्कोसेणं सातिरेगजोयणसहस्सं, सरीरगा अणित्थंथसंठिता, ठिती जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं दसवाससहस्साई, जाव दुगतिया तिआगतिया परित्ता अणंता पण्णत्ता, सेत्तं बायरवणस्सइकाइया, सेत्तं थावरा ॥ (सू०२१) 'से किं तमित्यादि, अथ के ते साधारणशरीरबादरवनस्पतिकायिकाः ?, सूरिराह-साधारणशरीरबादरवनस्पतिकायिका अनेक Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजीवा- जीवाभि. मलयगिरीयावृत्तिः ॥२७॥ NASALUC45464CREAM विधाः प्राप्ताः, तद्यथा-आलुए' इत्यादि, एते आलुकमूलकशृङ्गबेरहिरिलिसिरिलिसिस्सिरिलिकिट्टिकाक्षीरिकाक्षीरबिडालिकाकृ-2 ४१प्रतिपत्तौ ष्णकन्दवनकन्दसूरणकन्दुखल्लूट(कृमिराशि)भद्रमुस्तापिण्डहरिद्रालौहीस्नुहिस्तिमुअश्वकर्णीसिंहकर्णीसिकुंढीमुषण्डीनामानः साधारण- साधारणवनस्पतिकायिकभेदाः केचिदतिप्रसिद्धत्वात्केचिद्देशविशेषात्स्वयमवगन्तव्याः, 'जे यावण्णे तहप्पगारा' इति येऽपि चान्ये तथाप्रकारा: बादरवन सू० २१ एवंप्रकारा अवकपनकसेवालादयस्तेऽपि साधारणशरीरबादरवनस्पतिकायिकाः प्रतिपत्तव्याः, 'ते समासतो' इत्यादि, 'ते' बादरवनस्पतिकायिका; समासतो द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-पर्याप्तका अपर्याप्तकाच, 'जाव सिय संखेजा' इति यावत्करणादेवं परिपूर्णः पाठो द्रष्टव्य:-"तत्थ णं जे ते अपज्जचगा ते णं असंपत्ता, तत्थ णं जे ते पज्जत्तगा तेसि णं वण्णादेसेणं गंधादेसेणं रसाएसेणं फासाएसेणं सहस्सग्गसो विहाणाई संखिज्जाई जोणिप्पमुहसयसहस्साई पजत्तगनिस्साए, अपज्जत्तगा वकमंति, जत्थ एगो तत्थ सिय संखिजा सिय असंखेज्जा सिय अणंता" इति, एतत्प्राग्वत् , नवरं यत्रैको बादरपर्याप्तस्तत्र तग्निश्रयाऽपर्याप्ताः कदाचित्सोयाः कदाचिसयेयाः कदाचिदनन्ताः, प्रत्येकतरवः सङ्ख्येया असलयेया वा, साधारणास्तु नियमादनन्ता इति भावः । 'तेसि णं भंते ! कइसरीरगा" इत्यादिद्वारकलापचिन्तनं बादरपृथिवीकायिकवत् , नवरं संस्थानद्वारे नानासंस्थानसंस्थितानीति वक्तव्यम् । अवगाहना द्वारे 'उक्कोसेणं सातिरेगु जोयणसहस्स'मिति, तच्च सातिरेकं योजनसहस्रमवगाहनामानमेकस्य जीवस्य वाह्यद्वीपेषु वल्ल्यादीनां समु5 द्रगोतीर्थेषु च पद्मनालादीनां, तदधिकोच्छ्यमानानि पनानि पृथिवीकायपरिणाम इति वृद्धाः । स्थितिद्वारे उत्कर्षतो दश वर्षसहस्राणि 5 ॥२७॥ टू बक्तव्यानि, गत्यागतिसूत्रानन्तरं 'अपरीत्ता अणंता' इति वक्तव्यं, तत्र 'परीत्ता' प्रत्येकशरीरिणोऽसङ्ग्येयाः 'अपरीत्ताः' अप्रयेकशरीरि- Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SISSASALSKISOKOSMOS णोऽनन्ताः प्रज्ञप्ताः हे श्रमण! हे आयुष्मन् !, उपसंहारमाहु-'सेत्तं वादरवणस्सइकाइया, सेत्तं थावरा' इति सुगमम् ॥ उक्ताः खावराः, सम्प्रति प्रसप्रतिपादनार्थमाह-- - सेकितंतसा?,२तिविहा पण्णसा, तंजहा-तेउकाइया वाउकाइया ओराला तसा पाणा॥ अथ के ते त्रसाः १, सूरिराह-प्रसालिविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-तेजस्कायिका वायुकायिका औदारिकत्रसाः, तत्र तेज:-अप्रिः कार्य:-शरीरं येषां ते तेजस्कायास्त एव स्वार्थिकेकप्रत्ययविधानात्तेजस्कायिकाः, वायु:-पवनः स कायो येषां ते वायुकायास एव वायुकायिकाः, उदारा:-स्फारा उदारा एवं औदारिकाः प्रत्यक्षत एव स्पष्टत्रसत्यनिबन्धनाभिसन्धिपूर्वकगतिलिङ्गतयोपलभ्यमानत्वात् , तत्र त्रसा द्वीन्द्रियादयः 'औदारिकत्रसा' स्थूरत्रसा इत्यर्थः ॥ तत्र तेजस्कायिकप्रतिपादनार्थमाह से किं तं तेउक्काइया १,२दुविहा पण्णसा,तंजहा-सुहुमतेउकाइयायथादरतेउकाइयाय॥ (सू० २३) से किं तं-मुहमतेउकाइया?, २जहा सुहमपुढविकाइया नवर सरीरगा सूहकलावसठिया, एगगइया दुआगइआ परित्ता असंखेजा पण्णत्ता, सेसं तं चेव, सेसं सुहमतेउकाइया ॥ (सू०२४) से किं तं बादरतेउक्काइया ?, २ अणेगविहा पण्णत्ता, तंजहा-इंगाले जाले मुम्मुरे जाव सूरकंतमणिनिस्सिते, जे यावन्ने तहप्पगारा, ते समासतो दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-पजसा य अपजत्ता य । तेसिणं भंते ! जीवाणं कति सरीरगा पण्णत्ता?, गोयमा! तओ सरीरगा पण्णत्ता, तंजहा-ओरालिए तेयए कम्मए, सेसं तं चेव, सरीरगा सूइकलावसंठिता, तिनि लेस्सा, ठिती Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ्यानद्वारे शरीराणि सूचीकजस्कायिका: ?, सूरिराहाः प्रजाताः, तद्यथा-काझ्या ॥ (सू० २६ श्रीजीवा- * जहनेणं अंतोमुहसं उक्कोसेणं तिन्नि राइंदियाई तिरियमणुस्सेहिंतो उववाओ, सेसं तं चेव एग १प्रतिपत्तो बीवाभि० ॥ गतिया दुआगतिया, परित्ता असंखेना पण्णसा, सेसं तेउकाइया ॥ (सू० २५) त्रसभेदाः मलयगि अथ के ते तेजस्कायिकाः ?, तेजस्कायिका द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-सूक्ष्मतेजस्कायिकाश्च वादरतेजस्कायिकाच, पशब्दो पू. रोयावृत्तिः ववत् ॥ अथ के ते सूक्ष्मतेजस्कायिका: १, सूरिराह-सूक्ष्मतेजस्कायिका इत्यादि सूत्रं सर्व सूक्ष्मपृथिवीकायिकवद् वक्तव्यं, नवरं ४ देवत् ॥ तेजस्काये संस्थानद्वारे शरीराणि सूचीकलापसंस्थितानि वक्तव्यानि, च्यवनद्वारेऽनन्तरमुछ्त्य तिर्यग्गतावेवोत्पद्यन्ते, न मनुष्यगतो, तेजोवायु सू० २३. भ्योऽनन्तरोद्भुतानां मनुष्यगतावुत्पादप्रतिषेधात्, तथा चोक्तम्-"सत्तमिमहिनेरइया तेऊ वाऊ अणंतरुव्वट्टा । नवि पावे माणुस्सं २४-२५ वहेवऽसंखाउया सव्वे ॥१॥" गत्यागतिद्वारे द्वयागतयः, तिर्यग्गतेर्मनुष्यगतेश्व तेपूत्पादात्, एकगतयोऽनन्तरमुवृत्तानां तिर्यग्गतावेव ५ गमनात्, शेषं तथैव, उपसंहारवाक्यं 'सेत्तं सुहमतेउकाइया' ॥ बादरतेजस्कायिकानाह-अथ के ते बादरतेजस्कायिकाः?, है सूरिराह-वादरतेजस्कायिका अनेकविधा: प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-"इंगाले जाव तत्थ नियमें"त्यादि यावत्करणादेवं परिपूर्णपाठः-"ईगाले जाला मुम्मुरे अथी अलाए सुद्धागणी उका विजू असणि निग्याए संघरिससमुट्ठिए सूरकंतमणिनिस्सिए, जे यावण्णे तहप्पगारा, ते समासतो दुविहा पण्णत्ता, जहा-पजत्तगा य अपज्जत्तगा य, तत्थ णं जे ते अपजत्तगा ते णं असंपत्ता, तत्य णं जे ते पज्जत्तगा एएसिणं वण्णादेसेणं गंधादेसेणं रसादेसेणं फासादेसेणं सहस्सग्गसो विहाणाई संखिजाई जोणिप्पमुहसयसहस्साई पज्जत्तगनिस्साए अपज्जत्तगा वक्रमति, जत्थ एगो तत्थ नियमा असंखेजा" इति, अस्प व्याख्या-'अङ्गार' ॥२८॥ १ सप्तमीमहीनैरयिका. तेजो वायु अनन्तरोवृत्ता. । नैव प्रामुवन्ति मानुष्यं तथैवासंख्यायुष. सर्वे ॥१॥ उकाइया जाव तत्य नियम समुहिए सूप खास्य से मनाया गले नपाए संपरि AUGUSMANABHAUHSS Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विगतधूमज्वालो जाज्वल्यमानः खदिरादिः, 'ज्वाला' अनलसंबद्धा दीपशिखेत्यन्ये, 'मुर्मुर फुम्फुकानौ भस्मामिश्रितोऽग्नि-1 कणरूपः 'अर्चिः' अनलाप्रतिबद्धा ज्वाला, 'अलातम्' उल्मुकं, 'शुद्धाग्निः' अय:पिण्डादौ, 'उल्का' चुडुली 'विद्युत् प्रतीता, 'अ शनिः' आकाशे पतन्नग्निमयः कणः, 'निर्घातः वैक्रियाशनिप्रपातः 'संघर्षसमुत्थितः' अरण्यादिकाष्ठनिर्मथनसमुत्थः, 'सूर्यकान्तम5 णिनिश्रितः' सूर्यखरकिरणसंपर्के सूर्यकान्तमणेर्यः समुपजायते, 'जे यावण्णे तहप्पगारा' इति, येऽपि चान्ये 'तथाप्रकाराः' एवंप्रका रास्तेजस्कायिकास्तेऽपि बादरतेजस्कायिकतया वेदितव्याः, 'ते समासतो' इत्यादि प्राग्वत् , शरीरादिद्वारकलापचिन्ताऽपि सूक्ष्मतेजस्कायिकवत्, नवरं स्थितिद्वारे जघन्यतः स्थितिरन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतस्त्रीणि रात्रिन्दिवानि, आहारो यथा बादरपृथ्वीकायिकानां तथा वक्तव्यः, उपसंहारमाह-सेत्तं तेउकाइया' । उक्तास्तेजस्कायिकाः, सम्प्रति वायुकायिकानाह से किं तं वाउकाइया?, २ दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-सुहुमवाउक्काइया य बादरवाउक्काइया य, सुहमवाउकाइया जहा तेउक्काइया णवरं सरीरा पडागसंठिता एगगतिया दुआगतिया परित्ता असंखिज्जा, सेत्तं सुहुमवाउकाइया । से किं तं बादवाउक्काइया ?, २ अणेगविधा पण्णत्ता, तंजहा-पाईणवाए पडीणवाए, एवं जे यावण्णे तहप्पगारा, ते समासतो. दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-पज्जत्ता य अपजत्ता य । ते सि णं भंते! जीवाणं कति सरीरगा पण्णत्ता?, गोयमा! चत्तारि सरीरगा पण्णत्ता, तंजहा-ओरालिए वेउविए तेयए कम्मए, सरीरगा पडागसंठिता, चत्तारि समुग्घाता-वेयणासमुग्धाए कसायसमुग्घाए मारणंतियसमुग्घाए वेउव्वियसमुग्घाए, कति सरीरगावहा पण्णत्ता, पहा ओरालिए Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १प्रतिपत्ती वायुकायः सू० २६ भीजीवा आहारो णिवाघातेणं छदिसिं वाघायं पहुच सिय सिदिसिं सिय चउदिसिं सिय पंचदिसिं. उबजीवाभि. बातो देवमणुयनेरइएसु णस्थि, ठिती जहन्नेणं अंतोमुहसं उक्कोसेणं तिनिवाससहस्साई, सेसं मलयगि-2 तं चेव एगगतिया दुआगइया परित्ता असंखेजा पण्णसा समणाउसो, सेसं यायरवाऊ, सेतं रीयावृत्तिः वाउकाइया॥(सू० २६) ॥२९॥ अथ के ते वायुकायिकाः ?, सूरिराह-वायुकायिका द्विविधाः प्राप्ताः, तद्यथा-सूक्ष्मवायुकायिकाच वादरवायुकायिकाश्च, चशब्दी प्राग्वत्, तत्र सूक्मवायुकायिकाः सूक्मतेजस्कायिकवद्वक्तव्याः, नवरं संस्थानद्वारे तेषां शरीराणि पताकासंस्थानसंस्थितानि वक्तव्यानि, शेषं तथैव, बादरवायुकायिका अपि एवं चैव-सूक्ष्मतेजस्कायिकवदेव, नवरं भेदो यथा प्रज्ञापनायां तथा वक्तव्यः, स चैवम् से किं तं बायरवाउकाइया', बायरवाउकाइया अणेगविहा पण्णत्ता, तंजहा-पाईणवाए पडीणवाए दाहिणवाए उदीणवाए उवाए अहेवाए तिरियवाए विदिसिवाए वाउभामे वाउकलिया मंडलियावाए उकलियावाए गुंजावाए झंझावाए संवगमाए पण1% वाए तणुवाए सुद्धवाए, जे यावण्णे तहप्पगारा, ते समासतो दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-पज्जत्तगा य अपजत्तगा य, सत्य णं जे ते अ पजतगा ते णं असंपत्ता, तत्थ णं जे ते पजत्तगा एएसि वण्णादेसेणं गंधादेसेणं रसादेसेणं फासाएसेणं सहस्सग्गसो विहाणाई संखेलाई जोणिप्पमुहसयसहस्साई, पजत्तगनिस्साए अपज्जत्तगा वकमंति, जत्थ एगो तत्य नियमा असंखेजा" इति, अस्य व्याख्या -पाईणवाए इति, य: प्राच्या दिशः समागच्छति वातः स प्राचीनवातः, एवमपाचीनो दक्षिणवात उदीचीनवातश्च वक्तव्यः, ऊध्वमुद्रच्छन् यो वाति वातः स ऊर्ध्ववातः, एवमधोवाततिर्यग्वातावपि परिभावनीयौ, विदिग्वातो यो विदिग्भ्यो वाति, माता KAMASCUCMNAACHAK ॥२९॥ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्धमः-अनवस्थितो वातः, वातोत्कलिका समुद्रस्येव वातस्योत्कलिका वातमण्डलीवात उत्कलिकाभिः प्रचुरतराभिः सम्मिश्रो यो वातः, मण्डलिकावातो मण्डलिकाभिर्मूलत आरभ्य प्रचुरतराभिः सम्मिश्रो यो वातः, गुलावातो यो गुसन्-शब्दं कुर्वन् वाप्ति, झम्झावात: सवृष्टिः, अशुभनिष्ठुर इत्यन्ये, संवर्त्तकवातस्तृणादिसंवर्तनस्वभावः, घनवातो धनपरिणामो वातो रत्नप्रभापृथिव्याद्यधोवी, तनुवातो-विरलपरिणामो धनवातस्याधःस्थायी, शुद्धवातो मन्दस्तिमितो, बस्तिहत्यादिगत इत्यन्ये, 'ते समासतो' इत्यादि प्राग्वत्, तथा शरीरादिद्वारकलापचिन्तायां शरीरद्वारे चत्वारि शरीराणि औदारिकवैक्रियतैजसकार्मणानि, चत्वारः समुद्घाता:-वैक्रियवेदनाकषायमारणान्तिकरूपाः, स्थितिद्वारे जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त वक्तव्यमुत्कर्षतस्त्रीणि वर्षसहस्राणि, आहारो निर्व्याघातेन षड्दिशि, व्याघातं प्रतीत्य स्यानिदिशि स्याश्चतुर्दिशि स्यात्पञ्चदिशि, लोकनिष्कुटादावपि बादुरवातकायस्य सम्भवात् , शेष सूक्ष्मवातकायवतू, उपसंहारमाह-सेत्तं वाउकाइया' इति ॥ उक्ता वातकायिकाः, सम्प्रत्यौदारिकत्रसानाह से किं तं ओराला तसा पाणा ?, २ चउव्विहा पण्णत्ता, तंजहा-बेइंदिया तेइंदिया चरिंदिया पंचेंदिया ॥ (सू० २७.) ___ अथ के ते औदारिकत्रसाः?, सूरिराह-औदारिकत्रसाश्चतुर्विधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-द्वीन्द्रियास्त्रीन्द्रियाश्चतुरिन्द्रियाः पञ्चेन्द्रियाः, तत्र द्वे स्पर्शनरसनरूपे इन्द्रिये येषां ते द्वीन्द्रियाः, त्रीणि स्पर्शनरसनघ्राणरूपाणि इन्द्रियाणि येषां ते त्रीन्द्रियाः, चत्वारि स्पर्शनरमासनप्राणचक्षुरूपाणि इन्द्रियाणि येषां ते चतुरिन्द्रियाः, पञ्च स्पर्शनरसनघ्राणचक्षःोत्ररूपाणि इन्द्रियाणि येषां ते पञ्चेन्द्रियाः ॥ तत्र बाद्वीन्द्रियप्रतिपादनार्थमाह Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजीवाजीवाभि मलयगि-15 रीयावृत्तिः १प्रतिपत्ती * त्रसभेदाः 6 (सू० २७) द्वीन्द्रियाः * सू० २८ . से कितं इंदिया १, २ अणेगविधा पण्णसा, तंजहा-पुलाकिमिया जाव समुहलिक्खा, जे याषण्णे तहप्पगारा, ते समासतो दुविहा पण्णसा, तंजहा-पज्जत्ता य अपज्जत्ता य।तेसिणं भंते! जीवाणं कति सरीरगा पण्णत्ता, गोयमा! तओ सरीरगा पण्णत्ता, तंजहा-ओरालिए तेयए कम्मए । तेसिणं भंते! जीवाणं के महालिया सरीरओगाहणा पण्णत्ता ?, जहन्नेणं अंगुलासंखेजभागं उक्कोसेणं बारसजोयणाई छेवट्ठसंघयणा हुंडसंठिता, चत्तारि कसाया, चत्तारि सण्णाओ, तिपिण लेसाओ, दो इंदिया, तओ समुग्धाता-वेयणा कसाया मारणंतिया, नोसन्नी असन्नी, णपुंसकवेदगा, पंच पजसीओ, पंच अपज्जत्तीओ, सम्मदिट्टीवि मिच्छदिट्ठीवि नो सम्म- . मिच्छदिट्ठी, णो ओहिदसणी णो चक्खुदंसणी अचक्खुदंसणी नो केवलदंसणी । तेणं भंते! जीवा किं णाणी अण्णाणी?, गोयमा! णाणीवि अण्णाणीवि, जेणाणी ते नियमा दुपणाणी, तंजहा-आभिणियोहियणाणी सुयणाणी य, जे अन्नाणी ते नियमा दुअण्णाणी-मतिअण्णाणी य सुपअण्णाणी य, नो मणजोगी वइजोगी कायजोगी, सागारोवउत्सावि अणागारोवउत्तावि, आहारो नियमाछदिसिं, उववातो तिरियमणुस्सेसु नेरइयदेवअसंखेजवासाउयवज्जेसु, ठिती जहनेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं बारस संवच्छराणि, समोहतावि मरंति असमोहतावि मरंति, कर्हि Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गच्छंति?, नेरइयदेवअसंखेज्जवासाउअवज्जेसु गच्छंति, दुगतिया दुआगतिया, परित्ता असंखेज्जा, सेत्तं इंदिया ॥ ( सू० २८ ) 'से किं त' मित्यादि, अथ के ते द्वीन्द्रियाः १, सूरिराह - द्वीन्द्रिया अनेकविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - 'पुलाकिमिया जाव समुद्दलिक्खा' इति यावत्करणादेवं परिपूर्णपाठो द्रष्टव्यः - “पुला किमिया कुच्छिकिमिया गंडूयलगा गोलोमा नेउरा सोमंगलगा वंसीमुहा सूईमुहा गोजलोया जलोया जालायुसा संखा संखणगा घुल्ला खुल्ला वराडा सोत्तिया मोतिया कडुयावासा एगतोवत्ता दुहतोवृत्ता नंदियावत्ता संबुक्का माइवादा सिप्पिसपुडा चंदणा समुद्दलिक्खा इति” अस्य व्याख्या - 'पुलाकिमिया' नाम पायुप्रदेशोत्पन्नाः कृमयः 'कुक्षिकृमयः' कुक्षिप्रदेशोत्पन्नाः 'गण्डोयलका:' प्रतीताः 'शङ्खा: ' समुद्रोद्भवास्तेऽपि प्रतीताः 'शङ्खनका: ' त एव लघव: 'घुल्ला' घुल्लिका: 'खुल्ला:' लघवः शङ्खाः सामुद्रशङ्खाकाराः 'वराटा: ' कपर्दा : 'मातृवाहा: ' कोद्रवाकारतया ये कोद्रवा इति प्रतीताः 'सिप्पिसंपुडा' संपुटरूपाः शुक्तय: 'चन्दनका: ' अक्षाः, शेषास्तु यथासम्प्रदायं वाच्या, 'जे यावण्णे तहप्पगारा' इति | येऽपि चान्ये तथाप्रकाराः - एवंप्रकाराः मृतककलेवरसम्भूतकृम्यादयस्ते सर्व्वे द्वीन्द्रिया ज्ञातव्याः, 'ते समासतों इत्यादि, वे द्वीन्द्रिया: 'समासतः' सङ्क्षेपेण द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - अपर्याप्ताः पर्याप्ताश्च । शरीरद्वारेऽमीषां त्रीणि शरीराणि - औदारिकं तैजसं कार्मणं च, अवगाहना जघन्यतोऽङ्गुलासङ्ख्येयभागमात्रा उत्कृष्टा द्वादश योजनानि, संहननद्वारे छेदवर्त्तिसंहननिनः, अत्र संहननं मुख्यमेव द्रष्टव्यम्, अस्थिनिचयभावात्, संस्थानद्वारे हुण्डसंस्थाना:, कषायद्वारे चत्वारः कषायाः सञ्ज्ञाद्वारे चतस्र आहारादिका: सन्ज्ञाः, लेश्याद्वारे आद्यास्तिस्रो लेश्याः, इन्द्रियद्वारे द्वे इन्द्रिये, तद्यथा - स्पर्शनं रसनं च समुद्घातद्वारे त्रयः समुद्घाताः, त Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवा- यथा-वेदनासमुद्घातः कषायसमुद्घातो मारणान्तिकसमुद्घातव, सझाद्वारे नो सम्झिनोऽसमिन, वेदद्वारे नपुंसकवेदाः, प्रतिपत्ती बीवाभि० संमूछिमलात्, पर्याप्तिद्वारे पच पर्याप्तयः पश्चापर्याप्तया, दृष्टिद्वारे सम्यग्दृष्टयो मिथ्यादृष्टयो वा, न सम्यग्मिथ्यादृष्टयः, कथम्? *दीन्द्रियाः मलयगि- इति चेत् उच्यते, इह घण्टाया वादितायां महान् शब्द उपजायते, तत उत्तरकालं हीयमानोऽवसाने लालामात्रं भवति, एवममुना 9 सू०२८ रीयावृत्तिः घण्टालालान्यायेन किश्चित्सास्वादनसम्यक्त्वशेषाः केचिद् द्वीन्द्रियेषु मध्ये उत्पद्यन्ते, ततोऽपर्याप्तावस्थायां कियत्कालं सास्वादनस म्यक्त्वसम्भवात् सम्यग्दृष्टिलं, शेषकालं मिथ्यादृष्टिता, यत्तु सम्यग्मिध्यादृष्टित्वं तन्न संभवति, तथाभवखभावतया तथारूप॥३१॥ 15 परिणामायोगात् , नापि सम्यग्मिध्यादृष्टिः सन् तत्रोत्पद्यते 'न सम्ममिच्छो कुणइ कालं' इति वचनात् , दर्शनद्वारं प्राग्वत् , ज्ञा नद्वारे झानिनोऽप्यज्ञानिनोऽपि, तत्र ज्ञानिलं सास्वादनसम्यक्त्वापेक्षया, ते च ज्ञानिनो नियमाद् द्विज्ञानिनो, मतिश्रुतज्ञानमात्रभा* वात् , अज्ञानिनोऽपि नियमाद् द्वयज्ञानिनो, मत्यज्ञानश्रुताज्ञानमात्रभावात् , योगद्वारे न मनोयोगिनो वाग्योगिनोऽपि काययोगि5 नोऽपि, उपयोगद्वारं पूर्ववत्, आहारो नियमात् पदिशि, जसनाड्या एवान्तीन्द्रियादीनां भावात् , उपपातो देवनारकासट्यातव पीयुष्कवर्जेभ्यः शेषतिर्यग्मनुष्येभ्यः, स्थितिर्जघन्यतोऽन्तर्मुहुर्तमुत्कर्पतो द्वादश वर्षाणि, समवहतद्वारं प्रागिव, च्यवनद्वारे देवना* रकासल्याववर्षायुष्फवर्जितेषु शेषेषु तिर्यग्मनुष्यष्वनन्तरमुत्य गमनम्, अत एव गत्यागतिद्वारे ट्यागतिका द्विगतिकाः तियेरमनुष्यगत्यपेक्षया, 'परीत्ताः' प्रत्येकशरीरिणः, असङ्ख्येया घनीकृतस्य लोकस्य या ऊर्ध्वाध आयता एकप्रादेशिक्यः श्रेणयोऽसङ्ख्येययोजनकोटाकोटीप्रमाणाकाशसूचिगतप्रदेशराशिप्रमाणाः तावत्प्रमाणत्वात् , प्रज्ञप्ताः हे श्रमण ! हे आयुष्मन् !, उपसंहारमाह-'सेत्तं वेइंदिया' ॥ * ॥३१॥ उक्ता द्वीन्द्रियाः, अधुना त्रीन्द्रियानाह Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से किं तं तेइंदिया ?, २ अणेगविधा पण्णत्ता, तंजहा-ओवइया रोहिणीया हत्थिसोंडा, जे यावपणे तहप्पगारा, ते समासतो दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-पज्जत्ता य अपज्जत्ता य, तहेव जहा बेइंदियाणं, नवरं सरीरोगाहणा उक्कोसेणं तिन्नि गाउयाई, तिन्नि इंदिया, ठिई जहन्नेणं अंतोमुहुतं उक्कोसेणं एगूणपण्णराइंदिया, सेसं तहेव, दुगतिया दुआगतिया, परित्ता असंखेज्जा पण्णत्ता, से तं तेइंदिया ॥ (सू० २९) अथ के तेत्रीन्द्रिया:?, सूरिराह-त्रीन्द्रिया अनेकविधाःप्रज्ञप्ताः, तद्यथा-'भेदो जहा पण्णवणाए' भेदो यथा प्रज्ञापनायां तथा वक्तव्यः, स चैवम्-"उवयिया रोहिणिया कुंथूपिवीलिया उद्देसगा उद्देहिया उक्कलिया तणहारा कट्ठहारा पत्तहारा मालुया पत्तहारा तणबेंटका पत्तबेंटया फलटया तेम्वुरुमिंजिया तउसमिजिया कप्पासहिमिंजिया झिल्लिया हिंगिरा झिगिरिडा वाहुया, [ग्रन्थानम् १०१०] मुरगा सोवत्थिया सुयबेंटा इंदकाइया इंदगोवया कोत्थलवाहगा हालाहला पिसुया तसवाइया गोम्ही त्थिसोंडा ॥” इति, एते च केचिदतिप्रतीताः केचिद्देशविशेषतोऽवगन्तव्याः, नवरं 'गोम्ही' कण्हसियाली, 'जे यावण्णे तहप्पगारा' इति येऽपि चान्ये 'तथाप्रकाराः' एवंप्रकारास्ते सर्वे त्रीन्द्रिया ज्ञातव्याः, 'ते समासतो' इत्यादि समस्तमपि सूत्र द्वीन्द्रियवत्परिभावनीयं, नवरमवगाहनाद्वारे उत्कर्षतोऽवगाहना त्रीणि गव्यूतानि । इन्द्रियद्वारे त्रीणि इन्द्रियाणि । स्थितिर्जघन्येनान्तर्मुहर्तमुत्कर्षत एकोनपञ्चाशद् रात्रिन्दिवानि, शेषं तथैव, उपसंहारमाह-'सेत्तं तेइंदिया।' उक्तास्त्रीन्द्रियाः, सम्प्रति चतुरिन्द्रियप्रतिपादनार्थमाह से किं तं चउरिंदिया ?, २ अणेगविधा पण्णत्ता, तंजहा-अंधिया पुत्तिया जाव गोमयकीडा, जे SARA Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ***** ॥३२॥ *** यावपणे तहप्पगारा ते समासतो दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-पज्जत्ता य अपजत्ता य, तेसि णं १प्रतिपत्ती भंते! जीवाणं कति सरीरगा पण्णत्ता ?, गोयमा! तओ सरीरगा पण्णत्ता तं चेव, णवरं सरी त्रिचतुरि. रोगाहणा उक्कोसेणं चत्तारि गाउयाई, इंदिया चत्तारि, चक्खुदंसणी अचक्खुदंसणी, ठिती उ न्द्रियाः कोसेणं छम्मासा, सेसं जहा तेइंदियाणं जाव असंखेजा पण्णत्ता, से तं चउरिदिया ॥ (सू० ३०) सू० २९___अथ के ते चतुरिन्द्रिया:?, सूरिराह-चतुरिन्द्रिया अनेकविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-"अंधिया पुत्तिया मच्छिया मगसिरा कीडा पयंगा टेंकणा कुकुहा कुकुडा नंदावत्ता झिंगिरिडा किण्हपत्ता नीलपत्ता लोहियपत्ता हालिद्दपत्ता सुकिलपत्ता चित्तपक्खा विचि- पश्चान्द्रयाः त्तपक्खा ओहंजलिया जलचारिया गंभीरा नीणिया तंतवा अच्छिरोडा अच्छिवेहा सारंगा नेउरा डोला भमरा भरिलि जरला विच्छया सू० २१ पत्तविच्छुया छाणविच्छुया जलविच्छुया सेइंगाला कणगा गोमयकीडगा” एते लोकत: प्रत्येतव्याः, 'जे यावण्णे तहप्पगारा' इति, येऽपि चान्ये 'तथाप्रकाराः' एवंप्रकारास्ते सर्वे चतुरिन्द्रिया विज्ञेयाः, 'ते समासतो' इत्यादि सकलमपि सूत्र द्वीन्द्रियवद्भावनीयं, * नवरमवगाहनाद्वारे उत्कर्षतोऽवगाहना चत्वारि गव्यूतानि । इन्द्रियद्वारे स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुर्लक्षणानि चत्वारीन्द्रियाणि । स्थितिद्वारे । उत्कर्षतः स्थितिः षण्मासाः, शेषं तथैव, उपसंहारमाह्–'सेत्तं चउरिंदिया' । सम्प्रति पञ्चेन्द्रियान् प्रतिपिपादयिषुराह से कि तं पंचेदिया ?, २ चउविहां पण्णत्ता, तंजहा-णेरतिया तिरिक्खजोणिया मणुस्सा देवा ॥ (सू० ३१) ___ अथ के ते पञ्चेन्द्रियाः ?, सूरिराइ-पञ्चेन्द्रियाश्चतुर्विधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-नैरयिकास्तिर्यग्योनिका मनुष्या देवाः, तत्र अयम् ॥३२॥ त लोकतः प्रत्येतव्यमकलमपि सूत्रं द्वीन्द्रिय स्थितिद्वारे *** *** Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ ABSCASS इष्टफलं कर्म निर्गतमयं येभ्यस्ते निरया-नरकावासास्तेषु भवा नैरयिकाः, अध्यालादेराकृतिगणवादिकणप्रत्ययः । विर्यगिति प्रायस्तिर्यगलोके योनयस्तिर्यग्योनयस्तत्र जातास्तिर्यग्योनिजाः, यदिवा तिर्यग्योनिका इति शब्दसंस्कारः, तत्र तिर्यगिति प्रायस्तिर्यग्लोके योनय:-उत्पत्तिस्थानानि येषां ते तिर्यग्योनिकाः । मनुरिति मनुष्यस्य सञ्जा, मनोरपत्यानि मनुष्याः, जातिशब्दोऽयं राजन्यादिशब्दवत् । दीव्यन्तीति देवाः ॥ तत्र नैरयिकप्रतिपादनार्थमाह से किं तं नेरइया ?, २ सत्तविहा पण्णत्ता, तंजहा-रयणप्पभापुढविनेरइया जाव अहे सत्तमपुढविनेरइया, ते समासओ दुविहा पण्णत्ता, तं०-पज्जत्ता य अपजत्ता य । तेसि णं भंते ! जीवाणं कति सरीरगा पण्णत्ता?, गोयमा! तओ सरीरया पण्णत्ता, तंजहा-वेउव्विए तेयए कम्मए। तेसिणं भंते। जीवाणं केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता?, गोयमा! दुविहार सरीरोगाहणा पण्णत्ता, तंजहा-भवधारणिज्जा य उत्तरवेउविया य, तत्थ णं जा सा भवधारणिज्जा सा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेनो भागो उक्कोसेणं पंचधणुसयाई, तत्थ णं जा सा उत्तरवेउव्विया सा जहण्णेणं अंगुलस्स संखेजतिभागं उक्कोसेणं धणुसहस्सं । तेसिणं भंते ! जीवाणं सरीरा किंसंघयणी पण्णत्ता ?, गोयमा! छण्हं संघयणाणं असंघयणी, णेवट्ठी व छिरा णेव पहारु णेव संघयणमत्थि, जे पोग्गला अणिट्ठा अकंता अप्पिया असुभा अमणुण्णा अमणामा ते तेर्सि संघातत्ताए परिणमंति । तेसि णं भंते ! जीवाणं सरीरा किंसंठिता पण्णत्ता ?, गोयमा ! दुविहा %2595 + + + + %2525 + + Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १प्रतिपत्ती नारकाः सू० ३२ श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ROMANGRAHA पण्णत्ता, तंजहा-भवधारणिता य उत्तरवेउब्विया य,तत्थ णं जे ते भवधारणिजाते हुंडसंठिया, तत्थ णं जे ते उत्तरवेउव्विया तेवि डंडसंठिता पण्णत्ता, चत्तारि कसाया चत्तारि सण्णाओ तिण्णि लेसाओ पंचेंदिया चत्तारि समुग्धाता आइल्ला, सन्नीवि असन्नीवि, नपुंसकवेदा, छप्पअत्तीओ छ अपजसीओ, तिविधा दिट्ठी, तिन्नि दंसणा, णाणीवि अण्णाणीवि, जेणाणी ते नियमा तिन्नाणी, तंजहा-आभिणियोहियणाणी.सुतणाणी ओहिनाणी, जे अण्णाणी ते अत्थेगतिया दुअण्णाणी अत्थेगतिया तिअण्णाणी, जे य दुअण्णाणी ते णियमा मइअण्णाणी सुयअपणाणी य, जे तिअण्णाणी ते नियमा मतिअण्णाणी य सुयअण्णाणी य विभंगणाणी य, तिविधे जोगे, दुविहे उवओगे, दिसि आहारो, ओसण्णं कारणं पडुच वण्णतो कालाई जाव आहारमाहारेति, उववाओ तिरियमणुस्सेसु, ठिती जहन्नेणं दसवाससहस्साइं उक्कोसेणं तित्तीसं सागरोबमाई, दुविहा मरंति, उब्वहणा भाणियब्वा जतो आगता, णवरि संमुच्छिमेसु पडिसिद्धो, दुगतिया दुआगतिया परित्ता असंखेज्जा पण्णत्ता समणाउसो!, से तं नेरइया ॥ (सू०३२) अथ के ते नैरयिकाः १, सूरिराह-नैरयिकाः सप्तविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-रत्नप्रभापृथिवीनरयिका यावत्करणात् शर्कराप्रभापृथिवीनैरयिकाः वालुकाप्रभापृथिवीनैरयिका: पप्रभावृथिवीनरयिकाः धूमप्रभापृथिवीनरयिकाः तमःप्रभापृथिवीनैरयिका इति परिग्रहः, टू अभःसप्तमपृथिवीनैरयिकाः, ते समासतो'इत्याविपर्याप्तापर्याप्तसूत्रं मुगमम् ॥ शरीरादिद्वारप्रतिपादनार्थमाह-'तेसि णं भंते !' इत्यादि, SUSMSAMACAUSAM ॥३३॥ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुगम नवरं भवप्रत्ययादेव तेषां शरीरं वैक्रिय नौदारिकमिति वैक्रियतैजसकार्मणानि त्रीणि शरीराण्युक्तानि । अवगाहना तेषां द्विधाभवधारणीया उत्तरवैकुर्विकी च, तत्र यया भवो धार्यते सा भवधारणीयां, बहुलवचनात्करणेऽनीयप्रत्ययः, अपरा भवान्तरवैरिनारकप्रतिघातनार्थमुत्तरकालं या विचित्ररूपा वैक्रयिकी अवगाहना सा उत्तरवैकुर्विकी, तत्र या सा भवधारणीया सा' अघन्यतोशालासयेयभागः, स चोपपातकाले वेदितव्यः, तथाप्रयत्नभावात् , उत्कर्षतः पञ्चधनुःशतानि, इदं चोत्कर्षतः प्रमाणं सप्तमपृथिवीमधिकृत्य वेदितव्यं. प्रतिप्रथिवि तत्कर्षतः प्रमाणं सहणिटीकातो भावनीयं, तत्र सविस्तरमुक्तत्वात् , उत्तरवेकुर्विकी जघन्यतोऽजलसङ्ख्येयभागो। न लसोयभागः, तथाप्रयत्नाभावात् , उत्कर्षतो धनु:सहसमिति, इदमप्युत्कर्षपरिमाणं सप्तमनरकपृथिवीमधिकृत्य वेदितव्यं, प्रतिपृथिवि तु सङ्गहणिटीकातः परिभावनीयं, संहननद्वारे 'तेसि णं भंते!' इत्यादि प्रभसूत्रं सुगम, भगवानाह-गौतम! पण्णां संहननानामन्यतमेनापि संहननेन तेषां शरीराण्यसंहननानि, सूत्रे पुंस्त्वनिर्देशः प्राकृतलात्, कस्मादसंहननानि ? इति चेद् अत आह-'नेवट्ठी इत्यादि, नैव तेषां शरीराणामस्थीनि, नैव शिरा-धमनिनाड्यो, नापि स्नायूनि-शेषशिराः, अस्थिनिचयात्मकं च संहननमतोडस्थ्याद्यभावादसंहननानि शरीराणि, इयमत्र भावना-इह तत्त्ववृत्त्या संहननमस्थिनिचयामकं, यत्तु प्रागेकेन्द्रियाणां सेवार्त्तसंहननमभ्यधायि तदौदारिकशरीरसम्बन्धमात्रमपेक्ष्यौपचारिकं, देवा अपि यदन्यत्र प्रज्ञापनादौ वनसंहननिन उच्यन्ते तेऽपि गौणवृत्त्या, तथाहि-इह यादृशी मनुष्यलोके चक्रवर्त्यादेविशिष्टवर्षभनाराचसंहननिन: सकलशेषमनुष्यजनासाधारणा शक्तिः "दोसोला बत्तीसा सव्वबलेणं तु संकलनिबद्ध"मित्यादिका, ततोऽधिकतरा देवानां पर्वतोत्पाटनादिविपया शक्तिः श्रूयते न च शरीरपरिकेश इति तेऽपि वअसंहननिन इव वनसंहननिन उक्ता न पुनः परमार्थतस्ते संहननिनः, ततो नारकाणामस्थ्यभावात्संहननाभावः, एतेन योऽपरिणतभग-10 Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १प्रतिपत्ती नारका सू० ३२ बीवाभि श्रीजीवा वत्सिद्धान्तसारो वावदूकः सिद्धान्तवाहुल्यमासनः ख्यापयन्नेवं प्रललाप-"सुत्ते सत्तिविसेसो संघयणमिहऽहिनिचयो"त्ति, इति सोऽपा कीर्णो द्रष्टव्यः, साक्षादत्रैव सूत्रे अस्थि निचयात्मकस्य संहननस्याभिधानात्, अस्थ्यभावे संहननप्रतिषेधादिति । अपरस्त्वाह-नैरयिकामलयगि-है णामस्थ्यभावे कथं शरीरबन्धोपपत्तिः, नैष दोषः, तथाविधपुद्गलस्कन्धवत् शरीरबन्धोपपत्तेः, अत एवाह-'जे पोग्गला अणिहा' रीयावृत्तिः इत्यादि, ये पुद्गला: 'अनिष्टाः' मनस इच्छामतिकान्ताः, तत्र किश्चित्कमनीयमपि केपाश्चिदनिष्टं भवति तत आह-न कान्ताः अकान्ता-अकमनीयाः, अत्यन्ताशुभवर्णपितत्वात्, अत एव न प्रियाः, दर्शनापातकालेऽपि न प्रियबुद्धिमासन्युत्पादयन्तीति भावः, 'अशुभाः' अशुभरसगन्धस्पर्शासकत्वात् , 'अमनोज्ञाः' न मनःप्रहादहेतवो, विपाकतो. दुःखजनकत्वात् , अमनापा:-न जातुचिदपि भोज्यतया जन्तूनां मनांस्यानुवन्तीति भावः, ते तेपां 'सघातलेन' तथारूपशरीरपरिणतिभावेन परिणमन्ति । संस्थानद्वारे तेषां शरीराणि भवधारणीयानि उत्तरवैकुर्विकाणि च हुण्डसंस्थानानि वक्तव्यानि, तथाहि-भवधारणीयानि तेषां शरीराणि भवस्वभावत एव निर्मूलविलुप्तपक्षोत्पाटितसकलपीवादिरोमपक्षिशरीरकवदतिबीभत्सहुण्डसंस्थानोपेतानि, यान्यप्युत्तरवैक्रियाणि तानि यद्यपि शुभानि वयं विकुर्विष्याम इत्यभिसन्धिना विकुर्वितुमारभन्ते तथाऽपि तानि तेषामत्यन्ताशुभतथाविधनामकर्मोदयतोऽतीवाशुभतराण्युप-5 जायन्ते इति तान्यपि हुण्डसंस्थानानि । कषायद्वारं सझाद्वारं च प्राग्वत्, लेश्याद्वारे आद्यास्तिस्रो लेश्याः, तत्राद्ययोर्द्वयोः पृथिव्योः कापोतलेश्या, तृतीयस्यां पृथिव्यां के चिन्नरकावासेपु कापोतलेश्या शेषेषु नीललेश्या, चतुर्थी नीललेश्या, पञ्चम्यां केषुचिन्नरकावायेषु चीललेश्या, शेषेषु कृष्णलेश्या, षष्ठयां कृष्णलेश्या, सप्तम्यां परमकृष्णलेश्या, उक्तश्च व्याख्याप्रज्ञप्तौ-"काऊ य दोसु तइ कापोती च द्वयोस्तृतीयस्यां मिश्रा नीला चतुर्यो । पञ्चम्या मिश्रा कृष्णा तत- परमकृष्णा ॥१॥ 61-562-61-62-6 ॥३४॥ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ याएँ मीसिया नीलिया चउत्थीए पंचमियाए। मीसा कण्हा तत्तो परमकण्हा ॥१॥” इन्द्रियद्वारे पञ्च इन्द्रियाणि स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्रलक्षणानि । समुद्घातद्वारे चत्वारः समुद्घाताः-वेदनासमुद्घातः कपायसमुद्घातो वैक्रियसमुद्घातो मारणान्तिकसमुद्घातश्च । सञ्जिद्वारे सझिनोऽसज्ञिनश्च, तत्र ये गर्भव्युत्क्रान्तिकेभ्य उत्पन्नास्ते सचिन इति व्यपदिश्यन्ते, ये तु संमूच्र्छनजेभ्यस्तेऽसब्जिनः, ते च रत्नप्रभायामेवोत्पद्यन्ते न परतः, अनाशयाशुभक्रियाया दारुणाया अप्यनन्तरविपाकिन्या एतावन्मात्रफलत्वात् , अत एवाहुर्वृद्धा:- अस्सन्नी खलु पढम दोचं व सिरीसवा तइय पक्खी। सीहा जंति चउत्थि उरगा पुण पंचमि पुढवि ॥१॥ छट्रिं य इत्थियाओ मच्छा मणुया य सत्तम पुढवि । एसो परमोवाओ बोद्धम्मो नरयपुढवीसु ॥२॥" वेदद्वारे नपुंसकवेदाः । पर्याप्तिद्वारे पञ्च पर्याप्तयः पञ्चापर्याप्तयः । दृष्टिद्वारे विविधदृष्टयोऽपि, तद्यथा-मिथ्यादृष्टयः सम्यग्दृष्टयः सम्यग्मिथ्यादृष्टयश्च, दर्शनद्वारे त्रीणि दर्शनानि, तद्यथा-चक्षुर्दर्शनमचक्षुर्दर्शनमवधिदर्शनं च । ज्ञानद्वारे ज्ञानिनोऽपि अज्ञानिनोऽपि, तत्र ये ज्ञानिनस्ते नियमात्रिज्ञानिनः, तद्यथा-आभिनिबोधिकज्ञानिनः श्रुतज्ञानिनोऽवधिज्ञानिनश्च, येऽत्राज्ञानिनस्ते मत्यज्ञानिनः श्रुताज्ञानिनो विभङ्गज्ञानिनश्च, एष चात्र भावार्थ:-ये नारका असज्ञिनस्तेऽपर्याप्तावस्थायां व्यज्ञानिन: पर्याप्तावस्थायां तु व्यज्ञानिनः सञ्जिनस्तूभय्यामप्यवस्थायां व्यज्ञानिनः, असज्ञिभ्यो ह्युत्पद्यमानास्तथावोधमान्द्यादपर्याप्तावस्थायां नाव्यक्तमप्यवधिमाप्नुवन्तीति । योगोपयोगाहारद्वाराणि प्रतीतानि । उपपातो यथा व्युत्क्रान्तिपदे प्रज्ञापनायां तथा वक्तव्यः, पर्याप्तपञ्चेन्द्रियतिर्यग्मनुष्येभ्योऽसवातवर्षायुष्कवर्जेभ्यो वक्तव्यो, १ असज्ञिन. खलु प्रथमा द्वितीया च सरीसृपास्तृतीयां पक्षिणः । सिंहा यान्ति चतुर्थी उरगा. पुन: पञ्चमी पृथ्वीम् ॥१॥ षष्ठी च स्त्रियः मत्स्या मनुष्याश्च || सप्तमी पृथ्वीम् । एष परम उत्पादो वोद्धव्यो नरकपृथ्वीपु ॥२॥ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजीवा- न शेषेभ्य इति भावः । स्थितिर्जघन्यतो दश वर्षसहस्राणि उत्कर्षतस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि । समुद्घातमधिकृत्य मरणचिन्ता प्राग्वत् । १प्रतिपत्ती जीवाभि० उद्वर्त्तनाचिन्ता यथा व्युत्क्रान्तिपदे प्रज्ञापनायां कृता तथा वक्तव्या, अनन्तरमुदृत्य सजिपञ्चेन्द्रियतिर्यमनुष्येष्वसत्यातवर्पायुष्क- पञ्चेन्द्रियमलयगि- वर्जितेष्वागच्छन्तीति भावः, अत एव गत्यागतिद्वारे यागतिका द्विगतिकाः, 'परीत्ताः' प्रत्येकशरीरिणोऽसयेयाः प्रज्ञप्ताः, हे श्रमण! हे है तिर्यग्भेदाः रीयावृत्तिः 8 आयुष्मन् !, उपसंहारमाह-'सेत्तं नेरड्या' । उक्ता नैरयिकाः, सम्प्रति तिर्यपञ्चेन्द्रियानाह र सू० ३३ से किं तं पंचेंदियतिरिक्खजोणिया?, २ दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-समुच्छिमपंचेंदियतिरिक्खजोणिया य गन्भवतियपंचिंदियतिरिक्खजोणिया य॥ (सू० ३३) अथ के ते पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका: ?, सूरिराह-पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-संमूछिमपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका गर्भव्युत्क्रान्तिकपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाच, तत्र संमूर्च्छनं संमूछों-गोपपातव्यतिरेकेणैव यः प्राणिनामुत्पादस्तेन निर्वृत्ताः संमूछिमाः, 'भावादिम' इति इमप्रत्ययः, ते च ते पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाश्च संमूछिमपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः, गर्भे व्युत्क्रान्ति:-उत्पत्तिर्येषां यदिवा गर्भादू-गर्भवशाद् व्युत्क्रान्ति:-निष्क्रमणं येषां ते गर्भव्युत्क्रान्तिकाः, ते च ते पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाश्चेति विशेपणसमासः, चशब्दौ खगतानेकभेदसूचकौ ॥ से किं तं समुच्छिमपंचेंदियतिरिक्खजोणिया ?, २ तिविहा पण्णत्ता, तंजहा-जलयरा थलयरा ॥ ३५॥ खहयरा ॥ (सू० ३४)। से किं तं जलयरा?, २ पंचविधा पण्णत्ता, तंजहा-मच्छगा कच्छभा मगरा गाहा सुसुमारा। से किं तं मच्छा, एवं जहा पण्णवणाए जाव जे यावपणे तहप्पगारा, 8 Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ते समासतो दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-पज्जत्ता य अपजत्ता य । तेसि णं भंते ! जीवाणं कति सरीरगा पण्णत्ता ?, गोयमा! तओ सरीरया पण्णत्ता, तंजहा-ओरालिए तेयए कम्मए, सरीरोगाहणा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं उक्कोसेणं जोयणसहस्सं छेवट्ठसंघयणी हुंडसंठिता, चत्तारि कसाया, सण्णाओवि ४, लेसाओ ५, इंदिया पंच, समुग्धाता तिणि णो सण्णी असण्णी, णपुंसकवेदा, पजत्तीओ अपजत्तीओ य पंच, दो दिडिओ, दो दंसणा, दो नाणा दो अन्नाणा, दुविधे जोगे, दुविधे उवओगे, आहारो छद्दिसिं, उववातो तिरियमणुस्सहिंतो नो देवेहितो नो नेरइएहितो, तिरिएहितो असंखेजवासाउवजेसु, अकम्मभूमगअंतरदीवगअसंखेनवासाउअवजेसु मणुस्सेसु, ठिती जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं पुवकोडी, मारणंतियसमुग्घातेणं दुविहावि मरंति, अणंतरं उव्वद्वित्ता कहिं ?, नेरइएसुवि तिरिक्खजोणिएसुवि मणुस्सेसुवि देवेसुवि, नेरइएसु रयणप्पहाए, सेसेसु पडिसेधो, तिरिएसु सव्वेसु उववज्जति संखेजवासाउएसुवि असंखेजवासाउएसुवि चउप्पएसु पक्खीसुवि मणुस्सेसु सव्वेसु कम्मभूमीसु नो अकम्मभूमीएसु अंतरदीवएसुवि संखिज्जवासाउएसुवि असंखिजवासाउएसुवि देवेसु जाव वाणमंतरा, चउगइया दुआगतिया, परित्ता असंखेजा पण्णत्ता । से तं जलयरसमुच्छिमपंचेंदियतिरिक्खा ॥ (सू० ३५) - अथ के ते संमूछिमपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः?, सूरिराह-संमूछिमपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकात्रिविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-जलचराः Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजीवा- स्थलचराः खचराः, तत्र जले चरन्तीति जलचराः, एवं स्थलचरा खचरा अपि भावनीया: ।। अथ के ते जलचराः ?, सूरिराह-जल- १प्रतिपत्त जीवाभि चराः पञ्चविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-मत्स्याः कच्छपा मकरा पाहाः शिशुमाराः, 'एवं भेओ भाणियव्वो जहा पण्णवणाए जाव सुसुमारा समरिकम महयगि- एगागारा पन्नत्ता' इति, "एवम् उक्तेन प्रकारेण मत्स्यादीनां भेदो यथा प्रज्ञापनायां तथा वक्तव्यः, स च तावद् यावत् 'सिसुमारा' 5 संमूच्छिम रीयावृत्तिः, एगागारा इतिपदं, स चैवम्-"से किं तं मच्छा?, मच्छा अणेगविहा पण्णत्ता, तंजहा-सोहमच्छा खवल्लमच्छा जुगमच्छा भिभिय- जलचराः मच्छा हेलियमच्छा मंजरियामच्छा रोहियमच्छा हलीसागारा मोगरावडा वडगरा तिमीतिमिगिलामच्छा तंदुलमच्छा कणिक्कमच्छा सू० ३५ सिलेच्छियामच्छा लंभणमच्छा पडागा पडागाइपडागा, जे यावण्णे तहप्पगारा, से तं मच्छा। से किं तं कच्छभा', कच्छमा दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-अट्टिकच्छभा य मंसलकच्छभा य, से तं कच्छभा। से किं तं गाहा ?, गाहा पंचविहा पण्णत्ता, तंजहा-दिली वेढगा मुद्गा पुलगा सीमागारा, सेत्तं गाहा । से किं तं मगरा?, मगरा दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-सोंडमगरा य मट्ठमगरा य, सेत्तं मगरा। से किं तं सुसुमारा?, २ एगागारा पण्णत्ता, सेत्तं सुसुमारा" इति, एते मत्स्यादिभेदा लोकतोऽवगन्तव्याः, 'जे यावण्णे तहप्पगारा' इति, येऽपि चान्ये 'तथाप्रकाराः' उक्तप्रकारा मत्स्यादिरूपाः, ते सर्वे जलचरसंमूछिमपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका द्रष्टव्याः । ते समासतो' & इत्यादि पर्याप्तापर्याप्तसूत्रं सुगम, शरीरादिद्वारकदम्बकमपि चतुरिन्द्रियवद्भावनीयं, नवरमवगाहनाद्वारे जघन्यतोऽवगाहना अङ्गुलासङ्ख्येयभागमात्रा, उत्कर्षतो योजनसहस्रम् । इन्द्रियद्वारे पञ्चेन्द्रियाणि । सज्ञिद्वारे नो सब्जिनोऽसज्ञिनः, संमूछिमतया समनस्कत्वायोगात् । उपपातो यथा व्युत्क्रान्तिपदे तथा वक्तव्य., तिर्यग्मनुष्येभ्योऽसङ्ख्यातवर्पायुष्कवर्येभ्यो वाच्य इति भावः । स्थितिर्जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतः पूर्वकोटी । च्यवनद्वारेऽनन्तरमुद्वृत्त्य चतसृष्वपि गतिपूत्पद्यन्ते, तत्र नरकेपु रत्नप्रभायामेव, तिर्यक्षु सर्वेष्वेव, मनु Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vध्येषु कर्मभूमिजेषु, देवेषु व्यन्तरभवनवासिषु, तदन्येष्वसङ्ग्यायुष्काभावात् , अत एव गत्यागतिद्वारे चतुर्गतिका यागतिकाः, 'प रीत्ताः' प्रत्येकशरीरिणोऽसङ्खयेयाः प्रज्ञप्ताः हे श्रमण! हे आयुष्मन् !, उपसंहारमाह-'सेत्तं समुच्छिमजलयरपंचेंदियतिरिक्खजो|णिया ॥ उक्ताः संमूछिमजलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः, सम्प्रति संमृच्छिमस्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकप्रतिपादनार्थमाह से किं तं थलयरसमुच्छिमपंचेंदियतिरिक्खजोणिया?, २ दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-चउप्पयथलयरसमुच्छिमपंचेंदियतिरिक्खजोणिया परिसप्पसंमु० ॥ से किं तं थलयरचउप्पयसंमुच्छि म०१, २ चउव्विहा पण्णत्ता, तंजहा-एगखुरा दुखुरा गंडीपया सणप्फया जाव जे यावण्णे तहप्पकारा ते समासतो दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-पजत्ता य अपजत्ता य, तओ सरीगा ओगाहणा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजहभागं उक्कोसेणं गाउयपुहुत्तं ठिती जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं चउरासीतिवाससहस्साइं, सेसं जहा जलयराणं जाव चउगतिया दुआगतिया परित्ता असंखेना पण्णत्ता, सेत्तं थलयरचउप्पदसंमु०। से किं तं थलयरपरिसप्पसंमुच्छिमा?, २ दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-उरगपरिसप्पसंमुच्छिमा भुयगपरिसप्पसंमुच्छिमा। से किं तं उरगपरिसप्पसंमुच्छिमा?, २ चउव्विहा पण्णत्ता, तंजहा-अही अयगरा आसालिया महोरगा । से किं तं अही?, अही दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-व्वीकरा मालिणो य । से किं तं दवीकरा?, २ अणेगविधा पण्णत्ता, तंजहा-आसीविसा जाव से तं दध्वीकरा । से किं तं मउन Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः । १प्रतिपत्ती है संमूछिम पञ्चेन्द्रिय४ तिर्यश्चः सू० ३६ लिणो?, २ अणेगविहा पण्णत्ता, तंजहा-दिव्वा गोणसा जाव से तं मउलिणो, सेत्तं अही । से किं तं अयगरा?, २ एगागारा पण्णत्ता, से तं अयगरा । से किं तं आसालिया?, २ जहा पण्णवणाए, से तं आसालिया। से किं तं महोरगा?, २ जहा पण्णवणाए, से तं महोरगा । जे यावण्णे तहप्पगारा ते समासतो दुविहा पण्णत्ता,तंजहा-पज्जत्ता य अपज्जत्ता य तं चेव, णवरि सरीरोगाहणा जहन्नेणं अंगुलस्सऽसंखेज उक्कोसेणं जोयणपुहत्तं, ठिई जहन्नणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तेवपणं वाससहस्साई, सेसं जहा जलयराणं, जाव चउगतिया दुआगतिया परित्ता असंखेजा,सेतं उरगपरिसप्पा॥से किं तं भुयगपरिसप्पसंमुच्छिमथलयरा',२अणेगविधा पण्णत्ता, तंजहा-गोहा णउला जाव जे यावन्ने तहप्पकारा ते समासतो दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-पज्जत्ता य अपज्जत्ता य, सरीरोगाहणा जहन्नेणं अंगुलासंखेज्जं उक्कोसेणं धणुपुहत्तं, ठिती उक्कोसेणं यायालीसं वाससहस्साई सेसं जहा जलयराणं जाव चउगतिया दुआगतिया परित्ता असंखेजा पण्णत्ता, से तं भुयपरिसप्पसमुच्छिमा, से तं थलयरा ॥से किं तं खहयरा ?, २ चउविहा पण्णत्ता, तंजहा-चम्मपक्खी लोमपक्खी समुग्गपक्खी विततपक्खी । से किं तं चम्मपक्खी ?, २ अणेगविधा पण्णता, तंजहा-वग्गुली जाव जे यावन्ने तहप्पगारा, से तं चम्मपक्खी। से किं तं लोमपक्खी ?, २ अणेगविहा पण्णसा, तंजहा-ढंका कंका जे यावन्ने तहप्पकारा, से ॥ ३७॥ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwww तं लोमपक्खी । से किं तं समुग्गपक्खी ?, २ एगागारा पण्णत्ता जहा पण्णवणाए, एवं विततपक्खी जाव जे यावन्ने तहप्पगारा ते समासतो दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-पजत्ता य अपज्जत्ता य, णाणत्तं सरीरोगाहणा जह० अंगु० असं० उक्कोसेणं धणुपुहुत्तं ठिती उक्कोसेणं यावत्तरि वाससहस्साई, सेसं जहा जलयराणं जाव चउगतिया दुआगतिया परित्ता असंखेज्जा पण्णत्ता, से तं खयरसमुच्छिमतिरिक्खजोणिया, सेतं संमुच्छिमपंचेंदियतिरिक्खजोणिया॥ (सू०३६) अथ के ते संमृच्छिमस्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः, सूरिराह-स्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-चतुष्पदस्थलचरसंमूछिमपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाश्च परिसर्पस्थलचरसंमूछिमपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाच, तत्र चत्वारि पदानि येषां ते चतुष्पदा:अश्वादयः ते च ते स्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाश्चतुष्पदस्थलचरसंमूच्छिमपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः, उरसा भुजाभ्यां वा परिसर्पन्तीति परिसर्पा:-अहिनकुलादयस्ततः पूर्ववत्समासः, चशब्दो खखगतानेकभेदसूचकौ, तदेवानेकविधवं क्रमेण प्रतिपिपादयिपुराहअथ के ते चतुष्पदस्थलचरसंमूछिमपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः ?, सूरिराह-चतुष्पदस्थलचरसंमूच्छिमपश्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाश्चतुर्विधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-'जहा पण्णवणाए' इति, यथा प्रज्ञापनायां प्रज्ञापनाख्ये प्रथमे पदे भेदास्तथा वक्तव्या यावत् 'ते समासतो दुविहा पण्णत्ता' इत्यादि, ते चैवम्-"एगखुरा दुखुरा गंडीपया सणप्फया । से किं तं एगखुरा?, एगखुरा अणेगविहा पण्णत्ता, तंजहा-अस्सा अस्सतरा घोडा गद्दमा गोरखुरा कंदलगा सिरिकंदलगा आवत्ता जे यावण्णे तहप्पगारा, सेत्तं एगखुरा । से किं तं दुखुरा?, दुखुरा अणेगविहा पण्णत्ता, तंजहा-उट्टा गोणा गवया महिसा संवरा वराहा अजा एलगा रुरू सरभा चमरी कुरंगा गोक ....... Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . श्रीजीवा-*ण्णमाई, सेतं दुखुरा । से किं तं गंडीपया?, गंडीपया अणेगविहा पण्णत्ता, संजहा-हत्वी इत्यिपूयणा मंडणहरथी सग्गा गंडा, १प्रतिपत्ती जीवाभि जे यावण्णे तहप्पगारा, सेत्तं गंडीपया । से किं तं सणप्फया ?, २ अणेगरिहा पण्णत्ता, तंजहा-सीदा वग्पा दीविया अच्छा तरच्छा संमूछिममलयगि- टू परस्सरा सीयाला सुणगा कोकंतिया ससगा चित्तगा चित्तलगा, जे यावण्णे तहप्पकारा ॥" इति, तर प्रतिपदमेक: नुरो येषां ते पवेन्द्रियरीयावृत्तिः, एकखुरा:-अश्वादयः, प्रतिपादं दी खुरौ-शफी येषा ते द्विसुरा-उष्ट्रादयः, तथा च तेषामेकैकस्मिन् पादे दो नौशफौ दश्यते, गण्डीव तिर्यवः पदं येषां ते गण्डीपदा:-इस्त्यादयः, सनखानि-दीर्घनखपरिकलितानि पदानि येषां ते सनसपदा:-धादयः, प्राकृतलाव 'सणफया' स०३६ इति सूत्रे निर्देशः, अश्वादयस्त्वेतभेदाः केचिदतिप्रसिद्धत्वात्स्वयमन्ये च लोकतो वेदितव्याः, नवरं सनखपदाधिकारे द्वीपका:-चित्रका अच्छा:-ऋक्षाः परासरा:-सरमाः कोकन्तिका-लोमठिकाः चित्ता चित्तलगा आरण्यजीव विशेषाः, शेपास्तु सिंहयात्रतरमशृगालशुनककोलशुनशशकाः प्रतीताः, 'ते समासतो' इत्यादि पर्याप्तापर्याप्तसूत्रं शरीरादिद्वारफलापसूत्रं च जलचरबझावनीय, नवरमवगाहनाद्वारे जघन्यतोऽवगाहना अङ्गुलासयभागप्रमाणा उत्कृष्टा गन्यूतपृथक्वं स्थितिद्वारे जघन्यत. स्थितिरन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतचतुरशीति वर्षसहस्राणि, शेपं तथैव, उपसंहारमाह-'सेत्तं चउप्पयथलयरसमुच्छिमपंचिंदियतिरिक्खजोणिया'॥ अथ के ते परिसर्पस्थलचर- ३ संमूछिमपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः १, २ द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-'एवं भेदो भाणियन्यो' इति, 'एवम्' उक्तेन प्रकारेण यथा प्रज्ञापनायां तथा भेदो वक्तव्यो यावत् 'पज्जत्ता य अपज्जत्ता य' स चैवम्-'तंजहा-उरपरिसप्पथलयरसमुच्छिमपञ्चेन्दियतिरिक्खजोणिया य भुयपरिसप्पथलयरसमुच्छिमपश्चिदियतिरिक्खजोणिया य।" सुगम, नवरम् उरसा परिसर्पन्तीत्युरःपरिसी:-सोदयः, ॥३८॥ ५ भुजाभ्यां परिसर्पन्तीति भुजपरिस-नकुलादयः, शेपपदसमास: प्राग्वत्, “से किं तं उरपरिसप्पथळयरसमुच्छिमपचिदियविरि ACROSONASCOREGAON Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52*50* क्खेजोणिया?, उरपरिसप्पथलयरसमुच्छिमपञ्चिदियतिरिक्खजोणिया चउविहा पन्नत्ता, तंजहा-अही अयगरा आसालिया महोरगा । से किं तं अही?, अही दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-व्वीकरा य मउलिणो य । से किं तं दुव्वीकरा?, दन्वीकरा अणेगविहा पन्नत्ता, तंजहा-आसीविसा दिट्ठीविसा उग्गविसा भोगविसा तयाविसा लालाविसा निस्सासविसा कण्हसप्पा सेयसप्पा काकोदरा दुब्भपुप्फा कोलाहा सेलेसिंदा, जे यावण्णे तहप्पगारा, सेत्तं अही । से किं तं अयगरा ?, अयगरा एगागारा पन्नत्ता, सेत्तं अयगरा। से किं तं आसालिया, कहि णं भंते ! आसालिगा संमुच्छइ ?, गोयमा ! अंतो मणुस्सखेत्ते अडाइजेसु दीवेसु निव्वाघाएणं पन्नरससु कम्मभूमीसु, वाघायं पडुच्च पंचसु महाविदेहेसु चक्वट्टिखंधावारेसु बलदेवखंधावारेसु वासुदेवखंधावारेसु मंडलियखंधावारेसु महामण्डलियखंधावारेसु गामनिवेसेसु नगरनिवेसेसु खेडनिवेसेस कब्बड० मडंबनिवेसेसु दोणमुह निवेसेसु पट्टणनिवेसेसु आगरनिवेसेसु आसमनिवेसेसु रायहाणिनिवेसेसु, एएसि णं चेव विणासेसु, एत्थ णं आसालिया संमुच्छइ, जहन्नेणं अंगुलरंस असंखेजइ भागमित्ताए ओगाहणाए, उक्कोसेणं बारस जोयणाई, तदाणुरूवं च णं विक्खंभवाहल्लेणं भूमि दालित्ता संमुच्छइ, असण्णी मिच्छ+दिट्ठी अन्नाणी अंतोमुहुत्तद्धाउया चेव कालं करेइ, सेत्तं आसालिया। से किं तं महोरगा १, महोरगा अणेगविहा पण्णत्ता, तंजहा अत्थेगइया अंगुलंपि अंगुलपुहुत्तियावि विहत्थिपि विहत्थिपुहत्तियावि रयणिपि रयणिपुहुत्तियावि कुच्छिपि कुच्छिपुहत्तियावि धणुहंपि धणुहपुहत्तियावि गाउयंपि गाउयपुहत्तियावि जोयणंपि जोयणपुहत्तियावि जोयणसयंपि जोयणसयपुत्तियावि, ते णं थले। जाया जलेऽवि चरंति थलेऽवि चरंति, ते णत्थि इह बाहिरएस दीवसमदेस हवंति, जे यावण्णे तहप्पगारा, सेत्तं महोरगा।" इति ।। अस्य विषमपदव्याख्या-"दव्वीकरा य मउलिणो य' इति, दीव दर्वी-फणा तत्करणशीला दुर्वीकराः, मुकुलं-फणाविरहयोग्या 4929 Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नीजीवा- शरीरावयवविशेषाकृतिः सा विद्यते येषां ते मुकुलिन:-स्फटाकरणशक्तिविकला इत्यर्थः, अत्रापि चशब्दो स्वगतानेकभेदसूचकी, 'आ- १प्रतिपत्तौ । जीवाभि. सीविसा' इत्यादि, आस्यो-दंष्ट्रास्तासु विषं येषां ते आसीविषाः, उक्तं च-"आसी दाढा तग्गयविसाऽऽसीविसा मुणेयवा" ६ संमूछिममलयगि- है इति, दृष्टौ विषं येषां ते दृष्टिविपाः, उग्रं विषं येषां ते उपविपाः, भोग:-शरीरं तत्र सर्वत्र विषं येषां ते भोगविषाः, खचि विष , पञ्चेन्द्रियरीयावत्तिः येषां ते लग्विषाः, प्राकृतलाच 'तयाविसा' इतिपाठः, लाला-मुखात् श्रावस्तत्र विषं येषां ते लालाविपाः, निश्वासे विषं येषां ते तिर्यश्चः निश्वासविषाः कृष्णसर्पादयो जातिभेदा लोकतः प्रत्येतव्याः। 'से किं तं आसालिगा' इत्यादि, अथ का सा आसालिगा?, एवं शिष्येण प्रो कृते सति सूत्रकृद् यदेवासालिकाप्रतिपादकं गौतमप्रश्नभगवनिर्वचनरूपं सूत्रमस्ति तदेवागमबहुमानतः पठति-कहिणं भंते !' इत्यादि, क णमिति वाक्यालकारे भदन्त! परमकल्याणयोगिन् ' आसालिगा संमूर्छति, एषा हि गर्भजा न भवति किन्तु संमूछिमैव तत उक्तं संमूर्छति, भगवानाह-गौतम! अन्त:-मध्ये मनुष्यक्षेत्रस्य न बहिः, एतावता मनुष्यक्षेत्राद्वहिरस्या उत्पादो न भवतीति प्रतिपादितं, तत्रापि मनुष्यक्षेत्रे सर्वत्र न भवति किन्तु अर्द्धतृतीयेषु द्वीपेषु, अर्द्ध तृतीयं येषां तेऽर्द्धतृतीयाः, अवयवेन विग्रहः समुदायः समासार्थः तेषु, एतावता लवणसमुद्रे कालसमुद्रे वा न भवतीत्यावेदितं, 'निर्व्याघातेन' व्याघातस्याभावो निर्व्याघातं तेन, यदि पञ्चसु भरतेषु पञ्चखैरावतेषु सुषमसुषमादिरूपोऽतिदुष्पमादिरूपश्च कालो व्याघातहेतुत्वाद् व्याघातो न भवति तदा पञ्चदशसु कर्मभूमिषु संमूर्च्छति, व्याघातं प्रतीत्य, किमुक्तं भवति ?-यदि पञ्चसु भरतेषु पञ्चखैरावतेषु यथोक्तरूपो व्याघातो भवति ततः पञ्चसु महाविदेहेषु संमूर्च्छति, एतावता त्रिंशत्यप्यकर्मभूमिषु नोपजायत इति प्रतिपादितं, पञ्चदशसु कर्मभूमिषु पञ्चसु महाविदे ॥३९॥ हेषु सर्वत्र न संमूर्च्छति किन्तु चक्रवर्तिस्कन्धावारेषु बलदेवस्कन्धावारेषु वासुदेवस्कन्धावारेषु माण्डलिक:-सामान्यराजाऽल्पर्धिकः, CAPACITRAKAR * Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 595%2523 महामाण्डलिकः स एवानेकदेशाधिपतिस्तत्स्कन्धावारेषु, ग्रामनिवेशेषु इत्यादि, असति बुद्ध्यादीन् गुणानिति यदिवा गम्यः शाखप्रसिद्धानामष्टादशानां कराणामिति प्रामः, निगमः-प्रभूततरवणिग्वर्गावासः, पांसुप्राकारनिबद्धं खेटं, क्षुल्लप्राकारवेष्टितं कर्वटम् , अर्द्धतृतीयगव्यूतान्तामरहितं मडम्बं 'पट्टण'त्ति पट्टनं पत्तनं वा, उभयत्रापि प्राकृतत्वेन निर्देशस्य समानत्वात् , तत्र यन्नौभिरेव गम्यं तत्पट्टनं यत्पुनः शकटोटकैनॊभिर्वा गम्यं तत्पत्तनं यथा भरुकच्छम, उक्तं च-पत्तनं शकटैगम्यं, घोटकैनौभिरेव च । नौभिरेव तु यद्गम्यं, पट्टनं तत्प्रचक्षते ॥१॥" द्रोणमुखं-प्रायेण जलनिर्गमप्रवेशम् , आकरो-हिरण्याकरादिः आश्रमः-तापसावसथोपलक्षित आश्रयः, संबाधो-यात्रासमागतप्रभूतजननिवेशः, राजधानी-राजाधिष्ठानं नगरम्, 'एएसिण' मित्यादि, एतेषां चक्रवर्तिस्कन्धावारादीनामेव विनाशेषूपस्थितेषु 'एत्थ णं'ति एतेषु चक्रवर्तिस्कन्धावारादिषु स्थानेष्वासालिका संमूर्च्छति, सा च जघन्यतोऽ-| कुलासङ्ख्येयभागमात्रयाऽवगाहनया समुत्तिष्ठतीति योगः, एतच्चोत्पादप्रथमसमये वेदितव्यम् , उत्कर्षतो द्वादश योजनानि-द्वादशयोजनप्रमाणयाऽवगाहनया 'तदनुरूपं' द्वादशयोजनप्रमाणदैर्ध्यानुरूपं विक्खंभवाहल्लेणे ति विष्कम्भश्च वाहल्यं च विष्कम्भवाहल्यं, समाहारो द्वन्द्वः, तेन, विष्कम्भो-विस्तारो बाहल्यं च-स्थूलता, भूमि 'दालित्ता णं' विदार्य समुत्तिष्ठति, चक्रवर्तिस्कन्धावारादीनामधस्ताद् भूमेरन्तरुत्पद्यत इति भावः, सा चासञ्जिनी-अमनस्का समूच्छिमत्वात् , मिथ्यादृष्टिः सासादनसम्यक्त्वस्यापि तस्या असम्भवात् , अत एवाज्ञानिनी, अन्तर्मुहूर्ताद्धायुरेव कालं करोति । 'अत्थेगइया अंगुलंपी'त्यादि, अस्तीति निपातोऽत्र बहुवचनाभिधायी, ततो-11 ऽयमर्थ:-सन्येककाः केचन महोरगा येऽङ्गलमपि शरीरावगाहनया भवन्ति, इहाङ्गलमुच्छ्याङ्गुलमवसातव्यं, शरीरप्रमाणस्य चिन्त्यमानत्वात्, सन्त्येकका येऽङ्गलपृथक्त्विका अपि-पृथक्त्वं द्विप्रभृतिरानवभ्य इति परिभाषा अङ्गालपृथक्त्वं शरीरावगाहनमानमे 6225%2% 2 Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजीयाजीवाभि० मलयगि रीयावृत्तिः ॥ ४० ॥ पामीत्यङ्गुलप्रपक्त्विकाः, 'अतोऽनेकस्यरादि' तीकप्रत्ययः, ए शेषसूत्राण्यपि भावनीयानि, नवरं द्वादशाङ्गुलप्रमाणा वितस्तिः, द्विचितिप्रमाणा रमितः, कुक्षिहितगाना, धनुस्तचतुष्टयप्रमाणं, गव्यूतं द्विधनुः सहस्रप्रमाणं चत्वारि गय्यूतानि योजनम्, एतचापि वितस्त्यादिकगुच्छ्रयालापेक्षया प्रतिपत्तव्यं, 'ते ण'मित्यादि, 'ते' अनन्तरोदितस्वरूपा महोरगाः स्थलघरविशेपखात् स्थले जायन्ते रथले च जाताः सन्तो जलेsपि स्थल इत्र चरन्ति स्थलेऽपि चरन्ति तथास्वाभाव्यात्, यथेषं ते कस्मादिह न दृश्यन्ते ? इत्याशङ्कायामाह - 'ते नत्थि इहें' इत्यादि, 'ते' यथोदितस्वरूपा महोरगाः 'इट' मानुषक्षेत्रे 'नस्थिति न सन्ति किन्तु बालेषु द्वीपसमुद्रेषु भवन्ति, समुद्रेष्यपि च पर्वतदेवनगर्यादिषु स्थलेपूपयन्ते न जलेषु तत इह न दृश्यन्ते । 'जे यावणे वगारा' इति, येsपि चान्ये तथाकारा अलदशकाविशरीरापगाह्गानाखेऽपि गोरगा ज्ञातव्याः, उपसंहारमाह-- 'सेयं महोरगा, 'जे यावणे सहपगारा' इति, येऽपि चान्ये तथाप्रकाराः उक्तरूपाद्यादिरुपासते सर्वेऽपि उरः परिसर्पस्थलचरसंमूछियेन्द्रियतिर्यग्योनिका द्रष्टव्याः, 'ते समासतो' इत्यादि पर्याप्तापर्याप्तसूत्रं शरीराविद्यारकदम्बकं च जलनसद्वावनीयं, नवरगावगाहना जघन्यतोऽङ्गलास कोभागगाणा उत्कर्षतो योजनप्रथपसं, स्थितिद्वारे जघन्यतः स्थितिरन्तर्मुहूर्त्तगुत्कर्षत पिभ्याश सहस्राणि शेषं तथैष ॥ भुजपरिसर्पप्रतिपादनार्थमाए - 'से किं तमित्यादि, अथ के से गुजपरिसर्पमूचिंगस्थलचरपचेन्द्रिय तिर्यग्योनिका ?, सूरिराह-भुजपरिसर्पगूगलचरपश्येन्द्रिय तिर्यग्योनिका अनेकविधाः प्रशप्ताः, 'तह चेव भेओ भाणियन्त्रो' इति, यथा प्रज्ञापनायां तथैव भेो वक्तव्यः स चैवम्" संजड़ा-गोदा नउला सरडा राम्मा सरंडा सारा खारा घरोलिया विस्संभरा मंसा मंगुसा पगलाया सीरविगलिया जहा उपाय " एते देशविशेषतो पेवितव्याः, 'जे यावण्णे तदप्पगारा' येऽपि धान्ये 'तथाप्रकारा:' उक्तप्रकारा गोधा १ प्रतिपत्तौ संमूर्च्छिमपञ्चेन्द्रिय तिर्यचः सू० ३६ ॥ ४० ॥ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिस्वरूपास्ते सर्वे भुजपरिसा अवसातव्याः, 'ते समासतो' इत्यादि सूत्रकदम्बकं प्राग्वद्भावनीयं, नवरमवगाहना जघन्यतोऽङ्गलास-113 येयभागप्रमाणा उत्कर्षतो धनुःपृथक्त्वं, स्थितिर्जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतो द्वाचत्वारिंशद्वर्षसहस्राणि, शेषं जलचरवद्रष्टव्यम् , उपसंहारमाह-'सेत्त'मित्यादि सुगमम् ॥ खचरप्रतिपादनार्थमाह-अथ के ते संमूच्छिमखचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका:?, सूरिराह-संमूछिमखचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाश्चतुर्विधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-'भेदो जहा पण्णवणाए' इति, भेदो यथा प्रज्ञापनायां तथा वक्तव्यः, स चैवम्-"चम्मपक्खी लोमपक्खी समुग्गपक्खी विततपक्खी । से किं तं चम्मपक्खी !, २ अणेगविहा पण्णत्ता, तंजहा-बग्गुली जलोया अडिला भारुडपक्खी जीवंजीवा समुद्दवायसा कण्णत्तिया पक्खिविराली, जे यावण्णे तहप्पगारा, से तं चम्मपक्खी । से किं तं लोमपक्खी?, लोमपक्खी अणेगविहा पण्णत्ता, तंजहा-ढका कंका कुरला वायसा चक्कवागा हंसा कलहंसा पोयहंसा रायहंसा अडा सेडीवडा वेलागया कोंचा सारसा मेसरा मयूरा सेयवगा गहरा पोंडरीया कामा कामेयगा वंजुलागा तित्तिरा वट्टगा लावगा कपोया कपिंजला पारेवया चिडगा वीसा कुक्कुडा सुगा वरहिगा मयणसलागा कोकिला सण्हावरण्णगमादी, से त्तं लोमपक्खी। से किं तं समुग्गपक्खी ?, समुग्गपक्खी एगागारा पण्णत्ता, ते णं नत्थि इहं, बाहिरएसु दीवसमुद्देसु वंति, से त्तं समुग्गपक्खी । से किं तं विततपक्खी ?, विततपक्खी एगागारा पण्णत्ता, ते णं नत्थि इहं, बाहिरएसु दीवसमुद्देसु भवंति, से तं वि ततपक्खी" इति पाठसिद्धं नवरं 'चम्मपक्खी' इत्यादि, चर्मरूपौ पक्षौ चर्मपक्षौ तौ विद्यते येषां ते चर्मपक्षिणः, लोमात्मको पक्षी 3लोमपक्षौ तौ विद्येते येषां ते लोमपक्षिणः, तथा गच्छतामपि समुद्गवत्स्थितौ पक्षौ समुद्गकपक्षी तद्वन्तः समुद्गकपक्षिणः, विततौ-नि त्यमनाकुञ्चितौ पक्षी विततपक्षौ तद्वन्तो विततपक्षिण: 'ते समासतो' इत्यादि सूत्रकदम्बकं जलचरवद्भावनीयं, नवरमवगाहना उत्क Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवा-8 तो धनुःपृथक्त्वं, स्थितिरुत्कर्पतो द्वासप्ततिवर्षसहस्राणि । तथा चात्र कचित्पुसकान्तरेऽवगाहना स्थित्योर्यथाक्रमं सहणिगाये-"जो १ प्रतिपत्ती वाभि० यणसहस्सगाउयपुहत्त तत्तो य जोयणपुहत्तं । दोण्हंपि धणुपुहत्तं समुच्छिमवियगपक्खीणं ॥ १ ॥ संमुच्छ पुचकोडी चउरासीई भवे संमूछिममलयगि- सहस्साई । तेवण्णा बायाला बावत्तरिमेव पक्खीणं ॥२॥" व्याख्या-संमूछिमानां जलचराणामुत्कृष्टाऽवगाहना योजनसहलं, चतु-* पञ्चेन्द्रियरोयावृत्तिः प्पदानां गव्यूतपृथक्त्वम् , उर:परिसर्पाणां योजनपृथक्त्वं । 'दोण्डं तु'इत्यादि, द्वयानां संमूछिमभुजगपक्षिणां-संमूछिमभुजगपरिसर्प तिर्यश्चः पक्षिरूपाणां प्रत्येकं धनुःपृथक्त्वं, तथा संमूछिमाना जलचराणामुत्कृष्टा स्थितिः पूर्वकोटी चतुष्पदानां चतुरशीतिर्वर्पसहस्राणि, उर:परि सू० ३६ ॥४१॥ सर्पाणां त्रिपञ्चाशद्वर्पसहस्राणि, भुजपरिसर्पाणां द्वाचवारिंशद्वर्पसहस्राणि, पक्षिणां द्वासप्ततिवर्षसहस्राणि, उपसंहारमाह-'सेत्तं गर्भजक संमुच्छिमखहयरपश्चिंदियतिरिक्खजोणिया' ॥ उक्ताः संमूछिमपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनयः, सम्प्रति गर्भव्युत्क्रान्तिकान् पञ्चेन्द्रिय तिर्यवः तिर्यग्योनिकानाह सू० ३७ से किंतं.गम्भवतियपंचेंदियतिरिक्खजोणिया ?, २तिविहा पण्णता, तंजहा-जलयरा थलयरा खहयरा ॥ (सू० ३७) 'सेकिंत'मित्यादि, अथ के ते गर्भव्युत्क्रान्तिकपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका: ?, सूरिराह-गर्भव्युत्क्रान्तिकपचेन्द्रियतिर्यग्योनिकासिविधाः ॥४१॥ | प्रज्ञाप्ताः, तद्यथा-जलचराः स्थलचराः खचराश्च । तत्र जलचरप्रतिपादनार्थमाह से किं तंजलयरा ?, जलयरा पंचविधा पण्णसा, तंजहा-मच्छा कामा मगरा गाहा सुंसुमारा, Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सव्वेसिं भेदो भाणितव्यो तहेव जहा पण्णवणाए, जाव जे यावण्णे तहप्पकारा ते समासतो दुविहा पण्णत्ता, तंजहा - पञ्चत्ता य अपज्जत्ता य, तेसि णं भंते! जीवाणं कति सरीरगा पण्णत्ता ?, गोयमा ! चत्तारि सरीरगा पत्नत्ता, तंजहा - ओरालिए वेडव्विए तेयए कम्मए, सरीरोगाहणा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्ज० उक्कोसेणं जोयणसहस्सं छविवहसंघयणी पण्णत्ता, तंजहा - वइरोस भनारायसंघयणी उसभनाराय संघयणी नारायसंघयणी अद्धनारायसंघयणी कीलियासंघणी सेवसंघयणी, छव्विहा संठिता पण्णत्ता, तंजहा - समचउरंससंठिता णग्गोधपरिमंडल० साति० खुज्ज० वामण० हुंड०, कसाया सव्वे सण्णाओ ४ लेसाओ ६ पंच इंदिया पंच समुघात आदिल्ला सण्णी नो असण्णी तिविधवेदा छप्पजत्तीओ छअपजत्तीओ दिट्ठी तिविधावि तिणि दंसणा णाणीव अण्णाणीवि जे गाणी ते अत्थेगतिया दुणाणी अत्थेगतिया तिन्नाणी, जे दुन्नाणी ते नियमा आभिणिवोहियणाणी य सुतणाणी य, जे तिन्नाणी ते नियमा आभिणिबोहियणाणी सुत० ओहिणाणी, एवं अण्णाणीवि, जोगे तिविहे उवओगे दुविधे आहारो छदिसं वातो नेरइएहिं जाव अहे सत्तमा तिरिक्खजोणिएस सव्वेसु असंखेज्जवासाज्यवज्जेसु मणुस्सेसु अकम्मभूमगअंतरदीवग असंखेज्जवासाउयवज्जेसु देवेसु जाव सहस्सारो, ठिती जहudi अंतोमुत्तं उक्कोसेणं पुव्वकोडी, दुविधावि मरंति, अनंतरं उच्चद्वित्ता नेरइएस जाव अहे Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजीवा- सत्समा तिरिक्खजोणिएसु मणुस्सेसु सव्वेसु देवेसु जाव सहस्सारो, चउगतिया चउआग- १प्रतिपत्ती जीवाभि०४ तिया परित्ता असंखेजा पण्णत्ता, से तं जलयरा ॥ (सू० ३८) गर्भज मलयगि- 'भेदो भाणियब्वो तहेव जहा पण्णवणाए' इति भेदस्तथैव मत्स्यादीनां वक्तव्यो यथा प्रज्ञापनायां, स च प्रागेवोपदर्शितः, 'ते : जलचर रीयावृत्तिः समासतो' इत्यादि पर्याप्तापर्याप्तसूत्रं पाठसिद्धं, शरीरादिद्वारकदम्बकसूत्रं संमूछिमजलचरवद्भावनीय, नवरमत्र शरीरद्वारे चत्वारि श- तिर्यश्चः रीराणि वक्तव्यानि, गर्भव्युत्क्रान्तिकानां तेषां वैक्रियस्यापि सम्भवात् , अवगाहनाद्वारे उत्कर्पतोऽवगाहना योजनसहस्रम् । संहननचि-४ ॥४२॥ न्तायां पडपि संहननानि, तत्खरूपप्रतिपादकं चेदं गाथाद्वयम्-विज रिसहनारायं पढमं वीयं च रिसहनारायं । नारायमद्धनाराय कीलिया तह य छेवढं ॥ १॥ रिसहो य होइ पट्टो वजं पुण कीलिया मुणेयव्वा । उभयो मकडबंधो नारायं तं वियाणाहि ॥२॥" संस्थानचिन्तायां पडपि संस्थानानि, तान्यमूनि-समचतुरस्रं न्यग्रोधपरिमण्डलं सादि वामनं कुजं हुण्डमिति, तत्र समाः-सामुद्रिकशास्त्रोक्तप्रमाणाविसंवादिन्यश्चतस्रोऽनय:-चतुर्दिग्विभागोपलक्षिताः शरीरावयवा यत्र तत्समचतुरस्र, समासान्तोऽत्प्रत्ययः, अत एवैतदन्यत्र तुल्यमिति व्यवइियते, तथा न्यग्रोधवत्परिमण्डलं यस्य, यथा न्यग्रोध उपरि संपूर्णप्रमाणोऽधस्तु हीनः तथा यत्संस्थानं नाभेरुपरि संपूर्णमधस्तु न तथा तन्यग्रोधपरिमण्डलम् , उपरि विस्तारबहुलमिति भावः, तथाऽऽदिरिहोत्सेधाख्यो नाभेरधस्तनो देह8 भागो गृह्यते, ततः सह आदिना-नाभेरधस्तनभागेन यथोक्तप्रमाणलक्षणेन वर्त्तत इति सादि, उत्सेधबहुलमिति भावः, इह यद्यपि ॥४२॥ १ वर्षभनाराचं प्रथम द्वितीयं च ऋषभनाराचम् । नाराचमर्धनाराचं कीलिका तथा च सेवार्तम् ॥ १॥ ऋषभव भवति पट्ट वर्ज पुन: कीलिका मातम्या । * उभयतो मर्कटबन्धो नाराचं तत् विजानीहि ॥२॥ CO Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAAAAACARE सर्व शरीरमादिना सह वर्त्तते तथाऽपि सादिलविशेषणान्यथाऽनुपपत्त्या विशिष्ट एव प्रमाणलक्षणोपपन्न आदिरिह लभ्यते, तत उ-|| क्तम्-उत्सेधबहुलमिति, इदमुक्तं भवति-यत्संस्थानं नाभेरधः प्रमाणोपपन्नमुपरि च हीनं तत्सादीति, अपरे तु साचीति पठन्ति, तत्र || साचीति प्रवचनवेदिन: शाल्मलीतरुमाचक्षते, ततः साचीव यत्संस्थानं, यथा शाल्मलीतरोः स्कन्धकाण्डमर्तिपुष्टमुपरि चन तदनु| रूपा महाविशालता तद्वदस्यापि संस्थानस्याधोभागः परिपूर्णों भवति उपरितनभागस्तु नेति, तथा यत्र शिरोग्रीवं हस्तपादादिकं च : यथोक्तप्रमाणलक्षणोपेतं उरउदरादि च मण्डलं तत्कुब्जं संस्थानं, यत्र पुनरुदरादि प्रमाणलक्षणोपेतं हस्तपादादिकं च हीने तद्वामनं, यत्र सर्वेऽप्यवयवाः प्रमाणलक्षणपरिभ्रष्टास्तत् हुण्डम्, उक्तञ्च-समचउरंसे नग्गोहमंडले साई खुज वामणए । हुंडेवि य संठाणे भाजीवाणं छम्मणेयव्वा ॥ १॥ तुलं वित्थडबहुलं उस्सेहबहुं च मडहकोठं च । हेडिल्लकायमंडहं सव्वत्थासंठियं इंडं ॥२॥" लेश्याद द्वारे षडपि लेश्याः, शुक्कुलेश्याया अपि सम्भवात् , समुद्घाता: पंञ्च, वैक्रियसमुद्घातस्यापि सम्भवात् , सब्जिद्वारे सजिनो नो अ-I सब्जिनः, वेदद्वारे त्रिविधवेदा अपि, स्त्रीपुरुषयोर्वेदयोरप्यमीषां भावात्, पर्याप्तिद्वारे पञ्च पर्याप्तयो, भाषामनःपर्याप्त्योरेकत्वेन विवक्षणात् , अपर्याप्तिचिन्तायां पञ्चापर्याप्तयः, दृष्टिद्वारे त्रिविधदृष्टयोऽपि, तद्यथा-मिथ्यादृष्टयः सम्यग्दृष्टयः सम्यग्मिथ्यादृष्टयश्च, दर्शनद्वारे त्रिविधदर्शना अपि, अवधिदर्शनस्यापि केषाश्चिद्भावात् , ज्ञानद्वारे त्रिज्ञानिनोऽपि, अवधिज्ञानस्यापि केषाश्चिद्भावात् , अज्ञानचिन्तायामज्ञानिनोऽपि, विभङ्गस्यापि केषाश्चित्सम्भवात् , अवधिविभङ्गने च सम्यग्मिथ्यादृष्टिभेदेन प्रतिपत्तव्यों, उक्तंञ्च-स १ समचतुरस्रं न्यग्रोधपरिमण्डलं सादि कुजं वामनम् । हुण्डमपि च सस्थानं जीवाना षड् ज्ञातव्यानि ॥१॥ तुल्यं वहुविस्तार उत्सेधबहुलं च मडभकोष्ठं च। अधस्तनकायमडभं सर्वत्रासंस्थित हुण्डम् ॥२॥ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १प्रतिपत्ती गर्भजल चराः सू० ३८ जीवा म्यादान मिथ्यादृष्टेविपर्यासः” इति, उपपातद्वारे उपपातो नैरयिकेभ्यः सप्तपृथ्वीभाविभ्योऽपि, तिर्यग्योनिकेभ्योऽप्यसङ्ख्यातवर्षा- पीवाभियुष्कवर्जेभ्यः सर्वेभ्योऽपि, मनुष्येभ्योऽकर्मभूमिजान्तरद्वीपजासङ्ख्यातवर्षायुष्कवर्जकर्मभूमिभ्यो, देवेभ्योऽपि यावत्सहस्रारात्, परतः मलयगि-४ प्रतिषेधः, स्थितिद्वारे जघन्यतः स्थितिरन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतः पूर्वकोटी, च्यवनद्वारेऽनन्तरमुद्धृत्य सहस्रारात्परे ये देवास्तान् वर्जयित्वा रीयावृत्तिःहै शेषेषु सर्वेष्वपि जीवस्थानेषु गच्छन्ति, अत एव गत्यागतिद्वारे चतुरागतिकाश्चतुर्गतिकाः, 'परीत्ताः' प्रत्येकशरीरिणोऽसङ्ख्येयाः प्रज्ञप्ताः, हे श्रमण ' हे आयुष्मन् ', उपसंहारमाह-'सेत्तं जलयरा गन्भवतियपश्चिंदियतिरिक्खजोणिया' ॥ सम्प्रति स्थलचरप्रतिपा॥४३॥ ४ दनार्थमाह से किं तं धलयरा?, २ दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-चउप्पदा य परिसप्पा यासे किं तं चउप्पया?, . २ चउविधा पण्णत्ता, तंजहा-एगक्खुरा सो चेव भेदो जाव जे यावन्ने तहप्पकारा ते समासतो दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-पज्जत्ता य अपज्जत्ता य, चत्तारि सरीरा ओगाहणा जहनेणं अंगुलस्स असंखेज उक्कोसेणं छ गाउयाई, ठिती उक्कोसेणं तिन्नि पलिओमाइं नवरं उव्वहित्ता नेरइएसु चउत्थपुढवि गच्छंति, सेसं जहा जलयराणं जाव चउगतिया चउआगतिया परित्ता असंखिज्जा पण्णत्ता, से तं चउप्पया।से किं तं परिसप्पा?,२ दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-उरपरिसप्पा य भुयगपरिसप्पा य, से किं तं उरपरिसप्पा?, २ तहेव आसालियबजो भेदो भाणियव्यो, (तिपिण) सरीरा, ओगाहणा जहणणं अंगुलस्स असंखे० उक्कोसेणं जोयणसहस्सं, ठिती जहन्नेणं GEOGRAMRUGALAG + ॥४३॥ + Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतमुत्तं उक्कोसेणं पुव्वकोडी उव्वहित्ता नेरइएसु जाव पंचमं पुढविं ताव गच्छंति, तिरिक्खमगुस्सेसु सव्वेसु, देवेसु जाव सहस्सारा, सेसं जहा जलयराणं जाव चउगतिया चउआगइया परित्ता असंखेज्जा से तं उरपरिसप्पा से किं तं भुयगपरिसप्पा ?, २ भेदो तहेब, चत्तारि सरीरगा गाणा जहणं अंगुलासंखे० उक्कोसेणं गाउयपुत्तं ठिती जहनेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पुचकोड, सेठ जहा उरपरिसप्पा, णवरं दोचं पुढविं गच्छति, से तं भुयपरिसप्पा पण्णत्ता, सेतं थलयरा ॥ (सू० ३९ ) । से किं तं खहयरा ?, २ चउव्विहा पण्णत्ता, तंजहा—चम्मपक्खी तव भेदो, ओगाहणा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखे उक्कोसेणं धणुपुहुत्तं, ठिती जहन्नेणं अंतोमुत्तं उसेणं पलिओ मस्स असंखेज्जति भागो, सेसं जहा जलयराणं, नवरं जाव तच्चं पुढविं गच्छंति जाव से तं खहयरगञ्भवतियपंचेंद्रियतिरिक्खजोणिया, से तं तिरिक्खजोणिया ॥ ( सू० ४० ) स्थलचरगर्भव्युत्क्रान्तिकानां भेदोपदर्शकं सूत्रं यथा संमूच्छिमस्थलचराणां, नवरमत्रासालिका न वक्तव्या, सा हि संमूच्छिमैव न गर्भव्युत्क्रान्तिका, तथा महोरगसूत्रे “जोयणसपि जोयणसयपुहुत्तियावि जोयणसहस्संपि” इत्येतदधिकं वक्तव्यं, शरीरादिद्वारकदम्बकसूत्रं तु सर्वत्रापि गर्भव्युत्क्रान्तिकजलचराणामिव, नवरमवगाहनास्थित्युद्वर्त्तनासु नानालं तत्र चतुष्पदानामुत्कृष्टाऽवगाहना पड् गव्यूतानि, स्थितिरुत्कर्षतस्त्रीणि पल्योपमानि, उद्वर्त्तना चतुर्थपृथिव्या आरभ्य यावत्सहस्रारः, एतेषु सर्वेष्वपि जीवस्थानेष्वनन्तरमुवृत्त्योत्पद्यन्ते, उरः परिसर्पाणामुत्कृष्टावगाहना योजनसहस्रं, स्थितिरुत्कर्षतः पूर्वकोटी, उद्वर्त्तना पञ्चमपृथिव्या आरभ्य यावत्सह Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥ ४४ ॥ नार:, अत्रान्तरे सर्वेषु जीवस्थानेष्वनन्तरमुद्वृत्त्योत्पद्यन्ते । भुजपरिसर्पाणामुत्कृष्टाऽवगाहना गव्यूतपृथक्त्वं, स्थितिरुत्कर्पतः पूर्व कोटी, उद्वर्त्तनाचिन्तायां द्वितीयपृथिव्या आरभ्य यावत्सहस्रारः, अत्रान्तरे सर्वेषु जीवस्थानेपूत्पादः ॥ खचरगर्भव्युत्क्रान्तिकपश्वेन्द्रियभेदो यथा संमूच्छिमखचराणां, शरीरादिद्वारकलापचिन्तनं गर्भव्युत्क्रान्तिकजलचरवत्, नवरमवगाहना स्थित्युद्वर्त्तनासु नानात्वं, तत्रोत्कर्षतोऽवगाहना धनुष्पृथक्त्वं, जघन्यतः सर्वत्राप्यङ्गुलायेयभागप्रमाणा, स्थितिरपि जघन्यतः सर्वत्राप्यन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतोऽत्र पल्योपमासङ्ख्येयभागः, उद्वर्त्तना तृतीयपृथिव्या आरभ्य यावत्सहस्रारः, अत्रान्तरे सर्वेषु जीवस्थानेषूत्पादः कचित्पुस्तकान्तरेऽवगाहनास्थित्योर्यथाक्रमं सङ्ग्रहणिगाथे— “जोयणसहस्स छग्गाउयाइ तत्तो य जोयणसहस्सं । गाउयपुहुत्त भुयगे धणुयपुहुत्तं च पक्खीसु ॥ १ ॥ गर्भमि पुत्र्वकोडी तिन्नि य पलिओवमाई परमाउं । उरभुयग पुव्वकोडी पलियअसंखेज्जभागो य ॥ २ ॥" अनयोर्व्याख्या गर्भव्युत्क्रान्तिकानामेव जलचराणामुत्कृष्टावगाहना योजनसहस्रं, चतुष्पदानां षड् गव्यू॑तानि, उरः परिसर्पाणां योजनसहस्रं, भुजपरिसर्पाणां गव्यूतपृथक्त्वं, पक्षिणां धनुष्पृथक्त्वं । तथा गर्भव्युत्क्रान्तिकानामेव जलचराणामुत्कृष्टा स्थितिः पूर्वकोटी, चतुष्पदानां त्रीणि पल्योपमानि, उरगाणां भुजगानां च पूर्वकोटी, पक्षिणां पल्योपमासयेयभाग इति ॥ उत्पादविधिस्तु नरकेष्वस्माद्गाथाद्वयादवसेयः – “ अस्सण्णी खलु पढमं दोच्चं च सरीसवा तइय पक्खी। सीहा जंति चउत्थि उरगा पुण पंचमिं पुढविं ॥ १ ॥ छट्ठि च इत्थियाउ मच्छा मणुया य सत्तमिं पुढविं । एसो परमुववाओ बोद्धवो नरयपुढवीसु ॥ २ ॥” उक्ताः पञ्चेन्द्रियतिर्यभ्वः सम्प्रति मनुष्यप्रतिपादनार्थमाह १ असंझिन. खलं प्रथमां द्वितीयां च सरीसृपास्तृतीया पक्षिण । सिंहा यान्ति चतुर्थीमुरगा. पुन. पश्चम पृथ्वीम् ॥ १ ॥ षष्ठीं च स्त्रिय मरस्या मनुष्याश्च सप्तमीं पृथ्वीं यावत् । एष परम उत्पातो बोद्धव्यो नारकपृथ्वीषु ॥ २ ॥ १ प्रतिपतौ स्थलचर खेचराग र्भजाः सू० ३९ ४० ॥ ४४ ॥ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से किं तं मणुस्सा?, २ दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-समुच्छिममणुस्सा य गन्भवतियमणुस्सा य॥ कहि णं भंते! संमुच्छिममणुस्सा संमुच्छंति?, गोयमा! अंतो मणुस्सखेत्ते जाव करेंति । तेसि णं भंते! जीवाणं कति सरीरगा पण्णत्ता?, गोयमा! तिन्नि सरीरगा पन्नत्ता, तंजहा-ओरालिए तेयए कम्मए, सेतं समुच्छिममणुस्सा । से किं तं गन्भवतियमणुस्सा?, २ तिविहा पण्णत्ता, तंजहा-कम्मभूमया अकम्मभूमगा अंतरदीवजा, एवं माणुस्सभेदो भाणियचो जहा पण्णवणाए तहा णिरवसेसं भाणियव्वं जाव छउमत्था य केवली य, ते समासतो दुविहा पण्णत्ता, तंजहा -पज्जत्ता य अपजत्ता य । तेसि णं भंते! जीवाणं कति सरीरा प० १, गोयमा! पंच सरीरया, तंजहा-ओरालिए जाव कम्मए । सरीरोगाहणा जहन्नेणं अंगुलअसंखेज० उक्कोसेणं तिणि गाउयाई छच्चेव संघयणा छस्संठाणा । ते णं भंते! जीवा किं कोहकसाई जाव लोभकसाई अकसाई ?, गोयमा! सव्वेवि । ते णं भंते! जीवा किं आहारसन्नोवउत्ता० लोभसन्नोवउत्ता नोसन्नो । वउत्ता?, गोयमा! सव्वेवि । तेणं भंते ! जीवा किं कण्हलेसा य जाव अलेसा?, गोयमा! सव्वेवि । सोइंदियोवउत्ता जाव नोइंदियोवउत्तावि, सव्वे समुग्घाता, तंजहा-वेयणासमुग्घाते जाव केवलिसमुग्याए, सन्नीवि नोसन्नी असन्नीवि, इत्थियावि जाव अवेदावि, पंच पज्जत्ती, तिविहावि दिट्ठी, चत्तारि दसणा, णाणीवि अण्णाणीवि, जे णाणी ते अत्यंगतिया दुणाणी MAKAMA Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नीजीवानीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः४ १प्रतिपत्ती मनुष्याः सू० ४१ ॥४५॥ अत्थेगतिया तिणाणी अत्थेगइया चउणाणी अत्थेगतिया एगणाणी, जे दणाणी ते नियमा आभिणियोहियणाणी सुतणाणी य, जे तिणाणी ते आभिणियोहियणाणी सुतणाणी ओहिणाणी य, अहवा आभिणियोहियणाणी सुयनाणी मणपज्जवणाणी य, जे चउणाणी ते णियमा आभिणियोहियणाणी सुत० ओहि० मणपज्जवणाणी य, जे एगणाणी ते नियमा केवलनाणी, एवं अनाणीवि दुअन्नाणी तिअण्णाणी, मणजोगीवि वइकायजोगीवि अजोगीवि, दुविहउवओगे, आहारो छघिसिं, उववातो नेरइएहिं अहे सत्तमवज्जेहिं तिरिक्खजोणिएहिंतो, उववाओ असंखेजवासाउयवज्जेहिं मणुएहिं अकम्मभूमगअंतरदीवगअसंखेजवासाउयवजेहिं, देवेहिं सवेहिं, ठिती जहन्नेणं अतोमुहत्तं उक्कोसेणं तिपिण पलिओवमाई, दुविधावि मरंति, उव्वहिता नेरइयादिसु जाव अणुत्तरोववाइएसु, अत्थेगतिया सिझंति जाव अंतं करेंति । ते णं भंते! जीवा कतिगतिया कइआगइया पण्णत्ता?, गोयमा! पंचगतिया चउआगतिया परित्ता संखिजा पण्णत्ता, सेत्तं मणुस्सा ॥ (सू०४१) अथ के ते मनुष्याः', सूरिराह-मनुष्या द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-संमूछिममनुष्याश्च गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्याश्च, चशब्दो खगतानेकभेदसूचको । तत्र संमूछिममनुष्यप्रतिपादनार्थमाह-कहिणं भंते!' इत्यादि, क भदन्त संमूछिममनुष्याः संमूर्च्छन्ति', भगवानाह-गौतम! 'अंतो मणुस्सखेत्ते जाव करेंति' इति, अत्र यावत्करणादेवं परिपूर्णः पाठः-"अंतो मणुस्सखेत्ते पणयाली ACASGANGANGANGANAGA ॥४५॥ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साए जोयणसयसहस्सेसु अड्डाइज्जेसु दीवसमुद्देसु पनरससु कम्मभूमीसु तीसाए अकम्मभूमीसु छप्पण्णाए अंतरदीवेसु गब्भवतियमणुस्साणं चेव उच्चारेसु वा पासवणेसु वा खेलेसु वा सिंघाणएसु वा वंतेसु वा पित्तेसु वा सोणिएस वा सुकेसु वा सुक्कपोग्गलपरिसाडेसु वा कगयजीवकलेवरेसु वा थीपुरिससंजोगेसु वा नगरनिद्धमणेसु वा सव्वेसु चेव असुइट्ठाणेसु, एत्थ णं संमुच्छिममणुस्सा संमुच्छंति अंगुलस्स असंखेज्जइभागमेत्ताए ओगाहणार असन्नी मिच्छादिट्ठी सव्वाहिं पज्जत्तीहिं अपज्जत्तगा अंतोमुहुत्ताउया चेव कालं करेंति " एतच्च निगदसिद्धम् ॥ सम्प्रति शरीरादिद्वारप्रतिपादनार्थमाह- 'तेसि णं भंते!' शरीराणि त्रीणि औदारिकतैजसकार्मणानि, अवगाहना जघन्यत उत्कर्षतश्चाङ्गुलासङ्ख्येयभागप्रमाणा, संहननसंस्थानकषायलेश्या - द्वाराणि यथा द्वीन्द्रियाणां, इन्द्रियद्वारे पञ्चेन्द्रियाणि, सञ्ज्ञिद्वारवेदद्वारे अपि द्वीन्द्रियवत्, पर्याप्तिद्वारेऽपर्याप्तयः पञ्च, दृष्टिदर्शनज्ञानयोगोपयोगद्वाराणि (यथा) पृथिवीकायिकानां, आहारो यथा द्वीन्द्रियाणां, उपपातो नैरयिकदेवतेजोवाय्वसङ्ख्यातवर्षायुष्कवर्जेभ्यः, स्थितिर्जघन्यत उत्कर्षतोऽप्यन्तर्मुहूर्त्तप्रमाणा, नवरं जघन्यपदादुत्कृष्टमधिकं वेदितव्यं, मारणान्तिकसमुद्घातेन समवहता अपि म्रियन्ते असमवहताश्च, अनन्तरमुद्धृत्य नैरयिकदेवासङ्ख्येय वर्षायुष्कवर्जेषु शेषेषु स्थानेषूत्पद्यन्ते, अत एव गत्यागतिद्वारे द्व्यागतिका ं द्विगतिकास्तिर्यग्मनुष्य गत्यपेक्षया, 'परीत्ताः' प्रत्येकशरीरिणोऽसङ्ख्येयाः प्रज्ञप्ताः, हे श्रमण । हे आयुष्मन् !, उपसंहारमाह - 'सेत्तं संमुच्छिममगुस्सा' ॥ उक्ताः संमूच्छिममनुष्याः, अधुना गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्यानाह - अथ के ते गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्या: ?, सूरिराह - गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्यास्त्रिविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - कर्मभूमका अकर्मभूमका अन्तरद्वीपजाः, तत्र कर्म - कृषिवाणिज्यादि मोक्षानुष्ठानं वा कर्मप्रधाना भूमिर्येषां ते कर्मभूमा: आर्षत्वात्समासान्तो ऽप्रत्ययः, कर्मभूमा एव कर्मभूमकाः, एवमकर्मा-यथोक्तकर्मविकला भूमिर्येषां तेऽ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्मणं च, मनुष्याप्तसूत्रं पाठसिद्धं, शरदो भणितव्यो यथा प्रअन्तरद्वीपगाः, ‘एवं श्रीजीवा-2 कर्मभूमास्त एवाकर्मभूमकाः, अन्तरशब्दो मध्यवाची, अन्तरे-लवणसमुद्रस्य मध्ये द्वीपा अन्तरद्वीपास्तद्गता अन्तरद्वीपगाः, 'एवं माणु- १प्रतिपत्तों जीवाभि. स्सभेयो भाणियव्वो जहा पण्णवणाए' इति, 'एवम्' उक्तेन प्रकारेण मनुष्यभेदो भणितव्यो यथा प्रज्ञापनायां, स चातिबहुप्रन्थ मनुष्या: मलयगि- इति तत एव परिभावनीयः, 'ते समासतो' इत्यादि पर्याप्तापर्याप्तसूत्रं पाठसिद्धं, शरीरादिद्वारकलापचिन्तायां शरीरद्वारे पञ्च शरीराणि, * सू० ४१ रीयावृत्तिः तद्यथा-औदारिकं वैक्रियमाहारकं तैजसं कार्मणं च, मनुष्येषु सर्वभावसम्भवात् , अवगाहनाद्वारे जघन्यतोऽवगाहना अङ्गुलासनये यभागमात्रा उत्कर्षतस्त्रीणि गव्यूतानि, संहननद्वारे षडपि संहननानि, संस्थानद्वारे षडपि संस्थानानि, कषायद्वारे क्रोधकषायिणोऽपि मानकपायिणोऽपि मायाकषायिणोऽपि लोभकषायिणोऽपि अकपायिणोऽपि, वीतरागमनुष्याणामकषायित्वात् , सञ्ज्ञाद्वारे आहारसझोपयुक्ता भयसझोपयुक्ता मैथुनसझोपयुक्ता लोभसझोपयुक्ताः, नोसंज्ञोपयुक्ताश्च निश्चयतो वीतरागमनुष्याः, व्यवहारतः सर्व एव चारित्रिणो, लोकोत्तरचित्तलाभात्तस्य सज्ञादशकेनापि विप्रयुक्तत्वात् , उक्तञ्च-"निर्वाणसाधकं सर्व, ज्ञेयं लोकोत्तराश्रयम् । सझा 4 लोकाश्रया सर्वाः, भवाङ्करजलं परम् ॥ १॥" लेश्याद्वारे कृष्णलेश्या नीललेश्याः कापोतलेश्यास्तेजोलेश्या: पद्मलेश्याः शुक्छलेश्या अलेश्याश्च, तत्रालेश्याः परमशुक्रध्यायिनोऽयोगिकेवलिनः । इन्द्रियद्वारे श्रोत्रेन्द्रियोपयुक्ता यावत्स्पर्शनेन्द्रियोपयुक्ता नोइन्द्रियोपयुक्ताच, तत्र नोइन्द्रियोपयुक्ताः केवलिनः, समुद्घातद्वारे सप्तापि समुद्घाताः, मनुष्येषु सर्वभावसम्भवात् , समुद्घातसङ्ग्राहिका चेमा गाथा-"वेयणकसायमरणंतिए य वेउविए य आहारे । केवलियसमुग्घाए सत्त समुग्घा इमे भणिया ॥१॥" सज्ञिद्वारे सजिनोऽपि नोसञ्झिनोअसब्जिनोऽपि, तत्र नोसज्ञिनोअसब्ज्ञिनः केवलिनः । वेद्वारे स्त्रीवेदा अपि पुरुषवेदा अपि नपुंसकवेदा ॥४६॥ १ वेदनः कषाय मारणान्तिकच वैयिकश्वाहारक । कैवलिकः समुद्घात. सप्त समुद्घाता इमे भणिता ॥१॥ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपि अवेदाः-सूक्ष्मसम्परायादयः, पर्याप्तिद्वारे पञ्च पर्याप्तयः पञ्चापर्याप्तयः, भाषामन:पर्याप्त्योरेकत्वेन विवक्षणात् , दृष्टिद्वारे त्रिविधदृष्टयः, तद्यथा-केचिन्मिथ्यादृष्टयः केचित्सम्यग्दृष्टयः केचित्सम्यग्मिथ्यादृष्टयः, दर्शनद्वारे चतुर्विधदर्शनाः, तद्यथा-चक्षुर्दर्शना अचक्षुर्दर्शना अवधिदर्शनाः केवलदर्शनाः, ज्ञानद्वारे ज्ञानिनोऽज्ञानिनश्च, तत्र मिथ्यादृष्टयोऽज्ञानिनः सम्यग्दृष्टयो ज्ञानिनः, 'नाणाणि पंच तिणि अण्णाणाणि भयणाते' इति, ज्ञानानि पञ्च मतिज्ञानादीनि, अज्ञानानि त्रीणि मत्यज्ञानादीनि, तानि भजनया वक्तव्यानि, सा च भजना एवम्-केचिद्विज्ञानिनः केचित्रिज्ञानिनः केचिच्चतु निनः केचिदेकज्ञानिनः, तत्र ये द्विज्ञानिनस्ते नियमादाभिनिबोधिकज्ञानिनः श्रुतज्ञानिनश्च, ये त्रिज्ञानिनस्ते मतिज्ञानिनः श्रुतज्ञानिनोऽवधिज्ञानिनश्च, अथवाऽऽभिनिबोधिकज्ञानिनः श्रुतज्ञानिनो मनःपर्यवज्ञानिनश्च, अवधिज्ञानमन्तरेणापि मनःपर्यवज्ञानस्य सम्भवात् , सिद्धप्राभृतादौ तथाऽनेकशोऽभिधानात् , ये चतुर्जानिनस्ते आभिनिबोधिकज्ञानिनः श्रुतज्ञानिनोऽवधिज्ञानिनो मनःपर्यवज्ञानिनश्च, ये एकज्ञानिनस्ते केवलज्ञानिनः, केवलज्ञानसद्भावे शेषज्ञानापगमात् , "नटुंमि उ छाउमथिए नाणे" इति वचनात् , ननु केवलज्ञानप्रादुर्भावे कथं शेषज्ञानापगमः?, यावता यानि शेषाणि मत्यादीनि ज्ञानानि स्वस्खावरणक्षयोपशमेन जायन्ते ततो निर्मूलस्वस्वावरणविलये तानि सुतरां भवेयुश्चारित्रपरिणामवत् , उक्तञ्च-"आवरणदेसविगमे जाई विनंति मइसुयाईणि । आवरणसव्वविगमे कह ताई न होंति जीवस्स? ॥ १॥" उच्यते, इह यथा जात्यस्य मरकतादिमणेर्मलोपदिग्धस्य यावन्नाद्यापि समूलमलापगमस्तावद् यथा यथा देशतो मलविलयस्तथा तथा देशतोऽभिव्यत्तिरुपजायते, सा च कचित्कदाचित्कथञ्चिद्भवतीत्यनेकप्रकारा, तथाऽऽत्मनोऽपि सकलकालकलाकलापावलम्बिनिखिलपदार्थसार्थपरिच्छेदकरणैकपार १ नष्टे तु छाद्मस्थिके ज्ञाने. २ आवरणदेशविगमे यदि तानि भवन्ति मतिश्रुतादीनि । सर्वावरणविगमे कथं तानि न भवन्ति जीवस्य ?॥१॥ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मीजीवा- मार्थिकस्वरूपस्याप्यावरणमलपटलतिरोहितस्य यावन्नाद्यापि निखिलकर्ममलापगमस्तावद् यथा यथा देशतः कर्ममलोच्छेदस्तथा तथा १प्रतिपत्ती जीवाभि० है तस्य विज्ञप्तिरुज्जृम्भते, सा च कचित्कदाचित्कथचिनेकप्रकारा, उक्तश्च-"मलविद्धमणेर्व्यक्तिर्यथाऽनेकप्रकारतः । कर्मविद्धामविज्ञ- मनुष्याः मल यगि- प्तिस्तथाऽनेकप्रकारतः ॥ १॥" सा चानेकप्रकारता मतिश्रुतादिभेदेनावसेया, ततो यथा मरकतादिमणेरशेषमलापगमसम्भवे सम- सू० ४१ रीयावृत्तिः स्तास्पष्टदेशव्यक्तिव्यवच्छेदेन परिस्फुटरूपैकाभिव्यक्तिरुपजायते तद्वदासनोऽपि ज्ञानदर्शनचारित्रप्रभावतो निःशेषावरणप्रहाणावशेषदे-ॐ ॥४७॥ शज्ञानन्यवच्छेदेनैकरूपाऽतिपरिस्फुटा सर्ववस्तुपर्यायप्रपञ्चसाक्षात्कारिणी विज्ञप्तिरुल्लसति, उक्तञ्च-"यथा जात्यस्य रत्नस्य, निःशेषमलहानितः । स्फुटैकरूपाऽभिव्यक्तिर्विज्ञप्तिस्तद्वदासनः ॥ १॥” इति, येऽज्ञानिनस्ते यज्ञानिनस्यज्ञानिनो वा, तत्र ये यज्ञानिनस्ते मत्यज्ञानिनः श्रुताज्ञानिनः, ये व्यज्ञानिनस्ते मत्यज्ञानिनः श्रुताज्ञानिनो विभङ्गज्ञानिनश्च । योगद्वारे मनोयोगिनो वाग्योगिन: काययोगिनोऽयोगिनश्च, तत्रायोगिनः शैलेशीमवस्थां प्रतिपन्नाः, उपयोगद्वारमाहारद्वारं च द्वीन्द्रियवत्, उपपात एतेष्वधःसप्तमनरकादिव२ जेभ्यः, उक्तच्च-"सत्तममहिनेरइया तेऊ वाऊ अणंतरुव्बट्टा । नवि पावे माणुस्सं तहेवऽसंखाउया सव्वे ॥१॥” इति, स्थितिद्वारे २ जघन्यत: स्थितिरन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतस्त्रीणि पल्योपमानि, समुद्घातमधिकृय मरणचिन्तायां समवाहता अपि म्रियन्ते असमवहता अपि, च्यवनद्वारेऽनन्तरमुढत्य सर्वेषु नैरयिकेषु सर्वेषु च तिर्यग्योनिषु सर्वेषु मनुष्येषु सर्वेषु देवेष्वनुत्तरोपपातिकपर्यवसानेषु गच्छन्ति, 'अत्थेगइया सिझंति जाव अंतं करेंति' इति, अस्तीति निपातोऽत्र बहुवचनार्थः, सन्त्येकका ये निष्ठितार्थाः भवन्ति यावत्करणात् "घुझंति मुचंति परिनिव्वायंति सब्वदुक्खाणमंतं करेंती"ति द्रष्टव्यं, तत्राणिमायैश्वर्याप्त्या तथाविधमनुष्यकृत्यापेक्षया निष्ठितार्था इति, अ ॥४७॥ १ सप्तममहीनैरयिका तेजस्कायिका वायुकायिका अनन्तरोदत्ता । नैव प्रामुवन्ति मानुष्यं तथैवासंख्येयवर्षायुष्का. सर्वे ॥१॥ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वविदोऽपि कैश्चित्सिद्धा इष्यन्ते ततो मा भूत्तेषु संप्रत्यय इति तदपोहायाह-'बुध्यन्ते' निरावरणत्वात्केवलावयोधेन समस्तं वस्तुजातम् , एते चासिद्धा अपि भवस्थकेवलिन एवंभूता वर्तन्ते तत्र मा भूदेतेष्वेव प्रतीतिरित्याह-'मुच्यन्ते' पुण्यापुण्यरूपेण कृच्छ्रेण क-18 मणा, एतेऽपि चापरिनिर्वृत्ता एव परैरिष्यन्ते–'मुक्तिपदे प्राप्ता अपि तीर्थनिकारदर्शनादिहागच्छन्तीति वचनात् , ततो मा भूत्तद्गोचरा मन्दमतीनां धीरित्याह-'परिनिर्वान्ति' विध्यातसमस्तकर्महुतवहपरमाणवो भवन्तीति, किमुक्तं भवति ?-सर्वदुःखानां शारीरमानस भेदानामन्तं-विनाशं कुर्वन्ति, अत एव गत्यागतिद्वारे चतुरागतिकाः पञ्चगतिकाः, सिद्धगतावपि गमनात्, 'परीत्ताः' प्रत्येकशरीतारिण: 'सङ्ख्येयाः' सङ्ख्येयकोटीप्रमाणत्वात् प्रज्ञप्ताः, हे श्रमण ! हे आयुष्मन् !, उपसंहारमाह-'सेत्तं मणुस्सा' ॥ अधुना देवानाह से किं तं देवा?, देवा चउब्विहा पण्णत्ता, तंजहा-भवणवासी वाणमंतरा जोइसिया वेमाणिया। से किं तं भवणवासी?, २ दुसविधा पण्णत्ता, तंजहा-असुरा जाव थणिया, से तं भवणवासी । से किं तं वाणमंतरा?, २ देवभेदो सव्वो भाणियव्वो जावते समासतो दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-पज्जत्ता य अपज्जत्ता य, तओ सरीरगा-वेविए तेयए कम्मए । ओगाहणा दुविधाभवधारणिज्जा य उत्तरवेउव्विया य, तत्थ णंजा सा भवधारणिजा सा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजभागं उक्कोसेणं सत्त रयणीओ, उत्तरवेउव्विया जहन्नेणं अंगुलसंखेजति उक्कोसेणं जोयणसयसहस्सं, सरीरगा छण्हं संघयणाणं असंघयणी णेवट्ठी णेव छिरा व पहारू नेव संघयणमत्थि, जे पोग्गला इट्ठा कंता जाव ते तेसिं संघायत्ताए परिणमंति, किंसंठिता?, गोयमा! दुविहा प NAV Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजीवा- 8 जीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः १प्रतिपत्ती देवाः सू०४२ ॥४८॥ x पणत्ता, तंजहा-भवधारणिता य उत्तरयेउब्विया य, तत्थ णं जे ते भवधारणिजाते णं समचउरससंठिया पण्णता, तस्थ णं जे ते उत्तरउब्विया ते णं नाणासंठाणसंठिया पण्णसा, चसारि कसाया चत्तारि सपणा छ लेस्साओ पंच इंदिया पंच समुग्धाता सन्नीवि असन्नीवि इथियेदावि पुरिसवेदावि नो नपुंसगवेदा, पज्जत्ती अपज्जतीओ पंच, दिट्ठी तिन्नि तिणि वंसणा, णाणीवि अण्णाणीवि, जे नाणी ते नियमा तिपणाणी अण्णाणी भयणाए, दुविहे उवओगे तिविहे जोगे आहारो णियमा छदिसिं, ओसन्नकारणं पहुच वपणतो हालिहसुकिल्लाई जाव आहारमाहारेंति, उवयातो तिरियमणुस्सेसु, ठिती जहन्नेणं दस वाससहस्साई उकोसेणं तेसीसं सागरोवमाई, दुविधावि मरंति, उव्यदिशा नो नेरइएसु गच्छंति तिरियमणुस्सेसु जहासंभवं, नो देवेसु गच्छति, दुगतिया दुआगतिया परिसा असंखेना पण्णत्ता, से तं देवा, से तं पंचें दिया, सेसं ओराला तसा पाणा ॥ (सू० ४२) ___ अथ के ते देवाः १, सूरिराह-देवाश्चतुर्विधाः प्रज्ञप्ताः, तयथा-भवनवासिनो व्यन्तरा ज्योतिष्का वैमानिकाश, 'एवं भेदो भाणियव्यो जहा पनवणाए' इति, एवम्' उक्तेन प्रकारेण भेदो भणितव्यो यथा प्रज्ञापनायां, स चैवम्-" से किं तं भवणवासी?, भवणवासी दसविहा पनत्ता" इत्याविरूपस्सत एव सव्याख्यान: परिभावनीयः, 'ते समासतो दुविहा पण्णत्ता-पज्जत्तगा य Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपज्जत्तगा य' एषामपर्याप्तत्वमुत्पत्तिकाल एव द्रष्टव्यं न त्वपर्याप्तिनामकर्मोदयतः, उक्तश्च-नारयदेवा तिरियमणुयगम्भजा जे असंखवासाऊ । एए उ अपजत्ता उववाए चेव बोद्धव्वा ॥१॥” इति, शरीरादिद्वारचिन्तायां शरीरद्वारे त्रीणि शरीराणि वैक्रियं तैजसं कार्मणं च, अवगाहना भवधारणीया जघन्यतोऽङ्गुलासङ्ख्येयभागमात्रा उत्कर्पतः सप्तहस्तप्रमाणा, उत्तरवैक्रिया जघन्यतोऽङ्गलसवयेयभागप्रमाणा उत्कर्षतो योजनशतसहस्रं, संहननद्वारे षण्णां संहननानामन्यतमेनापि संहननेनासंहननिनः, कुतः? इत्याह-'नेवट्ठी' इत्यादि, यतो नैव तेषां देवानां शरीरेष्वस्थीनि नैव शिरा नापि स्नायूनि संहननं चास्थिनिचयासकमतोऽस्थ्यादीनामभावात्संहननाभावः, किन्तु 'जे पोग्गला' इत्यादि, ये पुद्गला इष्टाः-मनस इच्छामापन्नाः, तत्र किञ्चिदुकान्तमपि केषाञ्चिदिष्टं भवति तत आहकान्ताः' कमनीयाः शुभवर्णोपेतत्वात् , यावत्करणात् 'पिया मणुन्ना मणामा' इति द्रष्टव्यं, तत्र यत एव कान्ता अत एव प्रिया:-सदैवासनि प्रियबुद्धिमुत्पादयन्ति, तथा 'शुभाः' शुभरसगन्धस्पर्शात्मकत्वात् 'मनोज्ञाः' विपाकेऽपि सुखजनकतया मनःप्रहादहेतुलात् 'मनापाः' सदैव भोज्यतया जन्तूनां मनांसि आप्नुवन्ति, इत्थम्भूताः पुद्गलास्तेषां शरीरसङ्घाताय परिणमन्ति । संस्थानद्वारे भवधादारणीया तनुः सर्वेषामपि समचतुरस्रसंस्थाना उत्तरवैक्रिया नानासंस्थानसंस्थिता, तस्या इच्छावशतः प्रादुर्भावात् , कषायाश्चत्वारः, स ज्ञाश्चतस्रो, लेश्याः षड् , इन्द्रियाणि पञ्च, समुद्घाताः पञ्च, वेदनाकषायमारणान्तिकवैक्रियतैजससमुद्घातसम्भवात् । सज्ञिद्वारे । सम्झिनोऽपि असज्ञिनोऽपि, ते च नैरयिकवद्भावनीयाः, वेदद्वारे स्त्रीवेदा अपि पुरुषवेदा अपि नो नपुंसकवेदाः, पर्याप्तिद्वारं दृष्टिद्वारं दर्शनद्वारं च नैरयिकवत् । ज्ञानद्वारे ज्ञानिनोऽपि अज्ञानिनोऽपि चेति विकल्पोऽसज्ञिमध्यः, तत्र ये ज्ञानिनस्ते नियमात्रिज्ञा-1 नारका देवाः तिर्यस्यनुजा गर्भव्युकान्ता येऽसङ्ख्येयवर्षायुष्काः । एते तु अपर्याप्ता उपपात एव बोद्धव्याः ॥१॥ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- 1-16 पीजीवा- निनः, तथयाना निनः, तद्यथा-आमिनिबोधिकज्ञानिनः श्रुतज्ञानिनोऽवधिज्ञानिनश्च, तत्र येऽज्ञानिनस्ते सन्त्येकका ये व्यज्ञानिनः सन्त्येकका ये यज्ञा- १प्रतिपत्तं गोवाभि निनः, तत्र ये व्यज्ञानिनस्ते नियमान्मत्यज्ञानिनः श्रुताज्ञानिनः, ये व्यज्ञानिनस्ते नियमान्मत्यज्ञानिनः श्रुताज्ञानिनो विभङ्गज्ञानिनश्च, # देवाधिः मलयगि 18 अयं घ व्यज्ञानिनरूयज्ञानिनो वेति विकल्पः असज्ञिमध्याद् ये उत्पद्यन्ते तान् प्रति द्रष्टव्यः, स च नैरयिकवद्भावनीयः । उपयोगा- ॐ कारः रीयावृत्तिः, हारद्वाराणि नैरयिकवत् , उपपात: सझ्यसज्ञिपञ्चेन्द्रियतिर्यग्गर्भजमनुष्येभ्यो न शेषेभ्यः । स्थितिर्जघन्यतो दश वर्षसहस्राणि उत्क- सू० ४२ पतस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि, समुद्घातमधिकृत्य मरणचिन्तायां समवहता अपि नियन्तेऽसमवहता अपि । च्यवनद्वारेऽनन्तरमुढ्त्य ॥४९॥ पृथिव्यम्बुवनस्पतिकायिकगर्भव्युत्क्रान्तिकसङ्ख्यातवर्षायुष्कतिर्यक्पञ्चेन्द्रियमनुष्येषु गच्छन्ति न शेषजीवस्थानेषु, अत एव गत्यागदितिद्वारे व्यागतिका द्विगतिकाः, तिर्यग्मनुष्यगत्यपेक्षया, 'परीत्ताः' प्रत्येकशरीरिणोऽसयेयाः प्रज्ञप्ताः हे श्रमण हे आयुष्मन् ', उपसं हारमाह-सेत्तं देवा, सर्वोपसंहारमाह-'सेत्तं पंचेंदिया, सेत्तं ओराला तसा पाणा' सुगमम् ॥ सम्प्रति स्थावरभावस्य त्रसभावस्य च भवस्थितिकालमानप्रतिपादनार्थमाह थावरस्स णं भंते! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता? गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं यावीस वाससहस्साई ठिती पण्णत्ता॥ तसस्सणं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता।थावरे णंभंते! थावरत्ति कालतो केवचिरं होति ?, जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं अणंतं कालं अणंताओ उस्सप्पिणिओ (अवसप्पिणीओ) ॥४९॥ कालतो खेत्ततो अणंता लोया असंखेजा पुग्गलपरिया, ते णं पुग्गलपरिया आवलियाए असं Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खेज्जतिभागो ॥ तसे गं भंते ! तसत्ति कालतो केवचिरं होति?, जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं असंखेनं कालं असंखेजाओ उस्सप्पिणीओ (अवसप्पिणीओ) कालतोखेत्ततो असंखेज्जा लोगा। थावरस्स णं भंते! केवतिकालं अंतरं होति?, जहा तससंचिट्ठणाए॥ तसस्स णं भंते! केवतिकालं अंतरं होति ?, अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं वणस्सतिकाले ॥ एएसि णं भंते ! तसाणं थावराण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा?, गोयमा! सव्वत्थोवा तसा थावरा अणंतगुणा, सेतं दुविधा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता ॥ दुविहपडिवत्ती समत्ता (सू०४३) जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतो द्वाविंशतिवर्षसहस्राणि, एतच्च पृथिवीकायमधिकृत्यावसातव्यम् , अन्यस्य स्थावरकायस्योत्कर्षत एता-14 वत्या भवस्थितेरभावात् ॥ त्रसकायस्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि, एतच्च देवनारकापेक्षया द्रष्टव्यम् , अन्यस्य त्रसकायस्योत्कर्षत एतावत्प्रमाणाया भवस्थितेरसम्भवात् ॥ सम्प्रत्येतयोरेव कायस्थितिकालमानमाह-स्थावरे 'णम्' इति वाक्यालङ्कारे 'स्थावर इति' स्थावर इत्यनेन रूपेण स्थावरत्वेनेति भावः, कालतः कियच्चिरं भवति?, भगवानाह-गौतम! जघन्येनान्तर्मुहूर्तमुत्कतोऽनन्तं कालं, तमेवानन्तं कालं कालक्षेत्राभ्यां निरूपयति-अनन्ता उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः कालतः, क्षेत्रतोऽनन्ता लोकाः, किमुक्तं भवति ?-अनन्तलोकेषु यावन्त आकाशप्रदेशास्तेषां प्रतिसमयमेकैकापहारेण यावत्योऽनन्ता अवसर्पिण्युत्सर्पिण्यो भवन्ति तावत्य इति, एतासामेव पुद्गलपरावर्त्ततो मानमाह-असङ्ख्येयाः पुद्गलपरावर्ताः, असङ्ख्येयेषु पुद्गलपरावर्तेषु क्षेत्रत इति पदसांनिध्यारक्षेत्रपुद्गलपरा --XAMROGRAMMAR Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥५०॥ श्रीजीवा-है वर्तेषु यावत्यः संभवन्ति अनन्ता उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यस्तावत्य इति भावः, इहासङ्ग्येयमसहयेयभेदासकमत: पुद्गलपरावर्त्तगतमसङ्ख्ये- प्रतिपत्ती जीवाभियत्वं निर्धारयति-ते णमित्यादि, ते णमिति वाक्यालकारे पुद्गलपरावर्ता आवलिकाया असोयो भागः, आवलिकाया असोय-2 बसस्थामलयनि- तमे भागे यावन्त: समयास्तावत्प्रमाणा इत्यर्थः, एतच वनस्पतिकायस्थितिमगीकृत्य वेदितव्यं, न पृथिव्यम्बुकायस्थितिव्यपेक्षया, तयोः १ वरस्थिरीयावृत्तिः कायस्थितेरुत्कर्पतोऽप्यसङ्खधेयोत्सर्पिणीप्रमाणलात्, तथा चोक्तं प्रज्ञापनायाम्-'पुढविकाइए णं भंते! पुढविकाइयत्ति कालओ त्यन्तरे केवञ्चिरं होइ?, गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तमुक्कोसेणं असंखिजं कालं असंखिज्जाओ उस्सप्पिणिअवसप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ असं * सु०४३ खिजा लोगा, एवं आउक्काएवि" इति, या तु वनस्पतिकायस्थितिः सा यथोक्तप्रमाणा तत्रोक्ता "वणस्सइकाइए णं भंते! वणस्सइकायत्ति कालओ कियश्चिरं होइ?, गोयमा! जनेणं अंतोमुहुत्तं उकोसेणं अणंतं कालं अणंताओ उस्सप्पिणीओसप्पिणीओ कालओ, खित्तओ अर्णता लोगा असंखिज्जा पुग्गलपरियट्टा आवलियाए असंखिज्जइभागो" इति । एषोऽपि च वनस्पतिकायस्थितिकाल: सांव्यवहारिकजीवानधिकृत्य प्रोच्यते, असांव्यवहारिकजीवानां तु कायस्थितिरनादिरवसेया, तथा चोक्तं विशेषणवत्याम्-अस्थि अणंता जीवा जेहिं न पत्तो तसाइपरिणामो । तेवि अणंताणंता निगोयवासं अणुवसंति ॥ १॥" साऽपि तेषामसांव्यवहारिकजीवानामनादिः कायस्थिति: केपाश्चिदनादिरपर्यवसाना, ये न जातुचिदसांव्यवहारिकराशेरुद्वृत्य सांव्यवहारिकराशौ निपतिष्यन्ति, केषाश्विदनादिः सपर्यवसाना, ये असांव्यवहारिकराशेरुद्वृत्य सांव्यवहारिकराशौ निपतिष्यन्ति । अथ किमसांव्यवहारिकराशेर्विनिर्गत्य सांव्यवहारिकराशावागच्छन्ति ? येनैवं प्ररूपणा क्रियते, उच्यते, आगच्छन्ति, कथमवसीयते ? इति चेदुच्यते-पूर्वाचार्योपदेशात् , ॥५०॥ १ सन्सनन्ता जीवा यैर्न प्राप्तन्नसादिपरिणाम । वेऽप्यनन्तानन्ता निगोदवासमनुवसन्ति ॥१॥ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा चाह दुषमान्धकारनिमग्नजनप्रवचनप्रदीपो भगवान् जिनभद्रगणिः क्षमाश्रमणो विशेषणवत्याम-"सिझंति जत्तिया किर। इह संववहारजीवरासिमझाओ। इंति अणाइवणस्सइरासीओ तत्तिया तंमि ॥ १॥” इति कृतं प्रसङ्गेन । सम्प्रति त्रसकायस्य कायस्थितिमानमाह-तसे णं भंते'इत्यादि, तसे'ण'मिति पूर्ववत् 'त्रस इति' त्रस इत्यनेन पर्यायेण कालतः ‘कियश्चिरं' कियन्तं कालं यावद्भवति?, भगवानाह-गौतम! जघन्येनान्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतोऽसहयेयं कालम् , एनमेवासङ्ख्येयं कालक्षेत्राभ्यां निरूपयति-असंखिज्जाओ'इत्यादि, असहयेया उत्सर्पिण्यवसर्पिण्य: कालतः, क्षेत्रतोऽसहयेया लोका असहयेयेषु लोकेषु यावन्त आकाशप्रदेशास्तेषां प्रतिसमयमेकैकापहारे यावत्योऽसोया उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यो भवन्ति तावत्य इति भावः, इयं चैतावती कायस्थितिर्गतित्रसं तेजस्कायिक वायुकायिकं चाधिकृत्यावसेया न तु लब्धित्रसं, लब्धित्रसस्य कायस्थितेरुत्कर्षतोऽपि कतिपयवर्षाधिकसागरोपमसहस्रद्वयप्रमाणत्वात् , तथा चोक्तं प्रज्ञापनायाम-"तसकाए णं भंते! तसकायत्ति कालतो कियश्चिरं होइ ?, गोयमा! जहन्नणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं दो सागरोवमसहस्साइं संखेज्जवासमभहियाई" तथा "तेउक्काइए णं भंते! तेउक्काइएत्ति कालतो केवच्चिरं होति?, गोयमा! जहन्नणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं असंखेजाओ उस्सप्पिणीओसप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ असंखेजा लोगा, एवं वाउकाइयावि" इति॥सम्प्रति स्थावरत्वस्यान्तरं विचिन्तयिषुराह-थावरस्सणं भंते ! अंतर'मित्यादि सुगमं नवरमसयेया उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः कालतः, क्षेत्रतोऽसहयेया लोकाः, इत्येतावत्प्रमाणमन्तरं तेजस्कायिकवायुकायिकमध्यगमनेनावसातव्यम् , अन्यत्र गतावतावत्प्रमाणस्यान्तरस्यासम्भवात् ॥'तसस्स णं भंते! अंतर'मित्यादि सुगम नवरम् 'उक्कोसेणं वणस्सइकालो' इति, उत्कर्षतो वनस्पतिकालो वक्तव्यः, स चै १ सिध्यन्ति यावन्त. किलेह सव्यवहारराशिमध्यात् । आयान्ति अनादिवनस्पतिराशेः तावन्तस्तस्मिन् ॥१॥ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ★★ जीवा वाभि. लयगि- यावृत्तिः ॥५१॥ वम्-"उकोसेणं अणंतमणंताओ उस्सप्पिणीओसप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ अणंता लोगा, असंखेजा पोग्गलपरियट्टा, ते णं पोग्ग-२१प्रतिपत्त लपरियट्टा आवलियाए असंखेजइभागों" इति, एतावत्प्रमाणं चान्तरं वनस्पतिकायमध्यगमनेन प्रतिपत्तव्यम्, अन्यत्र गतावेतावतो- त्रसादेऽन्तरस्यालभ्यमानत्वात् ॥ सम्प्रत्यल्पबहुवमाह-एतेषां भदन्त ! जीवानां त्रसानां स्थावराणां च मध्ये कतरे कतमेभ्योऽल्पा वा बहवो है स्थित्यादि वा कतरे कतरैस्तुल्या वा?, अत्र सूत्रे विभक्तिपरिणामेन तृतीया व्याख्येया, तथा कतरे कतरेभ्यो (ऽल्पा बहुकास्तुल्या) विशेषाधिका वा?, भगवानाह-गौतम सर्वस्तोकानसाः, असत्यातत्वमात्रप्रमाणत्वात् , स्थावरा अनन्तगुणाः, अजघन्योत्कृष्टानन्तानन्तसयापरिमाणत्वात् , उपसंहारमाह-सत्तं दुविहा संसारसमावन्ना जीवा' इति ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां जीवाजीवाभिगमटीकायां द्विविधा प्रतिपत्तिः समाप्ता ।। * सू० ४३ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ त्रिविधाख्या द्वितीया प्रतिपत्तिः तदेवमुक्ता द्विविधा प्रतिपत्तिः, सम्प्रति त्रिविधा प्रतिपत्तिरारभ्यते, तत्र चेदमादिसूत्रम्- तत्थ जे ते एवमाहंसु तिविधा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता ते एवमाहंसु, तंजहा - इत्थि पुरिसा पुंसका ॥ ( सू० ४४ ) । से किं तं इत्थीओ १, २ तिविधाओ पण्णत्ता, तंजहा - तिरिक्खजोणियाओ मणुस्सित्थीओ देवित्थीओ। से किं तं तिरिक्खजोणिणित्थीओ?, २ तिविधाओ पण्णत्ता, तंजहा - जलयरीओ थलयरीओ, खयरीओ । से किं तं जलयरीओ १, २ पंचविधाओ पण्णत्ताओ, तंजहा - मच्छीओ जाव सुंसुमारीओ । से किं तं थलयरीओ ?, २ दुविधाओ पण्णत्ता, तंजहा - चउप्पदीओ य परिसप्पीओ य । से किं तं चउप्पदीओ ?, २ चउव्विधाओ पण्णत्ता, तंजा - एगखुरीओ जाव सणप्फईओ । से किं तं परिसप्पीओ ?, २ दुविहा पण्णत्ता, तंजहाउरपरिसप्पीओ य भुजपरिसप्पीओ य । से किं तं उरगपरिसप्पीओ ?, २ तिविधाओ पण्णत्ता, तंजहा - अहीओ अहिगरीओ महोरगाओ, सेत्तं उरपरिसप्पीओ । से किं तं भुयपरिसप्पीओ ?, २ अणेगविधाओ पण्णत्ता, तंजहा - सेरडीओ सेरंघीओ गोहीओ णउलीओ सेधाओ 10 Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजीवाजीवाभि० मलयगि २ प्रतिपत्ती जीवास्ति भेदाः सू० ४४ स्त्रीभेदाः सू०४५ रीयावृत्तिः सण्णाओ सरडीओ सेरंधीओ भावाओ खाराओ पवण्णाइयाओ चउप्पड्याओ मूसियाओ मुगुसिओ घरोलियाओ गोव्हियाओ, जोहियाओ चिरचिरालियाओ, सेत्तं भुयगपरिसप्पीओ। से किं तं खहयरीओ?, २ चउविधाओ पण्णता, तंजहा-यम्मपश्वीओ, जाव सेसं म्बहयरी ओ, सेतं तिरिक्वजोणिओ॥ से किं तं मणुस्सिओ?, २तिविधाओ पण्णता, तंजहा-कम्ममूमियाओ अकम्मभूमियाओ अंतरदीवियाओ। से किं तं अंतरदीवियाओ , २ अठ्ठावीसतिविधाओ पण्णत्ता, तंजहा-एगूरूइयाओ आभासियाओ जाव सुद्धनीओ, सेरा अंतरदी०॥से कि तं अकम्मभूमियाओ ?, २ तीसविधाओ पपणत्ता, तंजहा-पंचसु हेमवएसु पंचसु परणवएसु पंचसु हरिवंसेसु पंचसु रम्मगवासेसु पंचसु देवकुरामु पंचसु उत्तरकुरासु, सेसं अकम्मा। से किंतं कम्मभूमिया ?, २ पण्णरसविधाओ पणत्ताओ, तंजहा-पंचसु भरहेसु पंचसु एरवएसु पंचसु महाविदेहेसु, सेरो कम्मभूमगमणुस्सीओ, सेरां मणुस्सिस्थीओ ॥ से कितं देवित्थियाओ?, २ चउबिधा पपणत्ता, तंजहा-भवणवासिदेवित्थियाओ वाणमंतरदेवित्थियाओ जोतिसियदेवित्थियाओ वेमाणियदेवित्थियाओ । से किं तं भवणयासिदेवित्थियाओ?, २ दसविहा पण्णता, तंजहा-असुरकुमारभवणवासिदेवित्थियाओ जाव थणितकुमारमवणवासिदेवित्थियाओ, से तं भवणवासिदेवित्थियाओ। से किं तं वाणमंतरदेवित्थियाओ?, २ अट्ट तो पण्णता, तंजलायाओ अंतरदीवियामास्सिओ?, २ तिथिमाखीओ, जायगपति Rextॐॐॐॐॐॐॐॐ ॥५२॥ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधाओ पण्णत्ता, तंजहा–पिसायवाणमंतरदेवित्थियाओ जाव से तं वाणमंतरदेवित्थियाओ। से किं तं जोतिसियदेवित्थियाओ ?, २ पंचविधाओ पण्णत्ता, तंजहा-चंदविमाणजोतिसियदेवित्थियाओ सूरगह नक्खत्त ताराविमाणजोतिसियदेवित्थियाओ,से तं जोतिसियाओ। से किं तं वेमाणियदेवित्थियाओ?, २ दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-सोहम्मकप्पवेमाणियदेवित्थियाओ ईसाणकप्पवेमाणियदेवित्थिगाओ, सेत्तं वेमाणित्थीओ ॥ (सू०४५) 'तत्र' तेषु नवसु प्रतिपत्तिषु मध्ये ये आचार्या एवमाख्यातवन्तः-त्रिविधाः संसारसमापन्ना जीवा: प्रज्ञप्तास्त एवमाख्यातवन्तः, तद्यथा-स्त्रियः पुरुषा नपुंसकानि, इह ख्यादिवेदोदयाद् योन्यादिसगताः रुयादयो गृह्यन्ते, तथा चोक्तम्-'योनिर्मूदुत्वमस्थैर्य, मुग्धताऽऽबलता स्तनौ । पुंस्कामितेति लिङ्गानि, सप्त स्त्रीले प्रचक्षते ॥ १॥ मेहनं खरता दाय, शौण्डीर्य श्मश्रु धृष्टता । स्त्रीकामितेतिर लिङ्गानि, सप्त पुंस्त्वे प्रचक्षते ॥ २॥ स्तनादिश्मश्रुकेशादिभावाभावसमन्वितम् । नपुंसकं बुधाः प्राहुर्मोहानलसुदीपितम् ॥ ३ ॥ तत्र 'यथोद्देशं निर्देश' इति स्त्रीवक्तव्यतामाह-से किंत'मित्यादि, अथ कास्ताः स्त्रियः?, सुरिराह-स्त्रियविविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-म तिर्यग्योनिस्त्रियो मनुष्यस्त्रियो देवत्रियश्च । 'से किं तमित्यादि, तिर्यग्योनिस्त्रियस्त्रिविधाः, तद्यथा-जलचर्यः स्थलचर्यः खचर्यश्च । 'से किं तमित्यादि । मनुष्यस्त्रियोऽपि त्रिविधास्तद्यथा-कर्मभूमिका अकर्मभूमिका अन्तरद्वीपिकाश्च । 'से किं त'मित्यादि, देवस्त्रियश्चतुर्विधास्तद्यथा-भवनवासिन्यो व्यन्तों ज्योतिष्क्यो वैमानिक्यश्च ।। सम्प्रति स्त्रिया भवस्थितिमानप्रतिपादनार्थमाह इत्थी णं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता?, गोयमा ! एगेणं आएसेणं जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजीवा उक्कोसेणं पण्णपन्नं पलिओवमाई एक्कणं आदेसेणं जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उकोसेणं णव पलिओवमाई २प्रतिपत्ती जीवाभि० एगेणं आदेसेणं जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं सत्त पलिओवमाई एगेणं आदेसेणं जहन्नेणं अंतो- है स्त्रीवदमलयगि- मुहत्तं उक्कोसेणं पन्नासं पलिओचमाइं॥ (सू०४६) * स्थित्यादि रीयावृत्तिः४ 'इत्थी णं भंते' इत्यादि, स्त्रिया भदन्त कियन्तं कालं स्थितिः प्रजाता?, भगवानाह-गौतम ! 'एकेनादेशेन' आदेशशब्द इह प्रका- सू० ४६ रखाची "आदेसो त्ति पगारों" इति वचनात् , एकेन प्रकारेण, एकं प्रकारमधिकृयेति भावार्थः, जघन्येनान्तर्मुहूर्त्तम् , एतत्तिर्यग्मनु-4 ॥५३॥ प्यख्यपेक्षया द्रष्टव्यम् , अन्यत्रैतावतो जघन्यस्यासम्भवात्, उत्कर्पतः पञ्चपञ्चाशत्पल्योपमानि, एतदीगानकल्पापरिगृहीतदेव्यपेक्षम्। तथैकेनादेशेन जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तम् एतत्तथैवोत्कर्पतो नव पल्योपमानि, एतदीशानकल्प एवं परिगृहीतदेव्यपेक्षम् । तथा एकेनादेशेन जघन्यतोऽन्तर्मुर्त्तम् , एतत्प्राग्वत् , उत्कर्पतः सप्त पल्योपमानि, एतत्सौधर्मकल्पे परिगृहीतदेवीरधिकृत्य । तथा एकेनादेशेन जघन्यB तोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतः पञ्चाशत्पल्योपमानि, एतत्सौधर्मकल्प एवापरिगृहीतदेव्यपेक्षम्, उक्तश्च सग्रहण्याम्- सपरिग्गहेयराणं सोॐ हम्मीसाण पलियसाहीयं । उफोस सत्त पन्ना नव पणपन्ना य देवीणं ॥१॥" तदेवं सामान्यतः स्त्रीणां जघन्यत उत्कर्पतश्च स्थितिमानमुक्तं, सम्प्रति तिर्यकयादिभेदानधिकृत्याह तिरिक्खजोणित्थीण भंते! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता?,गो जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उकोसेणं तिपिण पलिओवमाई।जलयरतिरिक्खजोणित्थीणं भंते! केवइयं कालं ठिती पण्णत्ता,गोयमा। जहन्नेणं ॥५३॥ १ परिगृहीतेतराणा सीधर्मशानाना पल्योपम साधिकम् । उत्कृष्टत सप्त पचाशत् नव पयपशाशय पल्योपमानि चैवीनाम् ॥ १॥ *AGRAAGRAAGASCRIPAKRAcrack MMARSHRSHABAD-GG Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JU N .. . ~ ~ ~ ~ अंतो उक्को पुत्वकोडी।चउप्पदथलयरतिरिक्खजोणित्थीणं भंते केवतियं कालं ठिती पण्णता?, गो० जहा तिरिक्खजोणित्थीओ। उरगपरिसप्पथलयरतिरिक्खजोणित्थीणं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसं पुव्वकोडी। एवं भुयपरिसप्प० । एवं खहयरतिरिक्खित्थीणं जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्को० पलिओवमस्स असंखेजतिभागो॥मणुस्सित्थीणं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ?, गोयमा ! खेत्तं पड्डुच जह० अंतो० उक्को तिपिण पलिओवमाई, धम्मचरणं पड्डुच जह• अंतो० उक्कोसेणं देसूणा पुवकोडी । कम्मभूमयमणुस्सित्थीणं भंते! केवइयं कालं ठिती पण्णत्ता?, गोयमा! खित्तं पडुच्च जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाई धम्मचरणं पडुच जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं देसूणा पुव्वकोडी । भरहेरवयकम्मभूमगमणुस्सित्थीणं भंते! केवत्तियं कालं ठिती पण्णत्ता, गोयमा ! खेत्तं पडुच्च जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाइं, धम्मचरणं पडुच्च जहन्नेणं अंतोमु० उक्कोसेणं देसूणा पुव्वकोडी । पुव्वविदेह अवरविदेहकम्मभूमगमणुस्सित्थीणं भंते! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता?, गोयमा! खेत्तं पडुच जहन्नेणं अंतो० उक्कोसेणं पुवकोडी, धम्मचरणं पडुच्च जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं देसूणा पुव्वकोडी । अकम्मभूमगमणुस्सित्थीणं भंते! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता?, गोयमा! जम्मणं पडुच्च जहन्नेणं देसूणं पलिओवमं पलिओवमस्स असंखेजतिभागऊणगं उक्को ~ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥५४॥ र प्रतिपत्तौ तिर्यकत्रीस्थित्यादि सू० ४७ CAUSAAMACADEMAMANG सेणं तिन्नि पलिओवमाई, संहरणं पडुच जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं देसूणा पुचकोडी। हेमवएरण्णवए जम्मणं पडुच जहन्नेणं देसूर्ण पलिओवमं पलिओवमस्स असंखेजइभागेण ऊणगं पलिओवमं संहरणं पडुच्च जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं देसूणा पुव्वकोडी । हरिवासरम्मयवासअकम्मभूमगमणुस्सित्थीणं भंते! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता?, गोयमा! जम्मणं पडुच जहन्नेणं देसूणाई दो पलिओवमाइं पलिओवमस्स असंखेज्जतिभागेण ऊणयाई उक्को० दो पलिओवमाई, संहरणं पड्डुच्च जह० अंतो० उक्को० देसूणा पुवकोडी । देवकुरुउत्तरकुरुअकम्मभूमगमणुस्सित्थीणं भंते! केवतियं कालं ठिई पण्णत्ता?, गोयमा! जम्मणं पडुच जहन्नेणं देसूणाई तिण्णि पलिओवमाइं पलिओवमस्स असंखेजतिभागेण ऊणयाई उक्को तिन्नि पलिओवमाई, संहरणं पडुच जहन्नेणं अंतोमुहु० उक्को० देसूणा पुचकोडी । अंतरदीवगअकम्मभूमगमणुस्सित्थीणं भंते! केवतिकालं ठिती पण्णत्ता?, गोयमा! जम्मणं पडुच जहन्नेणं देसूर्ण पलिओवमस्स असंखेजइभागं पलिओवमस्स असंखेजतिभागेण ऊणयं उक्को. पलिओवमस्स असंखेजइभागं संहरणं पडुच जहन्नेणं अंतोमु० उक्को० देसूणा पुवकोडी॥ देवित्थीणं भंते! केवतियं कालं ठिती पन्नत्ता?, गोयमा! जहन्नेणं दसवाससहस्साई उक्कोसेणं पणपन्नं पलिओवमाइं । भवणवासिदेवित्थीणं भंते!, जहन्नेणं दसवाससहस्साई उक्कोसेणं अद्धपंचमाइं पलिओवमाई। एवं असुरकु ॥५४॥ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 27 मारभवणवासिदेवित्थियाए, नागकुमारभवणवासिदेवित्थियाएवि जहन्नेणं दसवाससहस्साइंउकोसेणं देसूणाई पलिओवमाइं, एवं सेसाणवि जाव थणियकुमाराणं । वाणमंतरीणं जहन्नेणं दसवाससहस्साई उक्कोसं अद्धपलिओवमं । जोइसियदेवित्थीणं भंते! केवइयं कालं ठिती पपणत्ता?, गोयमा! जहण्णेणं पलिओवमं अट्ठभागं उक्कोसेणं अद्धपलिओवमं पण्णासाए वाससहस्सेहिं अन्भहियं, चंदविमाणजोतिसियदेवित्थियाए जहन्नेणं चउभागपलिओवमं उक्कोसेणं . तं चेव, सूरविमाणजोतिसियदेवित्थियाए जहन्नेणं चउभागपलिओवमं उक्कोसेणं अद्धपलिओवमं पंचहिं वाससएहिमभहियं, गहविमाणजोतिसियदेवित्थीणं जहण्णेणं चउभागपलिओवम उक्कोसेणं अद्धपलिओवमं, णक्खत्तविमाणजोतिसियदेवित्थीणं जहण्णेणं चउभागपलिओवम उक्कोसेणं चउभागपलिओवमं साइरेगं, ताराविमाणजोतिसियदेवित्थियाए जहन्नेणं अट्ठभागं पलिओवम उक्को० सातिरेगं अट्ठभागपलिओवमं । वेमाणियदेवित्थियाए जहण्णेणं. पलिओवमं उक्कोसेणं पणपन्नं पलिओवमाई, सोहम्मकप्पवेमाणियदेवित्थीणं भंते ! केवतियं कालं ठिती प०१, जहण्णेणं पलिओवमं उक्कोसेणं सत्त पलिओवमाइं, ईसाणदेवित्थीणं जहण्णेणं सातिरेगं पलिओवमं उक्कोसेणं णव पलिओवमाइं ॥ (सू ४७) 'तिरिक्खजोणिइत्थियाणं भंते' इत्यादि, उत्कर्षतस्त्रीणि पल्योपमानि, देवकुर्वादिपु चतुष्पदनीरधिकृत्य, जलचरस्त्री-| Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐॐ भीजीवाणामुत्कर्षनः पूर्वकोटी, स्थलचरस्त्रीणां यथा औधिकी, त्रीणि पल्योपमानीत्यर्थः । खचरीणामुत्कर्पतः पस्योपमासाख्येयभागः, २प्रतिपसी मनुष्यत्री क्षेत्र प्रतीर-क्षेत्राश्रयणेनेतिभावः, जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतो देवकुर्वादिपु भरतादिष्वपि एकान्तसुपमादिकाले त्रीणि * तिर्यक्मापगि- पल्योपमानि, धर्मचरणं' घरणधर्मसेवनं प्रतीत्य जघन्येनान्तर्मुहूर्तम्, एतच तद्भवस्थिताया एव परिणामवशतः प्रतिपातापेक्षया स्यादियापतिः प्रागं, परणधर्मम्य मरणमन्तरेण मर्यस्लोफतयाऽन्येतावन्मात्रकालावस्थानभावात्, तथाहि-काचित्स्त्री तथाविधक्षयोपशमभावतः सर्व- स्थितिः रिति प्रनिपग तारन्मानभगोपशमभावादन्तर्मुदूर्तानन्तरं भूयोऽपि अविरतसम्यग्रष्टित्वं मिथ्यावं वा प्रतिपद्यते इति, अथवा धर्म- सू० ४७ परणमिद देसापरणं प्रतिपत्तव्यं न मर्वचरणं, देशचरणप्रतिपत्तिस्तु जघन्यतोऽप्यान्तर्मुर्तिकी, तस्या भङ्गबहुलत्वात, अयोभयचरणमम्मी किमर्थमिरेशरणं परिगृपने ?, उन्यते, देशचरणपूर्वकं प्राय: सर्वचरणमिति ख्यापनार्थम्, अत एवोक्तं वृद्धः-"सम्ममिटर पलिगपुदरोग मारो हो। चरणोपसमययाणं सागरसंखंतरा होति ॥१॥" एवं "अपरिवडिए"इत्यादि, उत्कर्पतो देशोना कोटी, अपसांत्मरियागरगधर्मप्रामेमर्ष परमान्तर्मुहूर्त यावदप्रतिपतितपरिणामभावात्, पूर्वपरिमाणं चेदम्-"पुष्वस्स उ परिमार्ण मगरि गड दोनि कोडिलस्यानो । छप्पण्णं च सहस्सा योद्धव्वा वामकोडीणं ॥१॥ (७०५६००००००००००) मम्मी भूमिकादिपिशेषम्चीगा किन्यतामाद-अमरगमनिका सुगमा, भावार्थस्त्वयम्-कर्मभूमिकमनुष्यत्रीणां क्षेत्रं कर्मभूमिकामामान्यउभगमपिठच सपन्नोऽन्तर्मुहूर्त मुकर्पतम्पीणि पल्योपमानि, तानि च भरतैरावतेषु सुपममुपमालक्षणेऽरके वेदितव्यानि, धर्मपरामविका उपन्यनोऽन्तर्मुहूर्ननुरुर्षतो देशोना पूर्वकोटी, भावना चान प्रागिव द्रष्टव्या, एवमुत्तरसूत्रद्वयेऽपि ॥ अत्रैव विशे- ॥५५॥ पोमा पास भात। चारिशमोहोपरामपयाणा गागराः नयाता अन्तरं भवति ॥१॥ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जापचिन्तां चिकीर्षुराह-सुगम, नवरं भरतैरावतेषु त्रीणि पल्योपमानि सुषमसुषमायां, पूर्व विदेहेषु क्षेत्रतः पूर्वकोटी, तत ऊर्ध्वं तत्र तथा क्षेत्रस्वाभाव्यादायुषोऽसम्भवात् , अकम्मभूमिगेत्यादि, जन्म प्रतीयेति-अकर्मभूमिपूत्पत्तिमाश्रित्य जघन्यतो देशोनं पल्योपमं, तच्चाष्टभागाद्यनमपि देशोनं भवति ततो विशेषस्थापनायाह-पल्योपमस्यासङ्खयेयभागेनोनं, एतच्च हैमवतहरण्यवतक्षेत्रापेक्षया द्रष्टव्यं तत्र जघन्यतः स्थितेरेतावत्प्रमाणायाः सम्भवात् , उत्कर्षतस्त्रीणि पल्योपमानि, तानि च देवकुरूत्तरकुर्वपेक्षया, 'संहरणं पडुच्चे'त्यादि, संह-1 रणं नाम कर्मभूमिजायाः स्त्रियोऽकर्मभूमिषु नयनं 'तत्प्रतीत्य' तदाश्रित्य जघन्येनान्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटी, इयमत्र भावना -इह कर्मभूमिकाऽप्यकर्मभूमिषु संहृता अकर्मभूमिकेति व्यवहियते, तत्क्षेत्रसम्बन्धभावात् , यथा लोके कश्चिन्मगधादिदेशात्सुराष्ट्रान् प्रति प्रस्थितो गिरिनगरेषु निवासं कल्पयितुकामः सुराष्ट्रपर्यन्तग्रामप्राप्तः सन् समुत्पद्यमानेषु तथाविधेषु प्रयोजनेषु सौराष्ट्र इति व्यवहियते, तद्वधिकृताऽपि, तत्र च संहृता सती काचिदन्तर्मुहूर्त जीवति ततोऽपि वा भूयोऽपि संहियते काचित्पूर्वकोट्यायुष्का IS यावज्जीवमपि तत्रावतिष्ठते ततो जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुक्तमुत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटीति, आह-भरतैरावतान्यपि कर्मभूमौ वर्तन्ते तत्र चैकान्तसुषमादौ त्रीण्यपि पल्योपमानि स्थितिरस्या भवति संहरणं च संभवति तत्कथं देशोना पूर्वकोटी भण्यते ? इति, अत्रोच्यते, कर्मकालविवक्षयाऽभिधानात् , तस्य चैतावन्मात्रलादिति । हैमवतहैरण्यवताकर्मभूमिकमनुष्यत्रीणां जन्मतो जघन्येन देशोनं पल्योपम पल्योपमासङ्खथेयभागेन न्यूनमुत्कर्षतः परिपूर्ण पल्योपमं, संहरणमधिकृत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटी, भावना प्रागिव ।। एवं 'हरिवासरम्मए' इत्याद्यपि सूत्रत्रयं भावनीयं, नवरं हरिवर्षरम्यकयोर्जन्मतो जघन्येन द्वे पल्योपमे पल्योपमासमयेयभागन्यूने उत्कर्षतः परिपूर्णे द्वे पल्योपमे । देवकुरूत्तरकुरुषु जन्मतो जघन्येन त्रीणि पल्योपमानि पल्योपमासङ्खयेयभागहीनानि उ AAATMAMA Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजीवा- त्कर्षत: परिपूर्णानि त्रीणि पल्योपमानि, अन्तरद्वीपेषु जन्मतो जघन्येन देशोनः पल्योपमासद्धयेयभागः, कियता देशेनोनः पल्योपमा- २ प्रतिपत्तौ जीवाभिः सवयेयभाग' इति चेदत आह-पल्योपमासद्धयेयभागेनोनः, किमुक्तं भवति?-उत्कृष्टपल्योपमासपेयभागप्रमाणादायुपो जघन्यमायुः तिर्यक्मलयगि-Cपल्योपमासयभागन्यून, नवरमूनताहेतुः पल्योपमासद्भधेयो भागोऽतीव स्तोको द्रष्टव्यः, संहरणमधिकृत्य सर्वत्रापि जघन्यत उत्क- ६ स्यादिरीयावत्तिः पंतश्च तावदेव प्रमाणम् ॥ सम्प्रति देवस्त्रीवक्तव्यतामाह-अक्षरगमनिका सुगमा तात्पर्यमात्रमुच्यते-देवस्त्रीणां सामान्यतो जघन्यतः स्थितिः स्थितिर्दश वर्षसहस्राणि, तानि च भवनपतिव्यन्तरीरधिकृत्य वेदितव्यानि, उत्कर्पतः पञ्चपञ्चाशत्पल्योपमानि, एतानि चेशानदेवी- सू०४७ ॥५६॥ रधिकृत्य प्रतिपत्तव्यानि । विशेषचिन्तायां भवनवासिदेव्यः सामान्यतो दश वर्षसहस्राणि, उत्कर्पतोऽर्द्धपश्चमानि-सार्द्धानि चत्वारि * पल्योपमानि, एतानि च भवनवासिविशेषासुरकुमारदेवीरधिकृत्य, अत्रापि विशेषचिन्तायामसुरकुमारदेवीनां सामान्यतो जघन्येन ४ दश वर्षसहस्राणि उत्कर्पतोऽर्द्धपञ्चमानि पल्योपमानि, नागकुमारभवनवासिदेघस्त्रीणां जघन्यतो दश वर्षसहस्राणि उत्कर्पतो देशोनं पल्योपमम् , एवं शेषाणां यावत्स्त नितकुमारीणां, व्यन्तरीणां जघन्यतो दश वर्षसहस्राणि उत्कर्षतोऽर्द्ध पल्योपमं, ज्योतिपस्त्रीणां जघन्ये2 नाष्टभागपल्योपममुत्कर्पतोऽर्द्ध पल्योपमं पञ्चाशता वर्षसहस्रैरभ्यधिकम् , अत्रापि विशेषचिन्तायां चन्द्रविमानवासिज्योतिषस्त्रीणां ज-है 8 घन्यतश्चतुर्भागमात्रं पल्योपममुत्कर्पतोऽर्द्धपल्योपमं पञ्चाशता वर्षसहस्रैरधिकं, सूर्यविमानवासिज्योतिष्कदेवीनां जघन्यतश्चतुर्भागमानं पल्योपममुत्कर्पतोऽर्द्धपल्योपमं वर्पशतपञ्चकाभ्यधिकं, ग्रहविमानवासिज्योतिष्कदेवीनां जघन्यतश्चतुर्भागमात्रं पल्योपमं उत्कर्पतोऽर्द्धप ल्योपमं, नक्षत्रविमानज्योतिष्कदेवीनां जघन्यतश्चतुर्थभागमात्रं पल्योपममुत्कर्पतः सातिरेकं चतुर्थभागमात्रं पल्योपमं, ताराविमान* ज्योतिष्कदेवीनां जघन्यतोऽटभागमात्रं पल्योपममुत्कर्पतस्तदेवाष्टभागमात्रं पल्योपमं सातिरेकं । सामान्यतो वैमानिकदेवस्त्रीणां जघन्यत: 8 ॥५६॥ OROADCORRECASCAROSCARRC Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | पल्योपममुत्कर्षतः पञ्चपञ्चाशत्पल्योपमानि, विशेषचिन्तायां सौधर्मकल्पवैमानिकदेवीनां जघन्यतः पल्योपममुत्कर्षतः सप्त पल्योपमानि, अत्रापीदं स्थितिपरिमाणं परिगृहीतदेवीनामवगन्तव्यं, अपरिगृहीतदेवीनां जघन्यतः पल्योपममुत्कर्षतः पञ्चाशत्पल्योपमानि, | ईशानकल्पवैमानिकदेवीनां जघन्यतः सातिरेकं पल्योपममुत्कर्षतो नव पल्योपमानि अत्रापीदं स्थितिपरिमाणं परिगृहीतदेवीनामवगन्तव्यं, अपरिगृहीतदेवीनां जघन्यतः सातिरेकं पल्योपममुत्कर्षतः पञ्चपञ्चाशत्पल्योपमानि, एतच सूत्रं समस्तमपि क्वापि साक्षाद् दृश्यते कचिचैवमतिदेशः "एवं देवीणं ठिई भाणियव्वा जहा पण्णवणाए जाव ईसाणदेवीण" मिति ॥ सम्प्रति स्त्री नैरन्तर्येण स्त्रीत्वममुञ्चन्ती कियन्तं कालमवतिष्ठते ? इति जिज्ञासायां सूत्रकृत्तत्कालापेक्षया ये पञ्चादेशाः प्रवर्त्तन्ते तानुपदर्शयितुमाह prati in ! इत्थति कालतो केवच्चिरं होइ ?, गोयमा ! एक्केणादेसेणं जहन्नेणं एवं समयं उक्कोसं दसुत्तरं पलिओ मसयं पुष्वकोडिपुहुत्तमन्भहियं । एक्केणादेसेणं जहन्नेणं एवं समयं उक्कोसेणं अट्ठारस पलिओ माई पुव्व कोडी पुहुत्तमम्भहियाई । एक्केणादेसेणं जहण्णेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं चउद्दस पलिओ माई पुग्वको डिपुहुत्तमम्भहियाई । एक्केणादेसेणं जह० एक्कं समयं उक्को पलिओवमसयं पुचकोडी पुहुत्तमम्भहियं । एक्केणादेसेणं जहणं एकं समयं उक्को० पलिओमपुहुत्तं पुचकोडी पुहुत्तमम्भहियं ॥ तिरिक्खजोणित्थी णं भंते! तिरिक्खजोणित्थित्ति कालओ केवचिरं होति ?, गोमा ! जहनेणं अंत मुद्दत्तं उक्को सेणं तिन्नि पलिओवमाई पुव्वकोडी पुहुत्तमन्भहियाई, जलयरीए जहणेणं अंतोमुत्तं उक्कोसेणं पुव्वकोडिपुहुत्तं । चउप्पदथलयर तिरिक्खजो० जहा ओहिता ति Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाजीवाभिः नलयगि २प्रतिपत्ती सामान्यविशेषतया स्त्रीवस्थितिः रीयावृत्तिः ॥ ५७॥ सू० ४८ रिक्ख०, उरगपरिसप्पीभुयगपरिसप्पित्थी णं जधा जलयरीणं, खहयरि० जहण्णेणं अंतोमुहतं उको० पलिओवमस्स असंखेजतिभागं पुवकोडिपुटुत्तमभहियं ॥मणुस्सित्थी भंते! कालओ केवचिरं होति?, गोयमा! खेत्तं पडुच जहण्णेणं अंतोमुहुसं उको तिन्नि पलिओवमाई पुव्वको- . डिपुहुत्तमम्भहियाई, धम्मचरणं पडच जह० एक समयं उक्को० देसूणा पुवकोडी, एवं कम्मभूमियावि भरहेरवयावि, णवरं खेत्तं पडुच्च जह. अंतो उक्को० तिन्नि पलिओवमाई देसूणपुव्वकोडीअब्भहियाई, धम्मचरणं पडुच्च जह० एक समयं उदो० देसूणा पुव्वकोडी। पुव्वविदेहअवरविदेहित्थी णं खेत्तं पडुच्च जह० अंतो० उक्को० पुव्वकोडीपुहुत्तं, धम्मचरणं पडुच जह० एक समय उकोसेणं देसूणा पुचकोडी ॥ अकम्मभूमिकमणुस्सित्थी णं भंते! अकम्मभूम० कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा! जम्मणं पडुच जह० देसूर्ण पलिओवमं पलिओवमस्स असंखेज्जतिभागेणं ऊणं उको तिपिण पलिओवमाइं। संहरणं पडुच्च जह• अंतो० उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाइं देसूणाए पुवकोडिए अन्भहियाई। हिमवतेरणवते अकम्मभूमगमणुस्सित्थीणं भंते! हेम० कालतो केवचिरं होइ?, गोयमा जम्मणं पडुच जह० देसूणं पलिओवमं पलिओवमस्स असंखेवतिभागेणं ऊणगं, उक्को० पलिओवमं । साहरणं पहुच जह० अंतोमु० उदो० पलिओवमं देसूणाए पुवकोडीए अभहियं । हरिवासरम्मयअकम्ममूमगमणुस्सिस्थी णं भंते!, जम्मणं पहुच जह. ॐ ॥५७॥ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S00+++MAMA देसूणाई दो पलिओवमाई पलिओवमस्स असंखेज्जतिभागेण ऊणगाई, उक्कों० दो पलिओवमाई। संहरणं पडच जह० अंतोमु० उक्को० दो पलिओवमाई देसूणपुवकोडिमभहियाइं । उत्तरकुरुदेवकुरूणं०, जम्मणं पडच जहन्नेणं देसूणाई तिन्नि पलिओवमाई पलितोवमस्स असंखेजभागेणं ऊणगाइं उक्को तिन्नि पलिओवमाइं । संहरणं पडुच्च जह० अंतोमु० उक्को० तिनि पलिओवमाई देसूणाए पुव्वकोडिए अन्भहियाई । अंतरदीवाकम्मभूमकमणुस्सित्थी?, २ जम्मणं पड्डुच्च जहरू देसूर्ण पलिओवमस्स असंखेजतिभागं पलिओवमस्स असंखेजतिभागेण ऊणं उक्को० पलिओवमस्स असंखेजतिभागं । साहरणं पडुच्च जह० अंतोमु० उक्को० पलिओवमस्स असंखेजतिभागं देसूणाए पुव्वकोडीए अन्भहियं ॥ देवित्थी णं भंते! देवित्थित्ति काल०, जच्चेव संचिट्ठणा॥ (सू०४८) __ एकेनादेशेन जघन्यत एकं समयं यावदवस्थानमुत्कर्षतो दशोत्तरं पल्योपमशतं पूर्वकोटीपृथक्त्वाभ्यधिकम् , एकसमयं कथम् ? इति चेदुच्यते-काचिद् युवतिरुपशमश्रेण्यां वेदत्रयोपशमनादवेदकत्वमनुभूय ततः श्रेणेः प्रतिपतन्ती स्त्रीवेदोदयमेकं समयमनुभवति, ततो द्वितीये समये कालं कृत्वा देवेषुत्पद्यते तत्र च तस्याः पुंस्त्वमेव न स्त्रीलं, तत एवं जघन्यत: स्त्रीत्वं समयमात्रं. सम्प्रति पूर्वकोटिपृथक्त्वाभ्यधिकदशोत्तरपल्योपमशतभावना क्रियते-कश्चिज्जन्तु रीषु तिरश्चीपु वा पूर्वकोट्यायुष्कासु मध्ये पश्वषान् भवाननुभूय ईशाने कल्पे पञ्चपञ्चाशत्पल्योपमप्रमाणोत्कृष्टायुष्काखपरिगृहीतदेवीषु मध्ये देवीत्वेनोत्पद्यते ततः वायु: +SAMROSAGARANG Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजीवा- क्षये तस्मात्स्थानाद् भूयोऽपि नारीषु तिरश्चीपु वा मध्ये पूर्वकोट्यायुष्षुरुत्पन्नस्ततो भूयो द्वितीयं वारमीशानदेवलोके पञ्चपञ्चाशत्पल्यो-१२प्रतिपसौ जीवाभि०६ पमप्रमाणोत्कृष्टायुष्कास्वपरिगृहीतदेवीपु मध्ये देवीत्वेनोपजातस्ततः परमवश्यं वेदान्तरमवगच्छति, एवं दशोत्तरं पल्योपमशतं पूर्वको-; सामान्यमलयगि- टिपृथक्त्वाभ्यधिकं प्राप्यते, अत्र पर आह-ननु यदि देवकुरूत्तरकुर्वादिपु पल्योपमत्रयस्थितिकासु स्त्रीषु मध्ये समुत्पद्यते ततोऽधि- विशेषतरीयावृत्तिः काऽपि स्त्रीवेदस्यावस्थितिलभ्यते, ततः किमित्येतावदेवोपदिष्टा', तद्युक्तम् , अभिप्रायापरिज्ञानात् , तथाहि-न तावदेवीभ्ययुत्लाऽसहये- या स्त्रीत्व यवर्षायुष्कासु स्त्रीषु मध्ये स्त्रीलेनोत्पद्यते, देवयोनेञ्युतानामसयेयवर्पायुष्केपु मध्ये उत्पादप्रतिषेधात्, नाप्यसङ्ख्येयवर्षायुष्का सती स्थितिः ॥५८॥ 2 उत्कृष्टायुष्कासु देवीषु जायते, यत उक्तं प्रज्ञापनामूलटीकायाम्-"जतो असंखेजवासाउया उक्कोसियं ठिई न पावेई" इति, ततो सू०४८ यथोक्तप्रमाणैव स्त्रीवेदस्योत्कृष्टाऽवस्थितिरवाप्यते । द्वितीयेनादेशेन जघन्यत एक समयमुत्कृष्टतोऽष्टादश पल्योपमानि पूर्वकोटिपृथक्त्वाभ्यधिकानि, तत्र समयभावना सर्वत्रापि प्राग्वत् , अष्टादश पल्योपमानि पूर्वकोटिपृथक्त्वाभ्यधिकानि एवं-नारीपु तिरश्चीपु वा पूर्वकोटीप्रमाणायुष्कासु मध्ये कश्चिजन्तुः पञ्चपान् भवाननुभूय पूर्वप्रकारेणेशानदेवलोके वारद्वयमुत्कृष्टस्थितिकासु देवीषु मध्ये समुत्पद्यमानो नियमतः परिगृहीतारखेवोत्पद्यते नापरिगृहीतासु, तत एवं द्वितीयादेशवादिमतेन स्त्रीवेदस्योत्कृष्टमवस्थानमष्टादश पल्योपमानि पूर्वकोटिपृथक्वं च । तृतीयेनादेशेन जघन्यत एकं समयमुत्कर्पतश्चतुर्दश पल्योपमानि पूर्वकोटिपृथक्त्वाभ्यधिकानि, तानि चैवं-पूर्वप्रकारेण सौधर्मदेवलोके परिगृहीतदेवीषु सप्तपल्योपमप्रमाणोत्कृष्टायुष्कासु मध्ये वारद्वयं समुत्पद्यते तत्र(त) एवं तृतीयादेशवादिमतेन स्त्रीवेदस्योत्कृष्टमवस्थानं चतुर्दश पल्योपमानि पूर्वकोटिपृथक्त्वं च । चतुर्थेनादेशेन जघन्यत एक समयमुत्कर्पतः पल्योपमशतं पूर्वकोटिपृथक्त्वाभ्यधिक, कथम् ? इति चेदुच्यते, नारीषु तिरश्वीषु वा पूर्वकोट्यायुष्कासु पञ्चपान् भवाननुभूय पूर्वप्रकारेण सौधर्मदेवलोके SCANNECHAUBE Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चाशत्पल्योपमप्रमाणोत्कृष्टायुष्कास्वपरिगृहीतदेवीषु मध्ये देवीवेनोत्पद्यते, तत एवं चतुर्थादेशवादिमतेन पल्योपमशतं पूर्वकोटिपृथ- क्वाभ्यधिकं भवति । पञ्चमेनादेशेन जघन्यत एक समयमुत्कर्षतः पल्योपमपृथक्त्वं पूर्वकोटिपृथक्त्वाभ्यधिकं, तञ्चैवं-नारीष तिरश्चीष वा पूर्वकोट्यायुष्कासु मध्ये सप्त भवाननुभूयाष्टमभवे देवकुर्वादिषु त्रिपल्योपमस्थितिकासु स्त्रीषु मध्ये स्त्रीत्वेन समुत्पद्यते, ततो मृत्वा सौधर्मदेवलोके जघन्यस्थितिकासु देवीषु मध्ये देवीवेनोपजायते, तदनन्तरं चावश्यं वेदान्तरमधिगच्छति, ततः पञ्चमादेशवादिमतेन स्त्रीवेदस्यावस्थानं पूर्वकोटिपृथक्त्वाभ्यधिक पल्योपमपृथक्वं, ते ह्येवमाहुर्नानाभवप्रमाणद्वारे-यदि स्त्रीवेदस्योत्कृष्टमवस्थानं चिन्त्यते तत इत्थमेतावदेव लभ्यते, नाधिकमन्यथा चेति । अमीषां च पञ्चानामादेशानामन्यतमादेशसमीचीनतानिर्णयोऽतिशयज्ञानिभिः सर्वोत्कृष्टश्रुतलब्धिसंपन्नैर्वा कर्तुं शक्यते, ते च सूत्रकृत्प्रतिपत्तिकाले नासीरन्निति सूत्रकृन्न निर्णयं कृतवानिति । तदेवं सामान्यतः स्त्री स्त्रीत्वं नैरन्तर्येणामुञ्चन्ती यावन्तं कालमवतिष्ठते तावत्कालप्रमाणमुक्तम् ॥ इदानी तिर्यकत्रियास्तिर्यकत्रीत्वमजहत्याः कालमानं विचिन्तयिषुरिदमाह-'तिरिक्खजोणिइत्थिए णं भंते !, इत्यादि, तिर्यक्सी णमिति वाक्यालङ्कारे भदन्त ! तिर्यस्त्रीति कालतः कियश्चिरं भवति ?, भगवानाह-गौतम! जघन्येनान्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतस्त्रीणि पल्योपमानि पूर्वकोटिपृथक्त्वाभ्यधिकानि, तत्रान्तर्मुहूर्त कस्याश्चित्तावत्प्रमाणायुकतया तदनन्तरं मृत्वा वेदान्तराधिगमाद्विलक्षणमनुष्यभवान्तराधिगमावा, कथमुत्कर्षतस्त्रीणि पल्योपमानि पूर्वकाटीपृथक्त्वाभ्यधिकानि? इति चेदुच्यते-इह नराणां तिरश्चां चोत्कर्षतोऽष्टौ भवाः प्राप्यन्ते नाधिकाः, "नरतिरियाणं सत्तट्ठभवा" इति वचनात् , तत्र | सप्त भवाः सहयेयवर्षायुषोऽष्टमस्त्वसङ्ख्येयवर्षायुरेव, तथाहि-पर्याप्तमनुष्याः पर्याप्तसज्ञिपञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चो वा निरन्तरं यथासयं सप्त पर्याप्तमनुष्यभवान् सप्त पर्याप्तसज्ञिपञ्चेन्द्रियतिर्यग्भवान् वाऽनुभूय यद्यष्टमे भवे भूयः पर्याप्तमनुष्याः पर्याप्तसज्ञिपञ्चेन्द्रियति more-25%25A Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ } श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥ ५९ ॥ येभ्यो वा समुत्पद्यन्ते ततो नियमादसयवर्षायुप एव न सयवर्षायुप:, असह्येयवर्णयुपश्च मृत्वा नियमतो देवलोकेषूत्पद्यन्ते, ततो नवमोऽपि मनुष्यभवः सञ्ज्ञिपञ्चेन्द्रियतिर्यग्भवो वा निरन्तरं न लभ्यते, अत एव च पाश्चात्याः सप्त भवा निरन्तरं भवन्तः सत्येयवर्षायुप एवोपपद्यन्ते नैकोऽप्यसवेयवर्षायुः, असङ्ख्येयवर्षायुर्भवानन्तरं भूयो मनुष्यभवस्य तिर्यग्भवस्य वाऽसम्भवात्, तत्र यदा उत्कर्षतस्तिर्यक्लीवेदसहिताः पाश्चात्याः सप्तापि भवा पूर्वकोट्यायुषो लभ्यन्ते अष्टमस्तु भवो देवकुर्वादिपु तदा भवन्त्युत्कर्पतस्त्रीणि पल्योपमानि पूर्वकोटिपृथक्त्वाभ्यधिकानि तिर्यक्लीत्वस्यावस्थानम् । अत्रैव विशेषचिन्तां चिकीर्षुराह - 'जलयरीए' इत्यादि, जलचर्या: स्त्रिया जलचरस्त्रीत्वेन निरन्तरं भवन्त्या जघन्यतोऽवस्थानमन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्पतः पूर्वकोटिपृथक्लं, सप्तपूर्वकोट्यायुर्भवानन्तरं जलचरस्त्रीणामवश्यं जलचरस्त्रीत्वच्युतिभावात्, 'चउप्पयथलयरीए जहा ओहियाए' इति, चतुष्पदस्थलचरस्त्रिया यथा औधिक्यास्तिर्यक्त्रया उक्तं तथा द्रष्टव्यं तत्रैवम् - जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्त तत ऊर्ध्वं तद्भावपरित्यागसम्भवात् उत्कर्षतस्त्रीणि पल्योपमानि पूर्वकोटिपृथक्त्वाभ्यधिकानि तानि च प्रागिव भावनीयानि । उरः परिसर्पस्थलचरलिया भुजपरिसर्पस्थलचरस्त्रियाश्च यथा जलचरखियास्तथा वक्तव्यं, तञ्चैवं-जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतः पूर्वकोटिपृथक्त्वं तच पूर्ववद्भावनीयम् । खचरत्रिया जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्पतः पत्योपमासयेयभागः पूर्वकोटिपृथक्त्वाभ्यधिक उत्कर्षतोऽवस्थानमिति । तदेवमुक्तं तिर्थस्त्रियाः सामान्यतो विशेषतश्च अवस्थानमानं, सम्प्रति मनुष्यस्त्रिया आह- 'मणुस्सित्थियाए' इत्यादि, मनुष्य स्त्रियाः सामान्यतो यथा औधिक्यास्तिर्यस्त्रियाः, तत्रैवं - जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतस्त्रीणि पल्योपमानि पूर्वकोटिपृथक्त्वाभ्यधिकानि तानि च सामान्यतस्तिर्यक्त्रीवद्भावनीयानि । कर्मभूमकमनुष्य स्त्रियः क्षेत्रं प्रतीत्य सामान्यतः कर्मक्षेत्रमधिकृत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्त, ततः ऊर्ध्वं तद्भावपरित्यागसम्भवात्, उत्कर्पतस्त्रीणि पस्योपमानि पूर्वकोटिपृथक्त्वा २ प्रतिपत्ती सामान्यविशेषत या स्त्रीत्व स्थितिः सू० ४८ ॥ ५९ ॥ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ्यधिकानि, तत्र सप्त भवा महाविदेहेषु अष्टमो भवो भरतैरावतेष्वेकान्तसुषमादौ त्रिपल्योपमप्रमाण इति, 'धर्मचरणं प्रतीत्य' चारित्रासेवनमाश्रित्य जघन्येनै समयं, सर्वविरतिपरिणामस्य तदावरणकर्मक्षयोपशमवैचित्र्यतः समयमेकं सम्भवातू, तत ऊच मरणतः प्रतिपातभावात् , उत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटी, समग्रचरणकालस्योत्कर्पतोऽप्येतावन्मानप्रमाणत्वात् । भरतैरावतकर्मभूमकमनुष्यस्त्रियाः स्त्रीत्वं क्षेत्रं प्रतीत्य' भरतायेवाश्रित्य जघन्येनान्तर्मुहूर्त तच प्राग्वद्भावनीयम् , उत्कर्षतस्त्रीणि पल्योपमानि देशोनया पूर्वकोट्याऽभ्यधिकानि, तानि चैवं-पूर्वविदेहमनुष्यस्त्री अपरविदेहमनुष्यस्त्री वा पूर्वकोट्यायुष्का केनापि भरतादावेकान्तसुषमादौ 'संहता, सा च यद्यपि महाविदेहक्षेत्रोत्पन्ना तथाऽपि प्रागुक्तमागधपुरुषदृष्टान्तवलेन भारत्यैरावतीया वेति व्यपदिश्यते, ततः सा भारत्यादिव्यपदेशं प्राप्ता पूर्वकोटिं जीवित्वा स्वायुःक्षयतस्तत्रैव भरतादावेकान्तसुषमाप्रारम्भे समुत्पन्ना, तत एवं देशोनपूर्वकोट्यभ्यधिकं पल्यो|पमत्रयमिति । धर्मचरणं प्रतीत्य कर्मभूमिजस्त्रिया इव भावनीयं, जघन्यत एक समयमुत्कर्पतो देशोनां पूर्वकोटी यावत्', पूर्व विदेहापरविदेहकर्मभूमिजमनुष्यस्त्रियास्तु क्षेत्रमधिकृत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त, तच्च सुप्रतीतं, प्राग्भावितत्वात् , उत्कर्षतः पूर्वकोटिपृथक्त्वं, तत्रैव | भूय उत्पत्त्या, धर्मचरणं प्रतीत्य समागतकर्मभूमिजस्त्रिया इव वक्तव्यं, जघन्यत एक समयमुत्कर्पतो देशोनां पूर्वकोटिं यावदिति । भावार्थः ॥ उक्ता सामान्यतो विशेषतश्च कर्मभूमिकमनुष्यत्रीवक्तव्यता, साम्प्रतमकर्मभूमकमनुष्यस्त्रीवक्तव्यतां चिकीर्षुः प्रथमत: सामा-14 न्येनाह-'अकम्मभूमिगमणुस्सित्थी णं भंते !' इत्यादि, अकर्मभूमकमनुष्यत्री, णमिति वाक्यालङ्कारे, अकर्मभूमिकमनुष्यनीति कालतः कियश्चिरं भवति ?, भगवानाह-गौतम ! 'जन्म' तत्रैव सम्भूतिलक्षणं 'प्रतीत्य' आश्रित्य जघन्येन पल्योपमं देशोनं, अष्टभागाघूनमपि देशोनं भवति ततो विशेषस्थापनायाह-पल्योपमस्यासङ्ख्येयभागोनं जघन्यतः उत्कर्षतस्त्रीणि पल्योपमानि, संहरणं प्रतीत्य Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीजीवा-16 जघन्यतोऽन्तर्मुहर्तमन्तर्मुहूर्त्तायुःशेषायाः संहृतिभावात् , उत्कर्षेण त्रीणि पल्योपमानि देशोनया पूर्वकोट्याऽभ्यधिकानि, कथम् ? इति पूर्वकोट्याऽभ्यधिकानि, कथम् ? इति ४२प्रतिपत्तो जीवाभि चेदुच्यते-काचित्पूर्व विदेहमनुष्यत्री अपरविदेहमनुष्यस्त्री वा देशोनपूर्वकोट्यायुःसमन्विता देवकुर्वादी संहृता, सा च पूर्वदृष्टान्तवलेन । सामान्यमलयगि- 18 देवकुर्वादिका जाता, ततः सा देशोनां पूर्वकोटिं जीविला मृत्वा च तत्रैव निपल्योपमायुष्का समजनि, तत एवं देशोनपूर्वकोट्यधिक विशेषतरीयावत्तिःाट पल्योपमत्रयमिति, अनेन संहरणतो जघन्योत्कृष्टावस्थानकालमानप्रदर्शनेन न्यूनान्तर्मुहूर्त्तायु:शेपाया गर्भस्त्रिया वा न संहरणमिति या स्त्रीत्व प्रतिपादितम् , अन्यथा जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षचिन्तायां पूर्वकोट्या देशोनता न स्यादिति । अकर्मभूमिकमनुष्यत्रीविपयामेव विशेप- स्थितिः ॥६०॥ चिन्तां करोति-हेमवयेत्यादि, हैमवतैरण्यवतरिवर्षरम्यकवर्पदेवकुरूत्तरकुर्वन्तरद्वीपिकाणां जन्म प्रतीत्य या यस्याः स्थितिस्ततस्तस्या सू० ४८ अवस्थानं वाच्यं, संहरणं प्रतीत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्पतो या यस्या उत्कष्टा स्थितिः सा तस्या देशोनया पूर्वकोट्याऽभ्यधिका व क्तव्या, सा चैवं-हैमवतैरण्यवतयोर्मनुष्यस्त्री जन्म प्रतीत्य जघन्येन पल्योपमं पल्योपमासद्धयेयभागन्यूनम् , उत्कर्पतः परिपूर्ण पल्यो8 पर्म, संहरणमधिकृत्य जघन्येनान्तर्मुहूर्त्तम् , अन्तर्मुहूर्त्तायुःशेषाया एव संहरणभावात् , उत्कर्पतः पल्योपमं देशोनया पूर्वकोट्याऽभ्य धिकं, तच्च देशोनपूर्वकोट्यायुःसमन्वितायास्तत्र संहरणे तत्रैव च मृत्वोत्पन्नाया भावनीयम् । हरिवर्षरम्यकयोर्जन्म प्रतीत्य जघन्येन २ पल्योपमासङ्खयेयभागन्यूने द्वे पल्योपमे, उत्कर्षतः परिपूर्णे द्वे पल्योपमे । संहरणं प्रतीय जघन्येनान्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्पतो देशोनया पूर्वको ट्याऽभ्यधिके द्वे पल्योपमे, भावना प्रागिव । देवकुरूत्तरकुरुपु जन्म प्रतीय जघन्यतः पल्योपमासंख्येयभागन्यूनानि त्रीणि पल्योपमानि, उत्कर्षतस्त्रीणि पल्योपमानि । संहरणं प्रतीत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्पतस्त्रीणि पल्योपमानि देशोनया पूर्वकोट्याऽभ्यधिकानि। ॥६ ॥ २ अन्तरद्वीपेषु जन्म प्रतीत्य जघन्यत: पल्योपमासङ्ख्येयभागन्यूनं पल्योपमासद्धयेयभागं यावत् उत्कर्पत: पल्योपमासङ्ख्येयभागम् , Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एतावत्प्रमाणस्य तत्र जघन्यत उत्कर्षतश्च मनुष्याणामायुषः सम्भवात् , मरणानन्तरं च देवयोनावुत्पादात् । संहरणमधिकृत्य जघन्येनान्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतो देशोनया पूर्वकोट्याऽभ्यधिकं पल्योपमासङ्ख्थेयभागं यावत् , भावनाऽत्र प्रागिव ॥ उक्ता सामस्त्येन मनुष्यत्री-1 वक्तव्यता, सम्प्रति देवस्त्रीवक्तव्यतामाह-देवित्थीण'मित्यादि, देवीनां तथाभवस्वभावतया कायस्थितेरसम्भवात् यैव प्राक् सामान्यतो विशेपतश्च भवस्थितिरुक्ता 'सेव संचिटणा भाणियव्वा' तदेवावस्थानं वक्तव्यम् , अभिलापश्च 'देवित्थी णं भंते! देविस्थीति कालतो केवच्चिरं होइ?' इत्यादिरूपः सुधिया परिभावनीयः॥ तदेवमुक्तं सामान्यतो विशेपतश्च स्त्रीत्वस्यावस्थानकालमानम, इदानीमन्तरद्वारमाह इत्थीणं भंते! केवतियं कालं अंतरं होति?, गोयमा! जह० अंतोमु० उक्को० अणंतं कालं, वणस्सतिकालो, एवं सव्वासिं तिरिक्खित्थीणं । मणुस्सित्थीए खेत्तं पडुच्च जह० अंतो० उक्को० वणस्सतिकालो, धम्मचरणं पड़च्च जह० एवं समयं उक्को० अणंतं कालं जाव अवड़पोग्गलपरिय देसूणं, एवं जाव पुवविदेहअवरविदेहियाओ, अकम्मभूमगमणुस्सित्थीणं भंते! केवतियं कालं अंतरं होति?, गोयमा! जम्मणं पडुच जहन्नं दसवाससहस्साइं अंतोमुहुत्तमभहियाई, · उक्को० वणस्सतिकालो, संहरणं पडुच्च जह. अंतोमु० उक्को० वणस्सतिकालो, एवं जाव अंतरदी वियाओ । देवित्थियाणं सव्वासिं जह० अंतो० उक्को० वणस्सतिकालो॥ (सू०४९) स्त्रिया भदन्त । अन्तरं कालतः कियश्चिरं भवति ?, स्त्री भूत्वा स्त्रीत्वाद् भ्रष्टा सती पुनः कियता कालेन स्त्री भवतीत्यर्थः, एवं - Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजीवा- गौतमेन प्रश्ने कृते सति भगवानाह-गौतम जघन्येनान्तर्मुहूर्त, कथमिति चेदुच्यते-इह काचित्नी स्त्रीलान्मरणेन च्युत्वा भवान्तरे (२प्रतिपत्ती जीवाभि. पुरुपवेदं नपुंसकवेदं वाऽन्तर्मुहूर्तमनुभूय ततो मृत्वा भूयः स्त्रीलेनोत्पद्यते तत एव जघन्यतोऽन्तरमन्तर्मुहूर्त भवति, उत्कर्षतो वनस्पमलयगि-5 तिकालः-असद्धयेयपुद्गलपरावर्ताख्यो वक्तव्यः, तावता कालेनामुक्तौ सत्यां नियोगतः स्त्रीत्वयोगात् , स च वनस्पतिकाल एवं वक्तव्यः । न्तरं रीयावृत्तिः -"अणंताओ उस्सप्पिणीओसप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ अणंता लोगा, असंखेजा पोग्गलपरियट्टा, ते णं पोग्गलपरियट्टा आव- सू० ४९ लियाए असंखेजइभागो” इति, एवमौघिकतिर्यस्त्रीणां जलचरस्थलचरखचरस्त्रीणामौधिकमनुष्यत्रीणां च जघन्यत उत्कर्षतश्चान्तरं । ॥६१॥ 5 वक्तव्यम् , अभिलापोऽपि सुगमत्वात्स्वयं परिभावनीयः । कर्मभूमिकमनुष्यस्त्रियाः क्षेत्रं-कर्मभूमिक्षेत्रं प्रतीत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्ष-3 तोऽनन्तं कालं वनस्पतिकालप्रमाणं यावत् , धर्मचरणं प्रतीत्य जघन्येनैकं समयं, सर्वजघन्यस्य समयत्वात् , उत्कर्षेणानन्तं कालं, देशोनम पार्द्ध पुद्गलपरावत यावत् , नातो ह्यधिकतरश्चरणलब्धिपातकालः, संपूर्णस्याप्यपार्द्धपुद्गलपरावर्त्तस्य दर्शनलब्धिपातकालस्य तत्र तत्र 5 प्रदेशे प्रतिषेधात् । एवं भरतैरावतमनुष्यस्त्रियाः पूर्वविदेहापरविदेहस्त्रियाश्च क्षेत्रतो धर्मचरणं चाश्रित्य वक्तव्यम् । अकर्मभूमकमनुष्य| स्त्रिया जन्म प्रतीत्यान्तरं जघन्येन दश वर्षसहस्राण्यन्तर्मुहूर्ताभ्यधिकानि, कथमिति चेदुच्यते-इह काचिदकर्मभूमिका स्त्री मृत्लाई जघन्यस्थितिपु देवेपूत्पन्ना, तत्र दश वर्षसहस्राण्यायुः परिपाल्य तत्क्षये च्युत्वा कर्मभूमिपु मनुष्यपुरुषलेन मनुष्यत्रीवेन वोत्पद्यते, 8 देवेभ्योऽनन्तरमकर्मभूमिपूत्पादाभावात् , अन्तर्मुहूर्तेन मृत्वा भूयोऽप्यकर्मभूमिजस्त्रीत्वेन जायत इति भवन्ति जघन्यतो दश वर्षस हस्राण्यन्तर्मुहूर्ताभ्यधिकानि, उत्कर्षतो वनस्पतिकालोऽन्तरं, संहरणं प्रतीय जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तम् , अकर्मभूमिजस्त्रियाः कर्मभू-र मिषु संहृत्य तावता कालेन तथाविधबुद्धिपरावृत्त्या भूयस्तत्रैव नयनात् , उत्कर्षतो वनस्पतिकालोऽन्तरं, तावता कालेन कर्मभूम्यु Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छात्पत्तिवत् संहरणस्यापि नियोगतो भावात् , तथाहि-काचिदकर्मभूमिका कर्मभूमौ संहृता, सा च खायुःक्षयानन्तरमनन्तकालं वन सत्यादिपु संसृत्य भूयोऽप्यकर्मभूमौ समुत्पन्ना तत: केनापि संहृतेति यथोक्तं संहरणस्योत्कृष्टकालमानम् । एवं हैमवतहरण्यवतहरिवर्षरम्यकवर्षदेवकुरूत्तरकुर्वन्तरभूमिकानामपि जन्मतः संहरणतश्च प्रत्येकं जघन्यमुत्कृष्टं चान्तरं वक्तव्यम्, सुत्रपाठोऽपि सुगमत्वास्वयं परिभावनीयः ॥ सम्प्रति देवस्त्रीणामन्तरप्रतिपादनार्थमाह-देवित्थियाणं भंते !' इत्यादि, देवस्त्रिया भदन्त ! अन्तरं कालत: कियच्चिरं भवति ?, भगवानाह-गौतम | जघन्येनान्तर्मुहूर्त, कस्याश्चिद्देव स्त्रिया देवीभवाच्युताया गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्येपूत्पद्य पर्याप्तिपरिसमाप्तिसमनन्तरं तथाऽध्यवसायमरणेन पुनर्देवीवेनोत्पत्तिसम्भवात् , उत्कर्षतो वनस्पतिकालः, स च सुप्रतीत एव । एवमसुरकुमारदेव्या आरभ्य यावदीशानदेवस्त्रियामुत्कृष्टमन्तरं वक्तव्यं, पाठोऽपि सुगमत्वात्स्वयं परिभावनीयः ॥ सम्प्रत्यल्पबहुलं वक्तव्यं, तानि च पञ्च, तद्यथा-प्रथमं सामान्येनाल्पवहुत्वं विशेषचिन्तायां द्वितीयं त्रिविधतिर्यक्स्रीणां तृतीयं त्रिविधमनुष्यस्त्रीणां चतुर्थ चतुर्विधदेवस्त्रीणां पञ्चमं मिश्रस्त्रीणां, तत्र प्रथममल्पवहुत्वमभिधित्सुराह एतासि णं भंते ! तिरिक्खजोणित्थियाणं मणुस्सित्थियाणं देवित्थियाणं कतरा २ हिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा?, गोयमा! सव्वत्थोवा मणुस्सित्थियाओ तिरिक्खजोणित्थियाओ असंखेजगुणाओ देवित्थियाओ असंखिजगुणाओ॥ एतासि णं भंते! तिरिक्खजोणित्थियाणं जलयरीणं थलयरीणं खयरीण य कतरा २ हिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा?, गोयमा! सव्वत्थोवाओ खहयरतिरिक्खजोणित्थियाओ थलयरतिरिक्ख Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजीवाजीवाभि.8 मलयगिरीयावृत्तिः २प्रतिपत्ती स्त्रीणामल्पवहुत्वं सू० ५० ॥ १२॥ जोणित्थियाओ संखेजगुणाओ जलयरतिरिक्ख० संखेजगुणाओ॥ एतासिणंभंते! मणुस्सित्थीणं कम्मभूमियाणं अकम्मभूमियाणं अंतरदीवियाण य कतरा २ हिंतो अप्पा वा ४१,गोयमा! सब्वत्थोवाओअंतरदीवग़अकम्मभूमगमणुस्सिन्धियाओदेवकुरूत्तरकुरुअकम्मभूमगमणुस्सित्थियाओ दोवि तुल्लाओ संखेजगु०, हरिवासरम्मयवासअकम्मभूमगमणुस्सित्थियाओ दोवि. तुल्लाओ संखेजगु०, हेमवतेरण्णवासअकम्मभूमिगमणुस्सित्थियाओ दोवि तुल्लाओ संखिजगु०, भरतेरवतवासकम्मभूमगमणुस्सि० दोवि तुल्लाओ संखिजगुणाओ, पुवविदेहअवरनिदेहकम्मभूमगमणुस्सित्थियाओ दोवि तुल्लाओ संखेजगुणाओ॥ एतासिणं भंते ! देवित्थियाणं भवणवासीणं वाणमंतरीणं जोइसिणीणं वेमाणिणीण य कयरा २ हिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा?, गोयमा! सब्वत्थोवाओ वेमाणियदेवित्थियाओ भवणवासिदेवित्थियाओ असंखेजगुणाओ वाणमंतरदेवीयाओ असंखेजगुणाओ जोतिसियदेवित्थियाओ संखेजगुणाओ ॥ एतासि णं भंते ! तिरिक्खजोणित्थियाणंजलयरीणंथलयरीणं खयरीणं मणुस्सित्थीयाणं कम्मभूमियाणं अकम्मभूमियाणं अंतरदीवियाणं देवित्थीणं भवणवासियाणं वाणमंतरीणं जोतिसियाणं वेमाणिणीण य कयराओ२ हिंतो अप्पा वा बहुआवा तुल्ला वा विसे०?, गोयमा! सव्वत्थोवा अंतरदीवगअकम्मभ्मगमणुस्सित्थियाओ देवकुरुउत्तरकुरुअकम्मभूमगमणुस्सित्थियाओ दोवि संखे Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S tacks अगुणाओ, हरिवासरम्मगवासअकम्मभूमगमणुस्सिस्थियाओ दोऽवि संखेजगुरु, हेमवतेरण्णवयवासअकम्मभूमग० दोऽवि संखेनगु०, भरहेरवतवासकम्मभूमगमणुस्सित्थीओ दोऽपि तुल्लाओ संखेजगु०, पुव्वविदेहअवरविदेहवासकम्मभूमगमणुस्सित्यि० दोऽवि संखेजगुरु, आमाणियदेवित्थियाओ असंखेनगु०, भवणयासिदेवित्थियाओ असंखेनगु०, खहयरतिरिक्खजोणित्थियाओ असंखेजगु०, थलयरतिरिक्खजोणित्थियाउ संखिजगुरु, जलयरतिरिक्खजोणिस्थियाओ संखेजगुणाओ, वाणमंतरदेवित्थियाओ संखेनगुणाओ जोइसियदेवित्थियाओ संखेनगु__णाओ॥ (सू०५०) ___ सर्वस्तोका मनुष्यस्त्रियः, सलयातकोटाकोटीप्रमाणत्यात् , ताभ्यस्तिर्यग्योनिकलियोऽसत्येयगुणाः, प्रतिद्वीपं प्रतिसमुद्र तिर्यकत्री|णामतिबद्धतया सम्भवात्, द्वीपसमुद्राणां चासहधेयत्वात् , ताभ्योऽपि देव स्त्रियोऽसल्येयगुणाः, भवनवासिव्यन्तरज्योतिष्कसौधर्मेशानदेवीनां प्रत्येकमसलयेयश्रेण्याकाशप्रदेशराशिप्रमाणलात् । द्वितीयमल्पबदुलमाह-सर्वतोकाः खचरतिर्यग्योनिकलियः, ताभ्यः स्थलचरतिर्यग्योनिकलियः सङ्ख्येयगुणाः, खचरेभ्यः स्थलचराणां स्वभावत एव प्राचुर्येण भावात् , ताभ्यो जलचरत्रियः सोयगुणाः, लवणे कालोदे स्वयम्भूरमणे च समुद्रे मत्स्यानामतिप्राचुर्येण भावात् , स्वयम्भूरमणसमुद्रस्य च शेपसमस्तद्वीपसमुद्रापेक्षयाऽतिप्रभूतवात् ॥ उक्तं द्वितीयमल्पबहुत्वम् , अधुना तृतीयमाह-सर्वस्तोका अन्तरद्वीपकाकर्मभूमिकमनुष्यस्त्रियः, क्षेत्रस्याल्पत्यात् , ताभ्यो| देवकुरूत्तरकुरुस्त्रियः सङ्ग्येयगुणाः, क्षेत्रस्य सङ्ख्येयगुणत्वात् , स्वस्थाने तु दुय्योऽपि परस्परं तुल्याः, समानप्रमाणक्षेत्रत्वात् , ताभ्यो Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥ ६३ ॥ हरिवर्षरम्यकवर्णाकर्मभूमकमनुष्यस्त्रियः सङ्ख्येयगुणाः, देवकुरूत्तरकुरुक्षेत्रापेक्षया हरिवर्परम्यकक्षेत्रस्यातिप्रचुरत्वात्, स्वस्थानेऽपि द्वय्योऽपि परस्परं तुल्याः, क्षेत्रस्य समानत्वात्, ताभ्योऽपि हैमवतैरण्यवताकर्मभूमकमनुष्यस्त्रियः सोयगुणाः, क्षेत्रस्याल्पत्वेऽप्यल्पस्थितिकतया बहूनां तत्र तासां सम्भवात् स्वस्थाने तु द्वय्योऽपि परस्परं तुल्याः, ताभ्योऽपि भरतैरावतकर्मभूमिकमनुष्य स्त्रियः सङ्घयेयगुणा, कर्मभूमितया स्वभावत एव तत्र प्राचुर्येण सम्भवात् स्वस्थाने तु द्वय्योऽपि परस्परं तुल्याः, ताभ्योऽपि पूर्वविदेहापरविदेहकर्मभूमकमनुष्यस्त्रियः सङ्ख्येयगुणाः, क्षेत्रबाहुल्यादजितस्वामिकाल इव च स्वभावत एव तत्र प्राचुर्येण भावात्, स्वस्थाने तु - य्योऽपि परस्परं तुल्याः ॥ उक्तं तृतीयमल्पबहुत्वम् अधुना चतुर्थमाह- सर्वस्तोका वैमानिकदेवस्त्रियः अङ्गुलमात्रक्षेत्र प्रदेशराशेर्यद् द्वितीयं वर्गमूलं तस्मिन् तृतीयेन वर्गमूलेन गुणिते यावत्प्र ( वान् प्र ) देशराशिस्तावत्प्रमाणासु घनीकृतस्य लोकस्यैकप्रादेशिकीपु श्रेणिषु यावन्तो नभःप्रदेशा द्वात्रिंशत्तमभागहीनास्तावत्प्रमाणत्वात्प्रत्येकं सौधर्मेशानदेवस्त्रीणां ताभ्यो भवनवासिदेवस्त्रियोऽसयेयगुणाः अङ्गुलमात्रक्षेत्रप्रदेशराशेर्यत्प्रथमं वर्गमूलं तस्मिन् द्वितीयेन वर्गमूलेन गुणिते यावान् प्रदेशराशिस्तावत्प्रमाणासु श्रेणिषु यावान् प्रदेशराशिद्वात्रिंशत्तमभागहीनस्तावत्प्रमाणत्वात्, ताभ्यो व्यन्तरदेवस्त्रियोऽसङ्ख्येयगुणाः सख्येययोजनप्रमाणैकप्रादेशिक श्रेणिमात्राणि खण्डानि यावन्त्येकस्मिन् प्रतरे भवन्ति तेभ्योऽपि द्वात्रिंशत्तमे भागेऽपनीते यच्छेषमवतिष्ठते तावत्प्रमाणत्वात्तासां ताभ्यः सङ्ख्येयगुणा ज्योतिष्कदेवस्त्रियः, पट्पश्चाशदधिकशतद्वयाङ्गुलप्रमाणैकप्रादेशिक श्रेणिमात्राणि खण्डानि यावन्त्येकस्मिन् प्रतरे भवन्ति तेभ्यो द्वात्रिंशत्तमे भागेऽपसारिते यावान् प्रदेशराशिर्भवति तावत्प्रमाणत्वात् ॥ उक्तं चतुर्थमल्पबहुत्वम्, इदानीं समस्त स्त्रीविषयं पञ्चममल्पबहुत्वमाहसर्वस्तोका अन्तरद्वीपकाकर्मभूमकमनुष्य स्त्रियः, ताभ्यो देवकुरूत्तरकुर्वकर्म्मभूमकमनुष्यस्त्रियः सख्येयगुणाः ताभ्योऽपि हरिवर २ प्रतिपसं स्त्रीणाम बहु सू० ५० ॥ ६३ ॥ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *----- 2255554 म्यकत्रियः सङख्येयगुणाः ताभ्योऽपि हैमवतहरण्यवतस्त्रियः सख्येयगुणाः ताभ्योऽपि भरतैरावतकर्मभूमकमनुष्यस्त्रियः सख्येयगुणाः ताभ्योऽपि पूर्व विदेहापरविदेहमनुष्यस्त्रियः सङ्ख्येयगुणाः, अत्र भावना प्राग्वत् , ताभ्यो वैमानिकदेवत्रियोऽसङ्ख्येयगुणाः, असख्येयश्रेण्याकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात्तासां ताभ्यो भवनवासिदेवत्रियोऽसङ्ख्यातगुणाः, अत्र युक्तिः प्रागेवोक्ता, ताभ्यः खचरतियंग्योनिकस्त्रियोऽसहयेयगुणाः, प्रतरासहयेयभागवय॑सङ्ख्येयश्रेणिगताकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात्तासां ताभ्यः स्थलचरतिर्यग्योनिकस्त्रियः, सक्थ्येयगुणबृहत्तरप्रतरासयेयभागवय॑सहयेयश्रेणिगताकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात , ताभ्यो जलचरतिर्यग्योनिकस्त्रियः सङ्ख्ययगुणाः, बृहत्तमनतरासङ्ख्येयभागवय॑सख्येयश्रेणिगताकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात्, ताभ्यो व्यन्तरदेव स्त्रियः सङ्ख्येयगुणाः, सङ्ख्येययोजनकोटाकोटीप्रमाणैकप्रादेशिकश्रेणिमात्राणि खण्डानि यावन्त्येकस्मिन् प्रतरे भवन्ति तेभ्यो द्वात्रिंशत्तमे भागेऽपहृते यावान् राशिरवतिष्ठते तावत्प्रमाणत्वात् , ताभ्योऽपि ज्योतिष्कदेवत्रियः सख्येयगुणाः, एतच्च प्रागेव भावितम् ॥ इह स्त्रीत्वानुभावः स्त्रीवेदकर्मोदय | इति स्त्रीवेदकमणो जघन्यत उत्कर्षतश्च स्थितिमानमाह इत्थिवेदस्स णं भंते! कम्मस्स केवड्यं कालं बंधठिती पण्णत्ता?, गोयमा! जहन्नेणं सागरोवमस्स. . दिवड्डो सत्तभागो [उ] पलिओवमस्स असंखेजतिभागेण ऊणो उक्को० पण्णरस सागरोवमकोडा|' कोडीओ, पण्णरस वाससयाइं अबाधा, अबाहूणिया कम्मठिती कम्मणिसेओ ॥ इत्थिवेदे णं भंते! किंपगारे पण्णत्ते?, गोयमा! फुफुअग्गिसमाणे पण्णत्ते, सेत्तं इत्थियाओ॥ (सू०५१) ol 'स्त्रीवेदस्य' स्त्रीवेदनाम्नो णमिति वाक्यालङ्कारे भदन्त ! कर्मणः कियन्तं कालं वन्धस्थितिः प्रज्ञप्ता ?, भगवानाह-गौतम ! जघन्येन Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजीवा- जीवाभि० - मलयगिरीयावृत्तिः ॥६४॥ सागरोपमस्य सार्द्धः सप्तभागः पल्योपमासख्येयभागन्यूनः, कथमिति चेदुच्यते-इह स्त्रीवेदादीनां कर्मणां खस्मात् २ उत्कृष्टस्थिति- २प्रतिपत्ती बन्धात् मिथ्यात्वसत्कया उत्कृष्टया स्थित्या सप्ततिसागरोपमकोटाकोटीप्रमाणया भागे हते यल्लभ्यते तत्पल्योपमासख्येयभागन्यूनं + स्त्रीवेदवजघन्यस्थितिः “सेसाणुफोसाओ मिच्छत्तुकोसएण जं लद्ध"मित्यादिवचनप्रामाण्यात् , तत्र स्त्रीवेदस्योत्कृष्टः स्थितिबन्धः पञ्चदशसा- न्धस्थितिः' गरोपमकोटीकोट्यः, तासां मिथ्यात्वस्थित्या भागो हियते, शून्यं शून्येन पातयेत् जाता उपरि पञ्चदश अधस्तात्सप्ततिः, अनयोश्च प्रकारश्च छेद्यच्छेदकराश्योर्दशभिरपवर्त्तना जात उपर्येकः सार्द्ध: अधस्तात्सप्त आगतमेकसागरोपमस्य सार्द्धः सप्तभागः, पल्योपमासङ्ख्येय- सू० ५१ भागन्यूनः क्रियते, इयं च व्याख्या मूलटीकाऽनुसारेण कृता, पञ्चसङ्ग्रहमतेनापीदमेव जघन्यस्थितिपरिमाणं केवलं पल्योपमासख्येयभागहीनं (न) वक्तव्यं, तन्मतेन "सेसाणुकोसाओ मिच्छत्तठिईऍ जं लद्धं" इत्येतावन्मात्रस्यैव जघन्यस्थित्यानयनस्य करणस्य विद्य-४ मानत्वात्, कर्मप्रकृतिसङ्ग्रहणीकारस्त्वित्थं जघन्यस्थित्यानयनाय करणसूत्रमाह-वग्गुकोसठिईणं मिच्छत्तुक्कोसगेण जं लद्धं । सेसाणं तु जहणं पलियासंखेजगेणूणं ॥ १ ॥" अस्याक्षरगमनिका-इह ज्ञानावरणीयप्रकृतिसमुदायो ज्ञानावरणीयवर्ग इत्युच्यते, दर्शनावरणीयप्रकृतिसमुदायो दर्शनावरणीयवर्गः, वेदनीयप्रकृतिसमुदायो वेदनीयवर्गः, दर्शनमोहनीयप्रकृतिसमुदायो दर्शनमोहनीयवर्गः, चारित्रमोहनीयप्रकृतिसमुदायश्चारित्रमोहनीयवर्गः, नोकपायमोहनीयप्रकृतिसमुदायो नोकषायमोहनीयवर्गः, नामप्रकृतिसमुदायो नामवर्गः, गोत्रप्रकृतिसमुदायो गोत्रवर्गः, अन्तरायप्रकृतिसमुदायोऽन्तरायवर्गः, एतेषां (च) वर्गाणां या आलीया आसीया उत्कृष्टा स्थितित्रिंशत्सागरोपमकोटीकोट्यादिका तस्या मिथ्यात्वसत्कया उत्कृष्टया स्थित्या सप्ततिसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणया भागे हुते सति यल्ल-४ भ्यते तत्पल्योपमासख्येयभागन्यूनं सत् उक्तशेषाणां निद्रादीनां प्रकृतीनां जघन्यस्थितेः परिमाणमिति, ततस्तन्मतेन त्रीवेदस्य ज ४ ॥६४॥ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धन्या स्थिति सागरोपमस्य सप्तभागी पल्योपमासल्येय भागहीनौ, तथाहि - नोकपायमोहनीयम्योला स्थितिर्विधनियमप कोटी कोट्यः, तासां मिथ्यात्यस्थिया सप्ततिसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणया भागे द्रियमाणे शून्यं शून्येन पाये तो साम रोपमस्य सप्तभागी तौ पत्योपमासज्येय भागहीनौ क्रियेने इति । उत्कृष्टा स्थितिः पञ्चदशसागरोपमकोटी कोट्यः, निर्मा कर्मरूपताऽवस्थानलक्षणा अनुभवयोग्या च वत्रेयं कर्मरूपताऽवस्थानलक्षणा द्रष्टव्या, अनुभवयोग्या पुनरवाधाहीना, (गा) च येषां कर्मणा यावत्यः सागरोपमकोटी कोट्यन्तेषां नावन्ति वर्षशतान्यवाधा, स्त्रीवेदम्य चावितस्योत्कृष्टा स्थितिः पचदश सागरोपमफोटी कोट्यस्ततः पश्यदश वर्षशतान्यवाधा, तथा चाह'पण्णरस वाससाई अवाहा" इति किमुक्तं भवति ? - श्रीवेदकमे उत्कष्टस्थिनिकं य सत्स्वरूपेण पञ्चदश वर्षशतानि यावन्न जीवस्य सविपाकोदय मादर्शयति तावत्कालमध्ये दृटिकनिषेकग्याभावात्, तथा बाह बाहूनिया" इत्यादि, 'अबाधोना' अवधाकालपरिहीना कर्मस्थितिरनुभव योग्येति गम्यते, यतः 'अयायोनः' अवाथाकाळपरदीन: | कर्मनिषेक:- कर्म दलिकरचनेति || राम्प्रति स्त्रीयेवमंयजनितो यः श्रीवेदः किम् ? इयावयन्नाह 'इथिवेषणं अंत ! इत्यादि, स्त्रीवेदो णमिति पूर्ववत् भयन्त ! 'किंप्रकार: किंग्रूपः प्रशम: ?, भगवानाह जीवम ! फुफुकामसमानः पुष्युकान्दो |देशीलात्कारीपवचनस्ततः कारपामिसमानः परिददारू इयर्थः, प्रशप्तः, उपसंहारमा 'मेतं इत्थियाओं' ॥ - वमुक्ताः स्त्रियः, सम्प्रति पुरुषप्रतिपादनार्थ गाह--- से किं तं पुरसा ?, पुरिसा तिविहा पण्णत्ता, संजड़ा-निरिवजोणियपुरिया मणुपुरमा देवरिसा ॥ से किं तं तिरिक्खजोणियपुरिसा १, २ तिविहा पण्णना, नजदा-जलयरा बलपरा समरा, Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LOSE श्रीजीवा इत्थिभेदो भाणितव्वो,जाव खहयरा, सेत्तं खहयरा सेत्तं खहयरतिरिक्खजोणियपुरिसा॥से. किं ४२ प्रतिपत्ती जीवाभि तं मणुस्सपुरिसा?, २ तिविधा पण्णत्ता, तंजहा-कम्मभूमगा अकम्मभूमगा अंतरदीवगा, सेत्तं है पुरुषभेदामलयगि- मणुस्सपुरिसा ॥ से किं तं देवपुरिसा?, देवपुरिसा चउव्विहा पण्णत्ता, इत्थीभेदो भाणितव्वो द्यतिदेशः रीयावृत्तिः जाव सव्वट्ठसिद्धा (सू०५२) ॐ सू० ५२ 'से किं तं पुरिसा' इत्यादि, अथ के ते पुरुषाः १, पुरुषानिविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-तिर्यग्योनिकपुरुषा मनुष्यपुरुपा देवपुरुषाश्च ॥ ॥६५॥ से किं तमित्यादि, अथ के ते तिर्यग्योनिकपुरुषाः १, तिर्यग्योनिकपुरुपात्रिविधाः प्रज्ञप्तास्तद्यथा-जलचरपुरुषाः स्थलचरपुरुषाः 3 खचरपुरुषाश्च । मनुष्यपुरुषा अपि त्रिविधास्तद्यथा-कर्मभूमका अकर्मभूमका अन्तरद्वीपकाश्च ॥ देवसूत्रमाह-से किं त'मित्यादि, ५ अथ के ते देवपुरुषाः १, देवपुरुषाश्चतुर्विधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-भवनवासिनो वानमन्तरा ज्योतिष्का वैमानिकाच, भवनपतयोऽसुरादिभेदेन दशविधा वक्तव्याः, वानमन्तराः पिशाचादिभेदेनाष्टविधाः, ज्योतिष्काश्चन्द्रादिभेदेन पञ्चविधाः, वैमानिकाः कल्पोपपअकल्पातीतभेदेन द्विविधाः, कल्पोपपन्नाः सौधर्मादिभेदेन द्वादशविधाः, कल्पातीता अवेयकानुत्तरोपपातिकभेदेन द्विविधाः, तथा चाह-"जाव अणुत्तरोववाइया” इति ॥ उक्तो भेदः, सम्प्रति स्थितिप्रतिपादनार्थमाह पुरिसस्स णं भंते! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ?, गोयमा! जह० अंतोमु० उक्को० तेत्तीसं सागरोवमाइं। तिरिक्खजोणियपुरिसाणं मणुस्साणं जा चेव इत्थीणं ठिती सा चेव भणियव्वा॥ देवपुरिसाणवि जाव सव्वट्ठसिद्धाणं तिताव ठितीजहा पण्णवणाए तहा भाणियव्वा ॥ (सू०५३) Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'परिसस्स णं भंते' इत्यादि, पुरुषस्य खस्वभवमजहतो भदन्त! कियन्तं कालं यावस्थितिः प्रज्ञप्ता?, भगवानाह-जघन्यतोऽन्तर्मुहत्त, तत ऊर्व मरणभावात् , उत्कर्षतस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि, तान्यनुत्तरसुरापेक्षया द्रष्टव्यानि, अन्यस्यैतावत्याः स्थितेरभावात् । तिर्यग्योनिकानामौधिकानां जलचराणां स्थलचराणां खचराणां स्त्रिया या स्थितिरुक्ता तथा वक्तव्या, मनुष्यपुरुषस्याप्यौधिकस्य कर्मभूमिकस्य सामान्यतो विशेषतो भरतैरावतकस्य पूर्व विदेहापरविदेहकस्य अकर्मभूमस्य सामान्यतो विशेषतो हैमवतैरण्यवतकस्य हरिवर्परम्यकस्य देवकुरूत्तरकुरुकस्यान्तरद्वीपकस्य यैवासीये आलीये स्थाने स्त्रियाः स्थिति: सैव पुरुषस्यापि वक्तव्या, तद्यथा-सामानिकतिर्यग्योनिकपुरुषाणां जघन्येनान्तर्मुहर्तमुत्कर्षतस्त्रीणि पल्योपमानि, जलचरपुरुषाणां जघन्येनान्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतः पूर्वकोटी, चतुष्पदस्थलचरपुरुपाणां जघन्येनान्तर्मुहर्तमुत्कर्षतस्त्रीणि पल्योपमानि, उर:परिसर्पस्थलचरपुरुपाणां जघन्येनान्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतः पूर्वकोटी, एवं भुजपरिसर्पस्थलचरपुरुषाणां खचरपुरुषाणामपि जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतः पल्योपमासङ्ख्येयभागः, सामान्यतो मनुष्यपुरुषाणां जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतस्त्रीणि पल्योपमानि, धर्मचरणमधिकृत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त, एतच्च बाह्य लिङ्गप्रव्रज्याप्रतिपत्तिमङ्गीकृत्य वेदितव्यं, अन्यथा चरणपरिणामस्यैकसामायिकस्यापि सम्भवादेकं समयमिति ब्रूयात् , अथवा देशचरणमधिकृत्येदं वक्तव्यं, देशचरणप्रतिपत्तेबहुलभङ्गतया जघन्यतोऽप्यन्तर्मुहूर्तसम्भवात् , तत्र सर्वचरणसम्भवेऽपि यदिदं देशचरणमधिकृत्योक्तं तद्देशचरणपूर्वकं प्राय: सर्वचरणमिति प्रतिपत्त्यथै, तथा चोक्तम्-"सम्मत्तंमि उ लद्धे पलियपुहुत्तेण सावओ होइ। चरणोवसमखयाणं सागर संखंतरा होति ॥ १॥" इति, अत्र यदाद्यं व्याख्यानं तत्त्रीवेदचिन्तायामपि द्रष्टव्यं, यच्च स्त्रीवेदचिन्तायां व्याख्यातं तदन्नापीति, उत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटी १ सम्यक्त्वे तु लब्धे पल्योपमपृथक्त्वेनैव श्रावको भवति । चरणोपशमक्षयाणा सागरोपमाणि संख्यातानि अन्तरं भवन्ति ॥१॥ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २प्रतिपत्तो पुरुषवेदनधस्थितिः सू० ५३ भाजावा- वपोष्टकादूचेमुत्कर्पतोऽपि पूर्वकोट्यायुप एव चरणप्रतिपत्तिसम्भवात् , फर्मभूमकमनुष्यपुरुपाणां जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्पतस्त्रीणि प- जीवाभि० ल्योपमानि, चरणप्रतिपत्तिमगीकृत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्पतो देशोना पूर्वकोटी, भरतैरावतकर्मभूमकमनुष्यपुरुपाणां क्षेत्रं प्रतीत्य मलयगि- 8 जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्पतस्त्रीणि पल्योपमानि, तानि च सुपमसुपमारके वेदितव्यानि, धर्मचरणमधिकृत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्पतो रीयावृत्तिः । देशोना पूर्वकोटी, पूर्व विदेहापरविदेहकर्मभूमकमनुष्यपुरुपाणां क्षेत्रं प्रतीस जघन्येनान्तर्मुहूर्तमुत्कर्पतो देशोना पूर्वकोटी, धर्मचरणं है प्रतीत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटी, सामान्यतोऽकर्मभूमकमनुष्यपुरुपाणां जन्म प्रतीय जघन्येन पल्योपमास॥६६॥ लवेयभागन्यूनमेकं पल्योपममुत्कर्पतस्त्रीणि पल्योपमानि, संहरणमधिकृत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्पण देशोना पूर्वकोटी, पूर्व विदेहकस्यापरविदेहकस्य वाऽकर्मभूमौ संहृतस्य जघन्येनोत्कर्पत एतावदायुःप्रमाणसम्भवात् , हैमवतहरण्यवताकर्मभूमकमनुष्यपुरुषाणां जन्म प्रतीय जघन्येन पत्योपमं पल्योपमासयेयभागन्यूनमुत्कर्पतः परिपूर्ण पल्योपमं, संहरणमधिकृत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्पतो दे8 शोना पूर्वकोटी, भावना प्रागिव, हरिवर्परम्यकवर्षाकर्मभूमकमनुष्यपुरुषाणां जन्म प्रतीत्य जघन्यतो द्वे पल्योपमे पल्योपमासङ्ख्येय+ भागन्यूने उत्कर्पतः परिपूर्णे द्वे पल्योपमे, संहरणं प्रतीत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्पतो देशोना पूर्वकोटी, देवकुरूत्तरकुर्वकर्मभूमकमनु ध्यपुरुषाणां जन्म प्रतीत्य जघन्यत: पल्योपमासङ्ख्येयभागन्यूनानि त्रीणि पल्योपमानि उत्कर्पतः परिपूर्णानि त्रीणि पल्योपमानि, 8 संहरणमधिकृत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्पतो देशोना पूर्वकोटी, अन्तरद्वीपकाकर्मभूमकमनुष्यपुरुपाणां जन्म प्रतीय जघन्येन देशोनपल्योपमासख्येयभाग उत्कर्पतः परिपूर्णपल्योपमासङ्ख्येयभागः, संहरणमधिकृत्य जघन्येनान्तर्मुहूर्तमुत्कर्पतो देशोना पूर्वकोटीति ॥ देवपुरिसाणमित्यादि, देवपुरुषाणां सामान्यतो जघन्यतः स्थितिर्दश वर्षसहस्राणि उत्कर्षतस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि, विशेषचिन्तायाम ॥६६॥ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरकुमारपुरुषाणां जघन्यतो दश वर्षसहस्राणि उत्कर्षतः सातिरेकमेकं सागरोपमं, नागकुमारादिपुरुषाणां सर्वेषामपि जघन्यतो दश वर्षसहस्राणि उत्कर्षतो देशोने द्वे पल्योपमे, व्यन्तरपुरुषाणां जघन्यतो दश वर्षसहस्राणि उत्कर्षतः पल्योपर्म, ज्योतिष्कदेवपुरुषाणां जघन्यत: पल्योपमस्याष्टमो भाग उत्कर्षतः परिपूर्ण पल्योपमं वर्षशतसहस्राभ्यधिकं, सौधर्मकल्पदेवपुरुषाणां जघन्यतः पल्योपममुत्कर्षतः द्वे सागरोपमे ईशान-ग्रन्थाप्रम् २०००] कल्पदेवपुरुषाणां जघन्यतः साधिकं पल्योपममुत्कर्षतो द्वे सागरोपमे सातिरेके सनकमारकल्पदेवपुरुषाणां च जघन्यतो द्वे सागरोपमे उत्कर्षतः सप्त सागरोपमाणि माहेन्द्रकल्पदेवपुरुषाणां जघन्यतः सातिरेके द्वे सागरोपमे उत्कर्षतः सातिरेकाणि सप्त सागरोपमाणि ब्रह्मलोकदेवानां जघन्यतः सप्त सागरोपमाणि उत्कर्षतो दश लान्तककल्पदेवानां जघन्यतो दश सागरोपमाणि उत्कर्षतश्चतुर्दश महाशुक्रकल्पदेवपुरुषाणां जघन्यतश्चतुर्दश सागरोपमाणि उत्कर्षतः सप्तदश सहस्रारकल्पदेवानां जघन्येन सप्तदश सागरोपमाणि उत्कर्षतोऽष्टादश आनतकल्पदेवानां जघन्यतोऽष्टादश सागरोपमाणि उत्कर्षत एकोनविंशतिः प्राणतकल्पदेवानां जघन्यत एकोनविंशतिः सागरोपमाणि उत्कर्षतो विंशतिः आरणकल्पदेवानां जघन्यतो विशतिः सागरोपमाणि उत्कर्षत एकविंशतिः अच्युतकल्पदेवानां जघन्यत एकविंशतिः सागरोपमाणि उत्कर्षतो द्वाविंशतिः अधस्तनाधस्तनौवेयकदेवानां जघन्यतो द्वाविंशतिः सागरोपमाणि उत्कर्षतस्रयोविंशतिः अधस्तनमध्यमप्रैवेयकदेवानां जघन्यतस्त्रयोविंशतिः सागरोपमाणि उत्कर्षतपाश्चतुर्विशतिः अधस्तनोपरितनप्रैवेयकदेवानां जघन्यतश्चतुर्विंशतिः सागरोपमाणि उत्कर्षतः पञ्चविंशतिः मध्यमाधस्तनप्रैवेयकदेवानां जघन्येन पञ्चविंशतिः सागरोपमाणि उत्कर्षतः षड्विंशतिः मध्यममध्यमवेयकदेवानां जघन्यतः षड्विंशतिः सागरोपमाणि उत्कर्षतः * सप्तविंशतिः मध्यमोपरितनौवेयकदेवानां जघन्येन सप्तविंशतिः सागरोपमाणि उत्कर्षतोऽष्टाविंशतिः उपरितनाधस्तनप्रैवेयकदेवानां जघ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजीवाजीवाभि० मलयगि रीयावृत्तिः ॥ ६६ ॥ वर्षाष्टकादूर्ध्वगुतोऽपि पूर्वको एवं चरणप्रतिपत्तिसम्भवात् कर्मभूमकमनुष्यपुरुषाणां वपन्यतोऽन्तर्मुहुर्तमुत्कर्षतस्त्रीणि पल्योपमानि, भरणप्रतिपत्तिमनीय जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तगुत्कर्षतो देशोना पूर्वफोटी, भरतैराक्त कर्मभूम फमनुष्यपुरुषाणां क्षेत्रं प्रती जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तगुत्कर्षतस्त्रीणि पत्योपमानि तानि च सुपममुपमार के वेदितव्यानि धर्मचरणमधिकृत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटी, पूर्वविदेद्दा पर विदेहकर्म भूमहमनुष्यपुरुषाणां क्षेत्रं प्रतीय जघन्येनान्तर्मुहुर्तगुरू तो देशोना पूर्वकोटी, धर्मचरणं प्रतीत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तगुत्कर्षतो देशोना पूर्वफोटी, सामान्यतोऽकर्मभूमकमनुव्यपुरुषाणां जन्म प्रतीय जघन्येन पत्योपमामभागन्यूनमेकं पत्योपममुत्कर्षतस्त्रीणि पत्योपमानि संहरणमधिकृत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षेण देशोना पूर्वकोटी, पूर्वविदेहकस्यापरविदेहकस्य वाकभूमौ संहृतस्य जघन्येनोत्कर्पत एतावदायुः प्रमाणसम्भवान् हेमनताहैरण्यताकर्मभूमकमनुष्यपुरुषाणां जन्म प्रतीय जघन्येन पत्योपमं पत्योपमा सय भागन्यूनगुत्कर्षतः परिपूर्ण पत्योपगं, संहरणमधिकृत्य जपन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटी, भावना प्रागिव, हरिवरम्यकपर्णकर्मभूगकमनुष्य पुरुषाणां जन्म प्रतीय जपन्यतो के पल्योप पत्योपमासज्येयभागन्यूने उत्कर्षतः परिपूर्ण छे पत्योपमे, संहरणं प्रतील जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तगुरकर्षतो देशोना पूर्वकोटी, देवकुरूत्तरकुर्वकर्मभूमकमनुtयपुरुषाणां जन्म प्रतीय जघन्यतः पत्योपमासज्येयभागन्यूनानि श्रीणि पत्योपमानि उत्कर्षतः परिपूर्णानि चीणि पल्योपगानि, संहरणमधिकृत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तगुरुर्षतो देशोना पूर्वकोटी, अन्तरद्वीपकाकर्मभूमकमनुष्य पुरुषाणां जन्म प्रतीय जघन्येन देशोनपत्योपमासज्येयभाग उत्कर्षतः परिपूर्णपत्योपमासयेयभागः, संहरणमधिकरा जघन्येनान्तर्मुहूर्त्तगुत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटीस || देवपुरिसाणमित्यादि, देवपुरुषाणां सामान्यतो जघन्यतः स्थितिर्दश वर्षसहस्राणि उत्कर्षतस्त्रयत्रिंशत्सागरोपमाणि, विशेषचिन्तायाम 200 २ प्रतिपसी पुरुषयेदवन्धस्थितिः सू० ५३ ॥ ६६ ॥ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरकुमारपुरुषाणां जघन्यतो दश वर्षसहस्राणि उत्कर्षतः सातिरेकमेकं सागरोपमं, नागकुमारादिपुरुपाणां सर्वेषामपि जघन्यतो दश वर्षसहस्राणि उत्कर्षतो देशोने द्वे पल्योपमे, व्यन्तरपुरुषाणां जघन्यतो दश वर्षसहस्राणि उत्कर्षतः पल्योपम, ज्योतिष्कदेवपुरुषाणां जघन्यतः पल्योपमस्याष्टमो भाग उत्कर्षतः परिपूर्ण पल्योपमं वर्षशतसहस्राभ्यधिकं, सौधर्मकल्पदेवपुरुषाणां जघन्यतः पल्योपममुत्कर्षतः द्वे सागरोपमे ईशान-ग्रन्थानम् २०००] कल्पदेवपुरुषाणां जघन्यतः साधिकं पल्योपममुत्कर्षतो वे सागरोपमे सातिरेके सनकमारकल्पदेवपुरुषाणां च जघन्यतो द्वे सागरोपमे उत्कर्षतः सप्त सागरोपमाणि माहेन्द्रकल्पदेवपुरुपाणां जघन्यतः सातिरेके द्वे सागरोपमे उत्कर्षतः सातिरेकाणि सप्त सागरोपमाणि ब्रह्मलोकदेवानां जघन्यतः सप्त सागरोपमाणि उत्कर्पतो दश लान्तककल्पदेवानां जघन्यतो दश सागरोपमाणि उत्कर्षतश्चतुर्दश महाशुक्रकल्पदेवपुरुषाणां जघन्यतश्चतुर्दश सागरोपमाणि उत्कर्पतः सप्तदश सहस्रारकल्पदेवानां जघन्येन सप्तदश सागरोपमाणि उत्कर्षतोऽष्टादश आनतकल्पदेवानां जघन्यतोऽष्टादश सागरोपमाणि उत्कर्षत एकोनविंशतिः प्राणतकल्पदेवानां जघन्यत एकोनविंशतिः सागरोपमाणि उत्कर्पतो विंशतिः आरणकल्पदेवानां जघन्यतो विंशतिः सागरोपमाणि उत्कर्षत एकविंशतिः अच्युतकल्पदेवानां जघन्यत एकविंशतिः सागरोपमाणि उत्कर्षतो द्वाविंशतिः अधस्तनाधस्तनौवेयकदेवानां जघन्यतो द्वाविंशतिः सागरोपमाणि उत्कर्षतस्त्रयोविंशतिः अधस्तनमध्यमप्रैवेयकदेवानां जघन्यतस्त्रयोविंशतिः सागरोपमाणि उत्कर्पत|श्चतुर्विंशतिः अधस्तनोपरितनौवेयकदेवानां जघन्यतश्चतुर्विशतिः सागरोपमाणि उत्कर्पतः पञ्चविंशतिः मध्यमाधस्तनौवेयकदेवानां जघन्येन पञ्चविंशतिः सागरोपमाणि उत्कर्षतः पडविंशतिः मध्यममध्यमत्रैवेयकदेवानां जघन्यतः षडविंशतिः सागरोपमाणि उत्कर्पतः सप्तविंशतिः मध्यमोपरितनप्रैवेयकदेवानां जघन्येन सप्तविंशतिः सागरोपमाणि उत्कर्षतोऽष्टाविंशतिः उपरितनाधस्तनप्रैवेयकदेवानां जघ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2-45 श्रीजीवा- न्येनाष्टाविंशतिः सागरोपमाणि उत्कर्षत एकोनत्रिंशत् उपरितनमध्यमप्रैवेयकदेवानां जघन्येनैकोनत्रिंशत्सागरोपमाणि उत्कर्षतस्त्रिंशत् उप- २प्रतिपत्तौ जीवाभि रितनोपरितनप्रैवेयकदेवानां जघन्यतस्त्रिंशत्सागरोपमाणि उत्कर्षत एकत्रिंशत् सागरोपमाणि विजयवैजयन्तजयन्तापराजितविमानदे- पुरुषभवमलयगि-५ वानां जघन्येनैकत्रिशत्सागरोपमाणि उत्कर्षतस्त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमाणि सर्वार्थसिद्धमहाविमानदेवानामजघन्योत्कृष्टं त्रयस्त्रिंशत्साग-5 स्थितिः रीयावृत्तिः रोपमाणि । कचिदेवं सूत्रपाठः-"देवपुरिसाण ठिई जहा पण्णवणाए ठिइपए तहा भाणियव्वा" इति, तत्र स्थितिपदेऽप्येवमेवोक्ता सू० ५३ ॥६७॥ स्थितिरिति ॥ उक्तं पुरुषस्य भवस्थितिमानमधुना पुरुषः पुरुषत्वममुश्चन् कियन्तं कालं निरन्तरमवतिष्ठते इति निरूपणार्थमाह पुरुषवेदपुरिसे णं भंते ! पुरिसे त्ति कालतो केवचिरं होइ ?, गोयमा! जहन्नेणं अंतो० उक्को सागरोव स्यस्थितिः मसतपुहत्तं सातिरेगं । तिरिक्खजोणियपुरिसे णं भंते! कालतो केवचिरं होइ?, गोयमा! जह सू० ५४ नेणं अंतो० उक्को तिन्नि पलिओवमाई पुवकोडिपुहुत्तमभहियाई, एवं तं चेव, संचिट्ठणा जहा इत्थीणं जाव खहयरतिरिक्खजोणियपुरिसस्स संचिट्ठणा। मणुस्सपुरिसाणं भंते! कालतो केवचिरं होइ?, गोयमा! खेत्तं पडुच जहन्ने० अंतो० उक्को तिन्नि पलिओवमाई पुवकोडिपुसुत्समभहियाई, धम्मचरणं पड्डच जह० अंतो० उक्कोसेणं देसूणा पुव्वकोडी एवं सव्वत्थ जाव पुव्वविदेहअवरविदेह, अकम्मभूमगमणुस्सपुरिसाण जहा अकम्मभूमकमणुस्सित्थीणं जाव अंतरदीवगाणं जच्चेव ठिती सच्चेव संचिट्ठणा जाव सव्वट्ठसिद्धगाणं ॥ (सू०५४) * ॥६७॥ पुरुषो णमिति वाक्यालक्कारे भदन्त ! पुरुष इति पुरुषभावापरित्यागेन कियविरं' कियन्तं कालं यावद्भवति ?, भगवानाह-गौतम! Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त, तावतः कालादूर्ध्व मृखा ख्यादिभावगमनाद्, उत्कर्षतः सातिरेकं सागरोपमशतपृथक्त्वं, सामान्येन तिर्यनरामरभवेष्वेतावन्तं कालं पुरुषेष्वेव भावसम्भवात् , सातिरेकता कतिपयमनुष्यभवैर्वेदितव्या, अत ऊचे पुरुषनामकर्मोदयाभावतो नियमत एव स्यादिभावगमनात् । तिर्यग्योनिकपुरुषाणां यथा तिर्यग्योनिकस्त्रीणां तथा वक्तव्यं, तश्चैवम्-तिर्यग्योनिकपुरुषस्तिर्यग्योनिकपुरुषत्वमजहत् जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त, तदनन्तरं मृत्वा गत्यन्तरे वेदान्तरे वा संक्रमात् , उत्कर्षतस्त्रीणि पल्योपमानि पूर्वकोटिपृथक्त्वाभ्यधिकानि, तत्र पूर्वकोटिपृथक्त्वं सप्त भवाः पूर्वकोट्यायुषः पूर्वविदेहादौ (यतः) त्रीणि पल्योपमान्यष्टमे भवे देवकुरूत्तरकुरुषु, (यतः) विशेषचिन्तायां जलचरपुरुषो जघन्येनान्तर्मुहूर्त, तत ऊर्व मरणभावेन तिर्यग्योन्यन्तरे गत्यन्तरे वेदान्तरे वा संक्रमात् , उत्कर्षतः पूर्वकोटिपृथक्त्वं, | पूर्वकोट्यायुःसमन्वितस्य भूयो भूयस्तत्रैव व्यादिवारोत्पत्तिसम्भवात् । चतुष्पदस्थलचरपुरुषो जघन्येनान्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतस्त्रीणि पल्यो-10 पमानि पूर्वकोटिपृथक्त्वाभ्यधिकानि, तानि सामान्यतिर्यक्पुरुषस्येव भावनीयानि । उर:परिसर्पस्थलचरपुरुषो भुजपरिसर्पस्थलचरपु-18 रुषश्च जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षत: पूर्वकोटिपृथक्त्वं, तच्च जलचरपुरुषस्येव भावनीयं । खचरपुरुषो जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त, अन्तर्मुहूर्त्तभावना सर्वत्रापि प्रागिव, उत्कर्षतः पूर्वकोटिपृथक्त्वाभ्यधिकः पल्योपमासङ्ख्येयभागः, स च सप्त वारान् पूर्वकोटिस्थितिपूत्पद्याष्टमवारमन्तरद्वीपादिखचरपुरुषेषु पल्योपमासङ्खयेयभागस्थितिपूत्पद्यमानस्य वेदितव्यः । 'मणुस्सपुरिसाणं जहा मणुस्सित्थीण'मिति, मनुष्यपुरुषाणां यथा मनुष्यस्त्रीणां तथा वक्तव्यं, तच्चैवं-सामान्यतो मनुष्यपुरुषस्य क्षेत्रं प्रतीय जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त, तत ऊर्दू मृत्वा | गत्यन्तरे वेदान्तरे वा संक्रमात् , उत्कर्षतस्त्रीणि पल्योपमानि पूर्वकोटीपृथक्त्वाभ्यधिकानि, तत्र सप्त भवाः पूर्वकोट्यायुषो महाविदेहेषु || | अष्टमस्तु देवकुर्वादिषु, धर्मचरणं प्रतीत्य समयमेकं, द्वितीयसमये मरणभावात् , उत्कर्पतो देशोना पूर्वकोटी, उत्कर्षतोऽपि पूर्वकोट्यायुप Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 564 श्रीजीवा-* एव वर्षाष्टकादूई चरणप्रतिपत्तिभावात् , विशेपचिन्तायां सामान्यतः कर्मभूमकमनुष्यपुरुप: कर्मभूमिरूपं क्षेत्रं प्रतीत्य जघन्यतोऽ- * २प्रतिपत्ती जीवाभि० न्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतस्त्रीणि पल्योपमानि पूर्वकोटिपृथक्त्वाभ्यधिकानि, तत्रान्तर्मुहूर्तभावना प्रागिव, त्रीणि पल्योपमानि' पूर्वकोटिपृथक्वा पुरुषस्य मलयगि भ्यधिकानि सप्त वारान् पूर्वकोट्यायुःसमन्वितेपुत्पद्याष्टमं वारमेकान्तसुषमायां भरतैरावतयोस्निपल्योपमस्थितिपूत्पद्यमानस्य. वेदित- + स्थितिः रीयावृत्तिः । व्यानि, धर्माचरणं प्रतीत्य जघन्यत एक समय, सर्वविरतिपरिणामस्यैकसामयिकस्यापि सम्भवात् , उत्कर्पतो देशोना पूर्वकोटी, सम- * सू० ५४ प्रचरणकालस्याप्येतावत एव भावात् । भरतैरावतकर्मभूमकमनुष्यपुरुषोऽपि भरतैरावतक्षेत्रं प्रतीत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतस्त्रीणि ॥६८॥ पल्योपमानि देशोनपूर्वकोट्यभ्यधिकानि, तानि च पूर्वकोट्यायुःसमन्वितस्य विदेहपुरुपस्य भरतादौ संहृत्यानीतस्य भरतादिवासयोगाद् भरतादिप्रवृत्तव्यपदेशस्य भवायु:क्षये एकान्तसुषमाप्रारम्भे समुत्पन्नस्य वेदितव्यानि, धर्माचरणं प्रतीय जघन्यत एक समयमुत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटी, एतच द्वयमपि प्रागिव भावनीय, पूर्व विदेहापरविदेहकर्मभूमकमनुष्यपुरुपः क्षेत्रं प्रतीत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतः पूर्वकोटिपृथक्त्वं, तश्च भूयो भूयस्तत्रैव सप्तवारानुत्पत्त्या भावनीयं, अत ऊद्दे त्ववश्यं गत्यन्तरे योन्यन्तरे वा संक्रमभावात्, धर्मचरणं प्रतीय जघन्यत एक समयमुत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटी । तथा सामान्यतोऽकर्मभूमकमनुष्यपुरुषस्तद्भावमपरित्यजन् जन्म प्रतीत्य जघ न्यत एकं पल्योपमं पल्योपमासङ्ख्येयभागन्यूनमुत्कर्पतस्त्रीणि पल्योपमानि, संहरणं प्रतीत्य जघन्येनान्तर्मुहूर्त, तच्चान्तर्मुहूर्तायुःशेष६ स्थाकर्मभूमिषु संहृतस्य वेदितव्यं, उत्कर्षतस्त्रीणि पल्योपमानि देशोनया पूर्वकोट्याऽभ्यधिकानि, तानि च देशोनपूर्वकोट्यायुःसम न्वितस्योत्तरकुर्वादौ संहृतस्य तत्रैव मृत्वोत्पन्नस्य वेदितव्यानि, देशोनता च पूर्वकोट्या गर्भकालेन न्यूनत्वाद्, गर्भस्थितस्य संहरणप्रतिषेधात् । हैमवतहरण्यवताकर्मभूमकमनुष्यपुरुषो जन्म प्रतीत्य जघन्यतः पल्योपमासयेयभागन्यूनं पल्योपममुत्कर्षतः परिपूर्ण SAMACROS 464 SSES * Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 M पस्योपस, संहरणं प्रतीत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतो देशोनया पूर्वकोट्याऽभ्यधिकमेकं पल्योपमं, अत्र भावना प्रागुक्तानुसारेण स्वयं कर्तव्या ।हरिवर्षरम्यकवर्षाकर्मभूमकमनुष्यपुरुषो जन्म प्रतीत्य जघन्यतो वे पल्योपमे पल्योपमासयेयभागन्यूने, उत्कर्षतः परिपूर्णे द्वे पल्योपमे, जघन्यत उत्कर्षतश्च तत्रैतावत आयुषः सम्भवात् , संहरणं प्रतीत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त न्यूनान्तर्मुहूर्त्तायुषः संहरणाऽसम्भवात्, उत्कर्षतो देशोनया पूर्वकोट्याऽभ्यधिके द्वे पल्योपमे, भावनाऽत्र प्राग्वत् । देवकुरूत्तरकुर्वकर्मभूमकमनुष्यपुरुषः क्षेत्रं प्रतीत्य जघन्यतः पल्योपमासयेयभागन्यूनानि त्रीणि पल्योपमानि उत्कर्षत: परिपूर्णानि त्रीणि पल्योपमानि, संहरणमधिकृत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतस्त्रीणि पल्योपमानि देशोनपूर्वकोट्यधिकानि । अन्तरद्वीपकमनुष्यपुरुषो जन्म प्रतीत्य देशोनं पल्योपमासङ्ख्येयभागमुत्कर्षतः परिपूर्ण पल्योपमासङ्खयेयभागं, संहरणं प्रतीत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतः पूर्वकोटिसमभ्यधिक: पल्योपमासङ्ख्येयभागः । 'देवाणं जा चेव ठिई सा चेव संचिट्ठणा भाणियव्वा' देवानां यैव स्थितिः प्रागभिहिता सैव 'संचिट्ठणा' इति कायस्थितिर्भणितव्या, नन्वनेकभवभावाश्रया कायस्थितिः सा कथमेकस्मिन् भवे भवति?, नैष दोषः, देवपुरुषो देवपुरुषत्वापरित्यागेन कियन्तं कालं यावनिरन्तरं भवति? इत्येतावदेवात्र विवक्षितं, तत्र देवो मृत्वाऽऽनन्तर्येण भूयो देवो न भवति ततः 'देवाणं जा ठिई सा चेव संचिट्ठणा भाणियव्वा' इत्यतिदेशः कृतः ॥ तदेवमुक्तं सातत्येनावस्थानमिदानीमन्तरमाह पुरिसस्स णं भंते ! केवतियं कालं अंतरं होइ ?, गोयमा! जह० एकं समयं उक्को० वणस्सतिकालो तिरिक्खजोणियपुरिसाणं जह० अंतोमु० उक्को० वणस्सतिकालो एवं जाव खयरतिरिक्खजोणियपुरिसाणं ॥ मणुस्सपुरिसाणं भंते ! केवतियं कालं अंतरं होइ?, गोयमा! खेत्तं 66464644444MLMAMALA Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पल जहअंतोमु०उको वणस्सतिकालो, धम्मचरण पाच जहा एक समय उको० अर्णत २प्रतिपत्ती कार्स अणंताओ उस्स० जाव अवकृपोग्गलपरियह देसूणं, कम्मभूमकाणं जाव विदेहो जाव धम्म पुरुषवेदधरणे पको समओ सेसं जहित्थीणं जाव अंतरदीवकाणं ॥ देवपुरिसाणं जह• अंतो० उको० स्याम्तरं वणस्सतिकालो, मवणवासिदेवपुरिसाणं ताय जाय सहस्सारो, जह• अंतो० उक्को० वणस्सति 5 सु० ५५ कालो । आणतदेवपुरिसाणं भंते! केवतियं कालं अंतरं होइ?, गोयमा! जहा वासपुहुप्स उको वणस्सतिकालो, एवं जाव गेवेजदेवपुरिसस्सवि । अणुत्सरोववातियदेवपुरिसस्स जहा । वासपुरतं उको संखेजाई सागरोवमाई साइरेगाई॥ (सू०५५) परिसस्सणं इलादि, पुरुषस्य णमिति वाक्यालकारे पूर्ववत् भदन्त! अन्तरं कालतः कियश्चिरं भवति ?, पुरुषः पुरुषत्वात्परिभ्रष्टः सन् पुनः कियता कालेन तदवाप्नोतीत्यर्थः, तत्र भगवानाह-गौत्तम! जघन्येनैकं समय-समयादनन्तरं भूयोऽपि पुरुषखमवाप्नोतीति भावः, इयमत्र भावना-यदा कश्चित्पुरुष उपशमश्रेणिगत उपशान्ते पुरुषवेदे समयमेकं जीवित्वा तदनन्तरं म्रियते तदाऽसौ नियमादेवपुरुपेपूत्पद्यते इति समयमेकमन्तरं पुरुपखस्स, ननु स्त्रीनपुंसकयोरपि श्रेणिलाभो भवति तत्कस्मादनयोरप्येवमेक: समयोऽन्तरं न भवति ?, उच्यते, स्त्रिया नपुंसकस्स-च श्रेण्यारूढाववेदकभावानन्तरं मरणेन तथाविधशुभाध्यवसायतो नियमेन देवपुरुषत्वेनोत्पादात्ः, उत्कर्पतो * वनस्पतिकालः, स चैवमभिलपनीय:-"अणंताओ उस्सप्पिणीओ ओसप्पिणीओ कालतो खेत्ततो अणंता लोगा असंखेजा पोग्गलपरियट्ठा, वे गं पुग्गलपरियहा आवलियाए असंखेज मागों"इति । तदेवं सामान्यतः पुरुषत्वस्यान्तरममिधाय सम्प्रति तिर्यक्पुरुषविष BABAIKOKAR Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - यमतिदेशमाह-जंतिरिक्खजोणित्थीणमंतर'मित्यादि, यत्तिर्यग्योनिकस्त्रीणामन्तरं प्रागभिहितं तदेव तिर्यग्योनिकपुरुषाणामप्यविशेप्राषितं वक्तव्यं; तश्चैवम्-सामान्यतस्तिर्यक्पुरुषस्य जघन्यतोऽन्तरमन्तर्मुहूर्त तावत्कालस्थितिना मनुष्यादिभवेन-व्यवधानात्, उत्कर्षतों क्न स्पतिकालोऽसङ्ख्येयपुद्गलपरावर्ताख्यः, तावता कालेनामुक्तौ सत्यां नियोगतः पुरुषत्वयोगात् , एवं विशेषचिन्तायां जलचरपुरुषस्य स्थलचरपुरुषस्य खचरपुरुषस्यापि प्रत्येक जघन्यत उत्कर्षतश्चान्तरं वक्तव्यं ॥ सम्प्रति मनुष्यपुरुषत्वविषयान्तरप्रतिपादनार्थमतिदेशमाह -जं मणुस्सइत्थीणमंतरं तं मणुस्सपुरिसाण'मिति, यन्मनुष्यस्त्रीणामन्तरं प्रोगभिहितं तदेव मनुष्यपुरुषाणामपि वक्तव्यं, तचैवम्सामान्यतो मनुष्यपुरुषस्य जघन्यतः क्षेत्रमधिकृत्यान्तरमन्तर्मुहूर्त, तश्च प्रागिव भावनीयं, उत्कर्षतों वनस्पतिकालः, धर्मचरणमधिकृत्य जघन्यत एकं समयं, चरणपरिणामात्परिभ्रष्टस्य समयानन्तरं भूयोऽपि कस्यचिच्चरणप्रतिपत्तिसम्भवात् , उत्कर्षतों देशोनापार्द्धपुद्गलपजारावर्त्तः, एवं भरतैरावतकर्मभूमकमनुष्यपुरुषस्य पूर्व विदेहापरविदेहकर्मभूमकमनुष्यपुरुषस्य जन्म- प्रतीय चरणमधिकृत्य च प्रत्येक जघन्यत उत्कर्षतश्चान्तरं वक्तव्यं । सामान्यतोऽकर्मभूमकमनुष्यपुरुषस्य जन्म प्रतीत्य जघन्यतोऽन्तरं दश वर्षसहस्राणि अन्तर्मुहूत्ती-15 भ्यधिकानि, अकर्मभूमकमनुष्यपुरुषत्वेन मृतस्य जघन्यस्थितिषु देवेषूत्पद्यते, ततोऽपि च्युत्वा कर्मभूमिषु स्त्रीत्वेन पुरुषलेन वोत्पद्य कस्याप्यकर्मभूमित्वेन भूयोऽप्युत्पादात्', देवभवाञ्च्युत्वाऽनन्तरमकर्मभूमिषु, मनुष्यत्वेन तिर्यक्सज्ञिपञ्चेन्द्रियत्वेन वा उत्पादाभावादपान्तराले कर्मभूमिकेषु मृलोत्पादाभिधानं, उत्कर्षतो वनस्पतिकालोऽन्तरं, संहरणं प्रतीय जघन्यतोऽन्तरमन्तर्मुहूर्त, अकर्मभूमेः | कर्मभूमिषु संहृत्यान्तर्मुहूर्तानन्तरं तथाविधबुद्धिपरावर्तीदिभावतो भूयस्तत्रैव नयनसम्भवात् , उत्कर्षतो वनस्पतिकाल:, एतावतः कालादूर्द्धमकर्मभूमिपूत्पत्तिवत् संहरणस्यापि नियोगतो भावात् । एवं हैमवतैरण्यवतादिष्वप्यकर्मभूमिषु जन्मतः संहरणतश्च जघन्यत Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1-0 उत्कर्षतश्चान्तरं वक्तव्यं यावदन्तरद्वीपकाकर्मभूमकमनुष्यपुरुषवक्तव्यता ।। सम्प्रति देवपुरुषाणामन्तरप्रतिपादनार्थमाह-'देवपुरिसस्स 5२प्रतिपत्तौ 10 णं भंते! इत्यादि, देवपुरुषस्य भदन्त! कालत: कियविरमन्तरं भवति ?, भगवानाह-गौतम! जघन्येनान्तर्मुहूर्त, देवभवाश्युत्वा गर्भ- पुरुषवेद व्युत्क्रान्तिकमनुष्येपूत्पद्य पर्याप्तिसमाप्त्यनन्तरं तथाविधाध्यवसायमरणेन भूयोऽपि कस्यापि देवत्वेनोत्पादसम्भवात्, उत्कर्षतो वनस्प- स्यान्तरं ॐ तिकालः, एवमसुरकुमारादारभ्य निरन्तरं तावद्वक्तव्यं यावत्सहस्रारकल्पदेवपुरुपस्यान्तरं, आनतकल्पदेवस्यान्तरं जघन्येन वर्षपृथ सू० ५५ क्वं, कस्मादेतावदिहान्तरमिति चेदुच्यते इह यो गर्भस्थः सर्वाभिः पर्याप्तिभिः पर्याप्तः स शुभाध्यवसायोपेतो मृतः सन् आनतकल्पादारतो ये देवास्ते पूत्पद्यते नानतादिपु, तावन्मात्रकालस्य तद्योग्याध्यवसायविशुद्ध्यभावात् , ततो य आनतादिभ्यम्युतः सन् भयोऽप्यानतादिपूत्पत्स्यते स नियमाचारित्रमवाप्य, चारित्रं चाष्टमे वर्षे, तत उक्तं जघन्यतो वपृथक्त्वम्, उत्कर्पतो वनस्पतिकालः, एवं प्राणतारणाच्युतकल्पप्रैवेयकदेवपुरुषाणामपि प्रत्येकमन्तरं जघन्यत उत्कर्पतश्च वक्तव्यम् , अनुत्तरोपपातिककल्पातीतदेवपुरुषस्य जघन्यतोऽन्तरं वर्षपृथक्त्वमुत्कर्षतः सङ्गधेयानि सागरोपमाणि सातिरेकाणि, तत्र सयेयानि सागरोपमाणि तदन्यवैमानिकेषु सङ्ग्येयवारोत्पत्त्या, सातिरेकाणि मनुष्यभवैः, तत्र सामान्याभिधानेऽप्येतदपराजितान्तमवगन्तव्यं, सर्वार्थसिद्धे सकृदेवोत्पादतस्तत्रान्तरास म्भवात् , अन्ये त्वभिदधति-भवनवासिन आरभ्य आईशानादमरस्य जघन्यतोऽन्तरमन्तर्मुहूर्त, सनत्कुमारादारभ्यासहस्रारानव दि७ नानि, आनतकल्पादारभ्याच्युतकल्पं यावन्नव मासाः, नवसु प्रैवेयकेषु सर्वार्थसिद्धमहाविमानवर्जेष्वनुत्तरविमानेषु च नव वर्षाणि, हैं प्रैवेयकान् यावत् सर्वत्राप्युत्कर्षतो वनस्पतिकाल:, विजयादिषु चतुर्पु महाविमानेषु द्वे सागरोपमे, उक्तञ्च- आईसाणादमरस्स १आईशानादन्तरममराणां हीनं मुहून्ति । आ सहस्रारात् अच्युतात् अनुत्तरात् दिनमासवर्षनवकम् ॥१॥ स्थावरकाल उत्कृष्ट. सर्वार्थ द्वितीयो नो ॥७०।। त्पादः। द्वे सागरोपमे विजयादिषु. CLA RIGANGANAGAR Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतरं हीणयं मुहुत्तंतो। आसहसारे अचुयणुत्तरदिणमासवासनव ॥ १॥ थावरकालुकोसो सव्वढे बीयओ न उववाओ.। दो अ-1 यरा विजयादिसु" इति ॥ तदेवमुक्तमन्तरं, साम्प्रतमल्पबहुत्वं वक्तव्यं, तानि च पश्च, तद्यथा-प्रथमं सामान्याल्पबहुत्वं, द्वितीयं त्रिविधतिर्यकपुरुषविषयं, तृतीयं त्रिविधमनुष्यपुरुषविषयं, चतुर्थ चतुर्विधदेवपुरुषविषयं, पञ्चमं मिश्रपुरुषविषयं, तत्र प्रथम, तावदभिधित्सुराह अप्पांबहुयाणि जहेवित्थीणं जाव एतेसि णं भंते ! देवपुरिसाणं भवणवासीणं वाणमंतराणं जोतिसियांणं वेमाणियाणं य कतरेरहिंतो अप्पा वा पंहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा?, गोयमा ! सव्वत्थोवा वेमाणियदेवपुरिसा भवणवइदेवपुरिसा असंखे० वाणमंतरदेवपुरिसा असंखे. जोतिसिया देवपुरिसा संखेनगुंणा ॥ एतेसि णं भंते ! तिरिक्खजोणियपुरिसाणं जलयराणं थलयराणं खहयराणं मणुस्सपुरिसाणं कम्मभूमकाणं अकम्मभूमकाणं अंतरदिव० देवपुरिसाणं भवणवासीणं वाणमन्तराणं जोइसियाणं वेमाणियाणं सोधम्माणं जाव सव्वट्ठसिद्धगाण य कतरेरहिंतो अप्पा वा बहुगा वा जाव विसेसाहिया वा?, गोयमा! सव्वत्थोवा अंतरदीवगमणुस्सपुरिसा देवकुरुत्तरकुरुअकम्मभूमगमणुस्सपरिसा दोवि संखेज० हरिवासरम्मगवासअक० दोवि संखेजगुणा हेमवतहेरण्णवतवासअकम्म० दोवि संखि० भरहेरवतवासकम्मभूमगमणु० दोवि संखे० पुव्वविदेहअवरविदेहकम्मभू० दोवि संखे० अणुत्तरोववा-- Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिपविणदेवारिसा बसुरिया असंखे देवपुरिमा असंहले बयरतिरिसा असंखे .प्रतिपत्तौ पुरुषाल्पबहुत्वं ॐ541 तिपदेवपुरिसा असंखि०वरिमगेविजदेवपुरिसा संखेज०मझिमगेविनदेवपुरिसा संखेन हेष्टिमगेविजदेवपुरिसा संखे० अच्चुयकप्पे देवपुरिसा संखे०, जाव आणतकप्पे देवपुरिसा संखेन सहस्सारे कप्पे देवपुरिसा असंखे महासुके कप्पे देवपुरिसा असंखे० जाव माहिंदे कप्पे देवपुरिसा असंखे० सणकुमारकप्पे देवपुरिसा.असं० ईसाणकप्पे- देवपुरिसा असंखे० सोधम्मे कप्पे देवपुरिसा संखे०भवणवासिदेवपुरिसा असंखे० खहयरतिरिक्खजोणियपुरिसा असंखे.. पलयरतिरिक्खजोणियपुरिसा संखे. जलयरतिरिक्खजोणियपुरिसा असंखे० वाणमंतरदेव पुरिसा संखे०, जोतिसियदेवपुरिसा संखेनगुणा ॥ (सू०५६) 'पुरिसाणं भंते!' इत्यादि, सर्वस्तोका मनुष्यपुरुषाः सख्येयकोटीकोटीप्रमाणत्वात् , तेभ्यस्तिर्यग्योनिकपुरुषा असख्येयगुणाः, प्रतरासम्म्येयभागवर्त्यसम्स्येयश्रेणिगताकाशप्रदेशराशिप्रमाणवात्तेपां, तेभ्यो देवपुरुषाः सख्येयगुणाः, बृहत्तरप्रतरासायेयभागवस्यसमयेयश्रेणिगताकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात्, तिर्यग्योनिकपुरुषाणां यथा तिर्यग्योनिकस्त्रीणां मनुष्यपुरुषाणां यथा मनुष्यत्रीणामस्पबहुलं (तया) वक्तव्यं । सम्प्रति देवपुरुषाणामल्पबहुत्वमाह-सर्वस्तोका अनुत्तरोपपातिकदेवपुरुषाः, क्षेत्रपल्योपमासयेयभागवाकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् , सेभ्य उपरितनमैवेयकदेवपुरुषाः सख्येयगुणाः, वृहत्तरक्षेत्रपल्योपमासम्ख्येयभागवर्सिनभःप्रदेशराशिमानखात्, कथमेतदवसेयमिति चेदुच्यते-विमानवाहुल्यात् , तथाहि-अनुत्तरदेवानां पश्च विमानानि, विमानशतं तूपरितनप्रैवे१ याप्रमटे, प्रतिविमानं बामन्यया देवाः, यथा चाधोऽभोवत्तीनि विमानानि तथा तथा देवा अपि प्राचुर्येण 'लभ्यन्ते, ततोऽवसी GANGACASSROGAMANASAA% + + Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25% ते-अनुत्तरविमानवासिदेवपुरुषापेक्षया'वृहत्तरक्षेत्रपस्योपमासम्ख्येयभागवर्तिनभःप्रदेशराशिप्रमाणा उपरितनप्रैवेयकप्रस्तटे देवपुरुषाः (संख्येयगुणा) एवमुत्तरत्रापि भावना विधेया, तेभ्यो' मध्यमवेयकप्रस्तटदेवपुरुषाः सख्येयगुणाः, तेभ्योऽप्यधस्तनप्रैवेयकप्रस्तटदेवपुरुषाः सहयगुणाः, तेभ्योऽप्यच्युतकल्पदेवपुरुषाः सख्येयगुणाः, तेभ्योऽप्यारणकल्पदेवपुरुषाः संख्येयगुणाः, यद्यप्यारणाच्युतकरूपौ समश्रेणीको समविमानसङ्ख्याको च तथाऽपि कृष्णपाक्षिकास्तथास्वाभाव्यात्प्राचुर्येण दक्षिणस्यां दिशिं समुत्पद्यन्ते । अथ्र के ते कृष्णपाक्षिकाः ?, उच्यते; इह द्वये जीवाः, तद्यथा-कृष्णपाक्षिकाः शुक्लपाक्षिकाच, तत्र येषां किश्चिदूनोऽपार्द्धपुद्गलपरावतः संसार शुक्लपाक्षिकाः, इतरे दीर्घसंसारभाजिनः कृष्णपाक्षिकाः, उक्तञ्च-"जेसिमवडो पुग्गलपरियट्टो सेसओ य संसारो । ते सुकपक्खिया खलु अहिए पुण कण्हपक्खीया ॥१॥" अत एव स्तोकाः शुक्लपाक्षिकाः, अल्पसंसाराणां स्तोकानामेव सम्भवात् , बहवः कृष्णपाक्षिकाः, दीर्घसंसाराणामनन्तानन्तानां भावात्, अर्थ- कथमेतदवसातव्यं यथा कृष्णपाक्षिकाः प्राचुर्येण दक्षिणस्यां दिशि समत्पद्यन्ते, उच्यते, तथास्वाभाव्यात, तच्च तथास्वाभाव्यमेवं पूर्वाचार्ययुक्तिभिरुपबृंहितं-कृष्णपाक्षिकाः खलु दीर्घसंसारभाजिन उच्यन्ते, दीर्घसंसारभाजिनश्च बहुपापोदयात्,. बहुपापोद्याश्च क्रूरकर्माणः, क्रूरकर्माणश्च प्रायस्तथास्वाभाव्याद् तद्भवसिद्धिका अपि दक्षिणस्यां दिशि समुत्पद्यन्ते यत उक्तम्.-"पायमिह कूरकम्मा भवसिद्धीयावि. दाहिणिल्लेसु । नेरइयतिरियमणुया सुराइठाणेसु. गच्छंति ॥ १॥" ततो दक्षिणस्यां दिशि प्राचुर्येण कृष्णपाक्षिकाणां सम्भवादुपपद्यते-अच्युतकल्पदेवपुरुषापेक्षयाऽऽर १ येषामपार्थः पुद्गलपरावर्त' शेष एव संसाररु। ते शुकपाक्षिकाः खलु अधिके पुनः कृष्णपाक्षिकाः॥१॥२ प्राय इह क्रूरकर्माणो भवसिद्धिका अपि दाक्षि॥णात्येषु-। नैरयिकतिर्यकमनुजासुरादिस्थानेषु-गच्छन्ति ॥१॥ . Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Fणकस्पदेवपुरुषाः सोयगुणाः, तेभ्योऽपि प्राणतकल्पदेवपुरुषाः सोयगुणाः, तेभ्योऽप्यानतकल्पदेवपुरुषाः सल्येयगुणाः, अत्रापि २प्रतिपत्तौ * प्राणतकल्पापेक्षया सल्येयगुणवं कृष्णपाक्षिकाणां दक्षिणस्यां दिशि प्राचुर्येण भावात् , एते च सर्वेऽप्यनुत्तरविमानवास्यादय आनत- पुरुषाल्प कल्पवासिपर्यन्तदेवपुरुषाः । प्रत्येक क्षेत्रपल्योपमासङ्ख्येयभागवर्त्तिनमःप्रदेशराशिप्रमाणा द्रष्टव्याः, “आणयपाणयमाई पल्लस्सास- बहुत्वं खभागो उ" इति वचनात् , केवलमसाल्येयो भागो विचित्र इति परस्परं यथोक्तं सद्धयेयगुणत्वं न विरुध्यते, आनतकल्पदेवपुरु- + सू० ५६ षेभ्यः सहस्रारकल्पवासिदेवपुरुषा असङ्ख्येयगुणाः, घनीकृतस्य लोकस्यैकप्रादेशिक्याः श्रेणेरसङ्घयतमे भागे यावन्त आकाशप्रदेशास्तावत्प्रमाणत्वात्तेषां, तेभ्योऽपि महाशुक्रकल्पवासिदेवपुरुषा असञ्जयेयगुणाः, बृहत्तरश्रेण्यसद्धयेयभागाकाशप्रदेशराशिप्रमाणवात् , कथमेतत्प्रत्येयमिति चेदुच्यते-विमानबाहुल्यात्, तथाहि-पट सहस्राणि विमानानां सहस्रारकल्पे चलारिंशत्सहस्राणि महाशुक्रे, अन्यच्चाघोविमानवासिनो देवा बहुबहुतराः स्तोकस्तोकतरा उपरितनोपरितनविमानवासिनस्तत उपपद्यन्ते सहस्रारकल्पदेवपुरुषेभ्यो महाशुक्रकल्पवासिदेवपुरुषा असङ्खयेयगुणाः, तेभ्योऽपि लान्तककल्पदेवपुरुषा असङ्खयेयगुणाः, बृहत्तमश्रेण्यसङ्ख्येयभागवर्त्तिनभःप्रदेशराशिप्रमाणत्वात्, तेभ्योऽपि ब्रह्मलोककल्पवासिदेवपुरुषा असङ्ख्येयगुणाः, भूयोबृहत्तमश्रेण्यसलयेयभागवाकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात्, तेभ्योऽपि माहेन्द्रकल्पदेवपुरुषा असङ्खधेयगुणाः, भूयस्तरबृहत्तमनभःश्रेण्यसङ्खयेयभागगताकाशप्रदेशमानत्वात् , तेभ्यः सनत्कुमारकल्पदेवा असङ्खधेयगुणाः, विमानबाहुल्यात्, तथाहि-द्वादश शतसहस्राणि सनत्कुमारकल्पे. विमानानामष्टौ शतसहस्राणि माहेन्द्रकल्पे अन्यच दक्षिणदिग्भागवर्ती सनत्कुमारकल्पो माहेन्द्रकल्पश्चोत्तरदिग्वी दक्षिणस्यां च दिशि बहवः ॐ ॥७२॥ -१ आनतप्राणतादयः पल्योपमस्यासस्यो भागस्त. Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐॐॐॐ* समुत्पद्यन्ते कृष्णपाक्षिकाः, तत उपपद्यन्ते माहेन्द्रकल्पात्सनत्कुमारकल्पे देवा असङ्खधेयगुणाः, एते च सर्वेऽपि सहस्रारकल्पवासिदेवादयः सनत्कुमारकल्पवासिदेवपर्यन्ताः प्रत्येकं स्वस्थाने चिन्त्यमाना घनीकृतलोकैकश्रेण्यसङ्खयेयभागगताकाशप्रदेशराशिप्रमाणा द्रटव्याः, केवलं श्रेण्यसङ्खधेयभागोऽसङ्ख्येयभेभिन्नस्तत इत्थमसङ्ख्येयगुणतयाऽल्पवहुत्वमभिधीयमानं न विरोधभाक्, सनत्कुमारकल्पदेवपुरुषेभ्य ईशानकल्पदेवपुरुषा असङ्खयेयगुणाः, अङ्गलमात्रक्षेत्रप्रदेशराशिसम्बन्धिनि द्वितीये वर्गमूले तृतीयेन वर्गमूलेन गुणिते यावान् प्रदेशराशिस्तावत्सङ्ख्याकासु घनीकृतस्य लोकस्यैकप्रादेशिकीपु श्रेणिषु यावन्तो नभःप्रदेशास्तेषां यावान् द्वात्रिंशत्तमो भागस्तावत्प्रमाणत्वात् , तेभ्यः सौधर्मकल्पवासिदेवपुरुषाः सङ्ख्येयगुणाः, विमानवाहुल्यात् , तथाहि-अष्टाविंशतिः शतसहस्राणि विमानानामीशानकल्पे द्वात्रिंशच्छतसहस्राणि सौधर्मकल्पे, अपि च दक्षिणदिग्वर्ती सौधर्मकल्प ईशानकल्पश्चोत्तरदिग्वती, दक्षिणस्यां च दिशि वहवः कृष्णपाक्षिका उत्पद्यन्ते, तत ईशानकल्पवासिदेवपुरुषभ्यः सौधर्मकल्पवासिदेवपुरुषाः सङ्ख्येयगुणाः, नन्वियं युक्तिः सनत्कुमारमाहेन्द्रकल्पयोरप्युक्ता, परं तत्र माहेन्द्रकल्पापेक्षया सनत्कुमारकल्पे देवा असङ्ख्येयगुणा उक्ता इह तु सौधर्मे कल्पे सङ्ख्येयगुणास्तदेतत्कथम् ?, उच्यते, तथावस्तुस्वाभाव्यात्, एतच्चावसीयते प्रज्ञापनादौ सर्वत्र तथाभणनात् , तेभ्योऽपि भवनवासिPIदेवपुरुपा असहयेयगुणाः, अङ्गुलमानक्षेत्रप्रदेशराशेः सम्बन्धिनि प्रथमे वर्गमूले द्वितीयेन वर्गमूलेन गुणिते यावान् प्रदेशराशिरुप जायते तावत्सङ्ख्याकासु धनीकृतस्य लोकस्यैकप्रादेशिकीपु श्रेणिषु यावन्तो नभःप्रदेशास्तेषां यावान् द्वात्रिंशत्तमो भागस्तावत्प्रमाणत्वात् , तेभ्यो व्यन्तरदेवपुरुषा असोयगुणाः, सहयेययोजनकोटीकोटीप्रमाणैकप्रादेशिकश्रेणिमात्राणि खण्डानि यावन्येकस्मिन् प्रतरे भवन्ति तेषां यावान् द्वात्रिंशत्तमो भागस्तावत्प्रमाणत्वात् , तेभ्यः सङ्ख्येयगुणा ज्योतिष्कदेवपुरुषाः, षट्पञ्चाशदधिकशतद्वया 944 Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जलप्रमाणैकप्रादेशिकश्रेणिमात्राणि खण्डानि यावन्येकस्मिन् प्रतरे भवन्ति तेषां यावान् द्वात्रिंशत्तमो भागस्तावत्प्रमाणत्वात् ॥ स-१२प्रतिपत्तौ म्प्रति पश्चममल्पबहुत्वमाह-एएसिणं भंते।' इत्यादि, सर्वस्तोका अन्तरद्वीपकमनुष्यपुरुषाः, क्षेत्रस्य स्तोकत्वात् , तेभ्योऽपि पुरुषवेदिदेवकुरूत्तरकुरुमनुष्यपुरुषाः सङ्ख्ययगुणाः, क्षेत्रस्य बहुत्वात् , स्वस्थाने तु द्वयेऽपि परस्परं तुल्याः, तेभ्योऽपि हरिवर्षरम्यकवर्षाक-5 नामल्पमभूमकमनुष्यपुरुषाः सङ्ख्येयगुणाः, क्षेत्रस्यातिबहुत्वात् , स्वस्थाने तु द्वयेऽपि परस्परं तुल्याः, क्षेत्रस्य समानत्वात्, तेभ्योऽपि हैमवत- बहुत्वं हैरण्यवताकर्मभूमकमनुष्यपुरुषाः सङ्घयेयगुणाः, क्षेत्रस्याल्पत्वेऽप्यल्पस्थितिकतया प्राचुर्येण लभ्यमानत्वात् , स्वस्थाने तु द्वयेऽपि पर- सू० ५६ स्परं तुल्याः, तेभ्योऽपि भरतैरावतकर्मभूमकमनुष्यपुरुषाः सङ्घयेयगुणाः, अजितखामिकाले उत्कृष्टपदे (इव) स्वभावत एव भरतैरावतेषु । [च मनुष्यपुरुषाणामतिप्राचुर्येण सम्भवात् , स्वस्थाने च द्वयेऽपि परस्परं तुल्याः, क्षेत्रस्य तुल्यत्वात् , तेभ्योऽपि पूर्वविदेहापरविदेहकर्मभूमकमनुष्यपुरुषाः सङ्ख्येयगुणाः, क्षेत्रबाहुल्यादजितस्वामिकाले इव स्वभावत एव मनुष्यपुरुषाणां प्राचुर्येण सम्भवात् , स्वस्थाने तु द्वयेऽपि परस्परं तुल्याः, तेभ्योऽनुत्तरोपपातिकदेवपुरुषा असङ्खयेयगुणाः, क्षेत्रपल्योपमासद्धयेयभागवल्काशप्रदेशप्र-5 माणत्वात् , तदनन्तरमुपरितनप्रैवेयकप्रस्तटदेवपुरुषा मध्यमवेयकप्रस्तटदेवपुरुषा अधस्तनप्रैवेयकप्रस्तटदेवपुरुषा अच्युतकल्पदेवपुरुषा आरणकल्पदेवपुरुषाः प्राणतकल्पदेवपुरुषा आनतकल्पदेवपुरुषा यथोत्तरं सङ्ख्येयगुणाः, भावना प्रागिव, तदनन्तरं सहस्रारकल्पदेवपुरुषा लान्तककल्पदेवपुरुषा ब्रह्मलोककल्पदेवपुरुषा माहेन्द्रकल्पदेवपुरुषाः सनत्कुमारकल्पदेवपुरुषा ईशानकल्पदेवपुरुषा यथोत्तरमसङ्ख्येयगुणाः, सौधर्मकल्पदेवपुरुषाः सङ्ख्येयगुणाः, सौधर्मकल्पदेवपुरुषेभ्यो भवनवासिदेवपुरुषा असङ्खयेयगुणाः, भावना ॥७३॥ सर्वत्रापि प्रागिव, तेभ्यः खचरतिर्यग्योनिकपुरुषा असलयेयगुणाः, प्रतरासद्धयेयभागवय॑सङ्ख्येयश्रेणिगताकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् , Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेभ्यः स्थलचरतिर्यग्योनिकपुरुषाः सङ्ख्येयगुणाः, तभ्योऽपि जलचरतिर्यग्योनिकपुरुषाः सङ्ग्येयगुणाः, युक्तिरत्रापि प्रागिव, तेभ्योऽपि। वानमन्तरदेवपुरुषाः सङ्खयेयगुणाः, सङ्ख्थेययोजनकोटीप्रमाणैकप्रादेशिकश्रेणिमात्राणि खण्डानि यावन्त्येकस्मिन् प्रतरे भवन्ति तेषां यावान् द्वात्रिंशत्तमो भागस्तावत्प्रमाणत्वात् , तेभ्यो ज्योतिष्कदेवपुरुषाः सङ्खयेयगुणाः, युक्तिः प्रागेवोक्ता ॥ पुरिसवेदस्स णं भंते ! कम्मरस केवतियं कालं बंधहिती पण्णत्ता?, गोयमा! जह० अट्ठ संवच्छराणि, उक्को० दस सागरोवमकोडाकोडीओ, दसवाससयाई अवाहा, अयाहूणिया कम्मठिती कम्मणिसेओ ॥ पुरिसवेदे णं भंते! किंपकारे पण्णत्ते?, गोयमा! वणदवग्गिजालस माणे पण्णत्ते, सेत्तं पुरिसा ॥ (सू०५७) पुरुषवेदस्थितिर्जघन्यतोऽष्टौ संवत्सराणि, एतन्न्यूनस्य तन्निबन्धनविशिष्टाध्यवसायाभावतो जघन्यत्वेनासम्भवात् , उत्कर्षतो दश || सागरोपमकोटीकोटयः, दश वर्षशतान्यबाधा, अबाधोना कर्मस्थितिः कर्मनिषेकः, अस्य व्याख्या प्राग्वत् ॥ तथा पुरुषवेदो भदन्त !| किंप्रकारः प्रज्ञप्तः ?, भगवानाह-गौतम ! वाग्निज्वालासमानः, प्रारम्भे तीव्रमदनदाह इति भावः, प्रज्ञप्तः॥ व्याख्यातः पुरुषा|धिकारः, सम्प्रति नपुंसकाधिकारप्रस्तावः, तत्रेदमादिसूत्रम् से किं तं णपुंसका ?, णपुंसका तिविहा पण्णत्ता, तंजहा-नेरइयनपुंसका तिरिक्खजोणियनपुंसका मणुस्सजोणियणपुंसका ॥ से किं तं नेरइयनपुंसका ?, नेरइयनपुंसका सत्तविधा पण्णत्ता, तंजहारयणप्पभापुढविनेरइयनपुंसका सकरप्पभापुढविनेरइयनपुंसका जाव अधेसत्तमपुढविनेरइयणपुं Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सका, सेतं नेरइयनपुंसका ॥ से किं तं तिरिक्खजोणियणपुंसका?,२ पंचविधा पण्णत्ता, तंजहाएगिदियतिरिक्खजोणियनपुंसका, येइंदि० तेइंदि० चउ० पंचेंदियतिरिक्खजोणियणपुंसका ॥ से किं तं एगिंदियतिरिक्खजोणियनपुंसका ?, २ पञ्चविधा पण्णत्ता, तं० पु० आ० ते० वा०व० से तं एगिदियतिरिक्खजोणियणपुंसका ॥ से किं तं येइंदियतिरिक्खजोणियणपुंसका?, २ अणेगविधा पण्णत्ता, से तं वेइंदियतिरिक्खजोणिया, एवं तेइंदियावि, चरिंदियावि ॥से किं तं पंचेंदिय- . तिरिक्खजोणियणपुंसका?, २तिविधा पण्णत्ता, तंजहा-जलयरा थलयरा खयरा । से किं तं जलयरा?, २ सो चेव पुवुत्तभेदो आसालियवज्जितो भाणियब्बो, से तं पंचेंदियतिरिक्खजोणियणपुंसका॥ सो किं तं मणुस्सनपुंसका?, २ तिविधा पण्णत्ता, तंजहा-कम्मभूमगा अकम्मभूमगा अंतरदीवका, भेदो जाव भा०॥ (सू०५८) 'से किं तं नपुंसगा' इत्यादि, अथ के ते नपुंसका ?, नपुंसकास्त्रिविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-नैरयिकनपुंसकास्तिर्यग्योनिकनपुंसका मनुष्यनपुंसकाश्च ॥ नैरयिकनपुंसकप्रतिपादनार्थमाह-'से किं त'मित्यादि, अथ के ते नैरयिकनपुंसकाः ?, पृथ्वीभेदेन सप्तविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-रत्नप्रभापृथ्वीनैरयिकनपुंसकाः शर्कराप्रभापृथ्वीनैरयिकनपुंसकाः यावद्धःसप्तमपृथिवीनैरयिकनपुंसकाः, उपसंहारमाह-'से तं नेरइयनपुंसका' ॥ सम्प्रति तिर्यग्योनिकनपुंसकप्रतिपादनार्थमाह-से किं तमित्यादि प्रश्नसूत्रं सुगमम् , भगवानाह-तिर्यग्योनिकनपुंसकाः पञ्चविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-एकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसका यावत्पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसकाः॥ २प्रतिपत्तौ पुरुषवेद स्थिति प्रकारौ ६ सू० ५७ नपुंसकर भेदाः ९ सू० ५८ ॥ ७४॥ KAR Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SASR एकेन्द्रियनपुंसकप्रभसूत्रं सुगम, भगवानाह-एकेन्द्रियतिर्वयोनिकनपुंसकाः पञ्चविधाः प्रज्ञप्ताः, तंद्यया-पृथिवीकायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसका सप्कायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसकास्तेजस्कायिकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसका वायुकायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसका वनस्पतिकाविकैकेन्द्रियतिर्ययोनिकनपुंसकाः, उपसंहारमाह-सेत्तं एगिंदियतिरिक्खजोणियनपुंसका' ।। द्वीन्द्रिय-| नपुंसकप्रतिपादनार्थमाह-वेइंदिए सादि, द्वीन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसका मदन्त! कतिविवाः प्रज्ञताः ?, भगवानाह-गौतम ! अनेकविधाः प्रज्ञप्तात्तद्यया-"पुलांकिमिया" इत्यादि पूर्ववत्तावद्वक्तव्यं याववतुरिन्द्रियमेदपरिसमापिः ॥ पञ्चेन्द्रियनियंग्योनिकनपुंसका भदन्त ! कतिविधाः प्रज्ञता: ?, गौतम! त्रिवियाः प्रज्ञताः, त्यया-जलचराः सलचराः तराञ्च, एते च प्रान्वत्तप्रभेदार वक्तव्याः, उपसंहारमाह-'ते तं पंचिंदियतिरिक्खजोणियणपुंसगा। 'से कि तमित्यादि, अथ के ते मनुष्यनपुंसकाः ?, मनुडायनपुंसकात्रिविधाः प्रज्ञताः, तद्यथा-कर्मभूनका अकर्नमूमका अन्तरद्वीपकाच, एतेऽपि प्राग्वत्सप्रभेदा वक्तव्याः । उन्को भेदः, सन्त्रवि सिविप्रतिपादनार्थमाह णपुंसकस्स णं भंते ! केवतियं कालं ठिनी पण्णत्ता?, गोयमा ! जहः अंतो उक्को० तेत्तीसं सागरोवमाई ॥ नेरइयनपुंसगत्स णं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णता?, गोयमा ! जह. दसवाससहस्साई उक्को तेत्तीसं सागरोवमाई, सम्वेसिं ठिनी भाणियचा जाव असत्तमापुढविनेरड्या । तिरिक्खजोणियणपुंसकस्स णं भने ! केवड्यं कालं ठिती प०, गोयमा !, जह० अंनो. उको पुचकोडी । एगिंदियतिरिक्खजोगियणपुंसक० जहः अंतो• उको यावीसं वाससह A NCRACHNAME - ---- Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ २ प्रतिपत्त + नपुंसक स्थित्यन्त 8 सू० ५९ स्साई, पुढविकाइयएगिंदियतिरिक्खजोणियणपुंसकस्स णं भंते ! केवतियं कालं ठिती पन्नत्ता ?, जह अंतो० उक्को० बावीसं वाससहस्साई, सव्वेसिं एगिदियणपुंसकाणं ठिती भाणियव्वा, बेइंदियतेइंदियचरिंदियणपुंसकाणं ठिती भाणितव्वा । पंचिंदियतिरिक्खजोणियणपुंसकस्स णं भंते! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ?, गोयमा! जह० अंतो० उक्को० पुवकोडी, एवं जलयरतिरिक्खचउप्पदधलयरउरगपरिसप्पभुयगपरिसप्पखयरतिरिक्ख० सव्वेसिं जह० अंतो० उक्को पुचकोडी । मणुस्सणपुंसकस्स णं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता?, गोयमा! खेत्तं पडुच्च जह० अंतो० उक्को पुचकोडी, धम्मचरणं पडुच्च जह० अंतो० उक्को० देसूणा पुव्वकोडी। कम्मभूमगभरहेरवयपुव्वविदेहअवरविदेहमणुस्सणपुंसकस्सवि तहेव, अकम्मभूमगमणुस्सणपुंसकस्स णं भंते! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता?, गोयमा! जम्मणं पडुच जह० अंतो० उक्को अंतोमु० साहरणं पडुच्च जह. अंतो० उक्को० देसूणा पुचकोडी, एवं जाव अंतरदीवकाणं ॥ णपुंसए णं भंते! णपुंसए त्ति कालतो केवचिरं होइ?, गोयमा! जहन्नेणं एवं समयं उक्को० तरुकालो। रइयणपुंसए णं भंते!, २ गोयमा! जह० दस वाससहस्साई उक्को० तेत्तीसं सागरोवमाई, एवं पुढवीए ठिती भाणियब्वा। तिरिक्खजोणियणपुंसए णं. भंते! ति०१, २ गोयमा! जह० अंतो० उक्को० वणस्सतिकालो, एवं एगिदियणपुंसकस्स णं, वणस्सतिकाइयस्सवि एवमेव, ॥७५॥ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेसाणं जह० अंतो० उक्को० असंखिजं कालं असंखेजाओ उस्सपिणिओसप्पिणीओ का लतो, खेत्तओ असंज्जा लोया । बेइंदियतेइंदियचउरिंदियनपुंसकाण य जह० अंतो० उक्को० संखेनं कालं । पंचिंदियतिरिक्खजोणियणपुंसए णं भंते!?, गोयमा! जह० अंतो० उक्को० पुव्वकोडिपुहुत्तं । एवं जलयरतिरिक्खचउप्पदथलचरउरगपरिसप्पभुयगपरिसप्पमहोरगाणवि । मगुस्सणपुंसकस्स णं भंते ! खेत्तं पडुच्च जह० अतो. उक्को० पुच्चकोडिपुटुत्तं, धम्मचरणं पड्डुच जह. एक समयं उक्को० देसूणा पुव्वकोडी । एवं कम्मभूमगभरहेरवयपुव्वविदेहअवरविदेहेसुवि भाणियव्वं । अकम्मभूमकमणुस्सणपुंसए णं भंते ! जम्मणं (पडुच्च)जह० अंतो० उक्को० मुहुत्तपुहुत्तं, साहरणं पड्डुच्च जह० अंतो० उक्को० देसूणा पुवकोडी । एवं सब्वेसिं जाव अंतरदीवगाणं ॥णपुंसकस्स णं भंते ! केवतियं कालं अंतरं होइ ?, गोयमा! जह० अंतो० उक्को० सागरोवमसयपुहुतं सातिरेगं । रइयणपुंसकस्स णं भंते ! केवतियं कालं अंतर होइ ?, जह० अंतो० उक्को० तरुकालो, रयणप्पभापुढचीनेरड्यणपुंसकस्स जह० अंतो० उक्को० तरुकालो, एवं सव्वेसिं जाव अधेसत्तमा । तिरिक्खजोणियणपुंसकस्स जह० अंतो० उक्को० सागरोवमसयपुहुत्तं सातिरेगं । एगिदियतिरिक्खजोणियणपुंसकस्स जह० अंतो० उक्को. दो सागरोवमसहस्साई संखेजवासमभहियाइं, पुढविआउतेउवाऊणं जह० अंतो० उक्को० वणस्सइकालो । Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २प्रतिपत्ती नपुंसकस्थित्यन्तरे सू० ५९ वणस्सतिकाइयाणं जह० अंतो० उक्को० असंखेनं कालं जाव असंखेज्जा लोया, सेसाणं येइंदियादीणं जाव खयराणं जह० अंतो० उक्को० वणस्सतिकालो। मणुस्सणपुंसकस्स खेत्तं पडच जह० अंतो० उक्को० वणस्सतिकालो, धम्मचरणं पडच जह० एगं समयं उक्को० अणंतं कालं जावअवडपोग्गलपरियह देसूणं, एवं कम्मभूमकस्सवि भरतेरवतस्स पुव्वविदेहअंवरविदेहकस्सवि। अकम्मभूमकमणुस्सणपुंसकस्स णं भंते! केवतियं कालं?, जम्मणं पडुच जह० अंतो० उक्को वणस्सतिकालो, संहरणं पडुच जह० अंतो० उक्को० वणस्ततिकालो एवं जाव अंतरदीव गत्ति ॥ (सू० ५९) 'नपुंसगस्स णं भंते !' इत्यादि सुगम, नवरमन्तर्मुहूर्त तिर्यग्मनुष्यापेक्षया द्रष्टव्यं, त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि सप्तमपृथिवीनारकापेक्षया ॥ तदेवं सामान्यतः स्थितिरुक्ता, सम्प्रति विशेपतस्तां विचिचिन्तयिपुः प्रथमतः सामान्यतो विशेषतश्च नैरयिकनपुंसकविषया8 माह्-'नेरइयनपुंसगस्स णमियादि, सामान्यतो नैरयिकनपुंसकस्य जघन्यतो दश वर्पसहस्राणि उत्कर्षतस्रयस्त्रिंशत्सागरोप माणि, विशेषचिन्तायां रत्नप्रभापृथिवीनैरयिकनपुंसकस्य जघन्यतः स्थितिर्दश वर्षसहस्राणि उत्कर्पत एकं सांगरोपमं शर्करापृथिवीनैरयिकनपुंकसस्य जघन्यत एकं सागरोपममुत्कर्षतस्त्रीणि सागरोपमाणि वालुकाप्रभापृथिवीनैरयिकनपुंसकस्य जघन्यतस्त्रीणि सागरोपमाणि उत्कर्पतः सप्त पङ्कप्रभापृथवीनैरयिकनपुंसकस्य जघन्यतः सप्त सागरोपमाणि उत्कर्षतो दश धूमप्रभापृथिवीनैरयिकनपुंसकस्य जघ*न्यतो दश सागरोपमाणि उत्कर्षत: सप्तदश तमःप्रभापृथिवीनैरयिकनपुंसकस्य जघन्यत: सप्तदश सागरोपमाणि उत्कर्षतो द्वाविं ॥ ७६॥ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतिः अधःसप्तमपृथिवीनरयिकनपुंसकस्य जघन्यतो द्वाविंशतिः सागरोपमाणि उत्कर्पतस्त्रयस्त्रिंशत् , कचिदतिदेशसूत्रं 'जहा पण्णवणाए ठिइपदे तहे' त्यादि, तत्राप्येवमेवातिदेशव्याख्याऽपि कर्त्तव्या। सामान्यतस्तिर्यग्योनिकनपुंसकस्य स्थितिर्जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतः पूर्वकोटी, सामान्यत एकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसकस्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतो द्वाविंशतिर्वर्पसहस्राणि, विशेषचिन्तायां पृथिवीकायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसकस्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतो द्वाविंशतिवर्षसहस्राणि अप्कायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसकस्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतः सप्त वर्षसहस्राणि तेजःकायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसकस्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षत-1 स्त्रीणि रात्रिन्दिवानि वातकायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसकस्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतस्त्रीणि वर्षसहस्राणि वनस्पतिकायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसकस्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतो दश वर्पसहस्राणि । द्वीन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसकस्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमु-४ त्कर्षतो द्वादश वर्षाणि । त्रीन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसकस्य जघन्यतोऽन्तर्मुहर्तमुत्कर्षत एकोनपञ्चाशद् रात्रिन्दिवानि । चतुरिन्द्रि तिर्यग्योनिकनपुंसकस्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतः पण्मासाः । सामान्यतः पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसकस्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमु- कर्पतः पूर्वकोटी, विशेषचिन्तायां जलचरस्य स्थलचरस्य खचरस्यापि पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसकस्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतः पूर्वकोटी ॥ सामान्यतो मनुष्यनपुंसकस्यापि जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतः पूर्वकोटी, कर्मभूमकमनुष्यनपुंसकस्य क्षेत्रं प्रतीत्य जघन्य तोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतः पूर्वकोटी, 'धर्मचरणं' बाह्यवेषपरिकरितप्रव्रज्याप्रतिपत्तिमगीकृत्य जघन्येनान्तर्मुहूत्तै तत ऊर्द्ध मरणादिभा18 वात् , उत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटी, संवत्सराष्टकादूर्द्ध प्रतिपद्याजन्मपालनात् , भरतैरावतकर्मभूमकमनुष्यनपुंसकस्य पूर्वविदेहापर विदेहकर्मभूमकमनुष्यनपुंसकस्य च क्षेत्रं धर्मचरणं च प्रतीत्य जघन्यत उत्कर्षतश्चैवमेव वक्तव्यम् । अकर्मभूमकमनुष्यनपुंसकस्य | Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MC जन्म प्रतीत्य जघन्येनान्तर्मुहूर्तमुत्कर्षेणाप्यन्तर्मुहूर्तम् , अकर्मभूमौ हि मनुष्या नपुंसकाः संमूछिमा एव भवन्ति, न गर्भव्युत्क्रा- ४२प्रतिपत्ती न्तिकाः, युगलधर्मिणां नपुंसकत्वाभावात् , संमूच्छिमाश्च जघन्यत उत्कर्षतो वाऽन्तर्मुहूर्त्तायुषः, केवलं जघन्यादुत्कृष्टमन्तर्मुहूर्त बृहत्तर- नपुंसकवेमवसेयं, संहरणं प्रतीत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्पतो देशोना पूर्वकोटी, संहरणादूर्ध्वमामरणान्तमवस्थानसम्भवात् , उत्कर्पतो देशोनता दतद्वत्स्थिच पूर्वकोट्या गर्भान्निर्गतस्य संहरणसम्भवात् , एवं विशेषचिन्तायां हैमवतहरण्यवताकर्मभूमकमनुष्यनपुंसकस्य हरिवर्षरम्यकव-ॐ त्यन्तरादि पाकर्मभूमकमनुष्यनपुंसकस्य देवकुरूत्तरकुर्वकर्मभूमकमनुष्यनपुंसकस्य अन्तरद्वीपकमनुष्यनपुंसकस्य च जन्म संहरणं च प्रतीत्यैव- सू० ६० मेव वक्तव्यम् ॥ सम्प्रति काय स्थितिमाह-'णपुंसगे णं भंते !' इत्यादि, नपुंसको भदन्त ! नपुंसक इत्यादि, सामान्यतस्तद्वेदापरित्यागेन कालतः कियश्चिरं भवति ?, भगवानाह-गौतम ! जघन्यत एकं समयमुत्कर्षतो वनस्पतिकालं, तत्रैकसमयता उपशमश्रेणिसमाप्तौ सत्यामवेदकवे सति उपशमश्रेणीतः प्रतिपततो नपुंसकवेदोदयसमयानन्तरं कस्यचिन्मरणात् , तथा मृतस्य चावश्यं देवोत्पादे पुंवेदोदयभावात् , वनस्पतिकाल:-आवलिकासङ्ख्येयभागगतसमयराशिप्रमाणासङ्ख्येयपुद्गलपरावर्त्तप्रमाणः । नैरयिकनपुंसककायस्थितिचिन्तायां यदेव सामान्यतो विशेपतश्च स्थितिमानं जघन्यत उत्कर्षतश्चोक्तं तदेवावसातव्यं, भवस्थितिव्यतिरेकेण तत्रान्यस्याः कायस्थितेरसम्भवात् । सामान्यतस्तिर्यग्योनिकनपुंसककायस्थितिचिन्तायां जघन्यतोऽन्तर्मुहूत्तै, तदनन्तरं मृत्वा गत्यन्तरे वेदान्तरे वा, संक्रमात् , उत्कर्पतो वनस्पतिकालः, विशेपचिन्तायामेकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसककायस्थितावपि जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त भावना प्राग्वत् , उत्कर्पतो वनस्पतिकालो यथोदितरूपः, तत्रापि विशेपचिन्तायां पृथिवीकायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसककायस्थितौ जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतोऽसयेयकालोऽसङ्ख्येयोत्सर्पिण्यवसर्पिणीप्रमाणः, तथा चाह-उकोसेणमसंखेनं कालं असंखेजाओ उस्सप्पि Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णीओसप्पिणीओ कालतो, खेत्ततो असंखिज्जा लोगा" एवमप्कायिकतेजः कायिकवायुकायिककायस्थितिष्वपि वक्तव्यं, वनस्पतिकायिककायस्थितौ तथा वक्तव्यं यथा सामान्यत एकेन्द्रियकायस्थितौ । द्वीन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसक कायस्थितौ जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्पतः सङ्ख्येयः कालः, स च सङ्ख्येयानि वर्षसहस्राणि प्रतिपत्तव्यः । एवं त्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसककायस्थित्योरपि वक्तव्यम् । पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसककायस्थितौ जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतः पूर्वकोटिपृथक्त्वं तच निरन्तरं सप्तभवान् पूर्वकोट्यायुषो नपुंसकत्वेनानुभवतो वेदितव्यं तत उर्ध्व त्ववश्यं वेदान्तरे विलक्षणभवान्तरे वा संक्रमात् एवं जलचरस्थलचरखचरसामान्यतो मनुष्यनपुंसककायस्थितिष्वपि वेदितव्यं, कर्मभूमकमनुष्यनपुंसककायस्थितौ क्षेत्रं प्रतीत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्त उत्कर्षतः पूर्वकोटीपृथक्त्वं भावना प्रागिव, धर्म्मचरणं प्रतीत्य जघन्यत एकं समयमुत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटी, अन्त्रापि भावना पूर्ववत् । एवं भरतैरावतकर्म्मभूमकमनुष्यनपुंसककायस्थितौ पूर्वविदेहापर विदेह कर्म्मभूमकमनुष्य नपुंसककायस्थितौ च वाच्यं, सामान्यतोऽकर्म्मभूमकमनुष्यनपुंसककायस्थितिचिन्तायां जन्म प्रतीत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्त, एतावत्यपि कालेऽसकृदुत्पादात्, उत्कर्षतोऽन्तर्मुहूर्त्तपृथक्त्वं, तत ऊर्द्ध तत्र तथोत्पादाभावात्, संहरणं प्रतीत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्त तत ऊर्द्ध मरणादिभावात् उत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटी । एवं हैमवत हैरण्यवतहरिवर्षरम्यकवर्षदेवकुरूत्तरकुर्वन्तरद्वीपकमनुष्यनपुंसककायस्थितिष्वपि वक्तव्यम् ॥ तदेवमुक्ता कायस्थितिः, साम्प्रतमन्तरमभिधित्सुरिदमाह - 'नपुंसगस्स ण' मित्यादि, नपुंसकस्य णमिति वाक्यालङ्कारे भदन्त ! अन्तरं कालतः कियच्चिरं भवति ?, नपुंसको भूत्वा नपुंसकत्वात्परिभ्रष्टः पुनः कियता कालेन नपुंसको भवतीत्यर्थः, भगवानाह - गौतम ! जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्त, एतावता पुरुपादिकालेन व्यवधानात् उत्कर्षतः सागरोपमशतपृथक्त्वं सातिरेकं, पुरुषादिकालस्यैतावत एव सम्भवात्, तथा चात्र सङ्ग्रहणिगाथा --" इत्थिनपुंसा संचि Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ARSAUGARCASSASSALMASC ढणेसु-पुरिसंतरे य समओ उ । पुरिसनपुंसा संचिट्ठणंतरे सागर पुहुत्तं ॥ १॥" अस्या अक्षरगमनिका-संचिट्ठणा नाम सातत्येनाव- २ प्रतिपत्तौ स्थानं, तत्रं त्रिया नपुंसकस्य च सातत्येनावस्थाने पुरुपान्तरे च जघन्यत एकः समय. तथा यथा प्रागभिहितम्-"इत्थीए णं भंते! नपुंसकवेइत्थीत्ति कालतो कियश्चिरं होइ?, गोयमा । एगेणं आदेसेणं जह० एग समयं” इत्यादि, तथा-नपुंसगे णं भंते! नपुंसगत्ति कालतो दतद्वत्स्थिकियचिरं होइ?, गोयमा जह० एक समयं" इत्यादि, तथा-"पुरिसस्स णं भंते ! अंतरं कालतो कियच्चिरं होइ?, गोयमा। जह त्यन्तरादि नेणं एक समयं” इत्यादि । तथा पुरुपस्य नपुंसकस्य यथाक्रमं संचिढणा-सातत्येनावस्थानमन्तरं चोत्कर्पतः 'सागरपृथक्त्वं' पदैक सू० ६० देशे पदसमुदायोपचारात् सागरोपमशतपृथक्त्वं, तथा च प्रागभिहितम्-"पुरिसे णं भंते पुरिसेत्ति कालतो कियच्चिर होइ?, गोयमा जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं सागरोवमसयपुहुत्तं सातिरेग” नपुंसकान्तरोत्कर्पप्रतिपादकं चेदमेवाधिकृतं तत्सूत्रमिति । तथा सामान्यतो नैरयिकनपुंसकस्यान्तरं जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त, सप्तमनरकपृथिव्या उद्दृत्य तन्दुलमत्स्यादिभवेष्वन्तर्मुहूर्त स्थित्वां भूयः सप्तमनरकपृथिवीगमनस्य श्रवणात् , उत्कर्पतो वनस्पतिकालः, नरकभवादुद्वत्य पारम्पर्येण निगोदेषु मध्ये गत्वाऽनन्तं कालमवस्थानात्, एवं विशेषचिन्तायां प्रतिपृथिव्यपि वक्तव्यं । तथा सामान्यचिन्तायां तिर्यग्योनिकनपुंसकस्यान्तरं जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतः सा-* गरोपमशतपृथक्त्वं, सातिरेकलभावना प्रागिव, विशेपचिन्तायां सामान्यत एकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसकस्यान्तरमन्तर्मुहूर्त ता-2 वता द्वीन्द्रियादिकालेन व्यवधानात् , उत्कर्षतो वे सागरोपमसहस्रे, सहयेयवाणि सकायस्थितिकालस्य एकेन्द्रियत्वव्यवधायक|स्योत्कर्षतोऽप्येतावत एव सम्भवात् । पृथिवीकायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसकस्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतो वनस्पतिकालः । एव- ॥ ७८॥ |मप्कायिकतेज:कायिकवायुकायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसकानामपि वक्तव्यं । वनस्पतिकायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसकस्य जघन्य Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तोऽन्तर्मुहर्तमुत्कर्पतोऽसोयं कालं यावत्, स चासायः कालोऽसाना उत्मपिण्यासपिण्यः कालतः, क्षेत्रतोऽसशेया लोकाः. किमुक्तं भवति?-असहयेयलोकाकाशप्रदेशानां प्रतिममयमेकैकापदारे गावदा त्मपिण्यवसर्मिण्यो भवन्नि तावन्य प्रत्यर्थः, वनस्पनि भवात्प्रच्युतस्यान्यत्रोत्कर्पत एतावन्तं कालमवसानसम्भवात् , तदनन्तरं संमारिणो नियमेन भूगो बनस्पतिकाविरुवेनोत्पादमापात् । दाद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियपशेन्द्रियतिर्यग्योनिफनपुंसकानां जलनरपलनरबगरपजेन्द्रिगनियंग्योनिकनपुंमकानां मानान्यतो मनु ध्यनपुंसकस्य च जघन्यतोऽन्तरमन्तर्मुहर्तमुत्कर्पतोऽनन्तं कालं, मचानन्नः कालो वनस्पतिकालो गयोकमारूप: प्रनिपत्तन्यः, कर्म-॥ भूमकमनुष्यनपुंसकस्यान्तरं क्षेत्रं प्रतीय जघन्यतोऽन्तर्मुहुर्तगुतनो वनस्पनिकाल:, धर्मचरण प्रनीय जपन्यन ए ममगं गान्, लब्धिपातस्य सर्वजघन्यस्यैफसामयिकत्वात् , उत्कांतोऽनन्तं कालं, तमेवाननं कालं निखारगनि--"अनामो उत्मप्पिणीमोगप्पिणीओ कालओ, सेत्तओ अणंता लोगा अपर पुग्गलपरियदेमण"मिनि, भरनेरास्नपूर्णविदेदापरनिकम्मभूमकमनुष्यनपुंसकानामपि क्षेत्रं धर्माचरणं च प्रतीत्य जवन्यमुक्तष्टं चान्तरं प्रत्येक पकव्यम् । अकम्मभूमकमनुष्यनपुंमाम जन्म प्रतीत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त, एतावता गत्यन्तरादिकालेन व्यवधानभावान्, उत्तपतो बनस्पनिकाला, संहरणं प्रतीय वन्यतोन्तमुंदरी, तश्चैवं-कोऽपि कर्मभूमकमनुष्यनपुंसकः केनाप्यकर्मभूमी संहतः,गच नागपुरुष्टान्नयलादकम्मभूगरु इति ग्यपदिश्यते, ततः कियत्कालानन्तरं तथाविधबुद्धिपरावर्तनभावतो भूयोऽपि कर्मभूनी संगतः, नर चान्तमुंह पता पुनरगार्मभूमारानीनः, उत्तानो वनस्पतिकालः। एवं विशेषचिन्तायां हैमवतहरण्यवतहरिवर्परम्यरूदेवरुरूतरफम्र्मभूममनुप्यनपुंमकानागन्नरशीपतमनुष्यनपुंसकम्प च जन्म संहरणं च प्रतीत्य जघन्यत उत्कर्षतधान्तरं वक्तव्यम् ॥ तदेवमुक्तमन्तरमभुनाऽल्पबदतमाह FARE - % Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २प्रतिपत्तौ नपुंसकानामल्प बहुत्वं सु०६० एतेसि णं भंते! णेरड्यणपुंसकाणं तिरिक्खजोणियनपुंसकाणं मणुस्सणपुंसकाण य कयरे कयरेहिन्तो जाव विसेसाहिया वा ?, गोयमा! सब्वथोवा मणुस्सणपुंसका नेरइयनपुंसगा असंखेंजगुणा तिरिक्खजोणियणपुंसका अणंतगुणा॥ एतेसि णं भंते। रयणप्पहापुढविणेरइयणपुंसकाणं जाव अहेसत्तमपुढविणेरइयणपुंसकाण य कयरे २ हिंतो जाव विसेसाहिया वा?, गोयमा! सव्वत्थोवा अहेसत्तमपुढविनेरइयणपुंसका छट्ठपुढविणेरइयणपुंसका असंखेनगुणा जाव दोचपुढविणेरड्यणपुंसका असंखेजगुणा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए रइयणपुंसका असंखेनगुणा ॥ एतेसिणं भंते! तिरिक्खजोणियणपुंसकाणं एगिदियतिरिक्खजोणियणपुंसकाणं पुढचिकाइय जाव वणस्सतिकाइयएगिदियतिरिक्खजोणियणपुंसकाणं बेइंदियतेइंदियचउरिंदियपंचेंदियतिरिक्खजोणियणपुंसकाणं जलयराणं थलयराणं खहयराण य कतरेरहिन्तो जाव विसेसाहिया वा?, गोयमा! सव्वथोवा खहयरतिरिक्खजोणियणपुंसका, थलयरतिरिक्खजोणियनपुंसका संखेज जलयरतिरिक्खजोणियनपुंसका संखेज चतुरिंदियतिरि० विसेसाहिया तेइंदियति० विसेसाहिया बेइंदियति विसेसा० तेउक्काइयएगिदियतिरिक्खा असंखेजगुणा पुढविक्काइयएगिदियतिरिक्खजोणिया विसेसाहिया, एवं आउवाउवणस्सतिकाइयएगिदियतिरिक्खजोणियणपुंसका अणंतगुणा॥ एतेसि णं भंते! मणुस्सणपुंसकाणं कम्मभूमिणपुंसकाणं अकम्मभूमिणपुंसकाणं अंत OBLIGOHOSLO S4054064064 Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रदीवकाण ये कतरे कयरेहिंतो अप्पा वा ४ ?, गोयमा ! सव्वत्थोवा अंतरदीवगअ कम्मभूमगमणुस्सणपुंसका देवकुरुउत्तरकुरुअकम्मभूमगा दोवि संखेज्जगुणा एवं जाव पुव्वविदेह अवरविदेहकम्म० दोवि संखेज्जगुणा ॥ एतेसि णं भंते! णेरइयणपुंसकाणं रयणप्पभापुढविनेरइयनपुंसकाणं जाव अधेसत्तमापुढविणेरइयणपुंसकाणं तिरिक्खजोणियणपुंसकाणं एगिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुढविकाइयएगिंदियतिरिक्खजोणियणपुंसकाणं जाव वणस्सतिकाइय० वेइंदियतेहूंदियचतुरिंदिय पंचिंदियतिरिक्खजोणियणपुंसकाणं जलयराणं थलयराणं खहयराणं मणुस्सणपुंसकाणं कम्मभूमिकाणं अकस्मभूमिकाणं अंतरदीवकाण य कतरे २ हिंतो अप्पा ४, गोयमा ! सच्चत्थोवा अधेसत्तमपुढविणेरइयणपुंसका छट्ठपुढविनेरइयनपुंसका असंखेज्ज० जाव दोच्चपुढविणेरइयणपुं० असंखे० अंतरदीवगमणुस्सणपुंसका असंखेज्जगुणा, देवकुरुउत्तरकुरुअकम्मभूfree दोवि संखेज्जगुणा जाव पुत्र्वविदेह अवरविदेह कम्मभूमगमणुस्सणपुंसका दोवि संखेजगुणा, रयणभापुढविणेरइयणपुंसका असंखे० खयरपंचेंद्रियतिरिक्खजोणिय नपुंसका असं० थलयर० संखिज्ज० जलयर० संखिज्जगुणा चतुरिं दियतिरिक्खजोणिय० विसेसाहिया तेइंदिय० विसे० बेइंदिय० विसे० तेक्वाइयएगिंदिय० असं० पुढविकाइयएगिंदिय० विसेसाहिया Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A प्रतिपत्ती नपुंसकानामल्पबहुत्वं सू०६० GRICURACOCALGAIRLIA आउक्काइय० विसे० वाउकाइय. विसेसा० वणस्सइकाइयएगिदियतिरिक्खजोणियणपुंसका अणंतगुणा ॥ (सू०६०) 'एएसि ण'मित्यादि प्रभसूत्रं सुगम, भगवानाह-गीतम! सर्वस्तोका मनुप्यनपुंसकाः, श्रेण्यसहयेयभागवर्तिप्रदेशराशिप्रमाणत्वात्, तेभ्योऽपि नैरयिकनपुंसका असहयेयगुणाः, अङ्गुलमात्रक्षेत्रप्रदेगराशी तद्गतप्रथमवर्गमूले द्वितीयवर्गमूलेन गुणिते यावान् प्रदेशराशिवति तावत्प्रमाणासु घनीकृतस्य लोकस्यैकग्रादेशिकीपु श्रेणिपु यावन्तो नभःप्रदेशास्तावत्प्रमाणत्वात्तेपां, तेभ्यस्तिर्यग्योनिकनपुंसका अनन्तगुणाः, निगोदजीवानामनन्तत्वात् ॥ सम्प्रति नैरयिकनपुंसकविषयमल्पबहुत्वमाह-एएसि णमित्यादि, सर्वस्तोका अधःसप्तमपृथिवीनैरयिकनपुंसकाः, अभ्यन्तरश्रेण्यसययभागवर्तिनभःप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् , तेभ्योऽपि पाठपृथिवीनरयिकनपुंसका असक्येयगुणाः, तेभ्योऽपि पश्चमपृथ्वीनरयिकनपुंसका असल्येयगुणाः, तेभ्योऽपि चतुर्थपृथिवीनैरयिकनपुंसका असङ्ख्येयगुणाः, ते- भ्योऽपि तृतीयपृथिवीनैरयिकनपुंसका असहयेयगुणाः, तेभ्योऽपि द्वितीयपृथिवीनैरयिकनपुंसका असाध्येयगुणाः, सर्वेपामप्येतेषां पूर्व* पूर्वनैरयिकपरिमाणहेतुश्रेण्यसवेयभागापेक्षयाऽसद्ध्येयगुणासहयेयगुणश्रेण्यसख्येयभागवर्तिनभःप्रदेशराशिप्रमाणत्वात्, द्वितीयपृथिवी8 नैरयिकनपुंसकेभ्योऽस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां नैरयिकनपुंसका असण्येयगुणाः, अङ्गुलमानक्षेत्रप्रदेशराशी तद्गतप्रथमवर्गमूले द्वितीयवर्गमूलेन गुणिते यावान् प्रदेशराशिस्तावत्प्रमाणासु घनीकृतस्य लोकस्यैकप्रादेशिकीपु श्रेणिपु यावन्त आकाशप्रदेशास्तावत्प्रमाणलात् , प्रतिपृथिवि च पूर्वोत्तरपश्चिमदिग्भाविनो नैरयिकाः सर्वस्तोकाः, तेभ्यो दक्षिणदिग्भाविनोऽसहयेयगुणाः, पूर्वपूर्वपृथिवीगतदक्षिणदि-5 ग्भाविभ्योऽप्युत्तरस्यामुत्तरस्यां पृथिव्यामसवयेयगुणाः पूर्वोत्तरपश्चिमदिग्भाविनः, तथा चोक्तं प्रज्ञापनायाम्-"दिसाणुवाएणं सव्व RockCRIOR Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थोवा अहेसत्तमपुढविनेरइया पुरथिमपञ्चत्थिमउत्तरेणं, दाहिणेणं असंखेजगुणा । दाहिणोहिंतो अहेसत्तमपुढविनेरइएहिंतो छट्ठाए तमाए पुढवीए नेरइया पुरथिमपञ्चत्थिमउत्तरेणं असंखेजगुणा, दाहिणेणं असंखेजगुणा । दाहिणिल्लहितो तमापुढविनेरइएहितो पंचमाए पुढवीए नेरइया पुरथिमपञ्चत्थिमउत्तरेणं असंखेजगुणा, दाहिणेणं असंखेजगुणा । दाहिणिल्लेहिंतो धूमप्पभापुढविनेरइएहितो चउत्थीए पंकप्पभाए पुढवीए नेरइया पुरथिमपञ्चत्थिमउत्तरेणं असंखेनगुणा, दाहिणेणं असंखेज्जगुणा । दाहिणिल्लेहिंतो पंकप्पभापुढविनेरइएहिंतो तइयाए वालुयप्पभाए पुढवीए नेरइया पुरथिमपञ्चस्थिमउत्तरेणं असंखेजगुणा,दाहिणणं असंखेजगुणा । दाहिणिल्लेहिंतो वालुयप्पभापुढविनेरइएहिंतो दुइयाए सक्करप्पभाए पुढवीए नेरइया पुरथिमपञ्चत्थिमउत्तरेणं असंखेजगुणा, दाहिणणं असंखेजगुणा । दाहिणिल्लेहिंतो सक्करप्पभापुढवीनेरइएहितो इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया पुरथिमपञ्चत्थिम दाहिणेणं असंखेनगुणा"। सम्प्रति तिर्यग्योनिकनपुंसकविषयमल्पबहुत्वमाह-एएसि णमित्यादि, सर्वस्तोकाः खचरपञ्चेन्द्रियतियेग्योनिकनपुंसकाः, “प्रतरासङ्ख्येयभागवयंसहयेयश्रेणिगताकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात्, तेभ्यः स्थलचरतिर्यग्योनिकनपुंसकाः सहयेयगुणाः, बृहत्तरप्रतरासंख्येयभागवय॑सयेयश्रेणिगतनभःप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् , तेभ्योऽपि जलचरतिर्यग्योनिकनपुंसकाः सङ्ख्येयगुणाः, बृहत्तमप्रतरासङ्ख्येयभागवय॑सयेयश्रेणिगताकाशप्रदेशराशिमानत्वात् , तेभ्योऽपि चतुरिन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसका विशेषाधिकाः, असङ्ख्येययोजनकोटीकोटीप्रमाणाकाशप्रदेशराशिप्रमाणासु घनीकृतस्य लोकस्य एकप्रादेशिकीषु श्रेणिषु यावन्तो नभःप्रदेशा-| स्तावत्प्रमाणत्वात् , तेभ्यस्त्रीन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसका विशेषाधिकाः, प्रभूततरश्रेणिगताकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् , तेभ्योऽपि द्वीन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसका विशेषाधिकाः, प्रभूततमणिगताकाशप्रदेशराशिमानत्वात् , तेभ्यस्तेजस्कायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसका अस Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 खप- २ प्रतिपत्तौ नपुंसकानामल्पबहुत्वं सू०६० - Reaches - येयगुणाः, सूक्ष्मवादरभेदभिन्नानां तेषामसङ्ख्येयलोकाकाशप्रदेशपरिमाणत्वात्, तेभ्यः पृथिवीकायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसका विशेषाधिकाः, प्रभूतासहयेयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणत्वात् , तेभ्योऽकायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसका विशेपाधिकाः, प्रभूततरासायेयलोकाकाशप्रदेशमानत्वात् , तेभ्योऽपि वायुकायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसका विशेषाधिकाः, प्रभूततमासयेयलोकाकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् , तेभ्योऽपि वनस्पतिकायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसका अनन्तगुणाः, अनन्तलोकाकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् ॥ अधुना मनुष्यनपुंसकविपयमल्पबहुत्वमाह-एएसि ण'मित्यादि, सर्वस्तोका अन्तरद्वीपजमनुष्यनपुंसकाः, एते च संमूर्छनजा द्रष्टव्याः, गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्यनपुंसकानां तत्रासम्भवात् , संहृतास्तु कर्मभूमिजास्तत्र भवेयुरपि, तेभ्यो देवकुरूत्तरकुर्वकर्मभूमकमनुष्यनपुंसकाः सयेयगुणाः, तद्गतगर्भजमनुष्याणामन्तरद्वीपजगर्भजमनुष्येभ्यः सहयेयगुणत्वात् , गर्भजमनुष्योच्चाराद्याश्रयेण च संमूछिममनुष्याणामुत्पादात्, स्वस्थाने तु द्वयेऽपि परस्परं तुल्याः, एवं तेभ्यो हरिवर्षरम्यकवकर्मभूमकमनुष्यनपुंसकाः सहये यगुणाः स्वस्थाने तु द्वयेऽपि परस्परं तुल्याः तेभ्योऽपि हैमवतहरण्यवतवर्षाकर्मभूमकमनुष्यनपुंसका: सहयेयगुणाः, स्वस्थाने तु 5 द्वयेऽपि परस्परं तुल्याः, तेभ्यो भरतैरावतवर्षकर्मभूमकमनुष्यनपुंसकाः सहवेयगुणाः, स्वस्थाने तु द्वयेऽपि परस्परं तुल्याः, तेभ्यः पूर्व विदेहापरविदेहकर्मभूमकमनुष्यनपुंसका: सत्येयगुणाः, स्वस्थाने तु द्वयेऽपि परस्परं तुल्याः, युक्तिः सर्वत्रापि तथैवानुस* व्या ॥ सम्प्रति नैरयिकतिर्यग्मनुष्यविषयमल्पबहुत्वमाह-एएसिणं भंते।' इत्यादि, सर्वस्तोका अधःसप्तमपृथिवीनैरयिकनपुं18 सकाः, तेभ्यः षष्ठपञ्चमचतुर्थतृतीयद्वितीयपृथिवीनैरयिकनपुंसका यथोत्तरमसद्धयेयगुणाः, द्वितीयपृथिवीनैरयिकनपुंसकेभ्योऽन्तरद्वी पजमनुष्यनपुंसका असोयगुणाः, एतदसोयगुणवं संमूर्च्छनजमनुष्यापेक्षं, तेषां नपुंसकत्वादेतावतां च तत्र संमूर्च्छनसम्भवात् , ॥८१॥ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेभ्यो देवकुरूत्तरकुर्वकर्मभूमकमनुष्यनपुंसका हरिवर्षरम्यकवर्षाकर्मभूमकमनुष्यनपुंसका हैमवतहरण्यवताकर्मभूमकमनुष्यनपुंसका भरतैरावतकर्मभूमकमनुष्यनपुंसकाः पूर्वविदेहापरविदेहकर्मभूमकमनुष्यनपुंसका यथोत्तरं सङ्ख्येयगुणाः, स्वस्थानचिन्तायां तु द्वयेऽपि परस्परं तुल्याः, पूर्व विदेहापरविदेहकर्मभूमकमनुष्यनपुंसकेभ्योऽस्यां प्रत्यक्षत उपलभ्यमानायां रत्नप्रभायां पृथिव्यां नैरयिकनपुंसका असङ्ख्येयगुणाः, तेभ्यः खचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसका असोयगुणाः, तेभ्यः स्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसका जलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसका यथोत्तरं सहयेयगुणाः, जलचरपञ्चेन्द्रियनपुंसकेभ्यश्चतुरिन्द्रियत्रीन्द्रियद्वीन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसका विशेषाधिकाः, द्वीन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसकेभ्यस्तेजस्कायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसका असङ्ख्येयगुणाः, तेभ्यः पृथिव्यम्बुवायुतिर्यग्योनिकनपुंसका यथोत्तरं विशेषाधिकाः, वायवेकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसकेभ्यो वनस्पतिकायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसका अनन्तगुणाः, युक्तिः सर्वत्रापि प्रागुक्तानुसारेण स्वयं भावनीया ॥ सम्प्रति नपुंसकवेदकर्मणो बन्धस्थिति नपुंसकवेदस्य प्रकारं चाह णपुंसकवेदस्स णं भंते! कम्मस्स केवइयं कालं बंधठिई पन्नत्ता?, गोयमा! जह० सागरोवमस्स दोन्नि सत्तभागा पलिओवमस्स असंखेजतिभागेण ऊणगा उक्को० वीसं सागरोवमकोडाकोडीओ, दोण्णि य वाससहस्साई अबाधा, अबाहूणिया कम्मठिती कम्मणिसेगो । णपुंसकवेदे णं भंते! किंपगारे पण्णत्ते', गोयमा! महाणगरदाहसमाणे पण्णत्ते समणाउसो!, से तं णपुंसका ॥ (सू०६१) 'नपुंसकवेयस्सणं भंते कम्मस्स' इत्यादि, प्राग्वद्भावनीयं, नवरं महानगरदाहसमानमिति सर्वावस्थासु सर्वप्रकारं, मदनदाह(समान) || Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7 इत्यर्थः ॥ सम्प्रत्यष्टावल्पबहुत्वानि वक्तव्यानि, तद्यथा-प्रथमं सामान्येन तिर्यकत्रीपुरुपनपुंसकप्रतिबद्धम् , एवमेव मनुष्यप्रतिवद्धं २प्रतिपत्तौ द्वितीयं, देवस्त्रीपुरुपनारकनपुंसकप्रतिबद्धं तृतीयं, सकलसम्मिश्रं चतुर्थ, जलचर्यादिविभागतः पञ्चमं, कर्मभूमिजादिमनुष्यरूयादि नपुंसके विभागत: पष्ठं, भवनवास्यादिदेव्यादिविभागतः सप्तम, जलचर्यादिविजातीयव्यक्तिव्यापकमष्टमं, तत्र प्रथममभिधित्सुराह बन्धएतेसि णं भंते! इत्थीणं पुरिसाणं नपुंसकाण य कतरेरहिंतो अप्पा वा ४?, गोयमा! सव्व स्थितिः त्थोवा पुरिसा इत्थीओ संखि०णपुंसका अणंत। एतेसिणं भंते! तिरिक्खजोणिइत्थीणं तिरि प्रकारश्च क्खजोणियपुरिसाणं तिरिक्खजोणियणपुंसकाण य कयरे २ हिंतोअप्पा वा ४१, गोयमा! सव्वत्थो सू०६१ वा तिरिक्खजोणियपुरिसा तिरिक्खजोणिइत्थीओ असंखे०तिरिक्खजो० णपुंसगा अणंतगुणा ॥ वेदानामएतेसिणं भंते! मणुस्सित्थीणं मणुस्सपुरिसाणं मणुस्सणपुंसकाण य कयरे २हिन्तो अप्पा वा ४१, ल्पवहुत्वं गोयमा! सव्व०मणुस्सपुरिसा मणुस्सित्थीओ संखे० मणुस्सणपुंसका असंखेजगुणा ॥ एतेसिणं * सू०६२ भंते! देविस्थीणं देवपुरिसाणंणेरइयणपुंसकाण यकयरे २हिंतो अप्पा वा४?, गोयमा! सव्वत्थोवा णेरइयणपुंसका देवपुरिसा असं० देवित्थीओ संखेनगुणाओ॥ एतेसि णं भंते! तिरिक्खजोणित्थीणं तिरिक्खजोणियपुरिसाणं तिरिक्खजो० णपुंसकाणं मणुस्सित्थीणं मणुस्सपुरिसाणं मणुस्सन पुंसकाणं देवित्थीणं देवपुरिसाणं णेरड्यणपुंसकाण य कतरे २हिंतो अप्पा वा ४१, गोंयमा! सव्व... त्योवा मणुस्सपुरिसा मणुस्सित्थीओ संखे० मणुस्सणपुंसका असं० णेरइयणपुंसका असं०तिरि RIGANGANAGARIKAMGAR Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्खजोणियपुरिसा असं०तिरिक्खजोणित्थियाओसंखेज देवपुरिसा असं० देवित्थियाओ संखि० तिरिक्खजोणियणपुंसका अणंतगुणा॥ एतेसि णं भंते!तिरिक्खजोणित्थीणं जलयरीणं थलयरीणं खहयरीणं तिरिक्खजोणियपुरिसाणं जलयराणं थलयराणं खहयराणं तिरिक्खजो० णपुंसकाणं एगिदियतिरिक्खजोणियणपुंसकाणं पुढविकाइयएगिंदियतिरिक्खजो० णपुंसकाणं जाव वणस्सतिकाइय० वेइंदियतिरिक्खजोणिणपुंसकाणं तेइंदिय० चउरिदिय० पंचेंदियतिरिक्खजोणियणपुंसकाणं जलयराणं थलयराणं खयराणं कतरे २ हिंतो जाव विसेसाहिया वा?, गोयमा! सव्वत्थोवा खहयरतिरिक्खजोणियपुरिसा खहयरतिरिक्खजोणित्थियाओ संखेज० थलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियपुरिसा संखे थलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणित्थियाओ संखे० जलयरतिरिक्खजो पुरिसा संखि० जलयरतिरिक्खजोणित्थीयाओ संखेनगु० खहयरपंचिंदियतिरिक्खजो० णपुंसका असंखे० थलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणि नपुंसगा संखि० जलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियनपुंसका संखे० चउरिंदियतिरि० विसेसाहिया तेइंदियणपुंसका विसेसाहिया बेइंदियनपुंसका विसेसा० तेउक्काइयएगिंदियतिरिक्खजोणियणपुंसका असं० पुढवि० णपुंसका विसेसाहिया आउ० विसेसाहिया वाउ० विसेसा० वणप्फति० एगिन्दियणपुंसका अणंतगुणा ॥ एतेसिणं भंते! मणुस्सित्थीणं कम्मभूमियाणं अकम्मभूमगाणं अंतरदीवियाणं मणुस्सपुरिसाणं कम्मभूमकाणं Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ I C4OMCHORDERS 29C अकम्मभूमकाणं अंतरदीवकाणं मणुस्सणपुंसकाणं कम्मभूमाणं अकम्म० अंतरदीविकाण य कयरे २ हिन्तो अप्पा वा ४?, गोयमा! अंतरदीवगा मणुस्सित्थियाओ मणुस्सपुरिसाण] य एते णं दुन्नि य तुल्लावि सब्वत्थोवा देवकुरुउत्तरकुरुअकम्मभूमगमणुस्सित्थियाओ मणुस्सपुरिसा एते णं दोन्निवि तुल्ला संखे० हरिवासरम्मवासअकम्मभूमकमणुस्सित्थियाउ मणुस्सपुरिसा य एते सिणं दोन्निवि तुल्ला संखे० हेमवतहेरण्णवतअकम्मभूमकमणुस्सित्थियाओ मणुस्सपुरिसाण य दोवि तुल्ला संखे० भरहेरवतकम्मभूमगमणुस्सपुरिसा दोवि संखे० भरहेरवतकम्ममणुस्सित्थियाओ दोवि संखे । पुञ्चविदेहअवरविदेहकम्मभूमगमणुस्सपुरिसा दोवि संखे० पुव्वविदेहअवरविदेहकम्मभूमगमणुस्सिस्थियाओ दोवि संखे। अंतरदीवगमणुस्सणपुंसका असंखे० देवकुरुउत्तरकुरुअकम्मभूमकमणुस्सणपुंसका दोवि संखेनगुणा [ए] तहेव जाव पुवविदेहकम्मभूमकमणुस्सणपुंसका दोवि संखेनगुणा ॥ एतासिणं भंते! देवित्थीणं भवणवासीणीणं वाणमन्तरीणीणं जोइसिणीणं वेमाणिणीणं देवपुरिसाणं भवणवासिणं जाव वेमाणियाणं सोधम्मकाणं जाव गेवेजकाणं अणुत्तरोववातियाणं णेरइयणपुंसकाणं रयणप्पभापुढविणेरइयणपुंसगाणं जाव अहेसत्तमपुढविनेरइय० कतरे २ हिंतो अप्पा वा ४१. गोयमा! सम्वत्थोवा अणुसरोववातियदेवपुरिसा उवरिमगेवेज्जदेवपुरिसा संखेज्जगुणा तं चेव जाव आणते कप्पे देवपुरिसा संखेनगुणा, २प्रतिपत्ती नपुंसके वन्धस्थितिः प्रकारश्च सू० ६१ वेदानामल्पवहुत्वं सू० ६२ SROCCOSCARRIORANG Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहेसत्समाए पुढवीए णेरइयणपुंसका असंखेजगुणा, छट्ठीए पुढवीए नेरइय० असंखेज्जगुणा सहस्सारे कप्पे देवपुरिसा असंखेजगुणा महासुक्के कप्पे देवा असंखेज्जगुणा पंचमाए पुढवीए नेरइयणपुंसका असंखेनगुणा लंतए कप्पे देवा असंखेजगुणा चउत्थीए पुढवीए नेरड्या असंखेज्वगुणा घभलोए कप्पे देवपुरिसा असंखेनगुणा तचाए पुढवीए नेरइय० असंखेनगुणा माहिंदे कप्पे देवपुरिसा असंखेजगुणा सणंकुमारकप्पे देवपुरिसा असंखेजगुणा दोचाए पुढवीए नेरइया असंखेजगुणा, इसाणे कप्पे देवपुरिसा असंखेजगुणा ईसाणे कप्पे देवित्थियाओ संखेजगुणाओ, सोधम्मे(कप्पे) देवपुरिसा संखेज० सोधम्मे कप्पे देवित्थियाओ संखे० भवणवासिदेवपुरिसा असंखेजगुणा भवणवासिदेवित्थियाओ संखेजगुणाओ इभीसे रयणप्पभापुढवीए नेरझ्या असंखेज्जगुणा वाणमंतरदेवपुरिसा असंखेजगुणा वाणमंतरदेवित्थियाओ संखेजगुणाओ जोतिसियदेवपुरिसा संखेजगुणा जोतिसियदेवित्थियाओ संखेजगुणा ॥ एतासि णं भंते! तिरिक्खजोणित्थीणं जलयरीणं थलयरीणं खयरीणं तिरिक्खजोणियपुरिसाणं जलयराणं थलयराणं खहयराणं तिरिक्खजोणियणपुंसकाणं एगिदियतिरिक्खजोणियणपुंसकाणं पुढविक्काइयएगिदियति जो० णपुंसकाणं आउकाइयएगिंदिय० जो० णपुंसकाणं जाव वणस्सतिकाइयएगिदियति जो० णपुंसकाणं बेइंदियति जो० णपुंसकाणं तेइंदियति० जो० णपुंसकाणं चरिंदियति जो नपुंसकाणं पंचेंदियति. Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAAAAAAAAAAAAGRICS जो. णपुंसकाणं जलयराणं धलयराणं खहयराणं मणुस्सित्थीणं कम्मभूमियाणं अकम्मभूमियाणं अंतरदीवियाणं मणुस्सपुरिसाणं कम्मभूमियाणं अकम्म० अंतरदीवयाणं मणुस्सणपुंसकाणं कम्मभूमिकाणं अकम्मभूमिकाणं अंतरदीवकाणं देवित्थीणंभवणवासिणीणं वाणमंतरीणीणं जोतिसिणीणं वेमाणिणीणं देवपुरिसाणं भवणवासिणीणं वाणमंतराणं जोतिसियाणं वेमाणियाणं सोधम्मकाणं जाव गेवेजकाणं अणुत्तरोववातियाणं नेरइयणपुंसकाणं रयणप्पभापुढविनेरइयनपुंसकाणं जाव अहेसत्तमपुढविणेरदयणपुंसकाण य कयरे २ हिन्तो अप्पा वा ४१, गोयमा! अंतरदीवअकम्मभूमकमणुस्सित्थीओ मणुस्सपुरिसा य, एते णं दोवि तुल्ला सव्वत्थोवा, देवकुरुउत्तरकुरुअकम्मभूमगमणुस्सइत्थीओ पुरिसा य एते णं दोवि तुल्ला संखे० एवं हरिवासरम्मगवास एवं हेमवतहेरण्णवयभरहेरवयकम्मभूमगमणुस्सपुरिसादोवि संखे० भरहेरवतकम्म० मणुस्सित्थीओदोवि संखे० पुव्वविदेहअवरविदेहकम्मभूमकमणुस्सपुरिसादोवि संखे०, पुवविदेहअवरविदेहकम्म०मणुस्सित्थियाओ दोवि संखे० अणुत्तरोववातियदेवपुरिसा असंखेजगुणा उवरिमगेवेज्जा देवपुरिसा संखे०जाव आणते कप्पे देवपुरिसा संखे० अधेसत्तमाए पुढवीए नेरइयणपुंसका असंखे०छट्ठीए पुढवीए नेरइयनपुंसका असं०सहस्सारे कप्पे देवपुरिसा असंखे० महासुक्के कप्पे देव० असं० पंचमाए पुढवीए नेरइयनपुंसका असं० लंतए कप्पे देवपु० असं० चउत्थीए पुढवीए नेरह ACARICHAASCAMORORS २प्रतिपत्तं नपुंसके बन्धस्थितिः प्रकारश्च सू० ६१ है वेदानाम* ल्यवहुत्वं पाव तुल्ला सव्वत्थोवा सू० ६२ ओदावतहेरण्णवयभरहेरवय परिसा य एते णं दो -6-9 ॥८४॥ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ‘यनपुंसका असं० बंभलोए कप्पे देवपुरिसा असं० तचाए पुढवीए नेरइयण० असं० माहिंदे कप्पे देवपु० असंखे० सणंकुमारे कप्पे देवपुरिसा असं० दोच्चाए पुढवीए नेरइयनपुंसका असं० अंतरदीवगअकम्मभूमगमणुस्सणपुंसका असंखे० देवकुरुउत्तरकुरुअकम्मभूमगमणुस्सणपुंसका दोवि संखे० एवं जाव विदेहत्ति, इंसाणे कप्पे देवपुरिसा असं० ईसाणकप्पे देवित्थियाओ संखे० सोधम्मे कप्पे देवपुरिसा संखे० सोहम्मे कप्पे देवित्थियाओ संखेज भवणवासिदेवपुरिसा असंखे० भवणवासिदेवित्थियाओ संग्विजगुणाओ इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए नेरइयणपुंसका असं० खहयरतिरिक्खजोणियपुरिसा संखेजगुणा खहयरतिरिक्खजोणित्थियाओ संखे० थलयरतिरिक्खजोणियपुरिसा संखे० थलयरतिरिक्खजोणित्थियाओ संखे. जलयरतिरिक्खपुरिसा संखे० जलयरतिरिक्खजोणित्थियाउ संखे०, वाणमंतरदेवपुरिसा संखे० वाणमंतरदेवित्थियाओ संखे० जोतिसियदेवपुरिसा संखे. जोतिसियदेवित्थियाओ संखे० खहयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियणपुंसा संखे० थलयरणपुंसका संखे० जलयरणपुंसका संखे० चतुरिंदियणपुंसका विसेसाहिया तेइंदिय० विसेसा० बेइंदिय० विसेसा० तेउक्काइयएगिदियतिरिक्खजोणियणपुंसका असं० पुढवी विसेसा० आऊ० विसेसा० वाज. विसेसा० वणप्फतिकाइयएगिदियतिरिक्खजो० णपुंसका अणंतगुणा ॥ (सू० ६२) Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AMESSAGARMERIAGE __ 'एयासिणं भंते! तिरिक्खजोणियइत्थीणं' इत्यादि, सर्वस्तोकास्तिर्यक्पुरुषाः, तेभ्यस्तिर्यक्तियः सङ्ख्येयगुणात्रिगुणत्वात् , २ प्रतिपत्ती ताभ्यस्तिर्यगनपुंसका अनन्तगुणाः, निगोदजीवानामनन्तानन्तलात् ॥ सम्प्रति द्वितीयमल्पबहुत्वमाह-एयासि णं भंते' इत्यादि, स्त्रीपुन्नपुं1 सर्वस्तोका मनुष्यपुरुषाः सधेयकोटीकोटीप्रमाणत्वात् , तेभ्यो मनुष्यस्त्रियः सोयगुणाः सप्तविंशतिगुणत्वात् , ताभ्यो मनुष्यनपुंसका 8 सकाना असत्येयगुणाः श्रेण्यसक्येयभागगतप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् ॥ सम्प्रति तृतीयमल्पबहुत्वमाह-'एयासि णं भंते! देवित्धीण'मि- मल्पवहुत्वं त्यादि, सर्वस्तोका नैरयिकनपुंसका अङ्गुलमात्रक्षेत्रप्रदेशराशौ स्वप्रथमवर्गमूलेन गुणिते यावान् प्रदेशराशिर्भवति तावत्प्रमाणासु गतिषु घनीकृतस्य लोकस्य एकप्रादेशिकीषु श्रेणिषु यावन्तो नभःप्रदेशास्तावत्प्रमाणत्वात् , तेभ्यो देवपुरुषा असोयगुणा असङ्ख्येययोज- सू० ६२ नकोटीकोटीप्रमाणायां सूची यावन्तो नभःप्रदेशास्तावत्प्रमाणासु घनीकृतस्य लोकस्य एकप्रादेशिकीपु श्रेणिपु यावन्त आकाशप्रदेशास्तावत्प्रमाणत्वात् , तेभ्यो देवस्त्रियः सङ्ख्येयगुणा द्वात्रिंशद्गुणत्वात् ॥सम्प्रति सकलसन्मिभं चतुर्थमल्पबहुत्वमाह-'एयासि ण'मित्यादि, सर्वस्तोका मनुष्यपुरुषास्तेभ्यो मनुष्यस्त्रियः सङ्ख्येयगुणाः, ताभ्यो मनुष्यनपुंसका असोयगुणाः, अत्र युक्तिः प्रागुक्ता, तेभ्यो नैरयिकनपुंसका असहयेयगुणा असयेयश्रेण्याकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् , तेभ्यस्तिर्यग्योनिकपुरुपा असहयेयगुणाः प्रतरासयेयभागवयंसहयेयश्रेणिगताकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् , तेभ्यस्तिर्यग्योनिकस्त्रियः सहयेयगुणास्त्रिगुणत्वात् , ताभ्यो देवपुरुषाः सहोयगुणाः प्रभूततरप्रतरासश्येयभागवय॑सङ्ख्येयश्रेणिगताकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् , तेभ्यो देवस्त्रियः सङ्ख्येयगुणा द्वात्रिंशद्गुणत्वात् , ताभ्यस्ति र्यग्योनिकनपुंसका अनन्तगुणा निगोदजीवानामनन्तानन्तत्वात् ॥ सम्प्रति जलचर्यादिविभागतः पञ्चममल्पबहुत्वमाह-'एयासिणं भंते!' , * इत्यादि, सर्वस्तोकाः खचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकपुरुपाः, तेभ्यः खचरतिर्यग्योनिकस्त्रियः सहयेयगुणात्रिगुणत्वात् , ताभ्यः स्थल GANAGAR Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरतिर्यग्योनिकपुरुषाः सख्येयगुणाः, तेभ्यस्तत्त्रियः सङ्ख्येयगुणात्रिगुणत्वात् , ताभ्यो जलचरतिर्यग्योनिकपुरुषाः सद्ध्येयगुणाः, तेभ्यो जलचरतिर्यग्योनिकस्त्रियः सङ्ख्येयगुणात्रिगुणत्वात् , ताभ्यः खचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसका असंख्येयगुणाः, तेभ्यः स्थलालचरजलचरतिर्यग्योनिकनपुंसका यथाक्रमं सहयेयगुणाः, ततश्चतुरिन्द्रियत्रीन्द्रियद्वीन्द्रिया यथोत्तरं विशेषाधिकाः, ततस्तेजःकायिकै केन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसका असहयेयगुणाः, ततः पृथिव्यम्बुवायुकायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसका यथोत्तरं विशेपाधिकाः, ततो वनस्पतिकायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसका अनन्तगुणाः ॥ सम्प्रति कर्मभूमिजादिमनुष्यत्यादिविभागतः षष्ठमल्पबहुत्वमाह-एयासि णं भंते !' इत्यादि, सर्वस्तोका अन्तरद्वीपकमनुष्यस्त्रियोऽन्तरद्वीपकमनुष्यपुरुषश्चि, एते च द्वयेऽपि परस्परं तुल्याः, तत्रत्यत्री पुंसानां युगलधर्मोपेतत्वात् , तेभ्यो देवकुरूत्तरकुर्वकर्मभूमकमनुष्यस्त्रियो मनुष्यपुरुषाश्च सङ्ख्येयगुणाः, युक्तिरत्र प्रागेवोक्ता, स्वस्थाने / ६ तु परस्परं तुल्याः, एवं हरिवर्षरम्यकपुरुषत्रियो हैमवतहैरण्यवतमनुष्यपुरुषत्रियश्च यथोत्तरं सङ्ख्येयगुणाः, खस्थाने तु परस्परं । |तुल्याः, ततो भरतैरावतकर्मभूमकमनुष्या द्वयेऽपि सङ्ख्येयगुणाः, स्वस्थाने तु परस्परं तुल्याः, तेभ्यो भरतैरावतकर्मभूमकमनुष्यस्त्रियो द्वय्योऽपि सङ्ख्येयगुणाः, सप्तविंशतिगुणत्वात् , स्वस्थाने तु परस्परं तुल्याः, ताभ्यः पूर्व विदेहापरविदेहकर्मभूमकमनुष्यपुरुषा द्वयेऽपि सङ्ख्येयगुणाः, स्वस्थाने परस्परं तुल्याः, तेभ्यः पूर्व विदेहापरविदेहकर्मभूमकमनुष्यस्त्रियो द्वय्योऽपि सङ्खयेयगुणाः, सप्तविंशतिगुणत्वात् , स्वस्थाने तु परस्परं तुल्याः, तेभ्योऽन्तरद्वीपकमनुष्यनपुंसका असङ्ख्येयगुणाः, श्रेण्यसङ्ख्येयभागगताकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् , तेभ्यो देवकुरूत्तरकुर्वकर्मभूमकमनुष्यनपुंसका द्वयेऽपि सङ्ख्येयगुणाः, स्वस्थाने तु परस्परं तुल्याः, ततो हरिवपरम्यकवर्षाकर्मभूमकमनुष्यनपुंसका द्वयेऽपि सङ्ग्येयगुणाः, स्वस्थाने तु परस्परं तुल्याः, तेभ्यो हैमवतहैरण्यवताकर्मभूमकमनुष्यनपुंसका Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २प्रतिपत्ती स्त्रीपनपंसकानामल्पबहुत्वं गतिषु सू० ६२ येऽपि सत्येयगुणाः, स्वस्थाने तु परस्परं तुल्याः, तेभ्यो भरतरायतकर्मभूमफमनुष्यनपुंमका द्वयेऽपि सहयेयगुणाः, स्वस्थाने तु र परस्परं तुल्याः, तेभ्योऽपि पूर्व विदेहापरविदेहकर्मभूमकमनुष्यनपुंसफा द्वयेऽपि साश्यगुणाः, स्वस्थाने तु परस्परं तुल्याः ।। सम्प्रति भवनवास्यादिदेव्यादिविभागत: मप्तमगल्पवाखमाह-एयासि णं भंते! देवित्थीणं भवणवासिणीण'मित्यादि, सर्वस्तोका अनु* तरोपपातिका देवपुरुषाः, तत उपरितनप्रैवेयकमध्यगौवेयकाधस्तनप्रैवेयकाच्युतारणप्राणतानत कल्पदेवपुरुपा यथोत्तरं सश्येयगुणाः, ततोऽधःसप्तगपष्टपृथिवीनरयिकनपुंसकसहसारमहाशुक्रकल्पदेवपुरुपपयागपृशिवीनरयिकनपुंसकलान्तककल्पदेवपुरुपचतुर्थपृथिवीनैरयिकनपुंसकप्रदालोककल्पदेवपुरुपतृतीयपथिवीनरयिकापुंसकमाहेन्द्रमनकुमारकल्पदेवपुरुपद्वितीयपुथिवीनैरयिकनपुंमका यथोत्तरगसहयगुणाः, तत ईशानकल्पदेवपुरुषा असाट्येयगुणाः, तेभ्य ईशानकल्पदेवग्नियः सहयेयगुणाः, द्वात्रिंशद्गुणत्वात् , तत: सौधर्माकल्पदेवपुरुषाः साश्वेयगुणाः, तेभ्योऽपि सौधर्माकल्पदेव स्त्रियः सवेयगुणाः, द्वात्रिगद्गुणत्वात् , तेभ्यो भरनवासिदेवपुरुपा असग्न्येयगुणाः, तेभ्यो भवनवासिदेव्यः समयेयगुणाः, द्वात्रिंशद्गुणलात , ताभ्यो रनप्रभायां पुथिव्यां नरयिकनपुंगता अमाध्ये यगुणाः, तेभ्यो वानगन्तरदेवपुरुपा अराश्येयगुणाः, तेभ्यो वानमन्तरदेव्यः साश्यगुणाः, ताभ्यो ज्योतिप्काः साहवेयगुणाः, तेभ्यो ज्योतिष्क देवत्रियः संग्येयगुणाः, द्वात्रिंशद्गुणत्यात् ।। सम्प्रति विजातीयव्यक्तिव्यापकमष्टगमल्पबद्धत्वगाह-एयासि णं भंते!' इत्यादि, सर्व। स्तोका अन्तरद्वीपका मनुष्यस्त्रियो गनुष्यपुरुपाय, खस्थाने तु येऽपि तुल्या:, युगलधर्मपितखात्, एवं देवकुरूत्तरफुये कम्मभूगक इरिवर्परम्यफवकर्मभूगकदैमवतहरण्यवताकर्मभूमकमनुप्यन्त्रीपुरुपा यथोत्तरं सहयगुणाः, स्वस्थाने तु परस्परं तुल्याः, तेभ्योऽपिभ। रतैरायतकर्मभूमकगनुष्यपुरुपा द्वयेऽपि सासयगुणाः, स्वस्थाने तु परस्परं तुल्याः, तेभ्यो भरतरावतकर्मभूगफगनुप्यस्त्रियो पुग्योऽपि ६ ॥ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म सङ्ख्येयगुणाः, स्वस्थाने तु परस्परं तुल्याः, ताभ्यः पूर्व विदेहापरविदेहकर्मभूमकमनुष्यपुरुषा द्वयेऽपि सङ्ख्येयगुणाः, स्वस्थाने तु परस्परं तुल्याः, तेभ्यो पूर्व विदेहापरविदेहकर्मभूमकमनुष्यस्त्रियो द्वय्योऽपि सहयेयगुणाः, सप्तविंशतिगुणत्वात् , स्वस्थाने तु परस्परं तुल्याः, ताभ्योऽनुत्तरोपपातिकोपरितनप्रैवेयकमध्यमप्रैवेयकाधस्तनौवेयकाच्युतारणप्राणतानतकल्पदेवपुरुषा यथोत्तरं सङ्ख्येयगुणाः, ततोऽध: सप्तमषष्ठपृथिवीनैरयिक(न०) सहस्रारकल्पदेवपुरुषमहाशुक्रकल्पदेवपुरुषपञ्चमपृथिवीनैरयिक(न०) लान्तककल्पदेवपुरुषचतुर्थपृथवी| नैरयिकनपुंसकब्रह्मलोककल्पदेवपुरु कनपुंसकब्रह्मलोककल्पदेवपुरुषतृतीयपृथिवीनरयिकनपुंसकमाहेन्द्रकल्पसनत्कुमारकल्पदेवपुरुषद्वितीयपृथिवीनैरयिकनपुंसकान्तर- द्वीपकमनुष्यनपुंसका यथोत्तरमसङ्ख्येयगुणाः, ततो देवकुरूत्तरकुर्वकर्मभूमकहरिवर्षरम्यकवर्षाकर्मभूमकहैमवतहरण्यवताकर्मभूमकभरतैरावतकर्मभूमकपूर्वविदेहापरविदेहकर्मभूमकमनुष्यनपुंसका यथोत्तरं सङ्ख्येयगुणाः, स्वस्वस्थानेषु तु द्वये परस्परं तुल्याः, तत ईशानकल्पदेवपुरुषा असङ्ख्येयगुणाः, तत ईशानकल्पदेवनियः सौधर्मकल्पदेवपुरुषाः सौधर्मकल्पदेवस्त्रियो यथोत्तरं सङ्ख्येयगुणाः, ततो भवनवासिदेवपुरुषा असङ्ख्येयगुणाः, तेभ्यो भवनवासिदेवस्त्रियः सहयेयगुणाः, तेभ्योऽस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां नैरयिकनपुंसका असङ्ख्येयगुणाः, ततः खचरतिर्यग्योनिकपुरुषाः खचरतिर्यग्योनिकस्त्रियः स्थलचरतिर्यग्योनिकपुरुपाः स्थलचरतिर्यग्योनिकस्त्रियो जलचरतिर्यग्योनिकपुरुषा जलचरतिर्यग्योनिकस्त्रियो वानमन्तरा देवपुरुषा वानमन्तरदेवत्रियो ज्योतिष्कदेवपुरुषा ज्योतिष्कदेवस्त्रियो यथोत्तरं सवयेयगुणाः, ततः खचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसका असङ्ख्येयगुणाः, ततः स्थलचरजलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसका: क्रमेण सहयेयगुणाः, ततश्चतुरिन्द्रियत्रीन्द्रियद्वीन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसका यथोत्तरं विशेषाधिकाः, ततस्तेज:कायिकैके|न्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसका असहयेयगुणाः, ततः पृथिव्यववायुकायिकतिर्यग्योनिकनपुंसका यथोत्तरं विशेपाधिकाः, ततो वनस्पति Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IMP- 440 ॐॐॐॐ कायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसका अनन्तगुणाः, निगोदजीवानामनन्तत्वात् ॥ सम्प्रति स्त्रीपुरुपनपुंसकानां भवस्थितिमानं कायस्थि-5२प्रतिपत्ती - तिमानं च क्रमेणाभिधातुकाम आह वेदानांइत्थीणं भंते! केवइयं कालं ठिती पण्णत्ता?, गोयमा! एगणं आएसेणं जहा पुर्दिव भणियं, एवं स्थित्यादिः पुरिसस्सवि नपुंसकस्सवि, संचिट्टणा पुनरवि तिण्हंपि जहापुचि भणिया, अंतरंपितिण्हपि जहापुब्वि भणियं तहा नेयव्वं ॥ (सू०६३) अल्पवहुत्वं 'इत्थीणं भंते! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ?, इत्यादि, एतत्सर्व प्रागुक्तवद्भावनीयम् , अपुनरुक्तता च प्राक् रुयादीनां पृथक् है सू०६४ स्वस्खाधिकारे स्थित्यादि प्रतिपादितमिदानीं तु समुदायेनेति ॥ सम्प्रति स्त्रीपुरुपनपुंसकानामल्पवहुत्वमाह-(एयासि णं भंते! इत्थीणं पुरिसाणं नपुंसकाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा ४ ?, सव्वथोवा पुरिसा इत्थीओ संखेजगुणा नपुंसका अणंतगुणा) 'एयासि णं भंते! इत्थीण'मित्यादि, सर्वस्तोकाः पुरुपाः रुयादिभ्यो हीनसङ्ख्याकत्वात् , तेभ्यः स्त्रियः सयेयगुणाः, ताभ्यो नपुंसका अनन्तगुणाः, एकेन्द्रियाणामनन्तानन्तसहयोपेतत्वात् । इह पुरुपेभ्यः स्त्रियः सहयेयगुणा इत्युक्तं, तत्र काः स्त्रियः स्वजातिपुरुषापेक्षया कतिगुणा इति प्रभावकाशमाशय तन्निरूपणार्थमाह तिरिक्खजोणित्थियाओ तिरिक्खजोणियपुरिसेहिंतो तिगुणाउ तिरूवाधियाओ मणुस्सित्थियाओ मणुस्सपुरिसेहिंतो सत्तावीसतिगुणाओ सत्तावीसयरूवाहियाओ देवित्थियाओ देवपुरिसेहिंतो यत्तीसगुणाओ बत्तीसइरूवाहियाओ सेत्तं तिविधा संसारसमायण्णगा जीवा पण्णसा Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ तिविसु होइ भेयो ठिई य संचिट्टणंतरऽप्पयहुं । वेदाण य बंघठिई वेओ तह किंपगारो उ ॥ १ ॥ से तं तिविहा संसारसमावन्नगा जीवा पण्णत्ता ॥ ( सू० ६४ ) 'तिरिक्खजोणित्थीओ तिरिक्खजोणियपुरिसेहिंतो' इत्यादि, तिर्यग्योनिक स्त्रियस्तिर्यग्योनिकपुरुषेभ्यस्त्रिगुणास्त्रिरूपाधिकाः, मनुष्यस्त्रियो मनुष्यपुरुषेभ्यः सप्तविंशतिगुणाः सप्तविंशतिरूपाधिकाः, देवपुरुषेभ्यो देवस्त्रियो द्वात्रिंशद्गुणा द्वात्रिंशद्रूपाधिकाः, उक्तं च वृद्धाचार्यैरपि - "तिगुणा तिरूवअहिया तिरियाणं इत्थिया मुणेयव्वा । सत्तावीसगुणा पुण मणुयाणं तदहिया चेव ॥ १ ॥ बत्ती सगुणा बत्तीसरूवअहिया उ होंति देवाणं । देवीओ पण्णत्ता जिणेहिं जियरागदोसेहिं ॥ २ ॥" प्रतिपत्त्युपसंहारमाह— 'सेत्तं तिविहा संसारसमावन्नगा जीवा पण्णत्ता' इति ॥ सम्प्रत्यधिकृतप्रतिपत्त्यर्थाधिकारसंग्रहगाथामाह - 'तिविहेसु होइ भेओ' इत्यादि, त्रिविधेषु वेदेषु वक्तव्येषु भवति प्रथमोऽधिकारो भेदः ततः स्थिति: तंदनन्तरं 'संचिडणं' ति सातत्येनावस्थानं तदनन्तरमन्तरं ततोऽल्पबहुत्वं ततो वेदानां बन्धस्थितिः तदनन्तरं किंप्रकारो वेद इति ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां जीवाजीवाभिगमटीकायां द्वितीया प्रतिपत्तिः समाप्ता ॥ २ ॥ इति वेदत्रैविध्यनिरूपिका द्वितीया प्रतिपत्तिः ।। Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ARNAGALGCDSAUGUST तदेवमुक्ता द्वितीया प्रतिपत्तिः, सम्प्रति तृतीयप्रतिपत्त्यवसरः, तत्रेदमादिसूत्रम् 3 ३ प्रतिपत्ती तत्थ जे ते एवमाहंसु चउविधा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता ते एवमाहंसु, तंजहा-ने चतुर्धा जीरइया तिरिक्खजोणिया मणुस्सा देवा ॥ (सू०६५)।से किं तं नेरड्या?, २ सत्तविधा पण्णत्ता, वाः सप्तधा तंजहा-पढमापुढविनेरड्या दोच्चापुढविनेरइया तचापुढविनेर० चउत्थापुढवीनेर० पंचमापु० ने नारकाः रइ० छट्ठापु० नेर० सत्तमापु० नेरइया ॥ (सू०१६)। पढमा णं भंते! पुढवी किंनामा किंगोत्ता पृथ्वीनां पण्णत्ता?, गोयमा! णामेणं घम्मा गोत्तेणं रयणप्पभा। दोचा णं भंते! पुढवी किंनामा किंगोत्ता नामगोत्रे पण्णत्ता?, गोयमा! णामेणं वंसा गोत्तेणं सक्करप्पभा, एवं एतेणं अभिलावेणं सवासिं पुच्छा, वाहल्यं च णामाणि इमाणि सेलातव्वा(णि), (सेला तईया) अंजणा चउत्थीरिहा पंचमीमघा छट्टी माघवती है सू० ६५सत्तमा, (जाव) तमतमागोत्तेणं पण्णत्ता। (सू०६७)।इमाणं भंते! रयणप्पभापुढवी केवतिया वाह ६६-६७ ल्लेणं पण्णत्ता?, गोयमा! इमा णं रयणप्पभापुढवी असिउत्तरं जोयणसयसहस्संवाहल्लेणं पण्णत्ता, एवं एतेणं अभिलावेणं इमा गाहा अणुगंतव्वा-आसीतं यत्तीसं अट्ठावीसं तहेव वीसं च । . अट्ठारस सोलसगं अद्भुत्तरमेव हिहिमिया ॥१॥ (सू०६८) 'तत्थ जे ते एवमाहंसु चउविहा' इत्यादि, 'तत्र' तेपु दशसु प्रतिपत्तिमत्सु मध्ये ये ते आचार्या एवमाख्यातवन्तश्चतुर्विधाः ५ ॥८८॥ संसारसमापन्ना जीवाः प्रज्ञप्तास्ते एवमाख्यातवन्तस्तद्यथा-नैरयिकास्तिर्यग्योनिका मनुष्या देवाः ।। 'से किं तमित्यादि, अथ के ते Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैरयिका: ?, सूरिराह - नैरयिका: सप्तविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - प्रथमायां पृथिव्यां नैरयिकाः प्रथमपृथिवीनैरयिका इत्यर्थः एवं सर्वत्र भावनीयम् ॥ सम्प्रति प्रतिपृथिवि नामगोत्रं वक्तव्यं तत्र नामगोत्रयोरयं विशेष:- अनादिकालसिद्धमन्वर्थरहितं नाम सान्वर्थ तु नाम गोत्रमिति, तत्र नामगोत्रप्रतिपादनार्थमाह - 'इमा णं ( पढमा णं) भंते!" इत्यादि, इयं भदन्त ! रत्नप्रभा पृथिवी 'किंनामा' किमनादिकालप्रसिद्धान्वर्थरहितनामा ? 'किंगोत्रा ?' किमन्वर्थयुक्तनामा १, भगवानाह - गौतम ! नान्ना घर्मेति प्रज्ञप्ता गोत्रेण रत्न - प्रभा, तथा चान्वर्थमुपदर्शयन्ति पूर्वसूरयः - रत्नानां प्रभा - बाहुल्यं यत्र सा रत्नप्रभा रत्नबहुलेति भावः, एवं शेषसूत्राण्यपि प्रतिष्टथिवि प्रश्ननिर्वचनरूपाणि भावनीयानि, नवरं शर्करा प्रभादीनामियमन्वर्थभावना - शर्कराणां प्रभा - बाहुल्यं यत्र सा शर्कराप्रभा, एवं वालुका प्रभा पङ्कप्रभा इत्यपि भावनीयं, तथा धूमस्येव प्रभा यस्याः सा धूमप्रभा, तथा तमसः प्रभा - बाहुल्यं यत्र सा तमः प्रभा, तमस्तमस्य - प्रकृष्टतमसः प्रभा - बाहुल्यं यत्र सा तमस्तमप्रभा अत्र केपुचित्पुस्तकेषु सङ्ग्रहणिगाथे— “घम्मा वंसा सेला अंजण रिट्ठा मघा य माघवती । सत्तण्डं पुढवीणं एए नामा उ नायव्वा ॥ १ ॥ रयणा सक्कर वालुय पंका धूमा तमा [य] तमतमाय । सत्तण्हं पुढवीणं एए गोत्ता मुणेयव्वा ॥ २ ॥ " अधुना प्रतिपृथिवि बाहुल्यमभिधित्सुराह - 'इमा णं भंते " इत्यादि, इयं भदन्त ! रत्नप्रभा पृथिवी कियदुबाहुल्येन प्रज्ञप्ता ?, अत्र गोत्रेण प्रश्नो नाम्नो गोत्रं प्रधानतरं प्रधानेन च प्रश्नाद्युपपन्नमिति न्यायप्रदर्शनार्थः, उक्तभ्व - "न हीना वाक् सदा सता" मिति, भगवानाह - ' अशीत्युत्तरम्' अशीतियोजनसहस्राभ्यधिकं योजनशतसहस्रं बाहुल्येन प्रज्ञप्ता । एवं सर्वाण्यपि सूत्राणि भावनीयानि अत्र सङ्ग्रहणिगाथा - "आसीयं बत्तीसं अट्ठावीसं च होइ वीसं च । अट्ठारस सोलसगं अट्ठोउत्तरमेव हिट्टिमिया ॥ १ ॥” Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इमा णं भंते! रयणप्पभापुढवी कतिविधा पण्णत्ता?, गोयमा! तिविहा पण्णत्ता, तंजहा-खरकंडे ३ प्रतिपत्ती पंकयहुले कंडे आवयहुले कंडे ॥ इमीसे णं भंते! रय० पुढ० खरकंडे कतिविधे पण्णत्ते?,गोयमा! पृथ्वीकासोलसविधे पण्णत्ते,तंजहा-रयणकंडे १ वइरे२ वेरुलिए ३ लोहितक्खे ४ मसारगल्ले ५ हंसगन्भेद ण्डानि पुलए ७ सोयंधिए ८ जोतिरसे ९ अंजणे १० अंजणपुलए ११ रयते १२ जातरूवे १३ अंके १४ सू०६९ फलिहे १५ रिट्टे १६ कंडे ॥ इमीसे णं भंते! रयणप्पभापुढवीए रयणकंडे कतिविधे पण्णत्ते?, गोयमा! एगागारे पण्णत्ते, एवं जाव रिहे। इमीसे णं भंते! रयणप्पभापुढवीए पंकवटुले कंडे कतिविधे पण्णत्ते?,गोयमा! एकागारे पण्णत्ते। एवं आवबहले कंडे कतिविधे पण्णत्ते?,गोयमा। एकागारे पण्णत्ते । सकरप्पभाए णं भंते! पुढवी कतिविधा पण्णता?, गोयमा! एकागारा पण्णत्ता, एवं जाव अहेसत्तमा ॥ (सू०६९) ___'इमा णं भंते' इत्यादि इयं भदन्त रत्नप्रभा पृथिवी 'कतिविधा' कतिप्रकारा कतिविभागा प्रज्ञप्ता?, भगवानाह-गौतम! 'त्रिC विधा' त्रिविभागा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-खरकाण्ड'मित्यादि, काण्डं नाम विशिष्टो भूभागः, सरं-कठिनं, पक्वहुलं ततोऽबहुलं चान्व४ थेतः प्रतिपत्तव्यं, क्रमश्चैतेपामेवमेव, तद्यथा-प्रथमं खरकाण्डं तदनन्तरं पदबहुलं ततोऽबहुलमिति ॥ 'इमीसे णं भंते' इत्यादि, अस्यां भदन्त' रत्नप्रभायां पृथिव्यां खरकाण्ड कतिविध प्रज्ञप्त?, भगवानाह-गौतम 'पोडशविधं' पोडशविभागं प्रज्ञप्तं, तद्यथा ४ ॥८९॥ -'रयणे' इति, पदैकदेशे पदसमुदायोपचाराद् रत्नकाण्डं तच प्रथम, द्वितीयं वप्रकाण्ड, तृतीयं वैडूर्यकाण्ड, चतुर्थ लोहितकाण्डं, है ॐHAS Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - भापञ्चमं मसारगल्लकाण्ड, षष्ठं हंसगर्भकाण्डं, सप्तमं पुलककाण्डम् , अष्टमं सौगन्धिककाण्डं, नवमं ज्योतीरसकाण्डं, दशममजनकाBण्डम् , एकादशमञ्जनपुलककाण्ड, द्वादशं रजतकाण्डं, त्रयोदशं जातरूपकाण्ड, चतुर्दशमङ्ककाण्डं, पञ्चदशं स्फटिककाण्डं पोडश रिष्टरत्नकाण्ड, तत्र रत्नानि-कर्केतनादीनि तत्प्रधान काण्डं रत्नकाण्ड, वज्ररत्नप्रधानं काण्डं वज्रकाण्डम् , एवं शेपाण्यपि, एकैकं च काण्डं योजनसहस्रवाहल्यम् ॥ 'इमीसे णं भंते' इत्यादि, अस्यां भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां रत्नकाण्डं 'कतिविधं' कतिप्रकार 5 कतिविभागमिति भावः प्रज्ञप्तं ?, भगवानाह-एकाकारं प्रज्ञप्तं । एवं शेषकाण्डविषयाण्यपि प्रश्ननिर्वचनसुत्राणि क्रमेण भावनीयानि। पाएवं पङ्कबहुलाब्बहुलविषयाण्यपि । 'दोच्चा णं भंते' इत्यादि, द्वितीयादिपृथिवीविपयाणि सूत्राणि पाठसिद्धानि ॥ सम्प्रति प्रतिपृथिवि! नरकावाससहयाप्रतिपादनार्थमाह इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए केवइया निरयावाससयसहस्सा पण्णता?, गोयमा! तीसं णिरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता, एवं एतेणं अभिलावेणं सव्वासिं पुच्छा, इमा गाहा अणुगंतव्या-तीसा य पण्णवीसा पण्णरस दसेव तिण्णि य हवंति । पंचूणसयसहस्सं पंचेव अणुत्तरा णरगा ॥१॥ जाव अहेसत्तमाए पंच अणुत्तरा महतिमहालया महाणरगा पण्णता, तंजहाकाले महाकाले रोरुए महारोरुए अपतिहाणे ॥ (सू०७०)। अत्थि णं भंते! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए अहे घणोदधीति वा घणवातेति वा तणुवातेति वा ओवासंतरेति वा?, हंता अत्थि, एवं जाव अहे सत्तमाए ॥ (सू०७१) -- - - - Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'इमीसे णं भंते' इत्यादि, सुगम, नवरमियमत्र सङ्ग्रहणिगाथा-'तीसा य पण्णवीसा पणरस दस चेव सयसहस्साई।६३ प्रतिपत्ती तिण्णेगं पंचूर्ण पंचेव अणुत्तरा निरया ॥१॥" अधःसप्तम्यां च पृथिव्यां कालादयो महानरका अप्रतिष्टानाभिधस्य नरकस्य पू. निरयावार्वादिक्रमेण, उक्तश्च-"पुब्वेण होइ कालो अवरेणं अप्पइट्ट महकालो । रोरू दाहिणपासे उत्तरपासे महारोरू ॥१॥" रत्नप्रभादिपुरु ससंख्या च तमःप्रभापर्यन्तासु पसु पृथिवीपु प्रत्येक नरकावासा द्विविधाः, तद्यथा-आवलिकाप्रविष्टाः प्रकीर्णकरूपाश्च, तन रत्नप्रभायां पृ सू० ७० थिव्यां त्रयोदश प्रस्तटाः, प्रस्तटा नाम वेश्मभूमिकाकल्पा., तत्र प्रथमप्रस्तटे पूर्वादिपु चतसृपु दिक्षु प्रत्येकमेकोनपञ्चाशत् नरका- अधोधनोवासाः, चतसृषु विदिक्षु प्रत्येकमष्टचत्वारिंशत् , मध्ये च सीमन्तकाख्यो नरकेन्द्रक , सर्वसत्यया प्रथमप्रस्तटे नरकावासानामावलि-5 दध्यादिः काप्रविष्टानामेकोननवत्यधिकानि त्रीणि शतानि ३८९, शेपेषु च द्वादशसु प्रस्तटेपु प्रत्येकं यथोत्तरं दिक्षु विदिक्षु चैकैकनरकावासहा- सू० ७१ | निभावाद् अष्टकाष्टकहीना नरकावासा द्रष्टव्याः, तत: सर्वसहयया रत्नप्रभायां पृथिव्यामावलिकाप्रविष्टा नरकावासाश्चतुश्चत्वारिंशच्छ5 तानि त्रयस्त्रिंशदधिकानि ४४३३, शेपास्त्वेकोनत्रिंशल्लक्षाणि पञ्चनवतिसहस्राणि पञ्च शतानि सप्तपष्ट्यधिकानि २९९५५६७ प्रकी-3 र्णकाः, तथा चोक्तम्-"सत्तट्ठी पंचसया पणनउइसहस्स लक्खगुणतीसं । रयणाए सेढिगया चोयालसया उ तित्तीसं ॥१॥" उभ। यमीलने त्रिशल्लक्षा नरकावासानां भवन्ति ३०००००० । शर्कराप्रभायामेकादश प्रस्तटाः, "नरकपटलान्यधोऽधो द्वन्द्वहीनानी"ति 5 वचनात् , तत्र प्रथमे प्रस्तटे चतसृपु दिक्षु पत्रिंशद् आवलिकाप्रविष्टा नरकावासाः, विदिक्षु पञ्चत्रिंशत् , मध्ये चैको नरकेन्द्रकः, ॐ । सर्वसङ्ख्यया द्वे शते पञ्चाशीत्यशिके २८५, शेपेषु तु दशसु प्रस्तटेपु प्रत्येक क्रमेणाधोऽधोऽष्टकाष्टकहानिः, प्रतिदिनप्रतिविदिक्षु(क् च) ॥९ ॥ । एकैकनरकावासहानेः, ततस्तत्र सर्वसङ्ख्ययाऽऽवलिकाप्रविष्टा नरकावासाः पड्विंशतिशतानि पञ्चनवत्यधिकानि २६९५, शेपाश्चतुर्विश Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलक्षाः सप्तनवतिः सहस्राणि त्रीणि शतानि पश्चोत्तराणि २४९७३०५ पुष्पावकीर्णकाः, उक्तञ्च-"सत्ताणउइ सहस्सा चउवीसं लक्ख तिसय पंचऽहिया। बीयाए सेढिगया छव्वीससया उ पणनउया ॥१॥" उभयमीलने पञ्चविंशतिरीक्षा नरकावासानाम २५०००००। वालुकाप्रभायां नव प्रस्तटाः, प्रथमे च प्रस्तटे एकैकस्यां दिशि आवलिकाप्रविष्टा नरकावासाः पञ्चविंशतिः विदिशि चतुर्विशतिः मध्ये चैको नरकेन्द्रक इति सर्वसवयया सप्तनवतं शतं १९७, शेषेषु चाष्टसु प्रस्तटेषु प्रत्येकं क्रमेणाधोऽधोऽष्टकहानिः, तत्र च कारणं प्रागेवोक्तं, ततः सर्वसङ्ख्यया तत्रावलिकाप्रविष्टा नरकावासाश्चतुर्दश शतानि पञ्चाशीत्यधिकानि १४८५, शेपास्तु पुष्पावकीर्णकाश्चतुर्दश लक्षा अष्टनवतिः सहस्राणि पश्च शतानि पञ्चदशाधिकानि १४९८५१५, उक्तञ्च-"पंचसया पन्नारा अडनवइसहस्स लक्ख चोद्दस य । तइयाए सेढिगया पणसीया चोदससया उ॥१॥" उभयमीलने पञ्चदश लक्षा नरकावासानाम् १५०००००।। पङ्कप्रभायां सप्त प्रस्तटाः, प्रथमे च प्रस्तटे प्रत्येकं दिशि षोडश षोडश आवलिकाप्रविष्टा नरकावासाः विदिशि पञ्चदश पञ्चदश मध्ये चैको नरकेन्द्रकः सर्वसङ्ख्यया पञ्चविंशतिशतं १२५, शेषेषु षट्सु प्रस्तटेषु पूर्ववत् प्रत्येकं क्रमेणाधोऽधोऽष्टकाष्टकहानिः, ततः सर्वसङ्ख्यया तत्रावलिकाप्रविष्टा नरकावासाः सप्त शतानि सप्तोत्तराणि ७०७, शेषास्तु पुष्पावकीर्णका नव लक्षा नवनवतिः सहस्राणि द्वे शते त्रिनवत्यधिके ९९९२९३, उक्तश्च-"तेणउया दोणि सया नवनउइसहस्स नव य लक्खा य । पंकाए सेढिगया सत्त सया हुँति सत्तहिया ॥ १॥" उभयमीलने नरकावासानां दश लक्षाः १००००००। धूमप्रभायां पञ्च प्रस्तटाः, प्रथमे च प्रस्तटे एकैकस्यां दिशि नव नव आवलिकाप्रविष्टा नरकावासाः, विदिशि अष्टौ अष्टौ मध्ये चैको नरकेन्द्रक इति सर्वसह्वयया एकोनसप्ततिः. ६९, शेषेषु चतुर्पु प्रस्तटेषु पूर्ववत्प्रत्येकं क्रमेणाधोऽधोऽष्टकाष्टकहानिः, ततः सर्वसङ्ख्यया तत्रावलिकाप्रविष्टा नरकावासा द्वे शते पञ्चपट्य Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श -धिक २६५, शेषाः पुष्पावकीर्णका द्वे लक्षे नवनवतिः सहस्राणि सप्त शतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि २९९७३५, उक्तश्च-"सत्तसया ३ प्रतिपत्ती पणतीसा नवनवइ [य] सहस्स दो य लक्खा य । धूमाए सेढिगया पणसट्ठा दो सया होंति ॥ १॥" सर्वसङ्ख्यया तिस्रो लक्षाः उहेशः १ ३००००० नरकावासानाम् । तमःप्रभायां त्रयः प्रस्तटाः, तत्र प्रथमे प्रस्तटे प्रत्येकं दिशि चत्वारश्चत्वार आवलिकाप्रविष्टा नर-5 काण्डाघ.' कावासा विदिशि त्रयस्त्रयो मध्ये चैको नरकेन्द्रक इति सर्वसङ्ख्यया एकोनत्रिंशत् २९, शेषयोस्तु प्रस्तटयोः प्रत्येकं क्रमेणाधोऽधोड- न्तरं ष्टकाष्टकहानिः, ततः सर्वसङ्ख्ययाऽऽवलिकाप्रविष्टा नरकावासास्त्रिषष्टिः ६३, शेषास्तु नवनवतिः सहस्राणि नव शतानि द्वात्रिशदधि- सू०७२ कानि पुष्पावकीर्णकाः ९९९३२, उक्तञ्च-"नवनउई य सहस्सा नव चेव सया वंति बत्तीसा । पुढवीए छट्ठीए पइण्णगाणेस संखेवो ॥१॥" उभयमीलने पञ्चोनं नरकावासानां लक्षम् ९९९९५ ॥ सम्प्रति प्रतिपृथिवि घनोदध्याद्यस्तित्वप्रतिपादनार्थमाह –'अत्थि णं भंते' इत्यादि, अस्ति भदन्त अस्याः प्रत्यक्षत उपलभ्यमानाया रत्नप्रभायाः पृथिव्या अधो धनः-स्त्यानीभूतोदक उदधिर्घनोदधिरिति वा घन:-पिण्डीभूतो वात: धनवात इति वा तनुवात इति वा अवकाशान्तरमिति वा ?, अवकाशान्तरं नाम शुद्ध-8 माकाशं, भगवानाह-हन्त ' अस्ति, एवं प्रतिपृथिवि तावद्वाच्यं यावद्धःसप्तम्याः ॥ इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए खरकंडे केवतियं बाहल्लेणं पण्णत्ते?, गोयमा! सोलस जोयणसहस्साई बाहल्लेणं पन्नत्ते ॥ इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए रयणकंडे केवतियं बाहल्लेणं पन्नत्ते?, गोयमा! एकं जोयणसहस्सं बाहल्लेणं पण्णत्ते, एवं जाव रिडे । इमीसे णं भंते! रय० पु० पंकबहुले कंडे केवतियं बाहल्लेणं पन्नत्ते?, गोयमा! चतुरसीतिजोयणसहस्साई याहल्लेणं प ॥ ९१॥ 054064054064 Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ण्णत्ते । इमीसे णं भंते! रय० पु० आवबहुले कंडे केवतियं बाहल्लेणं पन्नत्ते?, गोयमा! असीतिजोयणसहस्साई वाहल्लेणं पन्नत्ते । इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पु० घणोदही केवतियं याहल्लेणं पन्नत्ते?, गोयमा! वीसंजोयणसहस्साई बाहल्लेणं पण्णत्ते। इमीसे णं भंते! रय० पु० घणवाए केवतियं बाहल्लेणं पन्नत्ते?, गोयमा! असंखेजाई जोयणसहस्साई बाहल्लेणं पण्णत्ते, एवं तणुवातेऽवि ओवासंतरेऽवि । सकरप्प० भंते! पु० घणोदही केवतियं बाहल्लेणं पण्णत्ते?, गोयमा! वीसं जोयणसहस्साई बाहल्लेणं पण्णत्ते । सकरप्प० पु० घणवाते केवइए बाहल्लेणं पण्णत्ते?, गोयमा! असंखे० जोयणसहस्साई बाहल्लेणं पण्णत्ते, एवं तणुवातेवि, ओवासंतरेवि जहा सकरप्प० पु० एवं जाव अधेसत्तमा ॥ (सू०७२) 'इमीसे णं भंते!' इत्यादि, अस्या भदन्त ! रत्नप्रभायाः पृथिव्याः सम्बन्धि यत्प्रथमं खरं-खराभिधानं काण्डं तत् कियदाहल्येन प्रज्ञप्तम् ?, भगवानाह-गौतम! षोडश योजनसहस्राणि ॥ 'इमीसे ण'मित्यादि, अस्या भदन्त! रत्नप्रभायाः पृथिव्या रत्नं रत्नाभिधानं काण्डं तत् कियद्वाहल्येन प्रज्ञप्तम् ', भगवानाह-गौतम! एकं योजनसहस्रं । एवं शेषाण्यपि काण्डानि वक्तव्यानि या* वद् रिष्ठं-रिष्ठाभिधानं काण्डम् । एवं पङ्कबहुला-बहुलकाण्डसूत्रे अपि व्याख्येये, पङ्कबहुलं काण्डं चतुरशीतिर्योजनसहस्राणि बाहल्येन, अब्बहुलं काण्डमशीतियोजनसहस्राणि, सर्वसङ्ख्यया रत्नप्रभाया बाहल्यमशीतिसहस्राधिकं लक्षं, तस्या अधो धनोदधिः विंशतिर्योजनसहस्राणि बाहल्येन, तस्याप्यधो घनवातोऽसयेयानि योजनसहस्राणि बाहल्येन, तस्याप्यधोऽसहयेयानि योजनसहस्राणि Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ5.4 ३प्रतिपत्ती उद्देशः १ रत्नप्रभा काण्डादिद्रव्यस्व. सू०७३ तनुवातो वाइल्येन, तस्याप्यधोऽसयेयानि योजनसहस्राणि वाहल्येनावकाशान्तरम् । एवं शेषाणामपि पृथिवीनां घनोदध्यादयः प्रत्येक • तावद्वक्तव्या यावद्धःसप्तम्याः ॥ इमीसेणं भंते! रयणप्प० पु० असीउत्तरजोयण(सय)सहस्सयाहल्लाए खेसच्छेएणं छिज्जमाणीए अत्थि व्वाइं वण्णतो कालनीललोहितहालिद्दसुकिल्लाई गंधतो सुरभिगंधाई दुन्भिगंधाइं रसतो । तित्तकडुयकसायअविलमहुराई फासतो कक्खडमण्यगरुयलहुसीतउसिणणिद्धलुक्खाइं संठाणतो परिमंडलवतंसचउरंसआययसंठाणपरिणयाई अन्नमन्नबद्धाइं ॥ अण्णमण्णपुट्ठाई अण्णमण्णओगाढाई अण्णमण्णसिणे हपडियद्धाई अण्णमण्णघडत्ताए चिट्ठति?, हंता अस्थि । इमीसेणं भंते! रयणप्प भाए पु० खरकंडस्स सोलसजोयणसहस्सवाहल्लस्स खेत्तच्छेएणं छिज्जमाणस्स अस्थि दव्वाई वण्णओ काल जाव परिणयाइं?, हंता अस्थि । इमीसे णं रयणप्प० पु० रयणनामंगस्स कंडस्स जोयणसहस्सबाहल्लस्स खेत्तच्छेएणं छिज्जतं चेव जाव हंता अस्थि, एवं जाव रिट्ठस्स, इमीसे णं भंते! रयणप्प० पु. पंकबहुलस्स कंडस्स चउरासीतिजोयणसहस्सबाहल्लस्स खेसे तं चेव, एवं आवबहुलस्सवि असीतिजोयणसहस्सबाहल्लस्स । इमीसे णं भंते! रयणप्प० पु० घणोदधिस्स वीसं जोयणसहस्सबाहल्लस्स खेत्तच्छेदेण तहेव । एवं घणवातस्स अंसखेजजोयणसहस्सबाहल्लस्स तहेव, ओवासंतरस्सवि तं चेव ॥ सकरप्पभाए णं भंते! पु० यत्तीसुत्तरजोयणसतस ॥९२॥ Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हस्सवाहल्लस्स खेत्तच्छेएण छिजमाणीए अत्थि दवाई वण्णतो जाव घडत्ताए चिट्ठति?, हंता अत्थि, एवं घणोदहिस्स पीसजोयणसहस्सयाहल्लस्स घणवातस्स असंखेनजोयणसहस्सयाहल्लस्स, एवं जाव ओवासंतरस्स, जहा सकरप्पभाए एवं जाव अहेसत्तमाए ॥ (सू०७३) 'इमीसे णं भंते' इत्यादि, अस्यां भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यामशीत्युत्तरयोजनशतसहस्रबाहल्यायां क्षेत्रच्छेदेन-बुद्ध्या प्रतरकाण्डविभागेन छिद्यमानायाम् , अस्तीति निपातोऽत्र बहुलवचनार्थगर्भः, सन्ति द्रव्याणि वर्णत: कालानि नीलानि लोहितानि हारिद्राणि शुक्लानि, गन्धतः सुरभिगन्धीनि दुरभिगन्धीनि च, रसतस्तिक्तरसानि कटुकानि कपायाणि अम्लानि मधुराणि, स्पर्शतः कर्कशानि मृदूनि गुरुकाणि लघूनि शीतानि उष्णानि स्निग्धानि रूक्षाणि, संस्थानतः परिमण्डलानि वृत्तानि व्यस्राणि चतुरस्राणि आय ण्यपि ? इत्यत आह–अन्नमनपाई' इत्यादि, अन्योऽन्यं-परस्परं स्पृष्टानि-पर्शमात्रोपेतानि.॥४ तथाऽन्योऽन्यं-परस्परमवगाढानि यत्रैकं द्रव्यमवगाढं तत्रान्यदपि देशतः कचित्सर्वतोऽवगाढ मित्यर्थः, तथाऽन्योऽन्यं-परस्परं स्नेहेन प्रतिबद्धानि येनैकस्मिन् चाल्यमाने गृह्यमाणे वाऽपरमपि चलनादिधर्मोपेतं भवति, एवम् 'अन्नोन्नघडत्ताए चिट्ठति' इति, अन्योऽन्यं-परस्परं घटन्ते-संबध्नन्तीति अन्योऽन्यघटास्तद्भावोऽन्योऽन्यघटता तया-परस्परसंबद्धतया तिष्ठन्ति, भगवानाह-'हंता अस्थि' 'हन्त !' इति प्रत्यवधारणे सन्येवेत्यर्थः । एवमस्यामेव रत्नप्रभायां पृथिव्यां खरकाण्डस्य षोडशयोजनसहस्रप्रमाणवाहल्यस्य, तदनन्तरं रत्नकाण्डस्य योजनसहस्रबाहल्यस्य, ततो वनकाण्डस्य यावद्रिष्ठकाण्डस्य, तदनन्तरमस्यामेव रत्नप्रभायां पृथिव्यां पङ्कवहुलकाण्डस्य चतुरशीतियोजनसहस्रबाहल्यस्य, तदनन्तरमबहुलकाण्डस्याशीतियोजनसहस्रबाहल्यस्य, तदनन्तरमस्या एव रत्नप्रभाया घ Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CHORDEREDSORBAS 5 नोदधेर्योजनविंशतिसहस्रप्रमाणबाहल्यस्य, ततोऽसहयातयोजनमहनप्रमाणवाहल्यस्य घनवातस्य, तत एतावत्प्रमाणयाहल्यस्य तनु- ३प्रतिपत्ती वातस्य, ततोऽवकाशान्तरस्य तावत्प्रमाणस्य । तत: शर्कराप्रभायाः पृथिव्या द्वात्रिंशत्सहस्रोत्तरयोजनशतसहस्रयाहल्यपरिमाणायाः, 6 उद्देशः १ २ तस्या एवाधस्ताद्यथोक्तप्रमाणबाइल्यानां घनोदधिधनवाततनुवातावकाशान्तराणाम्, एवं यावद्धःसप्तम्याः पृथिव्या अष्टमहस्राधिक- रमप्रभा 5 योजनशतसहसपरिमाणवाहल्यायाः, ततस्तस्या एवाधःमप्तमपृथिव्या अधस्तात्क्रमेण घनोदधिधनवाततनुवातावकाशान्तराणां प्रभ-दिसंस्थानं निर्वचनसूत्राणि यथोक्तद्रव्यविपयाणि भावनीयानि ॥ सम्प्रति संस्थानप्रतिपादनार्थमाह सू०७४ इमा णं भंते ! रयणप्प० पु० फिसंठिता पण्णत्ता?, गोयमा! झल्लरिसंठिता पण्णत्ता । इमीसे णं भंते ! रयणप्प० पु. खरकंडे किंसंठिते पण्णत्ते?, गोयमा! मल्लरिसंठिते पण्णत्ते । इमीसे णं भंते! रयणप० पु० रयणकंडे किंसंठिते पण्णत्ते?, गोयमा! झरिसंठिए पण्णत्ते। एवं जावरिहे। एवं पंकयहुलेवि, एवं आवयहलेवि घणोदधीचि घणवाएवि तणुवाएवि ओवसंतरेवि, सव्वे झल्लरिसंठिते पण्णत्ते । सक्करप्पभा णं भंते! पुढवी किंसंठिता पण्णत्ता, गोयमा! झल्लरिसंठिता पण्णत्ता, सकरप्पभापुढवीए घणोदधी किंसंठिते पण्णते?, गोयमा! झल्लरिसंठिते पण्णत्ते, एवं जाव ओवासंतरे, जहा सक्करप्पभाए वत्तव्यया एवं जाव अहेसत्तमाएवि ॥ (सू०७४) 'इमा णं भंते' इत्यादि, 'इयं प्रत्यक्षत उपलभ्यमाना णमिति वाक्यालकती रत्नप्रभापूथिवी किमिव संस्थिता किंसंस्थिता प्रज्ञप्ता,5 ॥१३॥ भगवानाह-गौतम झल्लरीव संस्थिता झल्लरीसंस्थिता प्रज्ञप्ता, विस्तीर्णवलयाकारत्वात् । एवमस्यामेव रत्नप्रभायां पृथिव्यां सरकाण्डं, तथापि KACICALCHAKRAMRITE Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नकाण्डं, ततो वनकाण्ड, ततो यावद् रिष्ठकाण्डं, तदनन्तरं पङ्कबहुलकाण्डं, ततो जलकाण्डं, तदनन्तरमस्या एव रत्नप्रभायाः पृथिव्या अधस्ताक्रमेण घनोदधिधनवाततनुवातावकाशान्तराणि यावद्धःसप्तमीपृथिवी, तस्याश्चाधस्ताक्रमेण घनोदधिधनवाततनुवातावकाशान्तराणि झल्लरीसंस्थानानि वक्तव्यानि ॥ ननु चैताः सप्तापि पृथिव्यः सर्वासु दिक्षु किमलोकस्पर्शिन्य उत न? इति, उच्यते, नेति ब्रूमः, यद्येवं ततः इमीसे णं भंते ! रयणप्प० पुढवीए पुरथिमिल्लातो उवरिमंताओ केवतियं अबाधाए लोयंते पपणत्ते?, गोयमा! दुवालसहिं जोयणेहिं अबाधाए लोयंते पण्णत्ते, एवं दाहिणिल्लातो पञ्चत्थि-मिल्लातो उत्तरिल्लातो । सकरप्प० पु० पुरथिमिल्लातो चरिमंतातो केवतियं अबाधाए लोयंते पण्णत्ते?, गोयमा! तिभागणेहिं तेरसहिं जोयणेहिं अबाधाए लोयंते पण्णत्ते, एवं चउद्दिसिंपि। वालयप्प० पु० पुरथिमिल्लातो पुच्छा, गोयमा! सतिभागेहिं तेरसहिं जोयणेहिं अबाधाए लोयंते पण्णत्ते, एवं चउद्दिसिंपि, एवं सव्वासिं चउमुवि दिसासु पुच्छितव्वं । पंकप्प० चोदसहिं जोयणेहिं अबाधाए लोयंते पण्णत्ते । पंचमाए तिभागूणेहिं पन्नरसहिं जोयणेहिं अबाधाए लोयंते पण्णत्ते । छट्ठीए सतिभागेहिं पन्नरसहिं जोयणेहिं अबाधाए लोयंते पण्णत्ते । सत्तमीए सोलसहिं जोयणेहिं अबाधाए लोयंते पण्णत्ते, एवं जाव उत्तरिल्लातो ॥ इमीसे णं भंते! रयण पु० पुरथिमिल्ले चरिमंते कतिविधे पण्णत्ते?, गोयमा! तिविहे पण्णत्ते, तंजहा-घणोदधिवलए Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 984546 घणवायवलए तणुवायवलए । इमीसेणं भंते! रयणप्प० पु० दाहिणिल्ले चरिमंते कतिविधे पण्णसे?. ७३ प्रतिपत्त गोयमा! तिविधे पण्णत्ते, तंजहा,-एवं जाव उत्तरिल्ले, एवं सब्वासिं जाव अधेसत्तमाए उत्स उद्देशः१ रिल्ले ॥ (सू० ७५) रत्नप्रभा ___ 'इमी से णं भंते' इत्यादि, अस्या भदन्त रत्नप्रभायाः पृथिव्याः 'पुरथिमिल्लाओं' इति पूर्वदिग्भाविनश्वरमान्तात् 'केवइयाए' ५ दीनामइति कियत्याऽवाधया-अपान्तरालरूपया लोकान्तोऽलोकावधिपरिच्छिन्नः प्रज्ञप्तः, भगवानाह-द्वादश योजनानि, द्वादशयोजनप्रमा- लोकाबाणयेत्यर्थः, अबाधया लोकान्त: प्रज्ञप्तः, किमुक्तं भवति ?-रत्रप्रभायाः पृथिव्याः पूर्वस्यां दिशि चरमपर्यन्तात्परतोऽलोकादाग अपा- र धादि न्तरालं द्वादश योजनानि, एवं दक्षिणस्यामपरस्यामुत्तरस्यां चापान्तरालं वक्तव्यं, दिग्ग्रहणं चोपलक्षणं तेन सर्वासु विदिश्वपि यथोक्त-४ सू० ७५ मपान्तरालमवसातव्यं, शेषाणां तु पृथिवीनां सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च चरमपर्यन्तादलोकः क्रमेणाधोऽधनिभागोनेन योजनेनाधिकैदिशभिर्योजनैरवगन्तव्यः, तद्यथा-शर्कराप्रभायाः पृथिव्याः सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च चरमपर्यन्तादलोकादागपान्तरालं त्रिभागोनानि त्रयोदश योजनानि, वालुकाप्रभायाः सत्रिभागानि त्रयोदश योजनानि, पङ्कप्रभायाः परिपूर्णानि चतुर्दश योजनानि, धूमप्रभायात्रिभागोनानि पश्चदश योजनानि, तमःप्रभायाः सत्रिभागानि पञ्चदश योजनानि, अधःसप्तमपृथिव्याः परिपूर्णानि षोडश योजनानि, सूत्राक्षराणि पूर्ववद्योजनीयानि ॥ अथामूनि रत्नप्रभादीनां द्वादशयोजनप्रमाणादीनि अपान्तरालानि किमाकाशरूपाणि उत) घनोदध्यादिव्याप्तानि ?, उच्यते, घनोदध्यादिव्याप्तानि, तत्र कस्मिन्नपान्तराले कियान् घनोदध्यादिः इति प्रतिपादनार्थमाह-'इमीसे णं भंते' इत्यादि, अस्या भदन्त ! रत्नप्रभायाः पृथिव्याः पूर्व दिग्भावी 'चरमान्तः' अपान्तराललक्षणः 'कतिविधः' कतिप्रकार: Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 कतिविभाग इत्यर्थः प्रज्ञप्तः ?, भगवानाह-गौतम त्रिविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-'घनोदधिवलयः वलयाकारघनोदधिरूप इत्यर्थः, एवं घनवातवलयस्तनुवातवलयश्च, इयमत्र भावना-सर्वासां पृथिवीनामधो यत्प्राग बाहल्येन घनोदध्यादीनां परिमाणमुक्तं तन्मध्यभागे द्रष्टव्यं, ते हि मध्यभागे यथोक्तप्रमाणबाहल्यास्ततः प्रदेशहान्या प्रदेशहान्या हीयमानाः स्वस्वपृथिवीपर्यन्तेषु तनुतरा भूत्वा खां स्वां पृथिवीं वलयाकारेण वेष्टयित्वा स्थिताः, अत एवामूनि वलयान्युच्यन्ते, तेषां च वलयानामुच्चस्त्वं सर्वत्र स्वस्वपृथिव्यनुसारेण परिभावनीयं, तिर्यग्वाहल्यं पुनरने वक्ष्यते, इदानीं तु विभागमात्रमेवापान्तरालस्य प्रतिपादयितुमिष्टमिति तदेवोक्तं, एवमस्या रत्नप्रभायाः पृथिव्याः शेषासु दिक्षु, एवं शेषाणामपि पृथिवीनां चतसृष्वपि दिक्षु प्रत्येकं २ विभागसूत्रं भणितव्यम् ॥ सम्प्रति घनोदधिवलयस्य तिर्यग्बाहल्यमानमाह इमीसे णं भंते ! रयणप्प० पुढवीए घणोदधिवलए केवतियं बाहल्लेणं पण्णत्ते?, गोयमा ! छ जोयणाणि बाहल्लेणं पण्णत्ते। सक्करप्प० पु० घणोदधिवलए केवतियं बाहल्लेणं पण्णत्ते?, गोयमा! सतिभागाइं छजोयणाई बाहल्लेणं पण्णत्ते। वालुयप्पभाए पुच्छा गोयमा! तिभागूणाई सत्त जोयणाई बाहल्लेणं प० । एवं एतेणं अभिलावणं पंकप्पभाए सत्त जोयणाई बाहल्लेणं पण्णत्ते । धूमप्पभाए सतिभागाइं सत्त जोयणाइं पण्णत्ते।तमप्पभाए तिभागूणाई अट्ट जोयणाई। तमतमप्पभाए अट्ठ जोयणाई । इमीसे णं रयणप्प० पु० घणवायवलए केवतियं बाहल्लेणं पण्णत्ते?, गोयमा! अद्धपंचमाई जोयणाई बाहल्लेणं । सकरप्पभाए पुच्छा, गोयमा! कोसूणाई पंच जोयणाई याहल्लेणं पण्णत्ताई, Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं एतेणं अभिलावेणं वालुयप्पभाए पंच जोयणाई बाहल्लेणं पण्णत्ताई, पंकप्पभाए सकोसाई पंच जोयणाई बाहल्लेणं पण्णत्ताईं। धूमप्पभाए अद्धछट्ठाई जोयणाई बाहल्लेणं पन्नत्ताई, तमप्पभाए कोसूणाई छजोयणाई वाहल्लेणं पण्णत्ते, अहेसत्तमाए छजोयणाई बाहल्लेणं पण्णत्ते ॥ इमीसे णं भंते! रयणप्प० पु० तणुवायवलए केवतियं बाहल्लेणं पण्णत्ते ?, गोयमा ! छक्कोसेणं बाहल्लेणं पण्णत्ते, एवं एतेणं अभिलावेणं सक्करप्पभाए सतिभागे छक्कोसे बाहल्लेणं पण्णत्ते । वालुयप्पभाए तिभागूणे सत्तकोसं बाहल्लेणं पण्णत्ते । पंकप्पभाए पुढवीए सत्तकोसं बाहल्लेणं पण्णत्ते । धूमप्पभाए सतिभागे सत्तकोसे । तमप्पभाए तिभागूणे अट्ठकोसे बाहल्लेणं पन्नत्ते । अधेसत्तमाएं पुढवीए अट्ठको से बाहल्लेणं पण्णत्ते ॥ इमीसे णं भंते! रयणप्प० पु० घणोदधिवलयस्स छज्जोयणयाहल्लस्स खेत्तच्छेएणं छिज्जमाणस्स अत्थि दुव्वाइं वण्णतो काल जाव हंता अत्थि । सक्करप्पभाएणं भंते! पु० घणोदधिवलयस्स सतिभागछजोयणबाहल्लस्स खेत्तच्छेदेणं छिज्जमाणस्स जाव हंता अत्थि, एवं जाव अधेसत्तमाए जं जस्स बाहल्लं । इमीसे णं भंते! रयणप्प० पु० घणवातवलयस्स अद्धपंचमजोयणबाहल्लस्स खेत्तछेदेणं छि० जाव हंता अत्थि, एवं जाव अहेसत्तमाए जं जस्स बाहल्लं । एवं तणुवायवलयस्सवि जाव अधेसत्तमा जं जस्स बाहलं ॥ इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए घणोदधिवलए किंसंठिते पण्णत्ते ?, गोयमा ! वहे वलयागारसंठाणसंठिते ३ प्रतिपसौ उद्देशः १ घनोदध्या दिवाहल्यं सू० ७६ ॥ ९५ ॥ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्णत्ते ॥ जे णं इमं रयणप्पभं पुढविं सव्वतो संपरिक्खिवित्ता णं चिट्ठति, एवं जाव अधेसत्तमाए पु० घणोदधिवलए, णवरं अप्पणप्पणं पुढविं संपरिक्खिवित्ता णं चिट्ठति । इमीसे णं रयणप्प० पु० घणवातवलए किंसंठिते पण्णत्ते?, गोयमा! वहे वलयागारे तहेव जाव जे णं इमीसे णं रयणप्प० पु० घणोदधिवलयं सव्वतो समंता संपरिक्खिवित्ताणं चिट्ठइ एवं जाव अहेसत्तमाए घणवातवलए । इमीसे णं रयणप्प० पु० तणुवातवलए किंसंठिते पण्णत्ते?, गोयमा! वहे वलयागारसंठाणसंठिए जाव जेणं इमीसे रयणप्प० पु० घणवातवलयं सव्वतो समंता संपरिक्खिवित्ता णं चिट्ठइ, एवं जाव अधेसत्तमाए तणुवातवलए ॥ इमा णं भंते! रयणप्प० पु० के. वतिआयामविक्खंभेणं? पं० गोयमा! असंखेजाई जोयणसहस्साई आयामविक्खंभेणं असंखेजाइं जोयणसहस्साइं परिक्खेवेणं पण्णत्ते, एवं जाव अधेसत्तमा ॥ इमाणं भंते! रयणप्प० पु० अंते य मज्झे य सव्वत्थ समा बाहल्लेणं पण्णत्ता?, हंता गोयमा! इमा णं रयण पु० अंते य मज्झे य सव्वत्थ समा बाहल्लेणं, एवं जाव अधेसत्तमा ॥ (सू०७६) 'इमीसे ण' मित्यादि, अस्या भदन्त । रत्नप्रभायाः पृथिव्याः सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च चरमान्ते घनोदधिवलयः कियद्वाहल्येन-1& तिर्यग्वाहल्येन प्रज्ञप्तः ?, भगवानाह-गौतम! षड् योजनानि बाहल्येन-तिर्यग्वाहल्येन प्रज्ञप्तः, तत ऊर्ध्व प्रतिपृथिवि योजनस्य त्रिभागो वक्तव्यः, तद्यथा-शर्कराप्रभायाः सत्रिभागानि षड़ योजनानि वालुकाप्रभायास्त्रिभागोनानि सप्त योजनानि पङ्कप्रभायाः परि-1 Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A AAAAAAAAAACANCECT पूर्णानि सप्त योजनानि धूमप्रभायाः सत्रिभागानि सप्त योजनानि तम:प्रभायात्रिभागोनान्यष्टौ योजनानि अधःसप्तमपृथिव्याः प्रतिपत्ती * परिपूर्णान्यष्टौ योजनानि, सूत्राक्षराणि तु सर्वत्र पूर्ववद्योजनीयानि ॥ सम्प्रति घनवातवलयस्य तिर्यग्बाहल्यपरिमाणप्रतिपादनार्थ उद्देशः १ 8 माह-इमीसे णं भंते!' इत्यादि, अस्या रत्नप्रभायाः पृथिव्या घनवातवलयस्तिर्यग्बाहल्येनार्द्धपञ्चमानि-सार्द्धानि चत्वारि योज-४नोदध्या८ नानि प्रज्ञप्तः, अत ऊर्वं तु प्रतिपृथिवि गव्यूतं वर्द्धनीयं, तथा चाह-द्वितीयस्याः पृथिव्याः क्रोशोनानि पश्च योजनानि, तृतीयस्याः , दिबाहल्यं पृथिव्याः परिपूर्णानि पञ्च योजनानि, चतुर्थ्याः पृथिव्याः सक्रोशानि पञ्च योजनानि, पञ्चम्याः पृथिव्या अर्द्धषष्ठानि-सा नि सू० ७६ पच योजनानि, पष्ठयाः पृथिव्याः कोशोनानि पड् योजनानि, सप्तम्याः पृथिव्याः परिपूर्णानि षड् योजनानि ॥ सम्प्रति तनुवातवलयस्य तिर्यगवाहत्यपरिमाणप्रतिपादनार्थमाह-'इमीसे णं भंते !' इत्यादि, अस्या भदन्त! रत्नप्रभायाः पृथिव्यास्तनुवातवलय: 'फियत्' किंप्रमाणं 'बाहल्येन' तिर्यग्वाहल्यन प्रज्ञप्तः ?, भगवानाह-पटक्रोशबाहल्येन प्रज्ञप्तः, अत ऊर्ध्वं तु प्रतिपृथिवि क्रोशस्य त्रिभागो वर्द्धनीयः, तथा चाह-द्वितीयस्याः पृथिव्याः सनिभागान् षट् क्रोशान् बाहल्येन प्रज्ञप्तः, तृतीयस्याः पृथिव्यात्रिभागोनान् सप्त क्रोशान् चतुर्थ्याः पृथिव्याः परिपूर्णान् सप्त क्रोशान् पञ्चम्याः पृथिव्याः सत्रिभागान् सप्त क्रोशान् पष्ठयाः पृथिव्यात्रिभागोनान् अष्टौ क्रोशान्, अधःसप्तम्या: परिपूर्णान् अष्टौ क्रोशान् , उक्तश्च-"छच्चेव अद्धपंचमजोयणसच होइ रयणाए । उदही घणतणुवाया (उ)जहासंखेण निदिहा ॥१॥ सतिभागगाउगाउयं च तिभागो गाउयस्स बोद्धव्वो ।आइधुवे पक्खेवो अहो अहो जाव सत्तमिया ॥ २॥" एतेषां च त्रयाणामपि घनोदध्यादिविभागानामेकत्र मीलने प्रतिपृथिवि यथोक्तमपान्तरालमानं भवति ॥ सम्प्रत्ये- ॥९६॥ २ तेष्वेव घनोदध्यादिवलयेपु क्षेत्रच्छेदेन कृष्णवर्णाद्युपेतद्रव्यास्तित्वप्रतिपादनार्थमाह-'इमीसे णं भंते!' इत्यादि, पूर्ववद्भावनीयं, Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाहल्यपरिमाणमपि घनोदध्यादीनां प्रतिपृथिवि प्रागुक्तमुपयुज्य वक्तव्यम् ॥ सम्प्रति घनोदध्यादिसंस्थानप्रतिपादनार्थमाह-'इमीसे णं भंते।' इत्यादि, अस्या भदन्त ! रत्नप्रभायाः पृथिव्या घनोदधिवलयः किमिव संस्थितः किंसंस्थितः प्रज्ञप्तः?, भगवानाह-गौतम! 'वृत्तः' चक्रवालतया परिवर्तुलो वलयस्य-मध्यशुषिरस्य वृत्तविशेषस्याकार:-आकृतिर्वलयाकारः स इव संस्थानं वलयाकारसंस्थानं तेन संस्थितो वलयाकारसंस्थानसंस्थितः ॥ कथमेवमवगम्यते वलयाकारसंस्थानसंस्थित इति ?, तत आह-'जेण' मित्यादि, येन कारणेनेमा रत्नप्रभां पृथिवीं 'सर्वतः' सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च 'संपरिक्षिप्य' सामस्त्येन वेष्टयित्वा 'तिष्ठति' वर्त्तते तेन कारणेन वलयाकारसंस्थानसंस्थितः प्रज्ञप्तः । एवं घनवातवलयसूत्रं तनुवातवलयसूत्रं च परिभावनीयं, नवरं घनवातवलयो घनोदधिवलयं संपरिक्षिप्येति वक्तव्यः, तनुवातवलयो घनवातवलयं संपरिक्षिप्येति । एवं शेपास्वपि पृथिवीषु प्रत्येकं त्रीणि त्रीणि सूवाणि भावनीयानि ॥ 'इमा णं भंते' इत्यादि, इयं भदन्त ! रत्नप्रभा पृथिवी कियदु 'आयामविष्कम्भेन' समाहारो द्वन्द्वः, आयामविष्कम्भाभ्यां प्रज्ञप्ता ?, भगवानाह-असत्येयानि योजनसहस्राणि आयामविष्कम्भेन, किमुक्तं भवति ?-असोयानि योजनसहस्राणि आयामेन, असङ्ख्येयानि योजनसहस्राणि विष्कम्भेन च, आयामविष्कम्भयोस्तु परस्परमल्पबहुवचिन्तने तुल्यत्वं, तथाऽसङ्ख्ययानि योजनसहस्राणि 'परिक्षेपेण' परिधिना प्रज्ञप्ता, एवमेकैका पृथिवी तावद्वक्तव्या यावद्धःसप्तमी पृथिवी ॥ 'इमा णं भंते!' इत्यादि, इयं भदन्त रत्नप्रभा पृथिवी अन्ते मध्ये च सर्वत्र समा 'बाहल्येन' पिण्डभावेन प्रज्ञप्ता?, भगवानाह-गौतमेत्यादि सुगमम् । एवं क्रमेणैकैका पृथिवी तावद्वक्तव्या यावत्सप्तमी॥ इमीसे णं भंते! रयणप्प० पु० सव्वजीवा उववण्णपुव्वा ? सव्वजीवा उववण्णा ?, गोयमा! Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इमीसे णं र०पु० सव्वजीवा उववण्णपुव्वा नो चेव णं सव्वजीवा उववण्णा, एवं जाव अहे सत्तमा पुढवीए ॥ इमा णं भंते! रयण० पु० सव्वजीवेहिं विजढपुव्वा ? सव्वजीवेहिं विजढा ?, गोयमा ! इमा णं रयण० पु० सव्वजीवेहिं विजढपुव्वा चेव णं सव्वजीवविजढा, एवं जाव अधेसत्तमा ॥ इमीसे णं भंते । रयण० पु० सव्वपोग्गला पविपुव्वा ? सव्वपोग्गला पविट्ठा ? गोमा ! इमीसे णं रयण० पुढवीए संव्वपोग्गला पविट्ठपुव्वा नो चेव णं सव्वपोग्गलां पविट्ठा, एवं जाव अधेसत्तमाएं पुढवीए ॥ इमा णं भंते! रयणप्पभा पुढवी सव्यपोग्गलेहिं विजढ़पुव्वा सव्वपोग्गला विजढा ?, गोयमा ! इमा णं रयणप्पभा पु० सव्वपोग्गलेोहिं विजढपुव्वा नो चेव णं सव्वपोग्गलेहिं विजढा, एवं जाव अधेसत्तमा ॥ ( सू० ७७ ) 'इमीसे णं भंते!' इत्यादि, अस्यां भदन्त । रत्नप्रभायां पृथिव्यां सर्वजीवाः सामान्येन उपपन्नपूर्वा इति उत्पन्नपूर्वाः कालक्रमेण, तथा सर्वजीवाः 'उपपन्ना: ' उत्पन्ना युगपद् ?, भगवानाह - गौतम । अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां सर्वजीवाः सांव्यवहारिकजीवराश्यन्तर्गता: प्रायोवृत्तिमाश्रित्य सामान्येन 'उपपन्नपूर्वाः' उत्पन्नपूर्वाः कालक्रमेण, संसारस्यानादित्वात् न पुनः सर्वजीवाः 'उपपन्ना उत्पन्ना युगपत् सकलजीवानामेककालं रत्नप्रभापृथिवीत्वेनोत्पादे सकलदेवनारकादिभेदाभावप्रसक्तेः, न चैतदस्ति, तथाजगत्स्वाभाव्यात्, एवमेकैकस्याः पृथिव्यास्तावद्वक्तव्यं यावदधः सप्तम्याः ॥ 'इमा णं भंते !' इत्यादि, इयं च भदन्त ! रत्नप्रभापृथिवी 'सव्वजीवेहिं विजढपुत्रा' इति सर्वजीवैः कालक्रमेण परित्यक्तपूर्वा, तथा सर्वजीवैर्युगपद्' 'विजढा' परित्यक्ता ?, भगवानाह - गौतम ! ३ प्रतिपत्तौ उद्देशः १ रत्नप्रभा तया सर्वजीवपुद्गलोत्पादः सू० ७७ ॥ ९७ ॥ Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाइयं रत्नप्रभा पृथिवी प्रायोवृत्तिमाश्रित्य सर्वजीवैः सांव्यवहारिकैः कालक्रमेण परित्यक्तपूर्वा, न तु युगपत्परित्यक्ता, सर्वजीवैः एककाहालपरित्यागस्यासम्भवात् तथानिमित्ताभावात् , एवं तावद्वक्तव्यं यावदधःसप्तमी पृथ्वी ॥'इमीसे ण' मित्यादि, अस्यां भदन्त! रत्न प्रभायां पृथिव्यां सर्वे पुद्गला लोकोदरविवरवर्तिनः कालक्रमेण 'प्रविष्टपूर्वाः' तद्भावेन परिणतपूर्वाः, तथा सर्वे पुद्गलाः 'प्रविष्टा एककालं तद्धावेन परिणताः ?, भगवानाह-गौतम! अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां सर्वे पुद्गलाः लोकवर्तिनः प्रविष्टपूर्वाः' तद्भावेन परिणतपूर्वाः, संसारस्थानादित्वात् , न पुनरेककालं सर्वपुद्गलाः 'प्रविष्टाः तद्भावेन परिणताः, सर्वपुद्गलानां तद्भावेन परिणतौ रत्नप्रभा-14 व्यतिरेकेणान्यत्र सर्वत्रापि पुद्गलाभावप्रसक्तेः, न चैतदस्ति, तथाजगत्खाभाव्यात् । एवं सर्वासु पृथिवीपु क्रमेण वक्तव्यं यावदधःसप्तम्यां पृथिव्यामिति ॥ 'डमा णं भंते !' इत्यादि, इयं भदन्त ! रत्नप्रभा पृथिवी सर्वपुद्गलैः कालक्रमेण 'विजढपुव्वा' इति परित्यक्त-1 पर्वा तथैव सर्वैः पतलैरेककालं परित्यक्ता ?, भगवानाह-गौतम! इयं रत्नप्रभा पृथिवी सर्वपुद्गलैः कालक्रमेण परित्यक्तपूर्वा, संसारस्थानादित्वात्, न पुनः सर्वपुद्गलैरेककालं परित्यक्ता, सर्वपुद्गलैरेककालपरित्यागे तस्याः सर्वथा स्वरूपाभावप्रसक्तेः, न चैतदस्ति, तथाजगत्खाभाव्यतः शाश्वतत्वात्, एतच्चानन्तरमेव वक्ष्यति । एवमेकैका पृथिवी क्रमेण तावद्वाच्या यावद्धःसप्तमी पृथिवी ।। इमा णं भंते! रयणप्पभा पुढवी किं सासया असासया?, गोयमा! सिय सासता सिय असा सया ॥ से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ-सिय सासया सिय असासया?, गोयमा! व्वद्र्याए सासता, वण्णपज्जवेहिं गंधपज्जवेहिं रसपज्जवेहिं फासपजवेहिं असासता, से तेण?णं गोयमा! एवं वुचति-तं चेव जाव सिय असासता, एवंजाव अधेसत्तमा॥इमा णं भंते! रयणप्पभापु० कालतो Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ O केवचिरं होइ ?, गोयमा! न कयाइण आसिण कयाइ णत्थि ण कयाइ ण भविस्सति ॥ ३प्रतिपत्तौ भुवि च भवइ य भविस्सति य धुवा णियया सासया अक्खया अब्वया अवहिता णिच्चा एवं उद्देशः १ जाव अधेसत्तमा ॥ (सू० ७८) रत्नप्रभा'इमा णं भंते !' इत्यादि, इयं भदन्त रत्नप्रभा पृथिवी किं शाश्वती अशाश्वती ?, भगवानाह-गौतम! स्यात्-कथञ्चित्कस्यापि या:शानयस्याभिप्रायेणेत्यर्थः शाश्वती, स्यात्-कथश्चिदशाश्वती ॥ एतदेव सविशेष जिज्ञासुः पृच्छति-'से केणतुण'मित्यादि, सेशब्दोऽ- श्वतेतरवे थशब्दार्थः स च प्रश्ने, केन 'अर्थेन' कारणेन भदन्त! एवमुच्यते यथा स्यात् शाश्वती स्यादशाश्वतीति ?, भगवानाह-गौतम! 'दव्व- में सू० ७८ याए' इत्यादि, द्रव्यार्थतया शाश्वतीति, तत्र द्रव्यं सर्वत्रापि सामान्यमुच्यते, द्रवति-च्छति तान् तान् पर्यायान् विशेषानिति 5 वा द्रव्यमितिव्युत्पत्तेद्रव्यमेवार्थ:-तात्त्विकः पदार्थों यस्य न तु पर्याया: स द्रव्यार्थ:-द्रव्यमानास्तित्वप्रतिपादको नयविशेषस्तद्भावो द्रव्यार्थता तया द्रव्यमानास्तित्वप्रतिपादकनयाभिप्रायेणेतियावत् शाश्वती, द्रव्यार्थिकनयमतपर्यालोचनायामेवंविधस्य रत्नप्रभायाः पृथिव्या P आकारस्य सदा भावात् , 'वर्णपर्यायैः' कृष्णादिभिः 'गन्धपर्यायैः' सुरभ्यादिभिः 'रसपर्यायैः' तिक्तादिभिः 'स्पर्शपर्यायैः' क-2 ठिनत्वादिभिः 'अशाश्वती' अनित्या, तेषां वर्णादीनां प्रतिक्षणं कियत्कालानन्तरं वाऽन्यथाभवनात् , अतावस्थ्यस्य चानित्यत्वात् , न चैवमपि भिन्नाधिकरणे नित्यत्वानित्यत्वे, द्रव्यपर्याययोर्मेदाभेदोपगमात् , अन्यथोभयोरप्यसत्त्वापत्तेः, तथाहि-शक्यते वक्तुं परपरिकल्पितं द्रव्यमसत् , पर्यायव्यतिरिक्तत्वात् , वालवादिपर्यायशून्यवन्ध्यासुतवत् , तथा परपरिकल्पिता: पर्याया असन्तः, द्रव्य- ॥९८॥ ९ व्यतिरिक्तत्वात्, वन्ध्यासुतगतवालवादिपर्यायवत् , उक्तश्च-"द्रव्यं पर्यायवियुतं, पर्याया द्रव्यवर्जिताः । क कदा केन किंरूपा',x CASCARSAAMANG Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टा मानेन केन वा ? ॥ १ ॥” इति कृतं प्रसङ्गेन, विस्तरार्थिना च धर्मसङ्ग्रहणिटीका निरूपणीया । 'से तेणट्टेण' मित्याद्युपसंहारमाह, सेशब्दोऽथशब्दार्थः स चात्र वाक्योपन्यासे अथ 'एतेन' अनन्तरोदितेन कारणेन गौतम ! एवमुच्यते - स्यात् शाश्वती स्यादशाश्वती, एवं प्रतिपृथिवि तावद्वक्तव्यं यावदधः सप्तमी पृथिवी, इह यद् यावत्सम्भवास्पदं तचेत्तावन्तं कालं शश्वद्भवति तदा तदपि शाश्वतमुच्यते यथा तत्रान्तरेषु 'आकप्पट्ठाई पुढवी सासया' इत्यादि, ततः संशयः - किमेपा रत्नप्रभा पृथवी सकलकालावस्थायितया शाश्वती उतान्यथा यथा तत्रान्तरीयैरुच्यत इति ?, ततस्तदुपनोदार्थं पृच्छति - 'इमा णं भंते' इत्यादि, इयं भदन्त ! रत्नप्रभा पूथिवी कालतः ' कियच्चिरं' कियन्तं कालं यावद्भवति ?, भगवानाह - गौतम ! न कदाचिन्नासीत्, सदैवासीदिति भावः, अनादित्वात्, तथा न कदाचिन्न भवति, सर्वदैव वर्त्तमानकालचिन्तायां भवतीति भाव:, अत्रापि स एव हेतुः, सदा भावादिति, तथा न कदाचिन्न भविष्यति, भविष्यश्चिन्तायां सर्वदैव भविष्यतीति भावः, अपर्यवसितत्वात् । तदेवं कालत्रयचिन्तायां नास्तित्वप्रतिषेधं विधाय सम्प्रत्यस्तित्वं प्रतिपादयति- 'भुविं चे' त्यादि, अभूत् भवति भविष्यति च, एवं त्रिकालभावित्वेन 'ध्रुवा' ध्रुवत्वादेव 'नियता' नियतावस्थाना, धर्मास्तिकायादिवत्, नियतत्वादेव च शाश्वती, शश्वद्भावः प्रलयाभावात् शाश्वतत्वादेव च सततगङ्गासिन्धुप्रवाह प्रवृत्तावपि | पद्मपौण्डरीकद इवान्यतरपुद्गलविचटनेऽप्यन्यतरपुद्गलोपचयभावात्, अक्षया अक्षयत्वादेव च अव्यया, मानुपोत्तराद्वहिः समुद्रवत्, अव्ययत्वादेव 'अवस्थिता' स्वप्रमाणावस्थिता, सूर्यमण्डलादिवत्, एवं सदाऽवस्थानेन चिन्त्यमाना नित्या जीवस्वरूपवत्, यदिवा ध्रुवादयः शब्दा इन्द्रशक्रादिवत्पर्यायशब्दा नानादेशजविनेयानुग्रहार्थमुपन्यस्ता इत्यदोषः, एवमेकैका पृथिवी क्रमेण तावद्वक्तव्या यावदधः सप्तमी ॥ सम्प्रति प्रतिपृथिवीषु (वि) विभागतोऽन्तरं विचिन्तयिषुरिदमाह - Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३प्रतिपत्तौ उद्देशः १ काण्डाद्यन्तरं सू० ७९ [इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए उवरिल्लातो चरिमंतातो हेढिल्ले चरिमंते एस णं केवतियं अयाधाए अंतरे पण्णत्ते?, गोयमा! असिउत्तरं जोयणसतसहस्सं अयाधाए अंतरे पण्णत्ते । इमी से णं भंते ! रयण पु० उवरिल्लातो चरिमंताओ खरस्स कंडस्स हेडिल्ले चरिमंते एस णं केवतियं अबाधाए अंतरे पण्णत्ते?, गोयमा! सोलस जोयणसहस्साई अबाधाए अंतरे पण्णत्ते] इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए उवरिल्लातो चरमंताओ रयणस्स कंडस्स हेहिल्ले चरिमंते एस णं केवतियं अबाधाए अंतरे पण्णत्ते?, गोयमा! एक जोयणसहस्सं अयाधाए अंतरे पण्णत्ते॥ इमीसे णं भंते ! रयण पु० उवरिल्लातो चरिमंतातो वइरस्स कण्डस्स उवरिल्ले चरिमंते एस णं केवतियं अबाधाए अंतरे पण्णत्ते, ?, गोयमा! एक जोयणसहस्सं अयाधाए अंतरे प०॥ इमीसे णं रयण पु० उवरिल्लाओ चरिमंताओ वइरस्स कंडस्स हेहिल्ले चरिमंते एस णं भंते! केवतियं अयाधाए अंतरे प०?, गोयमा! दो जोयणसहस्साई इमीसे णं अयाधाए अंतरे पण्णत्ते, एवं जाव रिहस्स उवरिल्ले पन्नरस जोयणसहस्साई, हेडिल्ले चरिमंते सोलस जोयणसहस्साइं ॥ इमीसे णं भंते! रयणप्प० पु० उवरिल्लाओ चरिमंताओ पंकबहुलस्स कंडस्स उवरिल्ले चरिमंते एस णं अयाघाए केवतियं अंतरे पण्णत्ते?, गोयमा! सोलस जोयणसहस्साई अबाधाए अंतरे पण्णत्ते। हेडिल्ले चरिमंते एक जोयणसयसहस्सं आवयहुलस्स उवरि एक जोयणसयसहस्सं हेहिल्ले ॥९९॥ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरिमंते असीउत्तरं जोयणसयसहस्सं । घणोदहि उवरिल्ले असिउत्तरजोयणसयसहस्सं हेडिल्ले चरिमंते दो जोयणसयसहस्साई । इमीसे णं भंते! रयण पुढ० घणवातस्स उवरिल्ले चरिमंते दो जोयणसयसहस्साई । हेडिल्ले चरिमंते असंखेज्जाई जोयणसयसहस्साई । इमीसे णं भंते! रयण पु० तणुवातस्स उवरिल्ले चरिमंते असंखेनाई जोयणसयसहस्साइं अयाधाए अंतरे हेडिल्लेवि असंखेज्जाई जोयणसयसहस्साई, एवं ओवासंतरेवि ॥ दोचाए णं भंते! पुढवीए उवरिल्लातो चरिमंताओ हेडिल्ले चरिमंते एस णं केवतियं अबाधाए अंतरे पण्णत्ते?, गोयमा! बत्तीसुत्तरं जोयणसयसहस्सं अबाहाए अंतरे पण्णत्ते । सक्करप्प० पु० उवरि घणोदधिस्स हेढिल्ले चरिमंते बावण्णुत्तरं जोयणसयसहस्सं अबाधाए । घणवातस्स असंखेज्जाई जोयणसयसहस्साइं पण्णत्ताई। एवं जाव उवासंतरस्सवि जावधेसत्तमाए, गवरं जीसे जं याहल्लं तेण घणोदधी संबंधेतब्बो वुद्धीए । सक्करप्पभाए अणुसारेणं घणोदहिसहिताणं इमं पमाणं ॥ तचाए णं भंते! अडयालीसुत्तरं जोयणसतसहस्सं। पंकप्पभाए पुढवीए चत्तालीसुत्तरं जोयणसयसहस्सं । धूमप्पभाए पु० अकृतीमुत्तरं जोयणसतसहस्सं । तमाए पु० छत्तीसुत्तरं जोयणसतसहस्सं । अधेसत्तमाए पु० अट्ठावीसुत्तरं जोयणसतसहस्सं जाव अधेसत्तमाए । एस णं भंते! MAVM Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ प्रतिपत्तौ उद्देशः१ काण्डाद्यन्तरं पुढवीए उवरिल्लातो चरिमंतातो उवासंतरस्स हेहिल्ले चरिमंते केवतियं अबाधाएं अंतरे पण्णसे?, गोयमा! असंखेज्जाइंजोयणसयसहस्साई अवाधाए अंतरे पण्णत्ते ॥ (सू० ७९) 'इमीसे णं भंते !' इत्यादि, अस्या भदन्त ! रत्नप्रभायाः पृथिव्या रत्नकाण्डस्य प्रथमस्य खरकाण्डस्य विभागस्य 'उवरिल्लात' इति उपरितनाचरमान्तात्परतो योऽधस्तनः 'चरमान्तः' चरमपर्यन्त: 'एस ण'मिति एतत्, सूत्रे पुंस्त्वनिर्देशः प्राकृतत्वात् , अन्तरं 'कि- यत्' कियद्योजनप्रमाणम् 'अबाधया' अन्तरत्वव्याघातरूपया प्रज्ञप्तम् ?, भगवानाह-गौतम! 'एकं योजनसहस्रम् एकं योजनसह सप्रमाणमन्तरं प्रज्ञप्तम् ॥ 'इमीसे ण'मित्यादि, अस्या भदन्त रत्नप्रभायाः पृथिव्या रत्नकाण्डस्योपरितनाच्चरमान्तात्परतो यो वन5 काण्डस्योपरितनश्चरमान्त एतदन्तरं 'कियत्' किंप्रमाणमबाधया प्रज्ञप्तम् ?, भगवानाह-गौतम! एकं योजनसहस्रमवाधयाऽन्तरं प्रज्ञप्त, रत्नकाण्डाधस्तनचरमान्तस्य वनकाण्डोपरितनचरमान्तस्य च परस्परसंलग्नतया उभयत्रापि तुल्यप्रमाणत्वभावात् ॥ 'इमीसे णमित्यादि, अस्या भदन्त। रत्नप्रभायाः पृथिव्या रत्नकाण्डस्योपरितनाच्चरमान्ताद् वनकाण्डस्य योऽधस्तनश्चरमान्त: एतदन्तरं कियद् अबाधया प्रज्ञप्तम् ?, भगवानाह-गौतम! द्वे योजनसहने अवाधयाऽन्तरं प्रज्ञप्तं, एवं काण्डे काण्डे द्वौ द्वावालापको वक्तव्यौ, काण्डस्य चाधस्तने चरमान्ते चिन्यमाने योजनसहस्रपरिवृद्धिः कर्त्तव्या यावद् रिष्ठस्य काण्डस्याधस्तने चरमान्ते चिन्यमाने षोडश योजनसहस्राणि अबाधयाऽन्तरं प्रज्ञप्तमिति वक्तव्यम् ॥ 'इमीसे णमित्यादि, अस्या भदन्त रत्नप्रभायाः पृथिव्या रत्नकाण्डस्योपरि5 तनाञ्चरमान्तात्परतो यः पङ्कवहुलस्य काण्डस्योपरिननश्चरमान्तः एतत् 'कियत्' किंप्रमाणमवाधयाऽन्तरं प्रज्ञप्तम् ?, भगवानाह-गौ तम षोडश योजनसहस्राणि अबाधयाऽन्तरं प्रज्ञप्तम् । 'इमीसे ण'मित्यादि, तस्यैव पवबहुलस्य काण्डस्याधस्तनश्चरमान्त एकं यो Wore ॥१० ॥ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 जनशतसहस्रमबाधयाऽन्तरं प्रज्ञप्तं । 'इमी से ण' मित्यादि, अस्य भदन्त ! रत्नप्रभायाः पृथिव्या रत्नकाण्डस्योपरितनाञ्चरमान्तात्परतो-बहुलस्य काण्डस्य य उपरितनश्चरमान्त एतदन्तरं कियद् अवाधया प्रज्ञप्तम् ?, भगवानाह - गौतम ! एकं योजनशतसहस्रमबाधयाऽन्तरं प्रज्ञप्तं । 'इमीसे णमित्यादि, अस्या भदन्त । रत्नप्रभायाः पृथिव्या रत्नकाण्डस्योपरितनाञ्चरमान्तात्परतोऽब्बहुलस्य काण्डस्य योऽधस्तनश्चरमान्त एतदन्तरं कियद् अबाधया प्रज्ञप्तम् ?, भगवानाह - गौतम अशीत्युत्तरं योजनशतसहस्रम् । घनोद्धेरुपरितने चरमान्ते पृष्ठे एतदेव निर्वचनम शीत्युत्तरयोजनशतसहस्रम् अधस्तने पृष्ठे इदं निर्वचनं - द्वे योजनशतसहस्रे अवाधयाऽन्तरं प्रज्ञप्तम् । धनवातस्योपरितने चरमान्ते पृष्ठे इदमेव निर्वचनं, घनोदध्यधस्तनचरमान्तस्य घनवातोपरितनचरमान्तस्य च परस्परं संलग्नत्वात् । धनवातस्याधस्तने चरमान्ते पृष्टे एतन्निर्वचनम् - असङ्ख्येयानि योजनशतसहस्राण्यवाधयाऽन्तरं प्रज्ञप्तम् । एवं तनुवातस्योपरितने चरमान्ते अधस्तने चरमान्ते अवकाशान्तरस्याप्युपरितनेऽधस्तने च चरमान्ते इत्थमेव निर्वचनं वक्तव्यम्, असङ्ख्येयानि योजनशतसहस्राण्यबाधयाऽन्तरं प्रज्ञप्तमिति, सूत्रपाठस्तु प्रत्येकं सर्वत्रापि पूर्वानुसारेण स्वयं परिभावनीयः सुगमत्वात् ॥ 'दोच्चाए णं' इत्यादि, द्वितीयस्या भदन्त ! पृथिव्या उपरितनाञ्चरमान्तात्परतो योऽधस्तनश्चरमान्त एतत् 'कियत्' किंप्रमाणमवाधयाऽन्तरं प्रज्ञप्तम् ?, भगवानाह - गौतम | 'द्वात्रिंशदुत्तरं ' द्वात्रिंशत्सहस्राधिकं योजनशतसहस्रमबाधयाऽन्तरं प्रज्ञप्तम् । घनोदधेरुपरितने चरमान्ते पृष्टे एतदेव निर्वचनं द्वात्रिंशदुत्तरं योजनशतसहस्रम् अधस्तने चरमान्ते पृष्टे इदं निर्वचनं - द्विपञ्चाशदुत्तरं योजनशतसहस्रम् । एतदेव घनवातस्योपरितनचरमान्तपृच्छायामपि, घनवातस्याधस्तनचरमान्तपृच्छायां तनुवातावकाशान्तरयोरुपरितनाधस्तनचरमान्तपृच्छासु च यथा रत्नप्रभायां तथा वक्तव्यम्, असङ्ख्येयानि योजनशतसहस्राण्यबाधयाऽन्तरं प्रज्ञप्तमिति वक्तव्यमिति भावः ॥ ' तच्चाए णं Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भंते! इत्यादि, तृतीयस्या भदन्त ! पृथिव्या उपरितनाश्चरमान्ताद् अधस्तनश्वरमान्त एतदन्तरं कियद् अबाधया प्राप्तम् ?, भग- ३ प्रतिपत्ती वानाह-गौतम | अष्टाविंशत्युत्तरं शत(सहस्र)म्-अष्टाविंशतिसहस्राधिकं योजनशतसहस्रमवाधयाऽन्तरं प्रज्ञप्तम् । एतदेव घनोदधेरुपरितन- उद्देशः १ चरमान्तपृच्छायामपि निर्वचनम् । अघस्तनचरमान्तपृच्छायामष्टाचत्वारिंशदुत्तरं योजनशतसहस्रमवाधयाऽन्तरं प्रज्ञप्तमिति वक्त है रसग्रभाव्यम् । एतदेव घनवातस्योपरितनचरमान्तपृच्छायामपि । अधस्तनचरमान्तपृच्छायां तनुवातावकाशान्तरयोरुपरितनाधस्तनचरमा- दीनामल्पन्तपृच्छासु च यथा रत्नप्रभायां तथा वक्तव्यम् । एवं चतुर्थपञ्चमपष्ठसप्तमपृथिवीविपयाणि सूत्राण्यपि भावनीयानि ॥ ॐ बहुता इमाणं भंते। रयणप्पभा पुढवी दोचं पुढचं पणिहाय याहल्लेणं किं तल्ला विसेसाहिया संखे सू०८० ज्जगुणा? वित्थरेणं किंतुल्ला विसेसहीणा संखेनगुणहीणा?, गोयमा! इमा णं रयण पु०दोचं पुढवीं पणिहाय थाहल्लेणं नो तुल्ला विसेसाहिया नो संखेजगुणा, वित्थारेणं नो तुल्ला विसेसहीणा, णो संखेनगुणहीणा । दोचा णं भंते! पुढवी तच्चं पुढविं पणिहाय याहल्लेणं किं तुल्ला? एवं चेव भाणितव्वं । एवं तचा चउत्थी पंचमी छट्ठी । छट्ठी णं भंते! पुढवी सत्तमं पुढविं पणिहाय बाहलेणं किं तुल्ला विसेसाहिया संखेजगुणा?, एवं चेव भाणियव्वं । सेवं भंते!२। नेरड्यउद्देसओ पढमो॥ (सू०८०) 3 'इमा णं भंते' इत्यादि, इयं भदन्त रत्नप्रभापृथिवी द्वितीयां पृथिवीं शर्कराप्रभा 'प्रणिधाय' आश्रित्य 'वाहल्येन' पिण्उभा- ॥१०१॥ वेन किं तुल्या विशेपाधिका सङ्येयगुणा ?, वाहल्यमधिकृत्येदं प्रश्नत्रयम्, ननु एका अशीत्युत्तरयोजनलक्षमाना अपरा द्वात्रिंशदु LASSRIGANGACASEASONGS CAKCMS 45-4 Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरयोजनलक्षमानेत्युक्तं ततस्तदर्थावगमे सत्युक्तलक्षणं प्रश्नत्रयमयुक्त, विशेषाधिकेति स्वयमेवार्थपरिज्ञानात् , सत्यमेतत् , केवलं झप्र|| भोऽयं तदन्यमोहापोहार्थः, एतदपि कथमवसीयते ? इति चेत्स्वावबोधाय प्रश्नान्तरोपन्यासात् , तथा चाह-विस्तरेण-विष्कम्भेन किं? तुल्या विशेपहीना सद्ध्येयगुणहीना? इति, भगवानाह-गौतम! इयं रत्नप्रभा पृथिवी द्वितीयां शर्कराप्रभापृथिवीं प्रणिधाय वाहस्येन नचा तुल्या किन्तु विशेषाधिका नापि सङ्खयेयगुणा, कथमेतदेवम् ? इति चेदुच्यते-इह रत्नप्रभा पृथिवी अशीत्युत्तरयोजनलक्षमाना, शर्कराप्रभा द्वात्रिंशदुत्तरयोजनलक्षमाना, तदत्रान्तरमष्टाचत्वारिंशद् योजनसहस्राणि ततो विशेपाधिका घटते न तुल्या नापि सङ्खयेहयगुणा, विस्तरेण न तुल्या किन्तु विशेपहीना नापि सङ्ख्येयगुणहीना, प्रदेशादिवृद्ध्या प्रवर्द्धमाने तावति क्षेत्रे शर्कर वृद्धिसम्भवात, एवं सर्वत्र भावनीयम् ॥ तृतीयप्रतिपत्तौ समाप्तः प्रथमोद्देशकः, साम्प्रतं द्वितीयः प्रारभ्यते, तस्य चेदमादिसूत्रम्-1 सम्प्रति कस्यां पृथिव्यां कस्मिन् प्रदेशे नरकावासाः ? इत्येतत्प्रतिपादनार्थ प्रथमं तावदिदमाह कइ णं भंते! पुढवीओ पण्णत्ताओ?, गोयमा! सत्त पुढवीओ पण्णत्ताओ, तंजहा-रयणप्पभा जाव अहेसत्तमा ॥ इमीसे णं रयणप्प० पु० असीउत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उवरि केवतियं ओगाहित्ता हेहा केवइयं वजित्ता मज्झे केवतिए केवतिया निरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता?, गोयमा! इमीसे णं रयण पु० असीउत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उवरि एगं जोयणसहस्सं ओगाहित्ता हेढावि एगं जोयणसहस्सं वजेत्ता मज्झे अडसत्तरी जोयणसयसहस्सा, एत्थ णं रयणप्पभाए पु० नेरइयाणं तीसं निरयावाससयसहस्साई भवंतित्तिमक्खाया ॥ SAGAROSHARM560555 Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ते णं णरगा अंतो वहा याहिं चउरंसा जाव असुभा णरएसु वेयणा, एवं एएणं अभिलावेणं उवजुंजिऊण भाणियव्वं ठाणप्पयाणुसारेणं, जत्थ जं वाहलं जत्थ जत्तिया वा नरयावाससयसहस्सा जाव अहेसत्तमाए पुढवीए, अहेसत्तमाए मज्झिमं केवतिए कति अणुत्तरा महद महालता महाणिरया पण्णत्ता एवं पुच्छितच्वं वागरेयव्वंपि तहेव ॥ ( सू० ८१ ) 'कइ णं भंते!' इत्यादि, कति भदन्त । पृथिव्यः प्रज्ञप्ताः ? इति, विशेषाभिधानार्थमेतदभिहितम् उक्तञ्च – “पुव्वभणियपि जं पुण भन्नई तत्थ कारणं अस्थि । पडिसेहो य अणुण्णा कारण ( उ ) विसेसोवलंभो वा ॥ १ ॥” भगवानाह - गौतम ! सप्त पृथिव्यः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा–रत्नप्रभा यावत्तमस्तमप्रभा ॥ 'इमीसे ण' मित्यादि, अस्या भदन्त । रत्नप्रभायाः पृथिव्या उपरि 'कियत्' किंप्रमाणमवगाह्य—उपरितनभागात् कियद् अतिक्रम्येत्यर्थः अधस्तात् 'कियत्' किंप्रमाणं वर्जयित्वा मध्ये 'कियति' किंप्रमाणे कियन्ति नरकावासशतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि ?, भगवानाह - गौतम । अस्या रत्नप्रभायाः पृथिव्या अशीत्युत्तरयोजनशतसहस्रबाहुल्याया उपर्येकं योजनसहस्रमवगाह्याधस्तादेकं योजनसहस्रं वर्जयित्वा ' मध्ये ' मध्यभागे 'अष्टसप्तत्युत्तरे' अष्टसप्ततिसहस्राधिके योजनशतसहस्रे 'अत्र ' एतस्मिन् रत्नप्रभापृथिवीनैरयिकाणां योग्यानि त्रिंशन्नरकावासशतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि भवन्तीत्याख्यातं मया शेपैश्च तीर्थकृद्भिः अनेन सर्वतीर्थकृतामविसंवादिवचनता प्रवेदिता ॥ ' ते णं नरगा' इत्यादि, ते नरका 'अन्तः' मध्यभागे 'वृत्ताः' वृत्ताकाराः 'वहिः' वहिर्भागे 'चतुरस्राः' चतुरस्राकाराः, इदं च पीठोपरिवर्त्तिनं मध्यभागमधिकृत्य प्रोच्यते, सकलपीठाद्यपेक्षया तु आवलिकाप्रविष्टा वृत्तत्र्यस्रच१ पूर्वभणितमपि यत् पुनर्भण्यते तत्र कारणमस्ति । प्रतिषेधोऽनुझा कारणविशेषोपलम्भश्च ॥ १ ॥ ३ प्रतिपत्तौ उद्देशः १ नरकावा सस्थानं सू० ८१ ॥ १०२ ॥ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुरस्रसंस्थाना: पुष्पावकीर्णास्तु नानासंस्थाना: प्रतिपत्तव्याः, एतच्चाप्रे स्वयमेव वक्ष्यति, "अहे खुरप्पसंठाणसंठिया" इति, 'अध:' भूमितले क्षुरप्रस्येव - प्रहरण विशेषस्य ( इव) यत् संस्थानम् - आकार विशेपस्तीक्ष्णतालक्षणस्तेन संस्थिताः क्षुरप्र संस्थानसंस्थिताः, तथाहि - तेषु नरकावासेषु भूमितले मसृणत्वाभावतः शर्करिले पादेषु न्यस्यमानेषु शर्करामात्रसंस्पर्शेऽपि क्षुरप्रेणेव पादाः कृत्यन्ते, तथा "निच्चंधयारतमसा " नित्यान्धकारा: उद्योताभावतो यत्तमस्तेन - तमसा नित्यं - सर्वकालमन्धकारो येषु ते नित्यान्धकाराः, तत्रापवरकादिष्वपि तमोऽन्धकारोऽस्ति केवलं स बहिः सूर्यप्रकाशे मन्दतमो भवति नरकेषु तु तीर्थकरजन्मदीक्षादिकालव्यतिरेकेणान्यदा सर्वकालमप्युद्योतलेशस्याप्यभावतो जात्यन्धस्येव मेघच्छन्नकालार्द्धरात्र इवातीव बहलतरो भवति, तत उक्तं तमसानित्यान्धकाराः, तमञ्च तत्र सदाऽवस्थितमुद्द्द्योतकारिणामभावात्, तथा चाह - " वव गयगहचंदसूरनक्खत्त जोइसपहा" व्यपगतः - परिभ्रष्ट ग्रहचन्द्रसूर्यनक्षत्ररूपाणाम् उपलक्षणमेतत्तारारूपाणां च ज्योतिष्काणां पन्था - मार्गों यत्र ते व्यपगतमहचन्द्रसूर्यनक्षत्रज्योतिष्कपथाः, तथा "मेयवसापूयरुहिर मंस चिक्खिल्ललित्ताणुलेवणतला” इति स्वभावतः संपन्नैर्मेदोवसापूतिरुधिरमांसैर्यश्चिक्खिल :- कर्दमस्तेन लिप्तम् उपदिग्धम् अनुलेपनेन - सकूलिप्तस्य पुनः पुनरुपलेपनेन तलं - भूमिका येषां ते मेदोवशापूतिरुधिरमांस चिक्खिल्ललिप्तानुलेपनतला अत एवाशुचय:- अपवित्रा बीभत्सा दर्शनेऽयतिजुगुप्सोत्पत्तेः परमदुरभिगन्धाः - मृतगवादिकडेवरेभ्योऽप्यतीवानिष्टदुरभिगन्धाः, "काऊअगणिवन्नाभा" इति लोहे धन्यमाने यादृक् कपोतो - बहु कृष्णरूपोऽग्नेर्वर्णः, किमुक्तं भवति ? - यादृशी बहुकृष्णवर्णरूपाऽग्निज्वाला विनिर्गच्छतीति तादृशी आभा - वर्णस्वरूपं येषां ते कपोताग्निवर्णाभाः, तथा कर्कश :- अतिदुस्सहोऽसिपत्रस्येव स्पर्शो येषां ते कर्कशस्पर्शाः, अत एव 'दुरहियासा' इति दुःखेनाध्यास्यन्ते - सह्यन्ते इति दुरध्यासा अशुभा दर्शनतो नरकाः, तथा गन्ध Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +A AGRAAGMANASARARIANS रसस्पर्शशब्दैरशुभा-अर्तीवासातरूपा नरकेषु वेदना । एवं सर्वावपि पृथिवीष्वालापको वक्तव्यः, स चैवम्-"सफरप्पमाए ३ प्रतिपत्ती *णं भंते! पुढवीए बत्तीसुत्तरजोयणसयसहस्सबाहलाए. उवरि केवइयं ओगाहित्ता हेट्ठा केवइयं वजेत्ता मज्झे चैव कवाए ¥ उद्देशः १ 5 केवइया णिरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता?, गोयमा! सकरप्पभाए ण पुढवीए बत्तीसुत्तरजोयणसयसहस्सवाहल्लाए उवरि एगं जो- नरकावायणसहस्समोंगाहित्ता हेट्ठा एगं जोयणसहस्सं वजेत्ता मज्झे तीसुत्तरजोयणसयसहस्से एत्थ णं सकरप्पभापुढविनेरइयाणं पण , सस्वरूपं वीसा नरयावाससयसहस्सा भवंतीति मक्खार्य, ते णं णरगा अंतो वट्टा जाव असुभा नरएसु वेयणा। वालयप्पभाए णं तत्स्थानं च भंते ! पुढवीए अट्ठावीसुत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उवरि केवइयं ओगाहित्ता हेट्ठा केवइयं वजित्ता मझे केवइए केवइया निर- सू० ८१ यावाससयसहस्सा पण्णत्ता?, गोयमा वालुयप्पभाए पुढवीए अट्ठावीसुत्तरजोयणसयसहस्सवाहल्लाए उवरि एग जोयणसहस्सं ओगाहित्ता हेर्ट एग जोयणसहस्सं वजित्ता, मझे छन्वीसुत्तरे जोयणसयसहस्से एत्थ णं वालुयप्पभापुढविनेरइयाणं पण्णरस निरयावाससयसहस्सा भवन्तीति मक्खायं, ते णं नरगा जाव असुभा नरगेसु वेयणा । पंकप्पभाए णं भंते! पुढवीए वीसुत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उवरि केवइयं ओगाहित्ता हेहा केवइयं वजित्ता मज्झे केवइए केवइया निरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता?, गोयमा! पंकप्पभाए णं पुढवीए वीसुत्तरजोयणसयसहस्सवाहल्लाए उवरिं एगं जोयणसहस्सं ओगाहित्ता हिट्ठावि एगं जोयणसहस्सं वजेत्ता मझे अट्ठारसुत्तरे जोयणसयसहस्से, एत्थ णं पंकप्पभा पुढविणेरइयाणं दस निरयावाससयसहस्सा निरयावासा भवंतीति मक्खायं, ते णं णरगा जाव असुभा नरगेसु वेयणा। धूमप्पभाए णं भंते पुढवीए अट्ठारसुत्तरजोयणसयसहस्सवाहल्लाए उवरि केवइयं ओगाहेत्ता, हेट्ठा ॥१०३॥ केवइयं वज्जित्ता मज्झे केवइए केवइया निरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता ?, गोयमा! धूमप्पभाए णं पुढवीए अट्ठारसुत्तरजोयणसयसह 556 Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जस्सबाहल्लाए उवरिं एगं जोयणसहस्समौगाहेत्ता हेट्ठा एगं जोयणसहस्सं वजेत्ता मज्झे सोलसुत्तरे जोयणसयसहस्से, एत्थ णं धूमप्प-10 भापदविनेरइयाणं तिन्नि नेरइयावाससयसहस्सा भवंतीति मक्खायं, ते णं णरगा अंतों वट्टा जाव असुभा नरगेसु वेयणा इति, प्रिन्थाप्रम ३०००1। तमप्पभाए णं भंते! पुढवीए सोलसुत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उवरि केवतियं ओगाहेत्ता हेहा केवतियं वजेत्ता मझे केवतिए केवतिया नरगावाससयसहस्सा पण्णत्ता?, गोयमा तमप्पभाए णं पुढवीए सोलसुत्तरजोयणसयसहस्सवाहल्लाए उवरि एगं जोयणसहस्समोगाहेत्ता हेट्ठा एगं जोयणसयसहस्सं वजेत्ता मज्झे चोइसुत्तरे जोयणसयसहस्से एत्थ णं तमापुढविनेरइयाणं एगे|5 पंचूणे नरगावाससयसहस्से भवन्तीति मक्खायं, ते णं णरगा अंतो वट्टा जाव असुभा नरगेसु वेयणा । अहेसत्तमाए णं भंते ! पुढवीए अटोत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उवरि केवइयं ओगाहेत्ता हेट्ठा केवइयं वजेत्ता मज्झे केवइए केवइया अणुत्तरा महइमहालया महानरगावासा पण्णत्ता ?, गोयमा! अहेसत्तमाए पुढवीए अद्भुत्तरजोयणसयसहस्सवाहल्लाए उवरिं अद्धतेवण्णं जोयणसहस्साई ओगाहेत्ता || हेट्ठावि अद्धतेवणं जोयणसहस्साई वज्जित्ता मज्झे तिसु जोयणसहस्सेसु एत्थ णं अहेसत्तमपुढविनेरइयाणं पंच अणुत्तरा महइमहा-18 लया महानिरया पण्णत्ता, तंजहा-काले महाकाले रोरुए महारोरुए मज्झे अप्पइट्ठाणे, ते णं महानरगा अंतो वट्टा जाव असुभा महानरगेसु वेयणा" इति । इदं च सकलमपि सूत्रं सुगम, तत्र बाहल्यपरिमाणनरकावासयोग्यमध्यभागपरिमाणनरकावाससङ्ख्यानामिमाः सङ्घहणिगाथा:-आसीयं बत्तीसं अट्ठावीसं तहेव वीसं च । अट्ठारस सोलसगं अद्वत्तरमेव हेद्विमया ॥१॥ अट्ठत्तरं च तीसं छव्वीसं चेव सयसहस्सं तु । अट्ठारस सोलसर्ग चोदसमहियं तु छट्ठीए ॥२॥ अद्धतिवण्णसहस्सा उवरिमहे वजिऊण तो भणिया। Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MANGALONGAROCARRORA मझे तिमु सहस्सेसु होति निरया तमतमाए ॥ ३ ॥ तीसा य पण्णवीसा पण्णरम दम पेय मयसहस्माई । तिनि य पंचूणेगं पं- प्रतिपत्तो नाव अणुत्तरा निरया ॥ ४ ॥” पाठसिद्धाः ॥ सम्प्रति नरकावाससंस्थानप्रतिपादनार्थमाह उद्देशः १ इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए णरका किंसंठिया पणत्ता?, गोयमा! दुविहा पपणसा, नरकावातंजहा--आवलियपचिट्ठा य आवलिययाहिरा य, तत्थ णं जे ते आवलियपविद्या ते तिविहा सानां संपण्णता, तंजहा-वहा तंसा चउरंसा, तत्थ णं जे ते आवलियबाहिरा ते णाणासंठाणसंठिया स्थानं तपण्णत्ता, तंजहा-अयकोढसंठिता पितृपयणगसंठिता कंसंठिता लोहीसंठिता कहाहसंठिता है द्वाहल्यं च थालीसंठिता पिहडगसंठिता किमियडसंठिता किन्नपुडगसंठिआ उडवसंठिया मुरवसंठिता 2 सू० ८२ मुयंगसंठिया नंदिमुयंगसंठिया आलिंगकसंठिता सुघोससंठिया दारयसंठिता पणवसंठिया पडहसंठिया भेरिसंठिआ झहरीसंठिया कुतुंवकसंठिया नालिसंठिया, एवं जाव तमाए ॥ अहेसत्तमाए णं भंते ! पुढवीए णरका किंसंठिता पण्णत्ता?, गोयमा! दुविहा पण्णता, तंजहा-वहे य तंसा य ॥ इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नरका केवतियं याहल्लेणं पपणत्ता ?, गोयमा ! तिणि जोयणसहस्साई पाहल्लेणं पण्णत्ता, तंजहा- हेहा घणा सहस्सं मझे मुसिरा सहस्सं उपि संकुझ्या सहस्सं, एवं जाव अहेसत्तमाए । इमीसेणं भंते! रयणप्प० पु० नरगा केवतियं आयामविक्खंभेणं केवइयं परिक्खेवेणं पण्णत्ता?, गोयमा! दुविहा पण्णत्ता, KACANCISCLAIMERENCACAN Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंजा - संखेज्जवित्थडा य असंखेज्जवित्थडा य, तत्थ णं जे ते संखेज्जवित्थडा तण सखज्जाइ जाय- - सहस्साई आयामविक्खंभेणं संखेज्जाई जोयणसहस्साइं परिक्खेवेणं पण्णत्ता तत्थ णं जे ते असंखेज्जवित्थडा ते णं असंखेज्जाई जोयणसहस्साई आयामविक्खंभेणं असंखेज्जाई जोयणसहस्साई परिक्खेवेणं पण्णत्ता, एवं जाव तमाए, अहेसत्तमाए णं भंते! पुच्छा, गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तंजहा - संखेज्जवित्थडे य असंखेज्जवित्थडा य, तत्थ णं जे ते संखेज्जवित्थडे से णं एवं जोयणसयसहस्सं आयामचिक्खंभेणं तिन्नि जोयणसयसहस्साई सोलस सहस्साइं दोन्निय सत्तावीसे जोयणसए तिनि कोसे य अट्ठावीसं च धणुसतं तेरस य अंगुलाई अर्द्धगुलयं च किंचिविसाधिए परिक्वेवेणं पण्णत्ता, तत्थ णं जे ते असंखेज्जवित्थडा ते णं असंखेज्जाइं जोयणसयसहस्साइं आयामविक्खंभेणं असंखेजाई जाव परिक्खेवेणं पण्णत्ता ( सू० ८२ ) 'इमीसे णं भंते' ! इत्यादि, अस्यां भदन्त । रत्नप्रभायां पृथिव्यां नरकाः किमिव संस्थिताः किंसंस्थिताः प्रज्ञप्ता: ?, भगवानाह - गौतम । नरका द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - आवलिकाप्रविष्टाश्च आवलिकाबाह्याश्च चशब्दावुभयेषामप्यशुभतातुल्यतासूचकौ, आवलिकाप्रविष्टा नामाष्टासु दिक्षु समश्रेण्यवस्थिताः, आवलिकासु-श्रेणिषु प्रविष्टा - व्यवस्थिता आवलिकाप्रविष्टाः, ते संस्थानमधिकृत्य त्रिविधा: प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-वृत्तास्त्रयस्राश्चतुरस्राः, तत्र येते आवलिकाबाह्यास्ते नानासंस्थानसंस्थिताः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - अय: कोष्ठोलोहमय: कोष्ठस्तद्वत्संस्थिता अय: कोष्ठसंस्थिताः, 'पिट्ठपयणगसंठिया' इति यत्र सुरासंधानाय पिष्टं पच्यते तत्पिष्टपचनकं तद्व Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मतिपत्ती नरकवा संस्थिताः 'पिट्ठपयणगसंठिया' अत्र सङ्ग्रहर्णिगाथे-"अयकोट्ठपिट्ठपयणगकंडूलोहीकडाहसंठाणा । थाली पिहडग किण्ह(ग) उहा३प्रतिपत्ती मुरवे मुयंगे य ।। १॥ नंदिमुइंगे आलिंग सुघोसे ददरे य पणवे य । पडहगझलरिभेरीकुत्तुंबगनाडिसंठाणा ॥२॥" कण्ड:- उद्देशः १ पाकस्थानं लोहीकटाही प्रतीतौ तद्वत्संस्थानाः स्थाली-उषा पिहडं-यत्र प्रभूतजनयोग्यं धान्यं पच्यते उटज:-तापसाश्रमो मरजोमईलविशेषः नन्दीमृदङ्गो-द्वादशविधतूर्यान्तर्गतो मृदङ्गः, स च द्विधा, तद्यथा-मुकुन्दो मर्दलश्च, तत्रोपरि सङ्कचितोऽधो विस्तीर्णो म. सानां - कन्दः उपर्यधश्च समो मईल: आलिगो-मृन्मयो मुरजः सुघोषो-देवलोकप्रसिद्धो घण्टाविशेष आतोद्यविशेषो वा दर्दरो-वाद्य स्थानं तविशेषः पणवो-भाण्डानां पटहः पटहः-प्रतीतः, भेरी-ढका, झल्लरी-चमोवनद्धा विस्तीर्णवलयाकारा, कुस्तुम्बक:-संप्रदायगम्यः. द्वाहल्यंच नाडी-घटिका, एवं शेषास्वपि पृथिवीपु तावद्वक्तव्यं यावत्पष्ठयां, सूत्रपाठोऽप्येवम्-"सकरप्पभाए णं भंते! पुढवीए नरका किंसं सू०८२ ठिया पन्नत्ता?, गोयमा दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-आवलिकापविट्ठा य आवलियावाहिरा य" इत्यादि । अधःसप्तमीविषयं सूत्र साक्षादपदर्शयति-'अहेसत्तमाए णं भंते' इत्यादि, अधःसप्तम्यां भदन्त! पृथिव्यां नरकाः 'किंसंस्थिता' किमिव संस्थिताः प्रज्ञप्ताः१, भगवानाह-गौतम द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-वट्टे य तंसा य' इति, अधःसप्तम्यां हि पृथिव्यां नरका आवलिकाप्रविष्टा एव न आवलिकाबाह्याः, आवलिकाप्रविष्टा अपि पञ्च, नाधिकाः, तत्र मध्येऽप्रतिष्ठानाभिधानो नरकेन्द्रो वृत्तः, सर्वेषामपि नरकेन्द्राणां वृत्तवात् , शेषास्तु चत्वारः पूर्वादिषु दिक्षु, ते च व्यनाः, तत उक्तं वृत्तश्च व्यस्राश्च ॥ सम्प्रति नरकावासानां बाहल्यप्रतिपाद| नार्थमाह-'इमीसे ण'मित्यादि, अस्यां भदन्त! रत्नप्रभायां पृथिव्यां नरकाः कियबाहल्येन-बहलस्य भावो माहल्यं-पिण्डभाव 5"०" ICT उत्सेध इत्यर्थः तेन प्राप्ताः?, भगवानाह-गौतम! त्रीणि योजनसहस्राणि बाहल्येन प्रशप्ताः, तद्यथा-अधस्तने पादपीठे घना-निचिताः छन्दः उपर्यधश्च सो मईल: वान्तर्गतो मृदङ्गः, स च द्विधा, अभूतजनयोग्यं धान्यं पच्या डसठाणा ॥ २ ॥" नाडी-घटिका, माण्डाना पटहः पदहः-प्रतीतः, भगः सुघोषो-देवलोकप्रसिद्धो घण्टा तत्रोपरि सङ्कचितोऽधो रो- डावहा पन्नत्ता, तंजहा या सूत्रपाठोऽप्येवमणिवलयाकारा, वा दर्दरी-बाय मत्यादि, अस्यां भदन्त ! ARE, तत उक्तं वृत्तश्च श्यसाधानो नरकेन्द्रो वृत्त Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहसंयोजनसहन, मध्ये-पीठस्योपरि मध्यभागे सुषिराः सहस्र-योजनसहस्र, तत 'उपिति उपरि सङ्कषिता: शिखराकृत्या सरोचमपंगता योजनसहस्र, तत एवं सर्वसङ्ख्यया नरकावासानां त्रीणि योजनसहस्राणि बाहल्यतो भवन्ति, एवं पृथिव्यां पृथिव्यां सावक्तव्यं यावदधःसप्तम्यां, तथा चोक्तमन्यत्रापि-हेट्ठा घणा सहस्सं उप्पि संकोचतो सहस्सं तु । मझे सहस्स सुसिरा तिग्नि सहस्ससिया नरया ॥१॥" सम्प्रति नरकावासानामायामविष्कम्भप्रतिपादनार्थमाह-'इमीसे णं भंते!' इत्यादि, अस्यां भदन्त! रत्नप्रभायां पृथिव्यां नरकाः किंप्रमाणमायामविष्कम्भेन, समाहारो द्वन्द्वस्तेनायामविष्कम्भाभ्यामित्यर्थः, कियत् 'परिक्षेपेण' परिरयेण प्रज्ञप्ताः १, भगवानाह-गौतम! द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-सङ्ख्येयविस्तृताश्व असहयेयविस्तृताश्व, सङ्ख्येययोजनप्रमाणं विस्तृतंविस्तरो येपां ते सत्येयविस्तृताः, एवमसङ्ख्येयं विस्तृतं येषां ते असहयेयविस्तृताः, चशब्दो स्वगतानेकसख्याभेदप्रकाशनपरौ, तत्र ये ते सध्यविस्तृतास्ते सायेयानि योजनसहस्राणि आयामविष्कम्भेन सोयानि योजनसहस्राणि परिक्षेपेण, तत्र ये तेऽसोयविस्तृतास्तेऽसहयेयानि योजनसहस्राण्यायामविष्कम्भेन असङ्ख्येयानि योजनसहस्राणि परिक्षेपेण प्रज्ञप्तानि, एवं प्रतिपृथिवि तावद्वक्तव्यं यावषष्ठी पृथिवी, सूत्रपाठस्त्वेवम्-सकरप्पभाए णं भन्ते! पुढवीए नरगा केवइयं आयामविक्खंभेणं केवइयं परिरयेणं पण्णत्ता?, गोयमा! दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-संखेजवित्थडा य, असंखेजवित्थडा य” इत्यादि ॥ 'अहेसत्तमाए णं भंते!' इत्यादि, अधःसप्तम्यां भदन्त! पृथिव्यां नरकाः कियदायामविष्कम्भेन कियत्परिक्षेपेण प्रज्ञप्ताः ?, भगवानाह-गौतम! द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-सहयेयविस्तृत एकः, स चाप्रतिष्ठानाभिधानो नरकेन्द्रकोऽवसातव्यः, असङ्ख्येयविस्तृताः शेषाश्चलारः, तत्र योऽसौ सङ्ख्येयविस्तृतोऽप्रतिष्ठानाभिधानो नरकेन्द्रकः स एकं योजनशतसहस्रमायामविष्कम्भेन त्रीणि योजनशतसहस्राणि पोडश सहस्राणि द्वे योजनशते सप्तविंशत्यधिके त्रयः Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सानां क्रोशा अष्टाविंशं धनुःशतं त्रयोदश अङ्गुलानि अर्धाङ्गुलं च किश्चिद्विशेपाधिकं परिक्षेपेण प्रज्ञप्तम् , इदं च परिक्षेपपरिमाणं गणितमा- 5 प्रतिपत्तौ वनया जम्बूद्वीपपरिक्षेपपरिमाणवद्भावनीयं, तत्र ये ते शेषाश्चत्वारोऽसङ्ख्येयविस्तृतास्तेऽसहयेयानि योजनसहस्राण्यायामविष्कम्भेनास- ६ उद्देशः१ येयानि योजनसहस्राणि परिक्षेपेण प्रज्ञप्तानि ॥ सम्प्रति नरकावासानां वर्णप्रतिपादनार्थमाह नरकावाइमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरया केरिसया वण्णेणं पण्णत्ता?, गोयमा! काला कालावभासा गंभीरलोमहरिसा भीमा उत्तासणया परमकिण्हा वण्णेणं पण्णत्ता, एवं जाव अधे वर्णादि सत्तमाए ॥ इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए णरका केरिसका गंधेणं पण्णता?. गोयमा ! सू० ८३ से जहाणामए अहिमडेति वा गोमडेति वा सुणगमडेति वा मज्जारमडेति वा मणस्समडेति वा महिसमडेति वा मुसगमडेति वा आसमडेति वा हत्थिमडेति वा सीहमडेति वा वग्घमडेति वा विगमडेति वा दीवियमडेति वा मयकुहियचिरविणट्ठकुणिमवावण्णदुन्भिगंधे असुइविलीणविगयबीभत्थदरिसणिज्जे किमिजालाउलसंसत्ते, भवेयारूवे सिया?, णो इणढे समढे, गोयमा ! इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए णरगा एत्तो अणितरका चेव अकंततरका चेव जाव अमणामतरा चेव गंघेणं पण्णत्ता, एवं जाव अधेसत्तमाए पुढवीए ॥ इमीसे णं भंते! रयणप्प० पु० णरया केरिसया फासेणं पण्णत्ता ?, गोयमा! से जहानामए असिपत्तेइ वा खुरपत्तेइ वा कलं ॥१०६॥ बचीरियापत्तेइ वा सत्तग्गेइ वा कुंतग्गेइ वा तोमरगेति वा नारायग्गेति वा मूलग्गति वा लउ GANGACASSCRIGANGANAGAMAN Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लग्गेति वा भिंडिमालग्गेति वा सूचिकलावेति वा कवियच्छूति वा विंचुयकंटएति वा इंगालेति वा जालेति वा मुम्मुरेति वा, अचिति वा अलाएति वा सुद्धागणीइ वा, भवे एतारूवे सिया?, णो तिणढे समढे, गोयमा ! इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए णरगा एत्तो अणितरा चेव जाव अम णामतरका चे फासे णं पण्णत्ता, एवं जाव अधेसत्तमाए पुढवीए ॥ (सू० ८३) 'इमीसे णं भंते!' इत्यादि, अस्यां भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां नरकाः कीदृशा वर्णेन प्रज्ञप्ता:?, भगवानाह-गौतम! कालाः, तत्र कोऽपि निष्प्रतिभतया मन्दकालोऽप्याशक्येत ततस्तदाशङ्काव्यवच्छेदार्थ विशेषणान्तरमाह-कालावभासाः' काल:-कृष्णोsवभासः-प्रतिभाविनिर्गमो येभ्यस्ते कालावभासाः, कृष्णप्रभापटलोपचिता इति भावः, अत एव 'गम्भीररोमहर्षोः' गम्भीरः-अतीवोत्कटो रोमहर्षो-रोमोद्धर्षों भयवशाद् येभ्यस्ते गम्भीररोमहर्षाः, किमुक्तं भवति ?-एवं नाम ते कृष्णावभासा यदर्शनमात्रेणापि नारकजन्तूनां भयसम्पादनेन अनर्गलं रोमहर्षमुत्पादयन्तीति, अत एव भीमा-भयानका भीमत्वादेव उनासनकाः, उत्रास्यन्ते नारका जन्तव एभिरिति उत्रासना उत्रासना एव उत्रासनकाः, किं वहुना?-वर्णेन' वर्णमविकृत्य परमकृष्णाः प्रज्ञप्ताः, यत ऊर्ध्व न किमपि भयानकं कृष्णमस्तीति भावः, एवं प्रतिपृथिवि तावद्वक्तव्यं यावध:सप्तम्याम् ॥ गन्धमधिकृत्याह-'इमीसे णं भंते!' इत्यादि, प्रश्नसूत्रं सुगम, भगवानाह-गौतम तद्यथा नाम-'अहिमृत इति.वा' अहिमृतो नाम मृताहिदेहः, एवं सर्वत्र भावनीयं, गोमृत इति वा अश्वमृत इति वा मार्जारमृत इति वा हस्तिमृत इति वा सिंहमृत इति वा व्याघ्रमृत इति वा द्वीप:-चित्रकः, सर्वत्र अहिश्चासौ मृतश्च अहिमृत इत्येवं विशेषणसमासः, इह मृतकं सद्यःसंपन्नं न विगन्धि भवति तत आह-मयकुहियविण Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुणिमवावणे' यादि, मृतः सन् कुथितः - पूतिभावमुपगतो मृतकुथितः, स पोच्छूनावस्थामात्रगतोऽपि भवति, न च स तथा बिगन्धस्तत आह-विनष्ट:-उच्छूनावस्थां प्राप्य स्फुटित इति भावः, सोऽपि तथा दुरभिगन्धो न भवति तत आह— 'कुणिमवावण्णत्त व्यापन्नं- विशरारुभूतं कुणिमं - मांसं यस्य स तथा ततो विशेषणसमासः, 'दुरभिगन्धः' इति दुरभि: - सर्वेषामाभिमुख्येन दुष्टो गन्धो यस्यासौ दुरभिगन्धः, अशुचिश्च विलीनो-मनसः कलिमलपरिणामहेतुः 'विगय' इति विगतं प्रनष्टं यदभिमुखतया प्राणिनां गतं गमनं यस्मिन्ं, तथा बीभत्सया - निन्दया दर्शनीयो बीभत्सादर्शनीयः ततो विशेषणसमासः अशुचिविगतवीभत्सादर्शनीयः 'किमिजालाउलसंसत्ते' इति संसक्तः सन् कृमिजालाकुलो जातः कृमिजालाकुलसंसक्तः, मयूरव्यंसकादित्वात्समासः संसक्तशब्दस्य च परनिपातः, एतावत्युक्ते गौतम आह- 'भवे एयारूवे सिया ?" इति, स्याद् भवेद्-भवेयुरेतद्रूपाः - यथोक्तविशेषणविशिष्टा अहिमृतादिरूपा गन्धेनाधिकृता नरकाः, सूत्रे च बहुवचनेऽप्येकवचनं प्राकृतत्वात्, भगवानाह - गौतम ! 'नायमर्थः समर्थो' नायमर्थ उपपन्नो, यतोऽस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां नरका इतो-यथोक्तविशेषणविशिष्टा हिमृतादेरनिष्टतरा एव, तत्र किञ्चिद्रम्यमपि कस्याप्यनिष्टतरं भवति तर्त आह—अकान्ततरा एव—–स्वरूपतोऽप्यकमनीयतरा एव, अभव्या एवेति भावः, तत्राकान्तमपि कस्यापि प्रियं भवति यथा गर्त्ताशूकरस्याशुचिः, तत आह-अप्रियतरा एव न कस्यापि प्रिया इति भाव:, अत एवामनोज्ञतरा एव, अमनआपतरा एव गन्धमधिकृत्य प्रज्ञप्ताः, तत्र मनोज्ञं - मनोऽनुकूलमात्रं यत्पुनः स्वविषये मनोऽत्यन्तमासक्तं करोति तन्मनआपम्, एकार्थिका वा एते सर्वे शब्दाः शक्रेन्द्रपुरन्दरादिवत् नानादेशजविनेयजनानुप्रहार्थमुपात्ताः, एवं पृथिव्यां पृथिव्यां तावद्वक्तव्यं यावदधः सप्तम्याम् ॥ स्पर्शमधिकृत्याह - 'इमीसे ण' मित्यादि, प्रश्नसूत्रं सुगमं, भगवानाह - गौतम ! तद्यथा नाम -- 'असिपत्रमिति वा' असिः खङ्गं तस्य पत्रमसिपत्रं क्षुरप्रमिति वा ३ प्रतिपत्तौ उद्देशः १ नरकावासानां वर्णादि सू० ८३ ॥ १०७ ॥ Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कदम्बचीरिकापत्रमिति वा, कदम्बचीरिका-तृणविशेषः, स च दुर्भादप्यतीव छेदकः, शक्ति:-प्रहरणविशेषस्तदप्रमिति वा, कुन्तानमिति वा, तोमराममिति वा, भिण्डिमाल:-प्रहरणविशेषस्तदग्रमिति वा, सूचीकलाप इति वा, वृश्चिकदंश इति वा, कपिकच्छूरिति वा, कपिकच्छू:-कण्डूविजनको वल्लीविशेषः, अङ्गार इति वा, अङ्गारो-निर्धूमाग्निः, ज्वालेति वा, ज्वाला-अनलसंवद्धा, भुर्मुर इति वा, मुर्मुर:-फुम्फुकादौ मसृणोऽग्निः, अर्चिरिति वा, अर्चिः-अनलविच्छिन्ना ज्वाला, अलातम्-उल्मुकं, शुद्धाग्नि:-अयस्पिण्डाद्यनुगतोऽग्निर्विद्युदादिर्वा, इतिशब्दः सर्वत्रापि उपमाभूतवस्तुखरूपपरिसमाप्तिद्योतकः, वाशब्दः परस्परसमुच्चये, इह कस्यापि नरकस्य स्पर्शः कोऽपरस्य भेदकोऽन्यस्य व्यथाजनकोऽपरस्य दाहक इत्यादि ततः साम्यप्रतिपत्त्यर्थमसिपत्रादीनां नानाविधानामुंपमानानामुपादानं, 'भवे एयारूवे सिया?' इत्यादि प्राग्वत् ॥ सम्प्रति नरकावासानां महत्त्वमभिधित्सुराह इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नरका केमहालिया पण्णत्ता?, गोयमा ! अयण्णं जंबुद्दीवे २ सव्वदीवसमुद्दाणं सव्वन्भंतरए सव्वखुड्डाए वढे तेल्लापूवसंठाणसंठिते वट्टे रथचक्कवालसंठाणसं. ठिते वट्टे पुक्खरकण्णियासंठाणसंठिते वट्टे पडिपुण्णचंदसंठाणसंठिते एक जोयणसतसहस्सं आयामविक्खंभेणं जाव किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं, देवे णं महिड्डीए जाव महाणुभागे 'जाव इणामेव इणामेवत्तिकट्टु इमं केवलकप्पं जंबूद्दीवं २ तिहिं अच्छरानिवाएहिं तिसत्तक्खुत्तो अणुपरियहित्ता णं हव्वमागच्छेज्जा, से णं देवे ताए उक्किट्ठाए तुरिताए चवलाए चंडाए सिग्याए उडु याए जयणाए [छेगाए] दिव्वाए दिव्वगतीए वीतिवयमाणे २ जहण्णेणं एगाहं वा दुयाहं वा Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म्यूद्वीपः सर्वद्वीप SARASCARSAGALAGACANCISCLICANA तिआहं वा उक्कोसेणं छम्मासेणं वीतिवएज्जा, अत्थेगतिए वीइवएना अत्थेगतिए नो वीतिवएज्जा, ३प्रतिपत्ती एमहालता णं गोयमा! इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए णरगा पण्णत्ता, एवं जाव अधेसत्तमाए; * उद्देशः १ __णवरं अधेसत्तमाए अत्थेगतियं नरगं वीइवइज्जा, अत्थेगइए नरगे नो वीतिवएज्जा ॥ (सू०८४) नरकावा'इमीसे णमित्यादि, अस्यां भदन्त रत्नप्रभायां पृथिव्यां नरकाः 'किंमहान्तः' किंप्रमाणा महान्तः प्रज्ञप्ताः ?, पूर्व ह्यसङ्ख्येयवि सानां स्तृता इति कथितं, तच्चासयेयलं नावगम्यत इति भूयः प्रश्नः, अत एवात्र निर्वचनं भगवानुपमयाऽभिधत्ते, गौतम! अयमिति यत्र महत्ता संस्थिता वयं णमिति वाक्यालङ्कारे अष्टयोजनोच्छ्रितया रत्नमय्या जम्ब्वा उपलक्षितो द्वीपो जम्बूद्वीपः सर्वद्वीपसमुद्राणां-धातकीख सू०८४ ण्डलवणादीनां सर्वाभ्यन्तर:-आदिभूतः 'सर्वक्षुल्लकः' सर्वेभ्यो द्वीपसमुद्रेभ्यः क्षुल्लको-इखः सर्वक्षुल्लकः, तथाहि-सर्वे लवणादयः समुद्राः सर्वे धातकीखण्डादयो द्वीपा अस्माजम्बूद्वीपादारभ्य प्रवचनोक्तेन क्रमेण द्विगुणद्विगुणायामविष्कम्भपरिधयः ततोऽयं शेषसर्वद्वीपसमुद्रापेक्षया सर्वलघुरिति, तथा वृत्तो यतः 'तैलापूपसंस्थानसंस्थितः' तैलेन पकोऽपूपस्तैलापूपः, तैलेन हि पक्कोऽपूपः प्रायः परिपूर्णवृत्तो,भवति न घृतेन पक इति तैलविशेषणं, तस्येव संस्थानं तैलापूपसंस्थानं तेन संस्थितस्तैलापूपसंस्थानसंस्थितः, तथा वृत्तो यतः पुष्करकर्णिकासंस्थानसंस्थितः, तथा वृत्तो यतो रथचक्रवालसंस्थानसंस्थितः, तथा वृत्तो यतः परिपूर्णचन्द्रसंस्थानसंस्थितः, अनेकधो१ पमानोपमेयभावो नानादेशजविनेयप्रतिपत्त्यर्थः, एकं योजनशतसहस्रमायामविष्कम्भेन त्रीणि योजनशतसहस्राणि पोडश सहस्राणि द्वे योजनशते सप्तविंशे त्रयः क्रोशा अष्टाविंशं धनुःशतं त्रयोदश अङ्गुलानि अर्धाङ्गलं च किञ्चिद्विशेपाधिकं परिक्षेपेण 'प्रज्ञप्तः, परिक्षे- 6 ॥१०८॥ पपरिमाणगणितभावना क्षेत्रसमासटीकातो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिटीकातो वा वेदितव्या । 'देवे ण'मित्यादि, देवश्च णमिति वाक्याल समुद्रेभ्यः क्षुल्लको जम्बूद्वीपादारभ्य सर्वलघुरिति, तथा ASSSS Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खारे, 'महर्द्धिकः' महती ऋद्धिर्विमानपरिवारादिका यस्य स महर्द्धिकः, महती द्युतिः शरीराभरणविषया यस्य स महायुतिकः, महद् बलं-शारीरः प्राणो यस्य स महाबलः, महद् यशः-ख्यातिर्यस्य स महायशाः, तथा 'महेसक्खे' इति महेश इति महान् ईश्वर इत्याख्या यस्य स महेशाख्यः, अथवा ईशनमीशो भावे घप्रत्यय ऐश्वर्यमित्यर्थः, 'ईशं ऐश्वर्ये' इति वचनात् , तत ईशम्-ऐश्वर्यमासनः ख्याति-अन्तर्भूतण्यर्थतया ख्यापयति-प्रथयति ईशाख्यः, महांश्चासावीशाख्यश्च महेशाख्यः, कचित् 'महासोक्खे' इति पाठः, तत्र महत् सौख्यं यस्य प्रभूतसद्वेदोदयवशात्स महासौख्यः, अन्ये पठन्ति-'महासक्खे' इति तत्रायं शब्दसंस्कारो-महाश्वाक्षः, इयं चात्र पूर्वाचार्यप्रदर्शिता व्युत्पत्ति:-आशुगमनादश्वो-मन: अक्षाणि-इन्द्रियाणि स्वविषयव्यापकत्वात् अश्वश्चाक्षाणि च अश्वाक्षाणि महान्ति अश्वाक्षाणि यस्यासी महाश्वाक्षः, तथा 'महाणुभागे' इति अनुभागो-विशिष्टवैक्रियादिकरणविपयाऽचिन्त्या शक्ति: 'भागोऽचिंता सत्ती' इति वचनात् , महान् अनुभागो यस्य स महानुभागः, अमूनि महर्द्धिक इत्यादीनि विशेषणानि तत्सामर्थ्यातिशयप्रतिपादकानि यावदिति चप्पुटिकात्रयकरणकालावधिप्रदर्शनपरम् 'इणामेव इणामेवेतिकट्ट' एवमेव मुधिकया एवमेव 'मोरकुल्ला मुहा य मुहियत्ति नायव्वा' इति वचनाद् अवज्ञयेति भावः, उक्तञ्च मूलटीकायाम् "इणामेव इणामेवेति कट्ट एवमेव मुधिकयाऽत्रज्ञयेति" "इतिकृत्वे ति हस्तदर्शितचप्पुटिकात्रयकरणसूचकं केवलकल्प-परिपूर्ण जम्बूद्वीपं त्रिभिरप्सरोनिपातैः, अप्सरोनिपातो नाम चप्पुटिका, तत्र तिसृभिश्चप्पुटिकाभिरिति द्रष्टव्यं, चप्पुटिकाश्च कालोपलक्षणं, ततो यावता कालेन तिस्रश्चप्पुटिकाः पूर्यन्ते तावत्कालमध्य इत्यर्थः, त्रिसप्तकृत्वः-एकविंशतिवारान् अनुपरिवर्त्य-सामस्त्येन परिभ्रम्य 'हव्वं' शीघ्रमागच्छेत् , स इत्थम्भूतगमनशक्तियोग्यो देवः तया देवजनप्रसिद्धया उत्कृष्टया प्रशस्त विहायोगतिनामोदयात्प्रशस्तया शीघ्रसंचरणात्त्वरितया वरा संजाताऽस्यामिति १०१९ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्वरिता तया त्वरितया शीघ्रतरमेव तया प्रदेशान्तराक्रमणमिति, चपलेव चपला वया, क्रोधाविष्टस्येव श्रमासंवेदनात् चण्डेव चण्डा तया, निरन्तरं शीघ्रत्वगुणयोगात् शीघ्रा तथा शीघ्रया, परमोत्कृष्टवेगपरिणामोपेता जवना तया, अन्ये तु जितया विपक्षजेतृत्वेनेति व्याचक्षते, 'छेकया' निपुणया, वातोद्धूतस्य दिगन्तव्यापिनो रजस इव या गतिः सा उद्भूता तया, अन्ये त्वाहु: - उद्धतया दर्पातिशयेनेति, 'दिव्यया' दिवि-देवलोके भवा दिव्या तया देवगत्या व्यतित्रजन् जघन्यतः 'एकाहं वा' एकमहुर्यावत् एवं द्व्यहं त्र्यहमुत्कर्पतः पण्मासान् यावद् व्यतित्रजेत्, तत्रास्त्येतद् यदुत एककान् कांश्चन नरकान् 'व्यतित्रजेत्' उल्लय परतो गच्छेत्, तथाऽस्त्येतद् यदुत इत्थंभूतयापि गत्या पण्मासानपि यावन्निरन्तरं गच्छन् एककान् कांश्चन नरकान् 'न व्यतित्रजेत्' नोलय परतो गच्छेत्, अतिप्रभूताऽऽयामतया तेषामन्तस्य प्राप्तुमशक्यत्वात्, एतावन्तो महान्तो गौतम ! अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां नरकाः प्रज्ञप्ताः, एवमेकैकस्यां पृथिव्यां तावद्वक्तव्यं यावदधः सप्तम्यां नवरमधः सप्तम्यामेवं वक्तव्यम् - "अत्येगइयं नरगं वीइवएज्जा अत्येगइए नरगे नो बीइवएज्जा” अप्रतिष्ठानाभिधस्यैकस्य नरकस्य लक्षयोजनायामविष्कम्भतयाऽन्तस्य प्राप्तुं शक्यत्वात् शेषाणां च चतुर्णामतिप्रभूतास येययोजनकोटीकोटीप्रमाणत्वेनान्तस्य प्राप्तुमशक्यत्वात् ॥ सम्प्रति किंमया नरका इति निरूपणार्थमाह इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए णरगा किंमया पण्णत्ता ?, गोयमा ! सव्ववद्दरामया पण्णता, तत्थ णं नरएसु बहवे जीवा य पोग्गला य अवकमंति विउक्कमंति चयंति उववज्जंति, सासता णं ते परगा दव्वट्ट्याए वण्णपज्जवेहिं गंधपज्जवेहिं रसपज्जवेहिं फासपज्जवेहिं असासया, एवं जाव असत्तमाए ॥ (सू०८५ ) ३ प्रतिपत्तौ उद्देशः २ नरकावासप्रमाणं नरकावा सशाश्वत तरत्वे सू० ८५ ॥ १०९ ॥ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'इमीसे णं भंते!' इत्यादि, अस्यां भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां नरका: 'किंमयाः' किंविकाराः प्रज्ञप्ता: ?, भगवानाह - गौतम ! 'सव्ववइरामया' इति, सर्वात्मना वज्रमयाः प्रज्ञप्ताः, वज्रशब्दस्य सूत्रे दीर्घान्तता प्राकृतत्वात्, 'तत्र च' तेषु नरकेषु णमिति वा - क्यालङ्कारे बहवो जीवाश्च खरबादरपृथिवीकायिकरूपाः पुद्गलाच 'अपक्रामन्ति' च्यवन्ते 'व्युत्क्रामन्ति' उत्पद्यन्ते, एतदेव शब्दद्वयं | यथाक्रमं पर्यायद्वयेन व्याचष्टे - 'चयंति उववज्जंति' च्यवन्ते उत्पद्यन्ते, किमुक्तं भवति ? – एके जीवाः पुद्गलाश्च यथायोगं गच्छन्ति अपरे त्वागच्छन्ति, यस्तु प्रतिनियतसंस्थानादिरूप आकारः स तदवस्थ एवेति, अत एवाह-शाश्वता णमिति पूर्ववत् ते नरका द्रव्यार्थतया तथाविधप्रतिनियतसंस्थानादिरूपतया वर्णपर्यायैर्गन्धपर्यायै रसपर्यायैः स्पर्शपर्यायैः पुनरशाश्वताः, वर्णादीनामन्यथाऽन्यथाभवएवं प्रतिपृथिवि तावद्वक्तव्यं यावद्धः सप्तमी पृथिवी । साम्प्रतमुपपातं विचिचिन्तयिषुराह— नातू, इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया कतोहिंतो उववज्जंति किं असण्णीहिंतो उववज्जंति सरीसिवेहिंतो उववज्र्ज्जति पक्खीहिंतो उववज्जंति चउप्पएहिंतो उववजंति उरगेहिंतो उववज्जंति इत्याहिंतो उववज्जति मच्छमणुएहिंतो उववज्जंति ?, गोयमा ! असण्णीहिंतो उववज्जति जाव मच्छमणुरहितोवि उववज्जंति, - असण्णी खलु पढमं दोचं च सरीसिवा ततिय पक्खी । सीहा जंति उत्थ उरगा पुण पंचमीं जंति ॥ १ ॥ छद्धिं च इत्थियाओ मच्छा मणुया य सत्तमिं जंति । जाव अधेसत्तमा पुढवीए नेरइया णो असण्णीहिंतो उववज्जंति जाव णो इत्थियाहिंतो उवव१ (सेसासु इमाए गाहाए अणुगंतव्त्रा, एवं एतेणं अभिलावेणं इमा गाथा घोसेयव्वा). Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ३ प्रतिपती उद्देशः २ उपपातः संख्यावगाहनामानं सू० ८६ ज्वति मच्छमणुस्सेहिंतो उववजंति ॥ इमीसे णं भंते! रयणप्प० पु० रतिया एकसमएणं केवतिया उववज्जति?, गोयमा! जहण्णणं एको वा दो वा तिन्नि वा उकोसेणं संखेज्जा वा असंखिज्जा वा उववजंति, एवं जाव अधेसत्तमाए॥ इमीसे णं भंते! रयणप्प० पुढवीए रतिया समए समए अवहीरमाणा अवहीरमाणा केवतिकालेणं अवहिता सिता?, गोयमा! ते णं असंखेज्जा समए समए अवहीरमाणा अवहीरमाणा असंखेजाहिं उस्सप्पिणीओसप्पिणीहिं अवहीरंति नो चेव णं अवहिता सिता जाव अधेसत्तमा ।। इमीसे णं भंते! रयणप्प० पु० रतियाणं केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता?, गोयमा! दुविहा सरीरोगाणा पण्णत्ता, तंजहा-भवधारणिज्जा य उत्तरवेउब्विया य, तत्थ णं जा सा भवधारणिज्जा सा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजतिभागं उक्कोसेणं सत्त धणूहं तिण्णि य रयणीओ छच्च अंगुलाई, तत्थ णं जे से उत्तरवेउब्विए से जह० अंगुलस्स संखेज्जतिभागं उक्को० पण्णरस धगृहं अड्डाइज्जाओ रयणीओ, दोचाए भवधारणिज्जे जहपणओ अंगुलासंखेजभागं उक्को० पण्णरस धणू अड्डाइजातो रयणीओ उत्तरवेउविया जह. अंगुलस्स संखेजभागं उक्को० एकतीसं धणूइं एका रयणी, तचाए भवधारणिज्जे एक्कतीसं धणू एका रयणी, उत्तरवेउविया यासहिंधण्इं दोणि रयणीओ, चउत्थीए भवधारणिज्जे यासहधगृहं दोपिण य रयणीओ, उत्तरवेउब्विया पणवीसंधणुसर्य, पंचमीए भवधारणिज्जे पणवीसं ध ॥११॥ Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णुसयं, उत्तरवे० अड्डाइज्जाइं धणुसयाई, छट्ठीए भवधारणिज्जा अड्डाइजाई धणुसयाई, उत्तरवेउव्विया पंचधणुसयाइं, सत्तमाए भवधारणिज्जा पंचधणुसयाई उत्तरवेउव्विए धणुसहस्सं ॥ (सू०८६) 'इमीसे णमित्यादि, अस्यां भदन्त! रत्नप्रभायां पृथिव्यां नैरयिकाः कुत उत्पद्यन्ते?, किमसज्ञिभ्य उत्पद्यन्ते सरीसृपेभ्य उत्प. धन्ते पक्षिभ्य उत्पद्यन्ते चतुष्पदेभ्य उत्पद्यन्ते उरगेभ्य उत्पद्यन्ते स्त्रीभ्य उत्पद्यन्ते मत्स्यमनुष्येभ्य उत्पद्यन्ते ?, भगवानाह-गौतम! | असज्ञिभ्योऽप्युत्पद्यन्ते यावन्मत्स्यमनुष्येभ्योऽप्युत्पद्यन्ते, 'सेसासु इमाए गाहाए अणुगंतव्वा' इति, 'शेषासु' शर्कराप्रभादिषु पृथिवीष्वनया गाथया, जातावेकवचनं गाथाद्विकेनेत्यर्थः, उत्पद्यमाना अनुगन्तव्याः, तदेव गाथाद्विकमाह-'अस्सण्णी खलु पढम'मित्यादि, असञ्जिन:-संमूछिमपञ्चेन्द्रियाः खलु प्रथमां नरकपृथिवीं गच्छन्ति, खलुशब्दोऽवधारणे, तथा अवधारणमेवम्-असञ्जिनः प्रथमामेव यावद् गच्छन्ति न परत इति, नतु त एव प्रथमामिति गर्भजसरीसृपादीनामपि उत्तरपृथिवीषटुगामिनां तत्र गमनात् , एवमुत्तरत्राप्यवधारणं भावनीयम् । 'दोच्चं च सरीसिवा' इति द्वितीयामेव शर्कराप्रभाख्यां पृथिवीं यावद्गच्छन्ति सरीसूपाः-गोधानकुलायो गर्भव्युत्क्रान्ता न परतः, तृतीयामेव गर्भजाः पक्षिणो गृध्रादयः, चतुर्थीमेव सिंहाः, पञ्चमीमेव गर्भजा उरगाः, षष्ठीमेव स्त्रियः स्त्रीरत्नाद्या महाराध्यवसायिन्यः, सप्तमी यावद् गर्भजा मत्स्या मनुजा अतिक्रराध्यवसायिनो महापापका(रिणः, आलापकश्च प्रतिपृथिवि एवम्-"सक्करप्पभाए णं भंते ! पुढवीए नेरइया किं असण्णीहिंतो उववज्जति जाव मच्छमणुएहितो: उववजति ?, गोयमा! नो असन्नीहिंतो उववजति सरीसिवेहिंतो उववजंति जाव मच्छमणुस्सेहिंतो उववनंति । वालुयप्पभाए णं भंते !! Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SCORMERICA 5 पुढवीए नेरइया र्फि असण्णीहिंतो उववजंति जाव मच्छमणुएहिंतो उववर्जति ?, गोयमा! नो असण्णीहिंतो उववजंति नो सरीसिवे- ३ प्रतिपत्ती हिंतो उववजंति पक्खीहिंतो उववजंति जाव मच्छमणुस्सेहिंतो उपवजंति" एवमुत्तरोत्तरपृथिव्यां पूर्वपूर्वप्रतिषेधसहितोत्तरप्रतिषेध- उद्देशः २ स्तावद्वक्तव्यो यावधःसप्तम्यां स्त्रीभ्योऽपि प्रतिषेधः, तत्सूत्रं चैवम्-"अहेसत्तमाए णं भंते! पुढवीए नेरइया कि असण्णीहितो, उपपातः 5 उववजंति जाव मच्छमणुस्सहिंतो उववजंति ?, गोयमा! नो असण्णीहिंतो उववजंति जाव नो इत्थीहिंतो उववज्जति, मच्छमणुस्सहिंतो संख्याऽ उववनंति" || सम्प्रत्येकस्मिन् समये कियन्तोऽस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां नारका उत्पद्यन्ते? इति निरूपणार्थमाह । (इमीसेणं) "रयण-6 वगाहनाप्पभापुढविए नेरइया णं भंते!' इत्यादि, रत्रप्रभापृथिवीनैरयिका भदन्त एकसमयेन कियन्त उत्पद्यन्ते ?, भगवानाह-गौतम! ज- मानं घन्यत एको द्वौ वा त्रयो वा उत्कर्पतः सव्येया असङ्ख्येया वा, एवं पृथिव्यां पृथिव्यां तावद्वक्तव्यं यावधःसप्तम्याम् ॥ सम्प्रति । प्रतिसमयमेकैकनारकापहारे सकलनारकापहारकालमानं विचिचिन्तयिपुरिदमाह-रयणप्पभापुढविनेरइया णं भंते!' इत्यादि, रत्न-2 प्रभापृथिवीनैरयिका भदन्त | समये समये एकैकसङ्ख्यया अपहियमाणाः २ कियता कालेन सर्वासनाऽपहियन्ते ?, भगवानाह-गौतम! 'ते णं असंखेजा समए २ अवहीरमाणा' इत्यादि, ते रत्नप्रभापृथिवीनैरयिका असङ्ख्येयास्ततः समये समये एकैकसङ्ख्यया अपहियमाणा असङ्खयेयाभिरुत्सपिण्यवसर्पिणीभिरपहियन्ते, इदं च नारकपरिमाणप्रतिपत्त्यर्थ कल्पनामात्र, 'नो चेव णं अवहिया सिया' इति न पुनरपहृताः स्युः, किमुक्तं भवति ?-न पुनरेवं कदाचनाप्यपहृता अभवन् नाप्यपहियन्ते नाप्यपहरिष्यन्त इति, एवं पृथिव्यां पृथिव्यां ताषद्वक्तव्यं यावद्धःसप्तम्याम् ॥ सम्प्रति शरीरपरिमाणप्रतिपादनार्थमाह-'रयणप्पभापुढवी' इत्यादि, रत्नप्र- ॥१११॥ F भापृथिवीनैरयिकाणां भदन्त ! 'किंमहती' किंप्रमाणा महती शरीराबगाहना प्रसप्ता', 'जहा पण्णवणाए ओगाहणसंठाणपदे' Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इति, यथा प्रशापनायामवगाहनासंस्थानाख्यपदे तथा वक्तव्या, सा चैवं-द्विविधा रसप्रभापृथिवीनैरयिकाणां शरीरावगाहना-भवधारणीया उत्तरवैक्रिया च, तत्र या सा भवधारणीया सा जघन्यतोऽन्लासयेयभाग उत्कर्षतः सप्त धनूंषि त्रयो हस्ताः पट परिपूर्णान्यालानि, उत्तरवैक्रिया जघन्यतोऽङ्गलसङ्ख्येयभाग उत्कर्षतः पञ्चदश धनूंषि द्वौ हस्तावेका वितस्तिः, शर्कराप्रभायां भवधारणीया जघन्यतोऽहुलासल्येयभाग उत्कर्षतः पञ्चदश धनूंषि द्वौ हस्तावेका गितस्तिः, उत्तरवैक्रिया जपम्यतोऽन्लसख्येयभाग उत्कर्षत एकत्रिंशद्धनूंषि एको हस्तः, वालुकाप्रभायां भवधारणीया जघन्यतोऽङ्गुलासयेयभाग उत्कर्षत एकत्रिंशद्धनूंषि एको हस्तः, उत्तरवैक्रिया जघन्यतोऽङ्गलसयेयभाग उत्कर्षतः सार्दानि द्वाषष्टिधषि, पङ्कप्रभायां भवधारणीया जघन्यतोऽङ्गलासपेयभाग उत्कर्षत: सार्दानि द्वापष्टिधनूंषि, उत्तरवैक्रिया जघन्यतोऽङ्गुलसयेयभाग उत्कर्षतः पश्चविंशं धनुःशतं, धूमप्रभायां भवधारणीया जघन्यतोऽगुलासहयेयभाग उत्कर्षतः पञ्चविंशं धनुःशतं, उत्तरवैक्रिया जघन्यतोऽङ्गलसयेयभाग उत्कर्षतोऽर्द्धतृतीयानि धनुःशतानि, तमःप्रभायां भवधारणीया जघन्यतोऽङ्गुलासङ्ख्ययभागमात्रा उत्कर्षतोऽर्द्धतृतीयानि धनुःशतानि, उत्तरवैक्रिया जघन्यतोऽॉलसङ्ख्येयभाग उत्कर्षतः पञ्चधनुःशतानि, तमस्तमःप्रभायां भवधारणीया जघन्यतोऽङ्गुलासङ्ख्येयभाग उत्कर्षतः पञ्च धनुःशतानि, उत्तरवैक्रिया जघन्यतोऽगुलसहयेयभाग, उत्कर्षतो धनु:सहस्रमिति । यदि पुनः प्रतिप्रस्तटे चिन्ता क्रियते तदैवमवगन्तव्या-तत्र जघन्या भवधारणीया सर्वत्राप्यालासयभागः, उत्तरवैक्रिया तु अङ्गुलसहयेयभागः, उक्तं च मूलटीकाकारणान्यत्र-"उत्तरवैक्रिया तु तथाविधप्रयत्नाभावादाद्यसमयेऽप्यनुलसयेयभागमात्रैवे"ति, उत्कृष्टा तु भवधारणीयाया रत्नप्रभायाः प्रथमे प्रस्तटे यो हस्ता अत ऊर्ध्व क्रमेण प्रतिप्रस्तटं सार्द्धानि षट्पञ्चाशदलानि प्रक्षिप्यन्ते, तत एवं परिमाणं भवति, द्वितीये प्रसटे धनुरेकमेको हस्तः सार्द्धानि चाष्टावकलानि, तृतीये धनुरेक Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयो हस्ताः सप्तदशाङ्गुलानि, चतुर्थे द्वे धनुषी द्वौ हस्तौ सार्द्धमेकमङ्गुलं, पञ्चमे त्रीणि धषि दशाङ्गुलानि, षष्ठे त्रीणि धनूंषि द्वौ ३ प्रतिपत्तौ हस्तौ सार्वान्यष्टादशाङ्गुलानि, सप्तमे चत्वारि धनूंषि एको हस्तस्त्रीणि चाजुलानि, अष्टमे. चत्वारि धषि त्रयो हस्ताः सार्धान्येका- उद्देशः२ दशाङ्गुलानि, नवमे पञ्च धनूंषि एको हस्तो विंशतिरङ्गुलानि, दशमे षड् धनूंषि सार्द्धानि चत्वार्यङ्गुलानि, एकादशे षड् धनूंषि द्वौ उपपातः हस्तौ त्रयोदशाङ्गुलानि, द्वादशे सप्त धनूंषि सार्द्धान्येकविंशतिरकुलानि, त्रयोदशे सप्त धनूंषि त्रयो हस्ताः षट् च परिपूर्णान्यकुलानि, संख्याsउक्तञ्च-"रयणाए पढमपयरे हत्थतियं देह उस्सए भणियं । छप्पन्नंगुलसड़ा पयरे पयरे हवइ वुड़ी ॥ १॥" वगाहनाहै। प्र.१ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ ९ १०/११/१२ |१३| शर्कराप्रभायां प्रथमे प्रस्तटे सप्त धपि त्रयो हस्ताः षट चाङ्गलानि, मानं घ.० १ १ २ ३ ३ ४४५६ ६ ७ - ७ | अत ऊर्ध्वं तु प्रतिप्रस्तटं त्रयो हस्तास्त्रीणि चाङ्गुलानि क्रमेण प्रक्षे-8 सू००९ ह.३ १ ३ २०२ १३ १०२०३प्तव्यानि, तत एवं परिमाणं भवति-द्वितीये प्रस्तटेऽष्ट धषि द्वौ हस्तौ । अं.०८॥१७/१॥१०/१८॥३११॥२०४॥ १३/२१॥६ | नव चाङ्गुलानि, तृतीये नव धनूंषि एको हस्तो द्वादश चाङ्गुलानि, चतुर्थे । दश धपि पञ्चदशाङ्गुलानि, पञ्चमे दश धनूंषि त्रयो हस्ता अष्टादशाङ्गुलानि, पप्ठे एकादश धनूंषि द्वौ हस्तावेकविंशतिरकुलानि, सप्तमे द्वादश धनूंषि द्वौ हस्तौ, अष्टमे त्रयोदश धषि एको हस्तस्त्रीणि चाङ्गुलानि, नवमे चतुर्दश धषि षट् चाङ्गुलानि, दशमे चतुर्दश धनूंषि त्रयो इस्ता नव चाङ्गुलानि, एकादशे पञ्चदश धपि द्वौ हस्तौ एका वितस्तिः, उक्तश्च-'सो चेव य बीयाए पढमे पयरंमि होइ उस्सेहो । हत्थ तिय तिग्नि अङ्गुल पयरे पयरे य वुडी य ॥ १॥ एकारसमे पयरे पन्नरस धणूणि दोण्णि रयणीओ। बारस य ॥११२॥ अंगुलाई देहपमाणं तु विनेयं ॥ २॥" अत्र 'सो चेव य बीयाए' इति य एव प्रथमपृथिव्यां त्रयोदशे प्रस्तटे उत्सेधो भणितो 9900 Ft ARRIAGNOSAGAR धषि एकोह - एको हस्तस्त्रीसाहुलानि, प Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यथा सप्त धनूंषि त्रयो हस्ताः पट चाङ्गुलानीति स एव द्वितीयस्यां शर्कराप्रभायां पृथिव्यां प्रथमे प्रस्तटे उत्सेधो भवति, शेष सुगमम् । ६|१ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ ९ १०/११/प्र. | वालुकाप्रभायाः प्रथमे प्रस्तटे पञ्चदश धनूंषि द्वौ हस्तौ द्वादश चाङ्गुलानि, अत ८९ १०/१०/११/१२/१३/१४/१४/१५/ध. ऊर्ध्वं तु प्रतिग्रस्तटं सप्त हस्ताः सार्द्धानि चैकोनविंशतिरङ्गलानि क्रमेण प्रक्षे||३२१०३ २ २ १ ०३२ ह. |प्तव्यानि, तत एवं परिमाणं भवति-द्वितीये प्रस्तटे सप्तदश धनूंषि द्वौ ६ ९ १ १५/१८/२१/० ३ ६ ९ १२ अं. हस्तौ सार्द्धानि सप्ताङ्गुलानि, तृतीये एकोनविंशतिर्धनूंषि द्वौ हस्तौ त्रीण्यङ्गु लानि, चतुर्थे एकविंशतिर्धनूंषि एको हस्तः सार्दानि च द्वाविंशतिरकुलानि, पञ्चमे त्रयोविंशतिर्धनूंषि एको हस्तोऽष्टादश ||||चाङ्गलानि, पष्ठे पञ्चविंशतिर्धपि एको हस्त: सार्द्धानि त्रयोदशाङ्गुलानि, सप्तमे सप्तविंशतिर्धनूंपि एको हस्तो नव चाङ्गु लानि, अष्टमे एकोनत्रिंशद् धनूंषि एको हस्तः सार्धानि चत्वार्यङ्गुलानि, नवमे एकत्रिंशद्धनूंषि एको हस्तः, उक्तश्च-"सो चेव य तइयाए पढमे पयरंमि होइ उस्सहो । सत्त य रयणी अंगुल गुणवीसं सड वुड़ी य ॥ १॥ पयरे पयरे य तहा नवमे जापयरंमि होइ उस्सेहो । धणुयाणि एगतीसं एक्का रयणी य नायव्वा ॥२॥" अत्रापि 'सो चेव य तइयाए पढमे पयरंमि होइ उस्सेहो' इति य एव द्वितीयस्यां शर्कराप्रभायामेकादशे प्रस्तटे उत्सेधः स एव तृतीयस्यां वालुकाप्रभायां प्रथमे प्रस्तटे भवति, शेष सुगमं । पङ्कप्रभायाः प्रथमे प्रस्तटे एकत्रिंशद्धनूंपि एको हस्तः, तत ऊर्ध्वं तु प्रतिप्रस्तटं पञ्च धनूंषि विंशतिरडलानि क्रमेण प्रक्षेप्तव्यानि, तत एवं परिमाणं भवति-द्वितीये प्रस्तटे षट्त्रिंशद्धनूंषि एको हस्तो विंशतिरकुलानि, तृतीये एकचत्वारिंशद्धनूंषि द्वौ हस्तौ पोडशाकुलानि, चतुर्थे पट्चत्वारिंशद्धनूंषि त्रयो हस्ता द्वादशाङ्गुलानि, पञ्चमे द्विपञ्चाशद्धनूंषि अष्टावगुलानि, षष्ठे सप्तपञ्चाशद्धनूंषि Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एको हस्तबलार्यकुलानि, सप्तमे द्वापष्टिः धपि द्वौ हस्ती, उक्त-सो चेव चउत्थीए पढमे पयरंमि होइ उस्सेहो । पथ धणु ३ प्रतिपत्ती वीस अंगुल पयरे पयरे य वुट्टी य ॥ १॥ जा सत्तमए पयरे नेरइयाणं तु होइ उस्सेहो । बासट्ठी धणुयाई दोणि य रयणी य गो-टू उद्देशः २ झूठवा ॥१॥” अत्रापि 'सो चेवे त्यस्यार्थः पूर्वानुसारेण भावनीयः । धूमप्रभायाः प्रथमे प्रस्तटे द्वापष्टिधपि द्वौ हस्तौ, तत अर्व । उपपातः • तु प्रतिप्रस्तटं पञ्चदश धनुंषि सार्द्धहस्तद्वयाधिकानि क्रमेण प्रक्षेप्तव्यानि, तेनेदं परिमाणं भवति-द्वितीये प्रस्तटेऽष्टसप्ततिर्धपि एका ॐ संख्या: वितस्तिः, तृतीये त्रिनवतिर्धनूंषि त्रयो हस्ताः, चतुर्थे नवोत्तरं धनुःशतमेको हस्त एका वितस्तिः, पञ्चमे पञ्चविंशं धनुःशतं, उक्तश्च वगाहना2 -"सो चेव पंचमीए पढमे पयरंमि होइ उस्सेहो । पनरस धणूणि दो हत्थ सट्ट पयरेसु वुड़ी य ॥ १॥ तह पंचमए पयरे उस्सेहो * मानं ६ धणुसयं तु पणवीसं ।" “सो चेव य' इत्यस्यार्थोऽत्रापि पूर्ववत् । तमःप्रभायाः प्रथमे प्रस्तटे पञ्चविंशं धनुःशतं ततः परतरे तु प्रस्त-3 सू०८६ टद्वये क्रमेण प्रत्येक सार्दानि द्वापष्टिर्धपि प्रक्षेप्तव्यानि, तत एवं परिमाणं भवति-द्वितीये सार्द्धसप्ताशीत्यधिक धनु:शतं, तृतीयेऽर्द्ध2 तृतीयानि धनुःशतानि, उक्तच-"सो चेव य छट्टीए पढमे पयरंमि हो। उस्सेहो । वासहि धणु य सड़ा पयरे पयरे य वुड़ी य ॥१॥ * (सड़ा य सत्तसीइ बीए पयरंमि होइ धणुयसयं) छट्ठीऍ तइयपयरे दो सय पण्णासया होति ॥२॥" सप्तमपृथिव्यां पञ्च धनु:शतानि, 8 है उत्तरवैक्रिया तु सर्वत्रापि भवधारणीयापेक्षया द्विगुणप्रमाणाऽवसातव्या । सम्प्रति संहननप्रतिपादनार्थमाह इमीसे णं भंते! रयणप्प० पुणेरड्याणं सरीरया सिंघयणी पण्णता?, गोयमा! छहं संघयणाणं असंघयणा, वही व छिराणवि पहारूणेव संघयणमत्थि, जे पोग्गला अणिहा जाव अमणामा ते तेसिं सरीरसंघायत्ताए परिणमंति, एवंजाब अधेसत्तमाए॥इमीसेणं मंते! रयण 2-23 Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र० नेरतियाणं सरीराकिंसंठिता पण्णता?,गोयमा! दुविहा पण्णत्तातंजहा-भवधारणिज्जा य उसरवेउब्विया य, तत्थणं जेते भवधारणिज्जा ते हुंडसंठिया पण्णत्ता, तत्थ णं जे ते उत्तरवेउव्विया तेवि हुंडसंठिता पण्णता, एवं जाव अहेससमाए॥इमीसेणं भंते ! रयण पुं० रतियाणं सरीरगा केरिसता वण्णेणं पण्णत्ता?, गोयमा! काला कालोभासा जाव परमकिण्हा वण्णेणं पण्णसा, एवं जाव अहेसत्तमाए ॥ इमीसे णं भंते रयण० पु. नेरइयाणं सरीरया केरिसया गंधेणं पण्णत्ता?, गोयमा से जहानामए अहिमडे इ वा तं चेव जाव अहेसत्तमा ॥ इमीसे णं रयण पु० नेरहयाणं सरीरया केरिसया फासेणं पण्णत्ता?, गोयमा! फुडितच्छविविच्छविया खरफरुसझाम - सिरा फासेणं पण्णत्ता, एवं जाव अधेसत्तमा ॥ (सू० ८७) । 'रयणप्पभे'त्यादि, रत्नप्रभापृथिवीनैरयिका भदन्त ! 'किंसंहननिनः' केन संहननेन संहननवन्तः प्रज्ञप्ताः ?, भगवानाह-गौतम ! 'छण्हं संघयणाण' मित्यादि प्राग्वत्, एवं प्रतिपृथिवि तावद्वक्तव्यं यावद्धःसप्तमी ॥ सम्प्रति संस्थानप्रतिपादनार्थमाह-रयणप्पभे'यादि, रत्नप्रभापृथिवीनैरयिकाणां भदन्त ! शरीरकाणि 'किंसंस्थितानि' केन संस्थानेन संस्थानवन्ति प्रज्ञप्तानि ?, भगवानाह-गौतम! रत्नप्रभापृथिवीनैरयिकाणां शरीराणि द्विविधानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-भवधारणीयानि उत्तरवैक्रियाणि च, तत्र यानि भवधारणी यानि तानि तथाभवस्वाभाव्यावश्यं हुण्डनामकर्मोदयतो हुण्डसंस्थानानि, यान्यपि चोत्तरवैक्रियरूपाणि तान्यपि यद्यपि शुभमहं वैसाक्रियं करिष्यामीति चिन्तयति तथाऽपि तथाभवस्वाभाव्यतो हुण्डसंस्थाननामकर्मोदयत उत्पाटितसकलरोमपिच्छकपोतपक्षिण इव हु Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AGARMA कोदशानि गन्धेन प्रज्ञप्तानि , HIT स्पर्शप्रतिपादनार्थमाह- रयणप्पा मारतच्छविविच्छवयः, ई ण्डसंस्थानानि भवन्ति, एवं प्रतिपृथिवि तावद्वक्तव्यं यावद्धःसप्तम्याम् ॥ सम्प्रति नारकाणां शरीरेषु वर्णप्रतिपादनार्थमाह-'रय- ३ प्रतिपत्तो णप्पभेत्यादि, रत्नप्रभापृथिवीनैरयिकाणां भदन्त! शरीरकाणि कीदृशानि वर्णेन प्रज्ञप्तानि', भगवानाह-गौतम! 'काला कालोभासा' उद्देशः २ इत्यादि प्राग्वत् , एवं प्रतिपृथिवि तावद्वक्तव्यं यावदधःसप्तमपृथिव्याम् ॥ अधुना गन्धप्रतिपादनार्थमाह-रत्नप्रभापृथिवीनैरयिकाणां 5 नारकाणां भदन्त ! शरीरकाणि कीदृशानि गन्धेन प्रज्ञप्तानि ?, भगवानाह-गौतम! 'से जहानामए अहिमडे इवा' इत्यादि प्राग्वत्, एवं पृ.6 संहननसंथिव्यां पृथिव्यां तावद्वक्तव्यं यावद्धःसप्तम्याम् ॥ सम्प्रति स्पर्शप्रतिपादनार्थमाह-रयणप्पभापुढविनेरइयाणं भंते' इत्यादि, स्थानगरत्नप्रभापृथिवीनैरयिकाणां भदन्त शरीरकाणि कीदृशानि स्पर्शेन प्रज्ञप्तानि?, भगवानाह-गौतम! स्फटितच्छविविच्छवयः, इहैकत्र न्धाद्याः छविशब्दस्त्वग्वाची अपरत्र छायावाची, ततोऽयमर्थ:-स्फटितया-राजिशतसङ्कलया त्वचा विच्छवयो-विगतच्छायाः स्फटितच्छविविच्छवयः, तथा खरम्(राणि)-अतिशयेन परुपाणि खरपरुपाणि ध्यामानि-दग्धच्छायानि शुपिराणि-शुपिरशतकलितानि, ततः पयस्यापि पदद्वयपदद्वयमीलनेन विशेषणसमासः, सुपकेप्टकाध्यामतुल्यानीतिभावः, स्पर्शेन प्रज्ञप्तानि, एवं प्रतिपृथिवि तावद् यावदधःसप्तम्याम् ॥ सम्प्रत्युच्छासप्रतिपादनार्थमाह इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए रतियाणं केरिसया पोग्गला ऊसासत्ताए परिणमंति?, गोयमा! जे पोग्गला अणिवा जाव अमणामा ते तेसिं ऊसासत्ताए परिणमंति, एवं जाव अहेसत्तमाए, एवं आहारस्सवि सत्तसुवि ॥ इमीसे णं भंते! रयण पु० नेरतियाणं कति लेसाओ पण्णत्ताओ?, गोयमा! एक्का काउलेसा पपणत्ता, एवं सकरप्पभाएऽवि, वालुयप्पभाए पुच्छा, दो ॥११४॥ सू० ८७ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेसाओ पण्णत्ताओ तं०-नीललेसा कापोतलेसा य, तत्थ जे काउलेसा ते बहुतरा जे णीललेस्सा पण्णत्ता ते थोवा, पंकप्पभाए पुच्छा, एक्का नीललेसा पण्णत्ता, धूमप्पभाए पुच्छा, गोयमा! दो लेस्साओ पण्णत्ताओ, तंजहा-किण्हलेस्सा य नीललेस्सा य, ते बहुतरका जे नीललेस्सा, ते थोवतरका जे किण्हलेसा, तमाए पुच्छा, गोयमा एक्का किण्हलेस्सा, अधेसत्तमाए एक्का परमकिण्हलेस्सा ॥ इमीसे णं भंते ! रयण पु० नेरइया किं सम्मदिट्ठी मिच्छदिट्ठी सम्मामिच्छदिट्टी?, गोयमा! सम्मदिट्ठीवि मिच्छदिट्ठीवि सम्मामिच्छदिट्ठीवि, एवं जाव अहेसत्तमाए॥ इमीसे णं भंते! रयण पु० रतिया किं नाणी अण्णाणी?, गोयमा! णाणीवि अण्णाणीवि, जे णाणी ते णियमा तिणाणी, तंजहा-आभिणिबोधितणाणी सुयणाणी अवधिणाणी, जे अण्णाणी ते अत्थेगतिया दुअण्णाणी अत्येगइया तिअन्नाणी, जे दुअन्नाणी ते णियमा मतिअन्नाणी य सुयअण्णाणी य, जे तिअन्नाणी ते नियमा मतिअण्णाणी सुयअण्णाणी विभंगणाणीवि, सेसा णं णाणीवि अण्णाणीवि तिण्णि जाव अधेसत्तमाए ॥ इमीसे णं भंते! रयण कि मणजोगी वइजोगी कायजोगी?, तिण्णिवि, एवंजाव अहेसत्तमाए। इमीसे णं भंते! रयणप्पभापु० नेरइया किंसागारोवउत्ता अणा १ टीकाकृद्भि अत्र 'सकरपभापुढवीनेरइया कि नाणी अन्नाणी, गोयमा! नाणीवि अन्नाणीवि, जे नाणी ते नियमा तिनाणी आमि. सुय. ओहि०, जे अन्नाणी ते नियमा तिअन्नाणी मतिअन्नाणी सुअअ० विभंगनाणी, एवं' इति पाठ इतःप्राक् वाचनान्तरगतोऽनुसत. Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M SCESSOROSC46k: गारोवउत्ता?, गोयमा! सागारोवउत्तावि अणागारोवउत्तावि, एवं जाव अहेससमाए पुढवीए॥ ३ प्रतिपत्ता [इमीसे णं भंते! रयणप्प पु० नेरइया ओहिणा केवतियं खेत्तं जाणंति पासंति?, गोयमा! ज उद्देशः २ हपणेणं अबुट्ठगाउताई उक्कोसेणं चत्तारि गाउयाई । सकरप्पभापु० जह० तिन्नि गाउयाई उक्को० नारकाणां अछुट्टाई, एवं अद्धद्धगाउयं परिहायति जाव अधेसत्तमाए जह० अद्धगाउयं उक्कोसेणं गाउयं]॥ श्वासाहाइमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए नेरतियाणं कति समुग्धाता पण्णत्ता?, गोयमा! चत्तारि रलेश्यासमुग्धाता पण्णत्ता, तंजहा-वेदणासमुग्घाए कसायसमुग्घाए मारणंतियसमुग्घाए वेउब्धिय ष्टिज्ञानासमुग्घाए, एवं जाव अहेसत्तमाए ॥ (सू०८८) ज्ञानयोगो'रयणे'त्यादि, रत्नप्रभापृथिवीनैरयिकाणां भदन्त' कीदृशाः पुद्गला उच्छासतया परिणमन्ति ?, भगवानाह-गौतम! ये पुद्गला पयोगसमुअनिष्टा अकान्ता अप्रिया अशुभा अमनोज्ञा अमनआपाः, अमीपां पदानां व्याख्यानं प्राग्वत् , ते तेषां रत्नप्रभापृथिवीनैरयिकाणामु- 5 द्घाताः च्छासतया परिणमन्ति, एवं प्रतिपृथिवि तावद्वक्तव्यं यावद्धःसप्तम्याम् ॥ साम्प्रतमाहारप्रतिपादनार्थमाह-'रयणे'यादि, रत्नप्र- से सू० ८८ भापृथिवीनैरयिकाणां भदन्त। कीदृशाः पुद्गला आहारतया परिणमन्ति ?, भगवानाह-गौतम ये पुद्गला अनिष्टा अकान्ता अप्रिया अशुभा अमनोज्ञा अमनआपास्ते तेषामाहारतया परिणमन्ति, एवं प्रतिपृथिवि तावद्वक्तव्यं यावद्धःसप्तम्याम् । इह पुस्तकेपु बहुधाऽन्यथापाठो दृश्यते, अत एव वाचनाभेदोऽपि समग्रो दर्शयितुं न शक्यते, केवलं बहुपु पुस्तकेपु योऽबिसंवादी पाठस्तत्प्रतिपत्त्यथै ८ ॥११५॥ सुगमान्यप्यक्षराणि संस्कारमात्रेण विनियन्तेऽन्यथा सर्वमेतदुत्तानार्थ सूत्रमिति ॥ सम्प्रति लेश्याप्रतिपादनार्थमाह-'रयणे'त्यादि, Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RECENGAGE रत्नप्रभापृथिवीनैरयिकाणां भदन्त ! कति लेश्याः प्रज्ञप्ताः?, भगवानाह-गौतम! कापोतलेश्या प्रज्ञप्ता, एवं शर्कराप्रभानैरयिकाणामपि, नवरं तेषां कापोतलेश्या सलिष्टतरा वेदितव्या, वालुकाप्रभानैरयिकाणां द्वे लेश्ये, तद्यथा-नीललेश्या च कापोतलेश्या च, तत्र ते बहतरा ये कापोतलेश्याः, उपरितनप्रस्तटवर्तिनां नारकाणां कापोतलेश्याकत्वात् तेषां चातिभूयस्कत्वात् , ते स्तोकतरा ये नीललेयाकाः, पङ्कप्रभापृथिवीनैरयिकाणामेका नीललेश्या, सा च तृतीयपृथिवीगतनीललेश्याऽपेक्षयाऽविशुद्धतरा, धूमप्रभापृथिवीनैरयिकाणां लेश्ये, तद्यथा-कृष्णलेश्या च नीललेश्या च, तत्र ते बहुतरा ये नीललेश्याकाः, ते स्तोकतरा ये कृष्णलेश्याका:, भावनाऽ गापि प्रावत. तमःप्रभापृथिवीनरयिकाणां कृष्णलेश्या, सा च पञ्चमपृथिवीगतकृष्णलेश्याऽपेक्षयाऽविशुद्धतरा, अधःसप्तमपृथिवीन5 रयिकाणामेका परमकृष्णलेश्या, उक्तं च व्याख्याप्रज्ञप्तौ-"काऊ दोसु तइयाएँ मीसिया नीलिया चउत्थीए । पंचमियाए मीसा || कानो परमकण्हा ॥१॥" सम्प्रति सम्यग्दृष्टित्वादिविशेषप्रतिपादनार्थमाह-'रयणे'त्यादि, रत्नप्रभापृथिवीनैरयिका भदन्त! सिम्यादप्रयो मिथ्यादृष्टयः सम्यग्मिथ्यादृष्टयो वा', भगवानाह-गौतम! सम्यग्दृष्टयोऽपि मिथ्यादृष्टयोऽपि सम्यग्मिथ्यादृष्टयोइपि. एवं प्रथिव्यां पृथिव्यां तावद्वाच्यं यावत्तमस्तमायाम् ॥ सम्प्रति ज्ञान्यज्ञानिचिन्तां कुर्वन्नाह-'रयणे'त्यादि, रत्नप्रभापृथिवीनरयिका भदन्त ! किं ज्ञानिनोऽज्ञानिन: ?, भगवानाह-गौतम ज्ञानिनोऽपि अज्ञानिनोऽपि, सम्यग्दृशां ज्ञानित्वान्मिथ्याहशामज्ञानित्वात , तत्र ये ज्ञानिनस्ते नियमात्रिज्ञानिनः, अपर्याप्तावस्थायामपि तेपामवधिज्ञानसम्भवात् , सङ्क्षिपञ्चेन्द्रियेभ्यस्तेषामुत्पादात् , त्रि ज्ञानित्वमेव भावयति, तद्यथा-आभिनिवोधिकज्ञानिनः श्रुतज्ञानिनोऽवधिज्ञानिनः, येऽज्ञानिनस्ते 'अत्थेगइया' इति अस्तीतिनिपातो1 न बहवचनगर्भः सन्त्येकका यज्ञानिनः सन्येककारुयज्ञानिनः, तत्र येऽसङ्क्षिपञ्चेन्द्रियेभ्य उत्पद्यन्ते तेपामपर्याप्तावस्थायां विभङ्गा Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्भवाद यज्ञानिनः, शेषकालं तु तेपामपि व्यज्ञानिता, सज्ञिपश्चेन्द्रियेभ्य उत्पन्नानां तु सर्वकालमपि त्र्यज्ञानितेव, अपर्याप्तावस्था माप यज्ञानितव, अपयाप्तावस्था- * प्रतिपत्तो . यामपि तेषां विभङ्गभावात् , तत्र ये यज्ञानिनस्ते मत्यज्ञानिनः श्रुताज्ञानिनः, ये व्यज्ञानिनस्ते मत्यज्ञानिनः श्रुताज्ञानिनो विभङ्गज्ञानि-8 उहेशः २ - नश्च । 'सक्करप्पभापुढवी'त्यादि, शर्कराप्रभापृथिवीनैरयिका भदन्त ! किं ज्ञानिनोऽज्ञानिनः ?, भगवानाह-गौतम! ज्ञानिनोऽप्यज्ञानिनो- नारकाणां 2 ऽपि, तत्रापि सम्यग्दृशां मिथ्यादृशां च भावात् , तत्र ये ज्ञानिनस्ते नियमात्रिज्ञानिनः, तद्यथा-आभिनिवोधिकज्ञानिनः श्रुतज्ञानिनोऽ- श्वासाहा5वधिज्ञानिनश्च, येऽज्ञानिनस्ते नियमात्त्यज्ञानिनः, सब्ज्ञिपञ्चेन्द्रियेभ्य एव तत्रोत्पादात् , व्यज्ञानित्वमेव दर्शय[ती]ति, तद्यथा-मत्यज्ञानिन: 8 रलेश्याह श्रुताज्ञानिनो विभङ्गज्ञानिनश्च, एवं शेषास्वपि पृथिवीपु वक्तव्यं, तत्रापि सङ्क्षिपञ्चेन्द्रियेभ्य एवोत्पादात् ।। सम्प्रति योगप्रतिपादना- टिज्ञाना. नर्थमाह-रयणप्पयादि, रत्नप्रभापृथिवीनैरयिका भदन्त! किं मनोयोगिनो वाग्योगिनः काययोगिनः', भगवानाह-गौतम! त्रि- ज्ञानयोगो विधा अपि, एवं प्रतिपृथिवि तावद् यावधःसप्तम्याम् ॥ अधुना साकारानाकारोपयोगचिन्तां कुर्वन्नाह-रयणे'त्यादि, रत्नप्रभापृ- पयोगसमुथिवीनैरयिका भदन्त ! किं साकारोपयुक्ता अनाकारोपयुक्ताः ?, भगवानाह-साकारोपयुक्ता अपि अनाकारोपयुक्ता अपि, एवं तावद् याताः यावधःसप्तम्याम् ।। अधुना समुद्घातचिन्तां करोति-'रयणे'त्यादि, रत्नप्रभापृथिवीनैरयिकाणां भदन्त कति समुद्घाताः प्र- ०९ * ज्ञप्ता: ?, भगवानाह-गौतम चत्वारः समुद्घाता: प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-वेदनासमुद्घात: कपायसमुद्घातो मारणान्तिकसमुद्घातो वैक्रियसमुद्घातश्च, एवं प्रतिपृथिवि तावद्वक्तव्यं यावदधःसप्तम्याम् ।। सम्प्रति क्षुत्पिपासे चिन्तयतिइमीसेणं भंते!रयणप्पभा०पु० नेरतिया केरिसयंखुहप्पिवासं पचणुब्भवमाणाविहरंति?, गोयमा! ॥११६॥ एगमेगस्स णं रयणप्पभापुढविनेरतियस्स असम्भावपट्टवणाए सव्वोदधी वा सव्वपोग्गले वा Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आसगंसि पक्खिवेज्जा णो चेव णं से रयणप्प० पु० णेरतिए तित्ते वा सिता वितण्हे वा सिता, एरिसया णं गोयमा! रयणप्पभाए रतिया खुधप्पिवासं पचणुन्भवमाणा विहरंति, एवं जाव अधेसत्तमाए॥ इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पु० नेरतिया किं एकत्तं पभू विउवित्तए पुहत्तंपि पंभू विउव्वित्तए ?, गोयमा ! एगत्तंपि पभू पुहुत्तंपि पभू विउवित्तए, एगत्तं विउव्वेमाणा एगं महं मोग्गररूवं वा एवं मुसुंढिकरवत्तअसिसत्तीहलगतामुसलचक्कणारायकुंततोमरसूललउडभिंडमाला य जाव भिंडमालख्वं वा पुहुत्तं विउव्वेमाणा मोग्गररूवाणि वा जाव भिंडमालरूवाणि वा ताई संखेज्जाई णो असंखेजाइं संबद्धाइं नो असंवद्धाइं सरिसाइं नो असरिसाइं विउव्वंति. विउविता अण्णमण्णास कायं अभिडणमाणा अभिहणमाणा वेयण दीति महणमाणा अभिहणमाणा वेयणं उदीरेंति उजलं विउलं पगाढं कक्कसं कडयं फरुसं निट्ठरं चंडं तिव्वं दुक्खं दुग्गं दुरहियासं, एवं जाव धूमप्पभाए पुढवीए । छट्ठसत्तमासु णं पुढवीसु नेरइया बहू महंताई लोहियकुंथूरूवाई वइरामइतुंडाइं गोमयकीडसमाणाई विउव्वंति, विउव्वित्ता अन्नमन्नस्स कायं समतुरंगेमाणा खायमाणा खायमाणा सयपोरागकिमिया विव चालेमाणा २ अंतो अंतो अणुप्पविसमाणा २ वेदणं उदीरंति उनलं जाव दुरहियासं ॥ इमीसे णं भंते! रयणप्प० पु० नेरइया किं सीतवेदणं वेइंति उसिणवेदणं वेइंति सीउसिणवेदणं वेदेति ?, गोयमा! णो सीयं वेदणं वेदेति उसिणं वेदणं . Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३प्रतिपत्तो उद्देशः २ नारकाणां क्षुत्तृति क्रियावेदनाः सू० ८९ वेदेति नो सीतोसिणं, [ते अप्पयरा उपहजोणिया वेदेति,] एवं जाव वालुयप्पभाए, पंकप्पभाए . पुच्छा, गोयमा! सीयंपि वेदणं वेदेति, उसिणंपि वेयणं वेयंति, नो सीओसिणवेयणं वेयंति, ते बहुतरगा जे उसिणं वेदणं वेदेति, ते थोवयरगा जे सीतं वेदणं वेइंति । धूमप्पभाए पुच्छा, गोयमा! सीतंपि वेदणं वेदेति उसिणंपि वेदणं वेदेति णो सीतो०, ते यहुतरगा जे सीयवेदणं वेदेति ते थोवयरका जे उसिणवेदणं वेदेति । तमाए पुच्छा, गोयमा! सीयं वेदणं वेदेति नो उसिणं (वेदणं) वेदेति नो सीतोसिणं वेदणं वेदेति, एवं अहेसत्तमाए णवरं परमसीयं ॥ इमीसे णं भंते! रयणप्प० पु० णेरइया केरिसयं णिरयभवं पचणुभवमाणा विहरंति ?, गोयमा! ते णं तत्थ णिचं भीता णिचं तसिता णिचं छुहिया णिचं उव्विग्गा निचं उपप्पुआ णिचं वहिया निच्चं परममसुभमउलमणुवई निरयभवं पचणुभवमाणा विहरंति, एवं जाव अधेसत्तमाए णं पुढवीए पंच अणुत्तरा महतिमहालया महाणरगा पण्णत्ता, तंजहा-काले महाकाले रोरुए महारोरुए अप्पतिहाणे, तत्थ इमे पंच महापुरिसा अणुत्तरेहिं दंडसमादाणेहिं कालमासे कालं किचा अप्पतिहाणे णरए रति(य)त्ताए उववण्णा, तंजहा-रामे १, जमदग्गिपुत्ते, दढाउ २, लच्छतिपुत्ते, वसु ३, उवरिचरे, सुभूमे कोरव्वे ४, बंभ ५, दत्ते चुलणिसुते ६, ते णं तत्थ नेरतिया जाया काला कालो० जाव परमकिण्हा वण्णेणं पण्णत्ता, तंजहा-ते णं तत्थ वेदणं वेदेति उज्जलं विउलं जाव दुरहि CreCoSCASSAIRAASANCHAR ॥११७॥ Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SADSASURESAMACHAR यासं ॥ उसिण वेदणिज्जेसु णं भंते! णेरतिएसु रतिया केरिसयं उसिणवेदणं पञ्चणुभवमाणा विहरंति ? गोयमा! से जहाणामए कम्मारदारए सिता तरुणे बलवं जुगवं अप्पायंके थिरग्गहत्थे दढपाणिपादपासपिठंतरोरु [संघाय] परिणए लंघणपवणजवणवग्गणपमद्दणसमत्थे तलजमलजुयलबहुफलिहणिभबाहू घणणिचितवलियवदृखंधे चम्मेहगदुहणमुट्टियसमायणिचितगत्तगत्ते उरस्सबलसमण्णागए छेए दक्खे पढे कुसले णिउणे मेहावी णिउणसिप्पोवगए एगं महं अयपिंडं उद्गवारसमाणं गहाय तं ताविय ताविय कोहित कोहित उभिदिय उम्भिदिय चुण्णिय चुण्णिय जाव एगाहं वा दुयाहं वा तियाहं वा उक्कोसेणं अद्धमासं संहणेजा, से णं तं सीतं सीतीभूतं अओमएणं संदसएणं गहाय असम्भावपट्ठवणाए उसिणवेदणिज्जेसु णरएसु पक्खिवेजा, से णं तं उम्मिसियणिमिसियंतरेणं पुणरवि पचुद्धरिस्सामित्तिकट्ठ पविरायमेव पासेजा पविलीणमेव पासेजा पविद्धत्थमेव पासेज्जा णो चेव णं संचाएति अविरायं वा अविलीणं वा अविद्वत्थं वा पुणरवि पचुद्धरित्तए ॥ से जहा वा मत्तमातंगे [पाए] कुंजरे सहिहायणे पढमसरयकालसमतंसि वा चरमनिदाघकालसमयंसि वा उण्हाभिहए तण्हाभिहए दवग्गिजालाभिहए आउरे सुसिए पिवासिए दुबले किलंते एकं महं पुक्खरिणिं पासेजा चाउकोणं समतीरं अणुपुव्वसुजायवप्पगंभीरसीतलजलं संछण्णपमत्तभिसमुणालं बहुउप्पलकुमुद Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३प्रतिपत्तौ उद्देशः२ नारकाणां क्षुत्तृदि क्रिया णलिणसुभगसोगंधियपुंडरीय (महापुंडरीय) सयपत्तसहस्सपत्तकेसरफुल्लोवचियं छप्पयपरिभुज्जमाणकमलं अच्छविमलसलिलपुण्णं परिहत्थभमंतमच्छकच्छभं अणेगसउणगणमिहणयविरहयसदुन्नइयमहुरसरनाइयं तं पासइ, तं पासित्ता तं ओगाहइ, ओगाहित्ता से णं तत्थ उण्डंपि पविणेज्जा तिण्हंपि पविणेज्जा खुहंपि पविणिज्जा जरंपि पवि० दाहंपि पवि०णिदाएज्ज वा पयलाएज्ज वा सतिं वा रतिं वा धितिं वा मतिं वा उवलभेजा, सीए सीयभूए संकसमाणे संकसमाणे सायासोक्खबहुले यावि विहरिजा, एवामेव गोयमा! असम्भावपट्टवणाए उसिणवेयणिजेहिंतो णरएहिंतो कुंभारागणी इवा रहए उव्वहिए समाणे जाई इमाई मणुस्सलोयंसि भवंति (गोलियालिंगाणि वा सोंडियालिंगाणि वा भिंडियालिंगाणि वा) अयागराणि वा तंबागराणि वा तउयागरा० सीसाग० रुप्पागरा० सुवन्नागराणि वा हिरण्णागरा० कुंभारागणी इ वा मुसागणी वा इट्टयागणी वा कवेल्लयागणी वा लोहारंवरिसे इ वा जंतवाडचुल्ली वा हंडियलिस्थाणि वा सोडियलि. लागणी ति वा, तिलागणी वा तुसागणी ति वा, तत्ताइं समजोतीभूयाई फुल्लकिंसुयसमाणाई उकासहस्साई विणिम्मुयमाणाई जालासहस्साई पमुचमाणाई इंगालसहस्साई पविक्खरमाणाई अंतो २ हयमाणाई चिट्ठति ताई पासइ, ताई पासित्ता ताई ओगाहइ ताई ओगाहित्ता से णं तत्थ उण्हपि पविणेज्जा तण्हंपि पविणेजा खुहंपि पविणेज्जा वेदनाः सू० ८९ ॥११८॥ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जरंपि पविणेजा दाहंपि पविणेजा णिहाएज्ज वा पयलाएन वा सतिं वा रतिं वा धिई वा मतिं वा उवलभेजा, सीए सीयभूयए संकसमाणे संकसमाणे सायासोक्खयहुले यावि चिहरेज्जा, भवेयारूवे सिया?, जो इणढे समढे, गोयमा ! उसिणवेदणिज्जेसु णरएसु नरतिया एत्तो अणितरियं चेव उसिणवेदणं पञ्चणुभवमाणा विहरंति॥सीयवेणिज्जेसु णं भंते णिरएमु रतिया केरिसयं सीयवेदणं पचणुब्भवमाणा विहरंति ?, गोयमा! से जहाणामए कम्मारदारए सिया तरुणे जुगवं बलवं जाव सिप्पोवगते एगं महं अयपिंडं दगवारसमाणं गहाय ताविय ताविय कोहिय कोट्टिय जह० एकाहं वा दुआई वा तियाहं वा उक्कोसे णं मासं हणेजा, से णं तं उसिणं उसिणभूतं अयोमएणं संदसएणं गहाय असन्भावपट्टवणाए सीयवेदणिज्जेसु णरएसु पक्खिवेना, से तं [उमिसियनिमिसियंतरेण पुणरवि पचुद्धरिस्सामीतिकहु पविरायमेव पासेज्जा, तं चेव णं जाव णो चेव णं संचाएजा पुणरवि पचुद्धरित्तए, से णं से जहाणामए मत्तमायंगे तहेव जाय सोक्खबहुले यावि विहरेजा] एवामेव गोयमा! असम्भावपट्ठवणाए सीतवेदणेहिंतो णरएहितो नेरतिए उव्वहिए समाणे जाई इमाई इहं माणुस्सलोए हवंति, तंजहा-हिमाणि वा हिमपुंजाणि वा हिमपडलाणि वा हिमपडलपुंजाणि वा तुसाराणि वा तुसारपुंजाणि वा हिमकुंडाणि वा हिमकुंडपुंजाणि वा सीताणि वा ताई पासति पासित्ता ताई ओगाहति ओगाहित्ता से णं तत्थ HOSSEISAROSLOSOAG Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ प्रतिपत्ती उद्देशः २ नारकाणां क्षुत्तृद्धि 5 क्रिया वेदनाः सू० ८९ सीतंपि पविणेसा तण्हंपि प० खुहंपि प० जपि प० दाहंपि प०निदाएन या पयलाएज्ज वा जाव उसिणे उसिणभूए संकसमाणे संकसमाणे सायासोक्खबहले यावि विहरेजा, गोयमा! सीयवेयणिज्जेसु नरएसु नेरतिया एत्तो अणिट्टयरियं चेव सीतवेदणं पचणुभवमाणा विहरंति ॥ (सू०८९) 'रयणे'त्यादि, रत्नप्रभापृथिवीनैरयिका भदन्त! कीदृशी क्षुधं पिपासा (च) प्रत्यनुभवन्तः प्रत्येक वेदद्यमाना: 'विहरन्ति' अवतिष्ठन्ति ?, भगवानाह-गौतम! 'एगमेगस्स णमित्यादि, एकैकस्य रत्नप्रभापूथिवीनैरयिकस्य 'असद्भाव(प्र)स्थापनया' असावकल्पनया ये केचन पुद्गला उद्धयश्चेति शेपः तान् 'आस्यके' मुखे सर्वपुद्गलान् सर्वोदधीन प्रक्षिपेत् , तथाऽपि 'नो चेव ण'मियादि, नैव रत्नप्रभापृथिवीनैरयिकः तृप्तो वा वितृष्णो वा स्यात् लेशतः अन प्रबलभस्मकव्याध्युपेतः पुरुषो इष्टान्तः । 'एरिसिया ण'मित्यादि, ईदृशी णमिति वाक्यालकृतौ गौतम रत्नप्रभापृथिवीनैरयिकाः क्षुधं पिपासां प्रत्यनुभवन्तो विहरन्ति, एवं प्रतिष्ठथिवि तावद्वक्तव्यं यावद्धःसप्तमी॥ सम्प्रति वैक्रियशक्तिं विचिचिन्तयिपुरिदमाह-'रयणप्पभे'त्यादि, रत्नप्रभापृथिवीनैरयिका भदन्त । प्रत्येक किम् 'एकत्वम्' एकं रूपं विकुर्वितुं प्रभवः उत 'पृथक्त्वं' पृथक्त्वशब्दो बदुवाची, आह च कर्मप्रकृतिसङ्ग्रहणिचूर्णिकारोऽपि-"पुहुत्तशब्दो बहुत्तवाई" इति, प्रभूतानि रूपाणि विकुक्तुिं प्रभवः १, "विकुर्व विक्रियायाम्' इत्यागमासिद्धो धातुरस्ति यस्य विकुर्वाण इति प्रयोगस्ततो विकुर्वितुमित्युक्तं, भगवानाह-एकत्वमपि प्रभवो विकुर्वितुं पृथक्त्वमपि प्रभवो विकुर्वितुं, तत्रैकं रूपं विकुर्वतो मुद्गररूपं वा मुद्गरः-प्रतीतः मुपण्ढिरूपं वा गुपण्डि:-प्रहरणविशेपः, करपत्ररूपं वा असिरूपं वा शक्तिरूपं वा हलरूपं वा गदारूपं वा मुशलरूपं वा चक्ररूपं वा नाराचरूपं वा कुन्तरूपं वा तोमररूपं वा शूलरूपं वा लकुटरूपं वा भिण्डमालरूपं वा विकुर्वन्ति, करपत्रादयः ॥११९॥ Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतीताः, भिण्डमाल:-शस्त्रजातिविशेषः, अत्र सङ्ग्रहणिगाथा कचित्पुस्तकेषु-"मुग्गरमुसुंढिकरकयअसिसत्तिहलं गयामुसलचक्का।नारायकुंततोमरसूललउडभिडिमाला य ॥१॥” गतार्था, नवरं 'करकय'त्ति क्रकचं करपत्रमित्यर्थः, पृथक्त्वं विकुर्वन्तो मुद्गररूपाणि वा यावत्त भिण्डमालरूपाणि वा, तान्यपि सदृशानि, (समानरूपाणि) 'नोऽसहशानि'(अ) समानरूपाणि, तथा 'सङ्ख्येयानि' परिमितानिन 'असकोयानि सश्यातीतानि, विसदृशकरणेऽसङ्ख्येयकरणे वा शक्त्यभावात्, तथा 'संवद्धानि' स्वात्मनः शरीरसंलग्नानि 'नासंबद्धानि' न स्वशरीरात्पृथग्भूतानि, स्वशरीरात्पृथग्भूतकरणे शक्त्यभावात् , विकुर्वन्ति, विकुर्विवाऽन्योऽन्यस्य कायमभिन्नन्तो वेदनामुदीरयन्ति, किंविशिष्टामित्याह-'उज्ज्वलां' दुःखरूपतया जाज्वल्यमानां सुखलेशेनाप्यकलङ्कितामिति भावः, 'विपुलां' सकलशरीरव्यापितया । विस्तीर्णा 'प्रगाढां' प्रकर्षेण मर्मप्रदेशव्यापितयाऽतीवसमवगाढां कर्कशामिव कर्कशां, किमुक्तं भवति?-यथा कर्कश: पापाणसंघर्षः शरी-Ill रस्य खण्डानि त्रोटयति एवमामप्रदेशान् त्रोटयन्तीव या वेदनोपजायते सा कर्कशा तां, कटुकामिव कटुकां पित्तप्रकोपपरिकलितवपुषो रोहिणीं-कटुद्रव्यमिवोपभुज्यमानमतिशयेनाप्रीतिजनिकामिति भावः, तथा 'परुषां' मनसोऽतीव रौक्ष्यजनिकां 'नि अशक्यप्रतीकारतया दुर्भदा 'चण्डो' रुद्रां रौद्राध्यवसायहेतुत्वात् 'तीव्राम्' अतिशायिनी 'दुःखां' दुःखरूपां दुर्गा दुर्लयामत एव | दुरधिसह्याम् , एवं पृथिव्यां पृथिव्यां तावद्वक्तव्यं यावत्पञ्चम्याम् । 'छहसत्तमीसुण'मित्यादि, षष्ठसप्तम्योः पुनः पृथिव्यो रयिकाः बहूनि महान्ति गोमयकीटप्रमाणत्वात् , 'लोहितकुन्थुरूपाणि' आरक्तकुन्थुरूपाणि वज्रमयतुण्डानि, गोमयकीटसमानानि विकुर्वन्ति, विकुर्वित्वा 'अन्योऽन्यस्य' परस्परस्य 'कार्य' शरीरं समतुरगा इवाचरन्त: समतुरङ्गायमाणाः, अश्वा इवान्योऽन्यमारुहन्त इत्यर्थः,||li 'खायमाणा खायमाणा' भक्षयन्तो भक्षयन्तोऽन्तरन्त: 'अनुप्रवेशयन्तः' अनुप्रविशन्त: 'सयपोरागकिमिया इव' शतपर्वकृमय 25SLRESS Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ GRE इव इनुपर्वकृमय इव 'चालेमाणा चालेमाणा' शरीरस्य मध्यभागेन संचरन्तः संचरन्तो वेदनामुदीरयन्त्युज्वलामित्यादि प्राग्वत् ॥ सम्प्रति क्षेत्रस्वभावजां वेदनां प्रतिपादयति-'रयणे'त्यादि, रत्नप्रभापृथिवीनैरयिका भदन्त किं शीतां वेदनां वेद्यन्ते उष्णां वेदनां * १ वेदयन्ते शीतोष्णां वा?, भगवानाह-गौतम! न शीतां वेदनां वेदयन्ते किन्तु उष्णां वेदनां वेदयन्ते, ते हि शीतयोनिका योनिस्था. नानां केवलहिमानीप्रख्यशीतप्रदेशालकत्वात् , योनिस्थानव्यनिरेकेण चान्यत् सर्वमपि भूम्यादि खादिरागारादपि महाप्रतप्तमतस्ते उ ष्णवेदनामनुभवन्ति, नापि शीतोष्णां वेदनां वेदयन्ते, शीतोष्णस्वभावतया वेदनाया नरकेपु मूलतोऽप्यसम्भवात् , एवं शर्कराप्रभा- ॐ वालुकाप्रभानैरयिका अपि वक्तव्याः, पङ्कप्रभापृथिवीनैरयिकपृच्छायाम् भगवानाह-गौतम! शीतामपि वेदनां वेदयन्ते नरकावासभे& देनोष्णामपि वेदनां वेदयन्ते नरकावासभेदेनैव, न तु शीतोष्णां, तत्र ते वहुतरा ये उपणां वेदनां वेदयन्ते, प्रभूततराणां शीतयोनि- * त्वात् , ते स्तोकतरा ये शीतां वेदनां वेदयन्ते, अल्पतराणामुष्णयोनित्वात्, एवं धूमप्रभायामपि वक्तव्यं, नवरं ते बहुतरा ये शीतवे४ दनां वेदयन्ते, बहूनामुष्णयोनित्वात् , ते स्तोकतरा ये उष्णवेदना वेदयन्ते, अल्पतराणां शीतयोनित्वात् , तमःप्रभापृथिवीनैरयिकपृ- च्छायां भगवानाह-गौतम! शीतां वेदनां वेदयन्ते नोष्णां नापि शीतोष्णां, तत्रत्यानां सर्वेपामुष्णयोनित्वात् , योनिस्थानव्यतिरेकेण है चान्यस्य सर्वस्यापि नरकभूम्यादेमहाहिमानीप्रख्यत्वात्, एवं तमस्तमाप्रभापृथिवीनैरयिका अपि वक्तव्या, नवरं परमां शीतवेदनां वेदयन्ते इति वक्तव्यं, तमःप्रभापृथिवीतः तमस्तमप्रभापृथिव्यां शीतवेदनाया अतिप्रबलत्वात् ।। सम्प्रति भवानुभवप्रतिपादनार्थमाह-५ 'रयणे'त्यादि, रत्नप्रभापृथिवीनैरयिका भदन्त । कीदृशं नरकभवं प्रत्यनुभवन्तः प्रत्येक वेदयमानाः 'विहरन्ति' अवतिष्ठन्ते?, भगवानाह-गौतम रत्नप्रभापृथिवीनैरयिका 'नित्यं सर्वकालं क्षेत्रखभावजमहानिविडान्धकारदर्शनतो भीताः, सर्वत उपजातशङ्कत्वात् , ३प्रतिपत्ती उद्देशः २ नारकाणां क्षुत्तृति क्रिया वेदनाः सू० ८९ A TERIEO ॥१२०॥ Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा 'नित्यं सर्वकालं स्वत एवाप्रेऽपि त्रस्ताः' परमाधार्मिकदेवपरस्परोदीरितदुःखसंपातभयात्रासमुपपन्नाः, तथा 'नित्यं सर्वकालं परमाधार्मिकैः परस्परं वा 'त्रासिताः' त्रासं प्राहिताः, तथा 'नित्यमुद्विग्नाः' यथोक्तरूपदुःखानुभवतस्तद्गतावासपराङ्मुखचित्ताः, तथा 'नित्यं सर्वकालम् 'उपप्लता' उपप्लवेनोपेता न तु मनागपि रतिमासादयन्ति, एवं 'नित्यं सर्वकालं परममशुभम् "अतुलम् अशुभत्वेनानन्यसदृशम् 'अनुवद्धम्' अशुभत्वेन निरन्तरमुपचितं निरयभवं 'प्रत्यनुभवन्तः प्रत्येकं वेदयमाना विहरन्ति, एवं पृ-1 थिव्यां पृथिव्यां तावद्वक्तव्यं यावद्धःसप्तमी, अस्यां चाधःसप्तम्यां क्रूरकर्माणः पुरुषा उत्पद्यन्ते नान्ये, तथा चास्यैवार्थस्य प्रदर्शनार्थ पञ्च पुरुषान् उपन्यस्यति-'अहेसत्तमाए ण'मित्यादि, अधःसप्तम्यां पृथिव्यामप्रतिष्ठाने नरके 'इमे' अनन्तरं वक्ष्यमाणस्वरूपाः पञ्च महापुरुषाः 'अनुत्तरैः' सर्वोत्तमप्रकर्षप्राप्तैः 'दण्डसमादानैः' समादीयते कर्म एभिरिति समादानानि-कर्मोपादानहेतवः दण्डा एव-मनोदण्डादयः प्राणव्यपरोपणाध्यवसायरूपाः समादानानि दण्डसमादानानि तैः कालमासे कालं कृत्वोत्पन्नाः, तद्यथा-रामो जा-2 मदग्निसुतः पशुराम इत्यर्थः, दाढादाल: छातीसुतः, वसू राजा उपरिचरः, स हि देवताऽधिष्ठिताकाशस्फटिकसिंहासनोपविष्टः सन्नाकाशस्फटिकमयस्य सिंहासनस्यादर्शनतो लोकेष्वेवं प्रसिद्धिमगमत्-सत्यवादी किलैप वसुराजा न प्राणालायेऽप्यलीकं भाषते ततः सत्त्वावर्जितदेवताकृतप्रातिहार्य एवमुपर्याकाशे चरतीति, स चान्यदा हिंस्रवेदार्थप्ररूपकस्य पर्वतस्य पक्षमभिगृह्य सम्यग्दृष्टे रदस्य पक्षमनभिगृहन्नलीकवादित्वात्प्रकुपितदेवताचपेटाहतः सिंहासनात्परिभ्रष्टो रौद्रध्यानमभिरूढः सप्तमपृथिव्यामप्रतिष्ठाननरकमयासीत् , सुभूमो ऽष्टमश्चक्रवर्ती कौरव्यः कौरव्यगोत्रो ब्रह्मदत्तञ्चलनीसुत: 'ते णं तत्थ वेयणं वेयंती' त्यादि, 'ते' परशुरामादयस्तत्र-अप्रतिष्ठाने नरके || वेदनां वेदयन्ते उज्ज्वला यावद् दुरध्यासामिति प्राग्वत् ।। सम्प्रति नरकेपूष्णवेदनायाः स्वरूपमभिधित्सुराह-'उसिणवेदणिज्जेसु णं Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिपत्ती उद्देशः २ नारकाणां शीतोष्णवेदनाः सू० ८९ भंते !' इत्यादि, उष्णवेदनेषु णमिति पूर्ववत् भदन्त ! नरकेपु नैरयिकाः कीदशीमुष्णवेदना प्रसनुभयन्त:-प्रत्येकं वेदयमाना बिह- + रन्ति ?, भगवानाह-गौतम ! स 'यथानामकः' अनिर्दिष्टनामकः कश्चिन् 'कारदारकः' लोह कारदारफ: स्यान्, किंपिशिष्टः ? है इत्याह-तरुणः' प्रवर्द्धमानवयाः, आह-दारकः प्रवर्द्धमानवया एव भवति तत. किमनेन विशेषणेन ?, न, आसन्नमृत्योः प्रवर्द्धमा- * नवयस्त्वाभावात् , न ह्यासन्नमृत्युः प्रवर्द्धमानवया भवति, न च तस्य विशिष्टसामर्थ्यमम्भवः, आसन्नमृत्युतादेव, विशिष्टसामर्यप्र. तिपादनार्थश्चैप आरम्भस्ततोऽर्थवद्विशेषणम् , अन्ये तु व्याचक्षते-इह यदव्यं विशिष्टवर्णादिगुणोपेतमभिनयं च तत्तरुणमिति लोके र प्रसिद्धं, यथा तरुणमिदमश्वत्थपत्रमिति, ततः स कर्मारदारकस्तरुण इति किमुक्तं भवति ?-अभिनवो विशिष्टवर्णादिगुणोपेतशेति, ६ बलं-सामर्थ्य तदस्यास्तीति बलवान् , तथा युगं-सुपमदुप्पमादिकालः स खेन रूपेण यस्यासि न दोषदुष्टः स युगवान् , किमुक्तं * भवति ?-कालोपद्रवोऽपि सामर्थ्य विघ्नहेतुः स चास्य नास्तीति प्रतिपत्त्यर्थमेतद्विशेषणं, युवा-यौवनखः, युवावस्थायां हि वलातिशय इत्येतदुपादानम्, 'अप्पायके' इति अल्पशब्दोऽभाववाची अल्प:-सर्वथाऽविद्यमान आतडो-वरादिर्यस्यासावल्पातकः, 'धिरग्गहत्थे' ६ स्थिरौ अप्रहस्तौ यस्य स स्थिरामहस्तः, 'दढपाणिपायपासपिढेतरोरुपरिणए' इति दृढानि-अतिनिविडचयापन्नानि पाणिपादपार्श्व पृष्ठान्तरोरूणि परिणतानि यस्य स दृढपाणिपादपार्श्वपृष्ठान्तरोल्परिणतः, सुखादिदर्शनात्पाक्षिको निष्ठान्तस्य परनिपातः, तथा घनम्-अतिशयेन निचिती-निबिडतरचयमापनी वलिताविव वलिती वृत्ती स्कन्धौ यस्य स घननिचितवलितवृत्तस्कन्धः, 'चम्मेद्वगदुघणमुट्ठियसमाहयनिचियगायगस्ते' चर्मेप्टकेन द्रुघणेन मुष्टिकया च-मुष्ट्या च समाहत्य ये निचितीकृतगात्रास्ते चर्मेष्टकदुघणमुष्टिकसमाहतनिचितगात्रास्तेषामिव गात्रं यस्य स चर्मेष्टकद्रुघणमुष्टिकसमाहतनिचितगावगात्रः, 'उरस्सवलसमन्नागए' इति उरसि FACHAR ॥१२१॥ Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवमुरस्यं तब तद्बलं च उरस्यबलं तच समन्वागत:-समनुप्राप्त उरस्यबलसमन्वागतः, आन्तरोत्साहवीर्ययुक्त इति भावः, 'तलजमलजुयलबाह' इति, तलौ-तालवृक्षो तयोर्यमलयुगलं-समश्रेणीकं युगलं तलयमलयुगलं, तद्वदतिसरलौ पीवरौ च बाहू यस्य स तलयमलयुगलबाहु:, .'लंघणपवणजवणपमद्दणसमत्थे इति, लङ्घने-अतिक्रमणे प्लवने-मनाक् पृथुतरविक्रमगतिगमने जवनेअतिशीघ्रगतौ प्रसर्दने-कठिनस्यापि वस्तुनश्चर्णनकरणे समर्थः लखनप्लवनजवनप्रमर्दनसमर्थः, कचित् 'लंघणपवणजवणवायामणसमत्थे' इति पाठस्तत्र व्यायामने-व्यायामकरणे इति व्याख्येयं, 'छेकः' द्वासप्ततिकलापण्डित: 'दक्षः' कार्याणामविलम्बितकारी, | 'प्रष्ठः' वाग्ग्मी 'कुशलः' सम्यक्रियापरिज्ञानवान् 'मेधावी' परस्पराव्याहतपूर्वापरानुसन्धानदक्षः, अत एव 'निपुणसिप्पोवगए' इति निपुण यथा भवति एवं शिल्पं-क्रियासु कौशलमुपगतः-प्राप्तो निपुणशिल्पोपगतः, एकं महान्तमयस्पिण्डम् 'उदकवारकसमानं' लघुपानीयघटसमानं गृहीला 'तम्' अयस्पिण्डं तापयित्वा तापयित्वा ततो घनेन कुट्टयित्वा कुट्टयित्वा यावदेकाहं वा द्वयहं वा यावदुत्कर्षतोऽर्द्धमासं संहन्यात् , ततो णमिति वाक्यालङ्कारे 'तम्' अयस्पिण्ड शीतं, स च शीतो पहिर्मनाग्मात्रेणापि स्यादत आह"शीतीभूतं सर्वासना शीतत्वेन परिणतं अयोमयेन संदंशकेन गृहीत्वा 'असद्भावस्थापनया' असद्भावकल्पनया नैतदभूत् न भवति भविष्यति वा केवलमसद्भूतमिदं कल्प्यत इति, उष्णवेदनेषु नरकेषु प्रक्षिपेत् , प्रक्षिप्य च स पुरुपो णमिति वाक्यालङ्कारे "उम्मिसियनिमिसियंतरेण' उन्मिषितनिमिषितान्तरेण यावताऽन्तरेण-यावता व्यवधानेन उन्मेषनिमेषौ क्रियेते तावदन्तरप्रमाणेन कालेनातिक्रान्तेन पुनरपि प्रत्युद्धरिष्यामीतिकृत्वा यावद् द्रष्टुं प्रवर्तते तावत् 'प्रवितरमेव' प्रस्फुटितमेव, यदिवा 'प्रविलीनमेव' नवनीतमिक सर्वथा गलितमेव, यदिवा 'प्रविध्वस्तमेव' सर्वथा भस्मसाद्भूतमेव पश्येत्, न पुनः शक्नुयाद् अचिरात्तं अप्रस्फुटितं अविलीनं Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वा अविध्वस्तं वा पुनरपि प्रत्युद्धर्तुम्, एवंरूपा नाम तत्रोष्णवेदना ॥ अस्यैवार्थस्य स्पष्टतरभावनार्थ दृष्टान्तान्तरमाह - 'से जहानाम' इत्यादि, 'से' सकलजनप्रसिद्धो यथेति दृष्टान्तत्वोपदर्शने वाशब्दो विकल्पने, अयं वा दृष्टान्तो विवक्षितार्थप्रतिपत्तये बोद्धव्य इति विकल्पनभावना, 'मत्तः' मदकलितः 'मातङ्गः' हस्ती, इह मातङ्गोऽन्त्यजोऽपि संभवति ततस्तदाशङ्काव्युदासार्थं नानादेशजविनेयजनानुप्रहाय (वा) पर्यायद्वयमाह - 'द्विपः ' द्वाभ्यां मुखेन करेण चेत्यर्थः पिवतीति द्विपः, 'मूलविभुजादय' इति कप्रत्ययः, कौं जीर्यतीति कुञ्जरः, यदिवा कुले - वनगहने रमति - रतिमाबनातीति कुञ्जरः 'कचिदिति उप्रत्ययः, षष्टिहायनाः - संवत्सरा यस्य स पष्टिहायनः ‘प्रथमशरत्कालसमये' कार्त्तिकमाससमये, इह प्राय ऋतवः सूर्यर्त्तवो गृह्यन्ते ते चाषाढायो द्विद्विमासप्रमाणा:, प्रवचने च क्रमेणैवंनामानः, तद्यथा - प्रथमः प्रावृट् द्वितीयो वर्षारात्रः तृतीयः शरत् चतुर्थी हेमन्तः पञ्चमो वसन्तः षष्ठो ग्रीष्मः, तथा चाह् पादलिप्तसूरिः — “पाउस वासारत्तो, सरओ हेमंत वसन्त गिम्हो य । एए खलु छप्पि रिऊ, जिणवरदिट्ठा मए सिट्ठा ॥१॥" ततः प्रथमशरत्कालसमयः कार्त्तिकसमय इति विवृत्तम्, आह च मूलटीकाकृत् - "प्रथमशरत्- कार्त्तिकमासः” तस्मिन् वाशब्दो विकल्पने 'चरमनिदाघकालसमये वा' चरम निदाघकालसमयो - ज्येष्ठमासपर्यन्तस्तस्मिन् वाशब्दो विकल्पने, 'उष्णाभिहतः ' सूर्यखरकिरणप्रतापाभिभूतः, अत एवोष्णैः सूर्यकिरणैः सर्वतः प्रतप्ताङ्गतया शोषभावतस्तृषाभिहतः, तत्रापि पानीयगवेषणार्थमितस्ततः स्वेच्छया परिभ्रमतः कथञ्चिद्दवानिप्रत्यासत्तौ गमनतो दवाग्निज्वालाभिहतः अत एव 'आतुरः' क्वचिदपि स्वास्थ्यमलभमानः सन् आकुलः, सर्वाङ्गपरि॒तापसम्भवेन गलतालुशोषभावात् शुषितः, कचित् 'झिजिए' इति पाठस्तत्र 'क्षितः' क्षीणशरीर इति व्याख्येयम्, असाधारणतृड्वेदनासमुच्छलनात्पिपासितः, अत एव दुर्बलः शारीरमानसावष्टम्भरहितत्वात्, 'क्कान्तः' ग्लानिमुपगतः ३ प्रतिपत्तौ उद्देशः २ नारकाणां शीतोष्ण वेदनाः सू० ८९ ॥ १२२ ॥ Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम ग्लानौ' इति वचनात्, एकां महतीं 'पुष्करिणी' पुष्कराण्यस्यां विद्यन्ते इति पुष्करिणी तां, किंविशिष्टामित्याह-चतकोणां' चत्वारः कोणा-अश्रयो यस्याः सा तथा तां, सम-विषमोन्नतिवर्जितं सुखावतारं तीरं-तटं यस्याः सा समतीरा ताम् , आनुपूर्येण-नीचैर्नीचैस्तरभावरूपेण न कहेलयैव कचिद्ग रूपा कचिदुन्नतिरूपा इति भावः, सुष्ठ-अतिशयेन यो जातो वप्रः-केदारो जलस्थानं तत्र गम्भीरम्-अलब्धस्ताघं शीतलं जलं यस्यां सा आनुपूर्व्यसुजातवप्रगम्भीरशीतलजला ताम्, 'संछण्णपत्तभिसमणाल'मिति संछन्नानि-जलेनान्तरितानि पत्रबिसमृणालानि यस्यां सा संछन्नपत्रबिसमृणाला ताम्, इह विसमृणालसाहचर्यात् पत्राणि -पमिनीपत्राणि द्रष्टव्यानि, बिसानि-कन्दा: मृणालानि-पद्मनाला:, तथा बहुभिरुत्पलकुमुदनलिनसुभगसौगन्धिकपुण्डरीकमहापुण्डरीकशतपत्रसहस्रपत्रैः केसरैः-केसरप्रधानैः फुल्लैः-विकसितैरुपचिता बहूत्पलकुमुदनलिनसुभगसौगन्धिकपुण्डरीकमहापुण्डरीकशतपत्रसहस्रपत्रकेसरफुल्लोपचिता तां, तथा षट्पदैः-भ्रमरैः परिभुज्यमानानि कमलानि उपलक्षणमेतत् कुमुदादीनि यस्याः सा पट्पदपरिभुज्यमानकमला तां, तथाऽच्छेन-खरूपतः स्फटिकवच्छुद्धेन विमलेन-आगन्तुकमलरहितेन सलिलेन पूर्णा अच्छविमलसलिलपूर्णा तां, तथा पडिहत्था-अतिरेकता (त:) अतिप्रभूता इत्यर्थः भ्रमन्तो मत्स्यकच्छपा यस्यां सा पडिहत्थभ्रमन्मत्स्यकच्छपा, तथा अनेकैः शकुनिगणमिथुनकैः गणशब्दस्य प्राकृतत्वादस्थानेऽप्युपनिपातः, शकुनिमिथुनकैर्विचरितैः-इतस्ततः खेच्छया प्रवृत्तैः शब्दोअतिकम्-उन्नतशब्दं मधुरखरं नादितं यस्यां सा अनेकशकुनिगणमिथुनकविचरितशब्दोन्नतिकमधुरखरनादिता, ततः पूर्वपदेन विशेपणसमासः, तां दृष्ट्वाऽवगाहेत, अवगाह्य च 'उष्णमपि' परिदाहमपि शरीरस्य तत्र 'प्रविनयेत्' प्रकर्षेण सर्वासना स्फोटयेत् , तथा क्षुधामपि प्रविनयेत् प्रत्यासन्नतटवर्तिशल्लक्यादिकिसलयभक्षणात्, तृषमपि प्रविनयेत् जलपानात् , ज्वरमपि परिसंतापसमुत्थं प्रवि Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयेत् परिदायक्षुत्पिपासाऽपगमात्, एवं सकलनुदादिदोपापगमतः सुखासिकाभावेन निद्रायेत प्रचलायेत, तत्र अनिद्रावान् निद्रा- ३प्रतिपत्ती वान् भवतीति व्यर्थविवक्षायां निद्रादिभ्यो धर्मिणि क्ययिति कर्मणि क्यपप्रत्ययः, एवं प्रचलाशब्दादपि निद्रादेराकृतिगणत्वात् , नि- उद्देशः २ द्राप्रचलयोस्त्वयं विशेष:-सुखप्रबोधा स्वापावस्था निद्रा, ऊ स्थितस्यापि या पुनश्चैतन्यमस्फुटीकुर्वती समुपजायते निद्रा सा प्रचला, नारकाणा 2 एवं च क्षणमात्रनिद्रालाभतोऽतिस्वस्थीभूतः 'स्मृति वा' पूर्वानुभूतस्मरणं 'रतिं वा' तदवस्थाऽऽसक्तिरूपां 'धृति वा' चित्तस्वास्थ्य शीतोष्ण'मति वा सम्यगीहापोहरूपाम् 'उपलभेत' प्राप्नुयात् , ततः 'शीतः' बाह्यशरीरप्रदेशशीतीभावात् , 'शीतीभूतः' शरीरान्तरपि वेदनाः * निर्वृतीभूतः सन् 'संकसमाणे' इति सम्-एकीभावेन कसन्-गच्छन् 'सातसौख्यवहुलश्चापि' सातम्-आहादस्तत्प्रधानं सौख्यं 6 सू० ८९ सातसौख्यं न त्वभिमानमात्रजनितमाहादविरहितं सातसौख्येन बहुलो-व्याप्तः सातसौख्यवहुलश्यापि 'विहरेत्' खेच्छया परिभ्र५ मेत् , 'एवमेव' अनेनैवानन्तरोदितदृष्टान्तप्रकारेण हे गौतम! 'असद्भावप्रस्थापनया' असद्भावकल्पनया नेदं वक्ष्यमाणमभूत् केवलं * नरकगतोष्णवेदनायाथात्म्यप्रतिपत्तयेऽसत्कल्यत इति भावः, उष्णवेदनेभ्यो नरकेभ्यो नैरयिकोऽनन्तरमुर्तितो विनिर्गतः सन् 6 'यानि इमानि प्रत्यक्षत उपलभ्यमानानि 'इह' मनुष्यलोके स्थानानि भवन्ति, तद्यथा-"गोलियालिंगाणि वा, सोडियालिंगाणि * वा, भिंडियालिंगाणि वा, एते अग्नेराश्रयविशेषाः, अन्ये तु देशभेदनीत्या पिष्टपाचनकाम्यादिभेदेनतेपांखरूपं कथयन्ति, तदप्यविरुद्धमेवेति, तैलाग्निरिति वा तुपाग्निरिति वा बुसाग्निरिति वा नडाग्निरिति वा, नड:-तृणविशेषः, 'अयागराणीति वा' आपत्यानपुंसकनिर्देश: अयआकरा इति वा, येपु निरन्तरं महामूपास्त्रयोदलं प्रक्षिप्याऽय उत्पाट्यते ते अयआकराः, एवं ताम्राकरा इति वा त्र-2 ॥१२३ ।। प्वाकरा इति वा सीसकाकरा इति वा रूप्याकरा इति वा सुवर्णाकरा इति वा हिरण्याकरा इति वा, सुवर्णहिरण्ययोरत्र विशेपो वर्णा Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिकृतो वेदितव्यः, इष्टकापाक इति वा कुम्भकारापाक इति वा कवेल्लुकापाक इति वा लोहकाराम्बरीष इति वा, अम्बरीष:-कोष्टकः, यश्रवाहचुल्ली इवेति, यत्रम्-इक्षुपीडनयत्रं तत्प्रधानः पाटको यत्रपाटकः तत्र चुल्ली यत्रेक्षुरसः पच्यते, इत्थम्भूतानि यानि मनुष्यलोके स्थानानि 'तप्तानि' वह्निसंपर्कतस्तप्तीभूतानि, तानि च कानिचिद् अयआकरप्रभृतीनि कदाचिदुष्णस्पर्शमात्राण्यपि संभ| वन्ति ततो विशेषप्रतिपादनार्थमाह-'समजोईभूयाई' प्राकृतत्वात्समशब्दस्य पूर्वनिपातः, 'ज्योतिःसमभूतानि' साक्षादग्निवर्णानि | जातानीति भावः, एतदेवोपमया स्पष्टयति-'फुल्लकिंशुकसमानानि' प्रफुल्लपलाशकुसुमकल्पानि 'उक्कासहस्साई' इति ये मूला-12 8 मितो वित्रुट्य वित्रुट्याग्निकणा: प्रसर्पन्ति ते उल्का इत्युच्यन्ते तासां सहस्राणि उल्कासहस्राणि मुञ्चन्ति ज्वालासहस्राणि विनिर्मु-18 मगारसहस्राणि प्रविक्षरन्ति 'अन्तरन्तहूहूयमानानि अतिशयेन जाज्वल्यमानानि, कचित् 'अंतो अंतो सुहयहयासणा' Pइति पाठः, 'अन्तरन्तः सुहुतहुताशनानि' सुष्टु हुतो हुताशनो येषु तानि तथा तिष्ठन्ति तानि पश्येत् दृष्ट्वा चावगाहेत, अवगाह्य च 'उष्णमपि' नरकोष्णवेदनाजनितं बहिःशरीरस्य परितापमपि प्रविनयेत्, नरकगतादुष्णस्पर्शादयआकरादिपूष्णस्पर्शस्यातीव मन्दत्वात् , एवं च सुखासिकाभावतस्तृषामपि क्षुधमपि दाहमपि अन्तःशरीरसमुत्थं प्रविनयेत् , तथा च सति तृडादिदोषापग2 मतो निद्रायेत वा प्रचलायेत वा स्मृति वा रतिं वा धृतिं वा उपलभेत, तत: शीत: शीतीभूतः सन् 'संकसन् संकसन्' संक्रामन् 2 संक्रामन् सातसौख्यवहुलो विहरेत् , अमीषां पदानामर्थः प्राग्वद्भावनीयः । एतावत्युक्ते भगवान् गौतमः पृच्छति-'भवे एयारूवे 8 सिया?' "स्यात्' संभाव्यते एतद् यथा भवेद् उष्णवेदनीयेषु नरकेषु एतद्रूपा उष्णवेदना?, भगवानाह-गौतम! नायमर्थः समर्थों यदुष्णवेदनीयेषु नरकेषु नैरयिका इति, अनन्तरं प्रतिपादितस्वरूपाया उष्णवेदनायाः अनिष्टतरिकामेव अप्रियतरिकामेव अमनोज्ञत Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4UCOSAUSIO54464 रिकामेव अमनआपतरिकामेव वेदना 'प्रत्यनुभवन्तः' प्रत्येकं वेदयमाना विहरन्ति ॥ सम्प्रति शीतवेदनीयेषु नरकेषु शीतवेदना-४३ प्रतिपक्षी खरूपं प्रतिपादयति–'सीयवेयणिज्जेसु णमित्यादि, शीतवेदनीयेषु भदन्त ! निरयेषु नैरयिकाः कीदृशीं शीतवेदना प्रत्यनुभवन्तो देशार विहरन्ति ?, स यथानामकः कर्मकरदारकः स्यात् तरुण इत्यादिविशेषणकदम्बकं प्राग्वत्तावद् यावत्संहन्यात् नवरमुत्कर्षतो मासमि- नारकाणां त्यत्र ब्रूयात् , ततः 'स' कर्मकरदारक: 'तम्' अयस्पिण्डमुष्णं स चोष्णो बाह्यप्रदेशमात्रापेक्षयाऽपि स्यादत आह-'उष्णीभूतं' स शीतोष्णसिनाऽग्निवर्णीभूतमिति भावः, अयोमयेन संदंशकेन गृहीत्वाऽसद्भावप्रस्थापनया शीतवेदनीयेपु नरकेपु प्रक्षिपेत् , तत: 'स' पुरुषः वेदना 'तम्' अयस्पिण्डमित्यादि प्राग्वत्तावद्वक्तव्यं यावद्विहरति, तश्चैवम्-'से णं तं उम्मिसियनिमिसियंतरेण पुणरवि पक्षुद्धरिस्सा * सू० ८९ मित्तिक पविरायमेव पासेजा पविलीणमेव पासेज्जा पविद्धत्थमेव पासेजा नो चेव णं संचाएइ अविरायं अविलीणं अविद्धत्थं पुणरवि पशुद्धरित्तए से जहानामए मत्तमायंगे जाव सायासोक्खबहुलेयावि विहरइत्ति' 'एवामेवे'त्यादि, अनेनैवाधिकृतदृष्टान्तो तेन प्रकारेण गौतम ! असद्भावप्रस्थापनया शीतवेदनीयेभ्यो नरकेभ्योऽनन्तरमुद्वृत्त: सन् यानीमानि मनुष्यलोके स्थानानि भवन्ति, 8 तद्यथा-हिमानि वा हिमपुखानि वा, सूत्रे नपुंसकनिर्देशः प्राकृतत्वात् , हिमपटलानि वा हिमकूटानि वा, एतान्येव पदानि नानादे शजविनेयानुप्रहाय पर्यायैर्व्याचष्टे-सीयाणि वा सीयपुंजाणि वा' इत्यादि, तानि पश्येत्, दृष्ट्वा तान्यवगाहेत, अवगाह्य 'शीत मपि' नरकजनितं शीतत्वमपि प्रविनयेत् , ततः सुखासिकाभावतस्तृपमपि क्षुधमपि ज्वरमपि नरकवेदनीयनरकसंपर्कसमुत्थं जा१ ड्यमपि प्रविनयेत् , ततः शीतत्वादिदोपापगमतोऽनुत्तरं स्वास्थ्यं लभमानो निद्रायेत वा प्रचलायेत वा स्मृति वा रति वा धृतिं वा ॥१२४॥ लभेत , ततो नरकगतजाड्यापगमाद् उष्णः, स च बहिःप्रदेशमात्रतोऽपि स्यात्तत आह-'उष्णीभूतः' अन्तरपि नरकगतजा Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यापगमात जातोत्साह इत्यर्थः, स एवंभूतः सन् यथास्वसुखं (संकसन् ) संक्रामन् सातसौख्यबहुलो विहरेत्, एवमुक्ते गौतम आह-भवेयारूवे सिया?' इत्यादि प्राग्वत् ॥ सम्प्रति नैरयिकाणां स्थितिप्रतिपादनार्थमाह इमीसे णं भंते ! रयणप्प० पु० रतियाणं केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ?, गोयमा ! जहण्णेणवि उकोसेणवि ठिती भाणितव्वा जाव अधेसत्तमाए.॥ (सू०९०)॥ इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए रतिया अणंतरं उव्वद्विय कहिं गच्छंति? कहिं उववज्जंति? किं नेरतिएसु उववज्जति ? किं तिरिक्खजोणिएसु उववजंति ?, एवं उव्वद्दणा भाणितव्वा जहा वकंतीए तहा इहवि जाच अहेसत्तमाए ॥ (सू० ९१) यणप्पयादि, रत्नप्रभापृथिवीनैरयिकाणां भदन्त ! कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता?, भगवानाह-गौतम! जघन्येन दश वर्षसहस्राणि उत्कर्षतः सागरोपमं, एवं शर्कराप्रभापृथिवीनैरयिकाणां जघन्यत एकं सागरोपममुत्कर्षतस्त्रीणि सागरोपमाणि, वालुकाप्रभापृथिवीनैरयिकाणां जघन्यतस्त्रीणि सागरोपमाणि उत्कर्षतः सप्त, पङ्कप्रभापृथिवीनैरयिकाणां जघन्यत: सप्त सागरोपमाणि उत्कपतो दश, धूमप्रभापृथिवीनैरयिकाणां जघन्यतो दश सागरोपमाणि उत्कर्षतः सप्तदश, तमःप्रभापृथिवीनैरयिकाणां जघन्यतः सप्तदश सागरोपमाणि उत्कर्षतो द्वाविंशतिः, तमस्तमःप्रभायां जघन्यतो द्वाविंशतिसागरोपमाणि उत्कर्षतस्त्रयस्त्रिंशत् , कचित् 'जहा पण्णवणाए ठिइपदे' इत्यतिदेशः सोऽप्येवमेवार्थतो भावनीयः, तदेवं प्रतिपृथिवि स्थितिपरिमाणमुक्तं, यदा तु प्रतिप्रस्तट स्थिति६ परिमाणं चिन्त्यते तदैवमवगन्तव्यम्-रत्नप्रभायां प्रथमे प्रस्तटे जघन्या स्थितिर्दशवर्षसहस्राणि १०००० उत्कृष्टा नवतिः ९००००, Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है द्वितीये प्रस्तटे एषैव शतगुणिता जघन्या उत्कृष्टा घ वेदितव्या, तद्यथा-जघन्या दशवर्षलक्षा १०००००० उत्कृष्टा नवतिवर्षलक्षाः ३ प्रतिपत्ती ९००००००, तृतीये प्रस्तटे जघन्यतो नवतिवर्षलक्षा उत्कृष्टा पूर्वकोटी, चतुर्थे जघन्या पूर्वकोटी उत्कृष्टा सागरोपमस्य दशमो भागः, र उद्देशः२ पञ्चमे जघन्या सागरोपमस्यैको दशभाग उत्कृष्टा द्वौ दशभागौ, पप्ठे जघन्या सागरोपमस्य द्वौ दशभागावुत्कृष्टा त्रयः, सप्तमे ज- नारकाणां | घन्या त्रयः सागरोपमस्य दशभागा उत्कृष्टाश्चत्वारः, अष्टमे जघन्या चत्वारः सागरोपमस्य दशभागा उत्कृष्टा पञ्च, नवमे जघन्या स्थितिः पञ्च सागरोपमस्य दशभागा उत्कृष्टा पट , दशमे जघन्या पट सागरोपमस्य दशभागा उत्कृष्टा सप्त, एकादशे जघन्या सप्त उत्कृ- सू० ९१ टाऽष्टौ, द्वादशे जघन्याऽष्टौ उत्कृष्टा नव, त्रयोदशे जघन्या नव सागरोपमस्य दशभागा उत्कृष्टा दश, परिपूर्णमेकं सागरोपममिति भावः । शर्कराप्रभायां प्रथमे प्रस्तटे जघन्या एकं सागरोपमं उत्कृष्टा एक सागरोपमं द्वौ च सागरोपमस्यैकादशभागी, द्वितीये प्रस्तटे जघन्या एकं सागरोपमं द्वौ सागरोपमस्यैकादशभागो उत्कृष्टा एकं सागरोपमं चत्वारः सागरोपमस्यैकादशभागाः, तृतीये जघन्या एकं सागरोपमं चत्वारः सागरोपमस्यैकादशभागा उत्कृष्टा एकं सागरोपमं पट सागरोपमस्यैकादशभागाः, चतुर्थे जघन्या एकं सागरोपमं पट सागरोपमस्यैकादशभागा उत्कृष्टा एकं सागरोपमम् अष्टौ सागरोपमस्यैकादशभागाः, पञ्चमे जघन्या एक सागरोपमं अष्टौ सागरोपमस्यैकादशभागाः उत्कृष्टा एकं सागरोपमं दश सागरोपमस्यैकादश भागाः, षष्ठे जघन्या एकं सागरोपम दश सागरोपमस्यैकादशभागा उत्कृष्टा द्वे सागरोपमे एकः सागरोपमस्यैकादशभागः, सप्तमे जघन्या द्वे सागरोपमे एकः सागरोपमस्यैकादशभाग उत्कृष्टा द्वे सागरोपमे त्रयः सागरोपमस्यैकादशभागाः, अष्टमे जघन्या दे सागरोपमे प्रयः सागरोपमस्सैकादशभागाः ॥१२५॥ उत्कृष्टा द्वे सागरोपमे पञ्च सागरोपमस्यैकादशभागाः, नवमे जघन्या द्वे सागरोपमे पच सागरोपमस्यैकादशभागाः उत्कृष्टा द्वे साग Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रोपमे सप्त सागरोपमस्यैकादशभागाः, दशमे जघन्या द्वे सागरोपमे सप्त सागरोपमस्यैकादशभागाः उत्कृष्टा द्वे सागरोपमे नव सागरोपमस्यैकादशभागाः, एकादशे जघन्या द्वे सागरोपमे नव सागरोपमस्यैकादशभागाः उत्कृष्टानि परिपूर्णानि त्रीणि सागरोपमाणि । वालुकाप्रभायां प्रथमे प्रस्तटे जघन्या स्थितिस्त्रीणि सागरोपमाणि उत्कृष्टा त्रीणि सागरोपमाणि चत्वारः सागरोपमस्य नवभागाः, द्वितीये जघन्या त्रीणि सागरोपमाणि चत्वारः सागरोपमस्य नवभागाः उत्कृष्टा त्रीणि सागरोपमाणि अष्टौ सागरोपमस्य नवभागाः, तृतीये जघन्या त्रीणि सागरोपमाणि अष्टौ सागरोपमस्य नवभागाः उत्कृष्टा चत्वारः सागरोपमाणि त्रयः सागरोपमस्य नवभागाः, चतुर्थे जघन्या चत्वारि सागरोपमाणि त्रयः सागरोपमस्य नवभागाः उत्कृष्टा चत्वारि सागरोपमाणि सप्त सागरोपमस्य नवभागाः, पञ्चमे जघन्या चत्वारि सागरोपमाणि सप्त सागरोपमस्य नवभागाः उत्कृष्टा पञ्च सागरोपमाणि द्वौ सागरोपमस्य नवभागौ, षष्ठे जघन्येन पञ्च सागरोपमाणि द्वौ सागरोपमस्य नवभागौ उत्कृष्टा पञ्च सागरोपमाणि षट् सागरोपमस्य नवभागाः, सप्तमे जघन्या पश्च सागरोपमाणि षट् सागरोपमस्य नवभागा: उत्कृष्टा षट् सागरोपमाणि एकः सागरोपमस्य नवभागः, अष्टमे जघन्या षट् सागरोपमाणि एक: सागरोपमस्य नवभागः उत्कृष्टा षट् सागरोपमाणि पञ्च सागरोपमस्य नवभागाः, नवमे जघन्या षट सागरोपमाणि पञ्च सागरोपमस्य नवभागाः उत्कृष्टा परिपूर्णानि सप्त सागरोपमाणि, एषोऽत्र तात्पर्यार्थ:-सागरोपमत्रयस्योपरि प्रतिप्रस्तट क्रमेण चत्वारः सागरोपमस्य नवभागा वर्द्धयितव्यास्ततो यथोक्तपरिमाणं भवति । पङ्कप्रभायां प्रथमे प्रस्तटे जघन्या स्थितिः सप्त सागरोपमाणि उत्कृष्टा सप्त सागरोपमाणि त्रयः सागरोपमस्य सप्तभागाः, द्वितीये जघन्या सप्त सागरोपमाणि त्रयः सागरोपमस्य सप्तभागाः उत्कृष्टा सप्त सागरोपमाणि षट् सागरोपमस्य सप्तभागाः, तृतीये जघन्या सप्त सागरोपमाणि षट् सागरोपमस्य सप्तभागा: उत्कृष्टाऽष्टौ सागरोप Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माणि द्वौ सागरोपमस्य सप्तभागौ, चतुर्थे जघन्याऽष्टौ सागरोपमाणि द्वौ सागरोपमस्य सप्तभागौ उत्कृष्टाऽष्टौं सागरोपमाणि पश्च ३ प्रतिपत्तौ * सागरोपमस्य सप्तभागाः, पञ्चमे जघन्याऽष्टौ सागरोपमाणि पञ्च सागरोपमस्य सप्तभागाः उत्कृष्टा नव सागरोपमाणि एकः सागरो- उद्देशः२ पमस्य सप्तभागः, षष्ठे जघन्या नव सागरोपमाणि एकः सागरोपमस्य सप्तभागः उत्कृष्टा नव सागरोपमाणि चत्वारः सागरोपमस्य 5 नारकाणां सप्तभागाः सप्तमे जघन्या नव सागरोपमाणि चत्वारः सागरोपमस्य सप्तभागाः उत्कृष्टा परिपूर्णानि दश सागरोपमाणि, अत्रापीयं स्थितिः भावना-सागरोपमसप्तकस्योपरि त्रयस्त्रयः सागरोपमस्य सप्तभागाः प्रतिप्रस्तट क्रमेण वर्द्धयितव्यास्ततो भवति यथोक्तं परिमाणमिति । सू० ९१ धूमप्रभायाः प्रथमे प्रस्तटे जघन्या स्थितिर्दश सागरोपमाणि उत्कृष्टा एकादश सागरोपमाणि द्वौ सागरोपमस्य पञ्चभागौ, द्वितीये जघन्या एकादश सागरोपमाणि द्वौ सागरोपमस्य पञ्चभागौ उत्कृष्टा द्वादश सागरोपमाणि चत्वारः सागरोपमस्य पञ्चभागाः, तृतीये जघन्या द्वादश सागरोपमाणि चत्वारः सागरोपमस्य पञ्चभागा: उत्कृष्टा चतुर्दश सागरोपमाणि एकः सागरोपमस्य पञ्चभागः, चतुर्थे * जघन्या चतुर्दश सागरोपमाणि एकः सागरोपमस्य पञ्चभागः उत्कृष्टा पञ्चदश सागरोपमाणि त्रयः सागरोपमस्य पञ्चभागाः, पञ्चमे जघन्या पञ्चदश सागरोपमाणि त्रय: सागरोपमस्य पञ्चभागाः उत्कृष्टा परिपूर्णानि सप्तदश सागरोपमाणि, एष चात्र भावार्थः-सागरोपमदशकस्योपरि प्रतिप्रस्तदं क्रमेणैकं सागरोपमं द्वौ च सागरोपमस्य पञ्चभागाविति वर्द्धयितव्यं ततो यथोक्तं परिमाणं भवति । तमःप्रभायां प्रथमे प्रस्तटे जघन्या स्थितिः सप्तदश सागरोपमाणि उत्कृष्टाऽष्टादश सागरोपमाणि द्वौ च सागरोपमस्य त्रिभागौ, द्वितीये है जघन्याऽष्टादश सागरोपमाणि द्वौ च सागरोपमस्य त्रिभागो उत्कृष्टा विंशतिः सागरोपमाणि एकः सागरोपमस्य त्रिभागः, तृतीये ज-। ॥१२६ ।। घन्या विंशतिः सागरोपमाणि एक: सागरोपमस्य त्रिभागः उत्कृष्टा द्वाविंशतिः सागरोपमाणि, अत्राप्येष तात्पर्यार्थ:-सप्तदश साग CONCE+ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राणामुपरि प्रतिप्रस्तट क्रमेणैकं सागरोपमं द्वौ च सागरोपमस्य · त्रिभागाविति वर्द्धयितव्यं, ततो यथोक्तं परिमाणं भवति । सप्तम्यां तु पृथिव्यामेक एव प्रस्तट इति तत्र पूर्वोक्तमेव परिमाणं -द्रष्टव्यम् ॥ सम्प्रति नैरयिकाणामुद्वर्त्तनामाह-'रयणप्पभापुढवि'इत्यादि, रत्नप्रभापृथिवीनैरयिका भदन्त! अनन्तरमुद्वत्त्य क गच्छन्ति ?, एतदेव व्याचष्टे-कोत्पद्यन्ते इत्यादि, यथा प्रज्ञापनायां [ यथा] व्युत्क्रान्तिपदे तथा वक्तव्यं यावत्तमस्तमायां, तच्चातिप्रभूतमिति तत एवावधार्यम् , एष च सद्धेपार्थः रत्नप्रभापृथिवीनैरयिका यावत्तमःप्रभापृथिवीनैरयिका अनन्तरमुद्वृत्ता नैरयिकदेवैकेन्द्रियविकलेन्द्रियसंमूछिमपञ्चेन्द्रियासङ्ख्येयवर्षायुष्कवर्जेषु शेषेषु तिर्यमनुष्येपूत्पद्यन्ते, सप्तमपृथिवीनैरयिकास्तु गर्भजतिर्यपञ्चेन्द्रियेष्वेव न शेषेषु ॥ सम्प्रति नरकेषु पृथिव्यादिस्पर्शखरूपमाह इमीसे णं भंते! रयण पु० नेरतिया केरिसयं पुढविफासं पञ्चणुभवमाणा विहरंति?, गोयमा! अणिढे जाव अमणामं, एवं जाव अहेसत्तमाए, इमीसे णं भंते ! रयण पु० नेरइया केरिसयं आउफासं पच्चणुब्भवमाणा विहरंति?, गोयमा! अणिढे जाव अमणाम, एवं जाव अहेसत्तमाए, एवं जाव वणप्फतिफासं अधेसत्तमाए पुढवीए । इमा णं भंते! रयणप्पभापुढवी दोचं पुढविं पणिहाय सव्वमहंतिया बाहल्लेणं सव्वक्खुड्डिया सव्वंतेसु?, हंता! गोयमा! इमा णं रयणप्पभापुढवी दोचं पुढविं पणिहाय जाव सव्वक्खुड्डिया सव्वंतेसु, दोचा णं भंते! पुढवी तचं पुढविं पणिहाय सव्वमहतिया बाहल्लेणं पुच्छा, हंता गोयमा! दोचा णं पुढवी जाव सव्वक्खुड्डिया सव्वंतेसु, एवं एएणं अभिलावेणं जाव छहिता पुढवी अहेसत्तमं पुढविं पणिहाय सव्वक्खुड्डिया Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ प्रतिपत्तौ * नरकाधि० उद्देशः २ सू० ९२ ९४ सव्वतेसु (सू० ९२) इमीसे णं भंते ! रयणप्प० पु० तीसाए नरयावाससयसहस्सेसु इकमिकसि निरयावासंसि सव्वे पाणा सव्वे भूया सब्वे जीवा सव्वे सत्ता पुढवीकाइयत्ताए जाव वणस्सइकाइयत्ताए नेरइयत्ताए उववन्नपुवा?, हंता गोयमा! असतिं अदुवा अणंतखुत्तो, एवं जाव अहेसतमाए पुढवीए णवरं जत्थ जत्तिया णरका।[इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पु० निरयपरिसामंतेसु जे पुढविकाइया जाव वणप्फतिकाइया ते णं भंते! जीवा महाकम्मतरा चेव महाकिरियतरा चेव महाआसवतरा चेव महावेयणतरा चेव ?, हंता गोयमा! इमीसे णं भिंते!] रयणप्पभाए पुढवीए निरयपरिसामंतेसु तं चेव जाव महावेदणतरका चेव, एवं जाव अधेसत्तमा] (सू०९३)। पुढवीं ओगाहित्ता, नरगा संठाणमेव बाहल्लं । विक्खंभपरिक्खेवे वपणो गंधो य फासो य॥१॥ तेसिं महालयाए उवमा देवेण होइ कायव्वा । जीवा य पोग्गला वक्कमति तह सासया निरया ॥२॥ उववायपरीमाणं अवहारुच्चत्तमेव संघयणं । संठाणवण्णगंधा फासा ऊसासमाहारे॥३॥ लेसा । विठी नाणे जोगुवओगे तहा समुग्घाया। तत्तो खुहापिवासा विउव्वणा वेयणा य भए ॥४॥ उववाओ पुरिसाणं ओवम्मं वेयणा' दुविहाए । उव्वद्दणपुढवी उ, उववाओ सव्वजीवाणं ॥५॥ एयाओ संगहणिगाहाओ॥ (सू०९४)॥ बीओ उद्देसओ समत्तो॥ यणपत्यादि, रत्नप्रभापृथिवीनैरयिका भदन्त । कीदृशं पृथिवीपर्श प्रत्यनुभवन्तो विहरन्ति ?, भगवानाह-गौतम! 'अणिठं ॥१२७॥ Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ने अप्पियं अमणन्नं अमणाम' अस्यार्थः प्राग्वत्, एवं प्रतिपृथिवि तावद्वक्तव्यं यावत्तमस्तमायाम् , एवमप्तेजोवायुवनस्पतिपसत्राण्यपि भावनीयानि, नवरं तेजःस्पर्श:-उष्णरूपतापरिणतनरककुड्यादिस्पर्शः परोदीरितवैक्रियरूपो वा वेदितव्यो न त साभाद् बादराग्निकायस्पर्शः, तत्रासम्भवात् ॥ 'इमीसे ण'मित्यादि, अस्यां भदन्त! रत्नप्रभायां पृथिव्यां त्रिंशति नरकावासशतसहस्रेषु एकस्मिन नरकावासे 'सर्वे प्राणाः' द्वीन्द्रिया 'सर्वे भूताः' वनस्पतिकायिका: 'सर्वे सत्त्वाः' पृथिव्यादयः "सर्वे जीवा' पञ्चेन्द्रियाः, उक्तश्च-"प्राणा द्वित्रिचतुः प्रोक्ता, भूताश्च तरवः स्मृताः । जीवाः पञ्चेन्द्रिया ज्ञेयाः, शेषाः सत्त्वा उदीरिताः ॥ १॥" प्रथिवीकायिकतया अकायिकतया वायुकायिकतया वनस्पतिकायिकतया नैरयिकतया उत्पन्नाः उत्पन्नपूर्वाः ?, भगवानाह-'हते'त्यादि. हन्तेति प्रत्यवधारणे गौतम! 'असकृत' अनेकवारम् , अथवा 'अनन्तकृत्वः' अनन्तान् वारान् , संसारस्थानादित्वात् , एवं प्रतिपृथिवि तावद्वक्तव्यं यावद्धःसप्तमी, नवरं यत्र यावन्तो नरकास्तत्र तावन्त उपयुज्य वक्तव्याः । कचिदिदमपि सूत्रं दृश्यते-"इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए निरयपरिसामंतेसु णं जे वायरपुढविकाइया जाव वणस्सइकाइया ते णं भंते! जीवा! महाकम्मतरा चेव महाकिरियतरा चेव महासवतरा चेव महावेयणतरा चेव, हंता गोयमा! जाव महावेयणतरा चेव, एवं जाव अहेसत्तमा ॥” अस्यां भदन्त! रम्नप्रभायां पृथिव्यां नरकपरिसमन्तेषु-नरकावासपर्यन्तवर्तिपु प्रदेशेषु बादरपृथिवीकायिकाः 'जाव वणप्फइकाइय'त्ति बादराकायिका बादरवायुकायिका बादरवनस्पतिकायिकास्ते भदन्त! जीवाः 'महाकम्मतरा चेव' महत्-प्रभूतमसातवेदनीयं कर्म 5 येषां ते महाकाणः, अतिशयेन महाकाणो महाकर्मतराः, 'चे।' त्यवधारणे, महाकर्मतरा एव कुत: ? इत्याह-'महाकिरियतरा चेव' महती क्रिया-प्राणातिपातादिकाऽऽसीत् प्राग् जन्मनि तद्भवेषु तदध्यवसायानिवृत्त्या येषां ते महाक्रियाः, अतिशयेन महाक्रिया Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ O महाक्रियतराः, 'निमित्तकारणहेतुषु सर्वासा विभक्तीनां प्रायो दर्शन मिति न्यायाद्धेतावत्र प्रथमा, ततोऽयमर्थ:-यतो महाक्रियतरा ३प्रतिपत्ती 5 एव ततो महाकर्मतरा एव, महाक्रियतरत्वमपि कुतः? इत्याह-महाश्रवतरा एवं' महान्त आश्रवाः-पापोपादानहेतव आरम्भा- नरकाधिक दयो येपामासीरन् ते महाश्रवाः, अतिशयेन महाश्रवा महाश्रवतराः, 'चेवेति पूर्ववत् , तदेवं यतो महाकर्मतरा एव ततो महावेदन उद्देशः २ तरा एव, नरकेषु क्षेत्रस्वभावजाया अपि वेदनाया अतिदुःसहत्वात् , भगवानाह-हंता गौतम 'ते णं जीवा महाकम्मतरा चेवे'त्यादि स० ९५ 5 प्राग्वत्, एवं प्रतिपृथिवि तावद्वक्तव्यं यावद्धःसप्तमी ॥ सम्प्रत्युद्देशकार्थसङ्ग्रहणिगाथा: प्राह-आसामक्षरमात्रगमनिका-प्रथमं 'पुढ-5 वीओ' इति पृथिव्योऽभिधेयास्तद्यथा-"कइ णं भंते पुढवीओ पण्णत्ताओ?" इत्यादि । तदनन्तरम् 'ओगाहित्ता नरगा' इति, र यस्यां पृथिव्यां यदवगाह्य यादृशाश्च नरकास्तदभिधेयं, यथा-"इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसयसहस्स बाहल्लाए उवरि केवइयं ओगाहित्ता" इत्यादि । ततो नरकाणां संस्थानं ततो बाहल्यं तदनन्तरं विष्कम्भपरिक्षेपौ ततो वर्णस्ततो गन्धहै स्तदन्तरं स्पर्शस्ततस्तेषां नरकाणां महत्तायामुपमा देवेन भवति कर्त्तव्या, ततो जीवाः पुद्गलाश्च तेषु नरकेषु व्युत्क्रामन्तीति, तथा शा श्वताशाश्वता नरका इति वक्तव्यं, तत उपपातो वक्तव्यः, तद्यथा-"इमीसे णं भंते। रयणप्पभाए पुढवीए कतो उववजंति ?" इ-* ६ त्यादि, तत एकसमयेनोत्पद्यमानानां परिमाणं ततोऽपहारस्तत उच्चत्वं तदनन्तरं संहननं ततः संस्थानं ततो वर्णस्तदनन्तरं गन्धस्ततः स्पर्शस्तत उच्छासवक्तव्यता तदनन्तरमाहारस्ततो लेश्या ततो दृष्टिस्तदनन्तरं ज्ञानं ततो योगस्ततोऽप्युपयोगस्तदनन्तरं समुद्घातस्ततः क्षुत्पिपासे ततो विकुर्वणा, तद्यथा-"रयणप्पभापुढविनेरइया णं भंते! किं एगत्तं पभू विउवित्तए पुहुत्तं पहू विउन्वित्तए" इत्यादि, ॥१२८॥ ॐ ततो वेदना ततो भयं तदनन्तरं पञ्चानां पुरुषाणामधःसप्तम्यामुपपातस्तत औपम्यं वेदनाया द्विविधायाः, उष्णवेदनाया: शीतवेदना- 8 Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ याश्चेत्यर्थः, ततः स्थितिर्वक्तव्या तदनन्तरमुर्त्तना ततः स्पर्शः पृथिव्यादिस्पर्शो वक्तव्यः, ततः सर्वजीवानामुपपातः, 'तद्यथा-इमीसे माणं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि निरयावासंसि सव्वे पाणा सव्वे भूया" इत्यादि॥ तृतीयप्रतिपत्तौ समाप्तो द्वितीयो नरकोद्देशकः ॥ सम्प्रति तृतीय आरभ्यते, तत्र चेदमादिसूत्रम् इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए नेरतिया केरिसयं पोग्गलपरिणामं पच्चणुभवमाणा विहन रंति?, गोयमा! अणिढं जाव अमणामं, एवं जाव अहेसत्तमाए एवं नेयव्वं ॥ एत्थ किर अतिवयंती नरवसभा केसवा जलचरा य । मंडलिया रायाणो जे य महारंभकोडंबी ॥१॥ भिन्नमुहुत्तो नरएसु होति तिरियमणुएसु चत्तारि । देवेसु अद्धमासो उक्कोस विउव्वणा भणिया ॥२॥ जे पोग्गला अणिट्ठा नियमा सो तेसि होइ आहारो । संठाणं तु जहण्णं नियमा हुंडं तु नायव्वं ॥३॥ असुभा विउवणा खलु नेरइयाणं तु होइ सव्वेसिं । वेउव्वियं सरीरं असंघयण हुंडसंठाणं ॥४॥ अस्साओ उववण्णो अस्साओ चेव चयइ निरयभवं । सव्वपुढवीसु जीवो सव्वेसु ठिइविसेसेसुं ॥५॥ उववाएण व सायं नेरइओ देवकम्मुणा वावि । अज्झवसाणनिमित्तं माणभावणं ॥६॥ नेरहयाणप्पाओ उक्कोसं पंचजोयणसयाई। दक्खणभिहयाणं वेयणसयसंपगाढाणं ॥ ७ ॥ अच्छिनिमीलियमेत्तं नत्थि सुहं दुक्खमेव पडिबद्धं । नरए नेरइयाणं अहोनिसं पच्चमाणाणं ॥८॥ तेयाकम्मसरीरा सुहुमसरीरा य जे अपज्जत्ता । जीवेण मुक्कमेत्ता Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -SGARHI ACANCISCRESCRIKAAICHACHAN वचंति सहस्ससो भेयं ॥९॥ अतिसीतं अतिउण्हं अतितहा अतिखुहा अतिभयं वा। निरए ३प्रतिपत्तौ नरकाधिक नेरइयाणं दुक्खसयाई अविस्सामं ॥ १०॥ एत्थ य भिन्नमुटुत्तो पोग्गल असुहा य होइ अस्सा उद्देशः ३ ओ। उववाओ उप्पाओ अच्छि सरीरा उ बोद्धव्वा ॥११॥ नारयउद्देसओ तइओ। सेतं नेरतिया ॥ (सू०९५) 'रयणप्पभे'त्यादि, रत्नप्रमापृथिवीनैरयिका भदन्त! कीदृशं 'पुद्गलपरिणाम' आहारादिपुद्गलविपाकं 'प्रत्यनुभवन्तः' प्रत्येक वेदयमाना विहरन्ति', भगवानाह-गौतम! अनिष्टमित्यादि प्राग्वत् , एवं प्रतिपृथिवि तावद्वक्तव्यं यावदधःसप्तमी, एवं वेदनालेश्यानामगोत्रारतिभयशोकक्षुत्पिपासाव्याधिउच्छ्रासानुतापक्रोधमानमायालोभाहारभयमैथुनपरिप्रहसज्ञासूत्राणि वक्तव्यानि, अत्र सङ्घइणिगाथे-"पोग्गलपरिणामे वेयणा य लेसा य नाम गोए य । अरई भए य सोगे खुहा पिवासा य वाही य॥१॥ उस्सासे * अणुतावे कोहे माणे य मायलोभे य । चत्तारि य सण्णाओ नेरइयाणं तु परिणामे ॥ २॥" सम्प्रति सप्तमनरकपृथिव्यां ये गच्छन्ति तान् प्रतिपादयति-इह परिग्रहसज्ञापरिणामवक्तव्यतायां चरमसूत्रं सप्तमनरकपृथ्वीविषयं तदनन्तरं चेयं गाथा तत: 'एत्थे' त्यनन्तरमुक्ताऽधःसप्तमी पृथिवी परामृश्यते, 'अत्र' अधःसप्तमनरकपृथिव्यां 'किल' इत्याप्तवादसूचने आप्तवचनमेतदिति भावः, 'अतिव्रजन्ति' अतिशयेन-बाहुल्येन गच्छन्ति नरवृपभाः 'केशवा' वासुदेवाः 'जलचराश्च' तन्दुलमत्स्यप्रभृतयः 'माण्डलिकाः' वसु ॥१२९॥ प्रभृतय इव 'राजानः' चक्रवर्तिनः सुभूमादय इव ये च महारम्भाः कुटुम्बिन:-कालसौकरिकादय इव ॥ सम्प्रति नरकेषु प्रस्तावा Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्तिर्यगादिषु चोत्तरवैक्रियावस्थानकालमानमाह-भिन्नः-खण्डो मुहूत्तों भिन्नमुहूर्त: अन्तर्मुहूर्त्तमित्यर्थः, नरकेपूत्कर्पतो विकुर्वणास्थितिकालः, निर्यकानप्येष चत्वार्यन्तर्महानि, देवेष्वर्द्धमास उत्कर्पतो विकुर्वणाऽवस्थानकालः भणितः एप उत्कर्पतो विकुर्वणाऽवस्थानकालो भणिततीर्थकरगणधरैः॥ सम्प्रति नरकेष्वाहारादिस्वरूपमाह-ये पुद्गला अनिष्टा नियमात्स तेषां भवत्याहारः, 'संस्थानं त' संस्थानं पुनस्तेषां हण्डं हण्डमपि जघन्यमतिनिकृष्टमनिष्टं वेदितव्यं, एतच भवधारणीयशरीरमधिकृत्य वेदितव्यम्, उत्तरवैक्रियसंस्थानस्याग्रे वक्ष्यमाणत्वात, इयं च प्रागुक्तार्थसङ्ग्रहगाथा ततो न पुनरुक्तदोषः ॥ सम्प्रति विकुर्वणाखरूपमाह-सर्वेषां नैरयिकाणां विकर्वणा खल, निश्चितमशभा भवति, यद्यपि शुभं विकुर्विष्याम इति ते चिन्तयन्ति तथाऽपि तथाविधप्रतिकुलकर्मोदयतस्तेपामशभैव विकर्वणा भवति. तदपि च वैक्रियं-उत्तरवैक्रियशरीरमसंहननम् , अस्थ्यभावात् , उपलक्षणमेतत् भवधारणीयं च वैक्रियशरीरमसंहननं, तथा हुण्डसंस्थानं तत् उत्तरवैक्रियशरीरं, हुण्डसंस्थाननाम्न एव भवप्रत्ययत उदयभावात् ॥ कश्चित् जीव: 'सर्वास्वपि पृथिवीयु' रत्नप्रभादिपु तमस्तमापर्यन्तास सर्वेष्वपि च 'स्थितिविशेषेषु' जघन्यादिरूपेषु 'असातः' असातोदयकलित उपपन्नः, उत्पत्तिकालेऽपि प्राग्भवमरणकालानुभूतमहादुःखानुवृत्तिभावात् , उत्पत्त्यनन्तरमपि 'असात एव' असातोदयकलित एव सकलमपि निरयभवं 'त्यजति अपयति, न तु जातुचिदपि सुखलेशमप्यास्वादयति ॥ आह-किं तत्र कदाचित्सातोदयोऽपि भवति येनेदमुच्यते?, उच्यते, भवति, तथा चाह-उववाएण' इत्यत्र सप्तम्यर्थे तृतीया, उपपातकाले 'सातं' सातवेदनीयकर्मोदयं कश्चिद्वेदयते, यः प्राग्भवेदाघच्छेदादिव्यतिरेकेण मरणमुपगतोऽनतिसक्र्ष्टिाध्यवसायी समुत्पद्यते, तदानीं हि न तस्य प्राग्भवानुबद्धमाधिरूपं दुःखें नापि क्षेत्रस्वभावजं नापि परमाधार्मिककृतं नापि परस्परोदीरितं तत एवंविधदुःखाभावादसौ सातं कश्चित् वेदयते इत्युच्यते, 'देवकम्मुणा वावि' इति देवकर्मणा Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26LSSSSS -CG वचंति सहस्ससो भेयं ॥९॥ अतिसीतं अतिउण्हं अतितण्हा अतिखहा अतिभयं वा । निरए ३प्रतिपत्तौ नरकाधिक नेरइयाणं दुक्खसयाई अविस्सामं ॥१०॥ एत्थ य भिन्नमुहत्तो पोग्गल असुहा य होइ अस्सा उद्देशः३ ओ। उववाओ उप्पाओ अच्छि सरीरा उ बोद्धव्वा ॥११॥ नारयउद्देसओ तइओ॥ सेतै नेरतिया ॥ (सू० ९५) 'रयणप्पभेत्यादि, रत्नप्रभापृथिवीनैरयिका भदन्त' कीदृशं 'पुद्गलपरिणाम' आहारादिपुद्गलविपाकं 'प्रत्यनुभवन्तः प्रत्येक वेदयमाना विहरन्ति ?, भगवानाह-गौतम! अनिष्टमित्यादि प्राग्वत् , एवं प्रतिपृथिवि तावद्वक्तव्यं यावदधःसप्तमी, एवं वेदनालेश्यानामगोत्रारतिभयशोकक्षुत्पिपासाव्याधिउच्छासानुतापक्रोधमानमायालोभाहारभयमैथुनपरिप्रहसञ्ज्ञासूत्राणि वक्तव्यानि, अत्र सन-है हणिगाथे-"पोग्गलपरिणामे वेयणा य लेसा य नाम गोए य । अरई भए य सोगे खुद्दा पिवासा य वाही य ॥ १॥ उस्सासे अणुतावे कोहे माणे य मायलोभे य । चत्तारि य सण्णाओ नेरइयाणं तु परिणामे ॥ २॥” सम्प्रति सप्तमनरकपृथिव्यां ये गच्छन्ति : तान् प्रतिपादयति-इह परिग्रहसज्ञापरिणामवक्तव्यतायां चरमसूत्रं सप्तमनरकपृथ्वीविषयं तदनन्तरं चेयं गाथा ततः 'एत्थे' त्यन- न्तरमुक्ताऽधःसप्तमी पृथिवी परामृश्यते, 'अत्र' अधःसप्तमनरकपृथिव्यां 'किल' इत्याप्तवादसूचने आप्तवचनमेतदिति भावः, 'अतिव्रजन्ति' अतिशयेन-बाहुल्येन गच्छन्ति नरवृषभाः 'केशवाः' वासुदेवाः 'जलचराश्च' तन्दुलमत्स्यप्रभृतयः 'माण्डलिकाः' वसुप्रभृतय इव 'राजानः' चक्रवर्तिनः सुभूमादय इव ये च महारम्भाः कुटुम्बिन:-कालसौकरिकादय इव ॥ सम्प्रति नरकेषु प्रस्तावा 54054064054064050 ॥१२९॥ SNESSASSES Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिर्यगादिषु चोत्तरवैक्रियावस्थानकालमानमाह - भिन्नः - खण्डो मुहूर्त्तो भिन्नमुहूर्त्त : अन्तर्मुहूर्त्तमित्यर्थः, नरकेषूत्कर्षतो विकुर्वणास्थितिकाल:, तिर्ययानुष्येषु चत्वार्यन्तर्मुहूर्त्तानि देवेष्वर्द्धमास उत्कर्षतो विकुर्वणाऽवस्थानकाल: भणितः एष उत्कर्षतो विकुर्वणाऽवस्थानकालो भणितस्तीर्थकरगणधरैः ॥ सम्प्रति नरकेष्वाहारादिखरूपमाह - ये पुद्गला अनिष्टा नियमात्स तेषां भवत्याहारः, 'संस्थानं तु' संस्थानं पुनस्तेषां हुण्डं हुण्डमपि जघन्यमतिनिकृष्टमनिष्टं वेदितव्यं एतच्च भवधारणीयशरीरमधिकृत्य वेदितव्यम्, उत्तरवैक्रियसंस्थानस्याये वक्ष्यमाणत्वात् इयं च प्रागुक्तार्थसङ्ग्रहगाथा ततो न पुनरुक्तदोष: ॥ सम्प्रति विकुर्वणास्वरूपमाह - सर्वेषां नैरयिकाणां विकुर्वणा 'खलु' निश्चितमशुभा भवति, यद्यपि शुभं विकुर्विष्याम इति ते चिन्तयन्ति तथाऽपि तथाविधप्रतिकूलकर्मोदयतस्तेषामशुभैव विकुर्वणा भवति, तदपि च वैक्रियं - उत्तरवैक्रियशरीरमसंहननम्, अस्थ्यभावात् उपलक्षणमेतत् भवधारणीयं च वैक्रियशरीरमसंहननं, तथा हुण्डसंस्थानं तत् उत्तरवैक्रियशरीरं, हुण्डसंस्थाननाम्न एव भवप्रत्ययत उदयभावात् ॥ कश्चित् जीव: 'सर्वास्वपि पृथिवीषु' रत्नप्रभादिषु तमतमापर्यन्तासु सर्वेष्वपि च 'स्थितिविशेषेषु' जघन्यादिरूपेषु 'असातः' असातोदयकलित उपपन्नः, उत्पत्तिकालेऽपि प्राग्भवमरणकालानुभूतमहादुःखानुवृत्तिभावात् उत्पत्त्यनन्तरमपि 'असात एव' असातोदयकलित एव सकलमपि निरयभवं त्यजति' क्षपयति, न तु जातुचिदपि सुखलेशमप्यास्वादयति || आह- किं तत्र कदाचित्सातोदयोऽपि भवति येनेदमुच्यते ?, उच्यते, भवति, तथा चाह - 'उववाएण' इत्यत्र सप्तम्यर्थे तृतीया, उपपातकाले 'सातं' सातवेदनीयकर्मोदयं कश्चिद्वेदयते, यः प्राग्भवे दाघच्छेदादिव्यतिरेकेण मरणमुपगतोऽनतिसङ्किष्टाध्यवसायी समुत्पद्यते, तदानीं हि न तस्य प्राग्भवानुबद्धमाधिरूपं दुःखं नापि क्षेत्रस्वभावजं नापि परमाधार्मिककृतं नापि परस्परोदीरितं तत एवंविधदुःखाभावादसौ सातं कश्चित् वेदयते इत्युच्यते, 'देवकम्मुणा वावि' इति देवकर्म्मणा Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SGAR पूर्वसाङ्गतिकदेवप्रयुक्तया क्रियया, तथाहि-गच्छति पूर्वसाङ्गतिको देवः पूर्वपरिचितस्य नैरयिकस्य वेदनोपशमनार्थ यथा बलदेवः क-5 ३ प्रतिपत्तौ ष्णवासुदेवस्य, स च वेदनोपशमो देवकृतो मनाकालमात्र एव भवति, तत ऊर्व नियमाक्षेत्रखभावजाऽन्योऽन्या वा वेदना प्रवर्त्तते, ६ नरकाधिक * तथास्वाभाव्यात् , 'अज्झवसाणनिमित्त' मिति अध्यवसाननिमित्तं सम्यक्त्वोत्पादकाले तत ऊर्ध्वं कदाचित्तथाविधविशिष्टशुभाध्यव- उद्देशः३ ॐ सायप्रत्ययं कश्चिद् नैरयिको बाह्यक्षेत्रस्वभावजवेदनासद्भावेऽपि सातोदयमेवानुभवति, सम्यक्त्वोत्पादकाले हि जात्यन्धस्य चक्षुर्लाभ इव 5 सू०९६ महान् प्रमोद उपजायते, तदुत्तरकालमपि कदाचित्तीर्थकरगुणानुमोदनाद्यनुगतां विशिष्टां भावनां भावयतः, ततो बाह्यक्षेत्रस्वभावजवेदनासद्भावेऽप्यन्तः सातोदयो विज़म्भमाणो न विरुध्यते, 'अहवा कम्माणुभावेण मिति अथवा 'कर्मानुभावेन' बाह्यतीर्थकरजन्मदीक्षाज्ञानापवर्गकल्याणसंभूतिलक्षणबाह्यनिमित्तमधिकृत्य तथाविधस्य च सातवेदनीयस्य कर्मणोऽनुभावेन-विपाकोदयेन कश्वित्सातं वेदयने, न चैतद्व्याख्यानमनार्ष यत उक्तं वसुदेवचरिते, इह नैरयिकाः कुम्भ्यादिषु पच्यमानाः कुन्तादिभिर्भिद्यमाना वा भयोबस्तास्तथाविधप्रयत्नवशादूर्द्धमुत्प्लवन्ते, ततस्तदुत्पातपरिमाणप्रतिपादनार्थमाह-नैरयिकाणां दुःखेनाभिद्रुतानां-सर्वासना व्याप्तानां 'वेदनाशतसंप्रगाढानां' वेदनाशतानि-अपरिमिता वेदनाः संप्रगाढानि-अवगाढानि येषां ते वेदनाशतसंप्रगाढाः सुखादिदर्शनात् निष्ठान्तस्य परनिपातः, तेपां हेतुहेतुमद्भावश्चात्र, यतो वेदनाशतसंप्रगाढास्ततो दुःखेनाभिट्ठताः, तेषां जघन्यत उत्पातो गव्यूतमात्रम् , एतच्च संप्रदायादवसीयते, तथा च दृश्यते कचिदेवमपि पाठ:-"नेरइयाणुप्पाओ गाउय उकोस. पंचजोयणसयाई" इति, उत्कर्षतः पञ्च योजनशतानि इति । दुःखेनाभिहतानामित्युक्तं ततो दुःखमेव निरूपयति-नरके नैरयिकाणामुष्णवेदनया शीतवेदनया ॥१३०॥ वाऽहर्निशं पच्यमानानां न 'अक्षिनिमीलनमात्रमपि' अक्षिनिकोचकालमात्रमपि अस्ति सुखं, किन्तु दु:खमेव केवलं 'प्रतिबद्धम् Waturemamaasumerem wine GAR & GS + C Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुबद्धं सदाऽनुगतमिति भावः ॥ अथ यत्तेषां वैक्रियशरीरं तत्तेपां मरणकाले कथं भवति इति तन्निरूपणार्थमाह-तैजसकामणशरीराणि यानि 'सूक्ष्मशरीराणि' (च) सूक्ष्मनामकम्मोदयवतां पर्याप्तानामपर्याप्तानां चौदारिकशरीराणि वैक्रियाहारकशरीराणि च तेपामपि प्रायो मांसचक्षुरग्राह्यतया सूक्ष्मत्वात् तथा यानि 'अपर्याप्तानि' अपर्याप्तशरीराणि तानि जीवेन मुक्तमात्राणि सन्ति सहस्रशो भेदं ब्रजन्ति विसकलितास्तत्परमाणुसङ्घाता भवन्तीत्यर्थः ॥ एतासामेव गाथानां संग्राहिकां गाथामाह-एत्थ' इति पदोपलक्षिता प्रथमा द्वितीया 'भिन्नमुहत्तो' इति तृतीया 'पोग्गला' इति 'जे पोग्गला अणिहा' इत्यादि चतुर्थी 'अशुभा' इति (जे) 'असुभा विउव्वणा खलु' इत्यादि, एवं शेषपदान्यपि भावनीयानि ॥ तृतीयप्रतिपत्तौ तृतीयो नरकोद्देशकः समाप्तः ॥ तदेवमुक्तो |नारकाधिकारः, सम्प्रति तिर्यगधिकारो वक्तव्यः, तत्र चेदमादिसूत्रम् से किं तं तिरिक्खजोणिया?, तिरिक्खजोणिया पंचविधा पण्णत्ता, तंजहा-एगिदियतिरिक्खजोणिया वेइंदियतिरिक्खजोणिया तेइंदियतिरिक्खजोणिया चउरिदियतिरिक्खजोणिया पंचिंदियतिरिक्खजोणियाय। से किं तं एगिदियतिरिक्खजोणिया?, २ पंचविहा पण्णत्ता, तंजहापुढविकाइयएगिदियतिरिक्खजोणिया जाव वणस्सइकाइयएगिदियतिरिक्खजोणिया । से किं तं पुढविक्काइयएगिदियतिरिक्खजोणिया?, २ दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-सुहुमपुढविकाइयएगिंदियतिरिक्खजोणिया बादरपुढविकाइयएगिदियतिरिक्खजोणिया य । से किं तं सुहुमपुढविकाइयएगिदियतिरि० १, २ दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-पजत्तसुहम० अपज्जत्तसुहुम से तं सुहुमा। Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ प्रतिपत्तौ तिर्यगधि० उद्देशः१ सू० ९६ 551150-15ॐॐॐ-55m से किं तं यादरपुढविकाइय०१, २ दुविहा पण्णसा, संजहा-पज्जत्सवादरपु० अपजसयादरपु०, से तं वायरपुढविकाइयएगिदिय० । से तं पुढवीकाइयएगिदिया । से किं तं आउकाइयएगिदिय०१, २ दुविहा पण्णसा, एवं जहेव पुढविकाइयाणं तहेव, वाउकायभेदो एवं जाव वणस्सतिकाइया से तं वणस्सइकाएगिदियतिरिक्खासे किं तं येइंदियतिरिक्ख०?, २ दुविधा पण्णत्ता, तंजहा-पज्जत्तकवेइंदियति० अपज्जत्तयेइंदियति०, से तं वेइंदियतिरि० एवं जाव चरिंदिया। से किं तं पंचेंदियतिरिक्खजोणिया?, २ तिविहा पण्णत्ता, तंजहा-जलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया थलयरपंचेंदियतिरिक्खजो० खहयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया।से किं तं जलयरपंचेदियतिरिक्खजोणिया?, २ दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-समुच्छिमजलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया य ग भवतियजलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया य ।से किं तं समुच्छिमजलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिता?, २ दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-पज्जत्तगसमुच्छिम० अपज्जत्तगसंमुच्छिम० जलयरा, से तं समुच्छिमा पंचिंदियतिरिक्ख० से किं तं गम्भवतियजलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया?, २ दुविधा पण्णत्ता, तंजहा-पजत्तगगम्भवतिय० अपज्जत्तगभ० से तं गम्भवतियजलयर०, से तं जलयरपंचेंदियतिरि० । से किं तं थलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिता?, २ दुविधा पण्णत्ता, तंजहा-चउप्पयथलयरपंचेंदिय० परिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिता। AKAASHARESHAGRICAGARSAGAR ॥१३१॥ Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RASA से किं तं चउप्पद्यलयरपंचिंदिय०? चउप्पय० दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-समुच्छिमचउप्पयथलयरपंचेंदिय० गन्भवतियचउप्पयथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिता य, जहेव जलयराणं तहेव चउक्कतो भेदो, सेत्तं चउप्पथलयरपंचेंदिय० । से किं तं परिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्ख०१, २दविहा पण्णत्ता, तंजहा-उरगपरिसप्पथलयरपंचादयतिरिक्खजोणिता भुयगपरिसप्पथलय रपंचेंदियतिरिक्खजोणिता। से किं तं उरगपरिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिता?, उरगपरि० दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-जहेव जलयराणं तहेव चउक्कतो भेदो, एवं भुयगपरिसप्पाणवि भाणितन्वं, से तं भुयगपरिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिता, से तं थलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिता। से किं तं खहयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया?, खह० २ दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-समुच्छिमखहयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिता गम्भवक्कंतियखहयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिता य । से किं तं समुच्छिमखहयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिता?, संमु० २ दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-पज्जत्तगसंमुच्छिमखहयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिंया अपजत्तगसमुच्छिमखहयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया य, एवं गन्भवतियावि जाव पजत्तगगन्भवतियावि जाव अपजत्तगगन्भवतियावि खहयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं भंते! कतिविधे जोणिसंगहे पण्णत्ते?, गोयमा! तिविहे जोणिसंगहे Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्णत्ते, तंजहा-अंडया पोयया संमुच्छिमा, अंडया तिविधा पण्णत्ता, तंजहा-इत्थी पुरिसा ३प्रतिपत्ती गपुंसगा, पोतया तिविधा पण्णत्ता, तंजहा-इत्थी पुरिसा णपुंसया, तत्थ णं जे ते संमुच्छिमा तिर्यगधि० ते सव्वे णपुंसका ॥ (सू०९६) उद्देशः १ 'से किं त'मित्यादि, अथ के ते तिर्यग्योनिकाः?, सूरिराह-तिर्यग्योनिकाः पञ्चविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-एकेन्द्रिया इत्यादि सूत्र सू० ९७ प्रायः सुगम, केवलं भूयान पुस्तकेषु वाचनाभेद इति यथाऽवस्थितवाचनाक्रमप्रदर्शनार्थमक्षरसंस्कारमानं क्रियते-एकेन्द्रिया यावत्पॐ श्चेन्द्रियाः । अथ के त एकेन्द्रियाः ?, एकेन्द्रियाः पञ्चविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-पृथिवीकायिका यावद्वनस्पतिकायिकाः । अथ के ते ६ पृथिवीकायिका: १, पृथिवीकायिका द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-सूक्ष्मपृथिवीकायिकाश्च बादरपृथिवीकायिकाश्च । अथ के ते सूक्ष्मपृथि वीकायिकाः १, सूक्ष्मपृथिवीकायिका द्विविधाः प्रज्ञप्तास्तद्यथा-पर्याप्तका अपर्याप्तकाश्च । अथ के ते वादरपृथिवीकायिकाः?, वादरपुथि-* ६ वीकायिका द्विविधाः प्रज्ञप्तास्तद्यथा-पर्याप्तका अपर्याप्तकाश्च, एवं तावद्वक्तव्यं यावद्वनस्पतिकायिकाः । अथ के ते द्वीन्द्रिया:?, द्वी-5 न्द्रिया द्विविधाः प्रज्ञप्ताः-पर्याप्तका अपर्याप्तकाश्च, एवं त्रीन्द्रियचतुरिन्द्रिया अपि वक्तव्याः । अथ के ते पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः, पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकात्रिविधाः प्रज्ञप्तास्तद्यथा-जलचराः स्थलचराः खचराश्च । अथ के ते जलचराः?, जलचरा द्विविधाः प्रज्ञप्तास्तद्यथा-संमूछिमा गर्भव्युत्क्रान्तिकाश्च । अथ के ते संमूच्छिमा. १, संमूच्छिमा द्विविधाः प्रज्ञप्तास्तद्यथा-पर्याप्तका अपर्याप्तकाश्च । अथ ॥१३२॥ १ अण्डजव्यतिरिक्ता सर्वेऽपि जरायुजा अजरायुजा वा गर्भव्युत्क्रान्तिका पञ्चेन्द्रिया अत्रैवान्तर्भावनीया इति न चतुर्विधा, समाधास्यति चैवमग्रे, केवलमत्र जरायुजतया पक्षिणामप्रसिद्धे न समाधेरादति . Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के ते गर्भव्युत्क्रान्तिकाः?, गर्भव्युत्क्रान्तिका द्विविधाः प्रज्ञप्तास्तद्यथा-पर्याप्तका अपर्याप्तकाश्च, एवं चतुष्पदा उरःपरिसर्पा भुजपरिसपीः पक्षिणश्च प्रत्येक चतुष्प्रकारा वक्तव्याः ॥ सम्प्रति पक्षिणां प्रकारान्तरेण भेदप्रतिपादनार्थमाह-पक्खिणं (खहयरपंचिंदियतिरि०) भंते !' इत्यादि, पक्षिणां भदन्त! 'कतिविधः' कतिप्रकार: 'योनिसङ्ग्रहः' योन्या सङ्ग्रहणं योनिसहो योन्युपलक्षित ग्रहणमित्यर्थः (प्रज्ञप्तः?), भगवानाह-गौतम त्रिविधो योनिसङ्ग्रहः प्रज्ञप्तस्तद्यथा-अण्डजा-मयूरादयः पोतजा-वागुल्यादयः संमूच्छिमाः खजरीटादयः, अण्डजानिविधाः प्रज्ञप्तास्तद्यथा-स्त्रियः पुरुषा नपुंसकाश्च, पोतजास्त्रिविधाः प्रज्ञप्तास्तद्यथा-स्त्रियः पुरुषा नपुंसकाच, तत्र ये ते संमूच्छिमास्ते सर्वे नपुंसकाः, संमूच्छिमानामवश्यं नपुंसकवेदोदयभावात् ॥ एतेसि णं भंते! जीवाणं कति लेसाओ पाणत्ताओ?, गोयमा! छल्लेसाओ पण्णत्ताओ, तंजहा -कण्हलेसा जाव सुक्कलेसा ॥ ते णं भंते! जीवा किं सम्मदिट्ठी मिच्छदिट्ठी सम्मामिच्छदिट्ठी?, गोयमा! सम्मदिट्ठीवि मिच्छदिट्ठीवि सम्मामिच्छदिट्ठीवि ॥ ते णं भंते! जीवा किं णाणी अपणाणी?, गोयमा! णाणीवि अण्णाणीवि तिण्णि णाणाइं तिणि अण्णाणाई भयणाए ॥ ते णं भंते ! जीवा किं मणजोगी वइजोगी कायजोगी?, गोयमा! तिविधावि ॥ ते णं भंते ! जीवा किं सागारोवउत्ता अणागारोवउत्ता?, गोयमा! सागारोवउत्तावि अणागारोवउत्तावि ॥ ते णं भंते! जीवा' कओ उववजंति किं नेरतिएहिंतो उव० तिरिक्खजोणिएहिंतो उव०१, पुच्छा, गोयमा! असंखेजवासाउयअकम्मभूमगअंतरदीवगवजेहिंतो उववजंति ॥ तेसि णं भंते! जीवाणं Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३प्रतिपत्ती तिर्यग्योन्यधि० उद्देशः १ सू० ९७ केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता?, गोयमा! जहण्णणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेजतिभागं ॥ तेसि णं भंते! जीवाणं कति समुग्धाता पण्णत्ता?, गोयमा! पंच समुग्घाता पपणत्ता, तंजहा-वेदणासमुग्घाए जाव तेयासमुग्घाए॥ ते णं भंते! जीवा मारणांतियसमुग्धाएणं किं समोहता मरंति असमोहतामरंति?, गोयमा! समोहतावि म० असमोहयावि मरंति॥ते णं भंते! जीवा अणंतरं उव्वहिता कहिं गच्छंति? कहिं उववज्जति? किं नेरतिएसु उववज्जंति? तिरिक्ख० पुच्छा, गोयमा! एवं उव्वद्दणा भाणियब्वा जहा वकंतीए तहेव ॥ तेसि णं भंते! जीवाणं कति जातीकुलकोडिजोणीपमुहसयसहस्सा पण्णत्ता?, गोयमा! बारस जातीकुलकोडीजोणीपमुहसयसहस्सा ॥ भुयगपरिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं भंते! कतिविधे जोणीसंगहे पण्णत्ते?, गोयमा! तिविहे जोणीसंगहे पण्णत्ते, तंजहा-अंडगा पोयगा संमुच्छिमा, एवं जहा खहयराणं तहेव, णाणतं जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं पुवकोडी, उव्वहित्ता दोचं पुढविं गच्छंति, णव जातीकुलकोडीजोणीपमुहसतसहस्सा भवंतीति मक्खायं, सेसं तहेव ॥ उरगपरिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं भंते! पुच्छा, जहेव भुयगपरिसप्पाणं तहेव, णवरं ठिती जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं पुव्वकोडी, उव्वहिता जाव पंचमिं पुढविं गच्छंति, दस जातीकुलकोडी॥चउप्पयथलयरपंचेंदियतिरिक्ख० पुच्छा, गोयमा! दुविधे पण्णत्ते, तंजहा HICHOLARSANSARIGANGACASSAGAC, ॥१३३॥ Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जराज्या (पोयया) य संमुच्छिमा य, (से किं तं ) जराउया ( पोयया ) ?, २ तिविधा पण्णत्ता, तंजा - इत्थी पुरिसा णपुंसका, तत्थ णं जे ते संमुच्छिमा ते सव्वे णपुंसया । तेसि णं भंते! aari कति लेस्साओ पण्णत्ताओ?, सेसं जहा पक्खीणं, णाणत्तं ठिती जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उकोसेणं तिन्नि पलिओवमाई, उव्वहित्ता चउत्थि पुढविं गच्छंति, दस जातीकुलकोडी | जलयरपंचेंद्रियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, जहा भुयगपरिसप्पाणं णवरं उव्वहित्ता जाव अधेसत्तमं पुcfi अद्धतेरस जाती कुलकोडीजोणीपमुह० जाव प० ॥ चरिंद्रियाणं भंते! कति जाती कुलकोडीजोणी मुह संतसहस्सा पण्णत्ता?, गोयमा ! नव जाईकुलकोडीजोणीपमुहसयसहस्सा [जाव] समक्खाया। तेइंदियाणं पुच्छा, गोयमा ! अट्ठजाईकुल जावमक्खाया। बेइंद्रियाणं भंते! कइ जाई ०?, पुच्छा, गोयमा ! सत्त जाई कुलकोडीजोणी पमुह० ॥ ( सू० ९७ ) "एएसि ण' मित्यादि, 'एतेषां' पक्षिणां भदन्त । जीवानां कति लेश्याः प्रज्ञप्ता: ?, भगवानाह - गौतम ! षड् लेश्याः प्रज्ञप्ताः, तद्यथाकृष्णलेश्या यावत् शुकुलेश्या, तेषां द्रव्यतो भावतो वा सर्वा लेश्या: परिणामसम्भवात् ॥ ' ते णं भंते !" इत्यादि, ते भदन्त ! प क्षिणो जीवाः कि सम्यग्दृष्टयो मिथ्यादृष्टयः सम्यग्मिथ्यादृष्टयश्च १, भगवानाह - गौतम ! त्रिविधा अपि ॥ 'ते णं भंते !' इत्यादि, ते भदन्त ! जीवाः किं ज्ञानिनोऽज्ञानिनः १, भगवानाह - गौतम । द्वयेऽपि ज्ञानिनोऽज्ञानिनोऽपीत्यर्थः, तत्र ये ज्ञानिनस्ते द्विज्ञानिनस्त्रिज्ञानिनो वा येऽप्यज्ञानिनस्तेऽपि यज्ञानिनरुयज्ञानिनो वा ॥ ' ते ण'मित्यादि, ते भदन्त ! जीवाः किं मनोयोगिनो वाग्योगिनः काययो Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - HWARRIORAKA-NCRAGRICANCE गिनः १, भगवानाह-गौतम त्रयोऽपि ॥ तेणं भंते!' इत्यादि, ते भदन्त जीवाः किं साकारोपयुक्ता अनाकारोपयुक्ताः?, भगवा * ३प्रतिपत्ती 05 नाह-द्वयेऽपि, साकारोपयुक्ता अनाकारोपयुक्ताश्चेत्यर्थः ।। 'ते णं भंते!' इत्यादि, ते भदन्त! पक्षिणो जीवाः कुत उत्पद्यन्ते ? नैरयि- तिर्ययो केभ्य इत्यादि यथा प्रज्ञापनायां व्युत्क्रान्तिपदे तथा द्रष्टव्यम् ॥ 'तेसि णमित्यादि, तेपां भदन्त! पक्षिणां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता, भगवानाइ-गौतम जघन्येनान्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्पतः पल्योपमासयेयभागः ॥ 'तेसि ण'मित्यादि, तेपां भदन्त! जीवानां कति उद्देशः १ समुद्घाताः प्रज्ञप्ताः?, भगवानाह-गौतम पञ्च समुद्घाताः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-वेदनासमुद्घातः कपायसमुद्घातो मारणान्तिकसमुद्घातो सू० ९७ वैक्रियसमुद्घातस्तैजससमुद्घातश्च ॥ ते णं भंते!' इत्यादि, ते भदन्त! जीवा मारणान्तिकसमुद्घातेन कि समवहता नियन्ते असमवहता म्रियन्ते ?, भगवानाह-गौतम! समवहता अपि म्रियन्ते असमवहता अपि म्रियन्ते ॥'ते णं भंते!' इत्यादि, ते भदन्त ! जीवा अनन्तरमुद्वत्त्य व गच्छन्ति ?, एतदेव व्याचष्टे-'एवं उव्वट्टणा' इत्यादि, यथा द्विविधप्रतिपत्तौ तथा द्रष्टव्यम् ॥ 'तेसि णमित्यादि, तेषां भदन्त जीवानां 'कति' किंप्रमाणानि जातिकुलकोटीनां योनिप्रमुखाणि-योनिप्रवाहानि शतसहस्राणि योनिप्रमुखशतसहस्राणि जातिकुलकोटियोनिप्रमुखशतसहस्राणि भवन्ति ?, भगवानाह-द्वादश जातिकुलकोटीयोनिप्रमुखशतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि, तत्र जातिकुलयोनीनामिदं परिस्थूरमुदाहरणं पूर्वाचार्यैरुपादर्शि-जातिरिति किल तिर्यग्जातिस्तस्याः कुलानि-कृमिकीटवृश्चिकादीनि, इमानि च कुलानि योनिप्रमुखाणि, तथाहि-एकस्यामेव योनी अनेकानि कुलानि भवन्ति, तथाहि-छगणयोनौ कृमिकुलं कीटकुलं वृश्चिककुलमित्यादि, अथवा जातिकुलमित्येकं पदं, जातिकुलयोन्योश्च परस्परं विशेपः एकस्यामेव योनावनेकजातिकुलसम्भवात् , तद्यथा-एकस्यामेव छग १ व्युत्कान्तिपदवत्तत्र भणितत्वात् वृत्ती यथायथं, मूले तु प्रज्ञापनाया व्युत्कान्तिपद एव यथायथ सूत्रमिति वफतीएत्ति सूत्रं. ॥१३४॥ 928 Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णयोनौ कृमिजातिकुलं कीटजातिकुलं वृश्चिकजातिकुलमित्यादि, एवं चैकस्यामेव योनाववान्तरजातिभेदभावादनेकानि योनिप्रवाहाणि जातिकुलानि संभवन्तीत्युपपद्यते, खचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिजानां द्वादश जातिकुलकोटिशतसहस्राणि, अत्र सङ्घहणिगाथा-"जोणीसंगहलेस्सादिही नाणे य जोग उवओगे । उववायठिईसमुग्धाय चयणं जाई कुलविही उ॥१॥” अस्या अक्षरगमनिका-प्रथमं योनिसङ्ग्रहद्वारं ततो लेश्याद्वारं ततो दृष्टिद्वारमित्यादि । 'भुयगाणं भंते!' इत्यादि, भुजगानां भदन्त ! कतिविधो योनिसङ्ग्रहः प्रज्ञप्तः ?, इत्यादि पक्षिवत् सर्व-निरवशेषं वक्तव्यं, नवरं स्थितिच्यवनकुलकोटिषु नानात्वं, तद्यथा-स्थितिर्जघन्येनान्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्पतः पूर्वकोटी, च्यवनम्-उद्वर्तना, तत्र नरकगतिचिन्तायामधो यावद्वितीया पृथिवी उपरि यावत्सहस्रारः कल्पस्तावदुत्पद्यते, नव तेषां जातिकुलको-18 टियोनिप्रमुखशतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि । एवमुरःपरिसर्पाणामपि वक्तव्यं, नवरं तत्र च्यवनद्वारेऽधश्चिन्तायां यावत्पञ्चमी पृथिवीति वक्तव्यं, कुलकोटिचिन्तायां दश जातिकुलकोटियोनिप्रमुखशतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि ॥ "चउप्पयाण'मित्यादि, चतुष्पदानां भदन्त ! कतिविधो योनिसद्धहः प्रज्ञप्तः?, भगवानाह-गौतम द्विविधो योनिसङ्ग्रहः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-पोतजाः संमूच्छिमाश्च, इह येऽण्डजव्यतिरिक्ता गर्भव्युत्क्रान्तास्ते सर्वे जरायुजा अजरायुजा वा पोतजा इति [ पूर्वमपि विवक्षिताः परमत्र तु सर्वेऽपि गर्भव्युत्क्रान्तिकाः पोतजतया ] विवक्षितमतोऽत्र द्विविधो यथोक्तस्वरूपो योनिसङ्ग्रह उक्तः, अन्यथा गवादीनां जरायुजत्वात् (सादीनामण्डजत्वात् ) तृतीयोऽपि जरायु(अण्डज)लक्षणो योनिसङ्कहो वक्तव्यः स्यादिति, तत्र ये ते पोतजास्ते त्रिविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-स्त्रियः पुरुपा नपुंसकाच, तत्र ये ते संमूच्छिमास्ते सर्वे नपुंसकाः, शेषद्वारकलापः पूर्ववत् , नवरं स्थितिर्जघन्येनान्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतस्त्रीणि पल्योपमानि, च्यवनद्वारेऽधश्चिन्तायां यावच्चतुर्थी पृथिवी ऊध्र्व यावत्सहस्रारः, जातिकुलकोटियोनिप्रमुखशतसहस्राण्यत्रापि दश ॥'जलचराणा'मित्यादि, जल Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * चराणां भदन्त! कतिविधो योनिमादः प्रजाः, भगवानाद-गौनम ! सिरिमो गोनिमाड प्रानः, नामा-rnपोनाः मंपिंद- प्रतिपत्ती माश्च, अण्डजाग्निविधाः प्राप्ताः,ताया-पियः पुरुषा नपुंमहास, पोनापिविधा: ममताः, नगमा-विष पुरा नमात्र, ना । तियेग्यो ते संमूच्छिमान्ते सर्वे नपुंसकाः, शेषनारकन्दापनिन्ना प्रायन, नारं स्थिनिन्यानातिल कोटि ए नागार, थिनियन्येनान्नमुंदरी- न्यधिक 8 मुत्कर्पतः पूर्वकोटी, च्यवनद्वारेऽधचिन्तायां यावत्मममी की गाारमाहसार:, फलफोटियोनिमा गुमनामाशिमगोतनानि उद्देनः १ द्वादशेत्यर्थः ।। 'चरिंदियाणमित्यादि, चतुरिन्द्रियाणां भन्न! नि निकुल कोटिगोनिप्रमुनामदन्याति प्रामानि?, भगवानाद। सू० ९८ -नव जातिकुलफोटियोनिप्रमुग्नशतमहस्राणि प्रममानि, एवं प्रीन्द्रियाणामष्टो पानिलकोटियोनिमनमामलामि, सन्द्रियाना ना जातिकुलकोटियोनिप्रमुग्यातसहस्राणि प्राप्तानि । हानिटकोटको योनिजातीगो मिलतासीवाभियनमनो गभानानि भिन्नजातीयत्वात् प्ररूपयति कइ णं भंते! गंधा पण्णता? कइ गं भंते! गंधसया पण्णता?, गोयमा। मत्त गंधा मत्त गंधसया पण्णत्ता ।। कई णं भंते! पुष्फजाई कुलफोडीजोणिपमुहसयमहस्सा पण्णता?, गोयमा! सोलसपुफजातीकुलकोडीजोणीपमुहसयसहस्मा पण्णता, तंजहा-पत्तारि जलपराणं चत्तारि थलयराणं चत्तारि महामक्खियाणं चत्तारि महागुम्मितार्ण ॥ कति णं भंते! वल्लीओ कति वलिसता पण्णता?, गोयमा! चत्तारि वहीओ चसारि वहीसता पणत्ता | कति णं भंते! ल ॥१३५॥ ताओ कति लतासता पण्णसा?, गोपमा! अह लयाओ अह लतासता पण्णसा ॥ कति णं *** SSCRECOGESEASOS +* RE भंते।गरिकापा-DITI, ... . Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भंते! हरियकाया हरियकायसया पण्णत्ता ?, गोयमा ! तओ हरियकाया तओ हरियकायसया पण्णत्ता, फलसहस्सं च पिंटबद्धाणं फलसहस्सं च णालबद्धाणं, ते सव्वे हरितकायमेव समोयांति, ते एवं समणुगम्ममाणा २ एवं समणुगाहिज्जमाणा २ एवं समणुपेहिजमाणा २ एवं समणुचिं तिजमाणा २ एएसु चेव दोसु काएसु समोयरंति, तंजहा-तसकाए चेव थावरकाए चेव, एवमेव सपुव्वावरेणं आजीवियदिढतेणं चउरासीति जातिकुलकोडीजोणीपमुहसतसहस्सा भवंतीति म क्खाया ॥ (सू० ९८) 'कड 'मित्यादि, कति भदन्त ! गन्धाङ्गानि, कचिद् गन्धा इति पाठस्तत्र पदैकदेशे पदसमुदायोपचाराद् गन्धा इति गन्धाङ्गानीति द्रष्टव्यं प्रज्ञप्तानि ?, तथा कति गन्धाङ्गशतानि प्रज्ञप्तानि ?, भगवानाह-गौतम! सप्त गन्धाङ्गानि सप्त गन्धाङ्गशतानि प्रज्ञप्तानि, इह सप्त गन्धाङ्गानि परिस्थूरजातिभेदादमूनि, तद्यथा-मूलं त्वक् काष्ठं निर्यासः पत्रं पुष्पं फलं च, तत्र मूलं मुस्तावालुकोशीरादि, त्वक सुवर्णछल्लीत्वचाप्रभृति, काष्ठं चन्दनागुरुप्रभृति, निर्यासः कर्पूरादिः, पत्रं जातिपत्रतमालपत्रादि, पुष्पं प्रियङ्गनागरपुष्पादि, फलं जातिफलकर्कोलकैलालवड्गप्रभृति, एते च वर्णमधिकृत्य प्रत्येकं कृष्णादिभेदात्पञ्चपञ्चभेदा इति वर्णपञ्चकेन गुण्यन्ते जाताः पञ्चत्रिशत् , गन्धचिन्तायामेते सुरभिगन्धय एवेत्येकेन गुणिताः पञ्चत्रिंशत् जाताः पञ्चत्रिंशदेव 'एकेन गुणितं तदेव भवतीति न्यायात् , तत्रा प्येकैकस्मिन् वर्णभेदे रसपञ्चकं द्रव्यभेदेन विविक्तं प्राप्यते इति सा पञ्चत्रिंशत् रसपञ्चकेन गुण्यते जाताः पञ्चसप्ततिशतं, स्पर्शाश्च | कायद्यप्यष्टौ भवन्ति तथाऽपि गन्धाङ्गेपु यथोक्तरूपेषु प्रशस्या व्यवहारतश्चत्वार एव मृदुलघुशीतोष्णरूपास्ततः पञ्चसप्ततं शतं स्पर्शचतु -SAMASSSSSSSSSSSSSSS Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 टयेन गुण्यते जातानि सप्त शतानि, उक्तञ्च-"मूलतयकट्ठनिज्जासपत्तपुप्फप्फलमेय गंधंगा । वण्णादुत्तरभेया गंधंगसया मुणेयब्वा प्रतिपत्ती ॥१॥" अस्य व्याख्यानरूपं गाथाद्वयम्-"मुत्थासुवण्णछल्ली अगुरू वाला तमालपत्तं च । तह य पियंगू जाईफलं च जाईऍ तिर्यग्यो गंधगा ॥ १ ॥ गुणणाए सत्त सया पंचहिं वण्णेहि सुरभिगंधेणं । रसपणएणं तह फासेहि य चउहि मित्ते(पसत्थे)हि ॥२॥" अत्र न्यधिक तः 'जाईए गंधंगा' इति जात्या जातिभेदेनामूनि गन्धाङ्गानि, शेष भावितम् ।। 'कइ ण'मित्यादि, कति भदन्त । पुष्पजातिकुलकोटि-8 उद्देशः१ शतसहस्राणि प्रज्ञातानि?, भगवानाह-गौतम! पोडश पुष्पजातिकुलकोटिशतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-चत्वारि 'जलजानां पद्मानां सू० ९८ जातिभेदेन, तथा चत्वारि 'स्थलजानां' कोरण्टकादीनां जातिभेदेन, चत्वारि महागुल्मिकादीनां जात्यादीनां, चत्वारि 'महावृक्षाणां' मधुकादीनामिति ॥ 'कइ ण'मित्यादि, कति भदन्त ! वल्लयः ? कति वल्लिशतानि प्रज्ञप्तानि', भगवानाह-गौतम! चतस्रो वल्लयस्त्रपुष्यादिमूलभेदेन, ताश्च मूलटीकाकृता वैविक्त्येन न व्याख्याता इति संप्रदायादवसेयाः, चत्वारि वल्लिशतान्येवावान्तरजातिभेदेन ॥ 'कइ णमित्यादि, कति भदन्त ! लताः कति लताशतानि प्रज्ञप्तानि ?, भगवानाह-गौतम! अष्टौ लता या मूलभेदेन ता अपि संप्रदायादवसातव्याः, मूलटीकाकारेणाव्याख्यानात् , अष्टौ लताशतानि प्रज्ञप्तानि, अवान्तरजातिभेदेन ॥ 'कइ णमित्यादि, कति भदन्त ! हरितकायाः कति हरितकायशतानि प्रज्ञप्तानि ?, भगवानाह-गौतम त्रयो हरितकायाः प्रज्ञप्ता:-जलजाः स्थलजा उभयजाः, एकैकस्मिन् है शतमवान्तरभेदानामिति, त्रीणि हरितकायशतानि । 'फलसहस्सं चेत्यादि, फलसहनं च 'वृन्तवन्धानां' वृन्ताकप्रभृतीनां फलसहस्रं च नालबद्धानां, 'तेऽवि सव्वे' इत्यादि, तेऽपि सर्वे भेदा अपिशव्दादन्येऽपि तथाविधाः 'हरितकायमेव समवतरन्ति' हरि ॥१३६॥ दूतकायेऽन्तर्भवन्ति हरितकायोऽपि वनस्पती वनस्पतिरपि स्थावरेषु स्थावरा अपि जीवेपु, तत एवं समनुगम्यमाना २ स्तथा जात्यन्त - KISARGARRORGANGANGA. SHRAM Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेन स्वत एव सूत्रतः, तथा समनुप्राह्यमाणाः समनुप्राह्यमाणाः परेण सूत्रत एव, तथा समनुप्रेक्ष्यमाणाः समनुप्रेक्ष्यमाणा अनुप्रेक्षया अर्थालोचनरूपया, तथा समनुचिन्यमानाः समनुचिन्त्यमानास्तथा तथा तनयुक्तिभिः, एतयोरेव द्वयोः काययोः समवतरन्ति, तद्यथा-त्रसंकाये च स्थावरकाये च, 'एवामेव' इत्यादि, 'एवमेव उक्तेनैव प्रकारेण 'सपुव्वावरेणं पूर्व चापरं च पूर्वापरं सह पूवापरं येन स सपूर्वापरः उक्तप्रकारस्तेन, उक्तविषयपौर्वापर्यालोचनयेति भावार्थः, 'आजीवगदिहतेणं'ति आ-सकलजगदभिव्याप्त्या जीवानां यो दृष्टान्त:-परिच्छेदः स आजीवदृष्टान्तस्तेन सकलजीवदर्शनेनेत्यर्थः, आह च मूलटीकाकारः-"आजीवदृष्टान्तेन सकलजीवनिदर्शनेने"ति, चतुरशीतिजातिकुलकोटियोनिप्रमुखशतसहस्राणि भवन्तीयाख्यातं मयाऽन्यैश्च ऋषभादिभिरिति, अत्र चतुरशीतिसझोपादानमुपलक्षणं, तेनान्यान्यपि जातिकुलकोटियोनिप्रमुखशतसहस्राणि वेदितव्यानि, तथाहि-पक्षिणां द्वादश जातिकुलकोटियोनिप्रमुखशतसहस्राणि भुजगपरिसर्पाणां नव उरगपरिसर्पाणां दश चतुष्पदानां दश जलचराणामर्द्धत्रयोदशानि चतुरिन्द्रियाणां नव तीन्द्रियाणामष्टो द्वीन्द्रियाणां सप्त पुष्पजातीनां षोडश, एतेषां चैकत्र मीलने त्रिनवतिजातिकुलकोटियोनिप्रमुखशतसहस्राणि सार्द्धानि भवन्ति, ततश्चतुरशीतिसयोपादानमुपलक्षणमवसेयं, न चैतद् व्याख्यानं खमनीषिकाविजृम्भितं, यत उक्तं चूणों-'आजीवगदिह्रतेणं'ति अशेषजीवनिदर्शनेन चउरासीजातिकुलकोडि योनिप्रमुखशतसहस्रा एतत्प्रमुखा अन्येऽपि विद्यन्ते इति ॥ कुलकोटिविचारणे विशेषाधिकाराद्विमानान्यष्यधिकृत्य विशेषप्रश्नमाह। अत्थि णं भंते! विमाणाइं सोत्थीयाणि सोत्थियावत्ताई सोत्थियपभाई सोत्थियकन्ताई सो १ टीकाकृदभिप्रायेण अचियाई अचियावत्ताई इत्यादि पाठसभव Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ प्रतिपत्ती तिर्यग्योन्यधि० उद्देशः१ सु०९९ ARRORSCUSSC-SSESCESS स्थियवन्नाई सोत्थियलेसाइंसोत्थियज्झयाइं सोथिसिंगाराई सोस्थिकडाई सोस्थिसिहाई सोत्युत्तरवळिसगाई?, हंता अस्थि । ते णं भंते! विमाणा केमहालता प०? गोयमा! जावतिए णं सूरिए उदेति जावइएणं च सरिए अत्थमति एवतिया तिण्णोवासंतराइं अत्थेगतियस्स देवस्स एगे विफमे सिता, से णं देवे ताए उकिटाए तुरियाए जाव दिव्याए देवगतीए वीतीवयमाणे २ जाय एकाहं वा दुयाहं वा उधोसेणं छम्मासा वितीवएजा, अत्थेगतिया विमाणं वितीवइज्जा अत्थेगतिया विमाणं नो वीतीवएज्जा, एमहालता णं गोयमा! ते विमाणा पण्णत्ता, अस्थि णं भंते! विमाणाई अंचीणि अचिरावत्ताई तहेव जाव अचुत्तरवडिंसगातिं?, हंता अस्थि, ते विमाणा केमहालता पण्णत्ता?, गोयमा! एवंजहा सोत्थी(याई)णि णवरं एवतियाई पंच उवासंतराइं अत्थेगतियस्स देवस्स एगे विक्रमे सिता सेसं तं चेव ॥ अस्थि णं भंते! विमाणाई कामाई कामावसाई जाव कामुत्तरवडिंसयाई?, हंता अत्थि, ते णं भंते! विमाणा केमहालया पण्णता?, गोयमा! जहा सोत्धीणि णवरं सत्त उवासंतराई विकमे सेसं तहेव ॥ अस्थि णं भंते! विमाणाई विजयाई वेजयंताई जयंताई अपराजिताई?, हंता अस्थि, ते णं भंते! विमाणा के०१, गोयमा! जाव ॥१३७॥ १ सोत्थियार इत्यादि टीकादभिप्रायेण पाठोऽ. __ Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिए सूरिए उदेइ एवइयाइं नव ओवासंतराइं, सेसं तं चेव, नो चेव णं ते विमाणे वीईवएजा ए महालया णं विमाणा पण्णत्ता, समणाउसो! ॥ (सू० ९९) तिरिक्खजोणियउद्देसओ पढमो॥ 'अस्थि णं भंते' इत्यादि, अस्तीति निपातो बह्वर्थे 'सन्ति' विद्यन्ते णमिति वाक्यालङ्कारे 'विमानानि विशेषतः पुण्यप्राणिभिर्मन्यन्ते-तद्गतसौख्यानुभवनेनानुभूयन्ते इति विमानानि, तान्येव नामग्राहमाह-अर्चीषि-अचिर्नामानि, एवमर्चिरावर्त्तानि अर्चिःप्रभाणि अर्चिःकान्तानि अचिर्वर्णानि अचिर्लेश्यानि अर्ध्विजानि अर्चिःशृङ्गा(राणि) अर्चिःस(शि)ष्टानि अर्चि:कूटानि अर्चिरुत्तरावतंसकानि सर्वसङ्ख्यया एकादश नामानि, भगवानाहा-'हंता अत्थि' हंतेति प्रत्यवधारणे अस्तीति निपातो बह्वर्थे सन्त्येवैतानि विमानानीति भावः । 'केमहालया ण'मित्यादि, किंमहान्ति कियत्प्रमाणमहत्त्वानि णमिति पूर्ववत् भदन्त! तानि विमानानि प्रज्ञप्तानि ?, भगवानाह-गौतम! "जाव य उएइ सूरो' इत्यादि, जम्बूद्वीपे सर्वोत्कृप्टे दिवसे सर्वाभ्यन्तरे मण्डले वर्तमानः सूर्यो यावति क्षेत्रे उदेति यावति च क्षेत्रे सूर्योऽस्तमुपयाति, एतावन्ति त्रीणि अवकाशान्तराणि, उद्यास्तमितप्रमितमधिकृतं क्षेत्रं त्रिगुणमित्यर्थः, अस्त्येतद्-बुद्ध्या परिभावनीयमेतद् यथैकस्य विवक्षितस्य देवस्यैको विक्रमः स्यात् , तत्र जम्बूद्वीपे सर्वोत्कृष्टे दिवसे सूर्य उदेति सप्तचत्वारिंशत्सहस्राणि द्वे शते त्रिषष्ट्यधिके योजनानामेकस्य च योजनस्यैकविंशतिः पष्टिभागा एतावति क्षेत्रे, उक्तञ्च-"सीयालीससहस्सा, दोणि सया जोयणाण तेवट्ठी । इगवीस सट्ठिभागा ककडमाइंमि पेच्छ नरा ॥१॥" ४७२६३२एतावत्येव क्षेत्रे तस्मिन् सर्वोत्कृष्टे दिवसेऽस्तमुपयाति, तत एतत्क्षेत्रं द्विगुणीकृतमुदयास्तापान्तरालप्रमाणं भवति, तच्चैतावत्-चतुर्नवतिः सहस्राणि पञ्च शतानि पड़िशत्यधिकानि योजनानामेकस्य च योजनस्य च द्वाचत्वारिंशत्पष्टिभागाः ९४५२६४२ एतावत्रिगुणीकृतं यथोक्तविमानपरिमाणक Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PROGRESHAHARAGRUGGALORECORK रणाय देवस्यैको विक्रमः परिकल्प्यते, स चैवंप्रमाण:-द्वे लक्षे व्यशीतिः सहस्राणि पश्च शतानि अशीयधिकानि योजनानाम् एकस्य * च योजनस्स पष्टिभागाः पट २८३५८०६, इति ॥ 'से णं देवे' इत्यादि, 'सः विवक्षितो देवः 'तया सकलदेवजनप्रसिद्वया उत्कृ- तिर्यग्यो प्रया त्वरितया चपलया चण्डया शीघ्रया उद्धतया जवनया छेकया दिव्यया देवगत्या, अमीपां पदानामर्थः प्राग्वद्भावनीयः, व्यतित्र-5 न्यधि० जन् व्यतित्रजन् जघन्यत एकाहं वा द्वयहं वा यावदुत्कर्पतः पण्मासान् यावद् 'व्यतिव्रजेत्' गच्छेत् , तत्रैवं गमने अ[प्रन्थानम् उद्देशः १ ४०००] स्त्येतद् यथैकं कियन विमानं पूर्वोक्तानां विमानानां मध्ये 'व्यतिव्रजेत्' अतिक्रामेत् , तस्य पारं लभेतेति भावः, तथाऽ- सू० ९९ स्त्येतद् यथैककं विमानं न व्यतित्रजेत् , न तस्य पारं लभेत, उभयत्रापि जातावेकवचनं, ततोऽयं भावार्थ:-उक्तप्रमाणेनापि क्रमेण यथोक्तरूपयाऽपि च गत्या पण्मासानपि यावदधिकृतो देवो गच्छति तथापि केपाश्चिद्विमानानां पारं लभते केपाश्चित्पारं न लभते इति, एतावन्महान्ति तानि विमानानि प्रज्ञप्तानि हे श्रमण हे आयुष्मन्! ।। 'अस्थि णं भंते!' इत्यादि, सन्ति भदन्त विमानानि स्वस्तिॐ कानि स्वस्तिकावर्त्तानि स्वस्तिकप्रभाणि खस्तिककान्तानि स्वस्तिकवर्णानि स्वस्तिकलेश्यानि स्वस्तिकध्वजानि स्वस्तिकद्वाराणि स्वस्तिकशिष्टानि स्वस्तिककूटानि स्वस्तिकोत्तरावतंसकानि ?, 'हता अत्थि' इत्यादि, समस्तं प्राग्वत् , नवरमन 'एवइयाई पंच ओवासंतराई' इति कण्ठ्यं, उदयास्तापान्तरालमेनं पश्वगुणं क्रियत इति भावः ।। 'अस्थि णं भंते !' इत्यादि, सन्ति भदन्त विमानानि कामानि कामावर्तानि कामप्रभाणि कामकान्तानि कामवर्णानि कामलेइयानि कामध्वजानि कामगाराणि कामशिष्टानि कामकूटानि कामोत्तरावतंसकानि', 'हंता अत्थि' इत्यादि सर्व पूर्ववत् नवरमत्रोदयास्तापान्तरालक्षेत्रं सप्तगुणं कर्त्तव्यं, शेपं तथैव ।। 'अस्थि णं ॥१३८॥ भंते! इत्यादि, सन्ति भदन्त ! विजयवेजयन्तजयन्तापराजितानि विमानानि?, 'हता अत्थी'त्यादि प्राग्वत् , नवरमत्र 'एवइयाई FREE Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नव ओवासंतराई' इति वक्तव्यं शेषं तथैव, उक्तञ्च-'जावइ उदेइ सूरो जावइ सो अत्थमेइ अवरेणं । तियपणसत्तनवगुणं काउं पत्तेय पत्तेयं ॥१॥सीयालीस सहस्सा दो य सया जोयणाण तेवढा । इगवीस सट्ठिभागा कक्खडमाइंमि पेच्छ नरा ॥ २ ॥ एयं दुगुणं काउं गुणिजए तिपणसत्तमाईहिं । आगयफलं च जं तं कमपरिमाणं वियाणाहि ॥३॥ चत्तारिवि सकमेहिं चंडादिगईहिं जति छम्मासं । तहवि य न जंति पारं केसिंचि सुरा विमाणाणं ॥४॥" अस्यां तृतीयप्रतिपत्तौ तिर्यग्योन्यधिकारे प्रथमोद्देशकः॥ उक्तः प्रथमोद्देशकः, इदानी द्वितीयस्यावसरः, तत्रेदमादिसूत्रम् कतिविहा णं भंते! संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता?, गोयमा! छव्विहा पण्णत्ता, तंजहा-पुढविकाइया जाव तसकाइया। से किं तं पुढविकाइया?, पुढविकाइया दुविहा पण्णत्ता, तंजहासुहुमपुढविकाइया बादरपुढविकाइया य । से किं तं सुहुमपुढविकाइया?, २ दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-पज्जत्तगा य अपज्जत्तगा य, सेत्तं सुहुमपुढविकाइया । से किं तं बादरपुढविक्काइया?, २ दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-पजत्तगा य अपजत्तगा य, एवं जहा पण्णवणापदे, सण्हा सत्तविधा पण्णत्ता, खरा अणेगविहा पन्नत्ता, जाव असंखेजा, से त्तं बादर पुढविक्काइया । सेत्तं पुढविकाइया। एवं चेव जहा पण्णवणापदे तहेव निरवसेसं भाणितव्व वंजाव जत्थेको तत्थ सिता संखेज्जा सिय असंखेजा सिता अणंता, सेत्तं बादरवणप्फतिकाइया, से तं वणस्सइकाइया । से किं तं तसकाइया?, २ चउविवहा पण्णत्ता, तंजहा-बेइंदिया तेइंदिया च Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -* & + M -९॥ उरिदिया पंचेंदिया। से किं तं येइंदिया?, २ अणेगविधा पण्णता, एवं जंचेष पण्णवणापदे ३ प्रतिपत्ती येव निरयसेसं भाणितव्यं जाव सयट्टसिद्धगदेवा, सेतं अणुरारोववाइया, से तं देवा, सेतं तिर्यगुपंचेंदिया, से तं तसकाइया ॥ (सू०१००) देशः२ . 'कइविहा ण'मित्यादि, कतिविधा भदन्त ! संसारममापनका जीवाः प्रज्ञप्ता: ?, भगवानाह-गौतम! पविधाः प्राप्तास्तव्यथा-5 सू० १०१ पृथिवीकायिका अपकायिका यावसकायिकाः । अथ के ते पृथिवीकायिका:?, इत्यादि प्रज्ञापनागतं प्रथम प्रशापनापदं निरवशेष वक्तव्यं यावदन्तिम 'से तं देवा' इति पदम् ॥ सम्प्रति विशेषाभिधानाय भूयोऽपि पृथिवीकायविषयं सूत्रमाह कतिविधा णं भंते ! पुढवी पण्णता?, गोयमा! छव्विहा पुढवी पण्णत्ता, तंजहा-सण्हापुढवी सुद्धपुढवी वालयापुढवी मणोसिलापु० सकरापु० खरपुढवी ॥ सहापुढवीणं भंते! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता?, गोयमा! जह० अंतोमु० उकोसेणं एगं वाससहस्सं । सुद्धपुढवीए पुच्छा, गोयमा! जह० अंतोमु० उको० यारस वाससहस्साइं । वालुयापुढवीपुच्छा, गोयमा! जह, अंतोमु० उक्को चोदस वाससहस्साई । मणोसिलापुढवीणं पुच्छा, गोयमा! जह अंतोमु० उको० सोलस वाससहस्साई । सकरापुढवीप पुच्छा, गोयमा ! जह० अंतोमु० उको० अट्ठारस वाससहस्साई । खरपुढविपुच्छा, गोयमा! जह, अंतोमु० उको बावीस याससह ॥१३९।। स्साइं । नेरइयाणं भंते! केवतियं कालं ठिती पण्णता?, गोयमा! जहा दस वाससहस्साई PACRICANCCC Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ **** *** उक्को० तेत्तीसं सागरोवमाई ठिती, एयं सव्वं भाणियव्वं जाव सम्वट्ठसिद्धदेवत्ति ॥ जीवे णं . भंते! जीवेत्ति कालतो केवचिरं होइ ?, गोयमा! सव्वळ, पुढविकाइए णं भंते ! पुढ विकाइएत्ति कालतो केवचिरं होति?, गोयमा! सव्वद्धं, एवं जाव तसकाइए ॥ (सू० १०१)। पड़प्पन्नपुढविकाइया णं भंते! केवतिकालस्स णिल्लेवा सिता?, गोयमा! जहण्णपदे असंखेजाहिं उस्सप्पिणिओसप्पिणीहिं उक्कोसपए असंखेनाहिं उस्सप्पिणीओसप्पिणीहिं, जहन्नपदातो उक्कोसपए असंखेजगुणा, एवं जाव पडप्पन्नवाउक्काइया ॥पडप्पन्नवणप्फइकाइयाणं भंते! केवतिकालस्स निल्लेवा सिता?, गोयमा! पडुप्पन्नवण० जहण्णपदे अपदा उक्कोसपदे अपदा, पडुप्पन्नवणप्फतिकाइयाणं णस्थि निल्लेवणा॥पडप्पन्नतसकाइयाणं पुच्छा, जहण्णपदे सागरोवमसतपुहत्तस्स उक्कोसपदे सागरोवमसतपुहुत्तस्स, जहण्णपदा उक्कोसपदे विसेसाहिया ॥ (सू० १०२) । 'कइविहा 'मित्यादि, कतिविधा णमिति पूर्ववत्, भदन्त ! पृथिवी प्रज्ञप्ता ?, भगवानाह-गौतम! पडिधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-लक्ष्णपृथिवीं मृद्वी चूर्णितलोष्टकल्पा, 'शुद्धपृथिवी' पर्वतादिमध्ये, मनःशिला-लोकप्रतीता, वालुका-सिकतारूपा, शर्करा-मुरुण्डपृथिवी, 'खरापृथिवी' पाषाणादिरूपा ॥ अधुना एतासामेव स्थितिनिरूपणार्थमाह-'सण्हपुढवीकाइयाण'मित्यादि, श्लक्ष्णपृथिवीकायिकानां भदन्त ! कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ?, भगवानाह-गौतम! जघन्येनान्तर्मुहूर्तमुत्कर्षत एक वर्षसहस्रं । एवमनेनाभिलापेन शेषाणामपि पृथिवीनामनया गाथया उत्कृष्टमनुगन्तव्यं, तामेव गाथामाह-सण्हा य'इत्यादि, (सण्हा य सुद्धवालुअ मणोसिला .***** Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -8 सकरा य खरपुढवी । इगवारचोइससोलढारबावीससमसहसा ॥ २ ॥) लक्ष्णपृथिव्या एकं वर्षसहस्रमुत्कर्पत: स्थितिः, शुद्धप- ३प्रतिपत्तो थिव्या द्वादश वर्षसहस्राणि, वालुकापृथिव्याश्चतुर्दश सहस्राणि, मनःशिलापृथिव्याः पोडश वर्षसहस्राणि, शर्करापृथिव्या 5 तिर्यगुअष्टादश वर्षसहस्राणि, खरपृथिव्या द्वाविंशतिवर्पसहस्राणि, सर्वासामपि चामीपां पृथिवीनां जघन्येन स्थितिरन्तर्मुहूर्त वक्तव्या ॥6 देशः२ सम्प्रति स्थितिनिरूपणाप्रस्तावान्नैरयिकादीनां चतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण स्थिति निरूपयितुकाम आह-'नेरइयाणं भंते!' इत्यादि, सू० १०३ नैरयिकाणां भदन्त! कियन्तं कालं स्थितिः प्रजाता?, इत्येवं प्रज्ञापनागतस्थितिपदानुसारेण चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण तावद्वक्तव्यं यावत्सर्वार्थसिद्धविमानदेवानां स्थितिनिरूपणा, इह तु प्रन्थगौरवभयान्न लिख्यते ॥ तदेवं भवस्थितिनिरूपणा कृता, सम्प्रति कायस्थितिनिरूपणार्थमाह-'जीवेणं भंते !' इत्यादि, अथ कायस्थितिरिति कः शब्दार्थः ?, उच्यते, कायो नाम जीवस्य विवक्षितः सामान्यरूपो विशेपरूपो वा पर्यायविशेपस्तस्मिन् स्थिति: काय स्थिति:, किमुक्तं भवति ?-यस्य वस्तुनो येन पर्यायेण-जीवत्वलक्षणेन पृथिवीकायादित्वलक्षणेन वाऽऽदिश्यते व्यवच्छेदेन यद्भवनं सा काय स्थितिः, तत्र जीव इति "जीव प्राणधारणे" जीवति-प्राणान् धारयतीति जीवः, प्राणाश्च द्विधा-द्रव्यप्राणा भावप्राणाश्च, तत्र द्रव्यप्राणा आयुःप्रभृतयः, उक्तश्च-"पञ्चेन्द्रियाणि त्रिविधं बलं च, उच्छासनिःश्वासमथान्यदायुः । प्राणा दशैते भगवद्विरुक्तास्तेषां वियोजीकरणं तु हिंसा ॥१॥" भावप्राणा ज्ञानादयः यैर्मुक्तोऽपि जीवतीति व्यपदिश्यते, उक्तश्व-"ज्ञानादयस्तु भावप्राणा मुक्तोऽपि जीवति स तेही"ति, इह च विशेपानुपादानादुभयेपामपि प्रहणं णमिति वाक्यालकारे भदन्त जीव इति-जीवनपर्यायविशिष्टः कालत:-कालमधिकृत्य कियगिरं भवति ?, भगवानाह-सर्वाद्धां, संसार्यवस्थायां द्रव्यभावप्राणानधिकृत्य मुक्त्यवस्थायां भावप्राणानधिकृत्य सर्वत्रापि जीवनस्य विद्यमानत्वात् , अथवा जीव इति न एकः है ॥१४॥ HAMAREIGARSHANGANGANGANG+ RECASCHICAGAR Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिनियतो जीवो विवक्ष्यते किन्तु जीवसामान्यं, ततः प्राणधारणलक्षणजीवनाभ्युपगमेऽपि न कश्चिद्दोष:, तथाहि - 'जीवे णं भंते!" इत्यादि, जीवो णमिति पूर्ववद् भदन्त ! जीव इति -- जीवन्निति प्राणान् धारयन्नित्यर्थः कालतः कियश्चिरं भवति ?, भगवानाह - गौतम ! सर्वाद्धां, जीवसामान्यस्यानाद्यनन्तत्वात् न चैतद् व्याख्यानं स्वमनीषिकाविजृम्भितं यत उक्तं मूलटीकायां - "जीवे णं भंते इत्यादि, एषा ओघकाय स्थितिः सामान्यजीवापेक्षिणीति सर्वाद्धया निर्वचनम्" । एवं च पृथिवीकायादिष्वप्यदोषः, एतत्सामान्यस्य स - वैदैव भावादिति । एवं गतीन्द्रियकायादिद्वारैर्यथा प्रज्ञापनायामष्टादशे कायस्थितिनामके पदे कायस्थितिरुक्ता तथाऽत्र सर्व निरविशेषं वक्तव्यं यथा उपरि तत्पद्गतं न किमपि तिष्ठति, गतीन्द्रियकायादिद्वारसङ्ग्राहके चेमे गाये - " गइ इंदिए य काए जोगे वेए कसाय लेसा य । सम्मत्तनाणदंसणसंजयडव ओगआहारे ॥ १ ॥ भासगपरित्तपज्जत्तसुहुम सण्णी भवऽत्थि चरिमे य । एएसिं तु पयाणं कायठिई होइ नायव्वा ॥ २ ॥ सूत्रपाठस्तु लेशतो दर्श्यते - "नेरइया णं भंते! णेरइयत्ति कालतो केवश्चिरं होइ ?, गोयमा ! जहनेणं दस वाससहस्साइं उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई । तिरिक्खजोणिए णं भंते! तिरिक्खजोणियत्ति कालतो केवश्चिरं होइ ?, गोयमा। जहन्नेणं अंतोमुहुत्तमुक्कोसेणमणतं कालं अनंता उस्सप्पिणीओसप्पिणीओ कालतो खेत्ततो अनंता लोगा असंखेज्जा पुग्गलपरियट्टा आवलियाए असंखेज्जइभागो" इत्यादि ॥ सम्प्रति सामान्यपृथिवीकायादिगतकायस्थितिनिरूपणार्थमाह - 'पुढविक्काइए णं भंते!' इत्यादि, पृथिवीकायिको भदन्त ', सामान्यरूपोऽत एव जातावेकवचनं न व्यक्तयेकत्वे, पृथिवीकाय इति कालतः कियचिरं भवति ?, भगवानाह - गौतम ! सर्वाद्धां, पृथिवीकायसामान्यस्य सर्वदैव भावात् । एवमप्तेजोवायुवनस्पतित्रसकायसूत्राण्यपि भावनी - यानि || सम्प्रति विवक्षिते काले जघन्यपदे उत्कृष्टपदे वा कियन्तोऽभिनवा उत्पद्यमानाः पृथिवीकायिकादयः ? इत्येतन्निरूपणार्थमाह Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -पडुप्पन्नपुढविकाइया णं भंते ! केवइकालस्स निल्लेवा सिया' इत्यादि, प्रत्युत्पन्नपृथिवीकायिका:-तत्कालमुत्पद्यमानाः पृथि-5 प्रतिपत्तौ । वीकायिका भदन्त ! 'केवइकालस्स' त्ति तृतीयार्थे पष्ठी कियता कालेन निर्लेपाः स्युः १, प्रतिसमयमेकैकापहारेणापहियमाणाः कियता तिर्यगु• कालेन सर्व एव निष्ठामुपयान्तीति भावः, भगवानाहगौतम! जघन्यपदे यदा सर्वस्तोका भवन्ति तदेत्यर्थः, असङ्ख्येयाभिरुत्सर्पिण्य- देशः २ वसर्पिणीभिरुत्कृष्टपदेऽपि यदा सर्ववहयो भवन्ति तदाऽपीति भावः असहयेयाभिरुत्सर्पिण्यवसर्पिणीभिर्नवरं जघन्यपदादुत्कृष्टपदि- 5 सू०१०३ नोऽसङ्ख्येयगुणाः । एवमप्तेजोवायुसूत्राण्यपि भावनीयानि ॥ वनस्पतिसूत्रमाह-'पडुप्पण्णे'सादि, प्रत्युत्पन्नवनस्पतिकायिका भदन्त! कियता कालेन निर्लेपाः स्युः ?, भगवानाह-गौतम प्रत्युत्पन्नवनस्पतिकायिका जघन्यपदेऽपदा-इयता कालेनापहियन्ते इत्येतत्पदवि-* रहिता अनन्तानन्तत्वात् , उत्कृष्टपदेऽप्यपदा, अनन्तानन्ततया निर्लेपनाऽसम्भवात् , तथा चाह-पडुप्पन्नवणस्सइकाइयाणं नथि निल्लेवणा' इति सुगम, नवरमनन्तानन्तत्वादिति हेतुपदं स्वयमभ्यूह्यम् ॥ 'पडुप्पण्णतसकाइया ण'मित्यादि, प्रत्युत्पन्नत्रसकायिका भदन्त कियता कालेन निलेपाः स्युः, भगवानाह-गौतम! जघन्यपदे सागरोपमशतपृथक्त्वस्य-तृतीयार्थे पष्ठी प्राकृतलात् सागरोपमशतपृथक्वेन, उत्कृष्टपदेऽपि सागरोपमशतपृथक्त्वेन नवरं जघन्यपदादुत्कृष्टपदं विशेपाधिकमवसेयं । इदं च सर्वमुच्यमानं विशु-5 द्धलेश्यसत्त्वमभि प्राप्तं यथाऽवस्थिततया सम्यगवभासते नान्यथेयविशुद्धविशुद्धलेश्यविपयं किञ्चिद्विवक्षुराह अविसुद्धलेस्से णं भंते! अणगारे असमोहतेणं अप्पाणेणं अविसुद्धलेस्सं देवं देविं अणगारं जाणइ पासइ?, गोयमा! नो इणढे समझे। अविसुद्धलेस्से णं भंते! अणगारे असमोहएणं अप्पाणएणं 8॥१४१॥ विसुद्धलेस्सं देवं देविं अणगारं जाणइ पासह?, गोयमा! नो इणढे समढे। अविसुद्धलेस्से अण SAASAIGARMIRE दुत्कृष्टपदं विशष्टयक्त्वस्य-तृतीयादि, प्रत्युत्प Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गारे समोहरणं अप्पाणेणं अविसुद्धलेस्सं देवं देविं अणगारं जाणति पासति ?, गोयमा ! नो इट्टे समट्ठे | अविसुद्धलेस्से अणगारे समोहतेणं अप्पाणेणं विसुद्धलेस्सं देवं देवं अणगारं जाणति पासति ?, नो तिणट्टे समट्ठे । अविसुद्धलेस्से णं भंते! अणगारे समोहयासमोहतेणं अपाणेणं अविसुद्धलेस्सं देवं देविं अणगारं जाणति पासति ?, नो तिणट्टे समट्ठे । अविसुद्धलेस्से अगारे समोहतास मोहतेणं अप्पाणेणं विसुद्धलेस्सं देवं देविं अणगारं जाणति पासति ?, नोतिसम । विद्धस्से णं भंते! अणगारे असमोहतेणं अप्पाणेणं अविसुद्धलेस्सं देवं देवि अगारं जाणति पासति ?, हंता जाणति पासति जहा अविसुद्ध लेस्सेणं आलावगा एवं विसुद्धले - सेवि छ आलावा भाणितव्वा, जाव विसुद्धलेस्से णं भंते! अणगारे समोहतास मोहतेणं अप्पाणं विसुद्धलेस्सं देवं देविं अणगारं जाणति पासति ?, हंता जाणति पासति । (सू० १०३) 'अविसुद्ध लेस्से ण' मित्यादि, 'अविसुद्धलेश्यः' कृष्णादिलेश्यो भदन्त ! 'अनगारः ' न विद्यते अगारं गृहं यस्यासौ अनगार:साधु: 'असमवहतः ' वेदनादिसमुद्घातरहितः 'समवहतः' वेदनादिसमुद्घांते गतः । एवमिमे द्वे सूत्रे असमवहतसमवहताभ्यामासभ्यामविशुद्धलेश्यपर विषये प्रतिपादिते एवं समवहतासमवहताभ्यामात्मभ्यां विशुद्धलेश्यपरविषये द्वे सूत्रे भावयितव्ये । तथाऽन्ये अविसुद्धलेश्य विशुद्धलेश्य परविषये द्वे सूत्रे समवहतासमवहतेनात्मनेति पदेन, समवहतासमवहतो नाम वेदनादिसमुद्घातक्रियाविष्टो न तु परिपूर्ण समवहतो नाप्यसमवहतः सर्वथा । तदेवमविशुद्धलेश्ये ज्ञातरि साधौ पट् सूत्राणि प्रवृत्तानि, एवमेव विशुद्धलेश्येऽपि Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिपक्षी तिर्यगुदेशा२ सू०१०४ - - - साधी ज्ञातरि पट् सूत्राणि भावनीयानि, नवरं सर्वत्र जानाति पश्यतीति वक्तव्यं, विशुद्धलेश्याकतया यथाऽवस्थितज्ञानदर्शनभावात् , आह च मूलटीकाकार:-"शोभनमशोभनं वा वस्तु यथावद्विशुद्धलेग्यो जानाती"ति, समुद्घातोऽपि च तस्याप्रतिवन्धक एव, न च तस्य समुद्घातोऽत्यन्तागोभनो भवति, उक्तं च मूलटीकायाम्-"समुद्घातोऽपि तस्याप्रतिवन्धक एवे"यादीति ॥ तदेवं यतोऽ- विशुद्धलेश्यो न जानाति विशुद्धलेश्यो जानाति ततः सम्यग्मिध्याक्रिययोरेकदा निषेधमभिधित्सुराह अण्णउत्थिया णं भंते! एवमाइक्खंति एवं भासेन्ति एवं पपणवेंति एवं परूवंति–एवं खल एगे जीवे गगेणं समएणं दो किरियाओ पकरेति, तंजहा-सम्मत्तकिरियं च मिच्छत्तकिरियं च, जं समयं संमत्तकिरियं पकरेति तं समयं मिच्छत्तकिरियं पकरेति, जं समयं मिच्छत्तकिरियं पकोड तं समयं संमत्तकिरियं पकरेइ, समतकिरियापकरणताए मिच्छत्तकिरियं पकरेति मिच्छत्तकिरियापकरणताए संमत्तकिरियं पकरेति, एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं दो किरितातो पकरेति, तंजहा-संमत्तकिरियं च मिच्छत्तकिरियं च, से कहमेतं भंते! एवं?, गोयमा! जन्नं ते अन्नउत्थिया एवमाइक्खंति एवं भासंति एवं पण्णवंति एवं. परवेंति एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं दो किरियाओ पकरेंति, तहेव जाव सम्मत्तकिरियं च मिच्छत्तकिरियं च, जे ते एवमाहंसु तं णं मिच्छा, अहं पुण गोयमा! एवमाइक्खामि जाव परूवेमि-एवं खल एगे जीवे एगेणं समएणं एग किरियं पकरेति, तंजहा-सम्मत्तकिरियं वा मिच्छत्तकिरियं वा, जं समयं संमत्राकिरियं ॥१४२॥ Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पकरेति णो तं समयं मिच्छत्तकिरियं पकरेति, तं चैव जं समयं मिच्छत्तकिरियं पकरेति नो तं समयं संमत्त करियं पकरेति, संमत्त किरियाप करणयाए नो मिच्छत्तकिरियं पकरेति मिच्छत्तकिरियाप करणयाए णो संमत्त किरियं पकरेति, एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं एवं किरियं पकरेति, तंजहा - सम्मत्त किरियं वा मिच्छत्तकिरियं वा ॥ ( सू० १०४) । से तं तिरिक्खजोणियउद्देसओ बीओ समत्तो ॥ 'अन्नउत्थिया णं भंते!' इत्यादि, 'अन्ययूथिकाः' अन्यतीर्थिका भदन्त ! चरकादय एवमाचक्षते सामान्येन ' एवं भाषन्ते' | स्वशिष्यान् श्रवणं प्रत्यभिमुखानवबुध्य विस्तरेण व्यक्तं कथयन्ति, एवं 'प्रज्ञापयन्ति' प्रकर्षेण ज्ञापयन्ति यथा स्वालनि व्यवस्थितं ज्ञानं तथा परेष्वप्यापादयन्तीति, एवं 'प्ररूपयन्ति' तत्त्वचिन्तायामसंदिग्धमेतदिति निरूपयन्ति, इह खल्वेको जीव एकेन समयेन युगपङ्के क्रिये प्रकरोति, तद्यथा - 'सम्यक्त्वक्रियां च' सुन्दराध्यवसायात्मिकां 'मिथ्यात्वक्रिया च' असुन्दराभ्यवसायात्मिका, 'जं समय'| मिति प्राकृतत्वात्सप्तम्यर्थे द्वितीया यस्मिन् समये सम्यक्त्वक्रियां प्रकरोति 'तं समय' मिति तस्मिन् समये मिथ्यात्वक्रियां प्रकरोति, यस्मिन् समये मिथ्यात्वक्रियां प्रकरोति तस्मिन् समये सम्यक्त्वक्रियां प्रकरोति, अन्योऽन्यसंवलितोभयनियमप्रदर्शनार्थमाह-सम्यक्त्व क्रियाप्रकरणेन मिथ्यात्वक्रियां प्रकरोति मिथ्यात्वक्रियाप्रकरणेन सम्यक्त्वक्रियां प्रकरोति, तदुभयकरणस्वभावस्य तत्तत्क्रियाकरणात्सर्वात्मना प्रवृत्तेः, अन्यथा क्रियाऽयोगादिति, ' एवं खल्वि' यादि निगमनं प्रतीतार्थ, 'से कहमेयं भंते!' इत्यादि, तत् कथमेतद् भदन्त ! एवम् ?, तदेवं गौतमेन प्रश्ने कृते सति भगवानाह - गौतम ! यत् णमिति वाक्यालङ्कारे 'अन्ययूथिकाः' अन्यतीर्थिका एवमाचक्षते Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *ॐॐॐॐॐ इत्यादि प्राग्वत यावत्तत् मिथ्या ते एवमाख्यातवन्त:, अहं पुनगाँतम! एवमाचक्षे एवं भापे एवं प्रज्ञापयामि एवं प्ररूपयामि.ह ख-*|३ प्रतिपत्ती खेको जीव एकेन समयेनैकां क्रियां प्रकरोति, तद्यथा-सम्यक्त्यक्रियां वा मिथ्यात्वक्रियां वा, अत एव यस्मिन् समये सम्यक्त्वक्रियां तिर्यगु प्रकरोति न तस्मिन् समये मिथ्यात्वक्रिया प्रकरोति यस्मिन् समये मिथ्यावक्रियां प्रकरोति न तस्मिन् समये सम्यक्त्वक्रियां प्रकरोति, देशः२ १. परस्परवैविक्त्यनियमप्रदर्शनार्थमाह-सम्यक्त्व क्रियाप्रकरणेन न मिथ्यात्वक्रियां प्रकरोति मिथ्यात्वक्रियाप्रकरणेन न सम्यक्त्वकियां सू०१०५ प्रकरोति, सम्यक्त्व क्रियामिथ्यात्वक्रिययोः परस्परपरिहारावस्थानात्मकतया जीवस्य तदुभयकरणस्वभावत्वायोगात्, अन्यथा सर्वथा १०६ मोभाभावप्रमक्तेः, कदाचिदपि मिथ्यात्वानिवर्तनात् ॥ अस्यां तृतीयप्रतिपत्तौ तिर्यग्योन्यधिकारे द्वितीयोदेशकः समाप्तः ।। __ व्याख्यातस्तिर्यग्योनिजाधिकारः, सम्प्रति मनुष्याधिकारव्याख्यावसरः, तत्रेदमादिसूत्रम् से किं तं मणुस्सा?, मणुस्सा दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-समुच्छिममणुस्सा य गन्भवतियमगुस्सा य ॥ (सू० १०५)। से किं तं समुच्छिममणुस्सा ?, २ एगागारा पण्णत्ता ॥ कहिणं भंते! संमुच्छिममणुस्सा संमुच्छंति?, गोयमा! अंतोमणुस्सखेत्ते जहा पण्णवणाए जाव सेत्तं संमु च्छिममणुस्सा ॥ (सू०१०६) ___ 'से किं त'मित्यादि, अथ के ते मनुष्याः?, सूरिराह-मनुष्या द्विविधाः प्रज्ञप्तास्तद्यथा-संमूच्छिममनुष्याश्च गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुप्या, चगब्दी दयानामपि मनुष्यत्वजातितुल्यतासूचकौ ॥'से किं तमित्यादि, अथ के ते संमूछिममनुष्याः ?, सूरिराह-संमू- ॥१४३॥ छिममनुग्या: 'एकाकाराः' एफस्वरूपा: प्रज्ञप्ताः । अथ क तेषां सम्भवः ? इति जिज्ञासिपुगौतम. पृच्छति-'कहि णं भंते!' Caricheckc Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्यादि, क भदन्त ! संमूच्छिममनुष्याः संमूर्च्छन्ति ?, भगवानाह-अन्तर्मनुष्यक्षेत्रे इत्यादि सूत्रं प्राग्वद्भावनीयं यावत् अंतोमुहुत्तद्धाउया चेव कालं पकरेंति, उपसंहारमाह-'सेत्तं संमुच्छिममणुस्सा' ॥ सम्प्रति गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्यप्रतिपादनार्थमाह से किं तं गन्भवतियमणुस्सा?, २ तिविधा पण्णत्ता, तंजहा-कम्मभूमगा अकम्मभूमगा अंतरदीवगा ॥ (सू० १०७) से किं तं अंतरदीवगा?, २ अट्ठावीसतिविधा पण्णत्ता, तंजहा-एगुरुया आभासिता वेसाणिया णांगोली हयकण्णगा० आयंसमुहा० आसमुहा० आसकपणा० उक्कामुहा० घणदंता जाव सुद्धदंता ॥ (सू० १०८) . मेकित मित्यादि, अथ के ते गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्याः ?, सूरिराह-गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्यास्त्रिविधाः प्रज्ञप्तास्तद्यथा-कर्मभूमका अकर्मभमका आन्तरद्वीपकाः, तत्र 'अस्त्यनानुपूर्व्यपी'ति न्यायप्रदर्शनार्थमान्तरद्वीपकप्रतिपादनार्थमाह-से किं त'मित्यादि, अथ के ते आन्तरद्वीपका:?, लवणसमुद्रमध्ये अन्तरे अन्तरे द्वीपा अन्तरद्वीपा अन्तरद्वीपेषु भवा आन्तरद्वीपकाः, 'राष्ट्रेभ्यः' इति बुञ् , सूरिराह-आन्तरद्वीपका अष्टाविंशतिविधा: प्रज्ञप्ताः, तानेव तद्यथेत्यादिना नामग्राहमुपदर्शयति-एकोरुकाः १ आभाषिकाः २ वैपाणिकाः ३ नाङ्गोलिकाः ४ हयकर्णाः ५ गजकर्णाः ६ गोकर्णाः ७ शष्कुलकर्णाः ८ आदर्शमुखाः ९ मेण्ढमुखाः १० अयोमुखाः १११ गोमुखाः १२ अश्वमुखाः १३ हस्तिमुखाः १४ सिंहमुखाः १५ व्याघ्रमुखाः १६ अश्वकर्णाः १७ सिंहकर्णाः १८ अकर्णाः १९ कर्णप्रावरणा: २० उल्कामुखा: २१ मेघमुखाः २२ विद्युदन्ताः २३ विद्युजिह्वाः २४ घनदन्ताः २५ लष्टदन्ताः २६ गूढदन्ताः २७ Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धदन्ताः २८, इह एकोरुका दिनामानो द्वीपाः परं 'तात्स्थ्यात्तद्व्यपदेश' इति न्यायान्मनुष्या अप्येकोरुकादय उक्ता यथा पश्वालदेशनिवासिनः पुरुषाः पञ्चाला इति ॥ तथा चैकोरुकमनुष्याणामेकोरुकद्वीपं पिपृच्छिपुराह कहि णं भंते! दाहिणिल्लाणं एगोरूमणुस्साणं एगोरूदीवे णामं दीवे पण्णत्ते ?, गोयमा ! जर्बुद्दीवे २ मंदरस्स व्वयस्स दाहिणेणं चुल्लहिमवंतस्स वासधरपव्वयस्स उत्तरपुरच्छिमिल्लाओ चरिमंताओ लवणसमुदं तिन्नि जोयणसयाई ओगाहित्ता एत्थ णं दाहिणिल्लाणं एगोरुयमणुस्साणं एगुरुपदी णामं दीवे पण्णत्ते तिन्नि जोयणसयाई आयामविक्खंभेणं णव एकूणपण्णजोयणस किंचि विसेसेण परिक्खेवेणं एगाए पउमवरवेदियाए एगेणं च वणसंडेणं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते । सा णं पउमवरवेदिया अट्ठ जोयणाई उहुं उच्चत्तेणं पंच धणुसयाई विक्खंभेणं एगुरुपदीवं समंता परिक्खेवेणं पण्णत्ता । तीसे णं पउमवरवेदियाए अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तंजा - वइरामया निम्मा एवं वेतिघावण्णओ जहा रायपसेणईए तहा भाणियव्वो । (सू० १०९) 'कहि णं भंते!' इत्यादि, क भदन्त ! दाक्षिणात्यानां इह एकोरुकादयो मनुष्याः शिखरिण्यपि पर्वते विद्यन्ते ते च मेरोरुत्तरदिग्वर्त्तिन इति तद्व्यवच्छेदार्थ दाक्षिणात्यानामित्युक्तं, एकोरुकमनुष्याणामेकोरुकद्वीपः प्रज्ञप्तः ?, भगवानाह - गौतम । जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरपर्वतस्यान्यत्रासम्भवात् अस्मिन् जम्बूद्वीपे द्वीपे इति प्रतिपत्तव्यं, 'मन्दरपर्वतस्य' मेरोर्दक्षिणेन - दक्षिणस्यां दिशि क्षुल्लहिमवद्वर्षधरपर्वतस्य, क्षुल्लग्रहणं महाहिमवद्वर्षधरपर्वतस्य व्यवच्छेदार्थ, पूर्वस्मात् पूर्वरूपाथरमान्ताद् उत्तरपूर्वेण - उत्तरपूर्वस्यां दिशि लवण ३ प्रतिपत्तौ मनुष्योदेशः १ सू० १०९ ॥ १४४ ॥ Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुद्रं त्रीणि योजनशतान्यवगाह्यात्रान्तरे क्षुल्लहिमवदंष्ट्राया उपरि दाक्षिणात्यानामेकोरुकमनुष्याणामेकोरुकद्वीपो नाम द्वीपः प्रज्ञप्तः, स च त्रीणि योजनशतान्यायामविष्कम्भेण समाहारो द्वन्द्वः आयामेन विष्कम्भेन चेत्यर्थः, नव 'एकोनपञ्चाशानि' एकोनपञ्चाशदधिकानि योजनशतानि ९४९ परिक्षेपेण, परिमाणगणितभावना-"विक्खंभवग्गदहगुणकरणी वट्टस्स परिरओ होइ" इति- करणवशात्स्वयं कर्त्तव्या सुगमत्वात् ॥ सा णं पउमवरवेतिया एगेणं वणसंडेणं सवओ समंता संपरिक्खित्ता । से णं वणसंडे देसूणाई दो जोयणाई चक्कवालविक्खंभेणं वेतियासमेणं परिक्खेवेणं पण्णत्ते, से णं वणसंडे किण्हे किण्होभासे, एवं जहा रायपसेणइयवणसंडवपणओ तहेव निरवसेसं भाणियव्वं, तणाण य वण्णगंधफासो सद्दो तणाणं वावीओ उप्पायपचया पुढविसिलापट्टगा य भाणितव्वा जाव तत्थ णं बहवे वाणमंतरा देवा य देवीओ य आसयंति जाव विहरंति ॥ (सू० ११०) 'से ण'मित्यादि, स एकोरुकनामा द्वीप एकया पद्मवरवेदिकया एकेन वनषण्डेन 'सर्वतः' सर्वासु दिक्षु 'समन्ततः' सामस्त्येन परिक्षिप्तः, तत्र पद्मवरवेदिकावर्णको वनषण्डवर्णकश्च वक्ष्यमाणजम्बुद्वीपजगत्युपरिपद्मवरवेदिकावनपण्डवर्णकवद् भावनीयः, स च तावद् यावच्चरमं 'आसयंतीति पदम् ॥ एगोख्यदीवस्स णं दीवस्स अंतो बहुसमरमणिजे भूमिभागे पण्णत्ते, से जहाणामए आलिंगपुक्खरेति वा, एवं सयणिज्जे भाणितव्वे जाव पुढविसिलापट्टगंसि तत्थ णं वहवे एगुरूयदीवया । Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३ प्रतिपत्ती मनुष्याधि० उद्देशः१ है सू०१११ मणुस्सा य मणुस्सीओ य आसयंति जाव विहरंति, एगुरुयदीवे णं दीवे तत्थ तत्थ देसे तहिं २ यहवे उद्दालका कोद्दालका कतमाला णयमाला णटमाला सिंगमाला संखमाला दंतमाला सेलमालगा णाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो! कुसविकुसविसुद्धरुक्खमूला मूलमंतो कंदमंतो जाव बीयमंतो पत्तेहि य पुप्फेहि य अच्छण्णपडिच्छण्णा सिरीए अतीव २ उवसोभेमाणा उवसोहेमाणा चिटुंति, एकोरुयदीवे णं दीवे रुक्खा बहवे हेरुयालवणा भेरुयालवणा मेरुयालवणा सेरुयालवणा सालवणा सरलवणा सत्तवण्णवणा पूतफलिवणा खजूरिवणा णालिएरिवणा कुसविकुसवि० जाव चिटुंति, एगुरूदीवे णं तत्थ २ बहवे तिलया लवया नग्गोधा जाव रायरुक्खा णंदिरुक्खा कुसविकुसवि० जाव चिट्ठति, एगुरुयदीवे णं तत्थ बहूओ पउमलयाओ जाव सामलयाओ निचं कुसुमिताओ एवं लयावण्णओ जहा उववाइए जाव पडिरूवाओ, एकोरूयदीवे णं तत्थ २ बहवे सेरियागुम्मा जाव महाजातिगुम्मा ते णं गुम्मा दसद्धवण्णं कुसुमं कुसुमंति विधूयग्गसाहा जेण वायविधूयग्गसाला एगुरूयदीवस्स बहसमरमणिजभूमिभाग मुक्कपुप्फपुंजोवयारकलियं करेंति, एकोख्यदीवेणं तत्थ २ बहओ वणरातीओ पण्णत्ताओ, ताओ णं वणरातीतो किण्हातो किण्होभासाओ जाव रम्माओ महामेहणिगुरुंबभूताओ जाव महती गंधद्धर्णि मुयंतीओ पासादीताओ४ । एगुरूयदीवे तत्थ २ बहवे मत्तंगा णाम दुमगणा पण्णत्ता समणा ॥१४५॥ Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसो! जहा से चंदप्पभमणिसिलागवरसीधुपवरवारुणिसुजातफलपत्तपुप्फचोयणिज्जा संसारबहुदव्वजुत्तसंभारकालसंधयासवा महुमेरगरिट्ठाभदुद्धजातीपसन्नमेल्लगसताउ खजूरमुद्दियासारकाविसायणसुपक्कखोयरसवरसुरावण्णरसगंधफरिसजुत्तबलवीरियपरिणामा मजविहित्थबहुप्पगारा तदेवं ते मत्तंगयावि दुमगणा अणेगबहुविविहवीससापरिणयाए मल्लविहीए उववेदा फलेहिं पुण्णा वीसंदंति कुसविकुसविसुद्धरुक्खमूला जाव चिट्ठति १। एकोरुए दीवे तत्थ २ यहवो भिंगंगया णाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो!, जहा से बारगघडकरगकलसककरिपायंकंचणिउदंकवद्धणिसुपविट्ठरपारीचसकभिंगारकरोडिसरगथरगपत्तीथालणत्थगववलियअवपदगवारकविचित्तवद्दकमणिवट्टकसुत्तिचारुपिणयाकंचणमणिरयणभत्तिविचित्ता भायणविधीए बहुप्पगारा तहेव ते भिंगंगयावि दुमगणा अणेगबहुगविविहवीससाए परिणताए भाजणविधीए उववेया फलेहिं पुन्नाविव विसदंति कुसविकुस० जाव चिट्ठति २। एगोरुगदीवे णं दीवे तत्थ २ यहवे तुडियंगा णाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो!, जहा से आलिंगमुयंगपणवपडहदद्दरगकरडिडिडिमभंभाहोरंभकणियारखरमुहिमुगुंदसंखियपरिलीवव्वगपरिवाइणिवंसावेणुवीणासुघोसविवंचिमहतिकच्छभिरगसगातलतालकंसतालसुसंपत्ता आतोजविधीणिउणगंधव्वसमयकुसलेहिं फंदिया तिट्ठाणसुद्धा तहेव ते तुडियंगयावि दुमगणा अणेगबहुविविधवीससापरि Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३प्रतिपत्ती मनुष्याधि० उद्देशः१ सू० १११ णामाए ततविततघणसुसिराए चउबिहाए आतोज्जविहीए उववेया फलेहिं पुण्णा विसन्ति कुसविकसविसुद्धरुक्खमूला जाव चिट्ठति ३। एगोरुयदी तत्थ २ वहवे दीवसिहा णाम दमगणा पण्णत्ता समणाउसो!, जहा से संझाविरागसमए नवणिहिपतिणो दीविया चक्कवालविंदे पभयवहिपलित्ताणेहिं धणिउज्जालियतिमिरमद्दए कणगणिगरकुसुमितपालियातयवणप्पगासो कंचणमणिरयणविमलमहरिहतवणिजुज्जलविचित्तदंडाहिं दीवियाहिं सहसा पज्जलिऊसवियणिद्धतेयदिप्पंतविमलगहगणसमप्पहाहिं वितिमिरकरसूरपसरिउल्लोयचिल्लियाहिं जावज्जलपहसियाभिरामाहिं सोभेमाणा तहेव ते दीवसिहावि दुमगणा अणेगयहुविविहवीससापरिणामाए उज्जोयविधीए उववेदा फलेहिं पुण्णा विसदंति कुसविकुसवि० जाव चिट्ठति । एगुरुयदीवे तत्थ २ बहवे जोतिसिहा णाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो!, जहा से अचिरुग्गयसरयसूरमंडलपडंतउक्कासहस्सदिप्पंतविजुज्जालहुयवहनिमजलियनिद्धंतधोयतत्ततवणिजकिंसुयासोयजावासुयणकुसुमविमउलियपुंजमणिरयणकिरणजचहिंगुलुयणिगररूवाइरेगरूवा तहेव ते जोतिसिहावि दुमगणा अणेगबहुविविवीससापरिणयाए उज्जोयविहीए उववेदा सुहलेस्सा मंदलेस्सा मंदायवलेस्सा कूडाय इव ठाणठिया अन्नमन्नसमोगाढाहिं लेस्साहिं साए पभाए सपदेसे सवओ समंता ओभासंति उज्जोवेंति पभासेंति कुसविकुसवि. जाव चिट्ठति ACACACAACANCARICORRESGARIK ॥१४६॥ Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५। एगुरुयदीवे तत्थ २ यहवे चित्तंगा णाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो!. जहा से पेच्छाघरे विचित्ते रम्मे वरकुसुमदाममालुज्जले भासंतमुक्कपुप्फपुंजोवयारकलिए विरल्लिविचित्तमल्लसिरिदाममल्लसिरिसमुदयप्पगन्भे गंथिमवेढिमपूरिमसंघाइमेण मल्लेण छेयसिप्पियं विभारतिएण सव्वतो चेव समणुबद्धे पविरललवंतविप्पइटेहिं पंचवण्णेहिं कुसुमदामेहिं सोभमाणेहिं सोभमाणे वणमालतग्गए चेव दिप्पमाणे तहेव ते चित्तंगयावि दुमगणा अणेगबहुविविहवीससापरिणयाए मल्लविहीए उववेया कुसविकुसवि० जाव चिट्ठति ६ । एगुरुयदीवे तत्थ २ बहवे चित्तरसा णाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो!, जहा से सुगंधवरकलमसालिविसिद्वणिरुवहतदुद्धरडे सारयघयगुडखंडमहुमेलिए अतिरसे परमण्णे होज उत्तमवण्णगंधमंते रण्णो जहा वा चक्कवहिस्स होज णिउणेहिं सूतपुरिसेहिं सज्जिएहिं वाउकप्पसेअंसित्ते इव ओदणे कलमसालिणिजत्तिएवि एके सव्वप्फमिउवसयसगसित्थे अणेगसालणगसंजुत्ते अहवा पडिपुण्णव्वुवखडेसु सक्कए वण्णगंधरसफरिसजुत्तवलविरियपरिणामे इंदियबलपुट्टिवणे खुपिवासमहणे पहाणे गुलकटियखंडमच्छंडियउवणीए पमोयगे सहसमियगन्भे हवेज परमइटुंगसंजुत्ते तहेव ते चित्तरसावि दुमगणा अणेगबहुविविहवीससापरिणयाए भोजणविहीए उववेदा कुसविकुसवि० जाव चिट्ठति ७। एगुरूए दीवे णं तत्थ २ वहवे मणियंगा नाम दुमंगणा प Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ प्रतिपत्ती मनुष्याधि० उद्देशः १ सू०१११ YASALASSESAMEERASEX पणत्ता समणाउसो!, जहा से हारद्धहारवणगमउडकुंडलवासुत्तगहेमजालमणिजालकणगजालगमुत्तगउच्चियकडगाखुडियएकावलिकंठसुत्तमंगरिमउरत्थगेवेजसोणिसुत्तगचूलामणिकणगतिलगफुल्लसिद्धत्थयकपणवालिससिसूरउसभचक्कगतलभंगतुडियहत्थिमालगवलक्खदीणारमालिता चंदसूरमालिता हरिसयकेयूरवलयपालंबअंगुलज्जगकंचीमेहलाकलावपयरगपायजालघंटियखिखिणिरयणोरुजालत्थिगियवरणेउरचलणमालिया कणगणिगरमालिया कंचणमणिरयणभत्तिचित्ता भूसणविधी बहुप्पगारा तहेव ते मणियंगावि दुमगणा अणेगवहविविहवीससापरिणताए भूसणविहीए उववेया कुसवि० जाव चिट्ठति ८। एगुरूयए दीवे तत्थ २ बहवे गेहागारा नाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो!, जहा से पागारद्यालगचरियदारगोपुरपासायाकासतलमंडवएगसालविसालगतिसालगचउरंसचउसालगन्भघरमोहणघरवलभिघरचित्तसालमालयभत्तिघरवद्वतंसचतुरंसणंदियावत्तसंठियायतपंड्डुरतलमुंडमालहम्मियं अहव णं धवलहरअद्धमागहविन्भमसेलद्धसेलसंठियकूडागारद्वसुविहिकोहगअणेगघरसरणलेणआवणविडंगजालचंदणिजूहअपवरकदोवालिचंदसालियरूवविभत्तिकलिता भवणविही बहुविकप्पा तहेव ते गेहागारावि दुमगणा अणेगबहुविविधवीससापरिणयाए सुहारुहणे महोत्ताराए सुहनिक्खमणप्पवेसाए दद्दरसोपाणपंतिकलिताए पइरिकाए सुहविहाराए मणोऽणुकूलाए भवणविहीए उववेया कुसवि० जाव GACASGRACTICICIRRIGANGA ॥१४७॥ रसोपाणणगबहुविविधवीससापारमत्तिकलिता भवणविहीरणलेणआवणविडंगजालचंदान Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिति ९ । एगोरुयदीवे तत्थ २ बहवे अणिगणा णामं दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो ! जहा से अणेगसो मंतणुतं कंबलदुगुल्लको सेज्जकालमिगपट्टचीणं सुयबरणातवारवणिगयतुआभर चित्तसहिणगकल्लाणगभिंगिणीलकज्जलबहुवण्णरत्तपीतमुक्किल मक्खयमिगलोम हे मष्करुण्णगअवसरत्तगसिंधुओसभदामिलवंगकलिंग नेलिणतंतुमयभत्तिचित्ता वत्थविही बहुप्पकारा हवेज वरपट्टणुग्गता वण्णरागकलिता तहेव ते अणिघणावि दुमगणा अणेगबहुविविहवीससापरिणare वत्थविधी उववेया कुसविकुसवि० जाव चिट्ठति १० । एगोरुयद्दीवे णं भंते । दीवे मणुयाणं रिस आगारभाव पडोयारे पण्णत्ते ?, गोयमा ! ते णं मणुया अणुवमतरसोमचारुरूवा भोगुत्तमलक्खणा भोगसस्सिरीया सुजायसव्वंग सुंदरंगा सुपतिङियकुम्मचारुचलणा रतुप्पलपत्तमउयसुकुमालकोमलता नगनगरसागरमगर चकंकवरं कलक्खणंकियचलणा अणुपुव्वसुसाहतंगुलीया उष्णतणुतंवणिद्वणखा संठियसुसिलिङगूढगुप्फा एणी कुरुविंदावत्तवाणुपुव्वजंघा समुग्गणिमग्गगूढजाणू गतससणसुजातसण्णिभोरू वरवारणमत्ततुलविक्कम विलासितगती सुजातवरतुरगगुज्झदेसा आइण्णहतोव णिरुवलेवा पमुइयवरतुरियसीहअतिरेगवद्वियकडी साहयसोजिंदमुसलदप्पणणिगरितवरकणगच्छक (रु) सरिसवरवइरपलितमज्झा उज्जयसमसहितसुजातजचतणुकसिणणिद्ध आदेज्जल डह सुकुमालमज्यरमणीज्जरोमराती गंगावत्तपयाहिणावत्ततरंग भंगुरर Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३प्रतिपत्तौ मनुष्या धि० उद्दशः१ है सू० १११ ACASSAGARMATIOBC विकिरणतरुणबोधितअकोसायंतपउमगंभीरवियडणाभी झसविहगसुजातपीणकुच्छी असोदरा सुइकरणा पम्हवियडणाभा सण्णयपासा संगतपासा सुंदरपासा सुजातपासा मितमाइयपीणरतियपासा अकरुंडयकणगरुयगनिम्मलसुजायनिरुवहयदेहधारी पसत्थवत्तीसलक्खणधरा कणगसिलातलुज्जलपसत्थसमयलोवचियविच्छिन्नपिहुलवच्छी सिरिवच्छंकियवच्छा पुरवरफलिहवहियभुया भुयगीसरविपुलभोगआयाणफलिहउच्छूढदीवाह जूयसन्निभपीणरतियपीवरपउडसंठियसुसिलिट्ठविसिघणथिरसुबहसुनिगूढपव्वसंधी रत्ततलोवइतमज्यमंसलपसत्थलक्खणसुजायअच्छिद्दजालपाणी पीचरवट्टियसुजायकोमलवरंगुलीया तंवतलिणसुचिरुहरणिद्धणक्खा चंदपाणिलेहा सूरपाणिलेहा संखपाणिलेहा चक्रपाणिलेहा दिसासोअत्थियपाणिलेहा चंदसूरसंखचक्कदिसासोअत्थियपाणिलेहा अणेगवरलक्खणुत्तमपसत्थसुचिरतियपाणिलेहा वरमहिसवराहसीहसलउसभणागवरपडिपुन्नविउलउन्नतमइंदखंधा चउरंगुलमुप्पमाणकंवुवरसरिसगीवा अवद्वितसुविभत्तसुजातचित्तमंसूमंसलसंठियपसत्थसद्दूलविपुलहणुयाओ तवितसिलप्पवालबिंबफलसन्निभाहरोहा पंडुरससिसगलविमलनिम्मलसंखगोखीरफेणदगरयमुणालिया धवलदंतसेढी अखंडदंता अफुडियदंता अविरलदंता सुजातदंता एगदंतसेढिव्व अणेगदंता हुतवहनिलुतघोततत्ततवणिज्जरत्ततलतालुजीहा गरुलाययउजुतुंगणासा अवदालियपोंडरीयणयणा कोकासितध LOSOSASSO644069 ॥१४८॥ Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वलपत्तलच्छा आणामियचावरुइलकिण्हपूराइयसंठियसंगतआयतसुजाततणुकसिणनिद्धभुमया अल्लीणप्पमाणजुत्तसवणा सुस्सवणा पीणमंसलकवोलदेसभागा अचिरुग्गयबालचंदसंठियपसत्थविच्छिन्नसमणिडाला उडुवतिपडिपुण्णसोमवदणा छत्तागारुत्तमंगदेसा घणणिचियसुबद्धलक्खगुण्णयकूडागारणिभपिंडियसिस्से दाडिमपुप्फपगासतवणिज्जसरिसनिम्मलसुजायकेसंतकेसभूमी सामलिबोंडघणणिचियछोडियमिउविसयपसत्थसुहमलक्खणसुगंधसुंदरभुयमोयगभिगिणीलकजलपहभमरगणणिद्धणिकुरुंबनिचियकुंचियचियपदाहिणावत्तमुद्धसिरया लक्खणवंजणगुणोववेया सुजायसुविभत्तसुरूवगा पासाइया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा, ते णं मणुया हंसस्सरा कोंचस्सरा नंदिघोसा सीहस्सरा सीहघोसा मंजुस्सरा मंजुघोसा सुस्सरा सुस्सरणिग्घोसा छायाउज्जोतियंगमंगा बजरिसभनारायसंघयणा समचउरंससंठाणसंठिया सिणिद्धछवी णिरायंका उत्तमपसत्थअइसेसनिरुवमतणू जल्लमलकलंकसेयरयदोसवज्जियसरीरा निरुवमलेवा अणुलोमवाउवेगा कंकग्गहणी कवोतपरिणामा सउणिव्व पोसपिढेंतरोरुपरिणता विग्गहियउन्नयकुच्छी पउमुप्पलसरिसगंधणिस्साससुरभिवदणा अधणुसयं ऊसिया, तेसि मणुयाणं चउसहि पिट्टिकरंडगा पण्णत्ता समणाउसो!, ते णं मणुया पगतिभद्दगा पगतिविणीतगा पगतिउवसंता पगतिपयणुकोहमाणमायालोभा मिउमद्दवसंपण्णा अल्लीणा भद्दगा विणीता अप्पिच्छा असंनिहिसं Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ प्रतिपत्तौ मनुष्या. धि० उद्देशः१ सू०१११ चया अचंडाविडिमंतरपरिवसणा जहिच्छियकामगामिणो य ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो।। तेसि णं भंते! मणुयाणं केवतिकालस्स आहारट्टे समुप्पज्जति?, गोयमा! चउत्थभत्तस्स आहारट्टे समुप्पज्जति, एगोरुयमणुईणं भंते! केरिसए आगारभावपडोयारे पण्णते?, गोयमा! ताओणं मणुईओ सुजायसव्वंगसुंदरीओ पहाणमहिलागुणेहिं जुत्ता अचंतविसप्पमाणपउमसूमालकुम्मसंठितविसिट्ठचलणाओ जुम्मिओ पीवरनिरंतरपुट्ठसाहितंगुलीता उण्णयरतियनलिणंव सुइणिद्धणखा रोमरहियवद्दलट्ठसंठियअजहण्णपसत्यलक्खणअकोप्पजंघजुयला सुणिम्मियसुगूढजाणुमंडलसुबदसंधी कयलिक्खंभातिरेगसंठियणिव्वणसुकुमालमउयकोमलअविरलसमसहितसुजातवदृपीवरणिरंतरोरू अट्ठावयवीचीपदृसंठियपसत्थविच्छिन्नपिहलसोणी वदणायामप्पमाणदुगुणितविसालमंसलसुयद्धजहणवरधारणीतो वज्जविराइयपसत्थलक्खणणिरोदरा तिवलिवलीयतणुणमियमज्झितातो उजुयसमसहितजच्चतणुकसिणणिद्धआदेजलडहसुविभत्तसुजातकंतसोभतरुइलरमणिजरोमराई गंगावत्तपदाहिणावत्ततरंगभंगुररविकिरणतरुणबोधितअकोसायंतपउमवणगंभीरवियडणाभी अणुन्भडपसत्थपीणकुच्छी सण्णयपासा संगयपासा सुजायपासा मितमातियपीणरइयपासा अकरंडयकणगरुयगनिम्मलसुजायणिरुवहयगातलट्ठी कंचणकलससमपमाणसमसहितसुजातलहचूचुयआमेलगजमलजुगलवद्दियअन्भुण्णयरतियसंठियपयोधराओ भुयंगणु ॥१४९॥ Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 144 पुव्वतयगोपुच्छवसमस हियणमिय आएज्जललियवाहाओ तंबणहा मंसलग्गहत्था पीवरको - मलवरंगुलीओ णिद्धपाणिलेहा रविससिसंख चक्क सोत्थियसुविभत्तसुविरतियपाणिलेहा पीणुoraraaत्थिदेसा पडिपुण्णगलकवोला चउरंगुलसुप्पमाणकंबुवरसरिसगीवा मंसलसंठियपसत्या दाडिमपुप्फ पगासपीवरकुंचियवराधरा सुंदरोत्तरोडा दधिदगरयचंदकुंदवासंतिमउलअच्छिदविमलदसणारतुप्पलपत्तमउयसुकुमालतालुजीहा कणय (व)रमुउलअकुडिलअवभुग्गतउजुतुंगणासा सारदणवकमलकुमुदकुवलयविमुक्कदलणिगर सरिस लक्खणअंकियकंतणयणा पत्तलचवलायंततंबलोयणाओ आणामितचावरुइलकिण्हन्भराइ संठियसंगत आययसुजातकसिण या अलीण माणजुत्तसवणा पीणमट्ठरमणिजगंडलेहा चउरंसपसत्थसमणिडाला कोमुतिरयणिकरविमलपडिपुन्न सोमवयणा छत्तुन्नयउत्तिमंगा कुडिलसुसिणिद्धदीहसिरया छत्तज्झजुगथूभदामिणिकमंडलुकलसवा विसोत्थियपडागजवमच्छकुम्मरहवरमगरसुकथालअंकुसअsarai सुपइकमयूरसिरिदामाभिसेयतोरणमेइणिउदधिवर भवणगिरिवरआयं सललियगतउसभसीहचमरउत्तमपसत्थवत्तीस लक्खणधरातो हंससरिसगतीतो कोतिलमधुरगिरसुस्सराओ कंता सव्वस अणुततो ववगतवलिपलिया चंगदुव्वण्णवाहीदो भग्ग सोग मुक्काओ उच्चत्तेण य नराण धोवूणमूसियाओ सभावसिंगाराचारचारुवेसा संगतगतहसितभणियचेडियविला Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । SOCIOSAS ६३प्रतिपत्ती मनुष्याधि० उद्देशः१ र सू०१११ - ससंलावणिउणजुत्तोवयारकुसला सुंदरथणजहणवदणकरचलणणयणमाला वण्णलावण्णजोवणविलासकलिया नंदणवणविवरचारिणीउव्व अच्छराओ अच्छेरगपेच्छणिज्जा पासाईतातो दरिसणिजातो अभिरुवाओ पडिरूवाओ। तासि णं भंते! मणुदेणं केवतिकालस्स आहारट्टे समुप्पजति?, गोयमा! चउत्थभत्तस्स आहारट्टे समुप्पजति । ते णं भंते! मणुया किमाहारमाहारैति?. गोयमा! पुढविपुप्फफलाहारा ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो।। तीसे णं भंते! पदवीए केरि सए आसाए पण्णत्ते?, गोयमा! से जहाणामए गुलेति वा खंडेति वा सकराति वा मच्छंडियाति वा भिसकंदेति वा पप्पडमोयएति वा पुप्फउत्तराइ वा पउमुत्तराइ वा अकोसिताति वा विजताति वा महाविजयाइ वा आयंसोवसाति वा अणोवसाति वा चाउरके गोखीरे चउठाणपरिणए गुडखंडमच्छंडिउवणीए मंदग्गिकडीए वण्णेणं उववेए जाच फासेणं, भवेतारूवे सिता?, नो इणढे समढे, तीसे णं पुढवीए एत्तो इट्ठयराए चेव जाव मणामतराए चेव आसाए णं पण्णत्ते, तेसि णं भंते! पुप्फफलाणं केरिसए आसाए पण्णत्ते?, गोयमा! से जहानामए चाउरंतचक्कवहिस्स कल्लाणे पवरभोयणे सतसहस्सनिप्फन्ने वण्णेणं उववेते गंधेणं उववेते रसेणं उववेते फासेणं उववेते आसाहणिजे वीसाइणिज्जे दीवणिज्जे बिहणिजे दुप्पणिजे मयणिज्जे सबिदियगातपल्हायणिज्जे, भवेतारूवे सिता?, णोतिणढे समढे, तेसि णं पुप्फफलाणं एत्तो इतराए चेव जाव आस्साए णं ॥१५०॥ Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्णत्ते । ते णं भंते! मणुया तमाहारमाहारिता कहिं वसहिं उवेंति ?, गोयमा ! रुक्खगेहालता णं. ते 'मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो ! । ते णं भंते! रुक्खा किंसंठिया पण्णत्ता ?, गोयमा ! कूड़ागारसंठिता पेच्छाघरसंठिता सत्तागारसंठिया झयसंठिया धूभसंठिया तोरणसंठिया गोपुरचेतियपा (या) लगसंठिया अट्टालगसंठिया पासादसंठिया हम्मतलसंठिया गवक्खसंठिया वालग्गपोत्तिय संठिता वलभी संठिता अण्णे तत्थ बहवे वरभवणसयणासणविसिह ठाणसंठिता सुहसीलच्छाया णं ते दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो ! । अत्थि णं भंते! एगोरूयद्दीवे दीवे गेहाणि वा गेहावणाणि वा?, णो तिणट्ठे समट्ठे, रुक्खगेहालया णं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो ! अत्थि णं भंते! एगूरूयदीचे २ गामति वा नगराति वा जाव सन्निवेसाति वा?, णो तिणट्ठे समट्ठे, जहिच्छित कामगामिणो ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो ! | अत्थि णं भंते! एगूरुयदीवे असीति वा मसीह वा कसी वा पणीति वा वणिज्जाति वा?, नो तिणट्टे समट्ठे, ववगयअसिमसिकिसिपणियवाणिज्जा णं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो ! । अत्थि णं भंते! एगूरुयद्दीवे हिर ति वा सुन्नेति वा कंसेति वा दूसेति वा मणीति वा मुत्तिएति वा विपुलघणकणगरयणमणिमोत्तिय संखसिलप्पवाल संतसारसावएज्जेति वा?, हंता अत्थि, णो चेव णं तेसिं मणुयाणं तिब्वे ममत्तभावे समुपज्जति । अत्थि णं भंते! एगोरुयदीवे रायाति वा जुवरायाति वा ईसरेति Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ प्रतिपत्ती मनुष्याधि० उद्देशः१ सू०१११ S AALOCALSACS ARANG वा तलवरेइ वा माडंथियाति वा कोटुंबियाति पा इन्मातिया सेट्टीति वा सेणावतीति वा सत्थवा हाति वा?, णो तिणहे समहे, ववगयइड्डीसकाराणं ते मणुयगणा पण्णसा समणाउसो!। अत्थि णं भंते! एगूरूयदीवे २ दासाति वा पेसाइ वा सिस्साति वा भयगाति वा भाइल्लगाइ वा कम्मगरपुरिसाति वा?, नो तिणहे समडे, ववगतआभिओगिताणं तेमणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो!। अस्थि णं भंते! एगोरुयदीवे दीवे माताति वा पियाति वा भायाति वा भइणीति वा भजाति वा पुत्ताति वा धूयाइ वा सुण्हाति वा ?, हंता अस्थि, नो चेव णं तेसि णं मणुयाणं तिव्वे पेमवंधणे समुप्पज्जति, पयणुपेजयंधणाणं तेमणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो।। अत्थि णं भंते ! एगुरुयदीवे अरीति वा वेरिएति वा घातकाति वा वहकाति वा पडिणीताति वा पचमित्ताति वा?, णो तिणहे समहे, ववगतवेराणुबंधा णं ते मणुयगणापण्णत्ता समणाउसोअस्थि णं भंते! एगोरूए दीवे मित्ताति वा वतंसाति वा घडिताति वा सहीति वा सुहियाति वा महाभागाति वा संगतियाति वा?, णो तिणढे समहे, ववगतपेम्मा ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो!। अस्थि णं भंते! एगोरूयदीवे आवाहाति वा वीवाहाति वा जपणाति वा सद्दाति वा थालिपाकाति वा चेलोवणतणाति वा सीमंतुण्णयणाइ वा पिति(मत)पिंडनिवेदणाति वा?, णो तिणढे समढे, ववगतआवाहविवाहजण्णभदथालिपागचोलोवणतणसीमंतुण्णयणमतपिंडनिवेदणा णं ते मणुयगणा पण्णत्ता सम ॥१५१॥ Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णाउसो!। अत्थि णं भंते! एगोरुयदीवे २ इंदमहाति वा खंदमहाति वा रुद्दमहाति वा सिवमहाति वा वेसमणमहाइ वा मुगुंदमहाति वा णागमहाति वा जक्खमहाति वा भूतमहाति वा कूवमहाति वा तलायणदिमहाति वा दहमहाति वा पव्वयमहाति वा रुक्खरोवणमहाति वा चेइयमहाइ वा थूभमहाति वा?, णो तिणढे समढे, ववगतमहमहिमा णं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो! । अस्थि णं भंते! एगोरुयदीवे दीवे णडपेच्छाति वा णदृपेच्छाति वा मल्लपेच्छाति वा च्छाइ वा विडंबगपेच्छाह वा कह पवगपेच्छाति वा अक्खायगपेच्छाति वा लासगपेच्छाति वा लंखपे० मंखपे० तूणइल्लपे० तुंबवीणपे० कावणपे० मागहपे० जल्लपे०१, णो तिणढे समढे, ववगतकोउहल्ला णं तेमणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो!। अत्थिणं भंते ! एगुरूयदीवे सगडाति वा रहाति वा जाणाति वा जुग्गाति वा गिल्लीति वा थिल्लीति वा पिपिल्लीइ वा पवहणाणि वा सिवियाति वा संदमाणियाति वा?, णो तिणढे समठे, पादचारविहारिणो णं ते मणुस्सगणा पण्णत्ता समणाउसो! । अस्थि णं भंते! एगुरुयदीवे आसाति वा हत्थीति वा उहाति वा गोणाति वा महिसाति वा खराति वा घोडाति वा अजाति वा एलाति वा?, हंता अत्थि, नो चेव णं तेसिं मणुयाणं परिभोगत्ताए हव्वमागच्छंति । अस्थि णं भंते! एगूरुयगदीवे दीवे सीहाति वा वग्घाति वा विगाति वा दीवियाइ वा अच्छाति वा परच्छाति वा परस्सराति वा Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. . * ३प्रतिपचौ मनुष्याधि० उद्देशः१ सू० १११ . .. तरच्छाति वा विडालाइ वा सुणगाति वा कोलसुणगाति वा कोकंतियाति वा ससगाति वा चित्तलाति वा चिल्ललगाति वा?, हंता अस्थि, नो चेव णं ते अण्णमण्णस्स तेसिं वा मणुयाणं किंचि आवाहं वा पवाहं वा उप्पायंति वा छविच्छेदं वा करेंति, पगतिभद्दका णं ते सावयगणा पण्णत्ता समणाउसो! । अत्थि णं भंते! एगुख्यदीवे दीवे सालीति वा वीहीति गोधूमाति वा जवाति वा तिलाति वा इक्खूति वा?, ता अत्थि, नो चेव णं तेसिं मणुयाणं परिभोगत्ताए हव्वमागच्छंति । अत्थि णं भंते! एगूरुयदीवे दीवे गत्ताइ वा दरीति वा घंसाति वा भिगति वा उवाएति वा विसमेति वा विजलेति वा धूलीति वा रेणूति वा पंकेइ वा चलणीति वा?, णो तिणद्वे समडे, एगूरुयदीवे णं दीवे बहुसमरमणिजे भूमिभागे पण्णत्ते समणाउसो।। अत्थि णं भंते! एगूरुयदीवे दीवे खाणूति वा कंटएति वा हीरएति वा सकराति वा तणकयवराति वा पत्तकयवराइ वा असुतीति वा पूतियाति वा दुन्भिगंधाइ वा अचोक्खाति वा?, णो तिणढे समढे, ववगयखाणुकंटकहीरसकरतणकयवरपत्तकयवरअसुतिपूतियदुन्भिगंधमचोक्खपरिवजिए णं एगुरुयदीवे पण्णत्ते समणाउसो।। अस्थि णं भंते। एगुरुयदीवे दीवे दंसाति वा मसगाति वा पिसुयाति वा जूताति वा लिक्खाति वा ढंकुणाति वा?, णो तिणढे समझे, ववगतदंसमसगपिसुतजूतलिक्खढंकुणपरिवज्जिए णं एगुरुयदीवे पण्णत्ते समणाउसो! । अस्थि णं भंते! एगुरुयदीवे अहीइ वा ॥१५२॥ Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अयगराति वा महोरगाति वा?, हंता अत्थि, नो चेव णं ते अन्नमन्नस्स तेसिं वा मणुयाणं किंचि आयाहं वा पयाहं वा छविच्छेयं वा करेंति, पगइभद्दगा णं ते वालगगणा पण्णत्ता समणाउसो।। अत्थि णं भंते! एगुरुयदीवे गहदंडाति वागहमुसलाति वा गहगजिताति वा गहजुद्धाति वा गहसंघाडगाति वा गहअवसव्वाति वा अन्भाति वा अन्भरुक्खाति वा संझाति वा गंधवनगराति वा गजिताति वा विजुताति वा उक्कापाताति वा दिसादाहाति वा णिग्घाताति वा पंसुविठ्ठीति वा जुवगाति वा जक्खालित्ताति वा धूमिताति वा महिताति वा रउग्घाताति वा चंदोवरागाति वा सूरोवरागाति वा चंदपरिवेसाइ वा सूरपरिवेसाति वा पडिचंदाति वा पडिसूराति वा इंदधणूति वा उद्गमच्छाति वा अमोहाइ वा कविहसियाइ वा पाईणवायाइ वा पडीणवायाइ वा जाव सुद्धवाताति वा गामदाहाति वा नगरदाहाति वा जाव सण्णिवेसदाहाति वा पाणक्खतजणक्खयकुलक्खयधणक्खयवसणभूतमणारिताति वा?, णो तिणढे समझे। अत्थि णं भंते! एगुरुयदीवे दीवे डिंबाति वा डमराति वा कलहाति वा बोलाति वा खाराति वा वेराति वा विरुद्धरजाति वा?, णो तिणटेसमटे, ववगतडिंबडमरकलहबोलखारवेरविरुद्धरजविवजिता णं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो!। अत्थि णं भंते ! एगुरुयदीवे दीवे महाजुद्धाति वा महासंगामाति वा महासत्थनिवयणाति वा महापुरिसवाणाति वा महारुधिरवाणाति वा नागवाणाति वा खेण Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M वाणा वा तामसवाणा वा कुंभूतियाइ वा कुलरोगाति वा गामरोगाति वा नगररोगाति वा मंडलरोगाति वा सिरोवेदणाति वा अच्छिवेदणाति वा कण्णवेदणाति वा णक्कवेदणाइ वा दंतवेदoाइ वा नखवेदणाइ वा कासाति वा सासाति वा जराति वा दाहाति वा कच्छूति वा खसरातिया कुद्वाति वा कुडाति वा दगराति वा अरिसाति वा अजीरगाति वा भगंदराइ वा इंदग्गहाति या खंदग्गहाति वा कुमारग्गहाति वा णागग्गहाति वा जक्खग्गहाति वा भूतग्गहाति वा उच्चेयहाति वा धणुग्गहाति वा एगाहियग्गहाति वा बेयाहियगहिताति वा तेयाहियगहियाइ वा वात्थगाहियाति वा हिययसूलाति वा मत्थगसूलाति वा पाससुलाह वा कुच्छिसूलाइ वा जोणिमूलाइ वा गाममारीति वा जाय सन्निवेसमारीति वा पाणक्खय जाव वसणभूतमणारिताति वा?, णो मिट्टे समट्टे, ववगतरोगायंका णं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो !। अत्थि णं भंते! एगुरूयदी दीवे अतियासाति वा मंदवासाति वा सुट्टीह वा मंदबुद्धीति वा उद्दवाहाति वा पत्राहाति वादगुभेयाइ वा दगुप्पीलाइ वा गामवाहाति वा जाव सन्निवेसवाहाति वा पाणक्खय० जाव बसणभूतमणारिताति वा?, णो तिणट्टे समट्टे, वयगतद्गोवदवा णं ते मणुयगणा पण्णत्ता समगाउसो ! । अस्थि णं भंते ! एगुरूपदीये दीये अयागराति वा तम्पागराह वा सीसागराति वा 'सुबण्णागराति वा रतगागराति वा बहरागराड़ या यसुहाराति वा हिरण्णवासाति वा सुवण्ण ३ प्रतिपत्तौ मनुष्याधि० उद्देशः १ सू० १११ ॥ १५३ ॥ Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वासाति वा रयणवासाति वा वइरवासाति वा आभरणवासाति वा पत्तवासाति वा पुप्फवासाति वा फलवासाति वा बीयवासा० मल्लवासा० गंधवासा० वण्णवासा० चुण्णवासा० खीरवुट्ठीति वा रयणवुट्ठीति वा हिरण्णवुट्टीति वा सुवण्ण तहेव जाव चुण्णवुट्ठीति वा सुकालाति वा दुकालाति वा सुभिक्खाति वा दुभिक्खाति वा अप्पग्घाति वा महग्धाति वा कयाइ वा महाविक्कयाइ वा सण्णिहीइ वा सचयाइ वा निधीइ वा निहाणाति वा चिरपोराणाति वा पहीणसामियाति बा पहीणसेउयाइ वा पहीणगोत्तागाराई वा जाइं इमाइं गामागरणगरखेडकब्बडमडंबदोणमुहपट्टणासमसंवाहसन्निवेसेसु सिंघाडगतिगचउक्कचच्चरचउमुहमहापहपहेसु णगरणिडमणसुसाणगिरिकंदरसन्तिसेलोवट्ठाणभवणगिहेसु सन्निक्खित्ताई चिट्ठति, नो तिणढे समढे । एगुरुयदीये गं भंते! दीवे मणुयाणं केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता , गोयमा! जहन्नेणं पलिओवमस्स असं गं असंखेजतिभागेण ऊणगं उक्कोसेण पलिओवमस्स असंखेज्जतिभागं । ते णं भंते! मणुया कालमासे कालं किचा कहिं गच्छंति कहिं उववजंति?, गोयमा! ते णं मणुया छम्मासाबसेसाउया मिहणताइं पसवंति अउणासीइं राइंदियाइं मिहुणाई सारक्खंति संगोविंति य, सारक्खित्ता २ उस्ससित्ता निस्ससित्ता कासित्ता छीतित्ता अकिट्ठा अव्वहिता अपरियाविया [पलिओवमस्स असंखिनइभागं परियाविय] सुहंसुहेणं कालमासे कालं किचा अन्नयरेसु देवलोएसु Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवत्ताए उववत्तारो भवन्ति, देवलोयपरिग्गहा णं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो!॥ कहि णं भंते। दाहिणिल्लाणं आभासियमणुस्साणं आभासियदीवे णामं दीवे पण्णते?, गोयमा! जंबूदीवे दीवे चुल्लहिमवंतस्स वासधरपब्बतस्स दाहिणपुरच्छिमिल्लातो चरिमंतातो लवणसमुदं तिनि जोयण सेसं जहा एगुरूयाणं णिरवसेसं सव्वं ॥ कहि णं भंते !! दाहिणिल्लाणं णंगोलिमणुस्साणं पुच्छा, गोयमा! जंबूद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं चुल्लहिमवंतस्स वास धरपव्वयस्स उत्तरपुरच्छिमिल्लातो चरिमंतातो लवणसमुई तिपिण जोयणसताई सेसं जहा ए• गुरुयमणुस्साणं ॥ कहि णं भंते! दाहिणिल्लाणं वेसाणियमणुस्साणं पुच्छा, गोयमा! जंबूद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं चुल्लहिमवंतस्स वासधरपव्वयस्स दाहिणपञ्चस्थिमिल्लाओ च रिमंताओ लवणसमुई तिपिण जोयण सेसं जहा एगुरुयाणं ॥ (सू०१११) ___ 'एगोरुयदीवस्स णं भंते!' इत्यादि, एकोरुकद्वीपस्य णमिति पूर्ववत् भदन्त ! 'कीदृशः' क इव दृश्य: 'आकारभावप्रत्यवतारः' भूम्यादिवरूपसम्भवः प्रज्ञप्तः ?, भगवानाह-गौतम! एकोरुकद्वीपे 'बहुसमरमणीयः' प्रभूतसमः सन् रम्यो भूमिभागः प्रज्ञप्तः । 'से जहानामए आलिंगपुक्खरेइ वा' इत्यादिरुत्तरकुरुगमस्तावदनुसतव्यो यावदनुसजनासूत्रं, नवरमत्र नानात्वमिदं-मनुष्या अष्टौ धनुःशतान्युच्छ्रिता वक्तव्याश्चतुःषष्टिः पृष्ठकरण्डका:-पृष्ठवंशाः, वृहत्प्रमाणानां हि ते बहवो भवन्ति, एकोनाशीतिं च रानिन्दिवानि खापत्यान्यनुपालयन्ति, स्थितिस्तेषां जघन्येन देशोनः पल्योपमासयेयभागः, एतदेव व्याचप्टे-पल्योपमासङ्ख्येयभागन्यूनः, उत्कर्षतः ३प्रतिपचौ मनुष्याधि० उद्देशः १ सू०१११ CARRIGANGANGANGANGRESCRICA ॐ ॥१५४॥ Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिपूर्णः पल्योपमासङ्ख्येयभागः ॥ 'कहि णं भंते!" इत्यादि, क भदन्त ! दाक्षिणात्यानामाभाषिकमनुष्याणामाभाषिकद्वीपो नाम द्वीप: प्रज्ञप्तः ?, भगवानाह - गौतम ! जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणेन - दक्षिणस्यां दिशि क्षुल्लहिमवतो वर्षधरपर्वतस्य पूर्वस्माश्रमान्तात् 'दक्षिण पूर्वेण' दक्षिणपूर्वस्यां दिशि लवणसमुद्रं क्षुल्लहिमवदंष्ट्राया उपरि त्रीणि योजनशतान्यवगाह्यात्रान्तरे दंष्ट्राया उपरि दाक्षिणात्यानामाभापिकमनुष्याणामाभाषिकद्वीपो नाम द्वीपः प्रज्ञप्तः, शेषवक्तव्यता एकोरुकवद्वक्तव्या यावत्स्थितिसूत्रम् ॥ 'कहि णं भंते!' इत्यादि, क भदन्त ! दाक्षिणात्यानां नाङ्गोलिकमनुष्याणां नाङ्गोलिकद्वीपो नाम द्वीपः प्रज्ञप्तः ?, भगवानाह - गौतम ! जम्बूद्वीपे द्वीपे मंदरस्य पर्वतस्य 'दक्षिणेन' दक्षिणस्यां दिशि क्षुल्लहिमवतो वर्षधरपर्वतस्य पाश्चात्याच्चरमान्ताद् 'दक्षिणपश्चिमेन' दक्षिणपश्चिमायां | दिशि लवण समुद्रं त्रीणि योजनशतान्यवगाह्यात्रान्तरे दंष्ट्राया उपरि दाक्षिणात्यानां नाङ्गोलिकमनुष्याणां नाङ्गोलिकद्वीपो नाम द्वीपः प्रज्ञप्तः, | शेषं यथैकोरुकाणां तथा वक्तव्यं यावत्स्थितिसूत्रम् ॥ 'कहि णं भंते!' इत्यादि, क भदन्त ! वैशालिकमनुष्याणां वैशालिकद्वीपो नाम द्वीप: प्रज्ञप्तः ?, भगवानाह —-गौतम । जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य 'दक्षिणेन' दक्षिणस्यां दिशि क्षुल्लहिमवतो वर्षधरपर्वतस्य पा - श्चात्याश्चरमान्ताद् 'उत्तर पश्चिमेन' उत्तरपश्चिमायां दिशि लवणसमुद्रं त्रीणि योजनशतान्यवगाह्यान्त्रान्तरे दंष्ट्राया उपरि वैशालिकमनुष्याणां वैशालिकद्वीपो नाम द्वीपः प्रज्ञप्तः, शेषमेकोरुकवद् वक्तव्यं यावत्स्थितिसूत्रम् ॥ कहिणं भंते! दाहिणिल्लाणं हयकण्णमणुस्साणं हयकण्णदीवे णामं दीवे पण्णत्ते ?, गोयमा ! एगुरूयदीवस्स उत्तरपुरच्छिमिल्लातो चरिमंतातो लवणसमुदं चत्तारि जोयणसयाई ओगाहित्ता एत्थ णं दाहिणिल्लाणं हयकण्णमणुस्साणं हयकण्णदीवे णामं दीवे पण्णत्ते, चत्तारि जोयणसयाई Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ प्रतिपत्ती मनुष्याधि० उद्देशः१ सू०११२ . . . : ***OLORES EOSDELEASEOSESSO आयामविक्खंभेणं यारस जोयणसया पन्नट्ठी किंचिविसेसूणा परिक्खेवेणं, से णं एगाए पउमवरवेतियाए अवसेसं जहा एगुरूयाणं । कहि णं भंते! दाहिणिल्लाणं गजकण्णमणुस्साणं पुच्छा, गोयमा! आभासियदीवस्स दाहिणपुरच्छिमिल्लातो चरिमंतातो लवणसमुई चत्तारि जोयणसताई सेसं जहा हयकण्णाणं । एवं गोकण्णमणुस्साणं पुच्छा । वेसाणितदीवस्स दाहिणपचत्थिमिल्लातो चरिमंतातो लवणसमुदं चत्तारि जोयणसताइं सेसं जहा हयकण्णाणं । सक्कुलिकण्णाणं पुच्छा, गोयमा! गंगोलियदीवस्स उत्तरपञ्चत्थिमिल्लातो चरिमंतातो लवणसमुदं चत्तारि जोयणसताई सेसं जहा हयकण्णाणं ॥आतंसमुहाणं पुच्छा, हतकण्णयदीवस्स उत्तरपुरच्छिमिल्लातो चरिमंतातो पंच जोयणसताई ओगाहित्ता एत्थ णं दाहिणिल्लाणं आयंसमुहमणुस्साणं आयंसमुहदीवे णामं दीवे पण्णत्ते, पंच जोयणसयाई आयामविक्खंभेणं, आसमुहाईणं छ सया, आसकन्नाईणं सत्त, उक्कामुहाईणं अट्ट, घणदंताइणं जाव नव जोयणसयाई,-एगूरुयपरिक्खेवो नव चेव सयाई अउणपन्नाई। बारसपन्नट्ठाई हयकपणाईणं परिक्खेवो ॥१॥ आयंसमुहाईणं पन्नरसेकासीए जोयणसते किंचिविसेसाधिए परिक्खेवेणं, एवं एतेणं कमेणं उवउचिऊण तव्वा चत्तारि चत्तारि एगपमाणा, णाणत्तं ओगाहे, विक्खंभे परिक्खेवे पढमबीतततियचउक्काणं उग्गहो विक्खंभो परिक्खेवो भणितो, चउत्थचउक्के छजोयणसयाई आयामविक्खंभेणं अट्ठारसत्ताणउते जोयणसते विक्खंभेणं । पंचम ॥१५५॥ Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 45-5-RES घउक्के सत्त जोयणसताइं आयामविक्खंभेणं बावीसं तेरसोत्सरे जोयणसए परिक्खेवेणं। छट्ठचउक्के अट्ठजोयणसताइं आयामविक्खंभेणं पणुवीसं गुणतीसजोयणसए परिक्खेवेणं । सत्तमचउक्के नवजोयणसताइं आयामविक्खंभेणं दो जोयणसहस्साइं अट्ठ पणयाले जोयणसए परिक्खेवेणं । जस्स य जो विक्खंभो उग्गहो तस्स तत्तिओ चेव । पढमाइयाण परिरतो जाण सेसाण अहिओ उ ॥१॥ सेसा जहा एगुरूयदीवस्स जाव सुद्धदंतदीवे देवलोकपरिग्गहा णं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो!॥ कहि णं भंते! उत्तरिल्लाणं एगुरूयमणुस्साणं एगुरुयदीवे णामं दीवे पपणत्ते?, गोयमा! जंबूद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं सिहरिस्स वासधरपव्वयस्स उत्तरपुरच्छिमिल्लाओ चरिमंताओ लवणसमुदं तिणि जोयणसताइं ओगाहित्ता एवं जहा दाहिणिल्लाण तहा उत्तरिल्लाण भाणितव्वं, णवरं सिहरिस्स वासहरपब्वयस्स विदिसासु, एवं जाव सुद्धदंतदीवेत्ति जाव सेत्तं अंतरदीवका ॥ (सू० ११२)। से किं तं अकम्मभूमगमणुस्सा?, २ तीसविधा पण्णत्ता, तंजहा-पंचहिं हेमवएहिं, एवं जहा पण्णवणापदे जाव पंचहिं उत्तरकुरूहिं. सेत्तं अकम्मभूमगा। से किं तं कम्मभूमगा?, २ पण्णरसविधा पण्णत्ता, तंजहा-पंचहिं भर-. हेहिं पंचहिं एरवएहिं पंचहिं महाविदेहेहिं, ते समासतो दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-आयरिया मिलेच्छा, एवं जहा पण्णवणापदे जाव सेत्तं आयरिया, सेत्तं गम्भवकंतिया, सेत्तं मणुस्सा॥ (१० ११३) S -04-16 Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ 'कहि णं भंते!' इत्यादि, क भदन्त हयकर्णमनुष्याणां हयकर्णद्वीपो नाम द्वीपः प्रज्ञप्तः ?, भगवानाह-गौतम एकोरुकद्वीपस्य ३ प्रतिपत्ती पूर्वस्माच्चरमान्ताद् उत्तरपूर्वस्यां दिशि लवणसमुद्रं चत्वारि योजनशतान्यवगाह्यात्रान्तरे क्षुल्लहिमवदंष्ट्राया उपरि जम्बूद्वीपवेदिकान्तादपि ४ मनुष्याचतुर्योजनशतान्तरे दाक्षिणात्यानां हयकर्णमनुष्याणां हयकर्णद्वीपो नाम द्वीपः प्रज्ञप्तः, स च चत्वारि योजनशतान्यायामविष्कम्भेन धि० द्वादश पञ्चषष्ठानि योजनशतानि किञ्चिद्विशेपाधिकानि परिक्षेपेण, शेपं यथैकोरुकमनुष्याणां । एवमाभापिकद्वीपस्य पूर्वस्माचरमान्ता- उद्देशः १ दक्षिणपूर्वस्यां दिशि चत्वारि योजनशतानि लवणसमुद्रमवगाह्यात्रान्तरे क्षुल्लहिमवद्दष्ट्राया उपरि जम्बूद्वीपवेदिकान्ताच्चतुर्योजनशतान्तरे स०११३ गजकर्णमनुष्याणां गजकर्णो द्वीपो नाम द्वीप: प्रज्ञप्तः, आयामविष्कम्भपरिधिपरिमाणं ह्यकर्णद्वीपवत् । नाङ्गोलिकद्वीपस्य पश्चिमाञ्चर-5 & मान्ताद्दक्षिणपश्चिमेन चत्वारि योजनशतानि लवणसमुद्रमवगाह्यात्रान्तरे क्षुल्लहिमवदंष्ट्राया उपरि जम्बूद्वीपवेदिकान्ताच्चतुर्योजनशतान्तरे * गोकर्णमनुष्याणां गोकर्णद्वीपो नाम द्वीपः प्रज्ञप्तः, आयामविष्कम्भपरिधिपरिमाणं हयकर्णद्वीपवत् । वैशालिकद्वीपस्य पश्चिमाञ्चरमान्ताद् उत्तरपश्चिमायां दिशि लवणसमुद्रमवगाह्य चत्वारि योजनशतानि अत्रान्तरे क्षुल्लहिमवद्दष्ट्राया उपरि जम्बूद्वीपवेदिकान्ताच्चतुर्योजनशता न्तरे दाक्षिणात्यानां शष्कुलीकर्णमनुष्याणां शष्कुलीकर्णद्वीपो नाम द्वीपः प्रज्ञप्तः, आयामविष्कम्भपरिधिपरिमाणं हयकर्णद्वीपवत् , पद्म2 वरवेदिकावनपण्डमनुष्यादिखरूपं च समस्तमेकोरुकद्वीपवत् । एवमेतेनाभिलापेनामीपां हयकर्णादीनां चतुर्णा द्वीपानां परतो यथाक्रम पूर्वोत्तरादिविदिक्षु पञ्च योजनशतानि लवणसमुद्रमवगाह्य पञ्चयोजनशतायामविष्कम्भा एकाशीत्यधिकपञ्चदशयोजनशतपरिक्षेपाः पद्मव वेदिकावनषण्डमण्डितवाह्यप्रदेशा जम्बूद्वीपवेदिकान्तात्पश्चयोजनशतप्रमाणान्तरा आदर्शमुखमेण्डमुखायोमुखगोमुखनामानश्चत्वारो द्वीपा ॥१५६॥ वक्तव्याः, तद्यथा-हयकर्णस्य परत आदर्शमुखो गजकर्णस्य परतो मेण्डमुखो गोकर्णस्य परतोऽयोमुखः शष्कुलीकर्णस्य परतो गोमुखः । GARLSCRECORICA Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ REP -M- 2 एतेषामप्यादर्शमुखादीनां चतुर्णा द्वीपानां परतो भूयोऽपि यथाक्रम पूर्वोत्तरादिविदिक्षु प्रत्येकं लवणसमुद्रं षट् षड् योजनशतान्यवगाह्य पड्योजनशतायाम विष्कम्भाः सप्तनवत्यधिकाष्टादशयोजनशतपरिक्षेपाः पद्मवरवेदिकावनपण्डमण्डितपरिसरा जम्बूद्वीपवेदिकान्तात् षड्योजनशतप्रमाणान्तरा अश्वमुखहस्तिमुखसिंहमुखव्याघ्रमुखनामानश्चत्वारो द्वीपा वक्तव्याः, तद्यथा-आदर्शमुखस्य परतोऽश्वमुखः, मेण्ढमुखस्य परतो हस्तिमुखः, अयोमुखस्य परतः सिहमुखः, गोमुखस्य परतो व्याघ्रमुखः । एतेषामश्वमुखादीनां चतुर्णी द्वीपानां परतो यथाक्रमं पूर्वोत्तरादिविदिक्षु प्रत्येकं सप्त सप्त योजनशतानि लवणसमुद्रमवगाह्य सप्तयोजनशतायामविष्कम्भास्त्रयोदशाधिकद्वाविंशतियोजनशतपरिरयाः पद्मवरवेदिकावनषण्डसमवगूढाः जम्बूद्वीपवेदिकान्तात्सप्तयोजनशतप्रमाणान्तरा अश्वकर्णहरिकर्णाकर्णकर्णप्रावरणनामानश्चत्वारो द्वीपा बोध्याः, तद्यथा-अश्वमुखस्य परतोऽश्वकर्णः हस्तिमुखस्य परतो हरिकर्णः सिंहमुखस्य परतोऽकर्णः व्याघ्रमुखस्य परतः कर्णप्रावरणः, तत एतेषामप्यश्वकर्णादीनां चतुर्णा द्वीपानां परतो यथाक्रम पूर्वोत्तरादिविदिक्षु प्रत्येकमष्टौ अष्टौ योजनशतानि लवणसमुद्रमवगाह्याष्टयोजनशतायामविष्कम्भा एकोनत्रिंशदधिकपञ्चविंशतियोजनशतपरिक्षेपाः पद्मवरवेदिकावनखण्डमण्डितपरिसरा जम्बूद्वीपवेदिकान्तादृष्टयोजनशतप्रमाणान्तरा उल्कामुखमेघमुखविद्युन्मुखविद्युहन्ताभिधानाश्चत्वारो द्वीपा वक्तव्याः, तद्यथा-अश्वकर्णस्य परत उल्कामुखः हरिकर्णस्य परतो मेघमुखः अकर्णस्य परतो विद्युन्मुखः कर्णप्रावरणस्य परतो विद्युदन्तः, एतेषामप्युल्कामुखादीनां चतुणी द्वीपानां परतो यथाक्रम पूर्वोत्तरादिविदिक्षु प्रत्येक नव नव योजनशतानि लवणसमुद्रमवगाह्य नवनवयोजनशतायामविष्कम्भाः पञ्चचत्वारिंशदधिकाष्टाविंशतियोजनशतपरिक्षेपाः पद्मवरवेदिकावनखण्डसमवगूढा जम्बूद्वीपवेदिकान्तात् नवयोजनशतप्रमाणान्तरा घनदन्तलष्टदन्तगूढदन्तशुद्धद्न्तनामानश्चत्वारो द्वीपाः, तद्यथा-उल्कामुखस्य परतो. घनदन्तः मेघमुखस्य परतो लष्टदन्तः विद्युन्मु 6 - -2256RC Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KOKARMALAR स्वस्य परतो गूढदन्तः विद्युइन्तस्य परत: शुद्धदन्तः। एतेषामेव दीपानामवगाहायामविष्कम्भपरिरयपरिमाणसहगाथापटमाह-प- प्रतिपत्तो * ढमंमि तिनि उसया सेसाण सउत्तरा नव उ जाय । ओगाहं विक्संभं दीवाणं परिरयं वोच्छं ॥ १॥ पढमचउकपरिरया बीयच- मनुष्याTS उकस्स परिरओ अहिओ। सोलेहिं तिहि उ जोयणसएहिं एमेव सेसाणं ॥ २ ॥ एगोरुयपरिसेवो नव चेव सयाई अउणपण्णाई। धिकारः वारस पण्णट्ठाई हयकण्णाणं परिक्खेवो ॥ ३ ॥ पणरस एकासीया आयंसमुहाण परिरओ होइ । अट्ठार सत्तनउया आसमुहाणं 5 उद्देशः१ * परिक्नेवो ॥४॥ यावीसं तेराई परिखेवो होइ आसकन्नाणं । पणुवीस अउणतीसा उकामुहपरिरओ होइ ॥५॥दो चेव सहस्साई अटेव * सू०११३ सया हवंति पणयाला। घणदंतहीवाणं विसेसमहिओ परिक्खेवो ॥६॥" व्याख्या-प्रथमे द्वीपचतुष्के चिन्यमाने त्रीणि योजनशतान्यवगाहनां-लवणसमुद्रावगाई विष्कम्भं च, विष्कम्भग्रहणादायामोऽपि गृह्यते तुल्यपरिमाणत्यात् , जानीहि इति क्रियाशेपः, शेपाणां द्वीपचतुष्कानां शतोत्तराणि त्रीणि त्रीणि शतानि अवगाहनाविष्कम्भं तावजानीयाद् यावन्नव शतानि, तद्यथा-द्वितीयचतुप्के चत्वारि शतानि, तृतीये पञ्च शतानि, चतुर्थे पट शतानि, पञ्चमे सप्त शतानि, पप्ठेऽष्टौ शतानि, सप्तमे नव शतानि, अत ऊ द्वीपानामेकोरुकप्रभृतीनां परिरयं परिरयप्रमाणं वक्ष्ये । प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयति-पढमचउके'त्यादि, 'प्रथमचतुष्के परिरयात्' प्रथमद्वीपच तुष्के परिरयपरिमाणात् द्वितीयचतुष्कस्य-द्वितीयद्वीपचतुष्टयस्य परिरयः-परिरयपरिमाणमधिकः पोडशैः पोडशोत्तरैत्रिभिर्योजनशतैः, 8 एवमेव' अनेनैव प्रकारेण शेपाणां 'दीपानां' द्वीपचतुष्कानां परिरयपरिमाणमधिकं पूर्वपूर्वचतुष्कपरिरयपरिमाणादवसातव्यम् , एतदेव चैतेन दर्शयति-‘एकोरुये'त्यादि 'एकोरुकपरिक्षेपे' एकोरुकोपलभितप्रथमद्वीपचतुष्कपरिक्षेपे नव शतानि एकोनपभाशानि-एको ॥१५७॥ नपश्चाशदधिकानि । ततत्रिपु योजनशतेषु पोडशोत्तरेपु प्रक्षिप्तेषु 'हयकपणाणमिति वचनात् हयकर्णप्रमुखाणां द्वितीयानां पतुर्णी earts STORAGAON Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वीपानां परिक्षेपो भवति, स च द्वादश योजनशतानि पञ्चषष्टानि-पश्चषष्ट्यधिकानि । तत्रापि त्रिषु योजनशतेषु षोडशोत्तरेषु प्रक्षिप्तेषु 'आयसमुहाणं ति आदर्शमुखप्रमुखाणां तृतीयानां चतुर्णा द्वीपानां परिरयपरिमाणं भवति, तच्च पञ्चदश योजनशतान्येकाशीत्यधिकानि । ततो भूयोऽपि त्रिषु योजनशतेषु षोडशोत्तरेषु प्रक्षिप्तेषु 'आसमुहाणं'ति अश्वमुखप्रभृतीनां चतुर्थानां चतुर्णा द्वीपानां परिक्षेपः, तद्यथा-अष्टादश योजनशतानि सप्तनवतानि-सप्तनवत्यधिकानि । तेष्वपि त्रिषु योजनशतेषु षोडशोत्तरेषु प्रक्षिप्तेषु 'आसकण्णाणं'ति अश्वकर्णप्रमुखाणां पञ्चानां चतुर्णी द्वीपानां परिक्षेपो भवति, तद्यथा-द्वाविंशतियोजनशतानि त्रयोदशानि-त्रयोदशाधिकानि । ततो भूयोऽपि त्रिषु योजनशतेषु षोडशोत्तरेषु प्रक्षिप्तेपु 'उल्कामुखपरिरयः' उल्कामुखपष्ठद्वीपचतुष्कपरिरयपरिमाणं भवति, तद्यथा-पञ्चविंशतियोजनशतानि एकोनत्रिंशानि-एकोनत्रिंशदधिकानि । ततः पुनरपि त्रिषु योजनशतेषु षोडशोत्तरेषु प्रक्षिप्लेषु 'घनदन्तद्वीपस्य' (पानां) घनदन्तप्रमुखसप्तमद्वीपचतुष्कस्य परिक्षेपः, तद्यथा-द्वे सहस्रे अष्टौ शतानि पञ्चचत्वारिंशानि-पश्चचवारिंशदधिकानि 'विसेसमहिओ' इति किञ्चिद्विशेषाधिकः अधिकृतः परिक्षेपः, पञ्चचत्वारिंशानि किञ्चिद्विशेषाधिकानीति भावार्थः, इदं च पदमन्तेऽभिहितत्वात्सर्वत्राप्यभिसम्बन्धनीयं, तेन सर्वत्रापि किञ्चिद्विशेषाधिकमुक्तरूपं परिरयपरिमाणमवसातव्यं । तदेव६ मेते हिमवति पर्वते चतसृषु विदिक्षु व्यवस्थिताः सर्वसङ्ख्ययाऽष्टाविंशतिः, एवं हिमवत्तुल्यवर्णप्रमाणपग्रहदप्रमाणायामविष्कम्भावगा हपुण्डरीकहदोपशोभिते शिखरिण्यपि पर्वते लवणोदार्णवजलसंस्पर्शादारभ्य यथोक्तप्रमाणान्तराश्चतसृषु विदिक्ष एकोरुकादिनामा नोऽक्षणापान्तरालायामविष्कम्भा अष्टाविंशतिसङ्ख्या द्वीपा वेदितव्याः, तथा चाह-"कहि णं भंते ! उत्तरिल्लाणं एगोरुयमणुस्साणं हा एगोरुयदीवे णामं दीवे पण्णत्ते ?, गोयमा! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं सिहरिपव्वयस्स पुरच्छिमिल्लाओ चरिमंताओ Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३प्रतिपत्ती देवाधि कारः उद्देशः१ 5 सू० ११६ लवणसमुई तिनि जोयणसयाई ओगाहित्ता तत्थं णं उत्तरिल्लाणं एगोरुयमणुस्साणं एगोरुयदीवे नाम दीवे पण्णत्ते' इत्यादि सर्व तदेव, नवरमुत्तरेण विभाषा कर्त्तव्या, सर्वसध्यया पट्पञ्चाशदन्तरद्वीपा:, उपसंहारमाह-सेत्तमंतरदीवगा'ते एतेऽन्तरद्वीपकाः । अकर्मभूमकाः कर्मभूमकाश्च यथा प्रज्ञापनायां प्रथमे प्रज्ञापनाख्ये पदे तथैव वक्तव्या यावत् 'सेत्तं चरित्तारिया सेत्तं मणुस्सा' इति पदम् , इह तु ग्रन्थगौरवभयान लिख्यत इति, उपसंहारमाह-'सेत्तं मणुस्सा' त एते मनुष्याः॥ तदेवमुक्ता मनुष्याः , सम्प्रति देवानभिधित्सुराह से किं तं देवा ?, देवा चउचिहा पण्णत्ता, तंजहा-भवणवासी वाणमंतरा जोइसिया वेमाणिया (सू०११४) से किं तं भवणवासी?, २ दसविहा पण्णत्ता, तंजहा-असुरकुमारा जहा पण्णवणापदे देवाणं भेओ तहा भाणितत्वो जाव अणुत्तरोववाइया पंचविधा पण्णत्ता, तंजहा-विजयवेजयंत जाव सव्वदृसिद्धगा, सेत्तं अणुत्तरोववातिया॥(सू०११५)कहिणं भंते!भवणवासिदेवाणं भवणा पन्नत्ता?, कहि णं भंते! भवणवासी देवा परिवसंति?, गोयमा! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसयसहस्सयाहल्लाए, एवं जहा पपणवणाए जाव भवणवासाइता, त(ए)त्थणं भवणवासीणं देवाणं सत्त भवणकोडीओ बावत्तरि भवणाचाससयसहस्सा भवंतित्तिमक्खाता, तत्थणं यहवे भवणवासी देवा परिवसंति-असुरा नाग सुवन्ना य जहा पण्णवणाए जाच विहरति॥ (सू०११६) कहिणं भंते ! असुरकुमाराणं देवाणं भवणा प०?, पुच्छा, एवं जहा पण्णवणाठाणपदे ॐॐॐॐॐ ॥१५८॥ Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ जाव विहरंति ॥ कहि णं भंते ! दाहिणिल्लाणं असुरकुमारदेवाणं भवणा पुच्छा, एवं जहा ठाण-.., ___ पदे जाव चमरे, तत्थ असुरकुमारिंदे असुरकुमारराया परिवसति जाव विहरति ॥ (सू०११७) 'से किं त' मित्यादि, अथ के ते देवाः १, सुरिराह-देवाश्चतुर्विधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-भवनवासिनो वानमन्तरा ज्योतिष्का वैमानिकाः, अमीपां च शब्दानां व्युत्पत्तिर्यथा प्रज्ञापनाटीकायां तथा वेदितव्या ॥ ‘से किं तमित्यादि, अथ के ते 'भवनवासिनः ?, सूरिराह-भवनवासिनो दशविधाः प्रज्ञप्ताः, एवं देवानां प्रज्ञापनागतप्रथमप्रज्ञापनाख्यपद इव तावद्भेदो वक्तव्यो यावत्सर्वार्थदेवा इति । सम्प्रति भवनवासिनां देवानां भवनवसनप्रतिपादनार्थमाह-कहिणं भंते!' इत्यादि, क भदन्त ! भवनवासिनां देवानां भवनानि प्रज्ञप्तानि ?, क भदन्त ! भवनवासिनो देवाः परिवसन्ति ?, भगवानाह-गौतम! 'इमीसे णमित्यादि, 'अस्याः ' प्रत्यक्षत उपलभ्यमानाया यत्र वयमास्महे रत्नप्रभायाः पृथिव्याः "अशीत्युत्तरयोजनशतसहस्रबाहल्यायाः' अशीत्युत्तरम्-अशीतिसहस्राधिक योजनशतसहस्रं बाहल्यं-पिण्डभावो यस्याः सा तथा, तस्या उपर्येकं योजनसहस्रमवगाह्याधस्तादेके योजनसहस्रं वर्जयित्वा मध्ये 'अप्टसप्तते' अष्टसप्ततिसहस्राधिके योजनशतसहस्रे, 'अत्र' एतस्मिन् स्थाने भवनवासिनां देवानां सप्त भवनकोटयो द्विसप्ततिर्भS| वनावासशतसहस्राणि भवन्तीति आख्यातानि मया शेषैश्च तीर्थकृद्भिः, तत्र सप्तकोट्यादिभावनैवं-चतुःषष्टिः शतसहस्राणि भव नानामसुरकुमाराणां चतुरशीतिः शतसहस्राणि नागकुमाराणां द्विसप्ततिः शतसहस्राणि सुवर्णकुमाराणां षण्णवतिः शतसहस्राणि वायुकुमाराणां, द्वीपकुमारादीनां पण्णां प्रत्येकं पट्सप्ततिः शतसहस्राणि भवनानां, तत: सर्वसङ्ख्यया यथोक्तं भवनसङ्ख्यानं भवति । | 'ते णं भवणा' इत्यादि, तानि, सूत्रे पुंस्त्वनिर्देशः प्राकृतत्वात् , णमिति वाक्यालङ्कारे भवनानि बहिः 'वृत्तानि' वृत्ताकाराणि अन्तः Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समचतुरस्राणि अधस्तलभागेषु पुष्करकर्णिकासंस्थानसंस्थितानि, 'भवणवण्णओ भाणियब्यो जहा ठाणपदे जाव पडिरूवा' २३प्रतिपत्तों इति, उक्तप्रकारेण भवनवर्णको भणितव्यो यथा प्रज्ञापनायां द्वितीय स्थानाख्ये पदे, स च तावद् यावत् 'पडिरूवा' इति पदं, स देवाधि। चैवम्-"उक्किण्णंतरविउलगंभीरखायपरिखा पागारट्टालयकवाडतोरणपडिदुवारदेसभागा जंतसयग्घिमुसलमुसंढिपरिवारिया अजोज्झा , कारः सयाजया सयागुत्ता अडयालकोट्टरइया अडयालकयवणमाला खेमा सिवा किंकरअमरदंडोवरक्खिया लाउल्लोइयमहिया गोसीसस- उद्देशः १ रसरत्तचंदणददरदिण्णपंचंगुलितला उवचियचंदणकलसा चंदणघडसुकयतोरणपडिदुवारदेसभागा आसत्तोसत्तविउलवट्टवग्घारियम- सू०११७ ल्लदामकलावा पंचवण्णसरसमुक्कपुप्फपुंजोवयारकलिया कालागुरुपवरकुंदुरुकतुरुक्कघूवमघमघेतगंधुद्धयाभिरामा सुगन्धवरगंधगंधिया गंधवट्टिभूया अच्छरगणसंघसंविकिण्णा दिव्वतुडियसद्दसंपणदिया सव्वरयणामया अच्छा सहा लण्हा घट्ठा मट्ठा नीरया निम्मला निप्पंका निकंकडच्छाया सप्पभा समिरीया सउज्जोया पासाईया दरसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा" इति, अस्य व्याख्या-उत्की र्णमिव उत्कीर्ण अतीव व्यक्तमिति भावः, उत्कीर्णमन्तरं यासां खातपरिखानां ता उत्कीर्णान्तराः किमुक्तं भवति ?-खातानां परि| खाणां च स्पष्टवैविक्त्योन्मीलनार्थमपान्तराले महती पाली समस्तीति, खातानि च परिखाश्च खातपरिखाः उत्कीर्णान्तरा विपुलाविस्तीर्णा गम्भीरा-अलब्धमध्यभागाः खातपरिखा येषां भवनानां परितस्तानि उत्कीर्णान्तरविपुलगम्भीरखातपरिखानि, खातपरिखाणां चायं प्रतिविशेष:-परिखा उपरि विशालाऽधः सङ्कुचिता, खातं तूभयत्रापि सममिति, 'पागारद्यालककवाडपडिदुवारदेसभागा' * इति प्रतिभवनं प्राकारेषु अट्टालककपाटतोरणप्रतिद्वाराणि-अट्टालककपाटतोरणप्रतिद्वाररूपा देशभागा-देशविशेषा येषु तानि प्राका-5 ॥१५९॥ राहालककपाटतोरणप्रतिद्वारदेशभागानि, तत्राहालका:-आकारस्योपरि भृत्याश्रयविशेषाः कपाटानि-प्रतोलीद्वारसत्कानि, एतेन प्रतोल्य: SCORRESS पा भवनानां पर खातानि वाणान्तराः । 294 सर्वत्र सूचिता अन्यथा कपाटानामसम्भवात. सोरणानि-पतीशानि, तानि ग प्रोल्लीकारेप, प्रतिमाराणि-कसारापाग्यराळपानि लघुमाराणितया 'जंतसय जतसगिषमुसलमुसंदिपरिवारिया' इति यन्माणि-नानामकाराणि पारानयो-महागण्यो महाशिला या था: निसासाः पकrari Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वत्र सूचिता अन्यथा कपाटानामसम्भवात्, तोरणानि-प्रतीतानि, तानि च प्रतोलीद्वारेषु, प्रतिद्वाराणि-मूलद्वारापान्तरालवर्चीनि लघुद्वाराणि । तथा 'जंतसयग्घिमुसलमुसंदिपरिवारिया' इति यत्राणि-नानाप्रकाराणि शतघ्नयो-महायष्टयो महाशिला वा या: पातिताः सत्यः पुरुषाणां शतानि नन्ति मुशलानि-प्रतीतानि मुषण्ढय:-शस्त्रविशेषास्तैः परिवारितानि-समन्ततो वेष्टितानि अत एवायोध्यानि-परैयोद्धमशक्यानि अयोध्यत्वादेव 'सदाजयानि' सदा-सर्वकालं जयो येषु तानि सदाजयानि सर्वकालं जयवन्तीति भावः, तथा सदा-सर्वकालं गुप्तानि प्रहरणैः पुरुषैश्च योद्धृभिः सर्वतः-समन्ततो निरन्तरं परिवारिततया परेषामसहमानानां मनागपि प्रवेशासम्भवात् 'अडयालकोट्टरइया' इति अष्टाचत्वारिंशद्भेदभिन्नविच्छित्तिकलिताः कोष्ठका अपवरका रचिताः स्वयमेव रचनां प्राप्ता येषु तान्यष्टाचत्वारिंशत्कोप्टकरचितानि, सुखादिर्शनात्पाक्षिको निष्ठान्तस्य परनिपातः, तथाऽष्टाचत्वारिंशद्भेदभिन्नविच्छित्तयः कृता वनमाला येषु तानि अष्टचत्वारिंशत्कृतवनमालानि, अन्ये त्वभिधति-अडयालशब्दो देशीवचनात् प्रशंसावाची, | ततोऽयमर्थः-'प्रशस्तकोष्ठकरचितानि प्रशस्तकृतवनमालानीति तथा क्षेमाणि' परकृतोपद्रवरहितानि, 'शिवानि' सदा मङ्गलोपेतानि, तथा किङ्करा:-किङ्करभूता येऽमरास्तैर्दण्डैः कृत्वा उपरक्षितानि-सर्वतः समन्ततो रक्षितानि किङ्करामरदण्डोपरक्षि| तानि, 'लाउल्लोइयमहिया' इति लाइयं नाम यद्भूमेोमयादिना उपलेपनम् 'उल्लोइयं' कुड्यानां मालस्य सेटिकादिभिः संमृष्टीकरणं लाइयोल्लोइयाभ्यां महितानि-पूजितानि लाइयोल्लोइयमहितानि, तथा गोशीर्षेण-गोशीर्षनामकेन चन्दनेन- सरसरक्तचन्दनेन च दरेण-बहलेन चपेटाप्रकारेण वा दत्ताः पञ्चाङ्गलयस्तला-हस्तका येषु तानि गोशीर्षसरसरक्तचन्दनर्दरदत्तपञ्चाङ्गलितलानि, तथा उपचिता-निवेशिताः चन्दनकलशा-मङ्गल्यकलशा येषु तानि उपचितचन्दनकलशानि, 'चंदणघडसुकयतोरणपडिदुवारदेसभागा' Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11 इति चन्दनघटे:- चन्दनकलशैः सुकृतानि शोभितानीति तात्पर्यार्थः यानि तोरणानि तानि चन्दनघटसुकृतानि तोरणानि प्रतिद्वारदेशभागं—द्वारदेशभागे येषु तानि चन्दनघटसुकृत तोरणप्रतिद्वारदेशभागानि, तथा 'आसत्तोसत्तविपुलवट्ट्वग्घारियमल्लदामकलावा' इति आ-अवाङ् अधोभूमौ सक्त - आसक्तो भूमौ लग्न इत्यर्थः ऊर्द्ध सक्त उत्सक्तः उल्लोचतले उपरि संबद्ध इत्यर्थः विपुलो - विस्तीर्णो वृत्तो- वर्तुलः 'वग्घारिय' इति प्रलम्बितो माल्यदामकलाप :- पुष्पमालासमूहो येषु तानि आसक्तोत्सक्तविपुलवृत्तप्रलम्बितमाल्यदामकलापानि, तथा पञ्चवर्णेन सुरभिणा - सुरभिगन्धेन मुक्केन - क्षिप्तेन पुष्पपुञ्जलक्षणेनोपचारेण - पूजया कलितानि पञ्चवर्णसुरभिमुक्तपुष्पपुञ्जोपचारकलितानि, तथा कालागुरुः- प्रसिद्धः प्रवरः - प्रधानः कुन्दुरुष्क :- चीडा तुरुष्कं - सिल्हकं कालागुरुश्च प्रवरकुन्दुरुष्कतुरुष्के च कालागुरुप्रवरकुन्दुरुष्कतुरुष्काणि तेषां धूपस्य यो मघमघायमानो गन्ध उद्भूत - इतस्ततो विप्रसृतस्तेनाभिरामाणि - रमणीयानि कालागुरुप्रवरकुन्दुरुष्कतुरुष्कधूपमघमघायमानगन्धोद्धुताभिरामाणि तथा शोभनो गन्धो येषां ते सुगन्धाः ते च ते वरगन्धाश्च-वासाः सुगन्धवरगन्धास्तेषां गन्धः स एष्वस्तीति सुगन्धवरगन्धगन्धिकानि 'अतोऽनेकस्वरा' दितीकप्रत्यय:, अत एव गन्धवर्त्तिभूतानि, सौरभ्यातिशयाद् गन्धद्रव्यगुटिकाकल्पानीति भावः, तथाऽप्सरोगणानां सङ्घः - समुदायस्तेन सम्यग् - रमणीयतया 'विकीर्णानि व्याप्तानि अप्सरोगणसङ्घविकीर्णानि, तथा दिव्यानामातोद्यानां - वेणुवीणामृदङ्गानां ये शब्दास्तैः संप्रणदितानि - सम्यकश्रोत्रमनोहारितया प्रकर्षेण सर्वकालं नदितानि - शब्दवन्ति दिव्यत्रुटितशब्दसंप्रणदितानि सर्वरत्नमयानि - सर्वाना सामस्त्येन रत्नमयानि न त्वेकदेशेन सर्वरत्नमयानि - समस्तरत्नमयानि अच्छानि - आकाशस्फटिकवदतिस्वच्छानि लक्ष्णानि - लक्ष्णपुद्गलस्कन्धनिष्पन्नानि श्लक्ष्णदलनिष्पन्नपटवत् लण्डानि - मसृणानि घुण्डितपटवत् 'घट्टा' इति घृष्टानीव घृष्टानि खरशानया पाषाणप्रतिभावत्, 'महा' ३ प्रतिपतौ देवाधि कार: उद्दशः १ सू० ११७ ॥ १६० ॥ Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ vixxx इति मृष्टानीव मृष्टानि सुकुमारशानया पाषाणप्रतिमावदेव, अत एव नीरजांसि स्वाभाविकरजोरहितत्वात् 'निर्मलानि' आगन्तुकमलासम्भवात् 'निष्पङ्कानि कलङ्कविकलानि कर्दमरहितानि वा 'निकंकडच्छाया' इति निष्कङ्कटा-निष्कवचा निरावरणा निरुपघातेति भावार्थः छाया-दीप्तिर्येषां तानि निष्ककटच्छायानि 'सप्रभाणि' वरूपतः प्रभावन्ति 'समरीचीनि' बहिर्विनिर्गतकिरणजालानि 'सोद्द्योतानि' बहिर्व्यवस्थितवस्तुस्तोमप्रकाशकराणि 'प्रासादीयानि प्रसादाय-मनःप्रसत्तये हितानि मनःप्रसत्तिकारीणीति भावः, तथा 'दर्शनीयानि' दर्शनयोग्यानि यानि पश्यतश्चक्षुषी न श्रमं गच्छत इति भावः, 'अभिरुवा' इति अभि-सर्वेषां द्रष्टुणां मनःप्रसादानुकूलतयाऽभिमुखं रूपं येषां तानि अभिरूपाणि-अत्यन्तकमनीयानीत्यर्थः अत एव 'पडिरूवा' इति प्रतिविशिष्टं रूपं येषां तानि प्रतिरूपाणि, अथवा प्रतिक्षणं नवं नवमिव रूपं येषां तानि प्रतिरूपाणि ॥ तदेवं भवनस्वरूपमुक्तमिदानीं यत्पृष्टं 'क भदन्त ! त भवनवासिनो देवाः परिवसन्ती'ति तत्रोत्तरमाह-'तत्थ णं वहवे भवणवासी देवा परिवसंति असुरा नागा भेदो भाणि-18 यन्वो जाव विहरंति एवं जा ठाणपदे वत्तव्वया सा भाणियव्वा जाव चमरेणं असुरकुमारिंदे असुरकुमारराया परिवसइ' इति, 'तत्र' तेष्वनन्तरोदितस्वरूपेषु भवनेषु बहवो भवनवासिनो देवाः परिवसन्ति, तानेव जातिभेदत आह-'असुरा नागा' इत्यादि यावत्करणादेवं परिपूर्णः पाठः-"असुरा नाग सुवण्णा विज्ज अग्गी य दीव उदही य दिसिपवणथणियनामा दसहा एए भवणवासी॥ १॥ चूडामणिमउडरयणा १ भूसणनागफण २ गरुल ३ वइर ४ पुण्णकलसअंकउप्फेस ५ सीह ६ हयवर ७ गय ८ मगरंक|९ वरवद्धमाण १० निजुत्तचित्तचिंधगया सुरूवा महिडीया महज्जइया महायसा महावला महाणुभागा महासोक्खा हारविराइयवच्छा कडगतुडियर्थभियभुया अंगयकुंडलमट्टगंडतलकण्णा पीढधारी विचित्तहत्थाभरणा विचित्तमालामउली (मउडा) कल्लाणगपवरवत्थप Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 144 रिहिया कल्याणगपवरमल्लाणुलेवणवरा भासुरबोंदी पलंबवणमालधरा दिव्वेणं वण्णेणं दिव्वेणं गंधेणं दिव्वेणं फासेणं दिव्वेणं संघय- ३प्रतिपत्ती णेणं दिव्वाए इडीए दिवाए जुईए दिव्वाए पहाए दिव्वाए छायाए दिव्वाए अबीए दिव्वेणं तेएणं दिव्वाए लेस्साए दस दिसाओ देवाधिउज्जोधमाणा, ते णं तत्थ साणं २ भवणावाससयसहस्साणं साणं साणं सामाणियसाहस्सीणं साणं साणं तायत्तीसगाणं साणं साणं ६ कारः लोगपालाणं साणं २ अग्गमहिसीणं साणं २ अणीयाणं साणं साणं अणियाहिवईणं साणं २ आयरक्खदेवसाहस्सीणं अण्णेसिं च उद्देशः१ बहूर्ण भवणवासीणं देवाणं देवीण य आहेवचं पोरेवचं सामित्तं भट्टित्तं महयरगत्तं आणाईसरसेणावञ्चं कारेमाणा पालेमाणा महया- सू०११७ ऽऽड्यनदृगीयवाइयतंतीतलतालघणमुइंगपडुप्पवाइयरवेणं दिव्वाई भोगभोगाई भुंजमाणा विहरंति" अस्य व्याख्या-असरा' असुरकुमाराः, एवं नागकुमाराः सुवर्णकुमारा विद्युत्कुमारा अग्निकुमारा द्वीपकुमारा उधिकुमारा विकमारा: पवनकुमारा: स्तंनितकमारा:. 'दशधा' दशप्रकाराः 'एते' अनन्तरोदिता असुरकुमारादयो भवनवासिनो यथाक्रमं चूडामणिमकटरनभषणनियक्तनाग स्फटादिविचित्रचिहगताच, तथाहि-असुरकुमारा भवनवासिनचूडामणिमुकुटरत्नाः, चूडामणिर्नाम मुकुटे रत्नं चिह्वभूतं येषां ते तथा, R नागकुमारा भूषणनियुक्तनागस्फटारूपचिह्नधराः, सुवर्णकुमारा: भूषणनियुक्तगरुडरूपचिहधराः, विद्युत्कुमारा: भषणनियक्तबलरूपचि हृधराः, वनं नाम शक्रस्यायुधं, अग्निकुमारा भूषणनियुक्तपूर्णकलशरूपचिह्नधराः, द्वीपकुमारा भूषणनियुक्तसिंहरूपचिङ्गधराः, उधिकुमारा भूषणनियुक्तयवररूपचिह्नधारिणः, दिकुमारा भूषणनियुक्तगजरूपचिह्नधारिणः, वायुकुमारा भूषणनियुक्तमकररूपचिह्नधराः, स्तनितकुमारा भूषणनियुक्तवर्द्धमानकरूपचिद्वधारिणः, भूषणमत्र मुकुटो द्रष्टव्योऽन्यत्र 'मउडवरवद्धमाणनिजुत्तचित्तचिंधगया' * ॥१६१॥ इति पाठदर्शनाद्, वर्द्धमानक-शरावसंपुटं, पुनः सर्वे कथम्भूताः' इत्याह-सुरूपा' शोभनं रूपं येषां ते तथा, अत्यन्तकमनीय Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूपा इत्यर्थः, 'महिदिया महज्जुइया महायसा महावला महाणुभागा महासोक्खा' इति प्राग्वत्, 'हारविराइयवच्छा' इति हारविराजितं वक्षो येषां ते हारविराजितवक्षसः, 'कडगतुडियर्थभियभुया' इति कटकानि-कलाचिकाभरणानि युटितानि-बाहुरक्षकास्तैः स्तम्भिताविव स्तम्भितौ भुजौ येषां ते कटकत्रुटितस्तम्भितभुजाः, तथाऽङ्गदानि-बाहुशीर्षाभरणविशेषरूपाणि कुण्डले-कर्णाभरणविशेषरूपे, तथा मृष्टौ-मृष्टीकृतौ गण्डौ-कपोलौ यैस्तानि मृष्टगण्डानि कर्णपीठानि-आभरणविशेषरूपाणि धारयन्तीत्येवंशीला अङ्गवकुण्डलमृष्टगण्डकर्णपीठधारिणः, तथा विचित्राणि-नानारूपाणि हस्ताभरणानि येषां ते विचित्रहस्ताभरणाः, तथा 'विचित्तमालामउलिमउडा' इति, विचित्रा माला-कुसुमस्रग मौलौ-मस्तके मुकुटं च येषां ते विचित्रमालामौलिमुकुटाः, तथा कल्याणक-कल्याणकारि प्रवरं वस्त्रं परिहितं यैस्ते कल्याणकवस्त्रपरिहिताः, सुखादिदर्शनान्निष्ठान्तस्यात्र पाक्षिकः परनिपातः, तथा कल्याणक-कल्याणकारि यत् प्रवरं माल्यं-पुष्पदाम यच्चानुलेपनं तद्धरन्तीति कल्याणकप्रवरमाल्यानुलेपनधराः, तथा भाखरा-देदीप्यमाना बोन्दिःशरीरं येषां ते भास्वरवोन्दयः, तथा प्रलम्बत इति प्रलम्बा या वनमाला तां धरन्तीति प्रलम्बवनमालाधराः, दिव्येन 'वर्णेन' कृष्णा दिना 'दिव्येन गन्धेन' सुरभिणा 'दिव्येन स्पर्शेन' मृदुस्निग्धादिरूपेण दिव्येन शक्तिविशेषमपेक्ष्य संहननेनेव संहननेन न. तुः सा-MS लाभात्संहननेन, देवानां संहननासम्भवातू, संहननं हि अस्थिरचनात्मकं, न च देवानामस्थीनि सन्ति, तथा चोक्तं प्रागेव-"देवा असं घयणी तेसिं नेव सिरा” इत्यादि, 'दिव्येन संस्थानेन' समचतुरस्ररूपेण भवधारणीयशरीरस्य, तेषामन्यसंस्थानासम्भवात् , 'दिव्यया| ऋद्ध्या' परिवारादिकया 'दिव्यया धुत्या' इष्टार्थसंप्रयोगलक्षणया, 'धु अभिगमने' इतिवचनात् 'दिव्यया प्रभया' भवनावासगतया 'दिव्यया छायया' समुदायशोभया 'दिव्येनार्चिषा' स्वशरीरगतरत्नादितेजोज्वालया 'दिव्येन तेजसा' शरीरप्रभवेन 'दिव्यया | 27M Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -GREE HAGALOCABG - - - A NGANAGACANCE लेश्यया' देहवर्णसुन्दरतया दश दिश: 'उद्योतयन्तः' प्रकाशयन्तः 'पभासेमाणा' इति शोभयन्तस्ते भवनवासिनो देवा णमिति २३प्रतिपत्तौ वाक्यालकारे 'तत्र' स्वस्थाने 'साणं साणं'ति खेषां तेषामामीयात्मीयानां भवनावासशतसहस्राणां तेषां तेषां सामानिकसहस्राणां खेषां देवाधिस्वेषां त्रायस्त्रिंशकानां खेषां स्खेषां लोकपालानां स्वासां स्वासाम् 'अग्रमहिषीणा' पट्टराज्ञीनां तेषां स्वेषामनीकानां तेषां तेषामनीकाधिप-8 __ कारः तीनां खेषां खेषामालरक्षदेवसहस्राणाम् , अन्येषां च बहूनां स्वखभवनावासनगरीवास्तव्यानां भवनवासिनां देवानां देवीनां च 'आहे उद्देशः१ वच्च'मित्यादि, अधिपतेः कर्म आधिपत्यं रक्षेत्यर्थः, सा च रक्षा सामान्येनापि (आ)रक्षकेणेव क्रियते तत आह-पुरस्य पतिः पुरप सु०११७ तिस्तस्य कर्म पौरपत्यं, सर्वेषामासीयानामग्रेसरत्वमिति भावः, तच्चाग्रेसरत्वं नायकत्वमन्तरेणापि नायकनियुक्ततथाविधगृहचिन्तकसामान्यपुरुषस्येव भवति ततो नायकत्वप्रतिपत्त्यर्थमाह-'स्वामित्वं' स्वमस्यास्तीति स्वामी तद्भावो नायकत्वमित्यर्थः, तदपि च नायकत्वं कथञ्चित्पोषकत्वमन्तरेणापि भवति यथा हरिणयूथाधिपतेर्हरिणस्य, तत आह-'भर्तृत्व' पोषकत्वमत एव महत्तरकत्वं, तदपि महत्तरकलं कस्यचिदाज्ञाविकलस्यापि संभवति यथा कस्यचिद्वणिजः खदासदासीवर्ग प्रति, तत आह-आणाईसरसेणावच्चं' आज्ञया ईश्वर आज्ञेश्वरः सेनायाः पतिः सेनापतिः आज्ञेश्वरश्चासौ सेनापतिश्च आज्ञेश्वरसेनापतिस्तस्य कर्म आज्ञेश्वरसेनापत्यं स्वस्वसैन्यं प्रत्यद्भुतमाज्ञाप्राधान्यमिति भावः कारयन्तोऽन्यैनियुक्तकैः पुरुषैः पालयन्तः स्वयमेव, महता रवेणेति योगः, 'आय' इति आख्यानकप्रतिबद्धानि यदिवा 'अहतानि' अव्याहतानि नित्यानुबन्धीनीति भावः ये नाट्यगीते नाट्य-नृत्यं गीतं-गानं यानि च वादितानि तश्रीतलतालत्रुटितानि तत्री-वीणा तलौ-हस्ततलौ ताल:-कंसिका त्रुटितानि-वादित्राणि, तथा यश्च घनमृदङ्गः पटुना पुरुषेण प्रवा ॥१६२॥ दितः, तत्र घनमृदङ्गो नाम धनसमानध्वनियों मृदङ्गः, तत एतेषां द्वन्द्वस्तेषां रखेण 'दिव्यान् दिवि भवान् प्रधानानिति भावः, भो Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- --- -- - गार्ग भोगा:-शब्दादयो भोगभोगास्तान भुञ्जमाना: 'विहरन्ति' आसते ॥ "कहिणं भंते! असुरकुमाराणं देवाणं भवणा पन्नता, हिणं भंते! असुरकुमारा देवा परिवसंति?, एवं जा ठाणपए वत्तव्वया सा भाणियन्वा जाव चमरे एत्थ असुरकुमारिंदे असुरकु मारराया परिवसति जाव विहरति" क भदन्त! असुरकुमाराणां देवानां भवनानि प्रज्ञप्तानि?, तथा क भदन्त! असुरकुमारा देवाः ३१ परिवसन्ति?, 'एवम् उक्तेन प्रकारेण या खानपदे वक्तव्यता सा भणितव्या यावशमरः असुरकुमारेन्द्रः असुरकुमारराजा परिव+ सति गावविहरतीति, सा चैवम्-गोयमा! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उवरि एग जोयणसहस्समोगाहेत्ता हिट्ठा गं जोयणसहस्सं वजेत्ता मज्ने अठ्ठहत्तरे जोयणसयसहस्से, एत्थ णं असुरकुमाराणं देवाणं चोसट्ठी भवणावाससयसहस्सा भवंतीति मक्खायं, ते णं भवणा बाहिं वहा अंतो चउरंसा अहे पुक्खरकण्णियासंठाणसंठिता उफिन्नंतरविउलगम्भीरखायपरिया जान पडिरूवा, एत्य णं असुरकुमाराणं देवाणं भवणा पण्णत्ता, एत्थ णं बहने असुरकुमारा देवा परिवसंति काला लोदियस्खचियोहा धनलपुष्पदंता असियकेसा वामेयकुंडलधरा अद्दचंदणाणुलित्तगत्ता ईसिसिलिंधपुप्फपगासाई असंफिलिट्ठाई सुहुमाई * उत्थाई पनरपरिहिया पढमं वयं च समता विइयं च असंपत्ता भदे जोवणे वट्टमाणा तलभंगयतुडियवरभूसणनिम्मलमणिरयमें मंडियभुया दसगुदामंडियग्गहत्था चूडामणिचित्तचिंधगया सुरुवा महिडिया महजइया महाजसा महब्बला महाणुभागा महासोक्खा हारविराश्यवल्छा कडगतुडिराथभियभुया जान दस दिसाओ उज्जोवेगाणा पभासेमाणा, ते णं तत्थ साणं साणं भवणावाससयसह३ स्साणं जान दिवा भोगभोगाई भुंजमाणा विहरंति, चमरबलिणो य एत्थ दुवे असुरकुमारिंदा असुरकुमाररायाणो परिवसंति काला . . महानीलसरिसा नीलगुलियगतलपगासा वियसियसयवत्तनिम्मलईसिसियरत्ततंबनयणा गरुलाययउजुतुंगनासा उवचियसिलप्पवाल - -- - - -- - Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विफलसन्निभाधरोट्ठा पंडुरससिसगलविमलनिम्मल ( दहिघण) संखगोखीर कुंदधवलमुणालियादंससेढी हुयवह निद्धतघोयत ततवणिजरततलतालुजीहा अंजणघणम सिण रुयगरमणिज्जनिकेसा वामेयकुंडलधरा जाव पभासेमाणा, ते णं तत्थ साणं साणं भवणावाससयसहस्साणं जाव भुंजमाणा विहति ॥ कहि णं भंते! दाहिणिल्लाणं असुरकुमाराणं देवाणं भवणा पण्णत्ता ?, कहि णं भंते! दाहिणिल्ला असुरकुमारा देवा परिवसंति ?, गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसयसहस्वाहलाए उवरिं एवं जोयणसहस्समोगाहेत्ता हेट्ठा चेगं जोयणसहस्सं वज्जेत्ता मज्झे अट्ठहत्तरे जोयणसयसहस्से, एत्थ णं दाहिणिलाणं असुरकुमाराणं देवानं चोत्तीसं भवणावाससयसहस्सा भवतीति मक्खायं, ते णं भवणा याहि वट्टा तहेव जाव पडिरूवा, तत्थ यह दाहिणिल्ला असुरकुमारा देवा परिवसंति काला लोहियक्खा तहेव भुंजमाणा विहरंति, चमरे य एत्थ असुरकुमारिंदे असुरकुमारराया परिवसर काले महानीलसरिसे जाव पभासेमाणे, णं तत्थ चोत्तीसाए भवणावाससयसहस्साणं चउसट्ठीए सामाणियसाहस्सीणं तायत्तीसाए तायत्तीसगाणं चउन्हं लोगपालाणं पंचण्डं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं तिन्हं परिसाणं सत्तण्डं अणियाणं सत्तण्हं अणियाद्दिवईणं चउण्डं चउसट्टीणं आदरक्खदेवसाहस्सीणं, अण्णेसिं च बहूणं दाहिणिल्लाणं देवाणं देवीण य आहेवचं पोरेवचं जाव विहरइ” ॥ इति, इदं प्रायः समस्तमपि सुगमं नवरं 'काला लोहियक्ख' इत्यादि, 'काला' कृष्णवर्णाः 'लोहियक्खविंबोडा' लोहिताक्षरत्नवद् विस्त्रवच्च-विम्बीफलवद् ओष्ठौ येषां ते लोहिताक्षविवौष्ठाः आरक्तौष्ठा इति भावः, धवलाः पुष्पवत् सामर्थ्यात्कुन्दकलिका इव दन्ता येषां ते धवलपुष्पदन्ताः, असिताः - कृष्णाः केशा येषां ते असितकेशाः, दन्ताः केशाञ्चामीपां वैक्रिया द्रष्टव्या न स्वाभाविकाः, वैक्रियशरीरत्यात्, 'वामेयकुण्डलधराः ' एककर्णावसक्तकुण्डलधारिण:, तथाऽऽर्द्रोण- सरसेन चन्दनेनानुलिप्तं गात्रं यैस्ते ३ प्रतिपत्तौ देवाधि कारः उद्देशः १ सू० ११७ ॥ १६३ ॥ Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SUSUGEOCESSOS आर्द्रचन्दनानुलिप्तगात्राः, तथा ईषत्-मनाक 'शिलिन्ध्रपुष्पप्रकाशानि' शिलिन्ध्रपुष्पसदृशवर्णानि "असंक्लिष्टानि' अत्यन्तसुखजनकतया मनागपि सक्लेशानुत्पादकत्वात् 'सूक्ष्माणि' मृदुलघुस्पर्शानि अच्छानि चेति भावः वनाणि प्रवरं सुशोभं यथा भवति एवं परिहिता:-परिहितवन्त: प्रवरवस्त्रपरिहिताः, तथा वयः प्रथम-कुमारत्वलक्षणमतिक्रान्तास्तत्पर्यन्तवर्तिन इत्यर्थः, यत आह-द्वितीयं | च-मध्यलक्षणं वयोऽसंप्राप्ताः, एतदेव व्यक्तीकरोति-भद्रे' अतिप्रशस्ये यौवने वर्तमानाः 'तलभंगयतुडियवरभूसणनिम्मलम-1 |णिरयणमंडियभुया' तलभगका-बाह्वाभरणविशेषाः त्रुटितानि-बाहुरक्षका:, अन्यानि च यानि वराणि भूषणानि बाह्वाभरणानि तेषु ये निर्मला मणय:-चन्द्रकान्ताद्या यानि रत्नानि-इन्द्रनीलादीनि तैर्मण्डितौ भुजौ येषां ते तथा, तथा दशभिर्मुद्राभिर्मण्डितो अग्रहस्तौ येषां ते (दशमुद्रा) मण्डिताग्रहस्ताः, 'चूडामणिचित्तचिंधगया' चूडामणिः-चूडामणिनामकं चित्रम्-अद्भुतं चिह्नं गतं-स्थितं येषां | ते चूडामणिचित्रचिह्नगताः, चमरबलिसामान्यसूत्रे 'काला' कृष्णवर्णाः, एतदेवोपमानतः प्रतिपादयति-महानीलसरिसा' महानीलं| यत्किमपि वस्तुजातं लोके प्रसिद्धं तेन सदृशाः, एतदेव व्याचष्टे-नीलगुटिका-नील्या गुटिका गवलं-माहिषं शृङ्गं तयोरिव प्रकाश: नीलगुटिकागवलप्रकाशाः, तथा विकसितशतपत्रमिव निर्मले ईषद्देशविभागेन सिते रक्ते ताने च नयने येषां ते विक-||DI सितशतपत्रनिर्मलेषत्सितरक्तताम्रनयनाः, तथा गरुडस्येवायता-दीर्घा ऋज्वी-अकुटिला तुङ्गा-उन्नता नासा-नासिका येषां ते गरुडायतर्जुतुङ्गनासाः, तथा ओयवियं-तेजितं यत् शिलाप्रवाह-विद्रुमं रत्नं यच्च बिम्बफलं तत्सन्निभोऽधरः-ओप्ठो येषां ते तथा, तथा पाण्डुरं न तु सन्ध्याकालभावि आरक्तं शशिशकलं-चन्द्रखण्डं, तदपि च कथम्भूतमित्याह-विमलं-रजसा रहितं कलङ्कविकलं वा तथा निर्मलो यो दधिधनः शङ्खो गोक्षीरं यानि कुन्दानि-कुन्दकुसुमानि दकरजः-पानीयकणा मृणालिका च तद्वद्धवला दन्तश्रे Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2941 - - गिर्येपां ते तथा, विमलशब्दस्य विशेष्यात्परनिपातः प्राकृतत्वात् , तथा हुतवहेन-वैश्वानरेण नितिं सत् यद् जायते धौत-निर्मलं * ३प्रतिपत्ती - तप्तम्-उत्तप्तं तपनीयम् आरक्तं सुवर्ण तद्वद्रक्तानि तलानि-हस्तपादतलानि तालुजिहे च येषां ते हुतवहनितिधौततप्ततपनीयरक्त-5 देवाधि तलतालुजिह्वाः, तथाऽजनं-सौवीराजनं घन:-प्रावृटकालभावी मेघस्तद्वत् कृष्णाः रुचकवद्-रुचकरनवद् रमणीयाः स्निग्धाश्च कार केशा येषां ते अजनघनकृष्णरुचकरमणीयस्निग्धकेशाः, शेपं प्राग्वत् ॥ चमरसूत्रे 'तिण्डं परिसाण'मित्युक्तं ततः पर्षद्विशेषपरिज्ञा- उद्देश:१ नाय सूत्रमाह सू० ११७ चमरस्स णं भंते ! असुरिंदस्स असुररन्नो कति परिसातो पं०?, गो! तओ परिसातो पं०, तं०-समिता चंडा जाता, अभितरिता समिता मज्झे चंडा याहिं च जाया॥चमरस्स णं भंते! असुरिंदस्स असुररन्नो अभितरपरिसाए कति देवसाहस्सीतो पण्णत्ताओ?, मज्झिमपरिसाए कति देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ ?, बाहिरियाए परिसाए कति देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ?, गोयमा! चमरस्स णं असुरिंदस्स २ अभितरपरिसाए चउवीसं देवसाहस्सीतो पण्णत्ताओ, मज्झिमिताए परिसाए अट्ठावीसं देव०, बाहिरिताए परिसाए बत्तीसं देवसा॥चमरस्सणं भंते! असुरिंदस्स असुररण्णो अभितरिताए कति देविसता पण्णत्ता?, मज्झिमियाए परिसाए कति देविसया पण्णत्ता?, बाहिरियाए परिसाए कति देविसता पण्णत्ता?, गोयमा! चमरस्सणं असुरिंदस्स असुररण्णो अन्भितरियाए परिसाए अद्धहा देविसता पं० मज्झिमियाए परिसाए तिन्नि है ॥१४॥ Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ATMA देवि० वाहिरियाए अड्डाइजा देवि०।चमरस्सणं भंते! असुरिंदस्स असुररणो अन्भितरियाए परिसाए देवाणं केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता? मज्झिमियाए परिसाए० बाहिरियाए परिसाए देवाणं केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता? अभितरियाए परि० देवीणं केवतियंकालं ठिती पण्णत्ता? मज्झिमियाए परि० देवीणं केवतियं० बाहिरियाए परि० देवीणं के०?, गोयमा! चमरस्सणं असुरिंदस्स२ अभितरियाए परि० देवाणं अड्डाइजाई पलिओवमाइं ठिई पं० मज्झिमाए परिसाए देवाणं दो पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता बाहिरियाए परिसाए देवाणं दिवई पलि. अभितरियाए परिसाए देवीणं दिवढं पलिओवमं ठिती पण्णत्ता मज्झिमियाए परिसाए देवीणं पलिओवमं ठिती पण्णत्ता बाहिरियाए परि० देवीणं अद्धपलिओवमं ठिती पण्णत्ता ॥ से केणटेणं भंते! एवं वुच्चति?-चमरस्स असुरिंदस्स तओ परिसातो पण्णत्ताओ, तंजहा-समिया चंडा जाया, अभितरिया समिया मज्झिमिया चंडा बाहिरिया जाया?. गोयमा! चमरस्सणं अमरिंदस्स असुररन्नो अभितरपरिसा देवा वाहिता हव्वमागच्छंति णो अव्वाहिता, मज्झिमपरिसाए देवा वाहिता हव्वमागच्छंति अव्वाहितावि, बाहिरपरिसा देवा अव्वाहिता हव्वमागच्छंति, अदुत्तरं च णं गोयमा ! चमरे असुरिंदे असुरराया अन्नयरेसु उच्चावएसु कजकोडुवेसु समुप्पन्नेसु अन्भितरियाए परिसाए सद्धिं संमइसंपुच्छणाबहुले विहरइ मज्झिमपरिसाए सद्धिं पयं एवं पवंचेमाणे २ Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३ प्रतिपसौ विहरति बाहिरियाए परिसाए सद्धि पर्यडेमाणे २ विहरति, से तेणटेणं गोयमा! एवं वुच्चइ देवाधिचमरस्सणं असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो तओ परिसाओ पण्णत्ताओ समिया चंडा जाता, अभितरिया समिया मज्झिमिया चंडा बाहिरिया जाता (सू०११८)॥ र कारः 'चमरस्स णमित्यादि, चमरस्य भदन्त ! असुरेन्द्रस्य असुरकुमारराजस्य 'कति' कियत्सङ्ख्याकाः पर्पदः प्रज्ञप्ताः ?, भगवानाह उद्देशः १ गौतम तिस्रः पर्षदः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-समिता चण्डा जाता, तत्राभ्यन्तरिका पर्षत् 'समिता' समिताभिधाना, एवं मध्यमिका सू० ११८ चण्डा वाह्या जाता।। 'चमरस्स णमित्यादि, चमरस्य भदन्त! असुरेन्द्रस्यासुरकुमारराजस्याभ्यन्तरिकायां पर्षदि कति देवसहस्राणि प्रज्ञप्तानि ?, मध्यमिकायां पर्षदि कति देवसहस्राणि प्रज्ञप्तानि?, वाह्यायां पर्षदि कति देवसहस्राणि प्रज्ञप्तानि?, भगवानाहगौतम! चमरस्यासुरेन्द्रस्यासुरकुमारराजस्याभ्यन्तरिकायां पर्षदि चतुर्विशतिर्देवसहस्राणि प्रज्ञप्तानि, मध्यमिकायामष्टाविंशतिर्देवसहस्राणि, वाह्यायां द्वात्रिंशद्देवसहस्राणि प्रज्ञप्तानि ॥ 'चमरस्सणं भंते! इत्यादि, चमरस्य भदन्त ! असुरेन्द्रस्यासुरकुमारराजस्याभ्यन्तरिकायां पर्षदि कति देवीशतानि प्रज्ञप्तानि? मध्यमिकायां पर्षदि कति देवीशतानि प्रज्ञप्तानि? वाह्यायां पर्षदि कति देवीशतानि प्रज्ञप्तानि?, भगवानाह-गौतम अभ्यन्तरिकायां पर्षदि अर्द्धतृतीयानि देवीशतानि प्रज्ञप्तामि, मध्यमिकायां पर्षदि त्रीणि देवीशतानि प्रज्ञप्तानि, वाह्यायां पर्षदि अर्द्धचतुर्थानि देवीशतानि प्रज्ञप्तानि ॥'चमरस्स णं भंते' इत्यादि, चमरस्य भदन्त! असुरेन्द्रस्यासुरकुमारराजस्थाभ्यन्तरिकायां पर्षदि देवानां कियन्तं कालं स्थितिः प्राप्ता? मध्यमिकायां पर्षदि देवानां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ?, ॥१६५॥ एवं बाह्यपर्षद्विषयमपि प्रभसूत्रं वक्तव्यं, तथाऽभ्यन्तरिकायां पर्पदि देवीनां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता?, एव मभ्यमिकाबाह्यपर्ष SRIGANGA Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A -25%4-%-0-% 45-23 द्विषये अपि प्रभसूत्रे वक्तव्ये, भगवानाह-गौतम! चमरस्यासुरेन्द्रस्यासुरकुमारराजस्याभ्यन्तरिकायां पर्षदि देवानामर्द्धतृतीयानि पल्योपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता, मध्यमिकायां पर्षदि देवानां द्वे पल्योपमे स्थितिः प्रज्ञप्ता, बाबायां पर्षदि देवानां व्यर्द्ध पल्योपमं स्थितिः प्राप्ता, तथाऽभ्यन्तरिकायां पर्षदि देवीनां व्यर्द्धपल्योपमं स्थितिः प्रज्ञप्ता, मध्यमिकायां पर्षदि देवीनां पल्योपमं स्थितिः, प्रससा, बारायां पर्षदि देवीनामर्द्धपल्योपमं स्थितिः प्रज्ञप्ता, इह भूयान् वाचनाभेद इति यथाऽवस्थितसूत्रे पाठनिर्णयाथै सुगममपि सूत्रमक्षरसंस्कारमात्रेण विप्रियते । सम्प्रत्यभ्यन्तरिकादिव्यपदेशकारणं पिपृच्छिषुरिदमाह-'सेकेणतुण'मित्यादि, अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते ? घमरस्य असुरकुमारराजस्य तिस्रः पर्षदः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा समिता चण्डा जाता, अभ्यन्तरा समिता मध्यमिका चण्डा बाह्या जाता भगवानाह-गौतम! चमरस्यासुरेन्द्रस्यासुरकुमारराजस्याभ्यन्तरपर्षत्का देवाः 'वाहिता' आहूताः 'हव्वं' शीघ्रमागच्छन्ति नो 'अन्वाहिता' अनाहूताः, अनेन । गौरवमाह, मध्यमपर्षद्गा देवा आहूता अपि शीघ्रमागच्छन्ति अनाहूता अपि, मध्यमप्रतिपत्तिविषयत्वात् , बाह्यपर्षद्गा देवा अनाहूताः || शीघ्रमागच्छन्ति, तेषामाकारणलक्षणगौरवानहत्वात् , 'अदुत्तरं च ण'मित्यादि, "अथोत्तरम्' अथान्यद् अभ्यन्तरत्वादिविषये कारणं गौतम! चमरोऽसुरेन्द्रोऽसुरकुमारराजोऽन्यतरेषु 'उच्चावचेषु' शोभनाशोभनेषु 'कज्जकोडंवेसु' इति कौटुम्बिकेषु कार्येषु कुटुम्बे भवानि कौटुम्वानि स्वराष्ट्रविषयाणीत्यर्थः तेषु कार्येषु समुत्पन्नेषु अभ्यन्तरिकया पर्षदा सार्द्ध संमतिसंप्रभबहुलश्चापि विहरति, सन्मत्याउत्तमया मत्या यः संप्रश्न:-पर्यालोचनं तद्वहुलश्चापि 'विहरति' आस्ते, स्वल्पमपि प्रयोजनं प्रथमतस्तया सह पर्यालोच्य विधातीति भावः, मध्यमिकया पर्षदा सार्द्ध यदभ्यन्तरिकया पर्षदा सह पर्यालोच्य कर्त्तव्यतया निश्चितं पदं 'तत्पश्चयन विहरति एवमिदमामस्माभिः पर्यालोचितमिदं कर्त्तव्यमन्यथा दोष इति विस्तारयन्नास्ते, बाह्यया पर्षदा सह यदुभ्यन्तरिकया पर्षदा सह पर्यालोचितं 4 5- 2 Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * मध्यमिकया सह गुणदोपप्रपञ्चकथनतो विस्तारितं पदं तत् 'प्रचण्डयन प्रचण्डयन् विहरंति' आज्ञाप्रधानः सन्नवश्यं कर्त्तव्यतया 5 ३ प्रतिपच्ची निरूपयन् तिष्ठति, यथेदं युष्माभिः कर्त्तव्यमिदं न कर्त्तव्यमिति, तदेवं या एकान्ते गौरवमेव केवलमर्हति यया च सहोत्तममतिला- देवाधित्स्वल्पमपि कार्य प्रथमतः पर्यालोचयति सा गौरवविषये पर्यालोचनायां चात्यन्तमभ्यन्तरा वर्तते इत्यभ्यन्तरिका, या तु गौरवार्हा * कारः पर्यालोचितं चाभ्यन्तरिकया पर्षदा सह अवश्यकर्त्तव्यतया निश्चितं न तु प्रथमतः सा किल गौरवे पर्यालोचनायां च मध्यमे भागे यम भागे उद्देशः१ वर्त्तत इति मध्यमिका, या तु गौरवं न जातुचिदप्यर्हति न च यया सह कार्य पर्यालोचयति केवलमादेश एव यस्मै दीयते सा गौर सू०११८ वानीं पर्यालोचनायाश्च बहिर्भावे वर्त्तत इति बाया। तदेवमभ्यन्तरिकादिव्यपदेशनिबन्धनमुक्तं, सम्प्रत्येतदेवोपसंहरन्नाह से एएण(तेण)टेण'मित्यादि पाठसिद्धं, यानि तु समिया चंडा जाता इति नामानि तानि कारणान्तरनिबन्धनानि, कारणान्तरं च ग्रन्थान्तरावसातव्यं, अत्र सतहणिगाथे-"चउवीस अट्ठवीसा बत्तीससहस्स देव चमरस्स । अझुट्ठा तिन्नि तहा अडाइज्जा य देविसया ॥१॥ अडाइज्जा य दोन्नि य दिवडपलियं कमेण देवठिई । पलियं दिवडमेगं अद्धो देवीण परिसासु ॥२॥" कहि णं भंते! उत्तरिल्लाणं असुरकुमाराणं भवणा पण्णत्ता ?, जहा ठाणपदे जाव बली, एत्थ वइरोयर्णिदे वइरोयणराया परिवसति जाव विहरति ॥ बलिस्स णं भंते! वयरोयर्णिदस्स वइरोयणरन्नो कति परिसाओ पण्णत्ताओ?, गोयमा! तिणि परिसा, तंजहा-समिया चंडा जाया, अभितरिया समिया मज्झिमिया चंडा बाहिरिया जाया। बलिस्स णं वइरोयर्णिदस्स वइरो ॥१६॥ यणरन्नो अभितरियाए परिसाए कति देवसहस्सा ? मज्झिमियाए परिसाए कति देवसहस्सा OPERESPOOSS*** रसा, तेंजहा-समिया पणरन्नो अभितरियाया चंडा बाहिरिया Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाव पाहिरियाए परिसाए कति देविसया पण्णत्ता?, गोयमा! बलिस्स णं वइरोयणिंदस्स २ अभितरियाए परिसाए वीसं देवसहस्सा पण्णत्ता, मज्झिमियाए परिसाए चउवीसं देवसहस्सा पण्णत्ता, बाहिरियाए परिसाए अट्ठावीसं देवसहस्सा पण्णत्ता, अभितरियाए परिसाए अद्धपंचमा देविसता, मज्झिमियाए परिसाए चत्तारि देविसया पण्णत्ता, बाहिरियाए परिसाए अधुट्ठा देविसता पण्णत्ता, बलिस्स ठितीए पुच्छा जाव बाहिरियाए परिसाए देवीणं केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता?, गोयमा! वलिस्स णं वइरोयणिंदस्स २ अभितरियाए परिसाए देवाणं अछुट्टपलिओवमा ठिती पण्णत्ता, मज्झिमियाए परिसाए तिन्नि पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता, बाहिरियाए परिसाए देवाणं अट्ठाइजाइं पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता, अभितरियाए परिसाए देवीणं अट्ठाइजाइं पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता, मज्झिमियाए परिसाए देवीणं दो पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता, बाहिरियाए परिसाए देवीणं दिवढे पलिओवमं ठिती पण्णत्ता, सेसं जहा चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररपणो ॥ (सू० ११९) । __'कहिणं भंते! उत्तरिल्लाणं असरकुमाराणं देवाणं भवणा पण्णत्ता' इत्यादि, क भदन्त! उत्त भवनानि प्रज्ञप्तानि? इत्येवं यथा प्रज्ञापनायां द्वितीय स्थानाख्ये पदे तथा तावद्वक्तव्यं यावदलिः, अत्र वैरोचनेन्द्रो वैरोचनराजः परि| वसति, तत ऊर्द्धमपि तावद्वक्तव्यं यावद्विहरति, तच्चैवम्-'कहि णं भंते! उत्तरिल्ला असुरकुमारा देवा परिवसंति ?, गोयमा! जंबु RULESAMANASALORCASE-5 Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ० [: " दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरे जोयणसयसहस्सग्राहल्लाए उवरि एवं जोयणसहस्सं ओगाहेत्ता हेट्ठा चेगं जोयणसहस्सं वज्जेत्ता मज्झे अट्ठहत्तरे जोयणसयसहस्से एत्थ उत्तरिल्लाणं असुरकुमाराणं देवाणं तीसं भवणवाससयसहस्सा भवंतीति मक्खायं, ते णं भवणा बाहि वट्टा अंतो चउरंसा सेसं जहा दाहिणिल्लाणं जाव विहरंति, वली य एत्थ वइरोयणिंदे वइरोयणराया परिवसह काले महानीलसरिसे जाव पभासेमाणे, से णं तत्थ तीसाए भवणवाससयसहस्साणं सट्ठीए सामाणियसाहस्सीणं तायत्तीसाए तायत्तीसगाणं चउन्हं लोगपालाणं पंचण्डं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं तिहुं परिसाणं सत्तण्हमणियाणं सत्तण्हमणियाहिवईणं चउण्ह य सट्ठीणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं अन्नेसिं च बहूणं उचरिल्लाणं असुरकुमाराणं देवाणं देवीण य आहेवक्षं जाव विहरइ " समस्तमिदं प्राग्वत् ॥ सम्प्रति पर्पन्निरूपणार्थमाह - ' वलिस्स णं भंते!" इत्यादि प्राग्वत्, नवरमिदमत्र देवदेवीसङ्ख्यास्थितिनानात्वम् - "वीस उ चउवीस अट्ठावीस सहस्साण ( होंति ) देवाणं । अद्धपणचउखुट्टा देविसय बलिस्स परिसासु ॥ १ ॥ अद्भुट्ठ तिण्णि अड्डाइज्जाई (होंति ) पलियदेवठिई । अड्डाइज्जा दोण्णि य दिवड देवीण ठिइ कमसो ॥ २ ॥” कहि णं भंते! नागकुमाराणं देवाणं भवणा पण्णत्ता ?, जहा ठाणपदे जाव दाहिणिल्लावि पुच्छि - यव्वा जाव धरणे इत्थ नागकुमारिंदे नागकुमारराया परिवसति जाव विहरति ॥ धरणस्स णं भंते! नागकुमारिंदस्स नागकुमाररण्णो कति परिसाओ? पं०, गोयमा ! तिण्णि परिसाओ, ताओ चैव जहा चमरस्स। धरणस्स णं भंते ! णागकुमारिंदस्स नागकुमाररन्नो अभितरियाए परिसाए कति देवसहस्सा पन्नत्ता ?, जाव बाहिरियाए परिसाए कति देवीसता पण्णत्त ?, गोयमा ! धरणस्स णं ३ प्रतिपत्तौ देवाधिकारः उद्देशः १ सू० ११९ ॥ १६७ ॥ Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णागकुमारिंदस्स नागकुमाररण्णो अभितरियाए परिसाए सहि देवसहस्साई मज्झिमियाए परिसाए सत्तरिं देवसहस्साई बाहिरियाए असीतिदेवसहस्साइं अभितरपरिसाए पण्णत्तरं देविसतं पण्णत्तं मज्झिमियाए परिसाए पण्णासं देविसतं पण्णत्तं बाहिरियाए परिसाए पणवीसं देविसतं पण्णत्तं । धरणस्स णं रन्नो अभितरियाए परिसाए देवाणं केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता? मज्झिमियाए परिसाए देवाणं केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ? बाहिरियाए परिसाए देवाणं केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता? अभितरियाए परिसाए देवीणं केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता? मज्झिमियाए परिसाए देवीणं केवइयं कालं ठिती पण्णत्ता? बाहिरियाए परिसाए देवीणं केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता?, गोयमा ! धरणस्स रण्णो अभितरियाए परिसाए देवाणं सातिरेगं अद्धपलिओवमं ठिती पण्णत्ता, मज्झिमियाए परिसाए देवाणं अद्धपलिओवमं ठिती पण्णत्ता, याहिरियाए परिसाए देवाणं देसूणं अद्धपलिओवमं ठिती पण्णत्ता, अभितरियाए परिसाए देवीणं देसूणं अद्धपलिओवमं ठिती पण्णत्ता, मज्झिमियाए परिसाए देवीणं सातिरेगं चउन्भागपलिओवमं ठिती पण्णत्ता, बाहिरियाए परिसाए देवाणं चउभागपलिओवमं ठिती पण्णत्ता, अहो जहा च-. मरस्स ॥ कहि णं भंते ! उत्तरिल्लाणं णागकुमाराणं जहा ठाणपदे जाव विहरति । भूयाणंदस्स णं भंते! णागकुमारिंदस्स णागकुमाररपणो अभितरियाए परिसाए कति देवसाहस्सीओ पण्ण Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ प्रतिपत्तौ देवाधि __ कारः उदेशः १ सू०११९ ताओ?, मज्झिमियाए परिसाए कति देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ?, बाहिरियाए परिसाए कइ देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ? अम्भितरियाए परिसाए कइ देविसया पण्णत्ता? मज्झिमियाए परिसाए कइ देविसया पण्णत्ता? वाहिरियाए परिसाए कइ देविसया पण्णत्ता?, गोयमा! भूयाणंदस्स णं नागकुमारिंदस्स नागकुमाररन्नो अभितरियाए परिसाए पन्नासं देवसहस्सा पण्णत्ता, मज्झिमियाए परिसाए सहि देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, बाहिरियाए परिसाए सत्तरि देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, अभितरियाए परिसाए दो पणवीसं देविसयाणं पण्णत्ता, मज्झिमियाए परिसाए दो देवीसया पण्णत्ता, बाहिरियाए परिसाए पण्णत्तरं देविसयं पण्णत्तं । भूयाणंदस्स णं भंते! नागकुमारिंदस्स नागकुमाररणो अभितरियाए परिसाए देवाणं केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता? जाव बाहिरियाए परिसाए देवीणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता?, गोयमा! भूताणंदस्स णं अभितरियाए परिसाए देवाणं देसूर्ण पलिओवमं ठिती पण्णत्ता, मज्झिमियाए परिसाए देवाणं साइरेगं अद्धपलिओवमं ठिती पण्णत्ता, बाहिरियाए परिसाए देवाणं अद्धपलिओवमं ठिती पण्णत्ता, अम्भितरियाए परिसाए अद्धपलिओवमं ठिती पण्णत्ता, मज्झिमियाए परिसाए देवीणं देसूर्ण अद्धपलिओवमं ठिती पण्णत्ता, बाहिरियाए परिसाए देवीणं साइरेगं चउभागपलिओवमं ठिती पण्णत्ता, अत्थो जहा चमरस्स, अवसेसाणं वेणु ॥१६८॥ Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवादीणं महाघोसपज्जवसाणाणं ठाणपदवत्तव्वया णिरवयवा भाणियव्वा, परिसातो जहा धरणभूताणंदाणं (सेसाणं भवणवईणं) दाहिणिल्लाणं जहा धरणस्स उत्तरिल्लाणं जहा भूताणंदस्स, परिमाणंपि ठितीवि ॥ (सू० १२०) _ 'कहि णं भंते! नागकुमाराणं देवाणं भवणा पण्णत्ता?' इत्यादि, क भदन्त! नागकुमाराणां देवानां भवनानि प्रज्ञप्तानि ?, शाएवं यथा प्रज्ञापनायां स्थानाख्ये द्वितीयपदे तथा वक्तव्यं यावद् दाक्षिणात्या अपि प्रष्टव्या यावद्धरणोऽत्र नागकुमारेन्द्रो नागकुमार राजः परिवसति यावद्विहरति, तच्चैवम्-“कहि णं भंते ! नागकुमारा देवा परिवसंति?, गोयमा! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उवरिं एगं जोयणसहस्सं ओगाहित्ता हिट्ठावि एगं जोयणसहस्सं वजेत्ता मज्झे अट्ठहत्तरे जोयणसयसहस्से, एत्थ णं नागकुमाराणं देवाणं चुलसी भवणावाससयसहस्सा भवंतीतिमक्खायं, ते णं भवणा बाहिं वट्टा जाव पडिरूवा, एत्थ णं नागकुमाराणं देवाणं भवणा पण्णत्ता, तत्थ णं बवे नागकुमारा देवा परिवसंति महिडीया महज्जतिया, सेसं जहा ओहियाणं जाव विहरंति, धरणभूयाणंदा एत्थ दुवे नागकुमारिंदा नागकुमाररायाणो परिवसंति महिडीया सेसं जहा ओहियाणं जाव विबाहरति । कहि णं भंते! दाहिणिल्लाणं नागकुमाराणं देवाणं भवणा पण्णता? कहि णं भंते! दाहिणिल्ला नागकुमारा देवा परिवसंति ?, | गोयमा! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणणं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसयसहस्सवाहल्लाए उवरिं एग जोय॥णसहस्सं ओगाहेत्ता हेट्ठा चेगं जोयणसहस्सं वजेत्ता मज्झे अट्ठहत्तरे जोयणसयसहस्से, एत्थ णं दाहिणिल्लाणं नागकुमाराणं देवाणं गाचोयालीसं भवणावाससयसहस्सा भवंतीति मक्खायं, ते णं भवणा बाहिं वट्टा जाव पडिरूवा, एत्थ णं दाहिणिल्लाणं नागकुमाराणं देवाणं anan Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवणा पन्नत्ता, एत्थ णं बहवे दाहिणिल्ला नागकुमारा परिवसंति महिड्डीया जाव विहरंति, धरणे एत्थ नागकुमारिंदे नागकुमारराया ३ प्रतिपत्ती परिवसइ महितीए जाव पभासेमाणे, से णं तत्थ चोयालीसाए भवणावाससयसहस्साणं छह सामाणियसाहस्सीणं तायत्तीसाए ताय- देवाधित्तीसगाणं चउण्डं लोगपालाणं छह अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं तिण्डं परिसाणं सत्तण्डं अणियाणं सत्तण्हं अणियाहिवईणं चउवी-5 कारः साए आयरक्खदेवसाहस्सीणं अण्णेसिं च बहूणं दाहिणिल्लाणं नागकुमाराणं देवाणं देवीण य आहेवणं जाव विहरंति" पाठसिद्धं ॥ उद्देशः१ सम्प्रति पर्पनिरूपणार्थमाह-'धरणस्स णं भंते!' इत्यादि, प्राग्वत् , नवरमत्राभ्यन्तरपर्पदि पष्टिदेवसहस्राणि मध्यमिकायां सप्तति- सू०१२० देवसहस्राणि बायायामशीतिर्देवसहस्राणि, तथाऽभ्यन्तरिकायां पर्पदि पश्चसप्ततं देवीशतं, 'मज्झिमियाए परिसाए पण्णासं देविसतं पण्णत्त' मध्यमिकायां पर्पदि पञ्चाशं देवीशतं बाह्यायां पञ्चविंशं देवीशतं, तथाऽभ्यन्तरिकायां पर्पदि देवानां स्थितिः सातिरेकम ईपल्योपमं मध्यमिकायाम पल्योपमं वाह्यायां देशोनमर्द्धपल्योपमं, तथाऽभ्यन्तरिकायां पर्पदि देवीनां स्थितिर्देशोनमर्द्धपल्योपमं ४ ६ मध्यमिकायां सातिरेक चतुर्भागपल्योपमं वाह्यायां चतुर्भागपल्योपमं, शेपं प्राग्वत् ॥ 'कहि णं भंते! उत्तरिल्लाणं नागकुमाराणं 3 भवणा पण्णत्ता जहा ठाणपदे जाव विहरइत्ति, क भदन्त | उत्तराणां नागकुमाराणां भवनानि प्रज्ञप्तानि? इत्यादि यथा प्रज्ञापनायां स्थानाख्ये पदे तथा वक्तव्यं यावद्विहरतीति पदं, तचैवम्-'कहि णं भंते! उत्तरिल्ला नागकुमारा परिवसन्ति ?, गोयमा! जं-* बुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उवरि एगं जोयणसहस्सं ५ ओगाहित्ता हेवा चेगं जोयणसहस्सं वजेत्ता मज्झे अट्ठहत्तरे जोयणसयसहस्मे, एत्थ णं उत्तरिलाणं नागकुमाराणं चत्तालीसं भवणा- १९॥ वाससयसहस्सा हवंतीतिमक्खायं, ते णं भवणा वाहिं वट्टा सेसं जहा दाहिणिलाणं जाव विहरंति, भूयाणंदे एत्थ नागकुमारिंदे नाग Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारराया परिवसति महिडीए जाव पभासेमाणे, सेणं चत्तालीसाए भवणावाससयसहस्साणं सेसं तं चेव जाव विहरई' इति निगसादसिद्धं ॥ पर्पनिरूपणार्थमाह-'भूयाणंदस्स ण'मित्यादि प्राग्वत् नवरमत्राभ्यन्तरिकायां पर्षदि पश्चाशद्देवसहस्राणि मध्यमिकायां पष्टिदेवसहस्राणि वाह्यायां सप्ततिर्देवसहस्राणि, तथाऽभ्यन्तरिकायां पर्षदि पञ्चविंशे द्वे देवीशते मध्यमिकायां परिपूर्णे द्वे देवीशते बाह्यायां पञ्चसप्ततं देवीशतं, तथाऽभ्यन्तरिकायां पर्षदि देवानां स्थितिर्देशोनं पल्योपमं मध्यमिकायां सातिरेकमर्द्धपल्योपमं बाह्यायामर्द्धपल्योपमं, तथाऽभ्यन्तरिकायां पर्षदि देवीनां स्थितिर पल्योपमं मध्यमिकायां देशोनमर्द्धपल्योपमं बाह्यायां सातिरेक चतुर्भागपल्यो|पमं, शेषं प्राग्वत् । 'अवसेसाणं वेणुदेवाईणं महाघोसपज्जवसाणाणं ठाणपयवत्तव्बया भाणियव्वा' इति, 'अवशेषाणां नाग-1 कुमारराजव्यतिरिक्तानां वेणुदेवादीनां महाघोषपर्यवसानानां स्थानाख्यप्रज्ञापनागतद्वितीयपदवक्तव्यता भणितव्या, सा चैवम्-“कहि णं भंते ! सुवन्नकुमाराणं देवाणं भवणा पण्णत्ता? कहि णं भंते! सुवण्णकुमारा देवा परिवसंति?, गोयमा! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीएअसीउत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उवरिं एगं जोयणसहस्सं ओगाहेत्ता हेद्वावि एग जोयणसहस्सं वज्जेत्ता मज्झे अहत्तरे जोयणसयस हस्से, एत्थ णं सुवण्णकुमाराणं देवाणं बावत्तरी भवणावाससयसहस्सा भवंतीतिमक्खायं, ते णं भवणा बाहिं वट्टा जाव पडिरूवा, एत्थ णं सुवण्णकुमाराणं देवाणं भवणा पण्णत्ता, तत्थ णं बहवे सुवण्णकुमारा देवा परिवसंति महिडिया सेसं जहा ओहियाणं जाव विहरंति, वेणुदेवे वेणुदाली एत्थ दुवे सुवण्णकुमारिंदा सुवण्णकुमाररायाणो परिवसंति महिड्डिया जाव विहरति । कहि णं भंते ! दाहि|णिल्लाणं सुवण्णकुमाराणं भवणा पण्णत्ता? कहि णं भंते! दाहिणिल्ला सुवण्णकुमारा देवा परिवसंति ?, गोयमा! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उवरि एग जोयणसयसहस्सं ओगाहित्ता हेट्ठा चेगं जोयणसहस्सं वज्जेत्ता मज्झे अट्ठहत्तरे Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३प्रतिपत्ती देवाधि कारः उद्देशः१ सू० १२० जोयणसयसहस्से, एत्थ णं दाहिणिल्लाणं सुवण्णकुमाराणं अत्तीसं भवणावाससयसहस्सा भवंतीतिमक्खायं, ते णं भवणा वाहिं वट्टा - जाव पडिरूवा, एत्य णं दाहिणिल्लाणं सुवण्णकुमाराणं भवणा पण्णत्ता, एत्थ णं वहवे दाहिणिल्ला सुवण्णकुमारा परिवसंति, वेणुदेवे एत्थ सुवण्णकुमारिंदे सुवण्णकुमारराया परिवसति महिडिए जाव पभासेमाणे, से णं तत्थ अदृत्तीसाए भवणावाससयसहस्साणं जाव ( विहरति ।" पर्पद्वक्तव्यताऽपि धरणवन्निरवशेपा वक्तव्या । 'कहि णं भंते! उत्तरिल्लाणं सुवण्णकुमाराणं भवणा पन्नत्ता? कहि णं भंते! 18 उत्तरिल्ला सुवण्णकुमारा देवा परिवसंति ?, गोयमा! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए जाव मझे अट्ठहत्तरे जोयणसयसहस्से, एत्य णं उत्तरिल्लाणं सुवण्णकुमाराणं देवाणं चोत्तीसं भवणावाससयसहस्सा भवंतीतिमक्खायं, ते णं भवणा चाहिं वट्टा जाव पडिरूवा, एत्थी णं बहवे उत्तरिल्ला सुवण्णकुमारा देवा परिवसंति महिडिया जाव विहरंति, वेणुदाली य एत्थ सुवण्णकुमारिंदे सुवण्णकुमारराया परिवसति महिडिए जाव पभासे०, (सेणं) तत्थ चोत्तीसाए भवणावाससयसहस्साणं सेसं जहा नागकुमाराणं।" पर्पद्वक्तव्यताऽपि भूतानन्दवनिरवशेपा वक्तव्या। यथा सुवर्णकुमाराणां वक्तव्यता भणिता तथा शेषाणामपि वक्तव्या, नवरं भवननानात्वमिन्द्रनानात्वं परिमाणनानात्वं चैताभिर्गाथाभिरनुगन्तव्यम्-"चउसट्ठी असुराणं चुलसीई चेव होइ नागाणं । यावत्तरि सुवण्णे वाउकुमाराण छन्नउई ॥१॥ दीवदिसाउदहीणं विजुकुमारिंदथणियमग्गीणं । छण्डंपि जुयलयाणं बावत्तरिमो सयसहस्सा ॥२॥ चोत्तीसा १ चोयाला २ अ. ठुत्तीसं ३ च सयसहस्साई । पण्णा ४ चत्तालीसा १० दाहिणतो होंति भवणाई ॥३॥ तीसा १ चत्तालीसा २ चोत्तीसं ३ चेव * सयसहस्साई । छायाला ४ छत्तीसा १० उत्तरतो होंति भवणाई॥४॥ चमरे १ धरणे २ तह वेणुदेव ३ हरिकंत ४ अग्गिसीहे ५ ॐ य । पुण्णे ६ जलकंते या अमिए ८ लंबे य ९ घोसे य १०॥५॥ बलि १ भूयाणंदे २ वेणुदालि ३ हरिस्सह ४ अग्गिमाणव SC- SMCAMRENCRANC644 ॥१७०॥ Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ विसिढे ६ । जलप्पम अमियवाहण ८ पभंजणे ९ चेव महघोसे १० ॥ ६॥ चउसही सही खलु छप्यं सहस्सा उ असुरवजाणं । सामाणिया. एप चउग्गुणा आयरक्खा उ ॥७॥" पर्पवक्तव्यताऽपि दाक्षिणात्यानां धरणवत्, उत्तराणां भूतानन्दवत्, तथा चाह"परिसाओ सेसाणं भवणवईणं दाहिणिल्लाणं जहा धरणस्स, उत्तरिल्लाणं जहा भूयाणंदुस्से"ति ॥ तदेवं भवन(पति)वक्तव्यतोक्ता, सम्प्रति वानमन्तरवक्तव्यतामभिधित्शुराह कहि णं भंते! वाणमंतराणं देवाणं भवणा (भोमेजा गरा) पण्णत्ता?, जहा ठाणपदे जाव विहरंति ॥ कहि णं भंते! पिसायाणं देवाणं भवणा पण्णत्ता?, जहा ठाणपदे जाव विहरंति कालमहाकाला य तत्थ दुवे पिसायकुमाररायाणो परिवसंति जाव विहरंति, कहि णं भंते! दाहिणिल्लाणं पिसायकुमाराणं जाव विहरंति काले य एत्थ पिसायकुमारिंदे पिसायकुमारराया परिवसति महड्डिए जाव विहरति ॥ कालस्स णं भंते! पिसायकुमारिंदस्स पिसायकुमाररण्णो कति परिसाओ पण्णत्ताओ?, गोयमा! तिणि परिसाओ पण्णत्ताओ, तंजहा-ईसा तुडिया दढरहा, अभितरिया ईसा मज्झिमिया तुडिया बाहिरिया दढरहा । कालस्स णं भंते ! पिसायकुमारिंदस्स पिसायकुमाररणो अभितरपरिसाए कति देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ? जाव बाहिरियाए परिसाए कइ देविसया पण्णत्ता?, गो० कालस्स णं पिसायकुमारिंदस्स पिसायकुमाररायस्स अभितरियपरिसाए अट्ठ देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ मज्झिमपरि 895656546 Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 ३ प्रतिपत्तौ देवाधि कारः उद्देशः १ सू० १२१ साए दस देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ बाहिरियपरिसाए यारस देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ अभितरियाए परिसाए एगंदेविसतं पण्णत्तं मज्झिमियाए परिसाए एगं देविसतं पण्णत्तं वाहिरियाए परिसाए एगं देविसतं पण्णत्तं । कालस्स णं भंते! पिसायकुमारिंदस्स पिसायकुमाररण्णो अभितरियाए परिसाए देवाणं केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता? मज्झिमियाए परिसाए देवाणं केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता? बाहिरियाए परिसाए देवाणं केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता? जाव बाहिरियाए देवीणं केवतियं कालं ठिती पण्णता?, गोयमा! कालस्स णं पिसायकुमारिंदस्स पिसायकुमाररणो अभितरपरिसाए देवाणं अपलिओवमं ठिती पण्णत्ता, मज्झिमियाए परि० देवाणं देसूर्ण अद्धपलिओवमंठिती पण्णत्ता, वाहिरियाए परि० देवाणं सातिरेगं चउभागपलिओचमं ठिती पण्णत्ता, अभंतरपरि० देवीणं सातिरेगं चउभागपलिओवमं ठिती पण्णसा, मज्झिमपरि० देवीणं चउभागपलिओवमं ठिती पण्णत्ता, बाहिरपरिसाए देवीणं देसूणं चउभागपलिओवमं ठिती पण्णत्ता, मज्झिमपरिसाए देवीणं चउभागपलिओवमं ठिती पण्णत्ता, याहिरपरिसाए देवीणं देसूणं चउभागपलिओवमं ठिती पण्णत्ता, अहो जो चेव चमरस्स, एवं उत्तरस्सवि, एवं णिरंतरं जाव गीयजसस्स ॥ (सू० १२१) 'कहि णं भंते! चाणमंतराणं देवाणं भोमेज्जा नगरा पण्णत्ता?' क भदन्त! वानमन्तराणां देवानां भौमेयानि नगराणि प्रश ॥१७१॥ Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तानि ?, 'जहा ठाणपदे जाव विहरंति' इति, यथा स्थानाख्ये प्रज्ञापनायां द्वितीये पदे तथा वक्तव्यं यावद्विहरन्तीति, तचैवं - "गोयमा! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए रयणामयस्स कंडस्स जोयणसहस्सबाहलस्स उवरिं एगं जोयणसयं ओगाहेत्ता हेट्ठावि एवं जोयणसयं वज्जेत्ता मज्झे अट्ठसु जोयणसएसु, एत्थ णं वाणमन्तराणं तिरियमसंखेज्जा भोमेज्जा नगरावाससयसहस्सा भवतीति मक्खायं, ते णं भोमेज्जा नगरा वाहिं वट्ठा अंतो चउरंसा अहे पुक्खरकण्णियासंठाणसंठिया उक्तिण्णंतरविलगंभीरखायपरिहा पागारट्टालयकवा| डतोरणपडिदुवारदेसभागा जंतसयग्घिमुसलमुसुंढिपरियरिया अयोज्झा सयाजया सयागुत्ता अडयालकोट्ठरइया अडयालकयवणमाला खेमा सिवा किंकरामरदंडोवर क्खिया लाउलोइयमहिया गोसीससरसरत्तचंदणदद्दर दिन्नपंचंगुलितला उवचियचंदणकलसा चंदणघडसु| कयतोरणपडिदुवारदेसभागा आसत्तोसत्तविउलवट्टवग्घारियमल्लदामकलावा पंचवण्णसरससुरभिमुक्कपुप्फपुंजोवयारकलिया कालागुरुपवरकुन्दुरुक्कतुरुक्क धूवमघमर्धेतगंधुद्धयाभिरामा सव्वरयणामया अच्छा सण्हा लण्हा घट्टा मट्ठा नीरया निम्मला निप्पंका निक्कंकडच्छाया सप्पभा समिरीया सउज्जोया पासाईया दरसणिज्जा अभिरुवा पडिरूवा, एत्थ णं वाणमंतराणं देवाणं भोमेज्जा नगरा पण्णत्ता, तत्थ णं वहवे वाणमंतरा देवा परिवसंति, तंजहा -पिसाया भूया जक्खा रक्खसा किंनरा किंपुरिसा भुयगपतिणो महाकाया गंधव्वगणा य निउणगंधव्वगीय रमणा अणपन्नियपणपन्निय इसिवाइय भूयवाइय कंदिय महाकंदिया य कुहंडपयंगदेवा चंचलचवलचित्तकीलणदवप्पिया गहिरहसियगीयणच्चणरई वणमाला मेलमउडकुंडल सच्छंद विउब्वियाभरणचारुभूसणधरा सव्वोउयसुरहिकुसुमरइयपलंचसोहंतकंत वियसंतचित्तवणमालरइयवच्छा कामकामा कामरूवदेहधारी नाणा विह्वण्णरागवरवत्थचिल्ललगनियंसणा विविदेसनेवत्थगहियवेसा पमुइयकंदप्पकलह के लि कोलाहलप्पिया हासवोलबहुला असिमोग्गरसत्तिहत्था अणेगमणिरयणविविह (निजुत्त) चिंत्तचिधगया 1 Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुरूवा महिडिया महायसा जाब महासोक्सा हारविराइयवच्छा नाम महिमाओ उसनेमाला पभामेगाणा, ते णं तत्थ माणं साणं भोजनगरावाससय सहस्साणं माणं साणं सामाणियसादस्मीगं साणं साणं अग्गमद्दिमीगं साणं माणं परिमाणं साणं माणं अणीयानं साणं २ अणीयाहिवईणं सासं सागं आयरम्यदेवसाहस्मीणं, अन्नेमिं च चणं वाणमंतराणं देवाण य देवीण य आहेवनं जाव मुंजमाणा विहति" प्रायः सुगमं, नवरं 'भुयगवइणो महाकाया' इति, महाकाया - महोरगाः, किंविशिष्टा: ? इत्याह-भुजगपतय:, 'गन्धर्वगणाः' गन्धर्व समुदायाः, किंविशिष्टाः ? इत्याह- 'निपुणगन्धर्वगीतरतयः' निपुणा:- परम कौशलोपेता एवं गन्धवी - गन्धर्वजातीया देवास्तेषां यद् गीतं तत्र रतिर्येषां ते तथा, एते व्यन्तराणामी मूलभेदाः, इमे चान्येऽवान्तरभेदा अष्टौ - 'अणपन्निय' इत्यादि, कयम्भूता एते पोडशापीत्यत आह--' चंचलचलचित्तकीलणदवप्पिया' चध्वला - अनवस्थितचित्तान्मया चलचपलम्-अतिशयेन चपलं यच्चित्रं - नानाप्रकारं क्रीडनं यथ चित्रो-नानाप्रकारो द्रवः-परिहासस्तो थियो येषां ते चलचलचित्रकीडनद्रवप्रियाः, ततत्र वलशब्देन विशेषणसमासः, तथा 'गहिरहसियगीयनच्चणरई' इति गम्भीरेषु मितगीत नर्त्तनेषु रतिर्गेषां ते तथा, तथा 'वणमालामेडमउलकुंडलसच्छंद विउब्वियाभरणभूसणधरा' इति वनमाला - वनमालामयानि आमेलमुकुटकुण्डलानि, आमेल:- आपीउशब्दस्य प्राकृतलक्ष्णवशाद् आपीड: - शेखरकः, तथा स्वच्छन्दं विकुर्वितानि यानि आभरणानि तैर्यचारु भूषणं- गण्डनं तद्धरन्तीति वनमालाऽऽपीडगुकुटकुण्डलस्वच्छन्द विकुर्विताभरणचारुभूषणधराः, लिहादिलादच्, तथा सर्वर्तु है:- सर्वर्तुभाविभिः सुरभिकुसुमैः सुरचिताः -शोभनं निर्वर्त्तिताः तथा प्रलम्बत इति प्रलम्बा शोभत इति शोभमाना कान्ता- कमनीया विकमन्ती-अमुकुलिता अम्लानपुष्पमयी चित्रानानाप्रकारा वनमाला रचिता वक्षसि यैस्ते सर्वर्तुकसुर भिकुसुमर चितप्रलम्यशोभमानकान्त विकसवित्रवनमालारचितवक्षसः, तथा कामं ३ प्रतिपचौ देवाधि कारः उद्देशः १ सू० १२१ ॥ १७२ ॥ Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -खेच्छया गमो येषां ते कामगमा:-खेच्छाचारिणः, कचित् 'कामकामाः' इति पाठः, कामेन-खेच्छया कामो-मैथुनसेवा येषां ते कामकामा अनियतकामा इत्यर्थः, तथा काम-वेच्छया रूपं येषां ते कामरूपास्ते च ते देहाश्व कामरूपदेहातान् धरन्तीत्येवंशीलाः कामरूपदेहधारिणः, खेच्छाविकुर्वितनानारूपदेहधारिण इत्यर्थः, तथा नानाविधैर्वण रागो-रक्तता येपा तानि नानाविधवर्णरागाणि वराणि-प्रधानानि चित्राणि-नानाविधानि अद्भुतानि वा (वस्त्राणि) चेल्ललकानि-देशीवचनाद् देदीप्यमानानि नियंसणं-परिधानं येषां ते नानाविधवर्णरागवरवनचेल्ललकनिवसनाः तथा विविधर्देशनेपथ्यैर्गृहीतो वेपो यैस्ते विविधदेशनेपथ्यगृहीतवेषाः, 'पमइयकंदप्पक लहकेलिकोलाहलप्पिया' कन्दर्पः-कामोद्दीपनं वचनं चेष्टा च कलहो-राटि: केलि:-क्रीडा कोलाहलो-बोलः कन्दर्पकलहकेलिकोहालाहलाः प्रिया येषां ते कन्दर्पकलहकेलिकोलाहलप्रियाः, ततः प्रमुदितशब्देन सह विशेषणसमासः, 'हासबोलबहुला' इति हास-118 बोलौ बहुलौ-अतिप्रभूतो येषां ते हासबोलबहुलाः, तथाऽसिमुद्गरशक्तिकुन्ता हस्ते येषां ते असिमुद्गरशक्तिकुन्तहस्ताः, 'प्रहरणात् सप्तमी लाचेति सप्तम्यन्तस्य पाक्षिकः परनिपातः, 'अणेगमणिरयणविविहनिजुत्तचित्तचिंधगया' इति, मणय:-चन्द्रकान्ताद्या रत्नानि कर्केतनादीनि अनेकैर्मणिरत्नैर्विविधं-नानाप्रकारं नियुक्तानि विचित्राणि-नानाप्रकाराणि चिह्नानि गतानि-स्थितानि येषां ते तथा, शेषं प्राग्वत् ॥ 'कहि णं भंते! पिसायाणं देवाणं भोमेजा नगरा पण्णत्ता?' क भदन्त! पिशाचानां देवानां भौमेयानि नगराणि प्रज्ञप्तानि ? इत्यादि, 'जहा ठाणपदे जाव विहरंति' यथा प्रज्ञापनायां स्थानाख्ये पदे तथा वक्तव्यं यावद्विहरन्तीति पदं, तञ्चैवं| "कहि णं भंते! पिसाया देवा परिवसंति ? गोयमा! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए रयणामयस्स कंडस्स जोयणसहस्सबाहलस्स उवरिं एगं जोयणसयं ओगाहेत्ता हेदा चेगं जोयणसयं वजेत्ता मज्झे असु जोयणसएसु, एत्थ णं पिसायाणं देवाणं तिरियमसंखेज्जा भोमेज्जन-1 Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गरावाससयसहस्सा भवंतीतिमक्खायं, ते णं भोमेजनगरा वाहिं वट्टा जो ओहिओ भोमेजनगरवण्णतो सो भाणियब्वो जाव पडि- ३ प्रतिपत्ती 5 रूवा, एत्थ णं पिसायाणं भोमेजनगरा पण्णत्ता, तत्थ णं बहवे पिसाया देवा परिवसंति महिडिया जहा ओहिया जाव विहरंति" सु- देवाधि गमं, "कालमहाकाला य एत्थ दुवे पिसाइंदा पिसायरायाणो परिवसंति महिडिया जाव विहरंति, कहि णं भंते! दाहिणिल्लाणं पिसा-6 कारः याणं भोमेजा नगरा० बाहिं वट्टा जो ओहिओ भोमेजनगरवण्णतो सो भाणियब्यो जाव पडिरूवा, एत्य णं पिसायाणं भोमेजनगरा उद्देशः१ पण्णत्ता । कहि णं भंते! दाहिणिल्ला पिसाया देवा परिवसंति', गोयमा! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पन्वयस्स दाहिणेणं इमीसे रयण- ॐ सू०१२१ प्पभाए पुढवीए रयणामयस्स कंडस्स जोयणसहस्सवाहल्लस्स उवरि एगं जोयणसयं ओगाहेत्ता हेवावि एगं जोयणसयं वजेत्ता मज्झे अट्ठसु जोयणसएसु एत्थ णं दाहिणिलाणं पिसायाणं देवाणं भोमेजा नगरा पण्णत्ता, तत्थ णं वहवे दाहिणिल्ला पिसाया देवा परिवसंति महिडिया जाव विहरंति, काले य तत्थ पिसाइंदे पिसायराया परिवसति महिडिए जाव पभासेमाणे, से णं तत्थ तिरियमसंखेजाणं भोमेजनगरावाससयसहस्साणं चउण्हं सामाणियसाहस्सीणं चउण्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं तिण्हं परिसाणं सत्तण्हं अणियाणं सत्तण्हं अणियाहिवईणं सोलसण्हं आयरक्खदेवसाइरसीणं अन्नेसिं च बहूर्ण दाहिणिल्लाणं वाणमन्तराणं देवाणं देवीण य आहेवचं जाव विहरति" पाठसिद्धं ॥ सम्प्रति पर्पनिरूपणार्थमाह-कालस्म णं भंते! पिसायइंदस्स पिसायरनो कति परिसाओ पण्णताओ?, गोयमा तिण्णि परिसाओ पण्णत्ताओ, तंजहा-ईसा तुडिया ढरहा अभितरिया ईसा' इत्यादि सर्व प्राग्वत् , नवरमत्राभ्यन्तरिकायामष्टौ देवसहस्राणि मध्यमिकायां दश देवसहस्राणि बाह्यायां द्वादश देवसहस्राणि, तथाऽभ्यन्तरिकायां पर्पदि एकं देवी- ॥१७३॥ शतं मध्यमिकायामप्येकं देवीशतं बाह्यायामप्येकं देवीशतं, अभ्यन्तरिकायां पर्पदि देवानां स्थितिर पल्योपमं मध्यमिकायां देशोनमर्द्ध Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पल्योपमं बाह्यायां सातिरेकचतुर्भागपल्योपमं, तथाऽभ्यन्तरिकायां पर्षदि देवीनां सातिरेकं चतुर्भागपल्योपमं मध्यमिकायां चतुर्भाग-1 पल्योपमं वाह्यायां देशोनं चतुर्भागपल्योपमं, शेपं प्राग्वत् । “कहि णं भंते! उत्तरिल्लाणं पिसायाणं भोमेजा नगरा पण्णता?, कहिणं भंते! उत्तरिल्ला पिसाया देवा परिवसंति?, गोयमा! जंबुद्दीवे दीवे जहेव दाहिणिल्लाणं वत्तव्वया तहेव उत्तरिल्लाणंपि, नवरं मन्दरस्स उत्तरेणं, महाकाले इत्थ पिसाइंदे पिसायराया परिवसति जाव विहरति" पाठसिद्धं, पर्षद्वक्तव्यताऽपि कालवत्, “एवं जहा पिसायाणं तहा भूयाणवि जाव गंधव्वाणं नवरं इंदेसु नाणत्तं भाणियव्वं, इमेण विहिणा-भूयाणं सुरुवपडिरूवा, जक्खाणं पुण्णभद्दमाणिभद्दा, रक्खसाणं भीममहाभीमा, किंनराणं किंनरकिंपुरिसा, किंपुरिसाणं सप्पुरिसमहापुरिसा, महोरगाणं अइकायमहाकाया, गंधव्वाणं गीयरईगीयजसा-काले य महाकाले सुरूवपडिरूवपुण्णभद्दे य । अमरवइमाणिभदे भीमे य तहा महाभीमे ॥ १॥ किंनरकिंपुरिसे खलु सप्पुरिसे खलु तहा महापुरिसे । अइकायमहाकाए गीयरई चेव गीयजसे ॥२॥" सुगमम् , पर्षद्वक्तव्यताऽपि कालवन्निरन्तरं वक्तव्या याबद्गीतयशसः ॥ तदेवमुक्ता वानमन्तरवक्तव्यता सम्प्रति ज्योतिष्काणामाह-- कहि णं भंते! जोइसियाणं देवाणं विमाणा पण्णत्ता? कहि णं भंते! जोतिसिया देवा परिवसंति?, गोयमा! उप्पिं दीवसमुदाणं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिजातो भूमिभागातो सत्त'णउए जोयणसते उर्दु उप्पतित्ता दसुत्तरसया जोयणबाहल्लेणं, तत्थ णं जोइसियाणं देवाणं तिरियमसंखेजा जोतिसियविमाणावाससतसहस्सा भवंतीतिमक्खायं, ते णं विमाणा अद्धकविहकसंठाणसंठिया एवं जहा ठाणपदे जाव चंदमसूरिया य तत्थ णं जोतिसिंदा जोतिसरायाणो Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिपत्ती देवाधि कार: उद्देशः१ सू० १२२ । 24 परिवति महिहिया जाव विदरंति ॥ सूरस्स गंभंते! जोतिसिंदस्स जोतिसरपणो कति परिसाओ पपणत्ताओ?, गोयमा! तिपिण परिसाओ पपणत्ताओ, तंजहा-तुंथा तुडिया पेचा, . अभितरया तुंवा मजिामिया तुडिया बाहिरिया पेचा, सेसं जहा कालस्स परिमाणं, ठितीवि। अहो जहा चमरस्स । चंदस्सवि एवं चेव ॥ (५० १२२) 'कहि णं भंते! जोइसियाणमित्यादि, क भदन्त ! ज्योतिप्कानां देवानां विमानानि प्रशतानि ? क भवन्त ! जोतिका देगः परिवसन्ति ?, भगवानाह-गौतम! अस्या रत्नप्रभायाः पृथिव्या बहुसमरगणीयाद् भूमिभागाद् रातोपलक्षितान् 'सप्तनवतिशतानि' ९. सप्तनवत्यधिकानि योजनशतान्यूर्द्धमुत्लुस-बुद्ध्याऽतिक्रम्य दद्मोत्तरयोजनशतवाहल्ये तिर्यगसरोयेऽमाययोजनकोटीकोटीप्रमाणे ज्यो* तिर्विपये 'अत्र' एतस्मिन् प्रदेशे ज्योतिप्काणां देवानां तिर्यगमोयानि ज्योतिष्फविमानशतसहस्राणि भवन्तीत्याव्यातं मया शेषैश्च 5 तीर्थकृद्भिः, तानि च विमानान्यर्द्धकपित्थमंस्थानसंस्थितानि, अत्राक्षेपपरिहारौ चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकाया सूर्यप्रज्ञप्तिटीकायां सहणिटी कायां चाभिहिताविति ततोऽवधार्यो, 'सब्बफालियामया' सर्वात्मना स्फटिकमयानि सर्वस्फटिकमयानि 'जहा ठाणपदे जाव चंदनसूरिया एत्य दुवे जोइसिंदा जोइसरायाणो परिवसंति महिडिया जाव विहरंति' यथा प्रज्ञापनायां स्थानाख्ये द्वितीये पदे तथा वकव्यं यावच्चन्द्रसूर्यो, द्वावत्र ज्योतिप्केन्द्री ज्योतिष्कराजानी परिवसतस्ततोऽप्यूद्ध यावद्विदरन्तीति, एतवैवं-"अब्भुग्गयमूसियपद सिया इव विविहमणिकणगरयणभत्तिचित्ता पाउद्यविजयवेजयंतीपडागछत्तातिछत्तकलिया तुंगा गगणतलमभिलंघमाणसिहरा जालंतररयणा पंजरुम्मिलियन्व मणिकणगथूभियागा बियसियसयवसपोंडरीया तिलगरयणचंदचित्ता नाणामणिमयदामालंकिया अंतो यहिं च १७४॥ Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सण्हा तवणिजरुइलवालुयापत्थडा सुहफासा सस्सिरीया सुरूवा पासाईया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा, एत्य णं जोइसियाणं विमाणा पण्णत्ता, एत्थ णं जोइसिया देवा परिवसंति, तंजहा-बिहस्सती चंदसूरा सुक्कसणिच्छरा राहू धूमकेउबुहा अंगारका तत्ततवणिजकणगवण्णा जया तहा जोइसंमि चारं चरंति केऊ य गइरतीया अट्ठावीसइविहा य नक्खत्तदेवगणा नाणासंठाणसंठिया य पंचवण्णा य तारगाओ ठियलेसाचारिणो अविस्साममंडलगई पत्तेयनामंकपायडियचिंधमउडा महिडिया जाव पभासेमाणा, ते णं तत्थ साणं साणं विमाणावाससयसहस्साणं साणं साणं सामाणियसाहस्सीणं साणं साणं अगमहिसीणं सपरिवाराणं साणं साणं परिसाणं साणं साणं अणियाणं साणं साणं अणियाहिवईणं साणं साणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं, अन्नेसि च बहूणं जोइसियाणं देवाणं देवीण य आहेवच्चं जाव विहरंति, चंदिमसूरिया य एत्थ दुवे जोइसिंदा जोइसियरायाणो परिवसंति महिड्डिया जाव पभासेमाणा, ते णं तत्थ साणं साणं जोइसियविमाणावाससयसहस्साणं चउण्डं चउण्हं सामाणियसाहस्सीणं चउण्हं चउण्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं तिण्हं परिसाणं सत्तण्हं अणियाणं सत्तण्हं अणियाहिवईणं सोलसण्हं आयरक्खदेवसाहस्सीणं अन्नेसिं च बहूणं जोइसियाणं देवाणं देवीण य आहेवचं | जाव विहरंति" इति, अभ्युद्गता-आभिमुख्येन सर्वतो गता उत्सृता-प्रबलतया सर्वासु दिक्षु प्रसृता या प्रभा-दीप्तिस्तया सितानिधवलानि अभ्युद्गतोत्सृतप्रभासितानि, तथा विविधानां मणिकनकरत्नानां या भक्तयो-विच्छित्तिविशेषास्ताभिश्चित्राणि-आश्चर्यभूतानि विविधमणिकनकभक्तिचित्राणि, 'वाउद्धयविजयवेजयंतीपडागच्छत्तातिच्छत्तकलिया' वातोद्धृता-वायुकम्पिता विजय:-अभ्युदयस्तत्संसूचिका वैजयन्त्यभिधाना याः पताकाः, अथवा विजय इति वैजयन्तीनां पार्श्वकर्णिका उच्यन्ते तत्प्रधाना वैजयन्यो विजयवैजयन्त्यः-पताकास्ता एव विजयवर्जिता वैजयन्यः छातिच्छत्राणि-उपर्युपरि स्थितानि छन्त्राणि तैः कलितानि वातोद्भूतविजयवैजयन्ती-' 7030 Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - पताकाछत्रातिच्छत्रकलितानि 'तुङ्गानि' उच्चानि, तथा गगनतलम्-अम्बरतलमनुलिखन्-अभिलयन शिखरं येषां तानि गगनतला ४३ प्रतिपत्तौ नुलिखच्छिखराणि, तथा जालानि-जालकानि तानि च भवनभित्तिषु लोकप्रतीतानि, तदन्तरेषु विशिष्टशोभानिमित्तं रत्नानि यत्र तानि , देवाधिजालान्तररत्नानि, तथा पजराद् उन्मीलितवद् यथा हि किल किमपि वस्तु पञ्जराद्-वंशादिमयप्रच्छादनविशेषाद् बहिष्कृतमत्यन्त- कारः मनष्टच्छायत्वात् शोभते तथा तान्यपि विमानानीति भावः, तथा मणिकनकानां सम्बन्धिनी स्तूपिका-शिखरं येषां तानि मणिकन- उद्देशः१ कस्तूपिकानि, ततः पूर्वपदाभ्यां सह विशेषणसमासः, तथा विकसितानि यानि शतपत्राणि पुण्डरीकाणि च द्वारादिषु प्रतिकृतित्वेन । स०१२२ स्थितानि तिलकाश्च-भित्त्यादिषु पुण्ड्राणि रत्नमयाश्चार्द्धचन्द्रा द्वारादिषु तैश्चित्राणि विकसितशतपत्रपुण्डरीकतिलकरत्नार्द्धचन्द्रचित्राणि, ६ तथा नानामणिमयीभिर्दामभिरलङ्कतानि नानामणिमयदामालङ्कतानि, तथाऽन्तर्बहिश्च श्लक्ष्णानि-मसृणानि, तथा तपनीयं-सुवर्णविशे पस्तन्मय्या रुचिराया वालुकायाः-सिकतायाः प्रस्तट:-प्रतरो येषु तानि तपनीयरुचिरवालुकाप्रस्तटानि,' तथा सुखस्पर्शानि शुभस्प5 र्शानि वा शेषं प्राग्वद् यावद् 'वहस्सइचंदा' इत्यादि, बृहस्पतिचन्द्रसूर्यशुक्रशनैश्चरराहुधूमकेतुबुधागारकाः तप्ततपनीयकनकवर्णाःद ईपत्कनकवर्णाः, तथा ये ग्रहा ज्योतिष्क-ज्योतिश्चक्रे चारं चरन्ति केतवः ये च बाह्यद्वीपसमुद्रेष्वगतिरतिकाः ये चाष्टाविंशतिविधा नक्षत्रदेवगणास्ते सर्वेऽपि नानाविधसंस्थानसंस्थिताः चशब्दात्तप्ततपनीयकनकवर्णाश्च, तारकाः पञ्चवर्णाः, एते च सर्वेऽपि स्थितलेश्या * -अवस्थिततेजोलेश्याकाः, तथा ये चारिणः-चाररतास्तेऽविश्राममण्डलगतिकाः, तथा सर्वेऽपि प्रत्येक नामाड्रेन-वखनामाकपातेन प्रकटित चिई मुकुटो येषां ते प्रत्येक खनामाङ्कप्रकटितमुकुटचिहाः, किमुक्तं भवति ?-चन्द्रस्य स्वमुकुटे चण्द्रमण्डलं लाञ्छनं खना- ॥१७५॥ माङ्कप्रकटितं सूर्यस्य सूर्यमण्डलं ग्रहस्य प्रहमण्डलं नक्षत्रस्य नक्षत्रमण्डलं तारकस्य तारकाकारमिति, शेष प्राग्वत् ॥ पर्षे निरूपणाथेमाह Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -'सूरस्स णं भंते! जोइसिंदस्स जोइसरण्णो कइ परिसाओ पण्णत्ताओ?, गोयमा! तिन्नि परिसाओ पन्नत्ताओ, तंजहा-तुवा तुडिया पेचा, अभितरिया तंबा मज्झिमिया तुडिया वाहिरिया पेञ्चा, सेसं जहा कालस्स, अटो जहा चमरस्स, चन्दस्सवि एवं चेव पाठसिद्धं ज्योतिष्कास्तिर्यग्लोक इति तिर्यग्लोकप्रस्तावाहीपसमुद्रवक्तव्यतामाह कहि णं भंते! दीवसमुद्दा ? केवइया णं भंते! दीवसमुद्दा ? केमहालया णं भंते! दीवसमुद्दा ? किंसंठिया णं भंते! दीवसमुद्दा? किमाकारभावपडोयाराणं भंते! दीवसमुद्दा णं पन्नत्ता?, गोयमा! जंबुद्दीवाइया दीवा लवणादीया समुद्दा संठाणतो एकविहविधाणा वित्थारतो अणेगविधविधाणा दुगुणादुगुणे पडुप्पाएमाणा २ पवित्थरमाणा २ ओभासमाणवीचीया बहुउप्पलपउमकुमुदणलिणसुभगसोगंधियपोंडरीयमहापोंडरीयसतपत्तसहस्सपत्तपप्फुल्लकेसरोवचिता पत्तेयं पत्तेयं पउमवरवेइयापरिक्खित्ता पत्तेयं पत्तेयं वणसंडपरिक्खित्ता अस्सि तिरितलोए असंखेना दीवसमुद्दा सयंभुरमणपज्जवसाणा पण्णत्ता समणाउसो! ॥ (सू० १२३) 'कहि णं भंते! दीवसमुद्दा' इत्यादि, 'क्व' कस्मिन् णमिति वाक्यालङ्कारे 'भदन्त!' परमकल्याणयोगिन् ! द्वीपसमुद्राः प्रज्ञप्ताः?, अनेन द्वीपसमुद्राणामवस्थानं पृष्टं, 'केवइया णं भंते! दीवसमुदा' इति 'कियन्तः' कियत्सङ्ख्याका णमिति वाक्यालङ्कारे भदन्त! द्वीपसमुद्राः प्रज्ञप्ता:१, अनेन द्वीपसमुद्राणां सङ्ख्यानं पृष्टं, 'केमहालिया णं भंते! दीवसमुद्दा' इति किं महानालय-आश्रयो व्याप्यक्षेत्ररूपो येषां ते महालयाः किंप्रमाणमहालया णमिति प्राग्वद् द्वीपसमुद्राः प्रज्ञप्ता:?, किंप्रमाणं द्वीपसमुद्राणां महत्त्वमिति Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावः, एतेन द्वीपसमुद्राणामायामादिपरिमाणं पृष्टं, तथा 'किंसंठिया णं भंते! दीवसमुद्दा' इति किं संस्थितं-संस्थानं येषां ते किं- प्रतिपत्ती संस्थिता णमिति पूर्ववद् भदन्त! द्वीपसमुद्राः प्रज्ञप्ताः ?, अनेन संस्थानं पप्रच्छ, 'किमागारभावपडोयारा णं भंते! दीवसमुद्दा || देवाधिपण्णवा' इति आकारभाव:-खरूपविशेषः कस्याकारभावस्य प्रत्यवतारो येषां ते किमाकारभावप्रत्यवताराः, बहुलग्रहणाद्वैयधिकरण्ये-जा कार: ऽपि समासः, णमिति पूर्ववद्, द्वीपसमुद्राः प्रज्ञप्ताः ?, किं स्वरूपं द्वीपसमुद्राणामिति भावः, अनेन स्वरूपविशेषविषयः प्रभः कृतः, उद्देशा१ भगवानाह-गोयमें'त्यादि, गौतम! जम्बूद्वीपादयो द्वीपा 'लवणादिकाः' लवणसमुद्रादिकाः समुद्राः, अनेन द्वीपानां समुद्राणां 8 सू० १२३ चादिरुक्तः, एतचापृष्टमपि भगवता कथितमुत्तरत्रोपयोगित्वात् गुणवते शिष्यावापृष्टमपि कथनीयमिति ख्यापनार्थ च, 'संठाणतो' इत्यादि, 'संस्थानतः' संस्थानमाश्रित्य 'एगविहिविहाणा' इति एकविधि-एकप्रकारं विधानं येषां ते एकविधिविधानाः, एकखरूपा ॐ इति भावः, सर्वेषां वृत्तसंस्थानसंस्थितत्वाद्, 'विस्तारतः' विस्तारमधिकृत्य पुनरनेकविधिविधानाः अनेकविधानि-अनेकप्रकाराणि विधा-8 नानि येषां ते तथा, विस्तारमधिकृत्य नानास्वरूपा इत्यर्थः, तदेव नानाखरूपत्वमुपदर्शयति-'दुगुणादुगुणे पडुप्पाएमाणा २ पवित्थरमाणा' इति, द्विगुणं द्विगुणं यथा भवति एवं प्रत्युत्पद्यमाना गुण्यमाना इत्यर्थः, 'प्रविस्तरन्त:' प्रकर्षेण विस्तारं गच्छन्तः, तथाहि-जम्बूद्वीप एक लक्षं लवणसमुद्रो द्वे लक्षे धातकीखण्डश्चत्वारि लक्षाणीत्यादि, 'ओभासमाणवीचीया' इति अवभासमाना वीचय:-फल्लोला येषां ते अवभासमानवीचयः, इदं विशेषणं समुद्राणां प्रतीतमेव, द्वीपानामपि च वेदितव्यं, तेष्वपि इदनदीतडागादिषु कल्लोलसम्भवात् , तथा बहुभिरुत्पलपकुमुदनलिनसुभगसौगन्धिकपुण्डरीकमहापुण्डरीकशतपत्रसहस्रपत्रैः 'पप्फुल्ल'त्ति प्रफुल्लै:-विक• I सितैः 'केसरे'ति केसरोपलक्षितरुपचिता:-उपचितशोभाका बहूत्पलपयकुमुदनलिनसभगसौगन्धिकपुण्डरीकमहापौण्डरीकशतपत्रसह Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सपत्रप्रफुल्लकेसरोपचिताः, तत्रोत्पलं-गर्दभकं पञ-सूर्यविकासि कुमुदं-चन्द्रविकासि नलिनम्-ईषद्रक्तं पश्नं सुभगं-पद्मविशेष: सौग-1 न्धिक-कल्हार पौण्डरीकं-सिताम्बुजं तदेव बृहत् महापौण्डरीकं शतपत्रसहस्रपत्रे-पद्मविशेषौ पत्रसङ्ख्याकृतभेदो, 'पत्तेयं २' इति प्रतिशब्दोऽनाभिमुख्ये 'लक्षणेनाभिप्रती आभिमुख्ये' इति च समासस्ततो वीप्साविवक्षायां प्रत्येकशब्दस्य द्विवचनं पनवरवेदिकापरिक्षिप्ताः प्रत्येक वनखण्डपरिक्षिप्ताश्च ‘सयंभूरमणपज्जवसाणा' इति जम्बूद्वीपादयो द्वीपाः स्वयम्भूरमणद्वीपपर्यवसाना लवणसमुद्रादयः समुद्राः स्वयम्भूरमणसमुद्रपर्यवसाना अस्मिन् तिर्यग्लोके यत्र वयं चिंता असङ्ख्येया द्वीपसमुद्राः प्रज्ञप्ता हे श्रमणं! हे आयुष्मन् ! इह | 'अस्सि तिरियलोए' इत्यनेन स्थानमुक्तम्, 'असंखेज्जा' इत्यनेन सङ्ख्यानं, 'दुगुणादुगुण'मित्यादिना महत्त्वं 'संठाणतो' इत्यादिना संस्थानम् ॥ सम्प्रत्याकारभावप्रत्यवतारं विवक्षुरिदमाह तत्थ णं अयं जंबुद्दीवे णाम दीवे दीवसमुदाणं अभितरिए सव्वखुड्डाए वढे तेल्लापूयसंठाणसंठिते वट्टे रहचक्कवालसंठाणसंठितेवढे पुक्खरकणियासंठाणसंठिते वट्टे पडिपुन्नचंदसंठाणसंठिते, एक जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं तिण्णि जोयणसयसहस्साई सोलस य सहस्साई दोण्णि य सत्तावीसे जोयणसते तिण्णि य कोसे अट्ठावीसं च धणुसयं तेरस अंगुलाई अद्धंगुलकं च किंचिविसेसाहियं परिक्खेवेणं पण्णत्ते॥से णं एकाए जगतीए सव्वतो समंता संपरिक्खित्ते॥ सा णं जगती अट्ठ जोयणाई उडे उच्चत्तेणं मूले बारस जोयणाई विक्खंभेणं मज्झे अह जोयणाई विक्खंभेणं उप्पि चत्तारि जोयणाई विक्खंभेणं मूले विच्छिण्णा मज्झे संखित्ता उप्पि तणुया Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ प्रतिपत्तौ देवाधि कारः उद्देशः १ सू० १२४ . .. टू - गोपुच्छसंठाणसंठिता सव्ववइरामई अच्छा सण्हा लण्हा घट्टा मट्ठा णीरया णिम्मला णिपंका णिककडच्छाया सप्पभा समिरीया सउज्जोया पासादीया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा ॥ साणं 'जगती एक्केणं जालकडएणं सव्वतो समंता संपरिक्खित्ता ॥ से णं जालकडए णं अद्धजोयणं उर्ल्ड उच्चत्तेणं पंचधणुसयाई विक्खंभेणं सव्वरयणामए अच्छे सण्हे लण्हे (जाव) [घढे मढे णीरए णिम्मले णिप्पंके णिकंकडच्छाए सप्पभे [सस्सिरीए] समरीए सउज्जोए पासादीए दरिसणिज्जे अभिरुवे] पडिरूवे ॥ (सू० १२४) 'तत्थ ण'मित्यादि, 'तत्र' तेपु द्वीपसमुद्रेषु मध्ये 'अयं यत्र वयं वसामो जम्बूद्वीपो नाम द्वीपः, कथम्भूतः? इत्याह-सर्वद्वीपसमुद्राणां 'सर्वाभ्यन्तरकः' सर्वात्मना-सामस्त्येनाभ्यन्तरः सर्वाभ्यन्तर एव सर्वाभ्यन्तरकः, प्राकृतलक्षणात्स्वार्थे कप्रत्ययः, केषां सर्वात्मनाऽभ्यन्तरकः ?, उच्यते, सर्वद्वीपसमुद्राणां, तथाहि-सर्वेऽपि शेपा द्वीपसमुद्रा जम्बूद्वीपादारभ्यागमाभिहितेन क्रमेण द्विगुणद्विगुणविस्तारास्ततो भवति सर्वद्वीपसमुद्राणां सर्वाभ्यन्तरकः, अनेन जम्बूद्वीपस्यावस्थानमुक्तं, 'सव्वखुड्डाग' इति सर्वेभ्योऽपि शेपद्वीपसमुद्रेभ्यः क्षुल्लको-लघुः सर्वक्षुल्लकः, तथाहि-सर्वे लवणायः समुद्राः सर्वे च धातकीखण्डादयो द्वीपा जम्बूद्वीपादारभ्य द्विगुणद्विगुणायामविष्कम्भपरिधयस्ततः शेषद्वीपसमुद्रापेक्षयाऽयं लघुरिति, एतेन सामान्यतः परिमाणमुक्तं, विशेषतस्त्वायामादिगतं परिमाणमने वक्ष्यति, तथा वृत्तोऽयं जम्बूद्वीपो यतस्तैलापूपसंस्थानसंस्थितः, तैलेन पकोऽपूपस्तैलापूपः, तैलेन हि पकोऽपूपः प्रायः परिपूर्णवृत्तो भवति न घृतपक ६ इति तैलविशेषणं, तस्येव यत्संस्थानं तेन संस्थितस्तैलापूपसंस्थानसंस्थितः, तथा वृत्तोऽयं जम्यूद्वीपो यतो 'रथचक्रवालसंस्थानसंस्थितः' ॥१७७॥ Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रथस्य - रथाङ्गस्य चक्रस्यावयवे समुदायोपचाराश्चक्रवालं - मण्डलं तस्यैव यत् संस्थानं तेन संस्थितो रथचक्रवालसंस्थानसंस्थितः, एवं वृत्तः पुष्करकर्णिकासंस्थानसंस्थितः पुष्करकर्णिका - पद्मबीजकोश: वृत्तः परिपूर्णचन्द्रसंस्थानसंस्थितः पदद्वयं भावनीयम्, एतेन जम्बूद्वीपस्य संस्थानमुक्तम् ॥ सम्प्रत्यायामादिपरिमाणमाह - 'एकं ण' मित्यादि, एकं योजनशतसहस्रमायामविष्कम्भेन, आयामश्च विष्कम्भा आयामविष्कम्भं, समाहारो द्वन्द्वः, तेन, आयामेन विष्कम्भेन चेत्यर्थः, त्रीणि योजनशतसहस्राणि षोडश सहस्राणि द्वे योजन| शते सप्तविंशत्यधिके त्रयः क्रोशा अष्टाविंशम् - अष्टाविंशत्यधिकं धनुःशतं त्रयोदशाङ्गुलानि अर्द्धाङ्गुलं च किञ्चिद्विशेषाधिकमित्येतावान् परिक्षेपेण प्रज्ञप्तः, इदं च परिक्षेपपरिमाणं 'विक्खंभवग्गदहगुणकरणी वट्टस्स परिरओ होइ ।' इति करणवशात्स्वयमानेतव्यं क्षेत्रसमासटीका वा परिभावनीया, तत्र गणितभावनाया: सविस्तरं कृतत्वात् ॥ सम्प्रत्याकारभावप्रत्यवतारप्रतिपादनार्थमाह-- 'से ण' मित्यादि, 'सः' अनन्तरोक्तायामविष्कम्भपरिक्षेपपरिमाणो जम्बूद्वीपो णमिति वाक्यालङ्कारे एकया जगत्या सुनगरप्राकारकल्पया 'स|र्वतः सर्वासु दिक्षु 'समन्ततः' सामस्त्येन 'संपरिक्षिप्तः' सम्यग्वेष्टितः ॥ ' सा णं जगई' इत्यादि, सा च जगती ऊर्द्धम् - उच्चैस्त्वेनाष्टौ योजनानि मूले द्वादश योजनानि विष्कम्भेन मध्येऽष्टौ उपरि चत्वारि, अत एव मूले विष्कम्भमधिकृत्य विस्तीर्णा, मध्ये संक्षिप्ता त्रिभागोनत्वात् उपरि तनुका, मूलापेक्षया त्रिभागमात्रविस्तारभावात्, एतदेवोपमया प्रकटयति – 'गोपुच्छ संठाणसंठिया ' गोपुच्छस्येव संस्थानं गोपुच्छसंस्थानं तेन संस्थिता गोपुच्छसंस्थानसंस्थिता ऊर्द्धाकृतगोपुच्छाकारा इति भावः, 'सव्ववइरामई' सर्वामना-सामस्त्येन वज्रमयी - वरत्नामिका 'अच्छा' आकाशस्फटिकवतिस्वच्छा 'सण्हा लण्हा' लक्ष्णा श्लक्ष्णपुद्गलस्कन्धनिष्पन्ना ल क्ष्णदल निष्पन्नपटवत् 'लम्हा ' मसृणा घुण्टितपटवत् 'घट्ठा' घृष्टा इव घृष्टा खरशानया पाषाणप्रतिमावत् 'मट्ठा' मृष्टा इव मृष्टा सुकु Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मारशानया पाषाणप्रतिमावत् 'नीरजा' स्वाभाविकरजोरहितत्वात् 'निर्मला' आगन्तुकमलाभावात् 'निष्पङ्का' कलकविकला कर्दमर- ३ प्रतिपचौ हिता वा 'निककडच्छाया' इति निष्कङ्कदा निष्कवचा निरावरणा निरुपघातेति भावार्थः छाया-दीप्तिर्यस्याः सा निष्कङ्कटच्छाया देवाधि'सप्रभा' स्वरूपतः प्रभावती 'समरीचा' बहिर्विनिर्गतकिरणजाला, अत एव 'सोद्योता' वहिर्व्यवस्थितवस्तुस्तोमप्रकाशकरी 'प्रा ___ कार सादीया' प्रसादाय-मनःप्रसत्तये हिता तत्कारित्वात् प्रासादीया मनःप्रहत्तिकारिणीति भावः 'दर्शनीया' दर्शनयोग्या यां पश्यतश्च उद्देशः१ नुषी श्रमं न गच्छत इति 'अभिरूवा' इति अभि-सर्वेषां द्रष्टणां मनःप्रसादानुकूलतयाऽभिमुखं रूपं यस्याः सा अभिरूपा, अत्यन्त-6 सू०१२५ कमनीयेति भावः, अत एव 'प्रतिरूपा' प्रतिविशिष्टम्-असाधारणं रूपं यस्याः सा प्रतिरूपा, अथवा प्रतिक्षणं नवं नवमिव रूपं यस्याः सा प्रतिरूपा ॥ 'सा णं जगती' इत्यादि, 'सा' अनन्तरोदितस्वरूपा णमिति वाक्यालङ्कारे जगती एकेन 'जालकटकेन' जालानिजालकानि यानि भवनभित्तिषु लोकेऽपि प्रसिद्धानि तेषां कटक:-समूहो जालकटको जालकाकीर्णा रम्यसंस्थानप्रदेशविशेषपतिरिति भावः, तेन जालकटकेन 'सर्वतः सर्वासु दिक्षु 'समन्ततः' सामस्त्येन संपरिक्षिप्ता ॥ से णं जालकडए' इत्यादि, 'सः' जालकटक ७ ऊर्द्धमुञ्चैस्त्वेनाईयोजनं-द्वे गव्यूते विष्कम्भेन पञ्च धनुःशतानि, किमुक्तं भवति ?-जगत्या प्रायो बहुमध्यभागे सर्वत्र जालकानि तानि ४ च प्रत्येकमूर्द्धमुच्चैस्त्वेन द्वे गव्यूते विष्कम्भतः पञ्चधनु:शतानीति, स च जालकटक: 'सव्वरयणामए' इति सर्वात्मना रत्नमयः "अच्छे सण्हे लण्हे जाव पडिरूवे' इति यावच्छब्दकरणात् 'घटे महे नीरए निम्मले निप्पंके निकंकडच्छाये सप्पभे समरीए सउज्जोए पासाइए दरिसणिजे अभिरूवें' इति परिप्रहः, एतेषां [प्रन्थानम् ५०००] पदानामर्थः प्राग्वत् ॥ ॥१७८॥ तीसे णं जगतीए उरिप बहमज्झदेसभाए एत्थ णं एगामहई पउमवरवेदिया पं०, साणं पउमवरवे Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिया अद्धजोयणं उ8 उच्चत्तेणं पंच धणुसयाई विक्खंभेणं सव्वरयणामए जगतीसमिया परिक्खेवेणं सव्वरयणामई०॥ तीसे णं पउमवरवेइयाए अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तंजहा-वइरामया नेमा रिट्ठामया पइट्ठाणा वेरुलियामया खंभा सुवण्णरुप्पमया फलगा वइरामया संधी लोहितक्खमईओ सूईओ णाणामणिमया कलेवरा कलेवरसंघाडा णाणामणिमया रूवा नाणामणिमया रूवसं. धाडा अंकामया पक्खा पक्खबाहाओजोतिरसामया वंसा वंसकवेल्लुया य रययामईओ पट्टियाओ जातरूवमयीओ ओहाडणीओ वइरामयीओ उवरि पुञ्छणीओ सव्वसेए रययामते साणं छादणे॥ सा णं पउमवरवेझ्या एगमेगेणं हेमजालेणं (एगमेगेणं गंवक्खजालेणं) एगमेगेणं खिंखिणिजालेणं जावमणिजालेणं (कणयजालेणं रयणजालेणं) एगमेगेणं पउमवरजालेणं सव्वरयणामएणं सव्वतो समंता संपरिक्खित्ता ॥ ते णं जाला तवणिज्जलंवूसगा सुवण्णपयरगमंडिया णाणामणिरयणविविहहारद्धहारउवसोभितसमुदया इसिं अण्णमण्णमसंपत्ता पुव्वावरदाहिणउत्तरागतेहिं वाएहिं मंदागं २ एज्जमाणा २ कंपिज्जमाणा २ लंबमाणा २ पझंझमाणा २ सदायमाणा २ तेणं ओरालेणं मणुण्णेणं कण्णमणणेव्युतिकरणं सद्देणं सव्वतो समंता आपूरेमाणा सिरीए अतीव उवखोभेमाणा उव० चिट्ठति ॥ तीसे णं पउमवरवेइयाए तत्थ तत्थ देसे तहिं तहिं बहवे हयसंघाडा गयसंघाडा नरसंघाडा किण्णरसंघाडा किंपुरिससंघाडा महोरगसंघाडा गंधव्वसंघाडा वसहसंघाडा सव्वर Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- ३ प्रतिपत्ती देवाधि कार: उद्देशः१ सू०१२५ यणामया अच्छा सण्हा लण्हा घट्टा मट्ठा णीरया णिम्मला णिपंका णिकंकरच्छाया सप्पभा समिरिया सउज्जोया पासाईया दरसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा । तीसे णं पउमवरवेइयाए तत्थ तत्य देसे तहिं तहिं यहवे हयपंतीओ तहेव जाव पडिरुवाओ । एवं हयवीहीओ जाव पडिरूवाओ। एवं हयमिहुणाई जाव पडिरूवाई ॥ तीसे णं पउमवरवेइयाए तत्य तत्व देसे तहिं तहिं यहवे पउमलयाओ नागलताओ, एवं असोग. चंपग० च्यवण वासंति० अतिमुत्तग. कुंद० सामलयाओ णिचं कुसुमियाओ जाव सुविहत्तपिंडमंजरिवर्डिसकधरीओ सव्वरयणामईओ सहाओ लण्हाओ घटाओ महाओ णीरयाओ णिम्मलाओ णिप्पंकाओ णिकंकडच्छायाओ सप्पभाओ समिरीयाओ सउनोयाओ पासाईयाओ दरिसणिज्जाओ अभिरूवाओ पडिरूवाओ ॥तीसे णं पउमवरवेइयाए तत्थ तत्थ देसे तहिं तहिं यहवे अक्खयसोत्थिया पण्णत्ता सव्वरयणामया अच्छा] ॥ से केणटेणं (भंते) एवं वचह-पउमवरवेइया पउमवरवेइया?, गोयमा! पउमवरवेइयाए तत्थ तत्थ देसे तहिं तहिं वेदियासवेतियायाहासु वेदियासीसफलासु वेदियापुडंतरेसु खंभेसु खंभवाहासु खंभसीसेसु खंभपुडंतरेसु सूईसु सुईमुहेसु सूईफलएमु सूईपुडंतरेसु पक्खेसु पक्खयाहासु पक्खपेरंतरेसु यह उप्पलाई पउमाई जाव सतसहस्सपसाई सव्वरयणामयाइं अच्छाई सहाई लण्हाइंघहाई मट्टाइंणीरयाई णिम्मलाई निप्पंकाई निकंकर -----> Z G- ॥१७९॥ C C Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ च्छायाई सप्पभाई समिरीयाई सउज्जोयाई पासादीयाइं दरिसणिजाई अभिरूवाई पडिरूवाई महता २ वासिकच्छत्तसमयाई पण्णत्ताई समणाउसो !, से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं बुच्च परमवरवे - दिया २ ॥ परमवरवेइया णं भंते! किं सासया असासया ?, गोयमा । सिय सासया सिय असासया ॥ से केणद्वेणं भंते! एवं वुच्चइ - सिय सासया सिय असासया ?, गोयमा ! दव्वट्टयाए सासता वण्णपज्जवेहिं गंधपज्जवेहिं रसपज्जवेहिं फासपज्जवेहिं असासता, से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ - सिय सासता सिय असासता ॥ पउमवरवेइया णं भंते! कालओ केवचिरं होति ?, गोयमा ! ण कयाविणासि ण कयाचि णत्थि ण कयावि न भविस्सति ॥ भुविं च भवति य भवि - सति य धुवा नियया सासता अक्खया अव्वया अवट्ठिया णिच्चा पउमवरवेदिया ॥ ( सू० १२५ ) 'तीसे णं जगतीए' इत्यादि, 'तस्याः' यथोक्तरूपाया जगत्या: 'उपरि' उपरितने तले यो बहुमध्यदेशभागः, सूत्रे एकारान्तता | मागधदेशभाषालक्षणानुरोधात् यथा 'कयरे आगच्छइ दित्तरूवे ?' इत्यत्र, 'एत्थ ण' मिति 'अत्र' एतस्मिन् वहुमध्यदेशभागे णमिति पूर्ववत् महती. एका पद्मवरवेदिका प्रज्ञप्ता मया शेषैश्च तीर्थकृद्भिः, सा चोर्द्धमुच्चैस्त्वेनार्द्धयोजनं - द्वे गव्यूते पञ्च धनुः शतानि विष्कम्भेन 'जगतीसमिया' इति जगत्या: समा-समाना जगतीसमा सैव जगतीसमिका 'परिक्षेपेण' परिरयेण यावान् जगत्या मध्यभागे परिरयस्तावान् तस्या अपि परिरय इति भावः, 'सर्वरत्नमयी' सामस्त्येन रत्नालिका 'अच्छा सण्हा' इत्यादि विशेषणकदम्बकं पाठतोऽर्थतश्च प्राग्वंत् ॥ 'तीसे णमित्यादि, तस्या णमिति पूर्ववत् पद्मवरवेदिकायाः 'अयं' वक्ष्यमाणः 'एतद्रूपः' एवंस्वरूपः 'वर्णा Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A GRAMRARSHASHANGARIKes वासः' वर्ण:-प्लाघा यथावस्थितस्वरूपकीर्तनं तस्यावासो-निवासो प्रन्थपद्धतिरूपो वर्णावासो वर्णकनिवेश इत्यर्थः 'प्रज्ञप्त' प्ररू- ३प्रतिपत्तौ * पितः, तद्यथेत्यादिना तदेव दर्शयति-'वइरामया नेमा' इति नेमा नाम पद्मवरवेदिकाया भूमिभागादूद्ध निष्कामन्तः प्रदेशास्ते देवाधि१ सर्वे 'वज्रमया' वत्ररत्नमयाः, वनशब्दस्य दीर्घवं प्राकृतत्वात् , एवमन्यत्रापि द्रष्टव्यं, रिष्ठमयानि प्रतिष्ठानानि-मूलपादाः 'वेरुलि-5 कारः है यमया खंभा' इति वैडूर्यरत्नमयाः स्तम्भाः सुवर्णरूप्यमयानि फलकानि लोहिताक्षरत्नासिकाः सूचयः फलकद्वयसम्बन्धविघटनाभाव- उद्देशः१ हेतुपादुकास्थानीयास्ते सर्वे 'वइरामया संधी' वज्रमयाः सन्धयः-सन्धिमेलाः फलकानां, किमुक्तं भवति ?-वनरत्नापूरिताः फलकानां सू०१२६ ५ सन्धयः 'नाणामणिमया कलेवरा' इति नानामणिमयानि कलेवराणि-मनुष्यशरीराणि नानामणिमयाः कलेवरसङ्घाटा-मनुष्य शरीरयुग्मानि नानामणिमयानि रूपाणि-रूपकाणि नानामणिमया रूपसङ्घाटा:-रूपयुग्मानि 'अङ्कामया पक्खा पक्खवाहातो य' इति अङ्को-रत्नविशेषस्तन्मयाः पक्षास्तदेकदेशाः पक्षवाहवोऽपि तदेकदेशभूता एवाङ्कमयाः, आह च मूलटीकाकारः-"अङ्कमयाः पक्षास्तदेकदेशभूताः, एवं पक्षवाहवोऽपि द्रष्टव्या" इति, 'जोईरसामया वंसा वंसकवेल्लया य' इति ज्योतीरसं नाम रत्नं तन्मया वंशाः-महान्तः पृष्ठवंशाः 'वंशकवेल्या य' इति महतां पृष्ठवंशानामुभयतस्तिर्यक् स्थाप्यमाना वंशाः कवेल्लुकानि-प्रतीतानि 'रययामईओ पट्टियाओ' इति रजतमय्यः पट्टिका वंशानामुपरि कम्बास्थानीयाः 'जायरूवमईओ ओहाडणीओ' जातरूपं-सुवर्णविशेषस्तन्मय्यः 'ओहाडणीओ अवघाटिन्यः आच्छादनहेतुकम्वोपरिस्थाप्यमानमहाप्रमाणकिलिचस्थानीयाः, 'वइरामईओ- उवरि पुंछणीओ' इति 'वज्रमय्यो' वरत्नासिका अवघाटनीनामुपरि पुञ्छन्यः-निविडतरच्छादनहेतुश्लक्ष्णतरतृणविशेषस्थानीयाः, उक्तं च है ॥१८ ॥ मूलटीकाकारेण-"ओहाडणी हीरग्गहणं महत् क्षुल्लकं तु पुञ्छनी इति, 'सव्वसेए रययामए साणं छाणे' इति, सर्वश्वेतं रजतमयं GRANGALMANGALMAGAMAY Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुञ्छनीनामुपरि कवेलुकानामध आच्छादनम् ॥ 'सा ण'मित्यादि, 'सा' एवंवरूपा णमिति वाक्यालङ्कारे पद्मवरवेदिका तत्र तत्र प्रदेशे एकैकेन 'हेमजालेन' सर्वासना हेममयेन लम्बमानेन दामसमूहेन एकैकेन 'गवाक्षजालेन' गवाक्षाकृतिरत्नविशेषदामसमूहेन । एकैकेन 'किडिणीजालेन' किङ्किण्य:-क्षुद्रघण्टिकाः एकैकेन घण्टाजालेन, किङ्किण्यपेक्षया किञ्चिन्महत्यो घण्टा घण्टाः, तथा एकैकेन 'मुक्ताजालेन' मुक्ताफलमयेन दामसमूहेन एकैकेन 'मणिजालेन' मणिमयेन दामसमूहेन एकैकेन 'कनकजालेन' कनकंपीतरूपः सुवर्णविशेषस्तन्मयेन दामसमूहेन एकैकेन रत्नजालेन एकैकेन (वर) पद्मजालेन-सर्वरत्नमयपद्मासकेन दामसमूहेन 'सर्वतः सर्वासु दिक्षु 'समन्ततः' सर्वासु विदिक्षु परिक्षिप्ता, एतानि च दामसमूहरूपाणि हेमजालादीनि जालानि लम्बमानानि वेदितव्यानि, तथा चाह-'ते णं जाला' इत्यादि, तानि, सूत्रे पुंस्त्वनिर्देशः प्राकृतत्वात् , प्राकृते हि लिङ्गमनियतमिति, णमिति पूर्ववत् हेमजालादीनि क्वचित् दामा इति पाठः तत्र ता हेमजालादिरूपा दामान इति व्याख्येयं, 'तवणिज्जलंवूसगा' तपनीयम्-आरक्कं सुवर्ण तन्मयो लम्बूसगो-दानामग्रिमभागे मण्डनविशेषो येषां तानि तपनीयलम्बूसकानि 'सुवण्णपयरगमंडिया' इति पार्श्वतः सामस्त्येन| सुवर्णप्रतरकेण-सुवर्णपत्रकेण मण्डितानि सुवर्णप्रतरकमण्डितानि, 'नाणामणिरयणविविहहारद्धहारउवसोभियसमुदया' इति ना नारूपाणां मणीनां रत्नानां च ये विविधा-विचित्रवर्णा हारा-अष्टादशसरिका अर्द्धहारा-नवसरिकास्तैरुपशोभितः समुदायो येषां | ४ तानि, तथा 'ईसिमन्नमन्नमसंपत्ता' इति ईषत्-मनाग अन्योऽन्यं-परस्परमसंप्राप्तानि-असंलग्नानि पूर्वापरदक्षिणोत्तरागतैर्वातैः ।। |'मंदायं मंदाय' इति मन्दं मन्दम् एज्यमानानि-कम्प्यमानानि 'भृशाभीक्ष्ण्याविच्छेदे द्विः प्राक्तमबादेः' इत्यविच्छेदे द्विर्वचनं : यथा पचति पचतीत्यत्र, एवमुत्तरत्रापि, ईपत्कम्पनवशादेव च प्रकर्पत इतस्ततो मनाक् चलनेन लम्वमानानि प्रलम्बमानानि, ततः Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परस्परसंपर्कवशत: 'पझंझमाणा पझंझमाणा' इति शब्दायमानानि शब्दायमानानि 'उदारेण' स्फारेण शब्देनेति योगः स च स्फारशब्दो मनःप्रतिकूलोऽपि भवति तत आह- 'मनोज्ञेन' मनोऽनुकूलेन, तथ मनोऽनुकूलत्वं लेशतोऽपि स्यादत आह-- 'मनोहरण' मनांसि श्रोतॄणां हरति - आत्मवशं नयतीति मनोहरः, 'लिहादे'राकृतिगणत्वादच्प्रत्यय:, तेन तदपि मनोहरत्वं कुत: ? इत्याहकर्णमनो निर्वृत्किरेण --- ' निमित्तकारणहेतुपु सर्वासां विभक्तीनां प्रायो दर्शन' मिति वचनाद् हेतौ तृतीया, ततोऽयमर्थः-यतः श्रोतृकर्णयोर्मनसश्च निर्वृतिकरः - सुखोत्पादकस्ततो मनोहरस्तेन, इत्थम्भूतेन शब्देन तान् प्रत्यासन्नान् प्रदेशान् 'सर्वतः' दिक्षु 'समततः विदिक्षु आपूरयन्ति शत्रन्तस्य शाविदं रूपं तत एव 'श्रिया' शोभयाऽतीव उपशोभमानानि उपशोभमानानि तिष्ठन्ति ॥ 'तीसे ण' मित्यादि, तस्याः पद्मवर वेदिकायास्तत्र तत्र देशे २ 'तहिं तहिं' इति तस्यैव देशस्य तंत्र तत्रैकदेशे, एतावता किमुक्तं भवति ? - यत्र देशे एकस्तत्रान्येऽपि विद्यन्त इति, बहवे 'हयसंघाडा' हययुग्मानि सङ्घाटशब्दो युग्मवाची यथा साधुसङ्घाट इत्यत्र, एवं ग़जनरकिंनरकिंपुरुषमहोरगगन्धर्ववृपभसङ्घाटा अपि वाच्याः, एते च कथम्भूताः ? इत्याह-- 'सव्वरयणामया' सर्वात्मना रनमया: 'अच्छा' आकाशस्फटिकवदतिखच्छाः 'जाव पडिरुवा' इति यावत्करणात् 'सण्हा उण्हा घडा मठ्ठा' इत्यादिविशेषणकदम्बकपरिग्रहस्तश्च प्राग्वत् । एते च सर्वेऽपि हयसहाटादयः सङ्घाटाः पुष्पावकीर्णका उक्ताः सम्प्रत्येतेषामेव हयादीनां पतयादिप्रतिपादुनार्थमाह- 'एवं पंतीओ वीहीओ एवं मिहुणगा' इति यथाऽमीषां हयादीनामष्टानां सङ्घाटा उक्तास्तथा पङ्क्योऽपि वक्तव्या बीथयोऽपि मिथुनकानि च तानि चैवम्— 'तीसे णं परमवरवेश्याए तत्थ तत्थ देसे देसे तहिं तहिं बहुयाओ हयपंतीओ गयपतीओं' इत्यादि, नवरमेकस्यां दिशि या श्रेणिः सा पतिरभिधीयते, उभयोरपि पार्श्वयोरेकैक श्रेणिभावेन यच्छ्रेणिद्वयं सा वीथी, एते च नीथी ३ प्रतिपत्त मनुष्या० पद्मवरवे दिकाव० उद्देशः १ सू० १२६ ॥ १८१ ॥ Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिसक्वाटा यादीनां पुरुषाणामुक्ताः, साम्प्रतमेतेषामेव हयादीनां स्त्रीपुरुषयुग्मप्रतिपादनार्थ 'मिहुणाई' इत्युक्तम्', उक्तेनैव प्रकारेण हयादीनां मिथुनकानि स्त्रीपुरुषयुग्मरूपाणि वाच्यानि, यथा 'तत्थ तत्थ तहिं २ देसे देसे बहूइं हयमिहुणाई गयमिहुणाई इत्यादि ॥ तीसे ण'मित्यादि, तेस्यां णमिति पूर्ववत् पद्मवरवेदिकायां तत्र तत्र देशे २ 'तहिं. २' इति तस्यैव देशस्य तत्र तत्रैकदेशे, अत्रापि तत्य २ देसे २ तहिं २' इति वदता यत्रैका लता तत्रान्या अपि बह्वयो लताः सन्तीति प्रतिपादितं द्रष्टव्यं, "वहुयाओ पउमलयाऔं' इत्यादि, बह्वथः 'पद्मलताः' पश्निन्यः 'नागलताः' नागा-दुमविशेषाः त एवं लतास्तिर्यक्शाखाप्रसराभावात् नागलताः, एवमशोकलताश्चम्पकलता वणलताः, वणा:-तरुविशेषाः, वासन्तिकलता अतिमुक्तकलताः कुन्दलता: श्यामलताः, कथम्भूता एता: ? इत्याह-'नित्यं सर्वकालं षट्खपि प्रस्तुवित्यर्थः 'कुसुमिता' कुसुमानि-पुष्पाणि संजातान्याखिति कुसुमिताः, तारकादिदर्शना-1 दितप्रत्ययः, एवं नित्यं मुकुलिताः, मुकुलानि नाम कुड्मलानि कलिका इत्यर्थः निसं 'लवइयाओ' इति पल्लविताः, नित्यं 'थवइयाओ' इति स्तवकिताः, नित्यं 'गुम्मियाओ' इति गुल्मिताः, स्तबकगुल्मौ गो(गु)च्छविशेषौ, नित्यं गुच्छाः, नित्यं यमलं नाम समानजातीययो तयोर्युग्मं तत्संजातमाखिति यमलिताः, नित्यं 'युगलिताः' युगलं सजातीयविजातीययोर्लतयोर्द्वन्द्वं, तथा 'नित्यं सर्वकालं फल- | भारेण नेता-ईषन्नता नित्यं प्रणता-महता फलभारेण दूरं नताः, तथा नित्यं 'सुविभक्ते'त्यादि सुविभक्तिकः-सुविच्छित्तिकः प्रतिवि-18 शिष्टो मञ्जरीरूपो योऽवतंसकस्तद्धरा:-तद्धारिण्यः । एप सर्वोऽपि कुसुमितत्वादिको धर्म एकैकस्या एकैकस्या लताया उक्तः, साम्प्रतं कासचिल्लतानां सकलकुसुमितत्वादिधर्मप्रतिपादनार्थमाह-निच्चं कुसुमियमउलियलवइयथवइयगुलइयगोच्छियविणमियपरणमियसुविभत्तपडिमंजरिवडंसगधरीउ' एताश्च सर्वा अपि लता एवंरूपाः, किंरूपाः ? इत्याह-सव्वरयणामईओ' सर्वासना Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * रत्नमय्यः, 'अच्छा सण्हा' इत्यादि विशेषणकदम्बकं प्राग्वत् ॥ अधुना पद्मवरवेदिकाशब्दप्रवृत्तिनिमित्तं जिज्ञासुः पृच्छति-से प्रतिपत्तो ॐ केणडेणं भंते!' इत्यादि, सेशब्दोऽथशब्दार्थः, अथ 'केनार्थेन' केन कारणेन भदन्त! एवमुच्यते-पद्मवरवेदिका पद्मवरवेदिकेति?, मनुष्या० हैं किमुक्तं भवति ?-पद्मवरवेदिकेत्येवंरूपस्य शब्दस्य तत्र प्रवृत्ती किं निमित्तमिति ?, एवमुक्ते भगवानाह-गौतम! पनवरवेदिकायां तत्र है पद्मवरवे तत्र प्रदेशे तस्यैव देशस्य तत्र तत्रैकदेशे 'वेदिकासु' उपवेशनयोग्यमत्तवारणरूपासु 'वेदिकाबाहासु' वेदिकापार्श्वेषु 'वेइयापुडंतरेसु' दिकाव० इति द्वे वेदिके वेदिकापुटं तेषामन्तराणि-अपान्तरालानि वेदिकापुटान्तराणि तेषु, तथा स्तम्भेषु सामान्यतः तथा 'स्तम्भवाहासु' उद्देश:१ स्तम्भपार्श्वेषु 'खंभसीसेसु' इति स्तम्भशीर्षेषु 'खंभपुडंतरेसु' इति द्वौ स्तम्भौ स्तम्भपुटं तेषामन्तराणि तेषु 'सूचीषु' फलकसम्ब- सू० १२६ न्धविघटनाभावहेतुपादुकास्थानीयासु तासामुपरीति तात्पर्यार्थः, 'सूइमुहेसु' इति यत्र प्रदेशे सूची फलकं भित्त्वा मध्ये प्रविशति तत्प्रत्यासन्नो देशः सूचीमुखं तेषु, तथा सूचीफलकेषु-सूचीभिः संबन्धिता ये फलकप्रदेशास्तेऽप्युपचारात्सूचीफलकानि तेषु सूचीनामध उपरि च वर्तमानेषु, तथा 'सुईपुडंतरेसु' इति द्वे सूच्यौ सूचीपुटं तेषामन्तरेषु, पक्षाः पक्षवाहा-वेदिकैकदेशास्तेषु बहूनि 'उत्सलकानि' गर्दभकानि बहूनि 'पन्नानि' सूर्यविकासीनि बहूनि 'कुमुदानि चन्द्रविकासीनि, एवं नलिनसुभगसौगन्धिकपुण्डरीकमहा पुण्डरीकशतपत्रसहस्रपत्राण्यपि वाच्यानि, एतेषां च विशेषः प्रागेवोपदर्शितः, एतानि कथम्भूतानि ? इत्याह-'सर्वरत्नमयानि' * सर्वासना रत्नमयानि, 'अच्छा' इत्यादि विशेषणकदम्बकं प्राग्वत् 'महयावासिक्कछत्तसमाणा' इति 'महान्ति' महाप्रमाणानि वा र्षिकाणि-वर्षाकाले यानि पानीयरक्षणार्थ कृतानि तानि वार्षिकाणि तानि च तानि छत्राणि च तत्समानानि च प्रज्ञप्तानि हे श्रमण 5 " हे आयुष्मन् ', 'से एएण?ण'मित्यादि, तदेतेनार्थेन गौतम! एवमुच्यते पद्मवरवेदिका पद्मवरवेदिकेति तेषु तेषु यथोक्तरूपेषु ॥१८२॥ Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RANIरवेदिकेति ॥ 'पउमवरवेइया णं मतनयति भावः, भगवानाह-गौतम स्थान सम, भगवानाह-गौतम SAGAGACARRAASEASCA प्रदेशेषु यथोक्तरूपाणि पद्मानि पद्मवरवेदिकाशब्दस्य प्रवृत्तिनिमित्तमितिभावः, व्युत्पत्तिश्चैवं-पनवरा पनप्रधाना वेदिका पावरवेदिका पद्मवरवेदिकेति ॥ 'पउमवरवेइया णं भंते किं सासया?' इत्यादि, पद्मवरवेदिका णमिति पूर्ववत् किं शाश्वती उताशाश्वती?, आबन्ततया सूत्रे निर्देशः प्राकृतत्वात् , किं नित्या उतानियेति भावः, भगवानाह-गौतम! स्यात् शाश्वती स्यादशाश्वती-कथञ्चिन्नित्या कथञ्चिदनित्येत्यर्थः, स्याच्छब्दो निपात: कथञ्चिदित्येतदर्थवाची ॥'से केणटेणं भंते!' इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगम, भगवानाह-गौतम! 'द्रव्यार्थतया' द्रव्यास्तिकनयमतेन शाश्वती, द्रव्यास्तिकनयो हि द्रव्यमेव तात्त्विकमभिमन्यते न पर्यायान् , द्रव्यं चान्वयि परिणामित्वाद, अन्यथा द्रव्यत्वायोगादु, अन्वयित्वाच सकलकालभावीति भवति द्रव्यार्थतया शाश्वती, 'वर्णपर्यायः तदन्यसमुत्पद्यमानवणविशेषरूपैरेवं गन्धपर्याय रसपर्यायः स्पर्शपर्यायैः, उपलक्षणमेतत्तदन्यपुद्गलविचटनोच्चटनैश्वाशाश्वती, किमुक्तं भवति?-पर्यायास्तिकनयमतेन पर्यायप्राधान्यविवक्षायामशाश्वती, पर्यांयाणां प्रतिक्षणभावितया कियत्कालभावितया वा विनाशिलात् , 'से एएणद्वेण'-1 मित्यादि उपसंहारवाक्यं सुगमं, इह द्रव्यास्तिकनयवादी स्वमतप्रतिस्थापनार्थमेवमाह-नात्यन्तासत उत्पादो नापि सतो विनाशो, 'नासतो विद्यते भावो, नाभावो विद्यते सत' इति वचनात् , यौ तु दृश्येते प्रतिवस्तु उत्पादविनाशौ तदाविर्भावतिरोभावमात्रं यथा सर्पस्योत्फणत्वविफणत्वे, तस्मात्सर्व वस्तु नित्यमिति ॥ एवं च तन्मतचिन्तायां संशयः-किं घटादिवद्व्यार्थतया शाश्वती उत ति, ततः संशयापनोदाथै भगवन्तं भूयः पृच्छति-पउमवरवेइया ण'मित्यादि, पद्मवरवेदिका णमिति पूर्ववद् 'भदन्त !' परमकल्याणयोगिन् ! ‘कियच्चिर' कियन्तं कालं यावद्भवति ?, एवंरूपा कियन्तं कालमवतिष्ठते? इति, भगवानाहगौतम! न कदाचिन्नासीत्, सर्वदेवासीदिति भावः, अनादित्वात् , तथा न कदाचिन्न भवति, सर्वदेव वर्चमानकालचिन्तायां भवतीति Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ प्रतिपत्ती मनुष्या० वनषण्डाधि० उद्देशः १ सू० १९९ भावः, सदैव भावात् , तथा न कदाचिन भविष्यति, किन्तु भविष्यश्चिन्तायां सर्वदेव भविष्यतीति प्रतिपत्तव्यं, अपर्यवसितलात्, तदेवं कालत्रयचिन्तायां नास्तित्वप्रतिषेधं 'विधाय सम्प्रत्यस्तित्वं प्रतिपादयति-भुविं चेत्यादि, अभून भवति च भविष्यति चेति, एवं त्रिकालावस्थायित्वाद् 'ध्रुवा' मेर्वादिवद् ध्रुवत्वादेव सदैव स्वखरूपे नियता, नियतत्वादेव च 'शाश्वती' शश्वद्भवनखभावा, शाश्वतत्वादेव च सततगगासिन्धुप्रवाहप्रवृत्तावपि पौण्डरीकहद इवानेकपुद्गलविचटनेऽपि तावन्मात्रान्यपुद्गलोचटनसम्भवाद् 'अक्षया' न विद्यते क्षयो-यथोक्तस्वरूपाकारपरिभ्रंशो यस्याः साऽक्षया, अक्षयत्वादेव 'अव्यया' अव्ययशब्दवाच्या, मनागपि स्वरूपचलनस्य जातुचिदप्यसम्भवात् , अव्ययत्वादेव स्वप्रमाणेऽवस्थिता मानुपोत्तरपर्वताद् बहिः समुद्रवत्, एवं स्वस्खप्रमाणे सदाऽवस्थानेन चिन्त्यमाना नित्या धर्मास्तिकायादिवत् ॥ सीसे णं जगतीए उप्पि बाहिं पउमबरवेइयाए एत्थ णं एगे महं वणसंडे पण्णते देसूणाई दो जोयणाई चक्कवालविक्खंभेणं जगतीसमए परिक्खेवेणं, किण्हे किण्होभासे जाव अणेगसगडरह- जाणजुग्गपरिमोयणे सुरम्मे पासातीए सण्हे लण्हे घटे महे नीरए निप्पंके निम्मले निकंकड़च्छाए सप्पमे समिरीए सउज्जोए पासादीए दरिसणिज्ने अभिरुवे पडिरूवे ॥ तस्स णं वणसंसस्स अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते से जहानामए-आलिंगपुक्खरेति वा मुइंगपु. क्खरेति वा सरतलेइ वा करतलेइ वा आयंसमंडलेति वा चंदमंडलेति वा सूरमंडलेति उरन्भचम्मेति वा उसभचम्मेति वा वराहचम्मति वासीहचम्मेति वा वग्घचम्मेतिया विगचम्मति वा दी है । 8॥१८३॥ Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वितचम्मेति वा अणेगसंकुकीलगसहस्सवितते आवडपचावडसेढीपसेढीसोस्थियसोवस्थियपूसमाणवद्धमाणमच्छंडकमकरंडकजारमारफुल्लावलिपउमपत्तसागरतरंगवासंतिलयपउमलयभक्तिचित्तेहिं सच्छाएहिं समिरीएहिं सउज्जोएहिं नाणाविहपंचवण्णेहिं तणेहि य मणिहि य उवसोहिए तंजहा-किण्हेहिं जाव सुकिल्लेहिं ॥ तत्थ णं जे ते किण्हा तणा य मणी य तेसिणं अयमेतारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, से जहानामए-जीमूतेति वा अंजणेति वा खंजणेति वा कजलेति वा मसीइ वा गुलियाइ वा गवलेइ वा गवलगुलियाति वा भमरेति वा भमरावलियाति वा भमरपत्तगयसारेति वा जंवुफलेति वा अद्दारिद्वेति वा पुरिपुट्ठए (ति) वा गएति वागयकलभेति वा कण्हसप्पेड़ वा कण्हकेसरेइ वा आगासथिग्गलेति वा कण्हासोएति वा किण्हकणवीरेइ वा कण्हबंधुजीवएति वा, भवे एयारवे सिया?, गोयमा! णो तिणढे समहे, तेसि णं कण्हाणं तणाणं मणीण य इत्तो इयराए चेव कंततराए चेव पिययराए चेव मणुण्णतराए चेव मणामतराए चेक वण्णेणं पण्णत्ते ॥ तत्थ णं जे ते णीलगा तणा य मणी य तेसि गं इमेतारुवे वण्णावासे पण्णत्रों, से जहानामए-भिंगेइ वा भिंगपत्तेति वा चासेति वा चासपिच्छेति वा सुएति वा सुयपिच्छेति वा पीलीति वा णीलीभेएति वा णीलीगुलियाति वा सामाएति वा उच्चंतएति वा वणराईइ वा हलहरवसणेइ वा मोरग्गीवाति वा पारेवयगीवाति वा अयसिकुसुमेति वा अंजणकेसिगा S+4GGAGRAMMASALASS-55 Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुसुमेति वा णीलुप्पलेति वा णीलासोएति वा णीलकणवीरेति वा णीलबंधुजीवएति वा, भवे एयावे सिता?, णो इणट्ठे समट्ठे, तेसि णं णीलगाणं तणाणं मणीण य एत्तो इट्ठतराए चेव कंततराए चेव जाव वण्णेणं पण्णत्ते ॥ तत्थ जे ते लोहितगा तणा य मणी य तेसि णं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते से जहाणामएं- ससकरुहिरेति वा उरुभरुहिरेति वा णररुहिरेति वा वराहरुहिरेति वा महिसरुहिरेति वा वालिंदगोवएति वा बालदिवागरेति वा संझन्भरागेति वा गुंजद्धराएति वा जातिहिंगुलुएति वा सिलप्पवालेति वा पवालंकुरेति वा लोहितक्खमणीति वा लक्खारसएति वा किमिरागेइ वा रत्तकंवलेइ वा चीणपिहरासीइ वा जासुयणकुसुमेह वा किंसुअकुसुमेह वा पालियाइकुसुमेइ वा रतुप्पलेति वा रत्तासोगेति वा रत्तकणयारेति वा रत्तबंधुजीवेइ वा भवे एयारूवे सिया ?, नो तिणट्ठे समट्ठे, तेसि णं लोहियगाणं तणाण य मणीण य एत्तो इतराए चैव जाव वण्णेणं पण्णत्ते ॥ तत्थ णं जे ते हालिद्दगा तणा य मणीय तेसि णं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, से जहाणामए-चंपए वा चंपगच्छल्लीड़ वा चंपयभेएइ वा हालिद्दाति वा हालिदभेएति वा हालिद्दगुलियाति वा हरियालेति वा हरियालभेएति वा हरियालगुलियाति वा चिउरेति वा चिउरंगरागेति वा वरकणएति वा वरकणगनिघसेति वा सुवण्णसिप्पिएति वा वरपुरिसवसणेति वा सल्लइकुसुमेति वा चंपक कुसुमेइ वा ३ प्रतिपचौ मनुष्या० वनषण्डा धि० उद्देशः १ सू० १२६ ॥ १८४ ॥ Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुहुंडियाकुसुमेति वा (कोरंटकदामेइ वा) तडउडाकुसुमेति वा घोसाडियाकुसुमेति वा सुवण्णजूहियाकुसुमेति वा सुहरिन्नयाकुसुमेह वा [कोरिंटवरमल्लदामेति वा] बीयगकुसुमेति वा पीयासोएति वा पीयकणवीरेति वा पीयबंधुजीएति वा, भवे एयारूवे सिया?, नो इणहे समढे, ते णं हालिद्दा तणा य मणी य एत्तो इयरा चेव जाव वण्णेणं पण्णत्ता ॥ तत्थ णं जे ते सुकिल्लगा तणा य मणी य तेसि णं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, से जहानामएअंकेति वा संखेति वा चंदेति वा कुंदेति वा कुसुमे(मुए)ति वा दयरएति वा (दहिघणेइ वा खीरेइ वा खीरपूरेइ वा) हंसावलीति वा कोंचावलीति वा हारावलीति वा बलायावलीति वा चंदावलीति वा सारतियबलाहएति वा धंतधोयरुप्पपट्टेइ वा सालिपिहरासीति वा कुंदपुप्फरासीति वा कुमुयरासीति वा सुक्कछिवाडीति वा पेहुणमिजाति वा बिसेति वा मिणालियाति वा गयदंतेति वा लवंगदलेति वा पोंडरीयदलेति वा सिंदुवारमल्लदामेति वा सेतासोएति वा सेयकणवीरेति वा सेयबंधुजीएइ चा, भवे एयारूवे सिया?, णो तिणढे समढे, तेसि णं सुकिल्लाणं तणाणं मणीण य एत्तो इतराए चेव जाव वण्णेणं पण्णत्ते ॥ तेसि णं भंते! तणाण य मणीण य केरिसए गंधे पण्णत्ते?, से जहाणामए-कोहपुडाण वा पत्तपुडाण वा चोयपुडाण वा तगरपुडाण वा एलापुडाण वा [किरिमेरिपुडाण वा] चंदणपुडाण वा कुंकुमपुडाण वा उ Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ प्रतिपत्ती मनुष्या० वनपण्डाधि० उद्देशः१ सू०१२६ सीरपुडाण वा चंपगपुडाण वा मरुयगपुडाण वा दमणगपुडाण वा जातिपुडाण वा जूहियापुडाण वा मल्लियपुडाण वा णोमालियपुडाण वा वासंतियपुडाण वा केयतिपुडाण वा कप्पूरपुडाण वा अणुवायंसि उभिज्जमाणाण य णिन्भिजमाणाण य कोजमाणाण वा रुविजमाणाण वा उक्किरिजमाणाण वा विकिरिजमाणाण वा परिभुज्जमाणाण वा भंडाओ वा भंडं साहरिजमाणाणं ओराला मणुण्णा घाणमणणिव्वुतिकरा सव्वतो समंता गंधा अभिणिस्सवंति, भवे एयारूवे सिया?, णो तिणठे समढे, तेसिणं तणाणं मणीण य एत्तो उ इतराए चेव जाव मणामतराए चेव गंधे पण्णत्ते ॥ तेसि णं भंते! तणाण य मणीण य केरिसए फासे पण्णत्ते?. से जहाणामए-आईणेति वा रूएति वा बूरेति वा णवणीतेति वा हंसगम्भतलीति वा सिरीसकुसुमणिचतेति वा वालकुमुदपत्तरासीति वा, भवे एतारूवे सिया?, णो तिणढे समहे, तेसि र्ण तणाण यमणीण य एत्तो इतराए चेव जाव फासेणं पण्णत्ते॥तेसिणं भंते! तणाणं पुव्वावरदाहिणउत्तरागतेहिं वाएहिं मंदायं मंदायं एइयाणं वेइयाणं कंपियाणं खोभियाणंचालियाणं फंदियाणं घहियाणं उदीरियाणं केरिसए सद्दे पण्णते?, से जहाणामए-सिवियाए वा संदमाणीयाए (वा) रहवरस्स वा सछत्तस्स सज्झयस्स सघंटयस्स सतोरणवरस्स सणंदिघोसस्स सखिखिणिहेमजालपेरंतपरिखित्तस्स हेमवयखेत्त (चित्तविचिस) तिणिसकणगनिजतदारुयागस्स सुपिणिद्धारकर्म ॥१८५॥ Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । 845454451561464 डलधुरागस्स कालायससुकयणेमिजंतकम्मस्स आइण्णवरतुरगसुसंपउत्तस्स कुसलणरछेयसारहिसुसंपरिगहितस्स सरसतबत्तीसतोरण(परि)मंडितस्स सकंकडवडिंसगस्स सचावसरपहरणावरणहरियस्स जोहजुद्धस्स रायंगणंसि वा अंतेपुरंसि वा रम्मंसि वा मणिकोहिमतलंसि अभिक्खणं २ अभिघहिजमाणस्स वा णियटिजमाणस्स वा [परूढवरतुरंगस्स चंडवेगाइहस्स] ओराला मणुण्णा कण्णमणणिव्युतिकरा सव्वतो समंता सदा अभिणिस्सवंति, भवे एतारूवे सिया?, णो तिणढे समढे, से जहाणामए-वेयालियाए वीणाए उत्तरमंदामुच्छिताए अंके सुपइट्ठियाए वंदणसारकाणपडिपटियाए कुसलणरणारिसंपगहिताए पदोसपचूसकालसमयंसि मंद मंदं एइयाए वेइयाए खोभियाए उदीरियाए ओराला मणुण्णा कण्णमणणिव्वुतिकरा सव्वतो समंता सही अभिणिस्सवंति, भवे एयारूवे सिया?, णो तिणटे समढे, से जहाणामए-किंण्णराण वा किंपुरिसाण वा महोरगाण वा गंधव्वाण वा भद्दसालवणगयाणं वा नंदणवणगयाण वा सोमणसवणगयाण वा पंडगवणगयाण वा हिमवंतमलयमंदरगिरिगुहसमण्णागयाण वा एगतो सहिताणं संमुहागयाणं समुविट्ठाणं संनिविट्ठाणं पमुदियपक्कीलियाणं गीयरतिगंधव्वहरिसियमणाणं गेलं पज्जं.कत्थं गेयं पयविद्धं पायविद्धं उक्खित्तयं पवत्तयं मंदायं रोचियावसाणं सत्तसरसमण्णागयं अट्ठरससुसंपउत्तं छद्दोसविप्पमुक्कं एकारसगुणालंकारं अट्ठगुणोववेयं .गुंजंतवंसकुहरोवमूढं Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RECEBCAMKAR रत्तं तित्थाणकरणसुद्धं मधुरं समं सुललियं सकुहरगुंजंतवंसतंतीसुसंपउत्तं तालसुसंपउत्तं ताल- २३ प्रतिपत्तौ समं (रयसुसंपउत्तं गहसुसंपउत्तं) मणोहरं मउयरिभियपयसंचारं सुरभि सुणतिं वरचारुरूवं मनुष्या० दिव्वं नई सज्जं गेयं पगीयाणं, भवे एयारूवे सिया?, हंता गोयमा! एवंभूए सिया॥ (सू०१२६) वनपण्डा'तीसे णं जगतीए' इत्यादि, तस्या णमिति पूर्ववत् जगत्या उपरि पद्मवरवेदिकाया बहिर्वर्ती प्रदेशः 'तत्र' तस्मिन् णमिति धि० पूर्ववत् , महानेको वनघण्डः प्रज्ञप्तः, अनेकजातीयानामुत्तमानां महीरुहाणां समूहो वनपण्डः, आह च मूलटीकाकारः-'एगजाई- उद्देशः१ * एहिं रुक्खेहि वणं अणेगजाईएहिं उत्तमेहि रुक्खेहि वणसंडे' इति, स चैकैको देशोने द्वे योजने विष्कम्भतो जगतीसमकः 'परिक्षेपेण' सू०१२६ 4 परिरयेण । कथम्भूतः ? इत्याह-'किण्हे' इत्यादि, इह प्रायो वृक्षाणां मध्यमे वयसि वर्त्तमानानि पत्राणि नीला (कृष्णा)नि तद्योगाद् 7 वनखण्डोऽपि कृष्ण , न चोपचारमात्रात्कृष्ण इति व्यपदेशः किन्तु तथाप्रतिभासनात् , तथा चाह-कृष्णावभासः' यावति भागे कृष्णानि पत्राणि सन्ति तावति भागे स वनखण्डः कृष्णोऽवभासतेऽतः कृष्णोऽवभासो यस्यासौ कृष्णावभासः, तथा हरितत्वमतिक्रान्तानि कृष्णत्वमसंप्राप्तानि पत्राणि नीलानि तद्योगाद् वनखण्डोऽपि नीलः, न चैतदप्युपचारमात्रेणोच्यते किन्तु तथाऽवभासात्, तथा चाह-नीलावभासः, समासः प्राग्वत्, यौवने तान्येव पत्राणि किशलयत्वं रक्तवं चातिक्रान्तानि ईपद्धरितालाभानि पाण्डूनि ॐ सन्ति हरितानीत्युपदिश्यन्ते, ततस्तद्योगाद्वनपण्डोऽपि हरितः, न चैतदुपचारमात्रं, किन्तु तथाप्रतिभासोऽप्यस्ति तथा चाह-हरिता-8 वभासः, तथा बाल्यादतिक्रान्तानि वृक्षाणां पत्राणि शीतानि भवन्ति ततस्तद्योगाद् वनपण्डोऽपि शीतः, न चासौ न गुणतः किन्तु ॥१८६॥ गुणत एव, तथा चाह-शीतावभासः' अधोभागवर्तिनां व्यन्तराणां देवानां देवीनां च तद्योगे शीतवातसंस्पर्शः ततः स शीतो Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनपण्डोऽवभासते इति, तथा एते कृष्णनीलहरितवर्णा यथा (तः) स्वस्मिन् रूपेऽत्यर्थमुत्कटाः स्निग्धा भण्यन्ते तीव्राञ्च ततस्तद्योगाद्वनखण्डोऽपि स्निग्धस्तीत्रश्वोक्तः, न चैतदुपचारमात्रं, किन्तु तथा प्रतिभासोऽपि तत उक्तं स्निग्धावभासस्तीत्रावभास इति, इहावभासो भ्रान्तोऽपि भवति यथा मरुमरीचिकासु जलावभासः ततो नावभासमात्रोपदर्शनेन यथाऽवस्थितं वस्तुस्वरूपमुक्तं वर्णितं भवति किन्तु यथास्वरूपप्रतिपादनेन ततः कृष्णत्वादीनां तथास्वरूपप्रतिपादनार्थमनुवादपुरस्सरं विशेषणान्तरमाह - ' किन्हे किण्हच्छाये' इत्यादि, ततोऽकृष्णो वनखण्डः, कुत: ? इत्याह- कृष्णच्छायः, 'निमित्तकारणहेतुषु सर्वासां विभक्तीनां प्रायो दर्शन' मितिवचनाद्धेतौ प्रथमा, यमर्थ:- यस्मात् कृष्णा छाया - आकारः सर्वाविसंवादितया तस्य तस्मात्कृष्णः, एतदुक्तं भवति - सर्वाविसंवादितया तत्र कृष्ण आकार उपलभ्यते, न च भ्रान्तावभाससंपादितसत्ताकः सर्वाविसंवादी भवति, ततस्तत्त्ववृत्त्या स कृष्णो न भ्रान्तावभासमान व्यवस्थापित इति, एवं नीलो नीलच्छाय इत्याद्यपि भावनीयं, नवरं शीतः शीतच्छाय इत्यत्र छायाशब्द आतपप्रतिपक्षवस्तुवाची द्रष्टव्यः, 'घणकडियडच्छाए' इति इह शरीरस्य मध्यभागे कटिस्ततोऽन्यस्यापि मध्यभागः कटिरिव कटिरित्युच्यते, कटिस्तटमिव कटितटं घना - अन्यान्यशाखा प्रशाखानुप्रवेशतो निविडा कटितटे - मध्यभागे छाया यस्य स घनकटितटच्छायः, मध्यभागे निविडतरच्छाय इत्यर्थः, कचि| त्पाठः 'घनकडियकडच्छाए' इति, तत्रायमर्थः - कटः सञ्जातोऽस्येति कटितः कटान्तरेणोपरि आवृत इत्यर्थः कटितश्चासौ कटश्च कटितकट: घना - निविडा कटितकटस्येवाधोभूमौ छाया यस्य स धनकटितकटच्छायः अत एव रम्यो- रमणीय:, तथा महान् -जलभारावनतः प्रावृट्कालभावी मेघनिकुरम्यो - मेघसमूहस्तं भूतो - गुणैः प्राप्तो महामेघनिकुरम्बभूतः महामेघवृन्दोपम इत्यर्थ: । ' ते णं पायवा' इत्यादि, 'ते' वनपण्डान्तर्गताः पादपा 'मूलवन्तः' मूलानि प्रभूतानि दूरावगाढानि च सन्त्येषामिति मूलवन्त:, कन्द् एपा Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -% A मस्तीति कन्दवन्तः, एवं स्कन्धवन्तस्त्वग्वन्तः शालावन्तः प्रवालवन्तः पत्रवन्तः पुष्पवन्तः फलवन्तो बीजवन्त इत्यपि भावनीयं, तत्र ३प्रतिपत्तौ . मूलानि-प्रसिद्धानि यानि कन्दस्याधः प्रसरन्ति कन्दास्तेषां मूलानामुपरिवर्तिनस्तेऽपि प्रतीताः, स्कन्धः-स्थुडं यतो मूलशाखाः प्रभवन्ति,* मनुष्या० त्वक्-छल्ली शाला-शाखा प्रवाल:-पल्लवाङ्कुरः पत्रपुष्पफलबीजानि सुप्रसिद्धानि, सर्वत्रातिशायने कचिद्भन्नि वा मतुपप्रत्ययः, 'अणुपु-5 वनखण्डा- ' व्वसुजाइरुइलवभावपरिणया' इति आनुपूा-मूलादिपरिपाट्या सुष्टु जाता आनुपूर्वीसुजाता रुचिला:-स्निग्धतया देदीप्यमान-C धि० च्छविमन्तः, तथा वृत्तभावेन परिणता वृत्तभावपरिणताः, किमुक्तं भवति ?-एवं नाम सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च शाखाभिः प्रशाखाभिश्च उद्देशः१ प्रसृता यथा वर्तुला: संजाता इति, आनुपूर्वीसुजाताश्च ते रुचिराश्च ते च ते वृत्तभावपरिणताश्च आनुपूर्वीसुजातरुचिरवृत्तभावपरिणताः, तथा ते पादपाः प्रत्येकमेकस्कन्धाः, (समासान्तइन् ) प्राकृते वाऽस्य स्त्रीत्वमिति 'एगखंधी' इति पाठः, तथाऽनेकाभिः शाखाभिः प्रशा खाभिश्च मध्यभागे विटपो-विस्तारो येषां तेऽनेकशाखाप्रशाखाविटपाः, तथा तिर्यग्वाहुद्वयप्रसारणप्रमाणो व्यामः अनेकैर्नरव्यामैः-पुरुष४ व्यामैः सुप्रसारितैरग्राह्यः-अप्रमेयो घनो-निबिडो विपुलो-विस्तीर्णः स्कन्धो येषां ते अनेकनरव्यामसुप्रसारिताग्राह्यघनविपुलवृत्त स्कन्धाः, तथाऽच्छिद्राणि पत्राणि येषां ते अच्छिद्रपत्राः, किमुक्तं भवति ?-न तेषां पत्रेषु वातदोषत: कालदोषतो वा गडरिकादिरीतिरुपजायते, न तेषु पत्रेपु छिद्राणि भवन्तीत्यच्छिद्रपत्राः, अथवा एवं नामान्योऽन्यं शाखाप्रशाखानुप्रवेशात्पत्राणि पत्राणामुपरि जातानि येन मनागप्यपान्तरालरूपं छिद्रं नोपलक्ष्यत इति, तथा चाह-'अविरलपत्ता' इति, अत्र हेतौ प्रथमा ततोऽयमर्थः-यतोऽवि-8 रलपत्रा अतोऽच्छिद्रपत्राः, अविरलपत्रा अपि कुतः ? इत्याह-'अवातीनपत्राः' वातीनानि-बातोपहतानि वातेन पातितानीत्यर्थः ॥१८७॥ न वातीनानि अवातीनानि पत्राणि येषां ते तथा, किमुक्तं भवति ?-न तत्र प्रबलो वातः खरपरुषो वाति येन पत्राणि त्रुटित्वा भूमौ RECRACKASGANGANAGAR Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Bा निपतन्ति, ततोऽवातीनपत्रत्वादविरलपत्रा इति, अच्छिद्रपत्रा इत्यत्र प्रथमव्याख्यानपक्षमधिकृत्य हेतुमाह-'अणईइपत्ता' न विद्यते। साईतिः-नाइरिकादिरूपा येषां तान्यनीतीनि अनीतीनि पत्राणि येषां ते अनीतिपत्राः, अनीतिपत्रत्वाचाच्छिद्रपत्राः, 'निद्धयजरढपंडुभरपत्ता' इति निर्द्धतानि-अपनीतानि जरठानि पाण्डूनि पत्राणि येभ्यस्ते नितजरठपाण्डुपत्राः, किमुक्तं भवति?-यानि वृक्षस्थानि जरठानि पाण्डूनि पत्राणि तानि वातेन निर्दय निर्द्धय भूमौ पात्यन्ते भूमेरपि च प्रायो निर्द्धय नि यान्यत्रापसार्यन्त इति, 'नवह-15 रियभिसंतपत्तंधयारगंभीरदरसणिज्जा' इति नवेन-प्रत्यग्रेण हरितेन-नीलेन भासमानेन-स्निग्धत्वचा दीप्यमानेन पत्रमारेण-दलसञ्चयेन यो जातोऽन्धकारस्तेन गम्भीरा-अलब्धमध्यभागाः सन्तो दर्शनीया नवहरितभासमानपत्रान्धकारगम्भीरदर्शनीयाः, तथा उपविनिर्गतैः-निरन्तरविनिर्गतैर्नवतरुणपल्लवैः तथा कोमलै:-मनोज्ञैरुज्ज्वलैः-शुद्धैश्चलद्भिः-ईपत्कम्पमानैः किशलयैः-अवस्थाविशेषोपेतैः पल्लवविशेषैः तथा सुकुमारैः प्रवालैः-पल्लवाङ्कुरैः शोभितानि वराङ्कुराणि-वराङ्कुरोपेतानि अप्रशिखराणि येषां ते उपविनिर्गतनवतरुणपत्रपल्लवकोमलोज्ज्वलचलकिशलयसुकुमारप्रवालशोभितवराङ्करामशिखराः, इहाङ्करप्रवालयो: कालकृतावस्थाविशेषाद्विशेषो भावनीयः, "निच्चं कुसुमिया निच्चं मउलिया निच्चं लवइया निच्चं थवइया निच्चं गोच्छिया निच्चं जमलिया निच्चं जुयलिया निच्चं विणमिया निच्चं पणमिया निच्चं कुसुमियमउलियलवइयथवइयगुलइयगोच्छियजमलियजुगलियविणमियपणमियसुविभ रिवडंसगधरा' इति पूर्ववत्, तथा शुकबहिणमदनशलाकाकोकिलकोरकभिङ्गारककोंडलजीवंजीवकनन्दीमुखकपिलपिङ्गलाक्षकारण्डवचक्रवाककलहंससारसाख्यानामनेकेषां शकुनगणानां मिथुन:-स्त्रीपुंसयुग्मैर्विचरितं-इतस्ततो गतं यच्च शब्दोन्नतिकम्-उन्नतशब्दकं मधुरस्वरं च नादितं-लपितं येषु ते तथा, अत एव सुरम्या:-सुष्ट रमणीयाः, अन शुका:-कीराः बहिणो-मयूरा मदनशलाका - Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ शारिका कोकिलाऽपि चक्रवाककलहंससारसा:- प्रतीताः, शेषास्तु जीवविशेषा ठोकतो वेदितव्याः, तथा संपिण्डिता:- एकत्र पिण्डीभूता दृप्ता - मदोन्मत्ततया दुपध्माता भ्रमरमधुकरीणां पहकरा :- सङ्घाताः, 'पहकर ओरोहसंघाया' इति देशीनाममालावचनात्, यत्र ते संपिण्डितदृप्तमधुकरभ्रमरमधुकरीपहकराः, तथा परिलीयमानाः - अन्यत आगत्यागत्य श्रयन्तो मत्ताः पट्पदाः कुसुमासवलोला:किञ्जल्कपानलम्पटा मधुरं गुमगुमायमानाः गुञ्जन्तश्च - शब्दविशेपं च विदधाना देशभागेषु तस्मिन् तस्मिन् देशभागे येषां ते परिलीयमानमत्तपट्पदकुसुमास वलोलमधुरगुमगुमायमानगुञ्जन्तदेशभागाः, गमकत्वादेवमपि समासः, ततो भूयः पूर्वपदेन सह विशेष - णसमासः, तथाऽभ्यन्तराणि - अभ्यन्तरवर्त्तीनि पुष्पाणि फलानि च पुष्पफलानि येषां ते तथा, 'वाहिरपत्तच्छन्ना' इति वहि: पत्रैश्छन्ना–व्याप्ता वहि:पत्रछन्नाः, तथा पत्रैञ्च पुष्पैश्च 'अवच्छन्नपरिच्छन्ना' अत्यन्तमाच्छादिताः, तथा 'नीरोगाः ' रोगवर्जिताः ‘अकण्टकाः' कण्टकरहिताः, नैतेषु मध्ये बच्चूलकादिवृक्षाः सन्तीति भाव:, तथा स्वादूनि फलानि येषां ते स्वादुफलाः, तथा त्रिग्धानि फलानि येषां ते स्निग्धफलाः, तथा प्रत्यासन्नैर्नानाविधैः - नानाप्रकारैर्गुच्छे :- वृन्ताकी प्रभृतिभिर्गुल्मैः - नवमालिकादिभिर्मण्डपैःद्राक्षामण्डपकैरुपशोभिता नानाविधगुच्छगुल्ममण्डपकशोभिताः, तथा विचित्रैः - नानाप्रकारैः शुभैः - मङ्गलभूतैः केतुभिः - ध्वजैर्वहुलाव्याप्ता विचित्रशुभकेतुबहुलाः, तथा 'वाविपुक्खरिणीदीहियासु य निवेसियरम्मजालघरगा' वाप्यः - चतुरस्राकारास्ता एव वृत्ताः पुष्करिण्यः यदिवा पुष्कराणि विद्यन्ते यासु ताः पुष्करिण्यः दीर्घिका - ऋजुसारिण्यः वापीपुष्करिणीपु दीर्घिकासु च सुष्ठु निवेशितानि रम्याणि जालगृहकाणि येषु ते वापीपुष्करिणीदीर्घिकासुनिवेशितरम्यजालगृहकानि, तथा पिण्डिता सती निर्धारिमादूरे विनिर्गच्छन्ती पिण्डिमनीहरिमा वां सुगन्धि-सद्गन्धिकां शुभसुरभिभ्यो गन्धान्तरेभ्यः सकाशान्मनोहरा शुभसुरभिमनोहरा वां ३ प्रतिपत्तौ मनुष्या० वनखण्डा धि० उद्देशः १ सू० १२६ ॥ १८८ ॥ Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ च 'महया' इति प्राकृतत्वाद्वितीयार्थे तृतीया महतीमित्यर्थः, गन्धध्राणिं यावद्भिर्गन्धपुद्गलैर्गन्धविषये ध्राणिरुपजायते तावती गन्धपुद्गलसंहतिरुपचाराद् गन्धध्राणिरित्युच्यते तां निरन्तरं मुञ्चन्तः, तथा 'सुहसेउकेउवहुला' इति शुभा:-प्रधानाः सेतवो-मार्गा आलवालपाल्यो वा केतवो-ध्वजा बहुला-अनेकरूपा येषां ते तथा, 'अणेगरहजाणजुग्गसिबियसंदमाणिपडिमोयणा' इति, तथा रथा द्विविधा:-क्रीडारथाः सङ्ग्रामरथाश्च, यानानि सामान्यतः, शेषाणि वाहनानि, युग्यानि-गोल्लविपयप्रसिद्धानि द्विहस्तप्रमाणानि वेदिकोपशोभितानि जम्पानानि शिविका:-कूटाकारेणाच्छादिता जपानविशेषाः स्यन्दमानिका:-पुरुषप्रमाणा जम्पानविशेषाः, अनेकेषां रथादीनामधो विस्तीर्णत्वात् प्रतिमोचनं येषु ते तथा, 'पासाइया' इत्यादि पदचतुष्टयं प्राग्वत् ॥'तस्स णं वणसंडस्से'त्यादि, तस्य णमिति पूर्ववद् वनपण्डस्य 'अन्तः' मध्ये बहुसमः सन् रमणीयो बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, किंविशिष्टः ? इत्याह'से जहा नामए' इत्यादि, 'तत् सकललोकप्रसिद्धं यथेति दृष्टान्तोपदर्शने नामेति शिष्यामत्रणे 'ए' इति वाक्यालङ्कारे 'आलिंगपुक्खरेइ वा' इति आलिगो-मुरजो वाद्यविशेषस्तस्य पुष्कर-चर्मपुटकं तत् किलात्यन्तसममिति तेनोपमा क्रियते, इतिशब्दाः सर्वेऽपि स्वखोपमाभूतवस्तुपरिसमाप्तिद्योतकाः वाशब्दाः समुच्चये मृदङ्गो-लोकप्रतीतो मर्दलस्तस्य पुष्करं मृदङ्गपुष्करं परिपूर्ण-पानी तलं-उपरितनो भागः सरस्तलं 'करतलं' प्रतीतं, चन्द्रमण्डलं च यद्यपि तत्त्ववृत्त्या उत्तानीकृतकपित्थाकारपीठप्रासादापेक्षया वृत्तालेखमिति तद्गतो दृश्यमानो भागो न समतलस्तथाऽपि प्रतिभासते समतल इति तदुपादानम् , आदर्शमण्डलं | सुप्रसिद्धम् , 'उरब्भचम्मेइ वे'त्यादि, अत्र सर्वत्रापि 'अणेगसंकुकीलगसहस्सवितते' इति विशेषणयोगः, उरभ्रः-ऊरणः वृपभवराहसिंहव्याघ्रछगलाः प्रतीताः द्वीपी-चित्रकः, एतेषां प्रत्येकं चर्म अनेकैः शङ्कप्रमाणः कीलकसहस्रः-महद्भिः कीलकैरताडितं प्रायो Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . = मध्यक्षामं भवति न समतलं तथारूपतडाकासम्भवात् अतः शङ्कग्रहणं, विततं-विततीकृतं ताडितमिति भावः, यथाऽत्यन्तं बहुसमं% ३प्रतिपत्तौ भवति तथा तस्यापि वनपण्डस्यान्तर्बहुसमो भूमिभागः, पुनः कथम्भूतः? इत्याह-नाणाविहपंचवन्नेहिं मणीहिं तणेहि यह मनुष्या० उवसोभिए' इति योगः, नानाविधा-जातिभेदान्नानाप्रकारा ये पञ्चवर्णा मणयस्तृणानि च तैरुपशोभितः, कथम्भूतैर्मणिभिः? इत्याह वनखण्डा8-'आवडे'त्यादि, आवर्तादीनि मणीनां लक्षणानि, तत्रावतः प्रतीत एकस्यावतस्य प्रत्यभिमुख आवतः प्रत्यावर्त्तः श्रेणिः-तथाविध- ४ धि० बिन्दुजातादेः पतिः तस्याश्च श्रेणेर्या विनिर्गताऽन्या श्रेणिः सा प्रश्रेणिः स्वस्तिकः प्रतीत: सौवस्तिकपुष्पमाणवौ-लक्षणविशेपौ लोका- उद्देशः १ त्प्रत्येतव्यौ वर्द्धमानक-शरावसंपुटं मत्स्यकाण्डकमकराण्डके-प्रतीते 'जारमारे'ति लक्षणविशेषौ सम्यग्मणिलक्षणवेदिनो लोकाद्वेदि- सू०१२६ तव्यो, पुष्पावलिपद्मपत्रसागरतरङ्गवासन्तीलतापद्मलताः प्रतीतास्तासां भक्त्या-विच्छित्त्या चित्रम्-आलेखो येषु ते आवर्त्तप्रत्यावर्त्तश्रेणिप्रश्रेणिस्वस्तिकसौवस्तिकपुष्पमाणववर्धमानकमत्स्याण्डकमकराण्डकजारमारपुष्पावलिपद्मपत्रसागरतरङ्गवासन्तीपद्मलताभक्तिचित्रास्तैः, किमुक्तं भवति ?-आवादिलक्षणोपेतैः, तथा सच्छायैः सती-शोभना प्रभा-कान्तिर्येषां ते सत्प्रभास्तैः 'समरीएहिंति समरीचिकैः-बहिर्विनिर्गतकिरणजालसहितैः 'सोद्योतः' बहिर्व्यवस्थितप्रत्यासन्नवस्तुस्तोमप्रकाशकरोयोतसहितैः, एवंभूतैर्नानाजातीयैः | पञ्चवर्णैर्मणिभिस्तृणैश्चोपशोभितः, तानेव पञ्च वर्णानाह-'तंजहा कण्हे' इत्यादि । 'तत्थ णमित्यादि, तत्र तेषां पञ्चवर्णानां म णीनां तृणानां च मध्ये णमिति वाक्यालङ्कारे ये ते कृष्णा मणयस्तृणानि च, ये इत्येव सिद्धे ये ते इति वचनं भाषाक्रमार्थ, तेषां ण15/ मिति पूर्ववत् 'अयम्' अनन्तरमुद्दिश्यमानः 'एतद्रूपः' अनन्तरमेव वक्ष्यमाणखरूपः 'वर्णावासः' वर्णकनिवेश: प्रज्ञप्तः, तद्यथा 8 ॥१८९॥ -'से जहा नाम ए' इत्यादि, स यथा नाम-'जीमूत' इति 'जीमूतः' बलाहकः, स चेह प्रावृटप्रारम्भसमये जलभृतो वेदितव्यः, ६ SAUSIOS Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SAUSAISISSOS BOSCOSSOS तस्यैव प्रायोऽतिकालिमसम्भवात् , इतिशब्द उपमाभूतवस्तुनामपरिसमाप्तिद्योतकः, वाशब्द उपमानान्तरापेक्षया समुच्चये, एवं सर्वत्रेतिवाशब्दौ द्रष्टव्यौ, 'अञ्जनं' सौवीराजनं रत्नविशेषो वा 'खञ्जनं' दीपमल्लिकामल: 'कज्जलं' दीपशिखापतितं . "मषी' तदेव कजलं ताम्रभाजनादिषु सामग्रीविशेषेण घोलितं मषीगुलिका-घोलितकजलगुटिका, कचित् 'मसी इति मसीगुलिया इति वे'ति न दृश्यते, गवलं-माहिषं शृङ्गं तदपि चोपरितनत्वग्भागापसारणेन द्रष्टव्यं, तत्रैव विशिष्टस्य कालिम्नः सम्भवात् , तथा तस्यैव माहिपशृङ्गस्य निबिडतरसारनिर्वतिता गुडिका गवलगुडिका 'भ्रमर' प्रतीतः 'भ्रमरावली' भ्रमरपद्धिः 'भ्रमरपतङ्गसार' भ्रमरप विशिष्टकालिमोपचितः प्रदेश: 'जम्बूफलं' प्रतीतम् 'आारिष्ट' कोमलकाकः 'परपुष्टः' कोकिलः गजो गजकलभश्च प्रतीत: 'कृष्णसर्पः' कृष्णवर्णसर्पजातिविशेष: 'कृष्णकेसरः' कृष्णवकुलः 'आकाशथिग्गलं' शरदि मेघविनिर्मुक्तमाकाशखण्डं तद्वत्कृष्णमतीव प्रतिभातीति तदुपादानं, कृष्णाशोककृष्णकणवीरकृष्णबन्धुजीवा: अशोककणवीरवन्धुजीववृक्षभेदाः, अशोकादयो हि पञ्चवर्णा भवन्ति ततः शेषवर्णव्युदासाथै कृष्णग्रहणम् , एतावत्युक्ते गौतमो भगवन्तं पृच्छति-भवे एयारूवे' इति भवेन्मणीनां तृणानां च कृष्णो वर्ण. 'एतद्रूपः' जीमूतादिरूपः ?, भगवानाह-गौतम ! 'नायमर्थः समर्थः' नायमर्थ उपपन्नो यदुतैवंभूतः कृष्णो वर्णो मणीनां तृणानां च, किन्तु ते कृष्णा मणयस्तृणानि च 'इतः' जीमूतादेः 'इष्टतरका एवं' कृष्णवर्णेनाभीप्सिततरका एव, तत्र किश्चिदकान्तमपि केपाश्चिदिष्टतरं भवति ततोऽकान्तताव्यवच्छित्त्यर्थमाह-कान्ततरका एवं' अतिस्निग्धमनोहारिकालिमोपचिततया जीमूतादेः कमनीयतरका एव, अत एव 'मनोज्ञतरकाः' मनसा ज्ञायन्ते-अनुकूलतया स्वप्रवृत्तिविपयीक्रियन्त इति मनोज्ञा-मनोऽनुकूलास्ततः प्रकर्षविवक्षायां तरपप्रत्ययः, तत्र मनोज्ञतरमपि किश्चिन्मध्यमं भवति ततः सर्वोत्कर्षप्रतिपादनार्थमाह-मनआपतरका एव' द्र Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RS धि० तृणां मनांसि आप्नुवन्ति-प्राप्नुवन्ति आसवशतां नयन्तीति मनापास्तत: प्रकर्पविवक्षायां तरपप्रत्ययः, प्राकृतत्वाच पकारस्य मकारे ६ ३ प्रतिपत्ती मणामतरा इति भवति । तथा 'तत्थ ण'मित्यादि, तत्र तेपां मणीनां तृणानां च मध्ये ये ते नीला मणयस्तृणानि च तेपामयमेत- मनुष्या० द्रूप: 'वर्णावासः' वर्णकनिवेश: प्रज्ञप्तः, तद्यथा-'से जहा नाम ए' इत्यादि, स यथा नाम-'भृङ्गः' कीटविशेष: पक्ष्मलः भृग- वनखण्डापत्रं-तस्यैव भृगाभिधानस्य कीटविशेषस्य पक्ष्म 'शुकः' कीरः 'शुकपिच्छं' शुकस्य पत्रं 'चापः' पक्षिविशेषः 'चापपिच्छं' चापपक्षः 'नीली' प्रतीता 'नीलीभेद' नीलीच्छेदः 'नीलीगुलिया' नीलीगुटिका 'श्यामाका' धान्यविशेपः 'उच्चतगे वा' इति 'उच्च-उद्देशः१ न्तगः' दन्तराग: 'वनराजी' प्रतीता हलधरो-बलदेवस्तस्य वसनं हलधरवसनं तच्च किल नीलं भवति, सदैव तथाखभावतया हल-2 सू० १२६ | धरस्य नीलवनपरिधानात् , मयूरग्रीवापारापतग्रीवाऽतसीकुसुमवाणकुसुमानि प्रतीतानि, अत ऊट्टै फचित् 'इंदनीलेइ वा महानीलेइ वा र मरगतेइ वा' तत्र इन्द्रनीलमहानीलमरकता रत्नविशेपाः प्रतीताः, अञ्जनकेशिका-वनस्पतिविशेपस्तस्याः कुसुममखनकेशिकाकुसुमं 'नीलोत्पलं' कुवलयं नीलाशोकनीलकणवीरनीलबन्धुजीवा अशोकादिवृक्षविशेपाः, 'भवे एयारूवे' इत्यादि प्राग्वद् व्याख्येयम् । तथा 'तत्थ ण'मित्यादि, तत्र तेषां मणीनां मध्ये ये ते लोहिता मणयस्तृणानि च तेपामयमेतद्रूपो वर्णावास: प्रज्ञप्तः, तद्यथा-'से जहा नाम ए' इत्यादि, स यथा नाम शशकरुधिरमुरभ्र-ऊरणस्तस्य रुधिरं वराहः-शूकरस्तस्य रुधिरं मनुष्यरुधिरं महिपरुधिरं च प्रतीतं, एतानि हि किल शेपरुधिरेभ्यो लोहितवर्णोत्कटानि भवन्ति तत एतेपामुपादानं, 'वालेन्द्रगोपकः' सद्योजात इन्द्रगोपकः, स हि प्रवृद्धः सन्नीपत्पाण्डुरक्तो भवति ततो बालग्रहणम् , इन्द्रगोपक:-प्रथमप्रावृटकालभावी कीटविशेपः 'बालदिवाकरः' प्रथममुद्गच्छन् ॥१९॥ सूर्य: 'सन्ध्याभ्ररागः' वर्षासु सन्ध्यासमयभावी अभ्ररागः गुजा-लोकप्रतीता तस्या अड़े रागो गुखार्द्धरागः, गुखाया हि अर्द्ध 459 Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मतिरक्तं भवति अर्द्धमतिकृष्णं ततो गुजार्द्धग्रहणं, जपाकुसुमकिंशुककुसुमपारिजातकुसुमजात्यहिलका:-प्रतीताः 'शिलाप्रवालं ४ प्रवालनामा रत्नविशेषः प्रवालाङ्करः तस्यैव रत्नविशेपंस्य प्रवालाभिधस्याङ्करः, स हि प्रथमोद्गतत्वेनात्यन्तरक्तो भवति ततस्तदुपादानं, लोहिताक्षमणिनाम रत्नविशेषः, लाक्षारसकृमिरागरक्तकम्बलचीनपिष्टराशिरक्तोत्पलरक्ताशोकरक्तकणवीररक्तवन्धुजीवाः प्रतीताः 'भवे एयारूवे' इत्यादि प्राग्वत् ॥ 'तत्थ ण'मित्यादि, तत्र तेपां मणीनां तृणानां च मध्ये ये हरिद्रा मणयस्तृणानि च तेपामयमेतद्रूपो 'वर्णावासः' वर्णकविशेप: प्रज्ञप्तः, तद्यथा-'से जहा नाम ए' इत्यादि, स यथा नाम-चम्पकः सामान्यतः सुवर्णचम्पको वृक्षः "च म्पकच्छल्ली' सुवर्णचम्पकत्वक् 'चम्पकभेदः' सुवर्णचम्पकच्छेदः 'हरिद्रा' प्रतीता 'हरिद्राभेदः' हरिद्राच्छेदः 'हरिद्रागुलिका' | हरिद्रासारनिर्वतिता गुलिका 'हरितालिका' पृथ्वीविकाररूपा प्रतीता 'हरितालिकाभेदः' हरितालिकाच्छेदः 'हरितालिकागुलिका' हरितालिकासारनिर्वर्तिता गुटिका 'चिकुर' रागद्रव्यविशेष: 'चिकुरागरागः' चिकुरसंयोगनिमित्तो वस्त्रादौ रागः, वरकनकस्यजात्यसुवर्णस्य यः कषपट्टके निघर्पः स वरकनकनिघर्षः, वरपुरुपो-वासुदेवस्तस्य वसनं वरपुरुषवसनं, तद्धि किल पीतमेव भवतीति तदुपादानम् , अ(स)ल्लकीकुसुमं लोकतोऽवसेयं 'चम्पककुसुम' सुवर्णचम्पककुसुमं 'कूष्माण्डीकुसुम' पुष्पफलीकुसुमं कोरण्टक:-18 पुष्पजातिविशेषस्तस्य दाम कोरण्टकदाम तडवडा आउली तस्याः कुसुमं तडवडाकुसुमं घोषातकीकुसुमं सुवर्णयूथिकाकुसुमं च प्रतीतं सुहरिण्यका-वनस्पतिविशेषस्तस्याः कुसुमं सुहरिण्यकाकुसुमं वीयको-वृक्ष: प्रतीतस्तस्य कुसुमं वीयककुसुमं पीताशोकपीतकणवीरपीतबन्धुजीवाः प्रतीता: 'भवे एयारूवे इत्यादि प्राग्वत् ॥ 'तत्थ ण' मित्यादि, तत्र तेषां मणीनां तृणानां च मध्ये ये ते शुक्ला मणयस्तृणानि च तेषामयमेतद्रूपो वर्णावासः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-'से जहा नाम ए' इत्यादि, स यथा नाम-'अङ्क रत्न Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SSA * विशेषः शङ्खचन्द्रकुमुदोदकरजोदधिधनक्षीरक्षीरपूरक्रोचावलिहारावलिहंसावलिवलाकावलयः प्रतीता: 'चन्द्रावली' तडाकादिपु ४ ३ प्रतिपत्ती जलमध्यप्रतिविम्बितचन्द्रपति. 'सारइयत्रलाहगेइ वा' इति शारदिक:-शरत्कालभावी बलाहको-मेघः 'धंतधोयरुप्पपट्टेइ वे'ति, मनुष्याः ध्मात:-अग्निसंपर्केण निर्मलीकृतो धौतो-भूतिखरण्टितहस्तसन्मार्जनेनातिनिशितीकृतो यो रूप्यपट्टो-रजतपत्रं स ध्मातधौतरूप्यपट्टा, * वनखण्डाअन्ये तु व्याचक्षते-ध्मातेन-अग्निसंयोगेन यो धौत:-शोधितो रूप्यपट्टः स ध्मातरूप्यपट्टः, शालिपिष्टराशि:-शालिक्षोदपुनः धि० कुन्दपुष्पराशिः कुमुदराशिश्च प्रतीतः, 'सुक्कछेवाडियाइ वा' इति छेवाडी नाम-बल्लादिफलिका, सा च कचिदेशविशेषे शुष्का 5 उद्देशः१ | सती शुक्ला भवति ततस्तदुपादानं, 'पेहुणमिंजियाइ वा' इति पेहुणं-मयूरपिच्छं तन्मध्यवर्तिनी मिञा पेहुणमितिका सा चाति- ; सू०१२६ शुक्छेति तदुपन्यासः, विसं-पद्मिनीकन्दः मृणालं-पद्मतन्तुः, गजदन्तलवगदलपुण्डरीकदलश्वेतकणवीरश्वेतबन्धुजीवाः प्रतीताः, Dभवेयारूचे' इत्यादि प्राग्वत् ॥ तदेवमुक्तं वर्णखरूपं, सम्प्रति गन्धखरूपप्रतिपादनार्थमाह-'तेसि णं मणीणं तणाण य' इत्यादि, तेषां मणीनां तृणानां च कीदृशो गन्धः प्रज्ञप्तः ?, भगवानाह-से जहा नाम ए' इत्यादि, प्राकृतत्वात् 'से' इति बहुवचनार्थः, ते यथा नाम गन्धा अभिनिःश्रवन्तीति सम्बन्धः, कोष्ठ-गन्धद्रव्यं तस्य पुटाः कोष्ठपुटास्तेषां, वाशब्दाः सर्वत्रापि समुच्चये, इहैकस्य पुटस्य न तादृशो गन्ध आयाति द्रव्यस्याल्पत्वात् ततो बहुवचनं, तगरमपि गन्धद्रव्यम् , 'एला' प्रतीता: 'चोयगं' गन्धद्रव्यं चम्पकदमनककुद्द्वमचन्दनोशीरमरुवकजातीयूथिकामल्लिकानानमल्लिकाकेतकीपाटलानवमालिकावासकर्पूराणि प्रतीतानि नवरमुशीरं-वीरणीमूलं स्नानमल्लिका-सानयोग्यो मल्लिकाविशेप: एतेपामनुवाते-आघ्रायकविवक्षितपुरुपाणामनुकूले वाते वाति सति 'उद्भिद्यमा-8 ॥१९१॥ नानाम्' उद्घाट्यमानानां, चशब्दः सर्वत्रापि समुच्चये, 'निर्भिद्यमानानां नितरां-अतिशयेन भिद्यमानानां 'कोट्रिजमाणाण वा'% SAMS AASA SANE Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इति, इह पुटैः परिमितानि यानि कोष्ठादिगन्धद्रव्याणि तान्यपि परिमेये परिमाणोपचारात्कोष्ठपुटानीत्युच्यन्ते तेपां 'कुयमानानाम्' उदूखले कुट्टयमानानां 'रुविजमाणाण वा' इति श्लक्ष्णखण्डीक्रियमाणानाम्, एतच्च विशेषणद्वयं कोष्ठादिद्रव्याणामवसेयं, तेषामेव प्रायः कुट्टनश्लक्ष्णखण्डीकरणसम्भवात्, न तु यूथिकादीनाम् , "उकिरिजमाणाण वा' इति क्षुरिकादिभिः कोष्ठादिपुटानां कोष्ठादिद्रव्याणां वा उत्कीर्यमाणानां 'विक्खरिज्जमाणाण वा' इति 'विकीर्यमाणानाम्' इतस्ततो विप्रकीर्यमाणानां 'परिभुजमाणाण वा' परिभोगायोपभुज्यमानानां, कचित्पाठः परिभाएजमाणाण वा' इति, तत्र 'परिभाज्यमानानां' पार्श्ववर्तिभ्यो मनाग २ दीयमानानां 'भंडाओ भंडं साहरिजमाणाण वा' इति 'भाण्डात्' स्थानादेकस्माद् अन्यद् भाण्डं-भाजनान्तरं संहिर माणानाम् 'उदाराः' स्फाराः, ते चामनोज्ञा अपि स्युरत आह-'मनोज्ञाः' मनोऽनुकूलाः, तच्च मनोज्ञत्वं कुतः ? इत्याह-'मनोहराः' मनो हरन्ति-आत्मवशं नयन्तीति मनोहराः, यतस्ततो मनोहरत्वं कुतः ? इत्याह-प्राणमनोनिर्वृतिकराः, एवंभूताः । सर्वासु दिक्षु 'समन्ततः' सामस्त्येन गन्धाः 'अभिनिःस्रवन्ति' जिघ्रतामभिमुखं निस्सरन्ति, एवमुक्ते शिष्यः पृच्छति-'भवे ए. यारूवे' इत्यादि प्राग्वत् ।। तेषां मणीनां तृणानां च कीदृशः स्पर्शः प्रज्ञप्तः ?, भगवानाह-गौतम! 'से जहा नाम ए' इत्यादि, तद्यथा-'अजिनक' चर्ममयं वस्त्रं रूतं च प्रतीतं 'वरः' वनस्पतिविशेष: 'नवनीतं' म्रक्षणं हंसगर्भतूली शिरीपकुसुमनिचयश्च प्रतीतः 'बालकुमुदपत्तरासीइ वेति बालानि-अचिरकालजातानि यानि कुमुदपत्राणि तेषां राशिर्वालकुमुदपत्रराशिः, कचित् बालकुसुमपत्रराशिरिति पाठः, 'भवे एयारूवे' इत्यादि प्राग्वत् ॥ 'तेसि णं भंते !' इत्यादि, तेषां भदन्त ! तृणानां पूर्वापरदक्षिणोत्तरागतैर्वातैः 'मन्दायं मन्दाय'मिति मन्द मन्दम् ‘एजितानां' कम्पितानां 'व्येजितानां' विशेपतः कम्पितानाम् , एत Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देव पर्यायशब्देन व्याचष्टे-कम्पितानां तथा 'चालितानाम्' इतस्ततो विक्षिप्तानाम्, एतदेव पर्यायेण व्याचष्टे-स्पन्दितानां तथा ३ प्रतिपत्ती * 'संघट्टितानां' परस्परं घर्षयुक्तानां, कथं घट्टिताः' इत्याह-क्षोभितानां' स्वस्थानाच्चालितानां, स्वस्थानाञ्चालनमपि कुत: ? इत्याद- मनुष्या० 3 'उदीरितानाम्' उत्प्रावल्येनेरिताना-प्रेरितानां, कीदृशः शब्दः प्रज्ञप्तः ?, भगवानाह-'गोयमें' त्यादि, गौतम | स यथानामक:- वनखण्डा शिविकाया वा स्पन्दमानिकाया वा रथस्य वा, तत्र शिविका-जम्पानविशेषरूपा उपरिच्छादिता कोष्ठाकारा, तथा दीर्घो-जम्पान- धि० विशेषः पुरुषस्य स्वप्रमाणावकाशदायी स्यन्दमानिका, अनयोश्च शब्दः पुरुषोत्पाटितयोः क्षुद्रहेमघण्टिकादिचलनवशतो 'वेदितव्यः, उद्देशः १ रथश्वेद सद्धामरथः प्रत्येयो, न क्रीडारथः, तस्याप्रेतनविशेषणानामसंभवात् , तस्य च फलकवेदिका यस्मिन् काले (यः) पुरुपस्तदपेक्षया 8 सू० १२६ कटिप्रमाणाऽवसेया, तस्य च रथस्य विशेषणान्यभिधत्ते-'सच्छत्तस्से'त्यादि, सच्छत्रस्य सध्वजस्य 'सघण्टाकस्य' उभयपा* वलम्बिमहाप्रमाणघण्टोपेतस्य सपताकस्य सह तोरणवरं-प्रधानं तोरणं यस्य स सतोरणवरस्तस्य सह नन्दिघोपो-द्वादशतूर्यनिनादो यस्य स सनन्दिघोपस्तस्य, तथा सह किङ्किणीभि:-क्षुद्रघण्टाभिर्वर्त्तन्त इति सकिङ्किणीकानि यानि हेमजालानि-हेममयदामसमूहास्तैः सर्वासु दिक्षु पर्यन्तेषु-बहिःप्रदेशेपु परिक्षिप्तो-व्याप्तः सकिङ्किणीकहेमजालपर्यन्तपरिक्षिप्तस्तस्य, तथा हैमवतं-हिमवत्पर्वतभावि चित्रविचित्रं-मनोहारिचित्रोपेतं तैनिशं-तिनिशदारुसम्बन्धि कनकनियुक्तं-कनकविच्छुरितं दारु-काष्ठं यस्य स हैमवतचित्रविचित्रतैनिशकनकनियुक्तदारुस्तस्य, सूत्रे च द्वितीयककारः स्वार्थिकः पूर्वस्य च दीर्घ प्राकृतत्वात् , तथा सुष्टु-अतिशयेन सम्यक् पिनद्धमरकमण्डलं धूश्च यस्य स सुपिनद्धारकमण्डलधूष्कस्तस्य, तथा कालायसेन-लोहेन सुष्टु-अतिशयेन कृतं नेमेः-बाह्मपरिधेर्यनस्य ॥१९२॥ च-अरकोपरि फलकचक्रवालस्य कर्म यस्मिन् स कालायससुकृतनेमियन्त्रकर्मा तस्य, तथा आकीणों-गुणैव्याप्ता ये वरा:-प्रधा Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नास्तुरगास्ते सुष्ठ-अतिशयेन सम्यक् प्रयुक्ता-योत्रिता यस्मिन् स आकीर्णवरतुरगसुसंप्रयुक्तः, प्राकृतत्वाद् बहुव्रीहावपि निष्ठान्तस्य परनिपातः, तथा सारथिकर्मणि ये कुशला नरास्तेषां मध्येऽतिशयेन छेको-दक्षः सारथिस्तेन सुप्तु सम्यकपरिगृहीतस्य, तथा 'सरसयबत्तीसतोणमंडियस्स' इति शराणां शतं प्रत्येकं येषु तानि शरशतानि तानि च तानि द्वात्रिंशत्तोणानि च-बाणाश्रयाः शरशतद्वात्रिंशत्तोणानि तैर्मण्डितः शरशतद्वात्रिंशत्तोणमण्डितः, किमुक्तं भवति ?-एवं नाम तानि द्वात्रिंशच्छरशतधृतानि तूणानि रथस्य | सर्वतः पर्यन्तेष्ववलम्बितानि यथा तानि तस्य सङ्ग्रामायोपकल्पितस्यातीव मण्डनाय भवन्तीति, तथा कङ्कट-कवचं सह कङ्कटं यस्य स सकङ्कटः सककटोऽवतंसः-शेखरो यस्य स सकङ्कटावतंसस्तस्य, तथा सह चापं येषां ते सचापा ये शरा यानि च कुन्तभल्लिमुपढिप्रभृतीनि नानाप्रकाराणि यानि च कवचखेटकप्रमुखाणि आवरणानि तैर्भूत:-परिपूर्णः, तथा योधानां युद्धं तन्निमित्तं सद्यः प्रगु-1 णीभूतो यः स योधयुद्धसज्जः, ततः पूर्वपदेन सह विशेषणसमासः, तस्येत्थंभूतस्य राजाङ्गणे अन्तःपुरे वा रम्ये वा मणिकुट्टिमतलेमणिबद्धभूमितले अभीक्ष्णमभीक्ष्णं मणिको(कु)ट्टिमतलप्रदेशे राजाङ्गणप्रदेशे वा 'अभिघट्टिजमाणसे'ति अभिघट्टयमानस्य वेगेन गच्छतो ये उदारा-मनोज्ञाः कर्णमनोनिवृतिकराः सर्वतः समन्तात् शब्दा अभिनिस्सरन्ति, 'भवे एयारूवे सिया' इति 'स्यात्' कथञ्चिद् भवेद् एतद्रूपस्तेषां मणीनां तृणानां च शब्दः ?, भगवानाह-नायमर्थः समर्थः, पुनरपि गौतमः प्राह-स यथा नामक:-प्रातः सन्ध्यायां देवतायाः पुरतो या वादनायोपस्थाप्यते सा किल मङ्गलपाठिका तालाभावे च वाद्यते इति विताले-तालाभावे भवतीति वैतालिकी तस्या वैतालिक्या-वीणाया 'उत्तरामन्दा मच्छियाए' इति मूर्छनं मूर्छा सा संजाताऽस्या इति मूच्छिता उत्तरमन्दया-उत्तरमन्दाभिधानया मूर्छनया गान्धारखरान्तर्गतया सप्तम्या भूञ्छिता उत्तरमन्दामूछिता, किमुक्तं भवति ?-गान्धारस्वरस्य सप्त मू Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ प्रतिपत्ती मनुष्या० वनखण्डा धि० * उद्देशः१ सू०१२६ →ना भवन्ति, तद्यथा-"नंदी य खुट्टिमा पूरिमा य चोत्थी अ सुद्धगंधारा । उत्तरगन्धारावि य हवई सा पंचमी मुच्छा ॥१॥सुहुमुत्तरआयामा छट्ठी सा नियमसो उ बोद्धव्वा । उत्तरमंदा य तहा हेवई सा सत्तमी मुच्छा ॥२॥" अथ किंवरूपा मूर्च्छनाः?, 2 उच्यते, गान्धारादिस्वरूपामोचनेन गायतोऽतिमधुरा अन्यान्यस्वरविशेषा थान् कुर्वन्नास्तां श्रोतृन मूञ्छितान करोति किन्तु स्वयमपि मूच्छित इव तान् करोति, यदिवा स्वयमपि साक्षान्मूच्छौ करोति, तथा चोक्तम्-"अन्नन्नसरविसेसे उप्पायंतस्स मुच्छणा भणिया। कत्तावि मुच्छितो इव कुणए मुच्छं व सोवेति ॥१॥" गान्धारस्वरान्तर्गतानां च मूर्च्छनानां मध्ये सप्तमी उत्तरमन्दाभिधाना मूर्च्छना किलातिप्रकर्षप्राप्ता ततस्तदुत्पादनया च मुख्यवृत्त्या वादयिता मूञ्छितो भवति, परमभेदोपचारात् वीणाऽपि मूञ्छितेत्युक्ता, साऽपि यद्यके सुप्रतिष्ठिता न भवति ततोन मूर्च्छनाप्रकर्ष विद्धाति तत आह-अङ्के-स्त्रियाः पुरुषस्य वा उत्सङ्गे सुप्रतिष्ठितायाः, तथा कुशलेनवादननिपुणेन नरेण पुरुषेण नार्या वा सुष्ठु-अतिशयेन सम्यग् गृहीतायाः, तथा चन्दनस्य सारः चन्दनसारस्तेन निर्मापितो यः कोणोवादनदण्डस्तेन परिघट्टितायाः-संस्पृष्टायाः 'पच्चूसकालसमयंसि' इति 'प्रत्यूषकालसमय प्रभातवेलायां, कचित् 'पुवरत्तावरत्तकालसमयंसि' इति पाठस्तत्र प्रदोषसमये प्रात.समये चेत्यर्थः, 'मन्दं मन्दं' शनैः शनैः 'एजिताया' चन्दनसारकोणेन मनाक् कम्पिताया: 'व्येजितायाः' विशेषत: कम्पितायाः, एतदेव पर्यायेण व्याचष्टे-चालितायास्तथा घट्टितायाः, ऊ घोगच्छता चन्दनसार- कोणेन गाढतरं वीणादण्डेन सह तव्याः स्पृष्टाया इत्यर्थः, तथा 'स्पन्दिताया' नखाप्रेण स्वरविशेषोत्पादनार्थमीपचालितायाः 'क्षो भितायाः' मूछी प्रापिताया ये 'उदारा' मनोज्ञाः कर्णमनोनिवृतिकराः सर्वतः समन्ताच्छब्दा अभिनिस्सरन्ति, 'स्यात्' कथञ्चिद् * भवेदेतद्रूपस्तेषां तृणानां मणीनां च शब्दः १, भगवाना-नायमर्थः समर्थः, पुनरपि गौतमः प्राह स यथा नामकः-किंनराणां वा ॥१९३॥ Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किंपुरुषाणां वा महोरगाणां वा गन्धर्वाणां वा, वाशब्दाः सर्वेऽपि विकल्पार्थाः, किंनरादयो व्यन्तरविशेषाः तेषां कथम्भूतानाम् ? इत्याह- 'भद्रशालवनगतानां वा' इत्यादि, तत्र मेरोः समन्ततो भूमौ भद्रशालवनं प्रथममेखलायां नन्दनवनं शिरसि चूलिकायाः पाषु सर्वतः पण्डकवनं 'महाहिमवंतमलयमन्दर गिरिगुहा समन्नागयाणं' इति महाहिमवान् - हैमवत क्षेत्रस्योत्तरतः सीमाकारी वर्षधरपर्वतः, उपलक्षणं शेषवर्षधरपर्वतानां, मलयपर्वतस्य मन्दरगिरेश्व - मेरुपर्वतस्य च गुहा समन्वागतानां वाशब्दा विकल्पार्थाः, एतेषु हि स्थानेषु प्राय: किंनरादयः प्रमुदिता भवन्ति तत एतेषामुपादानम्, 'एगतो सहियाणं ति एकस्मिन् स्थाने सहितानां - समुदितानां 'समुहांगयाणं 'ति परस्परसंमुखागतानां - संमुखं स्थितानां, नैकोऽपि कस्यापि पृष्ठं दत्त्वा स्थित इत्यर्थः, पृष्ठदाने हर्षविघातोत्पत्तेः, तथा 'समुविद्वाणं' सम्यक् परस्परानाबाधया उपविष्टाः समुपविष्टास्तेषां समुपविष्टानां तथा 'संनिविद्वाण' मिति सम्यक् स्वशरीरानाबाघया न तु विषम संस्थानेन निविष्टाः संनिविष्टास्तेषां 'पमुइयपक्कीलियाणं' ति प्रमुदिताः - प्रहर्षं गताः प्रक्रीडिता: - क्रीडितुमारब्धवन्तस्ततो विशेषणसमासस्तेषां तथा गीते रतिर्येषां ते गीतरतयो गन्धर्व - नाट्यादि तत्र हर्षितमनसो गन्धर्वहर्षितमनसस्ततः पूर्वपदेन विशेषणसमासस्तेषां गद्यादिभेदादष्टविधं गेयं, तत्र गद्यं यत्र स्वरसञ्चारेण गद्यं गीयते, यत्र तु पद्यं - वृत्तादि गीयते तत्पद्यं, यत्र कथिकादि गीयते तत्कथ्यं, पदबद्धं यदेकाक्षरादि यथा ते ते इत्यादि, पादबद्धं यद् वृत्तादिचतुर्भागमात्रे पदे बद्धम्, 'उक्खित्ताय'मिति उंक्षिप्तकं प्रथमतः समारभ्यमाणं, दीर्घत्वं ककारात्पूर्वं प्राकृतत्वात् एवमुत्तरत्रापि द्रष्टव्यं, 'प्रवृत्त' प्रथमसमारम्भादूर्द्धमाक्षेपपूर्वकप्रवर्त्तमानं 'मंदाय' मिति मन्दकं मध्यभागे सकलमूर्च्छनादिगुणोपेतं मन्दं मन्दं संचरन्, तथा ' रोइयावसाणं' ति रोचितंसम्यग्भावितमवसानं यस्य तद् रोचितावसानं, शनैः शनैः प्रक्षिप्यमाणस्वरं यस्य गेयस्यावसानं तद् रोचितावसानमिति भाव:, तथा Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'सप्तस्वरसमन्वागतं' सप्त स्वराः पड्जादयः, उक्तञ्च - "सज्जे रिमह गंधारे, मज्झिमे पंचमे सरे । वेवए चेव नेसाए, सरा सत्त वि याहिया ॥ १ ॥” ते च सप्त स्वराः पुरुषस्य स्त्रिया वा नाभीतः समुद्भवन्ति 'सत्त सरा नाभीतो' इति पूर्वमहर्षिवचनात् तथाऽभी रसैः–शृङ्गारादिभिः सम्यक् प्रकर्षेण युक्तमष्टरससप्रयुक्तं, तथा एकादश अलङ्काराः पूर्वान्तर्गते स्वरप्राभृते सम्यगभिहिताः, तानि च पूर्वाणि सम्प्रति व्यवच्छिन्नानि ततः पूर्वेभ्यो लेशतो विनिर्गतानि यानि भरतविशाखिलप्रभृतीनि तेभ्यो वेदितव्याः, 'छद्दोसविष्पमुक्कं'ति पद्भिर्दोपैर्विप्रमुक्तं पड्दोपविप्रमुक्तं, ते च पडू दोपा अमी- 'भीयं दुयमुप्पिच्छं उत्तालं कागस्सरमणुणासं च' । उक्तञ्च — “भीयं दुयमुप्पिच्छत्थमुत्तालं च कमसो मुणेयव्वं । काकस्सरमणुनासं छदोसा होंति गेयस्स ॥ १ ॥” तत्र 'भीतम्' उत्रस्तं, किमुक्तं भवति ? – यदुत्रस्तेन मनसा गीयते तद्भीतपुरुपनिबन्धनधम्र्मानुवृत्तत्वाद्भीतमुच्यते, 'द्रुतं' यत्त्वरितं गीयते, 'उप्पिच्छं' नाम आकुलम्, उक्तञ्च—“आहित्यं उप्पिच्छं च आउलं रोसभरियं च" अस्यायमर्थ:-आहित्यमुप्पिच्छं च प्रत्येकमाकुलं रोपभृतं वोच्यत इति, आकुलता च श्वासेन द्रष्टव्या तथा पूर्वसूरिभिर्व्याख्यानात् उक्तञ्च मूलटीकायाम् - "उप्पिच्छं श्वासयुक्त” मिति, तथा उत्-प्राबल्येनातितालमस्थानतालं वा उत्तालं, शुक्ष्णस्वरेण काफस्वरं, सानुनासिकमनुनासं, नासिकाविनिर्गतस्वरानुगतमिति भावः, तथा 'अट्ठगुणोववेय' मिति अष्टभिर्गुणैरुपेतमष्टगुणोपेतं, ते चाष्टावमी गुणाः- पूर्ण रिक्तमलङ्कृतं व्यक्तमविपु (धु)ष्टं मधुरं समं सललितं च, तथा चोक्तम्– “पुण्णं रत्तं च अलंकियं च वत्तं तद्देव अविपु (धु ) ढं । महुरं समं सललियं अट्ठ गुणा होंति गेयस्स ॥ १ ॥ " तत्र यत्स्वरकलाभिः पूर्ण गीयते तत्पूर्ण, गेयरागानुरक्तेन यद् गीयते तद्रक्तम्, अन्योऽन्यस्वरविशेषकरणेन यदलङ्कृतमेव गीयते तदलङ्कृतम्, अक्षरस्वरस्फुटकरणतो व्यक्तं, विस्वरं क्रोशतीय विपु (घुटं न विघुष्टमविपु (पु) ष्टं, मधुरखरेण गीयमानं मधुरं कोकिलारुत ३ प्रतिपत्तौ मनुष्या० वनखण्डाधि० उद्देशः १ सू० १२६ ॥ १९४ ॥ Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वत् , तालवंशखरादिसमनुगतं समं, तथा यत्स्वरघोलनाप्रकारेण ललतीव तत् सह ललितेनेति सललितं, यदिवा यच्छ्रोनेन्द्रियस्य शब्दस्पर्शनमतीव सूक्ष्ममुत्पादयति सुकुमारमिव च प्रतिभासते वत् सललितम् ॥ इदानीमेतेषामेवाष्टानां गुणानां मध्ये कियतो गुणान् अन्यच्च प्रतिपिपादयिषुराह-रत्तं तिहाणकरणसुद्ध'मित्यादि, 'रक्तं' पूर्वोक्तस्वरूपं तथा च 'त्रिस्थानकरणशुद्धं' त्रीणि स्थानानिउर:प्रभृतीनि तेषु करणेन-क्रियया शुद्धं त्रिस्थानकरणशुद्धं, तद्यथा-उरःशुद्धं कण्ठशुद्धं शिरोविशुद्ध च, तत्र यदि उरसि स्वरः स्वभूमिकानुसारेण विशालो भवति तत उरोविशुद्धं, स एव यदि कण्ठे वर्तितो भवति अस्फुटितश्च ततः कण्ठविशुद्धं, यदि पुनः शिरः प्राप्तः सन् सानुनासिको भवति ततः शिरोविशुद्ध, यदिवा यद् उर:कण्ठशिरोभिः श्लेष्मणाऽव्याकुलितैर्विशुद्धैर्गीयते तद् उरःकण्ठशिरोविशुद्धत्वानिस्थानकरणविशुद्धं, तथा सकुहरो गुञ्जन् यो वंशो यत्र तत्रीतलताललयग्रहसुसंप्रयुक्तं भवति सकुहरे वंशे गुखति तत्र्यां च वाद्यमानायां यत्तत्रीस्वरेणाविरुद्धं तत् सकुहरगुतद्वंशतन्त्रीसुसंप्रयुक्तं, तथा परस्पराहतहस्ततालस्वरानुवतिं यद् गीतं तत्तालसुसंप्रयुक्तं, यत् मुरजकंसिकादीनामातोद्यानामाहतानां यो ध्वनिर्यश्च नृत्यन्त्या नर्त्तक्याः पादोत्क्षेपस्तेन समं तत्तालसुसंप्रयुक्तं, तथा शृङ्गमयो दारुमयो वंशमयो वाऽङ्गुलिकोशस्तेनाहतायास्तत्र्याः स्वरप्रकारो लयस्तमनुसरद् गेयं लयसुसंप्रयुक्तं, तथा यः प्रथमं वंशतव्यादिभिः स्वरो गृहीतस्तन्मार्गानुसारि ग्रहसुसंप्रयुक्तं, तथा 'महर'मिति मधुरं प्राग्वत्, तथा 'सम'मिति तालवंशस्वरादिसमनुगतं समं सललितं प्राग्वद् अत एव मनोहरं, पुनः कथम्भूतम् ? इत्याह-'मउयरिभियपयसंचारं' तत्र मृदु-मृदुना वरेण युक्तं न निष्ठुरेण तथा यत्र स्वरोऽक्षरेपु-घोलनास्वरविशेषेषु संचरन् रागेऽतीव प्रतिभासते स पदसञ्चारो रिभितमुच्यते मृदुरिभितपदेपु गेयनिबद्धेपु सञ्चारो यत्र गेये तत् मृदुरिभितपदसञ्चार, तथा 'सुरई' इति शोभना रतियस्मिन् श्रोतणां तत्सुरति, तथा शोभना नतिः Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धि रचनातोऽवसाने यस्मिन् तत्सुनति, तथा वरं-प्रधानं चारु-विशिष्टचह्निमोपेतं रूपं-खरूपं यस्य तद् वरचारुरूपं 'दिव्यं प्रधानं नृत्यं 5 ३प्रतिपत्तौ । गेयं प्रगीतानां-गानानुसारध्वनिव(म)तां यादृशः शब्दोऽतिमनोहरो भवति 'स्यात्' कथञ्चिद् भवेद् एतद्रूपस्तेषां तृणानां मणीनां च ६ शब्दः १, एवमुक्ते भगवानाह-गौतम | स्यादेवंभूतः शब्द इति ॥ वनखण्डातस्सणं वणसंडस्स तत्थ तत्थ देसे २ तहिं तहिं वहवे खुड्डाखुड्डियाओ वाचीओ पुक्खरिणीओ गुंजालियाओदीहियाओ (सरसीओ) सरपंतियाओसरसरपंतीओ विलपंतीओ अच्छाओसण्हाओ उद्देशः १ रयतामयकूलाओवइरामयपासाणाओतवणिजमयतलाओ वेरुलियमणिफालियपडलपच्चोयडाओ सू० १२७ णवणीयतलाओ सुवण्णसुब्भ(ज्झ) रययमणिवालुयाओ सुहोयारासुउत्ताराओ णाणामणितित्थसुबद्धाओचारु(चउ)कोणाओ समतीराओ आणुपुब्वसुजायवप्पगंभीरसीयलजलाओसंछण्णपत्तभिसमुणालाओ बहुउप्पलकुमुयणलिणसुभगसोगंधितपोंडरीयसयपत्तसहस्सपसफुल्लकेसरोवइयाओछप्पयपरिभुजमाणकमलाओअच्छविमलसलिलपुण्णाओ परिहत्थभमंतमच्छकच्छभअणे'गसउणमिहणपरिचरिताओ पत्तेयं पत्तेयं पउमवरवेदियापरिक्खित्ताओ पत्तेयं पत्तेयं वणसंडपरिक्खित्ताओ अप्पेगतियाओ आसवोदाओ अप्पेगतियाओ वारुणोदाओ अप्पेगतियाओ खीरोदाओ अप्पेगतियाओ घओदाओ अप्पेगतियाओ [इक्खु खो(दो)दाओ (अमयरससमरसो ॥१९५॥ दाओ) अप्पेगतियाओ पगतीए उद्ग(अमय)रसेणं पण्णत्ताओ पासाइयाओ४, तासि णं खुड़ि ओ छप्पयपरि बहुउप्पलकुमुयणलिणाआणुपुब्बसुजायव Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ याणं वावीणं जाव विलपंतियाणं तत्थ २ देसे २ तहिं २जाव घहवे तिसोवाणपडिरूवगा पण्णता। तेसि णं तिसोवाणपडिरूवाणं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, संजहा-वहरामया नेमा रिट्ठामया पतिट्ठाणा वेरुलियामया खंभा सुवण्णरुप्पामया फलगा वइरामया संधी लोहितक्खमईओ सूईओ णाणामणिमया अवलंबणा अवलंबणबाहाओ॥ तेसि णं तिसोवाणपडिरूवगाणं पुरतो पत्तेयं २ तोरणा पं० ॥ ते णं तोरणा णाणामणिमयखंभेसु उवणिविट्ठसण्णिविट्ठा विविहमुत्तरोवइता विविहताराख्वोवचिता ईहामियउसभतुरगणरमगरविहगवालगकिण्णररुरुसरभचमरकुंजरवणलयपउमलयभत्तिचित्ता खंभुग्गयवइरवेदियापरिगताभिरामा विजाहरजमलजुयलजंतजुत्ताविव अचिसहस्समालणीया भिसमाणा. भिभिसमाणा चक्खुल्लोयणलेसा सुहफासा सस्सिरीयरूवा पासातिया ४॥ तेसि णं तोरणाणं उप्पिं यहवे अट्ठमंगलगा पण्णत्ता-सोत्थियसिरिवच्छणंदियावत्तवद्धमाणभद्दासणकलसमच्छदप्पणा सवरतणामया अच्छा सण्हा जाव पडिरूवा ॥ तेसि णं तोरणाणं उप्पि बहवे किण्हचामरज्झया नीलचामरज्झया लोहियचामरज्झया हारिद्दचामरज्झया सुकिल्लचामरज्झया अच्छा सण्हा रुप्पपट्टा वइरदंडा जलयामलगंधीया सुरुवा पासाइया ४॥तेसि णं तोरणाणं उप्पि बहवे छत्ताइछत्ता पडागाइपडागा घंटाजुयला चामरजुयला उप्पलहत्थया जाव सयसहस्सवत्तहत्थगा सव्वरयणामया 656256256115 Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NVE - ९३ प्रतिपत्ती मनुष्या० वनखण्डाधि० उद्देश:१ सू०१२७ - - अच्छा जाव पडिरूवा ॥ तासि णं खुड्डियाणं वावीणं जाव बिलपंतियाणं तत्थ तत्थ देसे २ तहिं तहिं बहवे उप्पायपब्वया णियइपव्वया जगतिपव्वया दारुपव्वयगा दगमंडवगा दगमंचका दगमालका दगपासायगा ऊसडा खुल्ला खडहडगा अंदोलगा पक्खंदोलगा सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा ॥ तेसु णं उप्पायपव्वतेसु जाव पक्खंदोलएसु बहवे हंसासणाई कोंचासणाई गरुलासणाई उपणयासणाई पणयासणाई दीहासणाई भद्दासणाई पक्खासणाई मगरासणाई उसभासणाई सीहासणाई पउमासणाई दिसासोवत्थियासणाई सव्वरयणामयाइं अच्छाई सण्हाइं लण्हाई घटाई मट्ठाई णीरयाई णिम्मलाई निप्पकाई निकंकडच्छायाइं सप्पभाई सम्मिरीयाई सउज्जोयाई पासादीयाई दरिसणिज्जाइं अभिरुवाइं पडिरूवाइं॥ तस्स णं वणसंडस्स तत्थ तत्थ देसे २ तहिं तहिं बहवे आलिघरा मालिघरा कयलिघरा लयाघरा अच्छणघरा पेच्छणघरा मलणघरगा पसाहणघरगा गम्भघरगा मोहणघरगा सालघरगा जालघरगा कुसमघरगा चित्तघरगा गंधव्वघरगा आयंसघरगा सव्वरयणामया अच्छा सण्हा लण्हा घट्ठा मट्ठा णीरया णिम्मला णिप्पंका निकंकडच्छाया सप्पभा सम्मिरीया सउज्जोया पासादीया दुरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा ॥ तेसु णं आलिघरएसु जाव आयंसघरएसु बहूई हंसासणाइं जाव दिसासोवत्थियासणाई सव्वरयणामयाई जाव पडिरूवाइं॥ तस्स णं वणसंडस्स तत्थ तत्थ देसे २ तहिं ॥१९६॥ Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तहिं बहवे जाइमंडवगा जूहियामंडवगा मल्लियामंडवगा णवमालियामंडवगा वासंतीमंडवगा दधिवासुयामंडवगा सूरिल्लिमंडवगा तंबोलीमंडवगा मुद्दियामंडवगा णागलयामंडवगा अतिमुत्तमंडवगा अप्फोतामंडवगा मालुयामंडवगा सामलयामंडवगा णिचं कुसुमिया णिचं जाव पडिरूवा ॥ तेसु णं जातीमंडवएसु बहवे पुढविसिलापट्टगा पण्णत्ता, तंजहा-हंसासणसंठिता कोंचासणसंठिता गरुलासणसंठिता उणयासणसंठिता पणयासणसंठिता दीहासणसंठिता भद्दासणसंठिता पक्खासणसंठिता मगरासणसंठिता उसभासणसंठिता सीहासणसंठिता पउमासणसंठिता दिसासोत्थियासणसंठिता पं०, तत्थ वहवे वरसयणासणविसिहसंठाणसंठिया पण्णत्ता समणाउसो! आइण्णगरूयबूरणवणीततूलफासा मज्या सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा । तत्थ णं बहवे वाणमंतरा देवा देवीओ य आसयंति सयंति चिट्ठति णिसीदति तुयइंति रमंति ललंति कीलंति मोहंति पुरापोराणाणं सुचिण्णाणं सुपरिकंताणं सुभाणं कल्लाणाणं कडाणं कम्माणं कल्लाणं फलवित्तिविसेसं पच्चंणुभवमाणा विहरंति ॥ तीसे णं जगतीए उप्पि अंतो पउमवरवेदियाए एत्थ णं एगे महं वणसंडे पण्णत्ते देसूणाई दो जोयणाई विक्खंभेणं वेड्यासमएणं परिक्खेवेणं किण्हे किण्होभासे वणसंडवण्णओ (मणि)तणसद्दविहूणो णेयव्यो, तत्थ णं बहवे वाणमंतरा देवा देवीओ य आसयंति सयंति चिट्ठति णिसीयंति तुयति रमंति Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 * ३ प्रतिपत्ती मनुष्या० वनखण्डाधि० उद्देशः१ सू०१२७ CRIGANGANGANAGAR ललंति कीडंति मोहंति पुरा पोराणाणं सुचिण्णाणं सुपरिवंताणं सुभाणं कंताणं कम्माणं कल्लाणं फलवित्तिविसेसं पचणुभवमाणा विहरंति ॥ (सू०१२७) 'तस्स णं वणसंडस्से'त्यादि, तस्य णमिति वाक्यालङ्कारे वनखण्डस्य मध्ये तत्र तत्र देशे तस्यैव देशस्य तत्र तत्रैकदेशे 'बहईओ इति बल्लथः 'खुद्धा खुडियाओ' इति क्षुल्लिकाः क्षुल्लिका लघवो लघव इत्यर्थः, 'वाप्यः' चतुरस्राकाराः 'पुष्करिण्यः' वृत्ताकाराः अथवा पुष्कराणि विद्यन्ते यासु ताः पुष्करिण्यः 'दीर्घिकाः' सारिण्यस्ता एव वका गुजालिकाः, बहूनि केवलकेवलानि पुष्पावकीर्ण कानि सरांसि, सूत्रे स्त्रीत्वं प्राकृतत्वात् , बहूनि सरांसि एकपश्या व्यवस्थितानि सर:पतिस्ता वयः सरःपतयः, तथा येषु सरस्सु है पतथा व्यवस्थितेषु कूपोदकं प्रणालिकया संचरति सा सरःसरःपतिस्ता बहयः सरःसरःपतयः, तथा बिलानीव बिलानि-कूपो* स्तेषां पतयो बिलपतयः, एताश्च सर्वा अपि. कथम्भूताः ? इत्याह-'अच्छा' स्फटिकवद्वहिनिर्मलप्रदेशा: 'लक्षणाः' श्लक्ष्णपुद्गलनि६ ष्पादितबहिःप्रदेशाः, तथा रजतमयं-रूप्यमयं कूलं यासां ता रजतमयकूलाः, तथा समं-अगrसद्भावतोऽविषमं तीरं तीरावर्तिज लापूरितं स्थानं यासां ता: समतीराः, तथा वनमया: पाषाणा यासां ता वनमयपाषाणाः, तथा तपनीयं-हेमविशेषस्तपनीयं-तपनीयमयं तलं-भूमितलं यासा तास्तपनीयतलाः, तथा 'सुवण्णसुज्झरययवालुयाओ' इति सुवर्ण-पीतकान्तिहेम सुझं-रूप्यविशेष: रजतं-प्रतीतं तन्मय्यो वालुका यासु ताः सुवर्णसुज्झरजतवालुकाः, 'वेरुलियमणिफालिहपडलपच्चोयडाओ यत्ति वैडूर्यमणिमयानि स्फाटिकपटलमयानि प्रत्यवतटानि तटसमीपवर्तिनोऽत्युन्नतप्रदेशा यासां ता वैडूर्यमणिस्फटिकपटलप्रत्यवतटाः 'सुहोयारासुउत्तारा' इति सुखेनावतारो-जलमध्ये प्रवेशनं यासु ताः स्ववताराः तथा सु-सुखेन उत्तारो-जलमध्यावहिर्विनिर्गमनं यासु ताः । ॥१९७॥ Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुखोत्ताराः ततः पूर्वपदेन विशेषणसमास: 'नाणामार्णतित्थसुबद्धाओ' इति नानामणिभिः - नानाप्रकारैर्मणिभिस्तीर्थानि सुबद्धानि यासां ता नानामणितीर्थसुबद्वा:, अत्र बहुव्रीहावपि कान्तस्य परनिपातो भार्यादिदर्शनात्प्राकृतशैलीवशाद्वा, 'चउक्कोणाओ' इति चत्वारः कोणा यस्यां सा चतुष्कोणाः एतच्च विशेषणं वापीः कूपांश्च प्रति द्रष्टव्यं तेषामेव चतुष्कोणत्वसम्भवात् न शेषाणां, तथा आनुपूर्वेण - क्रमेण नीचैर्नीचैस्तरभावरूपेण सुष्ठु - अतिशयेन यो जातो वप्रः - केदारो जलस्थानं तत्र गम्भीरं - अलब्धस्थानं शीतलं ' जलं यासु ता आनुपूर्व्य सुजातवप्रगम्भीर शीतलजला: 'संछण्णपत्तभिसमुणालाओ' संछन्नानि - जलेनान्तरितानि पत्रविमृणालानि यासु ताः संछन्नपत्र बिसमृणाला:, इह बिसमृणालसाहचर्यात्पत्राणि - पद्मिनीपत्राणि द्रष्टव्यानि, बिसानि - कन्दा मृणालानि - पद्मनालाः, तथा बहुभिरुत्पलकुमुदन लिनसुभगसौगन्धिकपुण्डरीकशतपत्रसहस्रपत्र केसरफुल्लोपचिताः, तथा षट्पदैः - भ्रमरैः परिभुज्यमानानि कमलानि उपलक्षणमेतत् कुमुदादीनि च यासु ताः षट्पदपरिभुज्यमानकमलाः, तथाऽच्छेन - स्वरूपतः स्फटिकवच्छुद्धेन विमलेन - आगन्तुकमलरहितेन सलिलेन पूर्णा अच्छविमलसलिलपूर्णा:, तथा 'पंडिहत्था' अतिरेकिता: अतिप्रभूता इत्यर्थः " पडिहत्थमुद्धुमायं अहिरेइयं च जाण आउ” इति वचनात् उदाहरणं चात्र- "घणपडिहत्थं गयणं सराई नवसलिलसुङ ( उछु ) मायाई । अहिरेइयं महं उण चिंताएँ मणं तुहं विरहे ॥ १ ॥” इति भ्रमन्तो मत्स्यकच्छपा यत्र ताः पडिहत्यभ्रमन्मत्स्यकच्छपाः, तथाऽनेकैः - शकुन मिथु | नकैः प्रविचरिता - इतस्ततो गमनेन सर्वतो व्याप्ता अनेकशकुनमिथुनकप्रविचरिताः, ततः पूर्वपदेन विशेषणसमासः, एता वाप्यादयः सरस्सरःपङ्क्तिपर्यवसानाः प्रत्येकं प्रत्येकमिति, एकमेकं प्रति प्रत्येकम्, अन्त्राभिमुख्ये प्रतिशब्दो न वीप्साविवक्षायां पञ्चात्प्रत्येकशब्दस्य द्विर्वचनमिति, पद्मवर वेदिकया परिक्षिप्ताः प्रत्येकं वनपण्डपरिक्षिप्ताञ्च 'अप्पेगतियाओ' इत्यादि, अपिर्वाढार्थे बाढमेककाः - काञ्चन Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर वाप्यादय आसवमिय-चन्द्रहासादिपरमासवमिव उदकं यासां ता आसबोदकाः, अप्येकका वारुणस्य वारुणसमुद्रस्येव उदकं यासां । ३ प्रतिपत्ती ता वारुगोदकाः, अप्येककाः क्षीरमिवोदकं यास ताः क्षीरोदकाः, अप्येकका घृतमिवोदकं यासां ता घृतोदकाः, अप्येककाः क्षोद मनुष्या० 8 इव-इक्षुरस इव उदकं यास ताः क्षोदोदकाः, अप्येकका अमृतरससमरसमुदकं यासां ता अमृतरससमरसोदकाः, अप्येकका अमृत-४ वनखण्डारसेन स्वाभाविकेन प्रज्ञप्ताः, 'पासाईया(ओ)' इत्यादि विशेषणचतुष्टयं प्राग्वत् , तासां क्षुल्लिकानां यावद्विलपतीनां प्रत्येकं २ चतुर्दिशि है धि० चत्वारि, एकैकस्यां दिशि एकैकभावात् , 'त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि' प्रतिविशिष्टं रूपं येषां तानि प्रतिरूपकाणि त्रयाणां सोपानानां उद्देशः १ समाहारनिसोपानं त्रिसोपानानि च तानि प्रतिरूपकाणि चेति विशेपणसमासः, विशेषणस्य परनिपातः प्राकृतत्वात् , तानि प्रज्ञप्ता नि, 8 सू० १२७ तेषां च त्रिसोपानप्रतिरूपकाणाम् 'अयं वक्ष्यमाण: 'एतद्रूपः' अनन्तरं वक्ष्यमाणखरूपः 'वर्णावासः' वर्णकनिवेशः प्रज्ञप्तः, तद्यथा , -'वज्रमयाः' वनरत्नमया 'नेमाः' भूमेरू निष्क्रामन्तः प्रदेशाः 'रिष्ठमयाः' रिष्ठरत्नमया: 'प्रतिष्ठाना' त्रिसोपानमूलपादा वै-* डूर्यमयाः स्तम्भाः सुवर्णरूप्यमयानि फलकानि-त्रिसोपानाङ्गभूतानि वज्रमयानि वज्ररत्नापूरिताः सन्धयः-फलकद्वयापान्तरालप्रदेशाः लोहिताक्षमय्यः सूच्या-फलकद्वयसम्बन्धविघटनाभावहेतुपादुकास्थानीयाः नानामणिमया अवलम्व्यन्ते इति अवलम्बना-अवतरता* मुत्तरतां चालम्बने हेतुभूता अवलम्बनबाहातो विनिर्गताः केचिदवयवाः 'अवलंबणवाहाओ' इति अवलम्बनबाहा अपि नानामणिमयाः, अवलम्बनबाहा नाम उभयोः उभयोः पार्श्वयोरवलम्बनाश्रयभूता भित्तयः, 'पासाईयाओ' इत्यादि पदचतुष्टयं प्राग्वत् ॥ 'तेसि ण'मित्यादि, तेषां त्रिसोपानप्रतिरूपकाणां प्रत्येक प्रत्येक तोरणानि प्रज्ञप्तानि, तेपां च तोरणानामयमेतद्रूपो 'वर्णावासः' वर्णक निवेश:* ॥१९८॥ प्रज्ञप्तः, तद्यथा-ते.ण तोरणा नाणामणिमया' इत्यादि, तानि तोरणानि नानामणिमयानि, मणय:-चन्द्रकान्तादयः, विविधम Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ASSES णिमयानि, नानामणिमयेषु स्तम्भेषु "उपविष्टानि' सामीप्येन स्थितानि, तानि च कदाचिञ्चलानि अथवाऽपदपतितानि वाऽऽशङ्कयरन तत आह-सम्यग-निश्चलतयाऽपदपरिहारेण च निविष्टानि ततो विशेषणसमासः उपविष्टसन्निविष्टानि 'विविहमुत्तरोचिया' इति विविधा-विविधविच्छित्तिकलिता मुक्का-मुक्ताफलानि 'अंतरे'ति अन्तराशब्दोऽगृहीतवीप्सोऽपि सामर्थ्याद्वीप्सां गमयति, अन्तरा २ 'ओचिया' आरोपिता यत्र तानि तथा, 'विविहतारारूवोवचिया' इति विविधैस्तारारूपैः-तारिकारूपैरुपचितानि, तोरणेपु हि शोभार्थ तारका निबध्यन्ते इति लोकेऽपि प्रतीतं इति विविधतारारूपोपचितानि, 'ईहामिगउसभतुरगनरमगरविहगवालगकिंनररुरुसरभचमरकुंजरवणलयपउमलयभत्तिचित्ता' इति इहामृगा-वृका व्याला:-श्वापद जगाः, ईहामृगऋषभतुरगनरमकरविहगव्यालकिनररुरुसरभकुसरवनलतापनलतानां भत्त्या-विच्छित्त्या विचित्रं-आलेखो येषु तानि तथा, स्तम्भोद्गताभि:-स्तम्भोपरिवतिनीभिर्वरत्नमयीभिर्वेदिकाभिः परिगतानि सन्ति यानि अभिरमणीयानि तानि स्तम्भोगतवनवेदिकापरिगताभिरामाणि, तथा 'वि जाहरजंतजुत्ताविव अञ्चीसहस्समालिणीया' इति विद्याधरयोर्यद् यमलं-समश्रेणीकं युगलं-द्वन्द्वं विद्याधरयमलयुगलं तेपां कायनामि-अपश्चास्तैर्युक्तानीव, अर्चिषां सहस्रर्मालनीयानि-परिवारणीयानि अर्चिःसहस्रमालनीयानि, किमुक्तं भवति ?-एवं नाम प्रभा समुदायोपेतानि येनैवं संभावनोपजायते यथा नूनमेतानि न स्वाभाविकप्रभासमुदयोपेतानि किन्तु विशिष्टविद्याशक्तिमत्पुरुषविशेषप्रपञ्चयुमाकानीति, 'रूवगसहस्सकलिया' इति रूपकाणां सहस्राणि रूपकसहस्राणि तैः कलितानि रूपकसहस्रकलितानि 'भिसमाणा'इति दीप्यमादानानि 'भिन्भिसमाणा' इति भतिशयेन दीप्यमानानि चक्खल्लोयणलेसा' इति चक्षुः कर्तृ लोकने-अवलोकने लिसतीव-दर्शनीयत्वाति सयतः लिष्यतीव यत्र तानि बक्षुलोकनलेसानि 'सुहफासा' इति शुभस्पर्शानि सशोभाकानि रूपाणि यत्र तानि सश्रीकरूपाणि, Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'पासाइया' इत्यादि विशेषणचतुष्टयं प्राग्वत् ॥ 'तेसिं तोरणाणं उवरिं अट्ठमंगले'त्यादि सुगम, नवरं 'जाव पडिरूवा' इति यावत्क- ३ प्रतिपत्ती रणात् 'घट्टा मट्ठा नीरया' इत्यादिपरिग्रहः॥ तेसि णमित्यादि, तेषां तोरणानामुपरि बहवः 'कृष्णचामरध्वजाः' कृष्णचामरयुक्ता ध्वजाः मनुष्या० -कृष्णचामरध्वजाः एवं वहवो नीलचामरध्वजा लोहितचामरध्वजा हारिद्रचामरध्वजाः शुरुचामरध्वजाः, कथम्भूता इत्याह एते सर्वे-8 विजयद्वाऽपि? इति, अत आह-'अच्छा' आकाशस्फटिकवदतिनिर्मला: "कृष्णा कृष्णपुद्गलस्कन्धनिर्मापिता 'रूप्यपट्टा' इति रूप्यो- राधिक न येषां ते वन- रूप्यमयो वनमयस्य दण्डस्योपरि पट्टो येपां ते रूप्यपट्टाः 'वइरदंडा' इति वसो-वज्ररत्नमयो दण्डो रूप्यपट्टमध्यवर्ती येषां ते वन उद्देशः १ दण्डाः, तथा जलजानामिव-जलजकुसुमानां पद्मादीनामिवामलो-निर्मलो न तु कुद्रव्यगंधसम्मिश्रो यो गन्धः स विद्यते येषां ते ज-8 सू० १२७ लजामलगन्धिका 'अत: अनेकस्वरा'दितीकप्रत्ययः, अत एव सुरम्याः, 'पासादीया' इत्यादि विशेषणचतुष्टयं प्राग्वत् ॥ 'तेसि णमित्यादि, ८ तेषां तोरणानामुपरि बहूनि 'छत्रातिच्छत्राणि' छत्रात्-लोकप्रसिद्धादेकसयाकादतिशायीनि द्विसहयानि त्रिसङ्यानि वा छत्रातिच्छत्राणि, बयः पताकाभ्यो-लोकप्रसिद्धाभ्योऽतिशायिन्यो दीर्घवेन विस्तारेण च पताकाः पताकातिपताकाः, बहूनि घण्टायुगलानि बहूनि चामरयु। गलानि बहवः 'उत्पलहस्तका' उत्पलाख्यजलजकुसुमसमूहविशेपाः, एवं पद्महस्तका बहवो नलिनहस्तका बहवः सुभगहस्तका बहवः है सौगन्धिकहस्तका वहवः पुण्डरीकहस्तका बहवः शतपत्रहस्तका: बहवः सहस्रपत्रहस्तकाः, उत्पलादीनि प्रागेव व्याख्यातानि, एतं च छत्रा तिच्छत्रादयः सर्वेऽपि सर्वरत्नमया: 'जाव पडिरूवा' इति यावत्करणात् 'अच्छा सण्हा लण्हा' इत्यादि विशेपणकदम्बकपरिप्रहः॥ , 'तासिण'मित्यादि, तासां क्षुल्लिकानां वापीनां यावद्विलपङ्कीनाम्, अत्र यावच्छब्दात् पुष्करिण्यादिपरिग्रहः, अपान्तरालेषु तत्र तत्र देश ६ ॥१९९॥ तस्यैव देशस्य तत्र तत्रैकदेशे वड्व उत्सातपर्वता-यत्रागत्य बहवो व्यन्तरदेवा देव्यश्च विचित्रक्रीडानिमित्तं वैक्रियशरीरमारचयन्ति OMGAOSECSCAMGAM Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'नियइपव्वया' इति नियत्या-नयत्येन पर्वता नियतिपर्वताः, कचित् 'निययपव्वया' इति पाठस्तत्र नियता:-सदा भोग्यत्वेनावस्थिताः पर्वता नियतपर्वताः, यत्र वानमन्तरा देवा देव्यश्च भवधारणीयेन वैक्रियशरीरेण प्रायः सदा रममाणा अवतिष्ठन्ते इति भावः, 'जगतीपर्वतकाः' पर्वतविशेषाः 'दारुपर्वतकाः'दारुनिर्मापिता इव पर्वतकाः 'दगमंडवगा' इति 'दकमण्डपका' स्फटिकमण्डपकाः, उक्तं च मूलटीकायां-"दकमण्डपकाः स्फाटिकमण्डपका" इति, एवं दकमञ्चका दकमालका दकप्रासादाः, एते च दकमण्डपादयः केचित् 'ऊसडा' इति उत्सृता उच्चा इत्यर्थः, केचित् 'खुट्टा' इति क्षुल्ला लघव: कचित् 'खडख(ह)डगा' इति लघव आ| यताश्च, तथा अन्दोलकाः पक्ष्यन्दोलकाश्च, तत्र यत्रागत्य मनुष्या आसानमन्दोलयन्ति ते अन्दोलका इति लोके प्रसिद्धाः, यत्र तु पक्षिण आगत्यामानमन्दोलयन्ति ते पक्ष्यन्दोलकाः, ते चान्दोलकाः पक्ष्यन्दोलकाश्च तस्मिन् वनषण्डे तत्र तत्र प्रदेशे वानमन्तरदेवदेवीक्रीडायोग्या बहवः सन्ति, ते चोत्पातपर्वतादयः कथम्भूता: ? इत्याह-'सर्वरत्नमयाः' सर्वात्मना रत्नमयाः, 'अच्छा सण्हा' इ| त्यादि विशेषणजातं पूर्ववत् ॥'तेसु णमित्यादि, तेषु उत्पातपर्वतेपु यावत्पक्ष्यन्दोलकेषु, यावत्करणान्नियतिपर्वतकादिपरिग्रहः, वहूनि 5. हंसासनानि तत्र येषामासनानामधोभागे हंसा व्यवस्थिता यथा सिंहासने सिंहाः तानि हंसासनानि, एवं क्रौञ्चासनानि गरुडा विनीयानि, उन्नतासनानि नाम यानि उच्चासनानि प्रणतासनानि-निम्नासनानि दीर्घासनानि-शय्यारूपाणि भद्रासनानि येषामधोभागे पीठिकाबन्धः पक्ष्यासनानि येपामधोभागे नानाखरूपाः पक्षिणः, एवं मकरासनानि सिंहासनानि च भावनीयानि, पद्मासनानि-पद्माकाराणि आसनानि 'दिसासोवत्यियासणाणि' येपामधोभागे दिक्सौवस्तिका आलिखिताः सन्ति, अन यथाक्रममासनानां सङ्घाहिका सङ्ग्रहणिगाथा-"हंसे १ कोंचे २ गरुडे ३ उण्णय ४ पणए य ५ दीह ६ भदे य ७ । पक्खे ८ मयरे ***SOORSES Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 तथा वर्तन्त इति भावः 'क्रीडन्ति' यथासुखमितस्ततो गमनविनोदेन गीतनृत्यादिविनोदेन वा तिष्ठन्ति 'मोहन्ति' मैथुनसेवां कुर्वन्ति, ३ प्रतिपत्तों इत्येवं 'पुरा पोराणाग'मित्यादि, 'पुरा' पूर्व प्राग्भवे इति भावः कृतानां कर्मणामिति योगः, अत एव पौराणानां सुचीर्णानां-सुच- मनुष्या० रितानामितिभावः, इह सुचरितजनितं कापि कार्ये कारणोपचारात्सुचरितमिति विवक्षितं, ततोऽयं भावार्थ:-विशिष्टतथाविधधानु विजयद्वाष्ठानविषयाप्रमादकरणक्षान्त्यादिसुचरितानामिति, तथा सुपराक्रान्तानाम् , अत्रापि कारणे कार्योपचारात् सुपराक्रान्तजनितानि कर्मण्येव राधि० सुपराक्रान्तानि इत्युक्तं भवति, सकलसत्त्वमैत्रीसत्यभापणपरद्रव्यानपहारसुशीलादिरूपसुपराक्रमजनितानामिति, अत एव शुभानांशुभफलानाम् , इह किञ्चिदशुभफलमपीन्द्रियमतिविपर्यासात् शुभफलमाभाति ततस्तात्त्विकशुभत्वप्रतिपत्त्यर्थमस्यैव पर्यायशब्दमाह- सू० १२७ 'कल्याणानां' तत्त्ववृत्त्या तथाविधविशिष्टफलदायिनाम्, अथवा कल्याणानाम्-अनर्थोपशमकारिणां, कल्याणं-कल्याणरूपं फलविपाकं 'पच्चणुभवमाणा' प्रत्येकमनुभवन्त:-'विहरन्ति' आसते ।। तदेवं पद्मवरवेदिकाया बहियों वनखण्डस्तद्वक्तव्यतोक्ता, सम्प्रति तस्या एव पद्मवरवेदिकाया अर्वाग् जगत्या उपरि यो वनखण्डस्तद्वक्तव्यतामभिधित्सुराह-'तीसे णं जगतीए' इत्यादि, तस्या जगत्या उपरि पद्मवरवेदिकाया 'अन्तः' मध्यभागे अत्र महानेको वनपण्डः प्रज्ञप्तः 'देसोणाई दो जोयणाई विक्खंभेण'मित्यादि सर्व बहिर्वनखण्डवद विशेषेण वक्तव्यं, नवरमत्र मणीना तृणानां च शब्दो न वक्तव्यः, पद्मवरवेदिकान्तरिततया तथाविधवाताभावतो मणीनां तृणानां च चलनाभावत: परस्परसंघर्पाभावात् , तथा चाह-"वणसंडवण्णतो सहवज्जो जाव विहरति" इति । सम्प्रति जम्बूद्वीपस्य द्वारसङ्ख्याप्रतिपादनार्थमाह-- ॥२०१॥ जंबुद्दीवस्स णं भंते! दीवस्स कति दारा पण्णता? गोयमा! चत्तारि दारा पण्णत्ता, तंजहा -MASANCHAR Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SASSA विजये वेजयंते जयंते अपराजिए ॥(सू० १२८) कहि णं भंते! जंबुद्दीवस्स दीवस्स विजये नाम दारे पण्णत्ते ?, गोयमा! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरथिमेणं पणयालीसं जोयणसहस्साई अबाधाए जंबुद्दीवे दीवे पुरच्छिमपेरंते लवणसमुद्दपुरच्छिमद्धस्स पञ्चत्थिमेणं सीताए महाणदीए उप्पिं एत्थ णं जंबुद्दीवस्स दीवस्स विजये णामं दारे पण्णत्ते अह जोयणाई उडे उच्चत्तेणं चत्तारि जोयणाइं विक्खंभेणं तावतियं चेव पवेसेणं सेए वरकणगथूभियागे ईहामियउसभतुरगनरमगरविहगवालगकिण्णररुरुसरभचमरकुंजरवणलतपउमलयभत्तिचित्ते खंभुग्गतवइरवेदियापरिगताभिरामे विजाहरजमलजुयलजंतजुत्ते इव अचीसहस्समालिणीए रूवगसहस्सकलिते भिसिमाणे भिभिसमाणे चक्खुल्लोयणलेसे सुहफासे सस्सिरीयरूवे वण्णो दारस्स (तस्सिमो होइ) तं०-वहरामया णिम्मा रिटामया पतिट्ठाणा वेरुलियामया खंभा जायख्वोवचियपवरपंचवण्णमणिरयणकोहिमतले हंसगम्भमए एलुए गोमेजमते इंदक्खीले लोहितक्खमईओ दारचिडाओ जोतिरसामते उत्तरंगे वेरुलियामया कवाडा वइरामया संधी लोहितक्खमईओ सूईओ णाणामणिमया समुग्गगा वईरामई अग्गलाओ अग्गलपासाया वइरामई आवत्तणपेढिया अंकुत्तरपासते णिरंतरितघणकवाडे भित्तीसु चेव भित्तीगुलिया छप्पण्णा तिणि होति गोमाणसी तत्तिया णाणामणिरयणवालख्वगलीलट्ठियसालिभंजिया वइरामए कूडे रययामए उ Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ प्रतिपचौ मनुष्या० विजयद्वा राधिक उद्देशः१ सू० १२८ में स्सेहे सव्वतवणिजमए उल्लोए णाणामणिरयणजालपंजरमणिवंसगलोहितक्खपडिवंसगरयतभोम्मे अंकामया पक्खयाहाओ जोतिरसामया वंसा वंसकवेल्लगा य रयतामयी पहिताओ जायरूवमती ओहाडणी वइरामयी उवरि पुच्छणी सव्वसेतरययमए च्छायणे अंकमतकणगकूडतवणिजथूभियाए सेते संखतलविमलणिम्मलदधिघणगोखीरफेणरययणिगरप्पगासे तिलगरयणद्धचंदचित्ते णाणामणिमयदामालंकिए अंतो य बहिं च सण्हे तवणिज्जरुइलवालुयापत्थडे सुहफासे सस्सिरीयरूवे पासातीए ४॥ विजयस्स णं दारस्स उभयो पासिं दुहतो णिसीहियाते दो दो चंदणकलसपरिवाडीओ पण्णत्ताओ, ते णं चंदणकलसा वरकमलपइट्टाणा सुरभिवरवारिपडिपुण्णा चंदणकयचच्चागा आबद्धकंठेगुणा पउमुप्पलपिहाणा सव्वरयणामया अच्छा सण्हा जाव पडिरूवा महता महता महिंदकुंभसमाणा पण्णत्ता समणाउसो!॥ विजयस्स णं दारस्स उभओ पासिं दुहतो णिसीहिआए दो दो णागदंतपरिवाडीओ, तेणं णागदंतगा मुत्ताजालंतरूसितहेमजालगवक्खजालखिखिणीघंटाजालपरिक्खित्ता अन्भुग्गता अभिणिसिट्ठा तिरियं सुसंपगहिता अहेपण्णगद्धरूवा पण्णगद्धसंठाणसंठिता सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा महता महया गयदंतसमाणा प० समणाउसो! ॥ तेसु णं णागदंतएK बहवे किण्हसुत्तबद्धवग्घारितमल्लदामकलावा जाव सुकिल्लसुत्तबद्धवग्धारियमल्लदामकलावा ॥ ते णं दामा तवणिज्जलंबूसगा .COM CHERS ॥२०२॥ K44 Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुवण्णपतरगमंडिता णाणामणिरयणविविधहारद्धहार (उवसोभितसमुदया) जाव सिरीए अतीव अतीव उवसोभेमाणा उवसोभेमाणा चिट्ठति ॥ तेसि णं णागदंतकाणं उवरि अण्णाओ दो दो णागदंतपरिवाडीओ पण्णत्ताओ, तेसि णं णागदंतगाणं मुत्ताजालंतरूसिया तहेव जाव समणाउसो! । तेसु णं णागदंतएसु बहवे रयतामया सिक्कया पण्णत्ता, तेसु णं रयणामएसु सिक्कएसु यहवे वेरुलियामतीओ धूवघडीओ पण्णत्ताओ, तंजहा ताओ णं धूवघडीओ कालागुरुपवरकुंदरुक्कतुरुकधूवमघमघंतगंधुद्धयाभिरामाओ सुगंधवरगंधगंधियाओ गंधवहिभूयाओ ओरालेणं मणुण्णेणं घाणमणणिचुइकरेणं गंधेणं तप्पएसे सव्वतो समंता आपूरेमाणीओ आपूरेमाणीओ अतीव अतीव सिरीए जाव चिट्ठति ॥ विजयस्स णं दारस्स उभयतो पासिं दुहतो णिसीधियाए दो दो सालिभंजियापरिवाडीओ पण्णत्ताओ, ताओ णं सालभंजियाओ लीलहिताओ सुपयट्टियाओ सुअलंकिताओ णाणागारवसणाओ णाणामल्लपिणहि(द्धि)ओ मुट्ठीगेज्झमज्झाओ आमेलगजमलजुयलवद्दिअन्भुण्णयपीणरचियसंठियपओहराओ रत्तावंगाओ असियकेसीओ मिदुविसयपसत्थलक्खणसंवेल्लितग्गसिरयाओ ईसिं असोगवरपादवसमुट्टिताओ वामहत्थगहितग्गसालाओ इसिं अडच्छिकडक्वविद्धिएहिं लूसेमाणीतो इव चक्खुल्लोयणलेसाहिं अण्णमणं खिजमाणीओ इव पुढविपरिणामाओ सासयभावमुव Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ प्रतिपत्त मनुष्या० विजयद्वा. राधि० उद्देशः१ सू० १२९ गताओ चंदाणणाओ चंदविलासिणीओ चंद्वसमनिडालाओ चंदाहियसोमदंसणाओ उक्का इव उज्जोएमाणीओ विजुघणमरीचिसूरदिपंततेयअहिययरसंनिकासाओ सिंगारागारचारवेसाओ पासाइयाओ ४ तेयसा अतीव अतीव सोभेमाणीओ सोभेमाणीओ चिट्ठति ॥ विजयस्स णं दारस्स उभयतो पासिं दुहतो णिसीहियाए दो दो जालकडगा पण्णत्ता, ते णं जालकडगा सब्बरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा॥ विजयस्सणं दारस्स उभओपासिं दुहओ णिसीधियाए दो दो घंटापरिवाडिओ पण्णत्ताओ, तासि णं घंटाणं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तंजहा–जंबूणतमतीओ घंटाओ वइरामतीओ लालाओ णाणामणिमया घंटापासगा तवणिज्जमतीओ संकलाओ रयतामतीओ रजुओ ॥ ताओ णं घंटाओ ओहस्सराओ मेहस्सराओ हंसस्सराओ कोंचस्सराओ णंदिस्सराओ णंदिघोसाओ सीहस्सराओ सीहyोसाओ मंजुस्सराओ मंजुघोसाओ सुस्सराओ सुस्सरणिग्घोसाओ ते पदेसे ओरालेणं मगुण्णेणं कण्णमणनिव्वुइकरेण सद्देण जाव चिट्ठति ॥ विजयस्स णं दारस्स उभओपासिं दुहतो णिसीधिताए दो दो वणमालापरिवाडीओ पपणत्ताओ, ताओ णं वणमालाओ णाणादुमलताकिसलयपल्लवसमाउलाओ छप्पयपरिभुज्जमाणकमलसोभंतसस्सिरीयाओ पासाईयाओ ते पएसे उरालेणं जाव गंघेणं आपूरेमाणीओ जाव चिट्ठति (सू०१२९)॥ ॥२०३॥ Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'जंबुद्दीवस्स णं भंते।' इत्यादि, जम्बूद्वीपस्य णमिति प्राग्वत् भदन्त! द्वीपस्य कति द्वाराणि प्रज्ञप्तानि ?, भगवानाह-गौतम! चत्वारि द्वाराणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-विजयं वैजयन्तं जयन्तमपराजितं च ॥'कहिणं भंते!' इत्यादि, क भदन्त! जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य विजयं नाम द्वारं प्रज्ञप्तं ?, भगवानाह-गौतम जम्बूद्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य 'पुरच्छिमेणं'ति पूर्वस्यां दिशि पञ्चचत्वारिंशदुःयोजनसहस्रप्रमाणया 'अवाधया' अपान्तरालेन यो जम्बूद्वीपस्य "पुरच्छिमे पेरंते' इति पूर्वः पर्यन्तो लवणसमुद्रपूर्वार्द्धस्य 'पञ्चत्थिमेणं ति पश्चिमे भागे शीताया महानद्या उपरि 'अत्र' एतस्मिन् प्रदेशे जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य विजयं नाम द्वारं प्रज्ञप्तम्, अष्टौ योजनानि उच्चस्त्वेन चत्वारि योजनानि विष्कम्भेन, 'तावइयं चेव पवेसेणं ति तावन्त्येव चत्वारीत्यर्थः योजनानि प्रवेशेन, कथम्भूतमित्यर्थः, 'सेए' इत्यादि, 'श्वेतं' श्वेतवर्णोपेतं वाहल्येनाङ्करत्नमयत्वात् 'वरकणगथूभियाएं' इति वरकनका-वरकनकमयी स्तूपिका-शिखरं यस्य तद् वरकनकस्तूपिकाकम् , 'ईहामियउसभतुरगनरमगरविहगवालगकिन्नररुरुसरभचमरकुंजरवणलयपउमलयभत्तिचित्ते खंभुग्गयवरवेइयापरिगयाभिरामे विजाहरजमलजुगलजंतजुत्ते इव अच्चीसहस्समालणीए रूवगसहस्सकलिए भिसमाणे भि-15 भिसमाणे चक्खुल्लोयणलेसे सुहफासे सस्सिरीयस्वे' इति विशेषणजातं प्राग्वत् । 'वण्णो दारस्स तस्सिमो होइ' इति 'वर्णः वर्णकनिवेशो द्वारस्य 'तस्य' विजयाभिधानस्य 'अयं वक्ष्यमाणो भवति, तमेवाह-तंजहे'त्यादि, तद्यथा-वनमया नेमाभागादूद्ध निष्कामन्त: प्रदेशा रिष्ठमयानि प्रतिष्ठानानि-मूलपादाः 'वेरुलियरुइलखंभे' इति वैडूर्या-वैडूर्यरत्नमया रुचिराः स्तम्भा यस्य तद् वैडूर्यरुचिरस्तम्भं 'जायरूवोवचियपवरपंचवण्णमणिरयणकुट्टिमतले' इति जातरूपेण-सुवर्णेनोपचितैः-युक्तैः प्रवरैः |-प्रधानैः पञ्चवर्णैर्मणिभिः-चन्द्रकान्तादिभिः रत्नैः-कर्केतनादिभिः कुट्टिमतलं-बद्धभूमितलं यस्य तत्तथा 'हंसगब्भमए एलुगे। Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CON UHAGRAASHISHTRA तिसगर्भो-रमविशेषस्तन्मय एलुको-देहली 'गोमेज्जमयइंदकीले' इति गोमेयकरत्नमय इन्द्रकीलो लोहिताक्षरत्रमय्यौ द्वार-६ ३प्रतिपत्ती पिण्डौ(चेट्यौ)-द्वारशाखे 'जोइरसामए उत्तरंगे' इति ज्योतीरसमयमुत्तरङ्ग-द्वारस्योपरि तिर्यगव्यवस्थितं काष्ठं वैडूर्यमयो कपाटौ मनुष्या० लोहिताक्षमय्यो-लोहिताक्षरत्नालिकाः सूचय:-फलकद्वयसम्बन्धविघटनाभावहेतुपादुकास्थानीयाः 'वइरामया संधी' वनमयाः 'स- विजयद्वान्धयः' सन्धिमेलाः फलकानां, किमुक्तं भवति ?-वरत्नापूरिताः फलकानां सन्धयः, 'नानामणिमया समुग्गया' इति समुद्गका राधि० इव समुद्का:-सूतिकागृहाणि तानि नानामणिमयानि 'वइरामया अग्गला अग्गलपासाया' अर्गला:-प्रतीता: अर्गलाप्रासादा उद्देशः १ यत्रार्गला नियम्यन्ते, आह च मूलटीकाकार:-"अर्गलाप्रासादा यत्रार्गला नियम्यन्ते" इति, एतौ द्वावपि वरत्नमयो, 'रययामयी 5. सू०१२९ आवत्तणपेढिया' इति आवर्त्तनपीठिका यत्रेन्द्रकीलिका, उक्तं च मूलटीकायाम्-"आवर्त्तनपीठिका यत्रेन्द्रकीलको भवति" 'अंकुत्तरपासाए' इति अङ्का अङ्करत्नमया उत्तरपा यस्य तद् अङ्कोत्तरपार्श्व 'निरंतरियघणकवाडे' इति निर्गता अन्तरिकालध्वन्तररूपा ययोस्तौ निरन्तरिको अत एव घनौ कपाटौ यस्य तन्निरन्तरघनकपाटं 'भित्तिसु चेव भित्तिगुलिया छप्पण्णा तिन्नि होति' इति तस्य द्वारस्योभयोः पार्श्वयोभित्तिपु-भित्तिगता भित्तिगुलिका:-पीठकसंस्थानीया स्तिस्रः पटपञ्चाशत:-पटपञ्चाशत्रिकप्रमाणा भवन्ति, 'गोमाणसिया तत्तिया' इति गोमानस्य:-शय्या: 'तत्तिया' इति तावन्मात्राः पटपञ्चाशत्रिकसङ्ख्याका इत्यर्थः, 'नानामणिरयणवालरूवगलीलठियसालभंजियाएं' इति इदं द्वारविशेषणं, नानामणिरत्नानि-नानामणिरत्नमयानि व्यालरूपकाणि लीलास्थितशालभञिकाश्च-लीलास्थितपुत्रिकाश्च यस्य तत्तथा 'वइरामए कूडे' वनमयो-वत्ररत्नमय: कूटो-माडभागः रजतमय उ- ॥२०४॥ * त्सेधः-शिखरम् , आह च मूलटीकाकार:-"कूडो-माडभाग उच्छ्रय:-शिखर"मिति, केवलं शिखरमत्र तस्यैव माडभागस्य सं Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -%2-% % %A5% बन्धि द्रष्टव्यं न द्वारस्य, तस्य प्रागेवोक्तनात्, 'सव्वतवणिजमए उल्लोए' सर्वासना तपनीयमय उल्लोक:-उपरिभाग: 'नानामाणेरयणजालपंजरमणिवंसगलोहियक्खपडिवंसगरययभोमे' इति, मणयो-मणिमया वंशा येषां तानि मणिमयवंशकानि लोहिताक्षा -लोहिताक्षमयाः प्रतिवंशा येषां तानि लोहिताक्षप्रतिवंशकानि रजता-रजतमयी भूमिर्येषां तानि रजतभूमानि, प्राकृतत्वात्समासान्तो मकारस्य च द्वित्वं, मणिवंशकानि लोहिताक्षप्रतिवंशकानि रजतभूमानि नानामणिरत्नानि-नानामणिरत्नमयानि जालपक्षराणि-वाक्षापरपर्यायाणि यस्मिन् द्वारे तत्तथा, पदानामन्यथोपनिपातः प्राकृतत्वात् , 'अंकमया पक्खा पक्खबाहाओ जोईरसामया वंसा वंसकवेल्लुगा य रययामईओ पट्टियाओ जायरूवमईओ ओहाडणीओ वइरामईओ उवरिपुंछणीओ सव्वसेयरययामए छा(य)णे' इति पद्मवरवेदिकावद्भावनीयम् , 'अंकमयकणगकूडतवणिजथूभियागे' इति अङ्कमयं-बाहुल्येनाकरत्नमयं पक्षवाहादीनामङ्करत्नालकत्वात् कनकं-कनकमयं कूट-शिखरं यस्य तत् कनककूटं तपनीया-तपनीयमयी स्तूपिका-लघुशिखररूपा यस्य तत्तपनीयस्तूपिकाकं, ततः पदत्रयस्य पदद्वयमीलनेन कर्मधारयः, एतेन यत् प्राक् सामान्यत उत्क्षिप्तं 'सेए वरकणगथूभियागे' इति तदेव प्रपश्चतो भावितमिति । सम्प्रति तदेव श्वेतत्वमुपसंहारव्याजेन भूय उपदर्शयति-'सेए' श्वेतं, श्वेतत्वमेवोपमया द्रढयति-'संखतलविमलनिम्मलदधिघणगोखीरफेणरययनिगरप्पगासे' इति विमलं-विगतमलं यत् शङ्खतलं शङ्खस्योपरितनो भामो यश्च निर्मलो दधिधनोघनीभूतं दधिगोक्षीरफेनो रजतनिकरश्च तद्वत्प्रकाश:-प्रतिमता यस्य तत्तथा, 'तिलगरयणद्धचंदचित्ते' इति तिलकरत्नानि-पुण्डविशेषास्तैरर्द्धचन्द्रश्च चित्राणि-नानारूपाणि तिलकार्द्धचन्द्रचित्राणि, कचित् 'संखतलविमलनिम्मलदधिषणगोखीरफेणरययनियरप्पगासद्धचंदचित्ता' इति पाठस्तत्र पूर्ववत् पृथक् पृथग व्युत्पत्तिं कृत्वा पश्चात्पवयस्य २ कर्मधारयः, 'नाणामणिदामालंकिए' नाना-13 ३५ Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ प्रतिपत्ती मनुष्या० विजयदारवर्णनं उद्देशः१ सु० १२९ मणयो-नानामणिमयानि दामानि-मालास्तैरलङ्कतं नानामणिदामालतम् अन्तर्य हिश्च 'श्लणं' श्लक्ष्णपुद्गलस्कन्धनिर्मापितं 'तवणिजवालुयापत्थडे' इति तपनीयाः-तपनीयमय्यो या वालुका:-सिकतास्तासां प्रस्तट:-प्रस्तारो यस्मिन् तत्तथा, 'मुहफासे सस्सिरीय- रूवे पासाईए जाव पडिरूवें इति प्राग्वत् ॥ 'विजयस्स णं दारस्से' त्यादि, विजयस्य णमिति प्राग्वत् द्वारस्य उभयोः पार्श्वयोरेकैकहै नैषेधिकीभावेन 'दुहतो' इति द्विधातो द्विप्रकारायां नैपेधिक्यां, नैपेधिकी-निपीदनस्थानम् , उक्तं च मूलटीकाकारेण-नैपेधिकी नि पीदनस्थान"मिति प्रत्येकं द्वौ द्वौ चन्दनकलशौ प्रज्ञप्ती, ते च चन्दनकलशाः 'वरकमलपइटाणा'इति वरं-प्रधानं यत्कमलं तत्प्रतिष्ठानंआधारो येषां ते वरकमलप्रतिष्ठानाः, तथा सुरभिवरवारिप्रतिपूर्णाश्चन्दनकृतचर्चाका:-चन्दनकृतोपरागाः 'आविद्धकंठेगुणा' इति आविद्धः-आरोपितः कण्ठे गुणो-रक्तसूत्ररूपो येषु ते आविद्धकण्ठेगुणाः, कण्ठेकालवत्सप्तम्या अलुक्, 'पउमुप्पलपिहाणा' इति पग्रमुत्पलं च यथायोगं पिधानं येषां ते पद्मोत्पलपिधानाः 'सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा' इति प्राग्वत् 'महयामहया' इति अतिशयेन महान्तो महेन्द्रकुम्भसमानाः, कुम्भानामिन्द्र इन्द्रकुम्भो, राजदन्तादिदर्शनादिन्द्रशब्दस्य पूर्वनिपातः, महांश्चासौ इन्द्रकुम्भश्च तस्य समाना महेन्द्रकुम्भसमाना-महाकलशप्रमाणाः प्रज्ञप्ताः हे श्रमण! हे आयुष्मन्! ॥'विजयस्स णमित्यादि, विजयस्य द्वारस्य उभयोः पार्श्वयोरेकैकनैपेधिकीभावेन द्विधातो नैपेधिक्यां द्वौ द्वौ 'नागदन्तकौ'नर्कुटको अङ्कटकावित्यर्थः प्रज्ञप्ती, ते च नागदन्तका 'मुत्ताजालंतरूसियहेमजालगवक्खजालखिंखिणीजालपरिक्खित्ता' इति मुक्काजालानामन्तरेषु यानि उत्सृतानि-लम्बमानानि हेमजालानि-हेममयदामसमूहाः यानि च गवाक्षजालानि-आवाक्षाकृतिरनविशेपदामसमूहाः यानि च किक्किणी-शुद्रघण्टा किङ्किणीजालानि-शुद्रघण्टा(सकाता)स्तैः परिक्षिप्ता:-सर्वतो व्याप्ताः 'अन्भुग्गया' इति अभिमुखमुद्गता अभ्युद्गता अप्रिमभागे मनाग उग्रता ॥२०५॥ Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 इति भावः 'अभिनिसिहा' इति अभिमुखं-अहि गाभिमुखं निसृष्टाः अभिनिसृष्टाः 'तिरियं सुसंपग्गहिया' इति तिर्यग्-भित्तिप्र देशे सुष्टु अतिशयेन सम्यग-मनागप्यचलनेन परिगृहीताः सुसंपरिगृहीताः 'अहेपन्नगद्धरूवा' इति अध:-अधस्तनं यत्पन्नगस्य-सर्पस्यार्द्ध तस्येव रूपं-आकारो येषां ते तथा अधःपन्नगार्द्धवदतिसरला दीर्घाश्चेति भावः, एतदेव व्याचष्टे-'पन्नगार्द्धसंस्थानसंस्थिताः अधःपन्नगार्द्धसंस्थानसंस्थिताः 'सव्ववइरामया' सर्वासना वफामयाः "अच्छा सण्हा जाव पडिरूवा' इति प्राग्वत् , "महयामहया' इति अतिशयेन 'गजदन्तसमानाः' गजदन्ताकाराः प्रज्ञप्ता हे श्रमण! हे आयुष्मन् ! ॥ 'तेसु णं नागदंतएसु' इत्यादि, तेषु च नागदन्तकेषु बहवः कृष्णसूत्रे बद्धा: 'वग्धारिया' इति अवलम्बिताः 'माल्यदामकलापाः' पुष्पमालासमूहा बहवो नीलसूत्रबद्धा माल्यदामकलापाः, एवं लोहितहारिद्रशुक्लसूत्रबद्धा अपि वाच्याः॥ ते णं दामा' इत्यादि, तानि दामानि 'तवनिजलंवसगा' इति तपनीय:-तपनीयमयो लम्बूसगो-दानामग्रिमभागे प्राङ्गणे लम्बमानो मण्डनविशेपो गोलकाकृतियेषां तानि तपनीयलम्बूसकानि 'सुवण्णपयरगमंडिया'इति पार्श्वत: सामस्त्येन सुवर्णप्रतरेण-सुवर्णपत्रकेण मण्डितानि सुवर्णप्रतरकमण्डितानि 'नानामणिरयणविविहहारद्धहारउवसोभियसमुदया' इति नानारूपाणां मणीनां रत्नानां च ये विविधा-विचित्रवर्णा हारा-अष्टादशसरिका अर्द्धहारा-नवसरिकास्तैरुपशोभितः समुदायो येषां तानि तथा 'जाव सिरीए अतीव उवसोभेमाणा चिटुंति' अत्र यावत्करणादेवं परिपूर्णः पाठो द्रष्टव्यः-'ईसिमण्णमण्णमसंपत्ता पुव्वावरदाहिणुत्तरागएहिं वाएहिं मंदायं मंदायमेइजमाणा पलंवमाणा पलंबमाणा परंभ(झंझ)माणा परंभ(झंझ)माणा ओरालेणं मणुन्नेणं मणहरेणं कण्णमणनिव्वुइकरणं सद्देणं ते पएसे सव्वतो समंता आपूरेमाणा आपूरेमाणा सिरीए उवसोभेमाणा उवसोभेमाणा चिट्ठति । एतच्च प्रागेव पद्मवरवेदिकावर्णने व्याख्यातमिति भूयो न व्याख्यायते ॥ 'तेसि णं नागदं Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रवर्णनं ताण'मित्यादि, तेषां नागदन्तानामुपरि अन्यौ द्वौ नागदन्तको प्रज्ञप्ती, ते च नागदन्तकाः 'मुत्ताजालंतरूसियहेमजालगवक्खजाल' * ३प्रतिपत्ती इत्यादि प्रागुक्तं सर्व द्रष्टव्यं यावद् गजदन्तसमानाः प्रज्ञप्ता हे श्रमण! हे आयुष्मन्! ॥ 'तेसु णं णागदंतएसु' इत्यादि, तेषु नागद: 5 मनुष्या० न्तकेषु बहूनि रजतमयानि सिक्ककानि प्रज्ञप्तानि, तेषु च रजतमयेषु सिककेषु बहवो 'वैडूर्यरत्नमय्यो वैडूर्यरत्नात्मिकाः 'धूपघट्यो' विजयद्वाधूपघटिकाः प्रज्ञप्ताः, ताश्च धूपघटिकाः 'कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुक्कधूवमघमर्धेतगंधुद्धयाभिरामा' कालागुरुः प्रसिद्धः प्रवर:प्रधानः कुन्दुरुष्क:-चीडा तुरुष्कं-सिल्हकं कालागुरुश्च प्रवरकुन्दुरुष्कतुरुष्के च कालागुरुप्रवरकुन्दुरुष्कतुरुष्काणि तेषां धूपस्य यो उद्देशः १ मघमघायमानो गन्ध उद्धृत-इतस्ततो विप्रसृतस्तेनाभिरामाः कालागुरुप्रवरकुन्दुरुष्कतुरुष्कधूममघमघायमानगन्धोद्धुताभिरामाः, तथा 6 सू० १२९ शोभनो गन्धो येषां ते सुगन्धास्ते च ते वरगन्धास्तेषां गन्धः स आखस्तीति सुगन्धवरगन्धिकाः 'अतोऽनेकखरादि'तीकप्रत्ययः, अतX एव गन्धवर्तिभूताः-सौरभ्यवर्तिभूताः सौरभ्यातिशयाद् गन्धद्रव्यगुटिकाकल्पाः 'उदारेण स्फारेण 'मनोज्ञेन' मनोऽनुकूलेन, कथं मनोऽनुकूलत्वम् ? अत आह-याणमनोनिवृतिकरण हेतौ तृतीया यतो घ्राणमनोनिवृतिकरस्ततो मनोज्ञस्तेन गन्धेन तान् प्रत्यासन्नान् प्रदेशान् आपूरयन्त्य आपूरयन्त्यः अत एव श्रियाऽतीव शोभमानास्तिष्ठन्ति ॥ "विजयस्स णं दारस्से'त्यादि, विजयस्य द्वारस्योभयोः पार्श्वयोरेकैकनैषेधिकीभावेन द्विधातो-द्विप्रकारायांनषेधिक्यां द्वेद्वे शालभजिके प्रज्ञप्ते, ताश्च शालभजिका लीलया ललिताङ्गनिवेशरूपया स्थिता लीलास्थिताः 'सुपइट्ठियाओ' इति सुष्ठ-मनोज्ञतया प्रतिष्ठिताः सुप्रतिष्ठिताः 'सुअलंकियाओ' इति सुष्ठ-अतिशयेन रमणीय* तयाऽलकृताः खलकृताः 'नाणाविहरागवसणाओं' इति नानाविधो-नानाप्रकारो रागो येषां तानि नानाविधरागाणि तानि वसनानि ॥२०६॥ -वस्त्राणि संवृततया यासां ता नानाविधरागवसनाः 'रत्तावंगाओ' इति रक्तोऽपाङ्गो-नयनोपान्तं यासां वा रक्तापागाः 'असिय GREAKINGRA%ARAX Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केसीओ' इति असिता:-कृष्णाः केशा यासां ता असितकेश्यः 'मिउविसयपसत्थलक्खणसंवेल्लियग्गसिरयाओ' मृदवः-कोमला विशदा-निर्मलाः प्रशस्तानि-शोभनानि अस्फुटितत्वप्रभृतीनि लक्षणानि येषां ते प्रशस्तलक्षणाः संवेल्लितं-संवृतमयं येषां शेखरककरकूणात् ते संवेल्लिताप्राः शिरोजा:-केशा यासां ता मृदुविशदप्रशस्तलक्षणसंवेल्लिताप्रशिरोजा: 'नाणामल्लपिणद्धाओ' इति नानारूपाणि | माल्यानि-पुष्पाणि पिनद्धानि-आविद्धानि यासां ता नानामाल्यपिनद्धाः, निष्ठान्तस्य परनिपातो भार्यादिदर्शनात् , 'मुठिगेज्झसुमज्झा' इति मुष्टिग्राह्यं सुष्ठ-शोभनं मध्यं-मध्यभागो यासां ता मुष्टिग्राह्यसुमध्या: 'आमेलगजमलजुगलवट्टियअन्भुण्णयपीणरइयसंठियपओहराओ' पीनं-पीवरं रचितं संस्थितं-संस्थानं यकाभ्यां तो पीनरचितसंस्थितौ आमेलक-आपीडः शेखरक इत्यर्थः तस्य यमलं-समश्रेणीकं युगलं तद्वत् वर्तितौ-बद्धखभावावुपचितकठिनभावाविति भावः अभ्युन्नती पीनरचितसंस्थितौ च पयोधरौ यासां तास्तथा, 'ईसिं असोगवरपायवसमुठियाओ' इति ईषत्-मनाक् अशोकवरपादपे समवस्थिता-आश्रिता ईषदशोकवरपादपसमवस्थिताः, तथा वामहस्तेन गृहीतमग्रं शालाया:-शाखाया अर्थादशोकपादपस्य यकाभिस्ता वामहस्तगृहीताप्रशाला:,' अड्डऽच्छिकडक्खचिट्ठिएहिं लूसेमाणीओ विवे'ति ईषत्-मनाग 'अड्डे'तिर्यग्वलितम् अक्षि येषु कटाक्षरूपेषु चेष्टितेषु तैर्मुष्णन्त्य इव सुरजनानां मनांसि 'चक्खुल्लोयणलेसेहि य अण्णमण्णं विज्झेमाणीओ इव' अन्नमन्नं-परस्परं चक्षुषां लोकनेन-अवलोकनेन लेशा:-संश्लेषास्तैर्विध्यमाना इव, किमुक्तं भवति?-एवं नाम तास्तिर्यग्वलिताक्षिकटाक्षैः परस्परमवलोकमाना अवतिष्ठन्ते यथा नूनं परस्परसौभाग्यासहनत स्तिर्यग्वलिताक्षिकटाक्षः परस्परं खिद्यन्त इवेति 'पुढविपरिणामाओ' इति पृथिवीपरिणामरूपाः शाश्वतभावमुपागता विजयद्वारवत् 'चंदाणणाओ' इति चन्द्रवदु आननं-मुखं यासां ताश्चन्द्राननाः 'चंदविलासिणीओ' इति चन्द्रवन्मनोहरं Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विलसन्तीत्येवंशीलाश्चन्द्रविलासिन्यः 'चंदद्धसमनिडालाओ' इति चन्द्रार्जुन - अष्टमीचन्द्रेण समं समानं ललाटं यासां ताशन्द्रार्द्धसमललाटाः ‘चंदाहियसोमदंसणाओं' इति चन्द्रादप्यधिकं सोमं सुभगं कान्तिमदर्शनं - आकारो यासां तास्तथा, उल्का इव योतमाना: 'विज्जुघणमरीचि सूरदिप्पंततेय अहिययर सन्निकासाओ' इति विद्युतो ये घना - बहुलतरा मरीचयस्तेभ्यो यथ सूर्यस्य दीप्यमानमनावृतं तेजस्तस्मादप्यधिकतरः सन्निकाश:- प्रकाशो यासां तास्तथा 'सिंगारागार चारुवेसाओ' इति शृङ्गारो-मण्डनभूपणाटोपस्तत्प्रधान आकार आकृतिर्यासां ताः शृङ्गाराकाराः चारु वेपो - नेपथ्यं यासां ताञ्चारुवेपास्ततः कर्म्मवारये शृङ्गाराकारचारुवेषाः 'पासाईयाओ' इत्यादि विशेषणचतुष्टयं प्राग्वत् ॥ 'विजयस्स णं दारस्से'त्यादि, विजयस्य द्वारस्य उभयोः पार्श्वयोरेकैकनैपेधिकीभावेन 'द्विधातो' द्विप्रकारायां नैपेधिक्यां द्वौ द्वौ जालकटकौ प्रज्ञप्तौ, 'ते णं जालकाडगा' इत्यादि, ते च जालकटकाकीर्णा रम्यसंस्थानाः प्रदेशविशेषाः 'सव्वरयणामया अच्छा सण्हा 'विजयस्से' त्यादि, विजयस्य द्वारस्योभयोः पार्श्वयोर्द्विधातो नैपेधिक्यां द्वे द्वे घण्टे प्रज्ञप्ते, तासां च घण्टानामयमेतद्रूपः 'वर्णाजाव पडिरुवा' इति प्राग्वत् ॥ वासः' वर्णकनिवेश. प्रज्ञप्तः, तद्यथा - जाम्बूनदमय्यो घण्टाः वश्रमय्यो लालाः नानामणिमया घण्टापार्श्वाः तपनीयमय्यः शृङ्खला यासु ता अवलम्बितास्तिष्ठन्ति रजतमय्यो रज्जवः ॥ 'ताओ णं घंटाओ' इत्यादि, ताश्च घण्टा: 'ओघस्वराः' ओघेन - प्रवाहेण स्वरो यासां ता ओघस्वराः, मेघस्येवातिदीर्घः स्वरो यासां ता मेघस्वराः, हंसस्येव मधुरः स्वरो यासां ता हंसस्वराः, एवं क्रोस्वराः, सिंहस्येव प्रभूतदेशव्यापी स्वरो यासां ताः सिहस्वराः, एवं दुन्दुभिस्वरा नन्दिखराः, द्वादशतूर्यसङ्घातो नन्दिः, नन्दिवद् घोषो -निनादो यासां ता नन्दिघोपाः, मञ्जुः - प्रियः खरो यासां ता मञ्जुस्वराः, एवं मनुघोपाः, किं बहुना ?, सुस्वराः सुखरघोषाः, ३ प्रतिपत्ती मनुष्या० विजयद्वा वर्णनं उद्देशः १ सू० १२९ ॥ २०७ ॥ Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'ओरालेण मित्यादि प्राग्वत् ॥'विजयस्स णमित्यादि, विजयस्य द्वारस्योभयोः पाश्वयोर्द्विधातो नैषेधिक्यां द्वे द्वे वनमाले प्रहाते, ताश्च वनमाला नानाद्रुमाणां नानालतानां च ये किशलयरूपा अतिकोमला इत्यर्थः पल्लवास्तैः समाकुला:-सम्मिश्राः 'छप्पयपरिभुजमाणसोभंतसस्सिरीया' इति षट्पदैः परिभुज्यमाना सती शोभमाना षट्पदपरिभुज्यमानशोभमाना अत एव सश्रीका ततः पूर्वपदेन विशेषणसमासः, 'पासाईया' इत्यादि पदचतुष्टयं प्राग्वत् ।। विजयस्स णं दारस्स उभओ पासिं दुहतो णिसीहियाए दो दो पगंठगा पण्णत्ता, ते णं पगंठगा चत्तारि जोयणाई आयामविक्खंभेणं दो जोयणाई बाहल्लेणं सव्ववइरामता अच्छा जाव पडिरूवा ॥ तेसि णं पयंठगाणं उवरिं पत्तेयं पत्तेयं पासायवडेंसगा पण्णत्ता, ते णं पासायवडिंसगा चत्तारि जोयणाई उडे उच्चत्तेणं दो जोयणाई आयामविक्खंभेणं अन्भुग्गयमूसितपहसिताविव विविहमणिरयणभत्तिचित्ता वाउ यविजयवेजयंतीपडागच्छत्तातिछत्तकलिया तुंगा । गगणतलमभिलंघमाण(णुलिहंत)सिहरा जालंतररयणपंजरुम्मिलितव्व मणिकणगथूभियागा वियसियसयवत्तपोंडरीयतिलकरयणद्धयंदचित्ता णाणामणिमयदामालंकिया अंतो य बाहिं च सण्हा तवणिज्जरुइलवालयापत्थडगा सुद्ध(ह)फासा सस्सिरीयरूवा पासातीया ४ ॥ तेसि णं पासायवडेंसगाणं उल्लोया पउमलता जाव सामलयाभत्तिचित्ता सव्वतवणिजमता अच्छा जाव पडिरूवा ॥ तेसि णं पासायवडिंसगाणं पत्तेयं पत्तेयं अंतो बहुसमरमणिन्ने भूमिभागे पण्णत्ते, से जहा Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ प्रतिपत्ती मनुष्या० विजयद्वारवर्णनं उद्देशः१ सू०१३० णामए आलिंगपुक्खरेति वा जाव मणीहिं उवसोभिए, मणीण गंधो वण्णो फासो य नेयम्वो॥ तेसि णं बहुसमरमणिज्जाणं भूमिभागाणं बहुमज्झदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं मणिपेढियाओ पण्णत्ताओ, ताओ णं मणिपेढियाओ जोयणं आयामविक्खंभेणं अट्ठजोयणं बाहल्लेणं सव्वरयणामईओ जाव पडिरूवाओ, तासि णं मणिपेढियाणं उवरिं पत्तेयं २ सीहासणे पण्णत्ते, तेसि णंसीहासणाणं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तंजहा-तवणिजमया चकवाला रयतामया सीहा सोवणिया पादा णाणामणिमयाई पायवीढगाई जंबूणयमताइं गत्ताई वतिरामया संधी नाणामणिमए वेचे, ते णंसीहासणा ईहामियउसभ जाव पउमलयभत्तिचित्ता ससारसारोवइयविविहमणिरयणपायपीढा अच्छरगमिउमसूरगनवतयकुसंतलिचसीहकेसरपञ्चुत्थताभिरामा उयचियखोमदुगुल्लयपडिच्छयणा सुविरचितरयत्ताणा रत्तंसुयसंवुया सुरम्मा आईणगरुयबूरणवनीततूलमउयफासा मउया पासाईया ४॥तेसिणं सीहासणाणं उप्पि पत्तेयं पत्तेयं विजयदूसंपण्णत्ते, ते णं विजयदूसा सेता संखकुंद्गरयअमतमहियफेणपुंजसन्निकासा सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा॥ तेसि णं विजयदूसाणं बहुमज्झदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं वइरामया अंकुसा पण्णत्ता, तेसु णं वइरामएसु अंकुसेसु पत्तेयं २ कुंभिक्का मुत्तादामा पण्णत्ता, ते णं कुंभिक्का मुत्तादामा अन्नहिं चाहिं चउहिं तद चप्पमाणमेत्तेहिं अद्धकुंभिक्केहिं मुत्तादामेहिं सव्वतो समंता संपरिक्खित्ता, OSTEOCRISTALLO-96 ॥२०८॥ Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ते णं दामा तवणिज्जलंबूसका सुवण्णपयरगमंडिता जाव चिट्ठति, तेसि णं पासायवडिंसगाणं - उप्पि यहवे अट्ठमंगलगा पण्णत्ता सोत्थिय तधेव जाव छत्ता ॥ (सू० १३०) 'विजयस्स 'मित्यादि, विजयस्य द्वारस्योभयोः पार्श्वयोर्द्विधातो नैषेधिक्यां द्वौ द्वौ प्रकण्ठको प्रज्ञप्तौ, प्रकण्ठको नाम पीठविशेषः। आह च मूलटीकाकार:-"प्रकण्ठौ पीठविशेषौ,” चूर्णिकारस्त्वेवमाह-"आदर्शवृत्ती पर्यन्तावनतप्रदेशो पीठो प्रकण्ठावि"ति, ते च प्रकण्ठकाः प्रत्येक चत्वारि योजनानि 'आयामविष्कम्भेन' आयामविष्कम्भाभ्यां द्वे योजने बाहल्येन 'सव्ववइरामया' इति सर्वासना ते प्रकण्ठका वनमयाः 'अच्छा सण्हा य' इत्यादि विशेषणकदम्बकं प्राग्वत् ॥ 'तेसि णं पकंठयाण'मित्यादि, तेषां च प्रकण्ठकानामुपरि प्रत्येकं प्रासादावतंसकः प्रज्ञप्तः, प्रासादावतंसको नाम प्रासादविशेपः, उक्तं च मूलटीकायां-"प्रासादावतंसकः प्रासादविशेष" इति, व्युत्पत्तिश्चैवम्-प्रासादानामवतंसक इव-शेखरक इव प्रासादावतंसकः, ते च प्रासादावतसंकाः प्रत्येकं चत्वारि || योजनान्यूर्द्धमुच्चस्त्वेन द्वे योजने आयामविष्कम्भाभ्याम् , 'अन्भुग्गयमूसियपहसियाविवे'ति अभ्युद्गता-आभिमुख्येन सर्वतो विनिर्गता उत्सृता-प्रबलतया सर्वासु दिक्षु प्रसृता या प्रभा तया सिता इव-बद्धा इव तिष्ठन्तीति गम्यते, अन्यथा कथमिव तेऽत्युच्चा निरालम्बास्तिष्ठन्तीति भावः, अथवा प्रबलश्वेतप्रभापटलया प्रहसिताविव प्रकर्षेण हसिताविव, तथा 'विविहमणिरयणभत्तिचित्ता' विविधा अनेकप्रकारा ये मणय:-चन्द्रकान्ताद्या यानि च रत्नानि-कर्केतनादीनि तेषां भक्तिभिः-विच्छित्तिभिश्चित्रा-नानारूपा आश्चयवन्तो वा नानाविधमणिरत्नभक्तिविचित्राः 'वाउद्धयविजयवेजयंतीपडागछत्तातिछत्तकलिया' वातोता-वायुकम्पिता विजयः -अभ्युदयस्तत्संसूचिका वैजयन्तीनामानो (नाम्यो) याः पताकाः, अथवा विजया इति वैजयन्तीनां पार्श्वकर्णिका उच्यन्ते तत्प्रधाना वैजयन्यो Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयवैजयन्त्यः पताकास्ता एव विजयवर्जिता वैजयन्त्यः, छत्रातिछत्राणि - उपर्युपरिस्थितान्यातपत्राणि तैः कलिता वातोद्धूतविजयवैजयन्तीपताकाछत्रातिच्छत्रकलिताः 'तुङ्गाः' उच्चा उच्चैस्त्वेन चतुर्योजन प्रमाणत्वात्, अत एव 'गगणतलमणुलिहन्त सिहरा' इति, गगनतलम् - अम्बरम् अनुलिखन्ति - अभिलङ्घयन्ति शिखराणि येषां ते गगनतलानु लिख च्छिखराः, तथा जालानि - जालकानि यानि भवनभिति लोके प्रतीतानि तदन्तरेषु विशिष्टशोभानिमित्तं रत्नानि येषु ते जालान्तररत्नाः, सूत्रे चात्र विभक्तिलोपः प्राकृतत्वात्, तथा पराद् उन्मीलिता इव बहिष्कृता इव यथा हि किल किमपि वस्तु वंशादिमयप्रच्छादनविशेषाद् वहिष्कृतमत्यन्तमविनष्टच्छायं भवति एवं तेऽपि प्रासादावतंसका इति भाव:, तथा मणिकनकानि - मणिकनकमय्यः स्तूपिका :- शिखराणि येषां ते मणिकनकस्तूपिकाः, तथा विकसितानि यानि शतपत्राणि पुण्डरीकाणि च द्वारादौ प्रतिकृतित्वेन स्थितानि तिलकरत्नानि भित्त्यादिषु पुण्ड्रविशेषा अर्द्धचन्द्राश्च द्वारादिपु तैश्वित्रा - नानारूपा आश्चर्यभूता विकसितशत पत्रपुण्डरीक तिलकार्द्धचन्द्र चित्राः अन्तर्वहिच ( नाना - अ नेकप्रकारा ये चन्द्रकान्ताद्या मणयस्तन्मयानि - तत्प्रधानानि यानि दामानि - पुष्पमालास्तैरलङ्कृताः ) ' श्लक्ष्णाः' मसृणाः, तथा तपनीयं - सुवर्णविशेषस्तन्मय्या वालुकायाः प्रस्तटं-प्रतरो येषु ते तपनीयवालुकाप्रस्तटाः 'सुहफासा सस्सिरीयरूवा पासाईयां इत्यादि प्राग्वत् ॥ ' तेसि ण' मित्यादि तेषां च प्रासादावतंसकानाम् 'उल्लोकाः' उपरितनभागाः पद्मलताभक्तिचिया अशोकलताभक्तिचित्राश्चम्पकंठताभक्तिचित्राभूतलताभक्तिचित्रा वनलताभक्तिचित्रा वासन्तिकलताभक्तिचित्राः सर्वासना तपनीयमयाः 'अच्छा सण्हा जाव ear' इति विशेषण कदम्बकं प्राग्वत् ॥ 'तेसि ण' मित्यादि, तेषां प्रासादावतंसकानामन्तर्य हुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, 'से जहा नाम आलिंगपुक्खरे ६ या' इत्यादि समस्तं भूमिवर्णनं मणीनां वर्णपाकसुरभिगन्धशुभस्पर्शवर्णनं प्राग्वत् ॥ 'तेसि ण' मित्यादि, ३ प्रतिपत्ती मनुष्या० विजयद्वा वर्णनं उद्देशः १ सू० १३० ॥ २०९ ॥ Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेषां प्रासादावतंसकानामन्तर्बहुसमरमणीयानां भूमिभागानां बहुमध्यदेशभागे प्रत्येकं प्रत्येकं (मणिपीठिकाः प्राप्ताः, ताश्च मणिपीठिका योजनमायामविष्कम्भेन अष्ट योजनानि बाहल्येन सर्वरत्नमय्यो यावत्प्रतिरूपाः तासां मणिपीठिकानामुपरि) सिंहासनं प्रज्ञप्तं, तेषां च सिंहासनानामयमेतद्रूपो 'वर्णावासो' वर्णकनिवेश: प्रज्ञप्तः, तद्यथा-रजतमयाः सिंहा तैरुपशोभितानि सिंहासनानि 'सौवर्णिका' सुवर्णमयाः पादाः तपनीयमयानि चक्कलानि-पादानामधःप्रदेशाः भवन्ति [मुक्तानानामणिमयानि पादानामधःप्रदेशाः प्रयुक्ता, नानामणिमयानि 'पादशीर्षकाणि' पादानामुपरितना अवयव विशेषा जाम्बूनदमयानि गात्राणि ईषदच्छाः 'वज्रमया' वरत्नापूरिताः 'सन्धयः' गात्राणां सन्धिमेला नानामणिमयं 'वेच्चं' व्यूतं वानमित्यर्थः, आह च चूर्णिकृत्-"वेच्चे वाणक्कतेण"मित्यादि, तानि च सिंहासनानि ईहामृगऋषभतुरगनरमकरव्यालकिन्नररुरुसरभचमरकुञ्जरवनलतापद्मलताभक्तिचित्राणि 'ससारसारोवचियविविहम-18 णिरयणपादपीढा' इति, सारसारैः-प्रधानप्रधानैर्विविधैर्मणिरत्नैरुपचितैः पादपीठैः सह यानि तानि तथा, प्राकृतत्वाञ्च उपचितशब्दस्यान्तरुपन्यासः, 'अच्छरमउयमसूरगनवतयकुसन्तलित्तकेसरपच्चत्थयाभिरामा' इति, आस्तरक-आच्छादनं मृदु येषां मसूर-11 || काणां तानि आस्तरकमृदूनि, विशेषणस्य परनिपातः प्राकृतत्वात् , नवा त्वम् येषां ते नवत्वचः कुशान्ता-दर्भपर्यन्ताः, नवत्वचश्च ते कुशान्ताश्च नवत्वकुशान्ताः प्रत्यग्रत्वग्दर्भपर्यन्तरूपाणि खतिकोमलानि लित्तानि-नम्र(मन)शीलानि च केसराणि, कचित् सिंहकेसरेति पाठस्तत्र सिंहकेसराणीव केसराणि मध्ये मसूरकाणां तानि नवत्वक्कशान्तचिल्ल(लित्त)केसराणि, सिंहकेसरेति पाठपक्षे एकस्य केसरशब्दस्य शाकपार्थिवादिदर्शनाल्लोपः, आस्तरकमृदुभिर्मसुरकैर्नवत्वकशान्तलिच्च(त्त)केसरैः प्रत्यवस्तृतानि-आच्छादितानि सन्ति यानि अभिरामाणि तानि तथा, विशेषणपूर्वापरनिपातो यादृच्छिकः प्राकृतत्वात् , 'आईणगरुयबूरनवणीयतूलफासा' इति आजिनक COMCARE२२-CE Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AGARSHACKAGARICORE चर्ममयं वस्त्रं तच्च स्वभावादतिकोमलं भवति रूतं-कर्पासपक्ष्म वूरो-वनस्पतिविशेष: नवनीतं-म्रक्षणं तूलं-अर्कतूलं तेषामिव स्पों ३ प्रतिपत्तौ * येषां तानि तथा, तथा सुविरचितं रजनाणं प्रत्येकमुपरि येषां तानि सुविरचितरजस्त्राणानि 'उवचिय(खोम)दुगुल्लपट्टपडिच्छायणे' * मनुष्या० इति उपचितं-परिकम्मितं यत्झौमं दुकूलं-कासिकं वस्त्रं तत्प्रतिच्छादनं-रजत्राणस्योपरि द्वितीयमाच्छादनं प्रत्येकं येषां वानि तथा, विजयद्वा६ तत उपरि 'रत्तंसुयसंवुया' इति रक्तांशुकेन-अतिरमणीयेन रक्तेन वस्त्रेण संवृतानि-आच्छादितानि रक्तांशुकसंवृतानि अत एव सुर-८ वर्णन म्याणि 'पासाइया' इत्यादि पदचतुष्टयं प्राग्वत् ।। 'तेसि णमित्यादि, तेषां च सिंहासनानामुपरि प्रत्येक प्रत्येकं विजयदुष्यं वनवि * उद्देशः१ * शेषः प्रज्ञप्तः, आह च मूलटीकाकार:-"विजयदूष्यं वस्त्रविशेष" इति । ते ण'मित्यादि, तानि च विजयदूष्याणि 'शकुन्द-1 सू०१३० ४ दकरजोऽमृतमथितफेनपुञ्जसन्निकाशानि' शशः प्रतीत: कुन्देति-कुन्दकुसुमं दकरज:-उदककणाः अमृतस्य-क्षीरोदधिजलस्य म-8 थितस्य य: फेनपुजो-डिण्डीरोत्करस्तत्सग्निकाशानि-तत्समप्रभाणि, पुनः कथम्भूतानि ? इत्यत आह–'सबरयणामया' सर्वासना रत्नमयानि 'अच्छा सण्हा जाव पडिरूवा' इति विशेषणकदम्बकं प्राग्वत् ॥ 'तेसि ण'मित्यादि, तेषां-सिंहासनोपरिस्थितानां विजयॐ दूष्याणां प्रत्येकं प्रत्येकं बहुमध्यदेशभागे वनमयाः वरत्नासका: 'अङ्कशा' अङ्कशाकारा मुक्तादामावलम्बनाश्रयभूताः प्रज्ञप्ताः, तेषु च 2 वनमयेष्वएशेपु प्रत्येकं प्रत्येक 'कुम्भायमगधदेशप्रसिद्धं कुम्भप्रमाणमुक्तामयं मुक्तादाम प्रज्ञप्तं, तानि च कुम्भाप्राणि मुक्तादामानि प्रत्येकं प्रत्येकमन्यैश्चतुर्भिः कुम्भाप्रैर्मुक्तादामभिस्तदर्बोच्चप्रमाणमात्रैः 'सर्वतः' सर्वासु दिक्षु 'समन्ततः' सामस्त्येन संपरिक्षिप्तानि, 'ते है ॥२१०॥ णं दामा तवणिजलंबूसगा नाणामणिरयण विविहहारद्धहारउवसोभियसमुदाया ईसिमममन्नमसंपत्ता पुवावरदाहिणुत्तरागएहिं वाएहिं MCSC-SLOGAGGALSGENER Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंदाय मंदायं एइज्जमाणा २ वेइज्जमाणा २ पकंपमाणा पकंपमाणा पझंझमाणा पझंझमाणा ओरालेणं मणुण्णेणं मणहरेणं कण्णमणनि व्वुइकरेणं ते पएसे सव्वतो समंता आपूरेमाणा सिरीए उवसोभमोणा चिटुंति" ॥ विजयस्स णं दारस्स उभओ पासिं दुहओ णिसीहियाए दो दो तोरणा पण्णत्ता, ते णं तोरणा णाणामणिमया तहेव जाव अहमंगलका य छत्तातिछत्ता ॥ तेसि णं तोरणाणं पुरतो दो दो सालभंजिताओ पण्णत्ताओ, जहेव णं हेट्ठा तहेव ॥ तेसि गं तोरणाणं पुरतो दो दो णागदंतगा पण्णत्ता, तेणं णागदंतगा मुत्ताजालंतरूसिया तहेव, तेसु णं णागदंतएसु बहवे किण्हे सुत्तववग्घारितमल्लदामकलावा जाव चिट्ठति ॥ तास ण तोरणाणं पुरतो दो दो हयसंघाडगा पण्णत्ता सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा, एवं पंतीओ वीहीओ मिहुणगा, दो दो पउमलयाओ जाव पडिरूवाओ तेसि णं तोरणाणं पुरतो (अक्खाअसोवत्थिया सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा) तेसि गं तोरणाणं पुरतो दो दो चंदणकलसा पण्णत्ता, ते णं चंदणकलसा वरकमलपइट्ठाणा तहेव सव्वरयणामया जाव पडिरूवा समणाउसो! ॥ तेसि णं तोरणाणं पुरओ दो दो भिंगारगा पण्णता वरकमलपइट्ठाणा जाव सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा महतामहता मतगयमुहागितिसमाणा पण्णत्ता समणाउसो!॥ तेसि णं तोरणाणं पुरतो दो दो आतंसगा पण्णता, तेसि णं आतंसगाणं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तंजहा तवणिज्जमया पयंठगा वेरु Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RANGAROORKE ३ प्रतिपत्ती मनुष्या० विजयद्वारवर्णनं उद्देशः१ सू० १३१ लियमया छरुहा (थंभया) वइरामया वरंगा णाणामणिमया वलक्खा अंकमया मंडला अणोघसियनिम्मलासाए छायाए सव्वतोचेव समणुबद्धा चंदमंडलपडिणिकासा महतामहता अद्धकायसमाणा पण्णत्ता समणाउसो! ॥ तेसिणं तोरणाणं पुरतो दो दो वइरणामे थाले पण्णत्ते, ते णं थाला अच्छतिच्छडियसालितंदुलनहसंदट्ठबहुपडिपुण्णा चेव चिट्ठति सव्वजंबूणतामता अच्छा जाव पडिरूवा महतामहता रहचक्कसमाणा समणाउसो! ॥ तेसि णं तोरणाणं पुरतो दो दो पातीओ पण्णत्ताओ, ताओ णं पातीओ अच्छोदयपडिहत्थाओ णाणाविधपंचवण्णस्स फलहरितगस्स बहुपडिपुण्णाओ विव चिट्ठति सव्वरयणामतीओ जाव पडिरूवाओ महयामहया गोकलिंजगचक्कसमाणाओ पण्णत्ताओ समणाउसो!॥ तेसि णं तोरणाणं पुरतो दो दो सुपतिहगा पण्णत्ता, ते णं सुपतिहगा णाणाविध(पंचवण्ण)पसाहणगभंडविरचिया सब्वोसधिपडिपुण्णा सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा॥तेसि णं तोरणाणं पुरतो दो दो मणोगुलियाओ पण्णत्ताओ॥ तासु णं मणोगुलियासु बहवे सुवण्णरुप्पामया फलगा पण्णत्ता, तेसु णं सुवण्णरुप्पामएसु फलएसु पहवे वइरामया णागदंतगामुत्ताजालंतरुसिता हेमजाव गयंदगसमाणा पण्णत्ता, तेसु णं वइरामएसु णागदंतएसु बहवे रययामया सिकया पणत्ता, तेसु णं रययामएसु सिक्कएसु बहवे वायकरगा पण्णत्ता ॥ ते णं वायकरगा किण्हसुत्तसिझगवत्थिया जाव सुकिलसुत्तसिक्कगवत्थिया सव्वे R ॥२११॥ S* Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेरुलियामया अच्छा जाव पडिरूवा ॥ तेसि गं तोरणाणं पुरओ दो दो चित्ता रयणकरंडगा पण्णत्ता, से जहाणामए-रण्णो चाउरंतचक्कबहिस्स चित्ते रयणकरंडे वेरुलियमणिफालियपडलपच्चोयडे साए पभाए ते पदेसे सव्वतो समंता ओभासइ उज्जोवेति तावेइ पभासेति, एवामेव ते चित्तरयणकरंडगा पण्णत्ता वेरुलियपडलपच्चोयडा साए पभाए ते पदेसे सव्वतो समता ओभासेति ॥ तेसि णं तोरणाणं पुरतो दो दो हयकंठगा जाव दो दो उसभकंठगा पण्णत्ता यणामया अच्छा जाव पडिरूवा ॥ तेसणं हयकंठएसु जाव उसभकंठएस दो दो पुप्फचंगेरीओ, एवं मल्लगंधचुण्णवत्थाभरणचंगेरीओ सिद्धत्थचंगेरीओ लोमहत्थचंगेरीओ सव्वरयणामतीओ अच्छाओ जाव पडिरूवाओ॥ तेसि णं तोरणाणं पुरतो दो दो पुप्फपडलाइं जाव लोमहत्थपडलाइं सव्वरयणामयाइं जाव पडिरूवाइं ॥ तेसि णं तोरणाणं पुरतो दो दो सीहासणाइं पण्णत्ताई, तेसि णं सीहासणाणं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते तहेव जाष पासातीया ४ ॥ तेसि णं तोरणाणं पुरतो दो दो रुप्पछदाछत्ता पण्णत्ता, ते णं छत्ता वेरुलियभिसंतविमलदंडा जंबूणयकन्निकावइरसंधी मुत्ताजालपरिगता अट्ठसहस्सवरकंचणसलागा दद्दरमलयसुगंधी सव्वोउअसुरभिसीयलच्छाया मंगलभत्तिचित्ता चंदागारोवमा वहा । तेसि णं तोरणाणं पुरतो दो दो चामराओ पण्णत्ताओ, ताओ णं चामराओ (चन्दप्पभवइरवेरुलियनानामणि Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रयणचियदंडा ) णाणामणिकणगरयणविमलमरितवणिज्जुज्जलविचित्तदंडाओ चिल्लिआओ संखंककुंददगरयअमयमहिय फेणपुंजसण्णिकासाओ सुहुमरयतदीहवालाओ सव्वरयणामताओ अच्छाओ जाव पडिवाओ । तेसि णं तोरणाणं पुरतो दो दो तिलसमुग्गा कोहसमुग्गा पत्तसमुग्गा चोयसमुग्गा तयरसमुग्गा एलासमुग्गा हरियालसमुग्गा हिंगुलयसमुग्गा मणोसिलासमुग्गा अंजणसमुग्गा सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा ॥ ( सू० १३१ ) 'विजयस्स ण' मित्यादि, विजयस्य द्वारस्योभयोः पार्श्वयोर्द्विधातो नैपेधिक्या द्वे द्वे तोरणे प्रज्ञप्ते, तानि च तोरणानि नानामणिमयानीत्यादि तोरणवर्णनं निरवशेषं प्राग्वत् ॥ ' तेसि ण' मित्यादि, तेपा तोरणानां पुरतो द्वे द्वे शालभञ्जिके प्रज्ञप्ते, शालभञ्जिकावर्णनं प्राग्वत् ॥ ‘तेसि ण’मित्यादि, तेपां तोरणानां द्वौ द्वौ नागदन्तको प्रज्ञप्तौ तेपां च नागदन्तकानां वर्णनं यथाऽधस्तादनन्तरमुक्तं तथा वक्तव्यं, नवरमत्रोपरि नागदन्तका न वक्तव्या अभावात् ॥ 'तेसि ण'मित्यादि, तेपां तोरणानां पुरतो द्वौ द्वौ इयसंघाटको द्वौ द्वौ गजसङ्घाटको द्वौ द्वौ नरसङ्घाटको द्वौ द्वौ किन्नरसङ्घाटको द्वौ द्वौ किंपुरुपसद्घाटको द्वौ द्वौ महोरगसङ्घाटको द्वौ द्वौ गन्धर्वसङ्घाटको द्वौ द्वौ वृपभसङ्घाटको, एते च कथम्भूता: ? इत्याह- 'सव्वरयणामया अच्छा सण्हा' इत्यादि प्राग्वत्, एवं पङ्किवीथीमिथुनकान्यपि प्रत्येकं वाच्यानि ॥ ‘तेसिं तोरणाण' मित्यादि, तेपां तोरणानां पुरतो द्वे द्वे पद्मलते यावत्करणाद् द्वे द्वे नागलते द्वे द्वे अशोकलते द्वे द्वे चम्पकलते द्वे द्वे चूतलते द्वे द्वे वासन्तीलते द्वे द्वे कुन्दलते द्वे द्वे अतिमुक्तकलते इति परिग्रहः, द्वे द्वे श्यामलते, एताश्च कथम्भूताः ? इत्याह— 'निश्च्चं सुकुमियाओ' इत्यादि यावत्करणात् 'निश्चं मउलिया निच्चं लवइयाओ निचं थइयाओ निषं गोच्छियाओ निथं जमलियाओ निषं জনের ३ प्रतिपत्तौ मनुष्या० विजयद्वा वर्णनं उद्देशः १ सू० १३१ ॥ २१२ ॥ Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विणमियाओं (निश्चं पणमियाओ) निश्चं सुविभत्तपडिमंजरिवडंसगधरीओ निश्चं कुसुमियमउलियलवइयथवइयनिञ्चंगोच्छियविणमियपणमियसुविभत्तपडिमंजरिवडंसगधरीओ' इति परिगृह्यते, अस्य व्याख्यानं प्राग्वत् । पुनः कथम्भूताः? इत्याह-सव्वरयणामया जाव* पडिरूवा' इति, अत्रापि यावत्करणात् 'अच्छा सण्हा' इत्यादि विशेषणकदम्बकपरिग्रहः स च प्राग्वद्भावनीयः ॥'तेसि ण'मित्यादि, तेषां तोरणानां पुरतो द्वौ द्वौ चन्दनकलशौ प्रज्ञप्तौ, वर्णकश्व चन्दनकलशानां 'वरकमलपइट्ठाणा' इत्यादिरूपः सर्वः प्राक्तनो वक्तव्यः॥ 'तेसि णमित्यादि, तेषां तोरणानां पुरतो द्वौ द्वौ भृङ्गारको प्रज्ञप्तौ, तेषामपि चन्दनकलशानामिव वर्णको वक्तव्यः, नवरं पर्यन्ते 'मत्तगयमहामुहागिइसमाणा पण्णत्ता समणाउसो!' इति वक्तव्यं 'मत्तगयमहामुहागिइसमाणा' इति मत्तो यो गजस्तस्य महद्-अतिवि शालं यन्मुखं तस्याकृति:-आकारस्तत्समाना:-तत्सदृशाः प्रज्ञप्ता हे श्रमण! हे आयुष्मन् !॥ 'तेसि णमित्यादि, तेषां तोरणानां पुरतो BI द्वौ द्वावादर्शकौ प्रज्ञप्तौ, तेषां चादर्शकानामयमेतद्रूप: 'वर्णावासः' वर्णकनिवेशः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-तपनीयमया: "प्रकण्ठकाः' पीठ| कविशेषाः 'वैडूर्यमयार्थभया' आदर्शकगण्डप्रतिबन्धप्रदेशाः, आदर्शकगण्डानां मुष्टिग्रहणयोग्याः प्रदेशा इति भावः, वरत्नमया वराङ्गा गण्डा इत्यर्थः, 'नानामणिमया वलक्षाः' वलक्षो नाम शृङ्खलादिरूपमवलम्बनम्, अङ्कमयानि-अकरत्नमयानि मण्डलानि यत्र प्रतिबिम्बसंभूतिः 'अणोहसियणिम्मलाए छायाए' इति, अवघर्षणमवघर्षितं, भावे क्तप्रत्ययः, भूत्यादिना निमजनमित्यर्थः, अवघर्षितस्याभावोऽनवघर्षितं तेन निर्मला अनवघर्षितनिर्मला तया छायया समनुवद्धाः 'चंदमंडलपडिनिकासा' इति चन्द्रमण्डलसदृशाः 'महयामहया' अतिशयेन महान्तः 'अर्द्धकायसमानाः' द्रष्टुः शरीरार्द्धप्रमाणा: प्रज्ञप्ता हे श्रमण! हे आयुष्मन् ! ॥ 'तेसि णमित्यादि, तेषां तोरणानां पुरतो द्वे द्वे वचनामे स्थाले प्रज्ञप्ते, तानि च स्थालानि [तिष्ठन्ति] 'अच्छतिच्छडियसालितंदुलनहसं Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R5R **CHOCHOLOGUE40 दपडिपण्णा इव चिडंति' अच्छा-निर्मला: शुद्धस्फटिकवत्रिच्छटिता अत एव नखसंदष्टा:-नखा: संदष्टा मुसलादिभिश्चुम्बिता ४ ३ प्रतिपत्तो येषां ते तथा, भार्यादिदर्शनात्परनिपातो निष्ठान्तस्य, अच्छेत्रिच्छटितैः शालितन्दुलैर्नखसंदष्टैः परिपूर्णानीव अच्छत्रिच्छटितशालित- मनुष्या० न्दुलनखसंदष्टपरिपूर्णानीव पृथिवीपरिमाणरूपाणि तानि तथा स्थितानि केवलमेवमाकाराणीत्युपमा, तथा चाह-सव्वजंवूनदमया' विजयदासर्वासना जम्बूनद्मयानि 'अच्छा सण्हा' इत्यादि प्राग्वत् 'महयामहया' इति अतिशयेन महान्ति रथचक्रसमानानि प्रज्ञप्तानि रवर्णनं हे श्रमण हे आयुष्मन् ! ॥ 'तेसि ण'मित्यादि, तेषां तोरणानां पुरतो वे द्वे 'पाईओ' इति पायौ प्रज्ञप्ते, ताश्च पाच्यः 'अच्छोदक- उद्देशः १ पडिहत्थाओं' इति स्वच्छपानीयपरिपूर्णाः 'नाणाविहस्स फलहरियस्स बहुपडिपुण्णाओ विवे'ति अत्र षष्ठी तृतीयार्थे वहुवचने है सू० १३१ चैकवचनं प्राकृतत्वात् , नानाविधैः 'फलहरितैः' हरितफलैर्वहु-प्रभूतं प्रतिपूर्णा इव तिष्ठन्ति, न खलु तानि फलानि जलं वा किन्तु | तथारूपाः शाश्वतभावमुपगताः पृथिवीपरिणामास्तत उपमानमिति, 'सव्वरयणामईओ' इत्यादि प्राग्वत् , 'महयामहया' इति अति-8 शयेन महत्यो गोकलिन (र) चक्रसमानाः प्रज्ञप्ता हे श्रमण! हे आयुष्मन् !॥ 'तेसि णमित्यादि, तेपा तोरणाना पुरतो द्वौ द्वौ सुप्रतिष्ठको | आधारविशेषौ प्रज्ञप्ती, ते च सुप्रतिष्ठकाः [सु]सौषधिप्रतिपूर्णा नानाविधैः पञ्चवर्णैः प्रसाधनभाण्डैश्च बहुपरिपूर्णा इव तिष्ठन्ति, अ त्रापि तृतीयार्थे षष्ठी वहुवचने चैकवचनं प्राकृतत्वात् , उपमानभावना प्राग्वत् , 'सव्वरयणामया' इत्यादि तथैव ॥ 'तेसि णमि# त्यादि, तेषां तोरणानां पुरतो द्वे द्वे मनोगुलिके प्रज्ञप्ते, मनोगुलिका नाम पीठिका, उक्तं च मूलटीकायां-"मनोगुलिका पीठिके"ति, ताश्च मनोगुलिकाः सर्वासना 'वैडूर्यमय्यो' वैडूर्यरत्नासिका: 'अच्छा' इत्यादि प्राग्वत् ॥ 'तासु णं मणोगुलियासु वहवे' ॥२१३॥ इत्यादि, तासु मनोगुलिकासु बहूनि सुवर्णमयानि रूप्यमयानि च फलकानि प्रज्ञप्तानि, तेषु सुवर्णरूप्यमयेषु फलकेषु बहवो वनमयाः Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'नागदन्तकाः' अङ्कटकाः प्रज्ञप्ताः, तेषु नागदन्तकेषु बहूनि 'रजतमयानि' रूप्यमयानि सिककानि प्रज्ञप्तानि, तेषु च रजतमयेषु सिक्केषु बहवो 'वातकरकाः' जलशून्याः करका इत्यर्थः प्रज्ञप्ताः ॥'ते 'मित्यादि ते वातकरकाः 'कृष्णसूत्रसिक्कगवस्थिताः' इति, आच्छादनं गवस्था:(ता:) संजाता एष्विति गवस्थिताः कृष्णसूत्रैः-कृष्णसूत्रमयैर्गवस्थैरिति गम्यते, सिककेषु गवस्थिताः कृष्णसूत्रसिकगवस्थिताः, एवं नीलसूत्रसिककगवस्थिता इत्याद्यपि भावनीयं, ते च वातकरकाः सर्वात्मना वैडूर्यमया अच्छा इत्यादि प्राग्वत्॥'तेसि ण'मित्यादि, तेषां तोरणानां पुरतो द्वौ द्वौ 'चित्रौ' चित्रवर्णोपेतावाश्चर्यभूतौ वा रत्नकरण्डको प्रज्ञप्तौ, 'से जहा नामए' इत्यादि, स यथा नाम-राज्ञश्चतुरन्तचक्रवर्तिनः, चतुर्यु-पूर्वोपरदक्षिणोत्तररूपेषु पृथ्वीपर्यन्तेषु चक्रेण वर्तितुं शीलं यस्य तस्य 'चित्रः' आश्चर्यभूतो नानामणिमयत्वेन नानावर्णों वा 'वेरुलियमणिफालियपडलपच्चोयडे' इति वाहुल्येन वैडूर्यमणिमयः, तथा 'स्फाटिकपटलप्रत्यवतट:' स्फाटिकपटलमयाच्छादनः 'साय पभाए' इति वकीयया प्रभया 'तान्' प्रत्यासन्नान् प्रदेशान् 'सर्वतः' सर्वासु दिक्षु "सम मिस्त्येनावभासयति, एतदेव पर्यायत्रयेण व्याचष्टे-उद्द्योतयति तापयति प्रभासति, 'एवमेवेत्यादि सुगमम् ॥ 'तेसिणं तोरणाण'मित्यादि, तेषां तोरणानां पुरतो द्वौ द्वौ 'हयकण्ठौ' यकण्ठप्रमाणौ रत्नविशेपौ प्रज्ञप्ता, एवं गजकिंनरकिंपुरुषमहोरगगन्धर्ववृषभकण्ठा अपि वाच्याः, उक्तं च मूलटीकायां-"हयकण्ठौ यकण्ठप्रमाणौ रत्नविशेषौ,” एवं सर्वेऽपि कण्ठा वाच्या इति, तथा चाह -'सव्वरयणामया' सर्वे 'रत्नमयाः' रत्नविशेषरूपा 'अच्छा' इत्यादि प्राग्वत् ॥'तेसि णमित्यादि, तेषां तोरणानां पुरतो द्वे द्वे पुष्पचङ्गेयौं प्रज्ञप्तौ, एवं माल्यचूर्णगन्धवस्त्राभरणसिद्धार्थकलोमहस्तकचङ्गेयोऽपि वक्तव्याः, एताश्च सर्वा अपि सर्वात्मना रत्नमय्यः, 'अच्छा' इत्यादि प्राग्वत् ॥ एवं पुष्पादीनामष्टानां पटलकान्यपि द्विद्विसङ्ख्याकानि वाच्यानि ॥ 'तेसि णमित्यादि, तेपा तोरणानां पुरतो द्वे द्वे| Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंहासने प्रज्ञप्ते, तेषां च सिंहासनानां वर्णकः प्रागुक्तो निरवशेषो वक्तव्यो यावद्दामवर्णनम् ॥'तेसि ण'मित्यादि, तेषां तोरणानां पुरतो ३ प्रतिपचौ द्वे द्वे 'रूप्यच्छदे' रूप्याच्छादने छत्रे प्रज्ञप्ते, तानि च छत्राणि वैडूर्यरत्नमयविमलदण्डानि जाम्बूनदकर्णिकानि 'वज्रसन्धीनि' मनुष्या० वरत्नापूरितदण्डशलाकासन्धीनि मुक्ताजालपरिगतानि अष्टौ सहस्राणि-अष्टसहस्रसङ्ख्याका वरकाञ्चनशलाका-वरकाञ्चनमय्यः श- विजयद्वालाका येषु तानि अष्टसहस्रवरकञ्चनशलाकानि 'दद्दरमलयसुगन्धिसयोउयसुरहिसीयलच्छाया' इति दर्दर:-चीवरावनद्धं वर्णनं कुण्डिकादिभाजनमुखं तेन गालितास्तत्र पक्का वा ये मलय इति-मलयोद्भवं श्रीखण्डं तत्सम्बन्धिनः सुगन्धयो गन्धवासास्तद्वत्सर्वेपु उद्देशः१ ऋतुषु सुरभिः शीतला च छाया येषां तानि, तथा 'मंगलभत्तिचित्ता' तेषां अष्टानां मगलानां भक्त्या-विच्छित्त्या चित्रं-आलेखो 5 सू०१३१ येषां तानि मङ्गलभक्तिचित्राणि, तथा 'चंदागारोवमा' इति चन्द्राकार:-चन्द्राकृतिः स उपमा येषां तानि तथा चन्द्रमण्डलवद्वृत्तानीति भावः ॥'तेसि णमित्यादि, तेषां तोरणानां पुरतो द्वे द्वे चामरे प्रज्ञप्ते, तानि च चामराणि 'चंदप्पभवइरवेरुलियनाणामणिरयणखचियदंडा' इति चन्द्रप्रभ:-चन्द्रकान्तो वजं वैडूर्य च प्रतीतं चन्द्रप्रभवअवैडूर्याणि शेषाणि च नानामणिरत्नानि खचितानि येषु दण्डेषु ते तथा, एवंरूपाश्चित्रा-नानाकारा दण्डा येषां चामराणां तानि तथा, सूत्रे स्त्रीत्वं प्राकृतत्वात् , तथा 'सुहुमरययदीहवालाओ' ९ है इति सूक्ष्मा रजतमया दीर्घा वाला येषां तानि तथा, 'संखंककुंददगरयअमयमहियफेणपुंजसंनिकासाओं' इति शङ्खः-प्रती तोऽको-रत्नविशेषः कुन्देति-कुन्दपुष्पं दकरज:-उदककणाः अमृतमथितफेनपुख:-क्षीरोदजलमथनसमुत्थफेनपुलस्तेषामिव संनिकाश:प्रभा येषां तानि तथा, अच्छा इत्यादि प्राग्वत् ॥ 'तेसि ण'मित्यादि, तेषां तोरणानां पुरतो द्वौ द्वौ 'तैलसमुद्को' सुगन्धितैलाधारवि- ॥२१४॥ शेषौ, उक्तं च जीवाभिगममूलटीकायां-"तैलसमुद्गको सुगन्धितैलाधारौ” एवं कोष्ठादिसमुद्का अपि वाच्याः, अत्र Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहणिगाथा-'तेल्लो कोट्ठसमुग्गा पत्ते चोए य तगर एला य । हरियाले हिंगुलए मणोसिला अंजणसमुग्गो ॥१॥" 'सव्व रियणामया' इति एते सर्वेऽपि सर्वात्मना रत्नमयाः 'अच्छा सण्हा' इत्यादि प्राग्वत् ॥ विजये णं दारे असतचक्कद्धयाणं अट्ठसयं मिगड्याणं अहसयं गरुडज्झयाणं अट्टसयं विगद्धयाणं (अट्ठसयं रुरुयज्झयाणं) अट्ठसतं छत्तज्झयाणं अट्ठसयं पिच्छज्झयाणं अट्ठसयं सउणिज्झयाणं असतं सीहज्झयाणं असतं उसभज्झयाणं असतं सेयाणं चउविसाणाणं णागवरकेतूणं एवामेव सपुवावरेणं विजयदारे य आसीयं केउसहस्सं भवतित्ति मक्खायं ॥ विजये णं दारे णव भोमा पण्णत्ता, तेसि णं भोमाणं अंतो बहुसमरमणिज्जा भूमिभागा पण्णत्ता जाव मणीणं फासो, तेसि णं भोमाणं उप्पिं उल्लोया पउमलया जाव सामलताभत्तिचित्ता जाव सव्वतवणिजमता अच्छा जाव पडिरूवा, तेसि णं भोमाणं बहुमज्झदेसभाए जे से पंचमे भोम्मे तस्स णं भोमस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं एगे महं सीहासणे पण्णत्ते, सीहासणवण्णतो विजयदूसे जाव अंकुसे जाव दामा चिट्ठति, तस्स णं सीहासणस्स अवरुत्तरेणं उत्तरेणं उत्तरपुरथिमेणं एत्थ णं विजयस्स देवस्स चउण्हं सामाणियसहस्साणं चत्तारि भद्दासणसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, तस्स णं सीहासणस्स पुरच्छिमेणं एत्थ णं विजयस्स देवस्स चउण्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं चत्तारि भद्दासणा पण्णत्ता, तस्स णं सीहासणस्स दाहिणपुरत्थिमेणं एत्थ णं विजयस्स देवस्स Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभितरियाए परिसाए अट्ठण्हं देवसाहस्सीणं अट्टहं भद्दासणसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, तस्स णं सीहासणस्स दाहिणेणं विजयस्स देवस्स मज्झिमियाए परिसाए दसहं देवसाहस्सीणं दस भद्दासणसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, तस्स णं सीहासणस्स दाहिणपञ्च्चत्थिमेणं एत्थ णं विजयस्स देवस्स बाहिरियाए परिसाए बारसहं देवसाहस्सीणं वारस भद्दासणसाहस्सीओ पण्णत्ताओ ॥ तस्स णं सीहासणस्स पच्चत्थिमेणं एत्थ णं विजयस्स देवस्स सत्तण्हं अणियाहिवतीणं सत्त भद्दासणा पण्णत्ता, तस्स णं सीहासणस्स पुरत्थिमेणं दाहिणेणं पञ्चत्थिमेणं उत्तरेणं एत्थ णं विजयस्स देवस्स सोलस आयरक्खदेवसाहस्सीणं सोलस भद्दासणसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, तंजा - पुरत्थिमेणं चत्तारि साहस्सीओ, एवं चउसुवि जाव उत्तरेणं चत्तारि साहस्सीओ, अवसेसेसु भोमेसु पत्तेयं पत्तेयं भद्दासणा पण्णत्ता ॥ ( सू० १३२ ) 'विजये णं दारे' इत्यादि, तस्मिन् विजये द्वारे 'अष्टशतम्' अष्टाधिकं शतं 'चक्रध्वजानां' चक्रालेखरूपचिहोपेतानां ध्वजानाम्, एवं मृगगरुडरुरुकच्छत्रपिच्छशकुनिसिंहवृषभचतुर्दन्तहस्तिध्वजानामपि प्रत्येकमष्टशतमष्टशतं वक्तव्यम्, 'एनामेव सपुव्वावरेणं' 'एवमेव' अनेन प्रकारेण सपूर्वापरेण सह पूर्वैरपरैश्च वर्त्तत इति सपूर्वापरं सङ्ख्यान तेन विजयद्वारे 'अशीतम्' अशीत्यधिकं केतुसहस्रं भवतीत्याख्यातं मयाऽन्यैश्च तीर्थकृद्भिः ॥ 'विजयस्स णमित्यादि, विजयस्य द्वारस्य पुरतो नव 'भौमानि' विशिष्टानि स्थानानि प्रज्ञप्तानि, तेषां च भौमानां भूमिभागा उल्लोकाच पूर्ववद्वक्तव्याः, तेपां च भौमानां बहुमध्यदेशभागे यत्पश्वमं भौमं तस्य बहुमध्यदेशभागे विजय ३ प्रतिपतौ मनुष्या० विजयद्वा वर्णनं उद्देशः १ सू० १३२ ॥ २१५ ॥ Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वाराधिपतिविजयदेवयोग्यं सिंहासनं प्रज्ञप्तं, तस्य च सिंहासनस्य वर्णनं विजयदुष्यं कुम्भारमुक्तादामवर्णनं प्राग्वत् , तस्य च सिंहासनस्य 'अपरोत्तरस्यां' वायव्यकोणे उत्तरस्यामुत्तरपूर्वस्यां च विजयदेवस्य संबन्धिनां चतुर्णा सामानिकसहस्राणां चत्वारि भद्रासनसहस्राणि प्रज्ञप्तानि, तस्य सिंहासनस्य पूर्वस्यामत्र विजयस्य देवस्य चतसृणामग्रमहिषीणां चत्वारि भद्रासनसहस्राणि प्रज्ञप्तानि, तस्य सिंहासनस्य दक्षिणपूर्वस्यामाग्नेयकोण इत्यर्थः, अत्र विजयदेवस्य 'अभ्यन्तरपर्षदाम्' अभ्यन्तरपर्षद्रूपाणामष्टानां देवसहस्राणां योग्यानि अष्टौ भद्रासनसहस्राणि प्रज्ञप्तानि, तस्य सिंहासनस्य दक्षिणस्यां दिशि अत्र विजयदेवस्य मध्यपर्षदो दशानां देवसहस्राणां योग्यानि दश भद्रासनसहस्राणि प्रज्ञप्तानि, तस्य सिंहासनस्य दक्षिणापरस्यां दिशि नैर्ऋतकोण इत्यर्थः अत्र विजयदेवस्य बाह्यपर्षदो द्वादशानां देवसहस्राणां योग्यानि द्वादश भद्रासनसहस्राणि प्रज्ञप्तानि ॥ 'तस्स णं सीहासणस्से'त्यादि, तस्य सिंहासनस्य पश्चिमायां दिशि अत्र विजयस्य देवस्य सम्बन्धिनां सप्तानामनीकाधिपतीनां योग्यानि सप्त भद्रासनानि प्रज्ञप्तानि, तस्य सिंहासनस्य 'सर्वतः सर्वास दिक्ष 'समन्ततः सामस्त्येन अत्र विजयस्य देवस्य संबन्धिनां पोडशानामात्मरक्षदेवसहस्राणां योग्यानि षोडश भद्रासनसहस्राणि प्रज्ञप्तानि, अवशेषेषु प्रत्येकं प्रत्येकं सिंहासनमपरिवारं सामानिकादिदेवयोग्यभद्रासनरूपपरिवाररहितं प्रज्ञप्तम् ॥ विजयस्स णं दारस्स उवरिमागारा सोलसविहहिं रतणेहिं उवसोभिता, तंजहा–रयणेहिं वयरेहिं वेरुलिएहिं जाव रिटेहिं ॥ विजयस्स णं दारस्स उप्पि बहवे अट्ठमंगलगा पण्णत्ता, तंजहा-सोत्थितसिरिवच्छ जाव दप्पणा सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा । विजयस्स णं Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दारस्स उपि बहये कण्हचामरज्झया जाव सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा विजयस्सणं ३प्रतिपत्ती दारस्स उपि यहवे छत्तातिच्छत्ता तहेव ॥ (सू० १३३) मनुष्या० 'विजयस्स ण'मित्यादि, विजयस्य द्वारस्य 'उवरिमाकारा' इति उपरितन आकार:-उत्तरङ्गादिरूपः षोडशविधै रत्नैरुपशोभितः, 8 विजयद्वा. तद्यथा-रत्नैःसामान्यत: कर्केतनादिभिः १ वजैः२ वैहूय: ३ लोहिताक्षैः ४ मसारगढ़ः ५ हंसगk:६ पुलकैः७ सौगन्धिकैः ८ ज्योतीरसैः९ ते रवर्णनं अङ्कः १० अञ्जनः ११ रजतैः १२ जातरूपैः १३ अञ्जनपुलकैः १४ स्फटिकैः १५ रिष्टैः १६॥ 'विजयस्स ण' मित्यादि, विजयस्य उद्देशः १ द्वारस्य उपरि अष्टावष्टौ स्वस्तिकादीनि मङ्गलकानि प्र०, तद्यथेत्यादिना तान्येवोपदर्शयति-'सव्वरयणामया' इत्यादि प्राग्वत् ।। सू० १३४ से केणट्रेणं भंते! एवं वुचति ?-विजए णं दारे २, गोयमा विजए णं दारे विजए णाम देवे महिडीए महज्जतीए जाव महाणुभावे पलिओवमट्टितीए परिवसति, से णं तत्थ चउण्हं सामाणियसाहस्सीणं चउण्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं तिण्हं परिसाणं सत्तण्हं अणियाणं सत्तण्हं अणियाहिवईणं सोलसण्हं आयरक्खदेवसाहस्सीणं विजयस्स णं दारस्स विजयाए रायहाणीए अण्णेसिं च बहूर्ण विजयाए रायहाणीए वत्थव्वगाणं देवाणं देवीण य आहेवचं जाव दिव्वाई भोगभोगाई मुंजमाणे विहरइ, से तेणटेणं गोयमा! एवं वुचति-विजये दारे विजये दारे, [अदुत्तरं च णं गोयमा! विजयस्स णं दारस्स सासए णामधेज्जे पण्णत्ते जण कयाइ णत्थि ॥२१६॥ ण कयाह ण भविस्सति जाव अवढिए णिचे विजए दारे॥ (सू०१३४) Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटे एवं वचः' इत्यादि प्रभसूत्रं सुगम, भगवानाह-गोयमे'त्यादि, गौतम ! विजये द्वारे विजयो नाम. प्राकृतत्वाद् अव्ययत्वाच्च नामशब्दात्परस्य दावचनस्य लोपस्ततोऽयमर्थः-प्रवाहतोऽनादिकालसन्ततिपतितेन विजय इति नाम्ना देवः | 'महर्द्धिकः' महती ऋद्धिः-भवनपरिवारादिका यस्यासौ महर्द्धिक: 'महाद्युतिकः' महती द्यतिः शरीरगता आभरणगता च यस्यासौ तामहाद्यतिकः, तथा महद् बलं-शारीरः प्राणो यस्य स महाबलः, तथा महद् यशः-ख्यातिर्यस्यासौ महायशाः, महेश इत्याख्या-प्रसिद्धियस्य स महेशाख्यः, अथवा ईशनमीशो भावे घप्रत्ययः ऐश्वर्यमित्यर्थः 'ईश ऐश्वर्ये' इति वचनात् तत ईशनमैश्वर्य आसनः ख्याति अन्त तण्यर्थतया ख्यापयति-प्रथयति यः स ईशाख्यः महांश्वासावीशाख्यश्च महेशाख्यः, कचित् 'महासोक्खे' इति पाठस्तत्र महत सौख्यं प्रभूतसद्वेद्योदयवशाद् यस्य स महासौख्यः पल्योपमस्थितिकः परिवसति, स च तत्र चतुणी सामानिकसहस्राणां चतसृणामग्रमहिषीणां सपरिवाराणां प्रत्येकमेकैकसहस्रसङ्ख्यपरिवारसहितानां तिसृणां अभ्यन्तरमध्यमबाह्यरूपाणां यथाक्रममष्टदशद्वादशदेवसहस्रसङ्ख्याकानां पर्पदा सप्तानामनीकानां-हयानीकगजानीकरथानीकपदात्यनीकमहिषानीकगन्धर्वानीकनाट्यानीकरूपाणां सप्तानामनीकाधिपतीनां षोडशानामामरक्षसहस्राणां विजयस्य द्वारस्य विजयाया राजधान्या अन्येषां च बहूनां विजयराजधानीवास्तव्यानां देवानां देवीनां च 'आहेवच्चंति आधिपत्यम् अधिपतेः कर्म आधिपत्यं रक्षा इत्यर्थः, सा च रक्षा सामान्येनाप्यारक्षकेणेव क्रियते तत आह-पुरस्य पतिः पुरपतिस्तस्य कर्म पौरपत्यं सर्वेषामग्रेसरत्वमिति भावः, तञ्चाग्रेसरत्वं नायकत्वमन्तरेणापि स्वनायकनियुक्ततथाविधगृहचिन्तकसामान्यपुरुषस्येव (स्यात्) ततो नायकत्वप्रतिपत्त्यर्थमाह-'स्वामित्वं' स्वमस्यास्तीति स्वामी तद्भावः स्वामित्वं नायकत्वमित्यर्थः, तदपि च नायकलं कदाचित्पोषकत्वमन्तरेणापि भवति यथा हरिणयथाधिपतेहरिणस्य तत आह-भर्तृत्वं-पोषकत्वं 'डुभृञ् धारणपोपणयोः' Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - नः RECEREAASAR - इति वचनात् , अत एव महत्तरकलं, तदपि चेह महत्तरकत्वं कस्यचिदाज्ञाविकलस्यापि भवति यथा कस्यचिद्वणिजः स्वदासदासीवर्ग ३ प्रतिपत्तौ प्रति तत आह-'आणाईसरसेणावच्चं' आज्ञया ईश्वर आज्ञेश्वरः सेनायाः पतिः सेनापतिः आज्ञेश्वरश्चासौ सेनापतिश्च आज्ञेश्वरसे- मनुष्या० नापतिस्तस्य कर्म आज्ञेश्वरसेनापत्यं स्वसैन्यं प्रत्यद्भुतमाज्ञाप्राधान्यमिति भाव: 'कारयन्' अन्यैर्नियुक्तैः पुरुपैः पालयन् स्वयमेव, महता विजयारवेणेति योग: 'अहय'त्ति आख्यानकप्रतिवद्धानि यदिवा 'अहतानि' अव्याहतानि नित्यानि नित्यानुवन्धीनीति भावः, ये नाट्यगीते , राजधानी नाट्य-नृत्यं गीत-गानं यानि च वादितानि 'तन्त्रीतलतालत्रुटितानि' तत्री-वीणा तलौ-हस्ततली ताल:-कंसिका त्रुटितानि-वा- उद्देशः२ ॐ दिवाणि, तथा यश्च घनमूदद्गः पटुना पुरुषेण प्रवादितः, तत्र घनमृदगो नाम घनसमानध्वनिों मृदगस्तत एतेषां द्वन्द्वस्तेपां रवेण 'दि- सू० १३५ ब्यान्' प्रधानान् भोगार्हा भोगा:-शब्दाद्यो भोगभोगास्तान भुञ्जानः 'विहरति' आस्ते 'से एएणडेण'मित्यादि, तत एतेन 'अर्थेन' कारणेन गौतम! एवमुच्यते-विजयद्वारं विजयद्वारमिति, विजयाभिधानदेवखामिकत्वाद् विजयमिति भावः ॥ कहि णं भंते! विजयस्स देवस्स विजया णाम रायहाणी पण्णत्ता?, गोयमा! विजयस्स णं दारस्स पुरथिमेणं तिरियमसंखेने दीवसमुद्दे वीतिवतित्ता अपणंमि जंबुद्दीचे दीवे बारस जोयणसहस्सा ओगाहित्ता एत्थ णं विजयस्स देवस्स विजया णाम रायहाणी प० यारस जोयणसहस्साई आयामविक्खंभेणं सत्ततीसजोयणसहस्साई नव य अडयाले जोयणसए किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णत्ते ॥ सा णं एगेणं पागारेणं सव्वतो समंता संपरिक्खित्ता ॥ से णं पागारे ॥२१७॥ सत्ततीसं जोयणाई अद्धजोयणं च उ8 उच्चत्तेणं मूले अतेरस जोयणाई विक्खंभेणं मज्झेत्थ Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सक्कोसाइं छजोयणाइं विक्खंभेणं उप्पिं तिणि सद्धकोसाइं जोयणाई विक्खंभेणं मूले विच्छिण्णे मज्झे संखित्ते उप्पि तणुए बाहिं वढे अंतो चउरंसे गोपुच्छसंठाणसंठिते सव्वकणगामए अच्छे जाव पडिरूवे॥से णं पागारे णाणाविहपंचवण्णहिं कविसीसएहिं उवसोभिए, तंजहा-किण्हेहिं जाव सुकिल्लेहिं ॥ ते णं कविसीसका अद्धकोसं आयामेणं पंचधणुसताई विक्खंभेणं देसोणमद्धकोसं उद्धं उच्चत्तेणं सव्वमणिमया अच्छा जाव पडिरूवा ॥ विजयाए णं रायहाणीए एगमेगाए वीसं पणुवीसं दारसतं भवतीति मक्खायं ॥ ते णं दारा बावढि जोयणाई अद्धजोयणं च उड्डे उच्चत्तेणं एक्कतीसं जोयणाई कोसं च विक्खंभेणं तावतियं चेव पवेसेणं सेता वरकणगथूभियागा ईहामिय० तहेव जधा विजए दारे जाव तवणिजवालुगपत्थडा सुहफासा सस्सि(म)रीए सरूवा पासातीया४। तेसि णं दाराणं उभयपासिं दुहतो णिसीहियाए दो वंदणकलसपरिवाडीओ पण्णत्ताओ तहेव भाणियव्वं जाव वणमालाओ ॥ तेसि णं दाराणं उभओ पासिं दुहतो णिसीहियाए दो दो पगंठगा पण्णत्ता, ते णं पगंठगा एकतीसं जोयणाई कोसं च आयामविक्खंभेणं पन्नरस जोयणाई अड्डाइज्जे कोसे बाहल्लेणं पण्णत्ता सव्ववइरामया अच्छा जाव पडिरूवा ॥ तेसि णं पगंठगाणं उप्पिं पत्तेयं २ पासायवडिंसगा पण्णत्ता ॥ ते णं पासायवडिंसगा एकतीसं जोयणाई कोसं च उद्धं उच्चत्तेणं पन्नरस जोयणाई अड्डाइजे य कोसे आयामवि Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ३प्रतिपत्तौ मनुष्या० विजयाराजधानी उद्देश:२ सू० १३५ क्खंभेणं सेसं तं चेव जाव समुग्गया णवरं बहुवयणं भाणितव्वं । विजयाए णं रायधाणीए एगमेगे दारे अट्ठसयं चक्कज्झयाणं जाव अट्ठसतं सेयाणं चउविसाणाणं णागवरकेऊणं, एवामेव स पुवावरेणं विजयाए रायहाणीए एगमेगे दारे आसीतं २ केउसहस्सं भवतीति मक्खायं ॥ विजयाए णं रायहाणीए एगमेगे दारे (तेसि णं दाराणं पुरओ) सत्तरस भोमा पण्णत्ता, तेसिणं भोमाणं (भूमिभागा) उल्लोया (य) पउमलया०भत्तिचित्ता ॥ तेसिणं भोमाणं बहुमज्झदेसभाए जे ते नवमनवमा भोमा तेसि णं भोमाणं बहुमज्झदेसभाए पत्तेयं २ सीहासणा पण्णत्ता, सीहासणवण्णओ जाव दामा जहा हेहा, एत्थ णं अवसेसेसु भोमेसु पत्तेयं पत्तेयं भद्दासणा पण्णत्ता। तेसि णं दाराणं उत्तिमं (उवरिमा) गारा सोलसविधेहिं रयणेहिं उवसोभिया तं चेव जाव छत्ताइछत्ता, एवामेव पुवावरेण विजयाए रायहाणीए पंच दारसता भवंतीति मक्खाया ॥ (सू० १३५) 'कहि णं भंते ! विजयस्सेत्यादि, क भदन्त ! विजयस्य देवस्य विजया नाम राजधानी प्रज्ञप्ता?, भगवानाह-गौतम! विजयस्य द्वारस्य पूर्वस्यां दिशि तिर्यग् असङ्ख्येयान् द्वीपसमुद्रान् 'व्यतिव्रज्य' अतिक्रम्य अत्रान्तरे योऽन्यः जम्बूद्वीपः अधिकृतद्वीपतुल्याभि १ वृत्तिकारा अतिदिशन्ति 'तोरणे'त्यादिगाथात्रयं सूत्रादर्शगतं पर न काप्यादर्शन दृश्यत इदं, अनेकेषु च स्थानेष्वेवं वृत्तिकारप्राप्तानामादर्शानामिदानीन्तनप्राप्यादर्शाना च परस्परं भिन्नतमत्वात् सूत्रवृत्त्योर्वेचित्र्यं न च तादृश उपलभ्यते आदर्श इति निरुपाया वयं सर्वत्र द्वयोरेकत्रीकरणे. ॥२१८॥ 605 Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SHISHASHASHASHISHASHASHISHA घानः, अनेन जम्बूद्वीपानामप्यसोयत्वं सूचयति, तस्मिन् द्वादश योजनसहस्राणि अवगाह्य अत्रान्तरे विजयस्य देवस्य योग्या विजया नाम राजधानी प्रज्ञप्ता मया शेषैश्च तीर्थकृद्भिः, सा च द्वादश योजनसहस्राणि 'आयामविष्कम्भेन' आयामविष्कम्माभ्यां, सप्तत्रिंशद् योजनसहस्राणि नव शतानि 'अष्टाचत्वारिंशानि' अष्टचत्वारिंशदधिकानि किश्चिद्विशेषाधिकानि परिक्षेपेण, इदं च परिक्षेपपरिमाणं 'विक्खंभवग्गदहगुणकरणी वट्टस्स परिरओ होई' इति करणवशात्स्वयमानेतव्यम् ॥ ‘सा ण'मित्यादि, 'सा' विजयाभिधाना राजधानी णमिति वाक्यालङ्कारे एकेन महता प्राकारेण 'सर्वतः' सर्वासु दिक्षु 'समन्ततः सामस्त्येन परिक्षिप्ता ॥ से ण'मित्यादि, दस प्राकारः सप्तत्रिंशतं योजनानामर्द्धयोजनमूर्द्धमुच्चैस्त्वेन मूलेऽर्द्धत्रयोदश योजनानि विष्कम्भेन मध्ये पड् योजनानि सक्रोशानि-एकेन |क्रोशेनाधिकानि विष्कम्भेन उपरि त्रीणि योजनानि सार्द्धकोशानि [योजनानि] सार्द्धानि द्वादश अर्द्धक्रोशाधिकानि (द्वादश) विष्कम्भेन, मूले विस्तीर्णो मध्ये संक्षिप्तो, मूलविष्कम्भतोऽर्द्धस्य श्रुटितत्वात् , उपरि तनुको, मध्यविष्कम्भादप्यर्द्धस्य त्रुटितत्वात् , बहिर्वृत्तोऽन्तश्चतुरस्रो 'गोपुच्छसंस्थानसंस्थितः' ऊर्कीकृतगोपुच्छसंस्थानसंस्थितः 'सवकणगमए' सर्वासना कनकमयः 'अच्छे' इत्यादि विशेषणजातं प्राग्वत् ॥ ‘से ण'मित्यादि, स प्राकारो नानाविधानि च तानि पञ्चवर्णानि च नानाविधपञ्चवर्णानि तैः, नानाविधवं च पञ्चवर्णापेक्षया कृष्णादिवर्णतारतम्यापेक्षया वा द्रष्टव्यं, पञ्चवर्णत्वमेवोपदर्शयति-'किण्हेहिं' इत्यादि ॥'ते णं कविसीसगा'-इत्यादि, तानि कपिशीर्षकाणि प्रत्येकमर्द्धकोशं-धनु:सहस्रप्रमाणमायामेन-दैर्येण पञ्च धनुःशतानि 'विष्कम्भेन' विस्तारेण, देशोनमर्द्धक्रोशमूर्द्ध मुच्चैस्त्वेन | 'सव्वमणिमया' इत्यादि सर्वासना मणिमया 'अच्छा' इत्यादि विशेषणकदम्बकं प्राग्वत् ॥ 'विजयाए णं रायहाणीए' इत्यादि, विजयाया राजधान्या एकैकस्यां बाहायां पञ्चविंश-पञ्चविंशत्यधिकं द्वारशतं २ प्रज्ञप्त, सर्वसङ्ख्यया पञ्च द्वारशतानि ॥ ते णं दारा' Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ प्रतिपत्तौ मनुष्या० विजयार राजधानी उद्देशः २ सू०१३५ 5 इत्यादि, तानि द्वाराणि प्रत्येकं द्वाषष्टियोजनानि अर्द्धयोजनं चोर्द्धमुच्चैस्त्वेन, एकत्रिंशतं योजनानि क्रोशं च विष्कम्भतः, 'तावइयं चेव पवेसेणं' एतावदेव-एकत्रिंशद् योजनानि क्रोशं चेत्यर्थः प्रवेशेन, 'सेया वरकणगथूभियागा' इत्यादि द्वारवर्णनं निरवशेष तावद्वक्तव्यं यावद्वनमालावर्णनम् ॥ 'तेसि णं दाराण'मित्यादि, तेषां द्वाराणां प्रत्येकमुभयोः पार्श्वयोरेकैकनैषेधिकीभावेन 'द्विधातो' द्विप्रकारायां नैपेधिक्यां द्वौ द्वौ 'प्रकण्ठको' पीठविशेषौ प्रज्ञप्तौ, ते च प्रकण्ठकाः प्रत्येकमेकत्रिंशतं योजनानि क्रोशमेकं च आयामविष्कम्भाभ्यां, पञ्चदश योजनानि अर्द्धतृतीयांश्च क्रोशान् बाहल्येन 'सव्ववइरामया' इति सर्वासना ते प्रकण्ठका वनरत्नमयाः 'अच्छा सण्हा' इत्यादि विशेषणजातं प्राग्वत्॥'तेसिं पगंठगाण'मित्यादि, तेषां प्रकण्ठकानामुपरि प्रत्येकं 'प्रासादावतंसकः' प्रासादविशेषः प्रज्ञप्तः ॥ ते णं पासायवडेंसगा' इत्यादि, ते प्रासादावतंसका एकत्रिंशतं योजनानि कोशं चैकमूर्द्धमुच्चैस्त्वेन, पञ्चदश योजनानि अर्द्धतृतीयांश्च क्रोशान आयामविष्कम्भाभ्यां, तेषां च प्रासादानाम् 'अन्भुग्गयमूसियपहसियाविव' इत्यादि सामान्यतः स्वरूपवर्णनम् उल्लोकवर्णनं मध्यभूमिभागवर्णनं सिंहासनवर्णनं विजयदूष्यवर्णनं मुक्तादामोपवर्णनं च विजयद्वारवत् , शेषमपि तोरणादिकं विजयद्वारवदिमाभिर्वक्ष्यमाणाभिर्गाथाभिरनुगन्तव्यं, ता एव गाथा आह्-'तोरणे'त्यादि गाथात्रयं, द्वारेषु प्रत्येकमेकैकस्यां नैषेधिक्यां द्वे द्वे तोरणे वक्तव्ये, तेषां च तोरणानामुपरि प्रत्येकमष्टावष्टौ मङ्गलकानि, तेषां तोरणानामुपरि कृष्णचामरध्वजादयो ध्वजाः, तदनन्तरं तोरणानां पुरतः शालभलिकाः तदनन्तरं नागदन्तकास्तेषु च नागदन्तकेषु दामानि ततो यसवाटादयः सबाटा वक्तव्याः ततो हयपत्यादयः पक्लयस्तदनन्तरं यवीथ्यायो वीथयस्ततो यमिथुनकादीनि मिथुनानि ततः पद्मलतादयो लताः ततः 'सोत्थिया' चतुर्दिक्सौवस्तिका वक्तव्यास्ततो वन्दनकलशास्तदनन्तरं भृङ्गारकास्तत आदर्शकास्ततः स्थालानि ततः पाव्यस्तदनन्तरं सुप्रतिष्ठानि ततो मनोगुलिकास्तासु SAMAGRANGA ॥२१९॥ Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वातकरकाः' वातभृताः करका वातकरका जलशून्या इत्यर्थः, तदनन्तरं चित्रा रत्नकरण्डकास्ततो हयकण्ठा गजकण्ठा नरकण्ठाः, उपलक्षणमेतत् किंनरकिंपुरुषमहोरगगन्धर्ववृषभकण्ठकाः क्रमेण वक्तव्याः, तदनन्तरं पुष्पादिचङ्गयों वक्तव्यास्ततः पुष्पादिपटलकानि ततः सिंहासनानि तदनन्तरं छत्राणि ततश्चामराणि ततस्तैलादिसमुद्गका वक्तव्यास्ततो ध्वजाः, तेषां च ध्वजानामिदं चरमसूत्रम्'एवामेव सपुत्वावरेणं विजयाए रायहाणीए एगमेगंसि दारंसि असीयं असीयं केउसहस्सं भवतीति मक्खायं तदनन्तरं भौमानि वक्त दर्शयति-तेसि गंदाराण'मित्यादि, तेषां द्वाराणां पुरतः सप्तदश सप्तदश भौमानि प्रज्ञप्तानि, तेषां च | भौमानां भूमिभागा उल्लोकाश्च प्राग्वद्वक्तव्याः ॥ "तेसिणं भोमाण मित्यादि, तेषां च भौमानां वहुमध्यदेशभागे यानि नवमनवमानि भौमानि तेषां बहुमध्यदेशभागेषु प्रत्येकं विजयदेवयोग्यं (सिंहासनं यथा) विजयद्वारपञ्चमभौमे किन्तु सपरिवारं सिंहासनं वक्तव्यम् , अवशेषेषु च भौमेषु प्रत्येक सपरिवारं सिंहासनं प्रज्ञप्तं, 'तेसिणं दाराणं उवरिमागारा सोलसविहहिं रयणेहिं उवसोभिता' इत्यादि प्राग्वत् ॥ विजयाए णं रायहाणीए चउद्दिसिं पंचजोयणसताइं अवाहाए, एत्य णं चत्तारि वणसंडा पपणत्ता, तंजहा-असोगवणे सत्तवणवणे चंपगवणे चूतवणे, पुरथिमेणं असोगवणे दाहिणेणं सत्तवण्णवणे पचत्थिमेणं चंपगवणे उत्तरेणं चूतवणे ॥ ते णं वणसंडा साइरेगाई दुवालस जोयणसहस्साई आयामेणं पंच जोयणसयाई विक्खंभेणं पण्णत्ता पत्तेयं पत्तेयं पागारपरिक्खित्ता किण्हा किण्होभासा वणसंडवण्णओ भाणियब्वो जाच बहवे वाणमंतरा देवा य देवीओ य Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 ३ प्रतिपत्ती मनुष्या० वनषण्डा धि० उद्देशः२ सू०१३६ आसयंति सयंति चिट्ठति णिसीदति तुयति रमंति ललंति कीलंति मोहंति पुरापोराणाणं सुचिण्णाणं सुपरिवंताणं सुभाणं कम्माणं कडाणं कल्लाणं फलवित्तिविसेसं पचणुभवमाणा विह'रंति ॥ तेसिणं वणसंडाणं बहुमज्झदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं पासायवडिंसगा पण्णत्ता, ते णं पासायवडिंसगा बावडिं जोयणाई अजोयणं च उ8 उच्चत्तेणं एकतीसं जोयणाई कोसं च आयामविक्खंभेणं अन्भुग्गतमूसिया तहेव जाव अंतो बहुसमरमणिज्जा भूमिभागा पण्णत्ता उल्लोया पउमभत्तिचित्ता भाणियव्वा, तेसि णं पासायवडेंसगाणं बहुमज्झदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं सीहासणा पण्णत्ता वण्णावासो सपरिवारा, तेसि णं पासायवडिंसगाणं उप्पिं बहवे अट्ठमंगलगा झया छत्तातिछत्ता ॥ तत्थ णं चत्तारि देवा महिड्डीया जाव पलिओवमद्वितीया परिवसंति, तंजहा-असोए सत्तवण्णे चंपए चूते ॥ तत्थ णं ते साणं साणं वणसंडाणं साणं साणं पासायवडेंसयाणं साणं साणं सामाणियाणं साणं साणं अग्गमहिसीणं साणं साणं परिसाणं साणं साणं आयरक्खदेवाणं आहेवचं जाव विहरति ॥ विजयाए णं रायहाणीए अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते जाव पंचवणहिं मणीहिं उवसोभिए तणसहविहणे जाव देवा य देवीओ य आसयंति जाव विहरति । तस्स णं बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं एगे महं ओवरियालेणे पण्णत्ते बारस जोयणसयाई आयामक्क्खिंभेणं तिन्नि जोयणसहस्साई ॥२२०॥ Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्त य पंचाणउते जोयणसते किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं अद्धकोसं वाहल्लेणं सव्वजंबूणतामतेणं अच्छे जाव पडिरूवे ॥ से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेणं वणसंडेणं सव्वतो समंता संपरिक्खित्ते पउमवरवेतियाए वण्णओ वणसंडवण्णओ जाव विहरंति, से णं वणसंडे देसूणाई दो जोयणाई चक्कवालविक्खंभेणं ओवारियालयणसमपरिक्खेवेणं ॥ तस्स णं ओवारियालयणस्स चउद्दिसिं चत्तारि तिसोवाणपडिरूवगा पण्णत्ता, वपणओ, तेसि णं तिसोवाणपडिरूवगाणं पुरतो पत्तेयं पत्तेयं तोरणा पण्णत्ता छत्तातिछत्ता ॥ तस्स णं उवारियालयणस्स उप्पि बहुसमरमणिजे भूमिभागे पण्णत्ते जाव मणीहिं उवसोभिते मणिवण्णओ, गंधरसफासो, तस्स णं बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं एगे महं मूलपासायवडिंसए पण्णत्ते, से णं पासायवडिंसए बावहिं जोयणाइं अद्धजोयणं च उडूं उच्चत्तेणं एकतीसं जोयणाई कोसं च आयामविक्खंभेणं अन्भुग्गयमूसियप्पहसिते तहेव तस्स णं पासायवडिंसगस्स अंतो वहुसमरमणिजे भूमिभागे पण्णत्ते जाव मणिफासे उल्लोए ॥ तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभागे एत्थ णं एगा महं मणिपेढिया पनत्ता, सा च एगं जोयणमायामविक्खंभेणं अद्धजोयणं बाहल्लेणं सब्वमणिमई अच्छा सण्हा ॥ तीसे णं मणिपेढियाए उवरिं एगे महं सीहासणे पन्नत्ते, एवं सीहासणवण्णओ सपरिवारो, तस्स णं पासायवडिंसगस्स उप्पिं बहवे अट्ठमंग Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ३ प्रतिपत्तौ मनुष्या० वनपण्डा धि० 5 उद्देशः२ सू०१३६ लगा झया छत्तातिछत्ता ॥ से णं पासायवडिंसए अण्णहिं चउहिं तदुचत्तप्पमाणमेत्तेहिं पासायवडिसएहिं सव्वतो समंता संपरिक्खित्ते, ते णं पासायवडिंसगा एकतीसं जोयणाई को उई उच्चत्तेणं अद्धसोलसजोयणाई अद्धकोसं च आयामविक्खंभेणं अन्भुग्गत० तहेव, तेसिणं पासायवडिंसयाणं अंतो बहुसमरमणिज्जा भूमिभागा उल्लोया ॥तेसि णं बहसमरमणिजाणं भमिभागाणं बहमज्झदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं सीहासणं पण्णत्तं, वण्णओ, तेसिं परिवारभताभदा पण्णत्ता, तेसि णं अट्ठमंगलगा झया छत्तातिछत्ता ॥ ते णं पासायवडिंसका अण्णेहिं चउहिं चउहिं तदबुच्चत्तप्पमाणमेत्तेहिं पासायवडेंसएहिं सव्वतो समंता संपरिक्खित्ता॥ तेणं पासायवडेंसका अद्धसोलसजोयणाई अद्धकोसं च उडू उच्चत्तेणं देसूणाई अट्ट जोयणाई आयामक्खंभेणं अन्भुग्गय तहेव, तेसि णं पासायवडेंसगाणं अंतो बहुसमरमणिज्जा भूमिभागा उल्लोया, तेसि णं बहुसमरमणिजाणं भूमिभागाणं बहुमज्झदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं पउमासणा पनत्ता, तेसिणं पासायाणं अट्ठमंगलगा झया छत्तातिछत्ता ॥ ते णं पासायवडेंसगा अण्णेहिं चउहिं तदद्धच्चत्तप्पमाणमेत्तेहिं पासायवडेंसएहिं सव्वतो समंता संपरिक्खित्ता॥ते णं पासायवडेंसका देसूणाई अह जोयणाई उट्ठे उच्चत्तेणं देसूणाई चत्तारि जोयणाई आयामविक्खंभेणं अभुग्गत भूमिभागा उल्लोया भद्दासणाई उवरिं मंगलगा झया छत्तातिछत्ता, ते णं पासायव ॥२२१॥ Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसगा अण्णेहिं चाहिं तदबुञ्चत्तप्पमाणमेत्तेहिं पासायवडिसएहिं सव्वतो समंता संपरिक्खित्ता । ते णं पासायवडिंसगा देसूणाई चत्तारि जोयणाई उड्ढें उच्चत्तेणं देसूणाई दो जोयणाई आयामविक्खंभेण अब्भुग्गयमूसिय० भूमिभागा उल्लोया पउमासणाई उरि मंगलगा झया छत्ताइच्छत्ता ॥ (सू०१३६) 'विजयाए णं रायहाणीए' इत्यादि, विजयाया राजधान्याः 'चउदिसि'मिति चतस्रो दिशः समाहृताश्चतुर्दिक तस्मिन् चतुदिशि-चतसृषु दिक्षु पञ्च पञ्च योजनशतानि 'अवाहाए' इति बाधनं बाधा-आक्रमणं तस्यामवाधायां कृलेति गम्यते, अपान्त|रालेषु मुक्वेति भावः, चत्वारो वनखण्डाः प्रज्ञप्ताः, 'तद्यथेत्यादि, तानेव वनषण्डान् नामतो दिग्भेदतश्च दर्शयति, अशोकवृक्षप्रधानं वनमशोकवनम् , एवं सप्तपर्णवनं चम्पकवनं चूतवनमपि भावनीयं, 'पुव्वेण असोगवण'मित्यादिरूपा गाथा पाठसिद्धा (अत्र तु न)॥'ते णं वणसंडा' इत्यादि, ते वनखण्डाः सातिरेकाणि द्वादश योजनसहस्राण्यायामेन पञ्च योजनशतानि विष्कम्भेन प्रत्येकं प्रज्ञप्ताः प्रत्येक प्राकारपरिक्षिप्ताः, पुनः कथम्भूतास्ते वनपण्डाः ? इत्यादि पद्मवरवेदिकाबहिर्वनपण्डवत्तावदविशेषेण वक्तव्यं यावत् 'तत्थ णं बहवे वाणमंतरा देवा य देवीओ य आसयंति जाव विहरंति' ॥ 'तेसि णमित्यादि, तेषां वनषण्डानां बहुमध्यदेशभागे प्रत्येकं प्रासादावतंसकाः प्रज्ञप्ताः, ते च प्रासादावतंसका द्वाषष्टिर्योजनान्यद्धयोजनं चोर्द्धमुच्चैस्त्वेन एकत्रिंशतं योजनानि क्रोशं च विष्कम्भेन 'अभु-19 ग्गयमूसियपहसियाविव' इत्यादि प्रासादावतंसकानां वर्णनं निरवशेष तावद्वक्तव्यं यावत्तत्र प्रत्येकं सिंहासनं सपरिवारं । 'तत्थ ण' मित्यादि, तेषु वनपण्डेषु प्रत्येकमेकैकदेवभावेन चत्वारो देवा महर्द्धिका यावत् 'महजइया महाबला महायसा महासोक्खा महाणु Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वा भि० नगि त्तिः २॥ भावा' इतिपरिग्रहः पत्योपमस्थितिकाः परिवसन्ति, तद्यथा--' असोए' इत्यादि, अशोकवनेऽशोकः सप्तपर्णवने सप्तपर्णः चम्पकवने चम्पकः चूतवने चूतः ॥ ' तेसि ण' मि (तत्थ णं ते इ) त्यादि, ते अशोकादयो देवास्तस्य वनखण्डस्य स्वस्य प्रासादावतंसकस्य, सूत्रे बहुवचनं प्राकृतत्वात्, प्राकृते हि वचनव्यत्ययो भवतीति, स्वेषां स्वेषां सामानिकसहस्राणां स्वासां स्वासामप्रमहिषीणां सपरिवाराणां स्वासां स्वासां पर्पदां स्वेषां स्वेपामनीकानां (अनीकाधिपतीनां) स्वेषां स्वेपामात्मरक्षकाणाम् 'आहेवनं पोरेवन' मित्यादि प्राग्वत् ॥ 'विजयाए ण'मित्यादि, विजयाया राजधान्या अन्तर्बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, तस्य 'से जहानामए आलिंगपुखरेइ वा' इत्यादि वर्णनं प्राग्वत् निरवशेषं तावद्वक्तव्यं यावन्मणीनां स्पर्शः, तस्य च बहुममरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागे, अत्र महद् एकमुपकारिकालयनं प्रज्ञप्तं, राजधानीस्वामिसत्कप्रासादावतंसकादीन् उपकरोति-उपष्टभ्रातीत्युपकारिका - राजधानीस्वामिसत्कप्रासादावतंसकादीनां पीठिका, अन्यत्र त्वियमुपकार्योपकारकेति प्रसिद्धा, उक्तभ्व – “गृहस्थानं स्मृतं राज्ञामुपकार्योपकारका" इति, उपकारिकालयनमिव उपकारिकालयनं तद् द्वादश योजनशतानि 'आयामविष्कम्भेन' आयामविष्कम्भाभ्यां त्रीणि योजनसहस्राणि सप्त योजनशतानि पश्वनवतानि-पश्चनवत्यधिकानि किश्विद्विशेपाधिकानि परिक्षेपेण प्रज्ञप्तानि, परिक्षेपपरिमाणं चेदं प्रागुक्तकरणवशात्स्वयमानेतव्यम्, अर्द्धक्रोशं धनुःसहस्रपरिमाणं वाहुल्येन 'सव्वजंबूणयामए' इति सर्वासना जाम्बूनदमयम्, 'अच्छे' इत्यादि विशेषणजातं प्राग्वत् ॥ 'से ण' मित्यादि, 'तद्' उपकारिकालयनम् एकया पद्मवरवेदिकया तत्पृष्ठभाविन्या एकेन च वनपण्डेन 'सर्वतः सर्वासु दिक्षु 'समन्ततः' सामस्त्येन संपरिक्षिप्तं पद्मवरवेदिकावर्णको वनपण्डवर्णकः प्राग्वन्निरवशेषो वक्तव्यो यावत् 'तत्थ यहवे वाणमंतरा देवा य देवीओ य आसयंति सयंति जाव विहरंति' इति ॥ ' तस्स ण' मित्यादि, तस्य उपकारिकालयनस्य 'चउदिसिं' ति चतुर्दिशि चतसृषु ३ प्रतिपत्त मनुष्या० वनपण्डा धि० उद्देशः २ सू० १३६ ॥ २२२ ॥ Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिक्षु एकैकस्यां दिशि एकैकभावेन चत्वारि त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि - प्रतिविशिष्टरूपाणि त्रिसोपानानि प्रज्ञप्तानि त्रिसोपानवर्णकः पूर्ववद्वक्तव्यः, तेषां च त्रिसोपानप्रतिरूपकाणां पुरतः प्रत्येकं प्रत्येकं तोरणं प्रज्ञप्तं, तेषां च तोरणानां वर्णनं प्राग्वद्वक्तव्यम् ॥ ' तस्स णमित्यादि, 'तस्य' उपकारिकालयनस्य उपरि बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, 'से जहानामए' इत्यादि भूमिभागवर्णनं प्राग्व|त्तावद्वाच्यं यावन्मणीनां स्पर्शः, तस्य च बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागेऽत्र महानेको मूलप्रासादावतंसकः प्रज्ञप्तः, स च द्वाषष्टिर्योजनानि अर्द्ध च योजनमूर्द्धमुच्चैस्त्वेन, एकत्रिंशतं योजनानि क्रोशं चायामविष्कम्भाभ्याम्, 'अब्भुग्गयमूसियपहसियाविवेत्यादि, तस्य वर्णनं मध्ये भूमिभागवर्णनं सिंहासनवर्णनं शेषाणि च भद्रासनानि तत्परिवारभूतानि विजयद्वारवहिः स्थितप्रासादवद्भावनीयानि ॥ ' तस्स ण' मित्यादि, तस्य मूलप्रासादावतंसकस्य बहुमध्यदेशभागेऽत्र महती एका मणिपीठिका प्रज्ञप्ता, सा चैकं योजनमायामविष्कम्भाभ्यामर्द्धयोजनं बाहल्येन 'सव्वमणिमयी' इति सर्वासना मणिमयी 'अच्छा सहा' इत्यादि विशेषणकदम्बकं प्राग्वत् ॥ 'ती से ण' मित्यादि, तस्या मणिपीठिकाया उपरि अत्र महदेकं सिंहासनं प्रज्ञप्तं, तस्य च सिंहासनस्य परिवारभूतानि शेषाणि भद्रासनानि प्राग्वद्वक्तव्यानि ॥ ' से ण' मित्यादि, स च मूलप्रासादावतंसकोऽन्यैश्चतुर्भिर्मूलप्रासादावतंस कैस्तदद्धञ्च त्वप्रमाण| मात्रै :- मूलप्रासादावतंसकार्द्धाश्वत्वप्रमाणैः सर्वतः समन्तात्संपरिक्षिप्तः, तदर्द्धाच्चत्व प्रमाणमेव दर्शयति - एकत्रिंशतं योजनानि क्रोशं चैकमूर्द्धमुचैस्त्वेन, पञ्चदश योजनानि अर्द्धतृतीयांश्च क्रोशान् आयामविष्कम्भाभ्यां तेषामपि 'अब्भुग्गयमूसिय पह सियाविवेत्यादि स्वरूपवर्णनं मध्ये भूमिभागवर्णनमुल्लोकवर्णनं च प्राग्वत् ॥ ' तेसि ण 'मित्यादि तेषां प्रासादावतंसकानां बहुमध्यदेशभागे प्रत्येकं प्रत्येकं सिंहासनं प्रज्ञप्तं, तेषां च सिंहासनानां वर्णनं प्राग्वत्, नवरमत्र सिंहासनानां शेषाणि परिवारभूतानि न वक्तव्यानि ॥ ' ते णं पासा - Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "CLEARSA यव.सया' इत्यादि, ते प्रासादावतंसका अन्यैश्चतुर्भिः प्रासादावतंसकैस्तदोच्चत्वप्रमाणमात्रैः-मूलप्रासादावतंसकपरिवारभूतप्रासादाव ८३ प्रतिपत्ती तंसकार्बोच्चत्वप्रमाणमात्रैर्मूलप्रासादापेक्षया चतुर्भागमात्रप्रमाणैरित्यर्थः सर्वतः समन्तात्संपरिक्षिप्ताः, तदोच्चत्वप्रमाणमेव दर्शयति मनुष्या० -'ते ण'मित्यादि, ते प्रासादावतंसका: पञ्चदश योजनानि अर्द्धतृतीयांश्च क्रोशान् ऊर्द्धमुच्चस्त्वेन देशोनानि अष्टौ योजनानि आया- सभावर्णनं - मविष्कम्भाभ्यां, सूत्रे च 'आयामविक्खंभेणं'ति एकवचनं समाहारविवक्षणात् , एवमन्यत्रापि भावनीयम् , एतेषामपि 'अन्भुग्गयमू-6 उद्देशः२ है सियेत्यादि स्वरूपवर्णनं मध्येभूमिभागवर्णनमुल्लोकवर्णनं सिंहासनवर्णनं च प्राग्वत् केवलमत्रापि सिंहासनमपरिवारं वक्तव्यम् ॥ सू० १३६ 'ते णमित्यादि, तेऽपि प्रासादावतंसका अन्यैश्चतुर्भिः प्रासादावतंसकैस्तदोच्चप्रमाणमात्रैः-अनन्तरोक्तप्रासादावतंसकार्बोच्चलप्रमाणेनर्मूलप्रासादापेक्षयाऽष्टभागमात्रप्रमाणैरित्यर्थः सर्वतः समन्तात्संपरिक्षिप्ताः, तदेव तदोच्चत्वप्रमाणमात्रमुपदर्शयति-ते णमित्यादि, ते प्रासादावतंसका देशोनानि अष्टौ योजनानि ऊर्द्धमुच्चैस्त्वेन देशोनानि चत्वारि योजनान्यायामविष्कम्भाभ्यां तेषामपि 'अब्भुग्गयमूसियपहसियाविवेत्यादि स्वरूपादिवर्णनमनन्तरप्रासादावतंसकवत् ॥ (एतयोः सूत्रयोर्मूलपाठो न दृश्यते) ते ण'मित्यादि, तेऽपि च प्रासा६ दावतंसका अन्यैश्चतुर्भिः प्रासादावतंसकैस्तदोच्चत्वप्रमाणमात्रै:-अनन्तरोक्तप्रासादावतंसकार्बोच्चत्वप्रमाणमात्रैर्मूलप्रासादावतंसकापेक्षया पोडशभागप्रमाणमात्रैरित्यर्थः सर्वतः समन्ततः संपरिक्षिप्ताः, तोच्चत्वप्रमाणमेव दर्शयति-'ते णमित्यादि, ते प्रासादावतंसका देशोनानि चत्वारि योजनान्यू मुच्चैस्त्वेन देशोने द्वे योजने आयामविष्कम्भाभ्यां, तेषामपि स्वरूपवर्णनं मध्येभूमिभागवर्णनमुल्लोकवर्णनं सिंहासनवर्णनं च परिवारवर्जितं प्राग्वत् , तदेवं चतस्रः प्रासादावतंसकपरिपाट्यो भवन्ति, कचित्तिस्र एव दृश्यन्ते न ॥२२३॥ चतुर्थी ।। NAGARIKAASANA कस्तदर्बोच्चत्वप्रमात् ॥ (एतयोः सत्र रेत्यर्थः Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्स णं मूलपासायवडेंसगस्स उत्तरपुरस्थिमे णं एत्थ णं विजयस्स देवस्स सभा सुधम्मा पण्णत्ता अद्धत्तेरसजोयणाई आयामेणं छ सक्कोसाइं जोयणाई विक्खंभेणं णव जोयणाई उडे उच्चतेणं, अणेगखंभसतसंनिविट्ठा अन्भुग्गयसुकयवइरवेदिया तोरणवररतियसालभंजिया सुसिलिट्रविसिट्रलट्रसंठियपसत्थवेरुलियविमलखंभा णाणामणिकणगरयणखइयउज्जलबहसमसुविभत्तचित्त(णिचिय)रमणिज्जकुटिमतला ईहामियउसभतुरगणरमगरविहगवालगकिण्णररुरुसरभचमरकुंजरवणलयपउमलयभत्तिचित्ता थंभुग्गयवइरवेइयापरिगयाभिरामा विजाहरजमलजुयलजंतजुत्ताविव अचिसहस्समालणीया रूवगसहस्सकलिया भिसमाणी भिभिसमाणी चक्खुलोयणलेसा सुहफासा सस्सिरीयरूवा कंचणमणिरयणथूभियागा नाणाविहपंचवण्णघंटापडागपडिमंडितग्गसिहरा धवला मिरीइकवचं विणिम्मुयंती लाउल्लोइयमहिया गोसीससरसरत्तचंदणदद्दरदिन्नपंचंगुलितला उवचियचंदणकलसा चंदणघडसुकयतोरणपडिदुवारदेसभागा आसत्तोसत्तविउलवद्वग्घारियमल्लदामकलावा पंचवण्णसरससुरभिमुक्कपुप्फपुंजोवयारकलिता कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुक्कधूवमघमघेतगंधुद्धयाभिरामा सुगंधवरगंधिया गंधवहिभूया अच्छरगणसंघसंविकिन्ना दिव्वतुडियमधुरसद्दसंपणाइया सुरम्मा सव्वरयणामती अच्छा जाव पडिरूवा ॥ तीसे णं सोहम्माए सभाए तिदिसिं तओ दारा पण्णत्ता ॥ ते णं दारा पत्तेयं पत्तेयं Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३प्रतिपत्तौ मनुष्या० सभावर्णनं उद्देशः२ सू० १३७ KARANAMESGRAMRICANCE दो दो जोयणाइं उर्दू उच्चत्तेणं एग जोयणं विक्खंभेणं तावइयं चेव पवेसेणं सेया वरकणगथभियागा जाव वणमालादारवन्नओ॥तेसि णं दाराणं पुरओ मुहमंडवा पण्णत्ता, ते णं मुहमंडवा अद्भुतेरसजोयणाई आयामेणं छजोयणाई सकोसाइं विक्खंभेणं साइरेगाइं दो जोयगाई उ8 उच्चत्तेणं मुहमंडवा अणेगखंभसयसंनिविट्ठा जाव उल्लोया भूमिभागवण्णओ॥ तेसि णं मुहमडवाणं उवरिं पत्तेयं पत्तेयं अट्ठ मंगला पण्णत्ता सोत्थिय जाव मच्छ०॥ तेसि णं मुहमंडवाणं पुरओ पत्तेयं पत्तेयं पेच्छाघरमंडवा पण्णत्ता, ते णं पेच्छाघरमंडवा आद्धतेरसजोयणाई आयामेणं जावदोजोयणाई उहुंउच्चत्तेणं जाव मणिफासो॥ तेसि णं बहुमज्झदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं वइरामयअक्खाडगा पण्णत्ता, तेसि णं वइरामयाणं अक्खाडगाणं बहुमज्झदेसभाए पत्तेयं २ मणिपीढिया पण्णत्ता, ताओ णं मणिपीढियाओ जोयणमेगं आयामविक्खंभेणं अद्धजोयणं बाहल्लेणं सव्वमणिमईओ अच्छाओ जाव पडिरूवाओ॥ तासि णं मणिपीढियाणं उपि पत्तेयं पत्तेयं सीहासणा पण्णत्ता, सीहासणवण्णओ जाव दामा परिवारो। तेसि णं पेच्छाघरमंडवाणं उप्पि अट्ठमंगलगा झया छत्तातिछत्ता॥तेसिणं पेच्छाघरमंडवाणं पुरतो तिदिसिं तओ मणिपेढियाओ पं०ताओ णं मणिपेढियाओदो जोयणाई आयामविक्खंभेणं जोयणं बाहल्लेणं सब्वमणिमतीओ अच्छाओजाव पडिरूवाओ॥ तासि णं मणिपेढियाणं उप्पि पत्तेयं पत्तेयं चेइयथूभा पण्णत्ता, ते णं चेइयथूभा ॥२२४ ॥ Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो जोयणाई आयामविक्खंभेणं सातिरेगाइं दो जोयणाई उहुं उच्चत्तेणं सेया संखंककुंदद्गरयामयमहितफेणपुंज सण्णिकासा सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा ॥ तेसि णं चेहयधूभाणं उपि अट्ठ मंगलगा बहुकिण्हचामरझया पण्णत्ता छत्तातिछत्ता ॥ तेसि णं चेतियधूभाणं उद्दिसिं पत्तेयं पत्तेयं चत्तारि मणिपेढियाओ प०, ताओ णं मणिपेढियाओ जोयणं आयामविक्खंभेणं अद्धजोयणं बाहल्लेणं सव्वमणिमईओ ॥ तासि णं मणिपीढियाणं उपिं पत्तेयं पत्तेयं चत्तारि जिणपडिमाओ जिणुस्सेहपमाणमेत्ताओ पलियंकणिसण्णाओ धूभाभिमुहीओ सन्निविद्वाओ चिति, तंजहा—उसभा वद्धमाणा चंद्राणणा वारिसेणा ॥ तेसि णं चेतियथूभाणं पुरतो तिदिसिं पत्तेयं पत्तेयं मणिपेढियाओ पन्नत्ताओ, ताओ णं मणिपेढियाओ दो दो जोयणाई आयामविक्खंभेणं जोयणं बाहल्लेणं सव्वमणिमईओ अच्छाओ लण्हाओ सण्हाओ घट्टाओ मट्ठाओ णिष्पंकाओ णीरयाओ जाव पडिरूवाओ । तासि णं मणिपेढियाणं उपिं पत्तेयं पत्तेयं चेहयरुक्खा पण्णत्ता, ते णं चेतियरुक्खा अट्ठजोयणाई उड्डुं उच्चत्तेणं अद्धजोयणं उच्वेहेणं दो जोयणाई खंधी अद्धजोयणं विक्खंभेणं छजोयणाई विडिमा बहुमज्झदेसभाए अजोयणाई आयामचिक्खंभेणं साइरेगाइं अट्ठजोयणाई सव्वग्गेणं पण्णत्ताई । तेसि णं चेइयरुक्खाणं अय तावे वण्णावासे पण्णत्ते, तंजहा — वइरामया मूला रययसुपतिट्ठिता विडिमा रिट्ठामयविपुल Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ प्रतिपत्तौ मनुष्या० सभावर्णनं उद्देशः २ सू० १३७ कंदवेरुलियरुतिलखंधा सुजातरूवपढमगविसालसाली नाणामणिरयणविविधसाहप्पसाहवेरुलियपत्ततवणिजपत्तवेंटा जंबूणयरत्तमउयसुकुमालपवालपल्लवसोभंतवरंकुरग्गसिहरा विचित्तमणिरयणसुरभिकुसुमफलभरणमियसाला सच्छाया सप्पभा समिरीया सउज्जोया अमयरससमरसफला अधियं णयणमणणिव्वुतिकरा पासातीया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा ॥ ते णं चेयरुक्खा अन्नेहिं यहहिं तिलयलवयछत्तोवगसिरीससत्तवन्नदहिवनलोधवचंदणनीवकडयकर्ययपणसतालतमालपियालपियंगुपारावयरायरुक्खनंदिरुक्खेहिं सवओ समंता संपरिक्खित्ता ॥ ते णं तिलया जाव नंदिरुक्खा मूलवंतो कन्दमंतो जाव सुरम्मा ॥ ते णं तिलया जाव नंदिरुक्खा अन्नेहिं पहहिं पउमलयाहिं जाव सामलयाहिं सव्वतो समंता संपरिक्खित्ता, ताओ णं पउमलयाओ जाव सामलयाओ निचं कुसुमियाओ जाव पडिरूवाओ॥ तेसिणंचेतियरुक्खाणं उपि यहवे अट्ठमंगलगा झया छत्तातिछत्ता ॥ तेसि णं चेइयरुक्खाणं पुरतो तिदिसिं तओ मणिपेढियाओ पण्णत्ताओ, ताओ णं मणिपेढियाओ जोयणं आयामविक्खंभेणं अद्धजोयणं याहलेणं सव्वमणिमतीओ अच्छा जाव पडिरूवाओ ॥ तासि णं मणिपेढियाणं उप्पि पत्तेयं पत्तेयं माहिंदझया अट्ठमाई जोयणाई उडे उच्चत्तेणं अद्धकोसं उब्वेहेणं अद्धकोसं विक्खंभेणं वइरामयवद्दलहसंठियसुसिलिट्ठपरिघट्टमहसुपतिहिता विसिहा अणेगवरपंचव ॥२२५॥ Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2ॐॐ4%95%2595%252%25% ण्णकुडभीसहस्सपरिमंडियाभिरामा वाउछुयविजयवेजयंतीपडागा छत्तालिछत्तकलिया तुंगा गगणतलमभिलंघमाणसिहरा पासादीया जाव पडिरूवा ॥ तेसि णं महिंदज्झयाणं उपिं अट्टट्ठमंगलगा झया छत्तातिछत्ता ॥ तेसि णं महिं दज्झयाणं पुरतो तिदिसिं तओ णंदाओ पुक्खरिणीओ पं० ताओ णं पुक्खरिणीओ अद्धतेरसजोयणाई आयामेणं सकोसाई छ जोयणाई विक्खंभेणं दसजोयणाई उव्वेहेणं अच्छाओ सण्हाओ पुक्खरिणीवण्णओ पत्तेयं पत्तेयं पउमवरवेड्यापरिक्खित्ताओ पत्तेयं पत्तेयं वणसंडपरिक्खित्ताओ वण्णओ जाव पडिरूवाओ॥ तेसिणं पुक्खरिणीणं पत्तेयं २ तिदिसि तिसोवाणपडिरूवगा पं०, तेसि णं तिसोवाणपडिरूवगाणं वण्ण ओ, तोरणा भाणियव्वा, जाव छत्तातिच्छत्ता सभाए णं सुहम्माए छ मणोगुलिसाहस्सीओ पएणत्ताओ, तंजहा-पुरथिमे णं दो साहस्सीओ पचत्थिमेणं दो साहस्सीओ दाहिणेणं एगसाहस्सी उत्तरेणं एगा साहस्सी, तासु णं मणोगुलियासु बहवे सुवण्णरुप्पामया फलगा पण्णत्ता, तेसु णं सुवण्णरुप्पामएसु फलगेसु बहवे वइरामया णागदंतगा पण्णत्ता, तेसु णं वइरामएसु नागदंतएसु बहवे किण्हसुत्तववग्धारितमल्लदामकलावा जाव सुक्किलवद्वग्धारितमल्लदामकलावा, ते णं दामा तवणिजलंबूसगा जाव चिट्ठति ॥ सभाए णं सुहम्माए छगोमाणसीसाहस्सीओ पण्णत्ताओ तंजहा-पुरत्थिमेणं दो साहस्सीओ, एवं पञ्चत्थिमेणवि दाहिणेणं सहस्सं एवं Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . జc. SASARANG ३ प्रतिपचौ मनुष्या० सभावर्णन उद्देश:२ सू०१३७ లో उत्तरेणवि, तासु णं गोमाणसीसु यहवे सुवण्णरुप्पमया फलगा पं० जाच तेसु णं वइरामएसु नागदंतएसु बहवे रयतामया सिकता पण्णत्ता, तेसुणं रयतामएस सिकएसु बहवे वेरुलियामईओ धूवघडिताओ पण्णत्ताओ, ताओ णं धूवघडियाओ कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुक्क जाव घाणमणणिचुइकरेणं गंधणं सव्वतो समंता आपूरेमाणीओ चिट्ठति । सभाए णं सुधम्माए अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते जाव मणीणं फासो उल्लोया पउमलयभत्तिचित्ता जाव सव्वतवणिजमए अच्छे जाव पडिरूवे ॥ (सू० १३७) 'तस्स ण'मित्यादि, तस्य मूलप्रासादावतंसकस्य 'उत्तरपूर्वस्याम्' ईशानकोण इत्यर्थः, 'अत्र' एतस्मिन् भागे विजयस्य देवस्य योग्या सभा सुधर्मा नाम विशिष्टच्छन्दकोपेता साऽर्द्धत्रयोदशयोजनान्यायामेन पट् सक्रोशानि योजनानि विष्कम्भेन नव योजनानि ऊर्द्ध मुञ्चैस्त्वेन 'अप्पेगे'त्यादि अनेकेपु स्तम्भशतेपु सन्निविष्टा अनेकस्तंभशतसन्निविष्टा 'अभुग्गयसुकयवरवेइया तोरणवररइयसालभंजिया सुसिलिट्ठविसिट्ठलट्ठसंठियपसत्थवेरुलियविमलखंभा' अभ्युद्गता-अतिरमणीयतया द्रष्टणां प्रत्यभिमुखमुत्-प्राबल्येन स्थिता सुकृतेव सुकृता निपुणशिल्पिरचितेवेति भावः, अभ्युद्गता चासौ सुकृता च अभ्युद्गतसुकृता वनवेदिका-द्वारमुण्डकोपरि वजरत्नमयी वेदिका तोरणं चाभ्युद्गतसुकृतं यत्र सा तथा, तथा वराभिः-प्रधानाभिः रचिताभि:-विरचिताभिः रतिदाभिर्वा सालभलिकाभिः सुश्लिष्टा-संबद्धा विशिष्टं-प्रधानं लष्ठं-मनोज्ञं संस्थितं-संस्थानं येपां ते विशिष्टलष्टसंस्थिताः प्रशस्ता:-प्रशंसास्पदीभूता वैड्रयेस्तम्भा:-वैडूर्यरत्नमया: स्तम्भा यस्यां सा वररचित्तशालभजिकासुश्लिष्टविशिष्टलष्टसंस्थितप्रशस्तवैडूर्यस्तम्भा, ततः पूर्वपदेन कर्मधारयः, तथा नानामणिकन ४ ॥२२६॥ Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करनानि खचितानि यत्र स नानामणिकनकरत्नखचितः, निष्टान्तस्य परनिपातो भार्यादिदर्शनात् , नानामणिकनकरत्नखचितः उ-15 ज्ज्वलो-निर्मलो बहुसम:-अत्यन्तसमः सुविभक्तो निचितो-निबिडो रमणीयश्च भूमिभागो यस्यां सा नानामणिकनकरत्नखचितोज्वPालबहुसमसुविभक्त (निचितरमणीय) भूमिभागा 'ईहामिगउसहतुरगनरमगरविहगवालगकिन्नररुरुसरभचमरकुञ्जरवणलयपउमलयभत्ति-IN चित्ता' इति तथा स्तम्भोद्गतया-स्तम्भोपरिवर्तिन्या वज्रवेदिकया-वत्ररत्नमय्या वेदिकया परिगता सती याऽभिरामा स्तम्भोद्गतवजवेदिकापरिगताभिरामा 'विजाहरजमलजुगलजंतजुत्ताविव अच्चिसहस्समालणीया रूवगसहस्सकलिया 'भिसमाणा भिभिसमाणा चक्खुल्लोयणलेसा सुहफासा सस्सिरीयरूवा' इति प्राग्वत् 'कंचणमणिरयणथूभियागा' इति काञ्चनमणिरत्नानां स्तूपिका-शिखरं यस्याः सा काञ्चनमणिरत्नस्तूपिकाका 'नाणाविहपंचवण्णघंटापडागपरिमंडियग्गसिहरा' नानाविधाभि:-नानाप्रकाराभिः पञ्चवर्णाभिर्घण्टाभिः पताकाभिश्च परि-सामस्येन मण्डितमप्रशिखरं यस्याः सा नानाविधपञ्चवर्णघण्टापताकापरिमण्डिताप्रशिखरा 'धवला' श्वेता मरीचिकवचं-किरणजालपरिक्षेपं विनिर्मुञ्चन्ती 'लाउल्लोइयमहिया' इति लाइयं नामः यद् भूमेोमयादिना उपलेपनम् उल्लोइयं-कुड्यानां मालस्य च सेटिकादिभिः संमृष्टीकरणं लाउल्लोइयं ताभ्यामिव महिता-पूजिता लाउल्लोइयम हिता, तथा गोशीर्षेण-गोशीर्पनामचन्दनेन सरसरक्तचन्दनेन दईरेण-बहलेन चपेटाकारेण वा दत्ताः पञ्चाङ्गलयस्तला-हस्तका यत्र सा गोशीर्षकसरसरक्तचन्दनददरदत्तपञ्चाङ्गुलितला, तथा उपचिता-निवेशिता वन्दनकलशा-मङ्गलकलशा यस्यां सा उपचितवन्दनकलशा 'चंदणघडसुकयतोरणपडिदुवारदेसभागा' इति चन्दनघटै:-चन्दनकलशैः सुकृतानि-मुष्ठ कृतानि शोभनानीति तात्पर्यार्थः यानि तोरणानि तानि चन्दनघटसुकृतानि तोरणानि प्रतिद्वारदेशभागे यस्यां सा चन्दनघदसुकृततोरणप्रतिद्वारदेशभागा, तथा 'आसत्तोसत्तववग्घारिय-॥ Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 . ३प्रतिपत्तौ मनुष्या० सभावर्णनं उद्देशः२ सू० १३७ SROADCARAM 4 - - - मल्लदामकलावा' इति आ-अवाङ् अधोभूमौ सक्त आसक्तो भूमौ लग्न इत्यर्थः ऊर्द्ध सक्त उत्सक्त:-उल्लोचतले उपरिसंवद्ध इत्यर्थः, विपलो-विस्तीर्णः वृत्तो-वर्नुल: 'वग्धारिय' इति प्रलम्बितो माल्यदामकलाप:-पुष्पमालासमूहो यस्यां सा आसक्तोसक्तविपुलवृत्तव-2 8 ग्धारितमाल्यदामकलापा, तथा पञ्चवर्णेन सरसेन-सच्छायेन सुरभिणा मुक्तेन-क्षिप्तेन पुष्पपुजलक्षणेनोपचारेण-पूजया कलिता प श्ववर्णसरससुरभिमुक्तपुष्पपुजोपचारकलिता 'कालागुरुपवरकुन्दुरुक्कतुरुकधूवमघमघेतगंधुद्धयाभिरामा सुगंधवरगंधगंधिया गंधवहिभूया' इति प्राग्वत् , 'अच्छरगणसंघसंविकिण्णा' इति अप्सरोगणानां सङ्कः-समुदायस्तेन सम्यग-रमणीयतया विकीर्णा-व्याप्ता 'दिव्वतडियसहसंपणादिया' इति दिव्यानां त्रुटिताना-आतोद्यानां वेणुवीणामृदगादीनां ये शब्दास्तैः सम्यक-श्रोत्रमनोहारितया प्रकर्षेण नादिता-शब्दवती दिव्यत्रुटितसंप्रणादिता 'अच्छा सण्हा जाव पडिरूवा' इति प्राग्वत् ॥ 'तीसे णं सभाए ण'मित्यादि, सभायाः सुधर्मायाः 'त्रिदिशि' तिसृषु दिक्षु एकैकस्यां दिशि एकैकद्वारभावेन त्रीणि द्वाराणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-एक पूर्वस्यामेकं दक्षि-5 णस्यामेकमुत्तरस्याम् ॥ 'ते णं दारा' इत्यादि, तानि द्वाराणि प्रत्येकं प्रत्येकं द्वे द्वे योजने ऊर्द्धमुच्चस्त्वेन योजनमेकं विष्कम्भेन 'तावइयं चेवेति योजनमेकं प्रवेशेन 'सेया वरकणगथूभियागा' इत्यादि प्रागुक्तं द्वारवर्णनं तदेतावद्वक्तव्यं यावद्वनमाला इति ॥ 'तेसि णमित्यादि, तेषां द्वाराणां पुरतः प्रत्येकं प्रत्येकं मुखमण्डप: प्रज्ञप्तः, ते च मुखमण्डपा अर्द्धत्रयोदश योजनानि आयामेन, पड़ योजनानि सकोशानि विष्कम्भेन, सातिरेके द्वे योजने ऊर्द्ध मुस्त्वेन, एतेपामपि 'अणेगखंभसयसन्निविट्ठा' इत्यादि वर्णनं सुधायाः सभाया इव निरवशेष द्रष्टव्यं, तेषां मुखमण्डपानामुल्लोकवर्णनं बहुसमरमणीयभूमिभागवर्णनं च यावन्मणीनां स्पर्शः प्राग्वत् ॥ 'तेसि ण'मित्यादि, तेषां मुखमण्डपानामुपरि अष्टावष्टौ मङ्गलकानि-खस्तिकादीनि प्रज्ञप्तानि, तान्येवाह-'तंजहे'त्यादि, एतच विशेषणं -- RSSESSAGARMANANTA -- ॥२२७॥ Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधर्मासभाया अपि द्रष्टव्यम् ॥ 'तेसि ण' मित्यादि, तेषां मुखमण्डपानां पुरतः प्रत्येकं २ प्रेक्षागृहमण्डपः प्रज्ञप्तः, तेऽपि च प्रेक्षागृहमण्डपा अर्द्धत्रयोदश योजनान्यायामेन, सक्रोशानि षड् योजनानि विष्कम्भेन, सातिरेके द्वे योजने ऊर्द्धमुश्चैस्त्वेन, प्रेक्षागृहमण्डपानां च भूमिभागवर्णनं पूर्ववत्तावद्वाच्यं यावन्मणीनां स्पर्शः ॥ ' तेसि ण' मित्यादि तेषां च बहुसमरमणीयानां भूमिभागानां बहुमध्यदेशभागे प्रत्येकं प्रत्येकं वज्रमयः 'अक्षपाटक:' चतुरस्राकारः प्रज्ञप्तः, तेषां चाक्षपाटकानां बहुमध्यदेशभागे प्रत्येकं प्रत्येकं मणिपीठिका: प्रज्ञप्ताः, ताच मणिपीठिका योजनमेकमायामविष्कम्भाभ्यामर्द्धयोजनं वाहल्येन 'सव्यमणिमईओ' इति सर्वात्मना मणिमय्य: 'अच्छा' इत्यादि । विशेषणकदम्बकं प्राग्वत् ॥ 'तासि ण' मित्यादि, तासां मणिपीठिकानामुपरि प्रत्येकं प्रत्येकं सिंहासनं प्रज्ञप्तं, तेषां च सिंहासनानां वर्णनं परिवारश्च प्राग्वद्वक्तव्यः, तेषां च प्रेक्षागृह मण्डपानामुपरि अष्टावष्टौ स्वस्तिकादीनि मङ्गलकानि प्रज्ञप्तानि, कृष्णचामरध्वजादि । च प्राग्वद्वक्तव्यम् ॥ 'तेसि ण'मित्यादि, तेषां प्रेक्षागृहमण्डपानां पुरतः प्रत्येकं प्रत्येकं मणिपीठिकाः प्रज्ञप्ताः, ताश्च मणिपीठिका: प्रत्येकं द्वे द्वे योजने आयामविष्कम्भाभ्यां योजनमेकं वाहल्येन सर्वासना मणिमय्य: अच्छा इत्यादि प्राग्वत् ॥ 'तासि ण' मित्यादि, | तासां मणिपीठिकानामुपरि प्रत्येकं प्रत्येकं चैत्यस्तूपाः प्रज्ञप्ताः, ते च चैत्यस्तूपाः सातिरेके द्वे योजने ऊर्द्धमुच्चैस्त्वेन द्वे योजने आयामविष्कम्भाभ्यां शङ्खाङ्ककुन्ददकरजोऽमृतमथितफेनपुञ्जसंनिकाशाः सर्वात्मना रत्नमया अच्छा: लक्ष्णा इत्यादि प्राग्वत् ॥ 'सिग'मित्यादि, तेषां चैत्यस्तूपानामुपरि अष्टावष्टौ मङ्गलकानि वहवः कृष्णचामरध्वजा इत्यादि प्राग्वत् ॥ "तेसि ण' मित्यादि, तेषां चैत्यस्तूपानां प्रत्येकं प्रत्येकं 'चतुर्दिशि' चतसृषु दिक्षु एकैकस्यां दिशि एकैकमणिपीठिकाभावेन चतस्रो मणिपीठिका: प्रज्ञप्ताः, ताच मणिपीठिका योजनमायामविष्कम्भाभ्यामर्द्ध योजनं बाहुल्येन सर्वासना मणिमय्यः अच्छा इत्यादि प्राग्वत् ॥ 'तासि णमित्यादि, Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीजीवा- म रीयावृत्तिः २२८॥ +36 SESSISSE तासां मणिपीठिकानामुपरि एकैकस्या मणिपीठिकाया उपरि एकैकप्रतिमाभावेन चतस्रो जिनप्रतिमा जिनोत्सेधः-उत्कर्षतः पञ्च धनु:- प्रतिप शतानि जघन्यतः सप्त हस्ताः, इह तु पञ्च धनुःशतानि संभाव्यन्ते, 'पलियंकनिसन्नाओ' इति पर्यकासननिषण्णाः स्तूपाभिमुख्य- मनुष्य स्तिष्ठन्ति, तद्यथा-ऋषभा वर्द्धमाना चन्द्रानना वारिषेणा ॥ 'तेसि णमित्यादि, तेषां चैत्यस्तूपानां पुरतः प्रत्येकं प्रत्येक मणिपीठिकाः 8 सभावा | प्रज्ञप्ताः, ताश्च मणिपीठिका द्वे द्वे योजने आयामविष्कम्भाभ्यां योजनमेकं बाहल्येन सर्वासना मणिमय्यः अच्छा इत्यादि प्राग्वत् । उद्देश: तासां च मणिपीठिकानामुपरि प्रत्येक प्रत्येकं चैत्यवृक्षाः प्रज्ञप्ताः । ते चैत्यवृक्षा अष्टौ योजनान्यूद्धमुच्चैस्त्वेन अर्द्धयोजनमुत्सेधेन उण्डत्वेन * सू०१३ द्वे योजने उश्चैस्त्वेन स्कन्धः स एवार्द्ध योजनं विष्कम्भेन यावद्वहुमध्यदेशभागे ऊर्द्ध विनिर्गता शाखा सा विडिमा सा षड् योजनान्यूर्द्ध| मुच्चैस्त्वेन, साऽपि चार्द्ध योजनं विष्कम्भेन, सर्वाग्रेण सातिरेकाण्यष्टौ योजनानि प्रज्ञप्तः । तेषां च चैत्यवृक्षाणामयमेतद्रूपो वर्णावासः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-'वइरामया मूला रययसुपइडिया विडिमा' वाणि-वजरत्नमयानि मूलानि येषां ते वामूलाः, तथा रजतारजतमयी सुप्रतिष्ठिता विडिमा-बहुमध्यदेशभागे ऊर्द्ध विनिर्गता शाखा येषां ते रजतसुप्रतिष्ठितविडिमा, ततः पूर्वपदेन कर्मधारयसमासः, 'रिहमयकंदवेरुलियरुचिरखंधी' रिष्ठमयो-रिष्ठरत्नमयः कन्दो येषां ते रिष्ठरत्नमयकन्दाः, तथा वैडूर्यो-वैडूर्यरत्नमयो रुचिरः स्कन्धो येषां ते तथा, ततः पूर्वपदेन कर्मधारयसमासः, 'सुजायवरजायरूवपढमगविसालसाला' सुजातं-मूलद्रव्यशुद्धं वरं-प्रधानं यजातरूपं तदालका प्रथमका-मूलभूता विशाला शाला-शाखा येषां ते सुजातवरजातरूपप्रथमकविशालशाला: 'नानामणिरयणविविहसाहप्पसाहवेरुलियपत्ततवणिजपत्तवेंटा'नानामणिरत्नानां नानामणिरत्नामिका विविधाः शाखा: प्रशाखाश्च येषां ते तथा, वैडूर्याणि- २२८ वैडूर्यमयानि पत्राणि येषां ते तथा, तथा तपनीयानि-तपनीयमयानि पत्रवृन्तानि येषां ते तथा, ततः पूर्ववत्पदद्वयपद्यमीलनेन कर्म Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -SAR ASGA4-%ABAR धारयः, जाम्बूनदा-जाम्बूनदनामकसुवर्णविशेषमया रक्ता-रक्तवर्णा मृवो-मनोज्ञाः सुकुमाराः-सुकुमारस्पर्शा ये प्रवाला-ईषदुन्मी-1 लितपत्रभावाः पल्लवा:-संजातपरिपूर्णप्रथमपत्रभावरूपा वराडरा:-प्रथममुद्भिद्यमाना अडरास्तान् धरन्तीति जाम्बूनदरक्तमृदुसुकुमारप्रवालपल्लवाङ्करधराः, कचित्पाठः 'जंबूणयरत्तमउयसुकुमालकोमलपवालपल्लवड्डरग्गसिहरा' तत्र जाम्बूनदानि रक्तानि मृदूनि-अक-|| ठिनानि सुकुमाराणि-अकर्कशस्पर्शानि कोमलानि-मनोज्ञानि प्रवालपल्लवाकरा:-यथोदितखरूपा अप्रशिखराणि च येषां ते तथा, BI विचित्तमणिरयणसुरभिकुसुमफलभरण नमियसाला' विचित्रमणिरत्नानि-विचित्रमणिरत्नमयानि यानि सुरभीणि कुसुमा फलानि च तेषां भरेण नमिता नामं ग्राहिताः शाला:-शाखा येषां ते तथा, सती-शोभना छाया येषां ते सच्छायाः, तथा सतीशोभना प्रभा-कान्तिर्येषां ते सत्प्रभाः, सह उद्योतेन वर्तन्ते मणिरत्नानामुद्द्योतभावात् सोयोताः, अधिक-अतिशयेन नयनम-|| नोनिवृतिकराः, अमृतरससमरसानि फलानि येषां ते अमृतरससमफलाः 'पासाईया' इत्यादि विशेषणचतुष्टयं प्राग्वत् ॥ ते णं चेइ-|| यरुक्खा' इत्यादि, ते चैत्यवृक्षा अन्यैबहुभिस्तिलकलवङ्गछन्त्रोपगशिरीषसप्तपर्णधिपर्णलोध्रधवचन्दननीपकुटजकदम्बपनसतालतमामालप्रियालप्रियङ्गपारापतराजवृक्षनन्दुिवृक्षैः सर्वतः समन्तात्संपरिक्षिप्ताः ॥ ते णं तिलगा' इत्यादि, ते तिलका यावन्नन्दिवृक्षा मूल वन्तः कन्दवन्त इत्यादि वृक्षवर्णनं प्राग्वचावद्वक्तव्यं यावदनेकशकढयानशिबिकास्यन्दमानिकाप्रतिमोचनासुरम्या इति ॥ 'ते णं तिलगा' इत्यादि, ते तिलका यावन्नन्दिवृक्षा अन्याभिर्बहुभिः पद्मलताभिर्नागल ताभिरशोकलताभिश्चम्पकलताभिश्तलताभिर्वनलता-|| | भिसन्तिकालताभिरतिमुक्तकलताभिः कुन्दलताभिः श्यामलताभिः सर्वतः समन्तात्संपरिक्षिप्ताः, 'ताओ णं पउमलयाओ जाव सा-14 मलयाओ निचं कसमियाओ' इत्यादिलवावर्णनं तावद्वक्तव्यं यावत् 'पडिरूवाओ' इति, व्याख्या चास्य पूर्ववत् ॥ तसि णमित्यादि, २९ Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवा-है तेषां चैत्यवृक्षाणामुपरि अष्टावष्टौ मङ्गलकानि बहवः कृष्णचामरप्वजा इत्यादि पूर्ववत्तावद्वक्तव्यं यावदहवः सहमपत्रहसकाः सर्वरन-1 प्रतिपत्त मया यावत्प्रतिरूपका इति ॥ 'तेसि णमित्यादि, तेषां चैत्यवृक्षाणां पुरतः प्रत्येकं प्रत्येकं मणिपीठिकाः प्रज्ञाप्ताः, तान मणिपीठिका 1M मनुष्या० उयगि-8 योजनमायामविष्कम्भाभ्यामर्द्धयोजनं वाहल्येन सर्वासना मणिमय्यः, अच्छा इत्यादि प्राग्वत् ।। 'तासि ण'मित्यादि, तासां मणिपी- सुधमाआवृत्तिः ठिकानामुपरि प्रत्येक प्रत्येकं महेन्द्रध्वजः प्रज्ञप्तः, ते च महेन्द्रध्वजा 'अोष्टमानि' सार्दानि सप्त योजनान्यूईमुस्त्वेन, अर्द्धकोशं- सभाव० धनु:सहस्रप्रमाणमुद्वेधेन, अर्द्धक्रोश-धनुःसहस्राप्रमाणं 'विष्कम्भेन विस्तारेण, 'वइरामयवट्टलहसंठियसुसिलिट्ठपरिघट्टमहसुपइठिया' उद्देशः२ २२९॥ इति वज़मया-वजरत्नमयाः तथा वृत्तं वर्तुलं लटं-मनोशं संस्थितं-संस्थानं येषां ते वृत्तलष्टसंस्थिताः, तथा सुश्लिष्टा यया भवन्ति एवं सू०१३७ परिघृष्टा इव खरशानया पापाणप्रतिमेव सुश्लिष्टपरिघृष्टाः मृष्टाः सुकुमारशानया पापाणप्रतिमेव सुप्रतिष्ठिता मनागप्यचलनात् 'अणेगवरपंचवण्णकुडभीसहस्सपरिमंडियाभिरामा' भनेकैर्वरैः-प्रधानैः पचवणः कुडभीसहनैः-लघुपताकासहनैः परिमण्डिताः स-1 न्तोऽभिरामा अनेकवरपञ्चवर्णकुडभीसहस्रपरिमण्डिताभिरामाः 'वाउqयविजयवेजयंतीपडागा छत्ताइछत्तकलिया तुंगा गगणतलमणुलिहंतसिहरा पासाईया जाव पडिरूवा' इति प्राग्वत् ॥ 'तेसि ण'मित्यादि, तेषां महेन्द्रध्वजानामुपरि अष्टावष्टो मालकानि बहवः कृष्णचामरध्वजा इत्यादि पूर्ववत् सर्व वक्तव्यं यावदहवः सहस्रपत्रकहस्तका इति ॥ 'तेसि ण'मित्यादि, तेषां महन्द्रध्वजानां पुरतः प्रत्येकं प्रत्येक 'नन्दा' नन्दाभिधाना पुष्करिणी प्रज्ञप्ता, 'अर्द्धत्रयोदश' सार्बानि द्वादश योजनानि आयामन, पर योजनानि सक्रोशानि विष्कम्भेन, दश योजनान्यद्वेधेन-उण्डखेन, 'अच्छाओ सहाओ रययमयकूडाओ इत्यादि वर्णनं जगत्युपरि ॥२२९॥ पुष्करिणीवभिरवशेष वक्तव्यं यावत् 'पासाईयाओ उद्गरसेणं पन्नत्ताओं ताश्च नन्दापुष्करिण्यः प्रत्येकं २ पावरवदिकया प्रत्यक २ में Kisitor:2* Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनपण्डेन च परिक्षिताः, तासां च नन्दापुष्करिणीनां त्रिदिशि त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि प्रशप्तानि तेषां च वर्णनं तोरणवर्णनं च प्राग्वत् ॥'सभाए णं सुहम्माए' इत्यादि, सभायां सुधायां षड् (मनो) गुलिकासहस्राणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-द्वे सहस्रे पूर्वस्यां दिशि द्वे पश्चिमायामेकं सहस्रं दक्षिणस्यामेकमुत्तरस्यामिति, एतासु च फलकनागदन्तकमाल्यदामवर्णनं प्राग्वत् ॥ 'सभाए णं सुहम्माए' इत्यादि, सभायां सुधर्मायां षड् गोमानसिका:-शय्यारूपाः स्थानविशेषास्तासां सहस्राणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-द्वे सहस्रे पूर्वस्यां दिशि द्वे पश्चिमायामेकं दक्षिणस्यामेकमुत्तरस्यामिति, तावपि फलकवर्णनं नागदन्तवर्णनं धूपघटिकावर्णनं च विजयद्वारवत् । 'सभाए णं सुहम्माए' इत्यादि उल्लोकवर्णनं 'सभाए णं सुहम्माएं' इत्यादि भूमिभागवर्णनं च प्राग्वत् ॥ . तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं एगा महं मणिपीढिया पण्णत्ता, साणं मणिपीढिया दो जोयणाइं आयामविक्खंभेणं जोयणं बाहल्लेणं सव्वमणिमता ॥ तीसे णं मणिपीढियाए उपि एत्थ णं माणवए णाम चेइयखंभे पण्णत्ते अट्ठमाइं जोयणाई उर्दू उच्चत्तेणं अडकोसं उव्वेहेणं अद्धकोसं विक्खंभेणं छकोडीए छलंसे छविग्गहिते वइरामयवद्दलट्ठसंठिते, एवं जहा महिंदज्झयस्स वण्णओ जाव पासातीए ॥ तस्स णं माणवकस्स चेतियखंभस्स उवरि छक्कोसे ओगाहित्ता हेट्ठावि छक्कोसे वजेत्ता मज्झे अद्धपंचमेसु जोयणेसु एत्थ णं बहवे सुवण्णरुप्पमया फलगा पं०, तेसु णं सुवण्णरूप्पमएसु फलएसु बहवे वइरामया णागदंता पण्णत्ता, तेसु णं वइरामएसु नागदंतएसु बहवे रययामता सिक्कगा पण्णत्ता ॥ तेसु णं रययाम Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजीवाजीवाभि० मलयगियावृत्तिः ॥२३०॥ ३प्रतिप मनुष्या माणवर स्तम्भदे शयनीय उद्देश: ॐॐॐॐॐॐॐॐॐ5% यसिक्कएसु यहवे वइरामया गोलवसमुग्गका पण्णत्ता, तेसु णं वइरामएसु गोलवसमुग्गएसु यहवे जिणसकहाओ संनिक्खित्ताओ चिटुंति, जाओ णं विजयस्स देवस्स अण्णेसिं च यहणं वाणमंतराणं देवाण य देवीण य अचणिज्जाओ वंदणिज्जाओ पूयणिज्जाओ सकारणिज्जाओ सम्माणणिज्जाओ कल्लाणं मंगलं देवयं चेतियं पज्जुवासणिज्जाओ। माणवस्स णं चेतियखंभस्स उवरिं अट्ठमंगलगा झया छत्तातिछत्ता ॥ तस्स णं माणवकस्स चेतियखंभस्स पुरच्छिमेणं एत्थ णं एगा महामणिपेढिया पं०, सा णं मणिपेढिया दो जोयणाई आयामविक्खंभेणं जोयणं याहल्लेणं सव्वमणिमई जाव पडिरूवा॥ तीसे णं मणिपेढियाए उप्पिं एत्थ णं एगे महं सीहासणे पण्णत्ते, सीहासणवण्णओ॥ तस्स णं माणवगस्स चेतियखंभस्स पचत्थिमेणं एत्थ णं एगा महं मणिपेढिया पं० जोयणं आयामविक्खंभेणं अद्धजोयणं याहल्लेणं सब्वमणिमती अच्छा ॥ तीसे णं मणिपेढियाए उप्पिं एत्थ णं एगे महं देवसयणिज्जे पण्णत्ते, तस्स णं देवसयणिजस्स अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तंजहा-नाणामणिमया पडिपादा सोवणिया पादा नाणामणिमया पायसीसा जंबणयमयाइं गत्ताई वइरामया संधी णाणामणिमते चिच्चे रइयामता तूली लोहियक्खमया बिब्योयणा तवणिजमती गंडोवहाणिया, सेणं देवसयणिजे उभओ विन्योयणे दुहओ उण्णए मज्झेणयगंभीरे सालिंगणवहीए गंगापुलिणवालुउद्दालसार्लिसए ओतवितक्खो तस्स भणं अद्धजायणजे पणत्ते, तस्वी R-MASTANI-CSCROR ॥ २३० ३० Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मदुगुल्लपपडिच्छायणे सुविरचितरयत्ताणे रत्तंसुयसंवुते सुरम्मे आईणगरूतबूरणवणीयतूलफासमउए पासाईए॥तस्स णं देवसयणिजस्स उत्तरपुरथिमेणं एत्थ णं महई एगा मणिपीठिका पण्णत्ता जोयणमेगं आयामविक्खंभेणं अद्धजोयणं बाहल्लेणं सव्वमणिमई जाव अच्छा ॥ तीसे णं मणिपीढ़ियाए उप्पिं एगं महं खुड्डए महिंदज्झए पण्णत्ते अट्टमाइं जोयणाई उहूं उच्चत्तेणं अद्धकोसं उव्वेधेणं अद्धकोसं विखंभेणं वेरुलियामयवद्दलहसंठिते तहेव जाव मंगला झया छत्तातिछत्ता॥ तस्स णं खुड्डमहिंदज्झयस्स पचत्थिमेणं एत्थ णं विजयस्स देवस्स चुप्पालए नाम पहरणकोसे पण्णत्ते ॥ तत्थ णं विजयस्स देवस्स फलिहरयणपामोक्खा बहवे पहरणरयणा संनिक्खित्ता चिट्ठति, उजलसुणिसियसुतिक्खधारा पासाईया ॥ तीसे णं सभाए सुहम्माए उप्पिं बहवे अट्ठमंगलगा झया छत्तातिछत्ता ॥ (सू०१३८) 'तस्स णं वहुसमरमणीयस्स भूमिभागस्से'त्यादि, तस्य बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागे, अत्र महती एका मणिपीठिका प्रज्ञप्ता, द्वे योजने आयामविष्कम्भाभ्यामेकं योजनं बाहल्येन सर्वासना मणिमयी 'अच्छा' इत्यादि प्राग्वत् ॥ 'तीसे राणमित्यादि, तस्या मणिपीठिकाया उपरि महानेको माणवकनामा चैत्यस्तम्भः प्रज्ञप्तः, अष्टिमानि-सामा॑नि सप्त योजनान्यूर्द्धमुञ्चैस्त्वेन अ ईक्रोशं-धनु:सहस्रमानमुद्वेधेन, अर्द्धकोशं विष्कम्भेन षडनिक:-षटकोटीकः षडिग्रहिक: विरामयवट्टलट्ठसंठिए' इत्यादि महेन्द्रध्वजवद् वर्णनमशेषमस्यापि तावद्वक्तव्यं यावद् 'बहवो सहस्सपत्तहत्थगा सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा' इति ॥'तस्स ण'मि Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -+ S यगि SS वा-8 त्यादि, तस्य माणवकस्य चैत्यस्तम्भस्योपरि पट क्रोशान अवगाह्य उपरितनभागात् पट् कोशान् वर्जयित्वेति भावः, अधस्तादपि पट ३ प्रतिपत्तौ मि. क्रोशान् वर्जयित्वा मध्येऽर्द्धपञ्चमेषु योजनेषु बहवे 'सुवण्णरूप्पमया फलगा' इत्यादिफलकवर्णनं नागदन्तवर्णनं सिक्कगवर्णनं च प्रा- मनुष्या० ग्वत् ॥ 'तेसु ण'मित्यादि, तेपु रजतमयेपु सिककेषु बहवो वञमया गोलवृत्ताः समुद्गकाः, तेषु च वनमयेपु समुद्गकेषु बहूनि जिनस माणवकवृत्तिः क्थीनि संनिक्षिप्तानि तिष्ठन्ति यानि विजयस्य देवस्थान्येयां च बहूनां वानमन्तराणां देवानां देवीनां चार्चनीयानि चन्दनतः वन्दनीयानि स्तम्भदेवस्तुत्यादिना पूजनीयानि पुष्पादिना माननीयानि बहुमानकरणतः सत्कारणीयानि वस्त्रादिना कल्याण मगलं दैवतं चैत्यमितिबुद्ध्या शयनीयव. ३१॥ पर्युपासनीयानि ॥ 'तस्स णमित्यादि, तस्य माणवकस्य चैत्यस्तम्भस्य पूर्वस्यां दिशि अत्र मह्त्येका मणिपीठिका प्रज्ञप्ता, योजनमेक उद्देशः २ मायामविष्कम्भाभ्यामईयोजनं वाहल्येन सर्वासना मणिमयी 'अच्छा' इत्यादि प्राग्वत् ॥ 'तीसे ण'मित्यादि, तस्या मणिपीठिकाया 2 सू० १३८ उपरि अत्र महदेकं सिंहासनं प्रज्ञप्तं तद्वर्णनं शेपाणि च भद्रासनानि तत्परिवारभूतानि प्राग्वत् ॥ 'तस्स णमित्यादि, तस्य माणव-४ कनाम्नश्चैत्यस्तम्भस्य पश्चिमायां दिशि अत्र महत्येका मणिपीठिका प्रज्ञप्ता, एकं योजनमायामविष्कम्भाभ्यामईयोजनं वाहल्येन 'सव्व15 मणिमयी' इत्यादि प्राग्वत् ॥ 'तीसे णमित्यादि, तस्या मणिपीठिकाया उपरि अत्र महदेकं (देव) शयनीयं प्रज्ञप्तं, तस्य च देवशयनीय स्थायमेतद्पः 'वणोवास वर्णकनिवेश: प्रज्ञप्तः, तद्यथा-नानामणिमयाः प्रतिपादा:-मूलपादानां प्रतिविशिष्टोपष्टम्भकरणाय पादाः 8 प्रतिपादाः 'सीवर्णिका' सुवर्णमयाः 'पादाः' मूलपादाः, जाम्बूनदमयानि गात्राणि-ईपादीनि वनमया वजरत्नपूरिताः सन्धयः, PSI 'नानामणिमये चिच्चे' इति चिचं नाम च्युतं वानमित्यर्थः, नानामणिमयं च्युतं-विशिष्टवानं रजतमयी तूली लोहिताक्षमयानि 'बिब्बो ॥२३१॥ यणा' इति उपधानकानि, आह च मूलटीकाकार:-"विव्बोयणा-उपधानकानि उच्यन्त" इति, तपनीयमय्यो गण्डोपधानकाः॥ 4666 - MIRM Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'से णं देवसयणिजे इत्यादि, तद् देवशयनीयं 'सालिङ्गनवर्तिक' सह आलिङ्गनवा -शरीरप्रमाणेनोपधानेन यद् तत्तथा 'उभओविव्वोयणे' इति उभयतः-उभौ-शिरोऽन्तपादान्तावाश्रित्य विव्वोयणे-उपधाने यत्र तद् उभयतोविब्बोयणं- 'दुहतो उन्नते' इति उभयत उन्नतं 'मज्झेणयगंभीरे' इति, मध्ये च नतं निम्नत्वाद् गम्भीरं च महत्त्वात् नतगम्भीरं गङ्गापुलिनवालुकाया अवदालो-विदलनं पादादिन्यासेऽधोगमनमिति भावः तेन 'सालिसए' इति सदृशकं गङ्गापुलिनवालुकावदालसदृशं, तथा 'ओयविय' इति विशिष्टं परिकर्मितं क्षौम-कार्पासिकं दुकूलं-वलं तदेव पट्ट ओयवियक्षौमदुकूलपट्टः स प्रतिच्छादनं-आच्छादनं यस्य तत्तथा, 'आईणगरू|यबूरनवणीयतूलफासे' इति प्राग्वत् , 'रत्तंसुयसंवुए' इति रक्तांशुकेन संवृतं रक्तांशुकसंवृतम् , अत एव सुरम्यं 'पासाइए' इत्यादि पदचतुष्टयं प्राग्वत् ॥ 'तस्स ण'मित्यादि, तस्य देवशयनीयस्य उत्तरपूर्वस्यां दिशि अत्र महत्येका मणिपीठिका प्रज्ञप्ता, योजनमेकमा| यामविष्कम्भाभ्यामर्द्धयोजनं बाहल्येन 'सव्वमणिमयी अच्छा' इत्यादि प्राग्वत् ॥ 'तीसे ण'मित्यादि, तस्या मणिपीठिकाया उपरि अत्र क्षुल्लको महेन्द्रध्वजः प्रज्ञप्तः, तस्य प्रमाणं च वर्णकश्च महेन्द्रध्वजवद्वक्तव्यः ॥ 'तस्स ण'मित्यादि, तस्य क्षुल्लकस्य महेन्द्रध्वजस्य पश्चिमायां दिशि अत्र विजयस्य देवस्य सम्बन्धी महान् एकश्चोप्पालो नाम 'प्रहरणकोश' प्रहरणस्थानं प्रज्ञप्त, किंविशिष्टमित्याह'सव्ववइरामए अच्छे जाव पडिरूवे' इति प्राग्वत् ॥ 'तत्थ ण'मित्यादि, तत्र चोप्पालकाभिधाने प्रहरणकोशे बहूनि परिघरत्नप्रमुखाणि प्रहरणरत्नानि संक्षिप्तानि तिष्ठन्ति, कथम्भूतानीत्यत आह-उज्वलानि-निर्मलानि सुनिशितानि-अतितेजितानि अत एव तीक्ष्णधाराणि प्रासादीयानीत्यादि प्राग्वत् ॥ 'तीसे णं सभाए' इत्यादि, तस्याः सुधर्मायाः सभाया उपरि बहून्यष्टावष्टौ मङ्गलकानि, इत्यादि सर्व प्राग्वत्तावक्तव्यं यावद्बहवः सहस्रपत्रहस्तकाः सर्वरत्नमया अच्छा यावत्प्रतिरूपाः ।। Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ६ ३ प्रतिपची मनुष्या० सिद्धायत नाधि० उद्देशः२ सू०१३९ सभाए णं सुधम्माए उत्तरपुरस्थिमेणं एत्थ णं एगे महं सिद्धायतणे पण्णत्ते अद्धतेरस जोयणाई आयामेणं छजोयणाई सकोसाइविक्खंभेणं नव जोयणाई उर्दुउच्चत्तेणं जाव गोमाणसिया वत्तब्वया जा चेव सहाए सुहम्माए वत्तव्वया साचेव निरवसेसा भाणियब्वा तहेव दारा मुहमंडवा पेच्छाघरमंडवा झया थूभा चेयरुक्खा महिंदज्झया णंदाओ पुक्खरिणीओ, तओ य सुधम्माए जहा पमाणं मणगुलियाणं गोमाणसीया घूवयघडिओ तहेव भूमिभागे उल्लोए य जाव मणिफासे॥ तस्स णं सिद्धायतणस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं एगा महं मणिपेढिया पण्णत्ता दो जोयणाई आयामविक्खंभेणं जोयणं बाहल्लेणं सब्वमणिमयी अच्छा०, तीसे णं मणिपेढियाए उपि एत्थ णं एगे महं देवच्छंदए पण्णत्ते दो जोयणाई आयामविक्खंभेणं साइरेगाई दो जोयणाई उई उच्चत्तेणं सव्वरयणामए अच्छे ॥ तत्थ णं देवच्छंदए अट्ठसतं जिणपडिमाणं जिणुस्सेहप्पमाणमेत्ताणं संणिखित्तं चिट्ठइ ॥ तासि णं जिणपडिमाणं अयमेरूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तंजहातवणिजमता हत्थतला अंकामयाइंणक्खाइं अंतोलोहियक्खपरिसेयाई कणगमया पादा कणगामया गोप्फा कणगामतीओ जंघाओ कणगामया जाणू कणगामया ऊरू कणगामयाओ गायलट्ठीओ तवणिजमतीओ णाभीओ रिट्ठामतीओ रोमरातीओ तवणिजमया चुच्चया तवणिजमता सिरिवच्छा कणगमयाओ बाहाओ कणगमईओ पासाओ कणगमतीओ गीवाओ रिहामते मंसु ॥२३२॥ Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिलपवालमया उट्ठा फलिहामया दंता तवणिजमतीओ जीहाओ तवणिज्नमया तालुया कणगमतीओ णासाओ अंतोलोहितक्खपरिसेयाओ अंकामयाइं अच्छीणि अंतोलोहितक्खपरिसेताई पुलगमतीओ दिट्ठीओ रिहामतीओ तारगाओ रिट्ठामयाई अच्छिपत्ताई रिट्ठामतीओ भमुहाओ कणगामया कवोला कणगामया सवणा कणगामया णिडाला वहा वइरामतीओ सीसघडीओ तवणिजमतीओ केसंतकेसभूमीओ रिट्ठामया उवरिमुद्धजा । तासिणंजिणपडिमाणं पिट्ठतो पत्तेयं पत्तेयं छत्तधारपडिमाओ पण्णत्ताओ, ताओ णं छत्तधारपडिमाओ हिमरततकुंदेंदुसप्पकासाई सकोरेंटमल्लदामधवलाई आतपत्तातिं सलीलं ओहारमाणीओ चिट्ठति ॥ तासि णं जिणपडिमाणं उभओ पासिं पत्तेयं पत्तेयं चामरधारपडिमाओ पन्नत्ताओ, ताओ णं चामरधारपडिमाओ चंदप्पहवइरवेरुलियनाणामणिकणगरयणविमलमहरिहतवणिज्जुबलविचित्तदंडाओ चिल्लियाओ संखंककुंदनगरयअमतमथितफेणपुंजसपिणकासाओ सुहमरयतदीहवालाओ धवलाओ चामराओ सलील ओहारेमाणीओ चिट्ठति ॥ तासि णं जिणपडिमाणं पुरतो दो दो नागपडिमाओ दो २ जक्खपडिमाओ दो २ भूतपडिमाओ दो २ कुंडधारपडिमाओ विणओणयाओ पायवडियाओ पंजलिउडाओ संणिक्खित्ताओ चिट्ठति सव्वरयणामतीओ अच्छाओ सण्हाओ लण्हाओ घटाओ मढ़ाओ णीरयाओ णिप्पंकाओ ज़ाव पडिरूवाओ॥ तासि णं RACAAAAS. Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ना त्तिः ॥ जिणपरिमाणं पुरतो असतं घंदाणं असतं चंदणकलसाणं एवं असतं भिंगारगाणं एवं आयंसगाणं धालाणं पातीणं सुपतिट्टकाणं मणगुलियाणं वातकरगाणं चित्ताणं रयणकरंडगाणं हयकंठगाणं जाव उसभकंठगाणं पुष्कचंगेरीणं जाव लोमहत्थचंगेरीणं पुप्फपडलगाणं असयं तेलसमुग्गाणं जाव धूवगडच्छुयाणं संणिखित्तं चिट्ठति ॥ तस्स णं सिद्धायतणस्स णं उपि यहवे अट्टमंगलगा झया छत्तातिछत्ता उत्तिमागारा सोलसविहेहिं रयणेहिं उवसोभिया तंजा - रयणेहिं जाव रिहेहिं ॥ ( सू० १३९ ) 'सभाए 'मित्यादि, सभायाः सुधर्म्माया उत्तरपूर्वस्यां दिशि अत्र महदेकं सिद्वायतनं प्रज्ञप्तम्, अर्द्धत्रयोदश योजनान्यायामेन पट् सक्रोशानि योजनानि विष्कम्भतो नव योजनान्यूर्द्धमुचैस्त्वेनेत्यादि सर्वे सुधम्र्म्माद्वक्तव्यं यावद् गोमानसीवक्तव्यता, तथा चाह'जा चैव सभाए सुधम्माए वत्तन्त्रया सा चैव निरवसेसा भाणियव्वा जाव गोमाणसियाओ' इति, किमुक्तं भवति ? - यथा सुधर्म्मायाः सभायाः पूर्वदक्षिणोत्तरवर्त्तीनि त्रीणि द्वाराणि तेषां च द्वाराणां पुरतो मुखमण्डपाः, तेषां च मुखमण्डपानां पुरतः प्रेक्षागृह - मण्डपाः, तेषां च प्रेक्षागृहमण्डपानां पुरतचैत्यस्तूपाः सप्रतिमाः तेषां च चैत्यस्तूपानां पुरतचैत्यवृक्षाः तेषां च चैत्यवृक्षाणां पुरतो महेन्द्रध्वजाः, तेषां च महेन्द्रध्वजानां पुरतो नन्दापुष्करिण्य उक्ताः, तदनन्तरं च सभायां सुधर्मायां पड् गुलिकासहस्राणि पड् गोमानसीसहस्राण्यप्युक्तानि तथाऽत्रापि सर्वमनेनैव क्रमेण निरवशेषं वक्तव्यम्, उल्लोकवर्णनं यदुसमरमणीय भूमिभागवर्णनमपि तथैव ॥ 'तस्स ण' मित्यादि, तस्य ( सिद्धायतनस्य ) बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागे अत्र महत्येका मणिपीठिका प्रप्ता द्वे ३ प्रतिपतौ मनुष्या० सिद्धायत नाधि० उद्देशः २ सू० १३९ ॥ २३३ ॥ Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योजने आयामविष्कम्भाभ्यां योजनमेकं बाहल्येन सर्वमणिमयी अच्छा इत्यादि प्राग्वत् । तस्याश्च मणिपीठिकाया उपरि अत्र महानेको देवच्छन्दकः प्रज्ञप्तः सातिरेके द्वे योजने ऊर्द्धमुचैस्त्वेन द्वे योजने आयामविष्कम्भाभ्यां सर्वासना रत्नमया अच्छा इत्यादि प्राग्वत् ॥ ' तत्थ ण' मित्यादि, तत्र देवच्छन्दके 'अष्टशतम्' अष्टाधिकं शतं जिनप्रतिमानां जिनोत्सेधप्रमाणमात्राणां पञ्चधनुः शतप्रमाणानामिति भावः सनिक्षिप्तं तिष्ठति ॥ 'तासि णं जिणपडिमाण' मित्यादि, तासां जिनप्रतिमानामयमेतद्रूपो 'वर्णावासः' वर्णकनिवेशः प्रज्ञप्तः, तपनीयमयानि हस्ततलपादतलानि 'अङ्कमयाः' अङ्करत्नमया अन्तः: - मध्ये लोहिताक्षरत्नप्रतिषेका नखाः, कनकमय्यो जङ्घाः, कनकमयानि जानूनि, कनकमया ऊरवः, कनकमय्यो गात्रयष्टयः, तपनीयमया नाभयः, रिष्ठरत्नमय्यो रोमराजयः, तपनीयमया: 'चुच्चुकाः' स्तनाग्रभागाः, तपनीयमयाः श्रीवृक्षाः ( वत्सा. ) ' शिलाप्रवालमयाः' विद्रुममया ओष्ठाः, स्फटिकमया दन्ताः, तपनीयमय्यो जिह्वाः, तपनीयमयानि तालुकानि, कनकमय्यो नासिकाः अन्तर्लोहिताक्षरत्नप्रतिसेकाः, अङ्कमयानि अक्षीणि अन्तर्लोहिताक्षप्रतिसेकानि, रिष्ठरत्नमय्योऽक्षिमध्यगतास्तारिकाः, रिष्ठरत्नमयानि अक्षिपत्राणि, रिष्ठरत्नमय्यो ध्रुवः, कनकमयाः कपोला:, कनकमया: श्रवणा:, कनकमय्यो ललाटपट्टिकाः, वज्रमय्यः शीर्षघटिकाः, तपनीयमय्यः केशान्तकेशभूमयः, केशानामन्तभूमयः केशभूमयश्चेति भावः, रिष्ठमया उपरि मूर्द्धजाः केशाः, तासां जिनप्रतिमानां पृष्ठत एकैका छत्रधरप्रतिमा हेमरजतकुन्देन्दु (समान) प्रकाश सकोरिंटमाल्यदामधवलमातपत्रं गृहीत्वा सलीलं धरन्ती तिष्ठति ॥ 'तासि णं जिणपडिमाण' मित्यादि, तासां जिनप्रतिमानां प्रत्येकमुभयोः पार्श्वयोद्वे द्वे चमरंधारप्रतिमे प्रज्ञप्ते, 'चंदप्पभवइरवेरुलियनाणामणिरयणखचितदंडाओ' इति चन्द्रप्रभः - चन्द्रकान्तो वज्रं वैडूर्ये च प्रतीतं चन्द्रप्रभवज्रवैडूर्याणि शेषाणि च नानामणिरत्नानि खचितानि येषु दण्डेषु ते तथा, एवंरूपाश्चित्राः - नानाप्र Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " कारा दण्ढा येषां तानि तथा, सूत्रे स्त्रीत्वं प्राकृतत्वात्, 'सुहुमरययदीहवालाओ' इति सूक्ष्माः - लक्ष्णा रजतस्य रजवमया वाला येषां तानि तथा, "संखंककुंदद्गरय अमयमहिय्फेणपुंजसन्निकासाओ धवलाओ चामराओ' इति प्रतीतं चामराणि गृहीत्वा सलीलं वीजयन्त्यस्तिष्ठन्ति ॥ 'तासि ण' मित्यादि, तासां जिनप्रतिमानां पुरतो द्वे द्वे नागप्रतिमे द्वे द्वे यक्षप्रतिमे द्वे द्वे भूतप्रतिमे द्वे द्वे कुण्डधारप्रतिमे संनिक्षिप्ते तिष्ठतः, ताश्च 'सव्वरयणामईओ अच्छाओं इत्यादि प्राग्वत् ॥ 'तत्थ ण' मित्यादि, 'तस्मिन्' देवच्छन्दके जिनप्रतिमानां पुरतोऽष्टशतं घण्टानामष्टशतं चन्दनकलशानामष्टशतं भृङ्गाराणामष्टशतमा दर्शानामष्टशतं स्थालानामष्टशतं पात्रीणामष्टशवं सुप्रतिष्ठानामष्टशतं मनोगुलिकानां - पीठिका विशेषरूपाणामष्टशतं वातकरकाणामष्टशतं चित्राणां रत्नकरण्डकाणामष्टशतं इकण्ठानामष्टशतं गजकण्ठ(नामष्टशतं नरकण्ठानामष्टशवं किंनरकण्ठानामष्टशतं किंपुरुष कण्ठानामष्टशतं महोरगकण्ठानामष्टशतं गन्धर्वकण्ठानामष्टशतं वृषभकण्ठानामष्टशतं पुष्पचङ्गेरीणामष्टशतं माल्यचङ्गेरीणामष्टशतं चूर्णचङ्गेरीणामष्टशतं गन्धचङ्गेरीणामप्रशतं वस्त्रचङ्गेरीणामष्टशतमाभरणचङ्गेरीणामष्टशतं लोमहस्तचङ्गेरीणां लोमहस्तका - मयूरपिच्छपुञ्जनिकाः अष्टशतं पुष्पपटलकानामष्टशतं माल्यपटलकानां मुत्कलानि पुष्पाणि प्रथितानि माल्यानि अष्टशतं चूर्णपटलकानाम्, एवं गन्धवस्त्राभरणसिद्धार्थ लोमहस्तक पटलकानामपि प्रत्येकं प्रत्येकमष्टशतं वक्तव्यम्, अष्टशतं सिंहासनानामष्टशतं छत्राणामष्टशतं चामराणामष्टशतं तैलसमुद्रकानामष्टशतं कोष्ठसमुद्गकानामष्टशतं चोयकसमुद्गकानामष्टशतं वगरसमुद्गकानामष्टशतमेलासमुद्र कानामष्टशतं हरिवाल समुद्रकानामष्टशतं हिङ्गुलकसमुद्गकानामष्टशतं मनःशिलासमुद्गकानामष्टशतं अंजनसमुद्रकानां सर्वाण्यप्येतानि तैलादीनि परमसुरभिगन्धोपेतानि द्रष्टव्यानि, अष्टशतं ध्वजानाम्, अत्र सङ्ग्रहणिगाथे--- "बंदणकलसा भिंगारगा य आयंसगा य थाला य । पाईओ सुपइट्ठा मणगुलिया वायकरगा य ॥ १ ॥ ३ प्रतिपत्तौ मनुष्या० सिद्धायतवर्णनं उद्देशः २ सू० १३९ ॥ २३४ ॥ Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्ता रयणकरंडा हयगयनरकंठगा य चंगेरी । पडला सिंहासणछत्तचामरा समुग्गयक(जु)या य ॥२॥" अष्टशतं धूपकडुर संनिक्षिप्तं तिष्ठति ॥ 'तस्स ण'मित्यादि, तस्य सिद्धायतनस्य उपरि अष्टावष्टौ मङ्गलकानि, ध्वजच्छत्रातिछन्त्रादीनि तु प्राग्वत् ॥ तस्स णं सिद्धाययणस्स णं उत्तरपुरत्थिमेणं एत्थ णं एगा महं उववायसभा पण्णत्ता जहा सुधम्मा तहेव जाव गोमाणसीओ उववायसभाएवि दारा मुहमंडवा सव्वं भूमिभागेतहेव जावमणिफासो (सुहम्मासभावत्तव्वया भाणियव्या जाव भूमीए फासो)॥ तस्स णं वहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहमज्झदेसभाए एत्थ णं एगा महं मणिपेढिया पण्णत्ता जोयणं आयामविक्खंभेणं अद्धजोयणं बाहल्लेणं सव्वमणिमती अच्छा, तीसे णं मणिपेढियाए उपि एत्थ णं एगे महं देवसयणिज्जे पण्णत्ते, तस्स णं देवसयणिजस्स वण्णओ, उववायसभाए णं उप्पिं अट्ठमंगलगा झया छत्तातिछत्ता जाव उत्तिमागारा, तीसे णं उववायसभाए उत्तरपुरच्छिमेणं एत्थ णं एगे महं हरए पण्णत्ते, से णं हरए अद्धतेरसजोयणाई आयामेणं छकोसातिं जोयणाई विक्खंभेणं दस जोयणाई उव्वेहेणं अच्छे सण्हे वण्णओ जहेवणंदाणं पुक्खरिणीणंजाव तोरणवण्णओ, तस्स णं हरतस्स उत्तरपुरथिमेणं एत्थ णं एगा महं अभिसेयसभा पण्णत्ता जहा सभासुधम्मा तं चेव निरवसेसं जाव गोमाणसीओ भूमिभाए उल्लोए तहेव ॥ तस्स णं बहुसमरमणिजस्स गस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं एगा महं मणिपेढिया पण्णत्ता जोयणं आयामविक्खंभेणं Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . अद्धजोयणं याहल्लेणं सव्वमणिमया अच्छा ॥ तीसे णं मणिपेढियाए उपि एत्य णं महं एगे सीहासणे पण्णत्ते, सीहासणवण्णओ अपरिवारो॥ तत्थ णं विजयस्स देवस्स सुबहु अभिसेके भंडे संणिक्खित्ते चिट्ठति, अभिसेयसभाए उप्पि अदृहमंगलए जाव उत्तिमागारा सोलसविधेहि रयणेहिं, तीसे णं अभिसेयसभाए उत्तरपुरथिमेणं एत्थ णं एगा महं अलंकारियसभावत्तब्धया भाणियब्वा जाव गोमाणसीओ मणिपेढियाओ जहा अभिसेयसभाए उपि सीहासणं स(अ)परिवारं॥ तत्थ णं विजयस्स देवस्स सुयह अलंकारिए भंडे संनिक्खिते चिट्टाति, उत्तिमागारा अलंकारिय० उप्पि मंगलगा झया जाव (छत्ताइछत्ता)॥तीसे णं आलंकारियसहाए उत्तरपुरत्थिमेणं एत्य णं एगा महं ववसातसभा पण्णत्ता, अभिसेयसभावत्तव्वया जाव सीहासणं अपरिवार ॥त(ए)स्थणं विजयस्स देवस्स एगे महं पोत्थयरयणे संनिक्खित्ते चिट्ठति, तत्थ णं पोत्थयरयणस्स अयमेयारूवे वण्णावासे पन्नत्ते, तंजहा-रिट्टामतीओ कयियाओ रियतामतातिं पत्सकाई रिहामयातिं अक्खराइं] तवणिजमए दोरेणाणामणिमए गंठी (अंकमयाई पसाई) वेरुलियमए लिप्पासणे तवणिजमती संकला रिहमए छादने रिटामया मसी वइरामयी लेहणी रिडामयाई अक्खराई. धम्मिए सत्थे ववसायसभाएणं उपिअट्ठमंगलगा झया छसातिछत्ता उत्तिमागारेति । तीसे णं. प्रतिपत्तौ तिर्यगधिकारे सिदायतन वर्णनं उद्देशः२ सू० १४० SSSSS4AESEX ॥२३५॥ Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ववसा(उववा)यसभाए उत्तरपुरच्छिमेणंएगे महं बलिपेढे पण्णत्ते दो जोयणाई आयामविक्खंभेणं जोयणं बाहल्लेर्ण सव्वरयतामए अच्छे जाव पडिरूवे ॥ एत्थ णं तस्स णं बलिंपेढस्स उत्तरपुर त्थिमेणं एगा महं णंदापुक्खरिणी पण्णत्ता जं चेक माणं हरयस्स तं चेव सव्वं ॥ (सू० १४०), SH 'तस्स ण'मित्यादि, तस्य सिद्धायतनस्य उत्तरपूर्वस्यामत्र महत्येका उपपातसभा प्रज्ञप्ता, तस्याश्च सुधासभाया इव प्रमाणं त्रीणि 8 द्वाराणि तेपां च द्वाराणां पुरतो मुखमण्डपा इत्यादि सर्व तावद्वक्तव्यं यावद् गोमानसीवर्णनं, तदनन्तरमुल्लोकवर्णनं ततों भूमिमागवर्णनं तावद् यावन्मणीनां स्पर्शः, तथा चाह-'सुहम्मसभावत्तव्वया भाणियव्वा जाक भूमीए, फासो' इति । 'तस्स णमित्यादि, मागस्य बहमध्यदेशभागेऽत्र महत्येका मणिपीठिका प्रज्ञप्ता, योजनमेकमायामविष्कम्भाभ्यामईयोजन लावाइल्येन सर्वासना मणिमयी अच्छा इत्यादि विशेषणजातं प्राग्वत् , तस्याश्च मणिपीठिकाया उपरि अत्र महदेकं देवशयनीयं प्रशतं. तस्य स्वरूपवर्णनं यथा सुधर्मायां सभायां देवशयनीयस्य तस्य तथा द्रष्टव्यं, तस्या अपि उपपातसभाया उपरि अष्टावष्टौ मङ्गलकानी-11 प्रात्यादि प्राग्वत् ॥'तीसे णमित्यादि, तस्या उपपातसभाया उत्तरपूर्वस्यां दिशि अत्र महानेको हुदः प्रज्ञप्तः, अर्द्धत्रयोदश योजना न्यायामेन पड़ योजनानि सोशानि विष्कम्भेन दश योजनान्युद्वेधेन 'अच्छे सण्हे रययाकूलें' इत्यादि नन्दापुष्करिणीवत्सर्व निरवशेष वाच्यं, तथा चाह-आयामुव्वेहेणं विक्खंभेणं वन्नओ जो चेव नंदापुक्खरिणीण'मिति ॥'तीसे णमित्यादि, स हद II १अत्र प्रथमं जीर्णपुस्तके नंदापुष्करिणीविवेचनं वर्तते पश्चात् बलिपीठस्य परंच टीकायां प्रथमं वलिपीठस्य पश्चात् नंदायाः, एतदनुसारेण मयाऽप्यत्रैव लिखित २ अस्या वक्ष्यमाणव्याख्याया मूलपाठो न दृश्यते पुस्तकेषु. Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -645 SCREECRECICRORSCRIKANER * एकया पद्मवरवेदिकया एकेन च वनखण्डेन सर्वतः समन्तात्संपरिक्षिप्तः, पद्मवरवेदिकाया वर्णनं वनपण्डवर्णनं च तावद् यावत् ३प्रतिपत्त 'तत्थ णं वहवे वाणमंतरा देवा य देवीओ य आसयंति जाव विहरंती'ति, तस्य इदस्य 'त्रिदिशि' तिसृपु दिक्षु त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि निधि ८ प्रज्ञप्तानि, तेपां च त्रिसोपानप्रतिरूपकाणां तोरणानां च (वर्णनं पूर्ववत् ) 'तस्स ण'मित्यादि, तस्य इदस्य उत्तरपूर्वस्यां दिशि अत्र कारे सि महत्येकाऽभिषेकसभा प्रज्ञप्ता, साऽपि प्रमाणस्वरूपद्वारमुखमण्डपप्रेक्षागृहमण्डपचैत्यस्तूपवर्णनादिप्रकारेण सुधर्मासभावत्तावद्वक्तव्या या-* डायतनवद् गोमानसीवक्तव्यता, तदनन्तरं तथैवोलोकवर्णनं भूमिभागवर्णनं च तावद् यावन्मणीनां स्पर्शः ॥ 'तस्स ण'मित्यादि, तस्य वेहु-8 वर्णन समरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागे अत्र महत्येका मणिपीठिका प्रज्ञप्ता योजनमेकमायामविष्कम्भाभ्यामर्द्धयोजनं बाहल्येन टू उद्देशः२ 2 सर्वासना मणिमयी 'अच्छा सण्हा' इत्यादि विशेषणकदम्बकं प्राग्वत् ॥ 'तीसे ण'मित्यादि, तस्या मणिपीठिकाया उपरि अत्र महदेकं 8 स०१४० सिंहासनं प्रज्ञप्त, सिंहासनवर्णकः प्राग्वत् , नवरमत्र परिवारभूतानि भद्रासनानि न वक्तव्यानि ॥'तत्थ णमित्यादि, तस्मिन् सिंहासने विजयस्य देवस्य योग्यं सुबहु "अभिपेकभाण्डम्' अभिपेकोपस्करः संनिक्षिप्तः तिष्ठति, तस्याश्चाभिपेकसभाया उत्तरपूर्वस्यां दिशि अत्र महत्येकाऽलकारसभा प्रज्ञप्ता, सा च प्रमाणस्वरूपद्वारत्रयमुखमण्डपप्रेक्षागृहमण्डपादिवर्णनप्रकारेणाभिपेकसभावत्तावद्वक्तव्या यावदपरिवारं सिंहासनम् ॥ 'तत्थ ण'मित्यादि, 'तत्र' सिंहासने विजयदेवस्य योग्यं सुबहु 'आलङ्कारिकम् अलङ्कारयोग्यं भाण्डं ४ संनिक्षिप्तं तिष्ठति ॥ 'तीसे ण'मित्यादि, तस्या अलङ्कारसभाया उत्तरपूर्वस्यां दिशि अत्र महत्येका व्यवसायसमा प्रज्ञप्ता, सा चाभिषेकसभावत्प्रमाणवरूपद्वारत्रयमुखमण्डपादिवर्णकप्रकारेण तावद्वक्तव्या यावदपरिवारं सिंहासनम् ॥ एत्थ णमित्यादि, 'अत्र' सिंहा ॥२३६।। १ अत्र सबंधत्रुटितो दृश्यते. Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सने महदेकं पुस्तकरनं संनिक्षिप्तं तिष्ठति, तस्य च पुस्तक रत्नस्यायमेतद्रूपः 'वर्णावासः' वर्णक निवेशः प्रज्ञप्तः - 'रिष्ठमय्यौ' रिष्ठरत्नात्मिके कम्बिके पुष्टके इति भाव:, रजतमयो ( तपनीयमयो) दवरको यत्र पत्राणि प्रोतानि सन्ति, नानामणिमयो मन्थिर्दवरकस्यादौ येन पत्राणिन निर्गच्छन्ति 'अङ्कमयानि' अङ्करत्नमयानि पत्राणि नानामणि (वैडूर्य) मयं लिप्पासनं - मषीभाजनमित्यर्थः, तपनीयमयी शृङ्खला मषी भाजनसत्का रिष्ठरत्नमयमुपरितनं तस्य छादनं 'रिष्ठमयी' रिष्ठरत्नमयी मषी वज्रमयी लेखिनी रिष्ठमयान्यक्षराणि धार्मिकं लेख्यं, तस्याश्च उपपातसभाया उत्तरपूर्वस्यां दिशि महदेकं बलिपीठं प्रज्ञप्तं द्वे योजने आयामविष्कम्भाभ्यां योजनमेकं बाहल्येन 'अच्छे सण्हे' इत्यादि विशेषणजातं प्राग्वत् ॥ 'तस्स ण' मित्यादि, तस्य बलिपीठस्य उत्तरपूर्वस्यां दिशि अत्र महत्येका नन्दापुष्करिणी प्रज्ञप्ता, सा च हदप्रमाणा, हृदस्येव च तस्या अपि त्रिसोपानवर्णनं तोरणवर्णनं च प्राग्वत् ॥ तदेवं यत्र यादृग्भूता च राजधानी विजयस्य देवस्य तदे - तद् उपवर्णितं, सम्प्रति विजयो देवस्तत्रोत्पन्नस्तदा यदकरोद् यथा च तस्याभिषेकोऽभवत्तदुपदर्शयति-— ते काणं तेणं समएणं विजए देवे विजयाए रायहाणीए उववातसभाए देवसयणिज्वंसि देवदूसंतरिते अंगुलस्स असंखेज्जतिभागमेत्तीए बोंदीए विजयदेवत्ताए उबवण्णे । तए णं से विजये देवे अणोववण्णमेत्तए चेव समाणे पंचविहाए पज्जत्तीए पज्जत्तीभावं गच्छति, तंजहा - आहारपज्जत्तीए सरीरपज्जत्तीए इंद्रियपज्जत्तीए आणापाणुपजत्तीए भासामणपज्जत्तीए ॥ तए तस्स विजयस्स देवस्स पंचविहाए पज्जत्तीए पज्जत्तीभावं गयस्स इमे एयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिते मणोगए कप्पे समुप्पज्जित्था - किं मे पुव्वं सेयं किं मे पच्छा सेयं किं मे पुव्विं कर Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३प्रतिपत्तौ णिज्नं किं मे पच्छा करणिज्नं किं मे पुदिव वा पच्छा वा हिताए सुहाए खेमाए णीस्सेसयाते अणुगामियत्ताए भविस्सतीतिकटु एवं संपेहेति ॥ तते णं तस्स विजयस्स देवस्स सामाणियपस्सिोववण्णगा देवा विजयस्स देवस्स इमं एतारूवं अज्झत्थितं चिंतियं पत्थियं मणोगयं संकप्पं समुप्पण्णं जाणित्ता जेणामेव से विजए देवे तेणामेव उवागच्छंति तेणामेव उवागच्छित्ता वि. जयं देवं करतलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कह जएणं विजएणं वद्धावेंतिजएणं. विजएणं वद्धावेत्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पियाणं विजयाए रायहाणीए सिद्धायतगंसि अट्ठसतं जिणपडिमाणं जिणुस्सेहपमाणमेत्ताणं संनिक्खित्तं चिट्ठति सभाए य सुधम्माए माणवए चेतियखंभे वइरामएसु गोलवद्दसमुग्गतेसु बहूओ जिणसकहाओ सन्निक्खित्ताओ चिट्ठति जाओ णं देवाणुप्पियाणं अन्नेसिं च बहणं विजयरायहाणिवत्थव्वाण देवाणं देवीण य अच्चणिज्जाओ वंदणिज्जाओ पूयणिज्जाओ सकारणिज्जाओ सम्माणणिज्जाओ कल्लाणं मंगलं देवयं चेतियं पज्जुवासणिज्जाओ एतण्णं देवाणुप्पियाणं पुष्विपि सेयं एतपणं देवाणुप्पियाणं पच्छावि. सेयं एतण्णं देवापुट्विं करणिज्जं पच्छा करणिज्जे एतण्णं देवा पुदिव वा पच्छो वा जाव आणुगामियसाते भविस्सतीतिक महता मेहता जय(जय)सहपउंजंति॥सए णंसे विजए देव तसि सामा णियपरिसोववण्णगाणं देवाणं अंतिए एयमह सोचा णिसम्म हट्ट तुट्ठ जाव हियते देवसंयणिजार .. KACASSAGARAAS हूँ तिर्यगधि कारे विजयदेवाभि षेक: उद्देशः२ ॐ सू० १४१ ॥२३७॥ Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओ अभुट्ठेह रसादिव्वं देवदूसजुयलं परिहेद २ ता देवसंयणिजाओ पचरुहर रहिता उपपातसभाओ पुरत्थिमेणं वारेण णिग्गच्छइ २ सा जेणेव हरते तेणेय उवागच्छति उवागच्छिता हर अणुपदाहण करेमाणे करेमाणे पुरत्थिमेणं तोरणेणं अणुप्पविसति २ ता पुरथिमिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवएणं पचोरुहति २ हरयं ओगाहति २ सा जलावगाहणं करेति २ ता जलमजणं करेति २ सह जलक करेति २त्ता आयंते चोक्खे परमसूतिभूते हरतातो पच्चुत्तरति २त्ता जेणामेव अभिसेयसभा णामेव उवागच्छति २त्ता अभिसेयसभं पदाहिणं करेमाणे पुरथिमिल्लेणं वारेण अणुपवि सति २त्ता जेणेव सए सीहासणे तेणेंव उवागच्छति २ सा सीहासणवरगते पुरच्छाभिमुहे सर्पिणसणे ॥ तते णं तस्स विजयस्स देवस्स सामाणियपरिसोववण्णगा देवा आभिओगिते देवे सहार्वेति २त्ता एवं वयासी - खिप्पामेव भी देवाणुप्पिया ! विजयस्स देवस्स महत्थं महम्घं महरिह विपुलं इंदाभिसेयं उद्ववेह ॥ संते णं तें आभिओगिता देवा सामाणियपरिसोववण्णेहिं एवं बुसा समाणा हह जाव हितया करतलपरिग्गहियं सिरसांवत्तं मत्थए अंजलि कट्टु एवं देवा तहत आणाए विणणं वयणं परिसुति २ ता उत्तरपुरत्थिमं दिसीभागं अवकमति २ सा asaraणं समोहति २त्ता संखेज्जाई जोयणाई दंड णिसरंति तं०- रयणाणं जावं रि -हाणं, अहाबारे पोंगले परिसाति २ सा अहासु में पोरंगले परियायंति २ ती दोचंपि वेंउ Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाणं एवं आप ४ ३ प्रतिपचौ तिर्यगधिकारे विजयदेवाभि षेक के उद्देश२ ७ सू०१४१ पुष्कपडलगा ब्वियसमुग्घाएणं समोहणंति २त्ता असहस्सं सोवपिणयाणं कलसाणं असहस्सं झप्पामयाणं कलसाणं अट्ठसहस्सं मणिमयाणं अट्ठसहस्सं सुवण्णरुप्पामयाणं असहस्सं सुवण्णमणिमयाणं अट्ठसहस्सं रुप्पामणिमयाणं असहस्सं सुवण्णरुप्पामताणं असहस्सं भोमेजाणं असहस्सं भिंगारगाणं एवं आयंसगाणं यालाणं पातीणं सुपतिडकाणं चित्ताणं रयणकरंडगाणं पुप्फचंगेरीणं जाव लोमहत्थचंगेरीणं पुष्कपडलगाणं जाव लोमहत्वगपडलगाणं असतं सीहासणाणं छत्ताणं चामराणं अवपडगाणं बहकाणं तवसिप्पाणं खोरकाणं पीणकाणं तेल्लसमुग्गकाणं अट्टसतं धुवकडच्छयाणं विउवंति ते साभाविए विउविए य कलसे य जाव धूवकरच्छए य गेहति गेण्हित्ता विजयातो रायहाणीतो पडिनिक्खमंति २त्ताताए उकिटाए जाव उद्धताए दिव्वाए देवगतीए तिरियमसंखेजाणं दीवसमुदाणं मज्झं मझेणं वीयीवयमाणा २ जेणेव खीरोदे समुद्दे तेणेव उवागच्छंति तेणेव उवागच्छित्ता खीरोदगं गिणिहत्ता जातिं तत्थ उप्पलाइंजाव सतसहस्सपत्तातिं तातिं गिण्हंति २त्ता जेणेव पुक्खरोदे समुद्दे तेणेव उवागच्छंति २त्ता पुक्खरोदगं गेण्हंति पुक्खरोदगं गिण्हित्ता जातिं तत्थ उप्पलाई जाव सतसहस्सपत्ता ताई गिण्हंति २सा जेणेव समयखेत्ते जेणेव भरहेरवयार्तिवासाई जेणेव मागधवरदामपभासाइं तित्थाई तेणेव उवागच्छंति तेणेव उवागच्छित्ता तित्थोदगं गिण्हंति २त्ता तित्वमाहियं गेण्हंति २त्ता जेणेव गंगासिं पाणं खोरका हात पुक्खरोदगंत्ता जेणेव पुक्खाहत्ता जाति तय ॥२३८॥ Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धुरत्तारत्तवतीसलिला तेणेव उवागच्छंति २त्ता सरितोदगं गेण्हंति २त्ता उभओ तडमहियं गेपहंति गेण्हित्ता जेणेव चुल्लहिमवंतसिहरिवासधरपक्वता तेणेव उवागच्छंति, तेणेव उवागच्छित्ता सव्वतूवरे य सव्वपुप्फे य सव्वगंधे य सव्वमल्ले य सव्वोसहिसिद्धत्थए गिण्हंति सव्वोसहिसिद्धत्थए गिण्हित्ता जेणेव पउमद्दहपुंडरीयद्दहा तेणेव उवागच्छंति तेणेव २ दहोदगं गेपहंति जाति तत्थ उप्पलाई जाव सतसहस्सपत्ताई ताइं गेण्हंति ताई गिण्हित्ता जेणेव हेमवयहेरण्णवयाई वासाइं जेणेव रोहियरोहितंससुवण्णकूलरुप्पकूलाओ तेणेव उवागच्छंति २ त्ता सलिलोदगं गेण्हति २त्ता उभओ तडमहियं गिण्हति गेण्हित्ता जेणेव सद्दावातिमालवंतपरियागा वटवेतडपव्वता तेणेव उवागच्छंति तेणेव उवागच्छित्ता सव्वतुवरे य जाव सव्वोसहिसिद्धत्थए य गेहंति, सिद्धत्थए य गेण्हित्ता जेणेव महाहिमवंतरुप्पिवासधरपव्वता तेणेव उवागच्छंति तेणेव उवागच्छित्ता सव्वपुप्फे तं चेव जेणेव महापउमद्दहमहापुंडरीयद्दहा तेणेव उवागच्छंति तेणेव उवागच्छित्ता जाई तत्थ उप्पलाइं तं चेव जेणेव हरिवासे रम्मावासेति जेणेव हरकान्तहरिकंतणरकंतनारिकताओ सलिलाओ तेणेव उवागच्छंति तेणेव उवागच्छित्ता सलिलोदगं गेहंति सलिलोदगं गेण्हित्ता जेणेव वियडावइगंधावतिवटवेयवपव्वया तेणेव उवागच्छंति सव्वपुप्फे य तं चेव जेणेव णिसहनीलवंतवासहरपव्वता तेणेव उवागच्छंति तेणेव उवा Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CHUT गच्छित्ता सव्वतूवरे य तहेवं जेणेव तिगिच्छिदहकेसरिदहा तेणेव उवागच्छंति २सा जाई तत्व उप्पलाइं तं चेक जेणेव पुंश्वविदेहावरविदेहवासाइं जेणेव सीयासीओयांओ महाणईओ जहा ईओं जेणेव सव्वचकवहिविजया जेणेव सव्वमागहवरदामपभासाइं तित्थाई तहेव जंहेव जेणेव सव्ववक्खारपव्वता सेव्वतुवरे य जेणेव सव्वंतरणदीओ सलिलोदगं गेहंति २ तं चैव जेणेव मंदरे पवतें जेणेव भट्सालवणे तेणेव उवागच्छंति सव्वतुर्वरे यं जाव सम्वोसहिसिद्धथए गिण्हंति २त्ता जेणेव णंदणवणे तेणेव उवागच्छइ २ सा सव्वतुवरे जाव सव्वोसहिसिद्धत्थे ये सरसं च गोसीसचंदणं गिण्हति ३ त्ता जेणेव सोमणसवणे तेणेव उवागच्छंति तेणेव उवागंच्छित्सा सव्वतुवरे य जाव सव्वोसहिसिद्धत्थए य सरसगोसीसचंदणं दिव्वं चसमणदामं गेण्हति गेण्हित्साजेणेव पंडगवणे तेणामेव समुवागच्छंतितेणेव समुवा०२सा सव्वतूवरेजाव सव्वीसहिसिद्धत्थए सरसं च गोसीसचंदणं दिव्वं च सुमणोदामं दुहरयमलयसुगंधिए य गंधे गेहंति २ सा एगतो मिलंति २ सा जंबुद्दीवस्स पुरथिमिल्लेणं दारेणं णिग्गच्छति पुरथिमिल्लेणं निग्गच्छित्सा ताए उकिटाए जाव दिव्वाए देवगतीए तिरियमसंखेजाणं दीवसमुदाणं मझमझेणं वीयीवयमाणा २ जेणेव विजया रायहाणी तेणेव उवागच्छंति २सा विजयं रायहाणि अणुप्पयाहिणं करेमाणा २ जेणेव अभिसेयसभा जेणेव विजए देवे तेणेव उयागच्छति २सा करतलपरि RADUCACEBOOKGANGAEBCA-50+ ३ प्रतिपत्ती तिर्यगधिकारे विजयदेवाभि पेकः उद्देशः२ सू०१४१ 535649SS है ॥२३९॥ Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गहितं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु जएणं विजएणं वद्धावेति विजयस्स देवस्स तं महत्थं महग्धं महरिहं विपुलं अभिसेयं उवट्ठति ॥ तते णं तं विजयदेवं चत्तारि य सामाणियसाहस्सीओ चत्तारि अग्गंमहिसीओ सपरिवाराओ तिणि परिसाओ सत्त अर्णिया सत्त अणियाहिवई सोलस आयरक्खदेवसाहस्सीओ अन्ने य बहवे विजयरायधाणिवत्थव्वगा वाणमंतरा देवाय देवीओ यतेहिं साभावितेहि उत्तरवेउवितहिं य वरकमलपतिहाणेहिं सुरभिवरवारिपडिपुण्णेहि चंदणकयचचातेहिं आविद्धकंठेगुणेहिं पउमुप्पलपिधाणोहिं करतलसुकुमालकोमलपरिग्गहिएहिं अट्ठसहस्साणं सोवणियाणं कलसाणं रूप्पमयाणं ताव अट्ठसहस्साणं भोमेयाणं कलसाणं सव्वोदएहिं सव्वमट्टियाहिं सव्वतुवरेहिं सव्वपुप्फेहिं जावसवोसहिसिद्धत्थएहिं सव्विट्ठीए सव्वजुत्तीए सव्वबलेणं सव्वसमुदएणं सव्वायरेणं सव्वविभूतिए सव्वविभूसाए सव्वसंभमेणं सव्वोरोहेणं सव्वणांडएहिं सव्वपुप्फगंधमल्लालंकारविभूसाए सव्वदिव्वतुडिंयणिणाएणं महया इड्डीए महया जुत्तीए महया बलेणं महता समुदएणं महता तुरियजमगसमगपडप्पवादितरवेणं संखपणवप-. डहभेरिझल्लरिखरमुहिमुरवमुयंगदुंदुहिहुडुक्कणिग्घोससंनिनादितरवेणं महता महता इंदाभिसेंगेणं अभिसिंचंति ॥ तए णं तस्स विजयस्स देवस्स महता महता इंदाभिसेगंसि वद्यमाणंसि अप्पेगतिया देवा Mचोदगं णातिमट्टियं पविरलफुसियं दिव्वं सुरभिं रयरेणुविणासणं गंधोदंगवासं Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PA वासंति, अप्पेगतिया देवा णिहतरयं णहरयं भट्टरयं पसंतरयं उवसंतरयं करेंति, अप्पेगतिया देवा विजयं रायहाणि सभितरबाहिरियं आसितसम्मज्जितोवलित्तं सित्तसुइसम्मट्ठरत्यंतरावणवीहियं करेंति, अप्पेगतिया देवा विजयं रायहाणि मंचातिमंचकलितं करेंति, .अप्पेगतिया देवा विजयं रायहाणिं णाणाविहरागरंजियऊसियजयविजयवेजयन्तीपडागातिपडागमंडितं करेंति, अप्पेगतिया देवा विजयं रायहाणिं लाउल्लोइयमहियं करेंति, अप्पेगतिया देवा विजयं गोसीससरसरत्तचंदणदद्दरदिण्णपंचंगुलितलं करेंति, अप्पेगतिया देवा विजयं उवचियचंदणकलसं चंदणघडसुकयतोरणपडिदुवारदेसभागं करेंति, अप्पेगतिया देवा विजयं आसत्तोसत्तविपुलववग्धारितमल्लदामकलावं करेंति, अप्पेगइया देवा विजयं रायहाणि पंचवण्णसरससुरभिमुकपुप्फपुंजोवयारकलितं करेंति, अप्पेगइया देवा विजयं कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुकधूवडजझंतमघमघेतगंधुद्धयाभिरामं सुगंधवरगंधियं गंधवहिभूयं करंति, अप्पेगइया देवा हिरण्णवासं वासंति, अप्पेगइया देवा सुवण्णवासं वासंति, 'अप्पेगइया देवा एवं रयणवासं वइरवासं पुप्फवासं मल्लवासं गंधवासं चुण्णवासं वत्थवासं आहरणवासं, अप्पेगइया देवा हिरण्णविधि भाइंति, एवं सुवण्णविधिं रयणविधिं वतिरविधिं पुप्फविधि मल्लविधिं चुण्णविधिं गंधविधि वत्थविधिं भाइंति आभरणविधिं ॥ अप्पेगतिया देवा दुयं णविधिं उवदंसेंति अप्पेगतिया GR5650840040GAOOL ₹३ प्रतिपत्ती १ तिर्यगधि कारे विजयदेवाभि षेक: उद्देशः२ सू० १४१ SANGAMGANGANGABGANGABGANGA ॥२४०॥ Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विलंबितं णविहिं उवदंसेंति अप्पेगइया दवा दुतावलावतणाम णहविधि उवदंसंति अप्पंगतिया देवा अंचियं विधि उवदंसेंति अप्पेगतिया देवा रिभितं णविधि उवदंसेंति अ० अंचि. तरिभितं णाम दिव्वं णविधि उवदंसेंति अप्पेगतिया देवा आरभडं णविधि उवदंसेंति अप्पेगतिया देवा भसोलं णविधिं उवदंसेंति अप्पेगतिया देवा आरभडभसोलं णाम दिव्वं णविधि उवदंसेंति अप्पेगतिया देवा उप्पायणिवायपवुत्तं संकुचियपसारियं रियारियं भंतसंभंतं णाम दिव्वं णविधि उवदंसेंति अप्पेगतिया देवा चउव्विधं वातियं वादेति, तंजहाततं विततं घणं झुसिरं, अप्पेगतिया देवा चउव्विधं गेयं गातंति, तंजहा-उक्खित्तयं पवत्तयं मंदायं रोइदावसाणं, अप्पेगतिया देवा चउविधं अभिणयं अभिणयंति, तंजहा-दिलुतियं पाडंतियं सामन्तोवणिवातियं लोगमज्झावसाणियं, अप्पेगतिया देवा पीणंति अप्पेगतिया देवा चुकारेंति अप्पेगतिया देवा तंडवेंति अप्पे० लासेंति अप्पेगतिया देवा पीणंति वुक्कारेंति तंडवेंति लासंति अप्पेगतिया देवा वुक्कारेंति अप्पेगतिया देवा अप्फोडंति अप्पेगतिया देवा वगंति अप्पेगतिया देवा तिवतिं छिंदति अप्पेगतिया देवा अप्फोडेंति वगंति तिवतिं छिंदेंति अप्पेगतिया देवा हतहेसियं करेंति अप्पेगतिया देवा हत्थिगुलगुलाइयं करेंति अप्पेगतिया देवा रहघणघणातियं करेंति अप्पेगतिया देवा हयहेसियं करेंति हत्थिगुलगुलाइयं करेंति रघणघणाइयं करेंति Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ३ प्रतिपत्तौ विजयदेवाभिषेक उद्देशः२ सू०१४१ SEOSES SOOSES TESCO अप्पेगतिया देवा उच्छोलेंति अप्पेगतिया देवा पच्छोलेंति [अप्पेगतिया देवा उक्किटिं करेंति] अप्पेगतिया देवा उचिट्ठीओ करेंति अप्पेगतिया देवा उच्छोलेंति पच्छोलिंति उक्किडिओ करेंति अप्पेगतिया देवा सीहणादं करेंति अप्पेगतिया देवा पाददद्दरयं करेंति अप्पेगतिया देवा भूमिचवेडं दलयंति अप्पेगतिया देवा सीहनादं पाददद्दरयं भूमिचवेडं दलयंति, अप्पेगतिया देवा हक्कारेंति अप्पेगतिया देवा वुक्कारेंति अप्पेगतिया देवा थक्कारेंति अप्पे० पुक्कारेंति अप्पेगतिया देवा नामाई सावेंति अप्पेगतिया देवा हक्कारेंति बुक्कारेंति थक्कारेंति पुक्कारेंति णामाई सावेंति अप्पेगतिया देवा उप्पतंति अप्पेगतिया देवा णिवयंति अप्पेगतिया देवा परिवयंति अप्पेगतिया देवा उप्पयंति णिवयंति परिवयंति अप्पेगतिया देवा जलेंति अप्पेगतिया देवा तवंति अप्पेगतिया देवा पतवंति अप्पेगतिया देवा जलंति तवंति पतवंति अप्पेगइया देवा गज्जेंति अप्पेगइया देवा विज्जुयायंति अप्पेगइया देवा वासंति अप्पेगइया देवा गजति विजुयायंति वासंति अप्पेगतिया देवा देव सन्निवायं करेंति अप्पेगतिया देवा देवुक्कलियं करेंति अप्पेगइया देवा देवकहकहं करेंतिअप्पेगतिया देवा दुहदुहं करेंति अप्पेगतिया देवा देवसन्निवायं देवउक्कलियं देवकहकहं देवदुहदुहं करेंति अप्पेगतिया देवा देवुजोयं करेंति अप्पेगतिया देवा विजयारं करेंति अप्पेगतिया देवा चेलुक्खेवं करेंति अप्पेगतिया देवा देवुज्जोयं विजुतारं चेलुक्खेवं करेंति अप्पेगतिया देवा उप्प ॥२४१ Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MAMANAMOLOMAN - लहत्थगता जाव संहस्सपत्त० घंटाहस्थगता कलसहत्थगता जाव धूवकडच्छहत्थगता हट्ट तुट्ठा जाव हरिसवसविसप्पमाणहियया विजयाए रायहाणीए सव्वतो समंता आधाति परिधावेंति॥ तए णं तं विजयं देवं चत्तारि सामाणियसाहस्सीओ चत्तारि अग्गमहिसीओ सपरिवाराओ जाव सोलसआयरक्खदेवसाहस्सीओ अण्णे य बहवे विजयरायहाणीवत्थव्वा वाणमंतरा देवा य देवीओ य तेहिं वरकमलपतिट्ठाणेहिं जाव अट्ठसतेणं सोवणियाणं कलसाणं तं चेव जाव अट्टसएणं भोमेजाणं कलसाणं सव्वोदगेहिं सव्वमटियाहिं सव्वतुवरेहिं सव्वपुप्फेहिं जाव सव्वोसहिसिद्धत्थएहिं सव्विड्डीए जाव निग्घोसनाइयरवेणं महया २ इंदाभिसेएणं अभिसिंचंति २ पत्तेयं २ सिरसावत्तं अंजलिं कहु एवं वयासि-जय जय नंदा! जय जय भद्दा ! जय जय नंद भई ते अजियं जिणेहि जियं पालयाहि अजितं जिणेहि सत्तुपक्खं जितं पालेहि मित्तपक्खं जियमज्झे वसाहि तं देव! निरुवसग्गं इंदो इव देवाणं चंदो इव ताराणं चमरो इव असुराणं धरणो इव नागाणं भरहो इव मणुयाणं बहूणि पलिओवमाइं बहूणि सागरोवमाणि चउण्हं सामाणियसाहस्सीणं जाव आयरक्खदेवसाहस्सीणं विजयस्स देवस्स विजयाए रायहाणीए अण्णेसिं च बहूणं विजयरायहाणिवत्थव्वाणं वाणमंतराणं देवाणं देवीण य आहेवचं जाव आणाईसरसेणावचं कारेमाणे पालेमाणे विहराहित्तिकहु महता २ सद्देणं जयजयसदं पउंजंति ॥ (सू० १४१)॥ Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16256 . . 'तणं कालेणं तेणं समएणं इत्यादि, तम्मिन् काले तस्मिन् समये विजयो देव उपपातसभायां देवशयनीये देवदूप्यान्तरिते ३प्रतिपत्ती प्रथमोडामोगभागमाग्रगाडागाहनया ममुत्पनः ।। 'तए ण'मित्यादि, मुगम नवरमिह भाषामनःपर्याप्त्योः समाप्तिकालान्तरस्य विजयदेप्रायोपामिकालान्तरापेभगा मोफताकतेन विवक्षणमिनि 'पंचविदाए पजत्तीए पन्जत्तिभावं गच्छई' इत्युक्तम् ॥ 'तए वाभिषेक , शिलादि, सम्ममा दाम्प पचविल्या पर्याप्त्या पर्याप्तभावं गनस्य सतोऽयम्-एनप: मंकल्पः ममुदपद्यत, कथम्भूतः? उद्देशः २ _ गाद-'मनोगतः' मनमिगतो-साधितो नागापि वनमा प्रकाशितखरूप इति भावः, पुनः कथम्भून: ? इत्याद-'आध्या सू० १४१ - सिमका समयभि पनामा भर आध्यामिक आन्गविषय इति भावः, मल्पश्च द्विधा भवति-कधिदध्यामिकोऽपरा चिन्ता मर,ri HIT इनि पनिपादनार्यमाद-'चिन्तितः' घिन्ता मंजाताऽस्मिन्निति चिन्तितचिन्तात्मक इति भावः, सोऽपि विनितापानी भानि कतिन्वया, नामभिलायामरुनगा चाह-प्रार्थनं प्रार्थों णिजन्तादच् प्रार्थः मंजानोऽस्मिन्निति प्रार्थितोमिशीभार:, निरूपः इत्याद-'किंमे' इत्यादि, कि 'मे' मम पूर्व करणीयं किं भे पश्चात्करणीयं, तथा कि में पूर्व म : कि भारः , तथा हिमे पूर्णमपि च पभादपि च हिताय भावप्रधानोऽयं निर्देशो हितत्वाय-परिणाममुन्दर गाय-नगानि अपमपि भापयानो निर्देश: मंगनवाय, निःश्रेयमाय-निश्रित कल्याणाय अनुगामिकताये-परम्प-16 भानुमानमार भारतीनि 'तए 'मिनाहि, 'ततः' एतचिन्तासमनन्तरमेव दिव्यानुभावतो विजयस्य देनस्य 'मामानियरिमोरासमा दंगी नामानिका: पापग्नराध-अभ्यन्तरादिपर्पदुपगनाः 'इमम्' अनन्तरोतम् 'एनद्रपम्' अनन्तRELATEनिक ।।२४२॥ प्राधि मनोगत मन्तं मगभिताय 'जेणेयेति गत्रैव जियो देखनौगोपागच्छन्ति, उपागम्य च . A 4 . y Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करयलपरिग्गहिय'मित्यादि द्वयोर्हस्तयोरन्योऽन्यान्तरिताङ्गुलिकयोः संपुटरूपतया यदेकत्र मीलनं सा अनलिस्तां करतलाभ्यां परिगृहीता-निष्पादिता करतलपरिगृहीता ताम् , आवर्तनमावतः शिरस्यावर्तो यस्याः सा शिरस्यावर्त्ता, कण्ठेकाल उरसिलोमेत्यादिवदलुक्समासः, तामत एव मस्तके कृत्वा जयेन विजयेन वर्धापयन्ति-जय त्वं देव! विजय त्वं देव! इत्येवं वर्धापयन्तीत्यर्थः, तत्र जय:-परैरनभिभूयमानता प्रतापवृद्धिश्च, विजयस्तु-परेषामसहमानानामभिभवोत्पादः, जयेन विजयेन च वर्धापयित्वा एवमवादिषु:-'एवं खलु देवाणुप्पियाण'मित्यादि पाठसिद्धम् ॥ 'तए णमित्यादि, 'ततः' एतद्वचनानन्तरं विजयो देवस्तेषां सामानिकप दुपपन्नकाना-सामानिकानां पर्षदुपपन्नकानां च देवानामन्तिके एनमर्थ 'श्रुत्वा' आकर्ण्य 'निशम्य' हृदये परिणमय्य 'हहतहचित्तमाणदिए' इति हृष्टतुष्टोऽतीव तुष्ट इति भावः, अथवा हृष्टो नाम विस्मयमापन्नो यथा शोभनमहो! एतैरुपदिष्टमिति, 'तुष्टः' तोपं कृतवान् यथा भव्यसभूदु यदेतैरित्थमुपदिष्ठमिति, तोषवशादेव चित्तमानन्दितं-स्फीतीभूतं 'टुणदु समृद्धौ' इति वचनात् , यस्य स चित्तानन्दितः, भार्यादिदर्शनात्पाक्षिको निष्ठान्तस्य परनिपातः मकारः प्राकृतत्वादलाक्षणिकस्ततः पदत्रयस्य पदद्वय २ मीलनेन कर्म|धारयः, 'पीइमणे' इति प्रीतिर्मनसि यस्यासौ प्रीतिमना जिनप्रतिमाऽर्चनविषयबहुमानपरायणमना इति भावः, ततः क्रमेण बहुमानोत्कर्षवशात् 'परमसोमणस्सिए' इति शोभनं मनो यस्यासौ सुमनास्तस्य भावः सौमनस्यं परमं च तत् सौमनस्यं च परमसौमनस्यं तत्संजातमस्मिन्निति परमसौमनस्थितः, एतदेव व्यक्तीकुर्वन्नाह-हरिसवसविसप्पमाणहियए' हर्षवशेन विसर्पद्-विस्तारयायि || हृदयं यस्य स हर्षवशविसर्पद्धृदयः देवशयनीयादभ्युत्तिष्ठति, अभ्युत्थाय च देवदूष्यं परिधत्ते, परिधाय च उपपातसभातः पूर्वद्वारेण || निर्गच्छति, निर्गत्य च यत्रैव प्रदेशे हृदस्तत्रोपागच्छति, उपागत्य इदमनुप्रदक्षिणीकृत्य पूर्वेण तोरणेन हदमनुप्रविशति, प्रविश्य च Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हदे प्रत्यवरोहति, मध्ये प्रविशतीति भावः, प्रत्यवरुह्य च इदमवगाहते, अवगाह्य जलमजनं करोति, कृत्वा च क्षणमात्रं जलक्रीडां ३प्रतिपत्ती हैं करोति, तत: 'आयते' इति नवानामपि श्रोतसां शुद्धोदकप्रक्षालनेनाऽऽचान्तो-गृहीताचमनश्चोक्ष:-स्वल्पस्यापि शङ्कितमलस्यापनय- विजयदेनात् , अत एव परमशुचिभूतो इदात् प्रत्युत्तरति, प्रत्युत्तीर्य यत्रैव प्रदेशेऽभिषेकसभा तत्रैवोपागच्छति, उपागत्याभिषेकसभामनुप्रद वाभिषेकः क्षिणीकुर्वन् पूर्वद्वारेणानुप्रविशति, अनुप्रविश्य यत्रैव मणिपीठिका यत्रैव च मणिपीठिकाया उपरि सिंहासनं तत्रोपागच्छति, उपागत्य उद्देशः २ सिंहासनवरगतः पूर्वाभिमुखः सन्निषण्णः ॥ 'तए ण'मित्यादि, ततस्तस्य विजयस्य देवस्य सामानिकाः पर्पदुपपन्नकाश्च देवाः 'आ सू०१४१ भियोगिकान्' अभियोजनमभियोगः, प्रेष्यकर्मणि व्यापार्यमाणत्वमिति भावः, अभियोगे नियुक्ता आभियोगिकास्तान् देवान् 'शव्दायन्ते' आकारयन्ति, शब्दायित्वा च तानेवमवादिषुः-'क्षिप्रमेव' शीघ्रमेव भो देवानां प्रियाः विजयस्य देवस्य 'महार्थ' महान् अर्थों-मणिकनकरत्नादिक उपयुज्यमानो यस्मिन् स महार्थस्तं महाथै, तथा महान् अर्घ:-पूजा यत्र स महार्घस्तं, महं-उत्सवमहतीति 2 महाईस्तं 'विपुलं' विस्तीर्ण शक्राभिषेकवद् इन्द्राभिषेकमुपस्थापयत ॥ 'तए णं ते' इत्यादि, ततस्ते आभियोगिका देवाः सामानि४ कपर्षदुपपन्नकैर्देवैरेवमुक्ताः 'हद्वतुट्ठचित्तमाणदिया पीइमणा परमसोमणस्सिया हरिसवसविसप्पमाणहियया करयलपरिग्गहियं दसणहं है सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्ट' इति पूर्ववत् , विनयेन वचनं 'प्रतिशृण्वन्ति' अभ्युपगच्छन्ति, कथम्भूतेन विनयेन ? इत्याह एवं * देवा तहत्ति आणाएं' इति हे देवाः। एवं-यथैव यूयमादिशत तथैवाज्ञया-युष्मदादेशेन कुर्म इत्येवंरूपेण प्रतिश्रुत्य वचनमुत्तरपूर्व दि५ ग्भागमीशानकोणमित्यर्थः तस्यात्यन्तप्रशस्तत्वात् 'अपनामन्ति' गच्छन्ति अपक्रम्य च वैक्रियसमुद्घातेन-वैक्रियकरणाय प्रयत्नविशे-हू ॥२४३॥ षेण 'समोहणंति' समवहन्यन्ते समवहता भवन्तीत्यर्थः, समवहताश्वासप्रदेशान् दूरतो विक्षिपन्ति, तथा चाह-'संखेजाणि जो Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यणाणि दंडं निसरंति' दण्ड इव दण्ड ऊर्ध्वाधआयतः शरीरबाहल्यो जीवप्रदेशसमूहस्तं शरीरस्य बहिः सहयेयानि योजनानि यावत् 'निसृजन्ति' निष्काशयन्ति, निसृज्य च तथाविधान पुद्गलानाददते, एतदेव दर्शयति-तद्यथा-रत्नानां' कर्केतनादीनां १ वाणां २ वैडूर्याणां ३ लोहिताक्षाणां ४ मसारगल्लानां ५ हंसगर्भाणां ६ पुलकानां ७ सौगन्धिकानां ८ ज्योतीरसानाम् ९ अजनानाम् १० अञ्जनपुलकानां ११ रजतानां १२ जातरूपाणाम् १३ अङ्कानां १४ स्फटिकानां १५ रिष्ठानां १६, यथाबादरान्-असारान् पुद्गलान् परिशातयन्ति यथासूक्ष्मान्-सारान् पुद्दलान् पर्याददते, पर्यादाय च चिकीर्षितरूपनिर्माणार्थ द्वितीयमपि वारं वैक्रियसमुद्घातेन समवहन्यन्ते समवहत्य यथोक्तानां रत्नादीनां योग्यान् यथाबादरान पुद्गलान् परिशातयन्ति यथासूक्ष्मानाददते आदाय च 'अष्टसहस्रम्' अष्टाधिकं सहस्रं सौवर्णिकानां कलशानां विकुर्वन्ति १ अष्टसहस्रं रूप्यमयानाम् २ अष्टसहस्रं मणिमयानाम् ३ अष्टसहस्रं सुवर्णरूप्य• मयानाम् ४ अष्टसहस्रं सुवर्णमणिमयानाम् ५ अष्टसहस्रं रूप्यमणिमयानाम् ६ अष्टसहस्रं सुवर्णरूप्यमणिमयानाम् ७ अष्टसहस्रं भौ-13 मेयानाम् ८ अष्टसहस्रं भृङ्गाराणाम् ९, एवमादर्शस्थालपात्रीसुप्रतिष्ठमनोगुलिकावातकरकचित्ररत्नकरण्डकपुष्पचङ्गेरीयावल्लोमहस्तचङ्गेरीपुष्पपटलकयावल्लोमहस्तकपटलकसिंहासनच्छत्रचामरसमुद्गकध्वजधूपकडुच्छुकानां प्रत्येकं प्रत्येकमष्टसहस्रं विकुर्वन्ति, विकुर्वित्वा 'ताए उक्किट्ठाए' इत्यादि पूर्व व्याख्याताथै यत्रैव क्षीरोदसमुद्रस्तत्रागच्छन्ति, आगत्य च क्षीरोदकं गृहन्ति, यानि च तत्र उत्पलानि पद्मानि कुमुदानि नलिनानि सुभगानि सौगन्धिकानि पुण्डरीकाणि महापुण्डरीकाणि शतपत्राणि सहस्रपत्राणि शतसहस्रपत्राणि च तानि गृहन्ति, गृहीला पुष्करोदे समुद्रे समागत्य तत्रोदकमुत्पलादीनि च गृहन्ति, तदनन्तरं यत्रैव समयक्षेत्रं यत्रैव भरतैरावतानि क्षेत्राणि यत्रैव च तेषु भरतैरावतेषु वर्षेषु मागधवरदामप्रभासाख्यानि तीर्थानि तत्रैवोपागत्य तीर्थोदकं तीर्थमृत्तिकां च गृहन्ति, ततो गङ्गा Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ना भ० गि त्तिः ४ ॥ सिन्धुरक्तारक्तवतीषु महानदीषु नद्युदकमुभयतटमृत्तिकां च गृहन्ति, ततः क्षुल्लहिमवच्छिखरिषु समागत्य सर्वतुवरान् -कपायान् सर्वाणि जातिभेदेन पुष्पाणि सर्वान् 'गन्धान्' गन्धवासादीन् सर्वाणि माल्यानि - प्रथितादिभेदभिन्नानि सर्वौषधीः सिद्धार्थकांचं गृहन्ति, गृहीत्वा तदनन्तरं पद्मदपुण्डरीकइदेषूपागत्य तदुदकमुत्पलादीनि च गृहन्ति, ततो हैमवतैरण्यवतेषु वर्षेषु रोहितारोहितांशासुवर्णकूलारूप्यकूलासु महानदीषु नद्युदकमुभयतटमृत्तिकां तदनन्तरं शब्दापातिविकटापातिवृत्त वैताढ्येषु सर्वतुबरादीन् ततो महाहिमवद्रूपिवर्षधर पर्वतेषु सर्ववरादीन् ततो महापद्ममहापौण्डरीकइदेषु हदोदकमुत्पलादीनि च तदनन्तरं हरिवर्षरम्यकवर्षेषु हरकान्ता - | हरिकान्तानरकान्तानारीकान्तासु महानदीषु सलिलोदकम् उभयतटमृत्तिकां च ततो गन्धापातिमाल्यवत्पर्यायवृत्तवैताढ्येषु सर्वतुबरादीन् ततो निषघनीलवर्षधरपर्वतेषु सर्वतुबरादीन् तदनन्तरं तद्गतेषु तिगिच्छिकेसरिमहाहदेषु ह्रदोदकमुत्पलादीनि च ततः पूर्वविदेहापर| विदेहेषु शीताशीतोदामहानदीषु नद्युदकम् उभयतटमृत्तिकां च तदनन्तरं सर्वेषु चक्रवर्त्तिविजेतव्येषु मागधवरदामप्रभासाख्यतीर्थेषु | तीर्थोदकानि तीर्थमृत्तिकाश्च ततः सर्वेषु वक्षस्कारपर्वतेषु सर्वतुबरादीन् तदनन्तरं सर्वास्वन्तरनदीषु नद्युदकमुभयतटमृत्तिकाश्च ततो मन्दर पर्वते भद्रशालवने सर्वतुबरादीन् ततो नन्दनवने सर्वतुबरादीन सरसं च गोशीर्षचन्दनं ततः सौमनसवने सर्वतुबरादीन सरसं च गोशीर्षचन्दनं दिव्यं च सुमनोदाम गृह्णन्ति, ततः पण्डकवने सर्वतुबरपुष्पगन्धमाल्यसरसगोशीर्षचन्दनदिव्यसुमनोदामानि 'दद्दरमलए सुगंधिए य गिण्हंति' इति दर्दर:- चीवरावनद्धकुण्डिकादिभाजनमुखं तेन गालितं तत्र पकं वा यन्मलयोद्भवतया प्रसिद्धत्वान्मलयं-श्रीखण्डं येषु तान् ' सुगन्धान्' परमगन्धोपेतान् गन्धान् गृह्णन्ति, गृहीला एकत्र मिलन्ति, मिलित्वा तया उत्कृष्टया दिव्यया देवगत्या यत्रैव विजया राजधानी यत्रैव विजयो देवस्तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य च करतलपरिगृहीतां शिरस्यावर्त्तिकां मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा विजयं देवं जयेन ३ प्रतिपचौ विजयदेवाभिषेकः उद्देशः २ सू० १४१ ॥ २४४ ॥ Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयेन वर्धापयन्ति, वर्धापयित्वा महार्थ महार्घ महाई विपुलमिन्द्राभिपेकयोग्य क्षीरोदकादि 'उपनयन्ति' समर्पयन्ति ॥ 'तएण'मित्यादि, ततो णमिति वाक्यालकारे तं विजयं देवं चत्वारि देवसामानिकसहस्राणि चतस्रोऽयमहिष्यः सपरिवारास्तिस्रः पर्पदो यथाक्रममष्टदशद्वादशदेवसहस्रपरिमाणाः सप्तानीकानि सप्तानीकाधिपतय: पोडश आमरक्षदेवसहस्राणि, अन्ये च बहवो विजयराजधानीवास्तव्या वानमन्तरा देवा देव्यश्च तैः-तद्गतदेवजनप्रसिद्धैः स्वाभाविकैवैकुर्विकैश्च वरकमलप्रतिस्थानैः सुरभिवरवारिप्रतिपूर्णैश्चन्दनकृतचचीकै: 'आविद्धकण्ठेगुणैः' आरोपितकण्ठे रक्तसूत्रतन्तुभिः पद्मोत्पलपिधानः सुकुमारकरतलपरिगृहीतैरनेकसहस्रसायैः कलशैरिति गम्यते, तानेव विभागतो दर्शयति-अष्टसहस्रेण सौवर्णिकानां कलशानाम् , अष्टसहस्रेण रूप्यमयानाम् , अष्टसहस्रेण मणिमयानाम् , अष्टसहस्रेण सुवर्णरूप्यमयानाम् , अष्टसहस्रेण सुवर्णमणिमयानाम् , अष्टसहस्रेण रूप्यमणिमयानाम् , अष्टसहस्रेण सुवर्णरूप्यमणिमयाहानाम् , अष्टसहस्रेण भौमेयानां, सर्वसङ्ख्ययाऽष्टभिः सहस्रैश्चतुःपष्टयधिकैः, तथा 'सर्वोदकैः' सर्वतीर्थनद्याादकैः सर्वतुवरैः सर्वपुष्पैः | सर्वगन्धैः सर्वमाल्यैः सर्वोपधिसिद्धार्थकैश्च 'सर्वां ' परिवारादिकया 'सर्वधुत्या' यथाशक्ति विस्फारितेन शरीरतेजसा 'सर्ववलेन'। सामस्येन स्वस्वहस्त्यादिसैन्येन 'सर्वसमुदयेन' स्वस्वाभियोग्यादिसमस्तपरिवारण 'सर्वादरेण' समस्तयावच्छक्तितोलनेन 'सर्वविभूत्या' स्वस्खाभ्यन्तरवैक्रियकरणादिवायरत्नादिसम्पदा, तथा 'सर्वविभूषया' यावच्छक्तिस्फारोदारशृङ्गारकरणेन 'सव्वसंभमेणं ति | सर्वोत्कृष्टेन संभ्रमेण, सर्वोत्कृष्टसंभ्रमो नाम इह स्वनायकविषयबहुमानख्यापनार्थपरा स्वनायककार्यसम्पादनाय यावच्छक्ति त्वरितत्वरिता प्रवृत्तिः, सर्वपुष्पवस्त्रगन्धमाल्यालङ्कारेण, अत्र गन्धा-वासा माल्यानि-पुष्पदामानः अलङ्कारा-आभरणानि तत: समाहारो द्वन्द्वः, ततः सर्वदिव्यत्रुटितानि तेषां शब्दाः सर्वदिव्यत्रुटितशब्दास्तैः सह सर्वशब्देन विशेपणसमासः, 'सव्वदिव्यतुडियसदनि Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वा મૅ गि यत्तिः ८५ ॥ नाएण' मिति सर्वाणि च तानि दिव्यत्रुटितानि च दिव्यतूर्याणि च एषामेकत्र मीलनेन यः संगतो नितरां नादो महान् घोषः सर्वदिव्यत्रुटितशब्दसंनिनादस्तेन, इह तुल्येष्वपि सर्वशब्दो दृष्टो यथाऽनेन सर्वे पीतं घृतमिति, तत आह- 'महया इड्डीए' इत्यादि, महत्या यावच्छक्तितुलितया 'ऋद्ध्या' परिवारादिकया 'महया जुईए' इत्याद्यपि भावनीयं, तथा महता - स्फूर्त्तिमता वराणां - प्रधानानां त्रुटितानां - आतोद्यानां यमकसमकं - एककालं पटुभिः पुरुपै: प्रवादितानां यो रवस्तेन, एतदेव विशेषेणाचष्टे – 'संखपणव पडहभेरिझल्लरिखर मुहिहुडुक्क मुरवमुइंग दुंदुहिनिग्घो ससंनिनादितरवेणं' शङ्खः प्रतीतः पणवो - भाण्डानां पटहः - प्रतीतः भेरी-ढक्का झल्लरी-चर्मावनद्धा विस्तीर्णा वलयरूपा खरमुही - काहला हुडुक्का - महाप्रमाणो मर्दलो मुरज:- स एव लघुर्मृदङ्गो दुन्दुभिः - भेर्याकारा सङ्कटमुखी, तासा द्वन्द्वः, तासां निर्घोषो - महान् ध्वानो नादितं च घण्टायामिव वादनोत्तरकालभावी सततध्वनिस्तल्लक्षणो यो रवस्तेन महता महता इन्द्राभिषेकेणाभिषिञ्चति ॥ 'तए ण' मित्यादि, ततो णमिति पूर्ववत् तस्य विजयस्य देवस्य 'महया' इति अतिशयेन महति इन्द्राभिषेके वर्त्तमानेऽप्येकका देवा विजयां राजधानीं, सप्तम्यर्थे द्वितीया प्राकृतत्वात्ततोऽयमर्थः - विजयायां राजधान्यां नात्युदके प्रभूतजलसंग्रहभावतो वैरस्योपपत्तेः नातिमृत्तिके अतिमृत्तिकाया अपि कर्दमरूपतायां उत्साहवृद्धिजनकत्वाभावात् 'पविरलफुसिय' मिति प्रविरलानि - घनभावे कर्दमसम्भवात् प्रकर्षेण यावता रेणवः स्थगिता भवन्ति तावन्मात्रेणोत्कर्षेण स्पृष्टानि - स्पर्शनानि यत्र वर्षे तत् प्रविरलस्पृष्टं ‘रयरेणुविणासणं' ति लक्ष्णतरा रेणुपुद्गला रजस्त एव स्थूला रेणवः रजांसि च रेणवश्च रजोरेणवस्तेषां विनाशनं रजोरेणुविनाशनं ‘दिव्यं' प्रधानं सुरभिगन्धोदकवर्षे वर्षन्ति, अप्येकका विजयां राजधानीं समस्तामपि 'निहतरजसं' निहतं रजो यस्यां सा निहतरजास्तां, तत्र निहतत्वं रजसः क्षणमात्रमुत्थानाभावेनापि संभवति तत आह— 'नष्टरजसं' नष्टं - सर्वथाऽदृश्यी ३ प्रतिपत्तौ विजयदेवाभिषेकः उद्देशः २ सू० १४१ ॥ २४५ ॥ Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूतं रजो यत्र [प्रन्थानं ७०००] सा नष्टरजास्तां, तथा भ्रष्टं-वातोद्भूततया राजधान्या दूरतः पलायितं रजो यस्याः सा भ्रष्टरजास्ताम्, एतदेवैकार्थिकद्वयेन प्रकटयति-प्रशान्तरजसं उपशान्तरजसं कुर्वन्ति, अप्येकका देवा विजयां राजधानीम् 'आसियसंमजियोवलितं सित्तं सुइसम्महारयारत्थंतरावणवीहियं करेंति' इति आसिक्तमुदकच्छटेन संमार्जितं कचवरशोधनेन उपलिप्तमिव गोमयादिनोपलिप्तं, तथा सिक्कानि जलेनात एव शुचीनि-पवित्राणि संमृष्टानि-कचवरापनयनेन रथ्यान्तराणि आपणवीथय इव-हट्टमार्गा इव आपणवीथयो रथ्याविशेषाश्च यस्यां सा तथा तां कुर्वन्ति, अप्येकका देवा • मञ्चातिमश्चकलितां कुर्वन्ति, अप्येकका देवा नानाविधा विशिष्टा रागा येषु ते नानाविरागा नानाविरागैरुच्छृतैः-ऊर्कीकृतैर्ध्वजैः पताकातिपताकाभिश्च मण्डितां कुर्वन्ति, अप्ये|कका देवा लाउल्लोइयमहितां गोशीर्षसरसरक्तचन्दनदर्दरदत्तपञ्चाङ्गुलितला कुर्वन्ति, अप्येकका देवा विजयां राजधानीमुपचितचन्दनकलशां कुर्वन्ति अप्येकका देवा चन्दनघटसुकृततोरणप्रतिद्वारदेशभागां कुर्वन्ति, अप्येकका देवा विजयां राजधानीमासिक्तोत्सक्तविपुलवृत्तवग्धारितमाल्यदामकलापां कुर्वन्ति, अप्येकका देवा विजयां राजधानी पञ्चवर्णसुरभिमुक्तपुष्पपुञ्जोपचारकलितां कुर्वन्ति, अप्येकका देवा विजयां राजधानी कालागुरुप्रवरकुन्दुरुष्कतुरुष्कधूपमघमघायमानां गन्धोद्धुताभिरामा सुगन्धवरगन्धगन्धिकां गन्धव-14 तिभूतां कुर्वन्ति, एतेषां च पदानां व्याख्यानं पूर्ववत् , अप्येकका देवा हिरण्यवर्ष वर्षन्ति, अप्येककाः सुवर्णवर्षमप्येकका आभरणवर्ष (रत्नवर्षमप्येकका ववर्षमप्येककाः) पुष्पवर्षमप्येकका माल्यवर्पमप्येककाचूर्णवर्ष वस्त्रवर्ष (आभरणवर्षे ) वर्पन्ति, अप्येकका देवा || हिरण्यविधि-हिरण्यरूपं मङ्गलप्रकारं 'भाजयन्ति' विश्राणयन्ति शेषदेवेभ्यो ददतीति भावः, एवं सुवर्णरत्नाभरणपुष्पमाल्यगन्धचूर्ण-18 वस्त्रविधिभाजनमपि भावनीयम् ॥ 'अप्पेगइया देवा दुयं नट्टविहिं उवदंसेंति' इत्यादि, इह द्वात्रिंशन्नाट्यविधयः, ते च येन क्रमेण Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6 RRIAGRICKASHAHRIKANGACHELCOME , भगवतो वर्द्धमानखामिनः पुरतः सूर्याभदेवेन भाविता राजप्रश्नीयोपाङ्गे दर्शितास्तेन क्रमेण विनेयजनानुग्रहार्थमुपदयन्ते, तत्र स्ख-१३ प्रतिपत्तौ स्तिकश्रीवत्सनन्दावर्त्तवर्द्धमानकभद्रासनकलशमत्स्यदर्पणरूपाष्टमगलाकाराभिनयात्मकः प्रथमो नाट्यविधिः १, द्वितीय आवर्त्तप्रत्यावर्त्तश्रे-१ विजयदेणिप्रतिश्रेणिस्वस्तिकपुष्पमाणवकवर्द्धमानकमत्स्याण्डकमकराण्डकजारमारपुष्पावलिपद्मपत्रसागरतरगवासन्तीलतापद्मलताभक्तिचित्राभि- वाभिषेक नयात्मकः २, तृतीय ईहामृगनपभतुरगनरमकरविहगव्यालकिन्नररुरुसरभचमरकुञ्जरवनलतापद्मलताभक्तिचित्रासकः३, चतुर्थ एकतो- उद्देशः २ च(तश्च)कद्विधातोच(तश्च)कएकतश्चक्रवालद्विधातश्चक्रवालचक्रार्द्धचक्रवालाभिनयालकः ४, पञ्चमश्चन्द्रावलिप्रविभक्तिसूर्यावलिप्रविभक्तिव- सू०१४ लयावलिप्रविभक्तिहंसावलीप्रविभक्तितारावलिप्रविभक्तिमुक्तावलिप्रविभक्तिरत्नावलिप्रविभक्तिपुष्पावलिप्रविभक्तिनामा ५, पाठश्चन्द्रोद्गमप्रविभक्तिसूर्योद्गमप्रविभक्त्यभिनयासक उद्गमनोद्गमनप्रविभक्तिनामा ६, सप्तमश्चन्द्रागमनसूर्यागमनप्रविभक्त्यभिनयामक आगमनागमनप्रविभक्तिनामा ७, अष्टमश्चन्द्रावरणप्रविभक्तिसूर्यावरणप्रविभक्त्यभिनयासक आवरणावरणप्रविभक्तिनामा ८, नवमश्चन्द्रास्तमयनप्रविभक्तिसूर्यास्तमयनप्रविभक्त्यभिनयासकोऽस्तमयनास्तमयनप्रविभक्तिनामा ९, दशमश्चन्द्रमण्डलप्रविभक्तिसूर्यमण्डलप्रविभक्तिनागमण्डलप्रविभक्तियक्षमण्डलप्रविभक्तिभूतमण्डलप्रविभक्त्यभिनयात्मको मण्डलप्रविभक्तिनामा १०, एकादश ऋपभमण्डलप्रविभक्तिसिंहमण्डलप्रविभक्तियविलम्बितगजविलम्बितहयविलसितगजविलसितमत्तहयविलसितमत्तगजविलसितमत्तयविलम्बितमत्तगजविलम्बिताभिनयो द्रुतविलम्बितनामा ११, द्वादशः सागरप्रविभक्तिनागप्रविभक्त्यभिनयामकः सागरनागप्रविभक्तिनामा १२, त्रयोदशो नन्दाप्रविभक्तिचम्पाप्रविभक्त्यभिनयासको नन्दाचम्पाप्रविभक्त्यासकः १३, चतुर्दशो मत्स्याण्डकप्रविभक्तिमकराण्डकप्रविभक्तिजारप्रविभक्तिमारप्र- ॥२४६॥ विभक्त्यभिनयासको मत्स्याण्डकमकराण्डकजारमारप्रविभक्तिनामा १४, पञ्चदशः क इति ककारप्रविभक्तिः ख इति खकारप्रविभ CREAM Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किर्ग इति गकारप्रविभक्तिर्घ इति धकारप्रविभक्तिः इति उकारप्रविभक्तिरित्येवं क्रमभाविककारादिप्रविभक्त्यभिनयासक: ककारखकारगकारघकारस्कारप्रविभक्तिनामा १५, एवं षोडशश्चकारछकारजकारझकारबकारप्रविभक्तिनामा १६, सप्तदशः टकारठकारडकारढकारणकारप्रविभक्तिनामा १७, अष्टादशस्तकारथकारदकारधकारनकारप्रविभक्तिनामा १८, एकोनविंशतितमः पकारफकारबकारभकारमकारप्रविभक्तिनामा १९, विंशतितमोऽशोकपल्लवप्रविभक्त्याम्रपल्लवप्रविभक्तिजम्बूपल्लवप्रविभक्तिकोशाम्बपल्लवप्रविभत्त्यभिनयात्मकः पल्लव २ प्रविभक्तिनामा २०, एकविंशतितमः पद्मलताप्रविभक्त्यशोकलताप्रविभक्तिचम्पकलताप्रविभक्तिचूतलताप्रविभक्तिवनलताप्रविभक्तिवासन्तीलताप्रविभक्त्यतिमुक्तलताप्रविभक्तिश्यामलताप्रविभक्त्यभिनयासको लताप्रविभक्तिनामा २१, द्वाविंशतितमो द्रुतनामा २२, त्रयोविंशतितमो विलम्बितनामा २३, चतुर्विंशतितमो द्रुतविलम्बितनामा २४, पञ्चविंशतितमः अश्चितनामा २५, षडिशतितमो रिभितनामा २६, सप्तविंशतितमोऽश्चितरिभितनामा २७, अष्टाविंशतितम आरभटनामा २८, एकोनत्रिंशत्तमो भसोलनामा २९, त्रिंशत्तम आरभटभसोलनामा ३०, एकत्रिंश उत्पातनिपातप्रसक्तसंकुचितप्रसारितरेकरचितभ्रान्तसंभ्रान्तनामा ३१ द्वात्रिंशत्तमस्तु चरमचरमनामानिबद्धनामा, स च सूर्याभदेवेन भगवतो वर्द्धमानस्वामिनः पुरतो भगवतश्चरमपूर्वमनुष्यभवचरमदेवलोकभवचरमच्यवनचरमगर्भसंहरणचरमभरतक्षेत्रावसप्पिणीतीर्थकरजन्माभिषेकचरमबालभावचरमयौवनचरमकामभोगचरमनिष्क्रमणचरमतपश्चरणचरमज्ञानोत्पादचरमतीर्थप्रवर्तनचरमपरिनिर्वाणाभिनयासको भावितः ३२ । तत्रैतेषां द्वात्रिंशतो नाट्यविधीनां मध्ये कांचन नाट्यविधीनुपन्यस्यति-अप्येकका देवाः द्रुतं-दुतनामकं द्वाविंशतितमं नाट्यविधिमुपदर्शयन्ति, एवमप्येकका विलम्बितं नाट्यविधिमुपदर्शयन्ति, अप्येकका द्रुतविलम्बितं नाट्यविधि, अप्येकका अञ्चितं नाट्यविधि, अप्येकका रिभितं नाट्यविधि, अप्येकका अ Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयदे प्रतिपत्ती प्रा वाभिषेकः उद्देशः२ सू० १४१ SWAGANAGAR चितरिभितं नाट्यविधि, अप्येककाः आरभर्ट-नाट्यविधि, अप्येकका भसोलं. नाट्यविधि, अप्येकका आरभटभसोलं नाट्यविधिमुप- दर्शयन्ति, अप्येकका, देवा उत्पातनिपातम् उत्पातपूर्वो निपातो यस्मिन् स उत्पातनिपातस्तं; एवं निपातोत्पातं सङ्कुचितप्रसारितं । रियारिय'मिति गमनागमनं भ्रान्तसम्भ्रान्तं नाम, नाट्यविधि-सामान्यतो नर्त्तनविधि द्वात्रिंशद्विध्युत्तीर्णमुपदर्शयन्ति । अप्येकका देवाश्चतुर्विधं वाद्यं वादयन्ति, तद्यथा-'ततं' मृदङ्गपटहादि 'विततं' वीणादिकं 'घन' कंसिकादि 'शुषिरं काहलादि, अप्येकका देवाश्चतुर्विधं गेयं गायन्ति, तद्यथा-'उत्क्षिप्त' प्रथमतः समारभ्यमाणं 'प्रवृत्तम् उत्क्षेपावस्थातो विक्रान्तं मनाग्भरेण प्रवर्त्तमानं मन्दायमिति-मध्यभागे मूर्छनादिगुणोपेततया मन्दं मन्दं घोलनात्मकं 'रोचितावसान'मिति रोचितं-यथोचितलक्षणोपेततया । भावितं सत्यापितमितियावद् अवसानं यस्य तद् रोचितावसानं । अप्येककाश्चतुर्विधमभिनयमभिनयन्ति, तद्यथा-दार्टान्तिकं प्रतिश्रुतिकं सामान्यतोविनिपातिक लोकमध्यावसानिकमिति, एतेऽभिनयविधयो नाट्यकुशलेभ्यो वेदितव्याः, अप्येकका देवाः ते पीनयन्ति' पीनमात्मानं कुर्वन्ति स्थला भवन्तीति भावः, अप्येकका देवाः 'ताण्डवयन्ति' ताण्डवरूपं नृत्यं कुर्वन्ति, अप्येकका 2 F देवाः 'लास्थयन्ति' लास्यरूपं नृत्यं कुर्वन्ति, अप्येकका देवाः 'छक्कारेंति' छत्कारं कुर्वन्ति, अप्येकका देवा एतानि पीनत्वादीनि चत्वायेपि कुवेंन्ति, अप्येकका देवा उच्छलन्ति अप्येकका देवाः प्रोच्छलन्ति अप्येकका देवातिपदिकां छिन्दन्ति अप्येककारीण्य- १ ला 'प्येतानि कुवेंन्ति, अप्येकका- देवा हयहेपितानि कुर्वन्ति अप्येकका देवा हस्तिगडगडायितं कुर्वन्ति अप्येकका रथघणघणायित F कुवेन्ति अप्येकका देवास्त्रीण्यप्येतानि कुर्वन्ति, अप्येकका देवा आस्फोटयन्ति, भूम्यादिकमिति गम्यते, अप्येकका देवा वलान्ति, अप्येकका देवाः सिंहनादं नदन्ति अप्येकका देवाः पाददर्दरकं कुर्वन्ति अप्येकका देवा भूमिचपेटा, ददति-भूमि, पेटयाऽऽस्फाळ हास्यरूपं नृत्यं कुर्वन्ति भावः, अप्येकका देवाः तायशलेभ्यो वेदितव्याः, अप्यक '॥२४७॥ 23 Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - -- यन्तीति भावः, अप्येकका देवा महता महता शब्देन 'रवन्ते' शब्दं कुर्वन्ति अप्येकका देवाश्चत्वार्यपि सिंहनादादीनि कुर्वन्ति, अप्येकका देवा 'हक्कारेंति' हकारं कुर्वन्ति अप्येकका देवाः 'वुक्कारेंति' मुखेन वुकारशब्दं कुर्वन्ति अप्येकका देवाः 'थक्कारेंति' थक्क इत्येवं महता शब्देन कुर्वन्ति अप्येककास्त्रीण्यप्येतानि कुर्वन्ति, अप्येकका देवा अवपतन्ति अप्येकका देवा उत्पतन्ति. अप्येकका देवाः परिपतन्ति-तिर्यग्निपतन्तीत्यर्थः अप्येकका देवास्त्रीण्यप्येतानि कुर्वन्ति, अप्येककाः 'ज्वलन्ति' ज्वालामालाकुला भवन्ति अप्येकका देवाः 'तपन्ति' तप्ता भवन्ति अप्येककाः प्रतपन्ति अप्येकका देवास्त्रीण्यपि कुर्वन्ति, अप्येकका देवा गर्जयन्ति-अप्येककाः 'विजयारंति' विद्युतं कुर्वन्ति अप्येकका देवा वर्ष वर्षन्ति अप्येककास्त्रीण्यप्यतानि कुर्वन्ति, अप्येकका देवा देवोत्कलिका कुर्वन्ति-देवानां वातस्येवोत्कलिका देवोत्कलिका तां कुर्वन्ति, अप्येकका देवा देवकहकहं कुर्वन्ति-प्रभूतानां देवानां प्रमोदभरवशतः मा स्वेच्छावचनोलः कोलाहलो देवकहकहस्तं कुर्वन्ति, अप्येकका देवा देवदुहृदुहकं कुर्वन्ति-दहदहकमित्यनक कास्त्रीण्यप्येतानि कुर्वन्ति, अप्येकका देवाश्चेलोत्क्षेपं कुर्वन्ति, अप्येकका देवा वन्दनकलशहस्तगता:-वन्दनकलशा हस्ते गता येषां ते वन्दनकलशहस्तगताः, अप्येकका देवाः भृङ्गारकलशहस्तगताः, एवमादर्शस्थालपात्रीसुप्रतिष्ठकवातकरकचित्ररत्नकरण्डकपुष्पचङ्गेरीयावल्लोमहस्तचङ्गेरीपुष्पपटलकयावल्लोमहस्तपटलकसिंहासनचामरतैलसमुद्गकयावदजनसमुद्गकधूपकडुच्छकहस्तगता: प्रत्येकमभिलाप्याः, 'हडतुडे'त्यादि यावत्करणात् 'हतुहचित्तमाणंदिया पीतिमणा परमसोमणस्सिया हरिसवसविसप्पमाणहियया' इति परिग्रहः, सर्वतः समन्ताद् आधावन्ति प्रधावन्ति ॥ 'तए णं तं विजयं देवं चत्तारि सामाणियसाहस्सीओ' इत्याद्यभिषेकनिगमनसूत्रमाशीर्वादसूत्रं -च पाठसिद्धम् ॥ -- - - -- - - VMon Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तसे विज देवे महया २ इंदाभिसेएणं अभिसित्ते समाणे सीहासणाओ अग्मुट्ठेह सीहासणाओ अभुट्टेत्ता अभिसेयसभातो पुरत्थिमेणं दारेणं पडिनिक्खमति २ त्ता जेणामेव अलंकारियसभा तेणेव उवागच्छति २ त्ता आलंकारियसभं अणुप्पयाहिणीकरेमाणे २ पुरत्थिमेणं दारेणं अणुपविसति पुरत्थिमेणं दारेणं अणुपविसित्ता जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छति २त्ता सीहासणवरगते पुरत्याभिमुहे सण्णिसण्णे, तए णं तस्स विजयस्स देवस्स सामाणियपरिसोववण्णगा देवा अभिओगिए देवे सहावेंति २ एवं वयासी - खिप्पामेव भो देवाप्पिया ! विजयस्स देवस्स आलंकारियं भंडं उवणेह, तेणेव ते आलंकारियं भंडं जाव वेंति ॥ तणं से विजए देवे तप्पढमयाए पहलमालाए दिव्वाए सुरभीए गंधकासाईए गाताई लुहेति गाताई लूहेत्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं गाताई अणुलिंपति सरसेणं गोसीसचंदणेणं गाताई अणुलिंपेत्ता ततोऽणंतरं च णं नासाणीसासवायवज्झं चक्खुहरं वण्णफरिसजुत्तं हतलालापेलवातिरेगं धवलं कणगखइयंतकम्मं आगासफलिहसरिसप्पभ्रं अहतं दिव्वं देवदूसजुयलं नियंसेइ णियंसेत्ता हारं पिणिद्धेह हारं पिणिद्धेत्ता एवं एकावलिं पिधिति एकावलिं पिणिघेत्ता एवं एतेणं अभिलावेणं मुत्तावलिं कणगावलिं रयणावलिं कडगावं तुडिया अंगाई केयूराई दसमुद्दिताणंतकं कडिमुत्तकं तेअत्थिमुत्तगं मुरविं कंठमुरविं पालंयंसि ३ प्रतिपत्तौ विजयदे वकृता जिनपूजा उद्देशः २ सू० १४२ ॥ २४८ ॥ Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुंडलाइं चूडामणि चित्तरयणुक्कडं मउड पिणिधेइ पिणिधित्ता गंठिमवेढिमपूरिमसंघाइमेणं चउब्विहेणं मल्लेणं कप्परुक्खयंपिव अप्पाणं अलंकियविभूसितं करेति, कप्परुक्खयंपिव अप्पाणं अलंकियविभूसियं करेत्ता दईरमलयसुगंधगंधितेहिं गंधेहिं गाताई सुकिडति २ त्ता दिव्वं च सुमणदाम पिणिद्धति ॥ तए णं से विजए देवे केसालंकारेणं वत्थालंकारेणं मल्लालंकारेणं आभरणालंकारेणं चउविहेणं अलंकारेणं अलंकिते विभूसिए समाणे पंडिपुण्णालंकारे सीहासणाओ अब्भुढेइ २ त्ता आलंकारियसभाओ पुरच्छिमिल्लेणं दारेणं पडिनिक्खमति २ त्ता जेणेव ववसायसभा तेणेव उवागच्छति २ त्ता ववसायसभं अणुप्पदाहिणं करेमाणे २ पुरत्थिमिल्लेणं दारेणं अणुपविसति २त्ता जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छति २ त्ता सीहासणवरगते पुरत्याभिमुहे सण्णिसण्णे । तते णं तस्स विजयस्स देवस्स आहिओगिया देवा पोत्थयरयणं उवणेति ॥तए णं से विजए देवे पोत्थयरयणंगेण्हतिरत्ता पोत्थयरयणं मुयति पोत्थयरणं मुएत्ता पोत्थयरयणं विहाडेति पोत्थयरयणं विहाडेत्ता पोत्थयरयणं वाएति पोत्थयरयणं वाएत्ता धम्मियं १'गंठिमे'त्यादितो यावत् 'करेत्ता' इत्ययं पाठोऽप्रलिखितसूत्रस्यादावेव दृश्यते व्याख्यानुसारेण. २ अस्य व्याख्या न दृश्यते. ३ 'गंठिमे'त्यादि यावत् 'करेत्ता' इत्ययं पाठ व्याख्या न दृश्यते, 'केसालंकारेणं' इत्यादि यावत् 'विभूसिए समाणे' इत्येतस्य व्याख्याऽपि न दृश्यते । गंठिमे' त्यादि यावत् 'करेत्ता' इत्येतस्य ला'पढिपुण्णालंकारे' इत्येतेन सह संबंधो दृश्यते व्याख्यानुसारेण. ४ अयं पुस्तकद्वयेऽप्यत्रैव दृश्यतेऽतोऽहं व्याख्यानुसारेण मूलपाठे कर्तुं न शक्तोऽभूवम् .. Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ प्रतिपत्ती विजयदेॐ वकृता जिनपूजा उद्देशः२ सू०१४२ यवसायं पगेण्हति धम्मियं ववसायं पगेण्हित्ती पोत्थयरयणं पडिणिक्खिवेइ २त्ता सीहासणाओ अब्भुट्टेति २त्ता ववसायसभाओ पुरथिमिल्लेणं दारेणं पडिणिक्खमइ २त्ता जेणेव णंदापुक्खरिणी तेणेव उवागच्छति २त्ता णंदं पुक्खरिणि अणुप्पयाहिणीकरमाणे पुरथिमिल्लेणं दारेणं अणुपविसति २त्ता पुरथिमिल्लेणं तिसोपाणपडिरूवगएणं पच्चोरुहति २त्ता हत्थं पादं पक्खालेति २त्ता एगं महं सेतं रयतामयं विमलसलिलपुण्णं मत्तगयमहामुहाकितिसमाणं भिंगारं पगिण्हति भिंगारं पगेण्हित्ता जाई तत्थ उप्पलाई पउमाई जाव सतसहस्सपत्ताई ताई गिण्हति २ त्ता गंदातो पुक्खरिणीतो पञ्चुत्तरेइ २त्ता जेणेव सिद्धायतणे तेणेव पहारेत्थ गमणाए ॥ तए णं तस्स विजयस्स देवस्स चत्तारि सामाणियसाहस्सीओ जाव अण्णे य बहवे वाणमंतरा देवा य देवीओ य अप्पेगइया उप्पलहत्थगया जाव हत्थगया विजयं देवं पिट्टतो पिट्ठतो अणुगच्छंति ॥ तए णं तस्स विजयस्स देवस्स यहवे आभिओगिया देवा देवीओ य कलसहत्थगता जाव धूवकडच्छयहत्थगता विजयं देवं पिट्टतो २ अणुगच्छंति । तते णं से विजए देखें चाहिं सामाणियसाहस्सीहिं जाव अण्णेहि य बहहिं वाणमंतरेहिं देवेहि य देवीहि य सद्धिसंपरिबुडे सव्विड्डीए सव्वजुसीए जाव णिग्घोसणाइयरवेणं जेणेव सिद्धाययणे तेणेव उषागच्छति २त्ता सिद्धायतणं अणुप्पयाहिणीकरेमाणे २ पुरथिमिल्लेणं दारेणं अणुपविसति अणु Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - +NA-NAMAAT पविसित्सा जेणेव देवच्छंदए तेणेव उवागच्छति २त्ता आलोए जिणपडिमाणं पणामं करेति २ सा लोमहत्वगं गेहति लोमहत्थगं गेण्हित्ता जिणपडिमाओ लोमहत्थएणं पमति २ त्ता सुरभिणा गंधोदएणं ण्हाणेति २ त्ता दिव्वाए सुरभिगंधकासाइए गाताई लूहेति-२ सा सरसेणं गोसीसचंदणेणं गाताणि अणुलिंपइ अणुलिंपेत्ता जिणपडिमाणं अहयाई सेताई दिव्वाई देवदूसजुयलाई णियंसेइ नियंसेत्ता अग्गेहिं वरेहि य गंधेहि य मल्लेहि य अचेति २त्ता पुप्फारुहणं गंधारुहणं मल्लारुहणं वण्णारुहणं चुण्णारहणं आभरणारुहणं करेति करेत्ता आसत्तोसत्तविउलववग्धारितमल्लदाम० करेति २ त्ता अच्छेहि सण्हेहिं [ सेएहिं ] रययामएहिं अच्छ, रसातंदुलेहिं जिणपडिमाणं पुरतो अट्ठमंगलए आलिहति सोत्थियसिरिवच्छ जाव दप्पण अट्ठमंगलगे आलिहति आलिहित्ता कयग्गाहग्गहितकरतलपन्भट्ठविप्पमुक्केण दसद्धवन्नेणं कुसुमेणं मुक्कपुप्फपुंजोक्यारकलितं करेति २ त्ता चंदप्पभवइरवेरुलियविमलदंडं कंचणमणिरयणभत्तिचित्तं कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुक्कधूवगंधुत्तमाणुविद्धं धूमवहिं विणिम्मुयंतं वेरुलियामयं कडच्छुयं परगहित्तु पयत्तेण धूवं दाऊण जिणवराणं अहसयविसुद्धगंथजुत्तेहिं महावित्तेहिं अत्थजुत्तेहिं अपुणरुत्तेहिं संथुणइ २ त्ता सत्तट्ट पयाई ओसरति सत्तहपयाई ओसरित्ता वामं जाणुं अंचेइ २ ता दाहिणं जाणुं धरणितलंसि णिवाडेइ तिक्खुत्तो मुद्धाणं धरणि Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18609648649640641646 ॐ ३ प्रतिपत्ती विजयदेवकृता जिनपूजा उद्देशः२ सू०१४२ यलंसि णमेइ नमित्ता इसिं पचुण्णमति २ त्ता कडयतुडियर्थभियाओ भुयाओ पडिसाहरति । २त्ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कहु एवं वयासी–णमोऽत्थु णं अरिहंताणं भगवंताणं जाव सिद्धिगइणामधेयं ठाणं संपत्ताणं तिकटु वंदति णमंसति वंदित्ता णमंसित्ता जेणेव सिद्धायतणस्स बहुमज्झदेसभाए तेणेव उवागच्छति २त्ता दिव्वाए उद्गधाराए अब्भुक्खति २त्ता सरसणं गोसीसचंदणेणं पंचंगुलितलेणं मंडलं आलिहति २त्ता वच्चए दलयति वच्चए दलयित्ता कयग्गाहग्गहियकरतलप-भट्ठविमुक्केणं दसवण्णणं कुसुमेणं मुक्कपुप्फपुंजोवयारकलियं करेति २ त्ता धूवं दलयति २ जेणेव सिद्धायतणस्स दाहिणिल्ले दारे तेणेव उवागच्छति २त्ता लोमहत्थयं गेण्हइ २ दारचेडीओ य सालिभंजियाओ य वालरूवए य लोमहत्थएणं पमजति २ बहुमज्झदेसभाए सरसेणं गोसीसचंदणेणं पंचंगुलितलेणं अणुलिंपति २ चच्चए दलयति २ पुप्फारुहणं जाव आहरणारहणं करेति २ आसत्तोसत्तविपुल जाव मल्लदामकलावं करेति २ कयग्गाहग्गहित जाव पुंजोवयारकलितं करेति २ धृवं दलयति २ जेणेव मुहमंडवस्स बहुमज्झदेसभाए तेणेव उवागच्छति २त्ता बहुमज्झदेसभाए लोमहत्थेणं पमज्जति २ दिव्वाए उद्गधाराए अन्भुक्खेति २ सरसेणं गोसीसचंदणेणं पंचंगुलितलेणं मंडलगं आलिहति २ चच्चए दलयति २ कयग्गाह जाव धृवं दलयति २ जेणेव मुहमंडवगस्स पचत्थिमिल्ले दारे तेणेव ॥२५॥ Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवा० लोमहत्थगं गेण्हति २ दारचेडीओ य सालिभंजियाओ य वालरूवए य लोमहत्थगेण पमजति २ दिवाए उद्गधाराए अन्भुक्खेति २ सरसेणं गोसीसचंदणेणं जाव चच्चए दलयति २ आसत्तोसत्त० कयग्गाह० धूवं दलयति २ जेणेव मुहमंडवगस्स उत्तरिल्ला णं खंभपंती तेणेव उवागच्छइ २ लोमहत्थगं परा० सालभंजियाओ दिवाए उदगधाराए सरसेणं गोसीस दणेणं पुप्फारुहणं जाव आसत्तोसत्त० कयग्गाह० धूवं दलयति जेणेव मुहमंडवस्स पुरत्थिमिल्ले दारे तं चेव सव्वं भाणियव्वं जाव दारस्स अचणिया जेणेव दाहिणिल्ले दारे तं चेव जेणेव पेच्छाघरमंडवस्स बहुमज्झदेसभाए जेणेव वइरामए अक्खाडए जेणेव मणिपेढिया । जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छति २ लोमहत्थगं गिण्हति लोमहत्थगं गिण्हित्ता अक्खाडगं च सीहासणं च लोमहत्थगेण पमजति २ त्ता दिव्वाए उदगधाराए अन्भु० पुप्फारुहणं जाव धूवं दलयति जेणेव पेच्छाघरमंडवपचत्थिमिल्ले दारे दारचणिया उत्तरिल्ला खंभपंती तहेव पुरत्थिमिल्ले दारे तहेव जेणेव दाहिणिल्ले दारे तहेव जेणेव चेतियथूभे तेणेव उवागच्छति २ त्ता लोमहत्थगं गेण्हति २त्ता चेतियथूभं लोमहत्थएणं पमजति २ दिव्वाए दग० सरसेण पुप्फारुहणं आसत्तोसत्त जाव धूवं दलयति २ जेणेव पचत्थिमिल्ला मणिपेढिया जेणेव जिणपडिमा तेणेव उवागच्छति जिणपडिमाए आलोए पणामं करेइ २त्ता लोमहत्थगं गेण्हति २त्ता तं *AGOSTOSSSROX0940%2064054- Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ३ प्रतिपत्ती 5 विजयदे वकृता जिनपूजा उद्देशः२ सू०१४२ 13 चेव सव्वं जंजिणपडिमाणं जाव सिद्धिगइनामधेनं ठाणं संपत्ताणं वंदति णमंसति. एवं उत्तरिल्लाएवि, एवं पुरथिमिल्लाएवि, एवं दाहिणिल्लाएवि, जेणेव चेइयरुक्खा दारविही य मणिपेढिया जेणेव महिंदज्झए दारविही, जेणेव दाहिणिल्ला नंदापुक्खरणी तेणेव उवा० लोमहत्यगं गेण्हति चेतियाओ य तिसोपाणपडिरूवए य तोरणे य सालभंजियाओ य वालरूवए य लोमहत्थएण पमजति २त्ता दिव्वाए उदगधाराए सिंचति सरसेणं गोसीसचंदणेणं अणुलिंपति २ पुप्फारुहणं जाव धूवं दलयति २ सिद्धायतणं अणुप्पयाहिणं करेमाणे जेणेव उत्तरिल्ला णंदापुक्खरिणी तेणेव उवागच्छति २त्ता तहेव महिंदज्झया चेतियरुक्खो चेतियथभे पचत्थिमिल्ला मणिपेढिया जिणपडिमा उत्तरिल्ला पुरथिमिल्ला दक्खिणिल्ला पेच्छाघरमंडवस्सवि तहेव जहा दक्खिणिल्लस्स पचत्थिमिल्ले दारे जाव दक्खिणिल्ला णं खंभपंती मुहमंडवस्सवि तिण्हं दाराणं अञ्चणिया भणिऊणं दक्खिणिल्ला णं खंभपंती उत्तरे दारे पुरच्छिमे दारे सेसं तेणेव कमेण जाव पुरथिमिल्ला गंदापुक्खरिणी जेणेव सभा सुधम्मा तेणेव पहारेत्य गमणाए॥ तते णं तस्स विजयस्स चत्तारि सामाणियसाहस्सीओ एयप्पभितिं जाव सब्बिड्डीए जाव णाइयरवेणं जेणेव सभा सुहम्मा तेणेव उवागच्छंति २त्ता तं णं सभं सुधम्म अणुप्पयाहिणीकरेमाणे २ पुरथिमिल्लेणं अणुपविसति २ आलोए जिणसकहाणं पणामं करेति २ जेणेव मणिपेढिया ॥२५१॥ Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेणेव माणवचेतियक्खंभे जेणेव वइरामया गोलवहसमुग्गका तेणेव उवागच्छति २ लोमहत्थयं गेण्हति २ ता वइरामए गोलवद्दसमुग्गए लोमहत्थएण पमज्जइ २ त्ता वइरामए गोल समुग्गए विहाडेति २ त्ता जिणसकहाओ लोमहत्थएणं पमज्जति २ त्ता सुरभिणा गंधोदएणं तिसत्तखुत्तो जिणसकहाओ पक्खालेति २ सरसेणं गोसीसचंदणेणं अणुलिंपइ २ ता अहिं वरेहिं गंधेहिं मल्लेहि य अचिणति २ त्ता धूवं दलयति २ त्ता वइरामएस गोलवहसमुग्गए पडिणिक्खिवति २ त्ता माणवकं चेतियखंभं लोमहत्थएणं पमज्जति २ दिव्वाए उद्गधारा अभुक्खेइ २ त्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं चच्चए दलयति २ पुप्फारुहणं जाव आसत्तो-सत्त॰ कयग्गाह॰ धूवं दलयति २ जेणेव सभाए सुधम्माए बहुमज्झदेसभाए तं चैव जेणेव सीहास तेणेव जहा दारचणिता जेणेव देवसयणिजे तं चेव जेणेव खुड्डागे महिंदज्झए तं चेव जेणेव पहरणको से चोप्पाले तेणेव उवागच्छति २ पत्तेयं २ पहरणाई लोमहत्थएणं पमज्जति पमज्जित्ता सरसेणं गोसीस चंदणेणं तहेव सव्वं से संपि दक्खिणदारं आदिकाउं तहेव णेयव्वं जाव पुरच्छिमिल्ला दापुक्खरिणी सव्वाणं सभाणं जहा सुंधम्माए सभाए तहा अच्चणिया उववायसभाए णवरि देवसयणिज्जस्स अचणिया सेसासु सीहासणाण अच्चणिया हरयस्स जहा णंदाए पुक्खरिणीए अचणिया, ववसायसभाए पोत्थयरयणं लोम० दिव्वाए उद्गधाराए सरसेणं गोसीसचंदणेणं Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ प्रतिपत्ती विजयदेवकृता जिनपूजा उद्देशः २ सू०१४२ अणुलिंपति अग्गेहिं वरेहिं गंधेहि य मल्लेहि य अचिणति २ त्ता [मल्लेहि सीहासणे लोमहत्थएणं पमज्जति जाव धूवं दलयति सेसं तं चेव णंदाए जहा हरयस्स तहा जेणेव वलिपीढं तेणेव उवागच्छति २त्ता अभिओगे देवे सद्दावेति २त्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणप्पिया! विजयाए रायहाणीए सिंघाडगेसु य तिएसु य चउकेसु य चचरेसु य चतुमुहेसु य महापहपहेसु य पासाएसु य पागारेसु य अदालएसु य चरियासु य दारेसु य गोपुरेसु य तोरणेसु य वावीसु य पुक्खरिणीसु य जाव बिलपंतिगासु य आरामेसु य उजाणेसु य काणणेसु य वणेसु य वणसंडेसु य वणराईसु य अचणियं करेह करेत्ता ममेयमाणत्तियं खिप्पामेव पच्चप्पिणह । तए णं ते आभिओगिया देवा विजएणं देवेणं एवं वुत्ता समाणा जाव. हतुट्टा विणएणं पडिसुणेति २त्ता विजयाए रायहाणीए सिंघाडगेसु य जाव अचणियं करेत्ता जेणेव विजए देवे तेणेव उवागच्छन्ति २त्ता एयमाणत्तियं पचप्पिणंति ॥ तए णं से विजए देवे तेसिणं आभिओगियाणं देवाणं अंतिए एयमहसोचा णिसम्म हहतुट्टचिरामाणंदिय जाव हयहियए जेणेव णंदापुक्खरिणी तेणेव उवागच्छति २त्ता पुरथिमिल्लेणं तोरणेणं जाव हत्थपायं पक्खालेति २त्ता आयंते चोक्खे परमसुइभूए णंदापुक्खरिणीओ पचत्तरति २त्ता जेणेव सभा सुधम्मा तेणेव पहारेत्थ गमणाए । तए णं से विजए देवे चाहिं सामाणियसाह RECRUCINECRACTICORICORNER ॥२५२ Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्सीहिं जाव सोलसहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहिं सब्विट्ठीए जाव निग्घोसनाइयरवेणं जेणेव सभा सुधम्मा तेणेव उवागच्छति २ त्ता सभं सुधम्म पुरथिमिल्लेणं दारेणं अणुपविसति २त्ता जेणेव मणिपेढिया तेणेव उवागच्छति २त्ता सीहासणवरगते पुरच्छाभिमुहे सण्णि सपणे ॥ (सू०१४२) 'तए णमित्यादि, ततः स विजयो देवो वानमन्तरैः 'महया २' इति अतिशयेन महता इन्द्राभिपेकेणाभिषिक्तः सन् सिंहासनादभ्युत्तिष्ठति, अभ्युत्थायाभिषेकसभातः पूर्वद्वारेण विनिर्गत्य यत्रैवालङ्कारसभा तत्रैवोपागच्छति, उपागत्यालङ्कारिकसभामनुप्रदक्षिणीकुर्वन् पूर्वद्वारेणानुप्रविशति, अनुप्रविश्य च यत्रैव मणिपीठिका यत्रैव च सिंहासनं तत्रोपागच्छति, उपागत्य सिंहासनवरगतः पूर्वाभिमुखः संनिषण्णः, ततस्तस्य विजयस्य देवस्याभियोग्या देवा सुबहु 'आलङ्कारिकम् अलङ्कारयोग्यं भाण्डमुपनयन्ति । 'तए ण'मित्यादि, ततः स विजयो देवस्तत्प्रथमतया तस्यामलङ्कारसभायां प्रथमतया पक्ष्मला च सा सुकुमारा च पक्ष्मलसुकुमारा तया 'सुरभिगन्धकाषायिक्या' सुरभिगन्धकषायद्रव्यपरिकम्मितया लघुशाटिकयेति गम्यते गात्राणि रूक्षयति रूक्षयित्वा सरसेन गोशीपचन्दनेन गात्राण्यनुलिम्पति अनुलिप्य देवदूष्ययुगलं निधत्त इति योगः, कथम्भूतः ? इत्याह-नासानीसासवाय वझं नासिकानिःश्वासवातवाह्य, एतेन श्लक्ष्णतामाह, 'चक्षुहर' चक्षुहरति-आमवशं नयति विशिष्टरूपातिशयकलितत्वाच्चक्षहरं E'वर्णस्पर्शयुक्तम्' अतिशायिना वर्णेनातिशायिना स्पर्शेन युक्तं 'हयलालापेलवाइरेग'मिति हयलाला-अश्वलाला तस्या अपि पेल वमतिरेकेण हयलालापेलवातिरेकं 'नाम नाम्नैकार्थे समासो बहुल'मिति समासः, अतिविशिष्टमृदुत्वलघुत्वगुणोपेतमिति भावः, Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । 15958 धवलं-श्वेतं कनकखचितानि-विच्छुरितानि अन्तकर्माणि-अञ्चलयोनिलक्षणानि यस्य तन् कनकखचितान्तकर्म आकाश- ३ प्रतिपत्ती स्फटिकं नाम-अतिस्वच्छस्फटिकविशेषस्तत्समप्रभं दिव्यं 'देवदूष्ययुगलं' देववस्त्रयुग्मं 'निवस्ते' परिथत्ते, परिवाय हारादीन्या- विजयदेभरणानि पिनाति, तत्र हारः-अष्टादशसरिकः अर्द्धहारो-नवसरिकः एकावली-विचित्रमणिका मुक्तावली-मुक्ताफलमयी 5 वकृता कनकावली-कनकमणिमयी पालम्बः-तपनीयमयो विचित्रमणिरत्नभक्तिचित्र आसन: प्रमाणेन स्वप्रमाण आभरणविशेष: कट- जिनपूजा कानि-कलाचिकाभरणानि त्रुटितानि-वाहुरक्षकाः अङ्गदानि-वाद्वाभरणविशेपा 'दशमुद्रिकान्तक' हत्ताङ्गुलिसन्बन्धि उद्देशः२ मुद्रिकादशकं 'कुण्डले' कर्णाभरणे चूडामणिमिति-चूडामणि म सकलपार्थिवरनसर्वसारो देवेन्द्रमनुष्येन्द्रमूर्द्वकृतनिवासो नि:- सू० १४२ शेपापमङ्गलाशान्तिरोगप्रमुखदोषापहारकारी प्रवरलक्षणोपेतः परममद्गलभूत आभरणविशेषः 'चित्तरयणसंकडं मउड मिति चित्राणि-नानाप्रकाराणि यानि रत्नानि तैः सङ्कटः चित्ररत्नसङ्कटः प्रभूतरननिचयोपेत इति भावः । 'तं दिव्यं सुमणदाम'ति में 'दिव्यां' प्रधानां पुष्पमालाम् ॥ 'तए णं से विजए'इत्यादि, ग्रन्थिम-ग्रंथनं प्रन्थस्तेन निर्वृत्तं प्रन्धिमं भावादिमः प्रत्ययः' यत् सूत्रादिना प्रथ्यते तद् प्रन्थिममिति भावः, भरिम-यद् प्रन्थितं सद् वेष्ट्यते यथा पुष्पलम्बूसको गण्डूक इत्यर्थः, पूरिमं येन वंशशलाकादिमयपसरी पूर्यते, सदातिमं यत्परस्परतो नालसङ्घातेन सङ्घात्यते, एवंविधेन चतुर्विधेन माल्येन कल्पवृक्षमिवामानमलकृतविभूपितं करोति कला परिपूर्णालङ्कारः सिंहासनादभ्युत्तिष्ठति, अभ्युत्थायालद्वारसभातः पूर्वेण द्वारेण निर्गत्य यत्रैव व्यवसायसभा तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य सिंहासनवरगतः पूर्वाभिमुखः सन्निपण्णः । 'तए णमित्यादि, ततस्तस्य विजयस्य देवस्याभियोग्याः ॥२५३॥ पुस्तकरत्नमुपनयन्ति ॥ 'तए णमित्यादि, ततः स विजयो देवः पुस्तकरनं गृहाति गृहीला पुस्तकरत्रमुत्सगादाविति गम्यते मुञ्चति Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * मुक्त्वा विघाटयति विघाट्यानुप्रवाचयति अनु-परिपाट्या प्रकर्षेण-विशिष्टार्थावगमरूपेण वाचयति वाचयित्वा 'धाम्मिक' धर्मानुगतं व्यवसायं व्यवस्यति, कर्तुमभिलषतीति भावः, व्यवसायसभायाः शुभाध्यवसायनिवन्धनत्वात् , क्षेत्रादेरपि कर्मक्षयोपशमादि हेतुत्वात् , उक्तश्च-"उदयक्खयखओवसमोवसमा जं च कम्मुणो भणिया । दव्वं खेत्तं कालं भवं च भावं च संपप्प ॥ १॥" 8 इति, धामिकं च व्यवसायं व्यवसाय पुस्तकरत्नं प्रतिनिक्षिपति प्रतिनिक्षिप्य सिंहासनादभ्युत्तिष्ठति, अभ्युत्थाय व्यवसाय-12 सभातः पूर्वद्वारेण विनिर्गच्छति विनिर्गस यत्रैव व्यवसायसभाया एव पूर्वा नन्दापुष्करिणी तत्रैवोपागच्छति उपागय नन्दा पुष्करिणीमनुप्रदक्षिणीकुर्वन् पूर्वतोरणेनानुप्रविशति प्रविश्य पूर्वेण त्रिसोपानप्रतिरूपकेण प्रत्यवरोहति, मध्ये प्रविशतीति भावः, प्रत्यवरुह्य हस्तपादौ प्रक्षालयति प्रक्षाल्यैकं महान्तं श्वेतं रजतमयं विमलसलिलपूर्ण मत्तकरिमहामुखाकृतिसमानं भृङ्गारं गृहाति गृहीत्वा यानि तत्रोत्पलानि पद्मानि कुमुदानि नलिनानि यावत् शतसहस्रपत्राणि तानि गृहाति गृहीत्वा नन्दात: पुष्करिणीतः प्रत्युत्तरति प्रत्युत्तीर्य यत्रैव सिद्धायतनं तत्रैव प्रधावितवान् गमनाय ॥ 'तए णमित्यादि, ततस्तस्य विजयस्य देवस्य चत्वारि सामानिकदेवसहस्राणि चतस्रः सपरिवारा अग्रमहिष्यः तिस्रः पर्षदः सप्तानीकानि सप्तानीकाधिपतयः षोडशात्मरक्षदेवसहस्राणि अन्ये च बह्वो विजयराजधानीवास्तव्या वानमन्तरा देवाश्च देव्यश्च अप्येकका उत्पलहस्तगता अप्येककाः पद्महस्तगता अप्येककाः कुमुदहस्तगताः एवं नलिनसुभगसौगन्धिकपुण्डरीकमहापुण्डरीकशतपत्रसहस्रपत्रशतसहस्रपत्रहस्तगताः क्रमेण प्रत्येकं वाच्याः, विजयं देवं पृष्ठतः पृष्ठतः परिपाट्येति भावः अनुगच्छन्ति ।। 'तए णमित्यादि, ततस्तस्य विजयस्य देवस्य बहव आभियोग्या देवा देव्यश्च अप्येकका वन्दनकलशहस्तगता: अप्येकका भृङ्गारहस्तगता: अप्येकका आदर्शहस्तगताः एवं स्थालपात्रीसुप्रतिष्ठवातकरकचित्ररत्नकरण्डक * * * ॐ* Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३प्रतिपत्ता विजयदेवकृता जिनपूजा उद्देशः२ सू० १४२ पुष्पचङ्गेरीयावल्लोमहस्तचङ्गेरीपुष्पपटलकयावल्लोमहस्तपटलकसिंहासनच्छत्रचामरतैलसमुद्गकयावदञ्जनसमुद्गकधूपकडुच्छुकहस्तगताः क्र* मेण प्रत्येकमालाप्याः, विजयं देवं पृष्ठतः पृष्ठतोऽनुगच्छन्ति । ततः स विजयो देवश्चतुर्भिः सामानिकसहस्रश्चतसृभिः सपरिवाराभिर- र प्रमहिषीभिस्तिसृभिः पर्षद्भिः सप्तभिरनीकैः सप्तभिरनीकाधिपतिभिः षोडशभिरामरक्षदेवसहस्रैरन्यैश्च बहुभिर्विजयराजधानीवास्तव्यैर्वा- नमन्तरैर्देवैर्देवीभिश्च सार्द्ध संपरिवृतः सर्वर्या 'जाव निग्घोसनादितरवेण'मिति यावत्करणादेवं परिपूर्णः पाठो द्रष्टव्यः-सव्वजुईए सव्वबलेणं सव्वसमुदएणं सव्वविभूईए सव्वसंभमेणं सव्वपुप्फगंधमल्लालंकारेणं सव्वतुडियसदनिनाएणं महया इडीए मया जुईए महया बलेणं महया समुदएणं महया वरतुडियजमगसमगपडुप्पवाइयरवेणं संखपणवपडहभेरिझल्लरिखरमुहिहुडुकदुंदुभिनिग्घोसनादितरवेणं' अस्य व्याख्या प्राग्वत् । यत्रैव सिद्धायतनं तत्रैवोपागच्छति, उपागय सिद्धायतनमनुप्रदक्षिणीकुर्वन् पूर्वद्वारेण प्रविशति, प्रविश्यालोक्य जिनप्रतिमानां प्रणामं करोति, कृत्वा यत्रैव मणिपीठिका यत्रैव देवच्छन्दको यत्रैव जिनप्रतिमास्तत्रोपागच्छति, उपागत्य लोमहस्तकं परामृशति परामृश्य च जिनप्रतिमाः प्रमार्जयति प्रमायं दिव्ययोदकधारया नपयति सप-* यित्वा सरसेनाइँण गोशीर्षचन्दनेन गात्राण्यनुलिम्पति, अनुलिप्य 'अहतानि' अपरिमलितानि दिव्यानि देवदूष्ययुगलानि 'नियंसईत्ति परिधापयति परिधाप्य 'अप्रैः' अपरिमुक्तैः 'वरैः' प्रधानैर्गन्धैर्माल्यैश्चार्चयति । एतदेव सविस्तरमुपदर्शयति-पुष्पारोपणं माल्यारोपणं वर्णकारोपणं चूर्णारोपणं गन्धारोपणम् आभरणारोपणं (च) करोति, कृत्वा तासां जिनप्रतिमानां पुरत: 'अच्छैः' स्वच्छैः "श्लक्ष्णैः' मसृणै रजतमयैः, अच्छो रसो येषां तेऽच्छरसाः, प्रत्यासन्नवस्तुप्रतिविम्बाधारभूता इवातिनिर्मला इति भावः, ते च ते । ९ तन्दुलाश्चाच्छरसतन्दुलाः, पूर्वपदस्य दीर्घान्तता प्राकृतत्वात् , यथा 'वइरामया नेमा' इत्यादौ, तैरष्टावष्टौ स्वस्तिकादीनि मङ्गल ॥२५४॥ Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कान्यालिखति, आलिख्य 'कयग्गाहगहिय'मित्यादि मैथुनप्रथमसंरम्भे मुखचुम्बनाद्यर्थ युवत्याः पञ्चाङ्गुलिभिः केशेषु ग्रहणं कचग्राहस्तेन कचग्राहेण गृहीतं करतलाद्विमुक्तं सत् प्रभ्रष्टं करतलप्रभ्रष्टविमुक्तं, प्राकृतत्वादेवं पदव्यत्ययः, तेन 'दशार्द्धवर्णेन' पञ्चवर्णेन 'कुसुमेन' कुसुमसमूहेन 'पुष्पपुञ्जोपचारकलितं' पुष्पपुज एवोपचार:-पूजा पुष्पपुखोपचारस्तेन कलितं-युक्तं करोति, कृत्वा च 'चंदप्पभवइरवेरुलियविमलदंड' चन्द्रप्रभवनवैडूर्यमयो विमलो कण्डो यस्य स तथा तं काञ्चनमणिरत्नभक्तिचित्रं कालागुरुप्रवरकुन्दुरुष्कतुरुष्कधूपेन गन्धोत्तमेनानुविद्धा कालागुरुप्रवरकुन्दुरुष्कतुरुष्कधूपगन्धोत्तमानुविद्धा, प्राकृतत्वात्पदव्यत्ययः, तां धूपत्ति विनिर्मुञ्चन्तं वैडूर्यमयं धूपकडुच्छुकं प्रगृह्य प्रयतो धूपं दत्त्वा जिनवरेभ्यः, सूत्रे षष्ठी प्राकृतत्वात् , सप्ताष्टानि पदानि पश्चादपसृत्य दशाङ्गुलिमञ्जलिं मस्तके कृत्वा प्रयत: 'अहसयविसुद्धगंठजुत्तेहिं' इति विशुद्धो-निर्मलो लक्षणदोषरहित इति भावः यो ग्रन्थः-शव्दसंदर्भस्तेन युक्तानि विशुद्धग्रन्थयुक्तानि अष्टशतं च तानि विशुद्धग्रन्थयुक्तानि च तैः ‘अर्थयुक्तैः' अर्थसारैः अपुनरुक्तैः महावृत्तः, तथाविधदेवलब्धेः प्रभाव एषः, संस्तौति संस्तुत्य वामं जानुं 'अञ्चति' उत्पाटयति दक्षिणं जानुं धरणितले "निवाडेइ' इति निपातयति लगयतीत्यर्थः 'त्रिकृत्वः' त्रीन् वारान् मूर्द्धानं धरणितले 'नमेइ'त्ति नमयति नमयित्वा चेषत्प्रत्युन्नमयति, ईपत्प्रत्युन्नम्य कटकत्रुटितस्तम्भितौ भुजौ 'संहरति' सङ्कोचयति, संहृत्य करतलपरिगृहीतं शिरस्यावत मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वैवमवादीत्-'नमोऽत्थु दाण'मित्यादि, नमोऽस्तु णमिति वाक्यालकारे देवादिभ्योऽतिशयपूजामहन्तीयहन्तस्तेभ्यः, सूत्रे षष्ठी "छट्ठिविभत्ती' भन्नइ चउत्थी"इति प्राकृतलक्षणात् , ते चाहन्तो नामादिरूपा अपि सन्ति ततो भावात्प्रतिपत्त्यर्थमाह-'भगवन्यः' भगः-समप्रैश्वर्यादि5 लक्षणः स एषामस्तीति भगवन्तस्तेभ्यः, आदि:-धर्मस्य प्रथमा प्रवृत्तिस्तत्करणशीला आदिकरास्तेभ्यः, तीर्यते संसारसमुद्रोऽनेनेति +4+8CA-बबाल Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थ तत्करणशीलास्तीर्थकरास्तेभ्यः, स्वयं-अपरोपदेशेन सम्यग्वरबोधिप्राप्त्या बुद्धा मिथ्यात्वनिद्रापगमसम्बोधेन स्वयंसंबुद्धास्तेभ्यः, ३ प्रतिपत्तौ है तथा पुरुषाणामुत्तमाः पुरुषोत्तमाः, भगवन्तो हि संसारमप्यावसन्तः सदा परार्थव्यसनिन उपसर्जनीकृतस्वार्थी उचितक्रिया विजयदेवन्तोऽदीनभावाः कृतज्ञतापतयोऽनुपहतचित्ता देवगुरुबहुमानिन इति भवन्ति पुरुषोत्तमास्तेभ्यः, तथा पुरुषाः सिंहा इव कर्मगजान* वकृता प्रति पुरुषसिंहास्तेभ्यः, तथा पुरुषा वरपुण्डरीकाणीव संसारजलासङ्गादिना धर्मकलापेनेति पुरुषवरपुण्डरीकाणि तेभ्यः, तथा पुरुषा जिनपूजा वरगन्धहस्तिन इव परचक्रदुर्भिक्षमारिप्रभृतिक्षुद्रगजनिराकरणेनेति पुरुषवरगन्धहस्तिनस्तेभ्यः, तथा लोको-भव्यसत्त्वलोकस्तस्य उद्देशः २ सकलकल्याणैकनिबन्धनतया भव्यत्वभावेनोत्तमा लोकोत्तमास्तेभ्यः तथा लोकस्य-भव्यलोकस्य नाथा-योगक्षेमकृतो लोकनाथास्तेभ्यः, सू०१४२ तत्र योगो-बीजाधानोद्भेदपोषणकरणं क्षेम-तदुपद्रवाद्यभावापादनं, तथा लोकस्य-प्राणिलोकस्य पञ्चास्तिकायालकस्य वा हितोपदेशेन सम्यक्प्ररूपणया वा हिता लोकहितास्तेभ्यः, तथा लोकस्य-देशनायोग्यस्य विशिष्टस्य प्रदीपा-देशनांशुभिर्यथाऽवस्थितवस्तुप्रकाशका लोकप्रदीपास्तेभ्यः, तथा लोकस्य-उत्कृष्टमते व्यसत्त्वलोकस्य प्रद्योतनं प्रद्योतः प्रद्योतकत्व-विशिष्टज्ञानशक्तिस्तत्करणशीला लोकप्रद्योतकराः, तथा च भवन्ति भगवत्प्रसादात् तत्क्षणमेव भगवन्तो गणभृतो विशिष्टज्ञानसम्पत्समन्विता यदशाद् द्वादशाङ्गमारचयन्तीति तेभ्यः, तथाऽभयं-विशिष्टमासन: स्वास्थ्यं निःश्रेयसधर्मभूमिकानिबन्धनभूता परमा धृतिरिति भावः, तद् अभयं ददतीत्यभयदास्तेभ्यः, सूत्रे च कप्रत्ययः स्वार्थिकः प्राकृतलक्षणवशात्, एवमन्यत्रापि, तथा चक्षुरिव चक्षुः-विशिष्ट आसधर्मस्तत्त्वावबोधनिबन्धनं श्रद्धाखभावः, श्रद्धाविहीनस्याचक्षुष्मत इव तत्त्वदर्शनायोगात् , तहदातीति चक्षुर्दास्तेभ्यः, तथा मार्गो-विशिष्टगुणस्थानावाप्तिप्रगुणः ॥२५५॥ खरसवाही क्षयोपशमविशेषस्तं ददतीति मार्गदास्तेभ्यः, तथा शरणं-संसारकान्तारगतानामतिप्रबलरागादिपीडितानां समाश्वसनस्थान Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AISHUSHUGHUSHA HOSTOLACHOSES कल्पं तत्त्वचिन्तारूपमध्यवसानं तद्ददतीति शरणदास्तेभ्यः, तथा बोधिः-जिनप्रणीतधर्मप्राप्तिस्तां तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणसम्यग्दर्शनरूपां ददतीति बोधिदास्तेभ्यः, तथा धर्म-चारित्ररूपं ददतीति धर्मदास्तेभ्यः कथं धर्मदाः? इत्याह-धर्म दिशन्तीति धर्मदेशकास्तेभ्यः.। द तथा धर्मस्य नायका:-स्वामिनस्तद्वशीकरणात्तत्फलपरिभोगाच्च धर्मनायकास्तेभ्यः, धर्मस्य सारथय इव सम्यकप्रवर्तनयोगेन धर्म-18 सारथयस्तेभ्यः, तथा धर्म एव वरं-प्रधानं चतुरन्तहेतुत्वात् चतुरन्तं २ चक्रमिव चतुरन्तचक्रं तेन वर्तितुं शीलं येषां ते धर्मवर. चतरन्तचक्रवर्तिनस्तेभ्यः, तथाऽप्रतिहते-अप्रतिस्खलिते क्षायिकत्वाद् वरे-प्रधाने ज्ञानदर्शने धरन्तीति अप्रतिहतवरज्ञानदर्शनधरास्तेभ्यः, तथा छादयति-आवरयतीति छद्म-घातिकर्मचतुष्टयं व्यावृत्तं-अपगतं छद्म येभ्यस्ते व्यावृत्तछानस्तेभ्यः, तथा गोपकषायेन्द्रियपरीषहोपसर्गघातिकर्मशत्रून् जितवन्तो जिनाः अन्यान् जापयन्तीति जापकास्तेभ्यो जिनेभ्यो जापकेभ्यः, तथा भवा| णवं स्वयं तीर्णा अन्यांश्च तारयन्तीति तीर्णास्तारकास्तेभ्यः, तथा केवलवेदसा अवगततत्त्वा बुद्धा अन्यांश्च बोधयन्तीति बोधकास्तेभ्यः मुक्ता:-कृतकृत्या निष्ठितार्था इति भावः, अन्यांश्च मोचयन्तीति मोचकास्तेभ्यः, सर्वज्ञेभ्यः सर्वदर्शिभ्यः, शिवं-सर्वोपद्रवरहितत्वात्। 'अचलं' स्वाभाविकप्रायोगिकचलनक्रियाव्यपोहात् 'अरुज' शरीरमनसोरभावेनाऽऽधिव्याध्यसम्भवात् अनन्तं केवलासनाऽनन्तत्वात् 'अक्षयं विनाशकारणाभावात् 'अव्यावा,' केनापि विवाधयितुमशक्यत्वात् न पुनरावृत्तिर्यस्मात्तदपुनरावृत्ति, सिध्यन्तिनिष्ठितार्था भवन्त्यस्यामिति सिद्धिः-लोकान्तक्षेत्रलक्षणा सैव गम्यमानत्वाद् गतिः सिद्धिगति: २ रिति नामधेयं यस्य तत्सिद्धिगतिनाम धेयं, तिष्ठत्यस्मिन्निति स्थानं-व्यवहारतः सिद्धक्षेत्रं निश्चयतो यथाऽवस्थितं स्खं स्वरूपं, स्थानस्थानिनोरभेदोपचारातु सिद्धिगतिनाममाधेयं तत्संप्राप्तेभ्यः। एवं प्रणिपातदण्डकं पठित्वा 'वंदइ नमसई' इति वन्दते-ताः प्रतिमाश्चैत्यवन्दनविधिना प्रसिद्धेन, नमस्करोति Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चात्प्रणिधानादियोगेनेत्येके, अन्ये त्वभिद्धति - विरतिमतामेव प्रसिद्धश्चैलवन्दनविधिरन्येषां तथाऽभ्युपगमे कायोत्सर्गासिद्धेरिति वन्दते सामान्येन, नमस्करोत्याशयवृद्धेरुत्थाननमस्कारेणेति, तत्त्वमत्र भगवन्तः परमर्पयः केवलिनो विदन्ति, ततो वन्दित्वा नमस्यित्वा यत्रैव सिद्धायतनस्य बहुमध्यदेशभागस्तत्रैवोपागच्छति उपागत्य बहुमध्यदेशभागं दिव्ययोदकधारया 'अभ्युक्षति' अभिमुखं सिश्वति, अभ्युक्ष्य सरसेन गोशीर्षचन्दनेन पञ्चाङ्गुलितलं ददाति, दत्त्वा कचप्राहगृहीतेन करतलप्रभ्रष्ट विमुक्तेन दशार्द्धवर्णेन 'कुसुमेन' कुसुमजातेन पुष्पपुञ्जोपचारकलितं करोति कृत्वा धूपं ददाति, दत्त्वा च यत्रैव दाक्षिणात्यं द्वारं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य लोमहस्तकं गृह्णाति, गृहीत्वा तेन द्वारशाखाशालभञ्जिकाव्यालरूपकाणि च प्रमार्जयति, प्रमृज्य दिव्ययोदकधारयाऽभ्युक्षणं गोशीर्षचन्दनचर्ची पुष्पाद्यारोपणं धूपदानं करोति, ततो दक्षिणद्वारेण निर्गत्य यत्रैव दाक्षिणात्यस्य मुखमण्डपस्य बहुमध्यदेशभागस्तत्रोपागच्छति, उपागत्य लोमहस्तकं परामृशति, परामृश्य च बहुमध्यदेशभागं लोमहस्तकेन प्रमार्जयति, प्रमृज्य दिव्ययोदकधारयाऽभ्युक्षणं सरसेन गोशीर्षचन्दनेन पञ्चाङ्गुलितलं मण्डलमालिखति, कचप्राहगृहीतेन करतलप्रभ्रष्टविमुक्तेन दशार्द्धवर्णेन कुसुमेन पुष्पपुञ्जोपचारकलितं करोति, कृत्वा धूपं ददाति दत्त्वा च यत्रैव दाक्षिणात्यस्य मुखमण्डपस्य पश्चिमं द्वारं तत्रोपागच्छति, उपागत्य लोमहस्तपरामर्शनं, तेन च लोमहस्तकेन द्वारशाखाशालभञ्जिकाव्यालरूपकप्रमार्जनं, उदकधारयाऽभ्युक्षणं गोशीर्षचन्दनचच पुष्पाद्यारोपणं धूपदानं करोति, कृत्वा यत्रैव दाक्षिणात्यस्य मुखमण्डपस्योत्तरद्वारं तत्रोपागच्छति, उपागत्य पूर्ववद् द्वारार्चनिकां करोति, कृत्वा च यत्रैव दाक्षिणात्यस्य मुख मण्डपस्य पूर्वद्वारं तत्रोपागच्छति, उपागत्य पूर्ववत्तत्राप्यर्चनिकां करोति, कृत्वा च दाक्षिणात्यस्य मुखमण्डपस्य यत्रैव दाक्षिणात्यं द्वारं तत्रोपागच्छति, उपागत्य पूर्ववत्तत्र पूजां विधाय तेन द्वारेण विनिर्गत्य यत्रैव दाक्षिणात्यः प्रेक्षागृहमण्डपो यत्रैव दाक्षिणात्यस्य प्रेक्षागृह मण्डपस्य ३ प्रतिपचौ विजयदेवकृता जिनपूजा उद्देशः २ सू० १४२ ।। २५६ ॥ Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहमध्यदेशभागो यत्रैव वज्रमयोऽक्षपाटको यत्रैव च मणिपीठिका यत्रैव च सिंहासनं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य लोमहस्तकं परामृपाशति, परामृश्याक्षपाटकं मणिपीठिकां सिंहासनं च प्रमार्जयति, प्रमार्योदकधारयाऽभ्युक्ष्य चन्दनचर्ची पुष्पपूजां धूपदानं च करोति, कृत्वा च यत्रैव दाक्षिणात्यस्य प्रेक्षागृहमण्डपस्योत्तरद्वारं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य पूर्ववद्वारार्च निकां करोति, कृत्वा यत्रैव दाक्षिणा त्यस्य प्रेक्षागृहमण्डपस्य पूर्वद्वारं तत्रोपागच्छति, उपागत्य पूर्वद्वारार्च निकां करोति, कृत्वा यत्रैव तस्य दाक्षिणात्यस्य प्रेक्षागृहमण्डपस्य पादाक्षिणात्यं द्वारं तत्रोपागच्छति, उपागस तत्रार्च निकां कृत्वा यत्रैव दाक्षिणात्यश्चैत्यस्तम्भस्तत्रोपागच्छति, उपागत्य स्तूपं मणिपीठिका च लोमहस्तकेन प्रमृज्य दिव्ययोदकधारयाऽभ्युक्षति सरसगोशीर्षचन्दनचर्चा पुष्पाचारोहणधूपदानादि करोति, कृत्वा च यत्रैव पा|श्चात्या मणिपीठिका यत्रैव च पाश्चात्या जिनप्रतिमा तत्रोपागच्छति, उपागत्य जिनप्रतिमाया आलोके प्रणामं करोतीत्यादि पूर्ववद् यावन्नमस्थित्वा यत्रैवोत्तरा जिनप्रतिमा तत्रोपागच्छति, उपागत्य तत्रापि यावन्नमस्थित्वा यत्रैव पूर्वा जिनप्रतिमा तत्रोपागच्छति उपागत्य पूर्ववद् यावन्नमस्थित्वा अत्रैव दाक्षिणात्या जिनप्रतिमा पूर्ववत् सर्वं तदेव यावन्नमस्थित्वा यत्रैव दाक्षिणात्यश्चैत्यवृक्षस्तत्रोपागच्छति, S|| उपागत्य पूर्ववदर्च निकां करोति, कृत्वा च यत्रैव महेन्द्रध्वजस्तत्रोपागच्छति, उपागत्य पूर्ववदर्च निकां विधाय यत्रैव दाक्षिणात्या नन्दा-15 पुष्करिणी तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य लोमहस्तकं परामृशति, परामृश्य तोरणानि निसोपानप्रतिरूपकाणि शालभजिकाव्यालरूपकाणि च प्रमार्जयति, प्रमार्य दिव्ययोदकधारया सिञ्चति, सिक्त्वा सरसगोशीर्षचन्दनपञ्चाङ्गुलितलप्रदानपुष्पाचारोहणधूपदानादि करोति, कृत्वा च सिद्धायतनमनुप्रदक्षिणीकृत्य यत्रैवोत्तरा नन्दापुष्करिणी स तत्रोपागच्छति, उपागत्य पूर्ववत्सर्व करोति, कृत्वा चौत्तराहे माहेन्द्रध्वजे तदनन्तरमौत्तराहे चैत्यवृक्षे तत औत्तराहे चैत्यस्तूपे, ततः पश्चिमोत्तरपूर्वदक्षिणजिनप्रतिमासु पूर्ववत्सर्वा वक्तव्यता वक्तव्या, Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदनन्तरमौत्तराहे प्रेक्षागृहमण्डपे समागच्छति, तत्र दाक्षिणात्ये प्रेक्षागृहमण्डपे पूर्ववत्सर्वे वक्तव्यं, तत उत्तरद्वारेण विनिर्गत्यौत्तराहे मुखमण्डपे समागच्छति, तत्रापि दाक्षिणात्यमुखमण्डपवत्सर्वं कृत्वोत्तरद्वारेण विनिर्गत्य सिद्धायतनस्य पूर्वद्वारे समागच्छति, तत्रार्चनिकां पूर्ववत्कृत्वा पूर्वस्य मुखमण्डपस्य दक्षिणोत्तरपूर्वद्वारेषु क्रमेणोक्तरूपां पूजां विधाय पूर्वद्वारेण विनिर्गत्य पूर्वप्रेक्षामण्डपे समागत्य पूर्ववदर्चनिकां करोति, ततः पूर्वप्रकारेणैव क्रमेण चैत्यस्तूपजिनप्रतिमाचैत्यवृक्षमाहेन्द्रध्वजनन्दापुष्करिणीनां ततः सभायां सुधर्मायां पूर्वद्वारेण प्रविशति, प्रविश्य यत्रैव मणिपीठिका तत्रैवोपागच्छति, उपागयालोके जिनसक्भां प्रणामं करोति, कृत्वा च यत्र माणवकचैत्यस्तम्भो चत्र वज्रमया गोलवृत्ताः समुद्रकास्तत्रागत्य समुद्गकान् गृह्णाति, गृहीत्वा च विघाटयति, विघाट्य लोमहस्तकेन प्रमार्जयति, प्रमार्ज्योदकघारयाऽभ्युक्षति, अभ्युक्ष्य गोशीर्षचन्दनेनानुलिम्पति, ततः प्रधानैर्गन्धमाल्यैरर्चयति, अर्चयित्वा धूपं दहति, तदनन्तरं भूयोऽपि वज्रमयेषु गोलवृत्तसमुद्गकेषु प्रक्षिपति, प्रक्षिप्य तान् वज्रमयान् गोलवृत्तसमुद्गकान् स्वस्थाने प्रतिनिक्षिपति, प्रतिनिक्षिप्य तेषु पुष्पगन्धमाल्यवस्त्राभरणान्यारोपयति, ततो लोमहस्तकेन माणवकचैयस्तम्भं प्रमाज्यदकधारयाऽभ्युक्ष्य चन्दनचच पुष्पाद्यारोपणं धूपदानं च करोति, कृत्वा सिंहासनप्रदेशे समागत्य सिंहासनस्य लोमहस्तकेन प्रमार्जनादिरूपां पूर्ववदर्द्धनिकां करोति, कृत्वा यत्र मणिपीठिका यत्र च देवशयनीयं तत्रोपागत्य मणिपीठिकाचा देवशयनीयस्य च प्राग्वदर्चनिकां करोति, तत उक्तप्रकारेणैव क्षुलकेन्द्रध्वजपूजां करोति, कृत्वा च यत्र चोप्पालको नाम प्रहरणकोशस्तत्र समागत्य लोमहस्तेन परिघरत्रप्रमुखाणि प्रहरणरत्नानि प्रमार्जयति, प्रमार्ज्योदकघारयाऽभ्युक्षणं चन्दनचच पुष्पाद्यारोपणं धूपदानं करोति, कृत्वा सभायाः सुधर्माया बहुमध्यदेशभागेऽर्चनिकां पूर्ववत्करोति, कृत्वा सभायाः सुघर्माया दक्षिणद्वारे समागत्याचेनिकां पूर्ववत्करोति, ततो दक्षिणद्वारे विनिर्गच्छति, इत ऊद्धुं यथैव सिद्धायत ३ प्रतिपत्तौ विजयदे वकृता जिनपूजा उद्देशः २ सू० १४२ ॥ २५७ ॥ Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानानिष्कामतो दक्षिणद्वारादिका दक्षिणनन्दापुष्करिणीपर्यवसाना पुनरपि प्रविशत उत्तरनन्दापुष्करिणीप्रभृतिका उत्तरान्ता ततो द्वितीय वा निष्कामतः पूर्वद्वारादिका पूर्वनन्दापुष्करिणीपर्यवसानार्च निका वक्तव्या तथैव सुधर्मायाः सभाया अप्यन्यूनातिरिक्ता द्रष्टव्या, ततः पूर्वनन्दापुष्करिण्या अर्चनिकां कृत्वोपपातसभा पूर्वद्वारेण प्रविशति, प्रविश्य च मणिपीठिकाया देवशयनीयस्य तदनन्तरं बहुमध्यदेप्रशभागे प्राग्वदर्च निकां विदधाति, ततो दक्षिणद्वारेण समागत्य तस्यार्च निकां कुरुते, अत ऊर्द्धमत्रापि सिद्धायतनवदक्षिणद्वारादिका पर्वनन्दापुष्करिणीपर्यवसानाऽर्च निका वक्तव्या । ततः पूर्वनन्दापुष्करिणीतोऽपक्रम्य इदे समागत्य पूर्ववत्तोरणार्च निकां करोति,. कृला पर्वद्वारेणाभिषेकसभायां प्रविशति, प्रविश्य मणिपीठिकायाः सिंहासनस्याभिषेकभाण्डस्य बहुमध्यदेशभागस्य च पूर्ववदर्च निकां क्रमेण | करोति. तदनन्तरमत्रापि सिद्धायतनवदक्षिणद्वारादिका पूर्वनन्दापुष्करिणीपर्यवसानाऽर्च निका वक्तव्या, तत: पूर्वनन्दापुष्करिणीत: पूर्वद्वारेण व्यवसायसभां प्रविशति प्रविश्य पुस्तकरत्नं लोमहस्तकेन प्रमृज्योदकधारयाऽभ्युक्ष्य चन्दनेन चर्चयित्वा वरगन्धमाल्यैरर्चयित्वा पुष्पाद्यारोपणं धूपदानं च करोति, तदनन्तरं मणिपीठिकायाः सिंहासनस्य बहुमध्यदेशभागस्य च क्रमेणार्च निकां करोति, तदनन्तरमत्रापि सिद्धायतनवद्दक्षिणद्वारादिका पूर्वनन्दापुष्करिणीपर्यवसानाऽर्चनिका वक्तव्या, ततः पूर्वनन्दापुष्करिणीतो बलिपीठे समागत्य तस्य बहुमध्यदेशभागे पूर्ववदर्च निकां करोति, कृत्वा चोत्तरपूर्वस्यां नन्दापुष्करिण्यां समागत्य तस्यास्तोरणेषु पूर्ववदर्चनिकां कृत्वाऽऽभियोगि-IN कान देवान् शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत्-'खिप्पामेवे'त्यादि सुगमं यावत् "एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणंति' नवरं शृङ्गाटकत्रिकोणं स्थानं त्रिकं-यत्र रथ्यात्रयं मिलति चतुष्क-चतुष्पथयुक्तं चत्वरं-बहुरथ्यापातस्थानं चतुर्मुखं-यस्माच्चतसृष्वपि दिक्षु पन्थानो निस्सरन्ति महापथो-राजपथः शेषः सामान्यः पन्थाः प्राकार:-प्रतीतः अट्टालका:-प्राकारस्योपरि भृत्याश्रयविशेषाः चरिका-अष्टह SKOSLE GOSSAUROSIS Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . .. - स्तप्रमाणो नगरप्राकारान्तरालमार्गः द्वाराणि- प्रासादादीनां गोपुराणि-प्राकारद्वाराणि तोरणानि-द्वारादिसम्बन्धीनि आगत्य रमन्तेऽत्र ३ प्रतिपत्ती माधवीलनागृहादिपु दम्पत्य इति स आरामः पुष्पादिसदृक्षसकुलमुत्सवादी बहुजनोपभोग्यमुद्यानं सामान्यवृक्षवृन्दं नगरासन्नं काननं 8 विजयदेनगरविप्रकृष्टं वनं एकानेकजातीयोत्तमवृक्षसमूहो वनपण्डः एकजातीयोत्तमवृक्षसमूहो वनराजी । 'तए णमित्यादि, ततः स विजयो वकृता देवो वलिपीठे वलिविसर्जनं करोति, कृत्ला च यत्रैवोत्तरनन्दापुष्करिणी तत्रोपागच्छति, उपागत्योत्तरपूर्वी नन्दा पुष्करिणी प्रदक्षिणीकु- जिनपूजा वन् पूर्वतोरणेनानुप्रविशति, अनुप्रविश्य पूर्वत्रिसोपानप्रतिरूपकेण प्रत्यवरोहति, प्रत्यवरुह्य हस्तपादौ प्रक्षालयति, प्रक्षाल्य नन्दापुष्क- उद्देशः२ रिणीतः प्रत्युत्तरति, प्रत्युत्तीर्य चतुर्भि: सामानिकसहस्रैश्चतसृभिरममहिपीभिः सपरिवाराभिस्तिसृभिः पर्पद्भिः सप्तभिरनीकैः सप्तभि-3 सू० १४२ रनीकाधिपतिभिः पोडशभिरामरक्षदेवसहस्रैरन्यैश्च बहुभिर्विजयराजधानीवास्तव्यैर्वानमन्तरैर्देवैर्देवीभिश्य सार्द्ध संपरिवृतः सर्वा या वद् दुन्दुभिनिर्धोपनादितरवेण विजयाया राजधान्या मध्यंमध्येन यत्रैव सभा सुधर्मा तत्रोपागच्छति, उपागत्य सभा सुधर्मा ४ापूर्वद्वारेणानुप्रविशति, अनुप्रविश्य यत्रैव मणिपीठिका यत्रैव सिंहासनं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य सिंहासनवरगतः पूर्वाभिमुखः सन्निपण्णः॥ तए णं तस्स विजयस्स देवस्स चत्तारि सामाणियसाहस्सीओ अवरुत्तरेणं उत्तरेणं उत्तरपुरच्छिमेणं पत्तेयं २ पुब्वणत्थेसुभद्दासणेसु णिसीयंति । तए णं तस्स विजयस्स देवस्स चत्तारि अग्गमहिसीओ पुरत्थिमणं पत्तेयं २ पुवणत्थेसु भद्दासणेसु णिसीयंति। तए णं तस्स विजयस्स ॥ २५८ ॥ देवस्स दाहिणपुरथिमेणं अभितरियाए परिसाए अह देवसाहस्सीओ पत्तेयं २ जाव णिसी ॐ Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यंति । एवं दक्खिणेणं मज्झिमियाए परिसाए दस देवसाहस्सीओ जाव सिदिति । दाहिणपच्चत्थिमेणं बाहिरियाए परिसाए बारस देवसाहस्सीओ पत्तेयं रजाव णिसीदति ।तएणं तस्स विजयस्स देवस्स पचत्थिमेणं सत्त अणियाहिवती पत्तेयं २ जाव णिसीयंति । तए णं तस्स विजयस्स देवस्स पुरत्थिमेणं दाहिणेणं पचत्थिमेणं उत्तरेणं सोलस आयरक्खदेवसाहस्सीओ पत्तेयं २ पुव्वणत्थेसुभदासणेसु णिसीदंति, तंजहा-पुरस्थिमेणं चत्तारि साहस्सीओ जाव उत्तरेणं ४। ते णं आयरक्खा सन्नद्धबद्धवम्मियकवया उप्पीलियसरासणपट्टिया पिणद्धगेवेजविमलवरचिंधपट्टा गहियाउहपहरणा तिणयाइं तिसंधीणि वइरामया कोडीणि धणूई अहिगिज्झ परियाइयकंडकलावा णीलपाणिणो पीयपाणिणो रत्तपाणिणो चावपाणिणो चारुपाणिणो चम्मपाणिणो खग्गपाणिणो दंडपाणिणो पासपाणिणो णीलपीयरत्तचावचारुचम्मखग्गदंडपासवरधरा आयरक्खा रक्खोवगा गुत्ता गुत्तपालिता जुत्ता जुत्तपालिता पत्तेयं २ समयतो विणयतो किंकरभूताविव चिट्ठति ॥ विजयस्स णं भंते! देवस्स केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता?, गो०! एगं पलिओवमं ठिती पण्णत्ता, विजयस्स णं भंते! देवस्स सामाणियाणं देवाणं केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता?, एगं पलिओवमं ठिती पण्णत्ता, एवंमहिड्डीए एवंमहजुतीए एवंमहब्बले एवंमहायसे एवंमहासुक्खे - एवंमहाणुभागे विजए देवे२॥ (सू०१४३) Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A EXPLORER ततस्तस्य विजयस्य देवस्यापरोत्तरेण-अपरोत्तरस्यां दिशि एवमुत्तरस्यामुत्तरपूर्वस्यां दिशि च चत्वारि २ सामानिकदेवसहस्राणि चतुर्यु ३ प्रतिपत्ती भद्रासनसहस्रेषु निषीदन्ति । ततस्तस्य विजयस्य देवस्य पूर्वस्यां दिशि चतस्रोऽप्रमहिष्यश्चतुर्यु भद्रासनेषु निषीदन्ति, ततस्तस्य विजयस्य विजयदेदेवस्य दक्षिणपूर्वस्यामभ्यन्तरिकायाः पर्षदोऽष्टौ देवसहस्राणि अष्टासु भद्रासनसहस्रेषु निपीदन्ति । ततस्तस्य विजयस्य देवस्य दक्षिणस्यां वपरिवारदिशि मध्यमिकायाः पर्षदो दश देवसहस्राणि दशसु भद्रासनसहस्रेषु निपीदन्ति । ततस्तस्य विजयस्य देवस्य पश्चिमायां दिशि वा- स्थित्यादि यायाः पर्षदो द्वादश देवसहस्राणि द्वादशसु भद्रासनसहस्रपु निपीदन्ति । ततस्तस्य विजयस्य देवस्य पश्चिमायां दिशि सप्तानीकाधि- उद्देशः२ पतयः सप्तसु भद्रासनेषु निपीदन्ति । ततस्तस्य विजयस्य देवस्य सर्वतः समन्तात् सर्वासु दिक्षु सामस्त्येन पोडश आत्मरक्षकदेवसहस्राणि सू०१४३ पोडशसु भद्रासनसहस्रेषु निपीदन्ति, तद्यथा-चत्वारि सहस्राणि चतुर्यु भद्रासनसहस्रेषु पूर्वस्यां दिशि, एवं दक्षिणस्यां दिशि, एवं प्रत्येक पश्चिमोत्तरयोरपि ॥ ते चामरक्षाः सन्नद्धवद्धवर्मितकवचाः, कवचं-तनुत्राणं वर्म-लोहमयकुतूलिकादिरूपं संजातमस्मिमिति व मितं सन्नद्धं शरीरे आरोपणात् यद्धं गाढतरवन्धनेन बन्धनात् वर्मितं कवचं यैस्ते सन्नद्धवद्धवर्मितकवचाः, 'उप्पीलियसरासणहै पट्टिया' इति उत्पीडिता-गाढीकृता शरा अस्यन्ते-क्षिप्यन्तेऽस्मिन्निति शरासन:-इपुधिस्तस्य पट्टिका यैरुत्पीडितशरासनपट्टिकाः + 'पिणद्धगेवेजविमलवरचिंधपट्टा' इति पिनद्धं अवेयं-प्रीवाभरणं विमलवरचिह्नपट्टश्च यैस्ते पिनद्धवरौवेयविमलवरचिहपट्टा: 'गहि४ याउहपहरणा' इति आयुध्यतेऽनेनेत्यायुधं-खेटकादि प्रहरणं-असिकुन्तादि, गृहीतानि आयुधानि प्रहरणानि च यैस्ते गृहीतायुध-8 प्रहरणा: 'त्रिनतानि' आदिमध्यावसानेषु नमनभावात् 'त्रिसन्धीनि' आदिमध्यावसानेपु सन्धिभावात् , वजमयकोटीनि धनूंपि ॥२५९॥ अभिगृह्य 'परियाइयकंडकलावा' इति पर्यात्तकाण्डकलापा विचित्रकाण्डकलापयोगात् , केचित् 'नीलपाणय' इति नीलः काण्डकलाप NAGAR Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18|| इति गम्यते पाणी येषां ते नीलपाणयः, एवं पीतपाणयः रक्तपाणयः, चापं पाणी येपां ते चापपाणयः, चारु:-प्रहरणविशेषः पाणी लियेषां ते चारुपाणयः, चर्म-अङ्गुष्ठाकुल्योराच्छादनरूपं पाणी येषां ते चर्मपाणयः, एवं दण्डपाणयः खड्गपाणयः पाशपाणयः, एतदेव व्याचष्टे-यथायोगं नीलपीतरक्तचापचारुचर्मदण्डपाशधरा आत्मरक्षाः, रक्षामुपगच्छन्ति-तदेकचित्ततया तत्परायणा वर्तन्त इति रक्षो आरिणः तथा गुप्ता-पराप्रवेश्या पालि:-सेतुर्येषां ते गुप्तपालिकाः, तथा 'युक्ताः' सेवकगुणोपेततयोचिताः, तथा युक्ता-परस्परं बद्धा न तु बृहदन्तराला पालिर्येषां ते युक्तपालिकाः, प्रत्येकं प्रत्येक समयत:-आचारत आचारेणेत्यर्थ: विनयतश्च किङ्करभूता इव तिष्ठन्ति, न खलु ते किङ्कराः, किन्तु तेऽपि मान्याः, तेषामपि पृथगासननिपातनात् , केवलं ते तदानीं निजाचारपरिपालनतो विनीतत्वेन च तथाभूता इव तिष्ठन्ति तदुक्तं किङ्करभूता इवेति ॥'तए णं से विजए' इत्यादि सुप्रतीतं याव|| द्विजयदेववक्तव्यतापरिसमाप्तिः । तदेवमुक्ता विजयद्वारवक्तव्यता, सम्प्रति वैजयन्तद्वारवक्तव्यतामभिधित्सुराह कहि णं भंते ! जंबुद्दीवस्स वेजयंते णामं दारे पण्णत्ते?, गोयमा! जंबुद्दीवे २ मंदरस्स पव्वयस्स दक्खिणेणं पणयालीसं जोयणसहस्साइं अबाधाए जंबुद्दीवदीवदाहिणपेरंते लवणसमुददाहिणद्धस्स उत्तरेणं एत्थ णं जवुद्दीवस्स २ वेजयंते णामं दारे पण्णत्ते अह जोयणाई उडे उच्चत्तेणं सचेव सव्वा वत्तव्वता जाव णिचे । कहि णं भंते ! रायहाणी?, दाहिणे णं जाव वेजयंते देवे २॥ केहि णं भंते! जंबुद्दीवस्स २ जयंते णाम दारे पण्णत्ते?, गोयमा! जवुद्दीवे २ मंदरस्स पव्वयस्स पचत्थिमेणं पणयालीसं जोयणसहस्साई जंबुद्दीवपञ्चत्थिमपेरंते लवणसमुद्दपचत्थिमद्धस्स पुर 9-2-2-%252525152515 % Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CA-GC- ३प्रतिपत्ती च्छिमेणं सीओदाए महाणदीए उपि एत्थ णं जंबुद्दीवस्स जयंते णाम दारे पण्णत्ते, तं चेव से ८ वैजयन्तापमाणं जयंते देवे पचत्थिमेणं से रायहाणी जाव महिड्डीए ॥ कहि णं भंते! जंबुद्दीवस्स अपरा दीनि द्वाइए णामं दारे पण्णत्ते?, गोयमा! मंदरस्स उत्तरेणं पणयालीसं जोयणसहस्साई अवाहाए जंबु राणि द्दीवे २ उत्तरपेरंते लवणसमुदस्स उत्तरद्धस्स दाहिणणं एत्थ णं जंबुद्दीवे २ अपराइए णामं दारे पण्णत्ते तं चेव पमाणं, रायहाणी उत्तरेणं जाव अपरांइए देवे, चउण्हवि अण्णंमि जवुद्दीवे ॥ सू० १४४ (सू०१४४) जंबुद्दीवस्त णं भंते! दीवस्स दारस्स य दारस्स य एस णं केवतियं अबाधाए अंतरे द्वारान्तरं. उद्देशः २ पण्णत्ते?, गोयमा! अउणासीतिं जोयणसहस्साई बावण्णं च जोयणाई देसूणं च अद्धजोयणं दारस्स य २ अबाधाए अंतरे पण्णत्ते ॥ (सू०१४५) सू० १४५ ___'कहि णं भंते' इत्यादि सबै पूर्ववत् , नवरमत्र वैजयन्तस्य द्वारस्य दक्षिणतस्तिर्यगसङ्ख्येयान् द्वीपसमुद्रान् व्यतिक्रम्येति वक्तव्यं, * शेषं प्राग्वत् ॥ एवं जयन्तापराजितद्वारवक्तव्यताऽपि वाच्या, नवरं जयन्तद्वारस्य पश्चिमायां दिशि, अपराजितद्वारस्योत्तरतस्तिर्यग सक्येयान् द्वीपसमुद्रान् व्यतिव्रज्येति वाच्यम् ॥ सम्प्रति विजयादिद्वाराणां परस्परमन्तरं प्रतिपिपादयिषुरिदमाह-'जंबुद्दीवस्स ण'मित्यादि, जम्बूद्वीपस्य णमिति प्राग्वत् भदन्त! द्वीपस्य सम्बन्धिनो द्वारस्य च द्वारस्य चैतत् कियत्प्रमाणाबाधया-अन्तरित्वा प्रतिघातेनान्तरं प्रज्ञप्तम् !, भगवानाह-गौतम! एकोनाशीतिर्योजनसहस्राणि द्विपञ्चाशद् योजनानि देशोन चार्द्धयोजनं द्वारस्य च द्वारस्य ॥२६ ॥ चाबाधयाऽन्तरं प्रज्ञप्तं, तथाहि-चतुर्णामपि द्वाराणां प्रत्येकमेकैकस्य कुड्यस्य द्वारशाखापरपर्यायस्य चाहल्यं गव्यूतं द्वाराणां च वि ASCRIGANGANAGG+ Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तारः प्रत्येकं २ चत्वारि २ योजनानि, ततश्चतुर्ष्वपि द्वारेषु सर्वसङ्ख्यया कुड्यद्वार प्रमाणमष्टादश योजनानि जम्बूद्वीपस्य च परिधि - स्तिस्रो लक्षाः पोडश सहस्राणि द्वे शते सप्तविंशत्यधिके ३१६२२७ क्रोशत्रयं ३ अष्टाविंशं धनुः शतं १२८ त्रयोदशाङ्गुलानि एकमर्धा कुल १३ ॥ - मिति, अस्माथ जम्बूद्वीपपरिधेः सकाशात्तानि कुड्यद्वारपरिमाणभूतान्यष्टादश योजनानि शोध्यन्ते, शोधितेषु च तेषु परिधिसत्को योजनराशिरेवंरूपो जातः- तिस्रो लक्षाः षोडश सहस्राणि द्वे शते नवोत्तरे ३१६२०९, शेषं तथैव, ततो योजनराशेश्वतुर्भिर्भागो ह्रियते, लब्धानि योजनानामेकोनाशीतिः सहस्राणि द्विपञ्चाशदधिकानि गव्यूतं चैकं ७९०५२ को० १, यानि च परिधिसत्कानि त्रीणि गव्यूतानि तानि धनुस्त्वेन क्रियन्ते लब्धानि धनुषां षट् सहस्राणि यदपि च परिधिसत्कमष्टाविंशं धनुःशतं तदप्येतेषु धनुःषु मध्ये प्रक्षिप्यते, ततो जातो धनूरा शिरेकषष्टिः शतान्यष्टाविंशत्यधिकानि ६१२८, एषां चतुर्भिर्भागो हियते, लब्धानि धनुषां पञ्चदश शतानि द्वात्रिंशदधिकानि १५३२, यान्यपि च त्रयोदशाङ्गुलानि तेषामपि चतुर्भिर्भागो हियते, लब्धानि त्रीणि अड्डलानि, एतदपि सर्वे देशोनमेकं गन्यूतमिति लब्धं देशोनमर्द्धयोजनं, उक्तं च--" कुडुदुवारपमाणं अट्ठारस जोयणाई परिहीए । सो हिय चउहि विभत्तं इणसो दारंतरं होइ ॥ १ ॥ अउणासीइ सहस्सा बावण्णा अद्धजोयणं नूणं । दारस्स य दारस्स य अंतरमेयं । विणिहिं ॥ २ ॥ " जंबुद्दीवस णं भंते! दीवस्स पएसा लवणं समुदं पुट्ठा ?, हंता पुट्ठा ॥ ते णं भंते! किं जंबुद्दीवे २ १ कुख्यद्वारप्रमाणमष्टादश योजनानि परिधे । शोधयित्वा चतुर्भिर्विभक्ते इदं द्वारान्तरं भवति ॥ १ ॥ एकोनाशीति सहस्राणि द्विपञ्चाशत् अर्धयोजनमूनं द्वारस्य द्वारस्य चान्तरमेतत् विनिर्दिष्टं ॥ २ ॥ Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लवणसमुद्दे ?, गोयमा ! जबुद्दीवे दीवे नो खलु ते लवणसमुद्दे ॥ लवणस्स णं भंते! समुहस्स पदेसा जंबूद्दीवं दीव पुट्ठा ?, हंता पुट्ठा। ते णं भंते! किं लवणसमुद्दे जंबूद्दीवे दीवे ?, गोयमा! लवणे णं ते समुद्दे नो खलु ते जंबुद्दीवे दीवे ॥ जंबुद्दीवे णं भंते! दीवे जीवा उदाइत्ता २ लवणसमुद्दे पञ्चायंति ?, गोयमा । अत्थेगतिया पचायंति अत्थेगतिया नो पचायंति ॥ लवणे णं भंते! समुद्दे जीवा उद्दाता २ जंबुद्दीवे २ पच्चायंति ?, गोयमा ! अत्थेगतिया पच्चायंति अत्थेगतिया नो पचायंति ॥ (सू० १४६ ) 'जंबूद्दीवरस णं भंते!' इत्यादि, जम्बूद्वीपस्य णमिति पूर्ववत् भदन्त ! द्वीपस्य 'प्रदेशाः ' स्वसीमागतचरमरूपा लवणं समुद्रं 'स्पृष्टाः ?' कर्तरि क्तप्रत्ययः स्पृष्टवन्तः, काका पाठ इति प्रश्नार्थत्वावगतिः, पृच्छतश्चायमभिप्रायः- यदि स्पृष्टास्तर्हि वक्ष्यमाणं पृच्छयते नो चेत्तर्हि नेति भावः, भगवानाह - दंतेत्यादि, 'हन्त' इति प्रत्यवधारणे स्पृष्टाः ॥ एवमुक्ते भूयः पृच्छति' ते ण' मित्यादि, ते भ दन्त ! खसीमागतचरमरूपाः प्रदेशाः किं जम्बूद्वीप: ? किंवा लवणसमुद्रः ?, इह यद् येन संस्पृष्टं तत्किञ्चित्तद्व्यपदेशमभुवानमुपलब्धं यथा सुराष्ट्रेभ्य: संक्रान्तो मगधदेशं मागध इति, किञ्चित्पुनर्न तद्व्यपदेशभाग् यथा तर्जन्या संस्पृष्टा ज्येष्ठाऽङ्गुलिज्येष्ठैवेति, इहापि च जम्बूद्वीपचरमप्रदेशा लवणसमुद्रं स्पृष्टवन्तस्ततो व्यपदेशचिन्तायां संशय इति प्रश्नः, भगवानाह - गौतम ! जम्बूद्वीप एव णमिति निपातस्यावधारणार्थत्वात् ते चरमप्रदेशा द्वीपो, जम्बूद्वीपसीमावर्त्तित्वात्, न खलु ते जम्बूद्वीपचरमप्रदेशा लवणसमुद्र:, (न ते) जम्बूद्वीपसीमानमतिक्रम्य लवणसमुद्रसीमानमुपगताः किन्तु स्वसी मागता एव लवणसमुद्रं स्पृष्टवन्तस्तेन तटस्थतया संस्पर्शभावात् तर्जन्या ३ प्रतिपत्तौ स्पर्शोत्पातपृच्छा उद्देशः २ सू० १४६ ॥ २६१ ॥ Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwॐॐॐॐॐ पोषाहालिरिव ते खव्यपदेशं भजन्ते न व्यपदेशान्तरं, तथा चाह-नो खलु ते जम्बूद्वीपचरमप्रदेशा लवणसमुद्रः । एवं 'लवणस्स णं भंते ! समुदस्स पदेसा' इत्यादि लवणविषयमपि सूत्रं भावनीयम् ॥'जंबुहीवेणं भंते!' इत्यादि, जम्बूद्वीपे भदन्त! द्वीपे ये जीवास्ते 'उद्दाइत्ता' इति 'अवद्राय २' मृत्वा २ लवणसमुद्रे 'प्रत्यायान्ति' आगच्छन्ति ?, भगवानाह-गौतम! अस्तीति निपातोऽत्र बहर्थः, सन्येकका जीवा ये 'अवदायावद्राय' मृत्वा २ लवणसमुद्रे प्रत्यायान्ति, सन्येकका ये न प्रत्यायान्ति, जीवानां तथा तथा स्वस्वकर्मवशतया गतिवैचित्र्यसम्भवात् ॥ एवं लवणसूत्रमपि भावनीयं ॥ सम्प्रति जम्बूद्वीप इति नाम्नो निवन्धनं जिज्ञासिघुः प्रभं करोति-- से केणटेणं भंते! एवं वुचति जंबूद्दीवे २१, गोयमा! जंबुद्दीवे २ मंदरस्स पच्वयस्स उत्तरेणं णीलवंतस्स दाहिणणं मालवंतस्स वक्खारपव्वयस्स पञ्चत्थिमेणं गंधमायणस्स वक्खारपव्वयस्स पुरत्थिमेणं एत्थ णं उत्तरकुरा णाम कुरा पण्णत्ता, पाईणपडीणायता उदीणदाहिणविच्छिण्णा अद्धचंदसंठाणसंठिता एक्कारस जोयणसहस्साइं अट्ठ बायाले जोयणसते दोणि य एकोणवीसतिभागे जोयणस्स विक्खंभेणं ॥ तीसे जीवा पाईणपडीणायता दुहओ वक्खारपव्वयं पुट्ठा, पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं वक्खारपव्वतं पुट्ठा पचत्थिमिल्लाए कोडीए पञ्चथिमिल्लं वक्खारपव्वयं पुट्ठा, तेवण्णं जोयणसहस्साई आयामेणं, तीसे धणुपडं दाहिणेणं सहि जोयणसह Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ३ प्रतिपसौ उत्तरकुरु वर्णनं उद्देशः२ सू०१४७ . . स्साई चत्तारि य अट्ठारसुत्तरे जोयणसते दुवालस य एकूणवीसतिभाए जोयणस्स परिक्खेवेणं पण्णत्ते ॥ उत्तरकुराए णं भंते! कुराए केरिसए आगारभावपडोयारे पण्णत्ते?, गोयमा! वहुसमरमणिजे भूमिभागे पण्णत्ते, से जहा णाम ए आलिंगपुक्खरेति वा जाव एवं एक्कोरुयदीववत्तव्वया जाव देवलोगपरिग्गहा णं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो!, णवरि इमं णाणत्तंछधणुसहस्समूसिता दोछप्पन्ना पिट्ठकरंडसता अट्टमभत्तस्स आहारहे समुप्पज्जति तिपिण पलिओवमाइं देसूणाई पलिओवमस्सासंखिज्जइभागेण ऊणगाइं जहन्नेणं तिन्नि पलिओवमाई उकोसेणं एकूणपण्णराइंदियाई अणुपालणा, सेसं जहा एगूरुयाणं ॥ उत्तरकुराए णं कुराए छविहा मणुस्सा अणुसज्जंति, तंजहा-पम्हगंधा १ मियगंधा २ अम्ममा ३ सहा.४ तेयालीसे ५ सणिचारी ६ (सू०१४७) 'से केणडेणं भंते!' इत्यादि, अथ केन 'अर्थेन केन कारणेन भदन्त! एवमुच्यते जम्बूद्वीपो द्वीप:? इति, भगवानाह १ यद्यपि सूत्रकार जहा एगोळ्यवत्तन्वयेति वाक्येनातिदिश्यते उत्तरकुरुखरूपमशेपं तथापि व्याख्यातमत्राशेष तत्, न चैकोषकद्वीपखरूपावसरे तलेशोऽपि व्याख्यातो वर्णनस्य, व्याख्यायकसूरिभिश्चान्यत्रातिदिश्यते कल्पद्रुमादिवर्णने यथोत्तरकुरुष्विति नात्र धृतं मूलसूत्रं न च परावर्तिता व्याख्या, परमेतदनुमीयते यदुत टीकाकृद्धि प्राप्ता आदी अत्रैव कल्पवृक्षादिवर्णनयुक्ता प्रथमोपस्थितकोरुकवर्णनस्थाने च तद्रहिता अतिविष्टा स्यु.,चिन्त्यमेतावदेवान यन सूत्रकारशैल्याऽप्रे वर्णनीय-2 पदार्थातिदेशस्तत्रैव सूत्रे,तत्र सामान्येन वर्णनं स्पादत्र विशेषेणेति युक्त विवेचनमत्र तत्रभवदीयादर्शानुसारेण वा, अत एवात्र प्रतिसूत्रप्रतीकधृतिर्मलयगिरिपादानाम् ॥२६२॥ Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CAMERICA जम्बूद्वीपे णमिति वाक्यालङ्कारे द्वीपे मन्दरपर्वतस्य 'उत्तरेण' उत्तरतः नीलवतो वर्षधरपर्वतस्य 'दक्षिणेन' दक्षिणतो गन्धमादनस्य वक्षस्कारपर्वतस्य 'पुरथिमेणं'ति पूर्वस्यां दिशि माल्यवतो वक्षस्कारपर्वतस्य पश्चिमायाम् अत्र' एतस्मिन् प्रदेशे उत्तरकुरवो नाम कुरवः प्रज्ञप्ताः, सूत्र एकवचननिर्देशोऽकारान्ततानिर्देशश्च प्राकृतत्वात् , ताश्च कथम्भूताः? इत्याह-पाईणे'त्यादि, प्राचीनापाचीनायता उदग्दक्षिणविस्तीर्णा अर्द्धचन्द्रसंस्थानसंस्थिता एकादश योजनसहस्राण्यष्टौ योजनशतानि 'द्विचत्वारिंशानि' द्विचत्वारिंशदधिकानि द्वौ चैकोनविंशतिभागौ योजनस्य 'विष्कम्भेन' दक्षिणोत्तरतया विस्तारण, तथाहि-महाविदेहे मेरोरुत्तरत उत्तरकुरवो दक्षिणतो दक्षिणकुरवः, ततो यो महाविदेहक्षेत्रस्य विष्कम्भस्तस्मान्मन्दरविष्कम्भे शोधिते यदवशिष्यते तस्या? यावत्परिमाणमेतावत्प्रत्येकं दक्षिणकुरूणामुत्तरकुरूणां च विष्कम्भः, उक्तं च-"वइदेहा विक्खंभा मंदरविक्खंभसोहियद्धं जं । कुरुविक्खंभं जाणसु" इति, स च यथोक्तप्रमाण एव, तथाहि-महाविदेहे विष्कम्भत्रयस्त्रिंशद् योजनसहस्राणि षट् शतानि चतुरशीत्यधिकानि योजनानां चतस्रः कलाः ३३६८४ क० ४, एतस्मान्मेरुविष्कम्भो दश योजनसहस्राणि शोध्यन्ते १०००० स्थितानि पश्चात्रयोविंशतिः सहस्राणि षट् शतानि चतुरशीत्यधिकानि योजनानां चतस्रः कला: २३६८४ क० ४, एतेषामर्दै लब्धातान्येकादश सहस्राणि अष्टौ शतानि द्विचत्वारिंशदधिकानि योजनानां द्वे च कले ११८४२ क० २॥ 'तीसे' इत्यादि, तासामुत्तरकु रूणां जीवा उत्तरतो नीलवर्षधरसमीपे प्राचीनापाचीनायता उभयतः पूर्वपश्चिमभागाभ्यां वक्षस्कारपर्वतं यथाक्रमं माल्यवन्तं गन्धमादनं च "स्पृष्टा' स्पृष्टवती, एतदेव भावयति-"पुरथिमिल्लाए' इत्यादि, पूर्वया 'कोट्या' अग्रभागेन पूर्व वक्षस्कारपर्वतं माल्यहा वदभिधानं 'स्पृष्टा' स्पृष्टवती 'पश्चिमया' पश्चिमदिगवलम्विन्या कोट्या पश्चिमवक्षस्कारपर्वतं गन्धमादनाख्यं स्पृष्टा, सा च जीवा 25% Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . - .. - - आयामेन त्रिपञ्चाशद् योजनसहस्राणि, कथमिति चेदुच्यते-इह मेरोः पूर्वस्यामपरस्यां च दिशि भद्रगालवनस्य यदायामेन परिमाणं ३ प्रतिपत्ती यच्च मेरोर्विष्कम्भस्य तदेकत्र मीलितं गन्धमादनमाल्यवद्वक्षस्कारपर्वतमूलपृथुत्वपरिमाणरहितं यावत्प्रमाणं भवति तावदुत्तरकुरूणां उत्तरकुरुजीवायाः परिमाणम्, उक्तं च-मंदरपुब्वेणायय वावीस सहस्स भइसालवणं । दुगुणं मंदरसहियं दुसेलरहियं च कुरुजीवा वर्णनं ॥१॥" तच्च यथोक्तप्रमाणमेव, तथाहि-मेरोः पूर्वस्यामपरस्यां च दिशि प्रत्येकं भद्रशालवनस्य दैर्व्यपरिमाणं द्वाविंशतिर्योजनसह-है उद्देशः२ स्राणि, ततो द्वाविंशतिः सहस्राणि द्वाभ्यां गुण्यन्ते, जातानि चतुश्चत्वारिंशत् सहस्राणि ४४०००, मेरोश्च पृथुत्वपरिमाणं दश योज- सू० १४७ नसहस्राणि १००००, तानि पूर्वराशौ प्रक्षिप्यन्ते, जातानि चतुष्पश्चाशत्सहस्राणि ५४०००, गन्धमादनस्य माल्यवतश्च वक्षस्कारपर्वतस्य प्रत्येक मूले पृथुत्वं पञ्च योजनशतानि, ततः पञ्च शतानि द्वाभ्यां गुण्यन्ते, जातं योजनसहस्र, तत् पूर्वराशेरपनीयते, जातानि त्रिपञ्चाशद योजनसहस्राणि ५३०००॥'तीसे धणुपहमित्यादि, तासामुत्तरकुरूणां धनु:पृष्ठं 'दक्षिणेन' दक्षिणतः, तञ्च पष्टियोंजनसहनाणि चत्वारि योजनशतानि अष्टादशोत्तराणि द्वादश एकोनविंशतिभागा योजनस्य परिक्षेपेण, द्वयोरपि हि गन्धमादनमाल्यवद्वक्षस्कारपर्वतयोरायामपरिमाणमेकत्र मीलितमुत्तरकुरूणां धनुःपृष्ठपरिमाणं, "आयामो सेलाणं दोण्ह व मिलिओ कुरूण धणुपट्ट" इति वचनात् , गन्धमादनस्य माल्यवतश्च वक्षस्कारपर्वतस्य प्रत्येकमायामपरिमाणं त्रिंशद् योजनसहस्राणि द्वे शते नवोत्तरे पट् च कलाः ३०२०९क०६, उभयोश्च मिलित आयामो यथोक्तपरिमाणो भवति ६०४१८ क० १२॥ 'उत्तरकुराए णं भंते!' इत्यादि, उत्तरकुरूणां भदन्त ! कुरूणां, सूत्रे एकवचनं प्राकृतखात्, कीदृश आकारभावस्वरूपस्य प्रत्यवतार:-सम्भवः प्रसप्तः ?, भग ॥२६३॥ वानाह-गौतम | बहुसमरमणीयो भूमिभाग उत्तरकुरूणां प्राप्तः, 'से जहानामए-आलिंगपुक्खरेइ वा' इत्यादि जगत्युपरि वनप Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KARENCOURS ण्डवर्णकवत्तावद्वक्तव्यं यावत्तणानां च मणीनां च वर्णो गन्धः स्पर्शः शब्दश्च सवर्णकः परिपूर्ण उक्तो भवति, पर्यन्तसूत्रं चेदम्दिव्वं नटुं सज गेयं पगीयाणं भवे एयारूवे?, हंता सिया' इति ॥ 'उत्तरकुराए णं कुराए' इत्यादि, उत्तरकुरुपु तत्र तत्र देशे तस्य देश तत्र तत्र प्रदेशे बहवे 'खड़ा खुशियाओ वावीओ' इत्यादि, तथा त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि तोरणानि पर्वतकाः पर्वतकेष्वासनानि गृहकाणि गृहेष्वासनानि मण्डपका मण्डपेषु पृथिवीशिलापट्टकाः पूर्ववद् वक्तव्याः, तदनन्तरं चेदं वक्तव्यम्-'तत्थ णं बहवे उत्तरकुरा मणुस्सा मणुस्सीओ य आसयंति सयंति जाव कल्लाणं फलवित्तिविसेसं पञ्चणुभवमाणा विहरन्ति' एतव्याख्याऽपि प्राग्वत् । 'उत्तरकुराए णं भंते! कुराए' इत्यादि, उत्तरकुरुषु णमिति पूर्ववत् कुरुषु तत्र तत्र देशे 'तहिं तहिं' इति तस्य तस्य देशस्य तत्र तत्र प्रदेशे बहवः सरिकागुल्मा: नवमालिकागुल्माः कोरण्डगुल्माः बन्धुजीवकगुल्मा: मनोवद्यगुल्माः बीयकगुल्मा: बाणगुल्माः (कणीरगुल्माः) कुब्जकगुल्माः सिन्दुवारगुल्माः जातिगुल्माः मुद्रगुल्मा यूथिकागुल्माः मल्लिकागुल्मा: वासन्तिकगुल्माः वस्तुलगुल्मा: कस्तूलगुल्माः सेवालगुल्माः अगस्त्यगुल्माः मगदन्तिगुल्मा: चम्पकगुल्माः जातिगुल्माः नवनातिकागुल्माः कुन्दगुल्माः महाकुन्दगुल्माः, सरिकादयो लोकतः प्रत्येतव्याः, गुल्मा नाम इस्खस्कन्धबहुकाण्डपत्रपुष्पफलोपेताः, ततः सर्वत्र विशेषणसमासः, सरिकादीनां चेमास्तिस्रः सवहणिगाथा:-"सेरियए नोमालियकोरंटयबन्धुजीवगमणोजा । बीययबाणयकणवीरकुज्ज तह सिंदुवारे य॥१॥ जाईमोग्गर तह जूहिया य तह मल्लिया य वासंती। वत्थुलकत्थुलसेवालगत्थिमगदंतिया चेव ॥ २ ॥ चंपकजाईनवनाइया य कुंदे तहा महाकुंदे। एवमणेगागारा हवंति गुम्मा मुणेयव्वा ॥३॥" "ते णं गुम्मा' इत्यादि, 'ते' अनन्तरोदिता णमिति वाक्यालङ्कारे गुल्माः 'दशावर्ण पञ्चवर्ण 'कुसुमं जातावेकवचन'कुसुमसमुहं 'कुसुमयन्ति' उत्पादयन्तीति भावः, येन कुसुमोत्पादनेन कुरूणां बहुसमरम Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहनि, सतः श्रियातामशाल Cणीयो भूमिभागो 'वायविहयग्गसालेहिं तिवातेन विधुता:-कम्पिता वातविधुतास्ताश्च ता अप्रशाखाश्च वातविधुताप्रशाखास्ताभिः, सूत्रेत ३प्रतिपत्ती पुंस्त्वनिर्देशः प्राकृतत्वात् , मुक्तो यः पुष्पपुजः स एवोपचार:-पूजा मुक्तपुष्पपुजोपचारस्तेन कलित: श्रियाऽतीव उपशोभमानस्तिष्ठति ॥ उत्तरकुरु'उत्तरकुराए णं कुराए' इत्यादि, उत्तरकुरुपु तत्र तत्र देशे तस्य २ देशस्य तत्र तत्र प्रदेशे बहूनि, सूने पुंस्त्वनिर्देश: प्राकृतत्वात् , हरुतालवनानि 8 वर्णनं भेरुतालवनानि मेरुतालवनानि शालवनानि सरलवनानि सप्तपर्णवनानि पूगीफलीवनानि खर्जूरीवनानि नालिकेरीवनानि कुशविकुशवि- उद्देशः२ शुद्धवृक्षमूलानि, ते च वृक्षाः मूलमंतो कंदमंतो इत्यादि विशेपणजातं जगत्युपरिवनपण्डकवर्णकवत्तावत्परिभावनीयं यावद् 'अणेगसग- सू०१४७ डरहूजाणजोग्गगिल्लिथिल्लिसीयसंदमाणपडिमोयणेसु रम्मा पासाईया दरसणिज्जा अभिरुवा पडिरूवा' इति, भेरुतालादयो वृक्षजातिविशेपाः शालादयः प्रतीताः ॥ 'उत्तरकुराए णं कुराए' इत्यादि, उत्तरकुरुपु कुरुपु तत्र तत्र देशे तस्य तस्य देशस्य तत्र तत्र प्रदेशे बह्व उद्दालाः कोदाला मोद्दालाः कृतमाला नृत्तमाला वृत्तमाला दन्तमालाः शृङ्गमालाः शङ्खमाला: श्वेतमाला नाम 'दुमगणाः' दुमजातिविशेपसमूहाः प्रज्ञप्ता: तीर्थकरगणधरैः हे श्रमण! हे आयुष्मन् , ते च कथम्भूता: ? इत्याह-कुशविकुशविशुद्धवृक्षमूला इत्यादि प्राग्वद् यावत् 'पडिमोयणा सुरम्मा' इति ॥ 'उत्तरकुराए णं कुराए' इत्यादि, उत्तरकुरुपु कुरुपु तत्र तत्र देशे तस्य तस्य देशस्य है तत्र तत्र प्रदेशे बहवस्तिलका लवकाः छत्रोपगाः शिरीषाः सप्तपर्णाः लुब्धाः धवाः चन्दनाः अर्जुना: नीपा: कुटजाः कदम्बाः पनसाः शालाः तमालाः प्रियाला: प्रियङ्गवः पारापता राजवृक्षा नन्दिवृक्षाः, तिलकादयो लोकप्रतीताः, एते कथम्भूताः? इत्याह-कुशविकुशविशुद्धवृक्षमूला इत्यादि सर्व प्राग्वद् यावत् 'पडिमोयणा सुरम्मा' इति ॥ 'उत्तरकुराए णं कुराए' इत्यादि, उत्तरकुरुषु कुरुषु ॥२६४ तत्र तत्र देशे तस्य तस्य देशस्य तत्र तत्र प्रदेशे बहथः पद्मलता नागलता अशोकलताश्चम्पकलताश्चतलता वनलता वासन्तिकलता Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | अतिमुक्तकलताः कुन्दलताः श्यामलताः, एताः सुप्रतीताः, 'निधं कुसुमियाओ' इत्यादि विशेषणजातं प्राग्वत् 'जाव पडिरूवाओ' इति ।। 'उत्तरकुराए णं कुराए' इत्यादि, उत्तरकुरुषु कुरुषु तत्र तत्र देशे तस्य तस्य देशस्य तत्र तत्र प्रदेशे वह्नयो वनराजयः प्रज्ञप्ताः, इहैकानेकजातीयानां वृक्षाणां पङ्कयो वनराजयस्ततः पूर्वोक्तसूत्रेभ्योऽस्य भिन्नार्थतेति न पौनरुक्त्यं, ताच वनराजयः प्रज्ञप्ताः कृष्णा: कृष्णाविभासा इत्यादि विशेषणजातं प्राग्वत् तावद्वक्तव्यं यावत् 'अणेगरहजाणजुग्गगिल्लिथिल्लिसीयसंद्माणियपडिमोयणाओ सुरम्माओ जाव पडिरूवाओ' इति ॥ ' उत्तरकुराए णं कुराए' इत्यादि, उत्तरकुरुषु कुरुषु तत्र तत्र देशे तस्य तस्य देशस्य तत्र तत्र प्रदेशे बहवो मत्ताङ्गका नाम द्रुमगणाः प्रज्ञप्ता हे श्रमण ! हे आयुष्मन् !, किंविशिष्टास्ते ? इत्याह-यथा 'से चंदप्पभमणिस लाग' इत्यादि, यथा चन्द्रप्रभादयो मद्यविधयो बहुप्रकारास्तत्र चन्द्रस्येव प्रभा - आकारो यस्याः सा चन्द्रप्रभा, मणिशलाकेव मणिशलाका, वरं च तत् सीधु च वरसीधु, वरा च सा वारुणी च वरवारुणी 'सुजायपुन्नपुप्फफल चोयनिज्जास सारबहुदव्वजुत्तिसंभारकालसंधियआसव' इति इहासवः - पत्रादिवासकद्रव्यभेदादनेकप्रकार:, तथा चोक्तं प्रज्ञापनायां लेश्यापदे रसचिन्तावसरे - 'पत्ता सवेइ वा पुप्फासवेइ वा फलासवेइ वा | चोयासवेइ वा' ततोऽत्र निर्याससारशब्दः पत्रादिभिः सह प्रत्येकमभिसम्बन्धनीयः, पत्रनिर्याससार: पुष्पनिर्याससारः फलनिर्याससारचोयनिर्याससारः, तत्र पत्रनिर्यासो - धातकीपत्ररसस्तत्प्रधान आसवः पत्रनिर्याससारः एवं पुष्पनिर्याससारः फलनिर्याससारश्च परिभावनीयः, चोयो गन्धद्रव्यं तन्निर्याससारञ्चोयनिर्याससारः, सुजाता:- सुपरिपाकागताः, 'बहुद्रव्ययुक्तिसंभारा' इति बहूनां द्रव्याणामुपबृंहकाणां युक्तयो-मीलनानि तासां संभार:- प्राभूत्यं येषु ते बहुद्रव्ययुक्तिसंभाराः, पुनः कथम्भूताः ? इत्याह – 'कालसंधिय' इति कालसन्धिताः सन्धानं सन्धा काले-स्वस्वोचिते सन्धा कालसन्धा सा संजातैषामिति कालसन्धिता, तारकादिदर्शनादि Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तप्रत्ययस्तत: पदवयपदद्वयमीलनेन विशेपणसमासः, सुजातपत्रपुष्पफलचोयनिर्याससारवहुद्रव्ययुक्तिसम्भारकालसन्धितासवाः, मधु- ३ प्रतिपत्तौ मेरको मद्यविशेपो, 'रिष्ठरत्नवर्णाभा' रिष्ठा या शास्त्रान्तरे जम्बूफलकलिकेति प्रसिद्धा, दुग्धजाति:-आस्वादतः क्षीरसदृशी, प्रसन्ना- उत्तरकुरु४ सुराविशेषः, नेल्लकोऽपि सुराविशेषः, शतायुर्नाम या शतवारान् शोधिताऽपि स्वस्वरूपं न जहाति, 'खजूरमुदियासार' इति अ-5 वर्णनं त्रापि सारशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते, खजूरसारो मृद्वीकासारः, तत्र ण(मूलदलखर्जूरसारनिष्पन्न आसवविशेपः खजूरसारः, मृद्वीका- उद्देशः२ । द्राक्षा तत्सारनिष्पन्न आसवविशेपो मृद्वीकासारः, कापिशायितं-मद्यविशेषः, सुपकः-सुपरिपाकागतो यः क्षोदरस-इक्षुरसस्तन्निष्पन्ना 8 सू०१४७ वरसुरा सुपकक्षोदरसवरसुरा, कथम्भूता एते मद्यविशेषाः ? इत्याह-'वन्नगंधरसफासजुत्तबलविरियपरिणामा' वर्णेन सामर्थ्यादतिशायिना एवं गन्धेन रसेन स्पर्शेन च युक्ताः-सहिता बलवीर्यपरिणामा-बलहेतवो वीर्यपरिणामा येषां ते तथा, किमुक्तं भवति ?परमातिशयसंपन्नैर्वर्णगन्धरसस्पशैबलहेतुभिर्यपरिणामैश्वोपेता इति, पुनः किंविशिष्टा:? इत्याह-वहप्रकारा' बहवः प्रकारा येषां जातिभेदेन ते बहुप्रकाराः, तथैव मत्तानका अपि द्रुमगणा मद्यविधिनोपपेता इति योगः, किंविशिष्टेन मद्यविधिना? इत्यत आह'अणेगबहुविविहवीससापरिणयाए' इति न एकः अनेकः, तत्रानेकः अनेकजातीयोऽपि व्यक्तिभेदाद्भवति तत आह-बहु-अभूत विविधो-जातिभेदान्नानाप्रकारो बहुविविधःप्रभूतजातिभेदतो नानाविध इति भावः, स च केनापि निष्पादितोऽपि संभाव्यत तत आह* -विश्रसया-खभावेन तथाविधक्षेत्रादिसामग्रीविशेपजनितेन परिणतो न पुनरीश्वरादिना निष्पादितो विश्रसापरिणतः, ततः पदनयस्य पदद्वयपदद्वयमीलनेन कर्मधारयः, सूत्रे च स्त्रीत्वनिर्देशः प्राकृतत्वात् , ते च मद्यविधिनोपपेता न ताडादिवृक्षा इवाङ्कुरादिपु किन्तु फलेपु ॥२६५॥ तथा चाह-'फलेहिं पुण्णावीसंदंति' अत्र सप्तम्यर्थे तृतीया व्यत्ययोऽप्यासा'मिति वचनात् , फलेषु मद्यविधिभिरिति गम्यते 'पूर्णाः' Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ OLEN SESSORAIS संभृताः 'विष्यन्दन्ति' स्रवन्ति, सामर्थ्यात्तानेवानन्तरोदितान् मद्यविधीन , कचित् 'विसति' इति पाठस्तत्र विकसन्तीति व्याख्येयं, | किमुक्तं भवतितेषां फलानि परिपाकागतमद्यविधिभिः पूर्णानि स्फुटित्वा तान् मद्यविधीन मुञ्चन्तीति, कुशविकुशविशुद्धवृक्षमूला:, 'मूलवन्त' इत्यादि प्राग्वद् यावत्प्रतिरूपका इति १। 'उत्तरकुराए णं कुराए' इत्यादि, उत्तरकुरुषु कुरुपु तत्र तत्र देशे तस्य तस्य देशस्य तत्र तत्र प्रदेशे बहवो भृङ्गागका नाम द्रुमगणाः प्रज्ञप्ता हे श्रमण! हे आयुष्मन् ! 'जहा से' इत्यादि, यथा ते करकघटककलशकर्करीपादकाचनिकाउदकवार्द्वानीसुप्रतिष्ठकविष्ठरपारीचषकभृङ्गारककरोटिकासरकपरकपात्रीस्थालमल्लकचपलितदकवारकविचित्रपट्टकशुक्तिचारुपीनका भाजनविधयः, एते प्रायः प्रतीताः, नवरं पादकाञ्चनिका-पाद्धावनयोग्या काञ्चनमयी पात्री उदको-येनोदकमुदच्यते वार्डानी-गलन्तिका सरको-वंशमयच्छिक्काः शिक्काकृति: अप्रतीता लोकतो विशिष्टसंप्रदायाद्वाऽवसातव्याः, कथम्भूताः? इत्याह -काश्चनमणिरत्नभक्तिचित्राः, पुनः कथम्भूताः? इत्याह-बहुप्रकाराः, एकैकस्मिन् विधाववान्तरानेकभेदभावात् , तथैव ते भृङ्गागका अपि दुमगणाः 'अणेगबहुविविहविस्ससापरिणयाए' इत्यस्य व्याख्या पूर्ववत् भाजनविधिनोपपेताः, कुशविकुशविशुद्धवृक्षमूला मूलवन्त इत्यादि प्राग्वद् यावत्प्रतिरूपाः २॥ 'उत्तरकुराए णं कुराए' इत्यादि, उत्तरकुरुषु कुरुषु तत्र तत्र देशे तस्य तस्य देशस्य तत्र तत्र प्रदेशे बहवस्तुटिताङ्गका नाम दुमगणाः प्रज्ञप्ता हे श्रमण! हे आयुष्मन्!, 'जहा से इत्यादि, यथा ते आलिङ्गय(मुरव)मृदगपणवपटहदर्दरककरटिडिण्डिमभम्भाहोरम्भाकणिताखरमुखीमकुन्दशद्धिकापिरलीवञ्चकपरिवादिनीवंशवेणुवीणासुघोपाविपश्चीमहती. कच्छभीरिगसिका, तत्रालिङ्गय वाद्यत इति आलिङ्गयः मुरवः-वाद्यविशेपः, एष यकारान्तशब्दः, मृदगो-लघुमर्दलः, पणवो-भाण्डपटहो लघुपटहो वा पटहः-प्रतीतः, दर्दरकोऽपि तथैव, करटी-सुप्रसिद्धा, डिण्डिमः-प्रथमप्रस्तावनासचकः पणवविशेपः, भम्भा Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- ... . . ढका, होरम्भा-महाढका, कणिता-काचिद् वीणा, खरमुखी-काहला, मकुन्दो-मरुजवाद्यविशेषो योऽभिलीनं प्रायो वाद्यते, श- ३प्रतिपत्तौ सिका-लघुशशरूपा तस्याः खरो मनाक् तीक्ष्णो भवति नतु शसस्येवातिगम्भीरः, पिरलीवञ्चको तृणरूपवाद्यविशेषौ, परिवादिनी-5 उत्तरकुरुसप्ततश्रीवीणा वंश:-प्रतीतो वेणुः-वंशविशेषः सुघोषा-वीणाविशेषः, विपञ्ची-तश्री वीणा महती-शततत्रिका, कच्छभी रिगसिका वर्णनं च लोकतः प्रत्येतव्या, एताः कथम्भूताः? इत्याह-तलतालकंसतालसुसंपउत्ता' तलं-हस्तपुटं ताला:-प्रतीताः कांस्यताला:-कंसा- उद्देशः २ लिया एतैः 'सुसंप्रयुक्ताः' सुष्टु-अतिशयेन सम्यग्-यथोक्तनीत्या प्रयुक्ताः-संवद्धा आतोद्यविधयः-आतोद्यभेदाः, पुनः कथम्भूताः? 8 सू० १४७ इत्याह-'निउणगंधव्वसमयकुसलेहि फंदिया' इति, निपुणं यथा भवति एवं गन्धर्वसमये-नाट्यसमये कुशलास्तैः स्पन्दिताव्यापारिता इति भावः, पुनः किंविशिष्टाः ? इत्याह-'त्रिस्थानकरणशुद्धाः' आदिमध्यावसानरूपेषु त्रिपु स्थानेषु करणेन-क्रियया 4 यथोक्तवादनक्रियया शुद्धा अवदाता न पुनरवस्थानव्यापारणरूपदोपलेशेनापि कलङ्किताः, तथैव ते तुटिताङ्गका अपि दुमगणी अनेकबहुविविधविस्रसापरिणतेन, अस्य व्याख्यानं प्राग्वत्, 'ततविततघनशुपिरेण' ततं-वीणादिकं विततं-पटहादिकं घनं-कांस्यतालादि शुपिरं-वंशादि, एतद्रूपेण चतुर्विधेनातोद्यविधिनोपपेताः, कुशविकुशविशुद्धवृक्षमूला: मूलवन्त इत्यादि प्राग्वद् यावत्प्रतिरूपकाः ३। * 'उत्तरकुराए णं कुराए' इत्यादि, उत्तरकुरुषु कुरुपु तत्र तत्र देशे तस्य तस्य देशस्य तत्र तत्र प्रदेशे बहवो दीपशिखा नाम द्रुमगणाः प्रज्ञप्ता हे श्रमण! हे आयुष्मन् । यथा तत् 'सन्ध्याविरागसमये' सन्ध्यारूपो विरुद्धस्तिमिररूपत्वाद्रागः सन्ध्याविरागस्तत्समये-तदवसरे नवनिधिपते:-चक्रवर्तिन इव दीपिकाचक्रवालवृन्द-इखो दीपो दीपिका तासां चक्रवालं-सर्व परिमण्डलरूपं वृन्दं दीपिकाचक्रवालवृन्द, * ॥२६६॥ कथम्भूतमित्याह-'प्रभूतवर्ति' प्रभूता-बहुसङ्ख्याका: स्थूरा वा वर्त्तयो यत्र तत्तथा, तथा 'पलित्तनेहति पर्याप्तः-प्रतिपूर्णः नेहः-४ Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तैलादिरूपो यस्य तत् पर्याप्तस्नेह, “धणिउजालिए' इति धणियं-अत्यर्थमुज्वालितम्, अत एव तिमिरमर्दकं-तिमिरनाशकं, पुनः किंविशिष्टमित्याह-कणगनिगरणकुसुमियपारियातगवणप्पगासे' कनकस्य निगरणं कनकनिगरणं गालितं कनकमिति भावः कुसुमितं च तत्पारिजातकवनं च कुसुमितपारिजातकवनं ततो द्वन्द्वसमासस्तद्वत्प्रकाश:-प्रभा आकारो यस्य तत्कनकनिगरणपारिजातकुसुमवनप्रकाशम् , एतावता समुदायविशेषणमुक्तम् , इदानीं समुदायसमुदायिनोः कथञ्चिद्भेदभे)द इति ख्यापयन् समुदायविशेषणमेव विवक्षुः समुदायिविशेषणान्याह-कंचणमणिरयणे'त्यादि, दीपिकाभिः शोभमानमिति सम्बन्धः, कथम्भूताभिर्दीपिकाभिः? अत आह-काञ्चनमणिरत्नानां काञ्चनमणिरत्नमया विमला:-स्वाभाविकागन्तुकमलरहिता महार्हा-महोत्सवार्हाः विचित्रा-विचित्रवर्णोपेताजी दण्डा यासां ताः काञ्चनमणिरत्नविमलमहार्ह विचित्रदण्डास्ताभिः, तथा सहसा-एककालं ज्वालिताश्च ता उत्सर्पिताश्च वर्चुत्सर्पणेन सहसाप्रज्वालितोत्सप्पिताः, स्निग्धं-मनोहरं तेजो यासां ताः स्निग्धतेजसः, तथा दीप्यमानो-रजन्यां भाखान् विमलोऽत्र धूल्याधपगमेन ग्रहगणो-ग्रहसमूहस्तेन समा प्रभा यासां ता दीप्यमानविमलग्रहगणसमप्रभाः, ततः पदद्वयपवयमीलनेन कर्मधारयसमासः, सहसाप्रज्वालितोत्सर्पितस्निग्धतेजोदीप्यमानविमलग्रहगणसमप्रभास्ताभिः, तथा वितिमिरा: करा यस्यासौ वितिमिरकरः स चासो सूरश्च वितिमिरकरसूरस्तस्येव यः प्रसरति उद्द्योत:-प्रभासमूहस्तेन 'चिल्लियाहिं'ति देशीपदमेतद् दीप्यमानाभिरित्यर्थः, ज्वाला एव यदुज्वलं प्रहसितमिव प्रहसितं तेनाभिरामा-अभिरमणीया ज्वालोज्वलपहसिताभिरामास्ताभिः, अत एव शोभमानाभिः शोभमाना:, तथैव दीपशिखा अपि द्रुमंगणा अनेकबहुविविधविश्रसापरिणतोद्योतविधिनोपेताः, कुशविकुश विशुद्धवृक्षमूला मूलवन्त इत्यादि प्राग्वद् यावत् प्रतिरूपा इति ४॥ 'उत्तरकुराए णं कुराए' इत्यादि, उत्तरकुरुपु कुरुषु तत्र तत्र देशे तस्य तस्य देशस्य तत्र तत्र प्रदेशे Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ बहवो ज्योतिषिका नाम द्रुमगणा: प्रज्ञप्ता हे श्रमण! हे आयुष्मन्! यथा तद् अचिरोद्गतं शरदि सूर्यमण्डलं यदिवा यथैतद् उल्का-5 ३प्रतिपत्ता १ सहस्रं यथा वा दीप्यमाना विद्युत् अथवा यथा निर्धूमज्वलित उज्वल:-उद्गता ज्वाला यस्य स तथा हुतवहः, सूत्रे च पदोपन्यासव्य-6 उत्तरकुरु ययः प्राकृतत्वात् , ततः सर्वेषामेपो द्वन्द्वः समासः, कथम्भूता एते ? इत्याह-निद्धतधोयेयादि, निर्मातेन-नितरामग्निसंयोगेन । वर्णनं यद् धौत-शोधितं तप्तं च तपनीयं ये च किंशुकाशोकजपाकुसुमानां विमुकुलितानां-विकसितानां पुत्राः ये च मणिरत्रकिरणाः यश्च उद्देशः२ जात्यहिङ्गुलकनिकरस्तद्रूपेभ्योऽप्यतिरेकेण-अतिशयेन यथायोग वर्णतः प्रभया च रूपं-स्वरूपं येषां ते निर्मातधौततप्ततपनीयकिंशु- सू० १४७ काशोकजपाकुसुमविमुकुलितपुखमणिरत्नकिरणजात्यहिङ्गुलकनिकररूपातिरेकरूपाः, ततः पूर्वपदेन विशेषणसमासः, तथैव ते ज्योतिपिका अपि तुमगणा अनेकबहुविविधविसापरिणतेनोद्योतविधिनोपेताः, कुशविकुशविशुद्धवृक्षमूला मूलवन्त इत्यादि प्राग्वद् यावप्रतिरूपाः ५॥ 'उत्तरकुराए णं कुराए इत्यादि, उत्तरकुरुपु कुरुपु तत्र तत्र देशे तस्य तस्य देशस्य तत्र तत्र प्रदेशे बहवश्चित्राङ्गका नाम द्रुमगणा: प्रज्ञप्ता हे श्रमण! हे आयुष्मन् ! यथा तत् प्रेक्षागृहं विचित्रं-नानाविधचित्रोपेतम्, अत एव रम्यं-रमयति मनांसि द्रष्ट्रणामिति रम्यं, बाहुलकात् कर्त्तरि यप्रत्ययः, वराश्च ताः कुसुमदाममालाश्व-प्रथितकुसुममाला वरकुसुमदाममालास्ताभिरुज्वलं देदीप्यमानत्वाद् वरकुसुमदाममालोज्वलं, तथा भास्वान्-विकसिततया मनोहरतया च देदीप्यमानो मुक्तो यः पुष्पपुलोपचारस्तेन कलितं भास्वन्मुक्तपुष्पपुजोपचारकलितं, ततः पूर्वपदेन विशेषणसमासः, तथा विरल्लितानि-विरलीकृतानि विचित्राणि यानि माल्यानि प्रथितपुष्पमालास्तेषां यः श्रीसमुदयस्तेन प्रगल्भ-अतीव परिपुष्टं विरल्लितविचित्रमाल्यश्रीसमुदयप्रगल्भं, तथा प्रन्धिर्म-यत् सूत्रेण प्र- ॥२६७॥ * थितं वेष्टिमं यत्पुष्पमुकुट इव उपर्युपरि शिखराकृत्या मालास्थापनं पूरिम-यल्लघुच्छिद्रेषु पुष्पनिवेशेन पूर्यते सवातिमं यत्पुष्पं पुष्पेण है SAMBABAMC4064 Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परस्परं नालप्रवेशेन संयोज्यते, प्रन्थिमं च वेष्टिमं च पूरिमं च सवातिमं चेति समाहारो द्वन्द्वस्तेन माल्येन छेकशिल्पिना-परमदक्षण शिल्पिना विभागरहितेन यद् यत्र योग्यं प्रन्थिमं वेष्टिमं पूरिमं सवातिमं च तत्र तेन सर्वतः-सर्वासु दिक्षु समनुवद्धं, तथा प्रविरलैः। -लम्बमानैः, तत्र विरलत्वं मनागप्यसंहतत्वमात्रेण भवति ततो विप्रकृष्टत्वप्रतिपादनार्थमाह-विप्रकृष्टै:-बृहदन्तरालैः पञ्चवणः कुसुमदामभिः शोभमानं 'वणमालाकयग्गए चेवेति वनमाला-चन्दनमाला कृताऽग्रे यस्य तद् वनमालाकृतानं तथाभूतं सद् दीप्यमानं, तथैव चित्राङ्गका अपि नाम दुमगणा अनेकबहुविविधविस्रसापरिणतेन ग्रन्थिमवेष्टिमपूरिमसङ्घातिमेन चतुर्विधेन माल्यविधिनोपपेताः, कुशविकुशविशुद्धवृक्षमूला मूलवन्त इत्यादि यावत्प्रतिरूपकाः ६ ॥ 'उत्तरकुराए णं कुराए' इत्यादि, उत्तरकुरुषु कुरुपु तत्र तत्र देशे तस्य तस्य देशस्य तत्र तत्र प्रदेशे चित्ररसा नाम द्रुमगणाः प्रज्ञप्ता हे श्रमण! हे आयुष्मन् !, यथा तत्परमान्नं-पायसं भवेदिति स-| म्बन्धः, किंविशिष्टमित्याह-ये सुगन्धा:-प्रवरगन्धोपेताः, समासान्तविधेरनित्यत्वात्रैतद्रूपस्य समासान्तस्याभावो यथा सुरभिगन्धेन वारिणा इत्यत्र, वरा:-प्रधाना दोपरहितक्षेत्रकालादिसामग्रीसंपादितासलाभा इति भावः, कमलशालितन्दुला:, यय विशिष्टं-विशिगवादिसम्बन्धि निरुपहतमिति-पाकादिभिरविनाशितं दुग्धं ते राद्धं-पकं परमकलमशालिभिः परमदुग्धेन च यथोचितमात्रापाकेन निष्पादितमित्यर्थः, तथा शारदं घृतं गुडः खण्डं मधु वा शर्करापरपर्यायं मेलितं यत्र तत् शारदघृतगुडखण्डमधुमेलितं, निष्ठान्तस्य | परनिपातः प्राकृतत्वात् सुखादिदर्शनाद्वा, अत एवातिरसमुत्तमवर्णगन्धवत् , यथा वा राज्ञश्चक्रवर्तिनो भवेत् कुशलैः सूपपुरुपैः-सूप कारैः पुरुषैः सज्जितो-निष्पादितः चतुष्कल्पसेकसिक्त इवौदनः, चत्वारश्च कल्पाः सेकविपया रसवतीशास्त्राभिज्ञेभ्यो भावनीयाः, कास चौदनः किंविशिष्टः? इत्याह-कलमशालिनिवर्तितः-कलमशालिमयो विपको-विशिष्टपरिपाकमागतः, 'सबाप्फमिउविसयसक ROSSISLOSSESS OG Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - 262 लसित्थे' इति सबाप्पानि-याप्पं मुश्चन्ति मृदूनि-कोमलानि चतुष्कल्पसेकादिना परिकर्मितत्वात् विशदानि सर्वथा तुपादिमलापग-8 प्रतिपचौ मात् सकलानि-परिपूर्णानि सित्थूनि यत्र स सबाप्पमृदुविशदसकलसित्थुः, अनेकानि यानि शालनकानि-पुष्पफलप्रभृतीनि तै: उत्तरकुरुसंयुक्त:-समुपेतोऽनेकशालनकसंयुक्तः, तथा चामोदक इति सम्बन्धः, किंविशिष्टः? इत्याह-परिपूर्णानि-समस्तानि द्रव्याणि-एला- वर्णनं प्रभृतीनि उपस्कृतानि-नियुक्तानि यत्र स परिपूर्णद्रव्योपस्कृतः, निष्ठान्तस्य परनिपातः सुखादिदर्शनात् , सुसंस्कृतो-यथोक्तमात्रानि- उद्देश:२ परितापादिना परमसंस्कारमुपनीतः, वर्णगन्धरसस्पर्शयुक्तबलवीर्यपरिणाम इति वर्णगन्धरसस्पर्शः सामर्थ्यादतिशायिभिर्युक्ताः-सहिता सू०१४७ बलवीर्यहेतवः परिणामा यस्य स तथा, अतिशायिभिर्वर्णादिभिर्बलवीर्यहेतुपरिणामेश्योपपेता इति भावः, तत्र वलं-शारीरं वीर्य-आन्तरोत्साहः, "इंदियवलपुढिवद्धणे' इति, इन्द्रियाणां-चक्षुरादीनां वलं-वस्खविपयग्रहणपाटवमिन्द्रियबलं तस्य पुष्टि:-अतिशायी पोप इन्द्रियबलपुष्टिस्तां वर्द्धयति, नन्यादित्वादनः, इन्द्रियबलपुष्टिवर्द्धनः, तथा क्षुध पिपासा च क्षुत्पिपासे तयोर्मथनः क्षुत्पिपासामथनः, तथा प्रधान:-कथितो यो गुडो यद्वा कथितं-प्रधानं खण्डं यदिवा कथिता प्रधाना मत्स्यण्डी-खण्डशर्करा यच्च प्रधानं घृतं तानि* उपनीतानि-योजितानि यस्मिन् स प्रधानकथितगुडखण्डमत्स्यण्डीघृतोपनीतः, निष्ठान्तस्य परनिपातोऽत्रापि सुखादिदर्शनात्, स इव मोदकः सक्ष्णसमितिगर्भ:-अतिश्लक्ष्णकणिकामूलदलः प्रज्ञप्तः, तथैव चित्ररसा अपि दुमगणा अनेकबहुविविधविनसापरिणतेन भोजनविधिनोपपेताः, कुशविकुशविशुद्धवृक्षमूला मूलवन्तो यावत्प्रतिरूपाः ७॥'उत्तरकुराए णं कुराए' इत्यादि, उत्तरकुरुपु कुरुपु ॐ तत्र तत्र देशे तस्य तस्य देशस्य तत्र तत्र प्रदेशे बहवो मण्यङ्गका नाम हमगणाः प्रज्ञप्ता हे श्रमण! हे आयुष्मन् !, यथा ते हारोऽहारो ॥२६८॥ वेष्टनं मुकुटः कुण्डलं वामोत्तको हेमजालं मणिजालं कनकजालं सूत्रकमुखीकटकं खुडकाम(का प.)कावलिः कण्ठसूत्रं मकरिका उरस्क Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥धवेयकं श्रोणीसत्रक चुडामणिः कनकतिलकं फुल्लक सिद्धार्थकं कर्णपाली शशी सूर्यो वृषभश्चक्रकं तलभगकं तुडितं हस्तमालकं ह-11 पकं केयूरं वलयं प्रालम्बमङ्गुलीयकं वलक्षं दीनारमालिका काञ्ची मेखला कलापः प्रतरं प्रातिहार्यकं पादोज्वलं घण्टिका किहिणी रत्नोरुजालं वरनूपुरं चरणमालिका कनकनिगरमालिकेति भूषणविधयो बहुप्रकाराः, एते च लोकत: प्रत्येतव्याः, कथम्भूताः१ इत्याहकाश्चनमणिरत्नभक्तिचित्राः, तथैव ते मण्यङ्गका अपि द्रुमगणा अनेकबहुविविधविश्रसापरिणतेन भूषणविधिनोपपेताः, कुशविकुशविशुद्धवृक्षमूला यावत्प्रतिरूपा इति ८॥'उत्तरकुराए णं कुराए' इत्यादि, उत्तरकुरु कुरुषु तत्र तत्र देशे तस्य तस्य देशस्य तत्र तत्र प्रदेशे बहवो गेहाकारा नाम द्रुमगणाः प्रज्ञप्ता हे श्रमण हे आयुष्मन् ! यथा ते प्राकाराट्टालकचरिकाद्वारगोपुरप्रासादाकाशतलमण्डपैकशालकद्विशालकत्रिशालकचतुःशालकगर्भगृहमोहनगृहवलभीगृहचित्रशालमालिकभक्तिगृहवृत्तव्यस्रचतुरस्रनन्द्यावर्त्तसंस्थितानि पाण्डुरतलहर्म्य मुण्डमालहये, अथवा धवलगृहाणि अर्द्धमागधविभ्रमाणि शैलसुस्थितानि अर्द्धशैलसुस्थितानि कूटाकाराद्यानि सुविधिकोष्टकानि, तथाऽनेकानि गृहाणि शरणानि लयनानि 'अप्पेगें' इति भवनविकल्पा अत्र बहुविकल्पाः, एतेषां च परस्परं विशेषो वास्तुविद्यातोऽवसातव्यः, कथम्भूता एते? इत्याह-विडंगे'त्यादि, विटङ्कः-कपोतपाली जालवृन्दावाक्षसमूहः नि!हो-गृहैकदेशविशेष: अपवरक:-प्रतीतः चन्द्रशालिका-शिरोगृहं, एवंरूपाभिर्विभक्तिभिः कलिताः, तथैव गृहाकारा अपि द्रुमगणा अनेकवहुविविधविश्रसापरिणतेन भवनविधिनेति सम्बन्धः, किंविशिष्टेन? इत्याह-सुहारुहणमहोत्ताराए' इति सुखेनारोहणं-ऊर्द्ध सुखेनोत्तार:-अधस्तादवतरणं यस्य दर्दरसोपानपतयादिभिः स सुखारोहसुखोत्तारस्तेन, तथा सुखेन निष्क्रमणं प्रवेशश्च यत्र स सुखनिष्क्रमणप्रवेशस्तेन, कथं सुखारोहसुखोत्तारः? इत्याह-दर्दरसोपानपङ्गिकलितेन, हेतौ तृतीया, ततोऽयमर्थः-यतो दर्दरसोपानपनिक Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R) लितस्ततः सुखारोहसुखोत्तारः, 'पतिरिकसुहविहाराए' प्रतिरिक्ते-एकान्ते सुखविहारः-अवस्थानशयनादिरूपो यत्र प्रतिरिक्तसुखवि- ३ प्रतिपत्ती हारस्तेनोपपता, सर्वत्र स्त्रीत्वनिर्देशः प्राकृतत्वात् , कुशविकुशविशुद्धवृक्षमूला मूलवन्त इत्यादि प्राग्वद् यावत्प्रतिरूपकाः ९॥ 'उत्तरकु- उत्तरकुरुराए णं कुराए' इत्यादि, उत्तरकुरुपु कुरुपु तत्र तत्र देशे तस्य तस्य देशस्य तत्र तत्र प्रदेशे बहवोऽनग्नका नाम द्रुमगणा: प्रज्ञप्ता हे वर्णनं श्रमण! हे आयुष्मन् ', 'जहा से इत्यादि, आजिनकं नाम-चर्ममयं वस्त्रं क्षौम-कर्पासिकं कम्बल:-प्रतीतः दुकूलं-वस्त्रजातिविशेषः । उद्देशः२ कौसेयं-त्रसरितन्तुनिष्पन्नं कालमृगपट्टः-कालमृगचर्म अंशुकचीनांशुकानि-दुकूलविशेषरूपाणि पट्टानि-प्रतीतानि आभरणचित्राणि- सू० १४७ * आभरणैश्चित्राणि-विचित्राणि आभरणचित्राणि 'सण्ह' इति श्लक्ष्णानि कल्याणकानि-परमवस्रलक्षणोपेतानि गम्भीराणि-निपुणशिल्पिनिष्पादिततयाऽलब्धस्वरूपमध्यानि 'नेहल'त्ति स्नेहलानि-स्निग्धानि 'गया(ज)लानि'उद्वेल्यमानानि परिधीयमानानि वा गर्जयन्ति, शेपं सम्प्रदायादवसातव्यं, तदन्तरेण सम्यक् पाठशुद्धेरपि कर्तुमशक्तत्वात् , वस्त्रविधयो बहुप्रकाराभवेयुर्वरपट्टनोद्गताः-प्रसिद्धतत्तत्पत्तनविनिर्गता 'विविधवर्णरागकलिता' विविधैर्वविविधै रागैः-मजिप्ठारागादिभिः कलिताः, तथैवाननका अपि द्रुमगणा अनेकबहुविविधविस्रसापरिणतेन वनविधिनोपपेताः, कुशविकुशविशुद्धवृक्षमूला मूलवन्त इत्यादि प्राग्वद् यावत्प्रतिरूपाः १०। 'उत्तरकुराए णं भंते! कुराए मणुयाण मित्यादि, उत्तरकुरुपु कुरुपु भदन्त ! 'मनुजानां' मनुष्याणां कीदृशः कीदृश आकारभावः, प्रत्यवतारस्वरूपसम्भव इति । 8 भावः, प्रज्ञप्तः ?, भगवानाह-गौतम 'ते णमिति पूर्ववत् मनुष्या 'अतीव' अतिशयेन सोम-दृष्टिसुभगं चारु रूपं येपां तेऽतीवसो मचारुरूपा: 'भोगुत्तमगयलक्खणा' इति उत्तमशब्दस्य विशेषणस्यापि परनिपातः प्राकृतत्वात् , उत्तमाश्च ते भोगाश्च उत्तमभोगा ॥२६९॥ स्तद्गतानि-तत्संसूचकानि लक्षणानि येप ते उत्तमभोगगतलक्षणाः, तथा भोगै. सश्रीका:-सशोभाका भोगसश्रीकाः, तथा सुजातानि PACKCAHOOM-04 Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यथोक्तप्रमाणोपपन्नत्वेन शोभनजन्मानि यानि सर्वाणि उर:शिरःप्रभृतीन्यगानि तैः सुन्दरमङ्ग-समयं वपुर्येषां ते सुजातसर्वाइसन्दरागाः, 'सुपइट्ठियकुम्मचारुचरणा' इति सुप्ठ-शोभनं यथा भवति एवं प्रतिष्ठिताः कूर्मवदुन्नतत्वेन चारवश्चरणा:-पादा येपां ते सुप्रतिष्ठितकूर्मचारुचरणाः, 'रत्तुप्पलपत्तमउयसुकुमालकोमलतला' इति रक्तं-लोहितमुत्पलपत्रवत् मृदु-मार्दवोपेतमकर्कशमिति भावः तचासुकुमारमपि संभवति यथा घृष्टमृष्टपाषाणप्रतिमा तत आह-सुकुमारं-शिरीपकुसुमवदकठिनं कोमलं-मनोज्ञं चरणतलं येपां ते रक्तोत्पलपत्रमृदुसुकुमारकोमलतलाः, तथा 'नगनगरमगरसागरचकंकहरंकलक्खणंकियचलणा' नग:-पर्वतः नगरमकरसागरचक्राणि-प्रतीतानि अङ्कधर:-चन्द्रमा अङ्कः-तस्यैव लाञ्छनं मृगः एवंरूपाणि यानि लक्षणानि तैरङ्कितौ चरणौ येपां ते नगनगरमकरसागरचक्राङ्कधराङ्कलक्षणाद्वितचरणाः, 'अणुपुव्वसुसाहयंगुलीया' इति पूर्वस्याः पूर्वस्या अनु लघव इति गम्यते अनुपूर्वाः, किमक्तं भवति-पर्वस्याः पूर्वस्या उत्तरोत्तरा नखं नखेन हीनाः "नहं नहेण हीणाओ" इति सामुद्रिकशास्त्रवचनात् सुसंहता:-सुश्लिष्टा अङ्गलयो येपां ते अनुपूर्वसुसंहनाङ्गलीकाः, 'उन्नयतणुतंबनिद्धनखा' उन्नता-ऊर्द्ध नतास्तनवस्ताम्राः 'स्निग्धाः' स्निग्धच्छाया नखाः पादगता इति सामर्थ्यलभ्यं तद्वर्णनाधिकाराद् येपां ते उन्नततनुताम्रस्निग्धनखाः, 'संठियसुसिलिट्ठगूढगुप्फा' सम्यकखरूपप्रमाणतया स्थितौ संस्थितौ सुश्लिष्टौ-मांसलौ गुल्फौ-गुलुको येपां ते संस्थितसुश्लिष्टगूढगुल्फाः, 'एणीकुरुविंदवत्तवट्टाणुपुव्वजंघा' इति एण्या इव-हरिण्या इव कुरुविन्दस्येव वर्त-सूत्रवलनकं तस्येव वृत्ते-वर्तुले आनुपूर्येण-क्रमेण ऊई रे स्थूरतरे इति गम्यं जङ्ग्रे येपां ते एणीकुरुविन्दवर्त्तवृत्तानुपूर्वजङ्घाः 'समुग्गनिमग्गगूढजाणू' समुद्कस्येव-समुद्गकपक्षिण इव निमग्ने-अन्तःप्रविष्टे गूढेमांसलवादनुद्धते जानुनी-अष्ठीवन्तौ येपां ते समुद्गनिमनगूढजानवः, "गयससणसुजायसन्निभोरू' गजो-हस्ती श्वसिति-प्राणित्यनेनेति। LASSANCSC-NCRENCH- C 2-562-% OLMCLR0 + Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वसन:-शुण्डादण्ड: गजस्य श्वसनो गजश्वसनस्तस्य सुजातस्य-सुनिष्पन्नस्य सन्निभी ऊरू येषां ते गजश्वसनसुजातसन्निभोरवः, सजा- ३ प्रतिपत्ती तशब्दस्य विशेषणस्यापि सतः परनिपात: प्राकृतत्वात् , 'वरवारणमत्ततुल्लविक्कमविलासियगई' अत्रापि मत्तशब्दस्य विशेष्यात्पर- उत्तरकुरुनिपात: प्राकृतत्वात् , मत्तो-मदोन्मत्तो यो वरः-प्रधानो भद्रजातीयो वारणो-हस्ती तस्य तुल्यः-सदृशो विक्रमः-पराक्रमो विलासिता 5 वर्णनं -विलासः संजातोऽस्या विलासिता तारकादिदर्शनादितप्रत्ययः विलासवती गतिः-गमनं येपां ते वरवारणमत्ततुल्यविक्रमविलासित- उद्देशः २ 2 गतयः, 'पमुइयवरतुरगसीहवरवट्टियकडी' प्रमुदितो-रोगशोकायुपद्रवाभावात्, कचित्पुनरेवं पाठः 'पमुइयवरतुरगसिंहअइरेगव-४ सू०१४७ ट्टियकडी' तत्र प्रमुदितयो-रोगशोकायुपद्रवरहितलेनातिपुष्टयोर्वरयोस्तुरगसिंहयो: कट्याः सकाशादतिशयेन वर्तिता-वृत्तिः (ता) कटिषेपां ते प्रमुदितवरतुरगसिंहातिरेकवर्तितकटयः, 'वरतुरयसुजायगुज्झदेसा' वरतुरगस्येव सुजात:-संगुप्तलेन सुनिष्पन्नो गुपदेशो येषां ते वरतुरगसुजातगुह्यदेशाः, पाठान्तरं 'पसत्थवरतुरगगुज्झदेसा' व्यक्तं, 'आइण्णहयव्य निरुवलेवा' आकीर्णो-गुणैाप्तः 5 स चासौ यश्व आकीर्णयस्तद्वन्निरुपलेपा-लेपरहितशरीरमलाः, यथा जात्याश्वो मूत्रपुरीषाद्यनुपलिप्तगात्रो भवति तथा तेऽपीति भावः, 'साहयसोणंदमुसलदप्पणनिगरियवरकणगछरुसरिसवरवइरवलियमज्झा' संहृतसौनन्दं नाम ऊर्कीकृतमुदूपलाकृति काष्ठं : P तञ्च मध्ये तनु उभयोः पार्श्वयोवृहत् , मुसलं-प्रतीतं, दर्पणशब्देनेहावयवे समुदायोपचारादर्पणगण्डो गृह्यते, तथा यन्निगरितं-सारी कृतं वरकनकं तस्य-तन्मयं त्सरु:-खगादिमुष्टिर्निगरितवरकनकत्सरुस्तैः सदृशः तेपामिवेत्यर्थः, तथा वरवनस्येव क्षामो वलितो-वलयः संजाता अस्य वलित:-वलित्रयोपेतो मध्यो-मध्यभागो येषां ते संहृतसोनन्दमुसलदर्पणनिगरितवरकनकत्सरुसदृशवरवप्रवलितमध्याः ॥२७०॥ 'झसविहगसुजायपीणकुच्छी' झपो-मत्स्य: पक्षी-प्रतीतस्तयोरिव सुजातौ-सुनिष्पन्नौ जन्मदोषरहिताविति भावः पीनौ-उपचितौ Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कभी येषां ते मत्स्यपक्षिसुजातपीनकुक्षयः, 'झपोदरा' झषस्येवोदरं येषां ते झषोदराः, 'सुइकरणा' इति शुचीनि-पवित्राणि निरुपले-13 पानीति भावः करणानि-चक्षुरादीनीन्द्रियाणि येषां ते शुचिकरणाः, कचिदेव 'पम्हवियडनाभा' इति पाठस्तत्र पद्मवद् विकटा-वि तीर्ण नाभिर्येषां ते पद्मविकटनाभाः, अत एव निर्देशादनाम्यपि समासान्तः, एवमुत्तरपदेऽपि, 'गंगावत्तयपयाहिणावत्ततरंगभंगहररविकिरणतरुणब्रोहियअ(आ)कोसायंतपउमगंभीरवियडनाभा' गगावर्त्तक इव दक्षिणावर्त्ता तरङ्गैरिव तरङ्गैस्तिमृभिर्वलिभिर्भरा तरद्धभकरा रविकिरणैः-सूर्यकरैस्तरुणं-नवं तत्प्रथमं तत्कालमित्यर्थः यद्वोधितं-उन्निद्रीकृतमत एव 'आकोसायंत' इत्याकोशायमानं विकपीभवदित्यर्थः पद्यं तद्वद गम्भीरा च विकटा च नाभिर्येषां ते गङ्गावर्त्तकप्रदक्षिणावर्त्ततरङ्गभङ्गररविकिरणतरुणवोधितांकोशायमानपद्मगम्भीरविकटनाभाः, 'उजुयसमसहियसुजायजच्चतणुकसिणनिद्धआइज्जलडहसुकुमालमिउरमणिजरोमराई' अरजुका-न वक्रा समान काप्युहन्तुरा सहिता-सन्तता न त्वपान्तरालव्यवच्छिन्ना सुजाता-मजन्मा न तु कालादिवैगुण्याहुर्जन्मा अत एव जात्याप्रधाना तन्वी न तु स्थूरा कृष्णा न तु मर्कटवर्णा, कृष्णमपि किञ्चिन्निर्दीप्तिकं भवति तत आह-स्निग्धा आदेया-दर्शनपथमुपगता सती उपादेया सुभगा इति भावः, एतदेव विशेषणद्वारेण समर्थयते-'लडहा' सलवणिमा अत एव आया, तथा सुकुमारा-अकठिना, तत्राकठिनमपि किश्चित्कर्कशस्पर्श भवति तत आह-मृद्वी अत एव रमणीया-रम्या रोमराजि:-तनूरुहपतिर्येषां ते ऋजुकरामसहितसुजातजात्यतनुकृष्णस्निग्धादेयलटहसुकुमारमृदुरमणीयरोमराजयः, 'सन्नयपासा' सम्यग-अधोऽध:क्रमेण नतो पावौं येषां ते सन्नतपाः अधोऽधःक्रमावनतपार्था इत्यर्थः, तथा 'संगयपासा' इति संगतौ-देहप्रमाणोचितौ पाश्वौं येषां ते सङ्गतपार्था अत एव सुन्दरपार्थाः 'सुजायपासा' इति सुनिष्पन्नपार्शः 'मियमाइयपीणरइयपासा' मितं-परिमितं यथा भवति देहानुसारेणेत्यर्थः आयतौ-दीघों पीनौ Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | - - KAMASALAGHUSAMACHAR उपचितौ मांसलाविति भावः रचिती-स्वस्वनामकर्मोदयनिर्वतितो रतिदी वा-रम्यौ पाश्वौं येषां ते तथा, 'अकरंडयकणगरुयगनिम्म- ४ ३ प्रतिपत्तौ लसुजायनिरुवहयदेहधारी' अविद्यमानं-मांसलतयाऽनुपलक्ष्यमाणं करण्डकं-पृष्ठवंशास्थिकं यस्य देहस्य सोऽकरण्डकस्तं कनकस्येव * देवकुर्व5 रुचको-रुचिर्यस्य स कनकरुचिस्तं निर्मलं-वाभावाविकागन्तुकमलरहितं सुजातं-वीजाधानादारभ्य जन्मदोषरहितं निरुपहतं-ज्व- धिकारः रादिदंशाद्युपद्रवरहितं देहं धारयन्तीयेवंशीला अकरण्डककनकरुचकनिर्मलसुजातनिरुपह्तदेहधारिणः 'कणगसिलायलुज्जलपसत्थ- उद्देशः२ । समतलोवचियविच्छिन्नपिहुलवच्छा' कनकशिलातलवदुज्वलं च-निर्मलं प्रशस्तं च-अतिप्रशस्यं समतलं-न विषमोन्नतं उपचितं-* सू०१४७ 5 मांसलं विस्तीर्णम्-ऊ धोडपेक्षया पृथुलं दक्षिणोत्तरतो वो येषां ते कनकशिलातलोज्जवलप्रशस्तसमतलोपचितविस्तीर्णपृथुलवक्षसः 'सिरिवच्छंकियवच्छा' इति श्रीवृक्षणाङ्कितं-लाञ्छितं वक्षो येषां ते श्रीवृक्षलाञ्छितवक्षस: 'जुगसन्निभपीणरइयपीवरपउद्वसंठियसुसिलिट्ठविसिघणथिरसुबद्धसंधी पुरवरफलिहवट्टियभुया' युगसन्निभौ-वृत्ततया आयततया च यूपतुल्यौ पीनौ-उपचितौ रतिदी-पश्यतां दृष्टिसुखदी पीवरप्रकोष्ठौ-अकृशकलाचिकौ संस्थिती-विशिष्टसंस्थानी सुश्लिष्टा:-संगता: विशिष्टा:-प्रधानाः घना-1 निबिडाः स्थिरा-नातिश्लथाः सुबद्धाः-सायुभिः सुप्त नद्धाः सन्धयः-सन्धानानि ययोस्ती तथा पुरवरपरिघवत्-महानगरागेलावद्x * वर्तितो च वाहू येषां ते युगसन्निभपीनरतिदपीवरप्रकोष्ठसंस्थितसुश्लिष्टविशिष्टयनस्थिरसुवद्धसन्धिपुरवरपरिघवर्तितभुजाः, पाठान्तर 'जुगसग्निभपीणरइयपउदृसंठियोवचियघणथिरसुबद्धसनिगूढपव्वसंधी युगसन्निभी चलखेन पीनी रतिदो प्रकोष्ठी येषां ते तथा, तथा संस्थिता:-सम्यस्थिता उपचिता-मांसला घना-निविडाः स्थिरा-अचाल्याः, कुतः१ इत्याह-सुबद्धा-दृढबन्धनबद्धा निगूढा ॥२७१॥ मांसलवादनुपलक्ष्न्याः पर्वसन्धयो हस्तादिगता येषां ते तथा, ततः पूर्वपदेन विशेपणसमासः, 'भुयगीसरविपुलभोगआयाणफलि. Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उच्छूढदीहबाहू. भुजगेश्वरो - नागराजस्तस्य यो विपुलो महान् भोगो-देहो भुजगेश्वरविपुलभोगः तथा आदीयते - द्वारस्थगनार्थ गृहपत इत्यादानः स चासौ परिघा आदानपरिघः 'उच्छूढ'त्ति अवक्षिप्त:- अर्गलास्थानान्निष्कासितो द्वारपृष्ठभागे दत्त इत्यर्थः, ततः पूर्वपदेन विशेषणसमासः, विशेषणस्य परनिपातः प्राकृतत्वात् भुजगेश्वरविपुलभोगश्च आदानपरिघावक्षिप्तश्च ताविव दीर्घौ बाहू येषां ते तथा, 'रत्ततलोवतियमांसलसुजाय अच्छिदजालपाणी' रक्ततलौ-लोहिततलौ अवपतितौ- क्रमेण हीयमानोपचयौ मृदुको 1- कोमलौ मांसलौ सुजातौ - जन्मदोषरहितौ अच्छिद्रजालौ - अङ्गुल्यन्तरालसमूहरहितौ पाणी- हस्तौ येषां ते तथा, पाठान्तरं 'रत्ततंलोवइयमंसलसुजायपसत्थलक्खणअच्छिद्दजालपाणी' तत्र प्रशस्तलक्षणौ - शुभचिह्नाविति व्याख्येयं, शेषं तथैव, 'पीवरको मलवरंगु लीया' इति पीवराः - खशरीरानुक्रमोपचयाः कोमला - मृदवो वराः - प्रशस्तलक्षणोपेता अङ्गुलयो येषां ते पीवरकोमलवराङ्गुलिका:, पाठान्तरं 'पीवरवट्टियसुजायकोमलवरंगुलीया' व्यक्तम्, 'आयंबतलिणसुइरुइलनिद्धनखा' आताम्रा - ईषद्रक्ताः तलिना:- प्रतला: | शुचय:- पवित्रा रुचिरा - दीप्ताः स्निग्धा - अरूक्षा नखाः - कररुहा येषां ते तथा आताम्रतलिनशुचिरुचिरस्निग्धनखाः, 'चंदपाणिलेखा' चन्द्र इव चन्द्राकारा पाणौ रेखा येषां ते चन्द्रपाणिरेखा:, एवं सूर्यपाणिरेखाः शङ्खपाणिरेखाश्चक्रपाणिरेखा दिक्सौवस्तिको - दिक्प्रोक्षको दक्षिणावर्त्तः स्वस्तिक इत्यन्ये स पाणौ रेखा येषां ते दिक्सौवस्तिकपाणिरेखाः, एतदेवानन्तरोक्तं विशेषणपञ्चकं तत्प्रशस्तताप्रकर्षप्रतिपादनाय समहवचनेनाह - चन्द्रसूर्यशङ्खचक्रदिक्सौवस्तिकरेखाः, एतदनन्तरं कचिदेवं पाठः -- ' रविससिसंखवरचकसोत्थियविभिन्नसुविरइयपाणिरेहा' व्यक्तो नवरं विभक्ता-विभागवत्यः सुविरचिताः-सुष्ठु कृताः स्वकीयकर्म्मणा 'अणेगवरलक्खणुत्तमपसत्थसुइरइयपाणिलेहा' अनेकै:- अनेकसङ्ख्यैर्वरैः - प्रधानैर्लक्षणैरुत्तमाः प्रशस्ताः - प्रशंसास्पदीभूताः शुचयः - पवित्रा रचिताः - स्वकर्मणा निष्पा Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SECRUARMADARS दताः पाणिरेखा येषां ते अनेकवरलक्षणोत्तमप्रशस्तशुचिरचितपाणिरेखाः, 'वरमहिसवराहसिंहसद्लउसभनागवरपडिपुण्णवि- ३प्रतिपत्ती उलखंधा' वरमहिपः-प्रधानसौरभेयः वराहः-शूकरः सिंहः केशरी शार्दूलो-व्याघ्रः ऋपभो-पभः नागवर:-प्रधानो गजः, गपा- देवकुर्व मिव प्रतिपूर्णः-खप्रमाणेनाहीनो विपुलो-विस्तीर्णः स्कन्धः-अंशदेशो येषां ते वरमहिपवराहसिंहशार्दूलवृपभनागवरप्रतिपूर्णविपुल धिकारः स्कन्धाः 'चउरंगुलसुप्पमाणकंवुवरसरिसगीवा' चतुरहुलं-खाहुलापेक्षया चतुरहुलप्रमितं सुप्ठ-शोभनं प्रमाणं यस्याः सा चतर- उद्देशः २ अलसप्रमाणा कम्बुवरसदृशी-उन्नततया वलियोगेन च प्रधानशद्रमन्निभा प्रीवा येपां ते चतुरडग्लसप्रमाणकम्बयरसशीवाः सू०१४७ 'मंसलसंठियसहलविपलहणया' मांसलं-उपचितमासं सम्यक स्थित संस्थितं विशिष्ट स्थानमित्यर्थः प्रशस्तं प्रशस्थलमणोपेतलातर शार्दूलस्येव-व्यावस्येव विपुलं-विस्तीर्ण हनुकं येपां ते तथा, 'अवडियसुविभत्तमंसू' अवस्थितानि-अवद्धिष्णुनि सुविभक्तानिविविक्तानि चित्राणि-अतिरम्यतयाऽभूतानि इमभूणि-फूर्चकेशा येषां तेऽवस्थितसुविभक्तचित्रश्मश्रवः 'ओयवियसिलपवालविंवफलसन्निभाधरोहा' ओयवियं-परिकर्मितं यत् शिलारूपं प्रवालं विद्रुममित्यर्थः विम्यफलं-गोल्हाफलं तयोः सन्निभो रक्ततया उन्नतमध्यतयाऽधरओष्ठः-अधस्तनो दन्तच्छदो येपां ते तथा, 'पंडुरससिसगलविमलनिम्मलसंखगोखीरफेणकुंददगरयमुणालियाधवलदंतसेढी' पाण्डुरं-अकलई यत् शशिशकलं-चन्द्रखण्डं विमल-आगन्तुकमलरहितो निर्मल:-स्वभावोत्यमलरहितो यः शब्दः गोक्षीरफेनः प्रतीत: कुन्द-कुन्दकुसुमं दुकरज-उदककणाः मृणालिका-विशं, एतद्वद्धवला दन्तश्रेणियेंपो ते पाण्डुरशशिशकलविमलनिर्मलगोक्षीरफेनकुन्ददकरजोमृणालिकाधवलदन्तश्रेणय: 'अखंडदंता' इति अखण्डा:-सकला दन्ता येषां ते अखण्डदन्ताः 'अ- ॥२७२।। प्फुडियदंता' अस्फुटिता-अजर्जरा राजिरहिता दन्ता येषां ते अस्फुटितदन्ताः, तथा सुजाता-जन्मदोपरहिता दन्ता येषां ते सुजा COCCA-NCCCCCCHOCA५ Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदन्ताः, तथाऽविरला - घना दन्ता येषां ते अविरलदन्ताः, 'एगदंत सेढीविव अणेगदंता' एकाकारा दन्तश्रेणिर्येषां ते तथा ते इव परस्परानुपलक्ष्यमाणदन्तविभागत्वाद् अनेके दन्ता येषां ते अनेकदन्ताः, एवं नामाविरलदन्ता यथाऽनेकदन्ता अपि सन्त एकाकार - दन्तपङ्कय इव लक्ष्यन्त इति भावः, 'हुयवहनिद्धंतधोयतत्ततव णिज्जरत्ततलतालुजीहा' हुतवहेन - अग्निना निर्ध्यातं सद् यद् धौतं - शोधितमलं तप्तं तपनीयं - सुवर्णविशेषस्तद्वद् रक्ते तले - हस्ततले तालु- काकुदं जिह्वा च - रसना येषां ते हुतवहनिर्मातघौततप्ततपनीयर कतलतालुजिह्वा: 'गरुलाययउज्जुतुंगनासा' गरुडस्येवायता - दीर्घा ऋज्वी - अवक्रा तुङ्गा-उन्नता नासा - नासिका येषां ते गरुडायतऋजुतुङ्गनासाः 'कोकासियधवलपत्तलच्छा' कोकासिते- पद्मवद्विकसिते धवले कचिदेशे पत्रले - पक्ष्मवती अक्षिणी - लोचने येषां ते कोकासितधवलपत्राक्षाः, एतदेव स्पष्टयति-- ' विष्फा लिय पुंडरीयनयणा' विस्फारितं - रविकिरणैर्विकासितं यत्पुण्डरीकं - सितपद्मं तद्वन्नयने येषां ते विस्फारितपुण्डरीकनयनाः, क्वचित् 'अवदालिय पुंडरीयनयणा' इति पाठस्तत्रापि अवदालितं-रविकिरणैर्विकासितमिति व्याख्येयं, 'आणामियचावरुइलतणुकसिणनिद्धभुया' आनामितं - ईपन्नामितमारोपितमिति भावः यच्चापं - धनुस्तद्वद् रुचिरे - संस्थानविशेषभावतो रमणीये तनू-तनुके लक्ष्णपरिमितवालपङ्कयात्मकत्वात् कृष्णे - परमकालिमोपेते स्निग्धे - स्निग्धच्छाये भ्रुवौ येषां ते आनामितचापरुचिरतनुकृष्णस्निग्धभ्रूकाः, कचित्पाठः -- ' आणामियचारुरुचिलकिण्हन्भराईसंठियसंगयआययसुजायभुमया' तत्र आनामितचापवद् रुचिरे कृष्णाभ्रराजीव संस्थिते संगते - यथोक्तप्रमाणोपपत्रे आयते - दीर्घे सुजाते - सुनिष्पन्ने जन्मदोषरहितत्वाद् भ्रुवौ येषां ते तथा, कचित्पुनरेवं पाठः - - ' आणामियचावरुइल किण्हन्भराइतणुकसिणनिद्धभुमया' तत्रानामितचापवद् रुचिरे - मनोज्ञे कृष्णाभ्रराजीव- कालमेघरेखेव तनू - तनुके कृष्णे-काले स्निग्धे सच्छाये भ्रुवौ येषां ते तथा, 'आलीणपमा Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MONTONIA णजुत्तसवणा' आलीनौ न तु टप्परौ प्रमाणयुक्ती-प्रमाणोपेतौ श्रवणौ-कर्णी येपां ते आलीनप्रमाणयुक्तश्रवणाः, अत एव 'सुस ३ प्रतिपत्ती वणा' शोभनश्रवणाः 'पीणमंसलकवोलदेसभागा' पीनी-अकृशौ यतो मांसलौ-उपचितौ कपोलदेगौ-ण्डभागौ मुखस्य देशभागौ देवकुवेयेषां ते पीनमांसलकपोलदेशभागाः, अथवा कपोलयोर्देशभागाः कपोलदेशभागाः कपोलावयवा इत्यर्थः पीना-मांसला: कपोलदेशभागा येषां ते पीनमांसलकपोलदेशभागा: 'निधणसमलट्ठमढचंदद्धसमनिडाला' निर्बणं-विस्फोटकादिक्षतरहितं समं-अविपमं अत एव उद्देशः २ लष्टं-मनोज्ञं मृष्टं-मसृणं चन्द्रार्द्धसम-शशधरसमप्रविभागसदृशं ललाट-अलफं येषां ते निर्बणसमलष्टचन्द्रार्द्धसमललाटाः, सूत्रे 'निडा- सू० १४७ लेति प्राकृतलक्षणवशात् , 'उडुवइपडिपुण्णसोमवयणा' प्राकृतत्वात्पदव्यत्ययः, प्रतिपूर्णोडुपतिरिव-सम्पूर्णचन्द्र इव सोमं-सश्रीकं वदनं येषां ते प्रतिपूर्णोडुपतिसोमवेदनाः, 'घणनिचियसुबद्धलक्खणुन्नयकूडागारनिहपिडियसिरा' घनं-अतिशयेन निचितं घननिचितं सुष्ठ-अतिशयेन वद्धानि-अवस्थितानि लक्षणानि यत्र तत् सुबद्धलक्षणं, उन्नतं-मध्यभागे उच्चं यत्कूटं तस्याकारो-मूर्तिस्तन्निभमुन्नतकूटाकारसदृशमिति भावः पिण्डितं-खकर्मणा संयोजितं शिरो येषां ते घननिचितसुबद्धलक्षणोन्नतकूटाकारनिभपिण्डितशिरसः 'छत्ताकारुत्तमंगदेसा' छत्राकार उत्तमागरूपो देशो येषां ते छत्राकारोत्तमानदेशाः 'दाडिमपुप्फप्पगासतवणिजसरिसनिम्मलसुजायकेसंतकेसभूमी' दाडिमपुष्पप्रकाशा-दाडिमपुष्पप्रतिमास्तपनीयसदृशाश्च निर्मला-आगन्तुकस्वाभाविकमलरहिताः केशान्ताः केशभूमिश्च-% केशोत्पत्तिस्थानभूता मस्तकत्वग येषां ते दाडिमपुष्पप्रकाशतपनीयसदृशनिर्मलसुजातकेशान्तकेशभूमय: 'सामलिबोंडघणछोडियमि उविसयपसत्थसुहुमलक्खणसुगंधसुन्दरभुयमोयगभिंगनीलकज्जलपहहभमरगणनिकुरंबनिचियकुंचियपयाहिणावत्तमुद्धसि- 5 ॥२७३। ६ रया' शाल्मली-वृक्षविशेषः स च प्रतीत एव तस्य बोण्डं-फलं तवच्छोटिता अपि घनं-अतिशयेन निचिताः शाल्मलीबोण्डघननि Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चितच्छोटिताः, नेहकेशपाशं न कुर्वन्ति परिज्ञानाभावात् , केवलं छोटिता अपि तथास्वभावतया शाल्मलीबोण्डाकारवद् घननिचिता अवतिष्ठन्ते तत एतद्विशेषणोपादानं, तथा मृदवः-अकर्कशा विशदा-निर्मलाः प्रशस्ताः-प्रशंसास्पदीभूताः सूक्ष्मा:-श्लक्ष्णाः लक्षणा-लक्षणवन्तः सुगन्धाः-परमगन्धकलिता अत एव सुन्दराः, तथा भुजमोचको-रत्नविशेषः भृङ्गः-प्रतीतः नीलो-मरकतमणिः कजलं-प्रतीतं प्रहृष्ट:-प्रमुदितो भ्रमरगणः प्रहृष्टभ्रमरगणः, प्रहृष्टो हि भ्रमरगणस्तारुण्यावस्थायां भवति तदानीं चातिकृष्ण इति प्रहटग्रहणं, तद्वस्निग्धा भुजमोचकभृङ्गनीलकज्जलप्रहृष्टभ्रमरगणस्निग्धाः, तथा निकुरम्बा-निकाम्बीभूताः सन्तो निचिता न तु विस्तृताः सन्तः परस्परसंहता निकुरम्बनिचिता ईषत्कुटिलाः प्रदक्षिणावर्त्ताश्च मूर्द्धनि शिरोजा-वाला येषां ते शाल्मलीबोण्डघननिचितच्छोटितमृदुविशदप्रशस्तसूक्ष्मलक्षणसुगन्धसुन्दरभुजमोचकभृङ्गनीलकज्जलप्रहृष्टभ्रमरगणस्निग्धनिकुरम्बनिचितप्रदक्षिणावर्त्तमूर्द्धशिरोजाः, 'लक्खणवंजणगुणोववेया' लक्षणानि-स्वस्तिकादीनि व्यजनानि-मपतिलकादीनि गुणा:-क्षान्यादयस्तैरुपपेता-युक्ता लक्षणव्यजनगुणोपपेताः 'सुजायसुविभत्तसुरूवगा' सुजातं-सुनिष्पन्नं जन्मदोषरहितत्वात् सुविभक्तं-अङ्गप्रत्यगोपाङ्गानां यथोक्तवैविक्क्यभावात् सुरूपं-शोभनं रूपं समुदायगतं येषां ते सुजातसुविभक्तसुरूपकाः 'पासाईया' इत्यादि पदचतुष्टयं प्राग्वत् ॥ 'उत्तरकुराए णं भंते! कुराए' इत्यादि, उत्तरकुरुषु भदन्त ! कुरुषु मनुजीनां कीदृश आकारभावप्रत्यवतारः स्वरूपसम्भव इति भावः प्रज्ञप्तः ?, भगवानाह-गौतम! ता मनुष्यः सुजातसर्वाङ्गसुन्दर्यः-सुजातानि-यथोक्तप्रमाणोपेततया शोभनजन्मानि यानि सर्वाण्यगानि-उदरप्रभृतीनि तैः सुन्दर्यः-सुन्दराकाराः सुजातसर्वाङ्गसुन्दर्यः 'पहाणमहेलागुणजुत्ताओ' प्रधाना-अतिशायिनो ये महेलागुणा:-प्रियंवदत्वभवृचित्तानुवर्तकत्वप्रभृतयस्तैर्युक्ता-उपपेताः प्रधानमहेलागुणयुक्ताः 'कंतविसयमिउसुकुमालकुम्मसंठिवियसि Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठचलणा' कान्ती-कमनीयौ विशदी-निर्मली मृदू-अकठिनी सुकुमारी-कर्कशौ कूर्मसंस्थिती-कूर्मवदुन्नती विशिष्टी-विशिष्टलक्ष५ णोपेती चरणी यास ताः कान्तविशदमृदुसुकुमारकूर्मवदुन्नतसंस्थितविशिष्टचरणा: 'उज्जुमउयपीवरपुडसायंगुलीओ' ऋजव:-6 देवकर्व अवक्रा मृदवः-अकठिनाः पीवरा-अकृशाः पुष्टा-मांसलाः संहता:-सुश्लिष्टा अङ्गुलयो यासां ता ऋजुमृदुकपीवरपुष्टसंहताहुलयः धिकारः 'उन्नयरतियतलिनतंवसुइनिद्धनखा' उन्नता-ऊर्द्धनता रतिदा-रमणीयातलिना:-प्रतलास्ताम्रा-ईपद्रताः शुचय:-पवित्राः स्निग्धा: उद्देश:२ स्निग्धच्छाया नखा यासां ता उन्नतरतिदतलिनताम्रशुचिस्निग्धनसाः 'रोमरहियवट्टलहसंठियअजहन्नपसत्थलक्खणजंघाजुयला' ४ सू०१४७ रोमरहितं वृत्तं-वर्तुलं लप्टसंस्थितं-मनोज्ञसंस्थानं क्रमेणोर्ट्स स्थूरस्थूरतरमिति भावः, अजघन्यप्रशस्तलक्षणं-जघन्यपदरहितशेषप्रशस्तलक्षणालितं जतायुगलं यासां ता रोमरहितवृत्तलष्टसंस्थिताजघन्यप्रशस्तलक्षणजवायुगलाः 'सुनिम्मियगूढजाणुमंडलसुवद्धा' सुष्ठअतिशयेन निर्मितः सुनिर्मितः एवं सुगूढ़-मांसलतयाऽनुपलक्ष्यमाणं जानुमण्डलं सुयद्धं-सायुभिरतीव यवं यासां ताः सुनिर्मितसुगू-, ढजानुमण्डलसुबद्धाः, सुबद्धशब्दस्य निष्ठान्तस्य परनिपातः सुग्वादिदर्शनात् प्राकृतलावा, 'कयलीखंभातिरेगसंठियनिव्वणसुकुमालमउयकोमलअइविमलसमसंहतसुजायवट्टपीवरनिरंतरोरू' कदलीस्तम्भाभ्यामतिरेकेण-अतिशायितया संस्थितं-संस्थानं य. योस्तो कदलीस्तम्भातिरेकसंस्थिती निर्भणी-विस्फोटकादिकृतश्तरहिती सुकुमारी-अकर्कशौ मृदू-अकठिनी कोमली-दृष्टिसुभगी अतिविमलौ-सर्वथा स्वाभाविकागन्तुकमललेशेनायकलङ्कितो समसंहती-समप्रमाणो सन्तौ संहतो समसंहती सुजाती-जन्मदोषरहितौ वृत्ती-वर्तुलौ पीवरी-मांसलो निरन्तरी-उपचितावयवतयाऽपान्तरालवर्जिती ऊरू यासां ताः कदलीस्तम्भातिरेकसंस्थितनिर्वणसु 5 ॥२७४॥ कुमारमृदुकोमलातिविमलसमसंहतसुजातवृत्तपीवरनिरन्तरोरवः 'पट्टसंठियपसत्थविच्छिपणपिहलसोणीओ' पट्टवत्-शिलापट्टकादि 464 Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वत् संस्थिता पट्टसंस्थिता प्रशस्ता प्रशस्तलक्षणोपेतत्वाद् विस्तीर्णा ऊर्ध्वाधः पृथुला दक्षिणोत्तरतः श्रोणि:-कटेरप्रभागो यासां ता: पट्टसंस्थितविस्तीर्णपृथुलश्रोणयः 'वयणायामप्पमाणदुगुणियविसालमंसलसुबद्धजहणवरधारणीओ' वदनस्य-मुखस्यायामप्रमाणं-द्वादशाडलानि तस्माद् द्विगुणितं-द्विगुणप्रमाणं सद् विशालं वदनायामप्रमाणद्विगुणितविशालं मांसलमप्युपचितं सुबद्धं-अतीव सुबद्धावयवं न तु श्लथमिति भावः जघनवरं-वरजघनं, वरशब्दस्य विशेषणस्यापि सतः परनिपातः प्राकृतत्वात् , धारयन्तीत्येवंशीला वदनायामप्रमाणद्विगुणितविशालमांसलसुबद्धजघनवरधारिण्यः 'वजविराइयपसत्थलक्खणनिरोदरतिवलीविणीयतणुनमियमज्झियाओ' वास्येव विराजितं वत्रविराजितं प्रशस्तानि लक्षणानि यत्र तत् प्रशस्तलक्षणं निरुदरं-विकृतोदररहितं त्रिवलीविनीतं-तिस्रो वलयो विनीता-विशेषतः प्रापिता यत्र तत् त्रिवलीविनीतं तनु-कृशं नतं तनुनतमीषन्नतमित्यर्थः मध्यं यास ता वनविराजितप्रशस्तलक्षणनिरुदरत्रिवलीविनीततनुनतमध्यकाः ‘उज्जुयसमसंहियजच्चतणुकसिणनिद्धआएज्जलडहसुविभत्तसुजायसोभतरुइलरमणिज्जरोम-1 राई' ऋजुका-न वक्रा समान काप्युहन्तुरा संहिता-सन्तता न खपान्तरालव्यवच्छिन्ना जात्या-प्रधाना तन्वी न तु स्थूरा कृष्णा न मर्कटवर्णा स्निग्धा-स्निग्धच्छाया आदेया-दर्शनपथप्राप्ता सन्ती उपादेया सुभगेति भावः, एतदेव समर्थयति-लटहा-सलवणिमाऽत एव आदेया सुविभक्ता-सुविभागा सुजाता-जन्मदोषरहिता अत एव' शोभमाना रुचिरा-दीपा रमणीया-द्रष्टमनोरमणशीला रोमराजिर्यासां ता ऋजुकसमसहितजात्यतनुकृष्णस्निग्धादेयलंटहसुविभक्तसुजातशोभमानरुचिररमणीयरोमराजयः 'गंगावत्तपयाहिणावत्ततरंगभंगुररविकिरणतरुणबोहियआकोसायंतपउमगंभीरवियडनाभा' इति पूर्ववत् , 'अणुब्भडपसत्थपीणकुच्छीओ' अनुद्भटा-अनुल्बणा प्रशस्ता-प्रशस्तलक्षणा पीना कुक्षिासा ता अनुद्भटप्रशस्तपीनकुक्षयः 'सन्नयपासा संगतपासा सुंदरपासा सुजायपासा मिय Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + 45464646 माइयपीणरइयपासा अकरंडयकणगरुयगनिम्मळसुजायनिरुवयगायलट्ठीओं इति पूर्ववत्, 'कंचणकलससुप्पमाणसमसंहितसुजा- प्रतिपत्ती यलठ्ठचूचुयआमेलगजमलजुगलवट्टियअन्भुन्नयरइयसंठियपओहराओ' काचनकलशाविव काञ्चनकलशो सुप्रमाणी-वशरी देवकुर्वरानुसारिप्रमाणोपेतौ समो-नैको हीनो नैकोऽधिक इति भावः संहितौ-संतती अपान्तरालरहिताविति भावः सुजाती-जन्मदोपर-दूधिकारी हितौ लष्टौ-मनोज्ञौ चूचुक आमेलक:-आपीडकः शेखरो ययोस्तौ चूचुकापीडको 'जमलजुगले ति यमलयुगलं-समश्रेणीकयुगलरूपी उद्देशः२. वर्तिताविव वर्तितौ कठिनाविति भावः अभ्युम्नतौ-पत्युरभिमुखमुन्नती रतिदं-रतिकारि संस्थितं-संस्थानं ययोस्ती रतिदसंस्थिती पयो सू० १४७ धरौ यासां ताः काञ्चनकलशसुप्रमाणसमसंहितसुजातलप्टचूचुकापीडयमलयुगलवर्तिताभ्युनतरतिदसंस्थितपयोधराः 'अणुपुवतणुय-९ गोपुच्छवट्टसमसहितनमियआएजललियवाहाओ' आनुपूर्येण-क्रमेण तनुको आनुपूर्व्यतनुको अत एव गोपुच्छवद् वृत्ती-वर्तुलौ समौ-समप्रमाणौ संहितौ-स्वशरीरसंश्लिष्टौ नतो स्कन्धदेशस्य नतत्वात् आदेयौ-अतिसुभगतयोपादेयौ ललिती-मनोझचेष्टाकलितो बाहू यासां ता आनुपूर्व्यतनुगोपुच्छवृत्तसंहितनतादेयललितवाहवः 'तंबनहा' ताम्रा-ईपद्रका नखा:-कररुहा यासां तास्ताम्रनखाः 'मंसलग्गहत्था' मांसलो अग्रहस्तौ बाइपभागवत्तिनौ हस्ती यासां ता मांसलामहस्ताः 'पीवरकोमलवरंगुलीया' पीवरा-उपचिताः कोमला:-सुकुमारा वरा:-प्रमाणलक्षणोपेततया प्रधाना अहुलयो यास ताः पीवरकोमलवराङ्गलिका: "निद्धपाणिरेहा' खिग्धाः पाणी रेखा यासां ताः तथा, 'रविससिसंखचकसोत्थियविभत्तसुविरदयपाणिलेहा' इति पूर्ववत् 'पीणुनयकक्खवक्खवस्थिप्पएसा' पीना-उपचितावयवा उन्नता-अभ्युम्नता: कक्षावक्षोबस्तिरूपाः प्रदेशा यासां ताः पीनोन्नतकक्षावक्षोयस्तिप्रदेशाः 'पडिपुण्णगलक ॥२७५॥ वोला' प्रतिपूर्णी गलकपोलौ च, यासां तास्तथा 'चउरंगुलमुप्पमाणकंबुवरसरिसगीवा' पूर्ववत् 'मंसलसंठियपसत्थहणुया' मांसलम् 45445 484 Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RS - 25 भा-उपचितमांसं संस्थितं-विशिष्टसंस्थान प्रशस्तं-प्रशस्तलक्षणोपेतं हनुकं यासां ता मांसलसंस्थितप्रशस्तहनुकाः 'दाडिमपुप्फप्पगासपीवरप्पवराहरा' दाडिमपुष्पप्रकाशः पीवरः प्रवर-सुभगोऽधरो यासां ता दाडिमपुष्पप्रकाशपीवरप्रवराधरा: 'सुंदरोत्तरोटा' व्यक्तं 'दहिदगरयचंदकुंदवासंतियमउलधवलअच्छिह विमलदसणा' दधि-प्रतीतं दुकरज-उदककणाः चन्द्रः-प्रतीत: कुन्दः-कुसुमं वासन्तिकामुकुलं-वासन्तिकाकलिका तद्वद्धवला अच्छिद्रा:-छिद्ररहिता विमला-मलरहिता दशना-दन्ता यासां ता दधिदकरजश्चन्द्रकुन्दवासन्तिकामुकुलधवलाच्छिद्रविमलदशनाः 'रत्तुप्पलपत्तमउयसूमालतालुजीहा' रक्तोत्पलवद् रक्तं मृदु-अकठिनं सुकुमारअकर्कशं तालु जिह्वा च यासां ता रक्तोत्पलमृदुसुकुमारतालुजिह्वाः 'कणइरमुकुलअकुडियअब्भुग्गयउज्जुतुंगनासा' कणयराअतिस्निग्धतया श्लक्ष्णश्लक्ष्णस्वेदकणाकीर्णा मुकुला-नासापुटद्वयस्यापि यथोक्तप्रमाणतया संवृत्ताकारतया च मुकुलाकारा अभ्युद्गताअभ्युन्नता ऋजुका-सरला तुङ्गा-उच्चा नासा यासां तास्तथा, 'सारयनवकमलकुमुयकुवलयविमुक्कदलनिगरसरिसलक्खणंकियकंतनयणाओ' शारद-शरन्मासभावि यन्नवं-प्रत्ययं कमलं-पगं कुमुदं-कैरवं कुवलयं-नीलोत्पलं तैर्विमुक्तो यो दलनिकरस्तत्सदृशे, किमुक्तं भवति ?-एवं नामायतदीचे मनोहारिणी नयने यत् शारदानवात् कमलाद्वा कुमुदाद्वा कुवलयाद्वा उत्पद्य पत्रद्वयमिवावस्थितमा|भातीति, लक्षणाङ्किते-प्रशस्तलक्षणोपेते नयने यासां ताः शारदनवकमलकुमुदकुवलयविमुक्तदलनिकरसदृशलक्षणाकितनयनाः, एतदेव किञ्चिद्विशेषार्थमाह-पत्तलचपलायंततंबलोयणाओ' पत्रले-पक्ष्मवती चपलायमाने ताने-कचित्प्रदेशे ईषद्क्ते लोचने यासां ताः पत्रलचपलायमानताम्रलोचना: 'आणामियचावरुइलकिण्हन्भराइसंठियसंगयआगयसुजायभुमया अल्लीणपमायजुत्तसवणा' इति पूर्ववत्, 'पीणमहरमणिज्जगंडलेहा' पीना-उपचिता मृष्टा-मसृणा रमणीया-रम्या गण्डरेखा-कपोलपाली यासां ताः पीनमृष्टरमणीयगण्ड % Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखा: 'चउरंसपसत्थसमनिडाला' चतुरस्र-चतुष्कोणं प्रशस्त-प्रशस्तलक्षणोपेतं सम-ऊ धम्तया दक्षिणोत्तरतया च तुल्यप्रमाणं ३ प्रतिपत्तो * ललाटं यासां ताश्चतुरस्रप्रशस्तसमललाटाः 'कोमुईरयणिकरविमलपडिपुण्णसोमवयणा' कौमुदी-कार्तिकी पौर्णमासी तस्यां रज- देवकर्व निकर इव विमलं प्रतिपूर्ण सोमं च वदनं यासां ताः कौमुदीरजनिकरविमलप्रतिपूर्णसोमवदनाः, सोमशब्दस्य परनिपात: प्राकृतत्वात् , धिकारः 'छत्तुन्नयउत्तमंगाओ' छत्रवन्मध्ये उन्नतमुत्तमा यासां ताश्छत्रोन्नतोत्तमाङ्गाः 'कुडिलसुसिणिद्धदीहसिरयाओं' कुटिला: सु-6 उद्देशः२ * निग्धा दीर्घाः शिरोजा यासां ताः कुटिलसुस्निग्धदीर्घशिरोजाः, छत्रध्वजयूपस्तूपदामनीकमण्डलुकलशवापीसौवस्तिरुपताकायवमत्स्य-8 स०१४७ कूर्मरथवरमकरशुकस्यालाङ्कुशाष्टापदसुप्रतिष्ठकमयूरश्रीदामाभिपेकतोरणमेदिन्युदधिवरभवनगिरिवरादर्शललितगजपभसिहचामररूपाणि उत्तमानि-प्रधानानि प्रशस्तानि-सामुद्रिकशास्त्रेपु प्रशंसास्पदीभूतानि द्वात्रिंशतं लक्षणानि धारयन्तीति छत्रचामरयावदुत्तमप्रशस्तद्वात्रिंशल्लक्षणधराः 'हंससरिसगतीओ' हंसस्य सदृशी गतिर्यासां ता हंससदृशगतयः, कोकिलाया इव या मधुरा गीस्तया सुखराः कोकिलामधुरगी:सुस्वराः, तथा कान्ता:-कमनीयाः, तथा सर्वस्य-तत्प्रत्यासन्नवर्तिनो लोकस्यानुमता:-संमता न मनागपि द्वेष्या इति भावः, व्यपगतवलिपलिताः, तथा व्यङ्गदुर्वर्णव्याधिदौर्भाग्यशोकमुक्ताः, स्वप्नेऽपि तेपामसम्भवात् , स्वभावत एव शृंगार:-शृङ्गाररूपश्चारु:-प्रधानो वेपो यासां ताः स्वभावशृङ्गारचारुवेपाः, तथा 'संगयगयहसियभणियचेठियविलाससंलावणिउणजुत्तोवयारकुसला' सगतं-सुश्लिष्टं यद् गत-गमनं हंसीगमनवत् हसितं-हसन कपोलविकासि प्रेमसंदर्शि च भणितं-भगनं गम्भीर-मन्मथो दीपि च चेष्टितं-चेष्टनं सकाममङ्गप्रत्यगोपदर्शनादि विलासो-नेत्रविकारः संलाप:-पत्या सहासकामस्वहृदयप्रत्यर्पणक्षम परस्परसंV भाषणं निपुण:-परमनैपुण्योपेतो युक्तश्च यः शेप उपचारस्तत्र कुशलाः संगतगतहसितभणितचेष्टितविलाससंलापनिपुणयुक्तोपचार ॥ २७६॥ 2-562-6255 Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिताः, एवंविधविशेपणाश्च खपतिं प्रति द्रष्टव्या न परपुरुषं प्रति, तथा क्षेत्रवाभाव्यतः प्रतनुकामतया परपुरुपं प्रति तासामभिलापासम्भवात् , पूर्वोक्तमेवार्थ संपिण्ड्याह-वरस्तनजघनवदनकरचरणनयनलावण्यवर्णयौवनविलासकलिता नन्दनवनचारिण्य इवाप्सरसः, 'अच्छेरपेच्छणिज्जा' इति आश्चर्यप्रेक्षणीयाः 'पासाईयाओ' इत्यादि पदचतुष्टयं प्राग्वत् ॥ सम्प्रति स्त्रीपुंसविशेषमन्तरेण सामान्यतस्तत्रत्यमनुष्याणां स्वरूपं प्रतिपिपादयिपुरिदमाह-'ते णं मणुया ओहस्सरा' इत्यादि, ते उत्तरकुरुनिवासिनो मनुष्या ओघःप्रवाही स्वरो येषां ते ओघस्वराः, हंसस्येव मधुरः स्वरो येषां ते हंसखराः, क्रौञ्चस्येवाप्रयासविनिर्गतोऽपि दीर्घदेशव्यापी स्वरो येपां ते क्रौञ्चस्वराः, एवं सिंहस्वरा दुन्दुभिखरा नन्दिवराः, नन्द्या इव घोपः-अनुनादो येषां ते नन्दीघोपाः, मजु:-प्रियः स्वरो येपां ते मजुस्वराः, मजु|पो येपां ते मञ्जुघोपाः, एतदेव पदद्वयेन व्याचप्ठे-सुखराः सुखरनिर्घोषा: 'पउमुप्पलगंधसरिसनीसाससुर-18 भिवयणा' पद्म-कमलमुत्पलं-नीलोत्पलं अथवा पग-पद्मकाभिधानं गन्धद्रव्यं उत्पलम्-उत्पलकुष्ठं तयोर्गन्धेन-सौरभ्येण सदृशःसमो यो निःश्वासस्तेन सुरभिगन्धि वदनं-मुखं येषां ते पद्मोत्पलगन्धसदृशनिःश्वाससुरभिवदनाः, तथा छवी-छविमन्त उदात्तवर्णया सुकुमारया च त्वचा युक्ता इति भावः 'निरायंकउत्तमपसत्थअइसेसनिरुवमतणू' निरातङ्का-नीरोगा उत्तमा-उत्तमलक्षणोपेता अतिशेषा-कर्मभूमकमनुष्यापेक्षयाऽतिशायिनी अत एव निरुपमा-उपमारहिता तनु:-शरीरं येपां ते निरातकोत्तमप्रशस्तातिशेपनिरुपमतनवः, एतदेव सविशेषमाह-जल्लमलकलंकसेयरयदोसवज्जियसरीरनिरुवलेवा' याति च लगति चेति जल्ल:-पृपोदरादित्वान्निष्पत्तिः स्वल्पप्रयत्नापनेयः स चासौ मलश्च जल्लमलः स च कलङ्कं च-दुष्टतिलकादिकं चित्रादिकं वा स्वेदश्व-प्रखेदः रजश्वरेणुोपो-मालिन्यकारिणी चेष्टा तेन वर्जितं निरुपलेपं च-मूत्रविष्ठायुपलेपरहितं शरीरं येषां ते जल्लमलकलखेदरजोदोपवर्जित Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SCREENSOLESCES निरुपलेपशरीराः, सूत्रे च निरुपलेपशब्दस्य परनिपातः प्राकृतत्वात् , 'छायाउजोवियंगमंगा' छायया-शरीरप्रभया उयोतित- ३ प्रतिपत्ती मङ्गमङ्गम्-अङ्गप्रत्यग येषां ते तथा, 'अनुलोमवाउवेगा' अनुलोमः-अनुकूलो वायुवेगः-शरीरान्तर्वर्तिवातजवो येषां ते अनुलोम- देवकुर्ववायुवेगाः, वायुगुल्मरहितोदरमध्यप्रदेशा इति भावः, आह च मूलटीकाकार:-"उदरमध्यप्रदेशे वायुगुल्मो येषां तेपामनुलोमो 2 धिकारः वायुवेगो न भवति, तदभावाच्च तेपामनुलोमो भवति वायुवेगो मिथुनाना"मिति, काहणी' इति कङ्कः-पक्षिविशेपस्तस्येव प्रणिः-५ उद्दशः २ गुदाशयो नीरोगवर्चस्कतया येषां ते ककग्रहणयः, 'कवोयपरिणामा' कपोतस्येव-पक्षिविशेपस्य परिणाम-आहारपाको येषां ते क- सू० १४७ पोतपरिणामाः, कपोतस्य हि जाठराग्निः पापाणलवानपि जरयतीति श्रुतिः, एवं तेपामप्यत्यर्गलाहारग्रहणेऽपि न जातुचिदप्यजीर्णदोपा भवन्तीति, 'सरणिपोसपिठंतरोरुपरिणया' इति शकुंनेरिव-पक्षिण इव पुरीपोत्सर्गे निर्लेपतया 'पोसंति पोस:-अपानदेशः 'पुसउत्सर्गे' पुरीपमुत्सृजन्त्यनेनेति व्युत्पत्तेः, तथा लघुपरिणामतया पृष्ठं च प्रतीतं अन्तरे च-पृष्ठोदरयोरन्तराले पावित्यर्थः ऊरू चेति द्वन्द्वः ते परिणता येषां ते शकुनिपोसपृष्ठान्तरोरुपरिणताः, निष्ठान्तस्य परनिपातः सुखादिदर्शनात्, 'विग्गहियउन्नयकुच्छी' वि. प्रहिता-मुष्टिप्राया उन्नता च कुक्षियेपां ते विप्रहितोन्नतकुक्षयः, वसर्पभनाराचं संहननं येपां ते वर्षभनाराचसंहननाः, तथा समचतुरनं च तत् संस्थानं च समचतुरनसंस्थानं तेन संस्थिताः समचतुरस्रसंस्थानसंस्थिताः, पधनु:सहस्रोच्छ्रिता:-त्रिगव्यूतप्रमाणाच्छ्रयाः, तथा तेपामुत्तरकुरुवास्तव्यानां मनुष्याणां वे पृष्ठकरण्डकशते पटपञ्चाशे-पटपञ्चाशदधिके प्रज्ञप्ते तीर्थकरगणधरैः।। 'ते णं ॥२७७॥ मणुया' इत्यादि, ते उत्तरकुरुवास्तव्या मनुजाः प्रकृत्या-खभावेन भद्रका:-अपरानुपतापहेतुकायवाघनश्चेष्टाः, तथा प्रकृत्या-स्वभावेन न तु परोपदेशत: परेभ्यो भयतो वोपशान्ताः, तथा प्रकृत्या-स्वभावेन प्रतनव:-अतिमन्दीभूताः क्रोधमानमायालोभा येषां ते प्रकृ. 2 AKASGANGANAGGC Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिप्रतनुक्रोधमानमायालोभाः, अत एव मृदु-मनोज्ञं परिणामसुखावहमिति भावः यन्मार्दवं तेन संपन्ना मृदुमार्दवसंपन्ना न कपटमार्दवो|पेता: 'अल्लीणा' इति आ-समन्तात्सर्वासु क्रियासु लीना-गुप्ता आलीना नोल्वणचेष्टाकारिण इत्यर्थः, भद्रका:-सकलतत्क्षेत्रोचितकल्याणभागिनः विनीता-बृहत्पुरुषविनयकरणशीला: अल्पेच्छा-मणिकनकादिविषयप्रतिबन्धरहिता अत एवासन्निधिसश्चया-न विद्यते सन्निधिरूपः सञ्चयो येषां ते तथा, "विडिमंतरपरिवसणा' विडिमान्तरेषु-शाखान्तरेषु प्रासादाद्याकृतिषु परिवसनं-आकालमावासो येषां ते विडिमान्तरपरिवसनाः 'जहिच्छियकामकामिणो' यथेप्सितान् मनोवाञ्छितान् कामान्-शब्दादीन् कामयन्त इत्येवंशीला यथेप्सि|तकामकामिनः, ते उत्तरकुरुवास्तव्या णमिति पूर्ववत् मनुजाः प्रज्ञप्ता हे श्रमण! हे आयुष्मन् ! ॥ 'तेसि णं भंते!' इत्यादि, तेपां | भदन्त ! उत्तरकुरुवास्तव्यानां मनुष्याणां 'केवइकालस्स'त्ति सप्तम्यर्थे पष्ठी कियति काले गते भूय आहारार्थः समुत्पद्यते ?-आहारलक्षणं प्रयोजनमुपतिष्ठते ?, भगवानाह-गौतम! 'अष्टमभक्तस्य' अत्रापि सप्तम्यर्थे षष्ठी अष्टमभक्केऽतिक्रान्ते आहारार्थः समुत्पद्यते ॥ ते णं भंते!' इत्यादि, ते उत्तरकुरुवास्तव्या भदन्त! मनुष्याः किमाहारमाहारयन्ति ?, भगवानाह-गौतम! पृथिवीपुष्पफलाहारा:-पृथिवीपुष्पफलानि च कल्पद्रुमाणामाहारो येषां ते तथा ते मनुजाः प्रज्ञप्ता हे श्रमण! हे आयुष्मन् ! ॥ 'तेसि णं भंते' इत्यादि, तस्या भदन्त पृथिव्याः कीदृश आखादः प्रज्ञप्तः ?, भगवानाह-गौतम! 'से जहा नामए' इत्यादि, तत्-लोके प्रसिद्ध यथा नाम 'ए' इति वाक्यालङ्कारेऽखण्डमिति वा, इतिशब्द उपमाभूतवस्तुनामपरिसमाप्तिद्योतकः, वाशब्दो विकल्पने, एवं सर्वत्र, गुड इति वा शर्करा इति वा, इयं शर्करा काशादिप्रभवा द्रष्टव्या, मत्स्य ण्डिका इति वा, मत्स्यण्डी-खण्डशर्करा, पप्टमोदक इति दावा बिसकन्द इति वा पुष्पोत्तरेति वा पद्मोत्तरेति वा विजया इति वा महाविजया इति वा उपमा इति वा अनुपमा इति वा, पप्पे Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृष्णानां यत्क्षीरं तदन्यान्यात यचातुरक्यं गोक्षीर खण्ड ३प्रतिपत्ती देवकुर्वधिकारः उद्देशः२ सू०१४ भावः, 'मंदग्गिकढिए' CHORIGANGANAGANGACASS टमोदकादयः खाद्यविशेषा लोकतः प्रत्येतव्याः, 'चाउरके वा गोखीरे' इत्यादि वा, चातुरक्यं-चतुःस्थानपरिणामपर्यन्तं, तश्चैव-गवां | पुण्ड्रदेशोद्भवेक्षुचारिणीनामनातकानां कृष्णानां यत्क्षीरं तदन्यान्याभ्यः कृष्णगोभ्य एव यथोक्तगुणाभ्यः पानं दीयते, तत्क्षीरमप्येवंभूता-18 भ्योऽन्याभ्यस्तरक्षीरमप्यन्याभ्य इति चतुःस्थानपरिणामपर्यन्तं, एवंभूतं यच्चातुरक्यं गोक्षीरं खण्डगुडमत्स्यण्डिकोपनीत-खण्डगुडमत्स्यण्डिका उपनीता यत्र तत्तथा, सुखादिदर्शनान्निष्टान्तस्य परनिपातः, खण्डादिभिः सुरसता प्रापितमिति भावः, 'मंदग्गिकढिए' मन्दमग्निना कथितं मन्दाग्निकथितम् , अत्यग्निकथितं हि विरसं विगन्धादि च भवतीति मन्दग्रहणं, वर्णाद्यतिशयप्रतिपादनार्थमेवाह ५ -वर्णेन-सामर्थ्यादतिशायिना अन्यथा वर्णोपादाननैरर्थक्यापत्तेः उपपेतं-युक्तं, एवं गन्धेन रसेन स्पर्शेन चातिशायिनोपपेतं, एवमुक्ते गौतम आह-भगवन् । भवेदेतद्रूपः पृथिव्या आस्वादः ?, भगवानाह-गौतम नायमर्थः समर्थः, तस्याः पृथिव्या इतो-गुडखण्डशर्करादेरिष्टतर एव, यावत्करणात् 'कंततराए चेव पियतराए चेव मणामतराए चेवेति परिग्रहः, आस्वादः प्रज्ञप्तः ॥ पुष्पफलादीनामावादनं पृच्छन्नाह-'तेसि णं भंते ! पुप्फफलाण' मित्यादि, तेषां कल्पपादपसत्कानां पुष्पफलानां कीदृश आस्वादः प्रज्ञप्तः ?, भगवानाह-गौतम 'से जहा नामए' इत्यादि तद्यथा नाम राज्ञः, स च राजा लोके कतिपयदेशाधिपतिरपि प्राप्यते तत आहचतुरन्तचक्रवर्तिन:-चतुर्पु अन्तेपु त्रिसमुद्रहिमवत्परिच्छिन्नेषु चक्रेण वर्तितुं शीलं यस्यासौ चक्रवर्ती तस्य कल्याणं-एकान्तसुखावह भोजनं शतसहस्रनिष्पन्नं-लक्षनिष्पन्नं वर्णेनातिशायिनेति गम्यते, एवं गन्धेन रसेन स्पर्शनोपपेतं, आस्वादनीयं सामान्येन विस्खा* दनीयं विशेषतस्तद्रसप्रकर्पमधिकृत्य दीपनीयमग्निवृद्धिकरं, दीपयति हि जाठराग्निमिति दीपनीयं, बाहुलकात्कर्त्तर्यनीयप्रत्ययः, एवं दर्पणीयमुत्साहवृद्धिहेतुत्वात् , मदनीयं मन्मथजननात् , बृंहणीयं धातूपचयकारित्वात् , सर्वाणीन्द्रियाणि गात्रं च प्रहादयतीति स-* 21556जर ॥२७८॥ Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेन्द्रियगात्रप्रह्लादनीयं, वैशधेन तत्प्रहादहेतुत्वात् एवमुक्ते गौतम आह-भगवन् ! भवेदेतद्रूप : पुष्पफलानामास्वाद : ?, भगवानाह - गौतम ! नायमर्थः समर्थः तेषां पुष्पफलानामितश्चक्रवर्त्तिभोजनादिष्टतरादिरेवास्वादः प्रज्ञप्तः ॥ ' ते णं भंते!" इत्यादि, ते भदन्त !! मनुजास्तं - अनन्तरोदितस्वरूपमाहारमाहार्य 'क्व वसतौ' कस्मिन्नुपाश्रये 'उपयान्ति ?' उपगच्छन्ति, भगवानाह - गौतम! 'वृक्षगृहालयाः वृक्षरूपाणि गृहाणि आलया-आश्रया येषां ते वृक्षगृहालयास्ते मनुजाः प्रज्ञप्ता हे श्रमण ! हे आयुष्मन् ! | 'ते णं भंते ' इत्यादि, ते भदन्त ! वृक्षाः 'किंसंस्थिताः ' किमवसंस्थिताः प्रज्ञप्ता: १, भगवानाह - गौतम ! अप्येककाः कूटाकार संस्थिताः शिखराकारसंस्थिता इत्यर्थ: अप्येककाः प्रेक्षागृहसंस्थिताः अप्येककाश्छत्रसंस्थिताः अप्येकका ध्वजसंस्थिताः अप्येककाः स्तूपसंस्थिताः अप्येककारतोरणसंस्थिताः अप्येकका गोपुरसंस्थिताः, गोभिः पूर्यत इति गोपुरं-पुरद्वारं, अत्येकका वेदिका संस्थानसंस्थिताः, वेदिका -- उपवेशनयोग्या भूमिः, अप्येकका चोप्पालसंस्थिता इत्यर्थः, चोप्पालं नाम मत्तवारणं, अप्येकका अट्टालकसंस्थिताः अट्टालक :- प्राकारस्यो - पर्याश्रयविशेषः, अप्येकका वीथीसंस्थिताः वीथी - मार्गः, अप्येककाः प्रासादसंस्थिताः, राज्ञां देवतानां च भवनानि प्रासादा: उत्सेधवहुला वा प्रासादास्ते चोभयेऽपि पर्यन्तशिखराः, हर्म्य-शिखररहितं धनवतां भवनं, अप्येकका गवाक्षसंस्थिताः, गवाक्षो वातायनं, अप्येकका वालाप्रपोतिकासंस्थिताः, वालाग्रपोतिका नाम तडागादिषु जलस्योपरि प्रासादः, अप्येकका वलभी संस्थिताः, वलभी - गृहाणामाच्छादनं, अप्येकका वरभवन विशिष्टसंस्थानसंस्थिताः, वरभवनं सामान्यतो विशिष्टं गृहं तस्येव यद् विशिष्टं संस्थानं तेन संस्थिताः, शुभा शीतला च छाया येषां ते शुभशीतलच्छायास्ते द्रुमगणाः प्रज्ञप्ता हे श्रमण ! हे आयुष्मन् ! || 'अत्थि णं भंते !" इत्यादि, सन्ति | भदन्त ! उत्तरकुरुषु कुरुषु गृहाणि वाऽस्मद्गृहकल्पानि गृहायतनानि - तेषु गृहेषु तेषां मनुष्याणामायतनानि - गमनानि गृहायतनानि ?, Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • भगवानाह—गौतम! नायमर्थः समयों, वृक्षगृहालयास्ते मनुजाः प्रज्ञप्ता है श्रमण ! हे आयुष्मन्! ॥ 'अस्थि णं भंते!' इत्यादि, सन्ति भदन्त । उत्तरकुरुपु कुरुपु प्रामा इति वा यावत्सन्निवेशा इति वा, यावत्करणान्नगरादिपरिग्रह, तंत्र प्रसन्ति बुद्ध्यादीन् गुणानिति यदिवा गम्याः - शास्त्रप्रसिद्धानामष्टादशानां कराणामिति ग्रामाः, न विद्यते करो येषु तानि नकराणि, नखादय इति निपातनान्नबोऽनादेशाभावः, निगमा:- प्रभूतवणिग्वर्गावासाः, पांशुप्राकारनिबद्धानि सेटानि, क्षुल्लप्राकारवेष्टितानि कर्यटानि, अर्द्धवृतीयगव्यूतान्तर्ग्रामरहितानि मडम्वानि, 'पट्टणाइ वेति पट्टनानि पत्तनानि वा, उभयत्रापि प्राकृतत्वेन निर्देशस्य समानत्वात्, तत्र यन्नौभिरेव गम्यं तत्पट्टनं, यत्पुनः शकटैर्योटकैनोभिच गम्यं तत्पत्तनं यथा भरुकच्छं, उक्तं च "पत्तनं शकटैर्गम्यं, घोटकैर्नीभिरेव च । नौभिरेव तु यद्गम्यं, पट्टनं तत्प्रचक्ष्यते ॥ १ ॥” द्रोणमुखानि - बाहुल्येन जलनिर्गमप्रवेशानि, आकरा - हिरण्याकरादयः, आश्रमा:-तापसावसथोपलक्षिता आश्रयाः, संवाधा-यात्रासमागतप्रभूतजननिवेशाः, राजधान्यो यत्र नकरे पत्तनेऽन्यत्र वा स्वयं राजा वसति, सन्निवेशा इति-सन्निवेशो यत्र सार्थादिवासितः, भगवानाह - गौतम ! नायमर्थः समर्थो, यद् - यस्मान्नेच्छितकामगामिनःन इच्छितं—इच्छाविषयीकृतं नेच्छितं, नायं नन् किन्तु नशब्द इत्यत्रा (ना) देशाभावो यथा 'नैके द्वेपस्य पर्याया' इत्यत्र, नेच्छितं - इच्छाया अविषयीकृतं कामं–खेच्छया गच्छन्तीत्येवंशीला नेच्छितकामगामिनस्ते मनुजाः प्रज्ञप्ता हे श्रमण ! हे आयुष्मन् ! ॥ 'अस्थि णं | भंते' इत्यादि, सन्ति भदन्त उत्तरकुरुषु कुरुषु 'असयः' अस्युपलक्षिताः सेवकाः पुरुषाः, मपीति वा मप्युपलक्षिता लेखनजीविनः, कृषिरिति कृषिकर्मोपजीविनः, 'पणी'ति पणितं पण्यमिति वा क्रयविक्रयोपजीविनः, वाणिज्यमिति वाणिज्यकलोपजीविनः १, भगवानाह-गौतम ! नायमर्थः समर्थो, व्यपगतासिमपीकृषिपण्यवाणिज्यास्ते मनुजाः प्रज्ञप्ता हे श्रमण ! हे आयुष्मन्! ॥ 'अस्थि णं भंते ' ३ प्रतिपत्ती देवकुर्वधिकारः उद्देशः २ सू० १४७ ॥ २७९ ॥ Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्यादि, अस्ति भदन्त ! उत्तरकुरुषु कुरुपु हिरण्यमिति वा - हिरण्यं - अघटितं सुवर्णे कांस्यं - कांस्यभाजनजाति: 'दूस' मिति वा दूष्यं वस्त्रजातिः, मणिमौक्तिकशङ्ख शिलाप्रवालसत्सारखापतेयानि वा, तत्र मणिमौक्तिकशङ्ख शिलाप्रवालानि प्रतीतानि सद्- विद्यमानं सारं - प्रधानं स्वापतेयं धनं सत्सारस्वापतेयं, भगवानाह - हन्ता ! अस्ति, 'नो चेव ण'मित्यादि, न पुनस्तेषां मनुजानां तद्विषयस्तीत्रो ममत्वभावः समुत्पद्यते, मन्दरागादितया विशुद्धाशयत्वात् ॥ 'अत्थि णं भंते !" इत्यादि, अस्ति भदन्त ! उत्तरकुरुषु कुरुपु राजेति वा राजा - चक्रवर्त्ती बलदेववासुदेवो महामाण्डलिको वा युवराज इति वा - उत्थिताशन: ईश्वरो - भोगिकादि, अणिमाद्यष्टविधैश्वर्ययुक्त ईश्वर इत्येके, तलवर इति वा, तलवरो नाम परितुष्टनरपतिप्रदत्तरत्नालङ्कृतसौवर्णपट्ट विभूषितशिराः, कौटुम्बिक इति वा, कतिपयकुटुम्बप्रभुः कौटुम्बिकः, माडम्बिक इति वा, यस्य प्रत्यासन्नं ग्रामनगरादिकमपरं नास्ति तत्सर्वत रिछन्नं जनाश्रयविशेषरूपं मडम्बं त स्याधिपतिर्माडम्बिकः, इभ्य इति वा, इभो - हस्ती तत्प्रमाणं द्रव्यमर्हतीतीभ्यः, यत्सत्कपुञ्जीकृतहिरण्यरत्नादिद्रव्येणान्तरितो हस्त्यपि न दृश्यते सोऽधिकतरद्रव्यो वा इभ्य इत्यर्थः, श्रेष्ठीति वा श्रीदेवताऽध्यासितसौवर्णपट्टविभूषितोत्तमाङ्गः पुरज्येष्ठो वणिग्विशेप: श्रेष्ठी, सेनापतिरिति वा हस्त्यश्वरथपदातिसमुदायलक्षणायाः सेनायाः प्रभुः सेनापतिः, सार्थवाह इति वा, "श्रीणिमं धरिमं मेजं पारिच्छं चैव दव्वजायं तु । घेत्तूणं लाभत्थं वञ्चइ जो अन्नदेसं तु ॥ १ ॥ निवबहुमओ पसिद्धो दीणाणाहाण वच्छलो पंथे । सो सत्थवाह - नामं धणो व्व लोए समुव्वहइ || २ ||” एतल्लक्षणयुक्तः सार्थवाहः, भगवानाह - गौतम ! नायमर्थः समर्थो, व्यपगतर्द्धिसत्कारा १ गणिमं धरिमं मेयं परिच्छेद्यं चैव द्रव्यजातं तु । गृहीत्वा लाभार्थे व्रजति योऽन्यदेशं तु ॥ १ ॥ नृपबहुमतः प्रसिद्धो दीनानाथाना वत्सल पथि । स सार्थ - वाहनामधन इव लोके समुद्वहति ॥ २ ॥ Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30796436 HALASH SGARHI व्यपगता ऋद्धिः-विभवैश्वर्य सत्कारश्च-सेव्यतालक्षणो येभ्यस्ते तथा उत्तरकुरुवास्तव्या मनुजाः प्रज्ञप्ता हे श्रमण' हे आयुष्मन् । ४३ प्रतिपच्ची ५ 'अत्थि णं भंते' इत्यादि, अस्ति भदन्त ! उत्तरकुरुपु कुरुपु दास इति वा, दास:-आमरणं क्रयक्रीतः, प्रेष्य इति वा, प्रेष्यः- देवकुर्व प्रेषणयोग्यः, शिष्य इति वा, शिष्यः-उपाध्यायस्योपासकः, भृतक इति वा, भृतको-नियतकालमधिकृत्य वेतनेन कर्मकरणाय धृतः, धिकारः ॐ भागिल्लए'ति वा भागिक इति वा, भागिको नाम द्वितीयांशस्य चतुर्थाशस्य वा ग्राहकः, कर्मकारपुरुप इति वा, कर्मकारो लोहा- उद्देशः२ रादिः कर्मकारः?, भगवानाह-गौतम! नायमर्थः समर्थो, व्यपगताभियोग्यास्ते मनुजा: प्रज्ञप्ताः, अभिमुखं कर्मसु युज्यते व्यापार्यत सू०१४७ इति वाऽभियोग्यस्तस्य भावः कर्म वा आभियोग्यं, 'व्यजनाद् यपंचमस्य सरूपे वा' इत्येकस्य यकारस्य लोपः, व्यपगतमाभियोग्यं येभ्यस्ते तथा हे श्रमण! हे आयुष्मन् ! । 'अत्थि णं भंते!' इत्यादि, अस्ति भदन्त । उत्तरकुरुपु कुरुपु मातेति वा पितेति वा भ्रातेति वा भगिनीति वा भार्येति वा सुत इति वा दुहितेति वा सुपेति वा?, तत्र माता-जननी पिता-जनकः सहोदरो-भ्राता सहोदरी-भगिनी वधू-भार्या सुतः-पुत्रः सुता-दुहिता पुत्रवधूः-स्नुपा, भगवानाह-हन्त । अस्ति, तथाहि-या प्रसूते सा जननी, यो बीजं निषिक्तवान् स पिता विवक्षितः पुरुपः, सहजातो यो भ्राता एकमातृपितृकत्वात् , इतरा तस्य भगिनी, भोग्यत्वाद् भार्या, स्वमातापित्रोः स पुत्र इतरा दुहिता, स्वपुत्रभोग्यत्वात्स्नुपेति, 'नो चेव ण'मित्यादि, न पुनस्तेषां मनुजानां तीनं प्रेमरूपं बन्धनं समुत्पद्यते, तथा क्षेत्रवाभाव्यात् प्रतनुप्रेमबन्धनास्ते मनुजगणाः प्रज्ञप्ता हे श्रमण! हे आयुष्मन् ॥ 'अत्थि णं भंते' इत्यादि, अस्ति भदन्त | उत्तरकुरुपु कुरुपु अरिरिति वा-शयुः वैरीति वा-जातिनिबद्धवैरोपेतः, घातक इति वा, घातको योऽन्येन घातयति, वधक इति वा, वधकः-स्वयं हन्ता, प्रत्यनीक इति वा, प्रत्सनीक:-छिद्रान्वेपी, प्रत्यमित्र इति वा, प्रत्य मित्रो यः पूर्व मित्रं भूखा पश्चाद ॥२८ ॥ Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मित्रो जात: ?, भगवानाह - नायमर्थः समर्थो, व्यपगतवैरानुबन्धास्ते मनुजगणाः प्रज्ञप्ता हे श्रमण ! हे आयुष्मन् ! || 'अत्थि णं भंते' इत्यादि, अस्ति भदन्त ! उत्तरकुरुषु कुरुषु मित्रमिति वा मित्र - स्नेहविषयः, वयस्य इति वा - समानवया गाढतरस्नेहविषयः, सखा इति वा - समानखादनपानो गाढतमस्नेहस्थानं, सुहृदिति वा, सुहृत् - मित्रमेव सकलकालमव्यभिचारि हितोपदेशदायि च, साङ्गतिक इति वा, साङ्गतिक: - सङ्गतिमात्रघटितः ?, भगवानाह - नायमर्थः समर्थो, व्यपगतस्नेहानुरागास्ते मनुजगणाः प्रज्ञप्ता हे श्रमण ! हे आयुष्मन् ! || 'अत्थि णं भंते!" इत्यादि, अस्ति भदन्त ! उत्तरकुरुषु कुरुषु 'आवाहा इति वा' आहूयन्ते स्वजनास्ताम्बूलदानाय यत्र स आवाह :- विवाहात्पूर्वस्ताम्बूलदानोत्सवः, वीवाहा इति वा, वीवाह: -परिणयनं, यज्ञा इति वा, यज्ञा:- प्रतिदिवसं स्वखेष्टदेवतापूजा:, श्राद्धानीति वा, श्राद्धं पितृक्रिया, स्थालीपाका इति वा, स्थालीपाकः - प्रतीतः, मृतपिण्डनिवेदनानीति वा मृतेभ्यः श्मशाने तृतीयनवमादिषु दिनेषु पिण्डनिवेदनानि मृतपिण्डनिवेदनानि, चूडोपनयनानीति वा, चूडोपनयनं - शिरोमुण्डनं, सीमन्तोन्नयनानीति वा, सीमन्तोन्नयनं - गर्भस्थापनं १, भगवानाह - नायमर्थः समर्थो, व्यपगतावाहवीवाह यज्ञ श्राद्धस्थालीपाकमृतपिण्डनिवेदनास्ते मनुजा: प्रज्ञप्ता हे श्रमण ! हे आयुष्मन् ! || 'अत्थि णं भंते' इत्यादि, अस्ति भदन्त ! उत्तरकुरुषु कुरुषु नटप्रेक्षेति वा नटा-नाटकानां नाटयितारस्तेषां प्रेक्षा नटप्रेक्षा, नृत्यप्रेक्षेति वा, नृत्यन्ति स्म नृत्या- नृत्य विधायिनस्तेषां प्रेक्षा नृत्यप्रेक्षा इति वा, जलप्रेक्षेति वा, जल्ला - वरत्राखेलका राजस्तोत्रपाठका इत्यपरे तेषां प्रेक्षा जलप्रेक्षा, मल्लप्रेक्षेति वा, मल्लाः- प्रतीताः, मौष्टिकप्रेक्षेति वा, मौष्टिका : मलविशेषा एव ये. मुष्टिभि: प्रहरन्ति, विडम्वकप्रेक्षेति वा, विडम्बका - विदूषका नानावेपकारिण इत्यर्थः, कथकप्रेक्षेति वा, कथकाः प्रतीताः, लवकप्रेक्षेति वा, लवका ये उत्प्लुत्य गर्त्तादिकं झम्पाभिर्लक्ष्यन्ति नद्यादिकं वा तरन्ति तेषां प्रेक्षा लवकप्रेक्षा, लासकप्रेक्षेति वा, लासका ये रास Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कान् गायन्ति जयशब्दप्रयोक्तारो वा भाण्डास्तेषां प्रेक्षा लासकप्रेक्षा, आख्यायकप्रेक्षेति वा ये शुभाशुभमाख्यान्ति ते आख्यायकास्तेषां प्रेक्षा आख्यायकप्रेक्षा, लङ्गप्रेक्षेति वा, लगा ये महावंशाप्रमारु नृत्यन्ति तेषां प्रेक्षा लप्रेक्षा, प्रेक्षेति वा, ये चित्रपट्टिकादिहस्ता भिक्षां चरन्ति ते मलास्तेषां प्रेक्षा महप्रेक्षा, 'तूणइलपेच्छाइ वा' इति तूणइल्ला - तूणाभिधानवाद्य विशेपवन्तस्तेषां प्रेक्षा तूणइलप्रेक्षा, तुम्बवीणाप्रेक्षेति वा, तुम्बयुक्ता वीणा येषां ते तुम्यवीणा:-तुम्बवीणावादकास्तेपां प्रेक्षा, 'कावपिच्छाइ वे'ति कावा :- कावडिवाहका तेपां प्रेक्षा, मागधप्रेक्षेति वा, मागधा - बन्दिभूतास्तेषां प्रेक्षा मागधप्रेक्षेति वा ?, भगवानाह - नायमर्थः समर्थो, व्यपगतकौतुकास्ते मनुजगणाः प्रज्ञप्ता हे श्रमण ! हे आयुष्मन् ! | 'अस्थि णं भंते' इत्यादि, अस्ति भदन्त ! उत्तरकुरुषु कुरुषु इन्द्रमह इति वा, इन्द्रः- शक्रस्तस्य महः - प्रतिनियत दिवसभावी उत्सवः स्कन्दमह इति वा, स्कन्दः - कार्त्तिकेयः, रुद्रमह इति वा, रुद्रः प्रतीतः, शिवमह इति वा, शिवो-देवताविशेषः, वैश्रमणमह इति वा, वैश्रमण:- उत्तरदिग्लोकपालः, नागमह इति वा, नागो-भवनपतिविशेषः, यक्षमह इति वा भूतमह इति वा, यक्षभूतौ त्र्यन्तरविशेषौ मकुन्दमह इति वा, मकुन्दो - बलदेवः, कूपमह इति वा ताकमह इति वा नदीम इति वा हृदमह इति वा पर्वतमद्द इति वा वृक्षमह इति वा चैत्यमद्द इति वा स्तूपमह इति वा ?, कूपादयः प्रतीताः, भगवानाह - नायमर्थः समर्थो, व्यपगतमहमहिमास्ते मनुजाः प्रज्ञप्ता हे श्रमण ! हे आयुष्मन् ! | 'अत्थि णं भंते ।' इत्यादि, सन्ति भदन्त ! उत्तरकुरुषु कुरुपु शकटानीति वा, शकटानि - प्रतीतानि, रथा वा, रथा द्विविधा-यानरथाः सङ्ग्रामरथाच, तत्र सङ्ग्रामरथस्य प्राकारानुकारिणी फलकमयी वेदिकाऽपरस्य तु न भवतीति विशेषः, यानानीति वा, यानं-गयादि, युग्यानीति वा, युग्यं -गोल विषयप्रसिद्धं द्विहस्तप्रमाणं चतुरस्रवेदिकोपशोभितं जम्पानं, गिल्लय इति वा, गिल्लिईस्तिन उपरि कोल्लररूपा या मानुषं गिलतीव, थिल्लय इति वा, ३ प्रतिपत्ती देवकुर्वधिकारः उद्देशः २ सू० १४७ ॥ २८१ ॥ Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाटानां यदु अडुपल्लाणं रूढं तदन्यविषये थिल्लिरित्युच्यते, शिविका इति वा, शिविका-कूटाकाराच्छादितो ज़म्पानविशेषः, सन्दमाणिया इति वा, सन्दमाणिया-पुरुषप्रमाणो जम्पानविशेषः ?, भगवानाह-नायमर्थः समर्थः, पादविहारचारिणस्ते मनुजाः प्रज्ञप्ता हे श्रमण! हे आयुमन् ! ॥ 'अत्थि णं भंते' इत्यादि, सन्ति भदन्त अश्वा इति वा हस्तिन इति वा उष्ट्रा इति वा गाव इति वा महिपा इति वा खरा इति वा घोटका इति वा?, इह जात्या आशुगमनशीला अश्वाः शेषा घोटकाः, खरा-गर्दभाः, अजा इति वा एडका इति वा?, भगवानाहहन्त ! सन्ति, न पुनस्तेषां मनुजानां परिभोग्यतया 'हव्वं' शीघ्रमागच्छन्ति ॥'अस्थि णं भंते' इत्यादि, सन्ति भदन्त! उत्तरकुरुषु कुरुषु गाव इति वा, गाव:-स्त्रीगव्यः, महिष्य इति वा उष्ट्रय इति वा अजा इति वा एडका इति वा ?, हन्त! सन्ति, न पुनस्तेषां मनुष्याणामुपभोग्यतया हव्यं शीघ्रमागच्छन्ति ॥'अत्थि णं भंते' इत्यादि, सन्ति भदन्त ! उत्तरकुरुषु कुरुपु सिंहा इति वा, सिंह:-पञ्चाननः, व्याघ्रा इति वा, व्याघ्रः-शार्दूल:, वृका इति वा, द्वीपिका इति वा द्वीपिका:-चित्रकाः, ऋक्षा इति वा, परस्सरा इति वा, परस्सरो-ाण्डः, शृगाला इति वा, बिडाला इति वा, शुनका इति वा, कालशुनका इति वा, कोकन्तिका इति वा, कोकन्तिकालुकडिकाः, शशका इति वा, चिल्लला इति वा, चिल्लल-आरण्यक: पशुविशेष: ?, भगवानाह-हन्त ! सन्ति, न पुनस्ते परस्परस्या तेषां वा मनुजानां काञ्चिदाबाधां वा प्रबाधां वा छविच्छेदं वा कुर्वन्ति, प्रकृतिभद्रकास्ते श्वापदगणाः प्रज्ञप्ता हे श्रमण! हे आयुष्मन् ! ॥'अत्थि णं भंते' इत्यादि, सन्ति भदन्त! उत्तरकुरुपु कुरुंषु शालय इति वा ब्रीय इति वा गोधूमा इति वा यवा इति वा तिला इति वा इक्षव इति वा?, हन्त! सन्ति न पुनस्तेषां मनुष्याणां परिभोग्यतया 'हव्वं' शीघ्रमागच्छन्ति ॥ "अत्थि णं भंते' इत्यादि, अस्ति भदन्त ! उत्तरकुंरुषु कुरुषु-स्थाणुरिति वा कण्टक ' इति वा हीरमिति वा, हीरं-लघु कुत्सितं तृणं, शर्करेति वा, शर्करा-कर्क Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - CA ३ प्रतिपत्ती देवकुर्वधिकारः उद्देशः२ सू० १४७ AGARIASISATELANGANA रकः, तृणकचवर इति वा पत्रकचवर इति वा अशुचीति वा, अशुचि-विगन्धं शरीरमलादि, पूतीति वा, पूति-कुथितं स्वस्वभावच- लितं त्रिवासरवटकादिवत् , दुरभिगन्धमिति वा, दुरभिगन्धं मृतकलेवरादिवत् , अचोझं-अपवित्रमस्थ्यादिवत् , भगवानाह-नायमर्थः समर्थों, व्यपगतस्थाणुकण्टकहीरशर्करातृणकचवरपत्रकचवराशुचिपूतिदुरभिगन्धाचोमपरिवर्जिता उत्तरकुरव. प्रज्ञप्ताः हे श्रमण! हे! आयुष्मन् ! ॥'अस्थि णं भंते' इत्यादि, अस्ति भदन्त! उत्तरकुरुपु कुरुपु, गति वा, गर्ता-महती खडा, दरीति या, दरी-मूपिकादिकृता लध्वी खड्डा, घसीति वा, घसी-भूराजिः, भृगुरिति वा, भृगुः-प्रपातस्थानं, विपममिति वा, विषम-दुरारोहावरोहस्थानं, धूलिरिति वा पत इति वा, धूलीपकी प्रतीती, चलणीति वा, चलनी-चरणमात्रस्पर्शी कर्दमः, भगवानाह-नायमर्थः समर्थः, उत्तकुरुपु कुरुपु बहुसमरमणीयो भूभागः प्रज्ञप्तो हे श्रमण! हे आयुग्मन् ! ॥ 'अस्थि णं भंते' इत्यादि, सन्ति भदन्त ! दंसा इति वा मसका इति वा ढङ्कणा इति वा, कचित् पिशुगा इति वा इति पाठस्तत्र पिशुकाः-चंचटादयः, यूका इति वा लिझा इति ना?, भगवानाह-नायमर्थः समर्थो, व्यपगतोपद्रवाः खलु उत्तरकुरवः प्राप्ता हे श्रमण! हे आयुष्मन्! ॥ 'अत्धि णं भंते' इत्यादि, सन्ति भदन्त! उत्तरकुरुषु कुरुपु अहय इति वा अजगरा इति वा महोरगा इति वा?, हन्त! सन्ति न पुनस्तेऽन्योऽन्यस्य तेपां वा मनुजानां काश्चिदाबाधां व्यावाघां वा छविच्छेदं वा कुर्वन्ति, प्रकृतिभद्रकास्ते व्यालकगणाः प्रज्ञप्ता हे श्रमण! हे आयुष्मन् ॥'अस्थि णं भंते' इत्यादि, सन्ति (मदन्त) उत्तरकुरुपु कुरुषु प्रहदण्डा इति वा, दण्डाकारव्यवस्थिता प्रहा प्रदण्डाः ते चानर्थोपनिपातहेतुतया प्रतिषेध्या एं न स्वरूपतः, एवं प्रहमुशलानीति वा, प्रहगर्जितानि-पहचारहेतुकानि गर्जितानि, इमानि स्वरूपतोऽपि प्रतिषेध्यानि, प्रहयुद्धानीति * * वा, ग्रहयुद्धं नाम यदेको महोऽन्यस प्रहस्य मध्येन याति, प्रहसबाटका इति वा, प्रहसनाटको नाम प्रहयुग्मं, प्रहापसव्यानीति वा ॥२८२। Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभ्राणीति वा, अभ्राणि-सामान्याकारेण प्रतीतानि, अभ्रवृक्षा इति वा, अभ्रवृक्षा-वृक्षाकारपरिणतान्यभ्राणि, सन्ध्या इति वा-सध्या-1 | काले नीलायभ्रपरिणतिरूपा प्रतीतैव, गन्धर्वनगराणि-सुरसदनप्रासादोपशोभितनगराकारतया तथाविधनभःपरिणतपुद्गलराशिरूपाणि, एतान्यपि तत्र स्वरूंपतोऽपि न भवन्ति, गर्जितानीति वा विद्युत इति वा, गर्जितानि विद्युतश्च प्रतीताः, उल्कापाता इति वा, उल्कापाता-व्योनि संमूछितज्वलननिपतनरूपाः, दिग्दाह इति वा, दिग्दाहा-अन्यतरस्यां दिशि छिन्नमूलज्वलनज्वालाकरालिताम्बरप्रतिभासरूपाः, निर्घाता इति वा, निर्घातो-विद्युत्प्रपातः, पांशुवृष्टय इति वा, पांशुवृष्टयो-धूलिवर्षाणि, यूपका इति वा, यूपका: 'संझाछेयावरणो य' इत्यादिनाऽऽवश्यकमन्थेन प्रतिपत्तव्याः, यक्षदीप्तकानीति वा, यक्षदीप्तकानि नाम नभसि दृश्यमानाग्निसहितः पिशाच:, धूमिकेति वा रूक्षा प्रविरला धूमामा धूमिका, महिकेति वा, स्निग्धा घना घनत्वादेव भूमौ पतिता सार्द्रतृणादिदर्शनद्वारेणोपलक्ष्यमाणा महिका, रजउद्घाता-रजखला दिशः, चन्द्रोपरागा इति वा सूर्योपरागा इति वा, चन्द्रोपराग:-चन्द्रग्रहणं सूर्योपराग:-सूर्यग्रहणं, इह गर्जितविद्युदुल्कादिग्दाहनिर्घातपांशुवृष्टियूपकयक्षदीप्तकधूमिकामहिकारजउद्घाता: स्वरूपतोऽपि प्रतिषेध्याः, चन्द्रसूर्यग्रहणे त्वनर्थोपनिपातहेतुतया, खरूपतस्तयोः प्रतिषेधुमशक्यत्वात् , जम्बूद्वीपगतौ हि चन्द्रौ सूर्यो वा तत्प्रकाशयतः, एकस्य चन्द्रस्य ग्रहणे सकलमनुष्यलोकवर्त्तिनां चन्द्राणामेकस्य सूर्यस्य ग्रहणे सकलमनुष्यलोकवर्त्तिनां सूर्याणां ग्रहणमत इह क्षेत्र इव तत्रापि खरूपतश्चन्द्रसूर्योपरागप्रतिषेधासम्भवः, चन्द्रपरिवेषा इति वा सूर्यपरिवेषा इति वा, चन्द्रसूर्यपरिवेषाश्चन्द्रादित्ययोः परितो वलयाकारपरिणतिरूपाः प्रतीता एव, प्रतिचन्द्रा इति वा प्रतिसूर्या इति वा, प्रतिचन्द्र-उत्पातादिसूचको द्वितीयश्चन्द्रः, एवं द्वितीयः सूर्यः प्रतिसूर्यः, इन्द्रधनुरिति वा उदकमत्स्य इति वा, इन्द्रधनु:-प्रतीतं, तस्यैव खण्डमुदकमत्स्य:, कपिहसितानीति वा, कपिहसितानि-अकस्मान Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8458486 SHANKARACHANAS भसि ज्वलद्रीमशब्दरूपाणि, अमोघा इति वा, अमोघाः-सूर्यविम्बस्याधः कदाचिदुपलभ्यमानशकटोद्धिसंस्थिता श्यामादिरेखा, एते ५३ प्रतिपत्तौ चन्द्रपरिवेषादयः स्वरूपतोऽपि प्रतिषेध्याः, प्राचीनवाता इति वा अपाचीनवाता इति वा यावत् शुद्धवाता इति वा, यावत्करणार- देवकुर्व8 क्षिणवातादिपरिग्रहः, एतेऽसुखहेतवो विकृतरूपाः प्रतिषेध्याः नतु सामान्येन, पूर्वादिवातस्य तत्रापि सम्भवात् , प्रामदाहा इति वा धिकारः नकरदाहा इति यावत्संनिवेशदाहा इति, यावत्करणान्निगमदाहखेटदाहादिपरिग्रहः, दाहकृतश्च प्राणक्षय इति वा भूतक्षय इति वा ५ उद्देशः२ कुलक्षय इति वा, एते स्वरूपतोऽपि प्रतिषेध्याः, तथा चाह भगवान् गौतम' नायमर्थः समर्थः, केषाश्चिदनर्थहेतुतया केषाश्चित्स्व-* सू०१४७ रूपतश्च तत्र तेषामसम्भवात् ॥ 'अत्थि णं भंते' इत्यादि, सन्ति भदन्त। उत्तरकुरुपु कुरुषु डिम्बानीति वा, डिम्बानि-स्वदेशोत्या विप्लवाः, डमराणीति वा, डमराणि-परराजकृता उपद्रवाः, कलहा इति वा, कलहा-वागयुद्धानि, बोला इति वा, बोल:-आर्त्तानां बहूनां कलकलपूर्वको मेलापकः, क्षार इति वा, क्षार:-परस्परं मात्सर्य, वैराणीति वा, वैरं-परस्परमसहनवया हिंस्यहिंसकभावाध्यवसायः, महायुद्धानीति वा, महायुद्ध-परस्परं मार्यमाणमारकतया युद्धं, महासभामा इति वा, महासन्नाहा इति वा, महासवामश्चेटिककोणिकवत् , महासन्नाहो-बृहत्पुरुषाणामपि बहूनां य: सन्नाहः, महापुरुषनिपतनानीति वा, प्रतीतं, महाशस्त्रनिपतनानीति वा, महाशस्त्रनिपतनं-यन्नागवाणादीनां दिव्यास्त्राणां प्रक्षेपणं, नागबाणादयो हि बाणा महाशस्त्राणि, तेषामद्भुतविचित्रशक्तिकत्वात् , तथाहि नागवाणा धनुष्यारोपिता वाणाकारा मुक्ताश्च सन्तो जाज्वल्यमानासह्योल्कादण्डरूपास्ततः परशरीरे सक्रान्ता नागमूर्तीभूय पाशत्वमुपगच्छन्ति, तामसबाणाश्च पर्यन्ते सकलसवामभूमिव्यापिमहान्धतमसरूपतया परिणमन्ते, उक्तश्च-"चित्रं श्रेणिक! ते ॥२८३॥ बाणा, भवन्ति धनुराश्रिताः । उल्कारूपाश्च गच्छन्तः, शरीरे नागमूर्तयः ॥ १॥ क्षणं बाणाः क्षणं दण्डाः, क्षणं पाशत्वमागताः । Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आकरा भेदास्ते, यथाचिन्तितमूर्त्तयः ॥ २ ॥" इत्यादि, भगवानाह - नायमर्थः समर्थों, व्यपगतडिम्बडमर कलहबोल क्षारवैरास्ते मनुजाः प्रज्ञप्ता हे श्रमण ! हे आयुष्मन्! ॥ 'अत्थि णं भंते' इत्यादि, सन्ति भदन्त ! उत्तरकुरुषु कुरुषु दुर्भूतानीति वा, दुर्भूतंअशिवं, कुलरोगा इति वा मण्डलरोगा इति वा शिरोवेदनेति वा अक्षिवेदनेति वा कर्णवेदनेति वा नखवेदनेति वा दन्तवेदनेति वा काश इति वा श्वास इति वा शोष इति वा ज्वर इति वा दाह इति वा कच्छूरिति वा खसर इति वा कुष्ठमिति वा अर्श इति वा अजीर्णमिति वा भगन्दर इति वा इन्द्रग्रह इति वा स्कन्धग्रह इति वा कुमारग्रह इति वा नागग्रह इति वा यक्षग्रह इति वा भूतग्रह इति वा धनुर्मह इति वा उद्वेग इति वा एकाहिका इति वा द्व्याहिका इति वा व्याहिका इति वा चतुर्थका इति वा हृदयशुलानीति वा मस्तकशूलानीति वा पार्श्वशूलानीति वा कुक्षिशूलानीति वा योनिशूलानीति वा ग्राममारिरिति वा नकरंमारिरिति वा निगममारिरिति वा यावत्सन्निवेशमारिरिति वा, यावत्करणात् खेडकर्बटादिपरिग्रहः, मारिकृतप्राणिक्षय इति वा जनक्षय इति वा धनक्षय इति वा कुलक्षय इति वा व्यसनभूतमनार्यतेति वा ?, भगवानाह - नायमर्थः समर्थों, व्यपगतरोगातङ्कास्ते मनुजाः प्रज्ञप्ता हे श्रमण ! हे आयुष्मन् ! | 'तेसि ण' मित्यादि, तेषामुत्तरकुरुवास्तव्यानां भदन्त ! मनुष्याणां कियन्तं कालं स्थिति:- अवस्थानं प्रशप्ता ?, भगवानाह - गौतम ! जघन्येन देशोनानि त्रीणि पल्योपमानि, तत्र न ज्ञायते कियता देशेनोनानि ? तत आह-पल्योपमस्यासत्येयभागेनोनानि, उत्कर्षतः परिपूर्णानि त्रीणि पल्योपमानि ॥ 'ते णं भंते' इत्यादि, ते उत्तरकुरुवास्तव्या भदन्त ! मनुजाः कालमासे 'कालं' मरणं कृत्वा क गच्छन्ति ?, एतदेव व्याचष्टे -कोत्पद्यन्ते ? इति, भगवानाह - गौतम ! ते मनुजाः षण्मासावशेषायुषः कृतपरभवायुबन्धाः स्वकाले युगलं प्रसूवते, प्रसूय एकोनपञ्चाशतं रात्रिन्दिवानि तद् युगलमनुपालयन्ति, अनुपाल्य काशित्वा क्षुत्वा जृम्भयित्वा Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'अकिष्टाः' स्वशरीरोत्थक्केशरहिता: 'अव्यथिताः परेणानापादितदुःखाः 'अपरितापिताः' स्वतः परतो वाऽनुपजातकायमन:परि- प्रतिपत्तो 5 तापाः कालमासे कालं कृत्वा 'देवलोकेषु' भवनपत्याद्याश्रयेपूत्पद्यन्ते, 'देवलोगपरिग्गहिया णमिति देवलोको-भवनपत्याद्याश्रय- देवकर्व रूपस्तथाक्षेत्रस्वाभाव्यतस्तद्योग्यायुर्वन्धनेन परिगृहीतो यैस्ते देवलोकपरिगृहीताः, निष्ठान्तस्य परनिपातः सुखादिदर्शनात्, णमिति ४धिकार: वाक्यालवारे, ते मनुजा: प्रज्ञप्ता हे श्रमण! हे आयुष्मन् ! ॥ 'उत्तरकुराए णं भंते' इत्यादि, उत्तरकुरुपु कुरुपु भदन्त! 'कति * उद्देशः २ विधाः' जातिभेदेन कतिप्रकारा मनुष्याः 'अनुसजन्ति?' सन्तानेनानुवर्त्तन्ते, भगवानाह-गौतम! पडिधा मनुजा अनुसजन्ति, स०१४७ तद्यथा-पद्मगन्धा इत्यादि, जातिवाचका इमे शब्दाः । अत्र विनेयजनानुग्रहायोत्तरकुरुविषयसूत्रसकलनार्थ सङ्गहणिगाथात्रयमाह"उसुजीवाधणुपटुं भूमी गुम्मा य हेरुउद्दाला। तिलगलयावणराई रुक्खा मणुया य आहारे ॥१॥ गेहा गामा य असी हिरण्ण राया य दास माया य । अरिवेरिए य मित्ते विवाहमहनदृसगडा य ॥२॥ आसा गावो सीहा साली खाणू य गहादसाही। गहजुद्धरोगठिइ उवट्टणा य अणुसज्जणा चेव ॥ ३॥ अस्य व्याख्या-प्रथममुत्तरकुरुविषयमिपुजीवाधनुःपृष्ठप्रतिपादकं सूत्र, तदनन्तरं ६ भूमिरिति भूमिविषय सूत्र, ततो 'गुम्मा' इति गुल्मविपयं, तदनन्तरं हेरुतालवनविषयं, तत: 'उद्दाला' इति उद्दालादिविषयं, तद्-* 18 नन्तरं 'तिलग' इति तिलकपदोपलक्षितं, ततो लताविषयं, तदनन्तरं वनराजीविपयं, ततः 'रुक्खा' इति दशविधकल्पपादपविषया दश सूत्रदण्डकाः, 'मणुया य' इति त्रयो मनुष्यविषयाः सूत्रदण्डकास्तद्यथा-आधः पुरुषविषयो द्वितीयः स्त्रीविषयस्तृतीयः सामान्यत है उभयविषय इति, तत: 'आहारे' इति आहारविषयः, तदनन्तरं 'गेहा' इति गृहविषयौ द्वौ दण्डको, आद्यो गृहाकारवृक्षाभिधायी है ॥२८४॥ अपरो गेहायभावविषय इति, तत: 'गामा' इति प्रामायभावः, तदनन्तरमसीति अस्याघभावविषयः, ततो हिरण्यादिविषयः, तद् * Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नन्तरं राजाद्यभावविपयः, ततो दासाद्यभावविषयः, ततो मात्रादिविषयः, तदनन्तरमरिवैरिप्रभृतिप्रतिषेधविषयः, तदनन्तरं मित्राद्यभावविषयः, तदनन्तरं विवाहपदोपलक्षितस्तत्प्रतिषेधविषयः, तदनन्तरं महप्रतिषेधविषयः, ततो नृत्यपदोपलक्षित: प्रेक्षाप्रतिषेधविषयः, तदनन्तरं शकटादिप्रतिषेधविषयः, ततोऽश्वादिपरिभोगप्रतिषेधविषयः, तदनन्तरं स्त्रीगव्यादिपरिभोगप्रतिषेधविषयः, ततः सिंहादिश्वापदविषयः, तदनन्तरं शाल्याद्युपभोगप्रतिषेधविषयः, ततः स्थाण्वादिप्रतिषेधविषयः, तदनन्तरं गादिप्रतिषेधविषयः, ततो दंशाधभावविषयः, ततोऽह्यादिविषयः, तदनन्तरं 'गह इति ग्रहदण्डादिविषयः, ततः 'जुद्ध' इति युद्धपदोपलक्षितो डिम्बादिप्रतिषेधविषयः सूत्रदण्डकः, ततो रोग इति रोगपदोपलक्षितो दुर्भूतादिप्रतिषेधविषयः, तदनन्तरं स्थितिसूत्र, ततोऽनुषजनसूत्रमिति ॥ सम्प्रत्युत्तरकुरुभावियमकपर्वतवक्तव्यतामाह कहिणं भंते! उत्तरकुराए कुराए जमगा नाम दुवे पव्वता पन्नत्ता?, गोयमा! नीलवंतस्स वासधरपव्वयस्स दाहिणणं अट्ठचोत्तीसे जोयणसते चत्तारिय सत्तभागेजोयणस्स अबाधाए सीताए महाणईए (पुन्वपच्छिमेणं) उभओ कूले, इत्थ णं उत्तर कुराए जमगा णाम दुवे पव्वता पण्णसा एगमेगं जोयणसहस्सं उ8 उच्चत्तेणं अड्डाइजाई जोयणसताणि उव्वेहेणं मूले एगमेगं जोयणसहस्सं आयामविक्खंभेणं मज्झे अट्ठमाई जोयणसताई आयामविक्खंभेणं उवरिं पंचजोयणसयाइं आयामविक्खंभेणं मूले तिणि जोयणसहस्साइं एगं च बावहि जोयणसतं किंचिविसेसाहियं परिक्खेवेणं मज्झे दो जोयणसहस्साई तिन्नि य बावत्तरे जोयणसते किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ प्रतिपर्स यमकपवंताधि० उद्देश:२ सू० १४८ पन्नत्ते उवरि पन्नरसं एक्कासीते जोयणसते किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णत्ते, मूले विच्छिपणा मज्झे संखित्ता उपि तणुया गोपुच्छसंठाणसंठिता सव्वकणगमया अच्छा सण्हा जाव पडिरूवा पत्तेयं २ पउमवरवेइयापरिक्खित्ता पत्तेयं २ वणसंडपरिक्खित्ता, वपणओ दोण्हवि, तेसि णं जमगपव्वयाणं उपि बहसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते वण्णओ जाव आसयंति०॥ तेसि णं बहुसमरमणिज्जाणं भूमिभागाणं यहुमज्झदेसभाए पत्तेयं २ पासायवडेंसगा पण्णत्ता, ते णं पासायवडेंसगा बावहि जोयणाई अद्धजोयणं च उ8 उच्चत्तेणं एकत्तीसं जोयणाई कोसं च विक्खंभेणं अभुग्गतमूसिता वण्णओ भूमिभागा उल्लोता दो जोयणाई मणिपेढियाओ वरसीहासणा सपरिवारा जाव जमगा चिट्ठति ॥से केणद्वेणं भंते! एवं बुचति जमगा पव्वता? २, गोयमा! जमगेसु णं पव्वतेसु तत्थ तत्थ देसे तहिं तहिं बहुइओ खुड्डाखुड्डियाओ वावीओ जाव थिलपंतिताओ, तासु णं खुडाखुड़ियासु जाव बिलपंतियासु यह उप्पलाई २ जाव सतसहस्सपत्ताई जमगप्पभाई जमगवण्णाई, जमगा य एत्थ दो देवा महिद्दीया जाव पलिओवमद्वितीया परिवसंति, ते णं तत्थ पत्तेयं पत्तेयं चउण्हं सामाणियसाहस्सीणं जाव जमगाण पव्वयाणं जमगाण य रायधाणीणं अण्णोसिंच यढणं वाणमंतराणं देवाण य देवीण य आहेवच्चं जाव पालेमाणा विहरंति, से तेणटेणं गोयमा! एवं० जमगपव्यया २, अदुत्तरं च णं गोयमा! जाव णिचा 5 ॥२८५ 4 + Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ कहि णं भंते! जमगाणं देवाणं जमगाओ नाम रायहाणीओ पण्णत्ताओ?, गोयमा! जमगाणं पव्वयाणं उत्तरेणं तिरियमसंखेज्जे दीवसमुद्दे वीइवतित्ता अण्णंमि जंबूद्दीवे २ बारस जोयणसहस्साई ओगाहित्ता एत्थ णं जमगाणं देवाणं जमगाओ णाम रायहाणीओ पण्णत्ताओ बारस जोयणसहस्स जहा विजयस्स जाव महिड्डिया जमगा देवा जमगा देवा ॥ (सू०१४८) 'कहि णं भंते !' इत्यादि, क भदन्त! उत्तरकुरुषु कुरुषु यमको नाम द्वौ पर्वतौ प्रज्ञप्तौ ?, भगवानाह-गौतम! नीलवतो वर्षधर-1 पर्वतस्य दाक्षिणात्याच्चरमान्तात्-चरमरूपात्पर्यन्तादष्टौ योजनशतानि चतुस्त्रिंशदधिकानि चतुरश्च योजनस्य सप्तभागान् अबाधया कृत्वा-अपान्तराले मुक्त्वेति भावः, अनान्तरे शीताया महानद्या: 'पूर्वपश्चिमेन' पूर्वपश्चिमयोर्दिशोरुभयोः कूलयोः 'अत्र' एतस्मिन् | प्रदेशे यमको नाम द्वौ पर्वतौ प्रज्ञप्तौ, तद्यथा-एकः पूर्वकूले एकः पश्चिमकूले, प्रत्येकं चैकं योजनसहस्रमुच्चैस्त्वेन, अर्द्धतृतीयानि यो-2 जनशतान्युद्वेधेन-अवगाहेन, मेरुव्यतिरेकेण शेपशाश्वतपर्वतानां सर्वेषामविशेषेणोवैस्त्वापेक्षया चतुर्भागस्यावगाहनाभावात् , मूले एकयोजनसहस्रं विष्कम्भतः १०००, मध्येऽर्द्धाष्टमानि योजनशतानि ७५०, उपरि पञ्च योजनशतानि ५००, मूले त्रीणि योजनसहस्राणि एकं च द्वाषष्ट-द्वाषष्ट्यधिक योजनशतं किञ्चिद्विशेषाधिक परिक्षेपेण प्रज्ञप्तौ ३१६२, मध्ये द्वे योजनसहस्रे त्रीणि योजनशतानि द्वासप्ततानि-द्वासप्तत्यधिकानि ३३७२ किञ्चिद्विशेषाधिकानि परिक्षेपेण प्रज्ञप्तौ, उपरि एक योजनसहस्रं पञ्च चैकाशीतानि-एका शीत्यधिकानि योजनशतानि किञ्चिद्विशेषाधिकानि १५८१ परिक्षेपेण, एवं च तो मूले विस्तीर्णी मध्ये सङ्किप्तौ उपरि च तनुकावत 15 एव गोपुच्छसंस्थानसंस्थितौ, 'सव्वकणगमया' इति सर्वासना कनकमयो 'अच्छा जाव पडिरूवा' इति प्राग्वत् , तौ च प्रत्येक Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ प्रतिपत्ती यमकपवंताधिक उद्देशः२ सू०१४८ प्रत्येक पग्रवरवेदिकया परिक्षिप्तौ प्रत्येकं २ वनखण्डपरिक्षिप्ती, पद्मवरवेदिकावर्णको वनखण्डवर्णकञ्च जगत्युपरिपावरवेदिकावनपण्डवर्णकवद् वक्तव्यः ।। 'तेसि णं जमगपच्चयाण'मित्यादि, यमकपर्वतयोरुपरि प्रत्येक बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रतप्तः, भूमिभागवर्णनं से जहानामए आलिंगपुक्खरेइ वा' इत्यादि प्राग्वत्तावद्वक्तव्यं यावद् 'वाणमंतरा देवाय देवीओ य आसयंति सयंति जाव पञ्चणभवमाणा विहरंति' ॥ 'तेसि णमित्यादि, तयोर्यहुसमरमणीययोर्भूमिभागयोर्वामध्यदेशभागे प्रत्येकं प्रत्येकं प्रासादावतंसक: प्राप्तः, तौ च प्रासादावतंसको द्वापष्टिर्योजनान्यद्धयोजनं चोर्द्धमुस्त्वेन, एकत्रिंशद् योजनानि क्रोशं चैकं विष्कम्भेन, 'अभुग्गयमूसियपहसिया इवेत्यादि यावत् पडिरूवा' इति प्रासादावतंसकवर्णनमुल्लोचवर्णनं भूमिभागवर्णनं मणिपीठिकावर्णनं सिंहासनवर्णन विजयदूष्यवर्णनमशवर्णनं दामवर्णनं च निरवशेष प्रावद्वक्तव्यं, नवरमत्र मणिपीठिकायाः प्रमाणमायामविष्कम्भाभ्यां वे योजने, बाइल्येनेक योजनं, शेषं तथैव । 'तेसि णं सिंहासणाण'मित्यादि, तयोः सिंहासनयोः प्रत्येकम् 'अवरुत्तरेणं'ति अपरोत्तरस्यां वायव्यामित्यर्थः उत्तरस्यामुत्तरपूर्वस्यां च दिशि, अत एतासु तिसृपु दिक्षु 'यमकयोः' यमकनानोर्यमकपर्वतस्वामिनोदैवयोः प्रत्येक प्रत्येक चतुर्णा सामानिकसहस्राणां योग्यानि चत्वारि भद्रासनसहस्राणि प्रज्ञप्तानि, एवमनेन क्रमेण सिंहासनपरिवारो वक्तव्यो यथा प्राग्वि जयदेवस्य ॥ 'तेसि ण'मित्यादि, तयोः प्रासादावतंसकयोः प्रत्येकमुपर्यष्टावष्टौ मङ्गलकानि प्रशतानि इत्याद्यपि प्राग्वत्तावद्वक्तव्यं या* वत् 'सयसहस्सपत्तगा' इति पदम् ॥ सम्प्रति नामनिवन्धनं पिपृच्छिपुरिदमाह-अथ 'केनार्थेन' केन कारणेन एवमुच्यते-यमक5 पर्वतौ यमकपर्वतौ ? इति, भगवानाह-गौतम! यमकपर्वतयोः णमिति वाक्यालङ्कारे क्षुल्लकक्षुल्लिकासु वापीपुष्करिणीषु यावद्विलप लिपु बहूनि यावत्सहस्रपत्राणि 'यमकप्रभाणि' यमका नाम-शकुनिविशेपास्तत्प्रभानि-तदाकाराणि, एतदेव व्याचष्टे-यमकवर्णाभानि 151592 MUS240 ॥२८६॥ Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - यमकवर्णसदृशवर्णानीत्यर्थः, 'यमकौ च' यमकनामानौ च तत्र - तयोर्यमकपर्वतयोः स्वामित्वेन द्वौ देवौ महर्द्धिको यावन्महाभागौ पल्योपमस्थितिको परिवसतः, तौ च तत्र प्रत्येकं चतुर्णां सामानिकसहस्राणां चतसृणामप्रमहिषीणां सपरिवाराणां तिसृणामभ्यन्तर| मध्यमबाह्यरूपाणां यथासङ्ख्यमष्टदशद्वादशदेवसहस्रसङ्ख्याकानां पर्षदां सप्तानामनीकानां सप्तानामनीकाधिपतीनां षोडशानामा सरक्षदेवसहस्राणां 'जमगपव्वयाणं जमगाण य रायहाणीण' मिति स्वस्य स्वस्य यमकपर्वतस्य स्वस्य स्वस्य यमिकाभिधाया राजधान्या अन्येषां च बहूनां वाणमन्तराणां देवानां देवीनां च स्वस्वयमिकाभिधराजधानीवास्तव्यानामाधिपत्यं यावद्विहरतः, यावत्करणात् 'पो| वश्यं सामित्तं भट्टित्तमित्यादिपरिग्रहः, ततो यमकाकारयमकवर्णोत्पलादियोगाद्यमकाभिधदेवस्वामिकत्वाच तौ यमकपर्वतावित्युच्येते, तथा चाह—' से एएणडेण' मित्यादि ॥ सम्प्रति यमिकाभिधराजधानीस्थानं पृच्छति - कहि णं भंते' इत्यादि, क भदन्त ! यमकयो| देवयोः सम्बन्धिन्यौ यमिके नाम राजधान्यौ प्रज्ञप्तौ ?, भगवानाह - गौतम ! यमकपर्वतयोरुत्तरतोऽन्यस्मिन्नसङ्ख्येयतमे जम्बूद्वीपे द्वीपे द्वादश योजनसहस्राणि अवगाह्यान्त्रान्तरे यमकयोर्देवयोः सम्बन्धिन्यो यमिके नाम राजधान्यौ प्रज्ञप्ते, ते चाविशेषेण विजयराजधानीसदृशे वक्तव्ये । सम्प्रति इदवक्तव्यतामभिधित्सुराह कहिणं भंते! उत्तरकुराए २ नीलवंतद्दणामं दहे पण्णत्ते ?, गोयमा ! जमगपव्वयाणं दाहिणेणं अहत्ती जोयणसते चत्तारि सत्तभागा जोयणस्स अवाहाए सीताए महाणईए बहुमज्झदेस भाए, एत्थ उत्तरकुराए २ नीलवंतद्दहे नामं दहे पन्नत्ते, उत्तरदक्खिणायए पाईणपडीणविच्छिन्ने एगं. जोयणसहस्सं आयामेणं पंच जोयणसताइं विक्खंभेणं दस जोयणाई उव्वेहेणं अच्छे सण्हे रयतामत Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++++++ " कूले चउक्कोणे समतीरे जाव पडिरूवे उभओ पासिं दोहि य पउमवरवेइयाहिं वणसंडेहिं सव्यतो समता संपरिक्खित्ते दोण्हवि वण्णओ ॥ नीलवंतदहस्स णं दहस्स तत्थ २ जाव यहवे तिसोवाणपडिरूवगा पण्णत्ता, वण्णओ भाणियत्र्वी जाव तोरणत्ति ॥ तस्स णं नीलवंतद्दहस्स णं दहस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं एगे महं पउमे पण्णत्ते, जोयणं आयामविक्खंभेणं तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं अद्धजोयणं बाहल्लेणं दस जोयणाई उब्वेहेणं दो कोसे ऊसिते जलं - तातो सातिरेगाई दसद्धजोयणादं सव्वग्गेणं पण्णत्ते ॥ तस्स णं पउमस्स अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तंजहा - वइरामता मूला रिट्ठामते कंदे वेरुलियामए नाले वेरुलियामता बाहिरपत्ता जंबूणयमा अभितरपत्ता तवणिज्जमया केसरा कणगामई कण्णिया नाणामणिमया पुक्खरत्थिभुता ॥ सा णं कण्णिया अद्धजोयणं आयामविक्खंभेणं, तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं कसं बाहल्लेणं सव्वप्पणा कणगमई अच्छा सण्हा जाव पडिरूवा ॥ तीसे णं कण्णियाए उवरिं बहुसमरमणिज्जे देसभाए पण्णत्ते जाव मणीहिं ॥ तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं एगे महं भवणे पण्णत्ते, कोसं आयामेणं अद्धकोसं विक्खंभेणं देणं कसं उद्धं उच्चत्तेणं अणेगखंभसतसंनिविडं जाव वण्णओ, तस्स णं भवणस्स तिदिसिं ततो द्वारा पण्णत्ता पुरत्थिमेणं दाहिणेणं उत्तरेणं, ते णं द्वारा पंचधणुसयाई उड्डुं उच्च सेणं ३ प्रतिपत्तौ नीलवद्रदाधि० उद्देशः २ सू० १४९ ॥ २८७ ॥ Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अड्डाइजाइं धणुसताइं विक्खंभेणं तावतियं चेव पवेसेणं सेया वरकणगथूभियागा जाव वणमालाउत्ति ॥ तस्स णं भवणस्स अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते से जहा नामए-आलिंगपुक्खरेति वा जाव मणीणं वण्णओ॥ तस्स णं बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं मणिपेढिया पण्णत्ता, पंचधणुसयाई आयामविक्खंभेणं अड्डाइजाई. धणुसताई बाहल्लेणं सव्वमणिमई ॥ तीसे णं मणिपेढियाए उवरि एत्थ णं एगे महं देवसयणिज्ने पण्णत्ते, देवसयणिज्जस्स वण्णओ ॥ सेणं पउमे अण्णेणं अट्ठसतेणं तदबुच्चत्तप्पमाणमेत्ताणं पउमाणं सव्वतो समंता संपरिक्खित्ते ॥ ते णं पउमा अद्धजोयणं आयामविक्खंभेणं तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं कोसं बाहल्लेणं दस जोयणाई उब्वेहेणं कोसं ऊसिया जलंताओ साइरेगाइं ते दस जोयणाई सव्वग्गेणं पण्णत्ताई ॥ तेसि णं पउमाणं अयमेयाख्वे वण्णावासे पण्णत्ते, तंजहावइरामया मूला जाव णाणामणिमया पुक्खरस्थिभुगा ॥ ताओ णं कण्णियाओ कोसं आयामविक्खंभेणं तं तिगुणं स० परि० अद्धकोसं बाहल्लेणं सव्वकणगामईओ अच्छाओ जाव पडिरूवाओ॥ तासि णं कणियाणं उपि बहुसमरमणिज्जा भूमिभागा जाव मणीणं वण्णो गंधो फासो ॥ तस्स णं पउमस्स अवरुत्तरेणं उत्तरेणं उत्तरपुरच्छिमेणं नीलवंतद्दहस्स कुमारस्स चउण्हं सामाणियसाहस्सीणं चत्तारि पउमसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, एवं (एतेणं) सव्वो परिवारो Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवरि पउमाणं भाणितव्यो ॥ से णं पउमे अण्णेहिं तिहिं पउमवरपरिक्खेवेहिं सवतो समंता ६ ३ प्रतिपत्तो संपरिक्खित्ते, तंजहा-अंभितरेणं मज्झिमेणं याहिरएणं, अम्भितरएणं पउमपरिक्खेवे बसीसं नीलवद्रपउमसयसाहस्सीओ प०, मज्झिमए णं पउमपरिक्खेवे चत्सालीसं पउमसयसाहस्सीओ पं० * दाधि० बाहिरए णं पउमपरिक्खेवे अडयालीसं पउमसयसाहस्सीओ पण्णसाओ, एवामेव सपुत्वावरेणं ६ उद्देशः २ एगा पउमकोडी वीसं च पउमसतसहस्सा भवंतीति मक्खाया।से केणटुणं भंते! एवं वुचति सू०१४९ णीलवंतहहे दहे?, गोयमा! णीलवंतद्दहे णं तत्थ तत्थ जाई उप्पलाई जाव सतसहस्सपसाई नीलवंतप्पभातिं नीलवंतद्दहकुमारे य० सो चेव गमो जाव नीलवंतदहे २॥ (सू० १४९) 'कहि णं भंते !' इत्यादि, क भदन्त ! उत्तरकुरुपु कुरुपु नीलव-इदो नाम इदः प्रज्ञप्तः ?, भगवानाह-गौतम! यमकपर्वतयो5 दक्षिणाञ्चरमान्तादुर्वाग् दक्षिणाभिमुखमष्टौ 'चतुस्त्रिंशानि' चतुरिंशदधिकानि योजनशतानि चतुरश्च सप्तभागाम् योजनस्यावाधया - कृवेति गम्यते अपान्तराले मुक्त्वेति भावः, अत्रान्तरे शीताया महानद्या बहुमध्यदेशभागे 'एत्थ णं'ति एतस्मिमवकाशे उत्तरकुरुपु कुरुपु नीलव-इदो नाम इदः प्रज्ञप्तः, स च किंविशिष्टः ? इत्याह-उत्तरदक्षिणायतः प्राचीनापाचीनविस्तीर्णः, उत्तरदक्षिणाभ्यामव यवाभ्यामायत उत्तरदक्षिणायतः, प्राचीनापाचीनाभ्यामवयवाभ्या विस्तीर्णः प्राचीनापाचीनविस्तीर्णः, एकं योजनसहनमायामेन, पञ्च है योजनशतानि विष्कम्भतः, दश योजनान्युद्वेधेन-उण्डत्वेन, 'अच्छः' स्फटिकवद्भहिनिमलप्रदेश: 'श्लक्ष्णः' श्लक्ष्णपुद्गलनिर्मापितवहिः-६ ॥२८॥ प्रदेशः, तथा रजतमयं-रूप्यमयं कूलं यस्यासौ रजतमयकूलः, इत्यादि विशेषणकदम्बकं जगत्युपरिवाप्यादिवत्ताबद्वक्तव्यं यावदिदं ACCASCALCOMGANGANAGARIKAMGAR KANGANAGAR Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्यन्तपदं 'पडिहत्थभमंतमच्छकच्छपअणेगसउणमिणपरियरिए' इति । 'उभओपासे' इत्यादि, स च नीलवन्नामा र ताया महानद्या उभयोः पार्श्वयोर्बहिर्विनिर्गतः, स तथाभूतः सनुभयोः पाश्वयोःभ्यां पद्मवरवेदिकाभ्याम् , एकस्मिन् पावे एकया पचवरलेटिकया द्वितीये पावे द्वितीयया पवरवेदिकयेत्यर्थः, एवं द्वाभ्यां वनषण्डाभ्यां "सर्वतः' सर्वासु दिक्षु 'समन्ततः' सामस्त्येन संपरिक्षिप्तः, पद्मवरवेदिकावनषण्डवर्णकश्च प्राग्वत् ॥ 'नीलवंतदहस्स णं दहस्स तत्थ तत्थे'त्यादि, नीलवड्दस्य णमिति वाक्यालहारे तत्र तत्र देशे तस्य तस्य देशस्य तत्र तत्र प्रदेशे बहूनि त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि-प्रतिविशिष्टरूपकाणि त्रिसोपानानि प्रज्ञप्तानि, वर्णकस्तेषां प्राग्वद्वक्तव्यः ॥ तेसि णमित्यादि, तेषां च त्रिसोपानप्रतिरूपकाणां पुरतः प्रत्येकं प्रत्येकं तोरणं प्रज्ञप्तं, 'ते णं तोरणा' इत्यादि तोरणवर्णनं पूर्ववत्तावद्वक्तव्यं यावत् 'बहवो सयसहस्सपत्तहत्थगा' इति पदम् ॥ 'तस्स ण'मित्यादि, तस्य नीलवन्नानो हदस्य बहमध्यदेशभागे, अत्र महदे पनं प्रज्ञप्तं योजनमायामतो विष्कम्भतश्चाईयोजनं बाहुल्येन दश योजनानि 'उद्वेधेन' उण्डलेन जलपर्यन्ताद द्वौ क्रोशौ उच्छितं सर्वांग्रेण सातिरेकाणि दश योजनशतानि प्रज्ञप्तानि ॥ 'तस्स ण'मित्यादि, तस्य पद्मस्य 'अयं' वक्ष्यमाणः 'एतद्पः' अनन्तरमेव वक्ष्यमाणवरूपः 'वर्णावासः' वर्णकनिवेशः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-वामयं मूलं रिष्ठरत्नमयः कन्दो वैडूर्यरत्नमयो नालः, वैडूर्यरत्नमयानि बाह्यपत्राणि, जाम्बूनदमयान्यभ्यन्तरपत्राणि, तपनीयमयानि केसराणि, कनकमयी पुष्करकर्णिका, नानामणिमयी पुष्करस्थिबुका ॥ “सा णं कणिया अद्ध'मित्यादि, सा कर्णिकाऽर्द्धयोजनमायामविष्कम्भाभ्यां क्रोशमेकं बाहल्यतः सर्वात्मना कनकमयी अच्छा यावत्प्रतिरूपा, यावत्करणात् 'सण्हा लण्हा घट्टा मट्ठा नीरया' इत्यादि परिग्रहः॥ 'तीसे णं कणियाए' इत्यादि, तस्याः कर्णिकाया उपरि बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, तद्वर्णनं च से जहानामए आलिंगपुक्खरेइ वेत्यादिना ग्र Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नीलवद्रदाधिक उद्देशः२ सू०१४९ kRECIPEECREASESAMAR न्थेन विजयराजधान्या उपकारिकालयनस्येव तावद्वक्तव्यं यावन्मणीनां स्पर्शवक्तव्यतापरिसमाप्तिः ॥ 'तस्स ण'मित्यादि, तम्य बहु-ट्र * समरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागे अत्र महदेकं भवनं प्रजप्तं क्रोशमायामतोऽद्धकोशं विफम्भतो देशोनं क्रोशमूईमुरैस्वेन, अनेकस्तम्भशतसग्निविष्टमित्यादि तद्वर्णनं विजयराजधानीगतमुधर्मसमाया इव तावद्वक्तव्यं यावदिदं सूत्रं 'दिव्यतुडियसरसंपणदिते' इति, तदनन्तरं सूत्रमाह-सवरयणामए' इत्यादि सर्वात्मना रनमयम् अच्छं यावत्प्रतिरूपं, यावत्करणान् 'सण्हे लण्हे चहे महे' इत्यादिपरिग्रहः । तस्स णमित्यादि तस्य भवनस्य 'त्रिदिशि' तिसपु दिनु एकैकस्यां दिशि एफैकवारभावेन त्रीणि द्वाराणि प्राप्तानि, तद्यथा -पूर्वस्यामुत्तरस्यां दक्षिणस्याम् ॥ 'ते णं दारा' इत्यादि, तानि द्वाराणि पचधनु:शनानि ऊर्जमुबैरत्वेन, अर्द्धतृतीयानि धनुःशतानि विष्कम्मेन, तावदेव-अर्द्धतृतीयान्येव धनुःशतानीति भावः प्रवेशेन । 'सेयावरकणगभिया' इत्यादि द्वारवर्णनं विजयद्वारस्मेव तावदविशेषेणावसातव्यं यावत् 'वणमालाओ' इति वनमालावक्तव्यतापरिसमाप्तिः ॥ 'तस्स णमित्यादि, तस्य भवनम्म उहोचोsन्तबहुसमरमणीयो भूमिभागो मणीनां वर्णगन्धरसस्पर्शवर्णनं प्राग्वत् ॥ 'तस्स 'मित्यादि, तस्य यदुसमरमणीयस्प भूमिभागस्प पहुमध्यदेशभागे मणिपीठिका प्रज्ञाप्ता, पञ्चधनुःशतान्यायामविष्कम्भाभ्यां अर्द्धतृतीयानि धनु.शतानि वाहत्येन सर्वासना मणिमयी अच्छा यावत्प्रतिरूपा इति प्राग्वत् ॥ 'तीसे णमित्यादि, तस्या मणिपीठिकाया उपर्यत्र महदेकं देवशयनीयं प्रज्ञप्त, शयनीयवर्णकः प्राॐ ग्वत् । 'तस्स णमित्यादि, तस्य भवनस्य उपर्यष्टावष्टौ स्वस्तिकादीनि मङ्गलकानीत्यादि पूर्ववत्तावद्वक्तव्यं यावदहवः सहनपत्रहस्तका इति ।। 'से ण'मित्यादि, तत्पमन्येनाष्टशतेन पनानां तदोषखप्रमाणमात्राणां-तस्य मूलपचप्रमाणस्माई तदर्दै तब तद् उपत्यप्रमाणं च तदर्वोचत्वप्रमाणं तत् मात्रा येषां ते तानि तथा तेषां, 'सर्वतः सर्वासु विशु 'समस्ततः' सामस्त्येन संपरिक्षिप्तं । तब ॥२८९॥ Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोश्चत्वप्रमाणमेव तेषां भावयति-ते णं पउमा' इत्यादि, तानि पानि प्रत्येकमर्द्धयोजनमायामविष्कम्भाभ्यां क्रोशमेकं बाहल्येन दश योजनशतानि उद्वेधेन क्रोशमेकं जलपर्यन्तादुच्छ्रितं सातिरेकाणि दश योजनशतानि सर्वाग्रेण ॥ 'तेसि ण'मित्यादि, तेषां पद्मानामयमेतद्रूपो वर्णावासः प्रज्ञप्तः, वनमयानि मूलानि रिष्ठरत्नमयाः कन्दाः वैडूर्यरत्नमया नाला: तपनीयमयानि बाह्यपत्राणि जाम्बूनदमयानि अभ्यन्तरपत्राणि तपनीयमयानि केशराणि कनकमय्यः कर्णिकाः नानामणिमयाः पुष्करस्थिभुगाः ॥ 'ताओ णं कण्णियाओ' इत्यादि, ताः कर्णिकाः क्रोशमायामविष्कम्भाभ्यामर्द्धकोशं बाहल्येन सर्वासना कनकमय्यः 'अच्छाओ जाव पडिरूवाओं इति प्राग्वत् ॥ 'तासि णं कणियाण'मित्यादि, तासां कर्णिकानामुपरि बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, तस्य वर्णकः पूर्ववत्ता वद्वक्तव्यो यावन्मणीनां स्पर्शः ॥ तस्स णमित्यादि, तस्य मूलभूतपद्मस्य 'अपरोत्तरेण' अपरोत्तरस्यां, एवमुत्तरस्यामुत्तरपूर्वस्यां, हा सर्वसङ्कलनया तिसृषु दिक्षु अत्र नीलवतो नागकुमारेन्द्रस्य नागकुमारराजस्य चतुर्णा सामानिकसहस्राणां योग्यानि चत्वारि पद्म सहस्राणि प्रज्ञप्तानि । 'एतेण'मित्यादि, एतेनानन्तरोदितेनाभिलापेन यथा विजयस्य सिंहासनपरिवारोऽभिहितस्तथेहापि पनपरि3. वारो वक्तव्यः, तद्यथा-पूर्वस्यां दिशि चतसृणामग्रमहिषीणां योग्यानि चत्वारि महापद्मानि, दक्षिणपूर्वस्यामभ्यन्तरपर्षदोऽष्टानां देव सहस्राणां योग्यान्यष्टौ पमसहस्राणि, दक्षिणस्यां मध्यमपर्षदो दशानां देवसहस्राणां योग्यानि दश पद्मसहस्राणि, दक्षिणापरस्यां वाह्यपर्षदो द्वादशानां देवसहस्राणां द्वादश पद्मसहस्राणि, पश्चिमायां सप्तानामनीकाधिपतीनां योग्यानि सप्त महापद्मानि प्रज्ञप्तानि, तद्नन्तरं तस्य द्वितीयस्य पद्मपरिवेषस्य पृष्ठतश्चतसृषु दिक्षु षोडशानामामरक्षकदेवसहस्राणां योग्यानि षोडश पद्मसहस्राणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-चत्वारि पद्मसहस्राणि पूर्वस्यां दिशि चत्वारि पद्मसहस्राणि दक्षिणस्यां चत्वारि पद्मसहस्राणि पश्चिमायां चत्वारि पद्मसह %ARISEARCHASAMAY Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + KAKKARAN नाण्युत्तरस्यामिति । तदेवं मूलपद्मस्य त्रयः पद्मपरिवेपा अभूवन् , अन्येऽपि च त्रयो विद्यन्त इति तत्प्रतिपादनार्थमाह-से णं प्रतिपत्तौ पउमें इत्यादि, तत् पचमन्यैरनन्तरोक्तपरिक्षेपत्रिकव्यतिरिक्तनिभिः पद्मपरिवेपैः 'सवेतः' सवोंसु दिक्षु 'समन्ततः' सामस्त्येन x नीलवरहै संपरिक्षिप्तं, तद्यथा-अभ्यन्तरेण मध्यमेन वाह्येन च, तत्राभ्यन्तरे पद्मपरिक्षेपे सर्वसत्यया द्वात्रिंशत्पद्मशतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि ॐदाधि० ३२०००००, मध्ये पद्मपरिक्षेपे चत्वारिंशत् शतसहस्राणि ४००००००, बाह्ये पद्मपरिक्षेपेऽष्टाचत्वारिंशत्पशतसहस्राणि उद्देशः २ ४८००००० प्रज्ञप्तानि । 'एवमेव' अनेनैव प्रकारेण 'सपुवावरेणं'ति सह पूर्व यस्य येन वा सपूर्व सपूर्व च तद् अपरं च सपू- सू० १४९ वापरं तेन, पूर्वापरसमुदायेनेत्यर्थः, एका पाकोटी विंशतिश्व पद्मशतसहस्राणि भवन्तीत्याख्यातं मया शेपैश्च तीर्थकृद्भिः, एतेन सर्वतीर्थकतामविसंवादिवचनतामाह, कोट्यादिका च सक्या स्वयं मीलनीया, द्वात्रिंशदादिशतसहस्राणामेकत्र मीलने यथोक्तसङ्ख्याया अवश्य भावात् ॥ सम्प्रति नामान्वर्थ पिपृच्छिपुराह-से केणद्वेणं भंते!' इत्यादि, अथ केनार्थेनैवमुच्यते नीलवइदो नीलवन्इदः ? इति, भगवानाह-गौतम! नीलव-हदे तत्र तत्र देशे तस्य तस्य देशस्य तत्र तत्र प्रदेशे बहूनि 'उत्पलानि' पनानि यावत्सहस्रपत्राणि नीलव-हदप्रभाणि-नीलवन्नाम हृदाकाराणि 'नीलवद्वर्णानि' नीलवन्नामवर्पधरपर्वतस्तद्वर्णानि नीलानीति भावः, नीलवनामा च नागकुमारेन्द्रो नागकुमारराजो महर्दिक इत्यादि यमकदेववभिरवशेपं वक्तव्यं यावद्विहरति, ततो यस्मात्तद्गतानि पद्मानि नीलबद्वर्णानि नीलवन्नामा च तदधिपतिर्देवस्ततस्तद्योगादसौ नीलवन्नामा इदः, तथा चाह-से एएणडेण'मित्यादि ॥ कहि णं भंते ! नीलवंतदहस्से'त्यादि राजधानीविषयं सूत्रं समस्तमपि प्राग्वत् ॥ ॥२९ ॥ नीलवंतदहस्स णं पुरथिमपञ्चस्थिमेणं दस जोयणाई अबाधाए एस्थ णं दस दस कंचणगप Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्वता पण्णत्ता, ते णं कंचणगपव्वता एगमेगं जोयणसतं उहुं उच्चत्तेणं पणवीसं २ जोयणाई उव्वेहेणं मूले एगमेगं जोयणसतं विक्खंभेणं मज्झे पण्णत्तरि जोयणाई [आयाम]विक्खंभेणं उवरिं पण्णासं जोयणाई विक्खंभेणं मूले तिणि सोले जोयणसते किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं मज्झे दोन्नि सत्ततीसे जोयणसते किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं उवरिं एगं अट्ठावण्णं जोयणसतं किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं मूले विच्छिण्णा मज्झे संखित्ता उम्पि तणुया गोपुच्छसंठाणसंठिता सव्वकंचणमया० अच्छा, पत्तेयं २ पउमवरवेतिया० पत्तेयं २ वणसंडपरिक्खित्ता॥ तेसि णं कंचणगपव्वताणं उप्पिं बहुसमरमणिजे भूमिभागे जाव आसयंति० तेसि णं० पत्तेयं पत्तेयं पासायवडेंसगा सडबावहिँ जोयणाई उडे उच्चत्तेणं एक्कतीसं जोयणाई कोसं च विक्खंभेणं मणिपेढिया दोजोयणिया सीहासणं सपरिवारा॥ से केणटेणं भंते! एवं वुचति-कंचणगपव्वता कंचणगपव्वता?, गोयमा! कंचणगेसु णं पव्वतेसु तत्थ तत्थ वावीसु उप्पलाइं जाव कंचणगवण्णाभाति कंचणगा जाव देवा महिड्डीया जाव विहरंति, उत्तरेणं कंचणगाणं कंचणियाओ रायहाणीओ अण्णंमि जंबू० तहेव सव्वं भाणितव्वं ॥ कहि णं भंते! उत्तराए कुराए उत्तरकु- - रुद्दहे पण्णत्ते?, गोयमा! नीलवंतद्दहस्स दाहिणणं अद्धचोत्तीसे जोयणसते, एवं सो चेव गमो णेतव्वो जो णीलवंतद्दहस्स सव्वेसिं सरिसको दहसरिनामा य देवा, सव्वेसिं पुरथिमपञ्चत्थिमेणं Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6156456 ३ प्रतिपत्ती काञ्चनपर्वताधि० उद्देशः २ सू० १५० कंचणगपव्वता दस २ एकप्पमाणा उत्तरेणं रायहाणीओ अण्णमि जंबुद्दीवे । कहिणं भंते! चंददहे एरावणबहे मालवंतद्दहे एवं एकेको णेयव्वो ॥ (सू० १५०) . 'नीलवंतदहस्स ण'मित्यादि, नीलवतो इदस्य 'पुरथिमपञ्चत्थिमेणं ति पूर्वस्या पश्चिमायां च दिशि प्रत्येक दश दश योज-1 नान्यबाधया कृत्वेति गम्यते, अपान्तराले मुक्त्वेति भावः, दश दश काञ्चनपर्वता दक्षिणोत्तरश्रेण्या प्रज्ञप्ताः, ते च काचनकाः पर्वताः प्रत्येकमेकं योजनशतमूर्द्धमुञ्चैस्त्वेन पञ्चविंशतियोजनान्युद्वेधेन मूले एक योजनशतं विष्कम्भेन मध्ये पश्चसप्ततियोजनानि विष्क-% म्भेन उपरि पञ्चाशद्' योजनानि विष्कम्भेन, मूले त्रीणि पोडशोत्तराणि योजनशतानि ३१६ किश्चिद्विशेपाधिकानि परिक्षेपेण मध्ये ॐ वे सप्तविंशे योजनशते २२७ किञ्चिद्विशेपोने परिक्षेपेण उपर्येकमष्टापञ्चाशं योजनशतं १५८ किश्चिद्विशेपोनं परिक्षेपेण, अत एव मूले विस्तीर्णा मध्ये सहिप्ता उपरि तनुकाः अत एव गोपुच्छसंस्थानसंस्थिताः सर्वासना कनकमयाः 'अच्छा जाव पडिरूवा' इति * प्राग्वत् । तथा प्रत्येक प्रत्येक पावरवेदिकया परिक्षिप्ता: प्रत्येक प्रत्येक वनपण्डपरिक्षिप्ताश्य, पावरवेदिकावनपण्डवणेनं प्राग्वत् ॥ 'तास णमित्यादि, तेषां काञ्चनपर्वतानामुपरि बहुसमरमणीया भूमिभागाः प्रज्ञप्ताः, तेषां च वर्णनं प्राग्वत्तावद्वक्तव्यं यावत्तृणानां मणाना च शब्दवणेनमिति ॥ 'तेसि णमित्यादि, तेपां बहुसमरमणीयानां भूमिभागानां बहुमध्यदेशभागे प्रत्येक प्रत्येक प्रासादावतसकाः प्राप्ताः, प्रासाद्वक्तव्यता यमकपर्वतोपरि प्रासादावतंसकयोरिव निरवशेपा वक्तव्या यावत्सपरिवारसिंहासनवक्तव्यतापरिसमाप्तिः ।। सम्प्रति नामान्वथै पिच्छिपुरिदमाह-से केणटेण'मित्यादि प्राग्वन्नवरं यस्मादुत्पलादीनि काचनप्रभानि काश्चननामानश्च देवास्तत्र परिवसन्ति ततः काञ्चनप्रभोत्पलादियोगात् काचनकाभिधदेवखामिकत्वाच ते काञ्चनका इति, तथा चाह-से एएणडे W ॥२९ ॥ Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ण'मित्यादि । काञ्चनिकाश्च राजधान्यो यमिकाराजधानीव वक्तव्याः॥'कहिणं भंते!' इत्यादि, क भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे उत्तरकुरुषु कुरुषु उत्तरकुरुहदो नाम इदः प्रज्ञप्तः?, भगवानाह-गौतम! नीलवतो इदस्य दाक्षिणात्याचरमपर्यन्तादष्टौ 'चतस्त्रिंशानि' चतुस्त्रिंशदधिकानि योजनशतानि चतुरश्च योजनस्य सप्तभागान् अबाधया कृत्वेति गम्यते शीताया महानद्या बहुमध्यदेशभागे अत्रोत्तरकुरुनामा इदः प्रज्ञप्तः, यथैव प्राग नीलवतो हदस्यायामविष्कम्भोद्वेधपद्मवरवेदिकावनषण्डत्रिसोपानप्रतिरूपकतोरणमूलभूतमहापद्माष्टशतपद्मपरिवारपद्मशेपपद्मपरिक्षेपत्रयवक्तव्यतोक्ता तथैवेहाप्यन्यूनातिरिक्ता वक्तव्या ॥ नामकरणं पिपृच्छिषुरिदमाह "से केणठेणं भंते !' इत्यादि प्राग्वन्नवरमुत्पलादीनि यस्माद् 'उत्तरकुरुहूदप्रभाणि' उत्तरकुरुहदाकाराणि तेन तानि तदाकारयो* गात् उत्तरकुरुनामा च तत्र देवः परिवसति तेन तद्योगाद् इदोऽप्युत्तरकुरुः, न चैवमितरेतराश्रयदोषप्रसङ्गः, उभयेषामपि नाम्ना मनादिकालं तथा प्रवृत्तेः, एवमन्यत्रापि निर्दोषता भावनीया, उत्तरकुरुनामा च तत्र देवः परिवसति, तद्वक्तव्यता च नीलवन्नागकुमारवद्वक्तव्या, ततोऽप्यसावुत्तरकुरुरिति, राजधानीवक्तव्यता काञ्चनकपर्वतवक्तव्यता च राजधानीपर्यवसाना प्राग्वत् ॥ चन्द्र हदवक्तव्यतामाह-'कहि णं भंते !' इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगम, भगवानाह-गौतम! उत्तरकुरुहदस्य दाक्षिणात्याश्चरमान्तादर्वाग् दक्षिणस्यां दिशि अष्टौ चतुस्त्रिंशानि योजनशतानि चतुरश्च सप्तभागान योजनस्यावाधया कृत्लेति शेषः शीताया महानद्या बहुमध्यदेशभागे 'अत्र। अस्मिन्नवकाशे उत्तरकुरुपु कुरुषु चन्द्रहदो नाम इदः प्रज्ञप्तः, अस्यापि नीलवदुहृदस्येवायामविष्कम्भोद्वेधपद्मवरवेदिकावनषण्डत्रि-16 सोपानप्रतिरूपकतोरणमूलभूतमहापद्माष्टशतपद्मपरिवारपद्मशेषपद्मपरिक्षेपत्रयवक्तव्यता वक्तव्या, नामान्वर्थसूत्रमपि तथैव, नवरं यका स्मादुत्पलादीनि 'चन्द्रहदप्रभाणि' चन्द्रहदाकाराणि चन्द्रवर्णानि चन्द्रनामा च देवस्तत्र परिवसति तस्माञ्चन्द्रहदाभोत्पलादियो-10 Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ३ प्रतिपची काञ्चनपवंताधिक उहेशः२ सू० १५० - - KASANAS - गाचन्द्रदेवस्वामिकखाश चन्द्रहद इति, चन्द्राराजधानीवक्तव्यता कावनपर्वतवक्तव्यता च राजधानीपर्यवसाना प्राग्वत् ॥ साम्प्रतमैरावतहदवक्तव्यतामाह-कहिणं भंते' इत्यादि प्रभसूत्रं पाठसिद्धं, निर्वचनमाह-गौतम! चन्द्रइदस्य दाक्षिणात्यापरमान्ताद गि दक्षिणस्यां दिशि अष्टौ चतुर्विंशानि योजनशतानि चतुरश्च सप्तभागान् योजनस्यायाधया कृलेति शेषः शीताया महानद्या ५ बहुमध्यदेशभागे 'अत्र' एतस्मिन्नवकाशे ऐरावतइदो नाम इदः प्राप्तः, अस्यापि नीलवन्नानो इदस्येवायामविष्कम्भादिवक्तव्यता परिक्षेप पर्यवसाना वक्तव्या, अन्वर्थसूत्रमपि तथैव; नवरं यस्मादुत्पलादीनि ऐरावतइदप्रमाणि, ऐरावतो नाम हस्ती तद्वर्णानि च ऐरावतश्च नामा तत्र देव: परिवसति तेन ऐरावत इद इति, ऐरावताराजधानी विजयराजधानीवत् काचनकपर्वतवक्तव्यतापर्यवसाना तथैव ॥ अधुना माल्यवन्नामइदवक्तव्यतामाह-कहिणं भंते' इत्यादि सुगम, भगवानाह-गौतम! ऐरावतइदस्य दाक्षिणात्याचरमान्तादवीग दक्षिणस्यां दिशि अष्टौ चतुनिंशानि योजनशतानि चतुरश्च सप्तभागान् योजनस्य अयाधया कवेति शेषः शीताया महानद्या बहुमध्यदेशभागे 'अ' एतस्मिन्नवकाशे उत्तरकुरुपु कुरुपु मास्यवनामा इदः प्रज्ञप्तः, स च नीलबद्दवदायामविष्कम्भादिना तावद्वक्तव्यो यावत्पग्रवक्तव्यतापरिसमाप्तिः, नामान्वर्थसूत्रमपि तथैव यस्मादुत्पलादीनि 'माल्यवदहुदप्रभाणि' मास्यवद्दाकाराणि, माल्यवनामा वक्षस्कारपर्वतस्तद्वर्णानि-तद्वर्णाभानि माल्यवनामा च तत्र देवः परिवसति तेन मास्यवद्हर इति, माल्यवतीराजधानी विजयाराजधानीवद् वक्तव्या काभनकपर्वतवक्तव्यताऽवसाना प्राग्वत् ।। सम्प्रति जम्यूपश्नवक्तव्यतामाह कहिणं भंते! उत्सरकराए २ जंबुसुदंसणाए जंबुपेढे नाम पेढे पण्णते?, गोयमा! जंबूरीव २ मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरपुरच्छिमेणं नीलवंतस्स वासघरपव्वतस्स द्वाहिणणं मालवंतस्स बक्खा ॥२९२॥ KUMAR Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रपव्वयस्स पञ्च्चत्थिमेणं गंधमादणस्स वक्खारपव्वयस्स पुरत्थिमेणं सीताए महानदीए पुरत्थि - मिले कूले एत्थ उत्तरकुरुकुराए जंबूपेढे नाम पेढे पंचजोयणसताई आयामविक्खंभेणं पण्णरस एक्कासीते जोयणसते किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं बहुमज्झदेसभाए बारस जोयणाई बाहलेणं तदाणंतरं च णं माताए २ पदेसे परिहाणीए सव्वेसु चरमंतेसु दो कोसे बाहल्लेणं पण्णसे. सव्वजंबूणतामए अच्छे जाव पडिरूवे ॥ से णं एगाए पउमवरवेश्याए एगेण य वणसंडेणं सव्वतो समता संपरिखेत्ते वण्णओ दोण्हवि । तस्स णं जंबुपेढस्स चउद्दिसिं चत्तारि तिसोवाणपडिरूवगा पण्णत्ता तं चैव जाव तोरणा जाव चत्तारि छत्ता ॥ तस्स णं जंबूपेढस्स उपि बहुसमरमणि भूमिभागे पण्णत्ते से जहाणामए आलिंगपुक्खरेतिवा जाव मणि० ॥ तस्स णं बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं एगा महं मणिपेढिया पण्णत्ता अट्ठ जोयणाई आयामविक्खंभेणं चत्तारि जोयणाई बाहल्लेणं मणिमती अच्छा सण्हा जाव पडिरूवा ॥ तीसे णं मणिपेढियाए उवरि एत्थ णं महं जंबूसुदंसणा पण्णत्ता अजोयणाई उहुं उच्चतेणं अद्धजोयणं उव्वेहेणं दो जोयणातिं खंधे अट्ठ जोयणाई विक्खंभेणं छ जोयणाई विडिमा बहुमज्झदेसभाए अट्ठ जोयणाई विक्खंभेणं सातिरेगाईं अट्ठ जोयणाङ्कं सव्वग्गेणं पण्णत्ता, वइरामयमूला रयतसुपतिट्ठियविडिमा, एवं चेतियरुक्खवण्णओ जाव सव्वो रिट्ठामयविउलकंद्रा Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 21 KARNERGANGAROO वेरुलियरुहरक्खंधा सुजायवरजायस्वपढमगविसालसाला नाणामणिरयणविविहसाहप्पसाह ३ प्रतिपत्ती वेरुलियपत्ततवणिजपत्तविंटा जंबणयरत्तमउयसुकुमालपवालपल्लवंकुरधरा विचित्तमणिरयणसुर जम्बूपीठाहिकुसुमा फलभारनमियसाला सच्छाया सप्पभा सस्सिरीया सउजोया अहियं मणोनिचुइ धिकारः करा पासाईया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा ॥ (सृ० १५१) उद्देशः२ 'कहि णं भंते!' इत्यादि, क भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे उत्तरकुरुपु जम्वाः सुदर्शनायाः, जम्चा हि द्वितीयं नाम सुदर्शनेति तत सू०१५१ उक्तं सुदर्शनाया इति, जम्बाः सम्बन्धि पीठं जम्बूपीठं नाम पीठं प्रज्ञप्तं ?, भगवानाह-गौतम! मन्दरस्य पर्वतस्य 'उत्तरपूर्वेण' उत्तरपूर्वस्यां नीलवतो वर्पधरपर्वतस्य 'दक्षिणेन' दक्षिणतो गन्धमादनस्य वक्षस्कारपर्वतस्य 'पूर्वेण' पूर्वस्यां दिशि माल्यवतो वक्षस्कारपर्वतस्य पश्चिमायां शीताया महानद्याः पूर्वस्यामुत्तरकुरुपूर्वार्द्धस्य बहुमध्यदेशभागे 'अत्र' एतस्मिन्नवकाशे उत्तरकुरुपु कुरुपु जम्वाः सुदर्शनापरनामिकाया जम्बूपीठं प्राप्तं, पच योजनशतान्यायामविष्कम्भाभ्यामेकं योजनसहनं पकाशीतानि योजनशतानि किश्चिद्विशेपाविकानि १५८१ परिक्षेपेण, बहुमध्यदेशभागे द्वादश योजनानि याहल्येन, तदनन्तरं च मात्रया २ परिहायमान चरमपर्यन्तेपु द्वो कोशी वाइल्येन सर्वासना जाम्बूनदमयम्, 'अच्छे इत्यादि विशेषणकदम्बकं प्राग्वत्, उक्तभ-"जयूनयामयं जंबूपीढमुत्तरकुराएँ पुवढे । सीयाए पुव्वद्धे पंचसयायामविक्खंभं ॥ १ ॥ पश्नरसेकासीए साहीए परिहिमज्झवाहलं । जायणदुछककमसो हार्यततेसु दो कोसा ॥२॥" 'से ण'मित्यादि तत् जम्बूपीठमेकया पावरवेदिकया एकेन वनखण्डेन 'सवेतः' सवोसु, ॥२९॥ दिक्षु 'समन्ततः' सामस्स्येन परिक्षिप्त, वेदिकावनपण्डयोर्वर्णकः प्राग्वद्वक्तव्यः । तस्य च जम्बूपीठस्य चतुर्दिशि एकेकस्यां दिशि 43 येन सर्वासना जाम्बूनदमयम् ॥१॥ पन्नरसेकासीएस एकेन बनखण्डेन सा Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकैकत्रिसोपानप्रतिरूपकभावेन चत्वारि त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि-प्रतिविशिष्टरूपाणि त्रिसोपानानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-एक पूर्वस्यामेक दक्षिणस्यामेकं पश्चिमायामेकमुत्तरस्याम् ॥'तेसि णमित्यादि, तेषां च त्रिसोपानप्रतिरूपकाणामयमेतद्रूपो वर्णावासः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-वनमया नेमा भूमेरूर्द्धमुद्गच्छन्तः प्रदेशा इत्यादि जगत्युपरिवाप्यादित्रिसोपानवतावद्वक्तव्यं यावन्नानामणिमयान्यवलम्बनानि अवलम्बनवाहाश्च, तोरणान्यपि प्राग्वद्वाच्यानि ॥ 'तस्स णं जंबूपेढस्स ण'मित्यादि, जम्बूपीठस्योपरि बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, स च 'से जहानामए आलिंगपुक्खरेइ वा' इत्यादि विजयाराजधान्युपकारिकालयनवत्तावद्वक्तव्यो यावन्मणीनां स्पर्शवक्तव्यतापरिस|माप्तिः, यावच्च बहवो वानमन्तरा देवा देव्यश्चासते शेरते यावद् विहरन्तीति ॥ 'तस्स णमित्यादि, तस्य बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागे, अत्र महत्येका मणिपीठिका प्रज्ञप्ता, अष्टौ योजनान्यायामविष्कम्भाभ्यां चत्वारि योजनानि बाहल्येन सर्वासना मणिमयी 'अच्छा जाव पडिरूवा' इति प्राग्वत् ॥ 'तीसे ण'मित्यादि, तस्या मणिपीठिकाया उपरि बहुमध्यदेशभागे, अत्र महती जम्बूः सुदर्शना प्रज्ञप्ता, अष्टौ योजनान्यूर्द्धमुश्चस्त्वेन, अर्द्धयोजनमुद्वेधेन, द्वे योजने स्कन्धः षड़ योजनानि विडिमा-ऊ. | विनिर्गता शाखा बहुमध्यदेशभागे अष्टौ योजनान्यायामविष्कम्भाभ्यां, सातिरेकान्यष्टौ योजनानि 'सर्वाप्रेण' उद्वेधोच्चैस्त्वपरिमाणमी-18 लनेन, तस्याश्व जम्वा वनमयानि मूलानि यस्याः सा वनमयमूला 'रययसुपइट्ठियविडिमा' इनि रजता-रजतमयी सुप्रतिष्ठिता विडिमा-बहुमध्यदेशभागे ऊद्दे विनिर्गता यस्याः सा रजतसुप्रतिष्ठितविडिमा, ततः पूर्वपदेन विशेषणसमासः, 'रिट्ठामयविउलकंदा वेरुलियरुइलखंधा' रिष्ठमयो-रिष्ठरत्नमयः (विपुलः) कन्दो यस्याः सा रिष्ठरत्नमयकन्दा, तथा वैडूर्यरत्रमयो रुचिरो-दीप्यमानः स्कन्धो यस्याः सा वैडूर्यरुचिरस्कन्धा, ततः पूर्वपदेन कर्मधारयसमासः, "सुजायवरजायरूवपढमगविसालसाला' सुजातं-मूल **5*42 6* Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यशुद्धं वरं-प्रधानं यत् जातरूपं तदासकाः प्रथमका-मूलभूता विशालाः शाला:-शाखा यस्याः सा सुजातवरजातरूपप्रथमकवि-६३ प्रतिपत्तो शालशालाः 'नाणामणिरयणविविहसाहप्पसाहवेरुलियपत्ततवणिज्जपसविंटा' नानामणिरत्नाना-नानामणिरनामिका विविधा है जम्बूपीठाशाखाप्रशाखा यस्याः सातथा तथा वैडूर्याणि वैडूर्यरत्नमयानि पत्राणि यस्याः सा तथा तपनीयानि-तपनीयमयानि पत्रवृन्तानि यस्याः धिकारः सा तथा, ततः पद्वय २ मीलनेन कर्मधारयः नानामणिरत्नविविधशाखाप्रशाखावैडूर्यपत्रतपनीयपत्रवृन्ताः, अपरे सौवर्णिक्यो मूल उद्देशः २ शाखा: प्रशाखा रजतमय्य इत्युचुः, 'जंबूणयरत्तमउयसुकुमालपवालपल्लवंकुरधरा' जाम्बूनदनामकसुवर्णविशेषमया रक्ता-रक्त सू० १५१ वर्णा मृदवो-मनोज्ञाः सुकुमारा:-सुकुमारस्पर्शा ये प्रवाला-ईपदुन्मीलितपत्रभावाः पल्लवा: संजातपरिपूर्णप्रथमपत्रभावरूपा वराङ्करा:-* प्रथममुद्भिद्यमाना अङ्करास्तान् धरन्तीति जाम्बूनदरक्तमृदुकसुकुमारप्रवालपल्लवाकरधराः, कचित्पाठ:-'जंबूनयरत्तमउयसुकुमालकोमलपल्लवंकुरग्गसिहरा' तत्र जाम्बूनदानि रक्तानि मृदूनि-अकठिनानि सुकुमाराणि-अकर्कशस्पर्शानि कोमलानि-मनोझानि प्रवालपल्लवाकुरा-यथोदितखरूपा अप्रशिखराणि च यस्याः सा तथा, अन्ये तु जम्बूनदमया अप्रप्रवाला अकरापरपर्याया राजता इत्याहुः, 'विचित्तमणिरयणसुरभिकुसुमफलभारनमियसाला' विचित्रमणिरत्नानि-विचित्रमणिरत्रमयानि सुरभीणि कुसुमानि फलानि च तेषां भरेण नमिता-नाम ग्राहिताः शाला:-शाखा यस्याः सा तथा, उक्तश्च-"मूला वहरमया से कंदो खंघो य रिवेरुलिओ। सोवण्णियसाहप्पसाह तह जायरूवा य॥१॥विडिमा रययवेरुलियपत्ततवणिजपत्तविंटा य । पल्लव अग्गपनाला जंबूणयरायया ॥२९४॥ तीसे ॥२॥" 'रयणमयापुप्फफला' इति 'सच्छाया' इति सती-शोभना छाया यस्याः सा सच्छाया, तथा सती-शोभना प्रभा -STAGRAM Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यस्याः सा सत्प्रभा, अत एव सश्रीका सह उद्द्योतो यया मणिरत्नानामुद्द्योतभावात् सोद्योता अधिक-अतिशयेन मनोनिवृत्ति करी 'पासाईया' इत्यादि पदचतुष्टयं प्राग्वत् ॥ जंबूए णं सुदंसणाए चउद्दिसिं चत्तारि साला पण्णत्ता, तंजहा-पुरथिमेणं दक्खिणेणं पञ्चत्थिमेणं उत्तरेणं, तत्थणं जे से पुरथिमिल्ले साले एत्थ णं एगे महं भवणे पण्णत्ते एग कोसं आयामेणं अद्धकोसं विक्खंभेणं देसूर्ण कोसं उडं उच्चत्तेणं अणेगखंभ० वण्णओ जाव भवणस्स दारं तं चेव पमाणं पंचधणुसतातिं उ8 उच्चत्तेणं अट्ठाइजाई विक्खंभेणं जाव वणमालाओ भूमिभागा उल्लोया मणिपेढिया पंचधणुसतिया देवसयणिज्जं भाणियव्वं ॥ तत्थ णं जे से दाहिणिल्ले साले एत्थ णं एगे महं पासायवडेंसए पण्णत्ते, कोसं च उड्डे उच्चत्तेणं अद्धकोसं आयामविक्खंभेणं अन्भुग्गयमूसिय० अंतो बहुसम० उल्लोता। तस्स णं बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए । सीहासणं सपरिवारं भाणियव्वं । तत्थ णं जे से पचत्थिमिल्ले साले एत्थ णं पासायव.सए पण्णत्ते तं चेव पमाणं सीहासणं सपरिवारं भाणियव्वं, तत्थ णं जे से उत्तरिल्ले साले एत्थ णं एगे महं पासायवडेंसए पण्णत्ते तं चेव पमाणं सीहासणं सपरिवारं । तत्थ णं जे से उवरिमविडिमे एत्थ णं एगे महं सिद्धायतणे कोसं आयामेणं अद्धकोसं विक्खंभेणं देसूर्ण कोसं उर्ल्ड उच्चत्तेणं अणेगखंभसतसन्निविटे वण्णओ तिदिसिं तओ दारा पंचधणुसता अड्डाइजधणुसयवि Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9.३ प्रतिपत्तौ जम्बूवृक्षाधिकारः उद्देशः२. सू० १५२ RECOREOGADGAOCABGASALAMAUGk क्खंभा मणिपेढिया पंचधणुसतिया देवच्छंदओ पंचधणुसतविक्खंभो सातिरेगपंचधणुसउच्चत्ते। तत्थ णं देवच्छंदए अट्ठसयं जिणपडिमाणं जिणुस्सेधप्पमाणाणं, एवं सव्वा सिद्धायतणवत्तव्वया भाणियव्वा जाव धूवकडच्छुया उत्तिमागारा सोलसविधेहिं रयणेहिं उवेए चेव जंबू णं सुदंसणा मूले बारसहिं पउमवरवेदियाहिं सव्वतो समंता संपरिक्खित्ता, ताओ णं पउमवरवेतियाओ अद्धजोयणं उर्दु उच्चत्तेणं पंचधणुसताई विक्खंभेणं वण्णओ॥ जंबू सुदंसणा अण्णेणं अट्ठसतेणं जंबूणं तयद्धचत्तप्पमाणमेत्तेणं सव्वतो समंता संपरिक्खित्ता ॥ ताओ णं जंवूओ चत्तारि जोयणाई उ8 उच्चत्तेणं कोसं चोवेधेणं जोयणं खंधो कोसं विक्खंभेणं तिणि जोयणाई विडिमा बहुमज्झदेसभाए चत्तारि जोयणाई विक्खंभेणं सातिरेगाई चत्तारि जोयणाई सव्वग्गेणं वइरामयमूला सो चेव चेतियरुक्खवण्णओ ॥ जंबूए णं सुदंसणाए अवरुत्तरेणं उत्तरेणं उत्तरपुरस्थिमेणं एत्थणं अणाढियस्स चउण्हं सामाणियसाहस्सीणं चत्तारि जंवूसाहस्सीओ पण्णसाओ, जंबूए सुदंसणाए पुरथिमेणं एत्थ णं अणाढियस्स देवस्स चउण्हं अग्गमहिसीणं चत्तारि जंबूओ पण्णसाओ, एवं परिवारो सव्वो णायब्यो जंबूए जाव आयरक्खाणं ॥ जंबू णं सुदंसणा तिहिं जोयणसतेहिं वणसंडेहिं सव्वतो समंता संपरिक्खिसा, तंजहा-पढमेणं दोचेणं तचेण । जंए सुदंसणाए पुरथिमेणं पढमं वणसंडं पण्णासं जोयणाई ओगाहित्सा एत्थ णं एग मह उत्तरपुरस्थिमा सो चेव चेतियाणा विक्खंभेणं साति ॥२९५॥ Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5-46 - भवणे पण्णत्ते, पुरथिमिल्ले भवणसरिसे भाणियब्वे जाव सयणिज्नं, एवं दाहिणेणं पञ्चस्थिमेणं उत्तरेणं ॥ जंबूए णं सुदंसणाए उत्तरपुरत्थिमेणं पढमं वणसंडं पण्णासं जोयणाई ओगाहित्ता चसारि णंदापुक्खरिणीओ पण्णत्ता, तंजहा-पउमा पउमप्पभा चेव कुमुदा कुमुयप्पभा । ताओ णं णंदाओ पुक्खरिणीओ कोसं आयामेणं अद्धकोसं विक्खंभेणं पंचधणुसयाइं उन्हेणं अच्छाओ सण्हाओ लहाओ घटाओ मट्ठाओ णिप्पकाओ णीरयाओ जाव पडिरूवाओ वण्णओ भाणियव्वो जाव तोरणत्ति ॥ तासि णं णंदापुक्खरिणीणं यहुमज्झदेसभाए एत्थ णं पासायवडेंसए पण्णत्ते कोसप्पमाणे अद्धकोसं विक्खंभो सो चेव सो वण्णओ जाव सीहासणं सपरिवारं । एवं दक्खिणपुरत्थिमेणवि पण्णासं जोयणा० चत्तारि गंदापुक्खरिणीओ उप्पलगुम्मा नलिणा उप्पला उप्पलजला तंचेव पमाणं तहेव पासायवडेंसगो तप्पमाणो । एवं दक्षिणपचत्थिमेणवि पण्णासं जोयणाणं परं-भिंगा भिंगणिभा चेव अंजणा कज्जलप्पभा, सेसं तं चेव । जंबूए णं सुदंसणाए उत्तरपुरस्थिमे पढमं वणसंडं पण्णासं जोयणाई ओगाहित्ता एत्थ णं चत्तारि गंदाओ पुक्खरिणीओ पण्णत्ताओ तं०-सिरिकंता सिरिमहिया सिरिचंदा चेव तहय सिरिणिलया। तंचेव पमाणं तहेव पासायवडिंसओ॥ जंवूए णं सुदंसणाए पुरथिमिल्लस्स भवणस्स उत्तरेणं उत्तरपुरत्थिमेणं पासायवडेंसगस्स दाहिणेणं एत्थ णं एगे महं कूडे पण्णत्ते अह जोयणाई उहूं उच्चत्तेणं 3-- --0-0-25 Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ३प्रतिपत्ती जम्बूवृक्षाधिकारः उद्देशः २ सू० १५२ मूले पारस जोयणाई विक्खंभेणं मज्झे अट्ट जोयणाई आयामविक्खंभेणं उवरिं चत्तारि जोयणाई आयामविक्खंभेणं मूले सातिरेगाई सत्ततीसं जोयणाई.परिक्खेवेणं मज्झे सातिरेगा पणुवीसं जोयणाई परिक्खेवेणं उवरिं सातिरेगाई वारस जोयणाई परिक्खेवेणं मूले विच्छिन्ने मज्झे संखित्ते उपि तणुए गोपुच्छसंठाणसंठिए सव्वजंबूणयामए अच्छे जाव पडिरूवे, सेणं एगाए पउमवरवेइयाए एगेणं वणसंडेणं सव्वतो समंता संपरिक्खित्ते दोण्हवि वण्णओ॥ तस्स णं कूडस्स उवरि बहसमरमणिले भूमिभागे पण्णत्ते जाव आसयंति०॥ तस्स णं बहसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एगं सिद्धायतणं कोसप्पमाणं सव्वा सिद्धायतणवत्तव्वया । जंबूए णं सुदंसणाए पुरत्थिमस्स भवणस्स दाहिणेणं दाहिणपुरथिमिल्लस्स पासायवडेंसगस्स उत्तरेणं एत्थ णं एगे महं कूडे पण्णत्ते तं चैव पमाणं सिद्धायतणं च । जंजूए णं सुदंसणाए दाहिणिल्लस्स भवण पुरत्थिमेणं दाहिणपुरस्थिमस्स पासायवडेंसगस्स पचत्थिमेणं एत्थ णं एगे महं कूडे पण्णत्ते, दाहिणस्स भवणस्स परतो दाहिणपचत्थिमिल्लस्स पासायवडिंसगस्स पुरथिमेणं एत्थ णं एगे महं कूडे जंबूतो पचत्थिमिल्लस्स भवणस्स दाहिणणं दाहिणपन्चथिमिल्लस्स पासायवडेंसगस्स उत्तरेणं एत्थ णं एगे महं कूडे प० तं चेव पमाणं सिद्धायतणं च, जंबूए पचत्थिमभवणउत्तरेणं उत्तरपचत्थिमस्स पासायवडेंसगस्स दाहिणेणं एत्थ णं एगे महं AAAAAAAAASARAMGARMANCE Nण पुरथिमेणं दाहिणपरतो दाहिणपचत्थिमिलस्स पदाहिणपञ्च ॥२९६॥ Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कूडे पण्णत्ते तं चेव पमाणं सिद्धायतणं च । जंबूए उत्तरस्स भवणस्स पचत्थिमेणं उत्तरपचत्थिमस्स पासायवडेंगस्स पुरत्थिमेणं एत्थ णं एगे कूडे पण्णत्ते, तं चेव, जंबूए उत्तरभवणस्स पुरत्थिमेणं उत्तरपुरथिमिल्लस्स पासायवडेंसगस्स पचत्थिमेणं एत्थ णं एगे महं कूडे पण्णत्ते, तं चेव पमाणं तहेव सिद्धायतणं । जंबू णं सुदंसणा अण्णेहिं बहहिं तिलएहिं लउएहिं जाव रायरुक्खहिं हिंगुरुक्खेहिं जाव सव्वतो समंता संपरिक्खित्ता । जंबूते णं सुदंसणाए: उवरि ब अट्ठमंगलगा पण्णत्ता, तंजहा-सोत्थियसिरिवच्छ० किण्हा चामरज्झया जाव छत्तातिच्छत्ता ॥ जंबूएं णं सुदंसणाए दुवालस णामधेना पण्णत्ता, तंजहा-सुदंसणा अमोहा य, सुप्पबुद्धा जसोधरा । विदेहजंबू सोमणसा, णियया णिच्चमंडिया ॥१॥ सुभद्दा य विसाला य, सुजाया सुमणीतिया । सुदंसणाए जंबूए, नामधेजा दुवालस ॥२॥ से केणटेणं भंते! एवं वुचइ-जंबूसुदंसणा?, गोयमा! जंबूते णं सुदंसणाते जंबूदीवाहिवती अणाढिते णामं देवे महिड्डीए जाव पलिओवमहितीए परिवसति, से णं तत्थ चउण्हं सामाणियसाहस्सीणं जाव जंबूदीवस्स जंचूए सुदंसणाए अणाढियाते य रायवाणीए जाव विहरति । कहि णं भंते! अणाढियस्स जाव समत्ता वत्तव्वया रायधाणीए महिड्डीए । अदुत्तरं च णं गोयमा! जंबुद्दीवे २ तत्थ तत्थ देसे तहिं २ बहवे जंबूरुक्खा जंबूवणा जंबूवणसंडा णिचं कुसुमिया जाव सिरीए अतीव उवसोभे Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माणा २ चिति, से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं बुचर – जंबुद्दीवे २, अदुत्तरं च णं गोयमा ! जंबुद्दीवस्स सासते णामधे पण्णत्ते, जम्न कयावि णासि जाव णिचे ॥ ( सू० १५२ ) 'जंबूए ण' मित्यादि, जम्ब्वाः सुदर्शनायाञ्चतुर्दिशि एकैकस्यां दिशि एकैकशाखाभावतश्चतस्रः शाखाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - एका पूर्वस्यामेका दक्षिणस्यामैका पश्चिमायामेकोत्तरस्यां तत्र या सा पूर्वशाला, सूत्रे पुंस्त्वनिर्देश. प्राकृतत्वात्, 'तस्स ण' मित्यादि, तस्या बहुमध्यदेशभागे अत्र महदेकं भवनं प्रज्ञप्तं, क्रोशमायामतोऽर्द्धक्रोशं विष्कम्भतो देशोनं क्रोशमूर्द्धमुचैस्त्वेन तस्य वर्णको द्वारादिवक्तव्यता च प्रागुकमहापद्मवत्, तथा चाह - ' पमाणाइया महापउमवत्तव्वया भाणियव्वा अहीणमइरित्ता जाव उप्पलहत्यगा' इति ॥ ' तत्थ ण'मित्यादि, तंत्र या सा दक्षिणात्या शाखा तस्या बहुमध्यदेशभागे अत्र महानेकः प्रासादावतंसकः प्रज्ञप्तः क्रोशमेकमूर्द्धमुचैस्त्वेन, अर्द्धक्रोशं विष्कम्भेन, 'अब्भुग्गयमूसियपहसिया इवे' यादि तद्वर्णनमुपर्युल्लोचवर्णनं भूमिभागवर्णनं मणिपीठिकावर्णनं सिंहासनवर्णनं च प्राग्वत्, नवरमत्र मणिपीठिका पभ्वधनुःशतान्यायाम विष्कम्भाभ्यामर्द्धतृतीयानि धनुःशतानि वाहत्येन सिंहासनं च सपरिवारं वाच्यमिति, तस्य च प्रासादावतंसकस्योपरि बहून्यष्टावष्टौ स्वस्तिकादीनि मङ्गलकानीत्यादि तावद्वक्तव्यं यावद्वहवः सहस्रपत्रहस्तका इति, यथा च दक्षिणस्यां शाखायां प्रासादावतंसक उक्तस्तथा पश्चिमायामुत्तरस्यामपि च प्रत्येकं वक्तव्यः, जम्ब्वाः सुदर्शनाया उपरि विडिमाया बहुमध्यदेशभागे सिद्धायतनं, तच पूर्वस्यां भवनमिव तावद्वक्तव्यं यावन्मणिपीठिकावर्णनं, तत ऊर्द्धमेवं वक्तव्यं'तीसे ण'मित्यादि, तस्या मणिपीठिकाया उपरि अत्र महानेको देवच्छन्दकः प्रज्ञप्तः, एवं पश्वधनुःशतान्यायामविष्कम्भाभ्यां पञ्चधनुःशतानि सातिरेकाणि ऊर्द्धमुचैस्त्वेन सर्वासना रत्नमयः, अच्छ इत्यादि पूर्ववद् यावत्प्रतिरूप इति । 'तत्य णं अट्ठयं जिणपडिमा ३ प्रतिपतौ जम्बूवृक्षाधिकारः उद्देशः २ सू० १५२ ॥ २९७ ॥ Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - जिणुस्सेहपमाणमेत्ताणं समिक्खित्ताणं चिट्ठई' इत्यादि पूर्ववत्तावद्वक्तव्यं यावत् 'अट्ठसयं धूक्कदुच्छयाण समिक्खित्ताणं चिट्ठ इति पदं, "सिद्धाययणस्स उप्पि अट्ठमंगलगा' इत्यादि पूर्ववत्तावद्वक्तव्यं यावत् 'सहस्सपत्तहत्थगा' इति, सर्वत्रापि च व्याख्याऽपि पूर्व-12 वत् ॥'जंबू णं सुदंसणा' इत्यादि, जम्बूः सुदर्शना द्वादशभिः पद्मवरवेदिकाभिः 'सर्वतः' सर्वासु दिक्षु 'समन्तत सामस्येन संपरिक्षिप्ता । वेदिकावर्णनं प्राग्वत् । 'जंबू णमित्यादि, जम्बूः सुदर्शना अन्येन जम्बूनामष्टशतेन तदद्धोच्चत्वप्रमाणमात्रेण 'सर्वतः' दिक्ष 'समन्ततः' सामस्त्येन संपरिक्षिप्ता । तदोच्चप्रमाणमेव भावयति-ताओ 'मित्यादि, 'ताः' अष्टोत्तरशतसङ्ख्या जम्वाः प्रत्येकं चत्वारि योजनान्यूर्द्धमुच्चैस्त्वेन क्रोशमुद्वेधेन योजनमेकं स्कन्धः क्रोशं वाहल्येन स्कन्धः, त्रीणि योजनानि विडिमाऊर्द्र विनिर्गता शाखा बहुमध्यदेशभागे चत्वारि योजनान्यायामविष्कम्भाभ्याम् , ऊर्दाधोरूपेण सातिरेकाणि चत्वारि योजनानि सर्वाप्रेणा उद्वेधपरिमाणमीलनेनेति भावः । 'वइरामयमूलरययसुपइट्ठिया विडिमा' इत्यादिवर्णनंपूर्ववत्तावद्वक्तव्यं यावदधिकं नयनमनोनिवृत्तिकार्यः, प्रासादीया यावत्प्रतिरूपाः ॥ 'जंबूए णमित्यादि, 'जंबूए णं सुदंसणाए' इत्यादि, जम्ब्वाः सुदर्शनाया अवरोसरस्यामुत्तरस्यामुत्तरपूर्वस्यां, अत एवासु तिसृषु दिक्ष्वनादृतस्य देवस्य जम्बूद्वीपाधिपतेश्चतुर्णा सामानिकसहस्राणां योग्यानि चत्वारि जम्बूसहस्राणि प्रज्ञप्तानि, पूर्वस्यां चतसृणामप्रमहिषीणां योग्यानि चतस्रो, महाजम्वा दक्षिणपूर्वस्यामभ्यन्तरपर्षदोऽष्टानां देवसहस्राणां योग्यान्यष्टौ जम्बूसहस्राणि, दक्षिणस्यां मध्यमपर्षदो दशानां देवसहस्राणां योग्यानि दश जम्बूसहस्राणि, दक्षिणापरस्यां बाह्यपर्षदो द्वादश देवसहस्राणां योग्यानि द्वादश जम्बूसहस्राणि, अपरस्यां सप्तानामनीकाधिपतीनां योग्यानि सप्त महाजम्ब्वः, ततः ससु दिनु-षोडशानामारझदेवसहस्राणां योग्यानि षोडश जम्बूसहस्राणि प्रजातानि ॥ 'जंबू णं सुदंसणा' इत्यादि, सा जम्बूः सुद Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र्शना त्रिभिः शतकैः—योजनशतप्रमाणैर्वनपण्डैः 'सर्वतः ' सर्वासु दिक्षु 'समन्ततः' सामस्त्येन संपरिक्षिप्ता, तद्यथा-अभ्यन्तरकेन मध्येन वाह्येन च । जम्ब्वाः सुदर्शनायाः पूर्वस्यां दिशि प्रथमं वनषण्डं पञ्चाशतं योजनान्यवगाह्यात्र महदेकं भवनं प्रज्ञप्तं, तच पूर्वदिग्वर्त्तिभवंनवद् वक्तव्यं यावत् शयनीयम् । जम्ब्वाः सुदर्शनाया दक्षिणतः प्रथमं वनषण्डं पञ्चाशतं योजनान्यवगाह्यात्र महदेकं भवनं प्रज्ञप्तं, एतदपि तथैव यावत् शयनीयं एवं पश्चिमायामुत्तरस्यां च प्रत्येकं च प्रत्येकं च प्रथमं वनपण्डं पञ्चाशतं योजनान्यवगाह्य भवनं वक्तव्यं यावत् शयनीयम् ॥ 'जंबूए ण' मित्यादि, जम्ब्वाः सुदर्शनाया उत्तरपूर्वस्यां - ईशानकोण इत्यर्थः प्रथमं वनपण्डं पञ्चाशतं योजनान्यवगाह्यात्र मद्दत्यञ्चतस्रो नन्दापुष्करिण्यः प्रज्ञप्तास्तद्यथा - पूर्वस्यां पद्मा पद्माभिधाना, दक्षिणस्यां पद्मप्रभा, उत्तरस्यां कुमुदप्रभा, ताश्च नन्दापुष्करिण्यः प्रत्येकं क्रोशमायामेन अर्द्धक्रोशं विष्कम्भेन पञ्चधनुःशतान्युद्वेधेन, 'अच्छाओ सण्हाओ' पश्चिमायां 'कुमुदा, इत्यादि पुष्करिणीवर्णनं प्राग्वत्समस्तं यावत्प्रत्येकं प्रत्येकं पद्मत्ररवेदिकया परिक्षिप्ताः प्रत्येकं २ वनषण्डपरिक्षिप्ताः पद्मवरवेदिकावनषण्डवर्णनं प्राग्वत् ॥ ‘तासि णमित्यादि, तासां पुष्करिणीनां प्रत्येकं चतुर्दिशि एकैकस्यां दिशि एकैकभावेन चत्वारि त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि प्रज्ञप्तानि, तेषां वर्णकः प्राग्वत्, तोरणान्यपि तथैव, तासां पुष्करिणीनां बहुमध्यदेशभागेऽत्र महानेकः प्रासादावतंसकः प्राप्तः सच जम्बूवृक्षदक्षिणपश्चिमशाखाभाविप्रासादद्वत् प्रमाणादिना वक्तव्यो यावत् 'सहस्सपत्तहत्थगा' इति पदं, सर्वत्रापि च सिंहास - नमनादृतदेवस्य सपरिवारम् । एवं दक्षिणपूर्वस्यां दक्षिणापरस्यामुत्तरापरस्यां च प्रत्येकं वक्तव्यं, नवरं नन्दापुष्करिणीनामनानालं, तचेदं - दक्षिणपूर्वस्यां पूर्वादिक्रमेण उत्पलगुल्मा नलिना उत्पला उत्पलोज्जवला, दक्षिणपूर्वस्यां भृङ्गा भृङ्गनिभा अञ्जना कज्जलप्रभा, अपरोत्तरस्यां श्रीकान्ता श्रीचन्द्रा श्रीनिलया श्रीमहिता, उक्तश्व "पडमा पउमप्पभा चेव, कुमुया कुमुयप्पभा । उप्पलगुम्मा न ३ प्रतिपत्तौ जम्बूवृक्षाधिकारः उद्देशः २ सू० १५२ ॥ २९८ ॥ Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sलिणा, उप्पला उप्पलुज्जला ॥१॥ भिंगा भिंगनिभा चेव, अंजणा कजलप्पभा । सिरिकता सिरिचंदा, सिरिनिलया चेव सिरिम हिया ॥२॥" "जंबूए ण'मित्यादि, जम्ब्वाः सुदर्शनायाः पूर्वदिग्भाविनो भवनस्योत्तरतः उत्तरपूर्व दिग्भाविनः प्रासादावतंसकस्य दक्षिणतोऽत्र महानेकः कूट: प्रज्ञप्तः, अष्टौ योजनान्यूर्द्धमुच्चस्त्वेन, मूलेऽष्टौ योजनानि विष्कम्भेन मध्ये षड् योजनानि उपरि चत्वारि योजनानि, मूले सातिरेकाणि पञ्चविंशतिर्योजनानि परिक्षेपत: मध्ये सातिरेकाण्यष्टादश योजनानि उपरि सातिरेकाणि द्वादश योजनानि परिक्षेपतः, तथा सति मूले विस्तीर्णो मध्ये सङ्क्षिप्त उपरि तनुकोऽत एव गोपुच्छसंस्थानसंस्थितः सर्वासना जम्बूनदमयः, 'अच्छे जाव पडिरूवे' इति प्राग्वत् , स च कूट एकया पद्मवरवेदिकया एकेन वनषण्डेन सर्वतः समन्तात् परिक्षिप्तः, पद्मवरवेदिकावनषण्डवर्णनं प्राग्वत् । 'तस्स ण'मित्यादि, तस्य कूटस्योपरि बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, स च 'से जहानामए आलिंगपु-15 क्खरेइ वा' इत्यादि पूर्ववत्तावद्वक्तव्यो यावत्तृणानां मणीनां च शब्दवर्णनम् ॥ 'तस्स ण'मित्यादि, तस्य वहुसमरमणीयस्य भूमिभा गस्य बहुमध्यदेशभागेऽत्र महदेकं सिद्धायतनं प्रज्ञप्तं, तच्च जम्बूसुदर्शनोपरिविडिमासिद्धायतनसदृशं वक्तव्यं यावदष्टोत्तरं शतं धूपकडुच्छु|| कानामिति । एवं जम्ब्वाः सुदर्शनायाः पूर्वस्य भवनस्य दक्षिणतो दक्षिणपश्चिमस्य प्रासादावतंसकस्योत्तरतः, तथा दाक्षिणात्यस्य भवनस्य पूर्वतो दक्षिणपूर्वस्य प्रासादावतंसकस्य पश्चिमदिशि, तथा दाक्षिणात्यस्य भवनस्य परतो दक्षिणपश्चिमस्य प्रासादावतंस कस्य पूर्वतः, तथा पाश्चात्यस्य भवनस्य पूर्वतो दक्षिणपश्चिमस्य प्रासादावतंसकस्योत्तरतः, तथा पश्चिमस्य भवनस्योत्तरत उत्तरपश्चिमस्य प्रासादावतंसकस्य दक्षिणतः, तथोत्तरस्य भवनस्य पश्चिमायामुत्तरपश्चिमस्य प्रासादावतंसकस्य पूर्वतः, तथोत्तरस्य भवनस्य पूर्वत उत्तरपूर्वस्य प्रासादावतंसकस्यापरतः प्रत्येकमेकैकः कूट: पूर्वोक्तप्रमाणो वक्तव्यः, तेषां च कुटानामुपरि प्रत्येकमेकैकं सिद्धायतनं, तानि च Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -++4+SSSSSSSS है सिद्धायतनानि पूर्ववद्वाच्यानि, उक्तश्च-"अट्ठसहकूउसरिसा सव्वे जंवूनयामया भणिया । तेसुवरि जिणभवणा कोसपमाणा परम-, ३ प्रतिपत्ती रम्मा ॥१॥" 'जंबूए ण'मित्यादि, जम्ब्वाः सुदर्शनाया द्वादश नामधेयानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-'सुदंसणे'त्यादि, शोभनं दर्शनं- जम्बूवृक्षादृश्यमानता यस्या नयनमनोहारित्वात् सा सुदर्शना १, यथा च तस्याः शोभनदर्शनं तथाऽसे खयमेव सूत्रकृद् भावयिष्यति, 'अ- धिकारः मोहा य' इति मोघं-निष्फलं न मोघा अमोघा अनिष्फला इत्यर्थः, तथाहि-सा खवामिभावेन प्रतिपन्ना सती जम्बूद्वीपाधिपत्य- उद्देशा२ मुपजनयति, तदन्तरेण तद्विषयस्य स्वामिभावस्यैवायोगात् , ततोऽनिष्फलेति २, 'सुप्पबुद्धा' इति सुप्ठ-अतिशयेन प्रबुद्धेव प्रबुद्धा सू०१५२ मणिकनकरनानां निरन्तरं सर्वतश्चाकचिक्येन सर्वकालमुन्निद्रेति भावः ३, 'जसोहरा' इति यशः सकलभुवनव्यापि धरतीति यशोधरा लिहादित्वादच्, जम्बूद्वीपो हि विदितमहिमा भुवनत्रयेऽप्यनया जम्बोपलक्षितस्ततो भवति यथोक्तं यशोधारित्वमस्याः ४, 'सुभद्दा य' इति शोभनं भद्रं-कल्याणं यस्याः सा सुभद्रा, सकलकालं कल्याणभागिनीत्यर्थः, न हि तस्याः कदाचिदप्युपद्रवाः संभवन्ति, महर्द्धिकेनाधिष्ठितत्वात् ५, 'विसाला य' इति विशाला-विस्तीर्णा आयामविष्कम्भाभ्यामुच्चैस्त्वेन चाष्टयोजनप्रमाणत्वात् ६, 'सुजाया' इति शोभनं जातं-जन्म यस्याः सा सुजाता, विशुद्धमणिकनकरत्नमूलद्रव्यतया जन्मदोषरहितेति भावः ७, 'सुमणा इय' इति शोभनं मनो यस्याः सकाशाद् भवति सा सुमनाः, भवति हि तां पश्यतां महर्चिकानां मनः शोभनमतिरमणीयत्वात् ८, 'विदेहर्जवू' इति, विदेहेषु जम्बूर्विदेहजम्बूर्विदेहान्तर्गतोत्तरकुरुकृतनिवासत्वात् ९, 'सोमणसा' इति सौमनस्यहेतुत्वात् सौमनस्या, * नाह ता पश्यतः कस्यापि मनो दुष्टं भवति, केवलं तां दृष्ट्वा प्रीतमनास्तां तदधिष्ठातारं च प्रशंसतीति १०, 'नियता' इति नियता १ अष्टौ ऋषभकूटसदृशा सर्वे जम्बूनदमया भनिता । तेषामुपरि जिनभवनानि कोशप्रमाणानि परमरम्याणि ॥१॥ . . Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वकालमवस्थिता शाश्वतखात् ११, 'नित्यमंडिता' सदा भूषणभूषितखात् १२ । 'सुदंसणाए' इत्यादि तान्येतानि सुर्शनाया जम्ब्वा द्वादश नामधेयानि ॥ सम्प्रति सुदर्शनाशब्दप्रवृत्तिनिमित्तं पिच्छिषुरिदमाह-'सेकेणटेणं भंते' इत्यादि प्रतीतं, निर्वचनमाह-गोयमे'यादि सुगम, नवरम् 'अणाढिए नाम देवे' इति, अनादृताः-अनादरक्रियाविषयीकृताः शेषा जम्बूद्वीपगता देवा येनासनोऽत्यद्भुतं महर्द्धिकत्वमीक्षमाणेन सोऽनाहतः, सकलनिर्वचनभावार्थश्चाय-यस्मादेवं महर्द्धिकोऽनादृतनामा देवस्तत्र परिवसति ततस्तस्य समस्ताऽपि स्फातिः तत्र कृतावासेति सा सुदर्शनाऽनाहता, राजधानीवक्तव्यताऽपि प्राग्वद्वक्तव्या, तदेवं यस्मादेवंरूपया जम्वोपलक्षित एष द्वीपस्तस्माजम्बूद्वीप इत्युच्यते, अथवेदं जम्बूद्वीपशब्दप्रवृत्तिनिमित्तमिति दर्शयति-'अदुत्तरं च ण'| मित्यादि, अथान्यत् जम्बूद्वीपशब्दप्रवृत्तिकारणमिति गम्यते, गौतम! जम्बूद्वीपे द्वीपे उत्तरकुरुपु कुरुपु तत्र तत्र देशे तस्य तस्य देशस्य | तत्र तत्र प्रदेशे बहवो जम्बूवृक्षा जम्बूवनानि जम्बूषण्डाः, इहैकजातीयवृक्षसमुदायो वनं, अनेकजातीयवृक्षसमूहो वनपण्डः, केवलं प्रधानेन व्यपदेश इति जम्बूवनं जम्बूषण्ड इति भेदेनोपात्तं, 'निश्चंकुसुमिया' इत्यादि विशेषणकदम्बकं प्राग्वत् , तत एप द्वीपो जम्बू| द्वीपः, तथा चाह-'से एएणद्वेण'मित्यादि ॥ सम्प्रति जम्बूद्वीपगतचन्द्रादिसङ्ख्यापरिज्ञानार्थमाह- . जंबूद्दीवे णं भंते! दीवे कति चंदा पभासिंसु वा पभासेंति वा पभासिस्संति वा? कति सूरिया तविंसु वा तवंति वा तविस्संति वा? कति नक्खत्ता जोयं जोयंसु वा जोयंति वा जोएस्संति वा? कति महग्गहा चारं चरिंसु वा चरिंति वा चरिस्संति वा? केवतिताओ तारागणकोडाकोडीओ सोहंसु वा सोहंति वा सोहेस्संतिवा?, गोयमा! जंबूद्दीवे णं दीवे दो चंदा पभासिंसु Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ YHMC-64 ३प्रतिपत्तौ जम्बूद्वीपचन्द्रसूर्याधिकारः । उद्देशः२ सू०१५३ वा ३ दो सूरिया तविंसु वा ३ छप्पन्नं नक्खत्ता जोगं जोएंसु वा ३ छावंत्तरं गहसतं चार चरिंसु वा ३-एगं च सतसहस्सं तेत्तीसं खलु भवे सहस्साई। णव य सया पन्नासा तारागण कोडकोडीणं ॥१॥ सोभिंसु वा सोभंति वा सोभिस्संति वा ॥ (सू० १५३) ___ 'जंबूद्दीवे णं भंते! दीवे' इत्यादि सुगम, नवरं पटपञ्चाशन्नक्षत्राणि एकैकस्य शशिनः परिवारेऽष्टाविंशतिर्नक्षत्राणां भावात् , षट्सप्ततं ग्रहशतमेकैकं शशिनं प्रत्यष्टाशीतेस्रहाणां भावात् , तथैकस्य शशिनः परिवारे तारागणपरिमाणं षट्षष्टिः सहस्राणि नव श- तानि पञ्चसप्तत्यधिकानि कोटीकोटीना, वक्ष्यति च-"छावट्ठिसहस्साई नव चेव सयाई पंचसयराइं । एगससीपरिवारो तारागणकोडिकोडीणं ॥१॥" (६६९७५) जम्बूद्वीपे च द्वौ शशिनौ तदेतद् द्वाभ्यां गुण्यते ततः सूत्रोक्तं परिमाणं भवति-एक शतसहस्रं त्रयस्त्रिंशत्सहस्राणि नव शतानि पञ्चाशदधिकानि कोटीकोटीनामिति ॥ तदेवमुक्तो जम्बूद्वीपः, सम्प्रति लवणसमुद्रं विवक्षुरिदमाह जंबूद्दीवं णाम दीवं लवणे णामं समुद्दे वट्टे वलयागारसंठाणसंठिते सव्वतो समंता संपरिक्खित्ता णं चिट्ठति ॥ लवणे णं भंते! समुद्दे किं समचक्कवालसंठिते विसमचकवालसंठिते?, गोयमा! समचकवालसंठिए नो विसमचकवालसंठिए ॥ लवणे णं भंते! समुद्दे केवतियं चक्कवालविक्खंभेणं? केवतियं परिक्खेवेणं पण्णत्ते?, गोयमा! लवणे णं समुद्दे दो जोयणसतसहस्साई चक्कवालविक्खंभेणं पन्नरस जोयणसयसहस्साई एगासीइसहस्साहं सयमेगोणचत्तालीसे किंचिविसेसाहिए लवणोदधिणो चक्कवालपरिक्खेवणं । सेणं एकाए पउमवरवदियाए एगेण य GANGANAGAR ॥३०॥ Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वणसंडेणं सव्वतो समंता संपरिक्खित्ते चिट्ठइ, दोण्हवि वण्णओ। सा णं पउमवर० अद्धजोयणं उडुं० पंचधणुसयविक्खंभेणं लवणसमुद्दसमियपरिक्खेवेणं, सेसं तहेव । से णं वणसंडे देसूणाई दो जोयणाई जाव विहरइ ॥ लवणस्स णं भंते! समुदस्स कति दारा पण्णत्ता?, गोयमा! चत्तारि दारा पण्णत्ता, तंजहा-विजये वेजयंते जयंते अपराजिते ॥ कहि णं भंते! लवणसमुइस्स विजए णामं दारे पण्णत्ते?, गोयमा! लवणसमुदस्स पुरथिमपेरंते धायइखंडस्स दीवस्स पुरथिमद्धस्स पचत्थिमेणं सीओदाए महानदीए उपि एत्थ णं लवणस्स समुदस्स विजए णा दारे पण्णत्ते अट्ट जोयणाई उडे उच्चत्तेणं चत्तारि जोयणाई विक्खंभेणं, एवं तं चेव सव्वं जहा जंबुद्दीवस्स विजयस्सरिसेवि (दारसरिसमेयंपि) रायहाणी पुरथिमेणं अण्णमि लवणसमुद्दे ॥ कहि णं भंते! लवणसमुद्दे वेजयंते नामं दारे पण्णत्ते?, गोयमा! लवणसमुद्दे दाहिणपेरंते धातइसंडदीवस्स दाहिणद्धस्स उत्तरेणं सेसं तं चेव सव्वं । एवं जयंतेवि, णवरि सीयाए महाणदीए उप्पिं भाणियव्वे । एवं अपराजितेवि, णवरं दिसीभागो भाणियव्वो ॥ लवणस्स णं भंते! समुद्दस्स दारस्स य २ एस णं केवतियं अबाधाए अंतरे पण्णत्ते?, गोयमा!-'तिण्णेव सतसह स्सा पंचाणउतिं भवे सहस्साई । दो जोयणसत असिता कोसं दारंतरे लवणे ॥१॥' जाव १ यथा अनेकेषु स्थानेष्वत्र मूलटीकापाठयोवैषम्यं तथाऽत्र कचित् आदर्श चतुर्णामपि द्वाराणा सामग्येण वर्णनं दृश्यते मूले, न च टीकानुसारी प्रागुक्तं च तदित्युपेक्षितं. Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवाधार अंतरे पण्णत्ते । लवणस्स णं पएसा घायहसंडं दीवं पुट्ठा, तहेव जहा जंबूदीवे धायहसंडेवि सो चेव गमो । लवणे णं भंते! समुद्दे जीया उदाहत्ता सो चेव विही, एवं धायहसंडेवि ॥ सेकेणणं भंते! एवं बुचर - लवणसमुद्दे २१, गोयमा ! लवणे णं समुद्दे उद्गे आविले रहले लोणे लिंदे खारए कए अप्पेजे यहणं दुपयचउच्पयमियपसुपक्खिसिरीसवाणं नष्णत्थ तज्जोणियाणं सत्ताणं, सोत्थिए एत्थ लवणाहिवई देवे महिडीए पलिओ मट्टिईए, से णं तत्थ सामाणि जाव लवणसमुहस्स सुत्थियाए रायहाणीए अण्णेसिं जाव विहरह, से एएणहे गो० ! एवं बुचइ लवणे णं समुहे २, अदुत्तरं च णं गो० ! लवणसमुद्दे सासए जाव णिचे ॥ ( सू० १५४ ) 'जंबूद्दीवं दीव' मित्यादि जम्बूद्वीपं द्वीपं लवणो नाम समुद्रो 'वृत्तः' वर्तुलः, स च चन्द्रमण्डलवन्मध्यपरिपूर्णोऽपि शख्येत तत आह— 'वलयाकार संस्थानसंस्थितः' वलयाकारं - मध्यशुपिरं यत्संस्थानं तेन संस्थितो वलयाकार संस्थान संस्थितः 'सर्वतः सर्वासु दिक्षु 'समन्ततः' सामस्त्येन 'परिक्षिष्य' वेष्टयित्वा तिष्ठति ॥ 'लवणे णं भंते!" इत्यादि, लवणो भदन्त ! समुद्रः किं समचक्रवालसंस्थितो यद्वा विषमचक्रवालसंस्थित: ?, चक्रवालसंस्थानस्योभयथाऽपि दर्शनात् भगवानाह - गौतम! समचक्रवालसंस्थितः सर्वत्र द्विलक्षयोजनप्रमाणतया चक्रवालस्य भावात्, नो विपमचक्रवालसंस्थितः ॥ सम्प्रति चक्रवालविष्कम्भादिपरिमाणमेव पृच्छति — 'लवणे णं भंते! समुद्दे' इत्यादि प्रभसूत्रं सुगमं, भगवानाह - गौतम ! द्वे योजनशतसहस्रे चक्रवालविष्कम्भेन, जम्बूद्वीपविष्कम्भादे ३ प्रतिपत्ता लवणाधि० उद्देशः २ सू० १५४ ॥ ३०१ ॥ Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -ब तद्विष्कम्भस्य द्विगुणलात्, पञ्चदश योजनशतसहस्राणि एकाशीतिः सहस्राणि शतमेकोनचत्वारिंशं च किञ्चिद्विशेषोनं परिक्षेपेण, परिक्षेपप्रमाणं चैतत् परिधिगणितभावनया स्वयं भावनीयं क्षेत्रसमासटीकातो वा परिभावनीयम् ॥ 'से ण'मित्यादि, 'सः' लवणनामा समुद्र एकया पद्मवरवेदिकया, अष्टयोजनोच्छ्रितजगत्युपरिभाविन्येति गम्यते, एकेन वनखण्डेन सर्वतः समन्तात् संपरि| क्षिप्तः, सा च पद्मवरवेदिकाऽर्द्धयोजनमूर्द्धमुच्चस्त्वेन पञ्चधनुःशतानि विष्कम्भतः परिक्षेपतो लवणसमुद्रपरिक्षेपप्रमाणा, वनखण्डो देशोने द्वे योजने, अभ्यन्तरोऽपि पद्मवरवेदिकाया वनषण्ड एवंप्रमाण एव, उभयोरपि वर्णनं जम्बूद्वीपपमवरवेदिकावनपण्डवत् ॥ सम्प्रति द्वारवक्तव्यतामभिधित्सुरिदमाह-'लवणस्स णं भंते !' इत्यादि, लवणस्य भदन्त ! समुद्रस्य कति द्वाराणि प्रज्ञप्तानि ?, भगवानाह-गौतम! चत्वारि द्वाराणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-विजयवैजयन्तजयन्तापराजिताख्यानि ॥ 'कहि ण'मित्यादि, क भदन्त ! लवणसमुद्रस्य विजयनाम द्वारं प्रज्ञप्तं ?, भगवानाह-गौतम !, लवणसमुद्रस्य पूर्वपर्यन्ते धातकीखण्डद्वीपपूर्वार्द्धस्य 'पञ्चत्थिमेण'न्ति पश्चिमभागे शीतोदाया महानद्या उपयंत्रान्तरे लवणसमुद्रस्य विजयनाम द्वारं प्रज्ञप्तं, अष्टौ योजनान्यूर्द्धमुचैस्वेन । एवं जम्बूद्वीपगतविजयद्वारसहो दृशमेतदपि वक्तव्यं यावदहून्यष्टावष्टौ मङ्गलकानि यावदहवः सहस्रपत्रहस्तका इति ॥ सम्प्रति विजयद्वारनामनिवन्धनं प्रतिपिपाद यिपुरिदमाह-से केणटेणं भंते' इत्यादि, अथ केनार्थेन भदन्त! एवमुच्यते-विजयद्वारं विजयद्वारम् ? इति, भगवानाह-गौतम! विजये द्वारे विजयो नाम देवो महर्द्धिको यावद् विजयाया राजधान्या अन्येषां च बहूनां विजयाराजधानीवास्तव्यानां वानमन्तराणां देवानां देवीनां चाधिपत्यं यावत्परिवसति, ततो विजयदेवस्वामिकत्वादु विजयमिति, तथा चाह-से एएणतुण'मित्यादि सुगमं ॥'कहि णं भंते' इत्यादि, क भदन्त! विजयस्य देवस्य विजया नाम राजधानी प्रज्ञप्ता ?, भगवानाह-गौतम! विजयद्वारस्य 2525602562551256252557* Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RASHAREGARIA र पूर्वस्यां दिशि तिर्यगसहयेयान् द्वीपसमुद्रान् व्यतिव्रज्यान्यस्मिन् लवणसमुद्रे द्वादश योजनसहस्राण्यवगाह्यात्रान्तरे विजयस्य देवस्य ३प्रतिपक्ती २ विजया नाम राजधानी प्रज्ञप्ता, सा च जम्बूद्वीपविजयद्वाराधिपतिविजयाराजधानीवद्वक्तव्या ॥ सम्प्रति वैजयन्तद्वारप्रतिपादनार्थ- लवणाधिः माह-कहि णं भंते!' इत्यादि, क भदन्त लवणस्य समुद्रस्य वैजयन्तं नाम द्वारं प्रज्ञप्तं ?, भगवानाह-गौतम! लवणसमुद्रस्य ८ उद्देशः २ दक्षिणपर्यन्ते धातकीखण्डद्वीपदक्षिणार्द्धस्योत्तरतोऽत्र लवणसमुद्रस्य वैजयन्तं नाम द्वारं प्रज्ञप्त, एतद्वक्तव्यता सर्वाऽपि विजयद्वारवद- सू०१५४ * वसेया, नवरं राजधानी वैजयन्तद्वारस्य दक्षिणतो वेदितव्या ॥ जयन्तद्वारप्रतिपादनार्थमाह-कहि णं भंते!' इत्यादि, क भदन्त! 5 लवर्णसमुद्रस्य जयन्तं द्वारं प्रज्ञप्तं ?, भगवानाह-गौतम लवणसमुद्रस्य पश्चिमपर्यन्ते धातकीखण्डपश्चिमार्द्धस्य पूर्वतः शीताया महानद्या उपरि लवणस्य समुद्रस्य जयन्तं नाम द्वारं प्रज्ञप्तं, तद्वक्तव्यताऽपि विजयद्वारवद् 'वक्तव्या, नवरं राजधानी जयन्तद्वारस्य पश्चिमभागे वक्तव्या ॥ अपराजितद्वारप्रतिपादनार्थमाह-कहि णं भंते!' इत्यादि, क भदन्त लवणस्य समुद्रस्यापराजितं नाम द्वारं प्रज्ञप्तं ?, भगवानाह-गौतम! लवणसमुद्रस्योत्तरपर्यन्ते धातकीखण्डद्वीपोत्तरार्द्धस्य दक्षिणतोऽत्र लवणस्य समुद्रस्यापराजितं नाम द्वारं प्रज्ञप्तं । एतद्वक्तव्यताऽपि विजयद्वारवन्निरवशेषा वक्तव्या, नवरं राजधानी अपराजितद्वारस्योत्तरतोऽवसातव्या ॥ सम्प्रति द्वारस्य द्वारस्यान्तरं प्रतिपादयितुकाम आह-लवणस्स णं भंते!' इत्यादि, लवणस्य भदन्त! समुद्रस्य द्वारस्य २ 'एस णमिति एतद् अन्तरं कियत्या 'अबांधया' अन्तराललाव्याघातरूपया प्रज्ञप्तं ?, भगवानाह-गौतम! त्रीणि योजनशतसहस्राणि पश्चनवतिः सह स्राणि अशीते द्वे योजनशते क्रोशश्चैको द्वारस्य द्वारस्याबाधयाऽन्तरं प्रज्ञप्तं, तथाहिएकैकस्य द्वारस्य पृथुत्वं चत्वारि योजनानि, ॥३०२। + एकैकस्मिंश्च द्वारे एकैका द्वारशाखा क्रोशबाहल्या, द्वारे च द्वे द्वे शाखे, तत एकैकस्मिन् द्वारे पृथुत्वं सामस्त्येन चिन्त्यमानं सार्द्धयो Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R ostruttorty जनचतुष्टयप्रमाणं प्राप्यते, चतुर्णामपि द्वाराणामेकत्र पृथुत्वमीलने जातान्यष्टादश योजनाति, तानि लवणसमुद्रपरिरयपरिमाणात् पथदश शतसहस्राणि एकाशीतिःसहस्राणि एकोनचत्वारिंशं योजनशतं इत्येवंपरिमाणादपनीयन्ते, अपनीय च यच्छेषं तस्य चतुभिर्भागेऽपहृते यदागच्छति तत् द्वाराणां परस्परमन्तरपरिमाणं, तञ्च यथोक्तमेव, उक्तं च-"आसीया दोन्नि सया पणनउइसहस्स तिन्नि लक्खा य । कोसो ये अंतरं सागरस्स दाराण विनेयं ॥१॥" 'लवणस्से ण भंते ! समुदस्स पदेसा' इत्यादि सूत्रचतुष्टयं प्राग्वद्भावनीयम् ॥ सम्प्रति लवणसमुद्रनामान्वर्थ पृच्छति-से केणछेण'मित्यादि, अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-लवणः समुद्रो लवणः समुद्रः ? इति, भगवानाह-गौतम! लवणस्य समुद्रस्य उदकः 'आविलम्' अविमलमस्वच्छं प्रकृत्या 'रइलं' रजोवत् , जलवृद्धिहानिभ्यां पक्कबहुलमिति भावः, लवणं सान्निपातिकरसोपेतत्वाल्लिन्द्रं गोवराक्ष(ख्य)रसविशेषकलितत्वात् , 'क्षारं' तीक्ष्णं लवणरसविशेषवत्त्वात् , 'कटुकं' कटुकरसोपेतत्वात् , अत एवोपद्रवत्रातादपेयं, केषामपेयम् ?-चतुष्पदमृगपक्षसरीसृपाणां, नान्यत्र 'तद्योनिकेभ्यः' लवणसमुद्रयोनिकेभ्यः सत्त्वेभ्यस्तेषां पेयमिति भावः, तद्योनिकतया तेषां तदाहारकत्वात् , तदेवं यस्मात्तस्योदकं लवणमतोऽसौ लवणः समुद्र इति, अन्यच्च 'सुठिए लवणाहिवई' इत्यादि सुगम, नवरमेष भावार्थ:-यस्मात् सुस्थितनामा तदधिपतिः-लवणाधिपतिरिति स्वकल्पपुस्तके प्रसिद्धम् , आधिपत्यं च तस्याधिकृतसमुद्रस्य विषये नान्यस्य ततोऽप्यसौ लवणसमुद्र इति, तथा चाहु-से एएणडेण'मित्यादि ॥ सम्प्रति लवणसमुद्रगतचन्द्रादिसङ्ख्यापरिमाणप्रतिपादनार्थमाह लवणे णं भंते ! समुद्दे कति चंदा पभासिंसु वा पभासिंति वा पभासिस्संति वा?, एवं पंचण्हवि पुच्छा, गोयमा ! लवणसमुद्दे चत्तारि चंदा पभासिंसु वा ३ चत्तारि सूरिया तर्विसु वा ३ बार Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुसरं नक्खत्तसयं जोगं जोएंसु वा ३ तिण्णि बावण्णा महग्गहसया चारं चरिंसु वा ३ दुणि सयसहस्सा सत्तहिं च सहस्सा नव य सया तारागणकोडाकोडीणं सोभं सोभिं वा ३ ॥ ( सू० १५५) - 'लवणे णं भंते! समुद्दे' इत्यादि प्रनसूत्रं सुगमं, भगवानाह - गौतम ! चत्वारश्चन्द्राः प्रभासितवन्त: प्रभासन्ते प्रभासिष्यन्ते, चत्वारः सूर्यास्तापितवन्तस्तापयन्ति तापविष्यन्ति, ते च जम्बूद्वीपगतचन्द्रसूर्यैः सह समश्रेण्या प्रतिवद्धा वेदितव्याः, तद्यथा - द्वौ सूर्यौ एकस्य जम्बूद्वीपगतस्य सूर्यस्य श्रेण्या प्रतिवद्धौ द्वौ सूर्यो द्वितीयस्य जम्बूद्वीपगतस्य सूर्यस्य, तथा द्वौ चन्द्रमसावेकस्य जम्बूद्वीपगतस्य चन्द्रस्य समश्रेण्या प्रतिवद्धौ द्वौ द्वितीयचन्द्रस्य, तौ चैवम्-यदा जम्बूद्वीपगत एक: सूर्यो मेरोर्दक्षिणतञ्चारं चरति तदा लवणसमुद्रेऽपि तेन सह समश्रेण्या प्रतिबद्ध एकः शिखाया अभ्यन्तरं चारं चरति द्वितीयस्तेनैव सह श्रेण्या प्रतिबद्धः शिखायाः परतः, तदैव च यो जम्बूद्वीपे मेरोरुत्तरतश्चारं चरति तेन सह समश्रेण्या प्रतिबद्धो लवणसमुद्रे उत्तरत एकः शिखाया अभ्यन्तरं चारं चरति, द्वितीयस्तु तेनैव सह समश्रेण्या प्रतिवद्धः शिखायाः परतः, एवं चन्द्रमसोऽपि जम्बूद्वीपगतचन्द्राभ्यां सह समश्रेणिप्रतिबद्धा भावनीयाः, अत एव जम्बूद्वीप इव लवणसमुद्रेऽपि यदा मेरोर्दक्षिणतो दिवसः संभवति तदा मेरोरुत्तरतोऽपि लवणसमुद्रे दिवस:, यदा च मेरोरुत्तरतो लवणसमुद्रे दिवसस्तथा दक्षिणतोऽपि दिवसस्तदा च पूर्वस्यां पश्चिमायां दिशि लवणसमुद्रे रात्रिः, यदा च मेरोः पूर्वस्यां दिशि लवणसमुद्रे दिवसस्तदा पश्चिमायामपि दिवसः, यदा च पश्चिमायां दिवसस्तदा पूर्वदिश्यपि, तदा च मेरोर्दक्षिणत उत्तरतश्च नियमतो रात्रिः एवं धातकीखण्डादिष्वपि भावनीयं तद्गतानामपि चन्द्रसूर्याणां जम्बूद्वीपगतचन्द्रसूर्यैः सह समश्रेण्या ३ प्रतिपचौ लवणे चन्द्राद्याः उद्देशः २ सू० १५५ ॥ ३०३ Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवस्थितत्वात् , उक्तं च सूर्यप्रज्ञप्ती-"जया णं लवणसमुद्दे दाहिणड़े दिवसे भवइ तया णं उत्तरडेवि दिवसे हवइ, जया णं उत्तरडे दिवसे हवइ तया णं लवणसमुद्दे पुरथिमपञ्चस्थिमेणं राई भवइ, एवं जहा जंबूहीवे दीवे तहेव" तथा "जया णं धायईसंडे दीवे दाहिणडे दिवसे भवइ तया णं उत्तरडेवि, जया णं उत्तरडे दिवसे हवइ तया णं धायइसंडे दीवे मंदराणं पव्वयाणं पुरथिमपञ्चस्थिमेणं राई हवइ, एवं जहा जंबूहीवे दीवे तहेव, कालोए जहा लवणे तहेव" तथा "जया णं अम्भितरपुक्खरद्धे दाहिणड़े दिवसे भवइ तया णं उत्तरड़े दिवसे हवइ, जया णं उत्तरड़े दिवसे हवइ तया णं अभितरड़े मंदराणं पव्वयाणं पुरथिमपञ्चत्थिमेणं राई हवइ, सेसं जहा जंबूद्दीवे तहेव" आह-लवणसमुद्रे षोडश योजनसहस्रप्रमाणा शिखा ततः कथं चन्द्रसूर्याणां तत्र तत्र देशे चारं चरतां न गतिव्याघात:?, उच्यते, इह लवणसमुद्रवर्जेषु शेषेषु द्वीपसमुद्रेषु यानि ज्योतिष्कविमानानि तानि सर्वाण्यपि सामान्य रूपस्फटिकमयानि, यानि पुनर्लवणसमुद्रे ज्योतिष्कविमानानि तानि तथाजगत्स्वाभाव्यादुदकस्फाटनस्वभावस्फटिकमयानि, तथा 18 चोक्तं सूर्यप्रज्ञप्तिनियुक्तौ-"जोइसियविमाणाई सव्वाइं हवंति फलिहमइयाई । दगफालियामया पुण लवणे जे जोइसविमाणा ॥१॥ ततो न तेषामुदकमध्ये चारं चरतामुदकेन व्याघातः, अन्यच्च शेषद्वीपसमुद्रेषु चन्द्रसूर्यविमानान्यघोलेश्याकानि यानि पुनर्लवणसमुद्रे तानि तथाजगत्स्वाभाव्यादूर्ध्वलेश्याकानि तेन शिखायामपि सर्वत्र लवणसमुद्रे प्रकाशो भवति, अयं चार्थः प्रायो बहूनामप्रतीत इति | संवादार्थमेतदर्थप्रतिपादको जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणविरचितो विशेषणवतीप्रन्थ उपदय॑ते-सोलससाहसियाए सिहाए कहं जो| इसियविघातो न भवति, तत्थ भन्नइ-जेण सूरपन्नत्तीए भणियं-"जोइसियविमाणाई सव्वाइं हवंति फैलिहमइयाई । दगफालिया मया पुण लवणे जे जोइसविमाणा ॥२॥" ज सव्वदीवसमुद्देसु फालियामयाइं लवणसमुद्दे चेव केवलं, दुगफालियामयाई तत्थ इद Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 5 मेव कारणं मा उद्गेण विघातो भवउ इति, जंबूसूरपन्नत्तीए चेव भणियं-'लवणंमि उ जोइसिया उडुलेसा हवंति नायव्वा । तेण ३ प्रतिपत्तौ परं जोइसिया अहलेसागा मुणेयव्वा ॥१॥" तंपि उदगमालावभासणत्यमेव लोगठिई एसा" इति । तथा द्वादशं नक्षत्रशतं एवं- लवणे । चत्वारो हि लवणसमुद्रे शशिनः, एकैकस्य च शशिनः परिवारेऽष्टाविंशतिनक्षत्राणि, ततोऽष्टाविंशतेश्चतुर्भिर्गुणने भवति द्वादशोत्तरं * वेलावृद्धिः शतमिति । त्रीणि द्विपञ्चाशदधिकानि महामहशतानि, एकैकस्य शशिनः परिवारेऽष्टाशीतेसंहाणां भावात् , द्वे शतसहस्ते सप्तपष्टिः उद्देश:२ सहस्राणि नव शतानि तारागणकोटीकोटीनाम् २६७९००००००००००००००००, उक्तश्च-"चत्तारि चेव चंदा चत्तारि य सू- सू०१५६ रिया लवणतोए । बारं नक्खत्तसयं गहाण तिनेव वावग्ना ॥ १॥ दो चेव सयसहस्सा सत्तट्ठी खलु भवे सहस्सा य । नव य सया ४ लवणले तारागणकोडिकोडीणं ॥ २॥" इह लवणसमुद्रे चतुर्दश्यादिषु तिथिषु नदीमुखानामापूरणतो जलमतिरेकेण प्रवर्द्धमानमुपलक्ष्यते तत्र कारणं पिपृच्छिषुरिदमाह कम्हाणं मंते! लवणंसमुद्दे चाउद्दसहमुद्दिपुषिणमासिणीसु अतिरेगं २ वहति वा हायति घा?, गोयमी! जंबुद्दीवस्स णं दीवस्सं चउद्दिसि बाहिरिल्लाओ वेइयंताओ लवणसमुई पंचाणउति २ जोयणसहस्सा ओगाहित्सा एस्थ णं यत्तारि महालिंजरसंठाणसंठिया महइमहालया महापायाला पण्णत्ता, तंजहा-वलयामुहे केतूए जूवे ईसरे, ते णं महापाताला एगमेगं जोयणसयसहस्सं उव्वेहेणं मूले दस जोयणसहस्साई विक्खंभेणं मझे एगपदेसियाए सेढीए ॥३०४॥ एगमेगं जोयणसतसहस्सं विक्खंभेणं उवरि मुहमूले दस जोयणसहस्साई विक्खंभेणं॥तेसि णं CAMERICASAIRAGRASAIRS Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापायालाणं कुड्डा सव्वत्थ समा दसजोयणसतयाहल्ला पण्णता सव्ववहरामया अच्छा जाब पडिरूवा ॥ तत्थ णं यहवे जीवा पोग्गला ये अवकमंति विउकमंति चयंति उवचयंति सासया णं ते कुड्डा दवट्ठयाए वण्णपज्जवेहि. असासया ॥ तत्थ णं चत्तारि देवा महिहीया जाव पलिओवमहितीया परिवसंति, तंजहा-काले महाकाले वेलंबे पभंजणे ॥ तेसि णं महापायालाणं तओ तिभागा पण्णत्ता, तंजहा-हेडिल्ले तिभागे मझिल्ले तिभागे उवरिमे तिभागे॥ ते णं तिभागा तेत्तीसं जोयणसहस्सा तिणि य तेत्तीस जोयणसतं जोयणतिभागं च बाहल्लेणं । तत्थ णे जे से हेडिल्ले तिभागे एत्थ णं वाउकाओ संचिट्ठति, तत्थ णं जे से मज्झिल्ले तिभागे एत्थ णं वाउकाए य आउकाए य संचिट्ठति, तत्थ णं जे से उवरिल्ले तिभागे एत्थ णं आउकाए संचिट्ठति, अदुत्तरं च णं गोयमा! लवणसमुद्दे तत्थ २ देसे बहवे खुड्डालिंजरसंठाणसंठिया खुरपायालकलसा पण्णत्ता, ते णं खुड्डा पाताला एगमेगं जोयणसहस्सं उव्वेहेणं मूले एगमेगं जोयणसतं विक्खंभेणं मज्झे एगपदेसियाए सेढिए एगमेगं जोयणसहस्सं विक्खंभेणं उप्पि मुहमूले एगमेगं जोयणसतं विक्खंभेणं ॥ तेसि णं खुड्डागपायालाणं कुड्डा सव्वत्थ समा दस जोयणाई बाहल्लेणं पण्णत्ता सव्ववइरामया अच्छा जाव पडिरूवा। तत्थ णं बहवे जीवा पोग्गला यजाव असासयावि, पत्तेयं २ अद्धपलिओवमहितीताहिं देवताहिं परिग्गहिया ॥ तेसि णं खुड्गपाता Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + =SGANGANAGAR SANSAROSASA लाणं ततो तिभागा प०, तंजहा-हेडिल्लेतिभागे मज्झिल्ले तिभागे उवरिल्ले तिभागे, ते णं तिभागा १३प्रतिपत्ती तिण्णि तेत्तीसे जोयणसते जोयणतिभागं च याहल्लेणं पण्णत्ते । तत्थ णं जे से हेढिल्ले तिभागे र लवणे एत्थ णं वाउकाओ मज्झिल्ले तिभागेवाउआए आउयाते य उवरिल्ले आउकाए, एवामेव सपुव्वा वेलावृद्धिः वरेणं लवणसमुद्दे सत्त पायालसहस्सा अट्ट य चुलसीता पातालसता भवंतीति मक्खाया ॥ उद्देशः२ तेसि णं महापायालाणं खुड़गपायालाण य हेट्टिममज्झिमिल्लेसु तिभागेसु बहवे ओराला सू० १५६ वाया संसेयंति संमुच्छिमंति एयंति चलंति कंपति खुब्भंति घति फंदति तं तं भावं परिणमंति तया णं से उदए उण्णामिजति, जया णं तेसिं महापायालाणं खुड्डागपायालाण य हेढिल्लमज्झिम्लेसु तिभागेसु नो बहवे ओराला जाव तंतंभावं न परिणमंति तया णं से उदए नो उन्नामिज्जा अंतरावि य णं ते वायं उदीरेंति अंतरावि य णं से उद्गे उपणामिजइ अंतरावि य ते वाया नो उदीरंति अंतरावि य णं से उदगे णो उपणामिजइ, एवं खल गोयमा! लवणसमुचाउद्दसहमुदिपुण्णमासिणीसु अइरेगं २ वहति वा हायति वा ॥ (सू० १५६) 'कम्हा णं भंते !' इत्यादि, कस्माद्भदन्त! लवणसमुद्रे चतुर्दश्यष्टम्युद्दिष्टपौर्णमासीषु तिथिषु, अत्रोद्दिष्टा-अमावास्या पर्णिमासी प्रतीता, पूर्णो मासो यस्यां सा पौर्णमासी, 'प्रज्ञादित्वात्स्वार्थेऽण' अन्ये तु व्याचक्षते-पूर्णो माः-चन्द्रमा अस्यामिति पाणमाता अण् तथैव, प्राकृतत्वाच सूत्रे 'पुण्णमासिणीति पाठः, 'अरेगं अडरेग' अतिशयेन अतिशयेन वर्द्धते हीयते वा?, भगबानाहनतिम! Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपे द्वीपे यो मन्दरपर्वतस्तस्य चतसृषु पूर्वादिषु दिक्षु लवणसमुद्रं पश्चनवतिं पश्चनवतिं योजनसहस्राण्यवगायात्रान्तरे चत्वारो 'महइमहालया' अतिशयेन महान्तो महालिखरं-महापिडहं तत्संस्थानसंस्थिताः, कचित् 'महारंजरसंठाणसंठिया' इति पाठस्तत्रारजर:-अलिजर इति, महापातालकलशा: प्रज्ञप्ताः, उक्तं च-"पणनउइसहस्साई ओगाहित्ता चउदिसिं लवणं । चउरोऽलिंजरसंठाणसंठिया होंति पायाला ॥१॥" तानेव नामतः कथयति, तद्यथा-मेरोः पूर्वस्यां दिशि वडवामुखः दक्षिणस्यां केयूपः अपरस्यां यूपः उत्तरस्यामीश्वरः, ते चत्वारोऽपि महापातालकलशा एकैकं योजनशतसहस्र-लक्षं उद्वेधेन मूले दश योजनसहस्राणि विष्कम्भेन एकप्रादेशिक्या श्रेण्या विष्कम्भतः प्रवर्द्धमाना २ मध्ये एकैकं योजनशतसहस्रं विष्कम्भेन तत ऊर्द्ध भूयोऽप्येकप्रादेशिक्या 12 श्रेण्या विष्कम्भतो हीयमाना हीयमाना उपरि मुखमूले दश योजनसहस्राणि विष्कम्भतः, उक्तञ्च-"जोयणसहस्सदसगं मूले उवरिं च होंति विच्छिण्णा । मज्झे य सयसहस्सं तेत्तियमेत्तं च ओगाढा ॥१॥" 'तेसि णमित्यादि, तेषां महापातालकलशानां कुड्याः सर्वत्र समा दश योजनशतवाहल्या योजनसहस्रबाहल्या इत्यर्थः, सर्वासना वनमया: 'अच्छा जाव पडिरूवा' इति प्राग्वत् ॥'तत्थ ण'मित्यादि, तेषु वज्रमयेषु कुड्येषु बह्वो जीवाः पृथिवीकायिकाः पुद्गलाश्च 'अपक्रामन्ति' गच्छन्ति 'व्युत्क्रामन्ति' उत्पद्यन्ते जीवा इति सामर्थ्याद्गम्यं, जीवानामेवोत्पत्तिधर्मकतया प्रसिद्धत्वात् , 'चीयन्ते' चयमुपगच्छन्ति 'उपचीयन्ते' उपचयमायान्ति, एतञ्च पदद्वयं पुद्गलापेक्षं, पुद्गलानामेव चयापचयधर्मकतया व्यवहारात्, तत एवं सकलकालं तदाकारस्य सदाऽवस्थानात् शाश्वतास्ते कुड्या द्रव्यार्थतया प्रज्ञप्ताः, वर्णपर्यायैः रसपर्यायैः गन्धपर्यायैः स्पर्शपर्यायैः पुनरशाश्वताः, वर्णादीनां प्रतिक्षणं कियत्कालादूई वाsन्यथाऽन्यथा भवनात् ॥ 'तत्थ णमित्यादि, तत्र तेषु चतुर्पु पातालकलशेषु चत्वारो देवा महर्द्धिका यावत्करणान्महाद्युतिका इत्यादि Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SAKARISHMAGAR परिप्रहः, पल्योपमस्थितिकाः परिवसन्ति, तद्यथा-काले' इत्यादि, वडवामुखे काल: केयूपे महाकालः यूपे वेलम्बः ईश्वरे प्रभ- ३ प्रतिपत्ती अनः ॥ 'तेसि 'मित्यादि, तेषां महापातालकलशानां प्रत्येकं प्रत्येकं प्रयस्त्रिभागाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-अधस्तनत्रिभागो मध्यमस्त्रिभाग , लवणे सुपरितनस्त्रिभागः ॥'तें णमित्यादि, ते त्रयोऽपि त्रिभागात्रयस्त्रिंशद् योजनसहस्राणि त्रीणि योजनशतानि त्रयस्त्रिंशानि' योजनत्रि- वेलावृद्धिः भागं च बाहल्येन प्रज्ञप्ताः । तत्र चतुर्वपि पातालकलशेपु अधस्तनेषु त्रिभागेपु वातकायः संतिष्ठति, मध्यमेषु त्रिभागेषु वायुकायो- उद्देशः२ ऽप्कायश्च, उपरितनेषु त्रिभागेष्वप्काय एव । 'अदुत्तरं च णमित्यादि, अथान्यद् गौतम! लवणसमुद्रे 'तत्थ तत्थ देसे तहिं तहिं' है सू०१५६ इति तेषां पातालकलशानामन्तरेषु तत्र २ देशे तस्य २ देशस्य तत्र २ प्रदेशे क्षुल्लाररसंस्थानसंस्थिताः क्षुल्ला: पातालकलशाः प्र सप्ताः, ते क्षुल्लाः पातालकलशा एकमेकं योजनसहनमुद्वेधेन मूले एकैकं योजनशतं विष्कम्भेन मध्ये एकैकं योजनसहस्रं विष्कम्भेन है अपरि मुखमूले एकैकं योजनशतं विष्कम्भेन ॥ 'तेसि ण'मित्यादि, तेषां क्षुल्लकपातालकलशानां कुड्याः सर्वत्र समा दश दश योज5 नानि बाहल्यतः, उक्तश्च-"जोयणसयविच्छिण्णा मूले उवरि दस सयाणि ममंमि । ओगाढा य सहस्सं दसजोयणिया य से टू कुहां ॥ १॥" 'सव्ववइरामया' इत्यादि प्राग्वद् यावत् 'फासपज्जवेहिं असासया' इति, प्रत्येकं २ तेऽर्द्धपल्योपमस्थितिकाभि देवतामिः परिगृहीताः ॥'तेसि णमित्यादि, तेषां क्षुल्लकपातालकलशानां प्रत्येकं २ त्रयस्त्रिभागाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-अधस्तननिभागो मध्यमविभाग उपरितनविभागः । ते णमित्यादि, ते त्रिभागाः प्रत्येकं त्रीणि योजनशतानि 'त्रयस्त्रिंशानि' त्रयस्त्रिंशदधिकानि 8 ॥३०६॥ योजनत्रिभागं च बाहल्येन प्राप्ताः, तत्र सर्वेषामपि क्षुल्लकपातालकलशानामधस्तनेषु त्रिभागेषु वायुकायः संतिष्ठति, मध्येषु त्रिभागेषु है वायुकायोऽप्कायश्च, उपरितनेषु त्रिभागेष्वकायः संतिष्ठति, एवमेव 'सपूर्षापरेण' पूर्वापरसमुदायसाया सप्त पातालकलशसहस्राणि * Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षल्लकपातालकलशसहस्राणि, अष्टौ च पातालकलशशतानि-क्षुल्लकपातालकलशशतानि 'चतुरशीतानि' चतुरशीयधिकानि भवन्तीत्याख्यातं मया शेषैश्च तीर्थकृद्भिः, उक्तश्च-"अन्नेवि य पायाला खुडालंजरगसंठिया लवणे । अट्ठसया चुलसीया सत्त सहस्सा य सव्वेवि ॥ १॥ पायालाण विभागा सव्वाणवि तिन्नि तिन्नि विनेया । हेहिमभागे वाऊ मज्झे वाऊ य उद्गं च ॥ २॥ उवरिं उद्गं भणियं पढमगबीएसु वाउ संखुभिओ । उर्दू वामइ उद्गं परिवइ जलनिही खुभिओ ॥ ३॥" 'तेसि ण'मित्यादि, तेषां 'क्षुल्लकपातालानां क्षुल्लकपातालकलशानां महापातालानां चाधस्तनमध्येषु त्रिभागेषु तथाजगत्स्थितिस्वाभाव्यात् प्रतिदिवसं द्विकृत्वस्तत्रापि चतुर्दश्यादिषु तिथिष्वतिरेकेण 'बहवः' अतिप्रभूताः "उदारा' ऊर्द्धगमनस्वभावाः प्रबलशक्तयश्च, उत्-प्राबल्येन आरो येषां ते उदारा इति व्युत्पत्तेः, 'वाताः' वायवः 'संस्विद्यन्ते' उत्पत्त्यभिमुखीभवन्ति ततः क्षणानन्तरं 'संमूर्च्छन्ति' संमूर्च्छजन्मना लब्धात्मलाभा भवन्ति ततः 'चलन्ति' कम्पन्ते वातानां चलनस्वभावत्वात् , ततः 'घट्टन्ते' परस्परं सङ्घट्टमाप्नुवन्ति, तदनन्तरं 'क्षुभ्यन्ते' जातमहाद्भुतशक्तिकाः सन्त ऊर्द्धमितस्ततो विप्रसरन्ति, ततः 'उदीरयन्ति' अन्यान् वातान् जलमपि चोत्-प्राबल्येन प्रेरयन्ति, तं तं देशकालोचितं मन्दं तीनं मध्यमं वा भावं परिणामं 'परिणमन्ति' धातूनामनेकार्थत्वात् प्रपद्यन्ते । 'जया णं तेसिं खुड़ापायालाण'मित्यादि सुगम भावितत्वात् । 'तया णमित्यादि, तदा णमिति वाक्यालकारे 'तद्' उदकम् 'उन्नामिजतें' उन्नाम्यते १ अन्येऽपि च पातालकलशाः क्षुद्रारजरसंस्थिता लवणे । अष्ट शतानि चतुरशीतीनि सप्त सहस्राणि च सर्वेऽपि ॥ १॥ पातालाना विभागाः सर्वेषामपि त्रयस्त्रयो विज्ञेया । अधस्तनभागे वायु , मध्ये वायुश्च उदकं च ॥ २ ॥ उपरितनभागे उदकं भणितं, प्रथमद्वितीययोः वायुः संक्षुभित । ऊर्दू। वामयति ( निष्काशयति) उदकं परिवर्द्धते जलनिधिः क्षुभित. ॥३॥ Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ऊर्दू मुस्क्षिप्यत इति भावः । 'जया णमित्यादि, यदा पुनः ''मिति पुनरर्थे निपातानामनेकार्थत्वात् , तेषां क्षुलरुपातालानां महापा- ३ प्रतिपत्ती - तालाना चाधस्तनमध्यमेषु त्रिभागेपुनो बहव उदारा वाता: संविद्यन्ते इत्यादि प्राग्वत् 'तया ण'मित्यादि तदा तदुदकं 'नोन्नाम्यते' लवणे २ नौद्ध मुक्षिप्यते उत्क्षेपकाभावात् , एतदेव स्पष्टतरमाह-अंतराविय णमित्यादि, 'अन्तरा' अहोरात्रमध्ये द्विकला प्रतिनियते 5 वेलावृद्धिः कालावभार्ग पक्षमध्ये चतुर्दश्यादिपु तिथिष्वतिरेकेण ते वाताः तथाजगत्स्वाभाव्यादुदीर्यन्ते धातूनामनेकार्थत्वादुत्पद्यन्ते, ततोऽन्तरा- उद्देशः२ अहोरात्रमध्ये विकलः प्रतिनियते कालविमागे पक्षमध्ये चतर्दश्यादिप तिथिप अतिरेकेण तत उदकमुन्नाम्यते । 'अंतराविय ण मि- । सू०१५७ 5 यादि, 'अन्तरा' प्रतिनियतकालविभागादन्यत्र ते वाताः 'नोदीर्यन्ते' नोत्पद्यन्ते, तदभावात् 'अन्तरा' प्रतिनियतकालविभागाद न्यत्र कालविभागे उदकं नोन्नाम्यते उन्नामकाभावात् , तत एवं खलु गौतम! लवणसमुद्रे चतुर्दश्यष्टम्युदिष्टपूर्णमासीपु तिथिपु 'अ+ तिरेकमतिरेकम्' अतिशयेनातिशयेन वर्द्धते हीयते वेति ॥ तदेवं चतुर्दश्यादिषु तिथिष्वतिरेकेण जलवृद्वी कारणमुक्तमिदानीमहोरात्रमध्ये द्विकृत्वोऽतिरेकेण जलवृद्धौ कारणमभिधित्सुराहलवणे णं भंते! समुहाए तीसाए महत्ताणं कतिखत्तो अतिरेगं २ वट्टति वा हायति वा , गाँ ण समुदतीसाए मुहुत्ताणं दुक्खुसो अतिरेगं २ वहति वा हायति वा ॥ से केण?मत! एवं वुच्चइ-लवणे णं समुद्देतीसाए मुहत्साणं दुक्खुत्तो अइरेगं २ वड्डइ वा हायइ वा?, गायमा! उहमंतेसु पायालेसु वहा आपूरितेसु पायालेसु हायइ, से तेणट्टेणं गोयमा! लवणे ॥३०७॥ ण समुहे तीसाए मुटुप्साणं दुक्खुत्तो अइरेगं अइरेगं वहह वा हायइ वा ॥ (सू०१५७) Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'लवणे णं भंते! समुद्दे' इत्यादि, लवणो भदन्त ! समुद्रस्त्रिंशतो मुहूर्त्तानां मध्येऽहोरात्रमध्ये इति भावः 'कतिकृत्वः' कतिवारान् अतिरेकमतिरेकं वर्द्धते हीयते वा ? इति, तदेवं (प्रश्ने) भगवानाह - गौतम ! द्विकृत्वोऽतिरेकमतिरेकं वर्द्धते हीयते वा ॥ 'से केणद्वेणमित्यादि प्रश्नसूत्रं सुगमं, भगवानाह - गौतम ! 'उद्वमत्सु' अधस्तनमध्यमत्रिभागगतवातसङ्क्षोभवशाज्जलमूर्द्धमुत्क्षिपत्सु 'पातालेषु' पातालकलशेषु महत्सु लघुषु च वर्द्धते 'आपूर्यमाणेषु' परिसंस्थिते पवने भूयो जलेन ध्रियमाणेषु 'पातालेषु' पातालकलशेषु महत्सु लघुषु च हीयते 'से एएणट्ठे ण'मित्यादि उपसंहारवाक्यम् ॥ अधुना लवणशिखावक्तव्यतामाह लवणसिहा णं भंते! केवतियं चक्कवालविक्खंभेणं केवतियं अइरेगं २ वडति वा हायति वा?, गोमा ! लवणसहाए णं दस जोयणसहस्साईं चक्कवालविक्खंभेणं देणं अद्धजोयणं अतिरेगं तवा हात वा ॥ लवणस्स णं भंते! समुदस्स कति णागसाहस्सीओ अग्भितरियं वेलं धारंति ?, कइ नागसाहस्सीओ बाहिरियं वेलं घरंति ?, कइ नागसाहस्सीओ अग्गोदयं घरेंति ?, गोमा ! लवणसमुद्दस्स बायालीसं नागसाहस्सीओ अभितरियं वेलं धारेंति, बावत्तरिं णामसाहस्सीओ बाहिरियं वेलं धारेंति, सट्ठि णागसाहस्सीओ अग्गोदयं धारेंति, एवमेव सपुव्वा वरेणं एगा णागसतसाहस्सी चोवत्तरिं च णागसहस्सा भवतीति मक्खाया ॥ ( सू० १५८ ) 'लवणसिहा णं भंते!' इत्यादि, लवणशिखा भदन्त । कियञ्चक्रवालविष्कम्भेन ? कियञ्च 'अतिरेकमतिरेकम्' अतिशयेन २ वर्द्धते हीयते वा ?, भगवानाह - गौतम ! लवणशिखा सर्वतश्चक्रवालविष्कम्भतया 'समा' समप्रमाणा दश योजनसहस्राणि विष्कम्भेन चक्रवा · Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लरूपतया विस्तारेण 'देशोनमर्द्धयोजनं' गव्यूतद्वयप्रमाणम् 'अतिरेकमतिरेकम्' अतिशयेनातिशयेन वर्द्धते हीयते वा व ३प्रतिपत्तौ भावना-लवणसमुद्रे जम्बूद्वीपाद् धातकीखण्डद्वीपाच प्रत्येकं पञ्चनवतिपश्चनवतियोजनसहस्राणि गोतीर्थ, गोतीर्थ नाम तडागा- वेलाधराः * दिष्विव प्रवेशमार्गरूपो नीचो नीचतरो भूदेशो, गोतीर्थमिव गोतीर्थमिति व्युत्पत्तेः, मध्यभागावगाहस्तु दश योजनसहस्रप्रमाणवि- उद्देशः २ स्तारः, गोतीर्थ च जम्बूद्वीपवेदिकान्तसमीपे धातकीखण्डवेदिकान्तसमीपे चाहुलासङ्ख्येयभागः, ततः परं समतलाद् भूभागादारभ्य सू० १५८ क्रमेण प्रदेशहान्या तावन्नीचलं नीचतरत्वं परिभावनीयं यावत्पश्चनवतियोजनसहस्राणि, पञ्चनवतियोजनसहस्रपर्यन्तेपु समतलं भूभागमपेक्ष्योण्डवं योजनसहस्रमेकं, तथा जम्बूद्वीपवेदिकातो धातकीखण्डद्वीपवेदिकातश्च? तत्र समतले भूभागे प्रथमतो जलवृद्धिर लसलयेयभागः, ततः समतलभूभागमेवाधिकृत्य प्रदेशवृद्धया जलवृद्धिः क्रमेण परिवर्द्धमाना तावत्परिभावनीया यावदुभयतोऽपि । पञ्चनवतियोजनसहस्राणि, पञ्चनवतियोजनसहनपर्यन्ते चोभयतोऽपि समतलभूभागमपेक्ष्य जलवृद्धिः सप्तयोजनशतानि, किमुक्तं भवति ?-तत्र प्रदेशे समतलभूभागमपेक्ष्यावगाहो योजनसहस्रं, तदुपरि जलवृद्धिः सप्त योजनशतानीति, ततः परं मध्ये भागे दशयोजनसहस्रविस्तारेऽवगाहो योजनसहस्रं जलवृद्धिः पोडश योजनसहस्राणि, पातालकलशगतवायुक्षोभे च तेषामुपर्यहोरात्रमध्ये द्वौ र वारौ किश्चिन्न्यूने द्वे गव्यूते उदकमतिरेकेण वर्द्धते पातालकलशगतवायूपशान्तौ च हीयते, उक्तञ्च-पंचाणउयसहस्से गोतित्थं उभयतोवि लवणस्स । जोयणसयाणि सत्त उ दुगपरिवुड़ीवि उभयोवि ॥ १ ॥ दस जोयणसाहस्सा लवणसिहा चकवालतो रुंदा । १ लवणस्य उभयतोऽपि पञ्चनवति सहस्राणि गोतीर्य तु । उदकपरिवृद्धिरपि उभयतोऽपि सप्त योजनशतानि ॥१॥ लवणशिखा चक्रवालतो दश योज १ ॥३०८॥ नसहस्राणि रुन्दा। Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलससहस्म उचा सहरसमेगं च ओगाढा ॥ २ ॥ देसूणमद्धजोयणलवणसिहोवरि दुगं दुवे कालो । अइरेगं २ परिवडइ हायए वावि ॥ ३ ॥ " सम्प्रति वेलन्धरवक्तव्यतामाह - 'लवणस्स णं भंते!' इत्यादि, लवणस्य भदन्त ! समुद्रस्य कियन्तो नागसहस्रा नागकुमाराणां भवनपति निकायान्तर्वर्त्तिनां सहस्रा आभ्यन्तरिकीं - जम्बूद्वीपाभिमुखां वेलां - शिखोपरिजलं शिखां च- अर्वाक् पतन्तीं 'धरन्ति' धारयन्ति ? कियन्तो नागसहस्रा बाह्यां धातकीखण्डाभिमुखां वेलां धातकीखण्डद्वीपमध्ये प्रविशन्तीं वारयन्ति ?, कियन्तो वा नागसहस्राः 'अग्रोदकं' देशोनयोजनार्द्धजलादुपरि वर्द्धमानं जलं 'घरन्ति' वारयन्ति ?, भगवानाह - गौतम ! द्विचत्वारिंशन्नागसहस्राण्याभ्यन्तरिकीं वेलां घरन्ति द्वासप्ततिर्नागसहस्राणि बाह्यां वेलां धरन्ति, षष्टिर्नागसहस्राण्यग्रोदकं धरन्ति, उक्तभ्व - "अभितरियं वेलं धरंति लवणोदहिस्स नागाणं । बायाली ससहस्सा दुसत्तरिसहस्सा बाहिरियं ॥ १ ॥ सहिं नागसहस्सा घरंति अग्गोदयं समुद्दस्स” इति । एवमेव 'सपूर्वापरेण' पूर्वापरसमुदायेन एकं नागशतसहस्रं चतुःसप्ततिश्च नागशतसहस्राणि भवन्तीत्याख्यातानि मया शेषैश्च तीर्थकृद्भिः ॥ कति णं भंते! वेलंधरा णागराया पण्णत्ता ?, गोयमा ! चत्तारि वेलंधरा णागराया पण्णत्ता, तंजा - गोभे सिवए संखे मणोसिलए ॥ एतेसि णं भंते! चउन्हं वेलंघरणागरायाणं कति १ पोडश योजनसहस्राणि उच्चा सहस्रमेकं चावगाढा ॥ २ ॥ देशोनमर्द्धयोजनं लवणशिखोपरि द्विवारं द्वयोः कालयोः । अतिरेकमतिरेकं परिवर्द्धते हीयते वाऽपि ॥ ३ ॥ २ आभ्यन्तरिकीं वेठां धारयन्ति लवणोदधेर्नागानां । द्विचत्वारिंशत्सहस्राणि द्विसप्ततिसहस्राणि बाह्या ॥ १ ॥ षष्टिर्नागसहस्राणि धारयन्ति अप्रोदकं समुद्रस्य । Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ प्रतिपत्तौ वेलन्धरावासादिः उद्देश:२ सू० १५९ आवासपव्वता पण्णत्ता? गोयमा! चत्तारि आवासपव्वता पण्णत्ता, तंजहा-गोथूभे उदगभासे संखे दगसीमाए ॥ कहि णं भंते! गोथूभस्स वेलंधरणागरायस्स गोथूभे णामं आवासपव्यते पण्णत्ते?, गोयमा! जंबूदीवे दीवे मंदरस्स पुरत्थिमेणं लवणं समुदं यायालीसं जोयणसहस्साई ओगाहित्ता एत्थ णं गोथूभस्स वेलंधरणागरायस्स गोथभे णामं आवासपव्वते पण्णत्ते सत्तरसएकवीसाइं जोयणसंताई उर्दू उच्चत्तेणं चत्तारि तीसे जोयणसते कोसं च उव्वेधणं मूले दसबावीसे जोयणसते आयामविक्खंभेणं मज्झे सत्ततेवीसे जोयणसते उवरिं चत्तारि चउवीसे जोयणसए आयामविक्खंभेणं मूले तिण्णि जोयणसहस्साइं दोपिण य यत्तीसुत्तरे जोयणसए किंचिविसेसूणे परिक्खेवणं मज्झे दो जोयणसहस्साई दोषिण य छलसीते जोयणसते किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं उर्वरि एगं जोयणसहस्सं तिपिण य ईयाले जोयणसते किंचिविसेसूणे परिक्खेवेणं मूले वित्थिपणे मज्झे संखित्ते उपि तणुए गोपुच्छसंठाणसंठिए सव्वकणगामए अच्छे जाव पडिरूवे ॥से णं एगाए पउमवरवेदियाए एगेण य वणसंडेणं सव्वतो समंता संपरिक्खित्ते, दोण्हवि वपणओ॥ गोथूभस्स णं आवासपव्वतस्स उयरिं यहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते जाव आसयंति ॥ तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थं णं एगे महं पासायव.सए बावहूं जोयणद्धं च उर्दू उच्चसेणं तं चेव पमाणं अर्द्ध आयाम Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्खंभेणं वण्णओ जाव सीहासणं सपरिवारं ॥ से केणतुणं भंते! एवं वुच्चइ गोथूभे आवासपव्वए २१, गोयमा! गोथूभे णं आवासपव्वते तत्थ २ देसे तहिं २ बहुओ खुड्डाखुड्डियाओ जाव गोथूभवण्णाई यहूई उप्पलाई तहेव जाव गोथूभे तत्थ देवे महिड्डीए जाव पलिओवमट्टितीए परिवसति, से णं तत्थ चउण्हं सामाणियसाहस्सीणं जाव गोथूभयस्स आवासपव्वतस्स गोथूभाए रायहाणीए जाव विहरति, सेतेण?णं जाव णिचे॥रायहाणि पुच्छा गोयमा! गोथूभस्स आवासपव्वतस्स पुरत्थिमेणं तिरियमसंखेजे दीवसमुद्दे वीतिवइत्ता अण्णंमि लवणसमुद्दे तं चेव पमाणं तहेव सव्वं ॥ कहि णं भंते! सिवगस्स वेलंधरणागरायस्स दओभासणामे आवासपवते पण्णत्ते?, गोयमा! जंबुद्दीवे णं दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दक्खिणेणं लवणसमुदं बायालीसं जोयणसहस्साई ओगाहित्ता एत्थ णं सिवगस्स वेलंधरणागरायस्स दोभासे णामं आवासपव्वते पण्णत्ते, तं चेव पमाणं जं गोथुभस्स, णवरि सव्वअंकामए अच्छे जाव पडिरूवे जाव अहो भाणियव्यो, गोयमा! दोभासे णं आवासपव्वते लवणसमुद्दे अट्ठजोयणियखेत्ते दगं सव्वतो समंता ओभासेति उज्जोवेति तवति पभासेति सिवए इत्थ देवे महिड्डीए जाव रायहाणी से दक्खिणेणं सिविगा दओभासस्स सेसं तं चेव ॥ कहि णं भंते! संखस्स वेलंधरणागरायस्स संखे णामं आवासपव्वते पण्णत्ते?, गोयमा! जंबुद्दीवे णं दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पचत्थिमेणं बाया Page #821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ प्रतिपत्ती वेलन्धरावासादिः उद्देश:२ सू०१५९ - -- लीसं जोयणसहस्साइं एत्थ णं संखस्स० वेलंधर० संखे णामं आवासपव्यते तं चेव पमाणं णवरं स. व्यरयणामए अच्छे । से णं पगाए पउमयरवेदियाए एगेण य वणसंडेणं जाव अहो यहओ खुडाखुडिआओजाव यह उप्पलाई संखाभाई संखयण्णाई संखवण्णाभाई संखे पत्य देवे महिद्वीप जाव रायहाणीए पचत्थिमेणं संखस्स आवासपवयस्स संखा नाम रायहाणी तं चेव पमाणं॥ कहिणं भंते! मणोसिलकस्स वेलंधरणागरायस्स उदगसीमाए णामं आवासपवते पण्णते?, गोयमा! जंवडीवे २मंदरस्स उत्तरेणं लवणसमुहं पायालीसंजोयणसहस्साई ओगाहित्ता एत्थ णं मणोसिलगस्स वेलंधरणागरायस्स उद्गसीमाए णामं आवासपन्वते पण्णते तं चेय पमाणं णवरि सव्यफलिहामए अच्छे जाव अहो, गोयमा! दगसीमंते णं आवासपवते सीतासीतोदगाणं महाणदीणं तत्थ गतो सोए पडिहम्मति से तेणणं जाव णिचे मणोसिलए एस्थ देवे महिडीए जाव से णं तत्थ चउपहं सामाणिय० जाब विहरति । कहिणं भंते! मणोसिलगस्स येलंधरणागरायस्स मणोसिला णाम रायहाणी?, गोयमा! गसीमस्स आवासपव्ययस्स उसरेणं तिरि० अपणंमि लवणे एत्थ णं मलोसिलिया णाम रायहाणी पण्णसा तंव पमाणं जाव मणोसिलाए देवे-कणगंकरययफालियमया य येलंधराणमावासा । अणुवेलंधरराईण पव्यया होति रयणमया ॥१॥ (सू०१५९) ॥३१ ॥ Page #822 --------------------------------------------------------------------------  Page #823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही श्री आदिनाथ जिने दायका म वाताविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामती स्वाहा सुरहितपकवान सुंदर सद्यविविधिवना यही दीप्तिरस धरस्वर्णभाजन लषैमन ललचा यही सोकधाभंजन रसनिरं जन- चारु चरु चषिप्रेयही आदिनाथ जिनेंद्र के युग चर रस-चर-चौंधे यही ही नैवेद्यं त्रिलोक केन त्पाद वैधौवास मिएक लखा यही सममोहप टल विलाय ज्यों धनप बनतैन Page #824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - memaraa % 3Amer यात - - - - - सिजायही सोज्ञानकारगादीपमण मयतेजभास्करलेयही श्रीआदि ही दीपं.६ प्रारसंगहुतासा रिसुराभतेमकवावही बजध लषिदिगपालचितैनालषितधर।। प्रायने सोअसउकरमविध्वंसका रनमलयचंदनषेयही श्री प्रावि नाजिनेडके युगचराचरचौं। धेयही उही धपं७ मधरपक्षी फलीघसुंदरलूलितरवणसुहा वने सुषदायलोचनक्षधामोच नधारणरंजनपावफलमुनि काराप्रमरतरुकेथालभरिका रिलेयही आदिनाथजिनेदके / द्र फलं - - -