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(श्री टोडरमल ग्रन्थमाला का पच्चीसवाँ पुष्प) तत्त्वज्ञान पाठमाला भाग २ ( श्री वीतराग-विज्ञान विद्यापीठ परीक्षा बोर्ड द्वारा निर्धारित)
सम्पादक :
डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल शास्त्री, न्यायतीर्थ, साहित्यरत्न, एम. ए., पी.एच. डी. संयुक्तमत्री, पंडित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट , जयपुर
प्रकाशक : मंत्री, पंडित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट ए-४, बापूनगर, जयपुर-३०२००४ (राज.)
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सर्वाधिकार सुरक्षित
हिन्दी प्रथम तीन संस्करण : चतुर्थ संस्करण :
योग
१३,२००
३,२०० १६,४००
गुजराती
:
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प्रथम संस्करण अंग्रेजी प्रथम संस्करण
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मुद्रक : कोटावाला प्रिन्टरर्स एन्ड पब्लिशर्स प्रा. लि., जयपुर.
फोन – ७६२०४
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विषय-सूची
क्रम
०४
|au
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नाम पाठ
लेखक महावीराष्टक स्तोत्र | स्वर्गीय पंडित भागचंदजी शास्त्रो के अर्थ श्री नेमीचंदजी पाटनी, आगरा समझने की पद्धति पुण्य और पाप डॉ. हुकमचंद भारिल्ल , जयपुर उपादान-निमित्त पं. रतनचंदजी भारिल्ल, विदिशा प्रात्मानुभूति और | डॉ. हुकमचंद भारिल्ल , जयपुर तत्त्वविचार षट् कारक
पं. खीमचंद जेठालाल शेठ, सोनगढ़ चतुर्दश गुणस्थान सिद्धान्ताचार्य पं. फूलचंदजी,
वाराणसी तीर्थंकर भगवान | डॉ. हुकमचंद भारिल्ल , जयपुर महावीर देवागम स्तोत्र तार्किकचक्रचूड़ामणि आचार्य समन्तभद्र ( प्राप्तमीमांसा)
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३३
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6
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पाठ १
महावीराष्टक स्तोत्र
यदीये चैतन्ये मुकुर इव भावाश्चिदचिताः समं भान्ति ध्रोव्यव्ययजनिलसन्तोऽन्तरहिताः। जगत्साक्षी मार्गप्रकटनपरो भानुरिव यो महावीरस्वामी नयनपथगामी भवतु मे (नः) ।।१।।
अतानं यच्चक्षुः कमलयुगलं स्पन्दरहितम् जनान्कोपापायं प्रकटयति वाभ्यन्तरमपि । स्फुटं मूर्तिर्यस्य प्रशमितमयी वातिविमला महावीरस्वामी नयनपथगामी भवतु मे (न:) ।।२।।
नमन्नाकेन्द्रालीमुकुटमणिभाजालजटिलं, लसत्पादाम्भोजद्वयमिह यदीयं तनुभृताम् । भवज्वालाशान्त्यै प्रभवति जलं वा स्मृतमपि महावीरस्वामी नयनपथगामी भवतु मे (नः) ।।३।।
यद भावेन प्रमुदितमनादर्दुरइह, क्षणादासीत्स्वर्गी गुणगणसमृद्धः सुखनिधिः। लभन्ते सद्भक्ताः शिवसुख समाजं किमुतदा महावीरस्वामी नयनपथगामी भवतु मे (न:) ।।४।।
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महावीराष्टक स्तोत्र सामान्यार्थ
जिस प्रकार सन्मुख समागम पदार्थ दर्पण में झलकते है, उसी प्रकार जिनके केवलज्ञान में समस्त जीव-अजीव अनंत पदार्थ उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य सहित युगपत् प्रतिभासित होते रहते है; तथा जिस प्रकार सूर्य लौकिक मागाँ को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार मोक्षमार्ग को प्रकाशित करनेवाले जो जगत के ज्ञाता-दृष्टा हैं; वे भगवान महावीर मेरे (हमारे) नयनपथगामी हों अर्थात् मुझे (हमें) दर्शन दे।।१।।
स्पन्द (टिमकार) और लालिमा रहित जिनके दोनों नेत्रकमल मनुष्यों को बाह्य और अभ्यंतर क्रोधादि विकारों का प्रभाव प्रगट कर रहे हैं; और जिनकी मुद्रा स्पष्ट रूप से पूर्ण शान्त और अत्यंत विमल है; वे भगवान महावीर स्वामी मेरे ( हमारे) नयनपथगामी हों अर्थात् मुझे ( हमें ) दर्शन दे।।२।। ___नम्रीभूत इन्द्रों के समूह के मुकुटों की मणियों के प्रभाजाल से जटिल ( मिश्रित) जिनके कान्तिमान दोनों चरणकमल, स्मरण करने मात्र से ही, शरीरधारियों की सांसारिक दुःख-ज्वालाओं का, जल के समान शमन कर देते हैं; वे भगवान महावीर स्वामी मेरे (हमारे) नयनपथगामी हों अर्थात् मुझे ( हमें) दर्शन दे ।। ३।।
जब पूजा करने के भाव मात्र से प्रसन्नचित्त मेढ़क ने क्षण भर में गुणगणों से समृद्ध सुख की निधि स्वर्गसंपदा को प्राप्त कर लिया, तब यदि उनके सद्भक्त मुक्ति-सुख को प्राप्त करलें तो कौनसा आश्चर्य हैं अर्थात् उनके सद्भक्त अवश्य ही मुक्ति को प्राप्त करेंगे। वे भगवान महावीर स्वामी मेरे ( हमारे) नयनपथगामी हों अर्थात् मुझे (हमें) दर्शन दे ।। ४।।
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कनत्स्वर्णाभासोऽप्यपगततनुर्ज्ञाननिवहो विचित्रात्माप्येको नृपतिवरसिद्धार्थतनयः। अजन्मापि श्रीमान् विगतभव रागोऽद्भुतगतिः महावीरस्वामी नयनपथगामी भवतु मे (नः) ।।५।।
यदीया वाग्गंगा विविधनयकल्लोलविमला, वृहज्ज्ञानाम्भोभिर्जगति जनतां या स्नपयति। इदानीमप्येषा बुधजनमरालैः परिचिता, महावीरस्वामी नयनपथगामी भवतु मे ( नः) ।।६।।
अनिर्वारोद्रेकस्त्रिभुवनजयी कामसुभट:, कुमारावस्थायामपि निजबलाद्येन विजितः । स्फुरन्नित्यानंदप्रशमपदराज्याय स जिनः, महावीरस्वामी नयनपथगामी भवतु मे (न:) ।।७।।
महामोहांतकप्रशमनपराकस्मिनभिषग निरापेक्षो बंधुर्विदितमहिमा मंगलकरः। शरण्यः साधूनां भवभयमृतामुत्तमगुणो , महावीरस्वामी नयनपथगामी भवतु मे (न:) ।।८।।
महावीराष्टकं स्तोत्रं भक्त्या भागेन्दुना कृतम्। यः पठेच्छृणुयाच्चापि स याति परमां गतिम् ।।
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जो अंतरंग दृष्टि से ज्ञानशरीरी ( केवलज्ञान के पुञ्ज ) एवं बहिरंग दृष्टि से तप्त स्वर्ण के समान प्रभामय शरीरवान होने पर भी शरीर से रहित हैं; अनेक ज्ञेय उनके ज्ञान में झलकते हैं अतः विचित्र ( अनेक ) होते हुए भी एक (अखण्ड) हैं; महाराजा सिद्धार्थ के पुत्र होते हुए भी अजन्मा हैं; और केवलज्ञान तथा समवशरणादि लक्ष्मी से युक्त होने पर भी संसार के राग से रहित हैं । इस प्रकार के आश्चर्यो के निधान वे भगवान महावीर स्वामी मेरे (हमारे ) नयनपथगामी हों अर्थात् मुझे ( हमें ) दर्शन दे ।। ५ ।।
जिनकी वाणीरूपी गंगा नाना प्रकार के नयरूपी कल्लोलों के कारण निर्मल हैं और अगाध ज्ञानरूपी जल से जगत की जनता को स्नान कराती रहती है तथा इस समय भी विद्वज्जनरूपी हंसों के परिचित है, वे भगवान महावीर स्वामी मेरे (हमारे ) नयनपथगामी हों अर्थात् मुझे ( हमें ) दर्शन दे ।। ६ ।।
अनिर्वार हैं वेग जिसका और जिसने तीन लोकों को जीत लिया हैं, ऐसे कामरूपी सुभट को जिन्होने स्वयं प्रात्मबल से कुमारावस्था में ही जीत लिया हैं, परिणामस्वरूप जिनके अनन्तशक्ति का साम्राज्य एवं शाश्वतसुख स्फुरायमान हो रहा हैं; वे भगवान महावीर स्वामी मेरे ( हमारे ) नयनपथगामी हों अर्थात् मुझे (हमें) दर्शन दे ।। ७।।
जो महा मोहरूपी रोग को शान्त करने के लिए निरपेक्ष वैद्य हैं, जो जीव मात्र के निःस्वार्थ बन्धु हैं, जिनकी महिमा से सारा लोक परिचित हैं, जो महामंगल के करने वाले हैं, तथा भव भय से भयभीत साधुनों को जो शरण हैं; वे उत्तम गुणो के धारी भगवान महावीर स्वामी मेरे ( हमारे ) नयनपथगामी हों अर्थात् मुझे ( हमें ) दर्शन दे ।। ८।।
जो कविवर भागचंद द्वारा भक्तिपूर्वक रचित इस महावीराष्टक स्तोत्र का पाठ करता हैं व सुनता हैं, वह परमगति (मोक्ष) को पाता हैं 1
प्रश्न -
१. कोई एक छंद जो आपको रूचिकर हो, अर्थ सहित लिखिए ।
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पाठ २
शास्त्रों के अर्थ समझने की पद्धति
पं. टोडरमल -
इस भवतरु का मूल एक, जानहू मिथ्याभाव।
ताको करि निर्मूल अब , करीए मोक्ष उपाव।। इस संसाररूपी वृक्ष की जड़ एक मिथ्यात्व ही हैं। अतः उसको जड़-मूल से नष्ट करके ही मोक्ष का उपाय किया जा सकता हैं । ____ “जो जीव जैन हैं, जिन-प्राज्ञा को मानते हैं, उनके भी मिथ्यात्व क्यों रह जाता हैं ?” हमें आज यह समझना हैं, क्योंकि मिथ्यात्व का अंश भी बुरा हैं और सूक्ष्म मिथ्यात्व भी त्यागने योग्य हैं ।
दीवान रतनचंद - जो जीव जैन हैं, और जिन-प्राज्ञा को मानते हैं, फिर उनके मिथ्यात्व कैंसे रह जाता हैं ? जिनवाणी में तो मिथ्यात्व की पोषक बात ही नहीं हैं।
पं. टोडरमल - ठीक कहते हो। जिनवाणी में तो मिथ्यात्व की पोषक बात नहीं हैं। पर जो जीव जिनवाणी के अर्थ समझने की पद्धति नहीं जानते, वे उसके मर्म को तो समझ नहीं पाते। अपनी ही कल्पना से अन्यथा समझ लेते हैं, अतः उनका मिथ्यात्व नहीं छूट पाता हैं।
दीवान रतनचंद - तो क्या जिनवाणी के अर्थ समझने की कोई पद्धति भी हैं ?
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पं. टोडरमल - क्यों नहीं ? प्रत्येक काम करने और प्रत्येक बात समझनें का अपना एक तरीका होता है। जब तक हम उस तरीके को न समझ लें तब तक कोई भी काम अच्छी तरह न तो कर ही सकतें हैं और न कोई बात सही रूप में समझ ही सकतें हैं ।
दीवान रतनचंद - तो जिनवाणी का अर्थ समझने की पद्धति क्या हैं ?
पं. टोडरमल - जिनवाणी में निश्चय - व्यवहाररूप वर्णन हैं । निश्चय - व्यवहार का सही स्वरूप न समझने के कारण सामान्यजन उसके मर्म को नहीं समझ पाते हैं। इसी प्रकार जिनवाणी को चार अनुयोगों की पद्धति में विभक्त करके लिखा गया हैं । प्रत्येक अनुयोग की अपनी-अपनी पद्धति अलग-अलग हैं। जब तक हम उस पद्धति को समझेंगे नहीं तो जिनवाणी को पढ़ कर भी उसके मर्म को नहीं जान पायेंगे ।
दीवान रतनचंद कृपया आज हमें निश्चय - व्यवहार का स्वरूप और अनुयोगों की पद्धति के बारे में ही समझाइये।
-
पं. टोडरमल - निश्चय - व्यवहार' की बात तो विस्तार से कुछ दिन पूर्व ही समझा चूकाँ हूँ तथा चार अनुयोगों के बारे में भी विस्तार से बताया था ।
दीवान रतनचंद - हा ! उनकी सामान्य जानकारी तो हमें हैं, पर हम तो आज उन्हें शास्त्रों के अर्थ समझने की पद्धति के संदर्भ में समझना चाहते हैं ।
पं. टोडरमल आपको निश्चय - व्यवहार का स्वरूप ज्ञात हैं तो बोलिएँ निश्चय किसे कहते हैं और व्यवहार किसे ?
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दीवान रतनचंद “ यथार्थ का नाम निश्चय हैं और उपचार का नाम व्यवहार।” अथवा इस प्रकार भी कह सकते हैं कि “ एक ही द्रव्य के भाव को उस स्वरूप ही निरूपण करना निश्चय नय हैं और उस द्रव्य के भाव को अन्य द्रव्य के भाव स्वरूप वर्णन करना सो व्यवहार हैं । ”
-
१. वीतराग - विज्ञान पाठमाला भाग ३, पाठ ८
२. वीतराग - विज्ञान पाठमाला भाग २, पाठ ४.
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पं. टोडरमल - तब तो आपको यह भी मालूम होगा कि व्यवहार नय स्वद्रव्य परद्रव्य को, उनके भावों को व कारण कार्यादिक को किसी को किसी में मिलाकर निरूपण करता हैं; और निश्चयनय उन्हीं को यथावत् निरूपण करता हैं, किसी को किसी में नहीं मिलाता हैं।
दीवान रतनचंद - हाँ! यह भी मालूम हैं। पं. टोडरमल - अच्छा तो बतायो मनुष्य-तिर्यंच कौन हैं ? दीवान रतनचंद - जीव। पं. टोडरमल - जीव ? दीवान रतनचंद - जिनवाणी में भी उन्हें जीव ही लिखा हैं।
पं. टोडरमल - हाँ भाई! जिनवाणी में व्यवहार से नर-नारकादि पर्याय को जीव कहा ,सो पर्याय ही को जीव नहीं मान लेना। पर्याय तो जीव-पुद्गल के संयोग रूप हैं, वहाँ निश्चय से जीव द्रव्य भिन्न हैं, उसको ही जीव मानना। जीव के संयोग से शरीरादि को भी उपचार से जीव कहा, सो कथन मात्र ही हैं; परमार्थ से शरीरादिक जीव होते नहीं।
इस प्रकार अभेद अात्मा में ज्ञान-दर्शनादि भेद किये, सो उन्हें भेदरूप ही नहीं मान लेना, क्योंकि भेद तो समझाने के लिये किए हैं। निश्चय से आत्मा प्रभेद ही हैं, उसी को जीव-वस्तु मानना। संज्ञा-संख्यादि से भेद कहे, सो कथन मात्र ही हैं, परमार्थ से भिन्न-भिन्न है नहीं।
दीवान रतनचंद - तो इसी प्रकार व्रत-शील-संयमादि को व्यवहार से मोक्षमार्ग कहा होगा?
पं. टोडरमल - परद्रव्य का निमित्त मिटने की अपेक्षा से व्रत-शील-संयमादि को मोक्षमार्ग कहा, सो इन्हीं को मोक्षमार्ग नहीं मान लेना, क्योंकि परद्रव्य का ग्रहण-त्याग आत्मा के हो तो आत्मा परद्रव्य का कर्ता-हर्ता हो जावे। परन्तु कोई द्रव्य किसी द्रव्य के आधीन हैं नहीं। अतः आत्मा अपने रागादिक को त्याग कर वीतरागी होता हैं; निश्चय से वीतराग भाव ही मोक्षमार्ग हैं। १. पर (निमित्त) की ओर का लक्ष छुड़ाने के लिए।
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इसीलिए तो कहा था कि जब तक हम यह न पहिचान पाएँ कि जिनवाणी में जो कथन हैं उसमें कौन तो सत्यार्थ हैं और कौन समझाने के लिए व्यवहार से कहा गया हैं तब तक हम सब को एकसा सत्यार्थ मानकर भ्रम रूप रहते हैं।
दीवान रतनचंद - तो जिनवाणी में व्यवहार का कथन किया ही क्यों ?
पं. टोडरमल - व्यवहार के बिना परमार्थ को समझाया नहीं जा सकता, अतः असत्यार्थ होने पर भी जिनवाणी में व्यवहार का कथन पाता हैं ।
दीवान रतनचंद - व्यवहार के बिना निश्चय का उपदेश कैसे नहीं हो सकता?
पं. टोडरमल - निश्चय नय से तो प्रात्मा परद्रव्यों से भिन्न, स्वभाव से अभिन्न स्वयंसिद्ध वस्तु हैं; उसे जो नहीं पहिचानते उनसे इसी प्रकार कहते रहे तो वे समझ नहीं पावेंगे। अतः उन्हें समझाने हेतु व्यवहार से शरीरादिक परद्रव्यों की सापेक्षता द्वारा नर-नारकादि रूप जीव के विशेष किए तथा मनुष्य जीव, नारकी जीव आदि रूप से जीव की पहिचान कराई। इसी प्रकार प्रभेद वस्तु में भेद उत्पन्न करके समझाया। जैसे-जीव के ज्ञानादि गुण पर्याय रूप भेद करके स्पष्ट किया; जाने सो जीव, देखे सो जीव।
जिस प्रकार म्लेच्छ को म्लेच्छ भाषा बिना समझाया नहीं जा सकता, उसी प्रकार व्यवहारी जनों को व्यवहार बिना निश्चय का ज्ञान नहीं कराया जा सकता हैं।
दीवान रतनचंद - तो हमें कैसा मानना चाहिए ?
पं. टोडरमल - जहाँ निश्चय नय की मुख्यता से कथन हो, उसे तो " सत्यार्थ ऐसे ही हैं” ऐसा जानना और जहाँ व्यवहार नय की मुख्यता से कथन हो, उसे “ऐसे है नहीं, निमित्त आदि की अपेक्षा उपचार किया हैं" ऐसा जानना।
दीवान रतनचंद - व्यवहार नय पर को उपदेश देने में ही कार्यकारी हैं या अपना भी प्रयोजन साधता हैं ?
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__पं. टोडरमल - आप भी जब तक निश्चय नय से प्ररूपित वस्तु को न पहिचाने तब तक व्यवहार मार्ग से वस्तु का निश्चय करे, अतः निचली दशा में अपने को भी व्यवहार नय कार्यकारी हैं; परन्तु व्यवहार को उपचार मान कर उसके द्वारा वस्तु को ठीक प्रकार समझे तब तो कार्यकारी हैं, किन्तु यदि निश्चयवत् व्यवहार को भी सत्यभूत मान कर “इस प्रकार ही हैं।” ऐसा श्रद्धान करे तो उल्टा अकार्यकारी हो जावे।
इसी प्रकार चारो अनुयोगों के कथन को ठीक प्रकार से न समझने के कारण वस्तु के सत्य स्वरूप को नहीं समझ पाते हैं। अतः चारों अनुयोगों के व्याख्यान का विधान अच्छी तरह समझना चाहिए।
दीवान रतनचंद - प्रथमानुयोग के व्याख्यान के विधान को संक्षेप में समझाइये।
पं. टोडरमल - प्रथमानुयोग में संसार की विचित्रता, पुण्य-पाप का फल , महापुरुषों की प्रवृत्ति आदि बता कर जीवों को धर्म में लगाया जाता हैं। प्रथमानुयोग में मूल कथाएँ तो जैसी की तैसी होती है, पर उनमें प्रसंग-प्राप्त व्याख्यान कुछ ज्यों का त्यों और कुछ ग्रंथकर्ता के विचारानुसार होता हैं, परंतु प्रयोजन अन्यथा नहीं होता। जैसे तीर्थंकरो के कल्याणकों में इन्द्र आए यह तो सत्य हैं, पर इन्द्र ने जैसी स्तुति की थी वे शब्द हूबहू वैसे ही नहीं थे, अन्य थे। इसी प्रकार परस्पर किन्हीं के वार्तालाप हुअा था सो उनके अक्षर तो अन्य नीकले थे, ग्रन्थकर्ता ने अन्य कहे , पर प्रयोजन एक ही पोषते हैं।
तथा कहीं-कहीं प्रसंगरूप कथाएँ भी ग्रंथकर्ता अपने विचारानुसार लिखते हैं। जैसे 'धर्म परीक्षा' में मूर्यो की कथाएँ लिखीं, सो वही कथा मनोवेग ने कही थी ऐसा नियम नहीं हैं, किन्तु मूर्खपणे को पोषण करने वाली कही थी।
तथा प्रथमानुयोग में कोई धर्मबुद्धि से अनुचित कार्य करे उसकी भी प्रशंसा करते हैं। जैसे विष्णुकुमारजी ने धर्मानुराग से मुनियों का उपसर्ग दूर किया। मुनि पद छोड़कर यह कार्य करना योग्य नहीं था, परंतु वात्सल्य अंग की प्रधानता से विष्णुकुमारजी की प्रशंसा की हैं। इस छल से औरों को ऊचा धर्म छोड़ कर नीचा धर्म अंगीकार करना योग्य नहीं हैं।
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पुत्रादिक की प्राप्ति के लिए अथवा रोग कष्टादिक को दूर करने के लिए स्तुति पूजनादि कार्य करना निःकांक्षित अंग का अभाव होने से एवं निदान नामक आर्तध्यान होने से पापबंध का कारण हैं; किन्तु मोहित होकर बहुत पाप बंध का कारण कुदेवादिक का सेवन तो नहीं किया, अतः उसकी प्रशंसा कर दी हैं। ऐसा छल कर औरों को लौकिक कार्यो के लिए धर्म साधन करना युक्त नहीं हैं।
-
दीवान रतनचंद - करणानुयोग के व्याख्यान का विधान क्या हैं ? पं. टोडरमल - करणानुयोग में केवलज्ञानगम्य वस्तु का व्याख्यान हैं। केवलज्ञान में तो सर्व लोकालोक आया हैं, परन्तु इसमें जीव को कार्यकारी छद्मस्थ के ज्ञान में आ सके ऐसा निरूपण होता हैं। जैसे जीव के भावों की अपेक्षा गुणस्थान कहे हैं । सो भाव तो अनंत हैं, उन्हें तो वाणी से कहा नहीं जा सकता, अतः बहुत भावों की एक जाति करके चौदह गुणस्थान कहे हैं।
तथा करणानुयोग में भी कहीं उपदेश की मुख्यता सहित व्याख्यान होता हैं, उसे सर्वथा उसी प्रकार नहीं मानना । जैसे छुड़ाने के अभिप्राय से हिंसादिक के उपाय को कुमतिज्ञान कहा । वास्तव में तो मिथ्यादृष्टि से सभी ज्ञान कुज्ञान हैं और सम्यग्दृष्टि के सभी ज्ञान सुज्ञान हैं।
दीवान रतनचंद - तो चरणानुयोग में किस प्रकार का कथन होता हैं ?
पं. टोडरमल - चरणानुयोग में जिस प्रकार जीवों के अपनी बुद्धिगोचर धर्म का आचरण हो वैसा उपदेश दिया जाता हैं। इसमें व्यवहारनय की मुख्यता से कथन किया जाता हैं, क्योंकि निश्चय धर्म में तो कुछ ग्रहण त्याग का विकल्प है ही नहीं। अतः इसमें दो प्रकार से उपदेश देते हैं, एक तो मात्र व्यवहार का और एक निश्चय सहित व्यवहार का । व्यवहार उपदेश में तो बाह्य क्रियाओं की ही प्रधानता हैं, परंतु निश्चय सहित व्यवहार के उपदेश में परिणामों की ही प्रधानता हैं।
दीवान रतनचंद - अकेले व्यवहार का उपदेश किसके लिए है, और निश्चय सहित व्यवहार का किसके लिए ?
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पं. टोडरमल - जिन जीवों के निश्चय का ज्ञान नहीं हैं तथा उपदेश देने पर भी होता दिखाई नहीं देता, उन्हें तो अकेले व्यवहार का उपदेश देते हैं; तथा जिन जीवों को निश्चय–व्यवहार का ज्ञान हो अथवा उपदेश देने पर होना संभव हो उन्हें निश्चय सहित व्यवहार का उपदेश देते हैं। तथा चरणानुयोग में कहीं-कहीं कषायी जीवों को कषाय उत्पन्न करके भी पाप छुड़ाते हैं। जैसेपाप का फल नरकादि दुःख दिखाकर भय कषाय उत्पन्न करके तथा पुण्य का फल स्वर्गादिक में सुख दिखाकर लोभ कषाय उत्पन्न करके धर्म कार्यो में लगाते हैं। इसी प्रकार शरीरादिक को अशुचि बताकर जुगुप्सा कषाय कराते हैं और पुत्रादिक को धनादि का ग्राहक बताकर द्वेष कराते हैं; पूजा, दान, नामस्मरणादि का फल पुत्र धनादि की प्राप्ति का लोभ बताकर धर्म कार्यों में लगाते हैं। इस प्रकार चरणानुयोग में व्याख्यान होता हैं। अतः उसका प्रयोजन जान कर यथार्थ श्रद्धान करना चाहिए।
दीवान रतनचंद - इसी प्रकार द्रव्यानुयोग की भी अपनी अलग पद्धति होती होगी?
पं. टोडरमल - क्यों नही? द्रव्यानुयोग में जीवो को जीवादि तत्वों का यथार्थ श्रद्धान जिस प्रकार हो उस प्रकार युक्ति, हेतु, दृष्टान्तादिक से वर्णन करते हैं। क्योंकि इसमें यथार्थ श्रद्धान कराने का प्रयोजन हैं। जैसे स्व-पर भेद-विज्ञान हो, वैसे जीव अजीव का; एवं जैसे वीतराग भाव हो, वैसे प्रास्त्रवादिक का वर्णन करते हैं; आत्मानुभव की महिमा गाते हैं एवं व्यवहार कार्य का निषेध करते हैं। जो जीव आत्मानुभव का उपाय नही करते और बाह्य क्रियाकाण्ड में ही मग्न हैं, उनको वहाँ से उदास करके आत्मानुभव आदि में लगाने को व्रतशील संयमादि का हीनपना भी प्रगट करते हैं। शुभोपयोग का निषेध अशुभोपयोग में लगाने को नहीं करते हैं, किन्तु शुद्धोपयोग में लगाने के लिए करते हैं।
इस प्रकार चारों अनुयोगों की कथन पद्धति अलग-अलग है, पर सबका एक मात्र प्रयोजन वीतरागता का पोषण हैं। कहीं तो बहुत रागादि छुड़ा कर अल्प रागादि कराने का प्रयोजन पोषण किया हैं, कहीं सर्व रागादि छुड़ाने का पोषण किया है, किन्तु रागादि बढ़ाने का प्रयोजन कही भी नहीं किया हैं। बहुत क्या कहे ? जिस प्रकार रागादि मिटाने का श्रद्धान हो वही श्रद्धान
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सम्यग्दर्शन हैं। जिस प्रकार से रागादि मिटाने का जानना हो वही जानना सम्यग्ज्ञान हैं, तथा जिस प्रकार से रागादि मिटें वही आचरण सम्यक्चारित्र हैं। अतः प्रत्येक अनुयोग की पद्धति का यथार्थ ज्ञान कर जिनवाणी के रहस्य को समझने का यत्न करना चाहिए।
दीवान रतनचंद - शास्त्रों के अध्ययन में कहीं-कहीं परस्पर विरोध भासित हो तो क्या करें?
पं. टोडरमल - जिनवाणी में परस्पर विरोधी कथन नही होते हैं। हमें अनुयोगों की कथन पद्धति का एवं निश्चय–व्यवहार का सही ज्ञान नहीं होने सें विरोध भासित होता हैं। यदि हमें शास्त्रों के अर्थ समझने की पद्धति का ज्ञान हो जावें तो विरोध प्रतीत नहीं होगा। अतः सदा आगम-अभ्यास का प्रयास रखना चाहिए। मोक्षमार्ग में पहला उपाय आगमज्ञान कहा हैं। अतः तुम यथार्थ बुद्धि द्वारा आगम का अभ्यास किया करो! अतः तुम्हारा कल्याण अवश्य होगा!! प्रश्न -
१. व्यवहार बिना निश्चय का उपदेश क्यों नहीं हो सकता ? स्पष्ट कीजिए। २. क्या व्यवहार नय स्वयं के लिए भी प्रयोजनवान हैं ? जी हाँ, तो
कैसे ? ३. चारों अनुयोगों के व्याख्यान के विधान का वर्णन कीजिए।
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पाठ ३
पुण्य और पाप
समस्त भारतीय दर्शनो में आत्मा-परमात्मा, बंध - मोक्ष और लोक-परलोक के साथ पुण्य-पाप भी बहुचर्चित विषय रहा हैं । पुण्य-पाप किसे कहते हैं और उनका मुक्ति के मार्ग में क्या स्थान हैं ? इस विषय पर जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में मींमासा करना ही यहाँ विचारणीय विषय हैं।
आचार्य कुंदकुंद से लेकर आज तक जैन साहित्य के हर युग में पुण्य-पाप मीमांसा होती रही हैं। आज भी यह चर्चा का मुख्य विषय हैं। विवाद पुण्यपाप की परिभाषा के संबंध में न होकर मुक्ति-मार्ग में उनके स्थान को लेकर हैं।
पुण्य और पाप दोनों आत्मा की विकारी अन्तर्वृत्तियाँ हैं । देवपूजा, गुरुउपासना, दया, दान, व्रत, शील, संयमादि के प्रशस्त परिणाम ( शुभ भाव ) पुण्य भाव कहे जाते हैं और इनका फल अनुकूल संयोगों की प्राप्ति हैं । हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह - संचय आदि के भाव पाप भाव हैं और इनका फल प्रतिकूलताएँ हैं।
सामान्य जन पुण्य को भला और पाप को बुरा मानते हैं, क्योंकि मुख्यतः पुण्य से मनुष्य व देव गति की प्राप्ति होती हैं और पाप से नरक व तिर्यच गति की। पर उनका ध्यान इस ओर नहीं जाता कि चारों गतियाँ संसार ही हैं, दुःख - रूप ही हैं। चारों गतियों में दुःख ही दुःख हैं, सुख किसी भी गति में नहीं हैं। पंडित दौलतरामजी ने छहढाला की पहली ढाल में चारों गतियों में दुःख ही दुःख बताया हैं । इस प्रकार वैराग्यभावना में साफ साफ लिखा हैं :
जो संसार विषै सुख हो तो, तीर्थंकर कयों त्यागेँ । काहे को शिवसाधन करते, संजम सों अनुरागें ।।
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श्रमण संस्कृति के प्रतिष्ठापक महान आचार्य कुन्दकुन्द ने पुण्य-पाप दोनों को संसार का कारण बता कर उनके प्रति राग और संसर्ग करने का स्पष्ट निषेध किया है। उनका कथन उन्हीं के शब्दों में इस प्रकार हैं :
कम्ममसुहं कुसीलं सुहकम्मं चावि जाणह सुसीलं। कह तं होदि सुसीलं जं संसारं पवेसेदि ।। १४५।। सोवण्णियं पि णियलं बंधदि कालायसं पि जह पुरिसं। बंधदि एवं जीवं सुहमसुहं वा कदं कम्मं ।। १४६ ।। तम्हा दु कुसीलेहिं य रायं मा कुणह मा व संसग्गं।
साहीणो हि विणासो कुसील संसग्गरायेण।। १४७।। अशुभ कर्म कुशील हैं और शुभ कर्म सुशील हैं ऐसा तुम जानते हो, किन्तु वह सुशील कैसे हो सकता हैं जो शुभ कर्म (जीव को) संसार में प्रवेश कराता है ?
जिस प्रकार लोखंड की बेड़ी के समान सोने की बेड़ी भी पुरुष को बांधती हैं उसी प्रकार अशुभ (पाप) कर्म के समान शुभ (पुण्य) कर्म भी जीव को बांधता हैं।
इसलिए इन दोनों कुशीलों ( पुण्य-पाप) के साथ राग व संसर्ग मत करो, क्योंकि कुशील के साथ संसर्ग व राग करने से स्वाधीनता का नाश होता हैं।
शुभ भावों से पुण्य कर्म का बंध होता हैं और अशुभ भावों से पाप कर्म का बंध होता हैं। बंध चाहे पाप का हो या पुण्य का , वह हैं तो आखिर बंध ही, उससे आत्मा बंधता ही हैं, मुक्त नहीं होता। मुक्त तो शुभाशुभ भावों के प्रभाव से अर्थात् शुद्ध भाव (वीतराग भाव) से ही होता हैं। अतः मुक्ति के मार्ग में पुण्य और पाप का स्थान प्रभावात्मक ही हैं । इस संदर्भ में 'योगसार' में श्री योगीन्दुदेव लिखते हैं :
पुण्णि पावइ सग्ग जिउ पावएँ णरय-णिवासु। वे छंडिवि अप्पा मुणई तो लब्भई सिववासु।। ३२।।
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पुण्य से जीव स्वर्ग पाता हैं और पाप से नरक पाता हैं। जो इन दोनों को छोड़ कर आत्मा को जानता हैं, वह मोक्ष को प्राप्त करता हैं।
इसी तरह का भाव प्राचार्य पूज्यपाद ने 'समाधि शतक' में व्यक्त किया हैं। कुन्दकुन्दाचार्यदेव भी इस संबंध में स्पष्ट निर्देश करते हैं :
सुहपरिणामो पुण्णं असुहो पावत्ति भणियमण्णेसु।
परिणामो णण्णगदो दुक्खक्खयकारणं समये ।। १८१।। पर के प्रति शुभ परिणाम पुण्य हैं और अशुभ परिणाम पाप हैं। तथा दूसरों के प्रति प्रवर्तमान नहीं हैं ऐसा आत्म-परिणाम आगम में दुःख–क्षय (मोक्ष) का कारण कहा हैं।
पूयादिसु वयसहियं पुण्णं हि जिणेहिं सासणे भणियं ।।
मोहक्खोह विहीणो परिणामो अप्पणो धम्मो ।। ८३ ।।२। जिन शासन में कहा हैं कि व्रत, पूजा आदि पुण्य हैं और मोह व क्षोभ से रहित आत्मा का परिणाम धर्म हैं ।
नाटक समयसार में पुण्य-पाप को चंडालिन के युगलपुत्र (जुड़वा भाई) बताते हुए लिखा हैं कि ज्ञानीयों को दोनों में से किसी की भी अभिलाषा नहीं करना चाहिए :
जैसैं काहू चंडाली जुगल पुत्र जने तिनि,
__एक दीयो बांभनक एक घर राख्यो है । बांभन कहायौ तिनि मद्य मांस त्याग कीनौ,
___ चंडाल कहायौ तिनि मद्य मांस चाख्यो है।। तैसें एक वेदनी करमकै जुगल पुत्र,
एक पाप एक पुन्न नाम भिन्न भाख्यौ है। दुहूं मांहि दोरधूप, दोऊ कर्मबंधरूप,
या ग्यानवंत नहि कोउ अभिलाख्यौ है।। ३।। १. अपुण्यमव्रतैः पुण्यम् व्रतैर्मोक्षस्तयोर्व्ययः।
अव्रतानीव मोक्षार्थी व्रतान्यपि ततस्त्यजेत् ।।८३।। २. प्रवचनसार ३. अष्टपाहुड़ (भावपाहुड़) ४. नाटक समयसार, पुण्य-पाप एकत्वद्वार, कविवर पं. बनारसीदास
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सांसारिक दृष्टि से पाप की अपेक्षा पुण्य को भला कहा जाता हैं किन्तु मोक्षमार्ग में तो पुण्य और पाप दोनों कर्म बाधक ही हैं :मुकति कैं साधककौं बाधक करम सब,
आतमा अनादिकौ करम मांहि लुक्यौ है ।
एते पर कहै जो कि पाप बुरौ पुन्न भलौ,
सोई महा मूढ़ मोख मारगसौं चुक्यौ है ।। १३ ।।
महाकवि बनारसीदास ने कुन्दकुन्दाचार्यदेव के समयसार नामक ग्रंथराज पर आचार्य अमृतचंद्र द्वारा लिखित ग्रात्मख्याति टीका एवं कलशों के आधार पर नाटक समयसार में पुण्य-पाप संबंधी हेयोपादेय व्यवस्था की गुरु-शिष्य के संवाद के रूप में विस्तार से चर्चा की हैं, जो इस प्रकार हैं :शिष्य :
कौंऊ सिष्य कहै गुरु पांहीं, पाप पुन्न दोऊ सम नांहीं । कारन रस सुभाव फल न्यारै, एक अनिष्ट लगें इक प्यारै । । ४ । । संकलेस परिनामनि सौं पाप बंध होई,
विसुद्धसौं पुन्न बंध हेतु -भेद मानीयै । पापकैं उदै असाता ताको है कटुक स्वाद,
पुन्न उदै साता मिष्ट रस भेद जानिये ।। पाप संकलेस रूप पुन्न है विसुद्ध रूप,
दुहूं सुभाव भिन्न भेद यौं बखानियै। पापसौं कुगति होई पुन्नसौं सुगति होई,
सौ फल-भेद परतच्छि परमानियै ।। ५ ।। कोई शिष्य गुरु से कहता हैं कि पाप और पुण्य दोनों समान नहीं हैं, क्योंकि उनके कारण, रस, स्वभाव और फल भिन्न-भिन्न हैं। पाप अनिष्ट प्रतित होता हैं और पुण्य प्रिय लगता हैं।
संकलेश परिणामों से पाप बंध होता हैं और विशुद्ध परिणामों से पुण्य बंध । इस प्रकार दोनों में कारण भेद विद्यमान हैं । पाप के उदय से दुःख होता हैं, ९. वही ।
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जिसका स्वाद कटुक होता हैं और पुण्य के उदय से सुख होता हैं, जिसका स्वाद मधुर हैं; इस प्रकार दोनों में रस भेद पाया जाता हैं। पाप परिणाम स्वयं संकलेशरूप हैं और पुण्यभाव विशुद्धरूप हैं, अतः दोनों में स्वभाव भेद भी विद्यमान हैं। पाप से नरकादि कुगतियों में जाना पड़ता हैं और पुण्य से देवादि सुगति की प्राप्ति होती हैं। इस प्रकार दोनों में फलभेद भी प्रत्यक्ष दिखाई देता है। फिर आप दोनों को समान कैसे कहते हैं ? गुरु - पाप बंध पुन्न बंध दुहूं मैं मुकति नाहि,
___ कटुक मधुर स्वाद पुग्गल कौ पेखिए। संकलेस विसुद्ध सहज दोऊ कर्मचाल,
कुगति सुगति जगजाल मै विसेखिए।। कारनादि भेद तोहि सुझत मिथ्यात्व माहि,
असौ द्वैत भाव ग्यान दृष्टि में न लेखिए। दोऊ महा अंधकूप दोऊ कर्मबंधरूप,
दुहूं को विनास मोख मारग मैं देखिए।। ६।। इसके उत्तर में गुरु कहते हैं कि पापबंध और पुण्यबंध दोनों ही मुक्ति के मार्ग में बाधक हैं, अतः दोनों समान ही हैं। कटुक और मधुर स्वाद भी पुद्गलजन्य हैं, तथा संकलेश और विशुद्ध भाव दोनों ही विभाव भाव हैं; अतः ये भी समान ही हैं। कुगति और सुगति दोनों चतुर्गतिरूप संसार में ही हैं, अतः फलभेद भी नहीं हैं। पुण्य-पाप में कारण, रस, स्वभाव और फल भेद वस्तुतः हैं नहीं; मिथ्यात्व के कारण अज्ञानी को मात्र दिखाई देते हैं, ज्ञानी को ऐसे भेद दृष्टिगत नहीं होते हैं। पुण्य और पाप दोनों ही अंधकूप हैं, दोनों ही कर्मबंधरूप हैं और मोक्षमार्ग में दोनों का ही प्रभाव देखा जाता हैं । मोक्षमार्ग में तो एक शुद्धोपयोग ही उपादेय हैं :सील तप संजम विरति दान पूजादिक,
अथवा असंजम कषाय विषैभोग है। कोऊ सुभरूप कोऊ असुभ स्वरूप मूल ,
वस्तुकै विचारत दुविध कर्मरोग है।।
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एसी बंधपद्धति बखानी वीतराग देव,
आतम धरममैं करम त्याग-जोग है। भौ-जल-तरैया, राग-द्वेष कौ हरैया महा
मोख कौ करैया एक सुद्ध उपयोग है।।७।। शील, तप, संयम, व्रत, दान, पूजा आदि अथवा असंयम, कषाय, विषयभोग आदि-इनमें कोई शुभरूप हैं और कोई अशुभरूप हैं; किन्तु मूल वस्तु के विचार करने पर दो प्रकार का कर्म रोग ही हैं। भगवान वीतरागदेव ने ऐसी ही बंध की पद्धति कही हैं। पुण्य-पाप दोनों को बंधरूप व बंध का कारण कहा हैं, अतः आत्म-धर्म (आत्मा का हित करने वाले धर्म) में तो संपूर्ण शुभअशुभ कर्म त्यागने योग्य हैं। संसार-समुद्र से पार उतारने वाला, राग-द्वेष को समाप्त करने वाला और मोक्ष को प्राप्त करने वाला एक मात्र शुद्धोपयोग ही हैं, शुभोपयोग और अशुभोपयोग नहीं । शिष्य - सिष्य कहै स्वामी तुम करनी असुभ सुभ,
कीनी है निषेध मेरे संसै मन मांही है। मोखमैं सधैया ग्याता देसविरती मुनीस,
तिनकी अवस्था तौ निरावलंब नांही है ।। गुरु - कहै गुरु करमको नास अनुभौ अभ्यास,
असो अवलंब उनही कौ उन पांही है।। निरुपाधि प्रातम समाधि सोई सिवरूप,
और दौर धूप पुद्गल परछांही है ।।८।। यह सुन कर शिष्य कहता हैं कि हे गुरुदेव! आपने शुभ और अशुभ को समान बताकर दोनों का निषेध कर दिया हैं। अतः मेरे मन में एक संशय उत्पन्न हो गया हैं कि मोक्षमार्ग की साधना करने वाले अविरति सम्यग्दृष्टि (चतुर्थ गुणस्थानवर्ती), अणुव्रती (पंचम-गुणस्थानवर्ती) और महाव्रती (षष्ठंगुणस्थानवर्ती) जीवों की अवस्था बिना अवलंबन के तो रह नही सकती हैं; उन्हें तो व्रत, शील, संयम, दया, दान, जप, तप, पूजनादिक का अवलंबन चाहिए ही। अतः आप इन कर्मो का निषेध क्यों करते हैं ?
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इसका उत्तर देते हुए गुरु कहते हैं कि हे भाई! ऐसा नहीं है। क्या मुक्तिमार्ग के पथिक जीवो का अवलंबन पुण्य-पाप रूप हैं ? अरे, उनका अवलंबन तो उनका ज्ञानानन्द स्वभावी प्रात्मा हैं, जो सदा विद्यमान हैं । कर्मो का अभाव तो आत्मानुभव एवं उसके अभ्यास से ही होता हैं। अतः उनके निरावलंबन होने का कोई प्रश्न ही नहीं हैं। मोह - राग-द्वेष रहित आत्मा में समाधि लगाना ही मुक्ति का कारण एवं मोक्ष का स्वरूप हैं, व्रतादि के विकल्प और जड़ की क्रिया तो पुद्गल की परछाई हैं । कहा भी हैं :
करम सुभासुभ दोई, पद्गलपिंड विभाव मल ।
इन सौं मुकति न होइ, नहिं केवल पद पाइए।। ११।।
शुभ और अशुभ ये दोनों कर्म मल हैं, पुद्गल पिंड हैं और प्रात्मिक विभाव हैं। इनसे केवलज्ञान एवं मोक्ष की प्राप्ति संभव नहीं है।
शिष्य -
कोऊ शिष्य कहै स्वामी ! प्रसुभक्रिया असुद्ध, सुभक्रिया सुद्ध तुम ग्रैसी कयौँ न वरनी। गुरु कहै जबलौं क्रिया के परिनाम रहें,
तबलौं चपल उपयोग जोग धरनी।। थिरता न प्रावै तोलौं सुद्ध अनुभौ न होई,
यातैं दोऊ क्रिया मोख - पंथ की कतरनी। बंधकी करैया दोऊ दुहू मैं न भली कोऊ,
बाधक विचारि मैं निसिद्ध कीनी करनी ।। १२ ।। इतना सुनने पर कोई समझौतावादी शिष्य सलाह देता हुआ कहता है कि हे गुरुदेव ! आप शुभक्रिया शुद्ध और प्रशुभक्रिया अशुद्ध हैं ऐसा क्यों नहीं कहते
हैं ?
गुरु -
उसको समझाते हुए गुरुदेव कहते हैं कि हे भाई! जब तक शुभाशुभ क्रिया के परिणाम रहते हैं तब तक योग ( मन, वचन, काय ) और उपयोग ( ज्ञान - दर्शन ) में चंचलता बनी रहती हैं । जब तक योग और उपयोग में
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स्थिरता नहीं आती हैं तब तक शुद्धात्मा का अनुभव नहीं होता हैं। अतः शुभाशुभ दोनों ही क्रियाएँ मोक्षमार्ग को काटने में कैंची के समान हैं । दोनों ही बंध को करने वाली हैं। दोनों में कोई भी अच्छी नहीं हैं। मैनें दोनो का निषेध मोक्षमार्ग में बाधक जान कर ही किया हैं।
इस प्रकार पंडित बनारसीदासजी ने आगमानुकूल अपना दृष्टिकोण स्पष्ट रूप से व्यक्त किया हैं।
इसके संदर्भ में प्राचार्यकल्प पंडित टोडरमलजी लिखते हैं :
“ तथा प्रास्त्रवतत्त्व में जो हिंसादिरूप पापास्त्रव हैं उन्हें हेय जानता हैं; अहिंसादिरूप पुण्यास्त्रव हैं उन्हें उपादेय मानता हैं। परंतु यह तो दोनों ही कर्मबंध के कारण हैं, इनमें उपादेयपना मानना वही मिथ्यादृष्टि हैं।... इस प्रकार अहिंसावत् सत्यादिक तो पुण्य-बंध के कारण हैं और हिंसावत् असत्यादिक पापबंध के कारण हैं; ये सर्व मिथ्याध्यवसाय हैं, वे सब त्याज्य हैं। इसलिए हिंसादिवत् अहिंसादिक को भी बंध का कारण जानकर हेय ही मानना.... जहाँ वीतराग होकर दृष्टा-ज्ञातारूप प्रवर्ते वहाँ निर्बध हैं सो उपादेय हैं। सो ऐसी दशा न हो तब तक प्रशस्त रागरूप प्रवर्तन करो, परन्तु श्रद्धान तो ऐसा रखो कि -यह भी बंध का कारण हैं, हेय हैं; श्रद्धान में इसे मोक्षमार्ग जाने तो मिथ्यादृष्टि ही होता हैं।"
इस प्रकार हम देखते हैं कि यद्यपि लौकिक दृष्टि से पाप की अपेक्षा पुण्य अच्छा हैं व इसी तथ्य को लक्ष्य में रखकर शास्त्रों में उसे व्यवहार से धर्म भी कहा गया हैं, तथापि मुक्ति के मार्ग में उसका स्थान प्रभावात्मक ही हैं।
पुण्य भला मानने में मूल कारण पुण्य के फलस्वरूप प्राप्त होने वाली भोग-सामग्री में सुखबुद्धि हैं। जब तक भोगों को सुखरूप माना जाता रहेगा तब तक पुण्य में उपादेयबुद्धि नही जा सकती। ज्ञानानंद स्वभावी आत्मा का स्पर्श हुए बिना भोगों में से सुखबुद्धि नहीं जा सकती हैं। ज्ञानानंद स्वभावी आत्मा का अनुभव ही शुद्ध भाव हैं जो कि शुभाशुभ (पुण्य-पाप) भाव के प्रभावरूप १. मोक्षमार्ग प्रकाशक , श्री दि. जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट, सोनगढ़, २२६
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होता हैं। अतः सम्यक् सुखाभिलाषी जीवों को प्रात्मानुभूतिरूप शुद्ध भाव को प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए ।
प्रश्न
१. मुक्ति के मार्ग में पुण्य का क्या स्थान हैं ? २. पुण्य और पाप किसे कहते हैं ?
३. पुण्य और पाप के कारणादि भेदो को स्पष्ट करते हुए दोनों में सयुक्ति एकत्व स्थापित कीजिए ।
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पाठ ४
उपादान-निमित्त
प्रवचनकार
मंगलं भगवान् वीरो, मंगलं गौतमो गणी।
मंगलं कुन्दकुन्दार्यो, जैन धर्मोऽस्तु मंगलम्।। जगत का प्रत्येक पदार्थ स्वयं परिणमनशील हैं । पदार्थो के परिणमन को पर्याय या कार्य कहते हैं। कार्य को कर्म, अवस्था, हालत, दशा, परिणाम और परिणति भी कहते हैं। प्रत्येक पदार्थ अपने परिणमन का कर्ता स्वयं हैं। उसे अपने परिणमन में दूसरे के सहयोग की रंचमात्र भी आवश्यकता नहीं हैं। अज्ञानी जीव पर के सहयोग की आकांक्षा से व्यर्थ ही दुःखी होता हैं । जिज्ञासु - ___ कारण के बिना कार्य की उत्पत्ति संभव नहीं हैं। अतः कारणों की खोज को व्यर्थ कैसे माना जा सकता हैं ? प्रवचनकार -
तुम ठीक कहते हो कि कारण के बिना कार्य की उत्पत्ति संभव नहीं हैं। किन्तु जानते हो कारण किसे कहते हैं ? कार्य की उत्पादक सामग्री को ही कारण कहते हैं। वे कारण दो प्रकार के होते हैं - उपादानकारण और निमित्तकारण।
जो स्वयं कार्यरूप परिणमित हो, उसे उपादानकारण कहते हैं। जो स्वयं कार्यरूप परिणमित न हो, परंतु कार्य की उत्पत्ति में अनुकूल होने का आरोप जिस पर आ सके, उसे निमित्तकारण कहते हैं; जैसे –' घट' रूप कार्य का मिट्टी उपादानकारण हैं और चक्र, दंड और कुंम्हार निमित्तकारण हैं।
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जिस पदार्थ में कार्य निष्पक्ष होता है उसे उपादान और उस कार्य को उपादेय कहते हैं और निमित्त की अपेक्षा कथन करने पर उसी कार्य को नैमित्तिक कहते हैं। एक ही कार्य को उपादानकारण की अपेक्षा कथन करने पर उपादेय और निमित्तकारण की अपेक्षा कथन करने पर नैमित्तिक कहा जाता हैं। जिज्ञासु -
उपादान-उपादेय और निमित्त-नैमित्तिक को कृपया उदाहरण देकर समझा दीजिए। प्रवचनकार -
सुनो! जैसे ‘घट' कार्य का उपादानकारण मिट्टी रूप द्रव्य हैं। यहाँ 'मिट्टी' उपादान हैं, अतः इनकी अपेक्षा कथन करने पर 'घट' कार्य 'उपादेय' कहा जायगा तथा ‘घट' कार्य के कुम्हार, चक्रादि निमित्तकारण हैं। निमित्तों की अपेक्षा कथन करने पर उसी 'घट' कार्य को 'नैमित्तिक' कहा जायगा।
यहाँ उपादेय शब्द का प्रयोग ‘ग्रहण करने योग्य' इस अर्थ में नहीं हैं। यहाँ तो निमित्त की अपेक्षा जिस कार्य को नैमित्तिक कहा जाता हैं, उसे ही अपने उपादान की अपेक्षा उपादेय कहा जाता हैं। आशा हैं अब आप लोगों की समझ में आ गया होगा। जिज्ञासु
आ गया ! अच्छी तरह आ गया !! प्रवचनकार -
तो ‘स्वर्णहार' और 'सम्यग्दर्शन' रूप कार्य पर उपादान-उपादेय और निमित्त-नैमित्तिक घटाइये । जिज्ञासु
स्वर्ण रूप द्रव्य उपादान हैं और 'हार' ( स्वर्णहार) उपादेय हैं । आग, सुनार आदि निमित्त हैं और 'हार' नैमित्तिक हैं । इसी प्रकार प्रात्म द्रव्य या श्रद्धा गुण उपादान हैं और सम्यग्दर्शन उपादेय हैं , मिथ्यात्व कर्म का प्रभाव निमित्त हैं और सम्यग्दर्शन नैमित्तिक हैं । प्रवचनकार -
बहुत अच्छा !
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शंकाकार -
उपादान यदि 'द्रव्य' या 'गुण' है तो वह सदा काल विद्यमान रहता हैं, अतः विवक्षित कार्य सदा होता रहना चाहिए। प्रवचनकार -
उपादान दो तरह का होता हैं - (१) त्रिकाली उपादान (२) क्षणिक उपादान।
जो द्रव्य या गुण स्वयं कार्यरूप परिणमित हो उसे त्रिकाली उपादानकारण कहते हैं।
क्षणिक उपादानकारण को दो तरह से स्पष्ट किया जाता हैं :
१. द्रव्य और गुणों में अनादि-अनन्त पर्यायों का प्रवाहक्रम चलता रहता हैं। उस अनादि-अनन्त प्रवाहक्रम में अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादानकारण हैं और अनन्तर उत्तर क्षणवर्ती पर्याय कार्य हैं।
२. उस समय की पर्याय की उस रूप होने की योग्यता क्षणिक उपादानकारण हैं और वह पर्याय कार्य हैं।
क्षणिक उपादानकारण को समर्थ उपादानकारण भी कहते हैं। त्रिकाली उपादानकारण तो सदा विद्यमान रहता हैं, यदि उसे ही पूर्ण समर्थकारण मान लिया जाय तो विवक्षित कार्योत्पति का सदा प्रसंग आयगा। अतः अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय एवं उस समय उस पर्याय के उत्पन्न होने की स्वयं की योग्यता ही समर्थ उपादानकारण हैं, जिनके बिना कार्य की उत्पत्ति नहीं होती हैं और जिनके होने पर नियम से कार्य की उत्पत्ति होती हैं ।
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता हैं कि अनन्तर पूर्व पर्याय विशिष्ट द्रव्य उपादान हैं और अनन्तर उत्तर पर्याय विशिष्ट द्रव्य उपादेय हैं । अनुकूल बाह्य पदार्थ निमित्त हैं और विवक्षित कार्य नैमित्तिक हैं । शंकाकार -
निमित्त भी दो प्रकार के होते हैं ! उदासीन और प्रेरक।
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प्रवचनकार
हाँ, निमित्तों का वर्गीकरण भी उदासीन और प्रेरक इन दो रूपों में किया जाता हैं । यद्यपि धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाश और कालद्रव्य इच्छाशक्ति से रहित और निष्क्रिय होने से उदासीन निमित्त कहे जाते हैं; तथा जीव द्रव्य इच्छावान और क्रियावान होने से एवं पुद्गलद्रव्य क्रियावान होने से प्रेरक निमित्त कहे जाते हैं । तथापि कार्योत्पति में सभी निमित्त धर्मास्तिकाय के समान उदासीन ही हैं। प्राचार्य पूज्यपाद स्वामी ने इष्टोपदेश में कहा हैं :
-
नाज्ञो विज्ञत्वमायाति, विज्ञो नाज्ञत्वमृच्छति । निमित्तमात्रमन्युस्तु, गतेर्धर्मास्तिकायवत् ।। ३५।।
अज्ञ को उपदेशादि निमित्तों द्वारा विज्ञ नहीं किया जा सकता और न ही विज्ञ को अज्ञ ही सकते हैं क्योंकि परपदार्थ तो निमित्त मात्र हैं जैसे कि स्वयं चलते हुए जीव और पुद्गलों को धर्मास्तिकाय होता हैं।
—
इसी को स्पष्ट करते हुए इसकी संस्कृत टीका में लिखा हैं :
“
'यहाँ यह शंका हो सकती हैं कि यों तो बाह्य निमित्तों का निराकरण ही हो जायगा । इसका उत्तर दिया हैं। अन्य जो गुरु आदि तथा शत्रु आदि हैं वे प्रकृत कार्य के उत्पादन में तथा विध्वंसन में सिर्फ निमित्त मात्र हैं । वस्तुतः किसी कार्य के होने व बिगड़ने में उसकी योग्यता ही साक्षात् साधक होती हैं ।
जिज्ञासु -
-
चारण ऋद्धिधारी मुनियों का उपदेश पाकर तो भगवान महावीर के जीव ने अपनी पूर्व शेर की पर्याय में आत्महित किया था । उसका ही परिणाम हैं कि वह जीव आगे जाकर भगवान महावीर बना। आप उपदेशरूप निमित्त का निषेध क्यों करते हैं ?
प्रवचनकार
हम उपदेशरूप निमित्त का निषेध कब करते हैं? हम तो निमित्त के कर्तृत्व का निषेध करते हैं। यदि उपदेश से ही आत्महित होता हैं तो उपदेश १. इष्टोपदेश (श्रीमद् राजचंद्र प्राश्रम, प्रगास ) ४२-४३
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तो बहुत जीव सुनतें हैं, सब का हित क्यों नही हो जाता ? भगवान महावीर के जीव का हित मारीचि के भव में ही क्यों नहीं हो गया ? क्या वहाँ सद्निमित्तों की कमी थी? पिता चक्रवर्ती भरत, धर्मचक्र के आदि प्रवर्तक भगवान ऋषभदेव बाबा। भगवान ऋषभदेव के समवसरण में उनका उपदेश सुनकर तो उसने विरोध-भाव उत्पन्न किया था। क्या उनके उपदेश में कोई कमी थी ? क्या चारण ऋद्धिधारी मुनियो का उपदेश उनसे भी अच्छा था ? इसी से सिद्ध होता हैं कि जब उपादान की तैयारी हो तब कार्य होता ही हैं और उस समय योग्य निमित्त भी होता ही हैं, उसे खोजने नहीं जाना पड़ता है। क्रूर शेर की पर्याय में घोर वन में उपदेश का कहाँ अवसर था ? पर उसका पुरुषार्थ जगा तो निमित आकाश से उतर कर आये। इसलिए तो कहा था कि आत्मार्थी को निमित्त की खोज में व्यग्र नही होना चाहिए। “निमित्त नहीं होता' यह कौन कहता है ? पर निमित्तों को खोजना भी नहीं पड़ता। जब उपादान में कार्य होता हैं तो तद्नुकूल निमित्त होता ही हैं।
निमित्तो के अनुसार कार्य नहीं होता हैं, कार्य के अनुसार निमित्त कहा जाता हैं। वेश्या के मृत शरीर को देखकर रागी को राग और वैरागी को वैराग्य उत्पन्न होता हैं। वह वेश्या रागी के राग और वैरागी के वैराग्य का निमित्त कही जाती हैं। यदि निमित्त के अनुसार कार्य होता हो तो उसे देखकर प्रत्येक को या तो राग ही उत्पन्न होना चाहियें या फिर वैराग्य ही।
आचार्यकल्प पंडित टोडरमलजी कहते हैं – “पर द्रव्य कोई जबरन तो बिगाड़ता नहीं हैं, अपने भाव बिगड़े तब वह भी बाह्य निमित्त हैं। तथा इसके निमित बिना भी भाव बिगड़ते हैं, इसलिए नियमरूप से निमित्त भी नहीं हैं। इस प्रकार पर-द्रव्य का तो दोष देखना मिथ्याभाव हैं।” __ न तो निमित्त उपादान में बलात् कुछ करता हैं और न ही उपादान किन्हीं निमित्तों को बलात् लाता या मिलाता है। दोनों का सहज ही संबंध होता हैं। निमित्त-नैमित्तिक संबंध की सहजता को पंडित टोडरमलजी ने इस प्रकार स्पष्ट किया हैं :१. मोक्षमार्ग प्रकाशक, श्री. दि. जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट, सोनगढ़, २४३
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“यदि कर्म स्वयं कर्ता होकर उद्यम से जीव के स्वभाव का घात करे, बाह्य सामग्री को मिलावे तब तो कर्म के चेतनपना भी चाहिए और बलवानपना भी चाहिए; सो तो है नहीं, सहज ही निमित्त-नैमित्तिक संबंध हैं । जब उन कर्मो का उदय काल होता हो; उस काल में स्वयं ही आत्मा स्वभावरूप परिणमन नहीं करता, विभावरूप परिणमन करता है तथा जो अन्य द्रव्य हैं वे वैसे ही संबंधरूप होकर परिणमन करते हैं..... जिस प्रकार सूर्य के उदय के काल में चकवा-चकवियों का संयोग होता हैं, वहाँ रात्रि में किसी ने द्वेषबुद्धि से बलजबरी करके अलग नहीं किये हैं, दिन में किसी ने करुणाबुद्धि से लाकर मिलाये नहीं हैं; सूर्योदय को निमित्त पाकर स्वयं ही मिलते हैं, ऐसा ही निमित्त-नैमित्तिकभाव बन रहा हैं। उस ही प्रकार कर्म का भी निमित्तनैमित्तिक भाव जानना।" जिज्ञासु -
निमित्त-उपादान के झगड़े में हम पड़ें ही क्यों ? इसे न जानें तो क्या हानि हैं और जानने में क्या लाभ हैं ? प्रवचनकार -
निमित्त-उपादान का सहीं स्वरूप समझना झगड़ना नहीं हैं। एक को दूसरे का कर्ता मानना झगड़ा हैं। इसी झगड़े के कारण जीव दुःखी हैं। निमित्त-उपादान का सहीं स्वरूप समझने ने से झगड़ा समाप्त हो जायगा।
उपादान-निमित्त का सही ज्ञान न होने से व्यक्ति अपने द्वारा कृत कार्यो (अपराधों) का कर्तृत्व निमित्त पर थोप कर स्वयं निर्दोष बना रहना चाहता हैं। पर जैसे चोर स्वयंकृत चोरी का आरोप चांदनी रात के नाम पर मढ़ कर दंड़-मुक्त नहीं हो सकता; उसी प्रकार आत्मा भी अपने द्वारा कृत मोह-रागद्वेष भावों का कर्तृत्व कर्मो पर थोप कर दुःख मुक्त नहीं हो सकता हैं। उक्त स्थिति में स्वदोष दर्शन और आत्मनिरीक्षण की प्रवृत्ति की ओर दृष्टि तक नहीं जाती हैं।
इसकी यथार्थ समझ से पर-कर्तृत्व का अभिमान दूर हो जाता हैं। पराश्रय के भाव के कारण उत्पन्न दीनता-हीनता का प्रभाव हो जाता हैं। प्रत्येक द्रव्य १. वहीं, २५-२६
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की स्वतन्त्रता का भान होता हैं और स्वावलम्बन का भाव जागता हैं। पर पदार्थ के सहयोग की आकांक्षा से होने वाली व्यग्रता का प्रभाव होकर सहज स्वाभाविक शान्त दशा प्रगट होती हैं । । अब समय हो गया हैं। आज जो बताया हैं उस पर गम्भीरता से विचार करना! तुम्हारा कल्याण होगा !! प्रश्न - १. उपादान किसे कहते हैं ? वह कितने प्रकार का होता हैं ? उदाहरण
सहित स्पष्ट कीजिए। २. निमित्त किसे कहते हैं ? वह कितने प्रकार का होता हैं ? प्रेरक निमित्त
से क्या आशय हैं ? ३. कोई एक कार्य पर उपादान-उपादेय और निमित्त-नैमित्तिक घटा कर
समझाइए। ४. उपादान-निमित्त के जानने से क्या लाभ है ?
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पाठ ५.
आत्मानुभूति
और तत्त्वविचार
‘सुख क्या हैं ? ' और ' मैं कोन हूँ ?' इन प्रश्नों का सही उत्तर प्राप्त करने का एक मात्र उपाय प्रात्मानुभूति हैं, तथा आत्मानुभूति प्राप्त करने का प्रारंभिक उपाय तत्त्वविचार हैं। पर प्रात्मानुभूति अपनी प्रारम्भिक भूमिका तत्त्वविचार का भी अभाव करती हुई उदित होती हैं; क्योंकि तत्त्वविचार विकल्पात्मक हैं और आत्मा निर्विकल्प स्वसंवेद्य तत्त्व हैं। निर्विकल्पक तत्त्व की अनुभूति विकल्पों द्वारा नहीं की जा सकती हैं। उक्त तथ्य ‘सुख क्या हैं ?" और मैं कौन हूँ ? २ नामक निबंधो में स्पष्ट किया जा चुका हैं। यहाँ तो विचारणीय प्रश्न यह हैं कि आत्मानुभूति की दशा क्या हैं और तत्त्वविचार किसे कहना ?
अन्तरोन्मुखी वृत्ति द्वारा आत्मसाक्षात्कार की स्थिति का नाम ही आत्मानुभूति हैं। वर्तमान प्रगट ज्ञान को पर-लक्ष्य से हटा कर स्वद्रव्य (त्रिकाली ध्रुव आत्मतत्त्व) में लगा देना ही आत्मसाक्षात्कार की स्थिति हैं। वह ज्ञानतत्त्व से निर्मित होने से, ज्ञानतत्त्व की ग्राहक होने से और सम्यग्ज्ञान-परिणति की उत्पादक होने से ज्ञानमय हैं। अतः वह आत्मानुभूति ज्ञायक, ज्ञेय, ज्ञान और ज्ञप्ति रूप होकर भी इनके भेद से रहित अभेद और प्रखण्ड हैं। तात्पर्य यह हैं कि जानने वाला भी स्वयं प्रात्मा हैं और जानने में आने वाला भी स्वयं आत्मा ही हैं तथा ज्ञान-परिणति भी आत्मामय हो रही हैं ।
१. तत्त्वज्ञान पाठमाला भाग १, पाठ ५ २. वीतराग-विज्ञान पाठमाला भाग ३, पाठ ५
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यह ज्ञानमय दशा प्रानन्दमय भी है, यह ज्ञानानन्दमय हैं । इसमें ज्ञान और आनंद का भेद नही हैं। यह ज्ञान भी इन्द्रियातीत हैं और आनंद भी इन्द्रियातीत। यह अतीन्द्रिय ज्ञानानन्द की दशा ही धर्म हैं। अतीन्द्रिय ज्ञानानन्द स्वभावी ध्रुवतत्त्व पर संपूर्ण प्रगट ज्ञान-शक्ति का केन्द्रीभूत हो जाना धर्म की दशा हैं। अतः एक मात्र वही ज्ञानानंद स्वभावी ध्रुवतत्त्व ध्येय हैं, साध्य हैं और आराध्य हैं; तथा मुक्ति के पथिक तत्त्वाभिलाषी को समस्त जगत अध्येय, असाध्य और अनाराध्य हैं।
यह चैतन्यभावरूप प्रात्मानुभूति ही करने योग्य कार्य (कर्म) हैं ; पर की कोई भी प्रकार की अपेक्षा बिना चेतन प्रात्मा ही इसका कर्ता हैं और यही धर्मपरिणतिरूप ज्ञानचेतना सम्यक् क्रिया हैं। इसमें कर्ता, कर्म और क्रिया का भेद कथनमात्र हैं, वैसे तो तीनों ही ज्ञानमय होने से अभिन्न ( अभेद) ही हैं।
धर्म का प्रारम्भ भी आत्मानुभूति से ही होता हैं और पूर्णता भी इसी की पूर्णता में। इससे परे धर्म की कल्पना भी नहीं की जा सकती। आत्मानुभूति ही आत्मधर्म हैं। साधक के लिए एक मात्र यही इष्ट हैं। इसे प्राप्त करना ही साधक का मूल प्रयोजन हैं।
उक्त प्रयोजन की सिद्धि हेतु जिन वास्तविकताओं की जानकारी आवश्यक हैं उन्हें प्रयोजनभूत तत्त्व कहते हैं तथा उनके सम्बन्ध में किया गया विकल्पात्मक प्रयत्न ही तत्त्वविचार कहलाता हैं।
_ ' मैं कौन हूँ?' (जीव तत्त्व), 'पूर्ण सुख क्या हैं ?' ( मोक्षतत्त्व), इस वैचारिक प्रक्रिया के मूलभूत प्रश्न हैं। मैं सुख कैसे प्राप्त करू अर्थात् आत्मा प्रतीन्द्रिय-पानंद की दशा को कैसे प्राप्त हो? जीव तत्त्व मोक्ष तत्त्वरूप किस प्रकार परिणमित हो ? आत्माभिलाषी मुमुक्षु के मानस में निरंतर यही मंथन चलता रहता हैं।
वह विचारता हैं कि चेतन तत्त्व से भिन्न जड़ तत्त्व की सत्ता भी लोक में हैं। प्रात्मा में अपनी भूल से मोह-राग-द्वेष की उत्पत्ति होती हैं तथा शुभाशुभ भावों की परिणति में ही यह आत्मा उलझा ( बंधा) हुआ हैं। जब तक आत्मा अपने स्वभाव को पहिचान कर आत्मनिष्ठ नहीं हो जाता तब तक मुख्यतः
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मोह - राग-द्वेष की उत्पत्ति होती ही रहेगी। इनकी उत्पत्ति रूके, इसका एक मात्र उपाय उपलब्ध ज्ञान का आत्म- केन्द्रित हो जाना हैं। इसी से शुभाशुभ भावों का प्रभाव होकर वीतराग भाव उत्पन्न होगा और एक समय वह होगा कि समस्त मोह-राग-द्वेष का प्रभाव होकर आत्मा वीतराग - परिणति रूप परिणत हो जायगा। दूसरे शब्दों में पूर्ण ज्ञानानंदमय पर्याय रूप परिणमित हो जायेगा ।
उक्त वैचारिक प्रक्रिया ही तत्त्वविचार की श्रेणी हैं। स्वानुभूति प्राप्त करने की प्रक्रिया निरंतर तत्त्वमंथन की प्रक्रिया हैं । किन्तु तत्त्वमंथन रूप विकल्पों से भी आत्मानुभूति प्राप्त नहीं होगी क्योकि कोई भी विकल्प ऐसा नहीं जो आत्मानुभूति को प्राप्त करा दे। आत्मानुभूति प्राप्त करने के लिए समस्त जगत् पर से दृष्टि हटानी होगी। समस्त जगत् से आशय हैं कि आत्मा से भिन्न शरीर, कर्म आदि जड़ (अचेतन) द्रव्य तो पर हैं ही, अपने आत्मा को छोड़कर अन्य चेतन पदार्थ भी पर हैं तथा आत्मा में प्रति समय उत्पन्न होने वाली विकारी - अविकारी पर्यायें (दशा) भी दृष्टि का विषय नहीं हो सकती। उनसे भी परे प्रखंड त्रिकाली चैतन्य ध्रुव आत्मतत्त्व हैं, वही एक एकमात्र दृष्टि का विषय है, जिसके प्राश्रय से आत्मानुभूति प्रगट होती है जिसे कि धर्म कहा जाता हैं।
दूसरे शब्दों में रङ्ग, राग और भेद से भी परे चेतनतत्त्व हैं। रङ्ग माने पुद्गलादि पर पदार्थ, राग माने आत्मा में उठने वाले शुभाशुभ रूप रागादि विकारी भाव, और भेद माने गुण-गुणी भेद व ज्ञानादि गुणो के विकास संबंधी तारतम्य रूप भेद; इन सब से परे ज्ञानानन्द स्वभावी ध्रुव तत्त्व हैं। वही एक मात्र आश्रय योग्य तत्व हैं। उसके प्रति वर्तमान ज्ञान के उघाड़ का सर्वस्व समर्पण ही प्रात्मानुभूति का सच्चा उपाय हैं।
प्रश्न यह नही हैं कि आपके पास वर्तमान में प्रगटरूप कितनी ज्ञानशक्ति हैं? प्रश्न यह हैं कि क्या आप उसे पूर्णत: ग्रात्म - केन्द्रित कर सकते हैं ? स्वानुभूति के लिए स्वस्थ मस्तिष्क व्यक्ति को जितना ज्ञान प्राप्त हैं, वह पर्याप्त हैं। पर प्रगट ज्ञान का आत्म-स्वभाव के प्रति सर्वस्व समर्पण एक अनिवार्य तत्त्व ( शर्त) हैं, जिसके बिना आत्मानुभूति प्राप्त नहीं की जा सकती। यदि प्रयोजनभूत तत्त्वों का विकल्पात्मक सच्चा निर्णय हो गया हो तो अप्रयोजनभूत
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बहिर्लक्ष्यीं ज्ञान की हीनाधिकता से कोई अन्तर नहीं पड़ता, पर एक (प्रात्म) निष्ठता अति आवश्यक हैं।
यह आत्मा अपनी भूल से पर्याय में चाहे जितना उन्मार्गी बने, पर आत्मस्वभाव उसे कभी भी छोड़ नहीं देता; किन्तु जब तक यह आत्मा अपनी दृष्टि को समस्त पर पदार्थो से हटा कर आत्मनिष्ठ नहीं हो जाता तब तक आत्मस्वभाव की सच्ची अनुभूति भी प्राप्त नहीं हो सकती।
आत्मानुभूति प्राप्त करने के लिए बाह्य साधनों की रंचमात्र भी अपेक्षा नहीं हैं। जैसे लोक में अपनी वस्तु के उपयोग के लिए पैसा खर्च नहीं करना पड़ता हैं; उसी प्रकार आत्मानुभूति के लिए बाह्य साधनों की आवश्यकता नही हैं। क्योंकि स्वयं को, स्वयं की, स्वयं के द्वारा ही तो अनुभूति करना हैं। आखिर उसमें पर की अपेक्षा क्यों हो? आत्मानुभूति में पर के सहयोग का विकल्प बाधक ही हैं, साधक नहीं।
आत्मानुभूति के काल में पर संबंधी विकल्पमात्र प्रात्मानुभूति की एकरसता को छिन्न भिन्न किए बिना नहीं रहता है। अतः यह निश्चित हैं कि जो साधक अपनी साधना में पर के सहयोग की आकांक्षा से व्यग्र रहता हैं, उसके पल्ले मात्र व्यग्रता ही पड़ती हैं; उसे साध्य की सिद्धि प्राप्त नहीं हो सकती। अत: प्रात्मानुभव के अभिलाषी मुमुक्षुत्रों को पर के सहयोग की कल्पना में प्राकुलित नहीं रहना चाहिए।
शुभाशुभ विकल्पों के टुटने की प्रक्रिया और क्रम क्या हैं ? तथा परनिरपेक्ष आत्मानुभूति के मार्ग के पथिक की अंतरंग व बहिरंग दशा कैसी होती हैं ? ये अपने आप में विस्तृत विषय हैं। इन पर पृथक् से विवेचन अपेक्षित हैं। प्रश्न -
१. आत्मानुभूति किसे कहते हैं ? स्पष्ट कीजिए। २. तत्त्वविचार किसे कहते हैं ? समझाइये। ३. “आत्मानुभूति और तत्त्वविचार” इस विषय पर एक निबंध लिखिए।
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पाठ ६
षट् कारक
आचार्य कुन्दकुन्द ( व्यक्तित्व और कर्तृत्व )
मंगलं भगवान् वीरो, मंगलं गौतमो गणी। मंगलं कुन्दकुन्दार्यो, जैनधर्मोऽस्तु मंगलम्।।
परम आध्यात्मिक सन्त कुन्दकुन्दाचार्यदेव को समग्र दिगंबर जैन आचार्य परंपरा में सर्वोच्च स्थान प्राप्त हैं। उन्हें भगवान महावीर और गौतम गणधर के तत्काल बाद मंगलस्वरूप स्मरण किया जाता हैं । प्रत्येक दिगंबर जैन उक्त छंद को शास्त्राध्ययन आरम्भ करने के पूर्व प्रतिदिन श्रद्धापूर्वक बोलता हैं । दिगंबर साधु अपने आप को कुन्दकुन्दाचार्य की परंपरा का कहलाने में गौरव का अनुभव करते हैं।
दिगंबर जैन समाज कुन्दकुन्दाचार्यदेव के नाम एवं काम ( महिमा) से जितना परिचित हैं, उनके जीवन से उतना ही अपरिचित हैं । लोकेषणा से दूर रहने वाले अर्न्तमग्न कुन्दकुन्द ने अपने बारे में कहीं कुछ भी नहीं लिखा हैं । 'द्वादशानुप्रेक्षा' में मात्र नाम का उल्लेख हैं। इसी प्रकार ' बोधपाहुड' में अपने को द्वादश अंग ग्रन्थो के ज्ञाता तथा चौदह पूर्वो का विपुल प्रसार करने वाले श्रुतज्ञानी भद्रबाहु का शिष्य लिखा हैं।
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यद्यपि परवर्ती ग्रन्थकारो ने श्रद्धा एवं भक्तिपूर्वक आपका उल्लेख किया हैं, उससे उनकी महानता पर तो प्रकाश पड़ता हैं, तथापि उनके जीवन के सम्बन्ध में विशेष जानकारी प्राप्त नहीं होती।
प्राप्त जानकारी के अनुसार इनका समय विक्रम संवत् का आरंभ काल हैं । श्रुतसागर सूरि ने ' षट् प्राभृत' की टीका - प्रशस्ति में इन्हें कलिकाल सर्वज्ञ कहा हैं । इन्हें कई ऋद्धियाँ प्राप्त थीं और इन्होंने विदेहक्षेत्र में विराजमान
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विद्यमान तीर्थंकर भगवान श्री सीमंधरनाथ के साक्षात् दर्शन किए थे। विक्रम संवत् ९९० में हुए देवसेनाचार्य ने अपने 'दर्शनसार' नामक ग्रंथ में तत्सम्बन्धी उल्लेख इस प्रकार किया हैं :
जइ पउमणंदिणाहो, सीमंधरसामिदिव्वणाणेण।
ण विबोहइ तो समणा कहं सुमग्गं पयाणंति।। श्री सीमंधर स्वामी से प्राप्त हुए दिव्यज्ञान द्वारा श्री पद्मनंदिनाथ (श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव) ने बोध न दिया होता तो मुनिजन सच्चे मार्ग को कैसे जानते ?
इनका वास्तविक नाम पद्मनंदि हैं। कोण्डकुण्डपुर के वासी होने से इन्हें कुन्दकुन्दाचार्य कहा जाने लगा।
कुन्दकुन्दाचार्यदेव के निम्नलिखित ग्रन्थ उपलब्ध हैं - समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, नियमसार, अष्टपाहुड, द्वादशानुप्रेक्षा और दशभक्ति। रयणसार और मूलाचार भी उनके ही गन्थ कहे जाते हैं। कहते हैं उन्होंने चौरासी पाहुड़ लिखे थे। यह भी कहा जाता है कि इन्होंने 'षट्खंडागम' के प्रथम तीन खण्डों पर 'परिकर्म' नामक टीका लिखी थी, जो उपलब्ध नहीं हैं।
समयसार जैन अध्यात्म का प्रतिष्ठापक अद्वितीय महान शास्त्र हैं। प्रवचनसार और पंचास्तिकाय में जैन सिद्धांतो का विशद विवेचन हैं। उक्त तीनों नाटकत्रयी, प्राभूतत्रयी और कुन्दकुन्दत्रयी भी कहा जाता हैं। उक्त तीनों ग्रन्थो पर आचार्य अमृतचंद्र ने संस्कृत भाषा में गंभीर टीकाएँ लिखी हैं। इन पर प्राचार्य जयसेन की संस्कृत टीकाएँ भी उपलब्ध हैं।
करीब चालीस वर्ष से प्राचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों को आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी ने जन-जन की वस्तु बना दिया हैं। उन्होंने उन पर प्रवचन किए, सस्ते सुलभ प्रकाशन कराए तथा सोनगढ़ ( सौराष्ट्र) में परमागम मंदिर का निर्माण कराके उसमें संगमरमर के पाटियों पर समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय और नियमसार संस्कृत टीका सहित तथा अष्टपाहुड उत्कीर्ण करा कर उन्हें भौतिक दृष्टि से भी अमर कर दिया हैं। उक्त परमागम मंदिर एक दर्शनीय तीर्थ बन गया हैं।
प्रस्तुत पाठ कुन्दकुन्दाचार्य के प्रवचनसार व पंचास्तिकाय एवं उनकी टीकाओं के आधार पर लिखा गया हैं। जैन अध्यात्म और सिद्धांत का मर्म जानने के लिए पाठकों को कुन्दकुन्द के ग्रन्थो का गंभीर अध्ययन अवश्य करना चाहिए।
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प्रवचनकार
-
यह प्रवचनसार नामक महाशास्त्र हैं। इसे प्राचार्य कुन्दकुन्ददेव ने आज से करीब दो हजार वर्ष पूर्व बनाया था। जैसा महान यह ग्रन्थराज हैं। वैसी ही तत्त्वदीपिका नामक महान टीका संस्कृत भाषा में प्राचार्य अमृतचंद्र ने इस पर लिखी हैं। इसके तीन महा अधिकार हैं :
(१)
ज्ञानतत्त्व प्रज्ञापन
(२) ज्ञेयतत्त्व प्रज्ञापन
षट् कारक
एस सुरासुरमणुसिंदवंदिदं धोदघाइकम्ममलं । पणमामि वड्ढमाणं तित्थं धम्मस्स कत्तारं ।।१।।
(३) चरणानुयोगसूचक चूलिका
यहाँ इसके ज्ञानतत्त्व प्रज्ञापन अधिकार की गाथा १६वीं चलती हैं। इसमें यह बताया गया है कि शुद्धोपयोग से होने वाली शुद्धात्मा की प्राप्ति अन्य कारकों से निरपेक्ष होने से प्रत्यन्त स्वाधीन हैं । लेश मात्र भी पराधीन नहीं हैं । तात्पर्य यह हैं कि अतीन्द्रियज्ञान और अतीन्द्रियनानन्द की प्राप्ति के लिए रंचमात्र भी पर के सहयोग की आवश्यकता नहीं है । गाथा इस प्रकार हैं :
समझाइये।
तह सो लद्धसहावो सव्वण्हू सव्वलोगपदिमहिदो । भूदो सयमेवादा हवदि सयंभुत्ति णिद्दिट्ठो ।। १६।।
स्वभाव को प्राप्त आत्मा सर्वज्ञ और सर्वलोकपतिपूजित स्वयमेव हुआ होने स्वयंभू हैं ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है ।
-
आचार्य यहाँ यह कहना चाहते हैं कि निश्चय से पर के साथ आत्मा का कारकता का कोई सम्बन्ध नहीं हैं। शुद्धात्मस्वभाव की प्राप्ति के लिए यह जीव बाह्य सामग्री (पर पदार्थों के सहयोग ) की आकांक्षा से व्यर्थ ही दुखी हो रहा हैं। जिज्ञासु -
कारकता का सम्बन्ध क्या वस्तु
? कारक किसे कहते हैं ? कृपया यह
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प्रवचनकार
जो क्रिया का जनक हो, क्रियानिष्पत्ति में प्रयोजक हो, उसको कारक कहते हैं। ' करोति क्रियां निर्वर्तयतीति कारक: ' ऐसी उसकी व्युत्पत्ति हैं । तात्पर्य यह हैं कि जो किसी न किसी रूप में क्रिया - व्यापार के प्रति प्रयोजक होता है, कारक वही हो सकता हैं, अन्य नहीं ।
-
कारक छह हैं (१) कर्ता (२) कर्म (३) करण ( ४ ) संप्रदान (५) अपादान और (६) अधिकरण ।
जो स्वतंत्रतया (स्वाधीनता से ) करता हैं वह कर्ता हैं; कर्ता जिसे प्राप्त करता हैं वह कर्म हैं; साधकतम अर्थात् उत्कृष्ट साधन को करण कहते हैं; कर्म जिसे दिया जाता हैं अथवा जिसके लिए किया जाता हैं वह सम्प्रदान हैं; जिसमें से कर्म किया जाता है वह ध्रुववस्तु अपादान हैं; और जिसमें प्रर्थात् जिसके आधार से कर्म किया जाता हैं वह अधिकरण हैं ।
ये छह कारक व्यवहार और निश्चय के भेद से दो प्रकार के हैं । जहाँ पर के निमित्त से कार्य की सिद्धि कहलाती हैं वहाँ व्यवहार कारक हैं; और जहाँ अपने ही उपादान कारण से कार्य की सिद्धि कही जाती हैं, वहाँ निश्चय कारक हैं।
व्यवहार कारकों को इस प्रकार घटित किया जाता हैं कुम्हार कर्ता हैं; घड़ा कर्म हैं; दंड, चक्र इत्यादि करण हैं, कुम्हार जल भरने वाले के लिए घड़ा बनाता हैं, इसलिये जल भरने वाला सम्प्रदान हैं; टोकरी में से मिट्टी लेकर घड़ा बनाता हैं, इसलिये टोकरी अपादान है; और पृथ्वी के आधार पर घड़ा बनाता हैं, इसलिए पृथ्वी अधिकरण हैं । यहाँ सभी कारक भिन्न-भिन्न हैं ।
-
परमार्थतः कोई द्रव्य किसी का कर्ता - हर्ता नहीं हो सकता, इसलिये छहों व्यवहार कारक असत्यार्थ हैं। वे मात्र उपचरित प्रसद्भूत व्यवहार नय से कहे जाते हैं। निश्चय से किसी द्रव्य का अन्य द्रव्य के साथ कारकता का सम्बन्ध हैं ही नहीं।
निश्चय कारकों को इस प्रकार घटित करते हैं - मिट्टी स्वतंत्रतया घड़ारूप कार्य को प्राप्त होती है, इसलिए मिट्टी कर्त्ता हैं और घड़ा कर्म हैं, अथवा
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घड़ा मिट्टी से अभिन्न हैं इसलिए मिट्टी स्वयं ही कर्म हैं; अपने परिणमन स्वभाव से मिट्टी ने घड़ा बनाया, इसलिए मिट्टी स्वयं ही करण हैं; मिट्टी ने घड़ारूप कर्म अपने को ही दिया, इसलिए मिट्टी स्वयं संप्रदान हैं। मिट्टी ने अपने में से पिण्डरूप अवस्था नष्ट करके घटरूप कार्य किया और स्वयं ध्रुव बनी रही, इसलिए वह स्वयं ही अपादान हैं। मिट्टी ने अपने ही आधार से घड़ा बनाया, इसलिए स्वयं ही अधिकरण हैं। इस प्रकार निश्चय से छहों कारक एक ही द्रव्य में हैं।
परमार्थतः एक द्रव्य दूसरे द्रव्य की सहायता नहीं कर सकता और द्रव्य स्वयं ही, अपने को, अपने से, अपने लिए, अपने में से, अपने में करता हैं, इसलिए निश्चय छह कारक ही परम सत्य हैं।
उपरोक्त प्रकार से द्रव्य स्वयं ही अपनी अनंतशक्ति रूप सम्पदा से परिपूर्ण हैं, इसलिए स्वयं ही छह कारक रूप होकर अपना कार्य करने के लिए समर्थ हैं, उसे बाह्य सामग्री कोई सहायता नहीं कर सकती। इसलिए केवलज्ञान प्राप्ति के इच्छुक आत्मा को बाह्य सामग्री की अपेक्षा रखकर परतंत्र होना निरर्थक हैं। शुद्धोपयोग में लीन प्रात्मा स्वयं ही छह कारकरूप होकर केवलज्ञान प्राप्त करता हैं। वह आत्मा स्वयं ही अनंतशक्तिवान ज्ञायक-स्वभाव से स्वतंत्र हैं, इसलिए स्वयं ही कर्ता हैं; स्वयं अनंतशक्तिवाले केवलज्ञान को प्राप्त करने से केवलज्ञान कर्म हैं, अथवा केवलज्ञान से स्वयं अभिन्न होने से आत्मा स्वयं ही कर्म हैं; अपने अनंतशक्तिवाले परिणमन स्वभावरूप उत्कृष्ट साधन से केवलज्ञान को प्रगट करता हैं, इसलिए आत्मा स्वयं ही करण हैं; अपने को ही केवलज्ञान देता हैं, इसलिए प्रात्मा स्वयं ही संप्रदान हैं; अपने में से मति-श्रुतादि अपूर्ण ज्ञान दूर करके केवलज्ञान प्रगट करता हैं और स्वयं सहज ज्ञानस्वभाव के द्वारा ध्रुव रहता हैं, इसलिए स्वयं ही अपादान हैं; अपने में ही अर्थात् अपने ही प्राधार से केवलज्ञान प्रगट करता हैं इसलिये स्वयं ही अधिकरण हैं। इस प्रकार स्वयं छह कारक रूप होता है, इसलिए वह 'स्वयंभू' कहलाता हैं।
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जिज्ञासु -
यह तो आत्मा की शुद्ध पर्याय की बात हुई। आत्मा के विकारी भावों और ज्ञानावरणादि कर्मो में तो परस्पर कारकता का संबंध पाया ही जाता हैं। प्रवचनकार -
नहीं, सब द्रव्यों की प्रत्येक पर्याय में छह कारक निश्चय से स्वयं के स्वयं में वर्तते हैं, इसलिए आत्मा और पुद्गल चाहे वे शुद्ध दशा में हों या अशुद्ध दशा में, छहों कारक रूप स्वयं परिणमन करते हैं, दूसरे कारकों की ( निमित्त कारणों की) अपेक्षा नहीं रखते।
कुन्दकुन्दाचार्यदेव ने अपने ‘पंचास्तिकाय' नामक महाग्रंथ में इसका उल्लेख किया हैं। पंचास्तिकाय की ६२वीं गाथा की टीका लिखते हुए अमृतचंद्राचार्यदेव ने खूब खुलासा किया हैं, जो इस प्रकार हैं :
(१) पुद्गल स्वतंत्र रूप से द्रव्यकर्म को करता होने से पुद्गल स्वयं ही कर्ता हैं; (२) द्रव्यकर्म को प्राप्त करता होने से द्रव्यकर्म कर्म हैं, अथवा द्रव्यकर्म से स्वयं अभिन्न होने से पुद्गल स्वयं ही कर्म (कार्य) हैं; (३) स्वयं द्रव्यकर्मरूप परिणमित होने की शक्तिवाला होने से पुद्गल स्वयं ही करण हैं; (४) अपने को द्रव्यकर्मरूप परिणाम देता होने से पुद्गल स्वयं ही संप्रदान हैं; (५) अपने में से पूर्व परिणाम का व्यय करके द्रव्यकर्मरूप परिणाम करता होने से तथा पुद्गल द्रव्यरूप ध्रुव रहता होने से पुद्गल स्वयं ही अपादान हैं; (६) अपने में अर्थात् अपने आधार से द्रव्यकर्म करता होने से पुद्गल स्वयं ही अधिकरण हैं।
उसी प्रकार (१) जीव स्वतंत्र रूप से जीवभाव को करता होने से जीव स्वयं ही कर्ता हैं; (२) जीवभाव को प्राप्त करता होने से जीवभाव कर्म हैं अथवा जीवभाव से स्वयं अभिन्न होने से जीव स्वयं ही कर्म हैं; (३) स्वयं जीवभाव रूप से परिणमित होने की शक्ति वाला होने से जीव स्वयं ही करण हैं; (४) अपने को जीवभाव देता होने से जीव स्वयं ही संप्रदान हैं; (५) अपने में से पूर्व भाव का व्यय करके ( नवीन) जीवभाव करता होने से और द्रव्यरूप
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से ध्रुव रहने से जीव स्वयं ही अपादान हैं; ( ६ ) अपने में अर्थात् अपने आधार से जीवभाव करता होने से जीव स्वयं ही अधिकरण हैं ।
कर्म वास्तव में स्वयं ही षट्कारक रूप परिणमित होता हैं इसलिये अन्य कारको (अन्य के षट्कारकों) की अपेक्षा नहीं रखता। इसी प्रकार जीव षट्कारक रूप परिणमित होता हैं इसलिए अन्य के षट्कारकों की अपेक्षा नहीं रखता; इसलिए निश्चय से कर्म का कर्ता जीव नहीं हैं और जीव का कर्ता कर्म नहीं हैं।
निश्चय से पुद्द्गल द्रव्य ज्ञानावरणादि कर्मयोग्य पुद्गल स्कंधोरूप परिणमित होता हैं और जीव द्रव्य भी अपने औदयिकादि भावोरूप स्वयं परिणमित होता हैं। दोनों के कारण एक-दूसरे से बिलकुल भिन्न और निरपेक्ष हैं अत: इसी द्रव्य के कारकों को कीसी अन्य द्रव्य के कारकों की अपेक्षा नहीं होती । जिज्ञासु -
इसके जानने से क्या लाभ हैं ?
प्रवचनकार
स्पष्ट हैं कि जहाँ तक श्रद्धा में इस मान्यता का सद्भाव हैं कि ‘अन्य द्रव्य तद्रिन्न अन्य द्रव्य की उत्पाद - व्यय रूप क्रियापरिणति का कर्ता आदि होता हैं ' वहीं तक मिथ्यात्व दशा हैं। तथा जहाँ से श्रद्धा में उसका स्थान वस्तुभूत यह विचार ले लेता हैं कि ' प्रत्येक द्रव्य अपनी क्रियापरिणति का कर्ता आदि आप स्वयं हैं, यह आत्मा अपने अज्ञानवश संसार का पात्र आप स्वयं बना हुआ हैं और अपनें पुरुषार्थ द्वारा उसका अंत कर आप स्वयं मोक्ष का पात्र बनेगा' वहीं से आत्मा की सम्यक्दर्शनरूप अवस्था का प्रारंभ होता हैं और इस आधार से जैसे-जैसे चारित्र में परनिरपेक्षता प्राकर स्वावलंबन में वृद्धि होती जाती हैं वैसे-वैसे सम्यग्दृष्टि का उक्त विचार आत्मचर्या का रूप लेता हुआ परम समाधि दशा में परिणत हो जाता हैं । अतएव अन्य द्रव्य तद्भिन्न अन्य द्रव्य की क्रियापरिणति का कर्ता हैं, कर्म हैं, करण हैं, संप्रदान हैं, अपादान हैं, अधिकरण हैं यह व्यवहार से ही कहा जाता हैं; निश्चय से तो प्रत्येक द्रव्य अपनी क्रियापरिणति का स्वयं कर्ता हैं, स्वयं कर्म हैं, स्वयं करण हैं, स्वयं संप्रदान हैं, स्वयं अपादान हैं और स्वयं अधिकरण हैं; यही सिद्ध होता हैं ।
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अनादिकाल से यह जीव निश्चय षट्कारक को भूलकर अपने विकल्प द्वारा मात्र व्यवहार षट्कारक का अवलंबन करता आ रहा हैं, इसलिए वह संसार का पात्र बना हुआ हैं, जब वह निश्चय षट्कारक का यथार्थ निर्णय करके पुरुषार्थ द्वारा अपना त्रिकाली ज्ञायक स्वभाव का आश्रय लेकर शुद्धात्मानुभूति प्रगट करता हैं तब मोक्षमार्ग का प्रारंभ होता हैं । अतः जीवन संशोधन में निश्चय षट्कारक का सम्यग्ज्ञान करना कार्यकारी हैं।
यहाँ यह कहा गया है कि निश्चय से पर के साथ आत्मा का कारकता का संबंध नहीं हैं। अतः शुद्धात्म स्वभाव की प्राप्ति के लिए सामग्री ( बाह्य साधन ) ढूंढने की व्यग्रता से जीव ( व्यर्थ ही ) परतंत्र होते हैं ।
जिज्ञासु -
आज आपने हमें निश्चय और व्यवहार षट्कारकों के सम्बन्ध में बताया इससे हमें बहुत लाभ मिला, पर एक बात समझ में नहीं आई कि आपने कारक छह ही क्यों बताए ? हमने तो सुना था कि कारक आठ होते हैं । संबंध और संबोधन को कारक क्यों नहीं कहा ?
प्रवचनकार
संबोधन का तो कारक होने का प्रश्न ही नहीं उठता, पर संबंध भी कारक नहीं हैं। इन दोनों का क्रिया से कोई सम्बन्ध नही हैं। जो किसी न किसी रूप में क्रिया-व्यापार के प्रति प्रयोजक होता हैं उसे ही कारक कहा जाता हैं । संबंध और संबोधन क्रिया के प्रति प्रयोजक नहीं हैं, अत: इन्हें कारको में नहीं लिया गया हैं ।
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षट्कारक व्यवस्था को समझ कर पर से दृष्टि हठाकर प्रात्मकेन्द्रित होने का अभ्यास रखना! तुम्हारा कल्याण होगा !!
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प्रश्न -
१.
कारक किसे कहते हैं ? वे कितने होते हैं ? प्रत्येक की परिभाषा दीजिए।
संबंध को कारक क्यों नहीं माना गया है ?
२.
३. व्यवहार और निश्चयकारक को उदाहरणों पर घटित करके बताइये। ४. 'स्वयंभू' किसे कहते हैं ?
५. आचार्य कुन्दकुन्द के व्यक्तित्व और कर्तृत्व पर परिचय डालिए।
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पाठ ७
चतुर्दश गुणस्थान
सिद्धान्तचक्रवर्ती नेमिचंद्राचार्य ( व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व )
जह चक्केण य चक्की, छक्खंड साहियं प्रविऽघेण । तह मइ चक्केण मया, छक्खंडं साहियं सम्म ।।
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'जिस प्रकार सुदर्शनचक्र के द्वारा चक्रवर्ती छह खंडो को साधता ( जीत लेता) हैं, उसी प्रकार मैंने ( नेमिचंद्र ने ) अपनी बुद्धिरूपी चक्र से षट्खंण्डागमरूप महान सिद्धान्त को साधा हैं। अतः वे सिद्धान्तचक्रवर्ती कहलाए। ये प्रसिद्ध राजा चामुण्डराय के समकालीन थे और चामुण्डराय का समय ग्यारहवीं सदी का पूर्वार्ध हैं, अतः वे आचार्य नेमिचंद्र भी इस समय भारत-भूमि को अलंकृत कर रह थे।
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ये कोई साधारण विद्वान नहीं थे; इनके द्वारा रचित गोम्मटसार जीवकाण्ड, गोम्मटसार कर्मकाण्ड, त्रिलोकसार, लब्धिसार, क्षपणासार आदि उपलब्ध ग्रन्थ उनकी असाधारण विद्वत्ता और “ सिद्धान्तचक्रवर्ती” पदवी को सार्थक करते हैं।
इन्होंने चामुण्डराय के आग्रह पर सिद्धान्त - ग्रन्थों का सार लेकर गोम्मटसार ग्रंथ की रचना की हैं, जिसके जीवकाण्ड और कर्मकाण्ड नामक दो महाधिकार हैं। जीवकांड की अधिकार संख्या २२ और गाथा संख्या ७३३ हैं और कर्मकांड की अधिकार संख्या ९ तथा गाथा संख्या ९७२ हैं । इस समूचे ग्रंथ का दूसरा नाम पंचसंग्रह भी हैं, क्योंकि इसमें निम्नलिखित पांच बातों का वर्णन हैं :(१) बंध (२) बध्यमान (३) बंधस्वामी ( ४ ) बंधहेतु और (५) बंधभेद।
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पूर्व परंपरागत प्राप्त जैन साहित्य मे प्राचार्य धरसेन के शिष्य पुष्पदन्त और भूतबलि द्वारा रचित षट्खण्डागम सर्वाधिक प्राचीन रचना हैं। इसमें प्रथम खण्ड में जीव की अपेक्षा से और शेष खण्डो में जीवों और कर्मो के संबंध से अन्य अनेक विषयों का विवेचन हुआ हैं। इसी को लक्ष्य में रखकर नेमिचंद्र सिद्धांतचक्रवर्ती ने गोम्मटसार की रचना की और उसे जीवकांड और कर्मकांड दो भागों में विभाजित किया। गोम्मटसार में षट्खण्डागम का पूर्ण सार आ गया हैं।
गोम्मटसार ग्रंथ पर मुख्यः चार टीकाएँ उपलब्ध हैं। एक हैं - अभयचंद्राचार्य की संस्कृत टीका ‘मंदप्रबोधिका' जो जीवकाण्ड की गाथा ३८३ तक ही पाई जाती हैं। दूसरी केशववर्णी की संस्कृत मिश्रित कन्नड़ी टीका 'जीवतत्त्वप्रदीपिका' हैं जो संपूर्ण गोम्मटसार पर विस्तृत टीका हैं और जिसमें 'मंदप्रबोधिका' का पूरा अनुसरण किया गया हैं। तीसरी है – नेमिचंद्राचाय की संस्कृत टीका ‘जीवतत्त्वप्रदीपिका' जो पिछली दोनो टीकानों का पूरा-पूरा अनुसरण करती हुई संपूर्ण गोम्मटसार पर यथेष्ट विस्तार के साथ लिखी गई हैं और चौथी हैं पंडित टोडरमल की भाषा टीका 'सम्यग्ज्ञानचंद्रिका' जिसमें संस्कृत टीका के विषय को खूब स्पष्ट किया गया हैं। उन्हीं का अनुसरण कर हिन्दी, अंगेजी तथा मराठी के अनुवादो का निर्माण हुआ हैं।
गोम्मटसार ग्रन्थ जैन विद्यालयों का नियमित पाठ्यग्रन्थ हैं। इसके जीवकांड नामक महाधिकार के प्रथम अधिकार में गुणस्थानों की चर्चा विषद् रूप से की गई हैं। यह पाठ उसी को ध्यान में रखकर लिखा गया हैं। गुणस्थानों के संबंध में विस्तृत जानकारी के लिए गोम्मटसार जीवकाण्ड का अध्ययन किया जाना चाहिए।
१. ये नेमिचंद्राचार्य, सिद्धान्तचक्रवर्ती नेमिचंद्राचार्य से भिन्न हैं।
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चतुर्दश गुणस्थान सब जीवों के पाँचों भावों में से यथासंभव किन्हीं के दो, किन्हीं के तीन, किन्हीं के चार और किन्हीं के पाँचो ही भाव होते हैं । ये हैं – (१) औपशमिक (२) क्षायिक (३) क्षायोपशमिक (४) औदयिक और (५) पारिणामिक।
ये जीवों के निज भाव हैं। इनमें प्रारम्भ के चार भाव निश्चय नय से स्वयं जीवकृत होने पर भी व्यवहार नय से यथायोग्य कर्मो के उपशम, क्षय, क्षयोपशम और उदय को निमित्तकर होते हैं, इसलिए इनकी औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और प्रौदयिक ये संज्ञाएँ सार्थक हैं; तथा प्रत्येक जीव के अनादिनिधन, एकरूप, कर्मोपाधिनिरपेक्ष , सहज स्वभाव की 'परिणाम' संज्ञा हैं और ऐसा परिणाम ही पारिणामिक भाव कहलाता हैं। प्रकृत में 'गुण' शब्द द्वारा इन्हीं भावों का ग्रहण हुआ हैं। मात्र मोह और योग निमित्तक इन्हीं भावों के ( गुणों के) तारतम्य से जो चौदह 'स्थान' बनते हैं, उनको चौदह गुणस्थान कहते हैं, वे निम्न प्रकार हैं :___ (१) मिथ्यात्व (२) सासादन (३) मिश्र (४) अविरत सम्यक्त्व (५) देशविरत (६) प्रमत्त संयत (७) अप्रमत्त संयत (८) अपूर्वकरण (९) अनिवृत्तिकरण (१०) सूक्ष्मसाम्पराय (११) उपशान्तकषाय (१२) क्षीणकषाय (१३) सयोगकेवली जिन (१४) प्रयोगकेवली जिन।' (१) मिथ्यात्व
मिथ्या पद का अर्थ वितथ, व्यलीक, विपरीत और असत्य हैं । जिन जीवों की प्रयोजनभूत जीवादि पदार्थ विषयक श्रद्धा असत्य होती हैं , उनके समुच्चय रूप उस भाव को मिथ्यात्व गुणस्थान कहते हैं। जैसे पित्तज्वर से पीड़ित जीव को मधुर रस नहीं रूचता, वैसे ही मिथ्यादृष्टि जीव को सम्यक् रत्नत्रयरूप आत्मधर्म
१. मिच्छो सासन मिस्सो, अविरद सम्मोय देशविरदोय ।
विरदा पमत्त ईदरो, अपुव्व अणियट्ठि सुहमो य ।।९।। उवसंत खीणमोहो, सजोग केवलि जिणो अयोगीय । चउदस जीव समासा, कमेण सिद्धा य णादव्वा ।। १०।।
-गोम्मटसार जीवकांड।
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नहीं रुचता। मिथ्यात्वी जीव को स्व-पर विवेक नहीं होता अर्थात् उसको स्वानुभूतिपूर्वक विपरीत अभिनिवेश रहित तत्त्वार्थ श्रद्धान नहीं होता तथा उसको देव-शास्त्र-गुरु की यथार्थ श्रद्धा नहीं होती।
मिथ्यादर्शन के दो भेद हैं - अगृहीत और गृहीत। एकेन्द्रियादि सभी संसारी जीवों के प्रवाह रूप से जो अज्ञानभावमयमिथ्या मान्यता चली आ रही हैं, जिससे जीव की देहादि जड़ पदार्थो में और उनको निमित्त कर हुए रागादि भावों में एकत्वबुद्धि बनी रहती हैं, वह अगृहीत मिथ्यादर्शन हैं। इसके सद्भाव में जीवादि पदार्थो के यथार्थ स्वरूप को न जानने वाले जीवों द्वारा कल्पित जो अन्यथा मान्यता नयी अंगीकार की जाती हैं, उसे गृहीत मिथ्यादर्शन कहते हैं। (२) सासादन
सम्यग्दर्शन की विराधना को आसादन कहते हैं तथा उसके साथ जो भाव होता हैं उसको सासादन कहते हैं। जिस प्रौपशमिक सम्यग्दृष्टि जीव ने अनंतानुबंधी कषाय के उदयवश प्रौपशमिक सम्यग्दर्शन के काल में कम से कम एक समय और अधिक से अधिक छह प्रावलिकाल शेष रहने पर सम्यग्दर्शनरूपी रत्नपर्वत के शिखर से च्युत होकर मिथ्यादर्शन रूपी भूमि के सन्मुख होते हुए सम्यग्दर्शन का तो नाश कर दिया हैं, किन्तु मिथ्यादर्शन को प्राप्त नहीं हुआ हैं, उस जीव की उस अवस्था को सासादन गुणस्थान कहते हैं।
इस गुणस्थान का पूरा नाम सासादन सम्यक्त्व हैं। सासादन पद के साथ सम्यक्त्व पद का प्रयोग भूतपूर्व न्याय की अपेक्षा हुअा हैं। इसका काल अन्तर्मुहूर्तमात्र हैं। (३) मिश्र
जिस गुणस्थान में जीव के सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के उदयवश समीचीन और मिथ्या उभयरूप श्रद्धा युगपत् होती हैं, उसकी उस श्रद्धा को मिश्र गुणस्थान कहते हैं। जिस प्रकार दही और गुड़ के मिलाने पर उनका मिला हुआ परिणाम ( स्वाद) युगपत् अनुभव में आता हैं, उसी प्रकार ऐसी श्रद्धा वाले जीव के समीचीन और मिथ्या उभयरूप श्रद्धा होती हैं। यहाँ अनंतानुबंधी कषाय का उदय नहीं हैं। इस गुणस्थान का काल भी अन्तर्मुहूर्त हैं ।
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इस गुणस्थान से सीधे देशविरत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थान की प्राप्ति नहीं होती तथा यहाँ परभव सम्बन्धी आयु का बन्ध व मरण तथा मारणान्तिक समुद्घात भी नहीं होता हैं। (४) अविरत सम्यक्त्व
निश्चय सम्यग्दर्शन से सहित और निश्चय व्रत (अणुव्रत और महाव्रत) से रहित अवस्था ही अविरत सम्यक्त्व नामक चतुर्थ गुणस्थान कहलाता हैं।
जीव को सम्यग्दर्शन की प्राप्ति क्षयोपशम आदि लब्धियों तथा चतुर्थ गुणस्थान के योग्य बाह्य आचार से सम्पन्न होने पर स्वपुरुषार्थ द्वारा स्वभाव सन्मुख होने पर प्रात्मानुभूतिपूर्वक होती हैं अर्थात् वह अपने आत्मा का सच्चा स्वरूप समझता हैं कि “मैं तो त्रिकाल एकरूप रहने वाला ज्ञायक परमात्मा हूँ; में ज्ञाता हूँ अन्य सब ज्ञेय हैं, पर के साथ मेरा कोई संबंध है ही नहीं। अनेक प्रकार के विकारी भाव जो पर्याय में होते हैं। वे मेरा स्वरूप नही है, ज्ञाता स्वभाव की दृष्टि एवं लीनता करते ही वे नाश को प्राप्त हो जाते हैं अर्थात् उत्पन्न ही नहीं”। इस प्रकार निर्णयपूर्वक दृष्टि स्वसन्मुख होकर निर्विकल्प आनंदरूप परिणति का साक्षात् अनुभव करती हैं, तथा निर्विकल्प अनुभव के छूट जाने पर भी मिथ्यात्व एवं अनंतानुबंधी कषायों के प्रभावस्वरूप आत्मा की शुद्ध परिणति निरन्तर बनी रहती हैं, उसको अविरत सम्यक्त्व नामक चतुर्थ गुणस्थान कहते हैं ।
इसके तीन भेद होते हैं :(१) औपशमिक (२) क्षायोपशमिक (३) क्षायिक
इस तीन प्रकार के सम्यग्दर्शनों में से किसी एक सम्यग्दर्शन के साथ जब तक इस जीव के अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ के उदयवश अविरतिरूप परिणाम बना रहता हैं तब तक उसके अविरत सम्यक्त्व नामक चतुर्थ गुणस्थान रहता हैं। अविरत सम्यग्दृष्टि आत्मज्ञान से संपन्न होने के कारण अभिप्राय की अपेक्षा विषयों के प्रति सहज उदासीन होता हैं। चरणानुयोग के अनुसार आचरण में उसके पंचेन्द्रियों के विषयों का तथा त्रस-स्थावर जीवों के घात का त्याग नहीं होता, इसलिए इसके बारह प्रकार की अविरति पाई जाती हैं।
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(५) देशविरत
चतुर्थ गुणस्थान वाला सम्यग्दृष्टि जीव अपनी आत्मा की शुद्ध परिणति को स्वसन्मुख पुरुषार्थ द्वारा बढ़ाता हुआ पंचम गुणस्थान को प्राप्त करता हैं। उसको आत्मा का निर्विकल्प अनुभव (चतुर्थ गुणस्थान की अपेक्षा) शीघ्र-शीघ्र होने लगता हैं और अप्रत्याख्यानावरण कषाय का अभाव हो जाता हैं। आत्मिक शांति बढ़ जाने के कारण पर से उदासीनता बढ़ जाती हैं तथा सहज देशव्रत के शुभ भाव होते हैं। अत: वह श्रावक के व्रतों का यथावत् पालन करता हैं, परंतु अपनी शुद्ध परिणति विशेष उग्र नहीं होने से तथा प्रत्याख्यानावरण कषाय का सद्भाव बने रहने से भावरूप मुनिपद का अधिकारी नहीं हो सकता हैं। यह अवस्था ही देशविरत नामक पंचम गुणस्थान हैं। इसे व्रताव्रत या संयतासंयत गुणस्थान भी कहते हैं, क्योंकि अंतरंग में निश्चय व्रताव्रत या निश्चय संयमासंयम रूप दशा होती हैं और बाह्य में एक ही समय में त्रसवध से विरत और स्थावरवध से अविरत रहता हैं। इस गुणस्थान वाले श्रावक के अणुव्रत नियम से होते हैं। ग्यारह प्रतिमाधारी आत्मज्ञानी क्षुल्लक, ऐलक व आर्यिका इसी गुणस्थान में आते हैं। (६) प्रमत्तसंयत
जिस सम्यग्दृष्टि ज्ञानी पुरुष ने निज द्रव्याश्रित पुरुषार्थ द्वारा पंचम गुणस्थान से अधिक शुद्धि प्राप्त करके निश्चय सकल संयम प्रगट किया हैं और साथ मे कुछ प्रमाद भी वर्तता हैं, उसे प्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती कहते हैं। अनंतानुबंधी आदिक बारह कषायों का प्रभाव होने के साथ संज्वलन कषाय और नोकषाय की यथासंभव तीव्रता रहने से संयम में मल को उत्पन्न करने वाला प्रमाद भी होता हैं, इसलिए इस गुणस्थान की प्रमत्तसंयत संज्ञा सार्थक हैं ।
इस गुणस्थान में मुनि महाव्रतों को अपेक्षा सविकल्प अवस्था में ही होते हैं, इसलिए यद्यपि इसमें उपदेश का आदान-प्रदान, आहारादि का ग्रहण, मलआदिक का उत्सर्ग, एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में आना-जाना इत्यादि अनेक प्रकार के विकल्प होतें हैं, तथापि साथ-साथ मुनियोग्य प्रांतरिक शुद्ध परिणति
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(निश्चय संयम दशा) निरन्तर रहती है और उसके अनुरूप २८ मूलगुण व उत्तरगुणों का और शील के सब भेदों का यथावत् पालन भी सहज होता हैं। वे २८ मूलगुण निम्न प्रकार हैं :- ५ महाव्रत, ५ समिति, ६ आवश्यक, ५ इन्द्रियसंयम, १ नग्नता, १ केशलुंचन, १ अस्नानता, १ भूमिशयन, १ प्रदंतधोवन, १ खड़े रह कर आहार लेना, १ एकभुक्ति।
स्त्रीकथा, भक्तकथा, राष्ट्रकथा और अवनिपाल कथा, ये चार विकथा, क्रोध, मान, माया और लोभ, ये चार कषाय; पांच इन्द्रियाँ; निद्रा और प्रणय ( स्नेह) ये १५ प्रमाद हैं। इनके प्रत्येक और संयोगी सब मिला कर ८० भेद होते हैं। यह प्रमाद संयम में मल उत्पन्न करता हुआ भी छठे गुणस्थान योग्य निश्चय संयम का घात नहीं करता।
छठे गुणस्थान में (यथोचित शुद्ध परिणति सहित) सविकल्पता, सातवें गुणस्थान में निर्विकल्पता होती हैं, तथा दोनों का काल अंतर्मुहूर्त ही होता हैं; अतः मुनिराज हजारों वर्ष तक भी मुनिदशा में रहे तो भी उनको अंतर्मुहूर्त में गुणस्थान का पलटन होता रहता हैं अर्थात् श्रेणी में आरोहण नहीं करने वाले प्रत्येक मुनिराज मुनिदशा में रहते हुए अंतर्मुहूर्त में सातवे गुणस्थान से छठे में आते हैं और फिर छठे से सातवें में चले जाते हैं, ऐसा ( सविकल्प-निर्विकल्प का पलटन) अनवरत् होता ही रहता हैं । यहाँ इतना विशेष जानना कि मुनिदशा शुरु होते ही हैं सर्वप्रथम सातवाँ गुणस्थान प्राता हैं , फिर छठा होता हैं। (७) अप्रमत्तसंयत
जे भावलिंगी मुनिराज पूवोक्त १५ प्रकार के प्रमाद रहित हैं, उन्हें अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती कहते हैं। इनके अनंतानुबंधी आदि १२ कषायों का प्रभाव होता ही हैं, साथ ही संज्वलन कषायों तथा नोकषायों की तीव्रता न होकर सप्तम गुणस्थान योग्य मंदता होती हैं, अतः इनके मल को उत्पन्न करने वाला प्रमाद नहीं होता और मूलगुण-उत्तरगुण आदि की सहज निरतिचार परिणति बनी रहती हैं; इसलिए इसकी अप्रमत्तसंयत संज्ञा सार्थक हैं। इस गुणस्थान में बुद्धिपूर्वक विकल्प नहीं रहते और निर्विकल्प आत्मा के
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अनुभव रूप ध्यान ही वर्तता हैं। सातवें सहित आगे के सब गुणस्थानों के निर्विकल्प स्थिति ही होती हैं।
इस गुणस्थान के दो भेद हैं :(१) स्वस्थान अप्रमत्तसंयत (२) सातिशय अप्रमत्तसंयत
जो संयत क्षपकश्रेणी और उपशमश्रेणी पर प्रारोहण न कर निरन्तर एकएक अंतर्मुहूर्त में अप्रमत्तभाव से प्रमत्तभाव को और प्रमत्तभाव से अप्रमत्तभाव को प्राप्त होते रहते हैं, उनके उस गुण की स्वस्थान अप्रमत्तसंयत संज्ञा हैं।
उपरोक्त मुनिराज, उग्र पुरुषार्थपूर्वक आत्मरमणता विशेष बढ़ जाने पर श्रेणी आरोहण के सन्मुख होकर अधःप्रवृत्तकरणरूप विशुद्धि को प्राप्त होते हैं, उनके उस गुण की सातिशय अप्रमत्तसंयत संज्ञा हैं। वे जब क्षपकश्रेणी आरोहण के योग्य उग्र पुरुषार्थ द्वारा आत्मलीनता करते हैं तो अंतर्मुहूर्त में ८, ९, १० और १२वें गुणस्थान को प्राप्त कर लेते हैं, और उनके चारित्रमोहनीय की २१ प्रकृतियों का क्षय हो जाता हैं तथा अंतर्मुहूर्त में वे केवलज्ञान को (१३ वें गुणस्थान को) अवश्य प्राप्त करते हैं। यदि वे उपशम श्रेणी के योग्य मंद पुरुषार्थ द्वारा आत्मलीनता करते हैं तो अंतर्मुहूर्त में ८, ९, १० और ११ वें गुणस्थान को प्राप्त करते हैं और उनके उपरोक्त २१ प्रकृतियों का क्षय न होकर मात्र उपशम होता हैं। ___ अधःप्रवृत्तकरण का काल अंतर्मुहूर्त हैं। यहाँ 'करण' का अर्थ परिणाम हैं। प्रधःप्रवृत्तकरण स्थित जीव को प्रत्येक समय में अनन्तगुणी विशुद्धता होती रहती हैं और भिन्न-भिन्न जीवों की अपेक्षा उपरितन समयवर्ती (आगे-आगे के समयवर्ती) तथा अधस्तन समयवर्ती (पीछे-पीछे के समयवर्ती) जीवो के परिणाम विसदृश भी होते हैं तथा सदृश भी होते हैं। ऐसे अधःप्रवृत्तकरण युक्त जीवों को सातिशय अप्रमत्तसंयत कहते हैं। (८) अपूर्वकरण
इस गुणस्थान में स्थित जीवो के परिणामों की संज्ञा अपूर्वकरण हैं। इसका काल अन्तर्मुहूर्त हैं। यहाँ भी प्रत्येक जीव के परिणाम में प्रत्येक समय अनंतगुणी विशुद्धि होती जाती हैं । भिन्न-भिन्न जीवों की अपेक्षा उपरितन समयवर्ती जीव
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के परिणाम अधस्तन समयवर्ती जीव के परिणामों से सदा विसदृश ही (अपूर्व ही, विशेष विशुद्धि वाले ही) होते हैं, और अभिन्न समयवर्ती जीवों के परिणाम परस्पर सदृश भी होते हैं तथा विसदृश भी होते हैं। इस गुणस्थान में स्थित जीवों की इस प्रकार की परिणाम–धारा होने से इस गुणस्थान का नाम अपूर्वकरण हैं। जो उपशम श्रेणी पर आरोहण करते हैं उनके भी ये परिणाम होते हैं, तथा जो क्षपक श्रेणी पर आरोहण करते हैं उनके भी ये परिणाम होते हैं। (९) अनिवृत्तिकरण
इस गुणस्थान में स्थित जीवों के परिणामों की संज्ञा अनिवृत्तिकरण हैं। अनिवृत्ति अर्थात् अभेद ( सदृश) और करण अर्थात् परिणाम। यहाँ भी प्रत्येक जीव के एक समय में एक ही परिणाम ही होता हैं जो प्रत्येक समय अनंतगुणी विशुद्धि को लिए हुए होता हैं। जो प्रत्येक समय में भिन्न-भिन्न जीवों की अपेक्षा, उपरितन समयवर्ती जीव का परिणाम अधस्तनवर्ती जीव के परिणाम से विसदृश ही (अनंतगुणी विशुद्धि वाला ही) होता हैं और अभिन्न समयवर्ती जीवों के परिणाम सदा सदृश ही होते हैं। इस गुणस्थान में स्थित जीवों की ऐसी परिणाम–धारा होने से इस गुणस्थान का नाम अनिवृत्तिकरण हैं। इसका काल भी अंतर्मुहूर्त हैं। इस गुणस्थान में स्थित जीव ध्यानरूपी अग्नि के द्वारा मोहनीय की २० प्रकृतियों की उपशमना करते हैं या मोहनीय की २० प्रकृतियों की तथा नाम कर्म की १३ प्रकृतियों की क्षपणा करते हैं। इनके बध्यमान आयु का अभाव होता हैं। (१०) सूक्ष्म साम्पराय
जिन जीवों के सूक्ष्म भाव को प्राप्त साम्पराय अर्थात् अबुद्धिपूर्वक होनेवाले सूक्ष्म लोभ कषाय के साथ अपने अन्तर्मुहूर्त काल तक प्रत्येक समय में अनन्तगुणी विशुद्धि को लिए हुए एक समय में एक ही (नियत विशुद्धि वाला ही) परिणाम होता हैं और जिनके निरन्तर कर्म प्रकृतियों के उपशमन और क्षपण होता रहता हैं, उनके उस गुणस्थान की सूक्ष्म साम्पराय संज्ञा हैं। १. उदाहरण रूप से किन्ही दो जीवों को अपूर्वकरण प्रारम्भ किए हुए ५ - ५ समय हुए
हों तो उन दोनों जीवों को अभिन्न समयवर्ती अर्थात् एक समयवर्ती कहा जाता हैं ।
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(११) उपशान्तकषाय
जिस गुणस्थान में मलिन जल में कतक फल के डालने पर स्वच्छ हुए जल के समान या शरद ऋतु में स्वच्छ हुए जल के समान जीवों की द्रव्यभावरूप कषाय उपशान्त रहती हैं, उनके उस गुणस्थान की उपशान्त कषाय संज्ञा हैं। इसका काल भी अंतर्मुहूर्त हैं और इसमें पूर्ण वीतरागता के साथ छद्मस्थपना पाया जाने से इसे उपशान्तकषाय वीतरागछद्मस्थ कहते हैं। पिछले गुणस्थानों में कषायों के तारतम्य से जैसा परिणाम भेद दृष्टिगोचर होता हैं, वीतराग भाव की प्राप्ति होने से वैसा परिणाम भेद इस सहित आगे के गुणस्थानों में दृष्टिगोचर नहीं होता। यहाँ चार घाति कर्मो में से मोहनीय कर्म का उपशम होता हैं, बाकी तीन कर्मो का क्षयोपशम रहता हैं। इस गुणस्थान का काल समाप्त होने पर अथवा आयु पूर्ण होने पर जीव का इस गुणस्थान से पतन होता हैं। (१२) क्षीणकषाय
_जिन जीवों के भाव कषायों का सर्वथा क्षय हो जाने से स्फटिकमणि के निर्मल पात्र में रखे हुए स्वच्छ जल के समान पूर्ण निर्मल अर्थात् द्रव्य-भाव उभयरूप मोहकर्मो का सर्वथा अभाव होने से पूर्ण वीतरागता को प्राप्त एकरूप होते हैं, उनके उस गुणस्थान की क्षीणकषाय संज्ञा हैं। इसका भी काल अंतर्मुहुर्त हैं। इसमें पूर्ण वीतरागता के साथ छद्मस्थपना पाया जाने से इसे क्षीणकषाय वीतरागछद्मस्थ कहते हैं। इस गुणस्थान में स्थित यथाख्यात चारित्र के धारक मुनिराज को मोहनीय कर्म का तो अत्यंत क्षय होता हैं और शेष तीन घाति कर्मो का क्षयोपशम रहता हैं, अन्तर्मुहूर्त में वे उनका क्षय करके तेरहवाँ गुणस्थान प्राप्त करते हैं। (१३) सयोगकेवली जिन
जिन जीवों का केवलज्ञानरूपी सूर्य की किरणों के समूह से अज्ञान अंधकार सर्वथा नष्ट हो चूका हैं और जिन्हें नौ केवल-लब्धियाँ (क्षायिक सम्यक्त्व, चारित्र, ज्ञान, दर्शन, दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य) प्रगट होने से परमात्मा संज्ञा प्राप्त हुई हैं; वे जीव इन्द्रिय और आलोक आदि की अपेक्षा रहित
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असहाय ज्ञान-दर्शन युक्त होने से 'केवली ; योग से युक्त होने के कारण ' सयोग' और द्रव्य - भाव उभयरूप घाति कर्मों पर विजय प्राप्त करने के कारण 'जिन' कहलाते हैं; उनके इस गुणस्थान की संज्ञा सयोगकेवली जिन हैं । यही केवली भगवान अपनी दिव्यध्वनि से भव्य जीवों को मोक्षमार्ग का उपदेश देकर संसार में मोक्षमार्ग का प्रकाश करते हैं ।
इस गुणस्थान में योग का कंपन होने से एक समय मात्र की स्थिति का साता वेदनीय का प्रस्स्रव होता है, लेकिन कषाय का प्रभाव होने से बंध नहीं होता । (१४) प्रयोगकेवली जिन
इस गुणस्थान में स्थित अरहन्त भगवान मन-वचन-काय के योगों से रहित और केवलज्ञान सहित होने से इस गुणस्थान की संज्ञा प्रयोगकेवली जिन हैं। इस गुणस्थान का काल अ, ई, उ, ऋ, लृ इन पाँच ह्रस्व स्वरों के उच्चारण करने के बराबर हैं । इस गुणस्थान के अंतिम दो समय में प्रधाति कर्मो की सर्व कर्म प्रकृतियों का क्षय करके ये भगवान सिद्धपने को प्राप्त होते हैं।
सिद्ध परमेष्ठी
जो जीव पूर्वोक्त संसार की भूमिकास्वरूप चौदह गुणस्थानों को उल्लंघन कर द्रव्य-भाव उभयरूप ज्ञानावरणादि आठ प्रकार के कर्मो से रहित हो गये हैं; निराकुल लक्षण आत्माधीन अनन्त सुख का निरंतर भोग करते हैं; द्रव्यकर्म भावकर्म और नोकर्म से रहित होने के कारण निरंजन हैं; सिद्ध पर्याय को छोड़ कर पुन: दूसरी पर्याय को प्राप्त नहीं होते हैं, इसलिए नित्य हैं; द्रव्य-भाव उभयरूप आठ कर्मों के नाश होने से सम्यक्त्व आदि आठ गुणों ( क्षायिक सम्यक्त्व अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य, सूक्ष्मत्व, अवगाहनत्व, अगुरुलघुत्व, अव्याबाधत्व) को प्राप्त हुए हैं; आत्मा संबंधी कोई कार्य करने के लिए शेष न रहने से कृतकृत्य हैं; और चारों दिशाओं, चारों विदिशाओं तथा नीचे जाने रूप स्वभाव के न होकर मात्र लोक के अग्रभाग तक ऊपर जाने रूप स्वभाव के होने से लोक के अग्रभाग में स्थित हैं; उन्हें सिद्ध कहते हैं ।
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प्रश्न - १. गुणस्थान किसे कहते हैं ? वे कितने प्रकार के हैं ? नाम सहित
गिनाइए। २. निन्मलिखित में परस्पर अन्तर बताइये:
(क) प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत। (ख) अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण। (ग) उपशांतकषाय और क्षीणकषाय।
(घ) सयोगकेवली जिन और प्रयोगकेवली जिन। ३. निन्मलिखित गुणस्थानों की परिभाषा दीजिए:
सासादन, अविरत सम्यक्त्व, देशविरत, मिथ्यात्व। ४. सिद्धान्तचक्रवर्ती नेमिचंद्राचार्य के व्यक्तित्व और कर्तृत्व पर प्रकाश डालिए।
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पाठ ८
तीर्थंकर भगवान महावीर
तीर्थंकर भगवान महावीर भरतक्षेत्र व इस युग के चोबीसवें एवं अन्तिम तीर्थंकर थे। उनसे पूर्व ऋषभदेव आदि तेईस तीर्थंकर और हो चुके थे।
भगवान अनन्त होते हैं। पर तीर्थंकर एक युग में व भरतक्षेत्र में चोबीस ही होते हैं। प्रत्येक तीर्थंकर, भगवान तो नियम से ही होते हैं; पर प्रत्येक भगवान तीर्थंकर नही। तीर्थंकर हुए बिना भी भगवान हो सकते हैं। प्रत्येक प्रात्मा भगवान बन सकता हैं। जिससे संसार-सागर तिरा जाय उसे तीर्थ कहते हैं और जो ऐसे तीर्थ को करे अर्थात् संसार-सागर से पार ऊतरे तथा ऊतरने का मार्ग बतावे, उन्हें तीर्थंकर कहते हैं। ___ भगवान जन्मते नही, बनते हैं। जन्म से कोई भगवान नही होता। महावीर भी जन्म से भगवान नही थे। भगवान तो वे तब बने, जब उन्होंने अपने को जीता। मोह-राग-द्वेष को जीतना ही अपने को जीतना हैं।
भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त जितने गूढ़, गंभीर व ग्राह्य हैं; उनका जीवन उतना ही सादा, सरल एवं सपाट हैं; उसमें विविधताओं को कोई स्थान प्राप्त नहीं हैं। संक्षेप में उनकी जीवन-गाथा मात्र इनती ही हैं कि वे प्रारंभ के तीस वर्षों मे वैभव और विलास के बीच जल से भिन्न कमलवत् रहे। बीच के बारह वर्षों मे जंगल मे परम मंगल की साधना मे एकान्त आत्मआराधना-रत रहे और अंतिम तीस वर्षों में प्राणीमात्र के कल्याण के लिए सर्वोदय धर्मतीर्थ का प्रवर्तन, प्रचार व प्रसार करते रहे। महावीर का जीवनघटना-बहुल नही हैं। घटनाओं में उनके व्यक्तित्व को खोजना व्यर्थ हैं।
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ऐसी कौनसी लौकिक घटना शेष हैं जो उनके अनन्त पूर्व-भवों में उनके साथ न घटी हो ?
महावीर का जन्म वैशाली गणतंत्र के प्रसिद्ध राजनेता लिच्छवि राजा सिद्धार्थ की रानी त्रिशला के उदर से कुण्डग्राम में हुआ था। उनकी माँ वैशाली गणतंत्र के अध्यक्ष राजा चेटक की पुत्री थीं। वे आज से २५७१ वर्ष पूर्व चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन नाथ (ज्ञातृ) वंशीय क्षत्रिय कुल में जन्मे थे। महावीर का नाम उनके माता-पिता ने उनको वृद्धिंगत नित्य होने देख वर्धमान रखा।
उनके जन्म का उत्सव उनके माता-पिता व परिजन-पुरजनों ने तो बहुत उत्साह के साथ मनाया ही था, साथ ही भावी तीर्थंकर होने से इन्द्रो और देवो ने भी आकर महान उत्सव किया था। जिसे जन्म-कल्याणक महोत्सव कहते हैं। इन्द्र ने उन्हे ऐरावत हाथी पर बैठाकर ठाठ-बाट से जन्माभिषेक किया था, जिसका विस्तृत वर्णन जैन पुराणो में उपलब्ध हैं।
उनके तीर्थंकरत्व का पता तो उनके गर्भ में आने के पूर्व ही चल गया था। एक दिन रात्रि के पिछले पहर में शान्तचित्त निद्रावस्था में प्रियकारिणी माता त्रिशला ने महान शुभ के सूचक निम्नांकित सोलह स्वप्न देखे :
(१) मदोन्मत्त गज. (२) ऊँचे कंधो वाला शुभ्र बैल, (३) गर्जता सिंह, (४) कमल के सिंहासन पर बैठी लक्ष्मी, (५) दो सुगंधित मालाएँ, (६) नक्षत्रों की सभा मे बैठा चंद्र, (७) ऊगता हुआ सूर्य, (८) कमल के पत्तों से ढंके दो सुवर्ण-कलश, (९) जलाशय मे क्रीड़ारत मीन-युगल (१०) स्वच्छ जल से भरपूर जलाशय, (११) गंभीर घोष करता सागर, (१२) मणि-जड़ित सिंहासन, (१३) रत्नों से प्रकाशित देव-विमान, (१४) धरणेन्द्र का गगनचुम्बी विशाल भवन , (१५) रत्नों की राशि और (१६) निधूम अग्नि ।।
प्रातःकालीन क्रियाओं से निवृत्त होकर माँ त्रिशला ने राजा सिद्धार्थ को जब उक्त स्वप्न-प्रसंग सुनाया और उनका फल जानना चाहा तब निमित्तशास्त्र के वेत्ता राजा सिद्धार्थ पुलकित हो उठे। शुभ स्वप्नों का शुभतम फल उनकी वाणी से पहिले उनकी प्रफुल्ल मुखाकृति ने कह दिया। उन्होने बताया कि तुम्हारे उदर से तीन लोक के हृदयों पर शासन करने वाले
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धर्मतीर्थ के प्रवर्तक, महाभाग्यशाली, भावी तीर्थंकर बालक का जन्म होगा। आज तुम्हारी कुक्षि उसी प्रकार धन्य हो गई जिस प्रकार आदि तीर्थंकर ऋषभदेव (आदिनाथ) के गर्भभार से मरुदेवी की हुई थी।
समग्रतः ये स्वप्न बताते हैं कि तुम्हारा पुत्र पुष्पों के समान कोमल, चन्द्रसा शीतल, सूर्यसा प्रतापी, अज्ञानरूप अंधकार का नाशक, गजसा बलिष्ठ, वृषभसा कर्मठ, सागरसा गंभीर, रत्नों की राशिसा निर्मल एवं निधूम अग्निशिखासा जाज्वल्यमान होगा।
आषाढ़ शुक्ला ६ के दिन बालक वर्धमान माँ के गर्भ मे पाए।
बालक वर्धमान जन्म से स्वस्थ, सुंदर एवं आकर्षक व्यक्तित्व के धनी थे। वे दोज के चंद्र की भाँति वृद्धिंगत होते हुए अपने वर्धमान नाम को सार्थक करने लगे। उनकी कंचनवर्णी काया अपनी कांति से सब को आकर्षित करती थी। उनके रूप-सौंदर्य का पान करने के लिए सुरपति (इन्द्र) ने हजार नेत्र बनाए थे। ___ वे आत्मज्ञानी, विचारवान, विवेकी और निर्भीक बालक थे। डरना तो उन्हो में शीखा ही न था। वे साहस के पुतले थे। अतः उन्हें बचपन से ही वीर, प्रतिवीर, कहा जाने लगा था। उनके पाँच नाम प्रसिद्ध हैं - वीर, अतिवीर, सन्मति, वर्धमान और महावीर। __वे प्रत्युत्पन्नमति थे और विपत्तिों में अपना संतुलन नहीं खोते थे। एक दिन अपनी बाल-सुलभ क्रीडाओं से माता-पिता, परिजनो और पुरजनो को आनंद देने वाले बालक वर्धमान अन्य राजकुमारो के साथ क्रीड़ावन मे खेल रहे थे। खेल ही खेल मे अन्य बालकों के साथ वर्धमान भी एक पेड़ पर चढ़ गये। इतने में ही एक भयंकर काला सर्प कर वृक्ष से लिपट गया और क्रोधावेश में वीरों को भी कम्पित कर देने वाली फंकार करने लगा । विषम स्थिति में अपने को पाकर अन्य बालक तो भय से कांपने लगे पर धीर-वीर बालक वर्धमान को वह भयंकर नागराज विचलित न कर सका। महावीर को अपनी ओर निर्भय और निःशंक आता देख नागराज निर्मद होकर स्वयं अपने रास्ते चलता बना।
इसी प्रकार एक बार एक हाथी मदोन्मत हो गया और गजशाला के स्तम्भ को तोड़कर नगर मे विप्लव मचाने लगा। सारे नगर मे खलबली मच गई।
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सभी लोग घबड़ाकर यहाँ-वहाँ भागने लगे, पर राजकुमार वर्धमान ने अपना धैर्य नहीं खोया तथा शक्ति और युक्ति से शीघ्र ही गजराज पर काबू पा लिया। राजकुमार वर्धमान की वीरता व धैर्य की चर्चा नगर में सर्वत्र होने लगी।
वे प्रतिभासंपन्न राजकुमार थे। बड़ी-बड़ी समस्याओं का समाधान चुटकियों में कर दिया करते थे। वे शान्त प्रकृति के तो थे ही, युवावस्था में प्रवेश करते ही उनकी गंभीरता और बढ़ गई। वे एकान्तप्रिय हो गये। वे निरन्तर चिन्तवन में ही लगे रहते थे और गूढ़ तत्त्वचर्चाएँ किया करते थे। तत्त्व-संबंधी बड़ी से बड़ी शंकाएँ तत्व-जिज्ञासु उनसे करते थे और बातो ही बातो में वे उनका समाधान कर देते थे। बहुत-सी शंकाओं का समाधान तो उनकी सौम्य प्राकृति ही कर देती थी। बड़े-बड़े ऋषिगणों की शंकाएँ भी उनके दर्शन मात्र से शाँत हो जाती थीं। वे शंकालो का समाधान न करते थे वरन् स्वयं समाधान थे।
एक दिन वे राजमहल की चौथी मंजिल पर एकान्त में विचार-मग्न बैठे थे। उनके बाल-साथी उनसे मिलने को आए और माँ त्रिशला से पूछने लगे'वर्धमान' कहा है ? गृहकार्य में संलग्न माँ ने सहज ही कह दिया- ऊपर'। सभी बालक ऊपर को दौड़े और हाफते हुए सातवीं मंजिल पर पहुँचे, पर वहाँ वर्धमान को न पाया। जब उन्होनें स्वाध्याय मे संलग्न राजा सिद्धार्थ से वर्धमान के संबंध में पूछा तो उन्होने बिना गर्दन उठाएँ ही कह दिया - 'नीचे'। माँ और पिता के परस्पर विरुद्ध कथनों को सुनकर बालक असमंजस में पड़ गए। अन्ततः उन्होंने एक-एक मंजिल खोजना आरंभ किया और चौथी मंजिल पर वर्धमान को विचारमग्न बैठे पाया। सब साथीयों ने उलाहने के स्वर में कहा, 'तुम यहाँ छिपे-छिपे दार्शनिको की सी मुद्रा में बैठे हो और हमने सातों मंजिले छान डालीं'। 'माँ से क्यों नहीं पूछा?' वर्धमान ने सहज प्रश्न किया। साथी बोले-“पूछने से ही तो सब कुछ गड़बड़ हुआ” माँ कहती है'ऊपर' और पिताजी 'नीचे'। कहाँ खोजें ? कौन सत्य है ? वर्धमान ने कहा " दोनों सत्य हैं, मैं चौंथी मंजिल पर होने से माँ की अपेक्षा 'ऊपर' और पिताजी की अपेक्षा 'नीचे' हूँ क्योंकि माँ पहिली मंजिल पर और पिताजी सातवीं मंजिल पर हैं। इतना भी नहीं समझते ? ऊपर-नीचे की स्थिति सापेक्ष हैं। बिना अपेक्षा ऊपर-नीचे का प्रश्न ही नहीं उठता। वस्तु की
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स्थिति 'पर' से निरपेक्ष होने पर भी उसका कथन सापेक्ष होता हैं।” इस प्रकार बालक वर्धमान गहन सिद्धांतो को बालकों को भी सहज समझा देते थे।
दुनियाँ ने उन्हें अपने रंग में रंगना चाहा पर आत्मा के रंग में सर्वाग सरागोर महावीर पर दुनिया का रंग न चढा। यौवन ने अपने प्रलोभनों के पांसे फेंके किन्तु उसके भी दांव खाली गए। माता-पिता की ममता ने उन्हें रोकना चाहा पर माँ के पासूओं की बाढ़ भी उन्हे बहा न सकी।।
उन्के रूप-सौंदर्य एवं बल-विक्रम से प्रभावित हो अनेक राजागण अपनी अप्सराओं के सौंदर्य को लज्जित कर देने वाली कन्याओं की शादी उनसे करने के प्रस्ताव लेकर आए ,पर अनेक राजकन्याओं के हृदय में वास करने वाले महावीर का मन उन कन्याओं में न था। माता-पिता ने भी उनसे शादी करने का बहुत आग्रह किया, पर वे तो इन्द्रिय-निग्रह का निश्चय कर चूके थे। चारों ओर से उन्हें गृहस्थी के बंधन में बांधने के अनेक यत्न किए गए, पर वे प्रबंधस्वभावी आत्मा का आश्रय लेकर संसार के सर्व बंधनो से मुक्त होने का निश्चय कर चुके थे। जो मोह-बन्धन तोड़ चुका हो, उसे कौन बांध सकता है ?
परिणामस्वरूप तीस वर्षीय भरे यौवन में मंगसिर कृष्ण दशमी के दिन उन्होंने घर-बार छोड़ा। नग्न दिगंबर हो निर्जन वन में आत्म-साधनारत हो गए। उनके तप ( दीक्षा) कल्याणक के शुभ-प्रसंग पर लौकांतिक देवो ने आकर विनयपूर्वक उनके इस कार्य की भक्तिपूर्वक प्रशंसा की। मुनिराज वर्धमान मौन रहते थे, किसी से वातचीत नहीं करते थे। निरंतर प्रात्मचिन्तन में ही लगे रहते थे। यहाँ तक की स्नान और दन्तधोवन के विकल्प से भी परे थे। शत्रु और मित्र में समभाव रखनेवाले मुनिराज महावीर गिरि-कन्दराओं में वास करते थे। शीत, ग्रीष्म, वर्षादि ऋतुओं के प्रचण्ड वेग से वे तनिक भी विचलित न होते थे।
उनकी सौम्यमूर्ति, स्वाभाविक सरलता, अहिंसामय जीवन एवं शांत स्वभाव को देखकर बहुधा वन्यपशु स्वभावगत वैर-विरोध छोड़कर साम्यभाव धारण करते थे। अहि-नकुल तथा गाय और शेर एक घाट पानी पीतें थे। जहां वे ठहरतें, वातावरण सहज शान्तिमय हो जाता था।
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कभी कदाचित् भोजन का विकल्प उठता तो अनेक अटपटी प्रतिज्ञाएँ लेकर वे भोजन के लिए समीपस्थ नगर की ओर आते। यदि कोई श्रावक उनकी प्रतिज्ञाओं के अनुरूप शुद्ध, सात्त्विक आहार नवधाभक्तिपूर्वक देता तो प्रत्यन्त सावधानीपूर्वक खड़े-खड़े निरीह भाव से आहार ग्रहण कर शीघ्र वन को वापिस चले जाते थे। मुनिराज महावीर का आहार एक बार अति विपन्नावस्था को प्राप्त सती चंदनबाला के हाथ से भी हुआ था ।
इस प्रकार अन्तर्बाह्य घोर तपश्चरण करते बारह वर्ष बीत गए । बयालीस वर्ष की अवस्था में वैसाख शुक्ला दशमी के दिन आत्म-निमग्नता की दशा में उन्होंने अन्तर में विद्यमान सूक्ष्म राग का भी प्रभाव कर पूर्ण वीतराग दशा प्राप्त कर ली। पूर्ण वीतरागता प्राप्त होते ही उन्हें परिपूर्ण ज्ञान ( केवलज्ञान ) की भी प्राप्ति हुई। मोह-राग-द्वेषरूपी शत्रुओं को पूर्णतया जीत लेने से वे सच्चे महावीर बने। पूर्ण वीतरागी और सर्वज्ञ होने से वे भगवान कहलाए। उसी समय तीर्थंकर नामक महा पुण्योदय से उन्हें तीर्थंकर पद प्राप्त हुआ और वे तीर्थंकर भगवान महावीर के रूप में विश्रुत हुए। उनका उपदेश श्रावण कृष्ण प्रतिपदा के दिन प्रारंभ हुआ । यही कारण है इस दिन सारे भारतवर्ष में वीरशासन जयन्ती मनाई जाती हैं ।
उनका तत्त्वोपदेश होने के लिए इन्द्र की आज्ञा से कुबेर समवशरण की रचना की । तीर्थंकर की धर्मसभा को ' समवशरण कहा जाता हैं । उनकी धर्मसभा में प्रत्येक प्राणी को जाने का अधिकार प्राप्त था। छोटे-बड़े का कोई भेद नहीं था। जिसका प्रचार अहिंसक है, जिसने विचार में वस्तु-तत्त्व को स्पर्श किया है, तथा जो अपने में उतर चुका है, चाहे वह चांडाल ही क्यों न हों; वह मानव ही नहीं, देव से भी बढ़ कर है । कहा भी हैं :
सम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि
मातंगदेहजम्। देवा देवं विदुर्भस्मगूढ़ांगारान्तरौजसम् ।।
उनकी धर्मसभा में राजा - रंक, गरीब-अमीर, गोरे-काले सब मानव एक साथ बैठ कर धर्म-श्रवण करते थे । यहाँ तक कि उसमें मानवों-देवों के साथ
१. आचार्य समन्तभद्र : रत्नकरण्ड श्रावकाचार, श्लोक २८
"
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साथ पशुओं के बैठने की भी व्यवस्था थी और बहुत से पशुगण भी शान्तिपूर्वक धर्मश्रवण करते थे। सर्वप्राणी-समभाव जैसा महावीर की धर्मसभा में प्राप्त था वैसा अन्यत्र दुर्लभ हैं। उनके द्वारा स्थापित चतुर्विध संघ में मुनि-संघ और श्रावक संघ के साथ-साथ आर्यिका-संघ और श्राविका-संघ भी थे।
अनेक विरोधी विद्वान भी उनके उपदेशों से प्रभावित होकर अपनी परंपरायो को त्याग कर उनके शिष्य बने। प्रमुख विरोधी विद्वान इन्द्रभूति गौतम तो उनके पट्टशिष्यों में से हैं। वे ही उनके प्रथम गणधर बने जो कि गौतम स्वामी के नाम से प्रसिद्ध हैं। वे भगवान महावीर के शिष्य कैसे बने, इसका विवरण निम्न प्रकार प्राप्त होता हैं :
इन्द्रभूति गौतम वेद-वेदांगो के पारंगत विद्वान थे। उनके पांच सौ शिष्य थे। इन्द्र ने जब यह अनुभव किया कि भगवान की दिव्यध्वनि को पूर्णतः धारण करने में समर्थ उनका पट्टशिष्य बनने के योग्य इन्द्रभूति गौतम ही है, तब वह वृद्ध ब्राह्मण के वेश में उनके आश्रम में पहुँचा। इन्द्र ने इन्द्रभूति के समक्ष एक छन्द प्रस्तुत किया एवं अपने को महावीर का शिष्य बताते हुए उसका अर्थ समझने की जिज्ञासा प्रगट की। वह श्लोक इस प्रकार हैं :
त्रैकाल्यं द्रव्यषट्कं नवपदसहितं जीवषट्कायलेश्याः। पंचान्ये चास्तिकाया व्रतसमितिगतिज्ञानचरित्रभेदाः।। इत्येतन्मोक्षमूलं त्रिभूवनमहितैः प्रोक्रमर्हदभिरीशैः।
प्रत्येति श्रद्दधाति स्पृशति च मतिमान् यःस वै शुद्धदृष्टिः।। इन्द्रभूति विचारमग्न हो सोचने लगे-ये छह द्रव्य, नौ पदार्थ, पंचास्तिकाय आदि क्या हैं ? अपने तत्संबंधी प्रज्ञान को दर्प में दबाते हुए इन्द्रभूति ने इन्द्र से कहा-इस संबंध में मैं तुम्हारे गुरू से ही चर्चा करूगाँ। चलों! वे कहाँ हैं ? मैं उन्ही के पास चलता हूँ। इन्द्रभूति के सद्धर्म प्राप्ति का काल आ चुका था, साथ ही भगवान की दिव्य-ध्वनि खिरने का काल भी आ चुका था। समवशरण के निकट पाते ही उनके विचारो में कठोरता का स्थान कोमलता ने ले लिया। मानस्तंभ को देखते ही उनका मान गल गया और उन्होंने भगवान महावीर के पास दीक्षा ले ली। उनकी योग्यता और भगवान
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महावीर की महत्ता ने उन्हें प्रथम गणधर बनाया। इसके अतिरिक्त उनके दश गणधर और थे। जिनके नाम हैं :- (१) अग्निभूति, (२) वायुभूति, (३) आर्यव्यक्त, (४) सुधर्मा, (५) मंडित, (६) मौर्यपुत्र, (७) अकंपित, (८) अचलभ्राता, (९) मेतार्य और (१०) प्रभास।
श्रावक शिष्यो में मगध सम्राट महाराजा श्रेणिक (विम्बसार) प्रमुख थे।
लगातार तीस वर्ष तक सारे भारतवर्ष में उनका विहार होता रहा। उनका उपदेश इस प्रकार होता था कि सब अपनी-अपनी भाषा में समझ लेते थे। उनके उपदेश को दिव्यध्वनि कहा जाता हैं। उन्होंने अपनी दिव्यवाणी में जीवादि सर्व द्रव्यों की पूर्ण रूप से स्वतंत्रता की घोषणा की। उनका कहना था कि प्रत्येक प्रात्मा स्वतंत्र हैं, कोई किसी के आधीन नहीं हैं। पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त करने का मार्ग स्वावलम्बन हैं। रंग, राग और भेद से भिन्न शुद्ध निजात्मा पर दृष्टि केन्द्रित करना ही स्वावलम्बन हैं। अपने बल पर ही स्वतंत्रता प्राप्त की जा सकती हैं। अनन्त सुख और स्वतंत्रता भीख में प्राप्त होने वाली वस्तु नहीं हैं और न उसे दूसरों के बल पर ही प्राप्त किया जा सकता है।
सब आत्माएँ स्वतंत्र भिन्न-भिन्न हैं; एक नहीं, पर वे एक-सी अवश्य हैं, बराबर हैं, कोई छोटी-बड़ी नहीं। अतः उन्होंने कहा :
१. अपने समान दूसरी आत्माओं को जानो। २. सब आत्माएँ समान हैं ; पर एक नहीं। ३. यदि सही दिशा में पुरुषार्थ करे तो प्रत्येक प्रात्मा परमात्मा बन सकती हैं। ४. प्रत्येक प्राणी अपनी भूल से स्वयं दुःखी हैं और अपनी भूल सुधार कर
सुखी भी हो सकता हैं । भगवान महावीर ने जो कहा वह कोई नया सत्य नहीं था। सत्य में नये-पूराने का भेद कैसा ? उन्होंने जो कहा वह सदा से है, सनातन है।
उन्होनें सत्य की स्थापना नहीं, सत्य का उद्घाटन किया हैं। उन्होनें कोई नया धर्म स्थापित नहीं किया। धर्म तो वस्तु के स्वभाव को कहते हैं। वस्तु का स्वभाव बनाया नहीं जा सकता। जो बनाया जा सके वह स्वभाव
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कैसा ? वह तो जाना जाता है। कर्तृत्व के अहंकार एवं अपनत्व के ममकार से दूर रह कर जो स्व और पर को समग्र रूप से अप्रभावित होकर एक समय में परिपूर्ण जाने, वही भगवान हैं। तीर्थंकर भगवान वस्तु स्वरूप को जानते हैं, बताते हैं, बनाते नहीं।
वे तीर्थंकर थे। उन्होंने धर्मतीर्थ का प्रवर्तन किया। उन्होनें जो उपदेश दिया उसे प्राचार्य समन्तभद्र ने सर्वोदय तीर्थ कहा हैं :सर्वान्तवत् तद्गुणमुख्यकल्पम्।
सर्वान्तशून्यं च मिथोऽनपेक्षम्।। सर्वापदामन्तकरं निरन्तम्।
सर्वोदय तीर्थमिदं तवैव।। हे भगवान महावीर! आपका सर्वोदय तीर्थ सर्व धर्मो को लिए हुए हैं, उसमें मुख्य और गौण की विवक्षा से कथन हैं, अतः कोई विरोध नहीं आता; किन्तु अन्य वादीयों के कथन निरपेक्ष होने से संपूर्णतः वस्तुस्वरूप का प्रतिपादन करने में असमर्थ हैं। आपका शासन ( तत्त्वोपदेश) सर्व आपदाओं का अंत करने में और समस्त संसारी प्राणीयों को संसार-सागर से पार करने में समर्थ हैं, अतः सर्वोदय तीर्थ हैं।
जिसमें सब का उदय हो वही सर्वोदय हैं। तीर्थंकर महावीर ने जिस सर्वोदय तीर्थ का प्रणयन किया, उसके जिस धर्मतत्त्व को लोक के सामने रखा, उसमें किसी प्रकार की संकीर्णता और सीमा नहीं थी। प्रात्मधर्म सभी आत्माओं के लिए हैं। धर्म को मात्र मानव से जोड़ना भी एक प्रकार की संकीर्णता हैं। वह तो प्राणीमात्र का धर्म हैं। ‘मानवधर्म' शब्द भी पूर्ण उदारता का सूचक नहीं हैं। वह भी धर्म के क्षेत्र को मानव समाज तक ही सीमित करता हैं,जब कि धर्म का संबंध समस्त चेतन जगत से हैं, कयोंकि सभी प्राणी सुख और शान्ति से रहना चाहतें हैं।
तीर्थंकर भगवान महावीर ने प्रत्येक वस्तु की पूर्ण स्वतंत्र सत्ता प्रतिपादित १. युक्त्यनुशासन , श्लोक ६२
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की हैं और यह भी स्पष्ट किया है कि प्रत्येक वस्तु स्वयं परिणमनशील हैं। उसके परिणमन में पर पदार्थ का कोई हस्तक्षेप नही हैं। यहाँ तक कि परम पिता परमेश्वर (भगवान) भी उसकी सत्ता का कर्ताहर्ता नहीं हैं। जन-जन की ही नहीं, अपितु कण-कण की स्वतंत्र सत्ता की उद्घोषणा तीर्थंकर महावीर की वाणी में हुईं । दूसरों के परिणमन या कार्य में हस्तक्षेप करने की भावना ही मिथ्या, निष्फल और दुःख का कारण हैं ; क्योंकि सब जीवों के दुःख-सुख, जीवन-मरण का कर्ता दूसरे को मानना अज्ञान हैं । सो ही कहा
सर्व सदैव नियतं भवति स्वकीय।
कर्मोदयान्मरणजीवितदुःखसौख्यम्।। अज्ञानमेतदिह यत्तु परः परस्य,
कुर्यात्पुमान्मरणजीवितदुःखसौख्यम्।।' यदि एक प्राणी को दूसरे के दुःख-सुख और जीवन-मरण का कर्ता माना जाय तो फिर स्वयंकृत शुभाशुभ कर्म निष्फल साबित होंगे। क्योंकि प्रश्न यह है कि हम बुरे कर्म करें और कोई दूसरा व्यक्ति, चाहे वह ईश्वर ही क्यों न हो, क्या हमारा बुरा कर सकता हैं ? यदि हाँ, तो फिर अच्छे कार्य करना और बूरे कार्यो से डरना व्यर्थ हैं, क्योंकि उनके फल को भोगना तो आवश्यक हैं नहीं ? और यदि यह सही हैं कि हमें अपने अच्छे-बूरे कर्मो का फल भोगना ही पड़ेगा तो फिर हस्तक्षेप की कल्पना निरर्थक हैं। इसी बात को अमितगति प्राचार्य ने इसी प्रकार व्यक्त किया हैं :
स्वयं कृतंः कर्म यदात्मना पुरा,
फलं तदीयं लभते शुभाशुभम्। परेण दत्तं यदि लभ्यते स्फुटं,
स्वयं कृतः कर्म निरर्थकं तदा।। १. आचार्य अमृतचंद्र : समयसार कलश, १६८
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निजार्जितं कर्म विहाय देहिनो,
न कोपि कस्यापि ददाति किंचन। विचारयन्नेवमनन्यमानसः,
परो ददातीति विमुच्य शेमुषीम्।।' अन्त में ७२ वर्ष की आयु में दीपावली के दिन इस युग के अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर ने भौतिक देह को त्याग कर निर्वाण प्राप्त किया। उसी दिन उनके प्रथम शिष्य इन्द्रभूति गौतम को पूर्णज्ञान ( केवलज्ञान) की प्राप्ति हुई। जैन मान्यतानुसार दीपावली महापर्व भगवान महावीर के निर्वाण एवं उनके प्रमुख शिष्य गौतम को पूर्णज्ञान की प्राप्ति के उपलक्ष्य में ही मनाया जाता हैं ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि भगवान महावीर का जीवन आत्मा से परमात्मा बनने के क्रमिक विकास की कहानी हैं । प्रश्न -
१. तीर्थंकर भगवान महावीर का संक्षिप्त जीवन परिचय अपने शब्दो में दीजिए। २. भगवान महावीर के कितने गणधर थे ? नाम सहित बताइये। ३. बालक वर्धमान के गर्भ में आने के पूर्व उनकी माँ ने कितने और
कौन-कौन से स्वप्न देखे थे ? । ४. भगवान महावीर के मुख्य उपदेश क्या-क्या थे?
१. भावना द्वात्रिंशतिका ( सामायिक पाठ), छंद ३०-३१
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पाठ ९
देवागम स्तोत्र
(आप्तमीमांसा) तार्किक चक्रचूड़ामणि प्राचार्य समन्तभद्र विक्रम की द्वितिय शताब्दी में महान दिग्गज प्राचार्य हो गए हैं। वे प्राद्यस्तुतिकार के रूप में प्रसिद्ध हैं। आपने अनेक स्तोत्र लिखे हैं, जिनमें अनेक गंभीर न्याय भरे हुए हैं । 'देवागम स्तोत्र' भी उनमें एक अद्वितीय स्तोत्र हैं जिसे ‘प्राप्तमीमांसा' भी कहते हैं क्योंकि उसमें प्राप्त ( सच्चे देव) के स्वरूप पर गहरी विचारणा प्रस्तुत की गई हैं। प्राचार्य उमास्वामी के तत्त्वार्थसूत्र ( मोक्षशास्त्र ) पर आचार्य समन्तभद्र ने एक 'गंधहस्ति महाभाष्य' नामक भाष्य लिखा था। यह 'देवागम स्तोत्र' तत्त्वार्थ सूत्र के मंगलाचरण
मोक्षमार्गस्य नेतारं, भेत्तारं कर्म-भूभृताम् ।
। ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां, वन्दे तदगणलब्धये।। के संदर्भ मे लिया गया ‘गंधहस्ति महाभाष्य' का मंगलाचरण हैं ।
इस स्तोत्र पर अनेक गंभीरतम विस्तृत टीकाएँ संस्कृत भाषा में लिखी गई हैं, जिसमें प्राचार्य अकलंकदेव की आठसौ श्लोक प्रमाण 'अष्टशती' एवं प्राचार्य विद्यानन्दि की आठ हजार श्लोक प्रमाण 'अष्टसहस्त्री' अत्यंत गंभीर व प्रसिद्ध टीकाएँ हैं। इसमें ११४ छंद हैं। सब को यहाँ देना संभव नहीं हैं। इनका अर्थ भी अत्यन्त गूढ़ हैं,उसके विशेष स्पष्टीकरण को भी यहाँ अवकाश नहीं हैं। अतः उसके प्रारंभ के १६ छन्द सामान्यार्थ के साथ नमूने के रूप में प्रस्तुत हैं। देवागम स्तोत्र व उसकी टीकाएँ मूल में पठनीय हैं। १. तत्त्वज्ञान पाठमाला भाग १ में प्राचार्य समन्तभद्र का परिचय दिया गया हैं, वहाँ से
अध्ययन करना चाहिए। परीक्षा में तत्संबंधी प्रश्न पूछे जा सकते हैं।
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इस स्तोत्र का विषय स्तुति की शैली में प्राप्त के सच्चे स्वरूप की व्याख्या करना हैं। यह व्यंग के रूप में लिखा गया हैं। इसके व्यंगार्थ को स्पष्ट करते प्राचार्य विद्यानंदि ने लिखा हैं :
“ मानो भगवान (आप्त) ने साक्षात् समन्तभद्राचार्य से पूछा कि हे समन्तभद्र! आचार्य उमास्वामी ने महाशास्त्र 'तत्त्वार्थसूत्र' के आदि में हमारा स्तवन अतिशय रहित गुणों से ही क्यों किया, जब कि हममें अनेक सातिशय गुण विद्यमान हैं। इसके उत्तर में समन्तभद्र ने यह 'देवागम स्तोत्र 'लिखा।"
देवागम स्तोत्र (आप्तमीमांसा) देवागमनभोयान -
__चामरादिविभूतयः । मायाविष्वपि दृष्यन्ते
नातस्त्वमसि नो महान ।।१।। हे भगवन् ! आप हमारी दृष्टि में मात्र इसलिये महान नही हों कि आपके दर्शनार्थ देवगण आते हैं, आपका गमन आकाश में होता हैं, और चवर-छत्रादि विभूतियों से विभूषित हो; क्योकि ये सब तो मायावियों में भी देखे जाते हैं ।।१।।
अध्यात्म बहिरप्येष,
विग्रहादि महोदयः । दिव्यः सत्यो दिवौकस्स्व
__ प्यस्ति रागादिमत्सु सः ।।२।। इसी प्रकार शरीरादि संबंधी अंतरंग व बहिरंग अतिशय (विशेषताएँ ) यद्यपि मायावियों के नहीं पाये जाते हैं तथापि रागादि भावों से युक्त देवताओं के पाये जाते हैं, अतः इस कारण भी आप हमारी दृष्टि में महान नहीं हो सकते।।२।।
तीर्थकृत्समयानां च
परस्परविरोधतः । सर्वेषामाप्तता नास्ति
काश्चिदेव भवेद्गुरुः ।।३।।
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आगम के आधार एवं धर्मतीर्थ को चलाने वाले होने से भी आपकी महानता सिद्ध नहीं होती; क्योंकि शास्त्रों को बनाने वाले और संप्रदाय - पंथ रूप तीर्थो को चलाने वाले अनेक हैं और उन सब के वचन प्रायः परस्पर विरोधी हैं । परस्पर विरोधी वचनों वाले सब तो प्राप्त हो नहीं सकते ? उनमें से कोई एक ही प्राप्त होगा ।। ३।।
दोषावरणयोर्हानि,
क्वचिद्यथा स्वहेतुभ्यो, बहिरन्तर्मलक्षयः
।।४।।
हे भगवन्! आपकी महानता तो वीतरागता और सर्वज्ञता के कारण ही हैं। वीतरागता और सर्वज्ञता असंभव नहीं हैं। मोह, राग, द्वेषादि दोष और ज्ञानावरणादि आवरणों का संपूर्ण अभाव संभव हैं, क्योंकि इनकी हानि क्रमशः होती देखी जाती हैं। जिस प्रकार लोक में अशुद्ध कनक - पाषाणादि में स्वहेतुत्रों से अर्थात् अग्नितापादि से अंतर्बाह्य मल का प्रभाव होकर स्वर्ण की शुद्धता होती देखी जाती हैं, उसी प्रकार शुद्धोपयोगरूप ध्यानाग्नि के ताप से किसी प्रात्मा के दोषावरण की हानि होकर वीतरागता और सर्वज्ञता प्रगट होना संभव हैं । ।। ४।।
सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः
निःशेषाऽस्त्यतिशायनात् ।
प्रत्यक्षाः कस्यचिद्यथा ।
रिति सर्वज्ञसंस्थितिः ।। ५ ।।
परमाणु आदि सूक्ष्म, राम प्रादिक अंतरित एवं मेरु आदि दूरवर्ती पदार्थ किसी के प्रत्यक्ष हैं, क्योंकि वे अनुमान से जाने जाते हैं। जो-जो अनुमान से जाने जाते हैं वे किसी के प्रत्यक्ष भी होते हैं। जैसे दूरस्थ अग्नि का हम धूम देखकर अनुमान कर लेते हैं तो कोई उसे प्रत्यक्ष भी जानता हैं। उसी प्रकार सूक्ष्म, अंतरित और दूरवर्ती पदार्थो को हम अनुमान से जानते हैं तो कोई उन्हें प्रत्यक्ष भी जान सकता हैं। इस प्रकार सामान्य से सर्वज्ञ की सत्ता सिद्ध होती हैं ।। ५ ।।
अनुमेयत्वतोऽग्न्यादि
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स त्वमेवासि निर्दोषो,
युक्तिशास्त्राऽविरोधिवाक् । अविरोधो यदिष्टं ते,
प्रसिद्धेन न बाध्यते ।।६।। हे भगवन् ! वह वीतरागी और सर्वज्ञ आप ही हो, क्योंकि आपकी वाणी युक्ति और शास्त्रों से अविरोधी हैं। जो कुछ भी आपने कहा हैं वह सब प्रत्यक्षादि प्रसिद्ध प्रमाणों से बाधित नहीं होता हैं, अतः आपकी वाणी अविरोधी कही गई हैं।। ६।।
त्वन्मतामृतबाह्यानां
सर्वथैकान्तवादिनाम । आप्ताभिमानदग्धानां
स्वेष्टं दृष्टेन बाध्यते ।।७।। हे भगवन् ! आपके द्वारा प्रतिपादिन अनेकान्तमत रूपी अमृत से पृथक् जो सर्वथा एकान्तवादी लोग हैं, वे आप्ताभिमान से दग्ध हैं अर्थात् वे प्राप्त न होने पर भी ' मैं प्राप्त हूँ' ऐसे मान बैठे हैं। वस्तुतः वे प्राप्त नहीं हो सकते, क्योंकि उनके द्वारा प्रतिपादित वस्तुस्वरूप प्रत्यक्षादि प्रमाणों से बाधित हैं।। ७।।
कुशलाकुशलं कर्म
परलोकश्च न क्वचित् । एकान्तग्रहरक्रेषु,
नाथ! स्वपरवैरिषु ।।८।। हे नाथ! जो लोग एकान्त के आग्रह में रक्त हैं अथवा एकांत रूपी पिशाच से प्राधीन हैं, वे स्व और पर दोंनो के ही शत्रु (बुरा करने वाले ) हैं, क्योंकि उनके मत में शुभाशुभकर्म एवं परलोक आदि कुछ व्यवस्थित सिद्ध नहीं होते हैं।। ८ ।।
भावैकान्तेपदार्थाना
मभावानामपहवात् । सर्वात्मकमनाद्यन्त
मस्वरुपमतावकम् ।।९।।
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हे भगवन् ! पदार्थों का सर्वथा सद्भाव ही मानने पर प्रभावों का प्रभाव (लोप) मानना होगा। इस प्रकार प्रभावों को नहीं मानने से सब पदार्थ सर्वात्मक हो जावेंगे, सभी अनादि व अनंत हो जावेंगे, किसी का कोई पृथक् स्वरूप ही न रहेगा; जो कि आपको स्वीकार नही है।। ९ ।।
कार्यद्रव्यमनादि स्यात्
प्रागभावस्य निहवे । प्रध्वंसस्य च धर्मस्य
प्रच्यवेऽनन्ततां व्रजेत्।।१०।। प्रागभाव का प्रभाव मानने पर समस्त कार्य ( पर्यायें ) अनादि हो जावेंगे। इसी प्रकार प्रध्वंसाभाव नहीं मानने पर सभी कार्य (पर्यायें ) अनन्त हो जावेंगे।। १०।।
सर्वात्मकं तदेकं स्या
दन्याऽपोहव्यतिक्रमे । अन्यत्र समवाये न
व्यपदिश्येत सर्वथा ।।११।। यदि अन्योन्याभाव को नहीं मानेंगे तो दृश्यमान सर्व पदार्थ ( पुद्गल ) वर्तमान में एकरूप हो जावेंगे और अत्यन्ताभाव न मानने पर सर्व द्रव्य त्रिकाल एकरूप हो जाने से किसी भी द्रव्य का व्यपदेश (कथन) भी नहीं बन सकेगा ।।११।।
अभावैकान्त पक्षेऽपि
भावापहववादिनाम् । बोधवाक्यं प्रमाणं न
केन साधन दूषणम् ।।१२।। भाव का सर्वथा प्रभाव मानने वाले प्रभावैकान्तवादियों के भी ज्ञान और वचनों की प्रामाणिकता के अभाव में, वे स्वमत की स्थापना और परमत का खण्डन किस प्रकार करेंगे ? अतः अभावैकान्त भी ठीक नहीं हैं।। १२।।
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विरोधान्नोभयैकान्तं,
स्याद्वादन्यायविद्विषाम्। अवाच्यतैकान्तेप्युक्ति
र्नाऽवाच्यमिति युज्यते ।।१३।। यदि कोई भावैकान्त और प्रभावैकान्त में प्राप्त दोषों से बचने के लिए उभयैकान्त स्वीकार करे तो भी स्याद्वादन्याय के विद्वेषियों के मत में, दोंनो (भावैकान्त और अभावैकान्त) के परस्पर विरोध होने से दोनों में पृथक्-पृथक् कथित दोष पाये बिना नहीं रहेगें। यदि उक्त परेशानी से बचने के लिए कोई अवाच्यैकान्त स्वीकार करे तो ‘अवाच्य' कहने पर वस्तु ‘अवाच्य' शब्द से 'वाच्य' हो जावेगी।। १३ ।।
कथंचित्ते सदेवेष्टं
कथंचिदसदेव तत् । तथोभयमवाच्यं च
नययोगान्न सर्वथा ।।१४।। अतः हे भगवन् ! आपका बताया वस्तुस्वरूप कथंचित् सत् (भावस्वरूप), कथंचित् असत् ( अभावरूप), कथंचित् उभय (भावाभावरूप), कथंचित् प्रवक्तव्य, कथंचित् सद्ग्रवक्तव्य, कथंचित् असद्ग्रवक्तव्य और कथंचित् सद्-असद् प्रवक्तव्य हैं; पर यह सब सप्तभंग नयों की अपेक्षा से ही हैं, सर्वथा नहीं ।। १४ ।।
सदेव सर्व को नेच्छेत्
स्वरुपादिचतुष्टयात् । असदेव विपर्यासान्न,
चेन्न व्यवतिष्ठते ।।१४।। स्वरूपादि चतुष्टय (स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल, और स्वभाव ) की अपेक्षा वस्तु के सद्भाव को कौन स्वीकार नहीं करेगा ? उसी प्रकार पररूप चतुष्टय ( परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभाव) की अपेक्षा कौन प्रभाव को स्वीकार
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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates न करेगा ? अर्थात् प्रत्येक बुद्धिमान व्यक्ति स्वीकार करेगा ही। यदि कोई न करे तो उसके विचारानुसार वस्तु-व्यवस्था सिद्ध न होगी।। 15 / / क्रमार्पितद्वयाद् द्वैतं, सहावाच्यमशक्तित: / प्रवक्तव्योत्तराः शेषा स्त्रयो भंगाः स्वहेतुतः / / 16 / / क्रमार्पण (क्रम से कथन करना) की अपेक्षा से वस्तु उभयरूप (भावाभावरूप) हैं एवं एक साथ भाव और प्रभाव को कहने में असमर्थ होने से वस्तु स्याद्प्रवक्तव्य हैं। इसके बाद के तीन भंग स्याद् सद् प्रवक्तव्य, स्याद् असद् प्रवक्तव्य और स्याद् सदासद् प्रवक्तव्य को भी अपनी-अपनी अपेक्षा घटित कर लेना चाहिए।। 16 / / प्रश्न - 1. देवागम स्तोत्र एवं उसकी विषय-वस्तु का संक्षिप्त परिचय दीजिये। 2. निम्नलिखित में परस्पर अंतर बताइये: (क) सामान्य सर्वज्ञसिद्धि और विशेष सर्वज्ञसिद्धि। (ख) भावैकान्त और प्रभावैकान्त। 3. चारों प्रकार के एकान्तों का सयुक्ति निषेध कर स्याद्वाद की सिद्धि कीजिये। 74 Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com