Book Title: Tattvagyan Pathmala 1
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates ( श्री टोडरमल ग्रन्थमाला का बीसवाँ पुष्प ) तत्त्वज्ञान पाठमाला भाग १ (श्री वीतराग - विज्ञान विद्यापीठ परीक्षा बोर्ड द्वारा निर्धारित ) सम्पादक : डॉ॰ हुकमचन्द भारिल्ल शास्त्री, न्यायतीर्थ, साहित्यरत्न, एम. ए., पीएच. डी. संयुक्तमंत्री, पंडित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट, जयपुर प्रकाशक : मंत्री, पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट ए - ४, बापूनगर, जयपुर ३०२०१५ (राज. .) Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates Thanks & Our Request This shastra has been donated to mark the 15th svargvaas anniversary (28 September 2004) of, Laxmiben Premchand Shah, by her daughter, Jyoti Ramnik Gudka, Leicester, UK who has paid for it to be "electronised" and made available on the Internet. Our request to you: 1) We have taken great care to ensure this electronic version of TattvaGnaan Pathmala - Part 1 is a faithful copy of the paper version. However if you find any errors please inform us on rajesh@ AtmaDharma.com so that we can make this beautiful work even more accurate. 2) Keep checking the version number of the on-line shastra so that if corrections have been made you can replace your copy with the corrected one. Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates Version Number 001 Date Version History Changes First electronic version. Error corrections made: Errors in Original Physical Version 7 Oct 2004 Page No. 7, Line 4:34 Page No. 9, Line 1: T Page No. 9, Line 25: T Page No. 9, Line 1: Teft Page No. ,20 Line 9: Page No. 29 Line 23: Ha Page No., 30Line 6: HT Page No. 30, Line 28: Page No. 31, Line 1: Page No. 32, Line 3: Page No. 32, Line 8: H Page No. 35, Line 9: GIT Page No. 39, Line 8: Page No. 39, Line 10: 3 Page No. 66, Line 2: T Electronic Version Corrections उनके शैली फिर शैली सामना सर्वोत्कृष्ट समान होता नैमित्तिक वास्तविक मान GIGGI सम्यक्त्व उपभोग स्वस्थ Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates सर्वाधिकार सुरक्षित * हिन्दी प्रथमावृत्ति : ५,५०० (१९७२ ई.) द्वितीयवृत्ति : ४,००० (अक्टूबर , १९७७ ) तृतीयावृत्ति : ५,२०० (१ जनवरी १९८३) चतुर्थावृत्ति : ३,२०० (२ अक्टूबर १९८९) गुजराती : प्रथमावृत्ति २,१०० (१९७७ ई.) मुद्रक : अग्रवाल प्रिन्टर्स, दिल्ली Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates विषय-सूची क्रम oh & | ॐ | नाम पाठ लेखक श्री सीमन्धर पूजन | डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल, जयपुर सात तत्त्व सम्बन्धी भूलें | पं. रतनचन्द भारिल्ल, विदिशा लक्षण और लक्षणाभास डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल, जयपुर पंचमगुणस्थानवर्ती श्रावक श्री नेमीचन्दजी पाटनी, आगरा की ग्यारह प्रतिमायें सुख क्या है ? | डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल, जयपुर पंच भाव पं. खीमचन्द जेठालाल सेठ, सोनगढ़ चार अभाव डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल , जयपुर पांच पाण्डव डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल , जयपुर भावना बत्तीसी श्री युगलकिशोरजी , 'युगल', कोटा | ७ | | | ६१ Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates पाठ १ श्री सीमंधर पूजन स्थापना भगवान । भव - समुद्र सीमित कियो, सीमंधर कर सीमित' निजज्ञान को, प्रगट्यो पूरण ज्ञान ॥ प्रगट्यो पूरण ज्ञान वीर्य – दर्शन सुखधारी, समयसार अविकार विमल चैतन्य - विहारी । अंतर्बल से किया प्रबल रिपु-मोह पराभव, अरे भवान्तक! करो अभय हर लो मेरा भव॥ ॐ ह्रीं श्री सीमंधरजिन ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् । अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । जल प्रभुवर तुम जल-से शीतल हो, जल-से निर्मल अविकारी हो, मिथ्यामल धोने को जिनवर, तुमही तो मल - परिहारी हो । तुम सम्यग्ज्ञानजलोदधि हो, जलधर अमृत बरसाते हो, भविजन- मन-मीन - प्राणदायक, भविजन- मन- जलज खिलाते हो । हे ज्ञानपयोनिधि सीमंधर ! यह ज्ञान-प्रतीक समर्पित है, हो शान्त ज्ञेयनिष्ठा मेरी, जल से चरणाम्बुज चर्चित है ।। ॐ ह्रीं श्री सीमंधरजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलम् निर्वपामीति स्वाहा। चंदन चंदन-सम चन्द्रवदन जिनवर, तुम चन्द्र- किरण से सुखकर हो, भव-ताप निकंदन हे प्रभुवर! सचमुच तुम ही भव - दुःख - हर हो । जल रहा हमारा अन्त स्तल, प्रभु इच्छाओं की ज्वाला से, यह शान्त न होगा हे जिनवर, रे! विषयों की मधुशाला से । चिर अंतर्दाह मिटाने को, तुमही मलयागिरि चंदन हो, चंदन से चरचूं चरणांबुज, भवतपहर ! शत शत वंदन हो ।। ॐ ह्रीं श्री सीमंधरजिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय चंदनम् निर्वपामीति स्वाहा। १ ज्ञान को पर से हटा कर अपने में ही लगाना । ३ Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates अक्षत प्रभु ! अक्षतपुर के वासी हो, मैं भी तेरा विश्वासी क्षत-विक्षत में विश्वास नहीं, तेरे पद का प्रत्याशी अक्षत का अक्षत - संबल ले, लिया तुमने, अक्षत-विज्ञान दिया जग को, अक्षत-ब्रह्माण्ड किया तुमने । अक्षत अभिलाषी, अक्षत अतएव चरण लाया, अक्षत - साम्राज्य मैं केवल निर्वाण - शिला ॐ ह्रीं श्री सीमंधरजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये प्रक्षतम् निर्वपामीति स्वाहा । के संगम-सा, धवलाक्षत मेरे मन भाया ।। पुष्प तुम सुरभित ज्ञान - सुमन हो प्रभु, नहिं राग-द्वेष दुर्गंध कहीं, सर्वांग सुकोमल चिन्मय तन, जग से कुछ भी सम्बन्ध नहीं । निज अंतर्वास सुवासित हो, शुन्यान्तर पर की माया से, चैतन्य-विपिन के चितरंजन, हो दूर जगत की छाया से । सुमनों से मन को राह मिली, प्रभु कल्पबेलि से यह लाया, इनको पा चहक उठा मन - खग, भर चोंच चरण में ले आया ।। ॐ ह्रीं श्री सीमंधरजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पम् निर्वपामीति स्वाहा । नैवेद्य आनन्द रसामृत के द्रह हो, नीरस जड़ता का दान नहीं, तुम मुक्त क्षुधा के वेदन से, षट्स का नाम-निशान नहीं । विध- विध व्यंजन के विग्रह से, प्रभु भूख न शांत हुई मेरी, आनंद सुधारस निर्भर तुम, प्रतएव शरण ली प्रभु तेरी । चिर- तृप्ति - प्रदायी व्यंजन से, हो दूर क्षुधा के अंजन ये, क्षुत्पीड़ा कैसे रह लेगी ? जब पाये नाथ निरंजन से ।। ॐ ह्रीं श्री सीमन्धरजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यम् निर्वपामीति स्वाहा। दीप चिन्मय-विज्ञान–भवन अधिपति, तुम लोकालोक प्रकाशक हो, कैवल्य-किरण से ज्योतित प्रभु ! तुम महामोहतम नाशक हो । तुम हो प्रकाश के पुंज नाथ ! प्रावरणों की परछांह नहीं, प्रतिबिम्वित पूरी ज्ञेयावलि, पर चिन्मयता को ग्रांच नहीं ।। १ पूर्ण शुद्ध स्वभाव पर्याय । ४ Please inform us of any errors on rajesh@Atma Dharma.com Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates ले आया दीपक चरणों में, रे ! अंतर आलोकित कर दो. प्रभु तेरे मेरे अन्तर' को, अविलंब निरन्तर से भर दो ॥ ॐ ह्रीं श्री सीमन्धरजिनेन्द्राय मोहांधकारविनाशनाय दीपम् निर्वपामीति स्वाहा। धूप धू-धू जलती दुःख की ज्वाला, प्रभु त्रस्त निखिल जगतीतल है, बेचेत पड़े सब देही हैं, चलता फिर राग प्रभंजन है । यह धूम घूमरी - खा-खाकर, उड़ रहा गगन की गलियों में, अज्ञानतमावृत चेतन ज्यो, चौरासी की रंग-रलियों में । संदेश धूप का तात्त्विक प्रभु, तुम हुये ऊर्ध्वगामी जग से, प्रगटे दशांगळे प्रभुवर तुम को, अंतः दशांग की सौरभ से ॥ ॐ ह्रीं श्री सीमन्धरजिनेन्द्राय प्रष्टकर्मदहनाय धूपम् निर्वपामीति स्वाहा। फल शुभ - अशुभ वृत्ति एकांत दुःख, अत्यंत मलिन संयोगी है, अज्ञान विधाता है इसका, निश्चित चैतन्य विरोधी है । कांटों सी पैदा हो जाती, चैतन्य - सदन के आंगन में, चंचल छाया की माया सी, घटती क्षण में बढ़ती क्षण में । तेरी फल-पूजा का फल प्रभु ! हो शांत शुभाशुभ ज्वालायें, मधुकल्पफलों सी जीवन में प्रभु ! शांति लतायें छा जायें ।। ॐ ह्रीं श्री सीमन्धरजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तयें फलम् निर्वपामीति स्वाहा । अर्घ निर्मल -जल-सा प्रभु निज स्वरूप, पहिचान उसी में लीन हुए, भव–ताप उतरने लगा तभी चंदन-सी उठी हिलोर हिये । अभिराम - भवन प्रभु अक्षत का, सब शक्ति-प्रसून लगे खिलने, क्षुत-तृषा अठारह दोष क्षीण. कैवल्य प्रदीप लगा जलने । मिट चली चपलता योगों की, कर्मों के ईंधन ध्वस्त हुए, फल हुआ प्रभो ! ऐसा मधुरिम, तुम धवल निरंजन स्वस्त हुए ।। ॐ ह्रीं श्री सीमन्धरजिनेन्द्राय अनर्घपदप्राप्तये अर्धम् निर्वपामीति स्वाहा । १. फर्क २. उत्तम क्षमादि दश धर्म । ५ Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates जयमाला वैदेही हो देह में, अतः विदेही नाथ । सीमंधर निज सीम में, शाश्वत करो निवास।। श्री जिन पूर्व विदेह में, विद्यमान अरहंत। वीतराग सर्वज्ञ श्री, सीमंधर भगवंत ।। हे ज्ञानस्वभावी सीमंधर, तुम हो असीम आनन्दरूप । अपनी सीमा में सीमित हो, फिर भी हो तुम त्रैलोक्य भूप ।। मोहान्धकार के नाश हेतु, तुम ही हो दिनकर अति प्रचंड । हो स्वयं अखंडित कर्म शत्रु को, किया आपने खंड-खंड ।। गृहवास राग की आग त्याग, धारा तुमने मुनिपद महान । आत्म-स्वभाव साधन द्वारा, पाया तुमने परिपूर्ण ज्ञान ।। तुम दर्शनज्ञान-दिवाकर हो, वीरज मंडित आनन्दकंद । तुम हुए स्वयं में स्वयं पूर्ण, तुम ही हो सच्चे पूर्ण चन्द ।। पूरव विदेह में हे जिनवर, हो आप आज भी विद्यमान । हो रहा दिव्य उपदेश, भव्य पार हे नित्य अध्यात्म-ज्ञान ।। श्री कुंदकुंद प्राचार्यदेव को, मिला आपसे दिव्य ज्ञान । आत्मानुभूति से कर प्रमाण, पाया उनने आनन्द महान ।। पाया था उनने समयसार, अपनाया उनने समयसार । समझाया उनने समयसार, होगये स्वयं वे समयसार ।। दे गये हमें वे समयसार, गा रहे आज हम समयसार । है समयसार बस एक सार, है समयसार बिन सब असार ।। मैं हूँ स्वभाव से समयसार, परणति हो जावे समयसार । है यही चाह, है यही राह , जीवन हो जावे समयसार ।। ॐ ह्रीं श्री सीमन्धरजिनेन्द्राय अनर्घपदप्राप्तये जयमालार्घम् निर्वपामीति स्वाहा। समयसार है सार, और सार कुछ है नहीं । महिमा अपरम्पार, समयसारमय आपकी ।। पुष्पांजलि क्षिपेत् प्रश्न१. जल, चंदन और फल का छन्द अर्थसहित लिखिए। 400 Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates पाठ २. सात तत्त्व सम्बन्धी भूलें आचार्यकल्प पंडित टोडरमलजी (व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व) आचार्यकल्प पंडित टोडरमलजी के पिता श्री जोगीदासजी खण्डेलवाल दि. जैन गोदिका गोत्रज थे और माँ थी रंभाबाई। वे विवाहित थे। उनके दो पुत्र थे -हरिश्चन्द्र और गुमानीराम। गुमानीराम महान् प्रतिभाशाली और उनके समान ही क्रान्तिकारी थे। यद्यति पंडितजी का अधिकांश जीवन जयपुर में ही बीता किन्तु उन्हें अपनी आजीविका के लिये कुछ समय सिंघाणा अवश्य रहना पड़ा था। वे वहाँ दिल्ली के एक साहुकार के यहाँ कार्य करते थे। परम्परागत मान्यतानुसार उनकी आयु यद्यपि २७ वर्ष मानी जाती है किन्तु उनकी साहित्यसाधना, ज्ञान व नवीनतम प्राप्त उल्लेखों व प्रमाणों के आधार पर यह निश्चित हो चुका है कि वे ४७ वर्ष तक जीवित रहे। उनकी मृत्यु तिथि वि. सं. १८२३-२४ लगभग निश्चित है, अतः उनका जन्म वि. सं. १७७६७७ में होना चाहिये। उनकी सामान्य शिक्षा जयपुर की एक आध्यात्मिक ( तेरापंथ) शैली में हुई परन्तु अगाध विद्वत्ता केवल अपने कठिन श्रम एवं प्रतिभा के बल पर ही उन्होंने प्राप्त की, उसे बांटा भी दिल खोलकर। वे प्रतिभासम्पन्न, मेघावी और अध्ययनशील थे। प्राकृत, संस्कृत और हिन्दी के अतिरिक्त, उन्हें कन्नड भाषा का भी ज्ञान था। आपके बारे में वि. संवत् १८२१ में व्र. रायमल इन्द्रध्वज विधान महोत्सव पत्रिका में लिखते हैं – “ऐसे महंत बुद्धि के धारक पुरुष इस काल विर्षे होना दुर्लभ है, तातें वासुं मिले सर्व संदेह दूर होय हैं। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates आप स्वयं मोक्षमार्ग प्रकाशक में अपने अध्ययन के बारे में लिखते हैं, “टीका सहित समयसार, पंचास्तिकाय, प्रवचनसार, नियमसार, गोम्मटसार, लब्धिसार, त्रिलोकसार, तत्त्वार्थसूत्र इत्यादि शास्त्र; अरु क्षपणासार, पुरुषार्थसिद्धयुपाय, अष्टपाहुड़, ग्रात्मानुशासन आदि शास्त्र; अरु श्रावक मुनि के आचार के निरूपक अनेक शास्त्र; अरु सुष्ठु कथा सहित पुराणादि शास्त्र इत्यादी अनेक शास्त्र हैं; तिनि विषै हमारे बुद्धि अनुसार अभ्यास वर्त्ते है । " उन्होंने अपने जीवन मे छोटी बड़ी बारह रचनाएँ लिखी जिनका परिमाण करीब एक लाख श्लोक प्रमाण हैं, पांच हजार पृष्ठ के करीब । इनमें कुछ तो लोकप्रिय ग्रंथों की विशाल प्रामणिक टीकाएँ हैं और कुछ हैं स्वतंत्र रचनाएँ । गद्य और पद्य दोनों रूपों में पाई जाती हैं। वे कालक्रमानुसार निम्नलिखित हैं :(१) रहस्यपूर्ण चिट्ठी (वि. सं. १८११ ) (२) गोम्मटसार जीवकाण्ड भाषा टीका (३) गोम्मटसार कर्मकाण्ड भाषा टीका (४) अर्थसंदृष्टि अधिकार (५) लब्धिसार भाषा टीका (६) क्षपणासार भाषा टीका (७) (८) (९) (१०) मोक्षमार्ग-प्रकाशक (अपूर्ण) ( ११ ) आत्मानुशासन भाषा टीका ( १२ ) पुरुषार्थसिद्धयुपाय भाषा टीका (अपूर्ण) इसे पं. दौलतराम कासलीवाल ने वि. सं. १८२७ में पूर्ण किया। * गोम्मटसार पूजा त्रिलोकसार भाषा टीका समोशरण रचना वर्णन * सम्यग्ज्ञान चंद्रिका (वि. सं. १८१८ ) गोम्मटसार जीवकाण्ड व कर्मकाण्ड भाषा टीका, लब्धिसार व क्षपणासार भाषा टीका एवं अर्थसंदृष्टि अधिकार का 'सम्यग्ज्ञान चंद्रिका' भी कहते हैं। ८ Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates उनकी गद्य शैली परिमार्जित , प्रौढ एवं सहज बोधगम्य हैं। उनकी शैली का सुन्दरतम रूप उनके मौलिक ग्रंथ 'मोक्षमार्ग प्रकाशक' में देखने को मिलता है। उनकी भाषा मूलरूप में ब्रज होते हुए भी उसमें खड़ी बोली का खड़ापन भी है और साथ ही स्थानीय रंगत भी। उनकी भाषा उनके भावों को वहन करने में पूर्ण समर्थ व परिमार्जित है। आपके संबंध में विशेष जानकारी के लिये ‘पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व' नामक ग्रंथ देखना चाहिये। प्रस्तुत अंश ‘मोक्षमार्ग प्रकाशक' के सप्तम अधिकार के आधार पर लिखा गया है। निश्चय-व्यवहार की विशेष जानकारी के लिये मोक्षमार्ग प्रकाशक' के सप्तम अधिकार का अध्ययन करना चाहिये। सात तत्त्व सम्बन्धी भूलें __जब तक जीवादि सात तत्त्वों का विपरीताभिनिवेश रहित सही भावभासन न हो, तब तक सम्यग्दर्शन की प्राप्ति नहीं हो सकती है। जैन शास्त्रों का अध्ययन कर लेने पर भी मिथ्यादृष्टि जीव को तत्त्व का सही भावभासन नहीं होता। जीव और अजीव तत्त्व सम्बन्धी भूल १. जैन शास्त्रों में वर्णित जीव के त्रस-स्थावरादि तथा गुणस्थान, मार्गणा आदि भेदों तथा अजीव के पुद्गलादि भेदों व वर्णादि पर्यायों को तो जानता है, पर अध्यात्म शास्त्रों में वर्णित भेदविज्ञान और वीतराग दशा होने के कारणभूत कथन को नहीं पहिचानता। २. यदि प्रसंगवश उन्हें जान भी ले तो शास्त्रानुसार जान लेता है, परन्तु अपने को आप रूप जानकर पर का अंश अपने में न मिलाना और अपना अंश पर में न मिलाना - ऐसा सच्चा श्रद्धान नहीं करता। ३. अन्य मिथ्यादृष्टियों के समान यह भी आत्माश्रित ज्ञानादि तथा शरीराश्रित उपदेश, उपवासादि क्रियाओं में अपनत्व' मानता है। ४. शास्त्रानुसार आत्मा की चर्चा करता फिर भी यह अनुभव नहीं करता कि मैं प्रात्मा हूँ और शरीरादि मुझसे भिन्न है, जैसे और ही की बातें कर रहा हो - ऐसे ही शरीरादि और आत्मा को भिन्न बताता है। १ उल्टी मान्यता या उल्टा अभिप्राय २ अन्तरंग ज्ञान ३ अपनापन Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates ५. जीव और पुद्गल के परस्पर निमित्त से अनेक क्रियायें होती हैं, उन्हें दोनों की सम्मिलित क्रिया मानता है। यह नहीं जानता कि यह जीव की क्रिया है, पुद्गल इसका निमित्त है; यह पुद्गल की क्रिया है, जीव इसका निमित्त है-ऐसा भिन्न-भिन्न भाव भासित नहीं होता। आस्रव तत्त्व सम्बन्धी भूल १. हिंसादि रूप पापास्त्रवों को तो हेय मानता है, पर अहिंसादि रूप पुण्यास्त्रवों को उपादेय मानता है; किन्तु दोनों बंध के कारण होने से हेय ही हैं। २. जहाँ वीतराग होकर ज्ञाता दृष्टा रूप रहे, वहाँ निर्बंध है, वही उपादेय है। जब तक ऐसी दशा न हो, तब तक प्रशस्तराग रूप प्रवर्तन करे; परन्तु श्रद्धा तो ऐसी रखे कि यह भी बंध का कारण है, हेय है। श्रद्धा में इसे मोक्षमार्ग माने तो मिथ्यादृष्टि ही है। ३. मिथ्यात्वादि प्रास्त्रवों के अन्तरंग स्वरूप को तो पहिचानता नहीं है; उनके बाह्य रूप को ही प्रास्त्रव मानता है। जैसे:(क) गृहीत मिथ्यात्व को ही मिथ्यात्व जानता है; परन्तु अनादि प्रगृहीत मिथ्यात्व है, उसे नहीं पहिचानता। ___ बाह्य जीवहिंसा और इन्द्रिय-मन के विषयों में प्रवृत्ति को अविरति जानता है, पर हिंसा में प्रमाद परिणति मूल है तथा विषय सेवन में अभिलाषा मूल है, उसे नहीं जानता। (ग) बाह्य क्रोधादि को ही कषाय मानता है। अभिप्राय में जो राग-द्वेष रहते हैं, उन्हें नहीं पहिचानता। बाह्य चेष्टा को ही योग मानता है। अन्तरंग शक्तिभूत योग को नहीं जानता। ४. जो अन्तरंग अभिप्राय में मिथ्यात्वादिरूप रागादिभाव हैं, वस्तुतः वे ही प्रास्त्रव भाव हैं। इनकी पहिचान न होने से प्रास्त्रव तत्त्व का भी सही श्रद्धान नहीं है। १. त्यागने योग्य २. ग्रहण करने योग्य ३. बंध का प्रभाव , ४. शुभ राग, ५. इच्छा (घ) १० Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates बंध तत्त्व सम्बन्धी भूल पापबंध के कारण अशुभ भावों को तो बूरा जानता है, पर पुण्यबंध के कारण शुभ भावों को भला मानता है । पुण्य-पाप का भेद तो प्रघाति कर्मों में है, घातिया तो पापरूप ही हैं तथा शुभ भावों के काल में भी घाति कर्म तो बंधते ही रहते है, अतः शुभ भाव बंध के ही कारण होने से भले कैसे हो सकते हैं ? संवर तत्त्व सम्बन्धी भूल १. अहिंसादिरूप शुभास्त्रवों को संवर जानता है, पर एक ही कारण से पुण्यबंध और संवर दोनों कैसे हो सकते हैं ? इसका उसे पता नहीं । २. शास्त्र में कहे संवर के कारण गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परिषहजय और चारित्र को भी यथार्थ नहीं जानता । जैसे : (क) पाप चिंतवन न करे, मौन धारण करे, गमनादि न करे, उसे गुप्ति मानता है; पर भक्ति प्रादिरूप प्रशस्तराग से नाना विकल्प' होते हैं, उनकी तरफ लक्ष्य नहीं । वीतरागभाव होने पर मन-वचन-काय की चेष्टा न हो वही सच्ची गुप्ति है। (ख) इसी प्रकार यत्नाचार प्रवृत्ति को समिति मानता है, पर उसे यह पता नहीं कि हिंसा के परिणामों से पाप होता है और रक्षा के परिणामों से संवर कहोगे तो पुण्यबंध किससे होगा ? मुनियों के किंचित् राग होने पर गमनादि क्रिया होती है, वहाँ उन क्रियाओं में प्रत्यासक्ति के अभाव में प्रमादरूप प्रवृत्ति नहीं होती । तथा अन्य जीवों को दुःखी करके अपना गमनादि प्रयोजन नहीं साधते, अतः स्वयमेव दया पलती है यही सच्ची समिति है। (ग) बंधादिक के भय से, स्वर्ग-मोक्ष के लोभ से क्रोधादि न करे। क्रोधादि का अभिप्राय मिटा नहीं, पर अपने को क्षमादि धर्म का धारक मानता है । तत्त्वज्ञान के अभ्यास से जब कोई पदार्थ इष्ट और अनिष्टरूप भासित नहीं होते, तब स्वयमेव ही क्रोधादि उत्पन्न नही होते तब सच्चा धर्मं होता है । १ रागद्वेष-युक्त विचार - — ११ Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates (घ) अनित्यादि भावना के चिन्तवन से शरीरादिक को बुरा जान उदास होने को अनुप्रेक्षा कहता है पर उसकी उदासीनता द्वेषरूप होती है। वस्तु का सही रूप पहिचान कर भला जान राग नहीं करना, बुरा जान द्वेष नहीं करना - यह सच्ची उदासीनता है। (च) क्षुधादिक होने पर उसके नाश का उपाय नहीं करने को परिषहजय जानता है; अन्तर में क्लेशरूप परिणाम रहते है, उन पर ध्यान नहीं देता। इष्ट-अनिष्ट में सुखी-दुःखी नहीं होना व ज्ञाता-दृष्टा रहना यही - सच्चा परिषहजय है। (छ) हिंसादि के त्याग को चारित्र मानता है तथा महाव्रतादि शुभ योग को उपादेय मानता है, पर तत्त्वार्थसूत्र में प्रास्त्रवाधिकार में अणुव्रत महाव्रत को प्रास्त्रवरूप कहा है। वे उपादेय कैसे हो सकते हैं ? तथा बंध का कारण होने से महाव्रतादि को चारित्रपना सम्भव नहीं है। सकल कषाय रहित उदासीन भाव , उसी का नाम चारित्र है। मुनिराज मन्द कषायरूप महाव्रतादि का पालन तो करते हैं पर उन्हें मोक्षमार्ग नहीं मानते। निर्जरा तत्त्व सम्बन्धी भूल १. वीतराग भावरूप तप को तो जानता नहीं है, बाह्यक्रिया में ही लीन रहे, उसे ही तप मानकर उससे निर्जरा मानता है। २. उसे यह पता नहीं कि जितना शुद्ध भाव है, वह तो निर्जरा का कारण है और जितना शुभ भाव है वह बंध का कारण है। निश्चय धर्म तो वीतराग भाव है, वही निर्जरा का कारण है। मोक्ष तत्त्व सम्बन्धी भूल १. मोक्ष और स्वर्ग के सुख को एक जाति का मानता है; जबकि स्वर्गसुख इन्द्रियजन्य है और मोक्षसुख अतीन्द्रिय। २. स्वर्ग और मोक्ष के कारण को भी एक मानता है, जबकि स्वर्ग का कारण शुभ भाव है और मोक्ष का कारण शुद्ध भाव। १२ Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इस प्रकार जैन शास्त्रों के पढ़ लेने के बाद भी सातों तत्त्वों का विपरीत श्रद्धान बना रहता है । प्रश्न - १. जैन शास्त्रों के अध्ययन कर लेने पर भी क्या कोई जीव मिथ्यादृष्टि रह सकता है? यदि हाँ, तो किस प्रकार ? स्पष्ट कीजिए । २. यह आत्मा जीव और अजीव के सम्बन्ध में क्या भूल करता है ? ३. पुण्य को मुक्ति का कारण मानने में क्या आपति है ? इस मान्यता से कौन-कौन से तत्त्व सम्बन्धी भूलें होंगी ? ४. स्वर्ग और मोक्ष में कारण और स्वरूप की अपेक्षा भेद बताइये। ५. संक्षिप्त टिप्पणियाँ लिखे - गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, चारित्र, मिथ्यात्व, अविरति, कषाय। ६. पं. टोडरमलजी के व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व पर संक्षिप्त प्रकाश डालिए । १३ Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates पाठ ३ लक्षण और लक्षणाभास अभिनव धर्मभूषण यति व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व (१३५८–१४१८ ई.) धर्मभूषण नाम के कई जैन साहित्यकार हुए हैं। उन सबसे पृथक् बतलाने के लिए इनके नाम के आगे अभिनव शब्द और अन्त में यति शब्द जुड़ा मिलता है। ये कुन्दकुन्दाम्नायी थे और इनके गुरु का नाम वर्द्धमान था। इनका अस्तित्व १२५८ से १४१८ ई. तक माना जाता हैं। इनके प्रभाव और व्यक्तित्व सुचक जो उल्लेख मिलते हैं उनसे पता चलता है कि ये अपने समय के बड़े ही प्रभावशाली व्यक्तित्व वाले महापुरुष थे। राजाधिराज परमेश्वर की उपाधि से विभूषित प्रथम देवराय इनके चरणों में मस्तक झुकाया करते थे। जैनधर्म की प्रभावना करना तो इनके जीवन का व्रत था ही, किन्तु ग्रन्थरचना कार्य में भी इन्होंने अपनी अनोखी सूझबूझ, तार्किक शक्ति और विद्वत्ता का पूरा-पूरा उपयोग किया है। आज हमें इनकी एकमात्र अमर रचना ‘न्यायदीपिका' प्राप्त है, जिसका जैन न्याय में अपना एक विशिष्ट स्थान है। 'न्यायदीपिका' संक्षिप्त, किन्तु अत्यन्त सुविशद एवं महत्त्वपूर्ण कृति है। इसमें संक्षेप में प्रमाण और नय का तर्कसंगत वर्णन है। यद्यपि न्यायग्रन्थों की भाषा अधिकांशतः दुरूह और गंभीर होती है, किन्तु इस ग्रन्थ की भाषा सरल एवं सुबोध संस्कृत है। १. न्यायदीपिका प्रस्तावना : वीर सेवा मंदिर, सरसावा, पृष्ठ ९२-९३ २. वही, पृष्ठ ९९-१०० ३. मिडियावल जैनिझम, पृष्ठ २९९ Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates लक्षण और लक्षणाभास प्रवचनकार - किसी भी वस्तु को जानने के लिए उसका लक्षण (परिभाषा) जानना बहुत आवश्यक है, क्योंकि बिना लक्षण जाने उसे पहिचानना तथा सत्यासत्य का निर्णय करना सम्भव नहीं है। वस्तुस्वरूप के सही निर्णय बिना उसका विवेचन असम्भव है; यदि किया जायगा तो जो कुछ भी कहा जायगा, वह गलत होगा। अतः प्रत्येक वस्तु को गहराई से जानने के पहिले उसका लक्षण जानना बहुत जरूरी है। जिज्ञासु - लक्षण जानना आवश्यक है - यह तो ठीक है, पर लक्षण कहते किसे हैं ? पहले यह तो बताइये। प्रवचनकार - तुम्हारा प्रश्न ठीक है। किसी भी वस्तु का लक्षण जानने से पहिले लक्षण की परिभाषा जानना भी आवश्यक है, क्योंकि यदि हम लक्षण की परिभाषा ही न जानेंगे तो फिर विवक्षित वस्तु का जो लक्षण बनाया गया है, वह सही ही है - इसका निश्चय कैसे किया जा सकेगा। __ अनेक मिली हुई वस्तुओ (पदार्थों ) में से किसी एक वस्तु (पदार्थ) को पृथक् करने वाले हेतु को लक्षण कहते है। जैसा कि अकलंकदेव ने राजवार्तिक में कहा है : " परस्पर मिली हुई वस्तुओं में से कोई एक वस्तु जिसके द्वारा अलग की जाती है, उसे लक्षण कहते हैं। "२ जिज्ञासु - और लक्ष्य ? प्रवचनकार - जिसका लक्षण किया जाय, उसे लक्ष्य कहते हैं। जैसे-जीव का लक्षण चेतना है, इसमें 'जीव' लक्ष्य हुआ और 'चेतना' लक्षण। लक्षण से जिसे पहचाना जाता है, वही तो लक्ष्य है। लक्षण दो प्रकार के होते हैं-यात्मभूत लक्षण और अनात्मभूत लक्षण। १ “व्यतिकीर्णवस्तुव्यावृत्तिहेतुर्लक्षणम्।” -न्यायदीपिका : वीर सेवा मंदिर, सरसावा , पृष्ठ ५ २ “परस्परव्यतिकरे सति येनाऽन्यत्वं लक्ष्यते तल्लक्षणम्।" -न्यायदीपिका : वीर सेवा मन्दिर, सरसावा, पृष्ठ ६ Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates जो लक्षण वस्तु के स्वरूप में मिला हुआ हो, उसे आत्मभूत लक्षण कहते हैं। जैसे – अग्नि की उष्णता। उष्णता अग्नि का स्वरूप होती हुई जलादि पदार्थों से उसे पृथक् करती है, अतः उष्णता अग्नि का आत्मभूत लक्षण है। जो लक्षण वस्तु से मिला हुआ न हो, उससे पृथक् हो, उसे अनात्मभूत लक्षण कहते हैं। जैसे - दण्ड वाले पुरुष (दंडी) का दण्ड। यद्यपि दण्ड पुरुष से भिन्न है, फिर भी वह अन्य पुरुष से उसे पृथक् करता है, अतः वह अनात्मभूत लक्षण हुआ। राजवार्तिक में भी इन भेदों का स्पष्टीकरण इसी प्रकार किया है - ‘अग्नि की उष्णता आत्मभूत लक्षण है और देवदत्त का दण्ड अनात्मभूत लक्षण है।" आत्मभूत लक्षण वस्तु का स्वरूप होने से वास्तविक लक्षण है; त्रिकाल वस्तु की पहिचान उससे ही की जा सकता है। अनात्मभूत लक्षण संयोग की अपेक्षा से बनाया जाता है, अतः वह संयोगवर्ती वस्तु की संयोगरहित अन्य वस्तुओं से भिन्न पहिचान कराने का मात्र तत्कालीन बाह्य प्रयोजन सिद्ध करता है। त्रिकाली असंयोगी वस्तु का ( वस्तुस्वरूप) निर्णय करने के लिए आत्म भूत (निश्चय) लक्षण ही कार्यकारी है। असंयोगी आत्मतत्त्व का ज्ञान उससे ही हो सकता है। किसी भी वस्तु का लक्षण बनाते समय बहुत सावधानी रखने की आवश्यकता है, क्योकिं वही लक्षण आगे चलकर परीक्षा का आधार बनता है। यदि लक्षण सदोष हो तो वह परीक्षा की कसौटी को सहन नहीं कर सकेगा और गलत सिद्ध हो जावेगा। शंकाकार - तो लक्षण सदोष भी होते हैं ? प्रवचनकार - लक्षण तो निर्दोष लक्षण को ही कहते हैं। जो लक्षण सदोष हों, उन्हें लक्षणाभास कहा जाता है। लक्षणाभासों में तीन प्रकार के दोष पाये जाते हैं - (१) अव्याप्ति (२) अतिव्याप्ति और (३) असम्भव दोष। १ “तत्रात्मभूतमग्नेरौष्ण्यमनात्मभूतं देवदत्तस्य दण्डः।” - न्यायदीपिका : वीर सेवा मंदिर, सरसावा , पृष्ठ ६ १६ Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates लक्षण के एकदेश में लक्षण के रहने को अव्याप्ति दोष कहते हैं। जैसे - गाय का लक्षण सांवलापन या पशु का लक्षण सींग कहना। सांवलापन सभी गायों में नहीं पाया जाता है, इसी प्रमाण सींग भी सभी पशुओं के नहीं पाये जाते हैं; अतः ये दोनों लक्षण अव्याप्ति दोष से युक्त हैं। शंकाकार - यदि गाय का लक्षण सींग मानें तो............? प्रवचनकार - तो फिर वह लक्षण प्रतिव्याप्ति दोष से युक्त हो जावेगा; क्योंकि जो लक्षण लक्ष्य और अलक्ष्य दोनों में रहे, उसे अतिव्याप्ति दोष से युक्त कहते हैं। जिज्ञासु - यह अलक्ष्य क्या है ? प्रवचनकार - लक्ष्य के अतिरिक्त दूसरे पदार्थों को अलक्ष्य कहते हैं। यद्यपि सब गायों के सींग पाये जाते हैं, किन्तु सींग गायों के अतिरिक्त अन्य पशुओं के भी तो पाये हैं। यहाँ 'गाय' लक्ष्य है और 'गाय को छोड़कर अन्य पशु' अलक्ष्य है, तथा दिया गया लक्षण ‘सींगों का होना' लक्ष्य ‘गायों' और अलक्ष्य ‘गायों के अतिरिक्त अन्य पशुओं' में भी पाया जाता है। अतः यह लक्षण प्रतिव्याप्ति दोष से युक्त है। लक्षण ऐसा होना चाहिये जो पुरे लक्ष्य में तो रहे, किन्तु अलक्ष्य में न रहे। पुरे लक्ष्य में व्याप्त न होने पर अव्याप्ति और लक्ष्य व अलक्ष्य में व्याप्त होने पर अतिव्याप्ति दोष पाता है। जिज्ञासु - और असंभव ? प्रवचनकार - लक्ष्य में लक्षण की असम्भवता की असंभव दोष कहते हैं। जैसे - ‘मनुष्य का लक्षण सींग। यहाँ मनुष्य लक्ष्य है और सींग का होना लक्षण कहा जाता है, अतः यह लक्षण असम्भव दोष से युक्त है। १ “लक्ष्यैकदेशवृत्यव्याप्तं, यथा-गो: शावलेयत्वं।" ___ -न्यायदीपिका : वीर सेवा मंदिर, सरसावा , पृष्ठ ७ २ “लक्ष्यालक्ष्यवृत्यतिव्याप्तं, यथा-तस्यैव पशुत्वं।” । -न्यायदीपिका : वीर सेवा मंदिर, सरसावा , पृष्ठ ७ ३ “बाधितलक्ष्यवृत्यसम्भवि, यथा नरस्य विषाणित्वम्।” - न्यायदीपिका : वीर सेवा मंदिर, सरसावा , पृष्ठ ७ १७ Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates मैं समझता हूँ अब तो लक्षण और लक्षणाभासों का स्वरूप तुम्हारी समझ में अच्छी तरह आ गया होगा । श्रोता - आ गया! अच्छी तरह आ गया !! प्रवचनकार - आ गया तो बताओ ' जिसमें केवलज्ञान हो, उसे जीव कहते हैं', क्या जीव का यह लक्षण सही है ? श्रोता - नहीं, क्योंकि यहाँ जीव 'लक्ष्य' है और केवलज्ञान ‘लक्षण’। लक्षण सम्पूर्ण लक्ष्य में रहना चाहिए, किन्तु केवलज्ञान सब जीवों में नहीं पाया जाता है, अत: यह लक्षण प्रव्याप्ति दोष से युक्त है । यदि इस लक्षण को सही मान ले तो मति श्रुतज्ञान वाले हम और आप सब अजीव ठहरेंगे । प्रवचनकार - तो मतिश्रुतज्ञान को जीव का लक्षण मान लो। श्रोता - नहीं ! क्योंकि ऐसा मानेंगे तो अरहंत और सिद्धों को अजीव मानना होगा, क्योंकि उनके मतिश्रुतज्ञान नहीं है । अत: इसमें भी अव्याप्ति दोष है। प्रवचनकार - तुमने ठीक कहा। अब कोई दूसरा श्रोता उत्तर देगा- जो प्रमूर्तिक हो उसे जीव कहते है, क्या यह ठीक है ? प्रवचनकार श्रोता - हाँ, क्योंकि प्रमूर्तिक तो सभी जीव हैं, अतः इसमें प्रव्याप्ति दोष नहीं हैं। यह लक्षण भी ठीक नहीं है । यद्यपि इसमें अव्याप्ति दोष नहीं है, किन्तु प्रतिव्याप्ति दोष है; क्योंकि जीवों के अतिरिक्त प्रकाशद्रव्य, धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य और कालद्रव्य भी तो अमूर्त्तिक हैं। उक्त लक्षण में 'जीव' है लक्ष्य और 'जीव के अतिरिक्त अन्य द्रव्य यानी अजीव द्रव्य ' हुए अलक्ष्य । यद्यपि सब जीव प्रमूर्त्तिक हैं, किन्तु जीव के अतिरिक्त प्राकाशादि द्रव्य भी तो प्रमूर्त्तिक हैं; मूर्त्तिक तो एकमात्र पुद्गल द्रव्य ही है, अतः उक्त लक्षण लक्ष्य के साथ अलक्ष्य में भी व्याप्त होने से अतिव्याप्ति दोष से युक्त है । यदि ' जो प्रमूर्तिक सो जीव' ऐसा माना जायगा तो फिर आकाशादि अन्य चार द्रव्यों को भी जीव मानना होगा। - प्रवचनकार शंकाकार - यदि आत्मा का लक्षण वर्ण-गंध-रस - स्पर्शवान माना जाय तो ? यह बात तुमने खूब कही ! क्या सो रहे थे ? यह तो असम्भव बात है। आत्मा में वर्णादिक का होना सम्भव ही नहीं है । इसमें तो असम्भव नाम का दोष आता है, ऐसे ही दोष को तो असम्भव दोष कहा जाता है। - १८ Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates शंकाकार - इन लक्षणों में तो अपने दोष बता दिये, तो फिर आप बताइये न कि जीव का सही लक्षण क्या होगा ? प्रवचनकार - जीव का सही लक्षण चेतना अर्थात् उपयोग है। तत्त्वार्थसूत्र में कहा है – 'उपयोगो लक्षणम्'। न इसमें अव्याप्ति दोष है क्योंकि चेतना ( उपयोग) सभी जीवों के पाया जाता है, और न अतिव्याप्ति दोष है, क्योंकि उपयोग जीव के अतिरिक्त किसी भी द्रव्य में नही पाया जाता है, और असंभव दोष तो हो ही नहीं सकता है, क्योंकि सब जीवों के उपयोग (चेतना) स्पष्ट देखने में आता है। इसी प्रकार प्रत्येक लक्षण पर घटित कर लेना चाहिये और नवीन लक्षण बनाते समय इन बातों का पूरा-पूरा ध्यान रखना चाहिए। श्रोता - एक-दो उदाहरण देकर और समझाये न ? प्रवचनकार - नहीं, समय हो गया है। मैंने एक उदाहरण अंतरंग यानी आत्मा का और एक उदाहरण बाह्य यानी गाय, पशु आदि का देकर समझा दिया है; अब तुम स्वयं अन्य पर घटित करना। यदि समझ मे न आवे तो आपस में चर्चा करना। फिर भी समझ मे न आवे तो कल फिर मैं विस्तार से अनेक उदाहरण देकर समझाऊँगा। ध्यान रखो समझ में समझने से आता है, समझाने से नही; अतः स्वयं समझने के लिए प्रयत्नशील व चिन्तनशील बनना चाहिए। प्रश्न - १. लक्षण किसे कहते हैं ? २. लक्षणाभासों में कितने प्रकार के दोष होते हैं ? नाम सहित लिखिए ? ३. निम्नलिखित में परस्पर अंतर बताइये : (क) प्रात्मभूत लक्षण और अनात्मभूत लक्षण। (ख) अव्याप्ति दोष और अतिव्याप्ति दोष। ४. निम्नलिखित कथनों की परिक्षा कीजिए : (क) जो अमूर्त्तिक हो उसे जीव कहते हैं। (ख) गाय को पशु कहते हैं। (ग) पशु को गाय कहते हैं। (घ) जो खट्टा हो उसे नीबु कहते हैं। (च) जिसमें स्पर्श, रस, गंध, वर्ण हो उसे पुद्गल कहते हैं। ५. अभिनव धर्मभूषण यति के व्यक्तित्व पर प्रकाश और कर्तृत्व पर प्रकाश डालिए? Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates पाठ ४ पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएँ कविवर पं. बनारसीदास ( व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व) अध्यात्म और काव्य दोनों क्षेत्रों में सर्वोच्च प्रतिष्ठा प्राप्त पण्डित बनारसीदास सत्रहवीं शताब्दी के रससिद्ध कवि और आत्मानुभवी विद्वान् थे। आपका जन्म श्रीमाल वंश में जौनपुर निवासी लाला खरगसेन के यहाँ सं. १६४३ में माघ सुदी एकादशी, रविवार को हुआ था। उस समय इनका नाम विक्रमजीत रखा गया था, परन्तु बनारस की यात्रा के समय पार्श्वनाथ की जन्मभूमि वाराणसी के नाम पर इनका नाम बनारसीदास रखा गया। बनारसीदास के कोई भाई न था, पर बहिनें दो थीं। आपने अपने जीवन में बहुत ही उतार-चढ़ाव देखे थे। आर्थिक विषमता का सामना भी आपको बहुत बार करना पड़ा था तथा आपका पारिवारिक जीवन भी कोई अच्छा नहीं रहा। आपकी तीन शादियाँ हुई, ९ सन्तानें हुई - ७ पुत्र एवं दो पुत्रियाँ; पर एक भी जीवित नहीं रहीं। उन्होंने 'अर्धकथानक' में स्वयं लिखा है : कही पचावन बरस लौं, बनारसि की बात । तीनि बिवाहीं भारजा, सुता दोई सुत सात।। नौ बालक हुए मुए, रहे नारि-नर दोई । ज्यों तरुवर पतझार है, रहे दूंठ से होई ।। १. अर्द्ध कथानक : हिन्दी ग्रन्थ-रत्नाकर कार्यालय, बम्बई, पृष्ठ ११ २. वही, पृष्ठ ३२ ३. वही, पृष्ठ ७१ २० Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates एसी विषम स्थिति में भी आपका धैर्य भंग नहीं हुआ, क्योंकि वे प्रात्मानुभवी पुरुष थे। ___ कविवर पंडित बनारसीदास उस आध्यात्मिक क्रान्ति के जन्मदाता थे, जो तेरहपंथ के नाम से जानी जाती है और जिसने जिनमार्ग पर छाये भट्टारकवाद को उखाड़ फेका था तथा जो आगे चलकर आचार्यकल्प पंडित टोडरमल का संस्पर्श पाकर सारे उत्तर भारत में फैल गई थी। काव्यप्रतिभा तो आपको जन्म से ही प्राप्त थी। १४ वर्ष की उम्र में आप उच्च कोटि की कविता करने लगे थे, पर प्रारम्भिक जीवन में श्रृंगारिक कविताओं में मग्न रहे। इनकी सर्वप्रथम कृति 'नव रस' १४ वर्ष की उम्र में तैयार हो गई थी, जिसमें अधिकांश श्रृंगार रस ही का वर्णन था। यह श्रृंगार रस की एक उत्कृष्ट कृति थी, जिसे विवेक जागृत होने पर कवि ने गोमती नदी में बहा दिया। इसके पश्चात् आपका जीवन अध्यात्ममय हो गया और उसके बाद की रचित चार रचनायें प्राप्त है - नाटक समयसार, बनारसी विलास, नाममाला और अर्द्धकथानक। 'अर्धकथानक' हिन्दी भाषा का प्रथम आत्म-चरित्र है जो कि अपने में एक प्रौढ़तम कृति है। इसमें कवि का ५५ वर्ष का जीवन पाइने के रूप में चित्रित है। विविधताओं से युक्त आपके जीवन से परिचित होने के लिए इसे अवश्य पढ़ना चाहिए। ___ 'बनारसी विलास' कवि की अनेक रचनाओं का संग्रह-ग्रन्थ है और 'नाममाला' कोष-काव्य है। 'नाटक समयसार' अमृतचंद्राचार्य के कलशों का एक तरह से पद्यानुवाद है, किन्तु कवि की मौलिक सूझबूझ के कारण इसके अध्ययन में स्वतंत्र कृतिसा आनन्द पाता है। यह ग्रंथराज अध्यात्मरस से सराबोर है। यह पाठ इसी नाटक समयसार के चतुर्दश गुणस्थानाधिकार के आधार पर लिखा गया है। विशेष अध्ययन के लिए मूलग्रन्थ का अध्ययन करना चाहिए। कवि अपनी प्रात्मा-साधना और काव्य- साधना दोनों में ही बेजोड़ हैं। २१ Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक और उसकी ग्यारह प्रतिमाएँ प्राचार्य उमास्वामी का वाक्य हैं – 'सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्ग:'- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र इन तीनों की एकता ही मोक्षमार्ग है। सम्यग्दर्शन प्राप्त जीव की श्रद्धा (प्रतीति तो सम्यक् हो गई, तदनुसार ज्ञान भी सम्यक हो गया तथा स्वरूप में प्रांशिक स्थिरता प्रगट हो जाने से मोक्षमार्ग का आरंभ भी हो गया है, किन्तु मात्र उतनी ही स्वरूपस्थिरता चारित्र संज्ञा प्राप्त नहीं करती, इस कारण उस जीव को चतुर्थ गुणस्थानवी अव्रती श्रावक कहा गया है। उपरोक्त चतुर्थ गुणस्थानवर्ती श्रावक विशेष पुरुषार्थपूर्वक स्वरूपस्थिरता (लीनता) बढ़ाकर पंचम गुणस्थान प्राप्त करता है। वह स्वरूपस्थिरता ही देशचारित्र है और वही पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक है। इस प्रकार जो स्वरूपस्थिरता (वीतरागता) की वृद्धि होती है और रागांश घटते हैं, उसे निश्चय प्रतिमा (निश्चय देशचारित्र) कहते हैं। उस यथोचित स्वरूपस्थिरतारूप निश्चय प्रतिमा के साथ जो कषाय मंदतारूप भाव रहते हैं, वह व्यवहार प्रतिमा अर्थात् व्यवहार देशचारित्र है। उसके साथ ही तदनुकूल बाह्य प्रवृत्ति होती है, वह यथार्थ में तो व्यवहार प्रतिमा भी नहीं है; लेकिन उपरोक्त कषाय मंदता के साथ तदनुकूल ही बाह्य प्रवृत्ति होती है, अतः उसको भी व्यवहार से प्रतिमा कहा जाता है। निज त्रिकाल ज्ञायक स्वभाव के अनुभव एवं लीनता बिना अकेली कषायों की मंदता व तदनुकूल बाह्य क्रिया प्रतिमा नहीं है; अतः जिसको पंचम गुणस्थान नहीं हो, उसको यथार्थ प्रतिमा नहीं हो सकती। सम्यग्दर्शनपूर्वक आत्मा के ज्ञायक स्वरूप में पंचम गुणस्थान योग्य स्थिरता ही यथार्थ देशचारित्र है और वही निश्चय से प्रतिमा हैं, वह आत्मानुभव के बिना संभव नही हैं। __ अविरत सम्यग्दृष्टि (चतुर्थ गुणस्थानवर्ती) श्रावक का स्वरूप पं. बनारसीदास ने इस प्रकार लिखा है: सत्य प्रतीति अवस्था जाकी, दिन-दिन रीति गहै समता की। छिन-छिन करै सत्य को साकौ, समकित नाम कहावै ताकौ।। १ नाटक समयसार : बनारसीदास , चतुर्दश गुणस्थानाधिकार, छंद २७ २२ Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates जिसकी प्रतीति (श्रद्धा) में आत्मा का सही स्वरूप आ गया हो, जिसको सत्य स्वरूप की प्रसिद्धि क्षण-क्षण बढ़ रही हो व दिन प्रतिदिन समताभाव वृद्धिंगत हो रहा हो, वह अविरत सम्यग्द्दष्टि है। उपरोक्त अनुभूति की नित्य वृद्धिंगत अप्रत्याख्यानावरण कषाय के अभावरूप अवस्था ही पंचम गुणस्थान है। चतुर्थ गुणस्थानवर्ती श्रावक को अपने आत्मा के प्रानन्द का साक्षात् निर्विकल्प अनुभव तो हो गया है, लेकिन लीन होने का पुरुषार्थ मन्द होने से वह अनुभव जल्दी-जल्दी नहीं आता एवं बहुत थोड़े काल ही ठहरता है तथा इस अवस्था में अव्रत के भाव ही रहते हैं, व्रत परिणाम नहीं हो पाते। किन्तु पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक को अप्रत्याख्यानरूपी प्रचारित्रभाव का यानी कषायों का स्वरूप - रमणता के तीव्र पुरुषार्थ द्वारा प्रभाव कर देने से अनुभव भी जल्दी-जल्दी आने लगता है एवं स्थिरता का काल भी बढ़ जाता है तथा परिणति में वीतरागता भी बढ़ जाती है। यही कारण है कि उस साधक जीव की संसार, देह एवं भोगों के प्रति सहज ही आसक्ति कम होने लगती है और उनके प्रति सहज उदासीनता आ जाती है। उसे उस भूमिका के अयोग्य अशुभ भावों को छोड़ने की प्रतिज्ञा लेने का भाव होता है और साथ ही साथ सहज ही ( बिना हठ के ) बाह्य आचरण में भी तदनुकूल परिवर्तन हो जाते हैं । कहा भी है: संयम अंश जग्यो जहाँ, भोग अरुचि परिणाम । उदय प्रतिज्ञा कौ भयौ, प्रतिमा ताकौ नाम ।। उपरोक्त साधक की अन्तरंग शुद्धि व बाह्य दशा किस-किस प्रतिमा में कितनी-कितनी बढ़ती जाती है, उसी को आचार्यों ने ग्यारह दर्जों (प्रतिमाओं ) में विभाजित करके समझाया है, एवं अन्तरंग शुद्ध दशा को ज्ञानधारा व साथ रहने वाले शुभाशुभ भावों को कर्मधारा कहा है। साधक जीव अपने स्वरूपस्थिरता की वृद्धि का पुरुषार्थ करता है। उसके अनुसार उसको वीतरागता की वृद्धि होती जाती है, साथ ही कुछ रागांश भी बिद्यमान रहते हैं, तदनुकूल बाह्य क्रियायें होती हैं; उन्हें व्यवहार चारित्र कहा जाता है। १ नाटक समयसार : बनारसीदास चतुर्दश गुणस्थानाधिकार, छंद ५८ २३ Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इस प्रकार के चरणानुयोग के कथन से साधक जीव अपनी भूमिका को समझकर अपने अन्दर उठने वाले राग यानी विकल्पों को पहिचानकर स्वरूपस्थिरता को माप लेता है । प्रमुक भूमिका ( प्रतिमा ) में जिन विकल्पों (राग भावों) का सद्भाव संभव है; उसप्रकार के राग के सद्भाव को देखकर विचलित ( प्राशंकित ) नहीं होता, वरन् उनका प्रभाव करने के लिए स्वरूपस्थिरता बढ़ाने का पुरुषार्थ करता रहता हैं; साथ ही चरणानुयोग में विहित उस भूमिका में दोष उत्पन्न करने वाला रागांश अंतर में उठता है, उसे भी जान लेता है कि अंतरंग स्थिरता में शिथिलता आ जाने से इस प्रकार का राग उत्पन्न हुआ है । यह शिथिलताजन्य विकल्प ही उन व्रतों के प्रतिचार हैं। वह स्वरूपस्थिरता बढ़ाकर उन्हें दूर करने का यत्न करता है। किसी मिथ्यादृष्टि जीव को स्वरूप की यथार्थ श्रद्धा, ज्ञान व रमणता नहीं हो और मात्र कषाय की मंदता एवं तदनुकूल बाहर की क्रियायें ( हठपूर्वक ) हों यह तो संभव है; पर यह संभव नहीं कि साधक जीव को स्वरूपानन्द की अनुभूति उस-उस प्रतिमा के अनुकूल हो गई हो और उसको उस-उस प्रतिमा में निषिद्ध विकल्प अंदर में उठते रहें तथा निषिद्ध बाह्य क्रियायें होती रहें। निश्चय-व्यवहार की यही सन्धि हैं। अब प्रत्येक प्रतिमा का संक्षेप में वर्णन अपेक्षित है :१. दर्शन प्रतिमा आठ मूलगुण संग्रहै, कुव्यसन क्रिया न कोइ । दर्शन गुण निर्मल करै, दर्शन प्रतिमा सोइ ।। अन्तर्मुख शुद्धपरिणतिपूर्वक कषायमंदता से प्रष्ट मूलगुण धारण एवं सप्त व्यसन त्यागरूप भावों का सहज ( हठ बिना ) होना ही दर्शन प्रतिमा है। मद्य, मांस, मधु और पांच उदुम्बर' फल खाने का राग उत्पन्न नहीं होना अर्थात् इन वस्तुनों का त्याग करना प्रष्ट मूलगुण धारण है। जुआ खेलना, मांस खाना, मदिरापान, वेश्यागमन, शिकार करना, चोरी करना व परस्त्री रमणता सात व्यसन हैं । इनका त्याग ही सप्त व्यसन त्याग है । निरतिचार १ नाटक समयसार : बनारसीदास, चतर्दश गुणस्थानाधिकार, छंद ५९ २ बडफल, पीपलफल, ऊमर, पाकरफल, कठूमर ( गूलर ) । २४ Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com — Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates सम्यग्दर्शन का होना ही दर्शनगण की निर्मलता है। सम्यक्त्वपूर्वक भूमिका योग्य शुद्ध परिणति निश्चय दर्शन-प्रतिमा है तथा उसके साथ सहज (हठ बिना) होने वाला कषाय-मंदतारूप भाव व बाह्याचार व्यवहार दर्शन प्रतिमा है। प्राचार्य समन्तभद्र के अनुसार दर्शन प्रतिमा में पांच अणुव्रत भी पा जाते हैं। उक्त प्रकरण को पंडित जयचंदजी छाबड़ा ने इस प्रकार स्पष्ट किया हैं: “कोई ग्रन्थ में ऐसे कह्या है जो पांच अणुव्रत पालै अर मद्य, मांस, मधु इनका त्याग करै – ऐसे आठ मूलगुण हैं सो यामें विरोध नाहीं है, विवक्षा भेद है। पांच उदुम्बर फल अर तीन मकार का त्याग कहने से जिन वस्तुनि में साक्षात् त्रस दीखें ते सर्व ही वस्तु भक्षण नहीं करै, देवादिक निमित्त तथा औषधादिक निमित्त इत्यादि कारणतें दीखता त्रस जीवनि का घात न करै - ऐसा आशय है सो यामें तो अहिंसाणुव्रत आया पर सात व्यसन के त्याग में झुठ का, अर चोरी का, अर परस्त्री का ग्रहण नाहीं। यामें प्रति लोभ का त्यागतें परिग्रह का घटावना आया- ऐसें पांच अणुव्रत आवें हैं। इनके अतिचार टलै नाहीं तातें अणुव्रती नाम न पावे। ऐसें दर्शन प्रतिमा का धारक भी अणुव्रती है, तातें देशविरत सागार संयमाचरण चारित्र में याकू भी गिन्या है।" २. व्रत प्रतिमा पाँच अणुव्रत आदरै, तीन गुणव्रत पाल । शिक्षाव्रत चारों धरै, यह प्रतिमा चाल ।। पहली प्रतिमा में प्राप्त वीतरागता एवं शुद्धि को दूसरी प्रतिमाधारी श्रावक बढ़ता रहता है तथा उसको निम्न कोटि के रागभाव नहीं होते, इसलिए उनके त्याग की प्रतिमा करता है। इस प्रतिमा के योग्य शुद्ध परिणति निश्चय प्रतिमा है व बारह देशव्रत के कषायमंदतारूप भाव व्यवहार प्रतिमा है। १ रत्नकरण्ड श्रावकाचार : प्रा. समन्तभद्र, श्लोक ६६ २ अष्टपाहुड़ टीका : पं. जयचंदजी, चारित्रापाहुड, गाथा २३ ३ नाटक समयसार : बनारसीदास, चतुर्दश गुणस्थानाधिकार, छंद ६० ४ बारह व्रतों का विस्तृत विवेचन वीतराग-विज्ञान पाठमाला भाग ३ के पाठ ६ में किया जा चुका है। २५ Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates ३. सामायिक प्रतिमा द्रव्य भाव विधि संजुगत, हिये प्रतिज्ञा टेक । तजि ममता समता गहै, अन्तर्मुहूरत एक ।। जो अरि मित्र समान विचारै, प्रारत रौद्र कुध्यान निवारै । संयम सहित भावना भावै, सो सामायिकवंत कहावै ।। जो दूसरी प्रतिमा की अपेक्षा ग्रात्मा में विशेष लीनता बढ़ जाने के कारण दिवस में ३ बार एक अन्तर्मुहूर्त तक प्रतिज्ञापूर्वक सर्व सावद्ययोग का त्याग करके शास्त्रविहित द्रव्य व भाव सहित अपने ज्ञायकस्वभाव के आश्रयपूर्वक ममता को त्यागकर समता धारण करे अर्थात् समता का अभ्यास करे, शत्रु और मित्र दोनों को समान विचारे, आर्त व रौद्र ध्यान का अभाव करे, तथा अपने परिणामों को आत्मा में संयमन करने का अभ्यास करे, वह तीसरी सामायिक प्रतिमाधारी श्रावक है। इस प्रतिमाधारी श्रावक को आत्मानंद में लीनता ( शुद्ध परिणति ) बढ़ जाने के कारण दूसरी प्रतिमा की अपेक्षा बाह्य में आसक्ति भाव कम हो जाते हैं। मात्र अन्तर्मुहूर्त एकान्त में बैठकर पाठ पढ़ लेने आदि से सामायिक नहीं हो जाती है वरन् ऊपर लिखे अनुसार ज्ञायकस्वभाव की रुचि एवं लीनतापूर्वक साम्यभाव का अभ्यास करना ही सच्ची सामायिक है । ४. प्रोषधोपवास प्रतिमा प्रथमहिं सामायिक दशा, चार पहरलौं होय । अथवा आठ पहर रहे, प्रोषध प्रतिमा सोय ।। २ जब सामायिक की दशा कम से कम ४ प्रहर तक अर्थात् १२ घंटे तक तथा विशेष में ८ प्रहर अर्थात् २४ घंटे तक रहे, उसको प्रोषध प्रतिमा कहते हैं। प्रोषध प्रतिमाधारी श्रावक ज्ञायकस्वभाव में श्रद्धा - ज्ञानपूर्वक लीनता पूर्वापेक्षा बढ़ जाने से कम से कम मास में ४ बार हर अष्ठमी व चतुर्दशी को आहार आदि सर्व सावद्ययोग का त्याग करता है । उसे संसार, शरीर और भोगों से आसक्ति घट जाती है, अतः आहार आदि का त्याग करके उपवास की प्रतिज्ञा लेता है; वह प्रोषध प्रतिमाधारी श्रावक है । १ नाटक समयसार : बनारसीदास चतुर्दश गुणस्थानाधिकार, छंद ६१–६२ २ वही, छंद ६३ २६ Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates मास में ४ बार उपवास कर लेने मात्र से ही चौथी प्रतिमाधारी श्रावक नहीं हो जाता तथा केवल भोजन नहीं करने का नाम उपवास नहीं है। क्योंकि : कषायविषयाहारत्यागो यत्र विधीयते । उपवासः स विज्ञेयः शेषं लंघनकं विदुः ।। जहाँ कषाय, विषय, आहार तीनों का त्याग हो वह उपवास है, शेष सब लंघन है। ५. सचित्तत्याग प्रतिमा जो सचित्त भोजन तजै, पीवै प्रासुक नीर । सो सचित्त त्यागी पुरुष, पंच प्रतिज्ञा गीर ।।२ पांचवीं प्रतिमा वाले साधक की आत्मलीनता चौथी प्रतिमा से भी अधिक होती हैं, अतः आसक्तिभाव भी कम हो जाता है। शरीर की स्थिति के लिए भोजन को लेने का भाव आता है, लेकिन सचित भोजन-पान करने का विकल्प नहीं उठता; अतः यह सचित्त भोजन त्याग कर देता है और प्रासुक पानी काम में लेता है। पाँचवी प्रतिमाधारक श्रावक की जो प्रांतरिक शुद्धि है, वह निश्चय प्रतिमा है और मंद कषायरूप शुभ भाव तथा सचित्त भोजन-पान का त्याग व्यवहार प्रतिमा हैं। जिसमें उगने की योग्यता हो - ऐसे अन्न एवं हरी वनस्पति को सचित्त कहते हैं। ३ ६. दिवामैथुनत्याग प्रतिमा जो दिन ब्रह्मचर्य व्रत पालै, तिथि आये निशिदिवस संभालै। गहि नव वाड़ करै व्रत रक्षा, सो षट् प्रतिमा श्रावक प्रख्या।। १ मोक्षमार्ग प्रकाशक : पण्डित टोडरमल , पृष्ठ २३१ २ नाटक समयसार : बनारसीदास, चतुर्दश गुणस्थानाधिकार; छंद ६४ ३ रत्नकरण्डक श्रावकाचार : प्राचार्य समन्तभद्र, श्लोक १४१ ४ नव वाड़ :- १. स्त्रीयों के समागम में न रहना, २. रागभरी दृष्टि से न देखना, ३. परोक्ष में (छुपकर) संभाषण, पत्राचार आदि न करना, ४. पूर्व में भोगे भोगों का स्मरण नहीं करना, ५. कामोत्पादक गरिष्ठ भोजन नहीं करना, ६. कामोत्पादक श्रृंगार नहीं करना, ७. स्त्रीयों के आसन, पलंग आदि पर नहीं सोना, न बैठना, ८. कामोत्पादक कथा, गीत आदि नहीं सुनना, ९. भूख से अधिक भोजन नहीं करना। नाटक समयसार : बनारसीदास, चतुर्दश गुणस्थानाधिकार, छंद ६५ २७ Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इस प्रतिमा के योग्य यथोचित शुद्धि, वह निश्चय प्रतिमा है तथा त्यागरूप शुभ भाव, वह व्यवहार प्रतिमा है। साधक जीव ने दूसरी प्रतिमा में स्वस्त्री संतोषव्रत तो लिया था, लेकिन अब स्वरूपस्थिरता उसकी अपेक्षा बढ़ जाने से आसक्ति भी घट गई है, अतः छठवीं प्रतिमाधारी श्रावक नव वाड़ सहित हमेशा दिवस के समय एवं अष्टमी, चतुर्दशी आदि तिथि पर्व के दिन रात में भी ब्रह्मचर्य व्रत को पालता है और ऐसे अशुभ भाव नही उठने देने की प्रतिज्ञा करता है। प्राचार्य समन्तभद्र ने छठवीं प्रतिमा को रात्रिभुक्ति त्याग प्रतिमा भी कहा है। वैसे तो रात्रि भोजन का साधारण श्रावक को ही त्याग होता है; लेकिन इस प्रतिमा में कृत, कारित, अनुमोदनापूर्वक सभी प्रकार के आहारों का त्याग हो जाता है। ७. ब्रह्मचर्य प्रतिमा जो नव वाड़ि सहित विधि साथै, निशदिन ब्रह्मचर्य आराधै। सो सप्तम प्रतिमाधर ज्ञाता, शील शिरोमणि जगत विख्याता।।२ सातवी प्रतिमाधारी श्रावक की स्वरूपानंद में विशेष लीनता (शुद्ध परिणति) बढ़ जाने से आसक्ति भाव और भी घट जाता है, अत: हमेशा के लिए दिन व रात में अर्थात् पूर्ण रूप से नव वाड़ सहित ब्रह्मचर्य व्रत पालता है और उपरोक्त प्रकार से भाव नहीं होने देने की प्रतिज्ञा लेता है, अंतः उसकी प्रवृत्ति भी तदनुकूल ही होती है। ऐसे श्रावक को शील-शिरोमणि कहा जाता है। ८. प्रारम्भत्याग प्रतिमा जो विवेक विधि प्रादरै, करै न पापारम्भ। सो अष्टम प्रतिमा धनी, कुगति विजय रणथम्भ।। पाठवीं प्रतिमाधारी श्रावक की यथोचित शुद्धि निश्चय प्रतिमा है। संसार, देह, भोगों के प्रति उदासीनता व राग अल्प हो जाने के कारण उठने वाले विकल्प भी मर्यादित हो जाते हैं व बाह्यारंभ का त्याग व्यवहार प्रतिमा है। पाठवी प्रतिमाधारी श्रावक स्वरूपस्थिरतारूप धर्माचरण में विशेष सावधानी १ रत्नकरण्ड श्रावकाचार : आचार्य समन्तभद्र , श्लोक १४२ २ नाटक समयसार : बनारसीदास , चतुर्दश गुणस्थानाधिकार, छंद ६६ ३ वही, छंद ६८ २८ Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates रखता हुअा असि, मसि, कृषि, वाणिज्य आदि पापारंभ करने के विकल्पों का त्याग कर देने से सभी प्रकार के व्यापार का त्याग कर देता है। ९. परिग्रहत्याग प्रतिमा जो दशधा परिग्रह को त्यागी, सुख संतोष सहित वैरागी। समरस संचित किंचित ग्राही, सो श्रावक ना प्रतिमा वाही।।' नवमी प्रतिमाधारी श्रावक की शुद्धि और भी बढ़ जाती है, वह निश्चय परिग्रहत्याग प्रतिमा है। उसके साथ कषाय मंद हो जाने से प्रति आवश्यक सीमित वस्तुएँ रखकर बाकी सभी (दस) प्रकार के परिग्रहत्याग करने का शुभ भाव व बाह्य परिग्रहत्याग, व्यवहार परिग्रहत्याग प्रतिमा है। इस प्रतिमाधारी का जीवन वैराग्यमय, संतोषी एवं साम्यभावधारी हो जाता है। १०. अनुमतित्याग प्रतिमा पर कौं पापारम्भ को, जो न देइ उपदेश। सो दशमी प्रतिमा, सहित श्रावक विगत कलेश।। इस दशमी प्रतिमाधारी श्रावक की शुद्धि पहले से भी बढ़ गई है, वह शुद्ध परिणति निश्चय प्रतिमा है। उसकी सहज (बिना हठ के) उदासीनता अर्थात् राग की मंदता इतनी बढ़ गई होती है कि अपने कुटुम्बीजनों एवं हितैषियों को भी किसी प्रकार के प्रारम्भ ( व्यापार, शादी, विवाह आदि) के सम्बन्ध में सलाह, मशविरा, अनुमति आदि नहीं देता है, यह व्यवहार प्रतिमा है। इस श्रावक को उत्तम श्रावक कहा गया है। ११. उद्दिष्टत्याग प्रतिमा जो सुछंद वरते तज डेरा, मठ मंडप में करै वसेरा। उचित आहार उदंड विहारी, सो एकादश प्रतिमाधारी।। ग्यारहवीं प्रतिमा श्रावक का सर्वोत्कृष्ट अंतिम दर्जा है। ये श्रावक दो प्रकार के होते हैं - क्षुल्लक तथा ऐलक। इस प्रतिमा की उत्कृष्ट दशा ऐलक होती है। इसके आगे मुनिदशा हो जाती है। १ नाटक समयसारः बनारसीदास, चतुर्दश गुणस्थानाधिकार, छंद ६९ २ वही, छंद ७० ३ वही, छंद ७१ २९ Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इस प्रतिमा वाले श्रावक की परिणति में वीतरागता बहुत बढ़ गई होती है व निर्विकल्प दशा भी जल्दी-जल्दी आती है और अधिक काल ठहरती है। उनकी यह अंतरंग शुद्ध परिणति निश्चय उद्दिष्टत्याग प्रतिमा है तथा इसके साथ होने वाले कषाय मंदतारूप बर्हिमुख शुभ भाव व तद्नुसार बाह्य क्रिया व्यवहार उद्दिष्टत्याग प्रतिमा है। ऐसी दशा में पहुंचने वाले श्रावक की संसार, देह आदि से उदासीनता बढ़ जाती है। इस प्रतिमा के धारक श्रावक मुनि के समान नवकोटिपूर्वक उद्दिष्ट आहार' के त्यागी व घर कुटुम्ब आदि से अलग होकर स्वच्छंद विहारी होते हैं। ऐलक दशा में मात्र लंगोटी एवं पिच्छि-कमण्डलु के अतिरिक्त समस्त बाह्य परिग्रह का त्याग हो जाता है। क्षुल्लक दशा में अनासक्ति भाव ऐलक के बराबर नहीं हो पाते, अतः उनकी आहार-विहार की क्रियायें ऐलक के समान होने पर भी लंगोटी के अलावा प्रोढ़ने के लिए खण्ड-वस्त्र (चादर) तथा पिच्छि के स्थान पर वस्त्र रखने का एवं केशलोंच के बजाय हजामत बनाने का तथा पात्र में भोजन करने का राग रह जाता है। इस प्रतिमा के धारक श्रावक नियम से गृहविरत ही होते है। जिस प्रकार मुनि को अन्तर्मुहूर्त के अंदर अंदर निर्विकल्प आनन्द का अनुभव तथा निरंतर वीतरागता वर्तती रहती है, वह भावलिंग है और उसके साथ होने वाला २८ मुलगुण आदि का शुभ विकल्प द्रव्यलिंग है और तदनुकूल क्रिया को भी द्रव्यलिंग कहा जाता हैं, उसी प्रकार पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक , की जिसमें कभी-कभी स्वरूपानंद का निर्विकल्प अनुभव हो जाता है - ऐसी निरंतर वर्तती हुई यथोचित वीतरागता, वह भाव प्रतिमा अर्थात् निश्चय प्रतिमा है एवं तद्-तद् प्रतिमा के अनुकूल शास्त्र विहित कषाय मंदतारूप भाव द्रव्य प्रतिमा अर्थात् व्यवहार प्रतिमा है। तदनुकूल बाहर की क्रियाओं का व्यवहार प्रतिमा के साथ निमित्त१ मुनि, ऐलक व क्षुल्लक के निमित्त बनाई गई वस्तुएं उद्दिष्ट की श्रेणी में आती हैं। वैसे उद्दिष्ट का शाब्दिक अर्थ उद्देश्य होता है। २ सातवी प्रतिमा से दशवी प्रतिमाधारी श्रावक गृहविरत व गृहनिरत दोनों प्रकार के होते हैं। ३० Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates नैमित्तिक सम्बन्ध होने से उन क्रियाओं को भी व्यवहार प्रतिमा कहा जाता है। जिस जीव को अकेली द्रव्य प्रतिमा हो और उसको वह सच्ची प्रतिमारूप चारित्र दशा मानता हो तो उसकी विपरीत मान्यता के कारण मिथ्यात्व का बंध होगा, मिथ्यात्व के बंध के साथ कषाय की मंदता के अनुसार पुण्यबंध जरूर होगा, उससे स्वर्गादिक की प्राप्ति भी होगी; किन्तु वह संसार का अंत नहीं ला सकता। पंचम गुणस्थान में ११ प्रतिमाएँ ग्रहण करने का उपदेश है सो प्रारंभ से उत्तरोत्तर अंगीकार करनी चाहिए। नीचे की प्रतिमानों की दशा जो ग्रहण की थी; वह आगे की प्रतिमाओं में छटती नहीं है, वृद्धि को ही प्राप्त होती है। पहले से छठवीं प्रतिमा तक धारण करने वाले जघन्य व्रती श्रावक, सातवीं से नौवीं प्रतिमा तक धारण करने वाले मध्यम व्रती श्रावक एवं दशवीं व ग्यारहवीं प्रतिमाधारी उत्कृष्ट व्रती श्रावक कहलाते हैं। प्रश्न - १. निम्नलिखित की परिभाषा लिखिए : प्रतिमा, व्रत प्रतिमा, दर्शन प्रतिमा, उद्दिष्टत्याग प्रतिमा, अनुमतित्याग प्रतिमा। २. निम्नलिखित मे परस्पर अन्तर स्पष्ट कीजिए : (क) निश्चय प्रतिमा और व्यवहार प्रतिमा (ख) ब्रह्मचर्याणुव्रत और ब्रह्मचर्य प्रतिमा (ग) क्षुल्लक और ऐलक (घ) परिग्रहत्याग व्रत और परिग्रहत्याग प्रतिमा ३. कविवर पंडित बनारसीदास के व्यक्तित्व और कर्तृत्व पर प्रकाश डालिए। ३१ Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates पाठ ५१ सुख क्या है ? यह तो सर्वमान्य तथ्य है कि सभी जीव सुख चाहते हैं और दुःख से डरते हैं। पर प्रश्न तो यह है कि वास्तविक सुख है क्या ? वस्तुतः सुख कहते किसे हैं ? सुख का वास्तविक स्वरूप समझे बिना मात्र सुख चाहने का कोई अर्थ नहीं। प्रायः सामान्य जन भोग-सामग्री को सुख-सामग्री मानते है और उसकी प्राप्ति को सुख की प्राप्ति समझते है, अतः उनका प्रयत्न भी उसी पोर रहता है। उनकी दृष्टि में सुख कैसे प्राप्त किया जाय का अर्थ होता है 'भोग-सामग्री कैसे प्राप्त की जावे ?' उनके हृदय में ‘सुख क्या है ?' इस तरह का प्रश्न ही नहीं उठता, क्योंकि उनका अंतर्मन यह मान बैठा है कि भोगमय जीवन ही सुखमय जीवन है। अतः जब-जब सुख-समृद्धि की चर्चा आती है तो यही कहा जाता है कि प्रेम से रहो, मेहनत करो, अधिक अन्न उपजाम्रो , प्रौद्योगिक और वैज्ञानिक उन्नति करो - इससे देश में समृद्धि आवेगी और सभी सुखी हो जावेंगे। आदर्शमय बातें कही जाती हैं कि एक दिन वह होगा जब प्रत्येक मानव के पास खाने के लिए पौष्टिक भोजन, पहिनने को ऋतुओं के अनुकूल उत्तम वस्त्र और रहने को वैज्ञानिक सुविधाओं से युक्त आधुनिक बंगला होगा; तब सभी सुखी हो जावेंगे। हम इस पर बहस नहीं करना चाहते हैं कि यह सब कुछ होगा या नहीं, पर हमारा प्रश्न तो यह है कि यह सब कुछ हो जाने पर भी क्या जीवन सुखी हो जावेगा ? यदि हाँ, तो जिनके पास यह सब कुछ है, वे तो आज भी सुखी होंगे? या जो देश इस समृद्धि की सीमा छु रहे हैं, वहाँ तो सभी सुखी और शांत होंगे? पर देखा यह जा रहा है कि सभी पाकुल-व्याकुल और अशांत है, भयाकुल और चिन्तातुर हैं, अतः ‘सुख क्या है ?' इस विषय पर गम्भीरता से सोचा जाना चाहिए। वास्तविक सुख क्या है और वह कहाँ है ?' इसका निर्णय किये बिना इस दिशा में सच्चा पुरुषार्थ नहीं किया जा सकता और न ही सच्चा सुख प्राप्त किया जा सकता है। ३२ Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates कुछ मनीषी इससे आगे बढ़ते है और कहते हैं - "भाई, वस्तु (भोगसामग्री) में सुख नहीं है, सुख-दुःख तो कल्पना में है। वे अपनी बात सिद्ध करने को उदाहरण भी देते हैं कि एक आदमी का मकान दो मंजिल का है, पर उसके दाहिनी ओर पाँच मंजिला मकान है तथा बायीं ओर एक झोंपड़ी है। जब वह दायीं ओर देखता है तो अपने को दुःखी अनुभव करता हैं और जब वह बायीं ओर देखता है तो सुखी; अतः सुख-दुःख भोग-सामग्री में न होकर कल्पना में है। वे मनीषी सलाह देते हैं कि यदि सुखी होना है तो अपने से कम भोग-सामग्री वालों की ओर देखो, सुखी हो जानोगे। यदि तुम्हारी दृष्टि अपने से अधिक वैभव वालों की ओर रही तो सदा दुःख का अनुभव करोंगे।” सुख तो कल्पना में है, सुख पाना हो तो झोंपड़ी की तरफ देखो, अपने से दीन-हीनों की तरह देखो, यह कहना असंगत है; क्योंकि दुखियों को देखकर तो लौकिक सज्जन भी दयार्द्र हो जाते हैं। दखियों को देखकर ऐसी कल्पना करके अपने को सुखी मानना कि मैं इनसे अच्छा हूँ, उनके दुख के प्रति अकरूण भाव तो है ही, साथ ही मान कषाय की पुष्टि में संतुष्टि की स्थिति भी है। इसे सुख कभी नही कहा जा सकता। सुख क्या झोंपडी में भरा है, जो उसकी ओर देखने से आ जावेगा ? जहाँ सुख है जब तक उसकी ओर दृष्टि नहीं जावेगी, तब तक सच्चा सुख प्राप्त नहीं होगा। सुखी होने का यह उपाय भी सही नही है, क्योंकि यहाँ ‘सुख क्या है?' इसे समझने का यत्न नहीं किया गया है, वरन् भोग जनित सुख को ही सुख मानकर सोचा गया है। ‘सुख कहाँ है ?' का उत्तर ‘कल्पना में हैं' दिया गया है। ‘सुख कल्पना में है' का अर्थ यदि यह लिया जाय कि सुख काल्पनिक है, वास्तविक नहीं - तो क्या यह माना जाय कि सुख की वास्तविक सत्ता है ही नहीं, पर यह बात संभवतः आपको भी स्वीकृत नहीं होगी। अतः स्पष्ट है कि भोग-प्राप्ति वाला सुख, जिसे इन्द्रिय-सुख कहते हैं-काल्पनिक है; तथा वास्तविक सुख इससे भिन्न है। वह सच्चा सुख क्या हैं ? मूल प्रश्न तो यह है। कुछ लोग कहते है कि तुम यह करो, वह करो, तुम्हारी मनोकामना पूरी होगी, तुम्हे इच्छित वस्तु की प्राप्त होगी और तुम सुखी हो जानोगे। ऐसा कहने वाले इच्छाओं की पूर्ति को ही सुख और इच्छाओं की पूर्ति न होने को ही दुःख मानते हैं। ३३ Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates एक तो इच्छाओं की पूर्ति संभव ही नही है। कारण कि अनन्त जीवों में प्रत्येक की इच्छाएँ अनन्त हैं और भोग सामग्री है सीमित; तथा एक इच्छा की पूर्ति होते ही तत्काल दूसरी नई इच्छा उत्पन्न हो जाती हैं। इस प्रकार कभी समाप्त न होने वाला इच्छाओं का प्रपातवत् प्रवाहक्रम चलता ही रहता है। अतः यह तो निश्चित है कि नित्य बदलती हुई नवीन इच्छाओं की पूर्ति कखी संभव नहीं है। अतः तुम्हारी मनोकामना पूर्ण होगी, और तुम सुखी हो जावोगे; ऐसी कल्पनाएँ मात्र मृग-मरीचिका ही सिद्ध होती हैं। न तो कभी सम्पूर्ण इच्छाएँ पूर्ण होने वाली हैं और न ही यह जीव इच्छाओं की पूर्ति से सुखी होने वाला है। वस्तुत: तो इच्छाओं की पूर्ति में सुख है ही नही, यह तो सिर का बोझ कन्धे पर रखकर सुख मानने जैसा है। यदि कोई कहे जितनी इच्छाएँ पूर्ण होंगी, उतना तो सुख होगा ही, पूरा न सही-यह बात भी ठीक नहीं है; कारण कि सच्चा सुख तो इच्छाओं के अभाव में है, इच्छाओं कि पूर्ति में नहीं; क्योंकि हम इच्छानों की कमी (आंशिक प्रभाव) में आकुलता की कमी प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं। अतः यह सहज ही अनुमान किया जा सकता है कि इच्छाओं के पूर्ण प्रभाव में पूर्ण सुख होगा ही। यदि यह कहा जाय कि इच्छा पूर्ण होने पर समाप्त हो जाती है, अतः उसे सुख कहना चाहिए-यह कहना भी गलत है; क्योंकि इच्छाओं के प्रभाव का अर्थ इच्छाओं की पूर्ति होना नहीं, वरन् इच्छाओं का उत्पन्न ही नहीं होना है। भोग-सामग्री से प्राप्त होने वाला सुख वास्तविक सुख है ही नहीं, वह तो दुःख का ही तारतम्यरूप भेद है। प्राकुलतामय होने से वह दुःख ही है। सुख का स्वभाव तो निराकुलता है और इन्द्रियसुख में निराकुलता पाई नहीं जाती है। जो इन्द्रियों द्वारा भोगने में आता है वह विषय सुख है। वह वस्तुतः दुःख का ही एक भेद है। उसका तो मात्र नाम ही सुख है। अतीन्द्रिय आनन्द इन्द्रियातीत होने से उसे इन्द्रियों द्वारा नहीं भोगा जा सकता। जैसे आत्मा अतीन्द्रिय होने से इन्द्रियों द्वारा प्राप्त नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार अतीन्द्रिय सुख आत्मामय होने से इन्द्रियों द्वारा प्राप्त नहीं किया जा सकता। __जो वस्तु जहाँ होती है, उसे वहाँ ही पाया जा सकता है। जो वस्तु जहाँ हो ही नहीं, जिसकी सत्ता की जहाँ संभावना ही न हो, उसे वहाँ कैसे पाया ३४ Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates जा सकता है? जैसे 'ज्ञान' प्रात्मा का एक गुण है, अतः ज्ञान की प्राप्ति चेतनात्मा में ही संभव है, जड़ में नहीं; उसी प्रकार 'सुख' भी आत्मा का एक गुण है, जड़ का नहीं। अतः सुख की प्राप्ति आत्मा में ही होगी, शरीरादि जड़ पदार्थों मे नहीं। जिस प्रकार यह आत्मा स्वयं को न जान कर अज्ञान ( मिथ्या ज्ञान) रूप परिणमित हो रहा है; -उसी प्रकार यह जीव स्वयंसुख की प्राशा से पर-पदार्थों की ओर ही प्रयत्नशील है व यही इसके दुःख का मूल कारण है। इसकी सुख की खोज की दिशा ही गलत है। दिशा गलत है, अतः दशा भी गलत ( दुखः रूप) होगी ही। सच्चा सुख पाने के लिए हमें परोन्मुखी दृष्टि छोड़कर स्वयं को (आत्मा को) देखना होगा, स्वयं को जानना होगा, क्योंकि अपना सुख अपनी आत्मा में है। आत्मा अनंत आनंद का कंद है, आनन्दमय है; अतः सुख चाहने वालों को आत्मोन्मुखी होना चाहिए। परोन्मुखी दृष्टि वाले को सच्चा सुख कभी प्राप्त नहीं हो सकता। सच्चा सुख तो आत्मा द्वारा अनुभव की वस्तु है; कहने की नहीं, दिखाने की भी नहीं। समस्त पर-पदार्थों से दृष्टि हटाकर अन्तर्मुख होकर अपने ज्ञानानन्द स्वभावी आत्मा में तन्मय होने पर ही वह प्राप्त किया जा सकता है। चूंकि आत्मा सुखमय है, अतः आत्मानुभूति ही सुखानुभूति है। जिस प्रकार बिना अनुभूति के आत्मा प्राप्त नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार बिना आत्मानुभूति के सच्चा सुख भी प्राप्त नहीं किया जा सकता। गहराई से विचार करने पर यह प्रतीत होता है कि प्रात्मा को सुख कहीं से प्राप्त नहीं करना है क्योंकि वह सुख से ही बना है, सुखमय ही है, सुख ही है। जो स्वयं सुखस्वरूप हो, उसे सुख क्या पाना ? सुख पाने की नहीं, भोगने की वस्तु है, अनुभव करने की चीज है। सुख के लिए तड़पना क्या ? सुख में तड़पन नहीं है, तड़पन मे सुख का प्रभाव है, तड़पन स्वयं दुःख है; तड़पन का प्रभाव ही सुख है। इसी प्रकार सुख को क्या चाहना ? चाह स्वयं दुखरूप है; चाह का प्रभाव ही सुख है। सुख क्या हैं ?,' ‘सुख कहाँ है ?', वह कैसे प्राप्त होगा?' इन सब प्रश्नों का एक ही उत्तर है, एक ही समाधान है; और वह है प्रात्मानुभूति। उस आत्मानुभूति को प्राप्त करने का प्रारम्भिक उपाय तत्त्वविचार है। पर ध्यान रहे वह प्रात्मानुभूति अपनी प्रारम्भिक भूमिका-तत्त्वविचार का भी अभाव करके उत्पन्न होती है। ‘में कौन हूँ ? ' 'आत्मा क्या है ?' और 'प्रात्मानुभूति कैसे प्राप्त होती है ? ' ये पृथक् विषय हैं; अतः इन पर पृथ्क से विवेचन अपेक्षित है। ३५ Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates पाठ ६ पंच भाव आचार्य गृद्धपिच्छ उमास्वामी ( व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व) तत्त्वार्थसूत्रकरिं, गृद्धपिच्छोपलक्षितम्। वन्दे गणीन्द्रसंजातमुमास्वामीमुनीश्वरम्।। ___ कम से कम लिखकर अधिक से अधिक प्रसिद्धि पाने वाले प्राचार्य गृद्धपिच्छ उमास्वामी के तत्त्वार्थसूत्र से जैन समाज जितना अधिक परिचित है, उनके जीवनपरिचय के सम्बन्ध में उतना ही अपरिचित है। ये कुन्दकुन्दाचार्य के पट्ट शिष्य थे तथा विक्रम की प्रथम शताब्दी के अन्तिम काल में तथा द्वितीय शताब्दी के पूर्वार्द्ध में भारत-भूमि को पवित्र कर रहे थे। आचार्य गृद्धपिच्छ उमास्वामी उन गौरवशाली आचार्यों में हैं, जिन्हें समग्र आचार्य परम्परा में पूर्ण प्रामाणिकता और सन्मान प्राप्त है। जो महत्त्व वैदिकों में गीता का, ईसाइयों में बाइबिल का और मुसलमानों में कुरान का माना जाता है, वही महत्त्व जैन परम्परा में गृद्धपिच्छ उमास्वामी के तत्त्वार्थसूत्र को प्राप्त है। इसका दूसरा नाम मोक्षशास्त्र भी है। यह संस्कृत भाषा का सर्वप्रथम जैन ग्रन्थ है। इस महान ग्रन्थ पर दिगम्बर व श्वेतांबर दोनों परम्परागों में संस्कृत व हिन्दी भाषाओं में अनेकानेक टीकायें व भाष्य लिखे गये हैं। दिगम्बर परम्परा में संस्कृत भाषा में पूज्यपाद आचार्य देवनन्दि की सर्वार्थसिद्धि, अकलंकदेव का तत्त्वार्थ राजवार्तिक और विद्यानन्दि का तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक सर्वाधिक प्रसिद्ध रचनाएँ हैं। आचार्य समन्तभद्र ने इसी ग्रन्थराज पर गंधहस्ति महाभाष्य नामक महाग्रन्थ लिखा था, जो कि अप्राप्त है, पर तत्सम्बन्धी उल्लेख प्राप्त हैं। श्रुतसागर सूरि की भी एक टीका संस्कृत भाषा में प्राप्त है। ३६ Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates हिन्दी भाषा के प्राचीन विद्वानों में पं. सदासुखदासजी कासलीवाल की अर्थप्रकाशिका टीका प्रसिद्ध है।आधुनिक विद्वानों में पं. फूलचंदजी सिद्धान्ताचार्य, पं. कैलाशचंदजी सिद्धान्ताचार्य, पं. पन्नालालजी साहित्याचार्य आदि अनेक विद्वानों द्वारा लिखी गई टीकाएँ उपलब्ध हैं। श्री रामजीभाई माणेकचंद दोशी, सोनगढ़ द्वारा लिखित ८१० पृष्ठों की एक विशाल टीका भी है। यह ग्रंथराज जैन समाज द्वारा संचालित सभी परीक्षा बोर्डों के पाठ्यक्रमों में निर्धारित है और सारे भारतवर्ष के जैन विद्यालयों में पढ़ाया जाता है। प्रस्तुत पाठ तत्त्वार्थसूत्र के द्वितीय अध्याय के आधार पर लिखा गया है। ३७ Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates पंच भाव प्रवचनकार - यह 'तत्त्वार्थसूत्र' अपरनाम 'मोक्षशास्त्र' नामक महाशास्त्र है। इसका दूसरा अध्याय चलता है। यहाँ जीव के असाधारण भावों का प्रकरण चल रहा है। आत्मा का हित चाहने वालों को प्रात्म-भावों की पहिचान ठीक तरह से करना चाहिये, क्योंकि आत्मा को पहिचाने बिना अनात्मा को भी नहीं पहिचाना जा सकता है और जो आत्मा-अनात्मा दोनों को भी नहीं जानता, उसका हित कैसे संभव है ? जीव के असाधारण भाव कितने व कौन-कौन हैं ? - इस प्रश्न का समाधान करते हुए प्राचार्य उमास्वामी लिखते हैं :'औपशमिकक्षायिकौ भावौ मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्त्वमौदयिक-पारिणामिकौ च।" औपशमिक, क्षायिक, मिश्र (क्षायोपशमिक), औदयिक और पारिणामिक - ये जीव के पाँच असाधारण भाव व निजतत्त्व हैं। जीव के सिवाय किसी अन्य द्रव्य में नहीं पाये जाते हैं। __इन भावों का विशेष विश्लेषण प्राचार्य अमृतचंद्र ने ‘पंचास्तिकाय संग्रह' की ५६ वीं गाथा की टीका में इस प्रकार किया हैं :___ “कर्मों का फलदानसामर्थ्यरूप से उद्भव सो 'उदय' है, अनुभव सो 'उपशम' है, उद्भव तथा अनुभव सो 'क्षयोपशम' है, अत्यन्त विश्लेष (वियोग) सो 'क्षय' है। द्रव्य का आत्मलाभ (अस्तित्व) जिसका हेतु है वह 'परिणाम' है। " वहाँ उदय से युक्त वह 'औदयिक' है, उपशम से युक्त वह 'औपशमिक' है, क्षयोपशम से युक्त वह ‘क्षायोपशमिक' है, क्षय से युक्त वह 'क्षायिक' है, परिणाम से युक्त वह ‘पारिणामिक' है।" कर्मोपाधि की चार प्रकार की दशा जिनका निमित्त है- ऐसे चार ( उदय, उपशम , क्षयोपशम और क्षय) भाव हैं। जिसमें कर्मोपाधिरूप निमित्त बिलकुल नहीं है, मात्र द्रव्यस्वभाव ही जिसका कारण है-ऐसा एक पारिणामिक भाव है। १ तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय २, सूत्र १ ३८ Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates जिज्ञासु समझाइये न ? प्रवचनकार - सुनो! मैं इन्हें पृथक्-पृथक् समझाता हूँ। समझने का यत्न करो, अवश्य समझ में आयेगा । अभी पूरी तरह समझ में आया नहीं, कृपया विस्तार से १. औपशमिक भाव (आत्मा की मुख्यता से ) आत्मा के स्वसन्मुख पुरुषार्थरूप शुद्ध परिणाम से जीव के श्रद्धा तथा चारित्र सम्बन्धी भावमल दब जाने रूप उपशामक भाव होता है, उसको औपशमिक भाव कहते हैं और उसी समय दर्शनमोहनीय तथा चारित्रमोहनीय कर्म का भी स्वयं फलदानसमर्थरूप से अनुद्भव होता है, उसको कर्म का उपशम कहते हैं । ( कर्म की मुख्यता से) दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय कर्म का फलदानसमर्थरूप से अनुभव होना, वह कर्म का उपशम है और ऐसे उपशम से युक्त जीव का भाव, वह औपशमिक भाव है। २. क्षायिक भाव आत्मा के स्वसन्मुख पुरुषार्थ से किसी गुण की अवस्था में अशुद्धता का सर्वथा क्षय होना अर्थात् पूर्ण शुद्ध अवस्था का प्रगट होना, सो क्षायिक भाव है। उस ही समय स्वयं कर्मावरण का सर्वथा नाश होना सो कर्म का क्षय है। ३. क्षायोपशमिक भाव ( आत्मा की मुख्यता से ) धर्मी जीव को स्वसन्मुख पुरुषार्थ से श्रद्धा और चारित्र की प्रांशिक शुद्ध अवस्था होती है, उसको जीव के श्रद्धा और चारित्र की अपेक्षा से क्षायोपशमिक भाव कहने में आता है और उसी समय दर्शनमोहनीय तथा चारित्रमोहनीय कर्मों का स्वयं फलदानसमर्थरूप से उद्भव तथा अनुद्भव होता है, उसको उस कर्म का क्षयोपशम कहते हैं। ( कर्म की मुख्यता से) दर्शनमोहनीय और चारिमोहनीय कर्मों का फलदानसमर्थरूप से उद्भव तथा अनुद्भव होता है, उसको उस कर्म का क्षयोपशम कहते हैं, और उससे युक्त जीव की श्रद्धा और चारित्र सम्बन्धी अवस्था होती है, उसको जीव के श्रद्धा और चारित्र का क्षायोपशमिक भाव कहने में आता है। पंचास्तिकाय संग्रह, गाथा ५६ १ ३९ Please inform us of any errors on rajesh@Atma Dharma.com Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates प्रात्मा के ज्ञान, दर्शन और वीर्य आदि के प्रांशिक विकास तथा आंशिक अविकास को ज्ञान, दर्शन, वीर्य आदि का क्षायोपशमिक भाव समझ लेना चाहिए। ये सभी छद्मस्थ जीवों के होते हैं। ४. औदयिक भाव ___ कर्मों के उदयकाल में आत्मा में विभावरूप परिणमन का होना औदयिक भाव है। ५. पारिणामिक भाव सहज स्वभाव, उत्पाद-व्ययनिरपेक्ष, ध्रुव, एकरूप रहनेवाला भाव पारिणामिक भाव है। इन भावों के क्रमशः दो, नौ, अठारह, इक्कीस और तीन होते हैं। औपशमिक भाव के औपशमिक सम्यक्त्व और औपशमिक चारित्र ये २ भेद हैं। क्षायिक भाव के केवलज्ञान, केवलदर्शन, क्षायिक दान, क्षायिक लाभ , क्षायिक भोग, क्षायिक उपभोग, क्षायिक वीर्य, क्षायिक सम्यक्त्व और क्षायिक चारित्र - इस प्रकार ९ भेद हैं। मिश्र (क्षायोपशमिक) भाव के मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान ये चार ज्ञान; कुमति, कुश्रुत, कुअवधि ये तीन अज्ञान; चक्षुदर्शन, प्रचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन ये तीन दर्शन; क्षायोपशमिक दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य ये पाँच लब्धियाँ; क्षायोपशमिक सम्यक्त्व, क्षायोपशमिक चारित्र और संयमासंयम - इस प्रकार कुल १८ भेद होते है। __ औदयिक भाव के २१ भेद हैं - नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य , देव - ये चार गति; क्रोध, मान, माया, लोभ – ये चार कषाय; स्त्रीवेद, पुंवेद, नपुंसक वेद ये तीन वेद; कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म, शुक्ल ये छह लेश्याये; मिथ्यादर्शन, अज्ञान, असंयम तथा प्रसिद्धत्व भाव। १ द्विनवाष्टादशैकविंशतित्रिभेदा यथाक्रमम् – तत्त्वार्थसूत्र , अ. २, सूत्र २ सम्यक्त्वचारित्रे - तत्त्वार्थसत्र. अ. २. सत्र ३ ३ ज्ञानदर्शनदानलाभभोगोपभोगवीर्याणिच – तत्त्वार्थसूत्र, अ. २, सूत्र ४ ४ ज्ञानाज्ञानदर्शनलब्धयश्चतुस्त्रित्रिपञ्चभेदाः सम्यक्त्वचारित्रसंयमासंयमाश्च । तत्त्वार्थसूत्र, अ. २, सूत्र ५ गतिकषायलिङ्गमिथ्यादर्शनाज्ञानासंयतासिद्धलेश्याश्चतुश्चतुस्त्र्येकैकैकैकषट् भेदाः- तत्त्वार्थसूत्र, अ. २, सूत्र ६ ४० Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates पारिणामिक भाव के ३ भेद होते हैं- जीवत्य, भव्यत्व और भव्यत्व । इस प्रकार कुल मिला कर जीव के असाधारण भावों के ५३ भेद होते हैं। जिज्ञासु - इनके जानने से क्या लाभ है व इनसे क्या सिद्ध होता हैं ? प्रवचनकार १. पारिणामिक भाव से यह सिद्ध होता है कि जीव अनादिअनन्त, एक, शुद्ध, चैतन्यस्वभावी है। २. औदयिक भाव का स्वरूप जानने से यह पता चलता है कि जीव अनादि-अनन्त, शुद्ध, चैतन्यस्वभावी होने पर भी उसकी अवस्था में विकार है, जड़ कर्म के साथ उसका अनादिकालीन सम्बन्ध है; तथा जब तक यह जीव अपने ज्ञातास्वभाव को स्वयं छोड़कर जड़ कर्म की ओर झुकाव करता है, तब तक विकार उत्पन्न होता रहता हैं; कर्म के कारण विकार नहीं होता है । - ३. क्षायोपशमिक भाव से यह पता चलता है कि जीव अनादि काल से विकार करता हुआ भी जड़ नहीं हो जाता। उसके ज्ञान, दर्शन वीर्य का आंशिक विकास सदा बना रहता है एवं सच्ची समझ के बाद वह जैसे-जैसे सत्य पुरुषार्थ को बढ़ाता है, वैसे-वैसे मोह अंशत दूर होता जाता है। ४. आत्मा का स्वरूप यथार्थतया समझकर जब जीव अपने पारिणामिक भाव का आश्रय लेता है, तब प्रदयिक भाव का दूर होना प्रारम्भ होता है और सर्व प्रथम श्रद्धा गुण का प्रदयिक भाव दूर होता है यह औपशमिक भाव बतलाता है 1 ५. अप्रतिहत पुरुषार्थ से पारिणामिक भाव का अच्छी तरह आश्रय बढ़ाने पर विकार का नाश होता है ऐसा क्षायिकभाव सिद्ध करता है । जिज्ञासु - क्या ये पाँचों भाव सभी जीवों के सदा पाये जाते हैं ? प्रवचनकार एक पारिणामिक भाव ही ऐसा है, जो सब जीवों के सदाकाल पाया जाता है। प्रौदयिक भाव समस्त संसारी जीवों के तो पाया जाता है किन्तु मुक्त जीवों के नहीं। इसी प्रकार क्षायोपशमिक भाव भी मुक्त तत्त्वार्थसूत्र, प्र. २, सूत्र ७ १ - जीवभव्याभव्यत्वानि च - ४१ Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates जीवों के तो होता ही नहीं, किन्तु संसारी जीवों में भी तेरहवें, चौदहवें गुणस्थान वालों के नहीं होता। जिज्ञासु - क्षायिक भाव तो मुक्त जीवों के पाया जाता है ? प्रवचनकार - हाँ! मुक्त जीवों के तो क्षायिक भाव पाया जाता है, किन्तु समस्त संसारी जीवों के नहीं। अभव्यों और मिथ्यादृष्टियों के तो क्षायिक भाव होने का प्रश्न ही नहीं। सम्यक्त्वी और चारित्रवंतों के भी क्षायिक सम्यक्त्व व क्षायिक चारित्रवान जीवों तथा अरहन्तों में ही पाया जाता है। औपशमिक भाव सिर्फ औपशमिक सम्यक्त्व व औपशमिक चारित्रवंतों के ही होता है। इस तरह हम देखते हैं कि : १. सबसे कम संख्या औपशमिक भाव वालों की है, क्योंकि इसमें प्रौपशमिक सम्यक्त्व तथा प्रौपशमिक चारित्रवंत जीवों का ही समावेश हुआ है। २. औपशमिक भाव वालों से अधिक संख्या क्षायोपशमिक भाव वाले जीवों की है, क्योंकि इसमें क्षायिक समकिती, क्षायिक चारित्रवंत जीवों तथा अरहंत और सिद्धों का समावेश होता है। ३. क्षायिक भाव वालों से अधिक संख्या क्षायोपशमिक भाव वाले जीवों की है, क्योंकि इसमें एक से लेकर बारहवें गुणस्थान वाले जीवों का समावेश होता है। ४. क्षायोपशमिक भाव वालों से भी अधिक संख्या औदयिक भाव वालों की है, क्योंकि इसमें एक से लेकर चौरहवें गुणस्थानवी जीवों का समावेश होता ५. सबसे अधिक संख्या पारिणामिक भाव वाले जीवों की है, क्योंकि इसमें निगोद से लेकर सिद्ध तक के सर्व जीवों का समावेश होता है। इसी क्रम को लक्ष में रख कर सूत्र में औपशमिकादिक भावों का क्रम रखा गया है। ४२ Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates निष्कर्ष रूप से हम कह सकते हैं कि : १. पारिणामिक भाव के बिना कोई जीव नहीं है। २. औदयिक भाव के बिना कोई संसारी नहीं है । ३. क्षायोपशमिक भाव के बिना कोई छद्मस्थ नहीं है। ४. क्षायिक भाव के बिना क्षायिक समकिती, क्षायिक चारित्रवंत और अरहंत तथा सिद्ध नहीं हैं । ५. औपशमिक भाव के बिना कोई धर्म की शरूआत वाले नहीं हैं। जिज्ञासु - कौनसा भाव कितने काल तक ठहरता है ? प्रवचनकार सुनो! मैं प्रत्येक का काल बताता हूँ - — १. प्रपशमिक भाव सादिसांत होता हैं, क्योंकि इसका काल ही अन्तर्मुहूर्त मात्र है। २. क्षायिक भाव सादिग्रनन्त है और संसार में रहने की अपेक्षा से उत्कृष्ट काल ३३ सागर से कुछ अधिक काल कहा है। ३. क्षायोपशमिक भाव अनादिसांत ज्ञान, दर्शन, वीर्य की अपेक्षा से । सादिसांतः– धर्म की प्रगट पर्याय अपेक्षा से उत्कृष्ट ६६ सागर से कुछ अधिक काल। १ — ४. औदयिक भाव अनादिसांत भव्य जीवों की अपेक्षा से । अनादिअनन्त अभव्य जीवों तथा दूरान्दूरभव्य जीवों की अपेक्षा से । ५. पारिणामिक भाव अनादिअनन्त। — — - पारिणामिक भाव को छोड़कर सभी भाव पर्यायरूप होने से सादिसांत ही होते हैं, किन्तु पर्यायों के प्रवाहरूप क्रम की एकरूपता को लक्ष्य में रखकर यहाँ क्षायिकभाव को सादिग्रनन्त कहा है। यद्यपि प्रदयिकभाव प्रवाहरूप से अनादि का होता है और धर्मी जीव को उसका अंत भी आ जाता है उस अपेक्षा से अनादिसांत कहा है फिर भी उसका प्रवाह किसी जीव को एकरूप नहीं रहता है उसी कारण प्रदयिक भाव को सादिसांत भी कहा। अभव्य जैसे भव्यों को दूरान्दूरभव्य कहते हैं । ४३ Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates जिज्ञासु - यह तो समझ में आ गया। अब कृपा करके यह बताइये कि इन भावों में से ग्रहण करने योग्य व त्याग करने योग्य कौन-कौन से भाव हैं ? क्योंकि कहा है – “ बिन जाने तै दोष-गुणन को, कैसे तजिए गहिए।" प्रवचनकार - यह तुमने बहुत अच्छा पूछा क्योंकि हेय, ज्ञेय, उपादेय को जाने बिना कोई जानकारी पूरी नहीं होती है। १. औदयिक हेय, औपशमिक भाव तथा साधक तथा दशा का क्षायोपशमिक भाव और क्षायिक भाव प्रगट करने की अपेक्षा उपादेय पारिणामिक भाव आश्रय करने की अपेक्षा परम उपादेय है। २. प्रौदयिक भाव विकार है, साधक के लिए हेय है, पाश्रय करने योग्य नहीं है। औपशमिक भाव साधक का क्षायोपशमिक भाव सादिसांत है व एक समय की पर्याय हैं; तथा क्षायिकभाव सादिअनन्त है, पर्यायरूप हैं; अतः ये भी आश्रय करने योग्य नहीं हैं। पारिणामिक भाव जो कि अनादिअनन्त है, वह एक ही प्राश्रय करने योग्य है। सारांश यह है कि जिनको धर्म करना हो, सुखी होना हो, उन्हें औदयिकादि चारों भाव पर से दृष्टि उठाकर मात्र परम पारिणामिक भावरूप त्रिकाली भूतार्थ ज्ञायकस्वभाव का ही आश्रय लेना चाहिए; क्योंकि उसके पाश्रय से ही धर्म की उत्पत्ति , स्थिति, वृद्धि और पूर्णता होती है। प्रश्न - १. जीव के असाधारण भाव कितने हैं व कौन-कौन से ? नाम सहित लिखिए ? २. सबसे अधिक संख्या कौनसे भाव वाले जीवों की है और क्यों ? ३. क्षायोपशमिक भाव कितने प्रकार के है ? नाम सहित लिखिये ? ४. क्या अभव्यों के औपशमिक भाव हो सकते हैं ? ५. सिद्धों के कितने भाव है और कौन-कौन से ? ६. पांचों भावों में हेय, ज्ञेय और उपादेय बताइये। ७. आचार्य उमास्वामी के व्यक्तित्व और कर्तृत्व पर प्रकाश डालिए ? ४४ Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates पाठ ७ चार अभाव आचार्य समन्तभद्र ( व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व ) श्री मूलसंघव्योमेन्दुर्भारते भावितीर्थकृत । देशे समन्तभद्राख्यो, मुनिर्जीयात्पदर्द्धिक: ।। कविवर हस्तिमल लोकेषणा से दूर रहने वाले स्वामी समन्तभद्र का जीवन-चरित्र एक तरह से अज्ञात ही है। जैनाचार्यों की यह विशेषता रही है कि महान् से महान् कार्यों को करने के बाद भी उन्होंने अपने लौकिक जीवन के बारे में कहीं कुछ भी नहीं लिखा है। जो कुछ थोड़ा बहुत प्राप्त है, वह पर्याप्त नहीं है। आप कदम्ब राजवंश के क्षत्रिय राजकुमार थे। आपके बाल्यकाल का नाम शान्ति वर्मा था। आपका जन्म दक्षिण भारत में कावेरी नदी के तट पर स्थित उरगपुर नामक नगर में हुआ था। आपका अस्तित्व विक्रम संवत् १३८ तक था। आपके पारिवारिक जीवन के सम्बन्ध के कुछ भी ज्ञात नहीं है। आपने अल्पवय में ही मुनि दीक्षा धारण कर ली थी । दिगम्बर जैन साधु होकर आपने घोर तपश्चरण किया और प्रगाध ज्ञान प्राप्त किया । आप जैन सिद्धान्त के तो अगाध मर्मज्ञ थे ही; साथ ही तर्क, न्याय, व्याकरण, छन्द, अलंकार, काव्य और कोष भी पंडित थे । आपमें बेजोड़ वाद शक्ति थी। आपने कई बार घूम-घूमकर कुवादीयों का गर्व खण्डित किया था। आप स्वयं लिखते हैं : 66 " वादार्थी विचराम्यहं नरपते, शार्दूलविक्रीडितम् । हे राजन्! मैं वाद के लिए सिंह की तरह विचरण कर रहा हूँ। आपके परवर्ती आचार्यों ने भी आपका स्मरण बड़े ही सन्मान के साथ किया है। आचार्य जिनसेन ने आदिपुराण में आपके वचनों को कुवादीरूपी पर्वतों को ४५ Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates छिन्न-भिन्न करने के लिए वज्र के समान बताया है तथा आपको कवि, वादी, गमक और वाग्मियों का चूड़ामणि कहा है: नमः समन्तभद्राय, महते कविवेधसे । यद्वचो वज्रपातेन, निर्भिन्नाः कुमताद्रयः ।। कवीनां गमकानां च, वादीनां वाग्मिनामपि । यश: सामन्तभद्रीयं, मूर्ध्नि चूड़ामणीयते ॥ गद्य चिंतामणिकार वादीभसिंह सूरि लिखते है :सरस्वतीस्वैरविहारभूमयः, समन्तभद्रप्रमुखा मुनीश्वराः । जयन्ति वाग्वज्रनिपातपाटि प्रतीपराद्धान्तमहीध्रकोटयः ।। चन्द्रप्रभचरित्रकार वीरनंदि प्राचार्य ' समन्तभद्रादिभवा च भारती' से कंठ विभूषित नरोत्तमों की प्रशंसा करते हैं तो प्राचार्य शुभचन्द्र ' ज्ञानार्णव' में इनके वचनों को अज्ञानांधकार के नाश हेतु सूर्य के समान स्वीकार करते हुए इनकी तुलना में औरों को खद्योतवत् बताते हैं : समन्तभद्रादिकवीन्द्रभास्वतां, स्फुरंति यत्रामलसूक्तिरश्मयः । व्रजन्ति खद्योतवदेव हास्यतां, न तत्र किं ज्ञानलवोद्धता जनाः ।। आप आद्यस्तुतिकार के रूप में प्रसिद्ध हैं। आपने स्तोत्र साहित्य को प्रौढ़ता प्रदान की है। आपकी स्तुतियों में बड़े-बड़े गंभीर न्याय भरे हुए हैं। आपके द्वारा लिखा गया 'आप्तमीमांसा' ग्रन्थ एक स्तोत्र ही है, जिसे 'देवागम स्तोत्र' भी कहते हैं। वह इतना गंभीर एवं अनेकात्मक तत्त्व से भरा हुआ है कि उसकी कई टीकाएँ लिखी गई, जो कि न्याय शास्त्र के अपूर्व ग्रन्थ हैं। अकलंक की 'अष्टशती' और विद्यानन्दि की 'अष्टसहस्त्री' इसी की टीकाएँ हैं । प्रस्तुत 'चार प्रभाव' नाम का पाठ उक्त आप्तमीमांसा की कारिका क्र. ९, १० व १९ के आधार पर ही लिखा गया है। इसके अलावा आपने तत्त्वानुशासन, युक्त्यनुशासन, स्वयंभूस्तोत्र, जिनस्तुतिशतक, रत्नकरण्ड श्रावकाचार, प्राकृत व्याकरण, प्रमाण पदार्थ, कर्मप्राभृत टीका और गंधहस्तिमहाभाष्य (अप्राप्य ) नामक ग्रन्थों की रचना की है। ४६ Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates चार अभाव भावैकान्ते पदार्थानामभावानामपहवात् । सर्वात्मकमनाद्यन्तमस्वरुपमतावकम् ।।९।। कार्यद्रव्यमनादि स्यात् प्रागभावस्य निहवे । प्रध्वंसस्य च धर्मस्य प्रच्यवेऽनन्तां व्रजेत् ।।१०।। सर्वात्मकं तदेकं स्यादन्यापोहव्यतिक्रमे ।। अन्यत्र समवाये न व्यपदिश्येत सर्वथा ।।११।। – प्राप्तमीमांसा : प्राचार्य समन्तभद्र आचार्य समन्तभद्र - वस्तुस्वरूप अनेकान्तात्मक है। जिस प्रकार स्व की अपेक्षा से भाव ( सद्भाव) पदार्थ का स्वरूप है, उसी प्रकार पर की अपेक्षा से प्रभाव भी पदार्थ का धर्म है। जिज्ञासु - प्रभाव किसे कहते हैं ? वे कितने प्रकार के होते हैं ? प्राचार्य समन्तभद्र - एक पदार्थ का दूसरे पदार्थ में अस्तित्व न होने को अभाव कहते हैं। प्रभाव चार प्रकार के होते हैं – (१) प्रागभाव (२) प्रध्वंसाभाव (३) अन्योन्याभाव (४) अत्यंताभाव। जिज्ञासु - कृपया संक्षेप में चारों प्रकार के प्रभाव समझा दीजिए ? आचार्य समन्तभद्र - पूर्व पर्याय में वर्तमान पर्याय का प्रभाव प्रागभाव है अथवा कार्य ( पर्याय) होने के पूर्व कार्य ( पर्याय) का नहीं होना ही प्रागभाव है। इसी प्रकार वर्तमान पर्याय का आगामी पर्याय में प्रभाव प्रध्वंसाभाव है। जैसे दही की पूर्व पर्याय दूध थी, उसमें दही का प्रभाव था, अतः उस प्रभाव को प्रागभाव कहेंगे और छाछ दहीं की आगामी पर्याय हैं, उसमें भी वर्तमान पर्याय दही का अभाव है, अत: उस प्रभाव को प्रध्वंसाभाव कहेंगे। ___ “भवत्यभावोऽपि च वस्तुधर्मो, भावान्तरं भाववदहतस्ते।" - युकत्यनुशासनः प्राचार्य समन्तभद्र, कारिका ५९ । " कार्यस्यात्मलाभात्प्रागऽभवनं प्रागभावः।" – अष्टसहस्त्री : विद्यानन्दि, पृष्ठ ६७। ४७ Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates जिज्ञासु पूज्यवर गुरुदेव ! आपने दूध-दही का उदाहरण देकर तो समझा दिया। कृपया आत्मा पर घटाकर और समझा दीजिए ? - आचार्य समन्तभद्र अंतरात्मारूप पर्याय का बहिरात्मारूप पूर्व पर्याय में अभाव प्रागभाव एवं परमात्मारूप आगमी पर्याय में प्रभाव प्रध्वंसाभाव कहा जावेगा। - जिज्ञासु - और अन्योन्याभाव ? आचार्य समन्तभद्र एक पुद्गल द्रव्य की वर्त्तमान पर्याय मे दूसरे पुद्गल द्रव्य की वर्त्तमान पर्याय का प्रभाव अन्योन्याभाव है । जैसे नीबू की वर्त्तमान खटास, चीनी की वर्त्तमान मिठास में नहीं है। जिज्ञासु - इसे भी आत्मा पर घटाकर बताइये न ? आचार्य समन्तभद्र यह आत्मा पर नहीं घटेगा। तुमने परिभाषा ध्यान से नहीं पढ़ी इसलिए ऐसा प्रश्न करते हो । परिभाषा में स्पष्ट कहा है कि एक पुद्गल द्रव्य की वर्त्तमान पर्याय में दूसरे पुद्गल द्रव्य की वर्त्तमान पर्याय का अभाव अन्योन्याभाव है, अतः यह मात्र पुद्गल द्रव्य में ही घटता है तथा पुद्गल द्रव्यों की भी मात्र वर्त्तमान पर्याय में ही । जिज्ञासु - प्रत्यन्ताभाव किसे कहते ? - आचार्य समन्तभद्र एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य में प्रभाव उसे अत्यन्ताभाव कहते हैं। जैसे जीव द्रव्य और पुद्गल द्रव्य में परस्पर प्रत्यन्ताभाव है । - I ध्यान रहे प्रत्यन्ताभाव छहों द्रव्यों मे से किन्हीं दो द्रव्यों में घटता है अन्योन्याभाव दो पुद्गलों की वर्त्तमान पर्यायों में घटित होता है, प्रागभाव छहों द्रव्यों में से किसी एक द्रव्य को वर्त्तमान व पूर्व पर्यायों में एवं प्रध्वंसाभाव छहों द्रव्यों में से किसी एक ही द्रव्य की वर्त्तमान और उत्तर पर्यायों में घटित होता है। एक अत्यन्ताभाव द्रव्यसूचक है, बाकी तीनों प्रभाव पर्यायसूचक हैं। इन चारों को संक्षेप में यों भी कह सकते हैं कि जिसका अभाव होने पर नियम से कार्य की उत्पत्ति होती है, उसे प्रागभाव कहते हैं । ४८ Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates जिससे सदभाव होने पर नियम से विवक्षित कार्य का अभाव (नाश) होता है, उसे प्रध्वंसाभाव कहते हैं। अन्य ( पुद्गल) के स्वभाव ( वर्तमान पर्याय ) में स्व (अन्य पुद्गल) स्वभाव ( वर्तमान पर्याय) की व्यावृत्ति अन्योन्याभाव है तथा कालत्रय की अपेक्षा से जो अभाव हो, वह अत्यन्ताभाव है। जिज्ञासु - यदि इन चारों प्रभावों को न माना जाय तो क्या दोष है ? प्राचार्य समन्तभद्र - (१) प्रागभाव न मानने पर समस्त कार्य (पर्याय) अनादि सिद्ध होंगे। (२) प्रध्वंसाभाव के न मानने पर सर्व कार्य (पर्यायें) अनन्तकाल तक रहेंगे। (३) अन्योन्याभाव के न मानने पर सब पुद्गलों की पर्यायें मिलकर एक हो जावेंगी अर्थात् सब पुद्गल सर्वात्मक हो जावेंगे। (४) अत्यन्ताभाव के न मानने पर सब द्रव्य अस्वरूप हो जावेंगे अर्थात् सब अपने-अपने स्वरूप को छोड़ देंगे; प्रत्येक द्रव्य की विभिन्नता नहीं रहेगी, जगत के सब द्रव्य एक हो जावेंगे। आशा है, चार प्रभावों का स्वरूप तुम्हारी समझ में अच्छी तरह आ गया होगा। जिज्ञासु - जी हाँ, आ गया। आचार्य समन्तभद्र - आ गया तो बतायो ? शरीर और जीव में कौनसा प्रभाव है ? जिज्ञासु - अत्यन्ताभाव। आचार्य समन्तभद्र - क्यों है ? जिज्ञासु - क्योंकि एक पुद्गल द्रव्य है और दूसरा जीव द्रव्य है और दो द्रव्यों के बीच होने वाले प्रभाव को ही अत्यंताभाव कहते हैं। आचार्य समन्तभद्र - पुस्तक और घड़े में कौनसा प्रभाव है ? १ “यदभावे हि नियमतः कार्यस्योत्पत्तिः स प्रागभावः, यदभावे च कार्यस्य नियता बिपत्तिः स प्रध्वंसः. स्वभावान्तरात्स्वभावव्यावृत्तिरन्यापोहः कालत्रयापेक्षाऽभावोऽत्यन्ताभावः।" – अष्टसहस्त्री : विद्यानन्दि , पृष्ठ १०९ । ४९ Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates जिज्ञासु - अन्योन्याभाव , क्योंकि पुस्तक और घड़ा दोनों पुद्गल द्रव्य की वर्तमान पर्यायें हैं। आचार्य समन्तभद्र - ‘आत्मा अनादि केवलज्ञान पर्यायमय है' ऐसा मानने वाले कौनसा प्रभाव नहीं मानते ? __ जिज्ञासु - प्रागभाव, क्योंकि केवलज्ञान ज्ञानगुण की पर्याय है; अतः केवलज्ञान होने से पूर्व की मतिज्ञानादि पर्यायों में उसका अभाव है। आचार्य समन्तभद्र - ‘यह वर्तमान राग मुझे जीवन भर परेशान करेगा' ऐसा मानने वाले ने कौनसा प्रभाव नहीं माना ? __ जिज्ञासु - प्रध्वंसाभाव, क्योंकि वर्तमान राग का भविष्य की चारित्रगुण की पर्यायों में प्रभाव हैं; अतः वर्तमान राग भविष्य के सुख-दुःख का कारण नहीं हो सकता। शंकाकार - इन चार प्रकार के प्रभावों को समझने से क्या-क्या लाभ हैं ? प्राचार्य समन्तभद्र - अनादि से मिथ्यात्वादि महापाप करने वाला आत्मा पुरुषार्थ करे तो वर्तमान में उनका प्रभावकर सम्यक्त्वादि धर्म दशा प्रगट कर सकता है, क्योंकि वर्तमान पर्याय का पूर्व पर्यायों में प्रभाव है; अतः प्रागभाग समझने से 'मैं पापी हूँ, मैंने बहुत पाप किये हैं, मैं कैसे तिर सकता हूँ ?' आदि हीन भावना निकल जाती है। इसी प्रकार प्रध्वंसाभाव के समझने से यह ज्ञान हो जाता है कि वर्तमान में कैसी भी दीन-हीन दशा हो, भविष्य में उत्तम से उत्तम दशा प्रगट हो सकती हैं, क्योंकि वर्तमान पर्याय का आगामी पर्यायों में प्रभाव है, अतः वर्तमान पामरता देखकर भविष्य के प्रति निराश न होकर स्वसन्मुख होने का पुरुषार्थ प्रगट करने का उत्साह जागृत होता है। जिज्ञासु - अन्योन्याभाव और अत्यन्ताभाव से ? आचार्य समन्तभद्र - एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कर्ता-हर्ता नहीं है, क्योंकि उनमें आपस में अत्यन्ताभाव है - ऐसा समझने से दूसरे मेरा बुरा कर देंगे' ऐसा अनन्त भय निकल जाता है एवं 'दूसरे मेरा भला कर देंगे' ऐसी परमुखापेक्षिता की वृत्ति निकल जाती है। इसी प्रकार अन्योन्याभाव के जानने से भी स्वाधीनता का भाव जागृत होता है, क्योंकि जब एक पुद्गल की ५० Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates पर्याय, दूसरे पुद्गल की पर्याय से पूर्ण भिन्न एवं स्वतन्त्र है तो फिर यह प्रात्मा से तो जुदी है ही। इस तरह चारों प्रभावों के समझने से स्वाधीनता का भाव जागृत होता है, पर से आशा की चाह समाप्त होती है, भय का भाव निकल जाता हैं, भूतकाल और वर्तमान की कमजोरी और विकार देखकर उत्पन्न होने वाली दीनता समाप्त हो जाती है और स्वसन्मुख होने का पुरुषार्थ जागृत होता है। आशा है, तुम्हारी समझ में इनके जानने से क्या लाभ है, यह आ गया होगा? जिज्ञासु - आ गया! बहुत अच्छी तरह आ गया !! आचार्य समन्तभद्र - आ गया तो बताओ! ‘शरीर मोटा-ताजा हो तो आवाज भी बुलन्द होती है'- ऐसा मानने वाला क्या गलती करता है ? जिज्ञासु - वह अन्योन्याभाव का स्वरूप नहीं जानता; क्योंकि शरीर का मोटा-ताजा होना, आहार वर्गणारूप पुद्गल का कार्य है और आवाज बुलन्द होना, भाषा वर्गणा का कार्य है। इस प्रकार आवाज और शरीर की मोटाई में अन्योन्याभाव है। प्राचार्य समन्तभद्र - ‘ज्ञानावरणी कर्म के क्षय के कारण प्रात्मा में केवलज्ञान होता है' ऐसा मानने वाले ने क्या भूल की ? जिज्ञासु - उसने अत्यन्ताभाव को नहीं जाना; क्योंकि ज्ञानावरणी कर्म और आत्मा में अत्यन्ताभाव है; फिर एक द्रव्य के कारण दूसरे द्रव्य में कार्य कैसे हो सकता है ? शंकाकार - शास्त्र में ऐसा क्यों लिखा है कि ज्ञानावरणी कर्म के क्षय से केवलज्ञान की प्राप्ति होती है ? - आचार्य समन्तभद्र - शास्त्र में ऐसा निमित्त का ज्ञान कराने से लिए असद्भूत व्यवहार नय से कहा जाता है, किन्तु वस्तुतः (निश्चय नय से) विचार किया जाय तो एक द्रव्य दूसरे द्रव्य के कार्य का कर्ता हो ही नही सकता। इस तरह हम देखते हैं कि वस्तुस्वरूप तो अनेकान्तात्मक है। अकेला भाव ही वस्तु का स्वरूप नहीं है। प्रभाव भी वस्तु का धर्म है, उसे माने बिना वस्तु Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates की व्यवस्था नहीं बनेगी। अतः चारों प्रभावों का स्वरूप अच्छी तरह समझकर मोह-राग-द्वेषादि विकार का प्रभाव करने के प्रति सावधान होना चाहिए। प्रश्न - १. प्रभाव किसे कहते ? वे कितने प्रकार के होते हैं ? नाम सहित लिखिये ? २. निम्नलिखित में परस्पर अन्तर बताइये : (क) प्रागभाव और प्रध्वंसाभाव (ख) अन्योन्याभाव और अत्यन्ताभाव ३. प्रभावों के समझने से क्या लाभ है ? ४. निम्नलिखित की प्रभावों के स्वरूप के संदर्भ में समीक्षा कीजिए : (क) ज्ञानावरणी कर्म के क्षय से केवलज्ञान की प्राप्ति होती है। (ख) कर्म के उदय से शरीर में रोग होते हैं। (ग) यह आदमी चोर है, क्योंकि इसने पहले स्कूल में पढ़ते समय मेरी पुस्तक चुरा ली थी। ५. निम्नलिखित जोड़ो में परस्पर कौनसा अभाव है : (क) इच्छा और भाषा (ख) चश्मा और ज्ञान (ग) शरीर और वस्त्र (घ) शरीर और जीव ६. आचार्य समन्तभद्र के व्यक्तित्व और कर्तृत्व पर प्रकाश डालिए ? ५२ Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates पाठ ८ पाँच पाण्डव आचार्य जिनसेन ( व्यक्तित्व एंव कर्तृत्व) पुराण ग्रन्थों में पद्मपुराण के बाद जैन समाज में सबसे अधिक पढ़ा जाने वाला प्राचीन पुराण है - हरिवंशपुराण। इसमें छियासठ सर्ग और बारह हजार श्लोक हैं। इसमें बाईसवें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ का चरित्र विशद रूप से वर्णित है। इसके अतिरिक्त कृष्ण-बलभद्र, कौरव-पाण्डव आदि अनेक इतिहास प्रसिद्ध महापुरुषों के चरित्र भी बड़ी खूबी के साथ चित्रित हैं। इसके रचयिता हैं – प्राचार्य जिनसेन। प्राचार्य जिनसेन महापुराण के कर्ता भगवज्जिनसेनाचार्य से भिन्न हैं। ये पुन्नाट संघ के प्राचार्य थे। पुन्नाट कर्नाटक का प्राचीन नाम है। यह संघ कर्नाटक और काठियावाड़ के निकट २०० वर्ष तक रहा है। इस संघ पर गुजरात के राजवंशों की विशेष श्रद्धा और भक्ति रही है। आपके गुरु का नाम कीर्तिषेण था और वर्द्धमान नगर के नन्नराज वसति नाम के मंदिर में रहकर इन्होंने विक्रम सं. ८४० में यह ग्रन्थ समाप्त किया था। इस ग्रन्थ के अलावा आपके और कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हैं और न कहीं अन्य ग्रन्थों में उल्लेख ही मिलते हैं। आपकी अक्षय कीर्ति के लिये यह एक महाग्रन्थ ही पर्याप्त है। ___ हरिवंशपुराण के भाषा टीकाकार जयपुर के प्रसिद्ध विद्वान पं. दौलतरामजी कासलीवाल हैं। प्रस्तुत पाठ आपके उक्त सुप्रसिद्ध ग्रन्थ हरिवंशपुराण के आधार से ही लिखा गया हैं। पाण्डवों के सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी प्राप्त करने के लिए हरिवंशपुराण और पाण्डवपुराण का अध्ययन करना चाहिए। ५३ Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates पांच पाण्डव सुरेश - आज मैं तुझे नहीं छोडूंगा। जब तक पैसा नहीं देगा, तब तक नहीं छोडूंगा। रमेश - क्यों नहीं छोड़ेगा ? सुरेश - जब पैसे नहीं थे तो शर्त क्यों लगाई ? रमेश - मैंने तो वैसे ही कह दिया था। सुरेश - मैं कुछ नहीं जानता , निकाल पैसे ? रमेश - पैसे हैं ही नहीं तो क्या निकालूँ ? सुरेश - ( कमीज पकड़कर) फिर शर्त क्यों लगाई ? अध्यापक - क्यों भई रमेश-सुरेश! क्यों लड़ रहे हो? अच्छे लड़के इस तरह नहीं लड़ते। हमें अपने सब कार्य शान्ति से निपटाने चाहिए, लड़झगड़कर नहीं। रमेश - देखिए मास्टर साहब! यह मुझे व्यर्थ ही परेशान कर रहा है। सुरेश - मास्टर साहब! यह मेरे पैसे क्यों नहीं देता ? अध्यापक - क्यों रमेश ! तुम इसके पैसा क्यों नही देते ? अच्छे लड़के किसी से उधार लेकर उसे इस तरह परेशान नहीं करते। तुम्हें तो बिना मांगे उसके पैसे लौटाने चाहिए थे। यह मौका ही नहीं आना चाहिए था। रमेश - गुरुजी ! मैंने पैसे इससे लिए ही कब हैं ? अध्यापक - लिए नहीं तो फिर यह मांगता क्यों है ? सुरेश - इसने पैसे तो नहीं लिये, पर शर्त तो लगाई थी और हार गया। अब पैसे क्यों नहीं देता ? अध्यापक - हाँ! तुम जुआ खेलते हो ? अच्छे लड़के जुया कभी नहीं खेलते। सुरेश - नहीं साहब! हमने तो शर्त लगाई थी। जुना कब खेला ? अध्यापक - हार-जीत पर दृष्टि रखते हुए रुपये-पैसे या किसी प्रकार के धन से खेल खेलना या शर्त लगाकर कोई काम करना या दाव लगना ही तो ५४ Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates जुा है। यह बहुत बुरा व्यसन हैं। इसके चक्कर में फँसे लोगों का आत्महित तो बहुत दूर, लौकिक जीवन भी प्रस्त-व्यस्त हो जाता है। महाप्रतापी पाण्डवों को भी इसके सेवन से बहुत कठिनाइयाँ उठानी पडी थीं । अतः आज से प्रतिज्ञा करो कि अब कभी भी जुम्रा नहीं खेलेंगे, शर्त लगाकर कोई कार्य नहीं करेंगे। रमेश - ये पाण्डव कौन थे ? अध्यापक बहुत वर्षो पहिले इस भारतवर्ष में कुरुजांगल देश के हस्तिनापुर नगर में कुरुवंशी राजा धृतराज राज्य करते थे। उनके तीन रानियाँ थीं अंबिका, अंबालिका और अंबा। तीनों रानियों से क्रमशः धृतराष्ट्र, पाण्डु और विदुर नामक तीन पुत्र हुए। राजा धृतराज के भाई रुक्मण के पुत्र का नाम भीष्म था । - धृतराष्ट्र के गान्धारी नामक रानी से दुर्योधन आदि सौ पुत्र उत्पन्न हुए, जिन्हें कौरव नाम से जाना जाता है। पाण्डु के कुन्ती और माद्री नामक दो रानियाँ थीं। कुन्ती से कर्ण नामक पुत्र तो पाण्डु के गुप्त (गांधर्व) विवाह से हुआ, जिसे बदनामी के भय से अलग कर दिया गया था और वह अन्यत्र पलकर बड़ा हुआ। तथा युधिष्ठर, भीम अर्जुन तीन पुत्र बाद में हुए । माद्री से नकुल और सहदेव दो पुत्र हुए। पाण्डु के युधिष्ठर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव पाँच पुत्र ही पाँच पाण्डव नाम से जाने जाते हैं । सुरेश - हमने तो सुना है कि कौरव और पाण्डवों के बीच बहुत बड़ा युद्ध हुआ था ? अध्यापक - कौरव और पाण्डवों में राज्य के लिए आपस में तनाव बढ़ गया था; पर भीष्म, विदुर और गुरु द्रोणाचार्य ने बीच में पड़कर समझौता करा दिया था। आधा राज्य कौरवों को और आधा राज्य पाण्डवों को दिला दिया, पर उनका मानसिक द्वन्द्व समाप्त नहीं हुआ । रमेश - गुरु द्रोणाचार्य कौन थे ? अध्यापक तुम गुरु द्रोणाचार्य के बारे में भी नहीं जानते हो ? भार्गववंशी धनुर्विद्या में प्रवीण आचार्य थे। इन्होंने ही कौरव और पाण्डवों को धनुर्विद्या सिखाई थी। इनका पुत्र अश्वत्थामा था, जो इनके समान ही धनुर्विद्या में प्रवीण था । - ५५ Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates सुरेश - जब समझौता हो गया था तो फिर लड़ाई क्यों हुई ? अध्यापक तुम से कहा था न कि उसका मन साफ नहीं हुआ था । एक बार जब पाण्डव अपने महल में सो रहे थे तो कौरवों ने उनके घर में आग लगवा दी। - रमेश - आग लगवा दी ? यह तो बहुत बुरा काम किया उन्होंने । तो क्या पाण्डव उसमें जल मरे ? अध्यापक - नहीं भाई, सुनो। उन्होंने बुरा काम तो किया ही । इस प्रकार की हिंसात्मक प्रवृत्तियों से ही तो देश और समाज नष्ट होते हैं। पाण्डव तो सुरंग मार्ग से निकल गये पर लोगों ने यही जाना कि पाण्डव जल गये हैं। कौरवों की इस काण्ड से लोक में बहुत निन्दा हुई, पर वे प्रसन्न थे दुर्जनों की प्रवृत्ति ही हिंसा में आनन्द मानने की होती है। रमेश - फिर पाण्डव लोग कहाँ चले गये ? था, अध्यापक - कुछ काल तो वे गुप्तवास में रहे और घूमते-घूमते राजा द्रुपद की राजधानी माकन्दी पहुँचे। वहाँ राजा द्रुपद की पुत्री का स्वयंवर हो रहा जिसमें धनुष चढ़ाने वाले को द्रौपदी वरेगी ऐसी घोषणा की गई थी। उक्त स्वयंवर में दुर्योधनादि कौरव भी आये हुए थे, पर किसी से भी वह देवो - पुनीत धनुष नहीं चढ़ाया गया । आखिर में अर्जुन ने उसे क्रीड़ामात्र में चढ़ा दिया और द्रौपदी ने अर्जुन के गले में वरमाला डाल दी। रमेश - हमने तो सुना है कि द्रौपदी ने पाँचों पाण्डवों को वरा था ? अध्यापक - नहीं भाई ! द्रौपदी तो महासती थी। उसने तो अर्जुन के कण्ठ में वरमाला डाली थी। वह तो युधिष्ठर और भीम को जेठ होने से पिता समान एवं नकुल और सहदेव को देवर होने से पुत्र के समान मानती थी। सुरेश - तो फिर ऐसा क्यों कहते हैं ? अध्यापक - भाई! बात यह है कि जब द्रौपदी अर्जुन के गले में वरमाला डाल रही थी तो वरमाला का डोरा टूट गया और कुछ फूल बिखर कर पास में स्थित बाकी चार पाण्डवों पर भी गिर गये और उनसे जलन रखने वाले तथा द्रौपदी प्राप्त करने की आशा से आये हुए लोगों ने अपवाद फैला दिया कि उसने तो पाँचों पाण्डवों को वरा है । ५६ Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates पाण्डव विप्र वेश में थे। अतः वहाँ उपस्थित राजागण व दुर्योधनादि कौरव कोई भी उन्हें पहिचान न पाये, पर दुर्योधन को यह अच्छा न लगा कि उनकी उपस्थिती में एक साधारण विप्र द्रौपदी को वर ले जावे। अत: उसने सब राजाओं को भड़काया कि महाप्रतापी राजाओं की उपस्थिति में एक साधारण विप्र को द्रौपदी वरण करे - यह सब राजाओं का अपमान है। परिणामस्वरूप दुर्योधनादि सहित उपस्थित सब राजागण और पाण्डवों में भयंकर युद्ध हुआ। धनुर्धारी अर्जुन के सामने जब कोई भी धनुर्धारी टिक न सका, तब स्वयं गुरु द्रोणाचार्य उससे युद्ध करने आये। सामने गुरुदेव को खड़ा देख, अर्जुन विनय से नम्रीभूत हो गया और गुरु को नमस्कार कर बाण द्वारा अपना परिचय पत्र गुरुदेव के पास भेजा। ___ गुरु द्रोण को जब यह पता चला कि अर्जुन आदि पाण्डव अभी जीवित हैं तो उन्हें बहुत प्रसन्नता हुई और उन्होंने सबसे यह समाचार कहा। एक बार फिर गुरु द्रोण एवं भीष्मपितामह ने कौरव और पाण्डवों में मेल-मेलाप करा दिया। इस प्रकार पुनः कौरव और पाण्डवों का मिलाप हुआ तथा वे दुबारा प्राधाआधा राज्य लेकर हस्तिनापुर में रहने लगे। सुरेश - गुरुदेव! आपने तो पाण्डवों के जुआ खेलने की बात कही थी वह तो इस कहानी में कहीं आई ही नहीं। अध्यापक - हाँ सुनो, एक दिन दुर्योधन और युधिष्ठर शर्त लगाकर ‘पासों का खेल' खेल रहे थे। उन्होंने पासों के खेल ही में १२ वर्ष के लिये राज्य को भी दाव पर लगा दिया। दुर्योधन कपट से दाव जीत गया और युधिष्ठरादि पाण्डवों को १२ वर्ष के लिये राज्य छोड़कर अज्ञातवास में रहना पड़ा। इसलिये तो कहा है – 'शर्त लगाकर कोई काम करना यानी जुया खेलना सब अनर्थों की जड़ है।' आत्मा का हित चाहने वाले पुरुष को इससे सदा ही दूर रहना चाहिये। महाबलधारी एवं उसी भव से मोक्ष जाने वाले युधिष्ठरादि को भी इसके सेवन के फलस्वरूप बहुत विपत्तियों का सामना करना पड़ा। ५७ Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates रमेश - तो फिर वे बारह वर्ष तक कहाँ रहे ? अध्यापक - कोई एक जगह थोड़े ही रहे। वेश बदलकर जगह-जगह घूमते रहें। सुरेश - हमने सुना है की भीम बहुत बलवान था। उसने महाबली कीचक को बहुत पीटा था। अध्यापक - हाँ! यह घटना भी उनके बारहवर्षीय अज्ञातवास के काल में ही घटी थी। जब वे विचरते-विचरते विराटनगर पहुँचे तो गुप्तवेश में ही राजा विराट के यहाँ विविध पदों पर काम करने लगे। युधिष्ठर पंडित बनकर, भीम रसोइया बनकर, अर्जुन नर्तकी बनकर और नकुल तथा सहदेव अश्वशाला के अधिकारी बन कर रहे। द्रौपदी भी मालिन बन कर रहने लगी। राजा विराट की राणी का नाम था सुदर्शना और उसका भाई था कीचक। उसने जब द्रौपदी को साधारण मालिन समझा था। अतः द्रौपदी को अनेक प्रकार के लोभ दिखाकर अपना बुरा भाव प्रगट करने लगा। द्रौपदी ने यह बात अपने जेठ भीम से कही। भीम ने उससे कहा कि तुम उससे नकली स्नेहपूर्ण बात बनाकर मिलने का स्थान और समय निश्चित कर लेना। फिर में सब देख लूँगा। पापी कीचक को अपने किए की सजा मिलनी ही चाहिये। रमेश - फिर क्या हुआ ? अध्यापक - फिर क्या ? द्रौपदी ने नकली नेह द्वारा उससे रात्रि का समय व एकान्त स्थान निश्चित कर लिया। फिर भीम द्रौपदी के कपड़े पहिन कर निश्चित स्थान पर निश्चित समय के पूर्व की पहुँच गये। ___ कामासक्त कीचक जब वहाँ पहुँचा तो द्रौपदी को वहाँ आई जान बहुत प्रसन्न हुआ और उससे प्रेमालाप करने लगा, किन्तु उस पापी को प्रेमालाप का उत्तर जब भीम के कठोर मुष्ठिका-प्रहारों से मिला तो तिलमिला गया। उसने अपनी शक्ति अनुसार प्रतिरोध करने का बहुत यत्न किया पर भीम के आगे उसकी एक न चली और निर्मद दीन-हीन हो गया। उसको दीन-हिन दशा में देख दयालु भीम ने भविष्य में ऐसा काम न करने की चेतवनी देकर छोड़ दिया। उसे अपने किये की सजा मिल गई। सुरेश - उसके बाद पाण्डवों का क्या हुआ ? ५८ Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates अध्यापक - उसके बाद वे अपने मामा के यहाँ द्वारिका चले गये । द्वारकाधीश कृष्ण के पिता वसुदेव और भगवान नेमिनाथ के पिता समुद्रविजय पाण्डवों के मामा थे। उन्होंने बहिन सहित प्राये अपने भानजों का बहुत आदर-सत्कार किया। सुरेश - गुरुजी ! कौरवों और पाण्डवों का आपस में बड़ा भारी युद्ध भी तो हुआ था ? अध्यापक हाँ! हुआ था, पर वह युद्ध मात्र कौरव और पाण्डवों का ही नहीं रहा था। उस युद्ध में तो सम्पूर्ण भारतवर्ष ही उलझ गया था, क्योंकि उस युद्ध में पाण्डवों के साथ नारायण श्रीकृष्ण एवं कौरवों के साथ प्रतिनारायण जरासन्ध हो गये थे; अत: उस युद्ध में नारायण और प्रतिनारायण के महायुद्ध का रूप ले लिया था। जब उस युद्ध में नारायण श्रीकृष्ण की विजय हुई और वे त्रिखण्डी अर्धचक्रवर्ती राजा हुए तो पाण्डवों को स्वभावतः ही हस्तिनापुर का महामण्डलेश्वर पद प्राप्त हुआ । युधिष्ठर गंभीर प्रकृति के सहज धर्मानुरागी न्यायवंत राजा थे, अतः वे धर्मराज युधिष्ठर के नाम से जाने जाते हैं। भीम में शारीरिक बल अतुलनीय था तथा वे मल्लविद्या में अद्वितीय थे एवं अर्जुन अपनी बाणविद्या में जगत प्रसिद्ध धनुर्धर थे। वे बहुत काल तक शांतिपूर्वक राज्य सुख भोगते रहे। रमेश - फिर ? अध्यापक फिर क्या? बहुत काल बाद द्वारिका - दाह की भयंकर घटना ने उनके हृदय को झकझोर दिया और उनका चित्त संसार से उदास हो गया। एक दिन वे विरक्त-हृदय पाण्डव भगवान नेमिनाथ की वंदना के लिए सपरिवार उनके समवसरण में गये। वहाँ भगवान की दिव्यवाणी को सुनकर उनका वैराग्य और अधिक प्रबल हो गया । दिव्यध्वनि में आ रहा था कि भोगों मे सच्चा सुख नहीं है, सच्चा सुख आत्मा में है। आत्मा का हित तो आत्मा को समझकर उससे भिन्न समस्त पर - पदार्थों से ममत्व हटाकर ज्ञानस्वभावी आत्मा में एकाग्र होने में है । लौकिक लाभ-हानि तो पुण्य-पाप का खेल है, उसमें आत्मा का हित नहीं । यह आत्मा व्यर्थ ही पुण्य के उदय में हर्ष और पाप के उदय में विषाद मानता है। मनुष्य - भव की सार्थकता तो समस्त जगत से ममत्व हटाकर आत्म-केन्द्रित होने में है। - ५९ Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates भगवान की दिव्यवाणी सुनकर पाँचों पाण्डवों ने उसी समय भगवान से भवभ्रमण का नाश करने वाली दिगम्बरी दीक्षा ग्रहण कर ली तथा उनकी माता कुन्ती एवं द्रौपदी, सुभद्रा आदि अनेक रानियों ने आर्जिका राजमती (राजुल) के पास आर्यिका के व्रत स्वीकार कर लिये। सुरेश - फिर? अध्यापक - फिर क्या ? पाँचों पाण्डव मुनिराज प्रात्म-साधना में तत्पर हो घोर तपश्चरण करने लगे। एक दिन वे शत्रुजय गिरि पर ध्यान मग्न थे। उसी समय वहाँ दुर्योधन का वंशज यवरोधन आया और पाण्डवों को ध्यान अवस्था मे देखकर उसका क्रोध प्रज्वलित हो गया। वह सोचने लगा ये ही वे दुष्ट पाण्डव हैं, जिन्होंने हमारे पूर्वज दुर्योधनादि कौरवों की दुर्दशा की थी। अभी ये निःसहाय हैं, हथियार-विहीन हैं, इस समय इनसे बदला लेना चाहिये और इन्हें अपने किए का मजा चखाना चाहिये। यह सोचकर उस दुष्ट ने लोहे के गहने बनाकर उन्हें आग में तपाकर लालसुर्ख कर लिये और पाँचों पाण्डवों को ध्यानावस्था में पहिनाकर कहने लगा, दुष्टों! अपने किए का मजा चखो। रमेश - हैं! क्या कहा! उस दुष्ट ने पाण्डवों को जला डाला ? अध्यापक - वह महामुनि पाण्डवों को क्या जलाता, वह स्वयं द्वेष की आग में जल रहा था। उसके द्वारा पहिनाए गरम लोहे के आभूषणों से पाण्डवों की काया अवश्य जल रही थी, किन्तु वे स्वयं तो ज्ञानानन्द-स्वभावी प्रात्मा में लीन थे और आत्मलीनता की अपूर्व शीतलता में अनन्त शान्त थे तथा ध्यान की ज्वाला से शुभाशुभ भावों को भस्म कर रहे थे। सुरेश - फिर क्या हुआ ? क्या वे जल गये ? अध्यापक - हाँ, उनकी पार्थिव देह तो जल गई। साथ ही तीन पाण्डवयुधिष्ठर, भीम और अर्जुन ने तो क्षपक-श्रेणी का आरोहण कर प्रष्ट कर्मों को भी जला डाला और केवलज्ञान पाकर शत्रुजय गिरी से सिद्धपद प्राप्त किया तथा नकुल और सहदेव ने देवायु का बन्ध कर सर्वार्थसिद्धि प्राप्त की। वे भी वहाँ से आकर एक मनुष्य-भव धारण करके मोक्ष प्राप्त करेंगे। __रमेश - अच्छा तो! शत्रुजय इसलिए सिद्धक्षेत्र कहलाता है, क्योंकि वहाँ से तीन पाण्डव मोक्ष गए थे। यह शत्रुजय है कहाँ। ६० Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates अध्यापक - हाँ भाई! यह गुजरात प्रान्त के सौराष्ट्र वाले भाग में भावनगर के पास स्थित है। इसे पालीताना भी कहते हैं। सुरेश - सोनगढ़ के पास में। सोनगढ़ तो मैं गया था। भावनगर के पास ही तो सोनगढ़ है। अध्यापक - हाँ, भाई! सोनगढ़ से कुल १८ किलोमीटर है शत्रुजय गिरि। वहाँ की वन्दना हमें अवश्य करनी चाहिए तथा पाण्डवों के जीवन से शिक्षा ग्रहण करना चाहिए। सुरेश - हाँ! अब मैं समझा कि आत्म-साधना के बिना लौकिक जीत-हार का कोई महत्त्व नहीं है। आत्मा की सच्ची जीत तो मोह-राग-द्वेष के जीतने में है। रमेश - और जुया के व्यसन में पड़कर महापराक्रमी पाण्डवों को भी अनेक विपत्तियों में पड़ना पड़ा, अत: हमें कोई भी काम शर्त लगाकर नहीं करना चाहिये। अध्यापक - बहुत अच्छा। आज तुमने सच्चा और सार्थक पाठ पढ़ा। प्रतिज्ञा करो कि आज से कोई कार्य शर्त लगाकर नहीं करेंगे। सुरेश व रमेश - ( एक साथ ): हाँ, गुरुदेव! हम प्रतिज्ञा करते हैं कि आज से कोई भी कार्य शर्त लगाकर नहीं करेंगे और अपने साथियों को भी शर्त लगाकर काम नहीं करने की प्रेरणा देंगे। प्रश्न - १. पाण्डवों की कहानी लिखिये ? इससे हमें क्या शिक्षा मिलती है ? २. क्या द्रौपदी के पांच पति थे ? यदि नहीं, तो फिर ऐसा क्यों कहा जाता है ? ६१ Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates पांच पाण्डव धृतराज राजा रुक्मण राजा गंगा रानी अंबिका रानी अंबालिका रानी अंबा रानी भीष्म पितामह धृतराष्ट्र पाण्डु विदुर गांधारी रानी कुन्ती रानी माद्री रानी १०० कौरव नकुल सहदेव कर्ण युधिष्ठर भीम अर्जुन ( गान्धर्व विवाह से) ६२ Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates पाठ ९ भावना बत्तीसी आचार्य अमितगति ( व्यक्तित्व और कर्तृत्व) विक्रम की ग्यारहवीं शती के प्रसिद्ध आचार्य अमितगति को वाक्पतिराज मुंज की राजसभा में सन्मान की दृष्टि से देखा जाता था। राजा मुंज उज्जैनी के राजा थे। वे स्वयं बड़े विद्वान व कवि थे। आचार्य अमितगति बहुश्रुत विद्वान व विविध विषयों के गंथ्र-निर्माता थे। उनके द्वारा रचित सभी ग्रंथ संस्कृत भाषा में हैं। उन्होंने अपना प्रसिद्ध ग्रंथ 'सुभाषित रत्नसंदोह' वि. सं. १०५० में तथा 'धर्मपरीक्षा' वि. सं. १०७० में समाप्त किया था। उनके ग्रंथो की विषयवस्तु और भाषा-शैली सरल, सुबोध व रोचक है। इनकी निम्न रचनायें उपलब्ध हैं- सुभाषित रत्नसंदोह, धर्मपरीक्षा, भावना-द्वात्रिंशतिका, पंचसंग्रह, उपासकाचार, आराधना, भी इनकी रचनाएँ हैं। ‘सुभाषित रत्नसंदोह' एक सुभाषित ग्रंथ है। इसमें ३२ प्रकरण व ९२२ छंद हैं। सुभाषित नीति साहित्य में इनका महत्त्वपूर्ण स्थान है। सुभाषित प्रेमियों को इनका अध्ययन अवश्य करना चाहिए। 'धर्म परीक्षा' संस्कृत साहित्य में अपने ढंग का एक निराला ग्रन्थ है। इसमें पुराणों की ऊँटपटांग कथानों और मान्यताओं को मनोरंजक रूपे में प्रस्तुत करके अविश्वसनीय ठहराया गया है। यह १९४५ छंदों का ग्रंथ है। तत्त्वप्रेमियों को इसका अध्ययन अवश्य करना चाहिए। प्रस्तुत पाठ आपकी भावना-द्वात्रिंशतिका' का हिन्दी पद्यानुवाद है जो कि श्री युगलकिशोरजी 'युगल', कोटा ने किया है। १ जैन साहित्य और इतिहास : नाथूराम प्रेमी पृष्ठ २७५ ६३ Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates भावना बत्तीसी प्रेम भाव हो सब जीवों से, गुणी जनों में हर्ष प्रभो । करुणा-स्रोत बहे दुखियों पर, दुर्जन में मध्यस्थ विभो ।। १।। यह अनंत बल-शील आतमा, हो शरीर से भिन्न प्रभो । ज्यों होती तलवार म्यान से , वह अनन्त बल दो मुझको ।। २।। सुख-दुःख वैरी बन्धु वर्ग में, कांच-कनक में समता हो । वन-उपवन प्रासाद कुटी में, नहीं खेद नहिं ममता हो ।। ३।। जिस सुन्दरतम पथ पर चलकर, जीते मोह मान मन्मथ ।। वह सुन्दर पथ ही प्रभु! मेरा, बना रहे अनुशीलन पथ ।।४।। एकेन्द्रिय आदिक प्राणी की, यदि मैंने हिंसा की हो । शुद्ध हृदय से कहता हूँ वह, निष्फल हो दुष्कृत्य प्रभो ।।५।। मोक्षमार्ग प्रतिकूल प्रवर्तन, जो कुछ किया कषायों से । विपथ-गमन सब कालुष मेरे, मिट जावें सद्भावों से ।।६।। चतुर वैद्य विक्षत करता, त्यों प्रभु! मै भी आदि उपाँत । अपनी निन्दा अालोचन से, करता हूँ पापों को शांत ।। ७।। सत्य अहिंसादिक व्रत में भी, मैंने हृदय मलीन किया ।। व्रत विपरीत-प्रवर्तन करके, शीलाचरण विलीन किया ।। ८ ।। कभी वासना की सरिता का, गहन सलिल मुझ पर छाया । पी पीकर विषयों की मदिरा, मुझमें पागलपन पाया ।। ९ ।। मैंने छली और मायावी, हो असत्य-आचरण किया । पर-निन्दा गाली चुगली जो, मुँह पर पाया वमन किया ।। १०।। निरभिमान उज्जवल मानस हो, सदा सत्य का ध्यान रहे । निर्मल-जल की सरिता सदृश, हिय में निर्मल ज्ञान बहे ।। ११।। १. महल, २. कामदेव, ३. विरुद्ध , ४. खोटा मार्ग, ५. नष्ट, ६. सदाचार, ७. लोप, ८. इंद्रियों-विषयों की चाह, ९. गहरा ६४ Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates मुनि चक्रीं शक्री के हिय में, जिस अनंत का ध्यान रहे । 3 गाते वेद पुराण जिसे वह परम देव मम हृदय रहे ।। १२ ।। दर्शन-ज्ञान स्वभावी जिसने, सब विकार ही वमन किये । परम ध्यान गोचर परमातम, परम देव मम हृदय रहे ।। १३ ।। जो भव - दुःख का विध्वंसक है, विश्व - विलोकी जिसका ज्ञान। योगी- -जन के ध्यान - गम्य वह, बसे हृदय में देव महान।। १४।। मुक्ति-मार्ग का दिग्दर्शक है, जन्म-मरण से परम प्रतीत । निष्कलंक त्रैलोक्य-दर्शि वह, देव रहे मम हृदय समीप ।। १५ ।। निखिल - विश्व के वशीकरण वे, राग रहे ना द्वेष रहे । शुद्ध अतींद्रिय ज्ञानस्वरूपी, परम देव मम हृदय रहे ।। १६ ।। देख रहा जो निखिल विश्व को, कर्म-कलंक - विहीन विचित्र । स्वच्छ विनिर्मल निर्विकार वह, देव करे मम हृदय पवित्र ।। १७ ।। कर्म-कलंक अछूत न जिसका, कभी छू सके दिव्य प्रकाश । मोह तिमिर को भेद चला जो, परम शरण मुझको वह प्राप्त ।। १८ ।। जिसकी दिव्य ज्योति के आगे फीका पड़ता सूर्य प्रकाश । स्वयं ज्ञानमय स्वपर—प्रकाशी, परम शरण मुझको वह प्राप्त ।। १९ ।। जिसके ज्ञानरूप दर्पण में, स्पष्ट झलकते सभी पदार्थ । आदिग्रंत से रहित शांत शिव, परम शरण मुझको वह प्राप्त ।। २०।। जैसे अग्नि जलाती तरु को, तैसे नष्ट हुए स्वयमेव । भय-विषाद चिन्ता सब जिसके परम शरण मुझको वह देव ।। २१।। तृण चौकी शिल शैल - शिखर नहीं, आत्म-समाधि के आसन । संस्तर पू संघ सम्मिलन, नहीं समाधि के साधन ।। २२ ।। इष्ट-वियोग— अनिष्ट - योग में विश्व मनाता है मातम । हेय" सभी है विश्व - वासना, उपादेय" निर्मल ग्रात्म ।। २३ ।। " " १. चक्रवर्ती, २. इन्द्र, ३. सम्पूर्ण विश्व को जानने वाला, ४. रहित, ५. देव, ६. शिला, ७. पर्वत की चोटी, ८. प्रिय पदार्थों का बिछुड़ जाना, ९ अप्रिय पदार्थों का संयोग, १०. शोक, ११. त्याज्य, १२. ग्रहण करने योग्य ६५ Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates बाह्य जगत कुछ भी नहिं मेरा, और न बाह्य जगत का मैं / यह निश्चय कर छोड़ बाह्य को , मुक्ति हेतु नित स्वस्थ रमें / / 24 / / अपनी निधि तो अपने में है, बाह्य वस्तु में व्यर्थ प्रयास / / जग का सुख तो मृगतृष्णा है, झूठे हैं उसके पुरुषार्थ / / 25 / / अक्षय है शाश्वत है आत्मा, निर्मल ज्ञानस्वभावी है। जो कुछ बाहर है सब पर है, कर्माधीन विनाशी है / / 26 / / तन से जिसका ऐक्य नहीं, हो सुत तिय मित्रों से कैसे / चर्म दूर होने पर तन से, रोम-समूह रहें कैसे / / 27 / / महा कष्ट पाता जो करता, पर पदार्थ जड़-देह संयोग / मोक्ष-महल का पथ है सीधा, जड़ चेतन का पूर्ण वियोग' / / 28 / / जो संसार पतन के कारण, उन विकल्प जालों को छोड़ / निर्विकल्प निर्द्वद्व आत्मा, फिर फिर लीन उसी में हो / / 29 / / स्वयं किये जो कर्म शुभाशुभ , फल निश्चय ही वे देते / करे आप फल देय अन्य तो, स्वयं किये निष्फल होते / / 30 / / अपने कर्म सिवाय जीव को, कोई न फल देता कुछ भी / ‘पर देता है' यह विचार तज, स्थिर हो छोड़ प्रमादी बुद्धि / / 31 / / निर्मल सत्य शिवं सुंदर है, 'अमितगति' वह देव महान / / शाश्वत निज में अनुभव करते, पाते निर्मल पद निर्वाण / / 32 / / प्रश्न - 1. उपरोक्त भावना में कोई से दो छन्द जो आपको रुचिकर लगे हों, अर्थसहित लिखिए ? 2. प्राचार्य अमितगति के व्यक्तित्व व कर्तृत्व पर प्रकाश डालिये ? 1. सतत रहने वाला, 2. अजीव शरीरादिक, 3. अलग हो जाना , 4. संसार के पचड़ों से रहित, कार्य स्वयं करे और किये कर्म (कार्य) का फल दूसरे के प्राधीन हो तो संसार में पुरुषार्थ करने का कोई महत्त्व ही नहीं रह जाता। 66 Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com