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।। अनंतलब्धिनिधान श्री गौतमस्वामिने नमः ॥
॥ योगनिष्ठ आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ॥
॥ कोबातीर्थमंडन श्री महावीरस्वामिने नमः ।।
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आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर
Websiet : www.kobatirth.org Email: Kendra@kobatirth.org
पुनितप्रेरणा व आशीर्वाद
राष्ट्रसंत श्रुतोद्धारक आचार्यदेव श्रीमत् पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा.
महावीर
श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र
आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर - श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोवा, गांधीनगर-३८२००७ (गुजरात) (079) 23276252, 23276204 फेक्स: 23276249
जैन मुद्रित ग्रंथ स्केनिंग प्रकल्प
ग्रंथांक : १
जैन
।। गणधर भगवंत श्री सुधर्मास्वामिने नमः ।।
॥ चारित्रचूडामणि आचार्य श्रीमद् कैलाससागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ॥
अमृतं
आराधना
तु
विद्या
केन्द्र
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कोबा.
शहर शाखा
आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर शहर शाखा आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर त्रण बंगला, टोलकनगर परिवार डाइनिंग हॉल की गली में पालडी, अहमदाबाद - ३८०००७ (079) 26582355
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TARKAMRTA
OF
MM. JAGADISA TARKALAMKARA
जा. भी
BY
महाबीर
बि.
With VIVRITI COMMENTARY
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SIRWILLIAMJONES
MAHOPADHYAYA JIBAN KRISHNA TARKATIRTHA
MDCCXLVI-MDCCXCM
सागर सूरि जानम दि आराधना केन्द्र, कोणा पिन-382009.
1974
THE ASIATIC SOCIETY
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तर्का मृतम्
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1
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BIBLIOTHECA INDICA-A COLLECTION OF ORIENTAL WORKS
TARKĀMRTA
OF
MM. JAGADĪŠA TARKALAṀKARA
With VIVRITI COMMENTARY
BY
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MAHOPADHYAYA JIBAN KRISHNA TARKATIRTHA
SIR WILLAMJONES
MDCCXLVI-MDCCXCM
THE ASIATIC SOCIETY
1974
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BIBLIOTHECA INDICA-A COLLECTION OF ORIENTAL WORKS
महामहोपाध्यायश्रीजगदीशतर्कालङ्कारविरचितम्
तामृतम्
महोपाध्याय श्रीजीवनकृष्णतर्फ तीर्थविरचितया
विवृत्या सहितम्
SIR WILLAMJONES
MDCCXLVI-MDCCXCM
दि ए शि या टिक सो सा ई टिं
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Wort Number-902
The Asiatio Society
First Published in 1974
Published by ; Dr Sisir Kumar Mitra General Secretary The Asistio Society 1 Park Street Caloutta 16
Printed by : Shri Lakshmi Kanta Panda Adi Mudrani 71 Kailash Bose Street Caloutta 6
Price : Rs. 20.00
$ 3.50 £ 1:50
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PREFACE
THE Tarkamita is one of the original texts on Navya Nyaya (Neo-logic) from the pen of Mahāmahopadhyaya Jagadīśa Tarkālaṁkāra Bhattacharyya, who flourished in Navadvipa (West Bengal) towards the end of 16th and early 17th century. The illustrious Mahāmahopadhyaya in a lucid style analysed critically the categories (Padartha) accepted by the Navya-Nyāya school in this concise treatise.
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Mahopadhyaya Jivan Krishna Tarkatirtha deserves our congratulations for preparing an elaborate commentary on this important text not attempted before. It removes a long felt want of the students of logic and philosophy. The commentary bears the stamp of profound knowledge of Pandit Jivan Krishna as well as his capacity of elucidating the abstruse themes of modern logic. We are also thankful to Dr. H. K. De Choudhuri for his kind co-operation in the publication of the volume.
May 1974
The Asiatic Society undertook publication of the text with commentary on the suggestion of late Mm. Pandit Kalipada Tarkācharyya and is pleased to present it to the scholars.
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S. K. MITRA General Secretary
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॥ तर्कामृतम् ॥ ब्रह्माद्या निखिलाञ्चितास्त्रिदशसन्दोहाः सदाभीष्टदा अज्ञानप्रशमाय यत्र मनसो वृत्ति समस्तां दधुः । श्रीविष्णोश्चरणाम्बुजं भवभयध्वंसैकवीजं परं हृत्पद्म विनिधाय तन्निरुपमं तर्कामृतं तन्यते ॥१॥
- ॥ विवृतिः ॥ श्रीकृष्णचरणाम्भोजमज्ञानध्वान्तनाशनम् । ज्ञानज्योतिःप्रदं सम्यग्विघ्नविध्वंसकारणम् ॥ निधाय मानसे भक्त्याक्षपादप्रतिमं गुरुम् । महामहोपाध्यायं तं नवद्वीपदिवाकरम् ॥ समुज्ज्वलप्रशालोकालोकितक्षितिमण्डलम् । प्रणम्य कामाख्यानाथतर्कवागीशमच्चितम् ।। तर्कामृताख्यो यो ग्रन्थो जगदीशेन निम्मितः । विप्रो जीवनकृष्णस्तं विवृणोति यथामति ।।
तत्र तावतर्कामृतारख्य ग्रन्थं चिकीर्षुस्तत्रभवान् जगदीशतर्कालङ्कारो निम्विघ्नपरिसमाप्तये शिष्टाचारानुमितया 'समाप्तिकामो मङ्गलमाचरेत्' इति श्रुत्या बोधितकर्त्तन्यताकमिष्टदेवतानमस्कृतिरूपं मङ्गलं समाचरन् शिष्यशिक्षायै निबध्नाति ब्रह्माद्या इत्यादि। अज्ञानप्रशमायेति। ज्ञानसाध्ये ग्रन्थप्रणयने प्रतिबन्धकं मदीयाज्ञानं विनश्यत्विति तात्पर्य्यम् । यतकिञ्चिन्मानसत्तिधारणस्याज्ञानानिवर्तकत्वादुक्तं समस्तामिति । स्वग्रन्थे प्रेक्षावत्प्रवृत्तयेऽभिधेयं प्रदर्शयति तर्कामृतमिति । नात्र तर्कपदमापत्तिमात्रपरंतन्मात्रस्य प्रदर्शने न्यूनतापत्तेः किन्तु तय॑न्ते प्रतिपाद्यन्ते इति-व्युत्पत्त्या भावादिपरमिति बोध्यम् । ग्रन्थाभिधेययो: ज्ञाप्यज्ञापकभावः सम्बन्धः। प्रयोजनन्तु भावादिपदार्थतत्त्वज्ञानद्वारामोक्ष इत्यवधेयम् । तथा च 'ज्ञाताथं ज्ञातसम्बन्ध श्रोतुं श्रोता प्रवर्तते। शास्त्रादौ तेन वक्तव्यः सम्बन्धः सप्रयोजनः' ॥ इति प्रेक्षा- वत्प्रवर्तकं वचनम् ॥१॥
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[ २ ] ॥ तर्कामृतम् ॥
अतः 'आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः' इति । अस्यार्थः- मुमुक्षुणा आत्मा द्रष्टव्यः, मुमुक्षोरात्मदर्शनमिष्टसाधनमिति यावत् । आत्मदर्शनोपायः क इत्यत्राह श्रोतव्य इत्यादि । तेनार्थ क्रमेण शाब्दक्रमस्त्यक्तो भवति 'अग्निहोत्र ं जुहोति' 'यवागूं पचति' इत्यादिवत् । तथा च श्रवणमनन निदिध्यासनानि तत्त्वज्ञानजनकानीत्युक्तं भवति । अत्र श्रुतितः कृतात्मश्रवणस्य मननेऽधिकारः मननञ्च आत्मन इतरभिन्नत्वेनानुमानं तच्च भेदप्रतियोगीतरज्ञानसाध्यम्, तथाचेतरदेव कियदित्येतदर्थं पदार्थ निरूपणम् ॥२॥
॥ विवृतिः ॥
धर्मार्थकामानामखिलदुःखनिदानानिवर्त्तकत्वेन परमपुरुषार्थत्वाभावानिःश्रयसस्य च सर्वानर्थोपरमस्यात्मतत्त्वसाक्षात् कार साध्यत्वादात्मतत्त्वसाक्षात्कारस्य च श्रवणादिसाध्यस्य निखिलप्रपंचधम्मिकानात्मत्वनिश्चयं विनाऽसम्भवात् पदार्थ - निरूपणद्वारा मननोपयोगित्वेन प्रपंचं प्रपञ्चयिष्यन् वृहदारण्यकश्रु त्योपयातं प्रक्रमते अथ श्रुतिरिति । द्रष्टव्य इति । मानससाक्षात् कारविषयीभूतः कर्तव्य इत्यर्थः । आत्ममानससाक्षात्कारे आत्मश्रवणादीनां कारणत्वादाह श्रोतव्य इत्यादि । श्रोतव्यःशाब्दबोधविषयीभूतः कर्त्तव्यः । मन्तव्यः - इतरभिन्नत्वेनानुमातव्यः । ननु कथमेतत् संगच्छते शाब्दसिद्ध रनुमितिप्रति बन्धिकायाः सत्त्वादिति चेन्न सिसाधयिषाविरहविशिटाया एव सिद्धेरनुमितिप्रतिबन्धकत्वात । अत्र तु मुमुक्षोः सिसाधयिषासत्त्वेनानुपपत्तिविरहात् । निदिध्यासितव्य इति । सततं ध्यानविषयोभूतः कर्त्तव्य इत्यर्थः । तथाचोक्त ं 'श्रोतव्यः श्रुतिवाक्येभ्यः मन्तव्यश्चोपपत्तिभिः । मत्त्वा च सततंध्येय एते दर्शनहेतवः ' ॥ इति ॥ द्रष्टव्य इत्यत्र तव्यप्रत्ययार्थं विवृणोति इष्टसाधनमिति । श्रवणादीनामात्मदर्शने किंविधयोपयोगित्वमिति प्रतिपादयितुमाहात्मदर्शनोपाय इति । ननु श्रवणादीनामात्मदर्शनं प्रति हेतुत्वात् 'निदिध्यासितव्यः' इत्यस्यानन्तरमेव 'द्रष्टव्यः' इत्यस्याभिधानमुचितम् । तथा च 'ब्रीहीन प्रोक्षति' 'ब्रीहीन् अवहन्ति' इत्यादिवच्छब्दार्थकमयोरव्यभिचार उपपद्यते । उक्तश्रुतौ तु तथानभिधानात् शब्दार्थ क्रमयोर्व्यभिचार इत्याशङ्कामपनेतुमाहार्थ कमेणेत्यादि । अयम्भावः - अर्थाः - आत्मदर्शनन्तद्धे तवः श्रवणादयश्च तत्सम्बन्धी यः क्रमः – पौर्वापर्यम् - कार्यस्य कारणोत्तरभावित्वं, तेनार्थ क्रमेण, शब्दाः - द्रष्टव्यः श्रोतव्य इत्यादयः, तत्सम्बन्धी यः क्रमः द्रष्टव्यशब्दस्य पश्चादभिधीयत्वमानत्रूपः शाब्दक्रमः परित्यक्तो भवतीति । तथाचाक्रमतः शब्दाभि
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[ ३ . धाने अप्यार्थक्रमस्यान्यथाकन्तु मशक्यत्वाच्छन्दक्रमोऽकिंचित्कर इति भावः । इममेवार्थमनुरूपदृष्टान्तेन द्रढयति अग्निहोत्रमित्यादि । यवागूपचनाभिधायकवाक्यस्याक्रमतः पश्चादभिहितत्वेऽपि अग्निहोत्रहवने होमद्रव्य-यवागूपाकानन्तरभाविताया अव्यभिचारादार्थक्रम उपपन्न इति तात्पर्य्यम् । श्रुतेःपर्यवसितार्थमाह श्रवणेत्यादि । तत्त्वज्ञानजनकानीति । तत्त्वज्ञानं देहादिभिन्नत्वेनात्मसाक्षात्कारस्तज्जनकानीत्यर्थः । तत्र निदिध्यासनस्य साक्षाज्जनकत्वमितरयोस्तु परम्परयेति बोध्यम् । श्रुतित इति । अत्र श्रुतिपदं स्मृतीतिहासादेरप्युपलक्षकम् । तदुक्तमाचार्यैः 'श्रतो हि भगवान् वहुशः श्रुतिस्मृतीतिहासपुराणादिषु' इति । कृतात्मश्रवणस्येति । कृतमात्मश्रवणमात्मविषयकशाब्दबोधरूपं येनेत्यर्थः। श्रुतौ यो मननपदार्थस्तमाह मननं चेति। अनुमितेः पक्षप्रदर्शनायाहात्मन इति । तथा चात्मा इतरेभ्यो भिद्यते आत्मत्वात्, य इतरेभ्यो न भिद्यते स न आत्मा यथा घटादिः, न तथा चायम्, तस्मान्न तथेति व्यतिरेकिप्रयोगो वेदितव्यो य आत्मा स इतरेभ्यो भिद्यते इत्याद्यन्वयिप्रयोगो न सम्भवत्यात्ममात्त्रस्य पक्षत्वात्। पदार्थज्ञानं विना तादृशानुमानस्यासम्भवादाह तच्चेति। उक्तानुमानं चेत्यर्थः। पदार्थज्ञानस्य साध्यज्ञानसाधकत्वादाह इतरज्ञानसाध्यमिति । अभाववोधमात्रस्यैव विशिष्टवैशिष्ट्यावगाहिबोधात्मकत्वात् सुतरां विशिष्टज्ञानत्वाच्च प्रतियोगिज्ञानस्य विशेषणतावच्छे दकप्रकारकनिर्णयत्वेन वा विशेषणज्ञानत्वेन वा प्रतियोगिज्ञानत्वेन वाऽभावबुद्धौ कारणतायाः कल्पनादिनि भावः । विषयतया ज्ञानं प्रति तादात्म्येन विषयत्वेन हेतुत्वादितरज्ञानस्य विषयं दर्शयितुमाह तथाचेत्यादि । इतरदेव कियदित्येतदर्थमिति । इतरदेव कियदितिजिज्ञासाविनिवृत्त्यर्थमित्यर्थः। शिष्यावधानाय प्रतिजानीते पदार्थनिरूपणमिति । क्रियत इति शेषः । पदार्थाः-वक्ष्यमाणभावादिपदप्रतिपाद्या अर्थास्तेषां निरूपणं-प्रतिपत्त्यनुकूलव्यापार इत्यर्थः । ननु कथमेतत् संगच्छतेऽग्रे 'आत्मा द्विविधो जीवात्मा परमात्मा च' इत्यनेनात्मनो निरूपणादर्थान्तरादिति चेन्न अनात्मपदार्थानामनिरूपणे साध्यज्ञानाभावादिवात्मनोऽनिरूपणे पक्षज्ञा. नविरहादपि मननानुपपत्तेरात्मन आकांक्षितत्वात् । तथा च साध्यघटकत्वेनानात्मनां पक्षत्वेन चात्मनो निरूपणमिति हृदयम् ॥२॥
॥ तर्कामृतम् । . सामान्यतः पदार्थो द्विविधो भावोऽभावश्च । भावः षडूविधो द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायभेदात् । तत्र द्रव्यत्वगुणत्वकर्मत्वानि जातयः, सामान्यत्वादीनि उपाधयः। द्रव्याणि नव पृथिव्यप्तेजोवाय्वाकाशकालदिगात्ममनांसि । आकाशत्वकालत्वदिक्त्वान्युपाधयः, अन्यानि जातयः ॥ ३॥
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[ ४ ]
॥ विवृतिः ॥
यद्यपि सूत्रकारैर्द्रव्यत्वादिनैव पदार्थविभजनं विहितं न तु भावत्वादिना तथापि द्रव्यादिष्वनुगतभावत्वादिसत्त्वाद् भावत्वादिना विभागः समुचितः सत्यनुगतविभाजक - व्यापक धर्मान्तरे तत्परित्यागस्यानुचितत्वादित्याशयेनाह सामान्यत इति । विशेषरूपेणाविवक्षात इत्यर्थः । पदार्थविभाजकावान्तरोपाधिद्वय विशिष्ट इत्यर्थस्तेन पदार्थानामानन्त्येऽपि न क्षतिः । अत्र विधप्रत्ययार्थस्तु उद्देश्यतावच्छेदकसमनियतवस्तुमदन्यसंख्यावत्त्वम् । उद्देश्यतावच्छेदकं च पदार्थत्वम् । समनियतत्वं च व्यापकत्वे सति व्याप्यत्वम् । व्यापकत्वं व्याप्यत्वं च स्वाश्रयाश्रयत्वसम्बन्धेन । वस्तुमदन्यत्वं संख्याविशेषणम् । तादृशी च संख्या मावत्वाभावत्वगता द्वित्वरूपा । वस्तुमत्त्वं च स्ववृत्तित्वस्वान्यस्वसमानाधिकरणवृत्तित्वोभयसम्बन्धेन ग्राह्यम् । भावोऽभावश्चेति । तत्र भावत्वं द्रव्यादिषट्कान्यतमत्वमभावत्वं च द्रव्यादिषट् कान्योन्याभाववत्त्वमखण्डोपाधिर्व्वा ।
ननु कथं भावत्वेन पदार्थ विभागः सङ्गच्छते सर्व्वेषामेव पदार्थानामभावात्मकत्वात् तथाहि यथा द्रव्याभावोऽभावस्तथा द्रव्यमपि द्रव्याभावाभावस्यैव द्रव्यात्मकत्वात् । एवं गुणादावपि । उच्यते । कुत्रचिद्भावत्वस्यासिद्धत्वेऽभावत्वस्याप्यसिद्धिर्भावनिष्ठप्रतियोगिता निरूपकस्यैवाभावत्वनियमात् । तथा चाभावत्वस्योपपत्तये भाव - त्वस्याम्युपगम आवश्यकः । न चाभावत्वस्याखण्डीपाधिरूपत्वान्नानुपपत्तिरिति वाच्यं तथात्वे विनिगमनाविरहाद् भावत्वस्यापि तद्रूपताया अभ्युपगमात् । किञ्च 'घटेन जलमाहर' इत्यादिव्यवहारात् 'घटाभावाभावेन जलमाहर' इत्याद्यव्यवहाराच्च जलाहरणादिहेतुत्वस्याभावत्वासहचरितत्वेनानुभूयमानस्य भावत्वसाधकत्वोपगमात् ।
ननु कणादैश्चतुर्थसूत्र भावस्यानुद्देशात् कथमभावत्वस्य पदार्थविभाजकत्वमिति चेन्नाभावत्वस्य साक्षादनुद्दिष्टत्वेऽपि भावविरोधितयानुभूयमानस्यापलपितुमशक्यत्वात् । तदुक्त' 'अभावश्च वक्तव्यो निःश्रेयसोपयोगित्वाद्भावप्रपञ्चवत् । कारणाभावेन कार्याभावस्य सर्व्वमतसिद्धत्वादुपयोगित्वासिद्ध:' इतिवल्लभाचार्यैः । श्राचार्यैरपि 'अभावस्तु स्वरूपवानपि नोद्दिष्टः प्रतियोगिनिरूपणाधीननिरूपणत्वान्नतु तुच्छस्वात्' इति ।
भावं विभजते षविध इति । तद्विधाः प्रदर्शयति द्रव्यगुणकर्मेत्यादि । तत्र शास्त्रस्य परमप्रयोजनापवर्गभागित्वादितरपदार्थाश्रयत्वाञ्चादौ द्रव्यस्य ततो द्रव्याश्रितत्वाद् द्रव्याभिव्यङ्ग्यत्वाच्च गुणस्य ततो द्रव्यजन्यत्वाद् गुणजन्यत्वाञ्च कर्म्मणस्ततो द्रव्यगुणकर्माश्रितत्वात् सामान्यस्य ततो द्रव्ये सामान्यसमानाधिकरणत्वाद्विशेषस्य ततो विशेष सम्बन्धत्वात् समवायस्योल्लेख इति बोध्यम् ।
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भावाश्रितानां द्रव्यत्वादीनां षण्णामसाधारणधर्माणामेकरूपत्वविरहाद् भेदं प्रदर्शयितुमाह तत्र द्रव्यत्वेत्यादि । जातय इति । जातित्वन्तावन्नित्यानेकसमवेतत्वरूपम्। तत्र द्रव्यत्वस्य संयोगादिसमवायिकारणतावच्छेदकतया गुणत्वस्य कर्मत्वस्य च गुणकर्मनिष्ठकारणतावच्छेदकतयानुगतप्रत्यक्षविषयतया वा जातित्वमवसेयम् । न हि तत्तनिष्ठस्य कारणत्वस्य निरवच्छिन्नत्वमन्यधर्मावच्छिन्नत्वम्वा निरवच्छिन्नकारणत्वस्य तत्रासिद्धत्वादन्यधर्मस्य च न्यूनातिरिक्तवृत्तित्वेनानवच्छेदकत्वात्। सामान्यत्वादीनीति । आदिना विशेषत्वादेरुपग्रहः। उपाधय इति । अखण्डधर्मा इत्यर्थः। न च सामान्यत्वादेन कथं जातित्वमिति वाच्यम् बाधकषट्काभावस्य जातित्वनियामकत्वादत्र त्वनवस्थादेबर्बाधकस्य सत्त्वात् । तदुक्तं 'व्यक्तेरभेदस्तुल्यत्वं सङ्करोऽथानवस्थितिः। रूपहानिरसम्बन्धो जातिबाधकसंग्रहः' ॥ इति ॥ ___भावेषु द्रव्यं विभजते द्रव्याणि नवेत्यादि। पृथिव्याद्याश्रितेषु साधारणधर्मेषु जातीनामुपाध्यपेक्षया बाहुल्याल्लाघवत आदावुपाधीनेव विशिष्य निर्दिशत्याका शत्वेत्यादि । एतेनोद्देशक्रममङ्ग इति निरस्तम्। उपाधय इति । अखण्डधर्मा इत्यर्थः। एकव्यक्तिवृत्तिकत्वेन जातित्वविरहादिति भावः। अन्यानोति । आकाशस्वादिभ्यो भिन्नानि पृथिवीत्वादीनीत्यर्थः । तेषाञ्च गन्धादिसमवायिकारणतावच्छेदकतया जातित्वं सिद्धम् । आत्मत्वजातिस्तु सुखादिसमवायिकारणतावच्छेदकतया सिद्धापीश्वरे न वर्तते सुखाद्य तपादप्रसङ्गान्नित्यस्य स्वरूपयोग्यत्वे फलावश्यम्भावनियमादित्येके । अन्ये तुक्तनियमस्याप्रयोयकत्वाददृष्टादिरूपकारणविरहादेव सुखाद्यनुत्पादोपपत्तेरीश्वरेऽप्यात्मन्वं विद्यत एव । अतएव 'आत्मा वाऽरेद्रष्टव्यः' इत्यादिश्रुतौ 'अहमात्मा गुड़ाकेशः सर्वभूताशयस्थितः' इति भगवद्वाक्ये चेश्वरमभिप्रेत्यात्मशब्दप्रयोगः सङ्गच्छत इति प्राहुः ॥३॥
॥ तर्कामृतम् ॥ तत्र रूपरसगन्धस्पर्शसंख्यापरिमाणपृथक्त्वसंयोगविभागपरत्वापरत्वगुरुत्वद्रवत्वसंस्काराश्चतुर्दशगुणाः पृथिव्याम् । तत्रैव गन्धं विहाय स्नेहं विनियोज्य चतुर्दशगुणा जलस्य। रूपस्पर्शसंख्यापरिमाणपृथक्त्वसंयोगविभागपरत्वापरत्वद्रवत्वसंस्कारा एकादश गुणास्तेजसः। स्पर्शसंख्यापरिमाणपृथक्त्वसंयोगविभागपरत्वापरत्वसंस्कारा नव गुणा वायोः। शब्दसंख्यापरिमाणपृथक्त्वसंयोगविभागाः षडू गुणा आकाशस्य । संख्यापरिमाणपृथक्त्वसंयोगविभागाः पञ्च गुणाः कालदिशोः। संख्यापरिमाणपृथक्त्वसंयोगविभागबुद्धिसुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्नधर्माधर्मसंस्काराश्चतुर्दश गुणा आत्मनः।
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[ ६ ] संख्यापरिमाणपृथक्त्वसंयोगविभागपरत्वापरत्वसंस्कारा अष्टौ गुणा मनसः। ज्ञानेच्छाकृतिसंख्यादिपञ्चकमष्टौ गुणा ईश्वरस्य । तथाच
'वायोर्न वैकादश तेजसो गुणा जलक्षितिप्राणभृतां चतुर्दश । दिक्कालयोः पञ्च षड़ेव चाम्बरे महेश्वरेऽष्टौ मनसस्तथैव' ॥४॥
___ - ॥ विवृतिः ॥ अथ साधर्म्यवैधम्म्यंप्रदर्शनार्थं कस्य द्रव्यस्य कियत्संख्यकगुणवत्त्वं साधर्म्यमिति निरूपयति तत्र रूपरसेत्यादि। न चात्र कथं गुणानामुद्देशव्यतिक्रम इति शङक्यं द्रव्यविचारस्यावशिष्यमानत्वादन गुणोद्देशस्य क्रियमाणत्वाच्च । आत्मन इति । जीवस्येत्यर्थः। ईश्वरस्य सुखादिविरहात् पृथग्वक्ष्यमाणत्वाच्च। स्वोक्तं तत्तद्रव्ये तत्तद्गुणवत्त्वंसाधयं प्राचीनसंवादेन द्रढ़यति वायोरित्यादि । प्राणभृतां-जीवानाम् । महेश्वरे-परमात्मनि ॥४॥
॥ तर्कामृतम् ॥ पृथिवीजलतेजोवायवो द्विविधाः परमाणवः सावयवाश्च । आकाशकालात्मदिशो विभुरूपाः। मनः परमाणुरूपम् । तत्र सावयवा अनित्या इतराणि नित्यानि । सावयवा अपि त्रिविधाः शरीरेन्द्रियविषयभेदात्। मानुषं शरीरं पार्थिवम् । जलीयं शरीरं वरुणलोके प्रसिद्धम् । तैजसं शरीरमादित्यलोके । वायवीयं शरीरं वायुलोके । घ्राणेन्द्रियं पार्थिवम् । रसनेन्द्रियं जलीयम् । चक्षुरिन्द्रियं तैजसम् । त्वगिन्द्रियं वायवीयम् । श्रोत्र न्द्रियं कर्णशष्कुल्यवछिन्नं नभ प्रदेशः। एतानि पञ्च बहिरिन्द्रियाणि। मनोऽन्तरिन्द्रियम् । तेन षडिन्द्रियाणि। विषयाश्च शब्दादिरूपेण प्रसिद्धाः। आत्मा द्विविधो जीवात्मा परमात्मा च । तत्र जीवात्मानः प्रतिशरीरं भिन्ना बन्धमोक्षयोग्याः। परमात्मा ईश्वरः ॥५॥
॥विवृतिः॥ अथोद्दिष्टद्रव्याणि विचारयितुमुपक्रमते तत्र पृथिवीजलेत्यादि । परमाणवइति एतेषां येऽविभाज्याः परमसूक्ष्मतमाश्चरमोपादानभूतास्तइत्यर्थः । सावयवा इति । अवयवाः समवायिकारणं तत्र समवेता दू यणुकाद्या अन्त्यावयव्यन्ता इत्यर्थः। आकाशादोनामवयवावयविभावासिद्ध राह विभुरूपा इति। परममहत्परिमाणविशिष्टा इत्यर्थः । सर्वत्र शब्दोत्पत्तेराकाशस्य, मूर्त्तमात्रे ज्येष्ठत्वकनिष्ठत्वोत्पत्तः कालस्य, सर्वत्र ज्ञानीत्पत्तेरात्मनः, सर्वमूर्ते दूरत्वसामीप्योत्पत्तेश्च दिशो विभुत्वमभ्युपेयमिति भावः । मनसो विभुत्वे विभुद्वयसंयोगानुपगमे आत्ममनःसंयोगासिद्धयाऽसमवायि
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[ ७ ] कारणामावाज्ज्ञानानुत्पादप्रसङ्गेन सुषुप्त्युच्छेदापत्तिश्च स्यादत आह मनःपरमाणुरूपमिति। न चोक्तदूषनान्मनसो विभुत्वं न स्यात् किन्तु घटादिवन्मध्यमपरिमाणे का क्षतिरिति वाच्यम्, तथा सति तस्मिन् युगपन्नानेन्द्रियसन्निकर्षसम्भवाचाक्षुषादिविजातीयज्ञानानां साङ्कयंप्रसङ्गात्। न च चाक्षुषाद्य कजातीयज्ञानं प्रति तद्विजातीयज्ञानसामग्याः प्रतिबन्धकत्वकल्पनान्नैष दोष इति वाच्यं कारणतावच्छेदकगौरवापत्तेः। सावयवा अनित्या इति । कारणनाशजन्यनाशप्रतियोगित्वादित्यर्थः। इतराणि-निरवयवानि । नित्यानीति । कारणासत्त्वादिति भावः। पुनविभजते सावयवा अपीत्यादि। विधात्रयमाह शरीरेत्यादि । तत्र शरीरत्वं चेष्टेन्द्रियार्थाश्रयत्वं प्रयत्नवदात्मसंयोगासमवायिकारणकक्रियावदन्त्यावयवित्वञ्चेष्टावदन्त्यावयवित्वम्वा न जातिः पृथिवीत्वादिना सह साङ्कर्यप्रसङ्गात् । इन्द्रियत्वं स्मृत्यजनकज्ञानजनकमनःसंयोगाश्रयत्वं शब्देनरोद्भूतविशेषगुणानाश्रयत्वे सति ज्ञानकारणमनःसंयोगाश्रयत्वम्वा न जातिः पृथिवीत्वादिना सह साङ्कर्यप्रसङ्गात् । विषयत्वन्तु देहेन्द्रियभिन्नत्वम् । सावयवभेदं शरीरं निर्दिशति मानुषशरीरमिति । मानुषादीनां शरीरमित्यर्थः। पार्थिवमिति । पृथिवीमात्रोपादानकमित्यर्थः । प्रत्यक्षसिद्धमिति शेषः। पार्थिवत्वे प्रमाणन्तु गन्धादिमत्त्वमितिभावः । - यद्यपि मानुषादिशरीरे स्नेहोष्णस्पर्शादेः सत्त्वाज्जलीयत्वादेरप्यापत्तिः सम्भवति तथापि पृथिव्या एव तत्रोपादानत्वमपरचतुर्भूतानान्तूपभोगसाधकतया निमित्तत्वमेकत्र विजातीयानेकद्रव्योपादानकत्वबाधादित्यदोषः । एवमेव जलीयादिशरीराण्यपि व्याख्येयानि । पार्थिवादिभेदेन शरीरस्य चतुविधत्वाज्जलीयादिशरीराणि निद्दिशति जलीयमित्यादिना। वरुणलोके प्रसिद्धमिति । आगमादिप्रसिद्ध रिति शेषः। वायुलोके इति । तथाचैतच्चतुविधशरीरेषु 'द्विधा विधाय चैकैकं चतुर्दा प्रथमं पुनः। स्वस्वे. तरद्वितीयांशैर्योजनात् पञ्च पञ्च ते॥ इति पञ्चदशोकारोक्तमविरुद्धमित्ति मन्तव्यम् ।
सावयवभेदान्तरमिन्द्रियं निरूपयति घ्राणेन्द्रियमित्यादि। पार्थिवमिति । गन्धमात्राभिव्यञ्जकद्रव्यत्वादिति शेषः। जलीयमिति । रसमात्राभिव्यञ्जकत्वादिति शेषः। तेजसमिति। स्पर्शाद्यव्यञ्जकत्वे सति रूपव्यञ्जकद्रव्यत्वादिति शेषः। वायवीयमिति । विजातीयस्पर्शाभिव्यञ्जकद्रव्यत्वादिति शेषः। श्रवणेन्द्रियस्य स्वरूपप्रदर्शनेन तस्याकाशत्वमाह कर्णशष्कुल्येत्यादि । तथा च कर्णशष्कुल्यवच्छेदेनैव शब्दग्रहाच्छब्दाश्रयत्वस्यैव आकाशत्वाच्छोत्रस्याकाशात्मकत्वं स्पष्टमिति भावः। उपसंहर्त्त माह एतानीत्यादि । वहिरिन्द्रियाणीति । अत्र वहिष्ट न तावन्महद्ग्राहकत्वमात्मनोऽपि महत्त्वात्, नाप्यात्मभिन्नद्रव्यग्राहकत्वमाकाशादेरपि तादृशद्रव्य
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[८] त्वात् । नापि विम्वन्यद्रव्यग्राहकत्वं परमाण्वादेर्मनसश्च तथाविधद्रव्यत्वात्, कित्वात्मबुद्धि-सुख-दुःख-इच्छा-द्वेष-प्रयत्न-तत्तन्मात्रवृत्तिजात्यन्यपदार्थलौकिकप्रत्यक्षकरणत्वरूपं बोध्यम् । तथा च परमाणुद यणुकगगनादिपञ्चकगुरुत्वादीनामतीन्द्रियत्वाल्लौकिकप्रत्यक्षाविषयतया न काचिदनुपपत्तिः। अथ वा घ्राणादिपञ्चकान्यतमत्वमेव लाघवाद्वहिष्ट्वं वाच्यम् । मनस इन्द्रियत्वेऽप्युक्तपञ्चकभिन्नत्वादाह मनोऽन्तरिन्द्रिय मिति । अत्रान्तस्त्वं नामोक्तभेदप्रतियोगिपदार्थलौकिकप्रत्यक्षकरणत्वं प्राणाद्यन्यत्वे सतीन्द्रियत्वम्वा। .
निरवयवत्वेनाकाशादीनां तुल्यत्वेऽपि तेष्वात्मन एव प्रत्यक्षविषयत्वात् प्रत्यक्षकरणेन्द्रियनिरूपणप्रसङ्गे नाहात्मा द्विविध इति। जीवानां प्रतिदेहं भिन्नत्वाभावे चैत्रमैत्रादेर्भोगादिवैचित्र्यं बन्धमोक्षव्यवस्थादिश्च नोपपद्यतेऽत आह प्रतिशरीरं भिन्ना इति । वन्धमोक्षयोग्या इति । बन्धो मिथ्याज्ञानमनात्मन्यात्मत्वप्रकारकमात्मन्यनात्मत्वप्रकारकम्वा। मोक्षस्त्वात्यन्तिकीदुःखनिवृत्तिरिति बोध्यम् । परमात्माईश्वर इति । ईश्वरात्मनः परमत्वञ्च सुखदुःखादिराहित्यम् । तथा चेश्वराज्जीवो भिद्यते सुखादिमत्त्वादिति भावः। अत्रै कवचननिर्देशादीश्वरस्यैकत्वं बोध्यमन्यथा वैफल्यापत्तिः सृष्टाद्यनुपपत्तिश्च द्रष्टव्या ॥५॥
॥ तर्कामृतम् ॥ अथ प्रत्यक्षाप्रत्यक्षद्रव्याणि । परमाणुद यणु के प्रत्यक्षे। महदुद्भूतरूपवत्त्वं यत्र तानि पृथिवीजलतेजांसि प्रत्यक्षाणि। आत्मा च प्रत्यक्षः। वाय्वाकाशकालदिङ मनांसि तु अप्रत्यक्षाणि। वहिर्द्रव्यशप्रत्यक्षं प्रति महत्त्वे सत्युद्भूतरूपवन्त्वं प्रयोजकम् ॥६॥
॥ विवृतिः ॥ अथ विशेषप्रतिपत्त्यर्थं पुनर्द्रव्यं विचारयितुमुपक्रमते प्रत्यक्षाप्रत्यक्षेति। अप्रत्यक्षे इति। लौकिकप्रत्यक्षायोग्ये इत्यर्थो योगिनामलौकिकप्रत्यक्षगोचरत्वादिति भावः। बहिलौकिकप्रत्यक्षकारणमाह महदुद्भूतेत्यादि। अणुद्व यप्णुकयोरतिव्याप्तिवारणाय महदिति । प्राणादावनतिप्रसक्तये उद्भूतेति । वायावतिप्रसङ्गनिरासार्थमाह रूपेति । वस्तुतस्तु अत्र 'तानि पृथिवीजलतेजांसि' इत्युक्तेर्वायोरलक्ष्यत्वमेवातो महत्त्वमात्रस्य प्रयोजकत्वामिधानेऽपि न दोषस्त्र्यणुकादारभ्यान्त्यावयविपर्य्यन्तानां सर्वेषामेव पृथिव्यादित्रयाणां महत्त्ववत्त्वादिति ध्येयम् । वहिरिन्द्रियजन्यप्रत्यक्षाविषयत्वेऽपि आत्मनः 'अहं सुखी' इत्यादिरीत्या प्रत्यक्षत्वादाहात्मा चेति । प्रत्यक्ष इति । स्वशरीरावच्छेदेन
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[१] मानसलौकिकप्रत्यक्षविषय इत्यर्थः। परकीयशरीरावच्छेदेन तु प्रवृत्त्यादिनानुमेयत्वं तस्य बोध्यम् । प्रत्यक्षद्रव्याण्युक्त्वाऽप्रत्यक्षद्रव्याणि निरूपयति वाय्वाकाशेति । यद्यप्यणुद यणुकयोरप्रत्यक्षत्वाभिधानेनैव बायवीयपरमाण्वादेरप्रत्यक्षत्वमुक्तमेव तथापि सर्वेषामेवान्त्यावयव्यन्तानां वायूनामप्रत्यक्षत्वसूचनायात्र वायोः प्रवेशः। अप्रत्यक्षाणोति । बहिरिन्द्रियकरणकलौकिकप्रत्यक्षाविषयीभूतानीत्यर्थः। तेन निखिलपदार्थेषु योगिनामलौकिकप्रत्यक्षविषयत्वसत्त्वेऽपि न क्षतिः। इदमत्र भाव्यं 'चक्षुषा रूपेण घटं पश्यामि' 'त्वचा स्पर्शेन वायुगृह्णामि' इत्यादिव्यवहारात् स्वतन्त्रान्वयव्यतिरेकाभ्यां चाक्षुषप्रत्यक्ष रूपस्य, त्वाचप्रत्यक्षे स्पर्शस्य कारणत्वमुपेतव्यन्न तु वहिरिन्द्रियजद्रव्यप्रत्यक्षमात्र रूपस्य हेतुत्वं मानाभावात्। तथा च वायोरपि प्रत्यक्षत्वमेवेति नव्याः। इत्थञ्च तन्मते वायुरप्रत्यक्षो नीरूपवहिव्यत्वादित्यत्र हेतोर्बाधितत्वमुक्तरीत्या वायोः प्रत्यक्षत्वस्य सिद्धत्वात् । यत्त द्वितीयाध्याये कणादेन 'स्पर्शश्च वायोः' इतिसूत्रण वायोरनुमेयत्वमुपपादितं तच्च वायुप्रत्यक्षे विप्रतिपन्नं वोधयितुमिति दिक् । पृथिव्यादित्रयाणामात्मनश्च प्रत्यक्षत्वेऽपि कार्यकारणतावच्छेदकभेदस्य तत्रावश्यकत्वात्तथैवोपसंहरति बहिर्द्रव्येत्यादि। वहि व्वत्वं आत्मान्यद्रव्यत्वम् । आत्मप्रत्यक्षे व्यभिचारवारणाय कार्यतावच्छेदककुक्षौ वहिष्ट्र निवेशितम् । गुणादिप्रत्यक्षेऽव्यभिचारार्थ । तत्र व द्रव्यपदम्। न च प्रत्यक्षस्यात्मनि जायमानत्वात्तत्र च रूपवत्त्वविरहान्न कार्यकारणसामानाधिकरण्यमिति वाच्यं लौकिकविषयत्वस्यैव कार्य्यतावच्छेदकसम्बन्धत्वात् ॥६॥
॥तर्कामृतम् ।। अथ द्रव्योत्पत्तिप्रक्रिया। तत्रोत्पत्तिः कारणवतः। अनन्यथासिद्धनियतपूर्ववत्तिकारणम्। तत्त्वं कारणत्वम् । त्रिविधानि कारणानि-समवायिकारणासमवायिकारणनिमित्तकारणानि । यत् समवेतं कार्यमुत्पद्यते तत् समवायिकारणम्, यथा परमाणुद्वर्यणुकस्य, कपालं घटस्य । समवायिकारणे सम्बद्ध कारणमसमवायिकारणम्, यथा परमाणुद्वयसंयोगो द्व यणुकस्य, कपालरूपं घटरूपस्य । एतदुभयभिन्नं यत् कारणं तन्निमित्तकारणम्, यथा दू यणुके ईश्वरः, घटे दण्डः। एतत् कारणत्रयं भावकार्यमात्रस्य। तत्र समवायिकारणं सर्वत्र द्रव्यमेव । असमवायिकारणं द्रव्ये गुणो गुणे गुणः कर्म च। कार्यमात्र प्रति साधारणकारणानि-ईश्वरस्तज्ज्ञानेच्छाकृतयः प्रागभावकालदिगदृष्टानि। तत्र परमाणुद्वयसंयोगाद् र् यणुकमुत्पद्यते, संयुक्तद्व यणुकत्रयात्रसरेणुः । एवं चतुरणुकादिकपालान्तं, कपालद्वयसंयोगेन घटो जायते, घटस्त्वन्त्यावयवी ॥७॥
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[ १० ।
॥ विवृतिः॥ प्रकारान्तरेण द्रव्यसाधर्म्यवैधर्म्य निरूप्य न्यूनतापरिहाराय जन्यद्रव्याणामुत्पत्तिप्रकारमुपपादयितुमवतारयति अथ द्रव्योत्पत्तिरिति। तत्रेति । द्रव्येषु मध्ये इत्यर्थः । उत्पत्तिरिति । आद्यक्षणसम्बन्ध इत्यर्थः। तदाद्यक्षणत्वञ्च तदधिकरणक्षणध्वंसानधिकरणत्वे सति तदधिकरणक्षणत्वरूपम् । नित्यानामनाद्यनन्तत्वादुत्पत्त्यसम्भवादाह कारणवत इति । प्रागभावप्रतियोगिन इत्यर्थः । कारणस्वरूपं निक्ति अनन्यथासिद्ध ति । अनुगतस्यान्यथासिद्धत्वस्य दुन्निवचत्वाद् यत्र यत्र यद्यत् कार्येऽन्यथासिद्धत्वव्यवहारः प्रामाणिकस्तत्तत्कायें तत्तभेदकूटवदित्यर्थः । अन्यथासिद्धिश्च
'येन सह पूर्वभावः कारणमादाय वा यस्य अन्यं प्रति पूर्वभावे ज्ञाते यत् पूर्वभावविज्ञानम् । जनकं प्रति पूर्ववत्तितामपरिज्ञाय न यस्य गृह्यते,
अतिरिक्तमथापि यद्भवेन्नियतावश्यकपूर्वभाविनः ।। इत्यनेनाभिहिता द्रष्टव्या। मणिकृतस्तु अन्यथासिद्धस्य त्रैविध्यमाहुः। नियतपूर्ववर्तीति। न च नियतपूर्ववत्तित्वनिवेशनं व्यर्थमन्यथासिद्धभिन्नत्वस्यैव लाधवतः कारणत्वादिति वाच्यं भेदकूटलाघवार्थ तन्निवेशस्यावश्यकत्वादन्यथाऽनियतपूर्ववत्तिनामन्यथासिद्धानां भेदस्याप्यन्यथासिद्धभेदकूटमध्ये प्रवेशाद् गौरवापत्तः। नियतपूर्वपत्तित्वञ्च का-व्यवहितप्राक्क्षणावच्छेदेन कार्यसमानाधिकरणात्यन्ताभावप्रतियोगितानवच्छेदकधर्मवत्त्वरूपं बोध्यम् । तथा च घटादिकायें दण्डत्वाद्यन्यथासिद्ध ऽतिव्याप्तिवारणायानन्यथासिद्धेति । विशेषविभागस्य सामान्यलक्षणज्ञानापेक्षत्वात कारणसामान्यलक्षणमुक्त वा कारणविभागमाह त्रिविधानि कारणानीति । विधात्रयं दर्शयति समवायीत्यादि । विभक्तानामपि कारणानामितरेतरव्यावृत्तिज्ञानस्य प्रत्येकलक्षणज्ञानाधीनत्वात् समवायिकारणलक्षणमुद्देशकमेणादावाह यत् समवेतमिति । यस्मिन् समवायसम्बन्धेन वृत्तिमत् सदित्यर्थः। समवायिकारणमिति । समवायसम्बन्धेन कार्याधिकरणवृत्तिभेदप्रतियोगितानवच्छेदकधर्मवत्त्वं समवायिकारणत्वमिति भावः। न च समवायेन घटायधिकरणे कपालादौ द्रव्यत्वादिना भेदस्याप्यसत्त्वादतिव्याप्तिरिति वाच्यं तद्रपेणान्यथासिद्धन्वात् । अत्र कार्यतावच्छेदकसम्बन्धत्वं समवायस्य कारणतावच्छेदकसम्बन्धत्वं तादात्म्यस्येति बोध्यम् । अथवा समवायसम्बन्धावच्छिन्नकार्य्यतावच्छेदकावच्छिन्नाधेयतानिरूपिताधिकरणतावच्छेदकधर्मवत्त्वं समवायिकारणत्वमिति बोध्यम् । लक्ष्यं प्रदर्शयति यथा परमाणुरिति । नित्ये लक्ष्यत्वमुक्त्वाऽनित्ये तदाह कपालमिति ।
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[ ११ ] असमवायिकारणं लक्षयति समवायिकारणे सम्बद्धमिति। समवाय-स्वसमवायिसमवेतत्वान्यतरसम्बन्धेन वृत्तिमत् सदित्यर्थः। तथा च समवायसम्बन्धेन कार्याधिकरणवृत्तिप्रोक्तान्यतरसम्बन्धावच्छिन्नात्यन्ताभावप्रतियोगितानवच्छे दकधर्मवत्त्वमसमवायिकारणत्वमिति भावः । न च समवायसम्बन्धेन घटाधिकरणे प्रोक्तान्यतरसम्बन्धेन द्रव्यत्वादेरप्यभावस्यासत्त्वादतिप्रसङ्ग इति वाच्यं द्रव्यत्वत्वादिपुरष्कारेणान्यथासिद्धत्वात्। अथवात्र सर्वत्र कारणतावछेदकः सम्बन्धः समवायः, कार्य्यतावच्छेदकसम्बन्धस्तु क्वचित् समवायः क्वचिच्च स्वसमवायिसमवायः। तथा च समवायस्वसमवायिसमवायान्यतरसम्बन्धेन कार्याधिकरणवृत्तिसमवायसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकात्यन्ताभावप्रतियोगितानवच्छेदकधर्मवत्त्वं तदिति ज्ञेयम् । अत्रापि तादृशप्रतियोगितानवच्छेदकधर्मान्तरपुरष्कारेणान्यथासिद्धत्वाददोष इति ध्येयम् । समवायसम्बन्धेन लक्ष्यमुदाहरति परमाणुद्वयेति । परम्परयोदाहरति कपालरूपमिति। समवायिकारणे सम्बद्धत्वस्यासमवायिकारणत्वघटकत्वे कपालादिसम्बद्धानां कपालचक्रसंयोगादीनामपि घटाद्यसमवायिकारणत्वापत्तिः। न चेष्टापत्तिः, तन्नाशे घटाद्यनाशादसमवायिकारणनाशस्य कार्यद्रव्यनाशकत्वनियमात् । एवं वेगादेरभिधाताद्यसमवायिकारणत्वापत्तिः । अतस्तत्तत्काऱ्यांसमवायिकारणलक्षणे तत्तभिन्नत्वं निवेशनीयन्नतु सामान्यलक्षणे तत्तद्देदो निवेश्यस्तस्य तस्य कार्यान्तरासमवायिकारणत्वात् किन्तु ज्ञानादेरिच्छाद्यसमवायिकारणत्वं वारपितु सामान्यलक्षणे ज्ञानादिभिन्नत्वं प्रवेश्यमात्मविशेषगुणानां कुत्रापि कार्येऽसमवायिकारणत्वविरहादिति संक्षेपः ।
निमित्तकारणं लक्षयत्येतदुभयभिन्नमिति। तत्तत् कार्य प्रति तत्तत्समवाय्यसमवायिभिन्नमित्यर्थस्तेनोभयभिन्नत्वस्य प्रत्येकं सत्त्वेऽपि समवायिकारणत्वस्य असमवायिकारणत्वस्य चानुगतस्य विरहेऽपि च न क्षतिः। यत्र च ध्वंसादिकार्थे समवायिकारणाद्यप्रसिद्धिस्तत्र भिन्नान्तमनुपादेयमेव । तत्रत्यनिमित्तकारणलक्षणन्तु कारणसामान्यलक्षणमेव लक्ष्यभेदेन लक्षणभेदस्यादोषत्वात्। अतएव वक्ष्यति ग्रन्थकारः ‘एतत् कारणत्रयं भावकार्य्यमात्रस्य' इति । केचित्त, एतदुभयभिन्नमित्यस्य स्वाश्रयसमवायित्वसम्बन्धावच्छिन्नकार्यताप्रतियोगिकाभाववत्त्वे सति स्वाश्रयासमवायित्वसम्बन्धावच्छिन्नकार्य्यताप्रतियोगिकाभाववदित्यर्थः। एवञ्च ध्वंसादिकार्थे समवाय्यसमवायिकारणयोरप्रसिद्धत्वेऽपि अन्यत्र प्रसिद्धोक्तसम्बन्धद्वयावच्छिन्नकार्य्यताप्रतियोगिकाभावद्वयवत्त्वात् प्रतियोग्यानिमित्तकारणत्वमुपपद्यत इति वदन्ति । जगन्निमित्तत्वादीश्वरस्य निमित्तकारणत्वमुदाहरति द्वयणुके ईश्वर इति। सर्गाद्यकालीनद्वयणुकारम्भकपरमाणुद्वयसंयोगजनककर्मणोऽस्मदादिप्रयत्नजन्यत्वबाधादीश्वरस्य निमित्तत्वसिद्धिरिति भावः। नित्यस्य निमित्तकारणत्वमुक्त्वाऽनित्यस्य तदुदाहरति घटे दण्ड इति । अभावस्य
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[ १२ ] विशेषणताविशेषसम्बन्धेन वृत्तिमतः समवाय्यसमवायिकारणयोरप्रसिद्ध रुपसंहरति एतदिति । भावकार्यमात्रस्येति मात्रपदेनाभावात्मककार्यव्यवच्छेदः ।
तदेतत्रिविधकारणत्वं कस्य कस्य साधर्म्यमित्याकाङ क्षयाह तत्र समवायिकारणमित्यादि । तत्र-कारणत्रयेषु मध्ये। गुणादौ जन्यस्यासमवेतत्वात् समवायि-कारणताया असम्भवादाह द्रव्यमेवेति । अत्र वकारस्यान्ययोगव्यवच्छेदार्थकत्वेन गुणादिव्यवच्छेदकत्वं बोध्यम् । अतएवोक्तं विश्वनाथेन 'समवायिकारणत्वं द्रव्यस्यैवेति विज्ञ यम्' इति । महर्षिणापि 'कारणमिति द्रव्ये कार्यसमवायात् इति' सूत्रण तथैवाभिहितं द्रष्टव्यम् । न चोत्पत्तिकालावच्छेदेन घटादौ समवायिकारणत्वमव्याप्तमिति वाच्यं समवायिकारणवृत्तिसत्तान्यजातिमत्त्वस्य विवक्षितत्वात् । असमवायिकारणत्वं न द्रव्यसाधम्यं द्रव्येऽसमवायिकारणताया असम्भवादत आह द्रव्ये गुण इति। यथा कपालसंयोगादेघटाद्यसमवायिकारणत्वमिति । द्रव्यमिव गुणं प्रत्यपि गुणादेरसमवायिकारणत्वादाह गुणे गुण इति । यथा घटरूपादौ कपालरूपादेरसमवायिकारणत्वमवयवगुणानामवयविनिष्ठगुणासमवायिकारणत्वात्तादृशावयविगुणानां कारणगुणप्रक्रमजन्यत्वनियमात् । तदुक्त विश्वनाथेन 'अपाकजास्तु स्पर्शान्ता द्रवत्वञ्च तथाविधम् । स्नेहवेगगुरुत्वैकपृथक्त्व परिमाणकम् ॥ स्थितिस्थापक इत्येते स्युः कारणगुणोद्भवाः ॥ इति । कर्म चेति । संयोगविभागादेः क्रियाजन्यत्वादिति भावः । इदमुपलक्षणं कर्मण्यपि गुणस्यासमवायिकारणत्वमवधेयम् । यथा शरस्पन्दादौ शरवेगादिकम् । सर्वत्र व पदार्थे निमित्तकारणतायाः सम्भवानिमित्तकारणत्वं कस्य साधर्म्यमिति विस्पष्टं निर्देष्टुमशक्यत्वेऽपि कार्य्यसामान्यं प्रति कारणनिरूपणेन तदाह कार्यमात्र प्रतीति । कार्यत्वावच्छिन्न प्रतीत्यर्थः। साधारणकारणानीति । साधारणत्वं नाम जन्यत्वव्यापककार्यतानिरूपितत्वम् । तथा च यादृशकारणतानिरूपितकार्य्यता जन्यत्वव्यापिका तादृशकारणताश्रयीभूतानीत्यर्थः। ईश्वर इति । कार्यमात्र एवेश्वरस्य नियतपूर्ववत्तित्वेन कारणत्वमिति भावः । न चेश्वरस्यान्यथासिद्धत्वं स्यादिति वाच्यं क्षित्याङ्क - रादिकार्यविशेषे सकत कत्वान्यथानुपपत्त्येश्वरस्यानन्यथासिद्धत्वे वाच्ये विनिगमनाविरहेण कार्य मात्र एवानन्यथासिद्धत्वस्य वक्तव्यत्वात् । तस्य च सर्व्वमूर्त्तसंयोगित्वाद् द्रव्यात्मककायें तनिष्ठकारणतावच्छेदकः सम्बन्धस्तादात्म्यम्, तन्निरूपितकार्य्यतावच्छेदकः सम्बन्धस्तु संयोगः । गुणादौ तु कार्ये स्वाश्रयसंयोगादेः कार्य्यतावच्छ दकसम्बन्धत्वं तादात्म्यस्य च कारणतावच्छेदकसम्बन्धत्वम् । अथवा समवायस्वरूपान्यतरसम्बन्धेन कायं प्रति स्वज्ञानविषयत्वसम्बन्धेनेश्वरस्य कारणत्वमित्यादिकमूह्यम् । ईश्वरस्य कारणत्वे सिद्ध विनिगमकाभावेन तदीयज्ञानेच्छाकृतीनां नित्यानां कार
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[ १३ ]
णत्वमावश्यकमित्याह तज्ज्ञानेत्यादि । विषयितासम्बन्धेन कार्य्यमात्र प्रति तादात्म्ये-नैषां कारणत्वमिति भावः । जन्यमात्रस्यैवोत्पत्तेः प्रागभाव उत्पत्या च तस्य विनाशोsनुभवसिद्धोऽतः स्वतन्त्रान्वयव्यतिरेकाभ्यां प्रागभावस्य कारणताया अभ्युपगन्तव्य -- त्वादाह प्रागभावेति । स्वनिष्ठप्रतियोगितानिरूपकत्वं कार्य्यतावच्छेदकस्तादात्म्यञ्च कारणतावच्छेदकः सम्बन्ध इति बोध्यम् ।
'इह तन्तौ पटो भूतः' इत्यादिप्रत्ययात्तन्त्वादेखि 'इदानीं पटो भवति' 'तदानीं पट उत्पद्यते' 'युगपद् घटपटादय उत्पद्यन्ते' इत्यादि प्रत्ययात् तत्तत् कार्योत्पत्त्यधिकरणत्वं तत्तत्कालस्यानुभूयते । ततश्च तदुत्पत्त्यधिकरणस्य तदुत्पत्तिकारणत्वनियमात् तदुत्पत्तिकारणत्वस्य च तत्कारणत्वव्याप्यत्वात्तत्कार्य्यं कारणत्वं तत्तत्कालस्य सिद्धम् । एवञ्च यद्विशेषयोरितिन्यायेन कार्य्यसामान्ये कालसामान्यस्य कारणत्वसिद्धिरित्याशयेनाह कालेति । तदुक्तं महर्षिणा कणादेन 'नित्येष्वभावादनित्येषु भावात् कारणे कालाख्येति' इति । अत्र कार्य्यतावच्छेदकः सम्बन्धः कालिकः, कारणतावच्छेदकः सम्बन्धस्तु तादात्म्यम् ।
'इह कपाले घटो जातः' इत्यादिप्रत्ययेन यथा कपालस्य घटोत्पत्त्यधिकरणतया घटकारणत्वं तथा 'पूर्व्वस्यां पटो जातः' 'प्रतीच्यां घट उत्पन्नः' इत्यादिप्रत्ययेन पूर्व्वा - दिदिशस्तत्तत्कार्य्योत्पत्त्यधिकरणतया तत्तत्कार्य्यकारणत्वमनुभवसिद्धम् । तथाचोक्तन्यायेन कार्य्यसामान्ये दिक्सामान्यस्य कारणता कल्पनीयेत्याशयेनाह दिगिति । अत्र कारणतावच्छ दकः सम्बन्धस्तादात्म्यम्, कार्य्यतावच्छ ेदकः सम्बन्धस्तु दैशिकविशेषणता ।
अदृष्टस्य जीवविशेषगुणत्वाज्जीवानाञ्चासंख्यत्वाज्जन्योत्पादमात्रस्य सवीजप्रयोजनकत्वादुपभोगस्यैव च प्रयोजनत्वाद् यत्काय्यं येनोपभुज्यते तत्कार्य्यस्य तददृष्टवीजकत्वं वाच्यम् । एवञ्च दानीन्तनोत्पन्नघटादेरपि भोक्त्रदृष्टजन्यत्वात् सर्व्वत्र कार्येऽदृष्टस्य कारणताभ्युपेया, कथमन्यथा चैत्र णैतत् कार्य्यमुपभुज्यते नतु मैत्रणेति दृश्यते इत्याशयेनाहादृष्टानीति । वस्तुतस्त्विदमुपलक्षणं 'सापेक्षत्वादनादित्वाद्वै -- चित्र्याद्विश्ववृत्तितः । प्रत्यात्मनियमाद् भुक्तेरस्ति हेतुरलौकिकः ॥ इत्याचाय्र्य्योक्तमप्यत्रानुसन्धेयम् । अत्र तु कालिकसम्बन्धेनैव कार्य्यकारणभावस्य सुवचत्वात् कार्य्यकारणतावच्छेदकसम्बन्धत्वं कालिकस्येति ध्येयम् ।
द्रव्योत्पत्तिप्रक्रियायाः प्रतिज्ञातत्वादुत्पत्तिनिर्व्वाहकतया कारणानि निरूप्येदानीं प्रतिज्ञातार्थमुपपादयितुमाह परमाणुद्वयसंयोगादिति । ईश्वरीयचिकीर्षाजनितपरमाणुकिययेत्यादिः । संयुक्तद्वयणुकद्वयात् त्रसरेणोरुत्पादो न सम्भवति त्रसरेणोर्म-
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[ १४ ] हत्त्वात्तन्महत्त्वस्य च द्व यणुकगतत्रित्वसंख्याजन्यत्वान्महत्त्वानुपपत्तेः, नापि द यणुकं विनैव संयुक्तपरमाणुत्रयात्, महदारम्भकत्वेन त्रसरेण्ववयवस्य सावयवत्वनियमादत आह संयुक्तद्वयणुकत्रयादिति । चतुरणुकादोति। संयुक्त श्चतुर्भिस्त्रसरेणुभिरित्यादिः। आदिना पञ्चाणुकादेरुपग्रहः। घटस्यावयवत्वासिद्ध राह घटस्त्वन्त्यावयवीति । चरमावयवीत्यर्थः। तत्त्वञ्च समवायेन द्रव्यवद्भिन्नत्वम् । इदमुपलक्षणमनया रीत्या चतुरणुकादिक्रमेण महती पृथिवी, महज्जलम्, महत् तेजः, महान्वायुरुत्पद्यते इति कार्यरूपपृथिव्यादिचतुष्टयात्मकं जगज्जायते। एवं व्राह्मशतवर्षान्ते परमेश्वरस्य सञ्जिहीर्षया परमाणुक्रियया परमाणुद्वयसंयोगनाशतो द्वयणुकादिनाशकमेण महतां पृथिव्यादिचतुष्काणामन्त्यावयव्यन्तानां नाशात् परमाणुपर्यवसानं जगद् भवति। तदेव प्रलय इत्युच्यते । पुनश्चानादिनीवविचित्रकर्मवशादीश्वरः सृष्ट्यादिकं जगतो विधाय तन्मितकाले प्रलयं करोति 'ब्रह्मणो वर्षशतमायुः' इति श्रुतेः। स एव सृष्टिप्रलयप्रवाह इत्युच्यते । एवं प्रवाहे प्रचलति सति क्वचित्तथाभूतः कालः समायाति यत्रोक्तप्रवाहस्य महाविश्रामस्तत्र कालेन यावतां जीवकर्मणां नाशात् पुनः सृष्टिवीजाभावात् सकलजन्यात्यन्तोपुरमः । स एव महाप्रलय इत्यमिधीयते। दीधितिकृतस्तु प्रमाणाभावान्महाप्रलयो नाभ्युपगन्तव्य इति प्राहुः ॥७॥
|| तर्कामृतम् ॥ अथ द्रव्ये प्रमाणं कथ्यते। प्रत्यक्षद्रव्ये प्रत्यक्षमेव प्रमाणमतीन्द्रियेऽनुमानम् । तत्पक्षहेतुसाध्यदृष्टान्तज्ञानसाध्यम् । विशेषो वक्ष्यते । परमाणुद्वयणुकानुमानं यथात्रसरेणुः सावयवद्रव्यारब्धो बहिरिन्द्रियवेद्यद्रव्यत्वात्, वहिरिन्द्रियवेद्यद्रव्यं यद्यत् तत् सावयवद्रव्यारब्धं यथा घटः। अत्र त्रसरेणुः पक्षः, सावयवद्रव्यारब्धत्वं साध्यं, वहिरिन्द्रियवेद्यद्रव्यत्वादिति हेतुः, घटो दृष्टान्तः । अनेन द्वयणुकं परमाणुश्च सिध्यति ॥८॥
॥विवृतिः ॥ प्रमाणागोचरेऽर्थे प्रेक्षावतामप्रवृत्ते वेषु प्रथमोद्दिष्टे द्रव्ये प्रमाणाभिधित्सया प्रतिजानीतेऽथ द्रव्ये इत्यादि । प्रमाणमिति । प्रमाणत्वं प्रमितिकरणत्वं, तच्चाने व्यक्तीभविष्यति । द्रव्यत्वस्य परमाण्वादावपि सत्त्वादाह प्रत्यक्षद्रव्य इति। लौकिकप्रत्यक्षविषयोभूते महत्त्वादिविशिष्टद्रव्य इत्यर्थः । अन्यथाऽतीन्द्रियेऽप्यलौकिकप्रत्यक्षस्य प्रमाणत्वसम्भवेन तत्रानुमानस्य प्रमाणत्वं वक्ष्यमाणमसङ्गतं स्यादिति भावः। प्रत्यक्षविषये वह्न यादावनुमित्सासत्त्वेऽनुमानगम्यत्वदर्शनेऽपि तत्र तदनुमानस्य न तत्सत्त्वं प्रति प्रमाणत्वं किन्तु पूर्वोत्पन्नस्य प्रत्यक्षस्यैव, एकप्रमाणेन प्रमेयसिद्धौ तत्र प्रमा
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[ १५ ]. णान्तरस्य साधकत्व कल्पनानौचित्याशयेनाह प्रत्यक्षमेवेति । लौकिकप्रत्यक्षमेवेत्यर्थः । एवकारेणालौकिकप्रत्यक्षानुमानादेर्व्यवच्छे दः ।
द्रव्याणां प्रत्यक्षाप्रत्यक्षद्रव्यभेदभिन्नानां मध्ये प्रत्यक्षद्रव्ये प्रमाणमुक्त्वाऽप्रत्यक्षद्रव्ये तदाहातीन्द्रिये इति । अस्मदादीन्दियाग्राह्य महत्त्वादिशून्ये इत्यर्थः। तेन परमाण्वादेर्योगिमानसप्रत्यक्षगोचरत्वेऽपि न क्षतिः। सम्भवदिन्द्रियसन्निकर्षे विषय एव प्रत्यक्षस्य प्रमाणत्वादतीन्द्रिये चेन्द्रियसन्निकर्षस्यासम्भवेन प्रत्यक्षस्य प्रमाणत्वासम्भवादाहानुमानमिति । प्रमाणमित्यत्रान्वेति । तदिति । अनुमानमित्यर्थः। विशिष्टबुद्धौ विशेषणज्ञानस्य हेतुत्वात् स्वार्थानुमान इव परार्थानुमानेऽपि पक्षहेतुसाध्यज्ञानं कारणं वाच्यं 'व्याप्तिविशिष्टपक्षधर्मताज्ञानजन्यं ज्ञानमनुमितिस्तत्करणमनुमानं, तच्च लिङ्गपरामर्शः' इति मणिकृतोक्तत्वात्, किञ्च सहचारदर्शनाधिष्ठानतया स्वार्थानुमान इवोदाहरणोपयोगितया परार्थानुमानेऽपि दृष्टान्तस्य हेतुत्वात्तद्विषयकज्ञानस्य हेतुत्वमुपेतव्यमित्येतत् प-लोच्याह पक्षहेत्वित्यादि। सिषाधयिषितसाध्यधर्मा धर्मों पक्षः। पञ्चम्यन्तं लिङ्गप्रतिपादकं वचनं हेतुः। साधनीयं-साध्यताख्यविलक्षणविषयतावत् साध्यम् । यत्रार्थे लौकिकपरीक्षकाना बुद्धिसाम्य सोऽर्थो हष्टान्नः । स्वार्थपरार्थभेदेनानुमान विध्यस्य वक्ष्यमाणत्वादाह विशेष इति । वक्ष्यतइति । अनुमानखण्डे इति शेषः।
अणुद्वयणुकयोरतीन्द्रियत्वात्तत्रानुमानमभिलपति त्रसरेणुरिति । यद्यपि त्रसरेण्वाद्यात्मकस्यापि वायोर्गगनादीनाञ्चातीन्द्रियत्वान्नत्रानुमानस्य प्रमाणत्वं प्रदर्शयितु युक्तं न केवलमणुद्रयणुकयोस्तथापि पृथिव्यादिचतुष्टयस्यैवाणुद्वयणुकयोः सत्त्वात् प्रथमतस्तयोरेवानुमानमभिहितम् । अतएवोत्तरग्रन्थे ‘आकाशवायू' इत्यादिना तेषामनुमेयत्वं वक्ष्यति । त्रसरेण्वाद्यन्त्यावयव्यन्तेषु द्रव्येषु प्रत्यक्षस्यैव प्रमाणत्वात्त्रसरेणोः पक्षतयोल्लेखः । त्रसरेणुश्च जालसूर्यमरीचिस्थो दृश्यते महत्त्वोद्भूतरूपवत्त्वादिति भावः। सावयवद्रव्यारब्ध इति । सावयवत्वमवयवसमवेतत्वमवयवत्वञ्च द्रव्यसमवायिकारणत्वम् । द्रव्यारब्धत्वञ्च द्रव्यनिष्ठसमवायिकारणतानिरूपितद्रव्यनिष्ठकार्यतावत्त्वम् । द्रव्यारब्धत्वस्य साध्यत्वेऽर्थान्तरं स्यादतः सावयवेति । सावयवत्वस्य साध्यत्वे परमाणुसिद्धिर्नस्यादतो द्रव्यारब्धेति। सावयवारब्धत्वस्याद्व्ये वाधाद्रव्येति। वस्तुतस्तु सावयवत्वस्य वा द्रव्यारब्धत्वस्य वा सावयवारब्धत्वस्यवाऽभाववति परमाण्वादौ हेत्वधिकरणताया असत्त्वाव्यमिचाराप्रसक्तेस्तत्तन्मात्रम्य साध्यत्वे व्यर्थविशेषणत्वं दोष इति न शङ्कयं साध्यांशे व्यर्थविरोषणताया अदोषत्वादिति ध्येयम् ।
बहिरिन्द्रियवेद्यद्रव्यत्वादिति। मनोभिन्नेन्द्रियग्राह्यद्रव्यत्वादित्यर्थः । आत्मनि व्यभिचारवारणाय बहिः पदम् । रूपादौ व्यभिचारवारणाय द्रव्यपदम् । न च
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[ १६ ] रूपादौ द्रव्यारब्धत्वमस्त्विति वाच्यं रूपादेगुणत्वेन स्वसमवायिनिष्ठ-स्वसजातीयगुणारब्धत्वनियमात् । अतएव कणादसूत्रम् 'द्रव्यगुणयोः सजातीयारम्भकत्वं साधर्म्यम्' 'द्रव्याणि द्रव्यान्तरमारभन्ते गुणाश्च गुणान्तरम्' इति । पक्षहेतुसाध्यान् प्रदर्श्य दृष्टान्नं प्रदर्शयितुमुदाहरणमुपन्यस्यति बहिरिन्द्रियवेद्य यदित्यादि । उदाहरणघटकविधयैव दृष्टान्तोपन्यासस्य सम्भवादिति भावः । पक्षहेतुसाध्यदृष्टान्तज्ञानसाध्यमित्युक्तं, तत्र के पक्षादय इत्याकांक्षायां तानिर्दिशति अत्र त्रसरेणुः पक्ष इत्यादि। - त्रसरेणुपक्षकोक्तानुमानेन सिद्ध कष्ठतोऽभिदधाति अनेनेत्यादि । सिध्यतीति । सिद्धिरनुमितिस्तद्विषय इत्यर्थः। साध्यघटकसावयवद्रव्यत्वेन द्वयणुकस्य तदवयवत्वेन च परमाणोः सिद्धिरिति भावः ॥८॥
॥ सर्कामतम् ॥ आकाशवायू शब्देन स्पर्शेन चानुमीयेते। शब्दो द्रव्याश्रितो गुणत्वात् यथा घट(रूपम् । अनेन द्रव्यान्तरवाधात् शब्दाश्रयत्वेनाकाशं सिध्यति । पृथिव्यादिश्यावृत्तिरयं स्पर्शो द्रव्याश्रितो गुणत्वादित्यनुमानेन द्रव्यान्तरवाधात् स्पर्शाश्रयत्वेन वायुः सिध्यति ॥६॥
विवृतिः ॥ पृथिव्यप्तेजसां सिद्धिप्रकारमभिधाय वाय्वाकाशयोरुद्भूतरूपादिराहित्येन प्रत्यक्षस्य प्रमाणत्वासम्भवादनुमानसाध्यत्वं प्रदर्शयितुमाहाकाशवायू इति। यद्यप्यत्र 'अल्पस्वरतरं तत्र पूर्वम्' इत्यनुशासनाद्वायुशब्दस्य पूर्वनिपातः समुचितस्तथापि 'यच्चाञ्चितं द्वयोः' इति विशेषानुशासनाद्विभुत्वेनाकाशस्यार्चितत्वादाकाशशब्दः प्रागभिहित इनि बोध्यम् । वायोः परमाण्वादिभेदसत्त्वेऽप्यप्रत्यक्षत्वानोक्तरीत्या सिद्धिः सम्भवतीत्यत्र वायोन्निवेशः। शब्देन स्पर्शेन चानुमीयेते इति । अत्र तृतीयार्थः प्रयोज्यत्वं, स्पर्शशब्दश्च विजातीयस्पर्शपरः । अतएवाग्रे पृथिव्यादित्रयावृत्तिः स्पर्शः पक्षतया प्रवेशितः। तथा च शब्द-विजातीयस्पर्शपाक्षिके येऽनुमिती तद्विषयीभूतावाकाशवायू इति समुदितार्थः। तेन तयोर्वाय्वाकाशानुमाने लिङ्गत्वासम्भवेऽपि न क्षतिः। तत्राकाशसाधकानुमानप्रकारमाह शब्दो द्रव्याश्रित इति । आश्रितत्वमात्रस्य साध्यत्वे सिद्धसाधनं स्यादतो द्रव्यपदम् । एतेनानुमानेन पृथिव्यादिसिद्धिः कथं न स्यादित्याशङ्का निरसितुमाह द्रव्यान्तरबाधादिति । तथाहि शब्दस्याकारणगुणपूर्वकप्रत्यक्षत्वात् क्षित्यप्तेजोवायुगुणत्वबाधः। न चात्राप्रयोजकत्वमिति वाच्यं शब्दो यदि
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[ १७ ] स्पर्शवद्विरोषगुणः स्यान्नदा नारमन्दादिभेदेनानुभूयमानो न स्यादेकस्मिन्नवयविनि रूपादेचित्र्येणाननुभूतत्वादित्यनुकूलतकसम्भवात् । एवं विशेषगुणत्वात् कालदिङ मनोगुणत्वस्य वहिरिन्द्रियग्राह्यत्वादात्मगुणत्वस्य च शब्दे वाधोञ्जयः। तत्र कालादिगुणत्वाभावसाधने शब्दो यहि कालदिङ मनोगुणः स्याद्विशेषगुणो न स्यादित्यनुकूलस्तर्कः। न च शब्दे विशेषगुणत्वाभाव दृष्ट इति वाच्यं चक्षुर्ग्रहणायोग्यवहिरिन्द्रियग्राह्यजातिमत्त्वेन तस्य विशेषगुणत्वसिद्धः। आत्मगुणत्वाभावसाधने च शब्दो यद्यात्मगुणः स्यादहं सुर्खात्यादिवदहं पूर्येऽहं शब्दवानित्यादिबुद्धिः स्यादित्यनुकूलस्तों बोध्यः। न च शुभमाकाशं नीलं तम इत्यादि प्रतीतेः शुक्लादिरूपवत्त्वस्य गगणसाधर्म्यत्वे तस्य प्रत्यक्षप्रमाणमेयत्वमेव स्यात् किमनुमानप्रयासेनेति वाच्यं ऊद्ध वं विच्छुरितानां शुक्लभास्वराणामरुणतेजसामुपल्लम्मनेन श्रु भूत्वस्य, तथा सुमेरुदक्षिणांशावस्थितेन्द्रनीलमणिमयशिखरविच्छुरितप्रभयाच नीलत्वस्य नमसि दूरत्वदोषेण भूमात्। शब्दाश्रयत्वेनेति । पारिशेष्यादित्यादिः । अथ पवनसाधकं विजातीयस्पर्श पक्षकमनुमानमभिनीयदर्शयति पृथिव्यादित्रयावृत्तिरयं स्पर्श इति। अपाकजानुष्णाशोतस्पर्श इत्यर्थः। एतदमिप्रायेणैवायमिति पदमुपात्तम् । पृथिवीस्पर्शस्य पाकजत्वाज्जलीयतेजसस्पर्शयोस्तु शीतोष्णत्वात्तत्परिचायकतैव पृथिव्यादित्रयाबृत्तिरित्युक्त सिद्धसाधनवारणाय । तत्र साध्यमाह द्रव्याश्रित इति । सिद्धसाधनवारणाय द्रव्येति । वाधादिवारणायाश्रित इति । द्रव्यान्तरवाधादिति । अनुभूयमानविजातीयस्पर्शस्योतानुमानेन द्रव्याश्रितत्व सिद्धौ तदाश्रस्य रूपराहित्यातूक्षित्यादित्रयात्मकत्वस्य स्पर्शवत्वाद्गगणादि पञ्चकात्मकत्वस्य च वाधाद्वाधात्मकस्याष्टद्रव्यातिरिक्तद्रव्यस्य सिद्धिरितिभावः । न च वायुः प्रत्यक्षः स्पर्शाश्रयत्वादित्यनुमानेन कायोः प्रत्यक्षप्रमाणसाध्यत्वसिद्धरनुमानस्य तत्र प्रमाणत्वानुधावनं व्यर्थमिति वाच्यं उद्धृतरूपवत्त्वस्योपाधित्वात् । न च रूपाद्यन्तर्भावेण साध्याव्यापकत्वान्नास्योपाधित्वमितिवाच्यं पक्षधर्मवहिव्यत्वावच्छिन्न साध्यव्यापकत्वेनोपाधित्वसम्भवात्। वायुः सिध्यतीति । विलक्षणशब्दधृत्यादिनापि वायुसिद्धिरितिबोध्यम् ॥ ६ ॥
|| तर्कामृतम् ॥ काले प्रमाणं यथा-परत्वापरत्वे द्विविधे कालिके दैशिके च 1 परत्वोत्पत्तिश्च बहुनररविकियाविशिष्टशरीरज्जानात् । अपरत्वोत्पत्तिश्च स्वल्पतररविक्रियाविशिष्टशरीरञानात् । तत्परत्वं ज्येष्ठत्वमपरत्वं कनिष्ठत्वम् । तदनुमानं यथा-परत्वजनकं बहुतररविक्रियाविशिष्टशरोरञानमिदं परम्परासम्बन्धघटकसापेक्षं साक्षात्सम्बन्धाभावे सति विशिष्टज्ञानत्वाल्लोहितः स्फटिक इति प्रत्ययवतुः। परम्परासम्बन्धश्च
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[ १८ स्वसमवायिसंयुक्तसंयोगः। तेन सम्बन्धघटकः कालः सिध्यति । तनु कालस्य भूतभविष्यद्वर्त्तमानभेदेन बहुत्वात् कुत एकत्वमिति चेन्न उपाधिभेदेन भेदप्रत्ययात् । कालोपाधयो रविक्रियादिरूपा भिन्ना एव ॥ १० ॥
॥ विवृतिः ॥ • अथ भावेषु क्रमप्राप्तस्याप्रत्यक्षस्य कालस्यानुमानसाध्यात्वमुपादपितु भूमिकामारचयन्नाह परत्वापरत्वे इत्यादि । द्विविधयोरपितयोरग्रे विभागस्यावक्ष्यमाणत्वान यूनत्वं परिहर्तुमत्र व प्रसङ्गतो विभागमाह द्विविधे इति । विद्याद्वयं दर्शयति कालिके दैशिकं चेति । कालिके कालनियन्त्रिते। दैशिके-दिङ नियन्त्रिते । कालसाधकवक्ष्यमाणानुमाने पक्षीभूतस्य परत्वोत्पादकतयाभ्युपेयत्वमाह परत्वोत्पत्तिश्चेत्यादि। कालिकेत्यादिः। उत्पन्नौ निमित्तमाह बहुतरेत्यादि । रविक्रिया-मार्तण्डपरिस्पन्दः । तथा च बहुतरमार्तण्डपरिस्पन्दान्तरितजन्मनि वृद्धशरीरे बालकशरीरमवधि कृत्वा यत् परत्वमुत्पद्यते तत्र तादृशपरिस्पन्दविशिष्ट वृद्धशरीरज्ञानं निमित्तकारणमित्यर्थः। वक्ष्यमाणरीत्या विनिगमनाविरहेणापरत्वोत्पादकतयापि पक्षस्याभ्युपेयतां सूचपितुमाहापरत्वोत्पन्निश्चेति । कालिकेत्यादिः उत्पन्नौ निमित्तमाह स्वल्पतरेति । तथाच स्वल्पतरमार्तण्डपरिस्पन्दान्तरितजन्मनि बालकशरोरे वृद्धशरीरमवधि कृत्वा यदपरत्वमुत्पद्यते तत्रतादृशपरिस्पन्दविशिष्टबालकशरीरज्ञानं निमित्तकारणमित्यर्थः। यथा घटाद्य तपन्नौ कपालादिज्ञानस्य निमित्तकारणत्वं तथेतिभावः । तत् परत्वमिति । द्विविधपरत्वर्योर्मध्ये कालिकपरत्वमित्यर्थः । ज्गेष्ठत्वमिति । वृद्धादिशरीरनिष्ठमितिभावः । ज्येष्ठत्वं प्रति समवायिकारणं स्थविरादिशरोरमसमवायिकारणं कालशरीरसंयोगो निमित्तकारणन्त्वपेक्षाबुद्ध यदिकम् । अपेक्षाबुद्धिस्तु ज्येष्ठत्वोत्पन्नावपेंक्षितबहुतररविक्रियावच्छिन्नशरीरज्ञानरूपकारणघटकीभूतबहुतरत्वजनिका ग्राह्या । तादृशापेक्षाबुद्धिनाशाच्चज्येष्ठत्वनाशः। एवं कनिष्ठत्वं प्रतिसमवायिकारणं बालकादि शरीरमसमवायिकारणं कालतच्छरीरसंयोगो निमित्तकारणन्त्वपेक्षाबुद्ध यादिकम् । अपेक्षाबुद्धिश्च कनिष्ठत्वोत्पन्नावपेक्षितस्वल्पतररविक्रियावच्छिन्नशरीरज्ञानरूपकारण. घटकीभूतस्वल्पतरत्वजनिका ग्राह्या। तादृशापेक्षाबुद्धिनाशाच्चकनिष्ठत्वनाशः । तहुक्त परत्वापरत्वप्रकरणे विश्वनाथेन 'अपेक्षाबुद्धिनाशाच्च नाशस्तेषामुदाहृतः' इति । एवं तत्परत्वमित्यत्रापि । ___भावकार्यत्वात् कालिकपरत्वापरत्वयोः कुत्रचिदसमवायिकारणत्वभुपेयम् । तत्र नसावन्मार्तण्डपरिस्पन्दानां तत्त्वं, तेषां मार्तण्डसमवेतत्वेन व्यधिकरणत्वात् । नापि रूपादीनां तत्त्वं, व्यभिचारात् । अतः पारिशेष्यान्मार्तण्डपरिस्पन्दावच्छिन्नद्र
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[ १६ ] व्यसंयोगस्यैवतदसमवायिकारणत्वं वाच्यम् । तच्चद्रव्यं न मार्तण्डरूपं नवा पृथिव्याद्यारमकं भवितुमहुति भूतत्वात् । न चाकाशमात्मा वा तदृव्यमरित्वतिवाच्यं तयोविशेषगुणवत्त्वात्। नापि दिक् तथा सम्भवति, तस्या दैशिकपरत्वापरत्वासमवायिकारणसंयोगाश्रयत्वेन सिद्धः । अतः पारिशेष्यात् कालिकपरत्वापरत्वाश्रयीभूतेन शरीरेण सह संयुक्तस्य कालस्यैव तथाविध ( मार्तण्डपरिपस्न्दावच्छिन्न-) द्रव्यत्वं सिद्धमित्येतावदर्थजातं मनसिकृत्य कालसाधकानुभानप्रकारं दर्शयति परत्वजनकमित्यादि। अवधिमनपेक्ष्यजायमाने सामान्यतो बहुतररविक्रियाविशिष्टशरीरज्ञाने बाधासिध्यो वारणाय पक्षे परत्वजनकमिति विशेषणम् । स्वल्पतररविक्रियावच्छिन्नशरीरज्ञाने आश्रयासिअिवारणाय बहुतरक्रियान्तरावच्छिन्नशरीरज्ञानेआश्रयासिद्ध वारपितु रवीति । यद्यपि मूर्त्तमात्र एव परत्वमुत्पद्यते तथापि शरीर एव मुख्यतया ज्येष्ठत्वव्यवहाराच्छरोरेति। तादृशशरीरविषयकद्वेषादाश्रयासिद्ध याहे रिणायज्ञानेति । विशिष्टज्ञानत्वमात्रस्य घटज्ञानादौ सत्त्वाद्वयभिचारः स्यादतो विशेष्यदलम् । ज्येष्ठत्वस्याननुगतस्य तत्तच्छरीर निष्ठत्वादिदमित्यनेन पक्षनिर्देशोज्ञाज्ञानमित्त्यत्तन्तु परिचायकमितिबोध्यम्। साध्यमाहपरम्परेत्यादि। साक्षात्सम्बधत्वं नाम संयोगाद्यन्यतमत्वम्, तदभाववत्त्वेसति सम्बन्धत्वं परम्परासम्बन्धत्वम्। न च स्वसमवायिसंयुक्तसंयोगस्य वक्ष्यमाणस्य कथं परम्परासम्बन्धत्वं घटते तत्रसंयोगे संयोगाद्यन्यतमत्वसत्त्वेन साक्षत्सम्बन्धत्वसत्त्वादितिवाच्यं तत्रसंयोगत्वेन न संसर्गता किन्तु स्वसममवायिसंयोगत्वरूपविलक्षणधर्मेणेत्यदोषात्। घटकसापेक्षमिनि । तत्त्वञ्च तादृशघटकं विनाऽतुपपद्यमानत्वम् । हेतुमाह साक्षादिव्यादि। साक्षात सम्बन्धेन विशिष्टज्ञाने व्यभिचारवारणाय सत्यनम् । निविकल्पके व्यभिचारवारणाय विशिष्टज्ञानत्वादिति । किञ्चिनिष्ठप्रकारतानिरूपितकिञ्चिन्निष्ठविशेष्यता शालिज्ञानत्वादित्यर्थः। दृष्टान्तं दर्शयति लोहितेत्यादि। अत्र स्फटिके लौहित्यस्य साक्षात् सम्बन्धाभावात् स्वसमवायिसंयोगात्मकः परम्परासम्बन्धो वाच्यः। ततश्च स्वसमवायित्वेन जवाकुसुमादेः सिद्धिरितिभावः । परम्परासम्बन्धघटकसापेक्षमित्युक्तम्, तत्र कस्तावत् परम्परासम्बन्धो वाच्य इत्याकांक्षायामाह परम्परासम्बन्धश्चेत्यादि । स्वसमवायीत्यादि। स्वं-तथाविधमान्नुपरिस्पन्दः, तत्समवायी मार्ताण्डः, तत्संयुक्तःकालः, तत्संयोगस्तथाविधभावः। वस्तुतस्तु ज्येष्ठत्वकनिष्ठत्वरूपपरत्वापरत्वेऽसमवायिकारणजन्ये भावकार्य्यत्वाद्रपादिवदित्याद्यनुमानतोऽपि कालपिण्ड ( शरीर ) संयोगरत्र तदसमवायिकारणत्वाधात् कालस्य सिद्धिरिति ध्येयम् ।
कालत्वस्योपाधित्वमुक्त, तस्य जातित्वाभावे एकव्यक्तिवृत्तिकत्वं हेतुाच्यस्तत्राशङ्कते नन्विति। भूतेनि। तत्र तदवच्छिन्नकालत्वं तद्वर्त्तमानकालत्वम् । तत्प्राग
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[ २० ] भावावच्छिन्नकालत्वं तद्भविष्यत्कालत्वम् । तद्ध्वंसावच्छिन्नकालत्वं तद्भुतकालत्वम् शङ्कां निरस्यति नेति । उपाधिभेदेनेति । यथाकाशस्यैकत्वेऽपि घटाकाशं पटाकाशमित्यादिव्यवहारो घटपठाद्यात्मकोपाधिभेदात् कथञ्चिहुपपादनीयस्तथाकालेऽपोतिभावः । अत्रके तावद् भेदका उपाधय इत्याकाक्षायामाह रविक्रियादीति । स्वकीयवर्तमानातीतभविष्यत्कालेषु स्व-स्वध्वंस-स्वप्रागभावावच्छिन्नमात्तण्डपरिस्पन्दनामिव स्वस्वध्वंस-स्वप्रागभावानामप्युपाधित्वं सन्भवतीत्याशयेनोक्तमादिपदम् । तेन विभागप्रागभावादेरप्युपग्रहः। तथाच स्वजन्यविभागप्रागभावावच्छिन्नमार्ताण्डपरिस्पन्दस्येक स्वजन्यविभागप्रागभावस्य पूर्वसंयोगावच्छिन्न विभागस्य वाद्यक्षणोपाधित्वं संगच्छते। एवमन्यत्राप्यूह्यम् ॥ १०॥
॥ तर्कामृतम् ॥ एवं दैशिकपरत्वापरत्वभ्यां दिशः सिद्धिः। ते च दूरत्वसमीपत्वे । अवधिसापेक्षबहुतरसंयोगविशिष्टशरीर ज्ञानमिदं परत्वजनकं परम्परासम्बन्धघटकसापेक्षमित्यादि पूर्ववत्। तेन च दिशः सिद्धिः । न चाकाशमेव सम्बन्धघटकमास्तामिति वाच्यं तस्य शब्दाश्रयत्वेनैव धम्मिग्राहकप्रमाण सिद्धत्वात् न रविक्रियाद्युपनायकत्वसम्भवः ॥११॥
॥ विवृतिः ॥ अथ नियत परत्वाभ्यां कालमनुमाय दिशमप्यनुमानतो निरूपयितुमवतारयति एवं दैशिकपरत्वापरत्वाभ्यामिति । अनियताभ्यामिति भावः । दैशिकपरत्वोत्पत्तौ मूर्तसंयोगभूयस्त्वज्ञानमिव भूयः संयोगविशिष्टमूर्तज्ञानमपि निमित्तकारणम् । अतएव बहुतरसंयोगविशिष्टशरोरज्ञानस्य पक्षत्वं वक्ष्यति । एवं दैशिकापरत्वोत्पत्तौ मूर्तसंयोगाल्पीयस्त्वज्ञानभिवाल्पसंयोगविशिष्टमूर्त्तज्ञानमपि निमित्तकारणं बोध्यम् । तथाहि पाटलीपुत्राद् यावत् संख्यकैम्मूर्तसंयोगैः काशी प्राप्यते ततोऽधिकभूर्त संयोगैः प्रयागः प्राप्यतेऽतः पाटलीपुत्रात् काशीमपेक्ष्य प्रयागः पर इति व्यवह्नियते । तत्र पाटलीपुत्रभवधिकृत्वा बहुतरमूर्त्तसंयोगान्तरिते प्रयागे काश्यपेक्षया परत्यमुत्पद्यते, तञ्च दूरत्वरूपम् । एवं पाटलीपुत्राद् यावत् संख्यकैम् त्तसंयोगैः कुरुक्षेत्र प्राप्यते ततोऽल्पसंख्यकैम्मूर्तसंयोगैः प्रयागः प्राप्यतेऽत: पाटलीपुत्रात् कुरुक्षेत्रमपेक्ष्य प्रयागोऽ पर इति व्यवलियते। तत्र पाटलीपुत्रमवधिं कृत्वाल्पतर मूर्त संयोगान्तरिते प्रयागे कुरुक्षेत्रापेक्ष्ययाझुरत्वमुत्पद्यते, तच्च सामोप्यरूपम् । अतएवोक्त ते च दूरत्वसमीपत्वे इति। तयो जन्यभावतया सा समवायिकारणकत्वस्योपेतव्यत्वात् तदसमवा. यित्वस्य च मूर्त्तसंयुक्तदिक्संयोगानन्यत्र वाधाद्दिक्संयोगसिद्ध या दिशः सिद्धि
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[ २१ ] रित्याशयेन दिक्साधकानुमानप्रकारमाह-परत्वजनकमवधिसापेक्षेत्यादि । अवधि विना दूरत्वसामीप्ययोरनुपपद्यमानत्वात् पक्षतावच्छे दककोटाववधिसापेक्षत्व प्रवेशः । अवधिसापेक्षत्वभवधि विनाऽनुपपद्यभानत्वम् । परार्थानुमानस्य न्यायसाध्यत्वा. न्न्यायस्य च पक्षनिर्देशं बिनाऽसम्भवादिदमित्यन्तेन पक्षनिर्देशः। दूरत्वं प्रति प्रयागादिकं मूतं समवायिकारणं, मूर्त्तदिक् संयोगोऽसमवायिकारणं, मूर्त-( शरीर-) संयोग भूपस्त्वज्ञानजनकीभूतापेक्षाबुद्ध यादिकं निमित्तकारणं, तादृशापेक्षाबुद्धिनाशात्तद्परत्वनाशः। एवं समीपत्वं प्रति प्रयागादिमूत्तं समवायिकारणं, मूर्तदिक् संयोगोऽसमवायिकारणं, मूर्त (शरीर) संयोगाल्पतरत्वज्ञानजनकीभूतापेक्षात्वबुद्ध यादिकं निमित्त कारणं, तादृशापेक्षाबुद्धिनाशात्तदपरत्व नाशः। विशिष्टज्ञानत्वस्य घटज्ञानादावपि सत्त्वादर्थान्तरपत्ते स्तन्मात्रमुपेक्षितम् । सामान्यतो बहुतरसंयोगविशिष्ट शरीर ज्ञानमादाय वाधादिः स्यादतः परत्वजनकमिति पक्षविशेषणम् । साध्यमाह परम्परेत्यादि । हेतुश्च साक्षात् सम्बन्धाभावे सति विशिष्ट ज्ञानत्वमिति सूचयितुमुक्त पूर्ववदिति। मूर्तेन सह स्वकीयसंयोगमालम्व्य दिशा दूरस्थे समीपस्थे च देशे परत्वस्यापरत्वस्य चोत्पाद्यमानत्वाद्दिशोऽन्यत्र तयोरूपनायकत्वासम्भवादत्रापि स्वसमवायिसंयुक्तसंयोगः परम्परासम्बन्धत्वेनोपादेयः । स्वं - अवधिसंयुक्तमूर्तप्रतियोगिकः संयोगः, तत् समवायिमूर्त (शरीर) तत् संयुक्ता दिक्, तत्संयोगः दूरस्थे समीपस्थे च देशे जायते। तथाच स्वसमवायिसंयुक्तत्वेन दिशः दिद्धिरिति मनसि कृत्वाह तेन चेत्यादि । न च पूर्वत्र स्वसमवायि संयुक्तत्वेन दिशोऽत्र च कालस्य सिद्धिः स्यादिति वाच्यं दिशो रविक्रियोपनायकतायाः कालस्य च संयोग विशेषोपनायकताया असिद्धत्वात् क्रियोपनायकः कालः संयोगविशेषोपनायिका दिगित्यस्यैव युक्तत्वात् । ननु कालस्य दिशश्चेवाकाशस्यापि विभुत्वाद्विनिगमकाभावेनोभयत्राकाशस्यैव स्वसमवायि संयुक्तत्वेन सिद्धिः स्यादित्याशङ्कते न चेति । शङ्कां निरस्याति तस्येत्यादि । आकाशस्येत्यर्थः। शब्दाश्रयत्वेनेत्यदि। शब्दो द्रव्याश्रितो गुणत्वादिति प्रोक्तं यद्धमिणःआकाशस्य साधकमनुमानं तेन शब्दाश्रयत्वपुरष्कारेणैवाकाशस्य सिद्धत्वादिति भावः । ननु शब्दाश्रयत्वेन सिद्धस्याकाशस्य स्वसमवायिसंयुक्तत्वेन सिद्धौ का वाधा इत्यत आह न रविक्रियादीति । रविकियापदं कालिकपरत्वापरत्वाभिप्रायेण । आदि पदञ्च दैशिकपदत्वापरत्वाभिप्रायेण । तेन मूर्त्तसंयोगस्योपग्रहः । उपनायकत्वमिति । उपनीतभाननियामकत्वमित्यर्थः । वस्तुतस्त्विदमुपलक्षणं पूर्वत्र स्वसमवायिसंयुक्तत्वेनाकाशस्य सिद्धत्वे क्वचिद् मेरीदण्डसंयोगे स्वसंयुक्तासु स्वसमानकालीनासु यावतीषु भेरीषु युगपच्छब्दोत्पादप्रसङ्गो यतो दृश्यते हि स्वसमवायिरविचरमसंयोगाश्रय शरीरैतदुमयसयुक्तः कालः स्वसंयुक्त षु स्वसमानकालीनेषु यावत्सु शरीरेषु युगपत्
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[ २२ ] परत्वापरत्वे जनयतीति । एवं परत्र स्वसमवायिसंयुक्तत्वेनाकाशस्य सिद्धत्वेऽनियत परधर्मोपनायकतापत्तिः किञ्चात्मनामपि विनिगमना विरहेण तत्तद्रूपेण सिद्ध यापत्त्या गौरव प्रसङ्ग स्तेषामनन्तल्वादिति ध्येयम् । सा दिगेकाप्युपाधिभेदात् प्राची प्रतीची. त्यादिव्यवहारविषयतामाप्नोति । तत्रोदयगिरिसन्निहितमूर्त्तसंयोगावच्छिन्नादिक् प्राची। उदयगिरिव्यवहितमुर्त्तसंयोगावच्छिन्ना दिक् प्रतीची। सुमेरुसन्निहित मूर्त संयोगवच्छिन्नादिगुदीची। तद्व्यवहृति मूर्त्तसंयोगावच्छिन्ना दिगवाचीत्यादि शेयम् ॥ ११ ॥
तकोमतम् ।।
___ अहं सुखीत्यादि प्रत्यक्षमात्मानि प्रमाणं । ईश्वरे चानुमानं यथा-क्षितिः सकत्तका कार्य्यत्वाद् घटवत् । तेनेश्वरस्य तद्वृत्तिनित्यज्ञानेच्छाकृतीनां तत् सार्वग्यस्य च सिद्धिः। मनसि प्रमाणं यथा-सुखादिप्रत्यक्षमिन्द्रियजन्यं जन्यप्रत्यक्षत्वात् घटप्रत्यक्षवत् । तथा चेन्द्रिथान्तरवाधे मनसः सिद्धिः ॥ १२ ॥
|| विवृतिः ॥ यद्यपि सुखं द्रव्यसमवेतं गुणत्वाद् रूपवदित्याह्यनुमानतोऽष्टद्रव्यसमवेतत्ववाधादष्टद्रव्यातिरिक्तस्यजीवात्मन: सिद्धिः सम्भवति तथापि सर्वप्रमाणवलवतः प्रत्यक्षस्य तत्र प्रमाणत्वसम्भवे तदाश्रय णमेवोचितमित्याशयेनाहाहं सुखीत्यादि । विशेषगुणसम्बन्धादेवात्मनः प्रत्यक्षत्वनियमात् सुखाद्यप्रकारिकायाः केवलाहमित्याकारिकाया एकत्वप्रकारकाहन्त्वावच्छिन्न विशेष्यकप्रतीतेरात्मप्रमाणत्वासम्भवादिति भावः । विनिगमनाविरहादुःखत्वाद्यवच्छिन्नप्रकारकप्रतीतेरप्यात्म प्रमाणत्वसम्भव इत्याशयेनोक्तमादीति । प्रत्यक्षमिति । मानससाक्षात्कार इत्यर्थ । इदमुपलक्षणं, अहमित्यस्य प्रकृतिभूतं पदं सभिधेयं पदत्वाद् घटादिपदवदित्याद्यनुमानस्य "स आत्मा" इत्यादि श्रु ते: “अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयम्" इत्यादि स्मृतेश्च जीवात्मानि प्रमाणत्वयवधेयम्। आत्मनीति। जीवात्मनोर्थः। न चोक्तप्रत्यक्षे शरीर मेव विशेष्यतया भासता मिति वाच्यं वहिरिन्द्रियव्यापारं विनापि जायमानोक्तमानस प्रत्यक्षविषयत्वस्य शरीरेऽनुपत्तेाल्ये परिदृष्टस्य कौमारे स्मरणाद्यनुपपत्ते: कृतहानाकृताभ्यागमप्रसङ्गाच्च । न च नित्यं मन एव तथाभासतामिति वाच्यं स्वस्य स्वकरणकप्रत्यक्षप्रमेत्ववात् सुखादेरप्रत्यक्षत्वापत्तेश्च न च बहिरिन्द्रियाणां तथा नासमानत्वं कल्प्यमिति वाच्यं तथा सति चक्षुरादिसत्त्वदशायां गृहीतस्य वस्तुनोऽन्यत्वादि दशायां स्मरणानुपपत्तेरनुभवस्मरणयोः सामानाधिकरण्यप्रत्यासत्त्येव कार्यकारण भावात। अन्यथा तवानुभूते ममापि स्मरणं स्यात् । तदुक्तमाचार्यैः
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[ २३ ] "नैकदृष्टं स्मरत्यन्यः" इत्यादि । ननु शरीरस्यास्मत्पदार्थत्वविरहे 'स्थूलोऽहं गच्छामि' 'गौरोऽहमश्नामि' इत्यादि स्थूलत्वगमनाद्योः सामानाधिकरण्यावगाहिप्रतीतेः का गतिरिति चेन्न तत्रानायत्या स्थूलगौरपदयो गौणार्थकत्वकल्पनात्। तथाहि स्थूला. दिपदस्य स्थूलत्वाद्यवच्छिन्नदेहावच्छिन्नपरत्वान्नानुपपपत्तिः । यदिदं प्रत्यक्षस्यात्मप्रमाणत्वममिहितं तन्निज शरीरावच्छेदेनैव, परकीयशरीरावच्छेन तु तस्य प्रमाणत्वासम्भवा
चैत्रशरीरप्रयत्नवदधिष्ठितं चेष्टावन्त्वाद् यन्नैवं तन्नैवमित्याद्यनुमानादात्मसिद्धिरिति ध्येयम् ।
उद्देशप्रकरणे ईश्वरस्य' पृथगनुदृष्टत्वेऽनैवोद्देशोबोध्यः। तदुक्त शिवादित्येन "आत्मातु परमात्मा क्षेत्रज्ञश्चेति द्विविधः" इति । तथा च तस्य नीरूपद्रव्यत्वेन तत्र प्रत्यक्षप्रमाणप्रमेयत्ववाधादाह ईश्वरे चानुमानमिति । ईश्वरसाधकमनुमानमाभिनीय दर्शयति क्षितिरित्यादि । नात्र क्षितित्वस्य पक्षतावच्छेदकत्वमभिमतं तथा सत्यवच्छेदकावच्छेदेन साध्यसाधने परमाणौ बाघः सामानाधिकरष्येन तथात्वेपि घटादावंशतः सिद्धसाधनं प्रसज्येत किन्तु स्वरूपसम्बन्धविशेषात्मककार्य्यत्वस्य तथात्वं बोध्यम् । तेन जन्यक्षितित्वस्य पक्षतावच्छे दकत्व एव नोत्तातिप्रसङ्ग इत्य" पास्तम् । तथात्वे क्षितित्वस्य पक्षतावच्छेदककोटिप्रवेशवैयर्थ्यप्रसङ्गात् परमाणुनभ्युपगमे जन्यपदभ्याव्यावर्तकतापत्तेश्च । सकर्तृ केति। कत्तु जन्येत्यर्थः। अत्र कर्तृत्वं न तावत् कृतिमत्त्वमात्रमुपादानज्ञानाद्यभाववतोऽपीष्टसाधनताज्ञानादिना प्रवृत्त्युत्पत्त्यावालादे घटादि कत तापत्तेः किन्तूपादानगोचरापरोक्षज्ञानचिकीर्षा कृतिमत्त्वरूपम् । यद्यप्यत्रोपादानगोचरापरोक्षज्ञानचिकीर्षाकृतिजन्यत्वस्य साध्यत्वे लाघवं कृत्याश्रयतयेश्वरसिद्धिश्च सम्भवति तथाप्युपादानज्ञानचिकीर्षाकृतीनामिव स्वतन्त्रान्वयव्यतिरेकाभ्यमुपादानज्ञानचिकीर्षाकृतिमतोऽपि हेतुत्वमित्याभिप्रायेण सकत्तृ कत्वस्य साध्यतेतिबोध्या।
वस्तुतस्तु कायंप्रत्युपादानज्ञानत्वादिप्रत्येकधर्मेण-कारणत्व स्यान्वयव्यतिरेक सिद्धत्वाद्विनिगमनाविरहाल्लाघवाच्चोपादानज्ञानजन्यत्वस्य चिकीर्षाजन्यत्वस्य कृतिजन्यत्वस्य च त्रितयस्यात्र साध्यता बोध्या। न चोपादानज्ञानचिकोर्षयोः प्रवृत्ति प्रति हेतुत्वे कार्यसामान्यं प्रत्यहेतुवाद् व्यभिचार इति वाच्यं प्रवृत्तिद्वारा कार्य सामान्येऽप्युपादानज्ञानस्य चिकोषीयाश्च हेतुत्वोपगमात् । __ नव्यास्तु लाघवतः कृतिजन्यत्वस्यैव साध्यत्वं, तथा च सर्गाद्यकालीनांकुरात्मकक्षितेरपि कृति जन्यत्वे सिद्ध तादृशांकुरकृतेश्वास्मदाद्याश्रितत्ववाधात्तदाश्रयत्वेनेश्वर सिद्धिरिति प्राहुः।
वस्तुतस्तु सर्गाद्यकालीनद्यणुकारम्भकपरमाणुसंयोगजनकं कर्म चेतनप्रयत्न
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[ २४ ] प्रयोज्यं कर्मत्वादादिशरीरप्रक्रियावदित्याद्यनुमानस्यापीश्वरसिद्धौ प्रमाणत्वं वेदितव्यम् । अतएव "कार्यायोजन धृत्यादेः पदात् प्रत्ययतः श्रुतेः। वाक्यात् संख्याविशेषाच्च साध्यो विश्वविदम्यः" इत्याचार्याः।
हेतुमाह कार्यत्वादिति । भावत्वे सति प्रागभावप्रतियोगित्वादित्यर्थः। तेन ध्वंसे न व्यभिचारः। ईश्वरें चानुमानमित्यत्रानुमानमित्युपलक्षणम् । तेन "अज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुख दुःखयो। ईश्वर प्रेरितो गच्छत् स्वर्ग वा श्वभूमेव वा" इत्यादिश्रुतेः "ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽज्जुन। तिष्ठति" इत्यादि स्मृतेश्चेश्वरसिद्धि
ईष्टव्या।
स्वोक्तानुमानस्य फलमाह तेनेति। क्षितिपक्षकोक्तानुमानेनेत्यर्थः। उक्तानुमानेनेश्वरस्प सिद्धौ साध्यतावच्छे दकघटकीभूतकत्त त्वघटकविधया तदीयनित्यज्ञानादेरपि सिद्धिरित्याहू तद्वत्तीति । ईश्वरवृत्तीर्थः। ईश्वरीयज्ञानेच्छाकृतीनां ध्वंसप्रागभावादिकल्पनायां गौरवादाह नित्येति। ईश्वरज्ञानस्य कारणानियम्यस्वाद्विनिगमनाविरहेण सर्वविषयकत्वसिद्ध येश्वरस्य सर्वज्ञत्वसिद्धिरित्याहु . तत्सार्वग्यस्येति ।
. अतीन्द्रियस्य मनसः प्रत्यक्षप्रमाणप्रमेयत्ववाधादनुमानसाध्यत्वं प्रतिपादपितुमाह मनसि प्रमाणमिति । तदनुमानमभिनीय दर्शयति सुखादोति । विनिगमनाविरह. दिपदम् । तेन दुःखादेः परिग्रहः । प्रत्यक्षसामान्यस्य पक्षत्वे सिद्धसाधनान्भनसोऽ. सिद्धश्च सुखादिविषयकत्वेन प्रत्यक्षस्य पक्षतया प्रवेशः। जन्यत्वमात्रस्य साध्यत्वे सिद्धसाधनादर्थान्तराच्चेन्द्रियेति। तथा च मनसोऽपीन्द्रियत्वाददोषः। ईश्वरीय प्रत्यक्षे.व्यभिचारवारणाय हेतुतावच्छेदकघटकतया जन्यत्वप्रवेशः। घटादौ व्यभिचारवारणाय प्रत्यक्षेति। नन्विन्द्रियजन्यत्वसिद्धावपि चक्षुरादीनामेव कुतो न सिद्धि रिन्द्रियवादित्यत आह इन्द्रियान्तरवाधादिति। सुखादेरात्मगुणत्वेन वहिरिन्द्रिय ग्राह्यत्वासम्भवातू साध्यतावच्छेदकघटकेन्द्रियत्वे मनसः सिद्धिरिति भावः ॥१२॥
॥ तर्कामृतम् ॥ - अर्थ द्रव्यनाशप्रक्रिया । द्रव्यनाशो द्विविधः। क्वचिदसमवायिकारणनाशात् क्वचित् समवायिकारणनाशाच्च । तत्राद्यो यथा परमाणुद्वयसंयोगनाशायणुकनाशः । द्वितीयो यथा कपाल नाशाद् घटनाशः । घटनाश उभयतः सम्भवति ॥१३॥
॥ विवृतिः ॥ द्रव्याणामुत्पत्ति प्रक्रियायाः प्रागभिहितत्वान्नाशप्रक्रियाया अनभिधाने न्यूनत्वं स्यादत आह–अथद्रव्यनाशेति ।। जन्यद्रव्यनाशेत्यर्थः। तेन द्रव्यत्वावच्छेदेन
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[ २५ । नाशप्रतियोगित्वविरहेऽपि न क्षतिः। यद्यपि जन्यद्रव्यसामान्यस्यैवासमवायिकारणनाशनाश्यत्वकल्पने लाघवान्न नाश विध्यं सम्भवति तथापि पटादौ तन्तुसंयोगनाशस्येव विनिगमकाभावात्तन्तुनाशस्यापि नाशकत्वमित्याशयेन वैविध्यमुक्तम् । विधाद्वयं दर्शयति क्वचिदसमवायीत्यादि । ननु समवाय्यसमवायोति क्रमेण पूर्व कारणनिर्देशादत्र कथं वैपरीत्यमिति चेन्न परमाण्वात्मकसमवायिकरणस्य नित्यत्वेऽपिद्वयणुकनाशे समवायिकारणनाशनाश्यत्वस्य वक्तुमशक्यत्वात् जन्यद्रव्यनाशकतया प्राधान्यादसमवायिकारणनाशस्य पूवं निर्देशात् । नवीनास्तु लाघवतः सर्वत्र वासमवायिकारणनाशत्वेन कार्य्यद्रव्यनाशत्वेन कार्यकारणभावं मन्यन्ते। असमवायिकारणनाशजकार्य्यद्रव्यनाशमुदाहरति परमामुद्वयेत्यादि । अत्र समवायिकारणस्य नित्यत्वादिति भावः। द्वयपदं स्वरूपकीर्तनमात्रम् । समवायिकारणनाशजकार्य्यद्रव्यनाशमुदाहुरति कपालनाशादिति । ननु यत्र समवायिकारणमप्यनित्यं तत्र कार्यद्रव्यनाशे बिनिगमकाभावादुभयनाशयोरेव कारणत्वं वाच्यमित्याह घटनाश उभयत इति । समवायिकारणनाशादसमवायिकारणनाशाच्चेत्यर्थः । न चैवं मिथोव्यभिचारादनुगमासम्भवाच्च प्रत्येकमपि कारणं न स्यादिति वाच्यं निमित्तेतरकारणनाशत्वेन कारणत्वस्य वक्तव्यत्वात् तत्तन्नाशं प्रति तत्तन्नाशस्य करणत्वमिति रीत्या विशेषस्य कल्पयितु शक्यत्वाच्च ।।१३॥
॥ तामृतम् ॥ आकाशकालदिगात्मपरमाणवोऽवृत्तयः समवायश्च । पृथिव्यादिपञ्चानां भूतत्वम् । पृथिवीजलतेजोवायुमनसां क्रियावत्त्वमूर्तत्वे । पृथिव्यप्तेजोवायवोद्गव्यसमवायिकारणानि । कालस्य कालिकसम्बन्धेन सर्वाधिकरणत्वम् । दिशो दैशिकसम्बन्धेन सर्वाधिकरणत्वम् ॥ १४॥
॥॥ इतिव्यनिरूपणम् ।।१।। . . ॥ विवृतिः ।। अथ साधर्म्य निरूपणेन द्रव्यविचारमुपसहर्तुमाह-आकाशेत्यादि। समपरिमाणयो वस्तुनो मिथो वैशिष्ट्यधियः प्रमात्वेऽपि तत्राधाराधेयभावस्याननुभवा. दाधाराधेयभावं प्रत्याधाराधेययोः परिमाणतारतम्यस्य नियामकत्वमुपेयम् । एवञ्चाकासकालात्मदिशां परममहुत्परिमाणवत्त्वेन परमाणुनाञ्चानुपरिमाणवत्त्वेन तौल्या. दाधेयत्वं न सम्भवतीत्याहावृत्तय इति। . संयोगसमवायान्यतरसम्बन्धावच्छिन्नाधेयत्वसामान्याभाववन्त इत्यर्थः। तेन महाकालस्य कालिकसम्बन्धेनाकाशादिमत्वेऽपि न क्षतिः। समवायश्चेति । अवृत्तिरिति विभक्ति विपरिणामेनान्वयः । तथा चैतेषामवृत्तित्वं साधर्म्यमितिभावः । एवं परत्रापि।
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[ २६ ] भूतत्वमिति। आत्मान्यत्वे सति विशेषगुणवत्त्वमित्यर्थ। अत्र भूतत्वसमा. नाधिकरणद्रव्यत्वापरजातिमत्त्वं विवक्षणीयम् । तेनोत्पत्तिकालावच्छिन्नघटादौ नाव्यान्ति । क्रियावत्त्वमूर्त्तत्वे इति । साधर्म्य इति शेषः। अत्र क्रियावत्त्वपदेन क्रियासामानाधिकरणद्रव्यत्वव्याप्यजातिमत्त्वरूपोऽर्थों विवक्षणीयः । तेनानुत्पन्नक्रिय पृथिव्यादौ नाव्याप्तिः। मूर्त्तत्वं परिच्छिन्नपरिमाणवत्त्वम् । तदपि तत् समानाधिकरणद्रव्त्वव्याप्यजातिमत्त्वरूपं विवक्षणीयम् । अन्यथाद्यक्षणावच्छिन्नघटादावव्याप्त यायत्तेः । आकाशकालदिगात्ममनसां गुणसमवायिकारणत्वेपि नित्यत्वादिजातीयद्रव्ययोः समवायिसमवेतभावासिद्धश्चाह-पृथिव्यप्तेजोवायव इति । अन्त्यावयविभिन्ना इत्यादिः। तेनान्त्यावयविषु नाव्याप्तिः। गुणसमवायिकारणत्वस्याकाशादिसाधारणत्वादाहु-द्रव्येति । कालस्येत्यादि। संयोगेन मूर्तस्य समवायादिना द्रव्यत्वादेश्चकाले सत्त्वेऽपि न तेन तेन सम्बन्धेन सर्वाधिकरणत्वं सम्भवत्यत आह–कालिकसम्बन्धेनेति। कालिकविशेषणतासम्बन्धेनेत्यर्थः। सर्वाधिकरणत्वमित्यत्र सर्वपदं कालत्वावच्छिन्ने तरपरं। तेन काले कालाधिकरणत्वविरहेऽपि नाव्यप्तिः। न च जन्यमात्रस्यैव कालोपाधित्वाद् यथा श्र तमेव सम्यगिति वाच्यं तथात्वेऽप्यष्टद्रव्यातिरिक्तद्रव्यात्मककालस्य स्वाधिकरणत्वविरहात् ।
दिश इत्यादि। संयोगसमवायादिना सर्वाधिकरणत्वविरहादाह-दैशिकसम्बन्धेनेति। दिक्कृतविशेषणतासम्बन्धेनेत्यर्थः। सर्वाधिकरणत्वमिति। अत्रापि पूर्ववदर्थ ऊहनीयः ॥२४॥
। इतिद्रव्यनिरूपणविवृतिः ॥
॥ तर्कामृतम् || अथ गुणाः कथ्यन्ते । रूपरसगन्धस्पर्शसंख्यापरिमाणपृथक्त्वसंयोगविभागपरत्वापरत्वबुद्धिसुखदुःखेच्छाद्वषप्रयत्नगुरुत्वद्रवत्वस्नेहसंस्कारधर्माधर्मशब्दाश्चतुर्विशति गुणाः। तच्च रूपत्वादीनि सर्वाण्येव जातयः। रूपं पृथिवीजलतेजो वृत्ति। तच्च शुक्लकृष्णरक्तपीतिचित्रादिभेदेन बहुविधं पृथिवीवृत्ति। अभास्वरशुक्लरूपं जलवृत्ति। शुक्लभास्वरं तेजो वृत्ति। रसः पृथिवीजलबृत्तिः। तत्र मधुरलवणकटुतिक्ताम्लकषायभेदात् षविधो रसः पृथिव्याम् । जले मधुरएव रसः। गन्धो द्विविधः सुरभिरसुरभिश्च पृथिवीमात्रवृत्तिः। स्पर्शः पृथिव्यादिचतुष्ट यवृत्तिः । स च विविधः शीत उष्णश्चानुष्णाशीतश्च । अनुष्णाशीतस्पर्शो वायुपृथिव्योः । जले शीतः। तेजसि उष्णः ॥२५॥
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[ २७ ]
॥ विवृतिः ॥ अथ गुणत्वेन गुणानामखिलद्रव्यसमवेतन्वाद्रव्याभिव्यङ्गयत्वाच्च द्रव्यनिरूपणानन्तरं गुणानुद्देष्टुं विभजितुञ्च प्रतिजानीतेऽथ गुणा इति। चतुर्विंशतिरिति । न च यागादिव्यापारतया सिद्धस्य कार्य्यसामान्यनिमित्तकारणस्यादृष्टस्यापह्नोतुमशक्यत्वात् कथं गुणानां चतुविशतित्वमिति वाच्यं धर्माधर्मभेदेनादृष्टस्य द्वैविध्यादनुपपत्तिविरहात्। न चैवं रूपादिभेदानां शुक्लादीनां सत्त्वात् पुनश्चतुर्विंशतित्वानुपपत्तिरिति वाच्यं रूपत्वादिजात्या शुक्लादीनामैक्यात् । न चादृष्टत्वेन धर्माधर्मयोरप्यैकस्य वक्तुं शक्यतयाऽनुपपत्तितादवस्थ्यमिति वाच्यमदृष्टत्वस्य जातित्वासिद्धः। वस्तुतस्तु गुणाश्चतुर्दिशति रित्यस्य गुणाश्चतुविशतिगुणविभाजकजातिमन्त इत्यर्थान्न दोषोऽदृष्टपदाद्धर्म त्वादिप्रकारेण शाब्दबोधस्यैवानुभवसिद्धत्वात्तत्पदशक्यतावच्छेदकतयानुगतप्रतीतिविषयतावच्छेदकत्वादिना वा धर्मत्वादेरेव जातित्वसिद्ध रिति ध्येयम् । तथा चालस्यविरुचिलघुत्वादीनां गुणत्वे प्रमाणाभावान्न संख्याधिक्यमिति भावः । जातय इति । वाधकषट्काभावादनुगतप्रतीतिविषयतावच्छेकतया तत्तत्पदशक्यतावच्छेकत्वादिना वैतेषां जातित्वमिति भावः। तथाच रूपत्वादिजातिमत्त्वं रूपादिलघुलक्षणं बोधमम् । अथ गुणानां साधयंवैधयें निरूपयितुं प्रथमोद्दिष्टरूपवत्त्वस्य पृथिव्यादित्रितयसाधर्म्यमाह रूपमित्यादि। कस्याश्चिदपि रूपव्यक्त स्त्रितयवृत्तिस्वाभावेऽपि रूपत्वेन त्रितयवृत्तित्वमिति ज्ञेयम् । एवमग्रेऽपि । तथाच रूपवत्त्वं त्रितयसाधर्म्यमिति भावः । अत्र च यस्य द्रव्यस्य यद्गुणवत्त्वं साधम्म्यं वक्ष्यति तदितरद्रव्यस्य तद्गुणवत्त्वं वैधम्म्यं ज्ञेयम् । न चाद्यक्षणावच्छेदेनैतेषु रूपवत्त्वाभावादव्याप्तिरितिवाच्यं रूपसमानाधिकरणद्रव्यत्वव्याप्यजातिमत्त्वस्य विवक्षितत्वात् । एवमन्यत्रापि। रूपविभागमाह तच्च शुक्लेत्यादि । शुक्लत्वादयो रूपत्वव्याप्यजातिविशेवरूपाः प्रत्यक्षसिद्धाः। चित्रादीति। रूपस्य व्याप्यवृत्तित्वनियमादव्याप्यवृत्ति शुक्लादिसमुदायस्य चित्ररूपत्वासिद्ध या चित्रपटादिप्रत्यक्षत्वानुपपत्तेश्चित्ररूपसिद्धिरिति भावः । आदिना नीलादेः परिग्रहः। जलादौ बहुरूपाभावादाह पृथिवीवृत्तीति । सामान्यतो रूपवत्त्वस्य साधर्म्यमुक्ता विशेष आह अभास्वरशुक्लरूपमिति । शुक्लरूपस्य पृथिवी तेजसोरपि सत्त्वादुक्तमभास्वरेति। शुक्लभास्वरमिति । पृथिवी जलयोावृत्तये भास्वर मिति।
अथ क्रमप्राप्तरसवत्वं पृथिव्यादिद्वयसाध्यघूमाह रस इत्यादि। रसं विभजते तत्र मधुरेत्यादि। मधुरत्वादीनि रसत्वव्याप्यजातिविशेषरूपाणि। षडूविध इति। रसनघ्राणत्वगिन्द्रियानां द्रव्यग्रहणे सामार्थ्याभावाद्रव्यलौकिकरासनादेर प्रसिद्ध या तदनुपपत्त्यनवकाशेन चित्ररसाद्यनङ्गीकारादित्याशयः। जले षडूविधरसा
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[१]
भावादुक्तं पृथिव्यामिति । मधुर एवेत्येवकारेणाम्लादिव्यवच्छेदः । न च जम्बीरजलादाबम्लादिरसस्यानुभवादव्याप्तिरिति वाच्यं तस्याश्रयौपाधिकत्वात् । अथ क्रमप्राप्तगन्धवत्त्वस्य पृथिवोसाधर्म्यतां प्रदर्शयितुं द्विविधस्यैव गन्धस्य पृथिवीवृत्तितया प्रथमत एव गन्धं विभजते गन्धो द्विविध इति । सुरभिरसुरभिश्चेति । सुरमित्वासुरभित्वे गन्धत्वव्याप्यजातिविशेषौ । नचासुरभित्वं सुरभित्वाभाव इति वाच्यं गन्धमृगादौ तम्य भावत्वेनानुभूयमानत्वात् । पृथिवीमात्रवृत्तरितिमात्रपदं जलादौ गन्धाभावात् सार्थकम् । न च पाषाणात्मकपृथिव्यां गन्धाभावादव्याप्तिरिति वाच्यं पाषाणभस्मनि गन्धोपलब्धेः पाषाणेऽपिगन्धसत्त्वादन्यथा भस्मनि गन्धाभावापत्तेः । न च भस्म द्रव्यान्तरमेवेति वाच्यं रसाद्यभावेन द्रव्यान्तरत्वासिद्ध ेः ।
सामान्यतः स्पर्शवत्त्वस्य क्षित्यादिचतुष्ट्यसाधर्म्य भुक्त्वा स्पर्शं विभजते-- स च त्रिविध इति । अत्र यद्यप्यनुष्णाशीतस्पर्शस्य साधर्म्यं चरमे प्रतिपादयितुमुचितं क्रमानुरोधान्नव्यापिद्रव्यद्वय साधर्म्यत्वेन प्राधान्यमभिप्रेत्यादौ निरूपयत्यनुष्णाशीतस्पर्श इति । स च पृथिव्यां पाकजः पवने चापाकज इति विशेषः ।
जले शीत इति । उष्णजले उष्णत्वप्रतीतेरोपाधिकतया न दोष इति बोध्यम् । तेजसि उष्ण इति । सुवर्णादिरूपे तेजसि पार्थिवस्पर्शेनामिभबादुष्णस्पर्शस्यानुपलब्धिरिति नाव्याप्तिः ||२५||
॥ तर्कामृतम् ॥
संख्या परिमाणपृथकत्वसंयोगविभागा नव द्रव्यवृत्तयः । परत्वापरत्वे पृथिवी - जलतेजोमनो वृत्तिनी । बुद्धिसुखदुःखेच्छाद्वे षप्रयत्नभावनाधम्र्म्माधर्म्मा आत्मवृत्तयः । - गुरुत्वं पृथिवीजलवृत्ति । द्रवत्वं पृथिवीजलतेजोवृत्ति तद्दिविधं नैमित्तिकं सांसिद्धिकञ्च । आद्यं पृथिवोतेजसोः । द्वितीयं जले । स्नेहो जलमात्रवृत्तिः । संस्कारः पृथिवीजलतेजोवाप्याश्ममनोवृत्तिः । स त्रिविधोवेगो भावानास्थितिस्थापकश्च । तत्र वेगः पृथिव्यादिचतुष्टयमनोवृत्तिः । द्वितीय आत्मवृत्तिः । तृतीयः पृथिव्यादिचतुष्टय वृत्तिः । शब्दो द्विविधो ध्वन्यात्मको वर्णात्मकश्चाकाशमात्रवृत्तिः ॥ २६ ॥
॥ विवृतिः ॥
संख्यादिपञ्चकानां सकलद्रव्यवृत्तित्वादाह संख्येत्यादि । यद्यपि गुणानामाश्रयभेदभिन्नत्वात् संख्यादेर्न वद्रव्यवृत्तित्वं न सङ्गच्छते तथापि संख्यात्वादिना सकलद्रव्यवृत्तित्वाददोषः । अथ परत्वापरत्वयोम्मूत्तद्रव्यसाधर्म्य माह परत्वापरत्वे इत्यादि । अत्रापि दैशिककालिकभेदेन परत्वस्यापरत्वस्य च द्वैविध्याद्दैशिकपरत्वापरत्वयोर्द्देशनिष्ठत्वात् कालिकपरत्वापरत्वयोश्च शरीरनिष्ठत्वान्मनः प्रभृतेश्चादेशशरी
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[ २६ ] त्वाद् यथाश्रुतं न सङ्गच्छते तथापि तत्तद्देशस्थतदवच्छिन्नशरीरमनःप्रभृतिषु द्विविधयपरत्वापरत्वयोरुत्पत्तौ वाधकाभावात्तथाव्यवहाराच्चनानुपपत्तिः। अथ बुद्धयादिमत्त्वस्यात्मसाधर्म्यमाह बुद्धिसुखेत्यादि । आत्मनौ द्वैविध्यात्सुखदुःखद्वषभावनाधर्माणाञ्च परमात्मवृत्तित्वविरहाबुद्धीच्छाप्रयत्नानां जीवात्मपरमात्मोमयसाधयमितरेषान्नु जीवमात्रसाधर्म्यमिति बोध्यम् । सुवर्णादिरूपे तेजसि गुरुत्वस्योपलभ्यमानत्वेऽपि तस्य पार्थिवभागोपष्टम्मकत्वादाह गुरुत्वं पृथिवीजलवृत्तीति । द्रवत्ववत्त्वस्य पृथिव्यादित्रितयसाधर्म्यमाह द्रवत्वमित्यादि। द्रवत्वं विभजते तद्-ि विधमिति । विधाद्वयं दर्शयति नै मित्तकमित्यादि । तत्र नैमित्तिकत्वभग्निसंयोगादि निमित्तविशेषजन्यत्वम्। सांसिद्धिकत्वञ्च जातिविशेषः। सामान्यतः साधर्म्यमुक्त्वा विशेषत आहाद्यमिति। पृथिवीतेजसोरिति घृतसुवर्णाद्योवह्निसंयोगादिना द्रवत्वस्य प्रत्यक्षसिद्धत्वादिति भावः। द्वितीयमिति । सांसिद्धिकमित्यर्थः ।
अथ स्नेहवत्त्वस्य जलसाधर्म्यमाह स्नेह इत्यादि। अत्रमात्रपदेन पृथिव्यादेववच्छेदः। यत्तु घृतादिरूपपृथिव्यामपि स्नेहवत्त्वं तदपि जलीयमेव स्वतन्त्रान्वयव्यतिरेकाम्यां किन्तु प्रकृष्टत्वाद्दाहानुकूलमिति बोध्यम् ।। - अथ पृथिव्यादीनां संस्कारवत्त्वं साधर्म्यमाह संस्कारः पृथिवीत्यादि । संस्कारं विभजने स त्रिविध इति । विधात्रयं दर्शयति बेगइति । तत्र वेगत्यादयो जातिविशेषाः । मूर्त्तमात्रस्य वेगवत्त्वं साधर्म्यमाह तत्र वेगइति । द्वितीयइति । भावनारव्यः संस्कार इत्यर्थः। आत्मवृत्तिरिति । जीवात्मवृत्तिरित्यर्थः। तेनेश्वरे भावनाविरहेऽपिनाव्याप्तिः। तृतीय इति । स्थितिस्थापक इत्यर्थः। पृथिव्यादिचतुष्टयवृत्तिरिति । एतच्च प्राचां मतानुसारेण। नव्यासु स्थितिस्थापकस्य जलादिवृत्तित्वे मानाभावात् पृथिवीमात्रवृत्तित्वमिति प्राहुः । ___ शब्दसामान्यस्येव शब्दविशेषस्यापि आकाशमात्रनिष्ठत्वात् शब्दसामान्यस्य साध
घूमनुत्क्वौवादौ विभजते शब्दो द्विविध इति । ध्वन्यात्मक इति । ध्वनित्ववर्णत्वेशब्दत्वव्याप्यजातिविशेषौ। वर्णत्वव्याप्याः पुनः कत्वादिजातयोऽवगन्तव्याः । आकाशमात्रवृत्तिरिति । मात्रपदेन गगनान्यद्रव्यव्यवच्छेदः ॥२६॥
॥ तर्कामृतम् ॥ रूपरसगन्धस्पर्शस्नेहसांसिद्धिक वत्वशब्दबुद्धि-सुखदुःखेच्छाद्वषप्रयत्नधर्माधर्मभावना विशेषमुणाः। संख्यापरिमाणपृथक्त्वसंयोगविभागगुरुत्वनैमित्तिकद्रवत्ववेगस्थितिस्थापकाः सामान्यगुणाः ॥२७॥
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[ ३. ]
। विवृतिः ॥ अथ शिष्यबुद्धिवैशद्यार्थ विशेषगुणत्वेन सामान्यगुणत्वेन च गुणान् विभजते रूपरसेत्यादि । तत्र द्रव्यविभाजकोपाधिद्वयसमानाधिकरणवृत्तिगुणवृत्तिजातिमत्त्वं विशेषगुणत्वमित्यन्नम्भठ्ठाः। सामान्यगुणानिर्दिशति संस्थापरिमाणेत्यादि। सामागुणत्वञ्च तादृशजातिभभिन्नत्वे सति गुणत्वमिति ध्येयम् ॥२७॥
॥ तर्कामृतम् ॥ अथ नित्यगुणाः । जलतेजोवायुपरमाणुनां विशेषगुणाः परमाणुवृत्तिस्थितिस्थापकश्च विभूनां परमाणूनाञ्च कत्वपरिमाणपृथक्त्वानि ईश्वरेच्छाज्ञानकृतयश्चनित्यगुणः ॥२८॥
|| विवृतिः ॥ नित्यगुणान्निरूपयितुं प्रतिजानीतेऽथ नित्यगुणा इति । जलतेजोवायुपरमाणूनामिति जलादिद्यणुकादे प्राप्यतयातन्नाशेन तदीयगुणानामपि नाशादनित्यत्वादुक्तं परमाणनामिति । पार्थिवपरमाणोनित्यत्वेऽपि पाकेन तदीयविशेषगुणानां विनाशेनानित्यत्वमिति भावः। जलादिपरमाणुनिष्ठसंयोगमाद्यात्मकसामान्यगुणस्य विभागादिनश्यत्वेनानित्यत्वादुक्तं विशेषेति । यद्यपि जलादिपरमाणुनिष्ठ कात्वाद्यात्मकसामान्यगुणानामपि नित्यत्वमस्त्येव तव्यापि पार्थिवपरमाणुनिष्ठानामप्येतेषां पाकेन विनाशासम्भवान्नित्यत्वादेकोक्त्या परमाणुत्वेन सकलपरमाणुनुद्दिश्य पृथगमिधास्यतीन्यदोषः।
एकत्वेत्यादि। द्वित्वादि संख्याया अपेक्षाबुद्धिजन्यत्वेनानित्यत्वादुक्तमेकत्वेति । एकत्वाहीनामेतेषामाश्रयनाशनाश्यत्वनियमादत्राश्रयाणाञ्च नित्यत्वेन नाशासम्भवा. नित्यत्वमितिभावः। जीवेच्छादेः स्वोत्तरोत्पन्नस्वसजातीयगुणनाश्यत्वनियमादुक्तमीश्वरेति । __ अत्र संयोगविभागयोः क्रियादिजन्यत्वान् परत्वापरत्वायोर्बुद्धिविशेषजन्यत्वात् सुखदुःखयोद्धर्माधर्म्म जनितत्वात् द्वषस्य द्विष्टसाधनताज्ञानजनितत्वाद्व गस्य कर्मादिहेतुकत्वाद् भावनाया अनुभवेन धर्माधर्मयोविहितनिषिद्धकर्मभ्यां शब्दस्याभिधातादिना जन्यबुद्ध यादेश्चात्ममनोयोगादिना जानतत्वानित्यत्वं न सम्भवतीति बोध्यम् ॥२८॥
॥ तर्कामृतम् ॥ अथाप्रत्यक्षगुणणाः। गुरुत्वधर्माधर्मभावनास्थितिस्थापकाः परमाणुह्यणुक वृत्तिगुणा अतीन्द्रियवृत्तिसामान्यगुणात्सरेणो रूपं विहायान्ये गुणा अतीन्द्रियाः ॥२६॥
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[ ३१ ]
॥ विवृत्तिः॥ नित्यगुणान्निरूप्याप्रत्यक्षगुणान्निरूपयितुमाहाथया प्रत्यक्षगुणाइति । अत्राप्रत्यक्षत्वं न पत्यक्षविषयत्वसामान्याभावो गुरुत्वादीनामलौकिकप्रत्यक्षविषत्वादव्याप्त: किन्तु लौकिकप्रत्यक्षविषत्वरूपं बोध्यम् । प्रयोजकलाघवादादौ गुरुत्वादीनामप्रत्यक्षत्वमभिधन्ने गुरुत्वेत्यादि । अत्र गुरुत्वादिपञ्चानामप्रत्यक्षत्वे उद्भूतत्वाभावः प्रयोजकः । महवृत्तित्वाभावात् परमाणुद्वयणुकवृत्तिगुणानामप्रत्यक्षत्वमित्यतआह परमाणुद्वयणुकवृत्तिगुणा इति। यद्यपि परमाणुद्व यणुकवृत्तिगुणानामपि वक्ष्यमाणातीन्द्रियवृत्तिगुणत्वेनोपग्रहस्नेहप्रत्यक्षे आश्रयाप्रत्यक्षत्वस्य हेतुत्वकल्पनञ्च सम्भवति तथापि महबृन्नित्वाभावस्यापि अप्रत्यक्षत्वप्रयोजकत्वाविष्कर्तुं परमाणुकद्व्यणुकवृत्तिगुणानां पृथगुपादानं कृतमिति ध्येयम् । अतीन्द्रियवृत्तिसामान्यगुणा इति। अत्रातीन्द्रियत्वं वहिरिन्द्रियजन्यप्रत्यक्षाविषयत्वं नत्विन्द्रियकरणकप्रत्यक्षाविषयत्वरूपमन्यथामात्मनो मानसप्रत्यक्षविषयत्वादात्मगनसामान्यगुणानाञ्च तथात्वादव्याप्तिः स्यात् । शब्दबुद्ध यादिष्वव्याप्तिवारणाय सामान्यपदम् । त्रसरेणुवृत्तिरूपस्य महबृत्तित्वविशिष्टो द्भूतत्वसत्त्वात् प्रत्यक्षत्वादाह त्रसरेणुरूपं विहायेति । अन्येगुणा इति । त्रसरेणुबृत्तिरसादय इत्थर्थः । न च महबृत्तित्वस्य तुल्यत्वाद्रूपस्येव रसादेः प्रत्यक्षं तत्र कथं न स्यादिति वाच्यं रूपप्रत्यक्षे महद्वन्नित्वस्य रसादिप्रत्यक्षे च श्यणुकव्यावृत्तमहबृन्नित्वस्य कारणत्वात् । न च रसादिप्रत्यक्षकारणतावच्छेदककोटौ त्र्यणुकव्यावृत्तत्वनिवेशोऽप्राणिक इति वाच्यं अणुकवृत्तिरसाद्यप्रत्यक्षत्वानुभचस्यैव तत्रमानत्वात् । इहमुपलक्षणं जीवनयोनियत्नस्याप्यतीन्द्रियत्वं बोध्यम् ॥२६॥
॥ तामृतम् ।। रूपरसगन्धस्पर्शस्नेहप्रत्यक्षे महृद्व दृन्वित्रिन्वे सत्युमूतत्वं प्रयोजकम् । सायान्यगुणप्रत्यक्षे त्वाश्रयप्रत्यक्षम् । बुद्धिप्रत्यक्षे स्ववृत्तिविशिष्टज्ञानत्वम् । सुस्वादिप्रत्यक्षे स्ववत्तिसुस्वत्वादिकमेव । अन्त्याद्यशब्दौ विहाय सर्वशब्दः प्रत्यक्षः ॥२०॥
॥ विवतिः॥ येषां गुणानामप्रत्यक्षत्वममिहितं तदितरगुणानामवश्यं प्रत्यक्षत्वं वाच्य, तत्र च प्रत्यक्षे प्रयोजक किमित्याकांक्षायामाह रूपेत्यादि । रूपादीनामेषां विशेषगुणत्वेऽपि बुद्ध यादिविशेषगुणसाधारणानुगतप्रयोजकविरहाद्रूपादीनां विशेषतोऽमिधानमितिभावः। प्रयोजकं निर्दिशति महदित्यादि। त्रसरेणुवृत्तिरसादौ व्यभिचारवारणाय सत्यन्तं, ह्यणुकव्यावृत्तमहद्वृत्तित्वे सतीति तदर्थः। न च त्र्यणुकवृत्तिरसादेः प्रत्यक्षं स्यादिति वाच्यमनुभवविरुद्वन्वान् । रूपप्रत्यक्षे तु महस्वे त्र्यणुकव्यावृत्तत्वं न लेयं श्यणुकरूपप्रत्यक्षस्यानुभवसिद्धत्वात्। वस्तुतसुपरमाणुत्र यणुकरूपादौव्यभिचारवारणाय
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[ ३२ ]
सत्यन्तम् । न चाणुद्व्यणुकयोरूद्भूतरूपसत्त्वे किं प्रमाणमितिवाच्यं त्र्यणुके उद्भूनरूपवत्त्वस्यैव मानत्वात् कारणगतरूपादीनां कार्य्यं गतस्वसजातीयगुणारम्भकत्वनियमात् । प्राणादिगतरूपादौ व्यभिचारवारणार्थमुद्भूतत्वमिति । त्वञ्च न जाति: शुक्लत्वाबिनासाङ्कर्य्यप्रसङ्गात् किन्तु प्रत्यक्षत्वप्रयोजकधर्मविशेष: शुक्लत्वादिव्याप्यनानानुद्भूतत्वजात्यभावकूठो वा गुरुत्व भावनास्थितिस्थापकधर्म्माधर्म्मान्यगुणवृत्तिः । च च वमभावकूठस्य प्रत्यक्षजनकतावच्छेदककत्वे विशेष्यविशेषणभावे विनिगमनाविरहाद्गुरुत्वकार्यकारणभाववाहस्येन गौरवमितिवाच्यं तादृशाभाक्कूठस्यैकत्रद्वयमितिहोत्या स्क्लेकपोतभ्यायेन युगपद्विशेषणत्वोपगमात् ।
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अन्येतु गुणसाङ्कर्यस्य जातिवाधकत्वे मानाभावादुद्भूतत्वं प्रत्यक्षंप्रयोजकतावच्छेदकर्तया सिद्धो रूपादिवृत्तीरूपत्वादिव्याप्यों जातिविशेष इत्याहुः ।
नव्यास्तुद्भूतस्वस्य जातित्वे चाक्षुषादाबुद्भूतरूपत्वादिना कारणत्वस्यानुभविक - स्यानुपपत्तिर्व्वयाप्यव्यापकतापन्नजातिद्वयोरेककारणतायामनवच्छेदकत्वात् । किञ्च मिथो व्यभिचारवारणाय नानाकार्यकारणभावकल्पनापत्तिश्चेति प्राहुः ।
atra कातावछेदककोटौ रूपादेव्विशेषतः प्रवेशोव्यर्थो गुणसामान्यप्रवेशे कार्यकारणभावान्तराकल्पनया लाघवादिति वाच्यं गगनादिवृत्तिसंयोगादेः प्रत्यक्षतापतेः न चेष्टापत्तिः, गगनावेरतीन्द्रियत्वात् । न च वमतीन्द्रियगगनवृत्तित्वाच्छन्दस्याप्रत्यक्षव्वं स्यादिनि वाच्यं शब्दस्य विशेषगुणत्वात् । रूपाद्यात्मकविशेषगुणप्रत्यक्ष प्रयोजकभुक्त्वा सामान्यगुणप्रत्यक्ष प्रयोजकभाह सामान्यगुणप्रत्यक्ष इति । आश्रयप्रत्यक्षमिति । न च गुणसामान्यप्रत्यक्षत्वावच्छिन्न प्रत्येवाश्रयप्रत्यक्षस्य हेतुत्वे नानाकाय्र्य्यकारणभावाकल्पनाल्लाघवमिति वाच्यं वायवीयस्पर्शादेः शब्दादेश्चाप्रत्यक्षतापलेः । यद्यपि बुद्धिप्रत्यक्षेऽप्याश्रयप्रत्यक्षस्य प्रयोजकत्वं सम्भवति तथापि बुद्धित्वस्य निव्विकल्पक प्रत्यक्षसाधारण्याद्विशिनष्टि बुद्धिप्रत्यक्ष इत्यादि । न चेश्वरीयबुद्ध : प्रत्यक्षत्वे किं मानमितिवाच्यं ईश्वरीयस्य जगत् साक्षात्करोमीत्याद्यनुभवस्यैव मानत्वात् ।
स्ववृत्तिविशिष्टज्ञानत्वमिति । प्रयोजकमिति पूर्वेणान्वयः । अविद्यमानस्यासम्बद्वस्य च विशिष्टज्ञानत्ववतः प्रयक्षासम्भवात् स्वपदं प्रत्यक्ष योग्यतत्तद्विशिष्टज्ञानपरिचायकमिति ध्येयम् । अप्रत्यक्षज्ञानविशेषे विशिष्टज्ञानत्वसत्त्वेन व्यभिचारवारणाय स्ववृत्तीति । तादृशं यद्विशिष्टज्ञानत्वं तस्य कालिकेन धटादावपि सत्त्वाद्वघभिचारवारणाय सम्बन्धेन प्रयोजकत्वमुपेतव्यम् । स्ववृन्निज्ञानत्वजातेः समवायेन निव्विकल्पकेऽपि सत्त्वाद्वयभिचारवारणाय विशिष्टेति । विशिष्टज्ञानत्वञ्च प्रकारता - विशेष्यताशालिज्ञानत्वम् ।
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[ ३३ ] यद्यपि विशेषगुणप्रत्यक्षन्वस्य कार्य्यतावच्छेदकत्वे वुद्धिप्रत्यक्षत्वादिना विविधकार्यकारणभावाकल्पनाल्लाधवं तथापि कारणतावच्छेदकगौरवमाशङ्कय तथा कार्यकारणभावाकल्पनादाह सुखादिप्रत्यक्ष इति । आदिना दुःखादेः परिग्रहः। स्ववृन्निसुखत्वादिकमेवेति । प्रयोजकमित्यनेनान्वथः । आदिना दुःखत्वादेरुपग्रहः । अत्रापि पूर्ववत् स्ववृत्तिपदोपादानप्रयोजनमुन्नेयम् । प्रयोजकत्वञ्चसुखत्वादेः समवायसम्बन्धेन वाच्यम्, तेन कालिकेन घटादिवृत्तित्वेऽपि न व्यभिचारः। ___ अथावशिष्यमानशब्दस्यापि प्रयक्षविषयत्वमाहान्त्याद्य त्यादि । योग्यविभुविशेषगुणानां स्वोत्तरोत्पन्नगुणनाश्यत्वनियमादुत्तरक्षणे शब्दानुत्पादादन्तिमशब्दस्य स्वोत्पत्तिद्वितीयक्षणनाश्यत्वमुपेयम् । नथाच तदुत्पादपूर्वोत्तरक्षणे तस्यासत्वादुत्पत्ति क्षणतः पूर्वं विषयेन्द्रियसन्निकर्ष विरहेणान्तिमशब्दस्य प्रत्यक्षत्वं न सम्भवति, एवं वीचितरङ्गन्यायेन कदम्वमुकुलन्यायेन वा शब्दाच्छब्दान्तरोत्पादक्रमेण श्रवणेन्द्रियदेशावच्छेदेन जातस्य प्रत्यक्षनियमादादिमशब्दस्य च तद्देशावच्छेदेनानुत्पन्नत्वात् प्रत्यक्षत्वं न सम्भवतीत्याशयेनोक्तमन्त्याद्यशब्दौ विहायेति । माद्यशब्दस्येत्युपलक्षणं द्वितोयादिशब्दस्यापि तद्देशावच्छेदेनानुत्पन्नत्वेऽप्रत्यक्षत्वं बोध्यम् । वस्तुतस्तु कार्यसहभावेनेन्द्रियार्थसन्निकर्षस्य हेतुत्वोपगमेऽन्तिमशब्दस्य, श्रवणेन्द्रियदेशावच्छे देनोत्पादे चाद्यशब्दस्य च प्रत्यक्षत्वे वाधकाभाव इति ध्येयम् ॥२०॥
॥ तर्कामृतम् ॥ अथ गुणोत्पत्तिप्रक्रिया। अवयववृत्तिविशेषगुणा अवयविनि स्वसमानजातीय गुणानारभन्ते। पृथिवीविशेषगुणाः पाकजाः। ते द्विविधाः पाकप्रयोज्याः पाकजन्याश्च । कारणगुणप्रक्रमजन्याः पाकप्रयोज्याः अग्निसंयोगजन्या द्वितीयाः ॥२॥
॥ विवृतिः ॥ द्रव्य हव गुणेऽप्युत्पत्तिप्रक्रियाया अवश्यमभिधानीयत्वादाह गुणोत्पत्तीति । जन्यगुणोत्पत्तीन्यर्थः। तेनोत्पत्तेरप्रसिद्धत्वान्नित्यगुणेषु नाव्याप्तिः। अत्रोत्पत्तिराद्यक्षणसम्बन्धः। आद्यक्षणत्वञ्च स्वाधिकरणक्षणध्वंसानधिकरणत्वे सति स्वाधिकरणक्षणप्रागभावानधिकरणस्वाधिकरणक्षणत्वम् । उत्पत्तिप्रणालींप्रदर्शयति अवयवेत्यादि। अवयवत्वं द्रव्यसमवायिकारणत्वम् । अवयवनिष्ठसामान्यगुणानामवयविनिष्ठसामान्यगुणानारम्भकत्वादुक्तं विशेषेति। तन्तुगतरूपादेर्धटाद्यवयविनिष्ठरूपाद्यनारम्भकत्वादाहावयविनीति । स्वसमवेतावयविनीत्ययः। विजातीयगुणानामनारम्भकत्वादाह
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[ ३४ ] स्वसमानजातीयेति। अत्र साजात्यं न गुणत्वेन, रूपादेः संयोगाद्यारम्भकतापत्तेः । नापि विशेषगुणत्वेन, रूपादेरसाद्यारम्भकत्वप्रसङ्गतात् । नापि स्ववृत्तिगुणत्वव्याप्यजातिमन्त्वेन, शुक्लरूपादेः पीतरूपाद्यारम्भकत्वप्रसक्तेः। किन्तु स्ववृत्तिरूपत्वादिव्याप्यजातिमन्त्वेन । तथा च शुक्लरूपादेः शुक्लरूपाद्यारम्भकत्वस्य पीतरूपाद्यनारम्भकत्वस्य च नानुपपत्तिः।
सामान्यतो विशेषगुणोत्पादप्रक्रियामुक्त्वा विशेषतो वक्तु प्रक्रमते पृथिवीविशेष. गुणा इत्यादि। अत्रजलादौ पाकासम्भवादाह पृथिवीति । अतएवोक्त 'एतेषां पाकजत्वं तु क्षितौ नान्यत्र कुत्रचित्' इति । संख्यादिसामान्यगुणेषु पाकासम्भवादाह विशेषेति । पाकजा इति । पाकस्तेजःसंयोगस्नद्ध'तुका इत्यर्थः। ते इति । पाकजविशेषगुणा इत्यार्थः। पाकप्रयोज्या इति । परस्परयापाकहेतुका इत्यर्थः। पाकजन्या इति । साक्षात्पाकहेतुका इत्यर्थः। तत्र ये पाकप्रयोज्यास्तान्निर्देष्टुमाह कारणगुणेत्यादि। कारणगुणप्रक्रमजन्यत्वन्तु स्वाश्रयसमवायिमात्रसमवेतस्वसजातीयगुणजन्यत्वम् । तथाचावयवपाकवादिमते द्वणुद्यकाद्यवयविनिष्ठरक्तरूपादेस्तदुपपद्यते यतस्तन्मते परमाण्वादाववयवे पाकेन श्यामरूपादिनाशानन्तरं जनिताद्रक्तरूपाहितो द्यणुकादौ रक्तरूपादिकमुत्पद्यते । तत्र द्वयणुकादिनिष्ठरक्तरूपादिकं प्रति परमाणुगतपाकस्य परम्परयाहेतुत्वात् पाकप्रयोज्या इत्युक्तम् । ये च पाकजन्याः पृथिवीविशेषगुणास्तान्निरूपयितुमाहाग्निसंयोगजन्या इति। तेजःसंयोगसाक्षात्कारणकाइत्यर्थः । तथाचोक्तमते परमाण्वाद्यवयवगतरक्तरूपादिकं प्रति, अवयविपाकवादिमते च द्व.यणुकाद्यवयविनिष्ठरक्तरूपादिकं प्रति तेजःसंयोगस्य साक्षात्कारणत्वात् कारणगुणप्रक्रमजन्यत्वाभावेन तथाविधरूपादयः पाकजन्यत्वेन व्यपदिष्टा इति तत्त्वम् ।
अत्र यद्यपि स्वाश्रयसमवायिसमवेतगुणजन्यत्वमेव कारणगुणप्रक्रमजन्यत्वं सम्भवति, तथाच वैशेषिकमते पृथिवीविशेषगुणानां सामान्यतो गुरुत्वस्थितिस्थाप कपरिमाणैकपृथक्त्वस्नेहसांसिद्धिकद्रवत्ववेगानाञ्च तन्निवहत्यवयवनिष्ठानामेषामवयविन्येतत्सजातीयगुणारम्भकत्वात्तथापि करपुस्तकसंयोगादिजनितकायपुस्तकसंयोगादावतिव्याप्तिः करकायाद्योरवयवावयविमावादतः स्वाश्रयसमवायिमात्रसमवेतस्वजातीयगुणजन्यत्वं विवक्षितम् । सजातीयत्वोपादानादवयवावयविनोरेकत्वाम्यां जनितेऽवयवावयविद्वित्वादौ नातिव्यप्तिः। नच संख्यात्वेन सजातीयत्वान्नद्दोषतादवस्थ्यमितिवाच्यं । गुणत्वव्याप्यव्याप्यजातिमत्तेन साजात्यस्य विवक्षितत्वात्। न च गुरुत्वस्नेहयोस्तादृशजात्यप्रसिद्धयाऽव्याप्तिरिति वाच्यं तत्र गुणत्वव्याप्यजाव साजात्यस्य विवक्षणीयत्वात् ॥२२॥
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[ ३५ ]
॥ तर्कामृतम् ॥
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श्यामघटेऽग्निसंयोगेन श्यामरूपनाशानन्तरं घटे रक्तरूपमुत्पद्यते इति नैयायिकमतम् । अग्निसंयोगेन परमाणौ पाके सति परमाणुषु रक्तरूपमुत्पद्यते, पुनर्घटोत्पत्तौ सत्यां कारणगुणक्रमेण घटे रक्तरूपमुत्पद्यते इनि वैशेषिकमतम् ||२२||
|| fagfa: 11
पाकस्य साक्षात्कारणत्ववादिनैयायिकमतमुदाहरति श्यामघट इत्यादि । समारour आमघटे वह्निना परमाणूनामभिघाते नोदने वा जाते सति तस्य नियमतो द्रव्यारम्भकसंयोगप्रतिद्वन्द्विविभागजनक क्रियोत्पादकत्वे मानाभावादवयविनां सच्छिद्रत्वाच्चान्तः प्रविष्टैर्व्वह्निसूक्ष्मावयवैः परमाणुमारभ्य श्यामघटस्वरूपावयविपर्य्यन्तं युगपदेव श्यामरूपनाशरक्तरूपोत्पादाववयविनाशं विनैवेति नैयायिकाशयः । न चावयविनां सच्छिद्रत्वे मानामाव इति वाच्यमन्तन्निहित तैलादेर्घटादितः स्यन्दनात् ।
पाकस्य परम्परया हेतुत्वं वदतां वैशेषिकाणां मतमुदाहरत्यग्निसंयोगेनेत्यादि । अयमभिप्रायः– अतिशय वेगवता तेजसा परमाणूनामभिघाते नोदने वा जाते सति तेष्वबश्यं क्रिया जायते, ततः क्रियातो विभागः, विभागादारम्भकसंयोगनाशः, ततोऽवश्यं यावदवयविनाशः कल्पनीयः कथमन्यथास्थाल्यामाहितानां तण्डुलादीनामधवह्निसन्तापेन भर्ज्जनात्तदानीमेवनाशः परिदृश्यते । ततश्चस्वतन्त्र ेषु परमाणुषु तेनैव तेजः संयोगेन श्यामरूपनाशरक्तरूपोत्पत्ती, ततोऽदृष्टादिघटितसामग्रीवशाद्रक्तपरमाणुद्वयसंयोगादिना रक्तद्वयणुकादिक्रमेण यथावस्थितभावेन रक्तघटपर्य - नूतमुत्पद्यते । एतन्मते ऽनन्तावयवि - तन्नाशप्रागमावादिकल्पन गौरवं 'सोऽयं' घटः ' इत्यादिप्रत्यभिज्ञायानुपपत्तिश्चेति ध्येयम् ॥ २२॥
॥ तर्कामृतम् ॥
कपालं नीलमेकञ्चपीतं यदि तदा घटे चित्ररूपमुत्पद्यते । रसादावेवं सत्यवयविनि रसो न जायते चित्ररसाद्यस्वीकारात् । गुरुत्वस्थितिस्थापकयोश्च कारणगुणप्रक्रमजन्यता । द्वित्वादयोऽपेक्षावुद्धिजन्याः । परिमाणं चतुव्विधं - अणुमह तह्रस्वं दीर्घञ्च तिकारणगुणप्रक्रमजन्यम् । स्वावयवबहुत्वञ्च महत्त्वजनकं यथा त्रसरेणूनाम् । अवयवानां शिथिलः संयोगः प्रचयोऽपि तज्जनकः, यथा तुलस्य परिमाणम् ||२३||
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[ ३६ ] ॥ विवृतिः ॥
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अथ चित्ररूपस्वीकारे युक्तिमाइ कपालं नीलमित्यादि । नीलादिपदमत्रोपलक्षणं तेन शुक्ललोहिताद्यवयवाभ्यामारब्धेऽवयविनि चित्ररूपोत्पादस्य नानुपपत्तिः । चित्ररूपमुत्पद्यत इति । तथाचावयविनिष्टचित्ररूपं प्रति अनेकावयवेऽनेकरूपवत्त्वं कारणमितिभावः । न चावयविनिष्टाव्याप्यवृत्त्यनेकरूपवत्त्वस्यै वावयविप्रथक्षकारणत्वसम्भवे कि चित्ररूपेणेति वाच्यं रूपस्य व्याप्यवृत्तित्वनियमात् । न च स्वसमवायिसमवेतत्वसम्वन्धेनावयवरूपस्य कारणत्वकल्पनेनैवानेकरूपवदवयवारब्धावयविन: प्रत्यक्षत्वोपपत्तौ चित्ररूपकल्पनमसङ्गतमितिवाच्यं गौरवदोषग्रासेन तादृशकार्यकारणभावस्याशक्यकल्पनत्वात् । तथाचानेकरूपवदवयवारव्यस्यावयविन: प्रत्यक्षत्वानुपपत्त्या चित्ररूपसिद्धिरितिभावः ।
ननु चित्रवच्चित्ररसोऽपि स्यादितिशङ्कां निरसितुमाह रसादावेवं सतीति । एकावयवस्य मधुररसवत्त्वेऽपरावयवस्यतिक्तरसवत्त्वे च सतीत्यर्थः अवयविनि रसो न जायत इति । तत्र रसस्य जायमानत्वे बिनिगमकाभावेन तस्य मधुरत्वं तिक्तत्वम्वेति निर्णेतुमशक्यत्वादितिभावः । तथाचावयविनि रसोत्पादं प्रत्यनेकावयवगतानेकरसस्य प्रतिवन्धकत्वमिति फलितम् । तत्र चित्ररस एवोत्पद्यतामित्यत आह चित्ररसाद्यस्वी - कारादिति । आदिना गन्धादेः परिग्रहः । न चैवमनेकरसवदने कावयवारब्धावयविनो रासनप्रव्यक्षत्वं नस्यादिति वाच्यमिष्टत्वात् । रसनेन्द्रियादेर्द्दव्यग्रहणेऽसामर्थ्याद्रद्रव्यलौकिकरासनादिप्रत्यक्षस्याप्रसिद्धत्वात्ततदनुरोधेन चित्ररसाद्यङ्गीकारस्यानावश्यकत्वा
दितिभावः ।
अथातीन्द्रियगुणानां मध्ये गुरुत्वस्यैव कारणगुणप्रक्रमजन्यत्वात्तदाह गुरुत्वेति । कारणगुणप्रक्रमजन्यतेति । कारणनिष्टस्वसजातीयगुणारभ्यत्वमित्यर्थः । तथाच
निष्ठ गुरुत्वं प्रति कपालनिष्ठगुरुत्वमसमवायिकारणमित्यर्थः । एवं स्थितिस्थापकेऽपि । निमित्तकारणनिष्ठगुणस्यान्यथासिद्धत्वेन कार्य्यगुणानारम्भकत्वादत्रकारणपदं समवायिकारणपरमित्यवधेयम् ।
एकत्वस्य नित्यगतस्य नित्यत्वादनित्यगतस्य चाश्रयनाशनाश्यत्वादाह द्वित्वादय इति । आदिना त्रित्वादेरुपग्रहः । ननु कारणगुणप्रक्रमजन्यत्वाभावे द्वित्वादुयत्पन्नौ किं कारणमित्याकाङ्क्षायामाहापेक्षावुद्धिजन्या इति । गुरुत्वादिवत् संख्यायाः सामान्यगुणत्वेऽपि तत्र कारणगुणप्रक्रमजन्यत्वं न सम्भवतीत्याशयः । अनेकधम्मषु प्रत्येकावच्छेदेनैकत्वप्रकारिका या वुद्धिः साऽपेक्षावुद्धि स्तदात्मकनिमित्तकारणजन्या इत्यर्थः । तत्रासमवायिकारणन्तु समवायिकारणगतयावदेकत्वमितिवोध्यम् । तथाचादावयमेकोऽयमेकइत्याकारिकापेक्षा बुद्धिस्ततो धम्मिद्वये व्यासज्यवृत्तिद्वित्वोत्पत्ति
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[ ३७ ] स्ततो द्वित्वत्वे इत्याकारकनिविकल्पकविशेषणज्ञानं ततोद्वित्वविशिष्टद्वित्वप्रत्यक्षमपेक्षावुद्धिनाशश्च ततः पञ्चमक्षणे द्वित्वस्यनाश इतिक्रमः । अत्र चेकोद्वावित्यप्रतीतेरेको न द्वाविति प्रतीतेश्च द्वित्वस्य पर्याप्त्याख्यसम्बन्धेनोभयवृत्तित्वं नतु प्रत्येकवृत्तित्वमित्यवधेयम् । एवं त्रित्वादावपि। अत्र द्वित्वप्रत्यक्षानुरोधेनापेक्षावुद्धः क्षणत्रयावस्थायित्वमभ्युपेयमन्यथा निर्विकल्पकक्षणे तस्याः प्रध्वंसे कारणामावाच्चतुर्थक्षणे द्वित्वनाशावश्यम्भावाद्वित्वप्रत्यक्षानुपपत्तिरविद्यमानस्य प्रत्यक्षासम्भवात् 'सम्बद्ध वर्तमानञ्च गृह्यते चक्षुरादिना' इति लौकिकप्रत्यक्षनियमात् । एतेन योग्यविभुविशेषगुणानां स्वोत्तरोत्पन्नगुणनाश्यत्वनियमादपेक्षावुद्धश्च तथात्वात् स्वोत्पत्तितृतीयक्षणे नाशः स्यादित्यवास्तम् । परिमाणस्य कारणगुनोद्भवत्वं प्रतिपादयिष्यन्परिमाणोत्पत्तिप्रक्रियासमिधातं विभजते तच्चतुर्विधमिति । तत्राणुत्वह्रस्वत्वे परमाणुद्वयणुकवृत्ती। परमाणुत्वपरमह्रस्वत्वे तु परमाणुवृत्ती। एवं महत्त्वदीर्घत्वे त्र्यणुकमारम्य महावयविपर्यन्तं वर्तेते । परममहत्त्वपरमदीर्घत्वे तु विमुचतुष्टयवृत्ती। नचामलकादावणुत्वस्येक्षुदण्डादौ ह्रस्वत्वस्य च व्यवहारः कथमुपपद्यत इति वाच्यं आपेक्षिकप्रकर्षामावमूलकस्यापि तादृशव्यवहारस्य भाक्तत्वात् । तत्र परमाणावणुत्वं ह्रस्वत्वञ्चनित्यं द्यणुकनिष्ठन्तु परमाणु निष्ठ कत्वाभ्यां जनितम् । परममहत्त्व परमदीर्घत्वयोन्नित्यत्वेन महत्त्वदीर्घत्वयोरुत्पत्तिप्रक्रियामभिधातुमाह कारणगुणप्रक्रमजन्यमित्यादि । महत्त्वासमवायिकारणमाह स्वावयववहुत्वमिति । स्वाश्रयस्यावयवनिष्ठ बहुत्वमित्यर्थः। तेन महत्त्वस्य गुणत्वात्तदवयवाप्रसिद्धावपि न क्षतिः । स्वं. महत्त्वम् । परमाणुगतद्वित्वेन द्यणुके महत्त्वानुत्पादान्त्रित्वचतुष्ट वादेमहत्त्वतारतभ्यनियामकत्वेऽपिमहत्त्वावच्छिन्नं प्रत्यजनकत्वाञ्चोक्त वहुत्वमिति। तच्च त्रित्वादि संख्याभिन्नं नियतापेक्षावुद्धयमावात् सेनावनादावुत्पद्यत इति श्रीधराचार्याः । एवं सति सेनावनादौ शतसहस्रादिकोटिकसंशयानुपपत्तिरित्याचार्यः। वस्तुतस्तु त्रित्वादिजनकापेक्षावुद्धिजन्यं त्रित्वादिसमानाधिकरणं संख्यान्तरमेवबहुत्वं वाच्यमन्यथाऽत्र वहवो घटाः सन्ति शतं सहस्र वेति विशिष्य न जानीम इत्यादिव्यवहारानुपपत्तेः । संशयानुपपत्तिस्त्वसत्कोटिकसंशयोपगमात् परिहरणीयेति नव्याः । महत्त्वजनकमिति महत्त्वत्वावच्छिन्नासमवायिकारणमित्यर्थः । इदमुपलक्षणं दीर्घत्वासमवायित्वमपिबोध्यम् । स्वाश्रयावयवगतवहुत्वस्य महत्त्वजनकत्वे दृष्टान्तमाह यथा त्रसरेणनामिति । तथाच त्रिभिद्वर्यणुकैस्त्रसरेणूत्पादावयणुकगतवहुत्वसंख्या त्रसरेणुनिष्ठमहत्त्वजनिकेत्यर्थः । अत्र द्वयणुकनिष्ठवहुत्वं प्रतीश्वरीयापेक्षावुद्ध न्निमित्तत्वं परमाणु गतैकत्वानामसमवायित्वञ्चेत्यवधेयम् । न च त्रसरेणुपरिमाणं प्रति द्वयणुकपरिमाणस्य कुतो नासमवायित्वमिति वाच्यं परिमाणस्य स्वसमानजातीयोत्कृष्टपरिमाणजनकत्व
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[ ३८ ] नियमादन्यथा महत्परिमाणस्यापि क्वचिदणुपरिमाणारम्भकतापत्तेः। एवञ्चाणोरणुतरत्वेन महतश्च महत्तरत्वेनोत्कर्षात्त्रसरेणुपरिमाणस्य द्वयणुकपरिमाणापेक्षयोत्कर्षाभावेन द्वयणुकपरिमाणासमानजातीयत्वेन च द्वयणुकपरिमाणजन्यत्वासम्भवात् । नचैवं द्वयणुकपरिमाणस्यापेक्षयानुत्कृष्टत्वेनाणुपरिमाणजन्यत्वासम्भवे द्वयणुकपरिमाणं प्रति किं कारणमुपेयमिति वाच्यं परमाणुगतद्वित्वसंख्याया एव तत्रासमवायित्वाभ्युपगमात् । बस्तुतस्तु घटादिगतमहत्त्वं प्रति कपालादिनिष्ठमहत्त्वस्यासमवायित्वं वाच्यमन्यथा तत्र कपालद्वयेवहुत्त्वाभावाद् घटे महत्त्वं न स्यात्। तदुक्तमुपष्कारे 'द्वाभ्यां तन्तुभ्यामप्रचिताभ्यामारब्धे पटे केवलं महत्त्वमेवासमवायिकारणं वहुत्वप्रचययोस्तत्राभावात्' तथाच परिमाणस्य संख्याजन्यत्व वत्परिमाणजन्यत्वमपि सिद्धम् । परिमाणस्य प्रचयजन्यत्वमुदाहर्तुं प्रचयपदार्थमाहावयवानां शिथिलः सयोग इत्यादि। किञ्चिदवयवावच्छेदेनावयवान्तरसं योगाभाववति वर्तमानत्वं शिथिलत्वं जातिविशेषो वा तज्जनक इति। महत्त्वजनक इत्यर्थः। दृष्टान्तमाह यथातूलस्येत्यादि। तूलपरिमाणमवयवशिथिलसंयोगेन जन्यत इति मावः ॥ २३
|| तर्कामृतम् ॥ पृथक्त्वं कारणगुणप्रक्रमजन्यम् । ननु तत्र किं प्रमाणम् । घटात् पटः पृथगिति प्रत्यक्षम् । तस्यान्योन्याभावविययकत्वमिति चेन्न अन्योन्याभावप्रत्यक्षे प्रतियोग्यनु योगिनोः समानविभक्तिकत्वनियमात् यथा घटो न पट इति । अन्योन्याभावस्य पृथक्तवरूपत्वे घटात्पटोनेत्यपि प्रयोगापत्तेः। न चैवं घटादन्यः पट इत्यत्र कथ. मन्योन्याभावप्रतीतिरितिवाच्यं अन्यत्वस्यापि पृथक्त्वरूपत्वात् ॥२४॥
॥ विवृतिः॥ पृथक्त्वमिति । एकपृथक्त्वमित्यर्थाद् द्विपृथकत्वादेः कारणगुणोद्भवत्वविरहात् । घटपटौ मठात्पृथगित्यादिप्रतीतिसिद्ध द्विपृथक्त्वादौ स्वसमानाधिकरणानामेकपृथकत्वानामसमवायिकारणत्वं, इदमेकं पृथक्इत्याद्य कपृथक्त्वविषयकापेक्षाबुद्धश्च निमित्तकारणत्वमिति वोध्यम् । तथाविधापेक्षाबुद्धिनाशात् क्वचिदाश्रयनाशात् क्वचि
चोभाम्यां द्विपृथक्त्वान्नाशः। तत्रोभयसमवेतपृथक्त्वं द्विपृथक्त्वं, त्रितयसम. वेतपृथक्त्वं त्रिपृथक्त्वमिति रीत्यापराद्ध पृथक्त्वपर्यन्तं निर्वाच्यम् ।
केचित्त्वन्योन्याभावपृथक्त्वयोःसमनियतत्वेऽपि रूपं न रस इत्यादिप्रतीतेः साक्षात्पृथक्त्वानवगाहितया पृथकत्वविषयकत्वकल्पनस्यासम्भवेनान्योन्याभावविषयक
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[ २ ] कत्वमवश्यं कल्यम् । तथा चावश्यक्लप्तान्योन्याभावेनैव पृथक्त्वावगाहिप्रतीते रप्युपपत्तौ पृथक्त्वस्वीकारे मानाभाव इत्याहुः। तन्मतं दूषयितु पृच्छति ननु तत्रेति । पृथक्त्वपदार्थ इत्यर्थः। प्रत्यक्षमिति । पृथक्त्वसिद्धौ प्रमाणमिति शेषः। तत्प्रत्यक्षस्यान्योन्याभावविषयकत्वमाशङ्कते तस्येति । उक्तप्रत्यक्षस्येत्यर्थः । आशङ्कां निरस्यति नेति । तत्र युक्तिमाहान्योन्याभावप्रन्यक्ष इति । प्रतियोग्यनुयोगिनोरिति । प्रतियोग्यनुयोगिबोधकपदयोरित्यर्थः । अन्यथाऽसम्भवापत्तेः । घटं न पटं पश्यामि इत्यादावन्योन्याभावावगाहनात् प्रथमाविभक्त्यन्तत्वस्य तन्त्रत्वभपहायोक्त समानविभक्तिकत्वेति । एकजातीयविभक्तिकत्वेत्यर्थः। तेन अनाप्तवादा न प्रमाणमित्यादौ पदयोः सित्वादिनासमानविभक्तिकत्वाभावेऽपि प्रथमात्वरूपेण समानविभक्तिमत्त्वान्नाभेदबोधान्वबोधानु पपत्तिः। अन्योन्याभावप्रतीतौ प्रतियोग्यनुपोगिवोधकपदयोः समानविभक्तिकत्वेदृष्टान्तमाह यथा घट इत्यादि। न त्वेवं मूले वृक्षः कपिसंयोगी नेत्यत्रापि कपिसं योगिभेदप्रतीत्यापत्तिः । न चेष्टापत्तिरितिवाच्यं भेदस्याव्याप्यवृत्तित्वप्रसङ्गात्। मैवम् । शिखी विनष्टः पुरुषो न नष्टः इत्यत्र यथा धम्मिसत्त्वरूपवाधकवलात् विशेषणीभूतशिखाध्वंस विषयकत्वमात्र कल्प्यते तथात्रापि धर्येकत्वरूपवाधकवलाद्विशेषणीभूतकपिसंयोगात्यन्ताभावविषयकत्वस्य कल्पनात् । न च तत्र मेदावगाह्यनुव्यवसायविरोधइतिवाच्यं प्रतीतेरत्यन्ताभावविषयकत्वेऽप्यनुव्यवसाये भेदावगाहने क्षत्यभावात् । इत्थञ्चात्रान्योन्याभावप्रत्यक्ष इत्यस्य बाधकामावे इत्यादिः। वस्तुतस्तु विशेषव्याप्तौ 'युज्यते चान्योन्याभावोऽज्याप्यवृत्तिः' इत्यनेनान्योन्यामावस्याव्याप्यवृत्तित्वमभिहितं दीधितिकृतेति ध्येयम् । अतएव घटादौ पाकेन श्यामरूपनाशानन्तरं रक्तरूपोत्पादेऽयं न श्चामः, दण्डादिविनाशदशायां चैत्रादावयं न तद्दण्डवानित्यादिव्यवहाराणां प्रामाण्यं सङ्गच्छते। न च तत्रापि श्यामत्वदडादेरत्यन्ताभाव एव प्रतीयत इति वाच्यं तम्मिणि नवा संसर्गाभावबोधने तदर्थबोधकपदस्य सप्तम्यन्ततायास्तन्त्रत्वात्। न चैवं मैत्रो न गच्छतीत्यादौ गमनकृतेन्र्नेदं चैत्रस्ये. त्यादौ षष्ठ्यर्थसम्बंधस्यात्यन्ताभावो न प्रतीयतामितिवाच्यं प्रातिपदिकार्थस्यात्यन्ताभावबोध एवानुयोगिबोधकपदोत्तरं सप्तम्यास्तन्त्रताया विवक्षितत्वात् । नवादेऽप्येवम् ।
अथ भेदस्य पृथक्त्वरूपत्वे बाधकमाहान्योन्याभावस्येत्यादि । प्रयोगापत्तेरिति । यथा घटात् पटः पृथगित्यत्रपृथगितिपदात् पृथक्त्वं प्रतीयते तथा घटात् पटो नेत्यत्र भेदार्थकनना पृथक्त्व प्रतीयतां भेदस्य पृथक्त्वात्मकत्वादित्युक्तप्रयोगस्य प्रामाण्यं स्यादितिभावः यद्यपि नो वैधर्म्यपरतया प्राचां मते पटो घटापेक्षया बैधर्म्यवान्
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[ ४. ] घटवृत्त्यन्ताभावप्रतियोगिधर्मवानित्यर्थात् 'घटात् पटो न' इतिप्रयोगस्य प्रामाण्यमुपपादयितुं शक्यते तथापि नव्यमतेननोऽभावशक्तत्वात्तथोक्तमिति ध्येयम्।।
प्रोक्तनियमे व्यभिचारमाशङ्कते न चैवमिति। एवं अन्योन्याभावप्रतीतौ प्रतियोग्यनुयोगिवाचकपदयोः समानविभक्त्यन्तत्वस्य तन्त्रत्वे । कथमिति । प्रतियोग्यनुयागिवोधकपदयोरस मानपञ्चमोप्रथमाविभक्त्यन्तत्वादितिभावः । शङ्का निरस्यति अन्यत्वस्येति ।
पृथकत्वरूपत्वादिति । यद्यपि 'तथाच साध्यवत्पदेननिरूढलक्षणयोपस्थापितस्य साध्यतावच्छेदकविशिष्टसाध्यवत्त्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकस्यान्यपदार्थंकदेशेऽन्यत्वे तादात्म्येनान्वयात् साध्यवतिच साध्यवत्त्वावच्छिन्नभेदासत्त्वान्नाव्याप्तिः' इत्यनेनसन्दर्मेणान्यत्वस्य भेदरूपतायाः पञ्चलक्षणीव्यस्थानावसरे ग्रन्थकृत वाभिहितत्वान्नेदं युक्तमन्योन्याभावस्य पृथक्त्वात्मकत्वतादवस्थ्यञ्च तथाप्यन्यत्वस्याखण्डोपाधिरूपत्वमिहाभिप्रेतमिति ध्येयम् । वस्तुतस्तु 'घटो न पटः' 'घटात्पटः पृथक' इत्यादिप्रतीत्योब्वैलक्षण्यमेवान्योन्याभावपृथक्त्वयोब्वैलक्षण्ये मानमितिबोध्यम् ।
नव्यास्त्वन्योन्याभाबस्यैवपृथक्त्वस्वरूपत्वं नतु गुणान्तरं मानाभावात् । नचोक्तप्रतीत्यौरर्थ वैलक्षण्याभावे घटी नेत्यत्रापि पञ्चमी स्यादितिवाच्यं निपातातिरिक्तान्योभावार्थकपदसमभिव्याहारस्यैव पञ्चमीप्रयोजकत्वोपगमात् ॥२४॥
|| तर्कामृतम् ॥ संयोगस्त्रिविधः अन्यतरकर्मज उभयकर्मजः संयोगजश्चेति। आद्यो यथामनः कर्मणात्ममनसोः संयोगः। द्वितीयो यथा—मेषयोः कर्मणा तयोः संयोगः । तृतीयो यथा कारणाकारणसंयोगात्कर्माकर्मसंयोगः। यथा-हस्ततरुसंयोगात्कायतरुसंयोगः ॥२५॥
॥ विवृतिः ॥ संयुक्तव्यवहारासाधारणकारणीभूतं संयोगं बिभजते संयोगस्त्रिबिध इति । अन्यतरकर्मज इति। अन्यतरत्व' नाम भेदद्वयावच्छिन्नप्रतियोगिताकभेदवत्त्वम् । अन्यतरकासमवायिकारणक इत्यर्थः। उभयकर्मज इति। उभयकासमवायिकारणक इत्यर्थः। उभयत्वमेकविशिष्टापरत्वमिति केचित् । तन्न मटे घटत्वपटत्वोभयं नास्तीतिव्यवहारानुपपत्तिप्रसङ्गात् व्यधिकरणयोर्घटत्वपठत्वयोब्वैशिष्टयबिरहात् । किन्तुव्यासज्यवृत्तिद्वित्वमेवोभयत्वम् । संयोगज इति। संयोगासमवायिकारणक इत्यर्थः।
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[ ४१ ] विधात्रयं क्रमेणोदाति आद्य इत्यादि। आत्मनो निष्क्रियत्वाद्आह मनःकर्नाणेति। हस्तेत्यादि। कायरुपावयविनं प्रति हस्तरुपावयवस्य हेतुत्वाद्धस्तौ कारणं तरुरकारणं तयोः संयोगादित्यर्थः। कायेत्यादि। कायो हस्तयोःकारर्घ तरुरकायं तयोः संयोगइत्यर्थः। नच यन्न हस्तक्रिययाहस्ततरुसंयोगस्ततः शरीरतरुसंयोगस्तत्रइस्तक्रियायाः शरीरतरुसंयोगं प्रति हेतुत्वकल्पनेनैवोपपत्तौ हस्ततरुसंयोगस्य कारणत्वाकल्पनात् संयोगजसंयोगोऽसिद्ध इतिवाच्यः संयोगक्रिययोः समवायेन कार्यकारणभावस्यान्वयव्यतिरकसिद्धत्वाच्छरीरे च समवायेन क्रियाया अभावाच्छरीरतरुसंयोगोत्पादानुपपत्तेः। नच शरीरे कुतःक्रियायाअभाव इति वाच्यं अवयविक्रियाया यावदवयवक्रिया निगतत्वनियमात् । नच क्रियायाः सामानाधिकरण्यसम्बन्धेन हेतुत्वान्तरं तत्र कल्पनोयमिति न तदुत्पादानुपपत्तिरितिवाच्यं विभिन्नकार्यकारणभावकल्पने गौरवात्तदपेक्षया समवायसन्बन्धेन कारणत्वे लाघवादिति ध्येयम् ॥ २५ ॥
तर्कामृतम् ॥ विभागोऽपित्रिविधः-अन्यतरकर्मज-उभयकर्मजोविभागजश्च । आद्योयथा मनःकर्मणात्ममनसोविभागः द्वितीयो यथा मेषयोःकर्मणा तयोविभागः। विभागजविभागोऽपि द्विविधः कारणमात्रविभागज: कारणाकारणविभागश्च । आद्यो यथाकपालकर्मणाकपालद्वयविभागस्ततः कपालद्वयसंयोगनाशस्ततोघटनाशस्ततः कपालस्याकाशादिदेशा द्विभागजोविभागः। नच विभागः स्वोत्पत्त्यानन्तरमेव विभागजविभागं जनयत्वितिवाच्यं द्रव्यनाश सहकृतस्यैव तस्य तज्जनकत्वात् । तत्र द्रव्यस्य प्रतिबन्धकत्वेन सति द्रव्ये तदसम्भवात्। नच कम्मैवैकदा कपालद्वयविभागमाकाशकपालविधागञ्च जनयत्वितिवाच्यं यद् द्रव्यानारम्मकसंयोगविरोधिनं विभागमारभते न तद् द्रव्यारम्भकसंयोगविरोधिनम् ; अन्यथा विकशत्कमलकुम्डलदलकर्मण्यतिव्याप्तिः। नच संयोगेऽत्येवमस्तु, तत्राविरोधात् । द्वितियस्तु कारणाकारणविभागात कार्याकार्यविभागो यथा-करतरुविभागात् कायतरुविभागः ॥ २६ ॥
॥-विवृतिः॥ अथ विभक्तप्रत्ययासाधारणकारणं विभागं विभजते विभागोऽपि त्रिविध इति । ननु संयोगाभावएव विभागोऽस्तु किमतिरिक्तगुणेनेति चेन्न गुणादौ संयोगाभावसत्त्वेन विभागवत्त्वव्यवहारप्रसङ्गात् । नच द्रव्यनिष्ठसंयोगाभावस्यैव विभागत्वमितिवाच्यं समवायिसमवेतभावापन्नयोस्तन्तुपठाद्योः पठतन्त्वादिसंयोगाभावसत्त्वात्पठतन्त्वादिविभागवत्त्वव्यवहारप्रसङ्गात् । नच संयोगनाश एव विभागः स्यादितिवाच्यं संयुक्तयो
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[ ४२ । ठिपठयोरन्यतरनाशेन संयोगनाशे विभक्तप्रत्ययापत्तेः । नच विद्यमानद्रव्यवृत्तिसंयोगनाश एव तथेतिवाच्यं तथा सति यत्किञ्चित्संयोगनाशादुन्नरं पुनःसंयुक्तयोविभक्त त्वव्यवहारापत्तेः। नच यावत् संयोगनाशस्यैव तथात्वमितिवाच्यं मिथी विभागव. तोर्विभ्वोर्यावत्संयोगाप्रसिद्ध रेकसंयोगनाशे यावत्संयोगनाशाभावाद्विभागाभाव प्रतीत्यापत्त्येश्च । व्यास्तु संयोगाभावस्य विभागत्वे विनिगमकामावाद्विभागाभावस्यापि संयोगत्वापत्त्याद्वयोर्विलयप्रसङ्गादवाधितसंयुक्तत्वविभक्तत्वप्रत्ययानुरोधाश्च संयोगविभागयोरतिरिक्तत्वमम्युपेतव्यमितिप्राहुः ।
विधात्रयं क्रमेणोहादुरति आद्यो यथेत्यादि । तृतीयं पुनविभजते विभागजविभागोऽपीत्यादि। कारणमात्र त्यत्र मात्रपदेनाकारणव्यवच्छेदः । तेन कपालतरुविभागजघटतरुविभागे कारणमात्रविभागजविभागत्वस्य नातिव्याप्तिः। तत्रादिम विधामुदाहरति आद्य इत्यादि। विभागजविभागघटकप्रथमविभागस्य क्रियाजन्यत्वमाह कपालकर्मणेति । कपालद्वयोर्घटसमवामिकारणन्वात् कारणमात्रविभागजन्यत्वंसङ्गमयितुमाह कपालद्वयविभाग इति । विभागस्य संयोगनाशकगुणत्वादावाह तत इति । कपालद्वयविभागादित्यर्थः। क्रियाजन्यविभागस्य पूर्वसंयोगनाशकत्वनियमादाद् कपालद्वयसंयोगनाशः इति। असमवायिकारणनाशस्य कार्य्यद्रव्यनाशकत्वादुक्तं ततो घटनाश इति । घटारम्भककपालद्वयसंयोगनाशा घटनाश इत्यर्थः। कपालाकाशविभागे घटनाशस्य सहकारिकारणवादाह तत इति । घटनाशरूपसहकारिकारणादित्यर्थः। आकाशादीत्यादिनाभूतलादेः परिग्रहः। देशादिति पञ्चम्यन्तस्य विभागइति प्रथमान्तेनान्वयः। विभागज इति । पूर्वजातकपालद्वयविभागेन जनितइत्यर्थः। तथाच घटनाशसहकृतेन कपालद्वयविभागेन कपालाकाशविभागो जन्यतइतिफलितार्थः। ___ नन्वत्र कर्मणो नाशानभिघानान्नित्यन्वं स्यादिनि चेन्न विभागस्य पूर्वसंयोगनाशकत्वनियमात् कपालाकाशविभागेन कपालाकाशसंयोगनाशः पूर्वसंयोगनाशेन चोत्तरदेशसंयोगजननान्नउत्तरदेशसंयोगस्तत उत्तरदेशसंयोगस्यैव स्वजनककर्म निवर्तकन्वस्वामाव्यात् कर्मनाशइति विवक्षितन्वात् ।
शङ्कते नच विभाग इति । स्वोत्पत्र्यनन्तरमेवेति। स्वं–कारणमात्रविभागः, तस्योत्पत्त्यनन्तरमुत्पत्त्यव्यवहितोत्तरक्षणे कर्मोत्पत्तितृतीयक्षण इत्यर्थः। एवकारेण कर्मोत्पत्तिपञ्चमक्षणोव्यवच्छिद्यत इतिभावः। जनयत्विति । तथा च क्षणलाघवमितितात्पर्य्यम् । शङ्कामपनोदति द्रव्यनाशेत्यादि। तस्येति । कारणमात्रविभागस्येत्यर्थः। तज्जनकत्वादिति । द्वितीयविभागजनकत्वादित्यर्थः। विभागजविभागं प्रति द्रव्यनाशस्य सहकारिकारणत्वे युक्तिमाद् तत्र द्रव्यस्येत्यादि । तत्-विभागजविभागे द्रव्यस्य प्रतिवन्धकत्वेनेति । द्रव्यनाशं विना बिभागजविभागस्यानुपपद्यमान
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[ ४३ ] तयाद्रव्यनाशस्य कारणत्वाद्रव्यस्य प्रतिवन्धकत्वं संगच्छते कारणीभूताभावप्रतियोगित्वस्य प्रतिबन्धकत्वपदार्थत्वादितिभावः। तदसम्भवादिति। विभागजविभागसम्भवादित्यर्थः।
अत्र कपालकमेण एव विभागद्वयजनकत्वे क्षणलाधवं दव्यनाशसहकारित्वाद्यकल्पनलाघवञ्चाभिसन्धाय शङ्कते नच कम्मैवेति । उभयविभागौ प्रतिकर्मणःकारणत्वे विनिगमनाविरहात्तयोविभिन्नक्षणोत्पादकल्पनाऽसम्भवादाहैकदेति । कर्मोत्पत्तिद्वितीयक्षणइत्यर्थः । शङ्का समाधत्ते यद्व्येत्यादि । यत्-कपालकर्म , द्रव्यस्यघटस्य, अनारम्भको यः कपालाकाशसंयोग स्तद्विरोधिनं–तत्प्रतिद्वन्द्विनं कपालाकाशविभागमारभते जनयति, तत-कर्म, द्रव्यस्य-घटस्यारम्भको यः कपालद्वयसंयोगस्तद्विरोधिनं...तत्प्रतिद्वन्द्विनं कपालद्वयविभागं नारभते-न जनयतीत्यर्थः। तथाच कपालकर्म द्रव्यानारम्भकसंयोगविरोधिविभागाजनक द्रव्यारम्भकसंयोगविरोधिविभागजनकत्वात्, यन्नै वं तन्नै वमित्यनुमानं फलितमितिभावः। उक्तव्याप्तौ विपक्षवाधकतर्कमाविष्कर्तुमाहान्यथेति । आरम्भकसंयोगविरोधिविभागजनककर्मण एवानारम्भकसंयोगविरोधिविभागजनकत्व इत्यर्थः। विकसदित्यादि। विकसन्विकाशोन्मुखो यः कमलकुम्डलः—पद्ममुकुलस्तस्य यानि दलानि तवृन्निकर्मणि द्रव्यारम्भकसंयोगविरोधिविभागजनकत्वस्यातिव्याप्तिरित्यर्थः। तथाच विकसत्कमलकुङमल ङ्गप्रसङ्ग इतिभावः। तथाह्यरविन्दमुकुलेऽग्रावच्छेदेन विद्यमानेनानारम्भकसंयोगविरोधिविभागजनकेन कर्मणा मुलावच्छेदेनारम्णकसंयोगविरोधी विभाग उत्पाद्यते चेत्तेन थिभागेनारम्भकसंयोगनाशकस्तेनारविन्दस्य नाशः स्यादिति । इदं कणादमताभिप्रायेण। नैयायिकैस्तु कर्मण आश्रयभेदेन भिन्नत्वादुक्तारविन्ददलकर्मणि तथाविधविभागद्वयजनकत्वस्यासत्त्वेऽपि कपालकर्मणि सत्त्वे वाधकविरहात् कारणमात्रविभागजविभागो न स्वीक्रियते । नचोक्तानुमानमेव विभागजविभागे मानमितिवाच्यं अनारम्भकसंयोगविरोधिविभागाजनककर्मणी नियमत आरम्भकसंयोगविरोधिविभागजनकत्वे मानाभावेन कर्मनिष्ठवैजात्यस्योपाधित्वात् । कणाद्मतेतु तादृशवैजात्यस्यानुपलब्धेर्मानाभावः।
नन्वेवभारम्भकसंयोगजनकं यत्कर्म तदनारम्भसंयोगजनकं न स्यादतः तन्तुद्वय संयोगजनकस्य कर्मणस्त्वाकाशसंयोगनकत्वाभावप्रङ्गात् कारणमात्रसंयोगजन्यसंयोगादिकमङ्गीकार्यमित्याशङ्कते नच संयोगेऽपीति । संयोगजनककर्मण्यपीत्यर्थः एवभस्त्विति। आरम्भकसंयोगजनकत्वानारम्भकसंयोगज़नकत्वयोन्विरोधोऽस्त्वित्यर्थः। आशङ्कां निरस्यति तत्राविरोधादिति। विपक्षवाधकतर्क विरहादनाराभकसंयोगजनकत्वारम्भकसंयोगजनकत्वयोः कर्मणि विरोधे मानाभावादित्यर्थः। तथाचै
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[ ४४ ] कस्य कर्मणस्तथाविधसंयोगद्वयजनकत्वस्याविरुद्धत्वादेव तन्तुद्वयसंयोगे तन्त्वाकाशसंयोगजनकत्वाकल्पनात् कारणमात्रसंयोगजसंयोगादौ मानाभाव एवेतिध्येयम् । द्वितीयस्त्विति। कारणाकारणविभागजन्यो विभागजविभागस्त्वित्यर्थः। उदाहरति करेत्यादि । करौ कारणं, तरुरकारणं, तयोविभागादित्यर्थः। कायेत्यादि । कायः करकार्य, तरुः कराकाय, तयोविभाग उत्पद्यत इति शेषः ।। २६ ॥
॥ तर्कामृतम् ।। परत्वापरत्वोत्वोत्पत्तिः कालप्रकरणे उक्ता ॥ २७ ॥
___॥ विवृतिः ॥ क्रमप्राप्तपरत्वापरत्योत्पत्तिप्रक्रियाया अनभिधाने न्यूनत्वमित्याशङ्कां परिजिहीर्घराह 'परत्वत्यादि ॥१७॥
|| तर्कामृतम् ॥ बुद्धिज्ञानं, तद्विविधं स्मरणमनुभवश्च । स्मरणमपि द्विविधं यथार्थमयथार्थञ्च । तद्वति तत्प्रकारकत्वं यथार्थत्वम्, तदभाववति तत्प्रकारकत्वमयथार्थत्वम् । पूर्वानुभवःसंस्कारद्वारा स्मरणं जनयति । तत्र पूर्वानुभवस्य यथार्थत्वायथार्थत्वाभ्यां स्मरणमप्युभयरूपम्भवति ॥ २८ ॥
|| विवृतिः ॥ अथात्मविशेषगुणोत्पत्तिप्रक्रियामभिधातुमुपक्रमतेबुद्धिरिति । जानामीत्यनुव्यवसायसाक्षिकज्ञानत्वजातिस्सल्लक्षणमिति बोध्यम्। ज्ञानस्य बुद्धिवृत्तित्वमिति सांख्यमतं निरसितुं विवृणोति ज्ञानमिति । अतएव 'बुद्धिरुपलब्र्धिज्ञानमित्यनान्तरम्' इत्यक्षपादसूत्रम् । बुद्धि बिभजते तद्विविधमिति । बिधाद्वयमाह स्मरणमनुभवश्चेति । तत्र स्मरणत्वं संस्कारमात्रजन्यज्ञानत्वं जातिविशेषो वा। अनुभवत्वमपि स्मृत्यन्य ज्ञानत्वं जातिविशेषो वा। अथ स्मरणं विभजते स्मरणमपीति । अत्रापिना बक्ष्यमाणानुभव विध्यं सूचितम् । विधाद्वयं दर्शयति यथार्थमयथार्थञ्चेति । तत्र यथार्थत्वं लक्षयति तद्वतीत्यादि। सप्तभ्यर्थो विशेष्यत्वं निरूपितत्वसम्बन्धेन प्रकारतायामन्वेति । तत्प्रकारकत्वमिति। तन्निष्ठप्रकारता निरूपकत्वमित्यर्थः । तथाच तद्वन्निष्ठविशेष्यतानिरूपिततन्निष्ठप्रकारतानिरूपकत्वं यथार्थत्वमित्यर्थः । एतेन रङ्गत्वेन रजतावगाहिनि रजतत्वेन च रङ्गावगाहिनि 'इमे रङ्गरजते' इत्याकारकसमूहालम्वनभूमेऽतिव्याप्तिस्तत्ररङ्गविशेष्यकत्वरङ्गत्वप्रकारत्वयोः रजतविशेष्यकत्वरजतत्वप्रकारकत्वयोः सत्त्वादिति निरस्तं रङ्गत्वप्रकारतायां रङ्गविशेष्यता.
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[ ४५ निरूपितत्वस्य रजतत्वप्रकारतायां रजतविशेष्यतानिरूपितत्वस्य चासत्त्वात् । एवमेवानु भवादिगतयथार्थत्वमपि निष्कर्षणीयम् । अत्रच शुक्ताविदं रजतमिति रजतत्वप्रकारकभूमेऽतिव्याप्तिवारणाय तद्वतीति । अत्रच तद्वत्त्वं प्रकारतावच्छेदकसम्वन्धेन ग्राह्यम् । तेन कालिकसम्वन्धेन शक्तौ रजतत्वसत्त्वेऽपि शुक्तिम्मिकेदं रजतमितिभूमे नातिगप्तिः । घट एव द्रव्यमिति द्रव्यत्वप्रकारकज्ञाने घटत्वप्रमात्वापत्तिवारणायोक्तसमूहालम्व. नवारणाय वा तत्प्रकारकत्वनिवेशः ।
अयथार्थत्वं लक्षयति तदभाववतीति । अत्रापि सप्तम्यर्थ विशेष्यत्वस्य तत्प्रकारकत्वघटकप्रकारत्वस्य च प्रोक्तसम्बन्धेन तत्र तत्रान्वयो बोध्यः। तथाच तदभाववनिष्ठविशेष्यतानिरूपिततन्निष्ठप्रकारतानिरूपकत्वमयथार्थत्वम् । एवमेवानुभवादिनिष्ठायथार्थत्वमपि निर्वांच्यम् । अत्रच रजतधर्मिकेदं रजतमितिप्रभायामतिव्याप्तिवारणाय तदभाववतीति । तदभावश्च प्रकारतावच्छेदकसम्वन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताको ग्राह्यः । तेन पर्वतो बह्निमानिति प्रमायां समवायसम्वन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकवह्नयभाववत्पर्बतविशेष्यकत्वसत्त्वेऽपि नातिव्यप्तिः। रजतत्वाभाववद्विशेष्यकरजत. त्वाभावप्रकारिकायां शुक्तिधर्मिकेदं रजतत्वाभाववदिति प्रमायामतिव्याप्ति बारणाय तत्प्रकारकत्वनिवेशः। ___अथ स्मृत्युत्पत्तिप्रक्रियामाह पूर्वानुभव इत्यादि । समानकालीनानुभवस्य स्मृतिजनकत्वासम्भावादाइ पूर्वेति। ज्ञानत्वस्य स्मृतिसाधारण्यादाहानुभव इति । अनुभवस्य तृतीयक्षणप्रध्वंसित्वेन साक्षात् स्मृतिजनकत्वासम्भवादाह संस्कारद्वारेनि । भावनारव्यसंस्कारं व्यापारीकृत्येत्यर्थः। जनयतीति । तथाच तदीयतद्विषयकस्मृतित्वाविच्छन्नं तदीयतद्विषयकसंस्कारत्वावच्छिन्नञ्च प्रति तदीयतद्विषयकानुभवत्वेन. हेतुत्वमित्यर्थः। तेन चैत्रीयानुभवेन मैत्रीयस्मृतिसंस्कारयोर्घटानुभवेन पटस्मृतिसंस्कारयोब्वा न प्रसङ्गः । न चानुभवत्वेन जनकत्वे गौरवमितिवाच्यं ज्ञानत्ववदनुभवत्वस्यापि जातित्वाद्गौरवानवकाशात्। इदन्तु प्राचां मतानुसारेण । नवीनमते तु स्मृतिसंस्कारौ प्रति ज्ञानत्वेनैव हेतुत्वमुपेतव्यमन्यथानुभवत्वेन हेतुस्वे सकृदनुभूतस्य स्मरणोत्तरमस्मरणप्रसङ्गः संस्कारस्य फलनाश्यत्वनियमात्प्रथमस्मरणेनैवानुभवजनितसंस्कारस्य नाशात्। ज्ञानत्वस्यतु स्मृतिसाधारण्यात् सकृदनुभूतेऽपि प्रथमस्मृत्या संस्कारान्तरद्वारा पुनः स्मरणोपपत्तिः। अतएवोक्त 'जायते च पुनः पुनः स्मरणादृढ़तर: संस्कारः इति ।
यथार्थायथार्थभेदेन स्मृतिद्वै विध्ये कारणं प्रदर्शयति तत्र पूर्वानुभवस्येत्यादि । स्मरणमपोत्यपिना भावनाख्यसंस्कारस्योपग्रहः। उभयरूपमिति । यथार्थायथार्थोभयरूपमित्यर्थः॥ २८॥
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[ ४६ ]
॥ तर्कामृतम् ॥
2
अनुभवो द्विविधः प्रमाऽयथार्थश्च । तत्र प्रभा चतुर्व्विधा । सा बक्ष्यते । अयथार्थज्ञानं चतुर्व्विधं - - - संशयो विपर्य्ययः स्वप्नोऽनध्यवसायश्चेति । संशयो यथा - समानधर्मं बद्धर्म्मिज्ञानविशेषादर्शनकोटिद्वयस्मरणैरयं स्थाणुर्व्वा पुरुषो वेतिज्ञानं जन्यते स एव संशयः । बिपर्य्ययस्तु समानधर्म्म वद्धर्म्मिञ्जानविशेषादर्शन ककोटिस्मरणैः शुक्ताविदं रजमितिज्ञानं जन्यते । तत्र गुरुमते इदमित्यनुभवात्मकं ज्ञानं, रजतमिति स्मरणात्मकं तेन ग्रहणस्मरणात्मकं ज्ञानद्वयं नतु रजतत्वविशिष्टज्ञानमिदम्, अन्यथा भासमानसामग्रय सम्भवात् । प्रवृत्तिश्च स्वतन्त्रोपस्थितेष्टभेदाग्रहात् । नैयायिकमते प्रवर्त्तकं विशिष्टज्ञानं तेन भ्रमः सिध्यति । स्वप्नस्त्वनुभूत पदार्थ स्मरणैरदृष्टेन धातुदोषेण च जन्यते अनध्यवसायश्च किञ्चिदितिञ्जानम् विशेषादर्शनाद्भवति । अत्र यद्ययं निर्व्वह्निःस्यान्निद्दमः स्यादितितक विपर्य्ययमध्ये बोध्यः । तत्र नैयायिकमते स्वप्नाध्यवसायौ विपर्य्ययमध्ये प्रविष्टौ, तेन तन्मतेऽयथार्थज्ञाणं संशयोविपय्र्ययश्चेति ॥ २६ ॥
॥ विवृतिः ॥
अथानुभवं विभजतेऽनुभवोद्विविध इति । प्रमेति भ्रमान्य इत्यर्थः । वस्तुतस्तु निर्व्विकल्पकस्य प्रमात्वोपपत्तये विशेष्यावृत्त्यप्रकारकानुभवत्वरूपं प्रमात्वं बाच्यमिति ध्येयम् । स्मृतिकरणस्य प्रमाणान्तरत्वापत्तिभिया स्मृतेः प्रमात्वेन विभागो नाभिहित इतिभावः । अत्तएव यथार्थानुभवत्वमित्यनुभवत्वघटितप्रमालक्षणमिति नव्याः । वक्ष्यत इति । अथप्रमाकथ्यत इत्यादिनेतिशेषः । अयथार्थ ज्ञानमिति । अयथार्थानुभव इत्यर्थ; स्वप्नादेः स्मृतिरूपताया भाष्यादिविरुद्धत्वान्निर्युक्तिकत्वाच्च । विभजते तच्चतुर्व्विधमिति । अयञ्च विभागः कणादमतेन, नैयायिकमतेन तु स्वप्नाध्यवसाय योर्विपर्य्यं यमध्योऽन्तर्भावस्य वक्ष्यमाणत्वात् ।
विधाचतुष्टयादिमं संशयं निरूपयति संशयो ययेति । तत्र संशयत्वं न जातिश्चाक्षुषत्वादिना साङ्कर्य्यप्रसङ्गात् किन्तु वक्ष्यमाणज्ञान विशेषत्वरूपम् । उच्चैस्तरत्वस्य स्थाणुपुरुष साधारण्याग्रहे स्थाणुर्व्वेति संशयानुत्पादाह समानधर्म्मवद्धमिर्मज्ञानेति । समानः – विरुद्ध कोटिद्वय सहचरितो योधर्म्मस्तद्वान् यो धम्र्मी तद्विषयक - ज्ञानेत्यर्थः । स्थाणुत्वव्याप्यवक कोटरादिमानयमित्यादिनिश्चयसत्त्वे स्थाणुर्व्वेत्यादिसंशयाजननादाहविशेषादर्शनेति । कोटिव्याप्यवत्त्वस्यानिश्चयेर्थः । स्थाणुत्वपुरुषत्वरूपकोट्योरनुपस्थितत्वे स्थाणुत्वादिकोटिकसंशयासम्भवादाह कोटिद्वयेत्यादि । कोटिद्वयेत्युपलक्षणं, संशयस्य चातुष्कोटिकत्वमते कोटिचतुष्टयस्मृतेराव श्यकत्वात् ।
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[ ४७ ] वस्तुतस्तु शब्दत्वे नित्यानिन्यव्यावृत्तत्वज्ञानेन, शाब्दसंशयोपगन्तृमते शब्दो नित्यो न वेति बिप्रतिपत्त्या च शब्दो नित्यो नवेतिसंशयजननादसाधारणधर्मवद्धम्मिज्ञानस्य विप्रतिपत्तेश्च संशयहेतुत्वं मन्तव्यम् । तथाच साधारणधर्मवद्धम्मिज्ञानजन्योऽसाधारणधर्मवद्धर्मिज्ञानजन्यो विप्रतिपत्तिजन्यश्चेतित्रिविध संशयः पर्यवसन्नः। विशेषादर्शानजन्यत्वस्य कोटिस्मरणजन्यत्वस्य च धर्मिज्ञानजन्यत्वस्येव संशयत्वसमव्याप्ततया संशयविभाजकत्वासम्भवेन न संशयस्य चतुर्विधत्वाद्यापत्तिः। तथाच विशेषादर्शनादेः साधारणधर्मज्ञानादिसहकारितेति तात्पर्यम् ।
ननु समानानेकधर्मोपपत्तेविप्रतिपत्तेरुपलब्ध्यनुपलब्ध्यव्यावस्थातश्च विशेषा. पेक्षो विमर्शः संशयः' इत्यक्षपादसूशे प्रामाण्यसंशयस्याप्रामाण्यसंशयस्य च विषयसंशये स्वातन्त्र्येण हेतुत्वमिवानुक्तसमुच्चायकचकारेण व्याप्यसंशयस्य व्यापकसंशयं प्रति पृथक्कारणत्वमभिहितम् । एवञ्च संशयस्य शैविध्यादाधिक्यमेवोचितमिति चेन्न प्रामाण्यसंशयादिसत्त्वेऽपि लाघवेन साधारणधर्मवद्धर्मिज्ञानादेरेवसंशयहेतुत्वस्योपगन्तव्यत्वात् । अन्यथा कार्यकारणभाववाहुल्याद्गौरवापत्तेः। प्रामाण्यसं शयादेस्तु कथञ्चित् प्रयोजकत्वकल्पनेऽपि क्षतिविरहात् । अस्त्वेवं, तथापि संशयत्वावच्छिन्न प्रति साधारणधर्मवद्धर्मज्ञानत्वादिना हेतुत्वस्य कल्पयितुमशक्यत्वादत्र हेतुहेतुमद्भावः परामर्शकारणताविचाररिशा परिष्करणीयः।।
द्वितीयं निरूपयति विपर्यायस्त्विति । तदभाववति तत्प्रकारकनिश्वयत्वं बिपर्यंयत्वम् । धवलिम्नः शुक्तिरजतोभयसाधारण्यमजानतां शुक्तौ रजतत्ववोधासम्भावादाह समानधर्मवद्धर्मिंज्ञानेति । शुक्तित्वव्याप्यकार्कश्यवदिदमितिज्ञाने जाते शुक्ताविदं रजतमिति ज्ञानानुत्पादादाह विशेषादर्शनेति । रजतत्वस्मृति बिना शुक्तौ रजतत्वधियोऽनुत्पत्तेराह एककोटिस्मरणैरिति । संशये कोटिद्वयस्मरणात्तद्वयावृत्तये एकेति। शुक्ताविति धम्मिपरिचायकम्। इदं रजतमिति बिपर्यायाभिनयः । नैयायिकमते शुक्तिकायामिदं रजतमित्यनुभवः प्रत्यक्षात्मक इदन्त्वावच्छिन्नांशे लौकिकसन्निकर्षजन्यत्वाल्लौकिको रजतत्वांशे रजतत्वज्ञानलक्षणासन्निकर्षजन्यत्वादलौकिको जायन इत्यतउक्त गुरुमत इति । अनुभवात्मकमिति । प्रत्यक्षात्मकमित्यर्थ । तेनानुमित्यादे रनुभवत्वसत्त्वेऽपि न क्षतिः। अलौकिकप्रत्यक्षानभ्युपगत्तगुरुमते तत्र रजतत्वस्यानुभवविषयत्वासम्भवादाइ स्मरणत्मकमिति । अन्यथाख्यातिमनभ्युपगम्यतां गुरूणां मते इदन्त्वावच्छिन्नविशेष्यकरजतत्वप्रकारकै कज्ञानासम्भवादाह ज्ञानद्वमिति ।
ननु रजतत्वविशिष्टज्ञानसत्त्वासत्त्वाम्यां रजतार्थिनः प्रवृत्त्यप्रवृत्त्योदर्शनाद्रजतप्रवृत्तित्वावच्छिन्न प्रति रजतत्वविशिष्टज्ञानत्वेन कारणत्वं वाच्यमित्यथाख्यातिसिद्धिरित्याशङ्का निषेधति नतुरजतत्वेत्यादि । तथाचावश्यक्लप्तनियतपूर्ववर्ति
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[ ४८ ]
अन्यस्य -:
भ्यामुक्तज्ञानाभ्यामेव प्रवृत्त्युपपत्तेर्व्वि शिष्टज्ञानत्वेनाकारणत्वान्नतदनुरोधेनान्यव्ययाख्याति स्वीकारो न युक्त इति भावः । तथाच विवादाध्यासिताः सर्व्वे प्रत्ययाः यथार्थाः प्रत्ययत्वाद् घटादिप्रत्ययवदित्यनुमानेन सर्व्वेषां ज्ञानानां यथार्थत्वस्य सिद्धत्वाद् भ्रमात्मकं विशिष्टज्ञानं नाङ्गीकरणीयमित्याशयेनाह अन्यस्येत्यादि । शुक्तिकायाः, अन्यथा... रजतत्वप्रकारेण यद्भानं तस्य अलीकतया तत्सामग्र, यस्वीकारादित्यर्थः । वस्तुतस्तु सामग्री प्रयोज्यभानस्यान्यथात्वाभावादित्यर्थः । तेन न सिद्धयसिद्धिभ्यां व्याधातः । अन्यथात्वञ्च विसम्वादीच्छादौ प्रसिद्धमित्यदोषः । दण्डादिघटित सामग्रया घटत्वादिविशिष्टप्रसिद्धवस्तुत्पादप्रयोजकत्वाद्रजतत्वविशिष्ट शुक्तेश्चाप्रसिद्धत्वात्तदुत्पादासम्भवात्तत्सामग्री न स्वीक्रियत इति गुरुणामाशयः । न च रजतत्वविशिष्टशुक्तेरप्रसिद्धत्वेऽपि रजतत्वेन शुक्तेर्भाने कि बाधकमिति वाच्यं सन्निकर्ष विरहेण रजतत्वस्य प्रत्यक्षासम्भवात् । किञ्चालौकिकसन्निकर्षानभ्युपगमेनाल - किकप्रत्यक्षस्येव कारणविरहेणानुमित्यादेश्चासम्भवात् । न त्वेवं नेदं रजतमिति - वाधग्रहेऽपि रजतस्मृतिपुरोवत्तिज्ञानयोः सत्त्वासत्ताभ्यां प्रवृत्तिर्ज्जयेतेत्यत श्राह प्रवृत्तिति । स्वतन्त्रत्रेत्यादि । स्वतन्त्र ेण उपस्थितः स्मृतः, य इष्टः -- रजतादिः तद्भेदाग्रहात् - तमेदग्रहामावादित्यर्थः । तथाच नेदं रजतमित्यादाबुपस्थितेष्ट रजतादिभेदग्रहस्य सत्त्वेन प्रवृत्र्यभावः, शुक्तौ रजते वा इदं रजतमिति प्रत्यये तथाविधभेदग्रहामावसत्त्वात्प्रवृत्तिरिति तत्त्वम् ।
तु
नन्वेवं गुरुमते दृष्टभेदाग्रहत्वेन प्रवृत्ति प्रति कारणताया बक्तव्यत्वादवच्छेदकगौरव मतः स्वतन्त्रान्वयव्यतिरेकाभ्यां लाघवतः प्रवृत्ति प्रति बिशिष्टज्ञानत्वेनानुगतकार्य्यकारणभावकल्पने संवादिविसंवादिप्रवृत्त्योनांनुपपत्तिरिति नैयायिकमतमेवसाधीय इत्याशयेनाह नैयायिकमत इति । प्रवर्त्तकमिति । प्रवृत्तित्वावच्छिन्नकार्थ्यतानिरूपितकारणतामित्यर्थ । विशिष्टज्ञानमिति । पुरोर्वात्तिविशेष्यकेष्टतावच्छेदकप्रकारकज्ञानमित्यर्थः । एवञ्च शुक्ताविदं रजतमितिज्ञानस्य रजतत्वाभाववद्विशेष्यकरजतत्वप्रकारकत्वादन्यथाख्यातिरङ्गीकार्य्या इत्यत आह भ्रमः सिध्यतीति ।
तृतीयं निद्रादृष्टान्तः करणजं स्वप्नं निरूपयितुमाह स्वप्नस्त्विति । निद्वातु योगजधर्मानुगृहीतस्य मनसो निरिन्द्रियप्रदेशावस्थानमिति शिवादित्यः । निरिन्द्रियप्रदेशश्च स्वप्नवहानाड़ी मेध्यानाम्नी । अननुभूतार्थविषयक स्वप्नस्यासिद्धत्वादाहानुभूते त्यादि । न चैवमिन्द्रलोकाभिगमनादिस्वप्नस्यानुपपत्तिरिति वाच्यं तत्र पूर्व्वं विशिष्टेऽनुभवविरहेऽपि विशेष्यविशेषणानुभवस्य खण्डशो धौव्यात्तज्जनितस्मृतिद्वारा तत्तद्विशेष्यांशे तत्तद्विशेषणस्य भ्रमात्मकः स्वप्न इत्यभ्युपगमात् जन्मान्तरीयविशिष्टानुभवस्य कल्पयितुं शक्यत्वाच्च । न च तत्र स्मृतौ किमुद्धोधकं कल्प्यमिति शङ्कां
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[ ४६ ] अदृष्टविशेषस्यैवौवोद्वीधकत्वकल्पनात्। तथाचोत्कटेन कामेन क्रोधेन बोपहतचेता यं विषयमनुभूतो ध्यायन् स्वपिति तस्य तद्वषयकसंस्कारजस्मृत्या तद्विषयकः स्वप्नो जायते। यथा पुराणाद्यर्थश्रावणानुभवजसंस्कारपाटवजनितस्मरणेन किरातार्जुनीयं युद्धमित्याकारकः स्वप्तः । ___ कार्यत्वावच्छिन्नं प्रति अदुष्टन्वेन हेतुत्वेऽप्यदृष्टविशेषणस्वप्नविशेणस्यानुभवसिद्धवादाहादृष्ट नेति। अदृष्टविशेषेणेत्यर्थः। तथाचैतस्मिन् प्राक्तने वा जन्मनि अनुभूते वस्तुनि निद्रादोषोपप्लुतचित्तस्य स्वप्नविशेषौ धर्माधर्माम्यां जन्येते। तत्र कुञ्जरारोइणादिविषयकः स्वप्नो धर्मजः शुभसूचकत्वात् । बराहारोहणादिविषयकः स्वप्नोऽधर्मजाऽशुभसूचकत्वात्। तथाहि ज्योतिःशास्त्रम् ‘आरोहणं गोठ्यकुञ्जराणां प्रासादशैलाग्रवनस्पतीनाम् । आरुह्य नौकां प्रतिगृह्य वणां भुक्त्वा रुदित्वा ध्रु वमर्थलाभः' ॥ इत्यादिशुभावेदकम् । 'बराहक्षंखरोष्ट्राणामारोहो महिषस्य च' इत्याद्यशुभावेदकम् । बातादिधातुदोषाभावे स्वप्नविशेषानुत्पादादाह धातुदोषेणेचेति । धातवः–बातपित्तश्लेष्मानः, तेषां यो दोषः-वेषभ्यं, तेनेत्यर्थः। अतएव चरके 'दोषजं स्वप्नम्' इत्यत्र 'उल्वनवातादिदोषजन्यमिति टोकाकृतः। तत्र बातदोषेणाकाशगमनभूपर्यटनव्याघ्रादिभयपलायनादिविषयकः, पित्तदोषेण हुताशनप्रवेशनतज्ज्वालालिङ्गनहिरण्मयाचलादि विषयकः, श्लेष्मदोषेण च सिन्धुसन्तरणसरिनमज्जनराजताचलादिविषयकः स्वप्नोजन्यते । तथाचानुभूतार्थस्मरणादित्रितयस्य मिलितस्यैव स्वप्नहेतुत्वेऽपि तत्तत्स्वप्नविशेषे स्मरणादेर्मुख्यकारणत्वं सूचयितुमसमासकरणमिति ध्येयम् ।
एवञ्वोपरतवहिरिन्द्रियग्रामे प्रलोने च मनसि लौकिकसन्निकर्षाभावेन चाक्षुषादि. रूपत्वासम्भावात्पूर्वानुभूतार्थस्मरणरूपज्ञानलक्षणासन्निकर्षणजनितो वाधितार्थविषयकोऽलौकिकमानसप्रत्यक्षात्मकः स्वप्नः पर्यवसन्नः। अतएव अन्नम्भट्टाः स्वप्नमयथार्थजातेऽन्तर्भावयामासुः । वल्लभाचार्यैरपि 'सिद्धोपप्लुतान्तःकरणजप्रवाहः स्वप्नः' इत्युक्तम् ।
न च स्वप्नस्यायथार्थञानत्वे कुतः स्वप्नविशेषाद्यथार्थार्थावाप्तिः सङ्गच्छत इति वाच्यं अव्यार्थज्ञानस्यावाधितार्थजनकत्वे वाधकाभावात् । कथमन्यथा रज्जौ सर्पत्वाभूमाद्यथार्थमुर्छादिः । तुरीयं नाध्यवस्यामीत्यनुव्यवसायसिद्धज्ञानत्वलक्षणकमनध्यवसायं निरूपयितुमाहानध्यवसायश्चेति। तद्धविच्छिन्नविषयिताकः केवलतत्तद्विषयिताको वा बोधोऽध्यवसायः, स न भवतीत्यनध्यवसाय इदंत्त्वादिनाsनिहिय्यमानवस्तुविषयकं किमिदमितिज्ञानमितियावदित्याशयेनाह किञ्चिदिति । तदुक्तं बल्लभाचार्यैः-'सामान्यतोऽवगते विशेषतोऽज्ञाते जिज्ञासिते वाच्यविशेषे यदा
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[ ५० ] किं शब्दाभिलापस्तदाऽनध्यवसायः' इति । यथास्थाणुत्वव्याफ्यवाकोटरादिमानयमितिविशेषदर्शनेन स्थाणुर्वा नरो वेतिसंशयनिवृत्त्याऽयं स्थाणुरित निश्चयो जन्यते तथात्रापि व्याप्यवत्त्वनिश्चयरूपोन्नायकसत्त्वे व्यापकनिश्चयरूपोन्नेयावश्यम्भावादाह बिशेषादर्शनादिति । व्याप्यवत्त्वनिश्चयासत्त्वइत्यर्थः। 'किमिन्दुः किं पद्मम्' इत्यादौ यथेन्दुत्वाद्यभावभानं तथात्राप्यभावभानमुपगम्यास्यायथार्थमुपपाद्यम् ।
ननु प्रमाणानुग्राहकस्याहार्यव्याप्यवत्त्वज्ञानजन्याहार्यव्यापकवत्त्वभूमात्मकस्य तर्कस्यापि सत्त्वादयथार्थानुभवस्य चतुविधत्वकथनमसङ्गतमित्याशङ्कां निरचिकीर्षुराहावत्यादि । प्रमाणानुग्राहकत्वसत्त्वेऽप्ययथार्थांनुभवविपर्ययत्वेनोपग्रहसम्भवे तर्कत्वेन पृथग्विभागे गौरवमिति भावः। - स्वप्नत्वानध्यवसायत्वयोरयथार्थानुभवविभाजकत्वं काणादाभिमतं गौरवदोषग्रासादेव नैयायिकैरनादेयमित्याह तत्र नैयायिकमत इति। प्रविष्टाविति। स्वप्नस्य मानसविपर्ययरूपत्वादनध्यवसायस्य च वाह्यमानसोभयविधविपर्ययात्मकत्वादिति भावः तन्मते नैयायिकमते। अयथार्थज्ञानं-अयथार्थांनुभवः ॥ २६ ॥
॥तकामृतम् ।। सुखं धर्मजन्यम् । दुःखमधर्मजन्यम् । इच्छा इष्टसाधनताज्ञानजन्या। द्वेषोऽनिष्टसाधनताज्ञानजन्यः । कृति स्तृिविधा जीवनयोनियत्नरूपा प्रवृत्तिनिवृत्तिश्च । आद्या जीवनादृष्टजन्या। द्वितीया इच्छाजन्या। तृतीया द्वेषजन्या ॥३०॥
॥ विवृतिः ॥ क्रमप्राप्तं सुखं निरूपयति सुखमिति। एतल्लक्ष्यनिर्देशपरम् । एवमग्रेऽपि । धर्मजन्यमिति । समवायसम्बन्धावच्छिन्नधर्मत्वावच्चिन्नकारणतानिरूपितकार्यताकमित्यर्थः। तेन धर्मध्वंसादौ नातिव्याप्तिः। वस्तुतस्तु जन्यान्तं स्वरूपकीर्तनमात्रपरं लक्षणन्तु सुखीत्याद्यनुभवसिद्धसुखत्वजातिमत्त्वम् । तेनेश्वरे नित्यसुखस्वीकारपक्षेऽपि न तत्राव्याप्तिः। तन्मते सुखत्त्वस्य नित्यानित्यवृत्तित्वेन कार्यतावच्छेदकत्वासम्भवाज्जन्यसुखत्वस्य धर्मजन्यतावच्छेदकत्वमिति बोध्यम्। यन्तु बलवद्द वेषविषयत्वेनानुभविकस्य दुःखस्याभाव एव सुखमिति । तन्न। भोजनाद्यनन्तरं दुःखाभाववानहमित्यनुव्यवसायानुत्पत्तेः सुख्यमित्यन्नुव्यवसायोत्पत्तेश्च । एतेन सुखस्य ज्ञानविशेषात्मकत्वमित्यपास्तम् । उक्तान्नुव्यवसायविरोधान्न जाने न सन्देहि न निश्चिनोमीत्याद्यनुव्यवसायाच्च ।
दुःखं निरूपयति दुःखमिति । अधर्मजन्यमिति । अधर्मत्वावच्छिन्नसमवायसम्बन्धावच्छिन्नजनकतानिरूपितजन्यतावदित्यर्थः। तेनाधर्मध्वंसादौ नातिव्याप्तिः।
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[ ५१ ] यद्यपि तादृशजन्यत्वस्यैव दुःखलक्षणत्वं सम्भवति तथापि लाघवाद्दुःखत्वजातिमत्त्व लक्षणं बोध्यम्। साच जातिरहं दुखोत्याद्यनुव्यवसायसिद्धा। सुखाभावास्य ज्ञानविशेषस्य च दुःखत्वमुपेयिनो भान्ताः प्रागुक्तदिशा निरसनीयाः। केचित्त्वक्षपादः प्रमेयसूत्र सुखस्यानभिधानाद्दुःखाभिन्नत्वमिच्छन्ति। तन्मन्दम् । नयनप्रसादमुखमालिन्याद्योः कार्ययोभैदेन सुखदुःखयोर्भेदात् स्त्रकचन्दनफणिकण्ठकादिभ्यां धर्माधर्माभ्याञ्च विजातीभ्यां जनितयोस्तयोव्वैजात्यस्यावश्यकत्वाच्च । यत्युनरक्षपादैरनमिधान तत्तु वैराग्ययोगितया सुखस्यदुः खाविभाविनाभावित्वसूचनायेति ध्येयम् । ___ इच्छां निरूपयतीच्छेति । कारणप्रदर्शनमुखेन लक्षणानिधित्सयादेष्ट त्यादि । इष्टत्वञ्च ममेदमिष्टमित्यनुभवसाक्षिकविषयताविशेषः। इष्टसाधनताज्ञानजन्यत्वञ्च चिकीर्षाद्यसहकृतस्वनिष्ठसमवाय सम्बन्धावच्छित्रजनकतानिरूपितजन्यत्वम् । तेन प्रवृत्त्यादौ स्वध्वंसे च नातिव्याप्तिः। वस्तुतस्त्विदमुपायेच्छायामेव सम्भवति, फलेच्छायामिष्टसाधनता •धीनिरपेक्षफलज्ञानस्य हेतुत्वात् । तथाच फलोपायविषयकत्वभेदेनेच्छाद्वै विध्यमिति बोध्यम् । तदुक्तं 'निदु:खत्वे-सुखेच्छा तज्ज्ञानादेव जायते इच्छातु तदुपाये स्यादिष्टोपायत्वधोर्यदि' ॥ इति । उभयसाधारणलक्षणन्तु इच्छात्वजातिमत्त्वम् ।
द्वषं निरूपयति द्वषइति । अनिष्ट त्यादि । अत्रापिस्वध्वंसे निवृत्त्यादौ चातिप्रसङ्गवारणाय जन्यत्वं पूर्ववन्निष्कर्षणीयम् । एवमुत्तरत्रापि । लक्षणन्तु द्वेषत्वजातिरेव। साच निवृत्तिजनकतावच्छेदकतया सिद्धा वेदितव्या। ___ प्रयत्नं निरूपयितुमाह कृतिरिति । प्रयत्न इत्यर्थः । विभजते त्रिविधेति । तथा चैतत्त्रितयान्यतमन्वं यत्नत्वजातिमत्त्वम्वा लक्षणमितिभावः । विधात्रयमध्ये प्राधान्यादादौ जीवनयोनियत्नं निद्दिशति जीवनेति । जीवनस्य-प्राणसञ्चारस्य, योनिः कारणीभूतः, यो यत्नस्तत्स्वरूपेत्यर्थः । तस्यातीन्द्रियत्वेऽपि प्राणसञ्चाररूपकार्यानु मेयत्वम् । तथाहि प्राणसञ्चारः प्रयत्नसाध्यः कार्यत्वाद् घटवादित्यनुमानेनेतरप्रयत्नसाध्यत्ववाधात्तत् सिद्धिः। वस्तुतस्त्वदृष्टविशेषप्रयोज्यात्मनः संयोग विशेषात्मककेन जीवनेनादृष्ट वशेषेषण वाधिकश्वासादिरूपस्य प्राणसञ्चारस्योपपत्ते
|वनयोन्याख्यापन्ने मानाभावं इति नवीनाः। तल्लक्षणन्तु प्रवृत्तिनिवृत्तिभिन्नत्वे सति यत्नत्वं प्राणसञ्चारविषयकयत्नत्वं वा। प्रवृत्तिरिति चेष्टाया रागस्य वा जनकतावच्छेदकतया सिद्धा प्रवृत्तित्वजातिरेवलक्षणम् । निवृत्तिरिति । निवृत्तित्वं द्वष. जन्यतावच्छेदकतया सिद्धो जातिविशेषः। ___ विधासु कारणं प्रदर्शयति आद्य त्यादि। आद्या-जोवनयोनिकृतिः, जीवनादृष्ट जन्येति । जीवनस्य निमिन्नीभूतं यददृष्ट तज्जन्यर्थः। द्वितीया-प्रवृत्तिः,
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[ ५२ ]
इच्छाजन्येति । चिकीर्षाजन्येत्यर्थः । तेन वृष्टिर्भवत्वितीच्छासत्त्वे प्रवृत्तेरनुत्यादेऽपि न क्षतिः इदन्तु बोध्यं चिकीर्षाद्वारा कृतिसाध्यनाज्ञानस्येष्टसाधनताज्ञानस्य च प्रवृत्तौ हेतुत्वेऽपि चिकीर्षाया नान्यथासिद्धत्वं व्यापारेण व्यापरिण इव व्यापारिणा व्यापारस्याप्यन्यथासिद्धत्वासम्भवान्मधु विषसम्पृक्तान्नभोजनादौ चिकीर्षाभावेन प्रवृत्त्यभावदर्श नाच्चिकीर्षाप्रवृत्त्यौहेतुहेतुमभावस्य स्वतन्त्रान्वयव्यतिरेकसिद्धत्वाच्च । अन्येतु मधुविषसम्पृक्तान्न भोजनादेर्व्व लवदनिष्टानुवन्धित्वेन तत्र वलवदनिष्टाननुबन्धित्वज्ञानविरहात्प्रवृत्त्यभावो ननु चिकीर्षाविरहनिबन्धन इति स्वतन्त्रान्वयव्यतिरेकसत्त्वात्प्रवृत्तौ बलवदनिष्टाननुबन्धित्वज्ञानत्वेनापि कारणत्वम् अतएवात्मजिघांसुर्व्वल - वदनिष्टाननुबन्धित्वं प्रतिसन्धाय चिकीर्षामनपेक्ष्यैव मधुविषसम्पृक्तान्नभोजने प्रवर्त्तत इत्याहुः । वस्तुतस्तु बलवदनिष्टाननुबन्धीष्टसाधनताविशिष्टकृतिसाध्यताज्ञानस्य चिकीर्षाद्वारैव प्रवृत्तौ हेतुत्वेन चिकीर्षायाः साक्षात्कारणत्वममभिप्रेत्योक्तभिच्छाजन्येति ध्येयम् ।
तृतीया - निवृत्तिः । निवृत्तेः प्रवृत्त्यभावरूपत्वसभिति केषाञ्चिन्मतमपाकर्तुमाह द्व ेषजन्येति । साक्षाद्द्वेषजन्येत्यर्थः । तेन द्वेषजनकीभूतद्विष्टसाधनताज्ञानस्य परम्परया निवृत्तिहेतुत्वेऽपि न क्षतिः । एवञ्च द्वेषरूपकारणस्वातन्त्र्येणाहं निवृत्त इति विलक्षणप्रतीत्या च तस्या न प्रवृत्त्यभावरूपत्वमिति भावः ||३०||
॥ तर्कामृतम् ॥
धर्मः श्रुतिविहितकर्म्मजन्यः । अधर्म्मः श्रुतिनिषिद्धाचरणजन्यः । वेगारव्यसंस्कारः आद्यक्रियाजन्यो द्वितीयादिक्रियाजनकः । यथा वेगेन वाणश्चलतीति । भावनाख्यः संस्कारो विशिष्टज्ञानजन्यः । स्थितिस्थापकारव्यः संस्कारः कारणगुणप्रक्रमजन्यः । गुरुत्वं कारणगुणप्रकम जन्यम् । नैमित्रिकं द्रवत्वं घृतजतुद्रुतसुवर्णादीनामग्निसंयोगजन्यम् । स्नेहः कारणगुणप्रक्रमजन्यः ॥ ३२ ॥
॥ विवृतिः ॥
घर्मं निरूपयितुमाह धर्म इत्यादि । धर्मत्वञ्च सुखजनकतावच्छेदकतया सिद्धो जातिविशेषः । श्रतिविहितेत्यादि । अत्र श्रुतिपदं मन्वादीनामप्युपलक्षकम् । तेन श्रौतस्य दर्शपौर्णमासादे रिवस्मार्त्तस्य द्वादशयात्रादेरपि धम्मंजनकत्वम् । तथाच धर्मः श्रुत्यादिभिव्विहितं यत् कर्म अभिषेचनादिकं तेन निमित्तकारणेन जनित इत्यर्थः । तदुक्तं महर्षि कणादेन 'अभिषेचनोपवास ब्रह्मचर्य्य गुरुकुलवासवाणप्रस्थयज्ञदानप्रोक्षणदिङ नक्षत्र मन्त्रकालनियमाश्चादृष्टाय' इति । तत्रादृष्टायेत्यस्यादृष्टद्वारा स्वर्गापवर्गलक्षणफलायेत्यर्थः । तथाच धर्माख्यादृष्टानम्युपगमे सुतीर्थेऽभिषेक
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[ ५३ ] मधिकृत्याभिहितस्य पितृलोकावाप्निरूपफलस्यानुपपन्निरभिषेकस्याशुतरविनाशित्वात् । तथाहि महाभारते 'तत्राभिषेकं कुर्वीत पितृदेवार्चने रतः। अश्वमेधमवाप्नोति पितृलोकञ्चगच्छति' इति। नचाभिषेचनाहेजलसंयोगादिध्वंसस्यैव व्यापारत्वसास्तां किमत्तरा धर्म कल्पनयेनिवाच्यं गौरवप्रसङ्गात् स्वर्गादिधारापत्तेः कर्मनाशाजलस्पर्शादिनाश्यत्वानुपपत्तेश्च । तथाहि 'कर्मनाशाजलस्पर्शात् करतोयाविलछनात्। गाण्डकीवाहुतरणात् धर्म:क्षयति कीर्तनात्' । इति ।।
अधर्म निरूपयितुमाहाधर्म इति । अधर्मत्वं दुःखजनकतावच्छेदकतयासिद्धजातिविशेषरूपम्। तत्र कारणमाह श्रुतिनिषिद्धमिति। श्रुतिपदमुक्तार्थकम् । तथाच श्रुत्या निषिद्ध --अनिष्टसाधनन्वेन बोधितं यद्ब्राह्मणइननादिकं तदाचरणरूपनि मित्तकारणजन्य इत्यर्थः अधनिभ्युपगमे ‘य इह कपूयचरणा अभ्याशोह यत्ते कपूयां योनिमापद्ये रन् श्वयोनि वा शूकरयोनि वा चाण्डालयोनि वा' इत्यादिश्रु त्याभि हितश्वादि-योनिप्राप्तेरनुपपत्तिरिति द्रष्टव्यम् ।
अथात्मवृत्तिगुणोत्पादप्रक्रियामुपसंहत्तु भावनाख्यसंस्कारं निरूपयितुं संस्कारत्वावच्छिन्नानां मध्ये सूचीकटाहत्यायेनादौ समुद्दिष्ट वेगं निरूपयति वेगाख्य इति । वेगत्वञ्च जातिविशेषः। तत्र कारणं प्रदर्शयति आद्य त्यादि। द्वितीयादि क्रियाया वेगाजनकत्वादाद्य ति । आदिमशब्दादेरपि वेगाजनकत्वादाह क्रियेति । आद्याक्रियाजन्यत्वस्यतद्ध वंसादावपि सत्त्वादाह द्वितीयेत्यादि विशेष्यदलम् । तत्र च क्रियात्वस्यादिमक्रियायामपि सत्त्वान्नस्याश्चवेगाजन्यत्वाह द्वितीयेति । आदिना तृतीयादिक्रियायाः परिग्रहः। अत्रचाद्यक्रियायावेगं प्रति वेगस्य च द्वितीयादि क्रियां प्रत्यसमवायिकारणत्वमवधेयम् । क्वचिद्व गविशिष्टेन कपालेन घटे वेगजननस्य प्रत्यक्षसिद्धत्वाद्वेगस्यासमवायितया वेगजनकत्वमपि बोद्धव्यम् । नच वेगास्थ संस्कारे मानाभाव इति वाच्यं वेगानम्युपगमे कर्मणः कान्तरप्रतिबन्धकत्वस्वाभाव्यात पूर्वकर्मनाशस्यौत्तरकर्मोतपादस्य चानुपपत्तेः। वेगस्य द्वितीयादिक्रियाजनकत्वं दृष्टान्तेनोपपादयति यथा वेगेनेत्यादि । ___द्वितीयं संस्कारं निरूपयति भावानाख्य इति । भावनात्वञ्च स्मृतिजनकतावच्छेदकतया सिद्धजाति विशेषः । निविकल्पकस्य भावनाजनकत्वविरहादाहविशेष्टेति । उपेक्षानात्मकप्रकारनाविशेष्यताशालिज्ञानजन्य इत्यर्थः। तेनोपेक्षात्मकविशिष्टज्ञानस्य भावनाजनकत्वविरहेऽपि न क्षतिः नचानुभवस्यैव भावनाजनकत्वा. दत्र ज्ञानजन्यत्वनिवेशोऽसङ्गत इति वाच्यं नव्यमते स्मृतेरपि भावनाजनकत्वात् । तदुक्त' 'जायते च पुनः पुनः स्मरणादृढ़तरः संस्कारः' इति । प्राञ्चस्तु द्याप्यधर्मपुरब्दारेण कारणत्वसम्भवे व्यापकधर्मस्यान्यथासिद्धिनिरूपकत्वात्तद्विषयकस्मृति
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[ ५४ ] संस्कारौ प्रति तद्विषयकानुभवत्वेनैव कारणत्वं नतु तद्विषयकज्ञानत्वेन, अतोऽत्र ज्ञानपदमनुभवपरमितिवर्णयन्ति । अत्र विशिटज्ञानध्वंसेऽति व्याप्तिवारणाय स्मृतिजनकत्वे सतीति विशेषणं देयम् । ... तृतीयं संस्कारमाह स्थितिस्थापकेति । अन्यथाकृतस्य वृक्षशाखादेः पुनस्तदवस्थापादनजनकतावच्छेदकतया सिद्धो जातिविशेषः। स्थितिस्थापकत्वम् । कारणगुणेत्यादि। कारणगुणप्रक्रमजन्यत्वपदार्थः प्राङ निरूपितो द्रष्टव्य ।।
गुरुत्वोत्पाद प्रक्रियामभिधन्तें गुरुत्वमिति। आद्यपतनासमवायिकारणं गुरुत्वमित्यन्नम्भट्टाः। गुरुत्वत्वञ्च जातिविशेषः।
सांसिद्धिकद्रवत्वस्य विशेषगुणत्वात्तद् त्पादप्रक्रियायाः प्रागभिहितत्वान्नैमित्तिकववत्वोत्पत्ति निरूपयितुमाह नैमित्तिकमिति । निमित्तविशेषजन्यमित्यर्थः। तदेव दृष्टान्तेनोपपादयति गान्वित्यादि। नैमित्तिकद्रवत्वत्वं जातिविशेषः ।
स्नेहस्य विशेषगुणत्वेऽपि पृथिव्यवृत्तित्वात् पृथक्तया तदुत्यादप्रक्रियामाह स्नेह इति । 'चूर्णादिपिण्डीभावहेतुर्गुणः स्नेह इत्यन्नम्भट्टाः ॥ ३२ ॥
॥ तर्कामृतम् ॥ शब्दस्त्रिविधः संयोगजो विभागजः शब्दश्चेति । आद्यो भेरीदण्डसंयोगन्यः । द्वितीयो वंशादिदलद्वयविभागन्यः। तृतीयस्तु संयोगेन चाद्यशब्दे जनिते तेन शब्देन निमित्तवायुसहकृतेन वीचितरङ्गव्यायेन कदम्बगोलकन्यायेन वा जन्यते ॥ ३२ ॥
* इति। ॥ गुणनिरूपणम् ।। .
॥ विवृतिः ॥ - शब्दत्वावच्छिन्नोत्पादकत्वस्यै कत्रासम्भवाच्छब्दं विभजते शब्द इति। यद्यपि ध्वनिवर्णभेदेन शब्दस्य द्वै विध्यं वक्तुमुचितं तथाप्युत्यादप्रक्रियाप्रदर्शन कौशलाय तथा विभागः कृतः। संयोगज इत्यादि। अत्र साक्षात् संयोगादिजन्यत्वं विवक्षितम् । तेन शब्दजशब्दस्य परम्परया संयोगादिजन्यत्वेऽपि संयोगजत्वादेर्न विभाजकत्वानुपपत्तिः। भेरीदाण्डसंयोगज इति । अत्रभेरीदण्डसंयोगस्य निमित्तत्वं भेाकाशसंगस्य चासमवायित्वं द्रष्टव्यम् । वंशादिदलद्वयेत्यादि। आदिना काष्ठादेरुपग्रहः। अत्रापि तादृशविभागस्य निमित्तत्वं दलद्वयाकाशविभागस्यचासमवायित्वमितिबोध्यम् । तृतीय स्त्विति । जन्यत इति परेणान्वयः । संयोगेन चेति । अत्र चकारो वार्थे । तेनै कस्मिन् शब्दे संयोगविभागोभयजन्यत्वविरहेऽपिन क्षतिः । तेन शब्देनेति । आदिमशब्देनेत्यर्थः। अत्रचादिमशब्दस्य द्वितीयशब्दं प्रति, द्वितीयादिशब्दस्य च तृतीयादिशब्दं प्रत्यसमवायित्वमवधेयम् । स्वयमेव निमित्तकारणं दर्शयति निमित्तवाय्विति । यद्यपिकालादेरपि
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[ ५५ ] कार्यमा प्रति निमित्तत्वमस्ति तथाप्यत्र वायुमात्रस्योल्लखो विशेषनिमित्तत्वशापनार्थः। तेन प्रवलवातेन तूर्ण शब्दसाक्षात्कारः सङ्गच्छते। ननु भेर्यादिदेशाबच्छेदेनोत्यनस्य शब्दस्य कथं श्रोत्रण ग्रह इत्याङ्खायामाह वीचीत्यादि। अर्णवादी तरङ्गमालोत्यादे यथै केन तरङ्गन तदृशहिमवच्छिन्नोऽपरः उत्पद्यते, तेन चापरः तेन चापर इत्यादितथादिमशब्देन स्वदृशदिगवच्छिन्नोऽपरः शब्द उत्पाद्यते, तेनच तदृशदिगवच्छिन्नोऽन्यः शब्द इत्येवं क्रमेण श्रवनेन्द्रियदेशे जातस्य श्रवणेन्द्रियेण ग्रह इत्यर्थः। अत्र मतान्तरमाह कदम्बगोलकेत्याह । प्रथमशब्दात्तदृशदिक्षु दक्षशब्दा जायन्ते, ततस्तेम्यः शब्देम्यस्तदृशदिक्षु अपरे दक्ष शब्द इत्येवं श्रवणदेशेसमुत्पन्नानां श्रवणेन ग्रह इत्यर्थः ॥ ३२॥
॥ इति गुणनिरूपनविवृतिः ॥
|| तर्कामृतम् ॥ उत्क्षेपणावक्षेपणाकुञ्चनप्रसारणगमनानि पञ्च कर्माणि। उतक्षेपणवादीनिजातयः। पृथिवीजलतेजोवायुमनोवृत्तोनि कर्माणि सर्वाण्यमित्यानि । अतीन्द्रियवृत्तीन्यनीन्द्रियाणि। प्रत्यक्षवृत्तीनि प्रत्यक्षाणि ॥३३॥
॥ विवृतिः ॥ द्रव्यसमवेतत्वस्य तुल्यत्वेऽपि गुणजन्यत्वाद् गुणनिरूपणानन्तरं कर्म निरूपयत्युत्क्षेपणेत्यादि। नच संयोगविभागव्यतिरेकेण कर्म नास्तीति वाच्यं संयोगादि प्रतोति विलक्षणतया चलतीत्यादिप्रतीतेः सर्वानुभवसिद्धत्वात् । ऊर्द्धवात्यनुकूलचेतनक्रियोत्क्षेपणं मुषलमुक्षिपामीति व्यवहारात्। तत्रादाबुत्क्षिपामीतीच्छा, ततः प्रयत्नः, ततः प्रयत्नवदात्मसंयोगरूपासमवायिकारणात् करादावुत्क्षेपणाख्यं कर्म जायते। निमित्तकारणन्तु तत्र गुरुत्वमेव । यन्तु तत्रोत्क्षेपणविशिष्टकरादिनोदन रूपासमवायिकारणादुतक्षिप्तमूषलादावपि युगपहुतक्षेपणं जायत इति तदृढ़तरद्रव्यसंयोगान्मुषलस्योर्द्ध वगमनमेव ज्ञ यम्, तत्रच्छादेः कारणत्वे मानाभावादुत्क्षेपणव्यवहारो भाक्त एवे। एवं मुषलमवक्षिपामीतीच्छया प्रयत्नो जायते, ततश्च प्रयत्नवदात्मसंयोगात्मकारणाद्धस्तादावक्षेपणमुत्यद्यते। तत्राप्युक्त रोत्या मुषलादावपक्षेपणव्यवहारो भाक्तो बोद्धव्यः । इत्थञ्चाधोगत्यनुकूलचेतनक्रियावक्षेपणम्। प्राकुञ्चतत्त्वारम्भकसंयोगवद्दव्यवृत्ति परस्परमवयवानामनारम्भक संयोगविशेषविनाशक कर्म प्रसारणम्, यथा 'पद्म विकशति' इत्यादौ। गमनेति । यद्यप्युत्तरदेशसंयोगानु कूल कम्मैव गमनं, गमनत्वेनोतक्षेपणादेश्चाप्युपग्रहः सम्भवति तथाप्युक्तचतुष्टयभिन्नत्वे सति कर्मत्वं गमनत्वमिति पञ्चत्वसिद्धिः। अतएव एतच्छब्देननोत्क्षेपणत्वादिक.
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ममि प्रेत्योक्तं वल्लभाचायें: 'एतद्र पचतुष्कविवज्जितं कर्मजातोयमेव गमनम्' इति । यानि तु भूमण-रेचन-स्पन्दन-ऊर्द्ध वज्वलन-निर्यग्गमनादीनि कर्माणि सन्ति तानि तावद्गमानान्तमत्तत्वत्नातिरिच्यन्त इत्यविरोधः। तत्र भूमणं नाम विजातीयोत्तरसंयोगानुकूलं कर्म । गुरुत्वासमवायिकारणकं नैमित्तिकद्रवत्वववृत्त्यन्तरसंयोगानुकूलं कर्म रेचनम् । द्रवत्वासमवायिकारणकमुत्तरसंयोगानुकूलं कर्म स्पन्दनम् । वह्लादिसमवायिकारणकोर्द्ध वसंयोगविशेषानुकूलं कोर्द्ध वज्वलनम् । पवनादिसमवायि. कारणकविजातीयोत्तरसंयोगानुकूलं कर्म नियंगगमनमित्यादिकमूहनीयम् । तत्र भूमणत्वादयो गमनत्वव्याप्यजातिविशेषाः । कर्माणोति । तथाचोत्क्षेपणाद्यन्यतमत्वं कर्मत्वजातिमत्त्वम्बाकर्मसामान्यलक्षणमितिभावः । मूषलमुर्द्ध ध्वं गच्छतीत्यादि प्रतीत्यान्यथासिद्धानि उत्क्षेपणत्वादीनि नातिरिच्यन्तमित्याशङ्कामपनेतुमाहोत्क्षेपणत्वादीनि जातय इति । आदिनावक्षेपणत्वादेरूपग्रहः। तथाचोत् क्षिपामोत्यादिविलक्षणानुगतप्रतीत्या तेषां जातित्वसिद्धौ भेदकत्वं सिध्यतीति भावः। केचित्त कर्मत्वजातेः प्रत्यक्षसिद्धत्वेऽपि उत्क्षेपणत्वादिकं न जातिः किन्तूर्द्ध वदेशसंयोगफलकक्रियावच्छिन्नव्यापारत्वादिरूपम् । गमनत्वञ्च संयोगावच्छिन्नक्रियात्वरूपमित्यादुः ।
अथकर्माश्रयानिद्दिशति पृथिवीत्यादि। अत्र वृत्तित्वं समवायसम्वन्धेनैव वाच्यम् तेन कालिकादिसम्बन्धेन कर्मणः कालादिवृत्तित्वेऽपि न क्षतिः। अत्र यद्यपि कस्यचिदपि कम्मणो यावत्पृथिवी व्यादिवृत्तित्वं न सम्भवति किन्तु तत्तत्कर्मण एव तत्तत्पृथिव्यादिवृत्तित्वं तथापि कर्मत्वजातौ पृथिवीत्वाद्यवच्छिन्नाधिकरणनानिरूपितानिरूपकतावच्छेदकत्वं विवक्षणीयमित्पदोषः। सर्वेषां कर्मणां न प्रत्यक्षविषयत्वमित्यते आहातीन्द्रियवृत्तीनीति । परमाण्वादिवृत्तोनीत्यर्थः। प्रत्यक्षवृत्तीनीति । त्रसरेण्वादिवृत्तीनीत्यर्थः ॥ ३३ ॥
॥ तर्कामतम् ॥ अथ कर्मप्रक्रिया। संयोगेन नोदनास्थेनाक्षं कर्म जन्यते। द्वितीयादि वेगजन्यम्। क्रियातो विभागः। विभागान्पूर्वसंयोनाशः। तत उत्तरदेशसंयोगोत्पत्तिः । ततः कर्म विभागयो शः ॥ ३४ ॥
* इति कर्मनिनिरूपणम् *
॥ विवृतिः॥ संयोगेन नोदनाख्येनाद्य कर्म जन्य इति । नन्विदमनुपपन्नं 'कर्मजोऽपि द्विधैव परिकीर्तितः अभिवातो नोदनञ्च' इत्युक्ते !दनाख्यसंयोगस्यापि कर्मजन्य
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[ ५७ ] त्वेनाद्यकर्मजनकत्वाभोगात् । नच नोदनजनकर्मार्थ नोदनान्तरमुपेयमितिवाच्यमनवस्थाप्रसङ्गात् नोदनजनितकर्मण आद्यत्वानुपपत्तेश्च। मैवम् । अत्र नोदनपदेन कर्माजन्यस्य विजातीयनोदनस्य विवक्षितत्वात् । निक्षिप्तशरादिनिष्ठद्वितीयादिक्रियाया असमवाय्यन्तराभावादाह वेगजन्यमिति । कर्मविभागयो नि शइति । तथाच कर्मोत्पत्तिपञ्चमक्षणे कर्मणो विभागस्य च नाश इतिभावः। नच स्वोत्पादस्य स्वजनकना शस्य च द्वयोयुगपद्विरुद्धत्वाद्विभागस्योत्पत्तये कर्मणो द्वितीयक्षणे नाशाम्भ वेऽपि तृतीयक्षणे चतुर्थक्षणे वा नाशः कुतो न स्यादिति वाच्यं कर्मणा बिना विभागमात्रण पूर्वसंयोगनाशस्य पूर्वसंयोगनाशमात्रण वोत्तरसंयोगस्य चोत्पत्तुमशक्य. त्वात् ॥ ३४॥
॥ * ॥ इति कर्मनिरूपणविवृतिः ॥ * ॥
|| तर्कामृतम् ॥ सामान्यं त्रिविधं व्यापकं व्याप्यं व्याप्यव्यापकं च । व्यापकं सत्ता, व्याप्यं घटत्वादि, ब्रव्यत्वादि व्याप्यव्यापकञ्च। "भक्तेरभेदस्तुल्यत्वं सङ्करोऽव्थानवस्थितिः। रूपहानिरसम्बन्धो जातिवाधकसंग्रहः" ॥ नित्यत्वे सति अनेकसमवेतत्वमिति सामान्यलक्षणम् । सामान्यानि नित्यान्येव । 'अतीन्द्रियवृत्तीन्यतीन्द्रियाणि । प्रत्यक्ष वृत्तीनि प्रत्यक्षाणि ॥ ३५ ॥
॥ * ॥ इतिसामान्यनिरूपणम् || * ||
॥ विवतिः॥ अथ क्रमप्राप्तं सामान्यं निरूपयितुमाह सामान्यमिति लक्ष्यनिद्देशपरम् । तदर्थश्चसमानानां-मिथो भेदवत्त्वे सति एकधर्मवतां, भावः-मिथोऽन्योन्याभावसमानाधिकरणो धर्म विशेष इति । लक्षणन्तु नित्यत्वे सतीत्यादिना वक्ष्यति । अथवा सामान्यपदस्योक्तनिरूक्तिरेव लक्षणः, नित्यत्वे सतीत्यादिकन्तु तस्यैव निष्कर्षः। तेन सामा. न्यस्य सामान्यलक्षणमनमिधाय त्रिविधमित्यनेन विशेषविभजनमनुचितमितिनिरस्तम्। विभजते त्रिविधमिति । विधात्रयं दर्शयति व्यापकमित्यादि । व्यापकत्वमधिकदेशवृत्तित्वम् । व्याप्यत्वञ्च न्यूनदेशवृत्तित्वम् । न्यूनत्वाधिकत्वयोरपेक्षाबुद्धि विशेषविषयत्वरूपन्वादापेक्षिकत्वं बोध्यम् । तेनानुगतन्यूनाधिकभावविरहेऽपि न क्षतिः । व्याव्यव्यापकत्वञ्च । अधिकदेशवृत्तित्वे सति न्यूनदेशवृत्तित्वरूपम् । तच्च सत्तापेक्षया न्यूनदेशवृत्तित्वात् पृथिवीत्वाद्यपेक्षयाधिकदेशवृत्तित्वाच्च द्रव्यत्वादेरुपपद्यते । लक्ष्यमाह व्यापकं सत्तेति । न च सत्ताया जातित्वे मानाभाव इति वाच्यं 'द्रव्यं सत्' 'गुणः सन्'
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[ ५८ ] इत्याद्यनुगतप्रतीतेरेव मानत्वात् । नव्यास्तु प्रागभाववृत्तिप्रतियोगित्वान्यप्रतियोगित्वसम्बन्धेन यत्र ध्वंसोत्पादस्तत्र तादात्म्यसम्बन्धेन सत्, यन्नैवं तन्नै वम्, इत्यत्वयव्यतिरेकाभ्यां ध्वंससतोः सामानाधिकरण्यप्रत्यासत्या कार्यकारणभावावधारणाद् ध्वंसकारणतावक्छेदकतया सत्ताजातिः सिध्यतीति प्राहुः। सत्ताया द्रव्यगुणकर्म. वृत्तित्वात् केवलद्रव्यादिवृत्तिद्रव्यत्वाद्यखिलजात्यपेक्षयाधिकदेशवृत्तित्वाद्वयापकत्वमित्यर्थः। घटत्वाद्यपेक्षयान्यूनदेशवृत्तिजातेरप्रसित्वाद् घटत्वादेर्व्यापकत्वासम्भवादाह व्याप्यं घटत्वादीति। आदिना पटत्वादेः परिग्रहः। वस्तुतस्तु व्यापकत्वेन व्याप्यत्वेन च सामान्यस्य द्विधैव विभागः समुचितस्तयोरापेक्षिकतया द्रव्यत्वादावुपपादयितु शक्यत्वात् । अतएव 'सामान्यं द्विविधं परमपरञ्च' इत्युपष्कारकृतः।
वैनाशिकस्तु सामान्याख्यपदार्थे मानाभावः। अयं घट इत्याद्यनुगतप्रतीतिविषयनावच्छेदकत्वस्य घटादिपदप्रवृत्तिनिमित्तत्वस्य वा घटत्वादेातित्वासाधकत्वाद घटादीतरव्यावृत्तेरेवोक्तप्रतीतिविषयत्वाद् घटादिपदप्रवृत्तिनिमित्तत्वाच्च । किञ्च सामान्यवादिना घटत्वादेराश्रयो वक्तव्यः, स च न घटादिरुत्पत्तेः पूर्वमसत्त्वात् । नापि पटादिविरोधात्। न च पूवं घटाद्य त्पत्तिदेशावच्छेदेन वर्तमानं घटत्वादिकमुत्पन्नघटादिकमाश्रयतीति वाच्यं तथासति तदानीं तद्देशस्यापि घटत्वादिना व्यवहारप्रसङ्ग इत्यादि प्रलपन्ति । तन्न । अयं घट इत्यादिकाया भावमवगाहमानायाः प्रतीतेरितरभेदविषयकत्वाननुभवात्। घटमानयेत्यादौ घटादिपदश्रवणानन्तरमितरभेदादिकमनालोच्यैव कम्बुग्रीवादिमद्वस्त्वानयनदर्शनादितरभेदस्य प्रवृत्तित्वेगौरवाच्च । किञ्च नित्यं घटत्वादि सर्वत्रसदपि न घटादि व्यवहारोपपादक समवायेन घटत्वाद्याश्रयस्यैव घटत्वादिना व्यवहारात् । अन्यथा कालिकेन रूपाद्याश्रयत्वान्महाकालस्यापि रूपादिमत्तया व्यवहारः स्यात्। तथाचोत्पत्तिपूर्वकालावच्छेदेन काले कालिकेन ज्ञाने वा विषयितया वर्तमानं घटत्वादिमुत्पन्नघटादौ समवैतीत्येव युक्तम् । यथा घटात्यन्ताभावो नित्यः कालिकेन काले वर्तमानो भूतलादितो घटापसारणे तद्भूतलादिकमाश्रयतीति दिक् ।
असाधारणधर्मत्वाविशेषेऽपि गगणत्वादे र्जातित्वाभावाज्जातिवाधकान्निरूपपितु. मुदयनाचार्यकारिकामुद्धरति व्यक्तेरभेद इति । , व्यक्तेः- स्वाश्रयीभूतव्यक्तेः, अभेदः-एकत्वमित्यर्थः। तच्च गगणत्वादे र्जातित्वे वाधकमिति भावः। व्यक्तीनामननुगतत्वादनुगतप्रतीत्यनुरोधेनैव जातिरम्युपेयते । गगणादेश्चैकत्वेनैवानुगतप्रतीत्युपत्तौ गगणत्वादेर्जातित्वस्वीकारोऽनावश्यक इति तात्पर्य्यम् । न च घटादेरपि प्रत्येकमेकत्वस्य सत्त्वाद् घटत्वादेर्जातित्वं न स्यादिति वाच्यं स्वाश्रयसजातीयद्वितीयराहित्यस्याभेदशल्लेन विवक्षितत्वात्वात् । साजान्यञ्च स्वसमनियतधर्मवत्त्वेनग्राह्यम् ।
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[ ५६ ]
तेन गगणादे द्रव्यत्वादिना सजातीयत्वसत्त्वेऽपि न क्षतिः । न च गगणत्वादिसमनियतधर्मेण सजातीयस्याप्रसिद्धिरिति वाच्यं स्वप्रतियोगित्वस्वानुयोगित्वोभयसम्बन्धेन भेद विशिष्टान्यत्वस्याभेद सम्बन्धेन विवक्षितत्वात् । तथाच तद्घटों नेत्यादिभेदप्रतियोगित्वानुयोगित्वयो घटादौ सत्त्वाद्घटादे नभेदः किन्तु गगणादेरभेद एव कस्यचिदपि भेदस्य प्रतियोगित्वानुयोगित्वयोर्गगणादावभावात्, नहि तद्गगणं नेत्यादिभेदः प्रसिद्ध स्तद्गगणादेरप्रसिद्धत्वात् ।
तुल्यत्वमिति । यद्धर्माश्रया यद्धर्म्माश्रयान्यूनानतिरिक्तास्तत्त्वं स्वेतरजातिसमनियतत्वमितियावत् । तच्च तद्धर्म्मायो जतिद्वयत्वे वाधकम् । यथा घटत्वकल सत्वयोः करत्वहस्तत्वयोर्व्वा । तयोरेकतरधर्म्मस्तु जातिः स्यादेव । यथा घटत्वं करत्वम्बा जातिरेकतरेणैवानुगत प्रतीत्युपपत्तेः ।
सङ्करहति । परस्परात्यन्ताभावसमानाधिकरणयोरेकत्र समावेश इत्यर्थः । तदुक्तं 'अन्योन्यपरिहारेण भिन्नव्यक्तिनिवेशिनोः । सामान्ययोः समावेशो जातिसङ्कर उच्यते ' ॥ इति । सच भूतत्वमूर्त्तत्वादेर्जातित्वे वाधकः । तथाहि भूतत्वं विहाय मूर्त्तत्वस्य मनसि सत्त्वान्मूर्त्तवं विहाय भूतत्वस्यगणे सत्त्वात्तयोः परस्परात्यान्ताभावसामानाधिकरण्यमेकत्रसमावेशश्च क्षित्यादाविति । न च साङ्कर्य्यस्य जातिवाधकत्वे मानाभाव इति वाच्यं स्वसामानाधिकरण्यस्वाभावसामानाधिकरण्योभयसम्बन्धेन जातिविशिष्ट जातित्वाच्छेदेन स्वसमानाधिकरणाभावप्रतियोगित्वाभाव इति नियमस्यैव मानत्वात् । साङ्कर्य्यस्य जातिवाधकत्वानम्युपगमे तादृशनियमस्य भङ्गापत्तेः । नव्यानां मते तादृशनियमस्य निष्प्रमाणकत्वात् साङ्कर्य्यस्य, जातिवाधकत्वं नास्तीति ध्येयम् ।
अनवस्थितिरिति । अनवस्थाख्यतर्क इत्यर्थः । स चाप्रामाणिकानन्तपदार्थ - परिकल्पनया विश्रान्तिरूपः सामान्यत्वस्य जातित्वे वाधकः । तथाहि द्रव्यत्वपृथिवीत्वाद्याखिलजातिषु यदनुगतं जातित्वं वर्त्तते तस्य जातित्वाम्युपगमे जातित्वाख्यजातावपि जातित्वमम्युपेयं तस्य च निखिलतज्जातिवृत्तित्वत्तापि पुनर्जातित्वमित्येवं क्रमेणावस्थेति भावः ।
रूपहानिरिति । रूरस्य स्वतोव्यावर्त्तकत्वात्मकस्य इनिः — भङ्गः, विशेषत्वस्य जातित्वे वाधक इत्यर्थः । तथाहि जात्याश्रयस्य वस्तुनस्तज्जातिपुरष्कारेणैवेतरभेदसाधकत्व नियमाद्विशेषत्वस्य जातित्वाभ्युपरागे तेन विशेषत्वेन जात्थैव विशेषाणां व्यावर्त्तकत्वं वाच्वं, तथाच विशेषाणां यत् स्वतोव्यावर्त्तकत्वं - स्वेनेव रूपेण व्यावर्त्त - कत्वं - - जात्यनवच्छिन्नेतरभेदसाधकत्वं तद्भज्येतेनि भावः ।
असम्बन्धहति । असमवेतत्वमित्यर्थः । तच्च समवायत्वाभावत्वादेज्जतिवे
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वाधकम् । न च समवायस्यैकत्वाद्य यक्त रभेदइत्यनेनैव चरितार्थत्वमस्त्विनि वाच्यं तत्तत्प्रतियोगिकत्वतत्तदनुयोगिकत्वादिना समवायस्य नानात्वस्वीकारादिति नव्याः।
प्रसङ्गतो जातिवाधकानुक्त्वावसरतो जातिलक्षणमाह नित्यत्वे सतीति । संयोगादावतिव्याप्तिवारणाय सत्यन्तम् । अत्र नित्यत्वं प्रागभावाप्रतियोगित्वं ध्वंसाप्रतियोगित्वम्बा, नतूभयाप्रतियोगित्वं निष्प्रयोजनककत्वात् । न च विभुद्वयसंयोगेऽति व्याप्तिरितिवापं विभ्वो; संयोगे मानाभावात् । गगणपरिमाणादावतिव्याप्तिवारणायानेकेति। अन्यन्ताभावादावतिप्नसङ्गवारणाय वृत्तित्वं विहाय समवेतस्वमिति । गगणादावतिव्याप्तिवारणाय विशेष्यदलम् । सामान्यानामनित्यत्वाप्रसिद्ध राह नित्यानीति । अतिन्द्रियवृत्तीनीति। परमाण्वादिवृत्तीनीत्यर्थः । प्रत्यक्षवृत्तीनीति । त्रसरेण्वादिवृत्तीनीत्यर्थः ॥३५॥ || * || इति सामान्यनिरूपणविवृतिः ॥ * ||
॥ तर्कामृतम् ॥ नित्यद्रव्यवृत्तयोऽन्त्या विशेषाः। ते च बहवो नित्या अतीन्द्रियाश्च । प्रलये परमाणूनां भेदाय ते स्वीक्रियन्ते । तेषां वैधर्म्यव्याप्यत्वात् ॥३६॥
॥ * ॥ इति विशेषनिरूपणम् ॥ * ॥
॥विवृतिः ॥ अथ क्रमप्राप्त विशेष निरूपयति नित्यद्रव्येत्यादि। अन्त्या इति । अन्तेव्यावर्तकानामवसाने भवन्तीत्यन्त्या इति व्युत्पत्त्या यस्य न व्यावर्तकान्तरमस्ति तत्त्वमत्र विशेषलक्षणंबोध्यम् । नित्यद्रव्यबृत्तीत्यंशस्तु परमाणुगगणादीनां विशेषाश्रयत्वप्रदर्शनाय, ननु लक्षणघटकतया, लक्षणे तत्प्रवेशे प्रयोजनविरहात । कणादसूत्रवृत्तिकारानुयायिनस्तु अत्रान्त्यपदस्य नित्यार्थकत्वंमन्यमाना नित्यत्वे सति नित्यद्रव्यवृत्तित्वं विशेषलक्षणमित्याहुः। तत्र जन्यज्ञानादावतिव्याप्तिवारणाय सत्यन्तम् । गगणादावतिप्रसङ्गवारणायविशेष्यदलम् । घटत्वादिजानावतिव्याप्तिवारणाय नित्यपदम्। ज्ञानत्वादिजातावतिव्याप्तिवारणायद्रव्यपदम्। वृत्तित्वञ्चसमवायसम्वन्धेन ग्राह्यम् । तेन कालिकेन घटत्वादेर्महाकालवृत्तित्वेऽपि नातिव्याप्तिः । तथापि तेषां मते आत्मत्वादावतिव्याप्तितादवथ्यम् । यदि च तद्वारणाय नित्यद्वया. वृत्तित्वादिविशेषणं लक्षणे प्रक्षिप्यते तदा त्वतिगौरवमिति ध्येयम् । केचित्तु जातिजातिमदभिन्नत्वे समवेतत्वं विशेषलक्षणं वर्णयन्ति ।
अथ विशेषपदार्थस्वीकारे युक्तिमाह प्रलयइत्यादि। अन्यदात्वन्त्यावयवित आरम्य द्वयणुकपर्य्यन्तानां तत्तदवयवभेदेन भेदस्य सिद्धत्वेऽपि प्रलये द्वयणुकादीनामभा
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[ ६९ ]
वादत्यन्तसंकीर्णानां परमाणुनां भेदकान्तरासत्त्वात् सर्गान्तरीयमुदतमभाषादिविभिन्न-जातीयवस्त्वारम्भकपरमाणुभेदकतयैकै कपरमाणुसमवेताः स्वतो व्यावृत्ता विशेषाः स्वीकरणीया इतिभावः । नचैकजातीययावत्परमाणुष्वेकविशेषाम्युपगमेनैवोक्तदीष-वारणसम्भवे कि प्रतिपरमाणुमेकै कविशेषेणेति वाच्यमेकविशेषस्य यावदाश्रितत्वानुपपत्तेरेकस्यान्यकार्य्यजनकत्वप्रसङ्गाच्च । न च तत्तत्परमाणुनिष्टमेकत्वमेव भेदकमस्तु कि विशेषेणेति वाच्यमेकत्वस्य व्यभिचारित्वात्तदेकत्वस्य भेदकताया वाच्यत्वात्तदेकत्वस्य च दुनिर्वाच्यत्वात् । इत्थञ्च विशेषाणां मिथो भेदसाधनाय विशेषान्तरमङ्गीकार्य्यमितिनिरस्तं तेषां स्वतो व्यावृत्तत्वात् । विशेषाणां प्रतिपरमाणुभेदेन भिन्नत्वे हेतुमाह तेषां वैधर्म्यव्याप्यत्वादिति । स्वतो व्याहत्तत्व-स्वाभाव्यादित्यर्थः । तथाच विशेषाणां मिथो विधम्मंत्वान्नदाश्रयीभूताः परमाणवोऽपि मिथो विधम्र्माण इतिभावः । नव्यास्तु यथा विशेषास्तवमते स्ववृत्तिधर्म्म मनपेक्ष्यैव स्वतो व्यावृत्तास्तथा मन्मते परमाणवोऽपि विशेषंविनैव स्वतोव्यावृन्ना इतिविशेषाख्य-पदार्थे मानाभावइति वदन्ति ॥ ३६ ॥ |
* ॥ इति विशेषनिरूपण विवृतिः ॥ * ॥ ॥ विवृतिः ॥
अथ क्रमप्राप्तं समवायं लक्षयतिसम्बन्धिभिन्न इति । सम्बन्धिभिन्न इति । सम्बन्धित्वमत्र सम्बन्धिप्रतियोग्यनुयोगित्वरूपम् । सम्बन्धत्वञ्च विशिष्टधो विषयत्वरूपं ग्राह्यम् । तथाच सम्बन्धप्रतियोग्यनुयोगिमिन्नत्वे सति नित्यन्वे च सति सम्वन्धत्वं समवायत्वमितिपर्थ्यवसितम् । तत्र प्रथमसत्यन्तस्य व्यावृन्ति प्रदर्शयितुमाह तेन स्वरूपसम्बन्धस्येति । नित्याभावाद्यात्मकस्वरूपसम्बन्धस्येत्यर्थ । न च समवायवद्द्रव्यमितिप्रतीत्या समवाये - सम्बन्धप्रतियोगित्वभानादव्याप्तिरिति वाच्यं तत्र समवायेन द्रव्यत्वादिमद्रव्यमित्यर्थात् । नचानुभवविरोध इति वाच्यं कस्य समवायवदित्याकाङाया निवृत्त तत्र द्रव्यत्वादिभानस्यावश्यकत्वादन्यथा गुणत्वादिसमवायस्यापि तत्र भान-प्रसङ्गात् समवायस्यैकत्वादगुणत्वादिसमवाये गुणत्वव्याप्यत्वनियमस्याप्रयोजकत्वात् । द्वितीयसत्यन्तस्य प्रयोजनमाह संयोगस्येति । यदि च संयोगम्य समवायसम्बन्धप्रतियोग्यनुयोगित्वसत्त्वात् प्रथमसत्यन्तदलेनैव तद्वारणं सम्भवतीत्युच्यते तदा संयोगेन घटवद्भूतलमित्यादौ संयोगत्वादेः संसर्गनावच्छेदकविधयैव भानात् संयोगस्य न प्रतियोगानुयोगितयाभानं किन्तुसंसर्ग त्वेनैवेत्यदोषः । अत्र विशेष्यदलोपात्तसम्बन्धत्वं
लक्षणघटक वैयर्थ्यात् किन्तु स्वरूपकीर्त्तनमात्रपरमितिध्येयम् । प्राञ्चस्त्वयुतसिद्धसम्बन्धः समवायः । अयुत सिद्धत्वञ्चासम्बद्धयोरविद्यमानत्वम् । एतेन संयोग-
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[ ६९ ]
सम्बन्धसम्बन्धिनोर्व्वदरकुण्डाद्योरिव समवायस्य गुणगुण्याद्यारपि विश्लेषः स्यादित्यपास्तम् ।
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तत्सम्बन्धिनो
सम्बन्धप्रत्यक्षंप्रति सम्बन्धाश्रययावद्वयक्तिप्रत्यक्षस्य कारणत्वात् समवायस्य चैकत्वाद् युगपद्भाविभूतसकलाश्रयप्रत्यक्षासम्भवात् समवायस्याप्रत्यक्षत्वमम्युपगच्छतां वैशेषिकणां मतसाधारण्येन समवायसिद्धौ प्रमाणमाहेहेति । प्रमाणमिति । 'इह घटे घटत्वम्' इतिवुद्ध विशिष्टवुद्धित्वेन विशेषणविशेष्यसम्बन्धविषयकत्वं वाच्यं स च सम्बन्धोऽत्राधेयत्वरूपोऽनुभवसिद्धः, तत्र च संयोगादिसम्बन्धावच्छिन्नत्ववाधात् समवायसम्बन्धावच्छिन्नत्बमम्युपेयम्, तथाच विशेषणतावच्छेदकसंसर्गतया समवायसिद्धिरितिभावः । प्रत्यक्षस्य प्रमाणत्वसम्भवेऽनुमानाश्रयणमयुक्तमितिवदतां नैयायिकानां मतमुदाहरति नैयायिकमतइति । प्रत्यक्षइति । समवायप्रत्यक्षे लाघवत इन्द्रियसम्बद्ध विशेषणताया एव हेतुत्वकल्पनाद्विशेषणतासम्बन्धेन समवायः प्रत्यक्षइति तेषामाशयः । संयोगादिवत् समवायस्य नानात्वकल्पने गौरवादाह एक इति । तथाच य एब द्रव्यत्वस्यसम्बन्धः समवायस्तस्य गुणत्वादीनां सम्बन्धत्वेऽपि द्रव्यत्वगुणत्वाद्योर्न साङ्कर्य्यमाधाराधेयभावस्य नियामकत्वाद्रव्ये गुणत्वादेर्गुणादौ च द्रव्यत्वस्याधिकरणताया वाधात् । अनित्यत्वे नानात्वस्य ध्वंसप्रागभावादेश्च - कल्पनया गौरवादाह नित्य इति ||३७||
॥ * ॥ इति समवाय निरूपणविवृतिः ॥ * || ॥ तर्कामृतम् ॥
नन्वन्यान्यप्यन्धकारसुवर्णादीनि द्रव्याणि सन्ति, आलस्यादयो गुणा अपि सन्ति
1
- कथं नवैवेत्यादि । मैवम् । अन्धकारो न द्रव्यं किन्तु तेजोऽभावः । सुवर्णं तेज एव ।... आलस्यं कृत्यभावएव । एवमन्यदपि वोध्यम् ||३८||
॥ || इत्यतिरिक्तपदार्थखाण्डनम् ॥ * ॥
॥ विवृतिः ॥
भावत्वेन पदार्थ विभागस्य कृतत्वात् संक्षेपतो भावपदार्थ विचारमुपसंहर्त्तुमतिरिक्तपदार्थ खण्डनमवतारयति नत्वन्यान्यापीत्यादि । अन्धकारसुवर्णादीनीति | आदिना रजतादेरुपग्रहः । द्रव्याणीति । ' नमः खलु चलं नीलं परापरविभागवत् । प्रसिद्धद्रव्यवैधम्र्म्यान्नवम्यो भेत्तुमर्हति ॥ इत्युक्त र्गन्धाद्यमावेन पृथिव्यादिष्वनन्तर्भावान्तमसः, गन्धोष्णस्पर्श देरभावात्पीत रूपवत्त्वाच्च सुवर्णस्यातिरिक्तद्रव्यत्वसिद्धिरितिभावः । आलस्यादयइति । आदिना लघुत्वकठिनत्वादेः परिनहुः । गुणाइति ।
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सम्बन्धत्वे
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[ ६३ ] द्रव्यकर्मभिन्नत्वेसति जातिमत्त्वादितिभावः। किन्तु तेजोऽभाव इति । तमसोऽतिरिक्तत्वेऽनन्ताबयवतत्तद्ध्वंसप्रागभावादिकल्पनगौरवं स्यादितिभावः । किञ्चालोकासहकृतचक्षुर्ग्राह्यत्वेन तमसोरूपवत्तायाः कल्पयितुमयुक्तत्वातूरूपवद्रव्यचाक्षुषे आलोकस्यहेतुत्वादत एव कर्मवत्त्वादेरप्युपपादयितुमशक्यत्वादुक्तप्रनीतेर्भू मत्वात्। न च तम एव द्रवं तेजस्तु तदभाव इति कथं न स्यादिति वाच्यं तेजः साधर्म्यस्पोष्णस्पर्शवत्त्वस्य शुक्लरूपादे श्चप्नतीतेरुपपादयितुमशक्यत्वात् नचासौ प्रतीतिर्भू मात्मिकेति वाच्यं वह्नयादिना करादेहस्य प्रत्यक्षसिद्धत्वात् । किञ्चोत्तरकाले वाधज्ञानस्योत्पतस्यमानत्व एवं पूर्वप्रतीतेरप्रमान्वनियमादत्र च तादृशवाधज्ञानोत्पादस्याननुभवात् । किञ्च 'तमसाच्छन्ने तेजसा पश्यति' इत्यवाधिनप्रत्ययादभावे चाक्षुषहेनुताया वाघितत्वेन तेजस एव द्रव्यत्वं नतु तमस इति ध्येयम् । सुवर्ण तेज एवेति । सुवर्ण तै जसमसति प्रतिबन्धकेऽत्यन्तानलसंयागेऽप्यनुच्छिन्नद्रवत्वाधिकरणत्वात्, यन्नैवं तन्नैवं यथा पृथिवी, इत्याद्यनुमानेन सुवर्णस्य तैजसत्वसिद्ध रिति भावः। नच सुवर्णस्य तेजस्त्वे कथमुष्णानुपलब्धिरित वाच्यं पार्थिवस्पर्शेनोष्णस्पर्शस्याभिभवात् । कृत्यभाव इति । प्रवृत्त्यभाव इत्यर्थः। अतिरिक्तत्वे ध्वंसप्रागभावादिकल्पनगौरवापत्तेरितिभावः । कठिनत्वलघुत्वादेरपि संयोगविशेषाद्यात्मकत्वमभिप्रत्याह एवमिति ॥३८॥ || * || इत्यतिरिक्तपदार्थखाण्डनविवृतिः ॥ * ॥
॥ तर्कामृतम् ॥ अभावो द्विविधः संसर्गाभावोऽन्योन्याभावश्च । आद्यस्त्रिविधः प्रागभावोध्वंसोऽत्यन्नाभावश्च । प्रागभावो बिनाश्यजन्यः । ध्वंसो जन्योऽविनाशी च। अत्यन्ताभावान्योन्याभावो त्वजन्यावविनाशिनौ। योग्यानुपलब्ध्याऽभावः प्रत्यक्षः। अन्यत्र त्वतीन्द्रियः ॥ ३६॥
॥ विवृतिः ॥ संक्षेपतो भावपदार्थ निरूपणानन्तरमभावं निरूपयत्यभाव इति । त्रिविधइति । तथाचैतत्रितयान्यतमत्वं भेदभिन्नाभावत्वम्बासंसर्गाभावसामान्यलक्षणमिति बोध्यम् । प्रागभावं लक्षयति विनाश्यजन्य इति। विनाशित्वं नाम नाशप्रतियोगित्वम्, तावन्मात्रस्य लक्षणत्वे घटादावतिव्याप्तिरत उक्तम जन्य इति ।। ___ अत्र जन्यत्वं कार्यत्वमात्र, तदभाववानित्यर्थः। तावन्मात्र कृते गगणादावतिव्याप्तिरताह विनाशोति । ध्वंसं लक्षयति जन्य इत्यादि। घटादावतिव्यानिवारणायाविनाशोति । गगणादावतिव्याप्तिवारणाय जन्य इति । अत्यन्ताभावान्यो न्याभावयोरजन्याविनाशित्वादेकोकत्याहात्यन्ताभावेत्यादि । अत्र ध्वंसवारणायाजन्य.
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[ ६४ ) त्वप्रवेशः। प्रागभाववारणायचाविनाशित्वनिवेशः। शिवादित्यास्त्वनित्यप्रतियोगिकान्योन्याभावस्योत्यादविनाशशालित्वं मन्यन्ते। वस्तुतस्तु विनाश्यभावत्वं प्रागभावन्वं, जन्याभावत्वं ध्वंसत्वं, नित्यसंसर्गाभावत्वमत्यन्ताभावत्वं, तादात्म्यसम्बन्धा' वच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावत्वमन्योन्याभावत्वमिति लघुलक्षणं, उक्तन्तुस्वरूपकीर्तन-- मात्रम् । अभावप्रत्यक्षे कारणमाह योग्यानुपलब्ध्येति। योग्यताविशिष्टानुपलब्ध्येत्यर्थः । योग्यताच प्रतियोगिसत्त्व प्रसञ्जनप्रसञ्जितप्रतियोगिकत्वरूपाबोध्या । इत्थञ्च गुरुत्वाद्यभावस्य न प्रत्यक्षं नवातमसाच्छन्नभूतलादिनिष्ठघटाभावादेश्वाक्षुषं भूतलादे. स्तमसाच्छन्नत्वात्तत्र घटादेरतीन्द्रियत्वाच्च गुरुत्वादेरापादयितुमशक्यत्वात् किन्तु जलादौ गन्धाभावादेर्घाणजमालोकसंयोगादिविशिष्टभूतलादौ घटभावादेश्चाक्षुषं भवत्येव तत्तत्स्य तस्य तेन तेनेन्द्रियेणापादपितुं शक्यत्वात् । एवञ्च तत्तदिन्द्रियजन्यानाहार्य तत्तत्संसर्गकतत्तत्प्रकारकोपालम्माभावस्तत्तदभाव प्रत्यक्षे हेतुरितिपर्य्यवसितम् । वस्तुतस्तु कस्यचित्संसर्गाभावस्य प्रत्यक्षेऽधिकरणयोग्यत्वं कस्यचिच्च प्रत्यक्षे प्रतियोगियोग्त्वं तन्त्रं वाच्यं, तेन स्तम्भादौ पिशाचत्वात्यन्ताभावस्य परमाण्वादौ महत्त्वाभावस्य च प्रत्यक्षत्वमुपद्यते । एवं संसर्गाभावविशेषप्रत्यक्षे योग्यानुपलब्धि विशेषोहेतुर्वाच्यः। एवमन्योन्याभावप्रत्यक्षेऽधिकरणयोग्यत्वमेव तन्त्रमुपेयम् । तथाचोक्तरोत्या पृथक् पृथक् कार्यकारणभाव उहनीयः फलवलादन्यथा व्यभिचारापत्तरितिदिक् । अन्यत्र ति। प्रतियोगिनोऽतीन्द्रियत्वेऽधिकरणस्य प्रतियोग्यापादनायोग्यत्वे वेत्यर्थः। अतीन्द्रिय इति । तथाचाभावप्रत्यक्षं प्रत्यतीन्द्रियप्रतियोगिकत्वमधिकरणस्य प्रतियोग्यापादनायोग्यत्वम्बा प्रतिबन्धकमिति भावः ॥ ३ ॥
॥ ॥ इत्यभावनिरूपणविवृतिः ॥ ॥
॥ तर्कामृतम् ॥ अथ प्रमा कथ्यते। सा चतुविधा प्रत्यक्षानुमित्युपमितिशाब्दभेदात् । तत्करणानि चत्वारि प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दभेदात् । तत्र प्रत्यक्षं द्विविधं निविकल्पक सविकल्पकञ्च ॥ ४० ॥
॥विवृतिः ॥ पूर्व प्रमाऽप्रमाभेदेनानुभव वविध्यस्योक्तत्वादिदानोमवसरतः प्रमा निरूपयितुमाहाथ प्रमेति । प्रमात्वं नाम तदाश्रयम्मिकतत्प्रकारकानुभवत्वम् । यथा रजलादिधम्मिकरजतत्वादिप्रकारक इदं रजतमित्याद्यनुभवः प्रमा। तत्राश्रयपदेन सम्बन्धित्वपर्यन्तं विवक्षणीयं, तेनाश्रयाश्रितभावविरहेऽपि 'गविगोत्वम्' इत्यादि प्रमायां
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[ ६५ ] नाव्याप्तिः । येन सम्बन्धेन यत्सम्बद्धित्वं तेन सम्बन्धेन तत्प्रकारत्वं वाच्यमतः संयोगेन घटवत्कपालमित्यादौ नातिव्याप्तिः। प्रमा विभजते सा चतुविधेति । विधाचतुष्टयं कोतयति ज्ञानत्वम् । उपमितित्वं नाम सादृश्यज्ञानकरणकज्ञानत्वम् । शाब्दत्वञ्च पदज्ञानकरणकज्ञानत्वम् । अथवा प्रत्यक्षत्वादिनो चत्वारि जातिविशेषाः। प्रमाप्रसङ्गात्प्रमाणानि निरूपयितुमाह तत्करणानीति। प्रमात्वावच्छिन्नकार्यतानिरूपितकरणतावन्तीत्यर्थः। तेन ज्ञानासाधारणकारणात्मशरीरादौ नातिव्याप्तिः । चत्वारीति तेनैतिह्यादेः प्रमाणत्वनिरासः। करणत्वन्तु फलायोगव्यवच्छिन्नव्यापरवत्कारणत्वं, नतु कारणतामात्रम्, तेन सन्निकर्षादौ नातिव्याप्तिः। प्रमाणचतुष्टयं नाम्ना कीर्त्तयति प्रत्यक्षेत्यादि। तथा चेन्द्रिय-च्याप्तिज्ञान-सादृश्यज्ञान-पदज्ञानानि प्रत्यक्षादिप्रमाणशब्दवाच्यानीत्यर्थः। प्रत्यक्षं विभजते तत्र ति। प्रमाणेषु मध्ये इत्यर्थः। निविकल्पकमिति । विशिष्टबुद्धित्वावच्छिन्नं प्रति विशेषणज्ञानत्वेन कारणत्वात् घट इत्यादि विशिष्टज्ञानजनकीभूतविशेषणज्ञानसम्पत्तये निविकल्पकं स्वीकरणीयम् । अन्यथा विशेषणज्ञानस्यापि विशिष्टज्ञानात्मकत्वे तदर्थमपि विशेषणज्ञानान्तरस्यावश्यकत्वेऽनया रोत्यानवस्थाप्रसङ्ग इतिभावः। तथाच घट इत्यादिविशिष्टज्ञानोत्पादतः पूर्व प्रकारत्वविशेष्यत्वानवगाहि 'घटघटत्वे' इत्याकारकं यज्ज्ञानं जायते तदेव निम्विकल्पकमितिबोध्यम् । तच्चातीन्द्रियम् । तस्य प्रत्यक्षविषयाताया उपपादयितुमशक्यत्वादितितात्यय॑म् । सविकल्पकमिति । यथा 'अयं घटः' इत्यादिज्ञानम् । एतयोर्लक्षणञ्च स्वयमेव वक्ष्यति ।। ४ ।।
॥ तामृतम् ॥ __ प्रत्यक्षकरणानि षड़िन्द्रियाणि भ्राणरसनचक्षुस्त्वक्श्रोत्रमनांसि। एतानि सन्निकर्षसहितानि प्रत्यक्षं जनयन्ति। सन्निकर्षश्च लौकिकोऽलौकिकश्च । अलौकिकस्त्रिविधः--ज्ञानलक्षणा सामान्यलक्षणा योगजश्च । लौकिकः षड़ विधः-संयोगः, संयुक्तसमवायः, संयुक्तसमवेतसमवायः, समवायः, समवेतसमवायः, विशेषणता चेति । संयोगेन द्रव्यग्रहः। संयुक्तसमवायेन शब्दान्यगुणकर्मद्रव्यवृत्तिजातीनां प्रत्यक्षम् । संयुक्तसमवेतसमवायेन शब्दमात्रवृत्तिजातीतरगुणकर्मवृत्तिजातीनां प्रत्यक्षम् । समवायेनशब्दस्य, समवेतसमवायेन शब्दवृत्तिजातीनाम्, विशेषणतयाऽभावस्य समवायस्य च प्रत्यक्षम् ।। ४१ ॥
॥ विवृतिः॥ प्रत्यक्षप्रमाणपदार्थान् प्रदर्शयितुमाह प्रत्यक्षकरणानीत्यादि। पडिन्द्रियाणीति । घाणज-रासन-चाक्षुषत्वाचत्रौत्रमानसभेदेन प्रत्यक्षप्रमितेः षड़ विधत्वात्तत्करणान्यपि
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. [ ६६ ] षड़ित्यर्थः। एतेनैकादशेन्द्रियवादो व्युदस्तो वागादेरिन्द्रियत्वे मानाभावात् । यथावास्यादेः करणत्वेऽपि च्छेत्तृकृत्यादिसहकारिणमन्तरेण च्छिदानुपधानं तथात्रा. पोत्याशयेनाह सन्निकर्षसहितानीति । तत्साहित्यन्तु तद्भिन्नत्वे सति तज्जन्यकार्यजनकत्वरूपं बोध्यम् । सन्निकर्षश्चेति। सन्निकृष्यते-सम्बध्यतेऽनेनेति सन्निकर्षः... सम्बन्धो विशिष्टधोविशेषनियामक इति यावत् । लौकिक इति । लौकिकत्वन्तुसंयोगादिषटकान्यतमत्वम् । एवमलौकिकत्वमपि ज्ञानलक्षणादित्रितयान्यतमत्वम् । __ सूचीकटाहन्यायेनादावलौकिकसन्निकर्षविभेजतेऽलौकिकस्त्रिविधइति। ज्ञानलक्षणेति । ज्ञानमेवलक्षणं यस्य स ज्ञानलक्षणः सन्निकर्षस्सत्पदार्थविषयकं ज्ञानमित्यर्थः। यद्यपि प्रत्यासन्तिपदमध्याहृत्य ज्ञानलक्षणेत्यादिस्त्रीलिङ्गनिदेशो युज्यते तथापि विशेष्यतयाभिहितस्य सन्निकर्षपदस्य पुंलिङ्गस्य सत्त्वादध्याहाराश्रयणमयुक्तमतो. ज्ञानलक्षण इत्यादिपुंलिङ्गपाठः करणीयः। सामान्यलक्षणेति। सामान्यं समानानां भावः, लक्षणं-स्वरूपं विषयो वा यस्य स सामान्यधर्मः सामान्यविषयकज्ञानरूपो वा इत्यर्थः। योगज इति। योगेन-यमनियमाद्यष्टाङ्गकेन जनितो योऽदृष्टविशेषः स एव सन्निकर्ष इत्यर्थः। एषामुदाहरणानि स्वयमेव वक्ष्यति ।। __ लौकिकसन्निकर्ष विभजते । लौकिकः सन्निकर्षः षड्विध इति । यद्यपि घटपटादिप्रतियोगिभेदेन संयोगादेरेव बहुत्वात् षड्विधत्वोक्ति नै सङ्गच्छते तथापि संयोगत्वा. दिना तेषामैक्यान्नदोषः। विधाषट्कंदर्शयति संयोगइत्यादि । सन्निकर्षषट्कग्राह्याण्युदाहरति संयोगेनेत्यादि । चक्षुरादेर्घटादिद्रव्येण सह संयोगादुक्तं संयोगेनेति । द्रव्यग्रह इति। महत्त्वोद्भूतरूपवद्रव्यप्रत्यक्षमित्यर्थः। संयुक्तसमवायेनेति । चक्षुरादिसंयुक्त घटादौसमवायसम्बन्धेनवर्तमानत्वादित्यर्थः। शब्दान्यगुणकर्मद्रव्यवृत्तिजातीनामिति । शब्दस्य शुद्धसमवायसम्बन्धेनैवग्रहाच्छब्दान्यत्वं गुणविशेषणम् । रूपादेः सम्बन्धान्तरेणाप्रत्यक्षत्वात् न्यूनत्वं स्यादतस्तद्वारणाय शब्दान्यगुणेति। तत्रापि शब्दान्यत्वस्य घटादिसाधारण्याद् गुणपदम् । द्रव्यमात्रसमवेतस्य कर्मणः सम्बन्धान्तरेण प्रत्यक्षासम्भावादाह कम्र्मे ति । गुणत्वादिजातेः संयुक्तसमवायसम्बन्धासम्भवाद्रव्यपदम् । गगणत्वादेः समवायसम्बन्धाभावाज्जातीति । द्रव्यत्वादेः सम्बन्धान्तरेणाप्रत्यक्षत्वाद्रव्येत्यादि। नच घटादिनिष्ठगुरुत्वादेरपि प्रत्यक्षं स्यादितिवाच्यं द्रव्यसमवेतप्रत्यक्षं प्रति गुरुत्वाद्यन्यतमत्वेन प्रतिबन्धकत्वोपगमात् । नच नच चक्षुः संयुक्त तन्तौ समवेतत्वात् संयुक्तसमवायसम्बन्धन पटस्यापि प्रत्यक्ष स्यादिति द्रव्यवृत्तितयाजातिमात्रप्रवेशोऽनुपपन्न इतिवाच्यं संयोगवदप्रतियोगिकत्वे सतीत्यनेन संयुक्तसमवायस्य विशेषणीयत्वात् । संयुक्तसमवेतसमवायेनेति। चक्षुरादिसंयुक्त घटादौ समवेतं यद्पादिकं तत्र समवायसम्बन्धोन विद्यमानत्वादित्यर्थः। शब्दमागेत्यादि।
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[ ६७ ] शब्दमात्रवृत्तिशब्दत्वजातेः समवेतसमवायसम्बन्धोनैव ग्रहादाहेतरेति । गुणत्वादेरपि शब्दवृत्तिजातित्वादव्यावर्तकत्वान्मात्रपदम्। शब्दमात्रवृत्तिव्यक्तित्वादेः समवायेन ग्रहासम्भवादव्यावर्तकत्वाज्जातीति । शब्दत्वस्यगुणबृत्तिजातित्वात्तस्य च संयुक्तसमवेतसमवायसम्बन्धोन प्रत्यक्षासम्भवादितरात्तम् । गुणत्वादिजातेः सम्बन्धान्तरेणाग्रहान्न्यूनतापरिहाराय गुणपदम् । कर्मत्वादिजातेः शब्दमात्रवृत्तिजातीतरत्वेऽपिगुणावृत्तित्वात्सम्वन्धान्तरेणाग्रहाच्चरन्यूनत्वं परिहत्तुं कर्मपदम् । प्रमेयत्वादेःसमवायसम्बन्धाप्रतियोगित्वाद्वितीयजातिपदम्। संयुक्तसमवायसंसर्गकप्रत्यक्षविषयद्रव्यत्वादिजातेरपिशब्दमात्रवृत्तिजातीतरत्वादाह गुणेत्यादि । समवेतसमवायेनेति । गगणसमवेतशब्दे शब्दत्वादेःसमवायसत्त्वादितिभावः। जातित्वस्य द्रव्यत्वादिसाधारणत्वादाह शब्दवृत्तीति। प्रमेयत्वादेरपि शब्दवृत्वित्वाज्जातिपदम्। विशेषणतयेति । घटाभाववद्भूतलमित्यत्राभावस्य भूतलविशेषणत्वादिय॑ः। वस्तुतस्तु विशेषणतयेत्युपलक्षणं, तेन भूतले घटाभाव इत्यादावभावस्य विशेष्यत्वेऽपि न प्रत्यक्षत्वानुपपत्तिः। तदुक्त न्यायवात्तिककृभिः 'समवायेऽभावे च विशेष्यविशेषणभावः' इति। समवायस्य चेति चकारेण विशेषणतयेत्यस्य समुच्चयः। इन्द्रिय सम्बद्धघटादौ समवायस्य विशेषणत्वादितिभावः ॥ ४२ ॥
तर्कामृतम् ॥ । . अलौकिकः स यथा--ज्ञानलक्षणया सुरभिचन्दनमिति चाक्षुषंज्ञानम् । सामान्यलक्षणया घटत्वेन यावद्घटज्ञानम् । योगजधर्मेण योगिनां सर्वज्ञानम् ॥ ४२ ॥
॥ विवृतिः ॥ अथालौकिकसन्निकर्षानुदाहर्तुमाहालौकिक इति । स इति । सन्निकर्ष इत्यर्थः। नतु सन्निकर्षत्वमोन्द्रियप्रतियोगिकत्वमेववाच्यं, तच्च संयोगादेः सङ्गच्छते घटाद्यनुयोगिकसंयोगादिनिरूपितप्रतियोगित्वस्य चक्षुरादौ सत्त्वात्, ज्ञानलक्षणादेस्तु चक्षुरादीन्द्रियप्रतियोगिकत्वविरहात् सन्निकर्षत्वं कथमुपपद्यत इति चेत्। उच्यते। संयोगस्य सन्निकर्षत्वात्तद्घटितेन्द्रियसंयुक्तविशेष्यकज्ञानप्रकारीभूतसामान्यात्मकसामान्यलक्षणप्रत्यासत्तेः परम्परया ज्ञानलक्षणयोगजयोश्च सन्निकर्षतायाः कथञ्चिदुपपद्यमानत्वेऽपि विशिष्टधीविशेषनियामकत्वरूपस्यैवात्र सन्निकर्षत्वस्योपगमाददोषः।।
अत्रदं चिन्त्यते यद्यपि स्मरणाद्यत्मकज्ञानलक्षणस्य, घटत्वाद्यात्मकसामान्यलक्षणस्य, योगजधर्मात्मकस्य च सन्निकर्षस्येन्द्रियाजन्यत्वाद्व्यापारत्वविरहेणे न्द्रियस्यालौकिकप्रत्यक्षकरणत्वं नोपपद्यते व्यापारवत एव कारणस्य करणत्वनियमात् । न च परमार्थतः सामान्यविषयकज्ञानस्यैव सामान्यलक्षणप्रत्यासत्तित्वात्तयाणाभेव
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[ ६८ ] परम्परयेन्द्रियजन्यत्वाद्वयापारत्वं सङ्गच्छते इति वाच्यं तथा सति परामर्शादेरपि परम्परयेन्द्रियजन्यत्वात्तेनेन्द्रियस्यानुमितिकरणनापत्तेः तथापीन्द्रियजन्यस्य संयोगस्य व्यापारत्वमुपगम्य तेनैवेन्द्रियस्य करणताया उपपादनीयत्वात् ।
सुरभि चन्दनमिति । सुरभिचन्दनमितिचाक्षुषज्ञाने सौरभस्य भानार्थ ज्ञानलक्षणः सन्निकर्षोऽभ्युपेय इतिभावः। तथाहि चन्दनचाक्षुषे जायमाने चन्दननिष्ठतया सौरभस्योपस्थितावपि सौरभांशे योग्यवृत्तिवृविशिष्टचक्षुःसन्निकर्षाभावेन तदुपस्थिते. श्चाक्षुषत्वाभावाद् घ्राणजत्वं मानसत्वम्बा वक्तव्यम् । सौरभोपस्थितिरत्रज्ञानलक्षणःसन्निकर्षः। तेन च सन्निकर्षेण सहकारिणा चक्षुरिन्द्रियं सुरभि चन्दनमिति प्रत्यक्षजनयति । न च चक्षुःसंयुक्त चन्दने समवेतत्वात् संयुक्तसमवायसम्वन्धेनैव सौरभस्य ग्रहसम्भवात्तदर्थमलौकिकःसन्निकर्षोनाश्रयणीय इति वाच्यं तत्रोक्तसम्बन्धस्य तच्चाक्षुषविषयतानियामकत्वानभ्युपगमादन्यथा लौकिकसन्निकर्षजन्यत्वेन तस्य तदंशे लौकिकत्वप्रसङ्गात् सौरभं पश्यामीत्यनुव्यवसायापत्तेः। न च स्मरणनिविकल्पकसाधारणसामान्यविषयकज्ञानस्यैव वस्तुगत्यासामान्यलक्षणसन्निकर्षताया अभ्युयेतव्यत्वादत्र च सौरभत्वरूपसामान्यविषयकज्ञानात्मकसामान्यलक्षणसन्निकर्षेण सौरभस्य भानसम्भवाज्ञानलक्षणसन्निकर्षः स्वीकरणीयो न स्यादितिवाच्यं तथासति सुरभिचन्दनमितिचाक्षुषे सोरभत्वांशेधन्तिरस्यागृहीततया स्वरूपतः सौरभत्वस्यसामान्यलक्षणसन्निकर्षेण भानासम्भवात्तद्भानार्थ मेव ज्ञानलक्षणसन्निकर्षस्यावश्यं स्वीकरणीयत्वात् । चाक्षुषं ज्ञानमिति । ज्ञानत्वस्य स्मृत्यनुमित्यादिसाधारण्यान्तत्र च ज्ञानलक्षणसन्निकर्षानपेक्षणादाह चाक्षुषमिति ।
सामान्यलक्षणसन्निकर्ष मुदाहरति सामान्यलक्षणयेत्यादि । बहिरिन्द्रियेण सामान्यलक्षणया ज्ञाने जननीये सामान्यस्वरूपं बहिरिन्द्रियसम्बद्धविशेष्यकज्ञानप्रकारीभूतं, मनसा तज्जनने तु ज्ञानप्रकारीभूतमिति बोध्यम् । वस्तुतस्तु इन्द्रियसम्बन्धं विनापि तादृशसामान्यस्य सत्त्वात् सामान्यलक्षणसन्निकर्षेण यावतां तदाश्रयानां ज्ञानापत्तिस्तत्तत्पटादिरूपसामान्यनाशे तत्तत् पटवतां यावतां भानानुपपत्तिश्चातः सामान्यविषयकज्ञानस्यैव सन्निकर्षत्वमुपेयं नतु सामान्यस्येति ध्येयम् । नचैवमनयोः सन्निकर्ष योरमेद इति वाच्यं आद्यस्य यद्विषयकं ज्ञानं तस्यैव सन्निकषं त्वात्, द्वितीयस्य तु यत्प्रकारकं ज्ञानं तदाश्रयाणां सन्निकर्षत्वादिति भेदस्य स्फुटत्वात् ।।
योगजसन्निकर्षमुदाहरति:योगजधर्मेणेत्यादि। सर्वज्ञानमिति । योगजधर्मानुगृहीतेन मनसा योगिनोऽणुगगणाद्यखिलपदार्थविषयकं ज्ञानं जन्यते इति भावः । ते च योगिनो द्विविधाः। तत्र केषान्ताबदसमाहितान्तःकरणानां ध्यानेन सर्वविषयाधिगमः। अपरेषान्तूपसंदृतसमाधीनां सर्वदा सर्वविषयकप्रत्यक्षम् । तदुक्त
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[ ६६ ]
महर्षिणा कणादेन 'असमाहितान्तःकरणा उपसंहृतसमाधयस्तेषाञ्च' इति । सिद्धान्तमुक्तावलीकारैस्तु युक्तयुञ्जानसंज्ञाभ्यां ते द्विविधा योगिनो व्यपदिश्यन्ते । तदुक्तं 'योगजो द्विविधः प्रोक्तो युक्तयुञ्जानभेदतः । युक्तस्य सर्व्वदा भानं चिन्तासहकृतोऽपरः ॥ इति । अत्र केचित् योगजसन्निकर्षेणापि योगिनाम - सीन्द्रियपदार्थ विषयकं प्रत्यक्ष न जन्यते किन्त्वैन्द्रियक विषयकमेवेतिवदन्तः 'यत्राप्यतिशयो दृष्टः स स्वार्थानतिलङ्घनात् । दूरसूक्ष्मादिबुद्धौ स्यात्तद्रूपे
श्रीवृत्तिता' ॥ इत्याचार्यवचनमुदाहरन्ति ॥ ४२ ॥
॥ तर्कामृतम् ॥
तत्र निर्विकल्पकं विशेष्य प्रकारादिरहितं वस्तुस्वरूपमात्रज्ञानम् । सविकल्पकं सप्रकारकम् । भासमानवैशिष्ठ्य प्रतियोगित्वं प्रकारत्वम् । यथा 'अयं घटः ' इत्यत्र अयं विशेष्यः, घटत्वं प्रकारः, भासमानवैशिष्ठ्यं तयोः समवायः, तस्य प्रतियोगिघटत्वम् सविकल्पकमेव विशिष्टवैशिष्ठ्यज्ञानं, यथा 'अयं दण्डी' इत्यत्र दण्डत्वविशिष्टस्य वैशिष्ठ्य पुरुषे भासते । अथ प्रक्रिया - तत्रादाविन्द्रियसन्निकर्षाद् 'घटघटत्वे' इति निर्विकल्कं ततः 'अयं घटः' इतिविशिष्टज्ञानम् ॥ ४३ ॥
॥ विवृतिः ॥
प्रागुक्तं निव्विकल्पकादिकं लक्षयितुमाह तत्रत्यादि । तत्र द्विविधप्रत्यक्षमध्ये । लक्षणमाह विशेष्येत्यादि । निरूपकत्वसम्बन्धेन विशेष्यत्वादिशून्यं ज्ञानमित्यर्थः । तेन प्रकारताद्यवच्छेदकसम्वन्धेन प्रकारादिशून्यत्वस्य सविकल्पके सत्त्वेऽपि नातिव्याप्तिः । वस्तुस्वरूपेत्यादिकन्तु स्वरूपकथनमात्रम् । सविकल्पकं लक्षयति सप्रकारकमित्यादि । 'निरूपकत्वसम्बन्धेन प्रकारतादिविशिष्टं ज्ञानमित्यर्थः । निर्विकल्पका दिलक्षणघटकप्रकारत्वं निर्वक्तिभासभानेत्यादि । भासमानत्वं नाम ज्ञायमानत्वम् । वैशिष्ट्य - सम्बन्धः । विशेष्यादिकमभिनीय दर्शयितुमाह यथेत्यादि । इत्याकारकप्रत्यक्षे इत्यर्थः । तेन तथाविधशाब्दे घटत्वस्याप्रकारत्वेऽपि न क्षतिः । तस्य प्रतियोगीति । समवायसम्बन्धस्य प्रतियोगीत्यर्थः । नात्र घटत्वांशे घटत्वत्वं भासितुमर्हति अनुल्लि - ख्यमानजातेः स्वरूपतो भाननियमात् । तत्र प्रतियोगित्वादिकं स्वरूपसम्बन्धविशेषः । विशिष्टज्ञानस्येव विशिष्टवैशिष्ट्या गाहि ज्ञानस्यापि सविकल्पकत्वं निद्दिशति सविकल्पकमेवेति । एवकारेण निव्विकल्पकत्वव्यवच्छेदः । दण्डत्वविशिष्टस्येति । अत्र दण्डत्वं विनैव दण्डस्य भानं स्यादिति तु न शङ्कयं जात्यखण्डोपाध्यतिरिक्तपदार्थानां किञ्चिद्धर्म्म प्रकारेण भाननियमात् । इयांस्तु विशेषो यद्विशिष्टबुद्धि प्रति विशेषण
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[ ७० ] ज्ञानत्वेन विशिष्टवैशिष्ट्यावगाहि बुद्धि प्रति च विशेषणतावच्छेदकप्रकारकनिश्चयत्वेन कारणत्वमिति ॥४३॥
॥ तर्कामृतम् ॥ तत्र परतः प्रामाण्यग्रह इति नैयायिकाः। यथा आदौ 'घटः' इति व्यवसायः, ततः 'घटमहं जानामि' इत्यनुव्यवसायः, ततः 'प्रामाण्याप्रामाण्ये' इति कोटिद्वयस्मरणम्, अथ चतुर्थे 'इह ज्ञानं प्रमा न वा' इति प्रामाण्यसंशयः, ततो विशेषदर्शनानन्तरं प्रामाण्यग्रहः-इदं ज्ञानं प्रमा समर्थप्रवृत्तिजनकत्वात् ज्ञानान्तरवत् ।। ४४ ॥
॥विवृतिः ॥ यथार्थातुभवनिष्ठ प्रामाण्यं स्वतोग्राह्य परतो वेति विप्रतिपत्तौ सयुक्तिकं नैयायिकमतमादाववतारयति तत्रेत्यादि । तत्रेति । विशिष्टज्ञाने इत्यर्थः। तेन निर्विकल्पकस्य प्रमात्वादिविरहेऽपि न क्षतिः। परत इति। अनुमानेनेत्यर्थः । प्रामाण्येति। तद्वद्विशेष्यकत्वावच्छिन्नतत्प्रकारकत्वेत्यर्थः। तत्र प्रक्रियां प्रदर्शयति यथेत्यादि। अनुव्यवसाय इति । निर्विकल्पकभिन्नानुव्यवसायस्य सर्वानुभवसिद्धत्वादितिभावः। कोटि-द्वयस्मरणमिति । प्रामाण्यादेनियतज्ञानधर्मत्वाभावात्तदनुपस्थितौ तस्य ग्रहीतुमशक्यत्वादिन्द्रियसन्निकर्षाद्यभावेनानुभवासम्मवाच्च स्मरणात्मक. त्वानुधावनम् । इदं ज्ञानमिति । पूर्वोत्पन्न ज्ञानमित्यर्थः । तेनोक्तघटज्ञानस्येदानीमसत्त्वेऽपि न क्षतिः। प्रामाण्यसंशय इति । प्रामाण्याप्रामाण्यसहचरितज्ञानत्वादिरूपसाधारणधर्मदर्शनादिघटितसामग्रोवलेनेत्यर्थः। विशेषदर्शनेति । प्रामाण्यव्याप्यसमर्थप्रवृत्तिजनकत्ववत्तानिश्चयेत्यर्थः। अनन्तरं प्रामाण्यग्रह इति । तथाच व्यवसायोत्पत्तिषष्ठक्षणे प्रामाण्यानुमितिरितिभावः। विसम्वादिप्रवृत्तिजनकत्वस्य भूमेऽपिसत्त्वाद्वयभिचारापत्तेराह समर्थेति । तद्वद्विशेष्यकतत्प्रकारकेत्यर्थः । इदन्त्ववधातव्यं यत्र शुक्तिकायामिदं रजतमिति व्यवसायस्तत्राप्युक्तरीत्या षष्टक्षणे तज्ज्ञानेऽप्रामाण्यमनुमेयम् ।। ४४ ॥
विवृतिः ॥ स्वतः प्रामाण्यग्रह इति त्रयो मीमांसकाः। तत्र गुरुमते 'अयं घटः' इति ज्ञानं विषयमात्मनं ज्ञानप्रामाण्यञ्चगृह्णाति । मुरारिमिश्रमते 'अयं घटः' इति ज्ञानानन्तरं 'घटमहं जानामि' इत्यनुव्यवसायस्तै नैव प्रामाण्यग्रहः। भट्टमते ज्ञानस्यातीन्द्रियत्वेन ज्ञानमनुमेयं यथा तथा तद्वत्तिप्रामाण्यञ्च । तथाहि 'अयं घटः' इति ज्ञानानन्तरं घटे . ज्ञातता उत्पद्यते, तनो 'ज्ञातो मया घटः' इति ज्ञातताप्रत्यक्षं, ततो व्याप्यादिप्रत्यक्षा
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[ ७१ ] नन्तरं ज्ञानानुमानं यथा-अहं घटत्वप्रकारकज्ञानवान घटत्वप्रकारकज्ञाततावत्त्वात् । तावतैव तस्य धर्ममिविषयकत्वेन प्रामाण्यानुमानम् ॥ ४५ ॥
|| * || इति प्रत्यक्षनिरूपणम् ॥ * ॥
॥ विवृतिः ॥ अथ प्रामाण्यस्य स्वतोग्राह्यत्वं वदतां मतमुपन्यस्यति स्वत इति। अत्र स्वतस्त्वं तदप्रामाण्याग्राहकज्ञानग्राहकसामग्रीजन्यग्रहविषयत्वम् । तादृशग्रहश्च गुरुमते व्यवसायो मुरारिमिश्रमतेऽनुव्यवसायी भट्टमते च ज्ञाततालिङ्गकानुमितिरिति वक्ष्यति । तत्रेति । मीमांसकानां मध्य इत्यर्थः। गुरुमत इति । प्रभाकरमतइत्यर्थः। ज्ञानमिति । व्यवसाय इत्यर्थः। तच्च गृह्णातीत्यत्रात्वेति । विषयमिति। घटादिकमित्यर्थः । आत्मानमिति । ज्ञातारं स्वम्बेत्यर्थः। तत्र ज्ञातृग्राहकत्वं नियमतः स्वग्राहकत्वञ्च स्वप्रकाशात्मकत्वादुपपद्यत इति भावः। एवञ्चोक्तज्ञाने घटत्ववद्विशेष्यकत्वावच्छिन्नघटत्वप्रकारकत्वस्य सत्त्वात् स्वप्रकाशत्मकेन तेन तद्ग्रहः सुघट इत्याशयेनाह ज्ञानप्रामाण्यञ्चेति । नचैवं तज्ज्ञाननिष्टप्रमेयत्वादिकमपि तेनैव ज्ञानेन गृह्यतामितिवाच्यं नियमत एतत्तितयग्राहकत्वस्यैवोपगमात् । गुरुमतेऽनुव्यवसायस्य निष्प्रयोजनकत्वेनाप्रामाणिकत्वादितिभावः । केचित्तु गुरुमते 'घटत्वेन घटमहं जानामि' इत्याकारक एव व्यवसायः ननु 'अयं घटः' इत्याकारकोऽत आत्मग्राहकत्वं तस्य सुलभमित्याहुः।
तेनैवेति । प्रथमज्ञानविषयकेनानुव्यवसायेनैवेत्यर्थः। प्रामाण्यग्रह इति । न च ज्ञानगोचरज्ञानस्यानुव्यवसायस्य विषयाविषयकत्वनियमात् कथं विषयघटितप्रामाण्यविषयकत्वं सङ्गच्छत इति वाच्यं एतन्मतेऽनुव्यवसायस्य विषयविषयकत्वनियतज्ञानविषयताकप्रत्यक्षात्मकत्वोपगमात् । ___भट्टमत इति। कुमारिलभट्टमत इत्यर्थः। अतीन्द्रियत्वेनेति । ज्ञानत्वेन प्रत्यक्षप्रतिवन्धकत्वे लाघबादितिभावः। प्रामाण्यञ्चेति । अनुमेयमित्यत्रात्वेति । ज्ञान-प्रामाण्ययोरनुमानप्रकारं प्रदर्शयितु भूमिकामारचयति तथाहीति । ज्ञाततोत्पद्यत इति । ज्ञातता चातिरिक्तः पदार्थः स्वरूपसम्बन्धविशेषो वा । ज्ञातताप्रत्यक्षमिति । तथाच लिङ्गदर्शनसम्पत्तिरिति भावः। व्याप्यादिप्रत्यक्षमिति । तथाच परामर्शसम्पत्तिरितिभावः। अत्र पूर्वं ज्ञातताज्ञानयो व्याप्तेः स्मरणमपि कल्प्यम् । प्रत्यक्षात्मकपरामर्शसम्भवे स्मरणात्मकपरामर्शकल्पनमयुक्तमिति सूचयितु प्रत्यक्षपदम् । घटत्वप्रकारकज्ञाततावत्त्वादिति । अत्र स्वाश्रयविषयकज्ञानवत्त्वसम्बन्धेन हेतुत्वं ग्राह्य, तेन न स्वरूपासिद्धिरितिबोध्यम् । नत्वेतावता ज्ञानानुमितावपि कथं प्रामाण्यानुमितिः
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[ २ ] सिध्यतीति शङ्का निराकर्तुमाह तावतै वेत्यादि घटत्वप्रकारकज्ञानवानिति घटत्वप्रकारकज्ञाने घटान्यविशेष्यकत्ववाधात् तत्सहकारेण घटविशेष्यकत्वस्यापि सिद्ध . र्घटत्वप्रकारत्वावच्छिन्नघटविशेष्यकत्वसिद्धिरितिभावः। तस्येति। घटत्वप्रकारकज्ञानानुमित्यात्मकोक्तज्ञानस्येत्यर्थः। उक्तानुमितेः प्रामाण्यानुमित्यात्मकत्वे युक्तिमाह धर्मधर्मीत्यादि । तथा च धर्मप्रकारकत्वावच्छिन्नर्मिविशेष्यकत्वस्य प्रामाण्यपदार्थत्वात् 'अहं घटत्वप्रकारकझानवान्' इत्यनुमितेश्चोक्तरीत्या तथात्वात् प्रामाण्यानुमितिरपोतिभावः । अन्ये तु भट्टमते घटो घटत्ववद्विशेष्यकघटत्वप्रकारकज्ञानविषयो घटत्वप्रकारकज्ञानतावत्त्वात् इत्यनुमानप्रकारं वर्णयन्ति ।
प्रामाण्यस्य स्वतोग्राह्यत्वेऽनभ्यासदशायां घटज्ञानं प्रमा न वेत्याद्याकारकस्य सर्वानुभवसिद्धस्य संशयस्यानुपपत्तिर्गुरुमते प्राथमिकघटादिग्रहेण, मिश्रमते प्राथमिक ज्ञानानुव्यवसायेन, भट्टमते च प्राथमिकज्ञानानुमित्या, प्रामाण्यस्य निश्चितन्वात् । किञ्च ज्ञानस्य स्वप्रकाशात्मकत्वकल्पनेऽतिरिक्त ज्ञातताकल्पने च गौररं मानाभाव श्चेत्यादि दूषणं द्रष्टव्यम् ॥ ४५ ॥ ॥ * ॥ इति प्रत्यक्षनिरूपणविवृतिः ॥ * ॥
॥ तर्कामृतम् ॥ अनुमितिकरणमनुमानम् । अनुमितित्वं जातिः। व्यापारवत् कारणं करणम् । व्यापारश्च तज्जन्यत्वे सति तज्जन्यजनकः। हेतुज्ञानादि करणम्, परामर्शो व्यापारः । परामर्शश्च व्याप्तिविशिष्टपक्षधर्माताज्ञानम्, यथा 'वह्निसामानाधिकरण्यग्रहे सति 'धूमो वह्निव्याप्यः' इत्यनुभवो जायते, ततः कालान्तरे पर्वते धूमे दृष्टे सति व्याप्तिस्मरणं, ततश्च व्याप्तिविशिष्टवैशिष्ट्यज्ञानं 'वह्निव्याप्यधूमवानयम्' इति तृतीय लिङ्गपरामर्शः, पक्षतासहितेन तेन 'पर्वतो वह्णिमान्' इत्यनुमितिर्जन्यते ॥ ४६॥
॥विवृतिः । अथ प्रत्यक्षोपजीवकत्वसङ्गत्या प्रत्यक्षानन्तरमनुमानं निरूपयत्यनुमितिकरणमिति । अनुमानलक्षणस्यानुमितिघटितत्वादनुमितित्वं निर्वक्त्यनुमितित्वं जातिरिति । अनुमिनोमीत्यनुव्यवसायसिद्धिरितिभावः । करणलक्षणमाह व्यापारवदिति । करणलक्षणघटकोभूतव्यापारत्वं निरूपयति तज्जन्यत्व इति। स्वस्मिन्नतिव्याप्तिवारणाय सत्यन्तम् । परम्परया स्वजन्येऽतिव्याप्तिवारणाय विशेष्यदलम् । हेतुज्ञानादीति । विशेषज्ञानविधया कारणत्वस्य करणत्वनियामकत्वे हेतुज्ञानस्येव साध्यज्ञानादेरपि परामर्शे कारणत्वात् करणत्वापत्तिरत उक्तमादोति । तेन व्याप्तिधिय उपग्रहः । परामर्शो
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[ ७३ ] व्यापार इति । एतच्च प्रायिकत्वाभिप्रायेण । तेन स्मरणात्मकपरामर्शाद् यत्रानुमितिस्तत्र लिङ्गज्ञानाद्यसत्त्वादसाधारणकारणतया परामर्शस्यैवानुमानत्वमितिध्येयम् । परामर्श लक्षयति व्याप्तिविशिष्टपक्षधर्मताज्ञानमिति । व्याप्तिशिष्टप्रकारकारकपक्षविशेष्यकज्ञानमित्यर्थः। तेन वह्निव्याप्यधूमवानयमिति ज्ञानस्य पक्षवृत्तित्वानवगाहनेऽपि न क्षति न वा वहिव्याप्यो धूमो धूमवांश्च पर्वत इति समूहालम्बनेऽतिव्याप्तिः। ज्ञानपदं, निर्णयपरं,तेनसंशयव्यावृत्तिः । परामर्शमभिनीय दर्शयति यथेति । परामर्शोत्याहप्रक्रियां प्रदर्शयितुमाहादावित्यादि। सर्वत्र सहचारग्रहस्य न व्याप्तिग्राहकत्वं किन्तु व्यभिचारविरहसहकृतस्यैवेति सूचयितुं महानसादाविति। धूमे दृष्टे सतीति । तथाच लिङ्गदर्शनरूप प्रथमलिङ्गसम्पत्तिः। अतएव तृतीयलिङ्गपरामर्शेत्यत्र तृतीयपदमपि । व्याप्तिस्मरणमिति । पूर्वानुभूतव्याप्तिस्मरणमित्यर्थः। एतच्चद्वितीयलिङ्गमितिबोध्यम् ।
इदन्त्ववधातव्यम्-न सर्वत्र पक्षविशेष्यकपरामर्शादनुमितिः ; प्राचां मतेऽत्र वह्निव्याप्यधूम इत्याकारकपक्षविशेषणकपरामर्शादप्यनुमितेरम्युपगमादतः साध्यव्याप्यविषयतानिरूपितपक्षविषयताशालिनिश्चयत्वमेव परामर्शत्वं वाच्यम्। येतु विशिष्टवैशिष्ट्यावगाहिपरामर्शस्य नातुमितिकरणत्वं किन्तु हेतुमान् पक्ष इति प्रत्यक्षेण साध्यव्याप्यो हेतुरिति स्मरणेन च द्वाभ्यामेवानुमितिरिति वदन्ति तेषां शाब्दात्मकस्य स्मरणात्मकस्य वा विशिष्टवैशिष्ठ्यावगाहिपरामर्शस्य सत्त्वेऽनुमित्युत्यादानुपपत्तेरनुभवापलापापत्तिः कार्यकारणभाववाहुल्याद्गौरवञ्चेति । सिद्धयात्मकपरामर्शसत्त्वेऽ. प्यनुमित्युत्पत्तेराह पक्षतासहितेनेति । तेन संशयोत्तरप्रत्यक्षे नातिव्याप्तिः ।। ४६ ॥
॥ तर्कामृतम् ॥
व्याप्तिश्च हेतुसमानाधिकरणात्यन्ताभावाप्रतियोगिसाध्यसामानाधिकरण्यम् । न चायं संयोगवान्द्रव्यत्वादित्यत्राव्याप्तिः, प्रतियोगिव्यधिकरणहेतुसमानाधिकरणात्यन्ताभावाप्रतियोगिसाध्यसामानाधिकरण्यमित्यर्थात् । पक्षता च सिषाधयिषाविरहकृतसिद्धयमावः ॥ ४७ ॥
॥ विवृतिः ॥ परामर्शघटकीभूतव्याप्तिस्वरूपं निरूपयतिहेतुसमानाधिकरणेत्यादि। समानमधिकरणं ययोरिति व्युत्पत्त्या साधिकरणनिरूपितवृत्तित्वं समानाधिकरणत्वम् । तथाच हेतोरधिकरणे वृत्तिर्योऽत्यन्ताभावस्तस्य यः प्रतियोगी तद्भिन्नं यत् साध्यं तदधिकरणनिरूपितवृत्तित्वं हेतोर्व्याप्तिरित्यर्थः। भवति च वह्निमान् धूमादित्यत्र धूमी हेतुः, वह्निः साध्यः, ततश्च घूमस्याधिकरणे पर्वतादौ वह्निर्नास्तीत्यन्ताभावस्या.
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[ ७४ ] वत्तेमानत्वाद् घटोनास्तीत्याद्यमावस्यविद्यमानत्वद् घटाद्यत्यन्ताभावोहेतुसमानाधिकरणात्यन्ताभावस्तस्य प्रतियोगी घटादिस्तद्भिन्नो वहि नः साध्यस्तदधिकरणीभूतं यत् पर्वतादि तन्निरूपितवृत्तित्वं धूमस्यास्तीति धूमहेतौ लक्षणसमन्वयः। घूमवान् वह्न रित्यत्र व्यभिचारिणि चायोगोलकस्याषि वह्यधिकरणत्वात्तत्र च धूमो नास्तीत्यभावस्वस्य सत्त्वाद्ध'तुसमानाधिकरणोऽत्यन्ताभावो धूमाभाव एवेतितत्प्रतियोगिभिन्नत्वस्य धूमेऽसत्त्वाद्वह्निरूपहेतौ न लक्षणसमन्वयः। अव्याप्तिरिति नचेत्यत्रान्वेति । संयोगस्याव्याप्यवृत्तित्वाद्रव्यत्वरूपहेतोरधिकरणे घटादौ संयोगाभावस्य सत्त्वात् साध्याभाव एव हेतुसमानाधिकरणाभाव इति तत्प्रतियोगिभिन्नत्वस्य साध्येऽ. सत्त्वाल्लक्षणागमनमिति । इमामव्याप्ति वारयितुं हेतुसमानाधिकरणाभावे प्रतियोगिव्यधिकरणत्वं निवेशयति प्रितियोगिव्यधिकरणेति । तदर्थश्च प्रतियोग्यनंधिकरणीभूतं यद्धत्वधिकरणं तद्वत्तित्वम् । तथा च संयोगाभावस्य यः प्रतियोगी संयोगो हेत्वधिकरणस्यघटादेस्तदनधिकरणत्वसत्त्वात् प्रतियोगिव्यधिकरणहेतुसमानाधिकरणाभावो न संयोगाभावः किन्तु पटाद्यभाव एवेतितत्प्रतियोगि यत्पटादिकं तद्भिन्नत्वस्य साध्ये सत्त्वादयं संयोगवान् द्रव्यत्वादित्यत्र नाव्याप्तिः। अत्र च कालो घटवान् महाकालत्वादित्यदौ प्रतियोगिव्यधिकरणाभावाप्रसिद्धयाऽव्याप्तेरिणप्रकारः सिद्धा. न्तलक्षणदीधितौ बुद्धिकुशलै द्रष्टव्यः।।
पक्षतासहितेनेत्युक्त, तत्र का नाम पक्षतेत्याकाङ्घायामाद पक्षताचेति । वह्निव्याप्यधूमवान् पर्वतो वह्निव्याप्यधूमवान् पर्वतो वहि नमांश्चेति सिद्धात्मकपरामर्शसत्त्वे सिषाधयिषादशायां पर्वतो वहि नमानित्यनुमितेरुत्पादाय सहकृतान्तं सिद्धिविशेषणम् । सिषाधयिषा च साधयितुमिच्छा। सा च पर्वतो वहि नमानित्यत्र पर्वते वह्न यानुमितिर्जायतां, वह्यनुमितिर्जायतां, अशाब्दज्ञानं जायतामित्यादि नानाविधा ग्राह्या। एवमन्यत्रापि। सिषाधयिषासत्त्वेऽनुमित्युत्पादात् सिषाधयिषाविरहमात्र न पक्षतेत्यत आह सिद्ध्यभाष इति । सिद्धिश्च पक्षसाध्यवैशिष्ट्यनिश्चयो नतु साध्य-- वत्त्वप्रप्रकारकनिश्चयमात्रम् । तेनासत्यां सिषाधयिषायां साध्यविशेष्यकसिद्धिसत्त्वेऽनुमित्यनुत्पादः। सिषाधयिषां विनापि धनजितेन मेघानुमानात् सिषाधयिषामात्र न पक्षतेत्यत उक्त विरहेत्यादि। एबञ्च समवायसम्बन्धावाच्छिन्नप्रतियोगिताको यः सिषाधयिषाभावः स्वरूपसमवायैतदुमयसम्बन्धघटितसामानाधिकरण्यसम्बन्धेन तद्विशिष्टा या सिद्धिः समवायसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकस्तस्या अभावः पक्षतेति फलितम्। एवञ्च सिद्ध रसत्त्वे सिषाधयिषायां सत्यामसत्याञ्च पक्षता, सिद्धिसत्त्वेतु सिषाधयिषायां सत्यामेव पक्षता. असत्यां सिषाधयिषायां केवलसिद्धिसत्त्वे च न पक्षता सिषाधयिषाविरहविशिष्टसिद्धरनुमितिप्रतिबन्धकत्वादिति संक्षेपः ॥ ४७ ॥
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७५ ]
॥ तर्कामृतम् ॥
अनुमानं द्विविधं स्वाथं परार्थञ्च । तत्र परार्थं पञ्चावयवसाध्यम् । अवयवाश्च प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयनिगमनानि । 'यथा 'अयं वहि नमान्' 'घूमात्' 'यो यो' 'धूमवान् स हि नमान् यथा महानसम्' 'वहि नव्याप्यधूमवानयम्' 'तस्माद्वहि नमान्' इति । स्वार्थं च स्वीयव्याप्त्यादिज्ञानसाध्यं, न तत्र परप्रतिपन्न्यर्थ मेवमाहशब्दप्रयोगम् ॥ ४८ ॥
॥ विवृतिः ॥
अनुमानं निरूप्य तद्विभजतेऽनुमानं द्विविधमिति । स्वार्थमिति । स्वकीयानुमितिजनकमित्यर्थः । परार्थमिति । परकीयानुमितिजनकमित्यर्थः । परप्रतिपादनस्य शब्दप्रयोगसाध्यत्वात्प्रतिज्ञा दिपञ्चवाक्यप्रयोगस्यावश्यकतया प्रयुक्तः पञ्चभिस्तै रेकवाक्यतापन्नैः स्वार्थविषयकः शब्दबोधो जन्यते, ततश्च तेन सहकारिणा मनसा मध्यस्थस्य चरमपरामर्श उत्पाद्यत इति परार्थानुमानक्रममभिप्रेत्याह पञ्चावयवसाध्य मिति । पञ्चपदं दशावयववादादिव्युदासार्थ जिज्ञासादेरवयवत्वे मानाभावादित्यर्थः । अवयवत्वञ्च न्यायान्तर्गतत्वे सति प्रतिज्ञाद्यन्यतमत्वादिरूपम् । अवयवान् विमजते प्रतिज्ञेत्यादि । तत्र केवल साध्यवत्पक्षबोधकवाक्यत्वं प्रतिज्ञात्वम् । पञ्चम्यन्तलिङ्गप्रतिपादकवचनत्वं हेतुत्वम् । प्रकृतसाध्यसाधनव्याप्तिप्रतिपादकवाक्यत्वप्रकृतपक्षधर्मकप्रकृतसाध्यव्याप्तिविशिष्टप्रकृत हेतुमत्त्वप्रकारक बोध
I
मुदाहरणत्वम् ।
क्रमशः
जनकवाक्यत्वमुपनयत्वम् । प्रकृतसाध्यव्याप्यप्रकृतसाधनज्ञानज्ञाप्यप्रकृतसाध्य वत्प्रकृतपक्षबोधकवाक्यत्वं निगमनत्वम् । सर्व्वत्र न्यायान्तर्गतत्वनिवेशान्नोदासीन वाक्येष्वतिव्याप्तिः । दिङ मात्रमिदमुक्तं विस्तरस्तु तत्त्वचिन्तामण्यादावनुसन्धेयः । पञ्चवाक्यान्यभिनीय दर्शयति यथेत्यादि । स्वयं स्वार्थादिपदार्थस्यानुक्तत्वादाह स्वार्थञ्चेत्यादि । व्याप्त्यादीत्यादिना साधनादेः परिग्रहः । स्वार्थानुमाने वाक्यपञ्चकप्रयोगस्य निष्प्रयोजनकत्वादाह न तत्रत्यादि । तत्र – स्वार्थानुमाने । परप्रतिपत्त्यर्थं मध्यस्थस्य परामर्शोत्पादार्थम् । एवं उक्तप्रकारम् । शब्दप्रयोगं - पञ्चवाक्यप्रयोगं, न आह इति योजना | स्वार्थानुमाने प्रतिपित्सोर्मध्यस्थस्य चाभावादितिभावः ॥ ४८ ॥
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॥ तर्कामृतम् ॥
तच्चानुमानं त्रिविधं केवलान्वयिकेवलव्यतिरेक्यन्वयव्यतिरेकिभेदात् । यत्र साध्यव्यतिरेको न कुत्राप्यस्ति स केवलान्वयी, यथा 'घटोऽभिधेयः प्रमेयत्वात्' इत्यत्राभिधेयत्वस्य साध्यस्य व्यतिरेको न कुत्राप्यस्ति । यत्र साध्यप्रसिद्धिः पक्षातिरिक्ते
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[ ७६ ]
नास्ति स केवलव्यतिरेकी, यथा 'पृथिवी इतरेम्यो भिद्यते पृथिवीत्वात्' । यत्रेतरभेदाभावस्तत्र पृथिवीत्वाभावो यथा जलादौ । व्यतिरेकव्याप्तौ तु साध्याभावो व्याप्यो हेत्वभावो व्यापकः । यत्र साध्यं साध्याभावश्चान्यत्रप्रसिद्धः सोऽन्वयव्यतिरेकी, पर्वत हि नमान् धूमात् । इति । अन्वयव्यतिरेकिताववश्यं पञ्चरूपोपपन्नतापेक्षणीया । पक्षवृत्तित्वं, सपक्षसत्त्वं विपक्षव्यावृत्तत्वं, अवाधितत्वं, असत्प्रतिपक्षितत्वञ्चेति पञ्चरूपाणि । केवलान्वयिति विपक्षव्यावृत्तत्वरहितं, केवलव्यतिरेकिणि सपक्षसत्त्वरहितं चतुरूपमेवापेक्षितम् । यत्र साध्यसन्देहः स पक्षः । यत्र साध्यनिश्चयः स सपक्षः । यत्र साध्याभावनिश्चयः स विपक्षः । साध्याभाववान्पक्षो वाधः । साध्यविरोधिसाधकी हेतुः सत्प्रतिपक्षः ॥ ४६ ॥
॥ विवृतिः ॥
पुर्नावभजते तच्चानुमानमिति । स्वार्थपरार्थयोः प्रत्येकमित्यर्थः । विधात्रयं दर्शयति केवलात्वयीत्यादि । केवलान्वयिपदार्थं निर्वक्ति यत्र त्यादि । यच्छब्दो हेतुपरः, सप्तम्यर्थोनिरूपितत्वं तस्य च साध्येऽन्वयः, साध्यस्येति लुप्तषष्ठ्या निष्टत्वमुपस्थाप्यते, व्यतिरेक इति प्रथमार्थः प्रतियोगित्वं, तस्य च ननर्थेऽभावेऽन्वयः, कुत्रेति सप्तम्यर्थो वृत्तित्वं तस्य च व्यतिरेकेऽन्वयः । तथा च किञ्चिद्व, त्तिव्यतिरेक प्रतियोगित्वाभावो यद्धे तु निरूपित साध्यवृत्तिः स हेतुः केवलान्वयीति फलितार्थः । तेन न सिद्ध ्यसिद्धिभ्यां व्याघातः । एतच्च ज्ञायमानलिङ्गस्यानुमितिकरणत्वमतेन । अतएव 'अन्वयव्यतिरेकिणि 'हेतौ' इत्यत्रहेतुपदमपि । स्वमते लिङ्गज्ञानादेरनुमितिकरणत्वादर्थान्तराण्यूहनीयानि । एवमग्रे ऽपि । अत्र व्यतिरेकशब्दोऽत्यन्ताभाववचनः, तेनघटत्वाद्यनुयोगिकभेदप्रतियोगित्वस्याभिधेयत्वेऽपि नाव्याप्तिः । व्यतिरेके यत्किञ्चिद्वत्तित्वनिवेशान्न'गगणाभावसाध्यव्याप्तिः । प्रमेयत्वहेतोः केवलान्वयित्वमुपपादयति अभिधेयत्वस्पे-त्यादि । अभिधेयत्वन्तु शब्दशक्यत्वम् ।
केवलव्यतिरेकिणं निर्वक्ति यत्र साध्यप्रसिद्धिरित्यादि । यद्वे तु निरूपितसाध्यव`वप्रकारकनिश्चयः पक्षातिरिक्तविशेष्यकः सन् यथार्थो न भवति स हेतुः केवलव्यति - रेकीत्यर्थः । केवलव्यतिरेकिण्यसम्भववारणाय पक्षातिरिक्त इति । केवलव्यतिरेकि - णमभिनीय दर्शयति यथा पृथिवीत्यादि । पक्षान्तर्भावेण सहचारग्रहस्य व्याप्त्यग्राहकत्वादत्रान्वयव्याप्तिनिश्चायकान्वयसहचारग्रहासम्भाद्वयतिरेकव्याप्तिग्राहकं विपक्षान्तर्भावेण व्यतिरेकसहचारग्रहमुपपादयति यत्र तरभेदाभाव इत्यादि । व्यतिरेकव्याप्तिः स्वरूपमुपपिपादयिष् राह व्यतिरेकव्याप्ताविति । साध्याभावो व्याप्य इति । तथाच - साध्याभावव्यापकीभूताभावप्रतियोगित्वं व्यतिरेकव्याप्तिरित्यर्थः ।
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[ ७७ ] अन्वयथतिरेकिणं निरूपयति यत्र साध्यमित्यादि। केवलव्यतिरेकिण्यति व्याप्तिवारणाय साध्यमिति। केवलान्वयिन्यतिव्याप्तिवारणाय साध्याभाव इति । उभयत्रातिव्याप्तिवारणार्थमन्यत्र ति। पक्षातिरिक्त इति तदर्थः। प्रसिद्ध इति । प्रसिद्धत्वं यथार्थधीविषयत्वम् । तथा च पक्षान्यविशेष्यकयथार्थनिश्चयप्रकारीभूताभावप्रतियोगिसाध्यनिरूपितहेतुत्वमन्वयव्यतिरेकिहेतुत्वमित्यर्थः। अन्वयव्यतिरेकिणमभिनीय दर्शयति यथा पर्वत इत्यादि। प्राचां मते पञ्चरूपविशिष्टहेतोर्यद्गमकत्वं तदन्वयव्यतिरेकिहेतोरेवान्ययोः पञ्चरूपविरहादित्याशयेनाहान्वयव्यतिरेकिणोत्यादि । पञ्चरूपाणि दर्शयतिपक्षवृत्तित्वमित्यादि । विपक्षव्यावृत्तत्वं—विपक्षावृत्तित्वम् । केवलान्वयिनि पञ्चरूपासत्त्वमादर्शयति केवलान्वयिनीत्यादि। विपक्षव्यावृत्तत्वरहितमिति । विपक्षत्वघटकसाध्याभावस्यैवासिद्ध रितिभावः। केवलव्यतिरेकिणि पञ्चरूपासत्त्वं प्रदर्शयति केवलव्यतिरेकिणीति । सपक्षसत्त्वरहितमिति। तत्रत्यपृथिवीत्वरूपहेतोः पक्षमात्रवृत्तित्वादिति ।
पक्षवृत्तित्वमित्यत्र किं पक्षत्वमित्याकाङ क्षायामाह यत्र साध्यसन्देह इति । साध्यसंशयविशेष्यताश्रयः पक्षपदार्थ हत्यर्थः। वस्तुतस्तु निणीते मननविधातात् साध्यसन्देहं विनापि धनजितादिना मेघाद्यनुमानाच्च तादृशेन पक्षपदार्थः किन्तु स्वप्रतियोगिविशेष्यत्वसम्बन्धेन प्रोक्तपक्षताश्रयत्वमेव पक्षपदप्रवृत्तिनिमित्तं बोध्यम् । सपक्षत्वं निर्वक्ति यत्र साध्यनिश्चय इति। साध्यतावच्छेदकसम्बन्धावच्छिन्नसाध्यप्रकारकयथार्थ निर्णयविशेष्यत्वं सपक्षत्वमित्यर्थः। तेन कालिकादिसंसर्गको यः साध्यनिश्चयो यो वा साध्यतावच्छेदकसम्बन्धेन भूमात्मकः साध्यनिश्चयस्तन्नद्विशेष्योभूतह्रदादिनिरूपितवृत्तित्वविरहान्न धूमादिरूपान्ववयव्यतिरेकिणः सपक्षसत्त्वहानिः । विपक्षत्वं निरूपयति यत्र साध्याभावनिश्चय इति । साध्यतावच्छेदकसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकसाध्याभावप्रकारकयथार्थ निश्चयविशेष्यत्वं विपक्षत्वमित्यर्थः। तेन समवायसम्बन्धावच्छिन्नवह न्यभावप्रकारको यो निश्चयो यो वा संयोगावच्छिन्नद्रव्यभावप्रकारको भूमात्मको निश्चयस्तत्तद्विशेष्यीभूतमहानसादिवृत्तित्वाद् धूमाद्यन्वयव्यतिरेकिणो न विपक्षव्यावृत्तत्वहानिः। अत्र साध्याभाववत्त्वं साध्यतावच्छेदकसम्बन्धेन साध्यवत्त्वबुद्ध विषयतयाप्रतिबन्धकतावच्छेदकसम्बन्धेन ग्राह्यम् । तेन संयोगावच्छिन्नवह्यभावस्य कालिकादिना महानसादौ सत्त्वेऽपि नोक्तदोषतादवस्थ्यम् । अवाधितत्वघटकवाधं निरूपयति साध्याभाववान् पक्ष इति । साध्यवदन्यत्ववत्पक्षादिरपि बोध्यः । असत्प्रतिपक्षितत्वघटकीभूतं सत्प्रति पक्षं निरूपयति साध्यविरोधीत्यादि। साध्यविरोधित्वेसति साध्यविरोध्युन्नायक इत्यर्थः। तथाच साध्याभावव्याप्यबान् साध्यवदन्यत्वव्याप्यवान् वा पक्षादिः सत्प्रतिपक्ष इतिभावः॥ ४६॥
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[ ७८ ] ॥ तर्कामृतम् ॥
सोपाधौ पक्षसत्त्वाद्यन्यतमभङ्ग आवश्यकः । सोपाधिश्च स्वव्यभिचारितासम्बन्ध्धेनोपाधिविशिष्टः । उपाधिश्च त्रिविधः साधनाव्यापकत्वे सति शुद्धसाध्यव्यापकः, साधनाव्यापकत्वे सति पक्षधर्मावच्छिन्नसाध्यव्यापकः, साधनाव्यापकत्वे सति साधनावच्छिन्नसाध्यव्यापकश्च । आद्यो यथा - ' अयोगोलकं धूमवद्वहनेः' इत्यत्रार्द्रेन्धनप्रभववहि नमत्त्वमुपाधिः साधनाव्यापत्वे सति शुद्धसाध्यव्यापकः । द्वितीयो यथा- 'वायुः प्रत्यक्षः प्रत्यक्षस्पर्शांश्रयत्वात्' इत्यत्र वहिर्द्रव्यत्वावच्छिन्नप्रत्यक्षत्वस्य साध्यस्य व्यापकमुद्भूतरूपवत्त्वमुपाधिः । तृतीयो यथा - ' ध्वंसो विनाशी जन्यत्वात्' इत्यत्र जन्यत्वावच्छिन्नविनाशित्वव्यापकं भावत्वमुपाधिः ॥ ५० ॥
॥ विवृतिः ॥
'हेतोर्ग मकतौपयिकानि पञ्चरूपाणि नान्वयव्यतिरेकि हेतुत्वावच्छेदेन वर्तन्ते किन्तु निरुपाधिकान्वयव्यतिरेकिहेतावेवेत्याशयेनाह सोपाधाविति । उपाधिविशिष्ट इत्यर्थः । उप - समीपस्थे ( हेतौ ) स्वधर्ममादधातोत्युपाधिरितिव्युत्पत्त्या व्यभिचारोन्नायकत्व - मुपाधेर्द्रष्टव्यम् । साध्यसाधनभेदेनोपाधेभिन्नत्वादुपाधित्वस्य द्रव्याद्यनुगताश्रयकत्वासम्भवेन संयोगादेन्नियतसम्बन्धत्वानुपपत्त्यानुगतवैशिष्ट्यघटकसम्बन्धमाह 'स्वत्र्यभिचारितेति । स्वम् – उपाधिः । त्रिविध इति । तत्र साध्यव्यापकत्वे सति साधनाव्यापकत्वस्योपाधिसामान्यलक्षणत्वं विभागादेव व्यक्तम् | अतः सामान्यलक्षणमनभिधाय विभागोऽसङ्गत इति निरस्तम् । साधनाव्यापकत्वे सतीति । अव्यापकत्वस्य व्यापकत्वघटकत्वादादावव्यापकत्वाभिधानम् । शब्दोऽनित्यः कार्यत्वादित्यादौ सावयवत्वादावतिव्याप्तिवारणाय विशेष्यदलम् । एवं तत्रैव प्रमेयत्वादावतिप्रसङ्गवारणाय सत्यन्तम् । शुद्धसाध्यव्यापक इति । पक्षधर्माद्यनवच्छिन्नसाध्यव्यापक इत्यर्थः । अत्र साध्यव्यापकत्वं येन रूपेण येन सम्बन्धेन च ग्राह्यं तेनैव रूपेण सम्बन्धेन च साधनाव्यापकत्वमपि बोध्यम् । अन्यथा वहि नमान् धूमादित्यादौ वहि नत्वेन साध्यव्यापके तत्तद्बहि नत्वेन च साधनाव्यापके तत्तद्वह नौ, संयोगेन साध्यव्यापके समवायेन च साधनाव्यापके आलोकादौ चातिव्याप्तिः प्रसज्येत । पक्षधर्मावच्छिन्नेति । अत्रावच्छिन्नत्वं सामानाधिकरण्यसम्बन्धेन ग्राह्यम् । एवं साधनावच्छिन्नत्वमपि तृतीये । विधात्रयं क्रमेणाभिनीय दर्शयत्याद्यो यथेत्यादि । वहि्नमत्त्वमात्रस्य साधनाव्यापकत्वविरहादुक्तमार्द्रेन्धनप्रभवेति । प्रत्यक्षस्पर्शाश्रयत्वादिति । अनुद्भूतस्पर्शाश्रयत्वगिन्द्रियान्तर्भावेण व्यभिचारवारणाय प्रत्यक्षेति । बहिर्द्रव्यत्वावच्छिन्नस्येति । 1
अत्र बहिर्द्रव्यत्वं पक्षधर्मः, तच्च न बहि
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[ ७e ] रिन्द्रियजन्यप्रत्यक्षविषयद्रव्यत्वरूपं तस्य पक्षधर्मत्वानुपपत्तेः किन्तु गगणाद्यन्यद्रव्यत्वम्, द्रव्यत्वावच्छिन्नप्रत्यक्षत्वस्यात्मादावपि सत्त्वादुपाघेः साध्याव्यापकतापत्तेराह वहि नरिति । अत्र केवलसाध्यव्यापकत्वं न सम्भवति प्रत्यक्षविषयत्वस्य रूपाभाववत्या. स्मादौ सत्त्वादिति भावः । उद्भूतरूपवत्त्वमिति । न च तथाविधसाध्यव्यापकत्वस्य रूपत्वावच्छिन्नेऽपिसत्त्वादुद्भूतपदं व्यर्थमिति वाच्यं प्रत्यक्षत्वेनोद्भूतरूपवत्त्वेन कार्यकारणभावलक्षणानुकूलतर्कप्रदर्शनार्थत्वेन तत्सार्थक्यात् । जन्यत्वादिति। अत्र जन्यत्वं ध्वंसप्रतियोगित्वं तेन तस्य पक्षधर्मत्वाभावात् नोपाधिशैविध्यहानिः। भावत्वमुपाधिरिति। अत्र केवलसाध्यव्यापकत्वं न सम्भवति विनाशित्वस्य भावत्वाभाववति प्रागभावे सत्त्वादिति भावः । केचित्तु ध्वंसो विनाशी प्रमेयत्वादिन्यत्रोक्तत्रिविधोपाधेरसम्भवाच्चतुर्थमुदासीनधर्मावच्छिन्नसाध्यव्यापकं जन्यत्वावच्छिनानित्यत्वव्यापकं भावत्वमुपाधिरिति वदन्ति । वस्तुतस्तु यद्धावच्छिन्नसाध्यव्यापकत्वे सति तद्धर्मावच्छिन्नसाधनाव्यापकत्वमुपाधित्वमित्युक्तौ न कश्चिद्दोष उक्तस्थलेषु बहिर्द्रव्यत्वादेर्यद्धर्मत्वेनोपादातुं शक्यत्वात् । उपाधेषकत्वत्त स्वव्यभिचारेणहेतोः साध्यव्यभिचारोन्नायकतया बोध्यम् । तदुक्क 'व्यभिचारोन्नयं कुर्खन्नुपाधियति दोषताम् । एतद् वहि नसर्वेषामुपाधीनां परायणम्' इति । यद्यप्ययं संयोगसंयोगसामान्याभाववान् संयोगयावद्विशेषाभाववत्त्वादित्यादौ निर्गुणत्वादिरूपोपाधेस्तावन्मात्रेण दूषकत्वं नोपपद्यते संयोगात्मकसाध्याभाववढ त्तित्वस्य हेताविष्टत्वात् तथापि तत्र स्वव्याप्यत्वेन हेतुना साध्यस्य पक्षावृत्तित्वोन्नायकतयोपाधेईषकत्वं बोध्यं संयोगसामान्याभावे इदन्त्वावच्छिन्नावृत्तिज्ञाने सति इदन्त्वावच्छिन्नोद्देश्यकसंयोगसामान्याभावविधेयकानुमितेः प्रतिरोधादसमानप्रकारकज्ञानयोरपि प्रतिबध्यप्रतिबन्धकभावस्य सिद्धत्वात् ॥५०॥
॥ तर्कामृतम् ॥ अथ हेत्वाभासाः कथ्यन्ते। सव्याभिचारविरुद्धसत्प्रतिपक्षासिद्धवाधिताः पञ्चहेत्वाभासाः। सव्यभिचारस्त्रिविधः साधारणासाधारणानुपसंहारिमेदात् । साध्याभाववर त्तित्वं साधारणत्वं, यथा धूमवानवह नेः। सकलसपक्षव्यावृत्तत्वमसाधारणत्वम्, यथा पर्वतो वहि नमान् पर्वतत्वात्। सर्वपक्षकत्वमनुपसंहारित्वं, यथा सर्वप्रमेयमभिधे यत्वात्। साध्याभावव्याप्तोहेतुविरुद्धः, यथा घटो नित्यः सावयवत्वात् । सत्प्रतिपक्षो यथा पर्वतो वहि नमान् धूमात्, पर्वतो वह नयभाववान्महानसान्यत्वात् । असिद्धस्त्रिविधः-आश्रयासिद्धः स्वरूपासिद्धो व्याप्यत्वासिद्धश्च । यत्र पक्षोऽसन्सिद्धसाधनं वा स आश्रयासिद्धः, यथा शशविषाणं नित्यमजन्यत्वात, शरीरं हस्तादिमत्
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[ ८० ]
हस्तादिमत्तयाप्रतीयमानत्वात् । यत्र पक्षावृत्तिर्हेतु: स स्वरूपासिद्ध:, यथा पर्वतो वहि नमान् महानसत्वात् । स च विशेषणासिद्धविशेष्या सिद्धभागासिद्धभेदाद्बहुविधः, आद्यो यथा शब्दोऽनित्यश्चाक्षुषत्वे सति जन्यत्वात् । द्वितीयो यथा शब्दोऽनित्यो गुणत्वेसति परमाणुवृत्तित्वात् । तृतीयो यथा एतानि द्रव्याणि निरवयवत्वात् । सोपाधिर्व्याप्यत्वासिद्धः, यथा घूमवान्वह, नेः । वाधो यथा ह्रदो वहि, नमान् द्रव्यत्वात् । तेन.' एतद्दोषत्रयरहितो हेतुः सद्ध ेतुः ॥ ५१ ॥
|| * ॥ इत्यतुमानं व्याख्यातम् ॥ * ॥
॥ विवृतिः ॥
सद्धेतु ं निरूप्य विरोधादिसम्बन्धेन स्मृतमसद्धे तु निरूपयितुं प्रतिजानीतेऽथेति । व्याप्तिपक्षधर्म्मता विशिष्टहेतु निरूपणानन्तरमित्यर्थः । हेत्वाभासा इति । हेतुवदाभासन्त इति व्युत्पत्र्या दुष्टहेतव इत्यर्थः । विभजते सव्यभिचारेत्यादि । पञ्चेति । यद्यपि विरुद्धादिहेतोर्व्यभिचारित्वादिनियमा दुहुष्टानां पञ्चत्वानुपपन्न्या पञ्चधा विभागोऽनुपपन्नस्तथापि दोषाणां सव्यभिचारत्वादितत्तद्धर्मेण पञ्चविधत्वादुष्टानां पचविधत्वाभिधानमिति ध्येयम् । दोषसामान्यलक्षणन्तु यादृशविशिष्टविषयकत्वेन ज्ञानस्यानुमितिप्रतिबन्धकत्वं तत्त्वमित्यादिकमप्यादावनुसन्धेयम् । दुष्टत्वञ्च सम्बन्धविशेषेण दोषवन्त्वम्, तेन हृदो वह निमान् धूमाद्वित्यादौ वह नयभाववद्ह्रदाद्यात्मकदोषवत्त्वस्य धूमादावसत्त्वेऽपि न क्षतिरितिसंक्षेपः । तत्राद्यं विभजते सव्यभि - चारस्त्रिविध इति । सथभिचारत्वन्तु विशिष्टसाध्यसाधनग्रह विरोधितानवच्छेदकत्वे सति विषयविधया व्याप्तिग्रहविरोधितावच्छेदकत्वम् ।
सव्यभिचारेषु साधारणं लक्षयति साध्याभाववद्व त्तित्वमिति । साध्यतावच्छेदकधर्मसम्बन्धाबच्छिन्नप्रतियोगिताकभाववन्निरूपित हेतुतावच्छेदकसम्बन्धावच्छिन्नवृत्तित्वमित्यर्थः । तेन वह्निमान् धूमादित्यादौ तत्तद्रव्यभाववति समवायसम्बन्धावच्छिन्नद्रव्यभाववति च संयोगेन संयोगावच्छिन्नवह नयभाववति वा कालिकेन धूमादेवृत्तित्वेऽपि नातिव्याप्तिः । एतस्य च साध्याभाववदवृत्तित्वरूपान्वयव्याप्तिग्रह विरोधितावच्छेदकतया दोषत्वं बोध्यम् । साधारणमुदाहरति यथा धूमवानित्यादि । अयञ्च नित्यदोषः ।
असाधारणं लक्षयति सकलसपक्षेति । सपक्षत्वावच्छेदेन वर्त्तमाना या व्यावृत्तिस्तत्प्रतियोगित्वं साध्यव्यापकीभूताभावप्रतियोगित्वमितियावत् । सपक्षत्वमत्र साध्यवत्त्वरूपमेव विवक्षितं नतु निश्चयगर्भ निश्चयांशस्य प्रतिबन्धकेनायमनुपयोगात् । अस्य च साध्यवत्त्वग्रह विरोधिसाध्याभावग्रहो नायकतया दोषत्वमिति मणिकृतामाशयः ।
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[ ८१ । असाधारणस्थलमभिनयति यथा पर्वत इत्यादि। पक्षे साध्यानिश्चयदशायामत्रासाधारण्यमिति बोध्यम् । अयञ्चानित्यदोषः। ___ उपसंहारः-अन्वयव्यतिरेकसहचारयोरन्यतरो यस्य नास्ति स हेतुरनुपसंहारी त्याशयेन प्राचां मतमनुसृत्यानुपसंहारिणं लक्षयति सर्वपक्षकत्वमिति सर्वस्यैव पक्षत्वादन्वयव्यतिरेकसहचारग्रहासम्भवाद्वयाप्ताग्रिहानुत्पादादस्य दूषकत्वमितिभावः । तन्मते किञ्चिद्विशेष्यकनिश्चयाविषयसाध्यकत्वे सति किञ्चिद्विशेष्यकनिश्चयाविषयसाध्याभावकत्वमनुपसंहारिलक्षणम् । नव्यानां मते त्वत्यन्ताभावाप्रतियोगिसाध्यकत्वादिकमनुपसंहारित्वम्, तस्य च व्यतिरेकव्याप्तिग्रहविरोधित्वं दूषकतावीजम् । अयमप्यनित्यो दोषः। अनुपसंहारिस्थलमभिनयति यथा समित्यादि ।
अथ विरुद्ध लक्षयति साध्याभावव्याप्त इति । अत्र व्यतिरेकव्याप्ति ह्या । तथा च साध्यव्यापकीभूताभावप्रतियोगित्वं विरोधः। तस्य च साध्याभावग्रहोन्नायकतया साक्षादनुमितिप्रतिबन्धकत्वम् । विरुद्धस्थलमभिनीय दर्शयति यथा घटो नित्य इति। असङ्कीर्णविरोधस्तु न सम्भवत्येव व्यभिचारस्य बाधस्य सरूपासिद्ध वाऽवश्यम्भावात्। अयञ्च नित्यदोषः।
'साध्यविरोधिसाधको हेतुः' इत्यादिना लक्षणस्योक्तत्वात्, सन्–विद्यमानः, प्रतिपक्षः-विरोधिपरामर्शः, यस्येति व्युत्पन्न्या समबलविरोधिपरामर्शकालीनपरामर्श विषयःसत्प्रतिपक्ष इति सूचनाद्वात्र साक्षात्सत्प्रतिपक्षलक्षणानमिधानमिति बोध्यम् । तादशपरामर्श विषयश्च साध्याभावव्याप्यवत्पक्षादिः। परामर्शश्च साध्याभावव्यतिरेकव्याप्त्यनवगाही ग्राह्यः। तेन नासाधारण्यविरोधसङ्करः । सत्प्रतिपक्षमुदाहरति यथा पर्वतो वह्निमान् धूमादित्यादि। अत्र वहृयभावव्याप्यवत्तापरामर्शेण वयनुमितेवहिव्याप्यवत्तापरामर्शेण च वयभावानुमितेः प्रतिरोध इति भावः। अयञ्चानित्यदोषः।
असिद्ध विभजतेऽसिद्धस्त्रिविध इति । आश्रयासिद्ध इत्यादि। तथाचैतत्तितयान्यतमत्वमसिद्धसामान्यलक्षणमिष्यर्थः। असिद्ध ष्वाश्रयासिद्ध निरूपयति यत्र पक्षोऽसन्निति। यद्ध तुनिरूपितः पक्षः पक्षतावच्छेदकाभाववान् स हेतुराश्रयासिद्धइत्यर्थः। तथा च पक्षतावच्छेदकाभाववत्पक्ष आश्रयासिद्धिरितिभावः। अवच्छेदावच्छेदेनानुमिताववच्छेदावच्छेदेन सिद्धः सामानाधिकरण्येनानुमितौ च सामानाधिकरण्येनावच्छेदावच्छेदेन चोभयथासिद्धः प्रतिबन्धकत्वात्तद्विषयीभूतसाध्यवत्पक्षस्यापि हेत्वाभासत्वमावश्यकं, तस्य चान्यहेत्वाभासेऽप्रवेशात् साध्यसंशयरूपपक्षताविघटकतयाश्रयासिद्धावन्तर्भावो युक्त इतिप्राचां मतानुसारेणाह सिद्धसाधनं वेति । पक्षतावच्छेइकरूपेण पक्षे साध्यनिर्णय इत्यर्थः। तथास्तु यादृशविशिष्ट
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[ ८२ ]
'विषयकत्वेनेत्यत्र तृतीयाया अनतिरिक्तरूपावच्छेइकत्वार्थकत्वात् सिषाधयिषाविशिष्टसिद्ध ेश्चानुमित्यप्रतिबन्धकत्वात् साध्यवत्पक्षस्य न हेत्वाभासत्वं युक्तं किन्तु वादिनिग्रहप्रयोजकतया निग्रहस्थानत्वमेवोचितमितिप्राहुः । तत्रासत्पक्षकाश्रयासिद्धमुदाइरति शशविषाणमिति । तत्र प्रतिबन्धकं ज्ञानविषयशशीयत्वाभाववद्विषाणमाश्रयासिद्धिरितिभावः । सिद्धसाधनरूपाश्रयासिद्धमभिनीय दर्शयति शरीरमिति । हस्तादिमत्त्वस्य साध्यत्वे हस्तादिमत्त्वादिति हेतुप्रयोगस्य सम्प्रदायविरुद्धत्वादाह हस्तादिमत्तयेत्यादि । अत्र परामर्शदशायां सिद्धिसत्त्वादनुमित्या सिद्धस्य साधनात् सिद्धसाधनमिति भावः ।
स्वरूपासिद्धं निरूपयति यत्र पक्षावृत्तिर्हेतुरिति । तथाच हेत्वभाववत्पक्षादिः स्वरूपासिद्धिरितिभावः । एतस्यच व्याप्यवत्ताग्रह विरोधित्वात्परामर्श विघटनद्वारा दूषकत्वम् । सामान्यतः स्वरूपासिद्धमुदाहरति यथा पर्व्वत इति । नित्यदोषोऽयं त्रिविधीऽसिद्धः ।
स्वरूपासिद्ध विभजते स चेति । स्वरूपासिद्धश्चेति । विशेषणासिद्धेति । यत्र पक्षनिष्ठहेत्वभावाधिकरणत्वं हेतुघटकविशेषणाभावाधिकरणत्वप्रयुक्तं भवति तत्र विशेषणासिद्धिरित्यर्थः । तथाच विशिष्टसाधनाभावप्रयोजकविशेषणाभाववत्पक्षादिविशेषणासिद्धिरितिभावः । विशेष्यासिद्धेति । यत्र पक्षेहेत्वभाववत्त्वं विशिष्टसाधनघटकविशेष्याभाववत्त्वप्रयुक्तं तत्र विशेष्यासिद्धिः । तथाच विशिष्टसाधनाभावप्रयोजकविशेष्याभाववत्पक्षादिः . विशेष्यासिद्धिरितिभावः । भागासिद्ध ेति । यत्र पक्षतावच्छेदकसामानाधिकरण्येन हेत्वभावस्तत्र भागासिद्धिः । तथाच व्यापकत्वानवच्छिन्नसंसर्ग क हेत्वभाववत्पक्षादिर्भागासिद्धिरितिभावः । क्रमेण त्रिविधासिद्धोदाहरणाणि दर्शयति आद्यो यथेत्यादि । जन्यत्वस्यानित्यत्वसाधने सद्ध तुत्वाच्चाक्षुषत्वे सतीति । चाक्षुषत्वमात्रस्य हेतुत्वे विशेषणासिद्धयनुपत्तेराह जन्यत्वादिति । अत्र पक्ष े विशिष्टसाधनाभावे चाक्षुषत्वरूपविशेषणाभावः प्रयोजकः । शब्दत्वावच्छेदेनैव परमाणुवृत्तित्वाभावस्य सत्त्वादर्थान्तरं वारयितुमाह तुणत्वे सतीति । गुणत्वाभावस्य शब्देऽसत्त्वादाह परमाणुवृत्तित्वादिति । अत्र शब्दे विशिष्टसाधनाभावे परमाणुवृत्तित्वरूपविशेष्याभावः प्रयोजकः । वस्तुतस्त्वत्र विशेष्यासिद्धिभिचारादिसङ्कीर्णा जलीयपरमाणुरूपादेरपि हेत्वधिकरणत्वात्तत्र च साध्याभावस्य सत्त्वादतः शब्दोऽनित्यो जन्यत्वे सति चाक्षुषत्वादित्यादिकमसङ्कीर्णविशेष्यासिद्धय ुदाहरणं मन्तव्यम् । एतानि द्रव्याणीति । एतत्त्वस्य नित्यद्रव्य इवानित्यघटादावपि सत्त्वात् पक्षता बच्खेदकावच्छेदेन हेत्वभावविरहाद्भागासिद्धिरित्यर्थः ।
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[ ८३ ] वस्तुतस्तु निरवयवत्वस्य गुणादौ द्रव्यत्वव्यभिचारित्वात् पर्वतादीनि द्रव्याणि वधूिभोभयवत्त्वादित्यादिकमसङ्कीर्णभागासिद्धय दाहरणं बोध्यम् ।
व्याप्यत्वासिद्ध निरूपयति सोपाधिरिति । इदमुपलक्षणं व्यर्थ्य विशेषणकसाधनतावच्छेदिकायाः साध्यासिद्धः साधनासिद्धश्च व्याप्यत्वासिद्धावेवान्तर्भावी बोध्योऽन्यथा पञ्चधाविभागानुपपत्तिरितिध्येयम् । अत्र सोपाधित्वं स्वव्यभिचारित्वसम्बन्धेनोपाधिविशिष्टत्वम् । अयञ्च व्यभिचारज्ञानद्वारा व्याप्तिज्ञानविरोधित्वाद्दूषकः। व्याप्यत्वासिद्धसुदाहरति यथा धूमवानिति । न चैवं साधारणसङ्कराद्विभागानुपपत्तिरिति वाच्यमुपधेयसङ्करेऽप्युपाध्यसङ्करात् । वस्तुतस्तु आश्रयासिद्धयादिभिन्नत्वे सति असिद्धिाप्यत्वासिद्धिः । यत्राश्रासिद्धयाद्यप्रसिद्धिस्तत्र भिन्नान्तमनुपादेयमेव लक्ष्यभेदेन लक्षणभेदस्यादोषत्वात् । तत्रासिद्धित्वनाम साधारण्यादिभिन्नत्वे सति विषयविधया परामर्शविरोधितावच्छेदकत्वम् । __ अन्तिमं बाधितं निरूपयितुमाह बाधितो यथेति । बाधस्तु साध्याभाववत्पक्षादिः । अस्य च साक्षादनुमितिप्रतिबन्धकत्वाद्दूषकत्वम् । अत्रच सामानाधिकरण्येण विशिष्टबुद्धाववच्छेदावच्छेदेन बाधनिश्चयस्थावच्छेदावच्छेदेन विशिष्टबुद्धौ च सामानाधिकरण्येणावच्छेदावच्छेदेन चोभयथाबाधनिश्चयस्य विरोधित्वं बोध्यम् । अयञ्चनित्यदोषः । उदाहरति ह्रद इत्यादि। असङ्कीर्ण बाधोदाहरणन्तु शिखरावच्छिन्नः पर्वतो वह्निमान् धूमादित्यादिकं बोध्यमिति संक्षेपः। न तावन्मुख्यप्रयोजनतया दुष्टहेतुनिरूपणं कृतं किन्तु सद्ध तुनिरूपणोपयोगितयैवेति प्रतिपादयितुमाह तेनत्यादि। तेनउक्तहेतूनां दुष्टत्वेन, एतद्दोषरहित इति। अत्र समुदायाभावोन विवक्षितः, तेनैकमात्रदोषेणापिदुष्टत्वमुपपद्यत इतिज्ञापनार्थमेतत्पदमिति ध्येयम् ।। ५१ ॥ || * || इत्युपमाननिरूपणविवृतिः ॥ * ॥
॥ तर्कामृतम् ॥ उपमितिकरणमुपमानम् । कोदृशो गवय इतिप्रश्ने ‘गोसदृशो गवयः' इत्युत्तरिते यदा गोसदृशं प्राणिनं पश्यति तदा पूर्वोक्तं वाक्यार्थं स्मरति, अनन्तरं 'अयं गवयपदवाच्यः' इति शक्तिग्रहः, सेयमुपमितिः ॥ ४२ ॥
|| * || इत्युपमानं व्याख्यातम् || * ||
विवृतिः ॥ अथावसरसङ्गत्योपमानं निरुपयत्युपमितिकरणमिति । उपमितित्वावच्छिन्नकार्यतानिरूपितकरणतावदित्यर्थः। तेन विशिष्टबुद्धित्वावच्छिन्नकार्य्यताया उपमितौ
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[ ८४ ] सत्त्वेऽपि नातिव्याप्तिः। उपमानलक्षणस्योपमितिघटितत्वादुपमिति निरूपयितु भूमिकामारचयति कीदृश इत्यादि । अत्र यत्करणं तदभिधातुमाह गोसदृशं प्राणिनं पश्यतीति। तथाच यदेतद्गोसादृश्यदर्शनं तदुपमानमित्यर्थः। व्यापारवत एव कारणस्य करणत्वनियमादत्र यो व्यापारस्तं प्रदर्शयितुमाह पूर्वोत्तवाक्यार्थं स्मरतीति । तथाच गोसदृशो गवय इत्यस्य वाक्यस्यार्थस्मरणं व्यापार इतिभावः। उपमिति. निर्दिशति अयं गवयपदवाच्य इति । इदम्पदेन गोसदृशपिण्डनिर्देशः । इदन्त्वावच्छिन्नविशेष्यकगवयपदवाच्यत्वप्रकारको यो निर्णयः स उपमितिरितिभावः । उपमितित्वञ्चीपमिनोमीत्यनुव्यवसायसाक्षिकजातिविशेषः। सिद्धान्तमुक्तावलीकृतस्तु 'गबयो गवयपदवाच्यः' इत्याकारकनिर्णयस्यैवोपमितित्वं नतु 'अयं गवयपदवाच्यः' इत्याकारकनिर्णयस्य, गवयान्तरे शक्तिग्रहाभावप्रसङ्गादित्यादुः। करभे पश्वन्तरवै. धर्म्यश्रवणानन्तरं तथाविधविधर्मपिण्डदर्शने सति वैधातिदेशवाक्यार्थस्मरणादयं करभपदवाच्य इत्याकारकवैधयोपमितिमपि मन्यन्ते न्यायवात्तिकतात्पपर्यकारादयः ॥५२॥
॥। इत्युपमाननिरूपणविकृतिः ॥॥
॥ तर्कामृतम् ॥ आप्तोक्तः शब्दः प्रमाणम्। प्रकृतवाक्यार्थगोचरयथार्थज्ञानवानाप्तः। पदज्ञानं करणम् । पदार्थोपस्थितिापारः। आकाङक्षायोग्यतासत्तितात्पर्यज्ञानानि सहकारीणि। फलं शाब्दबोधः ॥ ५३॥
॥विवतिः॥ अथोपजीव्योपजीवकभावसङ्गत्या शब्दं निरूपयत्याप्तीक्त इति। तथाच शब्दत्वजातेभून्तिोच्चरितशब्दे सत्त्वेऽपि न व्यभिचारः। एवञ्चाप्तोच्चरितत्वं लक्षणं 'शब्दः प्रमाणम्' इति च लक्ष्यनिर्देश इति बोध्यम् । एतच्च स्वरूपसत्पदकरणत्वमतेन, पदज्ञानस्य करणत्वमते तु आप्तेनोच्यते यत्पदं तद्विषयकज्ञानस्य शब्दप्रमाणत्वमिति ज्ञेयम् । अतएव 'पदज्ञानं करणम्' इत्युत्तरग्रन्थाविरोधः। भूमप्रमादादिदोषग्रस्तस्याप्तत्वं न सम्भवतीत्याशयेनाह प्रकृतेत्यादि। अप्रकृतवाक्यार्थयथार्थज्ञानवत्त्वस्य प्रकृतवाक्यार्थायथार्थज्ञानवत्त्वस्य च भ्रान्तादेरपि सत्त्वादतिप्रसङ्गवारणाय प्रकृतेति यथार्थेति च। तथाच फ्टकर्मताकानयनानुकूलकृतिगोचरयथार्थज्ञानवदुचरित: पटमानयेत्यादिशब्दः प्रमाणमितिभावः । अथ करणव्यापारादिकं स्वयं कण्टतोऽभिधत्ते पदज्ञानमित्यादि। पदार्थोपस्थितिरिति। पदजन्यार्थोपस्थिति
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[ ८५ ] रित्यर्थः। तेन पदज्ञानसत्त्वे यथाकथञ्चिदर्थस्मरणेऽपि न शाब्दबोधः । आकाङक्षेत्यादि। अत्र द्वन्द्वसमासान्ते श्रयमाणज्ञानशब्दस्य प्रत्येकमन्वयादाकाङक्षादिज्ञानानां सहकारिकारणत्वं बोध्यम् । अन्यथाकाङक्षादिभूमाच्छाब्दभ्रमानुपपत्तेः। प्राञ्चस्त्वासत्तेः स्वरूपसत्तया एवान्वयबोधहेतुत्वं नतु तज्ज्ञानस्य गौरवादित्याहुः । तन्न। 'गिरिऍक्तमग्निमान् देवदत्तेन' इत्यादावन्यादिपदेन सा गिर्यादिपदस्याव्यबधानभूमाच्छाब्दबोधोदयेन स्वरूपसदासत्तेः कारणत्वे व्यभिचारादिति नव्याः। येतु सामान्यतो विशिष्टबुद्धि प्रति बाधनिश्चयस्य प्रतिबन्धकत्वादेव बहिना सिञ्चतोत्यादौ सेककरणत्वाभाववद्वह्निरित्ययोग्यतानिश्चयेन प्रतिबन्धादन्वयबोधविरहोपपत्ते ोग्यताज्ञानस्य न शाब्दबोधेहेतुत्वं किन्तु स्वरूपसत्या योग्यताया एवेति मन्यन्ते, तेषान्तु यद्विषयकमनुमित्यादिकं कदापि न जातं जातस्तु तद्विषयक: शाब्दबोध एवेति तत्र तद्विशिष्टयुद्धावयोग्यतानिश्चयत्वेन प्रतिबन्धकत्वस्य तदव. च्छिन्नाभावत्वेन कारणत्वस्य च कल्पनं न सम्भवतीति तादृशान्वयबोधे तदीययोग्यताज्ञानस्यैव कारणताया अभ्युपेतव्यत्वाद् यद्विशेषे इत्यादिन्यायेन शाब्दत्वावच्छिन्नं प्रति योग्यताज्ञानत्वेन कारणत्वकल्पनमावश्यकमिति बोध्यम् ॥ ५३॥
॥ तर्कामृतम् ॥ स्वरूपयोग्यत्वे सत्यजनितान्वयबोधकत्वमाकाङक्षा। तेन 'घटः, कर्मत्वं आनयनं कृतिः' इत्यत्र नान्वयबोधः स्वरूपायोग्यात्वात्। 'अयमेतिपुत्रो राज्ञः पुरुषोऽपसार्य्यताम्' इत्यत्र राज्ञः पुरुष इति नान्वयवोधः पुत्रोण जनितान्वयवोधकत्वात् । वाधकप्रमाविरहो योग्यता। तेन 'वह्निना सिञ्चति' इत्यत्रनान्वयवोधोऽयोग्यत्वात् । अव्यवधानेनान्वयप्रतियोग्युपस्थितिरासत्तिः। न तेन 'गिरि भुक्तं वह्निमान् देवदत्तेन' इत्यत्र नान्वयबोधः। तत्तदर्थप्रतोतोच्छयोच्चरितत्वं तात्पपर्यम् । तेन भोजनप्रकरणादौ 'सैन्धवमानय' इत्युक्तेऽश्वान्वयबोधो न भवति ॥ ५४॥
॥विवृतिः ॥ तत्राकाङक्षां निरूपयति स्वरूपयोग्यत्वे सतीति । स्वरूपयोग्यत्वन्तु शाब्दबोधजनकतावच्छेदकविषयतानिरूपकतावच्छेदकानुपूर्वीमत्त्वम् । आनुपूर्वी चाव्यवहितोत्तरत्वेनाव्यवहितपूर्खत्वेन वा संसर्गेण तत्पदविशिष्टतत्पदत्वरूपा। तत्र सत्यन्तदलस्य व्यावृत्ति दर्शयति तेनेत्यादि। घटकर्मताकानयनानुकूलकृतिगोचरान्वयबोधजनकतावच्छेदिका या घटमानयेतिवाक्यनिष्ठव्यवहितोत्तरत्वसम्बन्धेन घटादिपदविशिष्टाम्पदत्वादिरूपानुर्वी तस्या अभावाद् घटः कर्मत्वमित्यादिपदैर्नतादृशान्वयबोध इति भावः। तत्र विशेष्यदलव्यावृत्तिमाहायमेतीत्यादि। तदनुपादानेऽयमेतीत्यादिवाक्येऽ
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[ ८६ ] न्वयबोधजनकतावच्छेदकष्व्यन्तराजपदविशिष्टपुरुषपदत्वरूपानुपूर्वीसत्त्वाद्राजसम्बन्धिपुरुषविषयकान्वयबोधः स्यादितिभावः । तदुपादानेतु 'राज्ञः' इति पदेन 'पुत्रः' इति पदेन सार्द्ध मन्वयं लभमानेन राजसम्बन्धिपुत्रविषयकान्वयबोधस्य जनितत्वादजनितान्व. यबोधकत्वाभावान्न तादृशान्वयबोध इतिभावः। न चैवमवान्तरवाक्यार्थ बोधोत्तरं. महावाक्यार्थबोधो न स्यादजनितान्वयबोधकत्वाभावादितिवाच्यं तद्विशेष्यकतत्प्रकारकान्वययोधं प्रति तत्समानाकारान्वयबोधावावस्य कारणताया विवक्षितत्वात् । अोदं चिन्त्यते-अयमेतीत्यदावजनितान्वयबोधदशायां राजपदस्य पुरुषपदेन सार्द्धमप्या. काङक्षायाः सत्त्वाद्राज्ञःपुरुष इत्यन्वयबोधापत्तेरिणाय तात्पर्यज्ञानस्योपयोगः कल्पनीयः किञ्च राज्ञःपुत्र इतिजनितान्वयबोधदशायामपि राजपदस्य पुरुषपदेन साद्ध तात्पपर्य्य विरहादेवान्वयबोधो मास्तु किमजनितात्वयबोधकत्वप्रवेशेन । __ तत्र योग्यतां निरूपयति बाधकप्रमाविरह इति । पयसा सिञ्चतीत्यादौ प्रमात्मकशक्तिज्ञानादेः सत्त्वाव्यभिचारवारणाय वाधकेति । तौवभूमात्मकनिश्चयस्य सम्भवाद्वयभिचारवारणाय प्रमेति । तथाच तद्विशेष्यकतत्प्रकारान्वत्वयवोधं प्रति तद्विशेष्यकतदभावनिश्चयाभावः कारणमित्यर्थः । वह्निना सिञ्चतीत्यत्र सेकविशेष्यकबह्निकरणकत्वाभावप्रकारकप्रमात्मकवाधकनिश्चयसत्त्वान्न शाब्दबोध इति भावः ।
तत्रासत्ति निरूपयति अव्यवधानेनेत्यादि। गिरिभुक्तमित्यादावन्वयप्रतियोगिनो गिरिवह्निमत्पदार्थयोभुक्तदेवदत्तपदार्थयोश्चोपस्थितिसत्त्वादासत्तिः स्यादत उक्तमव्यवधानेनेति । अन्तराऽनन्वयिपदार्थोपस्थितिं विनेत्यर्थः। तथाचाव्यवहितत्वसंसर्गेणान्वयस्य तत्प्रतियोग्युपस्थितिविशिष्टापरप्रतियोग्युपस्थितिरासत्तिरितिभावः। गिरि(क्तमित्यादौ गिरिवह्निमान्भुक्तं देवदत्तेनेति नान्वयबोधो गिरिवह्निमत्पदार्थो. पस्थित्योर्मध्येऽनन्वयिभुक्तपदार्थोपस्थितेर्भुक्तदेवदत्तपदार्थोपस्थित्योर्मध्येऽनन्वयिवह्निमत्पदार्थोपस्थितेश्च सत्त्वादव्यवधानेन तादृशपदार्थोपस्थितिविरहात् । अत्र तादृशोपस्थित्योः पदजन्यत्वं विवक्षणीयम् । तेन यत्र द्वारपदात्तदर्थोपस्थितेरनन्तरं मानान्तरेणपिधानोपस्थितिस्तत्रान्वयप्रतियोगिनोरव्यवधानेनीपस्थितिसत्त्वेऽपि नान्वयबोधः। नन्वेवं 'दृष्टातु पाण्डवानीकं व्यूढ़ दुर्योधनस्तदा। आचार्य्यमुपसङ्गम्य राजा वचनमब्रवोत्' ॥ इत्यादौ दुर्योधनराजादिपदयोरासत्त्यभावच्छाब्दबोधो न स्यादिति चेन्न तत्रानायत्या योजितवाक्यादेवान्वयबोधोपगमादितिध्येयम् । गिरिभुक्तमित्यादावाकाङक्षाविरहादेव शब्दानुत्पादोपपत्तेः सम्भवेऽपि .स्वतन्त्रान्वयव्यतिरेकाभ्यामासन्निधियः कारणत्वमिति नव्याः। एवमयोग्यस्थले आकाङक्षाया निराकाङक्षास्थले च योग्यताया अभावात् आकाङक्षायोग्यतयोः शब्दहेतुत्वस्य खण्डनं न सम्भवति स्वतन्त्रान्वयव्यतिरकाभ्यां तयोः कारणतायाः सिद्धत्वादिति बोध्यम् ।
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तात्पर्य निरूपयति तत्तदर्थेत्यादि । लाघवादत्र तत्तदर्थान्वयबोधे तत्तदर्थप्रतीतीच्छाया एव तात्पर्यत्वमुपेयम् । तेन शुकवाक्यादेस्तादृशोच्चरितत्वविरहेऽपि न क्षतिस्तत्र तथाविधेश्वरेच्छायाः सत्त्वात् । यत्र तु शुकेन विसम्वादि मन्यते तत्र शिक्षयितुरिच्छे व तात्पर्य्यम् । ये तु तात्पर्य्यानुमापकप्रकरणज्ञानकारणत्वेन तात्पर्यज्ञानस्यान्यथासिद्धत्वं वदन्ति तेषां प्रकरणत्वस्याननुगतत्वात्कार्यकारणभावाननुगमो दुष्परिहरणीयः। इत्थञ्च शाब्दत्वावच्छिन्न प्रति तात्पर्य निश्चयत्वेन हेतुत्वाद्वदार्थप्रतोतेरपीश्वरीयतात्पर्यज्ञानाधीनत्वंकल्प्यं सर्वत्राध्यापकपरिकल्पनस्यासम्भवादिति संक्षेपः। भोलनप्रकरणादवित्यादिनागमनप्रकरणाद्युपग्रहः । तेन गमनप्रकरणे. उक्तवाक्यान्तलवणान्वयबोधः। भोजनप्रकस्णे इदं सैन्धवपदमश्वबोधं जनयत्वित्याकारिकाया इवगमनप्रकरणे इदं सैन्धवपदं लवणबोधं जनयत्वित्याकारिकाया वक्तुरिच्छाया अभावादितिभाव ॥ ५४ ।।
॥ तर्कामृतम् ॥ वृत्त्या विना शब्देन नान्वयबोधो जन्त्यते। वृत्तिद्विधा शक्तिलक्षणा च । शक्तिर्घटादिपदस्य घटादौ । लक्षणा यथा गङ्गायां घोषः प्रतिवसति' इत्यत्र गङ्गापदार्थे प्रवाहे घोषान्वयानुपपत्त्या गङ्गापदस्य तीरे लक्षणा कल्प्यते । तया वृत्त्या उपस्थिते तो रे घोषः प्रतिवसतीत्यन्वयवोधो भवति । गौणी वृत्तिरपि लक्षणैव। यथा 'अग्निर्माणवकः' 'गौर्वाहीकः'। अत्र लक्षणयागन्यादिसादृश्यं प्रतीयते ॥ ५५ ।।
॥ विवृतिः ॥ ___ वृत्तिज्ञानशाब्दबोधयोः स्वतन्त्रान्वयव्यतिरेकशालितयाहेतुमद्मावादत्रव्यतिरेक दर्शयति वृत्त्या विनेति । वृत्तिज्ञानाभावे सतीत्यर्थः । तेन शक्तयारव्यवृत्तेरीश्वरेच्छाया सार्वकालिकत्वेऽपि न क्षातः। वृत्तिश्चसामान्यतोऽर्थस्मृत्यनु कूलः शाब्दोधौपयिक: सम्बन्धः। स चार्थप्रतियोगिकः पदप्रतियोगिको वा ग्राह्यः । तेन पदविशेष्यकादपि सङ्केताज्जनिताया अर्थोपस्थिते वृत्त्यापदजन्यत्वनिर्वाहः। शब्देननान्वयबोधइति । घटादिपदे श्र यमाणेऽपि तत्पदस्यवृत्तिमजानतो जनस्य तस्मादर्थोपस्थित्यसम्भवाच्छाब्द बोधो न सम्भवतात्यर्थः। तथाच वृत्त्या पदार्थोपस्थितिः शाब्दबोधे व्यापार इति भावः। तेन वृत्तिज्ञानाभाववतः पुंसः श्र यमाणशब्दात् समवायेनाकाशोपस्थितावापि नाकाशविषयकः शाब्दबोधः ।
वृत्ति विभजते द्विविधेति। विधाद्वयं दर्शयति शक्तिलक्षणा चेति । एतेन व्यञ्जनादेव॒त्तित्वव्यवच्छेदः सूचितः सामान्यधविच्छिन्नानां यावत्संख्यकविशेष
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धर्मपुरष्कारेणाभिधानस्य तदतिरिक्तसंख्यावच्छिन्नव्यवच्छेदार्थकताया व्युत्पत्तिसिद्धित्वात्। शक्ति निरूपयितुमाह शक्तिर्घटादीत्यादि। अत्र षष्ठ्यर्थः प्रतियोगित्वं, सप्तम्यर्थस्त्वनुयोगित्वं, तयोश्च निरूपकत्वसम्बन्धेनात्वयः। तथाच घटादिपदनिष्टप्रतियोगितानिरूपकत्वे सति घटाद्यर्थनिष्ठानुयोगितानिरूपकः 'घटादिपदाद्घटादिर्बोद्धव्यः' इत्याकारकभगवत्सङ्केतः शक्तिरित्यर्थः पर्यवसितः। वस्तुतस्त्वत्र सङ्केताकारप्रदर्शनं नाभिमतमन्यथा पदानुयोगिकसङ्केताप्रदर्शनान्न्यूनतापत्तेः किन्तु घटादिपदस्यशक्यप्रदर्शनेन जातिशक्तिवादं निरसितं तथोक्तमिति ध्येयम् ।
लक्षणां निरूपयितुमाद लक्षणेत्यादि । सा च शक्यसम्बन्धरूपा। सम्बन्धश्चानेकविधस्तत्रतत्रोहनीयः। अन्वयानुपपत्तलक्षणावोजत्वं प्रदर्शयितुमवतारयति यथा गङ्गायामित्यादि। अन्वयानुपपत्त्येति । इदमुपलक्षणं 'षष्ठीः प्रवेशय' इत्यादावन्वयानुपपत्तिविरहेऽपि तात्पर्यानुपपत्तलक्षणाकल्पकत्वं बोध्यम् । तया वृत्त्येति । लक्षणाख्यवृत्त्येत्यर्थः। लक्षणाया वृत्तित्वानभ्युपगमे गङ्गापदस्य तोरेऽसङ्केतित्त्वातोरानुपस्थितौ तीरे घोष इत्यन्वयवोधो न स्यादिति भावः। इत्थञ्च शक्तिस्थले घटाद्यन्वयबोधजनकघटाद्यर्थोपस्थितौ घटादिपदत्वावच्छिन्नविशेष्यतानिरूपितघटादि. शक्तत्वप्रकारताशालिसङ्कतग्रहस्येव लक्षणास्थले तीराद्यन्वयबोधजनकतीराद्यर्थोपस्थितौ गङ्गादिपदत्वावच्छिन्नविशेष्यतानिरूपिततोरादिसम्बन्धिशक्तत्वप्रकारताशालिलक्षणाग्रहस्य कारणत्वमिति बोध्यम् ।
मीमांसकास्तु 'अग्निर्माणवकः' इत्यत्राग्निशब्दान्भुख्यया वृत्त्या प्रतिपादितस्य दहनरूपार्थस्य माणवकशब्दप्रतिपाद्ये न नवोपनीतविप्रवालकेन सार्द्ध मन्वयासम्भवाद् गौण्यारव्यवृत्त्यन्तरमङ्गीकार्यम् । तथा च तया वृत्त्याग्निशब्देनाग्निसदृशरूपार्थोपस्थापनान्नान्वयबोधानुपपत्तिरित्याहुः। तन्मतं निराक माह गौणीत्यादि । लक्षणयैवेति । तथा चाग्निशब्दस्याग्निसादृश्यावच्छिन्ने लक्षणा स्वीकारेऽवश्यकप्तलक्षणयैवोपपत्तौ न वृत्त्यन्तरकल्पनगौरवमितिभावः। अग्न्यादीत्यादिना गवादिपरिग्रहः। सादृश्यमिति । विजातीयकान्तिमत्त्वादिनेतिभावः। तथा च तत्राग्निसदृशो माणवको गोसदृशो बाहीक इत्यन्वयबोधः समुपपन्नः ॥ ५५ ॥
॥ तर्कामृतम् ॥ शक्त पदं चतुविधम् । यौगिकं, रूढं, योगारूढ़ यौगिकरूढञ्च। आद्यं यथापाचकादिपदं योगार्थे पाककर्त्तरि शक्तम् । द्वितीयं यथा विप्रादिपदं रूढ्या ब्राह्मणवाचकम् । तृतीयं यथा पङ्कजादिपदं योगरूढ्या पङ्कजनिकर्ता त्वेन पद्मत्वेन च पद्म
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[ ८ ]
वाचकम् । चतुर्थं यथा - उद्भिदादिपदं यौगिकं तरुगुल्मादेः रूढ़ यागविशेषस्य वाचकम् ॥ ५६ ॥
| ॥ विवृत्तिः ॥
एवं शक्तौ लक्षणायाञ्च वृत्तौ निरूपितायां शक्तयार्थबोधकं शक्तं लक्षणयार्थ - बोधकं लाक्षणिकमितिपदद्वै विध्यं पर्यवसितम् । तत्र शक्तं विभजते शक्तं पदं चतुविधमिति । यद्यपि शब्दशक्तिप्रकाशिकायां रूढ़ञ्च लक्षकञ्चैव योगरूढञ्च यौगिकम् । तच्चतुर्द्धा' इत्यत्र स्वयमेव यौगिकरूढत्वेन विभागो नाभिहितस्तथापि तत्र 'अपरै रूड़यौगिकं मन्यतेऽधिकम्' इत्यनेनाभिहितस्य रूढयौगिकस्यैवात्र यौगिकरूढत्वेन प्रवेशादविरोधः ।
तत्र योगिक मुदारहति आद्यं यथेति । यादृशानुपूर्व्यवच्छिन्नं स्वघटकपदमात्रोपस्थाप्ययादृशार्थ विषयकशाब्दबोधजनकताया विषयविधयावच्छेदकं तादृशानु पूर्वीमच्छन्दत्वं तादृशाथे यौगिकत्वम् । पाचकादिपदमिति । अत्र समुदायघटकपदद्वयं - पच्धातुव्वु ण्प्रत्ययश्च । तत्र धातुना पाकः प्रत्ययेण च कर्त्त त्वमुपस्थाप्यते न तु समुदायेन कोऽप्यर्थ: । ततश्च पाककर्त्त त्वावच्छिन्नार्थे पाचकपदं यौगिक मित्याशयेनाह योगार्थ इत्यादि । तत्रादिना पाठकादिपदोपग्रहः ।
रूढमुदाहरति द्वितीयं यथेति । यादृशानुपूर्व्यवच्छिन्नं यादृशार्थोपस्थापकसक - तीयविशेष्यताविशिष्टं योगरूढादिभिन्नत्वे सति तादृशानुपूर्वी मच्छन्दत्वं तादृशार्थे रूढत्वम् । तथाच सङ्केतशून्यपाचकादिपदेषु योगरूढादिपङ्कजादिपदेषु च नातिव्याप्तिः । विप्रादीत्यादिना घटपटादिपदोपग्रहः । अत्र विप्रपदभुपनीतं विद्वांसं ब्राह्मणं बोधयित्विति सङ्केतसत्त्वादवयवार्थ विरहाच्च रूढत्वमुपपद्यते । रूढेति । समुदायशक्तो त्यर्थः । ब्राह्मणवाचकमिति । उपनीतविद्वद्ब्राह्मणवाचकमित्यर्थः । तथाच स्मृतिः 'जन्मना ब्राह्मणो ज्ञ ेयः संस्काराद् द्विज उच्यते । विद्यया याति विप्रत्वं श्रोत्रियस्त्रिभिरेव हि ॥ इति ।
योगरूढमुदाहरति तृतीयं यथेति । यादृशानुपूर्व्यवच्छिन्नं स्वघटकशब्दोपस्थाप्ययादृशार्थावच्छिन्नस्बोपस्थाप्ययादृशार्थान्वयबोधजनकताया विषयविधयावच्छेदकं तादृशानुपूर्व्वमच्छब्दत्वं तादृशार्थावच्छिन्नतादृशार्थे योगरूढत्वम् । पङ्कजादिपदमिति । आदिना कृष्णसर्पादिपदस्योपग्रहः । केवलयोगादरे शैवालादौ केवलरूढ्यादरे च स्थलपद्मादावतिव्याप्तिः स्यादत आह योगरूठ्ये ति । अवयवशक्त्या समुदायशक्त्या - चेत्यर्थः । अत्र द्वाaarat पङ्कशब्दो उप्रत्ययान्तो जन्धातुश्च । तत्राद्यावयवेन फ्ङ्कस्यान्त्यावयवेन च जनिकर्त्त त्वस्योपस्थापनादवयवशक्त्या पङ्कजनिकर्त्त त्वं समुदाय -
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[ ६० ] शक्त्या च पद्ममुपस्थाप्यते। ततश्चपङ्कजपदात् पङ्कजनिकत्तृ पद्मभित्यन्वयबोधोजायत इत्याशयेनाह पङ्कजनिकर्तृत्वेनेत्यादि। __ यौगिकरूढ़मुदाहरति चतुर्थं यथेति। यादृशानुपूर्व्यवच्छिन्नं स्वातन्त्रयेण यौगिकार्थप्रतिपादकत्वे सति रूढ्यर्थप्रतिपादकं तादृशानुपूर्वीमच्छब्दत्वं तन्नदर्थे यौगिकरूढ़त्वम् । योगरूढस्यापियुगपद्यौगिकार्थप्रतिपादकत्वविशिष्टरूढार्थप्रतिपादकत्वात् स्वातन्त्र्येणेति । उद्भिदादिपदमिति। आदिना मण्डपादिपदस्य परिग्रहः। पङ्कजादिपदं युगपदवयवसमुदायशक्तिभ्यां पङ्कजनिकर्त्त पद्ममित्यन्वयबोधं जनयति न तु योगार्थ विना रूढ्यर्थस्य नवा रूढ्यर्थ बिनायोगार्थस्य बोधं जनयति किन्तूद्भिदादिपदं यदावयवसमुदायशक्त्यादेरेकतरेणार्थ बोधयति न तदापरतरेणेति योगरूढस्थले योगार्थाविनाभूतो रूच्यर्थः यौगिकरुढस्थले तु तद्विनाभूत इति विशेष इत्याशयेनाद यौगिकं तरुगुल्मादेरित्यादि ॥ ५६ ॥
तर्कामृतम् ॥ लक्षणा द्विविधा, जहत्स्वार्थाऽजहतस्वार्था च । आद्या यथा गङ्गायां घोष इत्यादौ। द्वितीया यथा सर्व छत्रिणो यान्तोत्यादौ। अत्र छत्रिण स्तदितरस्यापि गमनान्वयः ॥१७॥
॥ विवृतिः ॥ लक्षकपदभेदमभिधा तुलक्षणां विभजते लक्षणा द्विविधेति । तथा च लक्षणाद्वै . विध्याल्लक्षकपदमपि द्विविधमितिभावः। यद्यपि शब्दशक्तिप्रकाशिकायां "जहत्स्वार्थाऽजहुत्स्वार्था निरूढाधुनिकादिकाः। लक्षणा विविधा स्ताभिलक्षकं स्यादनेकधा" इत्यभिहितं तथापि निरूढादिषु जहत्स्वार्थत्वस्य सत्त्वादत्र द्विविधेत्युक्तमित्यविरोधः ।
जहत्स्वार्थेति । जहत्-शाब्दबोधं त्यजत्, स्वार्थ-स्वाश्रयशक्यं, यस्या इति ; जहाति-अपैति, स्वार्थो यस्यां सा इति वा वहुव्रीहिः। एवमजहत्स्वार्थे त्यत्रापि । जहत्स्वार्थामदाहरत्याद्या यथेति । गङ्गायां घोष इत्यादाविति । अत्र गङ्गापदस्य तीरत्वेन रूपेण लक्षणेत्यर्थः। तथा च शक्यावृत्तिधर्मावच्छिन्नलक्षणा जहत्स्वार्थलक्षणा, तदाश्रयोभुतं पदं जहत्स्वार्थलक्षकमितिभावः। आदिना मञ्चाः क्रोशन्तीत्यादेः परिग्रहः।
अजहत्स्वार्थामुदाहरति द्वितीया यथेति। सर्वे छत्रिणो यान्तीत्यादि । यत्र छत्रधारिभिः सार्द्ध छत्ररहिता अपि गच्छन्ति तत्र सर्वे छत्रिणो गच्छन्तीति प्रयुक्त
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[ १ ]
छत्रपदस्य छत्र्यछत्रिषु लक्षणेति भावः । तथा च शक्यलक्ष्योभयवृत्तिधर्म्म पुरष्कारेणान्वयबोधजनिका लक्षणाऽजहत्स्वार्थ लक्षणा, तदाश्रयीभुतं पदमजहत्स्वार्थ लक्षकमिति भावः । आदिना काकेभ्यो दधि रक्ष्यतामित्यादेरुपग्रहः । पटादिपदस्य arat शक्यवृत्तिधर्म्म पुरष्कारेणाप्य जहत्स्वार्थलक्षणा क्वचित् भवतीतिबोध्यम्
॥ ५७ ॥
॥ तर्कामतम् ॥
अथ शाब्दबोधप्रक्रिया - "देवदत्तो ग्रामं गच्छति" इत्यत्र ग्रामकर्मकगमनजनक कृतिमानित्यन्वयबोधः । द्वितीयाया अर्थः कर्मत्वं धातोर्गमनं, जनकत्वं संसर्गमर्यादालभ्यं न कृतिमान् लदो वर्त्तमानत्वं, आख्यातस्य कृतिः, तत् संसर्गः संसर्गमय्र्यादालभ्यः । यत्र कर्त्तरिकृते वधस्तत्र आख्यातस्य व्यापारादौ लक्षणा, यथा " रथो गच्छति" इत्यत्र गमन जनकवर्त्तमानव्यापारवान् रथः । " दधि पश्यति" इत्यादौ द्वितीयालोपस्थले दधिशब्द एवा हत्स्वार्थ लक्षणया दधिकर्मत्वं बोधयति । एकवचनाद्य ुपस्थितमेकत्वादि सर्व्वत्र प्रथमादिपदमुपस्थापयति ।। ५८ ।।
॥ विवृत्तिः ॥
शाब्दबोधोत्पादप्रकियां निरूपयितुमाह अथशाब्देत्यादि । यद्यपि घटपटादिशब्दजन्यबोधप्रक्रिया प्रदर्शनेनापि शाब्दबोधप्रक्रिया प्रदर्शनं निर्व्वहति तथापि कियाकारकादिविचित्र पदसमभिव्याहारस्थले कीदृशी शाब्दबोधप्रणालीत्याकाङक्षायामाह देवदत्त इत्यादि । इदमुपलक्षणं " गच्छति ग्रामं देवदत्तः" इत्यादावपि योजनया वक्ष्यमाणाकारान्वयबोधोत्पादात् । पर्य्यवसितशाब्दबोधस्वरूपमाह ग्रामकर्म्म - केत्यादि । ग्रामकर्मकत्वं ग्रामनिष्ठकर्म्म तानिरूपकत्वं, तत्रकर्मत्वं नाम क्रियाजन्यफलशालित्वम् । वस्तुतः फलत्वमेव कर्म्मत्वं क्रियाया धातुना जन्यत्वस्य च संसर्गमय्र्यादयालाभसम्भवात् ।
प्रोक्तशाब्दबोधे येन पदेन यस्यार्थस्योपस्थितिस्तन्निद्दिशति द्वितीयाया अर्थ इत्यादि । कत्वमिति । "कर्म्मणि द्वितोया" इत्यनुशासनादिति भावः । धातोरिति । अर्थ इति पूर्वेणान्वेति । एवमग्रेऽपि । अन्विताभिधानवादिभि
मांस गुरुभिरन्वयप्रतियोगिपदार्थयोः संसर्गेऽपि शक्तैः स्वीकारादाह संसर्ग - मर्यादालभ्यमिति । आकाङक्षाभास्यमित्यर्थः । आकाङक्षा चाव्यवहितपूर्व्वत्वादिना संसर्गेण तत्पदविशिष्टतत्पदत्वरूपा । अत्र गमेस्तिपासार्द्धमाकाङक्षा जनकत्वरूपसंसर्ग भासिकेति भावः । एवमन्यत्रापि ।
च
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[ २ ] लट्त्वाख्यातत्वयोः समानाधिकरणत्वेऽप्यसमनियतत्वाल्लट्त्वेन वर्तमानत्वस्याख्यातत्वेन च कृतेरुपस्थापकत्वमित्युपस्थितिजनकतावच्छेदकं विशिनष्टि लट इत्यादि। वर्तमानत्वमिति। "वर्तमाने लट्" इत्यनुशासनादिति शेषः। वर्तमानत्वञ्च तत्तच्छब्दप्रयोगाधिकरणकालत्वरुपम् । तदवच्छिन्नस्य चाधेयताविशेषसम्बन्धेन कृतावन्वयः । न च कालत्वस्याखण्डस्य पचनादिपूर्वोत्तरकालेऽपि सात्त्वात्तत्रतत्र पचतीत्यादिप्रयोगापत्तिरिति वाच्यं कालत्वव्याप्यधर्मेणारम्भतः परिसमाप्तिपर्यन्तस्थायि तत्तत्स्थलकालस्योपादेयत्वात् ।। ___ आख्यातस्य कृतिरिति । कृतेरुपस्थापनादेव प्रथमान्तपदोपस्थाप्ये देवदत्तादौ विशेषणतया तदन्वयेन कृतिविशिष्टस्य कर्तुर्बोधोपपत्तेरिति भावः । अतएव गच्छतीत्यादौ गमनं करोतीत्यादि यत्नार्थककरीतिना साख्याते विवरणं सङ्गच्छते। तत्सम्बन्ध इति । समवायस्यावच्छेदकत्वाख्यस्वरूपसम्वन्धस्य वात्र सम्बन्धत्वं बोध्यम् । तच्च देवदत्तादिशब्दस्यात्मवाचित्वे शरीरवाचित्वे वा यथायथं योज्यम् । न च व्यापारसत्त्व एव किं करोतीति प्रश्नोदयात् कृत्रो व्यापारार्थकत्वं वाच्यं, एवञ्चाख्यातस्यापि ब्यापारार्थत्वमस्तु तथैवं करोतिना सर्वख्याते विवरणस्योपपत्तेरिति वाच्यं चैत्रीयजलसेकादिरूपव्यापारस्य घट इवाङ्करेऽप्यविशिष्टत्वाद् घटश्चैत्रेण कृतोऽङ्करस्तु न कृत इति विषयविभागानुपपत्तेः कृनो व्यापारार्थकत्वकल्पनाऽसम्भवात्कृतित्वजातेराख्यातशक्यतावच्छेदकत्वे व्या. पारत्वापेक्षया लाघवाच्च । अत्र कृतित्वं पुनरिष्टसाधनताधीजन्यतावच्छेदकप्रवृत्तित्वरूपं बोध्यम् । तेनेश्वरकृतेर्जन्यमात्र प्रतिहेतुत्वेऽपि "ईश्वरः पचति" इत्यादयो न प्रयोगाः। नन्वेवं “ईश्वरो वेदं वक्ति" "कृष्णो मथुरायां विहरति" इत्यादि प्रयोगानुपपत्तिरिति चेन्न तत्राख्यातस्य व्यापारे लक्षणाया अभ्युपगन्तव्यत्वात् । ____ इदन्तु बोध्यं—“देवदत्ती ग्रामं गच्छति" इत्यादी सुतिङ घटितसप्तषव्यन्यतमत्वस्य तत्तद्धर्माणां वा गुरुतयैकत्वशक्ततानवच्छ दकत्वान्न तिङश्वैत्रादावेकत्वानुभावकत्वं किन्तु "चैत्रो मैत्रश्च गच्छतः" "चैत्रो मैत्रो देवदत्तश्च गच्छन्ति' इत्यादिप्रयोगदर्शनादाख्यातद्विवचनवहुवचनयोः संख्या वाचकत्वमावश्यकममेवेति ।
यत्तु वैयाकरणैः "चैत्रः पचति" इत्यादौ "पाककर्ता चैत्रः" इत्यादिविवरणदर्शनादाख्यातस्य कत्र्तवार्थ इत्युक्त। तन्न। प्रातिपदिकार्थाख्यातार्थयोरभेदान्वयस्याव्युत्पन्नत्वाच्छक्यतावच्छेदकगौरवापत्तेश्च । आख्यातस्य कृतिवाचकत्वे "रथो गच्छति" इत्यादावचेतनरथादौ कृत्यभावात् प्रसक्तामनुपपत्ति परिहर्तुमाह यत्र कर्तरि कृतेरिति । व्यापारादाविति । धात्वर्थानुकूलव्यापारादावित्यर्थः। यत्र
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[ ६३ ]
कर्त्तरि व्यापारस्य वाध स्तत्र " चैत्रो भयं करोति, निद्रां करोति, स्थितिं करोति". इत्यादावाख्यातस्याश्रयत्वे लक्षणावाच्येत्याशयेनादिपदम् । लक्षणेति । निरूढलक्षणेत्यर्थः । नव्यास्तु " रथो गच्छति" इत्यादौ गमनाश्रयतावान् रथ इति बोधोपगमादाख्यातस्याश्रयत्वलक्षणयैवोपपत्तौ न व्यापारे लक्षणा युत्तेति प्राहुः । मीमांसकास्त्वाख्यातस्य व्यापारत्वेनेव कृतौ शत्तिः " गच्छति, पचति" इत्यादौ व्यापारत्वेनैव कृतिबोधस्यानुभवसिद्धत्वात् । न च कृतित्वस्य प्रवृत्तिनिमित्तत्वे लाघवमिति वाच्यं लघुधर्म्मपुरष्कारेण शक्तेः सविवादत्वे लाघवस्याकिञ्चित्करत्वादिति वदन्ति । रथो गच्छतीत्यत्र समुदितवाक्यार्थ बोधस्वरूपं प्रदर्शयति गमनजनकेति । अत्रापि जनकत्वाद्युपस्थितिः पूर्व्ववद्बोध्या ।
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ननु "कर्म्मणि द्वितीया" इत्यनुशासनाद्देवदत्तो ग्रामं गच्छतीत्यादौ द्वितीयायाः कर्म्म त्वोपस्थापकत्वं युज्यते, यत्र च नपुंसकात् स्यमोर्लोपः" इत्याद्यनुशासनेन द्वितीया लुप्यते तत्रानुपपत्तिरतस्तत्परिहर्तुमाह दधि पश्यतीत्यादाविति । दधि कर्म्मत्वमिति । दधिशब्दस्य दधिकर्मकत्वावच्छिन्ने लक्षणेतिभावः । अत्र च क्रियाविशेषणस्थल sa प्रातिपदिकार्थस्य धात्वर्थेऽन्वयो बोध्य इति ध्येयम् । आदिना "वारि पिवति" इत्यादेः परिग्रहः । ननु " द्वयेकयोद्दि वचनैकवचने वहुषु बहुवचनम्" इत्याद्यनुशासनादेकवचनत्वादिनैकत्वाद्यर्थकत्वं वाच्यं एवञ्चाख्यातैकवचनस्याप्येकत्वार्थकत्वमायातं, तञ्चाप्रयोजनकं कर्त्ताद्य कत्वस्य सुवेकवचनेनैव निर्व्वाहादत आह एकवचनाद्यपस्थित -- मित्यादि । अत्रादिपदाभ्यां द्विवचनद्वित्वाद्योरुपग्रहः । वस्तुतस्त्वत्रादिपदद्वयमनतिप्रयोजनकमेव " घटः पटश्च स्तः" "घटः पटो मठश्च सन्ति” इत्यादि प्रयोगानुरोधादाख्यातद्विवचनबहुवचनयोद्दि वत्वबहुत्वार्थकतायाः स्वीकरणीयत्वात् । प्रथमादिपदमित्यादि । आदिना द्वितीयादेः परिग्रहः । तथाचैकवचनमात्रस्य नैकत्वार्थकत्वं किन्तु प्रथमाद्येकवचनस्यैवेति भावः । एवञ्चाख्यातैकवचनस्य प्रथमाद्य कवचनत्वाभावान्नैकत्वार्थकत्वं परन्तु “सि” “अम्" इत्यादेरेव तथात्वात्तदर्थ कत्वमिति तात्पर्य्यमबधेयम् ।। ५८ ।।
A
॥ तर्कामृतम् ॥
देवदत्तेन गम्यते ग्रामः" इत्यस्य देवदत्तवृत्तिकृतिजन्यगमनजन्यफलशाली ग्राम इत्यर्थः । वृत्तित्वं संसर्गबललभ्यं । तृतीयार्थश्चकृतिः । जन्यत्वं संसर्गः । गमन धात्वर्थः । जन्यत्वं संसर्गः । फलं कर्म्मात्मने पदार्थ: । शालित्वं संसर्गः ॥ ५६ ॥
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[ ६४ ]
॥ विवृतिः ॥ कर्तरि वाच्ये शाब्दबोधप्रकारं दर्शयितुमाह देवदत्तेनेति । पय्यवसितशाब्दबोधमुपवर्णयति देवदत्तवृत्तीत्यादि । संसर्गबललभ्यमिति। आकाङ्क्षाभास्यमित्यर्थः । एवमुत्तरत्रापि । तृतीयार्थश्च कृतिरिति । “कत करणयो स्तृतोया” इत्यनुशासनादिति भावः। “कर्तरि रुचादि ङानुवन्धेभ्यः" इत्यनेन कर्तरि "आत्मनेपदानिभाव कम्मणोः" इत्यनेन च भावे आत्मनेपदस्स्य विहितत्वेऽपि कत्त ख्यिाते फलस्य द्वितीयार्थत्वाद् भावे फलविरहाच्चाह फलं कर्मात्मनेपदार्थ इति । फलन्तु संयोगो विभागश्च । तत्र “गम्यते' इत्यादो संयोगः "त्यज्यते" इत्यादो च विभागः फलत्वेन भासत इति बोध्यम् । शालित्वमिति । आश्रयत्वमित्यर्थः ॥ ५६ ॥
|| तर्कामृतम् ॥ भावप्रत्यये तु "देवदत्तेन सुप्यते' इत्यस्य देवदत्तवृत्तिकृतिजन्यः स्वाप इत्यर्थः भावप्रत्ययस्थले फलाभावादात्मने पदार्थो न भासते || ६० ॥
॥ विवृतिः ॥
अथ भावे वाच्ये शाब्दबोधप्रकारं वर्णयितुमाह भावप्रत्यय इति । धात्वर्थ मात्र विशेष्यविधयावगाहमानायां प्रतीतावित्यर्थः। शाब्दबोधस्वरूप दर्शयति देवदत्तवृत्तीत्यादि। अत्रापि वृत्तित्वजन्यत्वे संसर्ग मर्यादालभ्ये, कृतित्तु तृतीयार्थ इति बोध्यम् । ननु गम्यते इत्यत्रोव सुप्यते इत्यत्राप्यात्मनेपदार्थो न कथं भासत इत्याशङ्कां निराकत माह भावप्रत्ययस्थले इत्यादि। न भासत इति । "लः कर्मणि भावे चाकर्म केभ्यः' इति सूत्रोण सकर्म केभ्यः कर्मणि कतरि चाकर्म केभ्यो भावे कर्तरि च लकारविधानात् सकर्मकत्वस्य च क्रियाजन्यफलशालित्वरूपकर्मत्वघटितत्वत् काख्याते आत्मनेपदार्थः फलं भासितं युज्यते, नत्वेवं भावाख्याते कर्मविरहेणफलविरहादितिभावः ॥ ६० ॥
॥ तर्कामृतम् || भविष्यत्त्वं लुटोऽर्थः, तच्च विद्यमानप्रागभावप्रतियोग्युत्पत्तिकत्वम् । तेन "गमिष्यति" इत्यत्र विद्यमानप्रागभावप्रतियोग्युत्पत्तिकगमनानुकूलकृतिमानित्यर्थः । लुटोऽथोऽनद्यतनत्वमपि। लुङोऽर्थ उत्पत्तिर्भ तत्वञ्च भूतत्वभतीतत्वं, तच्चोत्. पत्तावन्वेति । तथाच विद्यमानध्वंसप्रतियोग्युत्पत्तिकत्वं लब्धम् । लिटोऽनद्यतनत्वं परोक्षत्वं अतीतत्वञ्चार्थ । तदन्वयः पूर्ववदुत्पत्तौ । लङोऽनद्यतनत्वमतीतत्वञ्चार्थः ।
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[ ६५ ]
विधिलिङऽर्थः कृतिसाध्यत्वे सति बलवदनिष्टाजनकेष्टसाधनत्वम् । “स्वर्गकामो यजेत”
इत्यादी कृतिसाध्यबलवदनिष्टाजनकेष्टसाधनयागकर्त्ता स्वर्गकाम इत्यर्थः। आशीर्लिङ लोटोरर्थो वक्ति च्छाविषयत्वम् । तेन " घटमानय" इत्यत्र घटकर्मकमदिच्छाविषयानयना कूलकृतिमान् त्वमित्यन्वयबोधः । व्याप्यक्रियया व्यापकक्रियाया आपादनं लृङोऽर्थः । तात्पर्य्यवशात् क्वचिद्भूतत्वं क्वचिद् भविष्यत्त्वञ्च लृङाबोध्यते ।। ६१ ।।
॥ विवृतिः ॥
लकारस्य
दशविधत्वाद्वर्त्तमानत्वार्थ कलड़न्तप्रयोगेऽन्वयवोधप्रकारमुपवर्ण्यवत - मानत्ववटित-भूतत्व भविष्यत्त्वयोर्मध्ये प्रागभाववटितत्वेनाभ्यर्हितभविष्यत्त्वार्थकलकारांन्त प्रयोगेऽन्वयबोधस्वरूपं सन्दर्शयितुमाह भविष्यत्त्वं लृटोऽर्थ इति । तत्त्वेति । अत्र तच्छब्देन भविष्यत्त्वं परामृश्यते । विद्यमानप्रागभावेत्यादि । विद्यमानस्य प्रागभावस्य प्रतियोगिनी उत्पत्तिर्यस्य तत्त्वमित्यर्थः । तत्र विनष्टप्रागभावप्रतियोग्युत्पत्तिकवर्त्त' मानघटादिविशेष्यकभविष्यतीति प्रयोगवारणाय विद्यमानेति प्रागभावविशेषणम् । विद्यमानाभावप्रतियोग्युत्पत्तिकालीनघटादि विशेष्य भविष्यतीति प्रयोगवारणाय प्रागभावेति । कार्य्यस्य प्रथमक्षणे उत्पत्तिः द्वितीयक्षणे आत्मलाभ इति प्राचीनमते प्रथमक्षणे भविष्यतीति प्रयोग वारणायोत्पत्तिप्रवेशः । अन्वयवोधस्वरूपमाह विद्यमानेति । अत्राप्यनुकूलत्वस्य संसर्गमय्र्यादा
लभ्यत्वं बोध्यम् ।
तथाचानद्य
अथ लुङर्थ निरूपयितुमाह लुटोऽर्थ इति । अनद्यतनत्वमपीति । अनद्यतनत्वमद्यतनभिन्नत्वम् । अद्यतनत्वञ्चातीतोत्तररात्रिमध्यवर्त्य हस्त्वम् । दुर्गमते त्वतीतरात्रिचतुर्थयामावध्यागामिरात्रिप्रथमयामपर्य्यन्तकालत्वमद्यतनत्वम् । तनत्वस्य भूतकालेऽपि सत्त्वादपिना भविष्यत्वं समुच्चीयते । भविष्यत्त्वस्याद्यतन द्वितीयक्षणादावपि सत्त्वादनद्यतनत्व प्रवेशः । एवञ्चानद्यतनत्वे सति भविष्यत्वं लुङ इति भावः । अन्येतु 'अद्यतनी क्रिया' इत्यादि दर्शनादद्यतनत्वं न कालधर्म्मः किन्तु क्रियान्वयीति वदन्तोऽद्यतनत्वं प्रकृतशब्दप्रयोगाधिकरणदिनवृत्तित्वं तदभावश्चानद्यतनत्वं क्रियायामेवान्वेतीत्याहुः । वस्तुतस्त्वनद्यतनत्वविशिष्टभविष्यत्त्वापेक्षया लाघवेन श्वस्तनत्वमेव लुड़र्थोवाच्यः । तदुक्तं " धात्वर्थे श्वस्तनत्वस्यबोधिका तिङ लुङ ुच्यते" इति । श्वस्तनत्वञ्चाव्यवहितोत्तरा हस्त्वरूपं व्यवहितोत्तरदिनादौ लृट एव प्रयोगस्य साधुत्वादिति ध्येयम् । तथाच "पुत्र स्ते भविता" इत्यादी अव्यवहितोत्तर दिनवृत्तिभवनाश्रयः पुत्र इत्यन्वयबोधः । " श्वः पक्ता" इत्यादौतु श्वः
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[ ६६ ] पद-लुडूभ्यामेकमेव 'श्वस्तनत्वं बोध्यते सम्भेदे नान्यतरवेद्य मिति न्यायादतो न द्विधाश्वस्तनत्वभानप्रसङ्गः। ____ भविष्यदर्थकलकारं निरूप्यातीतत्वार्थकलकारनिरूपणमारभते लुडोऽर्थ इति । उत्पत्तिभूतत्वञ्चेति । भूतत्वमात्रस्यार्थत्वे महानसे वह्निसंयोगस्य विद्यमानतादशायां "वहिमहानसेन सह समयुजत्" इति प्रयोगो न स्यादत उक्तमुत्पत्तिरिति । तन्मात्रस्यार्थत्वे तु प्रथमक्षणे "घटोऽभूत्" इति प्रयोगोपत्ते राह भूतत्वमिति । उत्पत्तिराधक्षणसम्बन्धः, अतीतत्वञ्च विद्यभानध्वंसप्रतियोगित्वम्, तदुभयोरेकक्रियायां विरुद्धत्वादाहोत्पत्तावन्वेतीति । पर्यवसितार्थमाह विद्यमानेत्यादि । विद्यमानस्य ध्वंसस्य प्रतियोगिनी उत्पत्ति यस्य तत्त्वमित्यर्थः। एवञ्चागमदित्यादौ विद्यमानध्वंसप्रतियोग्युत्पत्तिकगमनानुकूलकृतिमानित्यन्वयबोधः । एवञ्च संयोगसत्त्वदशायामपि संयोगोत्पत्तिध्वंसस्य सत्त्वात् ‘समयुजत्' इति प्रयोग उपपद्यते । वस्तुतो लुङोऽतीतत्वमात्रमर्थः। अतीतत्वञ्च वर्तमानध्वंसप्रतियोगित्वरूपं वर्तमानध्वंसरूपम्बा स्वरूपसम्बन्धेन प्रतियोगित्वसम्बन्ध न व्याख्यातार्थे कृतावन्वेति । तथा च "अगमत्" इत्यादौ वर्तमानध्वंसप्रतियोगिगमनानुकूलकृतिमानित्याद्यन्वय बोधः । यत्र चाख्यातार्थो न कृति स्तत्र"वह्निर्माहानसेन सह समयुजत्" इत्यादौ तु संयोगसत्त्वदशायां कस्यचित् संयोगस्य ध्वंसस्तत्प्रतियोगित्वंवाऽतीतत्वं धात्वर्थे एवान्वेतीत्यभ्युपेयत इति दिक् ।
लिङर्थं निरूपयति लिट इति। अनद्यतनत्वमिति। अस्यार्थस्तु पूर्वमुक्तः । अनद्यतनत्वस्य ह्यस्तनेऽपि सत्त्वादाह परोक्षत्वमिति । वक्तृसाक्षात्काराविषयत्वमित्यर्थः। तेन ह्यस्तनस्यापि धात्वर्थस्य वक्तृसाक्षात्कारविषयत्वे न लिटः प्रयोगः । अनद्यतनत्वे सति परोक्षत्वस्य गभिण्याः पुत्रभवनादौ सत्त्वाद् 'गभिण्याः पुत्रो भविष्यति' इत्यादौ 'गर्भिण्याः पुत्रो वभूव' इति लिट: प्रयोगवारणार्थमुक्तमतीतत्वमिति । तदर्थस्तु पूर्ववद्बोध्यः। संयोगसत्त्वदशायामपि “संयुयुजे" इत्यादि प्रयोगोपपत्तये चकारेणोत्पत्तिरनुकृष्यते । तेन तदन्वयः पूर्ववदुत्पत्ताविति सङ्गच्छते। तत्र तदन्वय इत्यस्यातीतत्वस्यान्वय इत्यर्थः। तथा च "कसं जधान" इत्यादी अनद्यतन-वक्तृसाक्षातकाराविषय-वर्तमानध्वंसप्रतियोग्युत्पत्तिककंसकर्मकहननानुकुलकृतिमानित्याद्यन्वयबोधः पर्यवसन्नः। नचानद्यतनत्वस्य परोक्षत्वविशिष्टातीतत्वव्यापकत्वात् पृथग्लिङर्थत्वमनुपादेयमेवेति शङ्कय, अद्यतनस्याप्यतीतस्य कार्यान्तरव्यासक्तचिन्ततया परोक्षत्वसम्भवात् । अनद्यतनत्वपरोक्षत्वातीतत्वसत्त्वेऽपि "अभून्नृपो विवुधसखः परन्तपः” “अध्यास्त सर्वत्त सुखामयोध्याम्" इत्यादिप्रयोगस्य लिङन्तत्वाभावः परोक्षत्वाविवक्षया समाधेयः।
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[ ६७ ] लङर्य निरूपयति लङ इति। अनद्यतनत्वमिति पूर्ववदर्शकम् । तन्मात्रस्य भविष्यत्यपि सत्त्वादाहातीतत्वमिति पूर्ववदर्थकम् । तन्मात्रस्याद्यतनातीतेऽपि सत्त्वादुक्तमनद्यतनत्वमिति। एवञ्च "अगच्छत्" इत्यादी अनद्यतनविद्यमानध्वंसप्रतियोग्युत्पत्तिकगमनानुकूलकृतिमानित्याद्यन्वयवोधः।
विधिलिङोऽर्थं निरूपयति विधिलिङ इति । सुमेरुशृङ्गारोहणादेविधेयत्व. वारणाय सत्यन्तम् । परदाराभिगमनादेविधोयत्ववारणाय बलवदनिष्टाजनकेति । बहुतरवित्तव्ययकायक्लेशादिरुपानिष्ट जनकस्यापि यागादेविधेयत्वाद्बलवत्त्वमनिष्टविशेषणम् । तच्च क्रियाजन्येष्टापेक्षयाधिकत्वेनगृहीतत्वम् । अतएव कामोपहतचेता नरकादौ सुखापेक्षयाधिकत्वमप्रतिसन्धाय परदाराभिगमने प्रवर्तते । अजनकान्तस्य निष्फलजलताड़नादौ सत्त्वात्तत्र विधेयत्वं वारयितुमाहेष्टसाधनत्वमिति । तत्रष्टत्वं तावत् समभिव्याहृतवाक्योपस्थापितकामनाविषयत्वं स्वर्गौदनादिवैदिकलौकिकनानाफलानुगमकम् । अतस्तत्तद्रूपेण तत्तत्फलानां विधिलिङ: शक्यतावच्छेदककोटावप्रवेशान्न शक्तयानन्त्यप्रसङ्गः। यत्र च कामनावाचकं पदं न श्रू यते तत्र तदध्याहार्य्यम् । ततः 'अहरहः सन्ध्यामुपासीत' इत्यादिनित्यविधावपि नानुपपत्तिः सन्ध्यामुपक्रम्याभिहिते ‘सन्ध्यासुपासते ये तु नियतं संशितव्रताः। विधूतपापास्ते यान्ति ब्रह्मलोकमनामयम्' ॥ 'क्षयं केचिदुपात्तस्य दुरितस्य प्रचक्षते। अनुत्पत्ति तथाचान्ये प्रत्यवायस्य मन्वते ॥ इत्यादौ नानाफलश्रवणात् । एवञ्च विधिलिङ तस्तादृशार्थोपस्थितौ सत्यां तस्याश्च प्रवृत्ति प्रतिहेतुत्वात् ततो यागादौ प्रवृत्तिरुत्पद्यत इति "यजेत" इत्यादिविधेः प्रवर्तकत्वमिति भावः। वस्तुतस्तु तादृशविशिष्टज्ञानस्य प्रवृत्ति प्रति हेतुत्वे मानाभावाद्विधेः प्रवर्तकत्वानुरोधेन प्रवृत्तिमन्तर्भाव्य पृथक्कार्यकारणभावकल्पने गौरवाद्विशेष्यविशेषणभावे विनिगमनाविरहेण शक्तिबाहुल्यप्रसङ्गात् "श्येनेनाभिचरन् यजेत" इत्यादिविधेरप्रामाण्यापत्त श्च विशिष्टस्यं विध्यर्थत्वं न युक्त किन्तु कृतिसाध्यत्वादित्रितयस्य स्वातन्त्र्येनैव। नचोक्तत्रितयभन्तर्भाव्य कार्यकारणभावत्रयकल्पनस्यावश्यकत्वात् पुनर्गौरवमिति वाच्यं त्रयाणां क्वचित् कस्यचिद्विध्यर्थतया भानस्यानुभवसिद्धत्वेन गौरवस्य फलमुखतयाऽदोषत्वात् । न च कृतिसाध्यत्वादित्रयाणां विध्यर्थत्वे मानाभाव इति वाच्यं "पंगुगिरि न तरेत्" "तृप्तिकामो जलं न ताड़येत्” “न कलज भक्षयेत्" इत्यादिषु "गिरितरणं पंगुकृतिसाध्यत्वाभाववत्" जलताड़नं तृप्तिकामेष्टसाधनत्वाभाववत्" "कलजभक्षणं बलवदनिष्टाजनकत्वाभाववत्" इत्याद्यन्वयबोधानामुत्पादानुभवस्यैव. मानत्वात् । ना तेषु प्रयोगेषु विशिष्टस्य विध्यर्थत्वं सम्भवति तत्र प्रथमे बलवदनिष्टाजनकेष्टसाधनत्वाभावस्य, द्वितोये कृतिसाध्यत्वविशिष्टबलवदनिष्टाजनकत्वा.
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[ ६८ ] भावस्य, तृतीय कृतिसाध्येष्टसाधनत्वाभावक्ष्य च बाधात्। वस्तुतस्तु "धनं दद्या. स्त्वमस्मभ्यम्" इत्यादिप्रयोगात् प्रार्थनादिकमपि विधिलिङर्थ इत्यन्यत्र वित्तरः।
भट्टाचार्य्यमते तु वाक्यं त्रिविधं विधिनिषेधार्थवादभेदात् । तत्र "स्वर्गकामोऽश्वमेधेन यजेत" इत्यादिभावविधौ विधिलिङर्थस्य धात्वर्थेऽन्वयः। "आरोग्यकामः कुपथ्यं नाश्नीयात्" इत्याद्यभावविधौ च तस्य धात्वर्यान्वितनबर्थेऽन्वयः। तेन तत्र कुपथ्याशनाभाव इष्टसाधनमित्यन्वयवोधः सम्पद्यते। निषेधवाक्येतु "न कलजें भक्षयेत्" "रात्रौ श्राद्ध न कुर्वीत" "परदारान्न गच्छेत्" इत्यादौ विध्यर्थान्वित. नअर्थस्य धात्वर्थेऽन्वय उपगन्तव्यः। तत्र तदेव निषेधवाक्यं यत्कत निविशेषेण प्रयुक्तमुपयुज्यते, अभावविधिवाक्यन्तु न तथेत्यनयोर्भेद इत्यवधे यम् ।
अत्रान्वयवोधस्वरूपमुपदर्शयितुं विधिलिङन्त प्रयोगमुपन्यस्यति स्वर्ग काम इति । पर्यवसितान्वयवोध प्रदर्शयति कृतिसाध्येत्यादि। यागकतेति । यागानुकूलकृतिमानित्यर्थः। तत्र यागो धात्वर्थः, अनुकूलत्वं संसर्गः, कृतिराख्यातार्थः। न च देवतोद्देशेन द्रव्यत्यागरुपयागस्येच्छाविशेषात्मकत्वात् कृतिसाध्यत्वाभावेनोक्तान्वयवोधो न सम्भवतीति वाच्यं यागानुकूलहविः सम्पादनादिरुपव्यापारस्य कृतिसाध्यत्वात् कृतेः परम्परया यागानुकूलत्वसम्भवात् ।
यद्यपि “अल्पस्वरतरं तत्र पूर्वम्" इत्यनुशसनाल्लोटशब्दस्य पूर्वनिपातो युक्त स्तथापि लिङ त्वेन प्रथमोपस्थितत्वादुक्तानुशासनस्यासार्वत्रिकत्वाच्चाशीलिङ शब्दस्य पूर्व निर्देशः । वक्त्रिच्छाविषयत्वमिति । तथा च "चैत्रो दीर्घायु भूयात्' इत्यत्र मदिच्छाविषयदीर्वायुवनाश्रयश्चैत्र इत्यन्वयबोधः । __ 'लोङतप्रयोगे शब्दबोधस्वरुपं दर्शयितुमवतारयति घटमानयेति । यद्यपि कत्रिष्ठत्वे सति वक्त्रनुमतत्वरुपानुज्ञायां "चैत्रः पचतु" वक्त नुमतत्वे सति कत्र निष्ट जनकत्वरुपाज्ञायां "शूलं प्रविश" इत्यादिप्रयोगदर्शनात् पृथक् पृथगेव लोड़ों वाच्य स्तथापि तेषामर्थानामनुगमकमात्रयुक्तं वक्त्रिच्छा विषयत्वमिति । वस्तुतस्तु भावितायामाशीलिंडः, तस्यां वत्त मानतायाञ्चलोटः, आशंसने च द्वयोरर्थत्वमुपेयमेव । तदुक्तं "आशीलिङाशंसनस्य भावित्वस्य च बोधिका" इति "चैत्रोक्ताज्जीवतु भवानिति वाक्याच्चैत्राशंसाविषयवर्तमानजीवनवानित्येवं बोधः" इति च । अतएवाऽनुशासनमपि “भविष्यति भविष्यन्त्याशीः श्वस्तन्यः" पञ्चम्यनुमतावित्यत्र "कत्तुमिच्छतोऽनुज्ञानुमतिः, साच वर्तमानभविष्य द्विषयैव" "समर्थनाशिषोश्च" इत्यादिकम् । भट्टाचार्यास्तु "चैत्रो गच्छतु" इत्यादौ प्रवृत्त्युत्पादस्यावश्यम्भावाल्लोटो विध्यर्थकत्वं वाच्यं, विधिश्च प्रवर्तकज्ञानविषयो धर्मः कृति साध्यत्वादित प्राहुः।
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[ ] लकारार्थविचारमुपसंहर्तुमवष्ठिस्य लुङोऽथ निरूपयति व्याप्यक्रिययेति । क्रिया-धात्वर्थः। लङोऽर्थ इति । तथा च काष्ठञ्चेदप्राप्स्यदोदनमप्यपक्ष्यच्चौत्र इत्यत्रौदनकर्मकपाकक्रियाया व्याप्यत्वात् काष्ठकर्मकप्राप्तिक्रियायाश्च व्यापकत्वापत्तः फलीभूतोऽतीतकालावच्छेदेनौदनपाकाभाव प्रयोजककाष्ठप्राप्त्यभाववांश्चैत्र इत्यन्वयवोधः । वस्तुतस्त्वतीतादिकालावच्छेदेन क्रियातिपात एव लुडोऽर्थः। अतएव तन्त्रान्तरे लुङः क्रियातिपत्तिशब्दाभिलाप्यमपि सङ्गच्छते। क्रियातिपातश्च क्रियाबिरहप्रयोजकक्रियान्तरविरहरूपः क्रियाविरहप्रयुक्तक्रियान्तरविरहरूपो वा न तु सामान्यतः क्रियाप्रतियोगिकाभावरूपोऽतीतकालावच्छेदेन काष्ठप्राप्त्यभाववानोदनपाकाभाववांश्चेति समूहालम्वनं विनोक्तस्थलेऽन्वयबोधस्योपपादयितुमशक्यत्वेन गौरवप्रसङ्गात्। एवञ्चोक्तस्थलेऽतीतकालावच्छेदेन काष्ठप्राप्त्यभावप्रयुक्तौदनपाकाभाववांश्चैत्र इत्यव्यन्वयबोध इति बोध्यम् । लुडो नियमतो नातीतत्वादिबोधकत्वमति प्रसङ्गादत आह तात्पर्य्यवशादिति। काष्ठञ्चेदप्राप्यदित्यादि प्रयोगमभिप्रेत्याह भूतत्वमिति । सुवृष्टिश्चेदभविष्यत् तदा सुभिक्षमप्यभविष्यदित्यादिप्रयोगाभिप्रायेणाह भविष्यत्त्वमिति। तत्र चापत्तेः फलीभूतोऽन्वयबोधस्तु भाविकालावच्छिन्नसुभिक्षभवनाभावप्रयोजकः सुवृष्टिभवनाभाव इत्याद्याकारकः। केचित्तु लङः प्रयोगेऽभावभानमनुपगम्योक्तस्थले काष्ठप्राप्तिनिष्ठापादकतानिरूपितापाद्यतावदुत्पत्त्याश्रयोदनपाक इत्यन्वबोधः, एवभन्यत्रापोति वदन्ति। तच्चिन्त्यम् ॥ ६१॥
॥ तर्कामृतम् ॥ सनः कर्तुरिच्छा अर्थः। सन्नुत्तराख्यातस्याश्रयत्वे लक्षणा, सविषयकार्थकप्रकृतिकाख्यातस्याश्रयत्वे लक्षणाया "घटं जानाति” इत्यादौ क्ल प्तत्वात् ॥ ६२ ॥
॥विवृतिः॥ अथ धात्वंशप्रत्ययानामन्निरूपयितुमभ्यहितत्वादादौ सनोऽर्थं निरूपयति सन इति । इच्छति नैककत कात्त मन्तधातोविहितस्य सन इत्यर्थः। 'गुप्तिक्किद्भ्यः सन्' इत्यादिना विहितस्य स्वार्थिकसन इच्छार्थकत्वविरहेऽपि न क्षतिः। कर्तुरिच्छेति । अत्र क पदं धात्वर्थेनेच्छाया एककर्त्तकत्वज्ञापनार्थं नतु कर्त्तत्वस्य सनर्थघटकत्वार्थं वैयर्यात् । तथा चेच्छ व सनोऽर्थः, तस्याञ्च विषयित्वसमानकर्तकत्वोभयसम्बन्धेन धात्वर्थस्यान्वयः। एवञ्च “पिपक्षति चैत्रः" इत्यादौ स्वसमानकर्त्त कपाकविषयकेच्छाश्रयश्चैत्र इत्याद्यन्वयबोधः। नन्वाख्यातार्थस्य कृतेरभानात् सनर्थेच्छाया स्तस्यामन्वयासम्भवेन कृते र्भानासम्भवाञ्चोक्तान्वयबोधोऽनुपपन्न इत्यत
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[ १०० ] आह सन्नुत्तरेत्यादि। तथाचाख्यातलक्ष्यार्ये आश्रयत्वे सनर्थस्यान्वयसम्भवान्नानुपपत्तिरितिभावः। आख्यातस्याश्रयत्वलक्षकत्वं दृष्टान्तेन द्रढयितुमाह सविषयकार्थकप्रकृतिकेति । तथाच सविषयकार्थकज्ञादिधातोः प्रकृतित्वे यथाख्यातस्याश्रयत्वे लक्षणा तथाऽत्रापि । सविषयकार्थकसनः प्रकृतित्वादिति भावः। ननु "भवति" इत्यादौ भ्वादिधातोरिव "पिपक्षति" इत्यादावपि पचादिधातोरेव तिङ प्रकृतित्वं युक्त, नतु सनः, तस्य तिङ प्रकृतित्वेऽनुशासनाभावात् प्रत्ययत्वाच्च । तथाच दृष्टान्तदान्तिकभावो न सङ्गच्छत इति चेन्न "ते धातवः” इत्याद्यनुशासनेन सनादिप्रत्ययान्तस्य पुनर्धातुसंज्ञाबिधानात् “पिपक्षति" इत्यादौ "पिपक्ष" भागस्य धातुत्वोपगमेनाख्यातप्रकृतित्वस्य तिङश्च सविषयकार्थकप्रकृतिकत्वस्य च सम्भवात् । इत्थञ्च सनादोनां धात्वंशप्रत्ययत्वप्रवादोऽप्युपपद्यते। क्ल तन्वादिति । तत्राख्यातशक्यार्थप्रवेशे कारकविभक्तेः क्रियायामेव स्वार्थबोधकत्वनियमाद् घटविषयकज्ञानपर्यन्तस्य लब्धार्थस्याख्यातशक्यकतावन्वयासम्भवः स्यादतो लक्षणाश्रयणीयेति भावः । नच तत्राप्यनुकूलत्वसंसर्गेन ज्ञानान्तस्य कृताबन्वययुपगम्य घटविषयकज्ञानानु - कूलकृतिमानित्यन्वयबोध उपपादनीय इति वाच्यं आत्ममनोयोगादिघटितसामग्रीत एव ज्ञानोत्पत्तेः कृतेर्ज्ञानानुकूलत्वबिरहात्। ज्ञानाश्रयत्वेनैवकृतकृत्यातायां कृति. पर्यन्तानुधाबने गौरवाच्च । “पिपक्षिषति" इत्यादि प्रयोगस्तु “सनन्तानसनिष्यते" इत्याद्यनुशासनेन बारणीय इति संक्षेपः ॥ ६२ ।।
|| तर्कामृतम् ॥ यङोऽर्थः पौनःपुन्यम् । तत्त्वञ्च इदानीन्तनप्रकृत्यर्थसजातीयक्रियान्तरध्वंसकालीनत्वे सति वर्तमानादिकृतिविषयत्वम् । “पापच्यते" इत्यादौ तादृशकालीनत्वमेव यङा प्रत्याय्यते । आख्यातस्य चरमदलवाचकत्वान्न विशिष्टवाचकत्वं यङः। तदानीन्तनत्वञ्च स्थ लकालमादाय ॥ ६३ ॥
॥ विवृतिः ॥ यङोऽर्थ निरूपयति यङोऽर्थ इति। तत्त्वमिति। पौनःपुन्यत्वमित्यर्थः । इदानीन्तनेति । अत्र क्रियान्तरत्वं न यथाश्रुतं, तथासतीदानी द्विः पक्तरि “पापच्यते" इतिप्रयोगापत्तेः किन्तु कियोत्तरत्वविशिष्टक्रियात्वरूपम् , तथाच प्रकृत्यर्थसजातीयपूर्वदिवसीयपाकोत्तरत्वविशिष्टपाकध्वंसस्येदानीन्तनसकृत्पक्तर्यपि सत्त्वात् "पापच्यते" इति प्रयोगापत्तिरतस्तद्वारणायेदानीन्तनत्वं प्रथमक्रियाया विशेषणम्, नतु प्रकृत्यर्थस्य, अव्यावर्तकतापत्तेः, तच्च प्रयोगाधिकरणीभूतकालवृत्तित्वरूपम् ।
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[ १.१ ] अन्तरा विजातोयक्रिया कर्तरि “पापच्यते” इत्यादि प्रयोगबारणाय सजातीयेत्युभयक्रियाविशेषणम् । साजात्यञ्च प्रकृत्यर्थतावच्छेदकधर्मपुरष्कारेण बोध्यम् । तेन विजातोयक्रियाणां मेयत्वादिना साजात्यस्य सत्त्वेऽपि न क्षतिः। अत्र समानकत कत्वमपि निवेश्यम्, अन्यथा पुमन्तरोयपाकानन्तरं स्वकीयपाकदशायां "पापच्यते'' इति प्रयोगप्रसङ्गः। सजातीयक्रिययो यौंगपद्यानम्युपगमादुक्तं ध्वंसेति । अतीते भविष्यति च काले पाकादिक्रियायाः पौनःपुन्यसम्भवादाहादीति । ननु लड़ादिना वर्तमानत्वादेराख्यातेन च कृते रुपस्थापनसम्भवाद्विशिष्टस्य यर्थत्वे बैयर्थ्यमित्याशङ्कां परिजिहीपुराह पापच्यत इत्यादाविति । आदिना "बोभुज्यते" इत्यादेरुपग्रहः । तादृशकालीनत्वमिति, इदानीन्तनप्रकृत्यर्थसजातीयकियोत्तरत्वविशिष्ट क्रियाध्वंसकालीनत्वमित्यर्थः। प्रत्याय्यत इति। विशेषणतया मूलधात्वर्थे इत्या दः । तथाच "चैत्रः पापच्यते' इत्यादाविदानीन्तनपाकोत्तरत्वविशिष्टपाकध्वंसकालोनपाकविषयककृतिमांश्चैत्र इत्याद्यन्बयवोधः । वस्तुतस्तु यत्र पूर्व दिवसीयान्तिमक्षणद्वये पाकद्वयं कृत्वा परदिवसोयादिमक्षणे पचति तत्रापि "पापच्यते” इति प्रयोगादिदानीन्तनत्वगर्भ पौनःपुन्यत्वं न सम्यक् किन्तु प्रकृत क्रियासजातीयक्रियोत्तरत्वविशिष्टक्रियाध्वंसकालीनत्वरूपमेव तद्वाच्यम् । न च बक्ष्यमाणस्थ लकालमादाय तदुपपादनीयमितिवाच्यं गौरवादिति ध्येयम् । यङो विशिष्टार्थवाचकत्वाभावे युक्तिमाहाख्यातस्येत्यादि। "पापच्यते" इत्यदावाख्याते लट्त्वस्याख्यातत्वस्य च सत्त्वालटत्वेन बर्तमानत्वस्याख्यातत्वेन च कृतरुपस्थितेराह चरमदलवाचकत्वादिति । विशेष्यदललभ्यवर्त्तमानादिकृतिवाचकत्वादित्यर्थः । यच्च विशेष्यदले विषयत्वं तत्तु संसर्गमर्यादालभ्यमिति बोध्यम् । ननु तृतीयादिपाकदशामेव "पापच्यते" इति प्रयोगात्तत्काले च प्रथमपाकस्याभावात् प्रथमपाके प्रयोगाधिकरणीभूतकालवृत्तित्वरूपस्येदानीन्तनत्वस्याभावादसङ्गतिरित्याशङ्कां निराचिकोर्षुराह इदानोन्तनत्वञ्च स्थूलकालमादायेति । अत्र कालस्य स्थ् लत्वमननुगतमेव ग्राह्यम् । तेन यत्र यावता कालेन कृतासु क्रियासु पौनःपुन्यमनुभवसिद्ध तत्र तावानेव कालः स्थूलत्वेनोपादेयः फलबलादिति नानुपपत्तिः।
इदमत्रावधातव्यम्-सर्वत्र पौनःपुन्यमात्र न यर्थः किन्तु “गत्यर्थात्कौटिल्य एव" "लुप्यादेर्गह्यात्" इत्याद्यनुशासनात् "जंगम्यते” इत्यादौ कौटिल्यं "लोलुपते" इत्यादौ च गहितत्वमपि । तदपि पौनःपुन्यमिव मूलधात्वर्थ एवान्वेति । तथाच "जंगम्यते" इत्यत्र दानोन्तनगत्युत्तरत्व विशिष्टगतिध्वंसकालीनकुटिलगतिमानित्यन्वयबोधः। एवमन्यत्राप्यूह्यम् ।........."शुभिरुचिभ्यां न स्यात्" इतिनिषेधात् पुनः पुनः शोभत इत्याद्यर्थे "शोशुभ्यते" इत्यादि नै प्रयोगः। यत्र
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[ १०२ ] चौदनं पक्रवा द्विदलपाकानन्तरं व्यञ्जनं पचति तत्रौदनं द्विदलं व्यञ्जनम्वा पापच्यत इति तु न प्रयोगो व्युत्पत्तिवैचित्र्याद् यङन्तधातूपस्थाप्या तत्तदोदनादिकर्मकत्वाद्यन्वयनियमात्। अतएव यत्र तुषेण पत्तवा कारोषेण पाकोत्तरं काष्ठे न पचति तत्र तुषेण कारोषेण काष्ठे ण वा पापच्यते इत्यपि न प्रयोग इत्यादिकं बहुतरमूहनीयम् ।। ६३ ॥
|| तर्कामतम् ॥ पूर्वकालीनत्वं कर्ता च क्त्वार्थः। पूर्वत्वञ्च सन्निहितक्रियापेक्षया बोध्यम् । तत् पूर्वकालीनत्वं तत्प्रागभावकालवृत्तित्वं तदुत्पत्तिकालीनध्वंसप्रतियोगिकालवृत्तित्वम्वा । तेन "भुक्त्वा व्रजति" इत्यत्र गमनप्रागभावावच्छिन्नकालवृत्तिभोजनकत्तभिन्नो ब्रजतीत्यर्थः। समानविभक्तिकृतामभेदेन धम्मिवाचकत्वात् । अव्ययत्वेन क्वापरविभक्तिलोपात् । कालस्तात्पर्यवशायवहिताव्यवहितसाधारणो बोद्धव्यः । तेन “पूर्वस्मिन्नब्दे समागतः" इत्येतादृशप्रयोगसङ्गतिः॥ ६४ ॥
॥ विवृतिः ॥ अथ कृत्प्रत्ययानामान्निरूपयितु प्रथमतो बहुलप्रयुक्तत्वात् क्त्वाप्रत्ययस्यार्थ निरूपयति पूर्वकालोनत्वमिति । तेन यत्र स्वकीयभोजनात् प्राग्गमनं वृत्तं तत्र "भुक्ता गच्छति" इति न प्रयोगः। तच्च क्त्वाप्रकृतिभूतधात्वर्थोऽन्वेति। असमानकत्त कक्रियायां सन्निदितक्रियापूर्वकालीनत्वसत्त्वेऽपि तत्र क्त्वा प्रत्ययो नेष्टः "समानकर्तृकयोः पूर्वकाले" इत्यनुशासनादत आह कर्ता चेति। क्त्वा प्रकृतिभूतधात्वर्थकर्तेत्यर्थः। तस्य चाभेदेन सन्निहितक्रियाश्रये चैत्रादावन्वयो बोध्यव्यः । यत्र गमनोत्तरभोजने शयनाद्यसन्निहितक्रियापूर्वकालीनत्वमस्ति तत्र 'भुक्त्वा गच्छति' इति प्रयोगवारणार्थ माह सन्निहितक्रियेति । क्त्वान्तसमभिव्याहृतधातूपस्थाप्येत्यर्थः। अत्र सन्निहितक्रियायां क्त्वाप्रकृतिभूतधातूपस्थाप्यकियाव्यवहितो. त्तरत्वमपि निवेश्यं तेन यत्र पचनान्तरं गमनशयनादिकं कृत्वाऽनाति तत्र पचनक्रियायां सन्निहिताशनक्रियापूर्वत्वसत्त्वेऽपि "पक्त वाऽश्नाति" इति न प्रयोगः। पूर्वकालीनत्वपदार्थ विवृणोति तत्पूर्वकालीनत्वमिति । तत् प्रागभावकालेति । तत् प्रागभावावच्छिन्नकालेत्यर्थः। तत् प्रागभावस्य क्रियान्तरव्यवहितानि पूर्वकालेऽपि सत्त्वात् क्त्वाप्रत्ययप्रसङ्गात् कल्पान्तरमाह तदुत्पत्तोत्यादि। सन्निहित्तक्रियाया उत्पत्तिकालावच्छेदेन वर्तमानो यो ध्वंसस्तत्प्रतियोगि कालवृत्तित्वमित्यर्थं । न चैवं यत्र पचनानन्तरं क्रियान्तराणि कृत्वा गच्छति तत्र 'पक्त्वा गच्छति' इति प्रयोगः
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स्याद् गमनोत्पत्तिकालावच्छे देन पचनावच्छेदककालध्वंसस्यसत्त्वादिति वाच्यं तदुत्पत्तिकालीनेत्यनेन तदुत्पत्तिकालोत्पत्तिकत्वस्य विवक्षितत्वात्। एवञ्च सत्रिहितक्रियायां प्रागुक्तमव्यवहितोत्तरन्वं न निवेश्यं प्रयोजनविरहात् । क्त्वान्तप्रयोगे शब्दबोधप्रकारमभिनीय दर्शयितुमाइ तेनेति । पूर्वकालीनत्वस्य क्त्वार्थत्वे. नेत्यर्थः। न च "मुखं व्यादाय स्वपिति" इत्यत्रानुपपत्तिरोष्ठाधरविभागरूपस्य मुखव्यादानस्य स्वापोत्तरकालीनतया सन्निहितक्रियापूर्वकालीनत्वविरहादितिवाच्यं मुखव्यादानानन्तरजयत्किञ्चित्स्थापव्यक्तिपूर्वकालीनत्वमादाय तादृशप्रयोगस्योपपादतीयत्वात् । गमनप्रागमावेत्यादि । इदमुपलक्षणं, द्वितीयकल्पाश्रयणे तु गमनोत्पत्तिकालीनध्वंसप्रतियोगिकालवृत्तिभोजनकर्त भिन्नो गमनानुकूलकृतिमानित्यन्वयबोधो द्रष्टव्यः ॥ ननु भोजनकर्त भिन्नइन्यत्राभेदः कुतो लभ्यते ? न च "नामार्थयो अंदान्वयोऽव्युत्पन्नः" इति व्युत्पत्तेरत्राभेदः संसर्गमर्यादालभ्य इति वाच्यं क्त्वान्तस्याव्ययत्वेऽपि स्वराद्यव्ययभिन्नत्वेन नामत्वविरहादत आह समानविभक्तिकृतामिति । समानविभक्तिककृदन्तानामित्यर्थः । तथाच "भुक्त्वा गच्छति चैत्रः" इत्यादौ चैत्रादिपदोत्तरसुप्सजातीयसुवन्तस्य तथाविधभोजनकत्त भेदपर्यन्तार्थोपस्थापकत्वान्नानुपपत्तिरिति भावः। धम्मिवाचकत्वादिति। धर्म्यन्वयनियमादित्यर्थः। तेन चैत्रादिपदेनैव धर्म्युपस्थापनात् पुनरत्र धम्मिवाचकत्वभुक्त्वेतिशब्दस्य प्रवेशे वैयर्थ्यमित्यपास्तम् । ननु "भुक्त्वा" इत्यत्र विभत्त्यदर्शनात् कथं समानविभक्तिकत्वमित्यत आह अव्ययत्वेनेति। "क्त्वा-तोसुन्-कसुनः" इत्याद्यनुशासनेन क्त्वान्तस्याव्ययत्वसिद्धिरितिभावः। विभक्तिलोपादिति । “अव्ययाच्च" इत्याद्यनुशासनादित्यर्थः। पूर्वकालोनत्वमित्यत्र कालस्य व्यवहितरूपत्वेऽव्यवहितरूपत्वेच व्यवहितकाले क्त्वा-प्रत्ययो न स्यात् । न चेष्टापत्तिः, उभयथैव क्त्वान्तप्रयोगस्य प्रामाणिकत्वादतो व्यवहिताव्यबहितसाधारणकालनिवेशावश्यकत्वं ज्ञापयितुमाह काल इत्यादि। वक्तुरिच्छावशादित्यर्थः। तेनानियमशङ्का प्रत्युक्ता । व्यवहितकाले क्त्वान्तप्रामाणिकप्रयोगमुदाहरति पूर्व स्मिति। यद्यपि कालस्यैकत्वेऽपि क्षणदण्डायपाधिभेदसत्वादुक्तप्रयोगेऽब्दत्वेनाव्यवहितत्वं वक्तुं युज्यते तथापि “पूर्वस्मिन्नन्दे गत्वा तत् पञ्च मेऽब्दे समागतः” इत्यादिप्रामाणिकप्रयोगानुरोधाद्व्यवहितकालोऽपि प्रवेश्य इति ध्येयम् ।। ६४॥
॥ तर्कामतम् ॥ इच्छावान् तुमुलोऽर्थः । “भोक्तुं ब्रजति "इत्यस्य भोजनेच्छावान् व्रजत्तीत्यर्थः । "भोक्तुमिच्छति' इत्यत्रतु कर्तरि लक्षणा। भोजनकर्तारमात्मानमिच्छतीत्यर्थः । "सविशेषणे हि" इति न्यायाद्विशेषणे कृताविच्छान्वयः ॥ ५ ॥
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[ १०४ ]
॥ विवृतिः ॥ तुमुल्प्रत्ययार्थं निरूपयति इच्छाबानिति । तस्य चाभेदेन सन्निहितक्रियाश्रये धम्मिण्यन्वयः। तुमुलन्तप्रयोगे शाब्दबोधप्रकारं दर्शयितुमाह भोक्तुमित्यादि । अच्छायां भोजनस्य कर्मत्वसम्बन्धेनान्वयो बोध्यः। नन्विच्छावतस्तुमुलार्थत्वे यत्र तुमुलन्तोत्तरमिच्छार्थकधातोः प्रयोगस्तत्रे च्छाद्वयभानादनुपपत्तिरित्याशङ्का परिहर्तुमाह-भोक्तुभिच्छतोत्यादि। कर्तरीति । स्वप्रकृतिभूतधात्वर्थकर्तरीत्यर्थः । पटवसितशाब्दबोधमपन्यस्यति भोजनकर्तारमिति। ननु भोजनकरात्मनः सिद्वत्वेनेच्छाविषयत्ववाधात् कथमिच्छाकर्मत्वं सङ्गच्छत इत्यत आह "सविशेषणेहि" इति न्यायादिति । “सविशेषणे हि विधिनिषेधौ विशेषणमुपसंक्रामतः सति विशेष्ये वाधे" इति न्यायादित्यर्थः। तथा च तत्र तद्वाधे ऽपि कर्त्त निष्ठविशेष्यतानिरूपितविशेषणताश्रये कृतौ तत् सत्त्वेन तदन्वय इत्याह विशेषणेकृतावित्यादि ॥६५।।
॥तर्कामतम् ॥ प्रकृतधात्वर्थकर्ता शतृशानचोः, धात्वर्यजन्यफलवान् कर्मशानचोऽर्थः। शत्रादीनां कर्ता वाच्यः। सविषयकप्रकृतिकानामाश्रयत्वे लक्षणा। एवं कर्त्त कर्मकृतां तेन तेन रूपेण कर्ता कर्म च वाच्यम् । भावकृतान्तु नङ धञ्चादीनां प्रयोगसाधुत्वमात्र धात्वर्थातिरिक्तस्य भावकृताऽनुपस्थापनात् ॥६६॥
॥ विवतिः॥ शतृशानचोरथं निरूपयति प्रकृतधात्वर्थकर्तेति ; प्रकृतिभूतस्य धातोः प्रतिपाद्यो योऽस्तित्कर्तेत्यर्थः। शतृशानचोरिति । यद्यप्युक्तप्रत्ययद्वयत्वावच्छेदेन धात्वर्थकर्त्तत्वार्थकत्वं न सम्भवति कर्मशानचः क्रियाजन्यफलबदर्थकत्वादिति द्वयोः सहाभिधानमसङ्गतं तथापि शतृप्रत्ययस्य कर्तरिवाच्य एव विहितत्वात्तत्सहचरितस्य शानचोऽपिकर्तरिविहितस्यैव तदर्थकत्वं बोध्यम् । अतएवाग्रे “कर्मशानचः" इति वक्ष्यति। कर्त्त शतृशानचोरिति वा पाठः। तथा च "पचन्तं चैत्र पश्यति" इत्यत्र व "पचमानं चैत्र पश्यति" इत्यत्रापि वर्तमानपाकानुकुलकृतिमन्तं चैत्र पश्यतीत्यन्वयबोधः। एतयोरतिदिष्ठलट्त्वात् स्वातन्त्र्येण वत्त मानत्वबोधकत्वाद्वा वर्तमानत्वमप्यन्यबोधे भासते। कर्तरि शानचोऽर्थमभिधाकर्मणि तस्यार्थमभिधत्ते धात्वर्थजन्येति । स्वप्रकृतिभूतधात्वर्थजन्येत्यर्थः। तथा च "पच्यमानमोदनमीक्षते" इत्यत्र पचनजन्यफलशालिनमोदनमोक्षत इत्यन्वयबोधः। वस्तुतस्तु विक्लित्तिमन्तमोदनमीक्षत इत्येव तत्रान्वयबोधो जन्यान्तस्य परिचायकतगैवोपपत्तेः
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[ १०५ ] फलवत्येव तयोः शक्तिकल्पनस्य लाघवेन युक्तत्वात् ॥ ननु कर्तुः शत्रादिवाच्यत्वे "जानन्तं चैत्रमुपदिशति" इत्यादावन्वयबोधानुपपत्तिर्ज्ञानानुकूलत्वस्य कृतौ बाधितत्वेनज्ञानानुकूलकृतिमत्त्वरूपज्ञानकत्तत्वाप्रतीरित्याशङ्का लक्षणयापनेतुं भूमिकामाइ शत्रादीनामिति । आदिना कत्त शानच् तृजादेःपरिग्रहः। पचादिधातूत्तरशतृप्रत्ययस्यार्थनिर्णये लक्षणाश्रयणस्याप्रयोजनकत्वादाह वाच्य इति । ईश्वरेच्छोय. बोधजनकत्वनिष्ठप्रकारतानिरूपितविशेष्यताश्रय इत्यर्थः । अतएवानुशासनमपि "कर्तरिकृत्" इत्यादिकम् । शतृप्रत्ययस्य यत्रलक्षकत्वं तादृशप्रयोगामिप्रायेणाह सविषयार्थकप्रकृतिकानामिति । शत्रादीनामिति पूर्वणान्वयः। ज्ञानाद्यर्थकधातूत्तरत्तिनामिति तदर्थः । लक्षणेति । शक्यार्थस्य कर्तु धादितिभावः । तथाचोक्तस्थले "ज्ञानाश्रयं चैत्रमुपदिशति" इत्येवान्वयवोधः। कत्त कर्म विहितकृत्प्रत्ययार्थविचारमुपसंहरति एवमिति । कत कर्मकृतामिति । कर्तरि कर्मणि च वाच्ये बिहितकृत्प्रत्ययानामित्यर्थः। तेन तेन रूपेणेत्यर्थः। कृतिमत्वेन फलत्वेन च रूपेणेन्यर्थः । भावविहितकृत्प्रत्ययानामर्थनिरूपयितुमाह भावकृतामिति । भाववाच्ये बिहितकृत्प्रत्ययानामित्यर्थः। तेन "अकर्तरि कारके संज्ञायाम्" इत्यनेन “आहारः" इत्यादौ कर्मणि बिहितधना धात्वर्थमात्रस्यानुपस्थापनेऽपि न क्षतिः। नङ घनादीनामित्यादिना "नपुंसके भावे क्तः" इत्यादिनानुशिष्टस्य क्त्वादेरुपग्रहः। शत्रादिवद्भावविहितानामतिरिक्तार्थकत्वासम्मवादाह प्रयोगसाधुत्वमात्रमिति। आकाङक्षाविशेषसम्पादकतयेत्यादिः, प्रयोजनमिति शेषः । “भावे घन" इतिसूत्रस्थभावपदस्य समभिव्याहृतधात्वर्थवृत्त्यसाधारणधर्मपरत्वादाह धात्वर्थातिरिक्तस्येति । अनुपस्थापनादिति । उपस्थापयितुमशक्यत्वादिति तदर्थः। तथाच भावकृता धात्वर्थमात्रमुपस्थाप्यत इतिभावः। एवञ्च “पाकं पश्य' इत्यादौ घनाद्युपस्थाप्यस्य पचनादेद्दितीयाद्यर्थकर्मत्वादावन्वयोपपत्तिः, अन्यथा सुवर्थे प्रकारतया धात्वर्थान्वयस्याव्युत्पन्नत्वात् पचनकर्मताकदर्शनान्वयबोधास्तत्र न स्यात् । अतएव च "स्तीक: पाकः” इत्यादि प्रयोगोऽपि प्रमाणम् । अन्यथा पचनादेख्तूपस्थाप्यत्वे तद्विशेषणीभूतस्तोकादिवाचकस्तोकादिपदात् "क्रियाविशेषणानामकत्वं कर्मत्वं नपुंसकत्वञ्च "इत्यनुशासनाद्वितीयापत्तेः । वस्तुतस्तु घनर्थविशेषणत्त तात्पर्येण “स्तोकः पाकः" इतीव धात्वर्थविशेषणत्वतात्पर्येण "स्तोकं पाकः" इत्यपि प्रमाणमितिध्येयम् । न चैवं भावकृत्प्रयोगे कृतेव धातुनापि स्वार्थोपस्थापने बाधकाभावाद्धात्वर्थ द्वयभानापत्तिरिति वाच्यं भावकृत् समभिव्याहारस्य धातुना स्वार्थोपस्थापने बाधकत्वकल्पनात् । न च वैपरीत्ये किं विनिगमकमिति वाच्यं “पाकं पश्य" इत्यादावन्वयबोधानुपपत्तेरेव विनिगम
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१०६ ] कत्वात् । न चैवं प्रयोगसाधुत्वमात्रमित्युक्त न सङ्गच्छते प्रोक्तान्वयबोधोपपत्तेरेव भावकृतां धात्वर्थोपस्थापकत्वप्रयोजनत्वसम्मवादिति वाच्यं तत्र मात्रार्थस्याविवक्षितत्वात् ॥ ६६ ॥
| तर्कामतम् || ननु “नीलं घटमानय" इत्यादौ द्वितीयाद्वयश्रवणत्कर्मद्वयबोधापत्तिः, न तु विशिष्टस्य कर्मत्वमिति चेन्न अत्र विशेषणविभक्तिः साधुत्वाय। अथवा विशेषण विभक्तेरमेदोऽर्थः। अत्रायं विशेषः-द्वितीयपक्षे वाक्यसमासयोः पर्यायता न घटते वाक्ये "नीलं घटं" इत्यादावभेदस्य पदार्थत्वेन प्रकारत्वान्न संसर्गत्वम् । "नीलघटम्" इत्यादौ कर्मधारये लक्षणाया अस्वीकारेणाभेदस्यापदार्थत्वेन संसर्गत्वात् । तथाच वाक्यसमासयोः पर्यायानुरोधेन षष्ठीसमासे "राजपुरुषः" इत्यादौ षष्ठ्यर्थसम्बन्धे लक्षणा न घटते सम्बन्धस्य संसर्गमर्यादालभ्यत्वात्। वस्तुतस्तु विरुद्धविभक्त्यनवरुद्धस्याभेदबोधकत्वव्युत्पत्ते मुख्यार्थराजाभेदस्य बाधेन राजपदस्य राजसम्बन्धिनि लक्षणा। एवं बहुब्रोही चरमपदस्यान्यपदार्थे लक्षणा। तथाच द्वन्द्वकर्मधारयान्यसमासे सर्वत्र तत्तदर्थे लक्षणा || ६७ ॥
॥ विवृतिः ॥ ननु "कर्मणि द्वितीया" इत्यनुशासनात् "नीलं घटमानय' इत्यत्र घटपदोत्तर द्वितीययेव नीलपदोत्तरद्वितीययापि कर्मत्वबोधने बाधकाभावाद् द्विधाकर्मत्वभानं स्यादित्याशङ्कते ननु नीलमित्यादि। कर्मद्वयेति । कर्मत्वद्वयेत्यर्थः। तेन कर्मणो धात्वर्थे साक्षात् सम्बन्धेनान्वयायोग्यत्वेऽपि न क्षतिः। न चासावापत्तिरिष्टेति वाच्यं कर्मत्वस्य गुरुतया द्विधा तत् प्रवेशेऽन्वयितावच्छेदक गौरवापत्तेः। कर्मद्वयव्यवच्छेद्य दर्शयति नस्वित्यादि। विशिष्टस्येति । नीलाभिन्नघटस्येत्यर्थः ॥ आशङ्का निरस्यति नेति । निरसन प्रकारमाह अोति। साधुत्वायेति। आकाङ्क्षाविशेषसम्पादकतया पदसाधुत्वाथिकेत्यर्थः। तथाच विशेषणविभक्त निरर्थकत्वासम्भवान्नद्विधाकर्मत्व बोधप्रसङ्ग इति भावः। नन्वन्यशेवात्रापि द्वितीयायाः सार्थकत्वं युक्त निरर्थकत्वकल्पने बीजाभावादत आह अथवेति । अभेद इति तथाच विशिष्टस्यैव कर्मत्वान्नानुपपत्तिरिति भावः । सोऽयममेदो भेदत्वावच्छिन्नाभावो भेदनिष्ठप्रतियोगिताकाभावोऽन्याहशोवेत्यन्यदेतत् ॥ विशेषणविभक्त निरर्थकत्वे वाक्यसमासयोः पयित्वं सम्भवत्युन्नरौवाभेदस्य संसर्गमर्यादया लभ्यत्वात्, अभेदार्थकत्वे तु नैवमितीममर्थ सयुक्तिकं प्रदर्शयितुमाह अत्रायं विशेष इति ।
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[ १०७ ] विशेषणविभक्त निरर्थकत्वपक्ष इत्यर्थः। वाक्यसमासयोरिति । समासोपयोगिविग्रहवाक्य-समस्यमानसमस्तपदयोरित्यर्थः। पर्यायतेति। विभिन्नानुपूर्वीकत्वे सति समानार्थप्रतिपादकतेत्यर्थः। न घटत इति । कुत इत्याकाङक्षानिवृत्तये आह वाक्ये इत्यादि। वाक्येऽभेदस्य संसर्गत्वे बाधकयुक्ति दर्शयत्यमेदस्य पदार्थत्वेनेति । अम्पदोपस्थाप्यार्थत्वे नेत्यर्थः। प्रकारत्वादिति । तथाचाभेदस्य प्रकारतया भानं प्रति विशेष्यवाचकपदोत्तरविभक्तिसमानविशेषणवाचकपदोत्तरविभाक्तयुपस्थाप्यत्वं तन्त्रमितिभावः। न संसर्गत्वमिति। न चैवं "अभेदश्च प्रातिपदिकार्थे स्वसमानविभक्तिकेन स्वाव्यवहितपूर्ववत्तिना च पदेनोपस्थापितस्यैव संसर्गमर्यादया भासते। यथा 'नीलो घटः' 'नीलं घटमानय' इत्यादौ घटादौ नीलादेः" भट्टाचार्य्यवचनविरोध इतिवाच्यं सिद्धान्ते "अभेदस्य संसर्गमर्यादयाभानन्तु समासस्थल एव, तत्र लुप्तविभक्त्यनुसन्धानं विनापि शाब्दबुद्ध रानुभाविकत्वात्" इत्यनेन सन्दर्भेन भट्टाचाय्यैरपि वाक्येऽभेदस्य प्रकारतया भानस्य स्वीकृतत्वात् । विशेष्यपदार्थे विशेषणपदार्थान्वयप्रयोजकस्य प्रकारतया भानासम्भव एव संसर्गमर्यादया भानस्याम्युपेतव्यत्वादिति भावः। नचैतन्नियमो निष्प्रमाणक इति वाच्यं शाब्दबोधे प्रकारतया भानं प्रति वृत्तिज्ञानजन्योपस्थितिविषयत्वस्य प्रयोजकत्वात, आकाङ्क्षा भास्ये च संसर्गे तद्वाधात् । यद्यप्यन्विताभिधानवादिभिर्मोमांसकगुरुभिः संसर्गेऽपि शक्तः स्वीकारादभेदादेः संसर्गमर्यादयाभानमनादेयमेव तथाव्यवश्यक्ल प्ताकाङक्षाभास्यत्वेनैवोपपत्तौ संसर्गे शक्तिकल्पने गौरवेण नैयागिकै स्तेषां मतस्य दूषितत्वान्नानुपपत्तिरिति ध्येयम् ॥ वाक्येऽभेदस्य संसर्गत्वाभावमुपपाद्य समासे तस्य संसर्गत्वमुपपादयितुमाह नोलघटमित्यादाविति । ननु “नोलघटम्" इत्यादौ नीलपदस्य नोलाभेदत्वावच्छिन्ने लक्षणयैव शाब्दबुद्ध रुपपत्तेरभेदस्य संसर्गत्वस्वीकारोऽनतिप्रयोजनक इत्याशङ्कामपनेतुमाह लक्षणाया अस्वीकारेणेति। शक्त्यैव चरितार्थत्वे लक्षणाश्रयणस्यान्याय्यत्वादिति भावः। अतएव "निषादस्थपति याजयेत्' इत्यत्र लक्षणापत्ते न तत्पुरुषः किन्तु कर्मधारय एव लक्षणाभावादिरयुक्तम् । वस्तुतस्त्विदभुपलक्षणं, लुप्तविभक्त्यनुसन्धान विनाप्यन्वयबुद्ध रानुभविकत्वेनेत्यपि बोध्यम् ॥ ननु वाक्यसमासयोः पर्यापतार्थ मणिकृता “राजपुरुष इत्यादौ पूर्व्यपदे षष्ठ्यर्थसम्बन्धे लक्षणा" इत्युक्त न सङ्गच्छते "नोलं घटम्" "नोलघटम्" इत्यादावुक्तरीत्या वाक्यसमासयोरपर्यायत्वस्य दृष्टत्वादित्याह तथाचेति । उक्तकर्मधारये वाक्यसमासयोरप-यत्वे चेत्यर्थः। पर्यायानुरोधेनेति । यथा "राज्ञः पुरुषः" इति वाक्यो षष्ठ्यर्थः सम्बन्धः पुरुषे प्रकारविधयान्वेति तथा "राजपुरुषः" इति समासेऽपि राजपदलक्षितस्य राजसम्बन्धस्य पुरुषे प्रकार
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[ १०८ ] विधयान्वयसम्भवात् पर्यायता सम्भवतीति भावः। किन्तूक्तकर्मधारयतद्वाक्ययो र्यथाऽपर्यायता तथात्राप्यव्यता स्यात् किं लक्षणाश्रयेणेत्याह लक्षणा न घटत इति । तथाच विग्रहवाक्यानां समासपर्यायत्वरक्षणार्थमेव समासे लक्षणा स्वीक्रियत इति सिद्धान्तव्याकोप इति भावः। कुत इत्याकाङ्खायामाह सम्बन्धस्य संसर्गमर्यादा लभ्यत्वादिति । सम्बन्धस्याकाङक्षाभास्यत्वादित्यर्थः। संसर्गमर्यादया भासमानस्य प्रकारविधयान्वया योग्यत्वादिति भावः।
नन्वेवं "राजपुरुषः" इति तत्पुरुषे राजपदलक्षितार्थस्य पुरषपदार्थे तादात्म्याति. रिक्त सम्बन्धे नान्वयात् “नामार्थयो भेदेनान्वयोऽव्युत्पन्नः" इति सिद्धान्तविरोध इत्यत आह वस्तुतस्त्विति । विरुद्धविभक्तयनवरुद्धस्येति । धम्मिवाचकपदोत्तरविभक्तिरहितस्येत्यर्थः। पूर्वपदस्येति शेषः। “नीलमुत्पलम्" इत्यादावभेदबोधकत्वहान्यापत्तेविरुद्ध ति विभक्तिविशेषणम् । अभेदाबोधकत्व व्युत्पत्तेरिति । तथाच "राजपुरुषः' इत्यत्र राजपदस्य विरुद्धविभक्त्यनवरुद्धत्वेनाभेदबोधकत्वाद्राजाभेदस्य च पुरुषे बाधाल्लक्षणावश्यमभ्युपेयेति भावः। मुख्यार्थान्वयबाधस्यैव सर्वत्र लक्षणावीजत्वादुक्त मुख्यार्थेति । राजसम्बन्धिनि लक्षणेति । तथाच सम्बन्धिनस्तादात्म्येन धम्मिण्यन्वय सम्भवान्नोक्त सिद्धान्तव्याधात इति भावः ।।
नचैवं समासे राजपदस्य राजसम्बन्धिनि लक्षणास्वीकारे समासविग्रहयोः पर्यायत्वहान्यापत्ति क्येि षष्ठ्या सम्बन्धिनोऽनुपस्थापनात् "शेषेषष्ठी" इति सूत्रोण स्वस्वामिभावादिसम्बन्ध एव षष्ठीविधानान्नतु सम्बन्धिनीति वाच्यं विशेषण विभक्तेरभेदार्थकत्वपक्षे कर्मधारये वाक्यसमासयोरपोयत्वस्येव तत्पुरुषेऽपि वाक्यसमासयोरप-यत्वस्येष्टत्वात् । अतएव "राजपदादौ राजसम्बन्धिनि लक्षणा, तस्य च पुरुषेण सहाभेदान्वयः" इति सिद्धान्तमुत्तावलीकृतः। नचैवं “राजपुरुष इत्यादिकस्तु तत्पुरुषो न पूर्वपदलक्षितराजसम्बधिनस्तादात्म्येनान्वयबोधकः समासबिग्रहयोस्तुल्यार्थकत्वहान्यापत्तेः" इति 'शब्दशत्तिप्रकाशिका' सन्दर्भविरोध इति वाच्यं निपातस्थल इव तत्पुरुषेऽपि नामार्थयोर्भेदान्वयमुपगम्यैव तदुक्तत्वात् । अतएव "यथाच नामार्थयी देनान्वयेऽपि न क्षति स्तथोपरिष्टाद्वक्ष्यते” इति तौवोक्तम् ।
नामार्थयोरभेदान्वयोपपत्तये यथा तत्पुरुषे लक्षणाऽभ्युपेतव्या तथा बहुब्रीहावपोति सूचयितुमुक्तमेवमिति। बहुव्रीही लक्षणया आवश्यकत्वेऽपि "चित्रगुरस्ति" इत्यादौ चित्रग्विति समुदयस्य लक्षणा न सम्भवति वाक्यत्वेन लक्षकत्वायोगात्। नापि केवल चित्रपदस्य, तस्य प्रथमान्तत्वाभावेन तदर्थेऽस्तित्वान्वयायोगात् प्रथमान्तपदोपस्थाप्यस्यैवार्थस्य भावनाविशेष्यत्वनियमादत उक्त चरमपदस्येति । अन्यपदार्थ
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[ १.६ ] इति । चरमपदार्थ सम्बन्धिनीत्यर्थः। तथा चैकदेशान्वयस्वीकारे चोक्तस्थले गोपदस्य गोस्वामिनि लक्षणा, गवि चित्रपदार्थस्याभेदान्वयः। एकदेशान्वयानभ्युपगमेतु गोपदस्यैव चित्रगोस्वामिनि लक्षणा, चित्रपदं तादृशर्थे तात्पर्य ग्राहकमिति संक्षेपः। __ कर्मधारय तत्पुरुषाव्ययोभावबहुबोहिद्वन्द्वानां मध्ये बहुव्रीहितत्पुरुषयो लक्षणाया आवश्यकत्यस्य प्रतिपादितत्वात् "उपकुम्भम्" इत्यादावपि कुम्भसम्बन्ध्यभिन्नं समीपमित्याद्यन्वयबोधोदयात् कुम्भादिपरपदस्य कुम्भादिसम्बन्धिनि लक्षणाया अभ्युपेतव्यत्वात् फलितार्थमुपसंहरति तथाचेति । "धवरवदिरौ छिन्धि" "पाणिपादं वादय" इत्यादि द्वन्द्व “नोलोतप्लम्" इत्यादि कर्मधारये च लक्षणां विनैव धवखदिरकर्मताकच्छेदन विषयकस्य, करचरणकर्मताकादनविषयकस्य, नोलाभिन्नोत्पलविषयकस्य चान्वयबोधस्योत्पत्तेराह द्वन्द्व कर्मधारयान्यसमास इति । नचेतरेतर द्वन्द्व "धवखदिरौ" इत्यादावन्वयबोधे साहित्यभानार्थ खदिरादिपदस्य धवखदिरादिसाहित्ये लक्षणाश्रयनीयेतिवाच्यं तत्र साहित्यस्याननुभवात् साहित्य. शून्ययोरपि घटत्वपटत्वाद्योोधे “घटत्वपटत्वे" इत्यादि द्वन्द्वदर्शनात् साहित्यस्य दुन्निवचत्वाच। नापि समाहारद्वन्द्वे "पाणिपादम्" इत्यादौ पादाद्युत्तरपदस्य पाणिपादादिसमाहारे लक्षणा, समाहारस्याननु भवाद्दुर्चचत्वाद् . गौरवाच्च। तथापि तस्य समाहारसंज्ञया व्यपदेशस्तु "द्वन्द्वै कत्वम्” इत्या. दिनानुशिष्ट कवचनसाधुत्वायेतिबोध्यम्। वस्तुतस्तु समस्यमानपदार्थतत्तावच्छेदकभेद एव “चार्थेद्वन्द्वः" इति सुत्रोण द्वन्द्वविधानात्तत्राभेदान्वयोपपत्तये लक्षणा कल्पनप्रयासः प्रयास एव । अत्र कर्मधारयपदं द्विगोरप्युपलक्षकं तत्रपि विनालक्षणामभेदेनान्वयबोधस्यानुभविकत्वात् तथाहि “पाञ्चपुरुषिः" "पञ्च गवधनः" "पञ्चपुलो" इत्येतेषु तद्धितार्थोत्तरपदसमाहार. द्विगुषु पञ्चानां पुरुषाणामपत्यं, पञ्चताबोधनमस्य, पञ्चानां पुलानां समाहार इत्येभि ाक्यैः पुरुषादि पदार्थे पञ्चपदार्था भेदान्वयः सूपपन्नः। एवमन्यत्रापि। तत्तदर्थे इति । यत्र समासे यत् पदार्थे यत् पदस्य लक्षणा युक्ता तत् समासे तत् पादार्थे तत् पदस्य लक्षणेत्यर्थः। इत्थञ्च वैयाकरणानां समासे शक्तिकल्पनं न साधीयः, पदशक्त्यैव निर्वाहाद् गौरवाच ॥ ६७ ॥
॥ तर्कामतम् ॥ एवं नओऽर्थोऽमावः। “अघटं भूतलम्" इत्यादौ घटभिन्ने लक्षणा। "न कलज भक्षयेत्" इत्यादौ वलवदनिष्टजनकत्वे लक्षणा || ६८ ॥
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[ ११० ]
॥ विवृतिः ॥ ___ संक्षेपतः समासविचारं समाप्य प्रसङ्गतो नबर्थ निरुपयितुमाह एवमिति । नर्थ इति। नत्रो मुख्यार्थ इत्यर्थः। अभाव इति । अत्यन्ताभाव इत्यर्थः। नन्वेवं "अघट भूतलम्' इत्यादावत्यन्ताभावाप्रतीतेरव्याप्तिरित्याशङ्कां परिजिहीर्षुराह अघटमित्यादि। अत्राकारान्ताव्ययीभावसमासतयामन्तता बोध्या । इत्यादावित्यादिना 'अपङ्कजं सरः' इत्यादेः परिग्रहः । अव्ययोभावसमासस्याव्ययत्वेऽपि निपातत्वाभावेन भेदान्वयबोधकत्वासम्भवादभेदान्वयोपपत्तये पूर्वपदलक्षणावश्यकीत्याह घटमिन्ने इति । तथाच तत्र घटभिन्नं भूतलमित्यन्वयवोधः सम्पन्न इति भावः। एवञ्च तत्र भेदेऽपि शक्तिकल्पने भेदत्वस्य गुरुतया शक्यतवच्छेदकगौरवापत्तेराह लक्षणेति । नत्र पदस्य लक्षणेत्यर्थः। तथाच घटपदस्य तात्पर्यग्राहकत्वमात्रमिति भावः । न च तत्र घटपदस्य घटभिन्ने लक्षणा नअस्तात्पर्य ग्राहकत्वं कुतो न स्यादिति वाच्यं तथाविधलक्षणाया अनुभ्यपगमात् । इत्थञ्च 'भूतले घटो नास्ति' इत्यादावेव नबो मुख्यार्थतेति तात्पर्यम् ।
अथ विधिप्रत्ययसमभिव्याहृतननः प्रयोगे समाधानप्रकारमाह न कलञ्जमित्यादि । इत्यादावित्यादिना 'परदारान्न गच्छेत्' इत्यादेरुपग्रहः। लक्षणेति । नत्र पदस्य लक्षणेत्यर्थः। एवञ्च तत्र कलञ्जभक्षणमनिष्टजनकमित्यन्वयबोध इति भावः। 'नच तत्र नजात्यन्ताभावस्य विधिलिङा च वलवदनिष्टाननुवन्धीष्टसाधनताया बोधनात् कलञ्जभक्षणं वलवदनिष्टाननुबन्धीष्टसाधनत्वाभाववदित्यन्वयबोध: स्यात् कि लक्षणयेति वाच्यं प्रत्ययानां प्रकृत्यान्वितस्वार्थवोधकत्व व्युत्पत्तिभङ्गप्रसङ्गाद्विध्यर्थे धात्वर्थस्यानन्वयात् । अतएव तत्र विनैव लक्षणां कलञ्जभक्षणाभावोवलवदनिष्टाननुवन्धीष्टसाधनमित्यपि नान्वययबोधो विधिप्रत्ययसमभिव्याहृत नन प्रयोगे नअर्थमुख्यविशेष्यकान्वयबोधस्यव्युत्पन्नत्वाच्च । एवञ्च तत्र विधिलिङस्तात्पर्य ग्राहकत्वमात्रमिति बोध्यम् ।
एतच्च नमोऽत्यन्ताभावमुख्यार्थकत्वं मणिकृतां मतेनैव समर्थनीयम् । तैरेव 'न पचति' 'भूतले न घटः' इत्यादौ नो मुख्यार्थत्वमित्युक्तत्वात्। वस्तुतस्तु संसर्गाभावोऽन्योन्याभवश्च नत्र पदशक्यः । शक्यतावच्छेदकञ्च लाघवादखण्डोपाधिरूपमभावत्वमन्योन्याभावत्वञ्च। तत्राभावत्वं ध्वंसादित्रितयसाधारणम् । 'भूतले न घटः' इत्यत्रात्यन्तामावस्य, 'श्यामघटे रक्तं रूपं नास्ति' इत्यत्र रक्तरूपप्रागभावस्य, 'रक्तघटे श्यामरूपं नास्ति' इत्यत्र श्यामरूप ध्वंसस्य, 'घटो न पट:' इत्यत्रान्योन्याभावस्य नना प्रत्यायनात् । एवं 'न कलज भक्षयेत्' इत्यत्रापि
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[ १११ ] कलञ्जभक्षणं' वलवदनिष्टाजनकत्वाभाववदित्येवान्वयबोधो विधिना वलवदनिष्टाजनक ताया नना चात्यन्ता भाव स्पोपस्थापनात्। न च धात्वर्थान्वितविध्यर्थाबोधात् प्रत्ययानां प्रकृत्यान्वितस्वार्थबोधकत्वव्युत्पत्तिभङ्गप्रसङ्ग इति शङ्कयं विधिप्रत्यय. समभिव्याहुते तअपदे ताहशव्युत्पत्तिवैचित्र्योपगमात् । इत्थञ्च 'तृप्तिकागो जलं न ताड़येत्' इत्यादाविष्टसाधनत्वाद्यभावान्वयबोधोऽनुभवसिद्ध उपपद्यते । तथाच 'घटो न पटः' इत्याद्यनुरोधेनान्योन्याभावत्वे नत्रपदप्रवृत्तिनिमित्तत्वस्यावश्यमम्युपेयत्वात्तत एव 'अवट भूतलम्' इत्यादावप्युपपत्तेस्तत्र लक्षणाश्रयणमप्रयोजनकमित्यवधेयम् || ___ यत्त "अनिक्षुः शटः" इत्यादौ सादृश्यस्य "अघटः पटः" इत्यादावन्यत्वस्य "अनुदराकन्या" इत्यादी स्वल्पतायाः "अब्राह्मणो वार्द्धषिकः" इत्यादावप्राशस्त्यस्य "असुरोदैत्यः" इत्यादी विरोधिनो नत्रावोधनात् सादृश्यादीनामपि नञ् पदवाच्यत्वं सिध्यति। तदुक्तं "तत् सादृश्यभभावश्च तदन्यत्वं तदल्पता। अप्राशस्त्यं विरोधश्च नत्रर्थाः षट् प्रकोत्तिताः" इति वैयाकरणमतं तन्न साधीय स्तत्तदर्थस्य शक्यत्वे गुरतरबहुतर शक्यतावच्छेदककल्पनगौरवप्रसङ्गात्। नत्रो लक्षणयैव तत्तत्प्रयोगस्योपपादनीयत्वात् ।
स च नत्र प्रसज्य प्रतिषेधतया पर्युदासतया च परिभाष्यते। यथा "अभुक्ता भवता नाथ ! मुहर्तमपि सा पुरा" इत्यादौ स्वार्थस्य निषेधस्य विधेयत्वान्ननः प्रसज्यपतिषेधार्थत्वम् । तदुक्तं "अप्राधान्यं विधेर्यत्र निषेधे च प्रधानता। प्रसज्यप्रतिषेधोऽसौ क्रियया सह यत्र नत्र " इति । "जुगोपात्मानमत्रस्तो भेजे धर्ममनातुरः "इत्यादौ च स्वार्थस्थ निषेधस्य विधेयतयानवगमादत्रस्तत्वादिकमनूद्यात्मगोपनाद्येव विधेयमतो नञः पर्युदासता। तदुक्तं-"प्राधान्यञ्चविधेर्यत्र चाप्रधानता। पर्युदासः सविज्ञ यो यत्रोत्तरपदेन नत्र " इति। एवञ्च "ज्वरितो नान्नमश्नीयात्" "अष्टम्यां मांसं नाश्नीयात्" "पर्वणि दारान्न गच्छेत्" इत्यादौ नमः प्रसज्यप्रतिषेधार्थत्वमन्नाशनाभावादेरेव विधेयतया प्राधान्यात्। “रात्रौ श्राद्धन कुर्वीत" "नोद्वहेद्रोगिनी कन्याम्" "नोपेयादनृतौ भार्याम्" इत्यादौ च नत्रः पर्य्यदासत्वं, प्रथमे "अमायां पितृभ्यो दद्यात्" इत्यनेन, द्वितीये "अरोगिनी भ्रातमतीमुद्वहेदविशङ्कितः "इत्यनेन, तृतीये "ऋतुकालाभिगामी स्यात्" इत्यनेन च वाक्येनैकवाक्यतया रात्रीतरामावस्याधिकरणकश्राद्धकरणस्य, रोगिनीतरभातृमतीविवाहस्य, अनृत्ववच्छेदकेतरकालाधिकरणकभार्यागमनस्य विधेयत्वेन प्राधान्यात्। तचोक्त प्रयोगेषु रात्रधिकरणकश्राद्धाभाव-रोगिणीकन्योद्वाहाभाव-ऋत्वनवच्छेदककालावच्छिन्न भार्यागमनाभावानामेव विधेयत्वमतएव प्रधान्यञ्चास्त्विति वाच्यं "अर्थोक्यादेकं
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[ ११२ ]
वाक्यं साकाक्षंञ्चेद्विभागे स्यात्" इत्यनेन जैमिनिना सम्भवत्येकवाक्यत्वे वाक्यभेद कल्पनाया अनादेयत्वस्याभिहितत्वात् । अत्र च दर्शितवाक्यै रेकवाक्यत्वस्य सम्भवेनोक्ताभावानां विधेयत्वासम्भवात् । अन्यथा वाक्यभेदाद् गौरवापत्तेः ॥ ६६ ॥
॥ तर्कामृतम् ॥
क्रियासङ्गतस्य एवकारस्यात्यन्तायोगव्यवच्छेदोऽर्थः । यथा " नीलं सरोजं भवत्येव" । विशेषणसङ्गतस्यायोगव्यवच्छेदः । यथा "शङ्खः पाण्डुर एव" । विशेष्यसङ्गतस्यान्ययोगव्यवच्छेदः । यथा "पार्थ एव धनुर्द्धरः" इत्यादौ । एवं दिशा सर्व्वत्र बोध्यम् ॥ ६९ ॥
॥ * ॥ इति श्रीमन्महामहोपाध्याय जगदीश तर्कालङ्कार विरचितं तर्कामृतं समाप्तम् ॥ * ||
॥ विवृतिः ॥
नत्र निपातस्यार्थ निरूप्य एवकाररूपनिपातान्तरस्य त्रिविधस्यार्थं क्रमेण निरूपयितुमाह क्रिया सङ्गतस्येत्यादि । क्रियासङ्गतस्येत्यस्य क्रियावोधकशब्द समभिव्याहृस्येत्यर्थः । तेन " रूपवान् घटो मवत्येव" "सविषयकं ज्ञानं भवत्येव” इत्यादौ तिङन्ता व्यवहितोत्तरबत्तिनोऽप्येवकारस्य तिङन्त समभिव्याहृतत्वाभावान्नान्तायोग व्यवच्छेदार्थकत्वम् ; नचोक्तस्थलद्वये एवकारस्य तिङन्तेन सहान्वयमुपगम्यात्यन्तायोग व्यवच्छेऽार्थकत्वं कुतो नोपेयत इति वाच्यं एवकारस्य क्रियार्थकशब्दसमभिव्याहारं प्रति विशेष्ये विशेषणायोग प्रसिद्ध रेव नियामकत्वोपगमात् । एवञ्चात्र रूपाभावे घटवृत्तित्वस्य सविषयकत्वाभावे ज्ञानवृत्तित्वस्य चाप्रसिद्धत्वादेवकारस्य न क्रियार्थकशब्दसमभिव्याहृतत्वमतएव च नात्यन्तायोगव्यवच्छेदार्थकत्वमपि, किन्तु विशेष्ये विशेषणायोगाप्रसिद्ध रेव विशेषणार्थक पद समभिव्याहारं प्रतिनियामकतया रूपाभावस्य घटे, सविषयकत्वाभावस्य च ज्ञानेऽप्रसिद्धत्वेनायोग व्यवच्छेदार्थकपदसमभिव्याहृतत्वमपि ।
अत्यन्तायोगव्यवच्छेद इति । विशेषण सङ्गतैवकारस्थलेऽति व्याप्तिवारणार्थमत्यन्तत्वमयोगपदार्थेऽभावे विशेषणम् । तदर्थश्च विशेष्यतावच्छेदक धम्मविच्छेद्यत्वम् । एवञ्च विशेष्ये विशेषणस्य योऽत्यन्तमयोगः - विशेष्यतावच्छेदकधर्म्मावच्छेदेन विशेषणाभावः, तदव्यवच्छेदः - तदभाव इत्यर्थः । " नीलं जलम्" इत्यादौ विशेषणभावे विशेष्यतावच्छेदकधर्माविच्छेद्यत्वमस्तीत्यन्तायोगः । अत्रतु नीलाभावस्थ
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[ ११३ ] सरोजत्वावच्छेदेनासत्वात् तन्नास्तीत्यन्तायोगव्यवच्छेदः। तथाच विशेषणे विशेष्यतावच्छेदकव्यापकीभूताभावाप्रतियोगित्वमत्यन्तायोगव्यवच्छेद इति फलितार्थः। केचित्त्वत्यन्तत्वमयोगव्यवच्छेदस्य विशेषणमित्याहुः। तन्मन्दम् । अयोगव्यवच्छेदस्यायोगप्रतियोगिपर्यवसन्नस्यात्यन्तत्वविशेषणवैयत्तिदत्यन्तत्वस्य दुनिवचत्वाच्च । उदाहरति यथा-नीलमिति । तथाच सरोजत्वव्यापकीभूताभावा. प्रतियोगिनीलत्ववत् सरोजमिति तत्रान्वयबोधः।।
विशेषणसङ्गतस्येति । विशेषणबोधकपदसमभिव्याहृतस्येत्यर्थः । न च विशेषणबोधकपदाव्यवहितोत्तरवत्तित्वमेव विशेषणसङ्गतत्वमस्त्विति वाच्यं तदभावेऽप्युक्तस्थलद्वयेऽयोगव्यवच्छेदस्य बोधात् । वस्तुतस्तु कारकार्यान्वितधात्वर्थसमभिव्यारूतेनैवकारेण "ज्ञानमर्थं गृह्णात्येव" इत्यत्र ज्ञानेऽर्थविषयकत्वायोगव्यवच्छेदस्य "द्विजो वेदमधीत एव" इत्यत्र च द्विजे वेदाध्ययनायोगव्यवच्छेदस्य च बोधनात् विशेषणनङ्गतस्येतुपलक्षणं बोध्यम् । नचावकारः क्रियासङ्गत एवात्यन्तायोगव्य. वच्छेदं बोधयत्युपलक्षणाश्रयणमप्रयोजनकमिति वाच्यं ज्ञानविशेषणीभूतार्थ विषयकत्वस्याभावे ज्ञानवृत्तितायाः, द्विजविशेषणीभूतवेदाध्ययनस्याभावे द्विजवृत्तितायाश्चाप्रसिद्धत्वेन क्रिया सङ्गतत्वनियामकाभावात्। अयोगव्यवच्छेद इति । विशेषणस्य योऽयोगः-अभावः, तस्य व्यवच्छेदः-अभाव इत्यर्थः। तथाच विशेषणे विशेष्यतावच्छेदकसमानाधिकरणाभावाप्रतियोगित्वमयोगव्यवच्छेद इति भावः। उदाहरणमाह यथा शङ्ख इति । एवञ्च शङ्खत्वसमानाधिकरणाभावा प्रतियोगिपाण्डरत्ववान् शङ्ख इति तत्रान्वयबोधः ।
विशेष्यसङ्गतस्येति। विशेष्यबोधकं यत्पदं तत् समभिव्याहृतस्येत्यर्थः । एवकारस्येति पूर्वेणान्वयः। अन्ययोगव्यवच्छेद इति । विशेष्यपदार्थादन्यस्मिन् विशेषणपदार्थस्य योग:-सम्बन्धः, तस्य व्यवच्छेदः-अभाव इत्यर्थः। तथाच विशेषणे विशेष्यान्यवृत्त्यभावप्रतियोगित्वमन्ययोगव्यवच्छेद इति भावः। न चात्राप्यत्यन्तायोगव्ययच्छेदोऽयोगव्यवच्छेदो वाऽर्थ आस्तां किमन्ययोगव्यवच्छेदस्य पृथगर्थत्वकल्पनेनेतिवाच्यं क्वचिद्विशेव्ये विशेषणासत्त्वेऽत्यन्तायोगव्यवच्छेदस्य, सव्वं विशेष्ये विशेषणसत्त्वे त्वयोगव्यवच्छेदस्य सम्भवात्। अत्र च विवक्षितस्य विशेष्यभिन्ने विशेषणाभावस्य यो वोधस्तस्य ताभ्यामनिर्वाहात् । अत्रोदाहरणमाह यथा पार्थ एवेति । अजन एवेत्यर्थः । तेन पृथापत्यत्वस्य युधिष्ठिरादौ ‘सत्त्वेऽपि न क्षतिः। धनुर्द्ध र इति । प्रशस्तधनुर्द्धर इत्यर्थः। तेन धनुर्द्ध तिमत्त्वस्य दुर्योधनादौ सत्त्वेऽपि न क्षतिः। तथाच अर्जुनान्यवृत्त्यभावप्रतियोगिप्रशस्त. धनुर्द्धरत्ववानज्र्जुन इति तत्रान्वयवोधः ।
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[
१४]
सर्वेषामर्थ निरूपपस्यात्रा सम्भवादिववा कारादीना
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निपातानामसङ्घयत्वात्तेषां
मर्था यथायथं निर्व्वचनीया इत्याशयेनाह एवं दिशेति ॥ ६६ ॥
॥ इति श्रीजीवनकृष्णतर्कतीर्थ प्रणीता
तर्का मृतविवृत्ति समाप्ता ॥
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... | उपसंहारः॥
गभोरज्ञानसम्पत्त्या जगदीशायते इति । यस्यास्ति महती व्याप्तिर्जागदीश्यादितः क्षितौ ॥ १ ॥ जगदीशस्य तस्यातिदुस्तरवचनाम्बुधिम् । अल्पज्ञानोडुपैस्ततु साहसे मे प्रभुविभुः ॥ २ ॥ भूमात्प्रमादतो वात्र दुरुक्तं स्लिखितञ्च मे । शोधयन्तु वुधा मान्याः कृपया पूरयन्तु च ॥ ३ ॥ श्रीलशिरोमणिः पूज्यो रघुनाथशिरोमणिः । यत्र समुदितश्चित्रामणिदीधितियोगतः ॥ ४ ॥ कुतर्क ध्वान्तमुन्मथ्य तर्कतत्त्वमदीपयत् ।। 'श्रीहट्ट' तत्र विख्याते विद्वन्मण्डलमण्डिते ॥ ५ ॥ अस्ति 'हिङ्गाजिया' ग्रामः प्रसिद्धस्तत्रजन्मभाक् । विप्रः श्रीजीवनकृष्णतर्कतीर्थो विदाम्वरः ॥ ६॥ ढाकायां विश्वविज्ञाते विश्वविद्यालये शुभे । सारस्वतसमाजाख्ये प्रायेणार्द्ध शताब्दकम् ॥ ७ ॥ न्यायाद्यखिलशास्त्राणामध्यापनेषु तत्परः । अध्याप्यशतश श्छात्रान् भूयसीं ख्यातिमाप्नुवन् ॥ ८॥ सारस्वतसमाजस्य सभापतिपदं परम् । अतिमानमलङ्क,त्य न्यायाचार्यः सतां मुदे । ६ ॥ निर्माय मौलिक ग्रन्थं 'न्यायप्रकाशिका' भिधम् । गूढार्थया 'विबृत्या' तं परिवर्द्ध प्रयत्नवः ॥ १० ॥ तत 'एकादशीश्राद्ध वैष्णवकृत्यनिर्णयम्' । निवन्धं 'नवरत्न':च कृतवान्नवतत्त्वकम् ॥ ११ ॥ ततः कृतानेन सदर्थपुष्टा स्वध्यात्म शास्त्रार्णववोधदण्डप्रमन्थनोद्भूतपरेशतत्त्वेन्द्र श्वावलीवामतिदुस्तमोहा ॥ १२ ॥ तीर्थ तीर्थीकृतां भागवतानां चित्तकैरवम् । सद्यः प्रह्लादयेद् या हि 'भगवन्नामकौमुदी' ॥ १३ ॥
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[ ११६ ] भारतीयोच्चकेण्द्रीयशिक्षणमन्त्रकेण सा। प्रकाशिता वुधप्रीत्यै समग्रव्ययदानतः ॥ १४ ॥ तथा विवुधसंपूज्यनैयायिकाग्रवत्तिना । रचिते जगदीशेन 'तामृते'ऽथ विस्तृताम् ॥ १५ ॥ टोकामेतां गभीरा कुरुतेऽतिप्रयत्नतः। अशेषकरुणासिन्धुर्दीनाशाकल्पपादपः ॥ १६ ॥ अकिञ्चनस्य दीनस्य मम श्रमैः कृतेन हि । ग्रन्थेन तेन कारुण्यात् श्रीकृष्णः संप्रसीदतु ॥ १७ ॥
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