Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
THE FREE INDOLOGICAL
COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC
FAIR USE DECLARATION
This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. TFIC tries to address these needs too. Our intent is to aid all these repositories and digitization projects and is in no way to undercut them. For more information about our mission and our fair use guidelines, please visit our website.
Note that we provide this book and others because, to the best of our knowledge, they are in the public domain, in our jurisdiction. However, before downloading and using it, you must verify that it is legal for you, in your jurisdiction, to access and use this copy of the book. Please do not download this book in error. We may not be held responsible for any copyright or other legal violations. Placing this notice in the front of every book, serves to both alert you, and to relieve us of any responsibility.
If you are the intellectual property owner of this or any other book in our collection, please email us, if you have any objections to how we present or provide this book here, or to our providing this book at all. We shall work with you immediately.
-The TFIC Team.
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
BI 98
vião
16091
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
BIBLIOTHECA ÎNDICA:
COLLECTION OF ORIENTAL WORKS
PUBLISHED BY
THE ASIATIC SOCIETY OF BENGAL
THE TATTVA-CHINTÁMANI
BY
GANGESA UPADHỰAYA.
- PART II.
ANUMANA KHANDA FROM ANUMITI TO BẠDP
FROM THE COMMENTARIES or. MATHURANATHA TARKAYAGISA
" EDITED BY
PANDIT KAMXKHYA NATUA TARKAVAGISA
PROFESSOR, SANSKRIT COLLEGE, CALCUTTA,
TERET: 89881
por MissION PRESS,
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
母 92 p,感。
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्वचिन्तामणी
अनुमानखण्डं अनुमित्यादिबाधान्त।
श्रीमद्गङ्गेशपाध्यायविरचितं ।
श्रीमथुरानाथ-तर्कवागौशविरचित-रहस्यनामकटौकासहितं ।
श्रासियाटौक-सोसाइटी-समाजानुमत्या
संस्कृतविद्यालयाध्यापकश्रीकामाख्यानाथरावागौशेन
परिशोधितम्।
------
-
कलिकाताराजधान्यां व्याप्तिसमनियन्त्रे मुद्रित ।
शकान्दाः १८१४ । ई १८८२ ।
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
शुहिपत्र।
पहिः ।
एछ।
. २९ २१
अशुद्ध । परामौ .. .. . निश्चयो .. .. साध्यभाव .. .. साध्यासामान्यीय तदत्तित्व .. ... भदेना .. .. घटाद्यमावत्येव .. करणेत्यन्ता .. .. रहस्य . .. .. योजाभावे . .. .. सान .. .. ..
शुद्ध। परामर्शो.. .. निश्चये .. .. साध्याभाव .. साध्यसामान्यौव.. तपदवृत्तित्व .. भेदना .. .. घटाद्यभावस्यैव.. करणेत्यत्यन्ता .. रहस्ये .. .. योजनाभावे .. साधन .. ..
8
: : : : : : : : : : : : : : : : : : : :
: : : : : : : : : : : : : : : : : : : :
साधन
च कास्तीति चकास्तौति .. तदा .. .. .. वहाँ .. माभूत् । .. .. , मा भूत् .. .: उपंधी.. .. .. उपाधौ .. .. १९६ विद्यमान .. .. विद्यमानः .. १६८ संसायहो.. .. संसर्गाग्रहो .. २.. पाकशाकाल .. शाकपाकजस्व .. २०० यामते," .. .. .ह्याशयते .. २३१
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
३५०
त्याशयतेचेति ' .. व्याघातनिवृत्या .. अथिवी .. .. स्ततदुभाभ्यां.." .. सत्त्यर्थः .. .. तत्पुषीय . .. .. धटकतयैव .. .. मध्यत्वञ्च .. .. भगवज .. .. भावत्वन .. .. रहस्य .. .. भिचारस्य .. .. पाधित्वा ... .. न्यथा .. .. .. यदेत्यर्थको' ... वच्छे .. .. .. गुणाप्यत्वे . .. .. निरूपयितुं ... .. प्रमामानु .. .. ध्याप्ति सारणा .. तदानी .. .. बसधारणं .. .. कथ .. .. .. 'वा लुमि .. .. केवमन्वयि .. ..
शुद्ध। . एई। . पतिः । त्याशयते च," इति २१२ .. १ व्याघातनिवर्त्या . २३९ ... प्रथिवी .. .. २३७ .. स्तदुभाभ्यां .. २४० .. सत्येत्यर्थः । .. २५५ .. तत्पुरुषोय .. २५५ ।। घटकतयैव .. २६६ साध्यत्वञ्च .. २७८ भगवज् ... .. २८६ भावत्वेन .. .. रहस्ये .... व्यभिचारस्य .. उपाधित्वा .. न्येषा .. .. यंदेत्यर्थकः, .. वच्छे- .. गुणाव्याप्यत्वे निरूप्य .. प्रमानु .. .. १६३ আম্বিয়া .. ४७२ तदानों .. .. १७० असाधारणं .. कथं .. .. वानुमि .. .. केवलान्वयि .: ५६२
:: : : : : : : : : : : : : : : : : : : : : : : : :
:
M
808
800
8७६
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
..
७७
२३
: : : : : : : : : : : :
२६
विषयः। हेत्वाभाससामान्यलक्षणं .. सव्यभिचारपूर्वपक्षः सव्यभिचारसिद्धान्तः साधारणपूर्वपक्षा অধ্যায়বিল্লাল बसाधारणपूर्वपक्षः असाधारणसिद्धान्तः अनुपसंहारिपूर्वपक्षः खनुपसंहारिसिद्धान्तः विण्द्धपूर्वपक्षः .. विरइसिद्धान्तः .. .. सत्यतिपक्षपूर्वपक्षः सत्प्रतिपक्षसिद्धान्तः असिद्धिपूर्वपक्षः .. बसिडिसिद्धान्तः बाधपूर्व पक्षः ... , बाधसिद्धान्तः .. ..
N
: : : : : : : : : : : : : :
२
८३८
.: : : : : : : : : : : : : : : : :
६५
८०१
G९७
: : : : :
६१६
: : ::
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
पति १
..
: : :
शुद्ध। एई। काशान्ता .. .. काशात्यन्ता .. ५६२ प्रतित्वात् .. .. प्रतियोगित्वात् .. ५७६ वादि .. ..
वयादि .. .. श्रौद् .. .. .. श्रीमद् .. .. प्रनायक
प्रामाण्यक .. परमान्च
परमाण्व परमानु
परमाण तद्भूत
उद्भूत .. .. पराणु
परमाणु .. .. নিয়ম
विशेष .. .. यवत्ता
व्यारत्ता.. .. नागत्या
नायत्या .. .. प्रमागति
प्रमाणेति मापाद्य .. ..
मुपपाद्य .. मापत्तिः .. .. . भर्थापत्तिः ..
: : :
: : :
: :
: : : : : :
: : : : :
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८३
: :
... ... ..
: :
8०७
8३२
: : :
१४२
ge)
: : :
५२
६४५
विषयः। उपाधिदूषकतावीजपूर्बपक्षः उपाधिदूषकतावीजसिद्धान्तः उपाध्यामासनिरूपणं । .. पक्षतापूर्वपक्षः .. .. पक्षतासिद्धान्तः .. .. परमर्शपूर्वपक्षः ... परामर्श सिद्धान्तः .. केवलान्वय्यनुमानपूर्वपक्षः .. • केवलान्वय्यनुमानसिद्धान्तः .. 'केवलव्यतिरेक्यनुमानपूर्वपक्षः केवलव्यतिरेक्यनुमानसिद्धान्त संशयकरणकापत्तिपूर्वपक्षा संशयकरणकापत्तिसिद्धान्त अनुपपत्तिकरणकाापत्तिः अवयवविभागः .. .. न्यायतक्षणं .. .. अवयवलक्षणं .. .. प्रतिज्ञालक्षणं .. हेतुलक्षणं .. बन्वयिहेतुलक्षणं .. व्यतिरेकि हेतुलक्षणं .. হামান্য । उदाहरणविशेषलक्षणं .. उपमयसामान्यविशेषणक्षणानि निगममणक्षणं .. ..
: : : : : : : : : : : : : : :: : : : : : : : :
: : : : : : : : : : : : : : : : : : : : : : : :
: : : :
: :
..: :..: :: :: : :
: :
७२५
: : : : :
७३७
'.980
७४१
..
.. . .. .. .
8E ७५९
.
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामणैा अनुमानखण्डे अनुमित्यादि
बाधान्तभागस्य सूचीपर्च।
: : : : :
..
विषयः। अनुमियनुमानलक्षणं .. अनुमानप्रामाण्यं .. व्याप्तिपतकं .. .. सिंह-याव्याप्तिलक्षणं .. অভিহ্মাম্বলাবন্নিালা। व्याप्तिपूर्वपक्षः .. .. याप्तिसिद्धान्तलक्षणं .. सामान्यामावः .. .. विशेषव्याप्तिः .. .. अतएव चतुलयं .. .. (याप्तिग्रहोपायपूर्वपक्षा व्याप्तिग्रहोपायसिद्धान्तः वर्कनिरूपणं .. .. व्यास्थनुगमः सामान्यलक्षणापूर्वपक्षः सामान्यपक्षणासिद्धान्तः .. 'उपाधिवादपूर्वपक्षः उपाधिवादखिद्धान्तः .. उपाधिविभागः .. ..
: : : : : :
: : : : : : : : : : : : : : : : : : :
: : : : : : : : : : : : : : : : : : :
: :
: : : ::
२६
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
ॐनमः शिवाय ।
तत्त्वचिन्तामणौ
अनुमानाख्यद्वितीयखण्डम् । प्रत्यक्षोपजीवकत्वात् प्रत्यक्षानन्तरं बहुवादिसम्मतत्वादुपमानात् प्रागनुमानं निरूप्यते ।
अनुमानास्यहितीयखण्डरहस्यम् ! न्यायाम्बुधिष्कृतसेतुं हेतुं श्रीराममखिलसम्पत्तेः। तातं त्रिभुवनगौतं तालङ्कारमादराबवा ॥ श्रीमता मथुरानाथ-तर्कवागौशधौमता । विशदौत्य दय॑न्ने द्वितीयमणिफक्किकाः ॥
श्राविक्षिकौपण्डितम डलीषु मत्ताण्डवैरध्ययनं विनापि। मदुतमेतत् परिचिय धीराः
निःशङ्कमध्यापनमातनुध्वम् ॥ यद्यपीदं बहुभिर्बहुषु बहुधा चर्चितं ज्ञायते च कैक्षित् मामाहेत्वाभासान्तं, तथापि तमानास्थानविनतमशेषाप्रकाशकं बज
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
- तत्त्वचिन्तामण
" तब यातिविशिष्ट-पक्षधर्मताजानजन्यं ज्ञानमनुमितिस्तत्करणमनुमानं तञ्च लिङ्गपरामरौं न तु परामृष्यमाणं लिङ्गमिति वक्ष्यते।।
तरकुतर्कसम्बलितमसाम्प्रदायिकश्चातो व्यामोशायैव केवलं सर्वेषां भवतीति सर्वार्थजिप्टक्षया रात्तर्कमामूलव्याख्याय वैशद्याय च ममात्र परं निर्बन्धः । प्रत्यक्षं निरूपितभिदानौं अनुमानं निरूपजौथमतः भिव्यावधानाय(१) प्रतिजानौते(२), 'प्रत्यक्षानन्द्ररमित्यादिना, अन्यथा(२) अरण्यरुदितं स्थादिति भाव:(४) । 'प्रत्यक्षानन्तरं' प्रत्यक्षनिरूपणानन्तरं, 'उपमानात् प्राक्' उपमाननिरूपणात् प्राक्, 'अनुमानं निरूयते' इत्यन्वयः, निरूप्यते' लक्षण-स्वरूप-प्रामाण्या. दिभि ष्यते, लक्षण-खरूप-प्रामाण्यादिप्रकारकज्ञानानुकूलव्यापारविषयोऽनुमानमित्यर्थः । व्यापारः शब्दप्रयोग एव, तदिषयता व्यापारानुबन्धिन्येव । प्रत्यक्षग्रन्थानुमानग्रन्थयोरेकवाक्यताप्रति
(१) शिष्यशुश्रूषायै इत्यर्थः । . (২) মনিল্লা অ আত্মনিলালসন্ধানীজুল
पारः, तादृशव्यापारश्च प्रत्यक्षानन्तरमियादि निरूप्यते इत्यन्तं व वर्तमानसामीप्यविहितवटा निष्पन्नेन निरूप्यते इति वाक्येन प्रयोगा करणकालाव्यवहितोत्तरकालीनत्वेन निरूपणबोधनात् । . (३) निरूपणस्य प्रतिज्ञापूर्वकत्वाभावे । ... (७) अरण्यरोदनं यचा निष्पालं तथा तापनिरूपणं स्यात्।।
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनुमितिनिरूपणं।
पत्तये प्रत्यक्षानुमानयोः सङ्गतिवरूपेण सङ्गतिमपि दर्शयति, 'प्रत्यचोपजौवकालादिति अनुमानस्य प्रत्यक्षकार्य्यवादित्यर्थः । भवति हि व्याप्तिज्ञानात्मकमनुमानमिन्द्रियात्मकप्रत्यक्षफलमिति भावः। अत्र ज्ञानजन्यजिज्ञासाप्रयोज्यत्वं पञ्चम्यर्थः, अन्वयश्चास्य प्रत्यक्षानन्तरनिरूपणे, तथाच प्रत्यक्षोपजीवकत्वज्ञानजन्यजिज्ञासाप्रयोज्यप्रत्यजानन्तरनिरूपणविषयोऽनुमानमित्यर्थः । एतेन सङ्गतिवरूपेण मङ्गतिर्दर्शिता, अनन्तराभिधानप्रयोजकजिज्ञासाजनकज्ञानविषयत्वं कि मङ्गतित्वं, तथाचानन्तराभिधाने प्रत्यक्षकार्यत्वज्ञानजन्यजिज्ञासाप्रयोज्यत्वहे प्रत्यक्षकार्यत्वेऽपि अनन्तराभिधानप्रयोजकजिज्ञामाजनकज्ञानविषयत्वग्रहात् तुल्यवित्तिवेद्यत्वेन उत्तरकालं मानसबोधसम्भवात् । एकवाक्यत्वञ्च एकप्रयोजनप्रयोजनकप्रतिपत्तिविषयार्थकत्वं, पूर्वग्रन्थार्थप्रतिपत्तिप्रयोजनायोजनकप्रतिपत्तिविषयार्थकत्वमितिः यावत् प्रयोजनन्तु परम्परया मुक्तिरेव । एकवाक्यताप्रतिपत्तौ च मङ्गतिप्रदर्शनं लिङ्गज्ञानविधया हेतः, यत् यत्मङ्गतिमत्प्रतिपादक'वाक्यं भवति तत्तत्प्रतिपादकग्रन्थेनैकवाक्यं भवति यथा मन्त्रिकर्षादि
ग्रन्थ एव प्रत्यक्षकार्य्यत्वैककार्यकारित्वादिसङ्गतिमत्प्रतिपादकवाक्यं - भवति प्रत्यक्षप्रदिपादकग्रन्थेनैकवाक्यमपि भवतीति व्याप्तेः। न चैतादुकवाक्यताप्रतिपत्तिर्न प्रकृतोपयोगिनीति वाच्यम्। तत्प्रतिपत्तः प्रत्यक्षग्रन्थप्रयोज्यफलेच्छावतोऽनुमानग्रन्थप्रवृत्तावुपयोगित्वात्। मन्वनुमाने प्रत्यक्षोपजीवकत्ववञ्चक्षुराद्यात्मके प्रत्यक्षेऽप्यनुमानोपजीवकत्वस्थाविशिष्टतया अनुमाननिरूपणानन्तरं प्रत्यक्षनिरूपणापत्तिः । भवति हि कार्य्यमात्रेऽदृष्टस्य हेतुतयः चक्षुरादावष्यदृष्टं हेतुः तचादृष्टं
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
सावचिन्तामणौ
दीपदानादी प्रवृत्या, तत्प्रवृत्तिश्च दीपदानादा खेष्टसाधनताद्यनुमानादित्यदृष्टद्वारा चक्षुरादिकमनुमानोपजीवका न चादृष्टाद्वारकोपजौवकत्वमेव मङ्गतिरिति वाच्यम्। खेष्टसाधनतानुमितिहेतुकप्रवृत्यादिक्रमेण घर्षणदिजनितायां खण्डचक्षुरादिव्यतावदृष्टदारापि परम्परयानुमानोपजीवकत्वसत्त्वात् । न च प्रवृत्त्यद्वारकं जन्यत्वरूपं वा(१) उपजीवकत्वमेव सङ्गतिरिति वाच्यम्। मनमोऽनुमानत्वनये त्रात्ममनःसंयोगस्थ निर्विकल्पादिद्वारा प्रत्यक्षप्रमितिकरणत्वेन प्रत्यक्षप्रमाणरूपस्य साक्षान्मनोरूपानुमानजन्यत्वेन तादृशानुमानोपजीवकत्वस्थापि प्रत्यक्षे सत्त्वात् । एतेन यत्किञ्चित्ममितिविभाजकोपाध्यवच्छिन्ननिरूपितफलोपधानात्मककरणत्वावच्छेदेन उपजीवकलमेव सङ्गतिः तच्चानुमान एवास्ति न तु इन्द्रियात्मकप्रत्यक्षप्रमाणे 'मनः-श्रवणयोरजन्यत्वात् फलोपधानात्मकत्वविवक्षणदौश्वरौयव्याप्तिज्ञानस्यास्मदाद्यनुमितिस्वरूपयोग्यकरणत्वेऽपि(२) अनुमाननिष्ठप्रत्यचोपजीवकत्वस्य न मङ्गनित्यहानिरित्यपि प्रत्युक्तम् । मनमोऽनुमितिकरणवनये नुमितिकरणत्वावच्छेदेनापि प्रत्यक्षोपजीवकत्वाभावात् तादृशोपजीवकत्वस्यैव सङ्गतित्वे शब्दे उपमानोपजीवकत्वस्याप्यसङ्गतिलापाताच्च व्यवहारादितोऽपि शक्तियहात् शाब्दधीकरणत्वावच्छेदेलोपमानोपजीवकवाभावादिति चेत् । न । प्रत्यनानुमानयोः परस्परं उपजीवकत्वाविशेषेऽपि यत् यदुपजौवकं तत् तविरूपणानन्तरनिरूप्यमिति नियमाभावादेव अनुमाननिरूपणानन्तरं , प्रत्यक्षनिरूपण(१) परम्परयोपजीवकावं न साक्षानन्यत्वमपि तु प्रयोज्यत्वमेव । (२) सरूपयोग्यत्वेपीवि ख०। ।
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनुमितिनिरूप।
प्रसङ्गविरक्षात् प्रत्यक्षानन्तरमेव अनुमानं निरूपितं, में खनुमा- . नानन्तरं प्रत्यक्षमिति पत्र खतन्त्रेच्छस्थति न्यायेन(१) इच्छायाएव वौजलादिति दिक्। .
अनुमानग्रन्थोपमानग्रन्थ्योरेकवाक्यताप्रतिपत्तयेऽनुमानोपमानयोरपि सङ्गतिमत्रैव दर्शयति, बड़वादौति। न चैतत्प्रदर्शनमनुमाननिरूपणावसर एवोचितमिति वाच्यम्। स्वतन्त्रेच्छस्य नियन्तुमशक्यत्वात् । न च तथाप्यनुमानस्य बड़वादिसम्मतत्वोत्कीर्तनात् कथमुपमाने मङ्गतिलाभ इति वाच्यम् । 'बहुवादिसम्मतत्वादित्यस्वीपमाने बहुवादिसमतानुमानोपजीवकत्वादित्यर्थात् । भवति च गोसदृशो गवयपदवाच्य इत्यतिदेशवाक्यार्थज्ञानात्मकोपमाने गवादिपदनियाहकानुमानोपजीवकत्वमिति भावः । अत्रापि ज्ञानजन्यजिज्ञासाप्रयोज्यत्वं पञ्चम्यर्थः, अन्वयस्तख्य 'उपमानादित्यत्र उपमानपदार्थ उपमाननिरूपणे ।
. . दौधितिकृतस्तु बहुवादिसम्मतत्वोत्कीर्तनेनावसरस्य सङ्गतित्वं सूचते, तथा हि अनुमानस्य बहुवादिसमतत्वेन निरसनौयाल्पवादिविप्रतिपत्तिकतया बहुतरदुःखाजनकप्रतिपत्तिकत्वादत्रैव प्रथम युत्पिमोर्जिजामा न तु उपमाने तस्थाल्पवादिसम्मतत्वेन निरसनीयबड़वादिविप्रतिपत्तिकतया बडतरदुःखानुबन्धिप्रतिपत्तिकत्वात्, तथाच अनुमाने प्रथमं प्रतिबन्धको तशिव्यजिज्ञासोत्पनौर) तत्रि
(९) खतवेवस्य पर्यनुयोगानईत्वमिति न्यायेनेत्यर्थः। (२) उपमाननिरूपणप्रतिबन्धकीभूशिष्यजिज्ञासोत्पत्ती इत्यर्थः।
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
तवचिन्तामो
रूपणे च() तमिवृत्त्यैवावसरसङ्गत्या उपमाननिरूपणमिति भावः इत्याङ:() तन्नये ज्ञानप्रयोज्यप्राथमिकजिज्ञासाप्रयोज्यत्वमव पञ्चम्यर्थः, अन्वयश्चास्य उपमानात् प्राङ्गिरूपणे एवञ्च बड़वादिसमतत्वज्ञानप्रयोज्यप्राथमिकजिज्ञासाप्रयोज्योपमानप्राङ्गिरूपणविषयोऽनुमानमित्यन्वय इति ध्येयम् ।
मिश्रास्तु प्रत्यक्षोपजीवकत्वादित्यादिः ‘निरूप्यत इत्यन्तग्रन्थोऽत्र कस्खचित् कल्पितो न तु वास्तविकः पाठः । 'प्रथानुमानं निरूप्यते' इत्येव पाठोवास्तविकः, तावतैव सिद्ध-साध्यसमभिव्याहारबललभ्यस्य हेतु-हेतुमद्भावस्य प्रतिबन्धकोभत जिज्ञासानिवर्तकसिद्धत्वकथनेनावसरस्य च मङ्गतित्वलाभसम्भवात्, अन्यथा शब्दखण्डेप्युपमानोपजीवकत्वात् उपमानानन्तरं शब्दोनिरूप्यते इत्यस्य वक्रव्यवापातादित्याङः।
अनुमिते. प्रत्यक्षादिप्रमितिभिन्नत्वज्ञानं विना अनुमितिकरणत्वेन अनुमानस्य दूतरभिन्नत्वज्ञानं न सम्भवति अनुमिति-प्रत्यक्षथोरभेदग्रहात् प्रत्यक्षाादेप्रमितिकरणे व्यभिचारज्ञानापत्तेः, अतः प्रथमतोऽनुमितेरितरभेदानुमापकमाह, 'तत्रेति, अतोनार्थान्न
रावकाशः ।
केचित्तु अनुमितिकरणत्वमनुमानलक्षणं करणीयं, तशामञ्च नानुमितिज्ञानं विमा सम्भवति तस्य तद्दटितमूर्तिकत्वा
(१) अनुमाननिरूपणे इत्यर्थः, वन्निबंधने इति ख• । (२) इति वदन्तीवि हम.।।
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
धनुमितिनिरूपणम् ।
दतः प्रथमतोऽनुमितिं ज्ञापथति, ‘तचेति, अतोनार्थान्तरावकाशइत्याः ।
'तत्र' कर्त्तव्ये लक्षणादिप्रकारकानुमाननिरूपणे, सप्तम्यर्थीविशेषणता, अन्वयश्चास्यानुमितिरित्यनेन, तथाच कर्त्तव्यलक्षणदिप्रकारकानुमाननिरूपणविशेषणीभूता अनुमितिरौदृशं ज्ञानमित्यन्वयः । “व्याप्तिविशिष्टेति व्याप्तिविशिष्टश्च तत् पक्षधर्माताजानधेति कर्मधारयः समासः, तथाच 'व्याप्तिविशिष्टं' व्याप्तिप्रकारक, यत् 'पक्षधर्मताज्ञान' हेतोः पक्षे सम्बन्ध ज्ञानं, तज्जन्यज्ञानमनुमितिरित्यर्थः। भवति च पर्वतोवहिमान् इत्याद्यनुमितिलडिव्याप्यधूमवान् पर्वत इत्यादिव्याप्तिप्रकारक-पक्षनिष्ठ हेतुसम्बन्धज्ञानजन्येति लक्षणसमन्वयः । अत्र धूमवान् पर्वत इत्यादिकेवलपक्षधर्माताज्ञानजन्ये तदनुव्यवसाये धूमवत्पर्वतवान् देश इत्यादेिविशिष्टवैशिष्यबोधादी चातिव्याप्तिवारणाय 'याप्तिप्रकारकेति। न च पक्षविशेष्यक हेतुसम्बन्धज्ञानलेन हेतुत्वविवक्षणेऽप्येतदोषवारणसम्भव इति वाच्यम् । असम्भवापत्तेः अनुमितावपि तेन रूपेणहेतुत्वात् । वझिव्याप्योधूम इत्यादिकेवलव्याप्तिप्रकारकज्ञानजन्ये वहिव्याप्यधूमवान् पर्वत इत्यादिज्ञानेऽतिव्याप्तिवारणाय ‘पक्षधर्मातेति। वहिव्यायधूमवान् पर्वत इत्यादिपरामर्शजन्ये संस्कारेऽतियाप्तिवारणाय चरमज्ञानपदं । ननु तथापि वशिव्यायधूमवन्महानसमदृशः पर्वतपदवाच्य इत्यतिदेशवाक्यार्थ, जानजन्यायामयं पर्वतपदवाच्य इत्युपमितावतिव्याप्तिः तम्बमकीभूतस्यातिदेशवाक्यार्थज्ञानस्यायं वहिव्यायधूमवन्म हानसमदृशः इति मादृश्यप्रत्यक्षस्य च व्याप्तिप्रकारकपक्षधर्मताशानत्वात् । ईश्वरीय
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
तावचिन्तामयी
तादृशज्ञानमादाय घटादिशाब्दबोधादौ पातिव्याप्तिः । नरयाप्तिप्रकारक-पक्षधर्मताज्ञानजन्यत्वमत्र तादृभनित्रयत्वावशिवजनकताप्रतियोगिकजन्यवमिति नोपमित्यादावतिव्याप्तिः तत्र तादृशनिसमावेना हेतुत्वादिति वाच्यम् । असम्भवापत्तेः वकिव्याप्योधूमः श्रालोकवान् पर्वतः वहिव्याप्योधूमः धूमवान् पर्वत इत्यादि ज्ञानादप्यनु मितिप्रसङ्गादनुमितावपि तेन रूपेणाहेतृत्वात् । न च व्याप्तिप्रकारकपवधताज्ञानजन्यत्वं पक्षविशेष्यकसम्बन्धावगाहितांचे व्याप्तिप्रकारकनिश्चयत्वावच्छिन्नजन्यत्वं, पक्षविशेष्यकसम्बन्धावगाहितांभे व्याप्तिप्रकारकत्वञ्च विशिष्टवैशिष्टावगाहित्वपर्यवसबमिति नासम्भवः, वडिव्याप्योधूम पालोकवान् पर्वत इत्यादिज्ञानस्य व्याप्तिविशिष्टवैशिष्वावगाहित्वाभावादनुमितो तेन रूपेण हेतुत्वे बाधकभावादिति वाच्चं। व्याप्नेः सामानाधिकरण्यानतिरेकितथा वझिसमानाधिकरणधूमवान् पर्वत इत्यादिज्ञानदिप्यनुमितिप्रसङ्गादनुमितो तेन रूपेणाहेतुत्वादिति चेत्। न । हेतुरधिकरणे प्रकारः, अधिकरणं वृत्तित्वे, वृत्तित्वमभावे, प्रभावः प्रतियोगितायां, प्रतियोगित्वमवच्छेदके, अवच्छेदकमन्योन्याभावे, अन्योन्यभावश्च माध्यतावच्छेदके, तच्च माधे, माध्यमधिकरणे, अधिकरणं वृत्तित्वे, वृत्तित्वं हेती, हेतु: पचे इत्याकारकविलक्षणविषयताकनिश्चयत्वावनिकजनकताप्रतियोगिकजन्यताया विवक्षितत्वात्। अत एव प्रथमज्ञानपदमपि सार्थकं संशयान्यतादृशविलक्षणविषयताकत्वेन हेतृत्वप्रवे) असम्भवापत्तेः इच्छादितोऽपि अनुमित्युत्वादप्रजात्() अनुमितावपि
(१) अनुमित्यनुत्पादादिवि क०, ख.।
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
पमिविनिरूपणं।
तेन रूपेणाइतलांत् । न चानुमितावाटौताप्रामाण्यकतापनिययत्वेनैव हेतुत्वादसम्भव इति वाच्यम्। विशेषण-विशेष्यभावे विनिगमकाभावेनाप्रामाण्यग्रहाभावस्थ पृथगेव हेतुतथा कारणतावच्छेदके तस्थाप्रवेशात् तस्य प्रवेशेऽपि अधिकन्विति न्यायेन तादृशनिवयवस कारणतावच्छेदकवानपायाच। अथ तथापि वकिव्याप्यंधूमवत्पर्वतवान् देश रस्यादिविभिष्ट-वैशिष्यप्रत्यक्षे तादृशविभिष्ट-वैशिष्वभाब्दबोधे चासिंथाप्तिः दण्डोरको न वेति संशये रकदण्डवानिति ज्ञानानुपान् तत्तविशिष्टवैशिष्यज्ञानं प्रति तत्तविशेषणतावच्छेदकप्रकारक-तत्तदिशेषणनिश्चयत्वेनैव कारणतया तत्रापि यथोकनिश्चयत्वेन हेतुत्वादिति चेत् ।। भावाविषयकवेन प्रतियोगित्वाविषयकवेन वा परमज्ञानविशेषणात् यथोकविशिष्ट-वैशिव्यप्रत्यक्षादेश्व() व्याप्तिघटकतथा
भावादिविषयकवात् । न चैवं पक्षध-तापदवैयर्थं तादृनविण- . वणव्याप्तिप्रकारताकनिश्चयत्वावचित्रकारणताप्रतियोगिककार्यताशाख्यभावाविषयक ज्ञानत्वस्यैव सम्यक्त्वात् वझियाप्योधूम इत्यादिकेवलव्याप्तिप्रकारकज्ञानजन्यस्य वकिव्याप्यधूमवान् पर्वत इत्यादिज्ञानस्य. व्याप्तिघटकतया(२) प्रभावादिविषयकत्वेनैव वारणदिति वाच्यं । असम्भवापत्तेः अनुमिति प्रत्यपि तेन रूपेणाहेतुबात् . तादृशव्याप्तिप्रकारिताकमिश्यत्वमपेक्ष्य लाघवेन ज्ञानवेन मनसेन वानुमिति प्रति करणत्वात् परामर्श हेततयैवातिप्रमाभ
| (৫) এখীবিঘ্নিগিৰীয়াইহিনি । (२) व्यानिशानात्मकतयेविक।
.
2
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामगै
मात् । अतएव स्थानुन वेति संशयोत्तरं जायमानऽयं स्यातुरिति प्रत्यचे इदं न रजतमिति भ्रमोत्तरं जायमाने इदं रजतमि त्यादिप्रत्यक्षे च स्वातन्व्येण विशेषणज्ञानविधया वा स्थानत्वव्याप्यवककोटरादिमान् रजतत्वव्याप्यताकचक्यविशेषवामित्यादिविभेषदर्शनस्य व्याप्तिप्रकारक-पक्षधर्मातानिश्चयात्मकस्य जनकत्वेऽपि नातिव्याप्तिः विशेषदर्शनस्य विपरीतविश्वयविरोधित्वेन विशेषणक्षामलेन वा हेतुतया एतादृशनिश्चयत्वेनाकारणत्वात् तत्र व्याप्तेरुपनौतभानसामग्रीसत्त्वेन व्याप्तिघटकतया प्रभावादिविषयकत्वाञ्च, न वा तमानयेत्यादौ तच्छन्देन व्याप्यादिविशिष्टोपस्थितिद्वारा अनिते वडिव्यायधूमवत्पर्वतमानयेत्यादिशाब्दबोधे महावाक्यार्थज्ञानस्य
पदार्थापस्थितिविधया अवान्तरवाक्यार्थज्ञानजन्यतयोपनर्यार्थज्ञान. जन्ये न्यायार्थज्ञाने वातिव्याप्तिः पदार्थापस्थितेः कारणतावच्छेदकेऽतिरिकस्य पदंज्ञानजन्यत्वस्य प्रविष्टतया निश्चयवस्थाप्रविष्टतया च तचापि तादृशनिश्चयत्वेनाकारणत्वात् व्याप्तिघटकतया अभावार दिविषयकत्वाच्च। नापि परामर्शानुव्यवसाये वहिव्याप्योधूमः धूमवान् पर्वतः वहिव्याप्योधूमः पालोकवान् पर्वत इत्यादिज्ञानानुव्यवसाये वा विषयविधया परामर्शस्य तादृप्रज्ञानस्य च हेतुत्वेऽयतिव्याप्तिः अनुव्यवसायं प्रति परामर्शदेविषयत्वेन सत्तड्यक्तित्वेन वा हेतुतयां तचापि यथोक्कनिषयत्वेनाकारणत्वात् व्याप्तिघटकतथा प्रभावादिविषयकत्वाञ्च । एवमनुमितिवदापत्तावपि परामर्थस्य देवत्वेऽप्यापत्तौ नातिव्याप्तिः तचाप्रामाण्यवानास्वन्दितयथोक्तानियत्वेन हेततया कारणतावच्छेदकोऽतिरिकथाप्रामाण्यवानास्वन्दितवस
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
अमितिनिरूपणं।
प्रवेशात् व्याप्तेरुपनौतभानसामग्रीसत्त्वेन व्याप्तिघटकतया तथाप्यमावादिविषयकत्वाच । न वा वहिव्याप्यधूमवान् पर्वत इत्यादिविशिष्टस्मरणे तादृशविशिष्टानुभवस्य हेतुत्वेऽपि प्रतिव्याप्तिः, तस्य व्याप्तिघटकतया प्रभावादिविषयकत्वात् तत्र तादृशविलक्षणविषयताकशानवेन ज्ञानवेन() वा तादृशविशिष्टानुभवस्य हेतुतया तादृशविलक्षणविषयताकनिश्चयत्वेनाजनकत्वाच्च। न चैवं तादृप्रसंशयात् स्मत्यापत्तिः, संस्काराभावादेव ततः स्मरणानुत्पत्तेः संस्कार प्रति तादृशनिश्चयत्वेनेव हेतुत्वात् । न च विनिगमकाभावः, संशयस्थले संस्कारादिकल्पनागौरवस्यैव विनिगमकत्वादिति द्रष्टव्यार) न चाभावाद्यविषयकत्वेन चरमज्ञानविशेषणेऽभावादिविषयकानुमितौ अव्याप्तिः माध्य-हेलादेरननुगमात् एकोपादानेऽन्यानुमितावव्याप्तिः व्यतिरेक्यनुमितौ चाव्याप्तिः तच यथोक्तविलक्षणविषयताकनिषयत्वेना हेतुत्वादिति . वाच्यम्। तादृशकार्य्यतावदर्भवाद्यविषयकज्ञामवृत्तिप्रत्यक्षासमवेतधर्मसमवायित्वस्य विवक्षितत्वात्, इत्थञ्च पर्वता वझिमान् घटः सत्तावानित्याद्यन्वयव्याप्तिज्ञानजन्याभावाद्यविषयकानुमितिव्यक्तिमादायैवाभावादिविषयकानुमितौ अन्यसाध्यकानुमितौ व्यतिरेक्यालुमितौ च खक्षणसमन्वयः तवृत्तितादृअधर्मस्थानुमितिबस्य सर्वच सत्त्वात् । अत्र सत्ता-गुण-ज्ञानत्वानुभवत्वमादायातिव्याप्तिवारणाय
(१) मरणं प्रति विलक्षणसंखारस्य हेतुतयैवाविप्रसङ्गवार सम्भवतीति भावः। (२) संखारं प्रति ज्ञानत्वेन हेतुत्वे संशयोत्तरं संस्कारापत्तिरिति भावः ।
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
तात्यचिन्तामणी
मामवेतेति, काधिकसम्बन्धनानुमितिवथापि प्रत्यक्षवृतिबादतियानिवारणाय समवायित्वमिति। न चैवं चरमज्ञानपदं व्यर्थ परामर्शजन्यसंस्कारस्य व्याप्तिघटकतथा प्रभावादिविषयकत्वेनैव वारपादिति वाच्यम्। समवायेन तादृशकायंतावदभावाविपथकज्ञानतितासाभाय तदुपादानादन्यथा जन्यमानस्य कालोपाधितया काधिकसम्बन्धन संस्कारव-घटत्वादेरप्यनुमितिवृत्तितया अतिव्यालापतेः । वस्तुतस्तु तादृशकार्यताश्रयज्ञानसमवेत-प्रत्यक्षासमवेतधर्मसमवाथित्वमेव वक्रव्यं न त्वभावाद्यविषयकत्वेन तज्ज्ञानं विशेषणोयम्। दण्डोरको न वेति संभयोत्तरमपि रक्तव-तदभाववद्दण्ज्यानिति रकत्वांचे संशयाकारस्थ रकत्व-तदभावविभिष्टवैभिव्यविषयताकज्ञानसानुभवसिद्धतया लाघवात् तत्तविशेषणतावच्छेदकप्रकारकतत्तदिशेषरज्ञानलेनैव विशिष्टवैशिष्यबोधं प्रति हेतृतया वहिव्याप्यधूमवत्पर्वतवान्देश इत्यादिविशिष्ट-वैशिवशाब्दबोधे अतिव्याप्तिविरहात् तस कारणतावच्छेदके निश्चयत्वस्याप्रवेशात् हेतूतावच्छेदकादिरूपेरू हेलादिभिवविषयकभ्रमरूपपरामादप्यनुमित्युत्पत्त्या अनुमितेः कारहाक्छेदके हेत्वादेर्न प्रवेशः, विशिष्टवैशिष्यवोधस्य कारणतापदके च हेवादेरवयं प्रवेश: हेतुतावच्छेदकादिरूपेण हेला विभिन्न विषयकनिधयात् हेतुतावच्छेदकरूपेण हेत्वादिविषयकविभिष्टवैभिव्यबोधानुत्पत्तेरतोनिश्चयत्वस्थ तत्कारणतावच्छेदके प्रवेशेऽषतिष्याप्तिविरहाच अनुमिति प्रति येन रूपेण परामर्शस्य कारणता तदवच्छिनकारणताया एव लक्षणघटकत्वात् , अापत्तेच कारणतावरेदके प्रामाणसानांस्कन्दिनवस्थाधिकस्य प्रवेशादेव वार
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
अमितिविरूप।
मात् प्रत्यक्षासमवेतेत्यनेनैव करणाच, इत्यच परामजन्यकारवारणयेव परमशानपदं। न चाभावाद्यविषयकवविशेषणानुपादाने या विषयविशेषे नियमतोवहिव्यायधूमवत्पर्वतनिधय एवोहोधकविधया हेतः तादृप्रविषयविशेषे स्पतिवमादाय प्रतिमा ऽतिष्थाप्तिः तच लाघवात् मामान्यतोवडिव्यायधूमंवत्पर्वतनियम बेमेव उद्दोधकविधया हेतुत्वादिति वाच्यं । परमज्ञानपदस्यानुभवपरवात् तथाच तादृशविलक्षणविषयताकनिश्चयत्वावच्छिनकारताप्रतियोगिककार्यताश्रयानुभवसमवेतप्रत्यक्षासमवेतधर्मसमवाधिलमिति लक्षणं फखितमतो न कोऽपि दोष इति सम्प्रदायविदः । नदसत् अनुमिति-परामर्शयोस्तत्तयक्तित्वेन हेतु-हेतुमहावनये - बुमितावपि(१) तादृशनिश्चयत्वेनाइतवादसम्भवापत्तेः(२) ।
(१) हेतु-हेतुमदावाद मितापीति का। • (२) रतदनन्तरं ख-चिकितपुस्तके अधिकः पाठो वर्तते यथा, हेतुभेदेन हेतुतावच्छेदकसम्बन्धभेदेन वानन्तकार्य-कारणभावापत्त्या परा. मोनानुमितिहेतुः, किन्तु यल्लिङ्गकपरामानन्तरं तत्तत्पक्षकतत्तत्माध्यकानुमितिरनुभवसिद्ध तत्तलिङ्गकपरामर्शभावकूटविशिछात्म. त्वमेव तत्तत्पक्षक-तत्तत्साध्यकानुमितौ समवायसम्बन्धेन प्रतिबन्धकं प्रतिबन्धकता च सामान्यतस्लकिपरामर्शाभावकूटविशित्वेन न तु विशियात्मवादः प्रवेशः गौरवात् तेन सत्तादिमादाय न विनिगमनाविरः। गच तथापि पराम भावकूटाना परस्परं विशेषण-विशेष्यभावे विनिगमकामावेन गुरुतरानन्तकार्यकारणभावापत्तेढुवारत्वादिति वाच्य। परामर्श भावानां परसरं विशेष्यस्थामावरिशि विशेषणवाघटिततया पात्मत्वे
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामणी
‘লা. আল বালাৰছিনালমিলি অলিনা वपमित्यादि तादृशपरामर्शविशेषपरं व्याप्तिप्रकारक-पक्षधर्मताज्ञानपदमिति न क्वाप्यतिव्याप्तिः । जन्यत्वञ्च एकात्मावच्छेदेनायवधि तोत्तरवर्त्तित्वम्। अन्यथा तादृशनिश्चयत्वावच्छिन्न कारणवनिरूपितजन्यत्वप्रवेशे उतरोत्या असम्भवापत्तेः, जन्यतासामान्य निवे) ज्ञानत्वेन कार्यत्वेन विशेषण ज्ञानत्वेन विशिष्टबुद्धिवेनेत्यादिरूपेण कार्य-कारणभावमादाय शाब्दबोधादेरपि तादृशपरामर्शविशेषजन्यत्वेनातिव्यास्यापत्तेः । न चैवं परामर्शान्तरजन्यानुमितावव्याप्तिरिति वाच्यम् । तादृशज्ञानवृत्ति-प्रत्यक्षासमवेतधर्मसमवायित्वस्य विवक्षितत्वात् समवायेन तदृत्तितालाभाय चरमजानपदं । न चैवं थां काञ्चित् अनुमितिव्यक्तिमुपादाय तड्यक्रिसमवेतप्रत्यक्षासमवेतधर्मसमवायित्वमेव लक्षणमस्विति वाच्यम् । तस्थापि लक्षणान्तरलात्, प्रकृते च तस्याप्रवेशेन वैयर्थाभावात् । इत्यञ्च व्याप्तिविशिष्टस्य व्याप्तिविशिष्टे वा पक्षधर्मता व्याप्तिविशिष्टपक्षधर्मतेति षष्ठी-सप्तमी तत्पुरषाभ्यां व्याप्तिविशिष्टत्तिर्या पक्षधर्मता तज्ज्ञानजन्यज्ञानमनुमितिरित्यर्थोऽपि सम्भवति, धूमवान् पर्वत इति ज्ञानजन्यानुव्यवसायादावतिव्याप्न पदस्य ज्ञानविशेषपरत्वेनैव वारणत् इदोवनि
च समवायघटित तया परामीभावात्मत्वयोः विशेषणता-समवायोभयटितसामानाधिकरण्यस्य ततोऽपि लधुत्वादिति परस्परविशेष्य-विशेषणभावानापन्नानां परामीभावकूटानां युगपदात्मत्यांश एवं विशेषणत्वोपगमाद्रिवि खतसमतेऽपि तादृशजनकत्वस्य नक्षवघटकत्वेऽसम्भवायत्ते इति ।
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनुमिनिनिरूपणम् ।
मान् इत्यादिधमानुमितेर्वहिव्याप्यजलवान् पर्वतइत्यादिधमजन्यपर्वतावक्रिमानित्यादिप्रमानुमितेश्च तादृशधर्मघटनयैव संग्रहात् । एवं व्याप्तिविशिष्टश्चासौ पक्षधर्मश्चेति व्याप्तिविशिष्टपचधर्मः तस्य भावः व्याप्तिविशिष्टपक्षधर्मति कर्मधारयोत्तरभावप्रत्ययेन व्याप्तिविशिष्टत्वसमानाधिकरणपक्षधर्मतायाः ज्ञानजन्यं ज्ञानमनुमितिरित्यर्थाऽपि सम्भवति, भ्रमानुमित्यव्याप्यादेर्यथोकरूपेणैव वारणात् । एवं व्याप्तिविशिष्टश्च पक्षधर्मश्च व्याप्तिविशिष्ट-पक्षधर्मी तयोर्भावः तथा तज्ज्ञानजन्यज्ञानमिसि द्वन्दोत्तरतल्प्रत्ययेन व्याप्तिविशिष्टत्वपक्षधर्मत्वाभयविषयकज्ञानजन्यं ज्ञानमनुमितिरित्यर्थोऽपि सम्भवति, धूमो वहिव्याप्यः पालोकवान् पर्वत इति ज्ञानजन्ये धूमोवहिव्यायः धूमवान्पर्वत इति ज्ञानजन्ये चातिव्याप्तिः ज्ञानपदस्य ज्ञानविशेषपरत्वेनैव वारणदिति प्राङः। ___ केचित्तु व्याप्तिप्रकारकपचधर्मताज्ञानजन्यत्वमेव लक्षणं जन्यवध परामर्थत्वावच्छिन्नकारणताप्रतियोगिकं याचं, परामर्शत्वञ्च अनुमितित्वावच्छिवकारणतावच्छेदकतया सिद्धोमानसत्वव्याप्यजातिविशेषः, सर्वत्र मानसपरामर्शादेवानुमितिरित्यभ्युपगमात् क्षणविलम्बस्य प्रपथनिर्णयत्वात् । एवञ्च न काप्यतिप्रसङ्गः अन्यत्र तादृप्रजातिवि'विशेषेणाडेतत्वात्। इत्यञ्च तादृशधर्मघटनापि न कर्त्तव्या वहिव्याप्यधूमवान्पर्वत इति निश्चयस्य परामर्थत्वावच्छिनकारणतानिरूपितानुमितित्वावच्छिवजन्यताया अनुमितिमात्र एव मत्वात्, आपत्तेच कारणतावच्छेदके अप्रामाण्यवानास्कन्दितत्वस्याधिकस्य प्रवेशादेव वारणात् श्रापत्तीतरत्वेन वा चरमज्ञानं विशेषणीयमित्याहुः ।
16691
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
तावचिन्तामो
'नाकरणमिति तत्पदं धनुमिनिकजातिविशेषविशिष्टपरं तथाचानुमितेः करणमनुमानमित्यर्थः । ननु तस्करणमित्यच तच्छब्दस्यानुमितिलजातिविशेषविशिष्टपरत्वेऽनुमानमित्यत्र चानुपूर्वमाधातमापनुमितित्वजातिविशेषविशिष्टस्य प्रत्यायनात् करणल्यूटा च करणात्यायनादनुमितिकरणमनुमितिकरणतावदित्यनुमितिकरणयविधिहेऽनुमितिकरणत्वविशिष्टस्याभेदसंसर्गणान्चयो वायः तथाचोद्देश्यतावच्छेदक-विधेयतावच्छेदकयोरभेदाद् घटोघट इति वत् पुनरुकिः । नप अव्यय-निपातातिरिकनामार्थयोर्भदान्वयस्थाव्युत्पन्नतया तत्करएमित्यस्थानुमितिसम्बन्ध्य भिन्नमनुमितिकरणमित्यर्थः, तच्छब्दस्यानुमिनिवजातिविशेषविशिष्टसम्बन्धिपरत्वात् करणतायाः कार्यघटितबेन करणपदस्थानुमितिकरणपरत्वात् अभिन्नत्वस्य च संसगत्वात् अनु.मानमित्यच तु धात्वर्थस्थानुमितेः ल्युटः प्रत्ययतया तदर्थेऽनुमितिकरणे करणदासम्बन्धनेवाग्वथादनुमितिमदनुमितिकरणमित्यर्थः, करएतायाः कार्यघटितत्वेन अनुमितिकरणस्य विशिष्टस्यैव स्युउर्थत्वात् । तथाचानुमितिसम्बन्धिमदनुमितिकरणं अनुमितिमदनुमितिकरणाभिवमित्येवान्वयवोधात् विधेयतावच्छेदकतापर्य्यस्यधिकरणधर्मवत्वस्य उद्देम्यवाचकपदादखाभेन घटोनौसंघटः नौलमधर्मा घटोनौलघट रख्यादाविव न पौनरुत्यमिति वाच्यं । तथापि करणपद-युगादिपदयोः करणताघटकपदार्थेषु अधिकरण-तदृत्तित्वादिषु खामक्रिनये पौनरयस्य दुारत्वात् खण्डपक्रिनये अनुमानमित्यच धावस्यानुमितेः पाश्रयतासम्बन्धेन ल्युअर्थेऽधिकरणेऽवयवत् तत्करणमित्यचापि ततुपदार्थस्यानुमितेः करण्पदाधिकरणे पाश्रयत्वेवाववादिनि
ipodi
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
बमितिनिरूपणं।
चोन्। न । तत्पदार्थस्यांचयपद-निपातपदाद्यतिरिकनामार्थतया नामार्थस्य भेदेनान्वयस्थाव्युत्पन्नतथा तत्पदार्थस्थानुमितेराश्रयतासम्बन्धेन करणपदार्थऽन्वयासम्भवात् । अन्यथा मकरणत्वं सकर्मकत्वमिवादापि तदीयकरणवादिप्रत्ययापत्तेः । न चैवं घटकरण दण्डइत्यादौ खण्डशकिन घटवदृत्यभावप्रतियोगितानवच्छेदकवघाटतस्या) घटकरत्वस्याप्रत्ययप्रसङ्गः करण्पदादधिकरण-
तत्तिवादरुपस्थितत्वेऽपि घटस्य ततोऽनुपस्थितेरिति वाच्यम् ।' करणदिपदस्थ खण्यक्तिमयेऽपि कार्यववहंपेण कार्यवदंशेऽप्यवायं मनिरुपणमात् । अन्यथां केवलकरणादिपदान तात्पर्यधीमत्वेऽपि विना कार्यवाकपदाध्याहारं घटादिकरणप्रत्ययापत्तेः । कार्यवायभावप्रतियोगितानवच्छेदकघटितकरणवे गौरवादधिकरणत्वेनाधिकरणप्रवेशदधिकरण कार्यातिरिकस्याप्रकारतयों कार्थवावरूपेणेव . काधिकरण करणदिपदस्य शक्तरावश्यकत्वाञ्च । अन्यथा' पदानिर्विकल्पकोपस्थितेरनभ्युपगमेनाधिकरणस्य ततोऽनुपखितिप्रमा जात् । न ई कार्यवाचघटादिपदस्यैव कार्यवति लक्षण करणादिपदस्य लु केवलकृत्तिवादिष्वेव शक्तिः कार्यवती निरूपकतासम्बवेन वृत्तिवेऽवयोश्च विशिष्टलाम इति वाच्यम्। तहिंसाधवात् करणदिपदस्थ केवलधर्मक्त्येव प्रत्यापत्तेः इतरांशस्य कार्यवाचकघटादिपद लक्षणयैव लाभसम्भवात् । एतेन खण्डभक्तिमय करणादिपदस्थ नानात्वेऽपि तदर्थानां यथा भेदेन परस्परमवीयुत्पत्ति
(१) घटबढत्यभावप्रतियोगिताणवच्छेरैकवदितस्येति क०, ग।
० ०१।
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामगै
वैचियात् तथा करणादिपदममभिव्याहतपछ्यादौंतरविभक्तियन्यनदादिपदार्थस्यापि करणपदार्थ भेदान्वयो युत्पत्तिवैचियादिति कस्यचित् प्रलपितमप्यपास्तम्। खण्डशक्तिनयेऽपि कार्यवदं शतरावश्यकत्वे व्युत्पत्तिसकोचे प्रमाणभावात् तदादिपदस्य कार्य्यमम्बन्धिपरतया तादात्म्यसम्बन्धेनैवान्वयबोधसम्भवात् । न च खण्डभक्तिनये कार्यवदंगे भक्तरावश्यकत्वे कार्यभेदेन शक्तिभेदस्थाविभिष्टतया विशिष्टभक्तिपक्षमपेक्ष्य खण्डशक्तिपक्षे किं लाघवमिति वाच्यं । वैशिष्यांचे प्रात्यकल्पनादेव तत्र लाघवसम्भवात् । इत्यञ्च खण्डशकिपऽपि प्रकृतेऽनुमितिसम्बन्धिमदनुमितिकरणं अनुमितिमंदनुमितिकरणभिन्नमित्यन्वयबोधान्त्र पुनरुक्तिः ।
केचित्तु तत्पदं न स्वरूपतोऽनुमितित्वजातिविशेषविशिष्टपरं .किन्तु व्याप्तिप्रकारक-पक्षधर्मताज्ञानजन्यज्ञानवृत्तिप्रत्यक्षासमवेतध
रूपेण लादृशधर्मसमवायिपरं, तथाच तादृशधर्मसमवायिकरणमनुमानमित्यर्थः, अतो न पुनरुक्तिशङ्कापि । नन्वेवं तादृशधर्म समवायिकरणत्वेन इतरभेदसाधने व्यर्थविशेषणत्वं तहटकस्य व्याप्तिजानत्वस्यैव हेतुत्वसम्भवात् । न च व्याप्तिज्ञानत्वेन व्याप्तिज्ञानत्वं न प्रविष्टमिति न वैयर्थमिति वाच्यम्। तथापि तादाम्येन व्याप्तिज्ञानस्यैव गमकलसम्भवात् । न च व्याप्तेरननुगमेन एकतरव्याप्तिज्ञानस्य हेतुत्वे अनुमितिकरणमात्रस्य पञ्चत्वात् भागासिबिरततादृशधर्मसमवायिकारणत्वं सर्वसाधारणं हेतरिति वाचं । अधिकस्य भागामिद्धिवारकत्वेऽपि व्याप्तिपक्षनुपयुक्ततया वैयर्थ्या
او ۱۲
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनुमितिनिरूपणं।
दिति चेत् । न । भिन्नधर्भिकतया धूमप्रागभाववदवैवात्र) करणत्वनिष्टव्याप्नेयाप्तिज्ञानवानवच्छेद्यत्वादित्याहुः ।
लक्षणमुक्का स्वरूपमाह, 'तञ्चेति अनुमानश्चेत्यर्थः, 'जिङ्गपरामर्शः' व्याप्तिज्ञानं, परामर्शस्य व्यापाराभावेनाकरणत्वात्। । अन्ये तु नन्वतावता अनुमितिकरणत्वमनुमानसंक्षणमुक्तं भवति तित् कथं स्यात् ज्ञायमानलिङ्गस्थानुमितिकरणत्वेन अनुमानेतराप्रसिया इतरभेदानुमापकत्वाभावात् इतरभेदानुमापकत्वस्यैव र लक्षणपदार्थत्वादित्यत आह, 'तक्षेतौति प्राङः। _ 'वक्ष्यत इति, परामृश्यमानलिङ्गस्यानुमितिकरणत्वे अतीतानागतलिंङ्गादनुमितिर्न स्यादिति भावः ।
लक्षणं निरूपित(२) ददानों प्रामाण्यं निरूपयितुं प्रथमतचाकिमतमाशङ्कते, 'अथेति,। 'न.प्रमाणं' न प्रमितिकरणं, ननु . यदि चानुमानमनुमितिकरणं . न प्रमाणमित्यर्थः तदापयामितिः तन्मतेऽनुमितिकरणस्याप्रमिद्धेः, यद्यनुमानं धूमादिन प्रमाणमित्यर्थः तदा सिद्धसाधनं व्याप्तिज्ञानस्यैव नैयायिकैः प्रमाणत्वोपगमादिति चेत् । न। अनुमानमित्यस्य व्याप्तिज्ञानमित्यर्थात् । न च तथायाश्रयासिद्धिः तन्मते सर्वत्र व्यभिचारसंशयसत्त्वेन व्याप्तिनिश्चयानुत्पादादिति वाच्यं । तन्मने संशयात्मकस्य प्रसिद्धे। म चांशतः मिद्धमाधनं, पक्षतावच्छेदकावच्छेदेन साध्यमिरुद्देश्यत्वात् । नर
(१) वधाच व्यर्थविशेषणत्वघटकसामानाधिकरण्यविरहान दोष इति
भावः। (९) नक्षणमुखमिति ख.।
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
नमामिलामको
निर्विकल्पकचारा खप्रत्यक्षात्मकप्रमिति प्रति किरणबाहाध इति वाचं । निर्विकल्पकं प्रति करणलाभावात् विभिटजाना सु सबते सविषयकबेनाममितिबाच । श्रन च प्रमाजनकतावकेदकरूपशून्यलादिति हेनुरूयः, तच्च तन्मते इन्द्रियत्न असमनाते व्याप्तिनिप्रयत्नादिकमपि । ननु अयं हेतः स्वरूपासिद्धः नादृशव्याप्तिनिश्चयबस्यैव सर्वच सन्चादित्यत आह, 'योग्योपाधौनामिति माध्यव्यापकतथा सहोतानामिन्धनादिलक्षणयोग्यधर्माणमित्यर्थः, 'योग्यानुपलब्ध्या' योग्यतासहितया अनुपलब्ध्या, ‘प्रभावनिमयोऽपौति अव्यक्तोव्यभिचारितासम्बन्धेन इन्धतत्वादिरूपेण भावस्थ भूमादौ होतो निश्चयेऽपौत्यर्थः, तेनोपाधित्वस्य अतौनियत्वेन तदवच्छिनाभावस्य खौकिकप्रत्यक्षागम्यत्वेऽपि न बतिः । न न व्यभिचारित्वश्यातौन्द्रियघटिनतया. तत्सम्बन्धेन इन्धनवाद्यवच्छिन्नाभावोऽपि कथं चौकिकप्रत्यक्षगन्य इति वाच्यम् । माध्याभाववधस्किषियोग्यव्यकित्तिलरूपव्यभिचारिताविशेषसम्बन्धेन तदभावम्य प्रव्यवसायवाद्विति भावः । 'अयोग्योपाधिशयेति माध्यव्यापकनया रझौतस्य मनोवावादिलक्षणयोग्यधर्मास्य व्यभिचारितासम्बन्धेन धूमादौ हेतौ - बेयर्थः। यद्दा मायबापकलरूपायोग्याप्रकारेण साध्यात्यापकोभावास्य व्यभिचारितामामान्यसम्बन्धेन धूमादौ हेतौ शयेत्यर्थः, व्यभिचारसंशयादिति सर्वत्र हेतौ स्वाभ्ययभिचारसंशयादित्यर्थः, यभिचारसंशये च व्याप्तिनिश्चयस्यैवासम्भवात् कथं तत्र व्याप्तिनिश्चबलमिति भावः। ननु भूयः माध्य-साधनसाचारधानस यभिचाजानमतिबन्धकतया तपचालितत व्यभिचारसंप्रयासमावेन पाप्ति
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनुमितिनिरूपणं।
अथानुमानं जमा लोम्बोमाधीनां योगासमयमाभावनिकायथयोस्रोपाधिशल्या अभिचारसंख्यात् शाहचरितसरति व्यभिचापलब्ध लोके धूमादिदर्शनानन्तरं वह्यादिव्यवहारश्च सम्भा
निमयसम्भव इत्यत श्राइ, 'मतश इमि(१) शतशः सहचरितत्वेन जातयोईयोरपौत्यर्थः,(२) तथाच भूयः सहचारज्ञानस्य व्यभिचारजानप्रतिबन्धकलमेवासिद्धमिति भावः। नन्वेवं वक्रित्रिकर्षपव॑तविशेष्यकवहिप्रकारकसंस्काराधभावदशायामपि धूमदर्शनामतरं पर्वतोवकिमान् इत्यादिप्रयोगोऽनुभूयते स कथं स्थात् माहुशब्दप्रयोगं प्रति पर्वतविशेष्यक-वकिप्रकारकबुद्धे हेतुत्वादित्यत-. वाह, 'लोक इति लोकानामित्यर्थः, 'धूमादौति, वौद्रियमत्रिकर्ष-पर्वतविशेष्यक-वकिप्रकारकसंस्काराचंभावदशायामित्यादि, वयादिव्यवहारश्च' पर्वतोवहिमानित्यादिशब्दप्रयोगः। .. । केचित्त 'बयादिव्यवहारः' पर्वतविशेष्यक-वडिप्रकारकप्रतिरित्याङः। तदसत् वडिप्रकारिका पर्वते प्रवृत्तिर्हि माध्यतथा, दिव्यतथा वा, उपादानतया वा, नाचौ वहिमपर्वतस्य विद्ध
--------..... ------ --... -------
-
--------
(१) शतशः सहचरित्यारितीति ख•। (९) एतदकातरं क-चिकितालके अधिना पाठी वर्तते यथा, अभिचारोबोरिति यथा जौहल्याव-पार्थिववायोहोरके इन्य इति ।
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्वचिन्तामणे
वनामाचात् संवादेन च प्रामाण्याभिमानादिति नामत्यवं प्रमाणमिति, न, अप्रमाणसाधम्र्येणाप्रामाण्यसाधने दृष्टसाधम्यस्यानुमानत्वात् एतद्दाक्यस्य सन्दिग्ध
वात्, नाक्यः उपादानगोचरलौकिकसाक्षात्कारस्यैव प्रवृत्ति हेतुतया न्यायनयेऽप्यनुमित्यात्मकज्ञामात्तदसम्भवादिति मन्तव्यं ।
'सम्भावनेति, 'सम्भावना' पर्वते वयसंसर्गाग्रहोवहे पर्वतस्य च ज्ञानम् । न च लाघवाद्यवहारं प्रति विशिष्टधिय एव हेतुत्वं न तु असंभाग्रहादेौरवादिति वाच्यं । न हि वयमसंसर्गायहादेयवहारकारणत्वं ब्रूमः, किन्तु तदुपलक्षितवयादिज्ञानादीनामेव कुलद्रूपत्वेन धर्मविशेषेण, अनन्तानुमितिकल्पनापेक्षया कुचद्रूपत्वकअपनाया एव सघुवादिति भावः । ननु धूमदर्शनानन्तरं वयादिव्यवहारबनिका न मम्भावना तलनकौभतज्ञानस्य वझिमति वनिप्रकारकानुभवत्वेनानुभवादित्यत पाह, 'संवादेनेति, ‘संवादेन' संवादादिव्यवहारजनकत्वादिरूपसाधारणधर्मदर्शनेन दोषेण च, 'प्रामाण्यं वझिमति वहिप्रकारानुभवत्वं, 'अभिमानः' पुनरग्टहीतासंसर्गकं ज्ञानइयमेकमेव ज्ञानं वेत्यंन्यदेतत् । उपसंहरति, 'इतौति, 'इति' अतो हेतोः, 'नाप्रत्यक्षमिति प्रत्यूचातिरिकं न प्रमाणमित्यर्थः, अनुमानाप्रामाण्ये तेन घटपदं घटे शतं असति वृत्त्यन्तरे अस्तित्र प्रयुज्यमानवादित्यादिना प्रकारेण भक्तिग्रहे एव शब्दः प्रमाणं स्थादिति शब्दो न प्रमाणं, शब्दस्याप्रामाण्ये नातिदेशवाक्यार्थज्ञानएवं उपमानं प्रमाणं स्थादित्युषमानमपि न प्रमाणमिति भावः । म
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
धनुमितिनिरूपणम्। • २९ विपर्यास्तान्यतरं प्रत्यर्थवश्वात् तयोश्च परकीययोरप्रत्यक्षत्वात् अनुमानमप्रमाणमिति वाक्यस्य प्रामाच प्रत्यक्षातिरिकस्थाप्रामाण्ये कथमतौन्द्रियपदार्थसिद्धिरिति वाच्यं । औरतौन्द्रियपदार्थानभ्युपगमादिति भावः । ननूपंक्रमोपसंहारविरोधः येन रूपेण प्रतिज्ञा क्रियते तेनैव रूपेण निगमनमपौति कसकथकसम्प्रदायसिद्धत्वात्, अत्र च अनुमानं न प्रमाणमित्यत्योपक्रमत्वात् नाप्रत्यक्ष प्रमाणमित्यस्य चौपसंहारत्वादिति चेत्, अब मित्राः नाप्रत्यक्षं प्रमाणमित्युपक्रमः अनुमानं न प्रमाणमित्यादिकन्तु हेतरिति प्राडः।
मव्यास्तु नाप्रत्यक्षं प्रमाणमित्यपि प्रतिज्ञान्तरं न तु अनुमान हैन प्रमाणमित्यस्योपसंहारः, तथाच यतोऽनुमानं न प्रमाणं अतः . अत्यचातिरिक्तं शब्दोपमानमपि म प्रमाणमित्यर्थ इत्याडः। । वस्तुतस्तु नाप्रत्यक्ष प्रमाणमित्यपि नोपसंहारः अनुमानं न प्रमाणमित्यपि नोपक्रमः उपक्रमोपसंहारयोः प्रतिज्ञा-निगमनयोस्तैहरनौकारात्, किन्तु खरूपकौर्तनमानमित्येव तत्त्वं । 1. अथानुमानस्थाप्रामाण्य केन प्रकारेण 'माध्यते, किं प्रमाप्रयोजकतावदकरूपशून्यत्वलिङ्गकेनानुमानेन, किं वा अनुमानं न प्रमाणमिति शब्देन, तबाद्ये पाह, 'प्रमाणेति, 'अप्रमाणमाधसुर्य' अप्रमाणत्वव्याप्येन प्रमाजनक्रतावच्छेदकरूपशून्यत्वेन (१) 'दृष्टशाधर्म्यस्य' माधर्म्यदर्शनस्य अप्रमाणत्वव्यायदर्शनस्येति यावत् । (१) प्रमाणताप्रयोजकल्पशून्यत्वेनेति ख० ।
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
सान्तिामणे
ख्यामामाख्ययो पाताच । 'अपिवानुमानामामारखे प्रत्यक्षस्याप्यप्रमाणत्वायत्तेः प्रामास्यस्थानुमेयत्वात् स्वतश्च प्रामाण्यग्रहे तत्संशयानुपपत्तेः। व्याप्तिग्रहोपायश्च वक्ष्यते।
इति श्रीमहोपाध्यायविरचिते तत्वचिन्तामणौ अनुमानखण्डे अनुर्मितिनिरूपणं । अन्ये बाह, ‘एतद्दाक्यस्येति अनुमानं न प्रमाणमितिवाक्यस्येत्यर्थः, 'अर्थवचात्' प्रयोजनवञ्चात् न तु स्खं प्रतीत्यर्थः, 'तयोः' मन्देहेविपर्याययोः, अयमर्थः अनुमानं प्रमाणं न वेति संशयस्य अनुमान पप्रमाणमेवेति विपर्ययस्थ वा निरासमाधमताज्ञानादेतद्वाक्यप्रयोगे तव प्रवृत्तिः तच्च ज्ञानं कथं स्थात् परकीयसंशय-विपर्य्यययोरप्रत्यत्वात् अतोऽनुमानं प्रमाणं अवश्योपेथमिति । 'प्रामाथापामाथयोरिति प्रामायेऽप्रामाण्ये चेत्यर्थः, 'याघातात्' प्रत्यक्षातिरिक्षस्य अप्रामाण्णव्याधातात्, अनुमानमप्रामाण्थमिति वाक्यस्य प्रामाये हि पायातं प्रत्यचातिरिकास्य शब्दस्य साक्षादेव प्रामाण्यं,
प्रामाये । प्राणिभ्रमजनकवमिति। अनुमाने प्रामाण्यस्य धम एव जननीयः, धमत्वञ्च ज्ञानय विषयवाधाधीनमेवेत्यनुमानापामाथे बाध एवेति भावः। मनु भ्रमजमकत्वलक्षणं अप्रामाचं शब्दस्य नोचते येन धमत्वस्य विषयबाधाधौनतथा प्रत्यचातिरिणयानुमानस्य प्रामायखौकारापत्तिः, परन्तु प्रमाकरपाव्यतिरेकसमित्यखरसादा; 'अपि चेति, प्रत्यक्षस्थापि'
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनुमितिनिरूपणं।
.२५ यक्षस्थापि, 'अप्रमाणत्वापत्तेरिति प्रमालाभावापत्तेरित्यर्थः, प्रमावे माणभावादिति भावः । कथं प्रमाणं नास्ति तदाह, 'प्रामाण्ययेति प्रमावस्येत्यर्थः । ननु प्रत्यक्षप्रमावं खेनैव ग्राह्यते इति स्वयअमेव स्वप्रमावे प्रमाणमतो न तत्रानुमानापेक्षत्यत श्राइ, 'स्वत इति, तत्संशयेति प्रमात्वसंशयेत्यर्थः । अयं घट इत्यादिज्ञानानन्तरं इतौयक्षणे(१) इदं ज्ञानं प्रमा न वेति संशयोजायते, भवन्मते तब चात् स्वेनैव खप्रमावस्य निश्चितत्वादिति भावः। एतच्चापाततः अयं बट इत्यादिसविकल्पकज्ञानस्य हि हतीयक्षणे प्रमावसंशयः तेन हुच तन्मयेऽपि न खस्मिन् प्रामाण्यं ग्टह्यते तस्यासन्मावविषयत्वेन
प्रमावस्यैव तत्राभावात् किन्तु पारमार्थिकव्यक्तिमात्रविषयकनिर्वि१. कल्पकज्ञानमेव तन्मते प्रमा तेनैव स्वस्मिन् प्रामाण्यं खेन रयते
तत्र तौयक्षणे प्रामाण्यसंशयोऽसिद्धः। किञ्च तन्मते संशयं प्रत्यपि कुलद्रूपत्वेनैव निश्चयस्थ प्रतिबन्धकत्वात् निश्चयसत्त्वेऽपि संभयोत्पत्तौ विरोधाभावः । कुर्बद्रूपत्वस्य फलबलकल्यत्वेन . यदुत्तरं संशयो जायते तत्र तदभावात् । वस्तुतस्तु अनुमानस्याप्रामाण्ये निर्विकल्प। कज्ञानस्यैवामदविषयकत्व-खविषयकत्व-प्रामाण्यावगाहित्वसिद्धिः कथं स्थात् सदिषयकवादिहेतकानुमानेनैव अमदविषयकत्वस्य ज्ञानत्वहेतुकानुमानेनैव खविषयकत्वस्य स्खेतराग्राह्यप्रामाण्यकत्वे मति याद्यप्रामाण्यकत्व हेतुकानुमानेनैव प्रामाण्यावगाहित्वस्य सिद्धेः । न च तदपि खेनैव रयत इति वाच्यं । विषयानवस्थाभिया प्रामाण्य(१) सर्वत्र 'टतीयक्षणे' इत्यत्र 'हितीयक्षणे' इति ख-विहितपुस्तक
पाठः।
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
सत्वचिन्तामणौ
तद्घटकपदार्थाचतिरिक्रधर्मस्य खतोग्राह्यत्वानभ्युपगमात् । अपि च धूमदर्शनानन्तरं जायमाने वयादिव्यवहारजनके ज्ञाने अनुमितित्वजातिविशेषस्थानुमिनोमौत्यबाधितानुव्यवसायमिद्धतया अपलापासम्भवः अनुमितित्वरूपजातिविशेषस्य सिद्धले तदवच्छिन्नं प्रति व्याप्तिज्ञानादेः करणत्वमप्यावश्यकं, अन्यथा तदवच्छिनोत्यत्तिनियमानुपपत्तेः । न चास्तु अनुमितिरूपोज्ञानविशेषः अस्तु च तत्र व्याप्तिज्ञानादेः करणत्वं तथापि तादृशज्ञानविशेषस्य सविकल्पकरूपत्वेनासन्मानविषयकतया प्रमावाभावान्न तत्करणस्य प्रमापात्वमिति वाच्यम् । मविकल्पकविज्ञानस्यासन्मात्रविषयकत्वामिद्धेः अनुमितिविषयीभूतानां पर्वतत्व-वहिवादौनां सर्वेषां पारमार्थिकत्वादित्येव दूषणं मारं। ननु व्याप्तिनिश्चयस्य खोत्यत्तावेव प्रामा सम्भवति मैव न सम्भवति उपायासावादित्यत पाइ, 'व्याप्तिग्रहोपायबेति(१) ।
इति श्रीमथुरानाथतर्कवागीशविरचिते तत्त्वचिन्तामणौ अनुमानखण्डे अनुमितिनिरूपणरहस्यम् ।
(३) व्याप्तिग्रहोपाय इति क...।
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
अथ व्याप्तिवादः।
नन्वनुमितिहेतुव्याप्तिज्ञाने का व्याप्तिः न तावदव्यभिचरितत्वं तड्डि न साध्याभाववदत्तित्वम् साध्य
अथ व्याप्तिवादरहस्यं । अनुमानप्रामाण्यं निरूप्य व्याप्तिखरूपनिरूपणमारभते, 'नन्धिस्यादिना, 'अनुमितिहेलित्यस्य अनुमाननिष्ठप्रामाण्यानुमितिहेत्वित्यर्थः, 'याप्तिज्ञान इत्यत्र च विषयत्वं सप्तम्यर्थः, तथाचानुमाननिष्ठप्रमाण्यानुमितिहेतव्याप्तिज्ञानविषयोभता व्याप्तिः केत्यर्थः, अनुमाननिष्ठप्रामाण्यानुमितिहेत्वित्यनेन व्याप्तेरनुमानप्रामाण्योप“पादकत्वकथनादनुमानप्रामाण्यनिरूपणानन्तरं व्याप्तिनिरूपणे उपो
हात एव सङ्गतिरिति सूचितं । उपपादकत्वचाच ज्ञापकत्वं ।। . केचित्तु अनुमितिपदं अनुमितिनिठेतरभेदानुमितिपरं, तथाचानुमितिनिष्ठेतरभेदानुमितौ योहेतुः • प्रागुकव्याप्तिप्रकारकपक्षधर्माताज्ञानजन्यत्वरूपः, तहटकं ययाप्तिज्ञानं तदंशे विशेषणभता व्याप्तिः केत्यर्थः, घटकत्वार्थकसप्तमौतत्पुरुषसमासात्(१) तथाच मागुकानुमितिलक्षणोपोहात एव मङ्गतिरनेन सूचिता इत्याहुः ।
(१) अनुमितिहेवी व्याप्तिशानं बमुमितिहेतुव्याप्तिशावमिति सप्तमोसत्पुरुषसमासादित्यर्थः।
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामणे
. 'न तावदिति, ‘तावत्' वाक्यालझारे, 'अव्यभिचरितवं श्रव्यभिचरितत्वपदप्रतिपाद्यं, तब हेतुमाइ, 'तद्धीत्यादि, 'हि' यस्मात्, 'तत्' अव्यभिचरितत्वपदप्रतिपाद्यं, 'नेति, सर्वस्मिन्नेव लक्षणे सम्बयते, तथाच व्याप्तिर्यतः माध्याभावदंवृत्तित्वादिरूपाव्यभिचरितत्वशब्दप्रतिपाद्यखरूपा न अतोऽव्यभिचरितत्वशब्दप्रतिपाद्यस्वरूपा नेत्यर्थः पर्यवसितः, विशेषाभावकूटस्य सामान्याभावहेतता च प्रसिद्वैवेति, अतः एतन्नद्धयोपादानं न निरर्थकम् । “माध्याभाववदवृत्तित्वमिति, 'वृत्तं' वृत्तिः, भावे निष्ठाप्रत्ययात्, वृत्तस्थाभावः 'अवृत्त' वृत्त्यभाव इति यावत्, साध्याभाववतोऽवृत्तं 'माध्याभावववृत्त' साध्याभावववृत्त्यभाव इति यावत्, तद्यचास्ति माध्याभाववदवृत्ती मत्वर्थो येन्प्रत्ययात् तस्य भावः ‘माध्याभाववदवृत्तित्व' तथाच साध्याभावववृत्त्यभाववत्त्वमिति फलितमिति प्राञ्चः, तदमत् न कर्मधारया मत्वर्थीयो बडबोरिवेदर्थप्रतिपत्तिकर इत्यनुशासनविरोधात् तत्र कर्मधारयपदस्य बडबौहौतरसमासपरत्वात् (१)
(१) पत्र कर्मधारयपदस्य समासमात्रपरत्वे साध्याभाववदत्तिवमित्यत्र साध्याभाववत्पदस्य साधत्वानुपपत्तिः साध्यस्थाभावः साध्याभाव इति समासोत्तरमतुष्प्रत्ययस्य अनुशासनविण्डत्वात् यतः बाबीहीतरसमासपरत्वमावश्यक तथाच साध्यं व्यभावो यस्य स साध्याभावः इति बडबीछुतरं मतुप्प्रत्यये नानुशासनविरोधः। बाबीहिश्वेदर्थप्रतिपत्तिकर इत्यनुक्तौ कृष्णसर्पववल्मीकमित्यादिप्रयोगस्य साधुत्वानुपपत्तिः कृष्णसति पदस्य नित्यसमासतया तदुत्तरं मतुंम्प्रत्यये अनुशासनविरोधः, कृष्णः सो यत्र इति विग्रहस्य विलक्षणवैशात्यावच्छिन्नसर्पवत्त्ववोधकत्वासम्भवेन बङबीहेरर्थप्रतिपत्तिकरत्वाभावात् नास्माकं तादृशप्रयोगासाधुत्वम् ।
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्याप्तिवादः।
. २९
तच्चागुणवत्त्वमिति - साधर्म्यव्याख्यानावसरे, गुणप्रकाशरहस्ये नदीधितिरहस्ये च स्फुटं, अव्ययीभावसमासोत्तरपदार्थन समं तत्ममासानिविष्टपदार्थान्तरान्वयस्थाव्युत्पन्नत्वाञ्च(१) भूतखोपकुम्भं भूतलाघटमित्यादौ भूतलवृत्तिंघटसमीप-तदत्यन्ताभावयोरप्रतीतेः । एतेन वृत्तेरभावोऽवृत्तीत्यव्ययीभावानन्तरं माध्यांमाववतोऽवृत्तियति बहुबौहिरित्यपि प्रत्युक्तं वृत्तौ माथाभाववतोऽनन्वयापत्तेः अव्ययीभावसमासस्याव्ययतया तेन ममं ममामान्तरासम्भवाच्च नत्रुपाध्यादिरूपाव्ययविशेषाणमेव समस्यमानत्वेन परिगणितत्वात्(२) । वस्तुतस्तु माध्याभाववतो न वृत्तिर्यत्र इति त्रिपदव्यधिकरणबहुबौद्युत्तरं त्वप्रत्ययः माध्याभाववत इत्यत्र निरूपितत्वं षष्ठ्यर्थः, अन्वयश्चास्य वृत्तौ, तथाच ‘माध्याभावाधिकरणनिरूपितवृत्त्यभाव
(१) अव्ययीभावसमासोत्तरपदार्थेन समं वत्समासानिविष्ठपदार्थान्तरस्थान्वयस्याव्युत्पन्नत्वादित्यत्र अन्तरपदमनर्थकमिति नाशननीय उपकुम्भमित्यादावपि तत्समासानिविछ-समीपादिपदप्रतिपाद्यसामीप्याद्यर्थे धनचयप्रसङ्गात् अधिकस्य अन्तरपदस्य दाने तु तत्समासनिविष्ठपदाप्रतिगाद्यार्थान्वयबोधस्याव्युत्पन्नत्वादित्यर्थकत्वसम्भवात् नानुपपत्तिगन्धोऽपि इति ध्येयम् । तत्समासानिविष्ठपदार्थान्वयस्याव्युत्पनत्वादित्येव ग-चिहिवपुस्तकपाठः।
(२) ननु भूतलोपकुम्भं भूतलाघटमित्यादिप्रयोगदर्शनात् कथमेतादृशनियमोयुक्तिसह इति चेत्, न, नपाध्याद्यययविशेषाणां समस्यमानत्वेन परिगणितत्वात् इत्यत्र आदिपदेन उपकुम्भादेरपि परिग्रहावासङ्गवि-. रिति।
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
सत्वचिन्तामणे
वद्भिवसाध्याभाववदत्तित्वं साध्यवत्पतियोगिकान्योन्याभावासामानाधिकरण्यं सकलसाध्याभाववविष्ठा
वत्वमव्यभिचरितवमिति फलितं। न च व्यधिकरणबहुव्रीहिः सर्वच न साधुरिति वाच्यं । अयं हेतः माध्याभाववदवृत्तिरित्यादौ व्यधिकरणबहुव्रीहिं विना गत्यन्तराभावेनात्रापि व्यधिकरणबहुबौहे. माधुत्वात् । माध्याभावाधिकरणवृत्तित्वाभावश्च तादृशत्तिसामान्याभावोबोयः। तेन धूमवान् वहेरित्यादौ धूमाभाववज्जलहृदादिवृत्तित्वाभावस्य धूमाभाववदृत्तित्व-जलत्वोभयत्वाद्यवच्छिनाभावस्य च वकौ सत्त्वेऽपि नातिव्याप्तिः । माध्याभावववृत्तिश्च हेतुतावछेदकसम्बन्धेन विवक्षणीया तेन वयभाववति धूमावयवे जलइदादौ९) समवायेन कालिकविशेषणतया धूमस्य वृत्तावपि न चतिः। 'साध्याभाक्य माध्यतावच्छेदकसम्बन्धन माध्यतावच्छेदकावछिनप्रतियोगिताकोबोध्यः तेन वकिमान् धूमादित्यादौ समवायादिसम्बबेन वहिसामान्याभाववति संयोगसम्बन्धेन, तत्तदहित्व-वकि-जलोभयत्वाद्यवच्छिन्नाभाववति च पर्वतादौ संयोगेन धूमस्य, वृत्तावपि न पतिः(२)। तादृशमाध्य भाववत्त्वञ्च प्रभावीयविशेषणताविशेषेण बोध्यं
(९) धूमावयवं परित्यज्य जलदादिपर्यन्तामुधावनं प्रसिद्धविपक्षस्थल. मादायाव्याप्तिसम्भवे तदप्रदर्शने न्यूनताभङ्गायेति ।
(२) ननु साध्याभावपदस्य प्रथमोपस्थिततया, तदंशे विशेषणोभूतस्य साध्यतावच्छेदकसम्बन्धावच्छिनत्वपदस्य व्यावृत्ति दर्शयित्वैव शेषदजोपात
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्याप्तिवादः।
भावप्रतियोगित्वं साध्यवदन्याक्तित्वं वा केवलान्ययिन्यभावात्।
तेन गुणत्ववान् ज्ञानत्वात् सत्तावान् जातेरित्यादौ विषयित्वाव्याप्यवादिसम्बन्धेन() तादृप्रसाध्यभाववति ज्ञानादौ ज्ञानव-जात्यादेत्तावपि नाव्याप्तिः। जात्यत्यन्ताभाव-तबदन्योन्याभावयोरत्यन्ताभावो न प्रतियोगि-प्रतियोगितावच्छेदकखरूपः किन्वतिरिक्तः तेन घटत्वात्यन्ताभाववान् घटान्योन्याभाववान् वा पटत्वात् इत्यादौ विप्रेषणताविशेषसम्बन्धेन माध्याभावाधिकरणस्थापसिया नाव्याप्तिः । अत्यन्ताभावादेरत्यन्ताभावस्य प्रतियोग्यादिखरूपत्वनये तु माध्यतापच्छेदकसम्बन्धावच्छिवप्रतियोगिताकसाध्याभाववृत्तिमायामामान्यौ...पप्रतियोगितावच्छेदकसम्बन्धेन साध्याभावाधिकरणत्वं वक्रव्यम्() ।
बत्तित्वाभावाद्यंशे विशेषणीभूतस्य हेतुतावच्छेदकसम्बन्धावच्छिन्नत्वस्य व्यावतिदानं पश्चादेवोचितमिति व्युत्क्रमेण व्यावृत्तिदाने न्यनता स्यादिति चेत्, में, प्रथमं वृत्तित्वसामान्याभावानुक्तौ साध्याभाषांशे साध्यतावच्छेदकधर्मसम्बन्धावच्छिन्नत्वस्य व्यावृत्तिदानं न सम्भवतीति व्युत्क्रमेण व्यावृत्तिदानं ।
) अव्याप्यत्वस्य सत्यनियामकतया तत्सम्बन्धमादायाव्याप्तिन सम्भवतीबत पादिपदं धादिपदेन कालिकसम्बन्धपरिग्रहः, जन्यमात्रस्य कालोआधित्वे मानाभावेन वद्धिमान् धूमादित्यादौ नाव्याप्तिसम्भावनेति प्रसिद्धोदाहरणं परित्यक्त पतएव ज्ञानत्वहेतुं परित्यज्य जातेहेतुत्वमुक्तं तत्र वाध्याभाववति महाकाले जातेवर्तमानत्वादश्याप्तिारैवेति ध्येयम् ।
(२) ननु तथापि गुणत्ववान् ज्ञानत्वात् सत्तावान् जातेरियादौ विधयित्वाध्याप्यत्वादिसम्बन्धेन तादृशसाध्याभाववति चानादौ शानव-जायादे
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
१९.. तत्त्वचिन्तामणौ वृत्य प्रतियोगिताविशेषणं, तादृशसम्बन्धश्च वकिमान् धूमादित्यादिभावमाध्यकस्थले विशेषणताविशेषएव, घटवाभाववान् पटवादित्याधभावसाध्यकस्थले तु समवायादिरेव, समवाय-विषयिबादिसम्बन्धेन(१) प्रमेयादिमायके ज्ञानत्वादिहेतौ माध्यतावच्छेदकसमवायादिसम्बन्धावच्छिनप्रमेयाद्यभावस्य कालिकादिसम्बन्धेन योभावः सोऽपि प्रमेयतया माध्यान्तर्गतस्तदीयप्रतियोगितावच्छेदककालिकादिसम्बन्धेन माध्याभावाधिकरणे ज्ञानत्वादेर्वृत्तेरव्याप्तिवारणाय सामान्यपदोपादानं, माध्यमामान्यौयत्वञ्च यावत्माध्यनिरूपितत्वं वानिरूपकमाध्यकभिन्नत्वमिति यावत् । अस्यैकोक्तिमात्रतया गौरवस्थादोषत्वात् कारणतावच्छेदके च भावसाध्यकस्थले
वर्तमानत्वादव्याप्तिः । न च साध्याभावाधिकरणत्वमभावीयविशेषणताविशेषेण विवक्षितमिति वाच्यम् । तथा सति घटत्वात्यन्ताभाववान् धटान्योन्याभाववान् का पठत्वादित्यादौ साध्याभावस्य घटत्वादेविशेषणताविशेषसम्बन्धेनाधिकरणत्वापसिया अव्याप्तिरिति चेत् । न । साध्यतावच्छे. दकसम्बन्धावच्छिन्नसाध्याभाववृत्तिसाध्यसामान्योयप्रतियोगितावच्छेदकसम्बधेन साध्याभावाधिकरणलस्य विवक्षितत्वादिति ख ग ।
(१) साध्यतावच्छेदकसम्बन्धेन वृत्तिमत्साध्यीयप्रतियोगिताविवक्षणेसमवायसम्बन्धेन प्रामेयसाध्यकहेतौ अव्याप्तिवारणं सम्भवति पतः विधयित्वसम्बन्धानुसरणमिति भावः।
(२) अत्रानुगमस्तु साध्यतावच्छेएकसमानाधिकरणभेदप्रतियोगितानवछेदकत्वं भेदप्रतियोगितावच्छेदकत्वञ्च निरूपकृत्वसम्बन्धावच्छिन्नं ग्राह्य
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
यातिवादः।
अभावौषविशेषणतांविशेषेण माथाभावाधिकरणत्वं प्रभावमाध्यकस्थले - यथायथं समवायादिसम्बन्धेन माध्याभावाधिकरणवमुपादेयं माध्यभेदेन कार्य-कारणभावभेदात् । न च तथापि घटान्योन्याभाववान् पटत्वादित्यत्रान्योन्याभावसाध्यकस्थले घटत्वादिरूपे माध्याभावे न माध्यप्रतियोगित्वं न वा समवायादिसम्बन्धस्तदवच्छेदकः तादात्मस्यैव तदवच्छेदकत्वादित्यव्याप्तिस्तदवस्थेति वाच्यम् । अत्यन्ताभावाभावस्य प्रतियोगिरूपत्वेन घटभेदस्य घटभेदात्यन्ताभावत्वावच्छिन्नाभावरूपतया घटभेदात्यन्ताभावरूपस्य घटभेदप्रतियोगितावच्छेदकीभूतघटत्वस्थापि समवायसम्बन्धेन घटभेदप्रतियोगित्वात् । न चान्यत्रात्यन्ताभावाभावस्य प्रतियोगिरूपत्वेऽपि घटादिभेदात्यन्ताभावाभावो न घटादिभेदस्वरूपः किन्तु तत्प्रतियोगितावच्छेदकौमृतघटत्वात्यन्ताभावस्वरूप 'एवेति सिद्धान्तइति वाचं। यथा हि घटत्वावच्छिन्नघटवत्ताग्रहे घंटात्यनाभावायहात् घटात्यन्ताभावाभावव्यवहाराच्च घटात्यन्ताभावाभावोघटखरूपः तथा घटभेदवत्ताग्रहे घटभेदात्यन्ताभावायहात् घटभेदात्यन्ताभावाभावयवहाराच्च घटभेद एव तदत्यन्ताभावत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभाव इति तमिद्धान्तः(१) न युक्किमहः । विनिगमकाभावेनापि घटत्वत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकात्यन्ताभाववद्दटभेदस्थापि घटभेदात्यन्ताभावाभावत्वमिद्धेरप्रत्यूहत्वाच्च । अत एव तादृ
(१) घटान्योन्याभावात्यन्ताभावाभावस्य घटत्वात्यन्ताभावखरूपत्वरूपसिद्धान्त इत्यर्थः ।
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
वचिन्तामो
अविद्वान्तोनोपाध्यायमानः, अत एव चाभावविरहात्मवं वदनः प्रतियोगितेत्याचार्याः, अन्यथा घटभेदात्यमाभावप्रतियोगिनि घटभेदे तलक्षणयाप्यापत्तेः अन्योन्याभावप्रतियोगितावच्छेदकघटत्वात्यन्ताभावे तलक्षणस्यातिव्याण्यापत्तेच(५) । न चैवं घटत्वत्वावशिषप्रतियोगिताकघटनात्यन्ताभावस्थापि घटभेदखरूपत्वापत्तिरिति वाच्च। तदत्यन्ताभावत्वावच्छिवप्रतियोगिताकाभावस्यैव तस्वरूपवान्धुपगमात् तद्वत्ताग्रहे तादृमतदत्यन्ताभावाभावस्यैव व्यवहारात् । उपाध्यायैर्घटत्वत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकघटत्वात्यन्ताभावस्थापि घटभेदखरूपत्वाभ्युपगमाञ्च । न चैवं माध्यसामान्यौयप्रतियोगितावच्छेदकसम्बन्धेनैव माध्याभावाधिकरणत्वं विवक्ष्यतां किं माध्यतावच्छेदकसम्बन्धावचित्रमाध्याभाववृत्तित्वस्य प्रतियोगिनाविशेषणत्वेनेति वाच्यम् । कालिकसम्बन्धावछिन्त्रात्मत्वप्रकारकप्रमाविशेष्यत्वाभावस्थ( विशेषणताविशेषेण माध्यत्वे आत्मत्वादिहेता
(१) अन्योन्याभावप्रतियोगितावच्छेदके तल्लक्षणस्यातिश्यायापत्तेचेवि स. म.। अयमपि पाठः समीचीनः यतः घटत्वात्वन्ताभावस्य घटभेदासरूपत्वे घटावं व घटमेदप्रतियोगित्ववक्षयलक्ष्यं तदभावस्य घटभेदाखरूप. वात्, घटत्वात्यन्ताभावस्य घटभेदखल्पत्वे तु घटावं घटभेदप्रतियोगित्वपक्षणलक्ष्यमेव तदत्यन्ताभावस्य घटभेदखरूपत्वादिति ।
(२) पथात्र साध्यसामाग्चीयप्रतियोगितावच्छेदकसम्बन्धसामान्येग साध्यामावाधिकरणत्वं, पप वा प्रत्येकं साध्यसामान्यीयप्रतियोगितावच्छेदको यो वा सम्बन्धमत्तसम्बन्धेन वाध्याभावाधिकारणत्वं इत्याशवादयी तत्र दिवोयाशाय प्रमाविशेष्यत्वाभावसाध्य केऽथामिन सम्भववि जन्याना
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
बातिवादः।
.
वस्थाप्यापत्तेः कालिकसम्बन्धावचित्रमाध्याभावश्य विशेषताविशेषण सम्बन्धेन योऽभावस्तस्थापि माध्यरूपतया कालिकसम्बन्धवविशेषणताविशेषोऽपि माध्यीयप्रतियोगितावच्छेदकसम्बन्धस्तन सम्बन्धेनात्मत्वप्रकारकप्रमाविशेष्यत्वरूपसाध्याभाववति प्रात्मनि हेतोरात्मत्वस्य वृत्तः(९) । प्रतियोगितावच्छेदकवत् प्रतियोग्यपि अन्योन्याभावाभावः(२) तेन तादात्मसम्बन्धेन माध्यतायां माध्यतावच्छेदकसम्म
मेव तादृशकालिक-खरूपामयसम्बन्धेन साध्याभावाधिकरणत्वात् उक्तस्थले तु तादृशोभयसम्बन्धेन साध्याभावाधिकरणत्वाप्रसिद्ध्या अव्याप्तिः सम्भवति इत्युभयाथाप्तिदानार्थं वात्मत्वप्रकारकप्रमाविशेष्यत्वाभावसाध्यकानुसरणं ।
(१) पत्र साध्याभावः साध्यतावच्छेदकावच्छिनप्रतियोगिताको बाध्यः, एवल्लाभायैव साध्यपदमिति भावः । तेन पूर्वक्षणात्तित्वविशिडसाध्याभाववृत्तिपूर्वक्षणवृत्तित्वविशिष्टसाध्याभावाभावरूपसाध्यीयप्रतियोगितावच्छेदकीभूतखरूपसम्बन्धेन साध्याभाववति हेतावृत्तित्वेऽपि पूर्वोक्तस्थले नाव्याप्तिः। न च कपिसंयोग्येतत्त्वादित्यत्राव्याप्तिवारणाय निरवच्छिन्नसाध्याभावाधिकरणत्वे निवेशयितव्ये कालिकसम्बन्धेन निरवच्छिन्नसाध्याभावाधिकरणत्वाप्रसिौवोक्तविशेषणदानेऽपि उक्तस्थले पयामेरपरीहारेख वादृशस्थले अव्याप्तिवारणाय तत्ववेशोऽनुचित इति वाच्छं। बन्योन्या. मावस्य कालिकसम्बन्धेन योऽभावः तस्य विशेषणताविशेषसम्बन्धेन साध. तायां चात्मत्वादिहेतावश्यायापत्तो, बन्योन्याभावरूपसाध्याभावस्य पान लिकसम्बन्धेन व्याप्यत्तितया निरवरिमसाध्याभावाधिकरवत्वप्रविड्या उक्तविशेषणदाने बचाव्याप्तिपरीहारः सम्भवत्येवेति भावः ।
(२) बर्थतत्वाकये घटमिन्नं कपालत्वादिवत्राथामिः वाशसमवायसम्बन्धेन घटखरूपसाध्याभावाधिकरणे कपाने हेतोरत्तरिति चेत्, क,
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्वचिन्तामणौ
धावच्छिन्नसाध्याभाववृत्तिमाध्यौयप्रतियोगित्वस्य भाप्रसिद्धिः। इत्यचात्यन्ताभावत्वनिरूपितत्वेनापि माध्यसामान्यीयप्रतियोगिता विशेपणैया अन्यथा घटान्योन्याभाववान् घटत्ववादित्यादावव्याण्यापत्तेः तादात्मसम्बन्धस्थापि माथाभाववृत्तिसाध्यौयप्रतियोगितावादकत्वात् । यद्दा माध्यतावच्छेदकसम्बन्धावच्छिन्नसाध्याभाववृत्तिमाटसामान्यौयप्रतियोगित्व-तदवच्छेदकत्वान्यतरावच्छेदकसम्बन्धेनैव माध्याभावाधिकरणत्वं विवक्षणौयं वृत्त्यन्तमन्यतरविशेषणं, एवञ्च घटान्योन्याभाववान् पटवादित्यादौ साध्याभावस्य घटत्वादेः माध्यप्रतियोगित्वविरहेऽपि न पतिः तादृशान्यतरस्य प्रतियोगितावकेदकत्वस्यैव तत्र मत्त्वात्। न च तथापि कपिसंयोग्येतदक्षत्वादित्याद्यव्याप्यवृत्तिसाध्यकसद्धेतावव्याप्तिरिति वाच्यम् । निरुक्तमाध्याभावत्वविभिष्टनिरूपिता या .. निरुक्तसम्बन्धसंसर्गकनिरवच्छिन्नाधिकरणवा तदाश्रयावृत्तित्वस्य ‘विवक्षितत्वात् । गुण-कर्मान्यबविशिष्टमत्त्वाभाववान् गुणवादित्यादौ सत्त्वात्मकसाध्याभावाधिकरणत्वस्य गुणादिवृत्तित्वेऽपि साध्याभावत्वविशिष्टनिरूपिताधिकरयत्वस्य गुणाद्यवृत्तित्वाचाव्याप्तिः। न चैवं कपिसंयोगाभाववान्
सावच्छेदकसम्बन्धावच्छिन्नत्य-खाश्रयनिरूपितत्वोभयसम्बन्धेन तादृशप्रतियोगिताविशिठसाध्याभावाधिकरणत्वस्य विवक्षितत्वात् खपदं निशक्तप्रतियोगितापरं। न च नियतप्रतियोगितायो अत्यन्ताभावत्वनिरूपित. त्वनिको व्यर्थ इति वाच्यं । तदिवक्षाया अत्रैव तात्पर्य्यात् ।
(ए) तथाच नादाम्येन घटत्वखरूपसाध्याभावाधिकरणे घटत्वे हेतो. तिवादण्याप्तिरिति भावः।
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्याप्तिवादः।
सत्त्वात् इत्यादौ निरंवछिन्नमाध्याभावाधिकरणवामिद्याव्याप्तिरिति वाच्यम् । केवलान्वयिन्यभावादित्यनेन ग्रन्थकतैवास्य दोषस्य वक्ष्यमाणत्वात्। न च तथापि संयोगिभिन्नं गुणत्वादित्यादौ निरवछिन्नध्याभावाधिकरणत्वाप्रमियाव्याप्तिः अन्योन्याभावस्थ व्यायवृत्तित्वनियमवादिनये तस्य केवलान्वय्यनन्तर्गतत्वादिति वाच्यम् । अन्योन्याभावस्य व्याप्यवृत्तितानियमवादिनये अन्योन्याभावान्तरात्यन्ताभावस्य प्रतियोगितावच्छेदकखरूपत्वेऽप्यव्याप्यवृत्तिमदन्योन्याभावाभावस्य व्याप्यवृत्तिखरूपस्यातिरिक्तस्याभ्युपगमात् तच्चाये स्फुटौभविष्यति । ___ ननु तथापि समवायादिना गगनादिहेतुके इदं वहिमद्गगनादित्यादावतिव्याप्तिः वयभाववति हेतुतावच्छेदकसमवायादिसम्बन्धेन गगनादेरवृत्तेः। न च तलक्ष्यमेव हेतुतावच्छेदकसम्बन्धेन पक्षधर्मावाभावाचामद्धतत्वव्यवहार इति वाच्यम् । तत्रापि व्याप्तिभ्रमेणेवानुमितेरनुभवमिद्धत्वात्, अन्यथा धूमवान् बहेरित्यादेरपि लक्ष्यत्वस्य सुवचत्वात्। एवं द्रव्यं गुण-कर्मान्यत्वविशिष्टसत्त्वादित्यादावव्याप्तिः विशिष्टमत्वस्य केवलमत्त्वानतिरेकितया द्रव्यत्वाभाववत्यपि गुण्णदौ तस्य वृत्तेः गुणे गुण-कर्मान्यत्वविशिष्टमत्तेति प्रतौतेः सर्वमिद्धखात्। सत्तावान् द्रव्यत्वादित्यादावव्याप्तिश्च सत्ताभाववति सामान्यादौ हेतुतावच्छेदकसमवायसम्बन्धेन वृत्तेरप्रसिद्धेरिति चेत्। न । हेतुतावच्छेदकावच्छिन्न हेत्वधिकरणताप्रतियोगिक-हेतुतावच्छेदकसम्बन्धावच्छिनाधेयतानिरूपितविशेषणताविशेषसम्बन्धन निरुकमाध्याभावबविशिष्टनिरूपितनिरुक्तसम्बन्धसंसर्गकनिरवच्छिवाधिकरणताया
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामगै
तिवसामान्याभावस्य विवक्षितलात्, वृत्तिवचन हेतुतावच्छेदकसम्बन्धेन विवक्षणीयं, अस्ति च सत्तावान् द्रव्यखादित्यादौ सत्ताभावाधिकरणताश्रयवृत्तित्वस्य हेतुतावच्छेदकसमवायसम्बन्धावच्छिबाधेयतानिरूपितविशेषणताविशेषसम्बन्धेन सामान्याभावो द्रव्यवादी, समवायसम्बन्धावच्छिवाधेयतानिरूपितविशेषणताविशेषसम्बन्धावछिअप्रतियोगिताकसत्ताभावाधिकरणवाश्रयत्तित्वाभावस्य व्यधिकरणसम्बन्धावच्छिवाभावतया संयोगसम्बन्धावच्छित्रगुणाभावादेरिव केवसावयित्वात्। द्रव्यं सत्त्वादित्यादौ च ट्रव्यवाभावाधिकरणगुणादिवृत्तित्वस्यैव समवायसम्बन्धावच्छिन्नाधेयतानिरूपितविशेषणतासम्बन्धेन सत्तायां सत्त्वान्नातिव्याप्तिः। द्रव्यं विशिष्टमत्त्वादित्यादावव्याप्तिवारणप प्रतियोगिकान्तमाधेयताविशेषणं । वस्तुतस्तु एतल्लक्षणकर्टनये विशि
मत्वं विभिष्टनिरूपिताधारतासम्बन्धेनैव द्रव्यत्वव्याप्यं न तु ममवायसम्बन्धेन, तथाचं प्रतियोगिकान्तमाधेयताविशेषणमनुपादेयमेव, तदुपादाने हेतुतावच्छेदकभेदेन कार्य-कारणभावभेदापत्तेः। हेतुतावच्छेदकसम्बन्धेन सम्बन्धित्वे मतीत्यनेनापि विशेषणाइकिमान् गगनादित्यादौ नातिव्याप्तिः। ननु तथापि उभयत्वमुभयवेव पर्याप्तं म तु एकत्रेति सिद्धान्तादरे) घटत्ववान् घटख-तदभाववदुभयवादित्यादौ पर्याप्याख्यसम्बन्धेन हेतुत्वेऽतिव्याप्तिः घटत्वाभाववति हेतुतावच्छेदकपर्याप्याख्यसम्बन्धेन हेतोरवृत्तः घटो घट-पटोभय
(१) प्रत्येकमसतो धर्मस्य उभयत्रापि सत्ताया बयोगात् “उभयत्वमुभयचैव पर्याप्तं न तु एकावं" इति सिद्धान्तस्य न सर्वजनसम्मवत्वं पवडकं "इवि सिद्धान्तादरे” इति ।
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
यामिवादः।
मितिवत् घटोघटाब-तदभाववदुभवमित्यप्रतीतेरिति चेत्। न । तादृसिद्धान्तादरे हेततावच्छेदकसम्बन्धेन माध्यममानाधिकरणले सतीत्यनेनैव विशेषणोयत्वादिति । अत एव निविशतां वा वक्ति माचं माध्यममानाधिकरणत्वं वेति केवलावयिग्रन्थे दौधितिकतः । ___ केचित्तु निरुकसाध्याभावत्वविशिष्टनिरूपिता या विशेषणतासम्ब
धेन यथोक्तसम्बन्धेन वा निरवच्छिन्नाधिकरणता तदाश्यव्याववर्त्तमानं हेतुतावच्छेदकसम्बन्धावच्छिन्नयद्धर्मावच्छिन्नाधिकरणवसामान्यं तदुर्मवत्त्वं विवचितं । धूमवान् बहेरित्यादौ पर्वतादिनिष्ठवयधिकरणताव्यवेधूमाभावाधिकरणावृतित्वेऽपि अयोगोलकनिष्ठवयधिकरणताव्यकरतथावानातिव्याप्तिरित्याइः । ___ अन्ये तु हेतुतावच्छेदकसम्बन्धावच्छिन्नततावच्छेदकावच्छिन्नखाधिकरणताश्रयवृत्तियनिरवच्छिन्त्राधिकरणावं तदन्तिनिरुत
ঘামাৰলবিমিলিথিনৗকাৰৰচ্ছিাব্দিলালন্ধল मिति विशेषण-विशेष्यभावव्यात्यासे तात्पर्य, खपदं हेतुपरं, इत्यञ्च कपिसंयोगाभाववान् सत्वात् कपिसंयोगिभित्रं गुणत्वादित्यादावपि नाव्याप्तिरित्याइरिति मझेपः।
যালামাছ, মাঘলক্কিনি স্বাপ্পিী অং স্বাঘমালकान् तदवृत्तिवमित्यर्थः । . कपिमयोगी एतदृक्षत्वादित्याद्यव्यायवृत्तिमायकाव्याप्तिकारणय 'माध्यवद्भिवेति माध्याभाववतो विशेषणमिति प्राञ्चः। तदसत् ‘साध्याभाववदित्यस्य व्यर्थत्वापत्तेः साध्यवहिबारत्तित्वस्यैव सम्यक्त्वात्। (१) साध्यमिाइत्तित्वमित्वस्यैव व्यामित्वादिति का।
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
.
.
तत्त्वचिन्तामणी
नव्यास्तु माध्यवजिवे यः माध्याभावः माध्यवद्भिवसाध्याभावः तदत्तित्वमिति सप्तमौतत्पुरुषोत्तरं मतप्प्रत्ययः तथाच माध्यवशिनवृत्तियः साध्याभावस्तवदवृत्तित्वमित्यर्थः । एवञ्च साध्यवनिववृत्तौत्यनुको संयोग द्रव्यवादित्यादावव्याप्तिः संयोगाभाववति द्रव्ये द्रव्यत्वस्य वृत्तः, तदुपादाने च संयोगवमित्रवृत्तिः संयोगाभावो गुणादिवृत्तिः संयोगाभाव एव अधिकरणभेदेनाभावभेदात तबदवृत्तित्वान्नाव्याप्तिः। न च तथापि साध्यवभिन्नावृत्तिलमित्येवास्तु किं माथाभाववदित्यनेनेति वाच्यम् । यथोकलक्षणे तस्थाप्रवेशेन वैयर्थाभावात्।।) तस्यापि लक्षणन्तरत्वात्। न च तथापि माध्यवनिववृत्तिर्यस्तवदवृत्तित्वमेवास्तु किं माध्याभावपदेनेति वाच्यं । तादृशद्रव्यत्वादिमदृत्तिवादसम्भवापत्तेः। साध्याभावेत्यच माध्यपदमप्यत एव द्रव्यत्वादेरपि द्रव्यत्वाभावाभावत्वात् भावरूपाभावस्य चाधिकरणनेदेन भेदाभावात् । ।
मनु तथापि घटाकाशसंयोग-घटत्वान्यतराभाववान् गगनत्वादित्यत्र घटानधिकरणदेशावच्छेदेन घटाकाशसंयोगाभावस्य गगने सत्त्वात् मद्धेतृतयाव्याप्तिः साध्यवभिने घटे वर्तमानस्य माध्याभावस्य घटाकाशसंयोगरूपस्य गंगनेऽपि सत्त्वात् तच च हेतोर्टत्तेः। न च माध्यवनित्रवृत्तित्वविशिष्टसाध्यभाववत्त्वं विवक्षितमिति वाच्यम् । साध्याभावपदवेयर्थ्यापत्तेः । माध्यवभिनवृत्तिवविशिष्टवदवृत्तित्वस्यैव सम्य
(१) खसमानाधिकरणव्याप्यतावच्छेदकधर्मान्तरघटितवस्यैव व्यर्थविशेपणघटितवरूपत्वात् साध्यमित्तिसाध्याभाषवदत्तित्वत्वस्य साध्यवविनायत्तित्वत्वाघटितत्वेन गोखलक्षणं अर्थविशेषणघटितमिति भावः ।
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
खातिवादः।
• १
क्लादिति चेत् । म। प्रभावाभावस्थातिरिकत्वमतेनेतलक्षणकरणत् तथाच अधिकरणभेदेनाभावभेदात् माध्यवभिने घटे वर्तमानस्य माध्याभावस्य प्रतियोगियधिकरणस्य प्रतियोगिमति गगनेऽसत्त्वादव्याप्तेरभावात् । न चैवं माध्याभावेत्यच माध्यपदवैयर्थं अभावाभावस्थातिरिकत्वेन द्रव्यत्वादेरभावत्वाभावात् माध्यवद्भित्रवृत्तिघटाभावादेस्तु हेतमत्यसत्त्वात् अधिकरणभेदेनाभावभेदादिति वाचं । यत्र प्रतियोगिसमानाधिकरणव-प्रतियोगिव्यधिकरणत्वलक्षणविरुद्धधर्माध्यासस्तत्रैवाधिकरणभेदेन अभावभेदाभ्युपगमो न तु सर्वत्र, तथाच साध्यवभिनवृत्तिघटाभावादेहेतमत्यपि सत्त्वात् असम्भववारणाय साध्यपदोपादानात् ।
यदा घटाकाशसंयोग-घटत्वान्यतराभावाभावोऽतिरिकः घटाकाशसंयोग-घटत्वादौनामननुगततया तथात्वस्य वकुमशक्यत्वात् । घटत्व-द्रव्यत्वाद्यभावाभावस्तु नातिरिकः घटत्व-द्रष्यत्वादौनामप्यनुगतत्वात् तथाच द्रव्यत्वादिकमादायासम्भववारणयैव माध्यपदमिति प्राङरित्यास्तार) विस्तरः।
(९) ननु घटत्व-घटाकाशतत्म योगान्यतराभाववान् गगनत्वात् इत्यत्रास्वाप्निदुबौरव घटत्व-घटाकाशतत्संयोगस्यानुगततया तत्र तादृशान्यतराभावाभावत्वकल्पने बाधकाभावात् साप्तानां बथात्वकल्पनसम्भवे अतिरिक्त तथात्वकल्पनानौचित्यात् इति चेत् । न । यहेति वाकारस्थानास्थासूचकत्वात् । वस्तुतस्तु घटत्व-घटाकाशवसंयोगान्यतराभावाभावस्य घटे व्याप्यत्तित्वेन निरवश्चिमतिकतया घटे किचिदवच्छेदेन सादृशान्यतरा. भावो नातीति प्रतीतेरप्रामाणिकत्वं परन्त वादृशान्यतराभावाभावस
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२
.
सवचिन्तामणौ
माध्यवप्रतियोगिकान्योन्याभावेति हेतौ माध्यवत्प्रतियोगिकान्योन्याभावाधिकरणकृत्तित्वाभाव इत्यर्थः । अन्योन्याभावध प्रतियोग्यवृत्तित्वेन विशेषणेयः, तेन साध्यवतोव्यासज्यवृत्तिधर्मावचित्रप्रतियोगिकान्योन्याभाववति हेतोर्वृत्तावपि नासम्भवः(१) । नग्वेवमपि मानाधिकरणकमाध्यके वहिमान् धूमादित्यादौ साध्याधिकरणेभूततत्तयक्तित्वावच्छित्रप्रतियोगिकान्योन्याभाववति हेतोवृत्तेरव्यातिर्वारा, प्रतियोग्यवृत्तित्वमपहाय साध्यवत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकान्योन्याभावविवक्षणे तु पञ्चमेन सह पौनरूत्यमिति चेत् । न। वक्ष्यमाणकेवलान्वय्यव्याप्तिवदस्थाप्यत्र दोषत्वात् । न च तथापि
तादृशान्यतरखरूपत्वे वादृशान्यतरान्तर्गतघटाकाशतत्संयोगस्य पवच्छिन्नवृत्तिकतया तत्प्रतीतेः प्रामाणिकत्वापत्तेः। अतिरिक्तत्वपक्षे घटे तादृशामावस्य याप्यत्तित्वेन निरवच्छिन्नतिकतया तत्यतीतेनं प्रामाणिकत्वम। घटाकाशसंयोगाभावत्वेन साध्यत्वे तादृशसाध्यस्य केवलान्वयितया भेदस्य व्याप्यत्तितया तहद्भिनत्वस्याप्रसिद्धत्येनाव्याप्नेरशक्यपरोहारत्वादतोऽन्यतराभावः साध्यीकृत इति ध्येयम्।
(१) अधात्र खप्रतिधोग्यत्तित्वविशेषणदाने अन्योन्यपदं व्यर्थं बाध. वतियोमिकात्यन्ताभावस्य खप्रतियोगित्तित्वात् इति चेत् । न । धम्मिभेदस्य धर्मात्यन्ताभावानतिरिक्तत्वेन खप्रतियोग्यत्तिसाध्यवत्प्रतियोगिकामावाप्रसिद्धेः बन्योन्यपदनिवेशे च अन्योन्याभावत्वनिरूपकप्रतियोगिताश्रयावृत्तित्वलाभात् नाभावाप्रसिद्धिरिति । वस्तुतस्तु अन्योन्याभावस्वस्थ अखण्डोपाधितया बन्योन्याभावत्वनिवेशे वभावत्यापेक्षया गौरवानवकाशादिति ध्येयम्।
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
थाप्तिबादः।
साध्यवत्प्रतियोगिकान्योन्याभावमात्रस्यैव एतषणषटकले वक्ष्यमाणकवखावय्यव्याप्तिरचामङ्गता केवलावयिसाध्य केऽपि मायाधिकरणभूततत्तयक्रित्वावच्छिन्नान्योन्याभावस्य प्रसिद्धत्वादिति वाच्यं । अत्रापि तादृशान्योन्याभावस्य प्रसिद्धत्वेऽपि तदति हेतोईतेरेवाव्याप्नेदुखारत्वात्।
यद्या माध्यवत्प्रतियोगिकान्योन्याभावपदेन माध्यवत्त्वावच्छिनप्रतियोगिताकान्योन्याभाव एव विवक्षितः । न चैवं पञ्चमाभेदः, तत्र माध्यवत्त्वावच्छिनप्रतियोगिकान्योन्याभाववत्त्वेन प्रवेशः अत्र तु तादृशान्योन्याभावाधिकरणत्वेनेत्यधिकरणत्वप्रवेशाप्रवेशाभ्यामेव भेदात् । अखण्डाभावघटकतया च नाधिकरणत्वांशस्य वैयर्थमिति न कोऽपि दोष इति दिक्।
‘‘सकलेति' माकल्यं साध्याभाववतोविशेषणं तथाच यावन्ति माध्याभावाधिकरणानि तनिष्ठाभावप्रतियोगित्वं हेतौ व्याप्तिरित्यर्थः । धूमाघभाववन्बलहूदादिनिष्ठाभावप्रतियोगित्वाइयादावतिव्याप्तिरिति यावदिति साध्याभाववतोविशेषणं, माध्याभावविशेषणवे तत्तद्दावृत्तित्वादिरूपेण यो वयाद्यभावस्तस्थापि सकलमध्ये प्रवेशात् तावदधिकरणप्रमिया असम्भवपत्ते:(९) । न च द्रव्यं
(१) सकलस्य साध्याभावविशेषणत्वे तत्तददात्तित्वाद्यवच्छिन्नाभावकूटाधिकरणाप्रसिड्या मथुरानाधेनासम्भवो दत्तः। जगदीशेन तत्राव्यातिदत्ता पचायमाशयः खपतियोग्मित्ताग्रहविरोधिताघटकसम्बन्धेन सा. ध्यामाववत्त्वनिवेशो मधुरानाधामिर्यः : तयाच तत्तदात्तित्वाद्यव.
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
तावचिन्वामी
मचादित्यादौ द्रव्यवाभाववति गुणदौ मवादेविशिष्टामावादिसत्वादतिव्याप्तिरिति वाचं । तादृशाभावप्रतियोगितावच्छेदकहेतुतावच्छेदकवत्त्वस्येह विवक्षितत्वात्। प्रतियोगिता च हेतुतावच्छेदकसम्बन्धावशिवा ग्राया तेन द्रव्यत्वाभाववति गुणदौ मत्तादेः संयोगादिसम्बन्धावच्छिवाभावसत्त्वेऽपि नातिव्याप्तिः । माध्याभावध माध्यतावच्छेदकावच्छिन्न-माध्यतावच्छेदकसम्बन्धावच्छिनप्रतियोगिताको बोध्यः, अन्यथा पर्वतादावपि वङ्ग्यादेविशिष्टाभावादिसत्त्वेन समवायादिसम्बन्धावच्छिन्नवयादिसामान्याभावसत्त्वेन च यावदनर्गततया तनिष्ठाभावप्रतियोगित्वाभावात् धूमस्थासम्भवः स्यात्। न च कपिसंयोगौ एतदृक्षत्वात् इत्यादौ एतदृक्षस्यापि तादृप्रसाध्याभाववत्वेन यावदन्तर्गततया तविष्ठाभावप्रतियोगित्वाभावादेतचत्वस्थाव्याप्तिरिति वाचम्। किश्चिदनवच्छिनायाः साध्याभावाधि
च्छिनामावस्य खपतियोगिमत्ताग्रहविरोधिताघटकसम्बन्धेन साध्यामावाधिकरणाप्रसिद्धत्वादसम्भवसङ्गतिः, साध्यवत्ताग्रहविरोधिताघटकसम्बन्धेन साध्यामावववनिवेशो जगदीशाभिप्रेतः तथाच कालिकसम्बन्धाबच्चिनप्रतियोगिताकघटावाभावशाध्यक-धात्मत्वादिहेतौ बक्षणसमन्वयः साध्यवसायहविरोधिताघटककाजिकसम्बन्धेन साध्याभावकूटस्य काये प्रसिद्धत्वात् जगदीशेगाव्याप्तिर्दता। ननु गगनत्वाभाववान् पटत्वादित्यत्र बक्षणगमनात् कथमसम्भवः गगनत्वाभावाभावकूटाधिकरणवस्य गगने प्रसिद्धत्वादिति चेत् । न । घटभिन्नत्वंप्रकारकप्रमाविशेष्य-गगनत्वोमयत्वाबरिनामावमादाय सदोषवादवस्थयात, सदभावटिसकूटाधिकरणाप्रसिद्धे. रिवि।
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
चामिवादः।
करणतावा इस विवक्षितलात्, इत्यच. किचिदनवछिनायाः कपिसंयोगाभावाधिकरणताया गुणदावेव सत्त्वातच चहेतोरयभावमचानाव्याप्तिः। न च कपिसंयोगाभाववान् सत्त्वादित्यादौ साध्याभावस्य कपिसंयोगादेनिरवछिन्त्राधिकरणत्याप्रमिद्याव्याप्तिरिति वाच्या केवलापयिन्यभावादित्यनेन ग्रन्धकतैव एतद्दोषस्य वक्ष्यमाणत्वात्। न च पृथिवौ कपिसंयोगादित्यादौ पृथिवौत्वाभाववति जलादौ यावत्येव कपिसंयोगाभावसत्त्वादतिव्याप्तिरिति वाच्च । तनिष्ठपदेन तत्र निरवच्छिन्नतिमत्त्वस्य विवक्षितत्वात्, इत्थञ्च पृथिवीवाभावाधिकरणे जलादौ यावदन्तर्गते निरवच्छिनवृत्तिमानभावोन कपिसंयोगाभावः किन्तु घटत्वाद्यभाव एव तत्प्रतियोगित्वस्य हेतावसत्त्वाबातिव्याप्तिः। न चैवमन्योन्याभावस्य व्याप्यवृत्तितानियमनये द्रव्यत्वाभाववान् संयोगवद्भिववादित्यादेरपि मद्धेततया तत्राव्याप्तिः संयोगवशिवत्वाभावस्य संयोगरूपस्य निरवच्छिन्नसत्तेरप्रसिद्धेरिति वाच्याअन्योन्याभावस्य व्याप्यवृत्तितानियमनयेऽन्योन्याभावस्थाभावो न प्रतियोगितावच्छेदकस्वरूपः किन्वतिरिको व्याप्यवृत्तिरन्यथा मूलावच्छेदेन कपिसंयोगिभेदाभावभानानुपपत्ते रिति संयोगवशिवत्वाभावस्थापि निरवच्छित्रवृत्तिमत्त्वात्। वस्तुतस्तु सकलपदमाशेषपरं न वनेकपरं एतद्दटत्वाभाववान् पटवादित्यायेकतिविपक्षके माध्याभावाधिकरणस्य यावत्त्वाप्रसिद्ध्याव्याप्यापत्तेः, तथाच किञ्चिदनवच्छिनाया निरुतसाध्याभावाधिकरणताचा व्यापकौभतो योऽभावः हेतूतावच्छेदकसम्बन्धावच्छित्र-तत्प्रतियोगितावछेदकहेततावच्छेदकवचं लक्षणर्थः । न च सत्त्वादिसामान्यामा
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
..
तत्वचिन्तामणौ
वस्थापि प्रमेयत्वादिना, निरुकमाध्याभावाधिकरणताव्यापकवान द्रव्यं सत्चादित्यादावतिव्याप्तिः। तदधिष्ठान्योन्याभावप्रतियोगितानवच्छेदकत्वं व्यापकत्वमित्युतौ तु निर्धूमन्ववान् निर्वशित्वादित्यादावव्याप्तिः निहित्वाभावानां वहिव्यतीनां सर्वासामेव चालनौन्यायेन निधूमवाभावाधिकरणतावनिष्ठान्योन्याभावप्रतियोगितावच्छेदकत्वादिति वाच्यं । तादृशाभावाधिकरणताव्यापकतावच्छेदक हेतुतावच्छेदकसम्बन्धावच्छिन्न-यावच्छिन्नाभावत्वं तदुर्मवत्त्वस्य विवक्षितलात् व्यापकतावच्छेदकत्वन्तु तदनिष्ठात्यन्ताभाक्मतियोगितानवच्छेदकत्वं न तु तद्वनिष्ठप्रतियोगियधिकरणाभावप्रतियोगितानवच्छेदकत्वं तद्दति निरवछिनत्तिमान् योऽभावस्तत्प्रतियोगितानवच्छेदकत्वं वा, प्रकृते व्यापकतायां प्रतियोगिवैयधिकरण्यस्य निरवधिवत्वस्य वा प्रवेशे प्रयोजनविरहात् तेन पृथिवौ कपिसंयोगादित्यादौ नातिव्याप्तिः कपिसंयोगाभावत्वस्य निरुतव्यापकतावच्छेदकत्वविरहादित्येव परमार्थः ।
"माध्यवदन्येति अचापि प्रथमलक्षणोकरीत्या हेतौ माध्यवदन्यत्तित्वाभाव इत्यर्थः । तादृशवृत्तित्वाभावश्च तादृशवृत्तित्वसामान्याभावो बोध्यः तेन धूमवान् बहेरित्यादौ धूमवदन्यजलहुदादित्तिवाभावस्य धूमवदन्यत्तित्व-जखत्वोभयाभावस्य च देती सत्त्वेऽपि नातिव्याप्तिः। माध्यवदन्यत्वच अन्योन्याभाववनिरूपितमाध्यवत्त्वावच्छिनप्रतियोगिताकाभाववत्वं तेन वहिमान् धूमादित्यादौ तत्तदकिमदन्यस्मिन्धमादे तावपि नाव्याप्तिः, न वा वकिमायावछिनप्रतियोगिकात्यन्नाभावस्य स्वावशिवभिनभेदरूपया
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
यातिवादः।
धिकरणे(१) पर्वतादौ धूमय वृत्तावष्यव्याप्तिः(२) तस्य माथवचावधिअप्रतियोगिताया अत्यन्नाभाववनिरूपितत्वेन अन्योन्याभाववनिकपितत्वविरहात् । अन्योन्याभावत्वनिरूपितत्वञ्च तादाम्यसम्बन्धाकछिनत्वमेव, माध्यवत्वञ्च माध्यतावच्छेदकसम्बन्धेन बोध्यं तेन वक्रिमान् धूमादित्यादौ वझिमत्त्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकस्य समंवायेन वकिमतोऽन्योन्याभावस्थाधिकरणे पर्वतादौ धूमादेईत्तावपि नाव्याप्तिः)। सर्वमन्यत् प्रथमलक्षणोक्कदिशावसेयं)। यथा चास्य न हतीयलक्षणाभेदस्तथोकं तत्रैवेति समासः। सर्वाण्येव लक्षणनि केवलाग्यव्यव्याप्या दूषयति, 'केवलान्वयिन्यभावादिति पञ्चानामेव लक्षणनां इदं वाच्यं ज्ञेयत्वादित्यादिव्याप्यत्तिकेवलाम्वयिसाध्यके कपियो
(१) खावच्छिन्नभिन्नभेदस्य खखरूपानतिरिक्तत्वमिति भावः। (२) नन्वत्र सर्वत्रासम्भवसम्भवे कथमव्याप्तिदानं सङ्गतमिति चेत् । न । शब्दवान् गगनवादित्यादौ लक्षणगमनसम्भवात् तत्र साध्यवदत्यन्ताभावस्य केवलान्वयितया सदवच्छिन्नभिन्नाप्रसिद्धेरिति । .
(२) पत्र तादात्म्यसम धेन गगनसाध्यक-ताक्तित्वहेतौ लक्षणगमनानासम्भवः। . ..
(8) प्रथमलक्षणरीत्यावसेयमिति ख०। प्रथमलक्षणे यथा साध्याभावाधिकरणत्वं सम्बन्धविशेषेण विवक्षितं पत्रापि तथा साध्यवझेदाधिकरणत्वं सम्बन्धविशेषेण वक्तव्यं, प्रथमलक्षणे यथा हेतुतावच्छेदकावच्छिन्ना. धिकरणसाप्रतियोगिक-हेतुतावच्छेदकसम्बन्धावच्छिन्नाधेयताप्रतियोगिकखरूपसम्बन्धेन साध्यामाववत्तित्वाधावो विवक्षितः तथा पत्रापि साध्यवदन्यत्तित्वाभावो विवक्षणीयः बन्यथा प्राराक्कदोषाणाम् पत्राप्यवकाशः स्यात् इति।
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामणो
इति श्रीमहोशोपाध्यायविरचिते तत्त्वचिन्तामणौ अनुमानखण्डे व्याप्तिवादे व्याप्तिपञ्चकं ।
गाभाववान् सत्वादित्याद्यव्याप्यत्तिकेवलान्वयिसाध्यकेऽपि चाभावादित्यर्थः, माध्यतावच्छेदकसम्बन्धावच्छिन्न माध्यतावच्छेदकावच्छिन्नप्रतियोगिताकसाध्याभावस्य माध्यतावच्छेदकसम्बन्धेन माध्यवत्त्वावचित्रप्रतियोगिताकान्योन्याभावस्य चाप्रसिद्धत्वात् कपिसंयोगाभाववान् सत्त्वादित्यादौ निरवच्छिन्नमाध्याभावाधिकरणत्वस्याप्रमिङ्कत्वाच्च इति भावः । हतीयचक्षणस्य केवलान्धयिसाध्यकासत्त्वञ्च तड्याख्यानावसर एव प्रपञ्चितम् । एतच्चोपलक्षणं द्वितीये कपिसंयोगी एतदृत्वादित्यादावव्याप्तिः अधिकरणभदेनाभावभेदे मामाभावेन कपिसंयोगवद्भिनत्तिकपिसंयोगाभावोऽपि द्रव्यरतिः कपिसंयोगाभाव एव तदृत्तित्वादेतदृक्षत्वस्य । न च माध्यवह्निववृत्तित्वविशिष्टसाध्याभाववदवृत्तित्वं वक्तव्यं एवञ्च वृक्षस्य विभिष्टाधिकरणत्वाभावाचाव्याप्तिरिति वाच्य। साभावपदवैयपित्तः । साध्यवद्भित्रवृत्तित्वविशिष्टवदवृत्तित्वस्यैव सम्यक्त्वात् ।मद्धेतौ इवधि- . करणे विशिष्टाधिकरणवाभावादेषासम्भवाभावात् । हतीये माध्यवत्प्रतियोगिताकान्योन्याभावमात्रस्य घटकत्वे चालनौन्यायेनान्योन्याभावमादाय नानाधिकरणकमायके वकिमान् धूमादित्यादावव्याप्तित्यपि बोध्यम्।
इति श्रीमथुरानाथतर्कवागीशविरचिते तत्त्वचिन्तामपिरहस्ये अनुमानखण्डे व्याप्तिवादरहस्ये व्याप्तिपञ्चकरहस्यं ।
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
अथ सिंह-व्याघ्रोक्तव्याप्तिलक्षणरहस्यम्।
नापि साध्यासामानाधिकरण्यानधिकरणत्वं साध्यवैयधिकरण्यानधिकरणत्वं वा, तदुभयमपि साध्यान
अथ सिंह-व्याघ्रोक्तव्याप्तिलक्षणरहस्य । 'नापीति, अब ‘माध्यामामानाधिकरण्यं न मायाधिकरणवतिवाभावः, द्रव्यं सन्चादित्यादावतियाण्यापत्तेः द्रव्यत्याधिकरणदृत्तित्वाभावानधिकरणलात् सत्तायाः । नापि माध्यवङ्गिवत्तिलच द्वितीयेन पौनरल्यापत्तः। किन्तु माध्याधिकरणवाभावववृत्तिलं तदनधिकरणत्वं तदनियत्वं अधिकरणवप्रवेशे प्रयोजनविरहात्, तथाच मायाधिकरणलाभाववदृत्तिभिन्नत्वं हेतावश्यभिचारित्वमिति फलितं, अध्याप्यवृत्तिमायकमहेतावव्याप्तिवारणायाधिकरणत्वप्रवेशः, अव्याप्यवृत्तेरधिकरणता तु नाव्याप्यवृत्तिः), माध्याधिकरणत्वच माध्यतावच्छेदकावधि-माध्यतावच्छेदकसम्बभावच्छिवं याचं अन्यथा 'गुणकर्यान्यत्वविशिष्टमतावान् जातेरित्यादौ सत्ताया एव साध्यत्वेन सायाधिकरणवाभाववत्थामान्यादित्तिभिन्नत्वाव्यातेरित्यतिव्याप्तिः स्यात् । स्थाच समवायेन वयादौ साथे संयोगेन
(१) व्याप्यत्तिरिति ख.।
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
तावचिन्तामणी
धिकरणानधिकरणत्वं तब तब यत्किञ्चित्साध्यानधिकरणाधिकरणे धूमे चासिंहम्।
धमादिहेतावनिव्यानिः) वङ्ग्यधिकरणवाभाववन्नपदाधेव तदवृत्तित्वात् धूमादेः । इत्यञ्च माध्यतावच्छेदकसमवायसम्बन्धावछिनवयधिकरणत्वाभाववत् पर्वताद्यपि धूमस्य तदृत्तित्वाचातिव्याप्तिः। वृत्तिच हेतुतावच्छेदकसम्बन्धेन बोध्या तेन तादृश्शवयधिकरणत्वाभाववति धूमावयवे समवायेन धूमस्य वृत्तावपि न चतिः। न चैवं सत्तावान् द्रव्यत्वादित्यादावव्याप्तिः सत्ताधिकरणत्वाभाववति मामान्यादौ हेतुतावच्छेदकसमवायसम्बन्धेन वृत्तेरप्रसिद्धेरिति वाच्यम् । तानसाध्याधिकरणवाभावव्यापकान्योन्याभावप्रतियोगितावच्छेदकबमिति विवक्षितत्वात्, मायाधिकरणवाभावसमानाधिकरणेत्युक्ती धूमवान् वहेरित्यादौ धूमाधिकरणवाभाववति जलहूदादौ वक्तिमदन्योन्याभावयत्वादतियाप्तिरिति व्यापकवानुधावनं । अन्योन्याभावप्रतियोगितावच्छेदकत्वं हेतुतावच्छेदकसम्बन्धावच्छिन्नं हेतुतावछेदकावचित्रच पाचं अन्यथा वकिमान् धूमादित्यादौ वयधिकरणवाभाववति धूमावयवे धूमवदन्योन्याभावामत्त्वादव्याप्तिः स्थात्, याच द्रव्यं जानेरित्यादौ घटव-पटवादितत्तवातिमतोऽन्योन्याभावस्य द्रव्यत्वाधिकरणखाभावव्यापकत्वेनातिव्याप्तिः। अव्याप्यवृत्ति
to धिमान् धूमादित्यादौ च समवायेन को बाध्यत्वे संयोगेन धूमाहितावविद्यामिरिति ख.।
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
वातिवादः।
मतोऽन्योन्याभाव नाव्याप्यवृत्तिरिति प्रथिवी संयोगादिबादाव. व्याप्यवृत्तिहेतुके व्यभिचारिणि नातिव्याप्तिरिति संक्षेपः। . ..
‘माध्यवैयधिकरण्येति, 'साध्यवैयधिकरण्यं माध्यवनिववृत्तित्वं, माध्यवदवृत्तित्वपरत्वे द्रव्यं सत्त्वादित्यादावतिव्याप्तिः, अन्यायवृत्तिमतोऽन्योन्याभावस्तु नाव्याप्यवृत्तिरित्यव्याप्यवृत्तिमाध्यकमद्धेतो नाव्याप्तिः, अनधिकरणवमित्यत्राधिकरणत्वांशस्य प्रवेशाब माध्यवदन्यावृत्तित्वमित्यनेन यथाश्रुतस्य पौनरुत्वं, अखण्डाभावघटकतया चाधिकरणलांशस्थ न वैयर्थ्यम् । माध्यवद्भिववध माध्यतावच्छेदकसम्बन्धावच्छिन्न-माध्यतावच्छेदकावच्छित्रप्रतियोगितावच्छेदकताकभेदवत्वं बोध्यं तेन वहिमान् धूमादित्यादौ धूमस्य समवायेन वहिमतोभिन्ने यस्किश्चिमाध्यवद्भिने र पर्वतादौ वृत्तिवेऽपि न हतिः तादृशमाध्यवभिनवव्यापकान्योन्याभावातियोगितावच्छेदकत्वमिति तु समुदाथार्थ निष्कर्षः, अन्यथा पूर्ववत् माध्यवजिनत्तित्वमित्यत्र वृत्तहेतुतावच्छेदकसम्बन्धेनैव वाच्यतया जातिमान् व्यत्वादित्यादावव्याप्यापत्तेः(१) शेषं पूर्ववत् । लक्षणद्वयमेकदैव दूषयति, तदुभयमपौति, ‘माध्यानधिकरणानधिकरणत्वं' मायापधिकरणानधिकरणबनियतं साधानधिकरणत्तित्वयाप्यमिति पावत्, "तच' व्यापकौभूतं साधानधिकरणवृत्तित्वच, 'तर' केवखापयिसाध्यके, 'असिमित्यन्वयः माध्यानधिकरणत्वस्य माथाधिकरणवावच्छिन्नप्रतियोगिताकभेदवत्वस्य तत्राप्रसिद्धः, 'यत्कचिदिति यदि माध्यानधिकरणत्वं न तमामान्यभेदः किन्तु (१) सत्तावान् व्यत्वादित्वादावप्रसिड्यापत्तरिति ख.।
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
४५. . तत्वचिन्तामो
इति श्रीमहाशोपाध्यायविरचिते तत्त्वचिन्तामणौ अनुमानखण्डे सिंह-थाप्रोक्तव्याप्तिलक्षणम् ।
भायाधिकरणप्रतियोगिकभेदमाचं तदा वहिमान् धूमादित्यत्र यत्किञ्चिद्वयनधिकरणे पर्वतादौ वर्तमाने धूमेऽप्यसिद्धमित्यर्थः । अव्यर्थकचकारात् केवलान्वयिसमुच्चयः, तथाच व्यापकाभावाद्थायीभूतं तदुभयलक्षणमपि तदुभयचामिद्धमिति भावः। 'साध्यामधिकरणनधिकरणत्वमिति यथाश्रुतन्तु न माछते यथोकसपएदवस नवरूपत्वाभावादिति ध्येय) ।
इति श्रीमथुरानाथतर्कवागौशविरचिते तत्त्वचिन्तामणिरहस्ये अनुमानखडे व्यान्निवादे सिंह-याघ्रोकच्याप्तिलक्षणरहस्यम् ।
(९) भट्टाचार्य्यानुयायिनस्तु तदुभयमपि तदुभयशक्षणवाक्यपि, 'वाध्यानधिकरणाधिकरणत्व' साध्यानधिकरणाधिकरणत्वबोधजनक, साध्याधिकरणत्वसामान्यामावत्तित्वामाव-साध्यवसामान्यमिवत्तित्वाभावाग्यवरपोधमनकमिवि यावत्, 'तच' तादृशान्यतरामाववत्वच, 'तत्र' केवनाचयिताध्यके, 'बसिमित्यन्धयः, साध्याधिकरणत्वसामान्याभावामति. शत्वादिति भावः। ननु तदुभयवाक्यं न यथोक्लान्यवरामावबोधनमक, पपि तु साध्याधिकरणत्वप्रतियोगिकाभाववत्तित्वसामान्यामाव-साध्यबवतियोगिकभेदवत्तित्वसामान्याभावान्यतरपोधजनकमेव साध्याधिकारणवपतियोगिकाभाव-साध्यवतियोगिकभेदौ च केवलान्वयिनि नापसिद्धावियत पार, 'यत्किचिदिति, शेष पूर्ववदिति प्राङः । इति खधिशिनाखदेविका पाठः।
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
अथ व्यधिकरणधीवच्छिन्नाभावः ।
अथेदं वाचं शेयत्वादित्यत्र समवायितया वाच्यत्वाभावोघट एव प्रसिद्धः व्यधिकरणधीवच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावस्य केवलान्वयित्वात् । नचैवं घट एव व्यभिचार, साध्यतावच्छेदकावच्छिन्नमतियोगिताकाभा
अथ व्यधिकरणधर्मावच्छिवाभावरहस्यं । व्यधिकरणधर्मावचिनप्रतियोगिताकाभाववादिनोऽन्यथाख्यात्यखौकारिणः सोन्दडस्थ मतमादाय 'माध्यात्यन्ताभाववदवृत्तिलमिति प्रथमलक्षणे केवलाचयिन्यव्याप्तिमुद्धरति, 'अथति, 'ममवाथितयेति समवायित्वादिरूपेण वाच्यत्वावृत्तिधोणेव्यर्थः । श्रादिपदात् समवेतत्व-घटत्व-पटत्वादेर्वाचवावृत्तिधर्ममावस्य परियाः, 'घट एव प्रसिद्ध इति एवकारोऽयर्थ घटेऽपि प्रसिद्ध इत्यर्थः, अन्यथा नादृशाभावस्य पदार्थमाचे प्रसिद्धूवादवधारणसङ्गतेः । ननु प्रतियोगिनां सममभावस्य विरोधादाच्यत्ववति घटे कथं तदभाव इत्यतपाइ, 'यधिकरणधर्मावच्छिनाभावस्येति खाधिकरणावृत्तिधर्मावचित्रप्रतियोगिताकाभावस्येत्यर्थः, खपदं प्रतियोगितापरं, 'केवलामथित्वात्' सर्वच सत्त्वात्, प्रतियोगिमत्यप्रतियोगिमति च सत्त्वादिति वित्, प्रभावस्य प्रतियोगितावच्छेदकावशिवप्रतियोगिनेव ममं
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
"
.
तत्त्वचिन्तामो
वववृत्तित्वं हि व्यभिचार,नच वाच्यत्वाभावस्ताहयोघटे, इंति चेत्तई तादृशसाध्याभावसामानाधिकरख्याभावाव्याप्तिः। तथाचाप्रसिद्धिः प्रतियोग्यत्तिश्च धर्मो न प्रतियोगितावच्छेदकः तहिशिष्टज्ञानस्याभाव
विरोधी न तु प्रतियोगिमात्रेण व्यधिकरणधर्मावच्छिनप्रतियोगौ च न क्वचिदयस्ति प्रसिद्धबादतः सर्वचैव तदवच्छिनाभावः । न र वाचवमीश्वरेका तच च गुणवेच्छात्वादिसमवायित्वभगवदात्मसमवेतत्वयोः सत्वेन समवायित्वं समवेतलं वा कुतोवाच्यखनिष्ठप्रतियोगितात्यधिकरणमिति वाचं । वायखं न ईश्वरेच्छामा किन्तु तविषयत्वमित्यभ्युपगमादिति भावः । 'समवाधितयेत्यख घटादिसमवायितयेत्यर्थः इत्यथन्थे । यद्यपि समवाधिबादिना व्यधिकरणधर्मण वाच्यवाभावस्य प्रसिद्धवावपि तत्तत्साध्याभाव-विशिष्टाभावोभयाभावादिकमादायासम्भववारणय माध्यतावछेदकावच्छिन्नप्रतियोगिताकसाध्याभावस्यैव लक्षणघटकत्वाप्ता. शाभावस्य च वाच्यत्वादिमायके प्रसिद्धवादव्याप्तिदुवारव । न माध्यप्रतियोगिताकाभावमाचं लक्षणघटकमिति धमादिषमाशति वाच । तथा सति विशिष्टाभावोभयाभावादिरूपं समानाधिकरणपर्यावधिनाभावमादायैव प्रसिद्धिसम्भवेन व्यधिकरणविधिक प्रतियोगिताकाभावपर्यन्तानुधावनवैफल्यात्। न च वैशिष्य-व्यासज्यवृत्तिधर्मानवधिवप्रतियोगिताकपाध्याभावमा लक्षणघटकमिति भने रबमाप्रति वाचं । दबावचिन्नपुरुषाभावमेव सम-'
Page #69
--------------------------------------------------------------------------
________________
खातिवादः।
धीहेतुत्वात् अन्यथा निर्विकल्यादपि घटोनास्तीति प्रतीत्यापत्तेः, गवि शशशृङ्गं नास्तीतिप्रतीतेरप्रसि शशशृङ्ग नास्तीति च शशे शृङ्गाभावइत्यर्थः ।
इति श्रीमहङ्गेशपाध्याविरचिते तावचिन्तामणौ अनुमानखण्डे व्याप्तिवादे व्यधिकरणधमावच्छिवाभावः॥
वायित्वावच्छिन्नवाच्यत्वाभावस्थापि विशिष्टाभावत्वात् समवायसमवायित्वयोवैशिष्टयावच्छेदकौभतधर्मघटकत्वात् । तथापि माथाभावपदेन माध्यतावच्छेदकसम्बन्धावच्छिन-माध्यतावच्छेदकावच्छिन- . प्रतियोगिताकसाध्याभावो न विवक्षणीयः किन, माध्यतावशेदकसम्बन्धेन माध्यतावच्छेदकावच्छिन्नमाध्यममानाधिकरणत्व-व्यधिकरएधविच्छित्रप्रतियोगिताकाभावव्यक्रिमिन्नत्वोभयाभाववदभावमा विवक्षणेयं, तावतैव तत्तत्माध्यव्यावभाव-विशिष्टाभावादारपसम्भवात् तादृशोभयाभाववत्वस्य तच विरहात्। संयोगी द्रव्यत्वादिव्यादौ इयत्वत्व-गुणसमवेतत्वावशिवप्रतियोगिताकाभावो यधिकरणाविषप्रतियोगिताकसाथाभावच तादृशाभावः सुखमः, कपिसंयोप्रभाववाद कलादिदं वाचं शेवत्वादित्यादिकेवचावयिसाथके व पधिकरणधवचिवाभाव एव नथा । न च कवचावयिनि व्यधिक एकाधवच्छिवाभावमादायैव प्रमिड्युफ्पादने माध्याभावपदेन सायतावच्छेदकसम्बन्धावचिव-माध्यतावच्छेदकावच्छिनप्रतियोगिता
Page #70
--------------------------------------------------------------------------
________________
मलपितामगैः
काभाव एव विवष्यतां किं तादृशोभवाभाववदभावविवषणेन बोल सवपिन र सरूपसम्बन्धेन वाच्यत्वाचन घटाधभावलेव तादृश्य प्रमिलादिति वाचम्। प्रमेयसाध्यके थधिकरणधावचित्रा. भावमादायापि माध्यतावच्छेदकसम्बन्धावधिक माध्यतावच्छेदकावचित्रप्रतियोगिताकाभावप्रसिद्मासम्भवात्, न कि प्रमेयत्वं कस्यतिधिकरणधर्मः, प्रमेयत्वेन घटाभावादिरूपसमानाधिकरणधावविवाभावे च मानाभावादिति पूर्वपक्षिणं निगूढाभिप्रायः, शेषमनुपदं वक्ष्यामः । न चैवमिति, ‘एवं' सत्यधिकरणविचित्रप्रतियोगिताकाभावाभ्युपगमे, 'यभिचार इति शेयत्वस्य वाच्यत्वव्यभिपारिवमित्यर्थः, वाच्यत्वत्वेन व्यधिकरणधर्मण स्वरूपसम्बन्धावच्छिनशेवबाघभावस्थ माध्यतावच्छेदकसम्बन्धावच्छिन-माध्यतावच्छेदकारविषप्रतियोगिताकखाधिकरणे घटे शेयत्वस्थ वृत्तरिति भावः । पर प्रतियोमितावच्छेदकावच्छित्रप्रतियोगिव्यधिकरणतादृशाभावः बदृत्तिलमेव व्यभिचारः अन्यथा संयोगसाध्यकमद्धेतावतिव्याप्तिरिति) कथमिषमायोति वाच्यम् । व्याप्यवृत्तिा साध्यतावच्छेदकसम्बभावछिनमाध्यतावच्छेदकावच्छिवप्रतियोगिताकाभावाधिकरता तदात्रवत्तिवं व्यभिचार इत्यभिप्रायेणनात्, थायत्तित्व गिरवचिनत्व। 'साध्यतेति माध्यतावच्छेदकसम्बन्धावच्छिक साधताबच्छेदकावछिनप्रतियोगिताकसायाभावववृत्तिवमित्यर्थः, वाचलोन बाधिकरएपमेण वरूपसम्बन्धावच्छिाशेयत्वाचभाव माव*) यभिचारित्ववक्षस्थातिव्यामिरिवाः सडेतोयभिचारिवणक्षमा महात्वादिवि भावः।
-
-
Page #71
--------------------------------------------------------------------------
________________
याप्तिवादः।
"तावच्छेदकावच्छित्रप्रतियोगिताकोऽपि म. साध्याभाव इति भावः । ‘ লায় ঘনাৰৰলক্ষিন্ম-ঘনাজ্জালি प्रतियोगिताकः । तौति माध्यतावच्छेदकसम्बन्धावच्छिन-साध्यतावच्छेदकावच्छिन्त्रप्रतियोगिताकसाध्याभाववदृत्तित्वस्य व्यभिचारत्वे इत्यर्थः, 'तादृशमाध्याभावेति माध्यतावच्छेदकसम्बन्धावचिन-माध्यतावच्छेदकावच्छिन्नप्रतियोगिताकसाध्याभाववत्तित्वाधाव एव व्या- ' तिर्न तु निरुतोभयाभाववदभाववदवृत्तित्वरूपेत्यर्थः, अव्यभिचरितवपदार्थस्यैव व्याप्तित्वात् अव्यभिचरितत्वपदार्थस्य च व्यभिचरितवस्याभावोऽव्यभिचरितत्वमिति व्युत्पत्त्या व्यभिचारसामान्याभावरूपत्वादिति भावः । 'अप्रसिद्धिरिति, वाच्यत्वत्वावच्छिवप्रतियोगिताकवाच्यवाभावस्याप्रसिद्धत्वादिति भावः । ननु अव्यभिचरितलपदं न यौगिकं किन्तु निरुतोभयाभाववान् योऽभावस्तहदवृत्तिवरूपे प्राथमिकलक्षणवाक्यार्थे पारिभाषिकमखण्डपदमेव, अथ एतस्याव्यभिचरितलपदार्थवे असम्भव एव वजिमान् धूमादिदं वाय शेयत्यादित्यादौ व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकवहि-वाच्यत्वाधभाववति पर्चत-घटादौ धूम-ज्ञेयत्वादेई त्तेः । न च तइदृत्तित्वस्यापि व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नाभाव-विभिष्ठाभावोभवाभावादिमादायैव सर्वच लक्षणसमन्वय इति वाच्यम्। तथा मति धूमवान् बड़ेरित्यादावपि तादृशोभयाभाववदभाववत्तित्वस्य व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नाभाव-विशिष्टाभावोभयाभावादे:(९) वड्यादौ सवा। (१) व्यधिकरणम्भावचिन्नाभाव-तत्तयक्तित्वावच्छिनामाव-विशिष्ठाभावोभयाभावादेरिति ख.।
Page #72
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्वचिन्तामणौ
यभिचारिमाचेऽतिव्याप्तेरिति रेत्। न । तबदवृत्तिलपदेन तदबिष्टनत्मजातीयव्याप्यरत्त्यभावप्रतियोगित्वस्य विवक्षणात्, इत्थञ्च वहिमान् धूमादित्यादौ व्यधिकरणधर्मावच्छिन्त्रवड्याधभाववति पर्वतादौ तत्मजातीयस्य धूमायधिकरणधर्मावच्छिन्नाभावस्य सत्त्वाबासम्भवः, धूमवान् वहेरित्यादौ च तादृशोभयाभाववदभावोव्यभिचारनिरूपकतत्तदधिकरणव्यत्यत्तित्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकतत्तदधिकरणव्यक्त्यवृत्त्यभावः तदधिकरणे तत्तदधिकरणव्यको नत्तत्मजातीयस्य वयादेरभावस्थामत्त्वान्नातिव्याप्तिः । साजात्यञ्च न यथाकञ्चिद्रूपेण व्यावर्तकत्वाभावात्, नापि खसमानाधिकरणध
विच्छिन्नप्रतियोगिताकत्व-खासमानाधिकरणधर्मावच्छित्रप्रतियोगिताकत्वान्यतररूपेण अभावभेदेन प्रतियोगिताया भिन्नत्वात् साध्याभावनिष्ठसमानाधिकरणधर्मावच्छिवप्रतियोगिताकबादेहत्वभावावृत्तित्वादसम्भवापत्तः, किन्तु खव्यधिकरणधर्मावच्छित्रप्रतियोगिताकान्यतमत्व-खव्यधिकरणधर्मावच्छिनप्रतियोगिताकभेदकूटवत्त्वान्यतररूपेण(), खपदद्वयं प्रतियोगितापरं, धूमवान् वळेरित्यादौ व्यभिचारनिरूपकतत्तदधिकरणव्यक्त्यवत्तिमामान्याभावाधिकरणे तत्तदधिकरणव्यकावपि तत्तत्मजातीयस्य वयादेशिष्यव्यासज्यवृत्तिधर्मावच्छिन्नाभावस्य समवायादिसम्बन्धावच्छित्रीभावस्य च सत्वादतिव्याप्तितादवस्थ्यमतो व्याप्यमित्वमभावविशेषणं, व्याय
(१) 'खव्यधिकरणधम्मावच्छिनप्रतियोगिताकभेदकूटवत्वं' खव्यधिकरगधम्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकायोयोऽभावस्तत्तइक्तित्वावच्छिन्न प्रतियोगिताकभेदकूटवत्त्वमित्यर्थः। .
Page #73
--------------------------------------------------------------------------
________________
थातिवादः।
वृत्तित्वच हेतुतावच्छेदकसम्बन्धेन हेतुताव छेदकावच्छिवसमानाधिकरणव-व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नाभावशक्रिभित्रलोभयाभाववत्त्वं तेन न तद्दोषतादवस्य। द्रव्यं मंयोगादित्याद्यव्याप्यत्तिहेतुके द्रव्यमानसमवेताभाव-गुण-कर्माद्यवृत्त्यभावादेरन्ततः सर्वत्र विशेषणताविशेषण माध्यप्रकारकप्रमाविशेष्यत्व-साधनान्यतराभावादेश्च तादृशस्य सुख भत्वाचाव्याप्तिः। इदं वाचं प्रमेयादित्यादौ घटत्वेन पटाभाव-परवेन घटाभावादिमादाय प्रमेयमात्रस्यैव तादृशाभावप्रतियोगिताबाव्याप्तिः। न च विशिष्टाभावादिवारणय तद्वनिष्ठतत्मजातीयाभावनिरूपितहेतुतावच्छेदकसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगितावच्छेदकहेततावच्छेदकवत्त्वमेव विवक्ष्यतां किं यथोक्तव्याप्यवृत्तित्वेनाभावविशेषणेन इदं वाच्य ज्ञेयत्वादिकेवलान्वयिहेतुके च ज्ञेयत्वत्वादिना घटाद्यभावमादायैव लक्षणसम्भवादिति वाच्य। पृथिवी संयोगादित्याद्यव्यायत्तिहेतुके व्यभिचारिण्यतिव्यापतेः इदं वाचं प्रमेयादित्यादौ तादृभाभावाप्रसिद्धेश्व। एवं द्रव्यं सत्त्वादित्यादौ व्यभिचारनिरूपकतत्तदधिकरणावृत्तिसामान्याभावस्था पि सजातीयोऽभावः सत्तावादिना सत्ताधभाव एव तत्प्रतियोगित्वस्य मत्त्वादौ मत्त्वादतिव्याप्तितादवस्थ्यं अतस्तदनिष्ठेति। न च तथापि धूमवान् वहेरित्यादौ तादृशोभयाभाववदभावोधूमवादिना धूमाघभाव एव तदति जलदादौ समजातीयस्य वड्यभावस्य सत्त्वादेवं तादृशाभावोद्रव्यत्वत्वादिना धूमाघभावः तदति यावत्येव तत्सृजातीयस्थ घद्यादेधिकरणधर्मावच्छिन्नाभावस्य सत्त्वाचातिव्याप्तिरिति वाच्यम् । यावत्वेन प्रथमाभावविशेषणात्, तथाच तत्तदयोगोलकादिरूपव्यभिचारस्थलावृत्त्य
Page #74
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्वचिन्तामणे
भावोऽपि तादृशोभयाभाववत्तया यावदन्तर्गतसात्तदधिकरणे ततदयोगोखकादौ तत्तत्मजातीयस्य वयादेरभावस्थासत्वानातिव्याप्तिः, इत्यच यावन्तस्तादृशोभयाभाववन्नोऽभावाः प्रत्येकं तत्तयतीनां सजातीयस्य समानाधिकरणस्य व्याप्यवृत्तेरभावस्य प्रतियोगित्वमव्यभिचारित्वमिति समुदितार्थनिष्कर्ष इति न कोऽपि दोषः इत्यखरमा दाह, 'प्रतियोग्यवृत्तिश्चेति तदवृत्तिधर्मो न तनिष्ठप्रतियोगिताया अवच्छेदक इत्यर्थः, तथाच व्यधिकरणधर्मावच्छिनातियोगिताकाभावस्यैवाप्रसिद्धत्वाद्ययोतमव्यभिचरितवमप्रसिद्धमिति भावः।
अजवस्तु केवलान्वयिनि माध्यस्थाभाव एवाप्रसिद्ध इत्यव्याप्तिरभिहितेति भ्रमेण तत्र यथाकथञ्चिद्रूपेण साध्याभावस्य प्रसिद्धिं दर्भयति, 'अथेति, समवायित्येति समवायित्वादिरूपेण वायत्वावृत्तिधर्मणेत्यर्थः । श्रादिपदासमवेतत्व-घटत्व-पटत्वादेवा॑च्यत्वावृत्तिधर्ममात्रस्य परिग्रहः । इदमुपलक्षणं वैशिष्य-व्यासज्यवृत्तिधावच्छिन्नवाच्यत्वाभावोऽपि द्रष्टव्यः। भ्रमं निराकृत्य दूषयति, 'तौति माध्यतावच्छेदकावच्छिन्नप्रतियोगिताकसाध्याभावववृत्तित्वं पदि व्यभिचारस्तदेत्यर्थः, 'तादृशभाध्याभावेति माध्यतावच्छेदकावचिनप्रतियोगिताकसाध्याभावववृत्तित्वत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकतरएमत्तित्वाभाव एव व्याप्तिः न तु माध्याभाववदृत्तित्वप्रतियोगिताकाभावमात्रमित्यर्थः माथाभाववहृत्तित्वमावस्य व्यभिचारत्वे मद्धतावतिव्याप्तिरतः माथाभाववदृत्तित्वप्रतियोगिताकाभावमात्रस्य व्याप्तिवेऽपि व्यभिचारिण्यतिव्याप्यापत्तेस्तौख्यात्साध्याभाववदृत्तित्वसामा
Page #75
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्याप्निवादः।
न्याभावस्य व्याप्तित्वे चासम्भवात् व्यधिकरणधर्मावछिनस्य वैशिष्य व्यामज्यवृत्तिधर्मावच्छिन्नस्य च माध्याभावस्थाधिकरणे हेतोई तेरिति भावः । किञ्च वैशिष्य-व्यासज्यवृत्तिधर्मावच्छिन्नसाथाभावमादायैव केवलावयिनि माध्याभावप्रसिद्धिसम्भवेऽपि व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नमाध्याभावमादाय प्रमियभिधानमत्यन्तममङ्गतमेव तस्यैवाप्रमिङ्कवादित्यभिप्रायेण दूषणान्तरमाइ, 'प्रतियोग्यवृत्तिश्चेति, सर्वमन्यत्यूववदित्याहुः ।
तदवृत्तिधर्मस्य तनिष्ठप्रतियोगितावच्छेदकत्वे मानाभावे हेतुमाह, 'तद्विशिष्टेति 'असिद्धेरित्यन्तमेकोग्रन्थः, 'तविशिष्टज्ञानस्य' प्रतियोगिनि प्रतियोगितावच्छेदकप्रकारकज्ञानस्य, 'प्रभावधीहेतृत्वात्' प्रभावलौकिकप्रत्यक्षहेतुत्वात्, 'गवि शशटङ्ग नास्तीति प्रतीतेरसिद्धेरिति योजना, तव नयेऽपि शशीयत्वे गोवृत्तिश्टङ्गाभावप्रतियोगितावच्छेदकत्वात्ययामिद्धेरित्यर्थ:(), टङ्गे प्रशौयत्वस्य बाधितत्वेन शशीयत्वप्रकारकग्ङ्गज्ञानासम्भवादन्यथा अन्यथाख्यात्यापत्तेरिति भावः । ननु अभावलौकिकप्रत्यक्ष प्रति प्रतियोगितावच्छेदकप्रकारकप्रतियोगिज्ञानत्वेन न हेतुत्वं किन्तु प्रतियोगितावच्छेदक-प्रतियोगिनोनिविरहदशायां नेत्याकारकाभावप्रत्यक्षवारणय प्रतियोगितावच्छेदकप्रतियोग्युभयविषयक ज्ञानलेनैव हेतुत्वं लाघवात् तच्च प्रकृतेऽप्यस्ति मशीयत्व-स्टङ्गायोरपि खण्डमः समूहालम्बनज्ञानसम्भवात् । न च तथापि टों मशीयत्वस्य बाधादेव प्रशटङ्गं नास्तीति प्रत्यक्षस्य । (९) गोत्तिष्टङ्गाभावप्रतियोगितावच्छेदकत्वप्रत्यक्षासिझेरित्यर्थ इति
Page #76
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्वचिन्तामणे
यो ममीयत्वप्रकारकस्य असम्भव इति वाच्यम् । बाधात्तादृशप्रत्यक्षासम्भवेऽपि प्रशौयत्वेन टङ्गं नास्तोत्याकारकप्रत्यचे खावच्छिअप्रतियोगिताकत्वसम्बन्धेनाभावे स्वातन्त्र्येण शमीयत्वप्रकारले बाधकाभावात् तच टङ्गे शशीयत्वस्याप्रकारत्वात् । न च तादृशप्रत्ययाभ्युपगमे “प्रभावप्रत्ययो हि विशिष्टवैशिष्यबोधमर्यादा नातिशेते" इति सिद्धान्तव्याघातः, 'प्रभावप्रत्ययः' प्रभावलौकिकमाक्षात्कारः, 'विशिष्टवैभिव्यमर्यादा' अभावे प्रतियोगितावच्छेदकविशिष्टप्रतियोगिनः प्रतियोगिताख्यवैशिष्यविषयितां, ‘नातिशेते' न जहाति, इति तदर्थादिति वाच्यम् । तत्र 'विशिष्टवैशिष्यमर्यादामित्यस्य प्रतियोगितायां यत्किञ्चिद्धर्मविशिष्टस्य वैशिध्यविषयितामित्यर्थादित्यतपाह, 'अन्यथेति यदि प्रतियोगितावच्छेदक-प्रतियोगिनोनिमेवाभावप्रत्यक्षतर्न तु तत्प्रकारकप्रतियोगिज्ञानं तदेत्यर्थः, 'निर्विकल्पकादपौति घट-घटत्वयोनिर्विकल्पकमात्रानन्तरमपौत्यर्थः, मात्रपदादुन्तिरप्रकारकज्ञानव्यवच्छेदः, 'घटोनास्तीतीति विशेषणतावच्छेदकप्रकारकविशेषणज्ञानस्य विशिष्टवैशिष्यधौहेतुनया विशिष्टवैशिष्यबोधात्मकस्य घटोनास्तौति प्रत्यक्षस्य तदानौमसम्भवेऽपि केवलविभिध्ये विशेषणमिति न्यायेम घटोनास्तीति प्रत्यक्षस्थापत्तरित्यर्थः, न हि "अभावप्रत्ययोहोतिसिद्धान्तक्षतिभिण सामग्री कार्य मार्जयेत्, प्रतियोगितावच्छेदकप्रकारकज्ञानस्य हेतुत्वे तदभावादेव तदानीं न तादृशं प्रत्यक्षं तत्त्वस्थले तु विशिष्टवैभिव्यधीसामग्रीसत्त्वादर्थसमाज सिद्धमेव विभिष्टवैशिष्यबोधात्मकत्वं । न चैतदतिप्रसङ्गवारणाय प्रतिघोगितावच्छेदकप्रकारकज्ञानत्वेनैव हेतुत्वमस्तु लाघवात् किं प्रति
Page #77
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्याप्तिवादा।
योगिविशेष्यकत्वप्रवेशेन, तादृशञ्च ज्ञानं प्रतेऽपि सम्भवति शशीथत्वप्रकारेण लोमादेरेव ज्ञानसत्त्वात् पूर्वपक्षिणः . अन्यथाख्यात्यनभ्युपगमेन रजतत्वप्रकारकशक्तिज्ञानाद्रजताभावप्रत्यक्षापादनस्यासम्भवादिति वाच्यम् । तथापि शौयत्वेन टङ्ग नास्तीति प्रत्यक्षासम्भवात् प्रभावसाक्षात्कारोहि प्रतियोगिनि तद्धर्मविशिष्टमवगाहमान एव तद्धर्मस्य अवच्छेदकत्वमवगाहते नान्यथेति नियमात्, अन्यथाख्यात्यनभ्युपगमेन एङ्गे शशौयत्ववैशिघ्यावगाहनस्य च अमभवादिति भावः । इदमापाततः न्यायनये टङ्ग अशीयत्वस्य बाधितत्वेऽपि बाधाप्रतिसन्धानदशायां रों शभौयत्वप्रकारकज्ञानस्थ भ्रमरूपस्यैव सम्भवेन शमश्रङ्ग नास्तीत्याकारकप्रत्यक्षे बाधकाभावात्। बाधप्रतिसन्धानदशायामपि प्रशौयत्वांगे निर्धर्मितावच्छेदकादेकर
यमिति न्यायेन मशीयत्व-टङ्गत्वोभयप्रकारकज्ञानाच्छशौयत्वांभे निर्धर्मितावच्छेदकस्य एकत्र इयमिति न्यायेन शशौयत्व-टङ्गखोभयविशिष्टवैशिष्यबोधात्मकस्य शशश्टङ्ग नास्तौति प्रत्यक्षस्य सम्भवाच्च । न हि प्रतियोगितावच्छेदकप्रकारकप्रतियोगिप्रमात्वेन हेतुत्वं, गौरवात् किन्तु तादृशनिश्चयत्वेन। एतेन ग्टङ्ग न शौयत्वमिति बाधनिश्चये सत्यपि शाश्टङ्ग नास्तीति प्रतौतेरनुभवसिद्धतया समीचत्वरूपव्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावे मशीयत्वावच्छि
प्रतियोगिताकत्वसम्बन्धेन शौयत्वेन रूपेण टङ्ग मात्र प्रकारः किन्नु मने गोवृत्तिष्टङ्गाभावः गोवृत्तिष्टङ्गे शशीयत्वाभावो वा तद्धिवयः। म च बाधप्रतिसन्धानदशायां तथाविषयत्वेऽपि तदप्रतिसन्धानदशायां प्रभौयत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकश्टङ्गाभाव एव य
Page #78
--------------------------------------------------------------------------
________________
सत्यचिन्तामो
थोकप्रकारेण विषय इति वाच्यम् । प्रतौतेः 'समानाकारकत्वेऽपि पुरुषावस्थावैचित्र्येण विषयवैचिव्यस्य कायदर्शनात् । न च तथापि प्रतियोगितावच्छेदकप्रकारकप्रतियोगिज्ञानस्य खातव्येणभावप्रत्यचं प्रति हेतुत्वानङ्गीकर्तृणं नव्यानां नये पटले न प्रशौयत्वमिति बाधप्रतिसन्धानदशायामपि शशीयत्वेन टङ्गं नास्तौति प्रत्यक्षमभवात् तदेव व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नाभावे मानं तत्र खावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्वसम्बन्धेन भशौयत्वस्य प्रतियोगितासम्बन्धेन रङ्गवविशिष्टस्य चाभावे प्रकारतया बाधबुद्धेरप्रतिबन्धकत्वादिति वाच्यम् । प्रभावलौकिकसाक्षात्कारोहितद्धर्मविशिष्टस्य प्रतियोगिनोऽभावे प्रतियोगिताख्यवैशिष्यमवगाहमान एव तद्धर्मस्य प्रतियोगितावच्छेदकत्वमवगाहते न तु तदनवगाय इति नियमेन तादृशप्रतीतेरसम्भवात् अन्यथा घटत्वेन कम्बुबौवादिमानास्तीत्यपि प्रत्यक्षं स्थात् । न चेष्टापत्तिः, घटोनास्ति घटत्वेन घटोनास्तीत्यादिप्रत्यक्षस्यैव सर्वमिद्धवादिति कस्यचित् प्रलपितमप्यपास्तं । एङ्गे न प्रभौयत्वमिति बाधप्रतिसन्धानदशायामपि प्रशश्टङ्गं नास्तौति प्रतोतेः एकत्र इयमिति न्यायेन प्रीयत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकश्टङ्गाभावविषयकत्वसम्भवान् । घटलेन कम्बुयौवादिमानास्तीत्यादिप्रत्यक्षाभावस्य विवादग्रस्ततथा यथोतियमस्थापि विवादग्रस्तत्वाञ्च । वस्तुतस्तु गवि मलटतं नास्ति शशीयत्वेन टङ्गं नास्तीत्यादिप्रतीतौ मानाभाव. एव, प्रमाणसत्त्वेऽपि शभौयत्वावछिनप्रतियोगिताकत्वसम्बन्धेनाभावे हास्य खावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्वसम्बन्धेन टङ्गाभावे प्रशौयत्वस्य धमएव अतिरिकायधिकरणधर्मावच्छिनप्रतियोगिताकाभावा
Page #79
--------------------------------------------------------------------------
________________
यातिवाद।
भ्युपगमे तत् प्रत्यक्ष प्रत्यनन्ततत्तत्प्रतियोगितावच्छेदकप्रकारकप्रतियोगिज्ञानस्य प्राचावये हेतुत्वकल्पने अतिरिक्ताभाव-तपतियोगित्व-तदवच्छेदकत्वादिकल्पने गौरवात् । न च तादृशप्रतौतौनां तत्तदंशे प्रमात्वमपि मानुभवसिद्धमिति वाच्यं। अप्रसिद्धः, अन्यथा एकौ रजतत्वज्ञानेऽपि प्रमावानुभवस्य सुवचतया एकरपि रजतत्वापत्तेः इत्येव तत्त्वं।
प्रावस्तु प्रतियोगितावच्छेदकसम्बन्धेन प्रतियोग्याहार्यारोपः संसर्गाभावबुद्धौ कारणं अन्यथा हुदादौ संयोगादियत्किञ्चित्सम्बधावच्छिन्नवयादिसामान्याभावग्रहदशायां समवाय-स्वरूपादिसम्बधान्तरावच्छिन्नतदभावानां सर्वेषामेव नियतं ग्रहापत्तेः। धारोपस्त्र हेतुखे तु तत्तत्सम्बन्धेन प्रतियोप्यारोपविलम्बादेव विलम्बसम्भवात्, एवञ्च गवि स्थाबाधितत्वेनारोपाभावात् जशौयत्वेन स्टङ्गाभावप्रत्ययस्तत्र कथं स्थात् येन तत्प्रमाणं भवेदित्याः । तदमत् भारोपस्थ हेतुत्वे मानाभावात् । न हि ह्रदे वहिमारोप्यैव वहिर्नास्तीत्यनुभवः, हृदादौ संयोगादियत्किञ्चित्सम्बन्धेन वह्यादिमामान्याभावग्रहदशायाचियतं समवाय-खरूपादिसम्बन्धान्तरावच्छिनाभावग्रहस्य सत्यसंसर्गाग्रहे इष्टत्वात् सर्वचैव वहिर्नास्तीत्येवाकारात् समवायेन वक्रिस्तिोत्याद्याकारस्य च समवायत्वादिना समवायाधुपस्थितिविलम्वेनैव विलम्बसम्भवात्। अन्यथा प्रतियोग्यारोपो नाभावधीमा हितरभावभ्रमे व्यभिचारात् । नापि तत्प्रमाां, पाकराघटे यामाभावप्रत्ययात् तत्र च ज्यामारोपासम्भवात् भ्रम-प्रमामाधारणाहार्यज्ञानमात्रखैव हेतुत्वे र प्रहतेऽपि सम्भवात् गौरवाञ्च । किच
Page #80
--------------------------------------------------------------------------
________________
वत्वचिन्तामणी
प्रतियोग्यारोपण्य कारणवे हि गुणादौ गुणायन्यत्वविभिष्टमत्त्वाचभावप्रत्ययो न स्यात् तत्प्रतियोगिनः सत्त्वादेरारोपाभावात् किन्तु प्रतियोगितावच्छेदकावच्छिन्नप्रतियोगिताकप्रतियोग्यभाववति प्रतियोगितावच्छेदकप्रकारकप्रतियोगिज्ञानं प्रतियोग्यारोपः स एव कारणं तच्च प्रचतेऽपि अक्षतमेव शौयत्वावच्छिवटङ्गाभाववति गवि प्रशौयत्वप्रकारकटङ्गप्रतीतेः सम्भवात् । अपि चैवमपि गवि प्रशङ्गं नास्तौतिप्रत्ययो मास्तु अश्वे प्रशश्टङ्ग नास्तीति प्रतीतौ न कोपि विरोधः। तत्र स्टङ्गारोपस्यापि सम्भवात् अस्यैव व्यधिकरणधर्मावच्छिवाभावे प्रमाणत्वस्य सुवचत्वादिति कृतं पलवितेन ।
ननु व्यधिकरणधर्मस्य प्रतियोगितावच्छेदकत्वानभ्युपगमे शशटङ्गं नास्तोत्यादौ · कौदृशान्वयबोधः । प्रशौयत्व-प्टङ्गत्वोभयबावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्वस्याप्रमिद्धतया तेन सम्बन्धेन प्रभावे अशीयत्वावच्छिन्नश्टङ्गप्रकारकान्वयबोधस्य शशीयत्वांशे भ्रमात्मकस्यासम्भवात् । न च प्रतियोगितामात्रसम्बन्धनाभावे शशौयत्वावच्छिन्नटङ्गस्यान्वयः तादृशव्यवहारस्य मार्वचिकत्वेनातिप्रसङ्गविरहादिति वायं । नत्राद्यर्थेऽभावेऽवयितावच्छेदकावच्छिनप्रतियोगिताकत्वमबन्धेनैव प्रतियोगिनोऽवयस्य व्युत्पन्नवादित्यत आह, 'गति, इति चेति इत्यस्य चेत्यर्थः, गवि शशष्टङ्ग नासीत्यादौ च गोवृत्तिष्टङ्ग भौयत्वाभाववत् शौयत्वं गोत्तिष्टायत्तित्वाभाववदिति वार्थ:(१) ।
(१) प्रष्ट गोत्तित्वाभाववदित्वाद्यन्वयबोध इति ख.
. .
Page #81
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्याप्तिवादः।
इदमापाततः अशष्टमं नास्तीत्यादिवाक्यप्रवणानन्तरं ममः स्यावान् टङ्गाभावो न प्रवृत्तिरित्यादिभ्रभानुदयापत्तेः। एतेन र मशीयत्वाभाववत् इत्यपि मार्थः, तादृयवाक्यश्रवणनन्तरं टङ्ग प्रमीयमितिधमानुपपत्तेः । वस्तुतस्तु नत्राद्यर्थेऽभावे प्रतियोगिनोज्वये अश्वयितावच्छेदकावच्छिन्त्रप्रतियोगिताकत्वं विशिष्टधर्मः संसर्गइति न व्युत्पत्तिः, किन्तु परस्परविशेष्य-विशेषणभावेनान्वयितावछेदकमवच्छिन्नत्वं खनिष्ठप्रतियोगिता चेति त्रयं संसर्ग इत्येव व्युत्पत्तिः, तथाच प्रचते शशीयत्वस्य टङ्गत्वस्यावच्छिन्नत्वस्य टङ्गनिष्ठप्रतियोगित्वस्य च खण्डमः प्रसिद्धत्वात् परस्परविशेष्य-विशेषणभावेन तच्चतष्टयसंसर्गकः संसर्गाने भ्रमात्मकोऽभावे शशीयत्वावच्छिबटङ्गप्रकारकान्वयबोधः। एवं पौतः शङ्खो नास्तीत्यादावपि, अतएव गुरुधर्मस्य प्रतियोगितानवच्छेदकत्वनयेऽमि कम्बुयौवादिमानास्तोत्यादिबुद्धौ नान्वयबोधानुपपन्तिः कम्बुग्रीवादिमत्त्वस्यावच्छिन्नत्वस्य कम्बुग्रौवादिमड्यक्तिनिष्ठप्रतियोगिलस्य च खण्डमः प्रसिद्धत्वात् परस्परं विशेष्य-विशेषणभावेन(एतत्रितयसंसर्गकस्य संसर्गाशे भ्रमात्मकस्यैव कम्बुग्रीवादिमड्यक्तिप्रकारकाभावविभिष्यकान्वयबोधस्य सम्भवात् । अशटङ्गवत्पौतभजवदित्यादिविशिष्टबुद्धिं प्रति प्रतिबन्धकत्वमपि परस्परविशव्य-विशेषणभावेन तादृशचतुष्टयसंसर्गस्याभावे प्रशौयत्वपौतत्वाचवच्छिनटङ्ग-गङ्खादिप्रकारकस्य निश्चयस्यैवेति तत्त्वं ।
केचित्तु अन्वयितावच्छेदकमवच्छिन्नत्वं खनिष्ठप्रतियोगित्वधेति
-
(२) विशेषण-विशेष्यमावेनेति ख. ग. ।
Page #82
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामो
पथं खणशः संसर्गः सम्बधता र व्यासव्यतिरित्येव व्युत्पत्तिरिति नकाप्यनुपपत्तिरित्याजः ।
इति श्रीमथुरानाथतर्कवागौणविरचिते तत्त्वचिन्तामणिरहस्ये अनुमानाख्यदितीयखण्डे व्याप्तिवादे व्यधिकरणधर्मावच्छिनाभाव
रहस्यं।
Page #83
--------------------------------------------------------------------------
________________
अथ पूर्वपक्षः।
अथ साध्यासामानाधिकरण्यानधिकरणत्वे सति साधिकरणत्वं व्याप्तिः केवलान्वयिनि साध्यासामानाधिकरण्यं निरधिकरणे आकाशदा प्रसिद्धमिति चेत्।
अथ पूर्वपक्षरहस्य। केषाञ्चिलक्षणं दूषयितुमाशङ्कते', 'अथेति, ननु किमिह असामानाधिकरण्यं तदधिकरणवृत्तिवाभावः तदनधिकरणवृत्तित्वम् वा, वाद्ये व्यभिचारिणतिव्याप्तिः माध्यममामाधिकरणत्वे मतौत्यस्यैव सम्यक्के प्रभावदयघटनायो गौरवं 'साधिकरणवमित्यस्य वैयर्थश्च । द्वितीये समवायादिना श्राकाशादिहेतके वहिमानाकागादित्यादावतिव्याप्तिवारणय हेततावच्छेदकसम्बन्धेन सम्बन्धिवार्थकस्य माधिकरणपदस्य मार्थकत्वेऽपि केवणापयिन्यव्याप्तिः केवखावधिभिः साध्यासामानाधिकरण्यं हि निरधिकरणे त्राकाशादौ सिमिति मूलविरोधश्च । मैवं 'साध्यासामानाधिकरण्येत्यत्र माथस्थामामानाधिकरणं येषु नानि माथामामानाधिकरणानौति बडबौधिः तेषामनधिकरणलं तदभाववस्वं तस्मिन् मति माधिकरणत्वं तदवच्छिमाधिकरणताकावं मनिसप्तम्या अवच्छेदकालयोध
} (२) केषाविलक्षणमाते इति खगा।
Page #84
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्वचिन्तामणौ
न। साध्यासामानाधिकरण्यं हि न साध्यानधिकरणाधिकरणत्वं साध्याधिकरणानधिकरणत्वं वा केवलाम्बयिनि यत्किञ्चित्साध्याधिकरणानधिकरणे धूमे चा
मात् अवच्छेदकत्वचाचान्यूनवृत्तित्वं तथाच साध्यवदवृत्तिमकलपदार्थाभाववत्त्वं यदधिकरणताया अन्यूनवृत्ति तत्त्वमित्यर्थः, यत्पदं हेतुपरं, अन्यूनवृत्तित्वं व्यापकनं, तच्च तत्ममानाधिकरणान्योन्याभावप्रतियोगितानवच्छेदकत्वं, प्रभावश्च साध्यवदवृत्तित्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकोबोध्यः तेन वैशिष्य-व्यासज्यवृत्तिधर्मावच्छिन्नाभावं जलादिलक्षणतादृशतत्तत्पदार्थविशेषाभावश्चादाय नातिव्याप्तिः। इत्वधिकरणता पहेतुतावच्छेदकसम्बन्धेन बोध्या तेन धूमावयवादिमादाय नाव्याप्तिः। न च यस्यान्यूनवृत्ति तत्त्वमित्येवमेवास्तु किमधिकरणताप्रवेशेनेति वाचं । यथा मनिवेशे वैयर्थाभावात्। न च द्रव्यं मत्त्वादित्यादावतिव्याप्तिः वृत्तिमन्माचस्यैव कालिक-दैशिकविशेषणतान्य माध्यवन्महाकाल-दिगादिवृत्तित्वेन द्रव्यत्ववदवृत्तिरवृत्तिरेवार, तदभावस्य सत्ताधिकरणताव्यापकत्वात् । यदि चावृत्तेरपि कालदिग्वृत्तिवं तदा द्रव्यं पृथिवौत्वादित्यादावव्याप्तिः द्रव्यत्ववदहत्तेर प्रसिद्धेरिति वाच्यं । विशेषणताविशेषेण माध्यवदवृत्तीनां विशेषपताविशेषेणभावस्य विवक्षितत्वात् एतच्चानुगतमपौति दिक् ।
ननु केवलावयिनि साध्यवदत्तित्वं कुन प्रसिद्धमित्यत शाह
(१) प्रयत्ववत्तित्वेन वदत्तिरत्तिरेवेति गः ।
Page #85
--------------------------------------------------------------------------
________________
थातिवादः।
तः। नापि स्वसमानाधिकरणात्यन्ताभावाप्रतिगिसाध्यसामानाधिकरण्यं पर्वतीयवर्महानसीयमसमानाधिकरणात्यन्ताभावप्रतियोगित्वात् द्रव्यत्वाहरव्याप्यत्त्यव्याप्यतापत्तेश्च । न च प्रतियोगिविरो
'केवलान्वयिनीति यथाश्रुतं, यथासम्भवं विकल्प्य दूषयति, ‘माध्यासामानाधिकरण्यं हौति, ‘माध्यानधिकरणधिकरणत्वं' साध्यानधिकरणत्तित्वं, 'माध्याधिकरणनधिकरणत्वं' माध्याधिकरणवृत्तित्वाभावः, केवलाम्वयिनौति प्राद्ये इत्यर्थः, साध्यानधिकरणस्याप्रमिद्धेरित्यर्थः। द्वितीये वाह, 'यत्किञ्चिदिति मायाधिकरणविशेषणमेतत्, 'अनधिकरणे' वृत्तित्वाभाववति, माध्याधिकरणवृत्तित्वसामान्याभावोकौ च द्रव्यं सत्त्वादित्यादावतिव्याप्तिरिति भावः। प्रकारान्तरेणव्यभिचारित्वमाशा निराकरोति, ‘नापीति, 'ख' माधनं, एवध अवलान्वयिन्यपि नाव्याप्तिः ज्ञेयत्वादिसमानाधिकरणघटाभावादिनतियोगित्लाभावस्य वाच्यत्वादौ सत्त्वादिति भावः। ‘पर्वतीयवक्रेरिति, (एवं महानमौयवहे:(१) पर्वतीयधूमसमानाधिकरणभावप्रतियोगिवात् कुचापि वहौ न तादृशाभावाप्रतियोगित्वमित्यर्थः । नवप्रतियोगिपदेन प्रतियोगितानवच्छेदकमाध्यतावच्छेदकावच्छिन्नं वाव्यमित्यखरमादार, 'द्रव्यत्वादेरिति, 'अव्याप्यरत्तौति संयोगादौत्यर्थः, इंप्रतियोगिविरोधित्वमिति प्रतियोग्यधिकरणवृत्तित्वमित्यर्थः, प्रतियोग्यनधिकरणवृत्तित्वोको उकाव्याप्तितादवस्थ्यात् भये संयोगी (१) रवमपर्वतीयवरिति ख...।
Page #86
--------------------------------------------------------------------------
________________
७.
तत्त्वचिन्तामणे धित्वं व्याप्यत्तित्वं वा प्रमावविशेषणं देयं, संयोगादा साध्ये सत्वादेरनैकान्तिकत्वाभावप्रसङ्घात् । न हि प्रतियोगिविरोधी संयोगादेरपरोऽत्यन्ताभावोऽस्ति, अधिकरणभेदेनाभावभेदाभावात् । नापि साधनवविष्ठान्योन्याभावाप्रतियोगिसाध्यवत्कत्वं व्याप्तिः मुले
साचादित्यवातिव्याप्यभिधानासनतेश्च । 'व्याप्येति खसमानाधिकरणात्यसाभावप्रतियोगितालवच्छेदको य एकव्यतिमात्रवृत्तिधर्मस्तद्वत्वं व्याप्यक्तित्वं, प्रमेयत्वादिमादाय संयोगाभावादेरपि व्याप्यवृत्तित्ववारणाय एक व्यक्तिमात्रवृत्तौति, कालिकविशेषणत्व-दैभिकविशेषणताविशेषातिरिकसम्बन्धेनावच्छिन्नवृत्तिको यस्तदन्यत्वं वा व्यायत्तित्व(१) व्यतिरेकिधर्ममावस्यैव काले दिगुपाधौ चाव्यायवृत्तितया अवच्छिन्नत्तिकत्वात् बतौयान्तं वृत्तिविशेषणं, व्यायवृत्तिश्च न किश्चिदवच्छिना, न तु अनवछिन्नत्तिमत्त्व(२) व्याप्यत्तित्वं उताध्याप्तेस्तादवस्यात् अग्रे संयोगी सत्त्वादित्यत्रातिव्याप्यभिधानासातेस संयोगाभावस्थापि गुणादौ निरवच्छिन्नत्तिमत्वात्। ।
केचित्तु खममानाधिकरणात्यन्नाभावाप्रतियोगिवं व्यायत्तिव प्रतियोगिता र वैशिष्य-व्यासज्यवृत्तिधर्मानवच्छिनावेन विशेषणीया तेन नाप्रसिद्धिरित्याः । (१) पत्र दैशिकविशेषणतापदेन दिक्कृतविशेषणता पाया। (२) निरवित्तिमत्त्वमिति ख.।
Page #87
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्याप्तिवादः ।
म कपिसंयोगवान्नेत्यबाधितप्रतीतेः तदन्योन्याभावयापि तव सत्वात्। न चैवं भेदाभेदः, अवच्छेदकभेदेन
'अनैकान्तिकवेति व्यभिचरितत्वेत्यर्थः, सत्तासमानाधिकरणयोगादेरभावः प्रतियोग्यसमानाधिकरण व्याप्यत्तिश्च न भवत्येव द्रव्ये तस्य संयोगसमानाधिकरणत्वात् किन्तु घटत्वादेरभाव एव तादृशस्तदप्रतियोगित्वात् संयोगस्येति भावः। ननु सत्ताधिकरणगुणादिनिष्ठसंयोगाभावो द्रव्यवृत्तिसंयोगाभावादतिरितः स प्रतियोग्यममानाधिकरणो व्याप्यवृत्तिश्च तत्प्रतियोगित्वात् संयोगल्य नातिव्याप्तिरित्यत आह, 'न हौति, 'अधिकरणेति, गौरवात् मानाभावाचेति भावः। खाधिकरणे निरवच्छिन्नतिमत्त्वं यदि स्वसमानाधिकरणत्वमुच्यते तदा तु न कोऽपि दोष इत्यवधेयं । 'तदन्योन्याभावस्य' कपिसंयोगवदन्योन्याभावस्य, 'तच' वृहे, तथाच कपियोगी एतदृत्ववादित्यादावव्याप्तिरिति भावः, 'भेदाभेद इति भेदहितोऽभेद इत्यर्थः, मध्यपदलोपिसमामात्, साहित्यं सामानाधिहरण्यं। यदा न चैवमित्यनन्तरं वृक्ष इतिशेषः, 'भेदाभेद इत्यत्र भेदादौ अस्य स्तः इत्यर्थः, “त्र-इको मत्वर्थ" इत्यनेनाप्रत्ययः, यथा जयन्ती अस्मिन् तिहतौति वैजयन्तो विष्णुः, 'वैजयन्ती' वनमाला, चाच वृक्षो भेदाभेदवान् इत्यर्थः। 'तत्मत्त्वेति तयोरेका सत्त्वेत्यर्थः । कच्च तत्रेत्यादौ चादिप्रत्ययेन सप्तम्यादिरिव साधनसमानाधिकरन्योन्याभावाप्रतियोगिमाध्यवस्कत्वमित्यत्र बहुप्रौद्युत्तरककारेण मरम्मत्ययादिः मर्यते तेन च व्याप्यत्वरूपसम्बन्धाश्रयः सायव्या
Page #88
--------------------------------------------------------------------------
________________
सत्त्वचिन्तामणी तत्सत्वाभ्युपगमात् साधनविष्ठान्योन्याभावाप्रतियोगि साध्यवद्यस्येति षधर्थव्याप्य-व्यापकभावानिरूपणात् साध्य-साधनयोाप्तिनिरूप्यत्वात् वहिमपर्वतस्य धूमवन्महानसनिष्ठान्योन्याभावप्रतियोगित्वाच
प्यत्वरूपसम्बन्धाश्रयो वा स्मर्य्यते, विग्रहवाक्यस्थषष्ट्या अर्थवतो बड़ पौधुत्तरककारस्मारितमत्वाद्यर्थत्वनियमात् तत्र प्रथमे तदेकदों व्याप्यत्वे निरूपितत्वसम्बन्धेन माध्यवतोऽग्ययः, द्वितीये तदेकदेशे माई श्राधेयतासम्बन्धेन माध्यवतोऽग्यथः, तथाच माधनसमानाधिकरणा न्योन्याभावाप्रतियोगिसाध्यवनिरूपितव्याप्यत्वं साधनसमानाधिक रणन्योन्याभावाप्रतियोगिमाध्यत्रवृत्तिमाध्यव्याप्यत्वं वा लक्षणवाक्यार्थः, सच दुर्जेयः घटकौमतव्याप्यत्वस्यैवाज्ञानादित्याह, ‘माधनेति, इति षष्यति इत्या विग्रहवाक्ये या षष्ठौतदर्थस्य व्याप्यवस्थाज्ञानादित्यर्थः तथाच तदजाने तहत एव प्रकृतलक्षणवाक्यस्थककारस्मारितमत्वा पर्थवनियमेन प्रचतलक्षणवाक्यार्थस्थापि दुयत्वमिति भावः। ना विग्रहवाक्यथषष्ठ्याः संयोगवादिरूपेण संयोगादिरूपहेततावच्छेद सम्बन्ध एवार्थो न तु व्याप्यत्वादिरित्यखरमादाह, माध्य-साधनयोहर भावप्रधानो निर्देशः माध्यत्व-साधनत्वयोरित्यर्थः, 'याप्तिनिरूप्यत्वादि याप्तिवानाधीनधानविषयत्वादित्यर्थः । माध्यत्वं हि व्याप्तिप्रतिर गिवं, साधनत्वं व्याप्यनुयोगित्वं तथाचात्माश्रय इति भावः । । माध्यत्वं साधनत्वं न प्रवेशनीयं धूमत्व-वजित्वादिनैव विभिव्य व्या
Page #89
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्याप्तिवादः ।
...
विशेषाभावकूटादेवाभावव्यवहारोपपत्ता सामान्याभावे मानाभावात् । नापि साधनसमानाधिकरणयावर्मनिरूपितवैयधिकरण्यानधिकरणसाध्यसामा
निवकव्या तो दूषणान्तरमाह, वहिमपर्वतस्येति। मनु यत्समानाधिकरणान्योन्याभावप्रतियोगितासामान्यं यद्धविच्छिन्नपर्याप्तावकेदकताकं न भवति तद्धर्मावच्छिवेन सह तस्य मामानाधिकरणमित्येव तस्यार्थः, एवञ्च धूमममानाधिकरणान्योन्याभावप्रतियोगित्वं न बभिवावछिनावच्छेद्यमिति नाव्याप्तिरित्यत आह, 'विशेषाभावेति, विभावव्यवहारेति हुदो वक्रिमामान्याभाववानित्यादिवहित्यादिसामान्यधर्मावच्छिनप्रतियोगिताकाभावप्रकारकप्रतीत्युपपत्तरित्यर्थः, सामान्याभाव इति सामान्याभावस्यातिरिकस्य सामान्यावच्छिन्नप्रतिघोगिताकत्वे मानाभावादित्यर्थ:(१) किन्तु विशेषाभावम्यैव वशित्वादिसामान्यधर्मः प्रतियोगितावच्छेदकः, तथाच धूमसमानाधिकरणाना प्रत्येकं तत्तदकिमदन्योन्याभावानामेव प्रतियोगितावच्छेदको वकिविच्छिनोवक्रिरित्यव्याप्तिस्तदवस्यैव। न चैवं धूमवान् वझिमामाभाभाववान् इत्यादिप्रत्ययस्यापि प्रमात्वापत्तिः वहिलावशिवप्रतिअगिताकस्य तत्तहङ्ग्यभावस्य धूमवति सत्त्वादिति वाचं । वहिवा
सामान्यधर्मावच्छिनप्रतियोगिताकलं तादृशप्रतियोगिताकवसम्म इन वन्हित्वावछिनो वा व्यासज्यवृत्तिः तच्च विशेषाभावकूट एव पर्या
(१) विशेषाभावातिरिक्तस्य सामान्यधर्मावचिनप्रतियोगिताकाले वाभावादिवर्थ इति ख. ग.। .
Page #90
--------------------------------------------------------------------------
________________
सत्वचिन्तामो
नाधिकरण्यं साधनसमानाधिकरणस्य प्रमेयत्वादेवैयधिकरण्याप्रसिद्धेः महानसादा समवायितया बहि-वह्निमतोरत्यन्तान्योन्याभावयाः सत्त्वात् धूमा
मोति न तु प्रत्येकाभाव इति, द्रव्यं द्रव्यत्व-गुणत्वोभयवदिति प्रत्यक्षवत्तपतौतेरप्रमात्वादिति हृदयं । ‘साधनेति साधनसमानाधिकरण यावन्तोधास्तेषां वैयधिकरण्यस्यानधिकरणं यत्माध्यं तत्मामानाधिकरण्यमित्यर्थः । अत्र साधनवैयधिकरण्यानधिकरणेत्युक्तौ द्रव्यं सत्वादित्यादावतिव्याप्तिरतः ‘साधनसमानाधिकरणधर्षेति, धूमवान् बहेरित्यादावपि धूमादेवयादिसमानाधिकरणद्रव्यत्वादिवैयधिकरण्यानधिकरणवादतिव्याप्तिरतः ‘यावदिति, वैयधिकरण्यच्च तदनधिकरणवृत्तित्वं, न तु तदधिकरणावृत्तित्वं, 'प्रमेयत्वादेर्वैयधिकरण्याप्रसिद्धरित्युत्तरयन्थासङ्गतेः । न च साधनसमानाधिकरणथावद्धर्माधिकरणप्रमिया तदनधिकरणमप्यप्रमिद्धमिति वाच्यं प्रत्येकनिरूपितवैयधिकरण्यस्योकत्वात् । नन्वेवं वह्निमान् धूमादिा त्यादौ वधूमसमानाधिकरणमहामसत्वाद्यनधिकरणयःपिण्डादि वृत्तित्वाधिकरणतया अव्याप्तिः। न च वैयधिकरण्यपदेन तरे मधिकरणमात्रवृत्तित्वं वक्रव्यमिति(१) वाच्य। रूपवान् पृथिवाद खादित्यादावव्याप्तेः पटरूपस्य पृथिवीत्वसमानाधिकरणयावद्धपतेर मर्गतघटवानधिकरणमात्रवृत्तित्वात् घटीयरूपस्य पृथिवौत्वसमाना ।
---या (१) सदनधिकरणमात्रत्तित्वमुक्तमितीति ख. ।
Page #91
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यातिवादः।
वयुक्तलक्षणाभावाच्च। अथानोपाधिका सम्बन्धोध्याप्तिः उपाधिश्च साध्यव्यापकत्वे सति साधनाव्यापक, व्यापकत्वन्तु तदनिष्ठात्यन्ताभावाप्रतियोगित्वं, व्यभिचारे चावश्यमुपाधिः, प्रतियोगित्वं न विरोधित्वं सहा
धिकरणयावदन्तर्गतपटत्वानधिकरणमात्रवृत्तित्वादिक्रमेण कस्यापि रूपस्य माधनसमानाधिकरणयावद्धर्मपत्ोकनिरूपितवैयधिकरण्यामधिकरणत्वाभावात् गुणान्यत्वविशिष्टसत्तावान् जातेरित्यादावतिव्याप्तेश्च विशिष्टस्यानतिरिक्रत्वादिति चेत् । न । माधनसमानाधिकरण यावन्तो धर्मास्तत्प्रत्येकानधिकरणमात्रवृत्ति यद्धावच्छिबाधिकरणत्वं तादृशधर्मभिन्नं यत्माध्यतावच्छेदकं तदवच्छिन्नमामानाधिकरण्यस्य विवक्षितत्वादिति दिक्। । ननु व्यतिरेकित्वेन धर्मी विशेषणीयः, यदा यावत्पदं तादृप्रस्य कस्यापि धर्मस्य अनधिकरणमात्रवृत्तौतिस्फोरणय, तथाच साधनसमानाधिकरणयत्किञ्चिद्धनिधिकरणमात्रवृत्ति यद्धावछिन्नाधिकरणत्वं तद्धर्मभिन्नं यत्माध्यतावच्छेदकं तदवच्छिन्नमामाआधिकरण्यं इति(ए) पर्यवमितमिति नायं दोष इत्यखरमादाह, महानसादाविति, 'धूमादावपौति, अत्र तदनधिकरणपदेन तद
(e) साधनसमानाधिकरणयत्किञ्चिद्धाधिकरणत्ति यच्यइमाव
छिनाधिकरणत्वं तत्तद्धर्मभिन्नं यत् साध्यतावच्छेदकं तत्तदवच्छिन्नसामानाधिकरणमितीति खः ।
Page #92
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामगै
नवस्थाननियमलक्षणं गोत्वाश्वत्वयोरतथात्वात् अन्योन्याभावप्रतियोगिन्यसत्त्वाच्च । किन्तु यथाधिकरणाभावयाः स्वरूपविशेषः सम्बन्धः तथा प्रतियोगित्वमनु
भावाधिकरणं तदभिन्नत्वञ्च वक्रव्यमुभयथापि धूमसमानाधिकरणयत्किञ्चिद्धी वहिरेव ममवायेन तदभावाधिकरणं तद्भिन्नत्वञ्च महानमादावेव तदृत्तित्वादम्हित्वावच्छिन्त्राधिकरणताया अव्याप्तिरिति भावः।
मित्रास्तु अब वैयधिकरण्यं तदनधिकरणवृत्तित्वं तदधिकरणावृत्तित्वं वा श्राद्ये आह, 'प्रमेयत्वादेरिति, द्वितीयमपि तदधिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वं, तदनिष्ठान्योन्याभावप्रतियोगितावच्छेदकत्वं वा इथमप्ययुक्तमित्याह, ‘महानमादावितीत्याजः ।।
प्राचार्योयलक्षणमाशङ्कते, 'अथेति, 'अनौपाधिकः सम्बन्ध इति उपाध्यभावविभिष्टं माध्यमामानाधिकरण्यमित्यर्थः। वैशिष्यवेकाधिकरणवृत्तित्वं, उपाध्यभावश्च सम्बन्धमामान्येन ग्रायः(१) अन्यथा द्रव्यं सत्त्वादित्यादौ गुणवत्त्वाधुपाधेरभावस्य सत्यादौ सत्त्वादतिव्याप्यापन:, न तु व्यभिचारितासम्बन्धेन माधनायापकत्वदलवैयापत्ते:(९)। ।
(१) सम्बन्धत्वावच्छिन्नसंसर्गताकप्रतियोगिताक इत्यर्थः, सडेतो कस्या
प्युपाधित्वाभावात् नाथाप्तिसम्भावना । (२) यभिचारित्वसंसावच्छिन्नप्रतियोगिताकस्य उपाथमावस्य व्याप्ति
लक्षणघटकत्वे सर्वत्र साध्यव्यापकत्वमेव, उपाधिलक्षणं न तु. . . तत्र साधनाव्यापकत्वप्रवेशा, सद्धेतौ साध्ययापकस्य उपाधित्वेऽपि
Page #93
--------------------------------------------------------------------------
________________
खातिवाद।
योगित्वमपि, अभावविरहात्मत्वं वेति चेत्, यविधिसाध्यव्यापक-साधनाध्यापकधर्मनिषेधो न धूमादा, प्रकृतसाध्यव्यापक-साधनाव्यापकधर्मश्च सिद्ध्यसिडिभ्यां न निषेधुं शक्यः यावत्साध्यव्यापके प्रमेयत्वादी साध
केचित्तु उपाध्यभावः उपाधितावच्छेदकसम्बन्धेन उपाधिसामान्याभाव एव ग्रायः, द्र्व्यं सत्त्वादित्यादौ च सत्त्वादावुपाधितावच्छेदकसम्बन्धेन द्रव्य-सत्त्वान्यतरत्वाधुपाधेरेवाभावस्थासत्त्वाचातिव्याप्तिः। न व तादात्मेनैतदहिहेतुके संयोगेन धूममायके व्यभिचारियतिव्याप्तिः तत्र साधनवृत्तेधर्मस्य साधनव्यापकलनियमेनोपाधित्वासम्भवादिति वाच्यम् । तस्य विरुद्धत्वेन माध्यमामानाधिकरण्यदलेमेव वारणदित्याः । ___ सदमत् प्रमेयत्वान्यत् प्रमेयत्वात् घटाभावान्यो घटाभावादित्यादौ व्यभिचारिण्यतिव्याप्तेः तत्र साधनारत्तिधर्मस्यैव उपाधिबसम्भवादिति) दिक् ।
व्यभिचरितत्वसम्बन्धेन तदमावस्य हेतौ सत्त्वान कोऽपि दोषः पदमा. दधाति व्याप्यस्य व्यापकाभिचरितत्वेन व्यापकव्यापकस्याप्यचमिचरितत्वमिति । पत्र साधनान्तभावेणैव साधनस्य व्यभिचरिततया साधनवृत्तिधर्म- . मात्रस्य साधनाध्यापकत्वविरुहेब उपाधित्वासम्भवादिति भावः ।
Page #94
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामखौ
नाव्यापकत्वं यावत्साधनाव्यापके च घटत्वादा साध्यव्यापकत्वं निषिध्यत इति चेत्।न। व्यधिकरणत्वात् या वत्साधनाव्यापकमव्यापकं यत्साध्यस्य, यावत्साध्यव्यापकं व्यापकं वा यस्य तत्त्वं तदिति चेत्। नामोपाधेरपि
ननु उपाधित्वं माध्यममव्याप्तत्वे मति() साधनाव्यापकत्वं समव्याप्तत्वञ्च व्याप्तिघटितं तच्च व्याप्यत्वमनौपाधिकत्वान्तररूपमित्यनवस्थेत्यत आह, 'उपाधिश्चेति । ननु तथापि व्यापकत्वं व्याप्तिनिरूपकत्वं तच्च व्याप्यत्वमनौपाधिकत्वान्तररूपमित्यनवस्था तदवस्थैवेत्यत आह, 'व्यापकत्वन्विति। नन्वेवं यत्र व्यभिचारिणि नोपाधिसम्भवस्तत्रातिव्याप्तिरित्यत आह, व्यभिचारे चेति । ननु प्रतियोगित्वं विरोधिलं विरोधित्वञ्च नियतमहानवस्थानं नियतमहानवस्थानञ्च तदभावव्याप्यत्वं तदपि च व्याप्यत्वमनौपाधिकत्वान्तररूपमित्यनवस्थेत्यत आह, 'प्रतियोगित्वञ्चेति प्रतियोगित्वं महानवस्थाननियमलक्षणं विरोधित्वं अत्यन्वयः, 'अतथात्वात्' प्रतियोग्यनुयोगिभावानापन्नत्वात् । '
(१) तथाचोक्तं वाचायः “समासमाविनाभायौ एकत्र तो यदा यद
समेन यदि नो व्याप्तस्तयाहीनोऽप्रयोजकः” इति, 'यदा यदा, यमिन् यस्मिन् समये, 'एकत्र' एकधर्मिणि, 'समासमाविनाभाई ख' साध्यस्य समव्याप्तत्वं हेतोः समव्याप्तत्वाभावश्च वर्तते, तदार उपाधिरिति शेषः, 'समेन यदि नो व्याप्तः' यदि साध्यसमव्याप्ततः भावः, ततियोनिः' 'तयो' साध्यसमव्याप्तत्व-हत्वसमव्यासत्वक 'हीना एकतरेण विरहितः, 'चप्रयोगका' व्यभिचाराननुमान इबर्थः।
Page #95
--------------------------------------------------------------------------
________________
बातिवादः।
नयात्वात्, तथाहि साधनस्य वहरव्यापकं यावदाढ़ेंधनन्तत् प्रत्येकमव्यापकं साध्यधूमस्य, द्वितीये साध्यमस्य व्यापकमान्धनं तत् व्यापकं महानसीयवङ्खः।
'अन्योन्येति(१) । इदमापाततः येन सम्बन्धेनाभावस्तेनैव सम्बन्धन याप्यत्वं महानवस्थाननियमपदेनावश्यं व्याव्यम्, अन्यथा समवायादिसम्बन्धावच्छिन्नवयाद्यभाववति महानसादौ संयोगेन वयादेइत्तेरव्याप्यापत्तः, तथाचान्योन्याभावप्रतियोगिनि नाव्याप्तिः अन्योगभावस्य तादात्म्यसम्बन्धावच्छिनप्रतियोगिताकतया तेन सम्बन्धन प्रतियोगिनः तदभावव्याप्यत्वात्, किन्तु संयोगादिसम्बन्धावशिवसनाद्यभावप्रतियोगिन्यव्याप्तिः तेन सम्बन्धन प्रतियोगिसत्तादेखदभावायाप्यत्वात् घटत्वादेव्यत्वाद्यभावप्रतियोगित्वापत्तिश्च । स्वाभावविरोधित्वमित्युक्तौ च स्वाभाव इत्यत्र षष्ठ्यर्थस्य दुर्वचत्वमित्येव दूपर्ण परं । 'तथा प्रतियोगित्वमपौति, प्रतियोग्यभावयोः स्वरूपसम्बन्धमेष इति शेषः । 'प्रभावविरहात्मत्वं वेति यस्याभावस्थाभावो यो पति स तस्याभावस्य प्रतियोगी भवतीत्यर्थः। भवति च घटावस्य प्रतियोगी घटो घटाभावस्थाभावः, तदभावत्वं तत्प्रतियोगि
(१) अव्यत्व-गुणयोः परस्परं सहानवस्थाननियमलक्षणविरोधित्वाभावे.
ऽपि अव्यत्वं न गुण इति प्रतीत्या पन्योन्याभावप्रतियोगित्वं वर्ततएवेति भावः।
11
Page #96
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामणै
नापि साध्यं यावद्व्यभिचारि तदव्यभिचारित्वमनोपाधिकावं, साध्यव्यभिचारित्वस्यैव गमकत्वसम्भमात, मच्च दूषितम्।
समिति त निष्कर्षः, घटाभावस्यापि घटप्रतियोगित्वात् । प्रतियोगितावच्छेदकस्येव तादात्म्यसम्बन्धेन प्रतियोगिनोऽप्यन्योन्याभावाभावतया नान्योन्याभावप्रतियोगिन्यव्याप्तिः, न वा अन्योन्याभावप्रतियोगितावच्छेदकेऽतिव्याप्तिः, अत्यन्ताभावाभावस्य प्रतियोगिरूपत्वेन घटादिभेदस्य घटादिभेदात्यन्ताभावाभावरूपतया घटादिभेदात्यन्ताभावरूपस्य घटत्वादेः प्रतियोगितावच्छेदकधर्मस्थापि घटाद्यन्योन्याभावप्रतियोगित्वात् . विवेचितश्चेदं 'माध्याभाववदवृत्तित्वमिति प्रथमलक्षणव्याख्यानावसरे। न च तथापि मंयोगादिसम्बन्धान वचिंचगुणाद्यभावरूपव्यधिकरणसम्बन्धावच्छिन्नाभावप्रतियोगिन्य- ) व्याप्तिः तादृशव्यधिकरणसम्बन्धावच्छिन्नाभावस्य केवलान्वयितया तद.. भाववस्य तत्प्रतियोगिन्यभावादिति वाच्यम् । श्राकामाधभावस, केवखापयित्वेऽपि प्रतियोगित्वव्यवहारान्यथानुपपत्त्या श्राकामाद तदभावत्वस्थेव व्यधिकरणसम्बन्धावविवाभावस्य वेवसायित्वे तदभावत्वस्य तत्प्रतियोगिन्यभ्युपगमात्। केवलान्वयिलक्षणे प्रतियोग्यधिकरणानिरूपितवृत्तिमत्त्वस्यात्यन्ताभावविशेषणतया च न केवल बावयित्वानुपपत्तिः । न चैवं समवायसम्बन्धेन गुणादिमति घ. तादृशमुणधभावाभावप्रत्ययापत्तिरिति वाचं । प्रतियोमिवावच्छे :
Page #97
--------------------------------------------------------------------------
________________
यातिपादः ।
नापि कार्येन सम्बन्धी व्याप्तिः एकव्यक्तिके सदभावात् मानाव्यक्तिकेऽपि सकलधूमसम्बन्धस्य प्रत्येकवहावभावात्। अत एव म कार्येन साध्येन सम्बन्धी व्याप्तिः विषमव्याप्ते तदभावाच । न च यावत्साधनाश्रयाश्रितसाध्यसम्बन्धः, साधनाश्रये महानसादा सकले प्रत्येकवहेराश्रितत्वाभावात्।
दकसम्बन्धेन प्रतियोगिमत्त्वस्यैवाभावाभावप्रत्ययनियामकत्वं, अन्यथा समवायेन घटादिमति कपाले मंयोगसम्बन्धावच्छिन्नघटात्यन्नाभावाभावप्रत्ययापत्तेः । एवं प्रतियोगितावच्छेदकसम्बन्धेन प्रतियोगिपत्तावच्छेदककालमादायैवात्यन्नाभावाभावप्रत्ययः, अन्यथोत्पत्ति
लेऽपि संयोगसम्बन्धावच्छिन्नैतद्घटात्यन्ताभावो नास्तौति प्रत्यपतः। तो गुणादिमत्यपि कालादौ न तादृशगुणाद्यभावाभावत्यय इति मणिकतामाशयः । । केचित्त नेदं प्रतियोगितामामान्यनिर्वचनं १) तस्य खरूपसम्बन्धविशेषरूपत्वात्, किन्तु प्रकृतलक्षणघटकप्रतियोगितामापनिर्वचन
तेनान्योन्याभावस्य व्यधिकरणसम्बन्धावच्छिवाभावस्य च प्रतिगिन्यव्याप्तिः(२) अन्योन्याभावप्रतियोगितावच्छेदकेऽतिव्याप्तिवन
(१) प्रतियोगितासामान्यपक्षणमित्यर्थः । (२) तेनान्योन्याभाव-व्यधिकरणसम्बन्धावश्विाभावपतियोगिगोरयारिवि ख• ग.।
Page #98
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्वचिन्तामो
मापि साधनसमानाधिकरणयावत समानाधिकरणसाध्यसामानाधिकरण्यं, यावद्धर्मसामानाधिकरण्यं हि यावत्तहम्माधिकरणाधिकरणत्वं तचाप्रसिई साधनसमानाधिकरणसकलमहानसत्वाद्यधिकरणाप्रतीतेः।
दोषायेति भावः। न चैवं प्रकृतलक्षणेऽत्यन्ताभावपदवैवर्षामिति वायम् । तस्य स्वरूपकीर्तनमाचत्वादित्याहुः । तदसत् प्राचार्यरभावविरहात्मस्वं वस्तुनः प्रतियोगितेत्यनेन प्रतियोगितामामान्यस्यैव निर्वचनात् तस्योकाभिप्रायेणैवोपपादने प्रकृतेऽपि प्रतियोगितासामान्यलक्षणत्वे क्षतिविरहात् ।
'अभावविरहेत्यत्र घटोतत्पुरुषसमामात् षष्ठ्यर्थः प्रतियोगियर) नव वरूपसम्बन्धविशेषरूपमेव वाच्यम् तथाच लाघवादावश्यकत्वाच नदेव प्रतियोगित्वं न तु प्रभावविरहात्मत्वं गौरवादित्यवरम 'वाशब्देन सूचितः। 'यत्किञ्चिदिति यत्किचित्साध्यव्यापक यत्किधिमाधनाव्यापकवर्धाभाव इत्यर्थः, गुणवत्त्वादिसाध्यव्यापक प्रमेयत्वादिमाधनाव्यापकस्य द्रव्यत्वादे मादौ सत्त्वादिति भाव 'प्रकृतेति प्रकृतमाध्यव्यापक-प्रकृतसाधनाध्यापकधर्मश्चेत्यर्थः। 'निगेर मिति प्रकृतसाधननिष्ठनिषेधप्रतियोगित्वेन ज्ञातुमशक्य इत्यर्थः, भरते, ‘यावदिति, निषिध्यत इति अनौपाधिकलपदेन निषेध
(२) पहार्यतया प्रतियोगित्वं घटकमिति ख., म.।
Page #99
--------------------------------------------------------------------------
________________
खातिवादः।
नापि स्वाभाविकः सम्बन्धो व्याप्तिः, स्वभावजन्यत्वे तिदाश्रितत्वादी वा अव्यात्यतिव्याप्तेः।
नाप्यविनाभावः, केवलापयिन्यभावात्।
प्रतियोगितया बोध्यत इत्यर्थः, यावत्माध्यव्यापके माधनाध्यापकत्वाभावो यावत्साधनाव्यापके माध्यव्यापकत्वाभावो वा अनौपाधिकत्वपदार्थ इति भावः । 'व्यधिकरणत्वादिति निरुक्तनिषेधस्य हेतुमिष्ठमाध्यमामानाधिकरण्यव्यधिकरणवादित्यर्थः, तथाच तादृशानौपाधिकत्वविभिष्टं माध्यसामानाधिकरण्यं सर्वच हेतौ नास्तीत्यथाप्तिरिति भावः । वैयधिकरण्यमुद्धरति, ‘यावदिति, ‘यत्साध्यस्य' मत्साधनसमानाधिकरणमाध्यस्य, 'यस्य' माधनस्य, 'तत्' अनौपाधिकत्वं, तथाच यावत्स्वाव्यापकाव्यापकसाध्यकत्वं, यावत्माध्ययापकाव्यापकत्वं वाऽनौपाधिकवमित्यर्थः। 'तथाहीत्यादि, इदच थाश्रुताभिप्रायेण, यत्साधनाव्यापकतावच्छेदकं यावत् माध्यताछेदकावच्छिन्नाव्यापकतावच्छेदकं तत्त्वं, माध्यतावच्छेदकावच्छिनपापकतावच्छेदकं यावत् यद्धर्मावच्छिन्त्रव्यापकतावच्छेदकं तङ्का
नत्वं वा अनौपाधिकत्वं इत्यर्थे तु(९) म कोपि दोष इत्यवधेयं । म 'नापौति, माध्यं यावतामव्यभिचारि यावदभाववदवृत्ति ताव
मव्यभिचारित्वं तावदभाववदवृत्तित्वं माधनम्यानौपाधिकवमिअर्थः । सौपाधौ तु माध्यमुपाधेरेवाव्यभिचारि न च साधनं नद९ (१) इत्युक्तो तु इति ग•।
Page #100
--------------------------------------------------------------------------
________________
वावचिन्तामणे
अथ सम्बन्धमा व्याप्तिः व्यभिचारिसम्बन्धस्थापि केनचित् सह व्याप्तित्वात्, धूमादिव्याप्तिस्तु विशिष्यैवा निवक्तव्येति, तन्त्र, लिङ्गपरामर्शविषयव्याप्तिस्वरूप
ध्यभिचारोति तड्यवच्छेद इति भावः । तर्हि लाघवात् माध्याव्यभिचरितत्वमेव तदस्वित्याह, 'माथेति, अष्टापत्तेराह, 'तश्चेति केवलान्वय्यव्याप्तेरिति भावः । ननु तर्हि केवलावयिमंग्रहार्थमेर गुरुगरौरस्याप्युकलक्षणस्यादरोऽस्विति चेत् । न । प्रचापि केवला. पव्यसंग्रहतादवस्थात् तत्र हि माध्यस्य प्रमेयत्वादेर्यदन्नाभाववद हत्तित्वं तादृशधर्माप्रमिद्धेरिति हृदयम् ।
लोलावतीकारमतमाशङ्कव() निराकरोति, नापीति, 'का.
नेति, विशेषणे हतीया, तथाच कार्टेग्न कावविशिष्ट मणेति थावत् । अत्र कात्वा माधनस्य माध्यस्य माधनाश्रया भाधनसमानाधिकरणधर्मस्य वा विवक्षितम् । श्राधे कत्नन माध नेन माध्यस्य सामानाधिकरण्यमित्यर्थः, तश्चैकव्यक्तिहेतुकथले मा सौत्याह, 'एकव्यक्तिक रति, अनेकाशेषत्वरूपस्य कार्खरस्याभावा दिति भावः ।
अचैव पक्षे दूषणान्तरमाइ, 'नानेति। न च त्वेषु माध्यसम्बन्ध इत्यर्थः रति वाच्छ । तथाप्येकव्यक्तिहतकस्थलेऽव्याप्तेः पृथिवी पुषि पौषव्यापकजातेरित्यादावतियातेछ । अर्थाभिधानपुरःसरं दिनों (१) बीचाववीकारपक्षमाप्रति स., ग ।
Page #101
--------------------------------------------------------------------------
________________
वातिवादः । निरूपणमस्ता लक्षणाभिधानस्यार्थान्तरत्वात् । न ॥ च सम्बन्धमाचं तथा, तबोधादनुमित्यनुत्पत्तेः ।
-रस्थति , अत एवेति एकव्यक्तिसाध्यकाव्याप्तेरेवेत्यर्थः, 'विषमव्याप्तसाति वहिमान्धूमादित्यादावित्यर्थः, अयोगोलकौयवशिमामानापोधिकरण्यस्य धूमेऽभावादिति भावः । इदमुपलक्षणं मङ्ख्यावान् परिमाणदित्यादिसमव्याप्तेऽप्यव्याप्तेः सकलसङ्ख्यासम्बन्धस्य कुत्रापि परिमाणेऽभावादित्यपि बोध्यं । अर्थपरिष्कारपूर्वकं बतौयं निरस्थति, न चेति, 'प्रत्येकवहेरिति, इदमुपलक्षणं एकमात्रवृत्तिमायकेऽव्याभिश्चत्यपि बोय(१) । अर्थपरिष्कारपूर्वकं चतुर्थं निरस्थति, 'मापौति,
यावद्धर्माधिकरणेति यावत्माधनसमानाधिकरणधर्माधिकरणत्तिवमित्यर्थः, 'अप्रतौतेरिति । न च साधनसमानाधिकरण
गवन्नो धर्मास्तेषां प्रत्येकनिरूपितं सामानाधिकरण्य विवक्षणैयमिति वाच्यं। धूमसमानाधिकरणानां यावद्धर्माण महानसत्वादीनां त्येकनिरूपितमामानाधिकरण्यस्थापि कुत्रापि वहावभावादिति गावः । इदश्च यथाश्रुताभिप्रायेण, यदि तु यद्धर्मावच्छिन्नमामाधिकरण्यत्वेन साधनसामानाधिकरण्यव्यापकत्वं तद्धर्माछिनमाजानाधिकरण्यमिति विवक्ष्यते तदा नायं दोष इत्यवधेयं ।
टीकाकारलक्षणं शहते, 'नापौति खाभाविकं माध्यामाना
(१) शब्दवान् गगनवादित्यादौ यावत्साधनाश्रयापसिद्धत्वादयाप्तिरति भावः।
Page #102
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्वचिन्तामणौ
नापि व्याप्तिपदप्रतिनिमित्तमिदं सम्बन्धमानेऽपि व्याप्तिपदाप्रयोगात्।
धिकरण्यमित्यर्थः, व्यभिचारिणि तु माध्यमामानाधिकरण्यमोपधिकमिति भावः । स्वाभाविकत्वं हि हेतुस्वरूपजन्यत्वं, हेतुस्वरूपी श्रितत्वं वा, वाद्ये द्रव्यं पृथिवौत्वादित्यादौ पृथिवीत्वादिनिष्ठद्रव्यवादिसामानाधिकरण्यस्य नित्यतया(१) अव्याप्तिः, द्वितीये द्रव सत्त्वादित्यादौ व्यभिचारिण्यतिव्याप्तिरित्याह, ‘स्वभावेति, 'वभावजन्यत्वे हेतुखरूपजन्यत्वे, 'तदाश्रितवादौ वा,' स्वाभाविकपदार्थइति शेषः, 'अव्याप्यतिव्याप्तेरिति अव्याप्तिसहितातिव्याप्तेरित्यर्थः' मध्यपदलोपिसमामात्, अन्यथा इन्दवैविध्थेन द्विवचन-नपुंसकलिङ्गनयोरन्यतरापत्तेः(२) “तदाश्रितत्कदावित्यादिपदादनारोपितत्वपरियहः, तत्रापि ;यं सत्त्वादित्यादावतिव्याप्तिर्वाध्या । सत्तायां द्रव्यत्व सामानाधिकरण्यस्थानारोपितत्वात् ।
'अविनेति, 'विना' माध्येन विना माध्याभाववति, भावः' इत्ति यस्य तद्भिवः माध्याभाववदृत्तिभिन्न इति यावत्, व्याप्य इति मेष
(২) আঘকানাধিনুষইল অষয় নাইবন্ধান্দ্রিয় साध्यसामानाधिकरण्यस्य विवक्षणीयतया समवायसम्बन्धावच्छिनसाम माधिकरण्यस्य समवायसम्बन्धखरूपत्वात् समवायस्य नित्यत्वेन तथा निबावमिति भावः।
(२) इतरेतरानपक्षे डिवचनं समाहारचन्दप च नएसकावं प्रस येतेति भावः।
Page #103
--------------------------------------------------------------------------
________________
वसायिनि वेवसावविधर्मसम्बन्धी व्यतिरेकिणि साध्यवदन्यात्तित्वं व्याप्तिः एतयारनुमितिविशेषजनकत्वं अनुमितिमाचे पक्षधर्मातैव प्रयोषिका।
त्यन्नाभावान्योन्याभावभेदेन च भेदात्र प्राथमिकाध्यभिचारित्वेन
। केचित्तु 'अविनाभावः' इत्वभावे माधविनाभावस्य माथाभावविष्ठाभावस्य प्रतियोगितासम्बन्धेनाभावः माध्याभावव्यापकत्वमिति वित् । तथाच हेतोः साध्याभावव्यापकाभावप्रतियोगित्वं व्याप्तिति फलितं। न चैवं मकलसाध्याभाववविष्ठाभावप्रतियोगिलमति पूर्वाकेन पौनरुत्वं तत्रापि साकल्यस्य व्यापकस्वरूपत्वादिति वाय। तत्र व्यापकत्वं माध्याभाववरिष्ठाभावाप्रतियोगित्वमा हु आपकत्वं माध्याभाववनिष्ठाभावस्य प्रतियोगितासम्बन्धनाभावववमिति दादित्याः ।
'अथेति, 'सम्बन्धमाचं माध्यमामानाधिकरण्यमाचं, तर तमामाधिकरण्यं तत्र तस्थ व्याप्तिरिति यावत् । नन्वेवं द्रव्यं मचादित्यादौ नानिष्ठद्रव्यत्वसामानाधिकरण्यस्यापि मत्तानिष्ठद्रव्यवव्याप्तिलापजरित्यत्र इष्टापत्तिमार, 'व्यभिचारौति व्यभिचारिइतनिहसाथ
(१) प्राथमिकाथभिचरितवपदार्थस्य साध्याभाववत्तित्वाबन्ताभावभिवं, पविनामावपदार्थस्य तु साध्यामाववदृत्तिभेदगर्भवं चतो ग पौनमिति भावः।
12
Page #104
--------------------------------------------------------------------------
________________
वावचिन्तामगे
नातिप्रसाः, विशेषसामग्रीसहितायां व सामान्धसामग्याः कार्यजनकत्वनियमादिति केचित, तदपि न. साध्यवदन्यात्तित्वस्य धूमेऽसत्वात् वह्निमत्यव्वतान्य
मामानाधिकरण्यस्थापौत्यर्थः, 'केनचित् सहेति किश्चिद्रूपावच्छि नमाध्येन महेत्यर्थः, द्रव्यत्वादेरपि जातिवादिना सत्तादिव्यापकत्वा दिति भावः। यथाश्रुते द्र्व्यव-सत्तासामानाधिकरण्यस्यान्येन मा स्थाप्तिबासम्भवादमङ्गतः, 'धूमादिव्याप्तिस्विति धूमत्वाद्यवच्छिक निठवशित्वाचवच्छिन्नव्याप्तिस्वित्यर्थः, 'विभिव्यैवेति धूमवावपिर्थवहिलावछिन्नमामानाधिकरण्यं धूमवावच्छिन्ने वहिवावच्छि याप्तिः, द्रव्या विछिन्ने सत्तावावच्छिन्नमामानाधिकरण्यं व्यत्वत्व-.. वशिने मत्ता विचित्रव्याप्तिरिति विशिष्यैव निर्वतव्येत्यर्थः, न त नविच्छिन्ने तविछिनसामानाधिकरण्यं तविधि तावच्छिन्नव्याप्तिरिति सामान्यतो यत्तद्भ्यामेकोत्या निर्वकर तेन व्यभिचारिणि नातिव्याप्तिरिति भावः । इदं व्याप्नेर्लक्षणं, न वा अनुमितिकारणभूतपरामर्थविषयतावच्छेदकं, व्याप्तिपदना सिनिमित्तं वा, आये प्राइ, 'लिङ्गति, द्वितीये लाइ, 'न । 'सम्बन्धमा' माथसामानाधिकरण्यदावछिनमात्र, 'तथा' अधि तिहेतुपरामर्थविषयः, 'तबोधादिति अव्यभिचारांशाज्ञानदा वायव्यभिचार्यभाववान् पर्वतः वयव्यभिचार्यभावव्याप्यवान् इत्या । जानदमायां वा वसिमानाधिकरणधूमकान् पर्वत इति सामान्य धिकरणविभिष्टपरामर्शादनुमित्यनुदयात् इत्यर्थः । न च
Page #105
--------------------------------------------------------------------------
________________
वातिवाद
.६१ मिन् धूमसात्वात् । नप सकलसाध्यवदन्यारतिय झिमता प्रत्येकं तथात्वात् । सर्वच लक्षणे साध्यत्वसाधनत्व-तदभिमतत्वानां व्याप्तिनिरूप्यत्वेनात्माश्रयः,
भिचारांगा ज्ञानदशायां अनुमित्यनुत्पादोऽमिङ्कः तथा वयष्यमिचार्यभाववान् पर्वत इत्यादिज्ञानदशायामपि, अस्तु वा पचे माथाव्यभिचार्यभावादिज्ञानाभावोऽप्यनुमितिहेतुरिति वाचं। सर्वजनामुभववाधिनत्वात् माथ्याव्यभिचार्यभाव-तयाण्यादिज्ञानानामनुमिप्रतिबन्धकत्वकल्पने महागौरवाञ्चेति भावः । तीये अर्थातरे वाह, 'नापौति।
केषाश्चिमतमाह, 'केवलापयिनौति केवलान्वयित्वग्रहदशावात्यर्थः । 'केवलावविधर्मसम्बन्ध इति(१) केवलान्चथिमाध्यमामाधिकरण्यमित्यर्थः, माध्यस्य केवलान्वयित्वाऽभावे माध्यमामामा
यहेऽप्यनुमित्यनुदयात् केवलान्वयित्वं माध्यविशेषणं, तथाभावप्रतियोगितानवच्छेदकत्वं, तथाचान्योन्याभावप्रतियोगिछेदकसाध्यसामानाधिकरयमित्यर्थः। ननु तथापि इदं वाचं वादित्यादावसम्भवः घटत्वादिविशिष्टवाच्यत्वादिमतोऽन्योन्याप्रतियोगितावच्छेदकत्वादायलादेर्षिशिष्टस्यावच्छेदकले विशेयाप्यवच्छेदकत्वात्। न चानवच्छेदकत्वं पर्याप्यास्यसम्बन्धेनावरेदआशून्यत्वं इति वाचं । घटवविशिष्टवाचलवान् शेयखादित्यादा
९) 'केवणावधिसम्बन्ध इतीति साम।
Page #106
--------------------------------------------------------------------------
________________
वपिनाम
साथ दिन सिङ्गिकर्मत्वं, सिपाधयिषाविषयत्वं का महानसीयवौ तदभावात्। न च सामान्यतोव्यायवगमोऽस्येव परस्य कथमन्यथा दूषणेनासाध
वतियाः वाच्यत्वस्थ पर्याप्याख्यसम्बन्धेनावच्छेदकताशून्यतया घटत्वविशिष्टवाव्यवस्थापि तथात्वात् विशिष्टवाच्यत्वस्य वाच्यत्वानतिरिकबादिति चेत् । न। अन्योन्याभावप्रतियोगितासामान्ये यहांवछिनपर्यतावच्छेदकनाकवाभावस्तद्धर्मावच्छित्रसामानाधिकरण्यस्य विवक्षितत्वात् यनिष्ठपर्याप्तावच्छेदकत्वाभावस्तत्मामानाधिकरचमित्युतौ इदं वाचं ज्ञेयत्वादित्यादौ वाच्यत्वादेः स्वरूपनोऽभाद तियोगितानवच्छेदकत्वेन वाच्यत्वादिनिष्ठपर्याप्तावच्छेदकत्वाप्रसिद्ध याण्यापत्तिरतोऽवर्षियानुसरणं न च तथापि वाच्यत्वादेः का कसम्बन्धेनान्योन्याभावप्रतियोगितावच्छेदकवादसम्भव इति वा माध्यतावच्छेदकसम्बन्धावचित्रवेनावच्छेदकताया विशेषणत् । बादिनिहवरूपसम्बन्धावछिनावच्छेदकताकत्वन्तु संयोगादिम वाचादेरत्यन्नाभावप्रतियोगितायामेव प्रसिद्धं । माध्यतावच्छेदक, अभेदेन व्याप्त दात्तादायसम्बन्धेन प्रमेयादिमायके पुनरन्योन्या वप्रतियोगितासामान्ये चर्मनिष्पाप्तावच्छेदकावाभावता अामानाधिकरचमित्येव काव्यं शब्दकसानुपादेयत्वात्, बर्मा साधनावोदकपरं । अवोदकता व माध्यतावच्छेदकतावद सबन्धावशिचवेग विशेषणोया तेन प्रमेयत्वादेः कालिकसम्ब मान्योन्याभावप्रतियोगितावादकत्वेऽपि तादाम्यसम्बन्धेव प्रमे
Page #107
--------------------------------------------------------------------------
________________
शामिवाद।
कतां साधयेदिति वाचं। स्वार्थानुमानोपयोगिव्याप्ति'स्वरूपनिरूपणं विना कथायामप्रवेशादिति ।
इति श्रीमद्गशोपाध्यायविरचिते तत्वचिन्तामणौ अनुमानास्यहितीयखण्डे पूर्वपक्षः ।
शिक्षाध्यके नासम्भवः । तद्धर्मविछिनमामानाधिकरण्यञ्च माध्यताकाछेदकसम्बन्धेन तद्धर्मावच्छिन्नस्य सम्बन्धिनि या हेतुतावच्छेदकसम्बन्धावच्छिना सम्बन्धिता तबिरूपकतावच्छेदकहेततावच्छेदक
, तेन सम्बन्धाग्मरेण माध्यसामानाधिकरण्यजानेऽपि नानुतिः, न वा इदं वाचं गगनादित्यादौ समवायादिसम्बन्धेन समादिति के, इदं वाचं घटत्व-पटत्वोभयस्मादित्यादौ समवायासावन्धेन . विरुद्धोभयादिहेतुके चातिव्याप्तिरिति भावः । तिरेकिणैति व्यतिरेकिल्वग्रहदशायामित्यर्थः, 'व्याप्तिः' परा
विषयतयानुमितियोजिका व्याप्तिः । नन्वेवं परस्परं यभिचार'यत पार, 'एतयोरिति, 'जनकत्वं' परामर्शविषयतया जमकता
दकत्वं, कोवलावधिमाध्यकानुमिती निरुतकेवलावधिसाध्यमानाधिकरणविशिष्टवत्तापरामर्शः, व्यतिरेकिसाध्यकालुमितौ माधवदन्यात्तिमाचपरामर्श हेतरित्यर्थः । बोवलावधिमाध
Page #108
--------------------------------------------------------------------------
________________
तवचिन्तामो
कावञ्च निरुककेवलावयिमाध्यमामानाधिकरण्यविशिष्टवत्तापरामाव्यवहितोत्तरोत्पनत्वमेव, तेनेदं वाच्यं शेयत्वादित्यादावपि व्यतिरेकित्वभ्रमदशायां माध्यवदन्यावृत्तित्वमाचपरामर्शदनुमित्युत्पादेऽपि न व्यभिचारस्तदवस्थः। म च कृप्तकारणबाधान भवत्येव तत्र तदानौमनुमितिरिति वाच्यम्। अनुभवविरोधात् तथापि हेतुतावच्छेदकसम्बन्धादिभेदेन निरुतसामानाधिकरण्यस्य विभिन्नतया परस्परं व्यभिचारस्य दुरित्वाञ्च । एवं माध्यवदन्यावृत्तिमत्तापराम व्यवहितोत्तरोत्पन्नानुमितित्वमेव व्यतिरेकिसाध्यकत्वं तेन व्यतिरेकिमाध्यके केवलावयित्वभ्रमदशायां निरुककेवलावधिमाध्यमामानाधिकरण्यमात्रपरामर्शदनुमित्युत्पादेऽपि न व्यभिचार स्तदवस्था, नापि हेतुतावच्छेदकसम्बन्धादिभेदेन माध्यवदन्यावृत्तिलस्थापि विभिन्नतया परस्परं व्यभिचारश्चेति भावः ।
ननु तनुमितिसामान्ये किं प्रयोजनमित्यत आह, 'चना मितिमात्र इति, 'पक्षधर्मतेव' पर्वतादिनिरूपितमांसर्गिकविषयते निरूपितान्तं स्वरूपकथनं तनिवेशे अननुगमापत्तः, ‘प्रयोनिक ज्ञाननिष्ठतया कारणतावच्छेदिका, तथाचानुमितित्वावच्छिवं मा सामान्यतो विशिष्टज्ञानत्वेनैव हेतुत्वमिति भावः। ज्ञानत्वेनैव हेव वमिति वस्तुगतिः, विशिष्टत्वप्रवेशे प्रयोजनविरहात् गौरवा प्रकारित्व-विशेष्यित्वमादाय विनिगममाविरहेण कार्य-कारणभाव पथप्रसाच्च । नन्वेवं निरुकव्याप्तियज्ञानविरहदशायामपि धूमवा पर्वत इत्यादिपवधीताज्ञानादनुमितिसामान्योत्पत्यापतिः मामा . न्यसामग्रीसमादित्य पार, न चेति, 'विशेषसामग्रीति, केवलान
Page #109
--------------------------------------------------------------------------
________________
बातिवादः।
विसाध्यकानुमितिसामग्री व्यतिरेकिंसाध्यकानुमितिमामयौ च प्रहते विशेषमामग्रौति भावः । 'सकलेति यावन्ति माध्यवन्ति तदन्यावृत्तित्वमित्यर्थः, माध्ये साकल्यविशेषणे यावत्माध्याधिकरणाप्रसिद्धः९), 'तथात्वादिति यावत्माध्यवतोऽन्यत्वादित्यर्थः, यावत्त्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकान्योन्याभावस्य केवलान्वयित्वादिति भावः। इदमापाततः माध्यवत्त्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकान्योन्याभाववदवृत्तित्वं वक्रव्यं,मामान्याभावानभ्युपगमेऽपि माध्यवत्त्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकान्योन्याभाववटाधिकरणवृत्तित्वमेव वक्तव्यमित्युकदोषाभावात्। वस्तुतस्तु मर्यचैव माध्ये केवलान्वयित्व-यतिरेकित्वग्रहदशाभेदेन कार्य-कारणभावदयकल्पनमपेक्ष्य लाघवात् हेतुममानाधिकरणान्योन्याभावेत्यादिवक्ष्यमाणव्याप्तिज्ञानमेव सर्वत्र इतरुचितस्तस्योभयदशायामेव सम्भवात् । न च हेतुमासानाधिकरण्यप्रवेशे एकस्मिन्नेव माध्य-हेततावच्छेदकभेदेनानन्तकार्य-कारणभावापत्त्या तदपेक्ष्य कार्य-कारणभावइयमेव लध्विति वाय। उक्रक्रमेण निरुतव्याप्तिदयसापि हेतुतावच्छेदकघटिततया हेतुतावच्छेदकभेदेन कार्य-कारणदस्थाविशिष्टषात्। न च तथापि यत्र विषयविशेष व्यतिरेकित्वइदशायां कदापि अनुमितिनात्पना तब लाघवात् केवलावधि
सामानाधिकरण्यज्ञानस्यैव हेतुत्वं युक्तमिति(२) वाच्यं । तत्राप्यनावे हेतुसामानाधिकरण्यानुपस्थितिदशायामनुमित्यनुदयात् हेतु
(९) वडिमान् धूमादित्यादौ यावतां वकीनामधिकरणत्वं न एकमिन् मिश वर्तत इति भावः। (२) वासाव्यमितीति ग.।
Page #110
--------------------------------------------------------------------------
________________
तवचिन्तामगे
मानाभाव इति वाच्यम्। सर्वत्र विमिष्टानुभव एव विशेषणशानं हेतुरिति सम्प्रदायमते तदभिधानात्।
यहा पर्वतीयवडिकल्पने लाघवं तदन्यवझिकल्पने च गौरवमिति ज्ञानस्य पर्वतीयवद्ध्यतिरिकसिद्धौ प्रतिबन्धकतथा तन्मयदशायामेव सामान्यपरामादपि पर्वतीयवहिमाषविषयकानुमितिसम्भवः ।
केचित् तु यत्र वशिव्याप्यधूमवान् पर्वतो वक्रिमानिति सिद्धात्मकपरामर्थः ततः पर्वते पर्वतीयवयनुमितिर्जायतामिति मिpurn यिषा तत्रैव सामान्यपरामादपि पर्वतीयवझिमात्रविधेया मितिसम्भवः सिद्धेः प्रतिबन्धकतया वड्यन्तरभानासम्भवादिता
अजवस्तु यदा वहिव्यायधूमवान् पर्वत इति परामर्शः पर्वतः प तौयवकौतरवयभाववान् इति बाधज्ञानञ्च वर्त्तते तदा पर्वतो वहिवेन न पर्वतीयवर्भानमनुमितेर्व्यापकतावच्छेदकप्रकारक नियमादपि तु वशित्वरूपेणैव पर्वतीयवक्रिमात्रभानमिति वच्छिन्नेतरबाधज्ञानस्य भिन्त्रप्रकारकत्वेऽपि मामान्यरूपेण वच्छिन्नेतरविधेयकानुमितित्वावच्छिन्न प्रत्यतिरिकप्रतिबन्न । मादिति प्राचीनमतमभिप्रत्यैवेदं दूषणमित्याहुः । तादृ मतविचारचास्मस्कृतमिद्धवान्नरहस्येऽनुमन्धेयः ।
इदन्त्ववधेयं तादृशानुमितिषु महानसौयवद्यादेरमा मिष्टापत्तेः सुकरत्वान्मलोक्तमिदममंगतमिति दिक् ।
तटस्थः शकते, 'न चेति, सामान्यतः व्याप्तिपदवायला 'परस्य' नन्वनुमितिइतव्याप्तिज्ञाने का व्याप्तिरिति +
Page #111
--------------------------------------------------------------------------
________________
चामिवादः।
परच, 'दूषणेम' अथाप्यादिलक्षणदूषणेन, 'असाधकता' अनुमित्यप्रयोजकता, उकव्याप्तौनामिति शेषः। तथाच किं व्याप्तिनिरूपणेमेति भावः। 'सार्थति स्वस्मिन् स्खौये शिष्यादौ अर्थः प्रयोजन बस तादृशं यदनुमानं व्याप्तिज्ञानं प्रियादेाप्तिज्ञानमिति यावत्, सदुपयोगि यदिदं व्याप्तिस्वरूपनिरूपणं तदिनेत्यर्थः, 'कथायामिति
शिष्यादेरित्यादिः, 'कथा' विचारः, 'अप्रवेशा' प्रवेशन, व्याप्तिनिरूपणं विना शिव्यादेाप्तिज्ञानासम्भवेन सद्धेततुत्वपरिचयस्यैवाशक्यतया देवदाहरणप्रयोगस्यैवासम्भवादितथाच न*मह परप्रश्नसमाधिमया व्याप्तिनिरूपण
तु शिष्या व्याप्तिखरूपजान विना कथायां प्रवेशो न सम्भवतीत्येतदर्थमपौति भावः ।
ति श्रीमथुरानाथ-तर्कवागौगविरचिते तत्त्वचिन्तामणिरहस्ये मात्यदितीयखण्डरहस्ये च्याप्तिवादे पूर्वपहरहस्यम् ।
Page #112
--------------------------------------------------------------------------
________________
अथ सिद्धान्तलक्षणम् ।
अत्रोच्यते। प्रतियोग्यसमानाधिकरणयत्समानाधिकरणात्यन्ताभावप्रतियोगितावच्छेदकावच्छिन्नं भवति तेन समं तस्य सामानाधिकरण्यं व्याप्तिः ।
इति श्रीमगङ्गेशपाध्यायविरचिते तत्वचिन्त अनुमानास्थहितीयखण्डे सिद्धान्तलक्षणम् ।
अथ सिद्धान्तलक्षणरहस्यम्। 'प्रतियोग्यसमानाधिकरणेति, ‘यत्पदं हेतुत्वेनाभि द्वितीययत्पदं माध्यतावच्छेदकपरं, 'प्रतियोगितावच्छेदकार प्रतियोगितावच्छेदकस्वरूपं, यन्त्र भवति','तेन समं सामाना तदवच्छिन्नेन समं मामानाधिकरण्यं, 'तस्य' हेतोः, 'व्याप्तिरि । जना, तद्धर्मावच्छिन्नेन मह तस्य हेतोाप्तिरित्यर्थः। भवति । मान् धूमादित्यादौ धूमसमानाधिकरणत्यन्ताभावप्रतियों छेदकं वशित्वं तदवच्छिन्नसमानाधिकरणो धूमः, धूमवा त्यादौ वहिसमानाधिकरणात्यन्ताभावप्रतियोगितावच्छेद - बमिति नातिप्रमङ्गः। प्रतियोगितावच्छेदकावच्छिन्नेत्यादि यथावतन्त नाचते वहिमान् धूमादित्यादौ सर्वेषामेव वकीनां देसमा
Page #113
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्याप्तिवादः।
नाधिकरणभावप्रतियोगितावच्छेदकतत्तदहित्व-वकि-जलोभयत्वाधवच्छिन्नवादसम्भवापत्तेः। न चैवमपि वशिसमानाधिकरणत्यनाभावप्रतियोगितानवच्छेदकं प्रमेयत्वं तदवच्छिनधूमसमानाधिकरणे वझिरित्यतिव्याप्तिरिति वाच्च । व्यभिचारिणोऽपि वयादेःप्रमेयत्वादिरूपेण धूमादेर्व्याप्यत्वाभ्युपगमात् धूमत्वेनैवधूमोन वहिव्यापकःप्रमेयावादिना तु व्यापको भवत्येव । अत्र सत्तावान् द्रव्यत्वादित्यादिव्यतिरेकिसाध्यके') माध्यतावच्छेदकसम्बन्धावच्छिन्त्रप्रतियोगिकमाध्यमा
भावमादायाव्याप्तिवारणय हेतुसमानाधिकरणत्वमत्यन्ताभावणं, तच्च हेतुतावच्छेदकसम्बन्धेन हेतुतावच्छेदकावच्छिन्नहेतार्यकरणं तत्र येन केनापि सम्बन्धेन वर्तमानत्वं, अन्यथा इदंगगनं त्वप्रकारकप्रमात इत्यादौ विशेष्यतासम्बन्धेन हेतुतायां समवायधन हेत्वधिकरणे अात्मनि वर्त्तमानस्य नगनत्वसामान्याभावस्य
गितावच्छेदकमेव गगनत्वत्वमित्यव्याप्तिः स्यात् स्याञ्च द्रव्यं गुणयत्वविशिष्टमत्त्वादित्यादौ हेतुभूतसत्ताधिकरणे गुणे वर्तमानस्य
मान्याभावस्य प्रतियोगितावच्छेदकमेव द्रव्यत्वत्वमित्ययाप्तिः। इतौ माध्यसामान्याभावस्य प्रतियोग्यमामानाधिकरणविरहात्
) केवलान्वयिसाध्य के साध्यसामान्याभावाप्रसिद्ध्या तमादाय तत्राव्यापिन सम्भवतीत्यव उक्तं व्यतिरेकिसाध्य के इति । हिमान् धूमादि. बादौ प्रवितस्थले संयोगेन बरण्याप्यत्तितया हेतुसमानाधिकरणत्व. विशेऽपि षव्याप्तापरीहाराव् सत्तावान् इयत्वादित्यादिश्याप्यत्तिसाध्यस्मशानुसरणं। समवायेन साध्यतायामुक्तस्थलस्य मसिहस्थलवमिति
Page #114
--------------------------------------------------------------------------
________________
• १ . सवचिन्तामयी
प्रतियोग्यसमानाधिकरणत्वस्य हेताविशेषणवेनैव तदव्याप्तिदयावकाश इति वाच्यम् । प्रथमे श्रात्मरूपहेत्वधिकरणमादाय द्वितीये गुणादिमादाय वक्ष्यमाणक्रमेण वक्ष्यमाणद्विविधप्रतियोग्यसामामाधिकरण्यस्यैव माध्याभावस्थ(१) हेतौ सत्त्वात् तच्चानुपदं स्फुटौभविव्यति । अधिकरणत्वञ्च सम्बन्धिलमात्रं तेन तादात्म्यादिवृत्यनियामकसम्बन्धेन हेत्तायां हेतुतावच्छेदकसम्बन्धेन हेत्वधिकरणत्वाप्रसिद्धावपि नाव्याप्तिः। सम्बन्धित्वञ्च धर्मित्वं तच्च वृत्तिनियामकानियामकसम्बन्धमात्रनिरूपितसम्बन्धिमात्रसाधारणो धर्म-धर्मिभावाख्यामा सम्बन्धविशेषः, न त्वाधारमात्रवृत्तिः। अत एवाग्टहौतासंसर्गका धर्षिभावगोचरैकज्ञानत्वं विशिष्टज्ञानलमिति मौमांसकाः, असा घटस्य ज्ञानं चैत्रस्य धनमित्यादिविषयित्व-खत्वादिवृत्त्यनिया सम्बन्धसंसर्गकविशिष्टप्रत्यक्षादौ तल्लक्षणाव्याप्यापत्ते:(१)। एतेन हुन तावच्छेदकसम्बन्धेन हेतुतावच्छेदकावच्छिन्नतोरधिकरणत्वरित सत्यनियामकसम्बन्धेन हेत्तायामव्याप्तिः तादृशाहेतोः सम्बा मात्रविवक्षणे च द्रव्यं विशिष्टमत्त्वादित्यादौ अत्याप्तिस्तदवस्था र विशिष्टनिरूपिताधारताविरहेऽपि तत्सम्बन्धितायाः सत्त्वाशिम निरस्तं। विशिष्टनिरूपिताधारतावदिभिष्टनिरूपिताया धर्मितापर
(१) साध्याभावस्य प्रतियोग्यसामानाधिकरणस्यैवेति योजना। (२) धर्म-धर्मिभावाख्यखरूपसम्बन्धविशेषस्य पाधारमापत्तिले घटस्य ज्ञानं चैत्रस्य धनमित्यादिविशिवप्रत्यक्षे विषयित्व-खत्वरूपाच्या नियामकसम्बन्धावविनाधारत्वाप्रसिड्या धर्म-धर्मिभावगोचरत्वविरोष धर्म-धर्मिमोचरैवज्ञानस्वरूपविशिकवानपक्षणायामयापचिरिति भा।
Page #115
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्वातिवादः।
.
.
नाम्न्याः सम्बन्धिताया अपि विलक्षणतया गुणदावसत्त्वात् । सत्यवान् ट्रव्यवादित्यादौ द्रव्यत्वाद्यधिकरणे महाकालादौ कालिकविशेषणतादिना वर्तमानस्य सत्त्वादिसामान्याभावस्य प्रतियोगितावछेदकमेव सत्त्वत्वमित्यव्याप्तिः, एवं कपिसंयोगौ एतत्त्वादित्याघव्याप्यवृत्तिमायकेऽव्याप्तिश्च माध्यमामान्याभावस्थापि निरुक्तहेतमामानाधिकरण्यादतः 'प्रतियोग्यसमानाधिकरणेति यत्पदार्थस्य हेतोविशेषणं, तथाच खप्रतियोग्यसमानाधिकरणस्य हेतुतावच्छेदकावच्छिन्नहेतोईततावच्छेदकसम्बन्धेन सम्बन्धिनि येन केनापि सम्बन्धेन वर्तमानो योऽभावस्तत्प्रतियोगितानवच्छेदकं यदित्यर्थः, खपदमभावपरम्। न च माध्य-साधनभेदेन व्याप्तिभेदात् व्याप्यवृत्तिसाध्यके नेदं विशेषणं सफलं प्रभावीयविशेषणताविशेषसम्बन्धेन माध्याभाववृत्तिमाध्यौयप्रतियोगित्व-तदवच्छेदकत्वान्यतरावच्छेदकसम्बन्धेन वा(१) हेत्वधिकरणवृत्तित्वविवक्षणदेव साध्याभावस्य यथाकथञ्चित्सम्बन्धेनं हेत्वधिकरणत्तितामादाय व्यायवृत्तिव्यतिरेकिसाध्यकमात्रायानेारणसम्भवा
(१) अभावीयविशेषणताविशेषसम्बन्धेन हेत्वधिकरणरत्तित्वोक्तो द्रव्य. स्वाभाववान् सत्त्वादित्यादौ अतिव्याप्तिः द्रव्यत्वरूपसाध्याभावस्य धभावीयविशेषणताविशेषसम्बन्धनावर्तमानत्वात् अतः साध्याभावरत्तीत्यादि, इत्यच्च साध्यादिभेदेन व्याप्तर्भेदात् भावसाध्यकस्थले अभावीयविशेषणताविशेषसम्बन्धेनैव हेत्वधिकरणत्तित्वं, अभावसाध्यकस्थले यथायथं संयोग-समवायादिसम्बन्धेनैव हेत्वधिकरणत्तित्वं शब्दैक्यस्यानुपादेयत्वात् । न तु साध्याभावत्तिसाध्यीयप्रतियोगित्व-तदवच्छेदकत्वान्यतरावच्छेदकसम्बन्धत्वेन वावृशसम्बन्धस्य व्याप्तिलक्षणघटकत्वं प्रतियोग्य सामानाधिकरप्यनिवेशापेक्षया महागौरवापत्ते इति तात्पर्य्यम् ।
Page #116
--------------------------------------------------------------------------
________________
१. तत्वचिन्तामो दिति वाच्यं । तत्राप्येतद्विशेषणानुपादाने साध्याभावस्थाव्याप्यत्तित्वधमेण हेतमामानाधिकरण्यभ्रमेऽनुमित्यमुदयापत्तेः, हेतुसमानाधिकरणभावप्रतियोगितायां साथतावच्छेदकावच्छेद्यत्वग्रहे तादृशप्रतियोगितासामान्ये माध्यतावच्छेदकावच्छेद्यत्वाभावग्रहासम्भवात् प्रातलक्षणे वक्ष्यमाणयुक्त्या तथैव विवक्षणीयत्वात् इति भावः। खप्रतियोग्यसमानाधिकरणत्वञ्च न खप्रतियोग्यधिकरणे केनापि सम्बन्धेन वर्त्तते यत्तदन्यत्वं संयोगी सत्त्वादित्यादावतिव्याप्तेः सत्ताया द्रव्ये संयोगाभावस्य प्रतियोगिसमानाधिकरणत्वात्, किन्तु स्वप्रतियोग्यधिकरणे केनापि सम्बन्धेन वर्तमानत्वसामान्याभावः, तथाच सामानाधिकरणस्थाव्याप्यवृत्तितया सत्ताया गुणदावेव मंयोगसामानाधिकरण्याभाववत्त्वमतो मातिव्याप्तिः। एतेन इदं वाच्यं ज्ञेयत्वादित्यादौ तादृशाभाव एवाप्रसिद्धः यदभावप्रतियोग्यसमानाधिकरणं जेयत्व मित्यपि निरस्तं । मामांनाधिकरणस्थाव्याप्यवृत्तितया सामान्यखाद्यभावस्यैव तादृशस्थ प्रसिद्धत्वात्। न चैवं वहेरव्याप्यत्तितया वकिमान् धूमादित्यादावव्याप्तिः हेतममानाधिकरणस्य माध्यमामान्याभावस्थापि धूमावयवावच्छेदेन प्रतियोगिमामानाधिकरण्याभावस्य धूमादौ सत्त्वादिति वाच्यं । स्वप्रतियोग्यधिकरणे वर्तमानत्वमामान्याभावविशिष्टहेतुतावच्छेदकावच्छिन्नहेतोईततावच्छेदकसम्बन्धेनाधिकरणवस्य विवचितत्वात्। इत्थञ्च वक्रिमान् धूमादित्यादौ वयादिसामान्याभावस्य प्रतियोग्यधिकरणवृत्तित्वाभावविशिष्ट हेतुतावच्छेदकावच्छिनहेतोईततावच्छेदकसम्बन्धेनाधिकरणमेवाप्रसिद्धमतः अभावान्तरस्यैव सधणघटंकवाचाव्याप्तिः।
Page #117
--------------------------------------------------------------------------
________________
खातिवादः।
केचित्तु प्रतियोग्यसमानाधिकरणेत्यन्ताभावविशेषणं । न वं कपिसंयोगी एतदृक्षत्वादित्यादावव्याप्तिस्तदवस्था संयोगी सत्त्वादित्यादावतिव्याप्तिवारणाय सामानाधिकरण्यस्थाव्याप्यवृत्तित्वान्धुपगमावश्यकतया हेतुसमानाधिकरणकपिसंयोगाभावस्थापि गुणदौ प्रतियोग्यसमानाधिकरणत्वादिति वाच्यं । खप्रतियोग्यमामानाधिकरण्यविभिष्टेऽभावे हेत्वधिकरणवृत्तिताया विवक्षितत्वादित्याः । तदमत् विशिष्टस्थानतिरिक्ततया गुणाद्यन्यत्वविशिष्टमत्ताया गुणादिवृत्तित्ववत्प्रतियोगिसामानाधिकरण्याभावविशिष्टकपिसंयोगाभावस्थापि एतदृक्षवृत्तित्वात् । न च हेत्वधिकरणवच्छेदेन प्रतियोगिमामानाधिकरण्यसामान्याभाववत्वं विवक्षितमेतलाभायैव च हेतुसमानाधिकरणमिति वाच्छं। कुसृष्टिकल्पनापत्तेः । वस्तुतस्तु प्रतियोग्यममानाधिकरणत्वं न प्रतियोग्यधिकरणवृत्तित्वाभावः सत्तायां गुणे न संयोगाभावप्रतियोगिमामानाधिकरण्यमिति प्रतौतेर्गुणदौ मत्तानिष्ठतादृशसमानाधिकरणत्वस्थावच्छेदकतासम्बन्धेनाभावविषयकतथा सामानाधिकरण्यस्याव्याप्यवृत्तिवे मानाभावेन संयोगौ सत्यादित्यादावतिव्याप्तः, किन्तु प्रतियोग्यनधिकरणे येन केनापि सम्बन्धेन वर्तमानत्वं तदपि हेतु विशेषणं न तु अभावविशेषणं कपिमयोगी एतदक्षत्वादित्यादावव्याप्तेस्तादवस्थ्यात् हेतुसमानाधिकरणकपिसंयोगाभावस्थापि प्रतियोग्यनधिकरणगुणादिवृत्तित्वात्, विशिष्टस्यानतिरिकतया प्रतियोग्यनधिकरणकृत्तित्वविशिष्टस्थाभावस्य हेत्वधिकरणवृत्तिताविवक्षणेऽप्यऽनिस्तारात्। न च निरुक्तप्रतियोग्यनधिकरपतित्वस्य हेतुविशेषणत्वेऽपि वरव्याप्यवृत्तितया वकिमान् धूमा
Page #118
--------------------------------------------------------------------------
________________
११
तत्त्वचिन्तामो दित्यादावव्याप्तिः धूमादे मादिसमानाधिकरणवयादिसामान्याभावस्थापि प्रतियोग्यमधिकरणे धूमावयवादी वृत्तः, कपिसंयोगी एतदृतत्वविशिष्टमत्त्वादित्यादावव्याप्तिः निकाहेतममानाधिकरणोऽभावः कपिसंयोगसामान्याभावः विशिष्टस्थानतिरिकतया तत्प्रतियोग्यनधिकरणगुणादिवृत्तिरपि हेतुतावच्छेदकविशिष्ट हेतः तत्प्रतियोगितावच्छेदकत्वात् कपिसंयोगत्वस्येति वाच्यं । निरुतप्रतियोग्यनधिकरणवृत्तित्वविशिष्ट हेतुतावच्छेदकावच्छिवहतोहततावच्छेदकसम्बन्धेनाधिकरणत्वस्य विवक्षितत्वात् । एवञ्च वहिमान् धूमात् कपिसंयोगौ एतदृक्षवविशिष्टमत्त्वादित्यादौ १) वहि-कपिसंयोगादिमामान्याभावस्य प्रतियोग्यनधिकरणवृत्तित्वविशिष्ट हेतुतावच्छेदकविशिष्टोताईततावच्छेदकसम्बन्धेनाधिकरणमेवाप्रसिद्धमित्यभावान्तरस्यैव लक्षणघटकत्वान्नाव्याप्तिः। इत्थञ्च प्रतियोग्यमधिकरणं यद्धेततावच्छेदकसम्बन्धेन • हेतुतावच्छेदकविशिष्टहेत्वधिकरणं तर येन केनापि सम्बन्धन वर्तमानो योऽभाव इत्यभावान्नार्थनिष्कर्षः प्रतियोग्यनधिकरणहेत्वधिकरणस्यैव प्रतियोग्यमधिकरणवृत्तित्वविशिष्ट हेत्वधिकरणतया वृत्तित्वपर्यन्तप्रवेशे गौरवान प्रयोजनाभावाच्च। अत्र प्रतियोग्यमधिकरणत्वं प्रतियोगितावच्छेदकसम्बन्धेन यत्प्रतियोगितावच्छेदकावच्छिन्नप्रतियोगिसम्बन्धि तदन्यत्वं, अन्यथा ज्ञानवान् द्रव्यत्वात् वद्धिमान् धूमादित्यादौ समवायेन ज्ञानवयादेः माध्यतायामिदं वार्य ज्ञेयवादित्यादौ कालिकसम्बन्धेन वाच्यत्वादेः माध्यतायाञ्चातिव्याप्यापत्तेः हेतुसमानाधिकरणस्य (१) एतत्त्वविशिवसत्वादिबादाविति का।
Page #119
--------------------------------------------------------------------------
________________
थापिवादः।
१००
समवायसम्बन्धावच्छिवज्ञान-वयाधभावस्य कालिकसम्बन्धावशिववाचत्वाद्यभावस्य च विषयत्व-संयोग-विशेषणताविशेषसम्बन्धन प्रतियोग्यधिकरणमेव हेत्वधिकरणमित्यभावान्तरा एव तादृशाः तत्प्रतियोगितानवच्छेदकत्वात् ज्ञानत्व-वहिव-वाच्यत्वत्वादेः । गुण-कर्मान्यबविशिष्टसत्तावान् जातेः भूतत्व-मूतखोभयवान् मूर्त्तवादित्यादावतिव्याप्यापत्तेश्च हेतममानाधिकरणस्थ विशिष्टमत्तात्वावच्छिवाभावस्य प्रतियोगितावच्छेदकसम्बन्धेन प्रतियोग्यधिकरणमेव हेत्वधिकरणमित्यभावान्तर एव तादृशः तत्प्रतियोगितानवच्छेदकत्वादिशिष्टसत्तावादः। विषयितादिवृत्त्यनियामकसम्बन्धेन घटादेः माध्यतायां जानत्वादिहेतौ विषयितादिसम्बन्धावच्छिनघटाद्यभावस्य प्रतियोगितावच्छेदकसम्बन्धेन प्रतियोग्यधिकरणप्रमियाऽतिव्याप्यापत्तिरतोऽधिकरणत्वमपहाय सम्बन्धित्वानुधावनम् । . केचित्तु प्रतियोग्यनधिकरणत्वं माध्यतावच्छेदकसम्बन्धेन या'तियोगितावच्छेदकावच्छिन्नस्य सम्बन्धि तदन्यत्वं तावतापि ज्ञानवान् द्रव्यत्वादित्यादावतिव्याप्तिवारणसम्भवादित्याहुः। तदसत् विषयित्व-कालिक्रविशेषणत्वादिसम्बन्धेन(१) घटादेः साध्यतायां नित्यशानव-महाकालवादिहेतावव्याप्यापत्तेः हेतुतावच्छेदकसम्बन्धेन हेत्वधिकरणस्य माध्यतावच्छेदकविषयित्वादिसम्बन्धेनाभावमात्रस्यैव प्रति
(१) विषयित्वादेः संसर्गत्वानभ्युपगमे अव्याप्तिदानार्थ कालिकसम्बन्धानु
सरणं कालो हि जगदाधार इति प्रतीत्यनुरोधेन कालिकसम्बन्धस्य संवर्गवमवण्यमभ्युपेयमिति।
Page #120
--------------------------------------------------------------------------
________________
१
तत्वचिन्तामणे योगिसम्बन्धितथा तादृशाभावाप्रसिद्धेः प्रतियोगितावच्छेदकसम्बन्धेन तथावाभिधाने च सम्बन्धाननरावछिनाभावमादायैव प्रसिद्धिरित्यनुपदं वक्ष्यामः। __ प्रतियोगितावच्छेदकावच्छिन्नवञ्च प्रतियोगितावच्छेदकताव
केदकसम्बन्धेन बोध्यं तेन गुण-कर्मान्यत्वविशिष्टसत्तावान् सत्त्वादित्यादौ हेवधिकरणस्य गुण-कर्मादेः स्वरूपसम्बन्धेन गुण-कर्मान्यत्ववतः सत्त्वादेः समवायसम्बन्धेनाधिकरणत्वेऽपि(१) नातिव्याप्तिः। मनु तथापि प्रतियोगितावच्छेदकावच्छिनासम्बन्धित्वं किं प्रतियोगितावच्छेदकावच्छिन्नस्य यस्य कस्यचिदसम्बन्धित्वं, प्रतियोगितावच्छेदकावच्छिन्नसामान्यासम्बन्धित्वं वा, प्रतियोगितावच्छेकयत्किञ्चिदवच्छिन्नसामान्यासम्बन्धित्वं वा, श्राद्ये कपिसंयोगौ एतद्वृक्षत्वादित्यादावव्याप्तिः कपिसंयोगत्वावछिन्नयत्किञ्चित्कपिसंयोगासम्बन्धित्वादेतदृक्षस्य, द्वितीये वहिमान् धूमादित्यादावसम्भवः यतः एवमभावो नास्ति यस्य प्रतियोगितावच्छेदकावच्छिन्नसामान्यासम्बन्धी हेतुसम्बन्धी पर्वतादिः, जलवाद्यभावनिष्ठस्याकाशाभावादिभेदस्याभावाधिकरणकाभावत्वेनाधिकरणखरूपतया श्राकामाभावादिरपि जलवाद्यभावप्रतियोगी तत्सम्बन्धित्वात् पर्वतादेः। न च द्र्व्यवाचात्मकभावरूपाभाव एव तादृशः प्रसिद्ध इति वाच्यं । भावस्थापि स्वसमानाधिकरणन्योन्याभावभिन्नत्वात्त दस्थ साधिकरणवरूपानतिरेकितया अन्योन्याभावरूपप्रतियोगिसम्बन्धिहेत(९) सामाणाधिकरण्यसम्बन्धेन गुण-कम्मान्यत्वविशिवसत्ताधिकरणत्वस्यैव
विशिडाधिकरणतात्वमिति भावः ।
Page #121
--------------------------------------------------------------------------
________________
थामिवादः।
२०६
सम्बन्धिकत्वात्, अन्योन्याभावान्तरस्थाधिकरणतिरिकत्येऽपि अन्योन्याभावान्योन्याभावस्थाधिकरणखरूपानतिरिकत्वात् । न च नव्यनये अभावाधिकरणकामावस्यान्योन्याभावान्योन्याभावस्य चाधिकरणखकपत्वाभावादत्यन्ताभावत्वनिरूपितप्रतियोगितावच्छेदकावच्छिन्नमामान्यासम्बन्धित्वस्य विवक्षितत्वादा(१) भाप्रसिद्धिरिति वाच्यं । तथापि सर्वेषामेवभावरूपाणामभावरूपाणं वा प्रभावानां पूर्वक्षणदियत्किश्चिक्तित्वविशिष्टस्खाभावात्यन्ताभावात्मकत्वस्य सर्वसिद्धृतथा तादृशखाभावरूपप्रतियोग्यधिकरणमेव हेत्वधिकरणमित्यप्रसिद्धेदुखारत्वात् पूर्वक्षणादिवृत्तित्वविभिष्टानां घटादिवृतित्वविशिष्टानां वा अलत्वाभावादौनामभावाभावस्य विशिष्टजसत्वाभावादेः केवलजलवाभावाद्यनतिरिकत्वात्। हतीये घटत्वाभावो घटत्वाभाववादित्यादौ तादात्म्यसम्बन्धेन प्रभावमाधकेऽव्याप्तिः गोवादिरूपयत्किञ्चित्प्रतियोगितावच्छेदकावछिन्नासम्बन्धितमम्बन्धिनिष्ठस्य गवादिभेदस्य प्रतियोगितावच्छेदकत्वाइटत्वाभावत्वादेः, प्राचां मतेऽभावाधिकरणकाभावप्रतियोगिकाभावस्थाधिकरणस्वरूपानतिरेकितया गवादिभेदे वर्तमानस्य घटत्वाभावादिभेदस्य गवादिभेदस्वरूपत्वात् ।
(१) बन्योन्याभावान्योन्याभावस्थातिरिक्तत्वे तदन्योन्याभावस्याप्यतिरिक्त
সমিনুলৰা য়াইনঃ অন্যান্যীন্যামাঙ্গিযत्वमिति तात्पर्य्यम्। चाकाशाभावादिनिजलवाभावीयप्रतियोगित्वं अन्योन्याभावत्वनिरूपितं न त्ववाभावलनिकपिवमिति न दोषः ।
Page #122
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्वचिकामगै
कपिसंयोगाभावे(१) माध्ये प्रात्मत्व-द्रव्यत्वादिहेतावव्याप्तिस श्रात्मत्वादिसमानाधिकरणकपिसंयोगाभावाभावस्य कपिसंयोगस्य गएसामान्याभावत्व-समवेतसामान्याभावत्वरूपयत्किञ्चित्प्रतियोगितावछेदकावच्छिन्नसामान्यासम्बन्धित्वादात्मादेरिति। मैवं, खावच्छेदकसम्बन्धेन खावच्छेदकावच्छिन्नमामान्यासम्बन्धिनिरुक हेतुसम्बन्धिनिछाभावनिरूपिता या या प्रतियोगिता तदनवच्छेदकत्वस्य विवक्षितत्वात्, स्वपदं प्रतियोगितापरं । इत्थञ्च वहिमान् धूमादित्यादौ जलवाद्यभावस्य जलवादिनिष्ठजलत्वत्वाद्यवच्छिन्नप्रतियोगिताब्यायएव तादृश्यः प्रसिद्धाः, प्रतियोगितावच्छेदकभेदेन प्रतियोगिताभदात्, तदवच्छेदकञ्च न वशित्वादिकमिति नासम्भवः । घटत्वाभावो घटत्वाभावत्वादित्यादौ च घटत्वाभावत्वावच्छिना घटत्वाभावनिष्ठा गवादिभेदनिरूपिता प्रतियोगिताव्यतिर्न तादृशो, किन्तु गवादिनिष्ठगोत्वावच्छिन्नतदीयप्रतियोगिताव्यक्तिरेव तादृशौ नदभवच्छेदकमेव घटाभावत्वमिति नाव्याप्तिः। एवं कपिसंयोगाभाववान् श्रात्मत्वादित्यादावपि कपिसंयोगाभावत्वावशिवा कपिसंयोगाभावनिष्ठा कपिसंयोगनिरूपिता प्रतियोगितात्यक्रिन तादृशौ, किन्तु गुणादिसामान्याभावनिष्ठगुणसामान्याभावत्वाद्यवछिन्नतदौयप्रतियोगिताव्यक्तिरेव तादृशौ तदनवच्छेदकमेव कैपिसंयोगाभावत्वमिति नाव्याप्तिः।
(१) बम्पवाधिकरणकाभावप्रतियोगिकामावस्य अधिकरणखत्मत्वाम
भ्युपगमे पञ्चातिमाह वापिसंयोगामाव इति ।
Page #123
--------------------------------------------------------------------------
________________
खातिवादः।
वस्तुतस्तु स्वावच्छेदकसम्बन्धेन खावच्छेदकावच्छिनसामान्यासम्बन्धिनिरुक हेतुसम्बन्धिका या या प्रतियोगिता तदनवच्छेदक यदित्येव विवक्षणीयं, अभावनिवेशे प्रयोजनविरहादिति तत्त्वम् (१) ।
तादृशौ या या प्रतियोगिता तदनाश्रयो यत्तेन समं मामानाधिकरण्यमित्युक्तावसम्भवः वह्निमान् धूमादित्यादौ सर्वेषामेव वहौनां तत्तदहित्वोभयत्वाद्यवच्छिन्नप्रतियोगितायास्तादृश्या त्राश्रयत्वादतोऽवच्छेदकानुधावनं। नन्वेवमपि वहिमान् धूमादित्यादावसम्भवः वहिवादेर्महानमौयत्वविशिष्टवम्हित्वाद्यवच्छिन्नप्रतियोगितायास्तादृश्या अवच्छेदकत्वात् विशिष्टस्यावच्छेदकत्वे तहटकतया विशेष्यस्याप्यवच्छेदकत्वात् । अथानवच्छेदकत्वं पर्यायाख्यसम्बन्धेनावच्छेदकताशून्यत्वं तथाच वहिवादिकं केवलं न महानसौयत्वविशिष्टवहिवाद्यवच्छिन्नप्रतियोगिताया अवच्छेदकतापर्याप्यधिकरणमतो नासम्भवः । न च तथापि दण्डिमान् दण्डि
------
---
(१) अनुगमप्रणालो च हेत्वधिकरणत्तिप्रतियोगितानवच्छेदकसाध्यता
वच्छेदकावच्छिन्नसामानाधिकरण्यमित्यादिरूपा, प्रतियोगितायां हे. -वधिकरणत्तित्वं खविशिष्माधिकरणत्वसम्बन्धावच्छिन्नखनिष्ठावच्छेदकताकमेदवत्त्वसम्बन्धेन अधिकरणत्वे खवैशियं खावच्छेदकसम्बधावच्छिन्नत्य-खावच्छेदकधमावच्छिन्नत्वोभयसम्बन्धेन इति, वधिজাদিমনিমীযিনালন্দ্রনল নায়মনিষীনিবন্ধ त्वसामान्याभावस्य विवक्षणात् धूमवान् बड़ेरित्यादौ धूमत्वस्य यत्किञ्चित्पतियोगितानवच्छेदकत्वेऽपि नातिव्यातिरिति ।
Page #124
--------------------------------------------------------------------------
________________
तापितामही
संयोगादित्यादिनानाव्यक्रिमाध्यतावच्छेदकस्खलेऽव्याप्तिः() माध्यताबच्छेदकोभूतानां सर्वासामेव दण्डव्यकौना चालनोन्यायेन दण्डिसंयोगवनिष्ठ-तत्तद्दण्डावछिन्न-प्रतियोगिताक-तत्तहण्ड्यभावप्रतियोगितायास्तादृश्या अवच्छेदकतापर्याप्यधिकरणत्वादिति वाच्यं । जात्यखण्डोपाध्यतिरिकपदार्थस्य खरूपतोऽभावप्रतियोगितानवकेदकतया दण्डव्यकौना पाण्याख्यसम्बन्धेनावच्छेदकतावत्त्वविरहात् तत्त्व-दण्डत्वयोरयवश्यमवच्छेदककोटिप्रविष्टवादिति(२) चेत्। न। तथा मति महानमौयत्वविशिष्टवकिमान् धूमादित्यादावतिव्याप्तिः वहित्वस्य पर्याप्याख्यसम्बन्धेनावच्छेदकताशून्यतया महाममीयत्वविशिष्टवम्हित्वस्यापि तथात्वात् महानमीयत्वविशिष्टवहित्वस्य वकित्वानतिरिकत्वात्, तहण्डिमान् दण्डिमंयोगादित्यादावतिव्याप्तिच जात्यखण्डोपाध्यतिरिक्तपदार्थस्य स्वरूपतोऽभावप्रतियोगितानवच्छेदकतया माध्यतावच्छेदकीभूत-तत्तद्दण्डव्योरपि पर्याप्याख्यतादृशप्रतियोगितावच्छेदकताशून्यत्वादिति । मैवं, स्वावच्छेदकसम्बन्धेन खावच्छेदकावच्छिन्नसामान्यासम्बन्धिनिरुका हेतुसम्बन्धिका या या
(१) दण्डिसंयोगादित्यत्र दण्डिसंयोगपदेन दण्डिप्रतियोगिकत्वविशिछ
संयोगस्य विवक्षितत्वं तेन संयोगस्य निष्ठतया दहिसयोगस्य दण्डिनि सत्त्वेऽपि न सहेतुत्वयाघातः, तत्प्रतियोगितात्वविशिवस्य
संयोगस्य तस्मिन्ननभ्युपगमादिति । (२) अवच्छेदकतावच्छेदकसाधारणवच्छेदकात्वमतेनेदं, तथाच सहसा
भावप्रतियोगितावच्छेदकात्वं वाण्ड इव तत्व-दखत्योरपि पान तु सदयक्तिमाचे इति म इति भावः ।
Page #125
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्याप्तिकादः।
प्रतियोगिता तत्तत्प्रतियोगितामामान्ये यद्धर्थपर्याप्तावच्छेदकताकलाभावस्तर्यावच्छिन्नमामानाधिकरण्यस्य विवक्षितलात् । वत्र येन रूपेण साध्यतावच्छेदकत्वं तत्र तेन रूपेण तदेव यद्धर्मापदेन पाध, इत्यच वक्रिमान् धूमादित्यादौ धूमवषिष्ठमहामनीयवशिलावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावप्रतियोगितायाः महानसीयत्वविभिष्टवहित्वपर्याप्तावच्छेदकताकत्वेऽपि एवशित्वस्यैव माध्यतावछेदकतया पद्धवहित्वपर्याप्तावच्छेदकताकत्वविरहानासम्भवः । महानसीयत्वविशिष्टवकिमान् धूमादित्यादौ च धूमवशिष्ठमहानमौयवहिलावच्छित्रप्रतियोगिताकाभावप्रतियोगितावास्तादृशप्रतियोगितान्तर्गतायाः माध्यतावच्छेदकीभूतमहानमोयत्वविभिष्टवहिस्कपर्याप्तावच्छेदकताकत्वानातिव्याप्तिः । एवं तद्दण्डिमान् दण्डिसंयोगादित्यादौ दण्डिसंयोगवनिष्ठतहण्डाभावप्रतियोगितायास्तादृाप्रतियोगितान्तर्गतायाः सतहण्डत्यक्रिपर्याप्तावच्छेदकताकवाभाववोऽपि तहण्डलविभिष्टव्यक्तरेव माध्यतावच्छेदकतया तादृशतहण्डव्यक्तिपर्याप्तावच्छेदकताकत्वाबातिव्याप्तिः। एतेन द्रव्यत्वव्यापजातिमवान् द्रव्यममवायित्वादित्यादिनानाजातिमाध्यतावच्छेदकस्थलेऽष्याप्तिः माश्यतावच्छेदकोभूतानां सामां द्रव्यत्वव्याप्यजातीनां चाखनीन्यायेन व्यममवायिनि वर्तमानस्य स्वरूपतः पृथिवौत्व-जलवादिरूपद्रव्यवव्याप्यतसव्वात्यवछिनप्रतियोगिताकाभावस्य प्रतियोगितावच्छेदकतापर्यायधिकरणत्वात् जात्यखण्डोपाध्यतिरिकपदार्थस्यैव खकपतोऽवच्छेदकनानन्धुपगमादित्यपि परास्तं । महानसौयत्वविशिष्टपहिमान् धूमात् तहडिमान् दण्डिसंयोगादित्यादावतियाप्तिवार
15
Page #126
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्वचिन्तामणौ
णाय यथोक्तविवक्षाया . आवश्यकत्वे तत एवात्रायव्याप्तेनिरामात, खरूपतः पृथिवीत्व-जस्लवाद्यवच्छित्रप्रतियोगिताया द्रव्यत्वव्याप्यजातित्वविशिष्टपर्याप्तावच्छेदकताकत्वाभावात्। न चैवं विवक्षणे घ्राणग्राह्यगुणवान् पृथिवौत्वादित्यादौ लघुसमनियतगुरुरूपेण साध्यतायामव्याप्तिः स्वरूपसम्बन्धरूपावच्छेदकत्वस्य सम्भवति लघुधर्म गुरावभावेन प्राणग्राह्यगुणत्वनिष्ठावच्छेदकत्वाप्रसिद्धेः लाघवागन्धवस्यैव प्रतियोगितावच्छेदकत्वात्। अननिरिक्रवृत्तित्वरूपावच्छेदकत्वप्रवेशे सत्तावान् नाते रित्यादावव्याप्तिः विशिष्टमत्तात्वाद्यवच्छित्रप्रतियोगिताया अनतिरिक्रवृत्तित्वात् सत्तावादेरिति वाच्यं । लघुसमनियतगुरुधर्मेण साध्यतायामलक्ष्यत्वात्(१)। अतएव गुरुधर्मो न कारणतावच्छेदकः तन्निष्ठपर्याप्तावच्छेदकत्वाप्रमिड्या तेन रूपेण व्यापकत्वविरहात् यथोक्रव्यापकतायश्च कारणताघटकत्वात् । अन्यथा गुरुधर्मणपि - व्यापकत्वे कार्याव्यवहितपूर्वत्वव्यापकतावच्छेदकान्यथासियनिरूपकधर्मस्यैव कारणतावच्छेदकतया गुरुधर्मस्यापि कारणतावच्छेदकत्वापत्तेः। गुरुधर्मस्य कारणतानवच्छेदकत्वन्तु तहटितव्यापकत्वस्य गौरवेण कारणतापदार्थत्वविरहात् ।।
वस्तुतस्तु लघुसमनियतगुरुधर्मस्य शक्यताद्यनवच्छेदकत्वेऽपि कम्युपौवादिमात्रास्तोत्याद्यबाधितप्रतोतेः प्रतियोगिताया अवरकत्वमस्येव, न हि तत्प्रतौतेस्तत्प्रतियोगिकाभावमात्र विषयः, तथाविध
(५) मधुसमनियतगुरुधावच्छिन्न विधेयकानुमितित गधुधावच्छिने
व्यापकत्वज्ञानादेव भवतीत्यभिप्रायेणैतदुक्तमिति ।
Page #127
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्याप्तिवादः।
यत्किचियक्रिसत्त्वेऽपि तादृशप्रतीत्यापत्तेः । गुरुधर्मस्य कारणतानवच्छेदकत्वश्वावश्यक्तृप्तनियतपूर्ववर्त्तिसहभावादिवगौरवस्थापि स्वातन्त्र्येणान्यथासिद्धिसम्पादकत्वात्(१) ।
यद्दा कार्याव्यवहितपूर्वत्वरूपव्यापकतावच्छेदकान्यथासियनिरूपकधर्मस्यैव न कारणतावच्छेदकत्वमपि तु तादृशधर्मत्वरूपस्थातिरिकाखण्डपदार्थरूपस्य वा कारणत्वस्य स्वरूपमम्बन्धविशेषरूपाव
छेदकत्ववत एव कारणतावच्छेदकत्वं तथाच लघुसमनियतगुरुधर्मस्य प्रतीतिबलादभावप्रतियोगिताया: स्वरूपसम्बन्धरूपावच्छेदकत्वेऽपि यथोकरूपायाः कारणतायाः स्वरूपसम्बन्धरूपावच्छेदकत्वविरहादेव न कारणतावच्छेदकत्वं । न चैवं दण्डत्वादेलघुधर्मस्यापि कारणतायास्तादृशावच्छेदकत्वे मानाभावः कारणतावच्छेदकधर्मवत्त्वस्यैव कारणतारूपत्वेन दण्डनस्यैव कारणतारूपतया खस्यैव स्वावच्छेदकत्वासम्भवश्चेति वाच्यं । दण्डत्वेन घटकारपात्वमित्यादिप्रतीतेरेव मानत्वात् प्रतौतिबलात् स्वस्थापि धर्मासरविशिष्टस्तावच्छेदकत्वाच्चेत्येव तत्त्वं ।
ननु तथाप्यसम्भवः वहिमान् धूमादित्यादौ धूमादिममानाधिकरणवद्याद्यन्योन्याभावप्रतियोगितायाः तादृशसमवायादिथक्रिश्चित्सम्बन्धावच्छिन्नवयादिसामान्यात्यन्ताभावप्रतियोगितायाय तादृशप्रतियोगितान्तर्गताया वहिवाद्यवच्छेद्यत्वात् । न च माध्यता
(१) यथावश्यकृतनियतपूर्ववर्तिसहभावादेः अन्यथासिद्धिसम्पादकत्वं
तथा गौरवस्थापि खातन्लेग्णान्यथासिडिसम्पादकत्वं चतो गुगधमावचिनस्यान्यथासिद्धत्वं न तु कारणवमिति समुदिततात्पर्यम् ।
Page #128
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामगो
पछेदकसम्बन्धावचित्रमेन प्रतियोगितात्यायोविशेषीयाः खाव
छेदकसम्बन्धेनेतिस्थाने माध्यतावच्छेदकसम्बन्धेनेति वा वक्तव्यमिति वाच्य। तथा मति काखिकसम्बन्धेन घटादेः माध्यत्वे कालपरिमाणादिहेतावव्याप्यापत्तेः तच खावच्छेदकसम्बन्धेन स्वावच्छेदकावच्छिनासम्बन्धिनिरुक्र हेतुसम्बन्धिकायाः माध्यतावच्छेदककालि कसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगितायाः माध्यतावच्छेदककालिकसम्बधेन खावच्छेदकावच्छिनासम्बन्धिमिराहतसम्बन्धिकायाः प्रतियोगितायाचापमिद्धत्वात् निरुतहेतुसम्बन्धिनो महाकालस्य कालिकसम्बन्धेन वृत्तिवमानस्यैवाधारत्वात् । न च कासिकसम्बन्धावछिबगगणाद्यभावप्रतियोगितैव तादृशौ प्रसिद्धा तस्याश्च खावच्छेदककालिकसम्बन्धन खावच्छेदकगगणवाद्यवच्छिन्नासम्बन्धित्वस्य हेतुसम्बन्धिनि महाकाले मत्त्वात्। महाकालस्य गगणाद्यसम्बन्धित्वादिति वाच्यं । कालिकसम्बन्धेन मगणदेत्तिमत्त्वे महाकाले काणिकसम्बन्धेन गगणदेरपि सम्बन्धित्वात् तेन सम्बन्धेन गगणादेरवृत्तिवे तु तेन सम्बन्धेन गगणवाद्यवच्छिवसम्बन्धिन एवामित्वमित्युभयथापि कालिकसम्बन्धावच्छिन्नगगणाधभावप्रतियोगितामादाय प्रमिासम्भवात् । किञ्च घटवान् नित्यज्ञानत्वादित्यादौ विषधितासम्बन्धेन घटादिमायके विषयितासम्बन्धावछिन्गपावभावप्रतियोगितामादायापि न प्रसिद्धिसम्भवः विषयितवा गगणदेरपि नित्यशाने सत्वादिति । मैवं। खावच्छेदकसम्बन्धेन खागच्छेदकावचिवसामान्यासम्बन्धिनिराहतसम्बन्धिकप्रतियोगितासामान्ये माध्यतावच्छेदकसम्बन्धावच्छिन्नव-
यनिहपर्खातावच्छेद
Page #129
--------------------------------------------------------------------------
________________
याप्तिवादः।
জনালীসমাজুৰিস্থিলাগিয়ে বিনিলা। इत्वञ्च घटवान् कालपरिमाणदित्यादौ समवायादिसम्बन्धार छिमघटाद्यभावप्रतियोगितामादायैव प्रसिद्धिः। एतेन घटत्वाभाववान् पटवादित्यादावव्याप्तिः पंटत्व समानाधिकरणस्य गोत्वाभावादेर्घटवाभावनिष्ठप्रतियोगिताया घटत्वाभावत्वावच्छेद्यत्वात् अभावाधिकरणकाभावप्रतियोगिकाभावस्थाधिकरणस्वरूपानतिरेकितया गोवाभावादिनिष्टघटत्वाभावभेदस्य गोलाभावादिरूपत्वेन घटत्वाभावस्थापि गोवाभावादिप्रतियोगित्वात् तत्प्रतियोगिताव्यक्तः स्वावछेदकतादात्म्यसम्बन्धेन स्वावच्छेदकावच्छिनासम्बन्धित्वस्थापि हेतुसम्बन्धिनि सत्त्वाचेति प्राचां दूषणमप्यपास्तं। तत्प्रतियोगिताव्यत घटवाभावत्वाद्यवच्छेद्यत्वेऽपि माध्यतावच्छेदकसम्बन्धावच्छिन्नलाभावेनोभयाभाववत्त्वात् । अथैवमपि घटवान् नित्यज्ञानलात् इत्यादौ वृत्त्यनियामकविषयितादिसम्बन्धेन माध्यतायामव्याप्तिस्तादाम्यातिरिकत्यनियामकसम्बन्धमात्रस्वाभावप्रतियोगितानवच्छेदकान्वेनर) तत्र माध्यतावच्छेदकसम्बन्धावच्छिनत्वस्थाप्रसिद्धत्वात्। यदि च वृत्त्यनियामकविषयिदादिसम्बन्धस्थाभावप्रतियोगितानवच्छेदकत्वेऽपि घटत्वज्ञानाचित्यन्ताभावादेः प्रतियोगितावच्छेदकतावच्छेदकमस्येवेत्यभावप्रतियोगितावच्छेदकतायामेव तदवच्छिनत्वं प्रसिद्धमित्युचते, तदापि
१) तादात्म्यस्य कृत्यनियामकत्येऽपि.तत्मम्बन्धावच्छिमप्रतियोगित्वमवश्य
मभ्युपेयमन्यथा तादाम्यसम्बन्धावच्छिन्न प्रतियोगिताकाभाववनक्षमान्योन्याभावत्वस्थ दुर्वचत्वापत्तिरिति तात्पर्य्यम् ।
Page #130
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्वचिन्तामणौ
वृत्यनियामकविषयतादिसम्बन्धेन माध्यतायां घटवज्ञानवादित्यादावतिव्याप्तिः मृत्यनियामकसम्बन्धस्य प्रभावप्रतियोगितानवच्छेदकत्वेन ज्ञानत्वसमानाधिकरणभावप्रतियोगितायां विषयितादिमम्बन्धावच्छिन्नव-घटत्वाद्यवच्छिन्नत्वोभयाभावसत्त्वादिति चेत् । न । वृत्तिनियामकसम्बन्धवत् वृत्त्यनियानकसम्बन्धस्याप्यभावप्रतियोगितावच्छेदकत्वात्। न चैवमपि तादात्म्यसम्बन्धेन माध्यतायां घटो द्रव्यत्वादित्यादावतिव्याप्तिः मूलोकलक्षणवाक्येऽत्यन्ताभावपदसत्त्वेन अत्यन्ताभावनिरूपितप्रतियोगिताया एव लक्षणघटकतया तादृशप्रतियोगितामामान्ये तादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्नत्व-घटत्वाद्यवच्छेद्यत्वोभयाभावसत्त्वादिति वाच्यम् । अत्यन्ताभावस्थात्र प्रयोजनविरहेणानुपादेयत्वात् । न च तथापि संयोगादिसम्बन्धेन द्रव्यत्वादिमायके द्रव्यं पृथिवौत्वादित्यादावतियाप्तिः संयोगसम्बन्धावच्छिन्नद्रव्यत्वाभावनिरूपितप्रतियोगिताव्यतः स्वावच्छेदकसम्बन्धेन स्वावच्छेदकावच्छिनसम्बन्धिन एवाप्रसिद्भुत्वं किश्वभावान्नरौयप्रतियोगिताव्याय एव तथा तत्र संयोगसम्बन्धावच्छिन्नत्व-द्रव्यत्वावच्छिनत्वोभयाभावसत्त्वादिति वाच्यम्। तदवच्छित्रसामानाधिकरण्यदलेनेव नविरामात् माध्यतावच्छेदकसम्बन्धेन तदवच्छिन्नसम्बन्धिनि हेतुतावच्छेदकसम्बन्धेन सम्बन्धित्वस्य तदर्थत्वान्) माध्यतावच्छेदकहेततावच्छेदकसम्बन्धघटितमाध्यमामानाधिकरण्याजाने सम्बन्धागरेण माध्यमामानाधिकरण्य ज्ञाने वानुमित्यमुदयात् । तादा
(१) तदचिनसामानाधिकरण्यदलार्थवादित्यर्थः ।
Page #131
--------------------------------------------------------------------------
________________
याप्तिवादः।
१६६
म्यादिवृत्त्यनियामकसम्बन्धेन साध्यत्वे हेतुत्वे चाव्याप्तिवारणाय अधिकरणत्वं वृत्तित्व मपहाय सम्बन्धित्वप्रवेशः । न च तथापि व्यापकतालक्षणमतिव्याप्तमेव स्वावच्छेदकसम्बन्धेन खावच्छेदकावच्छिनमामान्यासम्बन्धिनिरुकहेतुसम्वन्धिकप्रतियोगितामामान्ये माध्यतावच्छेदकसम्बन्धावच्छिन्नव-यद्धर्मपर्याप्तावच्छेदकताकन्वोभयाभावः त(विच्छिवत्वं व्यापकत्वमित्यस्यैव व्यापकतालक्षणत्वात् स्वपदं प्रतियोगितापरमिति वाच्यं । माध्यतावच्छेदकसम्बन्धेन सम्बन्धित्वे मतोत्यनेनापि व्यापकतालक्षणे विशेषणीयत्वात्, माध्यतावच्छेदकसम्बन्धाअयवृत्तित्वेन व्यापकतावच्छेदकधी वा विशेषणीयः तेन द्रव्यत्वादे: भयोगसम्बन्धेन प्रमेयत्वादिरूपेण पृथिवीत्लादिव्यापकताभ्युपगमेऽपि न पतिः। न च प्रतियोग्यसामानाधिकरण्य-हेतुमामानाधिकरण्य-साध्यसामानाधिकरण्यदलेषु सर्वत्रैव सम्बचित्वप्रवेशेऽधिकरणव-वृत्तित्वयोः कायप्रवेशात् संयोगेन गगणादेव्यखादिव्याप्यत्वं, पृथिवीत्वादेः संयोगेन गगणदिव्याप्यत्वञ्च स्थात् पृथिवौत्वाधिकरणे संयोगेन गगणाभावसत्वेऽपि तस्य संयोगेन तदीयप्रतियोगितावच्छेदकावच्छिन्नअम्बन्धित्वादिति वाच्या दृष्टत्वात्। नन्वेतावता धूमादिव्यापकतावच्छेकवशित्वाद्यवच्छिन्नमयोगियोगिलादेरेव व्याप्तित्वे पर्यावमिते
संयोगित्वस्य समवायसम्बन्धेन रामभादौ व्यभिचारिण्यपि बादामभादौ समवायसम्बन्धेन तद्वत्तापरामर्याद्धमव्यापकवकिसानाधिकरणरामभवान् पर्वत इत्याकारकादपि वढ्यनुमित्यापत्तिः यिनये धूमत्वधर्मितानवच्छेदककव्याप्यत्वपरामर्शस्थापि अनुमितत्वात्। न चेष्टापत्तिः, रामभलिङ्गकवयनुमितेः व्याप्यं
N
MALA
Page #132
--------------------------------------------------------------------------
________________
1.
सावचितामो
धमपरामर्शजन्यबनियमादिति(१) चेत् । न । तालमयोगिखादिरूपण्याप्नेः संघटकौभतधूमत्वादिसम्बन्धेनैव ज्ञानममितिहेतुः न तु समवायादिमाक्षात्सम्बन्धेनेत्यभ्युपगमात्, धूमत्वादेस्तमम्बन्धता च तदाश्रयवृत्तित्वसम्बन्धेन, रामभन्वावच्छिन्ने धूमत्वसम्बन्धेन तदताभ्रमादनुमितिरिष्यत एव ।
केचित्तु(९) तादृशमयोगिवृत्तिधूमत्वादिकमेव व्याप्तिः न तु तादृशमयोगित्वादिमा, तादृशम्योगिकृत्तिधूमत्ववद्रासभवान् पर्वतइतिधमपरामर्शदनुमितिरिष्यत एवेत्याजः। तदमत् । साघवाङ्मवादिसम्बन्धेन तादृशसंयोगित्वादेरेव व्याप्तित्वस्योचितत्वात्(९) ।
मनु तथापि कपिसंयोगि एतत्त्वादित्याचव्याप्यत्तिमायकेऽव्याप्तिस्तदवस्था समवायसम्बन्धावच्छिनकपिसंयोगत्वावछिनपतियोगिताथा अपि. तादृशप्रतिबोगितासामान्यान्तर्गतत्वेन तच माशतावच्छेदकसम्बन्धावच्छिन्नव-कपिसंयोगवाद्यवच्छेद्यत्वोभयाभाववि(१) धूमव्यापकवङ्गिसमानाधिकरणरासमवान् पर्वत इति ज्ञानस्य व्या
व्यंशे प्रमात्वेन एतादृश ज्ञानात् वहानुमितिखीकारे रासमलिङ्गक
वामितास्यशे ममजन्यावनियमो न स्यादिति भावः । (२) केचित्त्वित्यादिना दीधिति वन्मतमुत्यापितं तेग रंगहोमवारणाय
सामानाधिकरण्यविशिधूमत्वस्य व्याप्तित्वमङ्गीकृतं सन्मते तादृशधूमत्वस्य प्रकारविधया भाग, रहस्यचन्मते तु संसर्गविधया इत्येता
वान् विशेषः । (३) धुमत्वस्य प्रकारविधया भाने तस्य संसर्गमानमवश्यमभ्युपेयं संसर्ग
विधया भाने तु संसर्गस्य संसर्मभानावभ्युपगमा न तदीयसंसर्गभानमिति नाघवमनुसन्धेयम् ।
Page #133
--------------------------------------------------------------------------
________________
चातिवादः।
रसात् । न च समवायावच्छिन-कपिमंयोगत्वावच्छिनप्रतियोगितामाः खावच्छेदकसमवायसम्बन्धेन खावच्छेदककपिसंयोगत्वावच्छिनसम्यविभित्रमेव न हेलधिकरणमतवृक्ष इति कुतस्तस्याः तादृभप्रतियोगिताम्तर्गतत्वमिति वाच्य। कपिसंयोगस्याव्याप्यवृत्तितया तदत्यन्ताभावस्येव तदभिन्नत्वस्थापि मूलावच्छेदेन वृचे सत्वात् अव्याप्यवृन्तिमतोऽन्योन्याभावस्थाव्याप्यत्तित्वादिति चेत्। न । कपिसंयोगादेरण्याप्यवृत्तित्वेऽपि तत्सम्बन्धिता नाव्याप्यत्तिरतः कपिसंयोगवावच्छिन्नसम्बन्धिभिन्नत्वं नेतदृक्ष इति ग्रन्थकतोऽभिप्रायात्, अव्यायवृत्तरत्याभावस्थाव्याप्यत्तित्वेऽपि तददन्योन्याभावो नाव्यायप्तिरित्यभिप्रायादा । “न चान्योन्यामावस्याव्याप्यत्तित्व" इत्यग्रे वक्ष्यमाणत्वात् इति मुलं चतुरखें। ___ स्वतन्त्रास्तु खावच्छेदकसम्बन्धन खावच्छेदकावच्छिनसम्बन्धिभिन्नत्वेन हेतुसम्बन्धिनो न विशेषणीयाः, किन्तु निरुताहेतसम्बन्धिनि निरवच्छिन्नवृत्तिमान् योऽभावः तत्प्रतियोगितामामान्ये माध्यतावच्छेदकसम्बन्धावच्छिन्नव-य( पर्याप्तावच्छेदकताकबोभयाभावस्तविच्छिन्नसामानाधिकरण्यमेव व्याप्ति नव्या, इत्थचाव्याप्यवृत्तिसम्बन्धित्वाव्याप्यवृत्तिमदन्योन्याभावयोरव्याप्यवृत्तित्वेऽपि न पतिः। वृत्तिश्चाभावीयविशेषणताविशेषसम्बन्धेन वनव्या, तेन सत्तावान् जातेरित्यादौ समवायसम्बन्धावच्छिन्नसत्तासामान्याभावादेविषयित्वाप्याप्यत्वादिसम्बन्धेन हेलधिकरणे ज्ञानादौ वर्तमानलेऽपि न पतिः। अत्यनाभावान्योन्याभावयोरभावस्तु न. प्रतियोगि-तत्वावच्छेदकखरूपः, किश्वतिरिफास्तेन घटत्वात्यन्ताभाववान्
16
Page #134
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामो
घटान्योन्याभाववान् वा व्यत्वादित्यादौ नातिव्याप्तिः। साधप्रतियोगिकाभावपत्तिमाध्यौयप्रतियोगित्व-तदवच्छेदकालान्यतरावच्छेदकाम्बन्धेन वा वृत्तिर्वक्रव्या, वृत्त्यन्तमन्यतरविशेषणं । न चैवं समवावसम्बन्धावच्छिवसत्ताभावादौ माथे जातिवादिहेतावव्याप्तिः पा समवायसम्बन्धस्यैव तादृशान्यतरावच्छेदकसम्बन्धतया तेन सम्बन्धन हेवधिकरणपत्तित्वाप्रसिद्धेरिति वाचं । तत्र विशेषणताविशेषसम्बन्धखापि काखिकसम्बन्धावच्छिन्नतादृशमनाभाव-जातियोभयाभावादिरूपमाश्यप्रतियोगिकाभाववृत्तिमाध्यौयप्रतियोगितावच्छेदकसम्बन्ध लात्। एतेन केवलान्वयिसाध्याभावस्थाप्रमिद्या तबिहमाथीयप्रतियोगिवस्थाप्यप्रसिद्धौ अव्याप्तिरित्यपि निरस्तं । तत्रापि कालिकादियत्किञ्चित्सम्बन्धावच्छिन्नमाध्याभावस्थ वैशिष्ध-व्यासव्यत्तिधावचित्रप्रतियोगिताकसाध्याभावस्य च प्रसिद्धत्वात् । यदा निरकहेतुसम्बन्धिनि स्वावच्छेदकसम्बन्धेन स्वावच्छेदकावचित्रसम्बन्ध्यनिरूपितवृत्तिमविरूपितप्रतियोगितासामान्ये(१) माध्यतावछेदकसम्बन्धावच्छिनत्य-पद्धविरेचनोभयाभावस्तङ्कवचिवणामानाधिकरणं व्याप्तिः स्वपदं प्रतियोमितापरं, प्रथमसप्तम्यन्त
(१) खावच्छेदकसम्बन्धेन खावच्छेदकावचिनासम्बन्धिनिरूपितं सत् रेतु
सम्बन्धिनिरूपितं यत्तित्वं तबदभावप्रतियोगितासामान्ये इति पलितार्थः, सत्तावान् जातेरित्यादौ समवायावशिवसत्ताभावस्य विषयितासम्बन्धेन हेत्वधिकरण ज्ञानादौ वृत्तित्वेऽपि तादृशरत्तित्वं न सत्ताभावप्रतियोगिवावश्यकावशिक्षासम्बन्धिनिरूपितमतो न दोषः।
Page #135
--------------------------------------------------------------------------
________________
चातिवाद
वृत्तिविशेषणं, इत्यञ्च सम्बन्धविशेषेण वृत्त्यविवक्षणेऽपि न चतिरिति प्राडरिति कृतं पल्लवितेन ।
रति श्रीमथुरानाथ-तर्कवागौणविरचिते तत्त्वचिन्तामणिरहस्य अनुमानाख्यदितीयखण्डरहस्ये सिद्धान्तलक्षणरहस्यम् !
Page #136
--------------------------------------------------------------------------
________________
अथ सामान्याभावः।
अन्यनिष्ठवहेधूमवत्पर्वतवृत्त्यत्यन्ताभावप्रतियोगित्वेऽपि तत्प्रतियोगिता न वहिवेनावच्छिद्यते, धूमवति वहिर्नास्तीत्यप्रतीतेः सामान्यावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावः पृथगेव, अन्यथा सकलप्रसिद्धरूपाभावे प्रसिबरूपवदन्यत्वे चावगते वाया रूपं न वा वायूरूपवान वेति संशयो न स्यात् विशेषाभावकूटस्य निश्चितत्वात् .
इति श्रीमहङ्गेशपाध्यायविरचिते तत्वचिन्तामणौ अनुमानाख्यद्वितीयखण्डे सामान्याभावः ॥
अथ सामान्याभावरहस्यं । वहिमान् धूमादित्यत्र तत्तद्दयभावमादाय पूर्वपचपन्बोनामव्याप्तिमुद्धरति, 'अन्यनिष्ठेति, एतेनावच्छेदकानुधावनस्य व्यावृत्तिः छलतो दर्भिता। मनु विशेषाभावानां विशेषधावशिवप्रतियोगितानामवच्छेदकं सामान्यरूपमन्यथा प्रभावप्रतियोगितावोदकमेव तब स्थादभावान्तरे प्रतियोगितान्तरे च मानाभावात् । मष्टापत्तिः, वहिर्नास्तीत्यादिप्रत्ययेन वकिलादेः प्रतियोगितावच्छेदकत्वावगानात्, तथाच वहिमान् धूमादित्यादावव्याप्तिः सहढा संबोगसम्बभावचित्र-तत्तदहिलावशिवप्रतियोगितायतीनामेव तामप्रति
Page #137
--------------------------------------------------------------------------
________________
वातिवादा।
योगितासामान्यान्तर्गताना माध्यतावच्छेदकर्मयोगसम्बन्धावशिवाणवक्रित्वाद्यवच्छेद्यत्वोभयवयात्। म च वहिवस्थापि तत्तदमिलावछिनप्रतियोगितायतौनामवच्छेदकल्वे तत्प्रतियोगिताब्यायो न तादृशप्रतियोगितासामान्यान्तर्गताः हेतुसम्बन्धिनः पर्वतादेरात्माकामादेश्च तदवच्छेदकवहित्वावछिन्नसम्बन्धित्वादपि तु विषयित्व-काल-दिनिरूपितविशेषणत्वादिसम्बन्धावच्छिनप्रतियोगिताकवकि-घटाद्यभावप्रतियोगितैव तादृश्यप्रतियोगितासामान्यान्तर्गता तत्र च साध्यतावच्छेदकसंयोगसम्बन्धावछिनत्व-वक्रित्वावच्छेद्यत्वोभयाभावस्य सत्त्वाचाव्याप्तिरिति वाचं। विशेषप्रतियोगितानामेव सामान्यधर्मस्थावच्छेदकत्वे स्वावच्छेदकसम्बन्धन खावच्छेदकयत्किचिद्यविच्छिनासम्बन्धित्वमेव हेतुमम्बन्धिनो विशेषणं वाव्यमन्यथा धूमवान् वररित्यादावतियाप्तिः संयोगसम्बन्धावछिन-धूमलावचित्रप्रतियोगिताव्यकौनां खावच्छेदकसंयोगसम्बन्धेन वावच्छेदकद्रव्यत्व-मत्तारूपसामान्यधर्मावच्छिनसम्बन्ध्येव निखिलहेतुसम्बन्धि किन्तु विषयित्वादिसम्बन्धावच्छिमधूम-घटायभावप्रतियोगिताव्यतीनामेव स्वावच्छेदकसम्बन्धेन खावच्छेदकावविनासम्बन्धि हेतुसम्बन्धि तत्र माध्यतावच्छेदकर्मयोगसम्बन्धावच्छिन्नल-धूमत्वावच्छेद्यलोभवाभावस्य सत्त्वात् । इत्यच वकिमान् धूमादित्यादौ तमहिलावछिनप्रतियोगिताध्यतौनामपि तसइकिलरूपयत्किञ्चित्वावरे दकावहिवासम्बन्धी भवत्येव धूमसम्बन्धीत्यव्याप्तिदुवारा इत्यतपाप, धूमवतीति पृथगेवेत्यन्तमेको गन्धः, 'इत्यतीतेरिति वहिवाबशिवप्रतियोगिताकाभावलविशेषतावरेदकक-धूमवदृत्तिवप्रका
Page #138
--------------------------------------------------------------------------
________________
तावपिनाम
रकमतीतेः धूमववृत्तिल-वहिलावचित्रतियोगिताकोभवांतएव यथार्थवाधमत्वयोरापत्तरित्यर्थः, वकिलावविवातियोनिताकानां तलदहित्वावच्छिनाभावानां सर्वेषामेव धूमवातिलादिति भावः। 'सामान्यावच्छिनप्रतियोगिताकः' वकिलावचिनातियोगिताकः,९) 'पृथगेव' तत्तदहिलावच्छिवप्रतियोगिताकादतिरिक एव । न च तत्प्रतीतौ कावविशेषाभावो विशेष रति भ्रमलमप्रमावधेति वाच्यं । तथापि यावद्रूपं द्रव्यसनौतिप्रतीतिवन् प्रमावाश्रमत्वापत्तेारत्वात्(२) । एतेन खावछिनप्रतियोगिताकबसम्बन्धेन वशित्वं वहिवावच्छिन्त्रप्रतियोगिताकत्वसम्बन्धेन वहिवा व्यासल्यवृत्ति तच तेन सम्बन्धेन विशेषाभावकूट एव पर्यानोति न तु प्रत्येकाभाव इति तत्पनौतेर्धमलमप्रमालत्यपि निरख । तथापि यावत्स्य व्यासव्यत्तिवापिस) चावद्रूपं द्रयवृत्तौतिप्रतीतेः प्रमावाभमत्ववत् तत्प्रतीतेः प्रमालाधमलापत्तेढुवारवान् । बर्यावविशेषाभावाधिकरणभिवविभिटाभावस तर विशेषनया भ्रमत्वमप्रमावधेति वाच। विशिष्टानस तपानुवात् नदुखेपि विशिष्टयानतिरिकतया गुणे गुण-कर्यान्यनविशिष्टयोति
(१) सामान्यावशिवप्रतियोगिताकामाव इति । (२) यथा यावद्रूपस्य एकस्मिन् द्रव्ये बसायेऽपि यावरूपं प्रत्यरत्तीति
प्रतीतेः प्रामाण्यं तथा यावदजिविशेषाभावस्य एकस्मिन् धूमवति
असावेऽपि वाभावो धूमवत्तीति प्रतीतेः प्रामाण्यापत्तिपारे . वेति भावः। करण्यतित्वेऽपि पावानशिपांतिकान्येऽपीवः।
Page #139
--------------------------------------------------------------------------
________________
कातिवादः।
प्रतीनिवत्प्रमालाधमलापोर्दुवारत्वात् । एतेन यथा विभिमापाः सत्तानतिरिमायेऽपि विभिष्टमतालावच्छिवाधारता न गुणादौ तथा तत्तज्यभावानामेव वहिलावविवातियोगिताकत्वापि वकिबावश्विप्रतियोगिताकाबावचिंबानां तेषामाधारता न धूमक्तीति तत्प्रतीतः धमत्वमप्रमावश्चेत्यपि निरस्तं। तथापि गुणे गुण-कर्मान्यबविशिष्टसत्तेति विशिष्टमत्तायां गुणाधेयतावगाप्रितीतेः प्रमाखादिवत् धूमवति वहिनीस्तौति धूमवदाधेयतावगाक्षिप्रतोतः प्रमालाचाफ्तारत्वात् । न च सावच्छिव-तत्तत्प्रतियोगिताकलसम्बन्धेन वशित्वं वहिलावशिवतत्तत्प्रतियोगिताकपसम्बन्धेन वहिर्वा श्रव्याप्यत्तितच जखडूदाद्यवच्छेदेनैव विशेषाभावेषु वर्तते न तु धूमाधिकरणावच्छेदेनेति न तत्प्रतीतेः प्रमावमिति वाचं। तावतापि धूमवति वक्रित्वादेरवोदकत्वावगाप्रितीतेरप्रमालोपपादनेऽपि विशेषणताविशेषावच्छिनाधेयतासम्बन्धेन धूमवत्प्रकारकवशित्वावशिवतत्प्रतियोगिताकाभावविशेष्यकयथोक्तमतौतेः प्रमात्वापत्तेढुंवारत्मात् । अन्यथा गुणादेः मन्तानिद्रव्यासवानको दकतया द्रव्यवृत्तिसमा गुणे इति प्रतीतेरपि अप्रमावापतेः। नए यथा गुण-कर्मान्यत्वविशिष्टमतावान् गुण रतिप्रतीतिर्न प्रमा विधिटमत्तायाः मसामतिरिकत्वेऽपि विभिष्टमत्तावावशिवाधारताथाः गुणादौ विरहात गुणे गुण-कन्यत्वविशिष्टमत्तेति बाधेचतोषिप्रतीतिश्च प्रमैव तहापि धूमवान् वक्रिमामान्याभाववान् इति प्रतीतिर्न प्रमा तलवायभावानामेव वहिलावचिनप्रतियोगिताकलपि तेषां नदवसिमाधारवाया धूमवति विरहात धमवति वधि
Page #140
--------------------------------------------------------------------------
________________
नापतितामयी
नास्तीत्याधेयतोखिमतौतिः प्रमैव न त भ्रम इति वाचा अनुभवापक्षापात् । एवमनुभवापखापे एकस्यैवाभावस्थ घट-पट-गोत्वाश्वत्वसकलप्रतियोगिकत्वस्य सुवचतथा प्रभावमात्रभेदविलोपापत्तः घटवान् घटमामान्याभाववानिति प्रतीतिर्न प्रंमा घटवति घटसामान्याभावत्वावच्छिनाधारताविरहात् घटवति घटो नास्तोत्याधेयतोलेखिप्रतौतिश्च प्रमा भवत्येवेति क्रमेणानुभवापलापस्य सर्वत्र सुकरत्वादिति भावः। सामान्याभावस्थातिरिकाले प्रष्टतमा युक्किमभिधाय यत्वाभामान्सरमाह, 'अन्यथेति यदि खाघवात् तत्तदम्हित्वावच्छित्रप्रतियोगिताकाभाव एव वशित्वावच्छिनप्रतियोगिताकाभावस्तदेत्यर्थः, तुल्युत्वा तत्तद्रूपत्वावच्छिनप्रतियोगिताकाभावामामेव रूपत्वावचित्रप्रतियोगिताकतयेति शेषः, 'मकवप्रसिद्धरूपाभाव इति वायुः पृथिवीरूपत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभाववान् जलरूपत्वावच्छिनप्रतियोगिताकाभाववान् तेजोरूपत्वावच्छिनप्रतियोगिताकाभाववांबेति सकलप्रसिद्धरूपात्यन्ताभावानां निर्णये, वायुः पृथिवीरूपवत्त्वावच्छिनप्रतियोगिताकान्योन्याभाववान् जलरूपवत्त्वावच्छिनप्रतियोगिताकान्योन्याभाववान् तेजोरूपवत्त्वावच्छित्रप्रतियोगिताकान्योन्याभाववाचति सकसप्रसिद्धरूपवदन्योन्याभावानां निर्णये चेत्यर्थः, 'वायाविति, अयच्च रूप-तदभावविशेष्यको वायुविशेषणकः, विरुद्धयोरेकर्षिसम्बन्धावगाविज्ञानस्यैव संभयत्वाच तु विरुद्धोभवप्रकारितापि नियता । द्वितीयस्तु रूपवत्-तबदन्योन्याभावकोटिको वाघुविशेष्यक इति नाभेदः, 'निश्चितखादिति निश्चितत्वेन संशयकोटिलासंभवादतिरितसामान्याभावस्य चामौकारादित्यर्थः, तथा
Page #141
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्याप्तिवादः।
चातिरिक्रमामान्याभावानभ्युपगमे संशयविषयोऽभाव एव दुर्लभइति भावः । यद्यपि वायौ रूपं न वेति संशयं प्रति रूपाभावनिश्चयो न विरोधी किन्तु रूप तदभावान्यतरविशेष्यकाधेयतासम्बन्धावच्छिन्नवाय्वभावनिश्चय एव विरोधी, तथाप्यधिकरणे तसदभावान्यतरनिश्चयोऽपि तत्तदभावोभयविशेष्यकाधिकरणप्रकारकसंशयविरोधी इत्यभिप्रायः, वायुरूपवान् तदभाववान् वेति वायुविशेष्यकमंशय एव वास्य तात्पर्य । एतचापाततः विशेषाभावानां तत्तद्रूपत्वावच्छित्रप्रतियोगिताकाभावत्वेन निश्चितत्वेऽपि रूपत्वावच्छित्रप्रतियोगिताकाभावत्वप्रकारेण संशयविषयत्वसम्भवात् तेनापि रूपेण विशेषाभावानां निर्णये तथा संशयस्य सामान्याभावातिरिकत्ववादिनामप्यसिद्धत्वादिति ध्येयं । शेषमस्मत्कृतसिद्धान्नरहस्येऽनुसन्धेयं ।
इति श्रीमथुरानाथ-तर्कवागीशविरचिते तत्त्वचिन्तामणिरहस्ये अनुमानाख्यदितीयखण्डरहस्ये मामान्याभावरहस्यं ।
Page #142
--------------------------------------------------------------------------
________________
विशेषव्याप्तिः।
यहा प्रतियोगिव्यधिकरणस्वसमानाधिकरणात्यन्ताभावाप्रतियोगिना सामानाधिकरण्यं, यत्समानाधि
अथ विशेषव्याप्तिरहस्यं । 'यवेत्यादि,'खपदं देवभिमतपरं, कपिसंयोगी एतदक्षत्वादित्यादावव्याप्तिवारणाय 'प्रतियोगिव्यधिकरणेति स्वपदार्थस्य हेतोर्विभेषणं, तदर्थश्च प्रतियोग्यनधिकरणवृत्तित्वं । ननु तथापि वझिमान् धूमात् रूपवान् पृथिवौत्वादित्यादौ नानाव्यक्रिमायके व्याप्तिः चालनौन्यायेन सर्वेषामेव वयादीनां हेतुसमानाधिकरणत्यन्ताभावप्रतियोगित्वात्, सत्तावान् द्र्व्यवादित्यायेकव्यक्किसाध्यकऽप्यव्याप्तिश्च हेतुसमानाधिकरणविभिष्टाभाव-दित्वाचवचिवाभावप्रतियोगित्वात् सत्तादेः, गुण-कर्मान्यत्वविशिष्टमतावान् जातेः भूतत्वमूर्तयोभयवान् मूर्त्तवादित्यादावतिव्याप्तिवारणय प्रतियोगिव्यधिकरणपदेन प्रतियोगितावच्छेदकावच्छिन्नत्यधिकरणत्वस्यावश्यं विवक्षणीयत्वादिति चेत्। न। अत्राप्रतियोगिपदस्य तादृशप्रतियोगितानवच्छेदकमाध्यतावच्छेदकावच्छिन्नपरत्वात् । नवं पूर्वमादभेदः, ताशप्रतियोगितानवच्छेदकावचिनयत्किचिदभिसामानाधिकरणं वहिवामान्य-धूमसामान्ययोाप्तिः, अत एव वहिवरूपेण अयोगोल
Page #143
--------------------------------------------------------------------------
________________
बासिवादः
करणान्योन्याभावमतियोगि यह भवति तेन सम तस्य सामानाधिकरण्यं वा, वसमानाधिकरणान्योन्याकौयवरपि धूमो व्याप्य इत्युक्तं, इदानौनु तादृशप्रतियोगितानवछेदकावच्छिन्नतत्तदहिना समं तत्तममामानाधिकरण्यं वह्नित्वधूमवरूपेण तत्तदङ्गि-तत्तमयोरेव व्याप्तिः, वहिवरूपेणायोगोलकौयवहिव्याप्यो न धूम इत्युच्यते इत्येव विशेषादन्यत् सव्वं पूर्ववदिति दिक् ।
नन्वेतलक्षणइयपक्षे द्रव्यत्वत्वाचवच्छिन्नविधेयिका घटो द्रव्यत्ववानित्यादिरूपैवानुमितिः सर्वच स्थात् न तु कदाचिदपि स्वरूपतोद्रव्यवादिविधेयिका घटो द्रव्यमित्याकारिका एतयोईयोरेव साध्यतावछेदकघटितत्वात् । न च माध्यतावच्छेदकघटितत्वेऽपि एतयोरेव ज्ञानं द्रष्यत्वत्वावच्छिन्नविधेयकानुमितिवत् स्वरूपतोद्रव्यत्वादिविधेयकानुमितावपि हेतव्यत्ववाद्यतिरिकानवच्छिन्नद्रव्यत्वादिविधेयकानुमितित्वस्यैव(१) कार्यतावच्छेदकत्वादिति वाच्य । तथा मति द्रव्यत्वाद्यनु
(१) खरूपवः सत्ता-घटत्वादिविधेयताकामुमितिवारणा) विधेयताया द्रव्यत्वादिनिष्ठत्वनिवेशः। अथ तथा सति द्रव्यवत्वादिना घटत्वादिविधेयताकामितेरसंग्रहः घटत्वादिनिष्ठविधेयतायां द्रव्यत्ववाद्यतिरिक्षधमानवशिवत्वेऽपि द्रव्यत्वाद्यत्तित्वात् इति चेत् । न । व्यत्वाद्यवृत्तिया निरवच्छिन्नविधेयता तद्भिनविधेयतायां द्रव्यत्वत्वाद्यतिरिक्वधमानवच्छिन्नत्यनिवेशाभिप्रायादिति न कोऽपि दोषः। अथवा निरवच्छिमत्वविशिला. व्यवत्तित्वाभाववाच-अश्वत्वत्वानवमिवामयाभाववविधेयताकामितिल-- मित्वर्थपरखान कोऽपि दोषः।
Page #144
--------------------------------------------------------------------------
________________
तचिन्तामणे भावाप्रतियोगियइत्कत्वं वा। अन्यत्तिवहि-तहतोरग्यवृत्तिधूमवनिष्ठात्यन्ताभावान्यान्याभावप्रतियोगि
मितेनियमतो विविधविषयत्वापत्तेः द्रव्यत्वत्वादिघटकतया() स्वरूपतो द्रव्यत्वादिविशिष्टबुद्धेर्जनकोभतस्य स्वरूपतो द्रव्यत्वादिज्ञानस्यापि सर्वच सत्वादिति चेत्। न। स्वरूपतो द्रव्यत्वादिविधेयकानुमितेरसिद्धेः घटो द्रव्यत्ववान् इत्यादिरूपाया एव द्रव्यत्वत्वावच्छिन्नविधेयकानुमितेः सर्वत्राभ्युपगमात् । एतदस्वरसेनैव वा अन्योन्याभावगर्भ लघणन्तरमाह, 'यत्ममानाधिकरणेति, 'यत्पदं हेत्वभिमतपरं, 'यत्र भवति' यदधिकरणं न भवति, यत्पदं माध्यपरं, वद्धिमान् धूमात्मतावान् द्रव्यत्वात् इत्यादौ व्यतिरेकिमायके माध्यशून्ये सामान्यादौ वर्तमान माध्यवदन्योन्याभावमादायाव्याप्तिवारणाय हेतुसमानाधिकरणत्वं अन्योन्याभावविशेषणं, 'तच हेतुतावच्छेदकसम्बन्धेन यद्धेतुतावच्छेदकावच्छिन्नहेतुसम्बन्धि तत्र वर्तमानत्वं, तेन वकिमान् धूमादित्यादौ हेत्वधिकरणधूमावयवादौ वङ्ग्यादिमतोऽन्योन्याभावस्थ वृत्तावपि नाव्याप्तिः, न वा द्रव्यं गुण-कर्मान्यत्वविशिष्टमत्त्वादित्यादौ सत्ताधधिकरणगुणादौ द्रव्यत्वादिमतोऽन्योन्याभावस्य सत्त्वेऽपि अव्याप्तिः। तादाम्यादिवृत्यनियामकसम्बन्धन हेत्तायामव्याप्तिवारणायाधिकरणत्वमपहाय सम्बन्धित्वप्रवेशः। वर्तमाणत्वच विशेषणता
(१) इथेतरावृत्तित्वविशिष्ठसकनद्रव्यत्तित्वरूपस्य द्रव्यवत्वस्य ज्ञाने इतरत्वप्रतियोग्यं द्रव्ये द्रष्यत्वस्य खरूपतोभानाव खरूपतो द्रव्यत्वचामस्य प्रयत्वलवानियतत्वमिति।
Page #145
--------------------------------------------------------------------------
________________
बातिवादः।
त्यायधिकरणवहि-धूमयोर्न व्याप्तिः, किन्तु तत्तडूमस्य समानाधिकरणतत्तहिना। नचैवं धूममात्रे न व्याप्ति
विशेषसम्बन्धेन साध्यप्रतियोगिकाभाववृत्तिमाध्यौयप्रतियोगित्व-तदवच्छेदकत्वान्यतरावच्छेदकसम्बन्धेन वा ग्राह्य) तेन सत्तावान् जातेरित्यादौ हेत्वधिकरणे ज्ञानादौ विषयित्व-कालिकविशेषणत्वाव्याप्यवादिसम्बन्धेन सत्तादिमदन्योन्याभावस्य च वृत्तावपि नाव्याप्तिः । यदिच वक्ष्यमाणयुक्त्या प्रतियोगिभिवत्वं निरुक्तहेतुसम्बन्धिनः प्रतियोग्यनिरूपितत्वं वा तदर्तमानत्वस्य विशेषणमुपादीयते तदा वर्तमानत्वं येन केनापि सम्बन्धेन ग्राह्यं न तु सम्बन्धविशेषो निवेशनीयः । वझिमान् धूमादिदं वाच्यं ज्ञेयत्वादित्यादौ वयादिमतः संयोगादिसम्बन्धेनात्यन्ताभावस्य धूमसमानाधिकरणत्वात् असम्भववारणयान्योन्याभावनिरूपितप्रतियोगितालाभार्थं अन्योन्याभावपदं(१) यथाश्रुतेऽत्यन्नाभावस्थापि खावच्छिन्नभिन्नभेदात्मकतया अन्योन्याभावत्वेन तद्दोषतादवस्थ्यात्। ननु तथापि वति
(१) घटान्योन्याभाववान् द्रव्यत्वादित्यादौ व्यभिचारिणि घटत्वरूपम्य
घटमिनभेदस्य विशेषणताविशेषसम्बन्धेनावर्त्तमानत्वेन तत्समानाधिकरणान्योन्याभावपदेन धर्तुमशक्यत्वादतिव्याप्तिवारणाय पूर्वकल्पं
परित्यन्यैतत्कल्पानुसरणमिति। (२) पन्चोधपदमिति ख• गा ।
Page #146
--------------------------------------------------------------------------
________________
तापितामगै
रिति वाच्च। सर्वधूमव्यक्तस्तवात्वेन धूममाषस्य व्या
मान् धूमादित्यादौ सर्वेषामेव साध्यवयकीनां चालनौन्यायेन निरुतहेतुसमानाधिकरणस्य तसंयक्तित्वावच्छित्रप्रतियोगिताकान्योन्याभावस्य प्रतियोगित्वात् तादृप्रथामवृत्तिधर्मावतिषप्रतियोगिताकान्योन्याभावस्य प्रतियोगित्वाच्चासम्भवः। न च निरुकहेतुसमानाधिकरणन्योन्याभावप्रतियोगितानवच्छेदकं यत्माध्यं तेन ममं मामानाधिकरण्यं विवक्षितमिति वाच्यम् । तथापि वकिमान् धूमात् सत्तावान् जातिमत्त्वादित्यादौ वयादेर्निरकहेतुममानाधिकरणस्य तत्तदधिकरणवृत्तित्वविशिष्टवयादिमत्त्वावच्छिषप्रतियोगिताकान्योन्याभावस्य वहि-घटोभयाद्यवछिनप्रतियोगिताकान्योन्याभावस्य . च प्रतियोगितावच्छेदकत्वेनासम्भवतादवस्थ्यात् । अथानवच्छेदकत्वं पर्याप्तिसम्बन्धेनावच्छेदकताशून्यत्वं(१) । न च तथापि वकिमान् धमादित्यादौ चालनौन्यायेन सामामेव माध्यव्यकौनां माधनसमानाधिकरणन्योन्याभावप्रतियोगितावच्छेदकतापर्याप्यधिकरणत्वात् अव्याप्ति?ारेति वाच्यं। जात्यखण्डोपाध्यतिरिकपदार्थस्य स्वरूपतोऽभावप्रतियोगितामवच्छेदकतया(२) वयादरवच्छेदकतापर्याप्यधिकरणवाभावात् इति चेत् । न। सत्ताव्याप्यजातिमा जातिमत्त्वादित्यादौ तथाप्यव्याप्तेः सर्वासामेव सत्ताव्याप्यजातीनां स्वरूपतः माधनसमानाधिकरणान्योन्याभावप्रतियोगितावच्छेदकताप--
...........-- ----------------------.
.
-
-- ..........----------........... ......
(२) पर्याप्तयाख्यसम्बन्धेनावच्छेदकताशून्यत्तमिति ख• ग० । (२) एतचावशेदकतावच्छेदकसाधारणावादकत्वमभ्युपेत्व ।
Page #147
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्याप्तिवाद
११५
प्यत्वात्। धूमसम्बन्धिवहिस्तद्याप्य एव, युगपदुत्पब- --... - ----- ----- ..... ..--- यधिकरणत्वात् । गुण-कर्मान्य त्वविशिष्टमत्तावान् जातेरित्यादावतिव्याप्तेश्च सप्तायाः पाण्याख्यसम्बन्धेन तादृशावच्छेदकतारान्यतया विशिष्टताया अपि तथात्वात् विशिष्टमत्तायाः सत्तानतिरिकत्वात् महानसौथवधिमान् धूमादित्यादावतिव्याप्तिश्च जात्यखण्डोपाध्यतिरिक्तपदार्थस्य स्वरूपतोऽनवच्छेदकतया महानसीयवयादेरपि पर्याप्याख्यसम्बन्धेन तादृशावच्छेदकताशून्यत्वात्। एतेन निरुक्त हेतममानाधिकरणान्योन्याभावप्रतियोगितावच्छेदकतावच्छेदकतायाः पर्याप्यनधिकरणं यत् माध्यतावच्छेदकं तदवच्छिन्नमामानाधिकरण्यं विवजितमिति नामभवः मद्धेतौ वहिवादेः माध्यतावच्छेदकस्य पर्याप्याख्यसम्बन्धेन माधनसमानाधिकरणान्योन्याभावातियोगितावच्छे दकतावच्छेदकाववत्त्वस्य कदाचिदपि असम्भवात् सत्ताव्याप्यजातिमान् जातिमत्त्वादित्यादौ सर्वासामेव सत्ताव्याप्यजातीनां स्वरूपतः साधनसमानाधिकरणन्योन्याभावप्रतियोगितावच्छेदकत्वेऽपि माध्यतावच्छेदकौमतसत्ताव्याप्यजातित्वरूपेणानवच्छेदकलादित्यपि निरस्तं । व्यावशायजातिमत्त्वान् द्रव्यसमवायित्वादित्यादौ नानाजातिसाथतावच्छेदकस्खलेऽव्याप्तेढुारखात् माध्यतावच्छेदकीभतानां सामामेव पृथिवीव-जलबादिरूपाणं व्यत्वव्याप्यजातीनां चालनौन्यायेन माधनसमानाधिकरणपृथिवी--जलादिमदन्योन्याभावप्रतियोगितावछेदकतावच्छेदकतापर्यायधिकरणत्वात् । गुण-कर्मान्यत्वविशिष्टमतावानजातेरित्यादावतिव्याप्तेष मत्तात्वस्य पर्यायाख्यसम्बन्धेन ता
Page #148
--------------------------------------------------------------------------
________________
वावचिन्तामगै
विनष्टयोश्च व्याप्तिरेव । कर्मणि च संयोगाभावः प्रतियोग्यसमानाधिकरणः।
प्रतियोगितावच्छेदकतावच्छेदकत्वशून्यतया माध्यतावच्छेदकस्य विशिष्टमत्तात्वस्य तथात्वात् विशिष्टमत्तात्वस्य सत्तावानतिरिकत्वात् । महानसौयत्वविशिष्टवहिमान् धूमादित्यादावतिव्याप्तेश्च वशित्वस्य पर्याप्याख्यसम्बन्धेन तादृशप्रतियोगितावच्छेदकतावच्छेदकत्वशून्यतया माध्यतावच्छेदकस्य महानमीयत्वविशिष्टवहिवस्थापि तथात्वात् विभिष्टवम्हित्वस्य वहिवानतिरिकत्वात् । तद्दण्डिमान् दण्डिसंयोगादित्यादावतिव्याप्तेश्च जात्यतिरिकपदार्थस्य स्वरूपतोऽनवच्छेदकतया माध्यतावच्छेदकौमततद्दण्डव्यक्तः पर्याप्याख्यसम्बन्धेन तादृशप्रतियोगितावच्छेदकतावच्छेदकत्वशून्यत्वात् । प्रस्थापि साध्यतावकेदकघटितत्वेन स्वरूपतो द्रव्यत्वादिविधेयकानुमितेरेतज्ज्ञानादप्यसम्भवापत्तेश्च। मैवं। यत्र हि स्वरूपतोद्रव्यत्वादेः माध्यत्वं न तु माध्यतावच्छेदकं किमयस्ति तत्र निरुकहेतममानाधिकरणौयान्योन्याभावत्वनिरूपितप्रतियोगितामामान्ये यदधिकरणवनिष्ठपर्याप्यवच्छेदकताकत्वाभावतमामानाधिकरणं स्वरूपतस्तस्य व्याप्तिरिति विवक्षणौयं यत्पदं स्वरूपतः माध्यव्यकिपर)। वद्धिमान् धूमात्
(१) जातेः समवायेनेव निरूपितत्वसम्बन्धेनापि खल्पनोभागाभ्युपगमात् दव्यत्वत्वज्ञानमन्तरेणापि निरूपितत्वसम्बन्धेन खल्पतोअथवावगाहिनिबतायामिधानसम्भवेन खरूपतो इयत्वविधेयकानुमित्युपपत्तिरिति तात्पर्यम्।
Page #149
--------------------------------------------------------------------------
________________
वातिवाद।
रूपवान् पृथिवौत्वादित्यादिकिश्चिदवच्छिन्नमाध्यकशास्थापच्यमेव जात्यखण्डोपाध्यतिरिकपदार्थस्य स्वरूपतो व्याप्यनभ्युपगमादिति नाध्याप्तिः। न च तथापि गुण-कर्मान्यत्वविशिष्टसत्तावान् जातेरित्यादावतिव्याप्तिः विशिष्टमत्तायाः मत्तानतिरिकत्वेन मत्ताया एव माध्यतया तदधिकरणत्वनिष्ठपर्याप्तावच्छेदकताकवाभावस्य जातिमधिष्ठान्योन्याभावप्रतियोगितासामान्ये सत्त्वादिति वाचं। जात्यादौ विशिष्टमत्तात्वरूपेण विशिष्टमत्ताया व्याप्यत्वानभ्युपगमेऽपि स्वरूपतो विशिष्टमत्ताव्याप्यत्वस्य सर्वसम्मतत्वात्(१)। किञ्चिदवच्छिनभाध्यकस्थले तु निरुतहेतुसमानाधिकरणान्योन्याभावत्वनिरूपितप्रतियोगितामामान्ये यद्धविच्छिनाधिकरणत्वनिष्ठपर्याप्तावच्छेदकताकत्वाभावः तद्धविच्छिन्नमामानाधिकरण्यं तद्धर्मावच्छिन्नस्य व्याप्तिरिति विवक्षणैर्य, यत्र येन रूपेण यस्य माध्यतावच्छेदकलं तच तेन रूपेण तदेव यद्धर्मपदेन ग्राह्यं इत्थश्च वकिमान् धूमादित्यादौ वहिवादेः स्वरूपत एव माध्यतावच्छेदकतया स्वरूपतोवहिवादिकमेव यद्धर्मपदेन ग्राह्यं, महानसौयत्वविशिष्टवकिमान् धूमादित्यादौ महानसीयत्वादिविशिष्टत्वेन वक्रित्वादेः साथतावच्छेदकतया तदिशिष्टवशित्वादिकमेव यद्धर्मपदेन ग्राह्य, द्रव्यत्वथायजातिमत्त्वान् द्रव्यसमवायित्वादित्यादौ पृथिवौत्व-जलवादीनां द्रव्यत्वव्याप्यजातीनां द्रव्यत्वव्याप्यजातिवरूपेणैव माध्यतावच्छेदकतषा तादृमजातित्वविशिष्टमेव यद्धर्मपदेन ग्राह्यं, न तु स्वरूपतः पृथिवौत्व-जलवादिकमित्यादि खयमूह्यं । (१) सर्वसिद्धत्वादिति ख० ग० ।
18
Page #150
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५ . नावचिकामी
अत्राधिकरणखांशस्थामतिप्रयोजनकतया तदपहाय लक्षणातरमार, 'स्वसमानाधिकरणेति, 'स्वपदं हेत्वभिमतपरं, यदकत्वमिति यवृत्तित्वमित्यर्थः, यस्य तस्य तड्याप्यत्वमिति मेषः । तथाच यत्र खरूपतो द्रव्यत्वादेः माध्यत्वं तत्र हेतुसमानाधिकरणौयान्योन्याभावत्वनिरूपितप्रतियोगितासामान्ये यनिष्ठपर्याप्तावच्छेदकताकत्वाभावस्तत्मामानाधिकरण्यं स्वरूपतस्तस्य व्याप्तिरिति वक्तव्यं, 'यत्पदं स्वरूपतः साध्यव्यक्तिपरं। किञ्चिदवच्छित्रसाध्यकस्थले तु तादृशप्रतियोगितामामान्ये यद्धर्मावच्छिचनिष्ठपर्याप्तावच्छेदकताकत्वाभावस्तविच्छिन्नमामानाधिकरण्यं तद्धविच्छिन्नस्य व्याप्तिरिति वक्रव्यं । ननु तथापि द्रव्यं पृथिवौत्वात् वहिमान् धूमादित्यादौ कालिकविशेषणत्व-समवायादिसम्बन्धेन साध्यवतोऽन्योन्याभावस्य हेत्वधिकरणे सत्त्वादसम्भवः । न च प्रतियोगिता माध्यतावच्छेदकमम्बन्धावच्छिन्नावच्छेदकताकत्वेनं विशेषणोया इति वाच्यं । घटवान् कालपरिमाणात् घटवामित्यज्ञानत्वादित्यादौ तादृशप्रतियोगित्वाप्रमिद्धेरिति चेत् । न । माध्यतावच्छेदकसम्बन्धावच्छिन्नत्वेनावच्छेदकताया विशेषणत्, केवलान्वयिनि वाचत्वादिपर्याप्तस्वरूपसम्बन्धावच्छिन्नावच्छेदकताकत्वं संयोगादिसम्बन्धेन वाचवादिमदत्यन्ताभावप्रतियोगितायामेव प्रसिद्धं। माध्यतावच्छेदकसम्बन्धभेदेन व्याप्त दात् यत्र तादात्म्यसम्बन्धेन किञ्चिदवच्छिन्नस्य माध्यत्वं तत्र तादृशान्योन्याभावत्वनिरूपितप्रतियोगितासामान्ये यार्थपर्याप्तावछेदकताकवाभावस्तद्धविच्छिन्नसामानाधिकरण्यं वक्तव्यं यद्धर्मपदं माध्यतावच्छेदकपरं । अवच्छेदकता च माध्यतावच्छेदकताघटकसम्ब
Page #151
--------------------------------------------------------------------------
________________
यातिवादः।
१५९
भावच्छिन्नत्वेन विवक्षणीया(१) सर्वमन्यत् अत्यन्ताभावगर्भप्रथमलनगवदवसेयमिति संक्षेपः ।
ननु अत्यन्ताभावघटितद्वितीयलक्षणपक्षे व्यधिकरणधूमस्य वकित्वरूपेण व्यधिकरणवशिव्याप्यत्वं कथं स्यात् मामानाधिकरण्यविरहात् इत्यत आह, 'अन्येति, 'प्रतियोगित्वादिति, परस्परमामानाधिकरण्यविरहेणेति शेषः । यथाश्रुते नानाव्यक्तिमाध्यकानुरोधेनानवच्छेदकत्वपर्य्यन्तानुधावनस्यावश्यकत्वेन .तादृशप्रतियोगित्वस्थाकिञ्चित्करत्वात् (२), इत्थञ्च परस्परमामानाधिकरण्यविरह एव तस्य हेतुत्वात्। न चैवमन्यवृत्तिवरन्यवृत्तिधूमवनिष्ठात्यन्नाभावप्रतियोगिवादित्यस्यैव सम्यकया तदतोऽन्योन्याभावप्रतियोगित्वादिति व्यर्थमिति वाच्यं। अन्यवृत्तिवरन्यनिष्ठधूमवविष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वेऽपि द्रव्यस्थाव्याप्यवृत्तितानये सामानाधिकरण्यं सम्भवतीत्यनुशयेन तदुपादानादिति । न चैवमिति, 'न व्याप्तिः' नैका व्याप्तिरित्यर्थः, तथाच धूमत्वं व्याप्यतावच्छेदकं न स्यात् व्याप्तेः प्रतिधम(३) भिन्नत्वेन धूमत्वस्यातिप्रमकत्वादिति भावः। तथात्वेन' व्याण्याश्रयत्वेन, 'धूममात्रस्थति, तथाच व्याप्तेः प्रतिधूमं भेदेऽपि वहिव्याप्तित्वावचिन्त्रस्यानतिप्रसनत्वात् धूमवमवच्छेदकं, यथा प्रतियोगितायाः प्रतिव्यक्तिभिन्नत्वेऽपि तत्तदभावप्रतियोगितात्वावच्छिन्नस्थानतिप्रमतत्वात् घट
(१) साध्यतावच्छेदकतावच्छेदकसम्बन्धावचिनत्वेन विशेषणीयेति ख.
ग। (२) व्याप्यत्वाभावे पप्रयोजकवादित्यर्थः । (२) सर्वत्र 'प्रतिधूम' इत्यत्र प्रतिसमिति ख• ग०।
Page #152
--------------------------------------------------------------------------
________________
तापितामी
वाहिकमवच्छेदकमिति भावः। ननु सर्वसिव लक्षणे धूमामानाधिकरणवहिरपि धूमव्यायः स्यात् एवं युगपदुत्पन्न-विनष्टचकि
बोरपि कालिकसमव्याप्तिः स्थादित्यच इष्टापत्तिमार, 'धूमेत्यादि, 'थाप्तिरेव' कालिकसमव्याप्तिरेव, दैशिकसमव्याप्यतायां समदेशस्यैव नग्नत्वात् उत्पाद-विनाशयो:गपद्याभिधानमसङ्गतं स्यात् श्रतः काखिकत्वानुधावनं, एकस्य कालिकव्याप्यतायां उत्पाद-विनाशयोरन्यतरयोगपद्यस्यैव तन्त्रत्वादुभयोर्योगपचाभिधानमसङ्गतं स्यात् अतः समथाप्यत्वानुधावनं । ननु प्रतियोग्यसामानाधिकरणघटितप्रथमपक्षणे संयोगी सत्वादित्यादौ यद्यपि नातिव्याप्तिः सत्तायां गुणाद्यबचेदेन संयोगसामानाधिकरथाभावसत्त्वेन प्रतियोग्यसमानाधिकरणमत्तायाः समानाधिकरणभावः संयोगाभाव एव तत्प्रतियोगितावच्छेदकत्वात् संयोगत्वस्य, तथापि संयोगवान् संयोगाभावादित्यादावतियाप्तिः संयोगाभावे हेतौ संयोगसामानाधिकरण्याभावासत्त्वेन प्रतियोग्यसमानाधिकरणहेतोः समानाधिकरणभावो न संयोगाभावः किन्तु प्रभावान्तर एव तादृशप्रतियोगितानवोदकवात् संयोगत्वम्य । न च सत्तावत् संयोगाभावे हेतावपि गुणाद्यवच्छेदेन संयोगमामानाधिकरण्याभावोऽस्येव इति वाच । तथा मति प्रतियोगितावच्छेदकसम्बन्धेन प्रतियोगितावच्छेदकावचित्रप्रतियोगितामानाधिकरण्याभाववदभावस्यैव व्याप्यवृत्त्यभावतया संयोगाभावस्थापि व्याप्य त्यभावत्वापत्तेः इत्यत पाइ, 'कर्मणि चेति, 'संयोगाभावः' संयोगवान् तदभावादित्यादौ साधनीभूतः संयोगाभावः, प्रतियोग्यसमानाधिकरणः संयोगरूपप्रतियोगितामानाधि
Page #153
--------------------------------------------------------------------------
________________
वातिवाद।
करणाभावाश्रवः, संयोगाभावे कर्मादौ न थोमसामानाधिकरणमितिप्रतीतेः। न चैवं तस्य व्याप्यवृत्त्यभाववापत्तिरिति वाच्च। निकप्रतियोमिसमानाधिकरणभिवाभावस्य विशेषताविशेषेणवशिवतिमहिनाभावस्यैव वा व्याप्यरत्यभाववादिति भावः। यहा मनु प्रतियोग्यसमानाधिकरणवघटितप्रथमलक्षणे संयोगी सत्त्वादित्यादावतियाप्तिः हेतोः संयोगाभावौयप्रतियोगिसमानाधिकरणतथा खप्रतियोग्यसमानाधिकरणहेतोः समानाधिकरणे न मंयोगाभावः किन्तु अन्यात्यन्ताभाव एव तत्प्रतियोगितावच्छेदकता न संयोगत्वस्येत्यत आई, 'कर्मणि चेति, 'संयोगाभावः' संयोगाभावरूपः साध्याभावः, 'प्रतियोग्यममानाधिकरण इति प्रतियोगिनोऽसमान प्रतियोग्यधिकरणवृत्तित्वशन्यं यत्साधनं तदधिकरणकस्तदधिकरणनिष्ठ इत्यर्थः, तस्थाधिकरणं यस्येत्यधिकरणर्थकषष्ठ्यन्तान्यपदार्थयधिकरणबहुनौहिसमासस्यं तदधिकरणमधिकरणं यस्येति मध्यपदस्खोपिसमासस्य वा प्राश्रयणात् । सत्तायां कर्मणि न संयोगसामानाधिकरष्यमित्यादिप्रतीत्या सामानाधिकरणस्याव्यायवृत्तित्वेन मतादावपि कर्मावच्छेदेन संयोगसामानाधिकरण्याभावमत्त्वादिति भावः(१) ।
ननु सामानाधिकरण्यं नाव्याप्यवृत्ति संयोगिवृत्तित्वाभावो न सत्तावृत्तिरित्यादिप्रतीत्यनुपपत्तेः सत्तायां कर्मादौ न संयोगमामा- . माधिकरणमित्यादिप्रतीतेय कर्मादाववच्छेदकत्वसम्बन्धेन सत्ता
(१) यदेबादिपाठः स. म. पुलवाये गालि।
Page #154
--------------------------------------------------------------------------
________________
१९ . तत्वचिन्तामयी
यहा प्रतियोगिवैयधिकरण्यावच्छेदकावच्छिन्नत्वमत्यन्ताभावविशेषणं कर्मणि च संयोगाभावस्य प्रतियोगिवैयधिकरण्यावच्छेदकावच्छिनत्वमेव । न चान्योन्याभावस्याव्याप्यत्तित्वम्, अभेदस्याबाधितप्रत्य
निष्ठमामानाधिकरण्याभाव एव विषयः तथाच प्रथमलक्षणे संयोगौ सत्चात् संयोगवान् तदभावादित्यादावतिव्याप्ति?ौरेत्यखरमादाइ, 'यदेति, 'प्रतियोगिवैयधिकरण्येति, 'प्रतियोगिवैयधिकरणं, प्रतियोग्यनधिकरणवृत्तित्वं, 'अवच्छेदक' विशेषणं यत्र हेतौ नदवछिन्नत्वं मामानाधिकरण्यसम्बन्धेन तद्विशिष्टत्वं तत्ममानाधिकरणत्वमिति यावत्, प्रतियोग्यसामानाधिकरण्यमपहाय प्रतियोग्यमधिकरणवृत्तित्वं हेतुविशेषणं वक्तव्यमिति तु तदर्थः । यद्वा ननु प्रथमलक्षणे प्रतियोग्यसमानाधिकरणत्वस्यात्यन्ताभावविशेषणत्वमेवोपादौयतां किं तस्य हेतुविशेषणत्वेनेत्यत आह, 'कर्षणि चेति, तथाचात्यन्ताभावविशेषणत्वे संयोगौ द्रव्यत्वादित्यादावेवाव्याप्तिः विशिष्टस्यानतिरिकतया प्रतियोगिसामानाधिकरण्याभावविशिष्टः' मन् हेत्वधिकरणवृत्तियोऽभाव इति विवक्षायामप्यप्रतीकारादिति भावः । रदमुपलक्षणं द्वितीयलक्षणेऽपि प्रतियोगिवैयधिकरण्यस्यात्यन्ताभावविशेषणत्वे तत्रैवाव्याप्तिः कर्मादौ मंयोगाभावस्य प्रतियोग्यमधिकरणवृत्तित्वात् विशिष्टयानतिरिकतया प्रतियोग्यनधिकरणवृत्तित्वविशिष्टः 'मन् हेत्वधिकरणवृत्तियोऽभाव इति विवक्षायामप्रतीकारादिति थेयं। ननु मामानाधिकरणं नाथाप्यक्ति तथाच
Page #155
--------------------------------------------------------------------------
________________
वामिवादः।
अत्यन्ताभावविशेषणत्वेऽपि नाव्याप्तिः, अतिव्याप्तिच हेत्वभावयोईयोविशेषणव एव संयोगी सत्त्वादित्यादौ मामानाधिकरण्यस्य व्याप्यत्तितथा सत्तायां संयोगाभावे च मंयोगाभावौयप्रतियोग्यमामानाधिकरण्यविरहात् इत्यत आह, 'यति अर्थस्तु पूर्ववत् । ___ वस्तुतस्तु प्रतियोगिवैयधिकरण्यस्य प्रतियोग्यनधिकरणवृत्तिवस्य, यदवच्छेदकं निरूपकं हेत्वधिकरणं, प्रतियोग्यनधिकरणं हेत्वधिकरणमिति यावत्, तदवच्छिन्नत्वं तदृत्तित्वं अत्यन्ताभावविशेषणमित्येवार्थः।
केचित्तु प्रतियोगिवैयधिकरण्यं प्रतियोग्यनधिकरणवृत्तित्वरूपं यदवच्छेदकं विशेषणं तदवच्छिन्नत्वं तदिशिष्टत्वमत्यन्ताभावविशेषणमित्यर्थः, प्रतियोग्यसामानाधिकरण्यं विहाय प्रतियोग्यनधिकरणवृत्तित्वमत्यन्ताभावविशेषणं वक्रव्यमिति भावः । न चैवं कपिसंयोगौ एतदृक्षवादित्यादावव्याप्तिः एतदृक्षत्वसमानाधिकरणकपिमंयोगाभावस्थापि प्रतियोग्यनधिकरणगणादिवृत्तित्वादिति वाच्यं । हेवधिकरणे प्रतियोग्यनधिकरणवृत्तित्वस्य विवक्षणीयत्वात् एतलाभायैव च हेतुसामानाधिकरण्यपदमतो न तद्वैयर्थं, प्रतियोग्यनधिकरणत्तित्वविशिष्टखाधिकरणहेत्वधिकरणकाभाव इति वा अंभावान्नानिष्कर्ष इत्याहुः । तदसत् बहुतरकुसृष्टिकल्पनापत्तेरिति ध्येयं।
ननु मूले वृक्षः कपिसंयोगी न इत्यबाधितप्रतौतेः कपिमंयोगादिमत्यपि वृक्षे मूलाधवच्छेदेन कपिसंयोगादिमतोऽन्योन्याभावस्ख मत्त्वात् अन्योन्याभावघटितखक्षणं कपिसंयोगौ एतत्त्वादित्याच
Page #156
--------------------------------------------------------------------------
________________
वाचपितामगै
ऽव्यापत्तियाध्यकऽयाप्तमित्यत पाह, 'न ति, 'अन्योन्याभावस' कपिसंयोगादिमदन्योन्याभावस्थ, 'अध्याप्यत्तिव' कपिसंयोगादिमत्यपि मुझे मूलाधवच्छेदेन सत्त्वं, 'त्रभेदस्वेति मूले वृधः कपिलंयोग्यभित्र इति मूखावच्छेदेनापि कपिसंयोगिभेदाभावस्य कपिसंयोगिभित्रभेदस्य र यथार्थप्रतौतेरित्यर्थः। न हि अव्यायत्तिगोरत्यन्ताभाव-तत्प्रतियोगिनोरन्योन्याभाव-तत्प्रतियोगितावच्छेदकपोरेकावच्छेदेन सत्त्वं, विरोधात् । न च कपिमयोगिभेदाभावस्य कपिसंयोगिभित्रभेदस्य च कपिसंयोगरूपतया मूलावच्छेदेन कथं तत्प्रतीतिरिति वाच्यम् । अन्यवान्योन्याभावाभावस्थान्योन्याभाववझेदस्य च प्रतियोगितावच्छेदकखरूपत्वेऽयव्याप्यवृत्तिस्थले तबदन्योन्याभावात्यन्ताभावस्य तदभित्रभेदस्य चातिरिकस्य व्याप्यतिखरूपस्योक्तरूपप्रतीत्यन्यथानुपपत्त्याभ्युपगमात्। न चैवं मूले वृक्षः कपिसंयोगो नेत्याबाधितप्रतोतेः का गतिरिति वाच्य। विशेषणौभूतस्य कपिमंयोगादेरत्यन्ताभावस्यैव तविषयत्वात्। न च तत्र कपिसंयोग्यन्योन्याभावविषयकत्वमप्यनुभवमिद्धमिति वाच्य। तथानुव्यवसायस्य चमत्वात् । अथैवं गुणादावपि संयोगवदन्योन्याभावोऽपि प्रयोगोलकादौ धूमवदन्योन्याभावोऽपि च न मिद्येत् तत्रापि गुणो न संयोगी अयोगोलकं न धूमवत् इत्यादिप्रतौतेभिषणीभूतस्य संयोग+धूमादेरत्यन्ताभावविषयतायाः सुवचत्वात रति चेत् । न । तप बाधकाकरावेनानुव्यवसायानां धमत्वे मानाभावात्। प्रकृते र यथोकाभेदविरेक बाधकतया अमुव्यवसायस्य धमतायाः प्रमाणमित्वा
गतिः । बदमापाततः मूले कृषः कपिसंयोग्यभिषा रत्यबाधित
Page #157
--------------------------------------------------------------------------
________________
मासिवाद।
भिमानात् । च्याप्प-व्यापकभावाचानेऽपि वसतस्तवात्वेनाजायमानस्य सम्बन्धात्वेनैव भातस्य पधर्थत्वं ।
प्रतीतेरसिद्धेः कपिसंयोगिभेदाभावस्य कपिसंयोगादिमविभेदर पातिरिमाल्य कल्पने गौरवात् । न च कपिसंयोगिभेदाभावः कपिसंयोगिभित्रभेदच न कपिसंयोगरूपो न वातिरिकः किन्तु तत्तयमित्वरूपस्तादाव्यसम्बन्धेन तत्तद्द शिखरूपो वा इति वाच्यम् । तथापि मूलस्य तवानवच्छेदकत्वात् तत्प्रतीतेः प्रमावासम्भवात् तत्पनौतेर्यथार्थवे मानाभावाच । न च तथापि वृक्षः कपिसंयोग्यभित्र इति यथार्थप्रतीतिरेवान्योन्याभावस्थायायवृत्तित्वे बाधिकेति वाचं । वृछे कपिसंयोगिभेदस्याव्याप्यत्तित्वे तझेदात्यलाभावस्य तबिभेदस्य च सुतरां वृक्षायावच्छेदन सत्त्वात् तादृशातौतेरनुपपत्तिविरहात् । न च कपिसंयोगिभेदाभावस्थ वृक्षावृत्तिवज्ञानं बाधकमिति वाचं । तदमिद्धेः, प्रत्युत तहस्तित्वस्यैव ग्रहात्। वस्तुतस्तु अन्योन्याभावस्य व्यायत्तितानियमनयेऽपि कपिसंयोगौ एतहशत्वादित्यादौ कपिसंयोगिभेदस्याच्याप्यक्तिलभ्रमेण हेतुसामानाधिकरण्यभ्रमे नियमतोऽनुमित्यनुदयापत्त्या निरवच्छिन्नत्वं स्वप्रतियोग्यनिरूपितवं वा हेत्वधिकरणदृत्तिलस्य स्वप्रतियोगिभिन्नत्वं हेत्वधिकरणस्य वा विशेषणमावश्यकं खपदमभावपरं, तथाच तत एव कपिसंयोगादिमशिनवस्थाव्याप्यत्तित्वेऽपि कपिसंयोगौ एतत्त्वादित्यादौ नायाप्तिः मूले वृक्षः कपिसंयोगै नेत्यवाधितप्रतीतावपि वृक्षः कपिसंयोग्यन्योन्याभाव
Page #158
--------------------------------------------------------------------------
________________
ie तत्वचिसामने नचैवमननुगमा दोषाय, कस्य का व्याप्तिरित्यननुगतस्यैव लक्ष्यत्वात् । अथ धूमवति वहि-इदा न प्रतियोगी नेत्यप्रत्ययेन(१) स्वप्रतियोगित्वावच्छित्रप्रतियोगिताकभेदवत्त्वस्य हेत्वधिकरणे विरहादित्येव तत्त्वं ।
केचिन्नु कपिसंयोगिभिवत्वस्थाव्याप्यवृत्तित्वधने तत्मायां वा हेतुसामानाधिकरण्यग्रहे नियमतोऽनुमित्यनुत्पादवारणय प्रतियोग्यत्तित्वेनान्योन्याभावो विशेषणीयः । न चैवं कपिसंयोगौ मत्त्वादित्यादावतिव्याप्तिरिति वाच्यं। मामानाधिकरण्यस्याव्याप्यवृत्तितया कपिसंयोगवदन्योन्याभावस्थापि गुणादौ प्रतियोग्यवृत्तित्वात् । हेत्वधिकरणावच्छेदेन प्रतियोग्यवृत्तित्वं विवक्षितं एतलाभायैव च हेतुसमानाधिकरणपदं, तेन संयोगौ द्रव्यत्वादित्यादौ नाव्याप्तिस्तदवस्था । हेतुरेव वा प्रतियोग्यवृत्तित्वेन विशेषणैयः इत्याहुः । तदसत् गौरवात् सम्बन्धविशेषेणैव प्रतियोग्यरत्तित्वस्य वक्तव्यतया(२) स्वप्रति
(१) अव्याप्यवृत्तिधर्मावच्छिन्न प्रतियोगिताकभेदस्यैवाव्याप्यत्तित्वं न तु
व्याप्यत्तिधर्मावच्छिनप्रतियोगिताकभेदस्य पतः प्रतियोगित्वस्य याप्यत्तिधर्मतया तदवच्छिन्नप्रतियोगिताकभेदस्य नाव्याप्यवत्तित्व
मिति भावः। (२) प्रतियोग्यत्तित्वम्य सम्बन्धविशेषानियन्त्रितत्वे धूमवान् व रित्वादा
वतिव्याप्तिः तत्र धूमववेदस्य प्रतियोगिनि धूमवति कालिकसम्बन्धेन वर्तमानत्वात् प्रतियोग्यरत्तिभेदो गगनादिभेद रव तस्य प्रतियोगिनि गगनारी केनापि सम्बन्धेनावर्तमानत्वात् तदप्रतियोगित्वात् धूमवदादेः । सम्बन्धविशेषश्च खप्रतियोगितावच्छेदकवत्तायाविरोधिताघटकासम्बन्धरूपः, खपदं बन्योन्याभावपरम् ।
Page #159
--------------------------------------------------------------------------
________________
वातिवाद स्तः धूमवान् वह्निमादी न भवतीतिप्रतीतेासज्यहत्तिप्रतियोगिवौ वहि-वहिमतोरत्यन्तान्योन्याभावी
योग्यनिरूपितत्वापेक्षया गुरुत्वात् प्रतियोग्यवृत्तित्वस्याव्यायवृत्तित्वे मानाभावाञ्चेति दिक् । __ मनु तजेत्यादौ सप्तम्याधुत्तरत्रादिप्रत्ययेन सप्तम्यादेरिव स्वममानाधिकरणान्योन्याभावाप्रतियोगियबस्कत्वमित्यत्र सम्बन्धिबोधकबजनौयुत्तरककारेण मतप्प्रत्ययादिः मर्याते तेन च व्याप्यत्वरूपसम्बन्धाश्रयः साध्यव्याप्यत्वरूपसम्बन्धाश्रयो वा स्मर्य्यते विग्रहवाक्यस्थषष्ट्याद्यर्थवतो बडबौद्युत्तरककारस्मारितमत्वाद्यर्थत्वनियमात् तत्र प्रथमे तदेकदेशे व्याप्यत्वे निरूपितत्वसम्बन्धेन यवत्पदार्थस्य मायाधिकरणस्यान्चयः, द्वितीये तदेकदेशे माथे प्राधेयतासम्बन्धेन तदन्वयः, यदा यत्पदोत्तरमतप्प्रत्ययस्यैवाधिकरणव्याप्योऽधिकरणवृत्तिसाध्यव्याप्यो वा अर्थः विग्रहवाक्यस्थषठ्याद्यर्थवतो बड़ौडेवरमपदार्थत्वनियमात्, तदेकदेशे चाधिकरणे प्रतियोग्यन्तस्य यत्पदार्थमाध्यस्य चान्वयः, ककारस्तात्पर्यग्राहकः, तथाच स्वसमानाधिकणन्योन्याभावाप्रतियोगिमायाधिकरणव्याप्यत्वं स्वममानाधिकरणान्योन्याभावाप्रतियोगिमायाधिकरणकृत्तिमाध्यव्याप्य त्वं वा लक्षणवाक्यार्थः उभयथैव व्याप्यत्वं तद्घटकं तदेव च व्याप्यत्वं न ज्ञायते इत्यत पाह, 'थाप्येति, व्याय-व्यापकभावाज्ञानेऽपि' माध्यवतो व्याप्यत्वज्ञानं विनाऽपि, 'सम्बन्धवेनैव भातस्य' संयोगवादिनैव प्राण्याप्तिवान विषयस्य, 'वस्तमतः तथालेनाचाबमानस्य' वस्तुसतोयाप्तिखेन प्रतध्यातिज्ञा
Page #160
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वपिनाम धूमपति विद्यते इति कथमेते लक्षणे इति चेत् । न। ताभावानभ्युपगमात् अभ्युपगमे या तप सदुभय प्रतियोगि न वहि-वहिमता।
माविषयस्य, षष्ठ्यर्थत्वं विग्रहवाक्यस्थषष्ठ्यर्थत्वमिति योजना, 'वस्तुसतः' वस्तुनि फलीभूतानुमितौ विधेयतासम्बन्धन मतः माध्यस्येति थावत्, तथाच संयोगत्वादिरूपेण संयोगादिरूपहेतुतावच्छेदकसम्बन्धस्यैव विग्रहवाक्यस्थषष्ठ्यर्थतया ककारस्मारितमत्वादेरपि संयोगत्वादिरूपेण संयोगादिरेवार्थो न तु व्याप्यत्वादिरूपसम्बन्धवानिति भावः। न चैवमिति, ‘एवं' खपदार्थ-यत्पदार्थघटितलक्षणे, 'अननुगतस्यैवेति, लक्ष्यस्थानुगतत्वे लक्षणस्याननुगतत्वएव परस्पराव्याप्तिरूपदोषसम्भवादिति भावः। 'धूमवान् वक्रिमद्दौ न भवतीत्येव पाठः, 'न भवत इति पाठस्तु प्रामादिकः) । 'व्यासज्येति व्यामज्य
त्तिधर्मावचिनप्रतियोगिकावित्यर्थः, 'धूमवति' वकि-दोभयत्वावच्छिवानधिकरणे धूमवति, 'कथमेते लक्षणे इति, एते' अत्यन्ताभाबान्योन्याभावगर्भशक्षणे, प्रतियोगिव्यधिकरणत्वस्य प्रतियोगितावच्छेदकावविषयधिकरणवरूपतया वहि-दोभयत्वावछिन्नाभावथापि तथात्वादिति भावः, 'तादृशाभावेति व्यासव्यत्तिधावपित्रप्रतियोगिताकाभावानभ्युपगमादित्यर्थः । न चैवं वकि-दौ
(1) माय देशवाचवपदातरवार्तवचनसमातीयवचनमापनियमा. .. रिवि शेषः।
Page #161
--------------------------------------------------------------------------
________________
धातिवाद। अथवानोपाधिकावं व्याप्तिः तच यावखसमानाधिकरणात्यन्ताभावप्रतियोगितापच्छेदकावच्छिन्नं यत्
न इत्यादिप्रतीतेः को विषय इति वाच्यं । हुदाधिकरणे तादृशप्रत्ययस्य बनिसामान्याभावो विषयः वझिमति तादृशप्रत्ययस्य इदसामान्याभावो विषयः तदुभयशून्ये च तादृशप्रत्ययस्य तादृशाभावदयमेव विषय इत्यभ्युपगमात्। न चैवं द्वित्वस्य प्रतियोगितावच्छेदकबोलेखोऽनुपपत्र इति वा । लाघवात् कृप्तप्रकारोभूतवमित्व-दवादिरूपतत्नविच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावानामेव द्वित्वावच्छिनप्रतियोगिताकत्वकल्पनात् । अथेवं लक्षणव्याप्तिस्तदवस्था धूमसमानाधिकरणदसामान्याभावस्य दबावच्छिन्नहूदमात्रवृत्तिप्रतियोगिताव्यकर्वझावसत्त्वेऽपि वकि-दोभयत्वावच्छिन्नतत्प्रतियोगिताव्यमोरभयसाधारणतया वहावपि मत्वात् द्रव्यमामान्यांभावो वहिप्रतियोगिकः इति वत् इदसामान्याभावो वहिप्रतियोगिक इत्यपि प्रत्ययापत्तिः दसामान्याभावो न वकिप्रतियोगिक इति प्रत्ययानुप. पत्निच दमामान्याभावस्य द्वित्वावछिनप्रतियोगितात्याकिनिहत्लादिति चेत्। ना वनिसामान्याभाव-दसामान्याभावादेः वहिलइदबावविववकि-दमात्रवृत्तिप्रतियोगिताव्यत्योरेव वहि-दोभयत्वावशिवत्वाभ्युपगमात् उभयसाधारणप्रतियोगितान्तरे मानाभावात् । नवं पर्वते वकि-दौ न त इति प्रतौतेः प्रतियोगिताकालसम्बन्धनाभावे वकि-दयोरभयोः प्रकारत्वानुपपत्तिः हवामाबाभावे वशिनि प्रतियोगिताकलविरशदिति वाचा इदलापति
Page #162
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०
तत्वचितामगै
तत्प्रतियोगिकात्यत्ताभावसमानाधिकरणं यत् तेन समं सामानाधिकरण्यम् । नवं सोपाधिः, तब
बदमात्रवृत्तिप्रतियोगिताध्यकईदसम्बन्धत्वववकिसम्बन्धत्वस्याप्यन्युपगमात्। न च तदसम्बद्धस्य कथं तत्सम्बन्धत्वमिति वाच्च। तदृत्तिधर्मावचित्रत्वसम्बन्धेन तथापि तत्सम्बद्धत्वात् तत्र निष्ठतासम्बन्धेन प्रतियोगित्वस्योभवसम्बद्धत्वे मानाभावात्। अथ वनि-दौ न स्तः घट-पटौ नस्त इत्यादिप्रतौतेः प्रकारौभूततत्तद्धर्मदयावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावविषयत्वेनोपपत्तावपि घटौ न स्तः पटौ न स्तः इत्यादि प्रतौतेर्न कप्ताभावविषयत्वेनोपपत्तिः घटादिसामान्याभावस्य तद्विषयत्वे एकैकघटादिमति तादृशमतीत्यनुपपत्तिः यत्किञ्चिद्घटाद्यभावस्य तद्धिषयत्वे घटदयादिमत्यपि तादृशप्रतीत्यापत्तिः अतो घटद्वयत्व-पटइयबावच्छिवप्रतियोगिताकाभावस्थातिरिक्तस्यावश्यकत्वमिति चेत् । म। तावता घटौ न स्तः पटौ न त इत्यादिप्रतौतिबलाघटइयत्व-पटइयत्वावच्छित्रप्रतियोगिताकाभावस्थातिरिक्तस्य सिद्धवावपि घट-पटोभयत्वावशिष-वकि-दोभयत्वावच्छिनाभावादेरतिरिकत्वे मानाभावात् । यावत्यो घटव्यायः प्रातिविकरूपेण तनहटव्यक्रिभित्रघटबावच्छिनप्रतियोगिताकाभावेष्वेव प्रत्येकं घटइयत्वावच्छिवप्रतियोगिताकत्वकल्पनात् यत्किचिघटभिवघटाभावादेव घटौ न त इति प्रतीत्युपपत्तेः घटइयत्वावछिनप्रतियोगिताकाभावेऽपि मानाभाष पस्किचिघटइ भवति घटेतरघम्स्यैव साचात् न तथा धौः। कचाननाभावेषु घटस्थलावशिवप्रतियोगिताकावसम्बन्धकल्पना
Page #163
--------------------------------------------------------------------------
________________
वातिवाद।
१५१ साधनसमानाधिकरणात्यन्ताभावप्रतियोगिन आदेंवनवत्वादेरुपाधेर्योऽत्यन्ताभावस्तेन समं साध्यस्य
मपेक्ष्य लाघवादेक एव तत्सम्बद्धातिरिकाभावः सिहातीति वाच्यं । अनन्ताधिकरणेषु अतिरिकाभावसम्बन्धकल्पनामपेक्ष्य क्लृप्तानन्ताधिकरणसम्बन्धेम्वेवानन्ताभावेषु घटदयत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्वसम्बन्धकल्पनाया एव लघुत्वादिति भावः। एतेन त्रित्वाद्यवछिनाभाव्ये पि व्याख्यातः । ननु घट-पटौ न स्तः घटौ न स्तः वहि-ह्रदौन स्तः वाही ना इत्यादिप्रतीतेः अधिकरणभेदेन नानाभावविषयकत्वमनुभवविरुद्धमेकाभावविषयकत्वस्यानुभवसिद्धत्वात् तादृशानुभवापलापे अधिकरणतिरिकाभावस्थासिद्ध्यापत्तेः इत्यस्वरमादाह, 'अभ्युपगमे वेति, 'तदुभयं प्रतियोगि' द्वित्वव्यावर्तकं तत्तद्धर्भदयं द्वित्वञ्च तादृशाभावप्रतियोगितावच्छेदकं, 'न वहि-वनिमन्तौ' न वशित्ववनिमत्त्वे, तथाच हेतुसमानाधिकरणवहि-दोभयाभावस्य वम्हित्वह्रदत्वमुभयत्वं चितयं प्रतियोगितावच्छेदकं अवच्छेदकता च व्यासज्यवृत्तिः न तु वशित्वमवच्छेदकतापर्याप्यधिकरणं, एवं वझिमद्
दोभयान्योन्याभावस्य वझिमत्त्वं ह्रदत्वमुभयत्वञ्च चितयं प्रतियोगितावच्छेदकं अवच्छेदकता च व्यासज्यवृत्तिः न तु वक्रिमचं अवच्छेदकतापर्यायधिकरणं श्रतो नाव्याप्तिः प्रागुतयुक्त्या सर्वेषामेव लक्षणानां अवच्छेदकतापर्याप्यधिकरणत्वघटितत्वादिति भावः । 'तदुभयं प्रतियोगीत्यादि यथाश्रुतन्तु न मङ्गछते उभयोः प्रतिचोगिवे एकचापि प्रतियोगिलानपायात् । न च व्यासज्यरतिधर्षाव
Page #164
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५९
नापरिणाम
धूमादेः सामानाधिकरख्याभावात् उपायः साथव्यापकत्वात् । एतदेव यावत्वव्यभिचारियभिचारिसाध्यसामानाधिकरण्यमनीपाधिकत्वं गीयते ।
विवाभावस्य प्रतियोगितापि थासज्यत्तिरिति वाचं। घटो घट-पटोभयाभावप्रतियोगौत्यप्रत्ययापत्तेः घटो म घट-पटोभयाभावप्रतियोगौति प्रत्ययापत्तेश्व इति ध्येयं ।
केचित्तु 'तदुभयं प्रतियोगि' दित्वव्यावर्तकतत्तद्धावा छात्रमात्रवृत्तिपर्याप्यधिकरणत्वसम्बन्धेन तदुभयत्वं तादृशाभावप्रतियोगितावच्छेदकं, 'न तु वहि-वहिमन्तौ' न वशित्व-मझिमत्त्वे, तथाच वकि-दोभयाभावादेशि-छदमात्रवृत्तिपर्याप्यधिकरणत्वादिसम्बधेन द्वित्वं प्रतियोगिताव छेदकं न तु वशिलादि। न चैवं वशि
दौ न स्त इत्यादावन्वयितावच्छेदकावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्वव्युत्पत्तिभङ्गप्रसङ्गः केवलदित्वस्यान्वयितानवच्छेदकलादिति वाच्यं । तझुत्पत्तेरत्र सोचात् इत्याहुः ।
प्राञ्चस्तु घट-पटोभयाभावादेर्घट-पटोभयवृत्तिदित्वत्वेन तामदित्वमेव प्रतियोगितावच्छेदकं अन्वयितावच्छेदकावशिवप्रतियोगिताकदव्युत्पत्तेचात्र सोच एव इत्याः । तदसत् घट-पटोभयवृत्तिवाद्यनुपस्थितावपि घट-पटौ न स्तः इति प्रत्र्यात्। न च तदानौं तादृशप्रत्ययोऽसिद्ध इति वाच्यं । तदानीमपि नामप्रत्ययस्येव दीधितिकता लिखितवादिति दिक् ।
Page #165
--------------------------------------------------------------------------
________________
यातिवादः।
१५
यहा यावत्समानाधिकरणत्यन्ताभावाप्रतियोगि
"प्राचार्यलक्षणं परिष्करोति 'अथ वेनि, यथाश्रुते प्रकृतसाथव्यापकत्वे मति साधनाव्यापको यस्तदभाववाचकपमनौधिकत्वमिति, मद्धेतौ सिद्यसिद्धिव्याघातादाह, “तच्चेति अनौपाधिकमवेत्यर्थः, 'यावदिति, यावन्ति खममानाधिकरणात्यन्ताभावप्रतियोगिताकर दकानि तदवच्छित्रप्रतियोगिताकात्यन्ताभावसमानाधिकर साध्यं तेन समं सामानाधिकरण्यमित्यर्थः, 'खपदं हेत्वभिमर वहिमान् धूमादित्यादौ धूमसमानाधिकरणत्यन्ताभावप्रतियो। गितावच्छेदकानि यावन्ति जलवादौनि तदवच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावसमानाधिकरण एव वहिः व्याप्यसमानाधिकरणात्यम्नाभावप्रतियोगिनो व्यापकवति सुतरां अत्यन्ताभावादिति लक्षणसमन्वयः । धूमवान् वहेरित्यादौ च वझिसमानाधिकरणत्यन्नाभावप्रतियोगितावच्छेदकमा धनत्व-धूमत्वादि तदवच्छिन्नप्रतियोगिताकात्यन्ताभावसमानाधिकरणच न धूमादि:(९) पाईन्धनादेधूमव्यापकत्वादिति मातिव्याप्तिः । वन्हिसमानाधिकरणत्यन्ताभावप्रतियोगितावच्छेदकं - लवादि तदवचित्रप्रतियोगिताकाभावसमानाधिकरणोधूम इत्यतिव्याप्तिवारणाय 'यावदिति। ननु सर्वत्र तादृशावच्छेदकैर्घटत्व-पटखगोलादिभिर्यावहिरवचित्रत्वस्य कुत्राप्यभावादसिद्धिः। न च यावन्ति तादृशावच्छेदकानि तत्प्रत्येकावच्छिनप्रतियोगिताकाभावेति विव
(९) तदवच्छिनप्रतियोगिताकात्यन्ताभावासमानाधिकरणच • धूमारिरिति खः ।
Page #166
--------------------------------------------------------------------------
________________
तापिताम
प्रतियोगिकात्यन्ताभावासामानाधिकरख्यं यस्य तस्य तदेवानीपाधिकत्वं कोषाधौ तु साध्यवबिष्ठात्यन्ताभा
-----
चितमिति वर्ष । छित्रपदस्थाश्रयार्थकतया तत्प्रत्येकाचप्रतियोगिसोमवाभाव-विशिष्टाभावादिकमादायातिव्याप्यापत्तेः । न
मला त्रस्य विशेषणं तथाच तादृशावच्छेदकावच्छिन्नानि प्रतियोगिताकाभावेत्यर्थः, अवच्छिन्नपदमाश्रयार्थकमिति
तथापि यावत्त्वावच्छिन्त्रप्रतियोगिकात्यन्नाभावमादायातिप्राप्तितादवस्यात्प्रतियोगियधिकरणत्वेनाभावविशेषणत्वेऽप्रसिद्धिः । न च तादृशावच्छेदकानि यावन्ति तत्प्रत्येकावच्छिन्नप्रतियोगिकात्यन्ताभावसमानाधिकरणं यत्साध्यं विवक्षितं रति अवच्छिालच स्वरूपसम्बन्धविशेषः, इत्यच विभिष्टाभावोभयाभावमादाय नातिव्याप्तिरिति वाच्यं । रूपवान् पृथिवीत्वादित्यादावव्याप्यापत्तेः पृथिवौलसमानाधिकरणत्यन्ताभावप्रतियोगितावच्छेदकानि घटवस्वपटत्ववादीनि यावन्ति तत्प्रत्येकावचिनप्रतियोगिकाभावमामानाधिकरण्यस्य कापि रूपेऽसत्वात् घटीयरूपे घटबलावछिनपतियोगिकात्यन्ताभावसामानाधिकरणविरहात् पटौयरूपे पटवत्वावचिनप्रतियोगिकात्यन्ताभावसामानाधिकरणविरहात्। विशिष्टसत्तावान् जातेरित्यादावतिव्याप्यापत्तेष जातिममामाधिकरणात्यताभावप्रतियोगितावच्छेदकानि थावन्ति तत्प्रत्येकावचिनप्रतिबोगिताकाभावशमानाधिकरयस्यैव विशिष्टसत्त्वे मत्तानतिरिक मलादिति। मैवं । हेतुसमानाधिकरणात्यन्ताभावप्रतियोगितावरे
Page #167
--------------------------------------------------------------------------
________________
खामिवादः ।
वाप्रतियोगिन उपायोऽत्यन्ताभावस्तेन समं रेतो. सामानाधिकरण्यम् उपाधेः साधनाव्यापकत्वात् ।
दका यावन्तो धर्मा यविछिनसमानाधिकरणात्यन्ताभावप्रतियोगितावच्छेदकास्तद्धविच्छिन्नसामानाधिकरणस्थ विवक्षितत्वात् । बर्षपदं माध्यतावच्छेदकपरं,अत्र चरमप्रतियोगिता विशेषणताविशेषसम्बन्धावछिनत्वेन विशेषणैया, तेन धूमवान् वक्रेरित्यादौ वकिसमानाधिकरणत्यन्ताभावप्रतियोगितावच्छेदकस्या;न्धनत्वादेः सर्वस्यैव धूमवावच्छिन्नसमानाधिकरणसमवायादिसम्बन्धावच्छिनाभावप्रतियोगितावच्छेदकत्वेऽपि धूमप्रकारकप्रमाविशेष्यत्वत्वादेः() तादृशा. वच्छेदकयावदन्तर्गतस्य धूमसमानाधिकरणभावीयविशेषणताविशेपावच्छिनप्रतियोगितावच्छेदकत्वविरहानातियाप्तिः। एवं प्रथमप्रतियोगितापि विशेषणताविशेषसम्बन्धावच्छिनत्वेन विशेषणैया, तेन वहिमान् धूमादित्यादौ धूमसमानाधिकरण-संयोग-समवायादिसम्बधावच्छिनाभावप्रतियोगितावच्छेदकस्य वकिप्रकारकप्रमाविशेष्यत्ववादेर्यावदन्तर्गतस्य वक्रिममानाधिकरणाभावीयविशेषणताविशेषावचित्रप्रतियोगितावच्छेदकत्वविरहेऽपि न चतिरिति दिक् । यथा
(१) पयापिऽपि धमप्रकारकममात्मक ज्ञानविशेष्यत्वसत्त्वात् धम
प्रकारकमानविशेष्यत्वत्वादेः बहिसमानाधिकरणाभावप्रतियोगिवावशेदकत्वं न सम्भवतीत्वत उक्तं धूमप्रकारकामाविशेषताबारे
रिति।
Page #168
--------------------------------------------------------------------------
________________
(५६ सावचिन्तामयी
यहा यत्सम्बन्धितावच्छेदकरूपवत्त्वं यस्य तस्य सा व्याप्तिः। तथाहि धूमस्य वह्निसम्बन्धित्वे धूमत्वम
श्रुताभिप्रायेणामद्धेतौ लक्षणासत्त्वं प्रतिपादयति, 'न होवमिति, 'अत्यन्ताभावप्रतियोगिनः' प्रतियोगितावच्छेदकावच्छित्रस्य, उपाधेः' बान्धनवत्त्वाधुपाधेः(१) । ननु तस्यानोपाधिकत्वरूपत्वे “यावत्खव्यभिपारिव्यभिचारिमाध्यमामानाधिकरण्यमनौपाधिकत्वं" इति प्राचीनग्रन्थविरोध इत्यत श्राह, ‘एतदेवेति मया यनिरुतमेतदेवेत्यर्थः, 'अनौपाधिकत्वमित्यनन्तरमिति पूरणीयं, 'गौयते' प्राचीनैरुचते, 'व्यभिचारिपदस्य खसमानाधिकरणात्यन्ताभावप्रतियोगितावच्छेदकावच्छिन्नार्थकतया, द्वितीयव्यभिचारिपदस्य च तत्प्रतियोगिताकात्यन्ताभावसमानाधिकरणार्थकतया तस्याप्ययमेवार्थः इति भावः ।
प्रकारान्तरेणानौपाधिकत्वं निर्वक्ति, 'यति यावन्तो यत्ममानाधिकरणात्यन्ताभावाप्रतियोगिनस्तत्प्रतियोगिकात्यन्ताभावासामानाधिकरण्यं यस्य तस्य तत्त्वमेव तदनौपाधिकत्वमित्यर्थः, प्रथमयत्पदं माध्यपरं यस्येत्यत्र यत्पदं हेतुपर, वकिमान् धूमादित्यादौ वहिसमानाधिकरणभावाप्रतियोगिमामिन्धनादीनां सर्वेषामेवा
(१) बमसंसहीतादर्णमूलपुस्तकेषु सर्वत्र ‘पाईन्धनवत्वादेशपाधेः'
इति पाठो वर्तते परन्तु टीकाकारण्याख्यानुसारेण कस्मिंश्चिमूलपुलके पाईन्धनवत्वादेशपाधेः' इत्यत्र 'उपाधेः' इत्येतावमात्रपाठी वर्तते इत्यनुमीयते।
Page #169
--------------------------------------------------------------------------
________________
खातिवादः। . . १५७ |वच्छेदकं धूममावस्य वह्निसम्बन्धित्वात, वस्तु धूमसम्बन्धे न वहिवमवच्छेदकं धूमासम्बन्धिनि गतत्वात्,
भावेन समं धूमस्य न मामानाधिकरण्यं व्यापकव्यापकस्य सुतरां व्याप्यव्यापकत्वादिति लक्षणसमन्वयः, धूमवान् वहेरित्यादौ धूमसमानाधिकरणभावाप्रतियोगिनामा धनादौनामेवाभावेन समं वयादेः सामानाधिकरण्यानातिव्याप्तिः । .धूमसमानाधिकरणाभावाप्रतियोगिनों द्रव्यत्वादेरभावेन ममममामानाधिकरण्यस्य वकी सत्त्वादतिव्याप्तिवारणाय ‘यावदिति। ननु सर्वच माध्यममानाधिकरणभावाप्रतियोग्येवाप्रसिद्धं तादृशविशिष्टाभावोभयाभावप्रतियोगित्वस्य केवलान्वयित्वात्। न चाप्रतियोगिपदं विशेषणताविशेषावच्छिनप्रतियोगितानवच्छेदकावच्छिनपरं व्यधिकरणसम्बन्धावधिबतादृशाभावप्रतियोगितावच्छेदकत्वस्य सर्वत्र मत्त्वात् तादृशप्रतियोगितानवच्छेदकस्याप्रमिद्धिरिति विशेषणताविशेषावच्छिन्वेति प्रतियोगिताविशेषणमिति वायं । तथापि वहिमान् धूमादित्यादावसम्भवातु वसिमानाधिकरणाभावौयविशेषणताविशेषावच्छिनप्रतियोगितानवच्छेदकावच्छिषयावत्प्रतियोगिकेन यावत्त्वावच्छिाप्रतियोगिकाभावेन समं मामानाधिकरण्यस्य धूमे सत्त्वात् । न च माध्यममानाधिकरणाभावौयविशेषणताविशेषावच्छिन्नप्रतियोगितानवच्छेदकं यावत् तत्प्रत्येकावच्छिन्नविशेषणताविशेषावच्छिनप्रतियोगिकाभावेन सममसामानाधिकरणं विवक्षितं संयोग-समवायादिसम्बन्धावशिवप्रतियोगिकाभावमादाथासम्भववारणय विशेषणता
Page #170
--------------------------------------------------------------------------
________________
तावचिन्तामी म अतिप्रसक्तमवच्छेदक, संयोगादा तवावादर्शनात् । किन्तु वह्लावाट्टैन्धनप्रभवहित्वं धूमसम्बन्धितावच्छेदकं, ताहशच व्याप्यमेव ।
विशेषावशिवेति चरमप्रतियोगिताविशेषणमिति वाय। प्रमेयत्ववादेरपि तादृशप्रतियोगितानवच्छेदकयावदन्तर्गततया तदवच्छिनविशेषणताविशेषावच्छित्रप्रतियोगिकाभावाप्रमिया असम्भवतादवस्यात्। न च व्यतिरेकितावच्छेदकत्वेन(९) तादृशप्रतियोगितानवच्छेदकं विशेषणैयमिति वाच्यं । तथापि केवलान्वयिन्यव्याप्तेः तत्र तादृशप्रतियोगितानवच्छेदकव्यतिरेकितावच्छेदकधर्माप्रसिद्धेः द्रव्यं विशिष्टमत्त्वादित्यादावव्याप्तेन विशिष्टस्यामतिरेकात् । अथ थावावं द्वितीयात्यन्ताभावविभूषणं, तथाच माध्यममानाधिकरणभावीचविशेषणताविशेषावछिनप्रतियोगितानवच्छेदकावच्छिवविशेषणताविशेषावच्छिनप्रतियोगिकयावदभावामामानाधिकरण्यमित्यर्थः । न साथमात्मा ज्ञामादित्यादौ तादृश्यावदभावान्तर्गतानां रूपादिसामान्याभावाभावानां सकलरूपादियकीनां अधिधारणाप्रसिद्धिः तादृप्रयावदभावप्रत्येकामामानाधिकरयोकावपि तादृश्यावदभावातर्गतस्याकामादरधिकरणाप्रमिया असम्भवः द्रव्यं विशिष्टमत्वादित्यादौ अध्याप्तिय विशिष्टमवानतिरिकत्वात् इति वाच। सप्तमौतत्पुरुषावात् तादृप्रयावदभावे असामानाधिकरणं यह वछि
(१) बमावप्रतियोगिवायशेकावेनेवः।
Page #171
--------------------------------------------------------------------------
________________
वामिनाया।
१६
अथवा यत्सामानाधिकरण्यावच्छेदकावच्छिन्नं यस्य
अस्य तद्धर्मवत्वं तदनौपाधिकत्वमित्यस्य विवक्षितत्वात् श्राकाशादापि हेतुसामानाधिकरण्याभावसत्त्वात् न दोष इति चेत् । म। द्रव्यं पृथिवौत्वादित्यादावव्याप्तेः तादृशप्रतियोगितानवच्छेदकद्रव्यान्यत्वविशिष्टमत्त्वाभावत्वाधवच्छिनप्रतियोगिताकाभावस्य सत्तादेः पृथिवीवादिसमानाधिकरणवादाकाशाभावादेरभावे. मानाभावेन केवलाचयिस्थलेऽपि तादृशाभावाप्रसिद्धेश्चेति । मैवं । माध्यसमानाधिकरणभावौयविशेषणताविशेषावच्छिनप्रतियोगितानवच्छेदका यावन्तो धर्मा यविच्छिन्नसमानाधिकरणभावीयविशेषणताविशेषाबच्छित्रप्रतियोगितानवच्छेदकास्तद्धर्मवत्त्वमनौपाधिकत्वमिति विवक्षितत्वादिति दिक् । मोपाधौ यथाश्रुताभिप्रायण लक्षणभावं दर्शयति, 'मोपाधाविति। 'यदेति, 'मा' तत्सम्बन्धिता, सम्बन्धिता प सामानाधिकरणं, तथाच यत्सामानाधिकरण्यावच्छेदकरूपवत्त्वं यस्य तस्य तत्मामानाधिकरण्यमित्यर्थः, प्रथमयत्पदं माध्यत्वेनाभिमतपरं। न च द्रव्यं सत्यादित्यादावतिव्याप्तिः सत्ताया द्रष्यत्वसामानाधिकरण्यावच्छेदकगुणाद्यन्यत्वविशिष्टमत्त्वत्वावच्छिनत्वात् यस्येत्यायर्थवाव्यावर्तकत्वात् इति वाच्यं । यत्सम्बन्धितावच्छेदकं यद्रूपवत्त्वं यस्य तस्य तत्मामानाधिकरण्यं तद्रूपेण तस्य व्याप्यत्वमित्यभिप्रायात् । इत्यच वहिवरूपेण धूमव्याप्यत्ववारणय यस्येत्यन्तं, तथाच माध्यमामानाधिकरणावच्छेदकवत्वे मति माध्यमामानाधिकरणं याप्तिरिति फलितं । पत्र न बाध्ययामानाधिकरण्यावशेदकत्वं न
Page #172
--------------------------------------------------------------------------
________________
ताचिन्तामणे
स्वरूपं तत्तस्य व्याप्यं वह्निसामानाधिकरण्यं हि धूमे धूमत्वेनावच्छिद्यते सौपाधौ तूपाधिना।
खरूपसम्बन्धविशेषः, लघुसमनियतगुरुरूपेण हेतुतायामव्याप्यापत्ते:(१) धूमलादेर्वहिसामानाधिकरण्यस्य स्वरूपसम्बन्धरूपावच्छेदकत्वे मानाभावाच्च । नापि माध्यमामानाधिकरण्यान्यूनवृत्तित्वं वद्धिमान् प्रमेयात् इत्यादावतिव्याप्यापत्तेः वहिमान् धूमादित्यादावव्याप्यापत्तेश्चर) मापि तदन्यूनानतिरिक्तवृत्तित्वं, वहिमान् धूमादित्यादावेवाव्याप्तेः । नापि तदनतिरिकवृत्तित्वं, द्रव्यं सत्त्वादित्यादावतिव्याप्यापत्तेः। किन्तु पारिभाषिक, तच्च स्खविशिष्टाधिकरणवृत्तियावत्माध्यासमानाधिकरणकत्वं, स्वपदं हेतुतावच्छेदकपरं। न चैवं वद्धिमान् नौलधूमादित्यादौ व्यर्थविशेषणेऽतिव्याप्तिः निरुकावच्छेदकत्वस्य नौलधूमवादावपि मत्त्वादिति वाच्यं। तस्यापि लक्ष्यत्वात् व्यर्थविशेषणोद्भावने वादिनोऽधिकेन नियह इत्येव व्यर्थविशेषणताया दूषकतावौजत्वात्। तत्र साध्यासमानाधिकरणत्वं माध्यतावच्छेदकसम्बन्धेन माध्यतावच्छेदकावच्छिन्नाधिकरणे दैभिकविशेषणताविशेषेणवृत्तित्वं, तेन समवायेन वद्यादौ साध्ये वहिमान् धूमादित्यादौ गुणाद्यन्य(१) सम्भवति लधौ धर्मे गुरौ तदभावादिति नियमादिति शेषः। (२) धन्यूनमृत्तिवपदस्य व्यापकत्वार्थकतया प्रमेयत्वस्य वह्निसामानाधि
करण्यव्यापकतया वडिमान् प्रमेयादित्वादावतिव्याप्तिः । वह्निसामागाधिकरण्यस्य रासभादिसाधारणतया धुमत्वस्य तदव्यापकतया वधिमान् धूमादित्यादावथाप्तिश्चेति भावः ।
Page #173
--------------------------------------------------------------------------
________________
चालवादः।
बविशिष्टतावान् जातेरित्यादौ च नातियाप्तिः, न वा गमनादः कालिकसम्बन्धेनावृत्तित्वमते द्रव्यं सत्त्वादित्यादौ द्रव्यत्वाधिकरणकालावृत्तिलस्थावृत्तिमाचे सत्त्वेऽपि प्रतिव्याप्तिः, गगनादेस्तेन सम्बन्धेन वृत्तिवमते द्रव्यं गुणदित्यादौ द्रव्यत्ववदवृत्तित्वस्याप्रसिड्याव्याप्तिः, खविशिष्टाधिकरणवृत्तित्वमपि हेतुतावच्छेदकसम्बन्धेन स्वविशिटाधिकरणे दैशिकविशेषणताविशेषणवर्त्तमानत्वं, तेन वकिमान् धूमादित्यादौ वन्यसमानाधिकरणधूमावयवत्वादेशिकविशेषणताविशेषेण वयसमानाधिकरणद्रव्यत्वादेश्च धूमसमानाधिकरणत्वेऽपि नाव्याप्तिरिति संक्षेपः । । म त्वमवोर्लक्षणमत्त्वासात्वमुपपादयति, 'तथाहौति, 'वकिसम्बन्धित्वे' वक्रिमामानाधिकरण्ये, एवं सर्वच, 'न अतिप्रसामिति न हि माध्यसामानाधिकरण्यातिप्रम निरकमाध्यसामानाधिकरण्यावच्छेदकत्ववदित्यर्थः, 'संयोगादौ' संयुकत्वादो, 'त्रादिना प्रमेयत्वादिपरिग्रहः, 'तथाखादर्शनादिति यथोक्तधूमादिसामानाधिकरण्यानवच्छेदकलादित्यर्थः, माध्यमामानाधिकरण्यातिप्रमकस्यापि निरुकमाध्यमामानाधिकरण्यावच्छेदकलाश्रयत्वे संयुक्रत्व-प्रमेयत्वादेरपि तामधूमादिसामानाधिकरण्यावच्छेदकलापातादिति भावः । अत्र माध्यमामानाधिकरयांशस्यातिरिक्तस्य प्रवेशे प्रयोजनविरहात् गौरवाच तत्परित्यज्य लक्षणतरमाह, 'अथ वेति ‘यत्पदं साध्यपरं, प्रचापि यत्सम्बन्धितावच्छेदकयावच्छिवं यत् तत् तदुर्मरूपेण तस्य व्यायमित्यर्थः, अन्यथा द्रव्यं सत्चादित्यादावपि सत्ताया द्रव्यत्वमामानाधिकरण्यावच्छेदकविशिष्टमत्ताबावच्छिनखादतिव्याप्यापत्तः,
21
Page #174
--------------------------------------------------------------------------
________________
तावचिन्ताम
तथाप साध्यसामानाधिकरण्यावच्छेदकहेतावच्छेदकवावं थाप्तिरिति पर्यवमितं अन्यत्सर्वे पूर्ववत् ।
मद्धेवसद्धेस्वोसंक्षणमत्वासावमुपपादयति, 'वक्रिमामानाधिकरसमित्यादिना, 'मोपाधौ तु उपाधिनेति उपाधिना तु मोपाधाविति योजना, तथाच 'मोपाधौ' माध्यव्यभिचारित्वविशिष्टसाधने), 'उपाधिनैव माध्यसम्बन्धोऽवच्छिचत इत्यर्थः, 'तुशब्दस्य इतरव्यवच्छेदकत्वात्()। न चोपाधेः साधनावृत्तित्वात् कथं माधननिष्ठमाध्यमम्बन्धितावच्छेदकत्वमिति वाच्चं । सर्वत्र साधनसमव्याप्तोपाधेः सामानाधिकरण्यसम्बन्धेनैव माधननिष्ठमाध्यमामानाधिकरण्यावच्छेदकत्वसभवादिति भावः। यथाश्रुतन्तु न मङ्गछते साधनतावच्छेदकानववेदकत्वप्रतिपादनस्यैव (१) प्रवतोपयोगितया तदलाभात्() । यद्यपि धूमवान् व रित्यादौ प्राधिनप्रभववक्रित्वादेरुपाधिभित्रस्थाप्यव
छेदकलात् अवधारणमनुपपत्र। न चान्धनप्रभववरपि संयोगसम्बन्धेन धूमसम्बन्धितया "सर्व माध्यममानाधिकरणः सदुपाधयो हेतोरेकाश्रये येषां स्व-साध्यष्यभिचारिता" इति न्यायेनाईधनप्रभववकिवादिकमप्युपाधिरिति(५) वाचं । एवमपि वेहवत्
(२) साध्यभिचारियोति ख.। (२) इतरष्यवच्छेदार्थत्वादिति ख.। (३) साधमतावच्छेदके माध्यसामानाधिकरण्यागवच्छेदकत्वप्रतिपादनस्यैवे.
(७) खोपाधौ उपाधिना तु इति योगाभारे सा न तावरेदके साध्य
सामानाधिकरणानवच्छेदकत्वस्य प्रतिपादयितुमशक्यत्वमिति भावः । (५) खाश्रयान्धनप्रभवद्धिमत्वसम्बन्धगोपाधिरिति तात्मय॑म् ।
Page #175
--------------------------------------------------------------------------
________________
वातिवाद।
मादित्यचानुपाधिनापि भौतत्वेन साध्यसामानाधिकरण्यावोदादवधारणामङ्गतः। न च खेहवत् स्पादित्यादौ शौतत्वादिरपि साअयोभतशीतपदिसम्बन्धेन उपाधिरेवेति वाच्यं । तथा मति पदार्थमावस्यैव यथाकथञ्चित्सम्बन्धेनोपाधित्वादुपाधिभिवस्थापसिधा व्यवच्छेद्यापसिद्धे मवान् वन्हेरित्यादौ साधनतावच्छेदकस्यापि वकिवादेराईन्धनप्रभववयादिसम्बन्धेनोपाधित्वात् माधनतावच्छेदकष्यवछेदाप्राप्तेः । न चोपाधिपदं माधनतावच्छेदकभिन्नपरमिति वाच्च। इदं दधि दन इत्यत्र साधनतावच्छेदकदधित्वस्थापि मामानाधिकरण्यसम्बन्धेनावच्छेदकतया नियमासङ्गतितादवस्थ्यात् । तथापि सामान्यत उपाधिभित्रव्यवच्छेद्यत्वं न नियमव्यवच्छेचं, अपितु माधनतावच्छेदकताघटकसम्बन्धेन माधमतावच्छेदकावछिन्नत्वमात्रमिति न कोऽपि दोषः।
पिहचरणस्तु उपाधिपदमुपाधिवृत्तिधर्मपरं तथाचोपाधितिधर्मणैवेत्यर्थः, भवति धूमवान् वझेरित्यादौ पाईन्धनप्रभव.
(१) इदं दधि द इयत्र दधित्वस्य सभवायेन साध्यत्वं दा समवायेन
हेतुत्वं, प्रयत्वव्याप्यथाप्यजातेः परमाणुवृत्तिवानभ्युपगमेन परमाखन्तर्भावेण दधित्वसाध्यकदध्यात्मकतोयभिचारित्वं । न च दधित्वस्य समवायेनाप्यवच्छेदकत्वं सम्भवति कथं तत् परित्यज्य सामा. नाधिकरण्यसम्बन्धानुधावनमिति वाच्यम् । दधित्वसामानाधिकरण्यशून्ये पयुके समवायेन दधित्वस्य वर्तमानत्वेनातिप्रमलत्वात्, सामामाधिकरण्यसम्बन्धेन दधित्वन्तु न ह्यणुकात्मके दधि वर्तमानमतो. उनतिप्रसतावेनावदकमिति ।
Page #176
--------------------------------------------------------------------------
________________
तावचिन्तामगै
वशित्वादिकं माध्यमामानाधिकरण्यावच्छेदकमुपाधित्ति, तथा- यथाश्रुतनियमेऽपि न व्यभिचारः, सर्वच व्यभिचारिणि किञ्चिद्विशिष्टसाधनस्योपाधित्वात्। न च तथापि इदं वहाभाववत् स्पर्शादित्यादिसाध्या व्यापकसाधनस्थले एव व्यभिचारः शौतान्यस्पर्शरूपापाध्यत्तिधर्मस्यैव तत्र माध्यसम्बन्धितावच्छेदकत्वादिति वाच्यं । शौतान्यस्पर्शादेरपि माधनावच्छिन्नसाध्यव्यापकत्वेनोपाधितया गौतान्यस्पर्शत्वादेरप्युपाधिवृत्तित्वादित्याः । तदमत् तथापि माधनतावच्छेदकस्थानवच्छेदत्वालाभेन प्रकतानुपयोगात् व्यभिचारिणि किचिदिशिष्टसाधनस्यैव उपाधित्वेन साधनतावच्छेदकस्याप्युपाधित्तित्वादिति येवम्।
Page #177
--------------------------------------------------------------------------
________________
अतएव चतुष्टयं ।
अतरव साधनतावच्छेदकभिन्न येन साधनताभिमते साध्यसम्बन्धोऽवच्छिद्यते स एव तब साधने विशेषणमुपाधिरिति वदन्ति । अतएव च तच साधनाव्यापकत्वे सति साधनावच्छिन्नसाध्यव्यापंकत्वं लक्षणं ध्रुवं, व्यभिचारिणि साधने एकच साध्य-तदभावयोर्विरोधेनावच्छेदकभेदं विना तदुभयसम्बन्धाभावादवश्यं
अतएव चतुष्टयरहस्यं । मोपाधौ साधनतावच्छेदकं न माध्यसम्बन्धितावच्छेदकं इत्यत्र प्राभाकरसम्मतिमाह, 'श्रत एवेति यत एव मोपाधौ साधनता
छेदकं न साध्यसम्बन्धितावच्छेदकं अत एवेत्यर्थः, 'साधनतापच्छेदकभिनेति साधनतावच्छेदकञ्च तत् भिन्नञ्चेति कर्मधारयः, भिवपदच्च माध्यसम्बन्धितावच्छेदकभित्रपर, वैशिष्यच हतीयार्थः, अन्वयश्चास्य 'साधनताभिमत इत्यनेन, तथाच साध्यसम्बन्धितावकेदकभित्रन साधनतावच्छेदकेन विशिष्टे साधनताभिमते वर्तते धः माध्यसम्बन्धः स येन धर्मणवच्छिद्यते स एव विशेषणं' म एव धर्मस्तत्र साधने उपाधिरिति नियमं प्राभाकरा बदनौत्यर्थः, अन्यथा भोपाधौ माधनतावशेदकस्यापि माध्यसम्बन्धितावोदकत्वे पत्र
Page #178
--------------------------------------------------------------------------
________________
तावचिन्तामगै
साध्यसम्बन्धितावच्छेदकमस्ति, तदेव च साधनावछिन्नसाध्यव्यापकं साधनाव्यापकं तपोपाधिः, अतरव व्यभिचारे चावश्यमुपाधिरिति सङ्गच्छते। अन्यथा व्यभिचारादेव तवागमकत्वेन व्यभिचारित्वेन न तदनुमानमप्रयोजकत्वात् । अतएव च तस्य साध्यसम्बन्धि
व्यभिचारिणि माधनतावच्छेदकं साध्यसम्बन्धितावच्छेदकं तत्र सोपाधावेव तरक्के तनियमो व्यभिचारी स्थात् तत्र साधनतावच्छेदकस्य माध्यसम्बन्धितावच्छेदकभिन्नत्वविरहादिति भावः । न चाईन्धनप्रभववयादावेव तदुक्के तनियमो व्यभिचारी तस्य साधननिष्ठमाध्यमामानाधिकरण्यव्यधिकरणत्वेन तदनवच्छेदकत्वादिति वाच्यं । मामानाधिकरणसम्बन्धन अवच्छेदकत्वस्योक्तत्वात् । अवच्छेदकत्वञ्च न स्वरूपसम्बन्धविशेषः, पाईन्धनीयवङ्ग्यादेः तादृशावच्छेदकत्वे मानाभावेनाव्यायापत्तेः । नाप्यनतिरिकवृत्तित्व, धूमवान् वक्रेरित्यादौ पाईन्धनप्रभववक्षिसामानाधिकरण्यस्थापौन्धनादौ वहिविष्ठधूमसामानाधिकरातिरिक्तरत्तित्वादसम्भवापत्तेः, किन्तु अन्यूनवृत्तिवं व्यापकल्लमिति थावत्, इत्यच्च माध्यसम्बन्धितानवच्छेदकसाधनतावच्छेदकावचित्रसाधननिष्ठमाध्यसम्बन्धितायाः सामानाधिकरण्यसम्बन्धेन व्यापको यः स एव उपाधिरिति फलितं । प्रत्यक्षं उद्भूतरूपादित्यच प्रत्यवत्वसामानाधिकरणस्य मुखत्व-रूपत्वादौ सत्त्वात् तत्र महत्त्वमामानाधिकरण्याभावात् महत्त्वेऽव्याप्तिवारणाय निष्ठान्न माध्यसम्बन्धिनाविशेषणं, तस्यापि साधनावशिवसाध्यव्यापकत्वेनोपाधित्वात्। नर
Page #179
--------------------------------------------------------------------------
________________
पातिवादः।
तावच्छेदकरूपलक्षणा व्याप्तिः साधनताभिमते . कास्तीति स्फटिके अवाकुसुमवदुपाधिरसावुच्यते। लक्षणन्तु साध्य-साधनसम्बन्धव्यापकत्वे सति साधनाव्यापकत्वं, विषमव्याप्तस्तु नोपाधिपदवाच्या प्रत्तिनिमित्ताभावात् । दूषकता च तस्य व्यभिचारोबाय
तथापि अयं चाक्षुषो जातिमत्त्वादित्यत्र पक्षधर्मद्रव्यत्वावच्छिन्नमाध्ययाप्रकोपाधावुद्भूतरूपेऽव्याप्यापत्तिः विषमव्यापकस्योपाधित्वानन्युपगमे च महत्त्वेऽव्याप्तिवारणाय निष्टान्तविशेषणवैद्ययं वक्ष्यमाणलशपर धूमवान् वहेरित्यादावा:न्धनादौ द्रव्यं कर्मान्यत्वे मति
वात् प्रत्यक्षमुद्भूतरूपात् महाननित्यद्रव्यत्वादित्यादौ गुणान्यत्वमहत्त्वानित्यसमवेतत्वादिषु अतिव्याप्यापत्तिश्चेति वाच्च। माघमावछिनमायव्यापकस्यैव एतन्मते उपाधितया उतस्थले उद्भूतरूपस्यानुपाधित्वात् । न च तथापि सत्त्वाचेकव्यक्तिहेतुके द्रव्यं सत्त्वादित्यादौ माध्यव्याप्ये) घटत्वादावतिव्याप्तिर्द्वारा सामानाधिककरण्यसम्बन्धन तस्यापि साधननिष्ठमाध्यमामानाधिकरण्यव्यापकत्वादिति वाच्य। परेपात्रेदमुपाधिलक्षणं अपि तु एतादृशविशिष्टधर्मस्योपाधित्वव्यापकत्वमेव तेषामभिभतं तथाचोपाधिलक्षणतियाप्तेः व्यभिचारसंपादकतपा(दोषत्वेऽपि व्यापकतातिप्रसङ्गस्यादोषतयातिव्याप्तेरदोषत्वात् । न वितस्य व्यापकधर्मरूपत्वे साध्यसम्बन्धितानवच्छेदकमाधमतावच्छेदका(९) घटत्वस्य उपाधित्वाभावसूचनार्थं साध्ययाप्ये इति विशेषणम् । (२) वधाचासम्भवाचायोर्थमिचारसम्पादकतयेति ख, ग ।
Page #180
--------------------------------------------------------------------------
________________
सावचिन्ताम
कतया। नत्र व्यभिचारोबायकात्वमेवोपाधिन्वं अप्रयोजकसाध्यव्यापकव्यभिचरिणरप्युपाधित्वापत्तेरिति।
इति श्रीमहशोपाध्यायविरचिते तत्त्वचिन्तामणौ अनुमानास्यद्वितीयखण्डे विशेषव्याप्तिः। समाप्तश्च व्याप्तिवादः। वच्छिषेतिसाधनविशेषणवैयर्थं व्यापकतातिप्रसङ्गस्यादोषतया । साध्यसामानाधिकरण्यावच्छेदकेऽतिप्रसङ्गस्याप्यदोषत्वादिति वाच्या गुरुधर्मवविशिष्टधर्मास्यापि व्यापकत्वेन व्यापके व्यर्थ विशेषणताया। श्रदोषत्वादिति दिक् । नन्वेतादृशधर्मस्य(२) गोत्ववान् अश्वत्वादित्या दिविरुद्धस्थलीयमानावत्त्वाधुपाधावभावात् कथमुपाधित्व मित्यनपाह,(१) 'अत एवेति यत एव तन्मते तत्र तस्या नोपाधित्वमत एवेत्यर्थः, 'तत्र' तन्मने, 'माधनावच्छिन्नेति साधनविभिटेत्यर्थः, 'ध्रुव' निर्दोष, अन्यथा साधनविशिष्टमाध्यामिड्या तत्रैव(४) च लक्षणमव्याप्तं स्यादिति
(१) साध्यव्यापकातिव्याप्तेरप्यदोषत्वादितौति ख-चिकितपुस्तकपाठः, प. ___ रन्तादृशपाठे 'साध्ययापकातिव्याप्तेः' इत्यस्य साध्यसामागाधिक7. रण्यव्यापकातिव्याप्तरित्येवार्थः, पतोगासङ्गतिः । (२) एतादृशधर्मस्य' साधननिठसाध्यवामानाधिकरण्यावच्छेदकत्वस्ये
त्यर्थः। (২) আল মাম্বলবিনামালাম্বিয়ামনি না কাণ ___धनोनिठसाध्यसामानाधिकरण्यावच्छेदकत्वमप्रसिमिति भावः । (७) गोत्यवान् अश्वत्वादिबादौ विरजस्य से रवेत्यर्थः ।
Page #181
--------------------------------------------------------------------------
________________
वातिवादा।
भावः । अप वकिमान् धूमादित्यादौ साध्यादेपाधितावारणाय मत्यन्तं, तचैव महानमत्वादिवारणय विशेष्यदलं। स म्यामोमिषातनयत्वादित्यादौ शाकपाकजवादावव्याप्तिवारणाय 'साधनावधिबेति । म चायं चाक्षुषः प्रमेयत्वादित्यादौ पचधर्षद्रव्यत्वावच्छिनमाध्यव्यापके उद्भूतरूपेऽव्याप्तिरिति वाच्यं । साधनावच्छिन्नमाध्यव्यापकस्यैव तन्मते उपाधितया तस्यालक्ष्यत्वात् । द्रव्यं सत्त्वादित्यादौ रूपान्यत्व-गुणन्यत्वादिकञ्च लक्ष्यमेवातो न तचातिव्याप्तिः ।
केचित्तु माध्याभावविशिष्टसाधनवदवृत्तेरेव एतन्मते लक्ष्यवान् अयं चाचूषोमेयत्वादित्यादौ उद्भूतरूपादौ नाव्याप्तिः, एवञ्च द्रव्यं ववादित्यादौ रूपान्यत्व-गुणन्यत्वादेरपि अलक्ष्यतया तचातिव्याप्तिकारणय 'साधनाव्यापकत्वमिह माध्याभावविशिष्माधनव्यापकीभूताभावप्रतियोगित्वं निर्वाचं, धूमवान् वयं प्रमेयत्वादित्यादौ तत्तदयोगोलकान्यत्व-सत्त्वादिकञ्च न लक्ष्यं अतो न तवाव्याप्तिरित्याः ।
नवतस्य उपाधिलक्षणत्वे व्यभिचारे चावश्यमुपाधिनियमोऽसङ्गतः यत्र व्यभिचारिणि हेतौ एतादृशधनी नास्ति तस्यैव निरुपाधिलादित्यत पाह, 'यभिचारिणैति, 'मङ्गच्छते' इत्यन्तमेकोरन्थः, व्यभिचारित्वञ्च माध्य-तदभावसमानाधिकरणत्वं, 'तदुभयसम्बन्धाभावात्' तदुभयसामानाधिकरण्यासम्भवात्, ‘माध्यसम्बन्धितावच्छेदकमस्तौति अधिकरणविधया माध्यसम्बन्धितावच्छेदकमतीत्यर्थः, 'नदेव' माधननिष्ठमाध्यसम्बन्धितावच्छेदकमधिकरणमेव, माधननिष्ठमाध्यसम्बन्धितावच्छेदकलरूपेण तादाम्यसम्बन्धेनेति भेषः ।
22
Page #182
--------------------------------------------------------------------------
________________
.
तत्वचिन्तामो
'तोपाभिः' भन्नतमायोपाधिः, ननु साथ-सदभावयोर्विरोधेऽपि तदुभयसामानाधिकरण्ययोरविरोधात् कथं तावच्छेदकभेदापेक्षेत्यत पाइ, 'अन्यथेति माध्य-तदभावसामानाधिकरण्ययोर्विरोधाभावइत्यर्थः, 'त' व्यभिचारितो, 'अगमकवेन' अध्याप्यत्वसम्भवेन, 'यभिचारिवेनेति अयं हेतुः सोपाधिर्यभिचारित्वादिति व्यभिचारित्वेन हेतुना, उपाध्यनुमान प्रयोजकं स्यादनुकूलतर्काभावादित्यर्थः, माथ-सदभावसामानाधिकरण्ययोर्विरोधे तु अवच्छेदकविधया विरोधभञ्जनमेवानुकूलतर्कः, माधननिष्ठमाध्यमामानाधिकरण्यावच्छेदकौभूतस्याधिकरणस्यैव तादाम्यसम्बन्धेन तादृशावच्छेदकत्वरूपेण साध्याधिकरणवादिरूपेण वोपाधित्वादिति भावः । मोपाधौ माधनतावच्छेदकस्य न साधननिष्ठमाध्यसम्बन्धितावच्छेदकलमित्यत्र प्राभाकरसंवादमुक्का प्राचार्यसंवादमाह, 'अत एवेति थत एव मोपाधौ माधनतावच्छेदक केवलं न माध्यसम्बन्धितावच्छेदकमत एवेत्यर्थः, 'तस्य' समव्याप्तधर्मस्य, ‘माधनाभिमते च कास्तौति माधमताभिमतांचे प्रकारोभते माधनतावच्छेदके तादात्म्यसम्बन्धेन विशेषणीभूय भ्रमविषयोभवतीत्यर्थः, 'इतौति इत्यतो हेतोरित्यर्थः, उप समीपस्थे प्रादधाति साक्षात्परम्परया वा खनिष्ठधर्म प्रकारक धमं जनयतीति उपाधिपदव्युत्पत्त्येति शेषः, ‘स्फटिके जवाकुसु(दिति यथा जवाकुसुमं स्फटिके खनिष्ठलौहित्यभमजनकतथा
लौहित्यप्रकारकशोषिताभेदभ्रमजनकतया का स्फटिके उपा"व्यर्थः, 'उपाधिरमाबुचत इति, 'सौ' माध्यसमध्याप्तोधर्मः, गोलावाच्यत्वेनाचार्यैरुचत इत्यर्थः, अन्यथा सोपाधावपि बोवस
Page #183
--------------------------------------------------------------------------
________________
वाशिवाहा।
साधनतावशेदका साथसम्बन्धितावच्छेदकाले तत्र सनिडापाः
वसम्बन्धितावदकरूपात्मिकाथा व्यालेस्तादाम्यसम्बन्धेन साधनविच्छेदके विशेषणौभय भ्रमविषयत्वनिबन्धनं साध्यसमव्याप्तधर्मस पाधिपदवाच्यताभिधानममतं स्यात् तत्सम्बन्धेन तद्वविक्षिातियोगिताकाभाववति तत्सम्बन्धेन तद्धर्मावच्छिवप्रकारकमानखैव चमतया साधनतावच्छेदके तादाम्यसम्बन्धेन उपाधिनिष्ठमाध्यसम्बआतावच्छेदकप्रकारकज्ञानस्य भ्रमवासम्भवादिति भावः । एतब गध्यसम्बन्धितावच्छेदकत्वं सर्वसाधारणमनुगतं स्वरूपसम्बन्धरूपं क्षणघटकमित्यभिमानेन, अन्यथा साधानतावच्छेदकस्य माध्यमबन्यतावच्छेदकत्वेऽपि साधनतावच्छेदके उपाधिनिष्ठमाध्यसम्बन्धिता
छेदकाभेदबुद्धेर्यथोकधमत्वसम्भवात्, अत एव प्राचार्यैरपि प्यायतरमपहाय माध्यसम्बन्धितावच्छेदकरूपवत्वलक्षणव्याप्तिसंक्रामकत्वमेव गोगार्थोऽभिहितः, स्वरूपसम्बन्धरूपावच्छेदकवघटितत्वेनं तस्य सर्वगोलघुत्वमित्यभिमानादिति ध्येयं । नन्वेवमाचार्य्यनये धूमवान् बड़ेरत्यादौ महानसत्वादौ उपाधिव्यवहारः स्यात् योगार्थसाचात् । । च "सर्व माध्यसमानाधिकरणा इति न्यायेन इष्टापत्तिरिति
च्य। प्राचार्य माध्यसमव्याप्तस्योपाधित्वाभ्युपगमादित्यत आह, लक्षणन्विति रूव्यर्थतावच्छेदकस्वित्यर्थः, तथाचोपाधिपदस्य योगहड़त्वात् महानसावादौ योगार्थसत्त्वेऽपि व्यर्थाभावानोपाधिपदयोग(१) इति भावः। माथ-साधनेति माध्यव्यापकले सतीत्यर्थः, अन्य
(५) उपाधिववार इति स., म.।
Page #184
--------------------------------------------------------------------------
________________
०२. तत्वविनामो था गोखवान् अश्वत्वादित्यादिविरुद्धस्थले माखावत्वादेरुपाधिपदावाचवप्रसङ्गात् । न चैवं सम्यामोमिषानतयत्वादित्यत्र भाकपाकजवादावव्याप्तिदुरैिवेति वाच्यं। प्राचार्य्यमते माध्यसमव्याप्तस्योपाधितया तस्यानुपाधित्वात्। ननु तथाप्यच विशेष्यदलं व्यर्थं तदसत्त्वेऽपि असद्धेतौ साधनव्यापके साध्यव्याप्यत्वस्य योगलभ्यार्थस्थामावादेवातिप्रसङ्गभङ्गात् । न र मद्धेतौ साध्यसमव्याप्तेऽतिव्याप्तिवारणाय तदावश्यकमिति वाचं। तच हेतुतावच्छेदकस्यापि माध्यसम्बन्धितावच्छेदकतथा
खनिष्ठमाध्यसम्बन्धितावच्छेदकरूपव्याप्तिसंक्रामकत्वस्थ खनिष्ठतादृश्यव्याप्तिप्रकारकडेततावच्छेदकभ्रमजनकत्वरूपस्य लघुतयाचा-भिमतयोगार्थस्याभावादेवातिप्रसङ्गविरहात् । न च तत्र माध्ययभिचारि-' इत्वन्तरे खनिष्ठतादृशव्याप्तिसंक्रामकत्वसम्भवात् अतिप्रसङ्गसम्भव इति वाच्य। स्वनिष्ठतादृशव्याप्यभिन्नतया यद्धेततावच्छेदकसंक्रामकरू तद्रुततावच्छेदकावच्छिन्ने स उपाधिरिति विवक्षयैव तदतिप्रसङ्गावारणसम्भवादिति । मैवं वकिमान् धूमादित्यादिमद्धेतौ हेतुतावच्छेदकसम्बन्धभिन्नसम्बन्धेन माध्यसमव्याये वक्षिप्रकारकप्रमाविशेष्यत्वादावव्याप्तिवारणय विशेष्यदलस्यावश्यकत्वात् सम्बन्धभेदेन माध्यसम्बन्धित्वस्य विभिवतया तदवच्छेदकत्वस्थापि विभिन्नत्वेन तत्र निरुकता-! दृशव्याप्तिसंक्रामकत्वस्य योगार्थस्य सम्भवात् । न च हेतुतावच्छेदकसम्बन्धेन या स्वनिष्ठव्याप्तिः तत्संक्रामकत्वविवश्यैव तत्प्रतीकारइति वाच्यं । धूमवान्वन्हेरित्यादौ धूमप्रकारकप्रमाविशेष्यत्वादेरसंग्रहापत्तेरिति भावः । नन्वेवं विषमव्याप्तोऽपि तन्मते उपाधिपहवाचः स्यात् स्वार्थस्य मत्ादित्यत पार, 'विषमेति, मत्ति
Page #185
--------------------------------------------------------------------------
________________
बातिवाद।
निमित्ताभावादिति योगार्थाभावादित्यर्थः, यथा स्थलपान पानपदवाचमिति भावः । इदमापाततः यौगिकप्रवृत्तिनिमित्ताभाबेऽपि केवणरूब्यर्थमादाय उपाधिपदवायत्वस्थ दुर्वारत्वात्, नहि योगार्थविशिष्टोतल्यर्थः प्रवृत्तिनिमित्तः । न चैवं स्थलपद्मस्थापि पहजपदवाच्यत्वापत्तिरिति वाच्यं । यदि च तव्यावर्तकं वैजात्यं न रूयर्थतावच्छेदकं तदा तस्यापि दुवारत्वात् । अतएव प्रामाणिकाः तद्दारनं तत्र रूत्यर्थतावच्छेदकमामनन्ति । नन्वेवं विषमव्याप्तस्योपाधिपदावाच्यत्वे दूषकतापि तस्य न स्थादित्यत आह, 'दूषकता चेति, 'तस्थ' विषमव्याप्तस्य, 'यभिचारोबायकतयेति व्यभिचारित्वसम्बन्धेन तबत्तया माध्यव्यभिचारानुमानसम्भवादित्यर्थः, 'उपाधितेति उपाधिपदवाचतेत्यर्थः, तादात्म्यसम्बन्धेन तयोरपि माध्यव्यभिचारानुमापकत्वादिति भावः। 'अप्रयोजक-माध्यव्यापकव्यभिचारिणः' अप्रयोजकत्व-साध्यव्यापकव्यभिचारित्वयोरित्यर्थः, इति केचित्। न .प खव्यभिचारित्वेन माध्यव्यभिचारानुमापकत्वमेव तथास्तु अप्रयोजकत्वादिकन्तु न तथेति वाच्छं। योगार्थापेक्षया तस्य गुरुत्वादिति दिक्।
इति श्रीमथुरामाथ-तर्कवागौगविरचिते तत्त्वचिन्तामणिरहस्से अनुमानास्थद्वितीयखण्डरहस्ये विशेषच्याप्तिरहस्यं, सम्पर्णव व्याप्तिवादरहस्य(१)।
(१) पतएव चतुष्टयरहस्यस्य विशेषव्याप्तिरहस्यान्तर्गतत्वेन पादर्भपुस्तकेषु एथनिर्देशेऽपि पत्र न एथनिर्देशः अपि तु वदन्तर्गतनैवेति।
Page #186
--------------------------------------------------------------------------
________________
[१ ] अन्य व्याप्तिप्रोपायः।
सेयं व्याप्तिन भूयोदर्शनगम्या दर्शनानां प्रत्येकमहेतुत्वात् आशुविनाशिनां क्रमिकाणं मेलकाभावात्। न च तावदर्शनजन्यसंस्कारा इन्द्रियसहकता व्याप्तिधीहेतवः प्रत्यभिज्ञायामिन्द्रियस्य तथात्व
अथ व्याप्तिग्रहोपायरहस्यम्। व्याप्तिस्वरूपं निरूप्य परमतनिराकरणपूर्वकं स्वमतेन तद्ग्रहोपायमभिधातुं प्रथमं प्राभाकरमतमुपदर्शयति, सेयमित्यादिना 'मैवमित्यन्तेन, 'सा' अनुमितिकारणभूतज्ञानविषयीभूता, 'यं अनुपदनिरुका, तथाच भूयोदर्शनं न तदेतद्व्याप्तिप्रत्यक्षे कारणमित्यर्थः, न तु सेयं व्याप्तिन भूयोदर्शनजन्यप्रत्यचविषय इत्यर्थः, प्राभाकरनये उपनौतभानस्य विशिष्टबुद्धौ विशेषणशामहेत्वस्य चानभ्युपगमेन ज्ञानस्य स्वप्रकाशतया ज्ञानप्रत्यक्षं प्रति जानत्वेन हेतुत्वानभ्युपगमेन तादृशप्रत्यक्षाप्रमिया प्रतियोग्यप्रसिद्धः, विशेषएतावच्छेदकप्रकारकज्ञानविधया तजन्यत्वमादाय प्रमियभिधार सहचारविशिष्टवैशिष्टबोधात्मकप्रत्यक्षमादाय बाधापत्तेः। न प्राभाकरनये महाद्दर्शनस्य व्याप्तिग्राहकतया भूयोदर्शनमपि व्याप्ति ग्राहकमेत भूयोदर्शनस्य सकदर्शनानतिरिक्तवादिति तवापि बाधी दार इति वाच्यं । 'प्राभाकरनये मकानस्थापि व्याप्ययाहकल
Page #187
--------------------------------------------------------------------------
________________
चामियशेयः।
१५
कल्पनादिति वाच्च। समानविषये. स्मरणे प्रत्यभिजाने च संस्कारोहेतुरतः कथं संस्कारेण व्याप्तिवानं नन्येत, अन्यथातिप्रसङ्गः । किच सम्बन्धभूयोदर्शनं
इति । न चैवं “तस्मात् महानगम्या मेत्युपसंहारविरोध इति
थं । तत्र हि महर्मनगम्यत्वं न मदर्शनजन्यप्रत्यक्षविषयवं अपि तु निखिलसाध्य-माधनसम्बन्धग्रहविषयत्वमिति तत्रैव स्फुटौभविष्यति इति भावः। भूयोदर्शनानां माध्य-माधनसहचारदर्शनत्वेन जनकत्वं, भूयस्खविशेषितेन वा, नाद्य इत्याह, 'दर्शनानामिति, 'पहेतत्वादिति फलानुपधायकत्वादित्यर्थः, तथाचान्वयव्यभिचारइति भावः। नान्य इत्याह, 'पाशविनाशिनामिति हतौयक्षणउत्तिध्वंसप्रतियोगिनामित्यर्थः, 'क्रमिका' विभिन्नममयोत्पत्तिकानां, 'मेलकाभावादिति एकरुणवृत्तिकवाभावादित्यर्थः, तथाच व्यतिरेकव्यभिचारः, सर्वत्रापेक्षाबुड्यात्मकभूयोदर्शने मानाभावादिति भावः । क्रमिकाणं घट-पटादीनां मिलनमस्तोत्यतः 'बाश| शिनामित्युत, पायविनाशिनामपि युगपदुत्पन्नानां विभि
षोयज्ञानादीनां मिलनमस्तोत्यतः 'क्रमिकाणामित्युक्त, पाशभिनोः क्रमिकयोरपि ज्ञानदयोर्मिलनमस्तीत्यतोबहुवचनं है। इत्यच्च भूयोदर्शनं न व्याप्तिप्रत्यक्षमात्रवृत्तिधर्मावच्छिन्नताप्रतियोगिककारणताश्रवः तादृशकारणतावच्छेदकरूपशून्यति फलितं। विशेषणतावच्छेदकप्रकारकज्ञानस्य कार्यता तु दृअधर्मावचित्रा तादृशकार्यताप्रतियोगिककारणवध विषय
Page #188
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०॥
नाचिन्तामगै भूयःसु स्थानेषु भूयसां वा दर्शनं भूयांसि वा दर्शनानि न यथा एकत्र रूप-रसयाद्रव्यत्व-घटत्वयोश्च व्याप्तिग्रहात् एकचैव धारावाहिके तडीप्रसङ्गात्
विधया व्याप्तावेव प्रसिद्धं । न च माध्याविशेषः कारणतावच्छेदकधर्मवत्त्वस्यैव कारणतारूपत्वादिति वाच्यं। अन्योन्याभावात्यन्ताभावभेदेन(१) भेदादिति ध्येयं। अत्र स्वरूपामिद्धिमाशझने, 'न चेति, 'तावद्दर्शनेति भूयसां दर्शनानां जन्या भूयःसंस्कारा इत्यर्थः। तथाच भूयस्वविशिष्टसहचारदर्शनवमेव जनकतावच्छेदकं संस्कारच व्यापार इति भावः । 'तथात्वकम्त्यमादिति संस्कारसहकारित्वकल्पनादित्यर्थः । 'समानविषयति तद्विशेष्यक-तत्प्रकारकस्मरणे तविशेषकतत्प्रकारकः संस्कारो हेतु: तद्विशेष्यक-तत्प्रकारकप्रत्यभिज्ञाने तविशेष्यक-तत्प्रकारकसंस्कारो हेतुरित्यर्थः, यो यत्र विभिव्य-पूर्वमवगतः स एव तत्र संस्कारवशात् प्रत्यभिज्ञाने भासत इति नियमात्, अत एव केवलदण्डादिगोचरसंस्कारादयं दण्डोत्यादिप्रत्यभिज्ञानं न जायत इति मौमांसकाभिप्रायः, एतच्चोपनौतभान. मन्युपेत्य । 'व्याप्तिज्ञानमिति, सहचारगोचरसंस्कारस्य धूमादिविशेयक-खव्यापकसाध्यसामानाधिकरण्यात्मकव्याप्तिप्रकारकत्वाभावादिति भावः । 'अन्यथेति एकविषयकसंस्कारस्थापि अन्यविषयक शानजनकले इत्यर्थः, 'अतिप्रसङ्गः' घटादिगोचरसंस्कारादपिय
(२) तथा साध्यघटकनम्पदस्य अन्योन्याभावपरत्वं हेतुघटकशून्य.
पदस्थात्यन्ताभावपरत्वमतः साध्य हेत्वोवैजक्षण्यं ।
Page #189
--------------------------------------------------------------------------
________________
पानियोगायः।
१०
भूयत्वस्य पि-चतुरादित्वेमानतुगमाच। अपि । पार्थिवत्व-लौहलेख्यत्वादौ शतशो दर्शनेऽपि व्यायअहात्, तर्कसहसतं तथेति चेत्, ताई सहचारदर्शन
पटादिगोचरशानजननप्रसङ्ग इत्यर्थः । किं बहना सम्बन्धभूयोदर्शनमपि दुर्मिरूपमित्यभिप्रायेण पृच्छति, 'किचेति, 'किंगन्दः प्रने, 'चकारो वाथै, यत्सम्बन्धभूयोदर्शनं मंस्कारद्वारा हेतरच्यते तदेव सम्बन्धभूयोदर्भनं वा किमित्यर्थः । ननु सम्बन्धभूयोदर्शनपदेन भूयःसु स्थानेषु माध्य-माधनसम्बन्धभूयोदर्शनं, भूयसां वा माध्य-साधनानां सम्बन्धभूयोदर्शनं, भूयामि वा माध्य-माधनयोः सम्बन्धदर्शनानौति वक्तव्यमित्याह, 'भूयःखिति, 'दर्शन' भूयःमाध्य-साधनसहपारदर्शनं, तथाचाधिकरणदर्शनयोरुभयोर्भूयसमिति भावः । 'भूयसां वेति भूयसां साध्य-माधनानां भूयःसहचारदर्शनमित्यर्थः, तथाच माध्य-साधन-दर्शनानां चया भूयस्वमित्यर्थः, 'भूयांनौति, 'दर्शनानि' साथ-साधनसम्बन्धदर्शनानि, तथाच दर्भनमानस्य भूयस्वमित्यर्थः, 'न तथा' न व्याप्तियाहक, पाद्ये 'एकेति एकवस्थितरूप-रसयोरित्यर्थः, एतघटवृत्तिरूपवान् एतद्घटक्तिमादित्यवेति भावः, न खेतद्रूपवान् एतद्रमादित्यच, तथा मति सोयेऽप्यचैव दोषसम्भवे स्थलान्तरानुधावनप्रयासस्य व्यर्थतापत्तरिति । न च भूयःस्थानेषु व्यतिरेकसहचारदर्भनं तचापि सम्भवतीति । तदभावेऽपि व्याप्यनुभवात् । दितीये पार, 'द्रव्यत्वेति, एका
Page #190
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्वचिन्तामो
सहकृतः स एव व्याप्तिग्राहकोऽस्तु अावश्यकत्वात् किं भूयोदर्शनेन। न च तेन विना तर्क एव नावतरति, प्रथमदर्शने व्युत्पन्नस्य तर्कसम्भवात् । न चैवमे
घट एव पाकजरूप-रसानां भूयस्वादुक्कस्थलमुपेक्षितं । हतोये त्वाह, 'एकत्रैवेति एकस्मिन्नेव महानसे धारावाहिकसहचारज्ञाने इत्यर्थः, संस्कारद्वारा भूयसां दर्शनानां सत्त्वादिति भावः । कदाचिदष्टापत्तिसम्भवादाह, भूयस्वस्येति, 'त्रि-चतरादित्वेनेति त्रित्व-चतुष्ट्वादिरूपत्वेनेत्यर्थः । ननु बहुत्वमेव भूयस्वं त्रित्वमेव वा चतुरादिद
नेऽपि त्रिकदर्शनसत्वेन व्यभिचाराभावादित्यत श्राइ, 'अपि चेति, तथाचान्वयव्यभिचार इति भावः । “तर्कसहकृतमिति तर्कसहकृतं भूयोदर्शनं मंस्कारद्वारा व्यभिचारज्ञानं निवर्त्य व्याप्तिधौहेतुरित्यर्थः, 'म एव' तर्क एव, ‘भूयोदर्शनेनेति भूयस्वघटितकारणतावच्छेदकेनेत्यर्थः । भूयोदर्शनस्य तर्कप्रयोजकत्वमाशय निराकरांति, 'न चेति, 'कुत्पन्नस्येति शब्दादितस्तर्कमूलौभतापाद्यापादकव्याप्तिज्ञानवत इत्यर्थः । दृष्टापत्तिमाशङ्कते, 'न चैत्रमेवेति व्यभिचारादर्शन-सहचारदर्शनमहकतः तर्क एव व्याप्तिग्राहकोऽस्वित्यर्थः । शकते, 'जातमात्रस्येति स्तनपानं सुखसाधनं तदनन्यथासिद्धांन्वयव्यतिरेकानुविधायित्वात् यत् यदनन्यथामिद्धान्वय-यतिरेकानुविधायि तत् तत्मासाधनमितौष्टमाधनतानुमिनिजनकव्याप्तिज्ञानमित्यर्थः, 'तकं विनेवेति ‘दवशब्दः सादृश्यार्थः, तथाच तत्तद्व्याप्तिज्ञान यथा तर्क विना तथा सर्व चैव मूलौभूतयत्किञ्चित्तजनकीमत
Page #191
--------------------------------------------------------------------------
________________
चाप्तियोपायः।
वास्तु, तर्कस्य व्याप्तिग्रहमूलकत्वेनानवस्थानात् । जातमाघस्य प्रत्ति-नित्तिहेत्वनुमितिजनकव्याप्तिवानं तकं विनेवातानानवस्थेति, चेत्,' तर्हि व्यभिचारात
व्याप्तिप्रत्यक्ष तर्फ विनवातो नानवस्था इत्यर्थः। यथाश्रुते जातमात्रबालकौयव्याप्तिस्मरणस्य विना तर्कमुत्पादेऽपि तन्मूलभूतजन्मामरौयव्याप्यनुभवस्य तर्कसापेक्षत्वात् अनवस्थातादवस्यात् अत्रानवस्थापरौहारेऽपि वनि-धूमादिव्याप्तिग्रहस्थले(२) अनवस्थातादवस्यात्
(१) 'विनेवेत्यत्र 'विनैवेति कस्यचित् मूलपुलकस्य पाठः । (२) वह्निमान् धूमादित्यादौ व्याप्तिग्राहस्थले इति ख० । 'सेयं व्याप्तिनभूयोदर्शनगम्येत्यादिमूलं मथुरानाथेन यद्व्याख्यातं तत्रेदं विवेचनीयं । मेयं व्याप्तिर्न भूयोदर्शनगम्या इति भूयोदर्शनं न तदेतद्याप्तिप्रत्यक्षे कारणमित्यर्थः, न तु सेयं व्याप्तिन भूयोदनिजन्यप्रत्यक्षविषय इत्यर्थः विशेघणतावच्छेदकप्रकारकज्ञानविधया तज्जन्यत्वमादाय प्रसिद्ध्यभिधाने सहचारविशिष्टवैशिघ्यबोधात्मकप्रत्यक्षमादाय बाधायत्तेरिति मथुरानाथः । ननु भूयोदर्शनज़न्यप्रत्यक्षविषयो न इत्यत्र विषयत्वपदेन मुख्यविशेष्यत्वमेव वक्तव्यं तथाच व्याप्तौ धर्मिणि तादृशप्रत्यक्षीयमुख्यविशेष्यत्वाभावसत्त्वात् कथं बाधापत्तिरित्युक्तं, मुख्यविशेष्यत्वञ्च प्रकारत्वान्यविषयत्वं, तथाच पर्वतादौ तत्प्रसिद्धिः । न च वह्निसमानाधिकरणधूभवान् पर्वतः धूमव्यापकवकिसामानाधिकरणच धूमवृत्ति इति समूहालम्बनतादृशबोधात्मकप्रत्यक्षमादाय बाधापत्तिसङ्गतिः धूमश्थापकवह्निसामानाधिक रण्यरूपव्याप्नेधुमसत्तियां मुख्यविशिष्यविधयैव भागात् इति वाच । भूयोदर्शनगन्धप्रत्यक्षविषयो ग इत्यनेन भूयोदर्शनजन्यप्रत्यक्षीयमुख्यविशे
Page #192
--------------------------------------------------------------------------
________________
ताचिकामी
१०
बतानिरूपितप्रकारवामावस्य विवक्षयोवावा तचाच वाहशसमहाल. वनप्रत्यक्षीयमुख्य विशेष्यतानिरूपितप्रकारचं धूमनिडं धूमत्तित्वनिष्ठत तदभावस्य व्याप्तौ सत्त्वात् न बाधः । न च तथापि वशिसमानाधिकरणधूमवान् पर्वतः धूमव्यापकवसिमानाधिकरणच धूम इति समूहाजम्बनमादाय धूमनिष्ठमुख्यविशेष्यतानिरूपितप्रकारत्वस्य सामानाधिकरणोऽपि सत्वाइबाधापत्तेनीसङ्गतिरिति वाच्या भूयोदर्शनजन्यतावच्छेदकीभूतमुखवि. शेव्यतानिरूपितप्रकारवाभावस्य न भूयोदर्शनजन्यप्रत्यक्षविषयत्वमित्यनेन विवक्षितत्वात् तथाच भूयोदर्शनजन्यतावच्छेदकं वद्धिसामानाधिकरण्यविशिरधूमप्रकारकबुद्धित्वं निरूपकत्वसम्बन्धेन सहचारविशिसधूमनिष्ठप्रकारतापि ज्ञानजन्यतावच्छेदिका जन्यतावच्छेदकतायाः पर्यायविवक्षणात्, एवञ्च मूयोदर्शनजन्यतावच्छेदकमुख्यविशेष्यतानिरूपितप्रकारता धूमादेरेव तदभावस्य व्याप्तौ सत्त्वान्न बाधः इति चेत् । न । सहचारविशियप्रकारकबुद्धित्वं न सहचारप्रकारकज्ञानजन्यतावच्छेदकं पर्वते धूमः धूमे च वहिसामानाधिकरण्यमिति विशेष्ये विशेषणमिति रीत्या जायमानम्य वहिसमानाधिकरणधूमवान् पर्वत इति प्रत्यक्षस्य धूमधर्मिकसामानाधिकरण्यप्रकारकज्ञानं विनापि उत्पादेन व्यभिचारापत्तः, किन्तु वहिसमाधिकरणधूमवान् पर्वत इति विशिष्टवैशिथ्यावगाहिबुद्धौ धूमविशेषणतापअजिसामानाधिकरण्यमपि खावच्छिन्नप्रतियोगिताकसंयोगवत्तासम्बन्धेन पर्वतांशे भासते उक्तविशेष्ये विशेषणमिति रोया बोधे च तादृशसम्बन्धेन सामानाधिकरण्यं न भासते इति धूमविशेषणतापनसामानाधिकरण्यनि. छोक्तपरम्परासम्बन्धावच्छिन्न प्रकारताकबुद्धित्वमेव जन्यतावच्छेदक संघाच न व्यभिचारः, रवञ्च भूयोदर्शनजन्यतावच्छेदिका उक्लपरम्परासम्बन्धावच्छिनधूमनिरूपितविशेषणतापन्नसामानाधिकरण्यनिष्ठप्रकारता सा च पर्वत. निछमुख्यविशेष्यतानिरूपितापि इति तादृशप्रकारवाभावस्य व्याप्तावसत्वेन बाधः सस्थिर गन। इत्याच भूयोदर्शनं न व्याप्तिप्रत्यक्षमात्रत्तिधधम्मावमिकार्यतागि
Page #193
--------------------------------------------------------------------------
________________
'वामियोपायः।
रुपिबकारबताश्रयः तादृशकारखतावच्छेदकलमशून्यत्वात् इति पषितं इति मथुरानाधः। नप यातिप्रत्यक्षमात्रवृत्तिकार्यतानिरूपितकारणलानाश्रयलाशकार्यतानिरूपितकारणतावच्छेदकल्पशून्यत्वादित्यस्यैव सम्यकत्वे हेतु-साध्ययोर्धम्भावधिभत्वदलं विपानमिति वार्थ। साचारविशिष्टवैशिष्यावगाहिबुद्धित्वावच्छिनकार्य्यताया नानात्वे धूमव्यायकवशिसमानाधिकरणधुमवान् इति वचारविशिष्वैशिध्यावगाशियोधात्मकव्याप्तिमत्वक्षमात्रवृत्तिकार्थतानिरूपितकारणतावच्छेदकरूपस्य पक्षदृत्तितया वादृशकार्यतानिरूपितकारणतावच्छेदकल्पशून्यत्वस्य पक्षेऽसत्त्वात् खरूपासियापत्तेः बतो हवंशे धावच्छिन्नत्वदलं सफलं, साध्यांशे च तादृशसहचारविशिववैशिघ्यावगाहियोधात्मकव्याप्तिप्रत्यक्षमात्रयत्तिकार्यतानिरूपितकारणताश्रयभिन्नत्वस्य पक्षेऽसत्त्वाइवाधापत्तिरतो धमा. वपिनत्वदलं निवेशनीयं । धर्मावच्छिन्नवदनिवेशे तु तादृशधर्मपदेन व्याप्तिप्रत्यक्षत्वमेव लभ्यते न .तु सहचारविशिश्वैशिष्यावगा. दिबुडित्वं । तस्य व्यामिप्रत्यक्षतरत् यत् वसिमानाधिकरणधूमवान् इत्याकारकप्रत्यक्षादिकं तत्र वृत्तित्वात् । न च मात्रपदनिवेशो विफलइति वाच्यं । सहचारविशिवैशिष्यावगाहियोधात्मकव्याप्तिप्रत्यक्षवृत्ति यत् सहचारविशिलवैशिघ्यावगाहिबुद्धित्वं तद्धावच्छिन्न कार्यतानिरूपितकारणतावच्छेदकरूपशून्यत्वस्य पक्षावृत्तित्वेन वरूपासिद्धेस्तादवस्थ्यात् साध्याशे मात्रपदानिवेशे तु तादृशविशिलवैशिष्ट्यावगाहिबुद्धित्वावच्छिनकार्यतानिरूपितकारणताश्रयमिन्नत्वस्य पक्षावृत्तित्वेन बाधापत्तिरत उभयत्रैव मात्रपदमवश्यं निवेशनीयं, तथाच सहचारविशिष्टवैशिध्यावगाह बुद्धिवन्तु न तथा तस्य व्याप्तिप्रत्यक्षतरद्यत् वसिमानाधिकरणधमवान् इत्यादि प्रत्यक्षादिकं तत्र उत्तित्वात् । न चैवमपि हेतु-साध्ययोः व्याप्तिपदं श्यर्थमिति वाच्यं । मौमांसकनये ज्ञानस्य खप्रकाशतया धूमश्थापकवजितमानाधिकरणधूमवान् पर्वतः वसिमानाधिकरणत्वेन धूममहं जानामि ৰান্ধাজমুশমলনায় বহুৱাৰিত্মিম্ভয়িাৰমানি
Page #194
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८२ . सचिन्तामो ভ্রিলয় মলিন নামন্নিানালিথিনানাवच्छेदकल्पशून्यत्वस्य पक्षावृत्तित्वेन वरूपासिड्यापत्ते, साध्यांशे सदनिवेशे चोक्तरीत्या तादृशधर्मपदेन सहचारविशिष्टवैशिघ्यावगाहिबुद्धि त्वस्य ग्राह्यतया तइर्मावच्छिन्न कार्यतानिरूपितकारणताश्रयभिन्नत्वस्य पक्षावृत्तितया बाधापत्तिरिति व्याप्तिपदनिवेशः सपल इति ग्रन्यचतोभिप्रायः । पत्रेयमापत्तिः। भूयोदनं न तदेतद्व्याप्तिप्रत्यक्षे कारणमियुक्तौ यथाश्रुतं कार्यतावच्छेदकविधया व्याप्तिप्रत्यक्षत्वमेव भासते तथाच আধিসলাঞ্ছিন্নজালালিমিনাযনালয় জাল সন্ন यायिकमतनिराससम्भवात् कथं व्याप्तिप्रत्यक्षमात्रवृत्तिधर्मावचिनखेन कार्य्यता विशेषणोयेति । अत्र केचित् व्याप्तिप्रत्यक्षमात्रवृत्तिधावच्छिन्नेत्यादिना व्याप्तिप्रत्यक्षदत्तिवेजात्यावच्छिन्न कार्यतायाः परिग्रहः तचाच व्याप्तिप्रत्यक्षवृत्तिवेजात्यावच्छिन्न कार्यतानिरूपितकारणतानाश्रयत्वस्यापि संग्रह इति प्राः ।
अपरे तु व्याप्तिप्रत्यक्षत्वं व्याप्तिविषयकत्वविशिवप्रत्यक्षत्वं तथाच व्याप्तिমলাচ্ছিল্লানালিসিনহ্মাননায়ল বাঘল সকালविशिष्व्याप्तिविषयकत्वावच्छिन्नं प्रति भूयोदर्शनं हेतुरिति जरनैयायिकमतस्य निराकरणायोगात् । व्याप्तिप्रत्यक्षमात्रत्तिधर्मावच्छिन्न कार्यतानिरूपितकारणतानिवेशे तु प्रत्यक्षत्व विशिष्ट्याप्तिविषयकत्वस्यापि प्रत्यक्षमात्रवृत्तितया सदवच्छिन्न कार्यतानिरूपितकारणताश्रयभिन्नत्वमपि लभ्यत इति स्थितं ।
नव्यास्त व्याप्तित्वस्यैकस्याभावात् अत्र सा इत्यनेन व्यापकसामानाधिक रण्यरूपव्याप्तित्वेन निवेशे तस्मात् सवदर्शनगम्या सा इत्युपसंहारेऽपि सा इत्यनेन तस्यैव परामर्शन तथा [पाध्यमावो व्याप्तिरित्यनेन उपाध्यभावरूपण्याप्तेः सवदर्शनगम्यत्वोपादानविरोधः, उपाध्यभावरूपव्याप्तित्वेन प्रवेशे नवनौषधिकत्वज्ञानं व्याप्ति शानहेतुरिति मुजविरोधः उपाध्यमा वल्यव्याप्तिप्रत्यक्षं प्रति उपाध्यभावधानकारणत्वस्य केनाप्यनङ्गीकारात्,
Page #195
--------------------------------------------------------------------------
________________
चामियोपायः ।
किन्त अनुमितिमनकतावच्छेदकतापास्यधिकरणतया यात प्रवेशः, एवं सति उपक्रमोपसंहारस्य एकधम्मावच्छिन्नपक्षकत्वनियमोऽपि सङ्गच्छते । तथाच तस्मात् सचद्दर्शनगम्या सा इत्यत्र सा इत्यनेम धनुमितिजनकतावच्छेदकतापर्यायधिकरणत्वेन मीमांशकाभिमतायाः उपाध्यभावरूपव्याः परामर्शात्तथा[पाध्यमावोव्याप्तिरिति विवरणमपि सङ्गच्छते, सेयं व्याप्तिनं भूयोदर्भनगम्येत्यत्र सा इत्यनेन अनुमितिजनकतावच्छेदकतापर्यायधिकरणस्वरूपेण व्यापकसामानाधिकरण्यव्याप्तेः परामर्शात् मन्वनौपाधिकत्वज्ञान थाप्तिज्ञाने हेतुरिति मूलमपि सङ्गच्छते। एवञ्चहानुमितिनकतावच्छेदकतापात्यधिकरणविषयकप्रत्यक्षत्वावच्छिन्न कार्यतानिरूपितकारणतानाश्रयत्वस्य साध्यत्वं वक्तव्यं तच्च न सम्भवति जरनैयायिकमतेऽपि व्यापकसामानाधिकरण्यविषयकप्रत्यक्षत्वमेव भूयोदर्शनजन्यतावच्छेदकं न त्वनुमितिजनकतावच्छेदकतापर्य्यात्यधिकरणविषयकप्रत्यक्षत्वं प्रमेयत्वादिना व्याप्तिग्रहे व्यभिचारापत्तेः भूयोदनिपदार्थस्य साध्य-साधनभेदेन भिन्नतया चालोकधर्मिकव्याप्तिग्रहस्यापि अनुमितिजनकतावच्छेदकतापात्यधिकरणविधकतया तत्र वकि-धूमसहचारग्रहात्मकभूयोदर्शनविरहेण व्यभिचारापत्तेश्व, तथाच अनुमितिजनकतावच्छेदकतापर्यास्यधिकरणविषयकपत्यक्षत्वावच्छिन्न कार्यतानिरूपितकारणताप्रवेशेऽप्रसिद्धिः अनुमितिजनकतावच्छेदकतापर्यायधिकरणविषयकप्रत्यक्षमात्रवृत्तित्वप्रवेशे तु व्यापकसामानाधिकरण्यविषयकप्रत्यक्षत्वस्य तादृशप्रत्यक्षमात्रवृत्तित्वानाप्रसिद्धिरित्यभिप्रायेणैव मात्ररत्तीत्युक्त इति भावः । ननु व्याप्तिप्रत्यक्षवं व्याप्तिविषयकत्वविशिलप्रत्यक्षत्वं तस्य च प्रत्यक्षत्वानतिरिक्ततया घटप्रत्यक्षेऽपि वृत्तित्वेन व्याप्तिप्रत्यक्षमात्रत्तित्वाभावादेव व्याप्तिप्रत्यक्षमावत्तिधम्मावच्छिन्न कार्यतानिरूपितकारणत्वाभावसाधने प्रतियोग्यप्रसिया इदमसरतं । पत्रेदमुत्तरं । व्याप्तिविषयकत्वविशिष्ठप्रत्यक्षवावच्छिन्नभेदव्यापकभिदप्रतियोगितावच्छेदकं व्याप्तिप्रत्यक्षमात्रवृत्तिधर्मयदेन विवक्षितमतो न काप्यनुपपत्तिरिति ।
Page #196
--------------------------------------------------------------------------
________________
तापितामणे
तादृशकार्यतानिरूपितकारणत्वच विषयविधया व्याप्तावेव प्रसिमिति मथुरानाथः । इदच विषयतासम्बन्धेग प्रत्यक्षवावच्छिन्नं प्रति बादाम्य ने व्याप्तिईतुरित्यभिप्रायेण | ननु जरनैयायिकमते समवायसम्बन्धेन यानिप्रत्यक्षत्वावच्छिन्न प्रति समवायसम्बन्धेनं भूयोदर्शनस्य हेतुत्वात् भूयोदनधर्मिकतत्सम्बन्धावच्छिन्न कारणत्वाभावसाधनहारा तम्मतगिरासमिच्छता मौमांसकेन कथं तादात्म्यसम्बन्धावच्छिवस्य व्याप्तिप्रत्यक्षमात्रविधीवच्छिन्नकार्यतानिरूपितकारणत्वस्य व्याप्तौ प्रसिद्धिः कृता । न चैवं तादा. म्यसम्बन्धावच्छिन्नकारणत्वाभाव एव साध्य इति वाचं । तादाम्यसम्बन्धावच्छिन्नकारणत्वाभावस्य जरनैयायिकमतेऽपि भूयोदर्शने सत्वात् सिद्ध. साधनापत्तेः । न च व्याप्तिप्रत्यक्षमात्रत्तिधर्मावच्छिन्न कार्यतानिरूपितकारणतानाश्रय इत्यनेन सम्बन्धसामान्येन कारणत्वसामान्यभाव एव साध्यलघाच यत्किञ्चित्सम्बन्धेन यत्किञ्चित्कारणताप्रसिद्धिसम्भवात् तत्सम्भवः, नापि सिद्धसाधनावतारः जरनैयायिकेन सम्बन्धसामान्येन कारणवसामा. न्यामावस्य साधयितुमशक्यत्वात् तन्मते भूयोदर्शने यत्किञ्चित्समवायसन्यन्धेन यत्किञ्चित्कारणतायाः सत्त्वात् इति वाच्यं । कारणतायाः कार. गतावच्छेदकखरूपत्वमवश्यं वक्तव्यं अन्यथा हेतु-साध्ययोविभिन्नतया साध्याविशेषभिया अत्यन्तामा वान्योन्याभावभेदेन भिन्नत्यमिति यदुक्तं मधुराना
थेन तदिफलं स्यात्, तथाच तादृशकारणत्वच कार्याव्यवहितप्राक्क्षणावच्छेदेन कार्यतावच्छेदकसम्बन्धेन कार्याधिकरणबत्त्यभावीयकारणतावच्छे दकसम्बन्धावच्छिन्न प्रतियोगितानवच्छेदकधर्मवत्त्वं तस्य च सम्बन्धभेदेन भिन्नतया विधयतासम्बन्धेन व्याप्तिप्रत्यक्षाधिकरणत्तिभेदीयतादाम्यसम्बन्धावच्छिन्न प्रतियोगितानवच्छेदकधर्मवत्त्वं जरनैयायिकमते तु समवायसम्बन्धेन व्याप्तिप्रत्यक्षाधिकरणकृत्यत्यन्ताभावीयसमवायसम्बन्धावविपतियोगितानवच्छेदकधर्मवत्त्वरूपं तथाचैतदुभयसाधारणानुगतकारखवात्वाप्रसिद्धिः । पदमुत्तरं। निगलोभयल्पकारणवायां बन्यतरवमनुगतौछत्य सम्बन्धसामान्येन बन्यथासियनिरूपकतादृशान्यतरवावशिन
Page #197
--------------------------------------------------------------------------
________________
बामियोपावा।
१५
प्रतियोगिताकान्यवरसामान्याभाव एव साध्यते, तथाचान्यतरस्य यत्. किचित्तादात्म्यसम्बन्धावच्छिनत्वसम्भवेगापि तत्सम्भव इति, नापि सिद्ध. साधमिति जरनैयायिकेन एतदन्यतरत्वावच्छिमप्रतियोगिताकामावः साधयितुं न शक्यते भूयोदर्शने तादृशान्यतरीभूतत्वस्य समवायसम्बन्धावछिनकारणसत्त्वादिति ध्येयं ।
तादृशकारणत्वञ्च विषयतया व्याप्तावेव प्रसिद्धमिति, इदन्तु विषयतासम्बन्धेन व्याप्तिप्रत्यक्षं प्रति तादाम्येन व्याप्तिहेतु रित्यभिप्रायेणेतं । गनु धूमव्यापकवसिमानाधिकरणो धूम इत्याकारकव्याप्तिप्रत्यक्षस्य व्याप्तिघट. कप्रत्येकपदार्थधूमादावपि विषयतासम्बन्धेन जायमानतया तत्र नादाम्येन व्याप्रभावाभिचारापत्तिः तस्माद्याप्तिनिष्ठविषयतासम्बन्धेन व्याप्तिप्रत्यक्षत्वावच्छिन्नं प्रति तादाम्य न व्याप्नेतुत्वं वाच्यं, तथाच तादृशधूमादौ तादृशसम्बन्धेन व्याप्तिग्रहानुत्पादान्न व्यभिचारः, एवं सति कार्य-कारणभावे व्याप्तिप्रत्यक्षमित्यत्र स्थाप्तिपदं विहायतादृशसम्बन्धेन प्रत्यक्षत्वावच्छि प्रति तादात्म्येन हेतुत्वं वक्तव्यं, तथा सति व्याप्तिप्रत्यक्षमात्रत्तिधावच्छिनकार्यतानिरूपितकारणत्वाभावसाधने प्रतियोग्यप्रसिद्धिस्तदवस्थैवेति ताहशासम्बन्धेन प्रत्यक्षत्वस्य कार्य्यतावच्छेदकतया तस्य व्याप्तिप्रत्यक्षतरघटादि. प्रत्यक्षत्तितया व्याप्तिप्रत्यक्षमात्रवृत्तित्वविरहात् व्याप्तिप्रत्यक्षमात्रवृत्ति धावच्छिन्नकार्यतानिरूपितकारणत्वाप्रसिद्धे। पत्रेदं सिद्धान्तितं। विषयतासम्बन्धेन व्याप्तिप्रत्यक्षत्वावच्छिन्नं प्रति तादाम्येग व्याप्तहेतुत्वं वाच्यं । न । तादृशधूमादौ विषयतया व्याप्तिप्रत्यक्षं जायते येन तत्र तादात्म्ये न व्याप्नेर. भावात् व्यभिचारावकाश इति वाच्यं । व्याप्तिप्रत्यक्षत्वस्य व्याप्तिविधयकत्वविशिष्ठप्रत्यक्षत्वात्मकतया विषयतया तहम्मावच्छिन्नाधिकरणताया पतिरिक्तत्वात् विषयतया तादृशश्च व्याप्तावेव जायते न तु धूमादाविति स्थितं ।
स्तनपानं सुखसाधनं सुखागन्यथासिद्धत्वे सति सखान्वयश्चतिरेकामुविधायित्वात् यद्यदनन्यथासिद्धान्वयव्यतिरेकानुविधायि तत्तत्साधनमिति व्याप्ते
24
Page #198
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६
तचिन्तामगै
शाने तीपेक्षाविरहानवस्था निराकृता । अत्र सुखानन्यथासिद्धत्वचन सखान्यथासिद्धत्वावच्छिन्न प्रतियोगिताकभेदः यावत्सखान्यथासिइसाधारखामखान्यथासिद्धत्वस्थानुगतस्याभावातू, किन्तु सुखान्वय-यतिरेकानुविधायितावच्छेदकीभूतयद्यविच्छिन्ने सुखस्याकारणत्वयवहारः प्रामाणिकानां तत्तद्धावच्छिन्नं यद्यत् तत्तहाक्तिभिन्नत्वं, सुखान्वय-व्यतिरेकाननुविधायिघटादीनां विशेष्यदलेमैव वारणसम्भवात्तेषां सत्ताक्तित्वावच्छिनप्रतियो. गिताकानन्तभेदनिवेशेन वारणे गौरवमनो यद्यद्धर्मेऽवच्छेदकान्तं । विशेव्यदणार्थस्तु खाव्यवहितपूर्वकालवृत्तित्वे सति घवच्छेदकतासम्बन्धेन खाधिकरणदेशावच्छेदेन खाव्यवहितपूर्वकालावृत्त्यभावप्रतियोगितावच्छेदकधर्मवाचं न तु सखाव्यवहितपूर्वकालवृत्तित्वे सति सुखाधिकरणीभूतदेशावच्छे. देन सुखायवहितपूर्वकालवृत्त्यभावप्रतियोगितामवच्छेदकधर्मवत्त्वमर्थः, तथा सति साध्याविशेषापत्तिरिति । खपदं सुखपरं, यथाश्रुतमुखान्धयव्यतिरेकानुविधायित्वस्य स्तनपानेऽसत्त्वात् खरूपासियापत्तिः, एवञ्च सत्ताभरीरत्वादिशात्यामपि विशेष्यदलसत्त्वात् तत्र सुखसाधनत्वासत्वेन व्यभिचारः बतोऽनन्यथासिद्धत्वान्त, प्रलयादौनामभावस्य सुखाव्यवहितपूर्वकाले व्याप्यत्तितया न सुखाधिकरणदेशः अवच्छेदक इति खाधिकरणदेशावच्छेदेन खाव्यवहितपूर्वकालत्तिर्यस्तदन्यत्वं प्रलयाभावस्थाक्षतमिति तत् प्रतियोगितावच्छेदकप्रलयत्वमादाय प्रलये अतिप्रसः अतो विशेष्यदलघटकीभूतसत्यन्त, सुखाव्यवहितपूर्वकालमृत्तिघटादिष व्यभिचारधारणाय विशेष्यदलघटकविशेष्यदलं, तथाच खाव्यवहितपूर्वकालेऽवच्छेदकतासम्बन्धेन खाधिकरणशरीरावच्छेदेन घटाभावस्य सत्त्वान्न व्यभिचारः। स्तनपानामावस्यापि खाव्यवहितपूर्वकाले देशान्तरावच्छेदेन सत्त्वात् न तत्र विशेष्यदलघटकविशेष्यनिर्वाहः अतः खाधिकरणदेशावच्छेदे नेति । खा. धिकरणत्वञ्च व्यवच्छेदकतासम्बन्धेन, सुखं प्रति स्तनपानस्य हेतुतायां कार्यसावच्छेदकत्वं कारणस्य तु समवायः प्रत्यासत्तिरिति ध्येयं । वस्तुतः तदन
Page #199
--------------------------------------------------------------------------
________________
शानियोगा।
सोऽपि न व्याप्तिपहे हेतुः। न च तदुवाववान्तरबातिरस्ति सामान्यप्रत्यासत्त्या सोपसंहारादविनाभावग्रहः, सामान्यरूपता.च सकृद्दर्शनगम्येति भूयोदर्शनापेक्षेति चेत्। न। सामान्यस्य हि प्रत्यासत्तित्वं लाघवात् न तु सामान्यतया ज्ञातस्य तदनभ्युपगमाच।
'तर्हि व्यभिचारादित्याद्यग्रिमग्रन्थामङ्गतेश्च व्याप्तिप्रत्यक्षं प्रत्येव तकस्य हेतुतया जातमात्रबालकौयव्याप्तिज्ञानस्य स्मरणरूपतया व्यभिचारासम्भवात् । न च 'विनैवेतिपाठेऽपि एवशब्द दवाथै, तथाच पूर्वोक्त एवार्थ इति वाच्य। एवशब्दस्य वार्थकत्वे पूर्वस्वरविलोपापत्तेः “एवे इवार्थ” इति परिशिष्टानुशासनात्, वार्थोऽवधारणेतरार्थः, “एवेऽनवधारणे” इति व्याकरणान्तरौयानुशासनैकवाक्यत्वात् । तौति यत्किञ्चित्तजनकौभूतव्याप्तिप्रत्यक्षस्य तक विनाप्युत्पादइत्यर्थः, 'मोऽपि' तोऽपौत्यर्थः, अनादित्वेनैतत्परिहारथाये वक्ष्यते। गनु तर्कजन्यव्याप्तिबुद्धिषु वैजात्यं वर्तते तदेव तर्कजन्यतावच्छेदकं । [च चाक्षुषत्वादिना सङ्करः, चाक्षुषत्वादिव्याप्यनानाजातिखौकातत् कार्यतावच्छेदकस्याननुगमस्थादोषत्वादित्यत पाह, 'न चेति,
यथासिद्धान्वय व्यतिरेकानुविधायित्वमित्यस्य खान्वयप्रयोजकान्वयप्रतियोत्वे सति खानुत्पादप्रयोगकोभूताभावप्रतियोगित्वमिति समुदायदनस्य नष्कृयार्थः । बन्धयप्रयोजकत्वं खरूपसम्बन्धविशेषा, बघाच प्रछते लग. नादौ सखाबाद-व्यविरकामुविधायित्वमक्षतमेवेति ।
Page #200
--------------------------------------------------------------------------
________________
तावपिनाम
म काकतालीयत्वादिशहायुदासायं द्वितीयादिदर्शनापेक्षेति वाच्यं। द्वितीयादिदर्शनेऽपि शशातादवस्थ्यात्। नन्वनौपाधिकत्वज्ञानं व्याप्तिधाने हेतुःतहेश-काल-तचावस्थितघटादीनां उपाधित्वशानिरासः कस्यचित् साधनव्यापकत्वज्ञानेन कस्यचित साध्याब्यापकत्वमानेन स्यात् तच्च भूयोदर्शनं विना नावत
'तदुद्वौ' तबन्यव्याप्तिबुद्धौ, 'जातिरस्तौति, मानाभावात् तस्य हेतुत्वामिद्धिरिति भावः । माभूत् भूयोदर्शनं कारणं तथापि कचिदुपयुज्यत एवेत्यभिप्रायेण शहते, 'सामान्येति, एवमुत्तरच सर्वचापि, 'सापमं हारादिति सर्वेषां माध्यानां साधनानां ज्ञानादित्यर्थः, सामान्यरूपतेति, सामान्यत्व स्थानेकवृत्तिवरूपत्वादिति भावः। दश्च सामान्यत्वेन ज्ञातं प्रत्यासत्तिरित्यभिप्रायेण । न चैतावतापि अनेकव्यकौनां धूमादौनां ज्ञानस्यापेक्षा मिडा न तु साचारभूयोदर्शनापेवेति वाच्यं । मामान्यतोऽस्थानेकदर्शनमाचापेशाव्यवस्थापकत्वात् एवमुत्तरचापि । 'मामान्यस्य' सामान्यज्ञानस्य, 'तदिति मामान्यलक्षणप्रत्यासत्यनभ्युपगमाञ्चेत्यर्थः । 'काकतालीयबादिशा' माध्य-साधनसहचारस्यैतन्मात्रस्थलीयत्वाला, 'पादिपदात् चिखलौयत्वादिपरियहः । 'अनौपाधिकत्वज्ञान' उपाध्यभाव
(१) नद्देश-काल-तत्रावस्थित घटादीमामित्वा ततिपदं पश्ययं, तदेश. कान सत्तदवस्थितघटादौनामित्वेव ममोधीनः पाठो भवितुमईति।
Page #201
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्थानियहोपायः।
रतोति चेत्। न। अयोग्योपाधिव्यतिरेकस्यानुमानाधोनशामत्वेनानवस्थापातात्। अथ साध्य-साधनसहपरितधमान्तराणामुपाधित्वसंशये न व्याप्तिग्रहः अतस्तेषामनुपाधित्वज्ञानं भूयोदर्शनाधीनसाध्याव्यापकत्वज्ञाने सतीत्येतदर्थं भूयोदर्शनापेक्षा, अत एव
नित्रयः, 'तश्चेति साध्यवदृत्तौ साध्याव्यापकत्वज्ञानञ्च न तळून्यमाध्याधिकरणान्तरज्ञानं विनेत्यर्थः । 'अयोग्येति, तथाच अनौपाधिकत्व ज्ञानं न व्याप्तिधौहेतुरिति भावः । ननु माभूत् अनौपाधिकत्वनियो हेतुः उपाधित्वशाविरहच हेतरेव तावतैव भूयोदर्शनापेक्षा सिद्धेत्यागते, 'अथेति, 'प्रत इति अनुपाधिकाज्ञानं विना सन्देहानिवृत्तिरिति भावः। ‘यावतेति अनुपाधित्वनिधायकदर्शनत्वेन हेतुत्वमिति भावः । ननु उपाधित्वप्रकायाः प्रतिबन्धकवे हि अनुपाधित्वनिययापेक्षा स्यात्तदेव च न विरोध्यविषयकत्वात् इत्याह, 'यद्यपि चेति, 'तदाहितः' तटबन्यः । यद्यप्येवमपि तव स्वतः सिद्ध उपाधिशाविरहस्तच भूयोदर्शनस्थापेक्षा स्थैव तथापि स्फुटत्वादिदमुपेक्ष्य दूषणान्तरमाह, 'अयोग्येति, तथाच तत्संग्रयस्थाप्रतिबन्धकत्वमेवावण्यं वाचमिति भावः। 'भर नेति, भूयोदर्शनेऽपि अयोग्योपाधिमातादवस्यादनुमानस्य चानवस्थायस्तत्वादिति भावः । किञ्च भूयोदर्शनजन्यसंस्कारस्य मानसेतरथामिप्रत्यवत्वं कार्यतावशेदकं सामान्यतो यातिप्रत्यय बेति
Page #202
--------------------------------------------------------------------------
________________
तापपिमान
यावता दर्शनेन तविधयस्तावडूयोदर्शनं हेतुरिति न वारसंस्थानियमो न वामनुगमः। यद्यपि पान्यस्य साध्यव्यापकत्व-साधनाव्यापकत्वसंशयो नान्यन्याप्तिग्रहप्रतिबन्धकस्तथापि तदाहितयभिचारसंशयः प्रति
विकल्य दूषयति 'अपि चेति, 'न वहिरिनियसहकारी' न वहिरिनियमाचसहकारौं, न मानसेतरव्याग्निप्रत्यक्षवावचित्र प्रति जनक इति यावत् । 'तह्यापार विनापीति भयोदर्शनजन्यसंस्काररूपव्यापारं विनापौत्यर्थः, 'व्याप्तियहात्' मानमव्याप्तियाप्रमजात् । 'नापि', 'मनमः' मनमोऽपि, मानसप्रत्यक्षं प्रत्यपौति यावन्, जनक इत्यनुषव्यते । संस्कारजन्यत्वे व्याप्तिप्रत्ययस्य स्पतिवापतेः संस्कारस्य नब न हेतुत्वं किन्तु तब्वन्यस्मरणस्येत्यपि मतं दूषथितुमाइ, 'तवन्यस्मरणस्य वेति, प्रमाणन्तरत्वापत्तेः' यदभाधारणं महकार्यामाघ मनोवहिर्गाचरां प्रमा जनयति तस्य प्रमाणारबादिति भावः । न च प्रमाणन्तरत्वं प्रत्यक्षादिभिवप्रमाणत्वं तच्चाप्रति मिति वाचं। मानसन्मानाकरणावे मति प्रमाकरणबापत्तोरित्यर्थात् प्राभाकरमतमुपसंहरति, 'तस्मादिति भयसविशिष्टमाध्य-साधनसहचारजानत्वस्य व्यातिप्रत्यक्षकारणतानववेदकत्वादित्यर्थः, 'परिषेणेति, 'सा' व्याप्तिः । यद्यपि समनवन्यप्रत्यक
(५) माक्सवामपरजावातिरिकाप्रमावरखामापारिति विश्वा ।
Page #203
--------------------------------------------------------------------------
________________
चामियशेषाः। क्यक इति तरिधूननमापश्यामिति चेन। ना भयोग्योपाधिसंशयाधीनव्यभिचारसंशयस्य तथाप्यनुच्छेदात् स च न भूयोदर्शनानाप्यनुमानादित्युक्तम् । अपि च भूयोदर्शनाहितसंस्कारोन बहिरिन्द्रियसह
विषयत्वरूपस्य महानगम्यत्वस्य माध्यत्वे मौमांसकनये बाध:(१) तन्मते माध्य-साधनसम्बन्धज्ञानस्यैव व्याप्तिज्ञानत्वेन तस्य तबन्यत्वाभावात्। न च साध्य माधनसम्बन्धविशिष्टप्रत्यक्षस्य माध्य-साधनसम्बबज्ञानजन्यवान बाध रति वाचं । तन्मते विमिष्टबुद्धौ विशेषणजानस्याहेतत्वात् भव्यनेयायिकमते मिद्धमाधनाच्च तन्मतेऽपि व्यभिचारज्ञानानवतारे प्रथमदर्शनेमापि व्याप्तिग्रहात् । तथापि मारमाधनसम्बन्धमाचात्कारत्वव्यापकविषयिताकत्वं साध्यं ।। न च न्याय
(१) न च सन्मते भूयोदर्शनजन्यप्रत्यक्षाप्रसिद्या भूयोदर्शनत्रन्यप्रवक्षविषयत्वाभावसाधने पूर्व यथा साध्याप्रसिद्धिनता तथानापि सादग जन्यप्रत्यक्षाप्रतिच्या साध्याप्रसिद्धिः सम्भवति कथं सनोका बाध उत. इति वाच्यम् । . पर्ववदिहापि यदि सचदर्शनं पक्षीवन्ध स्थाप्तिप्राथ. सकारणत्वं मौमांसीः साध्यते तदा बाप्तिप्रत्यक्षकारणवस्य तिया बामौ सिडिसम्भवात् न साधाप्रसिद्धिरतो बाधः उक्तः ।
(२) विशिरवैशिचावगापिबुद्धि प्रति विशेषयतावच्छेदकप्रकारकचामस्य वारयतावादिनैयायिकामते साध्यसामानाधिकरणविशिवैशिप्वावगाहियोधात्मकसमादर्शनजन्यायक्षविषयत्वस्य याप्तौ सत्वेन बाधाभावेऽपि नवनवायिवमते यभिचारशावागवतारे सहारनपन्चवक्षवि. घयत्वस्य बातो साचात् विडसाधनापरतः साध्य-साधनसम्बन्धमाक्षाद
Page #204
--------------------------------------------------------------------------
________________
१९.
वापिकामगे
मोऽपि याः साधनतावोदकानतिरेकितथा साधनामानाभिकरथानतिरेकिता वा सिद्धसाधनमिति वाचं। मशिखतेव
कारत्वष्यापकविषयिताकत्वं व्याप्ती साधितं । यद्यपि साध्य-साधनसम्बन्धसाक्षात्कार त्वसमानाधिकरणविषयिताकत्वं व्याप्ती साध्यते तदा धूमण्यापकवसिमानाधिकरणो धूम इत्याकारकसाध्य-साधनसम्बन्धसाक्षात्का. रविषयत्वस्य व्याप्तौ नय्यमैयायिकमते सत्त्वात् सिद्धसाधनतादवस्यामतः माध्य साधनसम्बन्धसाक्षात्कारत्वयापकवियिताकत्वं निवेशितं, तयाच धूमो वसिमानाधिकरण इति साक्षात्कारेऽपि तादृशसाक्षात्कारत्वस्य सत्वात् तत्र विशिष्वहिसामानाधिकरण्यरूपयायिकमतसिहयातिवि. घयताया पसत्त्वान्न दोषः। ननु व्याप्तिगहच वक्ष्यरे इति प्रतिज्ञा मविका. रेण कृता बतो व्याप्तिग्रहस्य कारणकथनमेव प्रकृतोपयुक्तमिति साध्य - साधनसम्बन्धसाक्षात्कारवयापकविषयिताकत्वसाधनमर्थान्तरयसमिति । यदि च साध्य साधनसम्बन्धसाक्षात्कारवयापकविषयिताकत्वस्य व्याप्ती सत्त्वे साध्य-साधनसम्बन्धयाहकं यत्तदेव व्याप्तिग्राहकमिति नभ्यते तदा साध्य-साधनसम्बन्धग्राहकत्वव्यापकग्राहकताकवरूपविशेषहेतोयानो कपनेन व्याप्तियहोपायः क इति विज्ञासानिहत्तः साध्य-साधनसम्बन्धमहत्वव्यापकवियिताकत्वसाधनं निष्पानमिति चेत् । न । सर्वमिदं सति यातिनिश्चये स एव तु न सम्भवति उपायाभावादिवादिग्रत्येक व्याप्तियहकारखा. मावेन व्याप्ति निख्यस्थासम्भवात् अनुमानप्रामाण्यवस्थापन म सम्भवतीति चायोकपर्वपक्षप्रतिपादनात्साध्य-साधनसम्बन्धमायावयापलयावत्वस्य हेतुत्वक धनेन व्याप्तियास्य कार प्रतिपादितं, निरासादगम्यत्वसाधनेन च साध्य-साधनसम्बन्धसाक्षात्कारस्य यानिमियरूपता प्रतिपादिता, तचाच तस्यैवामितिबारव सम्भवतीवि सर्व सुसमा म।
Page #205
--------------------------------------------------------------------------
________________
थालियोपावः।
१५ कारी तद्यापार विनापि च साचारादिमानवतो व्याप्तिमहात्। नापि मनसः इन्द्रियादिवड्योदर्शनजन्यसंस्कारस्य तज्जन्यस्मरणस्य वा प्रमाणान्तरत्वापत्तेः, तस्मात् परिशेषेण सकदर्शनगम्या सा, तथानुपाध्यभावोव्याप्तिः अभावश्च केवलाधिकरणं तत्कालसम्ब
'किवेत्यादिना अनुपदमेव तहोषस्य वध्यमाणत्वात् । परिषस्य न स्वप्रत्यक्षाकारणभूयोदर्शनकत्वे मति सहचारदर्शनगायत्वं खरूपामिद्यापत्तेः माध्य-साधनसम्बन्धज्ञानस्यैव ताते व्याप्तिज्ञानत्वात् । न च सहचारदर्भनगायत्वं सहचारदर्शनविषयत्वं, समूहासम्बनशानमादाय घट-पटादी व्यभिचारापत्तेः, किन्तु माथ-साधनसम्बवयाहकसामग्रौत्वव्यापकखग्राहकसामग्रौत्वकस्वमिति हेतमुपपादयति, 'तथाहौति, 'उपाध्यभाव इति उपाध्यभाववाचे मति माध्यसामानाधिकरष्यमित्यर्थः, तेन तबये विरुद्ध हेतावुपाधिविरहेऽपि मातियाप्तिः । 'केवलाधिकरणमिति, तञ्च साधनं धमादिरेपेति भावः । नन्वेवं प्रतियोगिकालेऽपि तदधिकरणमस्त्येव कथं का पधिकरणभावयोराधाराधेयभावप्रतीतिरित्यत पाए, 'तत्कालेति मत्कालेन प्रतियोग्यमधिकरणकालेगाधिकरणस्य सम्बन्ध इत्यर्थः, मिते कासय परिन्द्रियवेचल्यादेव तस प्रत्यक्षवं । सर्वच इतुमनधभाने कालभानावश्यम्भावाभावादाह, 'स्वप्रकाति, 'तज्ज्ञानमिति प्रधिकरणज्ञानमित्यर्थः, 'समकाम इत्यमेन प्रथमदर्शनगम्यत्वसुप
25
Page #206
--------------------------------------------------------------------------
________________
10
वाचवितामणे श्रीवा स्वप्रकाशरूपं तज्ज्ञानं वा तब प्रजमदर्शनेनावगतमेव(चक्षुरादिना, न चाधिकस्तदभावोऽस्ति, नर प्रतियोगिज्ञानमधिकरणादिजानजनकं येनोपाधिजानं विना तन्न स्यात्, एवमुपाध्यभावे जाते किषित्र ज्ञातुमवशिष्यते उपाध्यभावव्यवहारस्तु तडियमपेक्षते दीर्घत्वादिव्यवहार इवावधिज्ञान। न चैवं रासभसम्ब
पादितं । न च प्रतियोगिसत्त्वकालौनाधिकरणज्ञानस्याभाववाभावेन प्रतियोग्यसत्कालौनाधिकरणज्ञानमेवाभावस्तथाच माधनज्ञानमाषस्योपाध्यभावत्वाभावात् कथं माध्य-साधनसम्बन्धमाचात्कारत्वव्यापकविषयिताकत्वमिति वाचं । ‘सद्धेतस्थले सर्वदैव उपाध्यमचेन साधनज्ञानमावस्यैव उपायभावत्वात् । 'तञ्चेति, तञ्च वधुरादिना प्रथमसम्बन्धदर्शनेऽवगतमेव विषयोभूतमेवेत्य वयः, 'प्रथमसम्बन्धद
नेनेति बतौयानपाठे 'अवगत' विषयौहनं । ननु अधिकरणदिभ्योऽतिरिक एवाभावः तजजान विनापि च माधनं यात इत्यतभाइ, 'न चेति, अतिरिकाभावकल्पने गौरवादिति भावः । मन्तादृशमकदर्शनगम्यत्वमिङ्खावपि भूयोदर्शनापेक्षावश्यको प्रभावज्ञानस्य प्रतियोगितामाधीनत्वेन उपाधिज्ञानार्थं भयोदर्शनावश्यकावान् उपाधिस्वस्थ माध्यव्यापकत्वादिघटितत्वादित्यत पार, न. प्रतियोगौति, ‘एवमिति प्रभावबुद्धौ प्रतियोगिज्ञानस्थाइतले,
(१) प्रथमसम्बन्धदर्शनेऽवगसमेवेति सः ।
Page #207
--------------------------------------------------------------------------
________________
वासियशपाया।
श्वतुल्यवहि-धूमसम्बन्धज्ञानादेवानुमितिः स्यादिति वाचम्। उपाधिस्मरणे सत्युपाधि-तयाप्येतरसकलतदुपलभकसमवधाने चोपाध्यनुपलम्भसहितस्य केवलाधिकरणज्ञानस्यानुमितिहेतुत्वात् तयवहारहेतुत्वाचा नन्वेवं प्रथमदर्शनेन व्याप्तिनिश्चयाविशेषदर्शने सति रासभादिसंशयवत् तत्संशया न स्यादिति चेत्, व्याप्तिज्ञानानन्तरं किं विद्यमान एवोपाधिर्मयोपाधित्वेन
'उपाध्यभाव इति, घटकत्वं सप्तम्यर्थः, तस्य 'किञ्चिदित्यनेनावयः, 'अवशिष्यत इति, येन तज्ज्ञानार्थं भूयोदर्शनापेक्षा स्थादिति भावः । नन्वेवं प्रतियोगिज्ञानं विनापि प्रभावप्रत्ययेर) तब्जन्यव्यवहारोऽपि स्थादित्यत पाह, 'उपाध्यभावव्यवहारखिति उपाधिनास्तौति भन्दप्रयोग इत्यर्थः, तस्योपाध्यभावत्वप्रकारकज्ञानसाध्यत्वादिति भावः । 'दौर्षवेति, यथा दौर्घत्वपरिमाणस्य द्रव्यमाचात्कारसामग्रीयाद्यतया दौर्घत्वज्ञाने नावधिजानापेक्षा किन्तु अयममाहौर्घइति व्यवहार एवावधिज्ञामापेक्षेति भावः । 'रामभसम्बन्धतस्येति वकि-रामभसम्बन्धतख्येत्यर्थः, तुल्यता च अनुमित्यजनकतथा, तथाच वलि रामभसम्बन्धज्ञानं यथा अनुमित्यजनकं तथा वस्तुगत्या अनुमित्यजनकं यदकि-धमसम्बन्धज्ञानं तस्मादेव भवन्मतेऽनुमितिः स्थादित्यर्थः । 'उपाधिस्सारण इति मरणवमविवषित
(१) बहार हेतुत्वाति क.। (२) अभावमवध इति सामा।
Page #208
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामगै
नज्ञात इतिशतया गृहीतव्याप्तावपि संशयः अतस्तष भूयोदर्शनेनोपाधिनिरासहारा व्यायभावशङ्कापनीयते।यहा ज्ञानप्रामाण्यसंशयाव्याप्तिसंशयः यबाघटजानसामग्र सत्यां घटनाने सति तत्यामाण्यसंशया
उपाधिज्ञाने सतीत्यर्थः, 'उपाधि-तड्याप्येतरेति उपाधिरुपाधिण्याप्योय उपधौन्द्रियसत्रिकर्षादिस्तदितरोपाधिविशिष्टप्रत्यक्षजमककारणकलापे सतीत्यर्थः, 'उपाध्यनुपलभसहितस्येति उपाधिमत्ताज्ञानाभावसहितस्येत्यर्थः। नन्वेवं धमे व्यभिचारभ्रमेऽपि ततोऽनुमितिः स्यात् उकरूपमकल हेतमत्त्वात् भ्रमस्तु जानदयमेकजानं वेत्यन्यदेतत् । न च तत्र भ्रमरूपोपाधिविशिष्टबुद्धेरप्युत्पत्तेः उपाध्यनुपलम्भ एव • नाम्तौति वाच्यं । तैरन्यथाख्यात्यनजौकारात् यभिचारज्ञाने उपाधिज्ञानानियमाञ्च रति चेत् । न । व्यभिचारज्ञानाभावस्थापि महकारित्वात् । अथैवमप्यमविकष्टादिहेतुकानुमितिर्न स्थात् उपाधिविशिष्टोपलम्भककारणकलापविरहादिनि चेत् । न। उपाध्यनुपलम्भकादिकं नानु मिनिहेतुः किन्तु उपाध्यभावत्वेन जानं, तञ्चामविष्ष्टस्यलेऽपि सम्भवनि, 'उपाधिस्मरणे' इत्यादिकन्तु लौकिकप्रत्यक्षात्मकोपाध्यभावत्वप्रकारकज्ञानस्य कारएमात्रप्रदर्शनं इति । न चैवं उपाध्यमावत्वप्रकारकव्याप्तिज्ञानस्य उपाधिज्ञानाद्यधोनत्वेन निरुणामदर्शन गम्यत्व-निकपरिभेषवचयोसत्र .बाधं रति वाचं। याप्तिस्वरूपातीतावितरापेवाविरपादेव तयोमा पनवादिनि । ममेव केरवाधिकरवानादन
Page #209
--------------------------------------------------------------------------
________________
वामियोपायः। हितस्तत्संशयो न त्वप्रिमसंशयानुरोधेन तर घटजानमेव न रत्तमिति कस्पाते तथहाप्युपाध्यभावस्व व्याप्तित्वात् तस्य चकेवलाधिकरणरूपस्य प्रथमदर्शनेऽपि निश्चितत्वात् व्याप्तिग्राहकान्तरस्याभावाच परि
मितिनं भवतु उपाधिज्ञानं विना केवसाधिकरणशानमाचदशायामुपाध्यभावव्यवहारस्त जायतामित्यत पार, 'नयवहारेति(१) उपाध्यभावयवहार हेतुत्वाचेत्यर्थः ।
केचिक्नु नवमसबिष्टादिहेत कानुमितिर्न स्थानादृयोपाधिविशिष्टप्रत्यचजनककारणकलापविरशादित्यस्वरमादाह, 'तावहारेति तस्य व्यवहारो यस्मादिति युत्पत्या अनुमितेरुपाध्यभावयवहारहेतुइतकत्वाचेत्यर्थः, 'चकारः वार्थे, उपाध्यभावव्यवहारहेतब परोक्षापोरवसाधारणं उपाध्यभावत्वप्रकारकज्ञानमात्रमिति प्राः।
'नन्वेवमिति, ‘एवं' याप्तिग्रहस्य साधनयाहकातिरिकानपेचावे२), 'प्रथमेति प्राथमिकधमादौन्द्रियमविकरेत्यर्थः, 'याप्तिनिखयादिति, विशेषणशानस्य विशिष्टबुद्धावहेतुत्वेन धमादौ खात्मकव्याप्तिप्रकारकनिमये बाधकाभावादिति भावः । विशेषदर्शने मतौति यथा वयव्याप्यत्वस्य विशेषदर्शने सनि रामभादौ न वझियाप्यत्वसंशयः तथेत्यर्थः, 'तसंशय रति धूमादौ वकि
(१) यवहारतोति व. ग.। (२) साध्य-साधनसम्बन्धमाकातिरिकानपेक्षवेविका।
Page #210
--------------------------------------------------------------------------
________________
सावपिताम शेषेण सहदर्शनस्य व्याप्तिाहकत्वात् तनिश्चये प्रामा. त्यसंशयादेव तत्संशया नवं रासभेऽपि प्रथम व्याप्तिपरिच्छेद:१) स्यादिति वाचं। तप व्याप्तेरभावात प्रत्यसजाने विषयस्य हेतुत्वान, कपिदसंसर्गाग्रहात् तवा
व्यायत्वसंशय इत्यर्थः, तव इति शेषः, अत एवाये मवेति माकते, व्याप्तिस्वरूपप्रतीतावपि उपाध्यभाववरूपेण उपाध्यभावात्मकव्याप्तिप्रकारकनिषयाभावात्सप्रकारकसंध्यो मानुपपत्रः, यदा तबिश्ये प्रामाणसंशयायाप्तिसंशय रति समाधानइयं कमेणार, 'याप्तिज्ञानाननरमिति धूमादिसत्रिकर्षानन्तरमित्यर्थः, ज्ञायते अमेति व्यत्पत्तः)। "किमिति पत्र किंशब्दोऽपिमयदत्यपेक्षया विकम्ये, 'विद्यमानेति, 'विद्यमाने' जायमाने धूमादौ, उपाधिवेन उपाधिरेव मया न जात इत्यर्थः, न तु उपाधभावत्वेन उपाध्यभावोऽपि निचितइति शेषः, 'इति स्था' अतः महामामयोमत्तया, 'रहौतयाप्तावपि सहीतथाप्तिस्पेऽपि, 'संभवः' उपाध्यभावत्वप्रकारेण उपाध्यभावात्मकण्याप्तिसंभवः, समानप्रकारकनिवयस्यैव विरोधिवादिति भावः । 'उपाधिनिराति उपाधभावत्वप्रकारकनिषयबारेत्यर्थः ।
“(१) वाप्तिनिषय इति ग.
(२) काप्तिधामपदस्य जायते पनेनेतिकरयत्वाचा वाभिधानमनका धमादिसविवर्षपरवमिति मावः।
Page #211
--------------------------------------------------------------------------
________________
पाक्षियरोगावः।
व्यवहारो दोषमाराव्यात् । न चाचापि तथा, भारोपे सति निमित्तानुसरणं न तु निमित्तमस्तीत्यारोपइत्यभ्युपगमात्।
चजवस्तु पूर्वपक्षे तवेति नाध्याहार्य, 'व्याप्तिज्ञानानन्तरमिति पाप्तिनिषयानन्तरमित्यर्थः । “किं विद्यमान रति किमत्र उपाधिरेव विद्यमान वर्तमानः मया उपाधित्वेन न जातत्यर्थः, के वा उपाधिरेव न वर्तते, 'रति माझ्या' इति महासत्तथा, ग्रहीतव्याप्तावपि' निधितायां व्याप्तावपि मंशय इत्यर्थः। एतादृधम्भावनाविरहविशिष्टव्याप्तिनिषयस्यैव प्रतिबन्धकत्वादिति भावः । नु लाघवाह्याप्तिनित्यत्वेनैव प्रतिबन्धकत्वात्सादृशसंभावनाया उत्तेकल्वे मानाभाव इत्यखरसादाह, 'यद्देति, इति प्राडः ।
ननु मथे प्रामाण्यसंशयकल्पने गौरवाविषय एव व्याप्तेर्न वृत्तत्येव कल्पयितं युक्रमित्यत पार, 'यथेति, 'घटज्ञान रति घटनेवय इत्यर्थः । न चैवमिति, ‘एवं' माधनयाहकातिरिकानपेक्षने, सभेऽपि धूमसमानाधिकरणे रामभेऽपि, 'व्याप्तिनिश्चयः स्यात् (२) रूपतो व्याप्तिप्रकारकनिमयः स्यात्, विशेषण ज्ञानस्य तन्मने ९)
(१) तावहार इति ग.। (२) 'याप्तिपरिछेदः स्यात्' इत्यत्र 'थाप्तिनिश्चयः स्यात्' इति कस्य. लत् मूगलकस्य पाठममुखतवन्तो रहस्यवतः । (२) तवेति ख.।
Page #212
--------------------------------------------------------------------------
________________
बाचिन्तामने
.. केचित्त साधनवनिष्ठात्यन्ताभावाप्रतियोगिसाथसामानाधिकरण्यं साधनवनिष्ठान्योन्याभावामतियोगिसाध्यवकत्वं वा व्याप्तिस्तदुभयमपि योग्बर) प्रत्यक्षेण वहि-धूमसम्बन्धानुभवेन प्रथममवगतमेव ।
विशिष्टबुद्धावहेतुत्वादिति भावः। विषयस्य' विशेथ-विशेषणसम्बन्धस्य, विशिष्ट प्रत्यक्षत्वस्य तत्कार्य्यतावच्छेदकतया न प्रमाया गुणजन्यत्वमिति भावः । नन्वेवं कुचापि यायभाववति व्यायव्यवहारोन स्थात् तस्य तविषयाधीनत्वात् इत्यत पार, 'कपिदिति, 'दोषमाहान्यादिति, व्याप्तिस्मरणपुरोवर्तिज्ञानमहतोव्याप्यत्वासंसर्गाग्रहस्तस्मात्तयवहार इत्यन्वयः । 'न चाचापौति सर्वत्र रामभादावित्यर्थः, 'तथेति दोषमाहात्म्याड्याप्तिस्मरण पुरोवर्तिज्ञानसहितव्याप्यत्वासमगायहोभवत्वित्यर्थः, 'भारोपे' पुरोवर्त्तिताज्ञान-तदग्रहौतासमर्गकविशेषणज्ञाने, ‘मतौति प्रामाणिक इत्यर्थः, 'निमित्तेति, निमित्तस्य दोषस्य, 'अनुसरणं' कल्पनमित्यर्थः, फसवलादिति भावः । । बिति न तु सर्ववेव दोषास्यं निमित्तमति, 'रत्यारोपः' येनारोपः येन सर्वत्राग्रहीतासमर्गकच्याप्तिज्ञानमिति यावत्।
तदेवं उपाध्यभावरूपाया व्याप्नेः महानगम्यत्वमुपपाच मौमासक: नैयायिकमिहाया एवं व्याप्तेः तादृष्येण महानगम्यत्वं सैकदधिमतं दूषयितुमुपन्यस्वति, 'कपिलिनि, 'प्रत्यक्षेप' पधुरादिना, 'अवगत विषयौकतं, 'महानम इति एतहमवतीत्यर्थः, (१) योग्यत्वादिवि ., ग.।
-
e
-....
-
-
-
Page #213
--------------------------------------------------------------------------
________________
चालियोपायः।
२.५
महामसे योऽत्यन्ताभाषोऽन्योन्याभावोवावगतस्तस्य मतियोगीन वहिर्न वा वहिमानित्यनुभवात् , रासमे सवावगमेऽप्यग्रेस गध्यत इति, तन्त्र, एवं तत् तदहि-त
'अवगतः' वर्तमानः, 'अनुभवादिति प्राथमिकवकि-धूमसम्बन्धयहकालेऽनुभवादित्यर्थः । न च पिशाचाचतौन्द्रियाभावस्थाप्येतहमसमानाधिकरणभावत्यादिना निविष्टत्वात् कथं माथ-साधनसम्बन्धानुभवकाले अवश्यं तदनुभव इति वाचं। गुरुमते प्रभावस्थाधिकरणखरूपतया पिशाचाभाववादिरूपधर्षस्यैवायोग्यत्वात् न तु तदभावस, अत्र तु प्रभावत्वेनैव तहानात्। न च तथापि तादृप्रतियोगिवाभावत्वेन कथं तादृधप्रतियोगित्वाभावग्रहः महानमत्तिपिशाचायभावप्रतियोगिवस्थातौद्रियस्थापि तप्रतियोगिकुधिनिःक्षिप्तत्वेन तादृशाभावत्वस्यायोग्यत्वादिति वाचं। यत्किञ्चित्प्रतियोगियोग्यत्वेनैवाभावस्य योग्यतया तादृशप्रतियोगित्वसामान्याभाववस योग्यवात् अप्रतियोगित्वस्थ प्रतियोग्यन्योन्याभावरूपतया प्रतियोगियोग्यवस्थातव्बत्वाचेति भावः(१)। नवमिन्द्रियमविष्टे व्यधिकरपरासभेऽपि तादृनप्रतियोगित्वाभावपहापक्तिम्तव नये माथ-साथनसहचारणहरन तामातियोगित्वाभावग्रहाहेतृत्वादित्यत पार,
(१) बचन्ताभावग्रहे प्रतियोगियोग्यत्वस्य तन्मत्वेऽपि बन्योधाभाव यह प्रतियोगियोग्यत्वं न त, धन्यथा घटादौ पिशाचाद्यतौद्रियपदा. न्योन्यामावस्याप्रत्यक्षापत्तेरिति भावः ।
26
Page #214
--------------------------------------------------------------------------
________________
ताधिकाम
११
मयारेव व्याप्तिः स्यात् न तु धूमत्व-पहियाव छेदैन। मतदनुमानोपयोगि, वह्नित्वं वद्धिमत्त्वं वान प्रतियोगितावच्छेदकमिति प्रथमतो चातुमशकामेवेति । मैवं । प्रकृतसाध्ययापकसाधनाव्यापकोवा साधनवा
'रामभ इति मविशष्टे यधिकरणरामभे इत्यर्थः, 'तथावगमेऽपि' प्रथमं तादृशप्रतियोगित्वाभावावममेऽपि, 'चये' एतद्देमवति रामभाभावपहानन्तरं, 'बाध्यते' चप्रमावेन ज्ञायते, ‘एवं तदिति लुप्तप्रथमान्त, मकहनविषयौभृतं तादृशात्यनाभावाप्रतियोगित्लादिकमित्यर्थः, 'स्थात्' भवति, न तु धूमवेति धूमत्वावशिके वतिबावच्छिन्नस्य ध्याप्तिरित्यर्थः। न तदिति तदकि-तड्मयोपित्वं, अनुमानोपयोगि' धूमसामान्ये , वशि-गामान्यानुमागोपयोगौत्यर्थः । मनु धूमयावधिसमानाधिकरणात्यनाभावप्रतियोगितामव छेदकवहित्वावविवसामानाधिकरवं तादृशान्योन्याभावप्रतियोगितानवच्छेदकवकिसामानाधिकरणंया धूममामाबोतकवयनुमानोपयोगि तदपि महानयामित्यत पार, 'बत्विमिति, न प्रतियोगितावच्छेदकमिति() न धमवाकि बसमानाधिकरणात्यनाभावच ताइवान्योन्याभावय वा पतियो
(१) प्रतियोगितामयशेदवमिति क..।
Page #215
--------------------------------------------------------------------------
________________
वामियोपावः।
भिमतेन समं प्रशतसाध्यसम्बन्धितावचेदेवं विशेषवं बोपाधिः उभयवापि तदभावो न व्याप्तिः सिद्धसिवितविषेधानुपपत्तः, किन्तु यावत्वष्यभिचारिव्यभिचारिसाध्यसामानाधिकरण्यमनौपाधिकत्वं तस्य प्रथमं चातुमशक्यत्वात्। किचन वस्तुगत्या व्याप्ते
गितासामान्यावोदकमित्यर्थ:(९), 'चातुमणक्यमेवेति तादृधपतियोगितानवोदकवसत्वेऽप्यभावदेशविप्रकादिना अनुपसलमान नापत्तिगर्भयोग्यानुपलब्धिविरहादिति भावः । बद्यपि ताइपतियोगितावचेदकवाभावोऽषधिकरणदिरूप एवेति तज्जानमपि प्रथमदर्शने पावत्येव पधिकरणदिशाने योग्यानुपसरतत्वात्।
र प्रतियोगितावच्छेदकावाभावलप्रकारेण ज्ञानं प्रथमतो न सबपति तस प्रतियोगितावोदकवज्ञानाधीनत्वाचोग्यानुपलावधीनवाचेति वाचं । उपाधभावरूपव्याप्तिप्रत्यापि उपाधभावलप्रकारकज्ञानस्य प्रथमतोऽसभवात् उपाधिज्ञानावधीनत्वात् । तपायुक रूपव्याप्तित्वेनोकरुपयानेः समदनगम्यत्वोकदेशभिप्रेतत्वातदोषामातिरिति थे।
(१) पत्र सामान्चपदं पातिनिमेशाभिप्राय तथा प्रतियोगितागवशेदवामित्वस्य प्रतियोमिवावशेषतापामधिकरणलामावातमी तेन महावीयवाभावमाराब पहिलस्य प्रतियोगितावडेवाडी वधिमान् धूमादिबादौ नाबाप्तिः।
Page #216
--------------------------------------------------------------------------
________________
सावधितामसी
२.४
नि हेतुः किन्तु थप्तित्वेन तब उपाध्यभावत्वं । मा उपाधेरजाने तदभावत्वेन जान सम्भवति, विशेषणजानसाध्यत्वादिशिष्टमानस्य । नच नियमतः प्रथममुपाधिधीरस्ति । यथोक्त प्रतियोगिजानं व्यवहारहेतुः
तदेवं व्याप्तिन भूयोदर्शनगम्या किन्तु महर्शनगम्येवेति मौमांसकमते च निकडे तद्दषयति) 'मैवमिति, 'प्रतेति न्यायमये, 'माधनवेति मौमांसकनये, माधनत्वाभिमतेन ममं या प्रछतमाध्यसम्बन्धिता तदवछेदकत्वे मति यदिशेषणं तत्वमित्यर्थः। पवावई दकत्वमन्यूनवृत्तित्व माधननिहमाध्यसम्बन्धितावचेदकौमताधिकरएनिहाभावाप्रतियोगित्वमिति यावत् । स श्यामोमिचातनयत्वात् प्रत्यवं उतरूपादित्यादौ पाकशाकजन-महत्वादावव्याप्तिवारणाय साधननिडेति माध्यसम्बन्धिताविशेषणं, असम्भववारणय माध्यान्नभीकः । तथाच साधनविभिष्टसाध्ययापकत्वमिति सत्यन्तस्य फलितार्थ:(२) । विरुद्धस्य चेतवये नोपाधित्वमतोगोत्ववान् अमत्वादित्यादौ साधनविशिष्टमाथामिया मायावत्यादौ नाथाप्तिः। न च तथायथं
(१) नि! तपश्यतीति ख, ग । (२) तथाच व शामो मित्रातमयत्वारित्याग गावपाजत्योपाधेः सामाविकण्यामवावा-बोविनायतर्माण एवं प्रबधं उपभूतरूपादिबादौ महायोपाधेः गुखाद्यन्नर्मायेय साध्ययापकत्वमऽपि साधविशिङसाध्यबापबालमनवमेवेति भावः।
Page #217
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्याप्तियहोपायः।
२१
माभावाने इति, अस्तु तावदेवं तथापि तदभावो मा शवहरि उपाध्यभावजानाधीनानुमितिः स्यादेक उपाधिज्ञानं विनापि, न चैवं । वस्तुतस्तु विशेषादर्शने
पाषुषः प्रमेयत्वादित्यादौ परधर्मव्यत्वावच्छिवसाध्यव्यापके उड़तहपादावव्याप्तिरिति वाचं। साधनावच्छिन्नमाध्यव्यापकस्यैवेतन्मते उपाधितया तस्थालत्यत्वात् । सङ्केतौ माध्यादेपाधितावारणव विशेषणमिति विशेषणत्वं यत्किञ्चित्साधनाधिकरणायावर्तकत्वं गधनाव्यापकत्वमिति यावत् । निःवेहं स्पात् द्रव्यं सत्त्वादित्यादौ करकान्यत्व-रूपान्यत्वादिकमपि लक्ष्यमेवेति न तवातियाप्तिः ।
वेचित्त मद्धेतौ मायादे:(१) माध्याभावविशिष्टसाधनवदवृत्तेरेव रतन्मते लक्ष्यतया निवेस्पात् द्रयं सत्त्वादित्यादौ करकान्यत्वस्पान्यत्वादेखोपाधितावारणय 'विशेषणमिति, विशेषणत्वच माधानावविशिष्टसाधनाधिकरणसामान्यायावर्तकत्वं माध्याभावविशिष्टगधनव्यापकौभताभावप्रतियोगित्वमिति यावत् । धमवान् वः व्यं प्रमेयत्वादित्यादौ तत्तदयोगोलकान्यत्व-मत्तादिकञ्च न सध्यं प्रतो न तवायाप्तिरित्याः । _ 'तदभाव इति सम्बन्धसामान्यावचिनप्रतियोगिताकतदभावत्यर्थः, "सिद्यसिद्धियामिति प्रतियोगिप्रसिद्यामिविन्यामित्यर्थः, तनिषेधानुपपत्तेरिति तदभावस्य महेतावनुपपत्तरित्यर्थः । 'बाव
(१) साध्यादेः उपाधितावारणाय इत्यग्रिमेवान्चयः ।
Page #218
--------------------------------------------------------------------------
________________
तापितामगै
सहचारादिसाधारखधर्मदर्शनाघभिचारसंशयात् प्रबमदर्शनेन व्याप्तिनिश्चयः। अथ व्यभिचारसंशयो मायभिचारनिश्चयप्रतिबन्धकः प्राधसंशयस्य निश्च
खेति सं चावतां यभिचारि खाथापकं चावदिति यावत्, तावता यभिचारि यसाधं तमामानाधिकरणरूपमनोपाधिकात्वमित्यर्थः, थाप्तिरित्यनुषव्यते, 'तस्य प्रथममिति नख माथ-साधनसम्बन्धमाचात्कारत्वयापकविषयिताकवासम्भवादित्यर्थः । ननु उपाध्यभाववतः मायस्व मामानाधिकरणरूपमनौपाधिकाखमेव स्थाप्तिः उपाध्यमावर यायतासम्बन्धन प्रातसाधनाव्यापकाभावः स चाधिकरणभतमाध्यस्वरूपतया मकदर्शनगण्य रत्यसरमादा, "किञ्चेति, 'उपाध्यभावत्वं' उपाध्यभावत्वघटितं । 'विशेषणज्ञानेति रदं नैयायिकमतानुसारेप, मौमांमकमते विशेषणशानयाभयौमाध्यत्वादिति थे। 'प्रथममिति प्रथमदर्शनकास रत्यर्थः, तथाच येन रूपेण जाता याप्तिरमुमित्यहं तद्रूपविशिष्टच साचारदर्शनविषयत्वनियमो बाधित एव, याप्तिसपस तथालनु मथापि न निवार्यते विधि
सामानाधिकरणस्य मामानाधिकरथानतिरेकिवादिति परिगेपानुमाने मिहसाधनमिति भावः । मनु बस्तुगत्या उपाध्यभावस्य शानमेव कारणं वायं तप तु नोपाधिज्ञानं रेतः प्रतियोगिज्ञामस तत्सदभावनाकारकमानहारा तलदभावलप्रकारकव्यवहार
1) प्रथमदति
।
Page #219
--------------------------------------------------------------------------
________________
थानियहोपायः।
२००
याप्रतिबन्धकत्वात् अन्यबा संशयोत्तर कापि निययो नस्वादिति चेताना व्यभिचारसंशयः प्रतिबन्धक इति अमः, किन्तु विशेषादर्शने सति साचारादिसाधारण
प्रत्येव हेतुलादित्यत पाहा), 'पञ्चेति, 'प्रथियोगिवान', 'प्रतियोगिनः' उपाधः, 'चान, 'व्यवहारतः' उपाथभाववप्रकारकउपायभावयवहारप्रयोजकं, 'नाभावसाने' न खरूपेणपाध्यभावज्ञाने, 'तदभाव इति, उपाधिज्ञानं विनेत्यादिः, 'उपाध्यभावज्ञानेति, 'उपाधिज्ञानं विनापि', भवन्मते खरूपत उपाध्यभाववत्ताज्ञानसम्भवात् उपाधभावत्वप्रकारकशानं प्रत्येव उपाधिस्मरण-योग्यामुपलभयो हेतुत्वस्य पूर्वमुकत्वादिति भावः । न चैवमिति चेदः, उपाधिज्ञानं विनाप्यनुमितिर्भवतीति न चेत्यर्थः । ननु उपाथमावत्वरूपव्याप्तित्वप्रकारेण थानेः पहचारदर्शनविषयत्वनियमो मात तथापि उपाधिकरण-योग्यानुपखधिसाहतं प्रथमदर्शनमेव नद्रपेष व्याप्तियहे इतरतित्यत पार, 'वस्तुततिति, व्यभिचारसंभवादिति उपाधिनंजयादित्यर्थः । परमते या व्याप्तिस्तदभावस्खेव यभिचारबात 'प्रथमदर्शन रति उपाधिस्मरणदिसतप्रथमदर्भ नेऽपौत्यर्थ:(२), 'न यानिनिय रति न उपाधभाववरूपयाप्ति
(९) हेतुत्वमित्युतावादित पाहेति ख, ग । (२) 'प्रथमदर्शनेनेति उपाधिमरणादिवशतप्रथमदर्शनेनापौवर्ष इति ख., ग.।
Page #220
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामगै
धर्मदर्शनात् संशयः स्यात् न तु संशयसामग्रीतानिबयइति । किश्च यहीसामग्री या प्रतिबन्धिका विशेबादर्शने तब तहोरपोति. व्यभिचारसंशयोऽपि प्रति
त्वप्रकारेण व्याप्तिनिषय इत्यर्थः । इदमापाततः कोटिइयोपस्थितेरनावश्यकत्वादुपाधिसंशयस्थासार्वचिकत्वादिति ध्येय) । 'यभिचारसंशयः' उपाधिसंशयः, 'भव्यभिचारनिमयेति उपाध्यभावनिबयेत्यर्थः । परमते उपाध्यभाव एव व्याप्तिः स एवाव्यभिचार इति भावः । 'कापोति, भवति र स्थाणुन वेति संशयानकार विशेषदर्शने मति अयं स्थाणुरिति निश्चयः पर्वतो वझिमात्र वेत्यादिसंशयानन्तरं पर्वतो वहिमानित्याद्यनुमितिः गाब्दादिवेति भावः । 'नेति 'बमरत्यनेनान्वयः, 'मंगवः स्यादिति उभयकोटिप्रकारकक्षामसामगैसत्वादिति भावः । 'संशयसामग्रीत इति संशयमामय्यां मत्यामित्यर्थः, 'निमय रति एककोटिमाचप्रकारकज्ञानमित्यर्थः । मंझयमामय्या: निश्यप्रतिबन्धकत्वमभ्युपेत्य मंशयस्यापि प्रतिबन्धकतां व्यवस्थापयति, 'किवेति, संशयानन्तरं कापि शिवयो न स्यात् प्रतिबन्धकालमत्त्वादत का विशेषादर्शने मनौति । ननु अनुमितिमामयी प्रत्यचे प्रतिबन्धिका नानुमितिः प्रत्यक्षप्रतिबन्धिकेति व्यभिचार इति चेत् । न । 'यद्वीत्यनेन विरोधवगाहिधिय
(१) इति बोधमिति का।
Page #221
--------------------------------------------------------------------------
________________
बालिग्रहीपावः। बन्धक एवं भूयोदर्शनमपि संशायकं तस्त्वनवस्थाग्रस्त एवेति कवं व्याप्तिग्रहः।
इति श्रीमहङ्गशोपाध्यायविरचिते तत्त्वचिन्तामणों अनुमानास्थहितीयखण्डे व्याप्तिग्रहोपायपूर्वपक्षः ।
उकत्वात्, तथाच मौमांसकमतं दुष्ठं, दानों नेयायिकमते मौमासकः(९) घाइते, 'एवमिति, ‘मंगायकमिति, माधारणधर्मदर्शनादिति भावः । ननु तर्क एव महाविरोधीत्यताह, 'तर्क रति, 'कथं व्याप्तिग्रह इति भवन्मते कथं व्याप्तियह इत्यर्थः ।।
इति श्रीमथुरानाथ-तर्कवागौणविरचिते तत्वचिन्तामणिरहथे अनुमानाख्यदितीयखण्डरहस्ये व्याप्तियहोपायपूर्वपक्षरहस्यं ।
. (९) तथाचेयादिः मीमांसक बनतः पाठःख-चिकितपुस्तकमाति।
27
Page #222
--------------------------------------------------------------------------
________________
अथ व्याप्तिमहोपायसिदान्तः।
'पचोचते व्यभिचारचानविरसाकृतं सहचारदर्शनं व्यप्तिप्राहक, ज्ञानं निश्चयः, शहा च सा च क्वचिदु
अध व्याप्तिग्रहोपायसिमान्तरस्य ।
अव समाधानमाह, 'पोचत इति, 'यभिचारज्ञानविरहेति व्यभिचारचानविरहः सहचारज्ञानच व्याप्तिबहे हेतुरित्यर्थः । नव व्यभिचास्वानाभावस्य कुतो व्याप्तियह हेतुत्वमिति वाच्यं । नधानस्य तदभावज्ञानप्रतिबन्धकतया मति यभिचारज्ञाने अव्यभिचारघटितयाप्तियहासम्भवेन तदभावहेतुत्वावश्यकत्वादिति भावः। ननु तदभावस्य हेतुत्वेऽपि व्यभिचारज्ञानमाये व्याप्तियहो दुार एव व्यभिचारज्ञानस्याच्याप्यतितया व्यभिचारजाने सत्यपि घटाघव
दैनात्मनि तदभावसाचात् । न समवायसम्बन्धावचिनप्रतियोगिताकव्यभिचारज्ञानाभावस्थात्मनिष्ठतया , हेतुत्वं अपितु অনাৰলক্সিসনিথীশিনাসিমালামালঃ -
रौरनिही हेतुः यत्रावोदकतासम्बन्धेन याप्तियास्तत्र विशेषणताविशेषसम्बन्धेनावच्छेदकतासम्बन्धावचिनप्रतियोगिताकव्यभिचारज्ञामाभाव पनि समानाधिकरणं प्रत्यापत्तिरिति वाचं। पूर्व
Page #223
--------------------------------------------------------------------------
________________
योतिग्रहोपायः।
पाधिसन्देहात् कचिदिशेषादर्शनसहितसाधारणधर्मदर्शनात् । तहिरहश्च कचिदिपक्षबाधकतर्कात् कचित्
शरीरावयवावच्छेदेनोत्पद्यमानव्यभिचारज्ञानोत्पत्तिक्षणोत्पत्तिकखण्डशरीरावच्छेदेन मति व्यभिचारज्ञाने व्याप्तिग्रहस्य दुर्वारत्वात् जन्यं ज्ञान प्रति चेष्टावत्त्वेनैव शरीरस्य हेततया महामरोरनाशानिमक्षणे व्यभिचारज्ञानोत्पत्तौ बाधकाभावात् चेष्टावतः मरौराक्यवस्यैव तत्र सत्त्वादिति चेत् । न । व्यभिचार जानस्थाव्यायत्तित्वेऽपि तदिभिष्टात्मवस्य व्याप्यत्तितया नदभावस्यैवात्मनिष्ठतया हेतुवात् श्रात्मवन्तु तब न निविते किन्तु समवायसम्बन्धावच्छिन्नव्यभिचारज्ञान विशिष्टाभावत्वेन हेतुत्वम् । एतेन द्रव्यत्वादिमादाव विनिगमनाविरहोऽपि प्रत्युक्त:(२) । एवं तदत्यनाभान्व-तबदन्योन्याभाव-तदभावव्याप्यादिनिर्णयखले तदिमिष्टात्मत्वमेव प्रतिबन्धक
मुख्ययुक्त:(२)।
(९) तथाच पेशावदयावयवित्वरूपशरीरत्वघटकान्यावयवित्वं प्रयोगगविरहेड जन्धचानवावनिवार्यतानिरूपितकारस्तावशेदकपोटौ न निवेशगीयमिति भावः।
(२) व्यभिचारमागविशिवात्मत्वामावस्य हेतुत्वे विनिगमनाविरहेड व्यभिचारतानविशिष्यत्वामावस्यापि हेतुत्वापत्तिः षात्मत्व-व्यवयोयोरेव जातिवाविशेषादिति समुदिततात्पर्यम् ।
(१) तहतार्षि प्रति तदबन्ताभावादिनिश्चयमात्रस्य प्रतिबन्धकाचे तत्यन्तामावादिनिश्चयवालेऽपि घटापरेदेन तादृशनिचयामावताचात्
Page #224
--------------------------------------------------------------------------
________________
सर
तापचिन्तामगै स्वतः सिद्ध एव, तर्कस्य व्यत्तिग्रहमूलकत्वेनानवस्थेति चेत्, न, यावदाशतर्वानुसरणत्। यच व्याघातेन शङ्खव नावतरति तच तर्क विनैव व्याप्तिग्रहः ।
इति श्रीमहोशोपाध्यायविरचिते तत्वचिन्तामणी अनुमानास्यदितीयखण्डे व्याप्तिग्रहोपायसिद्धान्तः।
केचित्तु नदत्यन्ताभावनिर्णयादिखले सर्वत्र प्रतिबन्धकतावच्छेदककोटौ त्रात्मत्वे तद्देशियनिवेगापेक्षया लाघवात् जन्यज्ञानं प्रत्येव चेष्टावदन्यावयवित्वेन हेतुत्वमतो महाशरीरनामाग्रिमक्षणे व्यभिचारादिशानासम्भवाबोजातिप्रसङ्गः । अन्यावयवित्वञ्च समवायादिसम्बन्धेन द्रव्यवद्भिवत्वं । न च तथापि महापौरनाशोत्पत्तिक्षणे व्यभिचारादिज्ञानोत्पत्तौ बाधकाभावेन तदगिमक्षणोत्पत्रखण्डमरौरावच्छेदेन मति व्यभिचारादिजाने व्याप्यादिग्रहोदाररति वाच्यम्। तर व्यायादिपहस्येष्टत्वात् सणेकविसम्बेन तत्र थाप्यादिग्रहस्य तवापि ममतत्वात्। अस्तु वा परौरस्य उकरूपेण कार्यमहवर्तितया जन्यज्ञानहेतुत्वं तस्मात् समानावच्छेदकत्वप्रत्यामत्यैव व्यभिचारजान-बाधज्ञानादेः प्रतिवध-प्रतिबन्धकभाषः। न वं यत्र परपुरप्रवेशाधीनमात्मइयोरेकं गरौरं तकस्मियात्मनि
तहत्ताबुद्धिप्रसङ्गः अतः तत्ताबुद्धि प्रति तदत्य नामावादिनिश्चयविशिष्टामावस्येव प्रतिबन्धकात्वं न तु तादृशानियमावस्येति भावः।
Page #225
--------------------------------------------------------------------------
________________
बानियहोपायः।
तहरीरावच्छेदेन व्यभिचार-बाधादिज्ञानसत्त्वेऽन्यस्मिन्त्रात्मन्यपि नकरीरावच्छेदेन व्याप्यादिशान न स्यादिति वाच्यम्। समवायघटितमामानाधिकरण्यप्रत्यासत्या प्रतिवध्य-प्रतिबन्धकभावेऽपि यत्र काययूहाधीनं एकस्यैवात्मनो नानाशरीरं तत्र एकशरीरावच्छेदेन तदात्मनि व्यभिचारादिज्ञानेऽन्यशरीरावच्छेदेनापि तदात्मनि याप्यादिज्ञानं न स्थादित्यस्य दुरुद्धरत्वात् इष्टापत्तेचोभयत्र तुल्यत्वादित्याजः ।
नव्यात खण्डमरौरोत्पत्तिकालोत्पत्तिकव्यभिचारादिज्ञानस्थायछेदकतासम्बन्धेन खण्डगरौरे वृत्तौ बाधकाभावात्रोकापत्तेः प्रसङ्गः ()। न चावच्छेदकतासम्बन्धेन ज्ञानोत्पत्ती तादाम्येन सम्बन्धेन शरीरस्थ हेतुत्वात् खण्डारीरावच्छेदेनाव्यवहितपूर्वकाले तादाम्यसम्बन्धेन परौरविरहात् कथं गरौरोत्पत्तिकालोत्पत्तिकव्यभिचारादिज्ञान खण्डमरौरे स्थादिति वाच्यम्। अवच्छेदकतासम्बन्धावश्विोत्पत्तेरेव कार्यतावच्छेदकसम्बन्धतया ममानकायोत्पत्रव्यभिचारादिनानस्य खण्डात्रेऽववेदकतासम्बन्धेनोत्पत्त्यसम्भवेऽपि तेन सम्बन्धेन स्थितौ बाधकाभावात् दण्डादिशून्यदेशे संयोगेन घटादिमत्त्ववत् परपुरप्रवेशस्थले पौष्टापत्तिरेवेति प्राडः ।
मन्वस्तु व्यभिचारज्ञानाभावस्य हेतुत्वं तथापि सहचारचानस्थ हेतुले मानाभावः। न प याने सहचारघटितत्वेन विशेषणज्ञानतया तत् हेतुरिति वाचम् । व्याप्तिविशेष्यकश्याप्तियहे सहचारस्य विशेष
(१) नोलातिप्रारति ख., ग.।
Page #226
--------------------------------------------------------------------------
________________
18
तापचिन्तामो
खात्। नप खतन्त्रावय-व्यतिरेकाभ्यां तदपि स्वातन्त्र्येण हेतरिति वाचं । स्वतन्त्रान्वय-यतिरेकानुविधानस्यैवाप्रमिद्धेः। न हि इतरकारणसमवधाने सहचारदर्शनविलम्बेन कवियाप्तियाविलम्बमौवामहे। अथ विरुद्धस्थले सहचारधमेण थापकत्वधमजननात् सामान्यतः व्यापकताग्रहत्वावछिन प्रति सहचारज्ञानस्य हेतुत्वं कल्यते लाघवान् अतएव व्याप्तिविशेष्यकग्रहस्थलेऽपि महचारचानमावश्यकमिति चेत्। ना विरुद्धस्थले सहचारभ्रमस्य व्यापकत्वभ्रमजनकत्वामिद्धः पौर्वापर्यभावस्थ र मामग्रीपौवा॑पर्याधीमत्वात् । अत एव व्यतिरेकसहचारज्ञानेनान्वयव्याप्तिज्ञानजननात् लाघवात् सामान्यत एव महचारज्ञानं व्याप्तिधानत्वावछिन प्रति हेतरित्यपि परास्तं तस्यैवासिद्धेः । अन्वय-व्यतिरेकसहचारजाननिष्ठानुगतकारणतावच्छेदकस्य निकुमशक्यत्वेन सामान्यतः कारणत्वासम्भवाचेति । मैवम् । सहपारदर्शनपदस्य दृश्यतेऽनेनेति व्युत्पत्त्या सहचारेन्द्रियमधिकर्षपरखात्, नद्धेतुत्वाभिधानच याप्तिप्रत्यक्षाभिप्रायेण। यदा सहचारदर्शनं माचारशानमेव तत्त्वाभिधानध याप्तेरपनौतज्ञानाभिप्रायेण(१) नर उपनयविधया तस्य हेतृत्वात्। न चैवं व्याप्तिप्रत्यक्षे सहचारेद्रियमन्त्रिकर्षादिवद्याप्तिघटकपदार्थान्तरेद्रियमविकादिरपि हेतुः स कथं नोक इति वाचं। स्वतन्छस्य पर्यनुयोगानहत्वात् । पन्यथा व्यभिचारशानविरमवद्याप्तिघटकपदार्यान्सराभावज्ञानविरहो हेतः स कथं नोक इत्यपि पर्यनुयोगापोरिति ।
(१) यापनौतमानाभिप्रायेति ख, ग ।
Page #227
--------------------------------------------------------------------------
________________
बामियशेमायः ।
। नयास्त सरचारपदमन हेत्वभावयोः साचारपरं, नचानच विशेषणज्ञानविधया व्याप्तिज्ञानमाचे हेतुरिति प्राडः ।
मित्रास्तु व्याप्तिग्राहकमित्यस्य व्याप्तिप्रकारकज्ञानजनकमित्यर्थः, तथाच सहचारज्ञान विशेषणशानविधया चेतरित्याः । __ भट्टाचार्यास्त धूमादिव्यापकवसिमानाधिकरणवृत्तिधूमावादिकं व्याप्तिः तानसामानाधिकरण्यमाचस्य रासभादिसाधारयात् । तथाच व्याप्तियहमाच एव साचारज्ञानं विशेषणज्ञानविधया हेतुरिति(९) मणिकतोऽभिप्राय रति प्राज्ञः ।
ननु 'व्यभिचारचानविरइत्यत्र ज्ञानं निवयः पाहा वा नाम: व्यभिचारमन्देहसत्त्वेऽपि व्याप्तिमिचयापत्तेः(९), मायः व्यभिचारनिसयसत्त्वे यातिनिधयोत्पत्यापत्तरित्यत आह, 'ज्ञानमिति, नचाच व्यभिचारचानसामान्याभावोहेतरिति भावः । न प.संधाधारकव्यभिचारशामाभावस्थ हेतुत्वे साधाभावां मन्दताकारवभिचारज्ञानसत्त्वेऽपि व्याप्तिवानं न स्वादिष्टापत्तौ च पक्षे माध्यमददिमायां याप्ययहापत्तिरिति वा । माध्याभावांशे नियात्मक-वृत्तिबांचे सन्देश-निवयसाधारणब्यभिचारज्ञानामान्याभावस हेतुत्वा) रदक्ष प्राचीनमतानुसारेष।
(१) हेतुष्यापकसाध्यसमानाधिकरवत्ति हेतुतावच्छेदकस्य यातित्वे चातिविशेष्यवधानेऽपि वायसामानाधिकरणस्य विशेषवतयैव भावात् सबंध यानिशाने विशेषजधानविधया साचारानं हेतुरिवि वात्पर्य । (२) व्याग्निनिचयानुदयादिति स., ग.। (२) तयाच साधतावरेदवावनिप्रकारवानिरूपिता या साध्या.
Page #228
--------------------------------------------------------------------------
________________
सावचिन्तामणे
वस्तुतस्तु पाचशयस्थाप्रतिबन्धकलायभिचारनिर्णयाभाव एस हेतुः । न चैवं व्यभिचारसन्देहसावेऽपि व्याप्तियहापत्तिरिति वाचं। सन्देहात्मकव्याप्तिपहे इष्टापत्तेः सन्देहस्यैवोभयकोयुपखितिरूपतया उभयकोटिविशिष्टबुद्धिसामयीसत्त्वेन तदभावाप्रकारकतत्प्रकारकजा. मरूपस्य तविषयस्यानुत्यः । न च यत्र व्यभिचारसंशयोत्पत्तिक्षणे तद्वितीयक्षणे वा दोषनाशस्तव व्यभिचारमंशयसत्त्वेऽपि व्याप्तिनिचयापत्तिः दोषाभावेनोभयकोटिविशिष्टधीसामग्रौविरहादिति वाच्यम्। तादृस्थले मानाभावात्, विषयानरमचारादेविशेषदर्शनादेश्च विरहे सन्देहोत्तरं धारावाहिकसन्देहनियमस्य सबै रेव खौकारादिति तत्त्वं । ‘मा च महा ,' 'साधारणधर्षेति उभयकोटिसहचरितधर्मत्यर्थः। 'तदिरहवेति माया अनुत्पत्तिवेत्यर्थः, उत्पनहायाः खोत्तरोत्यवगुणदेव नामसम्भवेन तत्र तर्कस्यापेसाभावात्। 'विपति, 'विपचे' व्यभिचारपहे, 'बाधकात्' प्रतिबन्धकाचर्कादित्यर्थः। स च धूमो यदि वहिव्यभिचारी स्यादतिबन्यो न स्यात् इत्यादिरूपः, प्रतिबध्य-प्रतिबन्धकभावस फलबलादिरोधिविषयत्वासम्भवेनापि तदापादककापतित्वेन तविशिष्टबुद्धित्वेन, तदापादककापत्तिवन धमसिजकत्वादिवनिर्वाच्चमिति
भावत्वावशिवप्रकारतामिपितविशेष्यता तदमिना या निरूपितत्वसम्ब আমিনা নয়িদিন যা লিনালাক্সিবিঘঘনা নবमित्रपवारतानिरूपिता या हेतुनावशेरकाश्मिविप्रेष्यता तहिशिक जानाभावस्य हेतुत्वमिति भावः ।
Page #229
--------------------------------------------------------------------------
________________
वामियोपायः।
बोध । 'खतः सिद्ध इति तक विना अन्येन अबुक इत्यर्थः, अन्यथा मंजयजनकदोषाभावसकर्कातिरिको वच्यमाणप्रतिबन्धकोत्यन्यदेतत् । । केपितु 'खतः सिद्ध इति कोटिइयोपस्थित्यभावप्रयुक्त इत्यर्थः। न च व्याप्तियहसमये व्यभिचार-तदभावोभयकोयुपखितिरावश्यकी अव्यभिचारस्य विशेषणवेन तज्ज्ञानस्थावश्यकतया तस्यैवोभयकोटिज्ञानवादभावबुद्धेः प्रतियोगिविषयकलात् स्वतन्त्र विशेषज्ञानकारणवस्य दूर एव निरामादिति(१) वायं । प्राचीननये साधारणधर्मादिदर्शनजन्यकोव्युपस्थितेरेव संशयजनकत्वात् न तु कोचुपस्थितिमात्रस्येत्याङः।
ननु यत्र तर्केण शहानिवृत्तिः तचानवस्था तर्कमूलौभूतयाप्तिज्ञाने शहानिवृत्तये तर्कान्तरस्य एवं तमलभूतव्याप्तिज्ञानेऽप्यपरस्स(२) अपेक्षौयत्वादित्यागते, 'तर्कस्थति, 'याप्तिमहमूसंकत्वेन' व्याप्तिग्रहजन्यत्वेन, यावदामहमिति तळभावेतरसकलाकारलं यावत्तावत्कालं, 'तर्कानुसरणत्' यत्तर्कपूर्व तबिघटकातायातकाभावेतरमकलकारणसम्पत्तिस्तत्तर्कपूर्वमेव तन्तिराभ्युपगमादिति यावत् । 'यत्र .चेति यस्थ र तर्कस्य चेत्यर्थः, पूर्वमिति शेषः, 'याघातेन' व्याघातादेव तर्काभावातिरिसकारणप्रतियोगिकाभा
(१) निराकृतवादितीति ख, ग, घ । (२) तर्क प्रति पापायचाप्यापादकवत्तानिषयवेग कारणत्वात् पापादके
पापायथाप्तिसंशयनिसवर्ष तकान्तरं पपेक्षीयं एवं तब समापो. बनवस्येति भावः ।
Page #230
--------------------------------------------------------------------------
________________
नाचिन्तामणे
वादेवेति) थावत्, सञ्चानिरिक संभवजनकदोषो वशमाणप्रतिबन्धकावभावच, 'गाव गावतरति' तविषटकारामाचं नावतरति, वतर्कपूर्व नदिषटकमहामामान्याभावस्तकाभावातिरिककारणपतियोगिकाभावप्रयुको न तु तर्कप्रथुक इति तु ममुदितार्थः, 'तर' तक, 'तर्क विनैव व्याप्तिग्रह इति, जनक रति भेषः, तर्क विनव याप्तिग्रहस्तत्तजनक इत्यर्थः ।
इति श्रीमथुरानाथतर्कवागौणविरचिते तत्त्वचिन्तामपिरहस्थे अनुमानास्यदितीयखण्डरहस्ये व्याप्तियहोपायरहस्यं ॥०॥
(২) নীলাকালিহি অ ভয়াল মাৰি।
Page #231
--------------------------------------------------------------------------
________________
अथ तर्कः।
तबाह धूमा यदि वयसमवहिताजन्यत्वे सति वहिसमवहिताजन्यः स्यानोत्पन्नः स्यादित्या कि
अव तर्करहस्य।
यत्त विघटक महासामान्यं नर्काभावातिरिकप्रतियोगिकाभावादेव पूर्वं नावतरति तं तर्कमाह, 'तथाहौति, 'धूम इति धमो यदि वयसमवहितजन्यभिचत्वविभिष्ट-वक्किममवहितजन्यभिवत्ववान् खात् उत्पनत्वाभाववान् स्थादित्यर्थः, विशिष्टान्तं दितीवभिन्नत्वविशेषणं । जन्यं हि जगति वस्तुइयं वयसमवहितजन्यं तत्समवहितजन्यं च तचायधेदुभवजन्य एव न स्थासदा जन्य एव न स्थादिति भावः।
ननु नायं वशि-धमव्याप्तियहोपयोगी वहिव्यभिचारित्वापादककतर्कस्यैव तचावात् । न चातयात्वेऽपि चतिविरह इति वायं। तादृप्रवकि-धूमव्याप्तियाहकतर्क एव अमवस्थाप्रदर्शनादिति(१) चेत्। न। तथापि परम्परया पशि-भूमथाप्तिपहोपयोगित्वात्, तथापि
(१) पनवण्यादानादिवोति म।
Page #232
--------------------------------------------------------------------------
________________
तावचिन्तामग भूमोऽवझेरेव भविष्यति कचि विनापि भवि
धूमो यदि वहिव्यभिचारी स्थात् वझिजन्यो न स्यादिति वशि. धमयाप्तियारकस्तर्कस्तत्र च वझिजन्यवरूपाद्यव्यतिरेकनिमयः।
तुः बाधबुद्धेस्तार्किकबुद्धौ (९) हेतुत्वात् तस्मिंशावय-व्यतिरेकाभ्यां प्रत्यक्षतो वझिजन्यत्वनिर्णये वझिजन्यत्वाला विरोधिनी संशयमामग्रीसम्पादकत्वात्(१) तच्छाविरोधी चायं तर्क रति, अत्र च वभिमन्यत्वदशायां वझिमहेशोत्पत्रे घटादौ मूलथिल्यवारणय विभिष्टानं द्वितीयभिन्नत्वविशेषणं, तत्प्रतियोगिविशेषणत्वे तद्दोषतादवस्थान, वहिं विनानुत्पद्यमानत्वं तदर्थः,(४) स्वसमानाधिकरणवहिमदन्यखाव्यवहितपूर्वक्षणकं यद्यत्तदन्यत्वमिति तु निष्कर्षः, खपदमन्यत्वप्रतियोगिपरं, अन्यथा(१) इदानीन्तनघटादेः सामग्रौ
---------..- - - .. - - ... ... ..
.
(२) वजिन्यवाभावरूपापाद्याभावस्य वकिमन्यत्वात्मकस्य मिखय इत्यर्थः । (२) तार्किकबुद्धौ तात्मक बुद्धौ इत्यर्थः । (३) मनु संशयनाशोत्तरं वहिनन्यत्वनिश्चय इत्यत चाह संशयसामग्रीति
संशयस्य संशयसामग्रीसम्पादकत्वादिति तदर्घः तथाच यावत् तीदिरूपप्रतिबन्धकसमवधानं न भवति तावत् संशयधारैव उत्पत्स्यत
इति भावः। (७) 'भूब' व्याप्तिः, तस्याः 'शैचिस्य' व्यभिचार, तदारणायेत्यर्थः । (५) 'तद' सत्यनार्थ इवः । (६) 'पापा' वामानाधिकरणानिये।
Page #233
--------------------------------------------------------------------------
________________
तः।
२९ यति अहेतुक रव वोत्पत्त्यत इति शङ्का स्यात् सर्वच
कालेऽपि कुत्रचित् देशे वझिमत्त्वेन मूलभेथिस्यतादवस्थ्यान महाप्रलये मानाभावात्() खण्डप्रलयेऽपि ब्रह्माण्डान्तरे वकिमत्त्वात् मामग्रौमात्रस्यैव वयधिकरणक्षणवृत्तित्वेनाप्रसिद्धिप्रसङ्गाश्च । न तु वयघटितमामय्यजन्यत्वं तत् धूमे प्राक् तदनिश्यात् पापाद्याभावेनापादकाभावमाधने विशेष्यविरहप्रकारकमिद्यर्थं तनिश्चयस्यापेक्षितत्वात् । वयसमवहिताजन्ये वजिन्यालोकादौ मूलशैथिल्यवारणय विशेष्यदलं। न च चरमसमवहितपदं व्यर्थ वहिजन्यत्वाभावस्यैव सम्यक्त्वादिति वाच्यं । वयजन्ये वक्रिसमवधाननियतोत्पत्तिके घटादिविशेषे मूलगैथिस्यापत्तेः । वहिममवहितजन्यत्वञ्च वझिकालोनमामग्रौजन्यत्वं स्वसमानाधिकरणवद्धिमल्खाव्यवहितपूर्वक्षणकत्वं इति तु निष्कर्षः । अन्यथा इदानीतनजन्यमाचस्यैव वयधिकरणक्षणवृत्तिसामयौजन्यतया पक्षौभूतधूमेऽपि(२) तादृशमामग्रीजन्यत्वनिषयसत्त्वेन तर्कवैफल्यापत्तेः । न तु वशिघटितसामग्रौजन्यत्वं तत् तथा मति वन्यजन्ये वक्रिममवधाननियतोत्पत्तिकघटादिविशेषे मूलथिल्यापत्तेः। वहिममानाधिकरणत्वे मतौत्यनेन चापाचप्रतियोगि विशेषणीयन्तेन वझियधि-- ... . .. .............. -- ...... - (१) महाप्रबयाङ्गोवारे तु घरमध्यसे सावृशान्यत्वप्रतियोगित्वं सम्भव
तौति भावः। (२) धूमे नाहशसामग्रौत्रया बहिनन्यवखरूपमेवेवभिप्रायः ।
Page #234
--------------------------------------------------------------------------
________________
.
.
नावचिन्तामो
स्वनियाव्याघातः स्यात, यदि हि रहीतान्वय-ति
करणे वझिजन्यरूपादौ वहिव्यधिकरणे घटादौ च मूलविख्यं । न च पचतावच्छेदकविशिष्टे पापाद्याभावेनापादकाभावसाधने नियमतो यङ्कर्मावच्छिवं सिद्यति तद्धर्मावच्छिनाभावकोटिकसंशयं प्रत्येव तो विरोधौति नियमः प्रहते तु धूमे उत्पनत्वाभावाभावनोत्पनत्वेन वयसमवहितजन्यभिनवविशिष्टवक्रिसमवहितजन्यभिवत्वस्थापादकौभूतस्याभावमाधने वझिजन्यभिन्नत्वाभावरूपस्य विशेष्याभावस्य न सिद्धिः १) विशिष्टाभावस्थानिरिकस्यैव सिद्धेः तथाच कथमस्य वझिजन्यत्वाभावकोटिकमंशयविरोधित्वमिति वाचं। विशिष्टाभावस्य विशेषण-विशेष्याभावानतिरिकतया वशिजन्यभिन्नत्वाभावरूपस्य विशेष्याभावस्य मिद्धेः । अथ तथापि न वझिजन्यभिन्नत्वाभाववरूपेण वझिजन्यत्वस्य मिद्धिरनुमितापकतावच्छेदकप्रकारकत्वनियमेन विशिष्टाभावत्वेनैव तमिद्धेः। न च विशेषणभावबाधनिस यसहकाराड्यापकतामवच्छेदकेनापि विशेष्याभावत्वेन तसिद्धिरिति वाच्यं । तथापि पचे विपर्ययानुमाने) पूर्वं विशेषणभावबाधप्रतिसन्धानानावश्यकतया नियमतस्तेन रूपेणमिद्धेरिति चेत् । न । वयसमवहिताजन्यत्वेन पक्षस्थापि
(१) वहिनन्यभिन्नत्वाभावत्वावचिनवजिन्यवम्य न सिद्धिरिति ख०,
गा, घ०॥ (२) पापाचामावेनापादकाभावानुमाने इत्यर्थः ।
Page #235
--------------------------------------------------------------------------
________________
......----------------- - - - - - - - ---------
रेक हेतुं विना कार्योत्पत्ति शहेत तदा स्वयमेव विशेषणीयत्वात् तथाच पचतावच्छेदकावच्छिन्ने विपर्यायानुमाने पर्व विशेषणाभावबाधप्रतिसन्धानस्यावश्यकतया नियमतो वझि अन्यभिन्नत्वाभाववरूपेण वझिजन्यत्वमिहिरप्रत्यूहेति सम्प्रदायविदः । तदमत् वझिममवहितजन्य भिन्नत्वस्यैव विशेष्यतया बाधसहकारेण तदभावत्वेन तदभावस्य वह्निसमवहितजन्यत्वरूपस्य सिद्धवावपि वडिजन्यभिन्नत्वाभावत्वरूपेण वहिजन्यभिवत्वाभावस्य वक्रिजन्यत्वरूपस्यामिद्धेवगाजन्यस्यापि वकिनान्तरोयकस्य(१) घटादेः वहिममवहितजन्यतया वक्रिसमवहितजन्यत्व-वङ्गिजन्यत्वयोरत्यन्तं भेदात् वझिजन्यत्वामितौ च कुतोऽस्य वझिजन्यत्वसंशयप्रतिबन्धकत्वं । न च धूमो यदि संयोगसम्बन्धावच्छिनोत्पत्तिसम्बन्धेन . वहिव्यभिचारी स्थात् वझिममवहितजन्यो न स्यादिति तो वकि धूमव्याप्तिग्रहोपयोगी तत्र च बाधनिश्चयविधया वक्रिसमवहितजन्यत्वनिश्चयो हेतस्तत्रियविरोधिनो वहिममवहितजन्यत्वसंशयस्य निवर्तकतयेवास्य वहि-धमव्याप्तिग्रहोपयोगित्वसम्भवेन वझिजन्यत्वमंशयाप्रतिबवकत्वेऽपि न तिरिति वायं । खममानाधिकरणवझिमत्वाव्यवहितपूर्वक्षणकवरूपस्य वझिममवहितजन्यत्वस्य धूमे निश्चितत्वेन तत्संशयनिवृत्यर्थं तर्कवैफल्यात् धूमे तनिश्चयासत्त्वे तु वय वयव्यतिरेकानुविधायित्वनिमयस्थ मत्यन्तदखसंशयप्रतिबन्धकत्वस्थ वक्ष्यमाणस्यामङ्गतत्वापत्तेः निरकवक्रिसमवहितजन्यत्वस्यैव वयषय-यति
(१) वह्निसमवधाननियतीत्यत्तिकस्येवर्यः ।
Page #236
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२४
तावचिन्तामणे
धमार्थ की तस्यवं भोजनस्य परप्रतिपत्त्यय शब्दस्य चोपादानं नियमतः कथं कुर्यात् ।
रेकानुविधायित्वरूपत्वात् । किञ्च पक्षतावच्छेदकविशिष्टे पापाद्याभावेनापादकाभावमाधने यङ्कर्ममात्रविधेयतावच्छेदककमिद्धिर्भवति तद्धर्मावछिन्नाभावकोटिकसंशयं प्रत्येव तो विरोधीत्येव नियमः, अन्यथा महत्त्व-दीर्घत्वेतरपरिमाणभाववान् घटोयदि परिमाणवात्र स्यात् द्रव्यं न स्यादित्यस्यापि घटो महान वेत्यादिसंशयप्रतिबन्धकबापत्तिः । बाधसहकारेण विपर्यायानुमाने महत्त्वत्वावछिन्नस्य दीर्घत्वत्वावच्छिन्नस्य च सिद्धेः, तथाच प्रकृते बाधसहकारेण व्यापकतानवच्छदकौभतेन विशेष्याभावत्वेन सिद्धावपि न तन्माचप्रकारेण सिद्धिः व्यापकतावच्छेदकोभतेन विभिष्टाभावत्वेनापि विशेषणाभाव-विशेष्याभावयोः मिट्ठौ बाधकाभावादिति वझिसमवहितजन्यत्वसंशयं प्रत्येव कुतोऽस्य प्रतिबन्धकत्वं ।
नव्यास्तु वक्रिममवहिताजन्यः स्थादित्यच वक्रिममवहितजन्यलं वहिजन्यत्वमेव वक्रव्यं, मत्याच पापाद्यकोटिप्रतियोगिविशेषणं वक्रव्यं, तथाच धूमो यदि वक्रिजन्यवाभाववान् स्यात् वयसमवहिताजन्यत्वविशिष्टस्योत्पनत्वस्याभाववान् स्थादित्याकारकस्तर्कः, पत्र घटादौ मूलथिन्यवारणयापाये विमिष्टान्न प्रतियोगिविशेषणं न त्वभावविशेषणं घटादौ मूसमेथिस्यतादवस्थापत्तेः(१) तदर्थव
(१) पापादके पापाद्यामावबत्तिवरूपस्य व्यभिचारस्य तादवस्थापत्ते.
रित्यर्थः।
Page #237
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
तक।
उक एव, न तु वहिमशिनदेशोत्पत्तिकान्यत्वं तत्र) वझिमति वहे. पूर्वमुत्पने रामभादौ व्यभिचारापत्तेः। अजन्ये मूलगैथिल्यधारणय विभेव्यं(१) । न च वयजन्ये वहिसमवधाननियतोत्पत्तिके घटादिविशेषे मूलभैथिल्यमिति वाच्यं । उत्पन्नलं हि वयममवहितवकि-तत्संयोमेतरयावत्कारणधिकरणक्षणकत्वं, नान्तरौयके छामूलगैथिल्यवारणाय वयसमवहितेति क्षणविशेषणं खममानाधिकरणवमिदन्यत्वं तदर्थः, वहिनान्तरोयकस्य यावत्कारणाधिकरणक्षणस्तु न वजिमदन्यः तथा सति वहिं विनापि तदुत्पत्यापत्तेः, न हि वावत्कारणसत्त्वे कार्यविलम्बः, पक्षोभते धमे इष्टापत्तेः महाप्रलये मानाभावात् खण्डप्रलयेऽपि ब्रह्माण्डान्तरे वहिमत्त्वादमिद्धेरिणय खसमानाधिकरणेति वहिविशेषणं, वयसमवहिताजन्यत्वविशिष्टस्य वयसमवहितयावत्कारणाधिकरणक्षएकत्वस्याप्रसिद्धत्वादहि-तत्संयोगेतरेति यावत्कारणविशेषणं, इत्यच्च धूमे एव प्रसिद्धिः, दण्डादियत्किञ्चित्कारणधिकरणक्षणस्य वयममवहितत्वाबान्तरोयकघटविशेषादौ मूलशैथिल्यतादवस्यात् यावदिति । न च वन्यजन्ये वयभिघातजाततण्डुलादिकर्मणि पाकप्ररूपादिनाशे च व्यभिचार इति वाच्यं । संयोगेन खसमानाधिकरणस्य उत्पनत्वघटकवयसमवहितत्वघटकतया भेदकूटस्थापाद्यस्य
(१) वासमहिताजन्यत्वमित्यर्थः । (२) उत्पनत्वमिति तदर्थः, वकासमवहितजन्यभिन्नत्वविशियाभावनि
वेणे तादृशभिन्नत्वविशिगगनत्वादिकमादाय व्यभिचारः . स्यादव. उत्पन्नवपदमिति भावः ।
29
Page #238
--------------------------------------------------------------------------
________________
तचिन्तामणी
तपापि साचात् । नमु तथापि पापाचप्रतियोगिनो विभिष्टयाप्रसिद्धिः धूमावयव-तदुभयसंयोग-धूमप्रागभावघटिततमौययावत्कारण्य धूमोत्पत्त्यव्यवहितप्राक्क्षण एव सत्त्व न तदानौं बहेरपि कारणतया अावश्यकत्वेन धूमौयवहि-तत्संयोगेतरयावत्कारणधिकरणक्षणस्यापि वयसमवहितत्वाभावामेऽपि विभिष्ट प्रसिधसम्भवान(१) । न च वशिविर हेऽपि तदुत्पन्नधूमड्यणुकानामेव परस्परसंयोगक्रमेण धूमोत्पादसम्भवात् न तदानी बकरावश्यकवं धूमनिष्ठजातिविशेषस्यैव वहि-तत्संयोगजन्यतावच्छेदकतया धूमं प्रति तयोर्यभिचाराभावात्तथाच तादृशधूम एव प्रसिद्धिरिति वाय। तादृशमस्य घटादितल्यतया तत्र मत्यन्तदलाभावेनैव विशिष्टप्रसिधासम्भवात् । न च यावत्कारणपदेन संयोगसम्बन्धावछिनखनिष्ठजन्यताप्रतियोगिककारणताश्रयो यावान् विवक्षणैयः भेदकूटच्चापाद्यं तथाच धूमे एव प्रसिद्धिरिति वाच्यं । यस्य नारीवकस्य घटविशेषादेः संयोगसम्बन्धावच्छिवजन्यताप्रतियोगिककारणतात्रयो दण्डादिर्यावान् वयमधिकरणकाले वर्तते केवसमवयवसंयोगमात्रं वयधिकरण एव काले जातं तादृशनामरोयके व्यभिचारापत्तिरिति । मैवं । यत्र धूमावयवदयोत्पत्ति शश्चेत्येकः कालः ततो धूमावयवदयमयोगः तदनन्तरं न वहिजन्यतावच्छेदकाकानधमोत्पत्तिः तत्र वहि-तत्संयोगयोः साक्षात् हेतुत्वेन तदिरहात् अपि तु वयन्नरोत्पत्तिस्ततस्तासंयोगोत्पत्ति
(१) विशियस्याप्रसिद्धिरिति गा।
Page #239
--------------------------------------------------------------------------
________________
तक।
खतः पूर्वोत्पबधूमावयवदयसंयोगाइव्हिजन्यविलक्षणधूमोत्पत्तिसचैव धूमव्यक्तिविशेषे विभिष्टप्रसिद्धिसम्भवात् धूमावयवदयसंयोगोत्पत्तिक्षणस्यैव तदीयतादृश्यावत्कारणधिकरणत्वेन तदानौं वयभावस्य मत्त्वात् उत्पत्तिमाकक्षणे च वः सत्त्वात् । न तचैव विशिष्टप्रसिद्धौ धूममात्रस्य पक्षत्वात् धूमान्तरे अंशत इष्टापतिरिति वाच्यं । पक्षतावच्छेदकावच्छेदेनापत्तेरुहेश्यत्वादिति प्राहुरिति संक्षेपः ।
'अवहेरेवेति न विद्यते वहिर्यचेति व्युत्पत्त्या स्वममानाधिकरणवनिमशिनात् क्षणदेवेत्यर्थः, अव्यवहितोत्तरत्वं पञ्चम्यर्थः, 'वधिदकिं विनापौति किं धूमः क्वचिदव्यवहितपूर्व स्वसमानाधिकरणवझिं विनापि भविष्यतीत्यर्थः, 'अहेतुक इति किं धूमो निर्हेतुक एवोत्पत्स्यते इत्यर्थः, 'इति गङ्गा स्थादिति इति महा विरोधिनौ स्यादित्यर्थः । श्राद्यशादयस्य सम्प्रदायमते निरुकवयसमवहिताजन्यत्वरूपपक्षविशेषणभावविषयकतया तर्कजनकपरामर्शविघटकत्वेन तर्कविरोधित्वात् पक्षतावच्छेदकांशेऽनाहार्यपरामर्थस्यैव तर्कजनकत्वात्। नव्यमते तु निरुकवय समवहिताजन्यवरूपापाद्यप्रतियोगिविशेषणभावविषयकतया तर्कजनकापाद्यव्यतिरेकनिर्णयविघटकलेन तर्कविरोधित्वात् । बतौयायास्तु सम्प्रदायमते व्याप्यमं प्रयविधया श्रापाद्याभाववत्तया निश्चिते परे पापादकसंशयात्मकानाहार्यव्यभिचारसंशयाधायकतया तर्कविरोधित्वात् । नव्यमते श्राश्रये च पक्षे पापाद्यप्रतियोगिकोटिविशेष्यविरोधित्वेन तर्कजनकापाद्यव्यतिरेकनिश्चयविघटकतया तर्कविरोधित्वादिति भावः ।
Page #240
--------------------------------------------------------------------------
________________
सत्यचिन्तामगै
न वाद्ययोः शश्योरभेद इति वाचं। प्रथमा धूमवावच्छेदेन, द्वितीया धूमवसामानाधिकरण्येनेति भेदात् । वैवं धूमत्वमामानाधिकरण्येन वयसमवहिताजन्यत्वज्ञत्वेऽपि धूमवसामानाधिकरखेन वयसमवहिताजन्यत्वनिश्चये बाधकाभावात् द्वितीयसंशयस्य कुतमार्कविरोधित्वमिति वाचं। विशेष्यतावच्छेदकसामानाधिकरयेन बाधनिश्चयस्य विशेष्यतावच्छेदकसामानाधिकरण्येन विशिष्टबुद्धप्रतिबन्धकत्वेऽपि(१) विशेष्यतावच्छेदकमामामाधिकरण्येन बाधसंशयस्य संशयसामग्रीसम्पादकतया विशेष्यतावच्छेदकसामानाधिकरण्येन विशिष्टनिश्चयं प्रत्यपि प्रतिबन्धकत्वात् । 'सर्वचेति षष्ठ्यर्थे सप्तमी सर्वस्याः शङ्काया इत्यर्थः, 'खक्रियाव्याघात इति, 'ख' तर्कप्रयोका पुरुषः) तस्य या 'क्रिया' वड्यन्वय-व्यतिरेकानुविधायित्वज्ञान, क्रियते प्रवर्ततेऽनेनेति व्युत्पत्तेः, तेन 'याघातः' तत्प्रयुक्तोऽनुत्पाद इत्यर्थः, अन्वय-व्यतिरेकाभ्यां प्रत्यक्षतो वझिजन्यत्वनिश्चयएवैतत्तकस्य सहकारितया वयषय-व्यतिरेकानुविधायित्वज्ञानस्य अवश्यं पूर्व सत्त्वादिति भावः । अन्वय-व्यतिरेकानुविधायित्वज्ञानस्य नाममहानुत्पादप्रयोजकत्वे मानमाह, 'यदि हौनि, 'सीतावयेति तदन्षय-व्यतिरेकानुविधायित्वज्ञानसत्त्वेऽपि तदसमवहितजन्यत्वं सामान्यतोऽहेतुकत्वं वा शझेतेत्यर्थः, 'परप्रतिपत्त्यर्थं' परकी
(१) अवच्छेदावच्छेदेन विशिष्टबुद्धि प्रति सामानाधिकरण्येन बाधनिश्च
यस्य प्रतिबन्धकत्वमिति भावः (२) तर्कवत्युरुष इति क०।
Page #241
--------------------------------------------------------------------------
________________
तक।
२२९
तेन विनापि तत्सम्भवात् तस्मात्तत्तदुपादानमेव ताह
यशाब्दबोधार्थ, 'उपादान' प्रयत्नः, 'नियमतः' अन्वय-व्यतिरेकाम्या प्रत्यक्षेण धूमादिरूपेष्टमाधनतानिश्चयतः, न हि धूमादौ वयाघसमवहितोत्पत्तिकत्वस्या हेतुकत्वस्य वा ग्रहस्य सामय्यां मत्यां वङ्ग्यादौ धूमादिरूपेष्टसाधनतानिश्चयः सम्भवतीत्याह, 'तेनेति तादृशग्रहसामग्रीसमवधानेनेत्यर्थः, 'विनापि' विनैव, 'तत्सम्भवात्' वग्यादौ धूमादिरूपेष्टमाधमतानिर्णयसम्भवात् । मनु कार्यानुत्पादस्य कारणविरहमात्रप्रयुक्तत्वात् कथं तादृशशङ्कानुत्पादस्य स्खक्रियाप्रयुक्तत्वमत-शाह, 'तस्मादिति, प्रयत्नान्यथानुपपत्त्येति शेषः, 'तदुपादानमेवेति वयुपादानमित्यर्थः, उपादानञ्च(१) उपादत्ते प्रवर्त्ततेऽनेनेति करणव्युत्पत्त्या प्रवृत्तिप्रयोजकीभतान्वय-व्यतिरेकानुविधायित्वज्ञानपरं ।
यत्तु भावव्युत्पत्त्या उपादानं प्रवृत्तिः पूर्वमपि स्वक्रियापदं तत्परमिति । तत्र। प्रवृत्तेः शङ्काप्रतिबन्धकवे मानाभावात् प्रवृत्तः कारणताग्रहोत्तरकालीनत्वेन तत्पूर्ववर्त्तिशङ्काप्रतिबन्धकवासम्भवाच ।
केचित्तु करणव्युत्पत्त्या उपादानपदं धूमादिसाधनतानिश्चयपरं पूर्वमपि खक्रियापदं तत्परमित्याहुः । तदसत् । धूमादिमा
(१) उपादानच उपादानपदश्चेत्यर्थः ।
Page #242
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३.
तत्वचिन्तामो
शशक्षाप्रतिबन्धकं शङ्कायां न नियतोपादानं निय
धनतानिश्चयस्य तर्कोत्तरकाखौनत्वेन तत्पूर्ववर्त्तिाप्रतिबन्धकमाभावात्।
तस्य प्रकाप्रतिबन्धकतायामन्वय-व्यतिरेको दर्शयति, 'महायामिति, यतः इत्यादि, यतः शङ्कायामुत्पद्यमानायां 'न नियतोपादान' नाषय-व्यतिरेकानुविधायित्वज्ञानं, 'नियतोपादाने च' अवय-व्यतिरेकानुविधायित्वज्ञाने च, 'न शङ्का' इत्यर्थः, नियतमुपादानं यस्येति व्युत्पत्त्या नियतोपदानपदस्यान्वय व्यतिरेकानुविधायित्वज्ञानपरत्वात्। न च वयन्वय-व्यतिरेकानुविधायित्वस्य वहिसत्त्वे उत्पद्यमानले मति वहिं विनानुत्पाद्यमानत्वरूपतया निरुतवयसमवहितअन्यत्वाभावघटितत्वेन तविषयस्य बाधनिश्चयतया प्रथमसंशयप्रतिबन्धकत्वसम्भवेऽपि विरोध्यविषयकतया कथं हतीयप्रकाप्रतिबन्धकलं कथं वा द्वितीयशङ्काप्रतिबन्धकलमपि त्रंशतो बाधनिश्चयस्य विशेष्यतावच्छेदकमामानाधिकरण्येन संशयाप्रतिष
वकतया बाधनिश्चयविधया द्वितीयशाप्रतिबन्धकत्वासम्भवादिति वाच्यं । वड्यन्वय-यतिरेकानुविधायित्वावच्छेदेन वजिन्यालोकादौ नान्तरौयवहिके घटादौ च वयसमवहिताजन्यत्व-सहेतुकावनिश्चयायावर्तकधर्मदर्शनविधयेव तस्य तादृशशायामपि प्रतिबन्धकत्वात्। न चांगतोबाधनिश्चयवदंगतो व्यावर्त्तकधर्मदर्शनमपि न विशेध्यतावच्छेदकमामानाधिकरण्येन संशयनिवर्त्तकमिति वाच्यं । बाधनिश्चयस्थले तथा नियमेऽपि व्यावर्त्तकधर्मदर्शनादिखले तथा
Page #243
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१
तोपादाने च न शका, तदिदमुक्तं तदेव याशयते',
नियमविरहात्। न चैवं वह्मवय-व्यतिरेकानुविधायित्वज्ञानं व्यावर्तकधर्मदर्शनविधया वहिजन्यत्वसंशयं प्रत्येव प्रतिबन्धकमस्तु किमुक्तकणेति वाच्य। अनन्यथासिद्धत्वाविप्रेषितस्य वड्यन्वयव्यतिरेकानुविधायित्वस्य नान्तरोयकवझिके घटादौ वहिजन्यबव्यभिचारितया(१) वशिजन्यवाभावव्यावर्तकवाभावात् तदिशेषितस्य(२) वयवय-यतिरेकानुविधायित्वस्य च वहिजन्यत्वानतिरिकत्वात् उपायान्तरस्थोपायान्तरादूषकत्वाच्च । न च सर्वच धूमे वयन्षय-व्यतिरेकानुविधायित्वज्ञानविरहाद्यत्र तादृशज्ञानं तच वयसमवहितजन्यवादिसंशयासम्भवेऽपि धूमान्तरे तसंगये किं बाधकमिति वाच्यं । समानधर्मितावच्छेदककव्यावर्तकधर्मदर्शनस्यैव प्रतिबन्धकतया धूमवरूपेण यत्किञ्चिद्धमे वयवय-व्यतिरेकानुविधायित्वज्ञानसत्त्वे धूमान्तरेऽपि तेन रूपेण वयममहितजन्यत्वसंशयायोगात् ग्टहीतान्वय-व्यतिरेकधूमव्यक्तिविशेषस्यैव वा धूमत्वरूपेण तर्क पक्षतया धूमाग्नरे तत्संभयेऽपि पतिविरहात्। न चैतावता वयसमवहितजन्यत्वादिसंभयस्य तर्कतरप्रतिबन्धकवणानिवृत्तावपि व्यभिचारसंशयनिवृत्त्यर्थमवश्यं तर्कान्तरापेक्षा पचभिने पापाचाभावविरहेऽपि श्रापाद्याभावांशे भ्रमात्मकस्य पचमिचे
(१) सर्वत्र तदव्यभिचरितधर्मस्यैव तदभावव्यावर्तकत्वमिति भा। (२) पनन्यथासिद्धत्वविशेषितस्येत्ययः ।
Page #244
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१२
तत्वचिन्तामो
यस्मिन्नाशयमाने स्वक्रियाव्याघातो न भवतीति। न हि सम्भवति स्वयं वह्यादिकं धूमादिकार्यार्थं नियमत उपादत्ते तत्कारणं तन्नेत्याशयते चेति । एतेन व्याघातो विरोधः स च सहानवस्थाननियम इति तबाप्यनवस्थेति निरस्तं । स्वक्रियाया एव शङ्काप्रतिबन्धकत्वात्।
व्यभिचारसंभयस्य सम्भवादिति वाच्यं । अनायत्या व्यभिचारसंशयं प्रत्यपि तत्तदन्वय-व्यतिरेकानुविधायित्वज्ञानव्यक्तर्विरोध्यविषयकत्वेऽपि प्रतिबन्धकत्वोपगमात् एवं क्रमेण वशिजन्यत्वादिसंशयं प्रत्येव तस्य प्रतिबन्धकत्वसम्भवेऽप्युपायान्तरस्योपायान्तरादूषकत्वान्न तर्कवैयर्थमिति भावः । खोके प्राचां संवादमाह, 'तदिदमुक्तमिति, 'तदेवेत्यादि 'प्राशयते चेत्यन्तं प्राचीनग्रन्थः, 'आनयते' प्रवृत्तिपूर्व शङ्काविषयो भवति, 'भाशयमाने' प्रवृत्तिपूर्व सन्देहविषये मति, 'खक्रियेति, 'खक्रियायाः' खप्रवृत्तः, 'व्याघातो न भवति' इत्यर्थः। मनु धमोऽवहेरेव भविष्यतीत्यादिसंशयेऽपि प्रवृत्तिर्नानुपपन्नेत्यतशाह, 'न हौति, नियमतः' धूमादिरूपेष्टमाधनतानिर्णयतः, 'उपादको प्रयत्नविषयं कुरुते, 'तत्कारणमिति तदव्यवहितपूर्ववर्ति तन्नेत्यर्थः, धूमोऽवहेरेव भविश्थतीत्यादिसंशयस्यैव प्रतिबन्धकत्वात् । 'एतेनेति 'निरस्तमित्यनेनान्वयः, तत्रापि' तज्ज्ञानेऽपि, खक्रियायाः
(२) प्रछतत्वादिति ख, ग, घ० ।
Page #245
--------------------------------------------------------------------------
________________
तः।
अत एव “व्याघातो यदि शास्ति न घेछड़ा ततस्तराम्। व्याघातावधिराशङ्का तकः शङ्कावधिः कुतः ॥ इतिखण्डनकारमतमप्यपास्तम्। न हि व्याघातः शङ्काश्रितः, किन्तु स्वक्रियैव शङ्काप्रतिवन्धिकेति, न वा विशेषदर्शनात् कचित् शङ्कानित्तिरेवं स्यात्। न चैतादृशतकावतारो भूयोदर्शनं विनेति भूयोदर्शनादरः, न तु स स्वतएव प्रयोजकः। अत एव तदाहितसंस्कारो न मानान्तरं तर्कस्याप्रमात्वात, तच्च
व्याघातज्ञानं प्रतिबन्धकमुक, व्याघातश्च विरोधः, विरोधश्च स्खक्रियायास्तादृशसंशयेन महानवस्थाननियमः(९), नियमच व्याप्तिरेवेति, तज्ज्ञानेऽपि व्यभिचारमका विरोधिनी, तत्रिवृत्तिय तर्कान्तरादित्यनवस्थेत्यर्थः । 'खक्रियाया इति स्वस्थ क्रिया प्रवृत्तिर्यस्था इति व्युत्पत्त्या खक्रियाप्रयोजकौभतनियताषय-व्यतिरेकानुविधायित्वबुद्धेरित्यर्थः । 'व्याघातोयदौति व्याघातो यद्यस्ति तदा शहाप्यवश्यमस्तीत्यर्थः, खक्रियाप्रवृत्तिकाप्रतियोगिकविरोधरूपस्य व्याघातस्य प्रतियोगिनौं गङ्गां विना स्थात्मशक्यत्वादित्यभिमानः। 'न चेदिति न चेड्याघातस्तदा, 'ततः' प्रतिबन्धकाभावतः, 'तरां' सुतरां गत्यर्थः, 'याघातावधिरिति, तथाचेत्यादि, 'व्याघातावधिः' व्याघातनिवृत्त्या व्याघातप्रतिबध्या, 'आशा', 'तय,
(१) नियतमहानवस्थानमिति ख०, ग• ।
30
Page #246
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१०
तत्त्वचिन्तामणे
।
प्रत्यक्षव्याप्तिज्ञाने हेतुः सदभावेऽपि शब्दानुमानाभ्यां सद्ग्रहात्। ननु सहचारदर्शन-व्यभिचारादर्शनवद्यभिचारशङ्काविरहानुकूलतर्कयोर्ज्ञानं व्यभिचारिसाधारणमिति न ततोऽपि व्यतिनिश्चय इति चेत्। न। खरूपसतारेव तयााप्तिग्राहकत्वात् । सत्तकीयाप्तिप्रमा तदाभासात्तदप्रमा विशेषदर्शनसत्यत्वासत्यत्वाभ्यां पुरुषज्ञानमिव।
'शवावधिः' प्रवानिवर्तकः कुत इत्यर्थः, व्याघातसत्त्वे शङ्कायाः
आवश्यकत्वेन व्याघातस्य शङ्कानिवर्तकलासम्भवात्, व्याघातस्य शानिवर्तकत्वाभावे शङ्कया तकस्यैवानवतारेण तर्कस्यापि शङ्कानिवर्तकत्वाभावादिति भावः । 'इत्यपास्तमिति खण्डनकारमतमपास्तं, क्वचित्तथैव पाठः। 'शङ्काश्रितः' शङ्काप्रतियोगिकः, प्रतिबन्धक इति शेषः। 'खक्रियैवेति खस्य क्रिया प्रवृत्तिर्यस्याइति व्युत्पत्त्या खक्रियाप्रयोजकौतनियतान्वय-व्यतिरेकानुविधायित्वधौरेवेत्यर्थः । गङ्गाप्रतियोगिकविरोधस्य , प्रतिबन्धकत्वेऽपि न चतिरित्यभिप्रायेणाह, 'न वेति, “विशेषदर्शनात्' विरोधिभूताहर्शनात्, या प्रवानिवृत्तिः माप्येवं न स्यात् विरोधप्रतियोगिनौं महा विना तद्विरोधाश्रयदर्शनस्य स्थातमशक्यत्वादित्यर्थः । यदि च विरोधप्रतियोगिनो यदाकदाचित् यत्र कुत्रचित्()
' (१) 'यत्र कुत्रचित्' इति पाठः घ० पुस्तके नास्ति ।
Page #247
--------------------------------------------------------------------------
________________
अपरे तु यत्र तर्के व्याप्त्यनुभवो मूलं तच तान्तरापेक्षा, यच तु व्याप्तिस्मरणं हेतुः तब न तान्तरापेक्षेति नानवस्था, अस्ति च जातमात्राणामिष्टानिष्टसाधनतानुमितिहेतुव्याप्तिस्मरणं, तदानीं व्याप्त्यनुभावकाभावात्, तन्मूलानुभवमूला चाग्रेऽपि व्याप्तिस्मरणपरम्परेति।
सत्त्वमात्रमपेक्षितं न तु तदा तत्र तदुत्तरं तमत्त्वमिति) विभाव्यते तदा तुल्यं प्रकृतेऽपौति भावः । नन्वेवं व्याप्तिज्ञानं भूयोदर्शनादिति सिद्धान्तः कथं सङ्गच्छतेर) इत्यपेक्षायामाह, 'न चेति, वनि-धूमयोर्भूयःसहचार निश्चयं विना धूमे वयसमवहितमामय्यजन्यत्वनिश्चयासम्भवात् अयमेव धूमोवहिपूर्वक एतदन्यस्तु न, एवं एतद्धमदयमेव वहिपूर्वकं न त्वेतदन्य इत्यादिशङ्कासम्भवादिति भावः । 'भूयोदर्शनादरः' कदाचित् कुत्रचित्तदुपयोगः, 'म विति, 'सः' भूयासहचारग्रहः, 'खत एव' माचादेव, 'प्रयोजक इति व्याप्तिग्रहप्रयोजक इत्यर्थः । भूयोदर्शनस्य संस्कारद्वारा व्याप्तिग्राहकले तदाहितसंस्कारस्य मानान्तरत्वापत्तिः यदसाधारणं सहकार्यासाद्य मनोवहिर्गोचरां प्रमां जनयति तदेव प्रमाणन्तरमिति पूर्वपक्षोन दूषयति, 'श्रत एवेति यत एव भूयोदर्शनजन्यसंस्कारस्तर्क एक
(१) न तु तदुत्तरं तत्र सत्त्वमितीति ग, घ । (२) संगच्छतामिति ग०, घ•।
Page #248
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५८
নলিনাময়ী 'यत्नादिसिद्धकार्य-कारणभावविरोधादिमूलाः . केचित्तर्का इति। तन्न । तत्र प्रमाणानुयोगेऽनुमान
रख पर्यवसानात् । न च.व्याप्तिग्रहान्यथानुपपत्त्यैव तर्कस्यानादिसिद्धव्याप्तिकत्वज्ञानमिति वाच्यम् । अनुपपत्तरप्यनुमानत्वात्।
प्रयोजकः न तु व्याप्तियहे अत एवेत्यर्थः, 'अप्रमात्वादिति, इदमापाततः तर्कस्थाप्यंशतः प्रमात्वात् । वस्तुतस्तकस्य प्रामान्वेऽपि तं प्रति संस्कारो न जनकः किन्तु प्रयोजक एवेति न प्रमाणन्तरत्वमित्येव तत्त्वं । 'तश्चेति व्यभिचारसन्देहाभाववत्त्वञ्चेत्यर्थः, 'तदभावेऽपि' थभिचारमन्देहाभावाभावेऽपि व्यभिचारसन्देहेऽपौति यावत्, व्यभिचारसन्देहस्य योग्यतादिसन्देहरूपतया शब्दादिनार्थनिर्णयेऽविरोधित्वादिति भावः। भ्रान्तोदेशयति, 'नन्विति, 'यभिचारादर्शनवदिति व्यभिचारनिर्णयाभाववदित्यर्थ:(१), यथा व्यभिचारनिवयाभाव-सहचारदर्शनं न व्याप्तियाहकं अन्यथा यत्र यभिचारसंशयो वर्तते तत्र व्याप्तियहापत्तेः तत्रापि व्यभिचारनिश्चपाभाव-सहचारदर्शनयोः मत्त्वात्तथा व्यभिचारमंशयाभाव-तर्कयो
निं न व्याप्तियाहकं शासत्त्वदशायामपि व्यभिचारशकाविरहासुकूलतर्कयोहानसम्भवात् तत्र व्याप्तियहापत्तेरिति(२) । 'यभिचारीति
(१) व्यभिचारानिश्चयवदित्यर्थ इति ग०, ३० । (२) यथेत्यादिः व्याप्तिग्रहापत्तेरितीत्वन्तः पाठा ग० पुस्तके नास्ति ।
Page #249
--------------------------------------------------------------------------
________________
तर्क।
'अन्ये तु विपक्षबाधकतर्कादनौपाधिकत्वग्रह एव सदधीना व्याप्तिग्रह इति, तदपि न, तकस्याप्रमाण- , त्वात्। व्यभिचारादिशानिरासहारा प्रत्यक्षादिसहकारी स इति चेत् । न । अनवस्थाभयेन तक विना
मन्दिग्धव्यभिचारीत्यर्थः । 'व्याप्तियाहकत्वात्' याप्तिग्रहे प्रयोजकवात् । ननु तथापि व्यभिचारज्ञानविरहानुकूलतर्कयोर्यभिचारिएयपि सत्त्वात् कथं प्रमा-भ्रमविभाग इत्यत आह, 'मत्तर्कादिति, यद्यपि तर्कस्य सत्त्वं मूलगैथिल्यादिदोषरहितत्वं, तदिभिष्टत्वमेव(१) आभासत्वं तच्च न प्रामाण्याप्रामाण्यप्रयोजकं वस्तुगत्या व्याप्तिसत्त्वे तादृशदोषविशिष्टामोयदि वहिव्यभिचारौ स्यात् प्रथिवौ न स्थादित्यादितर्कादपि प्रमा-धमयोरुत्पादानुत्पादाभ्यो व्यभिचारात्। एवं विशेषदर्शने मत्यत्वासत्यत्वमपि न प्रामाण्यादिप्रयोजक विषयस्थाबाधितत्वेऽसत्यादपि विशेषदर्शनात् प्रमा-धमयोरुत्पादानुत्पादाभ्यां व्यभिचारात् । न च तकस्य सत्त्वं वस्तुगत्या व्याप्तिमधिषयकत्वं, अाभासत्वञ्च वस्तुगत्या व्याप्यभाववद्विषयकत्वं, एवं विशेषदर्शनस्य सत्यत्वं वस्तुगत्या पुरुषत्ववद्विषयकत्वं, वस्तुगत्या तदभाववद्विषयकत्वञ्चासत्यत्वमिति वाच्यं। तस्यापि स्वतःसिद्धशकाविरहस्थले तर्क विनैव व्याप्तिग्रहेण व्यभिचारात्तस्य प्रमाभ्रमप्रयोजकत्वासम्भवात् । तथापि 'मत्तात्' मत्यव्याप्तिज्ञानात्,
(१) मूलचिल्यादिदोषविशिष्ठत्वमेवेत्यर्थः ।
Page #250
--------------------------------------------------------------------------
________________
सत्त्वचिन्तामणौ
व्याघातात् “यच शङ्काविरहस्तव व्याप्तिग्रहे तकस्य व्यभिचारात्।
यत्तु योग्यानामुपाधीनां योग्यानुपलब्धाभावग्रहः अयोग्यानान्तु साध्याव्यापकत्व-साधनव्यापकत्वसाध
'तदाभामात्' तदभावात्, तथाच व्याप्तिप्रमावावच्छिन्नं प्रति व्याप्तिप्रमात्वेन हेतुत्वं ममानविशेष्यत्वं प्रत्यासत्तिः। व्याप्तिभ्रमत्वावच्छिन्न प्रति विशेष्यतासम्बन्धावच्छिन्नव्याप्तिप्रमाविरहत्वेन हेतुत्वं विशेषणताविशेष-विशेष्यताभ्यां मामानाधिकरण्यं प्रत्यासत्तिः। सर्वचान्ततोभगवड्याप्तिप्रमेव पूर्व सुलभेति भावः । 'विशेषदर्शनसत्यवासत्यत्वाभ्यां' सत्यविशेषणज्ञान-तदिरहाभ्यां, पुरुषत्वप्रमा-तदिरहाभ्यामिति यावत्, 'पुरुषज्ञानमिव' पुरुषत्वप्रमा भ्रम दव, तर्कस्य प्रकामात्रनिवर्तकत्वाद्यत्र स्वतः सिद्धः शङ्काविरहस्तत्र तर्क विनैव व्याप्तिग्रहः इति नानवस्थेति खयमुक्तं ।
प्राच्चस्तु तर्कस्य व्याप्तियाहकत्वमभ्युपेत्य प्रकारान्तरेणानवस्था परिहरन्ति तदेवाह, 'अपरे विति, 'यत्र तु व्याप्तिस्मरणमिति, व्याप्यनुभवं प्रत्येव तर्कस्य हेतुत्वादिति भावः । व्याप्तिस्मरणे तर्कापेक्षा नास्तीत्यत्र हेतुमाह, 'अस्ति चेति भवति चेत्यर्थः, 'चः' हेतौ, 'व्याप्तिस्मरणमिति, तर्क विनैवेति शेषः, 'व्याप्यनुभावकाभावादिति तर्काभावादित्यर्थः, यदा ननु जातमात्रस्य व्याप्तिज्ञानं स्मरणमेव न किन्तु अनुभवरूपमित्यत श्राह, 'तदानौमिति। ननु तथापि विनानुभवं स्मरणयोगात् जन्मान्तरोणे याप्यनुभवो हेतवाच्यस्तत्र
Page #251
--------------------------------------------------------------------------
________________
सके।
२३६
नादभावग्रह इत्यनोपाधिकत्वं सुग्रहमिति। तत्तुच्छम्। अनुमानेन तत्साधने नवस्थानात् प्रमाणान्तरस्याभावात्।
च ती हेतस्तत्र च तर्के व्याप्यनुभवान्तरं हेतुरिति क्रमेणानवस्था तदवस्थैवेत्यत आह, तन्मूलेति व्याप्तिस्मरणमूलकोयः प्राग्भवीयो व्याप्यनुभवस्तन्मूलिका, 'अग्रे' भाविजन्मनि, व्याप्तिस्मरणपरम्परेत्यर्थः, तथाच जन्मान्तरौयव्याप्तिस्मरणमूलीभूतव्याप्यनुभवमूलौभूततर्के व्याप्यनुभवो न हेतुः किन्तु व्याप्तिस्मरणमिति नानवस्था कदाचित् अन्तरान्तरा व्याप्तिस्मरणेन विछेदात् तर्कधाराया अविरललमत्वाभावादिति प्राचामाशयः । अत्रेदमखरमवीजं, न हि कदाचिदन्तरान्तराविच्छेद एवानवस्थापरिहारः, किन्तु श्रात्यन्तिकविच्छेदएवेति मकलसम्प्रदायसिद्धमिति ।
कार्य-कारणभावविरोधादौनामनादिप्रसिद्धिविषयत्वनिश्चय एव कुत्रचित्त संशयनिवर्त्तक इति केचिद्वदन्ति तन्मतमाशय निराकरोति, 'यत्त्विति, 'अनादिमिद्धेति कार्यकारणभावविरोधादौनां विशेषणं, तथाच 'अनादित्वेन अनादिप्रसिद्धिविषयत्वेन, "सिद्धाः' निश्चिताः, कार्य-कारणभावादयः क्वचित्त संशयनिवर्तका इति नानवस्थेत्यर्थः, यथाश्रुते कार्य-कारणभावे विरोधे चानादिवस्य दुर्चचत्वात्, 'श्रादिना व्याप्तिपरिग्रहः। 'तत्रेति कार्य-कारभावादौनामनादिप्रसिद्धविषयत्वे इत्यर्थः, 'प्रमाणानुयोगे' प्रमा
मिति ।
Page #252
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०.
तत्त्वचिन्तामो ये चानुकलतर्क विनैव सहचारादिदर्शनमात्रेण व्याप्तिग्रहं वदन्ति, तेषां पक्षेतरत्वस्य साध्यव्यापकत्व
एप्रने(१), 'अनुमान एवेति प्रत्यक्षस्य तत्रासम्भवादित्यर्थः, तथाच तत्राप्यनुमाने तोपेक्षावश्यकौत्यनवस्था तदवस्थेति भावः। व्याप्तिग्राहकतर्कमूलभूतव्याप्तियहो न तर्कान्तरादपि तु व्याप्तिग्रहान्यथानुपपत्तिग्रहादेव इत्याह, 'न चेति, 'अनुमानत्वात्' व्याप्तिनिश्चयाधौनप्रवृत्तिकत्वात्, यथाश्रुतासङ्गतः परैरपत्तेरनुमानत्वानन्धुपगमात्, तथाच तचापि तर्कापेक्षावश्यकौत्यनवस्था तदवस्थेवेति भावः ।
तदेवं व्यभिचारादर्शनमहकृतं सहचारज्ञानं व्याप्तिग्राहक तर्कः शानुत्पत्तौ प्रयोजक इति व्यवस्थाप्य तर्कादनौपाधिकत्वग्रहस्ततदुभाभ्यां - मिलिवा व्याप्तिग्रह इत्येकदेभिमतमाशय दूषयति, 'अन्ये त्वेति, 'तदधीन इति तयोरधीन इत्यर्थः। अनौपाधिकत्वयहे व्याप्तिग्रहे च तर्कः खतन्त्रो हेतः, प्रमाणसहकारी वा, नाद्यइत्याए, 'तर्कस्येति तथाच प्रमाणस्य स्वतन्त्रतया जनकत्वनियमेन तर्कस्य प्रमाणत्वासम्भवात् जनकत्वाभाव इत्यर्थः, द्वितीयमाशङ्कते, 'व्यभिचारादौति, श्रादिपदादुपाधिपरिग्रहः । 'याघातात्' तर्काभावातिरिककारणान्तराभावात्, 'विरहः' अनुत्पादः । 'व्याप्तिय' अनौपाधिकत्वग्रहे।
(१) 'प्रमाणानुयोगे' प्रमाणपत्रे, इत्ययं पाठः ख०, ग०, घ• पुलकेष
नास्ति।
Page #253
--------------------------------------------------------------------------
________________
सका। महेनुमानमाचमुछियेत, अनुमानमाचोच्छेदकत्वादेव पवेतरो नोपाधिरिति चेत्, भ्रान्तोऽसि, न हि वयमुपाधित्वेन तस्य दोषत्वमाचक्षहे, साध्यव्यापकत्वेन तातिरेकात् पधे साध्यव्यावर्तकतया व्यापकव्यतिरेके व्याप्यव्यतिरेकस्य वजलेपाच । अपि च कर-वहिसंयोगः शत्यतिरिक्तातीन्द्रियधर्मसमवायी जनकत्वा
अनौपाधिकत्वज्ञानं व्याप्तिधौजनकं तन्मतमाशय निराकरोति, 'यत्त्विति, 'माधनादिति अनुमानादित्यर्थः, 'अनौपाधिकत्वं सुग्रहमिति, तथाच ताहेतुकमेवानौपाधिकल ज्ञानं व्याप्तिधीतरिति भावः । 'अमवस्थानादिति तदनुमानमूलीभूतव्याप्तिज्ञानेऽप्यनौपाधिकवनिश्चयस्थ हेतुत्वादिति भावः । __ व्याप्तिग्रहे परम्परयापि कुत्रचित्र तर्कोपयोग इति मीमांसकैकदेशिमतं निराचष्टे, 'ये चेति, व्यभिचारसंशयस्य तत्मामय्याश्चाप्रतिबन्धकत्वादिति शेषः । 'अनुकूलेति व्यभिचारशङ्कानुत्पादानुकूलेत्यर्थः, 'सहचारादौत्यादिना सम्बन्धिनः माध्यादेः परिग्रहः, 'व्याप्तिग्रह' मर्वत्रं व्याप्तिनिश्चयं, 'साध्यव्यापकत्वग्रहे' माध्यव्यापकत्वनिश्चये, 'अनुमानमात्रमिति मन्दिग्धमाध्यपक्षकानुमानमात्रमुच्छियेतेत्यर्थः, यथाश्रुते निर्णेतमायके व्यभिचारनिश्चयसत्त्वेन पटेतरवस्य माध्यव्यापकत्वनिश्चयासम्भवादनुमानमाचोच्छेदाभावात् । अस्माकन्तु पक्षे माध्यस्य संशयसत्त्वे माध्ये पक्षेतरत्वव्यभिचारसंशयसत्त्वादनुकूलतक विना न माध्यव्यापकवनिश्चयसम्भव इति भावः। 'अनुमाम
31
Page #254
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामणे
दित्यनामयोजकत्वाब साधकं तत्र व्याप्तस्य पक्षधर्मन्व किमप्रयोगकं नाम तस्माद्विपक्षबाधकतर्कामावाब तब व्याप्तिग्रह इत्यायोजकत्वमिति ।
इति श्रीमहङ्गोपाध्यायविरचिते तत्त्वचिन्तामणौ अनुमानखण्डे तर्कनिरूपणं।
माचेति तादृशानुमानमाचोच्छेदकत्वज्ञानलक्षणप्रतिकूलतर्कादित्यर्थः, 'नोपाधिः' न खव्यभिचारण माध्यव्यभिचारोबायकः, 'उपाधित्वेनेति व्यभिचारोबायकत्वेनेत्यर्थः । 'माध्यव्यापकत्वेन' तविधयेन, 'यापकव्यतिरेके' व्यापकव्यतिरेकज्ञाने, 'व्याप्यव्यतिरेकस्य' व्यायव्यतिरेकज्ञानस्य । ननु तादृशानुमानमात्रोच्छेदकत्वज्ञानमेव तत्र साथव्यापकताज्ञानविरोधोत्यस्वरमादाह, 'अपि चेति, ‘शत्यतिरिक्तति । न चास्मन्मते माध्यामिद्धिः, पररौत्यैव परं प्रत्यभिधानात्, स्वमते तु प्रत्यतिरिकत्ववहिर्भावेन माथं बोधे, 'न साधक' न लिङ्ग 'याप्तस्य' व्याप्यत्वेन निश्चितस्य, ‘पक्षध वे' पक्षधर्मवनिर्णये, 'न तति व्यभिचारसंशयसामग्रीसत्त्वेन न तत्र व्याप्तिनिषय इत्यर्थः ।
इति श्रीमथुरानाथ-तर्कवागौगविरचिते तत्वचिन्तामणिरहर अनुमानायद्वितीयखण्डरहस्ये तर्करहस्यं ।
Page #255
--------------------------------------------------------------------------
________________
अथ व्यायनुगमः।
उक्तव्याप्तिप्रकारेवन्योन्याभावगर्भव व्याप्तिरनुमितिहेतुलाघवात् । अतो नाननुगमः ।
अथ व्याप्त्यनुगमरहस्यं ।
ननूकव्याप्तौनां ज्ञानसमुच्चयो न हेतरसम्भवात् न प्रत्येकं अननुगमात् कस्यचिदेव जानं तथेत्यत्र तु विनिगमकाभाव इत्यत आह, 'उनति, 'अनुमितिहेतुरिति जानविषयतयाऽनुमितिहेतुतावच्छेदिका इत्यर्थः, 'खाघवादिति प्रतियोगितावच्छेदकतावच्छेदकसम्बन्धन यत्प्रतियोगितावच्छेदकावछिवं प्रतियोगितावच्छेदकसम्बन्धेन तबशिवत्वस्य हेत्वधिकरणविशेषणत्वेनात्यन्नाभावगर्भमपेक्ष्यापि लाघवादित्यर्थः। अथ अन्योन्याभावगर्भलक्षणेऽपि प्रतियोगितावच्छेदकसम्बन्धेन प्रतियोगिमशिवत्वं हेत्वधिकरणविशेषणमावश्यकमन्यथा संयोगादिमदन्योन्याभावस्थाव्याप्यत्तितामये संयोगौ द्रव्यवादित्यव्यायवृत्तिमायकेऽव्यानेः, अन्योन्याभावस्य व्यायवृत्तितानियमनयेऽपि संयोगादिमझेदस्याव्याप्यत्तिताधमेण हेतुसामानाधिकरयचमेण तत्रानुमित्यनुत्पादापत्तेः, तथाच क लाघवं। म चान्योन्याभावगर्भलक्षणे हेवधिकरणवृत्तित्वमेव निरवच्छिनत्वेन विशेषौयं न
Page #256
--------------------------------------------------------------------------
________________
२.४
तत्वचिन्तामो
तु वोकप्रतियोगिमशिवत्वेन इवधिकरणमतोलाघवमिति वाचं । तथा सत्यत्यन्नाभावगर्भलक्षणेऽपि तथैव सुवचतया तत्रापि गौरवाभावादिति चेत्। न। अन्योन्याभावगर्भलक्षणे तादृशप्रतियोगिमशिवत्वेन हेत्वधिकरणविशेषणेऽपि प्रतियोगितावच्छेदकताव
छेदकसम्बन्ध प्रतियोगितावच्छेदकयोरप्रवेशादेव लाघवात् । वस्तुतोऽन्योन्याभावगर्भलक्षणे प्रतियोगिभिन्नत्वं खधिकरणस्य प्रतियोग्यनिरूपितलं वा हेत्वधिकरणवृत्तित्वस्य विशेषणं न तु यथोतं गौरवात्तथाचात्यन्ताभावगर्भमपेक्ष्यातीव लाघवमिति भावः ।
पत्र नव्याः अन्योन्याभावगर्भव्यापकताघटितव्याप्तिज्ञानमपि मानुमितिहेतः, किन्तु माध्याभाववदवृत्तित्वरूपव्याप्तिज्ञानमेवानुमितिहेतुरिति लाघवात्() । तत्परिष्कारस्तु प्रागेवाभिहितः,(२) केवणावयिनि । भ्रमरूपव्याप्तिज्ञानादेव सर्वदानुमितिः, मद्धेतौ भ्रमभिनव्याप्तिज्ञानादेवानुमितिरिति नियमे च मानाभावः, भ्रमजनकदोषरहितस्य केवखान्षय्यनुमितिरप्रसिद्धव । एवं द्रव्यं विभिदृसत्तादित्यादावपि भ्रमरूपव्याप्तिज्ञानादेवानुमितिः(३) । न च
(१) 'लाधवात्' साधनभेदेन कार्य-कारणभावभेदाकल्पनरूपलाधवादि
(२) व्याप्तिपञ्चकरहस्येऽभिषित इत्यर्थः । (२) विशिसत्त्वस्य सत्वानतिरिक्ततया विशिष्ठसत्त्वे द्रव्यत्वाभाववदतिवरूपयाताभावात् तत्र तादृशव्याप्तिज्ञानं भमरूपमेवेति । न च साध्याभावाधिकरणत्तितानवच्छेदकहेतुतावच्छेदकवत्त्वमेव व्यामि तथाच विशिवसत्त्वे द्रव्यत्वामावाधिकरणसित्वेऽपि विशिष्ट
Page #257
--------------------------------------------------------------------------
________________
वातानुगमः।
२७५
माध्याभाववदवृत्तित्वज्ञानस्यैव मर्चनानुमितिहेतुत्वे पृथियमितरभेदः हदे धूमाभाव इत्याद्यप्रमिद्धमायकानुमितिर्न स्थात् माथस्थापसिया तदभाववदवृत्तित्वज्ञानस्यासम्भवादिति वाच्यं । तत्र पृथिवीतरत्व-धूमादेरेव माध्याभावतया पृथिवीतरत्ववदवृत्तिव-धूमवदवृत्तित्वज्ञानस्यैवानुमितिहेतत्वात् अन्यथा तवापि.साध्यस्थाप्रमिया माध्याभावव्यापकौभूताभावप्रतियोगित्वरूपव्यतिरेकव्याप्यादिज्ञानस्य तत्रासम्भवात् । मनु माथाभाववदवृत्तित्वज्ञानस्यैवानुमितिहेतुले वाच्यत्वादौ वङ्ग्यादौ वा केवलान्वयित्वग्रहदशायामनुमितिर्न स्यात् विशेषदर्शनसत्त्वेन प्रभावे साध्यतावच्छेदकसम्बन्धावच्छिन्नमाध्यतावच्छेदकावच्छिनप्रतियोगिताकत्वसम्बन्धेन माध्यवत्त्वज्ञानासम्भवात् व्यापकसामानाधिकरण्यरूपव्याप्तिज्ञानस्य हेतुत्वे तु तदानीमप्यनुमित्युत्पादात् । न च केवलायित्वग्रहो न तावत् बाध्याभाववानभाव इत्याकारकोऽभावत्वावच्छेदेन माध्यतावच्छेदकावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्वसम्बन्धावच्छिन्नस्य माध्याभावस्य निश्चयः तादृशनिश्चयस्य निर्वहिः पर्वतोवहिमान् इत्यादिज्ञानवदाहार्यभ्रमरूपत्वेनाप्रतिबन्धकत्वात्()। नापि तादृशकारकोऽभावत्वसामानाधिकरण्येन
सत्तात्वे द्रव्यत्वाभावाधिकरणवृत्तित्वानवच्छेदकत्वस्य सत्त्वेन तत्र ताहशव्याप्तिज्ञानस्य कथं ममत्वमिति वाच्यं । व्याः हेतुतावच्छेदकघटितत्वे साधनभेदेन कार्य-कारणभावभेदाकल्पनरूपलाधवासम्भवादि
वि हृदयं। (१) पभावः साध्याभाववान् इत्याकारकाभावत्वावच्छेदेन साध्यतावच्छेद
कावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्वसम्बन्धावच्छिन्नसाध्याभावावगाहिंज्ञाने
Page #258
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४
तत्वचितामणौ
माध्यतावच्छेदकसम्बन्धावछिनप्रतियोगिताकाभावे माध्यतावच्छेदकावचिनप्रतिधोगिताकत्वसम्बन्धावच्छिन्नमाध्याभावस्य निचयः, त
কৰি আমাৰলৰালালাযিলালাৰ ৰাঘনালাवचित्र माध्यतावच्छेदकावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्वसम्बन्धेन माध्यप्रकारकस्य साध्याभाववदवृत्तित्वज्ञानस्योत्पत्तौ बाधकाभावात् अंशतो बाधस्य विशेष्यतावच्छेदकसामानाधिकरण्येन विशेषणमिद्याविरोधित्वादिति वाच्यम्। माध्यात्यन्ताभाववानभाव इत्याकारकथाभावत्वावच्छेदेनाभावे तादृनसम्बन्धावच्छिन्नमाध्यात्यन्नाभावनिसयरूपस्य माध्यवनिनोऽभाव इत्याकारकस्याभावबावच्छेदेनाभावे साध्यवदन्योन्याभावनिश्चयरूपस्य वा केवलावयित्वग्रहस्यानाहार्य स्थापि सम्भवात्(९) अत्यन्नाभावत्वान्योन्याभावत्वादेरखण्डधर्मविशेषरूपत्वेनाभाववाघटितत्वात्(२) वाच्यत्वाभाववान् प्रभाव इत्यकारकयाभावत्वावच्छेदेन वाच्यत्वत्वावच्छिनप्रतियोगिताकत्वसम्बन्धावच्छिभ-प्रतियोगिताकवाच्यत्वाभाववत्त्वज्ञानस्थानाहार्य्यस्थासम्भवेऽपि तादु. शाकारकस्याभावत्वावच्छेदेन स्वरूपसम्बन्धावच्छित्रप्रतियोगिताकत्वम
विशेषणीभूतसाध्याभावकोटौ चमावांशे माध्यतावच्छेदकावच्छिन्नप्र तियोगिताकत्वसम्बन्धेन साध्यस्य नियमतोमानात् तादृशज्ञानस
विण्डोभयप्रकारकत्वरूपमाहार्यत्वमिति तात्पथ्यं । (१) समानधर्मितावच्छेदककज्ञानस्यैव विरोधित्वादिति भावः । (२) बन्यथा अत्यन्ताभावत्वस्य सदातमसंसर्गाभाववरूपत्वे बन्योन्याभावत्व
स्य तादाम्यसम्बन्धावच्छिनप्रतियोगिताकामावत्यरूपत्वे अभावत्व 'घटितत्वेन पुनलदोषतादवस्था स्यादिति भावः ।
Page #259
--------------------------------------------------------------------------
________________
वातानुगमः ।
२४७
बधावचिनप्रतियोगिताकवाच्यवाभाववत्ताज्ञानस्थानाहार्यस्यापिए) सम्भवाचेति चेत्। न। तादृयवेवसावयित्वग्रहदशायामनुमितेरप्रसिद्ध अन्योन्याभावत्वावच्छेदेन, हेतुमामानाधिकरण्याभावग्रहदमायामनुमित्यनुत्पादस्य वयापि वाच्यत्वेन कस्यचित् फवस्यापलापस्थाविशेषात्। वस्तुतस्तु माध्याभाववदत्तिवरूपव्याप्तिज्ञानहेतुतायामभावत्वं न निविश्यते गौरवात् प्रयोजनाभावाच किन्तु माध्यौयवदवृत्तित्वज्ञानमेव हेतुः, तच्च यथोक्तकेवलावथियहदशायामपि सम्भवति माध्यांशे निर्धर्मितावच्छेदकत्वात् ।
मनु तथापि माध्याभाववदवृत्तित्वज्ञानस्यैवानुमितिहेतुले घटोद्रव्यमित्यादिरूपा स्वरूपतो द्र्व्यत्वादिविधेयकानुमितिः कदाचिदपि न स्यात् साध्याभाववदवृत्तित्वस्य द्रव्यत्वत्वादिरूपमाध्यतावच्छेदकघटितवेन द्रव्यत्ववाद्यवच्छिन्नविधेयकानुमितित्वस्यैव तदुद्धे कार्य्यतावच्छेदकत्वात्, अन्यथातिप्रसङ्गात्, द्रव्यत्ववाद्यतिरिक्तानवछिन्नद्रव्यत्वादिविधेयताकानुमितित्वस्य कार्य्यतावच्छेदकत्वे द्रव्यत्वाधनुमितेनियमतो विविधविषयताकत्वप्रसङ्गात्(२)। न च यत्र
(१) तथाच व्याप्तिबुद्धौ खरूपसम्बन्धावछिनप्रतियोगिकत्वविशिष्ठ
वाच्यत्वत्वावच्छिनप्रतियोगिताकत्वस्याप्रखिया खरूपसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्वेन वाच्यत्वत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्वेन च सम्बन्धेनाभावाशे वाच्यत्वस्य प्रकारत्वात् एतादृशकेवलान्वयित्वग्रहस्य प्रति
बन्धकात्वमिति भावः। (२) साध्याभाववदत्तित्वज्ञानस्यैवानुमितिहेतुत्वे द्रव्यं पृथिवीत्यादित्या
दौ खरूपतो घटोद्रव्यं इत्याकारकानुमितेरनुपपत्तिः व्याप्तिबुद्धौ
Page #260
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४८
तत्त्वचिन्तामो साध्याभाववदवृत्तित्वरूपव्याप्तियहे माध्यतावच्छेदकद्रव्याखवाचवच्छिअप्रतियोगिताकत्वसम्बन्धेन माध्यस्य द्रव्यत्वादेः स्वरूपतोऽभावे प्रकारकत्वं तत्र स्वरूपतोद्रव्यत्वादिविधेयकानुमितिर्यच च तमुहे तादृशसम्बन्धेन द्रव्यवत्वादिरूपेण माध्यस्य द्रव्यत्वादेः प्रकारकत्वं तत्र द्रव्यत्ववाद्यवच्छिवविधेयिकेति कार्य-कारणभावभेदात् न नियमतो विविधविषयकवमिति वाच्यम्। प्रभावप्रत्ययो हि प्रतियोगिनि तद्धर्मवैशिष्यमवगाहमान एव तद्धर्मस्यावच्छेदकत्वमव
यद्रूपेण साध्यमभावे भासते तद्रूपेण साध्यानुमितिरिति नियमात्, अन्यथा प्रभावांशे द्रव्यत्वत्वेन द्रव्यत्वावगाहित्याप्तिबुद्धेः घटोजातिमानित्याकारकजातित्वप्रकारकद्रव्यत्वानुमित्यापत्तिः इत्याशय समाधत्ते अव्यत्वत्वायतिरिक्तत्यादिना । तथाच द्रव्यत्वत्वाद्यतिरिक्तधानवछिन्नद्रव्यत्वादिनिछविधेयताकानुमितित्वं तत्कार्यतावच्छेदकमिति समाधानं । अत्र तादृशविधेयतायामनवच्छिन्नान्तविशेषणानुपादाने जातित्वेन द्रव्यत्वानुमित्यापत्तिः । एवं द्रव्यत्वनिष्ठत्वानुपादाने सत्तासाध्यकघटः सन् इत्याकारकानुमित्यापत्तिरतस्तत्र उभयोपादानं । पत्रेयमनुपपत्तिः, तथा हि द्रव्यत्वत्वेन घटत्वाद्यनुमित्य सम्भवः तादृशुभमानुमितेः द्रव्यत्वनिष्ठविधेयताकत्वासम्भवात् । अत्रेदं समाधान द्रव्यत्वत्वाद्यतिरिक्तधानवच्छिन्नद्रव्यत्वादिनिठविधेयताकानुमितित्वपदेन किचिडमानवच्छिन्नद्रव्यत्वावृत्तिविधेयताभिन्नद्रव्यत्वत्वाद्यतिरिक्तधमानवच्छिन्नद्रव्यत्वादिनिष्ठविधेयताकानुमितत्वस्य विवक्षितत्वे पथ वा निरवच्छिनत्वविशिछदव्यत्वावृत्तित्व-द्रव्यत्वत्वानवच्छिन्नत्योभयाभाववविधेयताकानुमितित्वस्य विवक्षितत्वे न काप्यनुपपत्तिरिति विभावनौयं ।
Page #261
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४
আমলল। बनीपाधिकत्वन्तु तलक्षणं। नन्वेषमुपाधिरसियुपजीव्यत्वेन व्यभिचारवत् हेत्वाभासान्तरं स्यात् न तु व्यात्यभावत्वेनासिद्धिरिति चेत्, तज्ज्ञानमुपजीव्यमपि गाहते न तु तदनवगाोति नियमात् द्रव्यत्ववाद्यवच्छिनप्रतियोगिताकत्वसम्बन्धेन खरूपतो द्रव्यत्वादेरभावे प्रकारत्वासम्भवादिति चेत् । न । स्वरूपतो द्रव्यत्वादिविधेयकानुमितेरसिद्धः अभावप्रत्ययोहोत्यादिनियमस्यैव वा अमिद्धेश्व। यदि च तादृशानुमितिरपि प्रामाणिको तनियमोऽपि च प्रामाणिकः तदान्यत्र माध्याभाववदवृत्तित्वज्ञानमेव हेतुस्तादृशानुमितौ च द्रव्यान्यावृत्तित्वादिरूपव्याप्तिज्ञानं हेतुरिति(१) प्रातः ।
ननु अन्योन्याभावगर्भव्याप्तिज्ञानस्यैवानुमितिहेतुत्वेऽनौपाधिकत्वज्ञानं अनुमितिजनकं इति प्रामाणिकप्रवादः कथमत आह,(२) 'अनौपाधिकन्विति, 'तपक्षणमिति लिङ्गविधया अन्योन्याभावगर्भव्याप्तिज्ञापकमित्यर्थः, तथाच प्रामाणिकप्रवादे जनकपद प्रयोजकपरनिति भावः । (१) तथाच अमावाशे द्रव्यत्वत्वेन द्रव्यत्वावगाहिदव्यत्वाभाववदत्तित्व
रूपयाप्तिज्ञानस्य कार्यतावच्छेदक द्रव्यत्वत्वावच्छिन्नविधेयताकानुमितिवं, भेदांशे खरूपतो द्रव्यत्वेन व्यावगाहिद्रव्यान्यायत्तित्वरूपव्यातिज्ञानस्य कार्यतावच्छेदकं खरूपतो व्यवविधेयताकानुमितित्व
मिति न नियमतोऽनुमितेर्दिविधविषयकत्वमिति तात्पर्य । (२) धनुमितिहेतुरिति प्रामाणिक प्रवादविरोध इत्यत बाहेति गः । (३) हेतुपदमिति ग।
82
Page #262
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५.
तत्वचिन्ताम
म स्वतोदूषकं । नान्यस्य साध्यव्यापकत्व-साधनाव्यापकत्वज्ञानमन्यस्य साध्यव्याप्यत्वज्ञाने प्रतिबन्धकमतिमसतो, व्यभिचाराज्ञानस्य नहेतुत्वात्, तहस्तिथा। न
मनु यद्यप्यनौपाधिकत्वं व्याप्तिज्ञानविषयतया अनुमितिकारणतावच्छेदकं स्यात्तदा तदभाव उपाधिरसिद्धावेव प्रवियेत् अनुमितिजनकतावच्छेदकव्याप्तेरभावस्यैव व्याप्यत्वामिद्धत्वान्, यदि नैवं तदा उपाधिहेत्वाभामानरं स्थादित्यामते, 'नग्वेवमिति, ‘एवं' अनौपाधिकवरूपव्याप्ति ज्ञानस्थानुमितेरहेतुत्वे, 'असिधुपजीव्यत्वेनेति व्याप्यनिश्चयप्रयोजकज्ञानविषयत्वेनेत्यर्थः, इदश्च हेत्वाभासत्वे हेतुर्न तु हेवाभासान्तरत्वे, ‘हेत्वाभामान्तरं स्यात्' व्याप्यवासिद्धिभिवाहेत्वाभासः स्यात्,. 'व्याप्यभावत्वेन' अनुमितिहेतु ज्ञानविषयतावच्छेदकव्याप्यभावत्वेन,(९) 'अमिद्धिः' व्याप्यवामिद्धिः, 'उपजीव्यमपौति
(१) ननु यद्यप्यनोपाधिकत्वं लिङ्गाविषयतया धनुमितिकारणतावच्छे.
दकं स्यात् तदा तदभाव उपाधिर्याप्यत्वासिद्धिभिन्नहेत्वाभासः स्यात् बनुमितिजनकतावच्छेदकव्याप्तानिश्चयप्रयोजकज्ञानविषयत्वेन व्यमि. चारवत् हेत्वाभासत्वस्यावश्यकत्वात् धनुमितिजनकतावच्छेदकल्याप्ताभावत्वाभावेन व्याप्यत्वासिद्धित्वासम्भवात् धनुमितिजनकतावच्छेदकव्याप्नेरभावस्य व्याप्यत्वासिद्धित्वनियमात् इत्याशते, 'नन्वेवमिति,
इति पाठान्तरम्। (२) व्याप्ताभावत्वेनेत्यत्र वैशिध्य रतीयाः, तथाच व्याप्तभावत्वविशि.
हासिद्धिरित्यर्थः।
Page #263
--------------------------------------------------------------------------
________________
यातायुगमः।
२५१
पानीपाधिकत्वज्ञानं व्याप्तिज्ञानहेतुरित्युक्तम्। तयाच व्यभिचारज्ञानहारा स दूषकः, एवञ्च परमुखनिरीक्षकतया सिद्धसाधनवन्न पृयक् । न चैवमव्यभिचारस्य व्याप्तित्वे व्यभिचारस्तदभावत्वेनासिद्धिः स्यादिति
परम्परया व्याप्यनिर्णयोपजीव्यमपौत्यर्थः, 'स्वतो दूषकमिति अनुमिति-तत्कारणपरामर्शान्यतरं प्रति साक्षात् प्रतिबन्धकमित्यर्थः, तयोरन्यतरं प्रति साक्षात्प्रतिबन्धकं यज्ञानं तदिषय एव हेत्वाभास इति भावः । एतदेव स्पष्टयति, 'न ह्यन्यस्थेति, 'तछेतुत्वात्' व्याप्तिधीहेतुत्वात्, 'तडौः' व्यभिचारधीः, 'तथा' खतः प्रतिबन्धिका।
नव्यास्तु नन्वेवमपि व्यभिचारस्य कथं हेत्वाभासत्वमत शाह, 'व्यभिचाराज्ञानस्येति समानधर्मिकव्यभिचारज्ञानाभावस्येत्यर्थः, नद्धेतुत्वात्' व्याप्तिधौडेतत्वात्, व्यभिचारधीः साक्षात् प्रतिबन्धिकेति समुदितार्थः इत्याहु:(१) । _ 'अनौपाधिकत्वज्ञानमिति उपाधिमत्त्वज्ञानाभाव इत्यर्थः, येन उपाधिज्ञानं व्यभिचारज्ञानवत्वतः प्रतिबन्धकं स्थादिति भावः । तत् किमुपाधिर्दूषणमेव न इत्यत पाइ, 'तथाचेति, उपसंहरति, 'एवञ्चेति, 'परमुखनिरीक्षकतयेति अनुमिति-तत्कारणपरामर्शान्यतरप्रतिबन्धकज्ञानाविषयतयेत्यर्थः, 'मिद्धसाधनवदिति पक्षविशे
(१) नया स्वित्यादिः पाऊरित्यन्तः पाठः क• पुस्तके नास्ति ।
Page #264
--------------------------------------------------------------------------
________________
तापितामको
पाचम् । साध्याभाववत्तित्वं हि व्यभिचारः तदभावश्च नाव्यभिचारः केवलान्वयिन्यभावात्। किन्तु स्वसमानाधिकरणात्यन्ताभावाप्रतियोगिसामानाधिकरण्यं । न चानयोः परस्परविरहत्वमिति ।
इति श्रीमहङ्गेशपाध्यायविरचिते तत्तचिन्तामणो अनुमानखण्डे व्याप्त्यनुगमरहस्य, समाप्तश्च व्याप्तिग्रहोपायः ॥
ध्यक-माध्यनिधयवदित्यर्थः, हेत्वाभामलाभावेनेति शेषः, 'न पृथक्' न पृथक्हेत्वाभासः, अन्यथा अनौपाधिकल्प ज्ञानस्थानुमितिहेतुत्वपक्षेप्युपाधेईवाभासान्तरत्वस्य दुयारत्वात्, अनौपाधिकत्वस्य पारिभाषिकत्वैव निर्वचनात् उपाधेस्तदभावत्वाभावेन व्याप्यत्वामिद्धावमार्भावासम्भवादिति भावः । “मिसाधनवदिति च हेत्वाभासत्वाभावमाचे दृष्टान्तः, न तु परमुखनिरौचकतायां, तर यथोकपरमुखनिरीक्षकत्वादिति ध्येयं । 'किन्विति, अचाव्यभिचार इत्यनुपव्यते, 'अनयोरिति माथाभाववत्तिव-सममानाधिकरणभावाप्रतियोगिमाध्यमामानाधिकरणयोरित्यर्थः ।
इति श्रीमथुरानाथ-तर्कवागौणविरचिते तत्त्वचिन्तामणिरहस्ये अनुमानास्यद्वितीयखण्डरहस्ये व्याप्यनुगमरहस्यं, समाप्तच व्याप्तियहोपायरहस्यं ।
Page #265
--------------------------------------------------------------------------
________________
अथ सामान्यलक्षणा।
'व्याप्तिग्रहश्च सामान्यलक्षणाप्रत्यासत्या सकलधूमा
अथ सामान्यलक्षणारहस्यं ।
प्रसङ्गमङ्गत्या (१) सामान्यलक्षणायाः प्रत्यासत्तित्वं व्यवस्थापयितुमाछ, 'याप्तिग्रहथेति महानमादौ जायमानो धूमवरूपेण सविक
धूमे वहिवरूपेण सचिवष्टवक्र्याप्तिसाक्षात्कारश्चेत्यर्थः । 'मामान्यलक्षणप्रत्यासत्येति धुमत्व-वहिल-मामानाधिकरणवरूपसामान्यलक्षणप्रत्यासत्त्यर्थः, 'सकलधूमादौति, 'श्रदिपदात् सकलवटिधूमवृत्तिमकलतत्मामानाधिकरण्यपरियहः, 'कथमन्यथेति, 'अन्यथा' तस्य सकलधूमाद्यविषयकत्वे, ‘पर्वतीयधूम इति पर्वते धूमवरूपेण पर्वतीयधूमवत्तानिययस्य पर्वतीयधूमे व्याप्तिप्रकारकत्वासम्भवेनेत्यर्थः, विशिष्टवैशिष्यबुद्धौ विशेषणतावच्छेदकप्रकारकविशेषणनित्रयस्य हेतुतया व्याप्तिप्रकारेण पर्वतीयधूमज्ञानं विना पर्वते व्याप्तिवि
(१) केचित्तु समानाधिकरणयोरेव व्याप्तिरिति पक्षे पर्वतीयधूमे वडि
व्याप्तिविशिलधीन पर्वतीयवडिव्याप्तिग्रहं विना स च न सामान्यलक्षणां विनेति कथितव्याप्तिविशिशेत्यादिलक्षणोपोहातोऽपौत्वाडरिति दौधितिक्तः ।
Page #266
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५७
तत्वचिन्तामणे
दिविषयक, कथमन्यथा पर्वतीयधूमे व्यायग्रहे तस्मा
शिष्टपर्वतीयधूमवैशिष्यज्ञानासम्भवादिति भावः । तस्मादनुमितिरिति पर्वते धूमवरूपेण तद्वत्त्वनिश्चयादनुमितिरित्यर्थः, व्याप्तिविमिष्टवैशिष्वावगाहिनिश्चयस्यैव लाघवादनुमितिहेतुत्वादिति भावः । मनु मा किं संयोगादिसर्वाणषोढ़ाप्रत्यासत्त्यन्तर्गता तदतिरिका वेत्यत श्राइ, ‘मा चेति, 'इन्द्रियसम्बद्धति स्वजन्यज्ञानप्रकारत्वरूपेप्रियसम्बन्धात्रयस्य सामान्यस्य व्यक्तिषु धर्मिताख्यस्वरूपसम्बन्धरूपेत्यर्थः, खमिन्द्रियं, तथाच सामान्य लक्षणं निरूपकं यस्या इति युत्पत्त्या चक्षुरादिजन्यज्ञानप्रकारोभतधूमवादिसामान्यनिरूपिता धर्मिताख्यविशेषणतैव सामान्यलक्षण, मा चाभावादिग्राहकचचु:संयुक्तविशेषणतादिवदिशेषणताप्रत्यासत्त्यन्तर्गतैव । न चैवं धमवादिप्रकारकशाब्दबोध-स्मत्यादितः सकलधूमादिगोचरो मानसी बोधो न स्यान्मनोजन्यज्ञानविरहादिति वाच्यं। शाब्दादेरपि मनोजन्यत्वात्। न च तथापि धमत्वादिप्रकारकशाब्दबोधादितो निखिखधूमगोचरचाक्षुषादि स्यादिति वाच्यं । इष्टत्वात् प्राचीनेस्तप्रकारकचाक्षुषादित एव सकलतदाश्रयचाक्षुषाधुपगमात् इति भावः । पत्र धूमत्वादिसामान्यनिरूपितधर्मितामात्रस्य प्रत्यासत्तिले धूमत्वादेरशानदयायां निर्विकल्पकतज्ज्ञानदशायां विशेष्यतया तज्ज्ञानदशायाञ्च() तत्प्रकारेण तदाश्रयमकलप्रत्यक्षापत्तिः समवापाचेकसम्बन्धेन धमत्वादिप्रकारकशानदशायां कालिकादिसम्बन्धेन (१) प्रमेयमित्याकारकधूमत्वविषयक ज्ञानदशायामित्यर्थः ।
Page #267
--------------------------------------------------------------------------
________________
सामान्यलक्षणा।
दनुमितिः,सा चेन्द्रियसम्बदविशेषणता अतिरिक्तववा, सकसनदाश्रयसाक्षात्कारापत्तिातो भूतान्तं सामान्यविशेषणं, एवध यत्सम्बन्धेन तस्य जाने प्रकारत्वं तत्सम्बन्धावच्छिन्ना नदौथा धर्मिता तत्सम्बन्धेन तदाश्रयस्य प्रत्यचे हेतुरिति नोक्रातिप्रसङ्गः । एतेन इन्द्रियलौकिकसत्रिकर्षाश्रयवृत्तित्वमेवेन्द्रियसम्बन्धोऽभिधीयता इत्यपि निरस्तं । यथोक्रातिप्रसङ्गानां दुर्खारतापत्तेः धूमादौ धूमत्वादिप्रकारकशाब्दादिज्ञानानन्तरं सकलधूमादिगोचरमानसप्रत्यक्षानुदयापत्तेश्च धूमत्वादेर्मनोलौकिकमविष्टावृत्तित्वात् चचुरादिमनिष्टधूलोपटले धूमवभ्रमेण सकलधूमसाक्षात्कारानुदयापत्तेच धूमत्वस्येन्द्रियमविकष्टात्तित्वात् । धूमत्वादिप्रकारकस्मरणदितो. ऽपि चक्षुरादिवहिरिन्द्रियजन्यमकलतदायसाक्षात्कारवारणय तादुशपरम्पराया इन्द्रियसम्बन्धत्वसम्पादनाय च(१) चचुरादिजन्येति ज्ञानविशेषणं, तच्च न कार्य-कारणभावप्रविष्टं चक्षुरादिवहिरिन्द्रियस्थले चचुरादिजन्यत्वनियतचाचुषत्वादिजातेनिःस्थले तु जन्यज्ञानमात्रस्य मनोजन्यतया ज्ञानवमात्रस्य कारणतावच्छेदकघटकवात् लाघवात्, तथाच वहिरिन्द्रियस्थले तत्पुरुषायचाक्षुषविधि
धूमवविशिष्टधर्मितात्वेन कारणता तत्पुरुषोयधूमवप्रकारकधूमत्वा. अयमुख्यविशेष्यकचाक्षुषत्वेन कार्य्यता इत्यादिक्रमेण, मनास्थले त तत्पुरुषोयज्ञानविशिष्टधूमवविभिष्टधर्मितावेन कारणता तत्पुषौ
(१) उक्तपरम्पराया इन्द्रियाघटितत्वे इन्द्रियसम्बन्धत्वं न सम्भवतीति
भावः।
Page #268
--------------------------------------------------------------------------
________________
सवचिन्तामो
तविशेष्यकप्रत्यक्षे तदिन्द्रियसविकर्षस्य हेतुत्वेनानाग
पधमत्वप्रकारकधूमत्वाश्रयमुख्यविशेष्यकमानसत्वेन कार्यतेत्यादिकमेण कार्य-कारणभावः, प्रथमवैशिष्यं प्रकारतासम्बन्धेन, दितीयवैशिषध निरूपितत्वसम्बन्धेन, विशिष्टपूर्वसत्त्वस्यापेक्षिततया च न कालान्तरौयचाक्षुषादिमादायातिप्रसङ्गः, कालिकसामानाधिकरसमानच प्रत्यासत्तिर्न तु विशेष्यत्वाश्रयत्वघटितदैशिकसामानाधिकरण्यमपि धूमत्वादिप्रकारकचानानन्तरं निरुतधर्मितारूपमामान्यलक्षणाप्रत्यासत्त्यातीतानागतधूमादौ कदाचित् समूहालम्बनविधया धूलोपटलादौ च धूमत्वादिप्रत्यक्षोदयात्तत्र च तदानीं तादृप्रधर्मिताविरहाट्यभिचारापत्तेः । न च यावत्त्वस्य कार्य्यतावछेदकाघटकतया तादृशधर्मितारूपसामान्यलक्षणप्रत्यासत्या कुतोतोतानागतमकमधूमत्वाश्रयप्रत्यचमिति वाच्यं । यावत्त्वस्य कार्यतावच्छेदकाघटकत्वेऽपि विनिगमनाविरहेण सकलधूमत्वाश्रयभानादिति निगर्भ:(९) ।
न च यत्र विनश्यदवस्यचक्षुःसंयोगेन यत्किचियाको धूमत्वप्रकारकचाक्षुषोत्पत्तिकाल एव चक्षुषोनिमौलनं तत्र तदनन्तरं निमौलितनयनस्थापि तादृशधर्मिताप्रत्यासत्त्या धूमत्वप्रकारकनिखिखधमत्वाश्रयवाक्षुषापत्तिः विनश्यदवस्थालोकममवधानजन्यधूमत्वप्रकारकयत्किञ्चिडूमचाचुषादन्धतमसेऽपि तादृशधर्मिताप्रत्यासत्या
.. (९) सर्वत्र 'निगर्भः' इत्यत्र 'निगर्वः' इति ग° पुस्तक पाठः ।
Page #269
--------------------------------------------------------------------------
________________
सामान्यलक्षणा।
धमत्वप्रकारकनिखिसधूमचाक्षुषापत्तिः, एवं यत्र धूमल्वप्रकारकयकिञ्चिद्धमव्यक्तिचाक्षुषोत्पत्तिकाले धूमवप्रकारकलौकिकचाक्षुषप्रतिबन्धकदोषोत्पत्तिस्तत्र तदनन्तरं दोषसत्त्वेऽपि तादृशधर्मितासत्रिकर्षण धूमत्वप्रकारकनिखिलधूमवायचाक्षुधापत्तिरिति वाचं। वहिरिन्द्रियजनिनसामान्यलक्षणजन्यमाक्षात्कारस्य सामान्यांशे विशेयोभूतयत्किञ्चियक्त्यं च लौकिकबनियमावहिरिन्द्रियेण तादृशमाक्षात्कारजनने सामान्याश्रये तदनाश्रये वा यत्किञ्चिद्धर्मिणि लौकिकविशेष्यतया मामान्यप्रकारकतदिन्द्रियकरणकप्रत्यक्षोत्पत्तिमामय्या अपि सहकारित्वस्य नव्यानव्यमकलतान्त्रिकसिद्धत्वात् । अन्यथा वक्ष्यमाणकल्येऽप्यनिस्तारादिति निगर्भः।।
नन्वेवं ज्ञानप्रकारोभूततनिरूपितधर्मितायास्तत्प्रकारकतदाश्रयप्रत्यक्ष एव हेततया घटत्वरूपेण एकघटव्यक्रिमाचप्रकारकज्ञानानन्तरं पटवावच्छिन्नप्रकारेण घटान्तराश्रयप्रत्यक्षं न स्याहटान्तराश्रयस्थ ज्ञाप्रकारोभूतघटव्यकेराश्रयत्वाभावात् । न च मामान्यतस्तत्पुरुषोय
क्षुषादिविशिष्टघटविशिष्टधर्मितात्वेन तत्पुरुषोयघटप्रकारकघटायमुख्य विशेष्यकचाक्षुषत्वेन कालिकसामानाधिकरण्यमाचप्रत्यासत्त्या पार्य-कारणभावात् ज्ञानप्रकारौझतयत्किञ्चिद्दटव्यक्तिनिरूपितध
तैव स्वानधिकरणौभूतघटान्नराश्रयप्रत्यक्षेऽपि हेतुरिति वाच्यं । या मति तब्यक्रित्वरूपेणैव तहटमात्रप्रकारकज्ञानत्वदशायामपि(१) शान्तराश्रयप्रत्यक्षापत्तिरिति। मैवं । घटत्वावच्छिन्नघटप्रकारकपुरुषोयघटाश्रयमुख्यविशेष्यकचाक्षुषं प्रति घटत्वावच्छिन्नप्रका२) तयक्तित्वरूपेणैकव्यक्तिघटमात्रप्रकारकज्ञानानन्तरमपोति ख०, ग०।
133
Page #270
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५०
মন্বিনানী
रतासम्बन्धेन तत्पुरुषोयघटायचाक्षुषविशिष्टेन यत्किञ्चिद्दटेन विधिटाया धर्मिताया एव हेतुत्वात् तड्यक्रित्वरूपेण तद्व्यक्तिप्रकारकज्ञानस्य तड्यक्रित्वावच्छिनतड्यक्रिप्रकारक-तत्तड्यात्याश्रयप्रत्यक्षं प्रत्येव हेतुत्वान् एवमेव सर्वत्र सखण्डसामान्यस्थले बोयं सामान्यभेदन कार्य-कारणभावभेदादिति निगर्भ:(९) ।
मन्वच धर्मिताप्रवेभोव्यर्थस्तादृशविशिष्टधूमत्ववादिनैव हेतुत्वस्थ सुवचत्वात्, किच्चैवं यत्रातीतमनागतं वा मामान्यं तत्र तबिरूपितधर्मिताया अप्यतीतानागततया तत्मामान्यप्रकारलज्ञानानन्तरं तत्मामान्यप्रकारकनिखिलतत्सामान्याश्रयमाक्षात्कारोन स्यात् ज्ञान- | प्रकारोभूतस्य तत्मामान्यस्य तस्विरूपितधर्षितायाश्च अव्यवहितपूर्वमभावात् । अथातोतानागतसामान्यप्रकारकज्ञानानन्तरं तादृअसामान्यप्रकारकतादृशसामान्याश्रयसाचात्कारोऽसिद्धः यथोककार्य-कारणभावस्य व्यभिचारापत्त्या तथैव कल्पनात्, किन्तु तत्र । अतीतानागतसामान्यप्रकारकज्ञाने भासमानं माचात्परम्परया वा तमामान्यनिष्ठमवश्यं नित्यधर्मान्तरमप्यस्ति परम्परासम्बन्धेनावच्छिबतादृशनित्यधर्मनिरूपितधर्मिताप्रत्यासत्या परम्परासम्बन्धेन तादृभनित्यधर्मप्रकारकमेव तसामान्याश्रयप्रत्यक्षं जायते । न च तादृशनित्यधर्मस्य परम्परामम्बन्धेन ज्ञानाप्रकारतया कथं तषिरूपितधर्मिताप्रत्यासत्या परम्परासम्बन्धेन तादृशनित्यधर्मप्रकारकमेव तमामान्याश्रयप्रत्यचमिति वाचं । यत्किञ्चिविशेष्येऽतीताना(१) न च यत्र विनश्यदवस्थचक्षुःसंयोगेनेत्यादिः निगम इत्वन्तः पाठः
मोड़पत्रस्य इति ।
Page #271
--------------------------------------------------------------------------
________________
सामान्यपदया।
गतसामान्यप्रकारकशानदायामन्ततो निधर्मितावच्छेदकस्यापि तस्मिन् विशेष्ये परम्परासम्बन्धेन तसामान्यवृत्तितादृशनित्यधर्मप्रकारकप्रग्यक्षस्य सम्भवात्, यत्र र शाब्दबोधादिरूपमतीतानागतसामान्यप्रकारकं ज्ञानं तचापि तदुत्तरं परम्परासम्बन्धेन तदृक्तितादृशधर्मप्रकारकमानसबोधकल्पनादिति चेत्। न । अनुभवापखापादतोतानागतमामान्यप्रकारकज्ञानानन्तरमतौतामागतसामान्यप्र - कारकस्यापि निखिलतदाश्रयमाक्षात्कारस्य सकलनैयाथिकानुभवसिद्धत्वात् परम्परासम्बन्धेनातीतानागतसामान्यत्तितादृशधर्मप्रकारकज्ञानं विनायतोतानागतसामान्यप्रकारकशाब्दादितः सकलतदाश्रयमाक्षात्कारस्य सकलनैयायिकानुभवसिद्धत्वाच्च । अन्यथा श्रतोतानागतसामान्यप्रकारकज्ञानानन्तरं निखिलतदाश्रयसाक्षात्कार एवापलप्यतां किमेतावत्कुस्ष्या । अपिच चचुरादिजन्यज्ञानप्रकारौभूतसामान्यनिरूपितधर्मितायास्तादृशमामान्यस्य वा प्रत्यांमत्तित्वे च इन्द्रियभेदेन पुरुषभेदेन च कार्य-कारणभावभेदादनन्तकार्य-का(भावप्रसङ्गः कारणतावच्छेदकशरोरगौरवञ्चेत्यखरमादाह, 'अतिरक्तव वेति संयोगादिलक्षणप्रत्यासत्तिघटकादतिरिक्तव वेत्यर्थः, चानिरिकं धूमत्वादिरूपसामान्यप्रकारकज्ञानमाचं, घोड़ा परिगनन्तु लौकिकसत्रिकर्षाभिप्राय, सामान्यलक्षणपदस्य च सामान्य क्षणं विषयतया निरूपकं यस्याः मा सामान्यलक्षणेति व्युत्पत्तिः, मलादिप्रकारकशाब्द-स्मृत्यादितोऽपि मानससकसधूमादिमाक्षाकारवञ्चक्षुरादिवहिरिन्द्रियजन्यनिखिलधूमादिमाक्षात्कारोऽपीथतव मातोवहिरिन्द्रियस्थलेऽपि चक्षुरादिभेदेन कार्य-कारणभाव
Page #272
--------------------------------------------------------------------------
________________
९.
सत्यचिन्तामो
भेदः, समवायसम्बन्धेनात्मनिष्ठतया हेतुतया च न पुरुषभेदेन कार्य-कारणभावभेद इति भावः। अत्र सामान्यमात्रस्य प्रत्यासत्तित्वेऽतीतानागतमामान्यप्रकारकज्ञानानन्तरं तत्प्रकारकनिखिलतदायसाक्षात्कारानुपपत्तिः कारणत्वेनाभिमतस्य सामान्यस्याव्यवहितपूर्वमभावादतोज्ञानप्रवेशः। नन्वेतावता अनित्यसामान्यस्थले घटत्वादिनित्यसामान्यस्थले च सामान्यज्ञानं प्रत्यासत्तिरस्तु घटत्वत्वादिना कारणत्वकल्पनामपेक्ष्य घटत्वादिज्ञानत्वेन हेतुताया लघुत्वात्, परममहत्त्वादिनित्यगुणाद्यात्मकसामान्यस्थले घटात्यन्ताभावादिनित्याभावात्मकसामान्यस्थले च कथं ज्ञानान वः सामान्यभेदेन कार्य-कारणभावभेदात्तच स्वरूपसतः परममहत्त्वादेरेव लाघवेन प्रत्यासत्तित्वौचित्यात् । न चैवं परममहत्त्वाद्यज्ञानदशायामपि तत्प्रत्यासत्त्या निखिलतदाश्रयसाक्षात्कारापत्तिरिति वाच्य। परममहस्वादिप्रकारकपरममहत्त्वाश्रयप्रत्यक्षत्वस्य कार्यतावच्छेदकतया विशेपणज्ञानरूपविशिष्टबुद्धिसामान्यकारणभावादेव(१) तत्र कार्याभावादिति चेत् । न । परममहत्त्वत्वादिनिर्विकल्पकानन्तरमाद्यविशिष्टज्ञानोत्पत्तिसमय एव परममहत्त्वादिप्रकारेण निखिलतदाश्रयमाक्षात्कारापत्तेः(२) परममहत्त्वादिविशेष्यकज्ञानादपि(३) सकलतदाश्रय(१) विशिलबुद्धिसामान्यं प्रति विशेषणज्ञानस्य खातन्त्रोण कारणत्व
मिति भावः। (२) निर्विकल्पकटतौयक्षण एव सामान्यलक्षणासन्निकर्षजन्यप्रत्यक्षस्य सर्वानुभवसिद्धतया निर्विकल्पकहितीयक्षणे तादृशप्रत्यक्षापति
रिति समुदिततात्पर्य । (२) विशिशबुद्धिसामान्य प्रति विशेषणज्ञानस्य विशेषणविषयकन्वेनैव
कारणत्वमिति विशेषणविशेष्यक ज्ञानस्यापि तत्कारणत्वं सवचमिति ।
Page #273
--------------------------------------------------------------------------
________________
सामान्यलक्षमा।
माक्षात्कारापत्तेखान चेष्टापत्तिः, अनुभवविरोधात्।एवं समवायादियत्किञ्चित्सम्बन्धेन परममहत्त्वादिप्रकारकज्ञाने तत्प्रत्यासत्या जगतएव प्रत्यक्षापत्तिः जगत एव येन केनचित् सम्बन्धेन परममहत्त्वाद्याश्रयत्वात्, विना कारणतावच्छेदकप्रकारताप्रवेशं सम्बन्धभेदोपादानस्थाशक्यत्वात् । न चेष्टापत्तिः, अनुभवविरोधात् परममहत्त्वादेनित्यतया तदभावेन कार्याभावस्य क्वाप्यभावात् खरूपसत्तस्य कारणत्वे मानाभावाच्च । न च तथापि लाघवादिच्छादिमाधारणमामान्यप्रकारकमेव प्रत्यासत्तिरस्तु किं ज्ञानान्तर्भावेनेति वाच्यं । घटत्वादिनिर्विकल्पकात्मकस्य घटत्वादिविशेष्यकज्ञानात्मकस्य वा विशेषण ज्ञानस्य सत्त्वे(१) घटत्वादिप्रकारकेच्छादितो घटत्वादिप्रकारकानुबुद्धसंस्कारादितश्च निखिलघटत्वाद्याश्रयसाक्षात्कारापत्तेः । न च सामान्यप्रकारकज्ञानस्यैव सामान्यलक्षणत्वे ज्ञानलक्षण-मामान्यलक्षणयोः कार्य-कारणभावे को भेद इति वाच्यं । कारणतावकेदकभेदेन कार्य्यतावच्छेदकभेदेन च भेदात्, सामान्यलक्षणयाः कार्य-कारणभावस्तु तत्तत्मम्बन्धावच्छिन्न-घटत्वादिप्रकारताशालिज्ञानत्वेन स्वरूपतस्तत्तत्मम्बन्धावच्छिन्नघटत्वादिप्रकारिताक-तत्तत्मम्बधावच्छिन्न-घटवाद्याश्रयताशालिमुख्यविशेष्यकप्रत्यचत्वेन, यावत्त्वस्य कार्यतावच्छेदकाघटकत्वेऽपि विनिगमनाविरहेण सकलघटज्ञान(२) । (१) रतेन विशिष्टबुद्धिसामान्यकारणस्य विशेषण ज्ञानस्य सत्त्वं सूचित
मिति । (२) सामान्यलक्षणाया हि तत्तत्सम्बन्धावच्छिन्नघटत्वादिप्रकारिताशालिज्ञानत्वं कारणतावच्छेदकं, घटत्वादिप्रकारकतत्तत्सम्बन्धावच्छिन्नघटत्वाद्याश्रयताशालिमुख्यविशेष्यकप्रत्यक्षत्वच्च कार्यतावच्छेदकं, एकसम्बन्धेन घटत्वादिप्रकारकज्ञाने सम्बन्धान्तरेण घटत्वाद्याश्रयस्य प्रत्यक्षानुदयात् तत्तत्सम्बन्धावचिनेति इति गर्छ ।
Page #274
--------------------------------------------------------------------------
________________
तावचिन्तामगै
समवायसम्बन्धेन घटत्वप्रकारकज्ञानानन्तरं कालिकादिसम्बन्धेन घटत्वप्रकारकनिखिलघटविषयकप्रत्यक्षस्य समवायसम्बन्धेन घटत्वप्रकारेण घटत्ववतः कालादेः प्रत्यक्षस्य च वारणय सम्बन्धातर्भावः। घटत्वादिप्रकारकज्ञानं विनापि द्रव्यत्वादिसामान्यलक्षण्या जायमाने द्रव्यत्वादिप्रकारकघटादिमुख्यविशेष्यकप्रत्यचे व्यभिचारवारगाय कार्यतावच्छेदके घटत्वप्रकारिताकेति । प्रकारित्वञ्चालौकिकं पाय(१) तेन घटत्वप्रकारकज्ञानं विनापि द्रव्यवादिविशिष्टबुड्यात्मक(१) अथ प्रकारतायामलौकिकत्वनिवेशनं व्यर्थं घटत्वाद्याश्रयताशालि
निष्ठमुख्यविशेष्यताया बपि अलौकिकत्वस्याग्रे निवेश नीयतया तादृशविशेष्यतायां घटत्वप्रकारतानिरूपितत्वनिवेशे नैव निरक्तव्यभिचारवारणसम्भवात् तथाहि निशक्तज्ञानस्य सन्निकरघटविशेष्यकघटत्वप्रकारकस्य घटत्वप्रकारतानिरूपिता घटनिचलौकिकमुख्यविशेष्यता या तु अलौकिकविशेष्यता सा न घटत्वप्रकारतानिरूपिता किन्तु द्रव्यत्वप्रकारतानिरूपितेति, घावश्यकच विशेष्यतायां प्रकारतानिरूपितत्वनिवेशनं अन्यथा कालिकसम्बन्धावच्छिन्नघटत्वप्रकारताकसमवायसम्बन्धावच्छिन्नद्रव्यत्वप्रकारताकज्ञानानन्तरं घटांशे लौकिकसन्निकर्षानन्तरच जायमाने व्यत्वप्रकारतानिरूपितघटनिसालौकिकविशेष्यताक-घटत्वनिष्ठलौकिकालौकिकोभयप्रकारतानिरूपितलौकिकविशेष्यताकप्रत्यक्षे व्यभिचारापत्तेः । न च तादृशप्रत्यक्षं नेष्यत रवेति वाच्यं । कार्यकारणभावस्य लाघवसत्त्वे उभयत्रालौकिकत्वनिवेशेन गौरवस्यान्याय्यतया पणापलापस्यान्याय्यत्वात् इति चेत् । न । तत्रापि यथा लौकिकसग्निकर्षमादया सन्निकट. • घटे घटत्वस्य भानं तथा असन्निवरघटेऽपि । न चासन्निकरघटे सबिकाभावात् कथं तस्य भानमिति वाच्यं । असनिवरघटे द्रव्य
Page #275
--------------------------------------------------------------------------
________________
सामान्यवक्षया।
२६३
वसामान्यलक्षणया यथा इयत्वं भासते तथा घटत्वमपि, लौकिकसबिवरघटत्वस्य द्रव्यत्वसामान्यलक्षणासन्निवरघटे भानस्य केनाप्यনিয়াযীলা নঘাঙ্গ ভামিনৰ সমানালিমিনা यावद्रव्यनिष्ठालौकिकविशेष्यता रका, पन्या च घटत्वप्रकारतानिरूपिता घटनिछालौकिकी विशेष्यता, अपरा च घटत्वप्रकारतानिरूपिता सन्निकरघटनिछा लौकिकी विशेष्यता इति भवत्येव घटस्वप्रकारकज्ञानस्य कार्यतावच्छेदकावच्छिन्नं तादृशज्ञानं तस्य घटत्वমানালিকনিষলামনায়ুৱিনিস্তান্ধীজিমুৰিঘুনাखादिति सर्व ससमञ्जसमित्यस्मद्राधरणाः ।
केचित्तु तत्प्रकारतानिरूपितविशेष्यताकत्व-विशेष्यतानिरूपिततत्प्रकारताकत्वयोईयोविनिगमनाविरहेण निवेशे कार्यकारणभावइयापत्तिरिति लाघवेन तत्प्रकारताकत्व-तद्विशेष्यकत्वयोईयोरेकत्र इयमिति रीत्या निवेशे न कार्यकारणभाव हयापत्तिर्न वा निरक्तस्थले फलापलाप इति न व्यभिचारः इति । न च व्यासव्यत्तिकायंतावच्छेदकत्वस्यापसिद्धान्ततया तत्यकारकत्वविशिवतविशेष्यकत्व-तदिश्रेष्यकत्वविशिशतत्प्रकारकत्वयोः परस्परं विनिगमनाभावेन कार्य-कारणभावदयापत्तिर्मवतामपौति वाच्यं । व्यासज्यत्तिकार्यतावच्छेदकत्वमत एव तयायनिर्वचनात् । वस्तुतस्तु उक्तस्थले फलापलापस्थान्याय्यतया विशेष्यतायां तत्प्रकारतानिरूपित्वं निवेश्यं अलौकिकत्वं प्रकारवायां न देयं भट्टाचार्येणापि तथैव लिखितमिति मतव्यं । यदि चालौकिकमुख्यविश्येष्यतायां लौकिकप्रकारतानिरू. पितत्वखोकारे तु प्रकारतायामलौकिकत्वं अवश्यं देयं, अन्यथा घटললিলিহুৱালৰষাৰচ্ছিন্নসন্ধানী সায়माने एकत्र हयमिति रौत्या घटोयमित्याकारकज्ञाने व्यभिचारः। ল আন্ধীজিন্ধবিষ্মঘনা বীজিমানালিমিনীষাই मानाभाव इति वाच्यं । मुख्यविशेष्यतायां पलौकिकत्वनिवेशना
Page #276
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामणौ
घटवनिर्विकल्पकोत्तरं द्रव्यत्वसामान्यलक्षणया जायमाने यावद्घटमुख्यविशेष्यकप्रत्यक्षे लौकिकसत्रिकर्षमादया घटत्वप्रकारके न व्यभिचारः। न च तथापि कालिकादिसम्बन्धेन स्वरूपतो घटलादिप्रकारकबुद्यात्मकगवादिविशेष्यकसमवायसंसर्गकद्रव्यत्वप्रकारकस्मरणोत्तरं द्रव्यत्वसामान्यलक्षणया जायमाने यावद्घटमुख्यविशेष्यकप्रत्यक्षे उपनयमर्यादया समवायसम्बन्धेन स्वरूपतो घटत्वप्रकारके व्यभिचार इति वाच्यं । यथोक्नकार्य-कारणभावस्यैव बाधकवेन तत्र समवायसम्बन्धेन घटत्वस्याप्रकारत्वात्। अत्र घटत्वप्रकारकज्ञानं विनापि जातिवरूपेण गोत्वादिजात्यन्तरप्रकारकज्ञानाचायमाने जातिवरूपेण घटत्वादिनिखिलजातिप्रकारकनिखिलजात्याश्रयप्रत्यक्षे व्यभिचारवारणाय स्वरूपत इति घटत्वादिप्रकारिता विशेषणं, यथोककार्य-कारणभावस्यैव बाधकत्वेन तत्र स्वरूपतो घटत्वादेरप्रकारत्वात्। अत्र घटत्वादिविशेष्यकस्मरणदितो जायमाने विशेष्ये विशेषणमिति रौत्या समवायसम्बन्धेन स्वरूपतो घटत्वादिष्कारक-घटवदिदमित्याघुपनौतभाने व्यभिचारवारणय मुख्यविशेष्यत्वप्रवेशः, उपनौतभाने च
याजौकिकप्रकारतानिरूपितत्वस्यालौकिकविशेष्यतायां मथुरानाथेन खौकृततया तुल्ययुक्त्या लौकिकप्रकारतानिरूपितत्वस्यालौकिक विशेष्यतायां खीकारस्य न्याय्यत्वादित्युच्यते, तदा न कोऽपि दोषः । न च कालिकादिसम्बन्धेन व्यमित्याकारकज्ञानोत्तरं एकत्र इयमिति
रौत्या भायमाने समवायसम्बन्धेन घटत्वप्रकारक-घटोतव्यमित्याकारकज्ञाने व्यभिचार इति वाच्यं । एतादृश कार्यकारणभावबाधक बलादेव तादृश ज्ञानस्यैवासम्भवात् इति निगर्भः ।
Page #277
--------------------------------------------------------------------------
________________
सामान्यनक्षमा।
घटो न मुख्य विशेष्यः वहिरिन्द्रियस्थले उपनौतं विशेषणतयैव भामते, इति नियमात् । मुख्यविशेष्यत्वमप्यलौकिकरूपं ग्राह्यं तेन कालिकादिसम्बन्धेन स्वरूपतो घटत्वम्मरण-लौकिकसन्त्रिकर्षाभ्यां जायमाने लौकिकालौकिकोभयघटत्वप्रकारिताशालिनि अयं घट इति मुख्यविशेष्यकलौकिकप्रत्यक्षे न व्यभिचारः । अथ तथापि कालिकादिसम्बन्धेन स्वरूपतो घटत्वप्रकारक-घटविशेश्यकस्मरणान्जायमाने समवायसम्बन्धेन घटत्वप्रकारक-घटमुख्यविशेष्यकमानसोपनौतभाने व्यभिचारः मानसे उपनौतं विशेषणतयैव भामते इति नियमाभावात्, तत्र कालिकादिसम्बन्धेनैव घटत्वप्रकारकघटप्रत्यक्षं न तु ममवायसम्बन्धेनेत्युक्तावपि घटवदितिघटत्वादिस्मरणोत्तरं जायमाने परम्परासम्बन्धेन घटप्रकारकमानसोपनौतभाने व्यभिचारी दुर्बारः तदनभ्युपगमे तादृशस्मरणोत्तरं निखिलघटाश्रयमाक्षात्कारानुपपत्तेः द्रव्यप्रकारकज्ञानस्याप्रत्यासत्तित्वादिति चेत्। ना लाघवाद्यथोक्तरूपेण सामान्यलक्षणयाः कार्य-कारणभावकल्पने यथोकमानसे घटादिर्न मुख्य विशेष्यः किन्तु चक्रव्यहवत् घटत्वपुटितो भवन्नेव भासते इत्येव कल्यते यथोतकार्य-कारणभावस्येव बाधकत्वात् तत्तदनन्तोपनौतभानान्यत्वप्रवेशे गौरवात् सर्वत्रैव मानमोपनौतभाने च उपनौतमवश्यं मुख्यविशेष्यतया भामत इति नियमे मानाभावात्, असति बाधक एव मानसोपनौतभाने उपनौतस्य प्रकारत्व-मुख्यविशेव्यत्वलक्षणविविधविषयत्वाभ्युपगमात्, एवं खण्डशो दण्ड-पुरुषोभयविषयकसमूहालम्बनस्मरणोत्तरं जायमाने दण्डप्रकारकदण्डाश्रयपुरुषप्रत्यक्षेऽपि पुरुषो न दण्डांशे मुख्यविशेष्यतया भामते अपि तु चक्र
31
Page #278
--------------------------------------------------------------------------
________________
तावचिन्ताममै
यूवत् दण्डपुटितः पुरुषः पुरुषपुटितच दण्डो भासते इति कल्यते। कर तथापि योगजविशिष्टज्ञाने विशेषण ज्ञानस्याहेतृत्वनये मामाबवानं विनापि जायमाने सामान्यप्रकारकमामान्याश्रयमुखविशेष्यकात्यो व्यभिचारः, योगजविशिष्टज्ञानं प्रत्यपि विशेषणज्ञानस्य हेतुलगयेऽपि योगजधर्षण सामान्य तदाश्रयोभयनिर्विकल्पकं जनयित्वा जमिते सामान्यप्रकारक-सामान्याश्रयमुख्यविधेयकप्रत्यक्षे व्यभिचारइति वाचं। योगजधर्मजन्यतावच्छेदकतत्तनात्यवच्छिन्नान्यत्वेन प्रत्याविशेषणात् तादृप्रयोगजधर्मज्ञानेऽपि सामान्याश्रयमुख्य विशेष्यल्या भाने मामाभावाच । अपि तु चक्रव्यूहवत् खप्रकारोभूते सामान्ये प्रकारोभूयैव भामते वाघवात् तथैव कल्पनात्, अत एव काधिकादिसम्बन्धेन खरूपतो घटवादिप्रकारकस्मरणोत्तरं विशेष्ये विशेषामिति रौत्या कालिकादिसम्बन्धेनैव घटवादिप्रकारक घटवदिदमित्युपनौतभानं जायते न तु ममवायसम्बन्धेन घटत्वप्रकारकमित्युलावेव व्यभिचारवारणसम्भवात् किं जात्यादिसामान्यपक्षणायाः कार्यतावच्छेदके स्वरूपतः प्रकारताघटितमुख्यविशेष्यस्वमवेगेन । नच तथाप्यत्र घटत्वमिति समवायसम्बन्धेन घटलविशेष्यकम्मरणोत्तरं जायमाने विशेष्ये विशेषणमिति रौत्या घटत्वप्रकारके घटवदिदमित्याधुपनौतभाने व्यभिचारवारणाय तदवश्यं निवेशनीयमिति वाय। खरूपतो घटवविशिष्टबुद्धिं प्रति स्वरूपतो विशेषणभनघटवविषयकवानस्य हेततया तादृशमरणोत्तरं तादृशोपनौतभानासम्भवात् घटत्वावधटकतयैव स्वरूपतो घटत्वज्ञानाभ्युपगमे(१) (२) घटस्यत्वस्य घटेतराचतित्वविशिष्ठसकन घटवृत्तिवरूपतग घटत्य
Page #279
--------------------------------------------------------------------------
________________
सामान्यलक्षणा।
व्यभिचारस्थापि विरहादित्यमत्पूर्वपक्षोऽपि · निरस्तः घटवदिति स्मरणोत्तरं जायमाने परम्परासम्बन्धेन घटत्वप्रकारकमानसोपनौतभाने यथोकरीत्या योगजधर्मजन्ये घटत्वप्रकारकघटविणेव्यकप्रत्यक्षे च व्यभिचारवारणय तत्प्रवेशस्यावश्यकत्वात् । एतेनाभावत्वाद्यखण्डोपाधिरूपमामान्यलक्षणायाः कार्य-कारणभावो व्याख्यातः, जात्यखण्डोपाध्यतिरिक्रपदार्थज्ञानञ्च प्रत्यासत्तिरेव नेति मामान्यपदार्थनिर्वचन एव प्रतिपादितं । नन्वेवंरूपेण कार्य-कारणभावे जातित्वरूपेणैव जातिव्यक्तिमात्रप्रकारकज्ञानानन्तरं जातित्वावच्छिन्नजातिमत्त्वप्रकारेण निखिलजात्यायप्रत्यक्षं कथं स्थान जात्यन्तराश्रयस्य ज्ञानप्रकारोभूतजातिव्यतरावयवाभावात् वहपतो घटत्वादिप्रकारकत्वस्य कार्य्यतावच्छेदकत्वाचेति चेत् । । जातिवरूपेण जातिप्रकारकलौकिकात्यचदशायामन्तो निर्वितावच्छेदकस्यापि परम्परासम्बन्धेन जातित्वघटकनित्यत्वादिघटकोभूतध्वंसत्वाद्यखण्डोपाधिप्रकारकज्ञानस्थावश्यकतया(१) तत एव मामान्यज्ञानानातित्वावच्छिनजातिमत्त्वरूपेण निखिलजात्याश्रयस्य माक्षात्कारात् जात्याराश्रयस्थापि परम्परासम्बन्धेन तदाश्रयत्वात् ।
वज्ञानस्य इतरत्वप्रतियोग्यंशे खरूपतो घटत्वावगाहित्यनियम
इति भावः । (१) जातित्वस्य नित्यानेकसमवेतवरूपस्य घटकौमूतनित्यत्वस्य प्रागभा
वाप्रतियोगित्वविशिध्वंसाप्रतियोगित्वरूपतया नित्यत्वस्य जातिवघटकत्वं ध्वंसत्वस्य नित्यत्वघटकत्वञ्चेति भावः ।
Page #280
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामो
पत्र जातित्वरूपेण यत्किक्षिजातिमाचप्रकारकशाब्द-सत्यादिधीस्तत्रापि मध्ये परम्परासम्बन्धेन ध्वंसत्वादिप्रकारकमानसोपनौतभानामारमेव, जातिमतः सर्वस्य प्रत्यक्षाभ्युपगमात् क्षणविलम्बे क्षतिविरहात् । न च परम्परासम्बन्धेन ध्वंसत्वप्रकारकज्ञानस्यैव तत्र प्रत्यासत्तित्वे ध्वंस इत्यादिरेव तत्फलं स्यात् (१) न तु जातिमदिति मामा न्यप्रकारकज्ञानस्य मुख्य विशेष्ये सामान्यप्रकारकज्ञानजनकत्वनियमादिति वाय। विशेषणज्ञानार्थं जातित्वसामान्यलक्षणया मध्ये सकलजातिमुख्थविशेष्यकज्ञानस्यावश्यकत्वात् ज्ञानलक्षणयैव जातिमदिति फलस्थापि सम्भवात् विविधविषयत्वस्येष्टत्वात्, एवं तद्व्यक्तित्वरूपेण घटत्वादिप्रकारकज्ञानानन्तरं जायमाने तब्यक्तित्वरूपेण घटत्वादिप्रकारक-तदाश्रयप्रत्यक्षेऽपि परम्परासम्बन्धेन तत्तव्यक्तित्वप्रकारकज्ञानमेव प्रत्यामन्तिरतोऽपि घटत्वादिसामान्यलक्षणायाः कार्यदिशि तदसंग्रहोऽपि न दोषायेति भट्टाचार्यानुयायिनः ।
सम्प्रदायविदस्त स्वरूपतोघटत्वादिप्रकारकनिखिलघटत्वाद्याअयप्रत्यक्ष प्रति घटत्वादिसामान्यलक्षणया यथोक्तरूपेणैव कार्यकारणभावः जातिवादिरूपेण घटत्वादिप्रकारकनिखिलघटलाअयप्रत्यचं प्रति तु जातित्वरूपेण यत्किञ्चिजातिप्रकारकज्ञानमेव हेतुः किं परम्परासम्बन्धेन जातिवादिघटकध्वंसत्वादिप्रकारकशानकल्पनया फलीभूतसाक्षात्कारस्य विविधविषयत्वकल्पनया वा। ज्ञानखक्षणायाः कारणतावच्छेदकन्तु सामान्यतः संसर्गावच्छिन्नघटत्वादिविषयताशालिज्ञानत्वं घटवादिप्रकारकज्ञानादिव घटवादि(१) ध्वंसत्ववदित्यादिरेव तत्र भानं स्यादिति घ०।
Page #281
--------------------------------------------------------------------------
________________
सामान्यलक्षणा।
२६६
विशेष्यकज्ञानादपि घटत्वादिप्रकारकोपनौतभानोदयात् विनध्यदवस्थलौकिकसत्रिकर्षजन्यघटत्वादिनिर्विकल्पकानन्तरमपि घटत्वादिप्रकारकप्रत्यक्षापत्तिवारणाय संसर्गावच्छिन्नेति विषयताविशेषणं ।
केचित्त(९) ज्ञानलक्षणयाः सप्रकारकघटत्वादिजानत्वं कारणतावच्छेदकं । न चैवं विनश्यदवस्थलौकिकमन्निकर्षजन्यद्रव्यत्वादिविशिष्टबुद्ध्यात्मक-घट-घटत्वादिनिर्विकल्पादपि घटत्वादिप्रत्यचापत्तिरिति वाच्यं। इष्टत्वात् सवांशे निर्विकल्पकस्य प्रत्यामत्तित्वानभ्युपगमादित्याहुः । तदसत्(९) तथा मति मी निर्जिकल्पकादपि दृष्टापत्तेः सुकरतया सप्रकारत्वोपादानस्थापि कारणतावछेदके व्यर्थत्वापत्तेः मविशेष्यकत्वसांसर्गिकविषयतामालित्वमादाय विनिगमनाविरहेण कार्य-कारणभावत्रयापत्तेश्च । ज्ञानलक्षणयाः कार्यतावच्छेदकञ्च घटत्वादिप्रकारकप्रत्यक्षत्वं, घटत्वादिज्ञानं विनापि जायमाने प्रमेयत्वादिसामान्यलक्षणजन्यघटत्वादिमुख्यविगेथ्यकप्रत्यक्षे व्यभिचारवारणय विषयित्वमपहाय प्रकारिताप्रवेशः, कारिता अलौकिको ग्राह्या तेन निर्विकल्पकजन्यप्राथमिकतद्विशिलौकिकप्रत्यक्षे न व्यभिचारः । न चैवं यत्र ज्ञानलक्षणसन्निकर्षी लौकिकसत्रिकर्षश्च इयमेव वर्त्तते तत्र कौदृक्ज्ञानं स्थादिति वाच्य। त्रि लौकिकालौकिकोभयप्रकारिताकस्यैकस्यैव प्रत्यक्षस्यैवोत्पत्तेः विषयेतायाः सामर्य्यस्यादोषत्वात्(२)। न च तत्प्रकारकज्ञानं विनापि (९) उच्छ सलास्विति घ० (२) तत्तुच्छमिति घ। (३) लौकिकालौकिकविषयत्वयोमिथः सामानाधिकरण्यस्यादोषत्वादि
वर्थः।
Page #282
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्वचिन्तामणौ
जायमाने योगजधर्मजन्यतत्प्रकारकप्रत्यक्षे व्यभिचार इति वाच्यं । योगजधर्मजन्यतावच्छेदकतत्तनात्यवच्छिन्नान्यत्वेन प्रत्यक्षादिविशेषणत्। न चैवं तत्प्रकारकप्रत्यक्ष एव तज्ज्ञानस्य हेतुतया इदं रजतमिति शक्तिमुख्यविशेष्यकमानमभ्रमे शक्तिज्ञानस्याहेततया शक्तिज्ञानं विनापि तादृशभ्रमापत्तिरिति वाच्यं। इदं रजतमिति शक्किमुख्यविशेष्यकमानमभ्रमस्यापि शुनिज्ञानात्मककिविशिष्टधौकारणमत्वेन यत्र कुत्रचित् धर्मिणि शक्तिप्रकारकत्लनियमात् शुकिज्ञानविरहस्थले शक्तिप्रकारकज्ञानमामान्यकारणविरहादेव तदभावात् विशेषसामग्रीसहिताया एव सामान्यसामय्याः फलोपधापकत्वात्। न चेदं रजतमिति एनिमुख्यविशेष्यकमानसन्धमस्य न शुक्रिप्रकारकत्वनियमः शक्तिप्रकारकज्ञानप्रतिबन्धकदोषसत्त्वे तत्र तस्थाप्रकारत्वादिति वाच्यं। शनिमुख्य विशेष्यकतादृशमानसभ्रमस्थले तादृशदोषे मानाभावात् लाघवात् यथोक्तरूपेण ज्ञानलक्षणायाः कार्य-कारणभावकल्पने फलबलेन तथैव कल्पनात् । न चैवं मानसोपनौतभाने उपनौतस्य मुख्य विशेष्यतया भाने मानाभावः मुख्यविशेष्यत्वस्य कार्य्यतानवच्छेदकतया सामय्यास्तबानियमकत्वात्तादृशमानसत्वासम्भवादिति वाच्यं। मुख्यविधेयकत्वस्य इतरकारणनियम्यतया बाधकासत्त्व एव मुख्यविशेष्यतथा भानावश्यकलात् । न चैवं मानसोपनौतवद्दहिरिन्द्रियजोपनौतभानेऽप्युपनौतस्य प्रकारब-मुख्यविशेष्यत्वलक्षणदिविधविषयतापत्तिरिति वाच्यं । मामान्यलक्षणा-लौकिकमधिकर्षजन्यातिरिक्तस्य बहिरिन्द्रियजतत्तमुख्यविशेष्यकप्रत्यक्षस्यानुभवासिद्धत्वेनालौकतया यावद्विशेषसामग्री
Page #283
--------------------------------------------------------------------------
________________
सामान्य रक्षणा।
तादा संयोगादेरभावादिति वदन्ति, तदपरेन मन्यन्ते, तथाहि धूमत्वावच्छिन्ना व्याप्तिः सन्निकृष्टधमविषये धमत्वेन प्रत्यक्षेण ज्ञायते ततः स्मृता सा तृतीयलिङ्गपरामर्श पक्षनिष्ठधूमत्तितया ज्ञायते तताऽनुमितिः तदनभ्युपगमेऽपि सन्निकृष्टधूमविषये धूमत्वेन धूमा
बाधादेव तद्दाधात्, मानसस्य तु तदतिरिक्तस्यापि इदं रजतमित्याथुपनौतविशेष्यकश्चमस्य उपनौतक्त्यादिमुख्यविशेष्यत्वमनुभवसिद्धमतो नालोकत्वं। न च तथापि घट-घटत्वनिर्विकल्पकोत्तरं जाय. मानेऽयं घट इत्यादिविशिष्टप्रत्यक्षे घटवादेर्मुख्यविशेष्यत्वापत्तिः लौकिकसन्त्रिकर्षरूपविशेषसामग्रीसत्त्वादिति वाच्यं । तत्राप्यमति बाधके घटाद्यंशे घटत्वादेः प्रकारत्ववन्मुख्य विशेष्यत्वस्यापौष्टत्वात् इति।
केचित्तु संसर्गावच्छिन-तद्विषयतामालिज्ञानत्वेन कारणता योगजधर्माजन्यसामान्यप्रत्यासत्यजन्यतविषयकप्रत्यक्षत्वेन कार्यता, तद्विषयिता चालौकिकी ग्राह्या, तेन तलौकिकप्रत्यक्षे न व्यभिचारः, एवञ्च(१) तद्विषयकप्रत्यक्षत्वमात्रस्य कार्य्यतावच्छेदकतया इदं रजतमिति शुक्रिविशेष्यकमानसचमोऽपि न शुक्रिज्ञानं विना(२) इत्याहुरिति संक्षेपः। विस्तरस्त अस्मत्कृतमिद्धान्तरहस्येऽनुसन्धयः ।
(१) तथाचेति ग, घ०। (२) चत्र “वहिरिन्द्रयजोपनीतभाने उपनौतस्य मुख्यविशेष्यत्वनिरासश्च
उक्लकमेण" इत्यधिकः पाठः चिह्नितपुस्तके वर्तते ।
Page #284
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७२
तत्त्वचिन्तामणी
मनु महाममादौ वहि-धूमव्याप्तिप्रत्यक्षदशायां महानमोयधूमादिनिष्ठलौकिकसत्रिकर्षादेव पर्वतीयधूमांगेऽपि लौकिकसाक्षाकारात्मकोव्याप्तियहः स्थात् किं मामान्यलक्षणयाः प्रत्यासत्तित्वेन इत्यत श्राह, 'तविशेषकप्रत्यक्ष इति तलौकिकप्रत्यक्ष इत्यर्थः, 'तदिन्द्रियमत्रिकर्षस्येति तनिष्ठलौकिकसन्त्रिकर्षस्येत्यर्थः, 'अनागतादाविति अनागतादिरूपे पर्वतीयधम इत्यर्थः, 'आदिपदात् व्यवहितातौतपरिग्रहः, 'संयोगादेः' महानसौयधूमादिनिष्ठचचुःसंयोगादेः, 'त्रादिपदात् संयुक्तसमवायादेः परिग्रहः, 'प्रभावात्' लौकिकप्रत्यक्षजनकत्वासम्भवात्, तथाच लौकिकसन्निकर्षस्य विषयघटितमामानाधिकरण्यप्रत्यासत्त्या हेततया) अन्यनिष्ठलौकिकसत्रिकर्षतो न पर्वतीयधूमलौकिकप्रत्यक्षसम्भव इति भावः। 'इति वदन्ति' इति नैयायिका वदन्तीत्यर्थः । 'तत्' नैयायिकवचनं, "अपरे' मौमांसकाः, 'न मन्यन्ते' न प्रमाणत्वेन मन्यन्ते, 'तथाहौति तन्मते होत्यर्थः, 'धमत्वावच्छिन्ना' सामानाधिकर'यसम्बन्धन धूमत्वविशिष्टा धूमनिष्ठेति यावत्, 'व्याप्तिः' वहिव्याप्तिः, रूपादिनिष्ठवहिव्याप्तेः सनिष्टधूमे प्रत्यचाभ्युपगमेऽन्यथाख्यात्यापत्तिरतस्तावच्छेदाय धूमविष्ठेत्युक्तं, 'मविष्टधूमविषय इति सत्रिलष्टधूमरूप एव विशेथे इत्यर्थः, 'धमत्वेन' धमत्वप्रकारेण, 'ततः' तदनन्तरं, 'स्मता मेति धूमत्वरूपेण सत्रिकष्टधूम एव स्मता मेत्यर्थः,
(१) 'विषयघटितसामानाधिकरण्यप्रत्यासत्या' विषयान्तर्भावेण सामा• नाधिकरण्यप्रत्यासत्येत्यर्थः तथाच विषयतासंसर्गेण लौकिकप्रत्यक्ष प्रति यथायथं समवायादिसंसर्गेण सन्निकर्षस्य हेतुत्वमिति भावः ।
Page #285
--------------------------------------------------------------------------
________________
सामान्यलक्षणा।
वहिव्याप्य इत्यनुभवस्तथैव व्याप्तिस्मरणं ततधूमवानयमिति व्याप्तिस्मृतिप्रकारेण धूमत्वेन पक्षतिधूमजामादनुमितिः व्यायनुभव-तत्स्मरण-पक्षधर्मताशा
'हतोयलिङ्गपरामर्थ इति पक्षविशेष्यकव्याप्तिविशिष्टवैशिष्यावगाडि प्रत्यक्ष इत्यर्थः, तस्य सन्निष्टधूमविशेष्यकव्याप्तिप्रत्यक्षापेक्षया हतीयत्वात्, ‘पक्षनिष्ठधूमवृत्तितया ज्ञायत इति लौकिकमत्रिकमर्यादया पक्षविशेषणत्वेन भासमानस्य पक्षनिष्ठधूमस्य विशेषणतया भासत इत्यर्थः, विशेषणतावच्छेदकांशे सधर्मितावच्छेदककविशिष्टवैभियबोधं प्रति तद्धर्मितावच्छेदकप्रकारेण यत्किञ्चिद्धर्मिणि विशेषणतावच्छेदकप्रकारकनिश्चय एव हेतुर्न तु तद्धर्मितावच्छेदकप्रकारेण विशेषणीभूतव्यक्ती विशेषणतावच्छेदकप्रकारकनिश्चय एवं सर्वच हेतुर्गौरवादिति भावः। यद्यप्येवमपि व्याप्तेः मामानाधिकरस्थरूपतया तस्य च प्रतिव्यक्तिभिन्नतया सबिष्टधूमे साक्षात्कृतव्याप्तेः कथं पक्षवृत्तिधूमे भानं तस्यास्तत्र बाधितत्वात् अन्यथाख्यातिप्रमनाच । तथापि व्याप्तेः सामानाधिकरण्यरूपत्वेऽपि सिद्धान्तलशणोक्तयुक्त्या व्याप्यतावच्छेदकीभूतधमत्वादिसम्बन्धेनैव हेतौ तपकारकं ज्ञानमनुमितिहेतुर्न तु साक्षात्सम्बन्धेन, तथाच महानमौयधूमवृत्तिमामानाधिकरण्यस्यापि धूमत्वसम्बन्धेन पक्षनिष्ठधूमे सत्त्वात् न बाध इत्यभिप्रायः, लाघवात् साध्यवदन्याक्तित्वमेव थाप्तिः मा च पर्वतीयधमसाधारण एकैवेत्यभिप्रायो वा। मनु
35
Page #286
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्वचिन्तामणे
मानामेकप्रकारकत्वेनानुमितिहेतुत्वात्। गवादिपदे. षपि शक्त्यनुभव-तत्स्मरण-वाक्यार्थानुभवानामेकप्रकारकत्वेन हेतु-हेतुमद्भाव इत्यपूर्वे वक्ष्यते, तच योग्य
मौमांसकरपनौतभानानभ्युपगमादुकरूपेण तवये प्रत्यक्षतो विभिष्टपरामर्शासम्भव इत्यत आह, “तदनभ्युपगमेऽपौति उकरूपेण प्रत्यक्षतो विभिष्टपरामर्शानभ्युपगमेऽपौत्यर्थः, 'तथैव' धूमवरूपेण भविष्टधूम एव, पक्षवृत्तिधूमज्ञानात् पक्षविशेष्यकधूमज्ञानात् । मनु व्याप्तिविभिष्टवैभिष्यावगाहिज्ञानस्यैवानुमितिहेतुत्वात् कथं नादृशज्ञानदयादनुमितिरित्यत आह, 'व्याप्यनुभव-तत्स्मरणेति स्मरणनुभवसाधारणब्याप्तिज्ञानसामान्येत्यर्थः, यथाश्रुते स्मृतिजनकौमतव्याप्यनुभवस्य पृथगततया पृथक् तदुत्कीर्तनानौचित्यादिति ध्येयं। 'एकप्रकारकत्वेनेति यद्धविछिन्नविशेष्यताकध्याप्तिज्ञानं तद्धर्मप्रकारेण हेतोः पक्षधर्मताज्ञानस्यैवानुमिति हेतुत्वादित्यर्थः, न तु नियमतो व्याप्तिविशिष्टवैशिष्यावगाहिज्ञानमेव कारणमिति भावः । ननु सामान्यलक्षणायाः प्रत्यासत्तित्वानभ्युपगमे गोवरूपेण भविष्टगोव्यक्ति परथित्वा व्यवहारविषयत्वेन हेतना शक्तिसम्बन्धेन गोपदवतामाधने व्यत्यन्तरेषु मत्रिकर्षाभावेन परामर्थाभावादनुमित्यनुत्पादाङ्गोपदश्रवणानन्तरं व्यत्यन्त रावययोधी नयात् तत्र शक्तिसम्बन्धेन गोपदवत्ताज्ञानाभावात्। न च परामानुमित्योः समानप्रकारकत्वेनैव कार्य-कारणभावात् गोवरूपेण
Page #287
--------------------------------------------------------------------------
________________
सामान्यनदया।
२५
तादिबलादपूर्वव्यक्तिलाभोऽनुमाने तु पक्षधर्माताबलात्) धूमावहिव्याप्य इत्यनुभवो न तु सर्बोधूमो- . वहिव्याप्य इति येन सर्वभानार्थ तस्वीकारः।
मविकष्टगोव्यक्तिविशेष्यकपरामर्शादेव व्यत्यन्तरेवपि अनुमितिरिति वार्थ । तथा मति द्रव्यत्वरूपेण पर्वते वहिव्याप्यवत्ताज्ञानात् जलेऽपि वयनुमित्यापत्त्यान्यथाख्यात्यापत्तेः । किच सामान्यलक्षणायाः प्रत्यासत्तित्वानन्धुपगमे यस्य पुरुषस्थानुमानादिना गोवादिमा मकलगवाननुभवः तत्पुरुषस्य गोपदश्रवणानन्तरं दौपानारोयगवादेरम्वयबोधो न स्यात् तद्गोचरसंस्काराभावेन गोपदात् तस्य स्मरणसम्भवात्, मामान्यलक्षणाभ्युपगमे तु मनिष्टगोव्यक्तिषु द्वितीयादिविशिष्टप्रत्यक्षदशायामेव गोत्वसामान्यलक्षणप्रत्यासत्त्या सकलगवानुभवेन सकलगोगोचरसंस्कारसम्भव इत्यत आह; गवादिपदेवपीति गवादिपदोच्चारणेबपौत्यर्थः, जायमानानामिति भेषः, 'प्रत्यनुभवेति शक्तिशानेत्यर्थः, 'तत्स्मरणेति तस्मात् स्मरणमिति व्युत्पत्या तब्जन्यपदार्थस्मरणेत्यर्थः, यथाश्रुते प्रत्यनुभव-भक्तिमारभयोः पृथगहेतुतया पृथक् तदुत्कीर्तनस्यामङ्गतत्वापत्तेः स्मरणानुभवयोरपि समानप्रकारकत्वेनैव हेतु-हेतुमदावे स्मृतेरग्टहौतयाहित्वेन प्रामाण्यापत्तेच। 'एकप्रकारकत्वेनेति गवादिपदस्य जातावेव शकतया गोपदविशेष्यकशक्तिसंसर्गक-गोत्वप्रकारकज्ञानं गोलप्रकारक-गोविशेष्यकसमवायसंसर्गकम्मरणे हेतुः समवायसंसर्गक(१) पक्षधर्मातावशादिति ख.।
Page #288
--------------------------------------------------------------------------
________________
वावचिन्ताम
अब पहिमानयमित्यनुमितिर्षिशेषणज्ञानसाध्या विशिष्टज्ञानत्वादिति पर्वतीयवह्निभानार्थ तस्कल्पने धूमेऽपि तथा कचिडूमस्यापि व्यापकत्वादिति चेत् ।
गोत्वप्रकारकम्मरणं समवायसंसर्गक-गोवप्रकारकगोशाब्दबोधे हेतुरिति क्रमेण हेतु-हेतुमद्रावो न तु गोत्वप्रकारक-तड्यक्तिविशेष्यकमोपदमिज्ञानं गोलप्रकारक-तड्यक्तिविशेष्यकस्मरणे हेतुः गोत्वप्रकारक-तह्यक्तिविशेष्यकस्मरणं गोवप्रकारक-तड्यक्तिविशेष्यकमाब्दबोधे हेतुरिति ममानविशेष्यकत्व-समानप्रकारकत्वोभयान्तर्भावेण कार्य-कारणभाव इत्यर्थः, तथाच व्यक्त्यन्तरे गोपदशक्त्यनुमित्यभावेऽपि गोपदविशेष्यकगोत्वशक्रिज्ञानादेव मनिकृष्टव्यकिवयत्यनारस्थापि शाब्दबोधः, एवं द्वौपान्तरोयगवादेः संस्काराभावेन स्मरणासम्भवेऽपि गोत्वप्रकारेण मनिष्टगोव्यकौनां स्मरणदेव
रौपान्तरौयगवादौनामपि शाब्दबोधः इति भावः । 'इत्यपूर्व वक्ष्यत इति इत्यत्र विनिगमकमपूर्ववादे वक्ष्यत इत्यर्थः । लाघवात् समानप्रकारकत्वस्यावश्यकत्वाचेति भावः। रदमुपलक्षणं मवादिपदस्य गोबादिजातादेव शकतया व्यको प्रतिविरहेण प्रतिज्ञानस्य समानविशेष्यकत्वेन हेतुत्वासम्भवाच ।
केचित्तु 'एकप्रकारकत्वेन हेत-हेतमद्भाव इत्यस्य गोत्वावविश्वविशेश्यकालिज्ञानं गोत्वप्रकारक-गोविशेष्यक-समवायसंसर्गकमारणे हेतुः समवायसंमर्गक-गोत्वप्रकारकस्मरणं समवायसंसर्गकगोवप्रकारकगोशाब्दबोधे हेतुरिति क्रमेण हेतु-हेतमहावो न तु
Page #289
--------------------------------------------------------------------------
________________
सामान्यजनबा।
न। विशिष्टवैशिघ्यज्ञाने विशेषणतावच्छेदकप्रकारकज्ञानस्यावश्यकत्वेन हेतुत्वात, सत वृत्तमेव न तु विशेपणज्ञानमपि तथा गौरवात्। गौरयमिति विशिष्ट
यथोतक्रमेण समानविशेष्यकत्वस्याप्यन्तर्भाव इत्याहुः। तदमत् । परनये व्यको प्रत्यभ्युपगमे जातिभक्तिवादविरोध: तदनभ्युपगमे चान्यथाख्यात्यापत्त्या गोत्वावच्छिन्नविशेष्यकशकिज्ञानस्यैवासम्भवात् कथं तादृशमनिज्ञानस्य हेतुत्वाभ्युपगम इत्युभयथैवामङ्गतलापत्तेः । न च परनयेऽपि जातौ व्यक्तौ च भक्तिः परन्तु गोवजातिप्रकारेण यत्किञ्चिङ्गोव्यक्तिनिष्ठशक्रिज्ञानादेव व्यक्त्यन्तरस्थापि स्मरणमनुभवशेत्येव जातिशक्तिवादार्थ इति वाच्यं। लाघवात् • गवादिपदस्य गोत्वादिजातादेव निरवच्छिनशक्तिः शक्तिशब्देन खरूपतो गोवादिजातिप्रकारक-गोपदादिविशेष्यकज्ञानमेव गोवादिजातिप्रकारकव्यक्तिस्मरणे तादृशव्यक्त्यनुभवे च हेतुरित्यस्यैव जातिमक्तिवादार्थत्वेन शब्दपरिच्छेदेऽभिधानादिति ।
ननु पदानुपस्थितस्य अर्थस्य न भाब्दबोधविषयवमिति नियमादस्मतव्यतः कथं शाब्दबोधे भानमित्यत आह, 'तति गवादिपदजन्यशाब्दबोधरत्यर्थः, 'योग्यतादिवशादिति') 'श्रादिपदान तात्पर्य्यपरियहः, 'अपूर्वव्यकौति पदात् पूर्वानुपखि
(१) योग्यतादिवशादित्वपि कस्यचि मूलपुलकस्य पाठः ।
Page #290
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्वचिन्तामगै
जाने युगपदविशेष्ये विशेषणे सन्निकर्ष एव कारणं न तु निर्विकल्पक मानाभावात्। विशिष्टज्ञानत्वमेव मानमिति चेत्। न। दृष्टान्ताभावात् दण्डौ पुरुष इत्यच
ताया अपि व्यक्त नमित्यर्थः । 'अनुमाने विति, 'तः' इवार्थे, यथा व्यापकतावच्छेदकत्वेनाग्टहौतस्य धर्मस्य नानुमितिविधेयतावच्छेदकत्वमिति नियमं परिभूय बाधसहकारात्() व्यापकतावच्छेदकत्वेनाग्टहीतस्यानुमितौ विधेयतावच्छेदकत्वं तथेहापि यथोकनियमं परिभय पदानुपस्थितस्यापि भाब्दबोधविषयत्वमित्ययः । ननु महानमादौ वहि-धूमव्याप्तिप्रत्यक्षदशायां साधूमो वहिव्याप्य ईत्यनुभवो जायतेऽतः सर्वधूमभानार्थमवश्यं धूमवसामान्यलक्षणायाः प्रत्यापत्तित्वं खौकरौयमित्यत बाह, धूम इति, 'सर्वभानार्थ' सर्वधूमभानार्थं, 'तत्वीकारः' धूमत्वसामान्यलक्षणायाः प्रत्याभत्तित्वखोकारः।
धमत्वसामान्यलक्षणयाः प्रत्यासत्तित्वे मानमाशङ्कते, 'वहिमानयमितीति, 'विशेषणज्ञानसाध्या' पळतौयवक्रिज्ञानसाध्या, यथाश्रुते पक्षतावच्छेदक-माध्यतावच्छेदकज्ञानजन्यतया सिद्धमाधनापत्तेः, मध्यत्वच्च अव्यवहितोत्तरवर्तित्वं तेन ज्ञानत्वादिना कार्यवावच्छिवं प्रति खरूपयोग्यत्वमादाय नार्थान्तरं, पर्वतीयवझिज्ञानत्वावछिन
(२) इतरवाधसहकारादिति ।।
Page #291
--------------------------------------------------------------------------
________________
सामान्यलक्षाया।
२०८
विशेषणधौजन्यत्वानभ्युपगमात् विशिष्टवैशिष्ट्यज्ञानत्वात्। अपि च प्रमेयत्वेन व्याप्तिं परिच्छिन्दन सर्वशः स्यात, तथाच परकीयज्ञानविषये घटत्वं न वेति
कारणकत्वस्य माध्यत्वेऽप्रसिद्यापत्तेः, पर्वतीयवहिलिङ्गकानुमिति प्रत्यपि पर्वतीयवझिविषयकव्याप्तिज्ञानत्वेन ज्ञानवेनैव वा हेतुत्वादिति ध्येयं। 'विशिष्टज्ञानत्वात्' पर्वतीयवहिविशिष्टज्ञानत्वात्, पर्वतीयवहिमान् इत्यनुमितिर्दृष्टान्तः, 'तत्कल्पन इति वशित्वज्ञानस्य सामान्यतः मामान्यलक्षणात्वेन प्रत्यासत्तित्वकल्पने इत्यर्थः, 'तथा' धमत्वज्ञानस्य प्रत्यासत्तित्वं बोध्यं, सामान्यतः सामान्यप्रकारकज्ञानत्वेन कारणत्वं सामान्याश्रयमुख्यविशेष्यकप्रत्यचत्वावच्छिन्नं प्रति, तथाच धूमत्वादिप्रकारकज्ञानस्यापि प्रत्यासत्तित्वमायातमिति भावः। ननु तथापि सामान्यलक्षणत्वं न प्रत्यासत्तित्वावच्छेदकं सामान्याश्रयत्वस्य केवलान्वयितया एकस्य मामान्यस्य ज्ञाने जगत एव प्रत्यक्षापत्तेः अतो विशिष्यैव मा वाच्या तथाच वहिवसामान्यलक्षणयाः प्रत्यासत्तित्वसिद्धवावपि धमत्वसामान्यलक्षणायाः प्रत्यासत्तिले मानाभावः इत्यरुचेराह, 'कचिदिति, 'व्यापकत्वात्’ माध्यत्वात्, तथाच पर्वतो धूमवानित्यमनिष्टधूममाध्यकानुमितेर्विशेषणज्ञानजन्यत्वानुरोधेन धूमत्वसामान्यलक्षणयाः प्रत्यासत्तित्वमावश्यकमिति भावः। ननूकानुमाने नियमग्राहकानुकूलतर्कस्तावद्विशिष्टवैशियज्ञान प्रति विशेषणतावच्छेदकप्रकारकविशेषणज्ञानत्वेन हेतुताग्रह एव
Page #292
--------------------------------------------------------------------------
________________
तापचितामयी
संशयान स्थान प्रमेयत्वेन तदन्यतरनिश्चयात् । प्रमेयस्वेन घटं आनात्येव घटत्वं तस्य नानाति इति चेत म। तत् किं घटत्वं न प्रमेयं येन तन्त्र जानीयात् सकलघटत्तिधर्मस्य प्रमेयत्वेन तदज्ञानासम्भवात् ।
वाचः स एव नास्तोत्याइ, 'विभिष्टवैभिव्येति वक्रित्व-धूमत्वविभिष्टवैशिष्यज्ञाने वहिल-धूमलप्रकारकज्ञानस्यैवेत्यर्थः, विशेषणज्ञानमपि' पर्वतीयवनि-पर्वतीयधूमज्ञानमपि, 'तथा' पर्वतीयवक्रि-पवतीयधूमविशिष्टबुद्धौ हेतुः, 'गौरवादिति, तथाचोकानुमानमप्रयोजकमिति भावः। ननु गौरवात् पर्वतो वझिमान् इत्याधनुमितेः पर्वतीयाकिज्ञानजन्यवान युपगमे गौरयमिति विशिप्रयोऽपि गोलज्ञानस्याहेतुत्वापत्तिस्तथाच नायातं निर्विकल्पकेन तचेष्टापत्तिमान, 'गौरयमितौति, 'मानाभावात्' मध्ये निर्विकल्पके मानाभावात्, क्षणविलम्बस्य शपथनिर्णेयत्वादिप्ति भावः। पूर्वोक्तगौरवमश्रुत्वैव तटस्थः शकते, 'विभिष्टज्ञानत्वमेवेति मोत्वविभिष्टज्ञानत्वमेवेत्यर्थः, 'मान' निर्विकल्पके मान, गौरयमिति प्राथमिकविशिष्टधीः गोलज्ञानत्वावच्छिनकारणताप्रतियोगिनी गोवविशिष्टज्ञानलादित्यनुमानात् प्राथमिकविशिष्टज्ञानात् पूर्व गोत्वज्ञानं मिर्ल्ड पक्षधर्मताबलात् निर्विकल्पकरूपमेव सियति तत्पूर्वमपि विशेषणशानाभावेन विशिष्टबुझात्मकस्य तस्यासम्भवादिति भावः । 'दृष्टान्ताभावादिति, द्वितीयविशिष्टज्ञानेऽपि.
Page #293
--------------------------------------------------------------------------
________________
सामान्यजनबा।
उमज्ञानस्य हेतुत्वासिद्धेः गोवलिङ्गक-गोत्वसाध्यकानुमितावपि गोलविषयकव्याप्तिज्ञानत्वेन ज्ञानत्वेनैव वा कारणतया("उभयथापि(२) गोवज्ञानत्वेन हेतुखामिद्धेच, तशाच माध्याप्रसिद्धिरिति भावः । ननु यत् यदिपिष्टमानं तत् तज्ज्ञानत्वावच्छिन्नकारणताप्रतियोगौति मामान्यतो दण्डौ पुरुष इति ज्ञानं दृष्टान्तः स्थादित्यत बाह, 'दण्डौ पुरुष इति, 'विशेषणधौति दण्ड-दण्डत्वादिजामत्वेन कारणतानभ्युपगमादित्यर्थः, 'विशिष्टवैशिष्येति दण्डत्वविशिष्टवैशियज्ञामत्वादित्यर्थः(१) । न च गोत्वज्ञानाव्यवहितोत्तरवर्तित्वमेव माध्यं तथाच गोत्व . मायकानुमितिरेव दृष्टान्त इति वाच्यं । तथाप्यप्रयोजकत्वात् गोवविशिष्टबुद्धौ गोत्वज्ञानत्वेन हेतुत्वस्य गौरवेण मामाभावेन चामिद्धत्वादिति भावः । सामान्यलक्षणायाः प्रत्यामत्तित्वे माधकाभावमुक्का बाधकमण्याह, अपिचेति, प्रमेयत्वेनेति संयोगादिसम्बन्धेन प्रमेयहेतुके पर्वतः कपिसंयोगाभाववान् प्रमेयादित्यादौ महानसादिषु मनिष्टप्रमेये प्रमेयत्वरूपेण व्याप्तिप्रत्यक्षदशायां प्रमेयत्वसामान्य लक्षणप्रत्यामत्त्या पक्षवृत्तिप्रमेयेऽपि व्याप्तिं ग्टकन् पुरुष इत्यर्थः, 'सर्वज्ञः स्थादिति
' (१) परामर्शस्य कारणतयैव व्याप्तिज्ञानासत्त्वे अनुमित्यापत्तिवारण.. सम्भवे परामर्शस्य व्यापारतारक्षार्थं व्याप्तिज्ञानम्य ज्ञानत्वेनैव कार• त्वं न तु तत्र व्याप्तिविषयकावं कारणतावच्छेदकमिति भावः। (२) तत्रापोति ख, ग । (२) तथाच विशिशुवैशियबुद्धौ विशेषणतावच्छेदकप्रकारकज्ञानमेव ___ हेतुरित्वभिप्रायः । . 36
Page #294
--------------------------------------------------------------------------
________________
নন্দিনী
इति श्रीमहाधोपाध्यायविरचिते तत्वचिन्तामणौ अनुमानास्थहितीयखण्डे सामान्यलक्षणापूर्वपक्षः ।
खसत्तिसकलधर्मप्रकारेण सर्वेषां पदार्थानां ज्ञानवान् स्थादित्यर्थः, प्रमेयत्वसामान्यलक्षणप्रत्यासत्या पक्षवृत्तिप्रमेये व्याप्तिप्रत्यक्षदशायां तथा प्रत्यासत्या प्रमेयमात्रस्यैव ज्ञानात्तदनन्तरं प्रमेयं प्रमेयवदित्याकारकसकलपदार्थविशेष्यक-स्वस्ववृत्तिमकलधर्मप्रकारकोपनौतभाने बाधकाभावादिति भावः। नन्वस्तु सर्वज्ञत्वं किं मश्छिन्नमित्यत पाह, 'तथाचेति, परकीयज्ञानविषये विशिष्य स्वज्ञानाविषये, स्वस्थ खरूपतो घटत्वप्रकारकेदश्वधर्मितावच्छेदकज्ञानाविषय रति यावत्, 'तस्य' पुरुषस्या), 'तदन्यतरेति घटत्व-तदभावयोरन्यतरनिश्चयादित्यर्थः, एतच्च समानविषयकनिर्णयमात्रस्यैव विरोधित्वमित्यभिमानेन । गारते, ‘प्रमेयत्वेनेति, 'तदज्ञानेति घटत्याज्ञानेत्यर्थः ।
इति श्रीमथुरानाथ-तर्कवागौशविरचिते तत्त्वचिन्तामणिरहस्ये अनुमानास्यद्वितीयखण्डरहस्ये मामान्यलक्षणापूर्वपक्षरहस्यं ।
(e) "तथाच परकीयज्ञानविषये घटत्वं वर्तते न वेति तस्य संगायो न स्यात्" इति कस्यचिन्मूलपुस्तकस्य पाठमनुस्मृत्य 'तस्येति मूलपाठो तो व्याख्यातच रहस्य कृतेति ।
Page #295
--------------------------------------------------------------------------
________________
अथ सामान्यलक्षणासिद्धान्तः ।
उच्यते यदि सामान्यलक्षणा नास्ति तदानुकलतर्कादिकं विना धूमादौ व्यभिचारसंशयो न स्यात्
अथ सामान्यलक्षणासिद्धान्तरहस्यं । 'यदौति, 'मामान्यलक्षण नास्तौति सामान्यलक्षणयाः प्रत्यामत्तिता नास्तीत्यर्थः, 'अनुकूलतर्कादिकं विनेति व्यभिचारज्ञानप्रतिबन्धकनर्काधभावदशायामित्यर्थः, 'यभिचारमंशयः' धूमो वहिव्यभिचारी न वेत्यादिव्यभिचारसंशयः, 'प्रसिद्धधूमे' मकललौकिकसनिकृष्टधूमे, वजिसम्बन्धज्ञानात्' (१)वहिव्याप्यत्वनिश्चयात्, ‘मानाभावेन' मन्त्रिकर्षाभावेन, 'प्रज्ञानादिति संशये विशेष्यतया भानासम्भवादित्यर्थः, परनये नव्यनैयायिकनये च धर्मिज्ञानस्य संशयाहेतुत्वेऽपि संशयस्य धम्यंगे प्रत्यक्षरूपतया धर्मोन्द्रियमन्त्रिकर्षस्थावश्यं देतत्वादिति भावः । 'मामान्येन त' धूमत्वमामान्यलक्षणमन्निकर्षण तु, 'सकलधूमोपस्थितौ' सकलधूमप्रत्यक्षस्वीकारे, 'धूमान्तरे' कालान्तरीय-देशानरीय
(९) 'वह्निसम्बन्धज्ञानात्' इति टीकाकारस्य पाठधारणेन कस्यचिन्मूल
पुस्तकस्य 'वह्निसम्बन्धास्थामात्' इत्यत्र 'वह्निसम्बन्ध ज्ञानादिति पाठोऽनुमौयते ।
Page #296
--------------------------------------------------------------------------
________________
सत्यचिन्तामो
प्रसिबधूमे वहिसम्बन्धावगमात् कालान्तरीय-देशान्तरीयधूमस्य मानाभावेनाज्ञानात् सामान्येन तु सकलधूमोपस्थितौ धूमान्तरे विशेषादर्शनेन संशयो युज्यते।
धूमे, 'विशेषादर्शनेन' व्याप्यत्वानिश्चयेन। एतचापाततः प्रमिधूमे धूमत्वेन व्याप्तिनिश्चयः तमत्वेन वा प्राध मामान्यलक्षणखीकारेऽपि मंशयोऽसिद्ध एव समानधर्मितावच्छेदककभित्रधर्मिकनिश्चयस्यापि प्रतिबन्धकत्वात् । द्वितीये धमत्वप्रकारेण तचैव संशयः स्थात् ममानप्रकारकनिश्चयस्यैव विरोधात्(१)। न च मास्तु संशयान्यथानुपपत्या मामान्यलक्षणायाः प्रत्यामन्तित्वस्वीकारः तथापि यत्किञ्चिद्धमादौ धूमत्वादिप्रकारकज्ञानानन्तरं धूमत्वप्रकारेण मकअधूमविषयकप्रत्यक्षमनुभवमिद्धमिति तदनुरोधादवण्यं सामान्यलक्षणा खोकरणैयेति वाच्यं । तादृशानुभवस्यैवासिद्धेः तादृशानुभवस्य प्रामाणिकत्वे विवादस्यैवापर्याप्नेः(९) इति संक्षेपः । विस्तरस्तु प्रस्मकतसिद्धान्तर हस्ये नुसन्धयः ।
लौखावतौकारमतमाशङ्कते, 'यत्त्विति, सामान्यलक्षणया: प्रत्यामत्तित्वानभ्युपगम इति शेषः, 'पाकादौ चिकौर्षति पाकादिविशेष्यकवर्तमानखकतिमाध्यत्वप्रकारकेच्छेत्यर्थः, 'सुखादाविछेति सुखादिविशेष्यक-सुखत्वादिप्रकारकेच्छेत्यर्थः, 'रशविर
(१) विरोधित्वादिति ख० । संशयविरोधित्वादिति ग• । (२) विवादस्यैवाप्रसक्तरित्वः, बाचित्तथैव पाठः ।
Page #297
--------------------------------------------------------------------------
________________
सामान्यपक्षणा।
यत्त पाकादौ चिकीर्षा सुखादौ इच्छा न स्यात् सिडे इच्छशविरहात् असिस्याज्ञानात् तस्मात् सुखत्वादिना
हात्' (छोत्पादासम्भवात्, ‘प्रसिद्धस्थाज्ञानादिति, तविषयकछायां तविषयकज्ञानस्य हेतुतया ज्ञानं विना इच्छाया असम्भवादिति भावः। 'सुखवादिना' सुखवादिज्ञानस्वरूपमामान्यलक्षणप्रत्यासत्या। 'इच्छा-प्रवृत्तिस्वाभाव्यादिति इच्छात्व-प्रवृत्तित्वावच्छिवं प्रति सामान्यतोज्ञानत्वेनैव कारणवादित्यर्थः । 'अतिप्रसङ्ग इति घटत्वप्रकारकघटज्ञानात् पटत्वप्रकारकपटेच्छा-प्रवृत्तिप्रसङ्ग इत्यर्थः, 'समानप्रकारकत्वेन' समानप्रकारकत्वसम्बन्धेन । ननु ममानप्रकारकत्वं सम्बन्धः समानविशेष्यकत्वं वा इत्यत्र विनिगमकाभावेन द्वयोरेवसम्बन्धत्वादमियाज्ञाने कथममिद्धे इच्छेत्यत आह, न तु ममानविषयत्वेनापीति न तु ममानविशेष्यकत्वसम्बन्धेनापौत्यर्थः। नवन्यत्राकल्पनेऽपि सुखत्वादिप्रकारकसुखादिज्ञानात् सुखत्वादिप्रकारक-मुखादौछोत्पत्तिस्थल एव विनिगमकाभावात्तस्य सम्बस्वत्वं कल्पनीयं इत्यत आह, 'ममानविषयत्वे मत्यपौति, 'इच्छाछत्योरभावादिति गुणत्वादिप्रकारक-मुखादिज्ञानात् सुखत्यादिप्रकारकसुखादिगोचरेछा-कृत्योरभावादित्यर्थः । न च घटत्वप्रकारक-यत्किचिटज्ञानाहटत्वप्रकारेण घटान्तरे इच्छोत्पादवारणय समानविषयकत्वमप्यावश्यकमिति वाच्यं। प्रकृतवत्तस्यापौष्टत्वात्। न च तथापि पाकत्वप्रकारक-सिद्धपाकज्ञानात् कथमसिद्धे पाके चिकौर्षा वर्तमानखातिमाध्यत्वस्य सिद्धपाके बाधितत्वेनान्यथा
Page #298
--------------------------------------------------------------------------
________________
२९६
तत्वचिन्तामो
जातेषु सर्वेषु सिहं विहायासिझे इच्छा भवतीत्यभ्युपेयं। तन्न। असिहस्याज्ञानेऽपि सिहगोचरचानादेव इच्छाप्रवृत्तिस्वाभाव्यादसिद्धे तयोरुत्पत्तेः । न चातिप्रसङ्गः,
ख्यात्यापत्त्या तत्र तत्प्रकारकज्ञानासम्भवादसिद्धपाके च सन्त्रिकर्षाभावेन तत्प्रकारकज्ञानासम्भवादिति वाच्या पाकादौ वर्तमानखकतिमाध्यताप्रकारकज्ञानं हि नेन्द्रियेण तस्यातौन्द्रियत्वात् किन्तु अनुमानेन, तथाच पाकत्वप्रकारक-सिद्धपाकज्ञानादेव पाकत्वप्रकारेणसिद्धपाके यथाकथञ्चित्प्रसिद्धस्य वर्तमानवकृतिसाध्यत्वस्थानुमानं पक्षधर्मताजानानुमित्योरपि ममानप्रकारकत्वेनैव कार्यकारणभावात्। न च वर्तमानस्वकृतिव्यतिरेकप्रयुक्रव्यतिरेकप्रतियोगित्वादिरूपस्य वर्त्तमानवकृतिमाध्यत्वानुमापकलिङ्गस्य सिद्धपाके बाधादसिद्धपाके च विना सामान्यलक्षणां ज्ञातमशक्यत्वात् परामर्शासम्भवेन कथमनुमितिरपौति वाच्यं । स्वाश्रयवृत्तिपाकत्ववत्तात्मकपरम्परामम्बन्धेन पाकत्वप्रकारेण सिद्धपाक एव तादृशलिङ्गवत्तापरामर्शसम्भवात् परामर्शानुमित्योरपि ममानविशेष्यतावच्छेदकत्वेनैव कार्य-कारणभावात्, येन सम्बन्धेन व्याप्यताग्रहः तेनैव सम्बन्धेन हेतमत्ताज्ञानमनुमितिहेतुरिति नियमच परेषामसिद्धः किन्तु येन सम्बन्धेन व्याप्यताग्रहस्तेन सम्बन्धन हेतमत्ताज्ञानमिव येन सम्बन्धेन व्याप्यतायहस्तेन सम्बन्धेन यत्खाधिकरणं तदृतिपक्षतावच्छेदकवत्त्वसम्बन्धेन
(१) सबोरपपत्तेरिति ख., ग०।
Page #299
--------------------------------------------------------------------------
________________
सामान्धवक्षना।
२०
समानप्रकारकत्वेन ज्ञानेच्छा-कृतीनां कार्य-कारणभावात् न तु समानविषयत्वेनापि कचिदप्यकल्पनात्
हेतमत्ताज्ञानमपि अनुमितिहेतुः स्वपदं हेतुपरं। न चैवं संयोगादिसम्बन्धेन वयादिव्याप्यतया सहीतस्य धूमादेः स्वाश्रयवृत्तिद्रव्यत्वसम्बन्धेन द्रव्यत्वरूपेण दादौ परामर्थात् तादृशधूमादेः संयोगसम्बन्धेन द्रव्यत्वरूपेण पर्वते परामर्याच द्रव्यत्वरूपेण दादौ वयाधनुमित्यापत्त्यान्यथाख्यात्यापत्तिः परामर्शानुमित्योः समानविशेष्यतावच्छेदकत्वेनैव कार्य-कारणभावादिति वाच्यं । न्यायनये प्रमासामान्य प्रति जनकस्य विषयाबाधस्य परनये खाघवादिशिष्टबुद्धिसामान्यं प्रत्येव जनकतया हृदादौ वयाद्यनुमित्यनुत्पादात्। अतएव परनये साध्यतावछेदकरूपेण यत्किञ्चित्माध्यव्याप्तिज्ञानादेव माध्यतावच्छेदकरूपेणाप्रमिद्धमाध्यस्यापि भानाभ्युपगमेऽपि वहिव्यायधूमवान् पर्वत इति परामर्शान वहिवरूपेण पर्वते महानसौयवयादेर्भानं, कार्य-कारणभावस्तु मतदय एव ज्ञानत्वेन तबाधाभावत्वेन, न्यायनये यत्र तइनिष्ठविशेष्यतासम्बन्धेन ज्ञानोत्पत्तिस्तत्र विशेषणताविशेषसम्बन्धन तबाधाभाव इति विशेष्यघटितसामानाधिकरण्यं प्रत्यासत्तिः, परनये च यत्र तनिष्ठप्रकारतानिरूपितविशेष्यतासम्बन्धेन ज्ञानोत्पत्तिस्तत्र विशेषणताविशेषसम्बन्धेन तबाधाभाव इति विशेष्याघटितसामानाधिकरणमेव प्रत्यासत्तिाघवात् धमानुपगमेन व्यभिचारविरहात्, नातो विषयाबाधस्य परनयेऽपि गुणत्वं तदनिष्ठविशेष्यतासम्बद्भावधिअकार्यतानिरूपितकारणताश्रयत्वस्यैव गुणवरूपत्वात्। न च न्याय
Page #300
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामणै
समानविषयकवे सत्यपि समानप्रकारकज्ञानाभावेनेछा-कृत्योरभावात् तस्यावश्यकत्वेन गौरवाचेति पर
नये परनये वा कथं विषयबाधाभावस्य विषयरूपस्य निरुतविशेव्यवघटितसामानाधिकरण्यप्रत्यासत्या जमकत्वं पाकरमघटादौ ग्यामादिप्रमायामुपनौतभानानुमित्यादिरूपायां व्यभिचारादिति वाच्यं । विषयबाधस्य हि निरवच्छिन्नाधारतासम्बन्धनाभाव:(१) न विषयरूपः किन्वतिरिक्त: विषयस्थातीतत्वादिदशायामपि विषयवति तत्मत्त्वात् । न च तथापि केवलान्वयिधर्मप्रमायां विषयबाधस्थाप्रसिद्भुतया तदभावस्य जनकत्वासम्भव इति वाच्यं । तत्र तस्याजनकत्वेऽपि चतिविरहात् तदभाववतोऽप्रसिद्धत्वेनापत्तिविरहात् । अस्तु वा विषयाबाधस्य विषयबाधाभावत्वेन न जनकत्वमपि तु मामान्यतोऽभावत्वेन, यत्र तहबिष्ठविशेष्यतासम्बन्धेन तविष्ठप्रकारतानिरूपितविशेष्यतासम्बन्धेन वा ज्ञानोत्पत्तिः तत्र तहविष्ठविशे. धणतासम्बन्धेनाभाव इति सामानाधिकरण्यं प्रत्यासत्तिः। न च भावत्वमादाय विनिगमनाविरहः, भावत्वस्याभावभिन्नखादिरूपतया गुरुत्वात्। न च संयोग-समवायादिसम्बन्धेन घटादिप्रमायां द्रव्यवगुणत्वादिमादाय विनिगमनाविरह इति वाचं। अतीतानागताधिकरणेषु संयोगादिसम्बन्धेन घटादिप्रमाां व्यभिचारात अतीतवादिदशायर्या अतीताधिकरणे द्रव्यादिमत्त्वविरहात् अभाववत्वस्य
(१) निरवचिनविशेषणतासम्बन्धेनाभाव इति ।
Page #301
--------------------------------------------------------------------------
________________
सामान्यलक्षणा।
२८९
तु तदानीमपि तत्र सत्त्वात् । श्रतएव न्यायनये भ्रमं प्रत्यपि विषयबाधस्य न विषयबाधत्वेन जनकत्वं अतीताद्यधिकरणे घटाभावादिभ्रमे व्यभिचारात् किन्वभावत्वेन, यत्र विशेष्यतासम्बन्धेन तमस्तत्र तबदवृत्तिविशेषणतासम्बन्धेनाभाव इति सामानाधिकरणं प्रत्यासत्तिः। न च तथाप्यधिकरणतात्व-प्रतियोगितात्वादेरखण्डातिरिक्रपदार्थवनये तमादाय विनिगमनाविरह इति वाच्यं । तस्याखण्डातिरिकपदार्थत्वनये तेनापि रूपेण कारणत्वस्येष्ठत्वात् धर्मत्रय-चतुष्टयानामेव तादृशानां सम्भवेनानन्तकार्य-कारणभावाभावात् । वस्तुतस्तु न्यायनये प्रमामामान्यं प्रति ज्ञानसामान्यमेव गुण: तदनिष्ठविषयतासम्बन्धेन मामानाधिकरण्यं प्रत्यासत्तिः, वस्तुपदादिजन्यवस्तुमात्रविषयकशाब्दबोध-वस्तुत्वादिप्रकारकवस्तुमात्रविषयकानुमिति-वस्तुत्वादिप्रकारकवस्तुमात्रविषयकस्मरणदिरूपस्य यत्किञ्चिज्ज्ञानस्यानन्तसंमारेऽवश्यं कस्यचित् पुरुषस्य सर्वत्र सर्वदा विषयतासम्बन्धेन मत्त्वेन अन्ततो भगवजज्ञानस्यैव तेन सम्बन्धेन सर्वच सर्बदा सत्त्वेन च व्यभिचाराभावात् तदेव च लाघवात्, परनयेऽपि तया प्रत्यासत्त्या विशिष्टबुद्धिसामान्य प्रति हेतुः यत्र तनिष्ठप्रकारतानिरूपितविशेष्यतासम्बन्धेन ज्ञानोत्पत्तिः तत्र तदनिष्ठविशेष्यतासम्बन्धेन ज्ञानमिति सामानाधिकरण्यं प्रत्यासत्तिः भ्रमानभ्युपगमेन तत्र व्यभिचारविरहात्। भगवदनभ्युपगमेऽपि संसारस्थानादितया सर्वदेव सर्वत्र विशेष्यतासम्बन्धेनावश्यं कस्यचित् पुरुषस्य वस्तुपदादिजन्यवस्तुत्वादिप्रकारकवस्तुमात्रविषयकशाब्दबोधादिसत्त्वेनाद्यप्रमायामपि व्यभिचारविरहाच । 'ननु तथापि परनये समामप्रकारकत्वेन
37
Page #302
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६०
तत्त्वचिन्तामो
सिद्धान्तात्। न च सर्वज्ञत्वे संशया न स्यादिति दोषः, घटः स इति घटत्वप्रकारकं हि ज्ञानं संशयविरोधि
ज्ञानेछयोः कार्य-कारणभावे सुखत्वादिप्रकारक-सिद्धसुखादिजानादमुपस्थितासिद्धसुखादाविवानुपस्थिते पदार्थान्तरेऽपि सुखत्वादिप्रकारकेच्छापत्तिः। न च पदार्थान्तरे सुखत्वाद्यसंसर्गाग्रहासत्त्वाब तच्छेति वाच्यं। अनुपस्थितेऽसंसर्गाग्रहस्य सुतरां मत्त्वात्। न च तत्प्रकारकज्ञानत्वेन तत्प्रकारकतदाश्रयविषयकेच्छात्वेन कार्य-कारएभावो न तु ममानप्रकारकत्वं प्रत्यासत्तिरिति वाच्यं। रजतत्वादिप्रकारकज्ञानाचमस्थले इत्यादौ रजतत्वादिप्रकारकेच्छानुपपत्तेः । न च परस्य तच्छानुपपत्तिः, एनौ रजतार्थिप्रवृत्त्यनुरोधेन तेनापि तदङ्गौकारात् तस्मादनुपस्थिते उपस्थितेष्टभेदाग्रहादिच्छति परेणाभ्युपेयं । अतएव इदक्वादिना उपस्थिते शत्यादौ रजतत्वेनेच्छा तथाच भाविनि विषये ज्ञात एवेच्छेति तदर्थमवश्यं सामान्यलक्षणा खोकरणेयेति चेत्। न। समानप्रकारकत्वात्यासत्त्या ज्ञानत्वेनेच्छात्वेन समवायघटितमामानाधिकरण्यप्रत्यासत्त्या तत्प्रकारकज्ञानत्वेन तत्प्रकारकेच्छात्वेनैव सामान्यकार्य-कारणभावः, विशेषतस्तु रजते रजतत्वप्रकारकेच्छायां दोषाभावः, अरजते रजतत्वप्रकारकेच्छायाञ्च रजतेन सममग्टहीतभेदस्यारजतस्य ज्ञान हेतुरिति(१) परसिद्धान्तात् । न च तथापि परसिद्धान्तो यथा
(१) रजतेन समं भेदायह एव हेतुरितीति घ० ।
Page #303
--------------------------------------------------------------------------
________________
सामान्यलक्षमा।
तवन हनं स्वसामग्रीविरहात, अतो. घटत्वादिसकलविशेषज्ञानेऽपि स घटो न वेति संशय इति ।
तथास्तु खमते भेदाग्रहमपेक्ष्य लाघवात्तद्विशेष्यक-तत्प्रकारकज्ञानस्य तद्विशेष्यक-तत्प्रकारकेच्छां प्रति हेतुतया सुखत्वादिरूपेणामिद्धसुखादाविच्छानुरोधेन सामान्यलक्षणावश्यकौति वाच्यं । खमतेऽपि सुखत्वादिरूपेण सिद्धसुखादावेवेच्छोत्पद्यते अमिद्धसुखे इच्छानुत्पादेऽपि क्षतिविरहात् । एवं चिकौर्षापि पाकवादिरूपेण वर्तमानखकृतिमाध्यत्वभ्रमात् सिद्धपाकादावोत्पद्यते नासिद्धपाके चिकोर्षाया अयथार्थत्वेऽपि(१) चतिविरहात् तत्तत्याकवरूपेणैव विशेषदर्शनसत्त्वेन भ्रमोत्पत्तावपि बाधकाभावाच्चेत्यस्य सुवचत्वात् । न च तत्र सिद्धत्वज्ञानं विरोधौति वाच्यं। तदवच्छेदेनाभिद्धत्वज्ञानस्यैव नत्प्रकारकेच्छां प्रति विरोधित्वात् । न च सुखत्वाद्यवच्छेदेनं सिद्धत्वज्ञानं, प्रकृते तत्मत्त्वे इच्छोत्पत्तेः केनाप्यनङ्गौकारात्। वस्तुतस्तु मामान्यलक्षणां विनापि अयं कालः सुखोत्पादकालौनध्वंसप्रतियोगी अयं कालः पाकोत्पादकालौनध्वंसप्रतियोगी सृष्टिकालवादित्याद्यनुमानात् पक्षधर्मताबलेनामिद्धसुखादेरसिद्धपाकादेव ज्ञानसम्भवः सामान्यलक्षणानभ्युपगमे विशिष्टबुद्धिसामान्यं प्रति विशेषणज्ञानस्थापि हेतुत्वानभ्युपगमेन पक्षधर्मताबललभ्यामिद्धसुखादेर्ज्ञानविरहेऽपि चतिविरहात् ज्ञाते च सिद्धपाके ज्ञानलक्षणाप्रत्यासत्त्यैव तत्र स्वमते
(१) अनुत्पादेऽयोति क•।
Page #304
--------------------------------------------------------------------------
________________
२९२
तत्वचिन्तामो
मनमा वर्तमानखक्चतिमाध्यत्वज्ञानसम्भवेन चिकीर्षासम्भवात् मामान्यलक्षणयाः प्रत्यामत्तित्वानभ्युपगमेऽपि चामलक्षणायाः खमते प्रत्यासत्तित्वावश्यकत्वादित्यास्तां विस्तरः। 'न चेति, सामान्यलक्षणायाः प्रत्यामत्तिलखौकार रति शेषः, 'संभयविरोधीति घटो न वेति मंशयविरोधीत्यर्थः, समानाकारो हि नित्यः संशयविरोधी अत एव जातिमानित्यादिनिययेऽपि घटो न वेति मंशयः, प्रकृते तु घटो न वेति संशयः कोटितावच्छेदकघटत्वांशे निष्पकारकः, प्रमेयवन्तरति सामान्यलक्षणजन्यप्रत्ययस्तु न तथेति भावः । 'स्वसामग्रोविरहादिति, घटत्वांगे, निथ्यकारका) घटवविशिष्टज्ञानं प्रति घटलांचे निष्यकारक) ज्ञानमेव हेतुः अन्यथा जातिवादिरूपेण घटत्वप्रकारकघटज्ञानेऽपि भूतलं घटवदिति घटलांचे अन्याप्रकारकघटत्वप्रकारकम्बटवविभिष्टबुड्यापत्तेः जातिवरूपेण घटत्वज्ञानेऽप्ययं घट इति विशिष्टबुझ्यापत्तेश्च तादृशविलक्षणविषयताया भूतलं घटाभाववदिति बाधनिश्चयाभावस्यायं न घट इति भेदग्रहाभावस्थ च कार्यतावच्छेदकत्वेन सामान्यसामग्रीमर्यादयैव तदवच्छिन्नापादनसम्भवात् । न च तदानौं घटत्वांगे जातित्वप्रकारकज्ञानस्थापि सामग्रीमत्त्वान्न घट इति घटत्वां निष्पकारक) ज्ञानमिति वाच। जातिवादिप्रकारकज्ञानसामग्र्यास्तादृशविलक्षणविषयतामालिज्ञानं प्रत्यप्रतिबन्धकत्वेन तदुत्पत्तावपि बाधकाभावात्, अन्यथा
(१) निर्विकम्त्यकात्मक० इति ग• घ• । (२) निर्विकल्पकात्मकमिति ग००। (३) निर्विकल्पकमिति घ० ।
Page #305
--------------------------------------------------------------------------
________________
सामान्यलक्षणा।
इति श्रीमहङ्गेशपाध्यायविरचिते तत्त्वचिन्तामणौ अनुमानाख्यद्वितीयखण्डे सामान्यलक्षणासिद्धान्तः ।
जातिमान् घट इति द्विविधविषयताशालिज्ञानानुपपत्तेः तदानौं जातित्वप्रकारेण ज्ञानसामय्या आवश्यकत्वात्, एवञ्च प्रकृते प्रमेयत्वसामान्यलक्षणाजन्यघटत्वज्ञानस्य घटत्वांशे प्रमेयत्वप्रकारकत्वनियमात्र ततो घटः स इति धौसम्भव इति दिक्() ।
इति श्रीमथुरानाथतर्कवागौश-विरचिते तत्त्वचिन्तामणिरहस्ये अनुमानाख्यद्वितीयखण्डरहस्य(२) सामान्यलक्षणरहस्यं ।
(१) इति भावः इति दिगिति ग०, घ० | (२) महामहोपाध्यायश्रीलश्रीमथुरानाथतर्कवागीशभट्टाचार्यविरचित
ममुमागरहस्ये सामान्यलक्षणारहस्यं सम्पूर्णमिति क. । सामान्यपक्षणारहस्यं इति ग०। इति महामहोपाध्यायश्रीमथुरानाथतर्कवागौशभट्टाचार्यविरचितानुमानान्तर्गतसामान्यलक्षणाटिष्यनी समाप्तति घ.।
Page #306
--------------------------------------------------------------------------
________________
अथोपाधिवादः।
उपाधिज्ञानायभिचारचाने सति न व्याप्तिनिश्चयइत्युपाधिर्निरूप्यते। तमोपाधिः साध्यत्वाभिमतव्यापकत्वे सति साध
अथोपाधिवादरहस्यं । प्रसङ्गमगत्या उपाधि निरूपयितुं निरूपणप्रयोजनं दर्शयन् मिथावधानाय प्रतिजानौते (१) 'उपाधौति, तथाच परस्थापनाया(र) ध्याप्तिनिषयप्रतिबन्धाय उपाधिरडायः स्वस्थापनायां व्याप्तिनिषयाय उपाधिर्निरस्यः स च उपाधिज्ञानं विना न सम्भवतीति तविरूपणमिति भाषः।
पिढचरणस्तु व्याप्तिग्रहोपायनिरूपणनन्तरं उपाधि निरूपयितुं व्याप्तिग्रहोपायेन सहेककार्यानुकूलत्वसङ्गतिं दर्शयन् भिय्यावधानाय प्रतिजानौते 'उपाधिज्ञानादिति परप्रयुक्तहेतावुपायुद्धावने उपाधि
(१) पत्र प्रतिज्ञा अथवहितोत्तरकालकर्तव्यत्वप्रकारकबोधानुकूलो व्या
पारः, स च 'उपाधियानादित्वादिः 'निरूप्यते' इत्यन्तो मूलग्रन्थः, . नियव इवत्र वर्तमानसामीप्यार्थकलट्प्रत्ययेन निरूपणस्य वर्त
. मानकालाव्यवहितोत्तरकालीनत्वेन प्रतीयमानत्वादिति भावः । (२) परकीयहेताविति ग.।
Page #307
--------------------------------------------------------------------------
________________
उपाधिवादः।
२९५
नत्वाभिमताव्यापकः, अनौपाधिकत्वज्ञानच नव्याप्तिजाने हेतुरतो व्यापकत्वादिजाने नान्योन्याश्रयः।
ज्ञानादित्यर्थः, तथाच यथा खौयहेतौ व्याप्तिग्रहोपायसत्त्वे व्याप्तिनिश्चयादिजयः, तथा परप्रयुकहेतावुपाध्यद्भावनेऽपि उपाधिज्ञानाविजय इति विजयलक्षणेककार्यानुकूलत्वमेव मङ्गतिरिति भावइति प्राडः। ___ मिश्रास्तु व्याप्तियहोपायोपपादकत्वलक्षणोपोहात एव व्याप्तिग्रहोपायनिरूपणानन्तरं उपाधिनिरूपणे मङ्गतिः, उपाधे ने तदभावज्ञानं तदभावज्ञाने च तव्याप्यस्य व्यभिचारस्थाभावज्ञानं तज्ज्ञाने च प्रतिबन्धकसत्त्वान व्यभिचारज्ञानमिति क्रमेणोपाधेाप्तिग्रहोपायव्यभिचारज्ञानविरहं प्रत्युपपादकत्वात्, तथाच मूले उपाधिज्ञानात्र व्यभिचारज्ञाने व्याप्तिनिश्चय इति योजमा, 'न व्यभिचारज्ञान इत्यस्य व्यभिचारज्ञानाभावे सतीत्यर्थः । न च नार्थ अभावे प्रतियोगितया प्रथमेतरविभक्त्यन्तार्थस्य नान्चय इति शुत्पत्त्या सप्तम्यन्तार्थस्य व्यभिचारज्ञानस्य कथं नार्थईन्वय इति वाच्यं । तादृशव्युत्पत्तौ मानाभावात्, “तेषां मोहः पापीयानामूढस्येतरोत्पत्तेरिति न्यायसूत्रे पञ्चम्यन्तार्थस्याप्युत्पादस्य नर्थऽन्वयदर्शनात्, 'तेषां' राग-द्वेष-मोहानां चयाणं मध्ये, 'मोहः पापौयान्' मोहः श्रेष्ठतमोदोषः, 'अमूढस्य' मोहरहितस्य पुरुषस्य, 'इतरयोः रागद्वेषयोरुत्पत्तेरभावादिति तदर्थादिति प्राङः ।
'तच' करणैये निरूपणे, विषयत्वं सप्तम्यर्थः, तथाच निरूपण
Page #308
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६६
तत्त्वचिन्तामो
यहा व्यापकत्वं तदविष्ठात्यन्ताभावाप्रतियोगित्वं, तत्प्रतियोगित्वञ्चाव्यापकत्वं, प्रतियोगित्वञ्च तदधिकर
विषयौभूत उपाधिरोदृशो धर्म इत्यन्वयः। 'माध्यत्वाभिमतेति अत्र मत्यन्तदलानुपादाने वहिमान् धूमादित्यादौ पर्वतत्वादावतिव्याप्तिरिति तदुपादानं, तन्मात्रीपादाने च द्रव्यत्वादावतिप्रसङ्ग इति विशेष्यदलं, माध्यत्व-साधनवे व्यापकत्व-व्याप्यत्वे सोपाधौ वस्तुतो न स्त इत्युभयत्राभिमतपदं। ननु माध्यव्यापकत्वं माध्यनिष्ठव्याप्तिनिरूपकत्वं तच्च माध्ये उपाधिव्याप्तौ ग्टहौतायामेव ग्राह्यं मा चानौपाधिकत्वज्ञानादेव ग्राह्या अनौपाधिकत्वञ्च प्रवते माध्यस्य यावदुपाधिव्यापकव्यापकत्वं उपाधियापकेषु यावत्सु साध्यनिष्ठव्याप्तिनिरूपकत्वं पर्यावसितं तथाच माध्ये उपाधिव्याप्तौ ग्रहौतायामेव उपाधौ मायनिष्ठव्याप्तिनिरूपकत्वज्ञानं उपाधिव्यापकयावदन्तर्गते उपाधौ माध्यनिष्ठव्याप्तिनिरूपकत्वज्ञाने च माथे उपाधिव्याप्तिज्ञानं तस्यानोपाधिकत्वघटकलादित्यन्योन्याश्रयः । न च माध्योपाध्योरन्योन्याभावाद्येकतरगर्भव्याप्तिज्ञान प्रति अत्यन्ताभावाधेकतरगर्भव्याप्तिघटितानौपाधिकत्वज्ञानं कारणमतो मान्योन्याश्रय इति वाच्यं । तथासत्यनवस्थापत्त्या तथा वकुमशक्यत्वादित्यतपाह, 'अनौपाधिकवेति, ‘यापकत्वादौत्यादिपदेन माधननिष्ठव्याप्तिनिरूपकत्वाभावरूपसाधनाव्यापकत्वपरिग्रहः ।
व्याप्तिनिरूपकलापेच्या साधवादाइ, “यवेति, तथाच माध्यवनिष्ठात्यन्ताभावाप्रतियोगित्वे मति माधनवनिष्ठात्यन्ताभावप्रति
Page #309
--------------------------------------------------------------------------
________________
उपाधिवादः।
२६७
योगित्वमुपाधित्वमिति फलितं) । नववं धूमवान् वक्रेरित्यादावाईन्धनादावव्याप्तिः तादृशाप्रतियोगित्वस्यैवामिद्धेः । न च तादृशप्रतियोगितानवच्छेदकधर्मवत्त्वे मतौति मत्यन्तार्थ इति वाच्यं । वहिमान् धूमादित्यादौ वहिसामग्रौन्धनादौ तादृशप्रमेथस्वादिमत्त्वेन महानसत्वादौ चातिव्याप्तेरिति चेत् । न । माध्यवरिष्ठाभावप्रतियोगितानवच्छेदकः सम् यः माधनवनिष्ठात्यन्ाभावप्रतियोगितावच्छेदको धर्मस्तद्वत्त्वं तेन रूपेण उपाधित्वमित्युकत्वात् । एवं प्रतियोगितयोः उपाधितावच्छेदकसम्बन्धावच्छिन्नत्वमपि बोध्यं तेन धूमवान् वहेरित्यादावाईन्धनवादेः समवायादिना धूमवनिष्ठाभावप्रतियोगितावच्छेदकत्वेऽपि न क्षतिः न वा वहिमान् धूमादित्यादौ साध्यव्यापकतावच्छेदकस्य वशित्व-वझिसामग्रौलादेः समवायादिना साधनवनिष्ठाभावप्रतियोगितावच्छेदकत्वेऽपतिव्याप्तिः । नन्वेवं द्रव्यं मत्त्वादित्यादावव्याप्यवृत्तिसंयोगाद्युपाधावव्याप्तिः तस्य यथोक्तसाध्यव्यापकत्वविरहात्, एवं गुणः सत्त्वादित्यादौ संयोगाभावादावतिव्याप्तिस्तस्यापि यथोक्रसाधनाव्यापकत्वात् इत्यत आह, 'प्रतियोगित्वञ्चेति प्रतियोगित्वञ्च प्रतियोगिनोः निष्ठताप्रतियोगिनोः माध्यवत्-साधनवतोर्धर्मश्च माध्यवत्-माधनवतोर्विशेषणञ्चेति यावत्, 'तदधिकरणेति, 'तदधिकरणं प्रतियोगितावच्छेदकस्याधिकरणं प्रतियोगितावच्छेदकावच्छिवमिति यावत्, तदनधिकरणत्वमित्यर्थः, पूर्वमप्रसिद्यादिवारणय प्रतियोगित्वपदस्य प्रतियोगितावच्छेदकपरत्वावश्यकतया तच्छब्देन तस्यैव परामर्शात् । प्रतियोगितावच्छेद(१) नियूमिति ग।
38
Page #310
--------------------------------------------------------------------------
________________
२९.
तत्त्वचिन्तामगै
कावच्छिन्नेत्युपादनात. द्रव्यं सत्त्वादित्यादौ विशिष्टमत्त्वे नायाप्तिः नवा सत्तावान् जातेरित्यादौ विभिष्टसत्त्वे अतिव्याप्तिरिति भावः । वस्तुतस्तु ननु वस्तुमावस्यैव वैशिय-व्यासन्यवृत्तिधर्मवच्छिन्नाभावस्य माध्यवति सत्त्वेन तदनिष्ठात्यन्ताभावाप्रतियोगित्वस्थाप्रसिद्धत्वात् कथं तस्य माध्यव्यापकत्वरूपत्वमिति यथाश्रुतखक्षणोपरि प्रदायामाइ, 'प्रतियोगित्वञ्चेति तदनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वञ्चेत्यर्थः, 'तदधिकरणानधिकरणत्वं तदधिकरणनधिकरणकत्वं खानधिकरणतदधिकरणकत्वमिति थावत्, 'तत्पदं माध्यपरं, तथाच खानधिकरणसाध्याधिकरणकं पद्यत्तदन्यत्वं साध्यव्यापकत्वमिति फलितं, एवं माधनवषिष्ठाभावप्रतियोगित्वमपि खानधिकरणमाधनाधिकरणकत्वं वक्तव्यं, अन्यथा वडिमान् धूमादित्यादावपि माध्यव्यापकस्य द्रव्यत्वादेर्धमवनिष्ठोभयाभाव-वैभियाद्यवच्छिन्नाभावप्रतियोगित्वादपाधितापत्तेः । न चैवं धूमवान् वहेरित्यादावयोगोलकभेदादिरूपैकव्यत्युपाधौ सक्षणसम्भवेऽप्याईन्धनादिरूपनानाव्यत्त्युपाधावव्याप्तिः । चालनौन्यायेन मर्कामामेवा,न्धनव्यकौनां खानधिकरणमाध्याधिकरणकतया माध्यव्यापकलविरहादिति वाच्यं । खावच्छिन्नानधिकरणमाध्याधिकरणकं यद्यत्तदन्यत्वे मति स्वावच्छिन्नानधिकरणमाधनाधिकरणको यो धर्मस्तहत्त्वं तेन रूपेण उपाधित्वमिति विवक्षितत्वात्, प्रथमस्खपदं अन्यत्वप्रतियोगिपरं, द्वितीयञ्चोपाधितावच्छेदकपरं, अतएव द्रव्यं सत्त्वात् गुणः सत्त्वादित्यादौ संयोगतदभावयोरपि नाव्याप्यतिव्याप्यवकाश इत्येव तत्त्वं ।
प्रावस्तु 'तदधिकरणनधिकरणत्वमित्यत्र 'तत्पपदं प्रभावपरं,
Page #311
--------------------------------------------------------------------------
________________
उपाधिवादा।
२९
णानधिकरणत्वमिति वदन्ति तव। साधन-पक्षधर्मावच्छिन्नसाध्यव्यापकोपाध्यव्याप्तेः। न च तयारनपा
तथाचात्र प्रतियोगित्वं न स्वरूपसम्बन्धविशेषः किन्तु अभावाधिकरणवृत्तित्वं, अतो न द्रव्यं सत्त्वात् गुणः सत्त्वादित्यादौ संयोगतदभावयोरव्याप्यतिव्याप्यवकाश इति भाव इत्याहुः । तदसत् । तादृशप्रतियोगिलं यापकतादलमात्रे विवक्ष्यते माधनाव्यापकत्वदलमात्रे वा उभयदल एव वा, प्राधे माध्यवबिष्ठाभावाधिकरणवृत्तिभिनत्वं माध्यव्यापकत्वं फलितं तथाच वह्निमान् धूमादित्यादिसद्धेतावपि माधनाव्यापके घटादावतिव्याप्तिः तस्यापि साध्यवनिष्ठजलवाद्यभावाधिकरणवृत्तितया माध्यव्यापकत्वात्, द्वितीये साधनवनिष्ठाभावाधिकरणावृत्तित्वं माधनाव्यापकत्वं फलितं तथाचासम्भवः धमवान् वक्रेरित्यादावयोगोलकान्यत्वादेरपि साधनवनिष्ठजस्लवाद्यभावाधिकरणवृत्तितया साधनाव्यापकत्वविरहात्, अतएव न हतीयोऽपि। मच माध्यवनिष्ठखाभावाधिकरणावृत्तियद्यत्तदन्यत्वं माध्यव्यापकत्वं विवक्षितमिति वाच्यं। अव्यापकत्वदले प्रतियोगित्वस्य स्वरूपसम्बन्धविशेषरूपत्वे द्रयं पृथिवौत्वादित्यादौ संयोगादौ अतिव्याप्तिः, यदिच साधनाव्यापकत्वमपि माधनवनिष्ठखाभावाधिकरणरत्तित्वं तदा द्रव्यं सत्त्वादित्यादौ संयोगादौ अव्याप्तिः तस्य सत्तावनिष्ठखाभावाधिकरणद्रव्यदृत्तितया साधनाव्यापकत्वविरहात् । न च माधव्यापकत्वं माध्यवरिष्ठस्वाभावाधिकरणावृत्तिभिन्नत्वं, साधनाव्यापकत्वञ्च साधनवविष्ठयत्किञ्चिदभावाधिकरणवृत्तित्वं श्रतो न द्रव्यं सत्त्वा
Page #312
--------------------------------------------------------------------------
________________
२..
सावचिन्तामणे धित्वं, दूषकतावीजसाम्यात्। मिवातनयत्वेन श्यामत्वसाधने शाकपाकजत्वस्य प्रत्यक्षस्पर्शाश्रयत्वेन वायोः प्रत्यक्षत्वे साध्ये उतरूपकात्वस्य च शास्त्रे प्रयोजकत्वे
दित्यादौ संयोगादावव्याप्तिः द्रव्यं पृथिवौवादित्यादौ संयोगादाबतिव्याप्तिर्वा इति वाच्यं । तथापि द्रव्यं पृथिवौवादित्यादौ तसत्संयोगव्यकावतिव्याप्तेदुचारत्वादिति दिक् ।
'साधन-पक्षधति वायुः प्रत्यक्षः प्रत्यक्षविषयाश्रयत्वादित्यादौ पक्षधर्मवहिव्यत्वावच्छित्रप्रत्यक्षत्वव्यापके उद्भूतरूपवत्त्वे काकः श्यामो मित्रातनयत्वादित्यादौ माधनावच्छित्रसाध्यव्यापके भाकपाकजत्वे चाव्याप्तिरित्यर्थः, तयोः माध्यवत्रिष्ठाभावाप्रतियोगित्वाभावादिति भावः। 'तयोः' पक्षधर्म-साधनावच्छिन्नसाध्यव्यापकयोः, 'दूषकतेति, वक्ष्यमाणरीत्या उभयचैव व्यभिचारोबायकत्वसत्त्वादिति भावः । तयोरुपाधित्वानङ्गीकारे सिद्धान्तविरोधमण्याह, 'मिति, काकादेरित्यादि, 'प्रत्यक्षस्पर्णाश्रयत्वेनेति प्रत्यक्षस्य स्पर्श: विषयतारूपः सम्बन्धः यति व्युत्पत्त्या प्रत्यक्षविषयाश्रयत्वेनेत्यर्थः, तथाचाये माधनावच्छिन्नमाध्यव्यापकत्वं द्वितीये पक्षधर्मावच्छिन्नमाध्यव्यापकबमिति भेदेनोदाहरणदयमिति ध्येय(१) । 'प्रयोजकत्वेन' व्यभिचारानुमानप्रयोजकत्वेन, ‘पचेतर इति पर्वतो धूमवान् वहेरित्यादौ पर्वतेतरादावित्यर्थः । न च पक्षेतरस्य प्रमेयत्वादेः सर्वत्र सत्त्वेन साधनव्यापकतया कथमतिव्याप्तिरिति वाच्य। तादात्म
(१) इति भाव इति ख, ग ।
Page #313
--------------------------------------------------------------------------
________________
उपाधिवादः ।
१.१
भोपाधित्वस्वीकाराञ्च पक्षेतरेऽतिव्याप्तेश्च। न च व्यतिरेके पर्वतेतरान्यत्वादित्यच इतरान्यत्वस्यासिविवार
सम्मन्धेन तस्य साधनाव्यापकत्वात्। न च तथापि पचे तादात्मसम्मन्धेन माध्याव्यापकतया कथमतिव्याप्तिरिति वाच्यं । 'अतिव्याप्तेरित्यस्य उक्रदूषणोपयिकत्वरूपज्ञानस्य अतिप्रसकरित्यर्थात् पक्षातिरिक्त एव साध्यव्यापकत्वस्थ ग्राह्यत्वादन्यथा माध्यसन्देहदशायामुपाधित्वग्रहः कुत्रापि न स्यादिति भावः । न चेतरशब्दस्य सर्वनामतया सर्वनामका-पत्तिरिति वाच्यं । पच इतरो यस्मादिति बहुव्रीहिसमासात् “न वहुबोहावित्यनेन सर्वनामकार्यनिषेधात्। 'व्यतिरेकइति माध्यव्यतिरेके साध्य इत्यर्थः, 'इत्यत्र' हेतो, 'इतरान्यत्वस्येति, वस्तुमात्रस्यैव किञ्चिदपेक्षया इतरत्वादिति भावः ।• 'व्यतिरेके व्यर्थविशेषणत्वादिति खव्यतिरेकेण साध्यव्यतिरेके माध्ये व्यभिचारावारकविशेषणवादित्यर्थः, 'न म इति, तथाच येन रूपेण माध्यव्यापकता तद्रपावच्छिन्नखाभावेन साध्याभावमाधने व्यभिचारावारकविशेषणशून्यत्वे सतौति विशेषणं देयमिति भावः । 'बाधोत्रौतस्येति बाधोत्रीतत्वं 'बाधेन पक्षे माध्यबाधेन, साध्यव्यापकतया प्रमितत्वं, वहिरनुष्णः कृतकवादित्यादौ वहौतरत्वस्येत्यर्थः, 'न चेष्टापत्तिरिति, व्यभिचारावारकविशेषणत्वेन व्यर्थविशेषणतया सत्प्रतिपक्षोत्रायकत्वस्योपाधेर्दूषकतावौजस्य तत्राभावादिति भावः । “विशेषणं विनेति वयादिविशेषणं विनेत्यर्थः, 'व्याप्ययहेणेति व्याप्तियहासम्भवेनेत्यर्थः, 'तत्मार्थकत्वादिति वया
Page #314
--------------------------------------------------------------------------
________________
३०२
तत्वचिन्तामो
णार्थ पर्चतपदं विशेषणमिति व्यतिरेके व्यर्थविशेषणत्वान्न स उपाधिः, बाधाबीतस्याप्यनुपाधितापत्तेः ।
दिविशेषणे दूषणावहस्य व्याप्तिग्रहानुपयुक्रत्वरूपवैयर्थ्यस्याभावादित्यर्थः, तथाच उपाधिलक्षणघटकतया त्वदभिमतस्य वैयर्थाभावस्य तत्रासत्वेऽपि दूषणवहस्य वैयर्थस्याभावात् सत्प्रतिपक्षोत्रयनसम्भवेन तस्थानुपाधिले रष्टापत्त्यसम्भव इति भावः । श्राशयमविदित्वा शङ्कते, 'वस्तुगत्येति, पर्वतो धूमवान् वहेरित्यादौ पर्वतेतरश्च न तथेति भावः । भावमुद्दाटयति, ‘पचातिरिक इति, सहचारज्ञानेनेति श्रेषः, 'तञ्च' तादृशसाध्यव्यापकताज्ञानञ्च, 'तत्रापति बाधानुनौतपक्षेतरत्वेऽपौत्यर्थः, इति साम्प्रदायिकाः । ..
नव्यास्तु अत्र साध्यव्यापकत्वं पचेतरौयत्वावच्छिन्नमाध्यनिरूपितमुक्त माध्यमामान्यनिरूपितं वा, वाद्ये वाह, 'पक्षेतर इति, इदमुपलक्षणं पक्षमात्रवृत्तिमाध्यकेऽव्याप्तेरित्यपि द्रष्टव्यं, अन्त्यमाशङ्कते, 'वस्तुगत्येति, इति ग्रन्थं योजयन्ति ।
ननु पक्षे माध्यसन्देहसत्त्वे व्यभिचारसंशयसत्त्वात् पचातिरिक्तस्थले सहचारज्ञानमात्रात् साध्यव्यापकत्वग्रहः तत्र कथं स्थादित्यतपाह, 'अन्यथेति, 'अनुपाधित्व रति माध्यव्यापकताया अनिश्चयइत्यर्थः, 'उपाधिमात्रमिति पक्षे माध्यसन्देहदशायां पक्षावृत्तित्वेन ग्टहीतस्य उपाधिमात्रस्य माध्ययापकत्वनिश्चय उछियेतेत्यर्थः, यथाश्रुते पचत्तिवेन निखितानामेवोपाधौना पक्षे माध्यमन्देह
Page #315
--------------------------------------------------------------------------
________________
उपाधिवादः।
न चेष्टापत्तिः, इतरान्यत्वस्याप्रसिद्ध्या विशेषणं विना व्यात्यग्रहेण तत्सार्थकत्वात् । वस्तुगत्या साध्यव्यापकः पक्षेतर उपाधिरिति चेत्, अस्तु तथा, तथापि पक्षा
सत्त्वेऽपि माध्यव्यापकत्वनिश्चयसम्भवात् अमङ्गतेः । तथाच पक्षे माध्यमन्देहस्तदाहितव्यभिचारसंशयो वा न माध्यव्यापकतानिश्चयपरिपन्थौति त्वयाप्येष्टव्यमिति भावः । 'विपक्षाव्यावर्तकेति 'विपक्षः' माध्याभाववान्, तदव्यावर्तकं तनिष्ठाभावप्रतियोगितावछेदकत्वासम्पादकं यदिशेषणं सम्बन्धमामान्येन तच्छून्यत्वं माध्ययापकत्वं साधनाव्यापकतावच्छेदके विशेषणमित्यर्थः । तथाच विपधनिष्ठाभावप्रतियोगितावच्छेदकत्वासम्पादकविशेषणशून्यसाध्यव्यापकतावच्छेदकमाधनाव्यापकतावच्छेदकधर्मवत्त्वमुपाधित्वमिति भावः । सम्पादकत्वञ्चास्यैतनिष्ठाभावप्रतियोगितावच्छेदकत्वमेतदधौनमिति प्रतीतिसिद्धः खरूपसम्बन्धविशेषः, विपक्षव्यावर्त्तकविशेषणवद्यत्माध्यव्यापकतावच्छेदकं साधनाव्यापकतावच्छेदकं तद्वत्त्वमित्युको ट्रदेतरत्वविशिष्टपर्वतेतरत्व-पर्वतेतरत्वविशिष्टदेतरत्वादावतिप्रसङ्गइत्यतो निषेधदयगर्भता, 'बाधोत्रौतेति वकिरनुष्णः कृतकवादित्यत्र वहौतरत्वस्य परियह इत्यर्थः, “पक्षस्यैव विपक्षत्वादिति, पक्षस्यैव विपक्षतया वहिविशेषणस्येतरत्वनिष्ठविपक्षनिष्ठाभावप्रतियोगितावच्छेदकत्वसम्पादकत्वादिति भावः। 'न त पर्वतेतरत्वादेरिति न त पर्वतो वद्धिमान् धमादित्यादौ पर्वतेतरत्वादेः परिग्रह इत्यर्थः, तत्र पर्वतविशेषणस्येतरत्वे पर्वतनिष्ठाभावप्रतियोगितावच्छेदकत्वम
Page #316
--------------------------------------------------------------------------
________________
३०४
तत्वचिन्तामणौ
तिरिक्ते साध्यव्यापकताग्रहादुपार्दूषकत्वं, तञ्च तचाप्यस्ति, अन्यथा पक्षे साध्यसन्देहादनुपाधित्वे उपाधिमाधमुच्छिद्यत। विपक्षाव्यावर्तकविशेषणशून्यत्वं
म्पादकत्वेन विपक्षनिष्ठाभावप्रतियोगितावच्छेदकत्वासम्पादकत्वादिति भावः । श्रादिपदात् पर्वतावयववृत्त्यन्यत्व-पवतेतरद्रव्यत्व-द-पर्वतसंयोगानाधारत्व-हृदेतरत्वविभिष्ट पर्वतेतरत्व-पर्वतेतरत्वविशिष्टहदेतरत्वादेः परिग्रहः । 'न हौति, ‘वस्विति प्रथमान्नं 'शून्यमित्यन्वयि, 'तत्र' विपक्षाव्यावर्त्तकविशेषणे, 'उपात्तेतीति स्वघटकौभूतविशेषणे इत्यर्थः, स्वपदं उपाधितावच्छेदकपरं,तथाच स्वघटकौभूतविपक्षाव्यावर्त्तकविशेषणशून्यं यत्साध्यव्यापकत्व-साधनाव्यापकत्वावच्छेदकं तद्वत्त्वमुपाधित्वमिति फलितमिति भावः । 'मियसिद्धौति खघटकौभूततादृशविशेषणं प्रसिद्धमप्रमिळू वा उभयथापि तादृशविशेषणशन्यत्वस्योपाधितावच्छेदके व्याघात इत्यर्थः । ननु तादृभविशेषणघटितं यत्माध्यव्यापकतावच्छेदक-साधनाव्यापतावच्छेदकं तदत्त्वं तादृशविशेषणनवच्छिन्नसाधनसमानाधिकरणभावप्रतियोगितायाअवच्छेदकं यत्माध्यममानाधिकरणभावप्रतियोगिताया अनवच्छेदक तहत्त्वं वा उपाधित्वं विवक्षितमित्यखरमाद्दषणन्तरमाह, 'तथापि चेति, माध्यव्यापकत्व-साधनाव्यापकत्व इति माध्यव्यापकत्व-साधनाव्यापकत्वज्ञाने इत्यर्थः, 'तत्र' पक्षेतरत्वे, 'नयावृत्त्या' तड्यावृत्तिज्ञानेन, 'पचे हेतुमति पक्षे, 'साध्यव्यावृत्तिः' माध्यव्यावृत्तिनिश्चयः, 'व्यभिचारएवेति- व्यभिचारज्ञानमेवेत्यर्थः, 'व्यभिचारे चेति व्यभिचारज्ञाने
Page #317
--------------------------------------------------------------------------
________________
उपाधिवादः।
विशेषणं तेन बाधोबीतपशेतरस्य परिग्रहः, तब पक्षस्यैव विपक्षवात, म तु पर्वतेतरत्वादेरिति चेत् । न। न हि वसु विपक्षाव्यावर्तकविशेषणशून्यं, सर्वच प्रमेयत्वादेः सत्त्वात्। तत्रोपात्तेतिविशेषणे सिद्यसिविव्याघातः । तथापि च साध्यव्यापकत्व-साधनाव्यापकत्वे सब स्त इति तयाहत्त्या पक्षे साध्यव्यात्तिरता हेतार्यभिचार एव 'व्यभिचारे चावश्यमुपाधिरिति पक्षेतर एव तत्रोपाधिः स्यात् तावन्मावस्यैव दूषक
चेत्यर्थः, 'अवश्यमुपाधिरिति अवश्यं पचेतर उपाधिः, व्यभिचारोबायकत्वस्य उपाधेर्दूषकतावौजस्य सत्त्वादित्यर्थः, तथाच लया पठेतरी नोपाधिरभ्युपेयत इति मयातिव्याप्तिरापादिता । वस्तुतो दूषकतावौजसत्त्वेन तदुपाधिर्भवत्येवेति भक्तस्तत्रानुपाधिताभ्युपगमोऽयुतइति भावः । किञ्च विशेषणमपि व्यर्थमित्याह, ‘पचेतर एवेति पक्षेतरस्तत्रोपाधिः स्यादेवेत्यर्थः, श्रत इति शेषः, 'तावन्मात्रस्येति माध्यव्यापकतामात्रस्येत्यर्थः, मानपदादुक्तविशेषणव्यवच्छेदः, 'दूषकवाचेति दोषोनयनोपयोगित्वाचेत्यर्थः, 'चकारः 'व्यर्थ विशेषणमित्यनन्तरं चोव्यः। न च न देयमेव विशेषणमिति वाच्यं । भक्तस्तस्यानुफाधिताभ्युपगमेन विशेषणदाने अतिव्याश्यापत्तरिति भावः। 'अनुमानमात्रेति अनिश्चितसाध्यकानुमानमात्रीच्छेदकतयेत्यर्थः, 'जातिवादिति जात्युत्तरकवादित्यर्थः, उपाधिव्यभिचारेण माध्य
39
Page #318
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामणै
त्याच व्यर्थं विशेषणम्। अतएवानुमानमाचोच्छेदकतया जातित्वान्न पक्षेतर उपाधिरित्यपातं दूषणसमर्थत्वेन जातित्वाभावात् । रतेन पधेतरव्यारत्त्यर्थ प्रकारान्तरमपि निरस्तम् उपाधित्वाभावेऽपि दूषणसमर्थत्वात्। 'अथोपाधिः स्वव्यतिरेकेण सत्प्रतिपक्षतया दूषणं पक्षेतरत्वव्यतिरेकश्च न साध्याभावसाधव्यभिचारानुमाने कर्त्तव्येऽपि पचेतरस्योपाधित्वेनोद्भावनौयतया "खव्याघातकमुत्तरं जातिरिति जातिलक्षणमत्त्वादिति भावः । 'म पचेतर इति, तथाच विशेषणं मार्थकमेवेति भावः । 'दूषणममर्थति दूषणाममर्थमुत्तरं जातिरित्यस्यैव जातिलक्षणत्वात्, पचेतरस्तु व्यभिचारोबयनसमर्थ एवेति भावः । 'प्रकारान्तरमिति बाधानुनौतपक्षेतरभिवत्वादिकमित्यर्थः, 'उपाधित्वाभावेऽपौति वया उपाधित्वानङ्गीकारेऽपौत्यर्थः, तथाच व्यर्थविशेषणमिति भावः । दूषकतावौजसत्त्वे एव तस्थानुपाधित्वाभ्युपगमस्तदारणाय विशेषणप्रक्षेपचानुचितस्तदेव च नास्तीत्यभिप्रायेण श्राशङ्कते, 'अथेति, 'मत्प्रतिपक्षतया' माध्याभावसाधकतया, 'असाधारणत्वादिति सपक्षविपक्षव्यावृत्तवादित्यर्थः । ननु व्यभिचारानुमापकतया उपाधिर्दोषः तर नासाधारण्यमित्याग निराकरोति, 'न विति, उपाध्यव्याप्यतयेति उपाधिव्यभिचारितयेत्यर्थः, 'साध्याव्याप्यत्वं माध्यव्यभिचारित्वं, अनुमेयमिति शेषः, न माध्यव्यापकत्वमिति साध्यव्यापकत्वाभावोऽपि सिहोदित्यर्थः, इतावुपाधिव्यभिचारित्वे ज्ञायमाने उपाधावपि
Page #319
--------------------------------------------------------------------------
________________
उपाधिवादः।
कोऽसाधारणत्वात्, 'न तु व्यभिचरोबायकतया दूषणं यथाहि साध्यव्यापकोपाध्यव्याप्यतया हेतोः साध्याव्याप्यत्वं तथा साध्यव्याप्य हेत्वव्यापकतयोपाधेर्न साध्यव्यापकत्वमपि सिध्येत् व्याप्तिग्राहकस्योभयत्रापि साम्येन विनिगमकविरहात् । तस्माद्यथा साध्यव्याप्येन हेतुना साध्यं साधनौयं तथा साध्यव्यापकोपाधिव्यात्त्या साध्याभावोऽपि साधनीया व्याप्तिग्रहतौल्यादिति दृषकतावोजं। सेोऽयं सत्प्रतिपक्षएवेति
हेत्वव्यापकत्वज्ञानस्यावश्यकत्वात् समानसंविसंवेद्यत्वादिति भावः । ननु हेतावुपाधिव्यभिचारित्वग्रहदशायां उपाधावपि हेत्वव्यापकत्वज्ञानस्यावश्यकत्वेऽपि हेतौ माध्यव्याप्तिनिश्चयाभावान नदव्यापकत्वेन माध्यव्यापकत्वज्ञानं, उपाधौ तु माध्यव्यापकतानिश्चयसत्त्वेन ताभिचारित्वेन माध्यव्यभिचारित्वग्रह इत्यत आह, 'व्याप्तौति यथा माध्यस्य उपाधिव्याप्यताग्राहकव्यभिचारादर्शन-सहचारदर्शने स्तः तथा हेतावपि माध्यव्याप्यताग्राहके ते स्त इत्यर्थः, न हि तदानौं हेतौ साध्यव्यभिचारज्ञानमप्यस्ति, स्फुटे व्यभिचारे उपाध्युपन्यासस्य वैयादिति भावः । इदमापाततः यदा उपाधौ साध्यव्यापकताग्रहेऽनुकूलतर्कावतारादुपाधौ साध्यव्यापकतानिश्चयो जातः हेतौ तु माध्यव्याप्यतामहे अनुकूलतर्कानवतारात्तत्र साध्यव्याप्यतानिश्चयो न जातः तदैव व्यभिचारानुमानसम्भवात् । 'तस्मादिति । न च माध्यव्याप्यहेत्वव्यापकतयोपाधेः माध्याव्यापकत्वज्ञानात् कथं तव्यतिरेकेण मत्प्रतिपक्षस्यैव
Page #320
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०९
तत्वचिन्तामगै चेत्। मैवा रवं हि सत्प्रतिपचे उपाध्यद्भावनं न स्यात सत्प्रतिपक्षान्तरवत् । किश्चैवं बाधाबीताऽपि पक्षेतरो नोपाधिः स्यात् व्यतिरेकेडसाधारण्यात्। ननु बाधे नोपाधिनियमः धूमेन इदे वह्निसाधने तदभावात् न तु हेतुमति पक्षे बाधे पवेतरोपाधिनियमः प्रत्यक्षे
सभव इति वाच्यं । सत्प्रतिपक्षोत्रायकतया दूषकत्वपक्षे हेतौ उपापियभिचारित्वज्ञानस्यानपेक्षितत्वेन तुस्थवित्तिवेद्यतया उपाधौ माधनाव्यापकत्वज्ञानस्याप्यनावश्यकत्वात्, यदा उपाधौ हेवव्यापकताशानं नास्ति तदैव मत्प्रतिपक्षसम्भवादिति भावः । मत्प्रतिपक्षातरवदिति, यथा मत्प्रतिपक्षे सत्प्रतिपक्षान्तरं नोद्भाव्यते तत्र एकेनापि भूवसां प्रतिबन्धात् मत्प्रतिपक्षवाजल्यस्थाप्रयोजकत्वात् तथा सत्प्रतिपचे उपाध्युगावनमपि न स्थात् भवन्मते उपाधिमुनाष्य सत्प्रतिपक्षासरस्यैव करणौयत्वात् तस्य चाप्रयोजकत्वादिति भावः । दूषणन्तरमार, 'किञ्चेति, ‘एवं' मत्प्रतिपक्षोत्रायकतया दोषत्वे, 'बाधोत्रीतोऽपौति वझिरनुष्णः इतकत्वादित्यत्र वनौतरोऽपौत्यर्थः, 'यतिरेके साधारयादिति साध्याभावमाधने तव्यतिरेकस्यामाधारणत्वादित्यर्थः, पक्षमात्रवृत्तिहेतुरमाधारण इत्यभिमानेनेदं । ननु मास्तु बाधोबौनपतरोऽयुपाधिरित्याभयेनाशकाते, 'नम्पिति, 'नोपाधिनियमइति न पचेतरोपाधिनियम इत्यर्थः, यथाश्रुते तादृशमामान्यनियममाऽपि पचेतरखोपाधियानायकत्वात् तबिराकरणखानुपयुकाव
Page #321
--------------------------------------------------------------------------
________________
उपाधिवादः । बहो कृतकन्वेनामुष्णत्वे साध्येऽतेजस्वादेरुपाधित्वसम्भवादिति चेत् । न। तेनामावपक्षत्वेऽतेजस्वं विमा
प्रसङ्गात्। अत एवाग्रे ‘पचेतरोपाधिनियम इत्यपि मङ्गच्छते । 'हेतुमतौति माध्यममानाधिकरणहेतुमतौत्यर्थः, तेन समवायादिसम्बन्धेन घटो गगमवान्द्रव्यवादित्यादौ न व्यभिचारः। न चाव्याप्यवृत्तिमाथकसद्धेतौ व्यभिचार इति वाच्यं। निरवच्छिन्नमाध्याभावाधिकरणत्वस्य बाधपदार्थत्वात्। न च तथाप्येतगन्धप्रागभावकालौनेतद्घटोगन्धवान् पृथिवौत्लादित्यादावसकोर्णबाधस्थले व्यभिचारस्तच पक्षतावच्छेदके एतगन्धप्रागभावकालावच्छिनत्वविशिष्टममवायावच्छित्रप्रतियोगिताकसाध्याभावस्य निरवच्छिनाधिकरणत्वस्यापि पक्षे सत्त्वादिति वाच्यं । तेन सम्बन्धेन माध्यत्वे तत्रापि पचेतरस्योपाधित्वादिति भावः। तादृशनियममन्युपेत्यैवाह, 'प्रत्यक्ष इति, अतेजस्खादेरिति धर्मिपरो निर्देश: तेजसामान्येतरादिरूपस्यैव पक्षेतरस्येत्यर्थः, तयतिरेकस्य माध्याभावसाधनेऽसाधारण्याभावात् सपने सौरालोकादावपि वृत्तेरिति भावः । तथाच वझौतरत्वेन वहौतरस्थानुपाधित्वेऽपि तादृशनियमो नानुपपबदति हदयं, हेतमतीत्यादिनियमाभ्युपगमेनैव दूषयति, 'तेजोमाचेति तेजोऽनुष्णं चतकवादित्यचेत्यर्थः, अतेजस्वं विनेति धर्भिपरो निर्देशः तेजःसामान्येतरादिकं विनेत्यर्थः, श्रादिना भाखररूपवदितरवडीतरादेः परिपहः, 'अन्यस्येति, पतरस्येति शेषः, तेजःसामान्येतरादिव्यतिरेकच साध्याभावसाधनेऽसाधारणं द्रव्येतरादिकञ्च न साथयापकमिति भावः। 'भन्यस्योपाधेरभावादिति यथाश्रुतन्तु न मा
Page #322
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५.
तत्वचिन्तामयी
न्यस्य उपाधेरभावात् । किञ्च पर्वतावयवत्त्यन्यत्वं पर्वतेतरद्रव्यत्वं इद-पर्वतसंयोगानाधारत्वं इद-पर्वतान्यत्वादिकमुपाधिः स्यादेव व्यतिरेकेऽसाधारण्याभावात् व्यतिरेकिणा सत्प्रतिपक्षसम्भवाच्च । न चासा
छते व्यतिरेके सारण्याभाववतोऽपि गुरुत्वादेरूपवत्त्वावच्छिन्नमाध्यव्यापकतयोपाधित्वात्।
भट्टाचार्यास्तु 'तेजस्वं विना' अतेजस्वसमग्रौलं विना, प्रसाधारणव्यतिरेकप्रतियोगिनं विनेति यावत्, तेन भाखररूपवदितरवहीतरादेः परिग्रहः, 'अन्यस्योपाधेरभावादिति अन्यस्य शुद्धसाध्यव्यापकस्योपाधेरभावादित्यर्थः, तेन विशिष्टसाध्यव्यापकस्योपाधेः सत्त्वेऽपि न नतिरित्याहुः ।
ननु पक्षमात्रवृत्तित्वं नासाधारण्यं किन्तु यावत्मपक्ष-विपक्षव्यावृत्तत्वं तेजःसामान्येतरादिव्यतिरेकश्चानुष्णत्वाभावे माध्ये न तथा पक्षे माध्यासिद्धौ सपक्षाभावात् माध्यसिद्धौ तु तत्रैव पक्षे वर्तमानत्वादित्यवरमादाइ, 'किञ्चेति, 'देति, ह्रदर्मयोगिपर्वते यत्र वहिः माध्यते तत्रायमुपाधिोध्यः अन्यथा माधनव्यापकत्वादनुपाधितापत्तेः । 'द-पर्वतान्यत्वेति देतरत्वविशिष्ट पर्वतेतरत्वादिकमित्यर्थः, 'व्यतिरेक इति, उतोपाधीनां व्यतिरेकस्य पर्वतावयववृत्तिगुणदौ द्रव्यान्यपदार्थमाचे दे च विपक्षे यथाक्रमं वृत्तेः तथाच बाधानुनौतपनेतरवारणय विपक्षाव्यावर्तकेत्यादिविशेषणदानें तत्रैवाव्याप्तिरिति भावः। हेतोः सपक्ष-विपक्षव्यावृत्तत्वम
Page #323
--------------------------------------------------------------------------
________________
उपाधिवादः ।
धारण्यं, तस्यापि सत्यतिपात्यापकतया दोषत्वात्। तस्मादुभयोरपि व्याप्तिग्राहकसाम्ये विरोधान व्याप्तिनिश्चयः, किन्तूभयत्र. व्यभिचारसंशयः, तथाच
माधारण्यं तत्र सपक्षव्यावृत्तत्वांशज्ञानं हेतौ माध्याभावव्यतिरेकसहचारज्ञानरूपतया हेतौ माध्यव्यापकौभूताभावप्रतियोगित्वरूपमाध्याभावव्यतिरेकव्याप्तिज्ञानजनकं, विपक्षव्यावृत्तवांग्रज्ञानजनकञ्च हेतौ साध्यव्यतिरेकसहचारज्ञानरूपतया हेतौ साध्याभावव्यापकौभूताभावप्रतियोगित्वरूपसाध्यव्यतिरेकव्याप्तिज्ञानजनकं, तयाचासाधारण्यज्ञानं माध्य-तदभावोभयव्याप्यप्रकृतहेतमत्तापरामर्शरूपमत्प्रतिपक्षद्वारानुमितावेव प्रतिबन्धकमिति खमतेन दूषणन्तरमाह, 'व्यतिरेकिणेति, 'व्यतिरेकिण' पर्वतेतरादिनिष्ठव्यतिरेकप्रतियोगिनापि, पर्वतेतरान्यत्वादिनेति शेषः । 'न चामाधारण्यमिति, सत्प्रतिपक्षे प्रतिबन्धकमिति शेषः । 'तस्थापि' सपक्षविपक्षव्यावृत्तवरूपासाधारण्यज्ञानस्यापि, ‘सत्प्रतिपचोत्थापकतयेति साध्यव्यापकौभूताभावप्रतियोगित्वरूपसाध्याभावव्यतिरेकव्याप्ति-माध्याभावव्यापकौभूताभावप्रतियोगित्वरूपमाध्यव्यतिरेकव्याप्योहदारा माध्य-तदभावोभयव्याप्यप्रकृतहेतु मत्तापरामर्शरूपमत्प्रतिपक्षजनकतयेत्यर्थः, 'दोषत्वादिति अनुमितावेव प्रतिबन्धकवादित्यर्थः, तथाचामाधारण्येऽपि मत्प्रतिपक्षसम्भवात् पक्षेतरोऽप्युपाधिरेवेति तस्यानुपाधितानभ्युपगमः वारणाय तस्य विशेषणोपादानञ्च इयमप्ययुकमिति भावः।
Page #324
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५. नवचिन्तामो व्यभिचारसंशयाधायकत्वेनोपाघेर्दूषकत्वं, तब पक्षेतरेप्यस्ति, तदुक्तामुपाक्षेरेव व्यभिचारशङ्केति। भवतु वोतन्यायेन सकलानुमानभाभिया पक्षेतरोऽनुपाधिः, तथापि लक्षणमतिव्यापकम् । 'नापि साध्यसमव्याप्तत्वे सति साधनाव्यापकत्वमुपाधित्वं, दूषकतावोजस्य व्य
केचित्तु 'यतिरेकिणा, व्यतिरेकव्याण्या, पर्वतेतरान्यत्वादिमापौति शेषः । 'न चासाधारयमिति, व्यतिरेकव्याप्या सत्पतिपणेऽपि प्रतिबन्धकमिति शेषः । 'तस्थापि, असाधारण्य ज्ञानस्थापि, 'सत्प्रतिपक्षोत्थापकतयेति अवयसहचारग्रहप्रतिबन्धकतया वेति भेषः । 'दोषत्वादिति अनुमितावषयव्याप्तिय वा प्रतिबन्धकलादित्यर्थः, थदि सपक्ष-विपक्षव्यावृत्तत्वं असाधारस्यं तदा तज्ज्ञानमुक्तक्रमणं मत्प्रतिपक्षजनकतयानुमितावेव प्रतिबन्धकं, यदि पहेतोः माधवदवृत्तित्वमसाधारयं तदा तज्ज्ञानं अवयसहचारयाप्रतिबन्धकद्वारा अन्वयव्याप्तियह एव प्रतिबन्धकं न तु कदाचिदपि व्यतिरेकव्याप्या सत्प्रतिपक्षे प्रतिबन्धकमिति भाव इति व्याचक्रुः ।
ननु व्यभिचारोबायकतया दूषकवं मया प्रागेव दूषितं यदि सत्प्रतिपक्षतया दोषत्वमपि त्वया दूषितं तदा यप हेदपायो प्तिपाहकसाम्यं तत्र कथमुपाधिौष इत्यत आर, 'तस्मादिति, 'उभयोः' साथ-साधनयोः साध्योपाध्योः, 'विरोधादिति विरोधः मायव्याप्यत्व-साध्यध्यापकाथाप्यवयोः माध्यव्यापकाख-साध्यव्याप्याव्या
Page #325
--------------------------------------------------------------------------
________________
उपाधिवादः
भिचारोवयनस्य सत्यतिपक्षस्य वा साम्येन पिचर व्याप्तस्याप्युपाधित्वात् तथा दूषकताय साध्यव्याप्यत्वस्याप्रयोजकत्वाच । अथ साध्यप्रयोजको धर्म उपाधिः प्रयोजकत्वच न न्यूनाधिकदेशवृत्तेः तस्मिन् सत्यभवतस्तेन विनापि भवतस्तदप्रयोकजत्वात, अन्यथा
पकत्वयोश्चेत्यर्थः । उपाधेय॑भिचारशहाधायकत्वेन दोषत्वे प्राचार्यसंवादमाह, 'तदुक्रमिति, 'उपाधेरैवेति, एवकारः भित्रक्रमे उपाधेयभिचारभवेत्यर्थः, यत्रोभयव्याप्तिग्राहकमाम्यं तजेत्यादिसकलानुमानोच्छेदापत्तिभयेन पतरस्योपाधिलं परैर्निरस्यते तदभ्युपेत्य पूर्वपक्षमाह, 'भवतु वेति, तथापौगि । नप विपचाव्यावर्त्तकविशेषणानवच्छिन्नेतिविशेषणदानादेव नातिव्याप्तिरिति वाचं । तथापि जन्याणवः मकर्टकाः कार्यवादित्यादावणुभिन्नादौ परंतरेऽतिव्याप्तेः तत्राणुविशेषणेन विपश्यस्य परमाणोरपि यावर्त्तमादिति भावः । प्राचार्य्यलक्षणं दूषयति, 'नापौति, पतरस्तु साध्यविषमव्यापकत्वानोपाधिरिति भावः । अवच्छिन्नमाध्यव्यापकोपाधावव्याप्तौ सत्यामेव दूषणन्तरमाह, 'दूषकतेति, 'विषमव्याप्तस्यापीति, तथाच तत्राव्याप्तिरिति भावः । 'तथा दूषकतायामिति खव्यभिचारेण माध्यव्यभिचारोबायकनया खव्यतिरेकेण साध्यव्यतिरेकोबायकतया वा दूषकताथामित्यर्थः, माध्यव्यापकतादलस्थानुकूलतर्कविधयेवोपयोगादिति भावः । अस्या
Page #326
--------------------------------------------------------------------------
________________
१० . ताwit पक्षेतरस्याप्यपाधित्वप्रसङ्ग इति चेत्। न। दूषणोपयिक हि.प्रयानकामिह विवक्षितं तच्च साध्यव्यापकत्वे सति साधनाव्यापकत्वमेवेति, तदेव प्रयोजक न त्वधिक व्यर्थत्वात् । ननुपाधि) स उच्यते यद्यम्माऽन्यच प्रति
प्तिनिरामाय विषमव्याप्तस्यालक्ष्यत्वे विनिगमकमाइ, 'अथेति, साध्यप्रयोजको धर्मः'. साध्यप्रयोजकौभूतधर्म एव, 'उपाधिः' शास्त्रीयोपाधिव्यवहारविषयः, साध्यप्रयोजकधर्मत्वं शास्त्रीयोपाधिव्यवहारविषयत्वव्यापकं, इति यावत्(२) लक्षणपक्षे मद्धेतावपि माध्यममव्याप्तेऽतिव्याप्यापतेः, “प्रयोजकत्वञ्चेति, माध्यान्वय-यतिरेकोबायकान्वययतिरेकप्रतियोगित्वस्य प्रयोजकतारूपत्वादिति भावः । 'अभवतः' असतः, 'भवतः' मतः, 'तदप्रयोज्यत्वादिति(२) तदन्वय-व्यतिरेकोबायकान्षय-व्यतिरेकाप्रतियोगित्वादित्यर्थः, तथाच विषमव्याप्तेदूषकतावौजसत्त्वेऽपि शास्त्रीयोपाधिष्यवहाराभावान लक्ष्यवमिति भावः । 'अन्यथेति न्यूनाधिकदेशवृत्तेरपि प्रयोजकत्वे इत्यर्थः, 'उपाधित्वप्रसङ्गः' शास्त्रे उपाधिव्यवहारप्रसङ्ग इत्यर्थ:(५), 'दह' उपाधिव्यव
(१) अथोपाधिरिति का। (२) इति भाव इति ख.। (३) 'तदप्रयोज्यत्वात्' इत्यत्र 'तदयोजकत्वात्' इति कस्यचिन्मूलपुस्तकस्य . . पाठः परन्तु तादृशपाठस्थापि रहस्यवद्याख्यातार्थ रवा इति । 10) शाले उपाधिव्यवहारविषयत्वप्रसा इति म ।
Page #327
--------------------------------------------------------------------------
________________
उपाधिवाः।
विम्बते यथा अवाकुसुमं स्फटिकलौहित्य उपाधिः, तथाचीपाधित्तिव्याप्यत्वं हेतुत्वाभिमते चकास्ति तेनासावुपाधिः। न च व्याप्यत्वमाचेण दूषकत्वमिति, साध्यव्यापकतापौष्यते, तथाच समव्याप्त रवोपाधि
हारविषयताव्यापकौतधर्षे, 'तच' दूषणोपथिकञ्च, 'प्रयोजक प्रयोजकत्वं, 'न त्वधिक' न तु व्याप्यत्वपर्यन्तं, 'व्यर्थत्वादिति । न चैवं पोतरेऽतिप्रसङ्गः, तवापि पक्षेतरत्वविशिष्टसाध्यवत्त्वादावतिप्रसङ्गादिति भावः। विषमव्याप्तस्यालक्ष्यत्वे विनिगमकान्तरमागरते, 'नन्विति, 'प्रतिविम्बते' धमविषयो भवति, उप ममोपे पादधाति खनिष्ठधर्म संकामयतीत्युपाधिपदावयवव्युत्पत्तरिति भावः। 'स्फटिकलौहित्य इति लौहित्यधमविषयौभूतस्फटिक इत्यर्थः, 'थाप्यत्वं' साध्यव्याप्यत्वं, 'चकास्ति' भ्रमविषयो भवति, 'मावुपाधिः' असावेव उपाधिपदवाचः, साध्यव्याप्य एव उपाधिपदवाच इति थावत् । नन्वेवं धूमवान् वरुरित्यादौ महानसत्वादेरप्युपाधिपदवाच्यत्वापत्तिरित्यत आह, 'न चेति, 'व्यत इति रूव्यर्थतया व्यत इत्यर्थः, 'समव्याप्त एवोपाधिरिति समव्याप्त एव उपाधिपदवाच्य इत्यर्थः, उपाधिपदस्य योगरूढ़तथा विषमव्याप्ने
व्यर्थसत्त्वेऽपि योगार्थाभावादिति भावः । यद्यप्यन्यनिष्ठधमविषयौभूतधर्माश्रयत्वमानमुपाधिपदप्रवृत्तिनिवृत्तं न तु व्याप्तिरूपधर्म कामकत्वं जवाहसमादावभावात् तच्च विषमव्याप्तेऽपि सम्भवति
Page #328
--------------------------------------------------------------------------
________________
१९ तापचिनोमग रिति चेत्, तत् किं विषमव्याप्तस्य दूषकतावीजाभावानोपाधिशब्दवाच्यत्वं तथात्वेऽप्युपाधिपदप्रत्तिनिमित्ताभावाडा, नाद्यः तस्यापि व्यभिचाराधनायकत्वात, नापरः नहि लोके समव्याप्त रवान्यच स्वधर्मप्रतिविम्बजनक रवोपाधिपदप्रयोगः, लाभाधुपाधिना
खनिष्ठमाध्यव्याप्यत्वासंक्रामकत्वेऽपि दोषवभात् खनिष्ठधर्मान्तरसंकामकत्वसम्भवात् तथापि उपाधिपदस्य सामान्यतोऽन्यनिष्ठभ्रमविषयीभूतधर्माश्रयत्वरूपं नैकं प्रवृत्तिनिमित्तं तादूयेणाप्रत्यायनात्, परन्तु विशिष्य स्फटिकनिष्ठभ्रमविषयोभूतलौहित्याश्रयत्व-साधननिहभ्रमविषयौभूतसाध्यव्याप्याश्रयत्वादिरूपं नानव प्रवृत्तिनिमित्तं, बद्धर्मवाचकसप्तम्यन्नपदसमभिव्याहारविशेषेणोपाधिपदं प्रयुज्यते तदुर्मसंक्रामकत्वमेव बोधयतौति समभिव्याहार विशेषश्च प्रतीतो नियामकः, अत एव स्फटिकलौहित्ये जवाकुसुममुपाधिरितिवाक्यात् चौहित्यरूपधर्मसंक्रामकत्वमेव प्रतीयते, एवं माधनस्य साध्यव्याप्यत्वेऽयमुपाधिरित्यत्रापि खनिष्ठव्याप्तिरूपधर्मसंक्रामकत्वमेव सभ्यत इति, तथाच विषमव्याप्तस्य खनिष्ठधर्मान्तरसंक्रामकत्वेऽपि तादृप्रधर्मान्तरसंक्रामकत्वमादाय कुषायुपाधिपदाप्रयोगात् तादृशधर्मान्तरसंक्रामकत्वस्य उपाधिपदाप्रवृत्तिनिमित्तत्वात् विषमव्याप्तो गोपाधिपदवाय इत्याचा-नामाशयः । 'प्रवृत्तिनिमित्ताभावावेति चौगिकप्रवृत्तिनिमित्ताभावादेत्यर्थः। 'समयाप्त इति खनिष्ठमाध्य
Page #329
--------------------------------------------------------------------------
________________
उपाधिवाद ।
कृतमित्यादौ लाभादावप्युपाधिपदप्रयोगात्। किन शास्त्रे लौकिकव्यवहारार्थमुपाधिपदव्युत्पादनं किम्वा नुमानदूषणार्थ, तच्च साध्यव्यापकत्वे सति साधनाव्यापकत्वमात्रमिति शास्त्रे तथैवर) उपाधिपदप्रयोगः। ..
'अन्ये तु यदभावो व्यभिचारविरोधी स उपाधिः। न च विषमव्याप्तस्याभावो व्यभिचारं विरुणडि, तस्या
व्याप्तिसंक्रामक इत्यर्थः, 'खधर्मप्रतिविम्बेति खनिष्ठधर्मान्तरप्रतिविम्बजनक एवेत्यर्थः, 'लाभादावपीति तत्रोपाधिपदस्य प्रयोजनार्थकत्वादित्यर्थः, तथा च तत्र यथा योगार्थनवापेक्ष्येणापि उपाधिपदवाच्यत्वं तथा विषमव्यापकेऽपि केवलरूत्यर्थमादायैव उपाधिपदवाच्यत्वसम्भवः, न हि योगार्थविशिष्टोरूड्यर्थः प्रवृत्तिनिमित्तः, इति हृदयं। चौकिकव्यवहारार्थमिति लोकानामुपाधिस्वरूपज्ञामार्थमित्यर्थः, 'उपाधिपदव्युत्पादनमिति परोक्कानुमानदूषणप्रस्ताबे अत्रायमुपाधिरिति उपाधिपदप्रयोग इत्यर्थः, 'अनुमानदूषणार्थमिति उपाधित्वेन उपाधिज्ञानद्वारा वा व्याप्तिज्ञानप्रतिबन्धार्थमित्यर्थः, 'तच्चेति अनुमानदूषौपयिकरूपञ्चेत्यर्थः, 'तथैव' माध्यव्यापकत्व-साधनाव्यापकत्वमात्रेणैव ।
विषमव्याप्तस्यालक्ष्यत्वे विनिगमकान्तरमाशते, 'अन्ये विति, 'यदभावः' यद्धर्मावच्छिनाव्याप्यत्वसम्बन्धावच्छिनप्रतियोगिताकोयद
(१) तत्रैवेति क., ख.।
Page #330
--------------------------------------------------------------------------
________________
वचिन्तामो
भावेऽपि व्यभिचारात् । अस्ति अनित्यत्वव्यापकं प्रमेयत्वं नयाप्यश्च गुणत्वं। न चानित्यत्व-गुणत्वयााप्ति
भावः, 'साध्यव्यभिचारविरोधी (१) माध्यष्यभिचाराभावसमनियतः, माध्यव्यभिचार्यत्तित्वे मति माध्यष्यभिचाराभावव्यापक इति यावत्, '' उपाधिः तद्धर्मवत्त्वेन म उपाधिरित्यर्थः(२), भवति चाईन्धनप्रभववके माध्यसमव्याप्तस्याव्याप्यतासम्बन्धावच्छिनप्रतियोगिताकाभावः पाईन्धनप्रभववयादिव्याथमाघनिष्ठतया धूमादिव्यभिचाराभावसमनियतः, पादैन्धनादेः माध्यविषमव्याप्तस्थाव्याप्यत्वसम्बन्धावविवाभावस्तु न तथा तस्याईन्धनादावपि मत्वेन तत्र माध्यव्यभिचाराभावासत्वादिति भावः। अत्र यदभावपदस्य उपाधितावच्छेदकसम्बन्धावच्छित्रयदभावपरत्वे पाईन्धनप्रभववयादावव्याप्तिः, सामान्यतो पदभावपरत्वे द्रव्यं पृथिवौलात् मत्त्वादा इत्यादौ वरूपसम्बन्धेन माध्यव्यभिचारित्वादेरयुपाधितापत्तिः स्वरूपसम्बन्धेन नदभावस्थापि माध्ययभिचारविरोधित्वादतः प्रतियोगिताकान्तमभावविशेषणं। न चैवमव्याप्यत्वसम्बन्धस्य वृत्त्यनियामकत्वेनाभावप्रतियोगितानवच्छेदकत्वादसम्भव इति वाच्य। इस हेतावुपाधिस्तिौतिप्रतीतिबलात् वृत्त्यनियामकत्वेऽपि तस्य प्रतियोगिताव
• (१) 'यभिचारविरोधी' इत्यत्र 'साध्ययभिचारविरोधी' इति कस्य
चिन्मलपुलकस्य पाठः तमनुखत्व रास्यवता सादृशपाठो धतः । (२) तहर्मचापक उपाधिरित्यर्थ इति ग• ।
Page #331
--------------------------------------------------------------------------
________________
उपाधिया। रस्ति, समव्याप्तिकस्य च व्यतिरेकस्तया, महिसाध्य ध्यापकव्याप्यीभूतस्य व्याप्यं यत्ता साध्यं व्यभिचरति,
छेदकत्वात्(१) दह हेतावुपाधिरिति प्रतीतेत्तिनियामकत्वस्यापि तत्र सत्त्वाच्च । माध्यव्यभिचारविरोधित्वपदेन च साध्यव्यभिचार्य्यद्वत्तित्वमात्रोको वहिमान् धूमादित्यादौ महानसत्वादावतियाप्तिः अव्याप्यत्वसम्बन्धावच्छिवमहानसत्वाभावस्य महानमत्वव्याप्यमात्रनिष्ठस्य वहिव्यभिचार्यवृत्तित्वात्, साध्यव्यभिचाराभावव्यापकत्वमाचोकौ धूमवान् बहेरित्यादौ विषमयापके पाईन्धनादावतिव्याप्तिः, माध्यव्यभिचाराभावववृत्तित्वोकावपि तथा वहिमान् धूमादित्यादौ महानसत्वादावतिव्याप्तिश्च अतः माध्ययभिचाराभावसमनियतत्वपर्यन्तं । यद्धविच्छिन्नायाप्यत्वं माध्यव्यभिचारित्वञ्चं विशेषणताविशेषसम्बन्धेन बोध्यं तच्च विशेषणताविशेषसम्बन्धेन तद्धर्मावच्छिन्नवदन्यवृत्तिवं माध्यतावच्छेदकावच्छित्रसाध्याभाववति विशेषणताविशेषेण वर्तमानपञ्च, न तु हेतुतावच्छेदकसम्बन्धेन वक्रव्यं धूमवान् वहेरित्यादौ धूमवत्सामान्यान्यतरत्वादौ विषमव्यापके अतिव्याप्यापत्तेः धूमवत्मामान्यान्यतरान्यासंयुक्त्वस्थापि असंयुक्त-धूम
(१) मनु इह हेतावुपाधि लीतिप्रतीतिगपाधौ षष्थाप्यत्वसम्बन्धावधि
महेतुवृत्तित्वाभावं अवगाहते न तु हेतौ भव्याप्यत्वसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकोपाध्यभावं, बतः कथं कृत्यनियामकस्याव्याप्यत्वसम्बन्धस्य अभावप्रतियोगितावच्छेदकसम्बन्धत्वे तादृशप्रतीतेर्बलत्वमित्यतपारश हेतावुपाधिरितीति । .. ... . .
Page #332
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामझौ
व्यभिचारे चान्ततःसाध्यमेवोपाधिः, अभेदेऽपि व्याप्यव्यापकत्वान् साधनाव्यापकत्वाचेति स्वीचक्रुः । तन्न ।
वन्मात्रसंयुकोभयमावनिष्ठतया धमाभाववत्संयुकत्वाभावसमनियतत्वात्। ननु तथापि वडिमान् धूमादित्यादौ वक्रिमामय्यादौ माधनव्यापकेऽतिव्याप्तिः अव्याप्यत्वसम्बन्धेन तदभावस्थापि वझिव्यभिचाराभावसमनियतत्वात्। न च साधनावृत्तित्वेन यदभावो विशेषणीय इति वाच्यं । धूमवान् वक्रेरित्यादौ पाईन्धनप्रभववढ्यादावव्याण्यापत्तेः विशेषणताविशेषसम्बन्धेन पाईन्धनप्रभववहिमदन्यवृत्तिवरूपस्या;न्धमप्रभववङ्ग्यव्याप्यत्वस्थ वहावसत्वेन तत्सम्बन्धावछिन्ना;न्धनप्रभववङ्गभावस्य माधनोभूतवनिवृत्तित्वात् । यदि चाव्याप्यत्वं व्याप्यत्वाभावः व्याप्यत्वञ्च विशेषणताविशेषसम्बन्धेन तददन्यावृत्तिवे मति विशेषणताविशेषेण तदत्तित्वं तत्सम्बन्धावच्छिबान्धनप्रभववङ्ग्यभावश्च न वझिवृत्तिरित्युच्यते, तदा वहिमामय्यादावयतिव्याप्तिर्दुर्बारा तादृशाव्याप्यत्वसम्बन्धावच्छिववभिमामय्यभावस्थापि साधनौभतधूमावृत्तित्वादिति चेत्। न। माधनाधिकरणवृत्तित्वेन यदभावविशेषणात्।
' भट्टाचार्यास्तु वह्नौ माये वहिवामय्यपि उपाधिर्भवत्येव( कृतं विशेषणप्रक्षेपेण । न चैवं वहौ साध्ये धूमे इतौ वहिमामय्युपाधिरित्यपि व्यवहारापत्तिरिति वाच्यं । श्रव्याप्यत्वसम्बन्धेन तदृत्तित्वस्यैव तत्र इतावुपाधित्वव्यवहारनियामकत्वात् अत एव वहौ (१) वड्यादौ साध्ये वत्रिसामग्राघुपाधिर्भवत्येवेति ग, घ ।
Page #333
--------------------------------------------------------------------------
________________
'उयाधिवादः।
तवापि यव्यभिचारे साध्यव्याप्यव्याप्यत्वं तन्त्रमावश्यकत्वालाघवाच न साध्यव्यापकव्याप्यत्वमपि भवतैव व्यभिचारस्य दर्शितत्वात्। न च साध्यव्याप्यव्याप्यत्वमेवानोपाधिकत्वं, साध्यव्याप्यमित्यचापियनोपाधिकत्वं
माध्ये धूमः मोपाधिरित्यपि न व्यवहारः अव्याप्यत्वसम्बन्धेन यथोकधर्मवत्त्वस्यैव तादृशव्यवहार नियामकलादिति प्राहुरिति संक्षेपः।
'भावः' अव्याप्यतासम्बन्धावच्छिन्नाभावः, 'तस्याभावेऽपौति अव्याप्यतासम्बन्धेनाभावसत्त्वेपौत्यर्थः, 'व्यभिचारात्' साध्यव्यभिचारमत्त्वात्, एतदेव शब्दोऽनित्योगुणवादित्यत्र विषमयापके प्रमेयत्वे ग्राहयति, 'अस्ति हौति भवति होत्यर्थः, 'अनित्यत्वव्यापक अनित्यत्वविषमव्यापकं, 'प्रमेयत्वं' अनित्य-गुणवितिप्रमाविशेष्यत्वं, 'तयाण्यञ्चेति अव्याप्यतासम्बन्धेन तदभाववञ्चेत्यर्थः। 'न चानित्यत्वगुणत्वयोरिति न च गुणत्वेऽनित्यत्वव्यभिचाराभावोऽस्तीत्यर्थः, ‘प्रमेयत्वमितियथाश्रुतन्तु न मङ्गछते तद्वदन्यत्तित्वरूपाव्याप्यत्वस्यैव लाघवादनुगतत्वाचात्र घटकतया केवलान्वयिनः प्रमेयत्वस्य तदप्रसिद्धेः। न च तथापि 'न च गुणत्वेऽनित्यत्वव्यभिचाराभावोऽस्तोत्यसंगतं विशेषणताविशेषसम्बन्धेन माध्यव्यभिचारित्वस्यैव लक्षणघटकतया गुणत्वजातौ तादृशानित्यत्वव्यभिचाराभावस्य सत्त्वादिति वाच्य। 'गुणत्वपदस्य गुणपदवाच्यत्वपरत्वादिति ध्येयं । 'व्यतिरेकः' अव्याप्यतासम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकव्यतिरेकः, 'तथा' माध्य
41
Page #334
--------------------------------------------------------------------------
________________
५२९
तत्वचिन्तामगै
तदेव वाच्यं तथाचानवस्थेति, अनोपाधिकत्वे च व्याप्तिलक्षणे यावदिति पदं साध्यव्यापकत्वे विशेषणं दत्तमेव । किञ्च यस्मिन् सत्यनुमितिनं भवति तदेव तब दूषणं न तु यद्यतिरेके भवत्येवेत्येतजभ विरुज्जत्वा
व्यभिचाराभावसमनियतः, 'माध्यव्यापकेति माध्यव्यापकं मत् यत्माध्यव्याप्योभूतं तस्य माध्यसमव्याप्तस्येति यावत्, 'व्याप्यं अव्याप्यतासम्बन्धेनाभाववत् । ननु यदि समव्याप्त एव उपाधिस्तदा 'व्यभिचारे चावण्यमुपाधिरिति नियमो भज्येत, न हि सर्वत्र व्यभिचारिणि माध्यसमव्याप्तेन स्थातव्यं, इत्यत आह, 'व्यभिचारे चेति, 'अन्ततइत्यनेन माध्यमामय्यादौनां वहनामेव उपाधित्वं सम्भवतीति सूचितं । ननु खस्मिन् स्वसमव्याप्यत्वाभावात् कथं माध्यस्य उपाधिवमित्यत आई, 'अभेदेऽपौति। ननु तथापि कथं तद्धेतौ सोपाधित्वव्यवहारः व्यभिचारितासम्बन्धेन उपाधिमत्त्वस्यैव तन्नियामकत्वादित्यत-शाह, 'साधनाव्यापकत्वाचेति। साध्यव्यभिचारविरोधित्वं माशव्यभिचाराभावव्याप्यत्वमात्रमिति यथाश्रुताभिप्रायेण माध्यव्यापके महानसत्वादावतिव्याप्तिमार, 'तवापौति, 'अव्यभिचारे' माध्यव्यभिचाराभावे, षष्ठ्यर्थ सप्तमी, 'माध्यव्याप्यव्याप्यत्वमिति माध्यव्याप्यस्य महानसत्वादेरव्याप्यतासम्बन्धेनाभावोऽपौत्यर्थः, 'तन्त्र व्याप्यं, आवश्यकत्वादिति साध्यव्याप्यमहानसत्वादेरव्याप्यतासम्बन्धेनाभाव
(९) साध्यव्यापक इति ख० ।
Page #335
--------------------------------------------------------------------------
________________
उपाधिवादः।
देरप्यदोषत्वापत्तः। नापि पक्षधर्मावच्छिन्नसाध्यव्यापकत्वे सति साधनाव्यापकत्वमुपाधित्वं साधनावच्छिन्नसाध्यव्यापकोपाध्यव्यापनात्। शब्दोऽभिधेयः प्रमेयत्वादित्यचाश्रावणत्वस्योपाधित्वायत्तेश्च शब्दधर्मगुणत्वाव
----
वति माध्यव्यभिचाराभावस्यावश्यकत्वादित्यर्थः, 'लाघवाच्चेति व्यर्थविशेषणत्वादिरहितत्वाञ्चेत्यर्थः, इदच्च व्यर्थविशेषणतास्थले व्याप्तिरेव न तिष्ठतौतिप्राचीनमतानुरोधेन, 'साध्यव्यापकव्याप्यत्वमपौति श्रव्याप्यतासम्बन्धेन माध्यव्यापकत्वस्याभाव एवेत्यर्थः, 'दर्शितत्वादिति 'अस्ति होत्यादिना दर्मितत्वादित्यर्थः,(१) 'भवन्मते विषमव्यापकेऽतिव्याप्तेश्चेत्यपि बोध्यं । ‘ननु भवतु माध्यव्यापकोऽपि महानसत्वादिरुपाधिः को दोषः तर्हि सद्धेतावपि सोपाधितापत्तिरिति चेत्, न हि यत्किञ्चिदुपाधिसत्त्वेनैव मोपाधिता, किन्तु यत्किञ्चित्माध्यव्याप्यव्याप्यत्वमेवानौपाधिकत्वमिति साध्यव्याप्यव्याप्यत्वसामान्याभावएव सोपाधित्वमित्यत-श्राह, 'न चेति, 'माध्यव्याप्यव्याप्यत्वं', तथाच यद्युक्तस्वरूपमनौपाधिकत्वं तदा उकस्वरूपं सोपाधित्वं स्थात् न चैवमिति भावः । 'साध्यव्याप्यमित्यत्रापि हौति, माध्यव्याप्यत्वग्राहकमिति शेषः । नन्वेवमनौपाधिकत्वं व्याप्तिग्रहे तन्त्रमेव न स्यात्, न हि साध्यव्यापकव्यापकत्वं तत् अतिप्रमङ्गादित्यत-बाह, 'अनौपाधिकत्व इति, 'व्याप्तिलक्षणे' व्याप्तिग्राहके, 'साध्यव्यापकत्वे' साध्य
(१) दर्शितत्वादिति भाव इति ग० ।
Page #336
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२.
तत्वचिन्तामनी
ध्यव्यभिचारः केवलसाध्यव्यतिरेको वा साधनीयस्तथा चार्थान्तरं केवलसाध्ये हि विवादा न तु विशिष्टे । अथ प्रकृतसाध्यव्यभिचारसिद्ध्यर्थं विशिष्टसाध्यव्यभिचारः साध्य इति चेत् । न। अप्राप्तकालत्वात् ।
काभाववदत्तिवं वयवच्छिन्नधूमसमानाधिकरणात्यन्ताभावप्रतियोगितानवच्छेदकरूपावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभाववदृत्तित्वमिति यावत्, तत्र वयवच्छिन्नधूमसमानाधिकरणभावप्रतियोगितावच्छेदकत्वाभाव-धूमसमानाधिकरणभावप्रतियोगितावच्छेदकत्वाभावयोभैदाभावेन(१) वयवच्छिन्नेत्यस्य वैयर्थप्रसङ्गात् । ननु तादृशाभावयोर्भदाभावेऽपि यथामनिवेशे(९) न वैयर्थं अन्यथा तवापि साध्यव्यापकव्यभिचारित्वादित्यत्र साध्यव्यापकेति व्ययं साध्व्यभिचारित्वादित्येतस्यैव सम्यक्वात् माध्यतावच्छेदकावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावस्थापि साध्यव्यापकतावच्छेदकावच्छिन्नप्रतियोगिता
(१) धूममात्रस्य वहिशून्यदेशत्तित्वविरहात् वयवच्छिन्नधूमस्य शुद्ध
धूमम्य च समदेशत्तित्वात् वावच्छिन्नधूमसमानाधिकरणाभावप्रतियोगितावच्छेदकत्वाभाव-धूमसमानाधिकरणाभावप्रतियोगिता
वच्छेदकत्वाभावयोः समनियतत्वेनाभेद इति भावः । (२) तादृशाभावयोरमेदेऽपि अवच्छेदकताभेदात् वावच्छिन्नत्वघटितयाव
डमनिछावच्छेदकताकप्रतियोगिताकामावविषयकप्रतीतौ वळावच्छिन्नत्वाघटितयावद्धर्मनिछावच्छेदकताकप्रतियोगिताकाभावस्थाविषयीकरणात् यथासनिवेशे न वैयर्थ्यमिति भावः ।
Page #337
--------------------------------------------------------------------------
________________
.. उपाधिवादः।
२२९
- प्रथम साध्यव्यभिचार एवोगाव्यस्तपासिहावुपा
काभावतया तस्यापि साध्ययापकव्यभिचारित्वघटकत्वात्। वस्तुतस्त पाईन्धनाव्याप्यवादित्यादिप्रातिखिकरूपेणैवासाधकत्वं माध्यते न तु मामान्यतः माधनावच्छिन्नमाध्यव्यापकव्यभिचारित्वेनेति क वैयर्थसम्भावनेत्यखरमादाह, 'किचेति, 'पक्षदयेऽपौति खक्षणदयेऽपौत्यर्थः, 'प्रसाध्येति उपाधिव्यभिचारेण उपाधिव्यतिरेकेण वा प्रसाध्येत्यर्थः, 'माधनौय इति विशेषणाव्यभिचारित्वे सति विशिष्टमाध्यव्यभिचारिवेन विशेषणवति विशिष्टसाध्याभाववत्त्वेन वा हेतना साधनौयइत्यर्थः, उपाधेः शुद्धमाध्यव्यापकताज्ञानाभावेन तयभिचारेण तयतिरेकेण वा प्रामाध्यव्यभिचारस्य शुद्धसाध्यव्यतिरेकस्य वा साधनासम्भवात् अनुकूलताभावादिति भावः। • परम्परया प्रकृतोपयोगाचार्थान्तरमित्यामते, 'अथेति, 'अप्राप्तकालवादिति, प्रथमं विशिष्टमाध्यव्यभिचारस्थानाकाशितस्थाभिधानादिति भाव:(१)।
प्राभाकरोपाध्यायमतमाशइते, 'प्रथमेति, 'उद्भाव्यः' विशेषव्यभिचारिखे मति विशिष्टसाध्यव्यभिचारेण साधनौषः, 'तचामिहाविति तत्र विशिष्टसाध्यव्यभिचारे असिद्धाबुद्भावितार्या तसिद्धये उपाधिः उद्भाव्य इत्यर्थः, 'प्रचतेति, प्रकृतानुमानविरोधिएमाध्ययभिचारासाधकत्वादिति भावः । ननु विशिष्टमाध्यव्यापकत्व ज्ञानेनापि विशेषणवति उपाधिव्यभिचारित्वेन हेतुना (१) इत्यर्थ इति ग., घ०।
42
Page #338
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामो
पिरिति चेत्, तर्हि प्रकृतानुमाने नोपाधिदूषणं स्यात् । किच साध्यव्यभिचारहेतुत्वेन पक्षधमावच्छिबसाध्यव्यापकव्यभिचार रवोपन्यसनीयो नोपाधिः ।
एमाध्यव्यभिचारानुमानं सम्भवति विशेषणवति विशिष्टव्यापकव्यभिचारित्वे विशेष्यव्यभिचारित्वस्यावश्यकत्वादित्यताह, 'किश्चेति, 'पक्षधर्षति माधनस्थाप्युपखक्षकं पक्षधर्मसाधनावच्छिन्नमाध्यव्यापकस्योपाधेर्यभिचार एव उपन्यमितमुचित इत्यर्थः, 'नोपाधिः' न केवलोपाधिः, न चेष्टापत्तिः, कथकसम्प्रदायविरोधात्, रह हेतावुपाधिः अयं हेतु: सोपाधिः इत्येव सकलकथकैरुझावमादिति भावः । इदश्च दूषणं सर्वत्र बोध्यं न केवलमिह । यद्यपि व्यभिचारित्वादिसम्बन्धेन उपाधिरपि साक्षाद्धेतः सम्भवति तथाप्यस्य समाधातस्य 'यदेति कृत्वा ग्रन्थकृतैवाये स्वयं वक्ष्यमाणत्वानासंगतिः। व्यभिचारित्वादिसम्बन्धस्य वृत्त्यनियामकतया न व्याप्यतावच्छेदकत्वप्रभव इत्यभिमानेन इदमित्यपि केचित् ।
रबकोषकारमतमाशङ्कते१), 'स्थादेतदिति, एतलक्षणपक्षे सत्यतिपक्षोत्रायकत्वं दूषकतावीजमेव साधनाव्यापकत्वविशिष्टं सल्लच्यतानियामकं न तु व्यभिचारोबायकत्वं पक्षधर्माताबललभ्यसाध्यव्यभिचारज्ञानस्य प्रकृतानुमानमूलभूतमाध्यतावच्छेदकावच्छिन्नमाध्यव्याप्तिज्ञानाविरोधितया अकिञ्चित्करत्वादिति ध्येयम् । 'अनित्यबातिरिक्रति अनित्यत्वातिरिको य: शब्दधर्मस्तदतिरिको यो
(१) रत्नकोषकारलक्षणमाशात इति ग०, घ० ।
Page #339
--------------------------------------------------------------------------
________________
उपाधिवादः।
स्यादेतत्पर्य्यवसितसाध्यव्यापकत्वे सति साधनाव्यापकउपाधिः, पर्यवसितं साध्यं पक्षधर्माताबलखभ्यं यथा शब्दानित्यत्वातिरिक्तशब्दधातिरिक्तधर्मवान मेयत्वादित्यच पर्यवसितं यत्साध्यम् अनित्यत्वं तस्य
धर्मस्तदानित्यर्थः, पर्यवसितं यत्माध्यमनित्यत्वमिति, नित्यत्वातिरिको यः शब्दधर्मस्तदतिरिकं विशिष्टाभावत्वादुभयं शब्दधर्मातिरिकं घटवादिकमनित्यत्वञ्च तत्रादौ बाधादनित्यत्वस्यैव पक्षधर्मताबलेन सिद्धत्वादिति भावः । 'तस्य व्यापकमिति शुद्धसाध्यस्य केवलावयितया तड्यापकत्वासम्भवादिति भावः। न चेदं सदनुमानमेवेति कथमत्रोपाधिरिति वाच्यं। मौमांसकमतेनाभिधानात् तैः शब्दस्य नित्यत्वाजौकारात्। यद्दा शब्दपदवयं शब्दत्वपरं तथाच शब्दत्वं अनित्यवातिरिकशब्दत्वधर्मातिरिक्रधर्मवत् मेयत्वादित्यवेत्यर्थः, उदाहरणान्तरमाह, 'यदि चेति, 'तथैवेति शब्दत्वं कृतकत्वातिरिकशब्दत्वधर्मातिरिक्तधर्मवत् मेयत्वादितिक्रमणेत्यर्थः, 'तदा अनित्यत्वमिति, पक्षधर्मताबललभ्यस्य कृतकत्वस्थ व्यापकत्वादिति भावः । न चैवं पर्वतो वहिमान् धमादित्यादौ पर्वतीयवहिव्यापकत्वात् पर्वतत्व-पाषाणमयत्वादावतिव्याप्तिरिति वाच्यं। पक्षावृत्तित्वेन विशेपौयत्वादिति() हदयं। पक्षधर्मताबललभ्यसाध्यव्यापकस्य उपाधित्वे प्राचा संवादमाह, 'तदुक्तमिति, 'वाद्युक्रसाध्येति वाद्युतं माध्य
(१) पक्षात्तिवे सतीत्यनेन विशेषणीयत्वादितौति ग०, घ• ।
Page #340
--------------------------------------------------------------------------
________________
सावचिन्तामणे
ध्यापकं कृतकत्वमुपाधिः। यदि प तथैव शतकत्वमपि शब्दे साध्यते तदा अनित्यत्वमुपाधिः। तदुक्तं “वायुतसाध्यनियमच्युतोऽपि कथकैरुपाधिरडाव्यः पर्यवसितं नियमयन् दूषकतावौजसाम्राज्यात्" इति ।
माध्यतावच्छेदकावच्छिवं माध्यमेव, तषियमच्युतोऽपि नयापकतारहितोऽपि(१) 'पर्यवमितं नियमयन्' उपाधिः पक्षधर्मताबसमभ्यं व्यायं कुर्वन्, उपाधिः कथकरुद्भाव्य इत्यर्थः, उगावने हेतुमाह, 'दूषकतेति सत्प्रतिपक्षोत्रायकत्वस्य दूषकतावौजस्य तत्र सत्त्वादित्यर्थः । ‘एवं होत्यादि, पक्षधर्मताबलेन नित्यद्रव्यसमवेतत्वजिद्धये असमवेतत्व-द्रव्यासमवेतत्वयोर्बाधस्कोरणय 'मावयवत्व इति द्रव्यसमाथिकारणकवे सिद्धे इत्यर्थः, 'जन्यमहत्त्वेति पत्र द्रव्यत्वमापस्य हेतुले घटादौ यभिचार इत्यनधिकरणान्नं, तावन्माचस्य रूपादौ व्यभिचार इति द्रव्यत्वोपादानं, जन्यानधिकरणद्रव्यत्वस्याप्रसिद्धत्वात् (१) महत्त्वेति, परमावसिद्धिदशायां प्राकाशादावषयव्याप्तियहाय 'जन्येति, अखण्डाभाववान वैयर्थमिति ध्येयं, 'उपाधिः स्यात्' उपाधित्वेन ज्ञातः स्थादित्यर्थः, पक्षे पर्यवसितसाध्याव्याप
... (५) वायुक्तसाध्ये नियमः च्यतोयस्येति बडबीहिणा साध्यतावच्छेदका.
. वरिवसाध्ययापकताराहित्यरूपपर्यावसितार्थनाभः । (२) नन्यस्य संयोगादेः सर्वत्र इथे सत्त्वादप्रसिद्धिरिति भावः ।
Page #341
--------------------------------------------------------------------------
________________
उपाधिवादा।
अनेन पक्षधर्मसाधनावच्छिन्नसाध्यब्यापकोपाधिःसंपद्यते तादृशसाध्यस्य पर्यवसितत्वादिति, तब, रवं हि घणुकस्य सावयवत्वे सिझे घणु कमनित्यद्रव्यासम
कत्वेन वस्खतिव्याप्तेरभावात् अत्र समवेतत्वमावस्य पक्षावृत्तित्वाभावात् 'निसर्गद्रव्येति, पर्यावमितमाध्यममव्याप्त एव उपाधिरिति यदि परो ब्रूयातदाप्यतिव्याप्तिरिति दर्शनाय 'द्रव्येति, 'तस्थ व्यापकमिति पक्षातिरिके तस्य व्यापकतया सहीतमित्यर्थ:(१) । न च प्रकृते नित्यद्रव्यसमवेतत्वं पक्षधर्मताबललभ्यमेव न भवति अभावमात्रगतेमानित्यद्रव्यममवेतत्वाभावत्वन व्यापकतावच्छेदकेनानाकान्तत्वात् बाधमहकारात् व्यापकतावच्छेदकप्रकारेण व्यापकतावच्छेदकाश्रयस्यैवानुमितिनियमादिति वाच्चं। तादृभनियमे मानाभावात् । न चैवं घटेतरवयभाववानितिबाधसहकारेण वहिव्यायधूमवान् पर्वतइति परामर्शद्घटादेरप्यनुमित्यापत्तिरिति वाय। बाधभेदेन कार्य-कारणभावभेदात् तादृशबाधस्था हेतुत्वात् अनुभवानुरोधिबात्कल्पनायाः । न च तथापि घटेतरद्रव्याभाववानित्यादिबाधसहकारेण वहिव्याप्यवत्तापरामाद्घटादेरनुमित्यापत्तिर्दुवारा तादृश्बाधदशायां द्रव्यादिव्याप्यवत्तापरामाद्घटानुमित्युत्पत्त्या तादृशबाधस्य घटानुमितौ हेतुत्वादिति वाच्यं। द्रव्यादिव्याप्यवत्तापरामर्शजन्यातिरिकायास्तादृशबाधजन्यघटानुमितेरलौकतया द्रव्या
(१) यातिरिक्त व्यापकतया सिद्धमित्यर्थः इति क.।
Page #342
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामो
बेतं जन्यमहत्वानधिकरणद्रव्यत्वादित्य निस्पर्शद्रव्यसमवेतत्वमुपाधिः स्यात्, भवति हि नित्यद्रव्यसमवेमत्वं पर्यवसितं साध्यं तस्य व्यापक साधनाव्यापकच । किञ्च पक्षधर्मताबललभ्यसाध्यसिद्धा निष्फल उपाधिः
दिव्याप्यवत्तापरामर्शविरहादेव तादृशबाधसत्वेऽपि वकिव्याप्यवत्तापरामर्शात्तदनुत्पत्तेः अन्यथा उक्रनियमामुपगमेऽपि उक्तापत्तेर्दुवारत्वात्। न हि नियमव्यभिचारभिया सामग्रो कार्यं ना यति, इनि भावः । एतदस्वरसेवाइ, 'किञ्चेति, इत्यपि केचित्। वस्तुतस्तु ननु भवन्मतेऽपि स्पर्शवदसमवेतत्वस्य उपाधित्वेन ज्ञानापत्तिः पक्षातिरिक्त एमाध्यव्यापकताज्ञामसम्भवात् पक्षे माधनाव्यापकत्वज्ञानसम्भवाच्च, यदि चावदवानवस्थाप्रसङ्गरूपविपक्षबाधकतर्कण कस्यचिन्त्रिरवयवस्य स्वभवतः सिद्धौ तत्समवेतद्रव्ये मायाव्यापकत्वज्ञानान तथा तदा ममापि तुल्यमित्यखरसादाह, 'किञ्चेति, ‘पक्षधर्मताबललभ्येति पक्षधर्मताबखनन्यायाः माध्यव्य मिद्धावित्यर्थः, 'निष्फल उपाधिरिति निष्पलमुपाधित्वेन ज्ञानमित्यर्थः, 'कस्थ व्यापक इति कस्य व्यापकत्वेन ग्रह इत्यर्थः, तज्ज्ञानं विना तड्यापकत्वग्रहायोगादिति भावः । ननु प्रकृतानुमानेन तत् ग्टहीत्वा उपाधौ तड्यापकत्वग्रहो यदि तदैव सियसिद्धिव्याघातः किन्तु अनुमानान्नरात प्रमाणान्तरेण वा तद्दौला उपाधौ तड्यापकलयहः स्थादित्यत आइ, 'न हौति न वेत्यर्थः, 'सोपाधौ' सोपाधितया जाते, 'यस्य व्यापक इति, तथाच सोपाधी साध्यस्य पक्षधर्मताबललभ्यत्वमेवामिद्धमिति भावः ।
Page #343
--------------------------------------------------------------------------
________________
उपाधिवादः।
१९५ तदसिडी च कस्य व्यापकः, न हि सोपाधी पक्षधर्मताबलात् साध्यं सिध्यति यस्य व्यापक उपाधिः स्यादिति।
इति श्रीमहङ्गेशपाध्यायविरचिते तत्वचिन्तामणी अनुमानाख्यहितीयखण्डे उपाधिवादपूर्वपक्षः।
------------------------
इदमुपलक्षणं वायुः प्रत्यक्षः प्रत्यक्षस्पर्माश्रयत्वादित्यादावुद्भूतरूपवत्त्वादावव्याप्तिः, न हि तत्र वहिव्यत्वावच्छिन्नपत्यक्षत्वादिकं पक्षधर्मताबललभ्यं, न च पक्षधर्मताबललभ्यत्वं यदा कदाचिद्यस्य कस्यचित् पक्षधर्मताबललभ्यत्वं अत एवोद्भूतरूपवत्त्वादावपि नाव्याप्तिः विशिष्टे लाघवज्ञानादिसहकारेण वहिव्यत्वावच्छिन्त्रप्रत्यक्षवादावपि कदाचित् पक्षधर्मतावललभ्यत्वादिति वायं । प्रसिद्धानुमाने महानसत्वादेरप्युपाधितापत्तेः महानमौयवयादेरपि कदाचित् पक्षधर्मताबललभ्यत्वेन तड्यापकत्वादित्यास्तां विस्तरः ।
इति श्रीमथुरानाथतर्कवागौम-विरचिते तत्त्वचिन्तामणिरहस्य अनुमामाख्यद्वितीयखण्डरहस्ये उपाधिवादपूर्वपक्षरहस्यं ।
Page #344
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ १९६]
थोपाधिवादसिद्धान्तः।
अवाच्यते यद्यभिचारित्वेन साधनस्य साध्यव्यभिचारित्वंस उपाधिः, लक्षणन्तु पर्यवसितसाध्यव्यापकत्वे सति साधनाव्यापकत्वं, यहावच्छेदेन साध्यं प्रसिहं
अथोपाधिवादसिद्धान्तरहस्यं । प्रथमतो सध्यतानियामक सध्यतावच्छेकं निर्वकि, 'यदिति, अस्य पक्षणरूपत्वे 'लक्षणवित्यग्रिमग्रन्धासङ्गतः । यद्यभिचारित्वेनेत्यत्र वैशिर्ष बतौयार्थः, अन्वयथास्य साध्यव्यभिचारित्वेन, तथाच ययभिशारित्वविशिष्टं माध्ययभिचारित्वं 'साधनस्य' माधनवृत्तः, स उपाधिरिति यथाश्रुतोऽर्थः, वैशिष्यञ्च विशेषणताविशेषसम्बन्धेनैकाधिकरणवृत्तित्वं, वायुः प्रत्यक्षः प्रत्यक्षस्पीश्रयत्वात् प्रमेयत्वादेत्यादौ विशिष्टसाध्यव्यापकोपाधौना उद्भूतरूपवत्त्वादीनां व्यभिचारिलेन विशिष्टं माध्यव्यभिचारित्वमपि माधनवृत्ति भवत्येवेति न तचाव्याप्तिः, वकिमान् धूमात् द्रव्यं पृथिवौत्वादित्यादिमद्धेतौ माध्यव्यापके वहिमामयीमत्त्व-गुणवत्त्वादावतिव्याप्तिवारणाय साधनवृत्तिमप्रवेशः, माधनपदश्च माधनतावच्छेदकावच्छित्राधिकरणत्वपरं, तेन न द्रव्यं विशिष्टमायादित्यादौ विभिष्टस्यानतिरिकत्वेऽपि गुणववादावतियाप्तिः, वहिमान् धूमात् द्रव्यं पृथिवीत्वादित्यादिगतौ माध्यव्याप्यस्य महानसत्व-घटबादेवारणाय साध्यव्यभिचा
Page #345
--------------------------------------------------------------------------
________________
उपाधिवादः।
रित्वप्रवेशः। यत्मामानाधिकरणविशिष्टं साध्यव्यभिचारित्वमित्युको धूमवान् वः रूपवान् द्र्व्यत्वादित्यादौ साधनव्यापके वहिमामचौमत्व-द्रव्यत्वादावतिव्याप्तिरतो 'ययभिचारित्वविशिष्टमिति, ययभिचारित्वं माध्यव्यभिचारित्वञ्च साधनतावच्छेदकावच्छिन्नाधिकरणतात्तीत्युक्तौ पर्वतो धूमवान् बहेरित्यादौ पर्वतेतरत्व-महानसेतरत्वादेरिदं गुरु रूपादित्यादौ पृथिवौत्वाभाव-घटत्वाभावादेखोपाधितापत्तिः श्रतो विशिष्टत्वप्रवेशः, तेषां व्यभिचारित्वविशिष्टसाध्यव्यभिचारित्वञ्च न कुचापि हेतुव्यक्तौ तदधिकरणताव्यको वेति तड्युदासः तृप्ततत्तदहिव-तत्तद्रूपत्वाद्यवच्छिन्नाधिकरणतयैव वहित्व-रूपत्वाद्यवच्छिन्नाधिकरणताबुद्दयुपपत्तौ सकलवयधिकरणरूपाधिकरणसाधारणातिरिक्तैकतदवच्छिन्नाधिकरणलकल्पने गौरवान्मानाभावाच। अत एव रूपवान् द्रव्यत्वात् द्रव्यं सत्त्वादित्यादावपि पृथिवीवाभाव-घटत्वाभावादौ नातिव्याप्तिः हेतौ पृथिवीत्वाभावादिव्यभिचारित्वविशिष्टसाध्यव्यभिचारित्वसत्त्वेऽपि कुत्रापि हेत्वधिकरणताव्यको तदिशिष्टमाध्यव्यभिचारित्वविरहात् अवश्यक्तृतथिवौत्व-जलवादिविभिष्टद्रव्यत्वत्व-सत्तात्वावच्छिन्बाधिकरणतयैव द्रव्यत्वत्व-सत्तावाद्यवच्छिन्नाधिकरणताबुड्युपपत्तौ पृथिव्यादिनवकमाधारणतिरिक्तैकद्रव्यत्वत्वावच्छिन्नाधिकरणतायाः गुणदित्रयसाधारणतिरिकैकसत्तावाद्यवच्छिन्नाधिकरणतायाः कल्पने गौरवात् मानाभावाच। जलवविशिष्टद्रव्यत्वाधिकरणत्वं न पृथिवौहत्तौतिप्रत्ययवत् द्रव्यवत्वावच्छिनाधिकरणत्वं न पृथिवीपत्तौति प्रत्ययस्यापि यकिचिदधिकरणताव्यक्तिमादाय प्रमात्वस्य इष्टत्वात्, अन्यथा तत्तदधि
43
Page #346
--------------------------------------------------------------------------
________________
वावचिन्तामगै
करणताव्यतौनां द्रव्यत्ववानवच्छिनत्वेन पृथिवौत्तियत्वाधिकरणत्वं न द्रव्यवत्वावचित्रमितिप्रतौतेरपि यत्किचिदधिकरणतायकिमादाय प्रमावापत्तेः । अस्तु वा अवच्छेदकतासम्बन्धेन एकाधिकरणवृत्तित्वरूपं वैशिष्यमेव बतौयार्थः, तथाच वहिल-रूपालद्रव्यत्वलावच्छिनाधिकरणत्वस्य सकलतदवचित्राधिकरणनिष्ठस्यैकत्वेऽपि न तिः पर्वतेतरत्वादिव्यभिचारित्वस्य माध्यव्यभिचारित्वे नादृवैशिष्यस्थाप्रसिद्धत्वादेवातिव्याप्तिविरहात्। इत्यञ्च यद्धमावच्छिन्नव्यभिचारित्वविशिष्टसाध्यव्यभिचारित्वाधिकरणं साधनताव
छेदकावच्छिन्नसाधनाधिकरणत्वं माध्यममानाधिकरणवृत्ति तद्धर्मवत्वमुपाधित्वमिति निष्कर्षः, तेन धूमवान् बहेरित्यादावा;न्धनं न द्रव्यत्वादिरूपेणोपाधिः । धूमवान् वहेरित्यादौ विरुद्धस्य जलखोदेहपाधितावारणाय वृत्त्यन्नं नर्मविशेषणं, साध्याधिकरणनिष्टाधारतानिरूपिताधेयतावच्छेदकं तदर्थः, तेन द्रव्यं प्रमेचत्वादित्यत्र द्रव्यान्यत्वविशिष्टमत्त्वं द्रव्यं मचादित्यच द्रव्यभेदविशिष्टगुणभेदश्च नोपाधिः, यद्धावच्छिन्नयभिचारित्नच पडूावछिन्नवदन्यवृत्तिवं यद्धर्मावच्छिन्नाभावौयनिरवचित्राधिकरणतावत्तित्वं वा तेन गन्धवान् द्रव्यत्वादित्यादौ साधनव्यापके संयोगादौ नातिव्याप्तिः द्रव्यत्वाभाववान् सत्त्वादित्यत्र खाभाववद्वृत्तित्वरूपस्वव्यभिचारित्वेन हेतौ मायव्यभिचारानुमानसमर्थोऽपि मंयोगाभावादिन संग्रायः वक्ष्यमाणलक्षणामाकान्तवादतो न तचाव्याप्तिः। न च तथापि धूमवान् वहेरित्यादौ माध्यव्याप्यमहानसबादावतिव्याप्तिः नाभिचारित्वविशिष्टसाध्ययभिचारित्वस्थापि ।
Page #347
--------------------------------------------------------------------------
________________
उपाधिवादा।
२५०
वधिकरणतावृत्तिवादिति वाच्यं । तच तस्य खच्यत्वात् महानमायोगोलकान्यतरत्वावच्छिन्नधूमव्यापकत्वे मति तदवच्छिववङ्ग्यव्यापकत्वेन वक्ष्यमाणलक्षणाकान्तत्वात् “सर्वे साध्यसमानाधिकरणः सदुपाधयः हेतावेकाश्रये येषां स्व-साध्यव्यभिचारिता” इति सिद्धान्ताच, येषां खव्यभिचारिता माध्यव्यभिचारिता च एकाश्रये एकस्मिन्नधिकरणे हेताविति तदुत्तरार्द्धार्थः, एकस्मिन्नधिकरणे इत्युपादानात् पर्वतो धूमवान् वहेरित्यादौ पर्वतेतरत्व-महानसेतरत्वादेः इदं गुरु रूपादित्यादौ पृथिवौत्वाभाव-घटत्वाभावादेव न संग्रहः । न च तत्र तेषामपि संग्राह्यत्वमखिति वाच्यं । व्याप्ति-पक्षधर्मतयोरेकतरभङ्गस्थावश्यकतया तत्र तयभिचारित्वेनाविशेषितेन विशेषितेन वा माध्यव्यभिचारित्वानुमानासम्भवात् रूपवान् द्रव्यत्वात् द्रव्यं सत्त्वादित्यादावपि पृथिवीवाभाव-घटत्वाभावादिर्न मंग्राह्यः जलसमवेसनित्यत्वादिविशेषितेन तत्तयभिचारित्वेन तत्र माध्यव्यभिचारानुमानसम्भवेऽपि नयभिचारित्व-साध्यव्यभिचारित्वयोरेकस्मिनधिकरणे हेतावसम्भवात् नत्र तदनुपाधित्वस्य उपाधायादिमकलतान्त्रिकसम्मतलादिति सर्व चतुरसम् ।
केचित्त हेतावेकाश्रये हेतुरूपे एकस्मिन्नधिकरणे एकस्यां हेतुव्यकाविति यावत्, तेन रूपवान् द्रव्यत्वात् द्रव्यं सत्त्वादित्यादौ पृथिवीवाभाव-घटवाभावादिरपि संग्राह्यः, इदं गुरु रूपादित्यादौ तु मन संग्रायः एकस्या एव वहिव्यकरयोगोखक-पर्वताधुभयवृत्तित्वसम्भवे धूमवान् वक्रेरित्यत्र पर्वतेतरत्व-महानसेतरलादेरपि संग्रहः। न च तत्र आप तेषां संपावत्वेन वच्यमाणलक्षणस्य तवाव्याण्यापत्तिरिति वायं ।
Page #348
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामणी
तलक्षणस्यापि तत्साधारणतया अग्रे व्याख्यास्यमानत्वात्। न च तत्र तेषां संग्राहावे श्राधेयव्यारेकत्वेऽप्युकयुक्त्या अधिकरणयक्रिभेदेन अधिकरणताव्यक्तिभेदात् प्रकृतलच्यतावच्छेदकस्य तत्राव्याप्यापत्तिः उकयुज्यनादरे रूपत्वावच्छिन्नाधिकरणत्वस्याप्यविशेषेण सकलरूपाधिकरणमाधारणस्यैकस्य सुवचत्वात् इदं गुरु रूपादित्यादौ पृथिवौत्वान भावादावतिव्याप्तिः तत्र तदलक्ष्यतायाः सर्वसम्मतत्वादिति वाच्यं। ययभिचारित्वेन यविष्ठाव्यापकताकत्वेन विभिष्टं माध्यव्यभिचारित्वं माध्यनिष्ठाव्यापकताकत्वं साधनस्य साधनतावच्छेदकावच्छिन्नमाधनवृत्ति स उपाधिरित्यर्थात्। तथाच माधनतावच्छेदकावच्छिन्नयत्साधनव्यक्त्यव्यापकतावच्छेदकं माध्यतावच्छेदकं साधनतावच्छेदकावच्छिन्नतत्साधनव्यक्त्यव्यापकतावच्छेदको यो धर्मः माध्यसमानाधिकरणक्तितद्धर्मवत्त्वमुपाधित्वमिति फलितमिति न कोऽपि दोषइत्याहुः। तदसत् रूपवान् द्रव्यत्वादित्यादौ पृथिवौत्वादेरुपाधित्वस्य उपाध्यायादिसकलतान्त्रिकासम्मतत्वात् ।
अन्ये तु यद्धर्मावच्छिन्नवदन्यत्वेन विशिष्टसाधनाधिकरणे माध्यवदन्यत्वं वर्तते तद्धर्मावच्छिन्नत्वमुपाधित्वमिति लक्ष्यतावच्छेदकं लाघवात्, तथाच द्रव्यत्वत्वावच्छिन्नाधिकरणत्वस्य सकलाधिकरणमाधारणस्य एकत्वमतेऽपि रूपवान् द्रव्यत्वादित्यादौ पृथिवीवाभावादौ नातिव्याप्तिः । न वा रूपत्वावच्छित्राधिकरणत्वयैकत्वेऽपि इदं गुरु रूपादित्यादौ तवातिव्याप्तिः, इत्यञ्च ययभिचारित्वेन यद्धीवछिन्नवदन्यत्वेन साधनस्य साधनाधिकरणस्य माध्यव्यभिचारित्वं साध्यवभिनवं स उपाधिः तद्धर्मावच्छिन्नमुपाधिरित्यर्थः, हतीयार्थस्य
Page #349
--------------------------------------------------------------------------
________________
उपाधिवादा।
२१.
तदवच्छिन्नं पर्यवसितं साध्यं, स च धर्मः कचित् साधनमेव, कचिद्र्व्यत्वादि, कचिन्महानसत्वादि,
वैशिष्यस्य साधनाधिकरणेऽन्वयः, निरुतमाध्यममानाधिकरणत्वेन च तद्धमी विशेषणैयः तेन साध्यविरुद्धधर्म नातिव्याप्तिरिति लक्ष्यतावच्छेदकं परिष्कुर्वन्ति । तदमत् उदचरत्वादिति समासः । ___ अत्र लक्ष्यतावच्छेदकस्यैव लक्षणत्वसम्भवेऽपि येन रूपेण ज्ञातस्य उपाधेर्दोषत्वं तादृशं लक्षणमाह, 'लक्षणत्वित्यादिना, पर्यावमितपदार्थमाह, 'यद्भुमति, 'यद्धविच्छेदेन' यद्धर्मवति, 'माध्य प्रसिद्धू' माध्यं वर्तमानं, 'तदवच्छिन्न' मामानाधिकरण्यसम्बन्धेन तादृशयत्किञ्चिद्धर्मविशिष्टमित्यर्थः, यथाश्रुतेऽवच्छेदकत्वं नाचान्यूनवृत्तित्वं न वानतिरिक्तवृत्तित्वं मित्रातनयत्वादीनां तदसम्भवाना न वा स्वरूपसम्बन्धविशेषः मित्रातनयत्वादीनां तथात्वे मानाभावादित्यसङ्गतत्वापत्तेः। अत्र व्यधिकरणयत्किञ्चिद्धर्मविशिष्टस्य माध्यस्य पर्यवमितपदार्थत्वे अप्रसिद्ध्यापत्तिरतो धर्मविशेषपरिचयाय प्रसिद्धान्तं न तु लक्षणघटक, “लक्षणन्तु सामानाधिकरण्यसम्बन्धेन यत्किञ्चिद्धर्मविशिष्टसाध्यव्यापकत्वे मति माधनाव्यापकत्वमेव ।
केचित्तु ‘प्रसिद्धं' निश्चितं, एतच्च पर्यवसितपदार्थतया स्वरूपकथनमित्याः ।
'क्वचित् साधनमेवेति काकः श्यामो मिवातनयत्वादित्यादावित्यर्थः, 'क्वचित् द्रव्यत्वादौति वायुर्वहिरिन्द्रियप्रत्यक्षः प्रमेयत्वादित्यादावित्यर्थः, 'कचिन्महानसत्वादौति धूमवान् वहेरित्यांदा
Page #350
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामणी
वित्यर्थः । न च तपाईन्धनादेः रामाध्यव्यापकत्वस्यैव सम्भवात् अवविषमाध्यव्यापकत्वं अतोऽभ्युपेयमिति वाय। एमाध्यव्यापकलेऽपि विशिष्टसाध्यव्यापकवानपायात्, परन्तु व्यर्थविशेषणतया विशिष्टं व्याप्यतावच्छेदकं भवतु न वेत्यन्यदेतत् । ननु सामानाधिकरण्यसंसर्गेण यत्किञ्चिद्धर्मविशिष्टस्य माध्यस्य व्यापकत्वे सति माधनाव्यापकत्वस्य लक्षणत्वे वहिमान् धूमादित्यादिसद्धेतावपि सपबैकदेशवृत्तिधर्मस्य व्यञ्जनवत्त्वादेरुपाधिताप्रसङ्गः महानसत्वाद्यवच्छिववयादिव्यापकत्वादिति चेदत्रोपाध्यायाः बद्धर्मविशिष्टमाध्यव्यापकत्वं तद्धर्मविशिष्टसाधनाव्यापकत्वस्यैव विवक्षितत्वात्। न चैवं 'कचिन्महानसत्वादौति मूलमसङ्गतं तदिभिष्टमाधनाव्यापकत्वस्य अन्धनादावभावादिति वाच्यं । धमानधिकरणवत्यधिकरणस्यापि मासस्य सत्त्वात् । तदिशिष्टत्वञ्च मामानाधिकरण्यसम्बन्धेन तेन रूपवान् पृथिवीलादित्यादौ तद्घटोत्पत्तिकालौनत्वविशिष्टरूपव्यापकस्य तद्घटे तदिशिष्टपृथिवौत्वाव्यापकस्य तद्घटान्यत्वस्य नोपाधित्वप्रसङ्गः, माध्यपदश्च माध्यतावच्छेदकविशिष्टमाध्यपरं, तेन गुणकर्मान्यत्वादिविशिष्टमत्तावान् प्रमेयत्वादित्यादौ द्रव्य-कर्मान्यत्वादिविशिष्टमत्ताव्यापके तादृशप्रमेयत्वाव्यापके च गुणत्वादौ नातिव्याप्तिः। माधनपदमपि साधनतावच्छेदकावच्छित्रसाधनपरं, तेन द्रव्यं गुणकर्मान्यत्वविशिष्टमत्वादित्यादौ द्रव्य-गुणन्यतरत्वविभिष्टद्रव्यवव्यापके तादृप्रशद्धमत्ताया अव्यापके च गुणान्यत्वे नातियाप्तिः, इदं गुरु पादित्यादौ पृथिवौत्वाभावादिरिव रूपवान् द्रव्यत्वात् महाकाखान्यो घटादित्यादावपि पृथिवौलाधभाव-षणकामभेदादिन
Page #351
--------------------------------------------------------------------------
________________
उपाधियादा।
२५
मध्य इति न तपायाप्तिरिति भावः । रूपवान् द्रव्यत्वादित्यादौ प्रथिवीवाभावादेर्लक्ष्यतापक्षे तु यद्धविच्छेदे' इति सप्तमौ पडूर्मविशिष्ट इत्यर्थः, माधनाधिकरण इति शेषः, 'नशब्दय निषेधार्थकः, 'प्रसिद्धं वर्तमानं, तथाच माध्यानधिकरणसाधनाधिकरणवृत्तिधर्मावच्छिन्नमाध्यव्यापकतावच्छेदकत्वे सति साधनाव्यापकतावच्छेदको यो धर्मस्तत्त्वमुपाधित्वमिति फलितं, विशिष्टसाध्यव्यापकोपाधावव्याप्तिवारणयावच्छिनाम्न माध्यविशेषणं, रूपवान् द्रव्यत्वादित्यादौ माध्यानधिकरणं साधनाधिकरणं वाय्वादि तवृत्तिधर्मो वायुजलान्यतरत्वादिस्तद्धर्मावच्छिन्नमाध्यव्यापक एव पृथिवीवाभावादिरिति तत्रापि लक्षणसमन्षयः । यत्किञ्चिद्धर्मावच्छिन्नमाध्यव्यापकत्वस्य साधनाधिकरणवृत्तिधर्मावच्छिन्नसाध्यव्यापकत्वस्य वाभिधाने वकिमान् धूमादित्यादिमखेतावपि साध्यव्यापमहानमत्वव्यञ्चनवत्त्वादेरप्युपाधितापत्तिरिति साध्यामधिकरणमाधनाधिकरणवृत्तित्वं धर्मविशेषणं, साध्यानधिकरणमाधनाधिकरणञ्च मद्धेतावामिद्धमतो न तद्दोषतादवस्यम्। महानसत्वव्यञ्जनवत्त्वादेरपि महानस-जलदान्यतरत्वादिविशिष्टसाध्यव्यापकतया तद्दोषतादवस्थ्यवारणाय साधनाधिकरणप्रवेशः, साधनाधिकरणत्वच माधनतावच्छेदकविभिष्टाधिकरणत्वं, तेन द्रव्यं गुण-कर्मान्यत्वविशिष्टसत्यादित्यत्र माध्यानधिकरणमाधनाधिकरणवृत्तिरूप-घटान्यतरत्वावच्छिन्नमाध्यव्यापके(१) पृथिवीवादौ नातिव्याप्तिः। साध्या
(१) साध्यानधिकरणसत्ताधिकरणतिरूप-घटान्यतरत्वावच्छिन्नसाध्यथापक इति ख.. ग.।
Page #352
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०
নলিনী
मधिकरणमाधनतावच्छेदकविभिटमाधनाधिकरणप्रसिद्धेः माध्यामधिकरणत्वमपि माध्यतावच्छेदकविशिष्टानधिकरणत्वं, तेन गुणकर्मान्यत्वविशिष्टसत्तावान् जातेरित्यत्र सत्तानधिकरणजात्यधिकरणाप्रमिद्धावपि द्रव्यवादौ नाव्याप्तिः । न चैवमुपाधिशरीरभान एव माध्यव्यभिचारभानादुपाधिव्यभिचारेण पुनर्व्यभिचारानुमानमफलं स्थादिति वाच्यं । हेतुविशेष्यकसाध्यव्यभिचारप्रकारकज्ञानार्थं तदनुमानस्यावश्यकत्वात् तादृशज्ञानस्यैव प्रतिबन्धकत्वात् यत्रोपाখিলাননি মূল আলাঘিয় ন ঘনঘিৰূল সুল तत्र निश्चितोपाधित्वाभावस्थापौष्टत्वात् । माध्यव्यापकत्वमपि माध्यतावच्छेदकविशिष्टसाध्यव्यापकत्वं बोध्यं, अन्यथा गुण-कर्मान्यत्वविशिष्टसत्तावान् जातेरित्यच द्रव्यत्वादावव्याप्यापत्तेः तत्र द्रव्य-गुणन्यतरत्वंन्द्रव्य कर्मान्यतरत्वादिरूपतादृशधर्मावच्छिन्नविशिष्टमत्ताव्यापकत्वेऽपि तादृशद्धसत्ताव्यापकत्वविरहात्। न च निरुकमाध्यानधिकरणनिरुतमाधनाधिकरणवृत्तिधर्मावच्छिन्ननिरुक्तमाध्यममानाधिकरणवृत्तिवे सतीत्येवास्तु किं व्यापकतावच्छेदकत्वपर्यन्तानुसरणेन तादृशमाध्यममानाधिकरणवृत्तित्वञ्च तादृशमाध्याधिकरणनिरूपिताधेयतावच्छेदकत्वं तेन द्रव्यं सत्त्वादित्यत्र द्रव्यान्यत्वविशिष्टसत्त्वे नातिव्याप्तिरिति वाच्यं । व्यापकत्वाप्रवेशे उपाधिशरीरभानस्य उपाधिव्यभिचारित्वनिष्ठमाव्यभिचारित्वव्याप्तिग्रहोपयोगित्वासम्भवात् यथामनिवेशे वैयर्थाभावात् । धूमवान् वक्रेरित्यादौ माधनव्यापकस्य प्रमेयत्वादेवारणय माधनाव्यापकतावच्छेदकत्वप्रवेशः, माधनपदश्च माधनतावच्छेदकावच्छिन्नसाधनपरं, तेन द्रव्यं गुणान्य
Page #353
--------------------------------------------------------------------------
________________
उपाधिवादः।
३४५
तथाहि समव्याप्तस्य विषमव्याप्तस्य वा साध्यव्यापकस्य व्यभिचारेण साधनस्य साध्यव्यभिचारः स्फुट एव व्यापकव्यभिचारिणस्तद्याप्यव्यभिचारनियमात, साधनावच्छिन्न-पक्षधावच्छिन्नसाध्यव्यापकयोर्यभिचारि
त्वविशिष्टमत्त्वादित्यत्र द्रव्य-कर्मान्यतरत्वादिरूपतादृशधर्मावच्छिन्नमाध्यव्यापके गुणान्यत्वे नातिव्याप्तिः। न चैवं इदं गुरु रूपादित्यादावपि जल-तेजोन्यतरत्वादिरूपतादृशधर्मविशिष्टमाध्यव्यापकतया पृथिवौत्तिरूपाव्यापकतया च पृथिवीवाभावादेरुपाधितापत्तिः पृथिवीवाभावव्यभिचारिरूपव्यतः पृथिवीमात्रनिष्ठतया माध्यव्यभिचारित्वाभावात्तत्र तदनुपाधित्वस्य सर्वसम्मतत्वादिति वाच्यं। पूर्वदलप्रविष्टा या साधनव्यक्तिः साधनतावच्छेदकविशिष्टतासावनव्यक्त्यव्यापकत्वस्य विवक्षितत्वात्, द्रव्यत्वाभाववान् सत्त्वादित्यत्र स्खाभाववहृत्तित्वरूपखव्यभिचारित्वेन साध्यव्यभिचारानुमानममर्थोऽपि संयोगाभावादिन संग्रायः, तेन उपाध्यायमतेऽत्र मते च न तचाव्याप्तिरिति समासः ।
इदानौं प्रमगादुपाधिव्यभिचारेण माध्ययभिचारानुमितेः प्रकारं व्युत्पादयति, 'तथा हौति, “ 'समव्याप्तस्य' साध्यव्याप्यस्य, 'विषमव्याप्तस्य' साध्याव्याप्यस्य, यथाश्रुतेऽये 'माध्यव्यापकस्येत्यस्य वैय
•पत्तेः, ‘माध्यव्यभिचारः' माध्यव्यभिचारग्रहः, 'स्फुट एव' स्फुटतरं सम्भवत्येव, 'व्यभिचारित्वेन' व्यभिचारित्वेनापि, ‘साधनस्य माध्यव्यभिचारित्वमेव' माधनस्य माध्ययभिचारित्वग्रहः सम्भवत्येव, मनु
44
Page #354
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामणौ स्वेन साधनस्य साध्यव्यभिचारित्वमेव, यथा ध्वंसस्यानित्यत्वे साध्ये भावत्वस्य, वायोः प्रत्यक्षत्वे साध्ये उद्भूतरूपवत्वस्य च, विशेषणाव्यभिचारिणि साधने विशिष्ट
विशिष्टसाध्यव्यापकव्यभिचारित्वेन विशिष्टसाध्यव्यभिचारित्वग्रह एव सम्भवति न तु शुद्धसाध्यव्यभिचारयहइत्यत आह, 'विशेषणेति, 'विशेयेति विशेष्यव्यभिचारित्वरूपतानियमादित्यर्थः । न च विशिछाभाव-विशेष्याभावयो देन व्यभिचारभेदात् कथं विभिष्टव्यभिचारो विशेष्यव्यभिचारात्मक एवेति वाच्य। विशिष्टाभावो विशेष्यविशेषणभावाभ्यां नातिरिचत इत्यभिप्रायात्,(२) विभिष्टाभावस्यातिरिकत्वेऽपि विशेष्याभावाधिकरणस्य विशिष्टाभावाधिकरणत्वनिगमेन विभेष्वाभावाधिकरणवृत्तित्वस्य विविष्टाभावाधिकरणवृत्तिमरूपत्वाच्च । 'अतएवेति यतएव विशेषणव्यभिचारिणि साधने 'विशिष्टसाध्यव्यभिचारो विशेष्योभूतएमाध्यव्यभिचारखरूपोऽतएवेत्यर्थः, नार्थान्नरमिति वायुः प्रत्यक्षः प्रत्यक्षस्पर्शाश्रयत्वादित्यादावुभूतरूपवत्त्वव्यभिचारित्वेन विशिष्टमाध्यव्यभिचारसाधने नार्थान्तरमित्यर्थः, 'विशेषणेति, यत इत्यादिः, 'पक्षधर्मताबलादिति विशेष्यव्यभिचारित्वेतरविशिष्टसाध्यव्यभिचारित्वस्य बाधयहसहकारादित्यर्थः, विशेषणाव्यभिचारिसाधने विशिष्टसाध्यव्यभिचारस्य विशेष्योभूतशद्धमाध्यव्यभिचारखरूपत्वेन विशेष्योभूतशुद्धसाध्यव्यभिचारस्थापि व्यापकतावच्छे
(१) तचाच विशेषणति विशिष्ठामावो विशेष्याभावरूपः, विशेष्य. बवि विशेषवामावरुपञ्चेति भावः।
Page #355
--------------------------------------------------------------------------
________________
उपाधिवादः।
३७०
व्यभिचारस्य विशेष्यव्यभिचारित्वनियमात् । अतरव नार्थान्तरं विषणाव्यभिचारित्वेन जाते साधने विशिटव्यभिचारः सिध्यन् विशेष्यसाध्याव्यभिचारमादायैव
दकावच्छिन्नत्वादिति भावः। न च तस्य व्यापकतावच्छेदकावछिन्नत्वेऽप्यनुमितापकतावच्छेदकप्रकारकत्वनियमादिशिष्टमाध्यव्यभिचारित्वप्रकारिकैव धीः स्यात् तथाचार्थान्तरमेव शुद्धसाध्यव्यभिचारित्वप्रकारकबुद्धेरेव कारणीभूतव्याप्तिज्ञानप्रतिबन्धकत्वेनोद्देश्यत्वादिति वाच्य। दूतरकोटिबाधसहकारेण व्यापकतानवच्छेदकरूपेणपि व्यापकतावच्छेदकावच्छिन्नानुमितिखौकारात्। 'अन्यथा' विशेष्यव्यभिचारित्वाविषयकत्वे, 'अपर्यवसानात्' अपर्यवसानप्रसङ्गात् अमावसगादिति यावत्, विशेषणव्यभिचारित्वस्य तत्र बाधितत्वादिति भावः । ननु तथापि अनुमितेापकतावच्छेदकप्रकारकत्वनियमे पक्षधर्मताबलादपि शुद्धमाध्यव्यभिचारित्वप्रकारिका धौर्न सम्भवतीत्यस्खरमादाह, 'यद्देति, द्रव्यप्रत्यक्षवेति द्रव्यत्वावच्छिन्नप्रत्यक्षवेत्यर्थः, महत्त्ववत्' चक्षुरादिनिष्ठमहत्त्ववत्, तेन घटादिवृत्तिमहत्त्वस्य माध्य-साधनविकलत्वेऽपि न चतिः। इदच्चानुमानं प्रत्यक्षपरिमाणवत्त्वाद्युपाध्यभिप्रायेण न तु उद्भूतरूपवत्त्वोपाध्यभिप्रायेण तस्यात्मनि व्यभिचारेण द्रव्यत्वावच्छिन्नप्रत्यक्षत्वाव्यापकत्वात्, तद्व्यभिचारित्वस्य सुखादौ प्रत्यवत्वव्यभिचारित्वव्यभिचाराच्च इत्यपि द्रष्टव्यं। न च 'द्रव्यप्रत्यक्षत्वव्यापकत्यत्र द्रव्यपदवैयर्थमिति वाच्यं । प्रत्यचपरिमाणवत्वादिव्यभिचारित्वस्यैव
Page #356
--------------------------------------------------------------------------
________________
तावचिन्तामो सिध्यति पक्षधर्माताबलात् अन्यथा प्रतीतेरपर्यवसानात् । न च पक्षधर्मताबलात् प्रसिद्धावान्तरम्। यहा प्रत्यक्षस्पर्शश्रयत्वं प्रत्यक्षत्वव्यभिचारि द्रव्यत्वाव्य
हेतत्वात्, द्रव्यप्रत्यक्षवव्यापकत्वोपन्यासस्तु तर्कप्रदर्शनायेति,(१) 'श्याममिनातनयत्वेति मित्रातनयत्वावच्छिन्नभ्यामवेत्यर्थः, प्रचापि भाकपाकजत्वव्यभिचारित्वादित्येव हेतुः, व्यापकत्वोपन्यासस्तु तर्कप्रदर्शनायेति ध्येयं । 'अघटत्ववदिति, ननु अघटत्वं घटभेदः स च नान्वयेन दृष्टान्तः मत्यन्तविशेषणभावेन माधनविकलत्वात्, नापि व्यतिरेकेण, माध्यस्य तत्र सत्त्वादिति चेत् अत्रास्मगुरुचरण:(१) यथाहि धूमत्वविशिष्टप्रमेथत्वं वयव्यभिचारि तथा मित्रातनयत्वादिविशिष्टं मदघटत्वमपि मित्रीतनयलाव्यभिचार्यवेति भावः। मनु मित्रातमयत्वाव्यभिचारित्वं मित्रातमयत्वाभाववदत्तित्वं तच्च मित्रातनयत्वविशिष्टेऽघटत्वेऽपि नास्ति विभिष्टस्थानतिरिक्ततया गुणाद्यन्यत्वविशिष्टमत्ताया गुणदिवृत्तित्ववभित्रातनयत्वादिविशिष्टाघटवस्थापि मित्रातनयभिन्ने सत्त्वावग्यभाववदत्तिवरूपवयव्यभिचारित्वमपि न धमत्वविशिष्टप्रमेयत्वे तथाच
(१) पत्र “यो यद्यापकव्यभिचारी स्यात् स तयभिचारी स्यादिति व्यापकस्यभिचारिणे व्यभिचारित्वनियमादस्याप्रयोजकत्वशवायुशसकतकशामनायेत्यर्थः, वस्तु यदि साध्यस्थापकव्यभिचारः साध्यभिचारव्याप्यो न स्यात् तदा साधनवृत्तिन स्यात्" इत्यधिकः पाठः ख-चिड़ितपुस्तके पत्तते । (२) पनामपिटचरणः इति ख, ग ।
Page #357
--------------------------------------------------------------------------
________________
उपाधिवादः।
३६
३४
भिचारित्वे सति द्रव्यप्रत्यक्षत्वव्यापकव्यभिचारित्वान्मइत्ववत्, तथा मिचातनयत्वं श्यामत्वव्यभिचारि मिचा
साधनविकलो दृष्टान्तः इत्यतोव्यापकत्वरूपमव्यभिचारं निर्वक्ति, श्रव्यभिचारथेति, तत्ममानाधिकरणेति तत् मित्रातनयत्वं समानाधिकरणात्यन्ताभावाप्रतियोगि यस्येति वडग्रीहिः, स्वसमानाधिकरणात्यन्ताभावाप्रतियोगिमित्रातनयत्वकत्वमित्यर्थः । यथाश्रुते मित्रातनयत्वव्यापकलस्यैव फलतो मित्रातनयत्वाव्यभिचारित्वरूपतया शाकपाकजत्वव्यभिचारित्वरूपाय विशेष्यदलस्य वैयर्थापत्तः। न च भिवधर्मिकत्वान वैयर्यमिति वाच्यतथापि भाकपाकजत्वव्यभिचारित्वस्थ माकपाकजवाभाववति वर्तमानत्वरूपतया शाकपाकजवाभाववदंशवैयर्थ्यापत्ते
ओरत्वात् मिचातनयत्वव्यापकत्वे मति वर्तमानत्वस्यैव सावलात् । 'अभेदेऽपौति विशिष्टस्य केवलादनतिरिकत्वेऽपौत्यर्थः, विशिष्ट स्थानतिरिकत्वेऽपि तनिरूपिताधारताया मित्रातनयभित्रेभावादिति भावः। यद्यप्येवं च्यामत्वप्रकारकप्रमाविशेष्यत्वादावेव व्यभिचारः तस्थापि मित्रातनयत्वादिविशिष्टोभूय मित्रातनयत्वाव्यभिचारित्वात् भाकपाकजवाभाववहृत्तित्वरूपशाकपाकजत्वव्यभिचारित्वाच्च, तथापि भाकपाकजलव्यभिचारित्वमपि खसमानाधिकरणत्यन्ताभावप्रतियोगिशाकपाकजत्वकत्वं तथाच खसमानाधिकरणात्यन्ताभावाप्रतियो
(९) तथाच खसमानाधिकरणव्याप्यतावच्छेदकधम्मान्तरघटितत्वस्यैव व्यर्थविशेषण घटितत्वरूपतया भिनम्भिकत्वे खसमानाधिकरणत्वविरक्षादेव न व्यर्थविशेषणघटितत्वसम्भव इति भावः ।
Page #358
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामणै
.
तमयत्वाव्यभिचारित्वे सति स्याममिवातमयत्वव्यापकव्यभिचारित्वात् अघटत्ववत, अव्यभिचारश्च तत्स
गिमित्रातमयत्वकत्वे मति स्वसमानाधिकरणत्यन्ताभावपतियोगिमाकपाकजत्वकत्वादिति फलितं, स्वपददयश्च एकधर्मावच्छिन्नबोधकमतो न कोपि दोष इत्याहुः।
नव्यास्तु अघटत्वं व्यतिरेकेणैव दृष्टान्तः, मिपातनयत्वस्य मित्राजन्यत्वविशिष्टपुंस्वाख्यावयवविशेषरूपस्य समवेतत्वसम्बन्धेनैव स्थापनानुमाने हेतुतया समवेतत्वसम्बन्धेन श्यामत्वव्यभिचारस्यैवाच साध्यत्वेन साध्याभावस्थापि तत्र सत्त्वात्। यदि च मित्रातनयत्वं प्रकृते मित्राजन्यतावच्छेदकधर्मवत्त्वमात्रमधिकस्य व्यर्थत्वात्, तथापि तादृशधर्मस्य जातिविशेषरूपतया समवायसम्बन्धेन श्यामखव्यभिचारस्यैवात्र साध्यत्वेन साध्याभावस्य सुतरां तत्र सत्त्वादिति भावः। ननु मित्रातनयवाव्यभित्वारित्वं कुतो मित्रातमयत्वेऽभिचारस्य भेदगर्भवादतो हेतुः स्वरूपासिद्ध इत्यत आह, 'अव्यभिचारश्चेति, 'तत्समानाधिकरणेनि पूर्ववदत्रीहिः, तथाच मित्रातनयत्वाभाववदवृत्तित्वं फलितं, यथाश्रुते हेतायुक्तरीत्या विशेष्यदलघटकशाकपाकजवाभाववदंशवैयर्थ्यापत्तेः, 'तचाभेदेपौति, तस्य भेदाग त्वादिति भाव इति प्राडः।
मित्रास्तु अघट इति गौरमित्रातनयसंज्ञाभेदः, तथाच गौरमित्रातमयवृत्तिधर्मान्वयेनैव दृष्टान्त इत्याहुः, तन्मते 'अव्यभिचारखेत्यादिग्रन्थस्तु नव्यमतवद्योजनीयः।
भट्टाचार्यास्त ननु अघटत्वं घटभेदः स चान्वयेन न दृष्टाकः माध
Page #359
--------------------------------------------------------------------------
________________
उपाधिवादः ।
३५१
मानाधिकरणात्यन्ताभावाप्रतियोगित्वं तच्चाभेदेऽपि। यहा यः साधनव्यभिचारी साध्यव्यभिचारोबायकः
नविकणवात् अधिकरणभेदेन घटभेदस्य भेदाभावात्। नापि व्यतिरेकेण, मिचातनयत्वं न मित्राजन्यतावच्छेदकधर्मवत्त्वमाचं तस्य तनयत्वाखरूपत्वात्, अत एव न मित्राजन्यत्वविशिष्टपुस्खाख्यावयवविशेषः प्राचां नये वृत्त्यनियामकसम्बन्धस्य शक्यतावच्छेदकतानवच्छेदकतया तथापि तनयत्वाखरूपत्वात्, अपि तु मित्राजन्यत्व विशिष्टपुंस्वाख्यावयवविशेषसमवेतत्वं, छिन्नलिङ्गखण्डमरौरं तु नपुंसकवन्न पुचः, तथा खरूपसम्बन्धेनैव तस्य स्थापनानुमाने हेतुतया मरूपसम्बधेन थामत्वव्यभिचारस्यैवात्र माध्यत्वेनाघटत्वे माध्याभावविरहादित्याशङ्कायामाह, 'अव्यभिचारश्चेति, 'तत्समानाधिकरणेति मित्रातमयत्वाधिकरणौभूतयत्किञ्चिद्व्यक्तिनिष्ठेत्यर्थः, तेन मित्रातनयत्वसमानाधिकरणत्वं फलितं, यथाश्रुते हेतावुकरीत्या व्यर्थविशेषणत्वापत्तेः, 'तच्चेति, 'अभेदेऽपि' घटभेदस्याधिकरणभेदेन भेदाभावेऽपि, तवास्तौति शेषः । न चैवं न्यामत्वादावेव व्यभिचारः तस्यापि मित्रातनयत्वसमानाधिकरणत्वात् शाकपाकजत्वव्यभिचारित्वाच्च इति वाच्य। यस्मिन्नधिकरणे मित्रातनयत्वमामानाधिकरण्यं तत्र भाकपाकजलव्यभिचारित्वस्य विवक्षितत्वात् मित्रातनये शाकपाकजत्वव्यभिचारित्वादिति तु फलितार्थ इत्याहुः ।
नन्वेवं साध्यव्यभिचारानुमापकत्वेनोपाधिव्यभिचारस्यैव दोषतया स एव उपन्यसितमुचितो नोपाधिरिति प्रागुकदोषो दुार
Page #360
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामणै
स उपाधिः तत्वच साक्षात् परम्परया वेति नाथान्तरम्। किन्च अर्थान्तरस्य पुरुषदोषत्वादाभासान्त
खरमादाह, 'यति, 'यः माधनव्यभिचारौति यः साधनव्यभिचारी म उपाधिः साध्यव्यभिचारोबायकः स खयमेव साधने माध्यव्यभिचारोबायकः इति योजना, स्वरूपसम्बन्धेन तयभिचारस्येव तस्थापि व्यभिचारितासम्बन्धेन माधनवृत्तित्वात् माध्यव्यभि , तथाच वझिधूमव्यभिचारी पाईन्धनवत्त्वादित्यादिरेवनुमानप्रयोगः। न च व्यभिचारितादिसम्बन्धस्य वृत्त्यारा न व्याप्यतावच्छेदकत्वसम्भव इति वाच्यं । वृत्त्यनियामक भावप्रतियोगितावच्छेदकत्वानभ्युपगमात् व्यापकतावच्छेद ऽपि) व्याप्यतावच्छेदकत्वे बाधकामावादिह हेतावुए प्रतीत्या व्यभिचारितासम्बन्धस्यापि वृत्तिनियमकत्वाचेति करका पृथिवी कठिनसंयोगवत्त्वादित्यादौ साधनव्यापकस शौतस्पर्णवत्त्वाघूपाधेर्विशेषदर्मिनां माधने माध्यव्यभिचारानुमा सम्भवात् व्यभिचार्यन्तमुपाधिविशेषणं, साधनं व्यभिचारि व्युत्पत्त्या साधनाव्यापकत्वं तदर्थः, 'तत्त्वञ्चेति विविष्टमाध्यव्यापकोपाधेस्तत्त्ववेत्यर्थः, साक्षात्' प्रागुक्तरीत्या विशेषणव्यभिचारित्वादिविशेषणसहकारेण माचात्, ‘परम्परया वा' पूर्वपक्षग्रन्थोतक्रमेण उद्धमाध्यव्यभिचारानुमापकविशिष्टसाध्यव्यभिचारानुमितिद्वारा वा, 'नार्था
(१) व्यापकत्वान्तर्गताप्रतियोगित्वघटकप्रतियोगित्वस्य व्यापकताघटक
छनत्वेन विशेषितत्वादिति भावः ।
. .
Page #361
--------------------------------------------------------------------------
________________
उपाधिवादः।
रस्य तबाभावादपाधिरेव भावत्वादिकं दोषः। न चैवं शब्दोऽभिधेयः प्रमेयत्वादित्यवाश्रावणत्वं जलं प्रमेयं सवत्त्वादित्यत्र पृथिवौत्वमुपाधिः स्यात्५, केवलान्वयि
मरमिति ध्वंसो विनाशौ जन्यत्वादित्यादौ विशिष्टसाध्यव्यापकभावत्वायुद्धावने नार्थान्तरमित्यर्थः । न च तस्यापि 'परम्परया वेति पचे प्रथमं तदुद्भावनेऽप्राप्तकालत्वमस्येव अन्यथा उपाधिमाधकतत्साधकादिपरम्परया अप्युद्भावनेऽप्राप्तकालत्वं न स्यादिति वाच्य। प्रथमं शुद्धसाध्यव्यभिचार एव उद्भाव्यः, तत्र कथन्तायां तद्धेतुत्वेन विशेषणाव्यभिचारित्वे सति विशिष्टसाध्यव्यभिचारित्वमुद्भाव्यं, तप विशेषकथन्तायां तद्धेतत्वेन विशिष्टसाध्यव्यापकोपाधिरुहाव्यः, इत्यप्राप्तकालत्वविरहात्। न च तथापि साक्षात् शुद्धसाध्यव्यभिचारानुमापकत्वात् विशिष्टमाध्यव्यापकोपार्दोषत्वं न स्यादिति वाचं। साक्षात्परम्परामाधारणव्यभिचारानुमापकत्वस्यैव दोषतायां तन्त्रत्वादिति भावः।
केचित्तु प्राकारान्तरेण लक्ष्यतावच्छेदकं निर्वक्ति, 'यद्देति, 'यः साधनव्यभिचारी' साधननिष्ठो यड्यभिचारः, 'माध्यव्यभिचारोबायकः' माध्यव्यभिचारानुमितिस्वरूपयोग्यः, माध्यव्यभिचारममानाधिकरण इति यावत्, स उपाधिरित्यर्थः, द्रव्यं पृथिवीलादित्यादिसद्धेतौ साध्यव्यापकस्य गुणवत्त्वादेः माध्यव्याप्यस्य घटत्वादेश्वोपा
(१) एथिवीत्वमुपाधिः स्यादिति वाच्यं इति ख• ।
45
Page #362
--------------------------------------------------------------------------
________________
तापातामो विसाधकप्रमाणेन तब साध्यसिद्धरुपाधैर्विशिष्टाव्यापकत्वात् । न प पतरे स्वव्याघातकावेनानुपाधावति,
धितावारणाय निष्ठान्न व्यभिचारविशेषणं, तथाच साधनतावच्छेदकावच्छित्रसाधनाधिकरणत्ववृत्तित्वविशिष्टयावच्छित्रव्यभिचारिबनिरूपिताधिकरणत्वं साध्यव्यभिचारसमानाधिकरणं तद्धर्मवत्त्वसुपाधिरिति फलितं । द्रव्यं विशिष्टसत्त्वादित्यादौ विशिष्टस्यानतिरिकत्वेऽपि गुणवत्त्वादौ नातिव्याप्तिः, न वा आश्रयभेदेऽपि एक वछिन्नव्यभिचारस्यैकत्वनये द्रव्यं पृथिवीलादित्यादौ घटवादावतिव्याप्तिस्तदवस्था पृथिवौत्वाधिकरणत्वनिष्ठघटत्वव्यभिचारस्य सत्ताधिकरणत्ववृत्तित्वेऽपि पृथिवौत्वाधिकरणत्ववृत्तित्वविशिष्टघटखव्यभिचारित्वनिरूपिताधिकरणत्वस्य पृथिवौत्वाधिकरणव एव सत्त्वात्तत्र माध्यव्यभिचारित्वविरहात् । न च तदारणाय व्याप्यत्वमेव खरूपयोग्यत्वं विवक्ष्यतामिति वाच्यं। विशिष्टव्यापकोपाधावव्यायापत्तेः तयभिचारस्थ साधनाधिकरणत्वनिष्ठत्वेऽपि माध्यव्यभिचाराव्याप्यत्वात् पाश्रयभेदेन व्यभिचारभेदाभावात् पूर्ववनिरुक्रमाध्यसमानाधिकरणवृत्तिवेनापि तद्धी विशेषणैयः तेन धमवान् बड़ेरित्यादौ माध्यविरुद्धे जस्खत्वादौ नातिव्याप्तिः उक्वैिचियाच्च पूर्वस्मात् भेदः। रूपवान् द्रव्यत्वादिदं गुरु रूपादित्यादौ पृथिवौवाभाव-घटत्वाभावादावतिव्याप्तिवारणन्तु पूर्ववत् । 'तत्वञ्चेति व्यभिचारानुमित्युपाधायकत्वञ्चेत्यर्थः, 'साक्षात्परम्परया वेति शुद्धसाध्ययापकस्यले साक्षात्, विशिष्टमाथव्यापकवले - पूर्वपक्षोत
Page #363
--------------------------------------------------------------------------
________________
समाधिनाया।
व्याप्तिः तानुकूलतर्काभावेन साध्यव्यापकत्वानिमायात् सहचारदर्शनादेस्तेन विना संशायकत्वादित्युक्त। बाधाबीते चानुकूलतकोऽत्येवेति, एवं पर्वतावयबहज्यन्यत्वादेरपि नोपाधित्वं पक्षमाचव्यावर्तकविशेष
क्रमेण शुद्धसाध्यव्यभिचारानुमापकविशिष्टभाध्ययभिचारामुमिनिद्वारा इत्यर्थः, 'मार्थान्तरमिति ध्वंसोविनाशी जन्यवादित्यादौ विशिष्टसाध्यव्यापकभावत्याधुगावने नार्थानमारमित्यर्थः, एतच्च प्रसङ्गान खरूपकथनं, न तु लक्ष्यतावच्छेदकघटकतयैव नदभिधानं तर खरूपयोग्यताया एव घटकत्वादित्याङः। ___ अभ्युपगमवादेनाह, 'किश्चेति, 'पुरुषदोषत्वादिति उभावकला पुरुषस्य निग्रहस्थानमाचत्वादित्यर्थः, मात्रपदादुपाधिलिङ्गनाथमिचारानुमितिप्रतिबन्धकल्यव्यवच्छेदः, 'आभामान्तरस्थ व्यभिचारानुमितिप्रतिबन्धकान्तरस्थ, 'त' व्यभिचारानुमितिपूर्वदशायां, 'उपाधिरेवेति तत्र ध्वंसो विनाशौ जन्यत्वादित्यादौ भाववादिकमुपाधि ष एवेति योजना, तेनापि परम्परया व्यभिचारानुमितिनिर्वाहेण परोतसाध्यसिद्धिप्रतिबन्धस्य उद्देश्यस्य निर्वाहादिति भावः। 'म चैवमिति, ‘एवं अवच्छिन्नमाध्यव्यापकस्यापि दोषताप्रयोजकत्वे, 'अश्रावणवमिति, तत्र पक्षधर्मगुणत्वावच्छिन्नमाध्यव्यापकत्वाचामसम्भवादिति भावः । 'पृथिवौत्वमिति, तत्र पक्षधर्मवत्त्वावचिनसाध्यव्यापकत्वज्ञानमया-- वादिति भावः । 'उपाधिः स्यात्' दोषः स्यात्, 'तच' पब-जनायोः 'विशिष्टाव्यापकत्वादिति पक्षधर्मगुणत्वावशिषमाध्यव्यापकत्वानिक
Page #364
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामयी
गवत्वात्। अतएव धूमे श्राद्र्धनप्रभवहिमत्वं,
चादित्यर्थः । केवलान्वयित्वसाधकमानाभावे तु(१) तस्य तथाबुद्धिरपि दोषो भवत्येवेति भावः । 'स्वव्याघातकत्वेनेति उपाधिमात्रस्य दूषकत्वव्याघातकत्वेनेत्यर्थः, पक्षेतरस्योपाधित्वे सर्वचैव तादृन भोपाघिसम्भवेनानुमानमात्रोच्छेदे व्यभिचारानुमानाधीनस्थोपाधेईषकत्वस्यासम्भवादिति भावः । 'अतिव्याप्तिः' उतरूपज्ञानस्यदोषबापत्तिः, व्यत्वाद्यवच्छिन्नमाध्यव्यापकत्व-तदवच्छिन्नसाधनाव्यापकमज्ञानस्य तत्रापि सम्भवादिति भावः । ‘माध्यव्यापकत्वानिश्चयादिति यद्धावच्छित्रसाधनाव्यापकत्वं तद्धर्मावच्छिन्नमाध्यव्यापकबानिश्चयादित्यर्थः, यदा तु तनिश्चयो भवति तदा बाधोत्रौतपतरे हविषयव तनिष्ठतनिश्चयोऽपि भवत्येव दोष इति भावः । 'संगायकत्वात्' व्यभिचारमन्देहाधायकत्वात् । 'अनुकूलतोऽस्येवेति उपाध्यभाववति पक्षे माध्याभावनिश्चयस्यैव व्यभिचारसंशयप्रतिबन्धकत्वेनानुकूलतर्कत्वादिति भावः। 'नोपाधित्वं' नोपाधिबनिश्चयः, 'पक्षमाचेति, यद्यपि पर्वतावयवरूपादेरपि व्यावर्त्तनात्र पक्षमाजव्यावर्तकविशेषणवत्त्वं उपाधित्वानिश्चये प्रयोजक तथापि तस्यार्थकवतिप्रत्ययोत्तरत्वप्रत्ययात्पक्षमाचव्यावर्तकं विशेषणं यत्र पक्षेतरे तत्तुल्यलादित्यर्थः, तथाच तत्र यथानुकूलतर्काभावेन न तादृशमाध्यव्यापकतानिधयः तथात्रापौति भावः । 'श्रतएवेति व्यापकतापाहकानुकूलतर्कसत्त्वादेवेत्यर्थः, 'उपाधिः' उपाधित्वेन (५) केरवान्वयित्वसाधकामावावबवारे विवि ख. ग.।
Page #365
--------------------------------------------------------------------------
________________
उपाधिवादा।
द्रव्यवहिरिन्द्रियप्रत्यक्षत्वे उद्भूतरूपवत्वं, मित्रातनयश्यामत्वे शाकपाकजत्वं, जन्यानित्यत्वे भावत्वमुपाधिः, तदुत्कर्षेण साध्योत्कर्षात्, अनन्यथासिद्धान्वयव्यतिरेकता वैद्यकात् कारणतावगमेन घटेन्मजनप्रसङ्गेन साध्यव्यापकतानिश्चयात, तत् किं कार्य-कारणयोरेव व्याप्तिः तथाच बहु व्याकुली स्यादिति चेत् । न । निश्चितः, यथारख्यमनुकूलतर्कमाइ, 'तदुत्कर्षणेति आन्धनप्रभववङ्ग्युत्कर्षेण धूमोत्कर्षादित्यर्थः, द्वितीये तर्कमाइ, 'अनन्यथेति द्रव्यवहिरिन्द्रियप्रत्यक्षं प्रति उद्भूतरूपस्यानन्यथासिद्धान्वयव्यतिरेकादित्यर्थः(१), हतीये तर्कमाह, 'वैद्यकादिति, वैद्यकेन नरौयथ्यामत्वं प्रति भाकपाकस्य जनकत्वकथनादिति भावः । 'कारणतावेगमेनेति आन्धनप्रभववढ्यादीनां धूमादिकं प्रति कारणतानिश्चयेनेत्यर्थः, चतुर्थ तर्कमाह, 'घटोनमज्जनेति ध्वंसस्यापि ध्वंसप्रतियोगित्वे ध्वंसप्रतियोगिनो घटस्य पुनः परावृत्तिप्रसङ्गेनेत्यर्थः, ध्वंस-प्रागभावानधिकरणकालस्य प्रतियोग्यधिकरणत्वनियमादिति भावः । इदमापाततः प्रतियोगिनो ध्वंसेऽपि यथा प्रागभावध्वंसस्तथा ध्वसस्य ध्वंसोऽपि प्रतियोगिनो ध्वंस इत्युक्तावेव घटोन्मज्जमप्रसङ्गवारणसम्भवात्। वस्तुतस्तु अप्रामाणिकानन्तध्वंसप्रतियोगिनिष्ठतत्कारणत्वकल्पनामपेक्ष्य ध्वंसानन्तत्वकल्पनैव लघीयसौति लाघवमेवानुकू(९) वडधा व्याकुली स्यादिति क०, ख० । (२) वायोः स्पार्शमप्रत्यक्षमपि न भवतीतिमतेनेदं ।
Page #366
--------------------------------------------------------------------------
________________
तचिनाममै
तदुपजीव्यान्यषामप्यनुकूलतण व्याप्तिग्रहात, या च साध्योपाध्यो.तु-साध्ययोर्खा व्याप्तिग्राहकसाम्याबैका व्याप्तिनिश्चयस्तच सन्दिग्धोपाधित्वं व्यभिषारसंशयोपधायकत्वात् । यदा च तादृश्येकषानुकूलतकवितारस्तदा हेतुत्वमुपाधित्वं वा निश्चितं पक्षेतरस्य स्वव्याघातकन्वेन न हेतुव्यभिचारसंशायकत्वमतो न सन्दिग्धोपाधिरपि सः।
सतर्क इति तत्त्वं । 'कार्य-कारणयोः' कार्य-कारणभावयाहकप्रमाणविषयोभूतयोः, यथाश्रुते कारण तस्यापि भाकपाकजवादादात्वकथनादाशनानुत्थितः। वह व्याकुलौति जलवादिना द्रव्यत्वाद्यनुमानं न स्थादित्यर्थः। “तदुपजीव्येति 'तत्' कार्य-कारणभावज्ञानं, तदुपजीव्येत्यर्थः, द्रव्यत्व-जलवादिखलेऽपि जलत्वं यदि द्रव्यत्वव्यभिचारि स्यात् तदा संयोगव्यभिचारि स्थात् संयोगत्वावछिवं प्रति द्रव्यत्वेन समवायिकारणत्वादिति परम्परया संयोगत्वावच्छिन-द्रव्यत्वावचित्रकार्य-कारणभावग्रहोपजीवी तर्क एव व्याप्तियाहक इति भावः। नन्वेवं हेतु-साध्ययोः माध्योपाध्याय सहचारदर्शन-यभिचारानिचयमात्रं व्याप्तियाहकं वर्तते नानुकूलतर्कः तत्रोपाधौ साध्यव्यापकत्वानिश्चयादुपाधिलज्ञानं दोषो न सादित्यत बाह, 'यत्र चेति, 'तत्र सन्धिग्धोपाधित्वमिति तचोपाधिसन्देशो दोष इत्यर्थः। तदा हेतृत्वमिति तदा 'हेतुत्वं' इतौ
Page #367
--------------------------------------------------------------------------
________________
उपाधिकादः।
यतु पक्षेतरस्य यथा साध्यव्यापकत्वं तथा साध्याभावव्यापकत्वमपि ग्राहकसाम्यात्, तथाचोभयव्यापकमित्या साध्य-सदभावाभ्यां पक्षे निवर्तितव्यम् नचैवं,
----
-----------------
साध्यव्याप्यत्वं, 'उपाधित्वं' उपाधौ माध्यव्यापकत्वमित्यर्थः, यदा हेतौ तर्कावतारस्तदा हेतौ माध्यव्याप्यत्वनिश्चयः, यदा माये तर्कावतारस्तदा उपाधौ माध्यव्यापकत्वनिश्चय इति भावः । नषेवं पक्षेतरस्य उपाधित्वनिश्चयाभावेऽप्युपाधित्वसन्देहोऽस्वित्यतपाह, 'पक्षेतरस्येति, 'स्वव्याघातकत्वेन' उपाधिमात्रस्य दूषकत्वव्याघातप्रसङ्गोन, ‘मन्दिग्धोपाधिरपि सः, तस्योपाधित्वसन्देहोऽपि न दोषः । इदमापाततः उपाध्यन्तरस्य उपाधित्वसन्देहवत्पनेतरस्योपाधिखसन्देहेनापि व्यभिचारसंशयजनने बाधकाभावात्, न हि प्रयोजनमतिभिया मामग्री कार्य नार्जयति, न वा प्रयोजनशतिः षदा यथाकथञ्चिदनुकूलतर्कण पक्षतरे माध्यव्यापकत्वं निश्चित्य तदनुकूलतर्कात् पक्षेतरत्वव्यभिचारित्वे साध्यव्यभिचारिवल्याप्यवनिश्चयो जातस्तदैव व्यभिचारानुमाने पक्षेतरान्तरस्य उपाधिस्वसंशयासम्भवेन व्यभिचारानुमानसम्भवात् । न च पक्षतरस्योपाधिस्वसन्देहाहितव्यभिचारशका पक्षीयव्यभिचारसंशयवत्र प्रतिबन्धिकेति वाच्यं । न हि व्यभिचारज्ञानत्वेन प्रतिबन्धकतामते परेतरत्वनिष्ठोपाधित्वज्ञानाजन्यत्वं पचौयव्यभिचारसंभयान्यत्वं वा प्रतिबन्धकतावच्छेदकेऽनुप्रवेण्यं, गौरवाम्मानाभावाच । वस्तुतस्तु विशेषादर्शनदमायां उपाध्यन्तरस्योपाधित्वसन्देहवत् यदा पश्तर
Page #368
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामणे
तथा पंक्षतरः साध्यव्यापकतासंशयेन सन्दिग्धः कथं परं दूषयेदिति), तन्न, तथाहि साध्यव्यापकतापक्षमालम्ब्य हेतुव्यभिचारसंशयाधायकत्वेन दूषणं स्यादेव । ननु यवोपाधिस्तत्रानुकूलतोयदि नास्ति तदा तदभावेनैव व्याप्तेरग्रहः, प्रथास्ति तदा साध्यव्याप्या
स्थोपाधित्वसन्देहस्तदापि व्याप्तिग्रहो न भवत्येव परन्तु कथकसम्प्रदायानुरोधात् कथायां मन्दिग्धोपाधित्वेन पक्षेतरो नोभाव्यते इत्येव तत्त्वं ।
'यत्त्विति, 'यथाशब्दो यदेत्यर्थकः' 'माध्यव्यापकत्वं माध्ययापकत्वनिश्चयः, 'तथा' तदा, 'साध्याभावव्यापकत्वमपीति, निश्चिनुयादिति शेषः, 'ग्राहकमाम्यादिति पक्षातिरिक्त सहचारज्ञानव्यभिचारज्ञानरूपयोहिकयोः साम्यादित्यर्थः, 'उभयव्यापकनिवृत्त्येति उभयव्यापकत्वेन निशितस्य तस्य निवृत्त्या हेतुनेत्यर्थः, ‘पचे निवर्त्तितव्यं' पनविशेष्यकानुमितिखरूपयोग्यनिवृत्ति-प्रतियोगिभ्यां भूयेत, तद्धेतुकानुमितिस्वरूपयोग्यत्वञ्च तड्यापकतानिश्चयत्वं, तथाच माध्यतदभावयोरुभयचैव पक्षेतरत्वाभावव्यापकतानिश्चयः स्यादिति फलितं, 'न चैवमिति छेदः, न च माध्य-तदभावयोर्विरुद्धयोरेकधर्मव्यापकतानिश्चयइत्यर्थः, मत्प्रतिपक्षस्थले च हेतुभेदेनैव तदभ्युपगमात् अतएवामाधारणस्य व्यापकताग्रहप्रतिबन्ध एव दूषकतावीजमिति भावः। 'माध्यव्यापकतासंभयेनेति साध्यव्यापकतासंभयस्यैव विषय(१) तथापि हौतिक । सथापौति ग.।
Page #369
--------------------------------------------------------------------------
________________
उपाधिवादा।
व्यापकत्वेनोपाधिः साध्याव्यापकत्वनिश्चयानोपाधिरित्युभयवापिनोपाधिदूषणं । नच व्याप्तभावव्यायमुभयमत उपाधिरपि तदभावोबयनेन दोष इति
त्वनेत्यर्थः, 'सन्धिग्धः' माध्यष्यभिचारव्याप्यत्वेन सन्धिग्धः, 'परं' हेतुनिष्ठव्याप्तिग्रह, 'दूषयेत्' विघटयेत् । 'सायथ्यापकतापक्षमालम्ब्य' माध्यव्यापकताकोटिमालम्ब्य साध्यव्यापकताकोटिसन्देहविषयोभयेति यावत्, 'दूषणं स्थादेवेति, यदि मटुक्तगति नुसरणयेति भावः।
'यत्रोपाधिः' यत्रोपाधित्वज्ञानं दोषः, 'माथव्याप्येति साथव्याप्याव्यापकत्वज्ञानेमेत्यर्थः, अनुकूलतर्कण हेतौ साध्यव्याप्यवनिश्चयादिति भावः । 'नोपाधिः' नोपाधित्वज्ञान, 'नोपाधिर्दूषणं गोपाधित्वज्ञानं दूषणं। शकते, 'थाप्यभावेति, 'उभयमिति उपाधिरनुकूलतर्काभाववेत्यर्थः, 'तदभावोनयनेन' व्याप्यभावोजयनेन, 'आत्मलाभार्थमिति साध्यव्यापकताज्ञानलाभार्थमित्यर्थः, हेतौ . माथव्याप्तियाहकानुकूलतर्कसत्त्वे तत्र साध्यव्याप्यत्वनिश्चयात् तदव्यापकत्वज्ञानेन साध्यव्यापकत्वज्ञानं न स्थादिति भावः । 'सोपाधाविति माध-तदभावसहचरिते मोपाधावित्यर्थः, 'एकत्रेति, अवच्छेदकभेदं विना इति शेषः, 'उपाधिरवश्यं वाच इति(१)
(१) 'उपाधिरावश्यकः' इत्यत्र 'उपाधिरवश्यं वाच्यः' इति कस्यचिन्म लपुस्तकस्य पाठमनुसृत्य 'उपाधिरवश्यं वाच्यः' इति पाठोधतोमथुरानाथेनेति सम्भाव्यते।
46
Page #370
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१९
सावचिन्तामो
वाचं। उपाधेरात्मलाभार्थमनुकूलतर्काभावोपजीवकत्वेन तस्यैव दोषत्वादिति चेत् । न । सोपाधावेकर साध्य-सदभावसम्बन्धस्य विरुद्धत्वादवच्छेदभेदेन तद्
मामानाधिकरण्यसंसर्गण उपाधिरवश्यं वाचः इत्यर्थः, एकव्यक्तिकव्यभिचारिहेतकस्थले सामानाधिकरण्यसंसर्गेण उपाधेरवच्छेदकलं विनान्यस्यावच्छेदकताया दुर्चचत्वात् धूमवान् वहेरित्यादौ च नैकव्यक्तिः माध्य-तदभावसमानाधिकरण। न च द्रव्यं सत्त्वादित्यादावपि गुणान्यत्वविभिष्टमत्तात्व-द्रव्यवृत्तित्वादिकमेवावच्छेदक भविव्यतीति वाच्च। सामानाधिकरण्यसम्बन्धेन गुणान्यत्व-द्रव्यत्वाद्यपेक्षया तस्य गुरुत्वात् । न च घटत्वादिकं सामानाधिकरण्यसंसर्गणवछेदकं भविष्यतीति वाच्यं । सामानाधिकरण्यसंमर्गेण तदिशिष्टस्य माधनस्य साध्यन्यूनवृत्तित्वादिति भावः(१) । 'आवश्यक इति, तं विना माध्यव्यापकत्वज्ञानासम्भवात् इति भावः । 'विनिगमका. भावादिति, इदमापाततः साध्यसम्बन्धितावच्छेदकत्वेन उपाधिखरूपस्यावश्यकत्वेऽपि तस्य उपाधित्वज्ञानं कथं दोषः स्यात् उपजीव्यखेनानुकूलतळभावस्यैव दोषत्वमम्भवात् । वस्तुतस्तु उपाधित्वज्ञानानुकूलतर्काभावयोरुपजीव्योजौवकभावो न कार्य-कारणभावः असभवात्, न वा व्याय-व्यापकभावः तस्य प्रतिबन्धकतायामविनिगमकत्वात् तद्धेतोरेवेत्यादिनियमस्य कारणतायामेव विनिग
(१) पतिप्रसक्तम्येव न्यूनवृत्ते पि नावच्छेदकत्वमिति भावः ।
Page #371
--------------------------------------------------------------------------
________________
उपाधिवादः।
भयसम्बन्धो वाच्यः, तथाच साधने साध्यसम्बन्धितावच्छेदकं रूपं उपाधिरावश्यकः(१) तथानुकूलतर्का
मकवात्, अतएव परम्परया यथाकथञ्चिदुपयोगित्वमपि न तथा । न च उपजीव्योपजीवकभावविरहेऽपि अनुकूलतकस्थावश्यं व्याप्तिग्राहकत्वात् तदभावादेव व्याप्तेरग्रहोपपत्तौ किमुपाधिलज्ञानस्थ दोषत्वेनेति वाच्यं । अनुकूलतर्कस्य व्याप्तिग्रहं प्रत्यहेतुत्वेन यदानुकूलतर्कस्फुर्तिर्नास्ति प्रकारान्तरेण च व्यभिचारग्रहोऽपि नास्ति अथच उपाधित्वज्ञानं वर्त्तते तदापि व्याप्तिग्रहप्रतिबन्धेन नहोषताया श्रावश्यकत्वादित्येव तत्त्वं ।
'ययावृत्त्येति, वैशिष्यं बतौयार्थः, 'साधनस्येत्यनन्तरं अधिकरणइति पूरणैर्य, तथाच यड्यावृत्तिविशिष्टस्य यद्धविच्छिन्त्रप्रतियोगिताकाभावविशिष्टस्य यस्य माधनस्थाधिकरणे 'माध्यं निवर्तते' साध्याभावो वर्तते तद्धर्मावच्छिन्नत्वं तत्र हेतावुपाधित्वमित्यर्थः, उद्भूतरूपवत्त्वाद्यभावविशिष्टस्य माधनस्याधिकरणे वाय्वादौ प्रत्यक्ष- . त्वाधभावस्य सत्त्वान्न विशिष्टमाध्यव्यापकेऽव्याप्तिः, एवञ्च यावछिनप्रतियोगिताकाभावाधिकरणीभूतं साधनतावच्छेदकावधिप्राधिकरणं साध्याभावाधिकरणं तद्धविच्छिन्नत्वमुपाधित्वमिति फलितं, तेन द्रव्यं विशिष्टमत्त्वादित्यादौ विशिष्टस्यानतिरिकत्वे
(१) साधने साध्यसम्बन्धितावच्छेदकल्पमनुकूलतकाभावोपजीवनमन्चरे.
योपाधिरावश्यक इति मुद्रित पुस्तक पाठः परन्त्वयं न समोचीनः ।
Page #372
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिकामी
भागोऽप्यावश्यक इति उभयोरपि विनिगमकाभावोइषकालान्।
ऽपि गुरुवयादौ नातिव्याप्तिः, रूपवान् द्रव्यवादित्यादौ प्रथिवी-घटत्वाधभावस्तु न लक्ष्यः, तथा महाकालान्यो घटादित्यादौ खाकाबभेदादिरपि न लक्ष्यः, वनिमान् धूमादिल्यादौ महामसलाचभावाधिकरणस्य जलहदादेः साध्याभावाधिकरणलेऽपि नदযিলহীন(8) আলাম্বিন্ধ স্বাঘমালৰিঘলান্স महानसलादावनियाप्तिः। न चैवं द्रव्यखाभाववान्प्रमेयत्वादित्यादौ माधनव्यापकर्मयोगाभावादावतिव्याप्तिः संयोगाभावाभावस्य संयोगखाधिकरणे साधनवनि द्रव्ये द्रव्यत्वाभावाभावस्थ मत्वादिति वाच्यं । अधिकरणंपदेन निरवधिबाधिकरणताश्रयस्य विवक्षितत्वात्।
नापि साधसमानाधिकरणकृत्तिवेन तभूमौ विशेषणैयः तेन धूमवान् करित्यादौ इदत्वाद्यभावाधिकरणेऽयोगोलकादौ धूमाधभावसत्येऽपि इदत्वादौ नातिव्याप्तिरिति मझेपः।
बन्यचैवं व्यभिचारोबायकत्वेब दूषकतापक्षे सध्यतावच्छेदकमुक्का समातिपदोबायकत्वेन दूषकवनये सध्यतावच्छेदकमाइ, 'म चेति म वेत्यर्थः, 'धर्म इत्यनन्तरं 'उपाधिरित्यनुषज्यते, 'यस्थाभावादिति
(१) 'सदधिकरणीभूतस्य' महानसत्वाद्यभावाधिकरणीभूतस्येत्यर्थः, 'तद
भाकाधिकरणोभूतस्य' इति काचित्कः पाठः, सादृशपाठे तत्पदेन महातमत्वादे पराम।
Page #373
--------------------------------------------------------------------------
________________
उपाभिवाद।
'अन्ये तु ययाहत्त्या यस्य साधनस्य. साध्यं निवर्तते स धर्मस्तच हेतावुपाधिः, स च धर्मीयस्याभावान
पचे यस्याभावात्पक्षतावच्छेदकावच्छेदेन वर्तमानात् यस्थाभावात्, 'माध्य-साधनसम्बन्धाभाव इति योजना, प्रयोजकत्वं पञ्चम्यर्थः तच्च व्यापकत्वमेव, तथाच पक्षतावच्छेदकावच्छेदेन वर्तमानस्य यदभावस्य व्यापकः साधनविशिष्टस्य माध्यस्याभाव इत्यर्थः, 'माधनपदं पक्षवृत्तिधर्मपरन्तेनाश्वो गौरश्वत्वादित्यादिविरुद्धस्थलीयमानावत्त्वाधुपाधौ वायुः प्रत्यक्षः प्रमेयवादित्यादौ पक्षधर्मावच्छिन्नमाध्यव्यापके उद्भतरूपादौ च नाव्याप्तिः तदभावस्थापि द्रव्यत्व-वहिद्रव्यत्वादिरूपयत्किञ्चित्पक्षवृत्तिधर्मविशिष्टमाध्याभावव्याप्यत्वात् पक्षतावच्छेदकावच्छेदेन वर्तमानत्वाच्च । एवमग्रेऽपि सर्वच माधनपदं पक्षधर्मपरं, एवञ्च यद्धर्मावच्छिन्नाभावः पक्षवृत्तिधर्मावच्छिन्नसाध्याभावव्याप्यः पचतावच्छेदकावच्छेदेन वर्तमानश्च तद्धर्मावच्छिन्नत्वम्पाधिसमिति फलितं, वायुः प्रत्यक्षः प्रमेयत्वात् गौरमित्रातनयः श्यामः मित्रातनयत्वादित्यादौ शुद्धसाध्याव्यापके उद्भूतरूपवत्त्व-शाकपाकजत्वादावव्याप्तिवारणयावच्छिन्नान्तं माध्यविशेषणं, पर्वतो वकिमान् धूमात्पर्वतो धूमवान् वक्रेरित्यादौ महानसत्वादावतिव्यायापत्त्या यत्किञ्चिद्धर्मति विहाय पचवृत्तिधर्मत्यभिहितं, पक्षत्तिधर्मत्वच पक्षतावच्छेदकव्यापकधर्मत्वं तेन न पर्वतो वहिमान् धूमादित्यादौ निर्वकिपर्वत-महानमाद्यन्यतरत्वादिविशिष्टवहिव्यापके महानसत्वादावतियाप्तिः । न च तथाप्ययोगोलकं धूमवत्
Page #374
--------------------------------------------------------------------------
________________
तावचिन्तामणे
पक्षे साध्य-साधनसम्बन्धाभावः यथा श्राद्रधनवाचं, व्यावर्तते हितद्याहत्त्या धूमवावमयोगोलके। अतएव
वक्रेरित्यादौ महानसत्वादावतिव्याप्तिः तदभावस्थापि महानमायोगोलकान्यतरत्वादिरूपपक्षधर्मावच्छित्रसाध्याभावव्याप्यत्वादितिवाच्या तत्र तस्य लक्ष्यत्वात् महानसायोगोलकान्यतरत्वादिरूपपक्षवृत्तिधविच्छिन्नमाध्यव्यापकत्वे मति पक्षावृत्तितया वक्ष्यमाणलक्षणाक्रातत्वात् “सर्वं माध्यममानाधिकरणः मदुपाधयः । पक्षे सर्वाश्रये येषां स्व-साध्यव्यतिरेकिता" ॥ इति सिद्धान्ताच्च ‘पचे मर्वाश्रये' पवरूपसर्वाश्रये सर्वस्मिन् पक्षतावच्छेदकाश्रये इति यावत्, पक्षतावच्छेदकावच्छेदेन वर्तमानत्वोपपादनात् पर्वतो वहिमान् धूमात् द्रव्यं वक्किमद्धमादित्यादौ वक्रिमामय्यादेर्युदासः । इदो वहिमान् धूमादित्यादौ वहिमामय्यादिश्च संग्राह्य एव सत्प्रतिपक्षोन्नायकत्वेन दूषकतामते साधनव्यापकस्थापि पचावृत्तेरुपाधित्वात्, अबाधितमाध्यकस्थलीय उपाधिश्च न संग्राम इति पर्वतो धूमवान् बहेरित्यादौ पाईन्धनादौ नाव्याप्तिरिति भावः। न चैवं यद्धमावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावविशिष्टसाध्याभावः सकलपक्षवृत्तिस्तद्धर्मावच्छिन्नत्वमुपाधित्वमित्येव लक्ष्यतावच्छेदकमस्तु लाघवादिति वाच्यं। तस्यापि सध्यतावच्छेदकान्तरत्वात् लक्ष्यतावच्छेदकान्तरसम्भवस्य लक्ष्यतावछेदकादोषत्वात् लक्ष्यतावच्छेदकगौरवस्थाकिञ्चित्करत्वात् । एतदेव सध्यतावच्छेदकइयं प्रयोगोलकं धूमवइलेरित्यत्र एमाध्यव्याबकाइन्धने क्रमेण मामयति, 'यथेति, 'व्यावर्तते रौति, धूमवावं
Page #375
--------------------------------------------------------------------------
________________
उपाधिवादः।
तब साध्य-साधनसम्बन्धाभावः पक्षे एवं भावत्वव्यावृत्त्या ध्वंसे जन्यत्वानित्यत्वयाः सम्बन्धोनिवर्तमानः पक्षधर्मताबलादनित्यत्वाभावमादाय सिध्यति, तथा तड्यावृत्त्यायोगोलके इति योजना, 'तड्यात्त्येत्यचापि वैशिष्यं हतीयार्थः, तथाच 'हि' यस्मात्, 'तड्यावृत्तिविशिष्टे 'अयोगोलके' साधनाधिकरणे, 'धूमवत्त्वं व्यावर्त्तते' धूमस्याभावो वर्तत इत्यर्थः, एतेन प्रथमलक्ष्यतावच्छेदकमुपपादितं । ननु तथापि व्याप्यत्वगर्भ दिनीयसक्ष्यतावच्छेदकं तत्रार्दैन्धनेऽव्याप्तमेव तदभावाधिकरणे पौभतेऽयोगोलके शुद्धसाध्याभावसत्त्वेऽपि पचवृत्तिधर्मस्य विशेषणस्य सत्त्वेन तद्विशिष्टसाध्याभावासत्त्वादित्यत आह, 'श्रत एवेति माध्याभावसत्त्वादेवेत्यर्थः, 'तत्रेति, ‘माध्य-साधनसम्बन्धाभावस्तत्र पक्ष इति योजना, ‘माध्य-साधनसम्बन्धाभावः' माधनविशिष्टसाध्याभावः महानसायोगोलकान्यतरत्वादिरूपपक्षवृत्तिधर्मविशिष्टसाध्याभाव इति यावत्, 'तत्र परे' अयोगोलकरूपपक्षे, तत्र शुद्धसाध्याभावसत्त्वे विशेषणमत्त्वेऽपि विशेष्याभावकृतस्य विशिष्टमाध्याभावस्थावश्यकत्वादिति भावः(१) । ननु तथापि ध्वंसो न नित्यो जन्यत्वादित्यत्र(२) (१) बयोगोलकरूपपक्षे महानसायोगालकान्यतरत्वरूपविशेषणस्य सत्त्वे
ऽपि विशेष्यीभूतस्य धूमस्याभावात् विशिष्टसाध्याभावः विशेषणा
भावस्येव विशेष्याभावस्य विशिष्ठाभावप्रयोजकत्वादिति भावः । (२) न नित्य इत्यत्र नित्यत्वं ध्वंसाप्रतियोगित्वविशिलपागभावाप्रतियो
गित्वं, जन्यत्वादित्यत्र जन्यत्वं प्रागभावप्रतियोगित्वमात्रं न तु नित्यवाभावः बतो न साध्याविशेषः ।
Page #376
--------------------------------------------------------------------------
________________
सावधितामणे
वावाबुद्धतरूपवावं निवर्तमानं वहिव्यत्वे सति प्रत्यक्षत्वं निवर्तयत् प्रत्यक्षत्वाभावमादाय सिद्ध्यति तथाचोभयचापि पक्षे साध्याभावसिया साध्य-साधनसम्बन्धाभावोऽस्तौति । अतएव वाधानुनौतपधेतर
जन्यस्वरूपसाधनावच्छिन्नमाध्यव्यापके भावत्वे प्रथमवध्यतावच्छेदकस्याव्याप्तिः तब माधनाधिकरणे ध्वंसे जन्यत्वरूपपक्षधर्मविशिटानित्यत्वाभावस्य ध्वंसो न जन्यले सत्यनित्यः भाववाभावादित्यनुमानसिद्धत्वेऽप्यनित्यत्वसामान्याभावरूपस्य प्रसाध्याभावस्य साधनाधिकरणे सत्त्वे मानाभावादेवं वायुर्वहिरिन्द्रियप्रत्यक्षः प्रत्यक्षपाश्रयत्वादित्यच द्रव्यत्वरूपपञ्चधर्मावच्छिन्नमाध्यव्यापके उद्भूतरूपवत्वे तस्याव्याप्तिः तत्रापि साधनाधिकरणे वाय्वादौ द्रव्यत्वरूपपक्षधर्मविशिष्टवहिरिन्द्रियप्रत्यक्षत्वाभावस्य वायुर्न द्रव्यत्वे मति वहिरिन्द्रियप्रत्यक्ष उद्भूतरूपवत्त्वाभावादित्यनुमानसिद्धत्वेऽपि वहिरिन्द्रियजन्यप्रत्यक्षत्वाभावरूपस्य शुद्धमाध्याभावस्य माधनाधिकरणे सत्त्वे मानाभावादित्यत अाह, ‘एवमिति, 'ध्वंसे' पचौभते ध्वंसे, 'जन्यत्वानित्यत्वयोः', 'सम्बन्धः' जन्यत्वरूपपक्षधर्मविशिष्टो नित्यवाभावः, 'निवर्तमानः' निवृत्तिप्रतियोगित्वेन सिद्धिविषयो भवन्, 'पक्षधर्मताबलादिति जन्यवरूपस्य विशेषणस्य पक्षवृत्तित्वनिश्चयसहकारादित्यर्थः, 'अनित्यत्वाभावं' अनित्यत्वाभावरूपं शुद्धसाध्याभावं, 'तथेति, निवर्तमान' निवृत्तिप्रतियोगित्वेन ज्ञायमानं, 'द्रव्यले सतौति द्रव्यत्वविभिष्टवहिरिन्द्रियप्रत्यक्षात्यमित्यर्थः, 'निव
Page #377
--------------------------------------------------------------------------
________________
उपाधिवादः।
स्यानुपाधित्वं स्वव्याघातकत्वेन तद्यतिरेकस्य साध्याव्यावनकत्वादिति।
यत्तूपाधिमावस्य लक्षणं व्यतिकिधर्मत्वं पतरोऽपि कचिदपाधिः, तत्तदुपाधेस्तु तत्तत्साध्यव्यापकत्वे
तयत्' निवृत्तिप्रतियोगित्वेनानुमापयत्, 'प्रत्यक्षाभावमादायेति वहिरिन्द्रियजन्यप्रत्यक्षत्वाभावरूपं शुद्धसाध्याभावमादायेत्यर्थः, 'सिहाति' द्रव्यत्वविशिष्टवहिरिन्द्रियजन्यप्रत्यक्षत्वनिवृत्तिः सियति, 'तथाचेति, 'साध्याभावसिया' शुद्धमायाभावमिया, ‘माध्य-साधनसम्बन्धाभावोऽस्तौति साधनाधिकरणे शुद्धमाध्याभावोऽस्तीत्यर्थः, प्रकृते पक्षस्यैव साधनाधिकरणवादिति भावः। 'स्वव्याघातकत्वेन' 'खं' माध्याभावः, तड्याघातकत्वेन तदभावसाधकत्वेन माध्याभावाभावव्याप्यत्वेनेति यावत्, ‘साध्याव्यावर्तकत्वादिति साधनाधिकरणे माध्याभावासमानाधिकरणत्वादित्यर्थः, पक्षवृत्तिधर्मविशिष्टसाध्याभावाव्याप्यत्वाच्चेत्यपि बोध्यं, अयोगोलकं धूमवक्रेरित्यत्र पक्षेतरत्वस्योपाधित्वमस्त्येवेति भावः ।
साम्प्रदायिकास्तु 'अत्रोच्यत इति कृत्वा व्यभिचारोबायकत्वेन दूषकतापक्षे लक्ष्यतावच्छेदकमुक्ता मत्प्रतिपक्षोन्नायकत्वेन उपाधेर्दूषकत्वं ये वर्णयन्ति) तन्मते लक्ष्यतावच्छेदकमाह, 'अन्ये विति, 'ययावृत्त्येति यस्य माधनस्य ययावृत्त्येति योजना, सर्वस्मिन् पक्षइति शेषः, 'यस्य माधनस्येत्यत्र येन केनचित् सम्बन्धेन मम्बन्धित्वं (१) वदन्तौति ख. ग.।
.47
Page #378
--------------------------------------------------------------------------
________________
३७. . तत्वचिन्तामणो सति तत्तत्साधनाव्यापकत्वं । नच धूम-वहिसम्बन्धोपाधिः पक्षेतरत्वं स्यादिति वाच्यम्। पापाद्यामसिझे
षष्ठ्यर्थः, अन्नयशास्य 'यदित्यन, हतीया च महाथै, तथाच येन केनापि सम्बन्धेन यत्साधनसम्बन्धिनो यस्य व्यावृत्त्या सह सर्वस्मिन् पचे माध्यं निवर्तते साध्याभावो वर्तते स तत्र हेताबुपाधिरित्यर्थः, उद्भूतरूपाद्यभावेन सहापि प्रत्यक्षवाद्यभावः सर्वस्मिन् पक्षे वर्ततएवेति म विशिष्टसाध्यव्यापकेऽयाप्तिः । येन केनापि सम्बन्धन यथोकधर्मसम्बन्धित्वमेव मोपाधित्वव्यवहारप्रयोजकमिति बोधनाय 'सम्बन्धिन इत्यन्तं 'यस्येत्यस्य विशेषणं न तु तलक्षणघटकं, परन्तु यद्धविच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावविशिष्टस्य माध्याभावस्थाधिकरणं सकलपक्षतावच्छेदकाधिकरणं तदुर्मवत्वमुपाधित्वमित्येव लक्षणं, पर्वतो वहिमान् धूमादित्यादौ महाममत्वाधभावविशिष्टस्य साध्याभावस्थाधिकरणं न पक्ष इति न तचातिव्याप्तिः, योगोलकं धूमवदहेरित्यत्र महानसत्वादिकञ्च लक्ष्यमेव, द्रव्यं वहिमभूमादित्यादौ वक्रिमामय्याद्यभावविशिष्टस्य माध्याभावस्य पक्षवृत्तित्वेऽपि न सकलपक्षवृत्तित्वं श्रतो न तत्रातिव्याप्तिः, सत्प्रतिपक्षोत्रायकत्वेन दूषक- । तापचे माधनव्यापकस्यापि पक्षवृत्तेरुपाधित्वात् साध्यव्यापक-साधमायापकस्यापि पक्षवृत्तेरनुपाधित्वाब जलदो वकिमान् धूमादित्यादौ वहिमामय्यादावतिव्याप्तिः, पर्वतो धूमवान् वहेरित्याद्यबाधितस्थले बान्धनादावल्याप्तिर्वा, साध्यसमानाधिकरणवृत्तित्वेन च तहमा विशेषणेयः तेनायोगोलकं धमवदहेरित्यादौ साध्यविरुद्धे
Page #379
--------------------------------------------------------------------------
________________
उपाधिवादः।
३७१
रिति। तन्न। अनुमितिप्रतिबन्धकज्ञानविषयतावच्छे
जलवादौ नातिव्याप्तिरिति न कोपि दोषः। लक्ष्यतावच्छेदकमुक्का लक्षणमाइ, 'म च धर्म इति, 'यस्थाभावादिति पूर्ववड्याख्येयं । लक्ष्यतावच्छेदक लक्षणञ्च अयोगोलकं धूमवदरित्यत्र पाईन्धने योजयति, 'यथेति, ‘यावर्त्तते हौति, 'हि' यस्मात्, तद्द्यावृत्त्या सह पक्षीभूतेऽयोगोलके माधनाधिकरणे धूमवत्वं व्यावर्त्तते धूमाभावो वर्त्तते इति योजना, तेन लक्ष्यतावच्छेदकं योजितं । ननु तथापि व्याप्यत्वगर्भतया लक्षणं तत्राव्याप्तमेव तदभावाधिकरणे पक्षीभूतेऽयोगोलके पक्षवृत्तिधर्मस्य विशेषणस्य सत्त्वेन तदिशिष्टमाध्याभावासत्त्वादित्यतवाह, 'श्रतएवेति, अर्थस्तु पूर्ववत् । ननु तथापि ध्वंसो न नित्यो जन्यत्वादित्यत्र माधनावच्छिन्नमाध्यव्यापके भावत्वे वायुर्वहिरिन्द्रियप्रत्यक्षः प्रत्यक्षस्पर्णाश्रयत्वादित्यत्र द्रव्यत्वखरूपपक्षधर्मावच्छिन्नमाध्यव्यापके उद्भूतरूपवत्वे च लक्ष्यतावच्छेदकस्याव्याप्तिः तदुभयत्र पक्षे शुद्धसाध्याभावसत्त्वे मानाभावादित्यत आह, “एवमिति, अर्थस्तु पूर्ववत् । 'तथाचेति, ‘माध्याभावसियेति सहाथै हतीया, 'माध्यमाधनेति साधनविशिष्टसाध्याभावग्रहो भवतीत्यर्थः, अतो लक्ष्यतावच्छेदकस्य न तत्राव्याप्तिरिति शेषः । 'माध्याव्यावर्तकत्वादिति पर्छ माध्याभावासमानाधिकरणत्वादित्यर्थः, 'खव्याघातत्वञ्च पूर्वनिरुक्तमेवेत्याः ।
अन्ये तु 'ययावृत्त्येत्यत्र पूरणं विनैव सर्वं ग्रन्थं सम्यक् योजयन्ति, तथाहि यस्य हेतोर्ययावृत्त्या हेतुना 'साधनस्य माध्यं निवर्त्तते'
Page #380
--------------------------------------------------------------------------
________________
३७२
तत्त्वचिन्तामो
माधनसम्बन्धिसाध्याभावः साधयितुं शक्यते साधनविशिष्टमाध्याभावः माधयितुं शक्यते इति यावत्, 'यस्य हेतोरित्यत्र येन केनचित् सम्बन्धेन सम्बन्धित्वं षष्ट्यर्थः, अन्वयश्चास्य 'यदित्यच तथाच येन केनापि सम्बन्धेन यद्धेतसम्बन्धिनो यस्य धर्मस्य व्यावृत्त्या हेतुना साधनविशिष्टसाध्याभावः साधयितुं शक्यते स धर्मस्तत्र हेतावुपाधिरित्यर्थः, 'सम्बन्धिन इत्यस्य प्रयोजनं पूर्ववत् न तु तलक्षणघटकं, परन्तु यद्धर्मव्यावृत्तिः साधनविशिष्टसाध्याभावसिद्धिस्वरूपयोग्या स धर्म उपाधिरिति लक्षणं, वायुः प्रत्यक्षः प्रत्यक्षपाश्रयत्वात् गौरमिवातनयः लामो मित्रातनयत्वादित्यादौ शद्धसाध्याव्यापके उद्भूतरूपवत्व-भाकपाकजत्वादावव्याप्तिवारणाय(१) साधनविशिष्टत्वं माध्यविशेषणं, साधनपदञ्च पक्षवृत्तिधर्मपरं, तेन विरुद्धस्थलीयोपाधौ वायुः प्रत्यक्षः प्रमेयत्वादित्यादौ उद्भूतरूपवत्त्वादौ च नाव्याप्तिः। नन्वेवं पर्वतो वह्निमान् धमादित्यादावपि वहिमामय्यादेपाधिवापत्तिः तदभावस्थापि दादौ तादृशमाध्याभावसिद्धिखरूपयोग्यत्वादित्यतः स्वरूपयोग्यत्वमेव छलतो निर्वनि, ‘स चेति,“यस्थाभावादिति पूर्ववड्याख्येयं, तथाच साधनविशिष्टसाध्याभावव्याप्यत्वे मति पक्षतावच्छेदकावच्छेदेन वर्तमानत्वमेव स्वरूपयोग्यत्वमिति भावः । माधनपदं पक्षवृत्तिधर्मपरं, लक्षणनिष्कर्षस्तु(२) पूर्ववत् । अयोगोलकं
(१) प्रत्यक्षत्वस्य गुणादौ श्यामत्वस्य काक-कोकिलादौ वर्तमानत्वेन तत्र
उद्भूत रूपवत्त्वम्य शाकपाकगत्वस्य धावतमानत्वात् शुद्धसाध्याव्याप
कत्वमिति भावः। (२) सर्वत्र लक्षणनिष्कर्षस्विति ख.। एवं सर्वत्र लक्षणनिष्कर्षविति
Page #381
--------------------------------------------------------------------------
________________
उपाधिवादः।
धूमवद्यरित्यचाधनेलक्षणं योजयति, 'यथेति । भग्वान्धनाभावस्य कथं साधनविशिष्टसाध्याभावव्याप्यत्वमित्यत श्राह, यावर्त्तते हौति, 'हि' यस्मात्, 'व्यावर्त्तते' व्यावृत्तिप्रतियोगित्वेनानुमीयते, 'प्रयोगोलके' पचौभूते प्रयोगोलके। नन्वेतावता तदभावस्य शुद्धधूमाभावव्याप्यत्वेऽपि पत्तिधर्मविशिष्टसाध्याभावव्याप्यत्वं न सम्भवति तदभाववति पक्षे शुद्धसाध्याभावसत्त्वेऽपि विशेषणासत्त्वेन तादृशविशिष्टसाध्याभावासन्चादित्यत आह, 'अतएवेति, अर्थस्तु पूर्ववत् । ननु ध्वंसो न नित्यो जन्यत्वात् वायुर्वहिरिन्द्रियप्रत्यक्षः प्रमेयत्वादित्यादौ भावत्वोद्भूतरूपवत्त्वाधुपाधेरभावस्य जन्यत्व-द्रव्यत्वादिरूपपक्षधर्मविशिष्टसाध्याभावव्याप्यत्वज्ञानात्तदभावेन हेतुना तादृशविशिष्टमाध्याभावानुमितिर्भवतु शुद्धसाध्याभावानुमितिश्च कथं स्यात् । न च तदनुमितिविरहेऽपि न क्षतिरिति वाच्य। निरुतोपाधित्वज्ञानस्य पक्षे शुद्धमाध्याभावानुमितिद्वारैव दूषकत्वस्याभ्युपेयत्वात् विशिष्टसाध्याभावानुमितेः शुद्धमाध्यानुमितावप्रतिबन्धकवादित्यत आह, 'एवमिति, ‘एवं' निरुक्तस्योपाधित्वरूपत्वे इत्यर्थः, तज्ज्ञानादिति शेषः। यद्दा 'एवमित्यस्य यथायोगोलकं धूमवक्रेरित्यत्रा;न्धनाभावस्य द्रव्यत्वादिरूपपक्षधर्मविशिष्टसाध्याभावव्याप्यत्वज्ञानानन्तरं तदभावेन हेतुना पक्षे तादृशविशिष्टसाध्याभावः सियति न द्रव्यत्वादेः पक्षवृत्तित्वनिस्वयबलात् शुद्धसाध्याभावः मिति तथेत्यर्थः, अन्यथा तत्राप्येतदाशाकासम्भवादिति भावः। ‘भावत्वव्यावृत्त्येत्यस्य जन्यत्वविशिष्टनित्यत्वाभावाभावव्याप्यत्वज्ञानानन्तरमित्यादि, अग्रेऽपि तथेत्यस्य द्रव्यत्वविशिष्टवहिरिन्द्रियप्रत्यक्षवाभावव्याप्यत्वज्ञानानन्तरमिति भेषः, 'तथा
Page #382
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामगै
दकमुपाधित्वमिह निरूप्यं तच्च न व्यतिरेकित्वमतिप्रसङ्गात् विशेष लक्षणे वह्नि-धूमसम्बन्धे पक्षेतरस्योपाधित्वप्रसङ्गाच्च।
चेत्यादिग्रन्थस्तु साम्प्रदायिकवद्योजनौयः। 'साध्ययावतकवादित्यस्य तु निरुतसाध्याभावसिद्धिखरूपयोग्यत्वाभावादित्यर्थः, इति कृतं पल्लवितेन। ___ 'यतिरेकधर्मत्वमिति, केवलान्वयिनः प्रमेयत्वादेः स्वरूपसम्बन्धेन कुत्रापि नोपाधित्वमिति व्यतिरेकित्वोपादानं, तथाच तत्सम्बन्धेन स्वप्रतियोग्यमधिकरणे वर्तमानस्थाभावस्य प्रतियोगितावच्छेदको यो धर्मस्तद्वत्त्वं तेन रूपेण तत्सम्बन्धेनोपाधित्वमिति फलितं, तेन प्रमेयत्वादेः समवायसम्बन्धनाभावप्रतियोगित्वेऽपि न स्वरूपसम्बन्धेनोपाधित्वं, न वा खरूपसम्बन्धेन संयोगाभावादेरुपाधित्वं तेन सम्बन्धेन तदनधिकरणप्रसिद्धेः(१) सम्बन्धविशेषलाभायैव धर्मपदमिति भावः। 'तत्तदुपाधेरिति तत्तत्माध्यक-तत्तद्धेतुकोपाधेरित्यर्थः, लक्षणमित्यनुषज्यते, 'धूम-वजिसम्बन्धोपाधिरिति धूमाव्यापकत्वे सति वहिव्यापकत्वरूपधूम-वह्निसम्बन्धावच्छिन्नत्वेनाभिमतोपाधिपदवाच्यतात्रय इत्यर्थः, व्यतिरेकिधर्मत्वावच्छिनोपाधिपदवाच्यत्वाश्रयवारणायाभिमतान्तं वाच्यताविशेषणं । यद्यपि धूमायापकत्वे मति (१) खरूपसम्बन्धेन संयोगाभावाभावस्य संयोगस्य वृक्षादौ सवेऽपि " संयोगरूपाभावप्रतियोगिनः संयोगामावस्यागधिकरण न रक्षादेरतो न संयोगाभावादेशपाधिश्वमिति भावः । ।
Page #383
--------------------------------------------------------------------------
________________
उपाधिवादः ।
३७५
'केचित्तु साधनव्यापकेोऽप्युपाधिः कच्चिद्यच पक्षारतिर्हेतुः यथा करका पृथिवो कठिनसंयेोगात् इत्यचानुष्णाशीतस्पर्शवत्वं । नच तच स्वरूपासिद्धिरेव देोषः, सर्वत्रोपाधेर्दूषणान्तरसङ्करादित्याहुः ।
वव्यापकत्वं यदि उपाधिपदवाच्यतावच्छेदकं स्यात् तदा तदवच्छिन्नोपाधिपदवाच्यताश्रयः पचेतरः स्यादित्यापादने वैयधिकरणं, तथापि उपाधिपदवाच्यतावच्छेदकत्वं यदि धूमाव्यापकत्वे सति वह्निव्यापकतासामान्यनिष्ठं स्यात्तदा पचेतरनिष्ठधूमाव्यापकत्व विशिष्टवहिव्यापकतानिष्टमपि स्यादित्यापादने तात्पर्यं । 'श्रपाद्येति धमाव्यापकत्वविशिष्टवहिव्यापकत्वाप्रसिड्या तद्घटितापाद्याप्रसिद्धेरित्यर्थः, तङ्घटितापादकाप्रसिद्धेश्चेत्यपि बोध्यं । ननु सामान्यलचएमितरभेदकं तत्तत्साध्यक-तत्तद्धेतुकोपाधिलचणन्तु दूषणौपयिकं तच्च यत्किञ्चिद्धर्मावच्छिन्नतत्तत्साध्यव्यापकत्वे सति तत्तत्साधनाव्यापकत्वं तेन विशिष्टसाध्यव्यापकोपाधौ नाव्याप्तिरित्यत श्राह 'विशेषलक्षण इति यत्किञ्चिद्धर्मावच्छिन्नतत्तत्साध्यव्यापकत्वे सति तत्तत्साधनाव्यापकत्वरूपे तत्तत्साध्यक-तत्तद्धेतु कोपाधिलक्षण इत्यर्थः, दूषणौपयिक इति शेषः । 'वहि- धूमसम्बन्धे' वहि धूमसम्बन्धज्ञाने वहि- धूमव्याप्तिज्ञान इति यावत्, 'पचेतरस्येति पचेतरनिष्ठतद्रूपज्ञानस्य प्रतिबन्धकत्वप्रसङ्ग इत्यर्थः, न चेष्टापत्तिः, पचेतरत्वादिनिष्ठसाध्यव्यापकत्वे सति साधनाव्यापकत्वज्ञानस्य प्रतिबन्धकतायाः सर्व्व
ܬ
Page #384
--------------------------------------------------------------------------
________________
३०१
तत्त्वचिन्तामणौ साध्यञ्च नोपाधिः व्यभिचारसाधने साध्याविशिष्टत्वात् अनुमितिमात्रोच्छेदप्रसङ्गाञ्च ।
इति श्रीमहङ्गेशपाध्यायविरचिते तत्त्वचिन्तामणौ अनुमानास्यहितीयखण्डे उपाधिसामान्यलक्षणं ।
सिद्धत्वेऽपि तनिष्ठयत्किञ्चिद्धर्मावच्छिन्नसाध्यव्यापकत्वे सति साधनाव्यापकताज्ञानस्य प्रतिबन्धकतायाः केनाप्यनभ्युपगमादिति भावः ।
‘ननु खव्यतिरेकेण पचे पाध्याभावोबायकत्वस्य लक्ष्यतानियामकत्वमते हुदो वहिमान् धूमादित्यादौ साधनव्यापकस्यापि वकिमामय्यादेरुपाधित्वापत्तिरित्याशायामिष्टापत्तिमाह, 'केचित्विति खव्यतिरेके पक्षे साध्यव्यतिरेकोबायकत्वस्य लक्ष्यतानियामकत्ववादिनस्वित्यर्थः, 'यति, माधनस्य पचत्तित्वे तड्यापकधर्मस्थापि पक्षवृत्तित्वावश्यकतया तस्योपाधित्वासम्भवात् यथोक्रस्य लक्ष्यतानियामकलमते पक्षवृत्तिधर्मावच्छिन्नमाध्यव्यापकत्वे मति पक्षावृत्तित्वस्य उपाधिलक्षणत्वादिति भावः। अत्र दृष्टान्तमाह, 'यथेति, 'तत्रेति पक्षावृत्तिहेतावित्यर्थः ।
ननु उपाधेर्यथोक्कलक्षणस्य माध्येऽपि सत्त्वात् परार्थस्थले माध्यस्थापि माध्यतावच्छेदकरूपेण उपाधितयोद्भावनापत्तिरित्यत आह, 'माध्यञ्चेति, 'नोपाधिः' माध्यतावच्छेदकरूपेण उपाधितया नोद्भाव्यः, 'यभिचारसाधने' तयभिचारादिरूपसाधने, श्रादिपदात् तदभावपरिग्रहः, 'माध्याविभिष्टत्वादिति माध्यव्यभिचारादिरूपस्य माध्यस्था
Page #385
--------------------------------------------------------------------------
________________
उपाधिवाद।
विशेषादित्यर्थः, तथाच साधनादिरूपे पवे तयभिचारादेरनिधये . निश्चये चोभयथैव तयभिचारादिना हेतुना माध्यव्यभिचारानुमित्यसम्भवात् न तस्योपाधित्वेन उद्भावनमिति भावः। ननु तथापि मन्दिग्धोपाधित्वेन तस्योद्भावनापत्तिरित्यत आह, 'अनुमितिमात्रेति परार्थानुमितिमाचेत्यर्थः, एतच्चापाततः यत्र न तदुद्भावनं तत्रैव परार्थानुमितिसम्भवात्, परन्तु कथकसम्प्रदायनिषिद्धत्वान्न तदुगावनमित्येव तत्त्वं ।
इति श्रीमथुरानाथतर्कवागीश-विरचिते तत्त्वचिन्तामणिरहस्ये अनुमानाख्यद्वितीयखण्डरहस्ये उपाधिमामान्यलक्षणरहस्यं ।
Page #386
--------------------------------------------------------------------------
________________
अयोपाधिविभागः।
स चाय विविधः निश्चितः सन्दिग्धश्च, साध्यव्यापकत्वेन साधनाव्यापकत्वेन च निश्चिताव्यभिचारनिश्चयाधायकत्वेन निश्चितोपाधिः यथा वहिमत्वेन धमवत्वे साध्ये आर्दैन्धनप्रभववहिमावं, यच साधनाव्यापकत्वसन्देहः साध्यव्यापकत्वसंशयो वा तदभयसन्देही वा तच हेतुव्यभिचारसंशायकत्वेन संदिग्धो
उपाधिविभागरहस्यं । उपाधिलक्षणं लक्षयित्वा विशेषलक्षणार्थं विभजते, 'म चेति, 'हेतव्यभिचारसंशायकत्वेनेति(?) माधनाव्यापकत्वमन्देहे माधने माध्यव्यापकव्यभिचारस्य माध्यव्यभिचारव्याप्यस्य सन्देहात् माध्यव्यभिचारमन्देहः, साध्यव्यापकत्वमन्देहे तु साधनाव्यापकव्याप्यत्वस्य साधनाध्यापकत्वव्याप्यस्य सन्देहात् माध्ये माधनाव्यापकत्वसन्देहः यायसंशयस्य यापकमंशयहेतुत्वादिति भावः। 'मन्दिग्धोपाधिः' मन्दिग्धोपाधित्वं, तेन 'तचेत्यत्र सप्तम्यर्थस्य नानन्धयः। प्रथमस्थोदाहरणमाह, 'यथेति, 'माकाद्याहारपरिणतिजत्वमिति भाकादिसंयोगघटितभाकपाकज
(२) हेतुष्यभिचारसंशयाधायकवेनेतीवि प.।
Page #387
--------------------------------------------------------------------------
________________
माधिवाहा।
पाधिः यया मित्रासमयत्वेन श्यामत्वे साध्ये शाकाचाहारपरिणतिजत्वं । न च तेनैव हेतुना शाकपाकबत्वमपि साध्यं, तब स्यामत्वस्योपाधित्वादभयस्यापि साधने अर्थान्तरं श्यामत्वमारे हि विवादो न तूभयचा न चैवं धूमाहयनुमानेऽपि वहिसामग्रुपाधिः स्थात्, तब वहिनेव तत्सामग्रापि समं धूमस्यानी
स्यामसामग्रौमत्वमित्यर्थः, तेन नायिमग्रन्थासङ्गतिः। परार्थस्थलाभिपायेण शकते, 'न चेति, 'तेनैव' मित्रातनयत्वेनैव, 'तदपि (१) तादृशमामयौमत्त्वमपि, 'साध्यमिति पक्षसत्त्वशाधौनसाधनाव्यापकत्वसन्देइनिरासाय वादिना साधनौयमित्यर्थः, 'उपाधित्वात्' मन्दिग्धोपाधित्वेन उद्भाव्यत्वादित्यर्थः। ननु मित्रातनयत्वेन हेतुना युगपदेवोभयं साधनौयं तत्र च श्यामत्वादेपाधित्वेनोद्भावनसम्भवः साध्यस्योपाधित्वेनानुहाव्यवनियमादित्यत आह, 'उभयस्थापौति, 'स्यामत्वमाचे हौति, इदमुपलक्षणं युगपदुभयस्य माधनेऽप्येकांशेऽपरस्योपाधिल्वेनोद्भावने बाधकाभावात् व्यभिचाराद्यनुमाने मायाविधिहतया स्वस्मिन् साध्य एव खस्योपाधित्वेनानुद्भाव्यत्वनियमादिति ध्येयं । 'न चैवमिति, ‘एवं' माध्यमामय्या अप्युपाधित्वग्रहविषयत्वे, ‘वयनुमानेऽपि' वयनुमित्युपधानस्थलेऽपि, ‘उपाधिः स्यात्' उपाधिग्रह(९) 'भाकपाकणत्वमपि' इत्यत्र 'तदपि' इति कस्यचिन्मूलपुस्तकास्य पाठः . .तमालय ताहापाठोधतो रहस्यवेति सम्भायते ।
Page #388
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामनी
पाधिकत्वनिश्चयात्, अब तु मिचातनयत्वव्याप्यश्यामसामग्रा स्थातव्यमित्यच कार्य-कारणभावादीनां ध्याप्तिग्राहकाणमभावात्। अत एव साध्यसामग्रमा सह हेतोरपि यच व्याप्तिग्राहकमस्ति तच सामग्री नोपाधिः, यच तु तन्नास्ति तव साप्युपाधिरित्यभिसन्धाय सामग्री च कचिोपाधिन तु सर्वच इत्युक्त,
विषय: स्यात्, इष्टापत्तौ चानुमित्यसम्भवादिति भावः । 'अनौपाधिकत्वनिश्चयादिति व्याप्यत्वनिश्चयादित्यर्थः, माध्यसामय्या अप्युपाधिग्रहविषयत्वे प्राचार्यसंवादमाह, 'अत एवेति माध्यमामय्या ऋष्यपाधित्वग्रहविषयत्वादेवेत्यर्थः, 'नोपाधिः' नोपाधित्वग्रहविषयः, 'उपाधिः' उपाधित्वग्रहविषयः, 'क्वचित्रोपाधिः' नोपाधित्वग्रहविषयः, 'न तु सर्वचेति, नोपाधित्वग्रहविषय इति शेषः। द्वितीयमुदाहरति, 'यथेति, 'तुल्येति साधनीभूतकार्यात्वनिष्ठमाध्यौभृतसकर्टकत्वव्याप्यताग्राहकसहचारयह-माधनौमतकार्यताव्यापकमरौरजन्यत्वादिनिष्ठमाध्यौभूतमककत्वव्यापकताग्राहकसहचारग्रहरूपयोर्योगक्षेमयोरनुकूलतांसमवहितत्वेन तुल्ययोः मतोरित्यर्थः, 'उपाधेरिति कार्यवरूपमाधनाव्यापकीभूतशरोरजन्यवादेः माध्यव्यापकतासन्देहइत्यर्थः, तथाच क्षितिः सकलका कार्यत्वादित्यत्र यदा साधने माध्ययाप्यतानिचायकः माधनाव्यापकगरीरजन्दत्वादौ माधव्यापकमानिधायकस नको भावतीर्णः सदा परौरजन्दलादिक गाय
Page #389
--------------------------------------------------------------------------
________________
उपाधिवादा।
यथा तुल्ययोगक्षेमयोरुपाधेापकतासन्देहे ईश्वरानुमाने शरीरजन्यत्वाणत्वादिः, यथा च शकपाकजत्वस्य साध्यव्यापकतासन्देहे मिवातनयत्वे।
यत्तु उपाधिसन्देहो नोपाधिन वा हेत्वाभासान्तरमिति तदुद्भावने निरनुयोज्यानुयोग इति । तन्न।
व्यापकतासन्देहात् मन्दिग्धोपाधिरित्यर्थः । न च तस्य मद्धेततया कथं तत्रोपाधिरिति वाच्यं । मद्धेतोरपि दशाविशेषे मन्दिग्धोपाधिकत्वे बाधकाभावादिति भावः। तीयमुदाहरति, 'यथा चेति, 'भाकपाकजत्वस्येति साधनाव्यापकतया मन्दिग्धस्य शाकपाकजवस्टेत्यर्थः, 'मित्रातनयत्वे' मित्रातनयत्वे हेतो, शाकपाक.जत्वमिति प्रेषः । __'नवा हेत्वाभासान्तरं न वा हेत्वाभामः, 'मिरनुयोज्येति, तथाच परार्थानुमान एव उपाधिसन्देहो दूषणं न तु स्वार्थानुमानेऽपौति भावः । 'मन्दिग्धानेकान्निकवदिति अनेकान्तिकत्वसन्देहवदित्यर्थः, एतच्च दूषकत्वमात्रे दृष्टान्तः, तेन व्यभिचारसंशयाधायकत्वाभावेऽप्यस्य न पतिः। 'दूषकत्वात्' उपाधिसन्देहस्य दूषकत्वात्, 'उपाधेरिव' उपाधित्वनिश्चयटेव, 'निख्याधायकतया' व्यभिचारनिश्चयाधायकतया(१) । न च तथापि उपाधित्वसन्देहः स्वरूपसदेव
(१) 'व्यभिचार निश्चयाधायकतया' इत्यत्र 'निश्चयाधायकतया' इति कस्य
चिम्मूलपुलकस्य पाठो वर्तते तमनुसृत्यैव व्यभिचारनिश्चयाधायकतया इति व्याख्यावं मथुरामाथेनेत्यनुमोयते ।
Page #390
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचितामगै
सन्दिग्धानकान्तिकवड्यभिचारसंशयाधायकत्वेन दूषकस्वादुपाधेरिव व्यभिचारनिश्चयाधायकतया ।
इति श्रीमहङ्गेभोपाध्यायविरचिते तत्त्वचिन्तामणी अनुमानाख्यद्वितीयखण्डे उपाधिविभागः ।
यभिचारसंशयद्वारा दूषको म तु तज्ज्ञानमिति तज्ज्ञानार्थं तदुबावनमफलं अर्थान्तरापादकञ्चेति वाच्यं । तथासत्यनैकानिकत्वसन्देहोपाधित्वनिश्चययोरप्युहावनस्य तथाखापत्तेः। यदि चानकान्तिकत्वसन्देहादिमा मम व्याप्तिग्रहो मा भूत् रतिज्ञापनाय तदुद्भावनं कथकसम्प्रदायसिद्धं, तदा उपाधित्वसन्देहान्मम व्याप्तियहो मा भूदितिज्ञापनाय उपाधित्वसन्देहोद्भावनमपि कथकसम्प्रदाय सिद्धमिति तस्यत्वादिति भावः ।
इति श्रीमथुरानाथतर्कवागौश-विरचिते तत्त्वचिन्तामणिरहस्ये अनुमानास्यदितीयखण्डरहस्ये उपाधिविभागरहस्यं ।
Page #391
--------------------------------------------------------------------------
________________
अथोपार्दूषकतावौजपूर्वपक्षः।
इदानीमुपार्दूषकतावीजं चिन्त्यते । नाप्यस्य स्वव्यतिरेकडारा सत्प्रतिपक्षत्वेन दूषकत्वं,
अथोपाधेर्दूषकतावीजपूर्वपक्षरहस्यं ।
प्रसङ्गादपाधेर्दूषकतावीजं निरूपयितुं शिष्यावधानाय प्रतिजानौते, 'इदानौमिति उपाधिविभागानन्तरमित्यर्थः, 'दूषकतावौज' दोषप्रयोजकताखरूपं, अनुमिति-तत्प्रयोजकान्यतरप्रतिबन्धकज्ञानं दोषः, 'चिन्यते' ज्ञाप्यते।
केचित्तु 'दूषकतावौज' दूषकव्यवहारविषयतावच्छेदकं, दूषकशब्दोपाधिशब्दयोः पर्यायतापत्त्या दूषकमब्दस्य पारिभाषिकतापत्त्या च यथोक्रवक्षणस्य तदिषयतावच्छेदकत्वासम्भवादिति भावः इत्याः । तदमत् । ‘मत्प्रतिपचे उपायुद्भावनं न स्थादित्याद्यनिमयन्यामङ्गतः ।
"खव्यतिरेकेति लिङ्गतावच्छेदकविधया स्वव्यतिरेकलिङ्गकपक्षविशेयकमाध्याभावानुमितिप्रयोजकतयेत्यर्थः, हतीयार्थोऽभेदः, तथाच तादृशानुमितिप्रयोजकत्वं नास्य दूषकमिति फलितं । 'सत्य
(१) निरूप्यते इति क।
Page #392
--------------------------------------------------------------------------
________________
वावचिन्तामो
"तदा हि सत्यतिपक्षे सत्प्रतिपक्षान्तावदपारुडावनं न स्यात्। न च प्रतिपक्षबाहुल्येनाधिकरलार्थ मुद्धावनं.
तिपक्षे' स्वयं माध्यमाधकहेतोरुपन्यामानन्तरं वादिना साध्याभावमाधकहेतावुपन्यस्ते, ‘सत्प्रतिपक्षान्तरवदिति माध्यसाधकहेत्वन्तरस्य यथा नोद्भावनं तथा उपाधेरप्युगावनं न स्थादित्यर्थः, माध्याभावसाधकहेतमत्ताज्ञानात्मकप्रतिबन्धकसद्भावादुपास्तत्र यथोक्दूषकत्वासम्भवेन व्यर्थत्वादिति भावः । 'मत्प्रतिपक्षबाहुल्येनेति माध्यमा. धकामेकहेतुज्ञानसत्त्वेनेत्यर्थः, साध्याभावसाधकहेतमत्ताज्ञानसत्त्वेऽपि साध्यानुमितेरुत्पादादिति शेषः, 'अधिकबलार्थमिति माध्याभावसाधकानुमितिप्रतिबन्धकसाध्यानुमित्यर्थमेवेत्यर्थः। न चैवं मत्प्रतिपक्षान्तरस्याप्युद्भावनापत्तिः, इष्टत्वादिति भावः। 'शतमपीति, 'न्यायात्' तान्त्रिकप्रवादात्, तथाच माध्याभावसाधकहेतुज्ञानसत्त्वे माध्यसाधकानेकहेतुज्ञानात् साध्यानु मित्युत्पादे प्रवादव्याघातः, 'अन्धानां' माध्याभावमाधकहेतुमत्ताज्ञाननिष्ठाप्रामाण्यज्ञानाद्यभावविशिष्टज्ञानविषयाणां माध्यसाधकहेना, 'शतमपि', 'न पश्यति' न माध्याभावसाधकैकहेतमत्ताज्ञानसत्त्वे साध्यानुमिति जनयतीति तदर्थादिति भावः । ननु तन्यायोऽप्रमाणं इत्यत आह, 'एकेनापौति तदभावसाधकैकहेतमत्ताज्ञानेनापि, 'बहनां' तत्माधकानेकहेतुमताज्ञानानां, ‘फलप्रतिबन्धात्(१)” फलप्रतिबन्धस्यानुभवसिद्धत्वाचे(१) एतेन 'प्रविबन्धादित्यत्र ‘फलप्रतिबन्धादिति कस्यचिन्मूलए तकस्य
पाठोऽनुमीयते।
Page #393
--------------------------------------------------------------------------
________________
उपाधिवादः।
१८५
शतमप्यन्धानां न पश्यतीति न्यायात् एकेनापि बहना प्रतिबन्धाच्च, व्याप्ति-पक्षधर्माते हि बलं तच्च तुल्यमेव, न
त्यर्थः । मन्विदमसम्भवि तदत्ताज्ञानं प्रति तदभावव्याप्यभूयोधर्मवताज्ञानत्वेनैव प्रतिबन्धकत्वादित्यत आह, 'व्याप्तौति, 'बलं' ज्ञानविषयतया प्रतिबन्धकतावच्छेदकं, 'तच्च' तादृशप्रतिबन्धकतावच्छेदकञ्च, 'तुल्यमेवेति तदभावव्याप्यभूयोधर्मवत्ताज्ञान व तदभावव्याप्यैकधर्मवत्ताज्ञानेऽप्यविशिष्टमेवेत्यर्थः, 'न तु भूयस्त्वमपि' न तु व्याप्यनिष्ठभूयस्वमपौत्यर्थः, 'बलमित्यनुषज्यते, प्रतिबन्धकतावच्छेदकमिति तदर्थः, अत्र हेतमाह, ‘एकस्मादपौति यत्र तत्तदभावयोरुभयोरेकधर्मिण्येकस्यैव व्याप्यधर्मस्य ज्ञान(१) तत्रैकव्याप्यधर्मवत्ताशानादपौत्यर्थः, 'अन्वमितेरिति सवकारः पाठ:(२) 'अनु' पश्चात्, 'अमितेः' विशिष्टमितिविरहात् इत्यर्थः, 'अनुमितेरित्युकारसम्बलितपाठेऽपि 'अनु' पश्चात्, 'मितेः' विशिष्टबुद्ध्यभावस्य प्रमितेरित्यर्थः। ननु मत्प्रतिपक्षे नानुमानदूषणार्थमुपाध्यद्भावनमपि तु बहुषु व्याप्तिपक्षधर्मतान्यतरभङ्गकल्पनमपेक्ष्य एकत्र तत्कम्त्यनैव लघीयमौति लाघवतर्कसहचतप्रमाणत् प्रतिपक्षहेतमत्तापरामर्श प्रामाएयग्रहार्थमेव तदुद्भावनं, अत एवास्माकं न्यायाः सम्यञ्चो बहवञ्चेति प्रमाणटीकापि, किञ्च यत्र वादि-प्रतिवादिभ्यां माध्यसाधक-तद(१) यत्र तत्तदभावयोगभयोरेव धर्मिण्येकैकस्यैव व्याप्यधर्मस्यैव ज्ञान
मिति ग। . (९) 'सवत्वः पाठः' इति श्रादर्श पुस्तकेषु वर्त्तते परत्वयं न समीचीनः ।
49
Page #394
--------------------------------------------------------------------------
________________
सावचिन्तामणे
तु धूयत्वमपि, एकस्मादप्यन्वमितेः(१) सन्दिग्धोपाधेरदूषकतापाताच तयतिरेकस्य सन्दिग्धत्वात्। अपि
भावसाधकन्यायमात्र प्रयुक्तं मध्यस्थस्य चैकत्रापि हेतावमुकूलतास्फूर्त्या व्याप्तिनिश्चयो न जातस्तत्रैवोपायुद्धावनमफलमन्यत्र च तदुनावमं निष्कलमेव अन्यथा व्यभिचाराद्युत्थापकतया दूषकतावादिनामप्येतद्दोषस्य दुरुद्धरत्वात् व्याप्तिनिश्चयसत्त्वेन व्यभिचारादिचानस्थाप्यसम्भवादित्यस्वरमादाह, 'सन्धिग्धोपाधेरिति उपाधित्वसन्देहदशायामुपाधेरदूषकतापत्तेश्चेत्यर्थः, 'तड्यतिरेकस्य सन्धिग्धत्वादिति पाठः तद्व्यतिरेकस्य तदानौं माध्याभावव्याप्यतया मन्धिग्धाबादित्यर्थः, क्वचित्तु 'तड्यतिरेकस्य पक्षे मन्दिग्धत्वादिति पाठः, तत्र 'मन्दिग्धोपाधेरित्यस्य पक्षवृत्तितासन्देहदशायामुपाधेरित्यर्थः, प्रये 'पक्षवृत्तिरित्यस्य पक्षवृत्तितया निश्चितश्चेत्यर्थः । ननु सत्प्रतिपक्षतया उपाधेर्दूषकत्ववादिनये उपाधित्वादिसन्देहदशायां उपाधेरदूषकत्वे इष्टापत्तिरेवेत्यत आह, 'अपि चेति, 'उपाधित्वं न स्थात्' उपाधेर्दूषकत्वं न स्यात्, 'यतिरेक इति तद्व्यतिरेकस्थामाधारणवादित्यर्थः, पक्षमात्रवृत्तित्वस्यामाधारण्यरूपत्वादिति भावः ।
(१) 'अनुमितिदर्शनात्' इति पाठः बहुषु चादर्शपुस्तकेषु वर्तते पर
त्वयं न समीचीनः, 'धनुमितिदर्शनात्' इत्यत्र 'पन्चमितेः' अथवा 'अनुमितेः' इति पाठदयमेव पूर्वापरयन्यप-नोचने समीचीनत्वेन : प्रतिभातं रहस्यक्ता व्याख्यातच । (२) तहतिरेकस्य पक्षे सन्दिग्धत्वादिति पा० ।
Page #395
--------------------------------------------------------------------------
________________
उपाधिवादा।
१८७
पैवं 'बापाबौतपक्षेतरस्योपाधिन्वं न स्यात् व्यतिरेकेोऽसाधारख्यात् पक्षष्टत्तिश्च (१) उपाधिन स्यात् यथा घटोऽनित्यो द्रव्यत्वादित्यत्र कार्यत्वं अन्धकारो द्रव्यं
ननु पचमात्रवृत्तित्वरूपामाधारण्यज्ञानं नानुमितिविरोधि किन्तु यावत्मपक्षव्यावृत्तत्वरूपतज्ज्ञानमेव तथा तच्च तत्र नास्ति पक्षस्यैव सपक्षत्वादित्यत आह, 'पक्षवृत्तिश्चेति पक्षवृत्तिताजानदशायां उपाधिर्दूषको न स्यादित्यर्थः, 'स्वातन्त्रेणेति स्वाश्रयविषयकलौकिकसाक्षात्कारविषयान्यत्वे मति लौकिकसाक्षात्कारविषयत्वादित्यर्थः, जसरेणुरात्मा चात्र दृष्टान्तः व्यभिचारश्च गन्धादौर), 'अश्रावणाव
-
...
.... -- ----- .
. .. .-.- -..-
...................... ... ..
(१) पक्षधम्मश्चेति क ग । (२) घसरणोराश्रयस्य ह्यणुकस्य महत्त्वाभावात् यात्मनश्चाश्रयाप्रसिद्ध्या
प्रसरेणोरात्मनि च खाश्रयविषयकलौकिकसाक्षात्कारविषयान्यस्त्वं उपपद्यते । न च खाश्रयविषयकलौकिकसाक्षात्कार एवाप्रसिद्धः कथं तद्विषयान्यत्वं सम्भवति इति वाच्यम् । खाश्रयविषयकलौकिकसाक्षात्कारविषयान्यत्वपदेन खाश्रयविषयकलौकिकसाक्षात्कारविषयो यो यस्तदन्यत्वस्य विवक्षितत्वात् । अन्धकारप्रत्यक्षे यालोकसंयोगनिरपेक्षचक्षुधः कारणत्वेऽपि तदाश्रयप्रत्यक्ष आलोकसंयोगसापेक्षस्यैव चक्षुषः कारणत्वात् अन्धकारस्य खाश्रयविषयकलौकिकसाक्षात्कारविषयान्यत्वं । गन्धाश्रयस्य घ्राणेनाग्रहणात् गन्धे खाश्रयविषयकलौकिकसाक्षात्कारविधयान्यत्वविशिशुलौकिकसाक्षात्कारविघयत्वं वर्तते किन्तु द्रव्यत्वं न वर्तत इति व्यभिचारः स्फुट एवेति समुदितवात्पर्यम् ।
Page #396
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामयी स्वातव्येण प्रतीयमानत्वादित्यपाश्रावणत्वं नयतिरेकस्य पक्षात्तित्वात्, न च नायमुपाधिः, तलक्षणसत्यात् अन्यथा दूषकत्वसम्भवाच ।
किञ्च साध्यव्याप्याव्यापकत्वेनोपाधेः (१) साध्याव्यापकत्वे तद्यतिरेकेण कथं सत्प्रतिपक्षः, न व्यापक---- ... ........... ... -- -- मिति, शब्दे चास्य साधनाव्यापकत्वं, 'पक्षावृत्तित्वादिति पक्षवृत्तिवाग्रहादित्यर्थः । 'तल्लक्षणेति माध्यव्यापकत्वे सति साधनाव्यापकत्वरूपस्य उपाधिलक्षणस्य सत्त्वादित्यर्थः, 'अन्यथापौति पत्तित्वं विनापौत्यर्थः, पक्षवृत्तिताधमेणेति शेषः, 'दूषकत्वसम्भवादिति कदाचिद्रुषकत्वसम्भवात्, दूषकतातिप्रसङ्ग स्थादोषत्वादिति भावः ।
केचित्तु ननु तन्त्रोपाधिलक्षणं अपि तु पक्षवृत्तिधर्मावच्छिबमाध्यव्यापकत्वे मति पक्षावृत्तित्वमेव लक्षणं तच्च तत्र नास्ति यथोक्तस्य दूषकतारूपत्वान्यथानुपपत्त्या तथैव कल्पनादित्यत आह, 'अन्यथापौति यथोक्तरूपभिन्नस्थापि दूषकत्वसम्भवाञ्चेत्यर्थः, तथाच किं सकलप्रामाणिकोपाधिव्यहारविषयस्य तस्यानुपाधित्वाभ्युपगमेनेति भावः इत्याऊः । ___ ननु सत्प्रतिपक्षोनायकत्वेन दूषकतावादिनो मम पक्षवृत्तित्वग्रहदशायां उपाधेरदूषकत्वे इष्टापत्तिरेवेत्यत आह, 'किञ्चेति, 'माध्यव्याप्येति साध्यव्याप्यतया निषितस्य साधनस्यायापकताज्ञाने(१) साध्ययापकव्याप्यत्वेनोपारिति कधिहित पुस्तकपाठः परवयं न
समीधीनः।
Page #397
--------------------------------------------------------------------------
________________
उपाधिवादः।
• व्यतिरेकादव्याप्यव्यतिरेकः।नापि व्याप्तिविरहरूपतया, असिद्धत्वेनानौपाधिकत्वस्य व्याप्तित्वनिरासात्। नाप्यनौपाधित्वज्ञानस्य व्याप्तिधौहेतुत्वस्य तत्त्वेन व्याप्तिजानकारणविघटकतया व्याप्यत्वासिङ्घरन्तर्भावः, न धन्यस्य साध्यव्यापकत्व-साधनाव्यापकत्वज्ञानं अन्यस्य व्याप्तिज्ञाने स्वतः प्रतिबन्धकमित्युक्तम्। न च साध्य
नोपाधेः माध्याव्यापकत्वज्ञाने इत्यर्थः, 'सत्प्रतिपक्षः' माध्याभावग्रहः, 'अव्यापकव्यतिरेकादिति अव्यापकतया ग्टहीतस्य व्यतिरेकादव्याप्यतया रहौतस्य व्यतिरेकग्रह इत्यर्थः । 'असिद्धत्वेनेति हेतु विशेव्यकव्याप्यभावप्रकारकज्ञानस्थानुमितिकारणीभूतव्याप्तिज्ञानप्रतिबन्धकस्य विशेषणविधया प्रयोजकत्वेनेत्यर्थः, 'दूषकत्वमित्यनुषज्यते,
तौयार्थश्च पूर्ववत्, उपाध्यभावस्य व्याप्तित्वे हि उपाधियाप्यभाव- . रूपतया दूषकः स्यात्तदेव च सिद्धमिद्धिव्याघातानिराकृतमित्याह, 'अनौपाधिकत्वेति । उपाधिन दूषकः किन्तु व्याप्यत्वामिद्धिरूपहेत्वाभासान्तर्गतएव स इति कस्यचिन्मतं दूषयति, 'नापीति, 'अनौपाधिकत्वज्ञानस्य' उपाधित्वप्रकारकोपाधिज्ञानाभावस्थ, व्याप्तिज्ञानकारणविघटकतयेति(१) व्याप्तिज्ञानकारणीभूताभावप्रतियोगिज्ञानविषयतयेत्यर्थः, 'याप्यत्वासिद्धेः' व्याप्यत्वामिद्धौ, साधारण्यादिभिन्नव्याप्तिज्ञानप्रतिबन्धक ज्ञानविषयस्यैव व्याप्यत्वासिद्धित्वादिति
(९) व्याप्तिधानकारणेतीति क• ख.।
Page #398
--------------------------------------------------------------------------
________________
२.
तत्त्वचिन्तामयी व्यापकाव्याप्यत्वज्ञाने विद्यमाने साधनस्य साध्यव्या- . प्यत्वज्ञानं नोत्पत्तुमाईतीति वाच्यं । न हि साध्यव्यापकव्याप्यत्वज्ञानं व्याप्तिजानकारणं येन तत्यतिबन्धक स्यात्, किन्तु साध्यव्यापकव्यभिचारित्वेन साध्यव्यभि
भावः । दूषयति, 'न हौति, 'अन्यस्य' साधनभिन्नस्य, 'अन्यस्य व्याप्तिज्ञाने' साधनभिन्नान्यस्य व्याप्तिज्ञाने, साधनस्य व्याप्तिज्ञानइति यावत्, ‘खतः प्रतिबन्धकमिति माशाप्रतिबन्धकमित्यर्थः, भिवधर्मिकत्वादिति भावः। तथाचानुमिति-तत्कारणान्यतरं प्रति साक्षात्प्रतिबन्धकज्ञानविषयस्यैव हेत्वाभासतया कथमस्य हेत्वाभासे-. ऽग्न व इति पदयं । भिवधर्मिकत्वं परिहरबाह, 'न चेति, 'माध्यव्यापवेति प्राप्यतासम्बन्धेन माध्यव्यापकवत्ताज्ञान इत्यर्थः, तथाच तद्विषयतयैव उपाधिप्प्यत्वामियन्तर्गत इति भावः । 'माध्यव्यापकेति श्रव्याप्यतासम्बन्धेन माध्यव्यापकाभाववत्ताज्ञानमित्यर्थः, 'येनेति, जनकौभूतं ज्ञानं विघटयत एवं ग्राह्याभावाचनवगाहिनो ज्ञानस्य प्रतिबन्धकवनियमादिति भावः । तत्किमव्याप्यतासम्बन्धेन उपाधिमत्ताजानं व्याप्तिज्ञानविघटकमेव न भवतीत्यत पाह, 'किन्विति, 'माध्यव्यापकेति भव्याप्यतासम्बन्धेन माध्यव्यापकोपाधिमत्ताज्ञानेनेत्यर्थः, ‘माध्यव्यभिचारित्वेति, व्याप्तिज्ञान विघटयत इति शेषः, एतच्च समाधिमौकर्यादुक, वसतोऽव्याप्यतासम्बन्धन हेतावुपाधिमत्तानियस्य प्रतिबन्धकत्वेऽप्युपार्न व्यायवा
Page #399
--------------------------------------------------------------------------
________________
उपाधिका 1.
२९
चारित्वज्ञानहारा। नापि व्यभिचारोबायकत्वेन, यथा हि साध्यव्यापकव्यभिचारितया साधनस्य साध्यव्यभिचारित्वमनुमेयं तथा साध्यव्याप्यव्यभिचारित्वेन साध्यव्यभिचारित्वमुपाधेरप्यनुमेयं व्याप्तिप्राहकसाम्यात् ।
सिद्धित्वसम्भवः उपाधिविशिष्टहेतुनिरूपितविषयित्वस्यैव व्याप्तिग्रहप्रतिबन्धकतानियततया (२) तदिशिष्टहेतोरेव तथात्वसम्भवादन्यथा व्याप्यत्वामियान्तर्गतमाध्यादेरपि प्रत्येकं व्याप्यत्वामिद्धित्वापत्तेरिति हेत्वाभासे सुव्यकं । ननूपाधिVषक एव दूषकत्वन्तु तस्य खव्यभि चारलिङ्गक-साधनपक्षक-माध्यव्यभिचारानुमितिप्रयोजकत्वेनेति मतं दूषयति, नापीति, दूषकत्वमित्यनुषज्यते, हतीयार्थस्नु पूर्ववत्, ‘माध्य व्यापकव्यभिचारित्वेनेति माध्यव्यापकोपाधिव्यभिचारित्वेन इत्यर्थः, 'तथेति, तत्पूर्वमिति मेषः । 'माध्यव्याप्येति साध्यव्याप्यसाधनाव्यापकत्वेनेत्यर्थः, 'माध्यव्यभिचारित्वं' साध्यव्यापकत्वं, 'व्याप्तियारकेति उपाधिनिष्ठमाध्यव्यापकताग्राहकसहचारादिग्रह-हेतुनिष्ठमाध्यव्याप्तिग्राहकसहचारादिग्रहयोस्तुल्यवादित्यर्थः । 'साध्यव्यापकाव्याप्यत्वेनेति माध्यव्यापकाव्याप्यत्वलिङ्गेनेत्यर्थः, 'याप्तिविरहेति साधनपक्षकसाध्यव्याप्तिविरहानुमितिप्रयोजकतयेत्यर्थः, 'दूषकत्वमित्यनुषज्यते, 'माध्यव्याप्येति माध्यव्याप्यसाधनेत्यर्थः, 'उपाधिहेत्वाभामान्सरमिति अाभा
(१) व्याप्तियाहकतौल्यादिति ग०। (२) व्यापिग्रहप्रतिबन्धकतानतिरिक्तरत्तितयेत्यर्थः ।
Page #400
--------------------------------------------------------------------------
________________
१९
. तापचिन्तामणे
नापि साध्यव्यापकाव्याप्यत्वेन व्याप्तिविरहानायकतया, साध्यव्याप्याव्यापकत्वेनोपाधेरेव साध्याव्यापकत्वसाधनात, तस्मादुपाधित्वाभासान्तरमिति।
इति श्रीमहङ्गशोपाध्यायविरचिते तत्त्वचिन्तामणौ अनुमानास्यहितीयखण्डे उपाधिदूषकतावौ पक्षः।
A
मस्थ दोषस्य यो हेतुः प्रयोजकः तस्मादन्तरमिति व्युत्पत्त्या उपाधिरदूषक इत्यर्थः, राजदन्तादित्वात् षष्ठीतत्पुरुषसमासेऽपि हेतुशब्दस्य पूर्वनिपातः ।
केचित्तु 'हेत्वाभासान्तरमिति बाध-सत्प्रतिपक्षाद्यतिरिकानुमितिमाक्षात्प्रतिबन्धकज्ञानविषयो हेत्वाभास इत्याहुः । तदसत् । जनकज्ञानविघटकतया याह्याभावाद्यनवगाहितया चानुमिति प्रत्यपि साक्षात्प्रतिबन्धकत्वासम्भवादिति ध्येयं ।
इति श्रीमथुरानाथतर्कवागौश-विरचिते तत्त्वचिन्तामणिरहस्ये अनुमानाख्यद्वितीयखण्डरहस्ये उपाधिदूषकतावीजपूर्वपक्षरहस्यं ।
Page #401
--------------------------------------------------------------------------
________________
[२९
]
अथोपाधिदूषकतावीजसिद्धान्तः।
उच्यते श्रादेंन्धनवत्त्वादेस्तर्कादिना साध्यव्यापकत्वसाधनाव्यापकत्वे निश्चिते दूषकतावीजचिन्तनं। यदि च साध्य-साधनसहचारदर्शनेनोपाधौ साध्यव्यापकतानिश्चय एव नास्ति तदोपाधित्वनिश्चयाभावात् दूष
अथोपाधिदूषकतावीजसिद्धान्तरहस्यं ।
'तर्कादिनेति माध्यव्यापकत्वादिनिश्चयसामय्यादिनेत्यर्थः, 'त्रादिपदात् तमंशयमामग्रौपरिग्रहः, 'निश्चिते' ज्ञाते, 'दूषकतावीजचिन्सन' दूषकत्वस्य धर्मिणः सत्त्वं, 'यदि चेति यदा चेत्यर्थः, 'साध्य-माधनसहचारदर्शनेन' माध्य-साधनयोर्नियतसहचारदर्शनेन, साध्य-माधनयोाप्यत्वनिश्चयेनेति यावत्, माध्यव्याप्यसाधनाव्यापकतया माध्याव्यापकत्वनिश्चयादिति(१) शेषः। 'निश्चय एव' ज्ञानमेव, 'उपाधित्वनिश्चयाभावात्' उपाधित्वज्ञानाभावात्, ‘दूषकतैव' दूषकताधर्म एव, 'क्क वहि वेति कुतस्तत्कालीनदूषकतायां अनुमितिकारणप्रतिब
(१) साध्यव्यापकत्वानिश्चयादितीति क.।
50
Page #402
--------------------------------------------------------------------------
________________
३९8
तत्वचिन्तामो
कतैव नास्तौति क वहिर्भावान्तर्भावचिन्ता। किस 'सत्प्रतिपक्षतया व्याप्यत्वासिहतया स्वातन्त्रेण वा यदि दोषत्वं सर्वथा साध्यव्यापकतानिश्चयोवक्तव्यः तेन विना तेषामभावात्। “तस्मादपाधिनिश्चयायभिचा
वकज्ञानप्रयोजकतारूपत्व-साक्षादनुमितिप्रतिबन्धकज्ञानप्रयोजकतारूपत्वचिन्तनमित्यर्थः। 'किञ्चेति यत इत्यर्थ, 'सत्प्रतिपक्षतयेति खव्यतिरेकलिङ्गकसाध्याभावानुमितिप्रयोजकतयेत्यर्थः, 'याप्यवासि
तयेति व्याप्तिविरहरूपत्वेन विशेषणविधया हेतुविशेष्यकव्याप्यभावप्रकारकज्ञानप्रयोजकतयेत्यर्थः, 'स्वातन्त्र्येण वेति तदितररूपेण वेत्यर्थः, तञ्च रूपं खाव्याप्यत्वखिङ्गक-हेतुपक्षक-माध्यव्याप्तिविरहानुमितिप्रयोजकत्वं वक्ष्यमाणव्यभिचारज्ञानप्रयोजकत्वञ्चेति भावः । 'माध्यव्यापकतानिश्चयः' तद्ग्रहः, 'वक्रव्यः' अपेक्षणेयः, 'यभिचारज्ञानद्वारेति मानसव्यभिचारप्रत्यक्षप्रयोजकतयेत्यर्थः, अतो नायिमेण पौनरुत्वं, मानसव्यभिचारनिश्चये उपाधिज्ञानस्य विशेषदनितया उपयोगित्वेन तद्विषयतया उपाधेरपि तत्र प्रयोजकत्वादिति भावः। 'माध्यव्यापकाव्याप्यत्वेनेति खनिष्ठमाध्यव्यापकतावच्छेदकरूपावच्छिन्नाव्याप्यत्वेन हेतुना हेतौ साध्यव्याप्तिविरहानुमितिप्रयोजकतया वेत्यर्थः, एतच्च उपाधित्वनिश्चयमधिकृत्य, उपाधित्वसंशयस्य तु माध्यव्यभिचारवत्साध्यव्याप्तिविरहस्यापि संशयं प्रत्येव क्वचित् प्रयोजकावं ।' अत्र माध्यव्याप्तिविरहपदं माध्यवदन्यावृत्तित्वविशिष्टसाध्य
Page #403
--------------------------------------------------------------------------
________________
उपाधिवादा।
२६५ निश्चयः तत्संशयात्तत्संशय इति . व्यभिचारज्ञानद्वारा साध्यव्यापकाव्याप्यत्वेन व्याप्तिविरहोबायकतया बापाघेर्दूषकत्वम्। 'यहा साध्यव्यापकाभाववत्तितया साध्यव्यभिचा
वत्तित्वरूपव्याप्तिविरहपरं, न तु खव्यापकसाध्यसामानाधिकरण्यरूपव्याप्तिपरं, खत्वस्थानुगतस्याभावेन पक्षीभूतसाध्यव्यक्रिपर्यवसन्नतया माध्याप्रमिद्धेः। एतेन स्वसमानाधिकरणात्यन्ताभावप्रतियोगिसाथकत्वं माध्यव्याप्तिविरह इत्यपि निरस्तं, खत्वस्थानुगतस्याभावेन पचौभूतसाधनव्यक्रिपर्यवसाने माध्यप्रसिद्धिमात्रेणेव कतार्थतया हेतौ तदनुमानवैफल्यापत्तेरिति थेयं।
कालभेदेन व्यवस्थितविकल्पमार, ''यति, 'साध्यव्यापकेति माध्यव्यापकोपाध्यभावववृत्तित्वेनेत्यर्थः, 'उन्नेयं' हेतावनुमेयं, तथाच कचिसाध्यव्यभिचारानुमितिप्रयोजकतयाप्युपाधेर्दूषकत्वमिति भावः । एतदपि निसयदशामधिकृत्य, इदश्च पर्यवमितमाटव्यापकत्वे सति साधनाव्यापकत्वरूपोपाधित्वज्ञानस्य दूषकतावोजमुक्तं, पक्षवृत्तिधमावच्छिन्नमाध्यव्यापकत्वे सति पचावृत्तित्वरूपोपाधित्वज्ञानस्य तु सत्प्रतिपक्षोत्रायकत्वं क्वचित् बाधोत्रायकत्वञ्च दूषकतावीजं बोध्यं, सत्प्रतिपक्षोन्नायकत्वञ्च पक्षे माध्याभावव्याप्योपाध्यभाववत्तानिश्चयप्रयोजकत्वं, बाधोत्रायकत्वच पचे माध्याभावानुमितिप्रयोजकत्वं, तच्च पचे तबसमाध्यव्याप्यतमत्नानिमयविरदिमायां पचे माथाभा
Page #404
--------------------------------------------------------------------------
________________
तापितामो
रित्वमुचेयं । न.च साधमाभाववदृत्तित्वमुपाधिरिति वायम्। उपाधिमाचोच्छेदप्रसङ्गात् सत्प्रतिपक्षे पूर्वसाधनव्यतिरेकवत् अत्तिगगनादौ साध्याव्यापकत्वात् । संयोगादौ हेतौ साधनव्यापकत्वाच ।
वव्याप्योपाध्यभाववत्तानिश्चयद्वारावमेयं । व्याप्तिविरहानुमाने व्यभिचारानुमाने च उपाधिमाशङ्कते, 'न चेति पक्षीभूतसाधनाभाववद्वृत्तिलमित्यर्थः, व्यभिचारास्फुटतादशायामेव उपाधिना व्याप्तिविरहाधनुमानात् यत्राधिकरणे हेतोः साध्यव्यभिचारित्वं सदीयधमणाय साध्यायापकत्वग्रह इति भावः । 'उपाधिमाचेति व्यतिरेकिसाधनकोपाधिव्यभिचारमात्रस्य तादृशोपाध्यव्याप्यत्वमात्रस्य र निरुपाधित्वोच्छेदप्रसङ्गादित्यर्थः। केवलान्वयिनि माधने पक्षोभते पक्षीभूतमाधनाभावस्याप्रमिया तवृत्तित्वस्य उपाधित्वासम्भवेऽपि तदतिरिक्त पक्षोभते सर्वचैव तदुपाधितायाः सुवचत्वादिप्ति भावः । 'सत्प्रतिपक्ष इति यथा मत्प्रतिपक्षे पूर्वमाधमव्यतिरेकस्य उपाधित्वनियमे मप्रतिपञ्चमात्रस्य निरुपाधित्वोच्छेदप्रसङ्ग इत्यर्थः, 'अतौति, व्याप्तिबिरहसाधनाभिप्रायेणेदं, माधनाव्याप्यत्वस्य तत्रोपाधित्लाभिधाने तु नेतदोष इति ध्येयं । 'संयोगादाविति, एतच्च साधनाभाववत्तित्वं यथाश्रुतमभिप्रेत्य, साधनाभावीयनिरवविवाधिकरणतावत्तिलस्योपाधिस्वाभिधाने तु मायं दोषरति धे।
Page #405
--------------------------------------------------------------------------
________________
उपाधिवादः।
१९७
इति श्रीमहङ्गशोपाध्यायविरचिते तवचिन्तामणौ अनुमानास्थहितीयखण्डे उपाधिदूषकतावीजसिद्धान्तः।
इति श्रीमथुरानाथतर्कवागौश-विरचिते तत्त्वचिन्तामणिरहस्ये अनुमानायद्वितीयखण्डरहस्ये उपाधिदूषकतावोजसिद्धान्तरहस्यं ।
Page #406
--------------------------------------------------------------------------
________________
अथोपाध्याभासनिरूपणं ।
अथोपाध्याभासाः। असाधारणविपर्ययः, यथास्वयव्यतिरेकिणि साध्ये बाधाबीतान्यपक्षेतरत्वम्। अप्रसिद्धसाध्यविपर्ययः, यथा केवलान्वयिनि साध्ये पक्षेतरत्वादिः। बाधितसाध्यविपर्ययः, यथा वहिर
अथोपाध्याभासनिरूपणरहस्यं । उपाधि निरूप्य तदाभासान् गणयितुं भिव्यावधानाय प्रतिजागौते, 'अथेति उपाधिनिरूपणनन्तरमित्यर्थः, 'उपाध्याभामा रति, निरूप्यन्ते इति शेषः । 'साधारणविपर्याय इति असाधारण: विपर्ययो व्यतिरेको यस्येति बडबौहिः, माध्याभावे साध्य इति चादौ पूरौयं, तथाच यदभावः माध्याभावे माध्येऽसाधारणो भवति स उपाध्याभास इत्यर्थः, असाधारण्यमिह सर्वमपक्षव्यावृत्तत्वमाचं साध्याभावरूपसाध्यवदवृत्तित्वमिति यावत् तथाच यदभावः साध्याभाववदवृत्तिः स उपाध्याभास इति फलितं, तस्थ माध्यव्यापकत्वाभावेनामदुपाधित्वादिति भावः । तस्य उदाहरणमाह, 'यथेति, केवलान्वयिमाथे माथाभावस्थाप्रमिया 'अन्वययतिरेकिणैत्युक्तं, 'अन्वयः' माध्यतावच्छेदकसम्बन्धः, तदवचित्र
Page #407
--------------------------------------------------------------------------
________________
उपाधिवादः।
३९८
ष्णस्तेजस्वादित्यवाकृतकत्वम् । पक्षाव्यापकविपर्ययः, यथा वित्यादिकं सकर्टकं कार्यत्वादित्यवाणुव्यतिरितत्वम्। अवाणुव्यतिरिक्तत्वव्यतिरेकस्य क्षित्यादेरेकदेशवृत्त्या भागासिद्धेः। पूर्वसाधनव्यतिरेकः, यथा
प्रतियोगिताकव्यतिरेकप्रतियोगिनौत्यर्थः, जलहूदो वह्निमान् द्रव्यत्वादित्यादौ देतरत्वादेर्व्यतिरेकस्य माध्याभाववदवृत्तित्वविरहात् 'बाधोत्रौतान्येति पक्षविशेषणं साध्याभाववत्तया प्रमितान्येत्यर्थः, तथाच पर्वतो वजिमान् धूमादित्यादौ पर्वतेतरत्वादिकमिति भावः।
प्राञ्चस्तु माध्याभावे साध्य इत्यादौ न पूरणौयं, असाधारणत्वच सर्वमपक्ष-विपक्षव्यावृत्तत्वं, प्रकृतमाध्यवत्तया निश्चितत्वमेव सपक्षत्वं, तदभाववत्तया निश्चितत्वञ्च विपक्षत्वं, तथाच यदभावः सकलमाध्यवत्तानिश्चितव्यावृत्तवे मति सकलमाध्याभाववत्ता निश्चितव्यावृत्तः स उपाध्याभास इत्यर्थः, अतएव उदाहरणे केवलव्यतिरेकिणि सपक्षस्य केवलाचयिनि च विपक्षस्याप्रमिया तत्रत्यपरेतरत्ववारणंय 'अन्वयव्यतिरेकिणत्युक्तं, वहिरनुष्णः कृतकवादित्यादौ पक्षस्यैव विपक्षतया वहीतरत्वस्य तड्यावृत्तत्वाभावात् तद्वारणाय 'बाधोत्रौतान्ये. त्युक्तं साध्याभाववत्तया निश्चितान्येति तदर्थः। इदमुपलक्षणं भूनित्या गन्धवत्त्वात् भरनित्या भूभित्रभित्रवादित्यादौ च केवल-. व्यतिरेकिण्यपि पछेतरत्वं उदाहरणं बोध्यं तत्र सपक्षस्य प्रसिद्धत्वा
Page #408
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वपिसामगै
शर्करारसोऽनित्यानित्यत्तिबुणत्वात् । स नित्यार) रसनेन्द्रियजन्यनिर्विकल्पकविषयत्वात् रसत्यवदित्यादौ। पूर्वसाधनतायाः प्रयोगानुरोधित्वेनाध्यकस्थितत्वात् कदाचिन्नित्यत्वसाधनव्यतिरेकस्योपाधि कदाचिदनित्यत्वसाधानव्यतिरेकित्वस्येति वस्तुव्यवस्था
दित्याहुः। तदसत्। वहिरनुष्णः कृतकत्वादित्यादौ बाधोबीतपक्षेतरत्वेऽतिव्याप्तिवारणय विपक्षव्यावृत्तत्वदलस्यावश्यकत्वेऽपि सपक्षव्यावृत्तवदलस्य व्यर्थत्वात्, पृथिवी इतरेभ्यो भिद्यते द्रव्यत्वादित्यादौ केवलव्यतिरेकिण्यपि पचेतरत्वस्योपाध्याभासतया तदारणस्यायुक्तत्वात् । किञ्चैवं वहिरनुष्णः कृतकवादित्यादौ बाधिते यदा मौरालोकादावेव साध्याभावनिश्चयो न तु पक्षे नदा पचेतरत्वस्थ उपाध्याभासत्वापत्तिः, एवं धूमवान् बहेरित्यादावपि यदा पाईन्धनाघधिकरण एव माध्य-तदभावयोर्निश्चयो न तु तदनधिकरणे तदा तत्राप्याईन्धनादेशपाध्याभामतापत्तिः। न चेष्टापत्तिः, माध्यव्यापकवादेस्तदानीमपि मत्त्वेनाभासतायां वीजाभावात्। न च यन्नते उपाधित्वज्ञानस्य पक्षे माध्याभावव्याप्योपाध्यभाववत्ताज्ञानद्वारा अनुमितिप्रतिबन्धकत्वं तन्मते तदानौं तेषामभावे पायाभावव्याप्यवज्ञानासम्भव एव उपाध्याभासत्वे वौजमिति वाच्यं । असाधारण्य- - ज्ञानस्यानुमिति प्रत्येव प्रतिबन्धकतया तसत्त्वेऽपि माध्याभावण्या
(१) रसो निव इति क, ख.।
Page #409
--------------------------------------------------------------------------
________________
उपाधिवादः।
न स्यात् उपाधेर्नित्यदोषत्वात् । न हि यद्येन सोपाधिसम्बई तत्तेनानुपाधित्वसम्बई सम्भवति, न तु सत्यतिपक्षाच्छेदः पूर्वसाधनव्यतिरेकस्यानुपाधित्वे वौज, स्थापनाया यवाभासत्वं तत्र पूर्वसाधनव्यतिरेकस्य
प्यत्वज्ञाने बाधकाभावात् असाधारण्य ज्ञानस्यान्वयसहचारयहप्रतिबन्धकतया व्याप्ति ज्ञानप्रतिबन्धकत्वपचेऽप्यन्वयव्याप्तिज्ञानं प्रत्येव प्रतिबन्धकतया तत्सत्त्वेऽपि माध्याभावव्यतिरेकव्याप्तिज्ञाने बाधकाभावाचेति ध्येयं।
'प्रसिद्धसाध्यविपर्यायः' यत्तिसाध्यस्य साधतावच्छेदकरूपेभावोऽलौकः अत्यन्ताभावप्रतियोगितानवच्छेदकमाध्यतावच्छेदकावच्छिन्नसाध्याश्रय इति यावत्, ‘पक्षतरत्वादिरिति, श्रादिपदात्यक्षतरत्वातिरिकवस्तुमात्रपरिग्रहः, केवलावयिमाथे कुत्रषिसाध्यव्यापकत्वस्य कुत्रचित्माधनाव्यापकत्वस्थ विरहात् वस्तुमात्रस्यैव उपाध्याभासत्वादिति भावः। 'बाधितेति अव्याप्यतासम्बन्धन बाधितः माध्यविपर्ययो यत्रेति व्युत्पत्त्या माध्याभावव्याप्य इत्यर्थः, 'अकृतकत्वमिति न विद्यते कृतकं कायं यत्रेति युत्पत्त्या जन्यधर्मानाश्रयत्वमित्यर्थः, 'पक्षाव्यापकेति, 'पक्षः' साधनवान्, तदवृत्तिविपर्ययक इत्यर्थः, कपिल 'पक्षव्यावतकेति पाठः तस्याप्ययमेवार्थः, 'चित्यादिकमिति पृथिव्यादिकमित्यर्थः, 'अणुव्यतिरिक्तत्वं परमाणुभिन्नत्वं, अस्योपाध्याभामत्वे वीजमाइ, 'अत्रेति परमाणुयतिरिक्रत्व इत्यर्थः, 'अणुष्यति
51
Page #410
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामणी साध्याव्यापकत्वेनानुपाधित्वात् । न च पूर्वनोलत - स्वासाधकत्वात् सत्प्रतिपक्षवेयर्थं तति वाचम् । अचमाणविशेषदशायां सत्प्रतिपक्षसम्भवात्। पूर्व
रिकत्वष्यतिरेकस्य' परमाणुव्यतिरिक्तत्वव्यतिरेकस्य, 'एकदेशवृत्त्या' एकदेन एव वृत्त्या नित्यपृथिव्यादावेव वृत्त्येति यावत्, ‘भामासिद्धेरिति उपाधिवक्षणान्तर्गतस्य साधनाव्यापकत्वभागस्यामिद्धेरित्यर्थः ।
केचित्तु सर्वमतसाधारण्येन उपाध्याभामान् गणयित्वा पक्षवृत्तिधर्मावच्छिन्नमाध्यव्यापकत्वे मति पक्षावृत्तिरेवोपाधिरिति मते उपाध्याभासान् गण्यति, 'बाधितेति यत्समानाधिकरणसाध्यस्य माध्यतावच्छेदकरूपेणभावः पक्षे बाधित इत्यर्थः, 'अक्कतकत्वं' अकार्यत्वं, तच पक्षवृत्तिधर्मावच्छित्रसाध्यस्य पत्रेऽपि सत्त्वेन ताहशसाध्यव्यापकत्वविरहादिति भावः । इदमुपलक्षणं पर्वतो धूमवान् वरित्यादावाईन्धनादिकमपि बोध्यं । 'पक्षाव्यापकेति(१), पजैकदेशावृत्तीत्यर्थः, 'चित्यादिकं' पार्थिवड्यणुकादिकं, अणुव्यतिरिक्तत्वस्य पक्षाव्यापकविपर्ययकत्वमुपपादयति(र), 'अति चित्यादिकं सकहकं कार्यवादित्यत्रेत्यर्थः, “एकदेशवृत्त्या' एकदेशड्यणुक एव वृत्त्या, 'भागामिद्धेः' पवैकदेशावृत्तेः। यदा अणुव्यतिरिकत्वस्य उपाध्याभासत्वे बौजमार, 'प्रति अणुव्यतिरिक्तत्व इत्यर्थः, 'भागा
' (१) पक्षव्यावर्तकेतौति ग०।
(२) पक्षष्यावर्तकविपर्ययकत्वमुपपादयतीति ग० ।
Page #411
--------------------------------------------------------------------------
________________
उपाधियादा। साधनव्याप्यन्यतिरेक, यथा अकर्तृकत्वानुमाने निधन वादिः । पक्ष-विपक्षान्यतरान्धः, यथा प्रसिहानुमाने
मिद्धेरिति उपाधिलक्षणान्तर्गतस्य पक्षावृत्तिवभागस्यामिद्धेरित्यर्थः, इत्या।
सत्प्रतिपचे सर्वत्रैव पूर्वसाधमयतिरेकः सदुपाधिरिति मत खमते(१) निराकर्तुमाह, 'पूर्वसाधनव्यतिरेक इति पूर्वसाधमष्यतिरेकोऽपौत्यर्थः, क्वचिदुपाध्याभास इति शेषः। एतेन पूर्वसाधाव्यतिरेकित्वस्य उपाध्याभासत्वनियतवे पाईन्धनाभावेन धूमामावस्य स्थापनायां प्रतिहेतौ वकाबान्धनस्य उपाधित्वं न स्यादिति पूर्वपशोनिरस्तः। 'रसनेन्द्रियजन्येति गुणान्यत्वे सति रसनेन्द्रियजन्यनिर्विकअपकविषयत्वादित्यर्थः, यथाश्रुते घटादिवृत्तिरसे व्यभिचारापत्तेः पूर्वसाधनव्यतिरेकस्यामदुपाधितथा उदाहरणत्वासानेछ। शर्कराधा रम इत्युपनौतभानविषये शर्करायां व्यभिचारवारणय निर्विकल्पकत्वेन उपादानं, निर्विकल्पकत्वं सप्रकारकभिन्नत्वं तेनाशिकनिर्विकल्पकरबमादाय न नहोषतादवस्थ्यं । पूर्वसाधनव्यतिरेकस्य मछुपाधिवनियमे बाधकमाइ, 'पूर्वसाधनताया इति, पूर्वसाधनव्यतिरेकस्य मदुपाधित्वनियमे इत्यादिः, 'अव्यवस्थितत्वादिति करिनित्यवसाधकोताहेतौ कपिदनित्यत्वसाधकोताहेतौ च मयादित्यर्थः, 'कदाचिदिति शर्करौवरो नित्यः गुणन्यत्वे मति रसनेन्द्रियबन्ध
(१) सब इति ग.। फसव इति ध.।
Page #412
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामग
पर्वत-जलहदान्यतरान्यत्वम् । पतरसाध्याभावः, यथारैव पर्वतेतरानिमत्वं । न चाच व्यर्थविशेषणत्वं
निर्विकल्पकविषयत्वादिति नित्यत्वसाधकहेतोः पूर्वं प्रयोगदशायामित्यर्थः, “नित्यत्वमाधमेति नित्यत्वसाध्यक-गुणाप्यत्वे सतौति हेतौ नित्यत्वसाधकहेतोरभावस्येत्यर्थः, 'उपाधित्वं' सदुपाधित्वं स्यादित्यर्थः, 'कदाचिदिति शर्करारमोऽनित्यः अनित्यत्तिगुणत्वादित्यनित्यत्वसाधकहेतोः पूर्वं प्रयोगदशायामित्यर्थः, 'अनित्यत्वसाधनेति अनित्यत्वसाधकानित्यवृत्तिगुणत्वरूपहेतोरभावस्येत्यर्थः, उपाधित्वं स्थादिति भेषः, 'वस्तुव्यवस्थेति तदुभयहेतौ वस्तुगत्या माध्यण्याप्यत्वस्यावस्थानं न स्यादित्यर्थः, व्याप्नेनिरुपाधित्वनियतत्वादिति भावः । ननु दशाविशेषे निरुपाधित्वं तत्रास्येवेत्यत शाह, 'उपाधेरिति, 'नित्यदोषत्वात्' सदातनदोषत्वात् व्यायवृत्तित्वादिति यावत्। 'यद्येन सोपाधिसम्बद्धमिति यत्माध्यकसोपाधित्वसम्बद्धमित्यर्थः, तत्सेनानुपाधित्वसम्बद्धमिति तत्माध्यकानुपाधित्वसम्बद्धमित्यर्थः, पूर्वसाधनव्यतिरेकस्य सदुपाधित्वानियमे केनचिटुक्कं वीजमाअझ निराकरोति, 'न विति, 'अनुपाधित्वे' मदुपाधित्वानियमे, पूर्वसाधनव्यतिरेकस्य मदुपाधित्वनिथमेऽपि तस्योपाधित्वाप्रतिसन्धानदशायां मत्प्रतिपक्षसम्भवादिति भावः । स्थानान्तरे पूर्वसाधनव्यतिरेक स्य उपाधाभासत्वं दर्शयति, 'स्थापनाया इतितमा वहाएनायाः, 'यधाभासत्वं' व्यभिचारित्वमित्यर्थः, 'तच' तथापि, 'माया
Page #413
--------------------------------------------------------------------------
________________
उपाधिवादा।
दूषणं, तत्त्वेऽप्युपाधेराभासत्वात् । तत्तुल्यश्च, यथाव पर्वतेतरेन्धनवत्वम् । एवं वहिसामग्रमादिकम्यम्।
थापकलेनेति तदभावसाधनप्रतिस्थापनायाः माध्यस्थाव्यापकत्वेनेत्यर्थः, 'अनुपाधित्वात्' उपाध्याभासत्वात्, 'ततएवेति व्यभिचारिवादेवेत्यर्थः । 'अटामाणेति स्थापनाया व्यभिचाराग्रहदशायामित्यर्थः, 'पूर्वसाधनव्याप्यव्यतिरेक इति, उपाध्याभास इति शेषः । 'यथेति, कादाचित्कत्वेन सकलकत्वस्य स्थापनायामिति शेषः, 'अकर्दकत्वामुमान इति अकर्टकत्वसाधके प्रतिहेतावजन्यत्व इत्यर्थः, 'नित्यत्वादौति, ध्वंसाप्रतियोगित्वरूपस्य नित्यत्वस्य प्रागभावे साध्यव्यापकत्वाद्धेतौ साध्यव्यभिचारविरहाचायमुपाध्याभास इति भावः । 'पचेति भावप्रधानो निर्देशः पक्ष-विपक्षान्यतरान्यत्वमित्यर्थः, क्वचिदुपाध्याभास इति शेषः, तेनायोगोलकं धूमवदहेरित्यादावयोगोलकइदान्यतरान्यत्वस्य मदुपाधित्वेऽपि न पतिः, ‘पचेतरेति पचेतरवविशिष्टमाध्याधारत्वमित्यर्थः, क्वचिदुपाध्याभास इति शेषः, तेनायोगोलकं धूमवदहेरित्यादावयोगोलकेतरत्वविशिष्टधूमवत्त्वादेः मदुपाधित्वेऽपि न चतिः। 'अत्रैव' प्रसिद्धवानुमान एव, 'आभासत्वात्' भाभासत्वानपायात्, 'तत्तुल्यश्चेति पठेतरत्वघटितत्वेन तत्तुल्योधर्मा
रोऽपौत्यर्थः, क्वचिदुपाध्याभास इति शेषः । 'अत्रैव' प्रसिद्धानुमान एव, 'जनमिति पर्वतो वकिमान् धूमादित्यादावुपायाभासबेनोमित्यर्थः ।
Page #414
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वविता
इति श्रीमहोपाध्यायविरचित तचिन्तामणौ अनुमानास्थहितीयखण्डे उपाध्याभासनिरूपणं, समातोऽयमुपाधिवादः ।
इति श्रीमथुरानाथतर्कवागौश-विरचिते तत्वचिन्तामणिराखे अनुमानाख्यद्वितीयखण्डरहस्ये उपाध्याभासनिरूपणरहस्य, समाप्तमिदं उपाधिवादरहस्यं ।
Page #415
--------------------------------------------------------------------------
________________
अथ पक्षतापूर्वपक्षः।
व्यायनन्तरं पक्षधर्माता निरूप्यते । तब म सावत् सन्दिग्धसाध्यधर्मत्वं पक्षत्वम्, सन्देहो
अथ पक्षतापूर्वपक्षरहस्यं । उपाधि निरूण्य पक्षधर्मतां निरूपयितुं शिष्यावधानाय प्रतिजानौते, 'व्याप्यनन्तरमिति व्याप्तिनिरूपणानन्तरमित्यर्थः, क्वचित्तथैव पाठः, पक्षधर्मता' पक्षधर्मः पचपदस्य शास्त्रकारोवपरिभाषाविषयतावच्छेदकोऽनुमितिजनको धर्म इति यावत्, भावार्थस्थाविवचितत्वात्, एतेन व्याप्ति-पक्षधर्मतयोरनुमित्यात्मकैककार्यानुकूलत्वमेव मङ्गतिरितिसूचित() अनुकूलत्वञ्च कारण-कारणतावच्छेदकमाधारणं प्रयोजकत्वं, तच्च कारणतावच्छेदकव्यावृत्तान्यथासिद्धिचतुष्टयरहितत्वेर)
(१) तथाचात्र यातिज्ञामजन्याया धनुमितेः किमन्यत् कारणमिति
जिज्ञासामादाय एककार्यानुकूलत्वस्य सङ्गतिवमिति भावः।। (२) नचाच कारयतावच्छेदकल्याहत्तान्थयासिडिसामान्याभावनिवेशेव बामस्थे चतुष्टयपदं वर्णमिति बाचं । अन्यथासिडित्वस्यानुगत.
মাৰাৰ নম্বৰৰৰিমাৰীষ্মম্ভাৰহ্মময় জুলামवार्थमेव तदुपादाबाद। एतेन तादृशान्यथासिडिराहिमाचकथमेव वामन नियतपूर्ववर्तिवरूपविशेष्यदलं व्यर्थमिति पूर्वपक्षोऽपि निरला, पनियतपूर्ववर्तिगताचासियभावघटितकूटनिवेशे कूटस्य गुरशरोरनबा महागौरवापत्तरिति ।
Page #416
--------------------------------------------------------------------------
________________
8.0
तत्त्वचिन्तामगै हिन विशेषणं परामर्शपूर्व लिङ्गदर्शन-व्याप्तिस्मरणदिना तस्य नाशात्। नोपलक्षणम् अव्यावर्तकतापत्तेः।
.
मति नियतपूर्ववर्तित्वं, तेन व्याप्तेः अनुमित्यजनकत्वेऽपि न छतिः, व्यानर्विषयतासम्बन्धेन परामर्शनिष्ठकारणतावच्छेदकतथा यथोक्तप्रयोजकत्वस्य तत्र सत्त्वात् । न चातौतानागतव्याप्तेः परामदयनुमित्युदयात् नियतपूर्ववर्त्तित्वघटितयथोक्तप्रयोजकत्वमपि तच नास्तौति वाच्यं । व्याप्तिसामान्ये तादृशप्रयोजकत्वस्थासत्त्वेऽपि सत्तावान् द्रव्यवादित्यादौ नित्यसम्बन्धघटितव्याप्तिषु तत्सम्भवात् । न हि लिखिलव्याप्या समं मङ्गतिरपेचिता । वस्तुतस्तु व्याप्तिप्रयोज्यानुमितिजनकत्वमेव पक्षतायां व्याप्तेः सङ्गतिः, व्याप्तिप्रयोज्यत्वञ्च व्याप्यवच्छिन्नकारणताप्रतियोगिक-कार्य्यताश्रयत्व) । उपाधि-पक्षतयोरप्युद्भावनदारा(विजयलक्षणेककार्यानुकूलत्वमेव मङ्गतिः, यथा परकौयहेतावुपायुद्धावने विजयस्तथा स्वौयहेतौ पचतोद्भावनेऽपि विजयादिति भावः। 'तचेति, तच्छब्दो निरूपणपरः, विषयत्वं सप्तम्यर्थः, अन्वयश्चास्य पक्षवमित्यनेन,
(१) तथाच निखिलव्याप्तता समं सातेरपेक्षितत्वेऽपि न क्षतिरिति भावः। (२) पक्षतानिरूपणे व्याप्तिनिरूपणानन्तर्यमिव उपाधिनिरूपणानन्त
यमपि वर्तते, पतः पक्षतायां व्याप्तिनिरूपितसङ्गातिरिव उपाधिनिरूपितसङ्गतिरपि सम्भवत्येव तदप्रदर्शनेन मणिकारस्य न्यूनवां परिजिहीर्घः मथुरानाथः 'उपाधि निरूपयितुं' इत्यभिहितवान्, इदानों पक्षतायां यातिनिरूपितसति सङ्गमय्य उपाधिनिरूपितसानि सङ्गमयति, 'उपाधि-पक्षतोरप्युद्धावनहारेति ।
Page #417
--------------------------------------------------------------------------
________________
पक्षता।
तथाच निरूपणविषयौभूतं पचत्वमिदं नेत्यर्थ:(१) पचत्वं पचपदपरिभाषाविषयतावच्छेदकोऽनुमितिजनको धर्मः, एवं सर्वत्र। 'मन्दिग्धसाध्यधर्मत्वमिति मन्दिग्धं माध्यं येन रूपेण तत्मन्दिग्धसाध्यं सन्देहविशेष्यतावच्छेदकमिति यावत्, तादृशधर्मत्वमित्यर्थः, तथाच विशेव्यतावच्छेदकतासम्बन्धेन साध्यसन्देहवत्वं पक्षत्वमिति फलित(२)। न चैवं
(१) पक्षावमिदं नेत्यन्वय इति ग। (२) अत्र पर्वतो वह्निमान्न वा भूतलं घटवन्न वेति क्रमिकसंशयोत्तरं
पर्वतो वहिमान् भूतलं घटवदिति समूहालम्बनानुमितेविरोष्यतावच्छेदकतासम्बन्धेन मूतलत्वे सत्त्वेन व्यभिचारवारणाय साध्यतावच्छेदकावच्छिमप्रकारतानिरूपित विशेष्यतावच्छेदकतासम्बन्धेन वहानुमितिं प्रति वह्नित्वावच्छिन्नकोटिताख्यप्रकारतानिरूपितविशेष्यतावच्छेदकतासम्बन्धेन वहिसंशयस्य कारणत्वं, अथवा वहित्वावछिन्नविधेयताकत्वविशिष्यवहानुमिति प्रति समानविशेष्यतावच्छेदकताप्रत्यासत्या कारणात्वं वाच्छ । अथ सामाधिकरण्येन वह्निसाध्यकस्थले सामानाधिकरण्येन वहाभावकोटिकावच्छेदावच्छेदेर, वह्निकोटिकसंशयस्य पक्षतात्वापत्तिरिति चेत् । न । सामान करण्येन वहानुमितिं प्रति वहाभावत्वावच्छिन्नप्रका' (th सांसर्गिकविषयतानिरूपित-निरुपकत्वविषयतानिपत त्वविषयतानिरूपित-वहाभावविषयतानिरूपिट पित-प्रतियोगित्वविषयतानिरूपिताभावनिक विषयतानिरूपिताधिकरणविषयतानि कनिष्ठविधयता सामानाधिकरण वच्छेदकता तत्सम्बन्धेन पक्षत"
.
7
52
Page #418
--------------------------------------------------------------------------
________________
सत्चचिन्तामणौ
पवतायाः पक्षतावच्छेदकनिष्ठत्वमेव वृत्तं न तु पचनिष्ठत्वमिति वाच्या अनुमितिकारणीभूतपक्षपदपरिभाषाविषयतावच्छेदकधर्मस्यास्य पक्षपदप्रवृत्तिनिमित्तत्वाभावेन पक्षतावच्छेदक-पक्षयोः सत्त्वासमेऽपि क्षतिविरहात्, अनुमित्युद्देश्यत्वस्यैव पक्षपदप्रवृत्तिनिमित्तत्वात्। न च तथापि ममानविशेष्यतावच्छेदकत्वप्रत्यासत्त्या माध्यसन्देहत्त्वस्यानुमितिहेतुत्वे माध्यं पक्षे न वेति साध्यविभव्यकसन्देहस्थासङ्ग्रह इति वार्थ। प्रसिद्धीमाध्यकानुमितेः पचविशेष्यकत्वनियमेनानुमितिसमानविशेष्यतावच्छेदकतया पक्षतावच्छेदकावच्छिन्नविशेष्यकसाध्यसन्देहवत्त्वस्यैव तत्रानुमिति हेतुत्वेन तादृशसन्देहस्थासङ्ग्रहस्यैवोचितत्वात् । न चैवं केवलान्वयिसाध्य के माध्याभावाप्रसिद्ध्या पक्षतावच्छेदकावच्छिअविशेष्यकसाध्यसन्देहासम्भवात् अनुमितिर्न स्थादिति वाच्यं । तचापि खण्डनः प्रसिद्ध्या प्रभावान्तरे प्रतियोगितासम्बन्धेन माध्यप्रकारकस्य माध्यसन्देहस्य पक्षे सम्भवात् । न च तथापि पृथिव्यामितरभेद
चापि पर्वतो वद्धिमान् इत्यनुमितौ जातिमान् वद्धिमान वेति य पक्षताखापत्तिर्विशेष्यतावच्छेदककतासन्धन्धेन पर्वतत्वेऽपि स्य सत्त्वादिति चेत् । न । विशेष्यतावच्छेदकतापर्याप्तादकत्वसम्बन्धेनानुमितिं प्रति तादृशावच्छेदकत्वप-- कत्वसम्बन्धेन कारणत्वस्य विवक्षितत्वात् । न च रन वेति संशयसत्त्वे दण्डरक्तवान् वहिमानि। बुद्धिविषयत्वरूपस्यैव समुदायत्वस्यानु
बुद्धिभेदेन भिन्नत्यान्नानुपपत्तिरिति
Page #419
--------------------------------------------------------------------------
________________
पक्षता।
इत्याद्यप्रसिद्भुमायविशेष्यकानुमितिस्थले पचविशेष्यकसाध्यसन्देहासम्भवः इतरत् पृथिवौनिष्ठान्योन्याभावप्रतियोगि न वेति सन्देहस्य पक्षविशेष्यकसाध्यसन्देहत्वाभावादिति वाचं । माध्यविशेष्यकामुमितौ माध्यज्ञानाभावस्यैव पक्षतात्वात्, अत एव उच्छृङ्खलमाध्यज्ञानसत्त्वेऽपि न माध्यविशेष्यकानुमितिः किन्तु माध्यप्रकारिकैवेति न काप्यनुपपत्तिः।
भट्टाचार्यास्तु सन्दिग्धः साध्यरूपो धर्मा यस्य पुरुषस्य तत्त्वमिति वहुव्रीहिः, धर्मपदच्च स्वरूपकथनं, तथाच समवायसम्बन्धेन माध्यमन्देहवत्त्वं पचत्वमित्यर्थः, अनुमितिजनकस्यास्य पक्षपदप्रवृत्तिनिमित्तत्वाभावेन पचानिष्ठत्वेऽपि पतिविरहात्, साथमन्देहपदश्च पचतावच्छेदकावच्छिनविशेष्यक-माध्यतावच्छेदकसम्बन्धमंसर्गक-माध्यतावच्छेदकावच्छिन्नप्रकारकनिर्णयनिवर्तनीयसंशयपरं, तेन पक्षः माध्यवान वा, माध्यं पक्षे न वा, माध्यं पक्षवृत्ति न." साध्यं पक्षनिष्ठाभावप्रतियोगि न वेत्यादीनां सर्वेषां सन्देहान्धशिश प्रसिद्धसाध्यकस्थले इतरत् पृथिवौनिष्ठान्योन्याभावप्रतियोगिता वेत्यादिसाध्यप्रतियोगिविशेष्यकमन्देहानाञ्च सङ्ग्रहः, गोली तावादिनामेतदन्यतमसन्देहादेवानुमितिखौकारात् ।। पक्षे न वेत्यादिसंशयो न तादृशनिर्णयनिवर निर्णयस्यैव प्रतिबन्धकत्वादिति कुतस्तेषां मङ्ग, हपक्षतावादिनां प्राचां भिन्नप्रकारकनिर्ण माध्यतावच्छेदकसम्बन्धसंसर्गकेत्युपादा निर्णयदभायां सम्बन्धान्तरेण मा
Page #420
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२
तत्त्वचिन्तामो
निवर्तनीयत्वञ्च तादृशनिर्णयत्वावच्छिन्नप्रतिबन्धकतानिरूपितप्रतिबध्यत्वं, तेन पर्वतोवहिमान् घटवांश्चेति निर्णयनिवर्त्यस्य पर्वतो घटवान वेति संशयम्य, पर्वतो वहिमान् वहौरूपवांश्चेति समूहालम्बननिर्णयनिवर्त्यस्य वनौरूपवान्न वेति सन्देहस्य वा(१) पर्वतो वकिमान् इत्याद्यनुमितौ न पचतात्वं, प्रतिबध्यत्वञ्च पक्षतावच्छेदकाघटकतया या माध्यतावच्छेदकविशिष्टविषयिता तड्याप्यं ग्राह्य, तेन पर्वतो वजिव्यायधूमवान् पर्वतो वयभावव्याप्यजलत्ववान् इत्याद्यनुमितौ पर्वतो वहिमान वेति संशयस्य न पचनात्वं, वहिव्यायधूमकालौनः पर्वतो वहिव्यायधूमवान् इत्यनुमितौ वहिव्यायधूमकालीनः पर्वतो वहिमात्र वेति संभयस्य पक्षतात्ववारणाय पक्षतावच्छेदकाघटकतयेति विषयिताविशेषण(२), संशयत्वेनोपादानञ्च बाधनिश्चयस्यापि पचविशेष्यकसा
य
तादृशनिर्णयनिवर्त्यत्वे सति साध्यविषयकसंशयत्वं पक्षतात्वमित्युक्तो पर्बतो वह्निमानित्यनुमितौ पर्वतो घटवान्न वेति संप्रायस्य पक्षमित्ववारणसम्भवात् स्थलान्तरानुसरणमिति तात्पर्य । अपनरत् एथिवीनिष्ठान्योन्याभावप्रतियोगि न वेति संशयस्या'नत्यतिबध्यतायाः साध्यतावच्छेदकविशिरविषयिताव्याप्यत्वFor चेतरभेदादिसाध्यकपक्षतालक्षणे तन्न निवेश्यमिति
यापकाभाव इत्यनुमितो हुदो धूमवान्न वेति संा. रतदोषवारणाय धूमव्यापकाभावरूपाप्रसिद्धयवियिताव्याप्यत्वनिवेशे धूमथापकं कदसंशयस्यासंग्रहापत्ते पीत् । न ।।
विच्छेदकविशिरविषयिद हाप्यत्व
Page #421
--------------------------------------------------------------------------
________________
पक्षता
इलेन बाधनिश्चयप्रतिवध्यतावच्छेदकविषयिताव्याप्यत्वस्य विवक्ष. वंशात् । न च संशयमात्रस्यासंग्रहः तादृशप्रतिबध्यत्वस्य बाधनिश्चयेऽपि सत्वात् तत्र बाधनिश्चयप्रतिवध्यतावच्छेदकविषयिताविरहादिति वाच्यं । विरोधिविषयकनिश्चयान्यज्ञानवृत्तित्वविशियप्रतिसध्यतायं व्याप्यत्वनिवेशात् । न च तथपि धमाभावादिसाध्यकस्थले तादृशज्ञानवृत्तित्वविशियप्रतिबध्यत्वस्य महानसीयधुमवान्न वेति संशयसाधारणत्वात् तत्र बाधनिश्चयप्रतिबध्यतावच्छेदकविषयिताविरहादसंग्रह इति वाच्यं । विरोधिविषयकनिश्चयभेदकूटरूपविरोधि. विषयकनिश्चयान्यत्वशरीरे धूमसामान्याभावाप्रकारकत्वे सति धूमत्वनिष्ठावच्छेदकताकप्रकारतानिरूपकत्वरूपनिश्चयत्वनिवेशात् तादृशनिश्चयत्वावच्छिन्नभेदस्य तत्रासत्त्वात् । नव्यास्तु साध्यविषयतापदेन साध्यतावच्छेदकविशिविषयताया विवक्षणात् वैशिष्ट्यञ्च खावच्छिनत्व-खाश्रयीभूताभावप्रतियोगितावच्छेदकावच्छिन्नत्वान्यतरसम्बन्धेन, तथाच न इतरत् पृथिवीनिष्ठान्योन्याभावप्रतियोगि न वेत्यादि. संशयासङ्ग्रहः उक्तसंशयीयेतरत्वावच्छिन्नविधयताया उक्तान्यता न्धेन साध्यतावच्छेदकविशिष्टत्वात् साध्यतावच्छेदकविशिष्ठ व्याप्यत्वस्य प्रतिबध्यतायां अक्षतेः इत्याहुः। ___ष्यथ पक्षतावच्छेदकावच्छिन्नविशेष्यतानिरूपित कावच्छिन्नप्रकारत्वावच्छिन्न प्रतिबन्धकतानिरूपित संशयत्वनिवेपोनेव सामञ्जस्ये प्रतिबन्धकताय) स्वनिवेशः पर्वतो वह्निमानित्यनुमितौ) संशयवारणन्तु प्रकारतावच्छेदकताy वहिमपर्वतवन्न वेति संशयस्य/ शेष्यतानिवेशेनैव तदारणा पंप्रायस्य संग्रहापत्ति
Page #422
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्वचिन्तामणौ
निवेशात् इति चेत् । न । पर्वतो वक्रिमानित्यनुमितौ वनि-धटोभयवान न वेति संशयस्य पक्षतावापत्ते पर्वतो वति भयाभाववानिति बुद्धि प्रति पर्बतो वनि-घटोभयवानिति ज्ञ एकत्र द्वयमिति रौत्या पर्वतो वनि-घटवान् इति ज्ञानस्यापि बन्धकत्वं तत्र च तादृशबुद्धिवावच्छिन्नं प्रति तादृशज्ञानदयस्य वात् जित्वावच्छिन्न प्रकारतानिरूपित-पर्वतत्वावच्छिन्नविषय
हति-घटत्वावच्छिन्नप्रकारताशालिनिश्चयत्वेनैकरूपेण प्रति কান্ধলা। ন ঘ মানববন্ধাৰচ্ছিন্নমহ্মাললিক • विशेष्यतायां निवेश्यं इति वाच्यं । महागौरवापत्तेरिति ध्येयम् ।
' अत्र पक्षतावच्छेदकाघट कत्वं पक्षतावच्छेदकावच्छिन्नमुख्यवि त्यावच्छिन्न प्रतियोगिताकभेदप्रतियोगितानवच्छेदकत्वरूपं, अवः कात्वच निरूपकत्वसम्बन्धावच्छिन्नं ग्राह्यं यतो न प्रमेयपक्षक तादृशभेदाप्रसिद्धिः, मुख्यविशेष्यतानिवेशनन्तु वशिर्वहिमानित्य मितौ पक्षतावच्छेदकावच्छिन्नविषयिताव दप्रतियोगितागवच्छेदव साध्यतावच्छेदकावच्छिन्नविषयत्वाप्रसिद्ध्या वकिहिमान्न वेति संश यस्य पक्षतात्वानुपपत्तिवारणाय इति यदि वाच्यं तदा वहिव्याप्यो 'शिव्याप्यवानित्यनुमितौ वाभावः वझिव्याप्ये न वेति संशयस्य पपत्तिः, अतः पक्षतावच्छेदकविशिरावैशिठावगाहिबुद्धिवाव'निरूपित-जनकतावच्छेदकप्रकारताभिन्नत्वरूपं । न च 'प्यो वहिव्याप्यवानित्यनुमितौ वहिव्याप्यो वहिमान यहापत्तिः वशिव्याप्यत्वावच्छिन्नविशेष्यतायाः ति वाच्यं। खभिन्नत्व-खसामानाधिकरविच्छिन्नविषयताविशिएं यत् साध्य'त्वस्यैव प्रकृते निवेशात् । न च
मा बेति संशयस्या
Page #423
--------------------------------------------------------------------------
________________
पक्षता।
११५
संग्रहापत्तिः एकल्पावच्छिन्न प्रतिबध्यत्वस्य प्रतिबध्यभेदेऽप्यैक्यमते भूतलं वाभाववरहिमन वेति ज्ञानेऽपि तत्पतिवध्यतासत्त्वेग तत्र पक्षतावच्छेदकाघटकसाध्यतावच्छेदकविशिविषयिताया असत्त्वेन 'याप्यत्वविरहादिति वाच्छं। खावच्छिन्नत्व-खसामानाधिकरण्योमयसम्बन्धेन मुख्यविशेष्यताविशिएं यत्प्रतिबध्यत्वं तत्रैव व्याप्यत्वनिवेशात् पत्र तु विशियाधिकरणतामभ्युपगमादित्यवधेयं । रतेन साध्यतावच्छेदकविषयिताया व्याप्यत्वं कथं न निवेशनीयं इति पूर्वपक्षोऽपि निरस्तः । वहिर्वनिमानित्यनुमितौ वहिर्वहिमानं वेति संशयस्यासंग्रहापत्तेः तदीयसाध्यतावच्छेदकविघयतायाः पक्षतावच्छेदकघटकत्वादिति। वस्तुतस्तु साध्यतावच्छेदकविशिरविषयित्वपदेनात्र साध्यतावच्छेदकतावच्छेदकावच्छिन्नविषयित्व-साध्यतावच्छेदकावच्छिन्नविषयित्वान्यतरमेव विवक्षणीयं अन्यथा दण्डिमान् दण्डिसंयोगादित्यत्र दण्डिमान वेति संशयस्यासंग्रहापत्तिः तत्यतिबध्यत्वस्य दण्डत्वेन घटाद्यवगाहिदण्ड्यभाववानिति ज्ञानसाधारणतया तत्र च साध्यतावच्छेदकविशिरविषयिताया असत्त्वेन व्याप्यत्वविरहात्, साध्यतावच्छेदकविशिविषयितापदस्य तत्रैव तात्य) मिति ।
पत्र साध्यविषयित्वावच्छिन्नत्वमनिवेश्य साध्यविध निवेशनन्तु वहिव्याप्यसाध्यकस्थले वह्निमान वेंति संघ वारणाय, तथाहि वहिव्याप्यवत्तानिश्चयस्य व त्वेन प्रतिबध्यत्वं वहाभावप्रकारकयावजज्ञाने वात् न तु प्रतिबध्यभेदेन प्रतिबध्यताया। त्मकवाभाववान् इति ज्ञाने व साध्यविषयित्वावच्छिन्नत्वादतिव्या यिताया एव वहिव्याप्यत्वा
Page #424
--------------------------------------------------------------------------
________________
पापातामा
ध्यनिर्णयप्रतिबध्यत्वात्तस्य पक्षतात्ववारणय। न च बाधनिर्णयस तात्वेऽपि सामान्यतोविशिष्टबुद्धिमात्र प्रति बाधनिश्चयस्य प्रतिब वादेव तत्सत्त्वेऽप्यनुमित्यभावोपपत्तिरिति वाच्यं। बाधनिश्चये ताव्यवहाराभावात् मन्धिग्धाप्रामाण्यकबाधनिश्चयसत्त्वे सिद्ध्या परामर्शदनुमित्यापत्तेश्च । अग्टहौताप्रामाण्यकत्वेन तादृशनि निवर्त्यविशेषणे मन्दिग्धाप्रामाण्यकमाध्यसन्देहादनुमित्यनुत्पादा न च सामान्यतः संशयत्वेनोपादानेऽपि वयभाववान् पर्वतो घट वेति घटादिसन्देहात्मकबाधनिश्चयस्य पर्वतो वहिमानित्यनु पक्षतालापत्तिः साध्यसन्देहत्वेनोपादाने च नोकसंशयानां स इति वाच्यं । संशयपदेन पक्षतावच्छेदकविशिष्टपक्षविशेष्यक-स. तावच्छेदकविभिष्टमाध्यवत्त्वग्रहत्वावच्छिन्नविरोधिविषयकनिश्चयान ज्ञानस्य विवक्षितत्वात्()। न चैवं तादृशनिर्णयप्रतिबध्यताया अ.
भाववानिति ज्ञानेऽपि प्रतिबध्यतायाः सत्त्वात् तत्र साध्यवियित विरहेण नोक्तातिव्याप्तिः। केचित्तु यत्र क्षेत्रविशेषस्य व्यङ्कर विशेष पन्यस्य पक्षत्वं व्यङ्गुर विशेषस्य साध्यत्वं तदसराभाववत् तत्क्षेत्रमिति पि भ्रमोन जातः तत्र विघयितासम्बन्धेन तदङ्कराभाववत्तत ग्यज्ञानत्वेनैव प्रतिबध्यत्वात् तत्र साध्यविषयित्वावच्छिन्न सिद्ध्या तत्क्षेत्रं तदवरवन्न वेति संशये व्यव्याप्तिः, धस्म प्रवियिताव्याप्यत्वसत्त्वान्नाव्याप्तिः। अतएव जग
कृत्यैव साध्यविषयित्वावच्छिन्नत्वं प्रतिबध्यतायां
गत्वं पक्षतावच्छेदकविशियपक्षविशेष्य
'त्ताग्रहत्वावच्छिन्न प्रतिबध्यतानिरू.
Page #425
--------------------------------------------------------------------------
________________
पक्षता।
१७
দিনমনিবন্ধনাগৰিষযিনালিষ্মিান্মান, বয়িত্ব ভাবছিন্নমনিন্দ্রনালিনমনিৰনাৰৰিবিনাসুলুলखनिरूयकत्वोभयसम्बन्धेन । न चैवं अवच्छेदावच्छेदेन वड़े साध्यत्वे सामानाधिकरण्येन सन्दिग्धाप्रामाण्यकबाधनिश्चयात्मकस्य सामानाधिकरण्येन वह्निकोटिकस्य व्यवच्छेदावच्छेदेन वहाभावकोटिकस्य संशयस्यासंग्रहः निरुक्तोभयसम्बन्धेन वह्निमत्त्वग्रहप्रतिबन्धकतावच्छेदकं यत् सामानाधिकरण्येन वाभाववियित्वं तहत्त्वस्य सत्वादिति वाच्यं । खावच्छिन्न प्रतिबध्यतानिरूपितप्रतिबन्धकतावच्छेदकवियित्वावच्छिन्न प्रतिबन्धकतानिरूपितप्रतिवध्यतावच्छेदकवियिताशून्यत्व-खावच्छिन्नप्रतिबध्यतानिरूपितप्रतिबन्धकतावच्छेदकविषयितावत्त्वोभयसम्बन्धन साध्यवत्त्वग्रहत्ववत्त्वस्यैव तादृशग्रहविरोधिविधयकनिश्चयत्वपदेन विवक्षणीयत्वात् उक्तसंशये अवच्छेदावच्छेदेन वहाभाववियित्वावच्छिन्न प्रतिबन्धकतानिरूपितप्रतिबध्यतावच्छेदकविषयित्वस्यैव सत्त्वेन साध्यवत्त्वग्रहत्वावच्छिन्नप्रतिषध्यतानिरूपितप्रतिबन्धकतावच्छेदकविषयित्वावच्छिन्न प्रतिबन्धकलानिरूपितप्रतिब. ध्यतावच्छेदकविषयिताशून्यत्वविरहान्न तत्राव्याप्तिः । न च पर्व वञ्जिमानित्यत्र वहाभाववत्पर्वतवान् न वेति संशयस्य पक्षताम, तादृशसंशयस्य साध्यवत्त्वग्रहप्रतिबन्धकतावच्छेदको/ वत्पर्वताभावत्वावच्छिन्नविषयतान्त पातिवज्ञाभावत्वा, खावच्छिन्न प्रतिबन्धकतानिरूपित-वहाभाववत्प च्छिन्न प्रतिबध्यतायाः सत्त्वेन यथोक्तविर) मातेरिति वाच्यं । तादृशमहत्वावच्छिा
तानिरूपित-प्रकारतात्वावच्छिा न्यत्वस्य विवक्षणीयत्वात् वैशि तात्वावच्छिन्नावच्छेदकतानि,' 53
Page #426
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामणे
वच्छेदकवियिताशून्यत्वोमयसम्बन्धेन, तथाच वयभाववत्पद्धता वत्वावच्छिन्न विषयतान्तःपातिवाभावत्वावच्छिन्नविषयतायाः स वत्पक्षग्रहप्रतिबन्धकतावच्छेदकत्वेऽपि तादृशावच्छेदकत्वं न प्रक तात्वावच्छिन्नमपि तु चवच्छेदकतात्वावच्छिन्नमेवेति नोक्तसंश पक्षतात्यापत्तिः। न च अवच्छेदावच्छेदेन वह्निसाध्यकस्थले च. प्यत्तित्वज्ञानकाले अनाहार्यस्य सामानाधिकरण्येन वावग वच्छेदावच्छेदेन वयभावावगाहिसमुच्चये अतिव्याप्तिरिति व, साध्य-तदभावान्यतरधम्भिकाव्याप्यत्तित्वज्ञानविशिलान्यत्वस्य तन्त्रण विशेषणात् उक्तसमुच्चयस्य वारणसम्भवात्, प्यव्याप्यर त्वज्ञानवैशिष्टयञ्च खविशिशक्षणोत्पत्तिकत्व-खसामानाधिकरणे सम्बन्धेन खवैशिट्यञ्च खाव्यवहितोत्तरत्व-खाश्रयत्वान्यतरसम्म संशय-समुच्चययो(लक्षण्याय संप्रये संसगांशे विरोधभानस्य भ चार्यसम्मतत्वात् अव्याप्यत्तित्वज्ञानकाले संशयोत्पादासम्भव संशयस्याव्याप्यत्तित्वज्ञानविशिलान्यत्वं न तु समुच्चयस्येति न को दोष इति सुधीभिर्विभावनीयं । विरोधिविषयताशून्यत्वमात्रा वेशे भट्टाचार्य्यमते संशयासंग्रहः स्यादतो विरोधिविषयकनिश्चय यित्वय॑न्तानुसरणं। पक्षविशेष्यक-साध्यप्रकारकनिश्चयो भव 'णारेछायाः पक्षतात्ववारणाय चरमं ज्ञानपदमिति । हात निश्चयधर्मिकाप्रामाण्यसंशयाभाव व्यक्तीनां कारणताव च, निवेशनैव सन्दिग्धाप्रामाण्यकबाधनिश्चयवारणसम्भवाद रथ्यकनिश्चयान्यत्वनिवेशेनेति चेत्। न । यद्यदप्रामा पविध्यवत्तानिश्चयनिवर्तनीयसंशयसत्त्वे नानुमिति
लानां पक्षताघटकतया बाधनिश्चयधर्मिकापोष्पक्षताघटत्वमपेक्ष्य लाघवात् निरक्तवि. 'यहोवौचित्यात् इति विभावनौयं ।
Page #427
--------------------------------------------------------------------------
________________
पक्षता।
४१६
वितेरपि पक्षतावापत्तिरिति वाच्यं । सन्देहपक्षतावादिनामनुमानौ सिद्धेरप्रतिबन्धकत्वात् यथोकनिश्चयान्यप्रत्यक्ष वा संशयपदेन
क्षणीयमतो न काण्यनुपपत्तिरित्याहुः । केचित्तु मन्दिग्धं साध्यं येन रूपेण इत्युक्तव्युत्पत्त्या यत्माध्यसन्देहविएं तावच्छेदकं तदेव धर्मो यस्य इति बहुबौहिणा माध्यमन्देहविशेष्यविवाच्छेदकधर्मवत्त्वमित्यर्थः, यदा मन्दिग्धं माध्यं धर्मो यस्येति व्युत्पस्यान मन्दिग्धमाध्यवत्त्वमित्यर्थः, इत्थञ्च पक्षपदप्रवृत्तिनिमित्तत्वेऽपि त्वात न पक्षतावच्छेदक-पक्षयोरतिप्रसक्त्यप्रसकी इत्याहुः । तदसत् प्राधे नेश्नतत्वादिरूपेण यत्र महानसादेः पक्षवं तत्राव्याप्यापत्तेः, पक्षताया| समितिजनकत्वेनातौतादौ पक्षे१) अनुमित्यभावापत्तेश्च । द्वितीये सम्वेदो वहिमान् धूमादित्यादौ बाधितेऽव्याप्यापत्तेः अतीतादौ साध्ये व मित्यभावापत्तेश्च । वा अन्ये तु मन्दिग्धः माध्यरूपोधर्मो यत्र तत्त्वमित्यर्थः, यदा ििन्दग्धं साध्यं यत्र तादृशधर्मत्वमित्यर्थः, मतदय एव धर्मप धरूपकथनं न तु विवक्षितं प्रयोजनाभावात् श्राकाशादेः । पचवे चाव्याप्यापत्तेश्च, तथाच विशेष्यतासम्बन्धेन पक्षत्वमिति तु फलितमित्याहुः । तदसत् विशेष्या सन्देहस्यानुमितिहेतुत्वे पर्वतत्वरूपेण यत्किार तेन रूपेण पर्वतान्तरेऽनुमित्यनुदयापत्ते /निर्णेतरूपेणाप्यनुमित्यापत्तेश्च । य माध्यसन्देहानन्तरं स्मरणदिर (१) पतीतादौ पक्षतावर
Page #428
--------------------------------------------------------------------------
________________
१.
तत्वचिन्तामणे.
नापि साधक-बाधकप्रमाणाभावः, उभयाभावस्य प्रतः। पत्तिः, मननादिस्थले माध्यनिचयदशायां सिषाधयिषयाप्यनुमित नुदयापत्तिश्च, तथापि तदुपेक्ष्य स्फुटतरं दोषमाह, 'सन्दे
ति, 'न विशेषणमिति न तत्तत्पुरुषोयत्वविशेषितः मन् समा विशेष्यतावच्छेदकताप्रत्यासत्या अनुमितिकारणमित्यर्थः, भट्टाच मते 'न विशेषणं न समवायघटितसामानाधिकरण्यप्रत्यामत्त्या रणमित्यर्थः, 'परामर्शपूर्वमिति, लिङ्गविशेष्यकव्याप्तिप्रकारकज्ञा त्पत्तिसमय इति शेषः, “लिङ्गदर्शनेति लिङ्गेन्द्रियमन्त्रिकर्षणेल 'त्रादिपदात् तत्ममानकालोत्पन्नसंशयजन्यकोटितावच्छेद्र काका कसंस्कारादिपरिग्रहः, 'तस्य नाशादिति तस्य क्वचिन्नाशादि तेन यत्र संशयाव्यवहितोत्तरमेव स्मरणाद्यात्मकोविशिष्टपरामर्शम् । परामर्थक्षणे सन्देहमत्त्वमम्भवेऽपि नासङ्गतिः। न च परामर्शद भन्देहस्थामत्त्वेऽनुमितिरपि नोत्पद्यत इति वाच्यं। अनुभवविर भादिति भावः । 'नोपलक्षणमिति न तु तत्पुरुषोयत्वाद्यविशेषि मनविरुतात्यासत्त्या अनुमितिजनकमित्यर्थः, भट्टाचार्य्यमते च 'ना मार रजा कालिकसामानाधिकरण्यमात्रात्यासत्त्या कारणमित्यर्थः
• रत्तेरिति पक्षे माध्यनिश्चयदशायामनुमितेरव्यावर्त्त तिबध्धदानीमपि पुरुषान्तरोयसाध्यसन्देहसम्भवादिति * परासन्दिग्धमाध्यकस्थले परामर्शपूर्वं तदुत्प
धनुमित्यनुदयापत्तिश्च तत्र पुरुषान्तरीय'विर्घायध्यं ।
संशय पक्षे माध्यनिश्चयः बाधकप्र
तर
'पकाम
Page #429
--------------------------------------------------------------------------
________________
पक्षता।
सत्त्वेऽति सत्वात्। नाप्यभावइयं तथा, बाधकप्रमा|भावस्य व्यर्थत्वात् इदादेः पक्षवेऽपि बाध-हेत्व
यादेरावश्यकत्वेनानुमित्यनुत्पादात्। नापि साध
णं पक्षे साध्याभावनिश्चयः तदभाव इत्यर्थः, न तु वुणप्रत्ययाविवक्षितः, तथा मति सर्वत्रानुमित्यात्मकमाध्यनिश्चयजनकप्रमायानुमानस्य साध्य-तहाधनिश्चयजनकप्रमाणस्थात्ममनःसंयोगादेव वात् अनुमित्यनुत्पादापत्तेः । न च केवलान्वयिनि साध्याभावनिश्चयाप्रमिया तदभावस्य हेतुत्वासम्भव इति वाच्यं । खण्डशः
सेड्या अभावान्तरे साध्यतावच्छेदकावच्छिन्नप्रतियोगिताकलसम्बन्धेन माध्यभ्रमरूपस्य माध्याभावनिश्चयस्य तत्रापि सम्भवात् । न ३ तथापि बाधकप्रमाणपदस्य पचविशेष्यकमाध्याभावनिश्चयरूपबाधनिश्चयपरत्वे साध्यं पक्षनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगौति बाधनिश्चयस्थासंग्रह इति वाच्यं। तस्य भिन्नप्रकारकतया अनुमित्यप्रतिबन्धकत्वात् असंग्रहस्येवोचितत्वात्, तत्सत्त्वे क्वचिदनुमित्यु दस्य तदुत्तरं पक्षविशेष्यक-माध्याभावनिश्चयस्याप्युत्पाल वात् भिन्नप्रकारकस्य तस्थ प्रतिबन्धकत्वनयेऽपि वादिनिश्चयवत्तदसंग्रहे चतिविरहाच्च । न हि । भावः पक्षतायां निवेशनीयः।
केचित्तु 'बाधकप्रमाणपदं यथोकर प्रतिबन्धकाभावकूटस्य हेतुत्वेन । क्षतावच्छेदकविशिष्टविशेष्ठ
Page #430
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामो
कप्रमाणाभावः, “श्रोतव्यो मन्तव्य इतिश्रुत्या सम प्रते नविषयक श्रवणानन्तरं मननबोधनात् प्रत्यक्षदृष्टेऽएमित नुमानदर्शनात् एकलिङ्गावगतेऽपि लिङ्गान्तरेण तदमन्द
पमा रोधिनिश्चयत्वेन वा अनुगमनीयं बाधनिश्चयाभाववत् माध्यामा व्याप्यवत्तादिनिश्चयाभावस्थापि पक्षतायानिवेशे चतिविरहात्, तह वृत्त्या वा विरोधिता निवेशनौया इत्याहुः ।
'माधक-बाधक-मानाभावपदेन तदुभयत्वावच्छिन्नप्रतियोगित काभावो विवक्षितः, प्रत्येकधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावदयं वा विवक्षितं, तत्र नाद्य इत्याह, 'तदुभयेति, तथाच केवलसिद्धिसत्त्वे बाधकाभावमादाय पक्षतामत्त्वादनुमित्यापत्तेरिति भावः । नान्य इत्याह, 'नापीति, ‘यर्थत्वादिति अनुमितित्वावच्छिन्नं प्रति जन कताकल्पनाया व्यर्थत्वादित्यर्थः । ननु हुदो वहिमान् धूमादि त्यादावनुमितिवारणायानुमितित्वावच्छिन्नं प्रति तज्जनकत्वमावश्यक नाह, 'हूदादेः पक्षत्वेऽपौति हूदादेयंत्र पक्षवं तत्रापौत्यर्थः, "पदिति साध्य हेत्वादिविशिष्टबुद्धिसामान्यं प्रति अवश्य
प.
___
____ -- --- ------- ----- - - - - -
१रयते, यात्मा वारे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्या'यः । अस्या अर्थः मुमुक्षणा यात्मा मुमुक्षोरात्मपति यावत्, यात्मदर्शनोपायः क इत्याह, श्रोतव्य
गब्दक्रमस्यतो भवति अग्रिहोत्रं जुहोति या पाच श्रवण-मनन-निदिध्यासनानि तत्त्व
मम्मत।
Page #431
--------------------------------------------------------------------------
________________
यनता।
४२३
मानाच मन्तव्यश्चोपपत्तिभिरिति सारणात्(१) । अथ सिपाधयिषितसाध्यधमा धम्मों पक्षः तथाहि मुमुक्षाः शब्द मावगमेऽपि मननस्य मोषियत्वेन सिवि
क्लप्तप्रतिबन्धकवादित्यर्थः, ‘हेत्वमियादेरित्यादिपदात् धूमवान् वहे. रित्यदौ व्यभिचार-व्याप्यत्वाभियादः परिग्रहः, 'नापौति, ‘साधकमाणं' पचे माध्यनिश्चयः, प्रागुनयुक्तः, 'समानविषयकेति प्रात्मशेयकात्मेतरभेदप्रकारकशाब्दवोधनानन्तरमित्यर्थः, . . (द. आत्मामी नाध्यकानुमितिबोधनादित्यर्थः । दू न्तरमाह(२), 'प्रत्यक्षदृष्टेऽपौति प्रत्यक्षतो निश्चितेऽपौत्यर्थः, 'अर नदर्शनात्' अनुमित्सया अनुमितिदर्शनात्, 'तदनुमानाच्चेति । धयिषया तदनुमानाञ्चेत्यर्थः । नन्वेकलिङ्गावगतस्य लिङ्गान्तरे मितिरमिद्धेत्यत आह, 'मन्तव्यश्चेति आत्मन्यात्मेतरभेदोऽनु व्यश्चेत्यर्थः, 'उपपत्तिभिः' बहुभिहेतुभिरित्यर्थः, अन्यथा बड़ा नुपपत्तेरिति भावः। 'मिषाधयिषितेति सिषाधयिषिता धर्मा यस्य पुरुषस्य स सिषाधयिषितमाध्यधर्मा धर्मन्निति धर्मशब्दस्य धर्मनादेशात् एवम्भूतः । पक्षतावान् इत्यर्थः, धर्मपदश्च स्वरूपकथ
(१) श्रोतव्यः श्रुतिवाक्येभ्यो मन्तव्या
रते दर्शनहेतवः ॥ इति म (२) प्रात्यक्षिकसियभावमा
Page #432
--------------------------------------------------------------------------
________________
विशेषानुमितो श्यामानुमानम्, अपनत्व प्रत्यक्षरि
पालतमाध्ययमनुमान समसन सबरसिक,
.
"
:".
.
ROMAN
Triu
.
.
. . HowKALAKE
पदावहिनिमित्तबाभावे पपशानिहत्वापि कतिविरक, तान त्यिक तमाश्यक नित्पुरुषोया इभिनिगोचरेका सत्पुश्षीय
मायकादमिती पक्षातः नेमान्यसाध्य कानुमितौछामा । हिमालखाने मानिप्रश्वाः, तत्पुरुषोथलेमासुमिनियो । अन्यपुरुषोयतादृशानुमितिविषयकैतत्पुरुषोयेच्छामादाय नाति धिकरणतादृशेच्छामादाय नातिप्रम कार्य. 'रणमा प्राञ्चस्तु सिषाधयिषितं माध्यं धो यस्य एवम्भूतो धर्मों पक्ष इत्यर्थः, गच सिषाधयिषितमाध्यवत्त्वं पचत्वमिति फलितं, अत्र पक्षपदप्रत्तनिमित्तत्वेऽपि अस्य न चतिरित्याः । तदमत्मपचेऽतिव्याप्तेः धितमाध्यकेऽव्याप्तेश्च पक्षताया अनुमितिकारणत्वेन अतौतादौ
नुमितेरभावापत्तेश्च । पर्व ने पूर्वीकाव्याप्तिं निरस्थति, 'तथा हौति तथाचेत्यर्थः, वारत्रात्मन्यात्मेतरभेदनिश्चयेऽपि, ‘मननस्य' श्रात्म
भेदज्ञानस्य, 'मोक्षोपायत्वेन' मोक्षोपायत्वज्ञा* सम्पादितं, 'मिद्धिविशेषेति अनुमितिविपत्मनि श्रात्मेतरभेदानुमानं, 'श्रत एवेति ६ एव वाचस्पतिवचनयोरविरोध इत्य
7 इत्यर्थः ।
Page #433
--------------------------------------------------------------------------
________________
इष्टे चौत्कारेण तमनुमिमतऽनुमातार रात
न्तेि' · जानन्ति, सन्प्रत्ययार्थस्थाविवक्षितत्वात् तदर्थस्य
रोधासम्भवात्) । 'त' करिणं, 'अविरोध दति, अन्यथा उकलितमित्यनेन प्रत्यक्षकलितस्याप्यर्थस्यानुमितिरित्युक्, 'न हि
वचनगतविरोधस्तु विरुद्धार्थप्रतिपादकत्वं, अत्र वाचस्पतिवचनयोः प्रत्यक्षविषयत्वविशिष्टरूपैकधम्मिणि अनुमितिविषयत्व-अनुतिवि.
रूपयोविरुद्धयोरर्थयोः प्रतिपादकत्वेनैव विरुद्वत्वं सर५५त, सन्प्रत्ययार्थस्य विवक्षितले सनः खतन्त्रकम्मतावादिमते बुमुत्सन्तइत्यनेन अनुमितीच्छावन्त इत्यर्थः, 'अनुभिमत इत्यने नानुमितिमन्त इत्यर्थी लभ्यते तथाच प्रत्यक्षविषयत्वविशिक अनुमितीच्छाविषयत्व-अनुमितिविषयत्वाभावरूपयोरविरुद्धार्थ प्रतिपादनेन विरुद्धार्थप्रतिपादकत्वरूपो विरोधो न घटते बात खतन्त्रकम्मतावादिमतमनुसृत्य मथुरानाथेन सन्प्रत्ययार्थ तन वक्षितत्वमुक्तं । जगदीशेन तु सनो न खतन्त्रकम्मत्वं अपिर ..... धातोः कमत्वमेव सनः कम्मत्वं इति वादिमतमनुसृत्य सन् विवक्षितः, तन्मते सनः स्वतन्त्रकर्मत्वाभावेन अनुमिति नुमित्माविषयत्वं तथाच प्रत्यक्षविषयत्वविशि) स्वनुमितिविषयत्वाभावरूपयोविरुद्धार्थयोषा र्थस्य विवक्षितत्वेऽपि न विरोधयाना दिभिः गगनं दिदृक्षते रह तु मूलधातोः कर्मत्वमेव । . पन्तनौयं ।
Page #434
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाचस्पतिवचनयारविरोधः अनुमिमा-तबार दुपपत्तेरिति चेत्। न। सन्देहवत्यरामर्श नकार
करिणि दृष्टे इत्यनेन प्रत्यक्षकलितस्यार्थस्य नानुमिति । वचनदयस्य विरोधः स्यादिति भावः । अविरोधमुपपादया। 'अनुमित्मेति, 'तदिरहः' सिषाधयिषाविरहः, 'तदुपपत्तेमि बचमयोरुपपत्तेरित्यर्थः, अनुमित्मामत्त्वदशायां 'प्रत्यक्षकलितमित्त अनुमित्माविरहदशायां 'न हि कारणौत्युक्तमिति विशेषादि भावः । “सिषाधयिषाया इति मिषाधयिषाया " चित्रे प्रभावादित्यर्थः, : यत्रादौ सिषाधयिषा ततो व्याप्तिस्मरणदि तितो व्याप्तिप्रकारकलिङ्गज्ञानं ततः परामर्शः ततोऽनुमितिस्तचेति तविः । ननु सिषाधयिषायोग्यता पक्षता वाच्या सा च भिषाधयिषाधतमाश्रयस्तीत्यत पाह, योग्यताया इति, 'अनिरूपणत्' निरूपयितअनुमितेरभः । ननु तत्रापि परामर्शोत्तरमनुमितौष्टसाधनताज्ञा
ने पूंमत्मा ततः परामर्शान्तरं ततोऽनुमितिः, अथ वा पराम. तणात्मकानुमितौष्टसाधनताविषयकपरान्तिरं ततोऽनुएनुमितिरिति फलबलात्कल्पनौयमित्यत आह, 'सिषाध में मनपरामर्शस्तस्य कारणं यो व्याप्तिस्मरणदिस्तद मनि श्रावुभुत्सितशत्रुसम्पदादेरित्यर्थः, तथा एव वाचरस्याः कारणत्वसम्भवः, न च व
र इत्यर्थः
ठःख. ग.
..'
Page #435
--------------------------------------------------------------------------
________________
माधिरहेऽपि धनौँर्जतेन मेधानुमानाब
HEATRE
पक्षक-तत्माध्यक-तलिङ्गक-तत्पुरुषौवानुभितीच्छामात्र लोबलादृशानुमितौ पचता वाच्या, तथाच भगवदि कामादायैव ।
निरिति वाच्यं । तथा मति भगवदिच्छाया मित्यत्वेन । त्यामपि पचताप्रसङ्गाल । नन सिद्ध्युत्तरा मितित्वमन्याः । मच्छेदकमतो नोक्रम्यले व्यतिरे कव्यभिचारः तत्र सिद्धिवि। निय सरानुमितित्वञ्च स्वममानाधिकरणत्वे मनि व्यवहिन सह त्वसम्बन्धेन सिद्धिमदनभितित्वं, स्वाध्ययनितो सच क्षणीय धारणं, तच्च अधिकरणमुखवृत्तिवे रनि स्ववृत्तिपागभावअति
गत्वं श्रधिकरण वृत्तित्वद्वयन कालिकविगोषणतया बोध्यं तेन । पुद्धिरणो यत्तिक्षणोत्पन्नानुमितेर पि भंयक्षः, संसारमान वन दितिक्षा यावश्यं कुत्रचित्मुखोत्यादात्मुख क्षणदयमात्रस्यास्तिथा । भितरजातामितेने मंग्रहः, न च स्थापि सिषाधा माया अन लतया न कारणबमम्भवः, यादृशयादृशेच्छामवे सिर सत्त्वेऽनुमितिस्तत्तदिच्छाभावकटत्वावच्छिन्नाभावलेन कार वैवं सिषाधयिषाभत्त्वे सियमत्वेऽपि भिड्युगानुमित्या पौमत्त्वादिति वाच्यं । मियुत्तरानुमिनि प्रति (१) अथान सिमाधायाः सत्त्व : मुभितिशपारितो तत्कार भावविभावरी नद
Page #436
--------------------------------------------------------------------------
________________
मारवाधाननीयलिङ्गपरामर्शयलेनानक मानदर्शनाच। बचतस्तु भिड्युत्तरानुमितित्वं न कार्यतावच्छेदक अपि तन दिशाभावकूटवावच्छिन्नाभावोत्तरानु मितित्वमेव कार्यतावच्छता नदवच्छिन्नच नच जायत एव इति नापत्तिः। न च तथापि पर्व विषाधयिषा नास्ति सिद्धिश्च वर्त्तते तत्र सिधाधयिषाभावकूटबरवैच्छिवाभावोत्तरानुमितेरनुत्पादेऽपि अनुमितिसामान्यापत्तिईवारा सामान्यसामग्रीमत्त्वात् तदनुत्तरानुमितौ भामय्यन्तरकल्पना दिति वाच्च। तदनुत्तरानुमितावपि मियाभावस्य हेतुत्वकलामादिलिए मेवं । गुरुतरकार्य-कारणभावद्धयप्रमात सुख-दुःखेछा-देष
एकविधानुमिलथैवानुमितिजागते व तदिच्छायति वन इशायाः प्रवेशानुगततया तादृशेच्छात्वनैव हेतुतया तत्रैव सिद्धमत्वदशायां सिड्युत्तरानुमितिरापादिता । वस्तुतस्तु यत्रादौ वशिव्याप्यवान् वद्रिक स्थाप्यव्याप्यवांश्चेत्याकारका पाामर्थः ततोऽनुमितिक यतामिदीश सतो बाहानुभिधात्मकवशिवाप्यानुमितिः त महानुमित्वनारं सत्र प्रथमानुमितिसमये मित्तरानुमिन्याया। सिद्धिसत्त्वे
यानमिशिगमनात् तदिच्छाव्यतः कारंगत्वस्यावश्यं वाय.
मतौ सिपाथिषयाः, सिड्यनुसरानुमितो मियभावस्य . सानुमितिभिन्नत्वे सति सिड्यनुत्तरानुमितिभिमाया " হ্মানালিলিহ্মাহফনাৰঞ্জৱিঝা যা
नसत्त्वस्य सोत्पत्तौ नियामकलाप -"কিনাঘদিহিনি ঝিম
..
.2
Page #437
--------------------------------------------------------------------------
________________
.
PAHIानामेव क्षणयमाविम्यार्थिनी वि
नामेवोत्तरत्वानुत्तरत्वघटकत्वेन चतुर्दशकार्यन च स्वध्वंमाधिकरणसमयध्वंसाधिकरणव(२
3
-
र यसमगधमानधिकर गत्वे सति खाधिक समय:
क्षणोत्पत्तिकत्वमेवाध्यवाहितीत त्वं तेन के इसपमा MRANA-सिडिनाश क्षणोत्पन्नानुभियोः यथाश्रुतला
হয় নি বিষাধিক লাঞ্ছিনীলন पार न क्षतिः : ययात्र ध्वंगादिघटितभुत्तरत्वममुत्ता
चोड़ा कारणभावा बापादयिताचा सका। काय-कारभावा प्रति ! न । अश्य हतोत्वस
यस्य कार्यतावच्छेदकतापने वश्यंगदिघटित्यवाद साप मुखादिघटिल व्यवहितोता त्यापेन्हया गुगलयं तम्या शाक । नचाव्या हतोत्तरत्वमम्बन्येन निद्विमित्वस्य का नास कसाया कथं तमिन '' इति वाच्यं । सिदिमझेदव्यक्तरेकले 4 विवेन कार्थता दक्षतया सत्पतियोगितावच्छेदकसम्म और पाकिश्चित्कर त्यान् । सिद्धिवैशियस्य नानात्वात् तामशेष कासगावच्छेदकात्वस्थ वक्त में कात्वादिति । वसनन गरी का बच्छेदकतावटक.वं स्वीमियने, खाण्व विfal TITप सच्छते, अभावपतियोगितापच्छोदका सपन्य न लौकिय ते तथाच सादिक - सिदिमझेदप्रतियोगितावादकता
घटित व्यवहितोत्तरत्व र
CELESH
*
Page #438
--------------------------------------------------------------------------
________________
इति श्रीमहङ्गेशपाध्यायविरक्षित ६ अनुमानास्यदितोयखण्हे पक्षलापूर
। मलि स्वाधिकरणममथध्वंमाधिकरणत्वमेवायदानोतरत्वं व मा. मुखाद टिलमिलि वाशं। तथापि प्रत्य मुखादिघटित
समादाय विनिगमकामावन .पणकार्य कार या पारवान् मरोरगौरवस्थाधिकल्लादितिनगर्वः।
श्रीमथुगनायतर्कवागोश-तिरचिते न दन्तामणिरभार अदि गैया पूर्वपक्षरम्यं ।।
करसत्वे सलि मध्यसाधिकालमा प्रात्यहिनोत्तरय विनर ने र सामनन्य वधि: समयमाधिक मणत्व पाननिय को सय । चेत् । न तु तशामको विद्यमानस्य का पालन । मस्त मानावर कासयन ताव मिलाव्यवहितात व रम्बन लि.
शिया !. Viय कम सिसाया पेक्षाया। या मान मतश: तत्रानुमितिम स्यात् तमिले। गो.' 'हतोता सम्बन्धन सिसिविशियान्यत्वेन मियभावमा लोमान्तवा, अम.न्म ते तु उस्मानुमिति यः साति
म त्वांटनायर्वाहनोत्तरत्वमम्बो मिहिक
काबरकाकान्तायगिति नानु पत्तिः । '{0-লষনা লিলুদ সন্ধৗম্বী ' নন-লমনিধি নিযমিকা
Page #439
--------------------------------------------------------------------------
________________
- अथ रक्षतासिद्धान्तः ।
उच्यते सिधाधयिषाविरहसहक्षतसाथकप्रमाणामालो यनास्ति स पश, लेन मिपायपाविरहसहकृतं साधकप्रमणं यत्रास्ति स न पशः, यत्र साधकप्रमाणे
. यूथ पक्षनामि रकम् । - 'मिषाय भनि, 'निषायपाकिर हम हात परिविधि शत् 'माधान मानश्यः, नरभावा या पुरुष ! पः पचपदपारमायाविषयतावादकानामति समाज का , तथाच विषमतावशेषमम्बन्धेन ममवायमश्वमा छन् নারূশিক্ষাখনামানুল মুমিনিন সমিন ? লি। अनुभितिजनक साम्य पक्षपदप्रतिनिमित्तलाभावेन प्रात्यनिष्ठत्य हतिविरहान, यक्षपदप्रनिनिमित्तत्वमतेऽपि वकायममधन वृत्तिनिमिनायाभवापसम्बन्धन प्रान्नानिष्टले यि क्षति
कार्य) नावच्छे कोत्तर नशिब शो यर्थः स्वध्वंस साम अग्यात् इति घं। तथा मसि । विक र मास्वटिसियतः त्वाम चिना कला कारण नत्वात् खमते खान for दावचिकनानुमिति विसावनौर: ।
Page #440
--------------------------------------------------------------------------
________________
सत्यसति वा सिपायिषा थच कोमा विशिष्टाभावात् पवावं । यद्यपि पनत्वम्य विजयी थित्वात् नास्य भेदकान्वं, तथापि पक्षपदार मिक्तमुक्तम् । ..इति श्रीमहङ्गेशपाध्यायविरचिते तवलिया
हितोयखरहें पशतासिद्धान्तः ।
EASCE
टीभविष्यति । श्रात्मनिटत्वाभिमान त्रिपाली विसिक माना गयपत्याभन्या हेतुलयोध- १४, पदम अधार मन को तय मनि मासकमामा कि
माणस्थानमामिल: पूर्व मन्दात रक: विमः . . भतिने स्मात् । न पान मत कगिडूजन काभानो पार.. मुंमित्यनारनधि पजतापाताः । न च माधमा सन् निश्चयमाद” योर यायनान् म
निश्चयावाति वाच्या दृष्टवाल, 14 'क्षमा या शिवभकतया अनुभवात् ।। पद विन प्रत्यक्ष या कायदर्शनादलो। मकाया । स. एंथ सान्यवं पति अनुमितमामाया प्रतिक ।
नम्नस्त मंश्योत्तर व्याप्य भयो । - स्थाणुयादिप्रत्यक्ष का
पलताया : म
गाँ' En
Page #441
--------------------------------------------------------------------------
________________
पक्षता।
१३९
श्रदर्शनस्य संशयोत्तरप्रत्यदनिश्चयहेतुतापा बहुधा निराकृतत्वात्
येत नापं । वैशिष्यच्च एककालावच्छेदेन एकात्मवृत्तित्वं, विशिष्टाभावनामावहितपूर्वसत्तायाः अपेक्षितत्वेन कालान्तरोयसिषाधयिषापरमादाय सिषाधयिषामत्त्वेऽपि सिद्धिसत्त्वे नानुमित्यनुदयप्रसङ्गः। समय विशिष्टाभावो मननस्थले सिषाधयिषाविरहरूपविशेषणभाबाद धनमर्जितेन मेघानुमानादौ माध्यनिश्चयरूपविशेष्याभावादेबाल नागाप्तिः । यत्रानुमित्मानन्तरं माध्यनिर्णयात्मकः परामर्शस्ततोऽमितिः तत्र पक्षतासम्पत्तये विशिष्टान्तं माधकमानविशेषणं, धनगन्यादौ पक्षतासम्पत्तये विशेष्यदलं। सिषाधयिषा च तत्माध्यविभिनय चविषयकत्वाकारिकानुमितिविषयिनौच्छा ग्राह्या यबिहारज्ञानं जायतामितौछायामपि(१) सिद्धिसत्त्वेऽनुमित्यन ' अनुमितित्वाप्रकारिकायामपि प्रत्यक्षाद्यतिरिक्त पर्वते
मान जायतामितीच्छायां सिद्धिसत्त्वेऽनुमित्युत्पादाच्च । एवं (१) कवन द्रव्यगोचरज्ञानं जायतामितीच्छायामपोलार्थः, तेन ज्ञानं जतामितीच्छोत्तरं सिद्ध्युत्यादे विषयसियनुपहितत्वविशेषणस्य .
यं निवेशनीयत्वादेव तदिच्छावारणं सिझ्युत्तरन्तु तादृशेच्छा न सम्वति ज्ञानमावस्यैव ज्ञानत्वप्रकार केच्छाविरोधित्वादिति नासr: । न च ज्ञानं जायतामितीच्छव कथमुत्पद्यते इच्छां प्रति यभाधनताज्ञानस्य कारणत्वेन इच्छायाः पूर्व इसाधनताज्ञानस्य
वायापेक्षणीयत्वेन ज्ञानत्वप्रकारकेच्छाप्रति धकसद्भावादिति वायं। सर्मिकेटसाधनताज्ञानादिव तदभावधा मकद्वेषादपि तदिच्छोत्पादस्य सर्वानुभवसिद्धतया ज्ञानाभावधर्मिक देषात् ज्ञानत्वप्रकारकेच्छोत्यादसम्भवादितिः।
Page #442
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०
तत्वचिन्तामो
थाप्रथामेछासत्वे मिडौ मत्थामनुमितिस्तत्तदिशाभावसमुदायएवावच्छेदकः(१)। साध्यनिषयवानुमितिसमानाकारी पाथः तेन पाषाणमयवादिना पर्वते तेजस्खादिना चवळ सिहावपि पर्वतत्वेन पर्वते वशित्वादिना वयाद्यनुमितिरिति भावः । अत्र व सिषाधयिषाविरहकूटादौनां परस्परं विशेषण विशेष्यभावे विनिगमकाभादर्ण-कारणभावापत्तिः तदिपरोतज्ञानादेः प्रतिबन्धक
मत्यतमिद्धान्ारहस्योतदिशा निराकरणैया)।
लक्षणं सिद्धिधर्मिकयव्यदप्रामाण्यवानसत्त्वे सिद्धिदशासुमितिस्तत्तदप्रामाण्यज्ञानाभावसमुदायस्यापि सिद्धौ विशेषणत्वं माध्यं तेनाप्रामाण्यज्ञानासन्दितसिद्धिसत्त्वे नानुमित्यनुदयप्रसङ्गः । एवं यादृश्यादृशेशसत्त्वे इत्यत्र ययदिच्छासत्त्वे इत्येव वक्तव्यं, अन्यथा यादृश्यादृशेत्यनेमानुगतरूपेशेच्छाया उत्तेजकत्वे यत्र सिंड्यात्मको बडिमाचपरामर्शः तत्रानुमितिनीयतामितौशयामपि वकानुमित्युत्पादात् अनुमितित्वप्रकारके छात्वेन उत्तेजकतया यत्र सिद्ध्यात्मको पहिसाध्यकपरामर्श एव द्रव्यत्वादिसायकसिदनात्मकपरामरूपतत्राप्यनुमिति यतामितीच्छायां वङ्गानुमित्यापत्ति प्रकारान्तरेणासम्भवत्सविषयसिद्धिकानुमित्माया रव निश्चितार्थगोचरज्ञानजनकत्वनियमात् तत्र वकानुमित्युत्पादस्य सर्वानुभवविरद्ध
वादिति । (२) तथाच खले कपोतन्यायेन तत्तदिच्छाविरहव्यक्तीनां युगपदेव सिद्धि
विशेषणत्वात् नेशविरहव्यक्तीनां विशेष्य-विशेषणसावे विनिगममाविरहादनन्तकार्य-कारणभावः, खले कपोतन्यायव "बडा यवागः शिशवः कपोताः खले यथामी युगपत्पतन्ति । तथा तथामी युगपत् पदार्थाः परस्परेशान्वयिगो भवन्ति । इति ।
Page #443
--------------------------------------------------------------------------
________________
पहता।
नन्यस्य विशिष्टाभावस्थानुमितिजनकल्ले किमानमित्यतोऽवय-स्थतिरेको तत्र प्रमाणयति, 'तेनेति प्रस्थानुमितिजनकत्वेनेत्यर्थः, 'सन पक्षः' म न पचपदपरिभाषाविषयतावच्छेदकानुमितिजनकधर्मवानि. त्यर्थः । व्यतिरेकं दर्शयित्वाग्वयं दर्शयति, 'यति, ‘साधकप्रमाणे माध्यमियये, 'उभयाभावः' सिषाधयिषा-माध्यनियययोरभावः, चिति, प्रथमे केवलविशेषणाभावकतो द्वितीये विशेषण-विशेष्योभयाभावतस्ततोये च केवलविशेष्याभाववतो विशिष्टाभाव इति भावः । 'पक्षत्वं' अनुमितिमत्त्वं, 'पक्षत्वस्थ' पक्षपदवाच्यत्वस्य, 'भेदकत्वं' पक्षपदवाच्येतरभेदमाधकत्वं, तदितराप्रमिद्धेरिति भावः । 'पचपदप्रवृत्तिरिति पक्षपदप्रवृत्तेरनुमित्युत्पत्तेनिमित्तं कारणमित्यर्थः । यहा पक्षपदस्य प्रवृत्तिः प्रक्रियेन रूपेण इति व्युत्पत्त्या 'पक्षपदप्रवृत्तिः' पक्षपदशक्यतावच्छेदिकानुमितिः, उद्देश्यतासम्बन्धेनानुमितिमत्त्वमेव पक्षपदशक्यतावच्छेदक, तत्र निमित्तं कारणमित्यर्थः, तथाच नेदमितरभेदसाधकं अपि तु अनुमितिकारणमिति भावः । अथ वा पक्षपदप्रवृत्तिनिमित्तं शास्त्रकारीयपक्षपदपरिभाषाविषयतावच्छेदको धर्म इत्यर्थः । । प्राञ्चस्तु ‘पक्षपदप्रवृत्तिनिमित्तं' पक्षपदशक्यतावच्छेदकमित्यर्थः, पक्षपदस्य नानार्थतया माध्य-पक्षभेदेन सिषाधयिषा-माध्यमियययोर्भदादपि न चतिः। न चैवं पर्वतो वणिमानित्यनुमितौ घटादेरपि पचव्यवहारप्रसङ्ग इति वाचं। निश्चयनिष्ठविशेष्यतासम्बन्धेन प्रतियोगितावच्छदकत्वस्य शक्यताव छेदकतानियामकसम्बन्धत्वेनातिप्रसङ्गविरहादित्याज।
Page #444
--------------------------------------------------------------------------
________________
वावचिन्तामो
अब प्राभाकराः प्रत्यक्षादिवदनुमितावपि पचता न देता गौरवान्मानाभावाच विषयान्तरसञ्चारादिविरहे परामर्शदिसत्त्वे च धारावाहिकप्रत्यक्षवदनुमितिधाराप्युत्पद्यत एव किन्तु परार्थानुमानएव सिद्धसाधनमर्थान्तरविधया दूषणं। न चैवं लिङ्गोपहितलैङ्गिकभाननयेऽनुमित्यनुव्यवसायानुपपत्तिः अनुमितिमामय्या बलवत्वेन १) अनुमितिधाराया एव उत्पत्स्यमानत्वात् इति वाच्य। स्विङ्गोपहितलैनिकभानस्य मानाभावेन सुदूरपराहतत्वात् । अथ तथापि मिद्धेरप्रतिबन्धकत्वेऽविनम्यदवस्थतत्तत्परामर्शदुत्पन्नानुमितिव्यक्तयः पुनः कथं नोत्पद्यन्ने(२) । न च तत्तदनुमितिव्यक्ति प्रति तत्तत्प्रागभावव्यकौनां विशिष्य हेतुतया तत्तदनुमितियक्रौनां विशिष्य प्रतिबन्धकतया. वा उत्पन्नानां न तामां पुनरुत्पाद इति वाच्यं। अनन्तकार्यकारणभावकल्पनामपेक्ष्य लाघवात् सिद्धेः प्रतिबन्धकत्वस्यैव युक्तत्वात्। न च सिद्धेः प्रतिबन्धकत्वेऽपि सिषाधयिषाविरहवैशिष्यस्य तत्र. विशेषणत्वावश्यकतया यत्र मिषाधयिषा ततोऽनुमित्यात्मकमियात्मकः परामर्शस्तत्र तदनुमितिव्यक्तः पुनरुत्पादप्रसङ्गो दुर्खार इति वायं। सिषाधयिषा-परामर्शोभयकालौनानुमितिव्यक्तिषु तत्तत्प्राग
(१) भिन्नविषये अनुमितिसामग्राः प्रत्यक्षसामग्रीतो बलवत्त्वमिति
भावः। ..(२) तथाच यो यत्सामग्रीमान् क्षणः स तदुत्पत्तिक्षणोत्पत्तिकध्वंस
प्रतियोगौ इति नियमात् तत्तदनुमित्युत्पत्तिक्षणे यदि तत्तदनुमितिसामग्रीमान् स्यात् तदा तत्तदनुमित्युत्पत्तिक्षणोत्पत्तिकवंसप्रतियो, गौ स्यादित्यापत्तिरिति समुदिततात्पर्य ।
Page #445
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३७
भाषव्यतीनां विभिव्य हेतुत्वस्य तत्तदनुमितियकीनां विशिष्य प्रतिबन्धकत्वस्य वास्माभिरभ्युपगमात्(१) । न चैवं सिद्धेः प्रतिबन्धकवे किं
(२) चात्र तदिच्छाव्यरत्तेजकत्वाकल्पनादेव न तस्याः पुनरुत्पादप्रसङ्ग
इति वाच्यं । तदिच्छाव्यक्तरनुत्तेजकत्वे अनुमित्यात्मकपरामर्शस्यैवा. नुत्पादप्रसङ्गात् तत्कारणीभूतस्य परामर्शस्य सियात्मकत्वात् तस्य सियमात्मकत्वे सिधार्धायथाकाले तदनुमितेरत्पादप्रसङ्गात् । न च तथापि पूर्वोत्पन्नपरामर्शविशिलतदिच्छाव्यक्तः उत्तेजकत्वं कल्यमिति वाच्यं। अनुमितिइयं जायतामितीच्छाव्यक्तः तादूप्येण उक्ते. जकत्वासम्भवात् । रतेमात्र खविषयसियनुपहितत्वविशिलतादृशेच्छाविरहविशिलसिब्बेः सत्त्वात् न तत्र पुनरुत्पादप्रसङ्ग इत्यपि निरस्तं। अथात्र अनुमित्यात्मकपरामर्शव्यक्तः साध्यस्य साध्यव्याप्यस्य चानुमितिरूपतया तत्कारणीभूतस्य साध्यव्याप्यवत्त्वनिश्चयल्प. परामर्शस्य विरहादेव म तदनुमितेः पुनरुत्पादप्रसङ्ग इति । न च सिपाधयिषापूर्वोत्यन्नपरामर्श रवापेक्षाबुद्धिरूपः तत्र तत्परामर्शस्य क्षणत्रयस्थायितया पनुभित्यात्मकपरामोत्पत्तिसमयेऽपि सत्त्वेन अनुमितेः पुनरुत्पादप्रसङ्ग इति वाच्यं । उक्तस्थले तादृशपरा. मर्शचतुर्थक्षणे अनुमिवेरुत्पादेन तादृशपरामर्शस्यापेक्षाबुद्धिरूपत्वे मानाभावात् चतुर्थक्षणे हित्वादिप्रत्यक्षानुरोधेनैव क्षणत्रयस्थायित्वरूपापेक्षावखौकारात्, एवं वादृशबुद्धेरपेक्षाबुद्धिरूपत्वे धनुमितेः परामर्शत्वोत्कीर्तनवैफल्यापत्तेः। एतेन ज्ञानेच्छयोर्योगपद्यखीकारे यत्र सिषाधयिषोत्पत्तिक्षणोत्पन्नपरामशीदनुमित्यात्मकसिद्ध्यात्मक परामर्णः तत्रैव तदनुमितेः पुनरुत्पादापरित्वपि निरस्त । इति चेदवाङः यत्रादौ वहिव्याप्येतरवाभाववान् पर्वतो वशिव्याप्यधूमबान इत्याकारकः परामर्शः ततः सिषाधयिषा तवो वकिंव्याप्ये.
Page #446
--------------------------------------------------------------------------
________________
ए
सावचिन्तामणा
लाधवमिति वाच्या सिषाधयिषाविरहकाशोनाविनश्यदवस्थपरामर्शजन्यानुमितिव्यक्तिषु तत्प्रागभावव्यकौना कारणवाद्यकल्पनादेव महालाधवादिति चेत् । न । सिद्धेः प्रतिबन्धकत्वाभ्युपगमेऽपि स्व-खानधिकरणेषु प्रात्मस तत्तदनुमितिव्यतीनां उत्पादवारणथ पूर्व-पूर्खानुमितिव्यत्युत्पत्तिसमकालं भाव्यनुमितियकोनां उत्तरोत्तरानुमितिव्यत्युत्पत्तिसमकालञ्च प्रतौतानुमितिव्यतौना उत्पादवारणाय च तत्तदनुमितिव्यक्तिषु पूर्व-पूर्वोत्पत्रतत्तत्परामर्शव्यकौनां विभिव्य हेतुत्वावश्यकतया तस्या एव उत्पत्तिसम्बन्धेन कारणत्वाभ्युपगमादेव उत्पत्रपुनरुत्पादवारणसम्भवात् । अथ तथापि यविषयविशेषपक्षकयविषयविशेषसाध्यिका एकैकानुमितिरेव एकैकपुरुषस्य जाता न तु तत्पूर्व तत्परतो वा तत्पक्षक-तत्माध्यकः परामर्शः अविनश्यदवस्थपरामर्शजन्यतत्पक्षक-तत्माध्यकानुमितिव्यकौनां उत्पन्नपुनरत्पादवारणाय लाघवात् तत्पक्षक-तत्माध्यकानुमितिं प्रति तादृशसिद्धः प्रतिबन्धकत्वमेव कन्ययितुं यु तचापि तत्तदनुमितियक्ति प्रत्युत्पत्तिसम्बन्धेन तत्तत्परामर्शादिव्यतविशिष्य हेतृत्वकल्पनेऽननाकार्यकारणभावप्रसङ्गादिति। न च ख-खानधिकरणेषु प्रात्मस तत्तदनुमितियकौना उत्पादवारणय तत्रापि तत्तत्परामर्थव्यतीनां । विभिव्य हेतुत्वमावश्यकमिति वाच्य। क्रिया-संयोगकार्य-कारणभा
तरवाभाववान् पर्वतो वडिव्याप्यवडिमान् इत्याकारानुमितिः तस्याः परामर्शरूपतया वदनन्तरं तस्याः पुनरुत्पादप्रसासम्भव. इति परिचिन्तनीयं ।
Page #447
--------------------------------------------------------------------------
________________
पाता।
वोकयुक्त्या समवाधिकारणव्यकौनां स्वखसमवेतसामान्य प्रति ताकित्वेन हेतुत्वावश्यकत्वादेव ख-खानधिकरणेषु धात्मस तत्तवातीनां उत्पादासम्भवादिति चेत् । न । तादृशविषयविशेषे मामाभावात् अन्यथा यविषयविशेषविशेष्यक-यविषयविशेषप्रकारिका एकैकप्रत्यशव्यक्रिरेव एकैकपुरुषस्य जाता न तु तत्पूर्व तत्परतो वा तदिषयविशेषयोः मन्त्रिकर्षादिः तद्विषयविशेष्यक-तदिषयप्रकरकप्रत्यक्षव्यकौनां उत्पत्रपुनरुत्पादवारणय तत्तविशेष्यक-तत्तत्प्रकारकप्रत्यर्थ प्रत्यपि तत्तविशेष्यक-तत्तत्प्रकारकमिद्धेः सामान्यतः प्रतिबन्धकत्वासजाम तचेष्टापत्तौ अत्रापि इष्टापत्तेः सम्भवात्, तादृशविषयविशेषानुमितौ पक्षताया हेतुत्वसिद्धावप्यन्यत्र तस्यास्तदसिद्धेश्व। वस्तुतस्तु प्रत्यक्षादौनामप्युत्पत्रपुनरुत्पादवारणय सामान्यतस्तादाम्यसम्बन्धेन कार्यत्वावच्छिनोत्पत्ति प्रति सत्तावच्छिनोत्पत्तिं प्रत्येव वा विशेषणताविशेषसम्बन्धेन कार्य्यमहवर्तितया समयसम्बन्धनाशत्वेन नासत्वेनैव वा प्रतिबन्धकत्वं क्लतं ज्ञानादिनाशस्य विषयवृत्तित्वे मानाभावात् अधिकरणस्थाविद्यमानतादशायामपि तत्र विशेषणतावि. शेषसम्बन्धेन तदभावो वर्त्तत एवेति न तद्दोषतादवस्थ्यं तथाच तत
(१) सर्वत्र कारणवं यदि काय्याव्यवहितप्राक्क्षणावच्छेदेन कार्याधि
करणहत्यभावाप्रतियोगित्वरूपं तदा श्येन-शैलसंयोगरूपकार्याधिकरणे शैले क्रियाया अभावात् क्रिया-संयोगकार्यकारणभावे व्यमिचारः अतः यथा तत्र कार्य्यतावच्छेदकावच्छिन्ना यावत्यः व्यक्तयः तत्प्रत्येकाधिकरणयलिचियक्तिरत्यभावाप्रतियोगित्वल्पं कारणत्वं . विवक्षणीयं तथा पत्रापोति न कुत्रापि व्यभिचार इति ध्येयं ।
Page #448
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामणी
एव उत्पन्नानुमितेरपि पुनरुत्पादासम्भवः । एतेन तत्परामादिश्यकरनन्तकार्य-कारणभावेषु उत्पत्तेः सम्बन्धत्वकल्पनामपेक्ष्य सिद्धेरतिरिकप्रतिबन्धकत्वकल्पनेव खघीयसौत्यग्रिमोक्र प्रत्युतमित्याः । तदमत् सिद्धेरप्रतिबन्धकवे परामर्शनिष्ठापामाखग्रहाभावस्य पृथगनुमितिहेतुत्वमते मियात्मकपरामर्भ मिष्ठतत्तज्ज्ञानत्वधर्मितावच्छेदककाप्रामाण्ययहाभावानामपि पृथक् हेतुत्वावश्यकत्वेन महागौरवापत्तेः। अन्यथा इदं ज्ञानं व्याप्यत्वाद्यंशेऽप्रमेत्यप्रामाण्यग्रहात्मक-सियात्मकपरामर्शदनुमित्यापत्तेः। न च तथापि यत्माध्यमिद्धिकालौनपरामशेषु न तत्तनानत्वधर्मितावच्छेदककाप्रामाण्यज्ञानं तत्र सिद्धेः प्रतिबन्धकवे मानाभाव इति वाच्यं । तत्रापि सिद्धेरप्रतिवन्धकवे विनाप्यनुमित्मां स्मरणदिरूपमियात्मकपरामर्शानन्तरमनुमित्यापत्तेः। न चेष्टापत्तिः, अनुव्यवसायविरहात् अनुव्यवसायस्यापि खौकारे अनुभवापलापात् अन्यथा शाब्दबोधादिकं प्रति आकाङ्गादिज्ञानव अनुमितिं प्रति परामर्शादेश्व गौरवादकारणवप्रसङ्गात् निराकाङ्क्षादिस्थलेऽपि भाब्दबोधादौ तदनुव्यवसाये च दृष्टापत्तेः सुवचत्वात् विशिष्टज्ञानं प्रत्यपि बाधादेः प्रतिबन्धकत्वविलोपप्रसङ्गाच्च । न च वहिव्याप्यधूमवान् वहिव्याप्यधूमव्याप्यवान् वहिव्याप्यधूमव्याप्यव्याप्यवान् इति समूहालम्बमपरामर्शानन्तरं परामर्शानुमितिप्रवाहस्य प्राभाकरनये अनुभवसाचिकत्वात् भवन्मतेऽपि कुत्रचिदनुभवापलापस्तुल्य एव गौरवं पुनरतिरिच्यते इति वायं। तत्र स्थलविशेषेऽनुमितिधारायाः प्रामाणिकत्वे मिषाधयिषावत् तत्तत्परामर्शव्यकौनां उत्तेजकमध्ये प्रवेशे चतिविरहात्। किञ्च मिद्यात्मकपरामर्श
Page #449
--------------------------------------------------------------------------
________________
पक्षता।
88
स्खलेऽविनग्यदवस्थपरामर्शजन्यानुमितिस्थले चाप्रामाणिकानातानुमिति-तत्यागभाव-तद्वंसानां कार्य-कारणभावकल्पनामपेक्ष्य लाघवात् पक्षताया एव हेतुत्वं कल्यते, प्रत्यक्षादिस्थले च धारावाहिकसाक्षात्कारादीनां प्रमाणसिद्धत्वात् गौरवमप्यास्थीयते। नर विषयान्तरसञ्चारादिविरहे।९) भवन्मतेऽपि अनुमित्यनन्तरमनुमितिसमानाकारमानमोपनौतभानोत्पत्तौ बाधकाभावानातिरिकव्यकिकल्पना ममापि अनुमितेस्तत्स्थलाभिषिकत्वादिषयान्तरमवारादिसत्त्वे च तत एव ममाप्यनुमित्यनुत्पत्तेरिति वाच्यं। अनुमित्युत्तरमनुमितिनिर्विकल्पकव्यक्तस्तदनुष्यवमायव्यतरेव वोपनौतभानानात्मिकाया उत्पत्तेतिरिककल्पनाभावात् निर्विकल्पकादियनेर्भवतापि खौकारादित्यास्तां विस्तरः ।
इति श्रीमथुरानाथतर्कवागौश-विरचिते तत्त्वचिन्तामणिरहस्ये अनुमानाख्यदितीयखण्डरहस्ये पक्षतामिद्धान्तरहस्यं, ममाप्तमिदं पक्षतारहस्य।
(९) मनसः मानसप्रतिबन्धकीभूतज्ञानादिसामग्रीसमवहितत्वविरह इत्यर्थः ।
Page #450
--------------------------------------------------------------------------
________________
अथ परामर्शपूर्वपक्षरहस्यं ।
'पक्षधर्मस्य व्याप्तिविशिष्टज्ञानमनुमितिहेतुः। ननु 'व्याप्यत्वावच्छेदकप्रकारेण व्याप्तिस्मरणं पक्षधर्माताज्ञान तथा लाघवात् परामर्शहेतुत्वेनावश्यकत्वाच्च एवञ्च धूमो वहिव्याप्यो धूमवांश्चायमिति ज्ञानहयादेवानुमितिरस्तु। न चानुमितिं प्रति व्याप्यत्वज्ञानमेव हेतुाघवात् उपजीव्यत्वाञ्चेति वाच्यं। तस्यानुमितेः पूर्वमसिचौ युगपदुपस्थित्यभावात् ।
अथ परामर्शपूर्बपक्षरहस्यं । अनुमितिलक्षणेककार्यानुकूलत्वसङ्गत्या(१) पञ्चधर्मतानिरूपणनकरं अनुमितिहेतुत्वेन पराम) निरूपयति, ‘पक्षधर्मस्येति, 'पक्षधबस्य' पक्षसम्बन्धस्य, 'याप्तिविशिष्टज्ञान' व्याप्तिविशिष्टे ज्ञानं पक्षबाप्तिविशिष्टोभयभिष्यावगाविज्ञानमिति यावत्, तदेवानुमितिहेतुरित्यर्थः, तेन पचविशेष्यकपरामर्श-शिविशेष्यकपरामर्शयोरुभपोरेवोपसंग्रहः, वकिव्याप्यो धूमः धूमांश्च पर्वत इति ज्ञानस्य मौमांसकनये अनुमितिजनकस्थासंग्रहय। पक्षतावच्छेदकावच्छिन्नविषयतानिरूपितमाध्यव्याप्यत्वावच्छिन्नविषयतामालिज्ञानमेवानुमि(२) अनुमितिरूपैककार्यकारिक्सङ्गत्येति ख ग ।
Page #451
--------------------------------------------------------------------------
________________
परामर्शः।
নিৰিনি ও মাআলিজ্জ:(২), নআ নামৰিনামাঝি
(१) पर्वतधर्मिकवानुमिति प्रति वशिव्याप्यधूमवान् पर्वत इति पर्वतবিল-ক্লিয়মুনসন্ধাৰলিয়ঃ বঙ্কিাযৗধুনঃ অব হনি আধঅবলল ঘৰহ্মান্ধ-বঞ্চিায়নবিন্ধলি ইবঃ নবি ঘনষিদ্ধ-বন্ধুিমহ্মান্ধলিল এক্ষিঅধুনৰিহ্মাধঘনালাচ্ছিল্প-অনাকানিমলল বুথ থে জাল নবা লিঙ্গবিম্বন্ধসমাঙ্গিনীহাসিবী সম্মিন্ধায় সন্ধাঞ্জনিযামি জাফলল অমি, যৰ অৰিহ্ম-আয়মহ্মান্ধমামলানিনী যিৰিঘমহামাসি ফাযল অমিথ্য অনঃ সৰিহ্ম-ঘামালিযীদানিনি মনি নায়লন স্কাল, যন্ত্র আবিষ্ট-অদমফাজলিযীলালিনি মনি আত্মবিঘ-অজামালিযন জাল য, না জানাবন্ধীতী জানাবজ্জবীতী অ আয়মানালিসিসমিনা: সমানালিমিনাযিনাআ জানলায় মগ্ন নি মীননী আমলাষয়িবিনালিমিনাহ্মাচ্ছিন্নবিষনায়ালিলিহীদামিনি মনি আসলাচ্ছিন্নবিষযনালিনিনাষাচ্ছিন্নবিষনায়খিলি অয়ন হয়লিনিই বৰ হৰ আত্ম-লীমৰয়িতাবাহিলিলাবলিজায়নামনিৰামিজহ্মানাঘতিনমিনিষ বী শ্রীনিদ্রা দ্বীন। ন প্র মীলাৰস্থিমিলল সীधूमस्य समवायेग धूमावयवे परामर्शात् संयोगेन धूमावयवे वरनुमि. त्यनुत्पादात् तत्सम्बन्धावच्छिन्नं यत् वहिण्याप्यत्वं तदवच्छिन्नतत्सम्बन्धाবচ্ছিন্নবিষয়লিথিন-বনানন্দ্রবাবঙ্কিল্পবিষযনালি-লিঙ্ঘলল জাযেলমষ বন্ধ, নম্বর বত্মিমুন অব মুনি মনীয়
Page #452
--------------------------------------------------------------------------
________________
নন্দিনাৰী
যঘিামাচ্ছিন্নবিনা আঘষাজীমুনীষামরিলৰিহা জঘ অৰিহ্মাম-লিবিমুম্বন্ধনীদৈ কলমিনি বাথ। ইনাৰবৰালৰচ্ছিন্নসন্ধানাभिमा या व्याप्यत्वावच्छिवविषयता तनिरूपिता या हेतुतावच्छेदकसम्बन्धाসন্নিায়মাবমিানসিল্পনাৰবাৰলিবিয়না মামিষনায়ালিলিহৰৰ অনিনি মমি ঈনুল শীষীষঃ । অফিসষা অৰম বুনি আলীয়াৰিক্সান্নিমুলমন্ধানা ইনানুক্রবন্ধকালাশমিজানাল অফিঘিমুলঃ অনবা বুলি মনীষালিবানুচ্ছিন্নয়নমহ্মাহনায়ঃ মীমাবচ্ছিলাম্বলালবচ্ছিন্নমঙ্গানাল লিবানীঃ নাকুয়ামনপ্রমীলাঙ্গালললল মাতৃত্মঘালমানিত্মানিঃ বঞ্চি আযমুনমন্ধা-অৱনবিষ্মকালীনলিভিয়ঘনাযাঃ ইনানুজ্জ
কালাচ্ছিল্লালাক্সিলামি মামাবৰিয ইনাবলাবচ্ছিন্নাঘাচ্ছিন্নসন্ধানশিল্পমন্থন, অমিঃ অব মুনি আশীৰমলিয়িনাহাঃ ইনাং
লালবচ্ছিন্নবি সানাবিহা বিষ-বিবিव्यकपरामर्शयोः सङ्गहः । न चैवमपि वडिव्याप्यधूमवत्पर्वतवान् देशমুনি আশীলিঙ্কা-বিঘুঘলযৗন ইনাষকলা চ্ছিল্লালাবন্নিসন্ধানতম্ভ নামানীনলিষিয় মাথা ব্যথা লায়লয়ানুমানাজানল নায়মানালিঅফিহিনি মা। অ সামালহালিমঝানা-য়িনী वजियाप्यधूमवत्पर्वतधान् इति चानीयवशिव्याप्यधूम-पर्वतत्वेतदुभयधলাচ্ছিন্নষনলিস্তানায় হত্ব ফিন্যাধুলমালালিমিনবি
ঘনাল অনললিস্তসন্ধানােলিথিলবন অনসন্ধানালি বিচিত্মমুজাচ্ছিল্পদ্মিনাবালি, হন অনলসন্ধানালি
Page #453
--------------------------------------------------------------------------
________________
परामर्शः।
8१५
पितपर्वतत्वावचिनविशेष्यतात्वापत्तिःवडिव्याप्यधूमप्रकारतानिरूपितलि. व्याप्यधूमावच्मिविशेष्यतात्वापत्तिय, बता अवच्छेदकतानात्मकवक्रियाप्यधूमप्रकारतानिरूपिता पर्वतत्वावच्छिना एका विशेष्यता पपराच तादृशविशेष्यत्वावच्छिन्ना वडिव्याप्यधूम-पर्वतत्वोमयधम्मावच्छिना प्रकारता खो. कर्तव्येति तजधानीयपर्वतनिष्ठविशेष्यतायाः हेतुतावच्छेदकसम्बन्धावच्छि. बाधेयत्वसम्बन्धानवच्छिन्न प्रकारतामिन्नत्वेन तादृशशानादनुमिनिनिष्प्रत्यू हैव। . वस्तुतः पक्षमुख्यविशेष्यकपरामर्शदेवानुमितिः न तु व्याप्यविशेष्यक-पक्षप्रकारकादिति मताभिप्रायेणेदं । एतेन वहिव्याप्यधूमवत्पर्वतवान् देशজুনি মাশীলনবিৰিনামা যথিমসন্ধানালিনিনব पर्वतत्वावच्छिन्नत्वं न तु वशिव्याप्य धुमप्रकारतानिरूपितविशेष्यतात्वेन वहिथाप्यधूमावच्छिन्नत्वं किन्तु प्रकारसात्वनैव उभयधम्मावच्छिन्नत्वमिति मतानुसारेण प्रकारता-विशेष्यतयो कोऽपि न खस्य खधर्मितावच्छेदकायापत्तिनिबन्धनदोष इति नितानुगमे तादृशज्ञानस्यासंग्रहो दुर्बाररवेति प्रत्युक्तम्।
केचित्तु हेतुतावच्छेदकसम्बन्धावछिन्नथाप्यप्रकारत्वानिरूपिता या हेतुतावच्छेदकसम्बन्धावच्छिन्नाधेयत्वसम्बन्धानवच्छिना प्रक. ता तदन्यत्वस्य प. क्षविषयतायां निवेशात् वहिव्याप्यधमवत्पर्वतवान् देश इति ज्ञानस्यान्तरा भासमानपदार्थनिष्ठप्रकारता-विशेष्यतयोरैकोऽपि नासंग्रहः तदीयपळतनिष्ठप्रकारतायाः संयोगसम्बन्धावच्छिन्नथाप्यप्रकारतानिरूपितत्वेन हेतु. तावच्छेदकसम्बन्धावचिन्वव्याप्यप्रकारत्वानिरूपिता या प्रकारता तदन्य. त्वस्य तवाक्षतत्वात्, एवं व्याप्यत्वावच्छिन्नविषयतायामपि हेतुतावच्छेदकसम्बन्धावच्छिन्नाधेयत्वसम्बन्धावच्छिनपक्षप्रकारवानिरूपिता या हेतुनावच्छेदकसम्बन्धागवच्छिना प्रकारता तदन्यत्वं निवेशनीयं अन्यथा संयोगसम्बधावच्छिमाधेयत्वसम्बन्धेन व्याप्यांशे पक्षप्रकारकस्य पक्षवह्याप्यवान् काजइति ज्ञानस्य नासंग्रहः इत्याः ।
Page #454
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामणे
ननु पर्वतो वशिव्याप्यधूमवान्न वेसि संशयात् अनुमितिवारवाय पर्व. तत्वावच्छेदेन वजिव्याप्यधूमाभावाप्रकारकावे सति पर्वतधर्मिकवक्रियाप्यधूमप्रकारकावल्पं निश्चयत्वं धनुमितिजनकतावच्छेदकं वाच्च, एवं वशिव्याप्यो धूमः पर्वते न वा इति संशयादनुमिविवारणाय व्याप्यधर्मिकपक्षाभावाप्रकरकले सति व्याप्यधर्मिकपक्षप्रकारकत्वमनुमितिजनकतावच्छेदकं वक्तव्यं तथाच कथं पक्षविशेष्यक-लिङ्गाविशेष्यकपरामर्शयोरेकरूपेण हेतुत्वं । मच पक्षतावच्छेदकावच्छेदेन व्याप्याभावाप्रकारकावविशिवं सत् व्याप्यविসুন্ধাধনাষাৰচ্ছিন্নমনিযৗমিনান্ধাবান্ধাৰ যন্ত্ৰালৰ छिन्नविषयतानिरूपितपक्षतावच्छेदकाशिनविषयताशाणि ज्ञानं तत्वेन हेतुत्वानोकसंशयादनुमित्यापतिरिवि वाच्यं । एवमपि पर्वतत्वसामाधिकरख्यन वशिथाप्यघूमामावावगाहिनः पर्वतत्वावच्छेदेन बनियाप्यधूमावगा. हिनच पर्वतो वडिव्याप्यधूमवान्न ति संशयादनुमित्यापत्तिा सादृशसंशयस्थापि पर्वतत्वावच्छेदेन वडिव्याप्यधूमाभावाप्रकारकत्वात् । न च पर्वतधमिकवडिव्याप्यधूमाभावाप्रकारकत्वमेव पाने निवेशनीयं तथाच पर्वतत्वमामानाधिकरणणेन वशिव्याप्यधूमावगाहिनि पर्वतत्वावच्छेदेन वशिव्याप्यधूमावगाहिनि च संशये पर्वतधर्मिकवक्रियाप्यधमाभावाप्रकारकत्वविरहात् न तादृशसंणयादनुमित्यापत्तिरिति वाच्य। एवं सति पर्वतत्वसामानाधिकरणेग बड़ियाप्यधूमावगाहिनः पर्वतत्वसामानाधिकरण्येन वशिव्याप्यधूमाभावावगाहिनिखयादनुमित्यनुपपत्तिः तस्य पर्वतर्मिकवहिव्याप्यधूमाभावाप्रकारकत्वविरहात् इति चेदत्रोचते पर्ववत्वावच्छेदेन कानुमिति प्रति पर्वतत्वावच्छेदेनैव वडिव्याप्यघूमवत्तानिश्चयः कारणं पर्वतवसामानाधिकरण्येन वडिव्याप्यधुमपरामर्शात् पर्वतत्वावच्छेदेन कानुमितेरखौकारात् पर्वतत्वसामानाधिकर एन वानुमिति प्रति तु पर्वतत्वसामानाधिकरण्येन वजिव्याप्यधूमवत्तानिश्चयः कारणं, एवञ्च पर्वतत्वावच्छेदेन वानुमिति प्रति पवतत्वव्यापक-वशिव्याप्यधुमप्रतियोगिक-संयोगसम्बन्धानवच्छिन्न प्रकारताभिन्न
Page #455
--------------------------------------------------------------------------
________________
परामर्शः।
व्याप्यत्वावच्छिन्नविषयतानिरूपित पर्वतत्वव्यापकवहिव्याप्यधूमप्रतियोगिकसंयोगसम्बन्धावचिनाधेयत्वसम्बन्धामवच्छिन्नप्रकारताभिन्नपक्षतावच्छेदकाव. छिन्नविषयताशालिनिश्चयनिछकारणतायां पर्वतत्वावच्छेदेन वहिव्याप्यधूमाभावाप्रकारकत्वं अवच्छेदकं, एवं वनिश्चाप्यत्वावच्छेदेन तादृशाधेयतासम्बन्धा. च्छिन्नपर्वताभावाप्रकारकत्वमप्यवच्छेदक, पर्वतत्वसामानाधिकरण्येन वहानुमितिं प्रति पर्वतत्वसामानाधिकरण्येन वकिव्याप्यधूमवत्ताज्ञानकारणतायान्त पर्वतत्वावच्छेदेन वहिव्याप्यधूमाभावाप्रकारकत्वमवच्छेदकं इति न पर्वतत्वसामानाधिकरण्येन वहिष्याप्यधूम-तदभावावगाहिनिश्चयादनुमित्वनुपपत्तिः। न च वहिव्याप्यो धूमः पर्वते वडियाध्यधूमाभावांश्च पर्वतइति समूहालम्बनशानस्य पर्वतत्वावच्छेदेन वडिव्याप्यधूमाभावप्रकारकत्वेन निश्चयखानुपपत्तिरिति तादृशपरामर्शदशायां धनुमित्यनुपपत्तिरिति वार्थ । प्राचीनमते पर्वतत्वावच्छेदेन वडिव्याप्यधूमाभाववत्ताबुद्धि प्रति वहिव्याप्यधर्मिकस्य संयोगसम्बन्धावचिनाधेयत्वसम्बन्धेन पर्वतप्रकारकनिश्चयस्यापि कार्यसहभावेन प्रतिबन्धकतया तादृशज्ञानस्याहार्यत्वेन अनुमितिजनकतावच्छेदकोभूतानाहाय्य॑त्वानाकान्ततया तादृशशानादनुमित्वनुपपत्तिविरहात् इति ।
केचित्तु हेतुतावच्छेदकसम्बन्धावच्छिनाधेयतासम्बन्धावच्छिन्न प्रतियोगिताकपक्षाभावप्रकारवानिरूपिता या चाप्यत्वावच्छिन्नविषयता तनिरूपिता या हेतुतावच्छेदकसम्बन्धावच्छिनव्याप्याभावप्रकार त्वानिरूपितपक्षतावच्छेবন্ধাৰচ্ছিল্পৰিমনা মহাবিদ্যাললল জাল বই মানালিपिता एकैव विशेष्यता तथाच पर्वतो वहिव्याप्यधूमवान्न वेति संशये या पक्षतावच्छेदकावचिनविषयता सा न व्याप्याभावप्रकारत्वानिरूपिता, वडिव्याप्यधूमः पक्षे नवेति संशये च या तादृशधूमत्वावच्छिन्नविषयता सा न पक्षाभावप्रकारवानिरूपितेति तादृशसंशययोर्न निश्चयत्वं इत्याः ।
Page #456
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामो
मनु पर्वता वडियाप्यधुमवान् इदं ज्ञानं वडिव्याप्यधूमाभाववति वडियाप्यधूमप्रकारकमित्वप्रामाण्यज्ञानासन्दितपरामर्शात् पर्वते वकानुमितिवार• साय एवं वशिव्याप्यो धूमः पर्वते इदं जान बाधेयतासम्बन्धावविपतियोगिताकपर्वतामावति तेन सम्बन्धन पर्वतप्रकारकमित्वप्रामाण्यवानाखान्दितथाप्यविशेष्यकपरामर्शदनुमितिवारणाय च तादृशापामाण्यज्ञाना मावइयं व्याप्यत्वावच्छिन्नविषयतानिरूपितपक्षतावच्छेदकावच्छिन्नविषयताशालिनिश्चयनिष्ठकारणतायां पवच्छेदकं अवश्यं वक्तव्यं, तथाच तयोविशेष्यविशेषयमावेन विनिगमनाविरसात् गुरुतर कार्यकारणभावइयमावश्यक, स्वं पर्वतोवडिव्याप्यधूमवानिदंशानं बाधेयतासम्बन्धावच्छिनप्रतियोगितापपर्वताभावववि तेन सम्बन्धन पर्वतप्रकारकमित्धप्रामाण्यवानासन्दितपरामात् वडिव्याप्योधूमः पर्वते इदं ज्ञानं वडिव्याप्याभाववति वडिव्याप्य प्रकारकमित्यप्रामाण्यज्ञानाखन्दितयरामीच सर्वानुभवसिद्धाया धनुमि. तेरपणापप्रसङ्गः । न च यद्यदप्रामाण्यवानसत्त्वे पर्वतधर्मिकवानुमितेरनुत्यादः तत्तदप्रामाण्य ज्ञानामावानामेव कारणवावच्छेदकतया नियताप्रामाण्यवानाभावागां कारखवावच्छेदककोटौ अपविकलाम तत्रानुपपत्तिः इति वाच्यं । यत्र वहिव्याप्यधूमवान् पर्वत इदं शानं बाधेयतासम्बन्धावशिवप्रतियोगिताकपर्वताभाववति तेन सम्बन्धन पर्वतप्रकारकं भाविज्ञानव तादृशं एवं भाविधानच वाभाववति वडिप्रकारकत्वव्याप्यवदिदं ज्ञान वहिव्याप्यधूमामावति बलियाप्यधूमप्रकारकत्वयाप्यवत् वडिव्याप्यधूमञ्च पर्वतव्याप्यवानिति समूहालम्बनपरामर्शः तदुत्तरं पर्वतो वद्धिमान् वह्नि. व्याप्यो धुमश्च पर्वते तज्ज्ञानच वडिव्याप्यधूमाभाववति धूमप्रकारकं वाभाववति वकिप्रकारकं इति समूहालम्बनानुमितिः तदुत्तरं पुनर्वहानुमि. तिप्रसङ्गः एतादृशस्थलीयपूर्वपरामर्शधर्मिकाप्रामाण्य ज्ञानस्य उत्तेजकत्वे पप्रामाण्यवानासन्दितवानुमित्वनुपपत्तिः पतस्तस्यानुत्तेजकत्वमवश्यं वलयं इत्यग्रिमक्षणे वामितेरापत्तिनिष्यत्व हैव । न च पर्ववर्मिक
Page #457
--------------------------------------------------------------------------
________________
परामर्शः।
कानुमिति प्रति सिद्धेः प्रतिबन्धकतायां सिद्धिखरूपानुमितिधर्मिकतद.
माण्यज्ञानव्यरत्तेजकत्वाखौकारात् सिद्धिल्पप्रतिबन्धकवशादेव गोत्तपक्षणेऽनुमित्वापत्तिरिति वाच्यं । एवं सति वहिष्याप्यधूमधर्मिकपर्वतप्रकारकपरामर्शधर्मिकतादृशपरामर्शपूर्वोत्पन्नाप्रामाण्य ज्ञागनाशात् तादृश परामर्शद्वतीयक्षणेऽनुमितिनं स्यात् इति चेत्। न । वहिव्याप्याभाववदिष्यकात्वावचिनवहिव्याप्यप्रकारकत्वप्रकारतानिरूपितोभयारत्तिधमावच्छिनज्ञाननिष्ठविशेष्यताकशामाभावविशिष्याप्यत्वावच्छिन्न विषयतानिरूपिता या पक्षामावविशेष्यकत्वावच्छिन्नपक्षप्रकारताकत्वप्रकारतानिरूपितोमयावृत्तिधर्मावच्छिन्न-ज्ञाननिष्ठविशेष्यताक-ज्ञानामावविशिष्पक्षतावच्छेदकावच्छिन्नविषयता तादृशविषयताशालिज्ञानत्वेन हेतुत्वस्योकत्वात्, थाप्यत्वावच्छिन्नविषयतायां तादृशाभावश्च खविशेष्यताश्रयनिरूपित खोयविशेष्यतानिरूपितप्रकारताकत्वावच्छिन्नविषयतानिरूपितव्याप्यत्वावच्छिन्नविषयतामिरूपित-व्याप्तित्वावच्छिन्नविषयतानिरूपित-विषयतावच्छेदकवधिवावछिनविषयतानिरूपितव्याप्तित्वावच्छिन्नविषयतागिरूपिता सती या पक्षतावच्छेदकावच्छिन्नविशेष्यतानिरूपिताप्रकारता तत्वच एतदुभयसम्ब. न्धावच्छिनप्रतियोगिताका, एवं पक्षविशेष्यतायां तादृशक्षामाभावः खौयविशेष्यताश्रयनिरूपितत्वं खौयप्रकारकत्वत्वावच्छिन्नविषयतानिरूपितविषयतावच्छेदकं यत्पक्षतावच्छेदकं तदवच्छिमत्वे सति साध्ययाप्यत्वावच्छिन्नविशेष्यतानिरूपितप्रकारतावच एतदुभयसम्बन्धावचिनप्रतियोगिताका, एवच वडिथाप्योधूमः पर्वते इदं ज्ञानं वहिव्याप्यामावति वहिथाप्यप्रकारकं इत्यप्रामाण्यवानासन्दितपरामादनुमितिः निर्वहति तथाहि तादृशाप्रामाण्य ज्ञानस्य विशेष्योभूतं यदशिव्याप्यो धूमः पर्वते इत्याकारकशानं तनिरूपितत्वस्य तज्ज्ञानीयथाप्यत्वावचिनविशेष्यतायां सत्वेऽपि तादृशाप्रामाण्यवानीयप्रकारकत्वत्वावछिनविषयतानिरूपित. थाप्यत्वावच्छिन्नविषयतानिरूपितचाप्तित्वावचिनविषयतानिरूपितविषय.
57
Page #458
--------------------------------------------------------------------------
________________
५.
सत्त्वचिन्तामणे
নাৰঞ্জীবিচ্ছিন্নবিষযনালিথিনসিলাচ্ছিন্নবিষযনালি
रूपितप्रकारतात्वस्य तत्र विरहात् निवतोभयसम्बन्धावच्छिनप्रतियोगि নাকালিহ্মীমালাম্মালামাল নালন, আইন বিষয়ক दमते अयं परिष्कारः न तु समानाकारकज्ञानस्यैकविषयतावादिमते, तथा सति वशिष्थाप्यधूमवान् पर्वत इदं ज्ञानं वजिथाप्यधूमाभाववति वडिव्याप्यधूमप्रकारकं इत्यप्रामाण्यवानाखान्दितपरामर्होया या विषयता तस्या एव अप्रामाण्य ज्ञानानासन्दिततादृशपरामर्शीयतया पप्रामाण्य. शानागावन्दित ज्ञानीयथाप्यत्वावच्छिन्नविषयतायामपि निरुक्ताप्रामाण्यचामविशेष्योभूतपरामर्णनिरूपितत्वघटितोमयसम्बन्धेन पप्रामाण्यवानसाचात् पप्रामाण्यज्ञानानास्वन्दितपरामर्शदनुमित्यभावापत्तेः एवं प्रकाয়ৈ দুই মাস অন্ধৰি যাৰহ্মনিমামত্মস্থানাঙ্কলিনडिव्याप्यधमप्रकारक-पर्वतविशेष्यकपरामर्शात् अनुमितिनिर्बाहः। न এ বিঘীনাললিমিনীষসন্ধালাবন্নিবিষয়ক্ষয়ী सप्रकारतानिरूपकत्वैतदुभयसम्बन्धावच्छिनप्रतियोगिताकाप्रमाण्यवाना• भाववैशियमेव व्याप्यत्वावच्छिन्नविषयतायां निवेश्यता किं गुरतरोतससन्धावचिनप्रतियोगिताकामावनिवेशेनेति वाच्यं । एवं सति वजियाप्यधूमवान् पर्वत इदं शागं वशिव्याप्यधूमाभाववति वशिव्याप्यधूमप्रकारकमित्यप्रामाण्यज्ञानमेव वहिव्याप्यत्वावच्छिन्ननिरूपितप्रकारितात्वेन शानातरीयप्रकारितामवगाह्य वृत्तं सादृशापामाण्यवानाखन्दितपरामर्थात् सानुभवसिद्धानुमित्यनुत्पादस्थापनापप्रसङ्गात् तादृशज्ञानीयप्रकारिताলামিকাহিনাহীনঘালালীয়সঙ্গাযিনালিকায় নাম रामर्शायविषयतायां विरहात् । एवमिदं वानं पक्षाभाववति पक्ष प्रकारकमित्यप्रामाण्यज्ञानामावस्थापि उक्तगुरुतरसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियो. गिताकत्वव्यावृत्तिः खयमूहनीया । पत्रेदमवधेयं वहिव्याप्यधूमत्वाशिव विषयतानिरूपितपर्वतत्वावच्छिन्न विषयताशाणिनित्रयोत्तरमळतधर्मिकव.
Page #459
--------------------------------------------------------------------------
________________
परामर्शः।
सानुमिति पति तादृशनिश्चयत्वेग हेतुत्वे वडिथाप्यधूमप्रकारकपर्चतविशेष्यकगियोत्तरानुमितियतामितीच्छातः पर्वते बड़े सिजिवाचे नाशपरामर्शदेव पर्वते वकानुमितियते न तु वहियाप्यविशेष्यवपपर्वतप्रकारकनिश्चयादिति नियमानुपपत्तिः, तथाहि तादृशेच्छाविरहविशिसियभावस्य कार्यतावच्छेदकं यदि पर्वतधर्मिकवझियाप्यधूमप्रका. रकनिश्चयोत्तरानुमितित्वं तदा यदा वडिव्याप्यधूमः पर्वते इति निच. योऽलि नियतसियभावश्च वर्तते न पुनर्वशिष्थाप्यधूमवान् पर्वत इति परामर्शः तदापि पर्वतधर्मिकवहिव्याप्यधूमवत्तानिश्चयोत्तरानुमितित्वावच्छि वस्य नियवासियभावात्मकपक्षतारूपकारणवलात् पापत्तिारैव, यदि च पर्वतधर्मिकवहिव्याप्यधूमवत्तानिश्चयोत्तरपर्वतधर्मिकवामितित्वावच्छिन्नं प्रति पर्वतधर्मिकवडिव्याप्यधूमवत्तानिश्चयोत्तरानुमितियतामित्वाकारकेच्छाविरहविशिष्ठपर्वतधर्मिकवक्रिमत्त्वनिश्चयाभावत्वेन कारणत्वं वशिष्याप्यधर्मिकाधेयतासम्बन्धेन पर्वतप्रकारकनिश्चयोत्तरपर्वतधर्मिकवानुमितिं प्रति तादृशनिश्चयोत्तरानुमितित्व प्रकारकेच्छाविरहविशिषसिद्ध्यभावत्वेन कारणत्वं तदा यदा केवलं वहिथाप्यधुमवान पर्वत इति परामशी वत्तते सिडिच नास्ति तदोलपक्षताइयसत्त्वात् पक्षताकार्य्यतावच्छेदकीभूतवहिव्याप्यधूमवत्तानिश्चयोবালিনিরবচ্ছিন্নষ আজিমাবলিলামিনিत्वावच्छिमस्याप्यापत्तिः दुवारैव तादृशपक्षताइयस्य सत्त्वात् तत्कार्यता. वच्छेदकावच्छिनापादनस्य सुघटत्वात् । अतएव सियुत्तरानुमिति प्रति सिषाधयिषायाः कारणत्वे यत्र सिषाधयिषा वर्तते सिद्धिांति तच सिधाधयिषारूपकारणबलात् सिझ्यत्तरामुमितित्वावच्छिनापत्तिः मथरामाथेन पक्षताग्रथे दत्ता सिद्युत्तरानुमितिं प्रति सिद्धेरपि हेतुत्वमुखा तादृशापत्तिारिता, एवच पक्षताया इव परामस्थापि पर्वतधम्भिकवशिव्याप्यधूमवत्ता निश्चयोत्तरामुमिलित्वावच्छिनं प्रति ताहानिञ्चयत्वेग
Page #460
--------------------------------------------------------------------------
________________
"र
सावचिन्तामणे
एकं हेतुत्वं व्याप्यधर्मिकपक्षप्रकारवनिश्चयोत्तरानुमिति प्रति तादृशा विषयत्वेनापरं हेतुत्वं, एववेकविधपरामर्शतत्त्वे बन्यपक्षतावलात् नान्य में विधानुमितित्वावच्छिनापत्तिः एकविधपक्षतायाः बन्यविधपरामर्शस्यास, हकारित्वात्, रवञ्च मथुरानाथेन यद्याप्यत्वावच्छिन्नविषयतानिरूपितपक्षतावच्छेदकावच्छिन्नविषयताशाणिनिश्चयोत्तरानुमिनिस्वावच्छिन्नं प्रति तादृशनिश्चयत्वेनेकरूपेण कारणत्वमुक्त तत्पक्षता गुरुणामिव नव्यानामपि मते नानुमितिहेतुरिति केवलावयिग्रन्थोक्तलिखनानुसारेणेति ।
नैयायिकमते व्याप्यत्वावच्छिन्नविषयतानिरूपितपक्षतावच्छेदकावच्छिन्नविषयताशाणिनिश्चयत्वेन कारणत्वं मीमांसकमते तु हेतुतावच्छेदकावच्छेदेन व्याप्तिनिश्चयत्व हेतुतावच्छेदकल्पेण पक्षधर्मतानिश्चयत्वञ्च दण्डत्व-चात्यादिवत् कारणतावच्छेदक, रतम्मते कारणतावच्छेदकलाधवासम्भवेऽपि यत्र वहिव्याप्यो धूमः धूमवान् पर्वतः इति ज्ञानं तदुत्तरक्षणे सियादिप्रतिबन्धकवशात् न पर्वतो वहिमानित्यनुमितिः किन्तु वकिव्याप्यधूमवान् पर्वत इति परामर्शः तत्र मीमांसकमतसिद्धकारणतावच्छेदकइयस्य खप्रकाशवादिगुरुमते प्रथमोपस्थितत्वरूपलाघवसम्भवात् इति मथुरानाथे. गोक्तां, पत्रेदं चिन्यते स्वप्रकाशवादिगुरुमते वहिव्याप्योधूम इति धानकाले धूमे वडिव्याप्ति जानामि इत्यनुव्यवसायो नियमतोजायते विषयग्राहकसामग्राः विषयपुरस्कारेण ज्ञानग्राहकवनियमात् न तु तादृशज्ञानकाले धूमे वहिं निश्चिनामीत्याकारकानुव्यवसायः व्यायभावाप्रकारकत्वविशिष्व्याप्तिप्रकारक ज्ञानत्वपर्यावसनस्य व्याप्तिनिश्चयत्वस्य ज्ञाने व्याप्तिप्रकारकत्वे व्यास्यभावाप्रकारकत्ववैशिठयाहकसामग्रा पतिरिक्तायाअपेक्षणीयत्वात्, तथाच यत्र व्याप्त्यभावाप्रकारकत्ववैशिष्ठग्राहकसामग्री गालि किन्तु व्याप्याभावाप्रकारकत्ववैशिष्टगाहकसामग्री वर्तते तत्र वहि. व्यायधूमवान् पर्वत इति शामकाले पर्वते वझियाप्यं निश्चिनोमि त्वेवानुव्यवसायो जायते न तु धूमे वडियाप्ति निश्चिनोमोत्यनुष्यवसाया,
Page #461
--------------------------------------------------------------------------
________________
परामर्शः।
संचयत्वमेवानुमितिकारणतावच्छेदकमिति भावः । यदा ‘पक्षधय' पक्षतावच्छेदकस्य, व्याप्तिविभिष्टज्ञान' व्याप्यवछिनविषययाविज्ञानं, पक्षतावच्छेदकस्येत्यत्र खावच्छिन्नविषयतानिरूपितलं ध्यर्थः, तस्य च व्याप्यवछिनविषयतायामन्वयः, तथाच पक्षतावच्छेदकावच्छिन्नविषयतानिरूपित-व्याप्यवच्छिन्नविषयताशालिज्ञाममेवानुमितिहेतुरिति पूर्वाक एव शब्दार्थः ।
यत्तु ‘पक्षधर्मस्य' पक्षतावच्छेदकावच्छिन्नस्य, सप्तम्यर्थे षष्ठी, 'व्याप्तिविशिष्टज्ञानं' व्याप्तिविशिष्ट प्रकारकशानं, पक्षतावच्छेदकावछिन्ने व्याप्तिविभिष्टवैशिष्यावगाहिज्ञानमिति यावत्, तदेवानुमितिहेतरित्यर्थः, नव्यनये पक्षतावच्छेदकावच्छिन्नविशेष्यकव्याप्तिविशिष्टवैशिघ्यावगाहिज्ञानस्यैवानुमितिहेतुत्वादिति वदन्ति। तदमत् । अये व्याप्यविशेष्यकपरामर्शस्यापि हेतुत्वेन वक्तव्यत्वात्तदमङ्गत्यापत्तेः ।.
भट्टाचार्यास्तु ननु प्राचां नये पक्ष-व्याप्तिविशिष्टोभयवैशिष्यावगाहिनिश्चयत्वावच्छिन्नकारणताप्रतियोगिक-कार्य्यताघटितमनुमितिखक्षणं प्रागुतं तचासम्भवि वहिव्याप्यो धूमः धमवान् पर्वत इति ज्ञानादप्यनुमित्युत्पत्तेः तेन रूपेणानुमित्यहेतुत्लादित्यत श्राह, 'पञ्चधर्मस्येति, अर्थस्तु पूर्ववत्, इत्यनुमितिलक्षणोपोद्दातमङ्गत्या प्रकृतग्रन्थमवतारयन्ति । ___ गुरुः प्रत्यवतिष्ठते, 'नन्विति, 'याप्यतावच्छेदकप्रकारेण' तथाच गुरमतेऽपि नैयायिकमतसिद्धकारणतावच्छेदकस्य प्रथमोपस्थिसत्वरूपलाघवं सम्भवतीति ।
Page #462
--------------------------------------------------------------------------
________________
gy8
तत्वचिन्तामणी
धूमवादिप्रकारेण, 'व्याप्तिस्मरणं' व्याप्तिनिश्चयत्वं, व्याप्तिस्मरण, प्रवेशे व्याप्यनुभवादनुमित्यनुत्पादापत्तेः, 'पक्षधर्माताज्ञान' व्याप्यता बच्छेदकप्रकारेण पक्षधर्मतानिश्चयत्वं, धूमत्वाद्यवछिन्नविषयतामि। एपित-पक्षतावच्छेदकावच्छिन्नविषयताशालिनिश्चयसमिति चावरे, 'तथा' धूमत्वाद्यवच्छिन्नलिङ्गकानुमितिं प्रति कारणतावच्छेदक, तथाच धूमवाद्यवच्छिन्नलिङ्गकानुमितिं प्रति धूमत्वावच्छिन्नविशेष्यताकव्याप्तिनिश्चयत्वं धूमवाद्यवच्छिन्नविषयतानिरूपितपचतावच्छेदकावच्छिषविषयताशालिनिश्चयत्वञ्च इयं दण्डव-चक्रत्ववस्कारणतावकेदकं, लिविशेषणकं व्याप्तिज्ञानच() नानुमितिहेतः, नयैरपि तस्मादनुमित्यनभ्युपगमात् इति भावः । 'लाघवादिति नैयायिकाभिमतनिरुतविषयताशालिनिश्चयत्वरूपकारणतावच्छेदकमपेक्ष्यामदुनैतत्कारणतावच्छेदकद्दयस्य कुत्रचित् प्राथमिकप्रत्यकोपस्थितत्वरूपखाघवादित्यर्थः, यत्र प्रथमं वकिव्याप्योधूमः धमवान्. पर्वत इति ज्ञानं ततः सियादिप्रतिबन्धकवशेन नानुमितिः मामग्रौविरहात् किन्तु वहिव्याप्यधूमवान् पर्वत इति विशिष्टपरामर्शस्तचैव(२) स्वप्रकाशवादिना गुरूणं मते तदभिमतस्य कारणतावच्छेदकदयस्य नैयायिकाभिमतकारणतावच्छेदकमपेक्ष्य प्रथमं साक्षात्छतत्वात् तदाश्रयात्मकस्य (२) तत्प्रत्यक्षस्यैव प्रथममुत्पन्नत्वात् । न चैवं यत्र प्रथमत एव वहिव्याप्यधूमवान् पर्वत इति स्मरण(१) व्याप्तिधूमे इत्याकारकज्ञानश्चेत्यर्थः । (२) सियादिप्रतिबन्धकवशेनानुमितिसामग्रौविरहात् वहिव्याप्यधूम
वान् पर्वत इति विशिष्परामर्शस्तत्रैवेति क• ख.। (३) कारणतावच्छेदकाश्रयात्मकम्येत्यर्थः ।
Page #463
--------------------------------------------------------------------------
________________
परामर्शः।
.
५
चात्मको विशिष्टपरामर्शस्तव नैयायिकसिकारणतावच्छेदकल्यापि खप्रकाशवादिना गुरूणां नये प्राथमिकप्रत्यक्षविषयत्वमिति वाच्य। न्यायमतसिद्धकारणतावच्छेदकस्य गुरुमतमिद्धकारणतावच्छेदकइययाप्यतया स्वप्रकाशमर्यादया तत्प्रत्यक्षदशायां गुरुमतमिद्धकारणतावच्छेदकइयस्यावश्यं प्रत्यक्षोत्पत्तेरित्यभिमान:(१), यदा कदापिप्राथमिकप्रत्यक्षविषयत्वस्य कारणतावच्छेदकतायामविनिगमकवात् कल्पनालाघवं विनिगमकमाइ, परामर्श हेतुत्वेनेति न्यायनये वकियाप्यधूमवान् पर्वत इत्यादिविशिष्टपरामर्शस्थानुमितिहेतुत्वेनेत्यर्थः, 'श्रावश्यकत्वादिति अस्मदुक्ककारणतावच्छेदकद्दयस्य अनुमित्यव्यवहितपूर्ववर्तितावच्छेदकत्वेन उभयवादिमिद्धानुमितिनियतपूर्ववर्त्तितावच्छेदकताकत्वादित्यर्थः, नैयायिकसिद्धयथोक्कविशिष्टपरामसंस्थाप्यस्मदुक्ककारणतावच्छेदकडयाक्रान्नत्वात्, तथाच नैयायिकमिद्धे कारणतावच्छेदके अन्यथासियनिरूपकत्व-नियतपूर्ववर्तितावच्छेदकलयोईयोः कल्पनामपेक्ष्य नियतपूर्ववर्तित्वावच्छेदकवेनोभयवादिसिद्धस्यास्मदुककारणतावच्छेदकद्वयस्य अन्यथामिद्यनिरूपकत्वमानकल्पनालाघवादिति भावः। यद्यपि न्यायनये वहिव्याप्यवानयं इति वहिव्याप्यतावच्छेदकाप्रकारकपरामर्शायचानुमितिस्तत्र व्याप्यतावच्छेदकप्रकारकव्याप्तिनिश्चयाद्यभावेन मौमांसकाभिमतकारणतावच्छेदकइयस्थाप्युभयवादिमिद्धनियतपूर्ववर्तितावच्छेदकतया दयोः कल्पनमविशिष्टं तथाप्यस्य दोषस्य ग्रन्थकतैवाये वक्ष्यमाणलाबामतिः।
(१) धूमत्वसामानाधिकरण्येन वहिव्यात्यवगाहिनि वशिष्याप्यधमवान् पर्वत इति धान एव व्यभिचारान व्याप्यत्वमित्याशयेनोक्कं अभिमान इति ।
Page #464
--------------------------------------------------------------------------
________________
are ........
प्राश्चतु 'परामर्श हेतुत्वेनेति व्याप्यतावच्छेदकप्रकारकव्याप्तिनिखय-व्याप्यतावच्छेदकप्रकारकपक्षधर्मतानिश्चययोः वहिव्याप्यधूमवान् पर्वत इत्यादिनैयायिकाभिमतानुमितिकारणैतविभिष्टपरामर्श प्रति जनकत्वेनेत्यर्थः, 'आवश्यकत्वादिति अस्मदुक्ककारणतावछेदकद्दयस्य उभयवादिसिद्धानुमितिनियतपूर्ववर्त्तितावच्छेदकताकवादित्यर्थ:(९) । न च वडिव्याप्योधम इत्यादिव्याप्यतावच्छेदकप्रकारकव्याप्तिनिश्चयस्य विशेषणतावच्छेदकादिप्रकारकचानविधया विशिष्टपरामर्शजनकत्वेऽपि() धूमवान् पर्वत इत्यादिव्याप्यताव
छेदकप्रकारकपक्षधर्मतानिश्चयस्य न विभिष्टपरामर्शजनकत्वमिति वाचं । तस्थापि पक्षतावच्छेदकादिप्रकारकजानविधया विशिष्टपरामर्शजनकत्वादिति(२) व्याचक्रुः । तदसत् । तथापि पचे लिङ्गवैशि
विषयत्वान्तर्भावणाजनकतया तदवच्छिन्नस्य नियतपूर्ववर्त्तिवासिद्धः वहिव्याप्यो धूमः पर्वतश्च इत्यादिकेवलपर्वतत्वादिप्रकारकज्ञानादपि वकिव्याप्यधूमवान् पर्वत इत्यादिविशिष्टपरामर्शसम्भ
(१) उभयवाद्यसिनियतपूर्ववर्तितानवच्छेदकतयेति क० । (२) परामर्शस्य साध्यव्याप्तिविशिलहेतुवैशिघ्यावगाहित्यनियमेन परामर्श प्रति हेतुविशेष्यक-साध्यव्याप्तिप्रकारकनिश्चयस्य विशेषणतावच्छेदकप्रकारकनिश्यविधया जनकत्वात् तादृशनिश्चयस्य अनुमिलिनियतपूर्ववर्तिवावश्यकत्वेऽपि पक्षविशेष्यकहेतुप्रकारकनिश्चयस्यानावश्यकत्वेन बनुमितिनियतपूर्ववर्तित्वमसिद्धमिति भावः।।
(२) विशिबुद्धिं प्रति विशेषणवानस्य सामान्यतो हेतुत्वेन हेतुमान् पक्ष दृत्याकारकज्ञानस्यापि पक्षतावच्छेदकादिविशिलबुड्यात्मकपरामर्श प्रति विशेषण ज्ञागविधया जनकत्वमिति भावः ।
Page #465
--------------------------------------------------------------------------
________________
' परामर्शः।
०५०
वादिति थेयं । नवस्तु तदुभयरूपेण कारणवं किनन्छिवमित्यतशाह, “एवधेति, 'ज्ञानदयादेवेत्येवकारोऽप्यर्थे, नैयाधिकमिद्धविशिष्टपरामर्शस्य धूमो वहिव्यायो धूमवांश्च पर्वत इति समूहा-. खम्बनज्ञानस्य च यथोककारणतावच्छेदकद्वयाक्रान्ततयावधारणामङ्गतः, अत्र यथोकव्याय-पक्षोभयवैभियावगाहिनिश्चयत्वमनुमितिजनकतावच्छेदकं न वा तादृशनिश्चयासमानकालीनं वहिव्यायो धूमो धूमवान् पर्वत इति ज्ञानमनुमित्युपधायकं न वेत्यादयो विप्रतिपत्तयः, व्याप्तिविशिष्टवैशिष्यावगाहिनिश्चयस्यैवानुमितिजनकवमिति नये(१) व्याप्तिविशिष्टवैशिष्यावगाहिनिश्चयत्वं अनुमितिजनकतावच्छेदकत्र वा इत्यपि विप्रतिपत्तिः सम्भवति, वहिव्याप्यधूमवामयं इति ज्ञानं अनुमित्युपधायकन वेति न विपतिपत्तिः परनयेऽपि तादृशज्ञानादनुमित्युत्पत्तेरिति ध्येयं । 'व्यायवज्ञानमेवेति व्याप्यत्वावच्छिन्नविषयतानिरूपितपचतावच्छेदकावछिन्नविषयताशालिनिश्चय एवेत्यर्थः, 'लाघवात्' कारणतावच्छेदकलाघवात्, 'आवश्यकत्वाचेति परनयेऽपि तादृशविशिष्टविषयनाशचिनिश्चयस्यानुमिति हेतुत्वावश्यकत्वाचेत्यर्थः, 'उपजीव्यत्वाच्चेति कचित् पाठः तत्र तादृशविषयतामालिनिवयस्य परनयेऽप्यनुमिति प्रति कारणत्वाञ्चेत्यर्थः । अनुमित्युत्पत्त्यव्यवहितपूर्व तादृशविशिष्टविषयताशाखिनिश्चयः वापि नास्तौति भ्रमेण दूषयति, तस्येति तादृशविभिष्टविषयताशालिनिश्चयस्येत्यर्थः, 'अनुमितेः पूच' अनु
11111
(१) नयनये इत्यर्थः ।
58
Page #466
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५०
तचिन्तामणे
मित्यव्यवहितपूर्ण, 'प्रसिद्वौ' असचेन, 'युगपदुपस्थित्यभावादिति एकस्मिन् क्षणेऽव्यवहितपूर्वव-कालिकविशेषणताभ्यामनुमिति-ता• भविषयताशालिविभिष्टपरामर्शयोहपस्थित्यभावादित्यर्थः, तथा पदा अव्यवहितपूर्खत्वसम्बन्धेन कार्थं तदा कालिकसम्बन्धेन कारणनावच्छेदकावच्छिवमित्यन्वयसहचारज्ञानस्य कारणताग्राहकस्याभावात् कारणताग्रहासम्भव इति भावः ।
केचित्तु 'व्याप्यत्वज्ञानमेवेति व्याप्तिप्रकारकशानमेवेत्यर्थः,(२) एवकारात् व्याप्यतावच्छेदकावच्छित्रविशेष्यतानिरूपितत्वस्थ व्याप्तिप्रकारताविशेषणस्य व्यवच्छेदः, 'साघवादिति व्याप्यतावच्छेदकावछिन्नविशेष्यतानिरूपितव्याप्तिप्रकारताशालिनिश्चयत्वमपेक्ष्य व्याप्तिप्रकारकनिश्चयत्वस्यावच्छेदकस्य सघुवादित्यर्थः, कल्पनालाघवमार, 'अावश्यकत्वाचेति व्याप्यतावच्छेदकावच्छिनविशेष्यतानिरूपितव्याप्तिप्रकारताशालिनिश्चयत्वावच्छिवय नियतपूर्ववर्तित्वेन व्याप्तिप्रकारकनिषयत्वावच्छित्रस्य नियतपूर्ववर्जिताया आवश्यकत्वाचेत्यर्थः, 'उपजीव्यत्वाञ्चेति पाठे व्याप्तिप्रकारकनिश्चयत्वावशिवस्य थाप्यतावच्छेदकावच्छिन-विशेष्यतानिरूपितव्याप्तिप्रकारताशालिनिअथवावच्छित्रव्यापकत्वाच्चेत्यर्थः, तथाच नियतपूर्ववर्तिवमुभयवादिसिमिति भावः, इत्याः । तदसत्। 'तस्येत्यादिदूषणमझतेः, अनुमितेः पूर्व व्याप्तिप्रकारकशानस्य उभयवादिसिद्धवादिति ध्येयं ।
(९) व्यानिशानस्य करणविधया कारणत्वं न तु परामर्शात्मकव्यापार। विधया इति केषाषिदमिप्रायः ।
Page #467
--------------------------------------------------------------------------
________________
परामई।
Be अथ यथा तत्ताविशिष्टस्मरणे सतीन्द्रियसबिहाटे स एवायमित्यभेदप्रत्ययो भवति तथेन्द्रियसविकृष्टे धूमे वहिव्याप्यधमस्मरणे धूमत्वासाधारणधर्मदर्शनाचाप्योऽयमित्यभेदप्रत्ययः स्यात् सामग्या वृत्तत्वादिति स एवानुमितिहेतुरिति चेत् । न। प्रत्यक्षसाग्रौतोऽनु
अनुमित्यव्यवहितपूर्व तादृशविशिष्टविषयतामासिनिययस्यासिद्धिं परिहरति, 'अथेति, 'वहिव्यायधूमस्मरण इति, धूमवान् पर्वत इति ज्ञाने चेति शेषः, 'धूमत्वासाधारणेति धूमवरूपव्यायधर्मदर्शनात् इत्यर्थः, एतच्च संशयोत्तरं प्रत्यक्षाभिप्रायेण, 'यायोऽयमितौति अनुमित्यव्यवहितपूर्व वकिव्याप्योऽयं पर्वते इत्याकारकनिरुक्तविषयताशालिनिश्चयात्मकः समूहालम्बनाभेदप्रत्ययः स्थादित्यर्थः, 'मामय्या वृत्तवादिति अभेदप्रत्ययमामयौवत्तत्वाताविषयतामालिनिश्चयस्यापि मामय्या वर्तमानवादित्यर्थः, 'म एवानुमितिहेतुरिति एवकारोऽप्यर्थं मोऽप्यनुमित्यव्यवहितपूर्ववत्तीत्यर्थः। यद्दा एवकारोभिन्नक्रमेण मोऽनुमित्यव्यवहितपूर्व वयैवेत्यर्थः, 'याप्याभेदप्रत्यय इति तादृशविषयतामालिनिचयात्मकाभेदप्रत्यय इत्यर्थः, 'अन्यथा' अनुमितिमामय्या बखवत्त्वाभावे, 'तव' नैयायिकस्य । 'स्मरत इति, पर्वत इत्युकृयज्ञानवत इति श्रेषः, 'प्रथमत एवेति अनुमित्यव्यवहितपूर्वमेवेत्यर्थः, 'भामते' पर्वतां विशेषोभते धमे भासते, 'प्राप्तवाक्यादिति, पतिव्यायधूमवान् पर्वत इति स्मरणं अत्यपि बोध्यं । 'तचोभयनामैति,
Page #468
--------------------------------------------------------------------------
________________
8.
सत्त्वचिन्तामयो
मितिसामग्या बलवत्वात् अनुमितिरेवोत्पद्यते न तु व्याप्याभेदप्रत्ययः, अन्यथा तवापि परामर्शानन्तरं परामर्शान्तरम् तदनुव्यवसायो वा भवेन त्वनुमितिः। अथ धूमो वहिव्याप्य इति स्मरतः पर्वतीयधूमन्द्रियसन्निकर्षे प्रथमत एव व्याप्ति-धूमत्वयोवैशिष्टं यच
अव्यवहितपूर्वत्व-कालिकविशेषणताभ्यां अनुमिति-तादृशविषयतामालिनिश्चययोरन्वयसहचारज्ञानादिमत्त्वादिति भावः । 'लाघवादिति अवच्छेदकलाघवादित्यर्थः, न्यायनये च वहिव्याप्यवामयमित्यादिव्याप्यतावच्छेदकाप्रकारकशाब्दादिपरामर्शदेव यत्रानुमितिस्तत्र व्याप्यतावच्छेदकप्रकारकश्याप्तिनिश्चयाद्यभावेन बदभिमतकारणतावच्छेदकद्दयस्याप्युभयवाद्यसिद्धनियतपूर्ववर्त्तितावच्छेदकताकतया १) कल्पनागौरवविरहाचेत्यपि बोयं, एतत्सूचनायैव यत्र चाप्तवाक्यादिति पूर्वमुक्तं, 'पक्षधर्मव्याप्यत्वज्ञानस्येति पचतावच्छेदकावच्छिन्नविषयतानिरूपितव्याप्यत्वावच्छिन्नविषयताशालिनिश्चयत्वस्थेत्यर्थः, 'हेतृत्वकल्पनात्' हेतुतावच्छेदकत्वकल्पमात्, 'अन्यत्रापौति पहिल्यायो धूमः धूमवान् पर्वत इति ज्ञानोत्तरं यत्रानुमितिस्तचापौत्यर्थः, 'तथेति अनुमितिमामध्यभावेन तादृशज्ञानाव्यवहितोत्तरोत्यवस्थ तादृशविषयतामालिनिय यस्यैवानुमित्युपधायकत्वमित्यर्थः, 'लिओं' लिङ्ग-पक्षोभयस्मिन्, 'प्रत्यक्षविशिष्टज्ञानेति
(९) उभयवादिसिद्धनियतपूर्ववर्तितानवच्छेदकतयेति का।
Page #469
--------------------------------------------------------------------------
________________
परामर्शः। भासते विशेषणज्ञानस्य पूर्व हत्तत्वात् तच; यच चाप्तवाक्याइदिव्याप्यवानमिति ज्ञानं तपोभयचापि लाघवात् पक्षधर्मव्याप्यत्वज्ञानस्य हेतुत्वकल्पनादन्यपापि तथेति चेत् । न। इन्द्रियासनिकृष्टेऽतीन्द्रिये लिङ्ग प्रत्यक्षविशिष्टज्ञानसामग्रीविरहात्तेन विनानुमित्यनुत्पादापत्तेः अस्मदुक्तसामग्याश्च तचापि सत्वात् ।
साध्यव्याप्यो हेतुईतमाम पर्वत इति ज्ञानोत्तरप्रात्यक्षिकतादृशविषयताशालिनिश्चयसामग्रौविरहादित्यर्थः, 'तेन विना' तादृशविषयताशालिनिश्चयेन विना, 'अनुमित्यनुत्पादेति, इष्टापत्ती अनुभवविरोधादिति भावः। 'अनुमानादिति पीयधूमो वहिघ्यायो धूमत्वात् इत्यनुमानादिनेत्यर्थः, श्रादिपदाच्छाब्द-संस्कारादिपरिग्रहः, 'परामर्शः' साध्ययाप्यो हेतईतमांच पक्ष इति जानाव्यवहितोत्तरं तादृशविषयताशालिनिश्चयः, 'अनवस्थानादिति ध्याप्तिप्रकारकज्ञानादेस्तदानौममवस्थानात्(१) इत्यर्थः ।
केचित्तु 'अनवस्थानादिति तदानौं धूममाचामविशष्टत्वेन धमत्वस्थाप्यमबिष्टतया विनाप्यनुमानं विशिष्टपरामर्शासम्भवेवानवस्थाप्रसङ्गादित्यर्थ इत्याहुः।
'वहिरखतन्त्रेणापौति वहिरिड्रियासहकारेण या बहिर्विषय
(१) तदानीमसवादित्यर्थः ।
Page #470
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामणे
न चानुमानात् तत्र परामर्शः, अनवस्थानात् । अथ यथा स देवदत्तो गौरो न वा परमाणरूपाधिकरणं न वेति संशयो वहिरस्वतन्त्रेणापि मनसा कोटिस्मरण-विशेषादर्शनादिसहकारिवशाजन्यते, यथा वा निद्रासहकारेण वाघस्वप्नानुभवः तथेहापि जानान्तरोपनीतविशेष्ये व्याप्तिस्मरणसहशतेन मनसा परा
कलौकिकप्रत्यक्षजनकता तदनाश्रयेणेत्यर्थः, सहकारित्वस्य भेदगर्भनया( माणदेरेव तादृशजनकता प्रसिद्धा, घाणदेरपि मनःसहकारेण तादृशजनकत्वादप्रसिद्धिवारणय वहिवं इन्द्रियविशेषणं, मनमोऽपि वहिरिन्द्रियासहकारेण सुखादिप्रत्यक्षजनकत्वादहिर्विषचकलं प्रत्यचविशेषणं, 'निद्रेति, मेध्या-मनामयोगः 'निद्रा', 'तथेहापौति इन्द्रियासविधष्टातौन्द्रियलिङ्गपक्षस्थले पौत्यर्थः, साध्यल्यायो हेतुः हेतुमान् पक्ष इति ज्ञानानन्तरमिति श्रेषः, 'ज्ञानामरोपनौतेति हेतुमान् पक्ष इति ज्ञानान्तरोपनौतविशेष्य इत्यर्थः, 'व्याप्तिस्मरणेति माध्यव्याप्योहेतुरितिव्याप्तिस्मरणेत्यर्थः, 'परामर्श:' माध्यव्यायहेतुमान् पक्षति निरुकविषयताशालिमानसनिश्चयः, 'तदनन्तरमिति माध्यव्याप्यहेतुमान् पक्ष इत्यादिनिखयानन्तरमित्यर्थः, 'याप्तिस्मरणादेः' इन्द्रियासनिकष्टलिङ्गविशेष्यकाकतव्याप्तिस्मरणदेः, 'प्रमाणान्तरतापत्तेरिति पक्षविशेष्यक-तादृशलिङ्ग(१) तत्महकारित्वञ्च तद्विनत्वे सति तज्जन्यपणजनकत्वमिति भावः ।
Page #471
--------------------------------------------------------------------------
________________
परामशः।
मर्श जन्यते तदनन्तरमनुमितिदर्शनादिति चेत्। न। व्याप्तिस्मरणादेः प्रमाणान्तरतापत्ते, तदेव हि प्रमाणान्तरं यदसाधारणं सहकारि समासाद्य मनोवहिगी
प्रकारकमानमान्यप्रमायाः करणत्वापत्तेरित्यर्थः, अन्तरपदस्य खरूपार्थकत्वात् एवमयेऽपि, एतेन(१) प्रामाणन्तरत्वं न प्रत्यवादिप्रमा
चतुष्टयभिचप्रमाणत्वं, अमिद्धेः, नापि तञ्चतुष्टयभिन्नत्वमाचं, वक्ष्यमाणपादकस्य इन्द्रियादौ मूलशैथिल्यापत्तेः, नापि प्रमाणनरत्वं प्रमाणत्वमेव, व्याप्तिज्ञानस्यानुमानात्मकत्वादिष्टापत्तेः, प्रमाजनकत्वोकावपि विशिष्टपरामर्शात्मकप्रत्यक्षप्रमामानुमित्यात्मकप्रमाचादायेष्टापत्तेः। अत एव मानसातिरिक्रमितिकरणत्वमपि न तत्, अनुमितिमादाय इष्टापत्तेः, नापि मानसप्रमित्यजनकत्वं, नियतव्यापाराभावेन प्रमायामकरणत्वादित्यग्रिमसिद्धान्तासङ्गतेरिति प्रत्युक्तं । आपत्तिवौजभूतां व्याप्तिं दर्शयति, 'तदेवहौति, 'हि' यस्मात्, यदसाधारणं सहकार्यासाद्य ममः 'वहिर्गाचरी' यदाचार्थविशेष्यक-यत्कारिका, 'प्रमां' प्रत्यक्षामिति, जनयति तत्सर्व नदर्थविशेष्यक-तत्प्रकारकमानमान्यप्रमायाः करणं भवतीति योजना, एवकारस्य माकल्यार्थकत्वात्, तथाच यद्वारार्थविशेष्यक-यदर्थप्रकारकप्रत्यक्षमितेर्मनोन्यासाधारणकारणं यद्भवति तत्तदर्थविशेष्यक
-
(१) अन्तरपदस्य खरूपार्थकत्वेनेत्यर्थः ।
Page #472
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्वचिन्तामणौ
।
घरांप्रमा जनयति यथेन्द्रियादि, संशय-स्वप्नौ तुन ममे इति न निद्रादेः प्रमाणन्तरत्वम्। नच तवापि
नप्रकारकप्रमायाः करणं भवतीति व्याप्तिगरौरं), सहकारित्वस्य
(२) यहाह्यार्थविशेष्यक यदर्थप्रकारक-प्रत्यक्षमितिसत्त्यनुभवत्वव्याप्यजात्यवच्छिन्न कार्यतानिरूपित-तादात्म्यसम्बन्धानवच्छिन्न कारणताश्रयत्वे सति खभिन्नमनोमिनप्रमाणजन्यवृत्तिप्रत्यक्षवव्याप्यजात्यवच्छिन्न कार्यतानिरूपितकारणतानाश्रयीभूसं यद्भवति तत्तहाद्यार्थविशेष्यक-तदर्थप्रकारकप्रमाया करणं भवतीति व्याप्तिशरीरं, दृष्टान्तच चक्षुरादिः, तथाच घटविशेष्यकघटत्वप्रकारकप्रमितिरत्तिर्या अनुभवत्वव्याप्यमातिश्चाक्षुषत्वं तदवच्छिन्नका. यंतानिरूपिततादात्मसम्बन्धागवच्छिन्नचक्षुष्ट्वावच्छिनकारणत्वं चक्षुषि वर्तते एवं चक्षुर्भिवभगोभिन्न प्रमाणं यत् प्राणेन्द्रियं तब्जन्यवृत्तिप्रत्यक्षवल्याप्यं অন্য মাত্র নবন্ধিাইলিমিন-
ফানালান্স ন খ্রিন तत्र घटविशेष्यक-घटत्वप्रकारकप्रमायाः करणत्वञ्चास्ति । व्याप्तिस्मरणरूपोपनयस्य यदि व्याप्तिप्रकारकप्रत्यक्षवावच्छिन्नं प्रति कारणत्वं नैयायिक खोक्रियते तदा स्थाप्तिस्मरणेऽपि पर्चतविशेष्यकवडिव्याप्यधूमप्रकारकमबक्षमितिहत्त्यनुभवत्वव्याप्यप्रत्यक्षवरूपजात्यवच्छिनकार्यतानिरूपितकारबताययवघटितापादकसत्त्वेग वत्र पर्वतविशेष्यक-वडिथाप्यधूमप्रकारकप्रमायाः करणत्वापत्तिः । अत्र प्रमाकरणत्वमात्रस्यापाद्यत्वे पर्वत. विशेष्यक-वडिप्रकारकानुमित्यात्मकप्रमामादाय व्याप्तिस्मरणे प्रमा-करणत्वस्येद्यापत्तिसम्भवात् तदाह्याविशेष्यक तदर्थप्रकारकप्रमाकरणत्वस्थापाद्यत्वमनुसृतं । न च पर्वतोवहिव्याप्यधूकवान् पर्वतश्च हिमान् इति समूहाणम्बगानुमितिरूपप्रमाकरणत्वस्य पक्षीभूतव्याप्तिस्मरण सत्यात्
Page #473
--------------------------------------------------------------------------
________________
परामर्शः ।
०६५
वाह्यार्थविशेष्यकेत्याद्युपादानेऽपौष्ठापत्तिर्व्वारयितुं न शक्यते । न च तायाविशेष्यक तदर्थप्रकारकप्रमायाः फलोपहितकरणत्वमेवापादनीयं तथाच धूमोवव्याप्योधूमवान् पर्व्वतः इति स्मरयोत्तरं यत्र वह्निव्याप्यधूमवानिति मानसपरामर्शः तदनन्तरं पर्व्वतो वह्निमान् इत्यनुमितिः तत्स्थलीयव्याप्तिस्मरणस्य पक्षतया तत्र नियक्तसमूहालम्ब नानुमितेः फलोपहितकरणत्वाभावात् नेष्टापत्तिसम्भावनेति वाच्यं । एवं सति घटविशेष्यक घटत्वप्रकारकप्रमितिसृत्यनुभवत्वव्याप्यचाक्षुषत्वावच्छिन्न कार्य्यता निरूपितचच्छुरूपस्वरूपयोग्यत्वकरणत्वस्य घटचाक्षुषानुपधायकोभूतचक्षुष्यपि सत्त्वात् तत्र घटविशेष्यक घटत्वप्रकारक प्रमायाः फलोपहितकरणत्वाभावात् व्यभि चारापत्तिरिति चेत् । न । स्वावृत्तित्व खनिरूपितत्यैतदुभयसम्बन्धेन - शेष्यक- तत्प्रकारकप्रमाविशिष्टं यत्कारणत्वं तदाश्रयस्य स्वावृत्तिच खनिरूपितत्वेतदुभयसम्बन्धेन विभिष्टं यत्कारणत्वं तस्यैव तद्विशेष्यकताकारकप्रमाकरयत्वपदार्थत्वात् । न च प्रकृतव्याप्तिस्मरणादौ तस्येष्ठापत्ति', तथाहि पर्व्वतोव किव्याप्यधूमवान् पर्व्वतश्च वह्निमानित्याकारिका या अनुमितिखरूपप्रमा खावृत्तित्व-स्वनिरूपितत्वोभयसम्बन्धेन तद्विशिष्टा न पर्व्वत विशेष्यक वक्रिव्याप्यधूम प्रकारक निश्चयत्वावच्छिन्ना कारणता किन्तु तादृशसमूहालम्बनानुमितिपूर्व्ववर्त्ति परामर्श निष्ठता क्वित्वावच्छिन्नकारणतैव तदाश्रयभूततत्तत्परामर्शव्यक्तः निरक्तोभयसम्बन्धेन वैशिष्टस्य प्रकृतव्याप्तिस्मरयवृत्तिकारणतायां विरहात् नेष्टापत्तिसम्भावना । घटविशेव्यक-घटत्वप्रकारकचाक्षुषस्य नियुक्तोभयसम्बन्धेनाधिकारणीभूतं यचच्तुःसंयोगत्वावच्छिन्न कारयत्वं तदाश्रयस्य नियक्तोभयसम्बन्धेनाधिकरणत्वं चतुष्वावच्छिन्नकारणतायामस्ति तत्कारणत्वस्य चक्षुषि सत्त्वात् न चच्तुषि दृष्टान्तासिद्धिः । पर्व्वतो वह्निमानित्याकारिका पर्व्वतविशेष्यिका या प्रमा नियक्तोभयसम्बन्धेन तदाश्रयोभूता या पर्व्वत पक्षक व हिव्याप्यधूमत्वावच्छिनप्रकारकनिश्वयत्वावच्छिन्ना कारयता तदाश्रयीभूतस्य मानसपरामर्शा
59
Page #474
--------------------------------------------------------------------------
________________
तावचिन्तामणी
লিবীযৰন্দ্রনায়িী না যা মানমলিনলিথাজিলহ্মানালিথিনসিলিনলিহ্মিাষনা নাश्रयत्वस्य प्रकृतव्याप्तिस्मरणे नैयायिकोः इछापत्तिः कत्तुं शक्यतया वदर्थप्रकारकत्वोपादानं, महानसं वशिव्याप्यधूमवत्पळतच वकिमान् हत्याकारकसमूहाजम्बनानुमितिप्रमायाः निशक्तोभयसम्बन्धेनाधिकरणीभूत यत्पर्वतधर्मिकवानुमितित्वावच्छिन्न कार्यतानिरूपित-पव्यतम्भिवति थाप्यधुमप्रकारकनिश्चयत्वावच्छिनकारणत्वं तदाश्रयस्थ मानसपरामर्शस्य विगतोमयसम्बन्धेनाश्रयीभूतं यत्ताक्तित्वावच्छिनथाप्तिमरणनिष्ठकार. खत्वं तदाश्रयत्वस्य नैयायिकमते प्रछतव्याप्तिस्मरणे इतृत्वात् यहाह्यार्थवि. शेष्यकत्वोपादानं, रखच पर्वतोवडिव्याप्यधुमवान् पर्वतोवहिमांश्च इति समूहालम्बनानुमितिप्रमायाः निरूपितत्वस्य पर्वतधम्मिक-वडिव्याप्यधूमप्रकारकनिश्चयत्वावचित्रकारणतायां सत्वेऽपि न तादृशसमूहालम्बगानु. मित्यत्तित्वं इति निगतोभयसम्बन्धेन न तादृशसमूहालम्बनप्रमामादाय इखापत्तिः। पत्र पर्वतोवडिव्याप्यवानियाकारकानुमितिप्रमायाः खार. तित्वसम्बन्धेनाधिकरणीभूतं यत्पव्र्वतोवधिमानित्यनुमितिनिष्ठतदनुमिति. बावच्छिनकार्थतानिरूपित-सम्मानसपरामर्शनिछताक्तित्वावचित्रकारगावं वदायीभूतपरामस्य निमतोमयसम्बन्धेनाश्रयोभूतकारणतायावाप्तिमरखे सत्वादिकापत्तिरतः खनिरूपितत्वं प्रथमसम्बन्धदयघटकमिति । न च पश्चिाप्यधुमविशिपर्वतत्वावचिनविशेष्याप्रमायाः गिर. लोमयसम्बन्धेनाधिकरणीभूसं यत्कारयत्वं तदात्रयस्य गिरानोमयसम्बन्धेन विशिएं यत्वारणत्वं तदेवापाद्यतां किं पर्वतत्वावच्छिन्नविशेष्यक-वति. चाप्यधूमप्रकारकामावैशिष्टस्य निवेशेन पखण्डवैशिनिवेशासम्भव रख बमोनिबल सार्थकत्वसम्मवात् इति वाथं । एवं सति वशिव्याप्यधूमरख पर्वतत्वस्य धर्मितावच्छेदकतया यत्रानुमितौ भासते तादृशं यदति बाप्यधूमवान् पर्वत इत्याकारकपर्वतोवक्रिमानितिसमूहालम्बनाइमिया
Page #475
--------------------------------------------------------------------------
________________
परामर्शः।
मकवानं तदनुमित्यत्तित्वस्य वडिव्याप्यधूमप्र कारतानिरूपितमव्वैतवापश्छिन्नविशेष्यवाभाणिनिश्चयत्वावच्छिन्न कारणले सत्त्वात् एवं तदनुमिति. निरूपितत्वस्य च सत्वात् तादृशकारणताश्रयवैशिघ्यमादाय सिद्धसाधनापत्तिरतः पर्वतत्वावच्छिन्नविशेष्यक-वहिव्याप्यधूमत्वावचिनाकारताशालिप्रमाया नियतकारणत्वमापादितं, एवं जातिमान् वशिव्याप्यधूमवान् पर्वतश्च वक्रिमानिति समूहालम्बनानुमितिल्पप्रमायाः निगतोभयसम्ब. न्धेन वैशिवस्य शुद्धपर्वतत्वावच्छिनोदेश्यक-वजित्वावच्छिन्नविधेयकानुमि तित्वावच्छिन्न कार्यतानिरूपित शुद्धपर्वतत्वावच्छिन्नविशेष्यक-वडिव्याप्यधूमत्वावछिनप्रकारताशालिनिश्चयत्वाछिनकारणतामादाय सिद्धसाधनापत्तिा, निरूप्य-निरूपकभावापन्नविषयताशाणिप्रमाया निवेशे च शुद्धपळतत्वावचिनविशेष्यक-वडिव्याप्यधूमप्रकारकप्रमायाः सात्तित्वसम्बन्धेन वैशिअस्य नियतकारणतायामसात्वात् न तादृशकारणतामादाय सिद्धसाधनमिति, एवच प्रमापदमपि सार्थकं भवति बन्यथा पर्वतोवहिव्याप्यधूमवान् पर्वतोवहिमांश्चेति समूहालम्पनामिविरूपस्य इदं चा वहिवाप्यधूमप्रमाभाववति वहिव्याप्यधूमप्रमाप्रकारकमित्यप्रामाण्णविधयकवानस्य निमबोमयसम्बन्धेन वैशिष्ठस्य सादृशनियत कारणतायां सत्वादिद्यापलितादवस्थामिति, तथाच तादृशाप्रामाण्य ज्ञानाखान्दितानुमितेर्भमसामान्यभिन्नत्वरूपप्रमात्वविरहात् नेवापत्तिसम्भावना । न चैवमपि भाविज्ञानं वहिव्याप्यधमाभाववति वहिव्याप्यधूमप्रकारकमित्वप्रामाण्यमानं ततः पर्वतोवलियाप्यधूमवान् पर्वतोवह्निमांश्चेति समूहाঘলকিামিনিঃ মমি নায়লুমিনিহ্মিনামনামাল নাঘুমিনামান্থাসাবিলিলারিकारणवाया असत्त्वेन प्रमापदोपादानेऽपि नेशापत्तिव्युदास इति वाचं। प्रमापदेन एकक्षणावच्छेदेनैकात्मरत्तित्वसम्बन्धेन भमशानविशिलान्यत्वमा विवक्षितत्वात् तादृशानुमितेष ममात्मकाप्रामाण्यज्ञानविशिलान्यवाद दोषः।
Page #476
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामयौ
मनु भ्रमज्ञानविशिष्टान्यत्व विशिष्ट पव्वंतत्वावच्छिन्न विशेष्यक- वव्यिाप्य धूम प्रकारक ज्ञान निरूपितकरणत्वापेक्षया केवलं प्रत्यक्षनिरूपितनिककरमेवापाद्य तेनैव पर्व्वतोव हिमानित्यनुमितिकरणत्वमादाय इष्टापत्तिव्युदाससम्भवादिति चेत् । न । अनुमितेरपि प्राभाकरमतेऽनुमित्वनुव्यवसायरूपतया प्रत्यक्षकारयत्व निवेद्येऽपौष्टापत्तेर्व्वारयायोगात् । नन्वेवं यत्र पर्व्वतो वह्निमानित्याकारकानुमितिरेव पर्व्वते वक्रिमनुमिनोमोत्याकारकप्रत्यक्षात्मिका तदृच्यनु मितित्वावच्छिन्नकाय्र्यत्वनिरूपित - कारयत्वस्य वह्निव्याप्यधूमवान् पर्व्वतइति परामर्शे सत्त्वात् तत्र च प्रमाकरयत्वविरहात् प्रमापदस्य प्रत्यक्षप्रमापरत्वेऽपि व्यभिचारो दुर्व्वारवेति चेत् । न । यद्दाह्यार्थविशेष्यक- यदर्थप्रकारतायां साक्षात्कारत्वनिरूपितत्वलाभाय प्रमापदस्य प्रत्यक्षपरत्वकथनात् तथाच पर्व्वतो - वहिमानित्यनुमितिकाले पर्व्वसे वहिं साक्षात्करोमीत्यनुव्यवसायाभावात् साक्षात्कारत्व निरूपितवह्निनिष्ठविषयताकत्वं न पर्व्वतोवहिमानित्यनुमितेरिति नानुमितेः प्रत्यक्षत्वमतेऽपि परामर्शे व्यभिचार' ।
2
मनु चक्षुःसंयोगस्य कार्य्यतावच्छेदकं लौकिक विषयतासम्बन्धेन द्रव्यचाच्क्षुभत्वमेवं श्वालोकसंयोगस्यापि तथाच चक्षुः संयोगादौ व्यभिचारस्यानुभवत्वव्याप्यजात्यवच्छिन्न कार्य्यतायां सत्यन्तदलप्रविष्टायां लौकिकविषयत्वावच्छिन्नत्वस्य निवेशेऽपि वारयितुं शक्यते इति तद्दारणाय स्वभिन्नमनोमिन्नप्रमाणजन्यवृत्तिप्रत्यक्षत्वव्याप्यजात्यवच्छिन्न कार्यतानिरूपितकार - तानाश्रयत्वरूपप्रमाणान्तरासहकारित्वनिवेशनं व्यर्थमिति चेत् । न । सत्यन्तदलप्रविष्टानु भवत्वव्याप्यजात्यवच्छिन्न कार्य्यतायां लौकिक विषयत्वानवच्छिन्नत्वनिवेशे मनःसंयुक्तसमवाये व्यभिचारवारणाय मयिदुक्तार्थे वहिविशेषणस्य व्यर्थत्वापत्तेः श्रात्म-मवेत निष्ठ लौकिक विघयतासम्बन्धेन मानसत्वावच्छिन्नं प्रत्येव मनः संयुक्तसमवायस्य कारणतया तत्र लौकिकविषयत्वान व च्छिल कार्य्यताप्रतियोगिक कारयत्वाभावादेव व्यभिचाराप्रसक्ते' |
Page #477
--------------------------------------------------------------------------
________________
परामर्श
एवं चाक्षु प्रति चक्षुझेन यथा कारणता तथा पधुर्मगासंयोग. वेगापि पतरयोक्तं प्राचोमैः "बामा मनसा संयुज्यते मन इन्द्रियेण रनियमन वतो शान" इति, वथाच चाक्षधं प्रति चक्षुर्मनोयोगत्वेग पारखतामादाय चमनोयोगे शभिचारस्तादृशकाय॑ताया लौकिकविष बखानवच्छिन्नवादतः खभिनमनोभिन्नप्रमाणजन्येत्यादिविशेष्यदलं, रवच. पशुमनोयोगमिमं यश्चतरूपं प्रमाणं तज्जन्यत्तिप्रत्यक्षत्वथाप्या या चाक्षुषत्वव्याप्यजातिः तदवच्छिन्न कार्यतानिरूपित-कारणताश्रयत्वस्यैव चक्षु. मनोयोगे सत्वात् न तत्र व्यभिचारः। नचैवं चक्षुधि दृष्टान्तासिद्धिः चनमिनमगोभिन्नं प्रमाणं यवक्षमनायोगादिः तज्जन्यत्तिपयक्षत्वव्याप्यजा. बवच्छिमकार्यतानिरूपितकारणताश्रयत्वस्य चक्षषि सत्त्वादिति वाच्यम् । अनुभवस्वव्याप्यजात्ववच्छिनकायंता इत्यवानुभवत्वव्याप्यजातिपर्याप्तावच्छे. दकताककायंताया एव विवक्षणीयतया एकपुरुषोयचतर्मनायोगतः पन्यपुरषोयचाक्षुषस्यानुत्पत्त्या तत्पुरुषीयचाक्षुषं प्रति तत्पुरुषीयमनोयोगत्वेनैव हेतुतया अनुभवत्वव्याप्यजातिपर्याप्तावच्छेदकताकत्वस्य ता. शकायंतायां विरहात् । न च तथापि चक्षुषि दृशान्तामिहिः सुषुप्तिकाले चानस्यानुत्पत्या चानसामान्यं प्रत्येव स्वमनोयोगहारा त्वचो. हेतुतया धार्मिनमनोभिन्नप्रमाणं यत्त्वक् तज्जन्यं चाक्षुषात्मक ज्ञानमपि भवति तन्जन्यत्तिप्रत्यक्षत्वयाप्यचाक्षुषत्वावच्छिन्न कार्यतानिरूपितकारय. नाश्रयत्वस्य चक्षुधि सत्वादिवि वाच्यं । स्वभिन्न मनोभिन्नप्रमाणनिष्ठजनकसानिरूपितजन्यतायां प्रत्यारत्तित्वमुपेक्ष्य पत्किञ्चिन्नन्यज्ञानावृत्तित्वस्य निवेशनीयतया जन्यज्ञानत्वावच्छिन्नायाः त्वकावच्छिन्न कारणतानिरूपितकार्यताया यत्किञ्चिजन्यज्ञानात्तित्वविरहात् । न चानुमितित्वावच्छिमं प्रति ज्ञानत्वेन हेतुतया अनुभवत्वव्याप्यानुमितित्वावच्छिन्न कार्यतानिरूपि. तकारणताश्रयीभूतं घटादिक्षानमपि नजन्यत्वं घटवदिति घटत्वविशिवशिवावगाविचाक्षुषेऽपि वर्तते इति तइत्तिप्रत्यक्षवल्याप्यनात्यवछिलका
Page #478
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामणौ
भेदगर्भतया मनोन्यत्वलाभात्, प्रमापदस्य प्रत्यक्षपरतया प्रत्यक्षमितेसोभः, दृष्टान्ते च इन्द्रियपदं वचुःपरं, आदिपदाचगादिपरिपहः। पत्र करणत्वस्यामाधारणजनकताघटिततया परौरात्मादौ काथ-दिगादौ च व्यभिचारवारणय मनोन्यासाधारणेति, तादृशप्रमाया मनोन्यासाधारणकारणत्वञ्च तादृशप्रमितिकृत्यनुभववव्याप्यजात्यवछिनकार्यतानिरूपितातादात्म्यसम्बन्धानवच्छिन्नकारणता - अयले मति मनोऽन्यप्रमाणन्तरासहकारित्वं, मत्यन्तोपादानादेव बन्यज्ञानत्वावच्छित्रजनकस्य नरौरात्मादेः, कार्यत्वावच्छिवजनकस्य काच-दिगादेः, विभिष्टवैशिष्यानुभवत्वावशिवजनकस्य विशेषणनावच्छेदकप्रकारकज्ञानादेर्युदासः, नव्यक्तित्वेन कार्य-कारणभावमादाय विशेषणतावच्छेदकप्रकारकज्ञानादावतिप्रसङ्गवारणाय तर जातिपदं, तदवच्छिनत्वञ्च तनिष्ठावच्छेदकताकत्वमाचं न तु तत्पर्याप्तावच्छेदकताकत्वं, तेन पौभूतव्याप्तिज्ञानादेः तत्तत्प्रकारकप्रत्यक्षत्वावचिनजनकत्वेऽपि न न्यायनये स्वरूपासिद्धिः । न चापत्तौ स्वरूपामिद्धिः न प्रतिकूलेति वाच्य। तथामत्यापाद्याभावेमापादकाभावमाधने मिथसाधनापत्तेः पापाद्याभावेन आपदकाभावसाधने एवास्थापादनस्य तात्पर्य्यात् । तादात्म्यसम्बन्धानवच्छि
यंतानिरूपितकारणताश्रयत्वस्य चक्षुषि सत्त्वात् चक्षुषि दृशान्तासिज्जितादवस्था इति वाच्यं । खमिनमनोमिनप्रमाणतायां जानात्तित्वस्य निवेशगौयत्वात् नानुमितित्वावशिचं प्रति ज्ञानवेन कारणवामादाय हवा. मासिद्धिरिति विभागीयम् ।
Page #479
--------------------------------------------------------------------------
________________
परामर्शः।
बलोपादानात् विषयत्वेन लौकिकप्रत्यक्षत्वेन तत्तविषयकलौकिकप्रत्यक्षवेन तत्त्वेन मयादिलौकिकप्रत्यक्षवेन मयादित्वेनेति कार्य-कारणभावमादाय मयादिलक्षणविषये न व्यभिचारः । न प तदपि प्रमाकरणं भवत्येव विशिष्टप्रत्यक्षजनने निर्विकल्पकस्यैव व्यापारत्वादिति कुतो व्यभिचार इति वाच्य। तथापि निर्विल्पकाजनके विषये व्यभिचारस्य दुर्वारत्वात् निर्विकल्पकादिकमजनयित्वैव माचात्तविशेष्यक-तत्प्रकारकचाक्षुषादिजनके चक्षुःसंयोगादिव्यक्तिविशेष व्यभिचारवारणय विशेष्यदलं तदर्थश्च मनोऽन्यखभिन्नप्रमाणजन्यवृत्तिप्रत्यक्षत्वव्याप्यजात्यवच्छित्रकार्यतानिरूपित-कारणतानाश्रयत्वं, एतच्च शरीरादिसाधारणं अतो न मत्यन्नदलवैयर्थ, चक्षुरादरपि मनोरूपप्रमाणजन्यवृत्तिवाक्षुषत्वाचवच्छिन्नं प्रति जनकत्वात् खात्मकप्रमाणजन्यवृत्तितदवच्छिवं प्रति जनकत्वाच दृष्टान्तासिद्धिवारणाय मनोऽन्यत्वं खभिन्नत्वञ्च प्रमाणविशेषणं । मनु तथापि १) चक्षुरादेरालोकाद्यात्मकप्रमाणजन्यवृत्तिचाक्षुषत्वाद्यवच्छिन्न प्रति जनकत्वात् अमिद्भिर्दुवारा।न च खभिन्नप्रमाणत्वं अनुभवत्वव्याप्थजात्यवछिन्नकार्य्यताप्रतियोगिकखावृत्तिकारणताश्रयत्वं, अनुभवत्वव्याप्यजात्यवछिनषच नादृशजातिपर्याप्तावच्छेदकताकत्वं, प्रायोकादिक न तथा द्रव्यसौकिकचाक्षुषत्वादेरेव तत्कार्य्यतावच्छेदकत्वादिति वाचं। द्रव्यवृत्तिलविशिष्टलौकिकविषयतासम्बन्धेन चाक्षुषत्वस्यैव तत्कार्य्यतावच्छेदकवादिति चेत्। न। अनुभवत्वबायजात्यवसिवलौकिकविषयत्वानव
(१) पथ तथापौवि ग ।
Page #480
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०२
तत्त्वचिन्तामो
शिवकार्यताप्रतियोगिकस्वावृत्तिकारणतात्रयस्य खभिवप्रमाएपदेन विवक्षितत्वात् चक्षुरादेः सामान्यतश्चाक्षुषत्वाचवच्छिन्नं प्रत्येव जनकवात् तादृशप्रमाणत्वसम्भवः, एकस्यायक्षुरादिव्यकस्तानकारणताअयचक्षुरादिव्यत्यन्तरजन्यवृत्तिकार्य्यताप्रतियोगिककारणताश्रयत्वात् अमिद्धितादवस्यवारणाय खभिन्नत्वं तादृशकारणतात्रयविशेषणमपहाय खावृत्तित्वं कारणताविशेषणं, शरीरादिसाधारणकारणलमादाय द्रव्यत्वेन जन्यसत्त्वेन कार्य-कारणभावमादाय चामिद्धितादवस्थ्यवारणयानुभवत्वव्याप्यजात्यवच्छिन्नत्वं खभिन्नप्रमाणवघटककार्यताविशेषण(१) । न च तथापि कालत्वेन कार्य्यवेन द्रव्यत्वेन जन्यसवेन कार्य-कारणभावमादाय चक्षुरादिजन्यज्ञानस्यापि बगादिरूपनिरुकवभिन्नप्रमाणजन्यत्वात् असिद्धितादवस्थमिति वाचम्। द्रव्यावृत्तित्वेन जन्यताविशेषणात्(२) पचौमतव्याप्ति मरपदेपनयस्यापि तत्प्रकारकप्रत्यक्षवावछिन प्रति जनकतया चचुरादिप्रमाणन्तरजन्यवृत्तिकाद्वैतानिरूपितकारणताश्रयत्वात्
(१) नचैतत् कथं सहच्छते इयत्वावच्छिन्न कारणत्वस्य चक्षुरादितिवादिति वाच्यम्। स्वात्तिवपदेन समिछमितिकरणतावच्छेदवानवछिनत्वस्य कार सतायां विवक्षितत्वात्, तथाच व्यत्वावच्छिन्नजनकातायां অবিলিস্তমনিৰিহ্মাৰনাৰহ্মানবচ্ছিন্ন অন্যানৰ সম্বল समिछमितिकरणतानवच्छेदकत्वात् ।
(२) मनोभिन्नखभिन्नप्रमाणजन्यरत्तीत्यत्र बन्यताविशेषवादित्यर्थः, तथाच काजत्वावच्छिनकतानिरूपितजन्यतायाः कार्यत्वावनिवार्य प्रवेऽपिकवान दोषः इति भावः।
Page #481
--------------------------------------------------------------------------
________________
800
परामर्शः। कथं स धूमावहिव्याप्य इति व्यवहारः तदानी तड्याप्यत्वानुभावकाभावादिति वाच्यं। तव स्मृतधूमे धूमत्वेन वहिव्याप्यत्वानुमानात्। नच तन्मते धूमत्वेन. व्याप्त्यनु
न्यायनये स्वरूपासिद्धिः कालवेन कार्यत्वेन द्रव्यत्वेन जन्यसत्त्वेन कार्य-कारणभावमादाय चक्षुरादेरपि त्वगादिप्रमाणन्तरजन्यवाचादिवृत्तिकार्यताप्रतियोगिककारणताश्रयत्वात् दृष्टान्तामिद्धिश्चातः तद्वारणय प्रत्यक्षत्वव्याप्यजात्यवच्छिन्नत्वं महकारिताघटककार्यताविशेषणं, प्रत्यक्षत्वव्याप्यत्वच्च प्रत्यक्षनिष्ठान्योन्याभावप्रतियोगितावचकत्वे मति प्रत्यक्षवृत्तित्वं, तेन पक्षौभूतव्याप्तिस्मरणदेरपि परमर्श-पक्षताद्यात्मकनिरुतखभिन्नप्रमाणजन्यवृत्त्यनुमितित्वावच्छि
कार्यतानिरूपितकारणताश्रयत्वेऽपि न स्वरूपासिद्धिः, स्वभित्रप्रमाणत्वघटकानुभवत्वव्याप्यजात्यवच्छिन्नत्वं वा तादृशजातिपर्याप्तावच्छेदकताकत्वं वक्तव्यं परामर्शादेः कार्य्यता न तथा, एवञ्च प्रत्यक्षवृत्तित्वं नोपादेयं किन्तु तादृशजात्यवच्छिन्नत्वं मुख्यविशेष्यविधया समवायसम्बन्धेन तादृशजात्यवच्छिन्नत्वं वक्रव्यं ५) तेन व्याप्ति
(१) मुख्य विशेष्यविधया अवच्छेदकत्वं इत्यस्य कार्य्यताज्ञानीयमुख्यविशे
व्यतानिरूपितप्रकारतासमानाधिकरणावच्छेदकत्वं इत्यर्थः, चाक्षर्ष चक्षुः कार्यामित्याकारक-का-ताज्ञानीय-मुख्य विशेष्यवानिरूपित-प्रकारतासमानाधिकरणावच्छेदकत्वं चाक्षुषत्वादावेव वर्तते, तथा धूम
60
Page #482
--------------------------------------------------------------------------
________________
808
तत्त्वचिन्तामणौ
भवः सम्भवति, अत एव यो वहिव्याप्यवान् सेोऽवश्यं वहिमान इति व्याप्तिज्ञानवतोऽनुमिति न्यथा। अथ
स्मरणदेरपि कार्य्यतावच्छेदककोटौ प्रत्यक्षत्वन्यूनवृत्तिधूमत्वादेः प्रवेशेऽपि नासिद्धिः(१) खभिन्नप्रमाणत्वघटककारणतायां खातित्वविशेषणदेव व्याप्तिज्ञानादिव्यक्त्यन्तरजन्यानुमितिव्यक्तिमादाय नामिद्धिः। न च तथापि महत्त्वे व्यभिचारः प्राचीननये तस्य द्रव्यलौकिकप्रत्यक्षत्वावच्छिन्ने द्रव्यवृत्तित्वविशिष्टलौकिकविषयतादिसम्बन्धेन प्रत्यक्षवावच्छिने वा जनकतया निरुकामहकारित्ववत्त्वादिति
त्वप्रकारकप्रत्यक्षं धूमत्वज्ञानकायं इत्याकारककायंताज्ञानीयमुख्यविशेष्यतानिरूपितप्रकारतासमानाधिकरणावच्छेदकत्वं प्रत्यक्षत्वादावेव न तु धूमत्वादौ इति तस्य प्रत्यक्षत्वव्याप्यत्वेऽपि नासिद्धिः । यदिच परम्परायाः संसर्गत्वमभ्युपेयते तदा धूमत्वादेरप्यवच्छेदकत्वं सम्भवति खप्रकारकप्रत्यक्षत्ववत्त्वसम्बन्धेन धूमत्वावच्छिन्न प्रति धूमव
धानत्वेन हेतुत्वकल्पनात् यत उक्त समवायेनेति । (१) व्याप्तिस्मरणभिन्नं मनोभिन्नञ्च यच्चक्षुरूपं प्रमाणं तज्जन्यं यत् वह्नि
व्याप्यधूमवान् पर्वत इत्याकारकं धूमांशेऽलौकिकं पर्वतांशे जौकिक प्रत्यक्षात्मकं ज्ञानं तवृत्तिप्रत्यक्षवन्यूनवृत्ति यत् धूमत्वं तदवच्छिन्नकार्यतानिरूपितकारणताश्रयत्वं व्याप्तिस्मरणे वर्तते धूमत्वप्रकारकप्रत्यक्ष प्रति धूमत्वज्ञानस्य हेतुत्वकल्पनात् अतः खरूपासिद्धिसा. विरिति विभावनीयं ।
Page #483
--------------------------------------------------------------------------
________________
परामशः।
800
पर्वतीयधूमे धूमत्वेन जाते वह्निव्याप्योऽयं न वेति संशयेऽप्यनुमितिः स्यादिति चेत्। न। धूभों वहिव्याप्यइति स्मरणे विद्यमाने धूमत्वज्ञानस्य विशेषदर्शनम्वेन
वाच्यं । तन्मताभ्युपगमेऽसाधारणकारणतार्या मत्यन्तदले तादाम्यसम्बन्धानवच्छिन्नत्ववन्महत्त्वावृत्तित्वेनापि कारणताया विशेषणैयत्वात् । न च तथापि उद्भूतरूपे व्यभिचारः तस्य मानसेतरद्रव्यलौकिकप्रत्यक्षत्वावच्छिन्ने उद्भूतरूपवट्रव्यदृत्तित्वविशिष्टलौकिकविषयतासम्बन्धेन(१) प्रत्यक्षत्वावच्छिन्ने वा जनकतया निरुतासहकारित्ववत्त्वादिति वाच्यं। तस्य लाघवेन द्रव्यलौकिकचाक्षुषत्वाद्यवच्छिन प्रत्येव जनकत्वात् मौमांसकेन पूर्वपक्षिणा वायोरपि प्रत्यक्षत्वाभ्युपगमात् जरनैयायिकनये तु महत्वावृत्तित्ववद्रूपावृत्तित्वस्थापि(१) मत्यमदले कारणतायां प्रवेशनीयत्वात् । मनःसंयुक्तसमवायादिलक्षणस्य सुखादिसत्रिकर्षस्थापि मनोऽन्यप्रमाणन्तरामहकारित्वात् तत्र व्यभिचारवारणाय वहिष्ठं अर्थविशेषणं, तच्च मानसलौकिकप्रत्यक्षाविषयत्वं, परनये ज्ञानलक्षणाया प्रमन्त्रिकर्षतया सुखादिप्रत्यक्षे वहिरर्थस्य कदाचिदप्यमानान व्यभिचारतादवस्थ्य, परामादेरभावज्ञानत्वाद्यवच्छिन्नखवृत्तिकारणताश्रयस्य व्याप्तिज्ञानादेरेव सहकारितया तत्र
(१) मूर्त्तत्वविशिष्टलौकिकविषयतासम्बन्धेनेति ग० । (२) उद्भूतरूपावृत्तित्वस्यापीति ख० ।
Page #484
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७८
तत्वचिन्तामो
संशयाभावात्, अन्यथा परामर्शोऽपि कुतो न स्यात् संशयेन प्रतिबन्धादिति चेत्तुल्यं। नच सामान्यनिश्चयस्य सामान्यसंशयनिवर्तकत्वाबूमसामान्ये एव संशया
व्यभिचारवारणाय सामान्यतोज्ञानत्वादिकमपहाय प्रत्यक्षमितित्वेन प्रवेशः, विपरौतज्ञानोत्तरप्रत्यक्ष प्रति विशेषदर्शनादेन कारणलं अपि तु विपरीतज्ञाननिवर्तकतया कथञ्चिदुपयोगित्वमेव तस्येति न व्यभिचार इति सर्वं चतुरखें। __ केचित्तु 'व्याप्तिस्मरणादेः प्रकृतव्याप्तिस्मरणादेः, 'प्रमाणाम्नरतापतेरिति प्रत्यक्षविजातीयविशिष्टपरामर्शरूपप्रमाकारणत्वापत्तरित्यर्थः, 'तदेव होत्यादि, 'हि' यस्मात्, यदसाधारणं मनोरूपं सहकार्यामाद्य वहिर्गोचरां प्रमां जनयति तदेव प्रमाणान्तरं तत्म प्रमाणान्तरं, इति योजना, यदित्यसाधारणविशेषणं, 'प्रसधारणं' यज्जातीयप्रमामामय्यसमवहितं, मनोरूपं सहकार्यामाद्येति स्वरूपकथनं, 'वहिर्गाचरां प्रमां जनयति' यदिशेष्यक-यत्प्रकारकप्रमा जनयति, 'प्रमाणान्तरं' तद्विजातीयतविशेष्यक-तत्प्रकारकप्रमाकरणं, तथाच यद्यन्नातीयप्रमामामय्यसमवहितं सत् यदिशेयक-यत्प्रकारकप्रमाजनकं भवति तत्तद्विजातीयतविशेष्यक-तत्प्रकारकप्रमाजनकं भवति यथा चचुरादिकमनुमानादिजातीयप्रमामामय्यसमवहितं सत् घटादिविशेष्यकघटत्वादिप्रकारकप्रमाजनकं भवति तदनुमानादिविजातीयतादृशप्रमाजमकं भवत्येवेति निष्कृष्टं व्याप्तिशरीरं, प्रकृते व्याप्तिस्मरणमपि
Page #485
--------------------------------------------------------------------------
________________
परामर्शः ।
809
मा भूत् विशेषसंशयश्च विशेषनिश्चयनिवर्त्तनीय इति धूमविशेषे संशयनिरासार्थं पृथग्व्याप्तिनिश्चयेा वाच्यइति वाच्यं । यच हि ययावर्त्तकधर्मदर्शनं तच न तत्सं
यदि प्रत्यक्षजातोयप्रमाया लौकिकसन्निकर्षाद्यात्मकसामय्य समवहितं सत् विशिष्टपरामर्शरूपप्रमाजनकं स्यात्तदा प्रत्यचविजातीयतादृशप्रमाजनकं स्यात्सामग्रौ च उभयवादिसिद्धत्वेन विशेषणीया, तेनोपनयसन्निकर्षमादाय नासिद्धिः परनये उपनयस्य सन्निकर्षाभावादिति व्याचक्रुः । तदसत् । 'नियतव्यापाराभावेन प्रमायामकरणत्वादित्यग्रिमग्रन्थासङ्गतेः प्रमाकरणत्वस्यापाद्यत्वाभावात् । न च प्रत्यक्षविजातौयविशिष्टपरामर्श करणत्वमेवापादनीयं ( ९ ) व्याप्तावपि माध्ये करणत्वमेव निवेशनौयमिति वाच्यं । श्रनुमानादिविजातीयप्रमासामग्रौमादाय चचुःसंयोगादौ व्यापारे व्यभिचारापत्तेरिति दिक् ।
ननु प्रागुक्रसंशय-स्वप्नजनके निद्रादिजन्यपदार्थोपस्थितिरूपोपनयसन्निकर्षेऽयं नियमो व्यभिचारौ तत्र मनसो निद्रायास करणत्वेन तज्जन्यपदार्थेौपस्थितिरूपोपनयस्याकरणत्वादित्यत श्राह 'संशय - खप्नौ विति प्रागुक्तसंशय - स्वप्नौ त्वित्यर्थः, 'न प्रमे' न विशिष्टप्रत्यक्षरूपी, किन्तु स्मरणादिरूपधर्मिज्ञान - विशेषण ज्ञानरूपौ, विशेषण - विशेष्य
(१) तथाच प्रमाणान्तरतापत्तेरित्यस्य प्रत्यक्षविजातीयविशिष्टपरामरूपप्रमाकर तापत्तेरित्यर्थे वाच्य इति भावः ।
Page #486
--------------------------------------------------------------------------
________________
89
तत्त्वचिन्तामणौ
शयः तच्च सामान्ये विशेष वेति। वस्तुतस्तु धूमत्वपूरकारेण व्याप्तिस्मरणे पक्षधर्माताज्ञाने चानुमितिभवत्येव । ननु भावोऽभावो वा उभयथापि प्रमेय
योौकिकसन्निकर्षसत्त्वे एव तयोः प्रत्यक्षरूपत्वादिति भावः । निद्रादेः' निद्रादिजन्यपदार्थापस्थितेः, न प्रमाणन्तरत्वं न विशिष्टप्रत्यक्षमितेरसाधारणकारणत्वं, तथाच हेत्वभावादेव न व्यभिचार इति भाव इति सम्प्रदायविदः ।
सजवस्तु नन्वेतादृशनियमे निद्रादिजन्यपदार्थोपस्थितेरपि संशय-खप्रकरणत्वापत्तिरित्यत आह, 'संभयेति, 'न प्रामाणान्तरत्वं' न प्रमाणन्तरत्वप्रसङ्गः न मंशय-खप्रकरणत्वप्रसङ्ग इति यावत्, शेषं पूर्ववदित्याहुः। तदुभयमप्यसत् । 'संशय-स्वप्नी तु न प्रमे' इत्यभिधानस्यानुपयुक्तत्वापत्तेः निद्रादिजन्यपदार्थोपस्थितेर्न संशयस्वप्नासाधारणकारणवमित्यस्यैव वकुमुचितत्वात् तत्रये ज्ञानलक्षणमन्त्रिकर्षस्य प्रत्यक्षाजनकतया तयोविशिष्टप्रत्यक्षरूपत्वेऽपि निद्रादिजन्यपदार्थोपस्थितौ तदसाधारणकारणत्वासम्भवात् ।
वस्तुतस्तु प्रागुनसंशय-स्वप्नस्थले वहिरिन्द्रियलौकिकमन्त्रिकर्षे विनापि वाह्यार्थविषयकविशिष्टप्रत्यक्षजनने क्लप्तशक्तिकेन मनसा प्रकृतेऽपि तेन विना विशिष्टप्रत्यक्षं जनयितव्यं(१) केन वारणैयं
(१) विशिष्प्रत्यक्षजननमिति ख. ।
Page #487
--------------------------------------------------------------------------
________________
परामर्शः।
898
मित्यच भावत्वाभावत्वयार्थाप्यत्वावच्छेदकयोरग्रहादनुमानं न स्यात् तदन्यान्यत्वरूपस्यान्यतरत्वस्य लिङ्गत्वाभावादिति चेत्। न। भावत्वाभावत्वान्यान्य
न ह्यापत्तिभिया सामग्री कार्य नार्जयिष्यति। न च वहिरिन्द्रियव्यापार विना मनमा वाह्यार्थविषयकविशिष्टप्रत्यक्षजनने दोषस्य सहकारितया प्रकृते दोषाभावादेव न तेन विशिष्ट प्रत्यक्षजननसम्भवइति वाच्यं । दोषं विनापि स वृक्षः संयोगवान्न वेतिकोटिदयामारूपसंशयजनने दोषस्य व्यभिचारादित्यताह, 'संशयेति लौकिकमन्त्रिकर्षाजन्यसंशय- स्वप्नौ वित्यर्थः, 'न प्रमे' न विशिष्टप्रत्यक्षरूपौ, किन्तु स्मरणाद्यात्मकधर्मिज्ञान-विशेषणज्ञानरूपो, “निद्रादेरिति पञ्चमी निद्रादिसहकारादित्यर्थः, 'प्रमाणन्तरत्वं' मनसः प्रमाणत्वं मनसो वहिरिन्द्रियलौकिकसन्निकर्ष विना वाह्यार्थविषयकविशिष्टप्रत्यक्षकारणत्वमिति यावत् । यदा 'निद्रादेरित्यस्यैव 'निद्रा' मेध्यामनःसंयोगः, तस्य 'श्रादिः' कारणं, इति व्युत्पत्त्या मनसइत्यर्थः । 'न चेति, इन्द्रियामनिकृष्टे धमे इति शेषः, 'तवापौति, धूमो वहिव्याप्य इति विशिष्टस्मरणाद्यभावदशायामिति शेषः, 'तड्याप्यत्वानुभावकेति तमे वहिव्याप्यत्वानुभावकाभावादित्यर्थः, तत्र मानसस्य त्वयानङ्गीकारात् विशिष्टव्यवहारं प्रति च विशिष्टज्ञानस्य हेतुत्वादिति भावः । 'याप्यत्वानुमानादिति खण्डशः धूमत्वत्वादिना धमत्वादौ वहिव्याप्तिव्याप्यवस्मरणस्य धूमत्वत्वादिना
Page #488
--------------------------------------------------------------------------
________________
8.
तत्त्वचिन्तामो
धर्मवत्वस्य तब लिङ्गत्वात्, एवं धूमालाकान्यतरत्वमपि लिङ्गम् । अथ यद्यतिरेकज्ञानं यदुत्पत्तिप्रतिबन्धकं तत्तनिश्चयसाध्यं तथाच पक्षधर्मस्य व्याप्य
तमे धूमत्वादिमत्तास्मरणस्य च सत्त्वात्, यदा तु न तादृशस्मरणं तदा असंसर्गाग्रहादेवेति भावः। 'न च तन्मत इति, वहिव्याप्तिव्याप्यधूमत्ववान् स धूमः वहिव्याप्तिव्याप्यं धूमत्वं नझूमे इति विशिछस्मरणभावात् तद्भूमस्यामन्त्रिकष्टत्वेन प्रात्यक्षिकतादृशविशिष्टपरामर्मस्थासम्भवात्, तथाच भवन्मत एव तादृशविशिष्टपरामर्शविरहदशायां तादृशविशिष्टव्यवहारो न स्यादिति भावः । काण्यतावछेदकप्रकारकव्याप्तिज्ञानाभावात् वहिव्याप्यवानयमिति शाब्दादिजानजन्यानुमितौ स्वमते व्यभिचारमुद्धरति, 'श्रत एवेति यत एवातौन्द्रियादौ व्यभिचारात् विशिष्टज्ञानं न कारणं अपि तु व्याप्यतावच्छेदकयद्धविच्छे देन व्याप्तिग्रहस्तत्प्रकारकपक्षधर्मताज्ञानं कारणं अत एवेत्यर्थः, वहिव्याप्यवानयमिति शाब्दज्ञानोत्तरमिति शेषः, 'व्याप्तिज्ञानवत इति व्याप्तिस्मरणवत इत्यर्थः, अत्र वहिव्यायवस्यैव वहिव्याप्यतावच्छेदकस्य प्रकारत्वादिति भावः । पर्वतीयधूमइति धूमवरूपेण धूमे पर्वतवच्चे ज्ञाते इत्यर्थः, वहिव्यायः वजिव्याप्यो धूमः, 'अयं न वा' पर्वतवान्न वा, अस्मन्मते च वहिव्याप्यो धमः पर्वतवान् इति विशिष्टनिश्चयाभावाच तदानीमनुमितिरिति भावः । ‘स्मरणे विद्यमाने' धर्मितावच्छेदकप्रकारकर्मिमारणे
Page #489
--------------------------------------------------------------------------
________________
परामर्शः ।
भेदज्ञानमनुमिति प्रतिबन्धकम् श्रतेा व्याप्याभेदज्ञानं तहेतुः सिध्यतीति चेत् । न । धूमत्वपुरस्कारेण व्याप्तिस्मरणे पक्षधर्म्मताज्ञाने च सति विशेषदर्शनात्र धूमे
१
विद्यमानेऽपीत्यर्थ: (१), 'धूमत्वज्ञानस्य' धूमत्वरूपेण धूमे पर्व्वतवत्तानिश्चयस्य, ‘विशेषदर्शनत्वेन' व्यावर्त्तकधर्मदर्शनत्वेन, 'संशयाभावात्' संशयस्यासम्भवात्, ‘अन्यथेति व्यावर्त्तकधर्मदर्शने सत्यपि यदि तत्र संशयस्तदेत्यर्थः, संशयानन्तरमिति शेषः, 'परामर्शोऽपि कुतो न स्वादिति तव वहिव्याप्यो धूमः पर्व्वतवानिति विशिष्टनिश्चयस्यापत्तेः यैव ममानुमितिसामग्रौ तस्या एव तव परामर्श सामग्री - त्वादित्यर्थः, तस्मात्तत्र संशयो न जायते किन्तु विशिष्टनिश्चय एव जायते ततोऽनुमितिरिति त्वयापि स्वीकरणीयमिति भावः । ननु मम विशिष्टपरामर्शस्यापि श्रापत्तिर्नास्तीति संशयस्य प्रतिबन्धकत्वादित्याशङ्कते, ‘संशयेन प्रतिबन्धादिति, न विशिष्टपरामर्श प्रापत्तिरिति शेषः । ' तुल्यमिति ममाप्यनुमितिं प्रति संशयः प्रतिबन्धकः सुवच दूत्यर्थः, एतच्चाभ्युपगमवादः तादृशसंशयस्यानुमितिं प्रत्यतिरिक्तप्रतिबध्य-प्रतिबन्धकत्वकल्पने गौरवात् । वस्तुतस्तु विशेषदर्शनसत्त्वात् संशय एव न जायत इत्यचैव निर्भरो बोध्यः, श्रत एव तथैवाशङ्कते, 'न चेति, 'सामान्यनिश्चयस्येति धूमत्वरूपसामान्यधर्म
(१) संशयं प्रति धर्म्मित । वच्छेदकप्रकारक धर्म्मिज्ञानं कारणमित्यभिप्रवाह, धर्म्मिति ।
61
Page #490
--------------------------------------------------------------------------
________________
२
तत्त्वचिन्तामणौ
व्याप्यभेदज्ञान किन्तु अनुमितेरेवोत्यत्तिः तत्सामग्रीसत्त्वात् अतो व्याप्यभेदज्ञानं नानुमितिप्रतिबन्धक येन व्याप्याभेदज्ञानं तहेतुः स्यात्। न च धूमत्वप्रकारेण
धर्मितावच्छेदककनिश्चयस्येत्यर्थः, 'सामान्यसंशयेति धूमवरूपमामान्यधर्मधर्मितावच्छेदककसंशयेत्यर्थः, निवर्त्तकत्वात्' प्रतिबन्धकत्वात्, तत्मत्त्व इति शेषः, 'धूममामान्ये' धूमत्वावच्छिन्ने, 'विशेषसंशयइति वहिव्याप्यधूमवरूपविशेषधर्मावच्छिन्नविशेष्यताकमंशय इत्यर्थः, 'विशेषनिश्चयेति तादृशविशेषधर्मावच्छिनविशेष्यताकनिश्चयेत्यर्थः, 'निवर्तनीयः' प्रतिबध्यः, 'धूमविशेषे' वहिव्यायधमत्वावच्छिन्ने, 'संशयनिरासार्थमिति पर्वतसंशयानन्तरमनुमितिनिरासार्थमित्यर्थः, 'पृथगिति वहिव्याप्यो धूमः पर्वतवान् इति विशिष्टनिश्चय एवानुमितिहेतुळच्यः इत्यर्थः । 'यत्र हौति यद्धर्मावच्छिन्ने हौत्यर्थः, 'तत्र' तद्धर्मावच्छिन्ने, ‘तच्च' तद्धर्मावच्छिन्ने तत्संशयात्मकज्ञानञ्च, 'सामान्ये विशेषे वेति तद्धर्मावच्छिन्ने तद्धर्मघटितविशेषधर्मावच्छिन्ने वेत्यर्थः, तथाच सामान्याभाव-तड्याप्यादिबुद्धेः सामान्यघटितविशेषवत्ताबुद्धिप्रतिबन्धकत्ववत् सामान्यधर्मधर्मितावच्छेदककतड्यावर्त्तकधर्मवत्ताज्ञानमपि(१) सामान्यघटितविशेषधर्मधर्मितावच्छेदककतदताबुद्धिं प्रति प्रतिबन्धकं भूतलं घटाभाववदिति निश्चये भूतलं घटवदिति ज्ञानवत् नौलभूतलं घटवदिति बुद्धेरप्यनुदयात्, तड्या
(१) त ह्यावर्तकधर्मदर्शनमपौति ग०।
।
Page #491
--------------------------------------------------------------------------
________________
परामर्शः।
४८३
व्याप्तिस्मरणपक्षधर्मताग्रहे इयं धूमव्यक्तिर्वहिव्याप्या नेति भ्राम्यतोऽनुमित्यापत्तिरता विशिष्टज्ञानं हेतुरिति वाच्यं । धूमत्वस्य विशेषस्य दर्शनेन तादृशम्रमानुत्पत्तोः
वर्तकधर्मश्च तदत्यन्ताभावः, तदत्यन्ताभावव्याप्यः, तदत्यन्ताभावो यद्धविच्छेदेन ग्टहीतः स धर्मः, तद्वदन्योन्याभावः, तद्वदन्योन्याभावव्यायः, तद्वदन्योन्याभावो यद्धविच्छेदेन ग्टहीतः स धर्मः, तादात्म्यसम्बन्धेन तदत्ताबुद्धौ त दादिदर्शनमपि बोध्यं । न च तथापि वहिव्यायः पर्वतवान्न वेति मंशये न किमपि बाधकं तत्र धर्मितावच्छेदके धमत्वाप्रवेशादिति वाच्यं। तादृशसंशयसत्त्वेऽनुमितेरिष्टत्वात् वहिव्याप्यो धमः पर्वतवानिति विशिष्टनिर्णयदशायां नादृशसंशयस वेष्यनुमितेस्त्वयाप्यभ्युपगमादिति भावः। वस्तुतस्तु 'अन्यथेत्यादिग्रन्थोऽन्यथैव योजनीयः, तथाहि 'अन्यथा' धूमलावच्छिन्नविशेष्यक-पतवत्तानिश्चयो यदि व्यावर्त्तकधर्मदर्शनत्वेनापि न वहिव्याप्यधमत्वावच्छिन्नविशेष्यक-पर्वतसंशयाभावप्रयोजकः तदा, 'परामर्शीऽपौति वहिव्याप्यो धूमः पर्वतवानिति विशिष्टनिश्चयोऽपौत्यर्थः, 'कुतो न स्थादिति वहिव्याप्यो धूमः पर्वतवान्न वेति संशयाभावाप्रयोजकः कुतो न स्थादित्यर्थः । अथ विशिष्टनिश्चयस्य तादृशसंशयनिष्ठप्रतिबध्यतानिरूपितप्रतिबन्धकतावच्छेदकाश्रयत्वात् न तादृशसंशयाभावाप्रयोजकत्वमिति चेत्, तर्हि धूमः पर्वतवानिति निश्चयस्यापि तदाश्रयत्वात् तस्यापि न तादृशसंशयाभावाप्रयोजकत्वमित्याह, 'संशयेन प्रतिबन्धादिति संशयनिरूपितप्रतिबन्धकता
Page #492
--------------------------------------------------------------------------
________________
चिन्तामय
तचानुमितिसद्भावादेव अन्यथा निश्चयसामभ्यां सत्यां भ्रमानन्तरं परामर्श एव कुतो न भवति । अस्तु वा व्याप्यतया पक्षधर्म्मतया चावगतस्य भेदाग्रह एवानु
858
वच्छेदकाश्रयत्वादित्यर्थः । तच तादृशसंशयप्रतिबन्धकतावच्छेदकवत्त्वमेवासिद्धमित्यभिप्रायेणाशङ्कते, 'न चेति, 'सामान्य निश्चयस्येति पूर्व्ववत् धमसामान्ये संशयो मा भूत् तत्सचे धूमत्वावच्छिनविशेव्यकसंशय एव न जायते स धूमत्वावच्छिन्न विशेष्यकसंशयाभावस्यैव प्रयोजक इति यावत्, 'एवकारात् वहिव्याप्यधूमत्वावच्छिन्नविशेव्यकसंशयाभावस्य व्यवच्छेदः, 'विशेषसंशयखेत्यादि व्याख्यातार्थकं, “धूमविशेषे संशयनिरासार्थमिति पृथक् व्याप्तिनिश्चयो धूमविशेषे संशयनिरासार्थमवश्यं वाच्य इति योजना, 'पृथक् व्याप्तिनिश्चयः' वनिव्याप्यो धूमः पर्व्वतवानिति निश्चयः, 'धूमविशेषे संशयनिरासार्थं वव्यिाप्यधूमत्वावच्छिन्नविशेष्यक संशयाभावप्रयोजक, प्रधानकर्मतया विकारकर्मतया वा न प्रथमा "दुहादेर्गेणकं कर्मेत्याद्यनुशासनात्, 'यत्र हौत्यादिग्रन्थोऽपि पूर्व्ववत् । ननु तथापि यच प्रथमं वव्याप्यो धूमः पर्व्वतवान्न बेति संशयः ततः पर्व्वतो धूमवानिति निखयः तत्रानुमित्यापत्तिर्दुर्व्वारा संशयस्यैव व्याप्यतावच्छेदकप्रकारकव्याप्तिनिश्चयत्वादित्यख रसादिष्टापत्तिमाह, 'वस्तुतस्थिति, 'स्मरणे' निश्चये ।
केचित्तु श्रनुमितिसामय्या बलवत्त्वात् न तादृशसंशयसम्भवइत्याह, 'वस्तुस्थिति, 'धूमत्व पुरस्कारेणेति, धर्मितावच्छेदकप्रका
Page #493
--------------------------------------------------------------------------
________________
परामर्शः।
एनयू
मितिहेतुः परामर्शहेतुतया तस्यावश्यकत्वात् । अतएवासनिकृष्टधूमज्ञानादप्यनुमितिः। न चैवं गौरवं, तदा विशिष्टज्ञानानुपस्थितेः। न च जनकज्ञानाविरोधिनो
रकर्मिज्ञानस्य संशयहेततया तस्य प्रथममावश्यकत्वादिति भावः । 'पक्षधर्मताज्ञाने' धूमवरूपेण पक्षप्रकारकज्ञाने, 'अनुमितिर्भवत्येबेति, ‘एवकारोभिन्नक्रमे अनुमितिरेव भवति न तु संशयः अनुमितिमामय्या बलवत्त्वादित्यर्थः । न च धूमवरूपेण पक्षप्रकारकज्ञानदशायामेव संशयसम्भव इति वाच्यं । प्रतिबन्धकाभावस्य कायंसहभावेन हेतुतया तदानौं संशयासम्भवादिति भावः, इति व्याचक्रुः। तदसत्। धूमवरूपेण पक्षप्रकारकनिश्चयात् पूर्व संशयसम्भवात् ।
मिश्रास्तु भवतु संशयः भवतु च तन्निरामार्थ(१) क्वचिदिभिष्टनिश्चयोऽपेक्षितः तथापि धूमवरूपेण व्याप्तिस्मरणे तेन रूपेण पक्षधर्मताज्ञाने चानुमितिर्भवत्येव यत्र न संशयस्तत्रैव तादृशज्ञानदयादनुमित्युत्पत्तेः तावतैव सिद्धं नः समौहितमित्याह 'वस्तुतस्वितीत्याहुः ।
'नन्विति(र, इदमिति पक्ष:(२) पूरणीयः, 'भावो वा' भावत्व
(१) संशयानन्तरमनुमितिनिरासार्थमित्यर्थः । (२) मन्वित्यादिना मैयायिकशक्षा । (२) नौलत्वेन प्रतीयमानस्य तमसः पक्षवमिति भावः ।
Page #494
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्वचिन्तामो
ज्ञानस्याप्रतिबन्धकत्वात् भेदग्रहो न प्रतिबन्धक इति वाच्यम्। अभेदज्ञानस्याजनकत्वात् त्वयापि लिङ्गपरा
वदा, 'प्रभावो वा' प्रभावत्ववद्या, 'प्रमेयं प्रमेयत्वव्याप्यवत्, ‘भाववाभावत्वयोरिति धर्मपरो निर्देशः भावत्वत्वाभावत्वत्वरूपव्याप्यतावच्छेदकप्रकारकव्याप्ति-पक्षधर्मातानिश्चयाभावादित्यर्थः, 'अनुमान' अनुमितिः, ननु तच भावाभावान्यतरत्वप्रकारेण भावाभावान्यतरत्वनिष्ठप्रमेयत्वव्याप्तिज्ञानात् तेन रूपेण तस्य पक्षधर्माताज्ञानाच्चानुमितिः फलबलेन तादृशज्ञानकल्पनादित्यत आह, 'तदन्यान्यवेति भावभिन्नत्वे मति अभावभिन्नो यस्तदन्यत्वरूपस्य भावाभावान्यतरत्वस्येत्यर्थः, 'लिङ्गवाभावादिति, अप्रसिद्धेरिति भावः । 'भावखाभावत्वेति भावत्वाभावत्वान्यतरधर्मरूपेण भावत्वाभावत्वान्यतरधर्मनिष्ठव्याप्ति-पक्षधर्मताज्ञानादेव तचानुमित्युत्पादात् फलवलेन तादृशज्ञानकल्पनादित्यर्थः, ‘एवमिति, 'लिङ्ग लिङ्गतावच्छेदकं, यत्रायं धमवान् वा श्रालोकवान् वा उभयथापि वझिवाप्यवानिति ज्ञानानन्तरमनुमितिस्तत्रापि धूमालोकान्यतरत्वरूपेण धूमालोकान्यतरनिष्टव्याप्ति-पक्षधर्मतानिश्चयादेवानुमितिः फलवलेन तादृश्यजानकल्पनादित्यर्थः, 'यड्यतिरेकज्ञानमिति यद्धर्मावच्छिन्नविशेष्यकयद्धर्मावच्छिन्नवद्भेदज्ञानत्वावच्छिन्नमित्यर्थः, 'तनिश्चयसाध्यमिति नद्धर्मावच्छिन्नविषयतानिरूपिततद्धर्मावच्छिवविषयताशालिनिश्चयबावच्छित्रकारणताप्रतियोगिककार्य्यतावदित्यर्थः 'पक्षधर्मस्येति पच
Page #495
--------------------------------------------------------------------------
________________
परामर्शः।
मर्श तादृशस्य प्रतिबन्धकत्वस्वीकराच्च। अथ गोत्वं मधुरत्वावान्तरजातिवी लिङ्गं न स्यात् तहतधर्मान्तर
तावच्छेदकावच्छिन्नपक्षवत इत्यर्थः, 'व्याप्यभेदज्ञानमिति साध्यव्याप्यहेतौ भेदज्ञानमित्यर्थः, 'व्यायाभेदज्ञानमिति माध्यव्याप्यत्वावछिन्ने पक्षतावच्छेदकावच्छिन्नवतोऽभेदस्य पक्षतावच्छेदकावच्छिन्नवत्त्वरूपस्य ज्ञानं माध्यव्याप्यत्वावच्छिन्नविषयतानिरूपितपक्षतावच्छेदकावच्छिन्नवद्विषयताशालिनिश्चयत्वावच्छिन्नमिति यावत्, यथाश्रुते सिद्धसाधनापत्तेः, एवमग्रेऽपि, ‘पक्षधर्मताज्ञाने' पक्षप्रकारकनिश्चये, 'विशेषदर्शनात्' व्यावर्त्तकधर्मदर्शनात्, पक्षस्यैव पक्षतावच्छेदकावच्छिन्नवझेदव्यावर्त्तकत्वादितिभावः, 'धूमे व्यायभेदज्ञान' धूमत्वावच्छिन्ने वहिव्याप्यत्वावच्छिन्नविशेष्यकपक्षवतेंदज्ञानमिति यावत्, 'अत इति, व्याप्यभेदज्ञान' माध्यव्याप्यहेतुत्वावच्छिन्ने पक्षवझेदज्ञानं, स्वाभावेतरसकलकारणमत्त्वे यत्मत्वे कार्यानुत्पादस्तस्यैव प्रतिबन्धकत्वादिति भावः । ननु धूमत्वावच्छिन्नविशेष्यक-पक्षप्रकारकनिश्चयस्य धूभवावच्छिन्नविशेष्यक-पक्षवद्भेदप्रकारकनिश्चयं प्रत्येव विरोधितया तत्सत्त्वेऽपि वहिव्याप्यधूमत्वावच्छिन्नविशेष्यक-पक्षवझेदप्रकारकभ्रमे बाधकाभाव इति भ्रमणशरते, 'न चेति, 'पक्षधर्मताग्रहे' पक्षप्रकारकनिश्चये, विद्यमानेऽपौति शेषः, 'यमिति वहिव्याप्यधूमव्यक्तिरिय पर्वतीया नेति योजना, 'भ्राम्यतः' . भ्रमे बाधकविरहवतः, 'अनुमित्यापत्तिः तदनन्तरमनुमित्यापत्तिः । भ्रमं निराकृत्य समाधने, 'धूमत्वस्येति, घटितत्वं षष्ठ्यर्थः, धूम
Page #496
--------------------------------------------------------------------------
________________
gee
चिन्ताम
स्याभावात् स्वत एव तस्य विलक्षणत्वात् इति चेत् । न । व्यक्तेरेव तव प्रकारत्वात्, न हि गौर्गेत्वमिति ज्ञानयो
वघटितविशेषस्येत्यर्थः, 'दर्शनेन' विशेष्यतावच्छेदकतया भानेन, 'तादृशभ्भ्रमेति, सामान्यधर्मावच्छिनविशेष्यक तयावर्त्तकधर्मवत्तानिश्चयस्य सामान्यघटितविशेषधर्मावच्छिन्न विशेष्यक - तनिश्चयं प्रत्यपि विरोधित्वात् । न च तथापि वह्निव्याप्यः पर्वतवान्नेति भ्रमे बाधकाभावः तत्र धूमत्वस्य विशेष्यतावच्छेदकस्याप्रवेशादिति वाच्यं । तादृशभ्भ्रमसत्त्वेऽनुमितेरिष्टत्वात् वह्निव्याप्योधूमः पर्व्वतवानिति नि
सत्वे वह्निव्याप्यः पर्व्वतवान्नेति भ्रमेऽप्यनुमिते स्त्वयाप्यभ्युपगमात्, एवं यत्र प्रथमं वह्निव्याप्योधूमः पर्व्वतवान्नेति भ्रमः ततो धूमः पर्व्वतवानिति निचयस्तचाप्यनुमितिरिष्टैवेति भावः । पूर्वं 'यत्र होत्यादिना सामान्यधर्मावच्छिनविशेष्यकतयावर्त्तकधर्मदर्शनस्य मामान्यघटित विशेषधर्मावच्छिन्नविशेष्यकतत्संशयं प्रत्यपि विरोधित्व - मुकं अत्र तु तादृशनिश्चयं प्रतीत्यतो न पौनरुभ्यं । 'अन्यथेति यदि सामान्यधर्मावच्छिन्नविशेष्यक-तद्द्यावर्त्तक धर्मदर्शनस्य न सामान्यघटितविशेषधर्मावच्छिन्न विशेष्यक-तनिश्चयप्रतिबन्धकत्वं तदेत्यर्थः, 'निश्चयसामय्या' विशेष्यतावच्छेदकप्रकारकनिश्चयादिरूप विशिष्टपरामर्शसामग्र्यां, ‘भ्रमानन्तरमिति पाठः धूमो न पर्व्वतवानिति धूमत्वधर्मितावच्छेदककभ्रमानन्तरमित्यर्थः, 'विशिष्टपरामर्श एवेति (९),
(१) विशिष्ट परामर्श एवेत्यच परामर्श एवेति पाठः बस्मतादर्शपुखकेषु वर्त्ततइति ।
Page #497
--------------------------------------------------------------------------
________________
परामशः।
रविशेषः, अन्यथा गोत्वमिति ज्ञानस्य निर्विकल्पकत्वापत्त्या व्याप्यत्वग्रहे परामर्श चानुपयोगात् गवेलरात्तित्वे सति सकलगोत्तित्वं गोत्वत्वमित्यनुभवाच ।
वहिव्यायोधमः पर्वतवानिति विशिष्टपरामर्श एवेत्यर्थः, तथाच धूमवरूपसामान्यधर्मावच्छिन्नविशेष्यक-पर्वतवझेदग्रहानन्तरं यथा न तद्घटितविशेषधर्मावच्छिन्नविशेष्यक-पतवत्तानिश्चयः तथा तादृशमामांन्यधर्मावच्छिन्नविशेष्यक पर्वतवत्तानिश्चयानन्तरमपि न तद्घटितविशेषधर्मावच्छिन्नविशेष्यक-पर्वतवझेदवत्तानिश्चय इति भावः । अभ्यपगमवादेनाह, 'अस्तु वेति, 'व्याप्यतयेति व्याप्यतावच्छेदकरूपेण माध्यव्याप्यतयावगते पक्षवत्तयावगतस्य भेदाग्रह इत्यर्थः । कल्पनालाघवं हेतुमाह, 'परामर्शहेतुतयेति। न चैव ययतिरेकज्ञानमित्यादिव्याप्तिबलादेव विशिष्टपरामर्शत्वेन हेतुत्वमिद्धिरिति वाच्य। यत्त्व-तत्त्वयोरननुगमात् उभयवादिसिद्धदृष्टान्ताभावाञ्च तड्याप्तेरसिद्धेः। न च व्यतिरेकेण दृष्टान्तः सुलभ इति वाच्यं । माध्यस्थाप्रसिड्या (१) व्यतिरेकदृष्टान्तस्थाप्यसम्भवादिति भावः । 'श्रमनिष्टधूमज्ञानादपौति धूमेन्द्रियसन्निकर्षविरहदशायामपि धूमत्यरूपेण खण्डशः साध्यव्याप्यत्व-पक्षवत्त्वस्मरणदनुमितिरित्यर्थः ।
(१) वहिव्याप्यधूमत्वावच्छिन्नविशेष्यक-पर्वतवत्तानिश्चयत्वावच्छिमजनक
तानिरूपिवजन्यत्वरूपसाध्याप्रसिद्ध्येत्यर्थः ।
62
Page #498
--------------------------------------------------------------------------
________________
नावचिन्तामो
म चैवमनवस्था, तदितराहत्तित्वे सति तदृत्तित्वस्यानुभनेनापणापासम्भवात्।
इति श्रीमहनेभोपाध्यायविरचिते तत्त्वचिन्तामणौ अनुमानाख्यहितीयखण्डे परामर्शपूर्वपक्षः ।
'गौरवमिति कारणतावच्छेदकारोरगौरवमित्यर्थः, विशिष्टपरामखमपेक्ष्य यथोक्रभेदायहत्वस्य गुरुत्वादिति भावः । 'तदेति धूमेन्द्रियमन्त्रिकर्षविरहदशायामित्यर्थः, 'अनुपस्थितेः' अनुपपत्तेः, तथाचानायत्या गौरवमप्यायौयत इति भावः(१। 'भेदयहः' व्याप्यतावच्छेदकप्रकारेण माध्यव्याप्यतयावगते पचवतेंदग्रहः । . 'अभेदज्ञानस्य (२) माध्यव्याप्यत्वविशिष्ट तौ पक्षवदभेदप्रकारकनिशषय तादृपहेतौ पक्षप्रकारकनिश्चयस्येति यावत्, 'अजनकत्वात्' जनकवासम्भवात्, तथाचानायत्या कारणीभूतज्ञानाविरोधिनोऽपि
(१) ननु यत् यस्य प्रतिबन्धकं ज्ञानं तत् तस्य जनकीभूत ज्ञानविघटक
भवतीति व्याप्तिबलात् सादृशभेदज्ञानं नानुमितिप्रतिबन्धकं स्यादि.
त्यत पाह मूझे ग चेति। (२) मनु तादृशभेदक्षानं यदि नानुमितिप्रतिबन्धकं तदा तत्सत्त्वे धनु
मितिरेव कुतो न स्यात् तत्र विशिनिश्चयरूपकारणाभावादतो मानुमित्युत्पादः इत्यत चाह बभेदज्ञानस्येति ।
Page #499
--------------------------------------------------------------------------
________________
परामर्श।
तादृशभेदज्ञानस्य प्रतिबन्धकलमाखौयत इति भावः । उकाव्यानेयभिचारमप्याए, 'वयापौति, 'तादृशस्य' कारणभूतज्ञानाविरोधिनो यथोक्तभेदयहस्य(१) । 'अथेति यदि च व्याप्यतावच्छेदकप्रकारेण व्याप्तिज्ञानं व्याप्यतावच्छेदकप्रकारेण पक्षधर्मताज्ञानं व्याप्यतावच्छेदकप्रकारेण व्याप्यतयावगते पक्षवझेदग्रहाभावो वानमितिहेतुः तदा गोत्व-मधुरत्वावान्तरजातिलिङ्गकानुमितिर्न स्थादित्यर्थः,(९) जातिपदं धर्मपरं, म च धर्मः परेषामखण्डोपाधिः अस्माकं जातिरेवेति फलतो न कश्चिविशेषः। 'धर्मान्तरेति अनतिप्रसाधर्मान्तरेत्यर्थः। न च गोवे गोपदप्रवृत्तिनिमित्तखमेव तादृशोधर्मः सम्भवतीति वाच्य। पृथिवौवस्थापि गोपदप्रवृत्तिनिमित्ततया तस्यातिप्रमकत्वात् मधुरत्वावान्तरजातस्तदसम्भवाञ्च, अत एव पृथक् तदुत्कोर्त्तनं । नन्वेवं भवन्मतेऽपि कथं तस्य गवादावितरव्यावृत्तिसाधकत्वमत शाह, खतएवेति खरूपत एवेत्यर्थः, श्रममन्त्रय इति शेषः, 'विलक्षणत्वात्' व्यावर्त्तकत्वात् । 'व्योरेवेति गोत्वाद्यवच्छिन्नगवादिव्यारेवेत्यर्थः, समवेतत्वसम्बन्धेनेति शेषः, 'प्रकारत्वात्' अनतिप्रसाधर्मत्वात्। ननु समवेतत्वस्य सम्बन्धत्वे मानाभाव इत्यत आह, 'न हौति, समवेतत्वसम्बन्धन गोवे गोप्रकारकत्वस्यैव तत्र विशेषत्वादिति भावः । ननु गौरिति ज्ञाने गोवं
(২) নাম্ব য য মমিৰহ্মীসুম আল মানি ন স লক্ষ্মীপুর
ज्ञानविघटकं स्यात् इति व्याप्ती परामर्शप्रतिबन्धके भेदग्रहे परा. मजनकधानविघटकावाभावात् व्यभिचार इति भावः । (२) गोवादेः खरूपतो भानमित्यभिप्राय इति ।
Page #500
--------------------------------------------------------------------------
________________
8६२
तत्वचिन्तामणौ .
प्रकारः गोत्वमित्यत्र तु न तथेत्येव विशेष इत्यत पाह, 'अन्यथेति, 'थाप्यत्वग्रह इति गोलघटितव्याप्यत्वग्रहे तादृशव्याप्यत्वविभिष्टवत्तापरामर्थे चानुपयोगप्रसङ्गादित्यर्थः, विशेषणतावच्छेदकप्रकारकज्ञानविधयैव तत्र तस्य उपयोगादिति भावः । ननु गोनिष्ठाभावाप्रतियोगित्वादिगर्भव्याप्यत्वग्रहे तादृशव्याप्यत्वविशिष्टवत्तापरामर्श च विशेषणज्ञानविधयैवास्मन्नये तस्योपयोग इत्यत आह, 'गवेतरेति, गोवृत्ति गोलमित्येव पाठः, तथाच गवेतरासमवेतत्वे मति मकलगोसमवेतत्वमेव तत्रानतिप्रसनो धर्मस्तस्थानुभवसिद्धत्वेनापहवासम्भवादिति भावः । न चैवमिति, ‘एवं' गोत्वेऽपि अनतिप्रसक्तधर्मखौकारे, 'अनवस्थेति तत्रापि धर्मान्तरखौकारेऽनवस्थेत्यर्थः, 'अनुभवेनेति अनुभवसिद्धत्वेनेत्यर्थः, तथाच प्रामाणिकत्वादनवस्थेयं न दोषायेति भावः।
इति श्रीमथुरानाथतर्कवागौश-विरचिते तत्त्वचिन्तामणिरहस्ये अनुमानास्यदितीयखण्डरहस्ये परामर्शपूर्वपक्षरहस्यं ।
Page #501
--------------------------------------------------------------------------
________________
अथ परामर्शसिद्धान्तः।
अत्रोच्यते अयमालाको धूमो वा उभयथापि वहिव्याप्य इति ज्ञानं ततोऽनुमितिः। न च धूमत्वेनालोकवेन वा तच निश्चयः। अथ तदन्यान्यत्वमेव तत्र लिङ्ग। न च तदज्ञानदशायामनुमितिदर्शनात् .न तथेति वाच्यं । धूमालोकान्यान्यत्वज्ञानं विना तवापि तत्र व्याप्यत्वानिश्चयेन तदर्थ तदोधावश्यकत्वादिति चेत्।
अथ परामर्श सिद्धान्तरहस्य। यत्रायं पक्षः व्याप्यत्वसम्बन्धेन संयोगसम्बन्धेन वा वहिः साध्यः तादाम्यसम्बन्धेनालोको धूमो वा हेतुः तचायं धूमो वा पालोको वा उभयथापि वहिव्याप्य इति व्याप्यतावच्छेदकधूमलादिप्रकारकसंशयात्मकव्याप्यतावच्छेदकतादात्म्यसंसर्गकवहिव्यायप्रकारकज्ञानामन्तरमपि व्याप्यत्वादिसम्बन्धेन वहेरनुमितिः परस्याप्यभिमता मा कथं स्यात् व्याप्यतावच्छेदकधमत्वादिप्रकारकव्याप्ति-पक्षधर्मतानिश्चयविरहादिति समाधत्ते, 'त्रयमिति, 'बालोको धूमो वेति, पत्र तादात्म्यसम्बन्धेनालोकादिरेव कोटिः, 'इति ज्ञानमिति इत्याकारकं व्याप्यतावच्छेदकतादाम्यसम्बन्धेन पचे वडिव्याप्यप्रकारक
Page #502
--------------------------------------------------------------------------
________________
६७
सत्त्वचिन्तामो
नान हि धमालोकान्यान्यत्वं धूमान्यान्यत्वं वा व्यायावच्छेदकं, गौरवात् व्यभिचारावारकविशेषणवत्वाच, किन्तु धूमत्वादिकं, तञ्च तत्र सन्दिग्धमेव । ननु तदन्यान्यदहिव्याप्यमेव व्यभिचाराभावेन व्याप्तिविरहसाधनस्य बाधितत्वात्, पुरुषस्तु तच नौलधूमवत्वादि
ज्ञानमित्यर्थः । न चेदवावच्छिन्ने वहिव्याप्तिप्रकारकनिश्चयस्यैवाथमाकारो मत व्यायप्रकारकनिश्चयस्येति वार्य । धर्मप्रकारकनिश्चयस्यैव तादात्म्यसम्बन्धेन धर्मिप्रकारकनिश्चयाकारत्वात्। अत एव गोत्वप्रकारकज्ञानस्येव तादात्म्यसम्बन्धेन गवादिप्रकारकज्ञामस्थापि अयं गौरित्याकार इति सर्वजनमिडूं, 'ततोऽनुमितिः' तदनन्तरमपि व्याप्यत्वादिसम्बन्धेन वहेरनुमितिः, परस्थाभिमतेति भेषः, 'तत्र निश्चयः' तत्र व्याप्ति-पक्षधर्मतयोनिश्चयः। यद्यपि पर्वतो वहिमान् धूमादित्यत्र पर्वतो धूमवान् बालोकवान् वा उभयथापि वहिव्यायवानिति व्याप्यतावच्छेदकधूमत्वादिप्रकारकसंशयात्मकपरामर्शायनुमितिरनुभवसिद्धा मा तन्मते न स्यादित्येव वक्तुं युक्तं प्रसिद्धोदाहरणत्वान्, तथापि ३(१) तत्र तादृप्रसंशयात्मकपरामानन्तरं वयनुमितिर्जायते इति स्वशास्त्रे वायलिखनात् तत्परित्यागः । 'तदन्यान्यत्वमेवेति धूमालोकान्यतरत्वमेवेत्यर्थः, (२) 'तत्र लिङ्ग' तर
(१) मीमांसकैरियर्थः । (९) धूमानोकान्यान्यत्वमेवेत्वर्ष इति ग.।
Page #503
--------------------------------------------------------------------------
________________
पराम।
त्यवाधिकेन निराधते, न तु व्याप्यत्वासिहोति चेतना तदन्यान्यमाशोकस्वरूपमेव तच्च व्याप्यमिति सत्यं । न च वस्तुगत्या व्याप्यज्ञानादनुमितिः, अतिप्रसङ्गात् । किन्तु व्याप्यतावच्छेदकप्रकारकज्ञानात्, न च तदन्यान्यत्वं वहिव्याप्यतावच्छेदक, इत्युक्तम् । न चैवं तदन्यान्यत्वादहियाप्यत्वमपि तब नानुमेयं व्यर्थविशेषण
बडिव्यायंगे) विशेष्यतावच्छेदकं सत्पक्षधर्मतायहे विशेषणतावरेदक, तथाच तत्र माध्यवहिव्यायधूमाखोकान्यतरोऽयमिति ज्ञानं ततोऽनुमिनिरिति भावः । 'तदज्ञानदशायामपौति धूमालोकान्यतरत्वाचानदशायामपौत्यर्थः, 'अनुमितिदर्शनात्' तादृप्रसंशयात्मकपरामर्शानन्तरं व्याप्यत्वादिसम्बन्धेन वरनुमितिदर्शनात्, 'न तथा' न मध्ये तादृप्रज्ञानं । 'धूमालोकान्यान्यत्वज्ञानमिति पचे तादाव्यसम्बन्धेन धूमाशोकान्यतरत्वप्रकारक-धूमालोकान्यतरवत्तानिवयं विनेत्यर्थः, 'याप्यत्वानियेनेति पक्षे प्रत्यक्षतो वहिव्याप्यवभकारक-वहिव्याप्यवत्तानिश्थासम्भवेनेत्यर्थः, संभयादिनिरामा विशेषदर्शनविधया तविषयस्योपयोगादित्यभिमानः । 'धूमान्यान्यत्वं बेति, वाशब्द इवार्थ, 'गौरवादिति । न चैकस्थावच्छेदकत्वापेच्या धूमवालोकत्वधर्मइयस्थावच्छेदकत्व एव गौरवमिति वाच्यं । तादृशधर्मस्यैकत्वेऽपि वहुतरभेदादिघटिततया चरमोपस्थितत्वेन च तद्
(१) चास्यं ये इति ख., ग
Page #504
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्वचिन्तामणौ
त्वादिति वाच्यं । प्रत्यक्षं हि तदन्यान्यत्वविशेषदर्शनायाप्यत्वज्ञानं जनयति विशेषणज्ञान-विशेषणविशेष्यसम्बन्ध-विशेषणविशेष्येन्द्रियसत्रिकर्ष-तदसंसाग्रहविशेषदर्शनानां सत्वेन वहिव्याप्यत्वप्रत्यक्षसत्त्वात्। न चैवं न प्रत्यक्षेऽपि तदन्यन्यत्वज्ञानं सहकारोति वाच्यम्।
घटकधर्मदयस्यैवावच्छेदकत्वौचित्यात् लाघवदयमत्वेनैकत्वरूपलाघवस्थाकिञ्चित्करलादिति भावः, 'यभिचारेति अन्यान्यत्वलक्षणव्यभिचारावारकधर्मघटितत्वाञ्चेत्यर्थः, 'सन्धिग्धमेव' सन्देहकोटिताव
छेदकमेव, तदन्यान्यत्वस्थ व्यभिचारावारकधर्मघटिततया तदन्यान्यदहिव्याप्यमेव नेत्युक्तमिति भ्रमेणाशङ्कते, 'नन्विति ।
केचित्तु वस्तुगत्या व्याप्यस्य पक्षधर्मताज्ञानं कारणमित्याशयेनागहते, 'नन्वितीत्याः । ___ 'तदन्यान्यदिति पाठः, 'तदन्यान्यत्वमिति पाठे तदन्यस्थान्यवं यत्र इति वडीहिः(१) एवमुत्तरत्र, 'वहिव्याप्यमेव, धूमालोकत्वरूपेण वडिव्याप्यमेव । नम्वेवं धूमालोकान्यतरस्मादिति प्रयोगे कथं निग्रहइत्यत आह, 'पुरुषेति, 'नौलधूमवत्त्वादित्यचेवेति, नौलधूमत्वस्थ व्यर्थविशेषणघटिततया तेन रूपेण व्याप्तिविरहेऽपि धमत्वरूपेण व्याप्तिसत्त्वादिति भावः। भ्रमं निराकृत्य समाधत्ते, 'तदन्यान्यदिति,
(१) वदन्यान्यत्वं यत्रेति बडबौहिरिति ग०। तदन्यत् अन्यत् यत इति , बौधिरिति ।
Page #505
--------------------------------------------------------------------------
________________
परामझे।
अन्वय-व्यतिरेकाभ्यां गुरोरपि तस्य विशेषदर्शनत्वेन प्रत्यक्षसहकारित्वात् तस्मात्तदन्यान्यत्वज्ञानं तच व्याप्यताजानापक्षौणं न तु साक्षादनुमितिहेतुरिति, किन वहिव्याप्यवानयमिति शाब्दजाने व्याप्यत्वज्ञानं कार
'व्यायज्ञानात्' व्याप्यस्य पक्षधर्मताज्ञानात्, 'अतिप्रसङ्गादिति वतिव्याप्योधूमः द्रव्यवान् पर्वत इत्यादिज्ञानादपि भवन्मतेऽनुमितिप्रसङ्गादित्यर्थः, 'व्याप्यतावच्छेदकप्रकारकज्ञानादिति व्याप्तिग्रहविशेध्यतावच्छेदकौभूतो यो व्याप्यतावच्छेदकधर्मस्तत्प्रकारकपक्षधर्मताज्ञानादित्यर्थः । न चैवमिति, ‘एवं' धूमालोकान्यान्यत्वस्य व्याप्यतावच्छेदकत्वाभावे, धूमत्वालोकवादिरूपेण व्याप्तिज्ञानविरहदशायामिति शेषः, 'तदन्यान्यत्वादिति धर्मिपरो निर्देशः तादात्म्यसम्बन्धेन धूमालोकान्यतरेण हेतुनेत्यर्थः, 'नानुमेयं नानुमातुं शक्यं, 'व्यर्थविशेषणवादिति व्यर्थविशेषणतया तस्य व्याप्यतावच्छेदकला भावेन तद्धविच्छिन्नस्य व्याप्यघटकवादित्यर्थः, तद्धर्मावच्छिन्नस्य व्याप्तिघटकत्वे तद्धर्मस्य व्याप्यतावच्छेदकत्वस्याप्यावश्यकत्वात् यद्धर्मावच्छिन्नसमानाधिकरणभावप्रतियोगितानवच्छेदकं माध्यतावच्छेदक तस्यैव व्याप्यतावच्छेदकत्वात् इति भावः । __ केचित्तु 'न चैवमिति, ‘एवं' व्यर्थविशेषणत्वस्य व्याप्यतावच्छेदकताविघटकत्वे, धूमवादिना व्याप्तिज्ञानविरहदशायामिति शेषः, 'तदन्यान्यत्वादिति विशेषणताविशेषसम्बन्धेन धूमालोकान्यान्यत्वेन
63
Page #506
--------------------------------------------------------------------------
________________
BES
तत्वचिन्तामगै णमित्यन्धवापि तथा। अथ वहिव्याप्यत्वमपि वह्निव्याप्यतावच्छेदकं तथाहि वहिनिरूपिता धूमादिप्रत्येकतिरेव व्याप्तिव्याप्तित्वेन सकलधूमादित्ति
हेतुनेत्यर्थः, शेषं पूर्ववदित्याहुः । तन्न । धूमालोकान्यान्यत्वस्य धूमत्वाद्यतिरिक्रत्वे भिन्नधर्मिकतया धूमप्रागभाववदवैयर्थात् धूमत्वादिरूपत्वेऽपि च धूमत्वत्वादेरप्रवेशेन वैयर्थविरहादिति द्रष्टव्यं ।
न भवत्येव तत्र तेन हेतुना वहिव्याप्यत्वानुमितिः किन्तु प्रत्यक्षतएव तत्र व्याप्तिमह्यते इति समाधत्ते, 'प्रत्यचं हौति, 'विशेषदर्शनादिति, एतच्च मंशयोत्तरव्याप्तिप्रत्यक्षाभिप्रायेण, 'विशेषण-विशेष्यसम्बन्धेति, एतच्च सम्बन्धांश लौकिकप्रत्यक्षाभिप्रायेण, यथार्थप्रत्यक्ष प्रति विशेषण-विशेष्यसम्बन्धस्य गुणतया तत्सम्पादनाय इदमित्यपि कश्चित् । 'विशेषण-विशेष्येन्द्रियेति, विशेषणस्य ज्ञानसत्त्वेऽपि पुनरिन्द्रियसन्त्रिकर्षाभिधानं तदंशे लौकिकप्रत्यक्षाभिप्रायेण, 'प्रत्यक्षमत्त्वादिति प्रत्यक्षसम्भवादित्यर्थः, इदमुपलक्षणं व्यर्थविशेषणतया तद्धर्मावच्छिन्नघटितव्यापकमामानाधिकरण्यरूपव्याप्नेविरहेऽपि तद्भमेण माध्याभाववदवृत्तित्वरूपव्याप्तिज्ञानेन वा अनुमितेरपि सम्भवाञ्च, न हि गुरुनय व न्यायनयेऽपि व्याप्यतावच्छेदकप्रकारकज्ञानमेव कारणं अन्यथाख्यात्यनभ्युपगमो वेति ध्येव। 'न चैवमिति, ‘एवं' गुरुतयानवच्छेदकत्वे, 'प्रत्यक्षेऽपौति, गुरुतया विषयितया ज्ञाननिष्ठप्रत्यक्षकारणतावच्छेदकलासम्भवादिति भावः । 'गरोरपौति, तस्य बुद्धे
Page #507
--------------------------------------------------------------------------
________________
परामर्शः।
BEE
यात्यवच्छेदिका आश्रयभेदेनावच्छेदकभेदेन च व्याप्तिभेदादिति चेत् ।न। सकलधूमादित्तिव्याप्ती मानाभावात् यत्र वहिव्याप्यस्तच वहिरिति व्याप्तिबुद्धौ
रिति शेषः, 'विशेषदर्शनत्वेनेति व्यावर्त्तकधर्मदर्शनविधया विपरीतज्ञानविरोधिदर्शनत्वेनेत्यर्थः, ‘प्रत्यक्षसहकारित्वात्' प्रत्यक्षोपयोगित्वात्, न तु तदन्यान्यत्वज्ञानत्वेन कारणत्वमिति भावः। तदन्यान्यत्वज्ञानमिति पक्षे धूमालोकान्यान्यत्वप्रकारक-धमालोकान्यान्यवत्ताज्ञानमित्यर्थः, 'तत्रेति अयमालोको धूमो वेत्यादिसंशयपरामस्थलइत्यर्थः, 'व्याप्यताज्ञानोपक्षोणमिति पक्षे वहिव्याप्यत्वप्रकारक-वकिव्याप्यवत्ताप्रत्यक्षोपयुक्तमित्यर्थः, 'न विति, व्याप्यतावच्छेदकप्रकारकव्याप्तिपक्षधर्मताज्ञानस्यैव भवन्मतेऽनुमितिहेतुत्वात् अन्यतरत्वस्य च गौरवादिना व्याप्यतानवच्छेदकत्वादिति भावः। इदमुपलक्षणं संशयादिसामय्याः सर्वत्रानावश्यकत्वेन यत्रतरकारणभावात् संशयाघभावः तत्र धमालोकान्यतरवत्ताज्ञानमपि नावश्यकमिति मन्तव्यं । अस्तु वा गुरुरपि धर्मो व्याप्यतावच्छेदकः अस्तु वा उनस्थले धूमालोकान्यान्यवत्ताज्ञानमावश्यकं तथापि शुद्धव्याप्तिप्रकारकशाब्दज्ञानस्थले व्यभिचारात्र व्याप्यतावच्छेदकप्रकारकव्याप्यादिज्ञानस्यैव हेततानियम इत्याह, 'किश्चेति, 'भाब्दज्ञाने' शाब्दज्ञानजन्यानुमिती, 'व्याप्यत्वज्ञानं कारणमिति पचतावच्छेदकावच्छिन्नपचविषयतानिरूपित-व्यायवावच्छिवविषयतामालिज्ञानमेव कारणमित्यर्थः,
Page #508
--------------------------------------------------------------------------
________________
५..
तत्त्वचिन्तामणे
शाब्दव्याप्यत्वबुद्धौ च प्रत्येकत्तिव्यात्याश्रयत्वस्यैव विषयत्वात् प्रत्येकवत्तिव्याप्तिज्ञानं विना तदोधाभावात् । अपि च यच धूमत्व-व्यात्योवैशिष्ट्यं प्रथममेव
'अन्यत्रापि' वहिव्याप्यो धूमः धूमवान् पर्वत इत्यादिज्ञानोत्तरमनुमितावपि, 'तथा' तादृशविषयताशालिज्ञानं कारणं, न तु सर्वत्र व्याप्यताच्छेदकप्रकारकव्याप्यादिज्ञानमेव कारणमिति नियमोऽचैव व्यभिचारादिति भावः। व्यभिचारमुद्धरति, 'अथेति, तथाच व्याप्यत्वप्रकारकज्ञानस्यैव व्याप्यतावच्छेदकप्रकारकज्ञानत्वानियमस्य न व्यभिचार इति भावः। ननु व्याप्तेाप्यतावच्छेदकत्वे प्रात्माश्रयः इत्यतबाह, 'तथाहौति, 'प्रत्येकवृत्तिः' प्रात्येकमात्रवृत्तिः, 'सकलधूमादौति सकलधूमालोकादिनिष्ठेत्यर्थः । ननु यत्र यत्र वहिव्याप्यस्तत्र वहिरिति प्रतौतिरेव मानमित्यत आह, 'यत्रेति, 'शाब्दव्याप्यत्वबुद्धौ चेति, 'चशब्द दुवार्थे, शाब्दवहिव्याप्यवानयमिति बुद्धवाविवेत्यर्थः । मनु प्रत्येकवृत्तिव्याप्तिज्ञानाभावदशायामपि तादृशप्रतीत्युत्पत्तेने तस्थाः प्रत्येकवृत्तिव्याण्याश्रयत्वं विषय इत्यत आह, 'प्रत्येकेति, तवापौतिशेषः, प्रत्येकव्याप्तेर्महाव्याप्यवच्छेदकत्वादिति भावः। इदमापाततः यत्र यत्र धूमस्तत्र वहिरित्यस्य धूमत्वावच्छिन्त्रव्याप्तिविषयकत्ववत् यत्र यत्र वहिव्याप्यस्तत्र वझिरित्यस्थापि व्याप्यत्वावच्छिन्त्रव्याप्तिविषयताकत्वस्य सर्वानुभवसिद्धृत्वात्, न होतस्य धूमादिसमानाधिकरणभावाप्रतियोगित्वादिरूपव्याप्यत्वं विषय इति कचित् प्रत्येति। वस्तु
Page #509
--------------------------------------------------------------------------
________________
परामर्शः।
प्रत्यक्षेण युगपत्पक्षधर्मे भासते तब लाघवात् व्याप्यत्वजानत्वमेव कारणतावच्छेदक। न चैवमतिरिक्तविशिटजानकारणत्वे गौरवं दोषाय, सप्रमाणकत्वात् कारणताग्रहदशायां फलमुखगौरवस्य सिद्ध्यसिविभ्याम
तो विशेषव्याप्यवच्छिन्ना महाव्याप्तिरतिरिच्यतां तथापि प्रकृते व्याप्तेाप्यवच्छेदकत्वेन व्याप्यतावच्छेदकप्रकारक-पक्षधर्मताज्ञानसत्त्वेऽपि वहिव्याप्यो वहिव्याप्य इति तत्प्रकारकव्याप्तिज्ञानाभावात् कथमनुमितिः स्यात्। न च तदनन्तरं यो यो वहिव्यायवान् मोऽमिमान् इति व्याप्तिज्ञानं कल्यते ततोऽनुमितिरिति वाच्यं । तथा मति कल्यलाविशेषेण लघुरूपावच्छिन्नस्यैव नियतपूर्ववर्जितायाः कल्पयितुं युक्तत्वादित्येव तत्त्वं । ननु शाब्दपरामर्शमात्रादनुमितिरसिद्धैव इत्यताह, 'अपि चेति, 'विशिष्टमिति पाठः, 'यत्र प्रथम' यदनुमितेरव्यवहितपूर्व, वहिव्याप्यत्व-धूमत्वविशिष्टमेव 'प्रत्यक्षेण', 'युगपत्' विशिष्टस्य वैभिव्यमिति रौत्या, 'पक्षधर्म' पक्षतावच्छेदकावच्छिन्ने, भासते' ज्ञायते, 'तत्र', इति योजना, क्वचित् 'वैशिष्यमिति पाठः, तत्रावच्छिन्नस्येत्यादिः, तथाच वकिव्याप्यत्वधूमत्वावच्छिन्नस्य वैशिष्यमेवेत्यर्थः, शेषं पूर्ववत् । 'व्याप्यत्वज्ञानवमेवेति पक्षतावच्छेदकावच्छित्रपक्षविषयतानिरूपितसाध्यव्याप्यत्वावविषविषयतामालिनियत्वमेवेत्यर्थः । 'न चैवमिति, यत्र वकिव्यायो धूमः धूमवान् पर्वत इति ज्ञानामारमनुमिनिस्तति
Page #510
--------------------------------------------------------------------------
________________
५०२
तत्त्वचिन्तामणौ
दोषत्वात्। न चासनिकृष्टे धूमे तदभावः, भवन्मतात. मितिहेतुव्याप्तिस्मरण-धूमत्वज्ञानसहितेन मनसा तदुत्यादात् यथा परमाणुर्निरवयवद्रव्यं नित्यपरिमाणवश्वात् आकाशवदित्यादौ प्रत्येकानुमानोपनीताती
शेषः, 'कारणत्वे' पूर्ववर्तित्वकल्पने, 'मप्रमाणकत्वादिति कार्यकारणभावग्रहाधीनप्रमाणगम्यत्वादित्यर्थ:(१) अयं क्षण: विशिष्टपरामवान् अव्यवहितपूर्ववर्त्तितासम्बन्धेनानुमितिमत्त्वात् इत्यनुमानेन विभिष्टपरामर्शसिद्भावनुकूलतर्कविधया कारणतायहस्य वौजवादिति भावः(२) । तावतैव कथं न तस्य दोषत्वं तदाह, 'कारणताग्रहदशायामिति तत्पाग्दशायामित्यर्थ:(२), 'फलेति, ‘फलं' विधिछपरामर्शानुमित्योः कार्य-कारणभावग्रहः,१५) स एव 'मुखं निश्चयवौज, यस्य एतादृशं गौरवमतिरिक्रविशिष्टपरामर्शरूपं तस्येत्यर्थः, 'सिधमिद्धिभ्यामिति ज्ञानाज्ञानाभ्यामित्यर्थः, तदानौं(५) तस्य(र)
(१) तादृश विशिछपरामर्शत्वावच्छिनकारणतानिरूपितकार्यताप्रकार.
জালি নিৰিয় অন্ধলিসীমাল লম্বালম্বিয়লাবিদ্য। (९) एतादृश परामविषयकानुमितिनिरूपितानुकूलतकंप्रयोज्यकारण___ ताग्रहनिष्ठप्रयोजकत्वादित्यर्थः। (३) कारणताग्रहपृवंदशायामित्यर्थः । (e) अनुमितिमत्त्वं विशिलपरामर्शकायं हत्याकारग्रहः । (५) पूर्वदशायामित्यर्थः। 4) गौरवस्येव्यर्थः ।
Page #511
--------------------------------------------------------------------------
________________
परामर्शः।
न्द्रियसाध्य-साधनयोराकाशत्तितया स्मरणे व्यभिचाराजाने मनसा व्याप्त्यनुभवः अनुमानयोः प्रत्येकतदुभयसहचाराविषयत्वेन व्याप्त्यग्राहकत्वात्। न चातौन्द्रियव्याप्यत्वमतौन्द्रिये नुमेयं, तथापि व्याप्तिाहकाभावात् । न च तदुपनयसहितस्य मनसा वहिरर्थ
ज्ञानसत्त्वे कार्य-कारणभावग्रहस्य तनिश्चयप्रयोजकतया मंशयरूपमेव तज्ज्ञानं भविष्यतीति तच्च न दोषताप्रयोजक निश्चितगौरवस्यैव दोषत्वात्,(१) एतदज्ञानश्चेत् तथापि न दोषाय स्वरूपसगौरवस्थादोषत्वादिति भावः ।
केचित्तु ‘सप्रमाणकत्वादिति अनुमित्यात्मक कार्यरूपप्रमाणगम्यवादित्यर्थः,(२) उनानुमानेनैव तमिद्धेरिति भावः । ननु कार्यस्थ सप्रमाणत्वं कार्य-कारणभावग्रहे मति स्थादनुकूलतर्कविधया तस्य तत्रोपयोगात् स एव न सम्भवति गौरवेण प्रतिबन्धादित्यत आह, 'कारणतेति, अर्थस्तु पूर्ववदित्याहुः ।
'सप्रमाणकत्वादिति यथाश्रुतन्तु न मङ्गच्छते सप्रमाणकत्वस्यादोषत्वप्रयोजकत्वे गौरवमावस्यैवादोषतापत्तेः, न ह्यप्रामाणिक गौरवमस्तौति ध्येयं । इन्द्रियामविकष्टस्थले प्रागुक्रव्यभिचारमुद्धरति,
...................... .
(१) दोषताप्रयोजकत्वादिति घ०। (२) अनुमित्यात्मकपरामर्श कार्यरूपप्रमाणगम्यत्वादित्यर्थ इति ।
Page #512
--------------------------------------------------------------------------
________________
५०४
तत्वचिन्तामणे
प्रमाहेतुत्वे उपनयस्य प्रमाणान्तरत्वम्, इन्द्रियादेः सनिकर्षवद्पनयस्य नियतव्यापाराभावेन प्रमायामकरणत्वात्, सहकारिता च तदभावेऽपि भवति वहिरिन्द्रियलिङ्गसादृश्यादिव्यापार विनापि चिन्तोपनी
'म चेति, 'धमत्वज्ञानेति धूमत्वप्रकारकपक्षधर्मताज्ञानेत्यर्थः । ननु गुरूणां उपनौतभानानङ्गीकर्तृणां कथं मानसबोध इत्यत आह, 'यथेति, प्रत्येकानुमानेति श्राकाशं निरवयवद्रव्यं परममहत्त्वात् अाकाशं नित्यपरिमाणवत् अमूर्त्तद्रव्यत्वादित्यनुमानाभ्यां श्राकाशवृत्तितयोपनौतेत्यर्थः, 'त्राकाशवृत्तितया स्मरण इति, एतेन सहचारज्ञानं सम्पादितं, 'मनसा व्याप्यनुभव इति,(९) न च तत्र स्मरणरूपमेव व्याप्तिज्ञानं स्थादिति वाच्यं । व्याप्यस्मरणेऽयनुमित्युत्पत्तेरिति भावः । ननु तत्र माथ-साधनग्राहकप्रत्येकानुमानाभ्यामेव व्याप्तिज्ञानं स्यात् किं मानसेन इत्यत आह, 'अनुमानयोरिति, 'व्याप्यग्राहकत्वादिति व्याप्यविषयकवादित्यर्थः, न कि सहचारविषयकं ज्ञानं नियतसहचारात्मकन्याप्तिविषयकं सम्भवतौति ध्येयं । 'तचापौति, न च तत्राप्यनुमानान्तराड्याप्तिग्रह इति वाच्य। तादृशाविरललनव्याप्यनुमितिधाराविरहेप्यनुमितेरानुभविकत्वादिति भावः । 'तदुपनयमहितस्य' तत्तदुपनयरूपामाधारणकारणसहितस्य, 'वहिरर्थप्रमाजनकत्वे' पर्वतादिवहिर्विशेष्यक-लिङ्ग(१) व्यापकत्वघटकयत्पदार्थोपस्थितिदशायामित्यादि, अन्यथा व्यापक. त्वस्योपनायकाभावात् व्याप्तानुभवोन सम्भवतीति भावः।
Page #513
--------------------------------------------------------------------------
________________
परामर्शः ।
तपदार्थानां बाधकानवतारे मनसा संसर्गानुभवस्य सकलजनसिद्धत्वात् कथमन्यथा कविकाव्यादिकमिति ।
स्यादेतत् पचधर्म्मस्य व्याप्यताज्ञानं नेन्द्रियेण वरसत्रिकर्षे तत्रियतसामानाधिकरण्यस्य व्याप्यत्वस्या
મ
प्रत्यचजनकत्वे, 'उपनयस्य' तत्तदुपनयस्य, 'प्रमाणान्तरत्वं' प्रमाणान्तरत्वप्रसङ्गः पर्वतादिविशेष्यक- लिङ्ग विषयकप्रमाकरणत्वप्रसङ्ग इति यावत्, यदमाधारणमित्याद्युक्रव्याप्तेरिति भाव: । 'नियतव्यापाराभावेन' करणवव्यापकस्य तज्जनकव्यापारवत्त्वस्याभावेन, 'प्रमायामकरणत्वात्' पर्वतादिविशेष्यकवह्निव्याप्यादिप्रकारकप्रमायाः करणत्वापादनासम्भवात्, यस्य तु व्यापारसम्भवस्तस्य करणत्वमिष्टमेव । यद्यप्यापत्तौ बाधोऽनुगुण एव, तथापि तदर्थविषयकज्ञानहेतुव्यापारवत्त्वे सति तदर्थविषयक ज्ञाना साधारणकारणत्वमेव तदर्थ - विषयकप्रमाकरणत्वयोग्यं (९) न तु यदसाधारणमित्याधुको हेतुर्मानाभावात् इति भावः । ननु व्यापाराभावे सहकारितैव कुतइत्यत आह, 'सहकारिता चेति, यदसाधारणेत्यादिव्याप्तौ व्यभिचारमप्याह, 'वहिरिन्द्रियेति, 'बाधकानवतारे' श्रवत्यां बाधादिबुद्धौ, 'सकलजनसिद्धत्वाश्चेति पाठः, चकारशून्यपाठे चकारः पूरणीयः, 'कथमन्यथेति, वाक्यार्थज्ञानं विना वाक्यप्रयोगासम्भवादिति भावः ।
(१) तदर्थविषयक प्रमाकर व्यत्वव्याप्यमित्यर्थः, कचित्तथैव पाठः ।
64
Page #514
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामणे
योग्यत्वात्। न च धूमत्वेन सकलधूमव्याप्यतावगमात् धूमविशेषे संस्कारात्. स्मरणाहोपनौतव्याप्याभेदग्रहः प्रत्यभिज्ञाने तत्ताविशिष्टस्येवेति वाच्यम्। एवं हि धूमवावेन वहिमत्वज्ञानात धूमवहिशेषे पर्वते
नव्यास्त प्रमायामकरणत्वादिति, तथाचोकव्याप्तौ तजनकव्यापारवत्वमुपाधिरिति भावः(१) । ननु पक्षे माधनस्य विवादग्रस्ततया माधनाव्यापकत्वनिश्चयस्थलमेवास्य दुर्लभमित्यत पाह, 'वहिरिन्द्रिति, तथाचाचैव माधनाव्यापकत्वनिश्चय इति भाव इति व्याचक्रुः ।
प्रात्यक्षिकपरामर्शप्रतिबन्धिमुखेन अनुमितित्वजाति खण्डयति, 'स्थादेतदिति, 'पचधर्मस्य' पक्षसम्बद्धस्य, 'व्याप्यताज्ञान' वशिव्यायवप्रकारेण पदीयधूमे ज्ञानं वहिव्याप्यो धूमः पर्वते इति ज्ञानमिति थावत्, 'नेन्द्रियेण' वो लौकिकमधिकर्षविरहदशायां कदाचिदपि नेद्रियेण, तबियतमामानाधिकरण्यस्येति नियततत्मामानाधिकरप्यस्येत्यर्थः, 'अयोग्यत्वादिति इन्द्रियेण ग्रहौतमशक्यत्वादित्यर्थः, यावविषयमन्त्रिकर्षस्य प्रत्यक्षहेतुत्वादिति गूढाभिसन्धिः । 'धूमत्वेनेति महानसीयधूमे वहिव्याप्तिप्रत्यक्षदमायां धमत्वमामान्यलक्षणप्रत्यासत्या धूमवरूपेण सर्वस्यैव धूमस्य व्याप्तित्वसामान्यलक्षणधीम-वकिव्याप्यत्वप्रकारकानुभवादित्यर्थः, 'धूमविशेष इति, संस्कारात् मर
(१) नियतव्यापाराभावेनेत्यादिग्रन्थ उपाध्यभावेन हेतुना साध्याभाव
साधनाभिप्रायक इति तात्पर्य ।
Page #515
--------------------------------------------------------------------------
________________
५.७
परामर्शः।
.. संस्कारवशात् प्रत्यक्षेण व्याप्तिज्ञानापेक्षेण वहिमदभेदग्रहो वह्निमत्वग्रहो वास्तु) किमनुमानेन, पृथक वह्निमत्वस्मरणं तब नास्तिा किन्तु व्याप्त्यवच्छेदकतयेति चेत्। न। वह्निमान वेति संशयानुरोधेन
गदा धूमविशेषे उपनौतव्याप्याभेदग्रहः' इति योजना, संस्कारात्' धूमत्वावच्छिन्नमकलधूमविशेष्यक-निखिलवक्रिव्याप्तिप्रकारक-संस्कारान्, एतच्च “मविषयकमात्र प्रत्यासत्तिः विशिष्टाधिकरणकवैभिधबुद्धावपि(२) स्वविशेष्यतावच्छेदकधर्वप्रकारकमविषयकमाचं कारणं" इति प्राचीनमते, 'मरणदा' धूमत्वावच्छिन्नमकलधमविशेष्यकनिखिलवहिव्याप्तिप्रकारकम्मरणादा, एतच्च “ज्ञानमेव प्रत्यासत्तिः विशिष्टाधिकरणकवैशिष्यबुद्धावपि स्वविशेष्यतावच्छेदकप्रकारकविशेष्यविषयकज्ञानमेव हेतुः” इति नव्यनये, 'धूमविशेषे' पक्षीयधूमे, 'उपनौतव्याप्याभेदग्रहः' स्वविषयौभूतवहिव्याप्याभेदप्रकारेणालौकिकसम्बन्धमाक्षात्कारः, 'ख' संस्कारादिः, 'वहिव्याप्याभेदः' वकिव्याप्यत्वं, 'प्रत्यभिज्ञाने' प्रत्यभिज्ञाविशेष्योभते इदमंगे, प्रत्यभिज्ञायतेऽस्मिनिति व्युत्पत्तेः, 'तत्ताविशिष्टस्येव', संस्कारात् स्मरणदा तत्ताविभिष्टस्य सम्बन्धमाक्षात्कार इति भावः। 'धूमवत्त्वेनेति वडिध्याप्यधूमवत्वप्रकारेणेत्यर्थः, 'वहिमत्वज्ञानात्' व्याप्तिघटकतया
(१) वहिमत्त्वसंसर्गग्रहो वास्विति क० | . (२) वहिव्याप्यधूमः पर्वते इति ज्ञानेऽपीत्यर्थः ।
Page #516
--------------------------------------------------------------------------
________________
वावचिन्तामो
स्वतन्त्रवहिमत्वस्मरणात्। न च विशिष्टजाने खत
विशेषणज्ञानत्वेन हेतुत्वं, गौरवात्। अथ यो यत्र विशिष्य पूर्वमवगतः स तच संस्कारवशायथार्थप्रत्यक्षे भासते यथा तत्ताप्रत्यभिज्ञाने, न च पर्वते विशिष्य
वझिमत्वत्वरूपेण निखिलवधिमत्वविषयकज्ञानात्() परामर्शरूपात्, संशयोत्तरप्रत्यक्षं प्रति विशेषदर्शनस्य हेतुतया अनुमितिस्थले च संशयस्यावश्यकत्वात् तत्सम्पादनाय प्रकारकान्तं ज्ञानविशेषणं, 'धूमवद्विशेष इति वहिव्यायधूमवत्त्वांशे विशेष्योभूत इत्यर्थः, समानधर्मिकविशेषदर्भनस्यैव संशयोत्तरप्रत्यक्ष प्रति हेतुत्वमते तत्सम्यत्यर्थमिदमभिहितं, 'संस्कारवशात्' लौकिकमन्त्रिकर्षवशात्, वहिरिन्द्रियजप्रत्यक्षे मुख्यविशेष्येण समं लौकिकमन्त्रिकर्षस्थापेक्षिततया तत्सम्पत्त्यर्थमिदमभिहितं, 'प्रत्यक्षेण' इन्द्रियेण, 'याप्तिज्ञानापेक्षेण' 'याप्तिज्ञानजनकेनेत्यर्थः, एतच्च पर्वतेन ममं परामर्शजनकेन्द्रियनिकर्षविरहस्थलाभिप्रायेण, तेन कचिदिन्द्रियान्तरात् प्रत्यक्षसम्भवेऽपि म चतिः, 'वहिमदभेदग्रह इति अभेदसम्बन्धेन वद्धिमत्प्रकारकग्रहइत्यर्थः, संयोगादिसम्बन्धेन वहिप्रकारकयहस्यानुभवसिद्धवादाह, 'वनिमत्त्वग्रहो वेति संयोगादिसम्बन्धेन वकिप्रकारकग्रहो वेत्यर्थः, 'किमनुमानेनेति किं वहिव्याप्यधमवान् पर्वतइति परामर्शानन्तरं प्रत्यक्षविजातीयज्ञानकल्पनेनेत्यर्थः, 'पृथवधिमत्त्वस्मरणमिति खत- .
(१) निखिलवतिमत्त्वप्रकारकज्ञानादिति पा० ।
Page #517
--------------------------------------------------------------------------
________________
परामर्शः।
५०६
पुरा पहिरवगतः, यब चन्दने सौरभमुपलयं तब संस्कारवशाचक्षुषा सुरभि चन्दनमिति ज्ञानमन्यथानुमितिरिति चेत्, तर्हि पक्षधर्मधूमेऽपि न पुरा विशिष्य व्याप्तिरवगतेति कथं संस्कारवशातहतव्या
स्वतया वहिमत्त्वज्ञानमित्यर्थः, 'तत्र नास्तौति अनुमितिपूर्वसमये सर्वच नास्तीत्यर्थः, यत्रोद्बोधकादिवशात् दृष्टान्तरूपमायाधिकरएमेव सामानाधिकरण्यघटकतया परामर्श भातं यत्र वा वन्यभाववदवृत्तिवरूपव्याप्यवगाहिपरामर्शस्तत्र तदभावादिति भावः। 'व्याप्यवच्छेदकतयेति व्याप्तिघटकतयेत्यर्थः, तथाच खातग्व्येण विशेपणज्ञानस्य विशिष्टप्रत्यक्षहेतुत्वेन तदभावात् कथं पक्षे माध्यविभिष्टबुद्धिः प्रत्यक्षेणेति भावः । वातव्यञ्च यद्यपि नाविशेषणत्वं धारावाहिकप्रत्यचोच्छेदापत्तेः, नापि विशेषणाविशेषणत्वं घटवतसमिति ज्ञानोत्तरं धारावाहिक-घटवद्भूतलमिति घटवविशिष्टवैशिष्यप्रत्यक्षानापत्तेः घटत्वस्य पूर्व विशेषणविशेषणतयैव ज्ञानात्तथापि फलीभूतविशिष्टप्रत्यचविशेष्येतरमात्राविशेषणत्वं स्वातन्त्र्यपदार्थः, चैत्र-मैत्रोभयविशेष्यकदण्डादिप्रकारकज्ञानानन्तरं दोषवशाज्जायमाने केवलचैत्रविशेष्यकदण्डादिप्रकारकप्रत्यक्षे व्यभिचारवारणाय मात्रपदं, तथाच फलीभूतप्रत्यक्षविशेष्यत्वानिरूपित विशेषणतातिरिकाविशेषणविषयताशालि ज्ञान) हेतुरिति फलितं । ननु (१) फलीभूतप्रत्यक्षविशेष्यनिष्ठविशेष्यत्वानिरूपितेत्यर्थः तेग चैत्रत्वाव
লিবিয়না বলাবচ্ছিন্নবিঘুনানীমনি ল স্বনি।
Page #518
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामगै
तिबोधः प्रत्यक्षेण । न च सहचारदर्शनजन्यसंस्कारसहितेनेन्द्रियेण व्यभिचारज्ञानाभावे सति महानसौयधूमवत् पर्वतीयधूमे व्यायवगमो वस्तु न प्रत्यक्षसामग्री सनिकर्षाभावादिति वाच्यं । हेतु-साध्य
तत्मरणस्य संभयेन विनाशात् न तावत्कालमवस्थानं । न च कोटिस्मरणस्य नाणेऽपि संभय एव खतन्त्रविशेषणोपस्थितिरूपो वर्त्तत इति वाच्यं । यत्रादौ संशयस्ततो व्याप्तिस्मरणं ततः परामर्यस्तत संशयस्यापि नामादित्यवरमादाए, 'न चेति न वेत्यर्थः, 'विभिष्टज्ञाने विशिष्टप्रत्यक्षे, अन्यथा स्वतन्त्रविशेषण ज्ञानस्य विशिष्टज्ञानसामान्यहेतुत्वाभ्युपगमेऽनुमितेरप्यसम्भवात् अनुमितेरपि विशि
ज्ञानत्वादिति ध्येयं । 'यो यत्रेति, परामर्शऽपि वझिमत्त्वसामान्यलक्षणया पर्वते वहिज्ञानादुकं 'विभिव्येति तड्यक्तित्वरूपेणेत्यर्थः(१), कचिच 'विशिय्येति न पाठः तत्रापि 'यो यत्रेत्यनन्तरं तत्पूर
यं, 'संस्कारवशात्' संस्काराग्रूपनयवशात्, 'न च पर्वत इति, सर्वत्रेति शेषः, 'विभिय' तयक्तित्वरूपेण, एवमयेऽपि । नन्वेवं एकस्मिन् चन्दने मौरभज्ञाने चन्दनान्तरे चक्षुषा सौरभज्ञानं न स्यात्
(९) पर्वतीयवजिप्रकारकप्रत्यक्षे पर्वतीयवङ्गित्वावच्छिन्न प्रकारक ज्ञानवे.
गैव हेतुत्वं पलित तथाच प्रक्षते पर्वते वशिज्ञानसत्त्वेऽपि पर्वतीयवशित्वावच्छिन्न प्रकारकज्ञानविरहात् न पर्वते वकिप्रकारकालौकिकप्रत्यक्षमिति भावः।
Page #519
--------------------------------------------------------------------------
________________
परामर्शः ।
५११
साक्षात्कारं बिना प्रत्यक्षेण व्याप्तग्रहात् । न च पर्व्वते वहि साक्षात्कारः, न च पक्षधर्म्मस्य साध्यसामानाधि
इत्यचेष्टापत्तिमाह, ‘यत्रेति, (९) ‘पचधर्मधूमेऽपीति, तथाच तचैवो नियमस्य व्यभिचार इति भावः । ननु संस्काराद्युपनयवशात् म व्याप्तिबोधः किन्तु पर्व्वतौयधूमे व्याप्तेर्लेौकिक साचात्कारएव व्याप्तेः (१) सामानाधिकरण्यात्मकत्वेन संयोगादिरूपत्वादित्यभिमानेन (९) व्यभिचारमुद्धरति, 'म चेति, 'महानसोयधूमवदिति सप्तम्यन्तात् वतिः, 'पर्व्वतौयधूमे व्याप्यवगमः' पर्व्वतीयधूमे व्याप्तेर्लेौकिक साक्षात्कारएव ("), सन्निकर्षाभावादिति लौकिकसन्निकर्षविरहादित्यर्थः । न चोपनयएव निकर्षोऽस्तीति वाच्यं । 'यो यचेत्यादिनियमात् उपनय
(१) यत्रेतीत्यनन्तरं “मन्वत्रापि सौरभ ज्ञानस्यानुभविकत्वं तत् कथमुपपद्यतामत बाह, 'अन्यत्रेति तच्चन्दनं सुरभि चन्दनत्वात् एतच्चन्दनवदित्यनुमित्यात्मकमित्यर्थः" इत्यधिकः पाठः गचिह्नित पुस्तके वर्त्तते, परन्त्वेतत्पाठखर सेन मूले 'अन्यथेत्यत्र 'अन्यत्रेति पाठः समीचीनत्वेन प्रतिभाति ।
(२) ननु व्याप्तेर्लोकिकसन्निकर्षाभावात् कथं व्याप्तेर्लेौकिक साक्षात्कारstra we, व्याप्तेरिति ।
(३) तथाच चक्षु संयुक्तधूमसमवायरूपसन्निकर्षस्य व्याप्तौ सत्त्वादिति
भावः ।
( 8 ) तथाच यथा प्रत्यक्षेण महान सोयधूमे पुरा व्यातिरवगता तथा पर्व्वतोयधूमेऽपि व्याप्तेर्लेौकिक साक्षात्कार एवेति न तथ व्यभिचारइति भावः ।
Page #520
--------------------------------------------------------------------------
________________
५१२
तत्वचिन्ताम
करण्यविशेषा व्याप्तिः पधे साध्यग्रहं विना, इत्युक्तम्। उच्यते। विशेषणज्ञानं तस्य विशेष्ये सम्बन्धस्तयोरसंसर्गाग्रहो विशेषदर्शनं विशेषण-विशेष्येन्द्रियसनिकों गौरयमित्यादियथार्थविशिष्टप्रत्यक्षकारणम्, अस्ति सत्रिकर्षवशेन प्रत्यक्षासम्भवादिति भावः । ‘हेत-साध्येति पचौयदेत-साध्यलौकिकसत्रिकर्षजमाचात्कारं विनेत्यर्थः, 'याप्ययहात्' पक्षीयहेतौ पक्षीयसाध्यस्य व्याप्तेौकिकप्रत्यक्षासम्भवात्, सम्बन्धि
यनिरूप्यपदार्थलौकिकप्रत्यक्षं प्रति समानेन्द्रियजन्य-सम्बन्धिदयलौकिकमाक्षात्कारस्य हेतुत्वादिति भावः(१)। ननु पर्वतीयधमस्य सौकिकसाक्षात्कारोऽस्येवेत्यत आह, 'न चेति, ‘पर्वते वहिमाशात्कारः' पर्वतीयवहेः लौकिकमाक्षात्कारः, तथाच पक्षीयसाध्यस्य लौकिकसाक्षात्कारो नास्तौति भावः । मनु तादृशपदार्थसामान्यप्रत्यक्ष प्रति सम्बन्धिदयसाक्षात्कारस्य हेतुत्वे मानाभाव इत्यस्खरमादार, 'न चेति न वेत्यर्थः, 'पक्षे माध्ययहं विना' पक्षीयमाध्यज्ञानलक्षणमधिकर्ष विना, लौकिकप्रत्यक्षेण ग्रहीतुं शक्यत इति शेषः, पक्षीयहेतुनिष्ठव्याप्तेः पक्षीयमाध्यघटितमूर्तिकत्वेन तत्प्रत्यक्षस्य पक्षीयमाध्यप्रत्यक्षरूपतानियमात् पचौयसाध्यप्रत्यक्षमामयौं विमा असम्भवात् खौकिकमधिकर्षस्य च पचौयमाध्येन सममभावात्, (१) वयाच तत्र व्याप्तिप्रत्यक्षानुरोधेन पर्वते वडिप्रत्यक्षमवण्यमपेक्ष
मीयं वचोपनयनन्यमेवेति यो यत्रेत्यादिनियमे व्यभिचारतत्र पर्बते . पुरा पर्वतीयवझरनवगमादिति समुदिततात्पर्य ।
Page #521
--------------------------------------------------------------------------
________________
परामर्शः ।
५११
चाचापि व्याप्तिस्मरणं स्मृतव्याप्तेः पक्षटत्तिधूमे सम् एकैव हि सा व्याप्तिः तयेोरसंसर्गग्रह। धूमत्वविशेष
तथाच तत्रोक्तनियमस्य व्यभिचारो दुबीर एवेति भावः । 'यो यच विशिष्येत्याद्युक्रनियमस्य व्यभिचारं वारयितुं पक्षीयसाध्यप्रत्यक्षसामग्रौं विनापि व्याप्तेर्लोकिकप्रत्यचमुपपादयति, 'उच्यत इति, 'तस्येति विशेषणस्य विशेष्ये सम्बन्ध इत्यर्थः, एतच्च विशेषण - विशेष्यसम्बन्धांशे लौकिकप्रत्यचाभिप्रायेण तत्र विषयविधया तस्य हेतुत्वात्, ‘विशेषदर्शनमिति, ददञ्च विपरीतज्ञानोत्तरप्रत्यचे उपयुज्यते, 'विशेषणेति विशेषण- विशेष्याभ्यां इन्द्रियलौकिकसन्निकर्ष दूत्यर्थः, 'विशिटप्रत्यचकारणं' विशिष्टलौकिकप्रत्यचकारणं । ननु पर्व्वतौयधूमनिष्ठव्याप्तेः पूर्वमननुभूतत्वेन महानसोयधूमव्याप्तेरेव स्मृतत्वान्न तस्याः पर्व - तोयधूमे सत्वं व्याप्तेः सामानाधिकरण्यात्मकतया प्रतिव्यक्तिभिन्नत्वादित्यत श्रह, 'एकैव हौति, व्याप्तेर्धूमत्वादिरूपत्वादिति भावः । यद्यपि व्याप्तेः प्रतिव्यक्तिभिन्नसाध्य सामानाधिकरण्यरूपत्वेऽपि म क्षतिः सामान्यतो वहि-धूमसामानाधिकरण्यत्वेन ग्टहीतानां क लमासानाधिकरण्यानां तथैव स्मरणसम्भवात्, तथापि व्याप्तेर्व्वनिसामानाधिकरण्यरूपत्वेन पर्व्वतौयधूमनिष्ठपर्व्वतौयवह्निसामानाधि करण्यस्य पर्व्वतौयवहि तदधिकरणघटितया पर्वतीयव प्रत्यक्षसामग्री विना न पर्वतीयधूमे वहिव्याप्तेर्लेौकिकप्रत्यचसम्भवः, वसिमानाधिकरण्कृतिधूमत्वरूपत्वे तु पर्वतीयवमित्य सामग्र विनापि महानसौयादियत्किञ्चिदमित्यचसामग्रौत एव पर्व्वतीय
65
Page #522
--------------------------------------------------------------------------
________________
५१
सावचिन्तामणौ दर्शनं व्याप्तिविशिष्टधूमेन्द्रियसनिकर्षश्च व्याप्तिविशिष्टजानकारणं। न च वहिविशिष्टज्ञानसामग्री, बड़ेरसन्त्रिकर्षात् ।
धमे मानसोयादिवक्रिमामानाधिकरण्यमात्रविषयक-वडियाप्तिलौकिकप्रत्यक्षसम्भवः पर्वतीयधूमे महानसीवादिवशिमामामाधिकरण्यस्य बाधितत्वेऽपि तत्समानाधिकरणवृत्तिधमत्वस्य तनाबाधितत्वात् इत्यभिप्रायेण 'एकैव हौत्युक्तं, 'व्याप्तिविशिष्टधूमेड्रियमधिकर्षश्चेति याप्ति-पर्वतीयधूमयोलौकिकमधिकर्षश्चेत्यर्थः, व्याप्तेधूंमत्वादिरूपतया संयुक्तसमवायादेरेव लौकिकसन्निकर्षस्य तत्र सम्भवादिति भावः । 'याप्तिविभिष्टज्ञानकारणं' पर्वतीयधूमे वद्धिव्याप्तिविशिष्टलौकिकप्रत्यक्षकारणं, अतः पर्वतीयवभिप्रत्यक्षमामयौं विनापि पर्वतीयधमे वहिव्याप्तिलौकिकप्रत्यक्षसम्भव इति शेषः । न च व्याप्तेर्वहिमत्त्वघटितमूर्तिकतया वझिप्रत्यक्षमामौं विना कथं तलौकिकप्रत्यक्षमिति वाच्च। 'यो यत्रेत्याधुक्रनियमात् पर्वतौयवद्धिमत्त्वविषयकोपनौतप्रत्यक्षमामय्यसत्त्वेऽपि महानसोयादिवहिमत्त्वविषयकोपनौतप्रत्यक्षमामग्रीसत्त्वात् महानसादौ विशिष्यापि पुरा धरवगमात् हेतपरामर्भ सामानाधिकरण्यप्रतियोगितया सकलवडिभाने मानाभावात् । न चैवमनुमितावपि कथ पर्वतीयवधिभानं विशेषणज्ञानविरहादिति वाचं । स्वरूपतोविशेषणविषधकविशिष्टप्रत्यक्ष प्रति स्वरूपतो विशेषणज्ञानस्य हेतुत्वेऽपि अन्यत्र
Page #523
--------------------------------------------------------------------------
________________
पराम।
कश्चित्त धूमत्वे परम्परासम्बन्धेन वहिव्याप्यत्वं पूर्वएहोतं तथाच संस्कारोपनौतं वहिव्याप्यत्वं परम्परातद्धेतत्वे मानाभावात् इति भावः । न च वहिविभिष्टचाममामयोति न च सर्वत्र पर्वते वक्रिविभिष्टलौकिकप्रत्यक्षसामग्रौत्यर्थः, 'वरमत्रिकर्षादिति सर्वत्र वहिना ममं लौकिकसत्रिकर्षविरहादित्यर्थः । अथ लौकिकप्रत्यक्षमामग्रीविरहेऽथुपनयसत्रिकर्षादुपनीतज्ञानमेव पर्वते वहेर्भविश्थति यत्र च पूर्वं पर्वतीयवहेर्न ज्ञानं तत्रापि वहिवरूपेण परामर्शविषयवर्भानसम्भवात् तावतापि पर्वतो वहिमानिति ज्ञाननिर्वाहात् । न च परामर्शानन्तरं जायमानस्य तादृशज्ञानस्य सर्वत्र पर्वतीयवझियक्तिविषयकत्वपर्यन्तमनुभवसिद्धं, तथाच महानसीयवहेरेव पर्वते उपनौतमानमस्त किमनुमितिस्वीकारेण । न चैवं भ्रमत्यापत्तिरिति वाचं । तसङ्ग्यक्तित्वावच्छिनाभाववति तत्तयक्तिप्रकारकत्वरूपस्य तड्यनिधमत्वस्य इष्टत्वात् इति चेत्। न। यो यत्रेत्याधुक्तनियमादुपनौतभानस्थापि सर्वत्रासम्भवादिति निगर्भः। अधिकचामत्तसिद्धान्मरहस्येऽनुसन्धेयं । धूमव्यापकवझिसमानाधिकरणवृत्तिधूमत्वमेव बाप्तिः तदिशिष्टस्य धूमस्य पर्वते व्याप्यंभे लौकिकप्रत्यक्षात्मक एव परामर्श वह्नौ लौकिकमत्रिकर्षविरहदशायामप्यनुमितिहेतुरिनि 'यो यत्रेत्याधुक्रनियमस्य म भन इति स्वयमुक्त। __ केचित्तु धूमव्यापकवहिसामानाधिकरण्यमेव व्याप्तिः स्वाश्रयत्तित्वरूपपरम्परासम्बन्धेन तद्विमिष्टस्य धूमत्वस्य स्वायसंयोगिवरूपपरम्परासम्बन्धेन पर्वते परामर्भादेव सर्वत्रानुमितिरतो 'यो यत्रेत्या
Page #524
--------------------------------------------------------------------------
________________
सत्यचिन्तामणे
सम्बन्धेन. पक्षत्तिधूमत्वे प्रत्यभिज्ञायते तदृत्तित्वेन पूर्वमनुभवात्, एवञ्च धूमत्वव्याप्यत्वपरामर्शदेवानुमितिरिति प्राह।
दिनियमभङ्गं विनैव वहौ लौकिकमधिकर्षविरहदशायामपि व्याप्यं) उपनौतभानात्मकप्रत्यवरूप एव परामर्शोऽनुमितिहेतुरित्यपि वदन्ति, तन्मतमुपन्यस्यति, 'कश्चित्त्विति, वहिव्याप्यत्वं' धूमव्यापकवहिमामानाधिकरण्यरूपं वहिव्याप्यत्वं, 'पचत्तिधूमत्व इति खाश्रयसंयोगिवरूपपरम्परासम्बन्धेन पक्षांशे प्रकारोभूतधुमत्वे इत्यर्थः, 'पूर्वमनुभवादिति विभिष्य पूर्वमनुभवादित्यर्थः, अतो न 'यो यत्रेत्यादिनियमभङ्ग इति भावः । नन्वेवमप्यनुमितिकारणपरामर्थानिर्वाह इत्यत बाह, ‘एवञ्चेति, 'धूमत्वव्याप्यवेति वहिव्यायधूमत्ववान् पर्वत इति परामर्शादित्यर्थः ।
'लिङ्गं स्यादिति लिङ्गव्यवहारविषयः स्थादित्यर्थः, यादृशं व्याप्तिज्ञानर) अनुमितिहेतः तादृशज्ञानस्यैव(१) लिङ्गव्यवहारहेतुत्वादिति भावः(२) । अचेष्टापत्तिमायाह, तथाचेति, 'सर्वोपसंहारेणेति
(१) यत्सम्बन्धेन व्याप्तिप्रकारकं ज्ञानमित्यर्थः । (२) तादृशसम्बन्धेन व्याप्तिप्रकारकशानस्यैवेत्यर्थः । (३) तथाच यद्धर्मावचिनविशेष्यतानिरूपितयत्सम्बन्धावच्छिवव्याप्तिप्रका
एताशानिज्ञानत्वं तहसवच्छिन्नहेतुकानुमिविजनकतावच्छेदकं तड
विश्मिविशेष्यतानिरूपित-तत्सम्बन्धावच्छिवव्याप्तिप्रकारकशानं त. 'अर्मावच्छिन्ने जिङ्गत्वव्यवहारप्रयोजकमित्यर्थः ।
Page #525
--------------------------------------------------------------------------
________________
परामर्शः।
भवतु तावदेवं तथापि जातिरेव लिङ्गं स्यात् न तु व्यक्तिः, तथाच सर्वोपसंहारेण व्यक्तौ व्याप्ति
सवीं धूमव्यक्ति विशेष्योकत्येत्यर्थः, ‘यक्रौ' असन्निष्टधूमव्यकौ, तादृशव्याप्तिज्ञानस्थानुमितौ लिङ्गादियवहारे च प्रयोजकत्वादिति भावः । ननु लिङ्गादिव्यवहारं प्रति साक्षात्मम्बन्धेन भवदुक्कव्याप्तिज्ञानमेव हेतुरनुमितौ तु लाघवात् परम्परासम्बन्धेन धूमत्वव्याप्यत्वपरामर्श एव इतरित्यताह, 'दृश्यते चेति, ‘परम्परेति परम्परासम्बन्धेन पक्षधर्मताज्ञानं विनापि, 'जातिव्याप्तिमविदुषोऽपौत्यन्वयः, अपेरुभयत्रान्नयः, अन्यथा सम्बन्धज्ञानस्यानुपयोगित्वात्(१) यथाश्रुतामजतेः, 'व्याप्यतामहः' परम्परामम्बन्धेन व्याप्यताग्रहः, 'मानाभावादिति, तनिष्ठावच्छेदकान्तरग्रहमन्तरेणासम्भवाचेत्यपि) द्रष्टव्यं । खमते नतीयलिङ्ग परामर्शखरूपं निर्धारयति, 'तस्मादिति, पक्षधर्म' पचधर्मस्य पक्षसम्बन्धस्येति यावत्, ‘व्याप्तिविशिष्टज्ञान व्याप्तिविशिष्टे ज्ञानं, 'ढतोयलिङ्गपरामर्थ इति सम्बध्यते, तथाच वहिव्याप्योधूमः पर्वते इत्याकारकं व्याप्तिविभिष्टविशेष्यकं पक्षप्रकारकं ज्ञानं बतौयलिङ्गपरामर्श इति भावः। तदनन्तरमिति, 'तदनन्तरं पचे विशिष्टवैशिष्यज्ञानं बतौयलिङ्गपरामर्श इति योजना, 'तदनन्तरं'
(९) परामर्शोयसांसर्गिकविषयतायाः प्रकारतानात्मकतया तदाश्रय
प्रकारकप्रत्यक्षे तादृशसम्बन्धज्ञानस्याहेतुत्वादिति भावः । (२) ननु धूमत्वत्वस्य धर्मितानवच्छेदकत्वेन खरूपतोधूमत्वधर्मिकस्य पर
म्परासम्बन्धेन वहिव्याप्तिप्रकारकज्ञानस्थासम्भवादित्याच तन्निछेति ।
Page #526
--------------------------------------------------------------------------
________________
५१८
तत्वचिन्तामो
ग्रहार्थ मामान्यलक्षणप्रत्यासत्त्युपादानमफलं स्यात, दृश्यते च परम्परासम्बन्धज्ञानं विना जातिव्याप्तिम
हेतौ व्याप्तिप्रकारकज्ञानानन्तरं, 'विशिष्टवैभिव्यज्ञान' व्याप्तिविभि
निरूपितवैशिष्यज्ञानं, तथाच वहिव्याप्यो धूम इत्याकारकज्ञानोप्तरोत्पत्र वहिव्याप्यधूमवान् पर्वतरत्याकारकं पचविशेष्यक-व्याप्तिविभिष्टवैशिष्यावगाहिजानं हतीयलिङ्गपरामर्श इति भावः । 'वाशब्दचाथै, विनिगमनाविरहेण व्याप्यविशेष्यक-पक्षविशेष्यकयोरेव परामर्शयोरनुमितिहेतुत्वादिति सम्प्रदायविदः, तत्वं पुनरस्मात्कृतसिद्धान्तरहस्येऽनुसन्धेयं । न चानयोः परामर्शयोस्तुतीयत्वं कथमिति वाच्य। श्रादौ वहिव्याप्तिरिति विशेषणैतव्याप्तिस्मरण ततो वहिव्याप्यो धूम इति धूमे व्याप्तिविशिष्टज्ञानं विशेषणज्ञानस्य विशिष्टबुद्धौ हेतुत्वात् ततस्तृतौयक्षणे अनयोरुत्पत्तिः विशिष्टाधिकरणकवैशिष्बुद्धौ विशेष्यतावच्छेदकप्रकारकज्ञानस्य विशिष्टनिरूपितवैभियबुद्धौ च विशेषणतावच्छेदकप्रकारकज्ञानस्य हेतुत्वादिति रौत्या हतौयत्वात्। एतस्य न सार्वत्रिकत्वं क्वचित् प्रथमद्वितीयक्षणयोरपि तादृशपरामर्शयोरुत्पत्तिमम्भवात् ।
प्राञ्चस्तु ‘पञ्चधर्म' पक्षवृत्तित्वविशिष्टे, 'याप्तिविशिष्टज्ञान' व्याप्तिप्रकारकज्ञानं, तथाच पर्वतवृत्तिधूमो वहिन्याप्य इत्याकारक पवृत्तित्वविशिष्टे व्याप्तिप्रकारकं ज्ञानं बतौयलिङ्गापरामर्श इति भावः, षं पूर्ववत् । न चास्य बतौयत्वं कुत इति वाच्च। श्रादौ पर्वतवृत्तिवप्रकारेण धूमज्ञानं ततो व्याप्तिस्मरणं ततः पर्वतवृत्तिक
Page #527
--------------------------------------------------------------------------
________________
परामर्शः।
५१६
विदुषोऽपि धूमावखनुमानं, न हि व्याप्यतावच्छेदक
विभिष्टधूमे वहिव्याप्तिविशिष्टज्ञानमिति क्रमेण हतोयत्वसम्भवादित्याऊ । तदसत् । वहिव्याप्यो धूमः पर्वत इत्याकारकस्य व्याप्तिविशिष्टविशेष्यक-पक्षप्रकारकज्ञानस्यैव वहिव्यायधूमवान् पर्वत इत्यादिपक्षविशेष्यकपरामर्शन समं विनिगमनाविरहेणानुमितिहेतुत्वाभ्युपगमान् पर्वतवृत्तिधूमो वहिव्याय इत्यादिज्ञानस्य च यथोक्रपक्षविशेष्यक-परामर्शापेक्षया गुरुत्वात् पक्षतावच्छेदकावच्छिन्न-पक्षविषयतानिरूपित-व्याप्यत्वावच्छिन्नविषयताप्रतियोगिकनिश्चयत्वेन व्याप्यविशेष्यक-पक्षविशेष्यकपरामर्शीभयसाधारणधर्मेण हेतुतामते तस्य कारणतावच्छेदकानाक्रान्तबादिति ध्येयं ।
व्यापकतापरामर्शस्य हेतुतावादिनां मतमाह, 'अन्ये विति, 'प्रतियोगित्वं' प्रतियोगितानवच्छेदकमाध्यतावच्छेदकवत्त्वं, 'व्यापकताज्ञानमिति माध्यतावच्छेदकविशेष्यक-हेतुसमानाधिकरणभावप्रतियोगितानवच्छेदकत्वज्ञानमित्यर्थः, 'अनुमितिहेतः' अनुमितिकारणं, माध्यस्येति माध्यविशेष्यकं हेतुतावच्छेदकविशिष्टे उपलक्षणविधया पक्षवृत्तिलप्रकारकं उपलक्षणविधया हेतुतावच्छेदकसम्बन्धावच्छिन्नाधेयतासम्बन्धेन पक्षप्रकारकं वा हेतुतावच्छेदकविशिष्टवधिहाभावप्रतियोगितानवच्छेदकसाध्यतावच्छेदकवत्त्वज्ञानमित्यर्थः, परामर्थः' अनुमितिजनकपरामर्शः, तथाच पर्वतत्तिधूमव्यापको वहिरित्याकारकं पर्वतवद्धमव्यापको वहिरित्याकारकं वा माध्यविशेष्यकशानं अनुमितिजनकपरामर्थ इति भावः । अत्र च पर्वतवृत्तित्वा
Page #528
--------------------------------------------------------------------------
________________
५२.
तत्वचिन्तामो
तया भासमानस्यावश्यं व्याप्यतामह, मानाभावात् ।
दिकमुपलक्षणविधया धूमादौ प्रकारः, न तु व्यापकतायां तदन्तर्भावः, तेन विशिष्य पर्वतीयधूमव्यापकत्वस्व प्रागननुभूतत्वेऽप्यनुमिति नुपपत्रा, न वा 'अतएवेत्याद्यग्रिमग्रन्थविरोध इति ध्येयं । ‘माध्यव्याप्तस्येति, सप्तम्यर्थ षष्ठी, 'पक्षधर्मताज्ञान' पक्षवैशिष्यज्ञानं, तथाच वहिव्याप्यो धूमः पर्वते इत्याकारक-व्याप्यविशेष्यक-पक्षप्रकारकज्ञानमित्यर्थः ।
प्रावस्तु 'पक्षधर्मताजान' पक्षवृत्तिताज्ञानं तथाच वहिव्याप्यो धूमः पर्वतवृत्तिरित्याकारकं ज्ञानमित्यर्थः, यदा ‘साध्यव्याप्तस्येति 'व्याप्तपदं भावमाधनं साध्यव्याप्तेरित्यर्थः, 'पक्षधर्मताज्ञान' पक्षवृत्तित्वप्रकारेण ज्ञानं, तथाच पर्वतवृत्तिधूमो वहिव्याप्य इत्याकारक ज्ञानमित्यर्थः 'तस्मादित्यादिना तादृशज्ञानस्यैव पूर्वममुमितिजनकपरामर्शत्वाभिधानादित्याजः।। ___ माध्यव्याप्यवदिति माध्यव्याप्तिविशिष्ट प्रकारकं पक्षविशेष्यकज्ञानं वेत्यर्थः, 'गौरवादिति सामानाधिकरण्यांविषयत्वस्याधिकस्य कारणतावच्छेदककोटौ निवेशनगौरवादित्यर्थः। न चैवं हेतौ माध्यमामानाधिकरप्यस्य मंगये व्यतिरेकनिश्चये वा नुमित्यापत्तिरिति वाच्यं । माध्याभाववदवृत्तित्वज्ञानस्यैव हेतुतावादिनामिवेष्टत्वात्। न चैवं पक्षवृत्तिधूमव्यापको वहिरिति ज्ञानादयसमानाधिकरणधूमवान् पर्वत इति ज्ञानसत्त्वेऽप्यनुमितिः स्यादिति वाच्या माध्यासमानाधिकरणधर्मान्तरवत्तायहस्येव तस्याप्यनुमितिं प्रति माहाविरो
Page #529
--------------------------------------------------------------------------
________________
परामर्शः।
५९१
तस्मात् पक्षधर्मे व्याप्तिविशिष्टज्ञानं तदनन्तरं विशिष्टवैशिष्ट्यज्ञानं पक्षे वा तृतीयलिङ्गपरामर्शः ।
अन्ये तु स्वसमानाधिकरणत्यन्ताभावाप्रतियोगित्वं धित्वात् । न चैवं वहिव्यायधूमवान् पर्वत इति ज्ञानात् कथमनुमितिरिति वाच्य। लाघवात्तादृचपरामर्शस्यैव हेतुत्वे मिद्धे तत्राप्यन्तरा तत्कल्पनात् पर्वतवृत्तिधूमव्यापको वहिरिति शाब्दादिपरामर्शस्थले त्वयाप्यन्तरा व्याप्यत्वपरामर्शस्य कल्पनीयत्वात् । न चाप्रमिद्धसाध्यकव्यतिरेकिणि माध्यविशेष्यकानुमितिजनकपरामर्भस्थासम्भव इति वाच्या साध्याभावस्य भावात्मकस्थ व्यापकतया हेवभा
वगाहिपरामर्शस्यैव तत्र पृथक् हेतुत्वकल्पनात्, तवापि तत्र व्याप्यत्वपरामर्शासम्भवादिति भावः। ननु व्यापकमामानाधिकरण्यरूपव्याप्ते
ओनं नानुमितिहेतुः किन्तु माध्यवदन्यावृत्तित्वरूपतज्ज्ञानं कारणं, तथाच तवैव गौरवं विषयाधिक्याभावेऽपि कारणतावच्छेदकघटकविषयताधिक्यात्। न चैवं केवलान्वयिन्यव्याप्तिः, तत्र व्याप्तिभ्रमादेवानुमित्युत्पत्तेरित्यत पाह, 'अतएवेति यतो व्यापकताजानं कारणं अतएवेत्यर्थः, ‘साध्यायोगव्यवच्छेदेनेति, अभेदे हतौया, वड्ययोगव्यवच्छेदरूपा वहिनिष्ठधूमव्यापकता प्रदर्श्यते इत्यर्थः, वययोगव्यव
छेदश्च वहिनिष्ठधूमसमानाधिकरणभावप्रतियोगितानवच्छेदकवहित्यायोगव्यवच्छेदः वहिनिष्ठतादृशवहिववत्त्वमिति यावत्। ___ केचित्तु महार्थे हतीया तथाच वययोगव्यवच्छेदेन सह वकिनिष्ठधूमव्यापकता प्रदर्श्यत इत्यर्थः, वङ्ग्ययोगव्यवच्छेदश्च वजिमदभेदइति प्राकः।
CG
Page #530
--------------------------------------------------------------------------
________________
५२२
तत्त्वचिन्तामणौ
व्यापकत्वं, तत्सामानाधिकरण्यञ्च व्याप्यत्वं, तथाच लाघवात् व्यापकताज्ञानमनुमितिहेतुः, साध्यस्य पक्षधर्मव्यापकताज्ञानञ्च परामर्शः, न तु साध्यव्याप्तस्य पक्षधर्माताज्ञानं साध्यव्याप्यवत्यक्षजानं वा गौरवात्। अतएव योयोधूमवान् सोनिमानित्युदाहरणवाक्ये
मनूदाहरणवाक्यात् कथं व्यापकत्वलाभः तस्यापदार्थत्वादिति चेत्, अत्र केचित्, धूमवति धूमव्यापकविशिष्टाभेदसम्बन्धेन वद्धिमतोऽवयात् संसर्गमर्यादयैव वहौ धूमव्यापकत्वलाभः, वहिमदभेदस्य वहिरूपत्वात् वौमा च तात्पर्यग्राहिकेत्याहुः। तन्त्र(१)। संसर्गमर्यादया व्यापकताज्ञानस्य परामर्शानुपयोगितया तत्प्रदर्शनस्य व्यर्थत्वापत्तेः। वस्तुतस्तु वहिवाचकपदस्य धूमव्यापकवह्नौ लक्षणया धूमवत्यभेदसम्बन्धेन धूमव्यापकवहिमतोऽन्वयात् वह्नौ प्रकारतयैव धूमव्यापकत्वलाभात् वौसा च तात्पर्यग्राहिकेत्येव तत्त्वं । 'अन्यथेति यदि साध्यवदन्यावृत्तित्वज्ञानं कारणं तदेत्यर्थः, 'अन्ययोगेति, अन्ययोगव्यवच्छेदश्च माध्यवदन्यस्मिन् योगव्यवच्छेदः माध्यवदन्यत्तित्वव्यव
छेद इति यावत्, बोधकत्वं बतौयार्थः, तथाच माध्यवदन्यवृत्तित्वव्यवच्छेदबोधकमुदाहरणस्वरूपं स्थादित्यर्थः । मनु यदि हेतुनिष्ठव्याप्तिज्ञानं न तन्त्रं तदा तद्विघटनाय हेतुनिष्ठतया दोषोद्भावनं न स्थात् किन्तु माध्यनिष्ठतयैव तदुद्भावनं स्थादित्यत्र इष्टापत्तिमाह, 'दोषोऽपौति, 'श्रादिना व्याप्यत्वासिद्धिपरिग्रहः, 'न पक्षधर्मव्यापकमिति न हेतुतावच्छेदकावच्छिवव्यापकतावच्छेदक माध्यता(९) तदसदिति छ।
Page #531
--------------------------------------------------------------------------
________________
पू२३
परामर्शः। साध्यायोगव्यवच्छेदेन धूमव्यापकता वहरुपदर्यते, अन्यथा वहिमानेव धूमवानित्यन्ययोगव्यवच्छेदेनादाहरणशरीरं स्यात्, दोषोऽपि व्यभिचारादिर्न पक्षधर्मव्यापकं साध्यमित्येवोद्भाव्यः। वच्छेदकमित्यर्थः, एतच्च समानप्रकारकज्ञानस्यैव प्रतिबन्धकत्ववादिनां नव्यानां मतमाश्रित्योकं, प्राचीननये हेतौ माध्याभाववहृत्तित्वबुद्धेरपि माध्ये हेतव्यापकत्वधौविरोधित्वादिति(१) मन्तव्यं। 'परामशी यदौति, अनुमितिहेतुरिति शेषः, 'पर्वतीयधूमं प्रतौति वह्नौ पर्वतवृत्तित्वरूपेण धूमव्यापकताविषयकत्वस्येत्यर्थः, 'पर्वतधूमसामानाधिकरण्यनैयत्यात्' वहौ पर्वतीयधूमसामानाधिकरण्यविषयकत्वव्याप्यत्वात्, 'पर्वतवहिरिति, अन्यत्र पर्वतीयधमसामानाधिकरण्यस्य विरहादिति भावः। 'किमनुमेयमिति, सिद्धसाधनादिति भावः। 'भानं' विषयित्वं, 'माध्यमामानाधिकरण्येति पर्वतीयधूमे साध्यमामानाधिकरण्यविषयित्वनियतमित्यर्थः, 'व्याप्यत्वभानेऽपि व्याप्यत्वपरामर्थस्थान त्वेऽपि, 'तल्यं शिam---
Page #532
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२०
तत्वचिन्तामणे
अथ पर्वतत्तिधूमव्यापकोवहिरितिपरामर्श यदि सदा पर्वतीयधूमं प्रति व्यापकतायाः पर्वतधूमसामामाधिकरण्यनैयत्यात् पर्वतवह्निः परामर्शविषय रवेति किमनुमेयमिति चेत्, सहि पर्वतीयधूमे नियतसाध्य
वस्य वहौ पर्वतधूमसामानाधिकरण्यविषयकत्वव्याप्यत्वमेवामिभूमित्याह, 'वस्तुतस्विति, 'तइबिठेति धूमवचिठेत्यर्थः, 'न तु धूममामानाधिकरण्यं न तु वहिनिष्ठपर्वतीयधूमसामानाधिकरण्यघटितं, येन यथोकव्यापकताविषयकत्वं तविषयकत्वव्याप्यं स्यादिति भावः। 'सामानाधिकरण्यविशेषः' नियतसाध्यसामानाधिकरण्यं । 'मानसएवेति वहिरिन्द्रियाजन्य इत्यर्थः, 'सर्वत्र' वहिरिन्द्रियासनिकष्टे सर्वत्र, यथाश्रुतन्तु न मङ्गच्छते शाब्दादिनापि क्वचित् परामर्शसम्भवात् यत्र माध्येन समं चक्षुरादिसत्रिकर्षाऽस्ति तत्र चक्षुरादिसम्भवाञ्च, 'चक्षुरन्वयेति चक्षुरसनिकृष्टस्थलेऽपि क्वचिच्च
' बयोपचौणं' उपनयेना
Page #533
--------------------------------------------------------------------------
________________
परामाः।
५२५
सामानाधिकरण्यस्य व्याप्यत्वस्य भानं साध्यसामानाधिकरण्यभाननियतमिति व्याप्यत्वभानेऽपि तुल्यम्। यदि च स्मृता व्याप्तिधूमेऽवगम्यते तदा व्यापकत्वेऽपि समानं। वस्तुतस्तु व्यापकत्वं तदन्निष्ठात्यन्ताभावाकपरामर्शस्याभावात् लिङ्गविशेष्यकपरामर्शएव हेतुळच्यः(१) स च न सम्भवति तत्र पक्षस्योपसर्जनवादिति भावः । ननु कारणैभूतज्ञाने यदिशेय्यतया भामते तत् कार्योभूतज्ञाने विशेष्यतातिरिक्तरूपेण न भासते इत्येव नियमः अतो न पचविशेषणकपरामर्शात् पचविशेस्यकानुमित्यनुपपत्तिरित्यत आह, 'न हौति, 'तथा' तथैव, 'तत्र चेति पुरुषस्य दण्ड इतिज्ञानजन्ये दण्डौ पुरुष इतिज्ञाने चेत्यर्थः, पक्षवृत्तिलिङ्गपरामर्थस्येति पक्ष-साध्यव्याप्योभयवैशिष्शावगाहिपरामर्शस्येत्यर्थः, 'अयं स्वभावः' अयं नियमः, 'स्खाश्रयविशेष्थिकां' पक्षविशेषिकां, नातथाभूतां' न पचविशेषणिका,(२) यावद्विशेषमामयौविरहादिति भावः । अत्रेदमखरसवीजं यदि अनुभवमपलप्य खाघवात् व्यापकतापरामर्श एव हेतरुपेयते तदास्मादयतिलघुतया साध्यवदन्यावृत्तित्वरूपव्याप्यत्वपरामर्श एव इतरुचितः केवलान्वयिनि च तद्धमादेवानमिति न्यथा। न चैवं यो यो धूमवान् इत्युदाहरणनुपपत्तिरिति(ए) वाचं। वहिमानेव धूमवानित्यस्यैवोदा(१) लिङ्गविशेष्यकपरामर्श एव जातः तच स एव हेतुर्वाच्यः इति ख० । (२) न पक्षाविशेष्यिकामिति ख.। (३) साध्यवदन्यावृत्तित्वरूपव्याप्तिधानस्यानुमितिहेतुत्वे वौसार्थक-योय
इतिपदघटितस्य यो यो धूमवान् स वहिमान् इत्युदाहरणवाक्यस्य व्यापकताबोधकत्वेनानुमितावनुपयोगित्वमिति भावः ।
Page #534
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्वचिन्तामणौ
५२८ प्रतियोगित्वं, न तु धूमसामानाधिकरण्यं, व्याप्यत्वन्तु सामानाधिकरण्यविशेष इति तवैवानुमितिरफला स्यात् । न चैवं परामर्शस्य चाक्षुषत्वं न स्याड्यापकस्य विशेष्यस्येन्द्रियासन्निकर्षादिति वाच्यम्। इष्टत्वात्, हरणत्वात् । न चैवं कथकसम्प्रदायविरोध इति वाच्यं । युक्तों मति तस्याकिञ्चित्करत्वात्(१), प्राचौनरेतत्सूक्ष्मानालोकनेनैव तदभ्युपगमात्र) अन्यथा तवापि वहिव्याप्यधूमवानयमित्युपनविरोधात् पर्वतवृत्तिधमव्यापको वहिरित्येतस्यैवोचितत्वादितिपदिक् ।
पूर्वं न तु परामृष्यमाणं लिङ्गं करणमिति वक्ष्यते' इति यदुक्तं तदेव प्रसङ्गादाह, “एवमिति यथानुमितिकारणतावच्छेदकतया मौमांसकाभिमतं व्याप्यतावच्छेदकप्रकारकव्याप्तिनिश्चयत्वादिकं नानुमितिकारणतावच्छेदक अपि तु पक्षतावच्छेदकावच्छिन्नविषयतानिरूपित-व्याप्यत्वावच्छिन्नविषयताप्रतियोगिकज्ञानत्वरूपं लिङ्गपरामर्मत्वं तथेत्यर्थः। 'लिङ्गपरामर्श एव' यथोक्तलिङ्गपरामर्श एव यथोक्तलिङ्गपरामर्शत्वमेवेति यावत्, ‘कारणं' कारणतावच्छेदकं, एवकारव्यावृत्तमेव() विवृणोति,'न विति, परामृष्यमाणं लिङ्ग प्राचार्याभिमतं परामृष्यमाणत्वरूपं लिङ्गत्वमपि, परामृष्यमाणत्वञ्च साध्यव्याप्यत्वावच्छिन्नविषयतावत्वं, माध्यव्याप्यत्वञ्च साध्याभाववदवृत्तित्वं । वस्तुतस्तु (१) तबिरोधस्याकिश्चित्वरत्वादिति । (२) तथोदाहरणाभ्युपगमादिति छ । (२) इत्यपनयस्यैवोचितवादितौति । (8) एवकारश्ववच्छेद्यमेवेति ख. २० ।
Page #535
--------------------------------------------------------------------------
________________
· परामर्शः।
५२७ असनिकृष्टधूमादाविव मानस एव हि सर्वच परामर्श चक्षुरन्वय-व्यतिरेकानुविधानञ्च पक्षत्तिधूमापनयोपक्षौणम्।
अथ जनकज्ञाने उपसर्जनतया भातस्य पक्षस्य साध्यव्याप्यत्वं, माध्यसम्बन्धितावच्छेदकरूपवत्वं, प्राचार्य्यमते स्वरूपसम्बन्धात्मकावच्छेदकताघटिततया लाघवेन तज्ज्ञानस्यैवानुमितिहेतुत्वादिति भावः। मानाभावादिति इतरुताः। प्राचार्योकं प्रमाएमाभते, 'अथेति, परामर्शमात्र' ज्ञानमात्र, 'लिङ्गपरामर्गः यथोकलिङ्गपरामर्शत्वाश्रयः, 'तथाचेति, यथोलिङ्गपरामर्शवस्य जनकतावच्छेदकतयेति शेषः, 'लिङ्गमपि हेतुः' माध्यव्याप्यत्वावच्छिन्नविषयतावत्त्वरूपं लिङ्गत्वमपि हेतुतावच्छेदक, 'विशिष्टेति यथोक्तलिङ्गपरामर्शत्वरूपविशिष्टधर्मस्य कारणतावच्छेदकताग्राहकं यन्मानं तादृशधर्मावच्छिन्नान्वय-व्यतिरेकसहरूतं प्रत्यक्षं तेनेत्यर्थः, 'वाधक विनेति अन्यथासिद्धि-व्यभिचारादिकं विनेत्यर्थः, 'विशेषणस्यापि हेतुत्वग्रहात्' विशेषणावच्छेदेनापि हेतुत्वग्रहात् विशेषणीभूतस्यापि यथोक्तविषयतारूपस्य लिङ्गत्वस्य खरूपसम्बन्धेन परामर्थकार्य्यतावच्छेदकावच्छिन्नं प्रति कारणतावच्छेदकत्वग्रहादिति यावत् । न चैवं यथोक्तविषयताप्रतियोगिकज्ञानत्ववत् व्याप्यत्वावच्छिन्नविषयतानिरूपित-पक्षतावच्छेदकावच्छिन्नविषयताप्रतियोगिकज्ञानवस्थापि विनिगमनाविरहेण लिङ्गपरामर्शत्वरूपतयानुमितिकारणतावरे दकत्वेन तविशेषणोभूतस्यापि पचतावच्छेदकावच्छिन्नविषयताववरूपपक्षत्वस्थानुमितिकारणतावच्छेदकत्वापत्तिरिति वायं। इष्ट
Page #536
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामणौ
पर्वतादेरनुमिता प्राधान्येन भानं न स्यात् । न हि जनकज्ञाने उपसजनतयावगतं जन्यज्ञाने प्राधान्येन भासते, तथादर्शनात्। न चानुमितेस्तथात्वमसिहं, पर्वतोऽयं वहिमानित्यनुमितेौकसिद्धत्वादिति चेत्। न। पुरुषस्य दण्ड इति ज्ञानानन्तरं दण्डौ पुरुष इति
त्वात्, लिङ्गसामान्यस्येव पक्षमामान्यस्यापि अव्यभिचारादिति भावः । अन्यथासिद्धत्वरूपबाधकमाञ्च निराकरोति, 'न चेति, 'लिङ्ग' यथोक्तविषयताश्रयो धूमादिः, 'परामर्शपरिचायकत्वेनेति जनकौभूतपक्षनिश्चयस्य खाविषयकनिश्चयाविषयितया व्यावर्तकत्वेनेत्यर्थः, व्यावर्तकत्वं भेदसाधकत्वं, व्यावर्तकत्वं हि विविधं व्यावर्त्तकधर्मान्तरोपस्थितिद्वारा परम्परया व्यावर्तकत्वं, मावाड्यावर्त्तकत्वञ्च, तत्राद्यं लिङ्गे न सम्भवति, किन्तु मावाड्यावर्तकत्वमेव तस्य इत्याह, 'परिचेयइति व्यावर्त्तनीये पक्षनिश्चये इत्यर्थः, 'विशेषान्तराभावेनेति लिङ्गोपस्थापनौयमाचाट्यावर्त्तकधर्मान्तराभावेनेत्यर्थः, 'लिङ्गमेव विशेषक' लिङ्गं विशेषकमेव, लिज विषयितासम्बन्धेन माघाड्यावर्त्तकमिति यावत्, 'तथाचेति स्वयमेव माचाव्यावर्तकत्वे चेत्यर्थः (१) व्यावर्त्तकधर्मान्तरोपस्थितिद्वारा व्यावर्त्तकस्यैवान्यथामिद्धत्वादिति भावः । 'अन्यथेति व्यावर्तकतामात्रेणन्यथासिद्धत्व इत्यर्थः, 'परिचायकतया' जनकीभूतचक्षुरादिसंयोगस्याजनकसंयोगेभ्यः प्रतियोगितासम्बन्धेन व्यावतक़तया, 'संयोगेनेति, अन्यथासिद्धमिन्द्रियमपि संयोगसम्बन्धेन
(१) खस्यैव साक्षाद्यावर्तकत्वे चेत्यर्थः इति क. ध ।
Page #537
--------------------------------------------------------------------------
________________
परामर्शः।
५२८
जानजन्यज्ञानदर्शनात्, अन्यथा तवापि कथं पक्षविशेध्यकत्वनियमः, न हि कारणीभूतज्ञाने यहिशेष्यतया भासते तत्का-भूतेऽपि तथा, इह भूतले घटनास्तीतिज्ञानजन्ये घटाभाववद्भूतलमितिज्ञाने तच च व्यभिन हेतुः स्यादिति योजना, विशिष्टाधिकरणकवैशिष्यानुभवे विशेष्यतावच्छेदक-विधेययोः समानकालीनत्वमसति बाधादिप्रतिबन्धक(१) अवश्यं भासते, तदानञ्च न प्रकारतया, दण्डौ पुरुषः कुण्डलीत्यादौ दण्डादिसमानकालौनत्वस्य प्रकारत्वाननुभवात् समानकालोनत्वस्याज्ञानदशायां तस्य प्रकारत्वासम्भवाच्च, किन्तु मंसर्गतयेति सर्वजनमिद्धमिद्धान्तः, तस्य संसर्गता च विधेये विशेष्यतावच्छेदकस्य, समानकालौनतासम्बन्धेन विशेष्यतावच्छेदकस्य विधेयेऽपि प्रकारत्वात्। अतएव दण्डौ पुरुषः कुण्डलोत्यादौ दण्डादिकं मंयोगसम्बन्धेन पुरुष व समानकालौनत्वसम्बन्धन विधेये कुण्डलेऽपि प्रकार इति प्राञ्चः। तदसत्। दण्डौ पुरुषः कुण्डलीत्यादौ दण्डादिसमानकालौनत्ववत् समानकालौनत्वसम्बन्धेन दण्डादेरपि कुण्डलादौ प्रकारत्वस्थानुभवबाधितत्वात् तथा मति दण्डौ पुरुषोदण्डवत्कुण्डलौति तदाकारापत्तेः ।
केचित्तु उद्देश्ये विधेयस्य संसर्गस्तत्, विशेष्यतावच्छेदकसमानकालीनत्वविशिष्टविधेयतानियामकसम्बन्धन विधेयस्य उद्देश्ये प्रकारत्वात्। अत एव दण्डौ पुरुषः कुण्डलीत्यादौ दण्डादिसमानकालौनत्वविशिष्टमयोगसम्बन्धेन पुरुषे कुल्डस्लादिकं प्रकार इत्याहुः।
(९) बाधक इति कः ।
Page #538
--------------------------------------------------------------------------
________________
५३.
तवचिन्तामणौ
चारात्, तस्मात् पक्षत्तिलिङ्गपरामर्शस्यायं स्वभावो यस्खाश्रयविशेष्यिकामनुमितिं जनयति नातथाभूतामेवं ममापि तुल्यमिति।
एवं लिङ्गपरामर्श एव कारणं न तु परामृष्यमाणं अन्ये तु विशेष्यतावच्छेदक-विशेष्ययोः संसर्गस्तत्, विधेयसमानकालीनवविभिष्टविगेय्यतावच्छेदकतानियामकसम्बन्धेन विशेष्यतावच्छेदकस्य विशेष्ये प्रकारत्वात्, अतएव दण्डौ पुरुषः कुण्डलौत्यादौ कुण्डलादिनमानकालोनल विशिष्टसंयोगसम्बन्धेन दण्डादिकं पुरुषे प्रकारइत्याहुः।
तत्र मध्यममतानुसारेणानुमानात् लिङ्गस्य कारणत्वं माधयति, 'अपि चेति, 'धूमवानित्यादि अनुमित्यन्तं पक्षनिर्देशः, धूमवानयं वकिमानिति या वहि-धूमयोः समानकालीनत्वविषयता तच्छालिनौति विषयान्नार्थः, धूमसमानकालौनवविषयतायाः पर्वतनिष्ठविशेष्यतानिरूपितत्वलाभाय इत्यन्तं विषयताविशेषणं, वकिपदञ्च खरूपकथनं, तथाच पर्वतनिष्ठविशेष्यतानिरूपिता या धूमसमानकालौनवविषयता तच्छालिनौति पर्यवसितार्थः, 'अधूमविशेषणिकेत्यकारप्रश्लेषः, तथाच धूमः समानकालौनत्वांशे विशेषणं यत्रेति व्युत्पत्त्या धूमविशेषणकं धूमसमानकालीनत्वज्ञानं तत् जन्यतासम्बन्धेन म विद्यते यति व्युत्पत्त्या धूमसमानकालौनत्वज्ञानाजन्येत्यर्थः, एवञ्च पर्वतनिष्ठविशेष्यतानिरूपितधूमसमानकालीनत्वविषयताशालिनी धूमसमानकालौनत्वज्ञानाजन्यानुमितिः पक्ष इति भावः । प्रत्येकदलव्यावृत्तिस्तु हेतव्याख्यानावसरे स्फुटौभविष्यति। 'शायमामविशेषणेति पळतविशेष्यक-धूमप्रकारकज्ञानविशिष्टधूमजन्येत्यर्थः,
Page #539
--------------------------------------------------------------------------
________________
परामर्शः।
लिङ्गम् । अथ परामर्शमाचं न हेतुरपि तु लिङ्गपरामर्शः, तथाच लिङ्गमपि हेतुः विशिष्टकारणताग्राहकमानेन बाधकं विना विशेषणस्यापि हेतुत्वग्रहात्। न च लिङ्गं परामर्शपरिचायकत्वेनान्यथासिहं, परिचेये अन्यथा पर्वतत्व-वन्यादिरूपविशेषणजन्यतयार्थान्तरापत्तेः। लिङ्गस्य कारणत्वे किं पक्षविशेष्यक-तज्ज्ञानस्य कारणत्वमेव नेत्याशङ्कामपनेतुं पर्चतविशेष्यक-धूमप्रकारकज्ञानस्थापि कारणतामिद्ध्ये विशिष्टान्तं धूमविशेषणं, वैशिष्यञ्च प्रकारतासम्बन्धेन। न च विशिष्टान्तोपादानएव कथं तादृशज्ञानस्य जनकत्वसिद्धिरिति वाच्यं । प्राचार्य्यमते विशिष्ट कारणताग्राहकप्रमाणेनासति बाधके विशेषणस्यापि कारणत्वयनियमेन तत्सिद्धेः। पर्वतविशेष्यक-खजनकज्ञानप्रकारौभूतधूमजन्येत्येव वा माध्यं, तथाच स्फुटैव तत्सिद्धिः । न च एतावता धूमस्य जनकत्वसिद्धावपि लिङ्गत्वस्य तदवच्छेदकत्वामिड्या नोहेश्यसिद्धिरिति वाच्यं। धूमस्य जनकत्वसिद्धी सामान्यतोलिङ्गत्वस्यैव लाघवात्तदवच्छेदकत्वकल्पनादिति हृदयं । 'विशेषणसमानकालतयेति विशेषणपदं धूमपरं, विशेष्यपदं पर्वतपरं, विशिष्टपदञ्च विलक्षणपरं, तथाच धूमसमानकालौनतया पर्वते शाब्दान्यविलक्षणज्ञानत्वादित्यर्थः, वैलक्षण्यश्च धूमसमानकालौनत्वज्ञानाजन्यत्वं, इत्थश्च पर्वतनिष्ठविशेष्यतानिरूपितधूमसमानकालौनत्वविषयताशालिशाब्दान्यधूमसमानकालौनत्वज्ञानाजन्यज्ञानत्वादिति हेतुः फलितः, धूमान्यलिङ्गकानुमितिषु व्यभिचारवारणाय माल्यन्तं चरमज्ञानविशेषणं, पर्वतान्यपक्षकधूमलिङ्गकानुमितिषु पर्वतविशेष्यकज्ञानविशिष्टधूमाजन्यतया
Page #540
--------------------------------------------------------------------------
________________
५१२ ।
सावचिन्तामणे
विशेषणान्तराभावेन लिङ्गमेव विशेषकं तथाचानन्यथासिद्धत्वात् तदपि हेतुः अन्यथा परिचायकतया संयोगेनान्यथासिङ्कमिन्द्रियमपि कारणं न स्यात् । अपि च धूमवान् वहिमानिति धूमसमानकालवाहव्यभिचारवारणय निरूपितान्तं विषयताविशेषणं, अतएव तादृभानुमितिषु बाध-भागामिद्धिवारणय पक्षेऽपि शाख्यन्तमनुमितिविशेषणं। न चैवं तादृशविषयतामाख्यनुमितौ लिङ्गस्य हेतुत्वमिद्धवावपि अनुमितिमा प्रति लिङ्गस्य न हेतुत्वमिद्धिरिति वाच्यं। प्राचा[मते लिङ्गोपहितलैङ्गिकभाननियमेनानुमितिमात्रस्यैव लिङ्गविभिशुपचे माध्यवैभिव्यविषयकतया लिङ्गसमानकालीनत्वस्य संसर्गघटकतया पोऽवश्यं भानात्। न च धूमविभिष्टपर्वतविशेष्यताशालिनौत्येवाच्यतां किं समानकालौनत्वप्रवेशेनेति वाच्यं। धूमवान् पर्वतो वहिमान् धूमध्वंसादित्यनुमितेधूमाजन्यत्वात् व्यभिचारापत्तेः । न च समानकालीनत्वोपादानेऽपि तद्दोषतादवस्यं तत्रापि धूमस्य विशेष्यतावच्छेदकतया तत्समानकालौनत्वस्य संसर्गघटकतया भानादिति वाच्यं। प्राचार्य्यनये शाब्दाद्यतिरिक्तज्ञाने तत्ममानकालौनत्वस्य ज्ञानं विना तत्ममानकालौनत्वभानं प्रति तन्नन्यत्वस्य नियामकतया लिङ्गातिरिक्तविशेष्यतावच्छेदकसमानकालीनत्वस्थाज्ञातस्य संसर्गतयानुमितावभानात् लिङ्गातिरिक्तविशेष्यतावच्छेदकस्यानुमितावहेतृत्वात् अतएव तदानौं धूमवान् पर्वतो वद्धिमान्तमादित्यनौतादिखिकानुमितावपि न व्यभिचारः अतीतादिलिङ्गस्याजनकतया तत्समानकालौनत्वस्याभानात्, शाब्दबोधे विषयस्याहेतुतया
Page #541
--------------------------------------------------------------------------
________________
परामर्शः।
विषयाधूमविशेषणिकानुमितिः ज्ञायमानविशेषणजन्या विशेषणसमानकालतया विशेष्यविषयेऽशाब्दविशिष्टज्ञानत्वात् दण्डौ पुरुष इति प्रत्ययवत्। अतधूमवान् पर्वतो वहिमान् इत्यादिधमममानकालीनत्वविषयकशाब्दबुद्धौ व्यभिचारवारणाय शाब्दान्येति, एवमुपमित्यन्यत्वं धूमाजन्यप्रत्यक्षान्यत्वञ्च वाच्यं तेन धूमवत्पर्वतविशेष्यकोपमितौ तादृशोपनौतभाने च न व्यभिचारः। यत्र धूमसमानकालीनत्व विशिष्टसंयोगादिसम्बन्धन पर्वते वयादिकं साध्यं धूमध्वंमादिश्च हेतुर्यत्र वा धूमसमानकालीनत्वविशिष्टमयोगादिसम्बन्धेन वह्यादिविशिष्टः पर्वतः पक्ष: धूमध्वंसादिहेतुः तत्र व्यभिचारवारणायाजन्यान्तं ज्ञानविशेषणं, धूमसमानकालीनत्वस्य पक्षतावच्छेदकघटकले माध्यतावच्छेदकसम्बन्धघटकत्वे वा तज्ज्ञानस्यावश्यं जनकत्वात् । एवं यत्रेतरसम्बन्धेन बाधात् धूमकालीनत्वविशिष्टसंयोगादिसम्बन्धेनानुमितिस्तत्रापौतरत्वप्रतियोगितया बाधज्ञानस्यैव धूमकालौनत्वविषयकत्वेन तज्ज्ञानजन्यत्वात् न व्यभिचार इति भावः । अतएव तादृशानुमितिषु बाध-भागामिद्धिवारणाय पोऽप्यजन्यान्तं अनुमितिविशेषणं । न चैवं यत्र धूमकालौनत्वं प्रकारतया संसर्गतया वा साध्यतावच्छेदक-पक्षतावच्छेदकघटकं माध्यतावच्छेदकसम्बन्धघटकं वा तादृशधूमलिङ्गकानुमितौनां पक्षवहि ततया न तासां धूमजन्यवसिद्धिरिति वाच्या हेत्वन्तरेण तत्रापि तत्मिद्धिसम्भवादिति भावः । या यनिष्ठविशेष्यतानिरूपितयद्धर्मसमानकालीनलविषयतामालितद्धर्मसमानकालौनत्वग्रहाजन्यभाब्दाद्यतिरिक्रधौर्भवति मा तद्विशेष्यक-तत्प्रकारकज्ञानविशिष्ट
Page #542
--------------------------------------------------------------------------
________________
५३४
एव ज्ञायमान विशेषणजन्यत्वेन विशेषणकालवृत्तितया विशेष्यभाननैयत्यं यथा दण्डी पुरुष इतिप्रत्यक्षे, तेन धूमसमानकालीनवह्निसिद्धिः, अन्यथा तत्तडूमकाल - तद्धर्मजन्या भवतीति सामान्यतो व्याप्यभिप्रायेण दृष्टान्तमाह, 'दण्डी पुरुषतौति, तदपि पुरुषनिष्ठविशेष्यतानिरूपित - पुरुषत्वकालीनत्वविषयताशात्रिपुरुषत्वसमानकालीनत्वग्रहाजन्यबुद्धिर्भवति अथच पुरुषविशेष्यकज्ञानविशिष्टपुरुषत्वजन्यापि भवति, लौकिकप्रत्यचं प्रति विषयस्य हेतुताया विशिष्टाधिकरणक वैशिष्यबुद्धिं प्रति विशेष्यतावच्छेदकप्रकारकविशेय्यज्ञानस्य हेतुतायाश्च सर्वसिद्धत्वादिति भावः । न चात्र पुरुषत्वकालौनविषयतैव नास्ति कुतोऽस्य दृष्टान्तत्वं किञ्चिडूर्मविशिष्टे विशेषणं सत् यद्विशेय्यतावच्छेदकं तत्समानकालीनत्वस्यैव विशिष्टाधिकरणकवै शिट्यानुभवे संसर्गतया भाननियमात् इति वाच्यं । तादृश नियमे मानाभावात् (१), विशेष्यतावच्छेदकमात्र स्यैवामति बाधके समानकालीनत्वस्य भानात् ।
चिन्तामयी
केचित्तु 'दण्डो पुरुष इति प्रत्यचव दित्यस्य (९) दण्डी पुरुषो गच्छतौति प्रत्यक्षवदित्यर्थः तथाच दण्डसमानकालीनत्वभानमादायैव
"
दृष्टान्ततेत्याहुः ।
न च तथापि नौलपर्व्वतो वह्निमान् धूमात् पर्व्वतो वह्निमान्धूमादित्यादावनुमितेन पर्वतत्यादिरूपपचतावच्छेदकाजन्यतया तादृश(२) तादृशविषयविशेषे मानाभावादिति ग०, तादृश विषय स्वीकारे मानाभावादिति ७० ।
(२) अनेन 'प्रत्ययवत्' इत्यत्र 'प्रत्यक्षवत्' इति कस्यचिन्मून पुस्तकस्य पाठोऽनुमयत इति ।
Page #543
--------------------------------------------------------------------------
________________
परामः।
५३५
त्तिवानुमानं न स्यात् समयविशेषमन्तर्भाव्य व्याप्त्यग्रहात्। किच लिङ्गकरणत्वपक्षे परामर्श एव तद्यापारः परामर्शस्य तु न व्यापारान्तरमस्ति चरमकारणत्वादिति न तत् करणम् । सामान्यव्याप्नेयभिचारः पचतावच्छेदकस्यापि विशेष्यतावच्छेदकत्वेन तत्ममानकालौनत्वस्यापि भानादिति वाच्यं। प्राचार्य्यनये शाब्दाद्यतिरिक्रज्ञाने उद्देश्य-विधेयभावमहिम्ना तत्ममानकालीनत्वभानं प्रति तज्जन्यवस्थापि नियामकतया लिङ्गातिरिक्तविशेष्यतावच्छेदककालीनवस्थाज्ञातस्य संसर्गतया अनुमितावभानात् लिङ्गातिरिक्तविशेष्यतावच्छेदकस्यानुमितावहेतुत्वादिति दिक् । नन्विदमप्रयोजक इत्यतवाह, 'श्रतएवेति पर्वती वहिमान् धूमादित्यादावनुमितेषू मजन्यबादेवेत्यर्थः, अनुमितावपति शेषः, 'ज्ञायमानविशेषणजन्यत्वेन' विशेथे ज्ञायमानं सदेव यदिशेषणं तज्जन्यत्वनियमेन, विशेष्यतावच्छेदकजन्यत्वनियमेनेति यावत्, विशेषणकालवृत्तितया' विशेषणसमानकालौनतासम्बन्धेन, विशेष्यभाननेयत्यं विशेष्ये विधेयस्य भाननियमइत्यर्थः, 'यथेति, यथा दण्डौ पुरुष इति प्रत्यचे तथा नियम इत्यर्थः, अन्यथा प्राब्दाद्यतिरिक्तज्ञाने उद्देश्य-विधेयभावमहिना तत्ममानका
नत्वभानं प्रति तज्जन्यत्वस्य नियामकतथा यत्रानुमितिप्रागभावः सियभावो वानुमितिजनकः पक्षतावच्छेदकस्तत्रानुमितिप्रागभावादि. रूपविशेष्यतावच्छेदकसमानकालौनत्वभानसम्भवेऽपि सर्वच विशेष्यतावच्छेदकसमानकालौनत्वभानासम्भवेनानुमितौ तथा भाननियमो न स्यादिति भावः । ननु मास्तु अनुमितौ तथा माननियमः किन
Page #544
--------------------------------------------------------------------------
________________
५३६
तत्त्वचिन्तामो
ऋत्रिोच्यते। अतीतानागतधूमादिज्ञानेऽप्यनुमितिदर्शनान्न लिङ्गं तहेतुः व्यापार-पूर्ववर्तितयोरभावात्। न च विद्यमानं श्छिन्नमित्यत अाह, 'तेनेति अनुमितावपि तथा भानस्यावश्यकवेनेत्यर्थः, 'धूमसमानकालोनेति पर्वतो वजिमान् धूमादित्यादौ धमकालौनतासम्बन्धेन वयनुमितिरित्यर्थः, 'तेनेत्यादिकमेव विवृणोति, 'अन्यथेति अनुमितौ तथा भाननियमाभाव इत्यर्थः, 'तत्तदिति वहिमान् धूमादित्यत्र तत्तत्क्षणात्मकधूमकालवृत्तितासम्बन्धेन वयनमितिर्न स्थादित्यर्थः, 'समयविशेषेति तत्तत्क्षणात्मकधूमकालघटितसम्बन्धेन व्याप्ययहादित्यर्थः। न चेष्टापत्तिः, अनुभवविरोधादिति भावः । यद्दा ननु मास्तु वहिमान् धूमादित्यत्र धूमकालीनतासम्बन्धेनापि वयनुमितिः किनछिनमित्यत आह, 'अन्यथेति वहिमान् धूमादित्यत्रानुमितेधूमकालीनतासम्बन्धेन वह्यविषयकले इत्यर्थः, तवेति शेषः, 'तत्तदिति वहौ तत्तत्क्षणात्मकधूमकालवृत्तित्वविषयिन्यनुमितिर्न स्थादित्यर्थः, 'समयविशेषेति तत्तत्क्षणात्मकधूमकालवृत्तिवहित्वप्रकारेण व्याप्यग्रहादित्यर्थः। परामर्शस्य करणत्वं नैयायिकाभिमतमितिभ्रमेण दूषयति, 'किञ्चेति, 'परामर्शएवेति, विषयविधया तस्य लिङ्गजन्यत्वादिति भावः। 'चरमेति खाव्यवहितोत्तरमेवानमितिजनकवादित्यर्थः, 'न तत्करणमिति, 'तत्' परामर्शः, तच्छब्दस्य सर्वनामप्रतिरूपकाव्ययतया परामर्शशब्दस्य पुंलिङ्गत्वेऽपि नपुंसकलिङ्गता, 'तत्' परामर्यात्मकं ज्ञानं, इत्यपि कश्चित् ।
Page #545
--------------------------------------------------------------------------
________________
परामर्शः।
लिङ्गान्तरमेव तहेतुः, तदा तस्यापरामर्शात् परामर्शविषयस्य कारणताग्राहकाभावात, भाविनि पक्षे व्यक्त्यैक्यमेव वा यच लिङ्ग तच लिङ्गान्तराभावाच। यदि च
साध्यव्याप्यत्वावच्छिन्नानुमानिहनिययविषयतावत्वं सिङ्गलमिति भ्रमेण दूषयति, 'अतीतानागतेति अतीतानागतधमादीनां माध्यव्याप्यतया पचे ज्ञानादपौत्यर्थः, 'अनुमितिसत्त्वात्' अनुमित्युत्पादात्, 'लिङ्गं नानुमितिहेतुः' खिङ्गत्वं नानुमितिकारणतावच्छेदकं, 'व्यापारेति लिङ्गखावच्छिन्नस्य तदनुमितिव्यत्यव्यवहितपूर्ववर्त्तिव्यापकत्व-तत्तयत्यव्यवहितपूर्ववर्त्तिवयोरुभयोरेवाभावादित्यर्थः, अतीतादिलिङ्गस्य परामर्शाजनकतया परामर्शस्य तड्यापारत्वासम्भवात् तथाच व्यभिचारान्न कारणतावच्छेदकत्वमिति भावः । 'लिङ्गान्तरमेव' माध्यव्याप्यान्तरमेव, 'नद्धेतः' तदनुमित्यव्यवहितपूर्ववर्ति। ननु मास्तु तदानौं तस्य परामर्शः किन्तेनेत्यत बाह, 'परामर्शाविषयस्थेति, ‘कारणतायाहकेति कारणतावच्छेदकस्य लिङ्गवस्थाभावादित्यर्थः, लिङ्गत्वं हि माध्यव्याप्यत्वावच्छिवानुमावनिष्ठनिश्चयविषयतावत्त्वमिति भावः । ननु तदानौं तस्थापरामर्गेऽपि यदा कदाचित् परामसत्त्वादेव तादृशानुमानिसयविषयतावत्त्वरूपलिङ्गत्वसम्भवः कारणतावच्छेदकविशिष्टपूर्वसत्वञ्च न कार्योत्पत्ती तन्त्रमित्यत आह, भाविनौति भाविनि धूमादावेवेत्यर्थः, 'पचे' लिङ्गे, अनुमाढपरामर्थविषय इति यावत्, भाविधूमादिव्यक्तिरेव यत्र तादृशानुमाढनिश्चयविषयतावत्त्वरूपसिङ्गलाश्रय इति फलि
68
Page #546
--------------------------------------------------------------------------
________________
सवचिन्तामणै
वर्तमानमेव तब लिङ्गं तदा वर्तमानवयनुमानापपत्तिः । अथ भावि भूनं वा धूमादि न लिङ्गं किन्तु
तार्थः, 'यत्येकमेवेति,(९) एवकारोऽत्रान्यार्थकः, तथाच 'व्यत्येकमेव वा' भावि-वर्तमानान्यधूमादिव्यक्तिरेव वा, अतीतधूमादिव्यक्तिरेव वेति यावत्, 'लिङ्ग' अनुमापरामर्शविषयः, 'लिङ्गान्सराभावाचेति विद्यमानस्य लिङ्गवाभावाचेत्यर्थः, तथाच यस्य पुरुषस्य कदाचिदपि विद्यमामधूमः(न वकिव्याप्यत्वपरामर्शविषयः, किन्तु अतीतानागतधूमादिव्यर्वझिव्याप्यत्वरूपेण परामदेव वयनुमितिस्तस्य पुरुषस्य तदनुमितौ व्यभिचार इति भावः । मन्विदमयुक्त मचान्ततः माध्य-तत्यकारकप्रमाविशेष्यत्वादेर्वर्तमानधर्मस्थापि परामर्यादेवानुमिति न्यथेत्यभ्युपगमादित्यत आह, 'यदि चेति, ‘एवकारोऽप्यर्थे, 'तत्र लिङ्ग तर कारणीभूतपरामर्थविषयः, 'तदेति, उद्देश्य-विधेयभावमहिना तत्कालीनतया विधेयभानं प्रति तब्जन्यत्वस्य नियामकतया विशेष्यतावच्छेदकवर्तमानलिङ्गकालौनत्वेन वर्भानादिति भावः । ननु भावि-भूतधूमादिपरामर्थात् यस्य पुरुषस्यानुमितिस्तस्य धूमप्रागभावादिरूपविद्यमानधोऽपि हेतुतानवच्छेदकविशेषणताविशेषादिसम्बन्धेन पक्षे यत्र कुवचित् धर्मिणि वा माध्यव्याप्यत्वविशिष्टधीविषयस्तथाच न व्यभिचारः। न चैवं वर्तमानसाध्यानु
(९) 'व्यक्तयेक्यं' इथ्यत्र 'व्यत्येक' इति मूलपुस्तकान्तरपाठानुमापकमो.
दृशपाठधारणमिति । (२) विद्यमानधर्म इति ग..।
Page #547
--------------------------------------------------------------------------
________________
परामी। तत्यागभावस्तइंसश्च वर्तमानएव तयोरपि वहिसमानदेशत्वनियमादिति चेत् । न । अतीतभाविदिनत्ति
मानापत्तिरिति वाचं । तस्यानुमितौ विशेष्यतानवच्छेदकतथा तत्कालीनखाभानात् प्राचार्य्यनयेऽनुमितिकारणभूतपरामर्शविषयलिङ्गस्यैवानुमितौ विशेष्यतावच्छेदकत्वात्, अस्तु वा तदानों साध्ये नदधिकरणकालावृत्तित्वज्ञानमयावश्यक फलबलेन तथैव कल्पनादित्याशयेन शहते, 'अथेति, 'धूमादि' धूमाघेव, न लिङ्गन माध्यव्याप्यत्वरूपेण विशिष्टधौविषयः, 'विद्यमान एव'(१) विधमानोऽपि, हेतुतानवच्छेदकविशेषणताविशेषादिसम्बन्धेन पक्षे यत्र कुचचिद्धर्मिणि वा साध्यव्याप्यत्वविशिष्टवैशियधीविषय इति शेषः । मनु धूमप्रागभाव-धूमध्वंसयोस्तदानौं विशेषणताविशेषघटितसाध्यव्याप्यत्वविशिष्टवैशिष्यधौविषयत्वेऽपि(र) हेतुतावच्छेदकसंयोगसम्बन्धघटितमाध्यव्याप्यत्वस्य तत्र बाधितत्वेन तादृशमाध्यव्याप्यत्वावच्छिनविषयतावत्वस्य तत्राभावाड्यभिचारो दुर्खार एव हेतुतावच्छेदकसम्बन्धभेदेन माध्यव्याप्यत्वस्य विभिन्नतया तद्घटितयथोक्तलिङ्गत्वस्यापि कारणतावच्छेदकस्य नानावादित्यत आह, 'तयोरपौति, वझिसमानदेशवेति धूम-तडूंस-तत्यागभावान्यतमत्वादिरूप
(१) ईदृशपाठधारणेन 'वर्तमान एव' इत्यत्र ‘विद्यमान एव' इति
कस्यचिन्मूलपुस्तकस्य पाठोऽनुमीयत इति । (२) विशेषणताविशेषादिसंसर्गघटितसाध्यव्याप्यत्वविशिणवैशिध्यधौवि.
घयत्वेऽपौति ग।
Page #548
--------------------------------------------------------------------------
________________
५४. . तत्त्वचिन्तामणौ तया निश्चितात् वर्तमानतया सन्दिग्धात् धमादनुमिता हिन प्रागभाव-ध्वंसा लिने तयोः सन्धिग्धत्वात् । नापि
हेतुतावच्छेदकसंयोगसम्बन्धघटितवनिमामानाधिकरण्यावच्छेदकधमवत्त्वादित्यर्थः, नियम्यतेऽवच्छिद्यतेऽनेनेति व्युत्पत्त्या नियमपदस्यावच्छेदकपरत्वात्, तथाच हेतुतावच्छेदकसंयोगसम्बन्धघटितसाध्यव्याप्यत्वमपि तत्र न बाधितं । न च तथापि साध्यव्याप्यत्वावच्छिबहेतुतावच्छेदकसम्बन्धावच्छिन्नविषयतावत्वं कारणतावच्छेदकं तप बाधितमेव सर्वत्र संयोगसम्बन्धन प्रागभावादर्भमे मानाभावादिति वाच्यं। विशिष्टधर्मस्थावच्छेदकत्वग्राहकमानेन विशेषणोंभूतसाध्यव्याप्यत्वावच्छिन्न-हेतुतावच्छेदकसम्बन्धावच्छिन्नविषयवस्थावछेदकत्वं ग्टह्यते सामान्यतः साध्यव्याप्यत्वावच्छिन्नविषयतात्वरूपेणैव महात् विशेषणताविशेषादिसम्बन्धावछिन्नविषयतायात्रपि कारणतावच्छेदकलादिति भावः । 'अतीतेति अतीतानागतदिनावच्छेदेन पर्वते वकिव्याप्यधूमवरूपेण निश्चितादित्यर्थः, एतच्चानुमितिकारणसम्पत्तये, दिनावच्छेदेनेति स्वरूपकथनं, 'वर्तमानतया मन्दिग्वादिति पहिव्याप्यधूमप्रागभाववान वा वहिव्यायधूमध्वंसवान वा इत्याकारको यः पर्वतवृत्तितया स्वप्रागभाव-वध्वंसयोः मन्देहसादिषयादित्यर्थः, 'धूमात्' अतीतानागतधूमान्, 'लिङ्गे' कारणे, 'मन्दिग्धत्वादिति परे मन्दिग्धतया निरुतशिजवरूपकारणतावछेदकानाक्रान्तत्वादित्यर्थः । न च तदानौं पक्षे मन्दिग्धत्वेऽपि कालान्तरे पक्षे तदानौमेव धर्मान्तरे - वझिव्याप्यनरूपेण
Page #549
--------------------------------------------------------------------------
________________
परामर्शः।
५०१
धूमः, तस्यावर्तमानगन। किञ्च भूत-भावि-वर्तमानत्वाविषयात् पर्वते धूमइति ज्ञानाद्यचानुमानं तत्र विशिष्टधौविषयतया लिङ्गलसम्भव इति वायं। धर्मान्तरे कालानरेऽपि तयोस्तस्य पुरुषस्य वहिव्याप्यत्वरूपेण विशिष्टधौविरहादिति भावः । 'नापि धूम रति कारणमिति शेषः, अवर्तमानत्वात् अव्यवहितपूर्वमवर्तमानत्वात्। स्थचान्तरेऽपि व्यभिचारमार, किञ्चेति, 'भूत-भावि-वर्तमानत्वाविषयादिति, 'भूतत्वं' पर्वते धूमस्य भूतत्वं, पर्वते धूमस्य ध्वंस इति यावत्, ‘भावित्वं' पर्वते धूमस्य भावित्वं, पर्वते धूमस्य प्रागभाव इति यावत्, 'वर्तमानत्वं' पर्वते वर्तमानधूमस्य सम्बन्धः, तदविषयात् तविषयकज्ञानाकालौनादित्यर्थः, 'धूमः' वहिव्याप्योधूमः, 'यत्रानुमानं यस्मिन् पुरुषे वयनुमितिः, तथाच,(९) तस्य पुरुषस्य धर्मान्तरे कालान्तरेऽपि च न धूमध्वंमादिरूपविद्यमानधर्मस्य वकिव्याप्यत्वरूपेण विशिष्टधौरितिशेषः, 'तर का गतिरिति तत्पुरुषोय-पर्वतपक्षक-वयनुमितौ का गतिरित्यर्थः, धूमस्य यथोक्कलिङ्गत्वाश्रयत्वेऽपि नाव्यवहितपूर्वसत्त्वं, धूमध्वंसादेरव्यवहितपूर्ववर्त्तिवेऽपि न कारणतावच्छेदकौमत-यथोक्कलिङ्गलाश्रयत्वमिति व्यभिचारस्य दुरित्वादिति भावः । पूर्व धूमध्वंसप्रागभावयोः पक्षे मन्दिग्धतथा न लिङ्गवमित्युकं अच तु तयोरजानान खिङ्गत्वमित्यभिप्राय इति नाभेदः । 'सर्वत्रेति षष्ठ्यर्थ सप्तमी, भूत-भावि-वर्तमानधूमाज्ञानात् यस्य पुरुषस्थानुमितिस्तस्य
(१) पथ चेति घ•।
Page #550
--------------------------------------------------------------------------
________________
५४२
तत्वचिन्तामणे का गतिः, सर्वच प्रागभावाद्यन्यतमत्वं धूमावत्यन्ताभावाभावत्वं वा लिङ्गमिति चेत्, न, व्यर्थविशेषणत्वेन
सर्वस्यैव इत्यर्थः, 'प्रागभावाचेति धूम-तस-तत्यागभावतत्त्रयमाधारणं धूमप्रागभावाद्यन्यतमत्वं धूमात्यमाभावाभावत्वं वेत्यर्थः, प्राची मते प्रतियोगि-तम-तत्यागभावानां त्रयाणामेवात्यनाभावाभावरूपतया(१) धूमात्यनाभावाभावत्वमपि चितयसाधारणमिति भावः । 'लिङ्ग लिङ्गतावच्छेदक, अनुमितिजनकपरामर्शविषयतावच्छेदकमिति यावत्, तथाच भूत-भावि-धूमाज्ञानान यस्य पुरुषस्यानुमितिस्तस्य कस्यधिदिभिव्य धूमप्रागभाववादिरूपेण धूमप्रागभावादौनां परामर्मविरहेऽपि तदन्यतमत्वादिपितयसाधारबर्षण तेषां परामर्शः सर्वस्यैवास्ति तथाच म व्यभिचारः प्रागभावादेरेव यथोक्कलिङ्गलाश्रयत्वस्य सर्वच पूर्व सत्त्वादिति भावः । 'व्यर्थविशेषणवेनेति व्यर्थविशेषणरूपत्वेनेत्यर्थः, तेषामिति अन्यतमत्वघटकभेदानामत्यन्नाभावाभावत्वघटकात्यन्नाभावत्वादौनाश्चेत्यर्थः, (२) 'अलिङ्गवान्' परामर्शविषयतानवच्छेदकत्वात्, किन्तु धूमत्वादिप्रत्येकधर्म एव परामर्थविषयतावच्छेदक इति भावः । ननु व्यर्थविशेषणत्वेऽपि पक्षांशे प्रकारतावच्छेदकत्वे न किमपि बाधकमित्याभयेनाइ, 'अन्यतमवाद्यज्ञानेऽपौति अनुमातरन्यतमत्वादिप्रकारेण
(९) पत्यन्ताभावस्य प्रतियोगिनेव प्रतियोगिपागभावेन प्रतियोगिध्वं.
सेन च समं विरोधित्वं प्राचौनसम्मवमिति भावः। (२) अन्यतमत्व घटकभेदानां बत्यन्ताभाववादोनाचेति ग, घ ।
Page #551
--------------------------------------------------------------------------
________________
परामः।
तेषामलिङ्गत्वात् अन्यतमत्वाद्यज्ञानेऽपि धूमज्ञानादनुमितिसत्त्वाच्च । अपि च न धूमप्रागभावादि लिङ्ग,
कदाचिदपि परामर्शविरहेऽपौत्यर्थः, 'धूमज्ञानान्' प्रतीतादिधमजानात्, 'अनुमितिमत्त्वाच्च' अनुमितेरनुभवसिद्धत्वाच्च(१) । ननु माध्यव्याप्यत्वावच्छिवानुमाढनिश्चयविषयत्वं न लिङ्गवं अपि तु मामान्यतस्तादृशस्व-परसाधारणनिश्चयविषयतावत्त्वमेव लिङ्गत्वं, तथाच धूमप्रागभावादेधूमप्रागभावत्वादिरूपेणानुमापरामर्शविषयत्वेऽपि अनन्तसंसारेऽवश्यं कस्यचित् पुरुषस्यान्तो भगवत एव साध्यव्याप्यखावच्छिन्नविशिष्टधीविषयत्वादेव यथोक्तलिङ्गलमक्षतमित्यत पार, 'अपि चेति, 'न लिङ्ग' न व्याप्यं, तथाच कुतो व्याप्यत्वावछिनविषयत्वं तचेति भावः । ननु व्याप्यत्वाभावेऽपि व्याप्यत्वावच्छिवधमरूपविशिष्टधौविषयेत्वे न किमपि बाधकमित्यत साह, 'न वेति, 'तडौः' पुरुषान्तरोय-व्याप्यत्वविशिष्टवैभिव्यधौः, 'अनुमितौति अतीतानागतधमज्ञानजन्यपुरुषान्तरौयानुमितिकारणमित्यर्थः, 'न लिमित्यत्र हेतमाह, 'प्रागभावादौनामिति, लाघवात् प्रतियोगिन एव
(१) पनुमितिदर्शनात् अनुमितिसत्त्वाच अनुमितेरनुभवसिद्धत्वाचेति यावत् इति कल-पु०-पिडितपुस्तकपाठः, परन्वयं पाठः 'अनुमितिसत्त्वाच' इत्यत्र 'अनुमितिदर्शनाच' इति मूलपाठेन सङ्गच्छते नान्यथेति।
Page #552
--------------------------------------------------------------------------
________________
५४४
तत्त्वचिन्तामणे
न वा तौरनुमितिकारणं, प्रागभावादीनां व्यर्थत्वात् पावश्यकधूमज्ञानादेवानुमितिसम्भवाच। किञ्च लिज
व्याप्यत्वादिति भावः। एतच्चापाततः भिवधर्मिकत्वेन वैयर्थविरहात्(९) वैयर्थेऽपि व्याप्तिसत्वे(२) बाधकाभावाश्चेति मन्तव्यं। मानुमितिकारएमित्यच हेतुमाह, 'आवश्यकेति, 'धूमज्ञानादेवेति अनुमातरतोतानागतधूमपरामर्शादेवेत्यर्थः, 'अनुमितिसम्भवात्' अनुमित्युत्पादात्, ‘एवकारेण पुरुषान्तरौयधूमप्रागभावादिपरामर्शव्यवच्छेदः तस्य व्यधिकरणत्वादिति भावः। ननु पुरुषान्नरौयव्याप्यत्वविभि
धूमप्रागभावादिवैशिष्यबुद्धेः फलीभतानुमित्यजनकत्वेऽपि तदिषयत्वमादाय यथोक्कलिङ्गत्वमक्षतमेव, न हि फलीभूतानुमितिजनकपरामर्भस्य निरुतविषयतावत्वमेव लिङ्गवमित्यत पाह, किश्चेति, 'धूलोपटलात्' अतोतानागतधूलोपटलज्ञानात्, धूलोपटलपदं श्रतोतानागतलिङ्गमात्रीपशक्षक, 'लिङ्गभ्रमेण' माध्यव्याप्यत्वचमेण, कदाचिदपि कुत्रचिट्टर्मिणि माध्यव्याप्यत्वरूपेण विद्यमानधर्मवैशिष्यमविदुषोऽपि पुरुषस्य इति शेषः, 'अनुमित्युत्पत्तेरिति संयो
(२) तयाच भिन्नधर्मिकत्वेन खसमानाधिकरणत्वविरहात् न खस
मानाधिकरण-स्याप्यतावच्छेदक-धम्मान्तरघटितत्वरूपश्यर्थविशेषणधटितत्वमिति भावः। (२) तथाच व्याप्तिलक्षणे व्यर्थविशेषणाघटितवरूपविशेषणस्याप्रविछत्वात् व्यर्थविशेषगघटितत्वेऽपि न व्यामिसत्त्वे किचिदाधकमिति
भावः।
Page #553
--------------------------------------------------------------------------
________________
परामर्श।
१५
५४५
नानुमितिमात्र हेतुः लिङ्गं विनापि धूलोपटलात् लिङ्गभ्रमेणानुमित्यत्पत्तेः । "नापि लिङ्गं प्रमानुमिती,
गादिव्यधिकरणसम्बन्धेन पराज्ञातगुणदिव्यक्तिसाध्यकानुमित्युत्पत्तेरित्यर्थः, भगवतो योगिनश्च भ्रमविरहेण तदीयविशिष्टवैशिष्यधौविषयतामादायापि विद्यमानस्य तत्र लिङ्गवासम्भवादिति भावः । 'प्रमानुमित्राविति . साध्वविशेषकानुमितावित्यर्थः, तत्रान्ततोभगवतः साध्यव्याप्यत्वविशिष्टवैशिट्यधीविषयतामादायैव विद्यमानस्य लिङ्गत्वसम्भवादिति भावः । 'तविशेषेति परामर्शस्य यौ विशेषौ प्रमावाप्रमावे ताभ्यामेवेत्यर्थः, 'अनुमितितथात्वादिति अनुमितेः प्रमात्वाप्रमावादित्यर्थः, अन्यथा विद्यमानलिङ्गकभ्रमानुमितिस्थलेऽपि प्रमानुमित्यापत्तेः लिङ्गस्याविशेषादिति भावः। नन्वेतावता प्रमापरामर्श-लिङ्गयोरुभयोरेवानुमितिप्रमावप्रयोजकत्वमस्तु । न च प्रमापरामर्शस्य तत्प्रयोजकत्वावश्यकत्वे लिङ्गस्यापि तत्र प्रयोजकत्वकल्पनं व्यर्थं गौरवयस्तश्चेति वाच्यं । तत्कारणत्वस्यापि विशिष्टधर्मावच्छेदेन कारणताग्राहकप्रमाणममति बाधके विशेषणावच्छेदेनापि कारणत्वं रक्षातौति नियममिद्धतया व्यर्थत्वेन गौरवेण च निराकर्तुमशक्यत्वादित्यतो बाधकमाह, 'यत्मामान्य इति, 'तविशेषस्थति तविशेषस्यैव, तथाच तदवच्छिन्न कार्यताप्रतियोगिककारणतावच्छेदक-व्याप्यधर्म एव तदवच्छिन्नकार्यताव्याप्य-कार्य्यताप्रतियोगिककारणतावच्छेदक इति नियमादनुमितिसामान्यजनकतावच्छेदकाव्याप्यस्य लिङ्गत्वस्य नानुमितित्वावच्छिन्न कार्यताव्याप्य
69
Page #554
--------------------------------------------------------------------------
________________
... ना ....... नया यत्र विद्यमानस्य धर्मस्य स्व-परसाधारणनिश्चयघटितं विङ्गत्वं सम्भवति तचैव विशिष्ट कारणताग्राहकेत्याधुत्मर्गबलात् लिङ्ग हेतुन तु सर्वत्र तथाच न व्यभिचार इति परास्तं । लिङ्गत्वस्थानुमितिलावच्छिवं प्रति जनकतावच्छेदकस्य व्याप्यादिज्ञानत्वादेरव्याप्यतया अनुमितित्वावछिनकार्यताव्याप्यकार्यताप्रतियोगिककारणतावच्छेदकत्वासम्भवात् इति भावः । एतचोपलक्षणं परामर्शविरहदशायामपि लिङ्गमात्रादनुमित्यापत्तिवारणय परामर्थस्थापि पृथ्क कारणत्वावश्यकत्वे लिङ्गस्य पृथक् कारणत्वकल्पनं व्यर्थं गौरवग्रस्तञ्च । न च विशिष्टकारणतायाहोत्याद्युत्मर्गबलेन तत्कारणत्वस्य प्रमाणसिद्धतया व्यर्थत्वेन गौरवेण च प्रत्याख्यानासम्भव इति वाचं। . विशेषणवच्छेदेनापि स्वतन्त्रान्वय-व्यतिरेकयसत्त्व एव विशिष्टधर्मावच्छेदेन कारणत्वग्राहकस्यान्वय-व्यतिरेकग्रहस्य विशेषणवच्छेदेनापि कारणतायाहकत्वात् यथेन्द्रियत्व तत्संयोगत्वयोः, न चेहमोऽस्ति, अन्यथानुमितिं प्रति लिवयाप्यत्वादिषटकपदार्थान्तरावच्छिन्नस्यापि हेतुत्वापत्तेः इच्छा-शाब्दबोधादिकं प्रत्यपि इष्ट
Page #555
--------------------------------------------------------------------------
________________
परामर्शः।
५४५
नानुमितिमात्र हेतुः लिङ्ग विनापि धूलोपटलात् लिङ्गभ्रमणानुमित्यत्पत्तेः । 'नापि लिङ्ग प्रमानुमिती,
गादियधिकरणसम्बन्धेन पराज्ञातगुणादिव्यक्तिसाध्यकानुमित्युत्पत्तेरित्यर्थः, भगवतो योगिनश्च भ्रमविरहेण तदीयविशिष्टवैशिष्यधौविषयतामादायापि विद्यमानस्य तत्र लिङ्गवासम्भवादिति भावः । सापमानमिताविति माध्याडिनेया लिङ्गमेव हेतुः, लिङ्गमञ्च माध्यतावच्छेदकसम्बन्धेन माध्यव्याप्यत्वं, अनुमितिसामान्यं प्रति परामर्भस्य हेतुतयेव परामर्शविरहदशायां केवललिङ्गान प्रमानुमितिः। न चैवं यत्र माध्यतावच्छेदकसम्बन्धेन पक्षनिष्ठं सर्वमेव निरकलिङ्गमतौतमनागतं वा तत्र परामर्शसत्त्वेऽपि प्रमानुमितिर्न स्यात् इति वाच्यं । तत्र परामर्शप्रमावस्यैवाभावात् माध्यतावच्छेदकसम्बन्धेन विद्यमाननिकालिङ्गवति पचे माध्यव्याप्यतया यत्किच्चि
विच्छिन्नावगाहित्वस्यैव परामर्गप्रमात्वरूपत्वात् । न च तथापि प्रमापरामर्शस्यैव प्रमानुमितिहेतुत्वं यत्सामान्येत्याधुक्रव्याप्या लाघवे
लिङ्गस्य हेतुत्वासम्भवादिति वाच्यं । गौरवादिरूपबाधकामत्त्वएव(जादृशव्याप्तेरभ्युपगमादित्याः , तन्मतमुपन्यस्यति, 'अथेति, 'विद्यमानखिङ्गविषयत्वमिति माध्यव्याप्यतावच्छेदकसम्बन्धेन विद्य. मानलिङ्गवति पक्षे माध्यव्याप्यतया यत्किञ्चिद्धर्मावगाहित्यमित्यर्थः, 'तथाचायातमिति, व्यभिचासभावात् लाघवाचेति भावः, 'प्रमानुमितिहेतुत्वमिति माध्यतावच्छेदकसम्बन्धन पक्षनिष्ठतया प्रमानु(१) गौरवादिरूपबाधकामावसत्त्व रवेति घ० ।
Page #556
--------------------------------------------------------------------------
________________
५80
तत्त्वचिन्तामणौ
न। भाविना भूतेन वा यदाकदाचिदिद्यमानेनापि लिङ्गेन परामर्शप्रमात्वसम्भवान्नानुमितिपूर्वसमये तत्म
मितिहेतुत्वमित्यर्थः, लिङ्गत्वमपि माध्यतावच्छेदकसम्बन्धेन माध्यव्याप्यत्वमिति भावः । 'यदाकदाचिद्विद्यमानेनेति यदाकदाचिमाध्यतावच्छेदकसम्बन्धेन पक्षे वर्तमानेनापौत्यर्थः, 'अनुमितीति प्रमानुमितीत्यर्थः, 'तत्प्रमावेति परामर्शप्रमावेत्यर्थः, 'लिङ्गस्य सत्त्वमिति माध्यतावच्छेदकसम्बन्धेन पने लिङ्गस्य सत्त्वमित्यर्थः, 'कारणत्वं वेति 'वाशब्दोयत इत्यर्थ, यतः कारणत्वमित्यर्थः, ननु यदि लिङ्गं न कारणं तदा धूमादिलिङ्गकवद्याद्यनुमितौ धूमादिकालावच्छिन्नत्वसम्बन्धेन कथं वयादर्भानं शाब्दाद्यतिरिक्तभाने उद्देश्य-विधेयभावमहिम्बा तत्कालावच्छिन्नत्वभानं प्रति तज्ज्ञानजन्यत्वमात्रस्य नियामकत्वात्। न च तस्य नियामकले मानाभावइति वाच्यं। तथापि त्वया लिङ्गोपहितलैङ्गिकभानानभ्युपगमेन धूमस्य विशेष्यतानवच्छेदकतया तत्कालावच्छिन्नत्वभानासम्भवादित्यत आह, 'धूमकालोनेति धूमकालावच्छिन्नत्वसम्बन्धेन वयनुमितिश्चेत्यर्थः, 'यदेति यत्र धूमस्तत्र वहिर्यदा धूमस्तदा वहिरिति योजना, तथाच यत्र धूमस्तत्र धूमकालावच्छिन्नत्वविशिष्टसंयोगसम्बन्धेन वहिरिति व्याप्तिज्ञानादेवेत्यर्थः । 'अथ वेति, यति शेषः, 'पक्षतावच्छेदक इति, तति शेषः, ‘पक्षतावच्छेदकधर्मसमानाधिकरणञ्चेति पक्षतावच्छेदककालाधवच्छिन्नविशिष्टव्यापकतावच्छेदकसम्बन्धेन माध्यमित्यर्थः, 'पक्षधर्मताबलात्' तेन सम्बन्धेन
Page #557
--------------------------------------------------------------------------
________________
परामर्शः। मात्वानुरोधेन लिङ्गस्य सत्त्वं कारणत्वं वा, धूमकालीनवानुमानञ्च यदा यच धूमस्तदा तच वहिरितिव्याप्तिज्ञानादेव । अथवा धूमकालः पक्षतावच्छेदका पक्ष
बाधाद्यभावसहकारात्, 'धूमकालीनवहिसिद्धिरिति धूमकालावछिन्नत्वसम्बन्धेन वहिमिद्धिरित्यर्थः, एतच्च शाब्दाद्यतिरिक्तज्ञाने उकरोत्या तत्समानकालीनत्वभाने तब्जन्यवस्य नियामकत्वमभ्युपेत्योकं । वस्तुतस्तु शाब्दादिज्ञानवदनुमितावपि उक्तरीत्या तत्कालावच्छिन्नत्वभानं प्रति तन्नन्यत्वस्य नियामकवे मानाभावात् यत्र धूमः पक्षतावच्छेदकस्तत्रापि धूमकालावच् िनत्वसम्बन्धेन वर्भानं बोध्यं । न च तब्जन्यत्वस्य नियामकत्वमते अनुमितावुद्देश्य-विधेयभावमहिना विशेष्यतावच्छेदकसमानकालौनत्वभानं कुत्रेति वाच्यं । यत्र सियभावोऽनुमितिप्रागभावादि| अनुमितिजनकरूपः पक्षतावच्छेदकस्तत्रैव तद्भानात् ।
केचित्तु धूमं विहाय धूमकालस्यैव पक्षतावच्छेदकत्वस्थले धूमकालीनत्वभानाभिधानात् मणिकारमते प्रत्यक्ष एव उद्देश्यविधेयभावमहिना विशेष्यतावच्छेदकसमानकालौनत्वभानं नान्यत्रेत्याः । तदसत्(१) । तन्नन्यत्वस्य नियामकलाभ्युपगमेनापि धूमपरित्यागसम्भवात् । न च तब्जन्यत्वस्य नियामकत्वं न कारणत्वं किन्तु व्यापकत्वं तथाच तदजन्यज्ञाने बाधाभावरूपसामान्यकारणमा
(२) तन्नेति क।
Page #558
--------------------------------------------------------------------------
________________
तावचिन्तामणे
जावच्छेदकधर्मसमानाधिकरणच पक्षधर्माताबलात् साध्य सिध्यतौति धूमकालौनहिसिद्धिः ।
यत्तु व्यापाराभावान्न परामर्शः करणमिति, तत्तथैव, किन्तु व्याप्तिानं करणं परामर्शव्यापारः।
दया तभाने किं बाधकमिति, न हि व्यापकत्वभाभिया मामयौ काय नार्जयति, इति वाचं। तबन्यत्वस्य व्यापकत्वे यावविशेषमामयौविरहादेव तदजन्यज्ञाने तदभानादिति निगः ।
तटस्थः भरते, 'न चेति, 'थापारः' अवश्यं व्यापारः, अन्यथा संस्कारोत्पत्तिममय एवानुमित्यापत्तिरिति भावः । इष्टापत्या परिहरति, 'परामर्थस्य चेति, 'चरमकारणत्वेन' लाघवात् संस्कारानपेच्यकारणत्वेन । 'नापि तर्क इति, परामर्शव्यापार इति शेषः, 'थानिगाहकस्येति, धूमो यदि वहिव्यभिचारी स्याइनिजन्यो म स्थादित्यादिमाध्यव्यभिचारित्वाद्यापादककतर्को व्याप्तिपाइकतर्कः, पर्वतो यदि निर्वहिः स्यात् निधूमः स्यादित्यादिपायाभावापादककतर्को विषयपरिशोधकतर्कच, विषयं याचं परिशोधयति ग्राह्याभावग्रहप्रतिबन्धकद्वारा निश्वाययतौति व्युत्पत्तेरिति भावः। 'तदजन्यवादित्युपशक्षणं अनुमिनिजनकत्वाच्चेत्यपि बोध्यं । न प पर्वतो निर्वभिः स्थाविधूमः स्यादित्यादिविषयपरिशोधकतर्कस्य कथमनुमित्यादावुपयोगित्वं पायाभावसन्देहस्य तचाप्रतिकूलतया ननिवृत्तिद्वारोपयोगिलासम्भवादिति वाचं । तदापादककापत्तेः
Page #559
--------------------------------------------------------------------------
________________
परामः। न च परामर्शस्य संस्कारो व्यापारः,' परामर्शस्य च चरमकारमत्वेन संस्कारोत्पादनसमयेऽनुमित्युत्पादनात् । नापि तक, व्याप्तिग्राहकस्य विषयपरिशोधकस्य वा तस्य तदजन्यत्वादिति ।
इति श्रीमहङ्गेशपाध्यायविरचिते तत्त्वचिन्तामणौ अनुमानास्यदितीयखण्डे परामर्शसिद्धान्तः । सम्पूर्णोऽयं परामर्शः।
तविशिष्टबुद्धिमात्रप्रतिबन्धकतया पायाभावनिमयप्रतिबन्धकदारैव तचापि तस्योपयोगित्वसम्भवान्, परामर्शात् पूर्व बाधनिश्चयोत्पत्ती यत्र प्राब्दाद्यात्मकः परामर्शस्तच परामौत्तरं सौकिकबाधनिययोत्पत्तौ च परामर्शस्य प्रतिबन्धकत्वासम्भवादिति समासः ।
इति श्रीमथुरानाथतर्कवागौश-विरचिते तत्त्वचिन्तामणिरहस्ये अनुमानाख्यद्वितीयखण्डरहस्ये परामर्शसिद्धान्तरहस्यं, सम्पूर्णमिदं परामर्मरहस्यं ।
Page #560
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ५५२ ]
। अथ केवलान्वय्यनुमान।
तच्चानुमानं विविधं केवलान्वयि केवलव्यतिरेक्यन्वयव्यतिरेकिभेदात्। तथासहिपक्षं केवलान्वयि,
__ अथ केवलान्वय्यनुमानरहस्यं ॥ सामान्यतः सपरिकरं अनुमानं लक्षयित्वा विशेषलक्षणार्थं तदिभजते, . 'तचेति, 'अनुमान' अनुमितिकरणं, 'त्रिविध चैविध्यवत्(), अनुमानविभाजकोपाधित्रयवदिति यावत्, अनुमानविभाजकोपाधिनयमनुमानवृत्तौति समुदितार्थः, तेन विभाजकोपा
(१) पत्र अनुमान त्रिविधं इत्यत्र विधप्रत्ययस्य उद्देश्यतावच्छेदकसमनियत-वस्तुमदन्यसंख्यावाचित्वं, तथाच अनुमानस्य पक्षत्वं खाश्रयाश्रयत्वसम्बन्धेन केवलाम्वयित्व-केवलव्यतिरेकित्वान्वयव्यतिरेकित्वगतत्रित्वसंख्यायाः साध्यत्वं केवजान्वयिभेद-केवलयतिरेकिभेदान्वयव्यतिरेकिभेदान्यतमभेदस्य प्रतियोगितासम्बन्धेन हेतुत्वं । विध. प्रत्ययार्थान्तर्गतसमनियतत्वघटकं व्याप्यत्वं व्यापकत्यच्च खाश्रयात्रयत्वसम्बन्धेन, वस्तुमदन्यत्वघटकवस्तुमत्त्वञ्च खत्तित्व-खसमानाधिकरणखभिन्नत्तियोमयसम्बन्धेन, तादृशविशेषणदानेन केवलान्ययित्व-केवलव्यतिरेकित्वान्वयव्यतिरेकित्वानुमानत्वरूप-सामान्यधम्मगत चतुख्यत्वसंख्याव्युदासः, तादृशचतुष्टयत्वसंख्यायाः उक्तोभयसम्बन्धेग केवलान्वयित्वादिरूपवस्तुविशिष्यत्वात् । उक्तचतुख्यत्वसं. ख्याव्युदासाभावे धनुमानं त्रिविधमितिवत् अनुमानं चतुर्विधमिति विभागापत्तिरिति ध्येयं।
Page #561
--------------------------------------------------------------------------
________________
केवला वय्यनुमान।
५५३
तथाहि केवलान्वयिनोऽभिधेयत्वस्य + विपक्षः अभिधानेऽनभिधाने च विपक्षत्वव्याघातात् । अथ यथा आकाशशब्दाच्छब्दाश्रयत्वमनभिधेयमप्युपति
धित्रयवत्त्वस्येकचासत्त्वेऽपि न क्षतिः(१)। ननु विभाजकोपाधौनां परस्परभेदविरहेण त्रयत्वमेवासिद्धमित्यत आह, 'केवलान्वयौति, 'केवलान्वयिपदं केवलान्वयिसाध्यकपरं, तथाच केवलान्वयिसाध्यककेवलव्यतिरेकिमाध्यकान्वयव्यतिरेकिमाध्यकरूपाणं तादात्म्यसम्बन्धेन अनुमानविभाजकोपाधौनां परस्परं भेदसत्त्वादित्यर्थः । यदा 'केवलान्वय्यादिपदं केवलान्वयिमाध्यकत्वादिपरंर), तथाच केवलान्वयिसाध्यकत्व-केवलव्यतिरेकिसाध्यकत्वान्वयव्यतिरेकिसाध्यकत्वरूपाणां अनुमानविभाजकोपाधीनां परस्परं भेदमत्त्वादित्यर्थः ।
केचित्तु सामान्यतः मपरिकरामनुमितिं लवयित्वा विशेषलक्षणथं तां विभजते, 'तच्चेति, 'अनुमान' अनुमितिः, 'त्रिविधं' अनुमितिविभाजकोपाधित्रयवती, शेषं पूर्ववदित्याः ।।
केवलान्वयित्वस्य ग्रह एव केवलान्वयिसाध्यकत्वमपि सुग्रहमित्यभिप्रेत्य केवलान्वयित्वमेव निरूपयति, 'तत्रेति, 'तत्र' केवलान्चयिसाध्यकत्वे, सप्तम्यर्थी विशेषणत्वं, 'असद्विपक्षमिति अमविपक्षो
(१) अनुमानविभाजकोपाधित्रयत्वावच्छिन्ने अनुमानवृत्तित्वस्याबाधित
खान क्षतिरिति भावः । (२) भावप्रधाननिर्देशात् केवलान्वयिपदस्य केवलान्वयिसाध्यकत्यपरत्व मिति समुदिततात्ययं ।
70
Page #562
--------------------------------------------------------------------------
________________
५५४
तत्त्वचिन्तामणौ
ठते, तथाभिधेयत्वविपक्षस्यानभिधेयत्वेऽपि पदादुपस्थितिः स्यात, एवञ्चाभिधेयत्वं कुतोऽपि व्यावृत्तं धर्म
भाववान् यस्य तत्केवलान्वयीत्यर्थ:(१) । न च सियमिद्धिव्याघातः, अत्यन्ताभावप्रतियोगितानवच्छेदको यो धर्मः तहत्त्वं तेन रूपेण केवलान्वयित्वमिति विवक्षितत्वात् । तादृशधर्मावच्छिन्नमाध्यताकबञ्च केवलान्वयिमाध्यताकत्वं, माध्यता च व्यापारानुबन्धिनौ विधेयता, स्वकरणकानुमितिविधेयतेति यावत्, तेन व्याप्यादिज्ञानरूपे अनुमाने वाच्यत्वादेरविधेयत्वेऽपि न पतिः, तथाचात्यन्ताभावप्रतियोगितानवच्छेदकधर्मावच्छिन्नविधेयताकानुमितिकरणत्वं केवलान्वयिसाध्यकानुमानत्वमिति निष्कर्षः। अनुमितिविभागपक्षे च माध्यता विधेयतैव तथाचात्यन्ताभावप्रतियोगितानवच्छेदकधविच्छिन्नविधेयताकानुमितित्वं केवलाम्वयिसाध्यकानुमितित्वमिति निष्कर्षः। वाच्यत्वादेर्व्यतिरेकित्वभ्रमदशायामपि तत्माध्यकं केवलावयिसाध्यकमेव, वयादिरूपव्यतिरेकिसाध्यकन्तु कदाचिदपि न केवलान्वयिसाध्यकमिति भावः ।
(१) न च विपक्षपदस्याभावपरत्वेनापि पसन् विपक्षः अमावोयस्य तत्
केवलान्वयि इति सामनस्ये विपक्षपदस्याभाववत्परत्वं विफल मिति वाच्यं । गगनाभावस्य केवलान्वयित्वानुपपत्ते गगनखरूपस्य तदभावस्य विद्यमानत्वात्, विपक्षपदस्थाभाववत्परत्वे तु गगनस्यारत्तिपदार्थत्वात् गगनाभावाभाववतो न कुत्रापि सत्त्वमिति । .
Page #563
--------------------------------------------------------------------------
________________
कैवलान्वय्यनुमान।
પણ त्वात् गोत्ववदिति चेत् । न। व्याहत्तत्वस्याव्यात्तत्वे व्यावत्तत्वमेव केवलान्वयि, व्यावृत्तत्वे यतएव व्यावत्तं
केचित्तु वयादिसाध्यकमपि कदाचित् केवलान्वयिमाध्यकं यदा वन्वयसहचारज्ञानजन्यान्वयव्याप्तिज्ञानमात्रादनुमितिः, वाच्यत्वादिमाध्यकमपि कदाचित् केवलव्यतिरेकिसाध्यकं यदा व्यतिरेकसहचारभ्रमजन्यान्वयव्याप्तिज्ञानमात्रादनुमितिः, कदाचिचान्वय-व्यतिरेकिसाध्यकं यदा चोभयसहचारज्ञानेनान्वयव्यप्तिज्ञानादनुमितिः, न तु तदानौं केवलान्वयिसाध्यकं, व्यतिरेकव्याप्तिज्ञानञ्च न क्वाप्यनुमितिहेतुः केवलव्यतिरेकिण्यपि व्यतिरेकसहचारेणान्वयव्याप्तेरेव ग्रहात्, तथाच व्यतिरेकसहचारज्ञानजन्यव्याप्तिग्रहाजन्यानुमितिकरएवं केवलान्चयिमाध्यकानुमा नत्वं, तादृशानुमितित्वञ्च(१) केवलान्वयिमाध्यकानुमितित्वं, व्यतिरेकसहचारज्ञानञ्चाभावादी माध्यादिप्रकारकविलक्षणविषयताशालिज्ञान(२) तच्च केवलान्वयिन्यपि खण्डश: प्रसिया भ्रमरूपं प्रसिद्धं, व्याप्तिज्ञानमपि हेवादिरूपतावत्पदार्थाना(२)
(१) व्यतिरेकसहचारज्ञानजन्यव्याप्तिग्रहाजन्यानुमितित्वञ्चेत्यर्थः । (२) तथाचाखण्डसाध्याभावसहचारज्ञानस्याप्रसिद्धत्वेऽपि वाच्यत्वादिसा
ध्यकस्थले घटाभावादौ प्रतियोगितासम्बन्धेन वाच्यत्वप्रकारकं भमरूपं
व्यतिरेकसहचारज्ञानं सुप्रसिद्धमेवेति भावः।। (३) तथाच हेतुविषयतानिरूपिताधिकरणविषयतानिरूपितत्तित्ववि
घयतानिरूपिताभावविषयतानिरूपितप्रतियोगित्वविषयतानिरूपिताभावविषयतानिरूपितसाध्यविषयतानिरूपिवाधिकरणविप्रयता
Page #564
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्वचिन्तामणै
व्यत्तत्वं तदेव केवलान्वयौति धर्मत्वस्यानैकान्तिक त्वात, एवमत्यन्ताभावप्रतियोगित्वस्यात्यन्ताभावाप्रति
तथाविधपरस्परोपरलेषावगाहिज्ञानं, तेन यत्राखण्डव्याप्तिरप्रसिद्धा तच नाव्याप्तिः । एवमन्वयसहचारज्ञानजन्यव्याप्तिज्ञानाजन्यानुमितिकरणत्वं केवलव्यतिरेक्यनुमानत्वं, तादृशानुमितित्वञ्च केवलव्यतिरेक्यनुमितित्वं, अन्वयसहचारज्ञानजन्यव्याप्तिग्रह-व्यतिरेकसहचारज्ञानजन्यव्याप्तियहोभयजन्यानुमितिकरणत्वं अन्वय-व्यतिरेक्यनुमानत्वं(१), नादृशानुमितित्वञ्च अन्वय-व्यतिरेक्यनुमितित्वं, शेषं पूर्ववदित्याहुः । तदसत् । व्यतिरेकसहचारज्ञानस्य व्याप्तिग्रहहेतुत्वे मानाभावात्(२)
निरूपितवृत्तित्वविषघतानिरूपित हेतुविषयताशालिज्ञानमेव व्याप्तिज्ञानपदेन विवक्षणीयं, तेन धूमवान् वहेरित्यादौ वह्निसमानाधिकरणाभावाप्रतियोगिधूमसामानाधिकरण्यरूपाखण्डव्याप्तेरप्रसिद्धत्वेऽपि धन्वयसहचारज्ञानमात्रेण व्याप्तिज्ञानदशायां तत्साध्यकानुमा
नस्य न केवलान्वय्यनुमानत्वव्याघात इति ध्येयम् । (१) पत्र व्याप्तिग्रहस्य विधा निवेशे प्रयोजनविरहात् अन्वय-व्यति
रेकोभयसहचारज्ञानजन्यव्याप्तिज्ञानजन्यानुमितिकरणत्वं अन्वय
व्यतिरेक्यनुमानत्वमित्येव वक्तव्यमिति । (२) न चाचार्य्यमते धर्मिविशेषमन्ताव्य व्यभिचारज्ञाने सहचारज्ञानस्य
विरोधित्वात् व्यभिचारज्ञानविघटकतया सहचारज्ञाने व्याप्तिग्रहहे. तुत्वस्य युक्तिसङ्गततया कथं व्यतिरेक सहचारज्ञानस्य व्याप्ति ग्रहहे. तुत्वे मानाभाव इति वाच्यं । समानप्रकारकज्ञानस्यैव विरोधित्वात् विरोध्यविषयकस्य सहचार ज्ञानस्य व्यभिचारज्ञानविघटकत्वाभावा. दिति निगुफाभिप्रायः।
Page #565
--------------------------------------------------------------------------
________________
केवलान्वय्यनुमान।
योगित्वे अत्यन्ताभावप्रतियोगित्वमेव केवलान्याय, अत्यन्ताभावप्रतियोगित्वे यन्निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोग्यत्यन्ताभावप्रतियोगित्वं तदेव केवलान्वयि । न चात्यन्ताभावप्रतियोगित्वं व्याहत्तत्वञ्च नानेति वाच्यम्।
यत्र माध्याभाववदवृत्तित्वरूपव्याप्तिज्ञानादनुमितिस्तदनुमानस्य केवलान्वयि-केवलव्यतिरेक्युभयत्वापत्तेश्च माध्याभाववदवृत्तित्वरूपव्याप्तिज्ञानं प्रति अन्वय-व्यतिरेकोभयसहचारज्ञानस्यैवाहेतृत्वात् ।
अन्ये तु वयादिसाध्यकमपि कदाचित् केवलान्वयिमाध्यकं यदान्वयव्याप्तिज्ञानमावादनुमितिः, वाच्यत्वादिसाध्यकमपि कदाचित् केवलव्यतिरेकि यदा व्यतिरेकव्याप्तिज्ञानमात्रादनुमितिः, कदाचिचान्वय-यतिरेकि यदान्वय-व्यतिरेकोभयव्याप्तिज्ञानादनुमितिः, अन्वयव्याप्तिज्ञानवत् व्यतिरेकव्याप्तिज्ञानस्याप्यनुमितिहेतुत्वात् तथाच व्यतिरेकव्याप्तिज्ञानाजन्यानुमितिकरणत्वं केवलान्वयिसाध्यकानुमानत्वं, तादृशानुमितिलञ्च केवलान्वयिसाध्यकानुमितित्वं, व्यतिरेकव्याप्तिज्ञानञ्च साय-तदभावादिरूपतद्घटकतावत्पदार्थानां तथाविधपरस्परोपश्लेषावगाहिज्ञानं, तेन यत्राखण्डव्याप्तेरप्रसिद्धिस्तत्र नाव्याप्तिः, न वा केवलान्वयिन्यप्रसिद्धिः खण्डशः प्रसिद्ध्या भ्रमरूपस्य तादृशज्ञानस्य तत्रापि सम्भवात् एवमग्रेऽपि। अन्वयव्याप्तिज्ञानाजन्यानुमितिकरणत्वं केवलव्यतिरेक्यनुमानत्वं, तादृशानुमितित्वञ्च केवलव्यतिरेक्यनुमितित्वं, अन्वय-व्यतिरेकोभयव्याप्तिज्ञानजन्यानुमिति
Page #566
--------------------------------------------------------------------------
________________
५५८
तत्वचिन्तामणौ अनुगतप्रतीतिबसेन गोत्ववत्तयोः सिद्धेः। तच न तावदव्याप्यवृत्त्यत्यन्ताभावः केवलान्वयौ, तस्य प्रति
करणत्वं अन्वय-व्यतिरेक्यनुमानत्वं, तादृशानुमितित्वञ्चान्वयव्यतिरेक्यनुमितित्वमित्याहुः ।
अभिधेयत्वादौ केवलान्वयिलक्षणं मङ्गमयति, 'तथाहौति, 'अभिधेयत्वस्य' शब्दशक्तिविषयत्वस्य, 'न विपक्ष इति नात्यन्ताभावाधिकरणमित्यर्थः, 'अभिधान इति, अभिधेयत्वं यदधिकरणनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगितया अभिमतं तदधिकरणस्य 'अभिधाने' शब्दशक्निविषयत्वे, 'विपक्षत्वव्याघातात्' अभिधेयत्वात्यन्ताभावाधिकरणवामिद्धेः, प्रतियोग्यभावयोरेकत्र सत्त्वासम्भवात्, 'अनभिधाने च' शब्दशक्त्यविषयत्वेऽपि, 'विपक्षत्वव्याघातात्' अभिधेयत्वात्यन्ताभावाधिकरणवासिद्धेः, वस्तुपदादेरप्यशक्यतया वस्तुपदादिज्ञानजन्यज्ञानस्याप्यविषयत्वेनालौकत्वादित्यर्थः । 'अनभिधेयमपि' श्राकाशपदाशक्यमपि(१), 'उपतिष्ठते' शाब्दवोधविषयो भवति, 'अनभिधेयत्वेऽपि' वस्तुपदादिशक्त्यविषयत्वेऽपि, ‘पदात्' वस्खादिपदात्, 'उपस्थितिः
(१) पाकाशमस्तोत्यादौ कदाचित् अछद्रव्यातिरिक्तद्रव्यमस्ति इत्याका
रको बोधः, कदाचिच्च शब्दाश्रयोऽस्तोत्याकारको बोधः, अतः ল জিৱিৰিঘিষ্ট আন্ধায়ুমন্ত ঘুন্ধিঃ জিল্ আহ্মানুস अाकाशस्य यदा यद्धर्मरूपेणोपस्थितिः तदा तद्धर्मेणैव शाब्द. बोधः इत्यत्र तात्पर्य्यम् ।
Page #567
--------------------------------------------------------------------------
________________
केवलान्वय्यनुमान।
योग्यवच्छिन्नेऽप्यत्यन्ताभावात् अत्यन्ताभावाप्रतियोगिनश्च केवलान्वयित्वात्। नाप्याश्रयनाशजन्यगुणना
स्यादिति शाब्दबोधः स्थादित्यर्थः, तथाच नालोकत्वमिति भावः । नन्वेतावता व्याघाते निरस्तेऽपि वस्तुपदाभिधेयत्वस्थ() विपक्षमते मानाभाव इत्यत श्राह, ‘एवञ्चेति उतक्रमेण व्याघाते निरस्ते च इत्यर्थः, अन्यथा व्याघातादेवानुमानं बाधितं स्यादिति भावः। 'कुत इति किञ्चिविष्ठान्योन्याभावप्रतियोगितावच्छेदकमित्यर्थः, अवच्छेदकत्वञ्च लघु-गुरुमाधारणं तेन कम्बुग्रीवादिमत्त्वादौ गुरुधर्म न व्यभिचार:(२), तथाचाभिधेयत्वं यनिष्ठान्योन्याभावप्रतियोगितावच्छेदक स एव विपक्ष इति भावः । 'धर्मवादिति भाकामादौ व्यभिचारवारणय, तथाच यो यत्सम्बन्धेन वृत्तिमान् स तत्सम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगितावच्छेदकताकान्योन्याभावप्रतियोगितावच्छेदकत्ववान् इति यत्तयां व्याप्तिः, अत एव 'गोत्ववदिति न दृष्टान्तासङ्गतिः, न वा सम्बन्धान्तरावच्छिन्नप्रतियोगितावच्छेदकताकान्योन्याभावप्रतियोगितावच्छेदकतामादायार्थान्तरं, 'गोत्ववदिति व्यतिरेकेण वा दृष्टान्तः,
(१) अभिधेयत्वस्येति ग०, ध०। (२) गुराधर्मस्य प्रतियोगितानवच्छेदकत्वे किञ्चिनिष्ठान्योन्याभावप्रति
योगितावच्छेदकत्वाभाववति कम्बुग्रीवादिमत्त्वरूपगुरुधर्मे हेतोधर्मत्वस्य वर्तमानत्वेन व्यभिचारः स्यादतो गुरुधर्मस्यावच्छेदकत्वाङ्गीकारः, धर्मत्वञ्च वृत्तिमत्वं अतः किञ्चिबिछान्योन्याभावप्रतियोगितावच्छेदकत्वाभाववति चाकाशे न व्यभिचारः ।
Page #568
--------------------------------------------------------------------------
________________
५६.
तत्त्वचिन्तामणौ
शात्यन्ताभावः तस्य नाशस्य सर्वचात्यन्ताभावादिति वाय। यत्र हि प्रतियोगिमागभावो वर्तते तत्र न
अन्यथा सिद्धसाधनवारणय विशेषणताविशेषसम्बन्धावच्छिन्नव्यावृत्तवस्यैव साध्यतया तवैकल्यात् तेन सम्बन्धेन तत्र धर्मत्वरूपहेतोर्विरहाच्चासङ्गतिः स्थादिति(१)। 'यावृत्तत्वस्य' अन्योन्याभावप्रतियोगितावच्छेदकत्वरूपमाध्यस्य, 'अव्यावृत्तत्वे' अन्योन्याभावप्रतियोगितावच्छेदकत्वाखौकारे, 'व्यावृत्तत्वमेव' अन्योन्याभावप्रतियोगितावच्छेदकत्वरूपं साध्यमेव, 'केवलान्वयौति, अन्योन्याभावप्रतियोगितावच्छेदकत्वरूपसाध्याभाववदित्यर्थः, 'व्यावृत्तव इति अन्योन्याभावप्रतियोगितावच्छेदकत्वरूपस्य माध्यस्यान्योन्याभावप्रतियोगितावच्छेदकत्वरूपव्यावृत्तत्वखोकार इत्यर्थः, 'यत एवेति यदधिकरणनिष्ठान्योन्याभावप्रतियोगितावच्छेदकमन्योन्याभावप्रतियोगितावच्छेदकत्वमित्यर्थः, 'तदेव' तदधिकरणमेव, 'केवलान्वयौति अन्योन्याभावप्रतियोगितावच्छेदकत्वरूपसाध्याभाववदित्यर्थः, 'अनेकान्तिकत्वादिति अन्योन्याभावप्रतियोगितावच्छेदकत्वरूपे साध्ये तादृशमाध्यवभिन्नत्वेनाभिमते अधिकरणे वा अनेकान्तिकत्वादित्यर्थः । ननु अन्योन्याभावप्रतियोगितावच्छेदकत्वमाकाशाद्यवृत्तिनिष्ठान्योन्याभावप्रतियोगितावच्छेदकमतो न व्यभिचारः तत्र धर्मत्वाभावादित्यखरमात् स्थलान्तरे व्यभिचारमाह, ‘एवमिति, 'केवलान्वयौति अन्योन्याभावप्रतियोगितावच्छेदकत्वरूपसाध्याभाववदित्यर्थः, अत्यन्ताभावप्रति(१) धनवादितीत्यादिः स्यादित्यन्तः पाठः ग०, ए• पुस्तक हये नास्ति ।
Page #569
--------------------------------------------------------------------------
________________
केवलान्वय्यनुमान।
तदत्यन्ताभावो वर्तते, तथाच नाशस्य प्रागभावो यच नाशप्रतियोगिसमानदेशे वर्तते तत्र कथं नाशात्यन्ता
योगिन एवान्योन्याभावप्रतियोगितावच्छेदकत्वनियमादिति भावः । तथाचात्यन्ताभावप्रतियोगित्वे एव धर्मत्वं व्यभिचारीति हृदयं । 'अत्यन्ताभावप्रतियोगित्व इति अत्यन्ताभावप्रतियोगित्वस्थात्यन्ताभावप्रतियोगिवे इत्यर्थः, 'यन्निष्ठात्यन्ताभावप्रयोगौति प्रथमान्तं, प्रत्यनाभावप्रतियोगित्वं यदधिकरणनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगौति योजना, 'तदेव केवलान्वयौति तदधिकरणमेवान्योन्याभावप्रतियोगितावच्छेदकत्वरूपसाध्याभाववदित्यर्थः, अत्यन्ताभावप्रतियोगिन एवान्योन्याभावप्रतियोगितावच्छेदकत्वनियमादिति भावः । तथाच तदधिकरण एव धर्मत्वं माध्यव्यभिचारि अत्तावत्यन्ताभावप्रतियोगित्वाभावासम्भवेन तदधिकरणे वृत्तिमत्त्वरूपधर्मत्वस्यावश्याभ्युपेयत्वादिति हृदयं । 'न चेति, व्यावृत्तत्वं' अन्योन्याभावप्रतियोगितावच्छेदकलं, 'नानेति व्यक्तिभेदानानेत्यर्थः, तथाच चालनोन्यायेन निर्घटादिनिष्ठान्योन्याभावप्रतियोगितावच्छेदकौभूतघटादिनिष्ठान्योन्याभावप्रतियोगितावच्छेदकत्वमेव तयोरिति न क्वापि व्यभिचार इति भावः । 'तयोरिति, अनुगतयोरिति शेषः। न च तयोर्कातिभेदादननुगतत्वे ऽप्यत्यन्ताभावप्रतियोगितात्वादिरूपविशेषणतावच्छेदकानुगमादनुगतप्रत्यय इति वाच्यम् । तावता स्फुटव्यभिचारविरहेऽप्यप्रयोजकत्वादिति भावः । लक्षणस्याव्याप्तिमाशते, 'तचेति केवशान्वयिषु मध्य इत्यर्थः ।
Page #570
--------------------------------------------------------------------------
________________
५६२
तत्त्वचिन्तामणौ
भावो वर्तत। तर्हि नाशस्य तच वृत्तिः स्यादिति चेत् । न। पूर्व तच नाशप्रागभावस्यैव सत्त्वादुत्तरकाले
__ केचित्तु तत्र' तस्मिन् लक्षणे सतीत्यर्थः, इत्याहुः । तदसत्। अत्यन्ताभावाप्रतियोगिन एव केवलन्वयित्वादित्युत्तरग्रन्थस्य पुनरुक्तबापत्तेः ।
'अव्याप्यवृत्त्यत्यन्ताभावः' अव्याप्यत्तिसंयोगादेरत्यन्ताभावः, 'केवलान्वयौ' संयोगाभाववादिरूपेण केवलान्वयौ, स्यादिति शेषः, 'प्रतियोग्यवच्छिन्ने' प्रतियोग्यधिकरणे, 'अत्यन्ताभावाप्रतियोगिनइति, भवन्मत इत्यादिः, भवन्मते अत्यन्ताभावप्रतियोगितानवच्छेदकनद्धर्मवत एव तद्धर्मरूपेण केवलान्वयित्वादित्यर्थः। अव्याप्यन्तरमाशकते, 'नापौति 'वाथमित्यनेनान्वयः, 'आश्रयनाशजन्येति श्राश्रयनाशजन्यो यो गुणदिनाशस्तदत्यन्ताभाव इत्यर्थः, केवलान्वयौति शेषः, 'सर्वत्रेति, नाशस्य प्रतियोगिसमवाय्यादिदेशमात्रवृत्तित्वनियमात् तत्र च प्रतियोगिसमवायिदेशस्याभावादिति भावः । 'इति वाच्यमिति इति भवता वर्तुं शक्यमित्यर्थः। न चेह भूतले घटरूपं नष्टं तदानौं घटरूपं नष्टमित्यादिप्रतीतिबलात् प्रतियोगिसमवायिदेशवत् भूतलादिदे समये च ध्वंसस्य वर्तमानत्वात् कथमाश्रयमाशजन्यगुणादिनाशात्यन्नाभावस्य सर्वत्र वर्तमानत्वमिति वाच्यम् । दह घटे रूपं नष्टं इत्यादिप्रतीतिमाक्षिकप्रतियोगिसमवायिदेशमात्रवृत्तिदैभिकविशेषणताविशेषेण तदत्यन्ताभावस्योक्तत्वात् सच तेन सम्बन्धेन भूतखादिदेशे समये च न वर्तते ध्वंसस्यावच्छेदकता
Page #571
--------------------------------------------------------------------------
________________
केवजान्वय्यनुमान।
आश्रयस्यैवाभावात् । नाप्याकाशान्ताभावः केवलाम्खयो, तस्यापि प्रतियोगिरूपात्यन्ताभावप्रतियोगि
सम्बन्धेनैव भूतलादिदेशवृत्तेः कालिकतयैव च समये वृत्तेरिति भावः । 'प्रतियोगिपागभाव इति तत्प्रतियोगिप्रागभाव इत्यर्थः । शङ्कने, 'तौं नि, 'नाशस्य' आश्रयनाशजन्यगुणदिनाशस्य, 'तत्र' प्रतियोगिसमवाधिदेशे, 'पूर्वमिति प्रतियोगिसमवायिदेशसत्त्वदशायामित्यर्थः, इदमापाततः प्रागभावस्थात्यन्ताभावविरोधित्वे मानाभावात् तादृशगुणादिनाशोत्पत्तिपूर्वमेव तदत्यन्ताभावस्य प्रतियोगिसमवायिदेशे सत्त्वात्, परमार्थतस्तु तदत्यन्ताभावस्य सर्वत्र वर्तमानत्वेऽपि आकाशात्यन्ताभाववत्प्रतियोगिरूपात्यन्ताभावप्रतियोगित्वाब केवलान्वयित्वसम्भव इत्येव तत्त्वं । 'प्रतियोगिरूपेति आकाशरूपेत्यर्थ:(९) । नन्वाकाशस्थाकाशात्यन्ताभावाभावले मानाभावः प्रमेयत्वं नास्तौति प्रतौतिवदाकाशात्यन्ताभावो नास्तौति प्रतीतेरसिद्धलात् आकाशात्यन्ताभावाभावस्यैवासिद्धेः। न चैवं घटादेरपि घटात्यन्ताभावाभावत्वे मानाभाव इति वाच्यम् । घटवति भूतले घटात्यन्ताभावो नास्तौति प्रतीतिबलाघटात्यन्ताभावाभावे प्रमाणमिद्धे तत्र लाघवाद्घटस्यैव तथात्वकल्पनात्। न च भूतलादावाकाशाधिकरणत्वं भ्राम्यतोभूतलादावाकाशात्यन्ताभावो नास्तौति प्रतीतेराकाशात्यन्ताभावाभावोऽपि प्रामाणिक इति वाच्यम् । तत्प्रतीतेरभावान्तरे प्रतियोगितासम्बन्धेन आकाशात्यन्ताभावावगाहित्वात् अन्यथा प्रमेयत्वे (१) 'प्रतियोगिरूपाभावेति अाकाशरूपाभावेत्यर्थ इति क ।
Page #572
--------------------------------------------------------------------------
________________
५५०
तत्त्वचिन्तामणौ
त्वात् अभावात्यन्ताभावस्य भावत्वात् । अथाभावात्यन्ताभावो न प्रतियोगिरूपस्तथासत्यन्योन्याभावात्य
घटावृत्तित्वं भाम्यतो घटे प्रमेयत्वं नास्तौति प्रतौतेः प्रमेयत्वात्यन्ताभावस्थापि मियापत्तेरित्यत आह, 'प्रभावाभावस्येति सावधारणं तदभावाभावस्यैवेत्यर्थः, 'भावत्वात्' तस्याभावस्य प्रतियोगित्वात्, तथाचाकाशस्याकाशाभावाभावत्वविरहे तत्प्रतियोगित्वमेवानुपपत्रं प्रभावविरहात्मत्वस्य प्रतियोगितारूपत्वात्, यदाजराचार्याः “प्रभावविरहात्मत्वं वस्तुनः प्रतियोगिता" इति भावः । एतच्च प्राचीनमतानुसारेणोक्न, वस्तुतस्तु स्वरूपसम्बन्धविशेषस्यैव प्रतियोगितारूपतया श्राकाशस्थाकाशाभावाभावत्वाभावेऽपि प्रतियोगित्वसम्भवात् आकाशाभावो नास्तौति प्रतौतेश्वामिद्धत्वादाकाशाभावस्थाभावे. श्राकाशस्य तद्रूपत्वे च मानाभावः । एवं कालाधभावाभावोऽपि न कालादिः, संयोगादिव्यधिकरणसम्बन्धावच्छिन्नद्रव्यलाभावाद्यभावोऽपि न द्रव्यत्वादिः तदभावाभावस्थामिद्धेः इति मन्तव्यं । 'न प्रतियोगिरूप इति किन्वतिरिक्त इत्यर्थः, तथाच अभावाभावत्वं न प्रतियोगित्वमिति भावः। मनु लाघवादभावाभावः प्रतियोग्येव न वतिरिक इत्यत आह, 'तथासतौति, 'प्रतियोगिसमानदेश इति संयोगादिसम्बन्धेन घटादिमति देशे घटाद्यन्योन्याभावो न स्यादित्यर्थः, स्वात्यन्ताभावेन समं खस्य विरोधादिति भावः। एतच्चापाततः, यथा घटात्यन्ताभावाभावस्थातिरिकत्वेऽपि कालिकविशेषणतादिना तदति भूतलादौ घटाद्यभावोवर्त्तते प्रभावीयविशेषणता
Page #573
--------------------------------------------------------------------------
________________
केवलान्वय्यनुमान।
ताभावः प्रतियोगिरूप इति प्रतियोगिसमानदेशोऽन्योन्याभावो न स्यादिति चेत् । न । अत्यन्ताभावा
विशेषेणैव तयोविरोधात् तथा घटाद्यन्योन्याभावाभावस्थ घटादिरूपत्वेऽपि संयोगादिना घटादिमति घटाद्यन्योन्याभावो वर्त्तते तदात्म्य-विशेषणताभ्यामेव तयोविरोधात् इति सुवचत्वात् । न च तथापि घटान्योन्याभावाभावस्य घटरूपत्वे घटे घटान्योन्याभावो नास्तौति प्रतीतिर्न स्यात् तादात्म्यसम्बन्धस्य वृत्त्यनियामकत्वात् अन्यथा(१) घटे घट इत्यपि प्रतीत्यापत्तेरिति वाच्यम्। तादाम्यसम्बन्धस्य घटत्वावच्छिन्नवृत्त्यनियामकत्वेऽपि प्रतौतिबलात्(२) अन्योन्याभावात्यन्ताभावलावच्छिन्नवृत्तिनियामकत्वस्य सुवचत्वात् । वस्तुतस्तु यत्र प्रतियोगिनो नानात्वं प्रतियोगितावच्छेदकधर्मश्चैकस्तत्र प्रतियोगिनां नान्योन्याभावाभावत्वसम्भवो गौरवात् किन्तु प्रतियोगितावच्छेदकरूप एव तदभावः। न चैवं यत्र प्रतियोगिनो नानात्वं प्रतियोगितावच्छेदकश्चैकस्तत्रात्यन्ताभावाभावस्थापि प्रतियोगिरूपलं न स्थात् लाघवात् खाश्रयात्मकपरम्परासम्बन्धेन प्रतियोगितावछेदकस्यैव तथावौचित्यादिति वाच्यम्। स्वाश्रयात्मकपरम्परासम्बधेन घटत्वादेरेव घटात्यन्ताभावाद्यभावरूपत्वे घटशून्यदेशे घटा
(१) तादात्म्यस्य वृत्तिनियामकत्व इत्यर्थः। (२) घटे घटान्योन्याभावो नास्तीति प्रतीतिसामर्थ्यात् तादात्म्यसम्बन्धस्य
घटान्योन्याभावात्यन्ताभावत्वावच्छिन्नत्तिनियामकत्वं न तु घटत्वावच्छिन्नत्तिनियामकत्वं घटे घट इति प्रतीतेरसिद्धेरिति ।
Page #574
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामणौ
त्यन्ताभावः प्रतियोग्येव अन्योन्याभावात्यन्ताभावस्तु प्रतियोगित्तिरसाधारण धर्म इति ।
इति श्रीमहङ्गशोपाध्यायविरचिते तत्त्वचिन्तामणौ अनुमानास्यहितीयखण्डे केवलान्वय्यनुमानपूर्वपक्षः ।
त्यन्ताभावात्यन्नाभावो नास्तौति प्रतीत्यनुपपत्तेः(१) तादात्म्यातिरिकवृत्त्यनियामकसम्बन्धस्याभावप्रतियोगितानवच्छेदकत्वात्, किञ्च तादात्यसम्बन्धस्यान्योन्याभावाभावत्वावच्छिन्नघटनिष्ठघटवृत्तित्वनियामकले तादृप्रवृत्तितामादायैव तादात्म्यसम्बन्धेन घटो घटवृत्तिरिति घटत्वधर्मितावच्छेदककघटविशेष्यकप्रतीतेः घटे घटवृत्तिवाभस्य प्रमात्वापत्तेkीरत्वात्, अतएवाधिकरणस्वरूपाभाववादिमतमप्यपास्तं इत्येव तत्त्वं । 'अत्यन्ताभावात्यन्ताभाव इति तथाचात्यन्ताभावस्य प्रतियोगित्वमभावाभावत्वमिति भावः। प्रतियोगिवृत्तिरमाधारण इति प्रतियोगितावच्छेदकधर्म इत्यर्थः, इति साम्प्रदायिकाः ।
नव्यास्त प्रतियोगिवृत्त्यसाधारणधर्ममात्रमेवान्योन्याभावात्यन्ताभावः न तु नियमतः प्रतियोगितावच्छेदकमेव । न चैवं कम्बुग्रीवादिमत्त्वादीनां घटादिवृत्तिरूपादौनाञ्च अन्योन्याभावाभावत्वात् घटान्योन्याभावग्रहे तेषामपि ग्रहो न स्यादिति वाच्यम् । घटा
(९) तथाच घटात्यन्ताभावाभावस्य खाश्रयात्मकपरम्परासम्बन्धेन घटत्व
खरूपस्य तादृशपरम्परासम्बन्धेनाभाव एव घटात्यन्ताभावाभावाभावः
स चाप्रसिद्धः तादृशपरम्परारूपसत्यनियामकसम्बन्धावच्छिन्नप्रति• योगित्वे मानाभावादिति भावः ।
Page #575
--------------------------------------------------------------------------
________________
केवणान्वय्यनुमान।
न्योन्याभावग्रहस्य घटान्योन्याभावात्यन्ताभावत्वप्रकारेण यहे घट-. त्वग्रहे च प्रतिबन्धकतया कम्बुगौवादिमानित्यादिग्रहे बाधकाभावात् । न च घटत्ववत्ताजानवत् कम्बुग्रीवादिमत्त्वादिग्रहस्थापि घटभेदग्रहप्रतिबन्धकलापत्तिः तस्य घटभेदाभावरूपत्वादिति वा. च्यम् । तदभावत्वप्रकारकज्ञानस्यैव तदत्ताज्ञानं प्रति प्रतिबन्धकत्वात् अन्यथातिप्रसङ्गात्(१) घटत्वादिज्ञानस्य तु खातन्त्र्येणैव प्रतिबन्धकत्वात् । न च तथापि कम्बुग्रौवादिमत्त्वग्रहस्य तदभाववत्त्वग्रहे प्रतिबन्धकत्वात् घटत्वावच्छिन्त्रप्रतियोगिताकभेदस्य च तथात्वात् तत्सत्त्वे कथं यह इति वाच्यम् । तस्य तदभावत्वप्रकारकग्रहं प्रत्येव प्रतिबन्धकत्वात् अयन्तु घटभेदत्वप्रकारक इति। न च स्वरूपतो यदत्ताज्ञानं यदभाववत्ताज्ञानप्रतिबन्धकं तदेवाभावाभावः, कम्बुयौवादिमवादिकञ्च न तथेति वाच्यम् । अप्रयोजकत्वात् । न च कम्बुगौवादिमत्त्वादीनां प्रतिव्यक्तिभिन्नानां अनन्तरूपादौनाञ्चान्योन्याभावाभावत्वकल्पनमपेक्ष्य लाघवात् प्रतियोगितावच्छेदकस्य घटत्वस्यैव तथालं कल्यते इति वाच्यम्। तथापि कम्बुग्रीवादिमत्त्वाद्यवच्छिन्नान्योन्याभावाभावत्वस्य घटत्वादौ दुर्वारत्वात् प्रतियोगितावच्छेदकापेक्षया घटत्वस्य लघुत्वात् । न च कम्बुग्रीवाद्यवच्छिन्नान्योन्याभाव एवाप्रसिद्ध इति वाच्यम्। तदनङ्गीकारेऽपि तदेकत्वाद्यवच्छिन्नान्योन्या
(१) तहत्तायहे तदभावत्वेन तदभावग्रहस्यैव प्रतिबन्धकत्वं इति नियमा
भावे प्रमेयत्वेन तदभावग्रहोऽपि तदत्ताग्रहे प्रतिबन्धकः स्यात् इत्येवातिप्रसङ्ग इति ।
Page #576
--------------------------------------------------------------------------
________________
v(F
चिन्ताम
भावाभावत्वस्य तत्समनियतपरिमाणव्यक्तीनां दुवरत्वात् । न च प्रतियोगितावच्छेदकं विना धर्मान्तरस्य ग्रहे श्रन्योन्याभावाभावव्यवहाराभावान्न तस्य तदभावत्वमिति वाच्यम् । धर्मान्तरस्यान्योन्याभावाभावत्वेन ग्रहदशायां तदग्रहेऽप्यन्योन्याभावाभावव्यवहारात् प्रतियोगितावच्छेदकस्यान्योन्याभावाभावत्वमविदुषः प्रतियोगितावच्छेदकवत्त्वग्रहेऽप्यन्योन्याभावाभावव्यवहाराभावात् तस्माद्यत्र प्रतियोगितावच्छेदकधर्मेलघुः स एव तचान्योन्याभावाभाव:, यत्र प्रतियोगितावच्छेदकापेचया धर्मान्तरं लघु तत्र तदेव तदभावाभावः, यत्र च प्रतियोगितावच्छेदकधर्मोधर्मान्तरञ्च लघु तत्र उभयमेव तथेति विषयविभागः, मूले 'प्रतियोगिवृत्तिरसाधारणधर्म इत्यस्य प्रतियोगिवृत्तिलघुधर्म इत्यर्थं इति प्राहुः ।
मिश्रास्तु स्वप्रतियोगिनिरूपितस्वप्रतियोगितावच्छेदकसम्बन्ध एव सर्वत्राभावाभाव:, स चान्योन्याभावस्य तादात्म्यं श्रत्यन्ताभावस्य संयोगादिः, यत्किञ्चित्संयोगवति संयोगसम्बन्धसामान्यावच्छिन्नघटाभावाभावप्रत्ययापत्तिवारणाय स्वप्रतियोगिनिरूपितत्वं सम्बन्धविशेषणं, प्रतियोगितावच्छेदकतानियामकसम्बन्धेन च तस्याभावविरोधितया न सम्बन्धान्तरेण प्रतियोगितावच्छेदकसम्बन्धवति श्रभावविलयप्रसङ्गः, श्रन्यथात्यन्ताभावाभावस्य प्रतियोगिरूपत्वेऽन्योन्याभावाभावस्य च प्रतियोगिवृत्त्य साधारणधर्मरूपत्वेऽनुगतानतिप्रसक्रोक्त्यसम्भवात् श्रभावाभावत्वप्रकारक ग्रहदशायां केवलप्रतियोगितावच्छेदकसम्बन्धज्ञानेऽप्यभावाभावव्यवहारात् तदग्रहदशायां तत्र प्रतियोग्यादिग्रहेऽप्यभावाभावव्यवहारविरहात्, स्वरूपेण यद्वत्ता
Page #577
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
केवलान्वय्यनुमान।
५६
ज्ञानमभावज्ञानप्रतिबन्धकं तदेवाभावाभाव इति नियमे च मानाभावात्। न चैवं संयोगादिव्यधिकरणसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकद्रव्यत्वाभावादौनां खप्रतियोगिनिरूपितखप्रतियोगितावच्छेदकसम्बधाप्रमिया तदभावविलयप्रसङ्गति वाच्यम् । तादृशद्रव्यत्वाभावादौनामभाव एव मानाभावात्, यस्य हि प्रभावाभावः प्रामाणिकस्तदौयाभावस्यैव प्रतियोगितावच्छेदकसम्बन्धरूपत्वकल्पनादित्याः । नदसत् । खत्वघटितत्वेनार्थानुगमस्थासम्भवात् शब्दानुगमस्थाकिञ्चिकरत्वात्। किञ्चाभावाभावस्य स्वप्रतियोगिनिरूपितखप्रतियोगितावच्छेदकसम्बन्धरूपत्वे समवायसम्बन्धावच्छिन्नरूपाभावाभावस्य रूपनिरूपितसमवायरूपतया समवायावच्छिन्नरूपात्यन्ताभावाभाववान वायुरित्यपि प्रत्ययः स्यात् रूपनिरूपितसमवायस्य समवायानतिरिकतया वाय्वादावपि तत्सत्त्वात्, एवं संयोगसम्बन्धावच्छिन्नघटाधभावाभावस्य घटसंयोगादिरूपतया तादृशघटाभावाभाववान् घटइत्यपि प्रत्ययः स्यात् स्वसंयोगस्य खस्मिन्नपि मत्त्वात् । न च खप्रतियोगिनिरूपितत्वविशिष्टखप्रतियोगितावच्छेदकसम्बन्धोऽभावाभाव इति वाच्यम् । विशिष्ट स्थानतिरिक्रतया तद्दोषतादवस्यात्। न च यथा रूपनिरूपितसमवायस्थ समवायानतिरिक्तत्वेऽपि रूपनिरूपितत्वविशिष्टसमवायत्वावच्छिनतदाधारत्वस्य वाय्वादावभावा
पनिरूपितसमवायवान् वायुरिति न प्रत्ययः यथा वा विशिष्टमत्त्वाभावाभावस्य विशिष्टमत्त्वस्य सत्त्वानतिरिकत्वेऽपि विशिष्ट सत्त्वाभावाभावत्वावच्छिन्नतदाधारत्वस्य गुणदावभावात् विशिष्टमत्त्वाभावाभाववान् गुण इति न प्रत्ययः तथा समवायसम्बन्धावच्छिन
Page #578
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्वचिन्तामणी
रूपाभावाभावत्वावछिनरूपसमवायाद्याधारत्वस्य वाय्वादावभावामोक्तप्रत्यय इति वाच्यम्। तथा मति सर्वेषामेवाभावानामभावस्य गगनाभावस्वरूपत्वसम्भवेनाननुगतप्रतियोगितावच्छेदकसम्बन्धरूपताभ्युपगमस्थान्याय्यत्वात् । अथ समवायावच्छिन्नरूपाधभावाभावस्य गगनाभावरूपत्वे तादृशरूपाभावाभावो विशेषणताविशेषेण वायुत्तिरित्यपि प्रत्ययः स्यात् न स्थाच्च तादृशरूपाभावाभावो न विशेपणताविशेषेण वायुवृत्तिरिति प्रत्ययः गुणाद्यन्यत्वविशिष्टमत्तायागुणादिवृत्तित्ववत् विशिष्टस्थानतिरिकतया तादृशरूपाभावाभावत्वविशिष्टस्यापि वाय्वादौ वृत्तः, एवं संयोगादिसम्बन्धावच्छिन्नघटाभावाधभावस्थापि गगनाभावखरूपत्वे तादृशघटाभावाभावो घटवृत्तिरित्यपि प्रत्ययः स्यात् न स्याच्च तादृशघटाभावाभावो न घटवृत्तिरिति प्रत्यय इति चेत्, तुल्यमिदमापत्तिदान,(१) प्रतियोगिनिरूपितप्रतियोगितावच्छेदकसम्बन्धरूपत्वेऽपि विशिष्टस्थानतिरिकतया समवायसम्बन्धावच्छिन्त्ररूपाभावाभावत्व-संयोगसम्बन्धावच्छिन्नघटाभावाभावत्वविशिष्टस्य रूपसमवाय-घटसंयोगादेवायु-घटादावपि वृत्तः। न च तवापि विशिष्टमत्ताभावाभावस्य विशिष्टमत्तारूपत्वे विशिष्टमताभावाभावो गुणवृत्तिरिति प्रत्ययः स्यात् न स्याञ्च विशिष्टमत्ताभावाभावो न गुणवृत्तिरिति प्रत्ययः विशिष्टस्यानतिरिकत्वादिति वाच्यम्। इष्टत्वात्। सर्वेषामेव विशिष्टाभावानां प्रभावस्य गगनाभावरूपत्वे विशिष्ट सत्ताभावाभावोजात्यादिवृत्तिरित्यादिप्रत्ययापत्तेः
(२) तुल्यमिदमापादनमिति ध।
Page #579
--------------------------------------------------------------------------
________________
केवलान्वय्यनुमान।
खोकरणयं वा तादृशप्रतीत्यापत्तिवारणाय(१) अवच्छेदकतासम्बन्धेन गुणाद्यन्यत्व-मत्तयोः सामानाधिकरण्यस्य समवायसम्बन्धेन द्रव्यस्वस्यैव वा विशिष्टसत्ताभावाभावत्वं न तु विशिष्टसत्त्वस्येति न किविदेतत् । .
इति श्रीमथुरानाथ-तर्कवागीशविरचिते तत्त्वचिन्तामणिरहस्ये . अनुमानाख्यद्वितीयखण्डरहस्ये केवलान्वय्यनुमानपूर्वपक्षरहस्यं ।
(१) तादृशप्रतीत्यप्रतीतिवारणायेति घ० ।
Page #580
--------------------------------------------------------------------------
________________
अथ केवलान्वय्यनुमानसिद्धान्तः ।
उच्यते। वृत्तिमदत्यन्ताभावाप्रतियोगित्वं केवलान्ययित्वं, आकाशात्यन्ताभावो यद्यपि प्रतियोगिरूपात्यन्ताभावप्रतियोगी तथापि स न वृत्तिमानित्याकाशात्यन्ताभाव एव केवलान्वयौ, तथा प्रमेयत्वाभिधेयत्वादि
अथ केवलान्वय्यनुमानसिद्धान्तरहस्यं । 'वृत्तिमदिति वृत्तिमान् योऽत्यन्ताभावस्तदप्रतियोगित्वमित्यर्थः, श्राकाशात्यन्ताभावेऽव्याप्तिमुद्धरति, 'आकाशात्यन्ताभावएवेति आकाशात्यन्ताभावोऽपौत्यर्थः, श्राकाशात्यन्ताभावः केवलाम्वय्येवेति व्युत्क्रमेण वा अन्वयः। प्रमेयत्वादी लक्षणं सङ्गमयति 'तथेत्यादिना। नन्विदानौं अाकाशमिह दिश्याकाशमिति प्रतीतिबलादाकाशस्थापि काल-दिनिरूपितविशेषणतया वृत्तिमत्त्वात्
आकाशात्यन्ताभावे तथाप्यव्याप्तिः। न च वृत्तिः संयोगः समवायोवा विवक्षित इति वाच्यम् । घटादेरपि केवलान्चयित्वापत्तेः । न च काल-दिनिरूपितविशेषणतातिरिक्तसम्बन्धेन वृत्तिमत्त्वं विवचितमिति वाच्यम् । तथापि संयोगादिव्यधिकरणसम्बन्धावछिन्नद्रव्यत्वात्यन्ताभावादावव्याप्तेस्तस्य प्रतियोगिरूपतादृशत्तिम
Page #581
--------------------------------------------------------------------------
________________
केवलान्वय्यनुमान।
પૂછ્યું केवलान्वयि रत्तिमतोऽत्यन्ताभावस्याप्रतियोगित्वात् । न च प्रमेयत्वं प्रमाविषयत्वं तच्च न केवलान्वयि प्रमायाविषयत्वस्य चाननुगमादिति वाच्या प्रमात्वमेव हि परम्परासम्बन्धात् घटादौ प्रमेयत्वमनुगतं प्रमाजाती
दत्यन्ताभावप्रतियोगिलात् अव्याप्यवृत्त्यत्यन्ताभावेऽव्याप्तेश्च । न च वृत्तिमत्पदेन निरवच्छिन्नवृत्तिमत्त्वं विवक्षितमतोनाव्याप्यवृत्त्यत्यन्ताभावेऽव्याप्तिः न वाकाशाभावादौ संयोगादियधिकरणसम्बन्धावछिन्नद्रव्यत्वात्यन्ताभावादौ चाव्याप्तिः उनयुक्त्या तदत्यन्ताभावस्यैवासिद्धेरिति वाच्यम्। तथापि कालिकसम्बन्धावच्छिन्त्रप्रतियोगिताके गोत्वादेः कालिकाव्याप्यवृत्तेरभावेऽव्याप्तेः गोत्वादेः समवायसम्बन्धेनानवच्छिन्नवृत्तिमत्त्वादिति चेत् । न। प्रतियोग्यनधिकरणे वृत्तिमत्त्वस्य वृत्तिमत्पदेन विवक्षितत्वात् आकाशात्यन्ताभावाभावादः प्रतियोग्यनधिकरणस्यैवाप्रसिद्धत्वाचाव्याप्तिः। न चैवं समवायसम्बन्धेनापि ज्ञानादः कालिकसम्बन्धेनापि गगनाभावादेव केवलान्वयिवापत्तिः समवायसम्बन्धावच्छिन्त्रज्ञानाद्यभावस्य कालिकसम्बन्धावच्छिन्नगगनाभावाभावस्य च प्रतियोग्यनधिकरणाप्रमिद्धेः(१) इति वाच्यम् । यत्सम्बन्धेन प्रतियोग्यनधिकरणे वृत्तिमतोऽभावस्थाप्रतियोगित्वं तेन सम्बन्धेन केवलान्वयित्वमिति विवक्षितत्वात् । न च तथापि तादात्म्यसम्बन्धन प्रमेयादेः केवलान्वयित्वानुपपत्तिः (१) तथाच विषयतासम्बन्धेन ज्ञानस्य विशेषणताविशेषेण गगनामावस्य
च सर्वत्र सत्त्वमिति भावः।
Page #582
--------------------------------------------------------------------------
________________
५७०
सावचिन्तामणौ
यविषयत्वं वा। तथापि केवलान्वयिनि सन्देहाभावात् कथमनुमितिः, प्रमेयत्वमच वर्तते न वेति संशयश्च न प्रमेयपक्षकः किन्तु प्रमेयत्वपक्षको भिन्नविष
चालनौन्यायेन सर्वस्यैव प्रमेयस्य तादाम्यसम्बन्धन प्रतियोग्यनधिकरणे वर्तमानस्याभावस्य प्रतियोगित्वादिति वाच्यम् । तादृशाभावस्य प्रतियोगितानवच्छेदको यो धर्मस्तद्वत्त्वं तेन रूपेण तत्सम्बन्धेन केवलान्वयित्वमिति विवक्षणान्, इत्थञ्च प्रतियोग्यनधिकरणत्वं प्रतियोगितावच्छेकावच्छिन्नानधिकरणत्वमेव वक्तव्यं न तु प्रतियोग्यमधिकरणत्वमा तथा मति द्रव्यभेद-गुणभेदयोरन्यतरत्वरूपेण केवलान्वयित्ववदुभयत्वरूपेणापि केवलान्वयित्वापत्तेः। नचैवं विरुद्धयोरपि द्वित्वेन केवलान्वयित्वापत्तिः तदवच्छिन्नाधिकरणाप्रसिद्ध्या तदवच्छिन्नाभावस्य प्रतियोगितावच्छेदकावच्छिन्नानधिकरणवृत्तिमत्त्वस्थासम्भवात् समवायादिना प्रमेयत्वादेर्गगनादेच केवलान्वयिवापत्तिः समवायावच्छित्रप्रमेयत्वाभावादेस्तादृशगगनाभावादेव समवायसम्बन्धेन प्रतियोगितावच्छेदकावच्छिन्नानधिकरणाप्रसिद्धेरिति वाच्यम्। तत्सम्बन्धेन तद्धविच्छिन्नवति येन केनचित्सम्बन्धेन सम्बन्धित्वे मतौत्यनेनापि विशेषणात्, इत्थञ्च समवायादिसम्बन्धन विरु(घटत्व-पटलोभयत्वावच्छिन्नवतस्तत्सम्बन्धन प्रमेयत्वत्व-गगनबावच्छिअवतचाप्रसिद्धत्वान्नातिव्याप्तिः विशेषणताविशेषेण वर्तमानस्य घटत्वपटवाद्यभावस्येव विशेषणताविशेषेणवर्त्तमानस्यापि गगनादेः विशेषएताविशेषसम्बन्धन प्रमेयत्वादिरूपेण केवलान्वयित्वमिष्टमेव, तदनभ्यु
Page #583
--------------------------------------------------------------------------
________________
केवलान्वय्यनुमान।
यका,प्रमेयत्वपक्षके चास्तित्वसाध्यस्यान्वय-व्यतिरेकित्वं तथाच घटः प्रमेया न वेति संशया मृग्यते स च 'नाल्येव। अथ पक्षः साध्यवान वा पक्षे साध्यमस्ति न वेति संशयौ समानविषयकावेव तदस्यास्यस्मिन्निति
पगमे तु येन केनचित्सम्बन्धेन इत्यपहाय तत्सम्बन्धेनेति वक्तव्यं(९) । नचैवमपि प्राश्रयनाशजन्यगुणादिनाशात्यन्ताभावेऽव्याप्तिस्तदवस्थैवेति वाच्यं । प्रागभावस्यात्यन्ताभावविरोधित्वे मानाभावात् प्रतियोगिसमवायिदेशेऽपि तादृशनाशात्यन्ताभावोवर्त्तत एवेत्यभिप्रायादिति न कोपि दोषः।
मोन्दडोपाध्यायास्तु(२) अन्योन्याभावप्रतियोगितानवच्छेदकधर्मवत्त्वं केवलान्वयित्वं अन्योन्याभावोव्याप्यवृत्तिरेवेति नाव्याप्यवृत्त्यत्यन्ताभावेऽव्याप्तिः धर्मत्वोपादानाबाकाशेऽतिव्याप्तिरित्याः । तदसत्। विषयतया ज्ञानस्य केवलान्वयित्वानुपपत्तेः समवायेनान्योन्याभावस्य प्रतियोगितावच्छेदकत्वात् केवलान्चयितावच्छेदकसम्बन्धेन अन्योन्याभावप्रतियोगितानवच्छेदकत्वोक्तावपि तादात्म्येन मेयसामान्यस्य केवखान्वयित्वानुपपत्तिः चालनौन्यायेन सर्वेषामेव मेयानां अन्योन्याभावप्रतियोगितावच्छेदकवादित्यास्तां विस्तरः ।
यथाश्रुनाभिप्रायेणशकते, 'न चेति, 'प्रमाया इति दृष्टा
(१) मन्तव्यमिति क.। (२) उपाध्यायास्विति ख ग घ..।
Page #584
--------------------------------------------------------------------------
________________
५७६
तत्त्वचिन्तामणे
मतुपोविधानादिति चेत् । न । विशेषण-विशेष्यभावभेदेनार्थभेदात्। मैवं। य एव हि संशयः पक्षे साध्यसिद्धिविरोधी स एवानुमानाङ्गमावश्यकत्वात् लाघ
न्तार्थं, प्रमाव्यक्तयो यथा पुरुषभेदेन विभिन्नास्तथा विषयखरूपस्य तविषयत्वस्यापि विषयभेदेन विभिन्नत्वादित्यर्थः, तथाच चालनौन्यायेन मर्वासामेव प्रमाविषयत्वव्यक्तीनां तादृशात्यन्ताभावप्रतित्वात् न केवलान्वयित्वसम्भव इति भावः। 'प्रमात्वमेवेति, ‘परम्परासम्बन्धात्' खाश्रयविषयत्वरूपसम्बन्धात्। न च प्रमात्वमपि विषय-प्रकारभेदेन(२) अननुगतमिति वाच्यम्(२) । प्रकृते प्रमात्वपदेनानुभवत्वस्य विवक्षितत्वादिति भावः। ननु प्रमेयत्वस्य परम्परासम्बन्धेन प्रमावरूपत्वे प्रमेत्येव धीः स्थान तु प्रमेयमिति सम्बन्धस्य प्रकारत्वासम्भवादित्यत पाह, 'प्रमाजातीयेति प्रमात्वाश्रयविषयत्वमेवेत्यर्थः । न चैवं उक्तदोषतादवस्थ्य, लक्षणस्थानवच्छेदकघटनाया आवश्यकत्वेन प्रमाविषयत्वस्थाननुगतत्वेऽपि प्रमाविषयत्वत्वधर्मस्यानुगतस्य तादृशाभावप्रतियोगितानवच्छेदकत्वादेव लक्षणमङ्गतेरिति भावः । वस्तुतस्तु विषयताया ज्ञानखरूपत्वेन भगवतोऽस्मदादेोगिनां वा सर्वविषयकप्रमाव्यक्तस्तदि
(१) प्रमाल्यसम्बन्धादिति ख ग घ..। (२) विशेष्य-प्रकारभेदेनेत्यर्थः । (३) तहहिशेष्यक-तत्यकारक ज्ञानत्वरूपप्रमात्वस्य विषयविशेषनिय
वितत्वादननुगतत्वमिति भावः ।
Page #585
--------------------------------------------------------------------------
________________
५८०
तत्वचिन्तामणौ
भावप्रतियोगौति भ्राम्यतः सन्देह इत्यन्ये। नन्वेकरूपविकलमिदं कथं गमकं तत्त्वे वा व्यतिरेकविकलवत् रूपान्तरविकलमपि गमकं स्यादिति चेत्।न। अन्वयव्यतिरेकव्यात्योरन्यतरनिश्चयेनानुमित्यनुभवात् युगतयोर्याप्तियहे अन्वयव्याप्तियह इति यावत्, 'अब तु' केवलाम्वयिनि तु, व्यतिरेकव्याप्ताविति यथाश्रुतन्तु न सङ्गच्छते व्यतिरेकव्याप्तियह प्रत्येव तस्य विपक्षवृत्तित्वशानिवृत्तिमात्रद्वारा उपयोगितया केवलावयिनि तन्नित्त्यसम्भवेऽपि तस्यान्वयव्याप्तिग्रहोपयोगित्वे बाधकाभावात्। न च 'व्यतिरेकव्याप्तावित्यस्य व्यतिरेकव्याप्तिग्रह एवेत्यर्थः इति वाच्यम्। अन्वयव्याप्तिग्रहं प्रत्यपि तादृशशङ्कानिवृत्तिद्वारोपयोगित्वस्य सर्वसिद्भुतया अवधारणसङ्गतेः 'अत्र तु विपक्षाभावेन शव नोदेतीत्यभिधानस्यामङ्गतत्वापत्तेश्च अत्र तु व्यतिरेकव्याप्तिज्ञानमेव नेत्येव वकुमुचितत्वादिति ध्येयम्।
केचित्तु विपक्षय्यावृत्तत्वग्रहस्य व्यातिरेकव्याप्तिग्रहद्वारा सर्वत्रानुमितावावश्यकत्वं अन्वयव्याप्तियहानुकूलतथा वा नाद्य इत्याह, 'अन्षयेति, 'अन्यतरनिश्चयेनेति एकतरनिश्चयेनापौत्यर्थः । ननु तर्हि विपक्षव्यावृत्तत्वग्रहः क्वचिदपि नापेक्षितः स्यात् इत्यत श्राह, 'युगपदिति, 'प्रयोजकत्वे' प्रयोजकत्वस्थले, 'व्यतिरेकोपासनेति विपक्षवृत्तित्वशानिवृत्तिद्वारा विपक्षव्यावृत्तत्वग्रहापेक्षेत्यर्थः । न द्वितीयइत्याह, 'व्यतिरेकञ्चेति अर्थस्तु पूर्ववदिति व्याचक्रुः ।
उपाध्यायानुयायिनस्तु ‘एकरूपेति व्यतिरेकच्याप्तिविकलमित्यर्थः । अत्रय-व्यतिरेकिणि उभयव्याप्तिज्ञानस्यैव गमकत्वदर्शनादिति
Page #586
--------------------------------------------------------------------------
________________
केवलान्यव्यनुमान।
पदुभयव्याप्तुरपस्थिती विनिगमकाभावेन उभयोरपि प्रयोजकन्वे व्यतिरेकोपासना व्यतिरेकश्च विपक्षतित्वशङ्कानिवृत्तिहारा व्यतिरेकव्याप्तावुपयुज्यते अत्र तु विपक्षाभावेन शङ्कव नोदेति।
इति श्रीमहङ्गशोपाध्यायविरचिते तत्त्वचिन्तामणै अनुमानाख्यद्वितीयखण्डे केवलान्वय्यनुमानसिद्धान्तः, समाप्तमिदं केवलान्वय्यनुमानं । भावः। 'यतिरेकविकलवत्' व्यतिरेकव्याप्तिविकलवत्, 'रूपान्तरेति पक्षधर्मताविकलमित्यर्थः, 'अन्यतरनिश्चयेनेति एकतरनिश्चयेनापौत्यर्थः, तथाचाचान्वयव्याप्तिज्ञानमेव हेतुरिति भावः। नन्वेवमत्र यथानुमितेरन्वयव्याप्तिज्ञानमात्रजन्यत्वं तथा यत्र युगपदुभयव्याप्युपस्थितिः तत्राप्यनुमितेरन्वयव्याप्तिज्ञानमात्रजन्यत्वमस्वित्यत आह, 'युगपदिति, ‘प्रयोजकत्व इति हतीयार्थ सप्तमी, 'यतिरेकोपासनेति अनुमितेर्व्यतिरेकव्याप्तिज्ञानजन्यत्वमित्यर्थः। ननु तथापि केवलान्वयिनि विपक्षासत्त्वज्ञानं विना कथं व्याप्तिग्रहस्तस्य तद्धेतत्वादित्यत आह, 'व्यतिरेकश्चेनि अर्थस्तु पूर्ववदित्याहुः ।
इति श्रीमथुरानाथतर्कवागौश-विरचिते तत्त्वचिन्तामणिरहस्ये अनुमानाख्यद्वितीयखण्डरहस्ये केवलान्वय्यनुमानसिद्धान्तरहस्यं, समातमिदं केवलान्वय्यनुमानरहस्य(१) । (१) इति महामहोपाध्यायत्रीमथुरानाथ-तर्कवागीशभट्टाचार्य
केवलान्चयिरहस्यं रमणीयमिति ग० ।
Page #587
--------------------------------------------------------------------------
________________
अथ केवलव्यतिरेक्यनुमान।
केवलव्यतिरेकी त्वसत्सपा यत्र व्यतिरेकसहचारेण व्याप्तिग्रहः । ननु व्यतिरेकी नानुमानं व्याप्ति
अथ केवलव्यतिरेक्यनुमानरहस्यं ।
'असत्मपक्ष इति असन् स्वजन्यानुमित्यव्यवहितपूर्व खाधिकरणे असम्मपक्षः साध्यवत्त्वेन क्वापि मिश्चयोयस्येत्यर्थः, तथाच स्वसमानाधिकरणखजन्यानुमित्यव्यवहितपूर्ववर्तिनिश्चयाविषयमाध्यकत्वं केवलव्यतिरेक्यनुमानत्वमिति भावः। खं लक्ष्यत्वेनाभिमतं, अव्यवहितपूर्वत्वञ्च क्षणत्रयसाधारण(१) तेन व्याप्तिनिश्चयाव्यवहितपूर्व माध्यवत्त्वनिश्चयस्य क्वापि सत्त्वेऽपि न केवलव्यतिरेकित्वं । न च स्वाव्यवहितपूर्ववर्तीत्येवोच्यतां किं जन्यानुमित्यव्यवहितपूर्ववर्त्तित्वपर्यन्तेनेति वाच्य। वहिमान्धूमादित्यादावन्वयव्याप्तिग्रहजनकान्वयसहचारज्ञाने माध्यज्ञानत्वेन ज्ञानत्वेन वा अनुमितिकरणे अन्वय-व्यतिरेक्यनुमाना. नर्गतेऽतिव्याप्यापत्तेः तत्पूर्व माध्यनिश्चयस्य क्वापि विरहादिति
(१) क्षणत्रयसाधारणास्थवहितपूर्खत्वञ्च खप्रागभावाधिकरणसमयप्रा.
गभावाधिकरणसमयमागभावाधिकरणसमयप्रागभावानधिकरणत्वे सति खप्रागभावाधिकरणत्वरूपमिति ।
Page #588
--------------------------------------------------------------------------
________________
केवलव्यतिरेकयनुमानं ।
५-३
भावः। मनु तस्य लक्ष्यमेव दुर्लभमनुमितिपूर्वं चणचयाभ्यन्तरे साध्यवत्त्वनिश्चयाभावे सहचारज्ञानाभावात् व्याप्तिज्ञानस्यैवासम्भवादित्यतोलक्ष्यं दर्शयति, ‘यचेति, अनुमितिजनन इति शेषः, 'व्यतिरेकसहचारेण' व्यतिरेकसहचारज्ञानेन जन्यत्वं तृतीयार्थः, 'व्याप्तिग्रहः ' व्याप्तिग्रह एव, सहकारीति शेषः, तथाच यन्मानं व्यतिरेकसहचार'ज्ञानजन्यव्याप्तिज्ञानमाचसहकारेणानुमितिं जनयति तदेव लक्ष्यं, महकारित्वञ्च न भेदगर्भं (१९) तेन व्याप्तिज्ञानस्यापि संग्रह इति भावः । श्रत्र लक्षणे साध्यं व्यतिरेकित्वेन विशेषणीयं तेन सपचासत्त्वदशायामपि व्यतिरेक सहचार भ्रमजन्य केवलान्वयिसाध्यकानुमाने नातिव्याप्तिः, साध्यत्वञ्च व्यापारानुवन्धिविधेयत्वं स्वकरणकानुमितिविधेयत्वमिति यावत् तेन व्याप्तिज्ञानादिरूपेऽनुमाने पृथिवीतरभेदादेरविधेयत्वेऽपि न चतिः, तथाच स्वसमानाधिकरण - स्वजन्यानुमित्यव्यवहितपूर्व्ववर्त्तिनिश्चयविषयतानवच्छेदको यो व्यतिरेकि - तावच्छेदकोधस्तदवच्छिन्नविधेयता कानुमितिकरणत्वं केवलव्यतिरेक्यनुमानत्वं स्वं लक्ष्यत्वेनाभिमतं स्वसमानाधिकरण- खाव्यवहितपूर्व्ववर्त्तिनिश्चयविषयतानवच्छेदकव्यतिरेकितावच्छेदकधर्मावच्छिनविधेयताकानुमितिकरणत्वं केवलव्यतिरेक्यनुमानत्वमिति तु निष्कर्षः वारयमनुमितिप्रवेशे प्रयोजनविरहात्, स्वपदमनुमितिपरं । - ग्वयव्यतिरे क्यनुमानलचणन्तु स्फुटत्वान्रोनं तच स्वसमानाधिकरण
(२) तथाचात्र तत्सहकारित्वं तज्जन्यफलजनकत्वमाचं न तु तद्भिन्नत्वविशिष्ट तज्जन्यफलजनकत्वरूपमतः स्वस्यापि खसहकारित्वमिति
भावः ।
Page #589
--------------------------------------------------------------------------
________________
पूज
तत्त्वचिन्तामणौ
खाव्यवहितपूर्ववर्तिनिश्चयविषयतावच्छेदकव्यतिरेकितावच्छेदकधर्मावच्छिन्नविधेयताकानुमितिकरणत्वं, स्वपदं अनुमितिपरं, तादभानुमितिवश्चान्वय-व्यतिरेक्यनुमितित्वं, केवलव्यतिरेक्यनुमानेऽतिव्याप्तिवारणय प्रथममवच्छेदकान्तं तच माध्यवत्त्वेन निश्चयस्य कापि विरहात्, अव्यवहितपूर्ववच्च क्षणत्रयसाधारणं तेन व्याप्तिनिश्चयपूर्व माध्यनिश्चयसत्त्वेऽपि अन्वय-व्यतिरेकित्वं, केवलान्वयिसाध्यकानुमानेऽतिव्याप्तिवारणाय द्वितीयमवच्छेदकान्तं। न च व्यतिरेकसहचारेणग्वयव्याप्तिरेव ग्रह्यते इति वक्ष्यमाणमते यत्र व्यतिरेकसहचारज्ञानमात्रजन्यव्यापकसामानाधिकरण्यरूपान्वयव्याप्तिज्ञानादनुमितिस्तत्र केवलव्यतिरेक्यनुमानलक्षणस्थाव्याप्तिः अन्वय-व्यतिरेक्यनुमानलक्षणस्य चातिव्याप्तिः व्याप्तिग्रहस्यैव माध्यान्वयग्रहरूपत्वादिति वाच्यं । एतदखरसेनैव तन्मतमपहाय 'यदेति कृत्वा व्यतिरेकसहचारज्ञानजन्यष्यतिरेकव्याप्तिज्ञानस्यैव गमकत्वस्य वक्ष्यमाणत्वात् नव्यनये लाघवात् साध्याभाववदवृत्तित्वरूपान्वयव्याप्तिज्ञानस्यैवानुमितिहेततया व्यतिरेकसहारज्ञानजन्यतादृशान्वयव्याप्तिज्ञानस्यैव व्यतिरेक्यनुमितावपि हेतुत्वाच्च । एतच्च तच्चानुमानं त्रिविधं' इत्यस्यानुमानविभागपरत्वपचे व्याख्यातं, तस्यानुमितिविभागपरत्वपक्षे तु 'असत्मपक्ष इत्यस्य प्रसन्खाव्यवहितपूर्वकाले खाधिकरणे असन् सपचः माध्यवत्त्वेन क्वापि निश्चयोयस्थानुमित्यात्मकग्रहस्य स इत्यर्थः, तथाच खममानाधिकरण-खाव्यवहितपूर्ववर्तिनिश्चयविषयतानवच्छेदकव्यतिरेकितावच्छेदकधर्मावच्छिन्नमाध्यकानुमितित्वं केवलयतिरेक्यनुमितिलमिति भावः । खपदमनुमितिपरं प्रत्येकदल
Page #590
--------------------------------------------------------------------------
________________
केवजव्यतिरेक्यनुमान।
५५
पक्षधर्माताज्ञानस्य तत्कारणत्वात् अब व्यतिरेकसह| चारात् तत्र व्याप्तिरन्वयस्य पक्षधर्मता। न च व्याप्त
प्रयोजनञ्च उक्तप्रायं । नन्वेतस्य लक्षणमेव दुर्लभं अनुमितिपूर्व क्षणत्रयाभ्यन्तरे साध्यवत्त्वनिश्चयाभावे सहचारज्ञानाभावात् व्याप्तिज्ञानस्यैवासम्भवादित्यतो लक्ष्यं दर्शयति, 'यति अनुमिताविति शेषः, 'व्यतिरेकसहचारेण व्यतिरेकसहचारज्ञानेन, जन्यत्वं तौयार्थः, 'याप्तिग्रहः' व्याप्तिग्रह एव, कारणमिति श्रेषः, तथाच यत्रानुमितौ व्यतिरेकसहचारचानजन्यव्याप्तिज्ञानमाचं कारणं सैव लक्ष्येति
भावः।
__ केचित्तु ननु 'असत्मपक्ष इत्यस्य असन्मपक्षः माध्यवत्त्वेन निश्चितो यस्येत्यर्थः, स च सिद्ध्यमिद्धिपराहत इत्यतोऽमत्सपक्षमेव पारिभाषिकं व्याचष्टे, 'यति, अनुमितिजनन इति शेषः, 'व्यतिरेकसहचारेण' व्यतिरेकसहचारज्ञानेन, जन्यत्वं बतौयार्थः, 'व्याप्तियहः' व्याप्तिग्रह एव, सहकारौति शेषः, तथाच व्यतिरेकसहचारज्ञानजन्यव्याप्तिग्रहमात्रजन्यानुमितिकरणत्वं केवलव्यतिरेक्यनुमानत्वं, अन्वयव्यतिरेकोभयसहचारज्ञानजन्यव्याप्तिज्ञानस्यान्वय-व्यतिरेक्यनुमानान्तर्गतस्य वारणाय मात्रपदं । व्यतिरेकसहचारज्ञानजन्यव्याप्तिग्रहमात्रजन्यत्वञ्च अन्वय-सहचारज्ञानजन्यव्याप्तिग्रहाजन्यत्वं, अनुमितिश्च व्यतिरेकितावच्छेदकधर्मावच्छिन्नविधेयताकत्वेन विशेषणीया, तेन व्यतिरेकसहचारभ्रमजन्यवाच्यवादिसाध्यकव्याप्तिज्ञाने पूर्वनिरुक्तकेवलावयिसाध्यकान्तर्गते नातिव्याप्तिः, महानसादौ वयादिमत्त्व
74
Page #591
--------------------------------------------------------------------------
________________
५८
तत्त्वचिन्तामो
पक्षधर्मत्वं साध्याभावव्यापकाभावप्रतियोगिसत्यमु- . भयमप्यनुमितिप्रयोजकमिति वाच्यम्। अनमुगमात्। न चान्यतरत्वं तथा, एकप्रमाणपरिशेषापत्तेः । न च
निश्चयसत्त्वे यदि यतिरेकसहचारज्ञानमात्रात् वय दिव्याप्ति ज्ञान तदा तदपि केवलयतिरेक्येव, व्याप्तिश्च(१) यदि सर्वत्रान्वययाप्तिशानमेव कारणं केवस्तव्यतिरेकिण्यपि व्यतिरेकसहचारात् अन्षययाप्तिरेव ग्राह्यते इति मतं तदान्वयरूपैव निवेशनौया, यदि । केवलव्यतिरेक्यतिरिक्तस्थलेऽन्वयतोव्यतिरेकतच उभयरूपैव व्याप्तिप्रेमिका केवलव्यतिरेकिणि तु व्यतिरेकव्याप्तिरेव गमिकेति मतं तदा तु व्यतिरेकरूपैव निवेशनौया, वहिमान् धूमादित्यादाव
यसहचारज्ञानजन्यव्यतिरेकव्याप्तिाहजन्यानुमितिकरणन्तु न केवखव्यतिरेकि किन्वन्वय-व्यतिरेक्येवेति भावः ।
'तच्चानुमानमिति मूलस्यानुमितिविभाजकपरत्वपक्षे 'यत्रेत्य- । स्थानुमिताविति शेषः, 'याप्तियह एवेत्यस्य च कारणमिति शेषः, तथाच व्यतिरेकसहचारज्ञानजन्यव्याप्तिग्रहमात्रजन्यव्यतिरेकितावछेदकधर्मावच्छिन्नसाध्यकानुमितित्वं केवलव्यतिरेक्यनुमितित्वमिति भावः । अन्वयसहचारज्ञानजन्यव्याप्तिग्रहजन्यव्यतिरेकितावच्छेदकधर्मावछिन्नमाध्यकानुमितिकरणवन्तु अन्वय-व्यतिरेक्यनुमानलं तादृशानुमितिलच्चान्वय-व्यतिरेक्यनुमितित्वं । व्याप्तिश्च यदि सर्व
(२) व्याप्तिश्चेत्यस्य निवेशनौयेत्यनेनायेतनेनान्वय इति ।
Page #592
--------------------------------------------------------------------------
________________
केवलव्यतिरेकानुमानं ।
५०७
तृणारणि-मणिन्यायेनानुमितिविशेषे तद्धेतुत्वमिति वाच्यं । व्यतिरेकिसाध्येऽनुमितित्वासिद्धेः उभयसिङ्घ
चान्वयव्याप्तिज्ञानमेव कारणं केवलव्यतिरेकिण्यपि व्यतिरेकमहचारज्ञानादन्वयव्याप्तिरेव गृह्यते इति मतं तदाम्वयरूपैव निवेशनीया, यदि च केवलव्यतिरेक्यतिरिक्तस्थलेऽन्वयतो व्यतिरे - are व्याप्तिद्वयमेव गमकं केवलव्यतिरेकिणि तु व्यतिरेकव्याप्तिरेव गमिकेति मतं तदान्वयतो व्यतिरेकतश्च उभयरूपैव यथाकथ· चिदनुगतीकृत्य ( १ ) निवेशनीया, तेन (९) वह्निमान् धूमादित्यादावम्ययसहचारज्ञानाधौनव्यतिरेकव्याप्तिग्रहजन्यानुमितौ तत्करणेच नाव्याप्तिरित्याहुः ।
'नम्विति, 'व्यतिरेकी' व्यतिरेकसहचारज्ञानजन्यव्याप्तिग्रहः, 'मानुमानं' नानुमितिकरणं, 'व्याप्तेति हेतुव्यापक माध्यमामानाधिकरण्यरूपान्वयव्याप्तिप्रकारकपचधर्मताज्ञानस्येत्यर्थः, 'श्रच' व्यतिरेकसहचारज्ञानजन्यपरामर्शे, 'व्यतिरेकसहचारात्' साध्याभाव- हेलभावयोः सहचारज्ञानात्, 'तत्र' तयोः साध्याभाव- हेत्वभावयोरिति थावत्, 'व्याप्ति:' व्यापकत्वं, 'श्रन्वयस्य' हेतोः, 'पचधर्मतेति, भासते
(१) व्यभिचारधविरोधिधौविषयत्वेन व्याप्तिदयं अनुगतोद्यत्येत्यर्थः, त
थाचान्वय-सहचार ज्ञानजन्य प्रकृत हेतु धर्मिक प्रकृतसाध्यव्यभिचारधीविरोधिधविषयतावच्छेदकावच्छिन्न विषयक ग्रह जन्यानुमितिकरणत्वं अन्वयव्यतिरेक्यनुमानत्वं तादृशानुमितित्वचान्वयव्यतिरे क्यनुमितित्वमिति भावः । (२) अनुगतरूपेोभयविधव्याप्तिनिवेशेनेत्यर्थः ।
Page #593
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८
तत्त्वचिन्तामो
कृप्ततत्कारणस्याभावात् । न च साध्याभावव्यापका. भावप्रतियोगित्वमेवानुमितिप्रयोजकमिति वाच्यं । गौरवात् केवलान्वयिन्यभावाच्च । अथ साध्याभाव
इति शेषः, तथाच व्यतिरेकसहचारज्ञानजन्यव्यतिरेकव्याप्तिपरामर्शस्थानुमित्यजनकतया तादृशव्याप्तिज्ञानस्य नानुमितिकरणत्वमिति भावः । नन्वन्वयव्याप्तिपरामर्श-व्यतिरेकव्याप्तिपरामर्शयोरुभयोरेवानुमितिजनकत्वमित्याशङ्कते, 'न चेति, व्याप्तपक्षधर्मत्वं' निरुक्तान्वयव्याप्तिविशिष्टहेतुमत्त्वं, 'साध्याभावेति साध्याभावव्यापकाभावप्रतियोगिहेतमत्त्वमित्यर्थः, 'अनुमितिप्रयोजक' अनुमितिकारणभूतज्ञानविषयः, 'अननुगमादिति उभयसाधारणकारणतावच्छेदकधर्माभावादित्यर्थः, प्रत्येकरूपेण कारणत्वे च(१) परस्परं व्यभिचार इति भावः । 'तथा' उभयसाधारणकारणतावच्छेदकधर्मः, 'एकप्रमाणेति इन्द्रियादीनां चतुर्णामेव प्रमाणानामिन्द्रियाद्यन्यतमत्वरूपैकधर्मणानुमित्यादिप्रमितिचतुष्टयाद्यन्यतमत्वावच्छिन्नं प्रति कारणत्वापतेरित्यर्थः, व्यापाराणा(२) विशेषतः कारणत्वेनैवानुमितित्वाधवच्छि(१) अन्वयव्याप्तिज्ञानत्वेन व्यतिरेकव्याप्तिज्ञानत्वेन चेत्यर्थः, तथाच
अन्वयव्याप्तिज्ञानमात्रजन्यानुमितौ व्यतिरेकव्याप्तिज्ञानाभावात् यतिरेकव्याप्तिज्ञानमात्रजन्यानुमितौ च धन्वयव्याप्तिज्ञानाभावात् पर'स्परं व्यभिचार इति भावः । (२) मनु प्रमाणचतुछयस्य अन्यतमत्वेन प्रमितिचतुछयान्यतमत्वावच्छिन्नं
प्रति कारणत्वे प्रत्यक्षप्रमाणसत्त्वे कथमनुमिति!त्पद्यत इत्यत बाह,
Page #594
--------------------------------------------------------------------------
________________
केवलव्यतिरेक्यनुमानं ।
व्यापकाभावप्रतियोगित्वेन साध्यव्याप्यत्वमनुमेयम्, एवं व्यतिरेकव्यात्यान्वयव्याप्तिमनुमाय यचानुमितिः स एव व्यतिरेकौत्युच्यते, तन्न, अन्वयव्याप्तेर्गमकत्वे व्यतिरेक
re
नोत्पत्तिनियमसम्भवादिति भावः । 'ढणारणीति यथा तृणारणिमणीनां परस्परं व्यभिचारितया वन्हित्वव्याप्यधर्मावच्छिन्नं प्रत्येव हेतुत्वं न तु वहित्वावच्छिन्नं प्रति तथाचाप्यनुमितित्वव्याप्यधीवच्छिन्नं प्रत्येव तयोः कारणत्वमित्यर्थः, 'व्यतिरेकिसाध्य इति व्यतिरेकव्याप्तिपरामर्शोत्तरं जायमानज्ञानदत्यर्थः, 'अनुमितित्वासिद्धेरिति, श्रग्टहीतासंसर्गकं खण्डशः साध्यपक्षयोः ज्ञानमेव तदिति भावः । ' उभयसिद्धेति निरुक्तान्वयव्याप्तिप्रकारकपचधर्मताज्ञानस्य उभयसिद्धानुमितिकारणस्याभावादित्यर्थः । ' न च साध्याभावेति न त्वम्वयव्याप्तिरित्यर्थः, विनिगमकाभावादिति भावः । 'केवलान्वयौति तव केवलान्वथित्वग्रहदशायामसम्भवाचेत्यर्थ:, यथाश्रुतन्तु न सङ्गच्छते साध्यसाधनभेदेन कार्य कारणभावस्य विभिन्नतया केवलान्वयिन्यवयव्याप्तिज्ञानमेव हेतुः व्यतिरेकिणि तु व्यतिरेकव्याप्तिज्ञानमेव
व्यापाराणामिति, तथाच प्रमितिचतुष्टयं प्रति प्रमाणचतुष्टयस्यान्यतमत्वेनैव कारणत्वं, व्यापारविशेषस्य प्रमितिविशेषं प्रति खातन्त्रेण कारणत्वेनैवातिप्रसङ्गवारणमिति भावः । न च व्यापार विशेषस्य प्रमितिविशेषं प्रति कारणत्वेनैवातिप्रसङ्गभङ्गे प्रमाणस्यान्यथासिद्धत्वमिति वाच्यं । व्यापारेण व्यापारियोऽन्यथासिद्धत्वाभावादिति ।
Page #595
--------------------------------------------------------------------------
________________
५९.
चिन्तामय
व्याप्त्युपन्यासस्यार्थान्तरतापत्तेः अन्वयव्याप्यनुकूलतया च तदुपन्यासे अन्वयव्याप्तिमनुपन्यस्य तदुपन्यासस्या
इत्यस्य सुवचत्वात् खण्डशः प्रसिद्ध्या केवलान्वयिन्यपि भ्रमरूपतज्ज्ञानसम्भवात् ।
केचित्तु ‘अनुमितित्वासिद्धेरिति, किन्तु श्रर्थापत्त्याख्यविजातौयज्ञानमेव तदिति भावः । न चैवं 'गौरवादित्यग्रिममूलमसङ्गतं श्रर्थापत्तित्वाख्यातिरिक्रवैजात्याभ्युपगमे तदवच्छिन्नं प्रत्येव तज्ज्ञानस्य हेतुत्वावश्यकत्वात् वैजात्यकल्पनस्य पुनरधिकत्वादिति वाच्यम् । एतदस्वरमादेव 'केवलान्वयीत्याद्यभिधानादित्याहुः । तदसत् । श्रर्थापत्त्याख्यविजातीयज्ञानस्यार्थापत्तिग्रन्थ एवाग्रे निरसनीयत्वादिति ध्येयम् ।
'अथेति, 'साध्यव्याप्यत्वं' साध्यान्वयव्याप्यत्वं तथाच व्यतिरेकव्याप्तिज्ञानस्य साध्यान्वयव्याप्यनुमितिद्वारा अनुमितिकरणत्वमिति भावः । श्रत्र वृत्तिमत्त्वेन विशेषणान्नावृत्तौ व्यभिचारः । न च तथापि व्यतिरेकिणि हेतुव्यापकसाध्यसमानाधिकरणवृत्तिहेतुतावच्छेदकवत्त्वरूपान्वयव्याप्यत्वमप्रसिद्धं कथमनुमेयं प्रकृततावेव प्रसिद्धं चेल्लतमनुमानेनेति वाच्यम् । यत् यद्धर्मावच्छिन्नाभावव्यापकाभावप्रतियोगितावच्छेदकयडूर्मवद्भवति तत् तद्धर्मावच्छिन्नव्यापकतावच्छेदकतद्धर्मावच्छिन्नसमानाधिकरणदृतितद्धर्मवद्भवतीति यत्तदुद्भ्यां सामान्यतो व्याप्ट्या तस्याप्रसिद्धत्वेऽप्यनुमितिसम्भवादिति भाव: (१) । यत्तु
(१) तस्याप्रसिद्धस्याप्यनुमितिसम्भवादिति घ० ० |
Page #596
--------------------------------------------------------------------------
________________
केवलव्यतिरेक्यनुमानां
५६५
प्राप्तकालत्वमिति। उच्यते। निरुपाधिव्यतिरेकसहचारेणान्वयव्यतिरेव गृयते प्रतियोग्यनुयागिंभावस्य
'माध्यव्याप्यत्वं माध्यवदन्यावृत्तित्वं, तच्चान्ततः साध्ये प्रसिद्धं हेतावनुमेयमिति । तदसत्। केवलान्वयित्वग्रहदशायामसम्भवेन व्यतिरेकव्याप्तिज्ञानवत् माध्यवदन्यावृत्तित्वज्ञानस्यापि अनुमितिहेतुत्वासम्भवादिति ध्येयं)। मनु निरुतान्वयव्याप्तिज्ञानस्यैवानुमितिदेतत्वे 'केवलव्यतिरेकी वसत्मपञ्चः' इति प्रागुक्तलक्षणमसम्भवि व्याप्तिग्रहस्यैव माध्यान्वयग्रहरूपत्वादित्यत श्राह, ‘एवमिति, ‘यचानुमितिः' यस्मिन्ग्रहे मत्यनुमितिः यवाहकरणिकानुमितिरिति यावत् । ___ केचित्तु नन्वेवमन्वयिपरामर्श-व्यतिरेकिपरामर्शयोः को भेददत्यत भाद, ‘एवमिति, 'यत्रानुमितिः' यस्मिन् परामर्श सत्यमुमितिरित्याहुः।
'यतिरेकव्याप्युपन्यासस्येति उदाहरणवाक्येन व्यतिरेकव्याप्यपन्यासस्येत्यर्थः, 'अन्वयव्याप्यनुकूलतयेति अन्वयव्याप्तिसाधकहेतुतयेत्यर्थः, 'अप्राप्तकालत्वमिति, माध्योपन्यामानन्तरमेव हेतूपन्यासस्य कथकसम्प्रदायसिद्धत्वात्। न चान्वयव्याप्तिरेव प्रथममुपन्यमनौया तच कथन्तायां तत्साधनाय व्यतिरेकव्याप्तिरुद्भाव्येति वाच्यं । कथकसंप्रदायविरोधादिति भावः । 'निरुपाधौति हेत्वभावे नियतमाध्यव्यतिरकसहचारज्ञानेनान्वयव्याप्तिघटकतावत्पदार्थविषयकेणेत्यर्थः,
(१) केवलान्धयिन्यसम्भवायथा व्यतिरेकव्याप्तिहानं न कारणं तथा
साध्यवदन्यारत्तित्वज्ञानमपौतौतिक।
Page #597
--------------------------------------------------------------------------
________________
५६२
तत्त्वचिन्तामो
नियामकत्वात् अन्षय-व्यतिरेकिवत् । मन्येवं व्याप्तिग्रह एव पृथिवीतरभिन्नेति भासितं नियतसामानाधि
नियतसाध्यव्यतिरेकसहचारः साध्याभावव्यापकत्वे मति साध्याभावसहचारः, 'अन्वयव्याप्तिरेव ग्रहयते' इति, 'अन्वयव्याप्तिः' हेतव्यापकसाध्यसमानाधिकरणवृत्तिहेतुतावच्छेदकवत्त्वरूपा व्याप्तिः, 'रयते' व्यतिरेक्यनुमितिकरणज्ञानेन विशेष्ये विशेषणमिति रौत्या विषयौक्रियते, तथाच व्यतिरेकसहचारज्ञानजन्यतादृशव्याप्तिज्ञानमेवानुमितौ करणमित्यर्थः, उदाहरणेन च नियतव्यतिरेकसहचार एव प्रदर्श्यते इति नार्थान्तरत्वं व्यतिरेकव्याप्तिज्ञानानन्तरञ्चाग्रहीतासंसर्गक खण्डशः पक्ष-साध्ययोनिमात्रमिति भावः । अथाभावयोः सहचारज्ञानात् कथं प्रतियोगिनोर्व्याप्तिग्रहः एकनिष्ठ सहचारज्ञानेनान्यनिष्ठव्याप्तिज्ञानजननेऽतिप्रसङ्गादित्यत आह, 'प्रतियोग्येति तत्तविच्छिन्नाभावत्वेन तत्तद्धविछिन्नाभावयोः सहचारज्ञानस्य तत्तदुर्मरूपेण तत्तद्धर्माश्रययोर्व्याप्तिग्रहं प्रत्येव जनकत्वान्नातिप्रसङ्ग इत्यर्थः, 'अन्वय-व्यतिरेकिवदिति अन्वययोः प्रतियोगितावच्छेदकरूपेण प्रतियोगिनोः सहचारज्ञानस्य तड्यतिरेकवरूपेण तद्व्यतिरेकयोाप्तिग्रहं प्रत्येव जनकत्ववदित्यर्थः, एतच्चापाततः नियमांशज्ञानस्य व्याप्तिघटकौभूततावत्पदार्थापस्थितिविधया व्याप्तिग्रहहेतुत्वेऽपि व्यतिरेकसहचारज्ञानस्य नद्धेतत्वे मानाभावादिति ध्येयं । 'नन्वेवमिति, ‘एवं' अन्वयव्याप्तिज्ञानस्य हेतुत्वे, 'पृथिवीतरभिन्नेतौति पचतावच्छेदकीभूते पृथिवौवे माध्यस्येतरभेदस्य मामानाधिकरण्यं भामितमित्यर्थः,
Page #598
--------------------------------------------------------------------------
________________
केवलयतिरेक्चनुमार्ग। करण्यरूपत्वाड्यानेरिति, सत्यं, गन्धवत्वावच्छेदेनेतरभेदस्य साध्यत्वात्। अतरवाचार्यः पक्षतावच्छेदकस्य न हेतुत्वमनुमेने पृथिवीत्वमितरभेदव्याप्यमितिप्रतीतावपि सर्वा पृथिवौतरभिन्नेति पृथिवौविशेष्यकबुद्धव्यतिरेकिसाध्यत्वाच्च । यद्दा व्यतिरेकव्याप्तेरेवान्वयेन गम्य-गमकभावः, साध्याभावव्यापकसाधनाभावाभा
पृथिवौत्वस्यैव हेतुत्वात्, तथाच सिद्धसाधनं अनुमित्यापि पचतावछेदक-साध्ययोः मान गधिकरण्यस्यैव विषयौकरणादित्यभिमानः । अभिमानमभ्युपेत्यैव समाधत्ते, गन्धवत्त्वेति गन्धवत्त्वं पक्षतावच्छेदकोकरणौयमित्यर्थः, हेतुश्च पृथिवौत्वमिति भावः । 'अत एवेति यतगव व्यतिरेकिणि अन्वयव्याप्तिज्ञानस्य हेतुतया पक्षतावच्छेदकस्य हेतुत्वे सिद्धसाधनमत एवेत्यर्थः, 'पक्षतावच्छेदकस्येति, पृथिवीतरेभ्यो भिद्यते इत्यादाविति शेषः, किन्तु गन्धवत्त्वादेरेव हेतुत्वमति भावः ।
केचित्तु प्रकारान्तरेण व्याप्तिज्ञाने पक्षतावच्छेदक-माध्ययोः मामानाधिकरण्यभानं निराकरोति, 'अत एवेति एतदर्थमेवेत्यर्थः, पृथिव्यामितरभेदे साध्ये इति शेषः, 'पक्षतावच्छेदकस्य' पक्षवाचकपृथिवीपदशक्यतावच्छेदकस्य पृथिवीत्वस्येति यावत्, 'न हेतुत्वमिति, किन्तु गन्धवत्त्वस्यैव हेतुत्वमिति शेषः, तथाच पृथिवौत्वमेव पक्षतावच्छेदकीकरणीयं हेतश्च गन्धवत्त्वमिति भाव इति प्राः।
Page #599
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८४
चिन्तामय
बेन साधनेन साध्याभावाभावस्य साध्यस्य साधनात् व्यापकाभावेन व्याप्याभावस्यावश्यम्भावात् । नन्वेवं १) न सानुमितिः कृप्तहेतुलिङ्गपरामर्शाभावादन्यथाननुगम इति चेत् । न । अनुमितिमात्रे व्याप्तिज्ञानस्य प्रयेाजकत्वात् । न चैवमतिप्रसङ्गः, अनुमितिसामान्य
श्रभिमानं निराकृत्य समाधत्ते, 'पृथिवीत्वमिति, 'इतरभेद - व्याप्यं पृथिवौत्वव्यापकेतर भेदसमानाधिकरणं, 'पृथिवीविशेष्यकेति पृथिवौत्वव्यापकत्वविशिष्टविशेषणतासंसर्गक-पृथिवीत्वावच्छिन्नविशेव्यकेतरभेदप्रकारकबुद्धेरित्यर्थः, 'व्यतिरेकि साध्यत्वादिति व्यतिरेकसहचारज्ञानजन्यव्याप्तिज्ञानेन जननसम्भवाच्चेत्यर्थः, समानाकारसिद्धेरेव प्रतिबन्धकत्वात् तथाच पृथिवीत्वस्यैव पचतावच्छेदकत्व - हेतुत्वोभयवत्त्वेऽपि न चतिरिति भावः । ननु निरुतान्वयव्याप्तिज्ञानस्यैव व्यतिरेक्यनुमितिहेतुले 'केवलव्यतिरेको वपचः' इति प्रागुक्रलक्षणमसम्भवि व्याप्तिग्रहस्यैव साध्यान्वयग्रहरूपत्वादित्यस्वरसादाह, 'यद्धेति, ‘व्यतिरेकव्याप्तेरेवेति व्यतिरेकसहचारज्ञानजन्यव्यतिरेकव्याप्तिज्ञानस्यैवेत्यर्थः, 'अन्वयेनेति श्रन्वयेन साध्येन सह गम्य-गमकभावः व्यतिरेक्यनुमितिं प्रति जनकत्वमिति यावत्, कुत्रचित् 'अन्वये गम्य-गमकभावः' इति पाठः, तत्र 'व्यतिरेकव्याप्तेरेवेति पञ्चमी, व्यतिरेक सहचारज्ञानजन्यव्यतिरेकव्याप्तिज्ञान
. (१) यथैवमिति क०, ख०, ग० ।
+
Page #600
--------------------------------------------------------------------------
________________
केवणव्यतिरेक्यनुमान। सामग्र सत्यामप्यनुमितिविशेषसामग्रौविरवादनमित्यनुत्पत्तेः विशेषसामग्रीसापेक्षाया एव सामान्यसामग्रमा जनकत्वात् अन्वयि-व्यतिरेकिविशेषडयसामग्री च नास्येव ।
सहचारादित्यर्थः, 'अन्वये' माध्य-हेत, तत्र गम्य-गमकभाव इत्यथोऽनुसन्धेयः।
केचित्तु ननु केवलव्यतिरेकिथपि अन्वयव्याप्तिवानस्यैव हेतुत्वे पृथिवौतरेभ्यो भिद्यते इत्याचप्रसिद्धमायककेवलव्यतिरेक्यनुमितिन स्यात् माध्यस्याप्रमिया व्यापकसामानाधिकरण्यरूपान्वयव्याप्तिज्ञानस्थासम्भवात् तत्र । न च पृथिवीतरावृत्तित्वात्मकान्वयव्याप्तिज्ञानादेव तत्रानुमितिरिति वाच्यम् । केवलान्वयित्वग्रहदशायामसम्भवेन तज्ज्ञानस्थानुमित्यहेतुत्वादित्यत आह, 'यद्देति, न च माध्याप्रसिद्ध्या यतिरेकव्याप्तिज्ञानस्याप्यसम्भव इति वाच्यम् । अनुपदं स्वयमेवोपपादयिष्यमाणत्वात् इति व्याचक्रुः ।
खरूपयोग्यवे फलोपधायकत्वं मानमाइ, 'साध्याभावेति माध्याभावव्यापकसाधनाभावाभावस्य साधनस्य ज्ञानेनेत्यर्थः, 'साधनात्' अनुमितिजननात् । नन्वनुमित्युपधायकत्वमेव तत्रामिद्धमित्यतपार, 'व्यापकाभाव इति साध्याभावव्यापकस्य साधनाभावस्य प्रभावे माधने निश्चित इत्यर्थः, 'व्याप्याभावेति व्याप्याभावस्य माध्यस्यानुमितेरनुभवसिद्धबादित्यर्थः । नन्वेवमिति, ‘एवं' व्यतिरेकव्याप्तिपरामस्यैव तत्र हेतुत्वे, 'म मानुमितिरिति, स्यादिति शेषः, 'लिङ्ग
Page #601
--------------------------------------------------------------------------
________________
सत्वचिन्तामणौ
ननु पृथिवी इतरेभ्यो भिद्यते पृथिवीत्वादिति व्यतिरेकिणि साध्यमसिद्ध तथाच न व्यतिरेकिनिरू- .
परामर्शति अन्वयव्याप्तिप्रकारकपक्षधर्मताज्ञानेत्यर्थः । नन्वन्वयव्याप्तिपरामर्शवयतिरेकव्याप्तिपरामशीनन्तरमप्यनुमितेरनुमिनोमौत्यनुव्यवसायसिद्धतया व्यतिरेकव्याप्तिपरामोऽपि तद्धेतरित्यत आह, 'अन्यथेति उभयपरामर्मस्यैवानुमितिलावच्छिन्नं प्रति हेतुत्व इत्यर्थः, 'अननुगमः' परस्परं व्यभिचारः। अनुमितिमात्र इति अनुमितिलावच्छिन्ने इत्यर्थः, 'व्याप्तिज्ञानस्य' अन्वय-व्यतिरेकान्यतरव्याप्तिज्ञानस्य, 'प्रयोजकलादिति प्रतियोगिलादिज्ञानत्वेन ज्ञानत्वेन वा प्रयोजकवादित्यर्थः । 'अतिप्रसङ्ग इति पक्षधर्मताज्ञानं विनापि प्रतियोगिबादिज्ञानमात्रात् अनुमितिप्रसङ्ग इत्यर्थः, 'अनुमितिविशेषेति अन्वय-व्यतिरेकपरामर्शरूपानुमितिविशेषसामग्रीत्यर्थः, तत्कार्यतावच्छेदके अन्वय्यनुमितित्वे व्यतिरेक्यनुमितिवे च परस्परव्यावृत्तानुमितित्वव्याप्यजाती तादृशपरामर्शाव्यवहितोत्तरानुमितिले वेति भावः। ननु तथापि सामान्यसामग्रोमर्यादया सामान्यका-पत्तिदुंवारैवेत्यत आह, 'विशेषेति, 'अन्वयौति अन्वय्यनुमिति-व्यतिरेक्यनुमितिरूपविशेषदयेत्यर्थः, 'नास्येवेति, अतिप्रसङ्ग स्थल इति भेषः(१)।
(१) दौषितिकृत् नास्त्येवेत्यन्तं के वजव्यतिरेकिमूलं व्याख्याय अवयवादि.
हेत्वाभासान्तं मूलं व्याख्यानवानिति ।
Page #602
--------------------------------------------------------------------------
________________
केवध्यतिरेक्यनुमान । પહ૦ पणं, न वा पक्षत्वं, न वा लिङ्गजन्यसाध्यविशिष्टतज्ज्ञानं तेषां साध्यज्ञानजन्यत्वात् । अथ साध्यं प्रसिद्धं तदा यत्र प्रसिद्धं तच हेतोरवगमेऽन्वयित्वं अनवगमे असा"धारण्यम्। किञ्च इतरभेदा न स्वरूपं अधिकरण-प्रतियोगिनाः पृथिवी-जलाधोरनुमानात् प्रागेव सिद्धेः । नापि वैधमा जलादिनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वं,
'नन्विति, 'साध्यं' साध्यतावच्छेदकविशिष्टसाध्यं, 'न वा पक्षत्वमिति तस्य साध्यसन्देहरूपत्वात् साध्यसिषाधयिषाघटितत्वाद्धेति भावः। 'माध्यविशिष्टतज्ज्ञानमिति साध्यतावच्छेदकावच्छिन्नविशिष्टतज्ज्ञानमित्यर्थः, 'साध्यज्ञानेति माध्यतावच्छेदकप्रकारकसाध्यज्ञानेत्यर्थः। न च प्रतियोगितावच्छेदकप्रकारकप्रतियोगिज्ञानस्याभावधीहेतुतया माध्यतावच्छेदकविशिष्टसाध्यामिद्धिं विना व्यतिरेकज्ञानासम्भवेऽपौतरभेदस्य च खण्डशः प्रसिद्धिसत्त्वेन विशेथे विशेषणमिति
रौत्या माध्यतावच्छेदकप्रकारकसाध्यविशिष्टज्ञानसम्भवदति वाच्यम्। माध्यतावच्छेद करूपेण साध्यज्ञानं विना तेन रूपेण माध्यप्रकारकामुमितिर्न जायत इति सर्वानुभवसिद्धत्वात्। अत एव माध्यतावच्छेदकरूपेण माध्यप्रकारकानुमितेविशिष्टनिरूपितवैशिध्यविषयताशालितानियम इति सिद्धान्त इति भावः। 'अन्वयित्वमिति अन्वयसहचारज्ञानादेव व्याप्तिज्ञानमित्यर्थः, किं गुरुतरव्यतिरेकसहचारज्ञानस्य हेतुत्वेनेति भावः । ददमुपलक्षणं प्रागुक्तव्यतिरेकलक्षणस्याप्यसम्भव इत्यपि बोध्यं । ननु अनवगमेऽपि वस्तुगत्या नासाधारण्यं
Page #603
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामणौ
तहि पृथिवौत्वादिकं तच सिद्धमेव । न च जलादिनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वेन पृथिवीत्वं न सिबमिति वाच्यं । जलादा पृथिवीत्वात्यन्ताभावग्रहदशयां पृथिवौत्वेऽपि तत्पतियोगित्वग्रहात्। अन्योन्याभावस्तु भेदायद्यपि साध्यं सम्भवति वैधर्मज्ञानसाध्यत्वादन्योन्याभावग्रहस्य, तथापि जलादिप्रतियोगिकान्योन्याभावस्याप्रसिद्धिः । न च अलादिप्रत्येकान्योन्या
किन्तु तद्ग्रह एवेत्यस्वरमादाह, 'किञ्चेति, 'स्वरूप' अधिकरणप्रतियोगिनोः स्वरूपं, 'प्रागेव सिद्धेरिति। इदमापाततः स्वरूपसिद्धावपि इतरभेदत्वेन पृथिव्यां तदसिद्धेः, वस्तुतोऽनुगतधौबलात् अन्योन्याभावस्थातिरिक्तस्यावश्यकत्वे तत एव प्रतीति-व्यवहारयोरुपपत्तेश्च स्वरूपस्याभेदत्वकल्पने गौरवान्मानाभावाचेत्येव तत्त्वं, 'वैधय॑मित्यस्यैव विवरणं 'जनादौति, 'तद्वौति तादृशप्रतियोगित्वं होत्यर्थः, प्रतियोगित्वस्य प्रतियोगिरूपत्वादिति भावः । 'जखादाविति, व्यतिरेकव्याप्तिग्रहार्थं तस्यावश्यकत्वादिति भावः । ननु अन्योन्याभावरूपो भेदः माध्य इत्यत आह, 'अन्योन्याभावस्तिति, 'वैधम्येति, प्रचते च पृथिवौत्वमेव वैधय॑मिति भावः । तथापौति जहादिप्रतियोगिकपृथिवीतरत्वावच्छिनप्रतियोगिताकसामान्यान्योन्याभावस्थाप्रमिद्धिरित्यर्थः । 'जलादिप्रत्येकेति जलवाद्यवछिनपतियोगिकेत्यर्थः, 'असाधारण्येति बनभेदवत्तया निषिते वावादौ
Page #604
--------------------------------------------------------------------------
________________
केवणतिरेक्शनुमान।
५६९ . भावः साध्या, असाधारण्यप्रसङ्गात् । अव पृथिवी तेनाभिन्ना न वेति संशयेन तेजाभिन्नत्वावगते पृथिवी तेजोभिन्ना सती जलादिद्वादशभिन्ना न वेति संशये तेजोभिन्नत्वे सति जलादिहादशभिन्नत्वं प्रसिद्धं तदेव साध्यम् एकविशेषणविशिष्टे विशेषणान्तरबुवेरेव विशिष्टवैशिष्ट्याजानत्वात्, एवञ्च संशयप्रसिद्धं साध्यमादाय व्यतिरेकादिनिरूपणम्। यद्दा पृथिवी
पृथिवौत्वस्यावर्त्तमानत्वादिति भावः । कच्चि प्रतिप्रसङ्गादिति पाठः तत्र वाय्वादावतिप्रमकवादित्यर्थः, तथाचामाधार समिति भावः । 'तेजोभिन्ना न वेति तेजोभिन्नत्वच जलादौ प्रसिद्धमिति भावः । 'तेजोभिवत्वेऽवगते' तेजोभिन्नत्वप्रकारेण पृथिव्यामवगतायामित्यर्थः, एतेनाग्रिमसंभयोपयुक्रधर्मितावच्छेदकविशिष्टधर्मिज्ञानं सम्पादितं । 'पृथिवी तेजोभिनेति तेजोभित्रा पृथिवौ जलादिदादाभेदवती न वेत्यर्थः, अत्र द्वादश भेदाः कोटयः, 'जलादिभिन्नत्वमिति जलादिद्वादशभिन्नत्वमित्यर्थः(१)। ननु तेजोभिन्नत्वविशिष्टजलादि. द्वादशभिन्नत्वं कथमुक्तसंशयेन प्रसिद्धं तेन विश्टङ्खलस्य तेजोभित्रत्वस्य जलादिद्वादशभिन्नत्वस्य चावगाहनेऽपि विशिष्टस्य पूर्वमप्रसिद्धेरित्यत श्राइ, 'एकेति, तथाचोकसंशयस्थापि विशिष्टवैशिष्यज्ञान
(१) 'जनादिहादशभिन्नत्वं' इत्यत्र 'जलादिभिन्नत्वं' इति कस्यचिन्मूल
पुस्तकस्य पाठमनुसृत्य ईदृशव्याख्यानं रहस्यकतेति सम्भाव्यते ।
Page #605
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्वचिन्तामणौ जलभिन्ना न वेत्यादि प्रत्येकं वयोदशसंशयविषयाणं चयोदशान्योन्याभावानां समुदायः पृथिव्यामवगतो व्यतिरेकादिनिरूपकः । न चैवं पृथिव्यामेव साध्यप्रसिडेय॑तिरेकिवैयर्थं, साध्यनिश्चयार्थ' व्यतिरेकिप्रवृत्तेः । न चासाधारण्यं, समुदितान्योन्याभावानां
रूपतया विशेष्यतावच्छेदकीभूतं तेजोभिन्नत्वं सामानाधिकरण्यममर्गण विधेये जलादिद्दादशभिन्नत्वे प्रकारोभूय भासते विशिष्टवैशिष्यबोधे विशेष्यतावच्छेदकस्य मामानाधिकरण्यसंसर्गण विधेये प्रकारत्वनियमादिति भावः । 'व्यतिरेकादौति, 'श्रादिना पक्षे माध्यतावच्छेदकावच्छिन्नसाध्यवैशिष्टस्य परिग्रहः, तदिदं तेजोभिन्नत्वविशिष्टजलादिद्वादशभेदाः साध्या इत्यभिप्रेत्योक्तं । तेजोभिन्नत्वविशिष्टजलभेदः तदिशिष्टो वायुभेद इति क्रमेण परस्परविशिष्टभेदः माध्यइत्यभिप्रेत्याह, 'यद्वेति, 'पृथिवी जलभिन्ना न वेत्यादौति(१) श्रादौ पृथिवी जलभिन्ना न वेति संशयः, ततो जलभिन्ना पृथिवौ तेजोभिन्ना न वेति संशयेन जलभिन्नत्वविशिष्टतेजोभिन्नत्वे प्रमिद्धे जलभिन्नत्वविशिष्टतेजोभेदवतौ पृथिवी वायुभेदवती न वेति संशयइति क्रमेण त्रयोदशसंशयविषयेत्यर्थः, 'समुदाय इति, 'समुदायः'
(१) चमत्संहोतेषु त्रिषु मूलपुस्तकेध पुस्तकद्दये 'पृथिवी जलभिन्ना'
इत्यत्र 'एथिवी इतर भिन्ना' इति पाठोवर्त्तते परन्त्वयं मथुरानाथ• घनमूलपाठविरुद्धत्वात् न समोधोनः ।
Page #606
--------------------------------------------------------------------------
________________
केवस्तव्यविरेक्यनुमानं ।
६०१
साध्यत्वे सपक्षाभावादिति चेत् । न । साध्यनिश्रये हि साध्यव्यतिरेकनिश्चयोभवत्येव साध्यसन्देहे तयतिरेकसंशयस्य वज्जलेपत्वात् तथाच संशयरूपा - साध्यसिद्धिरिति शिष्यबन्धनम् । एतेन पृथिवी जलादिभ्योभिनेति विप्रतिपत्तिरूपवादिवाक्यादाकाङ्क्षादिमतेोऽ
ऐकाधिकरण्यं, ऐकाधिकरण्य विशिष्टत्रयोदशान्योन्याभावा इत्यन्वयः, 'पृथिव्यामवगत इति पृथिव्यां प्रसिद्धाः सन्तो व्यतिरेकादिनिरूपका इत्यर्थः । 'साध्यनिश्वयार्थमिति, पृथिव्यां साध्यप्रसिद्धेः संशयरूपत्वादिति भाव: । 'समुदितेति ऐकाधिकर ण्यावच्छिन्नेत्यर्थः, 'तद्व्यतिरेकसंशयस्येति, तथाच जलादावपि साध्यव्यतिरेकसन्देहात् कथं तत्र व्यतिरेकव्याप्तिनिश्चयः स्यादिति भावः । इदमापाततः पृथिव्यां साध्यसन्देहसत्त्वेन तत्र व्यतिरेक निश्चयासम्भवेऽपि जलादौ तद्व्यतिरेकनिश्चये बाधकाभावात् न ह्येकत्र सन्देहे सर्वत्र सन्देहः, पृथिव्यां रूपादिसन्देहेऽपि वायैौ तदभावनिश्चयस्यानुभविकत्वात् जले जलभेदाभावग्रहसत्त्वेन विशेषदर्शनसत्त्वाच्च एकदेश विरहनिश्चयस्यापि समुदायसंशयविरोधित्वात् । न च प्रतियोगिमत्तानिश्चयस्याभावनिश्चयहेतुत्वात् कथं जले तयतिरेकनिश्चय इति वाच्यम् । तादृशकार्य्य-कारणभावान्तरे मानाभावात् लाघवेन प्रतियोगितावच्छेदकनिश्चयमात्रस्याभावप्रत्यचहेतुत्वात् । श्रथ जलादौ साध्याभावनिश्चयः कथं स्यात् मनोभेदस्यापि प्रविष्टत्वेनायोग्यतया प्रत्यचासम्भवात् ।
76
Page #607
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्वचिन्तामणी
पूर्वार्थप्रतिपादकात् साध्यप्रसिद्धिरिति परास्तम्। वाक्यादेव पृथिव्यां साध्यसिद्देतिरेकिवैयर्थात्। न च तबुद्धौ वादिवाक्यजन्यत्वेनाप्रामाण्यसंशयात् निश्चयेऽपि संशय इति तन्निश्चयार्थं व्यतिरेकीति वाच्यं ।
न च जलं तेजोभिन्नत्वविशिष्टजलादिद्दादशभेदाभाववत् जलभेदाभाववत्त्वादित्यनुमानात् तत्मिद्धिरिति वाच्यम् । एतस्यापि व्यतिरेकरूपत्वेन तादृशदादशभेदाभावाभावस्य क्वाप्यनिश्चितत्वेन व्यति. रेकव्याप्तिनिश्चयासम्भवादिति चेत् । न । साध्याभावोपस्थितिजलेन्द्रियमन्त्रिकर्षयोः सत्त्वेनोपनौतनिश्चये बाधकाभावादिति । वस्तुतस्तु पृथिवी तेजोभिन्ना न वेति संशयानन्तरं तेजोभिन्ना पृथिवी जलादिद्वादशभिन्ना न वेति संशयो हि तेजोभिन्नत्वांभे संशयाकार एव भविष्यति संशयसामग्रीसत्त्वात् तथाचापसिद्धान्तः धर्मितावच्छेदकांश संशयाकारसंशयस्यास्माभिरनकौकारात् । अतएव धर्मिणि धर्मितावच्छेदकप्रकारकनिश्चयो गुरुरपि प्राचीन: संशये हेतुरुच्यते।
किञ्च विशिष्टवैशिष्यबोधे विशेष्यतावच्छेदकं मामानाधिकरण्यसंसर्गण विधेये प्रकारोभूय भासते इत्यत्र मानाभावः। किन्तु विशेष्यतावच्छेदकविशिष्टे विधेयवैशिष्यमाचं तद्विषयः तथाच कथमुक्रसंशयेन माध्यतावच्छेदकप्रकारेण विशिष्टमाध्यामिद्धिरित्येव दूषणं सारं । 'एतेनेति, 'जलादिभ्योभिन्नेतौति, 'विप्रतिपत्तिरूपेति
Page #608
--------------------------------------------------------------------------
________________
केवलयतिरेक्यनुमान। तर्हि संशयप्रसिङ्घ साध्यं तस्य च न व्यतिरेकनिश्चायकत्वमित्युक्तत्वात् स्वार्थानुमाने तदभावाच ।
इति श्रीगङ्गशोपाध्यायविरचिते तत्त्वचिन्तामणौ अनुमानास्यहितीयखण्डे केवलव्यतिरेक्यनुमानपूर्वपक्षः।
प्रतिवाद्यभिमतसाध्यविरोधिकोटिप्रतिपादकेत्यर्थः, 'वादिवाक्यादिति वाद्युक्तप्रतिज्ञावाक्यादित्यर्थः, 'अपूर्वार्थप्रतिपादकादिति पूर्वाप्रतीतस्थापि विभिष्टार्थस्य विभिध्ये विशेषणमिति रौत्या प्रतिपादकादित्यर्थः, 'व्यतिरेकिवैयदिति व्यतिरेकिणो व्यतिरेकसहचारज्ञानअन्यव्याप्तिज्ञानस्य तत्रानुमितिजनकत्वाभ्युपगमवैयादित्यर्थः, 'संशयः' तदुत्तरं संशयः स्थादित्यर्थः, 'तनिश्चयार्थ' अग्टहीताप्रनाण्यकतन्निश्चयार्थ, 'व्यतिरेको' व्यतिरेकिणो यथोक्तव्याप्तिज्ञानस्य तचानुमितिजनकत्वाभ्युपगमः । 'संशयप्रसिद्धमिति अप्रामाण्यमंशयाक्रान्तनिश्चयविषयीभूतमित्यर्थः, 'तस्य च' तादृशनिश्चयस्य च, 'उक्तत्वात्' सकलप्रामाणिकैरुतत्वात्, 'तदभावाच्चेति वादिवाक्यात् माध्यप्रसि द्वेरसम्भवाच्चेत्यर्थः,।
इति श्रीमथुरानाथतर्कवागीश-विरचिते तत्त्वचिन्तामणिरहस्ये अनुमानाख्यद्वितीयखण्डरहस्ये केवलव्यतिरेक्यनुमानपूर्वपक्षरहस्यं ।
Page #609
--------------------------------------------------------------------------
________________
अथ केवलव्यतिरेक्यनुमानसिद्धान्तः ।
-deos उच्यते घटादावेवेतरसकलभेदस्य प्रत्यक्षतः प्रसिद्धिः घटो न जलादिरितिप्रतीतेः। नन्वयमन्योन्याभावो न
अथ केवलव्यतिरेक्यनुमानसिद्धान्तरहस्यं । 'इतरसकलभेदस्येति पृथिवीतरत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकभेदस्येत्यर्थः, 'न जलादिरिति न पृथिवीतर इत्यर्थः। यद्यपि पृथिवीतरत्वस्य पृथिवीमामान्यभेदरूपस्य भेदविशेषणतया अतीन्द्रियपृथिवौघटितत्वात्तदवच्छिन्नान्योन्याभावोघटादौ कथं लौकिकप्रत्यक्षगम्यः अन्यथा गुरुतरघटान्योन्याभावोऽपि लौकिकप्रत्यक्षगम्यः स्यात्(१) । तथापि खावच्छिनप्रतियोगिताकत्वसम्बन्धेन पृथिवौत्ववद एव पृथिवीतरत्वं तत्र च पृथिव्या न प्रवेश इति भावः। इदमुपलक्षणं पृथिवीतरत्वरूपेण पृथिवौतरस्य भेदत्वरूपेण भेदस्य च खण्डशः प्रसिद्धत्वेन विशेष्ये विशेषणमिति न्यायेन पृथिवीतरभेद इति निरधिकरणकसिद्धिसम्भव इत्यपि बोध्यं । अयोग्यधर्मानवच्छिन्नयोग्यमात्रवृत्तिप्रतियोगिताकत्वमभावप्रत्यक्ष तन्त्रमिति प्रागैनमते
(१) तथाच यथा गुरुतरघटान्योन्याभावस्य अतीन्द्रियगुरुत्त्वघटितत्वेन
न प्रत्यक्ष तथा एथिवीतरभेदस्थापि अतीन्द्रियथिवीघटितत्वेन न नप्रत्यक्षमित्याशयः।
Page #610
--------------------------------------------------------------------------
________________
केवलस्थ्यतिरेकानुमानं ।
(૫
प्रत्यक्षः अतीन्द्रियप्रतियोगि काभावत्वात् परमाणु संसगीभाववत् येोग्यानुपलब्धेरभावग्राहकत्वात् नयने - शङ्कते, 'नन्विति, 'अतीन्द्रियप्रतियोगिका भावत्वादिति श्रतीन्द्रियप्रतियोगिकत्वेन पृथिवीतरत्वस्यापि श्रतीन्द्रियतया श्रतीन्द्रियधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्वाच्चेत्यपि द्रष्टव्यं, 'परमाणु संसर्गीभाववदिति, परमान्वन्योन्याभाववच्चेत्यपि बोध्यं । ननु परमाणु संसर्गःभावादेरपि घटादौ न कथं लौकिकाध्यक्षगम्यत्वं तत्र तदधिकरणविशेष्यक-प्रतियोगितावच्छेदकसम्बन्धसंसर्गक-प्रतियोगितावच्छेदका - वच्छिन्नप्रतियोगिमत्त्वोपलम्भसामान्याभावस्यैव तत्तदधिकरणेऽभावग्राहकत्वात्तस्य च तत्रापि सम्भवादित्यत श्राह 'योग्यानुपलब्धेरिति तत्तदिन्द्रिययोग्यतासहिताया एव निरुतानुपलब्धेस्तत्तदिन्द्रियजाभावलौकिकप्रत्यचजनकत्वादित्यर्थः, तत्तदिन्द्रिययोग्यधर्मावच्छिन्नतत्तदिन्द्रिययोग्यमात्रवृत्तिप्रतियोगिताकाभावत्वमेव चाभावस्य ततदिन्द्रिययोग्यत्वं तच्च विषयनिष्ठतया प्रभावत्वावच्छिन्नलौकिकविषयतासम्बन्धेन चाचुषादिरूपतत्तदिन्द्रियजाभावप्रत्यचोत्पत्तौ हेतुः परमानुसंसर्गाभावादेः प्रत्यक्षानुत्पत्त्या तथैव कल्पनात् । गुरुतरत्वविशिष्टघटत्वाद्यवच्छिन्नप्रतियोगिताकगुरुतर घटाभावादेः चाचुषादिलौकिकसाक्षात्कारवारणाय श्रवच्छिन्नान्तं प्रतियोगिताविशेघणं, घटत्वत्व - पटत्वत्वादेः प्रतियोगितावच्छेदकधर्मस्यातीन्द्रियतया (१)
(१) घटत्वत्वं घटेतरावृत्तित्वे सति सकलघटवृत्तित्वं तस्य च घटेतरा - न्तर्गतपरमान्वाकाशादिरूपातीन्द्रियघटिततया यतीन्द्रियत्वमिति
तात्पर्यं ।
Page #611
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्व चिन्तामणौ
मौलनानन्तरं स्तम्भः पिशाचेो न भवतौति प्रतीतेबधकबलेन वायुर्व्वीतौति वल्लिङ्गग्रहे । पक्षौणत्वादिति चेत् । न । ये । ह्यनुपलम्भोऽधिकरणे प्रतियोगिमत्त्व -
६०६
गुरुतरघटाभावादिवत्तादृशधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकजात्यभावमाचस्यैवाप्रत्यक्षत्वं सर्वसिद्धमेव दीधितिकृतापि पदार्थखण्डने तथा लिखनात् श्रन्यथा सिद्धान्तेऽप्यगतेः किन्तु (१) घटत्व-पटत्वादिजातीनां तत्तद्व्यक्तित्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभाव एव लौकिकप्रत्यचगम्यः जात्यभावप्रत्यचत्वप्रतिपादकः प्राचां ग्रन्थोऽपि तादृशजात्यभावपर : (९) इत्यतो न तद्विरोधोऽपि (९) । जातिनिष्ठतत्तद्व्यक्तित्वञ्च (४) तादात्म्य सम्बन्धेन तत्तज्जातिरेवेति तद्योग्यमेव । तत्तद्गन्ध-तत्तद्रवत्त्वाद्यव च्छिन्नप्रतियोगिताक-तत्तद्द्रव्यव्यक्त्यभावस्य प्राणज - रामनादिसाचात्कारवारणाय वायौ रूपमामान्याभावस्य चाचुषसाक्षात्कारवारणाय ५)
(१) नन्वतीन्द्रियधमवच्छिन्न प्रतियोगिताका भावस्यातीन्द्रियत्वे घटत्वं नास्ति इत्यादि प्रत्यक्षप्रतीतेः का गतिरित्यत याह, किन्विति । (२) तत्तद्यक्तित्वावच्छिन्न घटत्वादिजात्यभावाभिप्रेत इत्यर्थः । (३) न प्राचीन ग्रन्थ विरोधोऽपीत्यर्थः ।
(8) ननु घटत्वगततद्दक्तित्वं तत्तादात्म्य विशिष्टघटत्वत्वं यतस्तदोषतादव - स्थमित्यत या, जातिनिष्ठेति ।
(५) बनुद्भूतरूपस्य चक्षुर्योग्यत्वाभावात् रूपसामान्याभावस्य न चच्क्षु'योग्य मात्रवृत्ति प्रतियोगिताकत्वमिति तात्पर्यं ।
Page #612
--------------------------------------------------------------------------
________________
६०७
केवलव्यतिरेक्यनुमान। विरोधी सेोऽभावं ग्राहयति न तु योग्यातुपलब्धिमाचम् अध्यथा वाया रूपाभावप्रतीतिवत् जलपरमाणे
च वृत्त्यन्तं प्रतियोगिताविशेषणं, तत्तगन्धवत्त्व-तत्तद्रसवत्त्वाधवच्छिनप्रतियोगिताकतत्तद्र्व्यव्यक्त्यभावस्य चाक्षुषतावारणाय प्रथमं तत्तत्पदं, द्वितीयतत्तत्पदञ्च तादृशस्यैवाभावस्य प्राणज-रामनादिप्रत्यक्षतापत्तितादवस्यवारणायेति भावः । नन्वेवं नयनोन्मौलनानन्तरं स्तम्भः पिशाचो न भवतीति प्रत्ययोन स्यादित्यत आह, 'नयनेति, 'लिङ्गग्रहोपक्षौणत्वादिति लिङ्गग्रहजन्यत्वादित्यर्थः, नयनोन्मौलनानुविधानन्तु लिङ्गग्रहार्थमिति भावः । निरुतयोग्यत्वस्थ व्यतिरेकव्यभिचारान कारणत्वसम्भव इत्याह, 'योह्यनुपलम्भ इति, 'हि' यस्मात्, 'य' देशः, 'अनुपलम्भः' प्रतियोगितावच्छेदकसम्बन्धसंसर्गक-प्रतियोगितावच्छेदकावच्छिन्नप्रतियोगिमत्तानिश्चयाभावविभिष्टः, न विद्यते उपलम्भोयत्र इति व्युत्पत्तः, 'अधिकरण इति निर्धारणे सप्तमी, तथाचाधिकरणेषु मध्ये निरुक्तनिश्चयाभावविशिष्टो योदेश: 'प्रतियोगिमत्त्वविरोधी' प्रतियोगितावच्छेदकसम्बन्धसंसर्गकाधिकरणत्वसम्बन्धेन प्रतियोगितावच्छेदकावच्छिन्नप्रतियोगिमत्तया आपादितसाक्षात्कारकः, 'मः' देशः, 'अभावं ग्राहयति' अतीन्द्रियप्रतियोगिकस्याप्यभावस्य लौकिकसाक्षात्कारविषयो भवति, यथा योग्य व्यवृत्तिगुण-कर्म-सामान्यादिकं रूपसामान्याभावस्य, घटादिः स्नेहसामान्याभावस्य, तद्भूतरूपवान् परमाणुमहत्त्वसामान्याभावस्य, महान् वायुरुद्भूतरूपसामान्याभावस्य च लौकिक
Page #613
--------------------------------------------------------------------------
________________
६००
तत्वचिन्तामो
एथिवीत्वाभावग्रहप्रसङ्गात् अधिकरणे प्रतियोगिसत्वञ्च तर्कितं यदि हि स्तम्भः पिशाचः स्यात् स्तम्भव
प्रत्यक्षविषयः, अयं गुणादिर्यदि चक्षुःसंयुक्तमहत्त्ववदुद्भूतरूपवत्समवेतत्वे सति रूपवान् स्यात् चाक्षुषवान् स्यात्, घटो यदि महत्त्वोद्भूतरूपवत्त्वे चक्षुरादिसंयुक्रत्वे च मति स्नेहवान् स्यात् चाक्षुषवान् स्यात्, पृथिवीपरमाणुर्यदि उद्भूतरूपवत्त्वे चक्षुरादिसंयुक्तत्वे च सति महत्त्ववान् स्थात् चाक्षुषवान् स्यात्, महान्वायुर्यदि महत्त्वे सति चक्षुरादिसंयुक्रत्वे च मत्युद्भूतरूपवान् स्यात् चाक्षुषवान् स्यात्, इत्यापादने मूलशैथिल्यविरहादित्यर्थः, 'न विति तु शब्दः अतइत्यर्थे, नातो निरुकयोग्यतासहितैव निरुतानुपलब्धिरभावलौकिकप्रत्यक्षे कारणं व्यतिरेकव्यभिचारादित्यर्थः । ननु योग्य व्यवृत्तिगुण-कर्म-मामान्यादिषु रूपसामान्याभावादीनां लौकिकप्रत्यक्षमेवामिद्धं पराणुसंसर्गाभावलौकिकप्रत्यक्षवारणाय लाघवान्निरुक्कयोग्यताया एवाभावनिष्ठतया अभावलौकिकप्रत्यक्षकारणत्वकल्पनादन्यथा तत्र तेषां लौकिकप्रत्यक्षाभ्युपगमे मनोवावादावपि तेषां लौकिकप्रत्यक्षापत्तिवारणय यत्राधिकरणे तादृशापादनं न सम्भवति अनन्ततत्तदधिकरणभेदस्याधिकरणनिष्ठतया वक्ष्यमानक्रमेण तत्तदभावलौकिकप्रत्यक्षकारणत्वकल्पने महागौरवापत्तिरित्यत बाह, 'अन्यथेति निरुतयोग्यतायाएवाभावलौकिकप्रत्यक्षकारणत्वे इत्यर्थः, 'रूपाभावप्रतौतिवदिति, रूपाभावपदं महत्त्वसमानाधिकरणोद्भूतरूपाभावपरं घटादिवृत्तितत्तद्रपाभावपरं वा, पूर्वपक्षिनये तस्यातीन्द्रियप्रतियोगिकत्वेनाप्रत्य
Page #614
--------------------------------------------------------------------------
________________
केवलयतिरेकानुमान।
दुपलभ्येत न पिशाचानुपलम्भः स्यात्। न च पृथिवी जलाद्भिद्यते अलारत्तिधर्मवत्वात् तेजावत् एवमन्ये
क्षत्वात् सिद्धान्तिनयेऽपि वायौ तत्प्रत्यक्षानभ्युपगमात्, 'पृथिवीत्वाभावप्रत्ययेति(९) तत्तव्यनित्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकपृथिवीत्वाभावलौकिकचाक्षुषप्रसङ्गादित्यर्थः, निरुतयोग्यतायास्तादृशपृथिवीवाभावे सत्त्वात् । __ननु परमाणौ पृथिवीत्वाभावलौकिकचाक्षुषः किं परमाण्वंगेऽलौकिकरूप त्रापाद्यते स्थूलजले पृथिवीलाभावेन समं लौकिकमन्निकर्षदशायां परमाएवं उपनौतभानाद्यात्मकस्य पृथिवौत्वाभावलौकिकचाक्षुषस्थेष्टत्वात्। न च परमाणुघटितचक्षुःसन्निकर्षण पृथिवौवाभावलौकिकचाक्षुष पापाद्यते इति वाच्यं। चक्षुःसंयुक्त महदुद्भूतरूपवविशेषणतायाः पृथिवीवाद्यभावग्राहकतया तद्दघटितसनिकर्षेण तञ्चाक्षुषासम्भवात् परमाणुसन्निकर्षदशायां पृथिवौत्वशून्ययोग्यपदार्थान्तरमन्निकर्षस्यावश्यकतया तदानौं पृथिवीवाभावमाक्षात्कारस्यावश्यकत्वेन तत्र परमाणुघटितसन्निकर्षजन्यत्वाभावस्य शपथनिर्णयत्वाचेति चेत् । म। परमाखाद्यंशे उपनौतभानात्मकोऽपि परमाखादिवैशिष्यावगाहिथिवौत्वाद्यभावलौकिकचाक्षुषो न भवति इति सिद्धान्नात्, परमाणौ पृथिवौत्वाभावसाक्षात्कारो न भवति
-
(१) पृथिवौत्वाभावप्रत्ययप्रसङ्गादित्यपि कस्यचिन्मूलपुस्तकस्य पाठो मधु
रानाथखरसेनानुमौयते।
77
Page #615
--------------------------------------------------------------------------
________________
६९.
तत्वचिन्तामणौ
भ्योऽपि भेदसिद्धौ हादशभिन्नेति विशेषणं दत्वा समवायभेदसाधनादन्वयिन एव पृथिव्यां त्रयोदशभेदसिद्धि
वायौ रूपसामान्याभावसाक्षात्कारो न भवतीत्यादिसकलप्रामाणिकसिद्धान्तप्रवादान्यथानुपपत्त्या तथैव सिद्धान्तस्य निर्णतत्वादेवं सर्वत्र । न चैवं सिद्धान्ते स्थूलजले पृथिवौत्वाभावप्रत्यक्षानन्तरं पृथिवौत्वाभावसामान्यलक्षणप्रत्यासत्त्या पृथिवौत्वाभावप्रकारेण परमाणोचाक्षुषो न स्यात् इति वाच्यं । तत्र पृथिवौत्वाभावनिष्ठालौकिकप्रकारतानिरूपितविषयताया एव परमाणावभ्युपगमात् तनिष्टलौकिकप्रकारतानिरूपितविषयतायास्तु सन्निकृष्टस्थूलजलमात्रवृत्तित्वादिति भावः। एतच्चोपलक्षणं निरूक्ततत्तदिन्द्रिययोग्यत्वं तत्तदिन्द्रियजन्यलौकिकसाक्षात्कारविषयत्वं तत्तदिन्द्रियजन्यलौकिकमाक्षात्काराप्रतिबन्धकत्वं वा, नाद्यः भूतलादौ घटादिसामान्याभावस्थाप्यचाक्षुषतापत्तेः दैवात् त्वगादिमात्रटहौतघटादिव्यतरपि तत्प्रतियोगिकुक्षिनिक्षिप्तत्वात् । न द्वितीयः प्रतिबन्धकत्वाननुगमेनाननुगमतादवस्थ्यात् तत्तगन्धवत्त्व-तत्तद्रसवत्त्वावच्छिन्नतत्तद्र्व्यव्यक्त्यभावस्थापि घ्राणज-रामनादिप्रत्यक्षविषयतापत्तेः द्रव्यस्य प्राणजादिप्रत्यक्षप्रतिब
वकत्वे मानाभावात् गन्ध-तत्समवेतघ्राणजादिकं प्रति घाणसंयुक्तसमवाय-घ्राणमयुक्तसमवेतसमवायादेहेतुतयैव द्रव्यस्य घाणजप्रत्यक्षापादनासम्भवात्। ननु समानेन्द्रियजन्य-प्रतियोगितावच्छेदकविशिष्टप्रतियोग्याहार्यारोपस्याभावलौकिकप्रत्यक्षहेततया तदभावा
Page #616
--------------------------------------------------------------------------
________________
केवलष्यतिरेक्यनुमान।
६११
रिति किं व्यतिरेकिणेति वाच्यं । जलादिभिन्ना सती समवायभिन्नेति बुड्डावपि त्रयोदशभिन्नेति बुद्धेय॑तिरे
देव जलपरमाणौ न पृथिवीवाभावलौकिकप्रत्यक्षं परमाणोरयोग्यतया तत्र चक्षुषा पृथिवौत्वारोपासम्भवादित्यत आह, 'अधिकरणइति जलपरमाणवित्यर्थः, 'प्रतियोगिसत्त्वञ्च' पृथिवौत्वाभावस्य प्रतियोगिसत्त्वञ्च पृथिवौत्वाभावस्य प्रतियोगिसत्वमपि, ‘तर्कितं' विशेष्यतया सम्भवदाहा-रोपकं । नन्वेवं तव नयेऽपि योग्याधिकरणमादाय लौकिकसन्निकर्षदशायां उपनौतपरमाणुप्रकारको न कुतः पृथिवौवाभावलौकिकचाक्षुषः, कुतो वा वायौ रूपं नास्ति वायौ स्नेहो नास्तीत्याधुपनौतवायुप्रकारकोरूपमामान्याभाव-स्नेहसामान्याभावयोन लौकिकचाक्षुषः, कुतो वा परमाणौ महत्त्वं नास्तौति मनसि महत्त्वं नास्तीत्युपनौतपरमाणु-मन:प्रकारको न महत्त्वाभावलौकिकचाक्षुषः, कुतो वा मनसि पवनीयपरमाणौ वा नोद्भूतरूपाभावस्य लौकिकचाक्षुषः, अभावानां योग्यत्वात् अन्यथा अन्यत्रापि तल्लौकिकचाक्षुषानुपपत्तेः विना च कारणाभावं कार्याभावानभ्युपगमात् । अथ यस्मिन्नधिकरणे पक्षवृत्तिधर्मविशेषितेन प्रतियोगिग्राहकतावच्छेदकावच्छिन्नातिरिक्तविशेषितेन च तत्संसर्गकाधिकरणत्वसम्बन्धेन तद्धर्मावच्छिन्नत्वेन हेतुत्वात्तदिन्द्रियजन्यसाक्षात्कारवत्वमापादयितुं शक्यते तदधिकरण एव तत्सम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावनिष्ठलौकिकविषयतासम्बन्धेन तदिन्द्रियजन्यतादृशाभावप्रत्यक्षमुत्पद्यते न तु अन्यत्राधिकरण इति
Page #617
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामणौ
किसाध्यत्वात्। न च घटस्यापि पक्षवादंशतः सिहसाधनं, सवा पृथिवीतरभिन्नेत्युद्देश्यप्रतीतेरभावात्, पक्ष
निथमः, यत्राधिकरणे तादृशापादनादिकं न सम्भवति तत्तदधिकरणभिन्नत्वस्वरूपस्याधिकरणयोग्यत्वस्याधिकरणनिष्ठतया तादृशविषयतासम्बन्धेन तत्तदिन्द्रियजन्य-तत्तत्सम्बन्धावच्छिन्नाभावप्रत्यक्षोत्पत्तौ हेतुत्वादित्यञ्च परमावादावेव तादृशष्मृथिवौत्वादिमत्त्वे च चाक्षुषवत्त्वापादनासम्भवान्त्र तत्र चक्षुरादिना तदभावस्य योग्यस्यापि यहः, किन्तु योग्यजलादावेव तद्ग्रहः, घटादौ समवायसम्बन्धावछिनप्रतियोगिताकस्नेहादिसामान्याभावस्तु चक्षुरादिना ग्टह्यत एव घटो यदि चक्षुरादिसंयुक्तत्वे मति महत्त्वोद्भूतरूपवत्त्वे च मति आहवान् स्यात् चाक्षुषवान् स्यात् इत्यापादनस्य मूलशिथिललविरहात व्यर्थविशेषणत्वेष्टापत्त्योः सम्भवेऽपि मूलशैथिल्यविरहादेवापादमादियोग्यतानपायात् श्रापत्त्यादेः सर्वचासम्भवात् व्याप्यादिभ्रमजन्यापाद्यव्यतिरेकादिभ्रमजन्यापत्त्यादेरतिप्रसनत्वाच्च योग्यताया एव यथोकनियमघटकत्वात् मा च प्रहते व्याप्तिमाचं, नन्विष्टापत्त्यादि. विरहेऽपौति चेत्तहि चचुरादिना वाय्वादौ तद्व्यक्तित्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकस्तम्भत्वात्यन्ताभावप्रत्यक्षमपि न स्यात् वाय्वादौ स्तम्भववत्वेन साचात् साक्षात्कारवत्त्वापादानासम्भवात् ग्रहादिधारकस्यैव स्तम्भपदवाच्यतया चक्षुःसंयुक्तत्वे पिशाचात्मकस्तम्भे मूलशैथिल्यादित्यतपाइ, 'यदि हौति, 'स्तम्भः पिशाचः स्यात्' चचुःसंयुक्तः कश्चित् पिणाचः स्तम्भः स्यात्, 'स्तम्भवदुपलभ्येतेति मोऽपि पिशाचः पिशाच
Page #618
--------------------------------------------------------------------------
________________
केवलव्यतिरेक्यनुमान।
६१३
तावच्छेदकनानात्वे हि तत्, अतरवानिले वाचनसे इत्यानित्या वागितिबुझेरुद्देश्यायाः सिद्धत्वादंशतः
स्तम्भान्तरवच्चाक्षुषः स्थादित्यर्थः, स्तम्भत्वस्य महत्त्वोद्भूतरूपवत्त्वनियतत्वादिति भावः । 'न पिशाचानुपलम्भः स्यात्' न सर्वः पिशाचोलौकिकमाक्षात्काराविषयः स्यात्, पिशाचत्वं लौकिकमाक्षात्काराविषयत्वव्याप्यं न स्यादिति यावत्, तथाच पिशाचत्वस्य लौकिकसाक्षात्काराविषयत्वव्याप्यत्वान्यथानुपपत्त्या स्तम्भत्वं न पिभाववृत्तौति यथोक्रनियमे न किमपि बाधकमिति भावः । वस्तुतस्तु पनसाम्रादिस्तम्भसाधारणस्य स्तम्भत्वस्य पिशाचवृत्तित्वे पनसत्वामत्व-पिशाचत्वमादाय साङ्कऱ्यांपत्तेः किन्तु स्तम्भत्वं श्रामत्व-पनसत्वा दिव्याप्यं नाना, तच म पिशाचवृत्ति पिशाचोऽपि यदि स्तम्भस्तदा तयाप्यस्तम्भव पिशाचत्ववंदतीन्द्रियमेव तदत्यन्ताभावो न क्वापि लौकिकाध्यक्षगम्यइति यथोक्तनियमे न किमपि बाधकं इत्येव तत्त्वं । यथोकनियमस्य प्रवृत्त्यवयवव्यावृत्तिरस्मकते सिद्धान्तरहस्ये अभावग्राहकयोग्यताविचारे अनुसन्धेया। 'दादाभिनेति विशेषणमिति द्वादशभेदानपचे विशेषणैकृत्येत्यर्थः, 'समवायभेदमाधनादिति समवायावृत्तिधर्मवत्त्वादिरूपसमवायभेदमाधका तोरित्यर्थः, 'अश्वयिन एवेति अश्वयसहचारज्ञानजन्यव्याप्तिज्ञानादेवेत्यर्थः, 'भेदसिद्धिरिति, अस्विति भेषः, किं व्यतिरेकिणेतीति किं व्यतिरेकमहचारज्ञानजन्यव्याप्तिशामस्थानुमितिकरणत्वेनेत्यर्थः । 'जलादिभिन्ना मतीति, विशिष्टाधिकरणकवैशिष्यबुद्धौ सामानाधिकरण्यसम्बन्धेन विशेष्यतावच्छेदकस्य
Page #619
--------------------------------------------------------------------------
________________
६९०
तत्त्वचिन्तामो
सिद्धसाधनम्, अन्यथानुमानमात्रोच्छेदात पक्षस्य सिद्धस्यैव साध्यत्वात्। न च घटः कथं पक्षः साध्यनिश्चयेन
विधेये प्रकारत्वादित्यभिमानः, 'त्रयोदशभिनेतौति पृथिवीतरत्वावच्छिन्नप्रतियोगिकभेदप्रकारकबुद्धेरित्यर्थः, 'व्यतिरेकिसाध्यत्वात्' व्यतिरेकिण एव माध्यत्वात्, एवकाराद्यथोक्तहेतुकान्वयिव्यवच्छेदः । 'सर्वा पृथियौति, पृथिवौत्वस्यावच्छेदकत्वस्फोरणय सर्वपदं, 'इत्युद्देश्यप्रतौतेः' इत्याकारकफलौभूतानुमितिसमानाकारप्रतीतेः, पृथिवीत्वावच्छेदेन पृथिवौत्वधर्मितावच्छेदकक पृथिवीतरभेदप्रकारकप्रतीतेरिति यावत्, तथाच तद्धर्मावच्छेदेन यद्धर्मधर्मितावच्छेदककानुमितिं प्रति तद्धर्मावच्छेदेन तद्धर्मधर्मितावच्छेदककमिद्धेरेव प्रतिबन्धकतया घटत्वावच्छेदेन घटे सिद्धिमत्त्वेऽपि पृथिवौत्वावच्छेदेन पृथिवीत्वधर्मितावच्छेदककानुमितौ अविरोध इति भावः । ननु तद्धर्मावच्छेदेन तद्धर्मावच्छिन्नविशेष्यकानुमितिं प्रति तदन्यधर्मावच्छेदेन तदन्यधर्मावच्छिन्नखममानविशेष्यताकमिद्धिरपि प्रतिबन्धिका अनित्ये वामनसे वाङ्मनोऽन्यतरत्वादित्यादौ वाक्यतावच्छेदेन वाक्यत्वावच्छिन्नविशेष्यकसिद्धेरपि मनस्वावच्छेदेन मनस्वावच्छिन्नविशेष्यकसमूहालम्बनानुमितिप्रतिबन्धकत्वात् तथाच घटत्वावच्छेदेन घटत्वावच्छिन्नविशेष्यकसिद्धिसत्त्वे पृथिवीत्वावच्छेदेन पृथिवौत्वरूपेण घटे कथमनुमितिरित्यत आइ, 'पक्षतावच्छेदकनानात्वे हौति तद्धर्मावच्छेदेन तद्धर्मावच्छिन्नविशेष्यकत्वे मति तदन्यधर्मा
Page #620
--------------------------------------------------------------------------
________________
केवलव्यतिरेक्यनुमानं ।
संशय-सिषाधयिषयोरभावादिति वाच्यं सवा पृथिवी इतरभिन्ना न वेति संशयस्य तत्प्रकारकसिषाधयिषायाश्च सामान्यताघटविषयत्वात् घटत्वेन विशेषदर्शनं सिद्धिर्वा अतस्तेनरूपेण संशय-सिषाधयिषे न स्तः पृथिवौत्वेन ते भवतः एव धूमवान् वह्निमानिति धूमवत्वेन वहिनिश्चयेऽपि पर्वते वह्निसंशयवत्, यद्दा सर्वत्वेन
वच्छेदेन तदन्यधर्मावच्छिन्नविशेष्यकानुमितौ हौत्यर्थः, 'तत्' तदन्यधर्मावच्छेदेन तदन्यधर्मावच्छिन्नखसमानविशेष्यकमिद्धेः प्रतिबन्धकत्वं, 'उद्देश्यायाः' उद्देश्यानुमितिविशेष्यतावच्छेदकावच्छिन्नविशेव्थिकायाः, उद्देश्यानुमितिश्च मनस्वावच्छिन्नविशेष्यकसमूहालम्बनानुमितिः, 'मिद्धृत्वात्' सत्त्वात्, 'अंशतः सिद्धमाधनं' अंशतः सिद्धेरेवोपधायक साधनं, वाक्यत्व-मनस्वावच्छिन्नविशेष्यकसमूहालम्बनानुमितेरनुपधायकं माधनमिति यावत्। ननु लाघवात्तद्धर्मिकमिद्धित्वेनैव तद्धर्मिकानुमितिसामान्यं प्रति प्रतिबन्धकता धर्मिविशेषान्तर्भावस्थावश्यकत्वादित्यत आह, अन्यथेति यदि तर्मिकसिद्धित्वेनैव नद्धर्मिकानुमितिसामान्य प्रति विरोधित्वं तदेत्यर्थः, 'अनुमानमात्रेति हेतु-साध्यसहचारघटकतया अधिकरणत्वरूपेण निखिलसाध्याधिकरणे साध्यवत्त्वविषयकव्याप्तिज्ञानजन्यानुमितिमात्रोच्छेदापातादित्यर्थः, 'पक्षस्येति सप्तम्यर्थ षष्ठी, 'सिद्धस्यैव' सहचारघटकतया निश्चितस्यैव, 'माध्यत्वात्' तादृशानुमितौ विधेयत्वात् । 'न चेति,
Page #621
--------------------------------------------------------------------------
________________
६१६
तत्वचिन्तामायौ
रूपेण न पक्षता सर्वचाविप्रतिपत्तेः घटायेकदेशे इतरभेदस्य प्रत्यक्षसिद्धत्वात् तथाचैकदेशे विप्रतिपत्ती सामान्ये इतरभेदसाधने अर्थान्तरं, किन्तु सामान्येन पृथिवौत्वेन यावदेव विप्रतिपत्तिविषयस्तावतामेव पक्षता विशेष्याननुगमात् । तर्हि पृथिवी इतरभिन्ना पृथिवीत्वाइटवदित्यन्वयिनैवेतरभेदस्य सिद्धत्वात् किं
सन्देह-मिषाधयिषयोरन्यतरस्य पक्षतात्ववादिनां प्राचां नय इति शेषः, 'पक्षः' अनुमित्युद्देश्यः । 'सर्वा पृथिवीति सकलपृथिव्या विशेव्यवस्फोरणाय सर्वपदं, पृथिवौत्वरूपेण सकलप्टथिवीविभिण्यकेतरभेदसंशयस्येत्यर्थः, 'तत्प्रकारकेति पृथिवीत्वावच्छिन्नसकलपृथिवौवि
व्यकसिद्धित्वप्रकारकसिषाधयिषायाश्चेत्यर्थः, 'सामान्यतः' पृथिवीत्वरूपेण, ननु घटे विशेषदर्शन-सिद्धिसत्त्वेन कथं संशय-सिषाधयिषयोस्तद्दिषयत्वं ज्ञानादेः स्वरूपमत एव खविषयकेच्छाविरोधित्वादित्यत आह, 'घटत्वेनेति, 'सिद्धिति, 'श्रत इति, 'पर्वते' पर्वतत्वविशिष्टे, इदमुपलक्षणं प्रत्यक्षतः मिद्धिमत्त्वेऽपि अनुमितित्वादिरूपेण संशय-मिषाधयिषयोधिकाभावाञ्च, समानधर्मिकनिश्चयस्यैव संशयविरोधित्वमते समाधत्ते, 'यदेति, 'सर्वत्वेनेति तस्याः पृथिव्या न पक्षतेत्यर्थः, 'अविप्रतिपत्तेः' असंशयात्, ‘विप्रतिपत्तौ' संशये, 'सामान्य इति, मन्देहाविशिष्येऽपौति शेषः, 'इतरभेदसाधने' इतरभेदानुमित्यभ्युपगमे, 'अर्थान्तरं' सिद्धान्तान्तरं, अपमिद्धान्त इति यावत्,
Page #622
--------------------------------------------------------------------------
________________
केवणव्यतिरेकानुमान।
व्यतिरेकिणा, घटसाधारणपक्षत्वेऽप्यभेदानुमानवत् पक्षस्यापि दृष्टान्तत्वाविरोधात् पक्षान्यत्वं हि तपातन्त्र, किन्तु साध्यवत्तया निश्चितत्वं प्रयोजकं । न च पृथिवीत्वाग्रहे पूर्व गृहीतं यच साध्यं पश्चात् स्मर्यते तब हेतु-साध्यसामानाधिकरण्याग्रहायतिरेक्यवतारइति वाच्यं । हेतोरेव पक्षतावच्छेदकत्वेन घटे पृथिवीत्वग्रहदशायामितरभेदसामानाधिकरण्यग्रहावश्यम्भातद्धर्मिकानुमितौ हद्धर्मिकसंशयस्यैव प्राचीनमते पक्षतात्वादिति भावः । 'अविप्रतिपत्तेरिति यथाश्रुतन्तु न संगच्छते खार्थानुमाने विप्रतिपत्त्यभावेन विप्रतिपत्त्यभावस्य पक्षतावाभावाप्रयोजकत्वात् । 'सामान्येति सकलपृथिवौनिष्ठेनेत्यर्थः, 'विप्रतिपत्तिविषयः' मंशयविषयः, 'पक्षता' पृथिवौत्वावच्छेदेन पृथिवौत्वेनानुमित्युद्देश्यता, 'अननुगमादिति सर्वत्रेतरभेदस्थानिश्चयादित्यर्थः। शकते 'तौंत्यादिना 'चेदित्यन्तेन, 'किं व्यतिरेकिणेति किं व्यतिरेकव्याप्युपन्यासेनेत्यर्थः, अत एवाग्रे व्याप्युपन्यासस्येति संगच्छते, पूर्वमतेऽप्यनुमितित्वमुपपादयति, 'अभेदानुमानवदिति अयं घटः पूर्वानुभूतघटांभिन्नः नघटवृत्तिविलक्षणसंस्थानवत्त्वादित्यादिस्थैर्यसाधकाभेदानुमानवदित्यर्थः । 'पृथिवौवाग्रहदूति यत्र स्थले पूर्व ग्टहीतं माध्यं उद्बोधकमहिना पृथिवीत्वाग्रहे पश्चात् स्मर्य्यते इत्यर्थः, माध्यस्य प्रत्यक्षतादशायां पृथिवौत्वस्यापि प्रत्यक्षमावश्यकमतः सारणपर्यन्तानुधावनं, 'यतिरेक्यवतारः' व्यतिरेकव्याप्युपन्यासः । 'घट
78
Page #623
--------------------------------------------------------------------------
________________
साचिकामी वादिति चेत्, सत्यं, अन्वयितुल्यतया व्यतिरेकिणोऽपि सामादन्वयाप्रतिसन्धानदशायर्या व्यतिरेक्युपन्यासस्यापर्यनुयोज्यत्वात् तदुक्तं, पास्तां तावदयं सुहदुपदेशः, केवलव्यतिकिलक्षणं ताववियूंदम् । अथ वा अलादीनां पयोदशान्योन्याभावाः पयोदशसु प्रसिद्धाः पृथिव्यां साध्यन्ते, अत एवाका व्यतिरेकिणा जलादिमिलितप्रतियोगिकान्योन्याभावाप्रतीतावपि पयोदशान्योन्याभावाः साध्या इति नान्वयित्वासाधारण्ये ।
पति, इदच घटसाधारणपक्षतादशायामित्युक्तं, अन्यथा तु अन्यस्मिन् पक्षे बोध्यं । 'पृथिवौत्वग्रहेति, पचतावच्छेदकप्रकारेण पक्षज्ञानस्थावश्यकत्वात् इति भावः। 'इतरभेदेति, तथाच पक्षस्यैव अन्वथिदृष्टान्नात्वं सम्भवतीति भावः। न प प्रत्यक्षतः पृथिवौत्वग्रहदशाचामितरभेदयहो नावश्यकः प्रतियोगिज्ञानस्य तदा प्रभावादिति वाच्या व्यतिरेकच्याप्तिघटकत्वेन तज्ज्ञानस्य तदानीमावण्यकत्वादिति भावः । 'अन्वयितुल्यतयेति यथा अन्वयव्याप्तिज्ञानस्य व्यतिरेकव्याप्तिज्ञानविरहस्खलेऽनुमितिजनकत्वमनुभवसिद्धं तथा अन्वयव्याप्तिधानविरहस्यले व्यतिरेकयाप्तिज्ञानस्थानुमितिजमकतया अनुभवसिद्धतयेत्यर्थः, 'अन्वयाप्रतिसन्धानेति अन्वयानुपन्यासदभायामित्यर्थः, तदुपन्यासदशायान्तु अधिकेन निग्रहात् पर्य्यनुयोगो भवत्येव इति भावः। 'अयमिति प्रचयिनैव इतरभेदसिद्धा किं व्यतिरेक
Page #624
--------------------------------------------------------------------------
________________
केवलबविरानुमान।
यहा जलं तेजप्रतिद्वादशभिवप्रतियोगिकान्धोन्याभाववत् द्रव्यत्वात्तेजावदित्यनुमानाचयोदशभिवस्य सामान्यतः सिहा पृथिव्यां पयोदशभिवत्वं साध्यं । न चान्वयित्वमसाधारण्यं वा, पक्षादन्यव साध्यामसि । वस्तुगत्या पृथिव्यामेव साध्यसिः किं व्यतिरेकिणेति चेत्। न। पृथिवी पयोदशाभिन्नेति व्यतिरेकिणं विना अप्रतीतेः। नन्वेवं पृथिवी जलादिषयोदशभिन्नमतियोगिकान्योन्याभाववती द्रव्यत्वादिति पृथिवी भिन्नसद्भिन्नादिसिद्धिः स्यादिति चेत् । न। अप्रयोजकत्वात् प्रकृते चानुभूयमानजलादिवैधर्मरस्य पृथिवीत्वशब्दा
व्यायपन्यासेनेति सादुपदेश इत्यर्थः, एतदामाया अमयुनिकषादिति भावः। 'केवलव्यतिरेकिसक्षणमिति केवखव्यतिरेकिखरूपमित्यर्थः, 'नि ढमिति, अन्वयाप्रतिसन्धानदशायामपि व्यतिरेकस्थाप्तिज्ञानादनुमितेरनुभवसिद्धवेन तस्थापि हेतुत्वादिति भावः । 'प्रमिङ्काः' प्रत्येकवैधर्नालिङ्गकानुमित्यादिना प्रसिद्धाः, 'पृथिव्या • माध्यन्न इति पृथिव्यां पयोदनत्वरूपेण माध्यन्ते इत्यर्थः, प्रत्येकरूपेण माध्यत्वे अये 'नावयित्वासाधारण्ये' इत्यसङ्गतः। न पयोदशान्योन्याभावानां प्रातिस्विकरूपेण त्रयोदशप्रसिद्धत्वेऽपि माध्यतावच्छेदकत्रयोदशत्वप्रकारेण सिधभावात् कथमनुमितिरिति वाचं। भिन्न-भित्राधिकरणस्थानामप्यभावानां पयोदप्रत्यादिमा
Page #625
--------------------------------------------------------------------------
________________
सावचिन्तामणी
अयत्वादेः१). अतिरिक्तं विनानुपपत्तेः। नन्वितरभेदो यद्यन्योन्याभावस्तदा भावा दो न सियेत अभावस्याभावान्तराभावात्, यदि च तेन समं स्वरूपभेद एव साध्यः सदाननुगमादलुमानाप्रवृत्तिः, भावोऽभावो न भवतीत्यबाधितप्रतीतिबलादभावस्यापि अन्योन्याभावोऽस्तौति केचित्, तन्न, अपसिद्धान्तात् । अनतिप्रसताधिकरणस्वरूपमात्रेणैवाभावप्रतीत्युपपत्तौ चाधिकाभावे मानाभावाच इति चेत्। न । इतरभावान्यो
ज्ञानसम्भवात् भित्राधिकरणस्थंघटयोः घटादिरिति प्रतौतिवत्, 'जलादिमिलितेति पाकातरत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकान्योन्याभावानुमित्यसम्भवेऽपौत्यर्थः, आकाशस्यैकव्यक्तिलेन तचैकदेशे साध्यप्रमियमम्भवादिति भावः । त्रयोदशभेदानां त्रयोदशप्रत्येकं प्रसिद्धिमुक्का एकत्रैव तेषां प्रमिद्धिमाह, 'जलमिति तेजःप्रभृतिहादशभिन्ननिष्ठभेदप्रतियोगीत्यर्थः, यथाश्रुते पृथिव्यां साधनौयस्य त्रयोदशभेदस्यास्मादमिद्धेः जलभेदस्यैवामिद्धत्वात्, इदच्च प्रमाणतरेण पृथिव्यां दादशभिन्नत्वस्य प्रसिद्धिदभायां बोध्यं, 'त्रयोदशभिन्नत्वमिति पयोदशत्वरूपेणेत्यर्थः । शकते 'वस्तुगत्येति, 'पृथिवी , त्रयोदशभिनेतौति पृथिवौ जलादित्रयोदशभिनेत्यर्थः । 'प्रचते
चेति 'यदा जलं' इत्यचेत्यर्थः, 'अनुभूयमानेति तेजःप्रतिदा
(१) पृथिवीत्वाश्रय-प्राब्दाश्रयत्वादेरिति क, ख, ग ।
Page #626
--------------------------------------------------------------------------
________________
केवलयतिरेकानुमान । .
न्याभावस्य साध्यत्वात् । न चैवमभावादविवेकतादवस्थ्यं, तेन समं स्वरूपभेदस्यान्वयिना व्यतिरेकिणा वा साध्यत्वात्।
अन्ये तु पृथिवीत्वभिन्नधर्मात्यन्ताभाव एव साध्यः जलत्वादिप्रतियागिकास्तावन्तोऽत्यन्ताभावा वा तत्तदसाधारणतत्तवर्मात्यन्ताभावयागोवा रते चाभावाजलत्वं न घटादौ घटादिजलात्यन्ताभाववदिति प्रत्यक्षादेः(१) क्वचित्तत्तधर्मायादेव प्रसिद्धा इंति ना
• दशभिन्नथिव्यादौ अनुभूयमानस्येत्यर्थः, 'पृथिवीवेति तेजःप्रमतिद्वादशभिन्नथिवौनिष्ठान्योभावानुमानमधिकृत्य, 'भब्दाश्रयत्वेति पाका तरभेदानुमानस्थले तेजःप्रतिद्वादशभिन्नाकाशनिष्ठान्योन्याभावानुमानमधिकृत्येति, 'अतिरिक्तमिति पृथिव्यादेर्जखाद्यतिरिक्रत्वं विनेत्यर्थः। त्रयोदशवरूपेण त्रयोदशभेदाः माध्याइति द्वितीयकल्पे शकते, 'नन्विति, इतरत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकसामान्याभावस्य माध्यत्वे एतदाशङ्काया अमङ्गतेः तस्याभावाभावप्रतियोगिकस्यैकत्वादिति मन्तव्यं, 'प्रभावान्तरेति अधिकरएणतिरिक्तभेदेत्यर्थः, 'खरूपभेद इति अधिकरणस्वरूपभेद इत्यर्थः, 'अननुगमादिति अधिकरणानामनन्तत्वेन चतुर्दशत्वरूपेण माध्यत्वासम्भवादित्यर्थः । अत्र कस्यचित् समाधानमाशङ्कते, 'अबाधितेति
(१) प्रत्यक्षादेवेति घ०।
Page #627
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२२
बालचिन्तामगै
प्रसिदिः। तावतामभावानां वैशिध्वं न प्रसिद्धमिति चेत, किमेतावता, न हि तावदेशिध्यमच साध्यते, किन्तु जलत्वादीनां यावन्तोऽभावा इह साध्यास्ते च तप तप प्रसिद्धा एव तावशिध्यधौस्तु फलम् अन्यथा सिद्धसाधनात, मिलितानामपि साध्यत्वे नाप्रसिद्धिः विश्विदेकधर्मावच्छेदोहि बलादिवनमेलकार्थः, सच नासिहः । न च हेतोरसाधारण्यं, तावदभावयोगी छच सपो भवति न तु तदेकदेशकतिपयाभाववान्
प्रभावत्वां अबाधितप्रत्ययेत्यर्थः, 'अस्ति' अतिरिकोऽस्ति, अयमे-. कदेभिनं प्रति नापसिद्धान्त इत्यत श्राइ, 'अनतिप्रसकेति, 'मानाभावादिति। न चाभावत्वांगे अबाधितोकप्रत्यय एव मानमिति वाचं। दमिदं भवतीति प्रतौतिमालिकस्याभावत्वस्य भावे खौकारान् अतिरिकधर्मिकल्पनामपेक्ष्य साघवादिति भावः । 'खरूपभेदस्थति प्रभावलावछिनप्रतियोगिताकभेदत्वरूपेणेत्यर्थः, 'अन्वथिनेति भावत्वइतका वयिनेत्यर्थः, 'यतिरेकिणेति पृथिवौबादिशेतकथतिरेकिणेत्यर्थः, न चामाधारणं, अन्यत्र साध्या निर्णयदशायामनुमानप्रवृत्तः, इदमुपलक्षणं प्रभावत्वावशिवप्रतियोगिताकभेदवले मति जनादित्रयोदशान्योन्याभावस्य माध्यत्वे प्रथमानुमानेनाप्यभावभेदः सिध्यतौति मन्तव्यं । 'पृथिवौषभिवेति प्रथित्वासमानाधिकरणेव्यर्थः । नन्वचाप्यसिद्धि
Page #628
--------------------------------------------------------------------------
________________
वेवणयविरेशानुमान। साध्यतायास्तावत्यपर्याप्तः । यहा जलवात्यन्ताभावतेजस्वात्यन्ताभावाधिकरणत्तिः अत्यन्ताभावत्वात घटत्वात्यन्ताभाववत्र, एवमत्यन्ताभावान्तरसामानाधिकरण्यमपि तप साध्यमिति काप्रसिद्धिः।
रित्यस्वरसेनाह, 'जलवादौति, तावन्तः पयोदशेत्यर्थः, तत्तदसाधारणेति जखाद्यसाधारणेत्यर्थः, 'योग इति, पक्षधर्मताबक्षसभ्यसाथसम्बन्धाभिधानं न तु सम्बन्धपर्यन्तं साधनं, तथा मति नहि तावदेशिय इत्यग्रिमग्रन्थविरोधात् । न चैवं पूर्वाभेदः, अत्र जयबादिनियतहाधभावोऽपि साध्य रति पूर्वतो भेदात्, 'कचित्' मनस्वात्यन्नाभावादौ । शहते, 'नावतामिति, 'अन्यथेति पक्षधर्मतावलसभ्यस्य पक्षे माध्यवैशिष्वस्थ प्रसिद्धिरपि यद्यहं तदेत्यर्थः, ननु जलबादिप्रतियोगिकतावदत्यन्ताभावाः प्रत्येकमेव माध्या: अनुमितिः परामर्शश्च समूहालम्बनरूप इत्युको असाधारण्यं मिशितलरूपेण माध्यतायान्तु अपमितिः तेन रूपेण कुत्राप्यमिद्धेरित्यत श्राइ,
(९) तावति न पर्याप्तरिति घ०। (२) 'घटाबन्तामाववदिति क-ख-गविजितपुस्तकपाठः परत्वयं न समी
चोनः ‘पदार्थविभाजकधम्मात्यन्तामावत्वादित्वर्थः' इति कस्यचिद्याख्यागस्थासङ्गत्यापत्तो दृष्टान्तस्य घटात्यन्ताभावस्य पदार्थविभागका धम्मात्यन्ताभावत्वविरहेण हेतुवैकल्यप्रसङ्गात् । घटत्वात्यन्ताभावरूपदृष्टान्तस्य घटत्वस्य साक्षात्पदार्थविभाजकत्वाभावेऽपि परम्परया पदार्थविभाजकत्वात् म हेतुवैकल्यमिति ध्येयम् ।
Page #629
--------------------------------------------------------------------------
________________
तवभिन्तामणी
__ “किच्चेतरे तावत् प्रसिद्धा एव ते च भेदप्रतियोगिता मेयत्वादितीतरभेदोऽपि सुग्रह एव । ननु पृथिवी नेतरभेदवती गुरुत्वादिभ्यो जलवदिति प्रतिरोध इति चेत् । न। इतरभेदनिषेधाहीतराभेदः न तु तेजःप्रमत्यभेदः() जल इति दृष्टान्तस्य साध्यवैकल्यात् चतुईशाभेदानां चैकच विरोधेनासम्भवात् चतुर्दशभेदानां
'मिलितानामपौति त्रयोदशत्वाद्यवच्छिन्नानामपौत्यर्थः, 'यत्किञ्चिदेकेति)यत्किञ्चिदेकधर्मावच्छिन्नत्वमित्यर्थः, सच प्रकृते चयोदशत्वादि. संख्यासमानकालौनमपेक्षाबुद्धिविशेषविषयत्वमेवेतिभावः। 'म चेति, भिन्न-भित्राधिकरणस्थानामप्यभावानां मानसोपस्थित्या अपेक्षाबुद्धिविषयत्वप्रकारेण ज्ञानसम्भवात् भित्राधिकरणस्थघटयोर्दो घटाविति प्रतौतिवदिति भावः। तावदभावयोगौति तावदभाववत्तया निश्चितइत्यर्थः, 'कतिपयाभाववान्’ कतिपयाभाववत्तया निश्चितः, ‘माध्यताया इति माध्यतावच्छेदकस्येत्यर्थः, माध्यतावच्छेदकावच्छिन्नवत्तया निचितश्च सपक्ष इति भावः, 'अत्यन्ताभावत्वादिति तेजस्वानियतात्यन्ताभाववादित्यर्थः, तेन तेजोऽन्यत्वप्रकारकप्रमाविशेष्यत्वाभावादौ वस्तुतस्तेजोऽविषया च या चतुर्दशविषया धौव्यक्तिस्तद्विषयत्वात्यन्ता
(१) न च तेजःप्रत्यभेद इति ख०, ग०। स च न तेजःप्रत्यभेद
इति घ०। (२) 'किषिदेकधम्मावच्छेदोऽहि' इत्यत्र ‘यत्किञ्चिदेकधर्मावच्छेदोऽहि' · इति कस्यचिन्मलपुस्तकस्य पाठ एतेनानुमीयते ।
Page #630
--------------------------------------------------------------------------
________________
केवलयतिरेकानुमान। चैकव वृत्तौ न विरोधः। यत्तु साध्यप्रसिद्धौ पृथिवीतरभिन्ना तत्साध्याधिकरण-पृथिव्यन्यतरत्वात्तदधिकरणवत् पृथिव्यां तत् साध्यमन्वयिन एव सेत्स्यतीति, तन्त्र, अन्यतरत्वस्यालिङ्गत्वादित्यक्तत्वात, लिङ्गत्वे वा जलादावपि तसिद्धिप्रसङ्गात् । एवं तर्हि पृथिवी जलं पृथिवीत्वात् यन्न जलं तन्न पृथिवी यथा तेज इतिसत्प्रतिपक्षोऽस्त्विति चेत्। न । अजलस्य घटादेः प्रत्यक्षत एव पृथिवौत्वनिश्चये व्यतिरेकव्यभिचारादस्य
भावादौ च न व्यभिचारः, पदार्थविभाजकधर्मात्यन्ताभाववादित्यर्थः इति कश्चित् । 'तत्रेति जलवात्यन्ताभाव इत्यर्थः, 'काप्रसिद्धिरिति, तेजस्वात्यन्ताभाव-वायुखात्यन्ताभावादिममानाधिकरणजलवात्यन्ताभावस्यैव माध्यत्वादिति भावः ।
अन्येतुमतं समाप्य प्रकारान्तरेण माध्यामिद्धिं दर्शयति, किञ्चेति, 'ते चेति, पृथिवीतरत्वं भेदप्रतियोगितावच्छेदकं व्यतिरेकिधर्मत्वात् इत्यत्र तात्पर्य, अन्यथा इंतरप्रतियोगिकभेदप्रसिद्धावपि तेजस्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकभेदाप्रसिद्धेरिति ध्येयं । 'न तु तेजःप्रभृतीति, प्रातिखिकरूपेण चतुर्दशभेदानामभावः साध्य इत्यभिप्रायेणेदं दूषणं, अन्यथा पृथिवौतरभेदाभावस्य पृथिवीतरत्वस्य जले सत्त्वादमङ्गतः। बाधमयाह, 'चतुर्दशेति, अभावमादाय चतुर्दशत्वं बोध्यं, स्थापनानुमाने बाधमुद्धरति, 'चतुर्दशेति । 'जलादावपीति, तत्रापि तत्साध्या
79
Page #631
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्वचिन्तामणौ
न्यूनत्वात् तदनवधारणे तु सत्प्रतिपक्षत्वमिष्टमेव । ननु जीवच्छरीरं सात्मकं प्राणादिमत्त्वात् इच्छादिकार्यवत्त्वाद्देति व्यतिरेकिणि साध्याग्रसिद्धौ कथं व्यतिरेकादिनिरूपणं, नैरात्म्यञ्च घटस्य न प्रत्यक्षवेद्यं तस्य तवासामर्थात्, नानुमानगम्यं नैराळ्याप्रतीतावन्वयिनोभावात् सात्मकत्वप्रतीति विना व्यतिरेकिणेऽनुपपत्तिः । अथेच्छा समवायिकारणजन्या कार्यत्वात् तच्च समवायिकारणं पृथिव्याद्यष्टद्रव्यभिन्न पृथिव्यादित्वे बाधकसत्त्वादिति पृथिव्यादिभिन्नात्मसिद्धौ तहत्त्वं जीव
धिकरण-जलाद्यन्यतरत्वस्थ लिङ्गत्वसम्भवादिति भावः । इदमापाततः जले पृथिवीतरभेदस्य बाधेनामिद्धे जलेतरभेदसिद्धौ च दृष्टापत्तेः। वस्तुतस्तु पृथिवीतरभेदस्य विशिष्य कुत्राग्यधिकरणेऽसिद्धेः सिद्धौ चान्वयाप्रतिसन्धानदशायां व्यतिरेक-याप्तिज्ञानहेतुत्वावश्यकलाञ्चेत्येव द्रष्टव्यं । 'एवं' व्यतिरेकव्याप्तिज्ञानस्य हेतुत्वे, 'यतिरेकव्यभिचारादिति साध्याभावस्य हेत्वभावव्यभिचारित्लादित्यर्थः, इदमुपलक्षणं असाधारण्यादित्यपि द्रष्टव्यं, 'तदनवधारणे विति पृथिवीत्वस्थानवधारणे वित्यर्थः । 'इच्छादौति, अवच्छेदकतासम्बन्धन हेतुरिति भावः। 'साध्याप्रसिद्धवाविति, सात्मकत्वस्य जीवच्छरौरमात्रवृत्तित्वात्तस्य पक्षवादिति भावः । 'व्यतिरेकादौति, 'त्रादिना साध्यवैशिष्यस्य परिग्रहः, 'तस्येति, तदभावस्थातौन्द्रियत्वादिति भावः । अप्रसिद्धाभावसाध्य के व्यतिरेक्यस्वित्यत आह, 'सात्मकत्वेति, 'कार्यत्वादिति भावकार्यत्वा
Page #632
--------------------------------------------------------------------------
________________
केवलव्यतिरेक्यनुमानं ।
छरौरे साध्यत इति चेत्, यदि सात्मकत्वमात्मसंयोगवत्वन्तदा घटादा तदस्तौति तताहेतुव्यावृत्तावसाधारण्यं, ज्ञानसमानाधिकरणज्ञानकारणीभूतसंयोगाश्रयकार्यत्वं सात्मकत्वं शरीरात्मसंयोगस्य ज्ञानकारणत्वात् श्रात्म-मनसास्तथात्वेऽप्यकार्यत्वादिति चेत्। न। शरीरादन्यचासिद्धेः, तत्र प्रसिद्धौ सिद्धसाधनात् । इच्छाया असमवायिकारणसंयोगावच्छेदकत्वस्याभावो दित्यर्थः । शकते, 'ज्ञानेति, चक्षुःसंयोगाश्रयत्वेन घटादेः सात्मकत्ववारणाय 'ज्ञानसमानाधिकरणेति, श्रात्म-घटादिसंयोगादिमादाय तद्दोषतादवस्यमतः 'ज्ञानकारणेति, तादृशसत्त्वादेर्घटादौ मत्त्वात् तद्दोषतादवस्थ्यमतः 'संयोगेति, श्रात्म-मनमोर्वारणाय 'कार्यत्वमिति । न च प्राणेऽतिप्रसङ्गः, श्रात्म-प्राणसंयोगस्याहेतुत्वादिति वक्ष्यमाणत्वादिति भावः । 'गरौरादन्यत्रेति, न च राहोः शिरसि तत्प्रमिद्धिरिति वाच्यं । पक्षादन्यत्रापसिद्धेरित्यर्थात् चेष्टावत्त्वेन तस्थापि पक्षत्वात् । शङ्कते, 'इच्छाया इति, ‘दृष्टः' जातः, 'तड्यतिरेकइति स एव च मात्मकत्वमिति भावः । 'अप्रसिद्धमाध्यसंसर्गमिवेति, यद्यपि व्याप्तिज्ञाने साध्यसंसर्गस्गवश्यंभानात् कथं माध्यसंसर्गोऽप्रसिद्धः । न च निरधिकरणकसाध्यप्रमिया साध्याभाव-हेत्वभावयोर्व्यापकत्वग्रहसम्भवान्न मंसर्गप्रसिद्धिरावश्यकौति वाच्यं । माध्यतावच्छेदकावच्छिन्नमाध्याभावस्य व्याप्तिघटकत्वेन तद्भानावश्यंभावात् । न । तथापि अप्रमिद्धाभावसाध्यकव्यतिरेकिणि प्रसिद्ध एव माध्यसंसर्गी
Page #633
--------------------------------------------------------------------------
________________
६२८
तत्त्वचिन्तामणौ
घटादौ दृष्टः तयतिरेकः शरीरे साध्यत इति चेत् । न। इच्छाया असमवायिकारणसंयोगावच्छेदकत्वस्य शरीर एव प्रसिद्धेः सिद्धसाधनात्, अन्यथा असिविव्यतिरेकाद्यनिरूपणात् । अग्रसिद्धसाध्यसंसर्गमिव साध्यमप्रसिद्ध साधयति व्यतिरेकौति चेत् । न। व्यति
भासत इति वाच्यं । पूर्वपक्षिणा तदनगौकारात् तस्य च मतान्तरत्वात्। तथापि माश्यसंसर्गप्रसिद्ध्यसहकारेण माध्यसंसर्गमिव माध्यप्रसिद्धिं विनैव माध्यमपि माधयति व्यतिरेकीत्यर्थः, माध्यसंसर्गस्य प्रसिद्धिसत्त्वेऽपि तत्त्वेनासहकारादिति भावः । 'माधरणेति, 'इच्छाऽसमवायौति, भावकार्यत्वादिति शेषः, एतमिद्धिश्च वक्ष्यमाणानुमाने मासमवायिकारणवृत्तित्वस्य सन्दिग्धोपाधित्वनिरामार्थ साधनव्यापकत्वज्ञानायोपयुज्यते। केचित्तु 'दच्छासमवायिकारणेति अकाररहितः पाठः, तत्सिद्धिश्च ससमवायिकारणवृत्तित्वस्य सन्दिग्धोपाधिननिरासार्थ साधनव्यापकत्वज्ञानायोपयुज्यते । 'इच्छात्वमिति, व्यक्तिपक्षके विभागजे च शब्दे व्यभिचारः स्यादिति जातेः पक्षत्वमुक्त र, 'नित्येन्द्रियेति, संख्यात्व-पृथकत्वादौ व्यभिचार
(९) तथाच इच्छा संयोगासमवायिकारणिका नित्येन्द्रियग्राह्यविशेष
गुणवृत्तिगुणत्वसाक्षाद्याप्यजातिमत्त्वात् प्राब्दवत् इत्यनुमाने विभागासमवायिकारणके शब्दे संयोगासमवायिकारणकत्वरूपसाध्याभाववति तोवत्तमानत्वेन व्यभिचारप्रसङ्ग इवि जातेः पक्षत्वानुसरणमिति भावः।
Page #634
--------------------------------------------------------------------------
________________
केवलव्यतिरेक्यनुमान।
द६
रेकाद्यनिरूपणत् असाधारणधर्मेणाप्रतीतपदार्थानुमाने घटत्वादिनापि स्वेच्छाकल्पितडित्याद्यनुमानप्रसङ्ग इति। उच्यते। इच्छाऽसमवायिकारणसिद्धावि
छात्वं संयोगासमवायिकारणकत्ति नित्येन्द्रियग्रामविशेशषगुणवृत्तिगुणत्वसाक्षायाप्यजातित्वात् शब्दत्ववत् स चासमवायिकारणं संयोगः किञ्चिदवच्छिन्नः संयोगत्वात् आत्मसंयोगमावस्येच्छाजनकन्वेऽतिप्रसगादितीच्छाऽसमवायिकारणसंयोगावच्छेदकत्वं सात्मकत्वं शरौरे साध्यते। यहा आत्मानौच्छाधारता महत्
वारणाय वृत्त्यन्तं, स्नेहत्वे व्यभिचारवारणाय 'नित्येन्द्रियग्राह्यति विशेषगुणविशेषणं, नित्येन्द्रियग्राह्यत्वञ्च तन्मात्रग्राह्यत्वमतो न मनसोग्राह्यत्वेन तस्य तद्दोषतादवस्थ्यं, श्रात्मकत्वप्रत्यक्षत्वपचे संख्यात्वे व्यभिचारादाह 'विशेषेति, शब्दजशब्दादिमात्रवृत्तिजातिविशेषे व्यभिचारादाह, 'गुणत्वसाक्षाट्याप्येति, तत्त्वञ्च गुणत्वमाक्षाद्व्याप्यजात्यव्याप्यत्वं, अन्यथा गुणत्वव्याप्यान्यतरत्वादिव्याप्यत्वादसियापत्तिः, जातिपदश्च शब्दजशब्द-संख्यान्यतरत्वादौ व्यभिचारवारणय, समवायसम्बन्धेन विशेषगुणवृत्तित्वलाभाय वा, अन्यथा जन्यमात्रस्य कालोपाधितया संख्यात्वे व्यभिचारतादवस्यादिति संक्षेपः। 'अतिप्रसङ्गादिति अन्यावच्छेदेनापौच्छोत्पत्त्यापत्तेरित्यर्थः, असमवायिकारणसंयोगावच्छेदकत्वस्यैव इच्छाद्यवच्छेदकत्वनियामकत्वादित्यभिमानः, 'इच्छाऽसमवायिकारणेति। न च तादृशसंयोगाद्यवच्छेदकत्वेन प्रकारेण
Page #635
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्वचिन्तामणौ संयोगावच्छेद्या जन्यविभुविशेषगुणधारतात्वात् वावादिसंयोगाद्यवच्छेद्यशब्दाधारत्ववदिति सामान्यतः सिद्धमिच्छाधारताघटकेच्छासमवायिकारणद्रव्यसंयोगवत्वं सात्मकत्वम्, अत एव ज्ञानसमानाधिकरणज्ञानकारणीभूतसंयोगाश्रयकार्यत्वं वा सात्मकत्वं स्वशरौरे प्राणादिमत्त्वस्य इच्छादिमत्त्वस्य च चेष्टावयवोपचया
माध्यं नोक्तानुमानात् प्रसिद्धमिति वायं। तदनन्तरं मनसा तथा प्रसिद्धेः। 'यदेति, इच्छाधारतायाः परौरे व्याप्यवृत्तेर्न महत्मयोगोऽवच्छेदक इत्यतः 'प्रात्मनौति, ‘महत्संयोगेति, ‘महत्पदं मनोयोगावच्छेद्यत्वेनार्थान्तरवारणय, ईश्वरज्ञानादेाप्यवृत्तेराधारताया वारणाय 'जन्येति, रूपाद्याधारतावारणाय “विविति, आत्मवृत्तिद्वित्वाद्याधारतावारणाय 'विशेषेति, प्राधारता च समवायावच्छिन्ना विवक्षिता नातः शरौरवृत्तीच्छाद्याधारतायां व्यभिचार इति मन्तव्यं, 'सामान्यत इति सिद्धसाधनशङ्कावारणाय, 'इच्छाधारतेति 'इच्छाधारताघटकः' इच्छाधारतावच्छेदकः य इच्छासमवायिव्यनिरूपितसंयोगस्तदत्वमित्यर्थः, श्रात्मन्यतिप्रसनः वारणय निरूपितेत्यन्तं, स्वनिरूपितसंयोगवत्त्वञ्च स्वस्मिन्नास्तौति भावः । अत्रापि माध्यतावच्छेदकप्रकारेण प्रसिद्धिर्मनसा द्रष्टव्या। 'अत एवेति जानाधारता महत्मयोगावच्छेद्या गरौरवत्त्वात् स च महत्संयोगो ज्ञानममानाधिकरण: तत्तदृत्त्यवच्छेदकत्वात् ज्ञानकारणञ्च अनन्यथासिद्धात्रय-यतिरेकात् तदाश्रयोमहान्कार्यः श्रात्मसंयो
Page #636
--------------------------------------------------------------------------
________________
केवलयतिरेकानुमानं ।
१११
दिव्याप्यत्वग्रहात् घटादौ चेष्टादिविरहेण प्राणदिमक्वेच्छादिमत्त्वविरहानुमानमिच्छादिविरहात् इच्छादिप्रयोजकेच्छाद्याधारताघटकेच्छाद्यसमवायिकारणसंयोगविरहानुमान कार्याभाववति कारणाभावनियमात् । न च सात्मकत्वं शरीरत्ति शरीरे बाधकाभावात् शरीरत्ववदित्यन्वयिनैव साध्यसिद्धेः(१) किं व्यतिरेकिणेति वाच्यं । शरीरं सात्मकमिति शरीरविशेष्यकगिमहत्त्वादित्यनुमानेन प्रसिद्धिसम्भवादेवेत्यर्थः । ननु मात्मकत्वस्य माध्यस्य प्रसिद्धावपि नैरात्मत्वस्य साध्याभावस्य घटादावसिद्धत्वात् कथं व्यतिरेकव्याप्तिग्रह इत्यत पाह, ‘खशरीर इति, 'चेष्टेति चेष्टावयवोपचयाद्यन्यतमव्याप्यत्वग्रहादित्यर्थः; तेन निक्रियविनष्टभरौरे न व्यभिचारः, 'चेष्टादिविरहेण' चेष्टाद्यन्यतमसामान्याभावेन शरीरबाधकाभावेन, 'गरौरे बाधकेति गरौरवृत्तित्वाभाववत्तया अप्रमितत्वादित्यर्थः । 'संस्काराजन्येति वेगजकर्मणि व्यभिचारवारणाय, गुरुत्व-ट्रवत्वाजन्येत्यपि बोध्यं, तेन पतन-स्यन्दनयोर्न व्यभिचारः, 'एवञ्चेति, सत्यन्तमात्रस्यात्मन्यपि सत्त्वात्तड्यावृत्तये 'शरीरत्वमिति, तेन शरीरावयवे न व्यभिचारः। 'आत्मभिन्नेति, प्रात्मनः मात्म कत्ववारणाय सत्यन्तं, मृतशरीरस्यापि कदाचिद्भोगाधारतया तड्यावृत्तये 'आत्मविशेषगुणकारणेति, कारणत्वं फलोपधायकत्वं तेन शरीरातासंयोगत्वेन तस्य स्वरूपयोग्यत्वेऽपि न क्षतिः, मृत
(१) सिद्धसाधनादिति घ.।
Page #637
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्वचिन्तामणौ
बुद्धेर्व्यतिरेकिणं विनानुपपत्तेः उपायान्तरस्योपायान्तरादूषकत्वाच्च । यहा चेष्टा संयोगासमवायिकारणिका संस्काराजन्यक्रियात्वादिति चेष्टाया असमवायिकरणसंयोगसिद्धौ प्रयत्नवदात्मसंयोग एव पर्यावस्यति प्रयत्नान्वय-व्यतिरेकानुविधायित्वात्, एवं चेष्टाया असमवायिकारणसंयोगाश्रयत्वे सति शरीरत्वं सात्मकत्वं जीवछरौरे साध्यं चेष्टावत्त्वादिति हेतुः चेष्टाविरहश्च घटादौ प्रत्यक्षसिद्धः) चेष्टाविरहात्तदसमवायिकारण
परौरात्मसंयोगजनकं तदवयवात्मसंयोगमादाय मृतशरीरावयवस्य मृतशरीरावयवात्मविभागकारणमृतशरीरात्मसंयोगमादाय मृतशरीरस्य च सात्मकत्ववारणाय 'विशेषेति, भेरौदण्डसंयोगवच्छब्दजनकं मृतशरौरे शरीरान्तरसंयोगमादाय मृतशरौरे सात्मकत्ववारणय 'श्रात्मेति । यद्यपि तस्यापि स्वगोचरप्रत्यक्षजनकत्वेन जौवच्छरौरे मृतशरीरसंयोगस्य दुःखजनकत्वेन च तद्दोषतादवस्थ्यं तथापि आत्मविशेषगुणपदं प्रयत्नपरमित्यदोषः । आत्मवृत्तित्वेन संयोगे विशेष्य इत्यपि केचित्। मनसः सात्मकत्ववारणय 'भोगानधिकरणवृत्तौति, नञ्यस्थाप्येतदेव फलमिति संक्षेपः । 'प्राणान्यत्वे सतौति, प्राणे व्यभिचारवारणाय सत्यन्तं, नाड्यादौ व्यभिचारवारणाय 'ज्ञानकारणीभूतेति, चक्षुःसंयोगादिमादाय तद्दोष
(९) चेठाविरहस्य घटादौ प्रत्यक्षसिद्धेरिति घ० ।
Page #638
--------------------------------------------------------------------------
________________
बेवण्यापरवानुमान। संयोगविरहोऽपि सुग्रह। यहा जीवच्छरौरं तदषयमा वा आत्मभिन्नत्वे सत्यात्मविशेषगुणकारणभागानधिकरणत्तिसंयोगवत् प्राणान्यत्वे सति जानकारणीभूतप्राणसंयोगवत्त्वात् यन्नैवं तत्रैवं यथा घटः, श्रात्म-प्राणसंयोगः प्राण-मनासंयोगो वा शरीर-प्राणसंयोगेनैवान्यथासिद्धो न कारणं, भागाधारत्वं भोगसमवायिकारणातिरिक्तत्ति सकलभोगाधिकरणदृत्तित्वात् प्रमेयत्वादिवदिति तार्किकी रीतिः। अथेच्छाष्टद्रव्यातिरिक्तद्रव्याश्रिता अष्टद्रव्यानाश्रितत्वे सति गुणत्वात् यनैवं तन्नैवं यथानाश्रितमष्टद्रव्याश्रितं वेति कथं व्यतिरेको अष्टद्रव्यातिरिक्तद्रव्यस्य तद्दत्तित्वस्य चामतीतर्व्य
तादवस्यं अतः 'प्राणेति, मन्वात्म-मनमोरपि हेतुत्वेन व्यभिचारइत्यत आह, 'त्रात्म-प्राणेति। न च शरीर-प्राणसंयोगस्य न शरीरप्राणसंयोगत्वेन हेतुत्वं गौरवात् किन्तु प्राणसंयोगत्वेनैव यत्रावच्छेदकतासम्बन्धेन ज्ञानं तच ममवायेन प्राणमयोग इति मामानाधिकरण्यं प्रत्यासत्तिः, तथाचात्म-प्राणसंयोगादिरपि ज्ञानस्वरूपयोग्यएवेति व्यभिचारस्तदवस्थ इति वाच्य। फलोपधानस्य विवक्षितत्वात्। तञ्च कार्य-कारणभावघटकसम्बन्धेन ज्ञानसमानाधिकरणत्वे मति ज्ञानजनकत्वमिति न कोऽपि दोष इति भावः । ननु भोगामधि
(१) तार्किकनीतिरिति क., ब., ग.।
80
Page #639
--------------------------------------------------------------------------
________________
तावचिन्तामगै
तिरेकाद्यनिरूपणात् । स्यादेतत् इच्छायाद्रव्याश्रितत्वेऽनुमिते पृथिव्यादौ बाधानवतारदशायां विप्रतिपत्तिवाक्यादाश्रितत्वादिसाधारणधर्मदर्शनाहा तहव्यमष्टद्रयातिरिक्तं न वेति सन्देहेनाष्टद्रव्यातिरिक्तद्रव्योपस्थितिः। यहा इच्छाष्टद्रव्यातिरिक्ताश्रिता न वेति संशयात्(१) इच्छाया अष्टद्रव्यातिरिक्ताश्रयापस्थिती पश्चादिच्छाश्रयोऽष्टद्रव्यातिरिक्तद्रव्यं न वेति संशयादष्टद्रव्यातिरिक्तद्रव्योपस्थितिः। अथ वा द्रव्याश्रिता इच्छा अष्टद्रव्यातिरिक्तद्रव्यदृत्तिर्न वेति पूर्ववत् संशयादष्टद्र
करणावृत्तिः संयोगोऽसिद्धः भोगसमवाथिकारणस्यैव भोगाधारत्वात् संयोगस्य तन्मात्रावृत्तित्वादित्याशक्य उनसाध्योपपत्तये शरीरस्थापि भोगाधारत्वं माधयति, 'भोगाधारत्वमिति भोगासाधारणधारत्वमित्यर्थः, तेन कालादिवृत्तितया न सिद्धसाधनं, 'सकलेति, न च भोगाधिकरणेत्यस्य स्वरूपासिद्धिवारकतया वैयर्थमिति वाच्यम् । समुदायस्य भोगाधिकरणत्वव्यापकत्वादित्यर्थत्वात् । नन्विदं मन्दिग्धानेकान्तिकं माध्याभाववत्तया निश्चिते संमार्यात्मत्वे एतदनुमानात्पर्वहेतोः सन्देहादित्यत आह, 'तार्किकौति अनुभवमूलिका रौतिरित्यर्थः, शरौरे सुखमित्यनुभवात् गरौरेऽपि भोगाधार
. (१) 'इच्छाचव्यातिरिक्ताश्रिता न वेति संशयात्' इत्ययं पाठः क-ख. . पिहितालके नाति।
Page #640
--------------------------------------------------------------------------
________________
केवनयविरेक्यनुमान।
व्यातिरिक्तद्रव्यत्तित्वं प्रसिद्धमिच्छायाः साध्यते संशयप्रसिद्धमपि साध्यं व्यतिरेकादिनिरूपकं साध्यज्ञानमावस्य कारणत्वात् । न चैवं संशयादेव पक्षे साध्यसिद्धेव्यतिरेकिवैयर्थ्य, निश्चयाथ तत्प्रवृत्तरिति । मैवं । संशयेन साध्यप्रसिद्धावपि तव्यतिरेकनिश्चयासम्भवात् साध्यव्यतिरेक-तयाप्तिनिश्चयस्य साध्यनिश्चयसाध्यत्वात् साध्यसन्देहे तद्यतिरेकादिसंशयावश्यम्भावात्। किस संशयोपस्थितसाध्यस्य व्यतिरेकिनिरूपणं न योग्यानुपलम्भात् साध्यनिश्चयं विना योग्यानुपलम्भासम्भवात्। नापि व्यापकाभावात्, साध्यनिश्चयं विना तद्यापकत्वनिश्चयाभावात्। न च यदीच्छा अष्टद्रव्यातिरिक्तद्रव्या
वसिद्धौ संसार्यात्मत्वे हेतोय॑तिरेकनिर्णयेन व्यभिचारसन्देहाभावादिति भावः । 'अनुमित इति गुणत्वेनेति शेषः, 'आश्रितवादौति श्राश्रयत्वादौत्यर्थः, 'द्रव्योपस्थितिरिति, तवृत्तित्वञ्च इच्छायां द्रव्यत्वे च प्रतौतमेवेति भावः। नन्वष्टद्रव्यातिरिक्तद्रव्याश्रितत्वेन माध्यतावच्छेदकप्रकारेण यथोकसंभयान प्रसिद्धिः प्रसिद्धौ वा স্বাগনাৰঞ্জাম নিয়াঘমাল বিলা রূঘ অনিव्याप्तिग्रहः तस्य माध्यतावच्छेदकांगे विशिष्टवैशिष्यबोधरूपत्वादित्यस्वरसादाह, 'अथ वेति, ननु कोटितावच्छेदकप्रकारेण कोटिप्रसिधभावात् कथमयं संशयः तत्प्रसिद्धौ च तत एवानुमानसम्भवे
Page #641
--------------------------------------------------------------------------
________________
त्रिता न स्यादष्टानाश्रिता सती द्रव्याश्रिता न स्यात् रूपवदिति साध्यविपर्ययकोटौ प्रतिकूलतर्कसहकृतः साध्यसंशय रव निश्चयकार्यं करोति, अत एवैतादृशसंशयोपस्थितकल्पितडित्यादिसाधनमप्यपास्तं, तहिपर्यये प्रतिकूलतर्काभावादिति वाच्छं। साथ्यनिश्चयं विना साध्यव्यतिरेकनिश्चय-तन्मूलतर्कानवतारात्, अन्यथा अष्टद्रव्यातिरिक्तद्रव्यत्तित्वनिरूपणे तोंदयस्तोदये च तत्सहकृतसाध्यसंशयस्य साध्यव्यतिरेकनिश्चायकत्वमिति । उच्यते । इच्छाश्रयद्रव्यसिद्धौ पृथिव्यादाविच्छाधारताऽभावे तद्दव्यं पृथिव्याद्यष्टद्रव्यभिबम् अष्टद्रव्यात्तिधर्मवत्वात् पृथिव्यादित्वे बाधक
किमन्तर्गतेनाच तत्संशयेनेति चेत्। न । इच्छायामष्टद्रव्यातिरिकवृत्तित्व-तदभावकोटिकेन संशयेन उपनयबलादष्टद्रव्यातिरिक्त द्रव्यस्वस्य विषयोकरणात् अष्टद्रव्यातिरिकद्रव्यदृत्तित्वप्रसिद्धिरित्यभिप्रावात्। नन्धिदमयुक्त इच्छायां माध्यसन्देहेऽपि रूपादौ तव्यतिरेकनि. बथे बाधकाभावात्, न ह्येकत्र सन्देहे सर्वत्र सन्देहः, पार्थिवरूपादिसंशयसत्त्वेऽपि वायौ तदभावनिश्चयस्यानुभविकत्वादित्यत शाह, 'किञ्चेति, 'माध्यनिश्चयं विनेति,प्रतियोगि-तड्याप्येतरसकलतभिश्चायकसमवर्षाने प्रतियोग्यनुपलम्भरूपस्य योग्यानुपलम्भस्य तन्निश्चयाप्रसिद्धवावसम्भवादिति भावः। इदमापाततः इदानौं निधयत्वस्य योग्यानुपथ
Page #642
--------------------------------------------------------------------------
________________
केवणतिरेकानुमान।
सत्वाद्देत्यष्टद्रव्यातिरिक्तद्रव्यसिद्धाविछायामष्टद्रव्यातिरिक्तद्रव्यवत्वमष्टद्रव्यातिरिक्तद्रव्यत्तित्वं वा साध्यते साध्यप्रसिद्धिद्रव्यत्वे इच्छाविशेष्यकाष्टद्रव्यातिरिक्तद्रव्यवृत्तित्वप्रतीते_तिरेकिसाध्यत्वात्, तथापीच्छाष्टद्रव्यातिरिक्तद्रव्याश्रिता अष्टद्रव्यानाश्रितत्वे सति द्रव्याश्रितत्वात् अष्टद्रव्यातिरिक्तद्रव्यत्ववदिति साध्यप्रसिद्दव दृष्टान्तसिद्धेरन्वयी हेतुः स्यादिति चेत् । न । अन्वयव्यात्यप्रतिसन्धाने व्यतिरेकव्याप्तिप्रतिसन्धानदशायां व्यतिरेकिसम्भवात्। न च द्रव्यत्वादेः सपक्षात् व्यत्ताघसाधारण्यं,तद्धि साध्य-तदभावोभयसाधकत्वेन सत्यतिपक्षोत्यापकतया दोषावह प्रकृते च न हेतोः साध्या
धावतन्त्रत्वात् कादाचित्कस्य तस्याचापि भावात्, 'व्यापकाभावादिति माध्यव्यापकाभावादित्यर्थः, साध्यस्य व्यतिरेकनिरूपणमिति शेषः। भ्रान्तः शकते, 'न चेति, 'रूपवदितौति, 'प्रतिकूलतर्कत्यनेनान्वयः, 'एतादृशसंशयेति प्रागुनक्रमेण इच्छा नवव्यातिरिकद्रव्याश्रिता न वेति संशयेनोपस्थितेत्यर्थः । 'माध्यव्यतिरेकनिश्चयेति, आपादकनिश्चयस्य तक प्रति हेतुत्वात् इति भावः। 'इच्छाश्रयेति गुणत्वहेतुकद्रव्याश्रितत्वानुमानेनेति शेषः, 'इच्छाधारताभाव इति, ददश्चाग्रिमहेतुसिद्धार्थ, पृथिव्यादौति पृथिवौवाभावादिव्याप्यधर्मवत्त्वादित्यर्थः, मच गन्धाभावादिरिति शेषः, 'द्रव्यवत्त्वमिति वृत्तितासमन्धेमेत्यर्थः, प्रसिं
Page #643
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामणौ भावसाधकत्वं विपक्षे बाधकाभावात् साध्यसाधकत्वे तत्सत्वात्, अत एव यावदेकत्रानुकूलतर्को नावतरति तावदेव दशाविशेषेऽसाधारण्यं दोष इत्युक्तं सुवर्णतेजसत्वसाधकव्यतिरेकिणि शब्दोऽनित्यः शब्दत्वादित्यादावपि तथा । अथाष्टद्रव्यबाधानन्तरं इच्छादी गुणत्वादेवाष्टद्रव्यातिरिक्तद्रव्यत्तित्वं सिद्ध्यति पक्षधर्माताबलात् प्रसिद्ध विशेषबाधे सामान्यज्ञानस्य तदितरविशेषविषयत्वनियमात्, अत एवासविषयानित्यज्ञानवाधानन्तरं क्षित्यादौ कार्य्यत्वेन ज्ञानजन्यत्वं सिद्ध्यन्नित्यसर्वविषयत्वं ज्ञानस्यादायैव सिद्ध्यतीति चेत् । न ! बाधानन्तरं इष्टद्रव्यातिरिक्तद्रव्यविषयाप्यनुमितिद्र
द्धिरिति उतानुमानानन्तरं मनमा तादृशद्रव्यदृत्तित्वत्वेन माध्यतावछेदकप्रकारेण माध्यप्रसिद्धिव्यत्व इत्यर्थः, इदमुपलक्षणं अष्टानां, द्रव्यस्य, अतिरिक्तस्य, वृत्तित्वस्य च खण्डमः प्रसिया मनमा विशेष्ये विशेषणमिति न्यायेन अष्टद्रव्यातिरिक्तद्रव्यदृत्तित्वमिति विशिछप्रमितिसम्भव इत्यपि बोध्यं । नन्वेवमिच्छायामपि द्र्व्यवृत्तित्वात् माध्यमिद्धिर्जा तेति किं व्यतिरेकिणा इत्यत आह, 'दुच्छेति, 'द्रव्यत्ववदितौति 'अन्वयौ हेतुः स्थादित्यनेनान्वयः, अत्र हेतुः 'माध्यप्रसिहोवेति, ‘दृष्टान्तसिद्धेः' दृष्टान्ते द्रव्यले माध्यसिद्धेः ।
(१) बथानयाधारताबाधामन्तरमिति का, ख.।
Page #644
--------------------------------------------------------------------------
________________
केवचयतिरेक्यनुमानं ।
व्याश्रितत्वप्रकारिका स्यात् अनुमितेर्व्यापकतावच्छेदकमाचप्रकारकत्वनियमात् न त्वष्टद्रव्यातिरिक्तद्रव्यहत्त्वप्रकारिका तस्य पूर्व्वमप्रतीतत्वेन प्रकारत्वासम्भवादिति तत्प्रकारिकानुमितिर्व्यतिरेकिणैव । श्रनाद्यनन्तह्यणुकादियावत्पक्षौकरणेऽनाद्यनन्ततावदुपादानगोचरापरोक्षज्ञानत्वमेव नित्य सर्व्वविषकत्वमेतदन्य नित्यसर्व्वविषयत्वं व्यतिरेकिण एव सिद्ध्यति, पक्षधर्म्मताबलेनापि व्यापकतावच्छेदकप्रकारेण साध्यसिद्धिर्भवति न तु साध्यगतविशेषप्रकारिका अतिप्रसङ्गात् । नन्वष्टद्रव्यानाश्रितेच्छा द्रव्याश्रितेति यदि साध्यते तदाष्टद्रव्यातिरिक्तद्रव्याश्रितत्वमन्तरेण प्रतिज्ञार्थ एव नोपपद्यते, सत्यम्, एवमप्यष्टद्रव्यानाश्रितेच्छायां द्रव्याश्रितत्वं
(12
व्यावृत्ताविति अत्र द्रव्यानाश्रितत्वे सति गणत्वस्य हेतोर्व्यावृत्तादवित्यर्थः, ‘साध्य-तदभावोभयसाधकत्वेनेति प्रकृतहेतौ साध्य- तदमावोभयव्याप्तिनिश्चायकत्वेनेत्यर्थः, 'साध्याभावसाधकत्वं' साध्याभावयाप्तिनिश्चयः, 'साध्यसाधकत्वे' साध्यव्याप्यले, 'तत्सत्त्वादिति अनुन्यूलतर्कसत्त्वादित्यर्थः, अष्टद्रव्यानाश्रितस्य तदतिरिक्रद्रव्यवृत्तित्वं “वेना द्रव्याश्रितत्वस्यैवानुपपत्तेरिति भावः । 'एकचेति एकमाचे
इत्यर्थः, 'सुवर्णतैजसवेति सुवर्ण तेजः श्रत्यन्ताग्निसंयोगेनामुच्छिद्यहिमाद्रवत्वाधिकरणत्वादित्यचेत्यर्थः । 'अष्टद्रव्यबाधेति पृथिव्याद्यष्ट
Page #645
--------------------------------------------------------------------------
________________
18.
सावचिन्तामनी
सियतु तस्याष्टद्रव्यातिरेक्यं कुतः सिद्धयेत् । अथ सामा.. न्याव्यभिचारमादाय मानान्तरोपनीतं तत्तदन्यत्वमुपजीव्याष्टद्रव्यान्यद्रव्यत्तितैवेच्छादेः परिच्छिद्यते ज्ञानान्तरोपस्थापितविशेषणविशिष्टज्ञानस्य सुरभि चन्दनमित्यादौ दर्शनादिति चेत् । न। मानान्तराबियमेनानुपस्थितेः।
ये चेच्छाश्रये पृथिव्यादिभिन्नत्वं न जानन्ति इच्छायाश्च पृथिव्याद्यनाश्रितत्वं न जानन्ति तेषामप्यनुमानादित्यप्याहुः।
द्रव्येषु इच्छाधारताबाधानन्तरमित्यर्थः, 'गुणत्वादेवेति इच्छा द्रव्या श्रिता गुणत्वादित्यनुमानेनेत्यर्थः, ‘पञ्चधर्मताबलादिति अष्टद्रव्य वृत्तित्वबाधसहकारादित्यर्थः, तथाच किं व्यतिरेकिणेति भावः । 'बाधानन्तरं हौति बाधानन्तरमनुमितिरष्टद्रव्यातिरिक्तद्रव्यविषयापि द्रव्याश्रितत्वप्रकारिका स्थादित्यर्थः, 'व्यापकतावच्छेदकेति येन रूपेर' व्यापकत्वग्रहस्तेनैव रूपेणनुमितौ भाननियमादित्यर्थः, यथाश्रु कूटलिङ्गस्य स्थले व्यभिचारात्, ‘पूर्वमप्रतीतत्वेनेति पूर्व व्यापकता वच्छेदकतया अप्रतीतत्वेनेत्यर्थः। नन्वेवमीश्वरानुमाने नित्यत्वं सर्ववि षयकत्वञ्च ज्ञाने कथं सिद्ध्यतीत्यताह, 'अनाद्यनन्तेति । 'सामान्या' व्यभिचारमादायेति गुणत्वनिष्ठद्रव्याश्रितत्वसामान्यव्याप्तिधानमादायेत्यर्थः, परिच्छिद्यत इति इच्छा द्रयाश्रिता गुणवादिति प्राथमिक
Page #646
--------------------------------------------------------------------------
________________
केवश्चतिरेक्वानुमान ।
अथ व्यतिरेकी नानुमानं सर्वच प्रमेयत्वादिना सत्यतिपक्षग्रस्तत्वादिति चेत् । न। विपक्षबाधकेन व्यतिरेकिण बलवत्त्वात्।
अन्ये तु व्यतिरेकिण्यभाव एव साध्यः स चाप्रसिद्धएव सिद्ध्यति यस्याभावस्य व्यापको हेत्वभावो गृहौतस्तस्याभावः पक्षे व्यापकाभावाभावरूपेण हेतुना सिद्ध्यति व्यापकाभाववत्तया ज्ञाते व्याप्याभावज्ञानावश्यम्भावात, तथाहि पृथिवी इतरेभ्यो भिद्यते पृथिवौत्वादित्यच इतरस्य जलार्ध्यापकः पृथिवीत्वाभावो गृहीत इति पृथिवौत्वाभावाभावरूपेण पृथिवौत्वेन
। सामान्यतोदृष्टानुमाननेनेत्यर्थः, 'मानान्तरादिति प्राथमिकगुणत्वहेतुकद्रव्याश्रितत्वानुमितिप्राक्काले द्रव्यगतमष्टद्रव्यान्यत्वं मानान ग्यिमतो नोपतिष्ठते येनोपनौतं भासतेत्यर्थः, ददमुपलक्षणं मान . उपस्थितत्वेऽपि भानं न सम्भवति अनुमितेर्व्यापकतावच्छे दकमात्रप्रकारेणैव माध्यविषयकवनियमात् अनुमितावुपनौतभाने मानाभावाचेत्यपि द्रष्टव्यम् ।
केषाञ्चित्ममाधानमाह, 'ये चेति, 'जानन्नौति, न वा मामान्यतोदृष्टानुमानेन इच्छायापि द्रव्याश्रितत्वं जानन्तौति शेषः, "पृथिव्याधनाश्रितत्वमिति, दूदच व्यतिरेकिणि मत्यन्त विशेषणसिद्यर्थ, 'अनुमानादिति इच्छायामष्टट्रव्यातिरिकद्रव्याश्रितत्वानुमितेरित्यर्थः, मा. च व्यतिरेकिणं विना न सम्भवति पूर्व मामा
81
Page #647
--------------------------------------------------------------------------
________________
মন্দিনী
पृथिव्यामितरान्योन्याभावोऽप्रसिद्ध एव सिद्यति प्रतियोगिज्ञानस्य वृत्तत्वात् प्रत्यक्षेण भूतले घटाभाववत् । एवमन्यत्राप्यव्याप्यवृत्तीच्छायाः स्वाश्रयत्वे सिद्धे स्वाश्रये योऽत्यन्ताभावस्तदवच्छेदकं घटादि सव्वं तदवच्छेदेनेछानुपलम्भात् जीवच्छरोरन्तु न तथा तदवच्छेदेन तदाश्रये इच्छोपलम्भात् तथाचेच्छात्यन्ताभावाश्रयतावच्छेदकत्वरूपस्य नैरान्यस्य घटादौ प्राणादिमत्वाभावा व्यापको गृहीत इति जीवच्छरौरे प्राणादिमत्त्वेन इच्छात्यन्ताभावाश्रयत्वावच्छेदकत्वस्याभावः सात्मकत्वं साध्यते,एवं प्रामाण्यसाधकव्यतिरेकिण्यपि व्यधिकरणन्यतोदृष्टानुमानाभावेन तेन तत्मियसम्भवादिति भावः। 'इत्ययाङ्करित्यखरमोद्भावनं, तद्वौजन्तु यदीच्छाया द्रव्याश्रितत्वेन तदाश्रयस्थ पाष्टद्रव्यभिन्नत्वेम न ज्ञानं तदा माध्याप्रसिद्ध्या व्यतिरेकिणोऽप्यनवकाश इति तत्ममर्थनमप्यशक्यं स्यादिति ध्येयम् ।
'बलवत्त्वादिति, मत्प्रतिपचानवतारदशायां व्यतिरेकिसाम्राज्यात्यपि बोध्यम् ।
'प्रभाव एवेति प्रभावत्वरूपेणाभाव एव साध्य इत्यर्थः, अतएव व्यतिरेकव्याप्तिज्ञामाइन्यभावाभावत्वेनैव वयनुमितिरिति भावः । 'अप्रसिद्ध एवेति प्रसिद्धोऽपौत्यर्थः, मनु तस्याप्रसिद्धत्वे हेत्वभावे तदभावव्यापकत्वग्रहासम्भवात् कथमनुमितिरत आह, 'यस्थाभावस्येति यस्य प्रतियोगिनो व्यापकतया हेलभावे सहीत इत्यर्थः,
Page #648
--------------------------------------------------------------------------
________________
केवलयतिरेक्यनुमान।
१०५
प्रकारावच्छिन्नत्वस्य व्यापक समर्थप्रवृत्तिजनकत्वाभावोऽप्रमायां गृहोताऽतो विवादाध्यासितानुभवे समर्थप्रवृत्तिजनकत्वेन व्यधिकरणप्रकारावच्छिन्नत्वस्याभावः सिद्ध्यति व्यधिकरणप्रकारानवच्छिन्नत्वमेव प्रमात्वम् । ननु साध्याप्रसिद्धौ कथं साध्यविशिष्टज्ञानं विशेषणजानजन्यत्वादिशिष्टज्ञानस्येति चेत्। न। पक्षे साध्यानुमितिसामग्रीसत्त्वात्पक्षविशेषणकः साध्यविशेष्यकरव प्रत्य जायते भूतले घटो नास्तीत्यभावविशेष्यकप्रत्ययवत्र) तथापि साध्याभावव्यापकाभावाभावरूपहेतुमत्तया पक्षज्ञानं व्यतिरेकिणि गमकतापयिकं । न च साध्यप्रसिद्धि विनापि तादृशप्रतिसन्धानं सम्भवति, न तथाच तत्र हेत्वभावे प्रतियोगिव्यापकताज्ञानमेव हेतुरिति भावः । 'व्यापकाभाववत्तयेति व्यापकाभावत्वरूपेण व्यापकाभाववत्तया जाने इत्यर्थः, 'तथाहौति तथाचेत्यर्थः, 'दतरस्य जलादेरिति तादाम्यसम्बन्धेनेत्यादिः। ‘पचविशेषणक इति पृथिव्यां पृथिवीतरभेद इत्याकारकः प्रत्ययो जायत इत्यर्थः । नन्विदमपि ज्ञानं न सम्भवति पृथिवीतरत्वावच्छिन्न । गोगिताकभेदत्वस्य विशेष्योभते भेदे विशेषणतया तज्ज्ञानाभावात् । न चेतरस्य भेदत्वस्य च खण्डमः प्रसिद्धिसत्त्वेन विशेष्ये विशेषणमिति न्यायेन तादृशधौसम्भव इति वाच्यं । तथा मति पक्षविशेषणकपर्यन्तानुधावनवैयर्थ्यात् इतरत्वा(१) अभावविशेष्यकप्रत्यक्षवदिति घ.।
Page #649
--------------------------------------------------------------------------
________________
488
चिन्ताम
च वस्तुगत्या यः साध्याभावस्तयाप का भावप्रतियोगिमत्तया ज्ञानं मृग्यत इति वाच्यं । व्यतिरेक्याभासानुपपत्तेरिति चेत् । न । येोऽभावा यस्य भावस्य व्यापकत्वेन गृहीतः तदभावाभावेन तस्य व्याप्यस्याभावः पक्षे साध्यत इत्यनुगतानतिप्रसक्तस्य गमकतौपयिकत्वात्, 'श्रयश्च व्यतिरेकिप्रकारः स्वार्थ एव परं प्रति साध्याप्रसिद्ध्या प्रतिज्ञाद्यसम्भवादिति सर्व्वं समञ्जसम् ) ।
इति श्रीमङ्गेापाध्यायविरचिते तत्त्वचिन्तामणैौ अनुमानाख्यद्वितीयखण्डे केवलव्यतिरेक्यनुमानसिवान्तः, सम्पूर्णमिदं केवलव्य तिरेक्यनुमानं ।
वच्छिन्नस्य भेदस्य च खण्डशः प्रसिद्धिसत्त्वेन विशेष्ये विशेषणमिति न्यायेन पचविषेष्यक-साध्य विशेषणकज्ञानस्यापि सम्भवादिति चेत् । म । भेदत्वरूपेण पृथिवीतरत्वावच्छिन्न प्रतियोगिताकभेद व्यक्तेर्ज्ञानाभावदशायामस्याभिधानात् तज्ज्ञानदशायान्तु पचविशेव्यकमपि सम्भवतौति ध्येयं । 'व्यतिरेक्याभासेति वस्तुगत्याधेयत्वादेरभावस्थाप्रसिद्या व्यतिरेकव्याप्तिज्ञानान्मेयत्वाननुमानापत्तेरित्यर्थः ।
इति श्रीमथुरानाथ-तर्कवागीशविरचिते तत्त्वचिन्तामणिरहस्ये अनुमानाख्यद्वितीयखण्डरहस्ये केवलव्यतिरेक्यनुमानसिद्धान्तरहस्यं, सम्पूर्णमिदं केवस्तव्यतिरेकानुमान रहस्यं ।
(१) सर्व्वमवदातमिति घ० ।
Page #650
--------------------------------------------------------------------------
________________
अथ प्रीपत्तिः।
-~~nkatonव्यतिरेक्यनुमानसिद्धावपत्तिर्न मानान्तरं तेनैव तदर्थसिद्धेः स्यादेतत् ज्योतिःशास्त्रात्तत्कथितलिङ्गाहा देवदत्तस्य शतवर्षजीवित्वमवगतं चरम शतवर्षजीवी गृह र वेति नियमे प्रत्यक्षेणावगते पश्चाद्योग्यानुपलब्ध्या निश्चितोयहाभावो जीवननियमग्राहकप्रमा
अथ अर्थापत्तिरहस्यं ।
व्यतिरेकव्याप्तिज्ञानस्यानुमितिजनकत्वं व्यवस्थाप्य प्रसङ्गसङ्गत्या अर्थापत्तेरतिरिकप्रमाणत्वं मौमांसकाभिमतं निराचष्टे, 'व्यतिरेक्यनुमानसिद्धाविति व्यतिरेकव्याप्तिज्ञानस्यानुमितिजनकत्वसिद्धावित्यर्थः, अर्थापत्तिः' अर्थापत्तिशब्दवाच्यं ज्ञानं, तच्चास्मन्मते व्यतिरेकव्याप्तिज्ञानजन्यानुमितिरेव तन्मते चातिरिक्रमिति ध्येयं। 'न मानामरमिति नानुमितिभित्रमित्यर्थः, 'तेनैवेति अनुमानेनैव, 'तदस्य' अर्थापत्तिशब्दवाच्यज्ञानस्य, सिद्धेः' उत्पत्तेरित्यर्थः, तथाचानुमितिमामग्रौभित्रमामय्यजन्यत्वे सति जन्यत्वादिति हेतरिति भावः(१। न
(९) प्रयोगस्तु पर्यापत्तिशब्दवाच्यं ज्ञानं नानुमिति भिन्नं धनुमितिसामग्रा.
जन्यत्वे सति जन्यत्वादित्याकारक इति ।
Page #651
--------------------------------------------------------------------------
________________
२९६
तत्त्वचिन्तामणे
गयोबलाबलानिरूपणाहहिःसत्वकल्पनं विना नियमइयविषयकसंशयं जनयित्वा जीवति न वेति संशयमापाद्य जीवनसंशयापनुत्तये जीवनोपपादक वहि:सत्वं कल्पयतीति यथोक्तसामग्रानन्तरं वहिरस्तौति प्रतीतेः तवान्वय-व्यतिरेकाभ्यां संशयहारा गृहाभावः तदत्यादितनियमहयविषयकसंशयो वा करणं जीव
चानुमितिमामयौजन्यवादित्येव सम्यक् , यथामनिवे) वैयर्थाभावात्(१) । अर्थापत्तिशब्दवाच्यं ज्ञानं अनुमितिभिन्नं न वेति विप्रतिपत्तिः, यदा व्यतिरेकव्याप्तिज्ञानं व्यतिरेकव्याप्यविषयकानुमितिभिवप्रमितिकरणं न वेति विप्रतिपत्तिः, व्याप्तिविशिष्टबुद्धेः व्याप्तिजानानुव्यवसायस्य च वारणय व्यतिरेकव्याप्यविषयकेति ।
प्रचाभिनवमीमांसकाः श्टणोमौत्यनुभवसिद्धशाब्दत्वादिजातिवत् अर्थादापादयामौत्यनुभवमिद्धमपत्तित्वमपि जातिविशेषः सिद्ध्यति। मच व्यतिरेकव्याप्तिज्ञानजन्यानुमितित्वमेव तद्विषय इति वाच्यं । अमनुगतत्वाद्विलम्बोपस्थितिकत्वेन तदुपस्थिति विनापि तादृशानुगतमतेर्जायमानत्वात्। अथास्तु . अर्थापत्तित्वनामा जातिविशेषः, स चानुमितित्वव्याप्य एव । न च तस्य तद्व्याप्यत्वे मानाभावः,
(१) अनुमितिसामग्रौभिन्नसामग्राजन्यत्वे सति जन्यत्वादिति हेतोरनु.. मितिसामग्रोअन्यत्वटितत्वाभावात् न व्यर्थविशेषणघटितत्वमिति ', भावः। . .
Page #652
--------------------------------------------------------------------------
________________
पपत्तिः।
मसंशयएव वा, करणे सव्यापारकत्वानियमात्। प्रमाणयाविरोधज्ञानं तदाहितसंशयहारा करणमिति कश्चित् । तदा जीवित्वस्य लिङ्गविशेषणस्य सन्दिग्यत्वे नानुमानासम्भवादपत्तिानान्तरम् । ननु संशयस्य कल्पकत्वे स्थाणु-पुरुषसंशयादपि तदेककोटिनिर्वाहकल्पनापत्तिः, न च प्रमितसंशयः कल्पनाङ्गं,जीवनस्य
व्यतिरेकव्याप्तिज्ञानजन्यज्ञाने अनुमिनोमौत्यनुव्यवसायस्यानुमितिमामग्रौजन्यत्वस्य च मानत्वादिति चेत् । न । तत्र तादृशानुव्यवमायस्यैवामिद्धेः प्रत्युत दूदन्वसाक्षात्कृतं न वा अनुमितं परन्तु अर्थापत्त्या अवगतमिति वैपरीत्येनैवानुभवात् । अत एवानुमितिसामग्रौजन्यत्वमप्रसिद्धं तत्र तादृशव्यवसायाभावे लाघवात् माध्यवदन्यावृत्तित्वज्ञानस्यैवानुमितिहेतुत्वात् अर्थापत्तिं प्रति गुरुणेऽपि व्यतिरेकव्याप्तिज्ञानस्यानागत्या हेतृत्वकल्पनात् लघुनोऽप्यसम्भवात् । न चार्थापत्तिं प्रति लाघवात् माध्यवदन्यावृत्तित्वज्ञानं हेतुः अनुमितौ च व्यतिरेकव्याप्तिज्ञानमित्येव किन्न स्थादिति वाच। ऋचयव्याप्तिज्ञानजन्यज्ञाने अर्थादापादयामौत्यनुव्यवसायाभावात् अनुमिनोमौत्यनुव्यवसायात् व्यतिरेकव्याप्तिज्ञानजन्ये च तादृशानुव्यवमायादिति प्रातः ।
हेतोः स्वरूपामिद्धिमाशङ्कते, 'स्थादेतदिति, देवदत्तः प्रतवर्ष जीवौति न ज्योतिःप्रास्त्रोकं किन्तु यत् केन्द्रस्थवृहस्पतिकं भवति
Page #653
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामो
नत् प्रतवर्षौवौति व्याप्तिमाचपाहकमत आह, 'तस्कथितेतिः 'मनवर्षजीवौ ग्रह एवेतौति देवदत्तः प्रतवर्षजीवी सन् ग्टहान्यावृत्तिरिति नियमे इत्यर्थः, 'निश्चितोग्टहाभाव इति प्रतवर्षमध्ये एव ग्टहे देवदत्ताभावस्य निषय इत्यर्थः, 'जीवननियमयाहकेति जौविवनिश्चय-ग्रहान्यावृत्तित्वनिश्चययोः प्रामाण्याप्रामाण्यान्यतरानिश्चयादित्यर्थः, 'वहिःसत्त्वकल्पनमिति वहिःमत्त्वनिश्चयाभावेन चेत्यर्थः, 'नियमदयविषयकमिति नियमदयविषयकनिश्चयदयविषचकं प्रामाण्यसंशयं जनयित्वेत्यर्थः, 'पापाद्य' उत्पाद्य, 'अपनुत्तये' निवृत्तये, 'जीवनोपपादकमिति प्रतवर्षमध्ये ग्रहमतः प्रतवर्षजीविस्वस्थ व्यापकमित्यर्थः, 'कल्पयति' ज्ञापयति, अब मानमाह, 'यथोकेति, 'संशयदारा' प्रामाण्यसंशयद्वारा, 'ग्टहाभावः' रहे देवदत्तस्याभावनिश्चयः, ग्टहाभावनिश्चयस्थ प्रामाण्यसंशयं प्रत्यहेतुत्वेन तस्य तयारत्वासम्भवादाह, 'तदुत्पादितेति तत्प्रयोज्यनिश्चयदयविषयकप्रामाण्यसंशय इत्यर्थः, मोपि न जौवनकारणं जौवनसंशयेनान्यथासिद्धत्वात् तस्य तड्यापारत्वे मानाभावादत पाह, जीवनसंशय एव वेति 'करणमित्यनुषज्यते। ननु जौवनसंशयस्य व्यापाराभावात् कथं करएवमित्यत अाह, 'करण इति फलायोगव्यवच्छिन्नत्वस्य करणलक्षणवात् इति भाव:(१)। 'प्रमाणयोः' देवदत्ते गतवर्षजीवित्व-रहान्यावृत्तिवनिश्चययोः, विरोधज्ञान' विरुद्धार्थविषयकत्वज्ञानं, शतवर्षमथे । ग्टहनिष्ठाभावप्रतियोगिनि गतवर्षजौवित्वं ग्रहान्यावृत्तित्वच धर्मदवं विरुद्धं उभाभ्यां तनिश्चयार्थं तदुभयविषयौकतं ज्ञानमिति (१) न तु मनायोगव्यवच्छिन्नथ्यापारवत् कारणं करणमिति तात्पर्य्यम् ।
Page #654
--------------------------------------------------------------------------
________________
बर्षापतिः।
तदानौं प्रमितत्वे संशयाभावप्रसङ्गात् जीवित्वनिश्चयेऽनुमानादेव वहिःसत्त्वनिश्चयाच, कदाचित् प्रमितत्वे चप्राकममितपुरुषत्वस्यान्तरा तत्संशये कल्पना स्यात् । किञ्च जीवनसंशयस्य मृतेऽपि दृष्टत्वान्न व्यभिचारेण वहिःसत्त्वगमकमिति चेत् । न । यथोक्तसामग्रौप्रभवसंशयस्य कल्पनाङ्गत्वात्, अतएव मृत अनिष्यमाणयोमुहाभावनिश्चयो न यथोक्तसंशयमापादयतीति न वहिःसत्त्वकल्पकः। गृहाभावश्च योग्यानुपलब्धिनि
यावत्, 'तदाहिनेति तादृशविरोधज्ञानाहितप्रामाण्यसंशयद्वारेत्यर्थः, तादृशविरोधज्ञानं विना प्रामाण्यसंशयासम्भवेन उपजीव्यत्वादिति भावः। 'कश्चिदित्यखरमोद्भावनं नदीजन्तु प्रान्तरालिकस्य प्रामाण्यसंशयस्य तड्यापारत्वे मानाभाव इति । 'लिङ्गविशेषणस्येति, जीवित्वे मति ग्टहासत्त्वस्यैव हेवकरणीयत्वादिति भावः। 'अनुमानासम्भवात्' अनुमितिसामय्यसम्भवात्, 'कदाचित् प्रमितत्व इति यदा कदाधिविचितविषयकसन्देहस्यैव कल्पनाङ्गत्व इत्यर्थः, 'कल्पना स्यात्' जीवनतदुपपादककल्पना स्यात्, ‘जीवनसंशयस्येति जीवनसंशयो यस्मादिति व्युत्पत्त्या ग्रहासत्त्वनिश्चयस्येत्यर्थः, यथाश्रुते समाधाने 'ग्टहाभावनिश्चय इत्यसङ्गतेः तच्चानुपदं स्फुटौभविष्यति, 'मृतेऽपि' मृतत्वेन निवितेऽपि, 'व्यभिचारण' अन्वयव्यभिचारण, 'यथोक्तति, 'संभयस्य' जीवनसंशयस्येत्यर्थः, कार्य-कारणभावस्तु फलबलात्तयक्तित्वेन विन
82
Page #655
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामणौ
श्चितो न संशय इति। अथ जीवननियमग्राहकप्रमाणयार्यदि च तुल्यबलत्वमवगतं व तर्हि वहिःसत्त्वकल्पना विशेषदर्शनविरहात्, कल्पने वा प्रमितजीवननिर्वाहकवहिःसत्त्ववद्गृहनियमनिर्वाहकमरणस्याप्युचितत्वेन तत्कल्पनापि स्यात् जीवन-मरणयोः संशयाविशेषात् । अथ तयोरेकं बलौयोऽपरमबलं तदैकेनापरस्य बाध एवेति न संशयः तस्माद्यच शतवर्ष
क्षणशक्रिमत्त्वेनैव वेति । 'किञ्चेत्युक्तदोषमुद्धरति, 'श्रत एवेति पथोक्रसामग्रौप्रभवसंशयस्य कल्पनाङ्गत्वादेवेत्यर्थः, 'मृत-जनिष्यमानपोरिति मृतत्व-जनिष्यमानत्वेन निश्चितयोरित्यर्थः, 'यहाभावनिश्चयः' ग्टहासत्त्वनिश्चयः, 'यथोक्तति यथोकरूपेण जौवित्वसंशयं जनयतीत्यर्थः।
केचित्तु 'जीवनसंशयस्येति यथा कथञ्चित् जीवनसंशयस्येत्यर्थः, 'मृतेऽपौति, वधिमत्त्वनिश्चयाभावोऽसिद्ध एवेति भावः। एतेन दूषणद्वयमेव निराकृतं । ननु तथापि मुंतत्वादिना निश्चिते रहासत्वनिषयः वहिःसत्त्वं न कल्पयतौति श्रत पाह, 'श्रत एवेति, अर्थस्नुपूर्ववदित्याः ।
मनु जीवित्वनिधये प्रामाण्यसंभयात् जीवित्वसंशय इव योग्यासुपरधिजनितग्टहाभावनिश्चयेऽपि प्रामाण्यसंशयात् कथं न ग्टहाभावसंभय इत्यत पाह, 'ग्टहाभावश्चेति, तथाच तच योग्यानुपल
Page #656
--------------------------------------------------------------------------
________________
पर्यापतिः। जीवित्वमवधारित यहाभावश्च निश्चितः तत्र वहि:सत्वकल्पनं न तु जीवनसंशये, वश्च देवदत्तो वहिः सन् जीवित्वे सति गृहनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियागित्वादिति व्यतिरेकिणा वहिःसत्त्वज्ञानेनार्थापत्त्या लिङ्गविशेषणजीवित्वसंशये वहिःसत्त्वकल्पना च नास्त्येव । किञ्च गृहाभावनिश्चयः प्रमाणहयविषयसंशयं जनयित्वा जीवनसंशयमापाद्य वहिःसत्त्वं कल्पयतौति न युक्तं, न हि यत एव यत्संशयः स एव तन्निश्चयाय
-
---
भिजनितज्ञानमेव विशेषदर्शनतया प्रामाण्यसंशयविरोधौति भावः । 'जीवननियमेति देवदत्ते गतवर्षजीवित्वग्टहान्यावृत्तित्वनिषथयोरित्यर्थः, 'तुल्यबलत्वमिति उभयचैव सन्दिग्धाप्रामाण्यकलमित्यर्थः, 'अवगतं' प्रमाणमिद्धं, 'वहिःसत्त्वकल्पना' वहिःमत्त्वनिश्चयः, 'विशेषदर्शनेति वहिःसत्त्वव्याप्यस्य शतवर्षमध्ये ग्टहासचे मति शतवर्षजीवित्वस्य निश्चयविरहादित्यर्थः, व्याप्यनिश्चय एव तदनुपपत्त्या व्यापककल्पनादिति भावः । ननु संशयकरणकार्थापत्तिस्थले व्याप्यनिश्चयो म हेतुः किन्तु व्याप्यमंशय एव तथा फलबलात् तथैव कल्पनादित्यखरसादाह, 'कल्पने वेति, 'जीवनेति गतवर्षमध्ये ग्टहासत्त्वे मति प्रतवर्षजीवित्वस्य व्यायकेत्यर्थः, 'टहनियमेति रहामतो ग्रहान्यावृत्तित्वस्य व्यापकेत्यर्थः, 'उचितत्वेन' बदभिमतनिधायकमामग्रीविशिष्टत्वेन, व्याप्यसंशयमात्रं न व्यापकार्थापत्तिहेतुः किन्नु विलक्षण
Page #657
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामो
प्रभवति, अतिप्रसङ्गात्। मैवम् । यथोक्तसामग्रीजनितसंशयवानेवं तर्कयति योग्यानुपलब्धिगृहीतो गृहाभावइति तनिश्चयः सुदृढ़इति जीवननियमग्राहकयारेक बाध्यं विरुद्धयोरप्रमाणत्वात् तदिह मरणं कल्पयित्वा जीवनग्राहक बाध्यतां नोवा वहिःसत्त्वं कल्पयित्वा एहनियमग्राहकं तब वहिःसत्त्वकल्पने गृहनियमग्राहकमावबाधा, मरणकल्पने तु शतवर्षजीवी देवदत्तः
स्तत्संभय एवेत्यत आह, जौवनेति, जीवन-मरणयोः' जीवित्व-तदभावयोः, 'संशयेति, ग्रहान्यावृत्तित्वसंशयतोऽवैलक्षण्यादित्यर्थः । 'एक' सहान्यावृत्तित्वज्ञानं, 'बलौयः' निश्चितप्रामाण्यकं, 'अपरं' प्रतवर्षजौविवज्ञानं, 'श्रवलं' रहौताप्रामाण्यक, एकेनेति शतवर्षमध्ये ग्रहनिष्ठाभावप्रतियोगित्वेन निश्चितस्य देवदत्तस्य ग्टहान्यावृत्तिवनिश्चयेनेत्यर्थः, 'अपरस्य अपरविषयीभूतस्य प्रतवर्षजीवित्वस्य, 'बाधः' प्रभावनिश्चयः, प्रतवर्षमध्ये ग्टहासत्त्वे मति सहान्यावृत्तेः मतवर्षजौविवाभावनिययादिति भावः। 'न मंशय इति न प्रतवर्षजीवित्वसंभव इत्यर्थः, 'अवधारितमिति निषितमित्यर्थः, ग्टहान्यावृत्तित्वञ्च मन्दिग्धमित्यपि बोध्यं, 'यहाभावः' ग्टहेऽभावः । नन्वेवमेव वक्रव्यमित्यत आह, 'एवञ्चेति, 'जीवित्वे मतौति एतच्छतवर्षमध्ये सहनिहाभावप्रतियोगिखादित्यर्थः, 'यतिरेकिणेति, रदमुपलक्षणं देवदत्तभिने मैचादौ साध्य-हेतनिश्चयदमायामन्वयिनापि सम्भव
Page #658
--------------------------------------------------------------------------
________________
पर्यापत्तिः। शतवर्षजीवी गृह एवेतिनियमहयस्यापि बाधा स्यात्, तदाह जीवनवाधे तन्नियमबाधस्यावश्यकत्वादिति । किञ्च अद्य जीवति श्वो जीविष्यतीत्यादिबहुतरक्षणलव-मुहर्तादिसमयोपाधिनियतं जीवनमुपलब्धमिति तहाधे बहुतरव्याप्तिबाधः, देवदत्त-तदवयवगृहसत्वव्याप्तिश्चाल्पा तथा प्रभावस्वरूपमरणापेक्षया बहिःतौति बोध्यं, 'लिङ्गेति, अग्रे 'कल्पना चेति चकारो यत इत्यर्थे, यतो लिङ्गविशेषणजीवित्वसंगये वहिःसत्त्वकल्पना नास्त्येवेत्यर्थः । 'प्रमाणद्वयेति निश्चयदयविषयकप्रामाण्यसंशयमित्यर्थः, 'जीवनसंशयमिति जीवन-ग्रहान्यावृत्तित्वयोः संशयमापाचेत्यर्थः, तन्निश्यायेति, ग्टहान्यावृत्तित्वनिश्चयस्यैव वहिःसत्त्वसंशयत्वादिति भावः। 'अतिप्रसजादिति सर्वचैव तत्संशयोत्तरं तनिश्चयापत्तेरित्यर्थः, पूर्वं तसंशयस्य तदुपपादकनिश्चयहेतुत्वे सर्वत्रैव तत्संभयानन्तरं तदुपपादककल्पमापत्तिरित्युक्तं, अच तु तत्संगायकस्यैव तनिश्चयहेतुत्वे सर्वत्र तत्संशयानन्तरं तनिश्चयापत्तिरित्युच्यते इति न पौनरूत्यं । यद्यपि यथोकसामग्रौप्रभवसंशयसहकारेण तत्संगायकस्य तनिश्चयहेतुत्वाभ्युपगमाबातिप्रसङ्गः, तथापि स्फूटत्वात् तदनुपेक्ष्य एकमेव समाधानं उभचाह, 'मैवमिति, ‘एवं तर्कयतौति एवं लाघव-गौरवतर्कमवतारयतीत्यर्थः, योग्यानुपलधौति लाघव-गौरवज्ञानशरौरं भवति, तथा च प्रतवर्षमध्ये ग्टहामति पुरुषे गतवर्षजीवित्वं ग्टहान्यावृत्तिलच्च दयं विरुद्धमिति भावः । ‘मरणं कल्पवित्वेति मरणमत्त्वेन जीवनज्ञान
Page #659
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामणे
सत्त्वस्य भावस्य लघुत्वं, यदि च गृहान्योन्याभावाश्रयवहिःपदार्थत्तिसंयोगाश्रयत्वं वहिःसत्वमिति तदपेक्षया मरणमेव लघु, तथापि मरणापेक्षया जीवनमाचं लध्विति तदेव कल्पयितुमह । ततोऽर्थापत्तिकल्पितं जीवित्वमुपजीव्यानुमानादपि वहिःसत्त्वज्ञानं
मप्रमेत्यर्थः, 'वहिःसत्त्वं कल्पयित्वेति वहिःसत्त्वसत्त्वेनेत्यर्थः, 'वहिःसत्त्वकल्पन इति वहिःसत्त्वमत्त्वे इत्यर्थः, 'टहनियमेति ग्टहान्यावृत्तित्वनिश्चयेत्यर्थः, 'बाधा' अप्रमात्वं, 'मतवर्षजीवौ ग्रह एवेति शतवर्षजीवित्वे सति सहान्यावृत्तिरित्यर्थः, नियमद्दयस्थापि बाधा स्यादिति नित्रयदयस्य विभिन्नरूपाप्रमात्वं स्थात्, ‘शतवर्षजीवी देवदत्तः' इत्यस्य गतवर्षजौविवाभाववति गतवर्षजीवित्वप्रकारकत्वरूपशतवर्षजीवित्वाप्रमात्वं स्यात् प्रतवर्षजीवित्वे सति सहान्यावृत्तिरित्यस्य प्रतवर्षजीवित्वस्य विशेषणस्याभावेन विशिष्टस्थाप्यभावाच्छतवर्षजौविबविशिष्टटहान्यावृत्तित्वप्रकारकत्वरूपविशिष्टाप्रमात्वं स्यादिति यथाश्रुतेऽर्थे 'म तत्र विभिष्टबाधो विशेष्यवाधात्' इत्यग्रिमग्रन्थासङ्गतेः तस्य तचैव व्यक्तिर्भविष्यति । 'तनियमबाधस्येति देवदतः गतवर्षजीवित्वे मति ग्रहान्यावृत्तिरिति निर्णयप्रमालाभावस्येत्यर्थः, 'तदाधइति तेषामप्रामाण्य इत्यर्थः, 'बहुतरव्याप्तौति ज्योतिःशास्त्रजनिततबलोकतवडतरव्याप्तिज्ञानानामप्रामाण्यमित्यर्थः, 'देवदत्त-तदवथवेति, 'सहमत्त्वव्याप्तिः' तादाम्यसम्बन्धेन ग्रहमत्त्वस्य व्याप्तिधीः
Page #660
--------------------------------------------------------------------------
________________
पर्यापत्तिः।
६५५
भविष्यतीत्येतावत्तसहवतो यथोक्तसामग्रौप्रभवः संशया वहिःसत्वं कल्पयति । न च वाच्यं तर्काणां विपर्ययापर्यवसायित्वे आभासत्वं, तत्पर्यवसाने च
ग्टहान्यावृत्तित्वधौरिति यावत्। न च एकस्य देवदत्तस्य तावत्कालोपाधिनिश्चयापेक्षया देवदत्त-तदवयवादिपरस्परार्थ-ग्रहान्यावृतित्वनिश्चयानां कथमल्पत्वमिति वाच्यं। तावत्कालोपाधिजीवित्वनिश्चयस्यापि देवदत्त-तदवयवादिपरस्परार्थयावत्मत्त्वे जीवनयाहकस्य वहुत्वात् । न च तथापि वहिःसत्त्वकल्पने देवदत्त-तदवयवादिपरस्परार्थग्रहनियमवत्तेषु तदवयवादिपरस्परनियमनिययानामप्यप्रमालं स्थादिति कथमल्पत्वमिति वाच्य। मरणकल्पने ग्रह-तदवयवादिपरस्पराणं देवदत्त-तदवयवादिपरस्पराणामपि कालोपाधि-- तया तत्तजीवित्वनिश्चयानां कालोपाध्यन्तरजीवित्वनिश्चयानामप्यप्रमात्वं स्यादिति भावः । 'प्रभावस्वरूपेति तत्पुरुषोयशरौरसंयोगाधिकरणक्षणवृत्ति तत्पुरुषौयशरीरप्राणसंयोगध्वंसरूपेत्यर्थः, 'सहान्योन्याभावाश्रयेति, रह-तदभावान्योन्याभावकूटघटितत्वेन च वधि:सत्वं गुर्बिति भावः । अदृष्टविशेषध्वंसो मरणमित्यभिप्रायेणेतदभिप्राय इत्यपि कश्चित् । तदेवेति वहिःसत्त्वमेवेत्यर्थः, वहिःसत्वकल्पने लघुतरं जीवनमायास्थति मरणकल्पने च वहिःसत्त्वापेक्षया गुरुतरं ग्रहान्यावृत्तित्वमायास्यतौति गौरवादिति भावः । तथा मति जीवनमात्रमेव कल्यता किं वहिःसत्त्वकल्पनेनेत्यागवायामाह, 'तत
Page #661
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामो
तदेवानुमानमेतत्तसहायं वहिःसत्वमनुमापयिष्यतौति यतोलाघव-गौरवतर्काणां विपर्यायापर्यवसायिनामेव प्रमाणसहकारित्वमत एव प्रत्यक्ष-शब्दादावपि
इति, 'उपजौय' हेवकत्य, 'अनुमानादपौति तथाचैतस्याल्पत्वात् तर्कत्वमपि कल्यत इति भावः । 'एतावतकेति एतावल्लाघवज्ञाने- : नेत्यर्थः, 'वहिःसत्त्वं कन्पयति' वहिःसत्त्वं निश्चाययतीत्यर्थः, मरणे च लाघवज्ञानाभावान्न तनिश्चयं जनयतौति भावः। एतेन 'किश्चेत्युक्तमपि प्रत्युक्तं, तसंशायकमात्रस्य तनिश्चायकत्वे एवातिप्रसङ्गात् महकारिविशेषमासाद्य तस्य तथात्वे चातिप्रसङ्गाभावादिति हदयं । न च संशयसामान्यमेव कल्पकमस्तु कृतं यथोक्तसामग्रौप्रभवत्वविशेषणेनेति वाच्यं । अयं पुरुषो न वेति संशयस्थापि पुरुषत्वं भावरूपं तदभावापेक्षया लध्विति तर्कसहकृतस्य पुरुषत्वकल्पकत्वापत्तेः अत्रेटापत्तौ न देयमेवोक्तविशेषणमिति ध्येयं । 'विपर्ययेति, 'विपर्ययः' गर्वर्थविपरीतः लाघवार्थ इति यावत्, 'तदपर्यवसायित्वे तदनुमितिजनकसामय्यसहकतत्वे, 'आभासत्वं' लघ्वर्थनिश्चयाजनकत्वं, ईश्वरानुमानादौ लाघवज्ञानस्य लघ्वर्थानुमितिजनकसहकारेण लध्वनिश्चयजनकत्वदर्शनादिति भावः। 'तत्पर्य्यमाने चेति देवदत्तएतत्कालौनवहिःसत्त्व-मरणान्यतरप्रतियोगी एतत्कालीनप्रागभावाप्रतियोगित्वे मति टहासत्त्वादित्यनुमितिजनकसामय्याः सहकारित्वे चेत्यर्थः, 'विपर्ययेति खयर्थानुमितिजनकसामय्यमहकतामामपौत्यर्थः ।
Page #662
--------------------------------------------------------------------------
________________
पर्यापत्तिः।
सहकारी सः। न च तस्यां दशायामेव प्रमाणान्तरमस्ति, ततोऽर्थापत्तिसहकारित्वं तर्कस्य । ननु स्वकारणाधीनस्वभावविशेषातर्कानुगृहीतयथोक्तसंशयस्य यदि वहिःसत्त्वप्रमापकत्वं तदा मृते गृहस्थिते वा तादृशसंशयाद्यत्र वहिःसत्त्वकल्पना सापि प्रमा स्यादिति चेत् । न। यथाहि प्रमापकस्येन्द्रियस्य दोषेण प्रमाशक्तितिरोधानादैन्द्रियकभ्रमः तथा यथातसंशयस्यापि दोषेण प्रमाशक्तितिरोधानादग्रहरूपभ्रमसम्भवात् परोक्षज्ञानानां जनकज्ञानाविभ्रमत्वे यथार्थत्वनियमइति चेत्, सत्यं प्रकृतेऽपि जीवन-गृहाभावनियमग्राहकप्रमाणयोरन्यतराभासत्वेनाभासत्व
ननु लाघवज्ञानस्य प्रमाणन्तरमहकारित्वे प्रमाणन्तरादेव वहि:सत्त्वज्ञानं भविष्यति किमर्थापत्त्येत्यत पाह, 'न चेति, 'तस्यामिति लाघवज्ञानदशायामित्यर्थः, 'स्वभावविशेषात्' विशेषशक्तिविशेषात् । 'प्रमाशक्तौति प्रमाजनकशनेरुद्भावनाशादित्यर्थः, उद्भवश्च शक्तिनिष्ठपदार्थान्तरं, 'अग्रहरूपेति धर्म-धर्मिणोर्भदायहरूपेत्यर्थः, गुरुभिरन्यथाख्यात्यनभ्युपगमादिदमुक्तं । 'जीवन-ग्टहाभावग्राहकप्रमाणयोरिति शतवर्षजीवित्वनिश्चय-योग्यानुपलब्धिजनितग्टहाभावनिश्चययोरित्यर्थः, मृतस्थले जीवननिश्चयस्याभावसत्त्वादिति भावः । कुत्रचित् 'जीवननियमग्राहकयोरिति पाठः अत्रापि 'नियमग्राहक
83
Page #663
--------------------------------------------------------------------------
________________
नावचिन्तामणे
सम्भवात् । यहा दोषाभावसहशतस्य यथोक्तसंशयस्य वहिःसत्त्वप्रमापकत्वमिति ।
इति श्रीमहोशोपाध्यायविरचिते तवचिन्तामणी अनुमानास्यद्वितीयखण्डे संशयकारणकार्थापत्तिपूर्वपक्षः ॥ * ॥
पदेन योग्यानुपलब्धिननितः देवदत्तोग्टहे नास्येवेति निश्योविवचितः न तु जीवो ग्टह एवेतिनिश्चयः, तथासति वहिःसाचं कुत्रापि म स्थात्, ग्रह एवेतिनिधयस्य कुत्राप्याभासत्वादिति ध्येयं । दोषेण प्रमागरद्भावनाशमुक्त्वा दोषाभावस्थ प्रमाहेतृत्वमाइ, 'यति ।
इति श्रीमथुरानाध-तर्कवागीशविरचिते तत्त्वचिन्तामणिरहस्ये अनुमानाख्यदितीयखण्डरहस्ये संशयकारणकार्थापत्तिपूर्वपक्षरहस्यं ।
Page #664
--------------------------------------------------------------------------
________________
(
e)
अथ संशयकारणकापत्तिसिद्धान्तः ।
उच्यते । अनयारेक बाध्यं विरुद्धार्थग्राहकत्वादिति सामान्यतादृष्टादेव तर्कसहकताहनियमग्राहकबाधे लिङ्गविशेषणजीवित्वनिश्चयेऽनुमानाबहिःसत्वसिद्धिः, तथाहि जीवनप्रमाणबाधे गृहनियमप्रमाणात्यापितलिङ्गेन मरणानुमानात् प्रमाणत्वाभिमतयाईयोरपि बाधा स्यात् गृहनियमग्राहकमानबाधे च निष्यरिपन्धिजीवनप्रमाणालिङ्गविशेषणजीवित्वनिश्चये वहिःस
अथ संशयकारणकार्थापत्तिसिद्धान्तरहस्यं । 'अनयोरिति देवदत्तः शतवर्षजीवौ देवदत्तोग्टहान्यावृत्तिरिति निचयइयान्यतरत्वं गतवर्षजीवित्वभ्रम-ग्रहान्यावृत्तित्वभ्रमयान्यतरवृत्ति प्रतवर्षजीवित्व-सहान्यावृत्तित्वोभयविरोधनिरूपकाधिकरणविशेष्यक-गतवर्षजीवित्वप्रकारकज्ञानवृत्तित्वे मति तद्विशेष्यकग्टहान्यावृत्तित्वप्रकारकज्ञानवृत्तिवादित्यर्थः, तदुभयविरोधनिरूपकत्वन्तु तदुभयत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभाववत्वं, यत् तदुभयोविरोधनिरूपकाधिकरणविशेष्यक-तत्प्रकारकज्ञानवृत्तिवे मति तादृशाधिकरविशेष्यक-तत्प्रकारकज्ञानवृत्ति तत्तड्डम-तसमयान्यतरवृत्ति यथा सत्तावान् गुण: द्रव्यत्ववान् गुण इतिनिश्चयदयान्यतरत्वमिति मामा
Page #665
--------------------------------------------------------------------------
________________
६६०
तत्त्वचिन्तामणौ
वानुमानादेकप्रमाणबाधैवेत्यादितर्कसहकृतात् सामान्यतादृष्टादेवानयोरेकं बाध्यमिति जायमानानुमितिः परम्परामरणज्ञापकं विषयौकरोति, न तु वहिःसत्त्वपरम्परासाधकं जीवनप्रमाणं, तथाच सामान्यतादृष्टादेव गृहनियमग्राहकबाधे जीवनप्रमाणालिङ्गविशेषरणजीवित्वनिश्चयेनुमानादेव वहिःसत्त्वज्ञानमिति किमर्थापत्त्या । ननु वहिःसत्त्वज्ञानं विना जीवौ गृहरवेत्यस्य ब्रह्मणापि बाधितुमशक्यत्वात् प्रथमं वहिःसत्त्वज्ञानं न तु गृहनियमग्राहकबाधानन्तरं तत् येन निष्यरिपन्थिजीवनग्राहकाज्जीवित्वनिश्चयेऽनुमानं स्यात्, न
न्यमुखौ च व्याप्तिरिति भावः। यथाश्रुते शतवर्षजौवी देवदत्त इत्यत्र व्यभिचारात् तस्य प्रमात्वात् बाधत्वस्य सामान्यतोदुर्वचत्वाच्च । 'तर्कसहकतादिति लाघवज्ञानसहकतादित्यर्थः, ग्टहनियमग्राहकबाधइति महान्यावृत्तित्वनिश्चयस्याप्रमावनिश्चये इत्यर्थः, 'जीवनप्रमाणबाध इति गतवर्षजौवित्वनिश्चयस्याप्रमावे इत्यर्थः, 'टहनियमप्रमापति सहान्यावृत्तित्वनिश्चयान्वितेन एतत्कालौनप्रागभावाप्रतियोगिप्राणिवे मति ग्रहान्यावृत्तित्वविभिष्टम्टहासत्त्वेन लिङ्गेनेत्यर्थः, 'मरणानुमानात्' मरणस्यानुमानप्रमाणमिद्धत्वात्, ‘प्रमाणत्वाभिमतयोरिति जतवर्षजीवी देवदत्तः शतवर्षजीवी देवदत्तोग्टह एवेतिनिश्यद्वयोरित्यर्थः, 'बाधा स्यात्' अप्रमात्वं स्थात्, शतवर्षजीवी
Page #666
--------------------------------------------------------------------------
________________
पर्यापत्तिः ।
प्राथमिकवहिःसत्त्वज्ञानमर्थापति विना । न च गृहनियमग्राहिणि तुल्यबले जागरूके कथमपित्त्यापि वहिःस्वत्त्वज्ञानमिति वाच्यं । तर्कसहकारेणापत्तेर्बलवत्त्वादहिःसत्वज्ञानमुत्याद्य गृहनियमग्राहकमानबाधादिति चेत् । न। तर्कसहकारेण सामान्यतादृष्टस्य बलवत्त्वेन गृहनियमग्राहकबाधसम्भवात, तस्माद्यथातसंशयदशायां जीवनबाधे तन्नियमबाधस्यावश्यकत्वादिति तर्कानन्तरमेव वहिःसत्त्वज्ञानमित्यविवादं, तत्र कल्पनीयप्रमाणभावे यथोक्तसंशये तर्कस्य न सह कारित्वं गौरवात् किन्तु नियमग्राहकबाधद्वारा वहिः
देवदत्तोग्टह एवेतिनिश्चयेऽपि गतवर्षजीवित्वस्य देवदत्ते प्रकारकत्वादिति भावः। 'निष्परिपन्थौति 'प्रतिबन्धकासमवहितेत्यर्थः, जौवमप्रमाणात्' केन्द्र स्थवृहस्पतिकत्वादिनिष्ठप्रमात्मकजीवित्वव्याप्तिनिवयात्, 'जीवित्वनिश्चये' जीवित्वमिद्धौ, 'वहिःसत्वानुमानात्' वहि:सत्त्वस्यानुमानप्रमाणसिद्धृत्वात्, 'एकप्रमाणबाधेवेति ग्टहान्यावृत्तित्वनिश्चयस्यैवाप्रमात्वं स्थादित्यर्थः, 'परम्परेति ग्टहान्यावृत्तिवनिश्चयमित्यर्थः, 'जीवनप्रमाणं' प्रतवर्षजीवित्वं, 'बाधे' अप्रमालनिधये, 'जौवनप्रमाणदिति । 'वहिःसत्त्वज्ञानं विनेति देवदत्ते वश्विनिश्चय विनेत्यर्थः, 'बाधितुमिति अप्रमात्वेन निश्चितमित्यर्थः, ग्टहनियमनिश्चयस्याप्रमात्वं हि वहिःसत्त्ववति देवदत्ते सहान्यावृत्तित्वप्रकारकत्वं
Page #667
--------------------------------------------------------------------------
________________
सत्वचिन्तामणी
सत्त्वपरम्परासाधके सामान्यतादृष्टे लाघवात् । न च सामान्यतादृष्टावतार रवाच नास्तीति वाच्यम्। अनिहारिकबाधप्राप्ती होकबाधानुकूलकल्पनायां विनिगमकस्तो भवति, न चैकबाधप्राप्तिः सामान्यतादृष्टंविना । किञ्च विरोधनानानन्तरमेकमप्रमाणमिति यदि धौर्नास्ति तदा प्रामाण्यसंशयो न स्यात् न स्याच्च जीवनसंशयः इयोरपि जीवनमरणनिश्चायकत्वात्। अथैकमनयोरप्रमाणमिति ज्ञानं जनयित्वा सामान्यतादृष्टस्य
वहिःसत्त्वस्यैव ग्टहान्यावृत्तित्वाभावत्वादिति देवदत्ते तनिश्चयस्यावस्यकत्वादिति भावः । 'बाधानन्तरं' अप्रमावनिश्चयानन्तरं, 'तत्' देवदत्ते वहिःसत्त्वज्ञान। 'टहनियमेति सहान्यावृत्तित्वसंशये इत्यर्थः, जीवित्वसंभयकालोत्पत्रप्रामाण्यसंशयाहितग्टहान्यावृत्तित्वसंशयात्मककोटिइयोपस्थितिमत्त्वादिति भावः । 'अर्थापत्तेर्बसवत्वादिति अर्थापत्तिजनकीभूतस्य जीवित्वसंशयस्थ महान्यावृत्तित्वसंग प्रतिबन्धकवादित्यर्थः, अलौकिकप्रत्यक्षमामय्या मानमसामय्याः सर्वतो बलवत्त्वात् ग्रहान्यावृत्तित्वनिश्चयस्याप्रमावयहसम्भवादिति भावः । 'जीवनबाध रति जीवित्वनिश्चयस्याप्रमाण्ये इत्यर्थः, 'तषियमेति प्रतवर्षजीवौ देवदत्तोग्टहएवेति निर्णयाप्रमावस्यावश्यकत्वादित्यर्थः, 'कल्पनीयप्रमाणभाव इति कल्पनौयामितिजनकताकेत्यर्थः, 'टहमियमग्राहकद्वारेति सहान्यावृत्तित्वनिश्चयस्य प्रामाण्यद्वारेत्यर्थः,
Page #668
--------------------------------------------------------------------------
________________
पर्चापत्ति। पर्यवसितत्वातजनितनियमहयसंशयाहितजीवनसंशयानन्तरं तर्कावतारे पहिरस्तौतिज्ञानं जायमान संशयस्य कारणत्वं व्यवस्थापयतीति चेत् । न। यदेव हि विरुद्धार्थग्राहकत्वं तर्कविनाकृतमनिर्धारितैकाप्रामाण्यानुमितिमजौजनत्तदेव तर्कसहकृतं पुनरनुसन्धीयमानं गृहनियमग्राहकप्रमाणमित्यनुमिति वहिःसत्त्वज्ञानानुकूलां जनयति सहकारिवैचित्रणैकस्यापि विचिचफलजनकत्वात्। न च जीवनसंशयान
'अनिर्धारितैकेति सामान्यतोऽन्यतरनिश्चयस्थाप्रामाण्यनिश्चयेत्यर्थः, 'एकबाधाजुकूलेति ग्टहान्यावृत्तित्वनिश्चयस्याप्रमाण्यानुकूलवधिःसत्त्वकल्पनायामित्यर्थः, 'एकबाधप्राप्तिः सामान्यतोऽन्यतरनिश्चयस्थाप्रामानिश्चयः । मनु मामान्यतोऽन्यतराप्रामाण्यनिश्चयं विनैव इदमप्रमाणमितिसंभयो यथोकलाघवतर्कसहकाराबहिःसत्त्वनिमयं जनयिष्यति किं सामान्यतोदृष्टेनेत्यत-भाह, 'किञ्चेति, 'विरोधज्ञानानन्तर' विरुद्धार्थविषयक ज्ञानानन्तरं, 'एकमप्रमाणमिति अनयोरन्यतरदप्रमाणमिति धौर्यदि नास्तीत्यर्थः, 'तदा प्रामाण्येति, यहाभावनिश्चयात् प्राकइयोविरुद्धार्थविषयकत्वानुपस्थित्याप्रामाण्यनिश्चितप्रामाण्यकलान्यतरस्याप्रामाण्यवाने च तच च प्रामाण्यनिश्चयेऽप्रामाण्यमंमयादिति भावः। ननु मा भूत् प्रामाण्यसंभयोजीवनसंशयादेव वहिःसत्त्वकल्पना भविष्यतीत्यत आह, 'न स्यो
Page #669
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्वचिन्तामणी
तरं तदनुसन्धानमसिद्धं गृहनियमग्राहकस्य जीवनग्राहकविरुद्धार्थग्राहकत्वं विना(१) वहिःसत्त्वकल्पनेऽप्यबाधप्रसङ्गात्। अथ यदि पर्यवसन्नमपि प्रमाणं पुनरनुसन्धीयमानं सहकारिविशेषात् फलान्तरजनक सदेच्छा द्रव्याश्रिता कार्यात्वादिति सामान्यता दृष्टद्रव्याश्रितत्वानुमिता पश्चादष्टद्रव्यत्तित्वबाधे व्यतिरेकिणात्मसिविरिति भज्येत अष्टद्रव्यत्तित्वबाधसहचतात् सामान्यतोदृष्टादेव पुनरनुसन्धीयमानात् तत्सिद्देरिति
चेति, 'इयोरिति जौवनग्राहकप्रमाण-ग्रहान्यावृत्तित्वग्राहकप्रमाणयोरित्यर्थः, 'जौवन-मरणेति, ‘मरणपदं मरणनिर्वाह्यग्टहान्यात्तित्वपरं, जौवित्व-टहान्यावृत्तित्वनिश्चयोपस्थितत्वादित्यर्थः, तथा चाग्रहौताप्रामाण्यकजीवित्वनिश्चयसत्त्वात् कथं तमंशय इति भावः । इदमापाततः यत्र इयोः प्रामाण्यं पूर्वं न निश्चितं तत्र मामान्यतोदृष्टं प्रति प्रामाण्यसंशयादिसम्भवादिति ध्येयं । नन्वेतावता भवत्वप्रामाण्यमंशयात् पूर्व सामान्यतोदृष्टाभावः तथापि तस्यानयोरेकमप्रमाणमिति ज्ञानं जनयित्वा विनाशात् तननितप्रामाण्यसंशयाहितजीवित्वसंशयानन्तरं तर्कावतारे वहिरस्तौति ज्ञानं स्यात् तत्र जीवित्वसंशयस्य कारणत्वादित्याशङ्कते, 'अथेति, 'पर्यवसितत्वात्' विनाशात्, “नियमदयेति निश्चयदयप्रामाण्य
“ (१) विरुद्धार्थग्राहकत्वानुसन्धान विनेति क• ख. ।
Page #670
--------------------------------------------------------------------------
________________
पर्यापत्तिः। .. . चेत् । न। अनुमितेर्व्यापकतावच्छेदकप्रकारकत्वनियमेन तत्प्रकारकबुडेय॑तिरेकिसाध्यत्वात् व्यतिरेकिणेऽप्यन्या सामर्थ्यावधारणेनोपायान्तरस्यादोषाच। अपि च देवदत्तो जीवन-मरणान्यतरप्रतियोगी प्राणित्वामहदिति सामान्यतादृष्टं लाघवसहकारेण जीवनप्रतियोगिन्वं विषयौकरोति तथाच लिङ्गविशेषणनिश्चया
मंगयाहितेत्यर्थः, 'अनिर्धारितेति सामान्यतोऽन्यतरनिश्चयस्थाप्रामाण्यानुमितिमित्यर्थः, 'पुनरिति जीवनसंशयानन्तरं पुनरनुमन्धीयमानमित्यर्थः, 'विरुद्धार्थग्राहकत्वं विना' तज्ज्ञानं विना, 'वहिःसत्त्वकल्पनेऽपौति, षष्ट्यऽर्थ सप्तमी, 'अबाधप्रसङ्गादिति 'बाधः' असत्त्वं, तदभावप्रसङ्गात् सत्त्वप्रसङ्गादिति यावत्, 'तदनुसन्धान विना', तस्थासत्त्वन्तु अनुभवसाक्षिकमिति भावः । ‘पर्यवसन्त्रमपौति विशिएमपौत्यर्थः, 'अष्टद्रव्यत्तित्वबाध इति अष्टद्रव्यदृत्तित्वाभावनिश्चयइत्यर्थः, 'व्यतिरेकिणेति इच्छा अष्टद्रव्यातिरिकद्रव्याश्रिता अष्टद्रव्यानाश्रितत्वे सति गुणत्वादिति व्यतिरेकिणेत्यर्थः, 'तमिद्धेरिति अष्टद्रातिरिक्तद्रयमिद्धेः सम्भवादित्यर्थः, 'तत्प्रकारकेति अष्टद्रव्यातिरिक्तद्रव्यत्वप्रकारकेत्यर्थः । ननु लाघव-बाधसहकारेण व्यापकतानवच्छेदकमपि प्रकारौक्ष्य भासते ईश्वरानुमानादौ तथा दर्शनादित्यत आह, 'व्यतिरेकिणोऽपौति व्यतिरेकव्याप्तिज्ञानस्यापौत्यर्थः । ननु विरुद्धार्थग्राहकत्वप्रतिसन्धानं विना वहिःसत्त्व
84
Page #671
--------------------------------------------------------------------------
________________
নখিলনায়ী
दनुमानादेव वहिःसत्त्वसिद्धिः। अथ लाघवसाचिव्थात् सामान्यतादृष्टस्यापि विशेषविषयत्वात् नियमग्राहकप्रमाणोत्यापितलिङ्गकमरणानुमानेन जीवनप्राहकस्यैव सत्प्रतिपक्षत्वम् एकेनापि भूयसामपि प्रतिबन्धसम्भवात् । न च तर्कात्सामान्यतादृष्टस्य बलवत्वं, व्याप्ति-पक्षधर्मातेहि बलं तच्च तुल्यमेव ज्ञातं लाघवाख्यतर्कस्य विशेषमावपर्यवसायकत्वेन व्याप्तिग्राहकत्वस्य
निश्चयस्यासत्त्वमेवामिद्धं तस्य पुनरनुसन्धानं विनापि यथोकसामग्रौप्रभवसंशयानन्तरं लाघवावताराबहिःसत्त्वनिश्चयस्यानुभवसिद्ववादित्यस्वरमादाइ, 'अपि चेति, ‘सामान्यतोदृष्टमिति नौवित्वसंभयानन्तरोत्पन्नमित्यर्थः । न च प्रामाणिकप्रतिसन्धानाभावेऽपि यथोक्रमामग्रौप्रभवसंशयानन्तरं वहिःसत्त्वामिद्धेरापत्तिरतिरिच्यते इति वाच्यं । केन्द्रस्थितवृहस्पतिकत्वस्य घटादिसाधारणतया प्रामाणिकलोपस्थिति विनापि यथोकसामग्रौघटकस्य शब्दत्वनिषयस्यैवासम्भवादिति भावः । 'विशेषविषयत्वादिति जीवनत्वप्रकारेण जीवनविषयकवादित्यर्थः, अन्यथा अन्यतरत्वरूपेण जीवनविषयकवे मरणानुमानेन न सत्प्रतिपक्षः सम्भवति भिन्नप्रकारकत्वेन विशेषकवाभावादिति भावः । 'नियमयाहकप्रमाणेति ग्टहान्यावृत्तित्वनिचयनिचितलिङ्गपरामर्थनेत्यर्थः, तच्च देवदत्तोमतः सहान्यावृत्तिले (१) प्रतिषेधसम्भवादिति ।
Page #672
--------------------------------------------------------------------------
________________
पर्यापत्ति।
तुल्यत्वादिति चेत्, तईि पक्षधर्माताबलाहिशेषसिद्धिः कापि न स्यात् सर्वच सामान्यमुखप्रवृत्तप्रमाणस्य विशेषपर्यवसानेऽन्यसाधर्मेण सत्प्रतिपक्षसम्भवात, श्रमयोजकत्वान्न विपरीतसाधनमिति तुल्यं नियमग्राहकस्याप्रयोजकत्वात् जीवनग्राहकस्य तु सामान्यतादृष्टस्य ज्योतिःशास्त्राद्यथार्थत्वमेव विपक्षबाधकं व्याप्तिग्राहक
मति ग्टहावस्थानस्याप्रामाणिकत्वादित्याकारकमिति भावः। 'जीवनग्राहकस्यैवेति देवदत्तः गतवर्षजीवी केन्द्रस्थहस्पतिप्रामाणिकत्वादित्यादेरेवेत्यर्थः, 'मत्प्रतिपक्षितत्वमिति(१) । ननु जीवनग्राहकस्य केन्द्रस्थ वृहस्पतिकप्रामाणिकत्व-केवलप्राणिवादिरूपतया भूयस्खेन बलवत्त्वमित्यत श्राह, 'एकेनेति, विशेषमात्रे जीवित्वप्रकारेण जौविबानुमितौ हेतुत्वेनेत्यर्थः, 'भूयसामपौति। तौति, 'विशेषपर्यवसानइति लाघवादिसहकारेण विशेषप्रकारेणनुमितिजनन इत्यर्थः, 'अन्यसाधणेति पर्वतो न पर्वतीयवहिमान् पर्वतीयवझिमदन्यत्वात् इति मत्प्रतिपक्षसम्भवादित्यर्थः, अभिसन्धिमुद्घाटयति, 'अप्रयोजकवादिनि, 'अप्रयोजकत्वात्' अनुमितिप्रयोजकरूपशून्यत्वात् हेतौ पक्षधर्मतानिश्चयविरहात् इति यावत्, 'न विपरोतसाधनमिति न पक्षधर्मताबललभ्यविशेषविरहव्याप्यवत्तानिश्चय इत्यर्थः, 'तुल्यमिति,
(१) एतेन 'सत्प्रतिपक्ष' इत्यत्र 'सत्यतिप्रतिपक्षिवत्वमिति कस्यचि.
भूगपुस्तकस्य पाठोऽनुमौयत इति ।
Page #673
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामो
मस्ति तस्मात् सामान्यमुखप्रवृत्तस्य सहकारिविशेषात्() विशेषपरस्यानुमानस्य तविशेषविलक्षणग्राहकप्रमाणेन) सत्प्रतिपक्षत्वम्। न च प्रमाणविरोधेनास्य सर्को न सहकारीति वाच्यं। तर्कानवतारे विशेषपरत्वाभावेनाविरोधात् तदवतारे तदधिकबलत्वादेव अन्यथा तीनवतारे सत्प्रतिपक्षस्य तदवतारेऽपि
सहान्यावृत्तित्वस्य देवदत्ते सन्धिग्धत्वादिति भावः । 'नियमग्राहकस्येति पूर्वोत्पत्रस्य ग्टहान्यावृत्तित्वनिश्चयस्येत्यर्थः, 'अप्रयोजकत्वात्' अनुमित्यजनकत्वात्, तत्र प्रामाण्यसन्देहादिति भावः । नन्वेवं जीवित्वे मति सहासत्त्वेन वहिःमत्त्वानुमितिरेव कथं स्यात् ग्रहान्यावृत्तिवनिश्चयवत् लाघवसहकारेण उत्पबजौवित्वविषयकानुमितेरपि प्रामात्यसंशयेन लिङ्गविशेषणजीवित्वसन्देहात् व्याप्ति-पक्षधर्मातानिश्चयविरहादित्यत पाइ, 'जीवनग्राहकस्येति, 'ज्योतिःशास्त्राद्यथार्थत्वमेव, 'जीवनग्राहकस्य सामान्यतोदृष्टस्य' लाघवतर्कसकारेण जीवनविषयकस्य सामान्यतोदृष्टस्य, ‘विपक्षबाधक' अप्रामाण्ययहे बाधक, 'व्याप्तियाहकमस्तौति जीवित्वलिङ्गकवहिःसत्त्वानुमाने व्याप्तिविमिष्टपक्षधर्मतानिचायकमस्तौत्यन्वयः, 'विशेषग्राहकप्रमाणेनेति अमुख्यबलेनेति शेषः। ग्रहान्यावृत्तित्वस्य निश्चयासत्त्वेऽपि मरण
(१) सहकारिनियमादिति घ•। (२) सहिशेषविलक्षणविशेषग्राहकमानेनेति
।
Page #674
--------------------------------------------------------------------------
________________
पर्यापतिः। तवं न निवर्तते। किश्चैवमर्थापत्तावपि तहिरोधेन न सहकारी स्यात् । यदुक्तं मरणकल्पने शतवर्षावच्छिन्नजीवी गृह रवेत्यस्यापि बाधइति तच विशिष्टबाधो न विशेष्यबाधात मरणेऽपि जीवो यह रवेत्यस्य विशेष्यस्याबाधात् किन्तु विशेषणबाधात् सप शतवर्षजीवित्वबाध एव । विशेषणाभावायत्तो विशिटाभावोऽप्यस्तौति चेत्। न। विशेष्यवति विशिष्टाभावस्य केवल विशेषणभावात्मकत्वात् विशिष्टस्यातिरिक्तस्यानभ्युपगमात्।
व्याप्यत्वेन धर्मान्तरनिश्चय एव प्रतिबन्धकः स्थादित्याशङ्कते, 'न 'चेति, 'प्रमाणविरोधेन' प्रमाणन्तरविरोधेन मरणव्याप्यत्वेन मेयत्वादिलक्षणयत्किञ्चिद्धर्मान्तरस्य निश्चयेन प्रतिबन्धेनेति यावत्, यद्यपि मरणव्याप्यत्वेन यत्किञ्चिद्धर्मान्तरस्य निश्चयो न सर्वच, तथापि यत्र तदवतारस्तवार्थापत्तिरायास्थतौति भावः । 'विशेषपरत्वाभावेनेति विशेषप्रकारकानुमितिजनकत्वाभावेनेत्यर्थः, 'अविरोधात' मरणव्याप्यवत्तानिश्चयस्याप्रतिबन्धकत्वात्, ‘तदधिकषणवादेवेति तदपेक्षया सामान्यतोदृष्टस्याधिकबलत्वादेवेत्यर्थः, तर्कण तत्र प्रामाण्यमंशयादिति भावः । 'अन्यथेति तर्कस्याधिकबखत्वासम्पादकत्वे इत्यर्थः, 'तद्विरोधेनेति वहिःसत्त्वाभावव्याप्यत्वेन यकिचिद्धर्मनिश्चयस्य प्रतिबन्धकत्वेनेत्यर्थः, “किञ्चत्यापाततः, वहि:
Page #675
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामगै
अन्ये तु शतवर्षजीवी देवदत्तो जीवौ गृह एव, रहे नास्तीतिप्रमाणेषु दयारविरोधेऽपि तृतीयमादाय विरोधज्ञानमस्ति तब जौवी रवेत्यप्रमाणघटितप्रमाणहयविरोधज्ञानजनिताप्रामाण्यसंशयाहितजीवनसंशयात् प्रमाणयारविरोधोपपादकमप्रमाणविरोधि वहिःसत्त्वं कल्प्यते यथोक्तसंशयस्यायमेव स्वभावो यहस्तुगत्या अप्रमाणं तहिरोधि कल्ययति विरोधघट
सत्त्वाभावव्याप्यत्वेन यत्किञ्चिद्धर्मनित्रयसत्त्वे वहिःसत्वनिश्चयाभावे रष्टापत्तेः मयापि तदानौं तदनभ्युपगमादिति ध्येयं । 'बाधः' अप्रामाण्यं, 'तच विशिष्टबाधः' तत्प्रतिपाद्यं विशिष्टविषयकज्ञानस्थाप्रामाण्यं, 'न विशेष्यबाधात्' न विशेष्याभाववति विशेष्यप्रकारकत्वात् न सहान्यावृत्तित्वाभाववति ग्टहान्यावृत्तित्वप्रकारकवादिति यावत्, 'अबाधादिति ग्रहान्यावृत्तिलांचे बाधासम्भवादित्यर्थः, 'किन्तु विशेषणबाधादिति किन्तु गतवर्षजीवित्वाभाववति गतवर्षजीवित्वप्रकारकत्वादित्यर्थः, धर्मिणि विभिष्टस्य प्रकारत्वे विशेषणस्यापि प्रकारत्वनियमात्, अत एव गुणान्यत्वविभिष्टसत्तावान् गुण इत्यस्याप्यप्रमात्वं गुणे विशिष्टमत्तायाः प्रकारत्वे गुणान्यत्वस्यापि प्रकारत्वादिति भावः । 'मतबर्षजीवित्वबाध एवेति मतवर्षजीवित्वाप्रमात्वमेवेत्यर्थः, तथाच निश्चयदयस्याप्रमावदयकअपना नास्तौति भावः । 'विशेषणभावायत्त इति, तथाच विशिष्टा
Page #676
--------------------------------------------------------------------------
________________
पर्यापत्तिः।
(१ कस्य वस्तुगत्या अप्रमाणत्वमेव विनिगमकत्वमिति,९) तनुच्छम, अप्रमाणस्यापि प्रमाणत्वेन ज्ञानात्, तर्कादिभिर्विशेषदर्शनं विनायथोक्तसंशयानन्तरं वहिरस्तौति जानमसिद्धमतान फलबलेन तथाापत्तिकल्पनं । किञ्च मृते गृहस्थिते वहिःस्थिते तादृशसंशयादेव भाववति विशिष्टप्रकारकत्वरूपाप्रमात्वदयकल्पनापत्तिरिति भावः । 'विभिष्टाभावस्येति विशिष्टाभावव्यवहारविषयस्येत्यर्थः, इदमापाततः विशिष्टाभावस्थातिरिक्तस्थाभावेऽपि विशिष्टं नास्तौतिप्रतीत्या विशिष्टस्य प्रतियोगित्वावगाहनाद्विशेषणभावस्यैव विशिष्टप्रतियोगिकत्वाभ्युपगन्तव्यत्वात् विशिष्ट प्रकारकत्वरूपाप्रमात्वमादायाप्रमालदयकल्पना भवत्येवेति ध्येयं ।
यदि ग्टहान्यावृत्तित्व-शतवर्षजीवित्वयोः संशयाविशेषेऽपि जीवित्वोपपादक वहिःसत्त्वमेव कल्यं न तु सहान्यावृत्तित्वोपपादक मरणमित्यत्र तर्काविनिमक उच्यते तदा त्वलातादेव देवदत्तो जीवन-मरणाद्यन्यतरप्रतियोगौति सामान्यतोदृष्टात् जीवित्वं शिक्षाविशेषणं निश्चित्यानुमानादेव वहिःमत्त्वज्ञानं स्यादिति त्वया वाच्यं, न चैवं, किन्तु यथोकसंशयस्यायमेव स्वभावोनिश्चयं विनापि धर्मिणि वस्तुगत्या अबाधितत्त्वं यत्तदेव कल्पयति न तत्र बाधितत्वमिति कल्पनेति केचिन्मीमांसका वदन्ति, तन्मतमुपन्यस्थति, 'अन्ये विति, 'जीवी ग्रह एवेति गतवर्षजीवित्वे मति ग्रहान्यावृत्तिरित्यर्थः,
(१) पप्रमाणमेव विनिगमकमिति ध।
Page #677
--------------------------------------------------------------------------
________________
(७२
तावचिन्तामण
पहिसावं गृहसावं मरणच कल्प्येत कस्यचित् कचिवस्तुगत्या अप्रमाणत्वात् अर्थापत्त्याभासश्चैवं न स्यात् ।
इति श्रीमहङ्गशोपाध्यायविरचिते तत्त्वचिन्तामण अनुमानास्यहितीयखण्डे संशयकरणकार्थापत्तिसिबान्तः। 'सहे नास्तौति गतवर्षमध्ये ग्टहे नास्तीत्यर्थः, 'प्रमाणेषु' निश्चयत्रपेषु, 'दयोः' प्रतवर्षजीवित्वनिश्चय-प्रतवर्षमध्ये ग्टहासत्त्वनिश्चययोः, 'अविरोधेऽपि' परस्परविरुद्धार्थविषयकवाभावेऽपि, 'विरोधज्ञानमस्तौति हतीये विरुद्धार्थविषयकत्वज्ञानमस्तीत्यर्थः, 'तच' तस्मिन् जाने मति, 'अप्रमाणघटितेति प्रमात्मकनिश्चयघटितेत्यर्थः, 'प्रमाणइयेति विरुद्धदयेत्यर्थः, "विरोधज्ञानेति विरुद्धार्थविषयज्ञानेत्यर्थः, 'अप्रामाण्यसंशयेति देवदत्तः शतवर्षजीवौ प्रतवर्षजीवी देवदत्तोग्रह एवेति निश्चयदयनिष्ठाप्रामाण्यमंशयेत्यर्थः, 'प्रमाणयोः' प्रमात्मकनिश्चयद्वयोः, 'अविरोधोपपादक' भ्रमत्वाभावोपपादक, 'प्रमाणविरोधि' अप्रमात्मकनिश्चयविषयविरोधि, 'तदिरोधि कल्पयतौति तद्विषयौभूतस्य विरोध्येव कल्पयतीत्यर्थः, 'विरोधघटकस्य' विरुद्धार्थविषयकत्वज्ञानघटकस्य, 'प्रमाणत्वेन ज्ञानादिति प्रमाणत्वेन निघयसम्भवादित्यर्थः, ‘फलबलेनेति तर्फ विनापि वहि:सत्त्वज्ञानोत्पत्तिबलेनेत्यर्थः।
इति श्रीमथुरानाथतर्कवागौश-विरचिते तत्त्वचिन्तामणिरहस्से अनुमानाख्यदितीयखण्डरहस्ये संमयकारणकापत्तिसिद्धान्तर हवं।
Page #678
--------------------------------------------------------------------------
________________
[
१]
अथानुपपत्तिकरणकापत्तिः।
स्थादेतत् मा भूत् संशयः करणमर्थापत्तावनुपपत्तिस्तु स्यात् तथाहि जीवी देवदत्तो गृहे नास्तीति जाने सति वहिःसत्त्वं विना जीवतागृहासत्त्वमनुपपन्नमिति ज्ञानानन्तरं वहिरस्तौति धौरस्ति तवान्वयव्यतिरेकाभ्यामनुपपत्तिज्ञानं करणम् । न च देवदत्तो पहिरस्ति विद्यमानत्वे सति गृहासत्त्वात् घटवदित्यनु
अथानुपपत्तिकरणकार्थापत्तिः। 'संशयकरणकार्थापत्तिं निराकृत्यानुपपत्तिकरणकार्थापत्तिमागते, 'स्थादेतदिति, 'अनुपपत्तिरिति ग्रहे नास्तौति ज्ञानमित्यर्थः, 'जीवतो स्टहासत्त्वमिति जीवित्वविशिष्टं ग्टहासत्त्वमित्यर्थः, व्याप्तिप्रभवेति, 'याप्तिप्रभवात्' सामान्यतोव्याप्तिप्रभवात्, 'अनुमानादिति देवदत्तोवहिरस्ति विद्यमानत्वे सति ग्टहासत्त्वादित्यनुमानादित्यर्थः, पूर्व विद्यमानत्वे मति तद्ग्रहामत्त्वात् तदहिमबितिविशेषतोव्याप्तिरिदानौन्तु सामान्यतोव्याप्तिरिति भेदाविकल्पः। विशेषव्याप्तिमूलकमनुमानं दूषयति, 'हेत-साध्ययोरिति यथोक्तहेतु-माध्ययोरित्यर्थः, सामान्यतोव्याप्तिमूलकमनुमानं दूषपति, 'सामान्यत इति, 'अनुमाने' अनुमितिकरणे, 'उपसंहां
Page #679
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचितमयी
मानाविद्यमानत्वे सति यत्र यन्नास्ति तदन्यदेशे तदस्ति यथा गृह एव कोणेऽसन्वहं मध्ये तिष्ठामौतिव्याप्तिप्रभवानुमानादा वहिःसत्त्वसिद्धेः किमीपत्त्येति वाच्यं । हेतु-साध्ययाः सहचाराजानदशायामनुपपत्तिज्ञानेऽपि वहिःसत्त्वज्ञानात् सामान्यतो व्याप्तिश्वानुमाने उपसंहर्तुमशक्येति तदन्यदेशसिबिरयापत्यैव। ननु जोविना गृहासत्त्वमनुपपन्नं किं देवदत्तबहिःसत्वं विना, उत वहिःसत्वमाचं विना, नाद्यः
प्रवेशयितुं, 'अशक्या' सामान्यमुखौ व्याप्ति नुमितिकरणमित्यर्थः यत्त्व-तत्त्वयोरनुगतयोरभावात् मामान्यतो व्याप्तेरभावादिति भावः । 'तदन्यदेशेति ग्रहान्यदेशसत्त्वमिद्धिरित्यर्थः । 'शानाभावादिति प्रतियोगिज्ञानं विना व्यतिरेकज्ञानासम्भवादिति भावः। नन्वर्थापत्तित एव तत्प्रतीतिरतोऽर्थापत्तिरावश्यकौत्यतश्राइ, 'अर्थापत्तित इति, 'अन्योन्याश्रय इति अर्थापत्तितस्तत्प्रतीतो तेन विना मानुपपत्तिज्ञानमनुपपत्तिशामऽर्थापत्तिरित्यन्योन्याश्रयइत्यर्थः, खोक्रदूषणे खण्डनसम्पत्तिमाह, 'तदुक्रमिति, यतोऽन्यत्नमिति, 'यतोऽन्यत्वं' यस्य व्यतिरेकः, 'तमिद्धेः' तस्य सिद्धः, 'वर सदसिद्धेः' एतव्यतिरेकेणेदमनुपपत्रमिति ज्ञानासिद्धरित्यर्थः। वधि:सालमाचपदेन थावदहिःसत्त्वं, वहिःसत्त्वलावच्छिवं वा, नाच इत्यत्याप, 'अन्यदौथेति, नान्य इत्याच, 'वहिःसत्वमाचेनि बहिसायला
Page #680
--------------------------------------------------------------------------
________________
पर्यापति।
प्रथमं देवदत्तवहिःसत्त्वामंतोता) तेन विनेदमनुपपत्रमिति जानाभावात् प्रतीती वा किमर्थापच्या अर्थापत्तितएव तत्प्रतीतावन्योन्याश्रयः, तदुक्तं यतोऽन्यत्वं तत्सिद्देरग्रे तदसिद्धेरिति । नान्त्यः अन्यदीयवहिसावधानं विनानुपपत्त्यभावात् वहिःसत्त्वमानसिद्धावपि देवदत्तवहिःसत्वासिधेश्चेति चेत्। न। सामान्येन हि विनानुपपत्तिज्ञानं कारणं सामान्याकारेण विशेषज्ञानं फलं, तथाहि जीविजो वहिःसत्त्वं
छिन्नेत्यर्थः, 'पर्य्यवस्यतीति, पक्षधर्मताबलादिति भावः । 'तेन रूपेण' देवदत्तवहिमत्वत्वरूपेण, 'कल्पना' ज्ञानं, 'तेन विना' तद्रूपावच्छिन्नेन विना, 'उपपादकाभाववतौति उपपादकाभावव्यापकौभूतभावप्रतियोगित्वमापाद्यस्येत्यर्थः, 'अभावमात्रमिति उपपाद्याभावमात्रमित्यर्थः, 'अतिप्रसङ्गादिति केवलधूमाभावज्ञानादपि धमार्थापत्त्यापत्तिरित्यर्थः, 'अर्थापत्त्याभासेति व्यभिचारिणापत्तिरेव न स्थादित्यर्थः। 'अत्र हौति, 'यतिरेके' हेत्वभावे, 'याप्तिः' यापकताज्ञानं, 'अन्षयस्य' हेतोः, पक्षधर्मत्वं' पक्षधर्मताचाममित्यर्थः, व्याप्तिधौजन्यमिति व्यतिरेकव्याप्तिधौजन्यमित्यर्थः, 'व्याप्तेति अन्वययाप्तिप्रकारक-पक्षधर्माताज्ञानेत्यर्थः, 'केवलान्वयिनौति, तव मतइति शेषः, 'माध्यव्याप्यत्वेति माध्यस्यान्वयव्याप्तिज्ञानस्येत्यर्थः । यद्दप्ये
(१) वहिःसत्त्वासिद्धाविति घ०।
Page #681
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामणै
विना गृहासत्त्वमनुपपन्नमिति ज्ञानं यस्य रहासत्वमंनुपपन्नं तब वहिःसत्त्वं कल्ययति नान्यच देवदत्तश्च तथेति सिद्धे देवदत्ते वहिःसत्त्वं कल्प्यत इति देवदत्तवहिःसत्त्वं पर्यवस्यति, न तु तेन रूपेण कल्पना न वा तेन विनानुपपत्तिज्ञानं कारणं, यथा वहिमाषव्याप्ताहमात् पर्वते वहिसिद्धिरेव पर्वतीयवहिसिद्धिन तु पर्वतीयत्वेनैव धूमात्तसिद्धिः तेन रूपेण व्यापकत्वाग्रहात्। अथोपपादकाभाववत्युपपाद्याभावनियमो
वमपि यत्र नान्वयव्याप्तियहः व्यतिरेकमात्रप्रतिसन्धानं तत्रापत्त्यवान कामः। न च तत्रार्थनिश्चय एव जनयिय्यत इति वाच्य। अनुभव विरोधात् । तथापि तव्यत दुर्जन इति न्यायेनाह, 'अस्विति, 'सचे वर्तमान इति सहवृत्तित्वविशिष्ट इत्यर्थः, 'देवदत्तावृत्तित्वादिति पचौमतस्य देवदत्तस्य तदनधिकरणवादित्यर्थः, 'वहिःसत्व-रहनिष्ठाभावयोः' वहिःसत्त्व-सहवृत्तित्वविशिष्टाभावयोः, 'यधिकरणत्वेमेति, ग्रहाधिकरणदेशभेदस्यापि वहिःपदार्थघटकत्वादिति भावः 'नियतेति, अत एव ग्टहवृत्तिदेवदत्तांभावोऽपि(२) न लिङ्गं यह मात्रवृत्तिपदार्थ तस्य सत्त्वेनाव्याप्यत्वादिति भावः । ननूपरि मवित भमेरालोकवत्वादित्यत्र भूमिनिष्ठालोकसंयोगस्य कथमुपरिद संयोगसम्बन्धेन सविचनुमापकत्वं पक्षावृत्तित्वादव्याप्यत्वाञ्चेत्यत भाइ.
(१) धुमव्याप्यत्वाग्रहादिति घ०। .(२) सहरत्तित्वोपणक्षितदेवदत्ताभाव इत्यर्थः ।
Page #682
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थापत्तिः ।
Sनुपपत्तिर्न त्वभावमाचमतिप्रसङ्गात् एवच्च व्यतिरेकव्याप्तिमत उपपाद्यायतिरेक्यनुमानमुद्रयैव साध्यसिडेः. किमर्थापत्त्या, तथाहि देवदत्तो वहिः सन् जीवित्वे afe गृहात नैवं तन्नैवं यथा मृतो गृहस्थिता वा । न चान्यव्याप्त्यान्यस्य गमकत्वेऽतिप्रसङ्गः साध्याभावव्यापकाभावप्रतियेोगित्वस्य नियामकत्वात् । न चार्थापत्ती सरूपसतौ व्याप्तिर्लिङ्गं नानुमान इति वाच्यम् । अनुपपत्तेर्ज्ञानं विना कल्पनानुदयात् अर्थ‘उपरौति, ‘उपरिषन्निहितेति सवितृसंयुक्तो परिदेशकत्वेनेत्यर्थः, तथाच तत्र भूमिः पक्षः सवित्तसंयुक्तोपरिदेशकत्वं साध्यं उपर्य्यव च्छेदेनालोकसंयोगो हेतुरिति भावः । ननु जीविले सति गृह - निष्ठाभावप्रतियोगित्वमेव लिङ्गं भवतापि तन्निष्ठव्यतिरेकव्याप्तिज्ञानस्यैवार्थापत्तिजनकत्वस्वीकारादित्याशङ्कते, 'नापौति, 'लिङ्गमित्यनुसञ्जनीयं, 'ज्ञातुमशक्यत्वादिति, तथाच लिङ्गज्ञानाभावात् न व्याप्तिग्रहदूति भावः । ननु सन्निकृष्टस्थले जीवित्वे सति ग्टहनिष्ठाभावप्रतियोगित्वस्य वहिः सत्त्वव्याप्यत्वं गृहीतं तदेवेदानों मर्य्यतेऽन्यथा भवन्मतेऽपि व्यतिरेकव्याप्तिज्ञानाभावात् कथमर्धापत्तिः, श्रपि च ग्टहनिष्ठाभावप्रतियोगित्वं न हेतुः किन्तु प्रतियोगितासम्बन्धेन गृहनिष्ठाभाव एव हेतुर्व्वाच्यः स च देवदत्तस्यासनिष्टत्वेऽपि ग्टहस्य सन्निकृष्टतया ग्रहीतुं शक्य इत्यतो व्याप्तिग्रहाभावेऽपि देवदत्तस्यासन्निकृष्टतया न पचविशेष्यकपरामर्शसम्भव इत्याह श्रत एवेति,
८००
Page #683
--------------------------------------------------------------------------
________________
सावचिन्तामो
पत्त्याभासानवकाशाच। मैवम्। अब हि व्यतिरेकव्याप्तिरन्षयस्य पक्षधर्मत्वमिति व्याप्तिधौजन्यमपि बहिःसत्त्वज्ञानं नानुमितिः तस्या व्याप्तपक्षधर्माताभानजन्यतानियमात् । न च साध्याभावव्यापकाभावप्रतियोगित्वेन पक्षधर्मस्य जानमनुमितिप्रयोजक तथेहाप्यस्तौति वाच्यं । केवलान्वयिनि तदसम्भवात् तदअस्मान्मते च व्यतिरेकव्याप्तिस्मरणं ग्टहे जीविनो देवदत्तस्याभावनिश्चयश्च अर्थापत्तिहेतुक इति भावः, भब्दानुमानादिकञ्च न मार्चचिकमिति हदयं । 'टहनिष्ठाभावयोनिमिति, देवदत्तस्मरणश्चेत्यपि बोधं, प्रभावप्रत्ययानुरोधेन तस्यावश्यकत्वात् परामर्शः । 'व्याप्तिजानानन्तरमिति वहिव्याप्तिरिति स्मरणानन्तरमित्यर्थः, 'मयंमाऐति पक्षवृत्तिधूमस्मरणदित्यर्थः, असन्निष्टपक्षस्थल इति शेषः, 'उकन्यायेति विशेष्यस्यामनिष्टत्वेनेत्यर्थः । 'धूमोवहिं विनेति, वयभावव्यापकौभताभावप्रतियोगी धूम इति व्यतिरेकव्याप्तिज्ञानादित्यर्थः, 'दृश्यमानो धूम इति वद्ध्यभावव्यापकौभताभावप्रतियोगी धूम इति यदा ज्ञायत इत्यर्थः, 'अनुपपत्तिज्ञानं विमा' व्यतिरेकयाप्तिज्ञानं विना, 'व्याप्यत्वेन' अन्वयव्याप्यत्वेन, 'तदानुमानमिति, यदा तु व्यतिरेकान्वयव्याप्युभयप्रतिसन्धानं तत्रैवमेव विज्ञानमुभयात्मकं अनुमितित्वादेरमन्मते जातिवाभावात् फलबलादेव सामग्या वा अन्यत्र प्रतिबन्धकत्वं कल्यत इति भावः । 'वयापौति, 'तत्र' वक्रिमानधूमादित्यच, 'त्रिविधेति व्यानिशानभेदेन विविधानुमिति
Page #684
--------------------------------------------------------------------------
________________
पर्यापतिः।
पेक्षया साध्यव्याप्यत्वज्ञानस्य लघुत्वाच्च। अथ व्यतिरेकसहचाराचतारेव व्याप्तिधते) वश्चान्वयस्य व्यतिरेकस्य उभयस्य वा सहचाराड्याप्तिग्रहचैविध्येऽनुमानपैविध्यम्, अत एव धूमो दशाविशेषेऽन्वयी व्यतिरेको भन्वय-व्यतिरेकी चेति चेत्, अस्तु तावदेवं तथापि बौविदेवदत्ताभावो गृहे वर्तमानो न वहिःसत्त्व लिङ्गर) देवदत्तात्तित्वात् वहिःसत्त्व-गृहनिष्ठाभावयायधिकरणत्वेन नियतसामानाधिकरण्यरूपव्यात्यभावाञ्च, उपरि सविता भूमेरालाकवत्वादित्यव भूमेरुपरिसविहितसवितकत्वेनानुमानात् । नापि गृहनिष्ठाभावप्रतियोगित्वं तत्प्रतियोगित्वस्य देवदत्तधर्मतया तदसत्रिकर्षे प्रत्यक्षेण ज्ञातुमशक्यत्वात्, अत
स्खौकारात् इत्यर्थः, परन्तु भवता ययतिरेक्यनुमितितया अभिमतं तदेवमस्माकमर्थापत्तिरितिशेष इति भावः । 'व्यतिरेकव्याप्तिमिति व्यतिरेकव्याप्तिज्ञानं सहकार्यामाद्येत्यर्थः, 'देवदत्ताभावः' देवदत्ताभावनिचयः, 'वहिःसत्त्वं कल्पयतीति वहिःसत्त्वं निश्चाययतीत्यर्थः, न तु व्यतिरेकपरामर्शः विशेष्यीभूतदेवदत्तामन्त्रिकर्षण परामर्शासम्भवादिति भावः। 'सहे देवदत्तस्याभाव इति देवदत्तप्रतियोगि
(१) दृश्यत इति क, ख.। (२) बहिसावे पामिति का, ख.।
Page #685
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्वचिन्तामयी एव विशेष्यासन्निकर्षात्तृतीयलिङ्गपरामर्शोऽपि न प्रत्यवेण । न च व्यतिरेकव्याप्ति-गृहनिष्ठाभावयो नं सहकार्यासाद्य मनसैव जन्यत इति वाच्यं । सहकारिणएव मानान्तरत्वप्रसङ्गात्। अथ व्याप्तिज्ञानानन्तरं स्मर्यमाणधूमात् कथमनुमितिः उक्तन्यायेन तचापि लिङ्गपरामर्शभावादिति चेत्, न कथञ्चित, कथं तर्हि वहिचानं पक्षधर्मधूमस्मृतिसहितात् धूमा वहिं विना मास्तीत्यनुपपत्तिज्ञानादिति गृहाण, अत एव दृश्यमानाधूमा वहिं विनानुपपन्न इति यदा ज्ञायते तदार्थापत्तिरेव यदा त्वनुपपत्तिज्ञानं विना व्याप्यत्वेन प्रतिसन्धीयते तदानुमानं त्वयापि तत्र त्रिविधानुमानस्वीकारात् तस्माद्यतिरेकव्याप्तिमुपजीव्य जीविदेवदत्ताभावो वहिःसत्त्वं कल्पयति । उच्यते। देवदत्तासविकर्षेऽपि तस्य गृहनिष्ठाभावप्रतियोगित्वं प्रत्यक्षेण
कोऽभाव इति प्रत्यक्षमित्यर्थः, अन्यथा षष्ट्यर्थप्रतियोगित्वस्य संसर्गविधया भानात् लिङ्गतावच्छेदकौमृतप्रतियोगित्वानुपस्थितौ कथमनुमानं न स्यात् । न चैवं यत्र नेह देवदत्त इति संसर्गविधयेव प्रतियोगित्वभानं तचानुमानासम्भवादापत्तिरिष्यतइति वाचं । अर्थापत्तावपि वहिःसत्त्वं विना रहनिष्ठाभावप्रतियोगित्वस्थानुपलधिमिकेति प्रतियोगित्वत्वावच्छिनप्रतियोगियोपस्थितिं विना
Page #686
--------------------------------------------------------------------------
________________
पथापालन
रचते तथाहि रहे देवदत्तस्याभाव इति प्रत्यक्ष देवदत्तं पद्यर्थचाभावसम्बन्ध प्रतियोगित्वलक्षणं गोचरयति सम्बन्ध ज्ञानस्य सम्बन्धिदयविषयत्वात्, प्रतियोगिमा सममभावस्य सम्बन्धान्तराभावात् गृहनिष्ठाभावप्रतियोगित्वे च प्रत्यक्षापस्थिते स्मृतव्याप्तिवैशिष्ट्यमणि प्रत्यक्षेण सुग्रहम् । न च देवदत्तविशेष्यकं वहिःसत्वव्याप्यगृहनिष्ठाभावप्रतियोगित्वज्ञानं नास्तीति वाच्यं। पक्षत्तिलिङ्गपरामर्शमावस्थानुमितिजनकत्वात् - धिकस्य गौरवपराहतत्वात् । अथवा अनतिप्रसतसाह
तेनाप्यर्थापत्यमभ्युपगमादिति । ननु देवदत्तप्रतियोगिकोऽभावइति प्रत्यक्षस्य देवदत्तविषयकत्वे मामाभावः देवदत्तं साक्षास्करीमौत्यनुव्यवमायाभावात् अभावं साक्षात्करोमौत्यनुव्यवसायान् किन्तु नव्यवहितपूर्ववर्तिस्मरणस्यैव देवदत्तोविषय इत्यत आह, 'सम्बन्धशानयेति सम्बन्धिदयोपखितौ सत्यां सम्बन्धप्रत्यक्षस्येत्यर्थः, अन्यथा संयोगो नास्तीत्यादिशाब्दादिजाने तदुपनयवशात् संयोगवदिति प्रत्यचे गुण इति प्रत्यचे च व्यभिचारापत्तेरिति ध्येयं । नवं देवदक्तं न पश्यामि किन्तु तदभावं गेहे इत्यनुव्यवसायः कथं मारते इति वाच्च। तस्य लौकिकविषयत्वाभावविषयकत्वादिति भावः। मनु मसान्धप्रत्यक्ष एव सम्बन्धिदयं विषयः प्रतियोगिलनु न प्रतियोग्यभावयोः समन्ध इत्यत शाह, 'प्रमियोगिनेति, 'सम्बन्धाताराभाया
86
Page #687
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामयी
कारिवशान्मनसैव स्मृतदेवदत्तविशेष्यकस्तृतीयलिङ्गपरामर्शः यथाच न सहकारि मानान्तरं तथोपपादितमधस्तात्। ननु मयूरः पर्वतेतरे न नृत्यति त्यति तिज्ञानानन्तरं पर्वते नृत्यतीति ज्ञानमस्ति, न च व्यतिरेकिणस्तत्सम्भवति, पर्वतन्त्यस्य साध्यस्याप्रतीती व्यतिरेकव्यात्यनिरूपणात् । न च पर्वतत्यामसिहौ तेन विनानुपपत्तिप्रतिसन्धानमपि नेति कथमापत्तिरपोति वाच्यम्। अधिकरणं विनानुपपद्यमानं नृत्यं प्रसिडाधिकरणबाधसहकृतं प्रसिद्धेतरमधिकरणं कल्प
दिति इदमिह नास्तौति प्रतौतेनियामकसम्बन्धान्तराभावादित्यर्थः, तथाच सम्बन्धान्तरेण इदमिह नास्तौति प्रतीत्यसम्भवात् प्रतियोगित्वस्य सम्बन्धत्वमावश्यकमिति भावः। यथाश्रुते एककालीनत्वादेरपि सम्बन्धान्तरत्वेन सम्बन्धान्तराभावादित्यसङ्गतेः । 'पक्षवृत्तौति, तथाच लिङ्गविशेष्यकपरामर्श एवात्र हेतुरिति भावः। 'अधिकस्य' पचविशेव्यकत्वस्य । ननु ग्टहनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वस्यापि देवदत्तधर्मतथा श्रमन्निष्टत्वात् तद्विशेष्यकोऽपि चाक्षुषः परामर्शोऽसम्भवौत्यखरमादाह, 'अथवेति, पूर्वानदोषविरहायाह, 'यथाचेति, पर्वतेतर इति पर्वत इतरोयस्मादिति बडबौहिः, तेन न सर्वनामकाओं, मयूरनृत्यस्य नित्यत्वं साधिकरणत्वं विना अनुपपत्रमिति ज्ञानं प्रतिाधिकरणबाधसहकारेण मयूरः पर्वते नृत्यतीति ज्ञानं जन
Page #688
--------------------------------------------------------------------------
________________
पर्यापति।
यतीति चेत्। न। मयरसत्यं साधिकरणं हत्यत्वादितिः सामान्यतोदृष्टं प्रसिद्घाधिकरणबाधसहकृतं प्रसिद्धेतरं पर्वतमधिकरणमादाय नृत्यज्ञानं जनयति। यहा पर्वतेतरे न नृत्यतीतिशब्देन नृत्याभावबोधानन्तरं मयूरोसत्यतीतिशब्दाज्जायमानं ज्ञानं पर्चतन्त्यं गोचरयति प्रसिद्धविशेषबाधसहकृतसामान्यज्ञानजनकप्रमाणस्य प्रसिद्धेतरं पर्वतमधिकरणविशेषमादाय जानजनकत्वनियमात्। अत एवानित्यज्ञानबाधानन्तरं क्षित्यादैा ज्ञानजन्यत्वं सिद्धनित्यत्वमादाय
यतौति समाधत्ते, 'अधिकरणं विनेति, 'अनुपपद्यमानं' अनुपपनत्वेन ज्ञायमानं, 'नृत्यं नृत्यनित्यत्वमित्यर्थः । 'नृत्याभावबोधानन्तरमिति पर्वतेतरनृत्याभावबोधानन्तरमित्यर्थः । ननु सामान्यतोदृष्टेन माधिकरणकत्वानुमितावपि पर्वते नृत्यतीत्येवमाकारकबुद्धिर्न सिद्वैव अनुमितेर्व्यापकतावच्छेदकप्रकारकत्वनियमात् एवं मयूरो नृत्यतीति शब्दात् पर्वतेतराधिकरणकनृत्यबाधमहकारेण नृत्यविशेषसिद्धावपि नृत्यस्य पर्वतवृत्तित्वं न सिद्धं तदुपस्थापकपदाभावादिति, मैवं, गुरुमते इतरबाधसहकारेण पदानुपस्थितमपि शाब्दबोधे प्रकारौक्ष्य भासते इति तन्मतेनैव तन्मतनिराकरणत्, स्वमते लाह, 'यदेति, 'अन्वय-व्यतिरेको पर्वतमृत्यं गोचरयतीत्यनुषज्यते । न चैवं मयूरः पर्वते नृत्यतीति मयूरविशेष्यकप्रतीतिर्न स्थान
Page #689
--------------------------------------------------------------------------
________________
ची
सिद्यतीत्याचायाः । यदा मयूरकृत्यं पर्व्वताधिकरएक पर्व्वतेतरानधिकरणत्वे सति साधिकरणत्वात् पर्व्वतत्ववदित्यन्वयव्यतिरेकी, अथवा यः सम्भाविततत्तदितरातिः सन् तदतिरिक्तहतिर्न भवति सः मदृत्तिर्भवतीति सामान्येन यत्तदर्थान्तर्भीवेन व्यस्था areस्य पर्व्वतरत्तित्वं सिद्ध्यति । एवं पौना देवदत्तो दिवा न भुङ्क्ते इत्यचापि अप्रसिद्ध राचिभाजनसाध्यarranti राचिभोजनमादाय सिद्धयति । श्रथ यथा श्रमजी पौन इत्यचायोग्यताज्ञानं तथा पौना दिवा
इति वाच्यं । उक्रानुमान एव मनसा तदुपपत्तेरिति भावः । 'सम्भाविनेति, 'सम्भावना' योग्यता, तस्मिम् तदितरस्मिं वर्त्तमानयोग्यः, योग्यतावच्छेदकञ्च वृत्तिमत्त्वमेव, तथाच वृत्तिमत्त्वे सतीति फलि - तार्थः । ननु पौनो देवदन्तो दिवा न भुङ्क्ते इति ज्ञानानन्तरं पौनलं भोजनवत्त्वं विना श्रनुपपन्नमिति ज्ञानात् दिवाभोजनबाधसहरुतात् देवदतोरात्रौ भुङ्क्ते इति ज्ञानं जायते तत्रानुमानाद्यसम्भवादर्थापन्तिरिष्यत इत्यत श्राच, 'एवमिति, 'देवदन्त इति श्रप्रसिद्ध राषिभोजनदेवदत्त इत्यर्थः, 'भोजनसाध्यपीनत्वज्ञानमिति, दिवाभोजनबोध कृतमिति शेषः, 'रात्रिभोजनमिति रात्रिभोजनानुमिति जनयतीत्यर्थः । यथाश्रुतशब्देन शब्दकल्पनरूप श्रुतार्थापतिं भट्टामिमनामागते, 'अथेति, 'न योग्यताज्ञानमिति, तन्मतेऽन्वयप्रयोजक
&
Page #690
--------------------------------------------------------------------------
________________
f
न मुक्त इत्यचापि दिवाभोजनस्य बाधाद्योन्यताघटकरात्रिभोजनस्याप्रतीतेः श्रतो योग्यताघटकापस्थितिं बिना श्रन्वयमलभमानमिदं वाक्यं योग्यताघटकरात्रिभोजमापपादकं रात्रौ भुक्त इति वाक्यं कष्पयित्वा तेन सहान्वयबाधं जनयति । न चैवं लाघवाद्राचिभाजनमेव कल्पयितुं युक्तं, शाब्दी धाकाङ्क्षा शब्देनैव प्रपूर्य्यतइतिन्यायेन शब्दोपस्थापितमादाय शब्दस्यान्वयबोधजनकत्वात् एवञ्च श्रूयमाणशब्दस्या
रूपवत्त्वस्य योग्यतात्वेन पौनत्वान्वये भोजित्वस्य योग्यतात्वेन पौनलावयेऽभो जित्वस्यायोग्यतात्वादिति भावः । 'दिवाभोजनस्य बाधादिति 'योग्यता घटकेत्यच हेतु:, 'योग्यताघटकेति योग्यतात्मकराचिभोजिवोपस्थितिं विनेत्यर्थः, 'श्रन्वयमलभमानमिति श्रन्वयबोधं जनयदित्यर्थः, 'ददं वाक्यमिति पौनो देवदत्तो दिवा न भुङ्क्ते इति वाक्यमित्यर्थः, 'रात्रिभोजनोपपादकमिति रात्रिभोजनोपस्थापकमित्यर्थः, 'तेन सहेति तदुपस्थापितरात्रिभोजित्वेन सहेत्यर्थः, 'अम्मयबोधमिति पोनो देवदत्तो दिवा न भुङ्क्ते किन्तु रात्रौ भुङ्क्ते इत्यन्वयबोधमित्यर्थः, तन्मते योग्यत्वस्य शाब्दबोधे भाननियमादिति भावः । 'लाघवादिति, शब्दं कल्पयित्वापि अर्थोपस्थिते रावश्यकत्वादिति भावः । ' शाब्दी ह्याकाङ्क्षति शाब्दबोधोपयोगिनी पदार्थोपस्थितिः शब्देनैव जन्यत इति नियमेनेत्यर्थः तथाच केवलार्थकल्पनेन योग्यता
,
Page #691
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्वचिन्तमयो वयबोधकत्वं योग्यताघटकोपस्थापकेन शब्देन विनासुपपद्यमानं तं कल्पयित्वा यचान्वयबोधं जनयति तय श्रुतार्थापत्तिः। द्वारमित्यादा पिधेहौतिशब्दकल्पन श्रुतार्थापत्तिरेव शब्दश्च यद्यपि श्रूयमाणाबाधितस्तथाप्यभिप्रायस्थः कल्पाते यथा गुरुमते स्वर्गकामा यजेतेत्यत्र साक्षात्साधनताबाधे परम्पराघटकस्यानुपस्थित्या परम्परासाधनताज्ञानविरहोयोग्यताज्ञानाभावात् प्रसिद्धपदसामानाधिकरण्यानुपपत्तिरिति यो
ज्ञाननिर्वाहेऽपि शब्दजन्योपस्थितिं विना रात्रिभोजित्वरूपस्य योग्यत्वस्य शाब्दबोधे भानासम्भवाच्छब्दः कल्यते तन्मते शब्दयोग्यताविषयकस्यैव शाब्दबोधस्य जनननियमादिति भावः। 'शब्देन विनेति शब्दव्यवहारं विनेत्यर्थः, 'अनुपपद्यमानमिति अनुपपन्नत्वेन ज्ञायमानमित्यर्थः, 'दारमित्यादाविति, एवमित्यादि, 'पिधेहौतिशब्दकल्पनमिति द्वारमितिवाक्यस्यापि पिधानविशेष्यकद्दारकर्मकत्वान्वयबोधजनकत्वं पिधेहौतिशब्दसमभिव्याहारं विनाऽनुपपन्नमिति ज्ञानात् पिधेहिशब्दकल्पनमित्यर्थः। ननु दारमिति वाक्यं पिधेहौतिशब्दवदिति ज्ञानमर्थपत्त्या जननौयं तच्च न सम्भवति पिधेहौतिशब्दस्य बाधितत्वादित्यत बाह, 'शब्दश्चेति, 'श्रूयमाणः' समभिव्याहारेण श्रूयमानश्च, 'बाधित इति नास्तीत्यर्थः, 'अभिप्रायस्थ इति द्वारमिति वाक्यं पिधेहौति शब्देन सहान्वयबोधं जनयत्वित्येता
Page #692
--------------------------------------------------------------------------
________________
'षांपत्तिा
ग्यताज्ञानाय परम्परासाधनताघटकमपूर्व लिङगदिवाच्यं कल्पयति ततः स्वर्गसाधनं याग इति जानं जायते अन्यथा अपूर्वमपि वाच्यं न स्यादिति । उच्यते। बाधकप्रमाणभावोऽन्वयविरोधिरूपविरहो वा योग्यता अतो दिवा अभाजने रात्रिभोजनामतीतावपि भोजनसाध्यपौनत्वादिवा न भुड़क्त इति शब्दाडौरुत्पद्यते न प्रतीत्यनुपपत्तिः किन्तु प्रतीतादृशाभिप्रायविषयः कल्प्यते इत्यर्थः, तथाच तादृशैकाभिप्रायविषयत्विसम्बन्धेनैव तद्वत्ताज्ञानं अर्थापत्त्या जननीयमिति भावः। योग्यताप्रकारकोपस्थितिं विना शब्दान्वयधीरित्यत्र प्राभाकरसम्मतिमाह, 'यथेति, 'साक्षात्माधनताबाध इति खर्ग प्रति यागस्य साक्षात्माधनवाभाव इत्यर्थः, यागस्य प्राशतरविनाभित्वादिति भावः। 'परम्पराघटकस्येति परम्पराघटकस्यापूर्वस्येत्यर्थः, ‘योग्यताज्ञानाभावादिति यागे विध्यर्थस्य दृष्टसाधनत्वस्यान्वये योग्यताज्ञानविरहादित्यर्थः, माक्षादसाधने साधनत्वान्वये परम्परामाधनत्वस्य योग्यतात्वादिति भावः । 'प्रसिद्धपदेति प्रसिद्धपदस्य विधेरर्थन दृष्टमाधनत्वेनान्षयबोधानुपपत्तिरित्यर्थः, 'योग्यताज्ञानायेति परम्परामाधनताज्ञानायेत्यर्थः, 'लिडादिवाच्यमिति कार्यात्वरूपेण लिडादिवाच्यमित्यर्थः, एवञ्च वर्गकामोऽमिष्टोमादिविषयकसाधनकार्यवानिति प्रथमतोऽन्वयबोधः, विषयकत्वं जन्यत्वं, एतच्च याग-कामयोः संसर्गविधया भासत इति भावः । 'अन्यथेति योग्यताप्रकारकोपस्थितेरपि हेतुले
Page #693
--------------------------------------------------------------------------
________________
तावपिनाम मुखपत्त्या राविमोजनं कल्प्यते अतरवापूर्वमपि न बाच्यमिति वक्ष्यते, तस्मानार्थापत्तिरनुमानादतिरिच्यत इति।
इति श्रीमहङ्गशोपाध्यायविरचिते तत्तचिन्तामणे अनुमानाख्यहितीयखण्डे अर्थापत्तिः।
इत्यर्थः, 'बाधकप्रमाणाभाव इति ग्राह्याभावनिश्चयाभाव इत्यर्थः । 'अन्वयविरोधौति ग्राह्याभावव्याप्यधर्मत्यर्थः, प्रतीतानुपपत्त्येति प्रतीतस्य दिवाऽभोजित्वे मति पौनलस्य रात्रिभोजिवं विनाऽनुपपत्त्य । रात्रिभोजित्वमनुमौयते इत्यर्थः, 'अत एवेति अन्वयप्रयोजकरूपवत्वज्ञानस्याहेतुत्वादेवेत्यर्थः, 'अर्थापत्तिः' अर्थापत्तिशब्दवाचं जाने।
इति श्रीमथुरानाथतर्कवागौन-विरचिते तत्त्वचिन्तामणिरहस्से अनुमानाख्यद्वितीयखण्डरहस्ये अर्थापत्तिरहस्यं ।
Page #694
--------------------------------------------------------------------------
________________
अथावयवनिरूपणं।
तचानुमानं परार्थ न्यायसाध्यमिति न्यायस्तदवाश्च प्रतिज्ञा-हेतूदाहरणोपनय-निगमनानि निरू
अथावयवरहस्यं । परार्थानुमानप्रयोजकवेन स्मृतस्य न्यायादेपेक्षानहतया प्रमसङ्गत्या तनिरूपयितमाह, 'तच्चेति, 'परार्थ' परप्रतिपिपादयिसाप्रयोज्यं, परोऽत्र विप्रतिपन्नः न तु मौमांसकमात्रं, तेनाप्तेन पर
तिपिपादयिषया उदौरितेऽपि न्यायत्वमित्यवधेयं । 'न्यायसाध्य।मति न्यायजन्यज्ञानप्रयोज्यमित्यर्थः । अवयवान्विभजते, 'प्रतिजेति, यद्यपि अभयवसामान्यं निरूप्यैव तद्विभागोयुक्तस्तथापि पञ्चायवोपेतस्यैवात्र लक्ष्यत्वं न तु मौमांसकाभिमतादाहरणदिश्यवयवस्य
भिमतोदाहरणोपनयात्मकन्यवयवस्य वा इति सूचनाय प्रथमतसतदिभागः, अन्यथा वक्ष्यमाणन्यायलक्षणस्याव्याप्यतिव्याप्यापत्तेः। तत्र' न्यायावयवनिरूपणे, सप्तम्यर्थीविषयत्वं, 'समस्तरूपेति पक्षमत्त्वमपक्षमत्त्व-विपक्षासत्त्वाबाधितत्त्वामत्प्रतिपक्षितत्वरूपपञ्चरूपविशिष्टलिङ्गप्रतिपादकमित्यर्थः, 'अत्रैवेति पञ्चरूपविशिष्टलिङ्गमिति वाक्यइत्यर्थः, तस्थापि उनपञ्चरूपविशिष्टलिङ्गप्रतिपादकत्वादिति भावः(१) ।
(१) प्रसङ्गादाइ, 'तच्चेति तत्त्रिविधमप्यनुमान, परार्थ' परस्य वादिनोअर्थः साध्यनिश्चयः तच्छवानिवृत्तिवी यस्मात् तादृशं, न्यायसाध्यं न्यायप्रयो.
87
Page #695
--------------------------------------------------------------------------
________________
(.
तत्वचिन्तामणै
-
ज्यमित्या, पतिप्राथैरपनयमात्रस्य सौगतेदाहरणादिदयस्य मीमांसा प्रतिवादित्रयस्य परस्त्रयायिकविप्रविपत्ति-समयबन्ध-जिज्ञासावाक्य-क कोडारदृष्टान्सकमेण वाक्यदशकस्य न्यायत्वोपगमात् तेषां मतमता विशिष्यावयवान् दर्शयति, प्रतिज्ञा-हेतूदाहरणोपरय-निगमनानीति, न्यायावयवयोर्मध्ये, 'समलेति पक्षसत्त्वादिपवरूपैविशिष्ठस्य लिङ्गस्य ... पादकं वाक्यं इत्यर्थः, चव' समस्वरूपोपेतं लिङ्गमिति वाक्य एव, अति व्यामेरित्युपलक्ष केवलान्वयिस्थले विपक्षाप्रसिद्ध्या तत्माध्यकन्यायेऽव्यात रपि अश्या । 'किक्वित्यादि, पत्रानुमितिपदं यादृश-यादृशानुपूर्थवधि बवाक्ये नैयायिकानां प्रचतपक्ष-हेतु-साध्यकन्यायव्यवहारः तादृश-ताः शामुपूर्थवशिमाभावकूटसाध्यकानुमितिपरं, तयाच तादृशानुमितेः घरी मकारणीभूतो यो लिङ्गपरामर्शः तादृश-सादृशानुपूर्व्यवच्छिन्नाभावकूटव्यत्य प्यचटपदत्ववान् इत्याकारका परामर्शः, तस्य प्रयोजक तजनकव्यात. অলি লহ্ম য আল মুসা আল নজ্জলন্ধ নয় সন্ধানে जगकतावच्छेदकं वाक्यमित्यर्थः, घट इत्यानुपूर्थवच्छिन्नाभावस्य ज्ञान प्रति मकारतया मनकतावच्छेदकं घट इत्यानुपूर्थवच्छिन्नवाक्यमपीति तत्रातिकार मेवारणाय प्रयोजकान्तं शाब्दज्ञानस्य विशेषणं न च यादृश-यादृशानु वच्छिन्ने न्यायव्यवहारतादृश-तादृशानुपूर्व्यवच्छिन्नाभावकूटवत्ताबुद्धि तावच्छेदकीभूतानुपूर्वी विशिकवाक्यत्वमेव न्यायत्वं कुतो लघुवरंग तन्निरल इति वाच्यम् । खतम्लेच्छस्य नियन्तुमशक्यत्पात् इति जागदीशी व्याख्या ।
केचित्तु धनुमितिकारणपरामर्शनिष्ठ कार्यतानिरूपितशाब्दत्वव्याप्यधर्मावश्विकारणतावच्छेदकीभूता या विषयता तदवच्छिन्नकार्यतानिरूपिता या यविधिज्ञावत्तिजनकता तदवच्छेदकीभूतविषयितानिरूपकवर्णस मुदायत्वं न्यायत्वं अतो न कुत्राप्यतिव्याप्तिः परामर्श प्रति न्यायजन्यशाब्द बोधस्य तादृशशाब्दादेन हेतुत्वोपगमात् व्यभिचारखाव्यवहितोत्तरत्वादिनिवेशेन वारणीयः, केवलोपनयजन्यपरामस्थक्षे च उपनयनन्यशाब्दबो
Page #696
--------------------------------------------------------------------------
________________
अवयवः। प्यन्ते। तब न समस्तरूपोपपनलिङ्गप्रतिपादकवाव न्यायः, अचैव वाक्येऽतिव्याप्तेः, किम्वनुमितिघरमका'अनुमितौति अनुमितिचरमकारणं यलिङ्गपरामर्शस्तस्य प्रयोजकं तजनकजनकं यच्छाब्दज्ञानं तब्बनकज्ञाननिष्ठकारणताया विषयितासम्बन्धेनावच्छेदकवाक्यमित्यर्थः, घटमानयेति वाक्योतियाप्तिवारपाय प्रयोजका, उपनयस्यापि अनुमितिकारणपरामर्शप्रयोजकभाब्दचानजनकतया तातिव्याप्तिवारणाय 'परमेत्युत, परमलचाघस्य न परामर्श प्रति तादृशशाब्दबोधत्वेन हेतुता बपि तु तविषयकजागत्वेन । न च तादृशकार्य-कारणभावे मानाभाव इति वाचं । उपनाय. कक्षागादिसत्वे वहिव्याप्यो धूमः पर्वते इत्यादिज्ञानकाने वडियाप्यधूमवान् पर्वत इत्यादिवारणाय वत्तदननुगलक्षणादीनां हेतुत्वं काव्यं इत्या न्यायजन्यपरामर्शस्थनीयानन्तक्षणानां हेतुत्वकल्पनमपेक्ष्य नाघवात् न्यायपन्यबोधस्य तादृशवोधन हेतुता कल्यते तादृशकारणबाधादेवान्यत्र धूमविशेष्यकपरामर्शकाले ग धूमप्रकारकपरामर्श-इति, चरमवारणपदन्तु वादृशकारणतालामायैव उपात्तं। न च सादृशयुक्त्या न्यायजन्यशब्दयोधस्य वादृशशाब्दबोधन हेतुत्वकल्पने वादृशयुक्त्येव केवलोपनयजन्यशाब्दस्यापि तादृशशाब्दखेन हेतुत्वं कल्यमिति वाच्यम् । वत्र परामर्शस्थानयत्येनानुगवकारणताकल्पनासम्मवादित्याज, तचित्यं ।।
नवीगानु न्यायजन्यशाब्दबोधप्रयोज्यानुमितियतिमेव तद्यक्तित्वेनादाय तदनुमितिमलोपधायकीमूतपरामर्शयलिपलोपधायकीमूतशाब्दयोधनिछकार्यतानिरूपित-यत्किषिजज्ञाननिखरूपयोग्यतावच्छेदकीभूतविषयिवानिरूपकवर्यसमुदायत्वमवो न कश्चिदोषः, पवम्भववारणाय यत्तिজিম্বাললিনমিনি মা, মানি ব্যাল।
Page #697
--------------------------------------------------------------------------
________________
६८२
तत्वचिन्तामणौ
रणलिङ्गपरामर्शप्रयोजकशाब्दज्ञानजनकवाक्यं न्यायः। प्रतिज्ञादिपञ्चवाक्यरेकवाक्यतया स्वार्थविशिष्टज्ञानंज
तुमितौ कर्त्तव्यायां खोत्तरोत्पन्नज्ञानानपेक्षत्वं, तथाच उपनयप्रयोज्यानुमितिकारणपरामर्मस्य खोत्तरोत्पन्ननिगमनसाध्याबाधितत्वज्ञानसापेक्षत्वात् नोपनयेऽतिव्याप्तिरिति भावः । अनुमितिचरमकारणात्मकशाब्दज्ञाने कृतेऽसम्भवः न्यायजन्यज्ञानस्य पक्षतावच्छेदकविशिष्टे साध्यव्याप्यवदभेदस्यैव विषयौकरणात् नामार्थयोर्भेदान्वयस्याव्युत्पन्नतया पक्षतावच्छेदकविशिष्टे साध्यव्याप्यवैशिट्यानवगाहित्वात् तादृशज्ञानस्थानुमितिजनकत्वाभावात् । न च तादृशपरामर्शजनकत्वमेवोच्यतां किं तब्ननकजनकत्वप्रवेशेनेति वाच्यं। तथाप्यसम्भवापत्तेः न्यायजन्यज्ञानस्य वादिवाक्यज्ञानजन्यत्वेनाप्रामाण्यज्ञानास्कन्दितत्वेन तेन विशिष्टवैशिष्यबोधात्मकतादृशज्ञानजननासम्भवात् अप्रामाण्यज्ञामानास्कन्दित-विशेषणतावच्छेदकप्रकारकनिश्चयात्मकं न्यायजन्यशाब्दज्ञानजन्यज्ञानान्तरमपेक्षणीयमिति ।
उपाध्यायास्तु तादृशपरामर्शप्रयोजकत्वं तादृशपरामर्शजनकत्वमेव तथाच न्यायजन्यज्ञानानन्तरोत्पन्नज्ञानादेवानुमितिरित्याहुः । __ यत्र समयवशेनायन्नाभास इत्यादिरूपकण्ठकोद्धारसहित एव न्यायप्रयोगः कृतः तत्र कण्टकोद्धारवाक्येऽतिव्याप्तिवारणय शाब्देति, तथाच तत्पदमहिना तादृशपरामर्श प्रति तज्जन्यज्ञानस्य शाब्दत्वेन । प्रयोजकत्वमित्यर्थः पर्यवस्थति, कण्टकोद्धारवाक्यस्य च योग्यताजानमात्रसम्पादकत्वात् योग्यताज्ञानस्य च भाब्दाशाब्दसाधारणेनैव
Page #698
--------------------------------------------------------------------------
________________
अवयवः।
न्यते तेन च विशिष्टवैशिष्ट्यावगाहि मानान्तरमुत्था
हेतुत्वमिति नातिप्रमङ्गः, न्यायजन्यज्ञानस्य च प्रतिवादिपरामर्श प्रति तादृशशाब्दत्वेन हेतुत्वं अन्वय-व्यतिरेकाभ्यां तथैव कार्य-कारणभावावधारणदिति हृदयं। वाक्यपदं तादृशशाब्दज्ञाननिष्ठकार्यतानिरूपितकारणताया विषयविधयावच्छेदकलपर्याप्यधिकरणत्वखाभाय अन्यथा न्यायैकदेशेऽतिव्याप्तेः९) ।
(१) लक्ष्ये लक्षणं योजयति, 'प्रतिज्ञादौति प्रतिज्ञादिपञ्चवाक्यैरेकवाक्य- . या रकानुपूर्वीमत्त्वेन रूपेण यः खस्यार्थी निवृत्तिरभाव इति यावत्, तज्ज्ञानं जन्यते, 'तेन च' क्रमिकप्रतिज्ञादिपश्चगतेकानुपूर्व्यवच्छिन्नाभावकूटज्ञानेन च, विशिष्ठस्य तादृश-तादृशानुपूर्तीमत्त्वावच्छिन्नाभावीयत्वविशिश्व्याप्यत्वस्य घटपदत्वादिहेतौ वैशिष्ट्यावगाहि यन्मानं घटपदत्वं तादृश-तादृशानुपूर्व्यवच्छिन्नाभावकूटव्याप्यमित्याकारकं ज्ञानं तदुत्याप्यते जन्यते, 'तेन च' व्याप्यत्वबोधेग च, 'चरमपरामर्शः तादृश-तादृशानुपूर्बीमत्त्वावच्छिन्नाभावकूटव्याप्यघटपदत्ववान् इत्याकारको जन्यत इत्यर्थः ।
साम्प्रदायिकास्तु लक्षणस्थस्थानुमितियदस्य प्रकृतपक्षक-प्रकृतसाध्यककृतहेतुकानुमितिपरत्वं वसंयन्तो ग्रन्थमन्यथा व्याचक्षते, यथा प्रतिशादिपञ्चवाक्यरेकवाकातया ख-खघटकपदानामेकवाक्यत्ववपशेन ख-खार्थशिरज्ञानं समूहालम्बनरूपमेव जन्यते न तु मिथो विशिष्टवैशिध्यागाहिरूपं, उदाहरणस्यान्यत्रानन्वयित्वेन पञ्चभिः परस्परमेकवाक्यताबेरन्वयबोधस्य जननासम्भवात् , तेन च प्रतिक्षादिपञ्चकजन्यबोधेन च अशियस्य प्रकृतसाध्यीयत्वविशिष्ठस्य व्याप्यत्वस्य हेतौ वैशिध्यावगाडि मानं मानसात्मकं ज्ञानं तदुत्याप्यते जन्यते । न च न्यायजन्यबोधस्यव
Page #699
--------------------------------------------------------------------------
________________
चिताम
८६४
प्यते तेन च चरमपरामर्श उत्पाद्यत इति न्यायजन्यशाब्दज्ञानस्य परामर्श प्रयोजकता ।
लक्ष्ये लचणं सङ्गमयति, 'प्रतिज्ञादौति, 'एकवाक्यतया' मिलित्वा, 'स्वार्थविशिष्टज्ञानं' परस्परार्थान्वितस्वार्थविषयकज्ञानं, 'तेन' विधिवैशिष्यज्ञानेन, 'मानान्तरं' मित्यन्तरं, 'उत्थाप्यते' जन्यते, उपा ध्यायमते 'मानं' मनः, 'उत्थाप्यते' स्वात्मक सहकारिसम्पन्नौक्रियते
विशेषयज्ञानविधया परामर्शजनकत्वसम्भवान् मानान्तरोत्थापनमफल मिति वाच्यम् । हेत्वं व्याप्तेर्थात्यंशे च साध्यस्य संसर्गविधया वैशि erranifer व बोधस्य चरमपरामर्शहेतुतया न्यायजन्यबोधस्य तथात्वासम्भवात् तस्य हेत्वाद्यंशे तादात्म्येन व्याप्याद्यवगाहित्यात्, एतेन न्यायजन्य शाब्दबोधेन विशिष्टवैशिष्यावगाहि व्याप्तिविशिष्टस्य हेतोः पच्च वैशिष्यग्राहकं यन्मानं ममः तदुत्याप्यते सहकारिसम्पन्न क्रियते " इत्युपान ध्यायव्याख्यानमनादेयं । यन्तु न्यायजन्यबोधस्य वादिवाक्य जन्यत्वेनाप्रामाख्यश्वानास्कन्दितत्वात् ततो न चरमपरामर्शोत्पादः सम्भवत्यतः साध्योगल विशिष्टव्याप्यत्वस्य साधने वैशिष्यावगाहि यन्मानान्तरं मानसचानं तस्यः मुसरयमिति मिश्रक्तं तदप्ययुक्त, न्यायजन्य शाब्दधानस्याप्रामाण्यचान स्वन्दितत्वे ततः परामर्शस्येव साधन धम्मिक व्याप्यत्यो पनीतभानस्याप्युत्पत्ते रसम्भवात् सर्वस्यां न्यायजन्यबुद्धौ वादिवाक्य जन्यत्वेनाप्रामाख्ययानावर्श कत्वाचे, तन्मन्दं वह्निव्याप्यवान यमित्यादिवाक्यज शाब्दस्यापि वा धनुमितिचरमकारयोभूतपरामर्थं प्रति कथचित् प्रयोजकत्वेन तव तादृशवाकयेऽतिव्याप्ते दुबार त्वापत्तेः इत्यास्तां वितरः इति जामदर्श
व्यास्था ।
Page #700
--------------------------------------------------------------------------
________________
अवयव
इत्यर्थः, मनमोविशिष्टवैभियावगाहिता तु व्यापारानुबन्धिनौ। न च प्रतिज्ञादिपञ्चवाक्युमिशिला विशिष्टवैशिष्यावगाहे बालमसम्भवि उदाहरणे यद्यदित्यनेन पर्वतादीना उपस्थापनादिति वायम् । वौसासमभिव्याहारेण तत्र व्यापकत्वबोधनात् तथा धूमवदभिन्न-धूमव्यापकवह्निसम्बन्ध्यभिन्न-धूमज्ञानज्ञाप्यवक्रि सम्बन्ध्यभिवः पर्वतो वहिव्याप्याभिषधूमसम्बन्ध्यभिन्न-वहिव्यायधूमज्ञानजाप्यवझिमम्बन्ध्यभित्रपर्वताभिन्न इति न्यायजन्यमहावाक्यार्थबोधः । न च धूमज्ञानज्ञाप्यवझिसम्बन्ध्यभिन्नपर्वते कथं वहिव्यायधूमज्ञानज्ञाप्यवझिसम्बन्धिनस्तादाम्येन भानं उद्देव्यतावच्छेदकस्य विधेयतावछेदककोटिप्रविष्टवादिति वाच्यम् । उद्देश्यतावच्छेदके विधेयतावच्छेदकतायाः पर्याप्तरेव निराकाहत्वात्, अत एव दण्डौ रकदखौति प्रयोगोऽपि मङ्गच्छते। यदि च उद्देश्यतावच्छेदकस्य विधेयतावच्छेदककोटिप्रवेश एव निराकाहावं अत एव पक्का पचतीत्यादौ लडर्यवर्तमानत्वादेरधिकस्य प्रवेशेऽपि नान्वयबोध इत्यभ्युपेयते तदा 'एकवाक्यतया' एकैकवाक्यतया प्रत्येकेनेति यावत्, 'खार्थविशिष्टज्ञाम' स्वार्थमानविषयकं अवामारवाक्यार्थज्ञानं, 'जन्यते', 'तेन च' अवामारकाक्यार्थज्ञानेन च, 'विशिष्टवैशिष्यावगाहि' प्रतिज्ञार्थे हेत्वर्थवे. शिष्यावगापि उपनयाथै निगमनार्थवैशिष्यावगाहि, ‘मानान्तरं महावाक्यार्थज्ञानं, 'उत्थाप्यते' जन्यते इत्यर्थः, यहा 'एकवाक्यतया' एकावयबुद्धिजननयोग्यतया, 'स्वार्थविशिष्टज्ञान' स्वार्थविषयक समूमालम्बनरूपं महावाक्यार्थज्ञानं जन्यते इत्यर्थः, इति नानुपपत्तिगन्धोऽपौति। मनु न्यायजन्यज्ञानस्य तादृशपराम प्रति प्रयोजकत्वं यदि
Page #701
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामणौ
व्याप्ति-पक्षधर्मतीपस्थापकतथा(१) उदाहरणोपनययोरेवानमितिपरमकारणलिङ्गपरामर्शप्रयोजकशाब्दज्ञानजनकत्वं पर्यवस्थति, तदा अवयवान्तरेऽव्याप्तिः, यदि च परामर्थविषयौभतयत्किञ्चित्पदार्थमात्रविषयकतामात्रेण तदा वहिव्याप्यधूमवान् पर्वत इत्युदामौनवाक्यादावतिव्याप्तिः। न च न्यायजन्यज्ञानस्य तादृशशाब्दत्वेन तादृशपरामर्श प्रति खातन्त्र्येण हेतुत्वमिति वाच्यम् । मानाभावादिति चेत्। न। शाब्दज्ञानान्तेन बौहिणा विरुद्धवानुपूर्वी कभिन्नस्य तत्पक्षक-तत्माध्यक-तद्धेतकप्रतिज्ञादिपञ्चकसमुदायत्वमुक्त एवम्भूतं जनकौभूतं वाक्यं तत् इत्यत्र तात्पर्य्यात्। न चैवमपि हेत्वाभासतालिङ्गकामाधकतामाधकन्यायेऽव्याप्तिः तत्र व्याप्तेरुभयवादिसिद्भुत- . या उदाहरणभावेन तादृशपञ्चकत्वाभावादिति वाच्यम् । खकव्यतानिवाहार्थं तत्राप्युदाहरणप्रयोगादित्यलमधिकेनेति(२) ।
(१) व्याप्ति-पक्षधर्माताविषयकतयेत्यर्थः । (२) 'धनुमितीति अत्राप्यनुमितिपदं यादृश-यादृशानुपूर्ववच्छिन्ने प्रकतपक्ष-प्रकृतसाध्यादिन्यायव्यवहारः प्रामाणिकः तादृश-तादृशानुपूर्व्यवछिन्नाभावकूटसाध्यकानुमितिपरं, तथाच तादृशानुमितेश्वरमकारणीभूतो यः तादृशानुपूर्ववच्छिन्नाभावकूटव्याप्यवानयमित्याकारकः परामर्शः तस्य प्रयोजक तज्जनकव्याप्तिज्ञानस्य जनकं यच्छाब्दं शब्दप्रकारकं ज्ञानं तादृशतादृशानुपूर्तीमत्त्वावच्छिन्नाभाव इत्याकारकं ज्ञानं सज्जनकं विषयविधया जनकतावच्छेदककोटिप्रविर अथ च शाब्दबोधस्य जनक यहाक्यं तत्त्वमित्यर्थः, न्यायाप्रविष्ठस्य प्रतिज्ञादिसमानार्थकवाक्यस्य वारणाय प्रविष्टान्तं, न्यायनिविष्ठस्य प्रतिज्ञाद्यन्तर्गतपर्वत इत्यादिनिरर्थकभागस्य वारणाय शा
Page #702
--------------------------------------------------------------------------
________________
अवयवः।
ब्दबोधजनकेति । न च न्यायनिविष्ठस्य वह्निमानित्यादिभागस्य शाब्दबोध; जनकत्वात्तत्रातियाप्तिरिति वाच्यम् । शाब्दबोधजनकेत्यनेन प्रक्षे साध्यस्य, हेतुतायां साधनस्य, साधने साध्यव्याप्यत्वस्य, पक्षे याध्यव्याप्यहेतुमत्वस्य,
हेतुज्ञाप्यसाध्यत्त्ववस्य च येऽन्वयबोधास्तेषामन्यतमबोधं प्रत्येव जनकत्वस्य । विवक्षितत्वात् । न चैवमपि रमेश्वरः पज्यो देवत्वादित्यादिन्यायान्तर्गतस्य
मेश्वरः पूज्य इति भागस्यापि उक्तरूपवत्त्वात् तत्रातिव्याप्तिरिति वाच्यं । खघटितवाक्याप्रतिपाद्यखार्थकवाक्यत्वरूपमहावाक्यत्वपरेण वाक्यपदेनेव तदारणादिति भावः । ननु प्रकृतपक्ष-हेतु-साध्यकपरामर्शजनकवाक्यत्वं न्यायत्वं, तादृशबोधानुकूलबोधजनकत्वचावयवत्वं इति प्राचीनशक्तं कुतस्यक्तमतकाह, 'अतरवेति उक्तनिरक्तस्त्यागादेवेत्यर्थः, 'तदवयवे' तादृशवाक्येकदेशे वहिव्याप्येत्यादिभाग इति यावत् । ननु नामार्थ-धात्वर्थयोनीमार्थयोश्च ; भेदेनान्वयबोधस्याव्युत्पन्नतया उक्तवाक्यस्य पक्ष-व्यात्यादौ हेतु-साध्यादिप्रकारकबोधाजनकत्वेन परामर्शजनकत्वमेव नास्ति कुतस्तवातिव्याप्तिरित्यतपाह, 'तेनेति, 'जननात्' जननसम्भवात्, प्रायैर्मतुवादिसमभिव्याहारवशानामार्थयो देनान्वयस्याभ्युपगमादिति भावः ।
न्यायावयवपदयोः प-यत्ववादिनां मतमुपन्यस्यति, 'यत्त्विति 'सङ्खपतः' लाघवात्, 'विशेषाभावादित्यस्य प्रतिज्ञादिपञ्चकसमुदायापेक्षयेत्यादिः, 'मोऽपौति वहिव्याप्यधूमवानयं इत्यादिशाब्दबोधप्रयोजकोऽपौत्यर्थः, न्यायस्य प्रथमतो वादिवाक्यत्वनियमात् उक्तवाक्यस्य च न्यायत्वेऽनाकालि. तस्य तस्य प्रागभिधानेऽर्थान्तरात्मकस्य निग्रहस्थानस्य प्रसङ्गादित्याशयेन निरस्यति, 'कथायामिति जल्प-वादकथायामित्यर्थः, नाघवाद्यदि परामर्शप्रयोजकवाक्यत्वस्यैव न्यायपदप्रतिपाद्यतावच्छेदकता तदाऽतिलाधवात् परामर्शप्रयोकत्वमात्रस्य तथास्वं स्यात् तथाच चक्षुरादिरपि न्यायः स्यादित्याह, 'धन्यथेति न्यायत्वापत्तियायपदवाच्यत्वापत्तिः । ननु चक्षरादायत्वे प्रथमतस्तदभिधानेऽर्थान्तरं स्थादित्यत बाह, 'पाकाोति, 'तुल्य इत्यस्य उपनयनवाक्येऽपौत्यादिः ।
88
Page #703
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्वचिन्तामणी
अनुमितिचरमकारणलिङ्गपरामर्शमयोजकशाब्दभानजनकशाब्दज्ञानजनकवाक्यत्वमवयवत्वम्, अतरव वहिव्याप्यधूमवांनयमितिवाक्ये तदवयवे च न न्यायतदवयवलक्षणातिव्याप्तिः तेन परामर्शस्य तदवयवेन परामर्शजनकस्य जननात्।
यत्त संक्षेपतः परामर्शप्रयोजकवाक्यत्वेन विशेषा'अनुमितिचरमकारणेति, न्यायेऽतिव्याप्तिवारणाय तादृशशाब्दज्ञानजनकेत्युक्तं, वहिव्याप्यधूमवानयमितिवाक्यैकदेशेऽतिव्याप्तिवारणय चरमत्वं परामर्शविशेषणं, अर्थस्तु पूर्ववत्, पूर्वोक्तकण्टको
'तद्वौति तादृशशाब्दधौत्यर्थः, विजातोयं विलक्षणेकजातिविशिएं, 'तक्षणं' अवयवलक्षणं, कचित्तु मूले 'तत्तद्धीजनकत्वमेव तल्लक्षणमिति पाठः, स च विजातीयज्ञानजनकत्वं प्रतिज्ञात्वं, वहिलक्षणज्ञानजनकत्वं हेतुत्वमित्येवं क्रमेण व्याख्येयत्वे प्रतिज्ञादिग्रन्थे तादृशतल्लक्षणस्याये प्रशितत्वेन पुनरक्तिभिया प्रामादिक इवि ध्येयं । 'दुनिरूपमिति कार्यमात्रत्तिजातेरनुगतानतिप्रसक्तधर्मावच्छिमकारणप्रयोज्यत्वनियमादिति भावः । 'तस्यैवेत्येवकारोभिन्नक्रमे तेन 'तत्खौकारे एव' प्रतिज्ञादावनुगतधर्मखीकार एव, 'तस्य' विजातीयधौजनकवाक्यत्वस्य लक्षणत्वसम्भवादित्यर्थः, तथाच वैजात्यासत्त्वात्तदर्भगक्षणस्यासम्भवादिति भावः। ननु विनाप्यनुगतानतिप्रसक्तधावच्छिन्न कारणं कार्यगतवैनात्यसत्त्वे कोदोष इत्यतचाइ, 'बन्यथेति धनुगतकारणं विनापि कार्यगतवैजात्योपगमे घट-पटादिधिचतुरेवप्येकवेजात्यसिद्ध्या तेन समं घटत्व-पटत्वादेः सकरप्रसङ्ग इत्यर्थः, तथाविधवैजात्ये प्रमाणविरहस्तु प्रकृतेऽपि समान इति भावः इति जायदोशी व्याख्या।
Page #704
--------------------------------------------------------------------------
________________
पवयवः ।
REE .
भावात् सोऽपि न्याय एवेति, तन्त्र, कथायामाकाहाकमेणाभिधानमिति प्रथमं विशिष्ट वैशिष्ट्य श्राकाहा नास्तीति तदभिधाने निग्रहादिति वक्ष्यते, अन्यथा
द्धारावयवेऽतिव्याप्तिवारणाय शाब्दपदं, उदासीने च यथा मातिव्याप्तिस्तथोक्तमधस्तात्। न च यत्र दाभ्यामवयवाभ्यां न्यायजन्यज्ञानजनकं एकं ज्ञानं जनितं तत्र तादृशावयवदयेऽतिव्याप्तिः एवं पूर्वोक्तरौत्या वहिव्यायधूमवानयमिति वाक्यैकदेशेऽतिव्याप्तिरिति वाच्यम् । खाविषयकप्रतीत्यविषयन्यायकत्वे सति प्रतिज्ञाद्यन्यतमत्वं अवयवत्वं इत्यर्थे तात्पर्य्यात्, बहुव्रीहिसमासे जनकान्तात् तथा लाभात्, उदामौनवाक्येऽतिव्याप्तिवारणय सत्यन्तं, अवयवैकदेशेऽतिव्याप्तिवारणय विशेष्यदलं, तत्र चान्यतमत्वघटकाः प्रतिज्ञादिभेदाः तत्तयक्तित्वावच्छिन्नप्रतियोगिताका ग्राह्याः, न तु तत्तदानुपूर्व्यवच्छिनप्रतियोगिताकाः, धूमादालोकवान् पर्वतोवहिमान् धूमादित्यच हेत्ववयवसमानानुपूर्वोकप्रतिजैकदेशे धूमादितिभागेऽतिव्याप्तेः । न च शब्दभेदेन न्यायानन्यं स्यादिति वाच्यं । इष्टत्वात् । न्यायलक्षणे तदवयवलक्षणे च चरमपदव्यावृत्तिमाह, 'अत एवेति परामर्थे चरमत्वोपादानादेवेत्यर्थः, 'तदवयवे चेति वहिव्यायधूमवानितिन्यायावयवैकदेशे चेत्यर्थः, 'न्याय-तदवयवेति यथाक्रममन्वयः। ननु चरमलोपादानादेव कुतोनातिव्याप्तिः तत्र हेतमाह, 'तेनेति वझिव्याप्यधूमवानयमिति वाक्येनेत्यर्थः, 'परामर्शस्येति सावधारणं, 'परामर्शपदं परामर्शप्रयोजकशाब्दज्ञानपरं, अस्य 'जननादित्यनेनाग्चयः, तथा
Page #705
--------------------------------------------------------------------------
________________
নলথিনাময়ী
चक्षुरादेरपि परामर्शजनकतया न्यायत्वापत्तिः आकाशाविरहस्तुल्यएव। परामर्शप्रयोजकशाब्दज्ञानस्यैव जननादित्यर्थः, अनुमितितरमकारणपरामर्शप्रयोजकशाब्दज्ञानाजननात् इति· पर्यवसितार्थः, तथाच नादृशवाक्यजन्यशाब्दज्ञानप्रयोज्यज्ञानस्य खोत्तरोत्पन्नाबाधितत्वज्ञानसापेक्षतया चरमत्वाभावाबातिव्याप्तिरिति भावः । तदवयवेनेति वहिव्यायधूमवानयमित्यस्य एकदेशेनेत्यर्थः, ‘परामर्शजनकस्थति इदमपि सावधारणं, अत्रापि पूर्वोकरीत्या अर्थोऽवसेयः । ___ सङ्घपतः' लाघवतः, नन्वेवं वाक्यत्वमेव तदुच्यतामिति लाघवादित्यत आह, 'अविशेषादिति(१) अत्र चकारः पूरणीयः, अत्र हेतुमाह, 'परामर्शप्रयोजकेति परामर्शप्रयोजकशाब्दज्ञानजनकवाक्यत्वेनेत्यर्थः, 'मोऽपौति तावन्मात्रमपि यदि कथायां प्रयुज्यते तदा तस्थापि न्यायत्वमिष्यत एवेत्यर्थः, 'प्रथममिति हेत्वाद्यभिधानात् प्रागित्यर्थः, 'विशिष्टवैशिष्य इति सप्तम्यर्थीविषयत्वं, तथाच व्याप्तिविभिष्टवैशिष्यावगाहिजिज्ञासा नास्तीत्यर्थः, 'तदभिधाने' अनाकाजिताभिधाने, तथा चाचेष्टापत्तिरनुचितेति भावः । ननु हेत्वाद्यभिधानात् प्रागपि कदाचित् वहिव्यातिविशिष्टवैशिष्यज्ञानगोचरे
साधनतास्मरणदिना विभिटवैशिष्ट्यगोचराकाना सम्भवत्येवेति तत्र न्यायत्वखौकारे नोकदोषः इत्यत आह, 'अन्यथेति लाघबेन सम्प्रदायसिद्धन्यायव्यवहाराविषयस्यापि न्यायत्वस्वीकारे इत्यर्थः,
(२) 'विशेषाभावात्' इत्यत्र 'बविशेषात्' इति कस्यचिन्मूलपुस्तकस्य • पाठोऽनेन रहस्यश्चत्पाठधारणेनानुमीयते ।
Page #706
--------------------------------------------------------------------------
________________
अवयवः ।
००१
श्रन्ये तु पञ्चावयववाक्याद्विजातीयमेव शाब्दज्ञानमुत्पद्यत इति त जनकवाक्यत्वं न्यायत्वम्, एवं प्रति
'चचुरादेरपीति तिलाघवात् वाक्यत्वमपि परित्यज्य चचुरादिसाधारणस्यैव वक्तुमुचितत्वादिति भावः । श्राकाङ्क्षाविरह इति श्राकाङ्खापदं सम्प्रदाय सिद्धन्यायव्यवहारपरं तथाच सम्प्रदायसिद्धन्यायत्वव्यवहारविरहञ्चचुरादाविव वह्निव्याप्यधूमवनयमित्येतावन्माचवाकोSपि तिष्ठतीत्यर्थः तथाचाच न्यायत्वास्वीकारे तचापि तथात्वौचित्यादिति भावः । 'तीजनकेति विजातीयशाब्दज्ञाननिष्ठ कार्य्यता निरूपितकारणतायाः विषयितासम्बन्धेनावच्छेदकं यद्वाक्यं तत्त्वमित्यर्थः, वहिव्याप्यधूमवान्यमित्येतावन्मात्रजन्यज्ञाने च न वैजात्यमिति नातिप्रसङ्गः, वाक्यपदं श्रवच्छेदकतापर्य्याप्तिलाभाय, इतरथा न्यायैकदेशेऽतिव्याप्तिः, 'एवमिति तुल्यप्राप्तमित्यर्थः, 'तल्लचणमिति प्रतिज्ञादिलचणमित्यर्थः, 'अनतिप्रसक्तमिति उदासीनवाक्य व्यावृत्तमित्यर्थः, एतेन तादृशवाक्यत्वव्यवच्छेद:, 'अनुगतमिति मकलन्यायसाधारणमित्यर्थः, एतेन तत्तातित्वव्यवच्छेद:, 'दुर्निरूपमिति दुःसम्भवमित्यर्थः, जनकतायाः जनकतावच्छेदकघटितत्वादिति भावः । मनु तादृशं रूपं स्वीकृत्यैव लक्षणं करणीयमित्यत श्राह 'तत्स्वीकारइति न्यायादावनुगतानतिप्रसक्तधर्मस्वीकार इत्यर्थः, 'लक्षणत्वात् ' लक्षणत्वापातात्। मनु तस्यैव इत्ययुक्रं लचणान्तरसत्वेन लचणान्तरकरणे दोषाभावादित्यत श्राह 'अन्यथेति न्यायादिजन्यताव - च्छेदकवैजात्यानां स्वीकारे इत्यर्थः, 'जातिसङ्करप्रसङ्ग इति प्रतिज्ञा
Page #707
--------------------------------------------------------------------------
________________
००२
तत्वचिन्तामो
जाद्यवयवादपि प्रत्येकं विजातीयं शाब्दज्ञानमिति तत्तौजनकशन्दत्वमेव तत्तलक्षणमिति, तन्न, ज्ञानविशेषजनकत्वं तत्तज्ज्ञानजनकत्वं वा न्याये प्रतिज्ञा। चानतिप्रसक्तमनुगतरूपमन्तरेण दुर्निरूपमिति तल्खौकारे तस्यैव लक्षणत्वात्. अन्यथा जातिसङ्करप्रसङ्गः ।
जन्यतावच्छेदकजात्यभाववति हेतमाचजन्यज्ञाने हेतुजन्यतावच्छेदिका जातिः हेतुजन्यतावच्छेदकजात्यभाववति प्रतिज्ञामात्रजन्यज्ञाने प्रतिज्ञाजन्यतावच्छेदिका जातिः उभयज्ञानअन्ये च उभयोः समावेशदूति मङ्कर इत्यर्थः, एवमुदाहरणदिजन्यतावच्छेदकजातिमादायापि मरो बोध्यः । न चोभयजन्यतावच्छेदकं भित्रमेव वैजात्य खोकायं प्रत्येकजन्यतावच्छेदकवैजात्यावच्छिन्न प्रति उभयजन्यतावछेदकवैजात्यावच्छित्रसामग्री प्रतिबन्धकतया नोभयादिजन्यज्ञाने च प्रत्येकजन्यतावच्छेदकवैजात्यमिति न सङ्कर इति वाच्यम्। एतादृशप्रतिबध्य-प्रतिबन्धकभावे विभिन्नवैजात्यकल्पने मानाभावात् कप्तमामयौतएव तादृशशाब्दोदयात् ।
'तत्र' निरूपणे, सप्तम्यर्थीविषयत्वं, ‘माध्यनिर्देश इति माध्यं निर्दिश्यतेऽनेनेति युत्पत्त्या माध्यप्रतिपादकशब्द इत्यर्थः, ‘माध्यपदइति माध्यपदस्थापि साध्यप्रतिपादकत्वादिति भावः। 'उद्देश्येति, उभयत्र उद्देश्यत्वं प्रकृतत्वं, यथाश्रुते यत्र न्याये अनुमितिनाविषयस्तचत्यप्रतिज्ञायामव्याप्तेः, तथाच तद्धर्मावच्छित्रपक्षक
Page #708
--------------------------------------------------------------------------
________________
कावयवः ।
७०
तच प्रतिज्ञा न साध्यनिर्देशः साध्यपदेऽतिव्याप्तेः " किन्तूद्देश्यानुमितिहेतुलिङ्गपरामर्शप्रयेाजकवाक्यार्थ
तद्धर्मावच्छिन्नसाध्यकन्यायावयवत्वे सति तद्धर्मावच्छिन्नपचक-तंमीवच्छिन्नसाध्यकान्यूमानतिरिक्तविषयक शाब्दज्ञानजनकवाक्यत्वं तद्धर्मावच्छिन्नपचक-तद्धर्मावच्छिन्नमाध्यक प्रतिज्ञात्वमित्यर्थः, पर्वतो हिमानित्युदासोनवाक्येऽतिव्याप्तिवारणाय सत्यन्तं, तहले तमीafravahraौ यत्राभिधेयसामान्यं पचौकृत्य वन्निज्ञानजन्यज्ञानं निरूपितत्वसम्बन्धेन साध्यते वह्निश्च हेतुस्तत्र वक्रेरिति हेतौ विषयत्वत्वावच्छिन्नपञ्चक- वह्निज्ञानजन्यज्ञानत्वावच्छिन्नसाध्यकप्रतिज्ञालक्षणातिव्याप्तिः तादृशहेत्ववयवस्य वहिज्ञानजन्यज्ञानत्वावच्छिन्नमाध्यकन्यायावयवत्वात् विषयत्वत्वावच्छिन्नपचक- वहिज्ञानजन्यज्ञानत्वावच्छिन्नसाध्यकानुमित्यन्यनानतिरिक्रविषयक शाब्दज्ञानजनकत्वाच्च, तद्दाने च विषयत्वत्वावच्छिन्नपचकन्या यावयवत्वाभावात् नातिव्याप्तिः, तत्पचकेत्युक्तावपि तद्दोषतादवस्थ्यमत श्राह तद्धर्मावच्छिन्नपच
(१) 'तत्रेति, 'तत्र' निरूपणौयप्रतिज्ञादिषु मध्ये, 'साध्येति, 'साध्यस्य ' विधेयधर्म्मविशिष्टधर्मिणः, 'निर्देशः ' तदुबेोधकशब्द इत्यर्थः तथाच साध्यविशिष्टपक्ष बेाधकन्यायावयववाक्यत्वमर्थः पर्य्यवस्यति, 'साध्येति, नि
साध्यस्य 'पदे' बोधकशब्दे इति यावत्, 'यतिव्याप्तेरिति उपनयनिगमनाभ्यां एकवाक्यतया जायमाने बोधे निगमनस्य हेतुत्वेनातिव्याप्ते - रित्यर्थः एतेन निगमने यम्पदा नुषङ्गपते नातिव्याप्तिरिति परास्तं । तादृशबोधमात्रपदप्रक्षेपे तु नोक्तदोष इति ध्येयमिति जागदोशी
व्याख्या ।
Page #709
--------------------------------------------------------------------------
________________
७.8
तत्त्वचिन्तामो
केति। न चैवमपि यत्र विषयत्वत्वेन विषयत्वं पक्षौकत्य निरूपितत्वसम्बन्धेन वझिज्ञानजन्यज्ञानं साध्यं वहिन हेतस्तत्र वहेरिति हेत्ववयवेऽतिव्याप्तिारैवेति वाच्यम्। सम्प्रदायविरुद्धतया तादृशन्यायप्रयोगाभावात् तावन्याचे कृते पर्वतत्वावच्छिन्नपक्षक-द्रव्यत्वावच्छिन्नमायकोपनये पर्वतत्वावच्छिन्नपक्षक-द्रव्यव्याप्यधूमत्वावच्छिन्नमाध्यकप्रतिज्ञालक्षणतिव्याप्तिः तादृशोपनयस्य पर्वतत्वावच्छिन्नपक्षकन्यायावयवत्वात् पर्वतत्वावच्छिन्नपक्षक-द्रव्यव्याप्यधूमत्वावच्छिन्नमाध्यकानुमित्यन्यूनानतिरिक्रविषयकशाब्दज्ञानजनकवाक्यत्वाच्च, तद्दाने च तस्य द्रव्यव्याप्यधूमत्वावच्छिन्नमाध्यकन्यायावयवत्वाभावात् नातिप्रसङ्गः, तत्माध्यकत्वमात्रोक्तौ पर्वतोद्रव्यवान् धूमादित्यादिन्यायान्तर्गते द्रव्यव्याप्यधूमवानयमित्युपनये द्रव्यव्याप्यधूमसाध्यकप्रतिज्ञालक्षणातिव्याप्तिः तस्यापि द्रव्यत्वेन रूपेण द्रव्यव्याप्यधूमसाध्यकन्यायावयवत्वात् पर्वतत्वावच्छिन्नपक्षक-द्रव्यव्याप्यधमत्वावच्छिन्नसाध्यकानुमित्यन्यूनानतिरिक्तविषयकशाब्दज्ञानजनकवाक्यत्वाच, तथोक्तौ च तस्य द्रव्यव्यायधमत्वावच्छिन्नमाध्यकन्यायावयवत्वाभावान्नातिव्याप्तिः, हेत्वाद्यवयवेऽतिव्याप्तिवारणाय विशेष्यदलं, तत्र तद्धर्मावच्छिन्नपक्षकेत्यनुतौ यत्राभिधेयसामान्यं पचौकत्य निरूपितलसम्बन्धेन वफ्रिज्ञानजन्यज्ञान साध्यं वहिश्च हेतुः तत्र हेत्ववयवेऽतिव्याप्तिः तस्याभिधेयत्वावच्छिनपक्षक-वहिज्ञानजन्यज्ञानत्वावच्छिन्नसाध्यकन्यायावयवत्वात् विषयत्वलावच्छिन्नपक्षक-वकिज्ञानजन्यज्ञानवावच्छिन्नमाध्यकानुमित्यन्यनामतिरिक्तविषयकमाब्दज्ञानजनकलाच ज्ञानजन्यज्ञानविषयत्वस्य पधम्यर्थत्वात्, नहाने से अभिधेयत्वावच्छित्रपक्षक-तत्माध्यकानुमित्यन्यू
Page #710
--------------------------------------------------------------------------
________________
अवयवः।
मानजनकत्वे सत्युहेश्यानुमित्यन्युनानतिरिक्तविषयकशाब्दज्ञानजनकं वाक्यम्।
नानतिरिक्तविषयकशाब्दज्ञानजनकत्वाभावावातिव्याप्तिः, तत्पक्षकेत्युक्तावपि तद्दोषतादवस्थ्य अत प्राह तद्धावच्छिन्नेति, तद्धर्मावछिन्नसाध्यकत्यनुक्तौ वहिव्याप्यधूमवानयमित्युपनये पर्वतत्वावच्छिनपक्षक-वहिलावच्छिन्नमाध्यकप्रतिज्ञालक्षणतिव्याप्तिः तस्थापि पर्वतत्वावच्छित्रपक्षक-वहित्वावच्छिन्नमाध्यकन्यायावयवत्वात् पर्वतत्वावछित्रपक्षक-वहिव्याप्यधूमसाध्यकानुमित्यन्यूनानतिरिक्तविषयकशाब्दज्ञानजनकत्वाच्च, तद्दाने च वह्निमाध्यकानुमित्यन्यूनानतिरिक्तविषयकशाब्दज्ञानजनकत्वाभावान्नातिप्रमङ्गः, तत्माध्यकत्युकौ च पर्वतोद्रव्यवान् धूमादित्यादिस्थलीयोपनयेऽतिव्याप्तिः तस्य पर्वतत्वावच्छि
(१) 'कित्वित्यादि, प्रतिज्ञासमानार्थकस्य न्यायानन्तर्गतवाक्यस्य वारणाय सत्यन्तं, तत्राप्युद्देत्यानुमितिपदं यादृश-यादृशानुपूर्ववच्छिन्ने प्रकृतपक्षक-प्रकृतसाध्यकन्गायत्वं तादृश तादृशानुपूर्ववच्छिन्नाभावसाध्यकानुमितिपरं, तथाच तादृशानुमितेर्हेतुभूतोयोलिङ्गधर्मिकः परामर्शः घटत्वं तादृश-तादृशानुपूर्व्यवच्छिन्नाभावकूटव्याप्यमित्याकारकव्याप्तिनिश्चयः तस्य प्रयोजक विषयविधया जनकतावच्छेदकानुपूर्वोघटकं अथच यादृश-यादृशूवाक्ये प्रकृतपक्ष साध्य हेतुकावयवव्यवहारस्तादृश-तादृशवाक्यकूटस्थार्थोंनिवृत्तिरभाव इति यावत् तगोचरज्ञानस्य जनकं प्रतियोगिविधया जनकतावच्छेदकं तत्त्वे सतीत्यर्थः, इत्याद्यवयवस्य वारणार्थ विशेष्यदलं, 'उद्देश्या' प्रजतपक्ष-साध्यिका, यानुमितिः तदन्यूनानतिरिक्तविषयकशाब्दधोजनकवाक्यत्वमिति तदर्थः, प्रकृतानुमित्यतिरिक्तविषयकत्वंमात्रं धूमाव्यत्ववान्
89
Page #711
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्वचिन्तामयौ
wion द्रव्यत्वावच्छिन साध्यकन्यायावयवत्वात् पर्वतत्वावच्छिमपचकद्रव्यव्याप्यधूमात्मक द्व्यसाध्यकानुमित्यन्यनामतिरिक्तविषयक शाब्दज्ञानजनकत्वाच्च तद्दाने च द्रव्यत्वावच्छिन्नसाध्यकानुमित्यन्यूनानतिरिक्तविषयकशाब्दज्ञानजनकत्वाभावान्नातिव्याप्तिः, धूमादन्यवयवसमवेतद्रव्यवान् पर्वतो वह्निमान् धूमादित्यच हेत्ववयवे तादृशपर्वतला -
७०६
पर्व्वतो वह्निमान् धूमादित्यादिन्यायस्थले धूमादित्यादिहेत्ववयवेऽतिव्याप्त • मतः प्रकृतानु नित्यन्यून विषयकत्वमुक्त, तच्च प्रकृतपत्ते प्रकृतसाध्य वैशिष्याव - गाचित्वरूपं ग्राह्यं, धूमात् प्रमेयत्ववद्धेतुत्वं धूमीयं धूमादित्यादौ हेतुतामात्रएव प्रकृतसाध्य वैशिष्ट्यबोधकोहेतुर्न तु विशिष्ट हेतुत्वात्मके प्रकृतपक्षे, हेतुत्वं वाच्यत्वात् प्रमेयवृत्तिधर्म्मवत् वाच्यत्वादित्यादौ च प्रकृतपक्षे प्रकृत्यथंस्य वाच्यत्वस्यैव वैशिष्ट्यबोधकोहेतुर्न तु वाच्यत्वज्ञाप्यप्रमेयवृत्तिधम्मात्मकस्य प्रकृतसाध्यस्य इति तयोर्व्युदासः । न च पर्व्वतो वह्निमानित्यादौ वहिसाध्यकप्रतिज्ञायामव्याप्तिः नामार्थयोर्भेदेनान्वयबोधस्या व्युत्पन्नत्वेन तस्याः प साध्यप्रकारक बोधजनकत्वासम्भवादिति वाच्यं । समानविभक्तिकमनुवादिसमभिव्याहारवशेन नामार्थयोरपि भेदेनान्वयस्य प्राचीनैः स्वीकृतत्वादेव तत्सम्भवादिति प्रतिज्ञासहकारेण हेत्ववयवस्य उपनयस्थायमादिपदसहकारेण निगमनस्य च निरक्तानुमित्यन्यून विषयकत्वात् तत्रातिव्याप्तिवारमार्थमनतिरिक्तविषयकत्वमुक्तं । न च सव्र्व्वं प्रमेयं वाच्चत्वादित्यादौ प्रकृतानुमितिविषयातिरिक्ताप्रसिद्धि:, प्रहृतपक्षधर्मिक प्रकृतसाध्यावगाहितानन्तर्गंतविघताशून्यत्वस्य विवक्षितत्वात् । न चैवमपि रमाधवः पूज्योदेवत्वादित्यादौ माधवः पूज्य इत्याकारक प्रति जैकदेशेऽतिव्याप्तिः तस्यापि निरक्तसत्यंन्तार्थवत्त्वात्प्रकृतानुमित्यन्यूनानतिरिक्तविषयक शाब्दधी जनकत्वाचेति वाच्यम् । स्वघटितवाक्याप्रतिपाद्य स्वार्थकत्वरूप महावाक्यत्व परेण चरमवावकपदेनैव तस्य वारितत्वादिति भावः इति जागदोशी व्याख्या ।
Page #712
--------------------------------------------------------------------------
________________
अवयवः।
चित्रपक्षक-पहिलावछिन्नमाध्यकन्यायावयवत्वात् तादृशपर्वतवावच्छिन्नपचक-वन्हित्वावच्छिन्नमायकानुमित्यनतिरिकविषयकशाब्दज्ञानजनकत्वाच्च तत्र तादृशपर्वतत्वावच्छिन्नपक्षक-वहित्वावच्छिन्नमाध्यकप्रतिज्ञालक्षणतिव्याप्तिवारणायान्यूनेति, तदाने च तस्य वयवयवसमवेतद्रव्याविषयकत्वेन तादृशानुमित्यन्यूनविषयकत्वाभावानातिप्रसङ्गः । तस्मादहिमानित्यादिनिगमनस्यापि पर्वतत्वावच्छिन्नपक्षकवहित्वावच्छिन्नमाध्यकन्यायावयवत्वात् पर्वतत्वावच्छिन्नपक्षक-वहित्वावच्छिन्नसाध्यकानुमित्यन्यनविषयकशाब्दज्ञानजनकत्वाच्च तत्रातिव्याप्तिवारणयानतिरिक्नेति, तथाच तस्य तादृशानुमितिविषयातिरिकव्याप्यादिविषयकत्वात् नोक्तातिव्याप्तिः, तत्र शाब्दज्ञानजनकत्वं तादृशज्ञानजनकतावच्छेदकानुपूर्तीमत्त्वं, अतः सभाक्षोभादिनाऽजनितबोधकप्रतिज्ञायां नाव्याप्तिः, एतलाभायैव शाब्द-वाक्यपदयोरुपादान।
ननु सर्व प्रमेयमित्यादिप्रतिज्ञायामव्याप्तिः तादृशानुमितिविषयातिरिकाप्रसिद्धेः । न च तादृशानुमित्यनतिरिक्तविषयकत्वं तादृशानुमितिविषयिताव्यावृत्तवैलक्षण्याश्रयविषयितारुण्यत्वं वाथमिति वाच्यम् । अनुमितिविषयिताव्यावृत्ततत्तद्व्यकिवरूपवैलक्षण्यस्य शाब्दबोधविषयितायां मत्त्वात् इत्यतोलक्षणसम्भवात् लक्षणान्तरमाइ, 'अनूनेति,(१) अन्यूनानतिरिक्तपदं अनुमित्यनूनानतिरिक्रविषयकपर,
(१) लाघवादाइ, 'बन्यूनेति अन्यूनानतिरिक्तविषयकान्तभागं विहाय इत्यर्थः, अनुमितिविधयकत्वस्य प्रायशः प्रतिक्षायामसत्त्वात् अनुमितिस. मानविषयकत्वस्य सतोऽपि व्यर्थत्वादिति ध्येयं । 'लिङ्गाविषयकत्वमिति लिङ्गभावभिन्नत्वस्य यल्लिङ्गमभावत्वं तदविषयत्वमित्यर्थः, तेन दोनि मो.
Page #713
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामो
अन्यूनानतिरिक्तपदं विहाय लिङ्गाविषयकत्वं वा ज्ञानविशेषणं तेनोदाहरणादिव्युदासः, निगमनच 'लिङ्गाविषयकवमिति लिङ्गपदं व्याप्यपरं, भावार्थश्च विवक्षितः, व्याप्यत्वञ्च प्रकृतहेतुक-प्रकृतसाध्यकानुमितिगमकतोपथिकव्याप्यत्वं, यथाश्रुते पृथिवौतरेभ्योभिद्यते पृथिवीलादित्यत्र प्रतिज्ञायामव्याप्तेः, तथाच नव्यत्यासेन प्रकृतहेतुक-प्रकृतमाध्यकानुमित्यौपयिकव्याप्यत्वविषयकशाब्दबोधजनकाकासाशुण्यत्वमित्यर्थः, उदाहरणदौनां
निर्वशित्वादित्यादौ यो यो धूभवान् स वहिमानित्यादिव्यतिरेक्युदाहरणस्य निर्वहित्यादिरूपहेत्वविषयकत्वेऽपि नातिव्याप्तिः। न च घटाभावः पटशून्योऽभावत्वादित्यादिस्थनीयप्रतिज्ञाया अभावत्वविषयकवनियमात् तत्राव्याप्तिः प्रकृतपक्षधर्मिकप्रकृतसाध्यप्रकारितावहिर्भावेन यदभावत्वविषयकत्वं तच्छु न्यत्वस्य विवक्षितत्वात् । न च प्रकृतपक्षधर्मिकप्रकृतसाध्यप्रकारितावहि तविषयिताशून्यत्वमात्रस्य सम्यक्त्वेऽभावत्वप्रवेशाव्यर्थ इति वाच्यम् । अखण्डाभावघटकतया तस्याव्यर्थत्वादिति भावः । ननु तस्माद्दङ्गिमान् इति निगमनस्याप्यभावत्वाविषयकत्वात्तवातिव्याप्तिरित्यत पाह, 'निमगनश्चेति, 'न परामर्श हेतुः नाभावत्वाविषयक ज्ञानहेतुः, 'अबाधितत्वेति, प्रतिज्ञातः पक्षस्य साध्यवत्त्वसिद्धेः पुनस्तदभिधानस्याबाधितत्वादिबोधकत्वस्यावश्यकत्वात् सिद्धे सत्यारम्भोनियमायेत्यादिव्युत्पत्तेरिति भावः । वस्तुतोऽबाधितत्वादेनिगमनाप्रतिपाद्यत्वेऽपि ज्ञापकत्वरूपहेतुत्वस्याभावत्वगर्भजनकताघटितत्वेन हेतुतावाचिपञ्चमीगर्भनिगमनस्याभावत्वाविषयकज्ञानजनकत्वमेव दुर्लभं, अत एव पर्वतो वह्निमान् धमादित्यादौ हेत्ववयवेऽपि नातियाप्तिः, तस्यापि पक्षम्यर्थहेतुताघटकतयैवाभावत्वविषयकज्ञानजनकत्वनियमादिति ध्येयं।
Page #714
--------------------------------------------------------------------------
________________
अवयवः ।
Gol
न परामर्शहेतुः अबाधितासत्प्रतिपक्षितत्वज्ञानजनं
कत्वात् ।
हेत्वभिधानप्रयोजक जिज्ञासाजनकवाक्यत्वं वा ।
तादृशाकाङ्क्षासत्त्वान्नातिप्रसङ्गः
अत्राप्युदासौनवाक्येऽतिव्याप्तिवार
णाय न्यायावयवत्वे सतीत्यनुसञ्जनीयं श्रत्र च हेत्ववयवेऽतिव्याप्तिवारणाय हेत्वन्यत्वविशेषणं देयं, प्रकृतपदद्वयदानात् तेजोव्याप्यधूमवानयं वह्निमान् धूमादित्यादौ वह्निव्याप्यनीलवानयं वह्निमान् धूमादित्यच नाव्याप्तिः । न च प्रकृतहेतुनिष्ठप्रकृतसाध्यनिरूपितव्याप्यत्वाद्येव उच्यतामिति वाच्यम् । व्यतिरेकव्याप्तिज्ञानजनकोदाहरणादावतिव्याप्तेः श्रच चान्वयव्याप्तिविषयता- व्यतिरेकव्याप्तिविषयतोभयोः प्रत्येकरूपेणैवाभावौ निवेश्यौ व्याप्तिद्वयसाधारणानुगतरूपस्य एकस्याभावेन एकरूपेण तदुभयाभावनिवेशासम्भवात् । अन्यूनपदस्य
'हेत्विति, 'हेतुः' खार्थज्ञाप्यत्वविशिष्टसाध्यवत्तया पक्षबोधानुकूल पच्चम्यन्तशब्दः, तस्य यदभिधानं तस्य प्रयोजिका तज्जन्यबोधनिवर्त्य पक्षः कुतः साध्यवानित्याकारिका या जिज्ञासा तदनुकूलावयवत्वमित्यर्थः, 'लिङ्गेति उपनयनादिवारणार्थमविषयकान्तं प्रकृतसाध्य-पक्षविषयतावहिभीवेन प्रकृतलिङ्गाविषयकत्वार्थकं, नातः प्रागुक्तदोषः, दोनिर्धूमोदा-वृत्तिधर्मशून्यत्वादित्यादौ यो यो धूमवान् सदावृत्तिधर्मवान् इत्यादिव्यतिरेक्युदाहरणस्य वारणाय 'लिङ्गिविषयकेति लिङ्गं प्रकृतसाध्यव्याप्यं asardarर्थः । न च साध्यवद्विशेष्यकत्वमेव सम्यक् व्याप्यपदं व्यर्थमिति वाच्यम् । यथासन्निवेशे वैयर्थ्याभावात् इति जागदीशी व्याख्या ।
I
Page #715
--------------------------------------------------------------------------
________________
५.
तत्वचिन्तामयी लिङ्गाविषयक-लिङ्गिविषयकवानजनकन्यायावय
व्यावृत्तिमाइ, 'तेनेति अन्यूनपददानेनेत्यर्थः, 'उदाहरणदिपदं उदाहरणस्यादिरिति समासेन धूमाइयवयवसमवेतद्र्व्यवान् पर्वतो वहिमान् धूमादित्यादिस्थलीयहेत्ववयवपरं ।
केचित्तु लिङ्गावियकपदव्यावृत्तिपरोऽयं ग्रन्थ इत्ययाः ।
अतिरिकपदस्य छलतोव्यावृत्तिमाछ, 'निगमनश्चेति, अन्यूना. मतिरिकविषयकशाब्दज्ञानजनक मदिति शेषः, 'न परामर्शहेतः' न न्यायावयव इत्यर्थः। ननु तस्य कुतो न तथाज्ञानजनकत्वं अत आह, 'अबाधितेति अबाधितत्वासत्प्रतिपक्षत्वज्ञानजनकत्वादित्यर्थः। ननु निगमनं नाबाधितत्वादिज्ञानजनक तस्यापदार्थत्वात्। न च लक्षणया तस्योपस्थितिरिति वाच्यम्। वादिवाक्ये वारसिकतया तस्या प्रभावादिति चेत् । न । अबाधितत्वासत्प्रतिपक्षितत्वज्ञानजनकत्वादित्यस्य अबाधितत्वासत्प्रतिपक्षत्वादिमानसज्ञानप्रयोजकस्य साध्यव्याप्तिविमिष्टपक्षधर्मताविभिष्टहेतज्ञानज्ञाप्यत्वस्य ज्ञानजनकत्वादित्यर्थत्वात्, तादृशाहेत जानज्ञाप्यत्वज्ञानस्य अबाधितत्वादिज्ञानप्रयोजकत्वं तादृपहेतज्ञानशाप्यत्वस्य अवाधितत्वादिव्याप्यतया ।
नव्यास्तु नास्ति बाधितवं पचनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वं यस्मादिति विग्रहेणबाधितत्वादिपदस्य व्याप्तिपक्षधर्मताविभिष्टोयो इतस्तज्ज्ञानज्ञाप्यत्वमर्थः, 'श्रमप्रतिपक्षितत्वं' असत्प्रतिपक्षवृत्तिधाव्याप्तिरूपः, तथाच तज्ज्ञानज्ञाप्यत्व-व्याप्युभयबोधजनकलादित्यर्थ इत्याः ।
Page #716
--------------------------------------------------------------------------
________________
११
ववाक्यत्वं वा इतरावयवानां लिङ्गविषयकवानजनकत्वात्।
केचित्तु 'लिङ्गाविषयकेति लिङ्गखरूपव्याप्ति-पक्षधर्मताकाङ्क्षाजयनिवर्त्तकभिन्नले मति अबाधितत्वादिष्यलिङ्गपरामर्शप्रयोजकन्यायावयवत्वमर्थः, सत्यन्तव्यावृत्तिमाह, 'तेनेति, 'उदाहरणदिव्युदासः', हेत्ववयवस्य च लिङ्गस्वरूपाकासानिवर्तकत्वात्, उदाहरणस्य व्याप्याकासानिवर्तकत्वात्, उपनयस्य पचधर्माताकाङ्गानिवर्तकत्वात्, प्रतिज्ञायाश्च तादृशाकाजाचयनिवर्त्तकभिन्नत्वादिति भावः। अवाधितत्वादिष्यलिङ्गपरामर्थप्रयोजकपदव्यावृत्तिमाह, 'निगमनधेति, 'न परामहेतः' नाबाधितत्वादिष्यलिङ्गपरामर्शप्रयोजक इत्यर्थः, उदासीनवाक्येऽतिव्याप्तिवारणाय विशेष्यदलमिति व्याचक्रः । ___ परे तु 'निगमनञ्चेति निगमनैकदेश इत्यर्थः, 'न परामर्थक्षेतः' न न्यायावयव इत्यर्थः, तथाच न्यायावयवार्थकसत्यन्तस्येयं व्यावृत्तिरित्याहुः । तदसत् । अवयवैकदेशवारणस्यापि मत्यन्तदलमाध्यतया निगमनेकदेशमात्रानुसरणविरोधात् ।
'हेत्वभिधानेति हेत्वभिधानस्य प्रयोजिका या जिज्ञामा तब्बनकवाक्यार्थज्ञानजनकत्वे मति न्यायावयवत्वमित्यर्थः। भवति हि पर्वतो वहिमामित्यादिवाक्यजन्यज्ञानानन्तरं कुतोऽस्थ वहिमत्त्वमिति जिज्ञासा, हेवादावतिव्यानिवारणाय सत्यन्तं, उदाभौमवाक्येऽतिव्यातिवारणय विशेष्यदलं । न च तस्य हेत्वभिधानप्रयोजकजिज्ञासा-- जनकत्वमेव नास्तौति कथं तर्हि अतिव्याप्तिरिति वाचम्। यस
Page #717
--------------------------------------------------------------------------
________________
१९
सावचिन्तामण
- प्रतिज्ञात्वं जातिः अनुगतानतिप्रसक्ततान्त्रिकव्यवहारादिति केचित्, तन्न, देवदत्तप्रभवत्वादिना
सभाक्षोभादिना जिज्ञासादिकमेव न जातं तत्राव्याप्तिवारणय तादृजिज्ञासाजनकवाक्यार्थज्ञानजनकतावच्छेदकानुपूर्वीमत्त्वस्य सत्यतार्थतात्पर्य्यात् ।
'लिङ्गाविषयकेति, 'लिङ्गी' पक्षः, तज्ज्ञानं तन्मुख्यविशेष्यकज्ञानं, तथाच लिङ्गाविषयक-पक्षमुख्यविशेष्यकज्ञानजनकन्यायावयवत्वमित्यर्थः, हेत्वादावतिव्याप्तिवारणाय 'लिङ्गाविषयकेति। न च धमादालोकवान् पर्वतो वहिमान् धूमादित्यादिस्थलीयप्रतिज्ञायामव्याप्तिः अस्या लिङ्गविषयकज्ञानजनकत्वादिति वाच्यम्। पक्षतावच्छेदकावच्छिन्नपक्षविषयतानिरूपिता या माध्यतावच्छेदकावच्छिन्नमाध्यविषयता तदनिरूपिता या लिङ्गविषयता तच्छृन्यत्वस्य तदर्थत्वात् । हृदोनिघूमत्ववान् निहित्लादित्यादिस्थलीययोयोधूमवान् स वकिमान् इति व्यतिरेक्युदाहरणेऽतिव्याप्तिवारणाय पक्षमुख्यविशेष्यकेति, पचविशेष्यत्येतावन्मात्रे कृते ह्रदोनिघूमत्ववान् हुदावृत्तिधप्रशूण्यत्वादित्यादिस्थलीययोयोधूमवान् म हुदावृत्तिधर्मवान् इत्युदाहरणेऽतिव्याप्तेः, तथाच तज्जन्यज्ञाने हृदस्य विशेष्यत्वेऽपि मुख्यविशेव्यत्वाभावान्नातिव्याप्तिः, छलतोलिङ्गाविषयकत्यस्य व्यावृत्तिमाह, दूतरेति व्यतिरेक्युदाहरणभिन्नप्रतिशेतरावयवानामित्यर्थः, 'लिङ्गविषयकचानजनकत्वात्' लिङ्गविषयकज्ञानस्यैव जनकत्वात् उमाखिनविषयतागयज्ञानाजनकलादिति यावत्, ।
Page #718
--------------------------------------------------------------------------
________________
अवयवः।
१९
जातिसङ्करप्रसङ्गात्, प्रतिज्ञाजन्यं विजातीयं ज्ञानं व्यवहारादिति तज्जनकं वाक्यं प्रतिज्ञेत्यपि न, तज्जनकत्वं जनकत्वज्ञानं वा नानुगतरूपमन्तरेण सम्भ
'प्रतिज्ञावमिति,१) अत्र च प्रतिज्ञापदप्रवृत्तिनिमित्तत्वेन पक्षवं, प्रतिज्ञापदप्रवृत्तिनिमित्तत्वञ्च उभयवादिसिद्धमेव, तत्र जातिरुपाधिवा इत्यत्र विवादात् तो नाश्रयामिद्धिः, 'अनुगतेति प्रतिज्ञेत्याकारकहेत्वादिव्यावृत्ततान्त्रिकानुगतबुद्धिजनकत्वादित्यर्थः, अब चानुगतबुद्धिजनकत्वमेव हेतुः, 'अनतिप्रसनाद्यभिधानञ्च श्राश्रयासिद्धिशङ्कानिरामकतर्कप्रदर्शनपरमेवेति ध्येयं । 'देवदत्तप्रभवत्वादिनेति पुरुषविशेषजन्यतावच्छेदकजात्यादिनेत्यर्थः, 'श्रादिपदात्कवा
(१) 'प्रतिज्ञात्वमिति, न च जातेयासज्यत्तित्वविरहात् एकैकयदेऽपि प्रतिज्ञात्वजातेहापत्तिरिति वाच्यम् । प्रतिज्ञाघटकतत्तदानुपू झेव्यङ्गत्वस्य तादृशजातावङ्गीकारादिति भावः । 'प्रभवत्वादीत्यादिना कत्वखत्वपरिग्रहः, 'उक्तम्य' न्यायावयवलक्षणोक्तदोषस्य उद्देश्यानुमित्याद्यक्तलक्षणस्येति वार्थः। 'रतेन' प्रतिज्ञाजन्यज्ञानमात्रवृत्तिवेजात्यविरहण, 'निरन्तमित्यग्रेऽन्वयः। उदाहरणादिप्रयोज्यजातेवारणाय 'वृत्त्यन्तं शब्दोऽनित्य इत्याकारकं यल्लिङ्गिधीपरमवयवात्मकं वाक्यं तज्जन्यज्ञानवृत्तीत्यर्थः, न्यायाप्रयोज्यचैत्रादिशरीरविशेषम्य प्रयोज्यायाः शब्दोऽनित्य इत्युदासीनवाक्यधीनिष्ठायाः शाब्दत्वावान्तरजातेः प्राचीनसम्मतत्वे न तदारणार्थमव यवेति, सत्ता-गुणत्वादेरवयवसामान्यप्रयोज्यनातेवारणार्थे 'कृतकत्वादित्याद्यसत्त्यन्तं, 'जातियोगीति शातिसमवायोत्यर्थः, इति जागदीशी व्याख्या ।
Page #719
--------------------------------------------------------------------------
________________
सत्त्वचिन्तामणौ वतीत्युक्तस्यानुसरणीयत्वात् । रतेन शब्दोऽनित्य इति लिङ्गिधीपरवाक्यजन्यज्ञानवृत्तिकृतकत्वादित्यादिवाक्यजन्यज्ञानावृत्तिजातियोगिज्ञानजनकवाक्यं प्रतिक्षेति निरस्तम्।
दिपरिग्रहः, ददमुपलक्षणं तस्य प्रत्येकपरिसमाप्तौ एकदेशे तादृशबुद्ध्यापत्तेः, समुदितपर्याप्तत्वे व्यासज्यवृत्तित्वेन जातिवासम्भवादित्यपि बोध्यं । 'अनुगतरूपमन्तरेणेति, 'सम्भवतीति, अस्वार्थस्तु प्रागेव व्याख्यातः, 'उनस्येति अस्मदुक्कलक्षणस्यैवेत्यर्थः। एतेनति अनुगतजनकतावच्छेदकरूपं विना तज्जनकत्व-तद्ग्रहयोरसम्भवेनेत्यर्थः, 'शब्दोऽनित्य इति, अत्र 'लिङ्गिधौपरेति स्वरूपकथनं, काक्यत्वं न्यायान्तर्गतत्वं,'कृतकवादित्यादौति, प्रादिपदात् योयः कृतकदत्युदाहरणादेः परिग्रहः, तथाच शब्दोऽनित्य एतादृशवाक्यजन्यज्ञानवृत्तिः सतो कृतकत्वादित्यादिवाक्यजन्यज्ञानावृत्तिर्या जातिस्तदाश्रयज्ञानजनकन्यायान्तर्गतत्वमित्यर्थः। यत्र स्थलविशेषे कण्ठकोद्धारसहित एव न्यायप्रयोगः कृतस्तत्र कण्ठकोद्धारवाक्ये कृतकवादित्यादिवाक्यजन्यज्ञानावृत्तिजातिविशेषशालिज्ञानजनकेऽतिव्याप्तिवारणय 'वृत्त्यन्तं, शब्दोनित्यतिवाक्यधौजन्यज्ञानवृत्तिसत्तावनामजनकवाक्ये चातिव्यानिवारणाय 'प्रवृत्त्यन्तं, समवायेन तदाश्रयतालाभाय जातिपदं, कालोपाधिव्यावृत्तजनकतालाभाय ज्ञानपदं, उदासीनवाक्येऽतिव्याप्तिवास्णय विशेष्यदलं,।
Page #720
--------------------------------------------------------------------------
________________
अवयवः।
१५
. ननु प्रतिज्ञा न साधनाङ्ग विप्रतिपत्तेः पक्षपरिग्रहे तब प्रमाणाकालायां हेत्वभिधानस्य प्राथम्यादिति
'प्रतिज्ञा न साधनाङ्गमिति(९) प्रतिज्ञा न परार्थानुमाने प्रयोजकज्ञानजनकमित्यर्थः, तथाच न्यायप्रयोगे प्रतिज्ञाकरणं व्यर्थमिति भावः । 'पक्षपरिग्रहे' भब्दानित्यत्वादिकोटिपरिग्रहे सतीत्यर्थः,
(१) 'साधनाङ्गमिति साधनम्य न्यायस्याङ्ग घटकमित्यर्थः, साधनस्य पराानुमानस्याङ्गामुपयुक्तमिति वा । ननु पक्षस्य साध्यवत्त्वाग्रहे तत्र हेत्वाकाङ्गगविरहात् तदभिधानेऽर्थान्तरं स्यादित्यवश्यं प्रतिज्ञा कर्तव्येत्यतयाह, 'विप्रतिपत्तेरिति विप्रतिपत्तिवाक्यादेव, 'पक्षपरिग्रहे' साध्य वत्तया पक्षग्रह इत्यर्थः, 'तत्र' पक्षस्य साध्यवत्तायां ।
केचित्त 'प्रतिज्ञा न साधनाङ्गं साधन हेतुवाक्यं तेन सहेव वाक्यत्वापना प्रतिज्ञा नेत्यर्थः, पर्वतो वह्निमानिति प्रतिज्ञा ततः कुत इत्याकाथायां . धूमादिति प्रयोगः, प्रतिज्ञा-हेतुभ्यां विशियार्थबोधोजन्यत इति नेति पर्यावसितं, तथाच प्रतिज्ञा हेत्वोरेकवाक्यताविरहेण प्रतिज्ञादिपञ्च इत्या. दिन्याये यदुक्तं तम्यासम्भवेन न्यायल क्षणासम्भव इति भावः। यत्र प्रतिज्ञादिप्रयोगे प्रमाणाभावेन नेकवाक्यता इति व्यभिसन्धिः, अभिसन्धि प्रकाशयति, 'विप्रतिपत्तेरिति, पञ्चम्याः प्रयोज्यत्वमर्थः, स च परिग्रहेइन्वेति, विप्रतिपत्तिः शब्दोऽनित्यो न वेत्याकारिका, 'पक्षपरिग्रहः' मया शब्दानित्यत्वं साधनीयमित्यादिवाक्यरूपः, 'तत्र' प्राब्दानित्यत्वे, 'प्रमा णाकालायां' शब्दविशेष्यकानित्यत्वप्रकारकप्रमाकरणं वद इत्याकानगयामिति यावत्, तादृशाकामानिरासकप्रश्ने कृते 'हेत्यभिधानस्य' कृतकवादिप्रयोगस्य, 'प्राथम्यात्' प्रथमोपन्यासाईत्वात् इति साम्प्रदायमतामुसारेण व्याचक्रुः इति भागदीशी व्याख्या ।
Page #721
--------------------------------------------------------------------------
________________
७१६
चेतं, न, विप्रतिपत्त्यग्रे हि समयबन्धानन्तरं शब्दानित्यत्वं साधयेति मध्यस्थस्य वादिनेावाकाङ्क्षायां शब्दा
चिन्तामयौ
'तच' शब्दानित्यत्वे, 'प्रमाणकाङ्क्षायां' कुत इति प्रयोगे, 'प्राथम्या - दिति प्रथममेव वमुचितत्वादित्यर्थः, 'समयबन्धेति कष्टकोङ्कारमहित एव न्यायप्रयोगः कार्य्यः उदाहरणे समयबन्धः कर्त्तव्यः तथा न कार्य्यं वा इत्यादिरूपेत्यर्थः, 'साध्यनिर्देशं विनेति पदजन्यसाध्योपस्थितिं विनेत्यर्थः, 'हेतुवाक्यमिति माध्यातिपञ्चम्यर्थम्वयबोधजनकमिति शेषः, 'निष्ठतियोगिकमिति पञ्चम्यर्थज्ञानज्ञाप्यलांगे निर्धतावच्छेदककबोधजननसमर्थं भवतीत्यर्थः । ननु चेतुवाकयेन माध्यानम्बितकृतकत्व विषयक ज्ञानजन्यज्ञानविषयत्वमित्याकारकशाब्दबोधजनने न किमपि बाधकमिति कथं तत्रासामर्थ्यमिति चेत् । न । साध्यानन्विततादृशाम्वयबोधजनने कुतोऽस्यानित्यत्वमित्याकाङ्क्षायाश्रनिवृत्तेः। ननु पदानुपस्थितमपि शाब्दबोधविषयो भविष्यतीत्यतश्रह, 'न चेति, 'वादिवाक्ये' वादिवाक्य जन्य शाब्दबोधे, 'अनुपस्थित - मपि' पदानुपस्थितमपौत्यर्थः, माध्यमिति शेषः, 'योग्यतया श्रबाधिततया, ''अन्वेति' शाब्दबोधविषयो भवति, 'श्रतिप्रसङ्गात् ' साध्यभिन्नाबाधितान्तरस्यापि शाब्दबोधविषयत्वप्रसङ्गात्, 'तस्याः' माध्योपस्थितेः, 'प्रतिवादिविप्रतिपत्त्या' प्रतिवादिविप्रतिपत्तिजन्योपस्थित्या, 'प्रामाणादिव्यवस्थयेति समयबन्धजन्यज्ञानेनेत्यर्थः, ‘अन्तरितत्वात्' नष्टत्वात् । ननु परविप्रतिपत्त्यादिरेव तत्र नास्ति मानाभावादित्यत श्रह, 'परेति, 'विप्रतिपत्तिवाक्यस्येति निराकाङ्क्ष
"
Page #722
--------------------------------------------------------------------------
________________
अवयवः।
नित्यत्वं साध्यं, न च साध्यनिर्देशं विना हेतुवाक्य निष्पतियोगिकमन्वयं बोधयितुमौष्टे। न च वादि
-- ... ... ... .. --- ...---
--- --- --- ..... ...... -
.--
बादित्यनेनान्वयः, अत्र हेतमाह, 'पक्षपरिग्रहेति शब्दानित्यत्वादिशाब्दबोधरूपतात्पर्य्यविषयौभूतान्वयबुड्युपधायकतयेत्यर्थः, 'निराकाङ्गत्वादिति तत्पदविषयकतज्ज्ञाज्ञानजन्यशाब्दबोधं प्रति तत्पदविषयकतज्ज्ञानजन्यतात्पर्यविषयौभूतशाब्दबोधाभावरूपाकाहाविरहादित्यर्थः, ननु विप्रतिपत्तिवाक्यस्थशब्दोऽनित्य इति भागस्थावृत्त्या अन्वयबोध इति नोकदोषइत्यत श्राह, 'श्रावृत्ताविति तत्पदस्य पुनरनुसन्धान इत्यर्थः, 'सैवेति तादृशानुसन्धानविषय एवेत्यर्थः । ननु मा भूदनुपस्थितस्य शाब्दबोधविषयता अस्य तु उदाहरणदेवोपस्थितिरस्ति, अथ वा अनुमानतएव उपस्थितिर्भविष्यति, तथाहि अयमवयवः साध्यान्वितखार्थबोधकावयवजन्यजिज्ञासाप्रयोज्यः व्याप्तिबोधकावयवत्वादित्यादौत्याशङ्कते, 'न चेति, 'अवयवान्तरात्' प्रतिज्ञेतरात्,(१) हेत्वन्वययोग्येति हेत्वर्थान्वयबोधजनिकेत्यर्थः, 'अवय
(१) 'विप्रति पत्यो' मध्यस्थोक्तविप्रतिपत्तेः पश्चात्, 'समयेति मया न्यायमतेनैव अन्ययिहेतुना स्वसाध्यं साधनीयमित्यादिको वादिनोनियमामिलापः समयवद्धस्तदुत्तरमित्यर्थः, मध्यस्थस्यासार्वत्रिकत्वात् तस्यैव वादिनोऽप्युक्ताकाङ्गगयां क्षत्यभावाचाह, 'वादिनोवेति “साध्य साधनीयं, 'न चेति, बोधयितुमीठ इत्यग्रेतनेनान्वयः, 'साध्यनिर्देशं विनेति साध्यस्य प्रतिज्ञां विने. त्यर्थः, 'निष्यतियोगिक' निर्विशेष्यकं, 'धन्वयं' खार्थवत्त्वान्वयं । पयावयवानुपस्थितमपि प्रकृतसाध्यं योग्यतावनादेव हेत्व यस्य धूमधानेज्ञाप्यः
Page #723
--------------------------------------------------------------------------
________________
७१०
तत्त्वचिन्तामणौ
त्वादेविशेष्यतयाऽन्वयि भविष्यति इत्याह, ‘स चेति, 'अतिप्रसङ्गादिति पदानुपस्थाप्यस्यान्वयबोधविशेष्यत्वे अतिप्रसङ्गादित्यर्थः । प्रायते, 'न चेति, निरस्थति, 'प्रतीति उक्त विप्रतिपत्तीवकोटावभावकोटावेव वा प्रमाणं नास्तीत्येवं प्रतिवादिनो विरुद्धविप्रतिपत्तिजनकोतयेत्यर्थः, निरुक्तविरुद्धोत. रनावश्यकत्वेऽप्याह, 'प्रमाणादिव्यवस्थया चेति प्रागुक्तसमयबन्धेन चेत्यर्थः, चन्तरितत्वादित्यत्र विप्रतिपत्तेरि तनुषज्यते, 'स्थापना' प्राथमिकन्यायप्रयोगः । ननु प्रतिवादिनोविरुद्धोक्तः समयबन्धस्य च स्थापनायामुपयोगित्वं निष्पमाणकमत याह, 'विप्रतिपत्तिवाक्यस्येति, पक्षम्य यः परिग्रहः साध्यवत्तया बोधनं, तेनैव ‘पर्यवसितत्वेन' जनितान्वयबोधत्वनेत्यर्थः, प्रत्यक्षस्येव शाब्दबोधस्यापि संशयत्वमभ्युपेत्येदं । ननु पक्षः साध्यवान्नवेत्यादिविप्रतिपत्त्येकदेशस्य पक्षः साध्यवानिति भागस्यैव पुनरावर्तनं कार्य मिति तदर्थ एव हेत्वर्थस्यान्वयो भवितेति विफलः प्रतिज्ञोपगमइत्यतभाइ, 'यावृत्ताविति विप्रतिपत्त्येकदेशम्य पुनरावर्त्तने वित्यर्थः, 'सैव' धात्तिरेव । यत्तु जनितान्वयबोधस्यापि पक्षः साध्यवानित्येवं विप्रतिपत्येकदेशस्य पुनः प्रतिसन्धानरूपायामारत्तो सत्यां हेत्वर्थस्यान्वयो भविता इत्याशजायामाइ, 'याहत्ताविति, 'सेवेति तादृशात्तिविषयीभूतपक्षः साध्यवानिति वाक्यमेव प्रतिज्ञापदेनोच्यते इत्यर्थः, तदयुक्तं, पक्षः साध्य वानित्येवंभागस्य प्रतिसन्धानेऽपि हेत्ववयवस्य तदानन्तर्यविरहेण तमन्तभाव्य प्रतिज्ञादिपञ्चकस्य क्रमिकोचितानुपूर्वीकत्वाभावेन सस्य प्रतिज्ञा. त्वासम्भवात् । वस्तुतो हेत्ववयवस्य प्रतिज्ञानन्तव्यं न प्रतिज्ञोत्तरोच्चरितत्वगर्भ किन्तु प्रतिज्ञोत्तरज्ञातत्वगर्भ अतः प्रतिसन्धानरूपायामेवावृत्तौ न क्षतिरिति ध्येयं ।
शाजाते, 'न चेति, 'अवयवान्तरात्' उदाहरणात् । ननु यो यो धूमनान् . स वक्रिमानित्येवंक्रमेण . हेवन्वययोग्यस्य वयादिसाध्यस्थोदाहरणादुप
स्थितावपि पक्षः कुतः साध्यवानित्याकाणायात्तथाविधहेत्वन्वयान निर.
Page #724
--------------------------------------------------------------------------
________________
घवयवः।
७९८
वाक्येऽनुपस्थितमपि योग्यतया अन्वेति, अतिप्रसङ्गात् । न च विप्रतिपत्तितः साध्योपस्थितिः, तस्याः प्रतिवादि
वान्तारणेति व्याप्तिबोधकावयवत्वादिज्ञानेनेत्यर्थः, हतीयार्थीजन्यत्वं पाचेपान्वितं, 'पाक्षेपादिति, 'आक्षेपः' अनुमितिः, पञ्चम्यर्थोऽभेदः अस्य च प्रागतसाध्योपस्थितिरित्यनेनान्वयः, तथाच व्याप्तिबोधकावयवत्वादिज्ञानजन्यानुमित्यभिन्ना माध्योपस्थितिरित्यन्वयबोधः,
त्तिरुपपद्यते वस्तुतोऽप्रसिद्धसाध्यतिरेक्युदाहरणस्य साध्याबोधकतया उदाहरणोपस्थाप्यसाध्ये हेत्वन्वयः सर्वत्र न सम्भवतीति यतः प्रकारा. न्तरमाह, 'नायीति, 'अवयवान्तरेण' उपनयेन, खार्यान्वयानुपपत्त्या साध्यवत्तया पक्षस्य 'याक्षेपात्' अनुमानात्, हेवन्वययोग्यसाध्योपस्थितिरिति पूर्वेणान्वयः, प्रथमे दूषणभाह, 'साध्यान्वय इति हेतोः साध्ये अन्वये सति कथमस्य गमकत्वमित्याकालायां उदाहरणस्याभिधानं तदभिधाने च हेत्वन्वययोग्यसाध्यीपस्थितिरित्यन्योन्याश्रयादित्यर्थः, हितीये दोषमाह, 'तस्मादिति, तस्मादुपनयात्मकावयवान्तरात् पक्षस्य साध्यव्याप्यवत्वप्रतीतिः, यञ्च साध्यव्याप्यवत्वं प्रतीतं तदन्यथानुपपत्त्या पक्षस्य साध्यवत्त्वाक्षेपः, 'इह' हेतुप्रयोगप्राक्काले नास्त्येवेत्यर्थः, पक्षस्य साध्यवत्त्वं विनापि तद्याप्यवत्त्वप्रतीतेः सम्भवात् तदन्यथानुपपत्त्या पक्षस्य साध्यवत्त्वाक्षेपः सम्भवदुक्तिक एव नेत्यतः प्रतीतस्य साध्यव्याप्यवत्त्वस्यानुसरणं । वस्ततः पक्षे साध्यवत्त्वाक्षेपसम्भवेऽपि न तत्र हेत्वर्थान्वयः सम्भवन्यपदार्थत्वादिति ध्येयं।
अप्रसिद्धसाध्यव्यतिरेक्युदाहरणादेः साध्याबोधकतया उदाहरणोपस्थाप्यसाध्ये हेत्वन्धयः सर्वत्र न सम्भवतीत्यतोऽपि प्रतिज्ञा साधनाङ्गमिति कश्चित् । इति जागदीशी व्याख्या।
Page #725
--------------------------------------------------------------------------
________________
७९.
तत्त्वचिन्तामणौ
विप्रतिपच्या प्रमाणादिव्यवस्थया चान्तरितत्वात् परविप्रतिपत्तिं समयबन्धच्च विना स्थापनाया अभावात् विप्रतिपत्तिवाक्यस्य पक्षपरिग्रहेण पर्यवसितत्वेन निराकाङ्गत्वाञ्च, आवृत्तौ तु सैव प्रतिज्ञा। न चावयवान्तराहेत्वन्वययोग्या साध्योपस्थितिः, नाप्यवयवान्तरेणा
इदन्तु नैयायिकमते, मौमांसकमते तु श्रापोऽर्थापत्तिः, 'अवयवान्तरेणेत्यस्य च माध्यन्वितस्वार्थबोधकावयवजन्यजिज्ञासां विना अयमनुपपन्न इत्यनुपपत्तिज्ञानेनेत्यर्थः, एवञ्चावतारणिकापि तथैव करणीया इत्यपि बोध्यं, आशङ्कां खण्डयति, ‘माध्यान्वय इति उदाहरणदितः साध्योपस्थितावित्यर्थः, 'तदभिधानमिति हेतुवाक्यात् अन्वयबोधानन्तरं तदाकाहायामित्यादिः, 'तदभिधान' उदाहरणभिधानं, 'तदभिधाने चेति उदाहरणभिधाने चेत्यर्थः, द्वितीयशङ्कामुपसंहारव्याजेन खण्डयति, 'तस्मादिति, 'प्रतीत्यनुपपत्त्येति, ददन्तु मौमांसकमते, 'प्रतीतानुपपत्त्येति इदन्तु नैयायिकमते, मौमांसकमते हि स्वर्गकामो यजेत इत्यादौ यागे खर्गकामकृतिमाध्यतान्वयबोधो हि दृष्टमाधनत्वरूपयोग्यताज्ञानादेव भवति, तच्चाशविनाशिनि यागे व्यापार विना न सम्भवतीति खर्गकामवतिमाध्यतान्वयानुपपत्त्या अपूर्व पाक्षिप्यते, नैयायिकमते तु वेदात् प्रतीते दृष्टसाधनत्वान्वयानुपपत्त्या अपूर्व प्राक्षिप्यते, अत्र चानुपपत्तिद्वयमेव नास्ति माध्यान्वितस्वार्थबोधकहेतुजन्यजिज्ञासां विना उदाहरणाद्युपन्यामासम्भवात् इत्याखण्डनार्थः ।
Page #726
--------------------------------------------------------------------------
________________
अवयवः।
क्षेपात्, साध्यान्वये तदभिधानं तदभिधाने च साध्यान्वय इत्यन्योन्याश्रयात् । तस्मात् प्रतोदनुपपत्त्या प्रतीतानुपपत्त्या वा नेहाक्षेपः ।
अन्ये तु(१) शब्दानित्यत्वे प्रमाणं वदेति यदि मध्यस्थस्यानुयोगः तथापि प्रमाणमात्रे नाकाङ्गा किन्तु विशिष्टे, विशिष्टन्तु विशेषणं साध्यमनभिधाय न शक्याभिधानं। न च वस्तुतायत्साध्यं तच प्रमाणं वदेति मध्यस्थनियोगः, वादिद्दयमध्ये तदसम्भवात् तस्मात्सा
न च शब्दानित्यत्वे प्रमाणं वदेति प्रश्नवाक्यादेव माध्योपस्थितिभविष्यतीति वाच्यम् । तदा धूमादिति पञ्चमौ न स्यात् किन्तु धूमइत्येव स्थादिति, किन्तु विशिष्ट इति शब्दानित्यत्वप्रमाणे इत्यर्थः, 'तदसम्भवात्' वस्तुगतिवासम्भवात्, इयोरेकस्यावश्यं बाधितत्वादिति भावः । 'अन्ये' इत्यखरमोद्भावनं, नौजन्तु वस्तुतो यत्मिषाधयिषितं माध्यं तत्र प्रमाणं वदेति प्रश्ने नोकदोष इति ध्येयं। उपसंहरति, 'तस्मादिति, 'न वान्वयबोधकत्वमिति हेतुवाक्यस्येति शेषः, तथाच न वा तादृशाकाङ्क्षानिवर्तकान्वयबोधजनकत्वं हेतुवाक्यस्येत्यर्थः, तथाच एतदुभयानुकूलसाध्योपस्थित्यर्थं माध्यनिर्देश इति भाव:(२) ।
(१) प्रतिज्ञायाः साधनाङ्गत्वे निबन्धकृदयक्तिमुपन्यस्यति, 'अन्ये विति, मध्यस्थस्येत्युपलक्षणं वादिनोवेत्यपि द्रव्यं, 'धनुयोगः' प्रश्नः, प्राब्दानित्यत्वं साधयेत्येवं मध्यस्थस्य नियोगः साम्प्रदायिक इत्यतो यदौत्यक्त, 'विशिशुइति शब्दानित्यत्वसाधकत्वविशिय इत्यर्थः, 'यत्माध्यं' पक्ष इति शेषः, 'सदभावात्' वास्तविकत्वाभावात् । इति जागदीशौ व्याख्या । (२) ननु प्रतिज्ञोत्तरं हेतुरेवोद्भाव्यते न उदाहरणादिकमित्वत्र किंनिया.
91
Page #727
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामणे
.
मकमित्यत बाह, 'सायनिशेति, 'साधनताभिव्यञ्जुकेति ज्ञापकताबोधकेत्यर्थः, 'लिक' नाम, 'अन्यथा' साध्यनिर्देशोत्तरमुदाहरणाद्यमिलापे । मनु साध्यस्य प्रतिज्ञोत्तरं उदाहरणादेरिव हेतोरपि धनाकाजितत्वमविशियमत पाइ, 'लोक इति, तथैव' साधनताभिव्यञ्जकविभक्तिमल्लिङ्गवचनेनैव, कुत इत्याकाङ्गानिवृत्तिरेवं व्युत्पत्तिकल्पनादित्यर्थः । 'अनुमितीत्यादि हेतुसमानानुपूर्वोकोदासीनकाक्यस्य प्रतिज्ञाद्येकदेशस्य च वारणाय जनकान्तं, यादृष्-यादृशानुपूर्ववच्छिन्ने प्रकृतं न्यायत्वं तादृश-तादृशानुपूर्यवछिनाभावकूटसाध्यकानुमितिकारणीभूतलिङ्गपरामर्शस्य यत्प्रयोजकं प्रकारतया जनकतावच्छेदकानुपूर्वोघटकं बघ च प्रामाणिकस्य यादृशयादृशशब्दे न्यायावयवव्यवहारस्तादृश-तादृशशब्दकूटाभावस्य धियोजनक प्रतियोगितासम्बन्धावच्छिन्नजनकतावच्छेदकमिति तदर्थः निगमनस्य वारणाय साध्याविषयकेत्यादि, इतुताधर्मिकप्रकृतहेतुप्रकारतावहीवेन साध्यविषयताशून्यधीजनकेतितदर्थः । तेन पर्वतो वह्निमान् वहिसामग्रीमत्त्वादित्यादिहेतौ गाव्याप्तिः पयं धूमादालोकाभाववान् हुदत्वादित्यादौ यो यो धूमादालोकवान् स इदत्वाभाववान् इत्यादिव्यतिरेक्युदाहरणेऽतिव्याप्तिवारणाय हेतुविभक्तिमदिति प्रतिसाध्यधर्मिकखार्थान्वयबोधजनकपञ्चमीविभक्तिमदिति तदर्थः। पतएव गोवाभावो गोत्वशून्यः साखावत्वाभावात् यो यो गोत्ववान् स सानावान् गोत्वव्यापकसारखाभाववांश्चायं तमागोत्वशून्यइत्यादौ व्यतिरेक्युपनयस्य गोत्वाभावरूपसाध्यमिकखार्थेकत्वान्वयबोधकप्रथमाविभक्तिमत्त्वेऽपि न तत्रातिप्रसङ्गः। न चैवं रमाधवः पूज्यो माधवत्वादित्यादौ हत्येकदेशे माधवत्वादित्यत्रातिप्रसङ्गः तस्थापि प्रकृतन्यायान्तर्गतत्वे सति प्रकृतावयवसमानार्थकानुपूर्वीकत्वादिति वाच्यम् । खघटिताप्रतिपाद्यखार्थकत्वरूपमहावाक्यत्वपरेण घरमशब्दपदेनैव तदारणादिति भावः । इति जागदोशी व्याख्या ।
Page #728
--------------------------------------------------------------------------
________________
०२१
ध्याभिधानं विना न हेतोराकाहा, न वान्वयबोधकत्वमिति प्रतिज्ञा साधनाङ्गमिति ।
लक्ष्यतावच्छेदकाक्रान्तधूमोऽयं इत्यादिवाक्ये वक्ष्यमाणहेतुलाणाव्याप्याशङ्कायां तस्यालक्ष्यत्वेन परिहत्तु छलतोलक्ष्यतावच्छेदक दर्शयति, ‘माध्येत्यादिना ‘माध्यनिर्देशानन्तरं' प्रतिज्ञावाक्यात्पक्षतावच्छेदकविशिष्टे साध्यान्वयबोधानन्तरं, 'कुत इत्याकाङ्गायां' हेत्वाकाङ्क्षया प्रयुक्त कुतः प्रश्ने सतीत्यर्थः, ‘माधनताव्यञकेति माधनताव्यञ्जकपञ्चमौविभक्तिमलिङ्गप्रतिपादकवाक्यमित्यर्थः, तेन धूमेनेति प्रयोगनिरामः, श्राकाङ्क्षाया आवश्यकत्वे युकिमाइ, 'अन्यथेति अस्यैवार्थविवरणं 'अनाकाङ्गिताभिधान इति, माधनताव्यञ्जकविभक्तिप्रयोगे युकिमाइ, 'लोक इति, 'तथैवेति इच्छाविषयतावच्छेदकप्रकारेण सिद्धिरित्यर्थः, 'इति व्युत्पत्तेरिति इत्यस्यानुभवसिद्धवादित्यर्थः, तथाच तादृशाकाहानिवर्त्तकपञ्चमौविभक्तिमव्यायावयवत्वमेव वक्ष्यतावच्छेदकमिति नोकस्य लक्ष्यतावच्छेदकाक्रान्तवमिति नाव्याप्तिरिति । हेत्ववयवनिरूपणभूमिकामाह, 'अनुमितौति कारणै तोयोलिङ्गपरामर्शस्तत्प्रयोजकशाब्दज्ञानजनकत्वे मति माध्याविषयकग्राब्दजानकारणं यो हेतविभक्तिमानशब्दस्तत्त्वमित्यर्थः, धूमादित्युदामौनवाक्येऽतिव्याप्तिवारणाय मत्यन्त न्यायावयवार्थकं, निगमनेकदेशे तस्मादितिभागेऽतिव्याप्तिवारणाय न्याथामर्गतत्वं विहाय न्यायावयवत्वपर्यन्तमुक्त, भिगमनेऽतिव्याप्तिवार
Page #729
--------------------------------------------------------------------------
________________
ORS
चिन्तामण
'साध्यनिर्देशानन्तरं कुतइत्याकाङ्क्षायां साधनताव्यञ्जकविभक्तिमस्लिङ्गवचनमेवाचितं श्रन्यथानाका
ure 'साध्याविषयकेति विषयितासम्बन्धेन साध्यवद्भिन्नेत्यर्थः तथाच निगमनजन्यबोधस्य विषयितासम्बन्धेन साध्यवत्त्वान्नातिव्याप्तिरिति भावः । न च वह्निमान् वह्निसामग्रौमत्त्वादित्यादौ हेत्ववयवेऽव्याप्तिः तज्जन्यबोधस्य साध्यविषयकत्वादिति वाच्यम् । साध्याविषयकपदेन प्रकृतहेतुतावच्छेदकावच्छिन्न हेतु विशिष्टहेतुत्वविषयितावहिर्भीवेन यषियित्वं तेन सम्बन्धेन साध्यवद्भिन्नस्य विवचितत्वात् तथाच वह्निमान् बहिसामग्रौमत्त्वादित्यादौ तादृशविषयितान्तर्भावेनैव माध्यविषयकत्वान्नाव्याप्तिरिति भावः । न चेदमेकं धूमादित्यादौ भिरुक्तविषयितावह्निर्भवेन एकत्वरूपसाध्यविषयक ज्ञानजनकत्वादव्याप्तिरिति वाच्यम् । तेन कदाचित् केवलधूमज्ञानज्ञाप्यत्वबोधस्यापि जननात् तमादाय लक्षणगमनात् प्रदोनिर्धूमोनिर्वक्रित्वादित्यादौ योयोधूमवान् स वह्निमानित्युदाहरणस्य साध्याविषयक'ज्ञानजनकत्वात् तत्रातिव्याप्तिवारणाय 'हेतुविभक्रिमदिति ज्ञानज्ञाप्यत्वप्रतिपादकविभक्तिमदित्यर्थकं तथाच व्यतिरेक्युदाहरणस्त्र तादृशविभक्तिमत्त्वाभावान्नातिव्याप्तिरिति भावः । न च धूमादालोकाभाववान् श्रालोकसामग्रौशृष्यत्वादित्यादौ योयोधूमादालोकवान व आलोकसामग्रीमान् इत्यादिव्यतिरेक्युदाहरणेऽतिव्याप्तिः तथापि साध्याविषथकज्ञानजनकत्वात् हेतुविभक्तिमत्त्वाचेति वाच्यं । हेतुविभक्रिमत्पदस्य प्रकृतसाध्यतात्पर्य्यकपद साकाङ्क्षहेतुत्वबोधकविभ
Page #730
--------------------------------------------------------------------------
________________
७२५
हिताभिधाने निग्रहापत्तेः लोके तथैवाकाहानिवृत्तिरिति व्युत्पत्तेरिति प्रतिज्ञानन्तरं हेतूपन्यासः, हेतुत्वञ्चानुमितिकारणीभूतलिङ्गपरामर्शप्रयोजकशा
क्रिमदर्थकत्वात्, तथाच तस्यालोकतात्पर्यकपदमाकासाहेतृत्वबोधकविभक्तिमत्त्वेन प्रकृतमाध्यतात्पर्यकपदमाकाङ्गाहेतृत्वबोधकविभक्तिमत्त्वाभावान्नातिव्याप्तिरिति भावः । न च प्रकृतसाध्यतात्पर्य्यकपदमाकासाहेतुत्वबोधकत्वमेवास्तु किं विभक्तिमत्त्वेनेति वाच्यं । हेतुत्वं घटभिन्न द्रव्यत्वाभावादित्यादौ योयोघटः स द्रव्यत्ववानित्यादौ घटत्वव्यापकौभताभावप्रतियोगिद्रव्यत्वाभाववदिदं इत्युपनयेऽतिव्याप्तिः तस्यापि मायाविषयकज्ञानजनकत्वात् निगमनस्यं प्रवतमाध्यघटभिन्नत्वतात्पर्यकं यहटभिन्नपदं तत्माकाबाहेतृत्वबोधकेदम्पदवत्त्वाच्च विभक्तिपददाने च न दोषः तस्य विभक्रित्वाभावात् ।
ननु एतल्लक्षणे हेतुत्वबोधकेति व्यर्थं अतो लाघवाचाह, 'हेतुत्वप्रतिपादकेति(१) विभक्त्यर्थ हेतुत्वमुख्यविशेष्यकशाब्दबोधजनकन्ये मति न्यायावयवत्वमर्थः, उदाहरणादावतिव्याप्तिवारणाय मत्यन्तं,
(२) लक्षणान्तरमाह, 'हेतुत्वप्रतिपादकेति खार्थहेतुत्वमुखविशेष्यकाग्वयबोधजनकविभक्तिमनगायावयवत्वमर्थः । हेतुत्वं प्रमेयं वाच्यत्वादिन्यादौ प्रतिज्ञोपनययोवारणाय विभक्तिपदं । न च वक्रि—मात् धूमध्यापकत्वादिबादौ धूमहेतुताकावस्य साध्यतास्थक्षे तमाडूमादित्येवं निगमनस्यापि विभव्यर्थ हेतुत्वमुख्यविशेष्यकधीजनकत्वात्तवासिव्याप्तिरिति वाच्यम्। उपनय
Page #731
--------------------------------------------------------------------------
________________
ok
चिन्ताम
दज्ञानजनकसाध्या विषयकशाब्दधौजनक हेतु विभक्ति
मच्छन्द ।
हेतुत्वं प्रमेयमित्यादिप्रतिज्ञायामतिव्याप्तिवारणाय विभक्तवर्थत्वं हेतुत्वविशेषणं हेतुत्वानुपादाने पृथिवीतरेभ्योभिद्यते पृथिवीत्वा - दित्यादौ तस्माद्यिते इत्यादिनिगमनेऽतिव्याप्तिः तस्याप्याख्यातार्थविशेष्यकान्वयबोधजनकत्वात् । न च निगमस्थायपदार्थमुख्यविशेय्यकाम्यबोधस्य जनकत्वात् कथं तत्रातिव्याप्तिरिति वाच्यं श्रयम्पदाननुसङ्गपक्षे एव एतल्लचणकरणात् उक्तनिगमनस्यापि तस्मादितिविभक्त्यर्थहेतुत्वविशेष्यकबोधजनकत्वात् तद्दोषतादवस्थ्यवारणाय मुख्यविशेष्यति, उदासीनवाक्येऽतिव्याप्तिवारणाय विशेव्यदनं । न च वर्धूिमात् वनित्वेन प्रमौयमाणत्वादित्यादौ
"
स्यायम्पदस्य निगमनघटकतया तदर्थस्यैव मुख्य विशेष्यत्वात् । वस्तुतस्तु एकसुवर्थस्य सुबर्थान्तरमुख्यविशेष्यत्वेनान्वयस्य निराकाङ्गितत्वेन तस्माज्जूमादिव्यस्य धूमनिष्ठापकतायां हेतुनिष्ठ ज्ञापकता कत्वबोधनासमर्थत्वेन तन्याय एव नास्तीति न तत्राविव्याप्तिशङ्कापीति । न च घटे जातावित्यादौ घटवृत्तित्वं जातिवृत्ति इत्याकारकान्वयबोधानुत्पत्त्या सुवर्थयोर्मिंथोऽन्वaatr vasanafraत्र मुख्यविशेष्यतानुसरणमफलमिति वाच्यम् । क्रमाचैत्रस्येदमित्यादाविदमंशे विशेषयतापन्नस्य षञ्चर्थवत्वस्य पञ्चम्यर्थज- | न्यतायां विशेष्यत्वेन सामान्यतन्तदन्वयस्या निराकाङ्गितत्वादिति ध्येयं । एकजातीयसुपोर्मियो निराकाङ्गत्वात् क्रमाचैत्रस्येदमित्यादौ पञ्चमी-षयमिथः साकाङ्गत्वेऽपि न चतिरिति वदन्ति । इति जागदोशी व्याख्या ।
Page #732
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यवयवः।
७२.
हेतुत्वप्रतिपादकविभक्तिमच्यायावयवत्वं वा।
तस्मात् धूमादितिनिगमनेऽतिव्याप्तिः तस्यापि विभक्त्यर्थज्ञानज्ञाण्यवरूपहेतृत्वमुख्यविशेष्यकान्वयबोधजनकत्वादिति वाच्यम् । कथकसम्प्रदायविरोधेन वहिधूमादित्यस्य प्रतिज्ञात्वाभावात् तादृशपञ्चकस्य न्यायत्वाभावेन विशेष्यदलेनैव तद्वारणात् ।।
ननु हेतुत्वं प्रमेयमित्यादिप्रतिज्ञायामतिव्याप्तिर्वारा हेतुत्वपदोपस्थायज्ञानज्ञाप्यत्वस्य विभक्त्यर्थज्ञानज्ञाप्यत्वाभिन्नत्वात् । न र विभक्तिजन्योपस्थितिमहकारेणैव हेतुत्वविशेष्यकशाब्दबोधजनकत्वं वाच्यमिति न दोषः तस्य हेतुत्वपदजन्योपस्थितिसहकारेणैव तादृशबोधजनकत्वादिति वाचं । तथापि तस्माद्धेतत्वमिति निगमनेऽतिव्याप्तिः पञ्चमौजन्योपस्थितिसहकारेणैव हेतुत्वविशेष्यकशाब्दबोधजनकत्वात्। न च हेतुत्वमुख्य विशेष्यकत्वांशे विभक्रिजन्योपस्थितेः सहकारित्वं वाच्यम् इति न दोषः तत्र हेतुत्वमुख्यविशेष्यकत्वांशे हेतुत्वपदजन्योपस्थितेरेव सहकारित्वादिति वाच्यं । मुख्य विशेष्यकत्वस्य कार्य्यतानवच्छेदकतया तदंशे सहकारित्वस्य दुर्चचत्वात् इत्यतोलक्षणन्तरमाह, ‘उदाहरणेति(१) उदाहरणस्य प्रयोजिका था
(१) 'उदाहरणेति उदाहरणस्य प्रकृतहेतुक-प्रकृतसाध्यसियौपयिकव्यानिधौजनकवाक्यस्य प्रयोजिका तज्जन्यबोधनिवृत्तये कथमस्य गमकत्वमित्याकाङ्गा तज्जनकं तज्जनकावयवत्वमित्यर्थः, अत्र जनकत्वं स्वरूपयोग्यत्वं तेनासाधकतानुमानस्थलीयन्याये उदाहरणासत्वेऽपि न क्षतिरिति खरूपयोग्यतावच्छेदकरूपस्य हेतुत्वस्य तत्रापि सत्त्वादिति, अनुक्तोपनयादिकस्य उदा. हरणस्य प्रयोजकहेतुवाक्येऽतिव्याप्तिवारणार्थमवयवेति । इति जागदीशी
व्याख्या।
Page #733
--------------------------------------------------------------------------
________________
०३८
चिन्तामय
उदाहरणप्रयोजका काजा जनकशाब्दज्ञानजनकन्या
यावयवत्वं वा । साध्याविषयकज्ञानजनक हे तुपञ्चम्यन्तानुमितिपरशब्दत्वं वा ।
श्राकाङ्क्षा कुतोऽस्य गमकत्वमित्याकारिका जिज्ञासा तज्जनकं यच्छाब्दज्ञानं तज्जनकत्वे सति न्यायावयवत्वमित्यर्थः । दूतरावयवानां तादृशाकाङ्क्षाप्रयोजकत्वाभावान्नातिव्याप्तिः, श्रत्र जनकत्वं स्वरूपयोग्यत्वं श्रतो यच तादृशजिज्ञासा न जाता तत्र नाव्याप्तिः इत्थञ्च उदासोनकाक्येऽतिव्याप्तिरित्यतोविशेष्यदलं । न च न्यायान्तर्गतत्वे सतौति सम्यगिति वाच्यं । हेत्वेकदेशेऽतिव्याप्तिरिति तदुपादानं । ननु यत्पचक- यत्साध्यक- यद्धेतुकन्यायस्थले कदापि तादृशाकाङ्क्षा न जाता तत्र तत्खरूपयोग्यले मानाभाव इत्यतो लचणान्तरमाह, ‘साध्याविषयकेति (१) साध्याविषयकज्ञानजनकत्वे सति हेतु
(१) 'साध्येत्यादि घटो न धूमादेतत्त्वादित्यादौ धूमहेतुताकत्वाद्यभावसाध्यके प्रतिक्षा-निगमनयोर्व्वारणाय ' जनकान्तं हेतुत्वधर्मिक प्रकृत देतुविषयतावहिर्भावेन यत्साध्यविषयकं तदन्यज्ञानजनकार्थक, तेनायं वहिमाम् वशिसामग्रौमत्त्वादित्यादिस्थलीय हेतौ नाव्याप्तिः, वस्तुतः प्रकृत लिङ्गकहे
aratri वस्त्या यादृश- यादृशविषयताक बोधजनकत्वं तादृश तादृशविषयतावहिर्भीवेनैव साध्यविषयकत्वं वाच्यं । तेनायं एकोधूमादित्यादौ साध्यीभूतैकत्वविशिष्टधूमस्य ज्ञापकत्वबोधक हेत्ववयवे नाव्याप्तिः, ऋदोनिधूमनिर्वशित्वादित्यादौ धूमव्यापकवाभाववखायमित्यादिव्यतिरेक्युपन् यस्य वारणाय ‘हेतुपञ्चम्यन्तेति 'हेत्विति, सम्पातायातं, हेतुसमानानुपूर्वे - कस्य उदासीनवाक्यस्य वारणाय 'अनुमिति परेत्यादि न्यायावयवत्वार्थनं ।
Page #734
--------------------------------------------------------------------------
________________
अवयवा।
पञ्चम्यन्तत्वे सति न्यायावयवत्वमित्यर्थः । अयं न दण्डाद्दण्डसंयोगाजन्यद्रव्यत्वादित्यादौ प्रतिज्ञा-निगमनयोईतपञ्चम्यमत्वात् अनुमितिपरवाक्यत्वाच्च तत्रातिव्याप्तिवारणय 'माध्याविषयकेति। न चैवं बडिमान् वहिसामग्रौत इत्यादौ अव्याप्तिः तच माध्यविषयकज्ञानस्यैव जननादिति वाच्यम् । 'माध्याविषयकपदेन हेतुतावच्छेदकावच्छिन्नहेतविशिष्ट हेतुत्वविषयतावहिं वन या विषयता तेन सम्बन्धेन : यवभिन्नत्वस्य विवक्षितत्वात्, हृदो निधूमोनिहित्वादित्यत्र माध्याविषयकज्ञानजनकत्वेन धूमव्यापकीभताभावप्रतियोगिके. भाववानयमित्युपनयेऽतिव्याप्तिवारणाय 'हेतुपञ्चम्यन्तेति हेतुत्वबोधकपञ्चम्यन्तेत्यर्थः, तथाच तस्यायम्पदानत्वेन हेतुपञ्चम्यन्तवाभावान्नातिव्याप्तिः। न चोक्नोपनयेऽतिव्याप्तिवारणय हेतृत्वबोधकान्तत्वं पञ्चम्यन्तत्वं वा उपादौयतां कृतं विशिष्टोपादानेनेति वाच्यम् । माध्याविषयकज्ञानजनकहेतुत्वबोधकान्तानुमितिपरवाक्यत्वं माध्याविषयकज्ञानजनकपञ्चम्यन्तानुमितिपरवाक्यत्वं वा हेतुत्वमिति लक्षणहये तात्पर्य्यात् ।
ननु पर्वतस्तेजस्वाभाववान् पृथिवीत्वादित्यादौ योयस्तेजस्ववान् स पृथिवौत्वाभाववान् यथा वहिधूमादिति धूमज्ञानज्ञाप्यवनिरूपदृष्टान्तशालिव्यतिरेक्युदाहरणेऽतिव्याप्तिः तस्य माध्याविषयकज्ञान
म चायं न गुरुत्वहेतुताकोऽरसवत्त्वादित्यादौ यो यो गुणत्वात्म रसवत्त्वा. दित्यादिव्यतिरेक्युदाहरणेऽतिव्याप्तिस्तस्यापि साध्याविषयका सति पञ्चम्य. तावयवत्वादिति वाच्यम् । उदाहरणान्यत्वेनापि विशेषौयत्वादिति भावः। इति जागदीशी व्याख्या।
92
Page #735
--------------------------------------------------------------------------
________________
ववचिन्तामो
जनकत्वात् पञ्चम्यन्तामुमितिपरवाक्यत्वाञ्च इत्यतो लक्षणान्तरमाह(१)
(१) 'प्रतिज्ञावाक्यधीजन्येत्यादि पक्षधर्मिक-साध्यवत्ताबोधकवाक्यजन्या खार्थधौहारा प्रयोल्या या कारणस्य ज्ञापकस्थाकाङ्गा पक्षः कुतः साध्यवान् इत्वाकारिका जिज्ञासा तनिवकिज्ञानस्य जनकवे सति हेतुविभक्तिमदव. यवत्वमित्यर्थः, प्रतिज्ञादिवारणाय सत्यन्तं, अयं तस्मात् वह्निमान् इत्यादि., निगमनस्यापि पक्षः कुतः साध्यवानित्याकारणानिज्ञासानिवर्तकशानजनकत्वसम्भवात्तत्रातिव्याप्तवारणाय 'हतुविभक्तिमदिति, 'हेतो' अबाधितत्वादिधीहेतोः, या 'विभक्ति' विभागः पार्थक्यं तइनिगमनान्यत्ववदिति तु पतितार्थः, न्यायहिभूतस्य हेतुसमानार्थकस्य धूमादित्यादेवारणाय 'अवयवेति, 'पञ्चम्यन्तेत्यादि पञ्चमी पन्ते यस्य तादृशं यल्लाक्षणिकं पदं सरगर्भावयवत्वमित्यर्थः, धूमेनालोकवानयं वह्निमान् धूमादित्यादौ प्रतिक्षावारणाय 'पञ्चम्यन्नति, अयं दण्डाज्जातो घटत्वादित्यादौ प्रतिज्ञावारणाय 'माक्षणिकेति । यद्यप्येवमपि धूमादालोकवानयं वह्निमानित्यादिप्रतिक्षायामतियाप्तिः प्रकृतसाध्यधर्मिकखार्थबोधकत्वेन पञ्चम्या विशेषणीयत्वेऽपि धूमाहिमतः सायं बडिमानियादिप्रतिज्ञायां तथा, तथापि प्रकृतपक्षधर्मिकखाविशिक्षाकतसाध्यवत्त्वान्वयबोधननकत्वेन पचमी विवक्षितेति नायं दोषः । यद्यपि चैवमप्ययं तस्मादहिमानित्यादिनिगमनेऽतिव्याभिः चानत्वादिप्रकारेण मानशक्तस्यापि सर्वनामलच्छब्दस्य व्यायादिविशिरुधूमवप्रकारेण बोधने लाक्षणिकत्वात् लघु-गुरारूपाभ्यामन्वयबोधकस्य पदमात्रस्यैव गुरारूपेण पक्षणायाः सर्वसम्मतत्वात् । तथापि लाक्षবিজয় মনৱববিষয়ালাচ্ছিল্পলাঘবন্ধৰলাল্পন্ধিবীমঃ নম ঘামাবিৰিন্তিমনইমৗললল নয় অঙ্গাবিনি। এ चायं गुरुः पतनादित्यादौ हेतावश्याप्तिस्तत्र पञ्चम्यन्तस्य पतनादिशब्दस्य प्रशिविरहेड पतनहानत्वावच्छिननक्षकत्वासम्भवादिति वाच्यम् । पञ्चम्यन्ते
Page #736
--------------------------------------------------------------------------
________________
अवयवः।
त्यस्य पञ्चमौसाकापरत्वेन तत्रापि पञ्चमौसाकाङ्गस्य स्युड़न्तपतधातोः पतनशानलक्षकत्वसम्भवादिति ध्येयं । | ननु धूमादित्यादिहेत्ववयवस्य धूमनिलं ज्ञापकत्वमित्यन्वयबोधकतायां (पञ्चम्यन्तधूमादित्यादिपदस्य लाक्षणिकत्वाभावात् व्याप्तिरत पाह, 'हेतुपदेनेति हेतुभूतधूमादिवाचकपदेन धूमज्ञानादिलक्षणादित्यर्थः । पत्र हेतुमाह, 'अन्यथेति लक्षणं विनेत्यर्थः, 'यहेतुत्वेन' साध्याज्ञापकत्वेन । ननु पछत्यर्थे खार्थसङ्ख्याबोधकतयैव हेतुविभक्त्यर्थान्धयो भविता इत्यत पाह, 'तथैवेति पञ्चम्या ज्ञापकत्वबोधकतायामेव कुतो वह्निमानियाकाणानिवृत्तेरित्यर्थः।
प्रावस्तु लिङ्गस्यानुमापकत्वमतेऽप्याइ 'तथैवेति धूमादिपदस्य धूमादिज्ञाने लक्षणायामेवेत्यर्थः, अन्यथा पक्षः किंगोचरज्ञाननिष्ठशापकताक बक्रिमानितिप्रश्नस्य धूमनिछज्ञापकताकवङ्गियोधानिवत्येन धूमादित्यस्य तत्रोत्तरत्वानुपपत्तेरिति प्राहः।
ननु तत्र पञ्चम्या ज्ञाप्यत्वमों बोध्यः सत बाह, तथैवेति निशक्त हेत्वन्व. यबोधेनैवेत्यर्थः, 'शाकाङ्कगनिहत्ते' कुत इति जिज्ञासाया अनुत्पत्तः, तथाच निशक्तहेतुत्वमेव पञ्चम्यर्थ इति भाव इत्यन्ये।।
अत्रेदं बोध्यं धूमपदं धूमज्ञानपर, वडिपदे ज्ञानविषयवह्रो लक्षणा, वत्रिज्ञाने वा सा, पञ्चम्या हेतुत्वमर्थः, धूमज्ञानहेतुकज्ञानविषयवह्निमान् पर्वतः धमज्ञानहेतुकवङ्गिज्ञानविषयाभिन्नः पर्वत इति वा बोध इति कश्चित्, तन्न 'बावृत्तौ सैवेति मूलविरोधात् ।
अन्ये तु धूमपदं धूमधानलाक्षणिकं, पञ्चम्या ज्ञानजनकत्वं जन्यज्ञानविषयत्वं वार्थः धूमज्ञाननिष्ठ ज्ञानजनकत्वनिरूपकवह्निमदभिन्नः पर्वतः धूमज्ञानजन्यज्ञानविषयवङ्गिमदभिन्नः पर्वत इति वा बोधः ।
परे तु पञ्चम्या ज्ञानजन्यज्ञानविषयत्वमर्थः, धूमपदं यथाश्रुतमेव, बोधन पूर्ववदित्वाजः इति जागदौशौ व्याख्या ।
Page #737
--------------------------------------------------------------------------
________________
०३९
तत्त्वचिन्तामो
प्रतिज्ञावाक्पधीजन्यकारणाकाहानिवर्तक ज्ञानजनकहेतुविभक्तिमहाक्यत्वं वा।
पञ्चम्यन्तलाक्षणिकपदवदनुमितिपरवाक्यत्वं वा।
'प्रतिज्ञावाक्येति प्रतिज्ञावाक्यार्थज्ञानजन्या या कारणकाङ्क्षा कुतइति। प्रश्नोबेयकारणजिज्ञासा तनिवर्त्तकज्ञानजनकत्वे मति हेतविभक्तिमन्यायावयवत्वमित्यर्थः, अयं न दण्डादित्यादिप्रतिज्ञावारणाय मत्यन्तं, तस्मादहिमानितिनिगमनेऽतिव्याप्तिवारणय 'हेतविभक्रिमदिति हेतुत्वप्रतिपादकविभत्तयन्तार्थकं, हेतुत्वं प्रमेयमित्यादौ तस्माअमेयमिदमिति निगमने हेतृत्वप्रतिपादकेदम्पदान्तकेऽतिव्याप्तिवारणय 'विभक्तौति । . लक्षणन्तरमाह,() 'पञ्चम्यन्तेति पञ्चम्यन्तं यल्लाक्षणिकपदं तदत्त्वे सति न्यायावयवत्वमर्थः, लाघवेन पञ्चम्या विभागत्वस्यैव शक्यतावछेदकतया यत्र पञ्चम्या ज्ञानज्ञाप्यत्वादिबोधः तत्र लक्षणैवेति तस्मादहिमानित्यादिनिगमने लाचणिकपञ्चमौपदवति न्यायावयवेऽतिव्याप्तिवारणय 'पञ्चम्यन्तेति, तथाच पञ्चम्यन्ततत्पदस्य लाक्षणिकत्वाभावानातिव्याप्तिरिति भावः । तस्मादहिमानितिनिगमनस्यापि पञ्चम्यन्ततत्पदवत्त्वात् तद्दोषतादवस्यवारणय 'लाक्षणिकेति, उदामौनवाक्येऽतिव्याप्तिवारणय विशेष्यदलं, लक्ष्ये लक्षणं सङ्गमयति,
(१) ननु तथापि अयं न दण्डादित्यादौ तस्मान्न दण्डादिति निगमने अविष्याप्तिलस्य तादृशजिज्ञासानिवर्तकज्ञानजनकत्वात् हेतुत्वप्रतिपादकविभयन्तत्वाचातालक्षणान्तरमाहेत्यधिकः पाठः घ-चिहितपुस्तके वर्तत इति ।
Page #738
--------------------------------------------------------------------------
________________
अवयवः।
७३९
हेतुपदेन ज्ञाने लक्षणा अन्यथा लिङ्गस्या हेतुन्वेन हेतुविभक्त्यानन्वयात्() तथैवाकाङ्क्षानिहत्तेः। 'हेतुपदेनेति हेवपस्थापकधूमादितिपदेनेत्यर्थः, ‘जाने लक्षणा' हेतुज्ञाने लक्षणा, पञ्चम्या ज्ञानविषयत्वरूपं ज्ञाप्यत्वमर्थः, तदेकदेशज्ञाने हेतुज्ञानस्य जन्यतासम्बन्धेनान्वयः, तथाच धूमादिति हेतुवाक्यात् धूमज्ञानजन्यज्ञानविषयत्वमित्याकारकः शाब्दबोधः। ननु धूमपदे कथं धूमज्ञाने लक्षणा धूमस्यैव जन्यतासम्बन्धेन ज्ञानेऽन्वयः स्थादित्यताह, 'अन्यथेति हेतुपदे हेतुज्ञाने लक्षणांनङ्गीकारे, 'विभक्त्यानन्वयादिति पञ्चमौविभक्त्यर्थ हेतोरनन्वयापत्तेरित्यर्थः, अनन्वये हेतुमाइ, 'लिङ्गस्या हेतुत्वेनेति माध्यज्ञाने लिङ्गस्या हेतुत्वेनेत्यर्थः, लिङ्गज्ञानस्यैवानुमितिहेतुत्वादिति भावः। ननु लिङ्गोपहितलैङ्गिकभानादिमते लिङ्गस्याप्यनुमितिविषयतया विषयतासम्बन्धेन हेतोरन्वयोऽस्तु पञ्चम्यर्थैकदेशे जाने इति किं लक्षणयेत्यत आह, 'तथैवेति जन्यतासम्बन्धेन धूमज्ञानस्य ज्ञानेऽन्वयनैवेत्यर्थः, 'श्राकाङ्क्षानिवृत्तेरिति कारणकाङ्गानिवृत्तेरित्यर्थः, वजिज्ञाने धूमज्ञानजन्यवसिद्धौ जायमानायां धुमज्ञानेऽपि तुल्यवित्तिवेद्यतया वकिज्ञानजनकत्वसिद्धेरिति भावः । ननु एतल्लक्षणं धूमादालोकवान् पर्वतोवहिमानित्यादिप्रतिज्ञायामतिव्याप्तं तस्यापि पञ्चम्यन्तलाक्षणिकधमपदवत्त्वादिति चेत्। न। प्रकृतपक्षविशेष्यक-प्रकृतसाध्यप्रकारकाग्वयबोधजनकाकाङ्क्षा-तात्पर्यादिमत् यत् प्रकृतमाध्यतात्पर्यकं पदं
(१) विभक्त्यानन्वयात् इति पा०। .
Page #739
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्वचिन्तामणौ
अनुमितिहेतुजानकारणधूमवत्वादितिशब्दजन्यज्ञानवृत्तिप्रतिज्ञादिजन्यज्ञानावृत्तिजातियोगिज्ञानज. नकवाक्यत्वं हेतुत्वमित्यन्ये, जाति विना केन रूपेण तदाकाहादि-तात्पर्यादिमती या पञ्चमौ तदन्तलाक्षणिकपदवत्त्वस्य विवक्षितत्वात् तथाच धूमादालोकवान् पर्वतोवहिमानित्यादिप्रतिज्ञायां नातिव्याप्तिः तत्रत्यपञ्चम्याः प्रकृतमाध्यतात्पर्य्यक यदहिपदं तदाकाक्षाद्यभावात् एवं धूमावहिमतः मधर्मा पर्वतो वजिमान् धूमादित्यादौ नातिव्याप्तिः तत्र तादृशविशिष्टपक्षविशेष्यकमाध्यप्रकारकान्वयबोधजनकाकाङ्क्षादिमत् यत्प्रकृतमाध्यतात्पर्य्यक पदं चरमवक्षिपदं तदाकाङ्क्षादिमत्त्वस्य पञ्चम्या प्रभावादिति भावः ।
'अनुमितीत्यादि, उदाहरणदिप्रयोज्यजातेरिणाय वृत्त्यन्तं जातिविशेषणं, परार्थानुमितिहेतुभूतं यच्छाब्दज्ञानं तत्कारणोभूतस्य धमवत्त्वादिति शब्दस्य जन्यज्ञाने वर्तमानेति तदर्थः, न्यायजन्यज्ञानविधुरस्य चेत्रादिशरौरविशेषस्य प्रयोज्याया धूमवत्त्वादित्यादिशाब्दधौवृत्तिजातेारणय 'कारणन्तं, अवयवजन्यस्यैव गाब्दस्य परार्थस्थलौयानुमितिहेतुत्वान्नातिव्याप्तिरित्यभिमानः। मत्ता-शाब्दत्वादेर्वारणाय 'प्रतिज्ञादिजन्यज्ञानावृत्तौति प्रतिज्ञोदाहरणदेरेकैकमाचं निवेश्यं न तु समुदायोवैयर्थ्यात्। वस्तुतस्तु एतदनिसमवेतताक्त्यसमवेतधर्मवत्त्वमर्थः, तड्यक्रेतयनेच लाभाय वृत्त्यवृत्त्यन्तद्वयमिति, एतेन प्रतिज्ञात्वादिप्रवेशे प्रतिज्ञात्वस्याप्येतन्मते हेतृत्वघटितलापत्या प्रात्माश्रयापत्तिरिति दूषणं निरस्तं, मतं दूषयति, 'जाति
Page #740
--------------------------------------------------------------------------
________________
पवयवः।
०३५
ज्ञानस्यानुमितिजनकत्वं वाक्यविशेषजन्यत्वस्यापि अ-. न्यतावच्छेदकरूपापरिचये दुर्ग्रहादित्यपरे ।
अन्वयव्यात्यभिधायकावयवाभिधानप्रयोजकज्ञानजनकहेतुत्वप्रतिपादकविभक्तिमन्यायावयवत्वमन्वयि हेतुत्वं, एतदेव व्यतिरेकव्याप्त्यभिधायकपदप्रक्षे पादव्यतिरेकि हेतुत्वम्। अन्वयव्यतिरेकोदाहरणाकाङ्क्षाप्रयोजकतथाभूतावयवत्वमन्वयव्यतिरेकि हेतुत्वं ।
विनेति हेतुजन्यबुद्धौ वैजायं विना केन रूपेण परार्थानुमितिजनकत्वमित्यर्थः, तथाच कारणान्तदलमव्यावर्त्तकमेवेति भावः । मनु कारणान्तं प्रकृतन्यायावयवार्थक धूमवत्त्वादित्यादिशब्दान्वयि तथाच धूमवत्त्वादित्यानुपूर्वीकावयवजन्यज्ञानवृत्तीत्येव जाते विशेषणं वाच्यम् न तु कारणान्तगर्भं श्रत पाह, 'वाक्यविशेषजन्यत्वस्यापोति धूमवत्त्वादित्यानुपूर्वोकावयवजन्यत्वस्या पौत्यर्थः, तथाच कवादिना मायेण तादृशवाक्यवृत्तिजात्यभावेन तदवच्छिन्नजनकतानिरूपिनजन्यतावच्छेदकजातावपि मानाभावेन लक्षणस्यामम्भव इति भावः ।
हेतुत्वस्यान्वयि-व्यतिरेक्यन्वयव्यतिरेकि भेदेन वैविध्यात् तदनुको न्यूनत्वमत आह, 'अन्वयेत्यादि, व्यतिरेकि हेतोर्वारणाय ‘जनकान्त प्रकृतहेतुधर्मिकमाध्यान्वयव्याप्यभिधायकवाक्यप्रयोजकशाब्दधौप्रयोजकार्थकं, उपनयप्रयोजकज्ञानजनके उदाहरणे प्रतिज्ञायाश्चातिव्याप्तिवारणाय उदाहरणन्तमात्रस्याभिधानस्थले हेतोरलक्ष्यत्वान
Page #741
--------------------------------------------------------------------------
________________
७३६
तत्त्वचिन्तामणी
'यहा पक्ष-सपक्षसतो विपक्षासतो हेतुवचनमन्वयव्यतिरेकि,' अत्यन्ताभावाप्रतियोगिसाध्यसमानाधिकरणपक्ष-सपक्षसहेतुवचनं केवलान्वयि ।
द्वारणय च 'हेतुत्वप्रतिपादकेत्यादि स्वार्थहेतुत्वमुख्यविशेष्यकान्वयबोधजनकविभक्रिमन्नायावयत्रत्वमित्यर्थः, 'अन्वयिहेतुत्वमिति अन्वयिहेत्ववयवत्वमित्यर्थः । 'एतदेव' स्वार्थत्याद्यवयवत्वमेव, 'तथाभूतावयवत्वं' निरुक्तहेत्ववयवत्वं, तावन्मात्रञ्च केवलान्वयिनः केवलव्यतिरेकिणश्च हेतोर्गतमतः ‘प्रयोजकान्तं प्रकृतहेतुकप्रकृतसाध्यमियौपयिकान्वय-व्यतिरेकोभयव्याप्यभिधाननिवाकाङ्क्षाकारणीभूतज्ञानजनकार्थकं, तथेत्यादिपदव्यावृत्तिः पूर्ववत् ।
ननु कथमस्य गमकत्वमित्याकाङ्क्षायां एकव्याप्यभिधानेनैव निरस्तत्वात् व्याप्यन्तराभिधानस्यार्थान्तरयस्तत्वमतोनोक्नक्रमेणान्वययतिरेकिहेतोर्लक्षणं युक्तमत शाह, 'यति। मद्धेतोरेव लक्ष्यत्वमित्यभिप्रायेणाह, 'यदेतीत्यन्ये । 'हेतुवचनं' प्रकृतहेतुत्वप्रतिपादकोऽवयवः, तथाच पक्षे सपक्षे च मतो विपक्षेऽसतोऽर्थस्य हेतुत्वप्रतिपादकोऽवयवः अवयव्यतिरेकीत्यर्थः, अत्र च सपक्षसत्त्वं निश्चितसाध्यवद्वृत्तित्वं, तेन पृथिवौतरेभ्योभिद्यते पृथिवीलादित्यादौ केवलव्यतिरेकिहेतौ नातिव्याप्तिः, पक्षमत्त्वन्तु पर्वतो वजिमान् महानमत्वादित्यादौ स्वरूपासिद्धस्य हेतोयुदासाथ, सद्धेतोरेव लक्ष्यत्वादिति ध्येयं । नन्वेवं वहिसाध्यकधूमादिहेतोरन्वयव्यतिरेकित्वे तच प्रागुक्रकेवलान्चयिहेतुलक्षणस्यातिव्याप्तिरतस्तस्य लक्षणान्तरमाइ,
Page #742
--------------------------------------------------------------------------
________________
चवयवः।
यहा अनुमितिकारणीभूतपरामर्शप्रयोजकशाब्दजानकारणसाध्याविषयकशाब्दधीजनकप्रतीतान्वयसाध्य-साधनवाचकहेतुविभक्तिमच्छन्दत्वमन्वयिहेतुत्वम्। एतदेवाप्रतीतान्वयसाध्यसाधनेतिविशेषणाद्यतिरेकि
'अत्यन्तेति वृत्तिमदत्यन्ताभावाप्रतियोगिनः माध्यस्य समानाधिकरणोयः पच-सपक्षयोः मन् हेतुस्तस्य 'वचन' हेतृत्वप्रतिपादकोऽवयवः केवलान्वयीत्यर्थः, अत्र पक्षसत्त्वस्य व्यावृत्तिः प्रागिव स्वरूपासिद्धहेतोरणं, सपक्षमत्त्वन्तु सर्वमभिधेयं प्रमेयत्वादित्यादौ सर्वस्य पक्षतादशायां प्राचीनसम्मतस्थानुपसंहारितोरिणयेति ध्येयं । इदमुपलक्षणं पक्षमतः सपक्षामतः पक्षमाचसतो वा विपक्षासतश्च इतोर्वचनं केवलव्यतिरेकौति द्रष्टव्यं ।
दशाविशेषे वयादिमायके धमादिहेतावष्यवयित्वं खौकुर्वतामाचार्याणं मतेनाह, 'यद्देति, 'अनुमितीत्यादि, अचोदासीनस्य धूमादित्यादिवाक्यस्य वारणर्थमाचं कारणान्तं, प्रागुकरीत्या प्रकृतपक्षकप्रकृतहेतुकप्रकृतसाध्यकन्यायावयवार्थकं, धूमावझिमतः सायं वहिमान् धूमादित्यादौ प्रतिज्ञादेर्निगमनस्य च वारणय द्वितीयं कारणन्त, प्रकृतहेतविशिष्ट हेतुत्वविषयतावहिर्भावेन यत् माध्यविषयक तदन्यशाब्दधौकारणमिति तदर्थः, तेनायं वह्निमान् वहिसामग्रीमत्त्वादयं हेतुतावान् तत्त्वेन प्रमीयमानत्वादित्याद्यश्वयिहेतौनाव्याप्तिः, अयं न धूमाइडिशन्योधूमात् यो यो धूमावहिशन्यः स धूमशून्यइत्यादावप्रतीतसाध्यान्वय-व्यतिरेकिहेतोरणय 'प्रतीतसाध्यान्वये
03
Page #743
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामण
हेतुलक्षणं, कथायां धूमादित्येव प्रयोक्तव्यं न तु धूमवाचादिति मतुपोव्यर्थत्वात्।
सामान्यवक्त्वे सति वाधकरणप्रत्यक्षवादित्यपार्थकं विभक्त्युपस्थापितहेतुत्वेन सामान्यवत्त्वस्य
त्यादि प्रतीतः माध्यान्वयोऽन्वयसहचारमात्रं यत्र तादृशं यत्साधनं तबावचकशब्दाद्या हेतुविभक्तिः पक्षधर्मिकखार्थविशिष्टमाध्यवत्त्वबोधस्य हेतुभूता या विभक्तिस्तद्वत्त्वमित्यर्थः, 'प्रतीतान्वयसाध्य-साधनेति पाठेऽपि माध्यपदस्थ व्यत्यासेन उक एवार्थः ।
केचित्तु वहिसामग्रीमत्त्वादित्यादिहेतुसंग्रहाय 'मायाविषयकेति माध्यविषयकवनियतावयवतावच्छेदकरूपशून्यार्थक, तथाच उदाहरणत्वावच्छिवस्थापि तथावादन्यय्युदाहरणवारणय 'हेतुविभनौति प्रागुरुहेतुत्वार्थकमित्याहुः ।।
'अप्रतौतेत्यादि, इदमुपलक्षणं एतदेव प्रतीतसाध्य-तदभावसहचारकेति() विशेषणदषय-यतिरेकिहेतुलक्षणमित्यपि बोथं । मनु प्रतिज्ञादिश्यवयववादिनां मौमांसकानां मते धूमहेतस्थले तस्य पक्षधर्मताप्रतिपत्त्यर्थं घूमत्त्वादिति कथञ्चिन्मतुपोऽस्तु प्रयोजन पञ्चावयववादिनान्तु तार्किकाणां उपनयादेव हेतोः पक्षधर्मताप्रतिपत्तिसम्भवान्मत्तुपोव्यर्थत्वमित्यत्र इष्टापत्तिमाह, 'कथायामिति, एतेन भ्रमसम्बन्धपर्यवसनत्वेन तस्य धूमवत्त्वस्य हेतुतायां न वैयर्थं धूमत्वस्य
(१) प्रतीतोभयसहचारकेतीति घ०।
Page #744
--------------------------------------------------------------------------
________________
३८.
विभक्त्यन्तरावरुडस्यानन्वयादिति केचित् । तं । सतिसप्तमबलात् सामान्यवत्त्वस्य वाचकरणप्रत्यक्षत्वस्य च सामानाधिकरण्योपस्थिती 'विशिष्ट हेतुत्वाम्वयात् तथैव व्युत्पत्तेः न चयमथेऽस्मान्नावगम्यते इति ।
पवयवः ।
धूमसम्बन्धावृत्तित्वेन तत्रिष्टव्याप्यवच्छेदकावासम्भवात् अन्यथा धूमप्रागभावस्यापि हेतुता न स्यादिति दूषणं प्रत्युक्तं ।
मन्वेकविभक्त्यर्थान्वितसामान्यवत्त्वे (९) विभक्तयन्तरार्थहेतुत्वान्वये आकाङ्क्षाविरहात् कथं विशिष्टहेतौ हेतुलान्वय इत्याशङ्कते 'केचित्वित्यादि, 'सामान्यवत्त्व इत्यस्य शब्दानित्यत्वे साध्ये इत्यादिः, 'अपार्थकं' 'अनन्वितं (९), तथाच निश्चितानम्बयरूपापार्थकत्वमेव तस्य न न्त्रन्वयाबोधकत्वमित्यर्थः, विरुद्धविभक्त्यर्थवरुद्धे विभक्तयन्तरार्थान्वयबोधास्वीकारात् प्रकृते सप्तम्यर्थ सामानाधिकरण्यविशिष्टहेतौ हेतुत्वावये बाधकाभाव इत्याशयेन समाधत्ते, 'सतीति सतिपदसमभिव्याचतसप्तमौबलादित्यर्थः, ‘विशिष्ट इति सामान्यवत्त्वविशिष्टवायकरएकप्रत्यचत्व दूत्यर्थः, लिङ्गस्य हेतुतामतेनेदं, अन्यथा तु लचणयोपस्थिते तादृशप्रत्यचत्वस्य ज्ञाने हेतुत्वान्वयो द्रष्टव्यः । ननु सति
तम्याः सामानाधिकरण्यवाचित्वे घटे जातिमत्त्वमियतोऽपि घटविशिष्टजातिमत्त्वं प्रतौयेत इत्यतश्राह ' तथैव व्युत्पत्तेरिति पति
(१) नन्वेवं विभक्त्यर्थावर जे सामान्यवत्त्व विघ० । (२) अनुचितमिति घ० ।
·
Page #745
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामणौ
"हेतावुक्त कथमस्य गमकत्वमित्याकाक्षायां व्याप्तिपक्षधर्मतयारूपदर्शनप्राप्ती व्याप्तेः प्राथम्यात् तत्पदशनायादाहरणं तथानुमितिहेतुलिङ्गपरामर्शपरवाक्यजन्यज्ञानजनकव्याप्यत्वाभिमतवनिष्ठनियतव्यापकत्वाभिमतसम्बन्धबोधजनकशब्दत्वमुदाहरणत्वं। सापदसमभिव्याहारेणैव सप्तम्याः सामानाधिकरण्ये व्युत्पन्नवादित्यर्थः, 'अयं मामानाधिकरण्यरूपः, 'अस्मात्' मतम्याः मतिपदसमभिव्याहारात्।
ननु व्याप्तेरिव पक्षधर्मताया अपि गमकतौपयिकत्वात् नत्प्रदर्शनाथ हेवृत्तरमुपनय एव कथं नोपन्यस्यते इत्यत आह, 'कथमस्थेति, 'अस्य' धूमादेः, 'गमकत्वं गमकतावच्छेदकत्वं, लिङ्गस्य हेतुतामते तु यथाश्रुतमेव व्यायः। 'अस्स' लिङ्गज्ञानस्येत्यर्थः, इति कचित्। 'प्राथम्यादिति परामर्थं प्रथमोपस्थाप्यत्वादित्यर्थः, परामर्भ प्लेिविशेषणतावच्छेदकतया पूर्वोपस्थितिनियमः पक्षधर्मतायास्तु वैशिष्यरूपतया न विशेषणतावच्छेदकत्वमिति न तदुपस्थितिः प्रागपेक्षणैयेत्यभिप्रायः ।
यत्तु 'प्राथम्यादिति प्रथमाकाङ्क्षाविषयत्वादित्यर्थः, प्रतीतच्याप्तिकोहेतुः पचे वर्तते न वेत्याकाङ्गादर्शनादिति व्याख्यानं, तब सम्यक्, युक्त्यनभिधाने व्याप्याकाङ्गायाः प्राथम्ये मानाभावात्। वस्तुतः 'कथमस्थ गमकत्वमित्याकाङ्गायाः किंप्रकारावच्छित्रस्य गमकालमित्यर्थः, इति तादृशाकाङ्क्षायां प्रथमतः पक्षधर्मताप्रदर्शनस्य प्रमतिरेव नास्तौति ध्येयम्। तत्प्रदर्शनायेति व्याप्तिप्रदर्शनायेत्यर्थः,
Page #746
--------------------------------------------------------------------------
________________
अवयवः।
मान्यलक्षणे साध्य-साधनसम्बन्धबोधकत्वं साध्य-साधंनाभावसम्बन्धबोधकत्वश्च विशेषलक्षणइयम्। ।
न्यायावयवदृष्टान्तवचनमुदाहरणमिति तु न, ह. ष्टान्तप्रयोगस्य सामयिकत्वेनासार्वचिकत्वात् यो यो धूमवान् सोऽमिमानित्येव व्याप्तिप्रतीतेः ।
। यद्यपि उदाहरणस्य न व्याप्तिः पदार्थो न वा वाक्यार्थः, तथापि उदाहरणाड्याप्तिग्राहकसहचारज्ञाने जाते व्याप्तिग्रहो मानसो भवनौति व्याप्तितात्पर्य्यकत्वरूपव्याप्तिप्रदर्शकत्वं । । यद्वा वीमाया व्याप्तिबोधकत्वादेव व्याप्तिप्रदर्शकत्वमित्यवगन्तव्यं, वौपया व्यापकवं बोध्यते, तथाच खव्यापकौभूतमायावच्छिन्नस्यैव
हेतोः पक्षधर्मताजानं अनुमितिहेतुरित्याभयेनेदं, व्याप्तिपदव । व्यापकत्वपरखादित्यपि वदन्ति(१) ।
'अनुमितीत्यादि, उदाहरणसदृशोदामौनवाक्यवारणाय जनका प्रागुकरौत्या प्रकृतन्यायावयवार्थकं, हेत्वादिवारणाय 'याप्यत्वाभिमतेत्यादि, व्याप्यत्वाभिमतवद्धर्मिको यः 'नियतः प्रतिनियतः प्रचतपक्षे प्रकृतमाध्यवत्त्वाविषयकोव्यापकत्वाभिमतस्य सम्बन्धबोधस्तजनकलं,
अभिमतान्तइयचाच धर्मदयोपलक्षक, तथाच प्रवपतक्षे प्रलतमाध्य' वत्त्वाविषयको व एकपदार्थबद्धर्मिकस्तयापकवविभिष्टापरपदार्थवत्वबोधस्तज्जनकत्वमिति तु फलितार्थः । एतेन यथाश्रुतलक्षणमिदं उपनयेऽतिव्याप्तमिति निरस्तं । न च प्रकृतपचे प्रवतमाध्याविषयक
(१) द्रष्यमिति ७०।
Page #747
--------------------------------------------------------------------------
________________
तचिन्तामयो
नापि प्रकृतानुमितिहेतुलिङ्गपरामर्श परवाक्यजन्यज्ञानविपय व्यात्युपनायकं वचनं तत्, उपनयातित्वदलवैथर्थ्यं, धूमवान् धूमव्यापकवक्रिमान् पर्वतत्वादित्यादिखलीयप्रतिज्ञावाक्येऽतिव्याप्तिवारकत्वात्, यत्पदवीच्या सहकारेण व्यापकत्वावगाहिबोधजनकावयवत्वं समुदितार्थः इत्यपि कश्चित्, 'सामान्यलक्षणे' श्रन्वय-व्यतिरेकिसाधारणलचणे, 'साध्येत्यादि साध्ये साधनस्य erest व्यापकत्वं, एवमग्रेऽपि तथाच वौसालभ्यसाधनव्यापकत्वबोधकावयवत्वं श्रश्वय्युदाहरणत्वं वौसालभ्यसाध्याभावव्यापकत्वबोधकावयवत्वं व्यतिरेक्युदाहरणत्वं, उपनया देव्युदासाय वौसालभ्येति वेशेषणमिति भाव: ।
केचित्तु 'माध्येत्यादि, 'सम्बन्धपदं सामानाधिककरणार्थंक, तथाचान्वयव्याप्तितात्पर्य्यकसाध्य-साधनसामानाधिकरण्यबोधकावय
०४२
वत्वं श्रन्वय्युदाहरणत्वं व्यतिरेकव्याप्तितात्पर्य्यकसाध्याभावसाधनाभावसामानाधिकरष्यबोधकावयवत्वं व्यतिरेक्युदाहरणत्वं, पचधर्मतातात्पर्य्यकोपनयादेः सामानाधिकरण्यबोधकत्वेऽपि व्याप्तितात्पर्य्यकत्वाभावादेव वारणमित्याजः । तत्र साधीय:, श्रन्वयव्याप्तितात्पर्य्यकावयवत्वस्यैव सम्यक्त्वेनेतरांशवैयर्थ्यात् ।
प्राचीनमतं निरस्यति, 'न्यायेत्यादि न्यायावयवत्वे सति — दृष्टान्तवचनं' यथापदार्थान्वयिस्वार्थबोधकनामोत्तर प्रथमान्तलं, तेनान्वयिनोव्यतिरेकिण्व द्वयोर्दृष्टान्तयो: (१) संग्रहः, 'दृष्टान्नेति दृष्टान्तशून्योदाहरणेऽव्याप्तिः, 'इत्येव' इत्यत एव 'व्याप्ति
(१) योदाहरणयोरिति क० ।
Page #748
--------------------------------------------------------------------------
________________
अवयवः।
व्याप्तेः, अत उपनयाभिधानप्रयोजकजिज्ञासाजन: कवाक्यमुदाहरणम्। एतदेवान्वयव्यतिरकव्याप्तिविषयत्वविशेषितं विशेषलक्षणहयमित्यन्ये। अच च व्यभिचारवारणाय वौसामाहुः । यच च सामानाधिकर
प्रतीतेरिति, वौपया तत्ममभिव्याहतान्यादिपर्देनैव वा अन्यादेरुद्देश्यतावच्छेदकौभूतधमादिव्यापकत्वांशबोधनादिति भावः । 'नापौत्यादि, प्रचोकरीत्या 'वाक्यान्तं प्रकृतन्यायार्थक, तथाच प्रकृतन्यायजन्यज्ञानविषयौभूता या अवयतो व्यतिरेकतो वा व्याप्तिस्तस्याः 'उपनायक' बोधक, यत् 'वचन' अवयवः, 'तत्' उदाहरणमित्यर्थः, 'उपनयाभिधानेति 'उपनयस्य' प्रकृतहेतुकप्रहतमाध्यमियौपयिकव्याप्यवच्छिन्नप्रकृतलिङ्गवत्वेन पक्षबोधकवाक्यस्य, प्रयोजिका या पक्षः माध्यव्याप्यप्रकृतहेतुमान वेत्याकारिका जिज्ञासा तस्याः 'जनक' अनुकूलं यत् 'वाक्यं' अवयवः, 'तत्' उदाहरणमित्यर्थः, एतेन उपनयत्वस्य एकस्याभावे सामान्यलक्षणस्यानुपपत्तिरिति दूषणं प्रत्युक्तं । 'एतदेवेति माध्यान्वयव्याप्तिविशिष्टप्रकृतहेतुमत्पक्षबोधकवाक्याभिधानप्रयोजकजिज्ञासानुकूलावयवत्वं माध्यौयव्यतिरेकयातिविशिष्टप्रकृत हेतमत्पक्षबोधकवाक्याभिधानप्रयोजकजिज्ञामानुकूलावयवत्वञ्चान्वयिनोव्यतिरेकिणश्च क्रमेणोदाहरणदयस्य लक्षणमित्यर्थः, उदाहरणस्य न व्याप्यत्वमर्थः, किन्तु सहचारमाचं, अन्यथा अन्वयव्याप्तेरेव गमकतया व्यतिरेकव्याप्युपन्यासेऽर्थान्तरप्रसङ्गात्, बौमितयत्पददयेन महामसत्व-तदन्यत्वादिविरुद्धरूपाभ्यामधिक
Page #749
--------------------------------------------------------------------------
________________
088
तवचिन्तामणौ ग्यादेव व्याप्तिस्तत्र न वीसा केवलापयिन्यभेदानुमाने च वौसायामपि व्यभिचारतादवस्थामिति तु वयं, वौसा च यत्पदं न तु तत्पदेऽपि विरूपोपस्थितयोरपि तत्पदेन परामर्शडुद्धिस्थवाचकत्वादिति न व्युत्पत्तिविरोधः, यथा “यद्यत् पापं प्रतिजहि जगन्नाथ
रणदयोपस्थितौ अन्वयतोव्यतिरेकतश्च सहचारद्वयोरेव तादृशाधिकरणत्वान्तर्भावेन व्यभिचारशहानिवृत्तिद्वारा गमकतौपयिकत्वेन तदुपन्यासेऽर्थान्तरस्यायोगात्। यो यो धूमवान् स वहिमानित्यादौ महानसं तद्भिन्नञ्च धूमवत् महानसं तद्भिनञ्च वनिमदित्यादिक्रमेणैवान्वयबोधादित्याचार्याणं मतमुपन्यस्यति, 'पत्र चेति, व्यभिचारबारणय' तज्ज्ञानवारणय इत्यर्थः, तथाच उदाहरणवमात् महानसे तदन्यस्मिंश्च मामानाधिकरण्यभानेन व्यभिचारचानाभावात् मानसोव्याप्तिग्रह इत्यर्थः, समानविषयत्वेन विरोधित्वमित्याशयः । 'बाहुरित्यनेन सूचितमखरसवौज खयमेव प्रकाशयति, 'यत्र चेति, 'चः' वर्थः, 'याप्तिः' व्यभिचारविरहः, 'न वोमेति स्थादिति शेषः, कुन न वौसा अहणैया इत्यतः 'केवलेति तथाचेदं प्रमेयं द्रव्याभिन्न वा गगनत्वादित्यादौ तमति साध्यव्यभिचारासम्भवात् तबत्योदाहरणे वौसाप्रवेशोव्यर्थः सादनांकन्तु गमकतोपयुक्रस्य व्यापकत्वस्य बोधकत्वेनेव तत्मार्थक्यं, "उदाहरणेन धमव्यापकता वहेरेवोपदर्यते” इति परामर्शयन्थे
Page #750
--------------------------------------------------------------------------
________________
पक्यवः ।।
नवस्य तन्म इत्यच(१)। इंदच साध्य-साधनोभयात्रयविकलानुपदर्शितान्षय-विपरीतोपदर्शितान्वयानुपदर्शितव्यतिरेक-विपरीतोपदर्शितव्यतिरेकभेदादाभासरूपमिति।
एव स्फुटतरमभिधानादिति भावः । यत्र साधनस्यानेकमधिकरणं , तत्रापि यो यो धूमवान् मोऽमिमानित्यादौ वौसया व्यभिचारम
हानिरसन दुर्घट, बौसितयत्पदाभ्यां महानसं तनिवञ्च धूमवन् वधिमञ्चेति बोधनेऽपि धूमवान् कश्चित् वयभाववानित्येवं । व्यभिचारयहे बाधकाभावादित्याह, 'वीमायामपौति, समान
कारकत्वेनैव विरोधित्वादिति भावः। ननु यदि वौमितयच्छब्देन विधेयधर्मस्य उद्देश्यतावच्छेदकधर्मव्यापकत्वमाचं प्रत्याय्यते न तु विरुद्धरूपाभ्यां अधिकरणदयं तदा पूर्ववाक्यगतयछब्दस्य तच्छब्दमाकाङ्क्षत्वानुरोधादेकमेव तत्पदं उदाहरणस्य घटकमस्तु तत्र वौमा विफला, अस्माकन्तु उपक्रान्ताभ्यां महाममत्व-तदन्यत्वादिविरुद्धरूपाभ्यामेकेन तच्छब्देन . बोधयितुमशक्यत्वादेव तत्र वौसाखौकारः, महदुश्चरितेत्यादिव्युत्पत्तेः(२) बलवचादित्यतस्तचेष्टापत्तिमाह, वौमा चेति, प्राचां मतेऽपि वौमितयत्पदोपक्रान्ताभ्यां विरुद्धरूपाभ्यामेकेनैव तत्पदेन परामर्शसम्भवात् तत्र वौसा विफलैव तैरपि बुद्धिस्थवाचकतदादिपदातिरिक्तस्थल एव मकदुचरितेत्यादिव्युत्पत्तेः (२) यश्यत् पापं प्रतिजहीत्यति क.।। (२) सचदुचरितः शब्दः सचदर्थं गमयतीति व्युत्पत्तरित्यर्थः ।
94
Page #751
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामयी
सोकर्तव्यत्वादित्याशयेनाइ, 'विरुद्धरूपेति, तत्पदेन' एकेन, 'परामात्' परामर्शसम्भवात्। नन्वेकेन तत्पदेन वौमितयत्पदोपकानाभ्या विरुद्धरूपाभ्यां युगपद्दोधनं न दृष्टचरमतोभवभूतेः काव्यं() अथ प्रमाएयति, 'यथेति हे जगनाथ मे मम यद्यत्यापं तत्प्रतिजति नवस्य गतस्य नाशय इति वाक्यार्थः । अचेदं बोध्य विरुद्धरूपाभ्यां प्रत्येकपदेन प्रत्येकबोधने यत्र तात्पर्य तत्र तत्पदेऽपि वीमा बोध्या यथा "म स भूमिपाल इत्यादि(१) यादृशोदाहरणप्रयोगे नियहस्तादृशोदाहरणान्याह, 'इदश्चेति माध्यविकलं, साधनविकसं, उभयविकलं, पात्रयविकलचेति बोध्यं, 'विकलशब्देन सह सर्वचान्वयः । माधविकलं यथा शब्दोऽनित्योऽमूर्तत्वात् यद्यदमूर्तं तदनित्यं यथाकाशं,
___ कल्याणानां त्वमसि महसां भाजनं विश्वमूर्ते
धूय्यो लक्ष्योमथ मयि भशं धेहि देव प्रसौद । यद्यत् पापं प्रतिहि जगन्नाथ नमस्य तन्मे भर भद्रं वितर भगवन् भूयसे मङ्गलाय ।
इति मालतीमाधवे भवभूतिः । सचारिणौ दीपशिखेव रात्री यं यं व्यतीयाय पतिम्बरा सा। नरेन्द्रमार्गाट्ट इव प्रपेदे विवर्णभावं स स भूमिपाणः॥
इति रघुवंशे कालिदासः। यां या प्रियां मैक्षत कातराक्षों सा सा हिया नमसखो वभूव ।
इति माघच ।
Page #752
--------------------------------------------------------------------------
________________
..
पाधविकलं वथा शब्दोऽनियोगुणत्वात् चो यो गुणत्ववान् सोऽनित्यः यथा घट रत्यत्र, उभयविकर्ष यथा शब्दोऽनित्योगुणवान थथाकाशं, पाश्रयविकलं यथा स्थिरोभावोऽनित्यः क्रम-चौगपचान्या रहितत्वात् यथा भविषाणं कूर्मरोम वाजिविषाणचेति, 'अनुपदर्शितान्वयं यथा शब्दोऽनित्यः इतकत्वात् यथा घट इत्यत्र उदाहरणानुलेखेन केवखदृष्टानमात्रकथनं, 'विपरौतोपदर्भितावर्ष' यथा पदनित्यं तत् इतकं यथा घट इत्यत्र प्राक्साध्यवाचकपदोलेखेन विपरीतक्रमेण सहचारप्रतिपादनस्थले बोध्यं, 'अनुपदर्शिबव्यतिरेक' यथा जीवच्छरौरं मात्मकं प्राणदिमावादिति व्यतिरेकिप्रयोगे प्राध्याभाव-साधनाभाववाचकपदानुलेखेन बोध्यं, 'विपरौतोपदर्भितव्यतिरेक यथा यत्प्राणदिमत्त्वरहितं तबिरात्मकं यथा घट इत्यत्र साधनाभाववाचकपदस्य प्राङ्गिदैन बोध्यं । ननु विपरीतान्वयव्याप्युपदर्शनेऽपि प्रछतविवचितव्याप्यनुपदर्शनादनुपदर्शिताब्वयमेव कथं खातन्व्येण तस्योपन्यासः एवं विपरौतोपदर्शितव्यतिरेकस्यापौति चेत् । न । व्याप्यन्तरोपदर्शनेन विपरौतोपदर्शितव्याप्तिकं, यत्र कापि व्याप्तिर्न प्रदर्श्यते तदनुपदर्भितव्याप्तिकं, एवमनुपदर्भितव्यतिरेकमिति भावः। उदाहरणभामस्तु व्याप्तियहाननुकूलतया अर्थान्तरविधया दोषः विभाजकसूत्रस्थचशब्देन समुच्चितो वा, स्वतन्त्रनिग्रहस्थानान्येतान्यपि यथायथं बोध्यानि ।
चित्तु रदधेत्यादि, अयं धूमवान् वहेरित्यादौ साध्य-साधनथोरन्वयव्याप्तिविकलत्वात् यो यो वहिमान् म धूमवान् इत्युदाहरणमाभासः, अयं वाच्यः प्रमेयवादित्यादौ यो यो न प्रमेयः १
Page #753
--------------------------------------------------------------------------
________________
ost
चिन्तामय
उदाहरणानन्तरम्भवतु व्याप्तिस्तथापि व्याप्तं किं पक्षे वर्त्तते न वेत्याकाङ्क्षायां व्याप्तस्य पक्षधर्मत्वप्रद
-नशेयः इत्युदाहरणं अनुपदर्शितसाध्य साधनान्वयव्याप्तिकत्वादाभासं, -पर्वतो वक्रिमान् धूमादित्यादौ यो यो वक्रिमान् स धूमवानित्युदाहरणं वैपरीत्यक्रमेणेोपदर्शितान्वयव्याप्तिकत्वादाभासं चयमेतद्घटाभिन्नः एतदुद्घटत्वादित्यादौ यो य एतङ्घटत्ववान् स एतइटा'भिन इत्युदाहरणं अनुपदर्शितव्यतिरेकव्याप्तिकवादाभासं, एवं तचैव यो च एतदुद्घटत्वाभाववाम् स एतदुद्घटाभिन्नत्वाभाववानित्युदाहरणं विपरीतक्रमेणोपदर्शितव्यतिरेकव्याप्तिकत्वादाभावमित्यर्थः इत्यञ्च दृष्टान्तस्य उदाहरणणघटकत्वेऽपि न चतिरिति मन्तव्यम् ।
श्रतएव प्रकृतहेतुक-प्रकृतसाध्यसिद्ध्यौपयिकव्याप्तिप्रमाया श्रजनकत्वमेव उदाहरणस्याभासताप्रयोजकं पञ्चविधभेदोनिस्तु (९) प्रपञ्चार्थमित्यवधेयमिति व्याचक्रुः ।
'उदाहरणेति तथाच व्याप्तोहेतुः पचे वर्त्तते न बेत्याकाङ्क्षायां ब्याप्याश्रयस्य पचधर्म्मत्वं विधीयत इत्यर्थः । वस्तुतोव्याप्तं किमित्यादेः पचः साध्यव्याप्यप्रकृत हेतु मान वेत्याकाङ्गायां तात्पर्यं तस्या एव पक्षधर्मिकाम्वयबोधजनकोपनयनिवर्त्त्यत्वादिति ध्येयम् । 'अनुमिती
&
1
त्यादि प्रकृतहेतुकप्रकृतसाध्यकानुमित्यौपयिकव्याप्तिविशिष्टहेतुम
या प्रकृतपथबोधकावयवत्वमुपनयत्वमित्यर्थः यथाश्रुते तु शाब्दपरामर्शस्य व्याप्यत्रदभेदविषयकस्य संयोगेन पचे व्याप्याप्रकार
(१) एवम्बिधभेदोक्तविति घ० ।
Page #754
--------------------------------------------------------------------------
________________
अवयवः।
शनायोपनयः, तपानुमितिकारणवतोयलिङ्गपरामर्शजनकावयवत्वमुपनयत्वमिति सामान्यलक्षणं, साध्यध्याप्यविशिष्टपक्षबोधकावयवत्वं साध्याभावव्यापकाभावप्रतियोगिमत्पक्षबाधकावयवत्वञ्च विशेषलक्षणइयम, उदाहरणन्त एव प्रयोग इति न वाच्यं वृती
कस्थानुमितिहेतुत्वाभावादमजतेः, अनुमितिकारणव्यापारसमानाकारज्ञानजमकावयवत्वमुपनयत्वमित्यपि कचित् । 'मामान्यलक्षणं' अन्यय्युपनय-व्यतिरेक्युपनयसाधारणमामान्यशक्षणमित्यर्थः, 'साथव्याप्येति माध्यान्वयव्याप्तिविशिष्टेत्यर्थः, 'माध्याभावेति माध्यौयष्यतिरेकव्याप्तिविशिष्टप्रकृतहेतमत्तया पक्षबोधकावयवत्वमित्यर्थः । 'जरभौमांसकमतं निरस्थति, 'उदाहरणान्त एवेति उदाहरणदिषिकस्यैव प्राभाकरादिनव्यमीमांसकानां सम्मतत्वादिति ध्येयं । 'बतीयलिङ्गपरामर्शस्येत्यस्य विवरणं 'याप्ति-पक्षधर्मनावगाहिन इति, 'अवयवान्तरात्' उपनयभित्रावयवानरात् । ननु भौमांसकमते व्याप्तिविशिष्टपक्षधर्मताया ज्ञानं नानुमितिहेतरतस्तदलाभो न चतिकर इत्यत बाह, 'तदनभ्युपगमेऽपौति, 'अलाभादिति व्याप्यतावच्छेदकरूपेण पक्षधर्मवयहस्यानुमितिहेतुतायाः परैरपि नौकारादिति भावः । 'हेतुवचनात्' हेत्ववयवान्, 'को हेतुरित्यस्य कुतः रत्याकाङ्क्षायां तात्पर्य, अन्यथा धूमादित्युत्तरस्य धूमधर्मिकहेतुत्वबोधाजनकत्वेन तस्य को हेतुरित्याकाङ्गानिवर्तकत्वानुपपत्तेः मयातिरिक्तसुवर्थस्य प्रकृत्यर्थविशेष्यत्वनियमादिति ध्येयं । तिस
Page #755
--------------------------------------------------------------------------
________________
ore
तत्वचिन्तामणे
यलिङ्गपररामर्शस्य व्याप्ति-पक्षधर्मातावगाहिनेाऽवयवासरादलाभात् तदनभ्युपगमेऽपि पक्षधर्मताया अलाभात्। न च हेतुवचनादेव तदवगमः, तस्य को हेतुरित्याकाहायां प्रवृत्तत्वेन हेतुस्वरूपोपस्थापकस्यात
रूपेति लिङ्गनिष्टहेतुतामात्रबोधकस्येत्यर्थः, 'त्रतत्परत्वात्' पक्षधमंबाबोधकत्वात् । न चैवं पर्वतोद्रव्यं महानमत्वादित्याद्यपि प्रयोगः स्यादिति वाच्यं । तदुत्तरपञ्चम्यर्थज्ञाप्यत्वान्वितमाध्यस्य हेत्वधिकरणवृत्तिमाध्यताघटकसम्बन्धेनैव पक्षधर्मिकान्वयबोधं प्रति माकाशलादिति भावः । शहते, 'वादिवाक्यादिति हेवन्तवाक्यात्पचे विजयाप्यसाध्यवचप्रतीतौ यो यज्ञाप्यमाध्यवान् म तद्वान् इत्यनुमानादेव पक्षस्य हेतमत्त्वावगम इत्यर्थः, 'तदर्थस्य हेत्वसवादिवाक्यार्थस्य, 'असिद्धत्वेन' प्रमितत्वेनानिश्चिततयेत्यर्थः, परेषां मते अनुमितौ प्रमितमाध्याभाववत्त्वादिनिश्चयस्य विरोधित्ववत्प्रमितहेतमप्तानिश्चयस्यैव कारणत्वादिति भावः । 'अन्यथेति प्रतिज्ञावाक्यात् पक्षस्य माध्यवत्वावगतौ तेनैव हेतुना तज्ज्ञापकहेतमतादेरप्यापसम्भवेन हेत्ववयवादेरपि वैयापातादित्यर्थः ।
केचित्तु ‘वादिवाक्यादिति, इदं पदं विशिष्टपरामर्शतात्पर्य्यक नत्तात्पर्य्यकतथा वादिप्रयोज्यत्वात् इत्यनुमानादेव विशिष्टपरामर्शसाभात् किमुपमयेनेत्यर्थः, 'तदर्थस्थेति, तथाच वादिवाक्यार्थस्याप्रामाणसानास्वन्दितवेन उभयवाद्यमिद्धतया अनाक्षेपकलं तथेति भाषः, इति व्याचक्रुः ।
Page #756
--------------------------------------------------------------------------
________________
अवयवः।
त्परत्वात, वादिवाक्यादेवाक्षेप इतिचेत्। न। तदर्थस्यासिहत्वेनानाक्षेपकत्वात् अन्यथा प्रतिज्ञावाक्यादेव साधेपेऽवयवान्तरविलयात् । प्रतिपाद्यानां स्वत एव तदवगम इति चेत्, न, तेषां व्युत्पत्राव्युत्पनतया सर्वच
__ शकते, 'प्रतिपाद्यानामिति प्रतिवादिनामिति शेषः, 'खत एव' शब्दं विनैव, 'तदवगमः' पक्षस्य हेतमत्त्वावगमः, पञ्च-हेलोरुपस्थिती मतिज्ञास्थल इव तयोविशिष्टोपनौतभानसम्भवादिति भावः । पर पूर्वं यदवगतं तचैव तस्थोपनौतभानं त्वया वाचं अन्यथा अन्यथाख्यात्यापत्तेः, तथाच यस्य प्रतिवादिनः साधनवत्तया पूर्व पक्षोनोपस्थितस्तस्य उतक्रमेण स्वतः पक्षस्य हेतमत्त्वग्रहो न सम्भवतीत्याशयेन समाधत्ते, 'तेषामिति, ‘युत्पत्तिः' पक्षधर्मिकहेतमबजानाधौनहेतुस्मतिः, परनये तस्था एव पक्षधर्मिकहेतमत्त्वोपनौतभानहेतुत्वादिति भावः। माधनाथुपनौतभानं प्रति साधनाघुपतितिमात्रस्य हेतुत्वमिति मतेऽप्यार, 'प्रतिपादकेनेति वादिनेति शेषः, 'खव्यापारस्य' व्याप्तोहेतुः पक्षे वर्तते न वेत्याकाङ्क्षानिवर्तकवायस, 'निर्वाहयितुं' सम्पादयितुमौचित्यादित्यर्थः, 'प्रतिपादयितुमिति कचित् पाठः तत्र प्रापवितुमौचित्यादित्यर्थः, 'अन्यथा' प्रतिपाचाकाङ्गानिवर्तकवाक्यस्य वादिनानभिधाने, 'अवयवान्तरे' इत्यादौ, ‘एवं प्रसङ्गः' अनभिधानप्रसङ्गः, (१) प्रतिज्ञोत्तरं कुतः इत्याकाहानिवर्तकस्यापि वाक्यस्थानावश्यकलादिति भावः ।
(२) अयं प्रसङ्गः बनभिधानप्रसङ्गः इति प., ७.।
Page #757
--------------------------------------------------------------------------
________________
तापचिन्तामणे सदसम्भवात् प्रतिपादकेन स्वव्यापारस्य निर्वाहयितुमुचितत्वाच अन्यथावयवान्तरेऽप्येवं प्रसङ्गादिति।
उपनयानन्तरं निगमनं तच्चानुमितिहेतुलिङ्गपरामर्शप्रयोजकशाब्दजानकारणव्याप्ति-पक्षताधौप्रयुकसाध्यधौजनकं वाक्यम्। न च व्याप्ति-पक्षधर्म
परे तु 'प्रतिपाद्यानां' श्रोढणां, 'खत एव तदवगमः' परप्रयुक्ततत्तदर्थशपदं विनापि स्वकल्पितशब्दादनुमानादा व्याप्तिपक्षधर्मत्वावगम इत्यर्थः, 'तेषामिति प्रतिपाद्यानामित्यर्थः, 'व्युत्पबेति, तथाच चे व्युत्पना भवन्ति तान् प्रति आपातत उपनय-' प्रयोगो न क्रियतां ये तु तादृशा न भवन्ति नान् प्रति अवश्यं उपनयादिप्रयोगः करणीय इत्यर्थः । व्युत्पत्रं प्रत्येव उपनयः कर्तव्य इत्याह, 'प्रतिपादकेनेति, यदि च व्युत्पन्नतया तस्य खतएव तदर्थावगम इति नोपनयापेक्षा इति ब्रूयातदाण्याह, 'अन्यथेति, इति प्राजः।
'उपनयेति उपनयनिरूपणनन्तरं निगमनं निरूप्यत इत्यर्थः, एतेनावसरसङ्गतिः सूचितेति ध्येयं । 'अनुमितीत्यादि, निगमनसदृशस्त्र उदासौनवाक्यस्य वारणाय 'कारणानं प्रागुक्तरीत्या प्रजनन्यायावयवार्थक, प्रतिज्ञादिवारणाय 'याप्तीत्यादि, 'प्रयुक्तत्व जाप्यत्वं, तथाच व्याप्ति-पक्षधर्मताविशिष्टप्रकृतहेतुधीज्ञाप्यत्वप्रकारकाश्चतसाध्यधीजमकलमर्थः, धूमावक्रिमत्मधर्मीयं वद्धिमान् धूमादित्यादौ प्रतिज्ञादियुदामाय विमिष्टान्न, पत्र तादृशेतज्ञान
Page #758
--------------------------------------------------------------------------
________________
अवयवः।
तयोश्चतुर्भिरेवावयवैः पर्याप्तेः किं तेनेति वाच्यम्। अबाधितासत्यतिपक्षितत्वयोरलाभे चतुर्णामप्यपर्यवसानात् । अथाभिधानाभिधेययायाप्ति-पक्षधर्मतावलिङ्गप्रतिपादनादेव पर्यवसानेनावयवान्तराणां निराकाङ्गत्वं विपरीतशङ्कानिहत्तेरपि तत एव लाभात्
निरूपिताखण्डजन्यत्वनिवेशान्त्र व्याप्तिपदवैयर्थं, वहिव्याप्ति पक्षधमताविशिष्टधूमावहिमानयं वहिमानित्यादिका तु प्रतिज्ञा प्रकृतहेतौ पक्षधर्मतां बोधयन्यपि न प्रकृतव्याप्तिविशिष्टपक्षधर्मतां बोधयतीति न तत्राति प्रसङ्गः। वस्तुतोव्याप्ति-पक्षधर्मातापदयोर्ककरिषकोपादानात् लक्षणद्वये तात्पर्य, वहिव्याप्तिविशिष्टेत्यादिका तु न प्रतिज्ञा सम्प्रदायविरोधादिति तत्वं । 'चतुर्भिः' प्रतिज्ञाद्यैः, 'पर्याप्नेः' प्राप्तः, 'अपर्यवसानादिति अनुमितिमामय्यसम्भवादित्यर्थः । पर्याप्तेः' ज्ञानजनकत्वात्, 'अपर्यवमानात्' अनुमित्युपधायकज्ञानाजनकत्वादित्यर्थः, इति कश्चित् । ननु प्रतीत्यनुपपत्ति-प्रतीतानुपपत्त्योरभावेनावयवान्तरेण मह निगमनस्य श्राकाहाविरह:(१) इत्याशकते, 'अथेति, 'अभिधान' प्रतीतिः व्याप्ति-पक्षधर्मताविभिएलिङ्गानुभव इति यावत्, 'अभिधेयं' तथाभूतलिङ्गं, 'निराकाझावमिति तथाच चतुर्णमवयवानां व्याप्ति-पक्षधर्माताप्रतिपादनेन
(१) अवयवान्तरार्थविशेष्यक-निगमनार्थप्रकारकबोधनकतावच्छेदको.
भूतानुपूर्तीमत्त्वं नास्तीत्यर्थः।
95
Page #759
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामो
अन्यथा निगमनेनापि तदवारणात, न हि तत् विशेषदर्शनमनास्त्यैव तन्निवर्तकम्। सिद्धनिर्देशतया वारयतौति चेत्।न।स्वरूपमाषाभिधानात् साध्यत्वानुस्थिती तमादिति हेतुविभक्त्यनन्वयप्रसङ्गाच्चेति चेत्। न। व्यापर्य्यवसामात् निगमनाकाङ्क्षा तेषां नास्तीत्यर्थः । ननु साध्याभाववत्यबज्ञानसत्त्वे तादृशज्ञानसत्त्वेऽप्यनुमितिमामय्यसम्पादनात् तत्सम्पत्त्यर्थं निगमनाकाङ्क्षास्ति तेषामित्यत आह. 'विपरौतेति पक्षादेः माध्याभावादिमत्त्वशङ्कानिवृत्तेरपौत्यर्थः, 'तत एव' व्याप्ति-पक्षधर्मताविशिष्टलिङ्गप्रतिपादनादेवेत्यर्थः, 'तत एव' प्रतिज्ञाजन्यज्ञानादेव इत्यर्थ इति कश्चित्। 'निगमनेनापौति, अबाधितत्वादेरपदार्थतया निगमनेन तस्य बोधयितुमशक्यत्वादिति भावः । 'तत्' निगमनं, 'तनिवर्तक' विपरीतशानिवर्तकं, शकते, 'सिद्धनिर्देशतयेति मित्वविशिष्टस्य बोधकतया निगमनं विपरीतशङ्का वारयतौत्यर्थः । मित्वमत्र प्रमाणमिद्धत्वं वा, हेतु विभकिसाकाङ्क्षवरूपस्य माध्यस्थाभाववत्वं वा, हेतुजिज्ञासाविरोधिबोधविषयत्वं वा प्रथमे 'सूरूपमाचेति अयं तस्माद्वहिमानित्यादौ वङ्ग्यादिपदेन वड्यादिखरूपमावस्याभिधानादित्यर्थः । द्वितीये ‘माध्यत्वेति वयादौ हेतुविभक्तिसाकाङ्गत्वस्थानुपस्थितौ तस्मादित्यादिहेतुविभत्त्यर्थस्य वयादावनवयप्रसङ्गादित्यर्थः। शाब्दबोधमाचं प्रत्येवाकाजाधियः कारणत्वादिति भावः। तदभावेति तयो धितत्व-मन्प्रतिपतिनत्वयोः प्रभावबोधन इत्यर्थः, 'समौक्षितानिाहान्' अनुमिति
Page #760
--------------------------------------------------------------------------
________________
अवयका
तिपक्षधर्माताचानेऽपि बाध-सत्यतिपक्षबुद्ध साध्यामानुत्पत्तिदर्शनात् तदभावाबोधने समीहितानिवाहात्। अथ बाधादिविरहस्य प्रयोजकत्वं न तु तदोधस्य मानाभावादसिद्धेश्च इति किमर्थं बाधादिविरहो
रूपफलानिर्वाहात्, अत्र पक्षादेः माध्यादिमत्त्वस्य उपनयान्तः चतुभिरेव सिद्धत्वात् पुनर्निगमनेन तदभिधानस्य "सिद्धे सत्यारम्भीनियमाय” इतियुत्पत्तिबलेनाबाधितत्वासप्रतिपक्षितत्वबोधकत्वं, स च बोधो यदि शाब्दस्तदा निगमनस्थलच्छब्दस्य व्याप्ति-पचधर्मताविशिष्ट दूवाबाधितलासत्प्रतिपचितवविशिष्टेऽपि हेतौ प्रत्या निरूढलक्षणया वा सम्पादनौयः इतरथा तादृशतच्छब्दोपस्थापितेन व्याप्तिविशिष्टपक्षधर्मत्वेन हेतुनेवाबाधितत्वासप्रतिपक्तित्वयोरानुमानिकोबोधः प्रकृतहेतौ द्रष्टव्यः, 'बाधादिविरहस्येति बाधादिनिश्चयाभावस्येत्यर्थः, 'तद्बोधस्य' बाधाद्यभाववत्त्वबोधस्य । अथान्वयाद्यनुविधानमेव मानमत बाह, 'असिद्धेश्शेति अश्वयाद्यनुविधामासिद्धेश्वेत्यर्थः, 'यदवगमे' यन्निश्चये, तथाचानुमितिर्बाधाभावज्ञानजन्या माधनिश्चयप्रतिबध्यत्वादित्यनुमानमेव अबाधितवादिज्ञानस्य हेतुनायां मानमिति भावः। ननु बाधः पर्वते वयभावरूपः तदभावोवह्निः पर्वते तज्ञानस्य पर्वतोवहिमान् इति मियात्मकस्य सत्वे कथं ततोऽनुमितिः । न च बाधाभावस्य वहिरूपस्य वयभावाभावत्वेन ज्ञानं कारणं तच्च न सिवात्मकं एवं ' वयभाववत्त्वप्रकारकप्रमाविशेष्यत्वज्ञानं प्रतिबन्धकं तादृश विशेषत्वा
Page #761
--------------------------------------------------------------------------
________________
चिन्तामय
बोधनीय इति चेत् । न । यदवगमे सति यन्न भवति तत्तदभावज्ञान साध्यमिति व्याप्तेः । न चानन्वयः, तस्मादित्यन्वयबला देव हेत्वनाकाङ्क्षितत्वलक्षणसिद्धत्वज्ञानात् न त्वन्वयात् प्राक् । इह केचित् यथा तस्मादिति सर्व्व
भावज्ञानं हेतुः तच्च निगमनसाध्यं सिद्यनात्मकमिति वाच्यं । तस्य कारणत्वे मानाभावात् स्वीयस्थले व्यभिचाराच इति चेत् । न । यदबगमे चश्च भवति तत्तदभावज्ञाने सत्येव सम्भवतीति प्रयोक्तृतात्पर्य्यात्, तथाच यज्ज्ञानं यत्प्रतिबन्धकं तदभावज्ञाने तज्ज्ञानप्रतिरोधेन तदवश्यं भवतीति तस्य कारणले मानाभावात्, निगमनादेव बाधविरहो यदा बोध्यते तदा प्रतिबन्धकबाधज्ञानाभावे श्रनुमितिरविकलेव स्यात् इति इत्थञ्च बाधज्ञानप्रतिबन्धकद्वारा बाधाभावज्ञानस्य प्रयोजकत्वं न तस्य कारणत्वं श्रये च साध्यमित्यस्य प्रयोज्यत्वमर्थे बोध्य इति रमणीयं ( १ ) उमाबाधितत्वज्ञानमन्वयव्यतिरेकाभ्यां स्वार्थातिरिक्रस्यले हेतुस्तच्च विगमनाद्भवतीति यथाश्रुतग्रन्थ एव साधुरित्यपि कचित् । तृतीयमाशङ्कते, 'न चेति हेतु जिज्ञासाविरोधिबोधविषयत्वरूपस्य सिद्धत्वस्यापदार्थत्वेन साध्यांशे तदन्वयायोग इत्यर्थः, उक्तरूपं सिद्धत्वं न निगमनेन बोध्यते किन्तु ततः साध्यस्याप्यादिविशिष्ट लिङ्गज्ञाप्यत्वप्रतीतौ तेनैव हेतुना प्रकृतबाध्यस्य निस्तसिद्धत्वमनुमीयते इत्याशयेन परिहरति, 'तस्मादि
(१) विभावनीयमिति ङ० ।
Page #762
--------------------------------------------------------------------------
________________
माना हेतोः परामर्शः पूर्वोक्ताशेषरूपलाभाय तथा साध्यांशस्यापि तथेति सर्वनामा सिधस्थल इव विरोधादिवारणाय युक्त इत्याहुः। तन । तथेति स्वरूपे प्रकारे सादृश्ये वा, श्राद्ये तथाचायमिति प्रक्रमात्
त्यन्वयबलादिति, 'हेवनाकाशितत्वं' हेत्वाकाङ्क्षाविरोधिविषयत्वं, 'प्राक्' अनुत्तरं, इदश्च निगमनात् सिद्धत्वज्ञानं भवतीत्यभिप्रायेण । हेत्ववयबोधानन्तरं मानममिद्धत्वज्ञानं भवति न त तस्मात्पदार्थभाने तत्प्राक्काले वा इत्याशयेन परिहरति, 'तस्मादिति कश्चित्।
तस्मात्तथेतिनिगमनाकारं थे वदन्ति तन्मतं दूषयितुमुपन्यस्थति, 'दह केचिदिति पूर्वाह्न व्याप्ति-पक्षधर्मतात्मकं यखेतोरशेषरूपं तलाभायेत्यर्थः, 'सिद्धस्थल दवेति चैत्रः पञ्चत्ययमपि तथेत्यादिलोकप्रसिद्धस्थल वेत्यर्थः । 'सिद्धं' पक्षादि, तथाच वकिध्याप्यधूमवानयमित्यत्र यथा इदमादिप्रसिद्धपक्षस्योपस्थापनं तददिहापौत्यन्ये । 'विरोधादौति अथं तस्मादहिमानित्युतौ हि पचे माधनौयस्थ(१) माध्यवत्त्वस्यालाभेन उपसंहारविरोधः माध्यवदभेदप्राण्या अर्थान्तरञ्च स्यात् अतस्तदारणाय 'माध्यांशस्थापि तथेति सर्वनाम्ना युक्तः परामर्श इत्यन्वयः, ‘स्वरूप इति सादृशपदान्तरप्रयुक्तप्रक्रान्तखरूप इत्यर्थः, 'प्रकार इति अव्यवहितपूर्वबुद्धेविशेष्यत्वं मति प्रकार इत्यर्थः, तथामत्येवाग्रिमग्रन्थमङ्गतेरिति ध्येयं । (१) बोधनीयस्येति का।
Page #763
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामो
तथेति हेतुमानित्यर्थः स्यात् तथाधानन्धयः, न हि हेतुमत्वादेव हेतुमत्वमित्यन्वितं, न द्वितीयः, सामाग्ये न पक्षस्यापि अन्वयव्याप्तौ प्रवेशात् तत्प्रकारान्वयस्तथैवेत्यनन्वयात, अतएव न तृतीयोऽपि, अभेदानु
'मादृश्यति अव्यवहितपूर्वबुद्धिविधेष्यस्य मादृस्य इत्यर्थः, 'न हौति, अभेदेनोद्देश्यविधेयभावस्येव जाण्य-ज्ञापकभावस्याप्यव्युत्पन्नत्वात् धूमो धूम इतिवत् धूमाधूमवान् इति शाब्दधियोऽपि असत्त्वादित्यभिमानः । वस्तुतः 'अमन्वय इत्यस्य उपनयाथै निगमनार्थस्याप्यनवयप्रसङ्गइत्यर्थः, 'हेतमत्त्वादित्यस्य व्यवलोपे पञ्चम्या हेतमत्वं धर्मितावच्छेदको हत्येत्यर्थकत्वात् दण्डवान् रक्तदण्डवान् इत्यचेव माध्यव्याप्यहेतुमान् पक्षः हेतुजाप्यहेतुमान् इत्यन्वयेऽपि उद्देश्यतावच्छेदक-विधेययोरेक्येन निराकाङ्क्षवखौकारादिति ध्येयं । 'सामान्येन' साधनाधिकरणबादिना, 'नत्प्रकारेति निगमनप्रकारोभूतस्य तस्मादित्यस्य, 'अन्वयः', 'तत्रैव' पक्ष एव, 'इत्यनम्वयात्' अयोग्यत्वादित्यर्थः, पक्षस्य लिङ्गाव्यापकत्वेन तज्ज्ञाप्यत्वबाधादिति भावः । 'अभेदानुमाने चेति, 'च' केवलान्वयिनौत्यनन्तरं योज्यः, नथाच पर्वतः पर्वताभिन्नः पर्वतत्वादित्यादौ पर्वतमादृश्यस्य पर्वतवाध्यापकत्वेन पर्वतत्वाचाप्यतया केवलान्वयिपक्षके च प्रमेयं वहिमत धमादित्यादौ पक्षोभूतस्य प्रमेयस्य सादृश्यस्याप्रसिद्ध्या तदुभयस्थले तस्मात् तथेति निगमनेन विज्ञाप्यत्वविशिष्टस्य पक्षमादृश्यस्य बोधवितमशक्यत्वादित्यर्थः, पक्षसादृश्यस्य तद्भेदगर्भवादिति भावः ।
Page #764
--------------------------------------------------------------------------
________________
पवयवः।
माने चान्वयिनि तस्मात्तथेति सादृश्याभावात् बहनाच प्रक्रमे विशेष्यानन्वयात्, वादिवाक्ये च योग्यताबयेऽतिप्रसङ्गात् तस्मादित्यत्र तु विभक्त्यानन्धयादेव
अन्ये तु 'मामान्येन' व्याप्यन्तर्निविष्टमामानाधिकरण्यघटकवेनेत्यर्थः, 'श्रत एव' व्याप्यन्तर्निविष्टमामानाधिकरण्यघटकतया पक्षस्योपस्थापनादेवेत्यर्थः, 'अभेदानुमाने चान्वयिनीति, विशेषणविशेष्यभावेनान्वयात् घटोद्रव्याभिन्नः द्रव्यत्वादित्यादिस्थलोपसंग्रहः "अन्वयिनीत्युपादानाच्च पक्षाघटितव्यतिरेकव्याप्तिवारणं व्यतिरेकव्याप्तिबोधकोपनयस्थपदार्थपरामर्शकतत्पदेन पक्षपरामर्शसम्भवादिति व्याचक्रुः ।
ननु तथापदं बुद्धिस्थत्वेनेव वहिं बोधयिष्यतीति तचैव तस्मादित्यस्यान्वयोभविष्यतीत्यत पार, 'वहनाचेति, 'प्रक्रमे' बुद्धिस्थत्वे, 'विशेष्येति माध्यतावच्छेदकधर्मावच्छिन्ने तस्मादित्यस्य अन्वयायोगादित्यर्थः । ननु माध्यवद्भित्रे बुद्धिस्थे लिङ्गज्ञाप्यत्वस्य बाधादेव प्रकृतसाध्ये तस्मादित्यस्याग्चयोभवितेत्यत आह, 'वादिवाक्ये चेति, 'अतिप्रसङ्गादिति रदं बेहवत् गुणदित्यपि प्रयोगापातादित्यर्थः, बेहस्य जलान्यवृत्तिगुणज्ञाप्यत्वबाधकवणादेव जलान्यावृत्तिगुणज्ञाप्यत्वमादाय वादृशवाक्यस्य प्रामाण्यसम्भवादिति भावः। यहा ननु तथाशब्दस्य पूर्वप्रक्रान्तपरत्वेन माध्य एव तादृभि तस्मादित्यस्याबयोभवितेत्यत-पार, 'वहनाचेति, 'विशेष्येति साध्यस्येव व्याया
Page #765
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामो
नियमः तस्मादनित्य इत्यभिधाने विशिष्य सिद्धतावगम्यते पूर्व साध्यतयोक्तस्य समर्थहेतुसम्बन्धेन पुनरुत्कीर्तनात् अन्यथा तईयात्। संशय-प्रयोजनादयत्ववयवलक्षणभावादेव नावयवाः किन्तु न्यायाङ्ग. देरपि प्रक्रान्तत्वेन तत्रापि तस्मादित्यस्यान्वयप्रसङ्गादित्यर्थः । ननु व्याप्यादौ लिङ्गज्ञाप्यत्वस्य बाधादेव तत्र तस्मादित्यस्यान्वयो न भविष्यतीत्यत पार, 'वादिवाक्ये चेति, 'चः' अप्यर्थे, तथाच वादिवाक्ये योग्यतयान्वयेऽप्यतिप्रसङ्गात् पूर्वप्रक्रान्ते व्याप्तिघटकप्रतियोगिलादौ तस्मादित्यस्यान्वयप्रमादित्यर्थः, प्रतियोगित्वादेरपि लिङ्गजाप्यत्वसम्भवादिति भावः । यद्यपि पूर्वोपस्थितं माध्यमेव विशेषतस्तथाशब्देन परामृष्टमित्युक्तौ न कश्चिद्दोषः, तथापि सादृश्यादिशकस्य तस्य वशित्वादिप्रकारेण बोधकतायामाधुनिकशक्षणापत्रैष प्रकारोयुक्त इति थेयं । मनु तथाशब्दस्येव तच्छब्दस्यापि पूर्वोपस्थितयावदस्तपरामर्थकत्वसम्भवेन तस्मादित्यतोऽपि कुतः माधनज्ञाप्यत्वस्यैवावगतिरित्यत आह, 'तस्मादित्यत्रेति, बमतेऽपि उपस्थितपक्षादिज्ञाप्यत्वस्य प्रकृतमाथे बाधादेव तत्रोपस्थितलिङ्गमात्रपरामर्थकत्वं तत्पदस्थेति भावः । ननु तथाशब्दात बुद्धिस्थत्वेन साध्यस्योपस्थितौ तत्र विशिष्ट हेतुज्ञाप्यत्वस्यान्वये कोदोष इत्यत आह, 'तस्मादनित्य इत्यभिधाने चेति, 'च:' हेती, 'विभिव्य' माध्यतावच्छेदकरूपेण, ‘मिद्धता' हेवनाकाङ्गितत्वं, अवगोः प्रकारमाह, 'पूर्वमिति, ‘समर्थः' व्याप्ति-पक्षधर्मताविशिष्टो
Page #766
--------------------------------------------------------------------------
________________
पवयवः।
तयोपयुज्यन्त इति नाधिक्यं, कण्टकोडारस्य च न सार्वविकत्वं समयविशेषोपयोगित्वादिति। '.
इति श्रीमहङ्गशोपाध्यायविरचिते तत्वचिन्तामणौ अनुमानाख्य-दितीयखण्डे अवयवनिरूपणं ।
हेतुः तज्ज्ञाप्यत्वेनेत्यर्थः, तथाच वझिहत्वनाकाङ्गितः स्वव्यायादिविशिष्टधूमज्ञाप्यत्वात्तादृशज्ञाप्यतयोपस्थितत्वावेत्यादिक्रमेण वहित्वाधवच्छिवस्य सिद्धभाव इत्यर्थमेव बुद्धिस्थत्वेन माध्यस्य परामशकत्वं तथाशब्दस्थ नोचितमिति भावः । अथ मास्तु सिद्धत्वस्य वेभियानवगमः ततः किमत प्राइ, 'अन्यथेति तस्य निगमनस्य यादित्यर्थः। ननु माध्यसंशयप्रयोजनहत्वाकाङ्गादौनामपि अवयवत्वात् तेषामपि विभागोयुक्त इत्यवयवानां पञ्चताभिधानमसङ्गतमत श्राइ, 'संशयेति, ‘प्रयोजन' तत्त्वनिर्णयः, 'लक्षणेति, वाक्यत्वगर्भस्यावयनत्वस्य तचासत्त्वादिति भावः । 'उपयुज्यन्त इति प्रयोजनस्थापि खगोचरेछादारैव न्यायोपयोगित्वं, तत्त्ववुभुत्सवात्र प्रयोजनपदार्थः, 'कण्टकोद्धारस्येति को वद्धिमान् कुतो धूमान कथमस्य गमकत्वमित्यादिप्रश्नव्यचककिम्पदस्तोमस्येत्यर्थः । ..
इति श्रीमथुरानाथतर्कवागौणविरचिते तत्त्वचिन्तामणिरहस्ये अनुमानाख्य-द्वितीयखण्डरहस्ये अवयवरहस्यं ।
96
Page #767
--------------------------------------------------------------------------
________________
अथ हेत्वाभासनिरूपणं।
अथ हेत्वाभासास्तत्वनिर्णय-विजयप्रयोजकत्वान्निरूप्यन्ते।
अथ हेत्वाभामरहस्यं । न्याय-तदवयवान् निरूप्य प्रसङ्गसङ्गत्या हेत्वाभास(९) निरूपयितुं शिष्याबधानाय प्रतिजानौते,(२) 'अथेति न्याय-तदवयवयोनिरूप
(१) प्याप्ति-पक्षधमताविरहविशिटहेतुमित्यर्थः । (२) पत्र वर्तमानकालाव्यवहितोत्तरकालकर्त्तव्यत्वप्रकारकबोधानुकूलव्यापारः प्रतिज्ञापदार्थः, “अथ हेत्वाभासास्तत्त्वनिर्णय-विजयप्रयोगकत्वा मिरुप्यन्ते" इति मूलमेव प्रतिज्ञा तत्र निरूप्यन्त इत्यत्र वर्तमानसामी प्यार्थकलट्प्रत्ययस्य वर्तमानकालाव्यवहितोत्तरकालीनत्वमर्थः, तस्य च निरूपणपदार्थोऽन्वयः, तथाच वर्तमानाकालाव्यवहितोत्तरकालीनं तत्त्वनिर्णय-विजयप्रयोजकत्वज्ञानजन्य जिज्ञासाधीनं यनिरूपणं तद्दिषयतावन्तः हेत्वाभासाः इति समुदितवाक्यअन्यशाब्दबोधः, तत्त्वनिर्णय-विजयप्रयोजकत्वादिन्यत्र तज्ज्ञानजन्यजिज्ञासाधीनत्वं पञ्चम्पर्थः, निरूप्यन्त इत्यत्र कर्मवाच्यलट्प्रत्ययस्य विषयत्वरूपं कर्मत्वमर्थः, शिष्यसमवेत ज्ञानानु. कूलव्यापारोधात्वर्थः, शिष्यसमवेतज्ञान विषयतापन्नेषु हेत्वाभासेषु याचितमण्डनन्यायेन तादृशज्ञानानुकूलव्यापारविषयतान्वयः । केषाञ्चित् छन्तेवासिना के हेत्वाभासा इति जिज्ञासया केषाञ्चिच्च के तत्त्वनिर्णय विजयप्रयोगका इति जिज्ञासया हेत्वाभासनिरूपणात् हेत्वाभासत्वरूपप्रसङ्गस्य तत्त्वनिर्णय-विजयरूयैककार्यकारित्वरूपैककार्यानुकूलत्वस्य च अनन्तराभिधानप्रयोजकजिज्ञासाजनकज्ञानविषयत्वात् अब सङ्गतित्वमिति विभावनौयं ।
Page #768
--------------------------------------------------------------------------
________________
हेवाभासाः।
तवानुमितिकारणीभूतभावप्रतियोगियथार्थवानविषयत्वं, यहिषयत्वेन लिङ्गमानस्यानुमितिप्रतिबन्ध
णानन्तरमित्यर्थः, ‘हेत्वाभासाः' आभासौभूता हेतवो दुष्ट हेतवइति यावत्, हेत्वदाभासन्त इति व्युत्पत्तेः, न तु हेतोराभामादोषविशेषाः 'ते चेत्यादिना हेतुविभागानुपपत्तेः । निरूपणप्रयोजनं दर्शयति, 'तत्त्वनिर्णयेति, अवास्तवकोटिनिचायकहेतौ दुष्टत्वज्ञाने वास्तवकोटिनिश्चयो भवतीति तत्त्वनिर्णयप्रयोजकत्वमिति भावः । स्वार्थ-वादयोरक्का जल्प-वितण्डयोराह,(९) “विजयेति, तदिदंर) उद्भावनद्वारा, परोक्तहेतौ दुष्टत्वोद्भावने तस्य निग्रहादिति भावः । एवञ्च तत्त्वनिर्णयादिलक्षणेककार्यानुकूलत्वमपि प्रकृते मङ्गतिः सम्भवति, यथा हि खोयसन्यायप्रयोगे तत्त्वनिर्णयोविजयश्च तथा परकीयहेतौ दुष्टत्वोभावनेऽपि तत्त्वनिर्णयोविजयश्चेति बोध्यं । हेत्वाभासरूपदोषवत्त्वं दुष्टत्वमिति दुष्टहेतुलक्षणं स्फुटमेवेति तदुपेक्ष्य तद्घटकमेव दोषं लक्षयति, 'तत्रेति, 'तत्र' निरूपणे, इदं हेवाभामत्वं हेतुदोषत्वमित्यन्वयि,
(१) खमतव्यवस्थापनं खार्थः, तत्त्वबुभुत्मोः कथा वादः, वालवकोटिकनिश्चयपूर्वकपरमसनिराकरणं जल्पः, परमतनिराकरणमत्रं वितहा बतरवोक्तं ।
"खपक्षस्थापनाहीना विजिगीषोः कथा तु या।
सा वितण्डेति विज्ञेया वादिनिग्रहकारियो" इति । (२) तस्य विजयप्रयोजकत्वमर्थः ।
Page #769
--------------------------------------------------------------------------
________________
লব্বিানী
कावं जायमानं सदनुमितिप्रतिबन्धकं यत् तत्वं वा हेत्वाभासलं। दशाविशेषे हेत्वारेवासाधारण-सत्य
विषयलं सप्तम्यर्थः, 'अनुमितौति अनुमितिप्रतिबन्धकयथार्थज्ञामविषयवमित्यर्थः, भवति च माध्याभाववान् पक्षः साध्याभावयाप्यवान् पक्ष इति ज्ञाने चानुमितिप्रतिबन्ध इति माध्याभाववत्पतरूपस्य बाधस्य साध्याभावव्याप्यवत्पवरूपस्य मत्प्रतिपक्षस्य हेत्वाभामत्वं, पर्वतो वड्यभाववान् पर्वतो वयभावव्याप्यवान् इति भ्रमादप्यनुमितिप्रतिबन्धात्तविषयत्वमादाय सहेतावतिव्याप्तिवारणाय 'यथार्थति, यथार्थत्वञ्च सर्वांशे भ्रमभिन्नत्व(२) तेनांशिकयथार्थत्वमादाय न तद्दोषतादवस्यर)। न च माध्याभाववत्तिमाधनादिरूपे व्यभिचारादावव्याप्तिः तस्य व्याप्यादिज्ञानाभावेनान्यथामिद्धतथा अनुमित्यप्रतिबन्धकत्वादिति वाच्य। अनुमितिपदस्य । माध्यव्याप्यहेतुमान् पक्षः माधवांश्चेति समूहालम्बनानुमितिपरलादिति भावः।
वेचित्तु दुष्टहेतोरेव इदं लक्षणं । न चैवं बाधितादावव्याप्ति:(२)
(१) भमसामान्यभिन्नत्वमिति ग.। . (२) सामधिकरणत्तित्व-खगिछविधयतानिरूपितत्वोभयसम्बन्धेन ख. विशिकविशेष्यत्वानिरूपकत्वं, ईश्वरक्षागारत्तिविषयतावदन्यत्वं वा भ्रमसामान्यमिन्नत्वं, खमदचात्र साध्याभावादिपरं।
(३) दो वहिमान् धूमादित्वादिस्थले बाधितधूमहेतौ खरूपासिद्धिमादाय बक्षणगमनसम्भवेन उत्पत्तिकालौनो घटोमन्धवान् एथिवीत्वादिबायसाबाधस्यले हेतावव्याप्तिथ्या।
Page #770
--------------------------------------------------------------------------
________________
हेवाभासाः।
तिपक्षयाराभासत्वात्तहुद्देरप्यनुमितिप्रतिबन्धकत्वम् । यद्यपि बाध-सत्यतिपक्षयोः प्रत्यक्ष-शाब्दज्ञानप्रतिबन्धकत्वान्न लिङ्गाभासत्वं तथापि ज्ञायमानस्याभासस्याच लक्षणं।
सन हेत्वन्तर्भावनाप्रतिबन्धकत्वादिति वाच्यं । यथाकथञ्चित समूहालम्बनज्ञानविषयत्वमादायैव(१) तत्र लक्षणसमन्वयात् । न चैवमनुमितिप्रतिबन्धकसमूहालम्बनबाधादिभ्रमविषयत्वमादाय मद्धेतावष्यतिप्रसङ्ग इति वाच्यं । भ्रमभिन्नत्वरूपयथार्थत्वस्य विशेषणत्वेनैव तदाराणत् । न च तथापि हुदो वहिमान् इत्यनुमितिप्रतिबन्धक-धमभिन्न-दोवद्यभाववान् धूमाभाववांथेतिसमूहालम्बनज्ञानविषयत्वमादाय पर्वतो वद्धिमान् धूमादित्यादौ धमादावतिव्याप्तिरिति वायं। अनुमितिपदस्य विशिष्टप्रचतमाध्यव्याप्यप्रकृतहेतुमान् प्रकृतसाध्यवांश्च प्रकृतपक्ष इत्यनुमितिव्यक्तिपरत्वावश्यकत्वात्, तथाच तत्साध्यव्याप्यतद्धेतुमान् तत्माध्यवांश्च तत्पक्षइत्यनुमितिव्यक्तिप्रतिबन्धकभ्रमभिवज्ञानविषयस्तद्धेतः तस्मिन् पचे तस्मिन् माध्ये दुष्ट इति विशिष्य लक्षणस्य पर्यवसन्नतया न कोऽपि दोषः, धूमव्याप्यवहिमान् धूमांश्च पर्वत इत्यनुमितिप्रतिबन्धकव्यभिचारादिज्ञानविषयस्य धूमस्य पर्वते पचे धूमे साध्ये दुष्टत्वाभावात् द्वितीयतद्धेतपदं, प्रतिबन्धकता च ग्राह्याभाव-तड्याप्यादि
(१) वाभावमान् दो धूमञ्च इति समूहालम्बन ज्ञानविषयत्वमादा. येत्यर्थः।
Page #771
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्वचिन्तामणौ
मुद्रया ग्राह्या(१) तेन तादृशानुमितिप्रतिबन्धकसमूहालम्बनसिद्धिविषये सद्धेतौ नातिप्रसङ्ग इति प्राहुः । तदसत् । अस्य दुष्टहेतोलक्षणत्वे दोषाश्रयस्य दुष्टपदार्थत्वाभावात् दुष्टपदस्य पारिभाषिकवापत्तेः । न च पारिभाषिकत्वमिष्टमेवेति वायं । तथासति तत्तद्धेतुत्वं तत्तत्पचे तत्तत्माध्ये दुष्टत्वमित्यस्यैव सम्यक्त्वेन विषयासर्विशेषणवैयापत्तेरिति दिक् ।
नन्विदं व्यभिचारादिघटकसाध्यादावतिव्याप्तं तस्यापि तादृशप्रतिबन्धकव्यभिचारादिज्ञानविषयत्वात् सिद्धेरनुमितिप्रतिबन्धकतया माध्यवत्पचे चातिव्याप्तिः । न च यादृशविशिष्टविषयकलं तादृशानुमितिप्रतिबन्धकतानतिरिक्तवृत्ति तादृशविशिष्टत्वं हेत्वाभासत्वं२) भवति च माध्याभावविशिष्टपक्ष-माध्याभाववत्तित्वविमिष्टमाधनादिविषयकत्वं तथेति वाच्यं । 'यथार्थत्यस्य वैयर्थप्रसङ्गात् । भ्रमविषयविरस्याप्रसिद्धत्वादित्यरुचेर्यथार्थत्वविशेषणं परित्यज्य लक्षणान्तरमाह, 'यविषयत्वेनेति, 'लिङ्गज्ञानस्येत्यत्र लिङ्ग
(९) तथाच दपक्षक-बहिसाध्यक-धूमहेतुकस्थले बहिव्याप्यधूमत्वावच्छिन्नप्रकारतानिरूपितहदत्वावच्छिन्नदिपशेष्यताकत्वे सति वहिवावच्छिম্বিনালিসিনহলাৰচ্ছিন্নৰিঘুনাহ্মালমিনিলিমনিবনালিपितसाध्यवत्त्वनिश्चयत्वानवच्छिन्न प्रतिबन्धकताश्रय ज्ञानविषय त तुम्तस्मिन् पक्षे तस्मिन् साध्ये तस्मिन् इतौ दुध इति रीत्या सर्वत्र विशिष्य लक्षणं वक्तव्यम् ।
(२) अनुमितिप्रतिबन्धकत्वाभाववदिच्छाकालीनसिद्धौ तादृशविषयतासत्त्वात् साध्यवत्यो नातिव्याप्तिरिति भावः ।
Page #772
--------------------------------------------------------------------------
________________
हेत्वभासाः।
मधिवचितं बाधादिज्ञानस्य लिङ्गाविषयकत्वात् व्यर्थत्वाञ्च(५) । 'अनुमितिपदश्च माध्यव्याप्यहेतुमान् पक्षः साध्यवान् इत्यनुमितिपरं, अन्यथोक्तरूपेण व्यभिचारादावव्याप्तिः । तथाच यविषयकत्वेन ज्ञानस्य धूमव्याप्यवहिमान् पर्वतो धूमवान् इत्यनुमितिप्रतिबन्धकत्वं स पर्वतवरूपेण पक्षतायां धमत्वरूपेण माध्यतायां वहिवरूपेण हेतुतायां दोष इति प्रातिखिकरूपेणैव लक्षणं अन्यथा माध्यादेरननुगमेन एकतरोपादानेऽन्यचाव्याप्यापत्तेः पर्वतोवहिमान् धूमादित्यादावपि पर्वतादौ काञ्चनमयत्वाभावादेदोषत्वापत्तेश्चर) तज्ज्ञानस्यापि काञ्चनमयः पर्वतो वहिमान् धूमादित्यनुमितिप्रतिबन्धकत्वात् । नन्विदमपि पक्ष-माध्यादावतिव्याप्तं तस्थाप्यवच्छेदककोटिप्रविष्टत्वात् । न च यत् विषयतासम्बन्धेनानुमितिप्रतिबन्धकतावच्छेदकतायाः पर्याप्यधिकरणं तत्त्वमर्थ इति
(१) ननु ज्ञानां अनाहार्यत्व-निश्चयत्वनिवेशापेक्षया लिङ्गत्वनिवेशे लाघवं लिङ्गाज्ञामं लिङ्गज्ञानमिति व्युत्पत्या लिङ्गज्ञानपदस्य अनुमितिपरत्वात्। न च नैयायिकमते लिङ्गज न्यत्वाप्रसिद्धिः लिङ्गज्ञानस्यैवानुमितिजनकत्वादिति वाच्यं। लिङ्गादित्यत्र पञ्चम्यर्थः प्रयोज्यत्वं तेन लिङ्गप्रयोज्य ज्ञानलाभः तच्चानुमित्यात्मकमेव, प्रयोज्यत्वञ्च वज्ञानजन्यत्वं इति चेत्, न, लिङ्गज्ञानपदेन लिङ्गज्ञानजन्यज्ञानं नोच्यते इत्यनुभवात् लिकत्वमविवक्षितमित्युक्तं । यद्दा लिङ्गज्ञानपदम्यानुमितिपरत्वे यद्दोषविशेघस्यानुमितिः कदाचिदपि न जाता तत्राव्याप्तिः अतः लिएरत्यनिवेशे लाधवमकिञ्चित्करमिति ध्येयम्।
(२) यत्त्व-तत्त्वयोरिव यत्किञ्चित्त्वस्याप्यनुगतत्वमित्यभिप्रायेण यत्किञ्चिस्पक्षक-यत्किञ्चित्माध्यकानुमित्यभिधाने दोघमाह, पर्वतेत्यादि ।
Page #773
--------------------------------------------------------------------------
________________
चिन्तामण
वाच्यं । तथा सति साध्याभाववत्पचादेरप्यदोषलापत्तेः, न हि माध्याभाववत्पचादिविषयक निश्चयत्वेनानुमितिप्रतिबन्धकत्वं विधिस्यानतिरिक्ततया केवलपचादिविषयक ज्ञानादेरपि प्रतिबन्धक - वापत्तेः ।
"
श्रथ यद्विशेय्यक - यत्प्रकारकनिश्चयत्वेनानुमितिप्रतिबन्धकता तद्विशिष्टतत्त्वं दोषत्वं भवति च पचविशेष्यक - साध्याभावप्रकारकनिश्चयत्वेन साधनविशेष्यक - साध्याभाववद्वृत्तित्वप्रकारक निश्चयत्वादिना च प्रतिबन्धकतेति साध्याभाववत्यचः साध्याभावववृत्तिमाधनादिदोषति चेत् । न । प्रतिबन्धकता हि न पचविशेष्यकसाध्याभावप्रकारकनिश्चयत्वेन प्रमेयवान् पच इति ज्ञानेऽपि प्रतिबन्धापत्तेः, न वा साध्याभावत्वरूपेण साध्याभावप्रकारकनिश्चयत्वेन पचे साध्यप्रतियोगिकत्वेन घटाभावाद्यवगाहिभ्रमस्य साध्याभाववरूपेण घटाद्यवगाहिभ्रमस्य चाप्रतिबन्धकत्वापत्तेः किन्तु श्रभावत्वरूपेण यत्किञ्चिद्वस्तुनि साध्यप्रकारकः पचे चाभावत्वरूपेण यत्किञ्चिद्वस्तुप्रकारकोयोनिश्चयः तत्त्वेन तथात्वं । न चैवमपि साध्याभाववान् श्रभाववच पच दूति समूहालम्बन ज्ञानादपि विलक्षणविषयताकतादृशनिश्चयप्रतिबन्धापत्तिरिति वाच्यं । त्वेन(१) प्रतिबन्धकत्वादिति । श्राङ: यद्विषयत्वेनेत्यचानतिरिक्तवृत्तित्वाख्यमवच्छेदकत्वं तृतीयार्थे न तु स्वरूपसम्बन्धविशेषः, पचसाध्यादिविषयत्वञ्च न तथेति नातिप्रसङ्गः, साध्याभावविशिष्टपच्चा
(१) पुरस्पर निरूप्य निरूपकभावापद्मविषयताप्रालि निश्चयत्वेने त्यर्थः ।
Page #774
--------------------------------------------------------------------------
________________
हेवामासान
दिविषयकत्वन्तु तथेति तेषां दोषत्वं । अथ तथापि इदविकव्यकत्वावच्छिन्नवयभावत्वविशिष्टवयभावनिरूपितप्रकारिताव्यतः वजयभावप्रकारकत्वावच्छिन्नह्रदयविशिष्ट हुदनिरूपितविस्थिताव्यलेख
दोवकिमान् इत्यनुमितिप्रतिबन्धकतानतिरिकवृत्तितया केवल। वयभावत्वविशिष्टवाभावे केवल दत्वविशिष्ट दे चातिव्याप्ति
दुचीरा । न च केवलवङ्ग्यभावादिलक्ष्य एव, तन्माचे हेत्वाभासव्यवहाराभावेन माथाभाववत्यक्षादेरेव तथानातं तन्माचस्य दोषले पर्वतो वहिमान् धूमादित्यादरपि दुष्टत्वापत्तेः येन, केनचित सम्बन्धेन दोषवत एव दुष्टत्वादिति चेत् । न । यद्विषयितासामान्य तादृशानुमितिप्रतिबन्धकतानतिरिक्रति तत्त्वस्य विवचितत्वात केवलवङ्ग्यभावत्वविशिष्टवयभावादिविषयितामामान्यन्तु न तथा तद्दिषयत्वस्य वहिर्नास्तीत्युकृङ्खलज्ञानेऽपि मत्त्वात् । न चैवं विशिष्टस्थानतिरिक्ततया केवलादादिविषयक ज्ञाने प्रमेयवान् प्रमेयमित्यादिज्ञाने र वद्य भावादिविशिष्टङ्गदादिविषयकत्वमवादसम्भव इति वाच्यं । यदिषयित्वपदस्य यादृविशिष्टविषयित्वपरत्वात्, विभिष्टविषयित्वञ्च विशिष्टनिरूपितं विषयित्वं तस्य प विलक्षणस्य वयभाववाम् इद इत्यादिप्रमात्मकज्ञान एव सत्त्वेन केवलहूदादिविषयकवाने प्रभावात्(१) अतएव सिद्धिविषयीभूत
(१) एकत्र मिति रौत्या दत्वं वाभावश्चावगाहमानं वाभाववद अदविषयकं यत् ज्ञानं तम विलक्षणविषयताकं धभावत्वावच्छिन्नानयो. गिताकत्वविशिष्ठप्रतियोगित्वसंसगावच्छिन्न-वहित्वावच्छिन्नवहिनिष्ठावच्छेदबातानिरूपितं यत् इदत्वावच्छिन्नानुयोगिताकत्वविशिष्टखरूपसम्बन्धाक
97
Page #775
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामगै
साध्यवत्पक्षेऽपि नातियाप्तिः यविषयकवस्थ सिषाधयिषाकालीनमाध्यनिययेऽपि सत्त्वेन प्रतिबन्धकतातिरिकवृत्तित्वात्, तड्यावृत्तप्रतिबन्धकताया विवक्षणादा(१) यादृप्रविशिष्टविषयित्वञ्चान्यायवृत्तिबजानानास्कन्दिताग्रहीताप्रामाण्यकनिश्चयनिष्ठत्वेन विशेषणीयं तेन तस्वेच्छादौ संशयेऽव्याप्यत्तित्वज्ञानास्कन्दितनिश्चये ग्टहौताप्रामायकनिश्चये च . सत्त्वेऽपि नासम्भवः । न चैवं वृक्षः संयोगी द्रयवादित्याद्यव्याप्यवृत्तिमायके संयोगाभावववृक्षादावतिव्याप्तिः अव्याप्यनित्वग्रहानास्कन्दिताग्टहीताप्रामाण्यकनिश्चयनिष्ठतादृशविशिष्टविषयित्वस्याप्यनुमितिप्रतिबन्धकतानतिरिकवृत्तित्वादिति वाथम् । तस्य बाधस्वरूपत्वेन लक्ष्यत्वात् “बाधेऽपक्षधर्माहेतरनेकान्तिको वा” इति प्रवादस्य व्याप्यत्तिमाध्यकबाधपरत्वात् । न च तस्य बाधत्वे मद्धेतोरपि तस्य बाधितत्वापत्तिरिति वाचं। हेलाभासविभाजकतावच्छेदकस्य बाधितत्वस्य तवेष्टत्वात् बाधितत्वव्यवहारनियामके तु निरवच्छिन्नाऽधिकरणतासम्बन्धेन
छिनाभावत्वावच्छिन्नाभावनिछावच्छेदकत्वं तादृशावच्छेदकतानिरूपकतार्क सत् ऋदत्वनिछावच्छेदकताकं यदिघयित्वं तदेव विलक्षणं तस्य च धनुमितिप्रतिबन्धकतानतिरिक्तवृत्तित्वात् न कुत्रापि दोषः।
(१) यादशपक्षे याद्वसाध्यस्य सिद्धिकाले सिपाधयिषा कस्यापि न গান। নায়লা নাইমুগ্ৰ বিৰিৰিষনিদিষযায় নাप्रतिबन्धकताविवक्षणं, प्रतिबन्धकतायां वाटावच साध्यतावच्छेदकाव. छिनप्रकारतानिरूपित-पक्षतावच्छेदकावच्छिन्न विशेष्यताकनिश्चयत्वानच्छिमत्वमिति।
Page #776
--------------------------------------------------------------------------
________________
हेत्वाभासाः ।
म
साध्याभाववत्वस्य घटकत्वात् । न चैवं वृचः संयोगो द्रव्यलादित्यादावेव बाधस्य स्वरूपासिद्धि-व्यभिचारासङ्कीर्णोदाहरणतया किं तस्य उदाहरणान्तरगवेषणयेति (९) वात्र्यं । श्रशोकवनिकान्यायात् (९) अतिस्फुटतया ग्रन्थकर्त्तुरुपेचणात् । अथैवं प्रमेयत्वादिविशिष्टवद्ध्यभाववद्दाद्यात्मकस्य विशिष्टस्यापि दोषत्वापत्तिः तद्विषयित्वस्यापि प्रतिबन्धकतानतिरिक्तवृत्तित्वात् । च तादृशविशिष्टान्तराघटितत्वेन यादृशविशिष्टं विशेषणीयं उक्तविशिष्टन्तु न तथा तस्य तादृशविशिष्टान्तरेण ववभाववद्दादिना घटितत्वादिति वाच्यं । प्रमेयत्वं श्रवृत्ति प्रमेयत्वादित्यादाववृत्तित्वाभाववद्वृत्तिप्रमेयत्वादिरूपे व्यभिचारेऽव्याप्तिः तस्य वृत्तिप्रमेयत्वरूपबाधघटितत्वादिति चेत् । न । खानिरूपित विशिष्ट विशेष्यकत्वानवच्छेद्यत्वेन प्रतिबन्धकताविशेषणत् स्वपदं लच्यत्वाभिमतविशिष्टपरं प्रमेयत्वादिविशिष्टवाभाववद्दात्मकविशिष्टन्तु न तथा तद्विषयकत्वावच्छिन्न प्रतिबन्धकतायाः खानिरूपितेन केवलवाभावव दुष्ह द विशेष्यकत्वेनाप्यवच्छिखत्वात् स्वानिरूपित विशिष्टविशेष्यकत्वानवच्छिन्नत्वञ्च स्वानिरूपित विशिष्टविशेष्यकत्वानतिरिक्तवृत्तिकप्रतिबन्धकताभिन्नत्वं (२) । न चैवं प्रतियोगिव्यधिकरणत्ववि
ܘ
(१) बाधग्रन्थे गन्धप्रागभावकालीन घटोगन्धवान् एथिवीत्वादित्युदाहरयान्वेषणेनेति भावः ।
(२) यथा वनान्तरं परित्यज्य अशोकवने सौतायाः स्थापने क्षत्यभावः तथेहापीति भावः ।
(३) ननु स्वानिरूपित विशिष्ट विषयकत्वसामान्यं यत्प्रतिबन्धकतावच्छे
Page #777
--------------------------------------------------------------------------
________________
obe
तत्त्वचिन्तामणी
दकं वदन्यत्वमेव वक्तव्यं किमनतिरिक्तवत्तित्वनिवेशेन तावतेव बाधादौ लक्षणसम्भवात् मेयत्वविशिवाधादिवारणसम्भवाचेति चेत् । न । दोबडिमान् जलादित्यादावसाधारण्येऽव्याप्तेः बङ्गिव्यापकोभूताभावप्रतियोगिजलरूपासाधारण्यानिरूपित-जलवङ्गदरूपविशिष्टवियित्वसामान्यस्य असाधारण्यविषयकत्वावच्छिन्न प्रतिबन्धकतावच्छेदकत्वात् नत्यतिबन्धकताभिन्नत्वस्थ बसाधारण्यविषयक ज्ञान प्रतिबन्धकतायामसत्त्वात् । अचानतिरित्तित्वनिवेशेऽपि तद्दोषवादवस्या बसाधारण्य ज्ञानप्रतिबन्धकतायां खानिरूपितं यत् तादृशनलकालौनजनवादविषयकावं तदनतिरिक्तवृत्तित्वादिति चेत् । न । खानिरूपितविशिविषयकत्वे असाधारस्यविपयितान्यत्व-ज्ञानवैशिट्यावच्छिन्न प्रतिबन्धकतावच्छेदकत्वोभयाभावस्य वि. वक्षितत्वात् तादृशजलकालीनजलवादविषयकत्वस्य तादृशोभयवत्त्वात् मासाधारण्याव्याप्तिरिति भावः। न चैवमनतिरिक्तवत्तित्वनिवेशनमफखं मेयत्वविशिष्ठबाधादावतिव्याप्तिश्च तत्र खानिरूपितवाभावदादादि. विषयकत्वस्य तादृशोभयवत्त्वात् धभाववान् वयभाववान् धभाववान् कद. इत्याकारकज्ञानीय-ज्ञानवैशिष्ट्यावच्छिन्न प्रतिबन्धकतायाः अभाववदहदत्वावच्छिन्नविषयतात्वेनावच्छेदकत्वात् असाधारण्यविषयित्वस्य तादृशोभयाभाववत्त्वेन तत्प्रतिबन्धकतान्यत्वस्य तत्प्रतिबन्धकतायां सच्चादिति वाच्यम् । खानिरूपित विशिष्ट विषयकत्वे असाधारण्यविषयितान्यत्व-असाधारण्यविषयकनिश्चयत्वव्यापकप्रतिबन्धकतानतिरिक्तत्तित्वोभयाभावस्य विवक्षितत्वात् तथाच मेयत्वविशिष्टदोघे नातिव्याप्तिः, एवमसाधारण्यवानप्रतिबन्धकतावच्छेदकीभूततादृशोभयाभाववज्जलवङ्गदविषयकत्वमादाया. साधारण्येऽप्याप्तिवारणाय विशिलान्तराघटिवत्व शरीरेऽनतिरितत्तित्वविशेषणं सार्थकमिति भावः। न च वाव्यापकामावकालीनङ्गदो वलिः मान् गणादित्यादौ मेयत्वविशिवशिव्यापकामावेऽविस्थाप्तिः तत्प्रतिबन्धक त्वस्य नियतासाधारण्यक्षाने सत्त्वादिति वाच्यम् । पसाधारण्यविषयकনিলাম নিলনায় মানবিচ্ছিন্ন লিৰয়লীলা।
Page #778
--------------------------------------------------------------------------
________________
हेवामासाः।
शिष्टसाध्याभाववत्यक्षरूपे बाधे) अव्याप्तिः तविषयकत्वावच्छिषप्रतिबन्धकतायाः खानिरूपितेन केवलमाध्याभाववत्पविशेष्यकत्वेनाप्यवधिवत्वादिति वाच्यं । केवलसाध्याभाववत्पक्षस्यैव बाधतया तस्याबाधत्वात् अयं वृक्षः कपिसंयोगौ तत्त्वादित्यादावपि बाधस्येष्टत्वात्। न च तथाप्यनुमितिपदस्थ यथोकसमूहालम्बनानुमितिपरतथा निर्वहिः पर्वतो वहिमान् वहिव्यभिवारिधर्मादित्यादौ न कोऽप्याभासः स्यात्तत्र यथोक्कममूहालम्बनानुमितेरप्रमिद्धेरिति वाच्यं । निर्वशिर्वहिमान् इत्यादिवनिर्वणिः पर्वतो वहिमान् वशिव्यभिचारिधर्मादित्यादेरप्यपार्थकतया २) तत्र हेत्वाभासविरहेऽपि पतिविरहात् । यहा प्रकृतपक्षतावच्छेदकरूपेण प्रकृतपचे प्रकृतमाध्यतावच्छेदकरूपेण प्रकृतमाध्यवैशिघ्यावगाहिनी मती प्रकृतसाध्यताव
न च घटवठ्ठदो वहिमान् जलादित्यादौ घटाभावववडिव्यापकामावप्रतियोगिजलवद्हदकालो नत्ववदेऽतिव्याप्तिस्तत्प्रतिबन्धकत्वस्य ज्ञानवैशिघ्यावच्छिमत्वात् नियतासाधारण्यज्ञाने सत्त्वाच इति वाच्यम् । पसाधारण्यविषयितान्यत्वपदेनासाधारण्यघटितनिरूपितान्यत्वस्य विवक्षितत्वात् । न च प्रतिहेतुव्यापकसाध्याभावसमानाधिकरणप्रति हेतुमत्पक्षात्मकसत्प्रतिपक्षेऽष्याप्तिः तविषयकत्वावच्छिन्न प्रतिबन्धकतायां खानि. रूपितप्रति हेतुव्यापकसाध्याभावकाशोनप्रतिहेतुमत्पक्षविषयित्वावच्छिमत्वादिति वाच्यं । साध्यवदवृत्तिमत्पक्षस्यैव सत्यतिपक्षत्वेन वस्यालक्ष्यत्वादिति परैरपरिशौलितः पश्याः। (१) गुणः संयोगवान् गुणत्वादित्यादिस्थनीयबाधे इत्यर्थः ।। (२) शाब्दबोधगकोभूताकाङ्क्षा योग्यताविरहविशिष्वाक्यमपार्थवमिति ।
Page #779
--------------------------------------------------------------------------
________________
ववचिन्तामणी
छेदकरूपेण प्रवतमाध्यनिरूपितच्याप्तिप्रकारेण प्रकृतहेतुतावच्छेदकरूपेण प्रकृतु हेतुवैशिष्यावगाहिनौ या बुद्धिः सा यत्र यदवगाहते तत्र तवैशिष्यावृगाहि यज्ज्ञानं तत्प्रतिबन्धकतानतिरिक्तवृत्ति यादृशविभिष्टनिरूपितविषयितासामान्यं तादृशविशिष्टत्वं हेतुदोषत्वमिति विवक्षणीयं । इत्थञ्च वहाभाववत्पर्वतादेरेव तत्र दोषत्वं तद्दिषयकनिश्चयमात्रस्यैव निर्वह्निः पर्वतो वहिमानित्यादिज्ञानं यत्र यदवगाहते तत्र तदवगाहिनः केवलपर्वतो वहिमानित्यनाहार्यज्ञानस्य प्रतिबन्धकत्वात् । न च तादृशबुद्धेरेव उकस्थलेऽप्रसिद्धिरिति वाच्यं । श्राहार्यरूपस्य तस्य सम्भवात् । न चैवं पर्वतो वहिमान् इत्यादौ काञ्चनमयत्वाभाववत्पर्वतादेरपि दोषत्वं स्यात् तद्विषयकनिश्चयस्य पर्वतो वहिमानित्यादिज्ञानं यत्र यदवगाहते तत्र तदवगाहिनः काञ्चनमयः पर्वतो वह्निमानित्यादिज्ञानस्य प्रतिबन्धकत्वादिति वाच्यं । तत्र तदवगाहित्वां प्रतिबन्धकताया विवक्षितत्वादिति(१) संक्षेपः। इदन्तु चिन्त्यं यत्र क्षेत्रविशेषादौ यदरविशेषस्य ज्ञानं कस्थापि न जातं तत्र क्षेत्रविशेषादौ प्रमेयत्वादिना तदङ्करविशेषादौ माध्ये न कोऽप्याभामः स्थात् तत्र तादृशबुद्धेरप्रसिद्धेः । न च तत्राभासोनेष्ट एव, व्यवहारादेरविशेषेणनिच्छायाः स्वातन्त्र्यमात्रत्वात्। किञ्च यदङ्करविणे- . घस्य ववभाववत्पर्वतादिविषयक एव निश्चयोजातः न तु कदा
| (৫) নাচ্ছিন্নভিনলিমিন-
নবিচ্ছিন্নমস্কালাচ্ছি अप्रतिवध्यतानिरूपित प्रतिबन्धकताया विवक्षितत्वादित्यर्थः ।
Page #780
--------------------------------------------------------------------------
________________
हेवामाताः।
चिदपि तदविषयस्तनिश्चयः तदङ्करविशेषस्य पर्वतो वहिमानित्यादौ दोषत्वापत्तेरिति दिक्।
इदमत्रावधेयं बाधादिविषयितानियतवियिताके तदकरादिव्यक्तिविशेषे यथाविवक्षितलक्षणस्य नातिप्रसङ्गशङ्कापि तादृशजाननिष्ठतथाविधानुमितिप्रतिबन्धकतायां बाधादिविषयकन्वरूपेण विशिष्टविषयकत्वान्तरेणावच्छिन्नत्वात् मेयत्वविशिष्टबाधादावतिप्रसङ्गवारणाय ग्रन्थकतैव पूर्वं विशिष्टविषयकत्वान्तरानवच्छेद्यस्वेन प्रतिबन्धकताया विशेषितत्वात् । न च तादृशज्ञाननि बाधादिविषयिता तदङ्कुरादिविषयिता चैकेवेति वनुशक्यते, निरूपकभेदेन विषयिताभेदस्य सिद्धान्तसिद्धत्वात् । न च पर्वतो वहिमान् धूमादित्यादिमखेतावेव बाधादिभ्रममात्रविषयोभूताङ्कुरादिविशेषे विवक्षितलक्षणस्थाप्यतियाप्तिरिति शङ्कनौयं, तदनुरादिविशेषस्यान्ततो भगवज्ञानादिविषयता तथाविधभ्रमविषयमात्रविषयत्वासभवात् । न च तथापि बाधादिभ्रम-नित्यजानोभयमाचविषये व्यक्तिविशेषेऽतिव्याप्तिरिति वाच्यं । तादृशव्यक्तिविषयिताया नित्यजानेऽपि सत्त्वेन तत्र तदनुमितिप्रतिबन्धकताविरहात् । न च मिद्धिविधया तत्रापि तदमुमितिप्रतिबन्धकत्वं, नित्यज्ञाने सिषाधयिषाविरहवैशिष्यविरहेण सिद्धिप्रतिबन्धकत्वस्यापि तत्रासम्भवात्। न च यत्र तदङ्कुरो वहाभाववानित्येव बाधज्ञानं तत्र तादृशबाधज्ञानमारविषये तदङ्कुरत्वविशिष्टेऽतिव्याप्तिरिति वाच्यं । तत्र प्रवतपक्षे माध्यवैशिष्यावगाहिज्ञानाप्रसिद्ध्यातिव्याप्यनवकाशात् । भए यत्र तदङ्कुरो वहिमानित्यनुमिनिरपि प्रमिद्धा नचैवा
Page #781
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामणी
तिव्याप्तिरिति वाच्यं । तच तद्विषयकत्वस्य तादृशानुमितावपि सत्त्वेन तत्र ' तादृशानुमितिप्रतिबन्धकत्वविरहात् सिद्धिविधया प्रतिबन्धकत्वस्थापि प्रागुत्तरवर्त्तिमिषाधयिषाकज्ञानेऽभावात् । यदि च नैतादृशं सिषाधयिषासमवहितं तज्ज्ञानं कदापि जातमित्युचते, तदा तु मिद्धिविशेषविषयेऽतिप्रमङ्गवारणाय सिद्धिविधया प्रतिबन्धकतातिरिक्तप्रतिबन्धकतैव लक्षणे निवेशनीया तथाच कुतोऽयमतिप्रसङ्ग इति दिक् ।
यत्तु यत्र बाधादिविषयतानियतविषयिताकोऽङ्कुरादिव्यक्तिविशेषस्तत्र बाधादावव्याप्तिस्तत्र तदनुमितिप्रतिबन्धकताया अडरादिव्यक्तिविशेषविषयत्वरूपेण विशिष्टविषयकत्वान्तरेणाव छेद्यत्वात् रति, तब, विशिष्टविषयकत्वान्तरानवच्छेद्येत्यत्र स्वरूपसम्बन्धरूपावच्छेद्यत्वस्यैव विशेषणीयत्वात् । वस्तुतो वहाभाववद्दवत्प्रमेयत्वविषयित्वावच्छेद्यतया असम्भववारणय स्वघटितानिरूपितविशिटविशेष्यकत्वानवच्छेद्यत्वं विवक्षणीयं, स्वघटितत्वञ्च स्वाविषयकप्रतीत्यविषयत्वं, तथाच तदकुरादेाधादिघटिततया बाधादेः स्वघटितानिरूपितविभिष्टविशेष्यकत्वानवच्छेद्यप्रतिबन्धकतानतिरिक्तवृत्तिवादन्यमवृत्तित्वरूपावच्छेद्यत्वनिवेशेऽपि न क्षतिरिति मन्तव्यं(१) । ' यन्मते ज्ञायमानलिङ्गस्य करणत्ववत् ज्ञायमानव्यभिचारादेरपि प्रतिबधकत्वं तन्मते लक्षणमाइ, 'ज्ञायमानमिति, अत्रापि 'अनुमितिपदं प्रकृतपत्तावच्छेदकरूपेण प्रकृतपचे प्रकृतमाध्यतावच्छे
(१) इदमत्राधेयमित्यादिः इति मन्तव्यमित्यन्तः क-चिह्नितपुस्तकीयजोडपस्थितः पाठः ग घ -चिहितादर्शपुस्तकेषु नास्ति ।
Page #782
--------------------------------------------------------------------------
________________
हेत्वाभासा।
यहा प्रत्यक्षादौ बाधेन न ज्ञान प्रतिबध्यते कि नूत्पन्नज्ञानेऽप्रामाण्यं चाप्यते अनुमिता 'तूत्यत्तिरेव
दकरूपेण प्रकृतसाध्यावगाहिनौ मती प्रकृतसाध्यतावच्छेदकरूपेण प्रचतमाध्यनिरूपितव्याप्तिप्रकारेण प्रकृतहेतुतावच्छेदकरूपेण प्रकतहेतुवैभियावगाहिनी या बुद्धिस्तत्परं, तेन व्यभिचारादेरनुमित्यप्रतिबन्धकत्वेऽपि() नाव्याप्तिः, प्रतिबन्धकत्वञ्च तादृशौ बुद्धिर्यत्र यदवगाहते तत्र तदवगाहिज्ञानप्रतिबन्धकलं वशव्यं तेन निर्बहिः पवतो वहिमानित्यादौ नोकरीत्या आभामासम्भवः, एवमन्यदप्युक्तदिशावसेयं । अथैतेषु लक्षणेषु प्रज्ञानपक्षतावच्छेदकरूपासियादावव्याप्तिः(२) तत्र तत्र प्रतिबन्धकले ज्ञानानुपयोगात् । न च तदलक्ष्यमेव, एकविंशतिनिग्रहस्थानवहि तस्य तस्य हेत्वाभासमध्येऽप्यनन्तर्भावे निग्रहस्थानलानुपपत्तः, न चानुक्रसमुच्चयपरेण चरमसूत्रस्यचकारेण(२) तस्यापि समुचयान्निग्रहस्थानत्वव्यवस्थितिरिति वायं। तथामति निग्रहस्थानस्य द्वाविंशतिप्रभेदत्वानुपपत्तेरिति चेत् । म। निग्रहस्थानवौपयिकस्य हेत्वाभासत्वस्य पृथगेव निर्वक्ष्यमाणत्वादिह तु हेतुदोषा निरूप्यन्त इति न काप्यनुपपत्तिः, येन केनचित् सम्बन्धेन
(१) साक्षादनुमित्यप्रतिबन्धकन्वेऽपीत्यर्थः । (२) पक्षतावच्छेदकज्ञानाभावरूपासियादावित्यर्थः । (३) “हेत्वाभासाच यथोक्ताः" इति सूत्रस्थित चकारेयत्वर्थः ।
98
Page #783
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामणै
प्रतिबध्यते। ते च सव्यभिचार-विरुद्ध-सत्प्रतिपक्षासिद्धबाधिताः पञ्च।
इति श्रीमहङ्गशोपाध्यायविरचिते तत्वचिन्तामणौ अनुमानाख्य-द्वितीयखण्डे हेत्वाभासे हेत्वाभाससामान्यनिरुक्तिः।
तइत्त्वं तु दुष्टत्वं । न चैवं मद्धेतावतिव्याप्तिः वहभाववदृत्तिजलबादेयेन केनापि सम्बन्धेन धूमादिनिष्ठत्वादिति वाच्यं । तत्पचक-तत्माध्यक-तद्धेतकोयो दोषः येन केनापि सम्बन्धेन तदान म हेतुः तस्मिन् माध्ये तस्मिन् पचे दुष्ट इति विवक्षितत्वादित्यास्तां विस्तरः।
ननु माध्यव्यापकौभूताभावप्रतियोगिहेतुमत्यक्षरूपस्यामाधारपात्वस्य साध्याभावव्याप्यवत्पक्षरूपस्य मत्प्रतिपक्षस्य च धियोऽमुमितिप्रतिबन्धकत्वे मानाभावः ग्राह्याभावाद्यनवगाहित्वात्(९) इत्यत श्राह, ‘दशाविशेष हेवोरेवेति ‘एवकारोभित्रक्रमे असाधारणसत्प्रतिपक्षयोहबोर्दशाविशेष एव सत्प्रतिपञ्चासाधारणत्वेन भानदशायामेव, 'आभासत्वात्' अनुमित्यजनकत्वादित्यर्थः, एवकारेण तदज्ञानदशायान्तु जननादिति सूचितं, तथाचावय-व्यतिरेकान तज्ज्ञानस्य प्रतिबन्धकसमिति भावः । नन्वेतानि लक्षणनि बाध
(१) पक्षतावच्छेदकावच्छिन्ने साध्यामावाद्यनवगाहित्वादित्यर्थः तथाच वयोर्दोषत्वानुपपत्तिरिति भावः।
Page #784
--------------------------------------------------------------------------
________________
हेलामासाः।
980
सत्प्रतिपक्षयोरतिव्याप्तानि अनुमित्यसाधारणदोषस्यैवात्र सध्यवान तयोश्च प्रत्यक्ष-शाब्दज्ञानयोरपि प्रतिबन्धकतया माधारणत्वादिति केषाञ्चिद् दूषणमपाकरोति, 'यद्यपौत्यादिना, 'म लिङ्गाभासत्वं' न लिङ्गामाधारणदोषत्वं नानुमित्यसाधारणदोषत्वमिति यावत्, 'ज्ञायमानस्याभासस्येति विशिष्टबुद्धिमामान्यप्रतिबन्धकज्ञानविषयस्य दोषमात्रस्येत्यर्थः, तथाच तयोरपि लक्ष्यत्वान्नातिव्याप्तिरिति भावः ।
अत्र केचित् भाब्दे बाधज्ञानमात्रं न प्रतिबन्धकं नरगिरःकपालं इचि प्राण्यङ्गत्वात् शङ्खवदित्यनुमानेन “मल-मूत्र-पुरीषास्थि निर्गतं ह्यशचि स्मृतं । नारं स्पृष्ट्वा तु सस्नेहं सचेलोजलमाविशेत्” इतिवेदबाधापत्तेः, किन्तु अनुमित्यन्यबाधज्ञानत्वेन । न चैवं परमाणुरनित्य इति शब्दस्यापि ज्ञानजनकत्वापत्तिः परमाणुनित्यः जन्यमहत्त्वानधिकरणत्वे मति(१) द्रव्यवादित्यनुमितेर
(१) गगने दृष्टान्ततालाभार्थ सत्यन्तदले महत्त्वांशे जन्यत्वविशेषणं, घटाद्यन्तर्भावेन सभिचारवारणाय सत्यन्तं, जन्यगुणादौ व्यभिचारवारणाय विशेष्यदलं, परमाणे जन्यक्रियासत्वात् गन्यानधिकरणत्वे सतीत्युक्तौ खरूपासिद्धिः स्यादतीजन्यमहत्त्वानधिकरणत्वे सतीत्युक्त । न च व्यभिचारावारकविशेषणस्य सार्थकत्वाभावात् कथं दृष्टान्ततालाभार्थं व्यभिचाराद्यवारकस्य महत्त्वां जन्यस्वविशेषणस्य सार्थकत्वमिति वाच्यं । अखण्डाभावघटकतया सार्थकात्वसम्भवात् । न च तथापि साध्याभाववति घणुके तादृशहेतोः कथं नानेकान्तिकत्वमिति वाच्छ । महत्त्वपदस्य परिमाणसामान्यपरत्वात् । अतएव व्यभिचारादिवारकतयैव महत्त्वांशे जन्यत्वविशेषणस्य सार्थकत्वं अन्यथा परमाणे नित्यपरिमाणस्य सत्त्वेन वरूपासियापत्तेः इति।
Page #785
--------------------------------------------------------------------------
________________
सावचिन्तामणे
प्रतिबन्धकलाबाधज्ञानान्तरस्य चाभावादिति वाच्च । अटसौतविशेषेत्यनेनानुमितिविशेषणात् तत्र च प्रामाण्यगर एवानुमितौ विशेष इत्याहुः । तन्त्र, शाब्दबुद्धिवावच्छिन्न प्रति तेन रूपेण पृथक्प्रतिबन्धकालान्तरकल्पने गौरवान्मानाभावाच । न च पोकानुमानादशौचबोधकवेदबाधापत्तिरेव मानं, तत्रानुकूलतीभावेनागमविरोधेन च व्याप्तिनिश्चयस्थानुमितेश्चानुत्पत्तेरनुमित्युत्पत्तौ च प्रतिबन्धकत्वस्येष्ठत्वादिति ।
नन्वनुमाननिरूपणप्रस्तावे प्रमाणसामान्यदोषाभिधानमनुचितमित्यमुनयेनाह, 'यद्देति, 'बाधेनेति परोक्षबाधनिश्चयेनेत्यर्थः, परोक्षमत्प्रतिपक्षेण चेत्यपि बोध्यं, श्रानुमानिकबाध-तड्याप्यवत्तादिशामसत्त्वेऽपि लेकिकविशिष्टमाक्षात्कारोदयात्। न चैतावतापि भाब्दबोधे तत्प्रतिबन्धकत्वमस्येवेति वाच्यं । योग्यताज्ञानेनान्यथासिद्धतया(१) भाब्दबोधं प्रति बाध-तड्याप्यवत्तादिज्ञानमावस्यैवाप्रतिबन्धकलादिति भावः । 'अनुमिताविति, तथाच बाधनिययलादिसामान्यरूपेण प्रतिबन्धकत्वस्थानुमितिं प्रत्येव मत्त्वात्तेन रूपेणमाधारणदोषत्वमत्येवेति भावः। दूदचापाततः लौकिकप्रत्यचनिश्चये प्रानुमानिकबाधादिनिश्चयमामान्यस्याप्रतिबन्धकत्वेऽपि संशयोपनौतभानं प्रति तस्य प्रतिबन्धकतया बाधनिश्चयत्वादिरूपेणाप्यसाधारणत्वविरहात् । न चोपनौतभानं प्रत्यपि बाधनियचत्वादिना न प्रतिबन्धकत्वमपि तु इच्छाविशेषादिविरहविशिवाधनियवादिनैव बाधनिश्शयसत्त्वेऽप्याहा-पनौतभानोदया(१) बाधविरतोयोग्यता इत्यभिमानेनेदमुक्त ।
Page #786
--------------------------------------------------------------------------
________________
हेवाभासा।
दिति वाचं । तथापि मत्युपमिती प्रति बाधनियमादिना बाधनिश्यसामान्यस्यैव प्रतिबन्धकतया साधारण्यविरहादिति ध्येयं ।
असिद्ध-विरुद्ध-मव्यभिचारामध्यवसिताश्चत्वारो हेत्वाभामाः धनध्यवसितोऽसाधारण: न तु बाध-प्रतिरोधौ हेत्वाभासाविति वैगेविकसिद्धान्तस्तविराकरणय खमतसिद्धान् हेत्वाभासान् विभजते, "ते चेति, प्राभामौभता हेतव इति शेषः । 'मयभिचारेति व्यभिचारात्मकेन दोषेण सह वन्त इति व्युत्पत्त्या व्यभिचारौत्यर्थः, व्यभिचारित्वरूपञ्चानुपदमेव विवेचयिष्यते । “विरुद्धेति माध्यासमानाधिकरणोऽतर्विरोधः तादात्मेन तदान हेतविरुद्धः, एतज्ज्ञानञ्च माध्यसामानाधिकरण्यघटितव्याप्तिप्रकारकज्ञाने सामानाधिकरण्यांभे प्रतिबन्धकं उदाहरणन्तु समवायेन माध्य-डेतको गोलवानश्वत्वादित्यादिरिनि मणिकृतः । ___ प्राञ्चस्तु माध्यामामानाधिकरण्यं विरोधः तद्दान् हेलविरुद्धइत्याजः । तदसत् । केवलसाध्यासामानाधिकरण्यरूपविशिष्टनिकपितविषयित्वस्य केवलमाध्यामामानाधिकरण्यविषयकज्ञाने हेस्वकारविशेष्यकतत्प्रकारकज्ञाने च मत्त्वेन प्रकृतहेतुकानुमिति-तत्कारणजानप्रतिबन्धकतातिरिक्तवृत्तितया केवलस्य तस्य हेतदोषत्वासम्भवात्, अतएवाग्रेऽपि सर्वत्र विशेष्यान्तर्भाव इति मन्तव्यं । 'मत्प्रतिपति मत्प्रतिपक्षपदस्य नौलादिपदवद्धर्म-धर्म्युभयवाचकत्वात् सन्मतिपक्षित इत्यर्थः, माध्याभावव्याप्यवान् पक्षः सत्प्रतिपक्षः वृत्तिमचादिवथा-कथञ्चिसम्बन्धेन तद्वान् हेतुः सत्प्रतिपचितः, एतज्ज्ञानमय माधादेवानुमितिविरोधि तदभावनिश्चयवत्तदभावव्याप्यनिययस्थापि
Page #787
--------------------------------------------------------------------------
________________
सावचिन्तामणे
नविष्टिबुद्धिप्रतिबन्धकत्वात् उदाहरणन्तु दोवहिमान् धूमादित्यादिबाधितमानमेव, मद्धेतस्तु कदाचिदपि न सत्प्रतिपक्षितः । बाधितस्तु कदापि नासत्प्रतिपक्षितः इति तु नव्याः।
प्राञ्चस्तु ममानबलप्रकृतपचविशेष्यक-माध्याभावव्याप्यवत्त्वपरामर्शकालौनप्रकृतपक्षविशेष्यक-माध्यव्याप्यवत्त्वपरामर्शः सत्प्रतिपक्षः विषयतासम्बन्धेन तदान हेतुः सत्प्रतिपक्षितः, अयञ्च खरूपसत्रेव साक्षादनुमितिविरोधी, अत एव मद्धेतरपि माध्याभावव्याप्यवत्तापरामर्शकाले सत्प्रतिपक्षितः बाधितोऽपि तदभावदशायां कदाचिदसत्प्रतिपक्षित इत्याहुः । एतन्मते यथोक्तं न दोषलक्षणं किन्न दुष्टलक्षणमेवेति न तत्राव्याप्तिः।
'अमिद्धेति, प्रसिद्धः त्रिविधः स्वरूपासिद्धः श्राश्रयासिद्धोव्याप्यत्वामिद्धश्च तत्र हेत्वभाववान् पक्षः स्वरूपासिद्धिः कलिकादियस्किञ्चित्सम्बन्धेन तद्वान् हेतः स्वरूपामिद्धः एतज्ज्ञानञ्च पक्षधर्मतांगे परामर्थविरोधि उदाहरणन्तु इदोवहिमान् धूमादित्यादि। पक्षविशेषणसिद्धिराश्रयामिद्धिः मा च पचतावच्छेदकाभाववान् पक्षः वृत्तिमत्त्वादियत्किञ्चित्सम्बन्धेन हेतोस्तद्वत्त्वं एतज्ज्ञानञ्च पक्षतावच्छेदकवैभिक्ष्यांचे अनुमिति-परामर्शयोरुभयोरेव विरोधि, उदाहरणन्तु काञ्चनमयः पर्वतोवहिमान् इत्यादि। व्याप्यत्वासिद्धिः त्रिविधा माध्यविशेषणमिद्धिः हेतुविशेषणामिद्धिः व्याप्यभावरूपामिद्धिवं, तत्र माध्यतावच्छेदकाभाववत्माध्यं माध्यविशेषणसिद्धिः मामानाधिकरण्यादियत्किञ्चित्सम्बन्धेन हेतोस्तद्वत्त्वं एतज्ज्ञानच माध्यतावच्छेदकवैशिष्यांशेऽनुमिति-परामर्शयोविरोधि, उदाहर
Page #788
--------------------------------------------------------------------------
________________
हेत्वाभासा।
पन्तु पर्वतः काञ्चनमयवहिमानित्यादि। हेतुतावच्छेदकालविवान् हेतु: हेतुषिशेषणसिद्धिः तादात्म्यसम्बन्धेन हेतोस्तद्वत्त्वं, एतज्ज्ञानं हेतौ हेतुतावच्छेदकवैशिष्यांभे परामर्शविरोधि, उदाहरणन्तु पर्वतो वहिमान् काञ्चनमयधूमादित्यादि । व्याप्यभाववान् हेतु
ाप्यत्वामिद्धिः तादात्म्येन तद्वान् हेतुाप्यत्वामिद्धः, एतज्ञानच हेतौ व्याप्तिज्ञानविरोधि, उदाहरणन्तु व्यभिचारिमात्रमेव । 'बाधितेति माध्याभाववान् पचोबाधः, वृत्तिमत्तादियत्किञ्चित्सम्बन्धेन तदान हेतुः बाधितः, एतज्ज्ञानञ्च साक्षादेवानुमितिविरोधि, उदाहरणन्तु हुदोवहिमान् धूमादित्यादौति संक्षेपतः सामान्यतो दूषकतावीजनिर्णयः, विशेषतस्तु तत्तद्ग्रन्थ एव विवेचयिष्यामइति दिक् ।
इति श्रीमथुरानाथतर्कवागौश-विरचिते तत्त्वचिन्तामणिरहस्ये अनुमानाख्यद्वितीयखण्डरहस्ये हेत्वाभासे हेत्वाभाससामान्यनिरुक्तिरहस्यं ।
Page #789
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ७८४ )
अथ सव्यभिचारः।
सव्यभिचारोऽपि विविधः(१) साधारणासाधारणानुपसंहारिभेदात् तत्र सव्यभिचारः साध्य-तदभावप्रसन्नक इति न चितयसाधारणं लक्षणम् एकस्यो
अथ मव्यभिचाररहस्यं । नवयं विभागोऽनुपपन्नः अमाधारणानुपसंहारिणोरधिकयोरपि सत्त्वादित्यत आह, 'सव्यभिचारोऽपौति, तथाच तावष्यत्रैवान्त ताविति भावः। एतेन सामान्यधर्मप्रकारेण ज्ञातानामेव विशेषतो जिज्ञामोदयात् सामान्यलक्षणानन्तरमेव विशेषविभागोयुक्त इति नियुक्तिकप्रवादोऽपि निरस्तः विभागे तात्पर्याभावादिति भावः ।
(२) सव्यभिचारोऽपि विविधः साधारणासाधारणानुपसंहारिभेदात् इत्यत्र उद्देश्यतावच्छेदकसमनियतवस्तुमदन्यसंख्यावत्त्वं विधप्रत्ययार्थः, तादृशसंख्यावत्वचात्र साधारणत्वासाधारणत्वानुपसंहारिवगतत्रित्वं, एता. दृशत्रित्वस्य खायाश्रयत्वसम्बन्धेनात्र साध्यत्वं सव्यभिचारस्य पक्षवं साधा. रणभेदासाधारणभेदानुपसंहारिभेदान्यतमस्य प्रतियोगित्वसम्बन्धन हेतुत्वं उद्देयतावच्छेदकसमनियतत्वं उद्देश्यतावच्छेदकव्याप्यत्वे सति उद्देश्यताव. छेदकल्यापकत्वं थाप्यत्वं व्यायकत्वन खाश्रयाश्रयत्वसम्बन्धेन, वस्तुमदन्यत्वघटकवत्तमत्वच खरत्तित्व-खसमानाधिकरणखभिन्नत्तियोभयसम्बन्धेन, बस्तुमदन्यखनिवेशात् सामान्यतः साधारणत्वासाधारणत्वानुपसंहारित्वं विशेषतः वत्माधारणत्वादिकचादाय सयभिचारोऽपि चतुर्विधः पञ्चविधी वा इत्यादिको म प्रयोगः।
Page #790
--------------------------------------------------------------------------
________________
सव्यभिचारः ।
५
'माधारणेति माध्य-तदभाववत्तित्वं साधारणत्वं तदान हेत: माधारणः, एतज्ज्ञानञ्च व्याप्तिज्ञानविरोधि, उदाहरणन्तु द्रव्यं सत्वादित्यादि, विरुद्धवारणाय च माध्यवहृत्तित्वदलमिति प्राञ्चः । नव्यास्तु माथाभाववहृत्तिहेतः साधारणत्वं तादात्म्येन तद्वान् इतः साधारणः, माध्यवहृत्तिवभागो नोपादेयः दूषकतायामनुपयोगात्, विरुद्धोऽपि लक्ष्य एव एकस्याज्ञानदशाथामन्यस्य ज्ञानेन व्याप्तिज्ञानप्रतिबन्धात् दयोरेव तुल्यदोषत्वमिति(१) प्राङः । 'अमाधारणेति सर्वसाध्यवयावृत्तहेतुमान् पक्षोऽसाधारणत्वं माध्यव्यापकौभूताभावप्रतियोगिहेतमान् पक्ष इति यावत्, वृत्तिमत्त्वादियकिজ্বিলল নৱান্ ঈশ্বৰঃ, মনৰ্মাল স্বাঘালাৰव्याप्यवत्ताज्ञानविधया साक्षादेवानुमितिविरोधि, माध्याभावाभावस्थ माध्यरूपतया माध्यव्यापकौमृताभावप्रतियोगित्वस्य माध्याभावव्यतिरेकव्याप्तित्वात् मत्प्रतिपक्षेऽन्वय-व्यतिरेकोभयव्याप्तेः प्रवेशो न हेतोरत्र तु हेतुप्रवेशो न त्वन्वयव्याप्तेरिति ततो भेदः। उदाहरणन्तु शब्दोनित्यः शब्दत्वादित्यादि पक्षधर्मविरुद्धमात्रमेव, मद्धेतश्च कदाचिदपि नामाधारण इति मणिकृतः । ___ प्राश्वस्तु हेतुतावच्छेदकसम्बन्धेन सर्वसपक्ष-विपक्षव्यावृत्तत्वममाधारणत्वं तदान हेतुरमाधारण: माध्यवत्तया निश्चितः सपचः तदभाववत्तया निश्चितो विपक्षः, एवञ्च मद्धेतरपि कदाचिदमाधारण:
-..--..
(१) विभाज्ययोः साधारण-विराद्धयोरभेदेऽपि विभाजकयोः साधारशत्व-विरुद्धत्वयोर्भेदात् न विभागव्याघातः, अत एवोक्तं "उपधेयसबारेऽपि उपाधेरसारात्" इतौति तात्पर्य्यम् ।
99
Page #791
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्वचिन्तामो
यदा वनधिकरण एव माध्य-तदभावनिथयो न हेत्वधिकरणे, एतज्ज्ञानञ्च प्रकृतहेतौ परधर्मताज्ञानदशायां तच माध्य-तदभावोभयव्यतिरेकव्याप्तिग्रहजननद्वारा अनुमितिविरोधि पक्षे माध्य- । तदभावोभयव्याप्यवत्ताज्ञाने परस्परविरोधेन इयोरेवानमित्यनुत्पत्तः, उभयव्याप्तियाहकत्वन्तु माध्याभावाभावस्य माध्यरूपतया सर्वसपक्षव्यावृत्तत्वांशज्ञानस्य माध्याभाव-हेलोयतिरेकसहचारज्ञानरूपत्वेन माथाभावव्यतिरेकव्याप्तिग्राहकत्वात्, सर्वविपक्षव्यावृत्तत्वांशज्ञानस्य च माध्य-हेत्वोर्व्यतिरेकसहचारज्ञानरूपत्वेन माध्यव्यतिरेकव्याप्तिग्राहकवाहोछ ।
यदा तादृशोभयव्यावृत्तत्वग्रहस्य माध्य-तदभावोभयव्याप्तिग्रहप्रतिबन्धद्वारा दूषकत्वं विरोध्यनुमितिमामय्या दूव विरोधिव्याप्तिग्राहकसहचारज्ञानयोरपि परस्परं प्रतिबन्धकत्वान्, न तु उभयव्याप्तिग्रहजननद्वारा दूषकत्वं एकस्मिन् धर्मिणि विरोध्युभयव्याप्यत्वस्य ग्रहौतमशक्यत्वादित्याहुः।
साम्प्रदायिकास्तु हेतुतावच्छेदकसम्बन्धेन सर्वसपक्ष-विपक्षव्यावृत्तत्वमेवामाधारणत्वं तदान हेतुरमाधारणः, परन्तु सपक्षः माध्यवान् विपक्षस्तदभाववान् निश्चितत्वज्ञानस्य यथोक्तरूपेण दूषकतायामनुपयोगात्, उदाहरणन्तु हेततावच्छेदकसम्बन्धेनावृत्तिहेतुक वहिमानाकाशादित्यादिरेव, हेतुतावच्छेदकसम्बन्धेन माध्यवत्तिः साध्याभावववृत्तिर्वा कदाचिदपि नामाधारण इत्याहुः ।। _ 'अनुपसंहारौति माध्यसन्देहाक्रान्तविश्वकत्वमनुपसंहारित्वं केव सावयिधर्मव्यापकधर्मिताकमाध्यसन्देहविषयवृत्तित्वमिति थावर
Page #792
--------------------------------------------------------------------------
________________
सथभिचार।
CCO
तद्वान् हेतुरनुपसंहारौ, उदाहरणन्तु समनित्यं प्रमेयत्वा मर्चमभिधेयं • प्रमेयत्वादित्यादि सर्वपक्षकानुमानमात्रमेव, एतनानश्चान्वय-व्यतिरेकोभयव्याप्तिग्रहप्रतिबन्धकमेवेति प्राश्वः ।
मिश्रास्तु स्वरूपसत्तथाविधसंशयविषयो यस्तत्तित्वज्ञानं सहचारसंशयसामग्रौतया सहचारांशे व्याप्तिनिश्चयप्रतिबन्धकं तदुत्तरं मामानाधिकरण्यसंशयोत्पत्तेः तस्य तत्मामग्रौत्वात् इत्याहुः । ___ नव्यास्तु हेतौ साध्याभावव्यापकाभावप्रतियोगित्वरूपव्यतिरेकव्याप्तिज्ञानविरोधिहेत्वाभासोऽनुपसंहारी स च माध्याभावव्यापकौभूताभावाप्रतियोगी हेतुः साध्याभावाव्यापको हेवभावः प्रभावाप्रतियोगि माध्यं प्रभावाप्रतियोगौ हेतुश्चेत्यादि, उदाहरणच केवलान्वयिसाध्यकमात्र केवलान्वयिहेतुकमात्र व्यभिचारिमाचञ्चेति() पाहुरिति संक्षेपः।
नवमाधारणानुपसंहारिणोः सव्यभिचारान्तर्भावस्तदा स्याद्यदि तत्रितयसाधारणमेकं लक्षणमभिधातुं शक्यते, न चैवं, इत्यभिप्रायेण शकते, 'तत्रेति, माध्य-तदभावेति अस्ति च माधारणस्य साध्यसमानाधिकरणत्वेन साध्यप्रसञ्जकत्वं माध्याभावसमानाधिकरणत्वेन च माध्याभावप्रसञ्जकत्वं, असाधारणस्य साध्याभावव्यतिरेकासहचारित्वेन साध्याभावप्रसञ्जकत्वं साध्यव्यतिरेकासहचारित्वेन
(२) केवलान्वयिसाध्यकस्थले अभावाप्रतियोगिसाध्यस्य अनुपसंहारित्वं केवलान्वयिहेतुकस्थले अभावाप्रतियोगिहेतोः अनुपसंहारित्वं, व्यभिचारिमात्रस्थले साध्याभावव्यापकीभूताभावाप्रतियोगिहेतोः साध्याभावाव्यापकहेत्वभावस्य धनुपसंहारित्वमिति भावः ।
Page #793
--------------------------------------------------------------------------
________________
७९८
तत्त्वचिन्तामणौ
भयं सत्यसाधकत्वात् अनापादकत्वाच्च। नाप्युभय
साध्यप्रसञ्जकत्वं,(२) अनुपसंहारिण: माध्यवत्ता जातत्तित्वेन माध्यप्रसञ्जकत्वं, माध्याभाववत्तया ज्ञातवृत्तित्वेन साध्याभावप्रसञ्जकत्वमित्यभिमानः। अत्र प्रसतिरनुमितिरापत्तिर्वा तज्जनकत्वञ्च न फलोपधायकत्वं फलानुपधायके अव्याप्यापत्तेः उभयव्याप्तिभ्रमेण तदुपधाय के सद्धेतावतिव्याप्यापत्तेः किन्तु तत्खरूपयोग्यता वाच्या खरूपयोग्यत्वञ्च तदुभयव्याप्यादिमत्त्वं तच्च न सम्भवति विरुद्धोभयव्याप्यत्वस्थ एकत्रासम्भवादित्याह, ‘एकस्येति, 'उभयं प्रति' विरुद्धोभयं प्रति, तेनैकस्य द्रव्यत्वादेः संयोग-तदभावोभयसाधकत्वेऽपि न क्षतिः, 'असाधकत्वात्' अनुमितिखरूपायोग्यत्वात्, 'अनापादकत्वात्' आपत्तिस्वरूपायोग्यत्वात् । 'उभयपक्षेति, ‘पक्षपदं धर्मिपरं, माध्यत्तित्वे मति माध्याभाववत्तित्वमित्यर्थः, 'उभयव्यावृत्तत्वमिति सपक्ष-विपक्षव्यावृत्तवमित्यर्थः, 'वाकारश्चार्थे, यावत्त्वेन सपक्ष-विपक्षौ विशेषणैयौ, तेन न धूमादावतिव्याप्तिः(२), इदमुप
(१) साध्यवद्यारत्तत्वे सति साध्याभाववद्यारत्तरूपस्यासाधारणम्य सा. ध्यवद्यारत्तत्वमेव साध्याभावव्यतिरेकासहचारित्वं, साध्याभाववद्यारत्तत्व मेव साध्यव्यतिरेकासहचारित्वं, तञ्च साध्य-तदभावोभयव्याप्यत्वरूपं तादृशव्याप्तिविशिष्ठस्य हेतोः साध्य-तदभावप्रसञ्जकत्वमिति भावः । पत्र पञ्चस अादर्शपुस्तकेषु सर्वत्र साध्याभावश्यतिरेकसहचारित्वेन इति पाठो वर्तते स न समीचीन इति ध्येयम् ।
(२) तथाच वकिमान् धूमादित्यादौ धूमस्य यत्किञ्चित्मपो भयोगोलके विपक्षे च व्यावतत्वेऽपि नासाधारणत्वमिति भावः ।
Page #794
--------------------------------------------------------------------------
________________
सथभिचार।
पक्षवृत्तित्वं उभयव्यात्तत्वं वा तत्वम् अननुगमात् । अथ साध्यसंशयजनककोटिहयोपस्थापकपक्षधर्माता
लक्षणं माध्यसन्देहाक्रान्तविश्वकत्वमित्यपि बोध्यं अन्यथा अनुपसंहार्यलाभात्, 'अननुगमादिति प्रथमस्य साधारणमात्रे, द्वितीयस्थामाधारणमात्रे, हतौयस्यानुपसंहारिमाचे सत्त्वादिति भावः । साधारणधर्मवद्धर्मिज्ञानजन्या असाधारणधर्मवद्धर्मिज्ञानजन्या विप्रतिपत्तिवाक्यजन्या वा या कोट्युपस्थितिः सैव मंशयनिका न तु कोट्यपस्थितिमात्र हुदै वहिर्गस्तौति ज्ञानस्य प्रतियोगिविधया वहिविषयकत्वेन वहि तदभावोभयकोयुपस्थितिरूपस्य सत्त्वेऽपि सविसष्टपर्वतादौ संशयाभावेन तथैवान्वय-व्यतिरेकात्, माधारणधर्मश्च कोटिइयसहचरितो धर्मः, असाधारणधर्मश्च कोटिदयवत्तया निश्चितसकलव्यावृत्तो धर्मः सकलकोटिदयवयावृत्ती वा यथा गगनादिः समवायादिसम्बन्धेन स्थाणुत्व-तदभाववड्यावृत्तप्रमेयत्वादिर्वा, साधारणधर्मवत्तादिकन्तु येन सम्बन्धेन माधारणत्वादि तेन सम्बन्धेन बोध्यं, तेन विषयत्वसम्बन्धेनात्मत्व-तदभावसहचरितस्य संयोगादिसम्बन्धेनात्मत्व-तदभाववयावृत्तस्य वा समवायसम्बन्धेनात्मनि ज्ञानादात्मत्व-तदभावोपस्थितावपि न संशयः । न च परस्परं व्यभिचारान तादृशोपस्थितिवादीनां कारणतावछेदकत्वमिति वाच्यं । अनुमितौ व्याप्तिज्ञानादिवदव्यवहितोत्तर-. त्वसम्बन्धेन तत्तत्कोटिद्वयोपस्थितिविशिष्टत्वस्यैव कार्य्यतावच्छेदकत्वात्। न चैवं संशयत्वावच्छेदेन कारणलाभ इति वाय। तत्र
Page #795
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्वचिन्तामणी
ज्ञानविषयत्वे सति हेत्वभिमतः सः, विप्रतिपत्तिस्तु
धर्मितावच्छेदकविभिष्टधर्मिज्ञानस्यैव कारणत्वात् । न च एतादृशकोयुपस्थितौनामेव सन्देहजनकत्वमिति नियमे भ्रमत्वघटकतया कोटिइयोपस्थितिरूपस्य भ्रमत्वसंशयस्य कथमर्थसंशयजनकत्वं तस्य भ्रमत्व-तदभावसाधारणज्ञानत्वलक्षणधर्मवद्धर्मिज्ञानजन्यत्वेऽपि अर्थतदभावसाधारणधर्मवद्धर्मिज्ञानाजन्यत्वादिति वाच्यं । तत्रापि भ्रमत्वसंशयरूपकोयुपस्थितेरर्थसन्देहाजनकत्वात् किन्तु भ्रमत्वसंशयानतरं ज्ञानविषयतात्मकसाधारणधर्मदर्शनादर्थ-तदभावोपस्थितेरेव सन्देहजनकत्वात् भ्रमत्वसंशयानुविधानन्तु प्रतिबन्धकापसरणर्थमिति प्राचीनमतानुसारेण लक्षणमाह, 'अथ माथेति, अत्र 'जनकान्तमुपस्थापकपदप्रकृत्यर्थस्य उपस्थितेर्विशेषणं तथाच साध्यसन्देहजनिका या कोटिद्वयोपस्थितिस्तजनकस्य पक्षधर्मताज्ञानस्य विषयो यत्र इति बहुनौहिणा माध्यमन्देहजनककोटियोपस्थितिजनकपक्षधर्मताज्ञानविषयवत्वे मति हेलभिमत इत्यर्थः, 'पक्षधर्मताज्ञान' पक्षविशेष्यकज्ञानं, भवति च माध्य-तदभाववत्तिहेतुमान् पक्षइति पक्षविशेष्यकज्ञानं मपक्ष-विपक्षव्यावृत्तहेतुमानपक्ष इति पक्षविशेष्यकज्ञानञ्च माध्यसन्देहजनककोव्युपस्थितिजनक तद्विषयः माध्य-तदभाववत्तित्वरूपं साधारणत्वं मपक्ष-विपक्षव्यावृत्तत्वरूपमसाधारणत्वञ्च साधारणसाधारणहेत्वोरिति लक्षणसमन्वयः, 'पक्षधर्माताज्ञानविषयत्वे मति' इति यथाश्रुतं न सङ्गच्छते वहि-तदभाववत्तिधूमवान् पर्वत इति पचविशेष्यकभ्रमस्य तथाविध
Page #796
--------------------------------------------------------------------------
________________
सयभिचारः।
( कोटिदयोपस्थितिजनकतया तद्विषये धूमेऽतिव्याप्यापत्तेः । नन्वेव
मपि वहिमान् धूमादित्यादौ वक्रि-तदभाववत्तिप्रमेयत्ववान् पर्वत इति ज्ञानस्य तथाविधकोटिदयोपश्थितिजनकतया तदिषयप्रमेयत्ववति धूमेऽतिप्रसङ्गः । अथ विषयपदं विशेषणतावच्छेदकपरं, तथाच पक्षे यद्पावच्छिन्नवत्त्वज्ञानं माध्यसन्देहजनककोटिद्वयोपस्थितिजनकं तद्रूपावच्छिन्नवत्त्वं पर्यावमितोऽर्थः तव रूपं साध्य-तदभावववृत्तित्वादिरूपं साधारणत्वादिकमेवेति नातिप्रसङ्ग इति चेत् । न। तथापि वहि-तदभाववत्तिधूमवान् पर्वतइति भ्रमविशेषणतावच्छेदकधूमत्वमादाय वझि-तदभावववृत्तिधूमवान् पर्वतः प्रमेयवांश्चेति समूहालम्बनज्ञानविशेषणतावच्छेदकप्रमेयत्वमादाय च धूमेऽतिव्याप्तेढुारत्वात् माध्य-तदभावववृत्तिवादिरूपसाधारण्यादिविशिष्टहेतुमत्ताधमस्य तथाविधकोटिइयोपस्थितिजनकतया माध्यववृत्तित्वांशस्यापि तादृशरूपत्वेन तमादाय मद्धेतावतिव्याप्तेढुंवारत्वाञ्च, किञ्च धूमौयवृत्तित्वे वहि-तदभाववदीयत्वं रक्षतो वहि-तदभाववत्तिधूमवान् पर्वत इति भ्रमस्यापि तथाविधतया तादृशवृत्तित्ववत्त्वात् धूमेऽतिव्याप्तिः । न च भ्रमभिन्नत्वेन ज्ञानं विशेषणेयं अतो नैषां दूषणानामवकाश इति वाच्यं । तथापि साध्य तदभावववृत्तित्वरूपसाधारण्यविशिष्टप्रमेयवादिमत्ताज्ञानस्य भ्रमभिन्नस्यैव तथाविधकोटिद्वयोपस्थितिजनकतया माध्यवत्तियांशस्थापि तादृशरूपत्वेन तमादाय मद्धेतावतिव्याप्तेवारत्वात् वहि-तदभावववृत्तिघटवान् धमवांश्च पर्वतः वहितदभावववृत्तिघटवान् प्रमेयत्वविभिष्टधूमवांश्च पर्वत इत्यादि
Page #797
--------------------------------------------------------------------------
________________
चिन्तामयी
भ्रमभिवज्ञानविशेषणतावच्छेदक धूमत्व - प्रमेयत्वादिमादाय धूमेऽतिव्याप्तेर्दुब्बीरत्वाश्च । न च वस्तुगत्या साधारथाश्रयो यो धस्तद्धर्किज्ञानजन्या कोटिडयोपस्थितिर्न संशयजनिका स्यात्वादिव्याप्यधर्मेऽपि स्थाणत्वादिसाधारणभ्रमात् संशयोदयात् खाणुत्वादिसाधारण्याद्यज्ञामे च वस्तुतः स्याणुत्वादिसाधारणस्याच्चत्वस्य ज्ञानेऽपि संशयानुदयाञ्च श्रतः साधारण्यादिप्रकारकधवधज्ञानजन्यकोव्युपस्थितिरेव संशयजनिका तथाच पचे यद्रूपविशिष्टवत्ताज्ञानजन्यकोटिद्वयोपस्थितित्वं साध्यसन्देहजनकतावच्छेदकतापर्य्यप्यधिकरणं तद्रूपवत्त्वं विवचितमिति वाच्यं । साध्य-तदभाववद्वृत्तित्वविशिष्टवत्ताज्ञानजन्यकोटिद्वयोपस्थितित्वस्यापि तथात्वेनासम्भवापत्तेः, न हि तादृशकोपस्थितित्वेन जनकत्वं साध्यप्रतियोगिकत्वेनाभावान्तरावगाहिनो भ्रमादर्थसंशयोत्पत्तेरिति । मैवं पञ्चविशेष्यक-यद्रूपविशिष्टप्रकारकज्ञानजन्यकोव्युपस्थितित्वं साध्यमन्देहजनकतानतिरिक्रदृप्ति तद्रूपावच्छिन्नत्वस्य विवचितत्वात् । अथैवमपि वमिवृत्तित्वांशमादाय धूमेऽतिव्याप्तिः वय भाववत्तित्वां मादाय विरुद्धे जलत्वादावतिव्याप्तिश्च वह्निसंशयत्वावच्छिन्नं प्रति वसिहचरितधर्म्मवद्धर्बिज्ञानजन्यवयुपस्थितित्वेन वज्र्यभावसहचरितधर्मवद्धर्म्मिज्ञानजन्यवद्भ्यभावोपस्थितित्वेन च दण्ड- चक्रवद्धेतुतया केवलवसिहचरितत्वाद्यवच्छिन्नप्रकारकज्ञानजन्यकोयप स्थितित्वांशस्यापि तादृशजनकतानतिरिकदृत्तित्वात् । न हि वह्निसंशयत्वेन कार्य्यवं वहि तदभावोभयसहचरितधर्म्मवद्धर्मिज्ञानजन्यवहि-तदभावोपस्थितित्वेन जनकत्वमिति हेतु हेतुमद्भावः, प्रत्येक सहच
1 1
७६२
Page #798
--------------------------------------------------------------------------
________________
सञ्चभिचारः
रितधर्मयज्ञानजन्यकोटियोपस्तितितोऽपि संभवोत्पत्तः, वितहव दौधितौ धर्मस्यैकत्वं ज्ञानस्य च निश्चयत्वं न विवक्षितमित्युक्तमुपाधिवादे, एकस्मिन्नेव धर्म साध्य-तदभावववृत्तित्वयोः प्रत्येकमात्रविषयामिकज्ञानदयेन जनितादपि कोटिदयज्ञानात् संशथोत्पत्तेश्चेति चेत् । न । धर्म-ज्ञानयोरुभयोरेव एकत्वमपेक्षितमितिप्राचीनमतानुसारेण एतल्लक्षणप्रणयनात्, रूपवान् स्पर्शादित्यादिकञ्च विरुद्धमेव न तु व्यभिचारि कस्यापि स्पर्मस्य रूप-तदभाववत्तित्वाभावात् । न च सर्वदा तादृशरूपविशिष्टत्वं भवभिचारिक यदाकदाचित्तादृशरूपविशिष्टत्वं वा श्राद्ये वहिमान् रामभादित्यादौ रामभस्य महानमादिमात्रवृत्तित्वदशायां वयभाववत्संयुकत्वरूपविशिष्टत्वाभावेन सव्यभिचारित्वानुपपत्तेः, द्वितीये भब्दोऽनित्यः शब्दचादित्यत्र पक्षे नित्यत्वाभावस्य माध्यस्य निश्चयदशायामपि सव्यभिचारित्नपत्तिः पक्षातिरिक्रमाचे माध्य-तदभावनिश्चयदशायां शब्दत्वे सर्वसपक्ष-विपक्षव्यावृत्तत्वरूपामाधारणत्वसत्त्वादिति वायं । असाधारणत्व लक्षणे मपक्ष-विपक्षत्वं न निश्यगर्भमपि तु वास्तविकमाध्य-तदभाववत्त्वमेव तदुभयव्यावृत्तलच्च कदाचिदपि तत्र नास्ति। न चैवं पक्षातिरिके माध्य-तदभावनिश्चयदशायामपि तस्थासाधारणत्वं न स्यादिति वाच्या दृष्टत्वात, माध्यवदृत्तिः साध्याभाववत्तिर्वा कदाचिदपि नामाधारणः किन्तु इतनावछेदकसम्बन्धेनावृत्तिरेवामाधारण इति साम्प्रदायिकमतानुसारेण एनलक्षणकरणदिति न काप्यनुपपत्तिः। अत्र धर्मितावच्छेदकविशिष्टधर्मिणि माधारणदिधर्मप्रकारकज्ञानजन्यकोटियोपस्थिते
100
Page #799
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामगै
रेवं मध्यपन्देहजनकतया माध्य-तदभावसाचरितधर्मवानित्यादिनिर्मितावच्छेदकज्ञानेन सम्बन्धिज्ञानविधया जनितायाः कोयुपखितेः साध्थमन्देशाजनकतया अननिरिक्तवृत्तित्वघटितलक्षणस्यासभवापत्तिरिति पचविशेष्यकेति यत्किञ्चिद्धर्मितावच्छेदकविभिष्टविशेष्यकार्थकं । न च पक्षविशेष्यक-यद्र्पावच्छिन्नप्रकारकज्ञान कोटिइयोपस्थितिजनकं तद्पावच्छिनावमित्येवास्तु किं माध्यसन्देशजनकतामतिरिकवृत्तित्वप्रवेभेनेति वाच्यं । वकिमान् धूमादित्यादौ वझिमदनवृत्तव-वयभाववड्याहत्तत्वविषयकस्य वहिमदनुवृत्त-वयभाववड्यातधूमवान् पर्वत इति ज्ञानस्य सम्बन्धिज्ञानविधया वकितदभावोभयोपस्थापकतया वझिमदनुवृत्तले मति वड्यभाववड्यावृत्तवमादाय धमादावतिव्याप्यापत्तेः बहि-तदभाववत्तिधूमवान् पर्वतः प्रमेयाश्चेति समूहालम्बनभ्रमस्य साधारणधर्मज्ञानविधया कोटिइयोपस्थितिजनकत्वेन प्रमेयत्वादिमादाय धूमादावतिव्याप्यापत्तेय, विवक्षिते तु माधारणदिधर्मवद्धर्मिज्ञानजन्यकोव्युपस्थितेरेव सन्देशजनकतया तादृशकोयुपस्थितेः माध्यसन्देहजनकत्वाभावाजातिव्याप्तिः। न च पचविशेष्यक-पद्रपावच्छित्रप्रकारकज्ञानत्वं कोटिइयोपस्थितिजनकतावच्छेदकं दद्र्पावच्छिन्नत्वं विवक्षणीयं सबन्धिज्ञानञ्च पक्षविशेष्यक-सम्बन्धिप्रकारकज्ञानत्वेन न हेतुः किन्तु सम्बन्धिज्ञानवेनेति मोक्तातिप्रसङ्ग इति वाच्यं । साधारणदिधर्मवइपिज्ञानस्योहोधकविधवा तत्तव्यमित्वेनैव कोशुपस्थिति प्रति जनकाबादमधवापत्तेः। अत एव पचविशेष्यक-यद्रूपावच्छिन्नप्रकारकचावल कोटिइयोपस्थितिजनकतानतिरिति तद्रूपावचिवाल
Page #800
--------------------------------------------------------------------------
________________
effचारः ।
विवचन न कोऽपि दोष इत्यपि परास्तं । पञ्चविशेव्यवा- प्राचार यादिधप्रकारकज्ञानत्वस्य कोटिदयोपस्थित्यनुपधायने साधारणादिधर्मवद्धर्भिज्ञानेऽपि सत्त्वेनातिरिक्रदृत्तिवादसम्भवापतेः ततइतित्वस्यैव कोटियोपस्थितिजनकतावच्छेदकतया जमकतापदेन स्वरूपयोग्यताविवचणेऽपि श्रनिस्तारात् । न च तथापि यत्किञ्चि* तावच्छेदकविशिष्टविशेय्यक - चद्रूपविशिष्टप्रकारकज्ञानत्वं साध्धचन्दजनकतानतिरिकदृत्ति तद्रपविशिष्टत्वमित्येवास्तु किं कोटि
योपस्थितिप्रवेशेनेति वाच्यं । सामान्यतः साध्यसन्देहस्य सामान्य''तस्तजनकत्वस्य च लचणघटकतया पर्व्वतो वकिमान् धूमादित्यादौ प्रमेयत्वादिमादाय धूमादावतिव्यायापत्तेः पर्व्वतत्वधर्मतावच्छेदकप्रमेयत्वादिविशिष्टप्रकारकज्ञानत्वस्य धर्मितावच्छेदकप्रकारकधर्मिज्ञानविधया पर्व्वतो वहिमात्र वा प्रमेयं वमित्रं बेत्यादिसाध्यसन्देहजनकताया श्रमतिरिक्तवृत्तित्वात् । न च यत्किञ्चिद्धर्च्चितावच्छेदकविशिष्टविशेष्यक बद्रूपविशिष्टप्रकारकज्ञानवं तद्धर्मविशिष्टांश या तद्धर्मितावच्छेदकक साध्यसन्देह जनकता तदमतिरिति तद्रूपविशिष्टत्वं विवक्षणीयं किं कोष्णुपस्थितित्वप्रवेशेनेति वाच्यं । तस्यापि लचणान्तरत्वात् सामान्यतः साध्यसन्देहजनकत्वघटितलक्षणे वैयर्थ्याभावात् द्रव्यं गुण-कर्मान्यत्ववि - शिवादित्यादौ गुण-कर्मान्यत्वमादाय विशिष्टसवादी महेतुरूपेऽतिव्यायापत्ते गुण-कर्मान्यत्वविशिष्टसत्तावान् गुण-कर्षान्यत्वविशिष्टसत्तावानित्याकारकगुण - कर्मान्यत्वविशिष्टसत्ताधर्मितावच्छेदककगुण-कर्मान्यत्वविशिष्टसत्ताप्रकारकज्ञानत्वस्य शाब्दातिरित
Page #801
--------------------------------------------------------------------------
________________
DEC
तत्त्वचिन्तामो
ज्ञान) प्रसिद्धस्य धर्मितावच्छेदकप्रकारकज्ञानविधया गुण-कर्यान्यत्वविशिष्टमत्तांगे गुण-कर्मान्यत्वविभिष्टमत्ताधर्मितावच्छेदककगुणकान्यत्वविभिष्टमत्तावद्र्व्यं न वेति माध्यसन्देहजनकताथा अनतिरिक्तवृत्तित्वात्। न च विवक्षितेऽपि व्याप्यवत्तासंशयजन्यकोथुपस्थितेरपि व्यापकवत्तासंशयहेततामते धर्मिणि माध्यव्याप्यत्वविशिष्टप्रकारकसंशयजन्यकोव्युपस्थितेः साध्यसन्देहजनकत्वात् माध्यव्याएयवमादाय सद्धेतावतिव्याप्तिरिति वाच्यं। माध्यव्याप्यत्वविशिदेश कारकज्ञानजन्यकोव्युपस्थितित्वस्य माध्यसन्देहाजनकसाध्यव्याप्यत्वविभिष्टप्रकारकनिश्चयजन्यकोच्युपस्थितावपि सत्त्वेनातिरिक्तवृत्तित्वात् ।। 'हेत्वभिमत इति विशेषणन्तु यद्रूपविशिष्टप्रकारकज्ञानजन्यकोयुपस्थितित्वमित्यत्र हेतुतावच्छेदकसम्बन्धेन यद्रूपविशिष्ट प्रकारकत्वसाभाष, अन्यथा अयमात्मा ज्ञानादित्यादौ ज्ञानस्य समवायेन व्यभिचारित्वापत्तेः विषयतासम्बन्धेन श्रात्मत्व-तदभावसहचरितस्य ज्ञानस्य विषयतासम्बन्धेनात्मनि ज्ञानस्य माध्यमन्देहजनककोच्युपस्थितिजनकत्वात् विवक्षिते तु समवायेन तादृशज्ञानवत्ताज्ञानजन्यकोयुपस्थितेः माध्यसन्देहाजनकत्वाचातिप्रसङ्गः, येन सम्बन्धेन तदुभयकोटिसहचरितत्वं तेन सम्बन्धेन तद्वत्त्वज्ञानस्य माध्यसन्देहजनकत्वादिति मङ्क्षपः ।
ननु भब्दोऽनित्यो न वेति विप्रतिपत्तिवाक्येऽतिव्याप्तिः तस्थापि माध्यसन्देहजनककोटिदयोपस्थापकज्ञानविषयत्वादित्यत आह,
(२) उद्देश्यतावच्छेक विधेययोरैक्यात् शाब्दबोधासम्भवः इत्यत उक्त মাহাৰিহিমাল নি।
Page #802
--------------------------------------------------------------------------
________________
७
सव्यभिचारः ।
प्रत्येकं न तथा न वा पक्षष्टत्तिः साधारणमब्रवेन असाधारणं व्यतिरेकेण अनुपसंहारौ पक्ष एवोभयसाहचर्येण काटिद्दयोपस्थापकः । केवलान्वयिसाध्य
¿
'विप्रतिपत्तिखिति, 'न तथेति नोभयको व्युपस्थापक ज्ञानविषयइत्यर्थः, प्रतियोगिवाचकपदज्ञानेन भावकोव्युपस्थापनात् ना चाभावकोव्युपस्थापनादिति भावः । तथाच लचणस्थद्वयपदेन तदा(समिति हृदयं (९) । प्रकारान्तरेण विप्रतिपत्तावतिव्याप्तिमुद्धरति, 'न वा पक्षवृत्तिरिति न वा कोटिद्वयोपस्थापकपचधर्मताज्ञानविषयइत्यर्थः ।
साधारणादिषु लक्ष्येषु लक्षणं मङ्गमयति, 'साधारणमिति, ‘श्रन्वयेन' साध्य-तदभावोभयवद्वृत्तित्वप्रकारेण धर्म्मिणि ज्ञातं सदिति शेषः, 'उभयकोपस्थापक इत्यग्रेतनेन लिङ्गविपरिणामेनाम्वथः, ‘श्रसाधारणमिति, ‘व्यतिरेकेण' सर्व्वमपच- विपक्षव्यावृत्तत्वप्रकारेण, धर्म्मिणि ज्ञातं सदिति शेषः, 'कोटिद्वयोपस्थापक द्रत्ययेणान्वयः, 'अनुपसंहारौति सर्व्वमनित्यं प्रमेयत्वादित्यनुपसंहारौत्यर्थः, 'उभयमाहचार्य्यैणेति साध्य-तद्भावोभयकोटिसहचरितत्वप्रकारेणेत्यर्थः,
ज्ञातः सन्निति शेषः । यद्यपि साध्य- तदभावसहचरितत्वं नानुपसंहारित्वं किन्तु साध्यसन्देहाक्रान्तविश्वकत्वमेव तत्प्रकारकज्ञानञ्च न तादृशकोव्युपस्थापकं माधारयादिवहिर्भूतत्वात् । न चानुप
(१) तथाच न कोटियोपस्थापकत्वं प्रत्येकस्येति भावः ।
Page #803
--------------------------------------------------------------------------
________________
वश्वचिन्ताम
कानुएसंहारी अयं घट एतत्त्वादित्यसाधारणश्च सबेतुरेव सदानं दोषः पुरुषस्य, अत एवासाधारणप्रकरणसमयोरनित्यदोषत्वम् अन्यथा सचेतौ बाधासंचारित्वज्ञाने नियमतः माध्य-तदभावववृत्तित्वरूपसाधारणत्वस्यापि विषयत्वात् साधारणधर्मज्ञानविधयैव तज्ज्ञानस्यापि तादृशकोयुपस्थापकत्वमिति वाच्यं । तज्ज्ञाने साध्य-तदभावववृत्तित्वभानेऽपि माध्य-तदभावांशे तस्याप्यनिश्यत्वात् माध्य-तदभाववदृत्तिवनिश्चयस्यैव च माध्यसन्देहजनककोड्युपस्थितिजनकत्वेन प्राचीनैरभ्युपगमात् । मच निश्चयत्वनिवेशे गौरवं, प्राचीनैस्तथैवानुभवस्य निर्णतत्वेन गौरवस्थाकिञ्चित्करत्वात्, अन्यथा साधारणधर्मवद्धर्मिज्ञानजन्यकोशुपस्थितेरेव संभयजनकत्वमिति नियमे मानाभावात् माध्य-तदभाववदृत्तित्वादिविशिष्टवैशिघ्यावगाहिज्ञानजन्योपस्थितित्वेन हेतुतथा निचयत्वस्यावच्छेदककोटावप्रवेशाच्च तादृशविषयताविशेषस्य माध्याचंभे निश्चय एव सत्त्वात्, तथापि नेदं व्यभिचारात्मकस्य दोषस्य लक्षणं येनानुपसंहारित्वज्ञानस्य तादृशकोयुपस्थित्यजनकतथा अनुपसंहारित्वेऽव्याप्तिः स्यादपि तु व्यभिचारितोर्लक्षणं . तस्य चानुपसंहारित्वमादायानुपसंहारिण्यगमनेऽपि न क्षतिः साध्यतदभावसहचरितत्वरूपसाधारणत्वमादायैव तत्रापि लक्षणसम्भवात् । म चानुपसंहारितादशायां हेतौ माध्य-तदभाववइत्तिलनिश्चय एव नास्तौति बाचं । हेतौ तविश्वयाभावेऽपि यदा कदाचित्र कुनचित्तविषयस्य तादृशकोयुपस्थितिजनकतथैव तदादाय धर्मिणि
Page #804
--------------------------------------------------------------------------
________________
सबविचार।।
दिजाने हेत्वाभासाधिक्यापत्तिः। नप प्रमेयत्वेनाभेदानुमाने शब्दोऽनित्यः शन्दाकाशान्यतरत्वादित्या चद्रूपावच्छिन्नवत्ताज्ञानं माध्यसन्देहजनककोटिइयोपस्थितिजनक तद्रूपवत्त्वरूपस्य लक्षणस्य सम्भवादित्यभिप्रायः । ___ ननु बर्व प्रमेयं वाच्यत्वादित्यादिकेवलावयिसायकानुपसंहारिव्याप्तिः तत्र माध्याभावस्थाप्रमिया तत्संभयाप्रमिद्धेः माध्य-तदभावसहचरितत्त्वरूपमाधारण्यमादाय लक्षणसंभवाच्च एवं अयं घटः एतत्त्वादित्यच यदा पूर्व पक्षे घटत्वं निश्चितं तदुत्तरञ्च तत्रैव घटे म घटोनाथमिति भ्रमोजातस्तदा घटत्ववत्तया निश्चितव्यावृत्तत्त्वेन ग्टह्यमाणतया असाधारणे एतत्त्वे अव्याप्तिः वास्तवतड्यावृत्तत्वाभावादित्यत आह, 'केवलान्वयौति, 'अनुपसंहारौ' माध्यसन्देहाक्रान्तविश्वकः, 'असाधारणः' पचमात्रवृत्तिः, 'सङ्केतरेवेति, तथाचालक्ष्यबाराव्याप्तिरिति भावः । इदमुपलक्षणं सर्व वहिमळूमादित्यादावन्वय-व्यतिरेकिसाध्यकानुपसंहार्यपि न लक्ष्यः तत्र माधारणलमादायापि लक्षणसम्भवादित्यपि बोध्यं ।
ननु मद्धेतत्वाधानदभाया मोपि दुष्ट एवेत्यत पाइ, 'तदज्ञानमिति सद्धेतत्वाज्ञानमित्यर्थः, 'पुरुषम्येति, न तु हेतोरपि दोषइत्यर्थः() । नन्वेवं मद्धतम्यले असाधारण-प्रकरणममयोरनित्यदोषलं कथं व्यवष्ट्रियते यदाकदाचिदपि तस्य दुष्टवाभावादित्यत आर, 'अतएवेति नित्यदोषवाभावादेवेत्यर्थः, 'अनित्यदोषत्वमिति, यव(१) तु हेतुरपि दुङ इवि भाव इति ख.।'
Page #805
--------------------------------------------------------------------------
________________
...
तत्वचिन्तामण
साधारणेऽव्याप्तिः तया साध्यवदत्तित्वेन विरुद्धस्वादिति चेत् । न। एतदजानेऽपि साधारण्यादिप्रत्ये
हियत इति शेषः, दोषशून्यत्वात्तत्रानित्यदोषव्यवहारो न तु दोषवत्त्वादिति भावः । यद्वा 'श्रतएव' पुरुषस्य दोषादेव, तथाच भ्रान्ता एवं व्यवहरन्ति न वयमित्यर्थः । 'अन्यथेति पुरुषस्य मद्धेतुत्वाचानदशायां इतोर्दुष्टत्वे इत्यर्थः, 'बाधादिज्ञान इति, तदानीमपि मद्धेतृत्वाज्ञानस्याविशिष्टत्वादिति भावः । 'प्रमेयत्वेनेति अयमेतदभिन्नः प्रमेयत्नादित्यचेत्यर्थः, 'अव्याप्तिरिति, तत्र पक्षस्यैव माध्यवत्तया माध्य-तदभाववत्तित्वनिधयाभावेनोभयकोव्युपस्थापकवाभावादिति भावः । 'माध्यवदवृत्तित्वेनेति निश्चितसाध्यवदवृत्तित्वेनेत्यर्थः, अनवगतमाध्यमहचरितले मति अवगतमाध्याभावसहपरितस्य विरूद्धत्वादिति भावः । तथाचालक्ष्यमेव तदिति पदयं । इदच्चाभ्युपेत्योक्तं वस्तुतो यथोपवर्णितलक्षणस्य न तत्राव्याप्तिः, अन्यथा एवं रूपेणानुपसंहारिण्यव्याप्तिः तचापि पचे माध्यानिश्चयादिति हृदयं । यद्र्पज्ञानमनुमितिप्रतिबन्धकं तदेव विभाजकोपाधिरित्यभिप्रायेण दूषयति, 'एतद ज्ञानेऽपौति तादृशपक्षधर्मताचानविषयत्वस्याज्ञानेऽपौत्यर्थः, 'साधारणत्वदौति, 'प्रत्येकस्य ज्ञानात्' प्रत्येकप्रकारकज्ञानात्, इदश्च स्वानुमितिप्रतिबन्धे हेतुः, 'उद्भावमादिति, माधारणत्वादिप्रत्येकस्योद्भावनादित्यर्थः, इदश्च परानुमितिप्रतिबन्धे हेतुः, 'उहावितैतनिर्वाहार्थमिति, 'उहावितस्यैतस्य' सायसन्देशजनककोटियोपस्थापकपक्षधर्मता ज्ञानविषयत्वस्य, 'नि
Page #806
--------------------------------------------------------------------------
________________
सवभिचार।
कस्य ज्ञानादुद्भावनाच स्व-परानुमितिप्रतिबन्धात - द्वावितैतविहार्थ साधारणादेवश्योद्भाव्यत्वेन तस्यैव दोषत्वाच्च । एतेन पक्षवृत्तित्वे सत्यनुमितिविरोधिाहार्थ' निश्चयार्थमित्यर्थः, साधारण्याद्युहावनं विना कथमेतस्य हेतोः तादृमपक्षधर्मताज्ञानविषयत्वमिति सन्देशादिति भावः । इदमुपलक्षणं यथोक्तरूपावच्छिषस्य सव्यभिचाररूपत्वे यथोनरूपवत्त्वमेव व्यभिचारित्वं स्यात् अन्यथा व्यभिचारविशिष्टस्य सव्यभिचारपदार्थत्वाभावात् सव्यभिचारपदस्थ पारिभाषिकत्वापत्तेः तच व्यभिचारत्वं न सम्भवति उरोत्या अनुपसंहारित्वे अव्याप्तेरित्यपि बोथं । 'एतेनेति ‘परास्तमित्यग्रेतनेनान्वयः, 'अनुमितिविरोधौति अनुमितिविरोधी यो धर्मः तत्सम्बन्धाव्यावृत्तिः' यदा कदाचित् तत्सम्बन्धवान् भव्यभिचार इत्यर्थः, वकिमान् रामभादित्यादौ रामभस्य महानमवृत्तितादशायां अनुमितिविरोधिनो व्यभिचारस्य सम्बन्धाभावात् अव्याप्तिवारणाय यदा कदाचिदिति, असाधारणत्वन्तु माध्यवयाहत्तत्वे मति माध्याभाववड्यात्तत्वं न तु साध्यवत्तया निषितव्यावृत्तवे मति माध्याभाववत्तया निश्चितव्यावृत्तत्वं तेन शब्दोऽनित्यः भब्दत्वादित्यच पक्षे माध्य-तदभावान्यतरनिश्चयदशायामपि मयभिचारखापत्तिः, पक्षानिरिक्रमाचे माध्य-तदभावनिमयदशायां तत्र सपञ्च-विपक्षव्याहत्तत्वरूपामाधारणत्वसत्त्वादिति परास्तं, माथ-सदभाववड्यावृत्तत्वस्य कदाचिदपि तचासत्त्वात्, हुदो वकिमान् धूमा-' दित्यादौ सरूपासिवरूपविरोधिधर्ममादाय पतिव्यानिवारणव
101
Page #807
--------------------------------------------------------------------------
________________
०६
तत्वचिन्तामो
सम्बन्धाव्यात्तिरनैकान्तिकाः सपक्ष-विपक्षतित्वमुभयव्यात्तत्वमनुपसंहारित्वञ्चानुमितिविरोधि तत्स
'पक्षवृत्तित्वे मतौति यथाश्रुतग्रन्थानुयायिनः । तत् । व्यभिचारादिज्ञानस्यैवानुमितिविरोधित्वेन व्यभिचारादरनमित्यविरोधित्वादसम्भवापत्तेः । न च विरोधित्वं विरोधिज्ञानविषयत्वं तथासति । पहिमान् वः वहिमान् धूमादित्यादौ व्यभिचारादिभ्रमविषयवहित्व-धूमत्वादिमादाय वजि-धूमादावतिव्याप्यापत्तेः, समूहासम्बनव्यभिचारादिधमविषयप्रमेयत्वादिमादाय सद्धेतमात्रेऽतिव्याप्यापत्तेः । अथ विरोधिज्ञानविषयत्वमित्यत्र ज्ञानं भ्रमभिन्नत्वेन विशेषणौयं । न च तथापि वढ्यभाववदृत्तिप्रमेयत्वमितिभ्रमभिन्नवयनुमितिप्रतिबन्धकज्ञानविषयवहित्य-प्रमेयत्वादिमादायातिव्यानितादवस्यं इति वाच्यं । अनुमितिपदं हि प्रकृतपक्षमात्रोद्देश्यकप्रकृतमाध्यमात्रविधेयक-प्रकृतहेतमात्रलिङ्गकानुमितिपरं । तथाच तन्मात्रपक्षक-तन्मात्रमाध्यक-तन्माचहेतुकानुमितिप्रतिबन्धकममभिबज्ञानविषयो यो धर्मा यदाकदाचित् तत्मसम्बन्धवान् स हेतुः तस्मिन् पक्षे तस्मिन् माध्ये सव्यभिचार इति लक्षणपर्यवसन्नतया न कस्यापि दोषस्थावकाश इति चेत्। न। तादृशज्ञानविषयधर्मसम्बस्ववत्त्वस्य सव्यभिचारत्वरूपत्वे तादृशज्ञानविषयधर्मस्यैव व्यभिचारत्वं स्थात् अन्यथा व्यभिचारविशिष्टस्य सव्यभिचारपदार्थत्वाभावेन सव्यभिचारपदस्य पारिभाषिकत्वापत्तेः, तस्थ व्यभिचारत्वं न सम्भवति
Page #808
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यभिचारः।
म्बन्धः प्रत्येकमस्ति विरुद्धोऽप्यनेन रूपेण सव्यभिचारएव उपाधेश्च न सङ्कर इति वक्ष्यत इति निरस्तम्। एतदज्ञाने जाने वावश्यकप्रत्येकज्ञानस्य दोषत्वात्
धूमवान् बहेरित्यादौ धमत्व-वहिवादेरिव व्यभिचारघटकप्रत्येकपदार्थस्यापि व्यभिचारलापत्तेः सव्यभिचारपदस्य पारिभाषिकले इष्टापत्तौ तादृशज्ञानविषयः सहेतस्तस्मिन् पचे तस्मिन् माध्ये सव्यभिचार इत्यस्यैव सम्यक्वेन तादृशज्ञानविषयधर्मसम्बन्धवत्त्वपर्यन्तस्य व्यर्थत्वापत्तेरिति । __ नव्यास्तु अनुमितिविरोधी सम्मन्धो यस्येति बडबौक्षिण धादृशविशिष्टस्य सम्बन्धो यादृशविभिटनिरूपितनिश्चयनिष्ठविषयित्वं अनुमितिविरोधी अनुमितिविरोधितावच्छेदकं तादृशविभिष्टस्थाव्यावृत्तिरभेदो यस्य इति व्युत्पत्त्या अभेदसम्बन्धेन तादृशविशिष्टवान् भव्यभिचार इत्यर्थः, तादृशविशिष्टत्वमेव सव्यभिचारत्वमिति भावः । अनुमितिपदश्च प्रकृतपक्षमात्रोद्देश्यक-प्रकृतसाध्यमात्रविधेयक-प्रकृतहेतुमात्रलिङ्गकानुमितिपरं तेन वयभाववहतिप्रमेयत्वादिकमादाय वद्धिमान् धूमादित्यादिसद्धेतौ नातिप्रसङ्गः, तथाच तन्मात्रपक्षक-तन्मात्रसाध्यक-तन्माचहेतकामुमितिविरोधितावच्छेदकं निश्चयनिष्ठं यादृशविभिष्टनिरूपितविषयित्वं तादृशविशिष्टं तस्मिन् पक्षे तस्मिन् माध्ये तस्मिन् हेतौ व्यभिचारः, अभेदसम्बन्धेन तादृशविशिष्टसम्बन्धी स हेतुः तस्मिन् पक्षे तस्मिन् साध्ये भव्यभिचारः इति व्यभिचार-मयभिचारयोर्लक्षणं फलितं ।
Page #809
--------------------------------------------------------------------------
________________
तावचिन्तामयी
असापकतानुमिती व्यर्थविशेषणत्वाच। अत एव यत्पचक-यत्माध्यक-यखेतकानुमितिरप्रमिद्धा तदलक्ष्यमेव निशिहिमानित्यादिवत्तस्यापार्थकत्वात् । हेततावच्छेदकसम्बन्धेन ताहुभविशिष्टसम्बन्धित्वाभिधाने विभिव्य समवावादिसम्बन्धेन तादृनविशिष्टसम्बन्धित्वाभिधाने वा द्रव्यं मचादित्यादावव्याप्तिः() मामाव्यतस्तादृप्रविशिष्टसम्बन्धित्वाभिधाने चानन्तसम्बन्धिताप्रवेभाइौरवमतो विशिव्याभेदसम्बन्धेनेत्युक्तं, अभेदवञ्च नादाव्यत्वं । न समानकालोनवादिसम्बन्धेन तादृशविशिष्टसम्बन्धित्वमेव कुतो नोकमिति वाच्या अभेदसम्बन्धमपेक्ष्य समानकालीनलादेगुरुत्वादशोकवनिकान्यायाच। अवच्छेदकत्वञ्च अननिरिक्तवृत्तिन्वं तेन माध्यप्रतियोगिकत्वेनाभावान्तरावगाहिनो व्यभिचारादिभ्रमस्यापि प्रतिबन्धकतया माध्याभाववहृत्तिहेत्वादिरूपविभिष्टविषयकत्वस्य स्वरूपसम्बन्धरूपप्रतिबन्धकतावच्छेदकलविरहेऽपि न चतिः(२) ।
(१) सत्त्वरूपहेतौ समवायसम्बन्धेन ग कस्यापि पत्तित्वमिति मावः । (২) আৱষিয়িষ্টবিষয় সন্ত্রনালিনিমনিবন্ধনলিমিনरूपसम्बन्धरूपावच्छेदकतावदित्युक्तौ एकदेशविषयकवस्थापि खरूपसम्बबापावच्छेदकत्वात् एकदेशेऽतिव्याप्तिरतोऽनाहा-प्रामाण्यवानानाखन्दितनिश्चयत्तित्वविशिछयादृशविशिविषयकत्वं पचतानुमितिप्रतिषग्यकतानिरूपितखरूपसम्बन्धरूपावच्छेदकतापर्यायधिकरणं वादृशविशिहवं व्यभिचारत्वं इवेव वक्तव्यं तथाच प्रतिबन्धकताया श्रमसाधारणानुरोधेन परस्परनिरूप्य-निरूपकभावापनविषयतामाणिनिश्चयत्वेन प्रतिपन्तकतया विशिकविषयकात्वस्थ प्रतिबन्धकतावदकतापायधिकरब
Page #810
--------------------------------------------------------------------------
________________
समिचार।
साध्याव्याप्यत्वे सति साध्याभावाव्याप्यरेत्वाभासत्वं
मन्वेवमपि गन्धप्रागभावकालौनो घटो गन्धवान् पृथिवीलादित्यादौ बाधिते मत्प्रतिपक्षिते च बाध-सत्प्रतिपक्षमादायातिव्याप्तिः काचनमयः पर्वतो वक्रिमान् पर्वतादित्यादी. पचविशेपणमिद्धे पर्वतः काचनमयवकिमान् वहेरित्यादौ माध्यविशेषणासिद्धे पर्वतो वहिमान् काचनमयधूमादित्यादौ हेतुविशेषणमिद्धे चातिव्याप्तिः इदो धूमवान् वक्रेरित्यादौ स्वरूपामिद्धिमीर्णमाधारणदौ चाव्याप्तिः तत्र पचवृत्तिखाभावेन सत्यन्तदशाभावादिति चेत् । न । 'पक्षवृत्तिवे सतीत्यस्थ पचवृत्तित्वग्रहाविरोधिले सतीत्यर्थः, पक्षवृत्तित्वयाविरोधित्वच पक्षतावच्छेदकरूपेण पणे माध्यतावच्छेदकरूपेण माध्यस्य हेतुतावच्छेदकरूपेण हेतोर्वा यज्ज्ञानं तप्रतिबन्धकतानवच्छेदकत्वं, तच्चानुमितिविरोधितावच्छेद
भिन्नतया सर्वअसम्भवापत्तिः । न च यावृशविशिविषयत्वसामान्य प्रचतानुमितिप्रतिबन्धकतानिरूपितखरूपसम्बन्धरूपावच्छेदकतावदित्युक्तौ न दोष इति वाच्यं । तेजस्ववान् धूमामाववत्तित्ववान् इति ज्ञानसमकालीगस्य तेजस्ववान् वकिरिति ज्ञानस्य व्यावर्तकधर्मदर्शनविधया प्रतिबन्धकतया तेजस्ववजिविषयवसामान्यस्य तादृशप्रतिबन्धकतावच्छे एकतया तेजस्ववश्वको धूमवान् वङ्गेरित्यादौ पतिव्थास्यापत्तिः, पगविरित्तित्वरूपावच्छेदकत्वोक्तौ च तेजस्ववान् धूमाभाववत्तित्ववान् इति धानासमकालीनस्य तेजस्ववान् वकिरिति ज्ञानस्य प्रचतानुमित्यः । মনিবন্ধন মলক্ষিষিমজলিল মন্ত্রনালুমিনিমনি तातिरिवत्तितया तेजस्ववदछौ नातियामिरिति विभावनौयं ।।
Page #811
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामो
साध्यवन्माचहत्त्यन्यत्वे सति साध्याभाववन्माचहत्त्य
कस्य विशेषणं, साधारण्यज्ञानञ्च न साक्षादनुमितिप्रतिबन्धक अपि तु अव्यभिचारांगे(१) व्याप्तिग्रहप्रतिबन्धकमेवेति मतेनेदं वक्षणमतो न तत्राव्याप्तिः, व्याप्त्वामिद्धिश्च माधारणन्तर्गतैव वक्ष्यमाणमिद्धिमामान्यलक्षणाक्रान्ततया प्रसिद्धवाविव व्यभिचारमामान्यलक्षणाक्रान्ततया व्यभिचारान्तर्गतत्वेऽपि बाधकाभावात् । न चैवमपि व्यभिचारादिविशिष्टस्य सव्यभिचारपदार्थत्वं न वृत्तं निरुक्तविभिष्टधर्मस्य व्यभिचारत्वे विरोधेऽतिव्याप्तिः तस्थापि व्यभिचारान्तर्गतत्वे विरुद्धत्वेन पृथविभागानुपपत्तेः, व्याप्यत्वामिद्धिच व्याप्यवामिद्धित्वेन न विभक्तः अपि तु आश्रयासिद्धिसाधारण सिद्धित्वेनैवेति वाच्यं । विरोधान्यत्वेन निरुतविशिष्टधर्मस्य विशेषणैयत्वात्, विरोधान्यवञ्च हेतु-माध्यमामानाधिकरण्ययहविरोधितानवच्छेदकत्वं, असाधारणत्वच्च माध्य-तदभावव्यापकौभताभावप्रतियोगी हेतु तस्तवाव्याप्तिः, माध्यवदवृत्तिले मति माध्याभाववदवृत्तित्वं असाधारणत्वमिति साम्प्रदायिकमते च माध्याभावसमानाधिकरणोहेतुरिति ज्ञानप्रतिबन्धकतानवच्छेद] मद्यत् हेतु-माध्यमामानाधिकरण्यग्रहविरोधितावच्छेदकं तदन्यत्वं विरोधान्यत्वं निर्वाच्यमिति न काप्यनुपपत्तिः, व्यभिचारादिज्ञानमण्यनुमितिप्रतिबन्धकमिति मतेनेदं लक्षणं नातोऽसम्भवः । अनुमितिपदं वा यथोक्तानुमितिकारणभूतज्ञानपरं, विरोधितापदेन च यदंगे तादृशानु(१) अव्यभिचरितत्वविशिवसाध्यसामानाधिकरण्यं व्याप्तिरिति भावः |
Page #812
--------------------------------------------------------------------------
________________
सव्यभिचारः।
न्यत्वं वेति परास्तं, व्यर्थविशेषणत्वात् प्रथमं हेत्वाभासत्वाज्ञानाच, गगनमनित्यं शब्दाश्रयत्वादित्या
मितिकारणता तदंगे विरोधिता ग्राह्या तेन वहिव्याप्यधूमवान् पर्वतः प्रमेयत्वं वयभाववदवृत्तौति समूहालम्बनज्ञानप्रतिबन्धकतावच्छेदकवद्भ्यभावववृत्तिप्रमेयत्वादिमादाय धूमादौ नातिव्याप्तिरिति सङ्क्षपः । __ साधारणादिषु लक्षणं सङ्गमयति, ‘मपचेति, 'सपक्षात्' माध्याधिकरणात्, यः 'विपक्षः' भिन्नः, 'तवृत्तित्व' तवृत्तित्वविशिष्टहेतविषयकत्वं, माध्यवत्तित्वे मति साध्याभावववृत्तित्वविशिष्टहेतुविषयकत्वमिति यथाश्रुतार्थस्तु न सङ्गच्छते ‘विरूद्धोऽप्यनेन रूपेण सव्यभिचार एव' इत्यग्रिमग्रन्थासङ्गतः। 'उभयव्यावृत्तत्वं' यावत्सपक्ष-विपक्षव्यावृत्तहेतुविषयकत्वं, माध्य-तदभावोभयव्यापकोभूताभावप्रतियोगिहेतुविषयकवमिति यावत्, 'अनुपसंहारित्वमिति अनुपसंहारित्वविशिष्टहेतुविषयकत्वञ्चेत्यर्थः, 'अनुमितिविरोधि' अनुमितिविरोधितावच्छेदकं, 'तत्सम्बन्ध इति तेषां माध्यवद्भित्रवृत्तित्वविशिष्ट हेत्वादीनामभेदलक्षणसम्बन्ध इत्यर्थः, 'प्रत्येकमस्तौति प्रत्येक साधारणामाधारणानुपसंहारिवस्तीत्यर्थः । नन्वेवं माध्यवभिन्नवृत्तित्वविशिष्ट हेतोरभेदलक्षणसम्बन्धस्य विरुद्धेऽपि मत्त्वादतिव्याप्तिरित्यत श्राह, 'विरुद्धोपौति, 'अनेन रूपेण' माध्यवभिनवृत्तित्वविशिष्ट हेतृत्वरूपेण । नन्वेव विरुद्धस्य पृथग्भिधानं पुनरुतं । न चावृत्तिहेतरूपस्य विरुद्धस्य सहाय पृथकदभिधान
Page #813
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामो दिबाध-विरासंकीर्णासाधारणाव्याप्तिरिति कश्चित् । नापि सपक्ष-विपक्षगत-सर्वसपक्ष-विपक्षव्याहत्तान्यत
मिति वाच्यं । तत्रापि यथोक्तामाधारणत्वस्य सत्त्वेन सव्यभिचारामार्गतलादित्यत शाह, 'उपाधेरिति विभाजकोपाधेरित्यर्थः, 'न मकरः' नाभेदः, तथाच स्वतन्त्रेच्छस्येतिन्यायात्() एकस्यैव विरुद्धस्य विभिन्नधर्मरूपेण विभजनान पौनरुत्यमिति भावः । 'एतदज्ञानइति, एतच्च दृष्टान्नार्थे, 'वाशब्दः अध्यर्थे, तथाचैतस्याज्ञानदयायामिव ज्ञामदशायामपि आवश्यकसाधारणत्वादिप्रत्येकधर्मप्रकारकज्ञानस्यैव प्रतिबन्धकवादित्यर्थः, 'व्यर्थविशेषणत्वादिति सत्यन्तविशेषणस्य व्यर्थत्वादित्यर्थः, विरुद्धमाधारणलक्षणं दूषयित्वा विरु
व्यावृत्तं लक्षणयं दूषयति, 'अतएवेति, अत्र लक्षणदये ह्रदो वहिमान् धूमादित्यादौ माध्यव्याप्यस्य धमादारणाय मत्यन्न, विरुद्धवारणय प्रथमे 'माध्याभावाव्याप्येति, द्वितीये 'साध्याभाववन्माचवृत्त्यन्यत्वमिति, विरोधसङ्कीर्णमाधारणनुपसंहारिणौ(२) न लक्ष्यौ किन्तु शब्दाकाशावनित्यौ शब्दाकाशान्यतरत्वात् सर्वमनित्यं प्रमेयत्वादित्यादिमाधारणमौर्णवेतौ वक्ष्यौ, वहिमान् श्राकामादित्यादाववृत्त्याकागादेारणव इलाभासत्वमिति, अत्तिय न हेतुर्न वा हेत्वाभासः हेतुतावच्छेदकसम्बन्धेन वृत्तिमतएव तथा
(१) खतन्वेच्छस्य पर्यनुयोगानईत्वादिति न्यायादित्यर्थः । (२) थाप्याभिन्न-विरजामिनासाधारणानुपसंहारिणावित्यर्थः ।
Page #814
--------------------------------------------------------------------------
________________
- सव्यभिचारः।
Eve
रत्वं, व्यर्थविशेषणत्वात् अनुपसंहार्यव्याप्तेश्च ।, किंच
वादित्यभिमानः । एतच्च द्वितीयलक्षणेऽप्यनुषचनीय, प्रथमलक्षणे माध्यव्याप्यत्वं माध्याभाववदवृत्तिवे मति माध्यवत्तित्वं, माध्यवदवृत्तित्वे सति माध्याभावववृत्तित्वञ्च माध्याभावव्याप्यत्वं, द्वितीये माध्यवभिन्नावृत्तिले मति माध्यवत्तित्त्वं माध्यवमात्रवृत्तित्वं, साध्याभाववनिनावृत्तित्वे सति साध्याभाववत्तित्वच्च माध्याभाववन्माचवृत्तित्वं, तो नाभेद इति भावः । 'व्यर्थविशेषणत्वादिति हेत्वाभासत्वदलस्य व्यर्थत्वादित्यर्थः, तदुपादानेऽप्यत्ति हेतो?ारवात्() खरूपासिद्धिमादाय तस्यापि हेत्वाभासत्वात्, न हि दुष्टहेतोः सामान्यलक्षणे स्वरूपासिद्धिलक्षणे वा वृत्तिमत्त्वमपि विशेषणं, गौरवाड्यर्थत्वाचेति भावः । इदमुपलक्षणं विरुद्धवारणय प्रथमलक्षणे साध्याभावाव्याप्यत्वदलं द्वितीये साध्याभाववन्माचत्यन्यत्वदलञ्च व्यर्थं विरुद्धस्य सव्यभिचार भिन्नत्वे मानाभावादित्यपि बोध्यं। 'प्रथममिति साधारयादेः प्रत्येकस्य ज्ञानं विनेत्यर्थः, 'हेत्वाभासत्वाज्ञानात्' निरुतमाध्याव्याप्येत्यादिलक्षण ज्ञानासम्भवात्, तज्ज्ञाने च तस्यैव प्रतिबन्धकतया यथोक्तधर्मप्रकारकज्ञानस्यानुमितेस्तत्कारणज्ञानस्य वा प्रतिबन्धकत्वे मानाभावात्। न च माध्याव्याप्यत्वादिघटिततया यथोक्तधर्मप्रकारकज्ञानमपि व्याप्तिज्ञानप्रतिबन्धकमिति वाच्यं। माध्याव्याप्यवादेहेतुतावच्छेदकविशिष्टहेताव(९) पर्वतो वह्निमान् गगनादित्यादौ गगनहेतुम्मिकमवतवृत्तित्वाभावमादाय दुर्बारत्वादिति भावः । 102
Page #815
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामणौ
पक्षातिरिक्तसाध्यवतः ‘सपक्षत्वे प्रमेयत्वेनाभेदसाधनेऽनुपसंहाय चाव्याप्तिः पाक्षातिरिक्तसाध्यवतोऽप्रसिद्धेः
प्रकारत्वादिति भावः । इदमुपलक्षणं माध्यव्याप्यत्व-साध्यवन्मात्रवृत्तित्यादेहतुतावच्छेदकसम्बन्धेनैवावश्यं वक्तव्यतया अयं घटोजानादित्यादौ यत्र हेतुतावच्छेदकविषयतादिसम्बन्धेन साध्यव्याप्यत्वादिकमप्रसिद्धं नचाव्याण्यापत्तिखेति बोध्यं। कस्यचिदूषणमाह, 'गगनमिति, 'बाध-विरुद्धसङ्कीर्णति बाधविरुद्धवाभिनेत्यर्थः, अनवगतमाध्यमहचारकत्वे सति अवगतसाध्याभावसहचारित्वस्य विरोधत्वनये अयमेतदभिन्नः प्रमेयत्वात् शब्दोनित्यः शब्दाकामान्यतरत्वात इत्यादेरपि विरुद्धतया तदारणाय 'बाध-विरुद्धेत्युक्तं, 'बाध-विरु
खञ्च माध्याभावव्याप्यत्वरूपविरोधाश्रयत्वं, 'कश्चिदित्यखरसोद्भावनं तदीजन्तु व्याप्यसौर्णमाधारणवविरुद्धसझौसाधारणस्याप्यलक्ष्यवात् तत्राव्याप्तिन दोषायेत्यवसेयं । अनयोर्लक्षणयोः परिकारच दौधितावनुसन्धेयः। 'सपक्ष-विपक्षगतेति माध्यवत्तित्वे मति माध्याभाववत्तिवेत्यर्थः, 'सर्वसपचेति साध्यवत्तानिश्चयविषयवृत्तिसामान्यभिन्नत्वे मति माध्याभाववत्तानिश्चयविषयवृत्तिमामान्यमित्रत्वेत्यर्थः, सर्वपदं सामान्याभावलाभाय, यथाश्रुते एकमात्रसपक्ष-विपक्षक साधारणेऽव्याप्तः, 'व्यर्थति विरुद्धवारकयोः अपक्षगतत्वदल-विपक्षव्याहत्तत्वदलयोथत्वादित्यर्थः, तदुभयदलस्य दूषकनावामनुपयोगित्वेन साधारणत्वासाधारणत्वाघटकतया विरुद्धस्थापि साधारणामाधारणतर्गतत्वेन सव्यभिचारत्वादिति भावः ।
Page #816
--------------------------------------------------------------------------
________________
सञ्चभिचार
साध्यवतः सपक्षत्वे विवक्षिते प्रसिद्धिः वृत्तिमताधर्मस्य साध्यवहिपक्षान्यतरत्तित्वनियमात् ।
केचित्तु सपक्षगतत्वदल-विपक्षव्यावृत्तत्वदलयोरसाधकतानुमाने व्यर्थत्वादित्यर्थः, इत्याहुः। तदसत्। अखण्डाभावस्य हेतुत्वान्। 'अनुपसंहार्येति पर्वतो धूमवान् वरित्यादौ साधारणेऽनुपसंहारितादशाय कापि माध्य-तदभावनिश्चयासत्त्वदमायामन्याप्तेरित्यर्थः, तदानौं माध्य-तदभाववत्तथा निश्चितस्याप्रमिया तड्याहत्तस्याप्रसिद्धेरिति भावः।
मनु सपक्ष-विपच्यावृत्तेत्यत्र सपक्ष-विपक्षत्वं न साध्य तदभाववत्तथा निश्चितत्वं किन्तु पचातिरिक्रमाध्य-तदभाववत्वं, पक्षत्वञ्च मन्दिग्धलाध्यकत्वं, तथाच पर्वतो धूमवान् बहेरित्यादौ कापि साध्य तदभावनिश्चयासत्त्वदशायामपि नाप्रसिद्धिः ।
पदा माध्यवत्त्वमेव सपक्षवं, माध्याभाववत्त्वमेव विपञ्चत्वमित्यतभाह, 'पक्षातिरिक्तति, अस्य पूर्व 'किञ्चेति क्वचित् पाठः सचन सन्दर्भश्राद्धः, ‘प्रमेयत्वेनेति, अभेदे बताया, 'साधने' माध्यके, अयमेतदभिवः प्रमेयत्वादित्यभेदसाध्यकप्रमेयत्वरूपे साधारणे इत्यर्थः, 'अनुपसंहार्य चेति सर्वमनित्यं प्रमेयत्वादित्यादिसर्वपक्षक चेत्यर्थः, अनुपसंहार्यव्याप्तिमेव विवृणोति, ‘पचातिरिकेति, जगत एव माध्यसन्देशाकामालेम तदतिरिकाप्रसिद्धेरिति भावः। द्वितीयं दूषयति, 'माध्यवतः सपक्षव इति, तदभाववतश्च विपक्षत्व इति श्रेषः, 'अपमिद्धिरिति शब्दोऽनित्यः शब्दबादित्यादावसाधारपदमाया
Page #817
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२
तत्त्वचिन्तामयी
नापि पक्षातिरिक्तसाध्यवन्मावहत्त्यन्यत्वे सति पक्षातिरिकासाध्याभाववन्मावत्तिभिन्नत्वम् अनुपसं
मव्याप्तिरित्यर्थः, 'धर्मस्य' वस्तुनः, ‘माध्यवद्विपक्षान्यतरेति माध्यवत्तदभाववदन्यतरेत्यर्थः । ___ पक्षातिरिक्त्यादि, जल दो वहिमान् धमादित्यादौ माध्यव्याप्यस्य धूमादेारणाय मत्यन्तं, घटोद्रव्यं सत्त्वादित्यादौ माधारणस्य सत्त्वादेः संग्रहाय मात्रपदं, पर्वतो वझिमान् धूमादित्यादौ धूमादेरपि खानधिकरणमात्रे साध्य-तदभावनिश्चयदशायामेवासाधारणतया तत्राव्याप्तिवारणय ‘पक्षातिरिक्तत्वं माध्यवतोविशेषणं, तदर्थश्च 'पक्षः' साध्यनिश्चयाविशेष्यः, तदतिरिकत्वं साध्यनिश्चयविशेष्यत्वमिति यावत्, न तु ‘पक्षः' मन्दिग्धसाध्यकः, तदतिरिकत्वं, हुदो वहिमान् धूमादित्यादौ यदा केवलं हूद एव माध्यसन्देहः हुदातिरिक्तधूमानधिकरण एव च माध्य-तदभावनिश्चयस्तदापि धूमस्यामाधारणतया तत्राव्याप्यापत्तेः, यदा सर्वत्रैव साधनाधिकरणे माध्यवत्तानिश्चयस्तदामाधारणेऽव्याप्तिवारणाय साध्यवत्त्वप्रवेशः, सुरभि#रश्ववादित्यादौ विरुद्धस्याश्वत्वादेारणय विशेष्यदलं, घटोद्रव्यं सत्त्वादित्यादौ माधारणस्य सत्त्वादेः संग्रहाय मापदं, पचातिरिकत्वञ्च अत्रापि माध्याभाववत्यन्वेति अन्यथा अश्वोगौरश्वत्वादित्यादावश्वत्वादेरपि खानधिकरणमाचे साध्य-तदभावनिश्यदमाथामसाधारणतया तत्राव्याण्यापत्तः, क्वचित्तु मूले तथैव पाठः,
Page #818
--------------------------------------------------------------------------
________________
सथमिचारः। 'हार्यव्यानेः धूमादावतिव्याप्तश्च तस्य पन एव, साध्यवति वृत्त।
नापि पक्षत्तित्वे विरुद्घान्यत्वे , सत्यनुमित्यौपयिकसम्बन्धशून्यत्वं व्यर्थविशेषणत्वात् । एतेनानुगतं
पक्षातिरिकत्वञ्च 'पक्षः' माध्याभावनिश्चयाविशेव्यः, तदतिरिक्तत्वं माध्याभावनिश्चयविशेष्यत्वमिति यावत्, न तु 'पक्षः' सन्दिग्धमायकः, तदतिरिक्तत्वं, सुरभिर्गोरश्वत्वादित्यादौ यदा केवलं सुरभावेव गोत्वसन्देहस्तदतिरिक्ऽश्वत्वानधिकरण एव गोव-तदभावनिश्चयस्तदायश्वत्वस्यामाधारणतया तत्राव्याण्यापत्तेः, यदा सर्वत्रैव माधनाधिकरणे साध्याभाववत्तानिश्चयस्तदासाधारणेऽव्याप्तिवारणाय साध्याभाववत्त्वावेश इति ध्येयं। 'अनुपसंहाय॑ति तत्र जगत एव माध्यसन्देहाक्रान्ततया पक्षातिरिक्तापसिद्धेरिति भावः । इदमुपलक्षणं द्रव्यं सत्त्वादित्यादौ माधारणेऽपि माध्य-तदभाववति माध्य-तदभावानिश्चयदशायामव्याप्तिः(१) इत्यपि बोध्यं, 'धूमादाविति पर्वतो वझिमान् धूमादित्यादावमाधारण्योत्तीर्णतादभायां साध्यव्याप्यधूमादावतिव्याप्तेरित्यर्थः। पक्ष एवेति ‘एवकारोऽप्यर्थं, पक्षत्वं माध्यसन्देहविशेष्यत्वं, ‘माध्यवतीति पर्वत इति शेषः, इदमुपलक्षणं प्रथमश्वोगौरश्वत्वादित्यादावमाधारण्योत्तीर्णतादशायां विरुद्धत्वेऽश्वत्वादावष्यतिव्याप्तिः तस्य माध्याभाववत्तासन्देहवत्यपि साध्याभाववति अश्वादौ वृत्तेरिति बोध्यं ।
(९) साध्य तदभावनिश्चयासत्त्वदशायामिति घ० ।
Page #819
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०
तत्वचिन्तामो
सर्वमेव लक्षणं प्रत्युक्तं प्रत्येकमेव दूषणत्वात् उद्भावने वादिनिहत्तश्च ।
'पक्षत्तिल इति, 'अनुमित्यौपयिकः' अनुमितिजनकज्ञानविषयः, यः सम्बन्ध स्तच्छून्यत्वमित्यर्थः, स च सम्बन्धः पक्षसत्त्वं मपचमत्त्वं विपचासत्त्वञ्च, तत्र सपक्षमत्त्वाभावमादायामाधारणे लक्षणसमन्वयः, सपक्षलं निश्चितमाध्यवत्त्वं न तु माध्यवत्वमा तथा मति शब्दोऽनित्यः शब्दबादित्यादिसद्धेतरूपे) असाधारणेऽव्याप्यापनेः । न च एतलक्षणकर्तृमते तदमाधारणमेव न किन्तु साध्यवदवृत्तित्वस्यामाधारण्यतया नित्यः शब्दः शब्दत्वादित्यादिविरुद्धमेवासाधारणं तत्र च विपक्षासत्त्वाभावमादायैव लक्षणसमन्वयः तेन निरुतमपक्षसत्त्वाभावस्य विरोधान्यत्वाभावेऽपि न चतिरिति वाच्य। तथा मति विरोधान्यत्वदलवैयपित्तेः माध्यवदवृत्तित्वदशस्यासाधारणत्वनये अाकाशाद्यवृत्तिहेतोरमाधारखवेन सध्यतया तत्राव्याप्यापत्तेच, केवलं निश्चितमाध्यवड्यात्तत्वरूपं सपक्षव्यावृत्तत्वरूपमेव असाधारणत्वं न तु विपक्षव्यावृत्तत्वमप्यत्र घटकमित्येतन्मतेनैवेदं स्वक्षणं तेन वकिमान् धूमादित्यादौ धूमादेविपक्षव्यावृत्तत्वाभावदशायां सपक्षव्यावृत्तत्वेऽपि अलव्यत्वात्तदानौं केवलमपञ्चमत्त्वाभावमादायातिव्याप्तिरिति निरस्तं,
(९) वयासत्यनित्यः शब्दः शब्दत्वादिबादौ सद्धेतुरूप इवि ३० ।
Page #820
--------------------------------------------------------------------------
________________
सबमिधारा।
इति श्रीमहशोपाध्यायविरचिते तवचिन्तामणौ अनुमानास्यहितीयखण्डे सव्यभिचारपूर्वपक्षः ॥
'व्यर्थति असाधकत्वानुमाने पत्तित्वादिविशेषणस्य व्यर्थत्वादित्यर्थः, 'एते नेत्यादि, अनुगतं रूपञ्चान्यतमत्वादि ।
इति श्रीमथुरानाधतर्कवागौश-विरचिते तत्तचिन्तामणिरहस्खे अनुमानास्यदितीयखण्डरहस्ये मव्यभिचारपूर्वपक्षरहस्यं ॥
Page #821
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्वचिन्तामणे
अथ सव्यभिचारसिद्धान्तः । उच्यते। उभयकोव्युपस्थापकतावच्छेदकरूपवत्वं तत्वं विरुद्धान्यपक्षत्तित्वे सत्यनुमितिविरोधिसम्बन्धाव्यात्तिवा) तच्च साधारणत्वादि तेनैव रूपेण ज्ञातस्य प्रतिबन्धकत्वात् परस्य तथैवोद्भावनाच लक्षणानुरोधेन प्रत्येकमेव हेत्वाभासत्वम्। यहा साध्यवन्माच
अथ सव्यभिचारसिद्धान्तरहस्यं । दूषणोपयिक एव विभाजक इति नियमानभ्युपगमेनाह, 'उभयेति प्रकृतमाध्यसन्देहजनिका या कोट्युपस्थितिः तजनकतावच्छेदकरूपवत्त्वमित्यर्थः, प्रहते तादृशजनकतावच्छेदकं साधारणत्वादि तदादाय लक्षणसमन्वयः, कोश्युपस्थापकतावच्छेदकानुवृत्तत्वादिरूपमादाय धूमेऽतिव्याप्तिवारणय साध्यसन्देहजनकान्नं । 'विरुद्धान्येति, विरुद्ध-स्वरूपामिद्ध्योरिणाय विरुद्धान्यपक्षवृत्तित्वे मतीत्युक्तं, तदर्थस्तु पक्षवृत्तित्व-माध्यमामानाधिकरण्यग्रहाविरोधित्वं तेन स्वरूपामिद्धि-विरोधसङ्कीर्ण नाव्याप्तिः। अन्यत्सर्वं पूर्ववत्। 'तच्च' उभयकोयुपस्थापकतावच्छेदकरूपञ्च, 'तेन रूपेण' माधारणत्वादिरूपेण, 'तथैव' साधारणत्वादिरूपेणैव, ‘लक्षणेति हेत्वाभासस्य विरोधिविषयत्वघटितपक्षणानुरोधेनेत्यर्थः । ज्ञायमानं सद्यदनुमितिप्रतिबन्धक नह्वेषाभासत्वमित्याद्यनुरोधेनेत्यर्थः, इत्यन्ये । 'यदेति, अत्रापि पूर्ववत्(१) अनुमितिविरोधिसम्बन्धास्याडतिर्वा पनैकान्तिकत्वमिति ग ।
Page #822
--------------------------------------------------------------------------
________________
सभिचारसिद्वान्तः।
उत्त्यन्यत्वे सति साध्याभाववन्माषहत्त्यन्यत्वं तेनासाधारणस्य साध्य-तदभावोपस्थापकतया दूषकत्वपळे नाव्याप्तिः।
न चैवमाधिक्ये विभागव्याघातः, स्वरूपसतानुगतरूपेण चयाणामेकीकृत्य महर्षिणा विभागकरणात् । न चंवं साध्याभावज्ञापकत्वेन बाध-प्रकरणसमयोस्त
माध्यव्याप्यत्व-साध्याभावव्याप्यत्वोभययहविरोधितावच्छेदकरूपवत्वमित्यर्थः, तेन मद्धेवसकोणे साधारणे नाव्याप्तिः, 'तेन' अनुमितिविरोधित्वघटितलक्षणकरणेन, असाधारणस्य सत्प्रतिपक्षोत्थापकतया दूषकत्वपक्षे अनुमितिविरोधित्वसत्त्वाचाव्याप्तिः, 'उभयकोयुपस्थापकेत्यादिघटितलक्षणानुसारेण संशयोत्थापकतया दूषकत्वपक्षे पुनरव्याप्तिः स्थात् असाधारणस्य यहे संशयोत्पादासम्भवात्तेन प्रतिबन्धादित्यर्थः, इदं 'यदे॒त्यस्य पूर्व 'तेनेतिपाठानुसारेण व्याख्यातं, कचित् पुस्तके 'यदेत्यनन्तरं 'तेनेतिपाठः स त्वेवं क्रमेण व्याख्येयः, 'तेन' विरुद्धमौर्णासाधारणदिमनहाय तदुभयव्याप्तिग्रहविरोधित्वघटितलक्षणार्थकरणेन, असाधारणस्य मत्प्रतिपक्षोत्थापकतया दूषकत्वपचे उभयव्याप्तियाविरोधित्वाभ्युपगमात् तदनभ्युपगमे तु विरोधिलघटितखक्षणानुसारेणेदमपि व्याख्येयं । 'प्राधिक्ये' चयाणं दूषकतावौजाधिक्ये, “विभागव्याधातः' पञ्चैव इलाभामा इति विभाग-' व्याघातः, माधारणामाधारणदौनां दूषकनावौजभेदेन भेदादि
103
Page #823
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्वचिन्तामो दचापकतयान्येषामुपसंग्रहः कुतो न कृत इति वाच्यं । स्वतनोच्छस्य नियोग-पर्यनुयोगानईत्वात् ।
इति श्रीमहङ्गेशपाध्यायविरचिते तत्वचिन्तामणौ अनुमानास्यदितीयखण्डे सव्यभिचारसिद्धान्तः ॥०॥
व्याधयः, 'स्वरूपेति तथाच दूषकतावीजभेदेऽपि स्वरूपसदनुगतरूपेण विभजनानाधिक्यमित्याशयः,(२) ‘एवं' स्वरूपसदनुगमकत्वे, 'माध्याभावज्ञापकत्वेन' माध्यवत्ताग्रहप्रतिबन्धकवेन, यथाश्रुते च बाधासाहप्रसङ्गात्(२) 'अन्येषां' व्यभिचारादौनाम् ॥
इति श्रीमथुरानाथतर्कवागौश-विरचिते तत्त्वचिन्तामणिरहस्ये अनुमामाख्य-द्वितीयखण्डरहस्ये सव्यभिचार सिद्धान्तरहस्यं सम्पूर्णम् ।
(१) 'नियोग' एवं कुरा इत्यादिरूपः, 'पर्य्यनुयोगः' कथमेवं कृत
मित्यादिरूपः। (२) नाधिक्यमित्यर्थः इति । (३) तयाच साध्याभाववत्यक्षरूपबाधस्य साध्याभावाज्ञापकत्वेऽपि
साध्यवत्ताग्रहप्रतिबन्धकत्वेन सह इति भावः ।
Page #824
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १८ ) अथ साधारणपूर्वपक्षः। तच साधारणत्वं न साध्याभाववामित्व सर्वमनित्यं भेयत्वादित्यनुपसंहायें भूर्नित्या गन्धवत्वादित्यसाधारणे संयोगादिसाध्यकद्रव्यत्वे चातिव्याप्तेः । अत एव न साध्यवत्तदन्यत्तित्वं, नापि निश्चितसाध्यवत्तदन्यवृत्तित्वं, साध्यवदन्यत्तित्वस्य दूषकत्वेन शेषवैयर्थ्यात्।
अथ साधारणपूर्वपक्षरहस्यं । नम्वनुपसंहार्यमाधारणयोयभिचारित्वमेव(१) उपधेयसवरेऽप्युपाधेरसङ्करादित्युक्त्वादित्यत श्राह,(२) 'संयोगादौति। 'श्रत एव' अनुपसंहार्यशाधारणयोरतिव्याप्तेरेव, ‘माध्येति माध्यवहृत्तित्वे मति माध्यवदन्यवृत्तित्वमित्यर्थः, अन्योन्याभावघटितलक्षणकरणत् संयोगमायके नातिव्याप्तिः,(२) 'श्रत एव' उनस्थलत्रयेऽतिव्याप्तेरेवेत्यर्थः ।
(१) व्यभिचारित्वमेव साधारणत्वमेवेत्यर्थः । (२) ननु बनुपसंहार्यसाधारणयोः साधारणत्वे मिथो भेदाभावात् विभागव्याधात इत्यत बाह, उपधेयेति, तथाच उपधेयानां विभाज्यानां साधारणासाधारणानुपसंहारिणां सधारेऽपि मिथो भेदाभावेऽपि उपाधेः विभाजकस्य साधारणत्वस्य असाधारणत्वस्थानुपसंहारित्वस्य च पसराव मिथो भेदात् न विभागयाघात इति भावः। (२) भेदभात्रस्य व्याप्यत्तितया संयोगवझेदस्य द्रोऽसत्त्वानातियातिरिति भावः।
Page #825
--------------------------------------------------------------------------
________________
८२०
चिन्तामय
अत एवामुकेनायमनैकान्तिक इत्येवेोद्भाव्यते तत एव वादिनिहत्तेच न तु सपक्षगतत्वमपि । अनुपसंहाय्यीव्यावत्वाऽन्यथा तस्यैतद्विशेषत्वापत्तिरिति चेत् त्यज तर्हि तमधिकं कृप्तेऽन्तर्भावात् । नापि सपक्ष-विपक्ष - गतत्वं, व्यर्थविशेषणत्वात् । विरुडोव्यावर्च्य इति चेत्, न, विपक्षगामित्वस्यैव दूषकत्वे तस्याप्येतदन्तर्भावात् ।
अथ पक्षान्यसाध्यवत्तदन्यवत्तित्वं साधारणत्वं तेन 'निखितेति निश्चितसाध्यवहतिले सति साध्यवदन्यवृत्तित्वमित्यर्थः, द्वितीयदले निश्चयांशनिवेशे सङ्केतावतिव्याप्तिः स्यात् भ्रमात्मकसाध्याभावनिश्चयविषयपर्वतवृत्तित्वात् 'साध्येति साध्यवदन्यवृत्तित्वमात्रस्य दूषकतायामुपयोगित्वेन तदनुपयोगिसाध्यवद्वृत्तिलांशनिचयां योर्वैथर्थ्यादित्यर्थः, 'अत एव' वैयर्थ्यादेव, 'अमुकेन' साध्यवदन्यवृत्तित्वेन, 'तत एव' तादृशोद्भावनादेव, एवकारव्यवच्छेद्यार्थं दर्शयति, 'म त्विति । नन्वनुपसंहारिवारणार्थं निश्चित साध्यवहन्तिलं सार्थकमित्याशयेनाह 'अनुपेति, श्रसाधारणेत्यपि बोध्यं, 'अन्यथा' तदव्यावर्त्तने, 'तस्य' अनुपसंहारिणः, 'एतद्विशेषत्वापत्तिः' साधारणविशेषत्वापत्तिः, 'तं' अनुपसंहारिणं । 'नापीति, श्रच 'सपचपदं' साध्यवत्परं, न तु निचयगर्भ, श्रतो न पौनरुक्तयं, 'व्यर्थेति सपचविशेषणवैथर्थ्यादित्यर्थः, विरुद्धवारणाय तत्सार्थकमित्याह, 'विदद्वेति, 'एतदन्तर्भावात्' साधारणान्तर्भावात् ।
I
1
'अति अनुपसंहारिवारणाय 'पच्चान्येति, 'तदन्येति साध्यव -
Page #826
--------------------------------------------------------------------------
________________
साधारणपूर्वपक्षः। सर्वमनित्यं मेयत्वादित्यनुपसंहाये नातिप्रसङ्गः । न च व्यर्थविशेषणता, घटोऽनित्यो घटाकाशाभयत्तिहित्वाश्रयत्वादित्यनुपसंहार्य्यस्य विरुवस्यानैकान्तिकभिन्नस्य व्यवच्छेद्यत्वादिति चेत् । न। दूषकताप्रयोजकरूपभेदमन्तरेण भेदस्यैवानुपपत्तेः । साध्यवद्त्तित्वे सति सर्वसाध्यवदन्यत्तित्वमित्यपि न व्यर्थविशेषणत्वात् एकव्यक्तिकसाध्ये तदभावाच्च । एतेन
चावच्छिन्त्रप्रतियोगिताकान्येत्यर्थः, अन्यथा मद्धेतावतिव्याप्यापत्तिः, 'व्यर्थविशेषणता' माध्यवहृत्तित्वांशस्य व्यर्थतेत्यर्थः, अनवगतमाध्यसहचारी विरुद्ध इति लक्षणभिप्रायेणह, 'घटोऽनित्य इति, इत्यस्य विरुद्धस्य सर्वपक्षकानुपसंहार्य्यस्य विरुद्धवान्तरस्य अयं गौरश्वत्वादित्यस्य माधारणभिन्नस्य व्यवच्छेद्यत्वात्, यथाश्रुते घटपक्षस्यानुपसंहारिवानन्धुपगमात् केवलान्वयिधर्मव्यापकसंशयविषयवृत्तेरेवानुपसंहारित्वादमङ्गतेः, 'दूषकतेति तथाच भिन्न-भिवदूषकताप्रयोजकरूपाभावे विरुद्धानुपसंहारिणोयभिचारिविशेषत्वात् व्यर्थं तदारकविशेषणमित्यर्थः, 'सर्वेति सर्वपदं धूमादेरपि माध्यवड्यक्तिविशेषभेदवहृत्तित्वादतिव्याप्तिवारणाय, माध्यवत्पक्षव्यक्तः प्रातिखिकरूपेण तत्तत्माध्यावच्छित्रप्रतियोगिताकाभावकूटनिवेशो न माध्यमामान्याभावः इत्यतः प्रागुन 'त्रत एवेत्यादिना म पौनरुत्व तब मायवत्वावच्छिनप्रतियोगिताकसामान्याभावनिवेशात्, 'व्यर्थति
Page #827
--------------------------------------------------------------------------
________________
ERP
तत्त्वचिन्तामो
हेचाभासान्तरव्यवच्छेदक लक्षणान्तरेऽपि विशेषणं व्यर्थमिति ।
इति श्रीमहङ्गशोपाध्यायविरचिते तत्त्वचिन्तामणौ अनुमानाख्यदितीयखण्डे साधारणपूर्वपक्षः ॥॥
सत्यन्तभागस्य विरुद्धवारकस्य व्यर्थत्वादित्यर्थः, विरुद्धोऽप्येतद्विशेषएवेति पूर्वमभिधानादित्याशयः, यथाश्रुताभिप्रायेणाह, 'एकेति । 'एतेनेति विरुद्धवादिचतुष्टयान्यत्वे मति हेत्वाभासतावच्छेदकरूपवत्त्वमितिलक्षणे मत्यन्तभागस्य वैयर्थमित्यर्थः ।
इति श्रीमथुरानाथतर्कवागौश-विरचिते तत्त्वचिन्तामणिरहस्ये अनुमानाख्य-द्वितीयखण्डरहस्ये साधारणपूर्वपक्षरहस्यं ।
Page #828
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ८२९ ) अथ साधारणसिद्धान्तः। उच्यते। विपक्षगामित्वं साधारणत्वं तम्माषस्य दूषकत्वात् विरुवस्यापि तत्वाज्ञाने विपक्षत्तिताजानदशायां साधारणत्वम् अन्यथा तस्य हेत्वाभासान्तरतापत्तेः उपाधेश्च न सङ्कर एव। सर्वमनित्यं मेयत्वादित्यनुपसंहारी शब्दोऽनित्यः शब्दत्वात् भूनित्या गन्ध
অন্য ভাষাঘষিদ্ভুলাল। 'विपचेति, ननु विपक्षगामित्वं यदि माध्यात्यन्ताभाववामित्वं तदा माध्यवदन्यत्तित्वे हेत्वधिकरणदेः साध्याभाववत्त्वादौ चाव्याप्तिरिति() चेत् । न। प्रकृतहेतुधर्मिकप्रकृतमाध्याभाववदवृत्तित्वग्रहत्वावच्छिवं प्रति ज्ञानविषयतया प्रतिबन्धकतावच्छेदकरूपस्य विवक्षितत्वात्, काञ्चनमयधूमवान् वहेरित्यादौ तु माध्यादेः साध्यतावच्छेदकाद्यभाववत्त्वं न नादृशग्रहत्वावच्छिन्न प्रति विरोधितावच्छेदक अतस्तद्युदामः। न चैवं धूमसामान्याभाववगामित्वादावव्याप्तिः तस्य काधनमयधूमाभाववहृत्तित्वग्रहत्वावच्छिन्नं प्रत्यविरोधित्वादिति वाच्यं । तस्य व्याप्यत्वामिद्धावेवान्तर्भावौयत्वेनालक्ष्यत्वात् माध्यादिनिष्ठस्य माधनाव्यापकत्वादेरनुपसंहारिताले तदन्यत्वेन प्रतिबन्धकतावच्छेदक तदवगाहित्वानवच्छिन्नं वा प्रतिबन्धकत्वं वाच्यं इत्यास्तां विस्तरः । 'विपक्षगामित्वं' साध्यवदन्यवृत्तित्वं, 'माधारणत्वं' साधारणविधया दोषत्वं, 'तस्थेति विपक्षवृत्तितामात्रेण रहौतविरुद्धस्येत्यर्थः । ननु (१) साध्याभाववत्तित्वस्येव साध्यवदन्यत्तिखस्य साध्याभाववडेवधिकरणदेश्च सयभिचारवेन तत्र तत्राव्यातिरिति तात्यय॑म् ।
Page #829
--------------------------------------------------------------------------
________________
८२४
तवचिन्तामणी
ववादित्यसाधारणश्च वस्तुगत्या साध्याभाववत्तित्वेन साधारणोऽपि पक्षतादशायाम् उद्भावयितुं न शक्यत इत्युभयो: देनोपन्यासः।
इति श्रीमहङ्गेशपाध्यायविरचिते तत्त्वचिन्तामणौ अनुमानाख्यद्वितीयखण्डे साधारणसिद्धान्तः ॥०॥ विपक्षगामिलं यदि माधारणं तदा माध्याभावव्याप्यत्वरूपस्य विरुद्धत्वस्य तबियतत्वात् न दुष्ट हेतुविभाजकत्वं स्थात् मिथोविरुद्धधर्माणमेव तथात्वादत प्राइ, 'उपाधेश्चेति साधारणत्व-विरु
खाधुपाधेः, 'न सङ्करः नाभेदः, तथाच मिथो भिनाना दोषाणामेव लक्ष्यतया दुष्टानामभेदो न चतिकरः, पचवृत्तिवे मति माध्यव्यापकीभताभावप्रतियोगित्वं माध्याममानाधिकरणत्वमाचं वा विरुद्धत्वं तञ्च न विपक्षवृत्तित्वमतस्तन्मात्रेण न तस्यान्यथासिद्धिरिति भावः ।
ननु साधारण्यं यदि विपक्षवृत्तिवं तदानुपसंहारितादशायां पक्षमात्रवृत्तित्वग्रहदशायां वा कथायां कथममौ नोपन्यस्यते तदानौमपि हेतौ तत्मत्वादत शाह, 'सर्वमिति, 'पक्षतादशायामिति प्रतिज्ञाधर्मिणः सन्दिह्यमानमाध्यकत्वदशायामित्यर्थः, 'न शक्यते', साध्य-तदभाववत्तया कस्याप्यनिश्चये निश्चये वा तहृत्तित्वस्य हेतावपहादिति भावः । 'तयोः' अनुपसंहारित्वासाधारण्ययोः,६) 'भेदेन' कालभेदेन, कथायामुपन्यासः।
इति श्रीमथुरानाथतर्कवागौम-विरचिते तत्त्वचिन्तामणिरहस्ये अनुमानास्य-दितीयखण्डरहस्ये साधारणमिद्धान्मरहस्यं सम्पूर्णम् । (१) 'इत्युभयोः' इत्यत्र 'इति तयोः' इति कस्यचिम्भूनपुस्तकस्य पाठ
ममुहत्य तयोरिति पाठो धतो रहस्यकता ।
Page #830
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ८२५ )
प्रथासाधारणपूर्वपक्षः। सर्वसपक्ष-विपक्षव्यात्तोऽसाधारणः । मनु सपक्षत्व न साध्यवन्मावत्वं विपक्षावृत्तेत्तिमतः साध्यववत्तित्वनियमात् । नापि पक्षातिरिक्तसाध्यवत्वं, शब्दोऽनित्यः शब्दत्वादित्यादेव्याप्तिधौदशायामप्यसाधारणतोपत्तः। म चेष्टापत्तिः, बाध-प्रतिरोधी विना व्याप्ति-पक्षधर्मतया ज्ञातादनुमितिनियमादिति चेत्, न, सर्वनिश्चितसाध्यवद्विपक्षव्यावृत्तत्वस्य तत्त्वात् शब्दत्वानित्यत्वव्या
अथामाधारणपूर्वपक्षरहस्यं । प्राची मतेनामाधारणत्वं निर्वनि, 'सर्वमपचेत्यादि, कुतश्चिन सपक्षात् कुतश्चित् विपक्षाच्च व्याप्तत्वं व्याय-विरुद्धयोरपौति तयोवारणाय 'सर्वपदं, 'माध्यवत्त्वं' माध्यवमानत्वं, कचित् तथैव पाठः, 'वृत्तिमतइति श्रवृत्तिगगनादौ व्यभिचारस्य वारणाय, नियमादिति, तथाच शब्दोऽनित्यः शब्दत्वादित्यादौ निखितमाध्यवद्ध्यात्तत्वेनासाधारणेऽव्याप्तिरिति भावः । 'व्याप्तौति माध्यमामानाधिकरण्यस्य धौदशायामित्यर्थः, 'अनुमितिनियमादित्यस्य मति पक्षतादावित्यादिः, तथाच पक्षातिरिक्रमाध्यवड्यात्तस्थानमित्यविरोधिनः परिभाषामा असाधारयं स्यादिति भावः । प्राचा मतेन समाधत्ते, 'न सवैति, निचितवं माथवत्ताथामिव माध्याभाववत्तायामप्यन्वितं,(९) तथा
(१) विपक्षतायामप्यन्वितमिति ग०,०।
104
Page #831
--------------------------------------------------------------------------
________________
८२६
तत्त्वचिन्तामणे
प्तिग्रहे सति शब्दे साध्यनिश्चयानातिव्याप्तिः। न च घटेोऽयमेतच्चादिति सचेतावतिव्याप्तिः, साध्यसन्देहदशायां तस्य हेत्वाभासत्वात्। यद्यपि भूनित्या गन्धववादित्यादिवस्तुतः साधारणः शब्दो नित्यः शब्दत्वादिति विरुद्धः शब्दोऽनित्यः शब्दत्वादित्यादिः सङ्घतुरेव व्याप्त्यज्ञानस्य पुरुषदोषत्वादित्युदाहरणाभावादसाधारण न पृथक्, तथापि पक्षतादशायां साध्यतदभावानिश्चयेन तस्य दोषत्वम् अन्यथा पक्षत्वभङ्गप्रसङ्गात्।
तत्तत्पुरुषेण तदानौं साध्यवत्तया निश्चीयमानेभ्यः सर्वेभ्योव्याहत्तत्वे मति माध्याभाववत्तया निश्चीयमानेभ्यो व्यावृत्तत्वं तत्तत्पुरुषं प्रति तदानौमसाधारण्यमित्यर्थः, तेन शब्दोऽनित्यः शब्दलादित्यादे - संग्रहः । न च नित्यव्यावृत्तधर्मवत्सर्वमनित्यं श्रवणमात्रग्राह्यजातिमत्सर्वमनित्यमित्यादिधौदशायां शब्दोऽनित्यः शब्दत्वादित्यमाधारणाव्याप्तिः तादृशधर्मवत्वेन शब्देऽपि माध्यवत्तानिश्चयादिति वाच्यं । तत्तज्ज्ञानान्यत्वेनापि माध्यनिश्चयस्य विशेषणौयत्वादिति भावः । 'म चेति न वेत्यर्थः, 'सद्धेतौ' मद्धेतुत्वेन निश्चिते, 'माध्येति, पक्षे माध्यस्य संभयदशायामनिश्चयदशायां वा तस्य पक्षमात्रवृत्तिहेतोसकहेत्वाभासत्वादिति भावः । 'पक्षतादशायां' पक्षे माध्यसंशयसत्त्वदायां,'तस्य' साधारण्यादेः, 'अन्यथा' माध्य-तदभावयोरन्यतरस्य पक्षधर्मिकनिर्णयसत्त्वे ।
Page #832
--------------------------------------------------------------------------
________________
चसाधारणपूर्वपक्षः। अथ सर्वसपक्षव्यावृत्तिरेव दोषोन विपक्षव्यात्तिरपि तस्या अनुगुणत्वात् प्रत्युत विपक्षव्यायत्तत्वेन व्यतिरेकितया परसाध्यसाधकमेवोपन्यक्तं स्यात् । न च संशायकतया दोषत्वं तच्चोभयव्यात्तत्वज्ञानादिति वाच्यं । व्याप्तिग्राहकं सहचारज्ञानं तदभावद्वारा सपक्षव्याहत्तत्वमावस्य दोषत्वात्। किञ्च शब्दोऽनित्यः शब्दत्वादित्युक्त्वा निवृत्ते तावन्नेदमुद्भाव्यं न्यूनत्वेनैव वादिनिग्रहात् तदुद्भावने वादिनिवृत्तेश्च । न च न्यूनत्वे तदुपजीव्यं, असाधारण्यव्यतिरेकेणापि तदुपन्यासात्।
स्वमतेन सिद्धान्तयितुं प्राचांमतं निरस्यति, 'अथेति, 'दोषइति उद्भाव्य इति शेषः, 'अनुगुणत्वादिति अधिकरणविशेषान्तर्भावेण व्यभिचारयहं प्रति विरोधितया माध्यौयव्याप्तिग्रहं प्रति उपयुक्रत्वादित्यर्थः, 'यतिरेकितया' व्यतिरेकव्याप्युपयोगितया, विपक्षतया निश्चितेषु हेतोरसत्त्वग्रहे हेत्वभावस्य विपक्षत्वव्यापकताधौसम्भवादिति भावः। 'न चेति, 'संशायकतया' माध्यसंशायकतया, 'दोषत्वं' असाधारणस्येति शेषः, 'उभयव्यावृत्तत्वेति सपक्षविपक्षोभयव्यावृत्तत्वज्ञानादेवेत्यर्थः, 'व्याप्तौति व्याप्तिग्राहक व्यापकसामानाधिकरण्यरूपव्याप्तिविषयकं यत्माध्य-साधनयोः सहचारचान, 'तदभावधारा' तत्प्रतिबन्धकद्वारा, 'सपव्यावृत्तत्वमात्रस्य दोषवात्', तथाचोभयव्यावृत्तत्वज्ञानत्वेनानुमितौ परामर्श वा प्रतिबन्धकत्वाभावानामौ दोषः । ननु प्रमाणदूषणमपि सपक्ष-विपक्षो
Page #833
--------------------------------------------------------------------------
________________
. सत्वचिन्तामयी
न च व्यतिरेकिप्रयोगे तदपन्यासः, व्याप्ति-पक्षधर्मतयोरप्रतिक्षेपेऽकिश्चित्करत्वात, स्वार्थानुमाने च सर्वसपक्षव्यात्तिरेव दोष इत्यक्तमिति।
इति श्रीमहङ्गशोपाध्यायविरचिते तत्वचिन्तामणौ अनुमानायद्वितीयखण्डे असाधारणपूर्वपक्षः ॥१॥ भयव्यावृत्तत्वं दृष्टान्तस्य साधनवैकल्यवदुपाधिवच्च निग्रहस्थानत्वादेवोद्भाव्यमतमाछ, 'किञ्चेति, 'इत्युक्तेति इत्यादिकतिपयावयवमुवोत्यर्थः, 'निवृत्ते' वादिनौति शेषः,(२) पञ्चावयवोत्युत्तरं तदुपन्यासे तु पर्यनुयोज्योपेक्षणस्य निग्रहस्थानस्य प्रसङ्ग इति भावः । 'इदं' सपक्षादिव्यावृतत्वं, ‘न्यूनत्वेनेति उदाहरणाद्यनुल्या न्यूनत्वेनेत्यर्थः । नमूनावितेऽपि न्यूनले वादिनः प्रत्यवस्थानात् न तस्य निग्रहस्थानत्वं अत-बाह, 'तदुद्भावन इति न्यूनत्वस्योद्भावन इत्यर्थः, 'तत्' असाधारण्यं, 'उपजीयं, अतस्तद्धेतोरितिन्यायेन तस्योद्भाष्यत्वमित्यर्थः, सभाचोभादिना उदाहरणाद्यनुतौ व्यभिचाराब तस्योपजीव्यवमित्याइ, 'असाधारण्येति, 'व्यतिरेकिप्रयोगे' व्यतिरेकव्याप्यन्तर्भावेण न्यायप्रयोगे, तदीयोदाहरणस्य हेतौ माध्यमामानाधिकरण्यायोधकतया रहमाणस्य हेतोः माध्याभावीयव्याप्ति-पक्षधर्मताखण्डनप्रयुक्तपर्य्यनुयोज्योपेक्षणस्योद्भावनासम्भवादिति भावः । नन्दावनकामासम्भवेन मा भूत् परार्थानुमाने सपक्ष-विपक्षोभयष्यावृत्तवं दोषः खार्थानुमाने तु स्यात् तत्रोद्भावनस्यामपेक्षणत् अत बाइ स्वार्थेति ।
इति श्रीमथुरानाथतर्कवागौश-विरचिते तत्वचिन्तामणिराये अनुमामाख्य-दितीयखण्डरहस्ये असाधारणपूर्वपक्षरहस्यं । (१) गघिशितमूलपुलके 'वादिगि निखत्ते' इत्येव पाठो वर्तते ।
Page #834
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २६ )
अथासाधारणसिद्धान्तः। उच्यते । शब्दत्वं साध्यवतस्तदभाववतच निवृत्तत्वेन जातमाद्यतिरेकितया वा पक्षे साध्यं तदभावच्च साधयेत् अविशेषात् अन्यथा पत्तित्वानुपपत्तिरिति साध्य-तदभावोत्थापकतया स्वार्थानुमानेऽसाधारणदोषः, सत्प्रतिपक्षे दो हेतू तथा, अव त्वेकरवेति तयोर्भेदः। असाधारणेन व्यतिरेकिप्रयोगे परस्य सर्व
अथासाधारणसिद्धान्तरहस्यं । 'अर्थात्', पक्षवृत्तित्वरूपमादाय साध्यवतस्तदभाववतश्च व्यावृत्तत्वेन 'ज्ञातं शब्दत्वं', 'यतिरेकितया' व्यतिरेक्यनुमानविधया, 'पचे माध्यं तदभावञ्च', 'माधयेत्' उभयमियानुकूलं भवेत्, 'अविशेषात्' साध्याभाववयारत्तभब्दत्ववत्तारहस्य साध्यवत्तायामिव साध्यवयात्तत्वेन तद्वत्ताग्रहस्थापि साध्याभाववत्तायां माधकलाविशेषात्, 'अन्यथा' माध्यवड्यावृत्तशब्दत्ववत्ताग्रहस्य माध्याभावासाधकत्वे, 'पक्षवृत्तित्वानुपपत्तिः' विपचव्यावृत्तवविशिष्टस्यापि पक्षधर्मत्वस्य माध्यमाधकत्वानुपपत्तिः, अतः ‘माध्य-तदभावोत्थापकतया' माध्य-तदभावमियनुकूखपरामर्थविषयतया, 'खार्थानुमाने', 'असाधारणः' सपक्षविपक्षव्यावृत्तत्वेन ग्टहीतो हेतुः, 'दोषः'। नन्वेवं माध्यौयव्याप्तिपक्षधर्मतया ग्टह्यमाणस्य हेतोः माध्याभावीयव्याप्ति-पक्षधर्मतावचमसाधारयमित्यर्थः तच्च सत्प्रतिपक्षेण चरितार्थं प्रत त्राह,
Page #835
--------------------------------------------------------------------------
________________
तावचिन्तामगै
'अथानुपसंहारिपूर्वपक्षः। अनुपसंहाय नासत्सपक्ष-विपक्षः सियसिद्धिविरोधात् । नापि केवलान्वयिधर्मावच्छिन्नपक्षकः, केवलान्वयिसाध्यकस्य सहेतुत्वात् व्यतिरेकिसाध्यकस्य तु साध्य-तदभाववामित्वेन साधारणत्वात् अन्यथा संशयाहेतुत्वेनानैकान्तिकता न स्यात, सर्व क्षणिक सत्वादिति साध्याप्रसिद्ध्या व्याप्यत्वासिमपार्थकं वा,
अथानुपसंहारिपूर्वपक्षरहस्य। 'अमदिति प्रमित्यविषयमपक्षत्वे मति प्रमित्यविषयविपक्षकइत्यर्थः, 'सिद्धौति, सपक्ष-विपक्षयोः सिद्धवाववश्यं प्रमितिविषयत्वं असिद्धौ च कथन्तद्गर्भानुपसंहारिवमित्युभयथापि व्याघातः । 'केवलान्वयिधर्मावच्छिन्नपक्षकः' केवलान्वयिधर्मव्यापकपक्षताकः, पक्षत्वन्तु माध्यवत्तया मन्दिह्यमानत्वं, असौर्णलक्ष्यासत्त्वान्नेदं युकमित्याशयेनाइ, 'केवलेति सर्वमभिधेयं प्रमेयत्वादित्यादेरित्यर्थः, 'व्यतिरेकिसाध्यकस्येति स्वाश्रयनिष्ठव्यतिरेकप्रतियोगिभाध्यकस्येत्यर्थः, 'माधारणत्वादिति, तथाच सर्वमनित्यं प्रमेयत्वादित्यादिकमपि माधारणत्वेन न लक्ष्यमिति भावः। ननु माध्य-तदभाववद्गामित्वं न साधारचं किन्यन्यदेव तदायम् अत पाह, 'अन्यथेति, निबन्धनकतेनेदं दूषणमिति। न च सर्वमनित्यं विभुवादित्यादि
Page #836
--------------------------------------------------------------------------
________________
३१
अनुसंहारिपूर्वपक्षः। साध्यप्रसिद्धौ तु साधारणमेव। न च पक्षान्यसाध्य वत्तदन्यत्तित्वं पक्षातिरिक्तसाध्याभाववत्तित्वं वा साधारणत्वं, व्यर्थविशेषणत्वात् । न च विरुद्धं विशेषणस्य व्यावय॑मित्युक्तं । नाप्यत्यन्ताभावप्रतियोगि
कमेव लक्ष्यं तस्थापि भागासिद्धत्वेन(९) विरुद्धत्वेन वा अलक्ष्यत्वादिति भावः। क्षणिकवं यदि क्षणदयावृत्तिवे मति विनाशिवर) 'नदा माध्यविशेषणासिया(२) व्याप्यत्वासिद्धिः()। यदि च सर्लान्यत्वं
तदा प्रतिज्ञावाक्यस्यापार्थकत्वं(५) सर्वः सर्वान्यइत्यन्वयबुद्धेरलोकत्वात् । यदि च क्षणद्वयात्तित्वमात्रं चणिकत्वं तच्च विभुम्वेव प्रसिद्धं पक्षे प्रतिज्ञया बोधनाहञ्च तदाह, ‘माध्यप्रसिद्धौ विति । उनहेतोः माधारण्यमसहमानः शकते, 'न चेति पचान्यस्मिन् वर्तते
(१) सर्वत्वरूपपक्षतावच्छेदकमामानाधिकरण्येन परममहत्परिमाण
वत्त्वरूपविभुत्वहेतारभावात् भागासिद्धिरिति भावः। (२) क्षणद्दयावत्तित्वस्य अत्तिगगनादौ सत्त्वात् गगनादेः क्षणिकाव
वारणाय विनाशित्वरूपविशेष्यदलम् । (३) साध्यविशेषणासिया क्षणदयारत्तित्ववैशिष्ट्यरूपस्य साध्यविशे.
घणस्यासियेत्यर्थः । (8) प्राचीनमते साध्यविशेषणासिद्धेः व्याप्यत्वासिद्धिमध्ये परिगणित
वात् साध्यविशेषणासिद्धिरित्यनुक्का व्याप्यत्वासिद्धिरित्युक्तम् । (५) यादृशबोधत्वावच्छेदेन नियताहार्यत्वं तादृशबोधार्थप्रयुक्तवाक्यत्वं
चमार्थकत्वमिति ।
105
Page #837
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामो
साध्यकत्वे सति केवलान्वयिधावच्छिन्नपक्षकत्वं, सर्वमभिधेयं यत्वादित्यच विप्रतिपत्त्या पक्षतादशायां पक्षे साध्यानिश्चयेनानुपसंहारिण्यव्यापकत्वात्।
यः साध्यवत्तदन्यवृत्तिस्तत्त्वमित्यर्थः, तेन पर्वतो वजिमान् धूमादित्यादौ पक्षान्यो यः माध्यवान् तदन्यस्मिन् वर्तमाने धूमादिइतौ नातिव्याप्तिः, सर्व क्षणिकमित्यादौ च पक्षान्याप्रसिद्ध्यैव नातिव्याप्तिरित्याशयः । विरुद्धस्य साधारण्यमनङ्गीकुर्वतां मतेनेदं तदङ्गोकुळतां मते वाह, 'पक्षातिरिक्नेति पक्षातिरिक्त वर्त्तते यः साध्याभाववत्तिस्तत्त्वमित्यर्थः, तेन पर्वतः पर्वतान्यो द्रव्यत्वादित्यादौ पक्षान्यस्य साध्याभाववत्ताप्रसिद्धावपि नाव्याप्तिः, 'व्यर्थति माध्यवदन्यत्तित्वस्यैव सम्यक्त्वात् प्रथमे साध्यवहृत्तित्वेन महितस्य पक्षातिरिक्रवृत्तित्वस्य द्वितीये च तन्मात्रविशेषणस्य व्यर्थखादित्यर्थः । ननु तुरगो गौरश्वत्वादितिविरुद्धस्य वारणार्थमेव पक्षान्यवृत्तिवादिविशेषणं निवेश्यमत पाह, 'न चेति, 'उन', 'विरुद्धस्थापि तत्त्वाज्ञाने माधारणत्वमेवेतिग्रन्थेन। 'नापौति, 'केवलान्वयिधर्मावच्छिन्नपचकलं' माध्यवत्तया निश्चीयमानताशून्यपक्षकत्वं, तच्च घटः प्रमेयो वाच्यत्वादित्यादौ व्यतिरेकव्याप्तिमत्तया भ्राम्यमाणे मद्धेतावतिव्याप्तमतः सत्यन्तं, तावन्मात्रञ्च पर्वतो वहिमान् धूमादित्यादावषयव्याप्तिमत्तया रामाणे गतमतो विशेष्यदलं, सर्व वक्रिमन् धूमान् द्रव्यत्वात् जलवादा इत्यादयस्तु सद्धेत-साधारण
Page #838
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनुपसंहारिपूर्वपक्षः।
३५ अथ पक्षातिरिक्त व्याप्तिग्रहानुकूलाप्रतीतसहचारोऽनुपसंहार्य यदि च पधे व्याप्तिग्रहः कथञ्चित्तदा शब्दोपदर्शितव्याप्तिकानुमानवदभेदानुमानवच्च सहेतुरेवेति चेत् । न। तत्रैव सङ्घतावतिव्याप्तेः सर्वस्य
विरुद्धाः पचतादशायां लक्ष्याएवेति भावः। 'व्यापकलादिति अत्यन्ताभावप्रतियोगिमाध्यकत्वाभावेन मत्यन्तार्थस्य तत्रामत्त्वादिति भावः।
'अथेति, पचे तदतिरिक्त चाप्रतीतोऽनिश्चितो व्याप्तिग्रहानुकूलः सहचारो यस्य सोऽनुपसंहार्य इत्यर्थः, तादृशः . सहचारः माध्य: साधनयोरन्वये व्यतिरेके चाविशिष्ट इति तदेकतरग्रहेऽपि नानुपसंहारिता। ननु पक्षभिन्नाप्रतीतव्याप्तिग्रहानुकूलसहचारकत्वमित्येवास्तु कृतं पक्षाप्रतीततादृशसहचारकत्वदलेन इत्यत बाह, 'यदि चेति, 'कथञ्चित् तदुपनयादिवशेन, ‘मद्धतुरेवेति, तथाच तदारणर्थमेव पक्षाप्रतीतसहचारकत्वदलमिति लक्षणकृतामाशय । 'पचातिरिक्त इत्यस्य पक्षादन्यस्मिन् इत्यर्थ सङ्कलय्य दूषयति, 'तत्रैवेति पक्षे ग्टहीतव्याप्तिके इत्यर्थः। पक्षे तदतिरिक्त चेत्यर्थ- . करणे दोषमाइ, 'सर्वस्येति, येन रूपेण पक्षता तदवच्छिन्नान्यत्वं न पचातिरिकत्वं प्रमेयत्ववत्सर्वमनित्यं वाच्यत्वादित्यादावव्याण्यापत्तेः, परन्तु येन रूपेण पचत्वं तदाश्रयस्य प्रत्येकभेदकूटवत्वं तच मर्चवावच्छिनभेदस्य सत्त्वेऽपि प्रसिद्धमेवेति भावः । अथानिधित
Page #839
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६
तत्वचिन्तामणौ
पक्षवे पक्षातिरिक्ताप्रसिद्धे,असाधारण-विरुयोरतिव्याप्तेश्च दूषकतायां व्यर्थविशेषणत्वाच्च । न च दूषकता अनैकान्तिकत्वेन न प्रत्वेकमिति वाच्यम्। अर्थगत्या व्यर्थविशेषणत्वात्। नापि विप्रतिपत्तिविषयमावत्तित्वं
व्याप्तिग्रहाकूलसहचारसामान्यकत्वमाचं वाच्यं तबाह, 'असाधारणेति, असाधारण: निश्चितसाध्यवड्यावृत्तः शब्दः प्रमेयः शब्दत्वादित्यादौ व्यतिरेकसहचाराग्रहदशायां प्रतिव्याप्तिरेवं विरुद्धे तुरगो गौरश्वत्वादित्यादावपि । ननु तदुभयं लक्ष्यमेव माध्यवत्तया मन्दिह्यमानविश्वकत्वादेर्दूषकतायामनुपयोगेनाकिञ्चित्करत्वादाद,'दूषकतायामिति, 'दूषकतायां' हेत्वाभामतायां, 'व्यर्थविशेषणत्वात्' अनुपयोगित्वात् अग्टहीतसहचारकत्वादिज्ञानस्यानुमितिं प्रत्यविरोधितया तस्य हेत्वाभामत्वायोगादिति फलितार्थः । अथाग्रहौतमइचारकत्वस्य ताद्र्ष्येण बुद्धेरनुमित्यविरोधित्वेऽप्यनेकान्तिकत्वत्वप्रकारेण बुद्धेस्तथात्वादेव तस्य हेत्वाभासावं पर्यवस्थतीत्याशय() निराचष्टे, 'न चेति, 'अर्थगत्येति व्याप्तिग्रहविरोधितावच्छेदकरूपवत्त्व, लक्षणस्यानेकान्तिकत्वपदार्थस्यार्थगत्या तादृशरूपस्यापि दूषकतायामनुपयुकवादित्यर्थः । विप्रतिपत्तिविषयत्वं माध्यवत्तया मन्दियमानत्वं तन्मात्रवृत्तित्वं यदि सकलतहत्तित्वं तदाइ, 'केवलेति,
(९) सत्यतीत्याशयति ।
Page #840
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनुपसंहारिपूर्वपक्षः।
१७ केवलान्वयिसाध्यके अव्याप्तेः सर्वस्य पक्षत्वे माचाीभावादिति।
इति श्रीमहङ्गेशपाध्यायविरचिते तवचिन्तामणौ अनुमानास्यहितीयखण्डे अनुपसंहारिपूर्वपक्षः ॥०॥
-
केवले हेतुना विनाकृते अन्वयि मन्दिह्यमानत्वेनान्वितं माध्यं यस्य तादृशं सर्वमनित्यं द्रव्यवादित्यादिहेतावव्याप्तिरित्यर्थः, 'अतिव्याप्तिरिति पाठे शब्दः प्रमेयत्ववाननित्यो वा शब्दत्वादित्यादौ केवलान्यय्यादिमायके अतिव्याप्तिर्बोध्या, यदि तु साध्यवत्तथा अमन्दिह्यमानव्यावृत्तत्वमेव तन्मात्रवृत्तित्वं तदाह, 'सर्वस्येति, 'पक्षवे' मन्दियमानत्वे ।
इति श्रीमथुरानाथतर्कवागीश-विरचिते तत्त्वचिन्तामणिरहस्ये अनुमानाख्य-दितीयखण्डरहस्ये अनुपसंहारिपूर्वपक्षरहस्यं ।
Page #841
--------------------------------------------------------------------------
________________
দ্বিামী
. . अथानुपसंहारिसिद्धान्तः । उच्यते। व्याप्तिग्रहानुकूलैकधर्म्युपसंहाराभावो यष स हेत्वभिमतोऽनुपसंहारी, स चान्वयेन व्यतिरेकेण वा सर्वस्य पक्षत्वे दृष्टान्ताभावात् घटोऽनित्यो घटाकशिभयतिदित्वाश्रयत्वादित्यादैा साध्य-साधन
• अथानुपसंहारिसिद्धान्तरहस्यम् । 'व्याप्तिग्रइत्यादि, 'यति व्याप्तिग्रहाचयि, तथाच यद्धर्मिकव्याप्तिग्रहे 'अनुकूलानां' विशिष्टानां, एकस्यान्यत्र धर्मिणि 'उपसंहारस्य' वैभिटस्य, प्रभावः सहेतुरनुपसंहारौ, यादृश हेतुधर्मिकप्रकृतसाध्यौयव्याप्यवगाहिता यदंशे यनिरूपिता तस्य तदभाववत्त्वं, तद्धर्मिक-तद्व्याप्तिग्रहविरोधिरूपवत्त्वं वा तादृश हेतौ अनुपसंहारित्वमिति फलितार्थः, कालवान् गगनात् इत्यादौ चाधिकरणदेः
यत्वाद्यभावः, कालशून्यं गगनाभाववत्त्वादित्यादौ चाधिकर: साध्याभावीयत्वादिविरहः सुलभो लक्ष्यः । न च माध्य-साधन'भेषणसिद्धवावतिव्याप्तिः, प्रकृतमाध्य-साधनग्रहाविरोधित्वेनापि
रूपस्य क्वचिद्विशेषणौयत्वात् । प्रथात्र यद्यन्वयव्याप्तिग्रहो मातः तदा व्यतिरेकप्रयोगे वाच्यं ज्ञेयत्वादित्यादौ व्यतिरेकमाटकयोरेकदलेऽपरदलाभावस्य हेत्वाभामान्तरतापत्तेः प्रत-चेति, वाशब्दः समुच्चये, म व्याप्तियहोऽन्वयेन व्यतिरेकेण १९. इति शेषः। ननु सर्वमभिधेयं प्रमेयत्वादित्यादौ कुतो
Page #842
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनुपसंहारितिज्ञाः । र साइच-त्रानाशस्य विरुद्धत्वासानदशायामनुपसंहारित्वेनेष्टत्वात् केवलान्वयिधमावच्छिन्नपक्षको वा सर्वमभिधेयं प्रमेयत्वादिति सङ्केतो न केवलान्वयौ पक्षताबच्छेदको निश्चितसाध्यवत्तित्वात् विप्रतिपत्त्या
नान्वयव्याप्तिधौः निरुक्तस्थानुपसंहारित्वस्य हेत्वाभामान्तरस्य च तचासत्त्वेन प्रतिबन्धासम्भवादत आह, 'सर्वस्येति, 'पक्षत्वे' मन्दिग्धसाध्यकत्वे, ‘दृष्टान्ताभावादित्यस्य न व्याप्तिग्रह इत्यादिः, तथाच माध्य-साधनयोः सहचारनिश्चयाभावप्रयुक्त एव तत्रान्वयव्याप्यग्रहो न त हेलाभासप्रयुक्त इति भावः । सहचारानिश्चयद्वाराऽनुपसंचारित्वस्य दूषकत्ववादिनां प्राचामपि सर्वपक्षकत्वं न तस्य दूषकतायां तन्त्रमित्याह, 'घटोऽनित्य इत्यादिना, 'इष्टत्वात्' इत्यस्य प्राच्यरित्यादिः, अस्माकन्तु साध्याभाववगामित्वेन तस्य साधारणत्वमेवेति भावः । दूषणोपयिकमनुपसंहारित्वं निरुच्य व्यवहारोपयिकं तदाह, 'केवलेति, केवलान्वयिधर्मण 'अवच्छिन' व्यापकं, 'पक्षत्व' साध्यवत्तया सन्दिह्यमानत्वं यत्र तत्त्वमर्थः, अवच्छिन्नान्तस्य व्यावत्तिमाह, 'सर्वमित्यादिना, “मद्धेतौ' सद्धेतत्वेन निर्णेयमाने, 'न पक्षतावच्छेदकः' न माध्यवत्तया मन्दिह्यमानत्वस्य अनतिरिक्तवृत्तिः, 'निश्चितेति माध्यवत्तया निश्चितवृत्तित्वादित्यर्थः, 'विप्रतिपत्त्या' सर्वमभिधेयं न वेत्याकारिकया, 'पक्षत्वे' सर्वस्य माध्यवत्तया मन्दिह्यमानत्वे, 'अनुपसंहार्यवेति अनुपसंहारित्वेन व्यवहाय्यमेवेत्यर्थः। ननु गगनवान् द्रव्यत्वादित्यादौ वृत्तिमत्त्वशन्यमायके
Page #843
--------------------------------------------------------------------------
________________
.
तत्त्वचिन्तामणे
साध्यानिश्चयदशयां पक्षत्वे तदनुपसंहार्येव व्यतिरेकिसाध्यके साध्याभावववृत्तित्वाचानदशायामिदं दूषणं तदवगमेऽपि साधारणसङ्कर एव, एवं व्याप्यत्वासिद्धनाने तदुद्भावने चायं व्यभिचारवदुपजीव्यत्वाददोषः, घटाकाशोभयत्तिदित्वाश्रयत्वञ्च विरुद्धमेव ।
साध्याभाववगामित्वरूपं साधारण्यमावश्यकमिति तेन सङ्करानाधिकरणस्य माध्यौयत्वाभावरूपमनुपसंहारित्वं पृथग्दोष इत्यत शाह, 'व्यतिरेकौति वृत्तिमत्त्वव्यतिरेकवत्माध्यक इत्यर्थः, 'इदं' व्याप्तिपहानुकूलत्यादिना उक्तमनुसंहारित्वं । ननु वहिमान् गगनादित्याद्यवृत्तिहेतौ साध्यव्यभिचरितत्वविशिष्ट-माध्यमामानाधिकरण्यरूपस्य माध्यसम्बन्धितावच्छेदकधर्मवत्त्वरूपस्य वा विरहरूपव्याप्यत्वासिद्धिरावश्यकौति तया मकरानाधिकरणस्य हेत्वीयवाभावरूपमनुपसंहारित्वं पृथक् दूषणमत श्राह, ‘एवमिति, 'अयं' अधिकरणादौ हेत्वीयत्वाद्यभावः, 'व्यभिचारवदिति वृत्तिमद्धेतौ माध्याभाववगामिलवदित्यर्थः, 'उपजीव्यत्वादिति, अयं हेतुर्व्याप्तिशून्यः स्वाभाववदधिकरणसामान्यकत्वादित्यादिक्रमेणानुपसंहारित्वस्य व्यायस्वामिद्धियहं प्रत्युपज्ञोव्यत्वादित्यर्थः । ननु घटोऽनित्यो घटाकाशोभयवृत्तिद्धित्वाश्रयत्वादित्यत्र स्वाव्यापकमाध्यकत्वेनानुपसंहारिणि व्यवहारौपयिकस्यानुपसंहारित्वस्थाव्याप्तिः तत्रत्यपक्षतायाः केवलावयिधविच्छेद्यत्वाभावात् अत पाह, 'घटाकाणेति, 'विरुद्धमेवेति
Page #844
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनुपसंहारिसिद्धान्तः।
१ रतेनानुपसंहारित्वप्रतिसन्धाने यदि व्याप्तिग्रहस्तदानुमितिरेव सदभावे व्याप्यत्वासिबिरेवेति निरस्तमुपजीव्यत्वादिति।
इति श्रीमहशोपाध्यायविरचिते तत्वचिन्तामणौ अनुमानाख्य-दितीयखण्ड अनुपसंहारिसिहान्तः ॥॥
अनुपसंहारित्वव्यवहारविरुद्धमेवेत्यर्थः, तथाच व्यवहारौपथिकभिरकावलक्ष्यमेव तदिति भावः। एतेनेति 'निरस्तमित्यनेमान्चयः, अनुपसंहारित्वस्य दोषरूपस्य 'प्रतिसन्धाने' निश्चये, यद्यनुपसंहारित्वां भ्रमत्वज्ञानादिवशात् हेतौ व्याप्तिनिश्चय इत्यर्थः, 'तदानुमितिरेवेति, तथाचानुमित्वविरोधिवादमुपसंहारित्वस्य हेलाभामत्वायोग इति भावः । तदभावे' व्याप्तिग्रस्थाभावे, 'व्याप्यवामिद्धिरेव', अनुमित्यनुत्पत्तिप्रयोजिका म लनुपसंहारिवमिति भावः । 'उपजीव्यत्वादिति व्याप्तिज्ञानस्यानु मित्युपजीव्यत्वादित्यर्थः, तथाचानुमितिविरोधित्वं न हेत्वाभासत्वं माधारण्याचव्याप्तेः किन्नु अनुमितेस्तदुपजीव्यज्ञानस्य चान्यतरविरोधित्वं तच्चानुपसंहारित्वेऽप्यचतमिति भावः ॥
इति श्रीमथुरामाथतर्कवागौश-विरचिते तत्त्वचिन्तामणिरहस्ये अनुमानाख्य-दितीयखण्डरहस्ये अनुपसंहारिसिद्धान्त रहस्यं सम्पूर्ण ॥'
सव्यभिचारपन्थः समाप्तः ॥०॥
106
Page #845
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ८४२ )
अथ विरुद्धपूर्वपक्षः। विरुद्धो न साध्याभावव्याप्यः संयोगादिसाध्यके सद्धेतावतिव्याप्तेः । नापि साध्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगिव्याप्यत्वं तत्त्वम्, इदं द्रव्यं गुणववादित्यादा संयोगादिव्याप्येऽतिव्याप्तेः, किन्तु साध्यासमानाधि
___ अथ विरुद्धपूर्वपक्षरहस्यम्। 'माध्याभावयाप्य इति, खममानाधिकरणान्योन्याभावप्रतियोगितानवच्छेदकमाथाभावकत्वमत्र माध्याभावव्याप्यत्वं न तु स्वसमानाधिकरणत्यन्नाभावप्रतियोगितानवच्छेदकसाध्याभावत्वकत्वं संयोगादिमायक इत्यादिवक्ष्यमाणदूषणासङ्गतेः । 'साध्यवनिष्ठेति माध्यवधिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगी यो धर्मस्तव्याप्यत्वं तदवच्छिन्नान्योभाववदवृत्तिलमर्थः, अस्ति च गोत्ववान् अश्वत्वादित्यादौ गोत्ववनिष्ठाभावप्रतियोगिनोऽश्वत्वादेनिरुतव्याप्यत्वमश्ववादाविति लक्षणममन्वयइति भावः । पूर्वोक्तदूषणमत्त्वेऽप्यधिक दोषमाह,(१) 'इदमिति, संयोगादिव्याप्य इति द्रव्यत्ववनिष्ठाभावप्रतियोगिनः संयोगादेाये गुणवत्त्वादावित्यर्थः, माध्यवनिष्ठत्वं यदि माध्यवति निरवच्छिन्नवृत्तिमत्त्वं विवक्ष्यते तदा तु नायं दोष इत्यवधेयं । 'माध्यासमानाधिकरणेति, (१) तथाच रतलक्षणेऽपि संयोगो द्रव्यत्वादित्यादौ संयोगवन्निष्ठाभाव
प्रतियोगिनः संयोगादेः निजलव्याप्यत्वस्य द्रव्यवहेतौ सत्त्वात् অর্নিদিৰিনি মা।
Page #846
--------------------------------------------------------------------------
________________
विवज्रपूर्वपच्चः ।
४३
साध्यवदन्योन्याभावव्याप्यो
करणसाध्याभावव्याप्यः वा, साध्याभावत्वं साध्यविरोधित्वमाचं भावाभाव
ertureमानाधिकरणत्वं श्रत्र साध्यानधिकरणवृत्तित्वं श्रधिकरणभेदेन संयोगाद्यभावस्य भिन्नतया च संयोगादिसाध्यकमद्धेतौ नातिव्याप्तिः, न तु साध्याधिकरणावृत्तित्वं तत् श्रधिकरणभेदेन संयोगाद्यभावस्य भिन्नत्वाभ्युपगमादेव संयोगी गुणत्वादित्यादावव्यातिविरहेऽपि (९) साध्याभावपदवैयर्थ्यापत्तेः साध्याधिकरणावृत्तित्वस्यैव सम्यक्लात्। न चैवमपि साध्यपदवैयर्थं साध्यानधिकरणवृत्त्यभावव्याप्यत्वस्यैव सम्यक्तात् भावभिन्नाभावस्य घटकतया साध्यानधि - करणवृत्तिद्रव्यत्वादिव्याप्यत्वमादाय सङ्केतौ नातिप्रसङ्ग इति वाच्यं । साध्यानधिकरणवृत्त्याकाशाभावव्याप्यत्वमादाय प्रतियोगिसमानाधिकरणत्व-तद्व्यधिकरणत्वलचणविरुद्धधर्माध्यासा
सङ्केतावतिप्रसङ्गात्
भावेनाकाशाद्यभावस्याधिकरणभेदेन भेदाभावादिति भावः । श्रधिकरणभेदेनाभावभेदे मानाभावादाह, 'साध्यवदिति, अन्योन्याभावस्य चाव्याप्यवृत्तिलाभावात् न संयोगादिसाध्यकसद्धेतावतिव्याप्तिरिति भावः । ननु अधिकरणभेदेनाभावभेदाभ्यपगमेऽपि प्रथमलचणमसङ्गतं द्रव्यत्वाभाववान् पृथिवीत्वादित्याद्यभावसाध्यक
(१) अधिकरणभेदेनाभावस्य भिन्नत्वानभ्युपगमे संयोगाभावस्य संयोगाधिकरणावृत्तित्वाभावेन संयोगो गुणत्वादित्यादावव्याप्तिः तदभ्युपगमे च गुणवृत्तिसंयोगाभावस्य संयोगाधिकरणावृत्तितया तमादाय लक्षणसमन्वय इति समुदिततात्पर्य्यम् ।
Page #847
--------------------------------------------------------------------------
________________
सावचिन्तामगै साधारणं तेनाभावे साध्येऽभावाभावस्य भावत्वेऽपि नाव्याप्तिः अभावाभावोऽभावप्रतियोगिनिरूप्यत्वेन भावभिन्न एव वा। न च भावत्वेनोपपत्ता किमधिके
विरुद्धेऽव्याप्तेः तत्र माध्यतावच्छेदकावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावस्थाप्रसिद्धेः तादृशस्य व्यत्वादेर्भाववादित्यत पाह, 'माध्याभावत्वमिति 'माध्यविरोधिनमात्रमिति माध्यतावच्छेदकावच्छिनप्रतियोगिताकवमानमित्यर्थः, यथाभुते साधासमानाधिकरणपदवैयर्थ्यापत्तेः साथविरोधिव्याप्यत्वस्यैव सम्धानात्() मात्रपदादभावत्यव्यवच्छेदः। म च माध्यप्रतियोगिकत्वमेव माध्याभावत्वमुच्यतां किं माध्यतावच्छेदकावछिनप्रतियोगिताकत्वपर्यन्तेनेति वाच्य। माध्याकाशोभयाद्यभावमादाय सङ्केतावतिप्रसङ्गापनेरिति ध्येयम् । 'भावाभावस्थेति माथीभूताभावप्रतियोगिकस्येत्यर्थः, 'प्रभावप्रतियोगिनिरूप्यत्वेनेति प्रभावात्मकप्रतियोगिनिरूप्यत्वविशिष्ट इत्यर्थः, वैशिष्यस्य हतीयार्थवात् एतच्च स्वरूपकथनम् । 'बाधकं विनेति बाधकाभावेनेत्यर्थः, 'प्रभावप्रतीतेः द्रव्यत्वाधभावाभावेऽभाववप्रकारकप्रतीतेः प्रमावादिति भावः । भावस्वरूपत्वे सा प्रतीतिः प्रमा न स्यात् प्रभावत्वस्य भावण्यावृत्तधर्मविशेषलादित्यभिमानः । ननु गौरवमेव बाधक किचाभावत्वं न भावण्यावनोधर्मः किन्तु भावाभावमाधारणोऽखण्डोधर्मविशेष इत्यत पाह, 'अन्यथेति गौरवभौत्या व्यत्वाद्यभावाभावे(९) साध्यविरोधिपदेनैव साध्यासामानाधिकरण्यलाभात् खाताण
साध्यासामानाधिकरण्यस्य वैषर्थमिति भावः ।
Page #848
--------------------------------------------------------------------------
________________
०५
विरजपूर्वपक्षः। नेति वाचं। बाधकं विना अभावप्रतीतेः प्रमात्वात अन्यथा अत्यन्ताभावान्योन्यभावयारप्रसिद्भिः। अथ साध्य-हेत्वोर्विरोधे पक्षे साध्यसत्त्वे हेत्वसिद्धिः
ऽभावत्वप्रतौतेर्भमत्वाभ्युपगमेऽभावत्वस्थ भावाभावसाधारणधर्मविशेषत्वाभ्युपगमे वा इत्यर्थः, 'अत्यन्तेति तत्तदधिकरणविशेषत्वेनैव तदुभयप्रतीतेः सम्भवादिति भावः(१)। ध्वंस-प्रागभावयोरधिकरणस्वरूपत्वे दहेदानोमुत्पन्नो घटध्वंसः दहेदानौं विनष्टो घटप्रागभावइत्यादिप्रतौतेरसम्भवात् तदुभयपरित्यागः(९) ।
केचित्तु ध्वंस-प्रागभावयोरधिकरणखरूपत्वे घटसत्वदशायामपि तदुभयप्रतीत्यापत्तिः तदानीमधिकरणमत्त्वात् अतस्तदुभयपरित्यागः । न चैवं घटात्यग्नाभावादेरपि अधिकरणस्वरूपत्वे घटापसारणदशायामिव घटसत्त्वदशायामपि तत्प्रतीत्यापत्तिरिति वाचं। अत्यन्तान्योन्याभावपदस्य द्रव्यत्वादिप्रतियोगिकात्यन्ताभाव-तदवछिनप्रतियोगिताकान्योन्याभावपरत्वादित्याजः ।
'अथेति, 'विरोधे' निरुतविरोधज्ञानदशायां, 'माध्यसत्त्वे' माध्यज्ञानसत्त्वे, 'हेलसिद्धिः' हेतमत्त्वज्ञानाभावः, तदत्ताज्ञानसत्त्वे
(१) अभावत्वस्य भावसाधारणत्वाभ्युपगमे अतिरिक्ताभावकल्पनापेक्षया
जाधवेन तत्तदधिकरणेष्वेवाभावत्वकल्पनाया बौचित्यमिति तात्पर्य । (२) तथाच ध्वंस-प्राम्भावयोरधिकरणखरूपत्वे घटध्वंसस्य खाधिकरणा
त्मककपालखरूपतया इहेदानीमुत्पन्नो घटध्वंस इति प्रतीतेरसम्भवः कपालस्य प्रागुत्पनत्वेन इदानीमुत्पन्नत्वाभावादिति भावः ।
Page #849
--------------------------------------------------------------------------
________________
००
तत्वचिन्तामणे हेतुसाले साध्याभावसिौ बाधः। न च प्रमाणान्तरेण साध्याभावसिौ बाधा न हेतुत्वेनैवेति वाचं । विशेषणवैयर्थ्यादिति चेत् । न । हेतोः पधे साध्याभावोपस्थापनेऽपि प्रथमोपस्थितविरोधस्यैव उपजीव्यत्वेन दोषत्वात् । ननु साध्याभावसम्बन्धो व्यभिचार एव दोषो न तु तबियतत्वमपि गौरवात् असाधकत्वे
तविरुद्धधर्मवत्वज्ञानासम्भवादित्यभिमानः । 'हेतमत्त्वे' हेतुमत्ताज्ञानसत्त्वे, ‘माध्याभावसिद्धौ' साध्याभावसिद्धौ मत्यां, 'बाधः' अणुमितिबाधः, तथाच किं निरुतविरोधज्ञानस्य पृथग्दोषत्वेनेति भावः। ननु तङ्केतकविशिष्टबुद्धौ तवेत्वजन्यबाधज्ञानमेव प्रतिबन्धक न तु तद्दुतुजन्यबाधज्ञानमित्यभिमानेनाशकते, 'न चेति, ‘प्रमाणान्तरेण' प्रमाणान्तरेणैव, 'बाधः' तद्धेतकानुमितिबाधः, विशेषणेति बाधज्ञानस्य प्रतिबध्य-प्रतिबन्धकभावे हेतुविशेषजन्यत्वाजन्यत्वविशेषणस्थ गौरवापत्तिभ्यां प्रयोजकत्वादित्यर्थः। 'हतोरिति पञ्चमी हेतुतइत्यर्थः, 'माध्याभावोपस्थापने(१) इति पाठः, 'विरोधस्यैव' इत्येवकारो भिन्नक्रमे, 'उपजीव्यत्वेन' इत्यनन्तरं योज्यः तथाच पक्षे निरुतविरोधविशिष्ट हेतमत्ताज्ञानं बाधनियमामपौविधया अनुमितिप्रतिबन्धकं । न च विभिष्टयुद्धौ बाधनिश्चयस्य प्रतिबन्धकतावश्यकत्वे तत्मामय्या अपि तत्प्रतिबन्धकत्वे मानाभाव
(२) साध्याभाववाधानुपस्थापनेऽपौति कधिहितमूजपुस्तकपाठः ।
Page #850
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७
विशद्धपूर्वपक्षः ! व्यर्थत्वाच। नव साध्यासहचरितस्य साध्याभावसहचरितस्य वा गमकत्वभ्रमरूपायामशक्ती विशेषोऽस्ति येनाशक्तिविशेषोन्नायकतया न व्यर्यविशेषणता। न
इति वाच्य। बाधनिश्चयोत्पत्तिकाले विशिष्टबुद्धिवारणय तत्मामय्या अपि प्रतिबन्धकत्वावश्यकत्वात् ज्ञानरूपप्रतिबन्धकाभावस्य(१) केवा पूर्ववर्तितयैव हेतुत्वात् अन्यथा विना सिषाधयिषामनुमितिः कापि न स्यादिति भावः। कचित्तु ‘माध्याभावानुपस्थापनेऽपौति पाठः, तत्र यदा पक्षे साध्यव्यायहेतुमत्तापरामर्शरूपः सत्प्रतिपदोवर्तते साध्याभावव्याप्यत्वरूपविरोधविशिष्टतमत्ताशापञ्च पक्षे वर्त्तते तदा प्रकृतहेतुना पचे माध्याभावज्ञानविरहेऽपौत्यर्थः, 'उपजीव्यत्वेनेत्यस्य च माध्यानुमित्युत्पादं प्रत्युपजीव्यत्वेनेत्यर्थः, इति ध्येयम् । तदेतत् साम्प्रदायिकमतं दूषयति, 'नन्विति, 'माध्याभावसम्बन्धः माध्याभावसमानाधिकरणोहेतुः, माध्याभावस्य सम्बन्धो यत्रेति व्युत्पनेः, 'दोषः' दोषपदवाच्यः, 'तत्रियतत्वमবীনি ঘষলাম্বিৰল ৰনি স্বাঘমালালাচ্ছি
(१) ननु बाधनिश्चयाभावस्य कार्यसहवर्तितया कारणत्वकल्पनेनैव बाध
निश्चयोत्पत्तिकाले विशिष्टबुद्धिवारणसम्भवे खातन्त्रण बाधनिश्चयसामग्राः प्रतिबन्धकत्वकल्पनं किमर्थमित्यत पाह, ज्ञानरूपप्रतिबन्धकामावस्येति, तथाच ज्ञानरूपप्रतिबन्धकाभावस्य कार्यसहवर्तितया कारणत्वाङ्गीकारे धनुमिति प्रति सिड्यभावस्थापि तथैव कारणत्वासल्या विनानुमित्मा कुचाप्यनुमितिनं स्यादिति भावः ।
Page #851
--------------------------------------------------------------------------
________________
age
तावचिन्तामयी
चानकान्तिवसामान्यलक्षणे विपक्षवृत्तित्वं न विशेषणम् असाधारणाद्यव्याप्तेः साधारणन्तु सपक्षत्तित्वसहितमिति वा । विपक्षगामित्वस्यैव साधारणत्वात्
रूपतनियतत्वाश्रयोऽपौत्यर्थः, तस्य नियतत्वं यत्रेति व्युत्पत्तेः, गौरवादिति गौरवेण तत्र व्याप्तिज्ञानस्यानुमितेर्वा प्रतिबन्धकतावच्छेदकालविरहादित्यर्थः । ननु स्वरूपसम्बन्धरूपावच्छेदकतापर्याप्यधिकरणत्वं न दोषत्वघटकं अपि तु अतिरिक्तवृत्तित्वरूपं तच्च गौरवेऽपि सम्भवतीत्यत-बाह, 'असाधकत्व इति साध्य इति शेषः, 'वैयर्थ्यादिति(९) माध्यामहचरितत्वदलवेयर्थ्यादित्यर्थः, तथाचासाधकतासाधकत्वस्य दोषत्वव्यापकतया तदभावान तस्य दोषत्वसम्भवः, अतएव पूर्वानसामान्यलक्षणमपि केवलं न दोषपदप्रवृत्तिनिमित्तं अपि तु असाधकतासाधकत्वविशेषितमिति भावः। ननु केवलमसाधकतासाधकत्वं न दोषत्वव्यापकं अपि तु असाधकतासाधकबाशक्तिविशेषोनायकत्वान्यतरवत्त्वं, तच्च तत्र वर्त्तत एव इत्यतपाह, 'न चेति, 'माध्यासहचरितस्य माध्याभावसहचरितत्वे मति माध्यासहचरितस्य, 'गमकत्वधमरूपायामिति गमकतायाः प्रयोजकतारूपाया व्यतिर्धमरूपायामित्यर्थः, 'न व्यर्थविशेषणता! नासाधकतासाधने व्यर्थविशेषणता दोषत्वविघटिकेति शेषः । एतचापाततः
(१) मूखे 'थर्थत्वात्' इत्यत्र 'वैयर्थात्' इति कस्यचिन्भूजपुस्तकस्य
पाठोऽनेन पाठधारणेगानुमीयते ।
Page #852
--------------------------------------------------------------------------
________________
- विवजयूज़पक्षः।
E अधिकस्य व्यर्थत्वात् । न प विरुई व्यावर्च, विपक्षगामित्वेनाचैव तदन्तर्भावात्। अथानैकान्तिकें विपक्षसम्बन्धो न दूषकतावीजम् असाधारणाद्यव्याप्तेः । न च तवान्यदेव वौज, हेत्वाभासाधिक्यापत्तेरिति व्यभिचारिणि अव्यभिचारांशे भ्रमः निरुक्तविरुद्धे तु सामानाधिकरण्यांशे भ्रम इत्येवाशको विशेषसम्भवात् । वस्तुतस्तु बाधविभिष्टव्यभिचारादिवत् विशिष्टान्तरघटितवान्न दोषत्वसम्भव इत्येव तत्वं । 'विपक्षवृत्तित्व) न विशेषणमिति तादाम्यसम्बन्धेन विपत्तिहेतुमान् यः सोऽनैकान्तिक इति नानेकान्तिकसामान्यलक्षणमित्यर्थः, 'असाधारणेति व्याप्यमझौसाधारणाद्यव्याप्तेरित्यर्थः, 'सपनवृत्तित्वमहितमिति विपक्षवृत्तिवे मति सपत्तित्वविशिष्टं साधनमित्यर्थः, तथाचानकान्निकसामान्यलक्षणस्य माधारणलक्षणस्य चायाप्यतया माध्याभावसमानाधिकरणोहेतुरेव विरोधोवाच्यः न तु माध्यवदवृत्तित्वांभोऽपि निवेशनीय इति भावः। 'अधिकस्य' मपक्षवृत्तित्वांशस्य, 'व्यर्थत्वादिति दूषकतायामनुपयोगित्लादित्यर्थः ।
ननु नेदं दूषकताप्रयोजकं.रूपमपि तु माधारणव्यवहारविषयतावच्छेदकं तथाच विरुद्धवारणाय तदुपादानमित्यभिप्रायेणाह, 'न चेति, 'तदन्तर्भावात्' विरुद्धस्यान्तर्भावात्, तथाच विपक्षगामित्वमादाय माधारणव्यवहारस्य विरुद्धेऽपि मत्त्वात् नेदं माधारणव्यवहारविषयतावच्छेदकमपौति भावः । ननु विरुद्धे माधारणव्यवहारो
(१) विपक्षगामित्वमिति कचिह्नितमूलपुस्तकपाठः ।
107
Page #853
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामो
दतु तावदेवं तथापि साधारणे विरुद्धप्रवेश वजक्षेप रखें।
अन्ये तु विरुडलक्षणे न व्यर्थत्वं साधारणस्य व्यवछेद्यत्वात् । नाप्यसाधकतानुमिती, एतस्यापि व्याप्य
-...-------
भातः अन्यथा तत्माधारणं भव्यभिचारविभाजकतावच्छेदकमेव दुर्वचमित्यभिप्रायेणाशङ्कते, 'अथेति, 'न दूषकतावौज' न विरुद्धमाधारणं, दुष्टतावीजं न विरुद्धसाधारणं दुष्टविभाजकतावच्छेदकमिति यावन्, 'असाधारणेति व्याप्यसोर्णसाधारणाद्यव्याप्तेरित्यर्थः । 'तत्र' व्यायमझौसाधारणदौ, 'वौज' विभाजकता- . बच्छेदक, 'हेत्वाभासाधिक्येति हेत्वाभासविभाजकतावच्छेदकाधिक्येत्यर्थः, 'साधारणे' साधारणमात्रस्य, 'विरुद्धप्रवेशः' विरुद्धमध्ये प्रवेशः, तथाच माथाभावसमानाधिकरणहेतोरेव विरुद्धत्वे द्रव्यं सत्चादित्यादिमाधारणमात्रे विरुद्धव्यवहारापत्तेरिति भावः। _ 'विरुद्धलक्षण इति विरुद्धस्य इतरभेदानुमान इत्यर्थः, 'न व्यर्थवमिति माध्याभावव्याप्यत्वघटकस्य माध्यामहरितलदलस्य न व्यर्थखमित्यर्थः, 'माधारणस्य' माध्यममानाधिकरणमाधारणस्य । 'अमाधकतानुमिताविति, विद्यमानापि व्यर्थता नामावकत्वमाधकवविघटिकेति भेषः, 'एतस्थापौति केवलमाध्याभावसमानाधिकरणववत् साध्यासहचरितत्वे मति माध्याभावसहचरितत्वरूपमाध्याभावव्याप्यवस्थाप्यसाधकताव्याप्यवादित्यर्थः, व्यर्थविशेषणस्थ व्यायविघटकवादिति भावः। नन्वेवं वक्रिमानमौलधूमादित्यादावपि
Page #854
--------------------------------------------------------------------------
________________
८५१
विनापूर्वपक्षः त्वात, नौलधूमादौ च व्याप्तिरत्वेवेति न स्वार्थानमाने दोषः परस्य तु व्यर्थत्वमधिकं। न च विरुदत्वादित्यच शब्दाधिक्यमिति, तन्त्र, अर्थोहि लिज, न व्यभिचारावारकविशेषणावच्छेदेनापि व्याप्तिः, नारवादिति वक्ष्यते,न चार्थगत्या व्यर्थत्वेऽपि विरुदत्वादित्यप
व्यर्थविशेषणता दोषो न स्थादित्यत्र दृष्टापत्तिमान, 'नौलेति। नन्वेवं कथायां परप्रयुक्तहेतौ व्यर्थविशेषणता निग्रहस्थानं न स्थादित्यत आह, 'परस्येति कथायां परप्रयुक्तसाधनस्येत्यर्थः, 'अधिक' अधिकाख्यनिग्रहस्थानान्तर्गतं । नन्वेवं विरुद्धत्वेमामाधकतामाधनेऽयधिकेन निग्रहापत्तिरित्यत आह, 'न चेति, 'अर्थानौति, 'अर्थ: माध्याभावव्याप्यत्वरूपः विरुद्धत्वशब्दस्यार्थः, 'लिङ्ग लिङ्गत्वेनाभिमतं च्याप्यत्वेनाभिमतमिति यावत् । 'अर्थगत्येति विरुद्धशब्दार्थ माथाभावव्याप्यत्वे व्यर्थविशेषणत्वेऽपौत्यर्थः, 'उद्भावनेति विरुद्धशब्दार्थविवेचनात् प्राक् तस्योद्भावनाशक्यत्वमित्यर्थः, तत्पूर्वं तदुद्भावने वादिना विरुद्ध शब्दस्यार्थान्तरकरणे निरनुयोज्यानुयोगापत्तेरिति भावः। 'आवश्यकतद्विवेचन इति अर्थविवेचनस्थावश्यकतयेत्यर्थः, तदुत्तरमेवेति शेषः । व्यर्थत्वमधिकमिति प्रागुतं दूषयति, 'हेविति, अवधारणार्थकचकाराड्यर्थत्वव्यवच्छेदः, 'अधिक' अधिकाख्यनिग्रहस्थान, 'कतकर्तव्यताया इति हेत्वभिधानप्रयोजकाकासाविषयसिद्विरूपस्य बितीयहेतोः कर्तवस्य प्रथमेनैव सतसे त्यर्थः। 'विशिष्ट
Page #855
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामो ज्दावनाशक्यत्वम, पावश्यकतद्विवेचने तदुद्भावनस्य शक्यत्वादिति हेतुइयोपन्यासे चाधिकं प्रथमेन हितोयस्य कृतकर्तव्यसाया दुष्टिवोजत्वात्। न च नौलधूमादित्यादौ विशिष्टकर्तव्यमन्येन केनापि कृतं, धूमववादित्यनेनैव कृतमिति चेत् । न। तथानुपन्यासात् अन्यथा नौलानन्वयापत्तेः।
अपरे तु साध्यानवगतसहचारः साध्याभावसहपारी विरुषः अन्यथा पृथिव्यां मेयत्वेनेतरभेदानुमानं
कर्तव्यमिति हेत्वभिधानप्रयोजकाकाङ्गाविषयमिद्धिरूपविशक्षणक
व्यमित्यर्थः, 'तथानुपन्यासादिति धूमादितिभागेन प्रथमं धमज्ञानज्ञाप्यो वञ्जिरित्यश्चयबोधाजननादित्यर्थः, 'अन्यथा' धूमादिभागेन प्रथमं तादृशान्वयबोधजनने, 'नौलानन्वयेति धूमेन ममं नौखानचयापत्तेरित्यर्थः, धूमपदस्य जनितान्चयबोधजनकत्वेन निराकाजत्वादिति भावः ।
केचित्तु(१) 'तथानुपन्यामादिति, केवलधूमहेतुत्वस्य प्रतिज्ञावाक्वार्थान्वये तत्तात्पर्येणैव नौलधूमवत्त्वस्थानुपन्यामादित्यर्थः, 'अन्यघेति तत्तापयेणैव तस्योपन्यास इत्यर्थः इत्याहुः । ___ 'माध्यानवगतेति माध्यमहरितत्वेनानिचितत्वे मति मायाभावसाचरित इत्यर्थः, 'अन्यथा' साध्याभावयाप्यस्यैव विरुद्धत्वे,
(१) बन्ये विति गा।
Page #856
--------------------------------------------------------------------------
________________
विरजपूर्वपक्षः। म विरुद्धं स्यात् साध्याभावाव्याप्यत्वात् । न च तत्साधा. रणं, सपक्षास त्वात्। न च साध्यसहचाराजानंदशायां साधारणतिव्याप्तिः, तदा तस्यापि विरुद्धत्वादितिप्राहुः । तन्न। विपक्षगामित्वं दूषकताप्रयोजकमित्युक्तात्वात्। अत एव व्यभिचरितो व्यतिरेक्यनै कान्तिक एव ।
नापि साध्याभावसाधकत्वं तत्पमापकत्वं वा, साध्याभावसम्बन्धबुद्धिं विना तदज्ञानात् । नापि साध्यवद
'सपक्षासत्त्वादिति निश्चितसाध्यवदवृत्तिवादित्यर्थः, निश्चितसाध्यवत्तिले मति माध्याभावववृत्तेरेव साधारणत्वादिति भावः । 'माधारणतिव्याप्तिरिति द्रव्यं सत्त्वादित्यादिसाधारणतिव्याप्तिरित्यर्थः, 'विपक्षगामित्वमिति, 'दूषकताप्रयोजक' साधारण्यरूपो दोषः, तथाच तहटिततया विशिष्टो न दोष इति भावः । ननु यदि तादृशविशिष्टो न विरोधस्तदा तदाश्रयस्य हेतोः कुत्रान्तर्भावइत्यत आह, 'श्रत एवेति 'यभिचरितः' साध्याभावसहचरितः, 'यतिरेको' अनवगतमाध्यमहचारकः।
‘साध्याभावसाधकत्वमिति साध्याभाववत्ताप्रतीतिविषयवृत्तित्वमित्यर्थः, एतच्च वयादौ माथे धूमादावण्यागतमत आह, तन्ममापकत्वं वेति माध्याभाववत्ताप्रमितिविषयवृत्तित्वमित्यर्थः, 'साध्याभावसम्बन्धेति हेतौ साध्याभावसामानाधिकरण्येत्यर्थः, 'तदज्ञानादिति तज्ज्ञानस्य व्याप्तिज्ञानाप्रतिबन्धकवादित्यर्थः, तथाच हवा
Page #857
--------------------------------------------------------------------------
________________
सत्यचिन्तामयी
ग्यत्वव्याप्यत्वं, व्याप्यत्वविवेचने व्यर्थविशेषणत्वात् । नापि स्वव्यापकाभावप्रतियोगिसाध्यकत्वं, साध्याभावस्य हेतुव्यापकत्यप्रतीतौ हेतु-साध्याभावसम्बन्धमानस्थावश्यकत्वादिति।
इति श्रीमहङ्गे शोपाध्यायविरचिते तत्त्वचिन्तामणौ अनुमानास्य-दितीयखण्डे विरुद्धपूर्वपक्षः ।
भामसामान्यलक्षणानाक्रान्ततया नास्य हेत्वाभासोपाधित्वमिति भावः । पूर्वी अन्योन्याभावगर्भ लक्षणमपि दूषयति, 'नापौति, पूर्वानमिति शेषः, तेन न पौनरुतलं, 'व्यर्थति माध्यवदवृत्तिवे मति माध्यवभिनवृत्तित्वस्य माध्यवदन्यत्वव्याप्यत्वरूपतया सत्यन्तदलवैयर्थ्यादित्यर्थः । 'खव्याप्केति 'स्व' माधनत्वेनाभिमतं, खव्यापकत्वं स्खमामानाधिकरण्यघटितमित्यभिप्रायेण दूषयति, 'माध्याभावस्थेति, 'सम्बन्धः' सामानाधिकरण्यं, तथाच बाधविशिष्टव्यभिचारादिवहोषान्तरघटिततया नास्य हेत्वाभामोपाधित्वमिति भावः ।
रति श्रीमथुरानाथतर्कवागौश-विरचिते तत्त्वचिन्तामणिरहस्ये अनुमानाख्य-द्वितीयखण्डरहस्ये विरुद्धपूर्वपक्षरहस्यम् ।
Page #858
--------------------------------------------------------------------------
________________
( 4
)
पथ विरुद्धसिद्धान्तः । उच्यते। साध्यव्यापकाभावप्रतियोगित्व विरुद्धत्वं । न च प्रतियोगिनोरम्बये भासमान एव तदभावयो
अथ विरुङ्कमिडामरहस्यम् । 'माध्यव्यापकेति हेत्वभावस्य माध्यवषिष्टाभावाप्रतियोगिवरूपमाध्यव्यापकत्वज्ञान हेत्वभावाभावस्य हेतोः माध्यामामानाधिकरण्यजानपर्यवसन्नं तच्च हेतोः माध्यमामानाधिकरण्यजानं प्रत्येव प्रतिबन्धकमिति भावः ।
অন্য নামাবলল ঘষামালাথিয়ামাগলামি নল माध्यमामानाधिकरण्यग्रहो न विरुद्धः, न वा हेत्वभावस्य माध्यव्यापकत्वज्ञान हेत्वाभावाभावे साध्यासामानाधिकरण्यज्ञानरूपं विशेषणविशेष्यभावभेदादिति चेदेतदखरमेनैव ‘यवेत्यादेवक्ष्यमाणत्वादिति भट्टाचार्याः ।
स्वतन्त्रास्तु 'माध्यव्यापकत्यस्य मायव्यापकाभावप्रतियोगिहेतुमत्पक्षत्वं विरोधत्वमित्यर्थः । न चैवं सुरभिर्गोरश्वत्लादित्यादरविबद्धत्वापत्तिः, इष्टत्वात्, एतज्ज्ञानच माध्याभावमाधकव्यतिरेकपरामर्मतया अनुमितिं प्रत्येव साक्षात्प्रतिबन्धकं । न चैवं मत्प्रतिपक्षाभेदः, तत्र हेत्वन्तरं घटकमत्र तु प्रकृतहेतुरेव घटक इत्येव विशेपात्। न च तथाप्यसाधारणभेदः ग्रन्थकारनये समपक्षव्यावृत्त हेतुमत्पक्षस्यामाधारणतया माध्ययापकाभावप्रतियोगिहेतमपञ्च
Page #859
--------------------------------------------------------------------------
________________
तावचिन्तामगै ाप्तिग्रहः, भिन्नग्राहकसामग्रीकत्वात् अन्यथा व्यतिरेकिविलयापत्तेः। यद्दा दृत्तिमतः साध्यवदत्तित्वं साध्यवइतित्वानधिकरणत्वं साध्यासमानाधिकरणधर्मत्वं
स्यैव तथात्वादिति(१) वाच्यं । एतदखरमादेव 'यइत्यादेWध्यमाणवादित्याः। _ 'प्रतियोगिनोरिति माध्यस्य प्रतियोगी माध्याभावः हेत्वभावस्थ प्रतियोगी हेतुरनयोः सामानाधिकरण्यं विषयोक्त्यैवेत्यर्थः, 'प्रभावयोर्व्याप्तिग्रहः' साध्याभावाभावस्य माध्यस्य हेत्वभावे व्यापकताग्रहः, तथाच हेतौ माध्याभावमामानाधिकरण्यात्मकव्यभिचारज्ञानमेव प्रतिबन्धकमस्तु किमेतज्ज्ञानस्य प्रतिबन्धकत्वेनेति भावः । यद्यपि प्रतिबध्यतावच्छेदकभेदादेकेनान्यस्य नान्यथासिद्धिसम्भवः, तथापि स्फुटतरं दोषमाह, 'भिन्नेति परस्परमामय्यनियतमामयोकत्वादित्यर्थः, 'अन्यथेति यदि प्रतियोगिनोरन्वयसहचारं विषयोकृत्यैवाभावयोर्ध्यापकतामहः तदेत्यर्थः, 'व्यतिरेकिविलयेति पृथिवी इतरेभ्यो भिद्यते इत्याधप्रसिद्धमायके व्यतिरेकव्याप्तिग्रहविलयापत्तेरित्यर्थः, पृथिवीतरभेदस्थाप्रसिद्ध्या पृथिवौत्वेन समन्तस्य महचारपहासम्भवादिति भावः । 'वृत्तिमत इति वृत्तिमत्त्वे मति माध्यवदवृत्तित्वमित्यर्थः,वक्रिमानाकाशादित्यादावतिव्याप्तिवारणाय सत्यक। वस्तुतस्तु मत्यन्तमनुपादेयमेव वहिमानाकामादित्यादेरपि लक्ष्यत्वात्
(१) तत्त्वादितौति भावः ।।
Page #860
--------------------------------------------------------------------------
________________
विरसिद्वान्तः। साध्यवत्तित्वानधिकरणधर्मत्वं वा तवं न. व्यतिरेक्यतिव्याप्तिः, तब साध्याप्रसिया तथा धानविरहात्, असाधारणे च सकर एन अनेनापि रूपेण तस्य दोषत्वात् । न च साध्यवत्तित्वे सति वृत्ति: अन्यथा माध्यत्तित्वांशमाचग्रहस्थापि विरोधित्वेन तहटितस्य() हेत्वाभामत्वासम्भवादिति(२) ध्येयं । मध्यववृत्तित्वानधिकरणवमिति, वृत्तिमत्त्वे मतौत्यत्राप्यनुषञ्जनौयं, पूर्वत्र माध्यववृत्तित्वात्यनाभावोऽत्र तु तदधिकरणत्वात्यन्ताभाव इति भेदः, (२) 'माध्याममानाधिकरणधर्मावमिति साथममानाधिकरणभिन्नत्वे मति वृत्तिमत्त्वमित्यर्थः, विशेष्य-विशेषणभावभेदात्() अत्यन्तान्योन्याभावभेदाच्च द्वितीयतो भेदः । ज्ञानातिव्याप्तिं निराकरोति, 'न चेति, ‘यतिरेक्यतिव्याप्तिः' व्यतिरेकिणि माध्यवत्तित्वज्ञानाभावेन माध्यवदवृत्तित्वज्ञानापत्तिः, ‘माध्याप्रमिद्येति, इदमुपलक्षणं कदाचित्तथा ज्ञानेऽपि क्षतिविरहाच्च । नन्वेवं नित्यः शब्दः शब्दत्वात् इत्यमाधारणस्थापि विरुद्धत्वापत्तिरित्यचेष्टापत्तिमाह, 'माधारणे चेति, 'मकर एव' विरुद्धाभेद एव, ‘दोषत्वात्' दुष्टत्वात् । 'न चेति, 'ज्ञानात्' ज्ञापकात्, 'तेन विना' माध्याभाववगामित्वज्ञानेन विमा, (१) तटितस्य वृत्तिमत्त्वघटितस्येत्यर्थः, तथाच विरोधितायामनुप
योगिभागस्य न हेत्वाभासघटकत्वमिति भावः । (२) तस्यापि हेत्वाभासत्वसम्भवादितौति ग०। (३) अखण्डाभावघटकतया नाधिकरणत्वांशस्य, वैयर्थमिति ।. (8) विशेषण-विशेष्यभावभेदादिति यः ।
108
Page #861
--------------------------------------------------------------------------
________________
पूज
तत्वचिन्तामणे
मत्वज्ञानात् साध्याभाववामित्वज्ञानमावश्यकं तेन विना साधावदत्तित्वाज्ञानादिति वाच्यम्। उपजीव्यत्वेन भिन्नत्वात् उपजीव्यत्वेऽपि साध्यवति न वर्ततइति ज्ञानं न स्वतोदूषकमिति चेत् । न। असहचार
'साध्यवदवृत्तित्वाज्ञानात्' वृत्तिमत्त्वविशिष्टसाध्यवदवृत्तित्वज्ञानानुत्पादात्, वृत्तिमत्वविशिष्टसाध्यवदवृत्तित्वज्ञानोत्पत्तेः साध्याभाववगामित्वज्ञानोत्पत्तिव्याप्यत्वादिति यावत्, एकविशेषबाधग्राहकसामग्रीसहकृतमामान्यग्रहसामग्र्यास्तदितर विशेषप्रकारकज्ञानजनकस्वनियमादिति भावः। यद्यपि वृत्तिमत्त्वे सति माध्यवदवृत्तित्वजानस्य साध्याभाववगामित्वविषयकत्वावश्यकत्वे न कापि क्षतिः प्रतिबध्यतावच्छेदकभेदादेकेनापरस्यान्यथासियसम्भवात्, तथापि तदुपेक्ष्य स्फुटतरमस्य समाधानमाह, 'उपजीव्यत्वेनेति वृत्तिमत्त्वे मति माध्यवदवृत्तित्वज्ञानस्य इतरबाधनिश्चयबिधया तत्र साध्याभाववद्वृत्तित्वज्ञाने कुत्रचिदुपजीव्यवमात्रेणेत्यर्थः, मात्रपदात् तस्य तदात्मकवनियमव्यवच्छेदः, 'भिन्नत्वादिति कुत्रचित्तत्र तगिनत्वस्यापि सत्त्वादित्यर्थः, साध्याभावाद्युपस्थितिविरहेण तेन विनापि क्वचित्तदुत्पादादिति भावः। 'उपजीव्यत्वेऽपि' कचिदुपजीव्यमाचसत्त्वेऽपि तस्य तदात्मकत्वनियमाभावेऽपौति यावत्, 'न खतो दूषकमिति नानुमिति-तत्कारणान्यतरं प्रति साक्षात् प्रतिबन्धकमित्यर्थः, तथाच साध्यवदवृत्तित्वं कथं हेत्वाभास इति भावः। 'असहचारज्ञानस्य' साध्यवदत्तिवज्ञानस्य, 'विरोधितया' सहचारांशग्रहविरोधितया,
Page #862
--------------------------------------------------------------------------
________________
विवइसिद्धान्तः।
८५६
ज्ञानस्य विरोधितया व्याप्तिग्रहप्रतिबन्धकत्वात् व्यभिचाराज्ञानविरोधित्वेन व्यभिचारज्ञानवत् । ननु विरुखस्य स्वार्थानुमानदोषत्वेपि परार्थानुमानेऽपार्थकत्वं अयोग्यताज्ञानेन निश्चितानन्वयादिति चेत् । न। अयोग्यताज्ञानस्य विरुवत्वज्ञानोपजीवकत्वेन तस्यैव दोषत्वात् बाधेऽप्येवं। स चायं विधिसाधने विविधः
'व्यभिचाराज्ञानेति व्यभिचारस्थाज्ञानं यस्मादिति व्युत्पत्त्या अव्यभिचारज्ञानेत्यर्थः। 'नन्विति, 'अपार्थकत्वं' अपार्थकत्वमेव उद्भाव्यमिति शेषः, यतः शाब्ददोषस्य पुरस्फूर्तिकतया तस्मिन् सति हेत्वाभासोद्भावनं निरनुयोज्यानुयोगमावहतौति भावः। ननु कुतोऽपार्थकवमित्यत आह, ‘अयोग्यतेति एकपदार्थेऽपरपदार्थाभावप्रमायाअयोग्यतात्वेन प्रकृते साधने माध्यमामानाधिकरण्याभावप्रमैवायोग्यता तस्याः ज्ञानेनेत्यर्थः, 'निश्चितेति निश्चितायोग्यताकत्वादित्यर्थः, तथाच निश्चितायोग्यताकत्वेनापार्थकत्वं यत्रानन्वयावगतिः तदेवापार्थकमिति परिशिष्टकताभिधानादिति भावः । 'अयोग्यताज्ञानस्थेति विरुद्धत्वप्रमाया ज्ञानमेवात्रायोग्यताधीः तत्र च विषयबिधया विरुद्धत्वज्ञानमुपजीव्यमिति भावः । 'दोषत्वात्' दोषत्वेनोद्भाव्यत्वान्, 'बाधेऽप्येवमिति, ‘एवं' तज्ज्ञानस्यायोग्यताज्ञानोपजौव्यत्वेन परार्थस्थले उद्भाव्यत्वं । 'म चामिति, 'अयं विरोधः,. 'विधिमाधने' विधिमाधकनया परोपन्यस्ते विरुद्धसाधने, 'त्रिविधः' लिङ्गत्रयेणैव कथावसरेऽनुमेयतया कथकसम्प्रदायमिद्धः, किं लिङ्गा
Page #863
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामो
साक्षात्साध्याभावव्याप्यत्वात् साध्यव्यापकाभावव्याप्यबात् साधाव्यापकविरुहोपलम्भात् यथा धूमवानयं योग्यधूमवत्तया अनुपलभ्यमानत्वात् । निरमिकत्वात् जलाशयत्वात्। न च सर्वच साध्यव्यापकविरुद्धोपलम्भ
-- ------------ ... - -- -...- - जयं तदाह, 'साक्षात्माध्याभावेति साध्यतावच्छेदकसम्बन्धावच्छिन्नसाध्याभावेत्यर्थः, 'माध्यव्यापकाभावव्याप्यत्वादिति व्याप्यपदस्य स्वरूपार्थकतया माध्यव्यापकाभाववादित्यर्थः, साध्यव्यापकाभावत्वञ्च माधव्यापकतावच्छेदकरूपावच्छित्रप्रतियोगिताकाभावत्वं, ‘साध्यव्यापकविरुद्धोपसम्भादिति उपलम्भपदस्थाभेदपरतया माध्यव्यापकविरुद्धवादित्यर्थः, माध्यव्यापकविरुद्धवच्च माध्यव्यापकतावच्छेदकरूपावच्छिवप्रतियोगिताकाभावव्याप्यत्वं, हेतभेदेन चयाणामुदाहरणं क्रमेणाह, 'यथेति, धमवानयमिति, 'अयं धूमवत्त्वेनानुपलभ्यमानोदेशः, 'योग्यधूमेति ‘योग्यः' बाधितः, तथाच धूमवत्त्वेमानुपलभ्धमानोऽयं देशः धूमवान् धूमवत्ताप्रमित्यविषयत्वात् इति वादिना प्रयुक्त माध्याभावव्याप्यत्वेन माध्यविरुद्धत्वमुत्रौयते, अर्थ देशोधूमवान् निरनिकवादिति परेण प्रयुक्त माध्यव्यापकाभावत्वेन माध्यविरुद्धृत्वमुबीयते, अयं देशोधूमवान् जलाशयत्वात् इति वादिना प्रयुक्त माध्यव्यापकवयादिविरुद्धत्वेन माध्यविरुद्धत्वमुत्रीयते इत्यर्थः, स्वरूपासिलवारणाय प्रथमहेतौ प्रमावप्रवेशः, तत्सत्त्वे तस्यैव दोषस्यातिस्युटतया तदपहाय विरुद्धोनयनस्थानुचितलापत्तः, इदमुपलक्षणं गोत्ववान् अश्वत्वादित्यादावेकस्मिन्नपि हेतौ
Page #864
--------------------------------------------------------------------------
________________
forfeite: I
इति न चैविध्यम्, एतदधानेऽपि साध्याभाव-तापकाभावव्याप्यत्वेनापि ज्ञातस्य दोषत्वात् । न च धूमवानयं तदभाववत्त्वादिति जयाधिकं, स्वसमानाधिकरणात्यन्ताभावाप्रतियोगित्वं हि व्यापकत्वं तच्चाभेदेऽपि धूमवानयं धूमाभाववत्तयोपलभ्यमानत्वात् तदत्तया
(१
M
कालभेदेन पुरुषभेदेन च चयाणामुन्नायकत्वं द्रष्टव्यं । 'साध्यध्याप कविरुद्धोपलम्भ इति साध्यव्यापक विरुद्धत्वेनैव साध्यविरुद्धो मथनं कथावसरे कथकसम्प्रदायसिद्धमित्यर्थः, 'न चैविध्यमिति कथावसरे कथकानां विरुद्धलोन्नायकस्य न चैविध्यंमित्यर्थः, 'एतदज्ञानेऽपि ' साध्यव्यापकविरुद्धत्वस्याज्ञानेऽपि, 'साध्याभावेति व्याप्यपदव्यत्यासात् साध्याभावव्याप्यत्वेन साध्यव्यापकाभावत्वेनापीत्यर्थः, 'ज्ञातस्य' ज्ञानस्य, 'दोषत्वादिति कथावसरे विरुद्धत्वदोषोन्नायकतायाः सकलतातिकसिद्धत्वादित्यर्थः, ‘इति चयाधिकमिति प्रत्यत्र विरुद्धलोकनायकं याधिकमित्यर्थः, तत्र साध्याभावव्याप्यत्व - साध्यव्यापकाभावत्वादीनां हेतौ स्वरूपासिद्धतया तेषां तदुनायकत्वासम्भवादित्यभिमानः, 'तञ्चाभेदेऽपीति, तथाच तत्रापि साध्यव्यापकाभावत्व - साध्यव्यापकविरुद्धत्वाभ्यामेव विरुद्धवोनयनसम्भव इति भावः । ददमुपलचणं साध्याभावव्याप्यत्वस्यापि भेदाभेदसाधारणतया तेनापि तत्र तदुखयनसम्भव इति द्रष्टव्यम् । ननु तथापि धूमवानयं धूमाभाववन्तया. ज्ञायमानत्वादित्यादावुक्तचयेण न विरुद्ध लोनयनसम्भवः तत्त्रयस्य तजासत्त्वादित्यत श्राह 'धूमवानयमिति श्रच हेतावुपलम्भोभ्रम
"
Page #865
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामणी नुपलभ्यमातत्वादित्यनैकान्तिकमेव । निषेधसाधने पि विविधः प्रतियोग्युपलम्भात् साध्यव्यापकाभावोपलभात् साध्यव्यापकविरुद्धोपलभात् यथा निरनिको
....... ....... ......... ... .. - प्रमामाधारणोनिविष्टः, 'तदत्तयेति धूमप्रकारकलौकिकमाक्षात्काराविषयवादित्यर्थः, 'अनेकान्तिकमेवेति न तु विरुद्धमित्यर्थः, प्रथमस्य धूमाभाववत्ताधमविषये धूमवति द्वितीयस्य चातौन्दिये धूमवति माध्यसमानाधिकरणत्वादिति भावः । 'निषेधमाधनेऽपौति निषेधसाधकतया परप्रयुक्त विरुद्धसाधनेऽपौत्यर्थः, 'विविधः' कथावसरे सिङ्गत्रयेणैवानुमेयतया कथकसम्प्रदायसिद्धः, किं लिङ्गचयं तदाह, 'प्रतियोग्युपलम्भादिति उपलम्भपदस्याभेदपरतया साध्यप्रतियोगित्वादित्यर्थः, एवमग्रेऽपि, हेतुभेदेन त्रयाणामुदाहरणं क्रमेण दर्शयति, 'यथेति अर्थस्तु पूर्ववत्, ‘सर्वश्चायमिति विरोधमाधकोधर्म इति शेषः। 'विशेषणद्वारापि' हेतुतावच्छेदकघटकविशेषणदारापि, अनुमितः सन् क्वचिद्विरोधोनायक इति शेषः ।
साम्प्रदायिकास्तु ‘स चायमिति अयं विरुद्धोहेतुः विधिमाधने विधिरूपमाध्यमामानाधिकरण्यग्रहे विधिरूपमाध्यानुमितौ वा, 'विविधः' विधा प्रमितः मन् प्रतिबन्धकः, केन चयेण प्रमितसादार, 'साक्षात्साध्याभावेत्यादि, मळच प्रकारिता पञ्चम्यर्थः, .प्रमित इति शेषः, शेषं पूर्ववत्, हेतुभेदेन त्रयाणामुदाहरणं क्रमे
णाह, 'यथेति, एकस्मिन्नपि हेतौ कालभेदेन पुरुषभेदेन च त्रयाणमुदाहरणं बोध्छ, 'विरुद्धोपसम्मः' विरुद्धत्वप्रकारकोपलम्भः, प्रति
Page #866
--------------------------------------------------------------------------
________________
विरसिद्धान्तः। .
ऽयममिमत्वात् धूमाभावशून्यत्वात् धमवत्वात् सर्वश्वायं विशेषणहारापि यथा कृष्णागुरुप्रभववाहिमानयं
बन्धक इति शेषः । 'इति त्रयाधिकमिति, अत्र माथाभावव्याप्यत्वमाध्यव्यापकाभावत्वाद्यभावेन तदत्तया प्रमितत्वाभावादित्यभिम्गमः । अभिमानं निराकृत्य समाधत्ते, 'खसमानेति, इदमुपलक्षणं माध्याभावव्याप्यवस्थापि भेदाभेदभाधारणतया तद्वत्तयापि प्रमितत्वस्थ तत्र सम्भवः । ननु धूमवानयं धूमाभाववत्तया ज्ञायमानत्वादित्यादिकं तत्त्रयाधिकमेव तत्र माध्याभावव्याप्यत्वादीनां प्रभावादित्यतबाह, 'धूमवानयमिति, ‘निषेधसाधनेऽपि' निषेधरूपमाध्यमामानाधिकरण्यग्रहेऽपि, 'त्रिविधः' त्रिधा ज्ञानात् प्रतिबन्धकः, 'प्रतियोग्युपलम्भात्' माध्यप्रतियोगित्वप्रकारकज्ञानात्, एवमग्रेऽपि, धर्मपरोनिर्देशः, 'सर्वश्चायमिति अयं दूषकताप्रयोजकोधर्मः साध्याभावव्याप्यत्वादिरूपः, 'विशेषणद्वारापीति अनुमेय इति श्रेषः, अस्थोदाहरणमाह, 'यथेति इत्याहुः । तसत्, साध्याभावव्याप्यवादिज्ञानस्य माध्यमामानाधिकरण्यग्रहप्रतिबन्धकत्वे मामाभावात् विरोध्यविषयकत्वात् माध्यामामानाधिकरणादिग्रहस्यापि प्रतिबन्धकतथा विभागस्थ न्युनत्वप्रसङ्गाच्च ।
प्रावस्तु 'म चायमिति अयं विरुद्धोहेतः, 'विधिसाधने' विधिमाध्यकः, 'विविधः' विधा तान्त्रिकैर्विभक्तः इत्यर्थः, इत्याजः ।। तदमत्, ‘एतदज्ञानेऽपौत्याद्यग्रिममूलामङ्गतः ।
'प्रयञ्चेति विरोधः इति शेषः, 'बाधेति बाधमकीर्णः कचिद्यथा
Page #867
--------------------------------------------------------------------------
________________
७
चिन्तामयी कटुकासुरभिपाण्डरधूमवश्वात् । अयष बाधाश्रयासिह-स्वरूपासिद्धासाधारणसङ्कीर्णः क्वचित् । . इति श्रीमहंशोपाध्यायविरचिते तत्त्वचिन्तामणौ अनुमानास्यद्वितीयखण्डे विरुद्धसिद्धान्तः ॥॥
अश्वोगौरश्वत्वादित्यादौ, पाश्रयासिद्धिमीर्णः कचिद्यथा काञ्चन- : मयो गौरश्वो गोवादित्यादौ, स्वरूपासिद्धिमौर्णः क्वचिद्यथा सुरभिगौरश्वत्वादित्यादौ, 'असाधारणसङ्कीर्णः कचिद्यथा नित्यः शब्दः शब्दत्वादित्यादावित्यर्थः। प्रचीननये मपक्ष-विपक्षगामित्वस्यैव माधारण्यतया तत्माइयं नाभिहितं, नव्यनये वृत्तिमति विरुद्धे तत्माइर्य्यमपि बोध्यं, बाधपदं मत्प्रतिपक्षस्य, असाधारणपदश्चानुपसंहारित्वस्थाप्युपलक्षणं, माध्याव्यभिचरितत्वे मति माध्यमामानाधिकरप्यरूपव्याप्यभावामिद्धिमङ्करो बाध-खरूपामिहान्यतरमकारच सर्वचैव, माध्यविशेषणसिद्धि-साधनविशेषणसिद्धि-सङ्कारश्च न क्वापि, माध्यतावच्छेदकविशिष्टमाध्यमामानाधिकरण्याभावविशिष्टहेतुतावकेदकावच्छिाहेतोरेव विरोधतया तस्य तत्राप्रसिद्धत्वादिति ध्येयम्।
इति श्रीमथुरानाथतर्कवागौश-विरचिते तत्त्वचिन्तामणिरहस्ये अनुमानाख्य-द्वितीयखण्डरहस्ये विरुद्ध सिद्धान्तरहस्यम् ।
Page #868
--------------------------------------------------------------------------
________________
। ८५ )
अथ सत्प्रतिपक्षपूर्वपक्षः। सत्यतिपक्षत्वं न समानबलबोधितसाध्यविपर्यायलिङ्गत्वं, परस्परप्रतिबन्धेनेोभयोरबोधकत्वात्, बलच्च
अथ सत्प्रतिपक्षपूर्वपक्षरहस्थम् । 'समानबलबोधितेति समानबलवलिङ्गज्ञानजन्य-तत्कालौनतत्पुरुषोयबोधविषयमाध्यविपर्यायकलिङ्गत्व( तत्कालौन-तत्पुरुषोयसत्प्रतिपक्षितत्वमित्यर्थः, बलनिष्ठसमानत्वञ्च तत्कालीन-तत्पुरुषोयमाध्यानुमितिजनकखनिष्ठवलज्ञानसमानाधिकरणममानकालौनज्ञानविषयत्वं, स्वपदं लक्ष्योभूतहेतपर)। दूषणान्तरमाइ, 'बलञ्चेति, 'पक्ष-सपक्षसत्त्वादौति(२) पक्षवृत्तित्व-मपक्षवृत्तित्वादौत्यर्थः, श्रादिपदात् विपक्षावृत्तिवपरिग्रहः, प्रथमे सपक्षत्वं माध्यवत्वेन निश्चितत्वं, विपक्षत्वञ्च तदभाववत्त्वेन निश्चितत्वं, द्वितीये सपक्षत्वं साध्याभाववत्त्वेन निश्चितत्वं विपजवं माध्यवत्वेन निश्चितत्वं, प्रतिहेतौ खहेतुसाध्याभावस्यैव साध्यत्वात्, 'व्यतिरेकिणौति केवलव्यतिरेकिणौत्यर्थः, तत्र सपक्षाप्रमिद्धेरिति भावः । इदमुपलक्षणं अन्वयिनि सपक्ष
(१) समानबलेन बाधितः साध्यविपर्ययो येन एतादृशं लिङ्गं यस्येति
वुत्पत्त्या एतादृशार्थलाभ इति । (२) लक्ष्यीभूतलिङ्गपरमिति ख०, ग । (३) 'सपक्षसत्त्वादि' इत्यत्र 'पक्ष-सपक्षसत्त्वादि' इति कस्यचिन्मूल
पुस्तकस्य पाठमनुसृत्य एतादृशपाठधारणमित्यनुमोयते ।
109
Page #869
--------------------------------------------------------------------------
________________
६६
तत्त्वचिन्तामणौ
न सपक्षसत्यादि व्यतिरेकिण्यभावात् ! नापि समानव्याप्ति-पक्षधर्मतावत्वं, विरोधेनैकच तद्भङ्गनियमात्। नापि व्याप्ति-पक्षधर्मतया ज्ञातत्वं विरोधिव्याप्तिपक्ष
प्रसिद्धिसत्त्वेऽप्येकत्र हेतौ तदभावस्थावश्यकत्वात् । 'समानव्याप्तौति समानसाध्याभावनिरूपितव्याप्ति-पक्षधर्मतावत्त्वमित्यर्थः, समानबलवत्त्वमिति शेषः, व्याप्ति-पक्षधर्मतयोः समानत्वञ्च तत्कालीन तत्पुरुषोयसाध्यानुमितिजनकखनिष्ठमाध्यनिरूपितव्याप्ति-पक्षधर्मताज्ञानसमानाधिकरण-समानकालौनज्ञानविषयत्वं, खनिष्ठत्वं व्याप्ति-पक्षधर्माताविशेषणं, स्वपदं लक्ष्यीभूतलिङ्गपरं, 'विरोधेनेति माध्य-तदभावयोर्विरोधेनेत्यर्थः, 'तझङ्गेति खमाध्यनिरूपितव्याप्ति-पक्षधर्मातान्यतरभङ्गत्यर्थः, 'व्याप्ति-पक्षधर्मतयेति समानसाध्याभावनिरूपितव्यातिविशिष्टपक्षधर्माताज्ञानविषयत्वमित्यर्थः, समानबलवत्त्वमिति शेषः । ज्ञाननिष्ठसमानत्वञ्च तत्कालीन-तत्पुरुषोयसाध्यानुमितिजनकखविषयकसाध्यनिरूपितव्याप्तिविभिटपक्षधर्मताज्ञानसमानाधिकरणसमानकालौनत्वं, लिङ्गविगेय्यक माध्य-तदभावव्याप्तिविशिष्टपक्षधर्मताप्रकारकपरामर्थावेव सर्वत्र सत्प्रतिपक्षी तादृशपरामर्शस्थापि प्राचौममते(१) अनुमितिजनकत्वादिति भावः । 'विरोधिव्याप्तिपक्षधर्माताविशिष्टज्ञानयोरिति परस्परविरुद्धयोर्व्याप्ति-पक्षधर्मतयोरेकाधिकरणे ज्ञानस्येत्यर्थः, 'अन्यतरभ्रमत्वनियमेनेति व्याप्ति-पक्षधर्म
(१) प्राचीननये इति ख, ग ।
Page #870
--------------------------------------------------------------------------
________________
सत्प्रतिपक्षपूर्वपक्षः। धर्माताविशिष्टज्ञानयोरन्यतरधमत्वनियमेन नित्यत्वव्याप्तश्रावणत्वादिवैशिष्ट्याप्रसिद्ध्यारोपयितुमशक्यत्वात् ।
तान्यतरांचे भ्रमत्वनियमेनेत्यर्थः, एतच्चाप्रसिद्दोत्यच हेतुः, 'नित्यत्वव्याप्तेति 'व्याप्तं' व्याप्तिः, 'श्रावणत्वपदं शब्दधर्मत्वपरं, नित्यत्वव्याप्तिशब्दधर्मत्ववेभिल्याप्रमिोत्यर्थः, 'भारोपयितुमिति साध्याभावव्याप्तिविशिष्टपक्षधर्मताया आरोपयितुमित्यर्थः। तथाच भब्दोऽनित्यः कृतकत्वात् शब्दोनित्यः श्रावणत्वादित्यादौ श्रावणत्वादिना सत्प्रतिपचिते कृतकत्वादौ लक्षणस्यासम्भवः, नित्यत्वादिरूपसाध्याभावव्याप्तिपचौमृतशब्दादिधर्मवयोरेकाधिकरणवृत्तित्वाभावात् नित्यत्वादिरूपसाध्याभावनिरूपितव्याप्तिविशिष्ट-पचौभतशब्दादिधर्मत्वाप्रसिया तज्ज्ञानस्यासम्भवादिति भावः । ‘माध्यव्याप्तस्येति साध्याभावरूपमाध्यव्याप्तस्येत्यर्थः, ‘माध्यव्याप्यता' माध्याभावरूपमाध्यव्याप्यता, तथाच यत्र पक्षे माध्यमबाधितं तत्र क्वचित् माध्याभावव्याप्ये पक्षधर्मतारोपः, क्वचिच्च पक्षधर्मे माध्याभावव्याप्यतारोपः, एवं यत्र पर्छ साध्यं बाधितं तत्र क्वचित् माध्यव्याप्ये पक्षधर्मतारोपः, क्वचिच्च पक्षधर्मे माध्यव्याप्यतारोप इत्यर्थः। इत्थञ्च समानज्ञानौयसाध्याभावव्याप्यनिष्ठपक्षधर्मतानिरूपितविषयतावत्वं ममानज्ञानीयपक्षधर्मनिठमाध्याभावव्याप्यतानिरूपितविषयतावत्वञ्च समानबलवत्त्वं, ज्ञाननिष्ठसमानत्वमपि द्वयं माध्यव्याप्यत्तिपक्षधर्मातानिरूपितस्वनिष्ठविषयताप्रतियोगिज्ञानसमानाधिकरणसमानकालौनत्वं, पक्षधर्म
Page #871
--------------------------------------------------------------------------
________________
तंवचिन्तामणौ न च साध्यव्याप्तस्य पक्षधर्माता पक्षधर्मस्य वा साध्यव्याप्यतारोप्येति वाच्यम्। एकच तदुभयाभावादिशिष्ट
वृत्तिमाध्यव्याप्यतानिरूपितखनिष्ठविषयताप्रतियोगिज्ञानसमानाधिकरणममानकालीनत्वञ्च, स्वपदं लक्ष्यौभूतलिङ्गपरं, एकविशिष्टेऽपरवैभिव्यमितिन्यायेन माध्य-तदभावव्याप्ति-पक्षधर्मतोभयावगाहिलिङ्गविशेष्यकपरामर्शावेव सर्वच सत्प्रतिपक्षौ तादृशपरामर्शस्थापि प्राचीनमतेऽनुमितिजनकत्वादिति भावः । “एकत्रेति एकस्मिन् पचे माध्यव्याप्य-साध्याभावव्याप्ययोरुभयोरभावादित्यर्थः, एतच्चाप्रमियत्यत्र हेतुः, 'विशिष्टस्याप्रसिद्ध्या' क्वचित् साध्याभावव्याप्तिविशिष्टपक्षधर्मল জবি ষাঘষিবিস্মিঘলাসষিদ্ভা, নমিত্মাरोपेति यत्र माध्याभावव्याप्यत्वविशिष्ट पक्षधर्मत्वमप्रसिद्धं तत्र तदैभिक्ष्यस्य यत्र च साध्यव्याप्तिविशिष्टपक्षधर्मत्वमप्रसिद्धं तत्र तवैशिश्यस्थारोपासम्भवादित्यर्थः । यद्यपि साध्याभावव्याप्तिविशिष्टपक्षधर्मत्वादेरप्रमिया तज्ज्ञानासम्भवेऽपि साध्याभावव्याप्यादौ पक्षधर्मतारोपस्य पक्षधर्म माध्याभावव्याप्यत्वाद्यारोपस्य च सम्भवादिदमयुक्तं, तथापि यथोकं समानत्वद्वयं समानबलवत्त्वदयश्च समुच्चितं न क्वापि सम्भवति प्रत्येकञ्च परस्परमव्याप्तमतः प्रागुतमेव समानबलवत्वं निर्वाच्य तच्चाप्रसिया न सम्भवतीति निगूढाभिप्रायः । अथ समानज्ञानीयपक्षतावच्छेदकावच्छित्रपचविषयतानिरूपितमाध्याभावव्याप्यत्वावच्छिअविषयतावत्वं समानबलवत्त्वं, समानत्वञ्च पक्षतावच्छेदकावच्छिन्नपचविषयतानिरूपितमाध्यव्याप्यत्वावच्छिनखनिष्ठविषयताप्रतियोगि
Page #872
--------------------------------------------------------------------------
________________
सत्प्रतिपक्षपूर्वपक्षः।
स्याप्रसिद्ध्या तडैशिष्ट पारोपासम्भवात् । नाप्यनिहारितविशेषेण बोधितसाध्यविपर्ययकत्वम्, उभयारबोधकत्वात् विशेषश्च न व्याप्तिभङ्गाभङ्गरूपः एकत्र तद्भङ्गनियमात् ।
ज्ञानसमानाधिकरण-समानकालीनत्वं, पक्षतावच्छेदकावच्छिन्नत्वच वैज्ञानिकं तेन क्वचित् पक्षतावच्छेदकविशिष्टपक्षादेरप्रसिद्भावपि न क्षतिः, पक्षविशेष्यकसाध्य-तदभावव्याप्यवत्तापरामर्शी माध्य-तदभावव्याप्यविशेष्यक-पक्षप्रकारकपरामर्शी 'वा सत्प्रतिपक्षौ तादृशपरामर्शयोरेव माध्य-तदभावानुमितिजनकत्वादिति चेत् तथापि 'परस्परविरोधेनोभयोरेवाबोधकत्वादिति प्रागुनदोषस्य दुरुद्धरत्वात् रत्नकोषकारमतस्य चाग्रे निरसनीयत्वादिति निगर्भः। 'अनि - रितविशेषेणेति निर्धारितविशेषकेनेत्यर्थः, वैशियं हतीयार्थः, अन्वयश्चास्य बोधितमाध्यविपर्यायकेत्यत्र, तथाचानिर्धारितविशेषकपरामर्शविशिष्टबोधितमाध्यविपर्यायकलिङ्गत्वं मत्प्रतिपक्षितत्वमित्यर्थः, अनिर्धारितविशेषकत्वञ्च अग्टहीतसाध्यव्याप्याभाववद्विशेष्यताकत्वं भग्टहीतभ्रमत्वकत्वं इति यावत् । दूषणन्तरमाह, 'विशेषश्चेति, . 'व्याप्तिभङ्गाभङ्गरूपः' व्याप्तिभङ्गाभङ्गत्वरूपः माध्यव्याप्याभाववद्विशेष्यताकत्वरूप इति यावत्, 'व्याप्या' माध्यव्याप्यत्वरूपेण, 'भङ्गः', अभावः यत्र तत् 'व्याप्तिभङ्गं साध्यव्याप्यत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभाववदिति यावत्, तस्य विशेष्यतासम्बन्धेनं 'अभङ्गः सत्त्वं यति
Page #873
--------------------------------------------------------------------------
________________
নন্দিনী
इति श्रीमहङ्गेशपाध्यायविरचिते तत्वचिन्तामणौ अनुमानाख्य-हितीयखण्डे सत्प्रतिपक्षपूर्वपक्षः॥
व्युत्पत्तेः, 'एकत्र' एकस्य माध्यव्याप्य-साध्याभावव्याप्ययोरन्यतरस्येति यावत्, ‘भङ्गनियमात्' पचे भङ्गनियमात्, तथाच माध्यव्याय्याभाववद्विशेष्यकत्व-साध्याभावव्याप्याभाववद्विशेष्यकत्वान्यतरत्वरूपेण तदवधारणं सर्वचैवास्तौति भावः।
इति श्रीमथुरानाथतर्कवागौश-विरचिते तत्त्वचिन्तामणिरहस्ये अनुमानाख्यद्वितीयखण्डरहस्ये सत्प्रतिपक्षपूर्वपक्षरहस्यम् ।
Page #874
--------------------------------------------------------------------------
________________
अथ सत्प्रतिपक्षसिद्धान्तः। उच्यते। साध्यविरोध्युपस्थापनसमर्थसमानबलोप
' अथ सत्प्रतिपक्षसिद्धान्तरहस्यम्। यद्यपि सायाभावव्याप्यवान् पक्षः सत्प्रतिपक्षः येन केनचित् . सम्बन्धेन तद्वान् हेतुः मत्प्रतिपक्षितः, तथापि तन्न सत्प्रतिपक्षितत्वव्यवहारौपयिकं साध्यवत्यपि पचे माध्य-तदभावव्याप्यवत्तापरामर्शयोः सम्बलनदशायां() सत्प्रतिपक्षव्यवहारात् माध्याभाववत्यपि पक्षे माध्यतदभावव्याप्यवत्तापरामर्शयोः असम्बलनदशायां तादृशपरामर्शयोरेकत्राप्रामाण्ययहदशायां वा मत्प्रतिपक्षितत्वव्यवहाराभावाच्चेत्यतो व्यवहारौपयिक लक्षणमाह, ‘माध्यविरोधौति ‘माध्यविरोधी' साध्याभावः, तदुपस्थापनसमर्था तदनुमितिजननखरूपयोग्या या 'समाना' समानकालौना, 'बलोपस्थितिः' बलवती उपस्थितिः, तया 'प्रतिरुद्धः' विशिष्टः, य: 'कार्यलिङ्गः' माध्यानुमितिरूपकार्यजननसमर्थः साध्यव्याप्यवत्तापरामर्शः, तदिशिष्टत्वमित्यर्थः, बहुव्रीहिममामाश्रयणाद्वैशिष्यलाभः, 'व्याप्ति-पक्षधर्मते' इति साध्याभावव्याप्तिसम्बन्धित्व-पक्षसम्बन्धित्वे इत्यर्थः, माध्याभावव्याप्तिसम्बन्धित्वं माध्याभावव्याप्यत्वावच्छिन्नविषयतानिरूपितपक्षतावच्छेदकावच्छिन्नपक्षविषयत्वं, पक्षसम्बन्धित्वञ्च पक्षतावच्छेदकावच्छिन्नविषयतानिरूपितमाध्याभाव
(१) समूहालम्बनदशायामिति ग० ।
Page #875
--------------------------------------------------------------------------
________________
८७९
तत्त्वचिन्तामयी
स्थित्या प्रतिरुद्धकार्यलिङ्गत्वं तत्त्वं, बलच्च व्याप्ति-पक्ष
व्याप्यत्वावच्छिन्नविषयत्वं, अनयोर्विनिगमनाविरहेण वैकल्पिकमुपादानं, अत्र साध्याभावव्याप्यवत्तापरामर्शनिष्ठाप्रामाण्यग्रहसत्त्वे सत्प्रतिपक्षितव्यदहाराभावात् तदारणाय स्वरूपयोग्यान्तमुपस्थितिविशेषणं, एवं माध्यव्याप्यवत्तापरामर्मनिष्ठाप्रामाण्यग्रहसत्त्वेऽपि सत्प्रतिपक्षितव्यवहाराभावात्तद्वारणाय समर्थान्तं परामर्शविशेषणं, अप्रामाण्यज्ञानाक्रान्नपरामर्शश्च नानुमितिजननखरूपयोग्यः अग्टहीताप्रामाण्यकपरामर्थवेन कारणत्वात्, ग्टहौताप्रामाण्यकपरामर्शस्यापि विशेषणज्ञानादिविधया अनुमितिजननखरूपयोग्यतया श्रग्टहीताप्रामाएयकनिरुतबलवदुपस्थितित्वेन स्वरूपयोग्यतालाभाय बलवत्त्वमुपस्थितिविशेषणं, उपस्थितित्वमपि न विशेषौयं यथोक्तखरूपयोग्यतायाः अन्यत्राभावात्(१) साध्यव्याप्यवत्तापरामर्श विशिष्टत्वञ्च विलक्षणविषयतासम्बन्धेन(२) विवक्षितं तेन साध्यादौ नातिप्रसङ्ग इति ध्येयं। न च तथापि पक्षतावच्छेदकसामानाधिकरण्येन माध्य-तदभावव्याप्यवत्तापरामर्शयोः सम्बलनदशायामपि मत्प्रतिपक्षितव्यवहारापत्तिर्द्वारा इति वाच्यं । पक्षतावच्छेदकावच्छेदनानुमित्यनुत्पत्त्या तत्रापि सत्प्रतिपचितव्यवहारस्येष्टत्वादिति भावः । अत्र यद्यप्यप्रामाण्यज्ञानं पृथक्
(१) अटहीताप्रामाण्यकपरामर्शत्वरूपखरूपयोग्यत्वस्य इच्छादावभावा
दित्यर्थः। (२) खनिरूपितपक्षतावच्छेदकावच्छिन्नविशेष्यतानिरूपितहेतुतावच्छेद
कावच्छिन्नप्रकारतासम्बन्धेनेत्यर्थः ।
Page #876
--------------------------------------------------------------------------
________________
सत्प्रतिपक्षसिद्धान्तः। धर्मते। विरोधिबाधकान्यगमकतापयिकरूपसम्पत्तिप्रतिबन्धकं न तु परामर्शनिष्टकारणतायां तदवच्छेदकं तदा अप्रामाण्यज्ञानास्कन्दितपरामर्शस्थानुमितिजननस्वरूपयोग्यत्वाद्यवहारातिप्रसङ्गोदुारः ।
किञ्च यद्यप्रामाण्यज्ञानानाक्रान्तमाध्य-तदभावोभयव्याप्यवत्तापरामर्मसत्त्वेऽपि माध्याभावाभावत्वादिरूपेणेकत्र बाधावतारेण न सत्पतिपक्षितव्यवहारः तदातिप्रसङ्गोदार इत्यखरमात् लक्षणान्तरमाह, 'विरोधिबोधकान्येति साध्याभावानुमितिविरोधी यो बोधः प्रामाण्यग्रहादिस्तत्ममवहितान्यत्वविशिष्टेत्यर्थः; एतच्च गमकतौपयिकरूपविशेषणं, विरोधिता च माध्यव्याप्यवत्तापरामर्शनिष्ठविरोधितातिरिक्ता ग्राह्या तेन नासम्भवः, 'गमकतौपयिकरूपसम्पत्तिमत्तयेति वैशियं बतौयार्थः, 'ज्ञायमानेनेति भावसाधनं वर्चमानवमात्रं कृत्यत्ययार्थः, तथाच गमकतौपयिकरूपविशिष्टखसमानकालौनज्ञानेन 'प्रतिरुद्धः' विभिष्टः यः कार्यः यः माध्यानुमितिकरणे खरूपयोग्यः साध्यव्याप्यवत्तापरामर्शस्तद्वत्त्वमिव्यर्थः, करणे शक्रः कार्य इति व्युत्पत्तेः(१) गमकतौपयिकरूपञ्च पक्षतावच्छेदकावच्छिन्नपक्षविषयतानिरूपितमाध्याभावव्याप्यत्वावच्छिन्नविषयित्वं, साध्यानुमितिस्वरूपयोग्यत्वच्च माध्यानुमितिविरधिबोधासमवहितत्वं, विरोधिता च
(१) चत्र 'कार्यपदेन कारणतालाभाच' इत्यधिकः पाठः ग-चिड़ितपुस्तके वर्तत इति ।
110
Page #877
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्वचिन्तामणौ ।
मत्सया शायमानेन प्रतिरुहकार्यत्वं वा तवं,
माध्याभावव्याप्यवत्तापरामर्शनिष्ठविरोधिताव्यावत्ता याद्या तेन नासम्भवः । न चैवं माध्य-तदभावव्याप्यवत्तापरामर्शयोरेकत्र प्रामाण्यनिश्चये अपरच च तदिरहेऽपि मत्प्रतिपक्षव्यवहारापत्तिः विरोधिबोधासमवहितत्वस्येव प्रामाण्यग्रहासमवहितत्वस्यापि निवेशे माध्यतदभावव्याप्यवत्तापरामर्शयोरुभयचैव प्रामाण्यग्रहदशायामपि सत्प्रतिपक्षितव्यवहारानुपपत्तिरिति वाच्यं। तादृशपरामर्शयोरुभयत्र प्रामाण्ययह इव एकत्र प्रामाण्यग्रहे अपरत्र च तदरहेऽपि सत्यतिपक्षितव्यवहारस्येष्टत्वात् ।। अथैवं “ममानबलौ हि सत्प्रतिपक्षौ न तु होनबलाधिकबलौ(१) । न हि भवति तरचुः सत्प्रतिपक्षो परिणशावकस्थ” ॥ इति मत्प्रतिपक्षस्थलोयटीकाकारग्रन्थविरोध:(र) 'तरचुः' मृगादनापरनामा क्षुद्रव्याघ्रविशेषः, तथाच कथमष्टापत्तिरिति चेत्, न, प्रामाण्यग्रहस्य बलवाभावात् सत्यग्टहीताप्रामायकविरोधिपरामर्श ग्टहीतप्रामाण्यकादपि तद्व्याप्यवत्तापराम
दिनुमित्यनुत्पादात् परन्तु अप्रामाण्ययहाभाव एव बलं एकत्राप्रामाण्यग्रहे यत्र न तद्ग्रहः तस्मादनुमित्युत्पादात् । न चैवं माध्यनदभावव्याप्यवत्तापरामर्मयोरुभयचैवाप्रामाण्यग्रहे मत्प्रतिपक्षता न स्थात् प्रामाण्ययहाभावस्य बलतया बलवत्त्वाभावात् इति वाच्यं । इष्टत्वादिति भावः। (१) न वृत्तमशीनवलाविति ख० । (२) टीकाविरोध इति ख।
Page #878
--------------------------------------------------------------------------
________________
सत्प्रतिपक्षसिद्धान्तः । स्थापनाया व्याप्ति-पक्षधर्मत्वमुभयवादिसिहं वादिना तदभावानुपन्यासात्, द्वितीयस्य तु तवमन्यतरासिद्धमिति प्रथमेन द्वितीयं बाधितमिति स्वार्थानुमानएवायं दोष इत्येके। तन्न। एकदा निरन्तरयोरुभयो
विवादातिरिक्तस्थल एव सत्प्रतिपक्षत्वं सम्भवति,(१) न तु विवादस्थखइति केचिद्वदन्ति तन्मतमुपन्यस्य दूषयति, 'स्थापनाया इति, 'स्थापनायाः' माधनस्येत्यर्थः, 'उभयवादिसिद्धं उभयवादिमिद्धत्वेन निधितं, मध्यस्थस्येति शेषः । 'वादिना' प्रतिस्थापनावादिना, 'तदभावानुपन्यामादिति व्याप्ति-पक्षधर्मत्वाभावमनुपन्यस्य सत्प्रतिपक्षोपन्यासादित्यर्थः । 'द्वितीयस्य तु' प्रतिस्थापनामाधनस्य तु, 'अन्यतरासिद्धमिति स्थापनावाद्यनुमतत्वेनानिश्चितमित्यर्थः । तेन तत्र तदभावं विहाय दूषणान्तरानुपन्यासादिति भावः । 'प्रथमेन' प्रथमसाधने व्याप्ति-पक्षधर्मतयोरुभयवादिसिद्धत्वनिश्चयेन स्थापनासाधने व्याप्ति-पक्षधर्मतयोरुभयवादिसिद्धलनिश्चयेनेति थावत्, 'दितीयं प्रतिस्थापनासाधनं, 'बाधितं' व्याप्ति-पक्षधर्मतान्यतराभाववत्तया निश्चितं, 'स्वार्थानुमान एव' विवादातिरिकस्थल एव, 'अयं दोषः' मत्प्रतिपक्षरूपो दोषः, सम्भवतीति शेषः । 'निरन्तरयोरिति सप्तमी, क्रमिकक्षणद्वयोरित्यर्थः, 'व्याप्ति-पक्षधर्मतयेति माध्य-तदभावनिरूपितव्याप्ति-पक्षधर्मतयेत्यर्थः । 'निरन्नयोति
(१) सत्प्रतिपक्षः सम्भववौति ख०, ग. ।
Page #879
--------------------------------------------------------------------------
________________
भावचिन्तामो व्याप्ति-पक्षधर्मतया ज्ञातयोः प्रतिपक्षत्वात् युगपदुपस्थितेश्च कारणवशेन स्वपरसाधारणत्वात्।
अथ वस्तु नाड्यात्मकत्वात्() व्याप्ति-पक्षधर्माताभगएकवावश्यक इति स एव दोषः। न च
पक्षस्तु प्रथमपरामर्शपूर्व सियादिसत्त्वे बोध्या, अन्यथा द्वितीयपरामर्शोत्पादसमये पूर्वानुमितिजनने बाधकाभावेन नैरन्तासम्भवात्, 'युगपदिति, क्रमेण वेति शेषः, 'कारणवशेन' मामग्रीवशेन, 'खपरेति विवादस्थल-तदतिरिकस्थलमाधारणत्वादित्यर्थः । न चोकरीत्या विवादस्थले द्वितीयहेतौ व्याप्ति-पक्षधर्मतान्यतराभावनिश्चयरूपस्य प्रतिबन्धकस्य सत्त्वात् मामय्येव न सम्भवतीति वाच्य । सर्वत्र तनिश्चये मानाभावात् । न च स्थापनाइतौ व्याप्तिपक्षधर्मातयोरुभयवादिसिद्धत्वनिश्चयस्य मत्त्वात् सर्वत्र द्वितीयहेतौ तविश्वय आवश्यक इति वाच्यं । एकनिष्ठव्याप्ति-पक्षधर्मतयोरुभयवादिसिद्धवनिश्चयस्थाहत्यापरच(२) तदन्यतराभावनिश्चायकवाभावात्(२) तनिश्चयस्थापि सार्वत्रिकत्वे प्रमाणभावाच । न च तदभावानुपन्यामादेव सर्वत्र तनिश्चयस्यावश्यकत्वमिति वाच्यं । अप्रतिधमावस्याभ्युपगमासाधकत्वात् । न हि सम्भवन्तः सर्व एव दोषाः
.. (६) वस्तुनोऽध्यात्मकत्वेनेवि क०।
(२) हेतावपरति ख। (३) तदन्यतराभावानिखायकत्वादिति ख, ग ।
Page #880
--------------------------------------------------------------------------
________________
सत्प्रतिपक्षसिद्धान्तः । तयाविरोधभङ्गेऽप्युपपत्तेनं व्याप्त्यादिभङ्गनियम.इति वाच्यम् । अविरोधेऽप्यमित्यविरोधात् “विरोधे तु व्यायादिभङ्गनियमादिति चेत्,.न, प्रतिरुवत्वज्ञानानन्तरं व्याप्त्यादिभङ्गज्ञानमित्युपजीव्यत्वेन
समुद्भाव्याः, श्राधिक्यप्रसङ्गादिति भावः । 'अध्यात्मकत्वादिति माध्य-तदभावोभयानाश्रयत्वादित्यर्थः, 'व्याप्ति-पक्षधर्मताभङ्गः' तदन्यतरभङ्गग्रहः, ‘एकत्र' स्थापनाहेतौ,(९) 'म एव दोष इति, एतच्च व्याप्ति-पक्षधर्मत्वाभावज्ञानस्य साचादनुमितिप्रतिबन्धकत्वमभ्युपेत्य, 'तयोः' साध्य तदभावयोः, 'विरोधभङ्गऽपि' विरोधित्वाग्रहदशायामपि, 'उपपत्तेः' साध्याभावव्याप्यवत्तानिश्चयस्य सम्भवात्, ‘न व्याप्यादिभङ्गनियमः' न व्याप्यादिभङ्गाहनियमः, 'अविरोधे' विरोधित्वाग्रहे, 'अनुमित्यविरोधादिति, माध्य-तदभावयोर्विरोधित्वज्ञानं विना साध्याभावव्याप्यवत्ताज्ञानं न प्रतिबन्धकमित्यभिमानः । 'विरोरे परोधित्वग्रहे, 'व्याप्यादिभङ्गेति तद्हेत्यर्थः । 'प्रतिरुद्धनमानानन्तरमिति माध्य-तदभावव्याप्यवत्तापरामानन्तरमित्यर्थः, 'व्यभिचारवत्' तज्ज्ञानवत् । न चोपजीव्यत्वेऽपि न साक्षात्प्रतिबन्धकमिति वायं। तथा मति व्याप्यभावज्ञानोत्पत्तिकाले अनु- . मित्यापत्तेः वहिव्याप्यधूमवान् वयभावव्याप्यवांश्च इति परामर्थात्
(१) स्थापनातौ इत्यनन्तरं प्रतिस्थापनायां वा इत्यधिकः पाठः,
ख चिह्नितपुस्तके वर्तते ।
Page #881
--------------------------------------------------------------------------
________________
सत्वचिन्तामो
व्यभिचारवदस्यापि दोषत्वात्। ननु साध्य-तदभावयोरिव तयाप्यत्वेनावधारितया विरोधादेकत्र न निश्चयः किन्तु संशयः, निर्णये वान्यंतरव्याप्तिसंशय इति व्याप्यत्वासिद्धिरिति चेत्, न, उभयोरे
साध्याभाव माययोयुगपदनुमित्यापत्तेश्चेति भावः। 'साध्य-तदभावयोरिवेति 'न निश्चयः' इत्यत्र दृष्टान्तः, “विरोधात्' परस्पराभावव्याप्यत्वात् । ननु माध्यव्याप्य तदभावव्याप्ययोर्वस्तुगत्या परस्पराभावव्याप्यत्वरूपविरोधसत्त्वेऽपि तत्प्रकारेण ज्ञानाभावादेकत्र निश्चयो न विरुध्यत इत्यखरमादाइ, 'निर्णये वेति, तदनन्तरमिति शेषः, 'अन्यतरेति उभयेत्यर्थः, 'व्याप्यत्वामिद्धिः' व्याप्यत्वनिश्चयाभावः, तथाच कारणभावादेवानुमित्यनुत्पादसम्भवाबासौ प्रतिबन्धकइति भावः। पूर्व व्याप्यभावज्ञानेनान्यथासिद्धेनिराकरणेऽपि व्याप्तिनिश्चयाभावेनान्यथासिद्धेरनिराकरणब पौनरुत्वं । 'उभयोः' माध्यव्याप्य-तदभावव्याप्ययोः, 'अन्यतरव्याप्तिसंशयः' उभयत्र व्याप्तिसंभयः, 'अस्य भिन्नत्वादिति अस्य 'पृथक्प्रतिबन्धकत्वादित्यर्थः । नन्यस्योपजीव्यत्वेऽपि पृथक्प्रतिबन्धकवे किं मानमित्यतपार, 'दूषकताबोजन्विति साक्षात्प्रतिबन्धकताकल्पकन्वित्यर्थः । 'विरोधिसामग्रौप्रतिबन्धेन' विरोधिनिर्णयासाधारणकारणविरोधिपरामर्शविशिष्टेन परामर्शान्तरेण, “निर्णयाजनकत्वं' अनुभवसिद्धं निर्णयाजननं अनुभवसिद्धोऽनुमित्यनुत्पाद इति यावत्,
Page #882
--------------------------------------------------------------------------
________________
सत्प्रतिपक्षसिद्धान्तः।
का निश्चयांनान्तरमन्यतरव्याप्तिसंशयइत्युपजीव्यत्वेमास्य भिन्नत्वात् दूषकतावौजन्तु समबलविरोधिसामग्रौप्रतिबन्धेन निर्णयाजनकत्वं, न तु व्याप्तिपक्षधर्माताविरह एव सडेतोरपि सत्प्रतिपक्षत्वान, एकच व्याप्तिभङ्गज्ञानद्दारा वास्य दूषकत्वं, चक्षुरादेश्च नानुमानेन प्रतिरोधः तदुपस्थितावपि फलतादृशपरामर्शस्यैव व्याप्तिनिश्चयरूपतया व्याप्तिनिश्चयाभावेनान्यथासियसम्भवादिति भावः। ननु विरोधिपरामर्शन ज्ञाप्यमानो व्याप्ति-पक्षधर्माताविरह एव हेतुनिष्ठतया तत्रानुमित्यनुत्पादप्रयोजक इत्यत-वाह, 'न विति न त विरोधिपरामर्शन ज्ञाप्यमानोव्याप्ति पक्षधर्मताविरह एवेत्यर्थः, तत्रानुमित्यनुत्पादप्रयोजकइति शेषः, स्वरूपमड्याप्ति-पक्षधर्मताविरहस्यानुमित्यनुत्पादप्रयोजकले क्वाप्यव्यायापक्षधर्मलिङ्गायाप्यादिभ्रमेणानुमितिर्न स्यात् तो चाप्यमानान्तं विरहविशेषणं, 'सत्प्रतिपक्षत्वादिति विरोधिपरामसत्त्वदमायामनुमित्यजनकत्वादित्यर्थः, 'एकत्र' परामर्शान्तरविषये हेतो, 'अस्य' विरोधिपरामर्शस्य, 'दूषकत्वं' प्रतिबन्धकत्वं. वाकारोऽनास्थायां परमुखनिरीक्षकत्वेन हेत्वाभासत्वायोगात् व्याप्यभावज्ञानस्य साक्षादनुमितिप्रतिबन्धकत्वे मानाभावाञ्चेति ध्येयम् । ननु विरोधिपरामर्श यदि विपरीतनिर्णयविरोधौ कथं तर्हि विशेषदर्शने मत्यपि दोषवशाच्चक्षुरादिना पीतत्वादिभ्रमइत्यताह, 'चक्षुरादेचेति, 'चस्वर्थः, 'नानुमानेन' न विशेष
Page #883
--------------------------------------------------------------------------
________________
'तत्त्वचिन्तामणौ
दर्शनेन तस्याधिकबलत्वात् । नन्वेवं वादिवाक्य
दर्शनेन, 'प्रतिरोधः' कार्यप्रतिबन्धः, 'तदुपस्थितावपि' तत्मत्वेऽपि, ‘फलदर्शनेन' चक्षुरादेः फलदर्शनेन, 'तस्य' चक्षुरादेः फलस्य, 'अधिकबलत्वादिति विशेषदर्शनाप्रतिबध्यत्वात्, एतच्च प्रत्यक्षातिरिक्तज्ञानमेव तदभावव्याप्यवत्तानिर्णयस्य प्रतिबध्यमिति जरतरमतानुसारेण। यहा 'प्रतिरोधः' दोषाधौनकार्यप्रतिरोधः, 'तदुपस्थितावपि' मत्सत्वेऽपि, ‘फलदर्शनेन' दोषवशाच्चक्षुरादेः फलदर्शनेन, 'तस्य' दोषवशाञ्चक्षुरादेः फलस्य, 'अधिकबलत्वात्' विशेषदर्शनेनाप्रतिवध्यत्वात्, तथाच दोषविशेषाजन्यज्ञानमेव विशेषदर्शनस्य प्रतिबध्यमिति भावः। यद्दा ननु विरोधिपरामर्शी यदि विपरीतनिर्णयविरोधी कथन्तर्हि आनुमानिकविशेषदर्शने सत्यपि चक्षुरादिना लौकिकोऽनुभव इत्यत आह, 'चक्षुरादेश्चेति, 'नानुमानेन' नानुमानिकविशेषदर्शनेन, 'प्रतिरोधः' लौकिकानुभवात्मककार्यप्रतिबन्धः, 'तदुपस्थितावपि' तत्मत्वेऽपि, ‘फलदर्शनेन' लौकिकानुभवात्मकस्य तत्फलस्य दर्शनेन, 'तस्य' तादृशस्य फलस्य, 'अधिकबलत्वात्' श्रानुमानिकविशेषदर्शनाप्रतिबध्यत्वात्, तथाच लौकिकसन्त्रिकर्षाजन्यज्ञानमेवानमित्यादिरूपविशेषदर्शनस्य प्रतिबध्यं, लौकिकमन्त्रिकर्षजन्यज्ञानन्तु समानेन्द्रियजन्यलौकिकविशेषदर्शनस्यैव प्रतिबध्यमिति भावः । 'नन्वेवमिति, ‘एवं विरोधिपरामी थदि विपरीतनिश्चयविरोधौ तदा, 'वादिवाक्यमात्रस्य
Page #884
--------------------------------------------------------------------------
________________
सत्यतिपक्षसिद्धान्तः। मावस्य प्रतिरोधकत्वेनानुमानमाचोच्छेदः । न विरोधिवाक्यस्य न्यूनबलत्वें लक्षणायोगः समबलत्वे
वादिनोः प्रतिज्ञावाक्यमात्रज्ञानस्य, ‘मानपदं साकल्यार्थकं, ‘प्रतिरोधकत्वेन' स्व-स्खमाध्यविपरीतज्ञानप्रतिबन्धकत्वेन, 'अनुमानमाचोछेद इति विवादस्यले स्थापनामाध्य-प्रतिस्थापनामाध्ययोरुभयोरेवानमित्युच्छेद इत्यर्थः, विरोधिपरामर्थनिष्ठप्रतिबन्धकतावच्छेदकस्य विरोधिनिर्णयसामग्रौत्वस्य विरोधिविषयकशाब्दनिर्णयजनके प्रतिज्ञावाक्यज्ञानेऽपि मत्त्वादिति भावः । .
ननु विवादस्थले वादिनोः प्रतिज्ञावाक्यज्ञानात् स्थापनामाध्यप्रतिस्थापनासाध्ययोरुभयोरेवानमित्युच्छेदः कुत्रापाद्यते किं यत्र स्थापनाप्रतिज्ञावाक्यज्ञानं स्वसाध्यशाब्दधौजनकमकलकारणसमवहितं प्रतिस्थापनाप्रतिज्ञावाक्य ज्ञानञ्च न तत्समवहितं तच, किं वा द्वयमेव यत्र खसाध्यशाब्दधौजनकसकलकारणसमवहितं तत्र, अथवा यत्र स्थापनाप्रतिज्ञावाक्य ज्ञानं न खसाध्यशाब्दधौजनकसकलकारणसमवहितं, प्रतिस्थापनाप्रतिज्ञावाक्यज्ञानञ्च तत्समवहितं तत्र, नाद्य इत्याह, 'विरोधिवाक्यस्येति प्रतिस्थापनाप्रतिज्ञावाक्य ज्ञानस्येत्यर्थः, 'न्यूनबलत्वे' खमाध्यशाब्दधौजनकसकलकारणासमवहितत्वे, 'खक्षणयोगः' विरोधिनिश्चयमामग्रौत्वस्य प्रतिबन्धकतावच्छेदकस्थायोगः । न दितीय इत्याह, 'समबलत्व इति स्थापनाप्रतिज्ञावाक्यज्ञान-प्रतिस्थापनाप्रतिज्ञावाक्यज्ञानयोरुभयोरेव खमाध्यमा
111
Page #885
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्वचिन्तामो हि व्याप्ति-पक्षधर्माते बलमिति । प्रत्यक्षादेलिङ्गभावेनैवानुमानप्रतिरोधः कथायां तदुपन्यासानहत्वात् । .. यत्तु विरोधिव्याप्ययस्यासाधारणत्वात् संशयजनकत्वं दृषकतावीजमिति। तन्न। एकैकं हि सत्यतिपक्षं न तु विशिष्टं एकैकञ्च न संशायकमित्यनुमिति
इति माध्याभावव्याप्यत्वावच्छिन्नविषयतानिरूपितपक्षतावच्छेदकावछिन्नविषयतावत्त्व-पक्षतावच्छेदकावच्छिन्नविषयतानिरूपितसाध्याभावव्याप्यत्वावच्छिन्नविषयतावत्त्व इत्यर्थः, तथाच तादृशविषयताशालिनिश्यत्वेनैव विरोधिपरामर्शस्य प्रतिबन्धकत्वं न तु माध्यविरोधिनिश्चयसामग्रोवेनेति भावः । ननु कथं तर्हि विपरीतप्रमा फरक्षकं चक्षुरादि प्रतिबन्धकतया कथायामुपन्यस्यत इत्यत आह 'प्रत्यक्षादेरिति चचुरादेरित्यर्थः, 'लिङ्गभावेनैव' लिङ्गताज्ञानेनै साध्याभावनिरूपितव्याप्ति-पक्षधर्मताज्ञानेनैवेति यावत्, ‘एवकाराक खरूपमञ्चक्षुरादिव्यवच्छेदः, अत्र हेतु: ‘कथायामिति खरूपमच्चाए रादेविरोधित्वे इत्यादिः। _ 'विरोधिव्याप्यवयस्येति मिलितस्येति शेषः, 'असाधारणत्वात्' मपक्ष-विपक्षव्यावृत्तत्वात्, 'दूषकतावीजमिति मत्प्रतिपक्षस्थलेऽनुमित्यनुत्पादवौजमित्यर्थः, संभयसामय्या निषयप्रतिबन्धकत्वादिति भावः । ‘सत्प्रतिपक्षमिति प्रतिबन्धकमित्यर्थः, 'न तु विशिष्टमिति न तु मिशितं हेतुइयमित्यर्थः, 'एकैकञ्चेति, साधारणबाभावा
Page #886
--------------------------------------------------------------------------
________________
सप्रतिपक्षसिद्धान्तः ।
इयस्य प्रामाण्यग्राहकाप्रवृत्तिर्दूषकतावीजमित्यन्ये, तन्न, परस्परप्रतिबन्धेनानुमितेरेवानुत्पत्तेः । ।
रत्नकोषकारस्तु सत्प्रतिपक्षाभ्यां प्रत्येकं स्वसाध्यानुमितिः संशयरूपा जन्यते विरुद्धोभयज्ञानसामग्याः
दिति भावः । 'प्रामाण्ययाहकाप्रवृत्तिरिति प्रामाण्यग्रहानुत्पत्तिरित्यर्थः,(९) 'दूषकतावौज' मत्प्रतिपक्षस्य दोषव्यवहारविषयतावौज । 'परस्परेति, विरोधिव्याप्यवत्तानिश्चयस्यानुमित्यप्रतिबन्धकत्वे तदिषयस्य हेलाभामत्वायोगादिति भावः । ___ ननु तदिशिष्टबुद्धिं प्रति तदभावनिश्चयस्य तदभावविशिष्टबुद्धि प्रति च तद्वत्त्वनिश्चयस्य कार्यसहभावेन प्रतिबन्धकत्वादेकदा कथं माध्य-तदभावयोरनुमितिः(२) इत्यत उक्तं 'संभयरूपेति । ननु संशयत्वस्य प्रत्यक्षवव्याप्यतया विरुद्धोभयकोटिकप्रत्यनजनकसामय्येव संशयजनिका अनुमितिसामग्री तु न तथेति कथं संशय इत्यत पाह, 'विरुद्धोभयेति विरुद्धोभयकोटिकज्ञानसामान्यसामय्या एवेत्यर्थः, विशेष्यतावच्छेदकावच्छेदेन तत्तविरुद्धान्यतरकोटिविषयक-समानविशेष्यतावच्छेदककतत्तविरुद्धोभयकोटिकज्ञानमेव संभयो न तु - तादृशप्रत्यक्षमेव, अत एव विप्रतिपत्तिवाक्यादपि भाब्दसंशय इति •
(१) प्रामाण्यग्राहकानुत्पत्तिरित्यर्थ इति क.। (२) तथाच विरोधिनिश्चयाभावस्य कार्यकालवृत्तित्वेन कारणत्वात साध्य तदभावानुमितिप्राक्क्षणे विरोधिनिश्चयाभावस्य सत्त्वापि कार्यकाले सदसत्त्वान्नानुमितिसम्भव इति भावः ।
Page #887
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामणौ
संशयजनकत्वात् संशयद्वारा अस्य दूषकत्वं । न च संशयरूपा नानुमितिः बाधंस्येव विरोध्युपस्थितेरनुमितिसामग्रीविघटकत्वेनावधारणात् अन्यथा बाधे
भावः । ननु सत्प्रतिपक्षस्थलेऽप्यनुमित्युत्पादे तत्र कथं दोषव्यवहारमात इत्यत-बाह, 'संशयद्वारेति संशयजनकत्वेन निर्णयविरोधितमति त्यर्थः,(९) 'अस्य' सत्प्रतिपक्षस्य, 'दूषकत्वं' दोषव्यवहारविषयत्वं । न चैवं पक्षतावच्छेदकसामानाधिकरण्येन साध्य-साध्याभावव्याप्यवत्तापरामर्शरूपयोः सत्प्रतिपक्षयोः दोषव्यवहारो न स्यात् पक्षतावच्छेदकावच्छेदेनानुमितिं प्रति पक्षतावच्छेदकावच्छेदेन हेतमत्तापरामर्शस्यैव हेतुतया तयोः संशयजनकत्वासम्भवात् विशेष्यतावच्छेदकावच्छेदेनान्यतरकोटिविषयकज्ञानस्यैव संशयत्वादिति वाच्यं । येन सम्बन्धेन हेतोाण्यता ग्रहौता तेनेव सम्बन्धेन हेतुमत्तापरामर्शस्थानुमितिहेतुतानियमात् पक्षतावच्छेदकमामानाधिकरण्येनानुमितिमिव तदवच्छेदनानुमितिं प्रत्यपि पक्षतावच्छेदकसामानाधिकरण्येन हेतमत्तापरा एव हेतुः यत्र च पक्षतावच्छेदकावच्छेदेनानुमित्युत्पत्तिप्रतिबन्धकबाधादेर्नावतारः तत्र नियमतोऽनुमितेर्दिविधविषयत्वमिष्टमेव इत्यभिप्रायात्। 'बाधस्येवेति माध्याभावनिवयस्येवेत्यर्थः, 'विरोध्युपस्थितेरिति साध्याभावव्याप्यवत्त्वोपस्थितेरित्यर्थः, 'अनुमितिमामग्रौविघटकत्वेन' अनुमित्यनुत्पादप्रयोजकत्वेनेत्यर्थः, 'अन्यथेति तदुपस्थितेरनुमित्यनुत्पादाप्रयोजकत्वे इत्यर्थः, (१) संशयजनकत्वेनेत्यर्थ इति ख, ग ।
Page #888
--------------------------------------------------------------------------
________________
सत्प्रतिपक्षसिद्धान्तः।
८८७
ऽप्यनुमित्यापत्तेरिति वाच्यम्। अधिकबलतया ब्राधेन प्रतिबन्धात् तुल्यबलत्वादनुमितिः स्यादेव सामग्रीसत्वात् । साध्याभावबोधस्य च तत्र. प्रतिबन्धकत्वं न तु तद्बोधकस्य चक्षुरादेः। प्रत्येकं निर्णायकत्वेनावधारितात् कथं संशय इति चेत्, न, प्रत्येकावि ज्ञानमुत्यद्यमानमर्थात् संशया न तु प्रत्येकं संशयजनकत्वमिति
'बाधेऽपौति, माध्यविरोधिविषयकनिश्चयत्वेनैव बाधस्यानुमितिप्रतिबन्धकत्वात् साध्याभावव्याप्यवत्त्वोपस्थितेरनमित्यनुत्पादाप्रयोजकत्वे च व्यभिचारेण तेन रूपेण प्रतिबन्धकत्वासम्भवादिति भावः । 'अधिकबलतयेति पक्षतावच्छेदकावच्छिन्नविशेष्यकसाध्याभावप्रकारकनिश्चयनयेत्यर्थः, 'बाधेन प्रतिबन्धादिति बाधनिश्चयस्यानुमितिप्रतिबन्धकवादित्यर्थः, 'तुल्यबलादिति तादृशसाध्याभावप्रकारकनिश्चयाद्यभावविशिष्टात् साध्याभावव्याप्यवत्तापरामर्शादित्यर्थः, उत्तरत्वं पञ्चम्यर्थः । ननु चक्षुरादिना बाधोत्पत्तिकाले विशिष्टबुड्यनुदयाद्बाधसामग्रौत्वेन चक्षुरादीनामपि प्रतिबन्धकत्वं वाच्यं तच्च विशेषदर्शनतया तत्राप्यविभिष्टमित्यत आह, ‘माध्याभावेति, 'तत्र' माध्यविशिष्टबुद्धौ, तदभावस्य कार्यसहभावेन हेतुतया बाधोत्पत्तिकाले न तदुत्पत्तिरिति भावः । शकते, 'प्रत्येकं निर्णायकत्वेनेति प्रत्येकविषयकानुमितित्वावच्छिन्न प्रति जनकत्वेनेत्यर्थः, 'कथं संशय इति संशयत्वस्य कार्य्यतानवच्छेदकत्वादिति भावः ।
Page #889
--------------------------------------------------------------------------
________________
ce
— तत्त्वचिन्तामणौ मेने, तन्न। साध्य-तदभावयाविरोधेन यथैकज्ञानस्यापरधीप्रतिबन्धकत्वं तथा साध्याभावव्याप्यवत्वस्यापि साध्यविरोधित्वात्तबुझेरपि साध्यधीप्रतिबन्धकत्वात् विरोधिज्ञानत्वस्य प्रतिबन्धकत्वे तन्त्रत्वात्। निबन्धे तु हेत्वाभासानां फलहारकं लक्षणं, अ
'प्रत्येकाद्धौति प्रत्येककोटिव्याप्यवत्ताविषयकज्ञानादौत्यर्थः, 'ज्ञान' प्रत्येककोटिविषयकज्ञानं, 'अर्थात्' कोटिदयविशिष्टबुद्धिमामग्रीसमाजान्, 'न तु प्रत्येक संशयजनकत्वमिति न तु प्रत्येककोटिविषयकज्ञानस्य संशयत्वावच्छिन्नं प्रति जनकत्वं, संशयत्वस्य निश्चयनस्येवार्थसमाजग्रस्तत्वेन कार्य्यतानवच्छेदकत्वादित्यर्थः, तथाच संशयत्वं यस्य कार्य्यतावच्छेदकं तस्मादेव संभयोत्पत्त्यभ्युपगमे प्रत्येककोच्युपस्थितितोऽपि संशयो न स्यादिति भावः । बाधस्य पक्षविशेश्यकसाध्याभावनिश्चयत्वेन न प्रतिबन्धकत्वं तादृशमाध्यवदन्योन्याभावनिस्यस्याप्रतिबन्धकत्वापत्तेः तस्य पृथक्प्रतिबन्धकत्वापत्तेर्वा किन्तु साध्यविरोधिविषयकनिश्चयत्वेनैव प्रतिबन्धकत्वं तच्च पक्षविशेध्यकसाध्याभावव्याप्यवत्तानिश्चयेऽप्यविभिष्टमित्यभिमानेन दूषयति, 'माध्य-तदभावयोरिति, 'प्रतिबन्धकत्वे तन्त्रत्वादिति प्रतिबन्धकतायामवच्छेदकत्वादित्यर्थः । एतचापाततः लाघवादिति शेषः ।
नव्यास्तु सत्यपि तदभावव्याप्यवत्तानिश्चये तगोचराप्रामाण्यजोबान तदुत्तरं बुभुत्सातो वा तदुपनौतभानस्योदयात् न साक्षा
Page #890
--------------------------------------------------------------------------
________________
सत्यतिपक्षविद्वान्तः ।
पर
नैकान्तिकानामन्वयाद्यतिरेकाहा काव्युपस्थापकतया संशयः फलं, विरुडस्य साध्यविपरीतस्य ज्ञातं, अपक्ष
कारत्वानिरूपिततद्वत्ताबुद्धिमाचं प्रति तदभावव्याप्यवत्तानिश्चयत्वेन प्रतिबन्धकत्वं किन्तु तादृशनिश्चयवदन्यतद्वत्ताबुद्धित्वावच्छिन्त्री प्रत्येव तथाविधनिश्चयत्वेन विरोधित्वं वाच्यं तथाच वः संशयाकारानुमितिः पर्वतत्वावच्छेदेन वङ्ग्यभावव्याप्यवत्तानिश्चयवतीति न तस्या तादृशनिश्चयः प्रतिबन्धकः, निश्चयात्मिका पर्वतत्वावच्छेदेन वयतुमितिस्तु पर्वतत्वावच्छिन्नधर्मिकवयभावव्याप्यवत्तानिश्चयवदन्येति तस्थामवश्यं(र) तथाविधविरोधिनिश्चयः प्रतिबन्धक इति तद्दशायां तस्था नोत्पत्तिरिति प्राडः ।
'अन्वयात्' माध्य-तदभावयोरवयसहचारात्, 'व्यतिरेकादिति उक्तान्वयस्थ व्यतिरेकादित्यर्थः, 'संशयः फलमिति, तथाच किञ्चिद्धर्मिकयद्र्पावच्छिन्नवत्तानिश्चयत्वेन यादृशमाध्यसंशयं प्रति जनकत्वं तद्रूपविशिष्टत्वमेव तत्माध्यकानेकान्निकलमिति भावः। 'माध्यविपरीतस्य' माध्याभावस्य, 'ज्ञान' अनुमितिः, ‘फलमिति पूर्वणा
(१) पत्र निश्चयवत्त्वं व्यवहितोत्तरत्व-सामानाधिकरण्योभयसम्बन्धेन
बोध्यं । (२) 'वझिमत्यतत्वावच्छिन्ने इयत्वस्य नौलपवंतत्वावच्छिन्ने वझेरनुमि
विस्त पर्वतत्वावच्छिन्नविशेष्यकवाभावयाप्यवत्तानिश्चयवदन्यैवेति पर्वतां वद्धिमत्त्वावगाहिन्यां' इति पाठः 'तादृशनिश्चयः प्रतिबन्धकः' इत्यस्यानन्तरं 'तस्यामवश्यं' इत्यस्य प्राक् क-ग-गुस्तकदये वर्तते परन्तु तादृशः पाठो न समोचीनः ।
112
Page #891
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामो
धर्मेोऽपि विरुवोऽन्यत्र विपरीतज्ञानसमर्थ रव, बाधेऽन्यताविपरीतज्ञानं न तु हेत्वभिमतादेः, घटो नित्यः कार्यत्वादिति(१) विरुद्धे बाधसङ्करप्यदोषः, असिद्धे अनैकान्तिकादिचतुष्टयज्ञानान्यालिङ्गत्वज्ञानं, बाधे
ग्वयः, तथाच तद्रूपावच्छिन्नसाध्याभावानुमित्यौपयिकरूपवत्वं तद्रूपावच्छिन्नसाध्यकविरुद्धत्वमिति भावः। ननु घटोगौरश्वत्वादित्यत्र विरुद्धेऽव्याप्तिः गोत्वाभावव्याप्यस्यापि हेतोघंटात्मकपक्षावृत्तित्वेन तादृशरूपाभावादत पाह, 'अपक्षेति उपन्यस्तपक्षावृत्तिरपि, 'विरुद्धः' माध्याममानाधिकरणः, 'अन्यत्र' खाश्रये, 'विपरीतज्ञानसमर्थः' माध्याभावज्ञानौपयिकरूपवानित्यर्थः, गगनादिकन्तु (२) तादात्येनेव वद्यादेविरुद्धमिति भावः। हृदोवहिमान् द्रव्यत्वादित्यादौ बाधितेऽतिव्याप्तिं निरस्थति, 'बाध इति, 'अन्यतः' जलवादितः, 'न विति, हेत्वभिमतस्य द्रव्यत्वादेः माध्याभावानुमित्यौपथिकव्याप्तिविरहादिति भावः । ननक्तलक्षणं घटोनित्यः कार्यखादित्यादौ बाधसंकीर्णतादशायां अतिप्रसक्त(२) अत आह, 'घट इत्यादि, 'श्रदोष इति, फलभेदाभिन्न हेत्वाभासत्वसम्भवादिति भावः । 'अनेकान्तिकादौति, 'चतुष्टयेत्यविवक्षितं, निबन्धकृन्नये सत्प्रति
' (१) नित्योघटः कार्यत्वादितीति क०, ख० । (२) ननु वहिमान् गगनात् इत्यत्र गगनरूपविण्इ हेतौ कुत्रापि धर्मिणि
वर्तमानत्वेनाव्याप्तिरित्यत चाह गगनादिकन्विति । (३) वाधसङ्गीर्णत्वादयुक्तमत चाहेति ख, ग ।
Page #892
--------------------------------------------------------------------------
________________
सत्प्रतिपक्षसिद्धान्तः।
१
पक्षधर्माहेती व्याप्तिबाधः, प्रकरणसमे तु न व्याप्तिपक्षधर्मताबाधः फलं, नाप्यलिङ्गत्वज्ञानं, व्याप्त्यादिबुद्धिसत्त्वात्। नापि विपरीतबुद्धिः, स्वसाध्यविपरीतेनानियमात् । नापि संशयः, प्रत्येकं काटिद्दयानुप
-
प्रतिपक्षस्य ज्ञानफलकत्वाभावेन तन्निवेशस्य व्यर्थत्वात्, तथाचानेकान्तिक- विरुद्ध-बाधितानां यानि फलानि साध्यसंशय-साध्यविपरौतबोध-स्वधर्मिकसाध्याव्याप्यत्वज्ञानानि तेभ्यो भिन्न ‘अलिङ्गलज्ञान' लिङ्गत्वग्रहविरोधिज्ञानं प्रकृतपक्षधर्मिक-प्रकृतसाध्यव्याप्यप्रकृतहेतमत्त्वग्रहविरोधिज्ञानमिति यावत्, ‘फलमिति पूर्वणन्वयः, तथाच तादृशज्ञानौपयिक यमुपं तदेव प्रकृतहेतोरमिद्धत्वमिति भावः । 'व्याप्तिबाधः' व्याप्यभावज्ञानं, ‘फलमित्यनुषज्यते, तथाच प्रकृतपक्षधर्मत्वे मति प्रकृतसाध्यव्याप्यभावोन्नायकरूपवत्त्वमेव प्रकृतपक्ष-माध्यबाधितत्वं ह्रदोवहिमान् धूमादित्यादिकच न बाधितं किन्त्वमिद्धमेवेति भावः। प्रकृतमनुसरन्नाह, 'प्रकरणसमे विति माध्य-तदभावयोः परामर्शात्मकप्रतिपक्षस्थले वित्यर्थः, 'न व्याप्तीत्यादि, न व्याप्तेः पक्षधर्मत्वस्य वा 'बाधः' विरहज्ञानं, ‘फलमित्यग्रेतनेनान्वयः, 'नाप्यलिङ्गत्वज्ञानमिति, 'अस्लिङ्गत्वस्य' लिङ्गत्वधौविरोयन्तरस्य, ज्ञानमित्यर्थः, 'व्याप्यादौत्यादिना पक्षधर्मत्वस्योपग्रहः, तथाच न बाधिते खरूपामिद्धे वा अस्यान्तर्भावः। 'विपरीतबुद्धिः' माध्याभावानुमितिः, ‘फलमित्यनुषज्यते, 'अनियमादिति व्याय
Page #893
--------------------------------------------------------------------------
________________
सवचिन्तामणे
नयात् । किन्तु कथमच तत्वनिर्णय इति जिज्ञासा फलं, तथाच प्रकृतसाध्य-हेत्वोः किं तत्त्वमिति जिज्ञासानिका व्याप्ति-पक्षधर्मातापस्थितिः प्रकरणसमः। न घनुपस्थिते प्रतिपक्षे एकस्माजिज्ञासा, किन्तु निर्णय एव। अथ ज्ञातुमिच्छा जिज्ञासा सा च ज्ञानेष्टसाधनताज्ञानात् संशयाद्देति कथं तेन विना
वानियमादित्यर्थः, तथाच दोवहिव्याप्य व्यत्ववान् वयभावव्याप्यसत्तावांश्च इत्यादिप्रतिपक्ष हेत्वोः स्वमाध्यव्यतिरेकोन्नयनोपथिकव्याप्तिविरहान तयोविरुद्धेन्तर्भावः, 'संशय इति माध्यस्थेत्यादिः, 'प्रत्येकमिति विरोधिव्याप्ययोः प्रत्येकस्य सपक्ष-विपक्षोभयत्तित्वाधभावेन माध्य-तदभावयोः कोटिदययोः विशिष्टबुद्दाजनकत्वादित्यर्थः । तथाच नानैकान्तिकेऽन्तर्भावः । 'प्रश्तेति प्रकृतसाथसिद्धिजनकविषयतापत्रयोहयोः, 'कि तत्व' किं व्याप्यादिमत्तया प्रामाणिकमित्यर्थः, व्याप्तीत्यादिकन्तु स्वरूपकथनमाचं, निरुता जिज्ञासाजनकोपस्थितेरेव सम्यक्त्वेन तनिवेशस्थ व्यर्थलात् व्यायादेरननुगतत्वेनाव्याप्तिकरत्वाचेति ध्येयं । ननु माध्यमावस्य परामर्शोऽपि तादृशजिज्ञासाजनक इति तचातिव्याप्तिरत पार, 'न हौति, 'अनुपस्थिते' प्रमति, 'प्रतिपचे विरोधिपरामर्श, ‘एकमान्' माध्यस्यैव परामर्थात्, न तादृशौ जिज्ञासा किन्तु साध्यस्य निर्णय एवं विरोधिपरामर्शयोः सत्त्वे तु जिज्ञासासामय्या प्रतिब
Page #894
--------------------------------------------------------------------------
________________
सत्तविपक्षसिद्धान्त
विरोधिसाधनज्ञानमाचादिति चेत्, न, असति मतिपक्षे न जिज्ञासा सति तु सेत्यन्वय-व्यतिरेकाभ्यां प्रकरणसमस्यापि जिज्ञासाजनकत्वात् । न चानैकान्तिकातिव्याप्तिः, तत्र हि संशयहारा साध्ये जिज्ञासा अच तु हेतुसमौचौनत्व इति। ननु परामर्शयोरेकदानुत्पादात् कथं प्रतिरोधः, कमात्पवयोरेकदा स
धान्न म इति भावः । 'ज्ञानेष्टसाधनताज्ञानादिति खमते, 'संशयादिति तु निबन्धचन्मते, तैः माध्यसंशयद्वारा अनेकान्तिकस्य साथजिज्ञासाजनकताया अनुपदं वक्ष्यमाणत्वात्, 'ज्ञानमात्रादित्यत्र मेत्यनुषज्यते, 'जिज्ञासाजनकत्वादिति, कार्यतावच्छेदकस्य सङ्कोचाच्च न व्यभिचार इत्याशयः । लक्षणस्थस्य प्रकृतमाध-हेलोरित्यस्य हेतुपदव्यत्यासेन प्रकृतहेतुकज्ञानविषययोरित्यर्थं मत्वा शङ्कते, 'न चेति, जिज्ञासायाः साचाजनकत्वं वक्तव्यं हेलोः प्रामाणिकलजिज्ञासा वा निवेशितेत्याशयेन परिहरति, 'तत्र हौति । न च जिज्ञासाजनकस्थापि विरोधिपरामर्शदयस्य ज्ञानं यदि नानुमितिप्रतिबन्धकं तर्हि कथायां तदुपन्यासो न स्यादिति वाचं। प्रमाणदूषणस्थापि तस्याधिकलादेरिव(१) निग्रहस्थानविधयोद्भाव्यत्वमिति निबन्धातामाणयादिति ध्येयं।
(१) तस्यार्थान्तरत्वादेरिवेति ख, ग ।
Page #895
--------------------------------------------------------------------------
________________
सत्यचिन्तामणोः
स्वादिति चेत्, न, एकानन्तरमपरहेतुव्याप्ति-पक्षधर्मताजानाभ्यामग्रिमव्याप्तिविशिष्टज्ञानोत्पत्तिकाले पूर्व परामर्शनाशात्। न चोभयहेतुव्याप्ति-पक्षधर्माता- . ज्ञानानां परस्पराप्रतिबन्धात् परामर्शत्पाद इति वाच्या व्यायादिज्ञानचतुष्टयस्य योगपद्याभावात्।
यत्तु व्याप्तिहयसंस्कारोबोधकहेतुइयज्ञानयोः परस्परप्रतिबन्धात् नेभियव्याप्तिस्मृतिरिति दूषकताबौजमिति । तन्न। व्याप्तिस्मृति विना सत्प्रतिपक्षाभावात् वादिभ्यां व्याप्त्युद्भावनाचेति। मैवम् । हेतुद्दयसमूहालम्बनायुगपदुभयव्याप्तिस्मृतावुभयपरामर्शरूपं ज्ञानमुत्पद्यते, अत एकदा बिरुद्धकार्य्यद्दयकारणन्नैकमपि कार्यमुत्पद्यते, तादृशपरामर्शश्च स्वार्थानुमाने प्रत्यक्षादितः, परस्य तु वाद्युपन्यस्तन्यायोत्यापितप्रमाणा
शकते, 'नन्विति, ज्ञानदययोर्योगपद्याभावादिति भावः । सिद्धान्तयति, ‘क्रमेति, 'सत्त्वादिति 'प्रतिरोध इत्यन्वयः, एकानन्तरं, एकहेतोः परामर्शानन्तरं, 'अपरेति अपरहेतौ व्याप्तेः पञ्चधर्मत्वस्य च ज्ञानेनेत्यर्थः, तथाच दित्वमविवक्षितं, 'ज्ञानेति एकहेतुकव्याप्तिशान तत्परामर्श-हेत्वन्तरव्याप्तिज्ञान-तत्परामर्शात्मकज्ञानचतुष्टयस्येत्यर्थः । माध्यस्य केवलान्वयित्वधौदशायां पक्षधर्मिक-तत्तदभावोभयव्यायवत्तापरामर्शासम्भवात्तदानौं तत्प्रतिपक्षो नास्तौति मोन्दङमतं
Page #896
--------------------------------------------------------------------------
________________
सत्प्रतिपक्षसिद्धान्तः।
५
वतारात्। अस्य च केवलान्वयिन्यपि सम्भवः घटोऽभिधेयः प्रमेयत्वादित्यचाभिधेयत्वं घटनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगिजात्यन्यत्वे सति घटमात्रवृत्त्यन्यधर्मत्वात् घटान्योन्याभाववत् पटरूपवञ्च, घटनिष्ठात्यन्ताभावोऽभिधेयत्वप्रतियोगिकः घटत्तिनित्याभावत्वात् घटनिष्ठान्योन्याभाववदिति विशेषादर्शनदशायां, न
निरस्यति, 'अस्य चेति, 'अस्य' विरोधिपरामर्शात्मकप्रतिपक्षस्य, 'केवलान्वयिनि' तत्त्वेन ग्रहोतसाध्यके, 'घटेत्यादि, प्रतियोगित्वं स्वरूपसम्बन्धेन ग्राह्यं तेन संयोगेनाभिधेयत्वस्याभावमादाय न सिद्धसाधनं, सत्ताद्याश्रयत्वे व्यभिचारस्य वारणाय 'सत्यन्तं जात्याश्रयतान्यत्वे सतीत्यर्थकं, घटत्वादिप्रकारकप्रमाविशेष्यत्वे तद्वारणाय 'घटमात्रेत्यादि, घटवृत्त्यन्यत्वं अभिधेयत्वे स्वरूपासिद्धमतो मात्रपदं। ननु घटनिष्ठत्वं अवश्यं दैशिकविशेषणतया वाच्यं अन्यथा जातिमत्वादेरभावस्थापि कालिकादिसम्बन्धेन घटनिष्ठत्वाद्धेतोर्यर्थविशेषणत्वापत्तेः तथाच घटान्यत्वाभावस्य घटत्वस्वरूपस्य तादृशसम्बन्धेन घटावृत्तित्वात् तत्प्रतियोगिनो घटान्योन्याभावस्य दृष्टान्तवायोगादाह, 'पटरूपवञ्चेति, 'पेटत्यविवक्षितं, 'घटनिष्ठेति, अत्राप्यत्यन्ताभावः स्वरूपसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताको ग्राह्यः तेन न पूर्ववत् सिद्धसाधनं, हेतौ च घटवृत्तित्वं घटत्वाभावे नित्यत्वं घटनिष्ठध्वंसेऽभावत्वं घटत्वादौ व्यभिचारस्य वारणय, 'अन्योन्येति घरवृत्त्य
Page #897
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामणे
र पक्षैक्यमपि तन्त्र, विरोधस्यैव दूषकत्वेऽधिकस्य व्यर्थत्वादिति ॥
इति श्रीगङ्गेधोपाध्यायविरचिते तवचिन्तामणौ अनुमानाख्यहितीयखण्डे सत्यतिपक्षसिद्धान्तः ॥
भिधेयत्वभेदवदित्यर्थः । ननक्तहेतुदयमपि पटत्वाद्यभावे व्यभिचा
रौत्यत आह, “विशेषेति उनहेलोळभिचाराग्रहदशायामित्यर्थः, ‘पवैक्यं' एकधर्मिकत्वं, 'तन्त्र' प्रतिपक्षताव्यापकमित्यर्थः,१) घटोऽभिधेयत्वव्यापकाभाववान् इत्येवं व्यतिरेकपरामर्शन पचक्यस्य सम्भवाचेत्यपि द्रष्टव्यं।
.' इति श्रीमथुरानाथतर्कवागौश-विरचिते तत्त्वचिन्तामणिरहस्ये अनुमानाख्य-द्वितीयखण्डरहस्ये सत्प्रतिपक्षसिद्धान्तर हस्यं ॥
(२) प्रतिपक्षतायां तवं व्यापकमित्वर्थ इति क., ग. ।
Page #898
--------------------------------------------------------------------------
________________
(
6 )
अथासिद्धिपूर्वपक्षः। असिद्धिस्तु न व्याप्ति-पक्षधर्माताविरहः, प्रत्येकमननुगमात्। अथ प्रत्येकाभावेऽनुगतोव्याप्ति-पक्षधर्माताविशिष्टाभावोऽसिद्धिः, यद्यपि विशिष्टस्यान्यत्वे प्रत्येकाभावाव्याप्तिरपसिद्धान्तश्च अनन्यत्वे प्रत्येकाभाव
अथामिद्धिपूर्वपक्षरहस्यं । 'व्याप्तौति, तथाच व्याप्ति-पक्षधर्मत्वाभाववान् हेतुरसिद्ध इति भावः । अत्र घटो द्रव्यं मत्त्वादित्यादौ १) व्याप्यत्वामिद्धेः संग्रहाय व्याप्यत्वस्य, अयोगोलकं वहिमत् धमादित्यादौ स्वरूपासिद्धेः संग्रहाय च पक्षधर्मत्वस्य प्रवेशः, व्याप्तिश्च माध्याभाववदवृत्तित्वे मति माध्यमामानाधिकरण्यरूपा ग्राह्या न तु हेतुव्यापकमाध्यमामानाधिकरण्यरूपा द्रव्यं सत्त्वादित्यादिमाध्यव्याप्यत्वामिद्धिम्यले तदप्रसिद्मा(२) असम्भवापत्तेः । पक्षधर्मत्वञ्च हेतुतावच्छेदकसम्बन्धेन पक्षवृत्तित्वं तेन हृदो वहिमान् धमादित्यादौ स्वरूपासिद्धे कालिकादिसम्बन्धेन हेतोः पक्षवृत्तित्वेऽपि न पतिः । व्याप्ति-पक्षधर्मत्वयोः प्रत्येकाभावद्वयमसिद्धिः व्याप्तिविशिष्टपक्षधर्मत्वाभावो वा प्राद्ये पाह, 'प्रत्येकमिति प्रत्येकाभावस्येत्यर्थः, 'अननुगमात्' सर्वामिद्धामाधारणत्वात्,
(१) जलदो वक्रिमान् धमादित्यादाविति ख•, ग. | (२) सत्त्वसमानाधिकरणाभावाप्रतियोगिद्रव्यत्वसामानाधिकरण्यापसिहोत्यर्थः।
113
Page #899
--------------------------------------------------------------------------
________________
तवचिन्तामणै । एव स इत्यननुगमः, तथापि विशेषणावच्छिन्नप्रतियोगिक विशेष्याभावो विशेषण-विशेष्यसम्बन्धाभावो वा विशिष्टाभावोऽनुगत इति चेत्, न, विशिष्टाभावाजानेऽपि व्याप्त्यादिप्रत्येकाभावज्ञाने उद्भावने चानुमितिप्रतिबन्धो वादिनित्तिश्चेति तत्प्रत्येकाभावाव्याप्तिः, अन्यथा तेषां हेत्वाभासान्तरतापते, न च
हुदो वहिमान् धूमादित्यादिखरूपासिद्धे व्यायवाभावस्य घटो द्रव्यं मत्त्वादित्यादिव्याप्यत्वामिद्धे च पक्षधर्मत्वाभावस्थामत्त्वादिति भावः । अश्याभिप्रायेणशकते, 'अथेति, 'प्रत्येकाभावेऽनुगतः' प्रत्येकाभावमानवत्यपि वर्तमानः, 'प्रत्येकाभावाव्याप्तिरिति प्रत्येकाभावमात्रवत्यव्याप्तिरित्यर्थः । ननु विशिष्टस्यातिरिकत्वेऽपि तदभावः प्रत्येकाभावस्थलेऽपि वर्तत प्रवेति नाव्याप्तिरित्यत पाह, 'अपसिद्धान्तश्चेति, 'अननुगम इति तदवस्थ इति शेषः, 'अनुगत इति प्रत्येकाभावमात्रवत्यपि वर्तमान इत्यर्थः, 'निवृत्तिश्चेति, व्याप्यादिप्रत्येकाभावदयस्थाप्यसिद्धितयेति भेषः, 'तत्प्रत्येकाभावाव्याप्तिरिति व्याप्यादिप्रत्येकाभावद्वये अमिद्धिलक्षणाव्याप्तिरित्यर्थः, विशिष्टाभावत्वस्यातिरिकत्वात् तस्य च प्रत्येकाभावयोरशत्त्वादिति भावः। इदमुपलक्षणं अयोगोलकं धूमवत् व दो वहिमान् धूमादित्यादौ बाधमकीर्णसिद्धे प्रसिद्धिलक्षणस्थाव्याप्तिः तत्र विशिष्टस्थाप्रसिद्भुतया तदभाव
(१) विशिवाभावत्वस्यासिद्धिवरूपत्वादिति का ।
Page #900
--------------------------------------------------------------------------
________________
बसिद्धिपूर्वपक्ष विशिष्टाभावधौहारा प्रत्येकाभावो दोषो न तु स्वत इति वाच्यं । प्रत्येकाभावस्य स्वतरव दोषत्वसम्भवात् । वस्तुता विशिष्ठाभावो दोष एव न प्रत्येकस्य समर्थत्वे
स्थाप्यसिद्धेरित्यपि बोध्यं । ननु प्रत्येकाभावज्ञानस्थानुमितिप्रतिबन्धकत्वेऽपि न तस्यासिद्धत्वमतो नाव्याप्तिरित्यतबाह, 'अन्यथेति, 'तेषां' प्रत्येकाभावानां, हेत्वाभाससामान्यलक्षणक्रान्तानामिति शेषः। माध्यादिभेदेन व्याप्यादीनां नानात्वाइहुवचनं, 'प्रत्येकाभावः' प्रत्येकाभावज्ञानं, 'न तु स्वतः' न तु साक्षात्, तथाच हेत्वाभाससामान्यलक्षणक्रान्तत्वमेव तत्र नास्ति अनुमिति-तत्कारणपरामर्शयोः साक्षात्प्रतिबन्धकत्वस्य तल्लक्षणघटकलादिति भावः । 'स्वत एव' साक्षादेव, ग्राह्याभावावगाहित्वादिति भावः। दूदमुपलक्षणं प्राश्रयासिद्धि-माध्यविशेषणसिद्धि-हेत्वमिद्धिषु चाव्याप्तिरित्यपि बोध्यं । 'दोष एव नेति हेत्वाभासएव नेत्यर्थः, कुतस्तद्विशेषोऽमिद्धिरिति शेषः,९) 'प्रत्येकस्य' प्रत्येकाभावस्य, ‘समर्थत्वे' दूषणसमर्थत्वे, हेत्वाभासत्वे इति यावत्, 'अन्यथासिद्धेरिति विशिष्टाभावस्य हेत्वाभासत्वं विनापि विशिष्टाभाववतः माधनस्य दुष्टत्वव्यवहारोपपत्तेरित्यर्थः, विशिष्टाभाववति प्रत्येकाभावस्थाप्यावश्यकत्वादिति भावः। ननु . माध्यव्याप्यो हेतुः पक्षवृत्तिरित्याकारकविषकलितव्याप्ति-पक्षलोभयविषयकपरामर्शस्यानुमितिहेतुत्ववादिनां प्राचां नये साध्यव्याप्यत्वे . मति पक्षत्तित्ववान् हेतुरिति व्याप्तिविभिष्टपचधर्मवप्रकारकपरा
(१) इति भाव इति ग।
Page #901
--------------------------------------------------------------------------
________________
• तावचिन्तामों
नेशन्यथासिद्धयर्थ विशेषणत्वात् प्रत्येकाभावमञात्वा
मस्याप्यनुमितिहेतुतया तद्विरोधित्वेन विशिष्टाभावस्थापि हेत्वाभासवर) दुर्बार विनिगमकाभावेन तादृशविशिष्टप्रकारकपरामर्शप्रतिबन्धकत्वस्यापि सामान्यलक्षणघटकत्वात् माध्यव्याप्य हेतुमान् पक्षरति पक्षविशेष्यकपरामर्शस्यैवानुमितिहेतुत्वमिति नव्यमतानुयायित्वे व्याप्ति-पक्षधर्मत्वयोः दयोः प्रत्येकाभावस्थापि दोषलाभ्युपगमामङ्गतेः पक्षवृत्तित्वाभावज्ञानस्य तादृशपक्षविशेष्यकपरामर्शप्रतिबन्धकत्वादित्यरुचेराह, 'व्यर्थविशेषणत्वादिति इदमसाधकं व्याप्तिविशिष्टपक्षधर्मत्वाभावादित्यसाधकतानुमाने पक्षधर्मत्वाभावादित्यस्यैव सम्यक्के व्यर्थविशेषणवादित्यर्थः । तथाच हेत्वाभासत्वस्थासाधकताव्याप्यत्वनियमाड्यर्थविशेषणतया च विशिष्टाभावे तदभावेन न तस्य हेत्वाभासत्वं । न चैवं तत्र सामान्यलक्षणतिव्याप्तिरिति वाच्यं । तस्य हेत्वाभासत्वाभावेनानायत्या विषकलितव्याप्ति-पक्षधर्मत्वोभयविषयताशालिपरामर्शप्रतिबन्धकत्वस्यैव सामान्यलक्षणे निवेशनौयत्वादिति भावः । नन्विदमप्ययुक्तं व्यर्थविशेषणत्वेऽपि व्याप्तिमत्त्वात्(२) विशिष्टाभावत्वस्य प्रत्येकाभाववाघटिततया(२) विशिष्टाभावस्थातिरिक्तत्वेन धमप्राग
(१) तत्त्वमिति ग। (२) सघाच व्याप्तिशरौरे प्रयोजनविरहेण व्यर्थविशेषणाघटितत्वस्यानि
वेशनीयत्वेन व्यर्थविशेषणघटितस्यापि याप्यत्वमिति भावः । (३) प्रत्येकाभावत्वस्य व्याप्यतावच्छेदकधर्मान्तरत्वेऽपि तदघटितत्वेन न
स्थय विशेषणघटितत्वमिति भावः ।।
Page #902
--------------------------------------------------------------------------
________________
पसिद्धिपूर्वपक्षाः । न विशिष्टाभावज्ञानमित्युपजीव्यत्वादिशिष्टाभावानुडावनेऽपि प्रत्येकानावने वादिनिहत्तेश्च । अत एव
भाववभिन्नधर्मिकतया(९) च वैयर्थ्यशङ्कानवकाशाच्च इत्यरुचेराह, 'प्रत्येकाभावमिति, 'उपजीव्यत्वादिति प्रत्येकाभावज्ञानस्योपजीव्यवादित्यर्थः, तथाच प्रत्येकाभावज्ञानस्योपजीव्यतया प्रत्येकाभाव एव हेत्वाभामो न तु विशिष्टाभावः तज्ज्ञानस्य प्रत्येकाभावज्ञानस्योपजौवकत्वात् सामान्यलक्षणे चानायत्या विषकलितव्याप्ति-पक्षधर्मत्वोभयविषयताशालिपरामर्शप्रतिबन्धकत्वस्यैव निवेशाबातिव्याप्तिरिति भावः । नन्विदमप्ययुक्त प्रत्येकाभावमज्ञात्वापि प्रत्यक्ष-शब्दाभ्यां लिङ्गान्तरजन्यानुमानेन च विशिष्टाभावज्ञानसम्भवात् । न च तथापि प्रत्येकामावलिङ्गकानुमानेन विशिष्टाभावज्ञानं, प्रति प्रत्येकाभावज्ञानस्योपजीव्यत्वमस्येवेति वाच्यं। विभिष्टाभावलिङ्गकानुमानेन प्रत्येकाभावज्ञानं प्रति विशिष्टाभावज्ञानस्याप्युपजीव्यत्वेन क्वाचिकोपजीव्योपजीवकभावस्थाविशेषादित्यरुचेराह, “विभिष्टाभावानुद्भावनेऽपौति, एतदण्यापाततः, एवञ्च विरुद्धत्वादेरपि हेत्वाभासत्वं न स्यात् तदनुद्भावनेऽपि 'बाध-खरूपासियादेरगावने वादिनि
..... .... (९) धूमप्रागभावत्वस्य व्याप्यतावच्छेदक-धर्मान्तरधूमत्व-घटितत्वेऽपि
धूमत्वस्य धूमप्रागभावत्वासमानाधिकरणत्वात् यथा न तेन धूमप्रागभावत्वस्य व्यर्थविशेषण घटितत्वं तथा प्रत्येकाभावत्वस्य विशिछाभावत्वासमनाधिकरणत्वात् न तेन विशिवाभावत्वस्य व्यर्थविपो. घणघटितत्वमिति भावः।
Page #903
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामो
व्याप्ति-पक्षधर्मताविशिष्टज्ञानविषयाभावत्वं प्रत्येकाभावानुगतमसिञ्चत्वं व्यभिचारादावसिद्धत्वेऽप्युपजीव्यत्वेन
वृत्तेः। न च तत्र बाधादेरनुभावनेऽपि विरुद्धमात्रोद्भावने वादी निवर्तते तो विरुद्धस्यापि हेत्वाभासत्वं अत्र तु प्रत्येकाभावानुद्भावने विशिष्टाभावमात्रोद्भावनेऽपि न वादिनिवृत्तिरिति न विशिष्टाभावस्य दोषत्वमिति वाच्यं । विशिष्टाभावमात्रोद्भावनेऽपि वादिनिवृत्तः, दस्मात् माध्यव्याप्यत्वे मति पक्षवृत्तित्ववान् हेतुरिति परामर्शस्थाप्यनुमितिहेतुत्ववादिनां प्राचानये व्याप्तिविशिष्टपक्षधर्मत्वाभाववद्धतरपि हेत्वाभासः म च व्याप्यत्वामिद्धावेवान्तभूत इति तत्त्वं । 'प्रत एवेति 'निरस्तमित्यनेनान्वयः, 'व्याप्तौति व्यप्ति-पक्षधर्मत्वोभयमात्रमुख्यविशेष्यकबुद्धिमुख्यविशेष्यतावच्छेदकावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावत्वमित्यर्थः, नातो विशेषाभाव-सामान्याभावविकल्पाभ्यामतिव्याप्यसम्भवणकावकाशः,(९) अधिक सिद्धान्ने वक्ष्यामः, 'प्रत्येकाभावानुगतमिति व्याप्ति-पक्षधर्मतयोः प्रत्येकाभावदये वर्तमानमित्यर्थः, 'असिद्धत्वं' असिद्धिवं। नन्वेवं व्यभिचारादेः कथं दोषत्वं तदति हेतौ अमिद्धेरावश्यकत्वेन तस्यैव दोषत्वसम्भवादित्यत आह, 'व्यभिचारादाविति व्यभिचारादिमति हेतावित्यर्थः, प्रादिना विरोधपरिग्रहः, 'उपजीव्यत्वेनेति प्रसिद्धत्वज्ञानं प्रति
(३) व्याप्ति-पक्षधम्मताविशिवज्ञानविषयाभावत्वं यदि तादृशविषयप्रति
योगिकाभावत्वं तदा विशेषाभावे अतिव्याप्तिः, यदि तादृशविषयत्वावच्छिन्न प्रतियोगिताकाभावत्वं तदा सर्वत्रासम्भव इति तात्पर्य्य ।
Page #904
--------------------------------------------------------------------------
________________
पसिद्धिपूर्वपक्षः।
प्राथम्यात्तदबावने वादिनिहत्तेश्च स स्वत एव दूषकः तष व्यायसिद्ध्यर्थमुपाधौ तूहाविते विप्रतियद्यतेऽपि तस्य दुरूहत्वात् व्यभिचारेणैव तदुन्नयनाच, यदि च व्यभिचारादिकमज्ञात्वाप्यसिडिबुद्धिः तथाप्युपधेयस
- ...
लिङ्गविधया व्यभिचारादिज्ञानस्य उपजीव्यत्वेनेत्यर्थः, 'प्राथम्यान' प्रथमोपस्थितत्वात्, 'तदुद्भावने' व्यभिचारादिमात्रोद्भावने, विरोधित्वाविशेषाच्चेत्यपि द्रष्टव्यं, 'मः' मोऽपि व्यभिचारादिरऽपौति यावत्। मन्वेवममिद्धिज्ञानोपजीव्यत्वेन उपाधिरपि हेत्वाभासान्तरं स्थादित्यत आह, 'तति व्यभिचारादिमति हेतावित्यर्थः, 'व्याप्यमिड्यर्थ' व्याप्यज्ञाना), 'उपाधौ विति, 'तुशब्दो भिन्नक्रमे, 'उनावितइत्यनन्तरं योज्यः, विप्रतिपद्यतेऽपौति व्याप्तौ विप्रतिपद्यतेऽपौत्यर्थः, विप्रतिपत्तिर्भमः, तथाचोपायुद्भावनेऽपि व्याप्तिधमोदयातस्य साक्षादिरोधित्वाभावेन हेत्वाभामान्तरत्वमिति भावः। किञ्च उपाधिज्ञानं नामिद्धिज्ञानोपजीव्यं 'किन्तु तड्यभिचारज्ञानमेवेत्याह, तस्येति अमिद्धत्वस्येत्यर्थः, 'दूरूहत्वात्' उपाधितोदु यत्वात्, 'व्यभि• चारेणैव' उपाधिव्यभिचारेणैन, तदुनयनात्' अभियुनयनात्, एत
चापाततः व्यभिचारितासम्बन्धेन उपाधेरप्युनायकतासम्भवात् तथापि , उपाधेयभिचारस्येव हेत्वाभामान्तरताया दुर्वारत्वाच्च, किन्तु पूर्वोकयुक्तिरेव समौरैनेति द्रष्टव्यं । 'अमिद्धिबुद्धिरिति प्रत्यक्ष-शब्दाभ्यां लिङ्गान्तरजन्यानुमानेन चासिद्धिबुद्धिरित्यर्थः, 'उपधेयेति, 'उपधेययोः अभिद्ध-व्यभिचारिणोधर्मिणोः, 'महारेऽपि' अभेदेऽपि,
Page #905
--------------------------------------------------------------------------
________________
सत्वचिन्तामो
करेऽप्यपाधेरसङ्कर रवेति निरस्तं । व्यर्थविशेषणत्वादेव । एतेन व्याप्ति-पक्षधर्मतान्यतराभावोऽसिद्धिरिति
'उपाधेः' प्रसिद्धत्वव्यभिचारादेर्धर्मास्य, 'अमर एव' ज्ञानासङ्करएव परस्पराग्रहकालौनयहविषयत्वमेवेति यावत्, तथाचासिद्धत्वा ज्ञानदशायामपि व्यभिचारादिमात्रज्ञानाच्याप्तिज्ञानानुदयेन तस्थापि स्वतः प्रतिबन्धकत्वमावश्यकमेवेति भावः । 'अत एवेति विवृणोति, 'व्यर्थेति तथाविधबुद्धिमुख्यविशेष्यतावच्छेदकत्वरूपस्य विशेषणस्य दूषकतायामप्रयोजकत्वात् तथाविधबुद्धिमुख्यविशेष्यतावच्छेदकत्वप्रकारकज्ञानस्थानुमिति-तत्कारणपरामाविरोधित्वादिति यावत्, यद्रूपेण ज्ञानं अनुमिति-तत्कारणपरामर्थान्यतरप्रतिबन्धकं तदेव च विभाजकतावच्छेदकमित्यभिमानः। यद्दा 'व्यर्थविशेणत्वात्' अयं हेतुरमाधकः निरुतबुद्धिमुख्यविशेष्यतावच्छेदकावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभाववत्वादित्यसाधकतानुमाने निरुतबुद्धिमुख्य विशेष्यतावच्छेदकत्वरूपस्य विशेषणस्य व्यर्थत्वात् व्याप्तित्वावच्छित्रप्रतियोगिताकाभावत्वेनैव व्याप्यभावस्य पक्षधम्मतालावच्छित्रप्रतियोगिताकाभावत्वेनैव पक्षधर्मवाभावस्य हेतुत्वसम्भवादित्यर्थः, प्रसाधकतानुमापकतावच्छेदकरूपमेव विभाजकतावच्छेदकमित्यभिमानः। एतच्चापाततः विरोधितावच्छेकरूपमेव विभाजकतावच्छेदकमिति नियमे मानाभावात् विरोधितानवच्छेदकरूपेणपि पूर्व व्यभिचारादेर्विभजनात्, एवमसाधकतानुमापकतावच्छेदकरूपमेव विभाजकतावछेदकमिति नियमेऽपि मानाभावात् व्यर्थविशेषणत्वस्य व्यायवि
Page #906
--------------------------------------------------------------------------
________________
पविडिपूर्वपक्षा। प्रत्युक्तम् अन्यतरवाशानेऽपि प्रत्येकाभावस्य दोषत्वात् व्यर्थविशेषणत्वाच्च ।
घटकतया नत्मत्वेप्यसाधकतानुमापकत्वसम्भवाच्च तथाविधबुद्धिमुख्यविशेष्यतावच्छेदकावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावत्वस्य व्याप्तिवाद्यवछिन्त्रप्रतियोगिताकाभाववाघटिततया व्यर्थविशेषणतागनाथा अप्यनवकाशाच्च । वस्तुतस्तु प्रत्राण्याश्रयामिद्धि-माध्यविशेषामिद्धि-हेतुविशेषणामिद्धि हेत्वमिद्धिष्वव्याप्तिरेव दोषो बोध्या, एवमग्रेऽपि । 'व्याप्तौति व्याप्तित्व-पक्षधर्मातात्वान्यतरधर्मावच्छिनप्रतियोगिताकाभावोऽसिद्धिरित्यर्थः, यद्वा 'अन्यतरपदव्यायासेन व्याप्तिसामान्याभावपक्षधर्मतासामान्याभावयोरन्यतरोऽमिद्धिरित्यर्थः, यथाश्रुते मामा - न्याभाव-विशेषाभावविकल्पाभ्यां अव्याप्यतिव्याप्तिप्रमङ्गस्थ(१) दारत्वादिति ध्येयं । 'प्रत्येकाभावस्थेति प्रत्येकाभावत्वप्रकारेण प्रत्येकाभाव'ज्ञानस्येत्यर्थः, 'दोषत्वात्' प्रतिबन्धकत्वात्, प्रत्येकाभावाद्यज्ञाने चान्य. 'तरत्वप्रकारकज्ञानस्याप्रतिबन्धकवादिति शेषः। तथाच विरोधितामवच्छेदकतया कथमस्य विभाजकतावच्छेदकत्वमित्यभिमानः। 'व्यर्थति माधकतानुमानेऽन्यतरत्वरूपस्य विशेषणस्य व्यर्थवादित्यर्थः,
(१) व्याप्ति-पक्षधर्मत्वान्यतराभावपदस्य तादृशान्यतरत्वावच्छिनप्रति
योगिताकसामान्याभावपरत्वे षव्याप्तिः, अत्राव्याप्तिपदं असम्भवपरं, तादृशान्यतरत्वावच्छिनप्रतियोगिताकामावस्य पसिझनात्मकात्वात्, तादृशान्यतरपतियोगिवाभावपरत्वे विशेषामा अविवालिरिति वात्यय ।
Page #907
--------------------------------------------------------------------------
________________
तापितामगै यत्त व्याप्ति-पक्षधमताप्रमितिविरह पानयासिद्याद्यनुगतोऽसिद्धिः, तत्ममितिसावे तवानुमितिप्रमित्यापत्तेरिति । तदपि व्यर्थविशेषणत्वात् तदनानेऽपि प्रत्येकज्ञानस्य दोषत्वाच निरस्तं ।
प्रत्येक व्याप्तित्वाद्यवच्छित्रप्रतियोगिताकाभावत्वेनैव गमकत्वसम्भवादिति भावः। _ 'याप्ति-पक्षधर्मतेति हेतुतावच्छेदकावच्छिन्नहेतुविशेष्यक-माध्यतावच्छेदकावच्छिन्नमाध्यनिरूपितव्याप्तिविशिष्ट-पक्षतावच्छेदकावच्छिअपक्षधर्मताप्रकारकभ्रमभिन्नज्ञानविरह इत्यर्थः, 'श्राश्रयामियाद्यनुगत इति आश्रयामियादिरूपसकलासिद्धिव्यापकइत्यर्थः, तत्र तादृशज्ञानस्य पक्षतावच्छेदाचंगे भ्रमत्वनियमादिति भावः । 'श्रादिना स्वरूपामिद्धि-माध्य साधनविशेषणमिद्धि-व्याप्यसिद्धौनां परिग्रहः, 'तत्प्रमितिमत्त्व इति श्राश्रयामियादिषु तादृश्पक्षधर्मलप्रकारकज्ञानस्य भ्रमभिन्नत्वे इत्यर्थः, 'अनुमितिप्रमित्यापत्तेरिति अनुमितेरपि धमभिवत्वापत्तेरित्यर्थः, एवञ्च तादृशज्ञानविरहवान् हेतुरसिद्ध इत्यसिद्धलक्षणमिति भावः । तदपौति 'निरस्तमित्यनेनाग्वयः, निरासे हेतमाछ, 'यति विशेषणस्य प्रमित्यंशस्थ व्यर्थत्वात् दूषकतायामप्रयोजकत्लादित्यर्थः, परामर्श प्रमितेरविशेषणतया तदभावज्ञानस्याप्रतिबन्धकत्वादिति भावः । इत्वन्तरमाह, 'तदचानेऽपौति, 'प्रत्येकज्ञानस्य' व्यायभावादिप्रत्येकज्ञानस्य, तथाच प्रत्येकाभावशायमिङ्कितया तवाव्याप्तिरिति भावः । प्रत्येकाभावेश्वसिद्धि
Page #908
--------------------------------------------------------------------------
________________
- पतिविपूर्णपक्ष। वस्तुतस्तु प्रकृतहेतुव्याप्ति-पक्षधर्मातावैशिध्वस्य जन्ममितेश्चाप्रसिद्ध्या तदभावो ज्ञातुमुद्भावयितुवाशक्य एव।
लक्षणस्याव्याप्तिमभिधाय साधनविशेषणामियादिस्थले हेतुतावई दकविशिष्टहेत्वादेरप्रमियाऽसिद्धिलक्षणस्यासम्भवमाह, 'वस्तुतस्खिति, 'प्रचतहेविति हेतुतावच्छेदकविशिष्टहेतीरित्यर्थः, एतदप्रसिद्धिय पर्वतो वहिमान् काञ्चनमयधूमादित्यादिसाधनविशेषणाऽसिद्धिस्थले बोध्या, 'व्याप्तौति माध्यतावच्छेदकविशिष्टसाध्यनिरूपितव्याप्तेरित्यर्थः, एतदप्रसिद्धिश्च पर्वतः काञ्चनमयवहिमान् धूमादित्यादिमाध्यविशेषणसिद्धिस्थले बोध्या, 'पक्षधर्मतेति पक्षतावच्छेदकविशिष्टपक्षनिरूपितधत्वस्येत्यर्थः, एतदप्रमिद्धिश्च काञ्चनमयः पर्वतो वझिमान् धूमादित्याद्याश्रयासिद्धिस्थले बोध्या, वैशिष्यस्येति व्याप्तिपक्षधर्मतोभयवैशिष्यस्येत्यर्थः, एतदप्रसिद्धिश्च अयोगोलकं धूमवत् वहे हुदो वहिमान् धूमादित्यादिबाधसङ्कीर्ण सिद्धिस्थले बोध्या। न च 'वैशिध्यप्येत्यत्र द्वन्इसमासे बहुवचनापत्तिः समाहारबन्दस्य नियतविषयतया अत्र तदसम्भवादिति वाच्यं । “सान्दो विभापया एकवचनं भवति" इति पाणिन्यनुशासनादितरेतरद्वन्देऽप्येकवचनसम्भवात्। न चैवं धव-खदिरइत्यपि प्रयोगापत्तिरिति वाच्य। “इन्दैकत्वं" इति सूत्रेण बन्दस्य एकवचनवे नपुंसकलिङ्गतावश्यकत्वबोधनात् । न चैवं समाहारेतरेतरयोः कोभेद इति वाच । ममाहारबन्दस्य समाहारत्वप्रकारकबोधजनकत्वेनैव भेदात्तथैव चर) (१) तस्यैव चेति ख०, ग।
Page #909
--------------------------------------------------------------------------
________________
तषितामो
यविश्विद्याप्ति-पक्षधर्माताविशिष्टमितिविरह सहेतुसाधारणः स्वमितिविरहो यत्किचित्यमितिविरहो
नियतविषयत्वात् इत्यक्षमधिकेन । मश्वत्र हेतुतावच्छेदकादिवैशिष्य वैज्ञानिक न तु वास्तविकं याचं येन माधनविशेषणमियादिस्यले ऽप्रसिद्धिः स्यात् तथाच हेतुतावच्छेदकरूपेण हेतौ माध्यतावच्छे दकरूपेण माध्यव्याप्यत्वं पक्षतावच्छेदकरूपेण पक्षधर्मवञ्चावगाहते पा माध्ययाप्यो हेतुः पक्षवृत्तिरित्याकारिका भ्रमभिन्ना प्रतौतिस्तविरहवत्त्वमसिद्धित्वमिति फस्सितार्थ इत्यत आह, 'तत्प्रमितेश्चेति असिद्धखले भ्रमभिवतादृशातौतेश्चेत्यर्थः । मनु व्याप्ति-पचधर्मताप्रमितिपदेन प्रकृतहेतु विशेष्यक-प्रकृतमाध्यनिरूपितव्याप्यादिप्रमितिर्न विवचिता किन्तु यत्किञ्चित्साध्यनिरूपितव्याप्तिविशिष्ट-यत्किञ्चि. त्परधर्मत्वप्रकारक-यत्किञ्चिद्धेतविशेष्यकामितिरेव विवक्षिता तद्धिरहब न तत्मामान्याभावः किन्तुं तत्प्रतियोगिकाभावमात्रं तेन हेलनारे साध्यान्तरौयव्याप्यादिप्रमितिमत्त्वदशायर्या नाव्याप्तिरित्यतपाह, 'यत्किञ्चिद्याप्तौति 'यत्किञ्चिदिति पोऽपि सम्बध्यते, यकिचिविरूपितव्याप्तिविशिष्ट-यत्किञ्चित्यधिवप्रकारक-यत्किञ्चिद्धेतुविशेष्यकामितिप्रतियोगिकविरह इत्यर्थः। ननु हेतुतावच्छेदकरूपेण हेतौ माध्यतावच्छेदकरूपेण साध्यनिरूपितव्याप्यत्वं पक्षनावच्छेदकरूपेण पक्षधर्मत्वञ्चावगाहते या प्रतीतिर्धमानिरूपितविशेष्यतावकोदकतासम्बन्धन हेतुनावच्छेदके सदभावोऽसिद्धिर्धमानिरूपितविशेष्यतावच्छेदकतासम्बन्धावसिातादृश्यप्रतीत्यभाववद्धेत
Page #910
--------------------------------------------------------------------------
________________
असिद्धिपूर्वपक्षः। वा सचेतावपि सकलतत्यमितिविरहो दुर्निरूपः व्यास्वभावादेव तद्ग्रहे सरख दोष उपजौव्यत्वात् । यदि च प्रमितिविरहः स्वरूपसबेव दोषः कारणाभावत्वात् तदा व्याप्तादिभ्रमादनुमितिनं स्यात् न स्याच हेत्वाभासता ज्ञानगर्भतल्लक्षणभावात्। एतेन व्याप्तिप्रमिति-पक्षधर्माताप्रमितिविरहान्यतरत्वमसिदिः अ
तावच्छेदकवान् हेतरमिद्ध इति न कोऽपि दोष इत्यत आह, 'स्वामितौति धमानिरूपितविशेष्यतावच्छेदकतासम्बन्धेन खौथतादृशप्रतीतिविरहो वा विवक्षितः तेन सम्बन्धेन यस्य कस्यचित् पुरुषस्य तादृशप्रतीतिविरहो वा तेन सम्बन्धेन तादृशप्रतीतिमामान्याभावो वा, नाद्यौ मद्धेतावपि सत्त्वात्, नान्यः दुर्जेयत्वात् परकौयप्रतौतेरयोग्यत्वादित्यर्थः। ननु व्याप्यभावादिहेतुमा स्वपरमाधारणतादृशाप्रतीतिविरहो ज्ञेय इत्यत पाह, 'व्याप्यभावादिति। ननु स्वरूपसन्नेवायं प्रतिबन्धकोऽतो दुर्जेयत्वेऽपि न पतिः इत्यत पाह, 'यदि चेति, “प्रमितिविरहः' भ्रमानिरूपितविशेष्यतावच्छेदकतासम्बन्धेन तादृशप्रतीतिमामान्याभावः, 'तदेति, असिदुहेताविति शेषः । तादृशाभावस्य प्रतिबन्धकस्य सत्त्वादिति भावः। 'तलक्षणभावादिति हेत्वाभाससामान्यलक्षणभावादित्यर्थः । 'अन्य- .. तरत्वमिति अन्यतरवत्त्वमित्यर्थः, यथाश्रुतेऽन्यतरत्वस्यामिद्धिनिgधर्मतयाऽमिद्धिरित्यस्यानन्वयापत्तेः। नन्वन्यतरवत्वमनयोः प्रत्येक
Page #911
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामो
न्यतस्त्वञ्च तदन्यान्यत्वं तेनोभयविरहेपि नाव्याप्तिरिति निरस्तं । व्यर्थविशेशणत्वादेव । स्यादेतत् व्याप्ति-पक्षधर्मताभ्यां निश्चयः सिद्धिः तदभावोऽसिद्धिः, अतरवाव्यामेऽपक्षधर्मे च तदारोपरूपा सिद्धिरित्यनुमितिः न तु व्याप्त-पक्षधर्मादपि तदनिश्चये । न चैवं हेतोरप्याभासत्वं तदाभासस्यापि हेतुत्वं स्यात्,
मात्रवत्वं तथाच प्रमितिद्वयाभावस्थतेऽव्याप्तिरित्यत आह, 'अन्यतरत्वमिति, 'एतेनेति विवृणोति, 'यर्थविशेषणवादेवेति पूर्ववत् । 'व्याप्तौति स्खौयव्याप्ति-पक्षधर्मतोभयप्रकारकनिश्चय इत्यर्थः, 'तदभावः' विषयतासम्बन्धेन प्रकृतहेतौ तदभावः, 'याप्यादिभ्रमादनुमितिर्न स्यादिति पूर्वातबाधकमुद्धरति, 'अतएवेति यत एव विषयतासामान्येन भ्रम-प्रमासाधारणखीयतदुभयप्रकारकनिश्चयसामान्याभावोऽसिद्धिर्न तु भ्रमानिरूपितविषयतासम्बन्धेन(१) स्व-परमाधारणतादृशनिश्चयाभावोऽत एवेत्यर्थः, 'तदा' व्याप्यादिभ्रमदशायां, 'मिद्धिः' व्याप्ति-पक्षधर्मतोभयप्रकारकनिश्चयः, 'तदनिश्चय इति. खोयतदुभयप्रकारकनिश्चयाभाव इत्यर्थः, पुरुषान्तरौयतदुभयनिवयादनुमितिरिति शेषः। 'न चैवमिति, ‘एवं' स्वौयतदुभयनिश्चयाभावस्यासिद्धित्वे, ‘हेतोरपि' पर्वतो वहिमान् धमादित्यादिसङ्केतोरपि, खौयतदुभयनिश्चयाभावदशायामिति शेषः, 'तदाभासस्थापि'
(१) प्रमानिरूपितविषयतासम्बन्धेनेति ख• ।
Page #912
--------------------------------------------------------------------------
________________
असिद्धिपूर्वपक्षः।
११ दशाविशेषइष्टत्वात् सेयं स्वरूपसती दूषिका कारणाभावत्वात्। न च व्याप्तादिप्रत्येकनिश्चयाभावश्व दूषकआवश्यकत्वादिति वाच्यं । विशिष्टनिश्चयस्य हेतुत्वे तदभावस्य कार्यानुत्पादकत्वादिति। मैवम् । एवं सव्यभिचारादेरप्यचैवान्तर्भावप्रसङ्गात् असिद्धेः स्वरूप
पर्वतो वद्धिमान् आकाशादित्याद्यसिद्धहेतोरपि, स्वीयभ्रमात्मकतदुभयनिश्चयदशायामिति शेषः, 'हेतुत्वं' मद्धेतुत्वं । न च भ्रमात्मकतदुभयनिश्चयदशायामपि असाधारण्य-विरोधान्यतरस्य हेत्वाभासत्वप्रयोजकस्यावश्यं सत्त्वेन मद्धेतुत्वासम्भव इति वाच्यं। पक्षवृत्तित्वे मति माध्यव्यापकोभूताभावप्रतियोगित्वरूपस्यामाधारण्यस्य वृत्तिमत्त्वे मति माध्यवदवृत्तित्वरूपस्य पूर्वाकविरोधस्य च तचासत्त्वादिति भावः ।
केचित्तु 'हेतुत्वमित्यस्य असिद्धिशून्यहेतुत्वमित्यर्थः इत्याहुः । 'मेयमिति, पूर्वोक्तश्च न हेत्वाभामलक्षणमिति भावः । 'न चेति, न भयप्रकारकनिश्चयाभाव इति भावः । 'आवश्यकलात्' कारणभावत्वेन तस्य दोषताया आवश्यकत्वात्। 'विशिष्टेति तदुभयप्रकारकनिश्चयस्येत्यर्थः, 'तदभावस्य' तदभावस्थापि, ‘कार्यानुत्पादकत्वात्' इति कार्यानुत्पत्तिप्रयोजकत्वादित्यर्थः। 'अत्रैवेति अमिद्धावेवेत्यर्थः, व्याप्ति-पक्षधर्मतानिश्चयाभावेनैवानुमित्यभावसम्भचादिति भावः। ननु प्रतिबन्धकौभृता सिद्धिज्ञानोपजीव्यतया व्यभि
Page #913
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२
तावचिन्तामणे
सत्या. एव दोषत्वे स्वज्ञानार्थ व्यभिचाराद्यनुहावनात् । यदि च तस्मात् सिद्धिपपद्यत इति तस्योपजीव्यत्वं सदाश्रयासिड्यादिनानात् सिद्धिर्नेति स एवं पृथग्दोषः स्यात् असिद्धिश्च ज्ञाता परस्योद्भाव्येति स्वज्ञानार्थमुद्भाषितासिविनिर्वाहार्थञ्चाश्रयासिड्यादिक्षानमावश्यक, कथञ्च हेतु-तदाभासविवेकः सिद्धा इयोरपि चारादिर्दोष इत्यत आह, 'अमिद्धेरिति, 'वज्ञानार्थ प्रतिबन्धकोभूतामिद्धिज्ञानार्थं, 'अनुद्भावनात्' अनपेक्षणात्। ननु प्रतिबन्धकौभूतामिद्धिज्ञानं प्रति व्यभिचारादेरनुपजीव्यत्वेऽपि प्रसिद्धिखरूपे तस्थोपजीव्यत्वमस्त्येव व्याप्ति-पक्षधर्मातानिश्चयरूपमिद्धिप्रतिबवकत्वेनैवासिद्धिस्वरूपोपजीव्यत्वादतः पृथग्दोषत्वं इत्यतबाह, 'यदि चेति, 'तस्मात्' व्यभिचारादिज्ञानात्, ‘सिद्धिः' व्याप्ति-पक्षधर्मनानिश्चयः, 'तस्य' व्यभिचारादेः, 'उपजीव्यवं' अमिद्धिस्वरूप उपजौव्यत्वं, 'म एवेति, ‘एवकारो भिवक्रमे, 'दोष इत्यनन्तरं योज्यः, म पृथक्दोष एव स्थादित्यर्थः, प्रसिद्धिस्वरूपे उपजीव्यत्वात् तथाच हेवाभासाधिक्यापत्तिरिति भावः। नवसिद्धिपूर्व आश्रयासिह्यादिज्ञानाभावात् तस्य नोपजीव्यत्वं, न च व्यभिचारादावपि तुल्यं, तज्ज्ञानार्थं तस्वरूपनिर्वाहार्थञ्च तत्पूर्व तज्ज्ञानस्यावश्यकत्वादित्यतपाह, 'अमिद्धिश्चेति, 'श्राश्रयासियादिज्ञान आश्रयासियादिज्ञानमपि। दूषणन्तरमाइ, 'कथञ्चेति कथं वेत्यर्थः, 'हेतु-तदाभातक्वेिक इति पर्वतो वकिमान् धूमादित्यादरपतिभिन्नत्वेन
Page #914
--------------------------------------------------------------------------
________________
बसिद्धिपूर्वपक्षः। हेतुत्वात् असिद्धौ तदाभासत्वात् व्यभिचारादेः मोती सिड्निमखण्डयंतश्च हेत्वाभासत्वाभावात्।. अथ सुषुप्तौ
पर्वतो वहिमानाकाशादित्यादेश्च मद्धेत भिन्नत्वेन व्यवहार इत्यर्थः, 'सिद्धाविति व्याप्ति-पक्षतानिश्चयरूपमिद्धिमत्त्व इत्यर्थः, 'हेतुत्वान्' मद्धेतत्वात्, 'प्राभामत्वात्' द्वयोरप्यमद्धेतनात्, अन्योन्याभावस्तु नाव्याप्यवृत्तिरिति भावः। किञ्च यदि व्यभिचारादेरसिद्धिस्वरूपं प्रत्युपजौव्यतयैव हेत्वाभासत्वं तदा व्यभिचार्यादिहेवौ सद्धेतत्वग्रहदशांयां व्यभिचारादेः सिद्धिविघटकत्वाभावेनामिद्धिस्वरूपोपजीव्या त्वाभावात् तस्य तदानीन्तनहेतुदोषत्वाभावप्रसङ्गः तस्य तदानौन्तनहेत्वाभासत्वाभावे तत्सम्बन्धेन तदनोहेतोरपि तदानीन्तनहेत्वाभासत्व न स्यात् तथाच व्यभिचार्यादिहेतोर्नित्यदुष्टत्वभङ्गप्रसङ्ग इति दूष. णान्तरमाह, 'यभिचारादेरिति, 'सद्धेतौ' व्यभिचार्यादिहेतो मद्धेतत्वग्रहदशायां व्यभिचा-दिहेतोर्व्याप्ति पक्षधर्मातानिश्चयदशायामिति यावत्, "मिद्धिमखण्डयतः' व्याप्ति-पक्षधर्मतानिश्चयरूपा मिद्धिमविघटयतः, 'हेत्वाभामत्वाभावात्' तदानीन्तनहेतुदोषत्वान भावप्रसङ्गात्, भिन्नक्रमस्थचकारोऽत्रैव योज्यः । न चेष्टापत्तिः, तथा मति तत्सम्बन्धेन तद्वतो हेतोरपि तदानीन्तनहेत्वाभासत्वासम्भवान ..व्यभिचार्यादिहेतोनित्यदुष्टत्वभङ्गप्रसङ्गापत्तिरिति भावः । एतच्चापाततः व्यभिचारादेस्तदानौं सिद्धिप्रतिबन्धफलानुपहितत्वेऽपि सिद्धि प्रतिबन्धखरूपयोग्यत्वस्य तस्य तदानीमपि सत्त्वादेव तदानीन्तन तदोषत्वसम्भवात् तत्सम्बन्धेन तद्दतो हेतोरपि तदानीन्तमहेवा
11
Page #915
--------------------------------------------------------------------------
________________
६७
तत्वचिन्तामगै जागरेऽपि व्याप्ति-पक्षधर्मातासत्त्वे तदनिश्चयेऽनुमित्यमुत्पादा हेत्वाभासप्रयोज्यः सव्यभिचारादौ तथावधारणादित्यसिद्धिरजातापि हेत्वाभासः। न चैवं
भामत्वस्थ मुग्रहत्वात् अन्यथा सिद्धान्तिनयेऽपि व्याप्ति-पक्षधर्मतानिश्चयात्मकसिद्धिविघटकतयेव व्यभिचारादेईतुदोषतयैतदनुयोगस्य तुल्यत्वात् ।
बेचित्तु 'हेतु-तदाभामविवेक इति पर्वतो वह्निमान् धूमादि: त्यादेरसद्धेतभिन्नत्वेन द्रव्यं सत्त्वात् गोत्ववान् अश्वत्वादित्यादेश्च मद्धेतभिन्नत्वेन व्यवहारइत्यर्थः । 'सिद्धावित्यादिग्रन्थस्तु पूर्ववत् । ननु सिद्धिमचे इयोरपि सद्धेतुत्वादिदमयुकं मिद्धिसत्त्वेऽपि द्रव्यं सत्त्वादित्यादेव्यभिचारादिहेतुदोषत्त्वेन दुष्टवादियत आह, 'व्यभिचारादेरिति, अव्यर्थकाग्रिमचकारोऽचैव योजनीयः व्यभिचारादेरपीत्यर्थः । 'मद्धेतौ' मद्धेतृत्वग्रहसत्वे व्याप्ति-पक्षधर्मतानिश्चयरूपसिद्धिसत्य इति यावत्, 'मिद्धिमखण्डयतः' व्याप्ति-पक्षधर्मतानिश्यरूपा सिद्धिमविघटयतः, 'हेत्वाभामलाभावात्' हेत्वाभासत्वप्रयोजकत्वासम्भवात्, भवनये सिद्धिविघटकालरूपस्यामिड्युपजीव्यत्वस्यैव व्यमिचारादेवदोषत्वप्रयोजकत्वादिति भावः, इति व्याचक्रुः ।
'याप्ति-पक्षधर्मतामत्त्व इति व्याप्ति-पञ्चधर्मतासत्त्वेऽपौत्यर्थः, 'नथावधारणादिति अनुमित्यनुत्पादस्य हेत्वाभासप्रयोज्यत्वावधारबादित्यर्थः, 'अज्ञातापौति, तवानुमित्यनुत्पादस्य हेत्वाभासप्रयोज्यखान्यथानुपपत्येति भावः । 'हेत्वाभासाधिक्यमिति प्राधासिधादे
Page #916
--------------------------------------------------------------------------
________________
पसिद्धिपूर्वपच्छा। हेत्वाभासाधिक्यं कृप्तान्तर्भावो वा, तेन रूपेण ज्यातासियादेरेव संग्रहादिति चेत्. न, एवं, सव्यभिषारादिरप्यसिद्धिः स्यादित्युक्तत्वात् उपजीवनावेदे पाश्रयासिद्धादिरपि पृथक् स्यात् सुषुप्तपादावनुमित्यभावः कारणाभावात् कार्यानुत्पादो हिन प्रतिबन्धकमात्रात् किन्तु कारणभावादपि असत्यपि प्रतिबन्धके वयभावेन दाहानुत्पत्तेः। अथानुमित्यनुत्पादो हेत्वाभासप्रयुक्त एवेति चेत्, तनुमितौ मनोयोगादिरपि न हेतुः हेत्वाभ सादेवानुमित्यनुत्पादे तयतिरतिरिकहेलाभासत्वमित्यर्थः, 'कृप्तान्तर्भाव इति कृप्तानां व्यभिचारादौनां श्रमियन्तर्भाव इत्यर्थः,(१) 'तेन रूपेण' तत्माधारणश्रयामिद्याद्यन्यतमत्वरूपेण, व्याप्यमिड्यादेरेवेति व्याप्तिनियाभावादेरेवेत्यर्थः, 'सङ्ग्रहात्' विभागस्थामिद्धिपदेन संवाहात्, ‘एवकारायभिचारादिव्यवच्छेदः। 'असिद्धिः स्थादिति प्रसिद्धित्वेनैव सूचलता विभातः स्थादित्यर्थः, 'उपजौवनादिति अमिद्धिस्वरूपं प्रति उपजीव्यत्वादित्यर्थः, 'भेदे' पृथखिभजने, 'पृथक् स्यात्' पृधक्विभक्तः स्यात् । नन्वेवं व्यनि-पक्षधर्मतामत्त्वेऽपि सुषुल्यादौ कथमनुमित्यभावः हेत्वाभामाभावादित्यत आह, 'सुषुण्यादाविति, 'कारणभावात्' परामर्शात्मककारणभावात्, 'कारणाभावादपि' भावरूपकारणाभा(१) अमागां थभिचारादीनां अन्यतमत्वरूपेण सङ्ग्राहे पसिद्धावन्तर्भाव
इत्यर्थ इति क. । व्यभिचारादौनामिहान्तर्भाव इत्यर्थ इति ग.।
Page #917
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८ ___ सक्वचिन्तामझौ. . रेकेणानुमित्यनुत्पादाभावात् सिवेरेव तह मकारणमेव हेतुः स्यात्।
अन्ये तु गमकतौपयिकप्रतिइन्दिव्याप्ति-पक्षधर्माताविरह-तनियतयारन्यतरत्वं हेत्वाभासत्वं तचाधिक
वादपि, 'न हेतुरिति, स्यादिति शेषः, अनुमित्यनुत्पादे' अनुमित्यनुत्पादाभ्युपगमे, 'तयतिरेकेणेति प्रात्म-मनोयोगादिव्यतिरेकेणेत्यर्थः, यद्यतिरेकेण कार्यानुत्यादः तस्यैव च कारणत्वादिति भावः । मग्विदमिष्टमेवेत्यत आह, 'सिद्धेरेवेति व्याप्ति-पक्षधर्मतानिश्चयस्यैवेत्यर्थः, 'हेतुः स्थादिति सर्वत्र हेतुः स्यादित्यर्थः, तथाच कार्य निष्करणकं स्थादिति भावः। इदमापाततः भवन्मतेऽपि कथमात्ममनोयोगो हेतुः इतरकारणसत्त्वे तब्यनिरेकेणानुमितिव्यतिरेकासिद्धेः । अथानुमित्यादिकमसमवायिकारणवत् भावकार्यात्वादित्यनुमानात् तसिद्धिस्तदा ममापि तुल्यं चरमे सत्यपि कार्य मकरणकमिति व्याप्तिबलात् व्याप्तिज्ञानादेः करणतासिद्धेः अन्यथा तवापि व्याप्तिज्ञानादिकं करणं न स्यात् परामर्यादिचरमकारणे मति तयतिरेकेण कार्यव्यतिरेकाभावात्, परमार्थतस्तु तादृशव्यातिरप्रयोजिकत्येव तत्त्वं । ' केचित्तु हेत्वाभाससामान्यलक्षणं नविशेषखक्षणानि च प्रकारातरेणः तन्मतमुपन्यस्यति, 'अन्ये विति, अत्र गमकतौपयिकप्रतिद्वन्दी च व्याप्ति-पक्षधर्मनाविरहश्च गमकतापयिकप्रतिद्वन्दि- . थाप्ति-पक्षधर्मताविरहं तादृशपक्षधर्मताविरञ्च तबियतम ता
Page #918
--------------------------------------------------------------------------
________________
· पसिद्धिपूर्वपक्षः। बलसमानबलौ बाध-प्रतिरोधौ प्रतिबन्दिनौं व्याप्तिपक्षधर्माताविरहश्चासिद्धि तन्नियती च सवभिचारविरुडौ। न चानयोरप्यसिद्दान्तर्भावः, व्याप्तिविरहनियतत्वेन ज्ञातयाः स्वातन्त्र्येणैव दूषकत्वात् भ्रमे विशेष
दृश्पक्षधर्मताविरह-तन्नियतौ तयोरित्येकवचनान्तसमाहारद्वन्द्वगर्भइतरेतरदन्द इति न बहुवचनापत्तिरिति ट्रष्टव्यं । तथाच गमकतौपयिकप्रतिद्वन्दिव्याप्ति-पक्षधर्मताविरह-तड्याग्यानामन्यतमत्वं हेत्वाभासमामान्यलक्षणमित्यर्थः, गमकतौपयिकप्रतिद्वन्दित्वञ्च साचादनुमितिप्रतिबन्धकत्वं, गमकतौपयिकस्थाबाधितत्वासत्प्रतिपक्षितत्वस्य विरोधित्वमित्यपि केचित् । 'तच' तेषु मध्ये, 'अधिकबल-समानबलाविति, 'अधिकबल-समानबली' 'प्रतिद्वन्दिनौ' 'बाध-प्रतिरोधाविति योजनया समानबलप्रतिद्वन्दी प्रतिरोधः अधिकबलप्रतिद्वन्दी बाधः इत्यर्थः, समानबलप्रतिद्वन्दित्वं बाधनिश्चयत्वाद्यनवच्छिन्नमावादनुमितिप्रतिबन्धकतावच्छेदकत्वं, असाधारणत्वमप्येतन्मते प्रतिरोधान्तर्गतमेव, तनिश्चयत्वाद्यनवच्छिन्नत्वेनापि वा प्रतिबन्धकता विशेषणोया, अधिक-बलप्रतिदन्दित्वञ्च माध्याभावव्याप्यवत्तानिश्चयवाद्यनवच्छिन्नसाक्षादनुमितिप्रतिबन्धकतावच्छेदकत्वमिति भावः । 'तन्नियतौ' व्याप्ति-पक्षधर्मताविरहव्याप्ती, 'मयभिचारेति, धर्मप्रधानो निर्देशः । ननु यदि तौ तन्नियतौ तदा तदुनयनदारैव दोषत्वसम्भवेन कथं तयोः पृथक् दोषत्वमुपेयते इत्याशक्य निरा-- करोति, 'न चेति, 'असिड्यन्तर्भावः' अमिड्युपनयनदारा दूषकत्वं, 'अनयोः' व्यभिचारि-विरुद्धयोः, 'स्वातन्त्र्येणैवेति व्याप्यादिविरह
Page #919
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामणौ ।
दर्शनस्येवेति, तन्त्र, अद्यापि व्याप्ति-पक्षधर्मताविरहएवासिविः पर्यवस्यति तच चोक्तमेवान्यतरत्वञ्च न लक्षणं व्यर्थविशेषणत्वात् हेत्वाभासान्तरवहिष्कृतस्य व्याप्ति-पक्षधर्मातानिश्चयविरोधिनेा रूपस्य विवक्षितत्वात् तच्चाश्रयासियादिकमेवेति।
इति श्रीमहङ्गेभोपाध्यायविरचिते तत्त्वचिन्तामणौ अनुमानाख्य-दितीयखण्डे असिद्धिपूर्वपक्षः ॥०॥ निवयं विनैवेत्यर्थः, व्याप्तिविरहव्याप्यत्वेनेत्युपलक्षणं व्यभिचारववादिनेत्यपि बोध्यं । नन्वेवं व्याप्ति-पक्षधर्मताविरहत्वमेवामिद्धिखक्षणं पर्यावसितं तच दूषितमेवेत्यत आह, 'अत्रापौति अस्मिन्मतेपौत्यर्थः, 'उक्रमिति अननुगमरूपं दूषणमिति शेषः। नन्वन्यतरवेनानुगमोऽस्वित्यत श्राह, 'अन्यतरत्वञ्चेति, 'व्यर्थति असाधकसानुमानेऽन्यतरत्वरूपय विशेषणस्थ व्यर्थत्वादित्यर्थः, प्रत्येकं व्याप्तिखाद्यवछिनप्रतियोगिताकाभानवेनैव गमकत्वसम्भवादिति भावः । मनु विशिष्टाभाव एव सामान्यलक्षणघटको न तु व्याप्यादिप्रत्येकाभावः तथाच विशिष्टाभावस्यैवामिद्धित्वेन व्याप्यादिप्रत्येकाभावस्थातथालाबामनुगम इत्यत आह, 'हेत्वाभामान्तरेति, 'वहिष्कतस्य' भिलस्य, 'विवक्षितत्वात् अत्र शास्त्रेऽमिद्धित्वेन विवक्षितत्वात्, 'पाश्रधामियादिकमेवेति न तु विशिष्टाभाव इत्यर्थः, 'त्रादिपदायायादिप्रत्येकाभावपरिग्रहः ।
इति श्रीमथुरानाथतर्कवागौश-विरचिते तत्त्वचिन्तामणिरहस्ये अनुमामाख्यदितीयखण्डरहस्ये अमिद्धिपूर्वपक्षरहस्यम् ।
Page #920
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ १८ 1
. अथासिद्धिसिद्धान्तः। उच्यते अश्रियासिद्धिः स्वरूपासिद्धिः व्याप्यत्वासिद्धिश्च प्रत्येकमेव दोषः प्रत्येकस्यं ज्ञानाद्भावनाखानुमितिप्रतिबन्धात् न तु विशिष्टाभावः परामर्शविषयाभावो वा व्यर्थविशेषणत्वात् तस्य ज्ञान
प्रथामिद्धिसिद्धान्तरहस्यं । 'ज्ञानादिति प्रत्यक्षादितो ज्ञानादित्यर्थः, तेनोभावनादिति मङ्गछते, एवमग्रेऽपि, 'विशिष्टाभाव इति व्याप्तिविशिष्टपक्षधर्मत्वाभावइत्यर्थः, एतच्च माध्यव्याप्यहेतमान्पक्षः इति पक्षविशेष्यकपरामर्थस्यैव हेतुतावादिना नव्यानां नयेन, माध्यव्याप्यत्वे मति पक्षवृत्तित्ववान् हेतुरिति परामर्शस्यापि हेतुत्वनये तु विशिष्टाभाववद्धेतरपि दोष इत्युक्तमधस्तात् । 'परामर्थविषयाभावो वेति परामर्थविषयप्रतियोगिकाभाववरूपेण व्यायादिप्रत्येकाभावो वेत्यर्थः, दोषइत्यनुषव्यते, व्यर्थविशेषणत्वात्' विभिष्टाभावत्वपरामर्शविषयप्रतियोगिकाभावत्वरूपस्य विशेषणस्य दूषकतायामप्रयोजकत्वात्, तेन रूपेण ज्ञानस्थाप्रतिबन्धकत्वादिति यावत् । नन्वेवं तद्र्येण ज्ञानादिसत्त्वेऽप्यनुमितिः थादित्यत पाह, 'तस्येति, प्रकारित्वं षष्ट्यर्थः, नद्रपेण ज्ञानमुद्भावनच्च 'अनुमितिप्रतिबन्धात् विनापौति योजना, यत्र मानुमितिप्रतिबन्धस्तत्रापि तत्प्रकारकज्ञानमुद्भावनच तिष्ठतीत्यर्थः, तथाच तद्रूपेण ज्ञानादिसत्त्वेऽनुमिताविष्टापत्तिरिति भावः ।।
Page #921
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्वचिन्तामणै.
मुद्रावनं विनाप्यनुमितिप्रतिबन्धात् अनुभवसिद्धे हि लक्षणं न तुलक्षणानुरोधेनानुभवकल्पना, परामशविषयाभावत्वेनानुगतेन चयाणमसिद्धत्वेन संग्रहो महर्षिणा कृत इति न विभागविरोधी हेत्वाभासाधिक्यं वा।
केचित्तु तद्रूपेण ज्ञानस्यानुमितिप्रतिबन्धकत्वाभावे हेतुमाह, 'तस्येति, तेन रूपेण ज्ञानमुद्भावनञ्च विनाप्यनुमितिप्रतिबन्धात्तेन . रूपेण ज्ञानमनुमित्यप्रतिबन्धकमित्याहुः। तदमत् । तथा मति व्यभिचारादिज्ञानं विनाप्यनुमितिप्रतिबन्धात् व्यभिचारादिज्ञानस्याप्यप्रतिबन्धकत्वापत्तेरिति ध्येयं । मनु परामर्शविषयप्रतियोगिकाभावत्वस्य महर्षिप्रणीतासिद्धिलक्षणतया तद्रूपेण ज्ञानादप्यनुमितिप्रतिबन्धो भवतीत्यनुभवः कल्यत इत्यत आह, 'अनुभवसिद्धे हौति शक्षणप्रकारकज्ञानादनुमितिप्रतिबन्धेऽनुभवसिद्धे होत्यर्थः, 'लक्षणं लक्षणस्यानुमितिप्रतिबन्धकतावच्छेदकत्वं । ननु स्याणां प्रत्येकमेव दोषत्वे त्रितयसाधारणैकरूपाभावेन विभागस्य वा न्यूनत्वं चयाणां मध्ये कयोचिद्वयो:(९) हेत्वाभासव्यतिरिक्रत्वं वा स्थादित्यत शाह, 'परामर्शविषयेति परामर्शविषयाभावत्वरूपेणानुगतेनामिद्धित्वेन जयाणं सङ्ग्रह इति योजना, 'विरोधः' न्यूनत्वं, ‘हेत्वाभामाधिक्यं वेति चयाणां मध्ये कयोश्चिद्वयोहेत्वाभासव्यतिरिकत्वं वेत्यर्थः । ननु परामर्शविषयाभावत्वं परामर्शविषयत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावत्वं (१) कयोचित्तयोरिति ग०।
Page #922
--------------------------------------------------------------------------
________________
बसिडिसिद्धान्तः।
२१.
तत्प्रतियोगिकाभावत्वमा वा नायः, थाप्यादिप्रत्येकाभावेऽप्याः तामाभावस्याप्रसिद्धेश्व, 'म होवं पदार्थोऽस्ति यत्रं परमविषयो मास्ति, अन्नतः परामर्थविषयाभावस्यैव सर्वच वृत्त । न द्वितीयः, वैशिष्य-व्यामध्यवृत्तिधर्मावच्छिनप्रतियोगिताकव्यायाधभावे केवलसाध्याभाव-साधनाभावादौ चानाभासेऽतिव्याप्तेः। अथ हेत्वाभामले मति परामर्थविषयप्रतियोगिकाभावत्वमसिद्धिलं तो नाभामभिनेऽतिव्याप्तिः परामर्शपदश्च माध्याव्यभिचरितसम्बन्धिहेतुमान्पक्ष(२) इत्याकारकातिरिकाविषयकान्वययाप्तिघटितपरामर्शपरमतो हेतुनिष्ठव्यतिरेकव्याप्यभावरूपानुपसंहारित्वे नातिव्याप्तिः, सप्तमपदार्थरूपाभावस्य घटकतया() च हेतुनिष्ठमाध्याभाववहृत्तित्वरूपे साधारण्ये नातिव्याप्तिः तस्य भावत्वादिति चेत्। न । गोत्ववान् अश्वत्वादित्यादौ हेतोः साध्यसमानाधिकरण्याभावरूपे विरोधे, इदो वहिमान् धूमादित्यादौ यत्र भावस्य माध्यता तत्र पक्षवृत्तिमायाभावरूपे बाधे, गोवाभावः मास्नादिमान् . गोवाभावादित्यादौ यत्राभावस्य पचता हेतुता च तत्र माध्याभाववत्पक्षरूपे बाधे, साध्याभावव्याप्यवत्पक्षरूपे सत्प्रतिपक्षे, साध्याभाववहृत्तिहेतरूपे माधारण्ये साध्यासमानाधिकरणहेतरूपे विरोधे चातिव्याप्तेः तेषां हेत्वाभामत्वात् परामर्शविषयप्रतियोगिकाभावत्वाच्च । यत्र भावस्थ पचता तत्र पक्षतावच्छेदकाभाववत्पक्षरूपाश्रयामिद्धौ माधनाभाव
(१) साध्याभाववदत्ति-साध्यसमानाधिकरण हेतुमान् पक्ष इत्यर्थः । (२) षट्पदाातिरिक्तवरूपस्याभावस्य घटकतयेत्यर्थः ।
J16
Page #923
--------------------------------------------------------------------------
________________
६२१
तत्त्वचिन्तामो
वत्पवरूपस्वरूपासिद्धौ चाव्याप्तेः तस्याभाववाभावात्, एवं पर भावस्य मान्यता संच माध्यतावच्छेदकाभाववत्साध्यात्मकमाध्यविधेषणासिद्धी, यत्र भावस्य माधनता तत्र साधनतावच्छेदकाभावपत्साधनात्मकसाधनविशेषणसिद्धौ, व्याप्यभाववत्साधनात्मकव्याप्तिविरहरूपासिद्धौ चाव्याप्तेः। अथ साध्याव्यभिचरितसम्बन्धिहेतुमान् पक्ष इत्याकारकातिरिकाविषयकान्वयिपरामर्शन यह अविछिने यद्धविच्छिन्नवत्त्वं विषयौक्रियते तद्धविच्छिन्नप्रतिपोगिताकाभाववत्तद्धर्मावच्छिन्नममिद्धिरिति विवक्षितं । न चैवं हेतुनिष्ठपक्षवृत्त्यभावप्रतियोगित्व-हेतुनिष्ठपक्षवृत्त्यन्यत्वादिरूपे स्वरूपामियादावव्याप्तिरिति वाच्यं। समानप्रकारकज्ञानस्यैव प्रतिबन्धकत्यवादिना नव्यानां नये माधनाभाववत्पक्षादेरेव वरूपासियादितया तस्य स्वरूपासिद्धित्वादिविरहादिति चेत्। न। माध्यमामानाधिकरण्याभाववद्धेतरूपे विरोधे माध्याभाववदवृत्तिबाभाववद्धेतरूपे साधारण्ये चातिव्याप्तेः साधनात्यन्ताभाववत्पक्षादेरिव माधनात्यन्ताभावव्याप्यवत्यक्ष-साधनवभिन्नपक्ष-साधनबढ़ेदव्याप्यवत्पादेरपि वरूपासियादितया तवाव्याप्तिश्चेति(१) । मैवं। परामर्शविषयाभावत्वपदेन परामर्शविरोधितावच्छेदकरूपवस्य विवक्षितत्वात्, परामर्शविरोधितावच्छेदकत्वन्तु निश्चयनिष्ठ 'यादृप्रविभिष्टनिरूपितविषयित्वसामान्यं परामर्शप्रतिबन्धकतानतिरिकवृत्ति तादृशविशिष्टत्वं, हेत्वाभासमामान्यलक्षणोकदिशैवात्रापि
(१) तपायात्यापत्तिश्चेतिगा।
Page #924
--------------------------------------------------------------------------
________________
बसिद्धिसिद्वान्तः। .
तत्तहलप्रयोजनमवसेयं । एतेनावच्छेदकत्वमत्र न स्वरूपसनन्धवि मेषः माणिक्यमयः पर्वतौ वहिमान् धूमादित्यादौ माणिक्यमयमाभाववत्यर्बबादिरूपे आश्रयामियादावसम्भवापत्तेः पर्वतत्वादिरूपेण वस्वन्तरे माणिक्यमयत्वाभावत्वरूपेण यत्किञ्चिदस्तु ज्ञानस्थापि वहिव्याप्यधमवान् माणिक्यमयः पर्वत इत्यादिपरामर्थप्रतिबन्धकतया प्रतिबन्धकतावच्छेदकपर्वताद्यप्रवेशात्, अत एव विषयितासम्बन्धेनान्यूनवृत्तित्वमपि न, नापि विषयितासम्बन्धेनानतिरिक्तवृत्तित्वं माणिक्यमयत्वाभाववत्पर्वतादिरूपाश्रयासियादेः केवलपर्वताद्यनतिरिक्ततया पर्वत इत्यादिकेवलपर्वतादिविषयकनिश्चयेऽपि विषयितासम्बन्धेन तत्मत्त्वादसम्भवापत्तेरिति निरस्तं । माणिक्यमयः पर्वतो वहिमानित्यादौ पर्वतबविशिष्टपर्वतनिरूपितस्य माणिक्यमयत्वाभाववान् पर्वत इति निश्चयनिष्ठस्य माणिक्यमयत्वाभाववत्पर्वतत्वविशिष्टनिरूपितविषयित्वस्य परामर्शप्रतिबन्धकतानतिरिक्तवृत्तितया केवलपतत्वविशिष्टपर्वतादावतिव्याप्तेरिणय सामान्यपदं, यनिरूपितविषयितासामान्यमित्युतौ माणिक्यमयत्वाभाववत्पर्वतादावसम्भवः पर्वत इतिनिश्चयनिष्ठपर्वतनिरूपितविषयित्वस्यापि माणिक्यमयत्वाभाववत्पर्वतनिरूपितत्वेन मामान्यान्तर्गतत्वात् तस्य च प्रतिबन्धकतानवच्छेदकवादतो थादृशविभिष्टनिरूपितेति, पर्वत इतिनिश्चयनिष्ठपर्वनविषयित्वञ्च न माणिक्यमयत्वाभाववत्पर्वतत्वविशिष्टपर्वतनिरूपितं विशिष्टमत्तानिरूपिताधारत्ववदिशिष्टपर्वतनिरूपितविषयिवस्य विक्षक्षणस्य माणिक्यमयत्वाभाववान् पर्वत इतिज्ञान एवं
Page #925
--------------------------------------------------------------------------
________________
१९०
सत्यचिन्तामणी
सवाद, पर्वतो माणिक्यमयो न वेति संभयनिष्ठस्य तादृशविषयित्वस्य सामान्यान्तर्गतस्य प्रतिबन्धकतातिरिकत्तित्वात् असम्भववारणाय निश्चयनिष्ठमिति, निश्चयश्चाग्टहौताप्रामाण्यकलेन निवेशनीयः नातस्तद्दोषतादवस्यं ।
न चाच विशिष्टनिरूपितविषयितासामान्यनिवेशे प्रतिबन्धकतायाः स्वरूपसम्बन्धरूपावच्छेदकत्वमेव निवेश्यतां किमनतिरिक्तवृत्तित्वनिवेशेनेति(१) वाच्यं । माणिक्यमयत्वाभाववान् पर्वतोरूपवान् इति निश्चयनिष्ठस्य रूपप्रकारित्वावच्छिन्नमाणिक्यमयत्वाभाववत्पर्वतलविशिष्टपर्वतनिरूपितविशेष्यकत्वस्य माणिक्यमयत्वाभावप्रकारित्वावच्छिनकेवलपर्वतत्वविशिष्टविशेष्यकत्वातिरिक्तस्य तादृशविषयितामामान्यान्तर्गतस्य स्वरूपसम्बन्धरूपतादृभपरामर्शविरोधितावछेदकत्वविरहादसम्भवापत्तेः । न च तथापि माधारण्ये माध्यासमानाधिकरणहेत्वादिरूपविरोधे माध्यव्यापकीभताभावप्रतियोगिलाभाववद्धेतरूपे अनुपसंहारित्वे चातिव्याप्तिर्दुरेिति वाच्या माधारणव-विरुद्धत्वानुपसंहारिवाविषयकत्वेन निश्चयस माधारणत्वविरुद्धत्वानुपसंहारिवानिरूपितत्वेन यादृशविभिष्टनिरूपितविषयिबस्य वा विशेषणात्। न चैवं वयव्यभिचारिमेयत्ववान् पर्वतो वकिमान् मेयत्वादित्यादौ वहिव्यभिचारिमेयत्वरूपाश्रयामिद्धेः 'माधारण्यरूपत्वादव्याप्तिः एवं वहिसमानाधिकरणहूदत्ववान् पर्वतो वकिमान् इदवादित्यादौ वयसमानाधिकरणहूदवरूपाश्रयामिद्धे
-
(१) विमतिरिक्तरत्तित्पर्य्यन्तेनेति गा।
Page #926
--------------------------------------------------------------------------
________________
बसिद्धितिद्वान्तः।
६२५
विरोधवरूपवादव्याप्तिः वयमावल्यापकीभताभावप्रतियोगिहदत्यवान् पर्वतो वक्रिमान् इदत्वादित्यादौ वङ्ग्यभाषव्यापकीभताभावप्रतियोगित्वाभाववद्दत्वादिरूपाश्रयामिद्धेः. अनुपसंहारित्वरूपवादव्याप्तिरिति वाच्यं। माध्य-माधन-पक्षभेदेनामिद्धिलक्षणस्य विभिबतया वयव्यभिचारिमेयत्ववानित्यादौ प्राश्रयामियात्मकसाधारयाद्यविषयकत्वादिविशेषणस्य लक्षणाघटकृत्वात् शब्दानुगमस्थाकिञ्चित्करत्वात् । अत एव माणिक्यमयः पर्वतो बहिमान् धूमादित्यादौ साधारण्याचप्रसिद्धवावपि न चतिः तत्र तदविषयकत्वविशेषणस्थानुपादेयत्वात् । परामर्स च व्यतिरेकव्याप्तेरप्युपादानाड्यतिरेकव्याप्तिविशिष्ट हेत्वभाववत्पक्षरूपायां व्याप्यत्वामिछौ नाव्याप्तिः। ननु तथापि पर्वतान्यः पर्वतोदहनान्यदहनवान् धूमान्यधूमात् इत्यादौ पर्वतान्यत्वाभाववत्पर्वतादिरूपाश्रयासियादावव्याप्तिः तचानाहार्यपरामर्शाप्रसिद्ध्या तत्प्रतिबन्धकत्वाप्रसिद्धेः । न च तत्तदि
छानामुत्तेजकत्वनये पाहाय॑ज्ञानस्यापि प्रतिबध्यतया आहार्यपरामर्शविरोधितामादायैव तच लक्षणसम्भव इति वाच्यं । पर्वतान्यवाभाववान् पर्वत इत्यादिबाधनिययविरहदशायामपौछाविरहे पर्वतान्यः पर्वत इत्यादिप्रत्यक्षोत्यादवारणय तादृशप्रत्यक्ष प्रतीछाया हेतुत्वावश्यकले तत्र तादृशबाधनिश्चयस्य प्रतिबन्धकले मानाभावात्। न च यादृशविशिष्टनिरूपितविषयिताशायटीताप्रामाण्यकनिश्चयाव्यवहितोत्तरवर्त्यनाहार्यज्ञानसामान्यं न प्रकृतपरामर्थात्मकं तादृशविभिष्टमसिद्धिरिति विवचितं पर्वतान्यः पर्वतइत्यादावाहार्यरूप एव परामर्शः प्रसिद्धः परामर्शप्रतिबन्धकावस्य
Page #927
--------------------------------------------------------------------------
________________
'तत्त्वचिन्तामणी
अतएव "ये व्याप्तिविरह-पक्षधर्माताविरहरूपास्ते. ऽसिद्धिभेदमध्यमध्यासते तदन्ये च यथायथं व्यभिचारादयः" इति सिद्धान्तप्रवादोऽपि । न चैवं साक्षात्प्रतिबन्धकत्वेन बाध-प्रतिरोधयोाप्तिविरहलिङ्गत्वेन सव्यभिचार-विरुद्धयोरपि सङ्घहे विभागव्याघातः, स्वतन्त्राभिप्रायस्य निषेड्डुमशक्यत्वात् अन्यथा शास्त्रे परिभाषाच्छेदापत्तेः सव्यभिचारादेरप्येवंरूपसत्त्वेऽप्युपजीव्यत्वेन पृथक्त्वम् उपधेयसङ्करेऽप्युपाधेरसङ्करात्। लक्षणेऽप्रवेशात् तस्याप्रतिबध्यत्वेऽपि न तिरिति वाच्य। वस्तुमात्रविषयकनिश्चयाव्यवहितोत्तरवय॑नाहार्यज्ञानसामान्यस्यैव तादृशपरामर्शानात्मकतया वस्तुमात्रस्यैव तत्राभिद्धित्वापत्तेरिति चेत्, न, पर्वतान्यः पर्वत इत्यादरपार्थकतया(१) तत्र पर्वतान्यवाभाववत्पातादेराश्रयामिद्धिवानभ्युपगमादित्यास्तां विस्तरः। __'श्रत एवेति यत एव एकोविभिटाभावो नासिद्धिः किन्तु मानारूपेत्यर्थः, अन्यथा ये इत्यादौ बहुवचनममङ्गतं स्यादिति भावः । 'लिङ्गत्वेन' व्याप्यत्वेन, मन हे' भङ्गाहसम्भवे, 'विभागव्याघातः' विभागस्य पञ्चविधत्वविरोधः, 'परिभाषेति, एवं कथं न कृतमिति सर्वचामुयोगसम्भवादिति भावः। ‘एवंरूपसत्त्वेऽपि' उतरूपामिद्धिवसत्वेऽपि, 'उपजीव्यत्वेनेति, ज्ञानकतेनेति भावः। इत्वन्तरमाह, .. (९) अपार्थकत्वं यादृश्बोधत्वावच्छेदेन पाहाय॑त्वं तादृशोधार्थप्रयुक्त
वाक्यवं।
Page #928
--------------------------------------------------------------------------
________________
'पसिडिसिद्धान्त।
नन्याश्रयामसिया कथमाश्रयासिद्धिद्धाव्या। न शशौयतया गवि श्रृंङ्गनिषेधवत् व्योमकमलमिति वाच्यं। शशशृङ्गनिषेधा न गवौत्युक्तत्वादिति चेत्,
'उपधेयेति, 'असकरात्' ज्ञानासकरात्, यदा ननु उपजीव्यत्नमेव कथं विषयाभेदादित्यत आह, 'उपधेयेति, 'असकरात्' भेदात् । पक्षाप्रसियापि आश्रयासिद्धिः यथा व्योमकमलं सुगन्धि कमलवादित्यादिभ्रमेणामते, 'नन्विति, 'कथमिति, पक्षोऽसिद्ध इत्यत्र मिड्यमिद्धिव्याघातादिति भावः । 'व्योमकमलमिति, निषेध्यमिति शेषः, व्योमीयतया कसलं नास्तीत्युद्भाव्यमित्यर्थ: । 'शाश्टङ्गेति शभौयतया श्टङ्गनिषेधोनास्तीत्युक्त्वादित्यर्थः । श्राश्रयासिद्धेक्तिमुदाहरण: परिहरति, 'व्योमेति व्योमकमलं सुरभीत्यर्थः, 'निश्चितानन्वयत्वेन' व्योमकमलस्य निश्चितान्वयकत्वाभावेन व्योमकमलस्थाप्रसिद्धल्वेनेति यावत्, 'त्रपार्थक' अनुमित्यजनकं, न बाश्रयासिद्धिनिबन्धनमिति भावः । इदन्त्वमतोव्योमकमलस्य पक्षसातात्पर्य्यदशायामुक्तं, यदा तु गगनौयत्वेन प्रसिद्धूकमलमेव पक्षस्तदा तु पक्षविशेषणभावरूपाश्रयामिद्धिरेवेति बोध्यं । नन्वेवं आश्रयामिद्धेराश्रयासिद्धिलाभावे का तळाश्रयासिद्धिरित्यत पार, 'श्राश्रयेति, श्राश्रये पचे विशेषणस्य पक्षतावच्छेदकस्यासिद्धिरभावः 'पारयामिद्धिरित्यर्थः, धान्येन धनवानितिवदभेदे हतौया, उदापरणच माणिक्यमयः पर्वतोवहिमान् धूमादित्यादौ माणिक्यमय
Page #929
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामणौ
व्योमकमलमिति निश्चितानन्वयत्वेनापार्थकम् पात्रयविशेषणासिया चाश्रयासिद्धिरसोर्णा । खादिविशेषणस्य पर्वते प्रभावादिति भावः । 'प्रमोर्णति मा च हेत्वाभामान्तरेणासझौर्णपि माणिक्यमयः पर्वतोवकिमान् धूमादित्यादावित्यर्थः, एतत्तु सम्भवप्राचुर्येणोक्न, वस्तुतो हेत्वाभामान्तरमारेऽपि न दोष इत्युक्तमेव । इदन्ववधातव्यं न केवलं पक्षे पक्षतावच्छेदकाभाव:(१) श्राश्रयामिद्धिः किन्तु पचे पचतावच्छेदकाभावव्यायः, पक्षे पक्षतावच्छेदकवदन्योन्याभावः, पक्षे तादृशान्योन्याभावव्याप्यः, पक्षतावच्छेदके पक्षतावच्छेदकतावच्छेदकाभावः, पक्षतावच्छेदके पक्षतावच्छेदकतावच्छेदकाभावव्याप्यः, पक्षतावच्छेदके पक्षतावकेदकतावच्छेदकवदन्योन्याभावः, पक्षतावच्छेदके तादृशान्योन्याभावव्यायः, पक्षतावच्छेदकाभाववान् पक्षः, लड्याप्यवान् पक्षः, पक्षताव
छेदकवदन्योन्याभाववान् पक्षः, तड्याप्यवान् पक्षः, पक्षतावच्छेदकतावच्छेदकाभाववत्यक्षतावच्छेदक, तड्याप्यवत्यक्षतावच्छेदकं, पक्षतावच्छदकतावच्छेदकवदन्योन्याभाववत्पक्षतावच्छेदक, तड्याप्यवत्यक्षतावच्छेदकमित्यादिरयाश्रयामिद्धिः । समानाकारकज्ञान, प्रतिबन्धकत्ववादिना नव्यानां नये तु पक्षतावच्छेदकाभाववान् पक्ष:, तड्याप्यवान् पक्षः, पक्षतावच्छेदकवदन्योन्याभाववान् पक्षा, सड्याप्यवान् पक्षः इत्यादिरेवाश्रयामिद्धिः, न तु पक्षे पक्षतावच्छेदकाभावः . नयाधादिरपि(१) तज्ज्ञानस्यानुमिति-तत्कारणपरामर्शाप्रतिबन्धक(१) पक्षत्तित्वविशिष्टयक्षतावच्छेदकाभाव इत्यर्थः । (२) पक्षतावच्छेदके पक्षतावच्छेदकतावच्छेदकाभावक्त छाप्यादिस्पीतिक
Page #930
--------------------------------------------------------------------------
________________
बसिडिसिद्वान्तः।
नया हेत्वाभासत्वस्यैव तबाभावात् वक्ष्यमाणानुगताश्रयापिदिलास नचासत्त्वाच । सर्वसाधारणश्रयासियनुगतलक्षणन्तु पक्षलवच्छेदकप्रकारकपक्षग्रहविरोधितावच्छेदकत्वं, तादृश्यहविरोधितावच्छेदकवञ्चायचाग्टहीताप्रामाण्यकनिश्चयनिष्ठं यादृशविशिष्टनिरूपितविषयित्ववामान्यं तादृश्पक्षग्रहप्रतिबन्धकतानतिरिक्तवृत्ति लादृशविशिष्टत्वं तेन नामिद्धिसामान्यलक्षणवदवच्छेदकत्वविकल्यावकामः, प्रत्येकदलव्यावृत्तिरपि तत्रोक्रदिशाऽवसेया। पक्षतावच्छेदकप्रकारकपहपदेन पक्षतावच्छेदकवान् पक्ष इत्याकारकातिरिकाविषयकग्रहो पायः तेन खरूपामिद्धि-व्यायवासियादेरपि परामर्यात्मकपक्षतावच्छेदकप्रकारकयहविरोधितावच्छेदकत्वेऽपि नातिव्याप्तिः पक्षतावच्छेदकां वा प्रतिबन्धकत्वं ग्राह्यं। एवं स्वरूपासिद्धिरपि नानाविधा माधनताव दकावच्छिन्नमाधनाभाववत्पक्षः, तादृशमाधनाभावव्याप्यवत्पक्षः, माधनवदन्योन्याभाववान् पक्षः, तादृशान्योन्याभावव्याप्यवान् पक्षा, पक्षे माधनतावच्छेदकावच्छिन्नसाधनाभावः, पत्रे तादृशमाधनाभावव्याप्यः, पक्षे साधनतावच्छेदकावच्छित्रसाधनवदन्योन्याभावः, पक्षे तादृशान्योन्यावव्याप्यश्चेति क्रमेणाष्टविधत्वात् । समानप्रकारकज्ञानस्यैव प्रतिबन्धकत्ववादिनां नव्यानां नये तु साधनतावच्छेदकावच्छिन्नसाधनाभाववत्यक्ष इत्यादिरूपा चतुर्विधैव खरूपासिद्धिः न तु पक्षे माधनतावच्छेदकावच्छिन्नसाधनाभावादिरूपापि तज्ज्ञानस्यानुमिति-तत्कारणपरामर्शाप्रतिबन्धकतया हेला-. भासत्वस्यैव तत्राभावात् वक्ष्यमाणानुगतस्वरूपामिद्धिलक्षणस्य तपामत्वाच । पक्षतावच्छेदकावछिन्त्रपक्षविरोधक-साधनतावच्छेदकाव
Page #931
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्वचिन्तामणी
चिसाधनप्रकारकग्रहविरोधितावच्छेदकत्वं स्वरूपासिद्धित्वं, भवति पदोवकिमान् धूमादित्यादौ धूमाभाववद्हूदादिरूपा स्वरूपासिद्धिः धूमवान् हद इत्यादिपक्षविशेष्यकयहविरोधितावच्छेदिकेति लक्षणसमन्वयः, दोवहिमान् धूमादित्यादौ द्रव्यमामान्याभाववद्इद-धूमसामान्याभाववद्र्व्यादिश्वतिव्याप्तिवारणय पक्षतावच्छेदकसाधनतावच्छेदकयोः प्रवेशः । न चैवं हृदोवहिमान् धूमादित्यादौ इदवृत्तित्वाभाववद्धमादिरूपस्वरूपासिद्धौ वहिमानाकाशादित्यादौ वृत्तित्वाभाववदाकाशादिरूपस्वरूपासिद्धौ चाव्याप्तिः नव्यनये ग्राह्याभावावगाहिनिश्चयस्यैव प्रतिबन्धकतया तज्ज्ञानस्य पक्षतावच्छेदकावच्छिन्नविशेष्यक-साधनतारच्छेदकावच्छिन्नप्रकारकग्रहाविरोधिवादिति वाच्यं । नव्यमते तस्य स्वरूपासिद्धित्वविरहात् । न चैवं तस्याधिक्यापत्तिरिति वाच्यं। दो महिमान् धूमादित्यादौ इदवृत्तित्वाभाववभूमादेहत्वाभासत्वस्यैवाभावात् वहिमानाकाशादित्यादौ वृत्तिमत्त्वाभाववदाकाशादेश्च माध्यमामानाधिकरण्याभाववद्धेत्वादेरिवामाधारणत्वे विरोधे वान्तर्भावात्। पक्षतावच्छेदकावच्छिन्नविशेष्यक-साधनतावच्छेदकावच्छिन्नग्रहविरोधितावच्छेदकत्वमात्रापि अग्टहीताप्रामाण्यकनिश्चयनिष्ठ यादृशविशिष्टनिरूपितविषयितासामान्यं तादृशग्रहविरोधितानतिरिक्रवृत्ति तादृशविशिष्टत्वं, तेन मासिद्धिसामान्यलक्षणवदवच्छेदकत्वविकल्यावकाशः, प्रत्येकदलव्यावत्तिरपि पूर्वोक्कदिशाऽवसेया, तादृशग्रहविरोधित्वच्च तादृशग्रहलापच्छित्रप्रतिबध्यतानिरूपितविरोधित्वं तेन पर्वतो वधिमान् इदलादित्यादौ वयभावहृत्तिह्रदत्वादिरूपसाधारण्य-वहिमवृत्ति
Page #932
--------------------------------------------------------------------------
________________
पसिडिसिद्धान्त
हृदयादिरूपविरोध-वङ्ग्य भावव्यापकौभताभावाप्रतियोगिहदवादिरूपानुपसंहारिव-वङ्ग्यव्यभिचरितसम्बन्धित्वाभाववद्हूदादिरूपव्याप्यवासिद्धिषु परामर्यात्मकतादृशग्रहविरोधितामादाय नातिव्याप्तिः । न वा प्राश्रयासिद्धि-साधनविशेषणमियोरतिव्याप्तिः तेषां ज्ञानस्य तादृशग्रहत्वावछिनप्रतिबध्यतानिरूपितप्रतिबन्धकत्वाभावात्, अतएव हुदो वहिमान् धूमादित्यादौ वङ्ग्यभावववृत्तिधूमाभाववद्हद-वहिसमानाधिकरणधूमाभाववद्हूद-वड्यभावव्यापकौभूताभावप्रतियोगिधमाभाववद्हूद-वयव्यभिचरितसम्बन्धिधूमाभाववद् दादिषु व्याप्यत्वा सिद्दान्तर्गतेषु नातिव्याप्तिः तेषां परामर्शात्मकताशयहविरोधितावच्छेदकत्वेऽपि तादृशग्रहत्वावच्छिन्न प्रतिबध्यतानिरूपितप्रतिबन्धकतावच्छेदकत्वविरहात्, स्वरूपासिद्धेरसकोणदाहरणच पर्वतो वहिमान् महानमत्वादित्यादिकमेव, श्राश्रयासिद्धि-खरूपासिद्धिभिन्नामिद्धिस्तु व्याप्यत्वामिद्धिः, यादृशविशिष्टमाश्रयासिद्विर्यादृशविशिष्टञ्च खरूपासिद्धिस्तदुभयविशिष्टानिरूपितं माधारणव-विरुद्धत्वानुपसंहारिवानिरूपितञ्च निश्चयनिष्ठं यादृशविशिष्टः निरूपितविषयितासामान्यं परामर्शविरोधितानतिरिक्रवृत्ति तादृशविभिष्टं व्याप्यत्वामिद्धिरिति. तु निष्कर्षः, तेन हुदो वहिमान् धूमादित्यादौ वहिव्याप्यधूमाभाववद्हूदादिरूपव्याप्यत्वामिद्धेविशिट्रस्थानतिरिकतया धूमाभाववद्हदाद्यात्मकस्वरूपासिद्धिभिन्नत्वाभावेऽपि नाव्याप्तिः, न वा काञ्चनमयहूदो वहिमान् धमादित्यादौ. वहिव्याप्यधूमाभाववद्हुदादिरूपव्याप्यत्वासिद्धे विशिष्टस्यानतिरिक्रतथा काञ्चनमयस्वाभाववद्दादिरूपाश्रयासिद्धेभिन्नत्वाभावेऽप्य
Page #933
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्ताम
प्याप्तिः, पचादिभेदेन व्याप्यवामिद्धे दात् पर्वतो धूमवान् कोरित्यादौ यत्राश्रयासियादिकमप्रसिद्धं तत्र तदनिरूपितत्वविशेषणं मोपादेयं शब्दानुगमस्याकिञ्चित्करत्वात् तेन तत्रत्यव्याप्यत्वामितौ नाव्याप्तिः । एतेन वकिव्याप्य दत्ववान् पर्वतो वकिमान् हुदखादित्यादौ वझिव्याप्यत्वाभाववद्दत्वादिरूपव्याप्यत्वामिद्धेराश्रयामिद्धिरूपत्वादव्याप्तिः ह्रदत्वाभाववत्पतरूपाश्रयासिड्यन्तरेऽतिध्याप्तिवारणय तत्राश्रयामिद्धिभिन्नत्वस्यावश्यं प्रवेशनीयत्वात्, एवं काञ्चनमयवसिमवायौ पर्वतः काञ्चनमयवहिमान् धूमादित्यादौ काञ्चनमयत्वाभाववदङ्गिरूपमाध्यविशेषणाण्ड्यिात्मकव्याप्यत्वामिद्धेराअयामिद्धिभिन्नत्वाभावादव्याप्तिः वह्निसमवायित्वाभाववत्पर्वतरूपाअयासिवन्तरेऽतिव्याप्तिवारणाय तचाप्याश्रयामिद्धिभिन्नत्वस्यावश्यं प्रवेशनीयत्वात्, एवं वह्निः काञ्चनमयवहिमान् काञ्चनमयत्वादित्यादौ काञ्चनमयत्वाभाववद्दयादिरूपमाध्यविशेषणसियात्मकव्याप्यत्वामिद्धौ खरूपामिद्धिभिन्नत्वाभावादव्याप्तिः । न च तवयं न ध्यायवामिद्धिः किन्वाश्रयासिद्धिः स्वरूपासिद्धिरेव इति वाच्य। विनिगमकाभावादत्राश्रयासियादिभिन्नत्ववदाश्रयासियादिलक्षणेऽपि व्याप्यत्वामिद्धिभिन्नत्वविशेषणस्य वमशक्यत्वात् कथकसम्मंदापव्यवहारस्य च मन्दिग्धत्वादिति दूषणमपि प्रत्युक्त। श्राश्रयाविद्यादौनां प्रातिखिकरूपेण भेदस्यैव लक्षणघटकतया वहिव्यायइदत्ववान् पर्वतो वहिमान् हुदत्वादित्यादौ ह्रदत्वाभाववत्पर्वतादिरूपाश्रयामियान्तरभेदस्यैव तत्र लक्षणघटकतया उकरूपात्रचामियात्मकव्यायलासिद्धावण्याप्तिविरहात् । न चैवं तस्योभयरूप
Page #934
--------------------------------------------------------------------------
________________
पसिद्धिविद्वान्तः ।
लापत्तिरिति वाच्च। विनिगमकाभावेनाश्रयासिद्धि-याप्यामिधुभयरूपत्वस्य संचेष्टत्वात् । मा चं व्याप्यवासिद्धिविविधा माध्यविशेषणसिद्धिः माधनविशेषणामिद्धिः व्याप्तिदिरहरूपा च, माध्यताव
छेदकप्रकारकमाध्यमहविरोधितावच्छेदकरूपं साध्यविशेषणामितिः, विरोधितावच्छेदकत्वादिकमाश्रयामिद्धिलक्षणवदवसेयं, तादृशं रूपच माध्यतावच्छेदकाभाववत्माध्यं, तादृशाभावयाप्यवत्माध्यं, माध्यतावछेदकवदन्योन्याभाववत्माध्यं, तादृशान्योन्याभावव्याप्यवत्माध्य, माध्यनावच्छेदकतावच्छेदकाभाववत्माध्यतावच्छेदकं, तादृशाभावव्याप्यवमाध्यतावच्छेदक, माध्यतावच्छेदकतावच्छेदकवदन्योन्याभाववत्माध्यतावच्छेदक, तादृशान्योन्याभावव्याप्यवत्माध्यतावच्छेदकमित्यादि, भिन्नप्रकारकज्ञानस्यापि प्रतिबन्धकलनये माध्ये माध्यतावच्छेदकाभावः, साध्ये तादृशाभावव्याप्यः, माध्ये साध्यतावच्छेदकवदन्योन्याभावः, माध्ये तादृशान्योन्याभावव्यायः, माध्यतावच्छेदके माध्यतावच्छेदकतावच्छेदकाभावः, माध्यतावच्छेद के तादृशाभावव्याप्यः, माध्यतावच्छेदके माध्यतावच्छेदकतावच्छेदकवदन्योन्याभावः, माध्यतावच्छेदके तादृशान्योन्याभावव्याप्य इत्यादिकं बोध्यं, एतदमीणदाहरणञ्च पर्वतः काञ्चनमयवद्धिमान् धूमादित्यादि। माधमतावच्छेदकप्रकारकमाधनग्रहविरोधितावच्छेदकरूपं साधनविभेषणमिद्धिः, विरोधितावच्छेदकत्वादिकमाश्रयासिद्धिलक्षणवदवसेयं, तादृशच्च रूपं साधनतावच्छेदकाभाववत्माधनादिकमेवेत्युतप्राय, एतदमौर्णदाहरणञ्च पर्वतो वकिमान् काञ्चनमयधूमादित्यादि। माध्यविशेषणमिद्धि-साधनविशेषणमिद्धि-स्वरूपामियाश्रयासिद्धि
Page #935
--------------------------------------------------------------------------
________________
८६६
तत्त्वचिन्तामणौ ध्याप्तिविर हस्तु व्यर्थविशेषणादौ, तदुक्तं, एकामसिद्धिं परिहरतो द्वितीयापत्तेरिति।
भिन्नासिद्धिाप्तिविरहरूपासिद्धिः, निष्कर्षस्तु व्याप्यत्वामिद्धिसामान्यलक्षणवदवसेयः, तस्वरूपञ्च माध्याव्यभिचरितसम्बन्धित्वरूपाग्वयव्याप्यभाववत्माधनं, नादृशव्याप्यभावव्याप्यवत्माधनं, तादृशव्याप्तिमदन्योन्याभाववत्माधनं, तादृशव्याप्तिमदन्योन्याभावव्याप्यवत्साधनं, तादृशव्याप्तिमत्साधनाभाववत्पक्षः, तादृशव्याप्तिमत्माधनाभावव्याप्यवत्पचः, तादृशव्याप्तिमत्साधनवदन्योन्याभाववत्यक्षः, तादृशव्याप्तिमसाधनवदन्योन्याभावव्याप्यवत्वचः, एवं साध्याभावव्यापकीभूताभावप्रतियोगित्वरूपव्यतिरेकव्याप्तिमत्माधनाभाववत्पक्षादि, साध्याभाववदत्तिसाधनाभाववत्यचादि, साध्यसमानाधिकरणमाधनाभाववत्यशादि, भिन्नप्रकारकज्ञानस्यापि प्रतिबन्धकत्वनये साधने तादृशाग्वयव्याप्यभावादिरपि बोध्यः। ननु साध्यविशेषणसिद्धि-साधनविशेषणासिद्धिरूपव्याप्यवासिद्धेरसकोणेदाहरणमत्त्वेऽपि व्याप्तिविरहरूपव्याप्यत्वामिद्धेरसकोणादाहरणं दुर्लभमित्यताह, 'व्याप्तिविरहस्विति. 'व्यर्थविशेषणादाविति, 'असौर्ण इति लिङ्गविपरिणामेनानुषज्यते, श्रादिपदाड्यर्थविशेष्यत्वपरिग्रहः, तदुदाहरणञ्च द्रव्यं गुण कान्यत्वविशिष्टमत्त्वादित्यादि तत्र हेतुतावच्छेदकविशेष्योभूतस्य सत्तावस्य व्यर्थत्वात् न तु पर्वतो वहिमान् धमप्रागभावादित्यादि भिवधर्मिकत्वात् । व्यर्थविशेषणस्य व्याप्यत्वासिद्धित्वे प्राचार्यसंवादमाह, 'तदुक्रमिति क्षितिरकर्डका शरीराजन्यत्वादिति ईश्वरज्ञा
Page #936
--------------------------------------------------------------------------
________________
बसिडिसिद्धान्तः ।
६५५
• उपाधिस्तु न व्याप्तिविरहः वहिव्यापकधूमायापकधर्मस्याप्रसिद्ध्या धूमे तहिरहासिद्धेः, किन्तु' यावत्स
नानुमाने मत्प्रतिपक्षानुमान इति शेषः। 'एकाममिद्धिं खरूपा. सिद्धिरूपां असिद्धिं, 'परिहरतः' अरौरविशेषणेन परिहरतः, 'द्वितीयापत्तेः' गरौरविशेषणस्य व्यर्थतया शाप्यवामियापत्तः, एतच प्राचीनमतानुसारेण । वस्तुतो व्यर्थविशेषणत्वेऽपि स्वव्यापकसाथमामानाधिकरण्यरूपा साध्याव्यभिचरितसम्बन्धित्वरूपा वा व्याप्ति१ारा । न चैवं वहिमान् नौलधूमादित्यादिप्रयोगे कथं निग्रहइति वाच्य। उद्भावितदृष्टान्तस्य माध्यादिवेकल्यवदधिकप्रयोगस्यापि निग्रहस्थानत्वात् निग्रहस्थानविभाजकसूत्रस्यचकारेणानुक्रममुच्चयपरेण उद्भावितदृष्टान्तस्य माध्यवैकल्यादिवत्तस्यापि समुच्चयात् । न चैवं एकाममिद्धिमित्याचार्याभिधानविरोध इति वाच्यं । व्यर्थविशेषणतया व्याप्तिविरहस्याभ्युपगमेऽपि तदभिशनस्याशुद्धत्वात् गरौरजन्यवाभावस्थाखण्डतया व्यर्थविशेषणत्वस्यैव तत्र विरहात् । न चैवं व्याप्तिविरहस्यासकोणेदाहरणभाव इति वाच्यं। तदिरहेऽपि न चतिरित्यमकदावेदितत्वादिति पुनर्नव्यमतानुयायिनौ राधान्तमरणिः ।
केचित्तु उपाध्यभावस्य व्याप्तितया तदभावत्वेन उपाधिरपि व्याप्यवासिद्धिरिति वदन्ति प्रसङ्गात्तन्मतं निराकरोति, 'उपाधिखिति उपाध्यभावस्य व्याप्तित्वे तथा स्थान चैतदित्याह, 'वहौति। नम्वेवं अनौपाधिकत्वं व्याप्तिरित्युच्छिद्येतेत्यत पाच, 'किन्विति ।
Page #937
--------------------------------------------------------------------------
________________
संत्वचिन्तामो
व्यभिचारिव्यभिचारिसाध्यसामानाधिकरण्यमनौपाधिकत्वं व्याप्तिःसाध्यव्यापक-साधनाव्यापकश्च धर्मान्तरं न तु तहिरहः अपि तु तबियतः। न चैवमुपजौष्यत्वेन उपाधिहेत्वाभासान्तरम, उपजीव्यत्वेऽपि स्वतोदूषकत्वेन तदर्थं परमुखवीक्षकत्वात्, न हि साध्यव्यापकाव्याप्यत्वमनुमितिविरोधि, किन्तु व्यभिचारोनयनेन स्वव्यतिरेकेण सत्प्रतिपक्षतया वा, तदाह उपाधाववश्यं व्यभिचार उपाधेरेव व्यभिचारशति, अप्रयोजकान्यथासिद्धौ च सोपाधी नासिद्धौ। मन्येवं तद्विरहरूपत्वेनोपार्व्यािप्यत्वासिद्धिः स्यादत बाह, माध्येति, 'उपजीव्यत्वेन' व्याप्तिज्ञानाभावोपजीव्यत्वेन, हेवाभासान्तरं स्थादिति शेषः। 'तदर्थ' व्याप्तिज्ञानप्रतिबन्धार्थ, 'अनुमितिविरोधि' साक्षादनुमिति-तत्कारणयो विरोधि, 'सत्प्रतिपक्षतया' साक्षात्माध्याभावोबायकतथा। ननु माध्यव्यापकाव्याप्यत्वस्य खतोऽदूषकत्वे माध्ययापकाभाववक्तित्वरूपमप्रयोजकत्वं माध्यव्यापकविरहाव्यापकाभावकवरूपमन्यथामिद्धत्वञ्च कुतोऽसिद्धिः तयोरेव साध्यव्यापकाव्याप्यत्वरूपत्वादित्यत पाह, 'अप्रयोजकान्यथासिद्धौ चेति प्रथमादिवचनं, (१) खं हेतुः व्यभिचारि येषां ते खव्यभिचारिणः, यावन्तः खव्यभिचारिणः यावत्खण्यभिचारिणः, तेषां व्यभिचारि यावत्खथमिचारिव्यभिचारि, तादृशं यत्साध्यं तत्मामानाधिकरण्यमित्यर्थः, हेतो. यावतो व्यभिचारित्वं तावतां व्यभिचारि यत्साध्यं तत्मामामाधिकरण्यं याप्तिरिति पषितार्थः ।
Page #938
--------------------------------------------------------------------------
________________
६१.
बसिद्धिसिद्धान्तः।। प्रतिकूलतर्कानुकूलतर्काभावावुपजीव्यत्वे सति.स्वतोदूषकावपि न हेत्वाभासौ स्वरूपसतारेव प्रतिबन्धकत्वादित्युक्तम्। 6. इति श्रीमहङ्गेशपाध्यायविरचिते तत्त्वचिन्तामणौ अनुमानास्यदितीयखण्डे असिद्धिसिद्धान्तः।
धर्मप्रधानश्च निर्देशः, अप्रयोजकत्वमन्यथामिद्धत्ववेत्यर्थः । 'मोपाधी' सोपाधौ अपि उपाधिसमानाधिकरणे अपौति यावत्, 'नासिद्धौ' नासिद्धी, सर्वत्र प्रथमाद्विवचनं।
केचित्तु प्रतिकूलतर्कोऽनुकूलतर्काभावश्चासिद्दान्तर्गत इत्याडः तन्मतं निराकरोति, 'प्रतिकूलेति, ‘उपजीव्यत्वे मतौति अनुमित्यनुत्पादप्रयोजकत्वे सतीत्यर्थः, स्वतोदूषकावपौति व्याप्तिग्रहकार
भावावपौत्यर्थः, 'स्वरूपसतोरेव' ज्ञायमानत्वानवच्छित्रयोरेव, 'प्रतिबन्धकत्वादिनि व्याप्तिज्ञानकारणीभूताभावप्रतियोगित्वादित्यर्थः, ज्ञायमानत्वावच्छिन्नानुमिति-तत्कारण ज्ञानान्यतरकारणेभूताभावप्रतियोगित्वाश्रयस्यैव च हेत्वाभासत्वादिति भावः ।
इति श्रीमथुरानाथतर्कवागौश-विरचिते तत्त्वचिन्तामणिरहस्ये अनुमानाख्य-द्वितीयखण्डरहस्येऽमिद्धिमिद्धान्तरहस्यं सम्पूर्णम् ॥
118
Page #939
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ६८ )
अथ बाधपूर्वपक्षः। बाधा न साध्याभाववत्यक्षकत्वं पक्षहत्त्यभावप्रतियोगिसाध्यकत्वं वा, पक्षे साध्याभावज्ञानमावस्य प्रमावज्ञानं विना अधिकबलत्वाज्ञानेन बाधाभावादिति वक्ष्यते। अतएव साध्याभाववत्पत्तित्वमपि न अ
अथ बाधपूर्वपक्षरहस्यं । 'बाध इति बाधितत्वमित्यर्थः, 'माध्याभाववत्पक्षकत्वमिति येन कोनचित् सम्बन्धेन साध्याभाववत्पचसम्बन्धित्वमित्यर्थः, अतो नायिमाभेदः। साध्याभाववत्यक्षादिकं यदि बाधः स्यात्तदैव तत्सम्बन्धित्वं बाधितत्वं स्यात्तदेव च न बाध इत्याह, 'पक्ष इति, ‘माचपदं माकख्यार्थक सर्वेषां पक्षनिष्ठमाध्याभावज्ञानानामित्यर्थः, 'अधिकबलवाज्ञानेन' अधिकबलत्वाभावेन अनुमितिप्रतिबन्धकलाभावेनेति थावत्, अत्र हेतु: ‘प्रमात्वज्ञानं विनेति सर्वच पक्षे माध्याभावज्ञाननिष्ठप्रमावविषयकवानावश्यकत्वेनेत्यर्थः, 'बाधाभावादिति तदिषयस्य माध्याभाववत्यक्षादर्बाधत्वाभावादित्यर्थः, पक्षे माध्याभावज्ञाननिष्ठप्रमावविषयकज्ञानस्यैवानुमितिप्रतिबन्धकतया जाननिष्ठस्य तदिषयवस्थानुमितिप्रबन्धकतानतिरिकवृत्तिलाभावेन हेत्वाभासमामान्यलक्षणस्यैव तत्राभावादित्यभिमानः। 'श्रत एवेति उकरीत्या माध्याभाववत्यक्षस्य बाधवाभावादेवेत्यर्थः, ‘माध्याभाववदिति हेतुनावोदकसम्बन्धेन माथाभाववत्पक्षसम्बन्धित्वं न बाधितलमित्यर्थः,
Page #940
--------------------------------------------------------------------------
________________
बाधपूर्वपक्षः। सिद्धिसौर्णबाधाव्याप्तेश्च किन्तु साध्याभाववत्वममाविषयपक्षकत्वं प्रमितसाध्याभाववत्पक्षकन्वं मक्षनिष्ठप्रमाविषयत्वप्रकाराभावप्रतियोगिसाध्यकत्वं वेति, विवक्षितविवेकेन साध्याभावादिप्रमैव दोषः, साप
'अमिद्धिमौर्णेति हुदो वहिमान् धमादित्यादौ स्वरूपासिद्धिसौर्णबाधाश्रयेऽव्याप्तेरित्यर्थः,(२) 'माध्यभाववत्त्वप्रमेति विषयतासम्बधेन माध्याभाववत्पचविशेष्यक-साध्याभावप्रकारकज्ञानसम्बन्धित्वमित्यर्थः, सर्वत्रान्ततो भगवत्तादृशसमूहालम्बनज्ञानविषयतामादायैव लक्षणसमन्वय इति भावः। 'प्रमितेति येन केनापि सम्बन्धेन माध्याभाववदिशेयक-(२)साध्याभावप्रकारकज्ञानविषयसाध्याभाववत्यक्षसम्बन्धित्वमित्यर्थः, 'विषयत्वप्रकारेति सप्तमौसमासः, तथाच पक्षनिष्ठप्रमाविषयतायां प्रकारोभतो योऽभावस्तत्प्रतियोगिमाध्यमबधित्वमित्यर्थः, एतच्चातिरिक्तविषयतावादिनये, खमते तु पक्षनिष्ठप्रमाप्रकारोभूतेत्यादि बोध्यं । 'विवक्षितविवेकेनेति बाधसम्बधित्वस्यैव बाधितत्वरूपत्वेनेत्यर्थः, 'माध्याभावादिप्रमैवेति माध्याभाववत्पक्षविशेश्यक-माध्याभावप्रकारकज्ञानादिरेवेत्यर्थः, 'दोषः' बाधः, 'श्रादिपदाप्रमितमाध्याभाववत्पच-पचनिष्ठप्रमाप्रकारोभूताभावप्रति
(१) एतदनन्तरं 'वाभाववहदादौ हेतुतावच्छेदकसम्बन्धेन वृत्तिम
त्वस्य हेतावसत्त्वादव्याप्तिरिति भावः' इत्यधिकः पाठः क पुस्तके वर्तत इति। . (२) साध्याभाववत्यक्षविशेष्यकेति ग।
Page #941
--------------------------------------------------------------------------
________________
६.
सत्वचिन्तामणे
प्रमात्वेन ज्ञाता न खरूपसतो हेत्वाभासत्वात् । प्रमात्वज्ञानं विना अधिकबलत्वाभावेनादोषत्वात् अप्रमायामपि प्रमात्वज्ञानेऽनुमितिप्रतिबन्धाच । अथ साध्याभावति पक्षे हेतोः सत्वज्ञाने व्यभिचारः,
योगिसाध्ययोः परियतः । 'प्रमात्वेन ज्ञातेति, अनुमितिप्रतिबन्धिकेति भेषः, 'हेत्वाभासत्वादिति हेत्वाभासत्वानुरोधादित्यर्थः । एतदेव विवणेति, 'प्रमात्वज्ञानं विनेति प्रमात्वप्रकारकतज्ज्ञानस्यानुमितिप्रतिबन्धकत्वेन विनेत्यर्थः, 'अधिकबलवाभावेनेति ज्ञाननिष्ठनविषयित्वस्थानुमितिप्रतिबन्धकतावच्छेदकत्वाभावेनेत्यर्थः, 'प्रदोषमात्' हेतुदोषत्वासम्भवात् । ननु हेत्वाभासत्वानुपपत्तिर्न प्रतिबन्धकतायां मानमित्यखरमादाह, 'अप्रमायामपौति, ददमुपलक्षणं सत्यामपि प्रमायां तत्र प्रमावनिश्चयं विना अनुमितिप्रतिबन्धानभ्युपगमाञ्चेत्यपि बोभ्य। निरुतप्रमावग्रहे पक्षे साध्याभाववत्त्वग्रहोऽप्यावश्यक इत्यभिप्रायेण 'प्रमितमाथाभाववत्पक्षो बाध इति द्वितीयपक्षणभिप्रायेण वा शङ्कते, 'अथेति, साध्याभाववनि पक्ष- । इति निरुकप्रथमबाधज्ञाने निरुतद्धितीयबाधज्ञाने वा पक्षतावछेदकावच्छिन्ने साध्याभाववत्त्वस्य हेतौ च पक्षतावच्छेदकावच्छिन्नवृत्तित्वस्य ज्ञान इत्यर्थः, 'यभिचारः' व्यभिचारज्ञानं, हेतौ यद्भूर्मावचित्रवृत्तित्वं विषयौक्रियते तद्धावच्छिन्ने माध्याभाववत्त्वविषयकस्यापि समूहालम्बनज्ञानस्य व्यभिचारज्ञानत्वादित्यभिमानः, तथाच तत एनमित्यनुत्पादसम्भवादनुमितिं प्रति पृथग्वाधवानस्य प्रति
Page #942
--------------------------------------------------------------------------
________________
बाधपूर्वपक्ष तदनानेऽसिद्धिः, संशययोग्यत्वाभावेन ,पक्षत्वाभावा
कसे मानाभावः,। एतच्चानुमिति प्रत्येव माध्याभाववहृत्तित्वरूपयभिचारपान प्रकिबन्धकं न तु तत्कारणभूतव्यापकमामानाधिकरण्यरूपव्याप्तिज्ञानं प्रति प्राचीननये तादृशव्याप्तिज्ञानस्यैवानुमितिहेतुत्वादित्यभिप्रेत्य। ननु पक्षतावच्छेदकावच्छिन्ने साध्याभाववत्त्वमेव तत्र विषयो न तु हेतौ पक्षतावच्छेदकावच्छिन्नवृत्तित्वमपौत्यतपाह, 'तदज्ञान इति हेतौ पचतावच्छेदकावच्छिन्नवृत्तित्वाज्ञानइत्यर्थः, 'असिद्धिः' परामर्शविरहः, पक्षधम्मोहेतः माध्यव्याप्य इति लिङ्गविशेष्यकपरामर्शस्यानुमितिजनकस्य प्रथमं हेतौ पक्षवृत्तित्वग्रहं विनाऽनुपपत्तेः। न च बाधग्रहोत्तरं हेतौ पक्षवृत्तित्वग्रहः ततस्तुतौयक्षणे परामर्शी न तु बाधग्रह एव हेतौ माध्याभाववत्पत्तित्वज्ञानमिति वाच्यं । तथापि परामर्शोत्पत्तिक्षण एव बाधग्रहनामात् तस्थानुमितिप्रतिबन्धकत्वे मानाभावात्। न च हतौ पक्षवृत्तित्वज्ञानानन्तरं बाधग्रहस्ततः परामर्श इति 'वाच्य। तथा मति बाधग्रहेऽपि हेतौ पक्षवृत्तित्वभाने बाधकाभावात् व्यभिचारज्ञानेन अन्यथासिद्धे'स्तादवस्यात् इत्यभिमानः।.स चायुक्तः, माध्यव्याप्यहेतुमान्पक्ष इति पक्षविशेष्यकपरामर्शस्यानुमितिजनकतया यत्र हेतौ पक्षवृत्तित्वाविषयकबाधनिश्चयोत्तरं तादृशपरामर्श: तचैव बाधज्ञानस्य पृथक्प्रतिबन्धकतावश्यकत्वात् यत्र हेतौ पक्षवृत्तित्वग्रहोत्तरं प्राब्द-स्मृत्याचात्मकं हेतौ पक्षवृत्तित्वाविषयकं बाधज्ञानं ततः पक्षवृत्तितः माध्यव्याप्यति लिङ्गविशेष्यकः परामर्शः, यत्र वोच्छङ्खलपत्तित्व
Page #943
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामणौ
दाश्रगासिद्धिश्च । न च पक्षभिन्ने व्यभिचारो दोषः, व्यर्थविशेपणत्वात् सर्वोपसंहारप्रहत्तव्यासः माध्याभाववति साधनमित्यवगमादेव भङ्गात् ।। अथ सन्दिग्धसाध्यदृष्टान्ते सन्दिग्धानकान्तिकवत्पर व्यभिचारसंशयादनुमानमात्रोच्छेद इति, पक्षे साध्यसन्देहो
विषयकबाधनिश्चयोत्तरं तादृशोलिङ्गविशेष्यकः परामर्शः, पक्षवृत्तित्वाविषयकबाधनिश्चयोत्तरं स्मरणात्मकः तादृशलिङ्गविशेश्यकः परामी वा तचापि बाधज्ञानस्य पृथक्प्रतिबन्धकत्वावश्यकत्वाचेति बोध्यं । 'संभययोग्यत्वाभावेनेति पक्षे माध्य-तदभावनिश्चयाभावस्य संशययोग्यतात्वादिति भावः। ‘पक्षवाभावादाश्रयासिद्धिरिति पक्षत्वाभावरूपाश्रयामिद्धिरित्यर्थः, तथाशासकीर्णस्थलाभावाद्दाधज्ञानस्थानुमितिप्रतिबन्धकत्वे मानाभाव इति भावः । पूर्वोतव्यभिचारज्ञानस्य प्रतिबन्धकत्वरूपबाधकमुद्धरति, 'पति, व्यभिचारः' व्यभिचारज्ञानं, 'व्यर्थंति पचभिन्नत्वविशेषणस्य प्रतिबन्धकतायामप्रयोजकत्वादित्यर्थः, एतदेवोपपादयति, सति माध्याभाववत्तित्वसामान्याभावादिविषयकव्याप्तिबुद्धेरितार्थः, ‘अवगमादेवेति, एवकारोऽप्यर्थे, 'भङ्गात्' अनुत्पादात्। 'न चेति, 'अनुमानमाचोच्छेदइत्ययेणाषयः, 'दृष्टान्ने पक्षभिन्ने, पक्षवं प्रतिज्ञाविषयत्वं, 'अनुमानमाचोच्छेदः' संशयोत्तरकालौनानुमानमाचोच्छेदः, 'पक्ष इति, तथा फसवतात्पशौयव्यभिचारसंशयान्यव्यभिचारसंशय एव दोषः, व्यभिभारनिषयस्तु पक्षीयोऽपि प्रतिबन्धक इति भावः। यद्यप्यायोजकम
Page #944
--------------------------------------------------------------------------
________________
बाधपबपक्षः।
ऽनुमानामिति । व्याप्तस्य पक्षधर्माताजानादनुमित्युत्पादेन संशयनिहतो, अन्यथा विशेषदर्शनस्य संशयविरोधिता भज्येत । न च पधे साध्याभाव प्रतीत्य
स्थले पचौयव्यभिचारसंशयस्यापि प्रतिबन्धकवादिदममङ्गतं. तथापि प्राचीनमताभ्युपगमवादेन इदमभिहितं। ___ भट्टाचार्यास्तु ‘पचे माध्यसन्देह' हेतुमति पचे माध्यमन्देहः पचौयव्यभिचारसंशय इति यावत्, 'अनुमानाज मति शब्दादिना व्याप्तिनिश्चयेऽनुमित्यनुकूलः,(९) तथाच पक्षीयव्यभिचारसंशयसत्त्वेऽपि या शब्दादिना व्यभिचारनिश्चयस्तत्रैव नानुमानोच्छेदः,(२) व्याप्तिनिश्चयासचे तु तस्मात्तदुच्छेद इष्ट एवेति भावः इत्याहुः ।
ननु परामर्थपूर्व माध्यसन्देहासम्भवात् कथं माध्यसन्देहोऽनुमित्यमित्यत बाह, व्याप्तस्येति, 'अनुमित्युत्पादेन' अनुमित्युत्पादेन च,(२) तथाच परामर्श-तजन्यानुमित्योरेव संशयप्रतिबन्धकत्वं न तु परामर्शसामयपि कार्यसहवर्तितया माध्यमन्देहप्रतिबन्धिकेति भावः । ननु तथापि साध्यसन्देहसत्त्वे कथं परामर्शोत्पाद इत्यतप्राइ, 'अन्यथेति ग्राह्यसंभवस्य परामर्शप्रतिबन्धकवे चेत्यर्थः, 'संभयविरोधिता' मंगयोत्तरं मंशयानुत्पादप्रयोजकता।
(१) अनुमित्यप्रतिकूल इति ख, ग । (२) नानुमानमात्रोच्छेद इति ग०। (३) चकारपूरणेन व्याप्तस्य पक्षधमताज्ञानस्येव अनुमित्युत्पादस्यापि
संशयनिवर्तकत्वं सूचित।
Page #945
--------------------------------------------------------------------------
________________
888
तत्त्वचिन्तामो
व्यभिचारज्ञानमित्यपजीव्यत्वाबाधः पृथक, पक्षे साध्याभावप्रतीतिरेव हि साध्याभाव-हेत्वोः सम्बन्धोल्लेखिनौत्येकवित्तिवेद्यत्वेन नोपजीव्यत्वम, अन्यथा बाध
भट्टाचार्यानुयायिनस्तु ननु यदि व्याप्तिनिश्चयसत्त्वे पचौयव्यभिचारसंशयो न प्रतिबन्धकस्तदा परामर्शात्तरं हेतुमति पत्रे माध्यमन्देहोत्पत्तावपि अनुमित्यापत्तिरित्यत पाइ, 'व्याप्तस्येति परामर्श-तजन्यानुमित्योः संशयप्रतिबन्धकवादित्यर्थः, तथाच परामौत्तरं माध्यसन्देहोत्पत्तिरेव न सम्भवतीति भावः । यद्यप्यनुमितेः संशयप्रतिबन्धकत्वाभिधानं नकतानुपयुक्तं तथापि फलतोऽपि परामर्शस्य संशयप्रतिबन्धकत्वबोधनाय दृष्टान्नतया वा तदभिधानं, 'अन्यथेति परामर्मस्य सन्देहविरोधित्वाभाव इत्यर्थः, 'संशयविरोधिता' प्रामाणिकानां संभयविरोधिताप्रवाद इत्याहुः ।
'पक्ष इति हेतो. माध्याभाववत्यक्षवृत्तित्वात्मकव्यभिचारज्ञानमित्यर्थः, 'बाधः' साध्याभाववत्यचज्ञानं, 'पृथगिति; अनुमितिप्रतिबन्धक इति शेषः, तथाच माध्याभाववत्पक्ष एव बाधो न तु प्रमात्वान्तर्भाव इति भावः । यद्ययुपजीव्यत्वेऽपि तब्जन्यव्यभिचारज्ञानमेव प्रतिबन्धकमावश्यकत्वादित्येव समाधानं सुकरं तथापि तदुपेक्ष्य उपजीव्यत्वमेव निराकरोति, ‘पक्ष इति, माध्याभाववत्पवज्ञानं विनापि विशेष्ये विशेषणमिति न्यायेन विशिष्टवैशिष्यबुड्युत्पत्तौ बाधकाभावादिति भावः । 'एकवित्तिवेद्यत्वेन' एकवित्तिखरूपत्वेन । ननु सर्वच बाधाहे हेतौ पक्षवृत्तित्वभाने मानाभाव इत्यत आह,
Page #946
--------------------------------------------------------------------------
________________
E
बाधपूर्वपक्षः। दशायां पक्षे हेतोरज्ञानादसिद्धिरेव । न चोहावितव्यभिचारनिर्वाहाय बाधाद्भावनमावश्यकमित्युपजीव्यत्वं, व्यभिचारोद्भावने परकथन्तानावश्यकत्वात् तत्त्वे वा तन्निर्वाह्यमेव दूषणं कृप्तत्वात् । वहिष्णः कृतकइत्युद्भावनाइहिरुष्ण इत्युद्भावने लाघवमितिबाधा पृथगिति कश्चित्,(२) तन्न, पक्षे साध्याभावप्रमा स्वार्थानु
'अन्यथेति, 'बाधदशायां' बाधग्रहदशायां, ‘पक्षे हेतोरिति हेतौ पक्षवृत्तित्वस्येत्यर्थः, 'अमिद्धिरेव' परामर्शविरह एव, तथाच सुषुप्यादिदशायामिव कारणविरहादेवानमित्यनुत्पाद:(२) किं बाधमानस्य प्रतिबन्धकत्वेनेति भावः । परार्थस्थले व्यभिचारज्ञानं प्रत्युदावनद्वारा बाधज्ञानस्य उपजीव्यत्वमाशङ्कते, 'न चेति, 'उद्भावितव्यभिचारेति तेजोऽनुष्णं कृतकत्वादित्यादावुद्भावितव्यभिचारमियर्थमित्यर्थः, 'कथन्तेति व्यभिचारस्यामिद्धत्वाशक्त्यर्थः, 'तत्त्वे वेति उद्भावनद्वारा साध्याभाववत्पक्षज्ञानस्योपजीव्यचे वेत्यर्थः, 'तनिर्वाह्यमिति, माध्यव्यभिचारित्वमिति शेषः। 'वहिरुष्णः कृतक इति उष्णत्ववदनिवृत्तिवतकत्वमितिव्यभिचारोद्भावनादित्यर्थः, 'इत्युदावन इति साध्याभाववत्यक्षरूपबाधोद्भावने इत्यर्थः, 'लाघवं' शब्दलाघवं, 'बाधः' माध्याभाववत्पक्षः, 'पृथगिति, परार्थस्थले दोष इति
. . (१) कश्चित्तु वहिष्णः कृतक इत्युद्भावनादहिष्ण इत्युद्भावने लाघव.
मिति बाधः एथगिति मेने इति ग.।, (२) कारणविरहप्रयोन्य एव तदानुमित्यनुत्पाद इति ख०, ग.
-119
Page #947
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्वचिन्तामणी
माने यदि न देोषः तदा परं प्रत्यपि न स्यादविशेषादिति तदुहावनस्य दूरनिरस्तत्वात् । अथापनौतकाचनमयत्वविशिष्टबह्मनुमितेः सल्लिङ्गजन्यायाः श्राभासत्वं हेत्वाभासाधीनं। न चानुमितेः पूर्वं तत्र व्यभिचारशानं, विशिष्टस्याप्रसिद्ध्या तदभावस्याज्ञानात्, अत
शेषः, 'साध्याभावप्रमेति माध्याभावसत्तेत्यर्थः, 'अविशेषादिति कृप्तदोषान्तरसार्यस्याविशेषादित्यर्थः, 'तदुद्भावनस्य दूरेति, इदमुपलक्षणं शब्दगौरवमपेक्ष्य प्रतिबध्य-प्रतिबन्धकभावान्तरकल्पनागौरवस्यैव जघन्यत्वाञ्चेत्यपि द्रष्टव्य१) । 'अथेति, पर्वतो वकिमान् धूमादित्यादाविति शेषः, 'उपनौतेति, एतच्चानुमितावप्युपनौतभानमभ्युपेत्य, 'भाभामत्वमिति धमत्वमित्यर्थः, 'हेत्वाभासाधौनमिति दुष्टहेतुकत्वव्याप्यमित्यर्थः, हेतुदोषश्चान्यः कोऽपि तत्र नास्तीति बाधस्यैव तत्र दोषत्वमिद्धिः। न च काञ्चनमयत्वाभाववझिरूपा माध्यविशेषणसिद्धिरेव दोष इति वाच्यं । अनुमितिजनकपरामाविघटकतया तस्य प्रकृतेऽसिद्धित्वासम्भवादिति भावः। ननु धूमे काञ्चनमयवडिव्यभिचारज्ञानासादृशानुमितिरेव न सम्भवति कुतस्तस्याभासत्वमित्यत आह, 'न चेति, 'विशिष्टस्थाप्रसिद्धोति अनुमितेः पूर्व काञ्चनमयत्वप्रकारकवकिज्ञानाभावेनेत्यर्थः, 'तदभावखेति, काञ्चनमयत्वावच्छित्रप्रयोगिताकवयभावस्य व्यभिचारघट
(१) बोधमिति ख०, ग.।
Page #948
--------------------------------------------------------------------------
________________
बाधपूर्वपक्ष।
एव पक्षासिद्धिरपि न, अतः काञ्चनमयवश्वभावरून पाहाधात्तवांभासत्वं व्यधिकरणप्रकारावच्छिन्नप्रतियोर गिकश्चाचाभावइति चेत्, न, वस्तताव्यभिचारस्यापि तत्र सत्वात् ज्ञानञ्च तस्य बाधस्येवानुमित्यनन्तरमेव ।
कस्य ज्ञानासम्भवादित्यर्थः, प्रतियोगितावच्छेदकप्रकारकप्रतियोगिज्ञानस्याभावधौहेतुत्वादिति भावः । इदमुपलक्षणं काञ्चनमयवकिव्यभिचारज्ञानेऽपि सामान्यतोवहिव्याप्यवत्तापरामर्शदुपनौतकाचनमयत्वप्रकारकवयनुमितौ बाधकाभावाच्चेत्यपि द्रष्टव्यं । 'अतएवेति अनुमितेः पूवं काञ्चनमयत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकवयभावज्ञानासम्भवादेवेत्यर्थः, 'पक्षसिद्धिरपौति पचविशेष्यक-काञ्चनमयत्वविशिष्टवभावनिश्चयप्रयुक्तो बाधकमानाभावरूपपक्षत्वाभावोऽपि नेत्यर्थः, 'बाधादिति खरूपमतो बाधादित्यर्थः, 'आभासत्वं' भ्रमत्वं । मनु काञ्चनमयवहेरसिद्धौ कथं तंदभावरूपोबाध इत्यत आह, 'यधिकरणप्रकारेति व्यधिकरणधर्मत्यर्थः, 'प्रतियोगिकः' प्रतियोगिताकः, यदि व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकसाध्याभावमादाय बाधस्तदा तादृशसाध्याभावमादाय व्यभिचारोऽपि तत्र सम्भवतीत्यभिप्रायेण समाधत्ते, 'वस्तुत इति स्वरूपसत इत्यर्थः । मन्ननुमितेः पूर्वं तज्ज्ञानासम्भवात् नत्मत्त्वे किमानमित्यत पार, 'जानच्चेति, अन्यथा बाधमत्त्व एव किमानमिति भावः । ननु सामान्यधर्मावच्छिन्नव्याप्यवत्तापरामर्शजन्यानुमितौ विशेषयभिचारी
Page #949
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्वचिन्तामणै
किन वह्नौ काचनमयत्वस्यानु मितावेव भाने काचममयवहिमानित्यनुमितिन स्यात् विशिष्टस्य प जानाहही काचनमयत्वांशनुमितेराभासत्वं वहा लिङ्गस्यासिद्धेः व्यभिचाराच। न चानुमितेविषयाभावाधीनमप्रमात्वं, किन्तु हेत्वाभासाधीनं, यस्य हि ज्ञानमनुमितिप्रतिबन्धकं स हेत्वाभासः। न च साध्याभावा
महेत्वाभामः कारणीभूतपरामाविघटकवादित्यरुचेराह, 'किश्चेति, 'विशिष्टस्येति, विशेषणतावच्छेदकप्रकारकविशेषण ज्ञानस्य च विशिष्टवैशियधीहेतुत्वादिति भावः। ननु विशिष्टस्य पूर्वमज्ञानेऽपि विशेष्ये विशेषणमितिन्यायेन तादृशानुमितिः स्थादित्यखरसादाह, 'वकाविति, 'लिङ्गस्य' धूमादेः, 'अमिद्धेः' स्वरूपासिद्धेः, 'व्यभिचाराचेति धूमादेः पर्वतादौ काञ्चनमयत्वव्यभिचाराचेत्यर्थः, तथाच तचाभासताप्रयोजकं दोषान्तरमेव सम्भवति किं बाधस्य दोषत्वेनेति भावः । ननु यथोकस्वरूपामिद्धि-व्यभिचारयोर्न दोषत्वं अनुमितितत्कारणभूतपरामभयोरविघटकलादित्यतो दोषान्तरमाह, 'न
ति, 'विषयाभावाधीनमिति विषयाभावमात्राधौनमित्यर्थः, 'किन्विति, तथाच प्रकृते हेत्वाभासविरहात्कथमुपनौतकाञ्चनमयबमकारिका भ्रमानुमिति:(१) स्थादिति भावः। नन्वस्मन्मते बाधएव हेत्वाभासोऽस्तौत्यत आह, 'यस्य हौति । 'माध्याभाव इति
(१) अप्रमानुमितिरिति ख, ग ।
Page #950
--------------------------------------------------------------------------
________________
माधब्बैपक्षा
t
जातः प्रतिबन्धकइति न स हेत्वाभासः। वस्तुतस्तु उपनौतस्यांनमितो भाने मानाभावः प्रत्यभिज्ञादी च प्रतीतिबलेन तत्कल्पनम् अन्यथा :पूर्वोपस्थितसकल
काञ्चनमत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकवयभाव इत्यर्थः, अनुमिति विना विशिष्टस्याप्रमिया तदभावस्य ज्ञानासम्भवादिति भवतैवाभिधानात्। न चानुमित्यनन्तरं तदभावज्ञानसम्भव इति वाच्यं। तथा मति तस्यानुमितिप्रतिबन्धकवे मानाभावादिति भावः। ननु कपिदनुमितेः पूर्व विशिष्टस्याप्रसिद्धत्वेऽपि न सर्वत्र तदसिद्धिः । न च तथापि व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावस्य प्रागेव निराकृततया पर्वते काञ्चनमयवयभावस्यैवाप्रसिद्धत्वात् कथं तस्य दोषत्वमिति वाच्यं। तथापि पर्वतो वहिमान् धमादित्यादावुपनौतमहानसीयत्वादिविशिष्टवयनुमितेर्धमत्वप्रयोजकतया पर्वते तादृशवन्यभावस्य दोषत्वावश्यकत्वादित्यस्वरमाद्दोषान्तरमाह, 'वस्तुतस्विति, 'उपनौतस्येति पक्षतावच्छेदकव्यापकतावच्छेदकादिविधया परामर्शाविषयोभूतस्याप्युपनौतस्येत्यर्थः, बाधादिमहायं विनेति शेषः । नन्वेवं मोऽयमित्यादिप्रत्यभिज्ञादेरपौदन्वादिविशिष्टे उपनौततत्तादिवैशिष्यविषयकवे मानाभावः क्रमोत्पन्नज्ञानदयस्यैव तत्र सुवचत्वादित्यत श्राइ, 'प्रत्यभिज्ञेति, 'प्रतीतिबलेनेति(९) इदन्त्वादिविशिष्टे तत्तादिवैशियविषयकत्वस्थानुव्यवसायबलेनेत्यर्थः, (२) 'तत्कल्पन' दूद.
(१) प्रतीतिबलादितौति क, ख । .. (२) अनुव्यवसायवलादित्यर्थः इति, क, ख ।
Page #951
--------------------------------------------------------------------------
________________
वावचिन्तामो
पदार्थभाने यथार्थानुमित्युच्छेदः । अपिचैवं पराथीनुमानेऽप्युपनौतभाने बाधितार्थ उपनौतोऽयं मम
-
स्वादिविशिष्टे उपनौततत्तादिवैशिष्यविषयकत्वकल्पनं। न चानुमितावापे तादृशस्याप्युपनौतस्य भाने मामय्येव मानमिति वाच्यं । तदमिद्धेः ज्ञानलक्षणायास्तत्प्रकारकप्रत्यक्षत्वस्यैव कार्य्यतावच्छेदकत्वात् । न च विशेषणज्ञानादिरूपविशिष्टबुद्धिसामान्यसामग्रीम-- दयैवानुमितौ तादृशोपनौतस्य भानापत्तिारेति वाच्यं। प्रत्यक्षादिरूपविशेषमामयोसहिताया एव विशिष्टज्ञानसामान्यसामय्याः प्रत्यक्षफलोपधायकत्वादनुमितिमामय्या बलवत्त्वेन च उपनौतप्रत्यक्षादिसामग्रौविरहात्। न चानुमित्यात्मकविशेषमामय्येव वर्त्तते इति वाच्यं । पचतावच्छेदकत्व-विधेयत्व-तदवच्छेदकत्वातिरिक्तस्यानुमितिप्रकारत्वस्यालोकतया तदवच्छिन्नं प्रति मामय्यन्तराकल्पनात् । न च पक्षतावच्छेदकादिविधयैव तादृशस्याप्युपनौतस्यानुमितौ भानमस्तु इति वाच्यं । तदवच्छिन्नपक्षकानुमिति प्रति तदवच्छिन्नपक्षकपरामर्शस्य तदवच्छिन्नविधेयताकानुमितिं प्रति तदवच्छिन्ननिरूपित. व्याप्यादिज्ञानस्य हेतुत्वादिति भावः। मांधकाभावमुक्का बाधकमप्याह, 'अन्यथेति तादृशस्याप्युपनौतस्थानुमितौ भाननियम इत्यर्थः, ‘सकलपदार्थभान इति सकलपदार्थानां माध्य-पक्षोपरि प्रकारतया भाने इत्यर्थः, 'यथार्थानुमितौति भ्रमभिन्नानुमितीत्यर्थः, एतच्चापाततः अमति बाधक ऐव पूर्वोपस्थितपदार्थभानाभ्युपगमात् यत्र च न बाधक तत्रानुमितेर्धमत्वस्य तेनेष्टत्वात् अन्यथा प्रत्यक्षेऽप्युपनौतस्य प्रकार
Page #952
--------------------------------------------------------------------------
________________
पाधपूर्वपक्ष। भातइत्युद्भावनादेव विजयेत वादी, उद्देश्यानुमितेरमतिबन्धान तंब बाधोदोषइति चेत्, तुल्यं स्वार्वानुमानेऽपि। अत एव यत्र सामान्यतोदृष्टानुमानमेवेतरबाधस
तथा भानाभ्युपगमे तत्रापि स्थलविशेषे भ्रमत्वापत्तेः सुवचत्वादिति) ध्येयं। शकते, 'उद्देश्यानुमितेरिति यद्धविच्छिन्नव्याप्यवत्तापरामर्शस्तद्धावच्छिन्नानुमितेरित्यर्थः, 'बाधः' उपनौतपदार्थस्य बाधः, 'दोषः' दोषपदवाच्यः। परामर्शाविरोधिनोरूपस्य दोषत्वें परामर्शविषयतावच्छेदकावच्छिन्नविधेयताकामुमितिप्रतिबन्धकत्वस्य तन्त्रवादित्यभिमानः। 'खानुमानेऽपौति खार्थानुमानेऽप्युपनौतकाच्चनमयत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकवयभावो न दोषः परामर्शविषयतावच्छेदकवशित्वावच्छिन्नविधेयताकानुमित्यप्रतिबन्धकवादित्यर्थः । नन्विच्छा ट्रयाश्रिता गुणत्वादित्यादौ द्रव्याभिवत्वव्याप्यगुणत्ववतौच्छा इति सामान्यधर्मावच्छिन्नव्याप्यवत्तापरामर्श एवं पृथिव्याश्रितत्वाति। रितद्रव्याश्रितत्वाभाववतीच्छा इति भ्रमात्मकबाधज्ञानसहकारादिन्छा पृथिव्याश्रितेति विशेषप्रकारकभ्रमानुमितिं जनयति तदनुमितेर्भमत्वञ्च स्वरूपसद्धेल्वाभासाधीनं हेत्वाभामान्तरञ्च तत्र नास्तीतौछायां पृथिव्याग्नितत्वाभावरूपस्य बाधस्यैव हेत्वाभासत्वं सियतौति केचिद्वदन्ति तन्मतमुपन्यस्य दूषयति, 'अत एवेति इत्यपास्तमित्ययेतनेनान्वयः, 'सामान्यतोदृष्टानुमानमेव' मामान्य
(१) सकरत्वादितौति ख, ग ।
Page #953
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्वचिन्तामणी'
हायं विशेषानुमापकं तच बाधकानामाभासत्वे सिद्धे सत्प्रयुक्तं सामान्यतादृष्टस्याप्याभासत्वमिति बाधस्यासादर्यात्। न च यदि विशेषविप्रतिपत्ता सामान्यप्रतिज्ञा तदा अर्थान्तरं सामान्य विप्रतिपत्ता तु नेतरबाधकापेक्षेति वाच्यं । स्वार्थानुमानरवैवं बाधासङ्करस्योक्तवादित्यपास्तम्। अनुमित्यप्रतिबन्धेन तव बाधस्यादा
धर्मावच्छिन्नव्याप्यवत्तापरामर्श एव, 'दतरबाधसहायं इतरबाधज्ञानमहतं, 'विभेषानुमापक' विशेषधर्मप्रकारकानुमितिजनकं, 'बाधकानां' इतरबाधजानानां, 'आभासत्वे' भ्रमत्वे, 'तत्प्रयुक्त' स्वरूपसदाधमाचप्रयुक्तं, 'आभासत्वं' भ्रमानुमितिजनकत्वं, 'असायं दोषान्तरासाङ्की, 'सामान्यप्रतिज्ञेति, विशेषप्रतिज्ञायान्तु व्यभिचार एव स्फुट इति भावः। 'सामान्यविप्रतिपत्तौ विति, अनुमितेरपि मामान्यधर्माप्रकारकत्वादिति शेषः, विप्रतिपत्तिविषयतावच्छेदकधर्मप्रकारेणैव परार्थस्थलेऽनुमितिनियमादिति भावः । 'नेतरेति, न वानुमितेरप्रमावमित्यपि बोध्यं। 'अनुमित्यप्रतिबन्धेनेति यद्धविच्छिन्नव्याप्यवत्तापरामर्शस्तभावच्छिन्नप्रकारताकानुमित्यप्रतिबन्धकत्वेनेत्यर्थः, 'वाधस्य' विशेषतोबाधस्य, तथाचा· मुमितेर्धमत्वस्य दोषप्रयुकतया तदभावात्तत्र विशेषप्रकारकानुमितिरेव न जायत इति भावः । एतच्चापाततः अनुमिति-तत्कार
भूतपरामान्यतरप्रतिबन्धकतामात्रस्यैव हेत्वाभासत्वप्रयोजकतया परामविषयतावच्छेदकावच्छिन्नानुमित्यप्रतिबन्धकत्वेऽपि विशेषप्र
Page #954
--------------------------------------------------------------------------
________________
बाधपूर्वपक्षः। षत्वात् । ननु, पक्षे साध्याभावग्रहवत्साध्याभावव्याप्यग्रहोऽपि दूषकोविरोधित्वाविशेषात् तथाच साध्याभावसम्बन्धोव्यभिचारः साध्याभावष्याप्यसामानाधि
कारकानुमितिप्रतिबन्धकलादेव हेतदोषत्वसम्भवात् । न च तथापि परार्थानुमाने बाधस्यासकोर्णस्थलाभाव इति वाच्यं । स्वार्थानुमाने दोषान्तरामाहयेण तस्य हेत्वाभासत्वव्यवस्थितौ परार्थानुमानेऽपि तथात्वस्य दुर्वारत्वात् परार्थस्थलेऽपि बाधादिज्ञानसहकारेण विप्रतिपत्तिविषयतानवच्छेदकधर्मप्रकारेणानुमित्यभ्युपगमाखेति थेयं । 'दूषक इति अनुमितिप्रनिबन्धक इत्यर्थः, ‘विरोधिस्वाविशेषादिति अनुमित्यनुत्पादप्रयोजकत्वाविशेषादित्यर्थः । यद्यपि 'पशे साध्याभावपहवदित्यसङ्गतं पूर्वपक्षिणा तहस्यानुमितिप्रतिबन्धकत्वानभ्युपगमात् अन्यथा तत्र हेत्वाभापत्वस्य दुारत्वात, तथाप्यस्य दोषस्य ग्रन्थकतैवानुपदं वक्ष्यमाणत्वानामङ्गतिः । ‘माध्याभावसम्बन्ध इति हेतौ माध्याभावसामानाधिकरण्यमित्यर्थः, 'साध्याभावव्यायेति हेतौ येन केनापि सम्बन्धेन माध्याभावव्याप्यवत्पासम्बन्धिवमित्यर्थः, तेन जलंहदोवकिमान्.धूमादित्यादौ नाव्याग्निः, पत्र हेतुनिष्ठत्वसम्पादनाय सम्बन्धित्वप्रवेशः न तु तदन्तर्भावेन बाधत्वं प्रतिबन्धकतायामनुपयोगित्वात्, पाधस्तु माध्याभावव्याप्य. वत्पक्ष एव । न चैवं मत्प्रतिपक्षाभेद इति वाच्यं । माध्याभावव्यायवत्तापरामर्शकालीन पाध्यव्याप्यवत्तापरामस्यैव सत्प्रतिपक्षत्वात्, प्र. निबन्धकत्वमपि तस्य तथैव बाधज्ञानस्य तु प्रतिबन्धकावं केवल
- 120
Page #955
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वचिन्तामगै
करण्यं बाधा साध्याभावव्याप्यञ्च वहित्वादिकमेवेति चेत, न, यधे हि साध्याभावे ज्ञायमाने जाते वा यदि
ध्याभावव्याप्यसामानाधिकरण्यबुद्धिस्तदा व्यभिचार एव। अथ पक्षे साध्याभावबुद्धिं विनैव सा, तईि हेतु-साध्याभावव्याप्ययोरगृह्यमाणविशेषयोः सत्प्रतिपक्षत्वम् । अथ तुल्यबलेन सत्प्रतिपक्षाऽधिकबलेन बाध इति चेत्, न, गमकतापयिकरूपसाकल्यं हि बलं तच्च
माध्याभावव्याप्यवत्पचनिश्चयवेनेत्यभिमानः । 'साध्याभावव्याप्यञ्चेति, वहिरनुष्णः कृतकत्वादित्यादाविति शेषः। 'पक्षे हौति हेतुविभिष्टपचे होत्यर्थः । ‘माध्याभावव्याप्यमामानाधिकरण्यबुद्धिः' हेतुमति पचे साध्याभावव्याप्यवत्त्वबुद्धिः, 'व्यभिचार एवं' व्यभिचारज्ञानमेव, दोष इति शेषः। 'तहाँति, हेतौ माध्यव्याप्यवत्वज्ञाने बाधकाभावेनेति शेषः । ‘हेतु-साध्याभावव्याप्ययोरिति पचे माध्यच्याप्योतमत्व-साध्याभावव्याप्यवत्ताज्ञानयोरित्यर्थः, 'अटामाणेति 'विशेषोऽप्रामाण्यं, सत्त्वादिति शेषः। 'सत्प्रतिपक्षत्वं' मत्प्रतिपक्षस्यैव दोषत्वं । मतान्तरमाशङ्कते, 'अथेति, 'तुल्यबलेनेति तुल्यबलेन माध्यव्याप्यवत्तापरामर्शन समवहितः माध्याभावव्याप्यवत्तापरामर्शइत्यर्थः, 'अधिकबलेनेति अधिकबलेन साध्याभावव्याप्यवत्तापरामर्गन समवहितः माध्यव्याप्यवत्तापरामर्श इत्यर्थः, 'गमकतोपविकेति गमकतौयिक रूपमप्रामाण्यज्ञानाभावस्तयुक्तत्वमित्यर्थः, 'तच'
Page #956
--------------------------------------------------------------------------
________________
वाधपूर्वपक्षः।
१५५
हयाज्ञीतमिति कथं न सत्प्रतिपक्षत्वं गमकतावहिभूतञ्च न बलम् । अथ साध्याभावव्याप्यवृद्धेरनन्यथासिङ्घत्वं बलं, तदा ततः साधनवति पक्षे साध्याभावानुमितावनैकान्तिकत्वमेव पक्षे साध्याभावग्रहवदिति
तद्युतञ्च, 'ज्ञातमिति भावसाधनं दयोर्ज्ञानमेवेत्यर्थः। 'गमकताबहि तश्चेति अप्रामाण्यज्ञानाभावातिरिक्तश्चेत्यर्थः। न च यत्र माध्याभावव्याप्यवत्तापरामोऽप्रामाण्यज्ञानानास्कन्दितः . साध्यव्याप्यवतापरामर्शश्च तदास्कन्दितः तत्रैव बाधस्य दोषत्वमिति वाच्यं । तथा मति कारणाभावादेव माध्यानुमितेरसम्भवादलं बाधस्य दोषत्वेन अप्रामाण्यज्ञानानास्कन्दितपरामर्शस्यैवानुमितिजनकलादिति भावः। 'अनन्यथा सिद्धत्वमिति प्रामाण्यग्रहविशिष्टत्वमित्यर्थः, साध्यव्याप्यवत्तापरामर्शस्य तदभावविशिष्टत्वमेव दुर्बलत्वमिति शेषः । निश्चितप्रामाण्यकपरामर्शस्यैवानुमितिहेततया :प्रामाण्यग्रह-तदभावयोरेव बलाबलत्वादित्यभिमानः । अभिमानमभ्युपेत्यैव दूषयति, 'नदेति तदापौत्यर्थः, 'ततः' तत एव साध्यव्याप्यवत्तापरामर्शस्य प्रामाण्यज्ञानविरहादेवेति यावत्, ‘माधनवतौति माध्यव्याप्यसाधनवत्तया ज्ञात इत्यर्थः, 'साध्याभावानुमितौ' माध्याभावस्यैवानमित्युत्पादसम्भव इति यावत्, निश्चितप्रामाण्यकपरामर्शस्यैवानुमितिहेतुन्वाभ्युपगमादिति भावः । 'अनेकान्तिकत्वमेवेति निरुक्तबाधस्थाप्रतिबन्धकत्वमेव ।
प्राञ्चस्तु 'ततः' निश्चितप्रामाण्यकसाध्याभावव्याप्यवत्तापरामर्शतः;
Page #957
--------------------------------------------------------------------------
________________
तस्वचिन्तामणै
यदुवं तदप्यसिद्धं तस्य दोषत्वानभ्युपगमात् अन्यथा हेत्वाभासान्दरतापत्तिः।
अथ हेतुतः साध्यसिद्धिसम्भावनायां व्यभिचारासिद्धेः बाधेन हेतोरसाधकत्वे सिद्धे व्यभिचारसिद्धि
'माधनवति' माधमवत्तया ज्ञायमाने, ‘माध्याभावानुमितौ' माध्याभावस्थानुमितेरावश्यकले, 'अनेकान्तिकलमेव' व्यभिचारज्ञानमेव, तथाच व्यभिचारज्ञानसामग्रौतयैवास्थ प्रतिबन्धकता न तु बाधत्वेनेति भाव इत्याः ।
तदसत् व्यभिचारज्ञानस्थ नुमितिप्रतिबन्धकत्वमतेऽपि तत्मामय्याअनुमितिप्रतिबन्धकत्वानभ्युपगमात्, न हि प्रतिबन्धकसामग्री अवश्यं प्रतिबन्धिकेति नियमः ।
केचित्तु 'अनेकान्तिकत्वमेवेति, तथाच व्यभिचारज्ञानमेव कार्यसहवर्तितया प्रतिबन्धकमस्त किं निरुक्तबाधस्य पृथक् प्रतिबन्धकवेनेति भाव इत्याः ।
पूर्वमते दृष्टान्तामिद्धिमपि आह, 'पक्ष इति, 'तस्व' पचे माथाभावग्रहस्य, 'अन्यथा' पक्षे साध्याभावयहस्यापि प्रतिबन्धकत्वे, 'हेलाभासामरतेति साध्याभाववत्यक्षस्थातिरिक्त हेत्वाभामतापत्तेरित्यर्थः, माध्याभावव्याप्यवत्पक्षस्यैव तन्मते बाधतया बाधे तदनन्त - ‘वादिति भावः ।
'हेतुतः माध्यसिद्धिसम्भावनायामिति हेतोः साध्यसिद्धिखरूपयोग्यत्वसन्देहे सतीत्यर्थः, 'व्यभिचारासिद्धेरिति पाठः व्यभिचार
Page #958
--------------------------------------------------------------------------
________________
बाधपूर्वपक्ष। रित्युपजीव्यत्वाबाधः पृथक, अन्यथा हेवारसायकत्वे सिद्धे साध्यसिद्धिसम्भावनाविरहाद्यभिचारबुद्धिः तस्थाच सत्यां हेतोरसाधकत्वधीरित्यन्योन्याश्रयइति चेत् । न । साध्यसियुन्मुखहेतुज्ञानस्य प्रमितसाध्याभावसहचरितहेतुविषयत्वेन व्यभिचारज्ञानतयाऽदूषकत्वात् । तथापि व्यभिचारे साध्याभावप्रमा तन्त्र ज्ञानामम्भवादित्यर्थः, 'बाधेन' प्रमितसाध्याभाववत्यक्षात्मकबाधज्ञानेन, 'असाधकत्वे सिद्धे इति माध्यसिद्धिखरूपायोग्यत्वनिमयदत्यर्थः, 'उपजीव्यत्वात्' व्यभिचारज्ञानं प्रत्युपजीव्यत्वात्, 'पृथगिति, दोषइति शेषः, क्वचित् 'व्यभिचार सिद्धेरिति पाठः तत्र व्यभिचारमिद्धेबधेिनेति योजना व्यभिचारसिद्धेरसम्भवेनेत्यर्थः, 'हेतोरित्यस्य पूर्व बाधज्ञानादिति पूरणयं। ननु व्यभिचारज्ञानमेव हेतोः साध्यामाधकत्वनिश्चायकमस्वित्यत पाह, 'अन्यथेति व्यभिचारज्ञानस्यैव माध्यामाधकत्वनिश्चायक इत्यर्थः, 'सिद्धिसम्भावना' हेतोः माध्यमाधकत्वसम्भावना, 'तस्याञ्च' व्यभिचारबुद्धौ च । 'साध्यमियुन्मुखहेतु'ज्ञानस्येति माध्यमिद्धिस्वरूपयोग्यतया हेतुज्ञानस्येत्यर्थः, कचिदिति शेषः । अदूषकवादित्यकारप्रश्लेषः हेतौ माध्यमांधकत्वज्ञानस्य व्यभिचारज्ञानाप्रतिबन्धकत्वादित्यर्थः। न च पूर्ववर्तितयैव तज्ज्ञानं प्रतिबन्धकं न तु कार्यसहवर्तितयेति वाच्यं। पूर्व तत्सत्त्वेऽपि व्यभिचारज्ञानोदयान्मानाभावाञ्चेति भावः। शहते, 'तथापीति (९) तजज्ञानेऽयोति का।
Page #959
--------------------------------------------------------------------------
________________
६५
तत्वचिन्तामणौ
तां विना तदभावादिति सैव दोषइति चेत्, सत्यं, किन्तु साधाभावप्रमा व्यभिचारज्ञानत्वेन दृषिका कृप्तत्वात् न तु स्वतन्त्रा, अत एव पक्षे साध्याभावज्ञानत्वेन प्रतिबन्धकत्वं न तु साध्याभावसमानाधिकरणसाधनज्ञानत्वेनेति प्रत्युक्तं, तस्य लघुत्वेऽप्यस्कृप्तत्वात् । अथ प्रत्यक्षादी प्रमामाचं प्रति स्वातन्त्र्येण बाधादोषत्वेन कृप्तइत्यनुमितावपि स एव दोषइति चेत्, न, तर्हि हेत्वाभासः अनुमित्यसाधारणदोषस्य त
व्यभिचारे माध्याभाववत्पत्तिहेतरिति विशिष्टवैशियबोधात्मकव्यभिचारनिश्चये, ‘माध्याभावप्रमेति पचे माध्याभावप्रकारकप्रमेत्यर्थः, 'तां विनेति, विशिष्टवैशिध्यबोधं प्रति विशेषणतावच्छेदकप्रकारकनिश्चयस्य हेतुत्वादिति भावः । 'साध्याभावप्रमेति साध्याभाववत्यक्षवृत्तिईतरिति व्यभिचारनिश्चयरूपा फलौभता साध्याभावप्रमैवेत्यर्थः, 'न तु स्वतन्त्रेति न तु कारणीभूता माध्याभावप्रमेवेत्यर्थः, 'माध्याभावज्ञानत्वेन' साध्याभावप्रकारकनिश्चयत्वेनेत्यर्थः, 'प्रतिबन्धकत्वमिति फलीभूतव्यभिचारनिश्चयस्थ प्रतिबन्धकत्वमित्यर्थः, 'प्रमामाचं प्रतौति पक्षविशेष्यक माध्यविशिष्टानुभवं प्रतीत्यर्थः, 'खातन्त्र्येण' साध्याभाववत्यक्षनिश्चयत्वेन, 'बाधः' माध्याभाववत्यक्षनिश्चयः, 'सएव दोषः' म दोष एव, 'न तौति तहि न हेत्वाभास इति योजना, 'अनुमित्यसाधारणेति अनुमिति-तत्कारणयोरसाधारणेत्यर्थः। नन्वनुमितिदोषत्वमेव हेत्वाभासत्वप्रयोजकं न तु तदसाधारणदोषत्व
Page #960
--------------------------------------------------------------------------
________________
माधपूर्वपक्षः
वात् मनोयोगाभाववत् स्वरूपसत रन्न प्रतिबन्धक त्वात् हेतुत्वाभिमतात्तित्वेनासाधकतालिङ्गत्वाभावाञ्च) । बाधितपक्षकत्वं लिङ्गमिति चेत्, न, अन्यच तथा दूषकत्वाकल्पनात् ॥
इति श्रीमहङ्गेशपाध्यायविरचिते तत्त्वचिन्तामणौ अनुमानाख्यद्वितीयखण्डे बाधपूर्वपक्षः ॥०॥
मित्यरुचेर्दोषान्तरमाह, 'मनोयोगाभाववदिति । ननु साध्याभाववत्पक्षनिश्चयो न बाधः किन्तु तद्विषयौभूतः साध्याभाववत्पक्षएव बाधः स च न स्वरूपसत्प्रतिबन्धक इत्यतो दोषान्तरमाह, 'हेतुत्वाभिमतेति क्वचिद्धेतत्वाभिमतवृत्तित्वसम्भवेऽपि सर्वत्र तदस
भवेनेत्यर्थः, 'अमाधकतेति, असाधकतासाधकस्यैव च हेत्वाभामत्वा. । दिति भावः । 'बाधितेति येन केनापि सम्बन्धेन माध्याभाववत्पक्षो लिङ्गमित्यर्थः, 'अन्यत्रेति प्रत्यक्षादावित्यर्थः, 'तथा दूषकत्वेति पक्षविशेष्यक-माध्यविशिष्टानुभवसामान्यं प्रति माध्याभाववत्पचनिश्चयत्वेन प्रतिबन्धकत्वाकल्पनादित्यर्थः ।
इति श्रीमथुरानाथतर्कवागौश-विरचिते तत्त्वचिन्तामणिरहस्ये अनुमानाख्य-द्वितीयखण्डरहस्ये बाधपूर्वपक्षरहस्यम् ॥
(१) लिवाभासाञ्चेति ग |
Page #961
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ . ] अथ बासिद्धान्तः।
- - उच्यते। पक्षे साध्याभावनिश्चयः साध्याभावज्ञानप्रमात्वनिश्चयात् ज्ञानमायादर्थनिश्चये प्रामाण्यग्रहवै
अथ बाधसिद्धान्तरहस्यं । यथोकत्रयं न बाधः किन्तु पचविशेष्यक-साध्याभावप्रकारकज्ञाननिष्ठं साध्याभाववद्विशेष्यकले मति माध्याभावप्रकारकत्वरूपं प्रमात्वमेव बाधः, तथाच पक्षे माध्यभावज्ञानं प्रमेत्याकारकं ज्ञानमनुमितिप्रतिबन्धकं । न च तज्ज्ञानस्थानुमितिप्रतिबन्धकवे किमानमिति वाच्य। माध्याभावांशे निश्चयाकार-साध्याभाववत्पचवृत्तित्वरूपव्यभिचार निश्याधौनमनुमित्यनुत्पादं प्रति पचविशेष्यक-साध्याभावप्रकारकनिश्चयनिष्टप्रमात्वज्ञानस्योपजीव्यतया तनिष्ठप्रमात्वज्ञानस्थापि पृथक्प्रतिबन्धकत्वादित्यभिप्रेत्य समाधत्ते. 'पक्ष इति, 'प्रमावनिश्चयादिति निश्चयत्वेन स्वप्रयोज्ये वस्तुनि प्रयोजक इति शेषः, निश्चयत्वेन तद्विशेष्यक-तत्प्रकारकनिश्चयप्रयोज्यस्य च तदिशेव्यक-तमकारकनिषयनिष्ठप्रमावग्रहमापेक्षवनियमादिति भावः । ननु तादृशनियम एवामिद्ध इत्यत पार, 'ज्ञानमाचादिति तदिव्यक-तत्यकारकनिषयमात्रादित्यर्थः,(९) मात्रपदेन प्रमावग्रहव्यवछेदः, 'अर्थनियये' निश्चयत्वेन तदिशेय्यक-तत्प्रकारकनिश्चयप्रयो
(१) तविशेष्यक-तत्प्रकारकचानमावादित्यर्थ इति का ।
Page #962
--------------------------------------------------------------------------
________________
बासिद्धान्तः।
यर्थं भ्रमत्वेन ज्ञातादर्थनिश्चयप्रसङ्गश्च तथाचापजीयवेनाधिकबलत्वेन वा पक्षे साध्याभावज्ञानस्व प्रमात्व. निश्चये सव्यभिचारो नान्यथेत्युभयथापि साध्याभावनिश्चयाधौनव्यभिचारज्ञानात् पूर्व ज्ञातं साध्याभावव्यस्य निर्वाहे, 'प्रामाण्ययहवेयर्थमिति निष्कम्पप्रवृत्त्यादिजनके इष्टसाधनत्वादिनिश्चये प्रामाण्यग्रहवेयर्थप्रसङ्ग इत्यर्थः, 'धमत्वेन ज्ञातादिति, तविशेष्यक-तत्प्रकारकनिश्चयादिति शेषः, 'अर्थनिश्चयप्रसङ्गखेति निश्चयत्वेन तद्विशेष्यक-तत्प्रकारकनिश्चयप्रयोज्यस्य उत्पत्तिप्रसङ्गश्चेत्यर्थः, 'तथाचेति तादृशनियमे चेत्यर्थः, 'उपजीव्यत्वेन' प्रतिबन्धकतावच्छेदकत्वेन, 'अधिकबलत्वेन वा' अधिकबलस्वरूपत्वेन वा, अप्रमात्वग्रहनिवर्तकत्वेन . वेति यावत्, अपेक्षणीय इति शेषः, 'भव्यभिचार इति व्यभिचारेण मह वर्त्तते इति व्युत्पत्त्या माध्याभावां निश्चयाकारो यथोक्तविषयको ग्रह इत्यर्थः, अनुमित्यनुत्पादप्रयोजक इतिशेषः, कचित् यभिचार इति पाठः तचाप्ययमेवार्थः, 'उभयथापौति निश्चितप्रामान्यकमाध्याभावनिश्चयाकारव्यभिचारनिश्चयत्वेन प्रतिबन्धकत्वपक्षेऽग्टहीताप्रामाण्यकसाध्याभावनिखयाकारव्यभिचारनिश्चयत्वेन प्रतिबन्धकत्वपक्षेऽपौत्यर्थः, 'साध्याभावनिखयाधौनव्यभिचारचानादिति व्यभिचारज्ञानस्य माध्याभावनिथयाधीनत्वादिति योजना, व्यभिचारज्ञानपदञ्च माध्याभावां 'निशयाकारव्यभिचारज्ञाननिष्ठानुमित्यनुत्पादप्रयोजकत्वपर, माध्याभावनिश्चयपदन्नु माध्याभावोनिश्चीयते येनेति व्युत्पत्त्या पक्षविशे
_121,
Page #963
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्वचिन्तामणे
ज्ञानप्रमात्वमेव दोषउपजीव्यत्वात् । यदि च पश्ये साध्याभावज्ञानस्य प्रमात्वनिश्चयो नानुमितिविगधौ, सदा व्याप्ति-पक्षधर्मतया हेतुज्ञानं विशेषदर्शनत्वेन यक्षे साध्याभावज्ञानं परिभूय साध्यं साधयेदेव पर्वते श्यक-साध्याभावप्रकारकज्ञाननिष्ठप्रमात्वग्रहपरं, तथाच साध्याभावांश निश्चयाकारसाध्याभाववत्पत्तित्वरूपव्यभिचारज्ञाननिष्ठानुमित्यनुत्पादप्रयोजकत्वस्य पक्षविशेष्यक-माध्याभावप्रकारकज्ञाननिष्ठप्रमावग्रहाधीनत्वादित्यर्थः, 'पूर्वं ज्ञातमिति तादृशव्यभिचारज्ञानाधौनानुमित्यनुत्पादकालात् पूचे ज्ञातमित्यर्थः, 'दोषः' बाधः, 'उपजीव्यखादिति तादृशव्यभिचारनिश्चयाधौनानुमित्यनुत्पादं प्रत्युपजीव्यत्वेन तज्ज्ञानस्थानुमितिप्रतिबन्धकत्वादित्यर्थः। ननपजीव्यत्वेऽपि तज्ज्ञानस्य साक्षादनुमितिप्रतिबन्धकवे मानाभावः, न हि यज्ज्ञानमुपजीव्यं तज्ज्ञानमेव साक्षात्प्रतिबन्धकमिति नियम इत्यत आह, 'यदि चेति, 'विशेषदर्शनलेनेति साथसाधकदर्शनत्वेनेत्यर्थः, 'पक्षे माध्याभावज्ञानं परिभ्येति पक्षे माध्याभावज्ञानं यस्मादिति व्युत्पत्त्या पक्षे माध्याभावज्ञानपदं पूर्ववत् तादृशज्ञाननिष्ठप्रमात्वग्रहपरं, तं परिभ्य तत्सत्त्वेऽपौत्यर्थः, 'धूम इवेति माधकत्वांशे दृष्टान्तः न तु परिभवाशेऽपि अमिद्धेः । ननु प्रमात्वग्रहो यदि माध्याभावांशे निर्द्धर्मिताबच्छेदकस्तदा तत्मत्त्वेऽपि परामर्थात् माध्यमिद्धिरिष्टैव, यदिच पक्षतावच्छेदकं तद्धर्मितावच्छेदकं तदा पक्षतावच्छेदकावच्छिन्नविशेष्यकसाध्याभावनिश्चयत्वेनैव प्रतिबन्धकत्वं लाघवादन्यत्र कृप्तत्वाच्चेत्यभिप्रेत्य
Page #964
--------------------------------------------------------------------------
________________
बाधसिधान्तः ।
धूमइव वहिं। न च साध्याभावबुद्धिरेवाराधमाणविशेषा सत्यतिपक्षवत् प्रतिबन्धिकेति बाच्छं। रजते नेदं रजतमिति ज्ञानेऽपि विशेषदर्शनेन रजतत्वस्य शो पौतत्वज्ञाने शुक्लत्वस्य चानुमानात् वादिवाक्येन पक्षे साध्याभावज्ञानादनुमानाच्छेदप्रसङ्गाच्च ।। अथ पक्षे साध्याभावप्रमैव साध्याभाव हेतुविषया व्यभि
शकते, 'न चेति, साध्याभावबुद्धिः' पक्षतावच्छेदकावच्छिन्नविशेष्यकमाध्याभावनिश्चयः, 'अग्टह्यमाणविशेषा' अग्टहौताप्रामाण्यका, 'विशेषदर्शनेन' रजतत्वव्याप्यवत्तानिश्चयेन, 'पीतत्वज्ञाने' शुक्रत्वाभावज्ञाने, एक्लत्वव्याप्यवत्तानिश्चयेनेति शेषः, 'वादिवाक्येन' वादिप्रतिज्ञावाक्येन । नन्विदमयुक्तं तत्र रजतत्वाभावादिज्ञाने भ्रमत्वादियहानन्तरमेव रजतवाद्यनुमित्यभ्युपगमात्। न च तथापि प्रागुक्ररीत्या हेतौ पक्षतावच्छेदकावच्छिन्नत्तित्वविषयकत्वस्यापि तत्रावश्यकतया श्रावश्यकव्यभिचारनिश्चयप्रतिबन्धकत्वेनान्यथासिद्धिोरेति वाच्यं । प्रभावग्रहे. माध्याभावांगे पक्षतावच्छेदकस्य धर्मितावच्छेदकले प्रमावग्रहप्रतिबन्धकतायामंपि तद्दोषतादवस्थात् इति चेत्, एतदस्वरमेनैव ‘पक्षधर्माताबलेनेत्यादिना स्वमतस्य वक्ष्यमाणत्वात्रामङ्गतिः।' 'माध्याभाव-हेतविषयेति पक्षतावच्छेदकावच्छिन्ने माध्याभाववत्वविषयिका मतौ हेतौ पक्षतावच्छेदकावच्छिन्नत्तित्वविषयिकेत्यर्थः,
(१) अनुमानमात्रोच्छेदप्रसङ्गाश्चेति ग |
Page #965
--------------------------------------------------------------------------
________________
तवचिन्तामो
चारजानत्वेन दोषो न तु तस्याः प्रमात्वज्ञानमपौति घेत, तई प्रमायाः अप्रमात्वज्ञाने भ्रान्तानुमितिन स्यात् न स्याच पक्षे साध्याभावज्ञानप्रमात्वसमादनुमितिप्रतिबन्धः। ननुपजीव्यत्वेऽप्यत्र साध्याभावप्रमेति जानं न स्वतोदूषकं कृप्तत्वात् पक्षे साध्याभावनिश्चयं कुर्चत् व्यभिचारज्ञानहारेति चेत् । न । अब साध्याभावप्रमेति ज्ञानानियमतः साध्यज्ञानानुदयात् 'यभिचारज्ञानत्वेन' माध्याभावांशे प्रमात्मकव्यभिचारज्ञानत्वेन,(१) 'दोषः' अनुमितिप्रतिबन्धकः, रजते नेदं रजतमित्यादिज्ञानञ्च न वस्तुगत्या माध्याभावपमेति भावः । 'नन्विति, 'अत्र' पछे, एवमयेऽपि, 'न खतो दूषकमिति न साक्षात्प्रतिबन्धकमित्यर्थः, तथाच प्रमात्वं कुतो हेत्वाभास इति भावः । 'नियमत इति व्यभिचारशानं विनापौत्यर्थः, 'तस्यैवेति, ‘एवकारोऽप्यर्थे, 'प्रतिबन्धकत्वात्' माक्षाप्रतिबन्धकत्वात्, 'शब्दादाविति शब्दजन्यबोध इत्यर्थः, 'तथा दर्शनादिति एकपदार्थेऽपरपदार्थसंसर्गाभावप्रमेति ज्ञानस्थायोग्यताज्ञानत्वेन प्रतिबन्धकत्वदर्शनादित्यर्थः । ननु तथापि हेत्वभिमतावृत्तित्वेन पक्षे माध्यप्रत्ययाजनकत्वरूपासाधकतालिङ्गत्वाभावात् कुतो हेवाभासत्वमित्यत पार, 'माध्याभावप्रमेति माध्याभावप्रमावस्य (९) किन्तु कृप्तत्वादिति ग•। (२) प्रमात्मकनिश्चयाकारयभिचारज्ञानत्वेनेति कः ।
মালম্বিয়াঙ্কাশিক্ষাবানলন নি ।
Page #966
--------------------------------------------------------------------------
________________
बाधतिहासः।
तस्यैव प्रतिबन्धकत्वात् शब्दादा तया दर्शनात् , साध्याभावप्रमाविषयतित्वस्य हेतुतित्वादसाधकत्वेन साध्याभावप्रमाया हेत्वाभासत्वं साधारण्यपि जायमानं सत् यदनुमिति प्रतिबधाति तस्यैव हेत्वाभासत्वं। न च साध्याभावप्रमात्रेति निश्चयदशायां पधे साध्याभाव-हेत्वो नाद्यभिचारइति वाच्यं ।
खाश्रयविभेयीभूतपक्षवृत्तित्वसम्बन्धेन हेतवृत्तिवादित्यर्थः, 'साधकत्वेनेति पाठः हेतोरमाधकत्वमाधकत्वेनेत्यर्थः, 'असाधनत्वेनेति पाठेऽप्ययमर्थः, 'असाधारणत्वेनेति पाठस्वप्रामाणिकः,() 'साध्याभावप्रमाया इति भावप्रधानोनिर्देशः, 'इवाभामलमिति, अनेनैव परम्परासम्बन्धेन तस्थासाधकतासाधकत्वात् । न च स्वरूपामिद्धिसौर्ण कथमनेन सम्बन्धेनासाधकतामाधकत्वं तस्येति वाच्यं । येन केनचित् सम्बन्धम पक्षवृत्तित्वस्यैव तत्र घटकत्वात् इति भावः ।
ननु तथापि शाब्दबोधेऽप्येतज्ज्ञानस्य प्रतिबन्धकतया न हेला'भासत्वसम्भवः अनुमित्यसाधारणदोषस्यैव हेत्वाभासत्वादित्यत आह, 'साधारण्येऽपौति, माधारण्येनामाधारण्येन वा यज्ञानमनुमितिप्रतिबन्धकं तस्यैव हेत्वाभासत्वमित्यर्थः। व्यभिचारज्ञानेनान्यथासिद्धि निराकत्तुं शकते,. 'न चेति, 'त्र' पक्षतावच्छेदकावच्छिन्ने पक्षे,
(१) पाठस्तु प्रामादिक इति ख. ।
Page #967
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्वचिन्तामणे
प्रमानज्ञानस्य साध्याभावनिश्चयहेतुत्वेन तद्दशायां तदभावात्। पक्षधर्माताबलेन प्रसिद्धं बाधान सिध्य
'माध्याभाव-हेत्वोर्ज्ञानादिति(१) पक्षतावच्छेदकावच्छिन्ने माध्याभाववत्त्वस्य हेतौ च पक्षतावच्छेदकावच्छिन्नवृत्तित्वस्य ज्ञानादित्यर्थः, 'व्यभिचारः' व्यभिचारग्रहः, हेतौ यद्यविच्छिन्नत्तित्वमवगाहते तविच्छिन्ने माध्याभाववत्त्वविषयकस्यापि समूहालम्बनज्ञानस्य व्यभिचारज्ञानत्वादिति भावः। 'प्रमात्वज्ञानस्य' यथोकामावप्रकारकज्ञानस्य, हेतुतावच्छेदकप्रकारकज्ञानविधया इति शेषः। 'माध्याभावनिश्चयहेतुत्वेनेति साध्याभावप्रमाविशेष्यत्वेन हेतुना पक्षतावच्छेदकावच्छिन्ने अनुमित्यात्मकसाध्याभावनिश्चयहेतुत्वेनेत्यर्थः, 'तहशायां' प्रमात्वज्ञानदशायां, 'तदभावादिति पक्षतावच्छेदकावच्छिन्ने माध्याभावनिश्चयानावश्यकत्वादित्यर्थः, प्रमात्वस्य माध्याभाववत्त्वघटितत्वेऽपि तदंशे निर्द्धर्मितावच्छेदकत्वात्, यद्धर्मावच्छिन्नवृत्तित्वं हेतौ विषयौक्रियते तद्धोपलचिते निर्द्धर्मितावच्छेदककमाध्याभाववत्वज्ञानन्तु न व्यभिचारज्ञानमिति भावः । पूर्वानास्वरसेन स्वमतमाह, 'पक्षधर्मताबलेनेत्यादिना ‘वयभित्यन्तेन, 'पक्षधर्मताबलेन' वहिव्याप्यो धूमः पर्वतत्तिरिति सामान्यतः परामर्थन, 'प्रसिद्ध दृष्टान्तेन ज्ञातं महानमौयवयादिकं, 'बाधात्' बाधादेव पन्नावच्छेदकावच्छिन्ने तदभावनिमयादेवेति यावत्, ‘इति बाधः पृधगिति
(१) साध्याभाव-हेतुज्ञानाद्वितीति क., ग०, साध्याभाव-हेतुज्ञानादिति
कस्यचिन्मूलपुस्तकस्य पाठः ।
Page #968
--------------------------------------------------------------------------
________________
बाधसिद्धान्तः।
तौति बाधः पृथक्। प्रसिद्धव भाववति पक्षे व्यभिचारान्न तत्सिहिरिति चेत्, तयप्रसिद्धव भाववति सपक्षे व्यभिचारात तमपि न साधयेत् तदज्ञानातत्साधनेऽनुमितिरप्रमा स्यात् । अथ पक्षवृत्तेरन्यएव धूमादिः सपक्षे, तर्हि गोत्व-पृथिवीत्व-द्रव्यवादेअतः पक्षविशेष्यक-तदभावनिश्चयत्वेनापि तदनुमितौ प्रतिबन्धकत्वमावश्यकमित्यर्थः, तथाच तदभाववत्पक्ष एव पक्षविशेष्यक-तदनुमितौ बाधइति भावः । 'प्रसिद्धवझ्यभाववतीति प्रसिद्धवयभाववत्वेन विषयोकृतस्य पक्षतावच्छेदकावच्छिन्नस्य हेतौ वृत्तिमत्त्वज्ञानादित्यर्थः, 'न तसिद्धिरिति व्यभिचारज्ञानादेव न तंत्मिद्धिरित्यर्थः । गढाभिसन्धिमाह, 'तौति, 'अप्रसिद्धवयभाववतीति दृष्टान्ते अज्ञातस्य पक्षीयसाध्यस्याभाववतीत्यर्थः, 'यभिचारात्' हेतौ वृत्तित्वज्ञानात् । ननु यदैवाप्रसिद्धवयभाववत्त्वज्ञानं न सपक्षे तदैव तत्साधयेदित्यत
आह, तदज्ञानादिति, तत्साधने' तत्साधनसम्भवेऽपि, 'अनुमितिरप्रमा स्थादिति व्यभिचारिहेतुजन्यत्वेनानुमितिरप्रमा स्थादित्यर्थः, एतचापाततः व्यभिचारिलिजन्यत्वेऽपि विषयबाधाभावेनानुमितेरप्रमावासम्भवात्() अन्यथा घटो द्रव्यं सत्त्वादित्यादावण्यनुमितेरप्रमात्वप्रसङ्गादिति ध्येयं । 'अति, तथाच पक्षवृत्तिहेतौ पचौयसाध्यव्यभिचारज्ञानाभावात् तद्धेतकपक्षीयमाध्यानुमितौ न किमपि • बाधकमिति भावः । 'तहि तथापि, प्रसिद्धसास्नाद्येति पक्षवृत्तिमा(१) चप्रमावाभावसम्भवादिति का।
Page #969
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्वचिन्तामणौ
रप्रसिद्धसानाद्यनुमानं न स्यात् सानादिप्रत्येकव्यभिचारात्। यदि च साध्यतावच्छेदकसानात्वादिसामान्यावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभाववति न गोत्वादिकमिति न व्यभिचारः, तर्हि धूमेऽप्येवंव्यभिचाराभावात् साध्यतावच्छेदकेन प्रकारेणाप्रसिद्धमिव प्रसिद्धमपि साध्यं
खादेरित्यर्थः, 'आदिपदाइन्धवत्त्व-गुणवत्त्वादिपरिग्रहः, 'मास्नादौति गोत्वादिषु मास्नादौनां प्रत्येक व्यभिचारज्ञानादित्यर्थः । अभिसन्धिमुद्दाटयति, 'यदि चेति, 'साध्यतावच्छेदकेति ग्टहौतव्यापकतावच्छेदकेत्यर्थः, 'न गोत्वादिकमिति न गोत्वादिज्ञानं, 'न व्यभिचार इति न प्रतिबन्धकौभूतो व्यभिचारयह इत्यथः, तद्धर्मावच्छिन्त्रव्यापकताविषयकपरामर्शहेतु कतद्धर्मावच्छिवविधेयकानुमितिं प्रति तद्धर्मावच्छिसाभाववहृत्तिवरूपव्यभिचारज्ञानं प्रतिबन्धकमित्येव प्राचामभ्युपगमादिति भावः । ‘एवं व्यभिचाराभावादिति ग्टहौतव्यापकतावच्छेदकवहिवावच्छिन्त्रप्रतियोगिताकाभाषवहृत्तित्वरूपव्यभिचारज्ञानाभावादित्यर्थः, माध्यतावच्छेदकेनेति, तथाचेत्यादिः, प्रसिद्धमिव' अप्रसिद्धं वक्रि-साखादिकमिव, ‘माध्यं वहि-मास्त्रादिकं, 'यदि बाधो न दोषइति यदि पक्षतावच्छेदकावच्छिन्नविशेष्यक-तदभावनिश्चयत्वेन तदसुमितौ न प्रतिबन्धकत्वमित्यर्थः। नन्विंदमयुक्तं प्रसिद्धवर्बाधज्ञानं वहिवरूपेण महानसौयवहिवरूपेण वा श्राद्येऽप्रसिद्धवहेरपि माध्यतावच्छेदकवहिवरूपेण अमिद्धिप्रसङ्गः, अन्त्ये तत्मत्त्वे प्रसिद्धवले. वहिवरूपेणामुमितिरापाद्यते महानसौयवहित्यादिना वा प्रथमे
Page #970
--------------------------------------------------------------------------
________________
बाधसिद्धान्तः।
इष्टापत्तिः भिन्नप्रकारकत्वेन तादृशबाधज्ञानस्य तत्र प्रतिबन्धकवानभ्युपगमात् वायौ पार्थिवादिसकलविशेषरूपाभावहेऽपि वायूरूपवान वेति संशयस्य वायुरूपवानिति. निश्चयस्य चोत्पादान द्वितीयकल्पस्य च तद्रूपेण परामर्शविरहादेवासम्भवः तद्रूपेण परामर्यसत्त्वे च व्यभिचारज्ञानेनान्यथासिद्धिस्तदवस्थेति। मैवं ) इतरबाधादिसहकारात्() व्यापकतानवच्छेदकेनापि रूपेणानुमितौ साध्य प्रकारोभवति यथा श्रयं जीवन-मरणान्यतरप्रतियोगी प्राणिवादित्यत्र जीवनप्रतियोगित्वत्वेन जीवनप्रतियोगित्वं, इत्यञ्च वहिव्याप्यो धूमः पर्वतवृत्तिरिति सामान्यतः परामर्णी महानमीयवझौतरवयभाववान् पर्वत इतौतरबाधज्ञानं महानसीयवहिकल्पने लाघवमिति लाघवज्ञानं वा वर्त्तते अथ च महानसीयवयभाववान् पर्वत इति महानसौयवहेरपि बाधज्ञानं वर्तते तत्र महानसौयवहिवरूपेणानुमितिवारणय बाधज्ञानस्य पृथक्प्रतिबन्धकलावश्यकत्वात् । न चैवं 'माध्यतावच्छेदकेन प्रकारेणेति मूसिङ्गातिरिति वाच्यं । तस्याप्रसिद्धमिवेत्यत्रैवान्वयात् प्रसिद्धमपि साध्यमित्यस्य च महामसौयवहित्वादिनेति शेषः, इति न काप्यमुपपत्तिः ।।
भव्यास्तु अयं वृक्षः कपिसंयोगौ एतत्त्वादित्याद्यव्याप्यवृत्तिमाध्यके यदा केवलविशेषणताविशेषसम्बन्धेन पक्षे माध्यतावच्छेदकसमवायसम्बन्धावच्छिन्नमाध्याभाववत्त्वज्ञानमस्ति श्रव्याप्यवृत्तित्वज्ञामच्च माध्याभावे नास्ति तदा तत्रानुमितिवारणाय पचविशेष्यक-.
(१) इतरवाधादिज्ञानसहकारादिति ग.
122
Page #971
--------------------------------------------------------------------------
________________
वृत्त्वचिन्तामणी
धूम-गोत्वादिकं साधयेत् यदि बाधा न दोष इति वयम् । -साध्याभाववन्माचसहचारो न व्यभिचारः
तदभावनिश्चयत्वेन(१) पृथक्प्रतिबन्धकलमावश्यकं तस्य हेतौ पक्षतावच्छेदकावच्छिन्नत्तित्वविषयकत्वेऽपि व्यभिचारज्ञानत्वाभावात् अनवच्छिन्नाधिकरणतासम्बन्धेन साध्याभाववत्त्वस्य व्यभिचारघटकत्वात् बाधज्ञानस्य तु केवलविशेषणताविशेषसम्बन्धेन माध्याभावावगाहित्वेऽपि श्रव्याप्यत्तित्वग्रहविरहदशायां प्रतिबन्धकत्वात्। न चैवं केवलविशेषणताविशेषसम्बन्धेन माध्याभाववतः पक्षस्थापि बाधतया अन्यायवृत्तिमाध्यक-व्याप्य-पक्षधर्महेतोरपि बाधितत्वापत्तिरिति वायं। हेत्वाभासविभाजकतावच्छेदकबाधितत्वस्य तत्रेष्टत्वात् बाधितव्यवहारनियामके चानवच्छिन्नाधिकरणतासम्बन्धेन साध्याभाववत्त्वस्य घटकत्वात् “बाधितोऽयमपक्षधर्मा हेतुरनैकान्तिको वा” इति प्रवादस्य व्याप्यवृत्तिसाध्यकबाधररत्वात् अन्यथा यादृशविशिष्टविषयित्वमित्यादिप्रागुन हेत्वाभासमामान्यलक्षणस्य केवलविशेषणताविशेषसम्बन्धेन कपिसंयोगाद्यभाववति वृक्षादावतिव्याप्यापत्तेः तचाप्रामाण्यज्ञानामास्कन्दितत्ववदव्याप्यत्तित्वग्रहानास्कन्दितत्वस्यापि निश्चयविशेषणत्यावश्यकत्वादिति तचैव स्फुटमिति प्राहुः ।
ज्ञानामाङ्कयं व्यवस्थाप्य विषयामा कर्य व्यवस्थापयति, 'मायाभाववन्माचेति, सहचारः' वृत्तित्वं, 'साध्याभावमात्रेति पाठे 'सहचारः'
(९) साध्याभावनिश्चयत्वेनेति ख०, ग ।
Page #972
--------------------------------------------------------------------------
________________
बाधसिद्धान्तः!
११
साध्यप्रागभाव-ध्वंसवदृत्तित्वेन व्यभिचारितया पृथिवौत्वादिनां गंन्धादेः द्रव्यत्वादिना गुणस्वानुमानभङ्गप्रसङ्गात्, किन्तु साध्यात्यन्ताभाववद्गामित्वम् एवञ्च स्वप्रागभाव-ध्वंसावच्छिन्नतदाश्रये तत्प्रतियोगिसाधने पक्षे व्यभिचारोनेति बाधादूषणम्। अथासामानाधिकरण्यं, 'अनुमानभङ्गप्रसङ्गादिति अनुमाने व्यभिचार्यहेतुकत्वभङ्गप्रसङ्गादित्यर्थः, तथाच गन्धवान् पृथिवौत्वात् गुणवान्द्रव्यत्वादित्यादावतिव्याप्तिप्रसङ्गादिति फलितं। ‘माध्यात्यन्ताभावेति माध्यतावच्छेदकसम्बन्धावच्छिन्न-माध्यतावच्छेदकावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभाववद्वामित्वमित्यर्थः, एतादृशाभावविशेषलाभायैवात्यन्ताभावपदं अन्यथा अत्यन्ताभावपदोपादानेऽपि वैशिष्ट्य-व्यासज्यवृत्तिधर्मावच्छिनप्रतियोगिताकाभावमादायैव गन्धवान् पृथिवौत्वादित्यादावतिव्याप्तितादवस्थ्यात्। 'स्वप्रागभावेति स्वप्रागभाव स्वध्वंसकालविशिष्टेत्यर्थः, 'तदाश्रय इति, ‘पक्ष इत्यग्रेतनमत्र सम्बध्यते, तन्मात्रवृत्तिना हेतुनेति शेषः, 'तत्प्रतियोगीति कर्मधारयः तद्रूपप्रतियोगिसाधनइत्यर्थः, 'व्यभिचारो नेतिः ध्वंस-प्रागभावाधिकरणे देशे सामान्यात्यन्ताभावाभावेन यथोक्रव्यभिचारस्य तवासम्भवादिति भावः । 'बायो दूषणमिति प्रागभावादिरूपमाध्याभावत्यक्षात्मको बाधः स एव दोष इत्यर्थः, तथाचैतगन्धप्रागभावकालौनेतगन्धध्वंसकालोनो वायं 'घट एतइन्धवान् एतद्दटवादित्यादावेव वाधस्य व्यभिचारासदौर्णीदाहरणमिति भावः। प्रागभाव-ध्वंमकास्त्रस्य पक्षतावच्छेदकत्वाभिधान
Page #973
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्वचिन्तामणौ
प्रतियोगिसाधने न सिद्धसाधनं किन्तु बाघ एव, अन्यथा भावात्यन्ताभावयेारप्यव्याप्यवत्तित्वभङ्गः एकवृत्तित्वात् श्रवच्छेदकभेदेन वृत्तिरिहापि तुल्या तत्र
६७
मत्तानिश्चयस्य तादृशप्रतियोग्यनुमितावप्रतिबन्धकत्वादिति भावः । एतच्च देशः कालो वा यत्र पचतावच्छेदकस्तत्र पचतावच्छेदका - वच्छिन्नपचवृत्तित्वं साध्ये प्रकारीभूय भासते श्रवच्छिन्नत्वञ्च स्वरूपसम्बन्धविशेष इति जरत्तरमतानुसारेणाभिहितं । 'किन्तु बाध - एवेति किन्तु प्रागभावादिरूपसाध्याभाववत्त्वेन पचज्ञानमेवेत्यर्थः, तादृशानुमितिप्रतिबन्धक दूति शेषः । तथाच प्रागभावादिरूप - ध्याभाववत्पचोsपि बाध दूति भावः ।
ननु साध्याधिकरणदेशेऽपि साध्यप्रागभावादिसत्त्वे प्रागभावादेरव्याप्यवृत्तित्वभङ्गप्रसङ्गः प्रतियोग्यधिकरणदेशावृत्तित्वस्याव्याप्यवृत्तित्वरूपत्वात् किन्तु प्रतियोग्युत्पत्तिप्राक्काला दिवृत्तिरेव प्रागभावादि: श्रतएव प्रागभाव इति व्यावहार दूत्यत श्राह 'श्रन्यथेति प्रतियोग्यधिकरणदेशावृत्तित्वस्याव्याप्यवृत्तित्वरूपत्वे इत्यर्थः, 'भावात्यन्ताभावयोरिति पाठः, भावस्य संयोगादेस्तदत्यन्ताभावस्य चेत्यर्थः, 'अन्योन्यात्यन्ताभावयोरिति पाठस्तु प्रामादिकः, 'एकवृत्तित्वात्' प्रतियोगिना सममेकदेशवृत्तित्वात् । इदमुपलचणं समवायादिसम्बन्धा'वच्छिन्नगोत्वाद्यभावस्याव्याप्यवृत्तित्वप्रसङ्ग इत्यपि बोध्यं तस्मात्प्रतियोग्यनवच्छेदकावच्छेदेन प्रतियोग्यधिकरणवृत्तित्वमेवाव्याप्यवृत्तित्वं तचे हाप्यस्तीत्यभिप्रेत्याह, 'श्रवच्छेदकभेदेनेति 'तत्र' संयोगादि
Page #974
--------------------------------------------------------------------------
________________
बाधसिद्धान्तः ।
९७५ देशभेदोऽवच्छेदकोऽत्र तु समयभेदइति। असिझेरपि
तदत्यन्ताभावेषु, 'अत्र त्' ध्वंस-प्रागभावयोस्तु, एतच्चापाततः अव्यायवृत्तित्वादिग्रहाभावविशिष्टस्य पचविशेष्यक-माध्यतावच्छेदकसम्बन्धावच्छिन्न-माध्यतावच्छेदकावच्छिन्नप्रतियोगिताकसाध्याभाववत्त्वज्ञानस्यैवानुमितिप्रतिबन्धकतया तादृशसाध्याभाववत्यक्षस्यैव बाधत्वेन साध्यप्रागभावादिमत्पक्षस्य बाधत्वविरहात् तज्ज्ञांनस्यानुमितिप्रतिबन्धकवे मानाभावात् । न चैवं स्वरूपा सिद्धि-व्यभिचारान्यतरासकोणबाधोदाहरणमेव दुर्लभमिति वाच्यं । घटो गन्धवान् पृथिवीत्वात् अयं वृक्षः कपिसंयोगवान् एतहक्षत्वादित्यादिकालिक-दैशिकाव्याप्यवृत्तिमाध्यकव्याप्य-पक्षधर्मव्याप्यवृत्तिहेतमावस्यैव तादृशबाधोदाहरणस्य सुलभत्वात् ध्वंस-प्रागभावयोरत्यन्ताभावविरोधिवे मानाभावात् गन्धवत्यपि घटे उत्पत्तिकालावच्छेदेन गन्धात्यन्ताभावसत्त्वात् अग्रावच्छेदेन कपिसंयोग-तवंस-प्रागभाववत्यपि वृक्षे मूलावच्छेदेन कपिसंयोगाभावसत्त्वात् व्याप्तिलक्षणे प्रतियोगिव्यधिकरणाभावस्य घटकतया व्यभिचारलक्षणेऽपि तादृशमाध्याभावस्यैव घटकत्वेन व्यभिचारविरहात् हेतोप्प्यत्तितया न तत्र स्वरूपासिद्धिरिति बोध्यं । न च प्रतियोगिव्यधिकरणमाध्याभाववत्यक्षस्यैवं बाधतया बाध एव तत्र कथमिति वाच्यं । प्रतियोगिवैयधिकरण्यस्य बाधज्ञानप्रतिबन्धकतायामघटकतया माध्याभाववत्पक्षमात्रस्यैव बाधत्वात् अन्यथा यादृश• विशिष्टविषयित्वमित्यादिहेत्वाभाससामान्यलक्षणस्य बाधलक्षणस्य च तत्रातिव्याप्तिप्रसङ्गात् प्रतियोगिव्यधिकरणमाध्याभाववत्यक्षस्य प्रति
Page #975
--------------------------------------------------------------------------
________________
वावचिन्तामयो
बन्धकतावच्छेदकविशिष्टान्तरघटितत्वेन हेत्वाभासत्वाभावस्येष्ठत्वात्() पर्वतो वद्धिमान् पर्वतत्वात् कालो गोत्ववान् गौत्रादित्यादेरपि बाधासकोणदाहरणस्येष्ठत्वात् । न च प्रतियोगिवैयधिकरण्याविषयकव्याप्तिज्ञानस्याप्यनुमितिहेततया तत्प्रतिबन्धकज्ञानविषयत्वेन केवलमाध्याभाववहत्तिसाधनमपि व्यभिचारस्तस्य च यथोक्तस्थलेवपि सत्त्वात् कथं व्यभिचारामाकर्यमिति वाच्यं। यथोक्तस्थलेषु व्यभिचारित्वस्य व्यवहारविरहेण प्रतियोगियधिकरणसाध्याभावस्यैव व्याप्यवृत्तिसाध्यकस्थले व्यभिचारघटकत्वात् अत एव तत्मायकहेत्वाभामसामान्यलक्षण-व्यभिचारमामान्यलक्षण-साधारणलक्षणेष्वप्यनायत्या प्रतियोगिव्यधिकरणाभावघटितैव व्यप्तिटिका अन्यथा भट्टाचार्यादौना खोत्पत्तिकालौनो घटो गन्धवान् पृथिवौवादित्यादेः स्वरूपासिद्धिव्यभिचारान्यतरामकौर्णबाधोदाहरणत्वाभिधानस्थासङ्गतवापत्तेः गन्धादेः कालिकाव्याप्यत्तितया साध्याभाववहृत्तित्वस्य तत्रापि मत्त्वात् । यदि च शुद्धसाध्याभाववहृत्तिसाधनस्थापि व्यभिचारित्वमुपेयते हेत्वाभासादिलक्षणेष्वपि प्रतियोगियधिकरणमाध्याभाववदृत्तित्व-शुद्धसाध्याभाववहृत्तित्वयोरुभयोः सङ्ग्रहाय प्रतियोगिवैयधिकरण्याघटिता व्याप्तिरेव निवेश्यते भट्टाचार्यादीनां वचनं नाद्रियते उक्तहेतषु बाधितत्वव्यवहारवड्यभिचारित्वव्यवहारोऽपि खौक्रियते, तदा तु स्वरूपामिद्धि-व्यभिचारान्यतरासकीर्णत्वं बाधव म कापीति समासः । ननु बाधज्ञाने मति सिषाधयिषाया असम्भवात् पक्षताविरहादाश्रयामिद्धिमत्वादेव नानुमितिर्भविष्यति किं बाधस्य (२) तत्त्वाभावस्येष्ठत्वादिति ग०।
Page #976
--------------------------------------------------------------------------
________________
बांध सिद्धान्तः ।
2
८०१
बाध एबेापजौव्यः । न चैबमुपजीव्यत्वादाधवतु सिद्धसाधनमषि पृथक्, उपजीव्यत्वेऽपि स्वतोऽदूमकत्वात् । न हि साध्यज्ञानं तद्दुडिविरोधि, धारावाहिकज्ञानोदयात् । नाप्यनुमितिविरोधि अनुमित्सया प्रत्यक्षसिद्धेऽप्यनुमानदर्शनात्, तदुक्तं प्रत्यक्षदृष्टमप्यनुमानेन बुभुत्सन्ते तर्करसिका इति श्रवणानन्तरं मननदर्शनाञ्च तस्मात् सिद्धिमाचार्थिनः सिहौ न तदिच्छा
पृथग्दोषत्वेनेत्यत श्राह 'श्रमिद्धेरपीति सिषाधयिषात्मकपचताविरहरूपाश्रयासिद्धेरपौत्यर्थः, 'उपजौंव्य इति, तथाचोपनीयत्वात् बाधोऽपि दोष इति भावः । ददमुपलचणं बाधज्ञानसत्त्वे सिषाधयिषोत्पत्तौ बाधकाभावाच्चेत्यपि बोध्यं । 'उपजीव्यत्वादिति विषाधयिषाविरहरूपपक्षताविरहं प्रत्युपजीव्यत्वादित्यर्थः, 'सिद्धसाधनं’ साध्यवत्पचः, ‘पृथुगिति, हेलाभासः स्यादितिं शेषः । 'स्वतोऽदूषकत्वादिति तज्ज्ञानस्य साचादनुमितिप्रतिबन्धकत्वासम्भवादित्यर्थः, 'साध्यज्ञानं' साध्यवत्पचज्ञानं, 'तद्बुद्भिविरोधोति पचे साध्यज्ञानसामान्यविरोधौत्यर्थः, 'ज्ञानोदयात्' प्रत्यंचोदयात्, 'प्रत्यचषिद्धेऽलौति प्रत्यचतोनिश्चितेऽपौत्यर्थः, 'बुभुत्सन्ते' अनुमित्सया जानन्ति, 'मननदर्शनाच्चेति, श्रवणानन्तरं मननबोधनाचेत्यर्थः, 'सिद्धिमाचा
J
· र्थिन इति सामान्यतः सिद्धिलप्रकार कफलसाधनताज्ञानमाचवतइत्यर्थः, 'सिद्धौ' प्रत्यक्षतः सिद्धौ सत्यां, 'न तदिच्छा' न सिद्धीच्छा,
123
Page #977
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्वचिन्तामणे
सिद्धिविशेषार्थिनः सास्तौति तस्यानुमितिरेव, एवञ्च सिषाधयिषितपक्षविघटनद्वारा सिद्धसाधनं दूषणं न स्वतः । नन्वभावधौरपि न भावधीप्रतिबन्धिका नेदं : रजतमिति भ्रमानन्तरं रजतनिश्चयात् । नचाभावप्रमा तथा, अपीतः शङ्खइति प्रमापयतएव पौताऽयमिति भ्रमदर्शनादिति चेत्, न, विरोधिज्ञानं हि प्रति
'मिद्धिविशेषार्थिन इति अनुमित्यादिरूपमिद्धिविशेषत्वप्रकारकफलमाधमताज्ञानवत इत्यर्थः, 'मास्ति' प्रत्यक्षतः सिद्धौ सत्यामपि सिद्धौच्छास्ति, 'सिषाधयिषितेति सिषाधयिषारूपपक्षताविघटनबारेत्यर्थः, 'सिद्धसाधर्म' माध्यवत्पक्षनिश्चयः, 'दूषणं' क्वचिदनुमितिविघटकं, 'न रूत इति न साक्षादित्यर्थः, एतच्च सिषाधथिषायाः पक्षतावमतेन, मणिक्वन्मते तु माध्यतत्पक्षो यथा न हेत्वाभामस्तथोक्तं सामान्यलक्षणविचारावसर इति ध्येयं। 'भ्रमानन्तरमिति मति विशेषदंर्शन इति शेषः। तथाच माध्याभाववत्पनरूपस्यैव बाधस्य कथं हेत्वाभासत्वमिति भावः। 'प्रभावप्रमेति अग्टहीताप्रामाण्यकाभावज्ञानमित्यर्थः, नेदं रजतमितिभ्रमे च निगे.पदर्शनोत्पत्तिकाले अप्रामाण्यग्रहादिति भावः । 'प्रमापयतः' अग्टहोताप्रामाण्यकज्ञानवतः, 'भ्रमदर्शनादिति दोषविशेषजन्यचाक्षुषभ्रमदर्शनादित्यर्थः, 'विरोधिज्ञानमिनि विरोधितावच्छेदकावच्छिन्न
Page #978
--------------------------------------------------------------------------
________________
बाधसिद्धान्तः।
बन्धकं प्रत्यक्षभ्रमस्य च प्रत्यक्षप्रमा विरोधिनी सा च शह्यादौ दोषात् नात्येक अनुमितौ त्वभावप्रमामाचमेव विरोधीति कथमभावप्रमायां भावानुमितिरिति। स चायं दशविधः धर्मिग्राहकमानबाधितं घटोव्यापकः सत्त्वादिति प्रत्यक्षेण परमाणवः सावयवर मूर्त
ज्ञानमित्यर्थः, 'प्रतिबन्धक' प्रतिबध्यानुत्पादप्रयोजक, 'प्रत्यक्षमस्य चति लौकिकप्रत्यक्षात्मकभ्रमस्य चेत्यर्थः, प्रत्यक्षप्रमेति समानेन्द्रियजन्यलौकिकप्रत्यक्षप्रमेत्यर्थः, लौकिकप्रत्यक्षं प्रति ममानेन्द्रियजन्यलौकिकग्राह्याभावनिश्चयस्यैव प्रतिबन्धकत्वादिति भावः । ‘मा चेति लौकिकचाक्षुषापौतत्वप्रमा चेत्यर्थः, एतच्चापाततः यत्रापौतः शङ्खइति लौकिकचाक्षुषोत्पत्तिसमकालं तदुत्तरकालं वा दोषोत्पत्तिस्तत्र तदनन्तरं पौतः शङ्ख इति भ्रमानुत्पत्तेढुवारत्वात् । वस्तुतस्तु दोषविशेषाद्यजन्यत्वस्य प्रतिबध्यतावच्छेदकत्वान्नाथं दोष इत्येव तत्त्वं । 'प्रभावप्रमामात्रमिति अग्टहीत्मप्रामाण्यकाभावनिश्चयमात्रमित्यर्थः, 'प्रभावप्रमायां' अग्टहीताप्रामाण्यकाभावनिश्चये, 'म चायमिति म. चायं बाधितो हेतुरित्यर्थः, 'दशविध इति धर्मियाहकमानबाधित चयं, माध्यप्रतियोगिग्राहकमानबाधितं त्रयं, साध्यग्राहकमानजाती'यमानबाधितमेकं, हेतुग्राहकमानबाधितं त्रयं, क्रमेण दशविधमित्यर्थः, एतदेवं विवृणोति, 'धर्मिग्राहकमानबाधितमिति, चयमिति शेषः, 'धर्मा' पक्षः, तदेव त्रयं क्रमेण दर्शयति, 'घट इत्यादिना श्रागमेनेत्यन्तेन, 'व्यापकः' विभुः, प्रत्यक्षेणेनि धर्मिणो घटस्य ग्राहकं यत्प्र
Page #979
--------------------------------------------------------------------------
________________
নলখিলাময়ী
वादित्यनुमानेन मेरुः पाषाणमयः पर्वतत्वादिति सुवर्णमयत्वबोधकागमेन, साध्यप्रतियोगिग्राहकबाधित पहिरनुष्णः कृतकत्वादिति प्रत्यक्षेण शब्दोऽश्रावणे गुणत्वादित्यनुमानेन गवयत्वं गवयपदाप्रतिनिमित्तं जातिवादित्युपमानेन, साध्यग्राहकबाधितं शुचि नर
त्यक्षं तेनेत्यर्थः, 'बाधितमिति सर्वत्र सम्बध्यते, 'अनुमानेनेति धर्मिण: परमाणोर्याहकानुमानेनेत्यर्थः, 'पाषाणमयः' असुवर्णमयः, 'सुवर्णमयत्वबोधकेति धर्मिणो मेरोः सुवर्णमयत्वबोधकेत्यर्थः । यद्यपि गवयत्वविशिष्टं गवयादिपदवाच्यत्वं न गवयसम्बन्धि वाच्यतात्वादिति धर्मियाहकोपमानबाधितमप्यतिरिक्तं सम्भवति तथायुपलक्षणमेतदिति द्रष्टव्यं । 'माध्यप्रतियोगिग्राहकबाधितमिति, चयमिति शेषः, तदेव चयं क्रमेण दर्शयति, वौत्यादिना 'उपमानेनेत्यन्तेन, 'प्रत्यक्षेणेति माध्यप्रतियोगिग्राहकप्रत्यत्तेणेत्यर्थः, 'अनुमानेनेति माध्यप्रतियोगिग्राहकानुमानेनेत्यर्थः, 'उपमानेनेति माध्यप्रतियोगियाऽकोपमानेनेत्यर्थः । यद्यपि स्वर्गी नामिष्टोमकरणकः सुखत्वालौकिकसुखवदिति माध्यप्रतियोगिग्राहकागमवाधितमप्यतिरिक्त सम्भवति, तथाप्युपलक्षणमेतदिति द्रष्टव्यं। ‘माध्यमाहकबाधित' माध्यग्राहकजातीयमानबाधितं, एकमिति शेषः, तदेव दर्शयति, 'शुचौति मरभिरः कपालं शौति योजना, 'भागमेनेति दृष्टान्ले शाश पचितारूपमाध्यहिकं यदाक्यमागमवरूपेण तत्मजातीयेन भरभिरः
Page #980
--------------------------------------------------------------------------
________________
पाधसिद्धानका
शिरः कपाल' प्राण्यङ्गत्वादित्यवागमैन, हेतुग्राहकबाधितं जलानिलावुष्णौ पृथिवौता विपरीतस्पर्शवस्वात् तेजावदिति प्रत्यक्षेण मनाविभु ज्ञानसमवाय्याधारत्वादित्यनुमानेन राजसूयं ब्राह्मणकर्तव्यं स्वर्गसाधनत्वादमिष्टोमवदिति राजसूयकर्तव्यताधिकाग
मेनेति।
कपालं पशुचौति वाक्येनेत्यर्थः,. 'हेतुग्राहकबाधितमिति, चयमिति शेषः । तदेव त्रयं दर्शयति, 'जलेत्यादि, 'उष्णौ' उद्भूतोष्णौ, 'प्रत्यक्षेणेति हेतुग्राहकप्रत्यक्षणेत्यर्थः, महति वायायुद्भूतरूपसामान्याभाववत् उद्भूतोष्णस्पर्शमामान्याभावस्थापि प्रत्यक्षत्वसम्भवादिति भावः । 'अनुमानेनेति मनसि ज्ञानसमवाथिसंयोगाधारत्वरूपग्राहकानुमानेनेत्यर्थः, 'राजसूयकर्त्तव्यतेति राजसूयस्य क्षत्रियकर्त्तव्यताबोधकहेतग्राहकागमेनेत्यर्थः, “स्वाराज्यकामो राजसूयेन यजेत” इत्यादि श्रुत्या क्षत्रियकर्त्तव्यतां राजसूयस्य बोधयन्या अर्थाद्ब्राह्मणकर्त्तव्यतानिषेधादिति भावः । उपलक्षणमिदं, गवयपदं न पशवाचक गवयत्ववाचकत्वादिति हेतयाहकोपमानबाधितमप्यतिरिक्तं द्रष्टव्यं । यद्यपि वहिरनुष्णः कृतकृत्वादित्यादिकं सर्वमेव धर्मियाहकमान
(२) 'मरशिरः कपालं शुचि' इति कचित्रितपुस्तकपाठः परत्वयं न
समीचीनः तथा सति 'नरशिरः कपालं शुनौति योजना' इति रहस्यसन्दर्भस्यासत्यापत्तेः। ।
Page #981
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्वचिन्तामणौ
बाधितं वयादा दिग्राहकमानस्थापि वङ्ग्यादिरूपधर्भिग्राहकवात्। न प धर्मियाहकत्वं धर्मितावच्छेदकविशिष्टधर्मियाहकत्वमिति वाच्य। घटो व्याफा इत्यादावण्यतथात्वात्, तथाप्युद्भावने कथकसम्प्रदायसिद्धप्रकारभेदोऽनेन दर्भित इति न काप्यनुपपत्तिरिति संक्षेपः ।
इति श्रीमथुरानाथतर्कवागौश-विरचिते तत्त्वचिन्तामणिरहस्ये अनुमानाख्य-द्वितीयखण्डरहस्ये बाधसिद्धान्तरहस्य(र) ॥
(९) बाधनिरूपणप्रस्तावे हेत्वाभासनिष्ठासाधकलासाधकत्वव्यवस्थापक
'पयेत्यादिसन्दर्भः यदि रहस्यकता व्याख्यातः तदा एतत्समाप्तिसूचक वाक्यं पत्र लेखकप्रमादादायातमिति सम्भाष्यते ।
Page #982
--------------------------------------------------------------------------
________________
[].
-
अथ हेत्वाभासानामसा ता'साधकत्वनिरूपणं अथ हेत्वाभासानामसाधक साधकत्वेन सदुत्तरत्वं जात्यादौनाश्वासाधकतासाधारण्येन परासाधकतासाधकतया स्वव्याघातकत्वादसदुत्तरत्वं, अथ विरुड - त्वादिज्ञानादेव स्वार्थानुमितेरिव पराधीनुमितेरपि प्रतिबन्धे किम साधकतानुमानेन यद्दचसि वाद्युक्तदूषगावगतिः स निहीत इति समयबन्धेन कथाप्रवृत्तौ दूषणमाचमुद्भाव्यमन्यथार्थान्तरत्वादिति चेत्, न, इयं द्देश्यं परार्थानुमितिप्रतिबन्धः, स्थापनाया असाध -
अथ हेत्वाभासानामसाधकता साधकत्वनिरूपणव्याख्यानं ।
श्रसाधकतांसाधकत्वनिर्वचनीय उपोद्दातसङ्गतिमाह, 'हेवाभासानामिति, तथाचासाधकत्वाज्ञाने सदुत्तरत्वापरिचये हेलाभावनिर्व्वचनमेव व्यर्थमापद्येतेति भावः । नन्वसाधकतासाधकत्वं न सदुत्तरत्वं श्रसाधकता साधनस्येवाभावात् इत्याह, 'श्रथेति, 'परेति परेण यामनुमितिमुद्दिश्यं प्रयोगः कृतस्तस्या दूत्यर्थः, अन्यथा यदपेचया परत्वं तदीयविरुद्धत्वज्ञानस्य प्रतिबन्धकत्वप्राप्तेरसङ्गत्यापत्तेः, विरुद्धाद्युद्धावनस्य त्वत्प्रयुक्रानुमानाद्विरुद्धत्वादिप्रतिहतात् मेऽनुमितिरित्यर्थेौ न तद्भावितेन प्रयोतुरंनुमितिप्रतिबन्ध इत्यर्थं इति
Page #983
--------------------------------------------------------------------------
________________
8
तत्वचिन्तामणी
कतासाधनत्व तवाद्यं दूषणमाचज्ञानादेव, द्वितीयन्तु अलिङ्गत्वज्ञापनात् प्रतिबन्धकत्ववंदनेनापि रूपेण दूषकत्वसम्भव इत्यभिप्रायेण वा असाधकतासाधनं । नन्वेवं पञ्चावयवप्रयोगापेक्षा स्यात् अन्यथा न्यूनतापत्तिरिति चेत्। न । दूषणस्यासाधकताव्याप्यत्वमगौहत्य कथेति तत्पक्षधर्मताया वोडाव्यत्वात् अन्यथा अधिकत्वापत्तेः। नन्वेवं कृतकत्वेनानित्यत्वानुमानेऽपि व्याप्तिाभिधेया उभयसिद्धत्वादिति चेत् । न। कथायां समयविषयतया दूषणे त्वसाध
भावः, एवमग्रेऽपि, “द्वितीयन्विति, असाधकतामाधनं न तावद्यावविरुद्धत्वादिलिङ्गत्वेन हेतुपञ्चम्यन्तत्वेन उच्यत इत्यर्थः । ननु इयमुद्देश्यमित्यवाक्षेपः स एव च समाधिरित्यसङ्गतेईयोरुद्देश्यले वोजमाह, 'प्रतिबन्धकत्ववदिति, 'दूषणस्योद्भाव्यतया' दूषणत्वस्योभयरूपतया तदुभयरूपोद्भावनमुद्देश्यमित्यर्थः, वस्तुगत्यासाधकेऽसाधकतानुमितावपि न स्वपक्षसिद्धिरित्यनुमितिप्रतिबन्धकोएन्यासआवश्यकः तेनासाधकतानिर्वाहात् असाधकतानुमितिश्च नावश्यको तदभावेऽपि वपचसिद्धेः दूषणत्वप्रकारापेक्षया क्वाचित्कस्तदुपन्यामः मामयिक इति सर्वतात्यार्थः। 'पक्षधर्मताया इति, अद्ययसाधकतानुमाने विरुद्धवादित्येव प्रयोज्यं न तु पक्षधर्मातापि धमवत्त्वादित्यवानाकाशितत्वात्, तथापि विरुद्धोऽयमिति प्रथमोन हावनमभिप्रेत्येतद्रष्टव्यं। 'अधिोति श्राकाक्षितादधिकमनाकाशित
Page #984
--------------------------------------------------------------------------
________________
हेत्वाभासानामसाधनतासाधकत्वनिरूपणं ।
कताव्यात्युपस्थितेरावश्यकत्वात् श्रन्यथा hearoeराधात् । नन्वेवं लतकत्वेमानुमाने तयाभिमनङ्गोलत्यापि कथासम्भवात् यस्तु कथारम्भे बाधस्यासाधकत्व
,
વા
मर्थान्तरमिति यावत् । हेतुदयाद्युपन्यासेन यथाश्रुतस्यासङ्गतेरिति । 'अन्यथेति, नन्वनुमितिप्रतिबन्धकतावच्छेदकरूपदूषणत्वनिश्चयादेव कथकत्वनिर्वाहात् कथमेवं, न हौदमेवासाधकत्वव्याप्तिः, अपि विदमसाधकत्वमेव, तथाच तद्याप्तिप्रतिसन्धानं कथकत्वेऽतन्त्रमेव । म चानुमितिप्रतिबन्धकतावच्छेदकरूपवत्त्वमनुमित्यभावनियतं यज्ज्ञानं तद्वत्वं तथाच यत्र विरुद्धत्वादिस्तचानुमित्यभाव इति व्याप्तिभतैिवेति वाच्यं । अनुमित्यभावस्यासाधकत्वरूपत्वाभावात् अपित्वनुमित्यभावप्रयोजकज्ञानविषयतावच्छेदकवत्त्वस्य तत्त्वं तद्व्याप्तिखाप्रतिसंहितै वेति । मैवं । विरुद्धत्वस्यैवानुमितिप्रतिबन्धकतावच्छेदकतया यत्र विरुद्धत्वं तत्र प्रतिबन्धकतावच्छेदकवत्त्वमिति महार - atitव्येण व्याप्तिग्रावयकत्वाद्वित्युत्तरकन्ये प्रथमकल्पे च स्फुटेव प्रतीतिरित्युपगमात्, अतएवानुमित्यभावस्य ज्ञानेन साध्यनिचये पचत्वाभावानुमितिः सम्भवतीत्यनुमित्माधीनपचतया श्रनुमितिरिति सामयिकमसाधकतासाधनं सर्व्वसिद्धमिति । 'श्रनङ्गीकृत्येति - तथाचाङ्गीकारनियमो नाचेव तत्रापीति भावः । नन्वेवं पृथिवी -
त्वेन पचतावच्छेदकेनैव इतरभेदानुमानेन पचधर्मत्वं न प्रदर्खेत
उभयसिद्धलात् । न च तत्राप्यभ्युपगमानियमो ऽनभ्युपगमे व्याघातापत्तिरिति दूषणान्तरं न त्वभ्युपगमनियम इति वाच्यं । तचाप्य
124
Page #985
--------------------------------------------------------------------------
________________
तृत्वचिन्तामो व्याप्ति नाङ्गीकरोति तं प्रति तद्दषकत्वं प्रसाध्य पञ्चावयवप्रयोगः कर्तव्य एव । यत्तु दूषणे पक्षधर्मातामात्रमुद्भाव्यं तच, यत्र वादिनोस्तथा समयोऽन्यत्र तु पञ्चावयवप्रयोग एवेति । तन्न । कथासम्प्रदायविरोधात् । अथासाधकत्वं न पक्षे साध्यप्रत्ययाजनकत्वं । तेनापि तत्त्वेनाज्ञानदशायां पक्षे साध्यभ्रमजननात् कदाचिदजनकत्वं सद्धेतावपि। नन्वेतत्काले साध्यविशिष्टपक्षवानाजनकं तत्, न हि दूषणत्वज्ञानदशायां पक्षे भ्रमरूपाप्यनुमितिः, साध्यविशिष्टपक्षज्ञानश्च हेतुत्वेन ज्ञानदशायां प्रसिद्धमिति चेत्, न, सङ्घता
भ्युपगमाभावे व्याघातोऽस्तु दोषो न वभ्युपगमनियम इत्यत आह, 'यस्विति यस्तु व्याप्तिभावानङ्गीकर्ता चार्वाकादिः, 'बाधस्य' दोषमाचस्य, 'दूषकत्वम्' असाधकत्वव्याप्यत्वं, प्रसाध्य' व्याघातेनैव, 'प्रयोगइत्यनन्तरं समाचार इति शेषः । तेनासिद्धिरुत्तरं घटते अन्यथा पञ्चावयवप्रयोगः कर्तुमर्हतीत्युक्तौ समाचारविरोधी नोत्तर घटते अनईताया अत्र युक्रवादित्यवधेयं । हेतुत्वेनेत्युपलक्षणं हेत्वन्तरेण प्रसिद्धमित्यपि द्रष्टव्यं। अन्यथा वहिमानयं वन्हिविरहादित्यादौ हेतुत्वन्धमस्याप्यभावादसङ्गत्यापत्तेरिति । विशेषणत्वलये सिद्धान्तएवेति वकालस्योपलक्षणत्वपचमालम्ब्य दृषयति, 'मद्धेताविति ।
— (१) नन्वसाधकत्व मिति ख, ग ।
Page #986
--------------------------------------------------------------------------
________________
हेवाभासानामसाधकलासाधात्वनिरूपणं। वसत्प्रतिपक्षतादशयामपि पूर्वकाले साध्यविशिष्टपक्षजानाजनकत्वमस्तीत्यसाधकताप्रसङ्गात्। अध पत्रे साध्यभ्रमजनकत्वं तत् बाध-विरुद्धयोरपि तत्त्वाज्ञानदिशायां धमजनकत्वादिति चेत्, न, सद्धेतौ सत्प्रतिपक्षेसाधारणे च तत्त्वेन ज्ञानदशायां साध्यभ्रमजनकत्वात् अज्ञाने साध्यभ्रमाजनकत्वात्। नामि व्याप्ति-पक्षधर्म'तान्यतरराहित्य, सत्यतिपंक्षासाधारणसद्धेतोरभावात् दशाविशेषे तस्य दोषत्वात् साध्याप्रसिद्धौ प्रकृतसाध्यव्यात्यप्रसिद्धेश्च। नाप्यनैकान्तिकाद्यन्यतमत्वं, यत्किविदनैकान्तिकत्वस्यातिव्याप्तेः प्रकृतसाध्यानैकान्तिकत्वस्याप्रसिद्वत्वेन केवलान्वयिसाधने प्रसिद्धेः अंशतः सिद्धसाधनात् साध्याविशेषाच । यत्तु एतत्कालीनैतत्यक्षीयत्वावच्छिन्नप्रतियोगिकैतत्साध्यंप्रमाकरणत्वाभावः, तत्तत्काल-तत्तत्पक्षविषयसाध्यत्वाभिमतानित्य
'माध्याप्रमिद्धाविति, न च वन्यमाणमयमाधकत्वं माध्यगर्भ तत्र न सम्भवतौति तदसङ्ग्राह्यत्वेन न युक्रमव्याप्तिप्रदर्शनं तस्य केवलापार्थकत्वादिति वाच्य। साध्याप्रमिद्धेरपि तत्प्रत्ययसिद्धेः शक्तिरजतप्रत्ययादौ तथा दर्शनेन तदजनकत्वलक्षणवक्ष्यमाणासाधकत्वस्य प्रमते समर्थनीयत्वादिति भावः । 'केवलेत्याद्युपलक्षणं सत्प्रतिपक्षाधनुपहितेऽन्यत्राप्यप्रसिद्धिद्रष्टया। 'गत: सिद्धेति संभयस्य मिङ्क
Page #987
--------------------------------------------------------------------------
________________
सचिन्तामणे
स्वादिप्रमाजनकत्वाभावो वाऽसाधकत्वं । न च प्रति योग्यप्रसिद्धिः, तत्कालीनैतत्पशौयत्व-तत्तत्काल-तत्तपक्षविषयत्वयायधिकरणयोरेव प्रतियोगितावच्छेदकत्वादिति। तन्न। सङ्घतोः सत्यतिपक्षत्वाज्ञानदशायामपि तादृशामायामकरणभावेनासाधकतापतेः । मापि तृतीयलिङ्गयरामर्शस्याप्रमात्वं तत्, विरुद्धादौ परामर्शाभावात् सद्धेतौ सत्प्रतिपक्षेऽसाधारणे च तत्प्रमात्वाच्च । नाप्यनुमितिहेतुभूताभावप्रतियोगिज्ञानविषयत्वं तत् सहेतावपि कदाचित् व्यभिचारित्व-सत्यतिपक्षत्व-ज्ञानस्यानुमितिप्रतिबन्धकत्वात्। अथानुमितिप्रतिबन्धकप्रमाविषयत्वमसाधकत्वं सडेतो व्यभिचारादिभ्रमः प्रतिबन्धकः अनुमितिप्रतिबन्धकत्वञ्च व्यभिचारादिप्रमायास्तृतीयलिङ्गपरामर्शविघटनद्वारा तुल्यबलताविषयतया वेति चेत् । न। सत्प्रतिपक्षयाविरुद्धयोास्तवतुल्यबलत्वाभावेन तमस्य प्रतिबन्धकत्वात् । न च तुल्यबलतया जायमानेन बोधितसाध्यविपर्ययकत्वज्ञान प्रतिबन्धकं तच्च प्रमैवेति वायं। तुल्यबलताज्ञानमेव हि प्रतिबन्धकं न तु जायस्यैव साधनादित्यर्थः। एवमयेऽपि 'तुल्यबलतेति पत्र वस्तुगत्या धत्तुष्यबसमग्टहीतविशेषवलं तद्विषयतया उभयविरुद्धबलविषयतया
Page #988
--------------------------------------------------------------------------
________________
हेत्वामानानामसाधकताबाधकत्वनिरूपणं। मानत्वज्ञानं गौरवादसिद्धेश्च । न च सत्यतिपधेऽन्यतराजवैकल्यप्रमैव प्रतिबन्धिकेति वायं । अन्यतरत्वं ...तदतवृत्ति, न च तदतदृत्तिसामानाधिकरण्येन जायमानस्य दोषत्वं, धर्ममावस्य व्यभिचारज्ञानादनुमित्यु
छेदापत्तेः अन्यतराज वैकल्यज्ञानोपजीव्यस्य तुल्यबलत्वज्ञानस्यैव प्रतिबन्धकत्वाच्च। अन्यथा व्याप्यत्वासिड्यतर्भावापत्तेः। अथानकान्तिकादिज्ञानस्य तत्तदनुमितिप्रतिबन्धकत्वमसाधकत्वं तथा हौदमनैकान्तिकादिज्ञानमेतत्साध्यवत्तयैतत्पुरुषस्यैतत्कालीनैतत्पक्षकानुमितिप्रतिबन्धकम् एतदनैकान्तिकादिज्ञानत्वात् एतदन्यतज्ज्ञानवदिति चेत् । न । एतत्साध्यवत्तयैतत्यक्षकानुमितेः कदाचिल्लिङ्गभ्रमात् : प्रसिद्धावप्येतत्कालोनैतत्पुरुषस्य तादृशानुमित्यप्रसिद्धेः । नापि समोचौनसाध्य-पक्षविषयानुमित्यजनकत्वं,१) बाध-विरुसिद्धेषु साध्यानधिकरणे पक्षे सत्यसाध्यप्रतीत्य
वेत्यर्थः, न तु तुल्यत्वमपि विषय इति ध्येयं । नन्वन्यतराजवैकल्यमंगयांधायकतया दोष इत्यनुभवसिद्धमित्यरुर्दोषान्तरमाइ, 'अन्यतरेति, 'एकेति मास्नासून्यायामपि गवि तदारोपाहोत्वा
(१) समीचौनसाध्यविशियपक्षप्रत्ययाजनकत्वमिति ख.।।
Page #989
--------------------------------------------------------------------------
________________
• तत्वचिन्तामो प्रसिद्धेः वहिमति वाष्ये धूमभ्रमात व नुमितेः सत्यत्वाच्च । न चान्य एव वहिस्तच भासते, मानाभावात् तहहः प्रत्यभिज्ञानात् एकव्यक्तिके तदसम्भवाचः। न च सानुमितिर्लिङ्गविषयत्वेन धमः, अनुमितौ लिङ्गविषयत्वे मानाभावात्। किञ्च भावोऽभावो. वोभयथापि प्रमेयमिति सत्यानुमितौ भावत्वाभावत्व
वति प्रमेयत्वज्ञाने एकत्र तयारभावादसत्यानुमितिः स्यात्। न चान्यतरत्वं लिङ्गं, तयाप्तिमविदुषोऽप्यनुमितेर्व्यर्थविशेषणत्वाच्च । अथ साध्यव्याप्यत्वमेव तप तन्त्रं तव च बाधानास्तीति चेत, तर्हि कूटलिङ्गादनुमितौ वहिव्याप्यवत्त्वमेव तन्त्रं वहिव्याप्यञ्च किश्चित्तबास्त्येव । अथ कूटलिङ्गे वहिव्याप्याभेदः प्रतीयते तथाच वह्नौ कूटलिङ्गव्यापकाभेदेोऽपि, अन्यथा कटस्यैव वहिव्याप्यत्वाप्रतीनेः एवञ्च कूटलिङ्गव्यापको वहित्वेन भासत इति वह्मनुमितिरसत्येवेति चेत् ।
न। वहिव्याप्यालोके धूमारोपात यथानुमितिस्तवा- सिद्धिभेदेऽसत्यत्वाभावापत्तेः आलोकव्यापके धूमव्या
पकाभेदात्। अथ लिङ्गमनुमितिविषयोनियमतः पक्ष
धनुमितावित्यर्थः। लिङ्ग' लिङ्गतावच्छेदकं, 'वहिव्यायेति, एतचाभ्युपेत्य समाहितं, वस्तुतो. वहिव्याप्याभेदे वहिस्तड्यापकतया
Page #990
--------------------------------------------------------------------------
________________
हेत्वाभासानामसाधकलासाधकावनिरूपणं। यह धर्माताज्ञानविषयत्वात् व्याप्तिज्ञानविषयत्वात् नियमेनानुमिति हेतुविशेषणधौविषयत्वाच्च पर्वतत्ववत्साप्यवच्च। किचकविशेषणवत्त्वेन जाते. विशेषणान्तरधौसामग्रौ तचैव विशिष्टवैशिष्ट्यज्ञानमिति धूमवि. शिष्टएव वह्निवैशिष्ट्यानुमितिरिति । ननु चानुमितौ. व्यापकत्वभानेऽनुमित्यविच्छेदः । न च फलीभूतज्ञानन्यूनविषयस्यैव परामर्शस्यानुमितिहेतुत्वं, गौरवात, विषयान्तरसञ्चारात् नानुमितिरित्याप न, परामर्शस्य चरमकारणत्वात् प्रत्यक्षादिमामग्रीतो बलवत्त्वाच्चेति चेत् । न । सिद्धसाधनेन विच्छेदात्। यद्यप्येवं लिगांशेऽप्रमात्वेऽपि साध्यप्रमात्वात् कथं तस्यासाधकत्वं, तथाप्युक्तसाधकत्वमत्येवेति चेत्, अस्तु तावदेवं, त
भासते न तु कूटव्यापके वहित्वं मामग्रौविरहादिति ध्येयं । 'नियमतइति लिष्टं आवश्यकतया निश्चीयमानतया चेत्यर्थः। तेनायेन प्राकस्मिकं द्वितीयेन तु व्यापकतावच्छेदकावच्छिन्नमपि सन्दिग्धमुदाहतभावादि वार्यत इति भावः। मध्यहेतावपि नियमेनेति पूरणीयं त्राकस्मिकस्य तत्रापि वारणौयत्वादिति । नांगविवक्षयेदमसाधकत्वं निरुच्यत इत्याह, 'तथापौति । 'अस्तु तावदेवमिति,
न्युपगमवादोऽयं वस्तुतो नोक्तानुमानादपि तथा सिद्धिरित्येवम्परः तदमिद्धिवौजन्तु अनुमानं मामय्यभावेन फलाभावा हाधितं तथाधि
Page #991
--------------------------------------------------------------------------
________________
an
वावचिन्तामो धापि दैवात्तच धूमसत्त्वे कथं तदंशेऽप्यसत्यता। अतरण 'चान्धनराभले वहिधूमव्यापको नान्यः । न च वह्नित्वेन व्यापकत्वादन्योऽपि तथा, तेन विनापि धूमसत्वात, एवं वाष्ये धूमधमाद् धूमव्यापको वहिर्भासते स च तत्र नास्त्येवेति न सानुमितिः सत्येति निरलं दैवाडूमसत्त्वे सत्यत्वादिति। उच्यते । स्वज्ञानदशायां पक्षे साध्यप्रत्ययाजनकत्वमसाधकत्वं, तथापि विरुद्धत्वादिनानदशावत्तौंदं पधे साध्यप्रत्ययाजनक
किं माध्यविभिष्टपक्षकानुमितित्ववत् तच लिङ्गमपि विषयतया कार्यतावच्छेदकं विशेष्यामितिं प्रति व्याप्तिज्ञानादौनां हेत तेति मन्यसे, अथवा सामान्य एव प्रमाणमात्रस्य उपनौनभानजनकत्वं सुरभि चन्दनमित्यादौ कृप्तमित्यवायवमिति । श्राद्योगौरवानुभवविरोधाभ्यामेव निरसनौयो वित्तीयस्तु स्थादेव यदि मौरभांश संस्काररूपप्रत्यक्षसन्निकर्षवदिहापि व्याप्तिरूपसिङ्गपत्रिक लिङ्ग मापि भवेत् । श्रतएव शाः शब्दमन्त्रिकर्षस्थाभावाच्छब्दो न गन्दज्ञानविषयः विशेष्याभाने संसर्गाभाने व विशिष्ट धमिधेरन्यथासुपपत्त्येव पञ्चसंसर्गावतर्भाव्यैवानुमिति-शाब्दौ प्रति लिङ्ग-गब्दयोतति व्याप्तिशक्तिविरहेऽपि पक्षसंसर्गगोचरे ताभ्यां ते जन्येत' इति सर्व मुस्खें। स्वज्ञानकालस्य विशेषणखमादाय सिद्धान्तयति, 'खजानेति, 'साध्यप्रत्ययाजनक माध्यप्रत्ययजनकतावच्छेदकरूपविरक, नानि च अव्यभिचरितबादौनि अवाधितलामन्मतिपछि
Page #992
--------------------------------------------------------------------------
________________
हेत्वाभासानामसाधकतासाधकत्वनिरूपणं।
विरुधादित्वात् पक्षविशेषणमहिना तद्दशायां पने
तत्वान्नानि 'तदभावः कदाचित् सत्प्रतिपक्षोत्तौण पौति, खज्ञानकालोनतथा संविशेषितः स च न तादृशोऽन्यदा तथा जानरूपविशेषणभावेन विशिष्टाभावात् । एवञ्च मति सव्यभिचारित्वादिरेव पर्यवसितः तथा सत्यपि यथा न साध्याविशेषः तथाकरएव स्फुटं। ननु स्वज्ञानकालौनतया जनकत्वाभावे विरुद्धवादित्यादियभिचरितस्य तजनकतावच्छेदकरूपविरहरूपत्वेऽपि स्वज्ञानविरहकाले विभिटाभावात् तथा जनकत्वाभावे यथाश्रुते जनकतावच्छेदकाभावरूपे विवक्षितेऽपि माध्ये खज्ञानाप्रवेशे विरुद्धत्वादिति व्यर्थविशेषणं कदाचिदजनकत्वस्य ज्ञायनानत्वलक्षणजनकतावच्छंदकरूपविरहात्मनोऽज्ञायमानत्वस्य च केवलान्वयित्वादित्यभिमन्धिना माध्यं निष्कृयाह, 'तथाहौति, तथाच ज्ञानकालस्य पक्षतावच्छेदकतया तत्कालौनत्वं माध्यस्य न तु तस्यापि साध्ये प्रवेशो. येन व्यनिचारः। न च व्यर्थविशेषणता, विवक्षितमाध्यस्यामार्चचिकवान्, माध्यमिद्धिजनकतावच्छेदकत्वन्तु तत्प्रत्ययजनकज्ञाने विषयंतावच्छेदकत्वं श्रतएवासत्प्रतिपक्षत्वं तुल्यवत्त्वज्ञानाभावरूपं प्रतिबन्धकाभावतया खरूपमदेवानुमितिजनकं न तु ज्ञातमिति मतावकाशेनेदं घटत इत्यरुच्या लक्षणान्तरं वक्ष्यते, तथाच ज्ञायमानवज्ञानमपि यद्यनुतिहेतुः स्यात् तदा जायमानत्वमपि तथा जनकतावच्छेदकं भवेत् येनाशातत्वमवच्छेदकाभावः स्यात् एवञ्च बदेतो सत्प्रतिपक्षाद्यनवतारे नोक्तावच्छेदकाभावः कोऽपौति न
195
Page #993
--------------------------------------------------------------------------
________________
its
तत्त्वचिन्तामो
साध्यप्रत्ययाजनकत्वं सिद्ध्यति, बाधितादावपि लिङ्गत्वभ्रमात् पधे साध्यप्रत्ययजनकत्वमिति नं प्रतियोग्यप्रसिद्ध्या साध्याप्रसिद्धिः। .. - यहा अनुमितिप्रतिबन्धकतावच्छेदकरूंपवत्त्वमसा
केवलान्वयित्वमिति न व्यर्थविशेषणता । न च सा वझिव्याप्यवान् बडिमान् तत्त्वादित्यनुमाने स न तद्वान् मेयत्लादित्यादिना सत्यतिपक्षेणैवमन्यत्रापौति गर्वमेव मत्प्रतिपक्षितमिति वाच्य। मर्चव सर्वत्रैवमवताराभावात् । न च वज्ञानदमायामित्यत्र ज्ञाने यथार्थत्वायथार्थत्वविकल्पः, ज्ञानमात्रस्य विवक्षितत्वात् भ्रममादायानिप्रसङ्गस्य तादृशावच्छेदकाभावस्वरूपसत्त्वाभावादेवाभावात् । महि व्यभिचारिभ्रमे वास्तवः सः । न च सत्प्रतिपक्षे विरुद्धव्याप्यादौ लिङ्गान्तरे कुतो वास्तवसत्त्वमिति वाच्यं । प्रतीतिबलेन तच तत्सम्बन्धाभ्युपगमात् स च स्वरूपसम्बन्धविशेष एव इत्युक्तं हेत्वाभासलक्षणे। ये तु ययाश्रुते साध्ये व्यर्थविशेषणत्वाभावेन खज्ञानेकालमपि माध्ये प्रवेशयन्ति तेषां ज्ञानमात्रगर्भतायां मद्धेतावतिप्रसङ्गः प्रमाखपर्यन्ते च वक्तव्ये सत्प्रतिपक्षेऽव्याप्तिरित्यपि दोषो भवति, अम्माकन्स न दोषलेश इति संक्षेपः। ननु बाधिते तथा माध्यप्रत्ययासिया तननकतावच्छेदकाभावोऽप्रसिद्ध इत्यत आह, 'लिङ्गति नस्यान्यस्य वा लिङ्गबभ्रमदशायामित्यर्थः ।
उकारचा लक्षणान्तरमाइ, 'यद्दति, तत्वञ्चात्र तदर्तमानत्वं, विवक्षितमतो न सन्प्रतिपक्षोत्तौणेऽतिप्रसङ्गः, न हि पूर्वचेवाचार
Page #994
--------------------------------------------------------------------------
________________
हेत्वाभासानामसाधतासाधकावनिरूप। . (धकार, तथाहौंदानौमिदमनुमितिप्रतिबन्धकतांबले'दकरूपवदनैकान्तिकादित्वात् ज्ञानवत् अनुमितिप्रतिबन्धकतावच्छेदकच्च रूपं ज्ञाने विषयतयानकान्तिकादित्वमेव । न च साध्याविशेषः, उपाधिविशेषस्थानुमे• यत्वात् तोयत्वेन पिपासोपशमनसमर्थतावच्छेदकरूपपरत्वानुमानवत्।
खज्ञानदशायामित्यस्ति, अतएव बर्तमानत्वस्य तदवच्छिन्नत्वरूपस्य , सार्वत्रिकत्वाविरुद्धवादित्यादौ न व्यर्थविशेषणतेति भावः । ___ केचित्तु नात्र व्यर्थविशेषणता व्याप्तेरुभयग्टहीततया व्याप्तिग्राहकसामग्रीसम्पादनाय हेत्वनुपन्यासादपि तु समयबन्धादुपन्यतास्थ हेतृत्वप्रतिपादनाय तड्याप्यतानवच्छेदकस्य विशेषणस्य प्रवेशेऽपि नक्षतिः, प्रतिबन्धप्रयोजकतयोपन्यस्तस्य विशिष्टस्योभयसिद्धव्याप्तिकस्य - पञ्चम्या हेतुत्वाभिधानादित्यपि वदन्ति ।
ननु व्यभिचारित्वादिन प्रतिबन्धकतावच्छेदकं तत्सत्त्वेऽप्यप्रतिबन्धादित्यत आहे, 'अनुमितौति तथाचानुमितिप्रतिबन्धकज्ञानविषयतावच्छेदकत्वमसाधकत्वमिति पर्यवमितोऽर्थः। ननु साध्याप्रसिद्धावव्यापकमिदमिति चेत्, न, श्राद्ये स्वज्ञानदशायामिति विशेषणदानादेव तदसङ्ग्राह्यत्वलाभात्, अन्येऽपि न पदार्थरूपमाध्यस्थाप्रसिद्धिः जवगडदशादिवनिरर्थकत्वात् किन्तु वाक्यार्थरूपसाध्याप्रसिद्धिाच्या तथाच माध्यज्ञानस्य प्रकृतहेतुनिष्ठव्याप्तिप्रतियोगिकलाप्रकारकत्वमनुमितिप्रतिबन्धकतावच्छेदको धर्मः स .चात्रा
Page #995
--------------------------------------------------------------------------
________________
सवचिन्तामो अन्ये वनेकान्तिक-बाधित-बिरुवधव्याप्यत्वं व्या'प्यत्वासि निकान्तिकत्वं स्वरूपासिद्ध-सत्प्रतिपक्षास धारणेषु दशाविशेषेऽनुमितिप्रतिबन्धकमानविषयत्वमसाधकत्वं । न चैवमनैकान्तिकोऽसाधक इति सहप्रयोगानुपपत्तिः, तनाव्याप्यत्वस्यासाधकशब्दार्थत्वात, असाधकताननुगमे हेत्वाभासत्वमनुगतमेव यस्य ज्ञानमनुमितिप्रतिबन्धकं तस्य हेत्वाभासत्वादिति)। प्रसिद्धावपि साध्यस्य तद्भमे तथा प्रतियोगित्वप्रकारकत्वाभावादक्षतः । वस्तुतः मायाप्रसिद्धिः शुद्धमपार्थकं हेत्वाभामानामेवामाधकतासाधकत्वात् अज्ञानरूासियादौनान्वपार्थकत्वं हेत्वर्थान्वययोग्यताविरहनिश्चयात् हेत्वाभासानान्तथावेऽप्युपजीव्यतया पृथग्दोषत्वं । न चाज्ञाने किञ्चिदाभासान्तरं तथोपजीव्यमस्ति, अतएव तेषामनाभामत्वे निग्रहान्तरत्वाभावेऽपि कथायामुद्भावनं, अन्यथा अपार्थकाप्रवेशे अन्यत्राप्रवेशे द्वाविंशत्यधिकनिग्रहस्थानानामभावे तदुद्भावनं न स्यादेव। “हेत्वाभामाश्च यथोक्काः” इत्यत्रानुक्रममुच्चय(१) वानिरूपणप्रतावे 'अथ हेत्वाभासानामसाधकतासाधकास्येनेत्या. दिमा 'तस्य हेत्वाभासत्लादित्यन्तेन सन्दर्भण मणिकता हेत्वाभासस्थासाधकतांसाधकत्वं व्यवस्थापितं, तादृशमणिकृत्सन्दर्भस्य सथरानाथकृतव्याख्याया सप्तस मथुरानाथकृतटीकापुस्तकेषु पदर्शमात् तादृशसन्दर्भो मथुरानाथेन न व्याख्यातः पथ वा बडकालाध्ययनाध्यापनामावेन मथुरानाथकृततादृशसन्दर्भयाख्याविभागो विजात इत्यनुमाय जयदेवकृतव्याख्यया सहितः तादृशसन्दी मुद्रितइति ।
Page #996
--------------------------------------------------------------------------
________________
हेवामाखानामगावकलासाधकालनिरूप। । ८. इति श्रीमहशोपाध्यायविरचिते तत्त्वचिन्तामण हनुमानास्यहितीयखण्डे हेत्वाभासानामसाधकतासाधकत्वनिरूपणं।
समाप्तश्च अनुमानखण्डो बाधान्तः।
तया चकारव्याख्यानात् तत्मशः, अनुकप्रकारसमुच्चयार्थवेग व व्याख्यानात् । न हि धमर्यवानुकोऽपि वक्तस्य व्याप्यमिद्यादेइनसाध्यविकलदृष्टान्तादिप्रकारलाभाय चकारकरणत् तदपि "हावनाय, तेन व्याप्यसिद्धिवदृष्टान्तवैकल्यं तेनैव रूपेणोतायतलभ्यते, तददिहापि माध्यामिद्धिखिङ्गांगनाथपार्थकानमाध्याप्रसिद्धलादिनैव उद्भाव्यं न त्वन्यथेति सर्व समञ्चसं । गतसम्भवेऽननुगतं हेयमित्यरुचि सममिकत्याह, 'अन्येविति।
श्रीजयंदेवमित्रविरचितः हेत्वाभासानामसाधकतासाथनिरूपणलोकः।
समाप्ता बाधान्तानुमानखण्डटिप्पनी ।
Page #997
--------------------------------------------------------------------------
Page #998
--------------------------------------------------------------------------
Page #999
--------------------------------------------------------------------------
Page #1000
--------------------------------------------------------------------------
Page #1001
--------------------------------------------------------------------------
Page #1002
--------------------------------------------------------------------------
________________ 16091 ROYAL ASIATIC SOCIETY OF BENGAL LIBRARY . Author. Gangesha Title. Tattvachintaman'i Call No./81.6.G197- T. K *.2. Date of Issue Issued to Date of Return 4.12.54. Jadunath sinha. 3) 3.55. 9.1.56. Do, Do. 19.3.56. Library of the ROYAL ASIATIC SOCIETY OF BENGAL Call No./8654:6.1.9.7:.T..K. Accession No.16.0.9L........