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RST
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CELL શ્રેય જીર્ણોદ્ધાર
-: સંયોજક :શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાનભંડાર શા. વિમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવના હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-૩૮૦૦૦૫.
મો. ૯૪૨૬૫ ૮૫૯૦૪ (ઓ.) ૦૭૯-૨૨૧૩૨૫૪૩
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“અહો શ્રુતજ્ઞાનમ” ગ્રંથ જીર્ણોધ્ધાર ૯૪
સ્યાદ્વાદ રત્નાકર ભાગ-૪
: દ્રવ્ય સહાયક : પ.પૂ. આગમોદ્ધારક આનંદસાગરસૂરીશ્વરજી મ.સા.ના સમુદાયના
પૂજ્ય સાધ્વીજી શ્રી જીતેન્દ્રશ્રીજી મ.સા.ના શિષ્યા પૂજ્ય સાધ્વીજી શ્રી ઇન્દ્રિયદમાશ્રીજી મ.સા.ના શિષ્યા
પૂજ્ય સાધ્વીજી શ્રી આત્મજયાશ્રીજી મ.સા., પૂજ્ય સાધ્વીજી શ્રી મુક્તિરત્નાશ્રીજી મ.સા., પૂજ્ય સાધ્વીજી શ્રી વિરાગરત્નાશ્રીજી મ.સા.,
પૂજ્ય સાધ્વીજી શ્રી ભક્તિરત્નાશ્રીજી મ.સા. આદિ ઠાણા-૪ ની પ્રેરણાથી શ્રી હરીપુરા અસારવા મૂ.પૂ. જૈન સંઘ અસારવા, અમદાવાદના જ્ઞાનખાતાની ઉપજમાંથી
સંયોજક શાહ બાબુલાલ સરેમલ બેડાવાળા
શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાનભંડાર શા. વીમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-380005
(મો.) 9426585904 (ઓ.) 22132543 સંવત ૨૦૬૭ ઈ.સ. ૨૦૧૧
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"Aho Shrut Gyanam"
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અહો શ્રુતજ્ઞાનમ્ ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર – સંવત ૨૦૬૫ (ઈ. ૨૦૦૯) સેટ નં-૧
ક્રમાંક
પુસ્તકનું નામ
કર્તા-ટીકાકા-સંપાદક
001
002
003
004
005
006
007
008
009
010
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017
018
019
020
021
022
023
024
025
026
027
श्री नंदीसूत्र अवचूरी
श्री उत्तराध्ययन सूत्र चूर्णी
श्री अर्हद्गीता - भगवद्गीता
श्री अर्हच्चूडामणि सारसटीकः
श्री यूक्ति प्रकाशसूत्रं
श्री मानतुङ्गशास्त्रम्
अपराजित पृच्छा
शिल्प स्मृति वास्तु विद्यायाम् शिल्परत्नम्भाग-१
शिल्परत्नम्भाग - २
प्रासादतिलक
काश्यशिल्पम्
प्रासादमञ्जरी
राजवल्लभ याने शिल्पशास्त्र
शिल्पदीपक
वास्तुसार
पर्णव उत्तरार्ध
જિનપ્રાસાદમાર્તણ્ડ
जैन ग्रंथावली
હીરકલશ જૈનજ્યોતિષ
न्यायप्रवेशः भाग - १
दीपार्णव पूर्वार्ध
अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग-१
अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग २
प्राकृत व्याकरण भाषांतर सह
तत्त्पोपप्लवसिंहः
शक्तिवादादर्शः
पू. विक्रमसूरिजीम. सा.
पू. जिनदासगणिचूर्णीकार
पू. मेघविजयजी गणिम. सा.
पू. भद्रबाहुस्वामीम. सा.
पू. पद्मसागरजी गणिम. सा.
पू. मानतुंगविजयजीम. सा.
श्री बी. भट्टाचार्य
श्री नंदलाल चुनिलालसोमपुरा
| श्रीकुमार के. सभात्सवशास्त्री
श्रीकुमार के. सभात्सवशास्त्री श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
श्री विनायक गणेश आपटे
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
श्री नारायण भारतीगोंसाई
श्री गंगाधरजी प्रणीत
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
શ્રી નંદલાલ ચુનીલાલસોમપુરા
श्री जैन श्वेताम्बरकोन्फ्रन्स
શ્રી હિમ્મતરામમહાશંકર જાની
श्री आनंदशंकर बी. ध्रुव
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
पू. मुनिचंद्रसूरिजीम. सा.
श्री एच. आर. कापडीआ
श्री बेचरदास जीवराजदोशी
श्री जयराशी भट्ट बी. भट्टाचार्य
श्री सुदर्शनाचार्य शास्त्री
પૃષ્ઠ
238
286
84
18
48
54
810
850
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162
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156
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498
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226
640
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500
454
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214
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028
414
192
824
288
520
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278
252
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302
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202
| क्षीरार्णव
| श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 029 वेधवास्तुप्रभाकर
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई | 030 શિલ્પપત્રીવાર
| श्री नर्मदाशंकरशास्त्री 031. प्रासाद मंडन
पं. भगवानदास जैन 032 | શ્રી સિદ્ધહેમ વૃત્તિ વૃતિ અધ્યાય પૂ. ભવિષ્યમૂરિનમ.સા. 033 श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्यायर पू. लावण्यसूरिजीम.सा. 034 | શ્રીસિમ વૃત્તિ ચૂક્યાસ અધ્યાય છે પૂ. ભાવસૂરિનીમ.સા. 035 | શ્રસિહમ વૃત્તિ ચૂદાન અધ્યાય (ર) (૩) પૂ. ભવિષ્યમૂરિનીમ.સા. 036 | श्री सिद्धहेम बृहद्वृति बृहन्न्यास अध्याय५ पू. लावण्यसूरिजीम.सा. | 037 વાસ્તુનિઘંટુ
પ્રભાશંકર ઓઘડભાઈ સોમપુરા તિલકમન્નરી ભાગ-૧
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી 039 | તિલકમન્નરી ભાગ-૨
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી 040 તિલકમઝરી ભાગ-૩
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી સપ્તસન્ધાન મહાકાવ્યમ
પૂ. વિજયઅમૃતસૂરિશ્વરજી 042 સપ્તભીમિમાંસા
પૂ. પં. શિવાનન્દવિજયજી ન્યાયાવતાર
સતિષચંદ્ર વિદ્યાભૂષણ વ્યુત્પત્તિવાદ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક
શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) 045 | સામાન્ય નિયુક્તિ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) 046 | સપ્તભળીનયપ્રદીપ બાલબોધિનીવિવૃત્તિઃ
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી 047 વ્યુત્પત્તિવાદ શાસ્ત્રાર્થકલા ટીકા
શ્રીવેણીમાધવ શાસ્ત્રી 048 | નયોપદેશ ભાગ-૧ તરકિણીતરણી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી નયોપદેશ ભાગ-૨ તરકિણીતરણી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી 050 ન્યાયસમુચ્ચય
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી 051 સ્યાદ્યાર્થપ્રકાશઃ
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી દિન શુદ્ધિ પ્રકરણ
પૂ. દર્શનવિજયજી 053 | બૃહદ્ ધારણા યંત્ર
પૂ. દર્શનવિજયજી જ્યોતિર્મહોદય
સં. પૂ. અક્ષયવિજયજી
041.
480
228
043
6o
044
218
190
138
296
2io
049.
274
286
216
052
532
13
112
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પાદક | પૃષ્ઠ !
160
202
48
322
અહો શ્રુતજ્ઞાનમ ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર- સંવત ૨૦૬૬ (ઈ. ૨૦૧૦ - સેટ નં-૨ ક્રમ પુસ્તકનું નામ
ભાષા કર્તા-ટીકાકા(સંપાદક 055 | श्री सिद्धहेम बृहद्वत्ति बूदन्यास अध्याय-६
पू. लावण्यसूरिजीम.सा.
296 056 | विविध तीर्थ कल्प
पू. जिनविजयजी म.सा. 057 | भारतीय हैन श्रम संस्कृति सने मना शु४. पू. पूण्यविजयजी म.सा.
164 058 | सिद्धान्तलक्षणगूढार्थ तत्त्वलोकः
| सं श्री धर्मदत्तसूरि
। 059 व्याप्ति पञ्चक विवृत्ति टीका
श्री धर्मदत्तसूरि 0608न संगीत राजमाता
| . श्री मांगरोळ जैन संगीत मंडळी 306 061 चतुर्विंशतीप्रबन्ध (प्रबंध कोश)
| श्री रसिकलाल एच. कापडीआ | 062 व्युत्पत्तिवाद आदर्श व्याख्यया संपूर्ण ६ अध्याय सं श्री सुदर्शनाचार्य
668 | 063 चन्द्रप्रभा हेमकौमुदी
पू. मेघविजयजी गणि
516 064 विवेक विलास
सं/J. | श्री दामोदर गोविंदाचार्य
268 065 | पञ्चशती प्रबोध प्रबंध
सं पू. मृगेन्द्रविजयजी म.सा. 456 066 सन्मतितत्त्वसोपानम्
|सं पू. लब्धिसूरिजी म.सा. 0676शमादा ही गुशनुवाई | गु४. पू. हेमसागरसूरिजी म.सा.
638 068 मोहराजापराजयम्
सं पू. चतुरविजयजी म.सा.
192 069 | क्रियाकोश
सं/हिं श्री मोहनलाल बांठिया
428 070 | कालिकाचार्यकथासंग्रह
सं/J. श्री अंबालाल प्रेमचंद | 071 सामान्यनिरुक्ति चंद्रकला कलाविलास टीका सं. श्री वामाचरण भट्टाचार्य |
308 072 | जन्मसमुद्रजातक
सं/हिं श्री भगवानदास जैन
128 073| मेघमहोदय वर्षप्रबोध
सं/हिं श्री भगवानदास जैन
532 0748न सामुद्रिनi iय jथी
J४. श्री हिम्मतराम महाशंकर जानी 0758न यित्र इल्पद्र्भ साग-१
४४. श्री साराभाई नवाब
374
420
406
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076 | જન વિને
જૈન ચિત્ર કલ્પદ્રુમ ભાગ-૨ 7 સંગીત નાટ્ય રૂપાવલી 7 | ભારતનાં જૈન તીર્થો અને તેનું શિલ્પ સ્થાપત્ય 079 | શિલ્પ ચિતામણિ ભાગ-૧
080 | બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૧
114
08 | બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૨ 082 બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૩ 083 આયુર્વેદના અનુભૂત પ્રયોગો ભાગ-૧ 084 | કલ્યાણ કારક 085 | વિશ્વનયન વોશ 086 | કથા રત્ન કોશ ભાગ-1 087
કથા રત્ન કોશ ભાગ-2 હસ્તસગ્નીવનમાં
| ગુજ. | શ્રી સારામાકું નવાવ
238 | ગુજ. | શ્રી વિદ્યા સરમા નવાવ
194 ગુજ. | શ્રી સારામારૂં નવાવ
192 ગુજ. | શ્રી મનસુહાનાન્ન મુવમન | 254 ગુજ. | શ્રી ગગન્નાથ મંવારીમ
260 ગુજ. | શ્રી નાગનાથ મંવારમ
238 ગુજ. | શ્રી નવીન્નાથ મંવારમ
260 ગુજ. | પૂ. વરાન્તિસાગરની ગુજ. | શ્રી વર્ધમાન પાર્શ્વનાથ શાસ્ત્રી
910 सं./हिं श्री नंदलाल शर्मा
436 ગુજ. | શ્રી લેવલાસ નવરાન કોશી
336 | ગુજ. | શ્રી લેવલાસ નવરાન તોશી |
230 સં. | પૂ. મે વિનયની
પૂ.સવિનયન, પૂ.
पुण्यविजयजी | आचार्य श्री विजयदर्शनसूरिजी 560
088 .
322
114
089 એ%ચતુર્વિશતિકા 090 સમ્મતિ તક મહાર્ણવાવતારિકા
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
पृष्ठ
272
92
240
93
254
282
95
118
466
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार-संवत २०६७ (ई. 2011) सेट नं.-३ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची।यह पुस्तके वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। क्रम पुस्तक नाम
कर्ता/टीकाकार भाषा संपादक/प्रकाशक |91 स्याद्वाद रत्नाकर भाग-१
वादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना स्यादवाद रत्नाकर भाग-२ वादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना स्यादवाद रत्नाकर भाग-३ वादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना स्यावाद रत्नाकर भाग-४
वादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना स्यावाद रत्नाकर भाग-५
वादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना 96 पवित्र कल्पसूत्र
पुण्यविजयजी
सं./अं साराभाई नवाब 97 समराङ्गण सूत्रधार भाग-१
| भोजदेवसं . टी. गणपति शास्त्री समराङ्गण सूत्रधार भाग-२ भोजदेव
टी. गणपति शास्त्री 99 . | भुवनदीपक
पद्मप्रभसूरिजी
सं. वेंकटेश प्रेस | 100 | गाथासहस्त्री
समयसुंदरजी
सं. सुखलालजी भारतीय प्राचीन लिपीमाला
गौरीशंकर ओझा हिन्दी मुन्शीराम मनोहरराम 102 शब्दरत्नाकर
साधुसुन्दरजी
हरगोविन्ददास बेचरदास 103 | सुबोधवाणी प्रकाश
न्यायविजयजी
सं./गु हेमचंद्राचार्य जैन सभा 104 लघु प्रबंध संग्रह जयंत पी. ठाकर
ओरीएन्ट इस्टी. बरोडा 105 | जैन स्तोत्र संचय-१-२-३
माणिक्यसागरसूरिजी
आगमोद्धारक सभा 106 | सन्मतितर्क प्रकरण भाग-१,२,३ सिद्धसेन दिवाकर
सुखलाल संघवी सन्मतितर्क प्रकरण भाग-४,५ सिद्धसेन दिवाकर
सुखलाल संघवी 108 | न्यायसार - न्यायतात्पर्यदीपिका सतिषचंद्र विद्याभूषण
एसियाटीक सोसायटी
342
98
362
134
70
101
316
224
612
307
250
514
107
454
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109
सं./हि
337
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सं./हि
354
111
372
112
सं./हि सं./हि सं./हि
142
113
336
364
सं./गु सं./गु
पुरणचंद्र नाहर पुरणचंद्र नाहर पुरणचंद्र नाहर जिनदत्तसूरि ज्ञानभंडार अरविन्द धामणिया यशोविजयजी ग्रंथमाळा | यशोविजयजी ग्रंथमाळा | नाहटा ब्रधर्स | जैन आत्मानंद सभा
जैन आत्मानंद सभा | फार्बस गुजराती सभा
फार्बस गुजराती सभा | फार्बस गुजराती सभा
218
116
656
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जैन लेख संग्रह भाग-१
पुरणचंद्र नाहर जैन लेख संग्रह भाग-२
पुरणचंद्र नाहर जैन लेख संग्रह भाग-३
पुरणचंद्र नाहर | जैन धातु प्रतिमा लेख भाग-१
कांतिसागरजी जैन प्रतिमा लेख संग्रह
दौलतसिंह लोढा 114 राधनपुर प्रतिमा लेख संदोह
विशालविजयजी प्राचिन लेख संग्रह-१ ।
विजयधर्मसूरिजी बीकानेर जैन लेख संग्रह
अगरचंद नाहटा 117
प्राचीन जैन लेख संग्रह भाग-१ जिनविजयजी 118 | प्राचिन जैन लेख संग्रह भाग-२ जिनविजयजी 119 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-१ गिरजाशंकर शास्त्री 120 गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-२ गिरजाशंकर शास्त्री
गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-३ गिरजाशंकर शास्त्री
ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. | पी. पीटरसन 122 __ इन मुंबई सर्कल-१
ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. | पी. पीटरसन 123 इन मुंबई सर्कल-४
ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. पी. पीटरसन । इन मुंबई सर्कल-५
कलेक्शन ऑफ प्राकृत एन्ड संस्कृत पी. पीटरसन
__ इन्स्क्रीप्शन्स | 126 | विजयदेव माहात्म्यम्
जिनविजयजी
764
सं./हि सं./हि सं./हि सं./गु सं./गु सं./गु
404
404
121
540
रॉयल एशियाटीक जर्नल
274
रॉयल एशियाटीक जर्नल
41
124
400
अं.
रॉयल एशियाटीक जर्नल भावनगर आर्चीऑलॉजीकल डिपार्टमेन्ट, भावनगर जैन सत्य संशोधक
125
320
148
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आर्हतमतप्रभाकरस्य
चतुर्थो मयूखः श्रीमद्वादिदेवसरिविरचितः प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः
तथाख्या च स्याद्वादरत्नाकरः
-
-
पुण्यपत्तनस्थ ओसवालवंशजश्रेष्ठिलाधाजीतनूजमोतीलाल इत्येतैः टिप्पणी
भिरुपोद्घातेन च परिष्कृत्य संशोधितः ।
वीरसंवत् २४५७
प्रथमेयमङ्कनावृत्तिः।
मूल्यरुप्यकद्वयम्।
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इदं पुस्तक ' मोतीलाल लाधाजी' इत्येतैः पुण्यपत्तने ( १९६ भवानी पेट ) प्रकाशितम् । ( अस्य सर्वेऽधिकाराः प्रकाशकेन स्वायत्तीकृताः )
तच्च, पुण्यपत्तने सदाशिवश्रेण्या लक्ष्मण भाऊराव कोकाटे' इत्यनेन
म्बकीये ' हनुमान प्रिंटिंग प्रेस ' मुद्रणालये मुद्रितम् ।
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श्रीः
प्रास्ताविकं किंचित् ।
वीरः सर्वसुरासुरेन्द्रमहितो वीरं बुधाः संश्रिताः वीरेणाभिहतः स्वकर्मनिचयो वीराय नित्यं नमः ॥ वीरातीर्थमिदं प्रवृत्तमतुलं वीरस्य घोरं तपो
वीरे श्रीधतिकीर्तिकान्तिनिचयः श्रीधीर ! भद्रं दिश ॥ १ ॥ आर्हतमतप्रभाकरसंस्थायाश्चतुर्थो मयूखः स्याद्वादरत्नाकराभिधः शासनदेवकृपया प्रकाश्यते । सोऽयं ग्रन्थः ( ८८००० ) चतुरशीतिसहस्रन. न्थसंख्यात्मको निरमायि श्रीवादिदेवसूरिभिरिति कर्णपरम्परातः समागता प्रथितिः । बहुशः प्रयतमानैरस्माभिस्तत्तजैनाचार्याणां कृपयालम्भि सप्तपारच्छेदात्मको भागो ग्रन्यराजस्यास्य । अस्मन्मुद्रापितग्रन्थाः न्तरऋमेण संमुद्यते चेदयं तर्हि व्याप्नुयाद् द्वादशशती पृष्ठानामिति संभावयामः । संपूर्णो ग्रन्थ एकस्मिन् विभागे संग्रथ्यते चेद्भवेद् वैरस्याय पिपठिपूणामतो विभागशः समुद्य प्रकाशयितुमारब्ध एषः। तत्र प्रथमद्वितीयभागौ क्रमेण प्रथमावतीयपरिच्छेदात्मको तृतीयो तृतीयचतुर्थपरिच्छे दात्मकश्च मुद्रितः । अयं च चतुर्थो विभागः। प्राय इयतैव प्रमाणेन भागान्तराणां मुद्रणं स्यादिति समीहामहे । ग्रन्थराजोऽयं बौद्धयो. गादिमतानां परामर्शकोऽतोऽवश्यमध्ययना) न केवलं स्याद्वादमतानुयायिनां किंतु भिन्नमतस्थानामपि स्याद्वादमतजिज्ञासनाम् । अतः पूर्वमयूखबदस्यापि मूल्याल्पत्वपरिशिष्टविस्तारग्रन्थान्तर्वहिःपारिचयादिकं सविस्तरमादृतम् । सन्ति चास्य ग्रन्थस्य द्वादशपरिशिष्टानि । किंतु परिशिष्टादिकमन्तिमे विभाग एवं मुद्रयितुमर्हम्। अग्रेतनपत्राणां मुद्रयिष्यमाणानां निर्देशस्य पूर्व कर्तुमशक्यत्वात् । केवलं टिष्पन्यादिकमर्थावसायोपयोगि तत्तत्स्थलेऽधोभागे निरदेशि । प्रतिपत्रं पङ्क्त्यङ्का निर्दिष्टा येषामुपयोगः परिशिष्टदर्शनसोकर्याय । अन्यच्च पुस्तकानां वस्त्रात्मक बन्धनमस्तु न पत्रात्मकमिति सूचयन्ति केचिन्महाभागाः परं तव्यक्तिशो ग्राहकै स्वयमनुष्ठेयम् । अस्माभिस्तथा संपादने ये भिमतस्तदर्थ द्रव्याधिक्यव्ययस्ते मुधैव पीडितचेतसो भवेयुरिति यथार्च सरणिराहता ! इति विनिवेदकः । आईतमतप्रभाकर कार्यालयः, पुण्यात्तनम् ।।
विद्वद्वशंवदः-- दी. सं. २४५४ चे. शु. १५.
मोतीलाल लाधाजी
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अथ पञ्चमः परिच्छेदः ।
यः सामान्यविशेषमुख्यविशदानेकान्तकान्तान् जगौ जीवादीन्भुवनत्रयोदरगतानर्थानशेषानपि । यश्चैकान्तकलङ्कितां कणभुगाद्युक्तप्रमेयस्थितिं
सन्यायेन निरास्थद्वेष कुरुतां श्रीसुव्रतः सम्मतम् ||५७०॥ इत्थमाविष्कृते प्रमाणस्य स्वरूपसंख्ये । संप्रति विपयमाविश्चिकीघुरिदमाह–
तस्य विषयः सामान्यविशेषाद्यनेकान्तात्मकं वस्त्विति ।। १ ।।
१०
तस्य-- पुरा प्ररूपितस्वरूपसंख्यस्य प्रमाणस्य । विषीयन्ते निवध्यन्तेऽस्मिन्विषयिण इति विषयो गोचरः । परिच्छेद्यमिति यावत् । सामान्यं च विशेषश्च सामान्यविशेषौ वक्ष्यमाणलक्षणों । तावादिर्यस्य स सामान्यविशेषादिः । स चाऽसावनेकान्तश्च सामान्यविशेषाद्यनेकान्तः ! स आत्मा स्वभावो यस्य तत्सामान्यविशेषाद्यनेकान्तात्मकं वस्तु । बहिरन्तर्भावी भाव इत्यर्थः । अत्रादिशब्देन सदसन्नित्या - १५ नित्याभिठाप्यानभिलाप्याद्यनेकान्तानां परिग्रहः । एवं च केवलस्य सामान्यस्य विशेषस्य तदुभयस्य वा स्वतन्त्रस्य सदाधेकान्तस्य च प्रमाणविषयत्वं प्रतिक्षिप्तं भवतीति ॥ १ ॥
२०
अधुना सामान्यविशेषस्वरूपाने कान्तात्मक वस्तुसमर्थनार्थं साक्षाद्धेतुद्वयमभिदधानः सदसदाद्यनेकान्तात्मक वस्तुप्रसाधकहेतूंश्च सूचयन्निदमाह-
४६
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७२६
[ परि. ५ सू. २
अनुगतविशिष्टाकार प्रतीतिविषयत्वात्, प्राचीनोत्तराकारपरित्यागोपादानावस्थानस्वरूप परिणत्यार्थक्रियासामर्थ्यघटनाच्चेति ॥ २ ॥
२०
प्रमाणनयतत्वालोकालङ्कारः
अनुगताकारा - अनुवृत्तस्वभावा गौगौरित्यादिप्रतीतिः । विशिष्टाकारा- व्यावृत्तस्वरूपा शवलः श्यामल इत्यादिप्रतीतिः । तयोर्विषयो गोचरस्तस्य भावस्तत्त्वं तस्मादिति प्रथमो हेतुः । अनेन तिर्यक्सामान्यस्य गुणाख्यविशेषलक्षणानेकान्तात्मकं वस्तु समर्थितम् । प्राचीनोतराकारयोः प्राक्तनाग्रेतनस्वभावयोर्यथासंख्येन परित्यागोपादाने परि१० हारावासी ताभ्यामवस्थानं स्थितिस्तदेव स्वरूपं यस्याः । सा चाऽसौ परिणतिश्च परिणामस्तया कृत्वा यदर्थक्रियासामर्थ्यं वस्तुनः कार्यका - रणशक्तिस्तस्य घटनादुपपत्तेरिति द्वितीयो हेतुः । एतेन पुनरूतासामान्यपर्यायाख्यविशेषस्वरूपाने कान्तात्मकं वस्तु प्रसाधितं भवति । चकारोऽत्रानुक्तसमुच्चयार्थः । ततः सदसदाद्यनेकान्तसमर्थक हेतवोऽपि १५ सदसदाकारप्रतीतिविषयत्वादयः सूचिताः । ते च यथावसरं विस्तरेण प्रकाशयिष्यन्त इति ॥ २ ॥
इदानीमादावुद्दिष्टं सामान्यं प्रकारतः प्ररूपयन्नाह-
सामान्यं द्विप्रकारं तिर्यक्सामान्यमूर्ध्वता सामान्यं चेति ॥ ३ ॥
तिर्यगुल्लेखिनाऽनुवृत्ताकारप्रत्ययेन गृह्यमाणं तिर्यक्सामान्यम् । ऊर्ध्वमुल्लेखिनाऽनुगताकारप्रत्ययेन परिच्छिद्यमानमूर्ध्वता सामान्यं च । चः समुच्चये || ३ ||
तत्राद्यभेदस्य स्वरूपं सोदाहरणमुपदर्शयन्नाह-
१ सू. ५१३.
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७२७
परि. ५ सू. ४] स्याद्वादरत्नाकरसहितः . ७२७ प्रतिव्यक्ति तुल्या परिणतिस्तिर्यक्सामान्यं शब
लशाबलेयादिपिण्डेषु गोत्वं यथेति ॥ ४॥ प्रतिव्यक्ति- व्यक्तिं व्यक्तिमधिश्रित्य । तुल्या समाना परिणतिस्तिर्यक्सामान्यमुच्यते । शबलशाबलेयादिपिण्डेषु गोत्वं यथेति तु स्पष्टम् ।
शौद्धोदनीयमतवासितबुद्धययोऽथ
व्याकुर्वते किमिदमीदृशमार्जवं वः ।। सामान्यस्वरस्वरो....रुहिणीसमानं
यलक्ष्यतेऽत्र परिमुच्य विचारवीथीम् ।। ५७१ ॥ तथा हि- शबलशाबलेयादिव्यक्तिव्यतिरिक्तस्य सामान्यस्य प्रतीति- १०
पथाननुयायित्वेन वन्ध्यास्तनन्धयस्येवाऽसत्त्वाव्यक्तिव्यतिरिक्त सामान्यमिति मतस्योपपादनपूर्वक दनुपपन्नमेवेदं तल्लक्षणप्ररूपणम् । ननु सामान्य
खण्डनम् । विनाऽनुगताकारायाः प्रतीतेः कुत उत्पाद इति चेत् । विजातीयव्यावृत्तेरिति ब्रूमः । न च विजातीयव्यावृत्तिजन्यायाः प्रतीतेः सकाशात्कथं बहिरर्थं प्रति प्रतिपत्तः प्रवृत्तिरिति प्रेयम् । दृश्य. १५ विकल्पयोरेकत्वाध्यवसायात्तदुपपत्तेः । एकत्वाध्यवसायश्च तयोर्दर्शनानन्तरमुत्पद्यमानस्य विकल्पस्य दर्शनेन सह यद्भेदाग्रहणं तहारको भेदाग्रहस्तम्माच्च विकल्पव्यापारतिरस्कारेण प्रया गृहीतमिदमित्येवंरूपात्प्रतिपत्ता बहिरर्थे प्रवर्तते । सामान्यलक्ष्मोदितिरित्थमेषां न क्षोदमुद्रामधिरोहतीह । २० अलं तदस्याः परिशीलनेन मार्गेऽसतां यन्मतयो रमन्ते ।। ५७२ ।। शाक्यसिंहतनयः प्रजल्पितं जातिलक्षणनिषेधतत्परम् । सर्वमेतदनुभूतिपीडितं पण्डितस्तदिह कः समाश्रयेत् ।। ५७३ ।।
तथा हि-यत्तावदजल्पि शबलशाबलेयादिव्यक्तिव्यतिरिक्तस्येत्यादि तन्न निरवद्यम् । प्रतिव्याक्ति सदृशपरिणामलक्षणस्य' कथंचित्तयंति- २५
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. ५ सु. ४ रिक्तस्य तिर्यक्सामान्यस्य प्रत्यक्षादिप्रमाणमाहात्म्यतः प्रसिद्धम्वरूपत्वेन तल्लक्षणप्ररूपणम्योपपन्नत्वात् । न खलु समानधर्मसंबन्धित्वस्वभावः सदृशपरिणामः पदार्थेषु प्रत्यक्षेणानुभूयते । सकलविलक्षणस्वलक्षणस्य स्वामदशायामप्यननुभूतेः । अपि च प्रतिभासप्रभावादेव सर्वत्र वस्तु. व्यवस्थितिः । प्रतिभासश्च गोपिण्डेषु खण्डमुण्डादिविलक्षणाकारेणेव गौगौरित्यनुवृत्ताकारणाऽपि संवेद्यते । न चान्याकारेऽपि वन्तुन्यन्या. कारेण प्रतिभासनमित्यभिधानीयम् । एवं हि शुक्ले श्यामप्रतिभासप्रसक्तितः प्रतिनियतपदार्थव्यवस्थितेरुच्छेदः स्यात् । ततोऽनुवृत्त
प्रतिभासाद्वस्त्वप्यनुवृत्तधर्मान्वितमित्यकामेनापि शाक्येन स्वीकर्तव्यम् । १० विजातीयव्यावृत्त्यालम्बनत्वे चानुवृत्तप्रतिभासम्य गोगीरित्युल्लेखेन विधि
प्रधानतया प्रवृत्तिर्न भवेत् । यथा च विजातीयपरावृत्तं वस्तुनः स्वरूपं तथा सजातीयपरावृत्तमपि । तथा च तद्दर्शनानन्तरभाविविकल्पनां विजातीयव्यावृत्त्याकारोल्लेखित्वे तदभेदात्सजातीयव्यावृत्याकारोल्लेखि
त्वमपि स्यात् । न च सजातीयविजातीयव्यावृत्त्योः स्वलक्षणस्रोत १५ भेदः संभवति । अवस्तुत्वान्निरंशत्वाञ्च । नापि प्रतिनियतव्यावृत्ति
लक्षणजात्यवभासे प्रतिनियमहेतुरस्ति । किंच तात्त्विकसामान्यानभ्युपगमे सजातीयत्वस्याप्यभावः स्यात् । तथा हि-सजातीयत्वमर्थानां किमेकार्थक्रियाकारित्वात् , एकप्रत्यवमर्शजनकत्वात् , एकव्यावृत्तेर्वा
भवेत् । न तावदेकार्थक्रियाकारित्वात् । वाहदोहाद्यर्थक्रियायाः प्रतिवि२० शेषं भिद्यमानत्वेनैकत्वानुपपत्तेः । तस्याश्च कादाचित्कत्वात्तामकुर्वाणस्य
सजातीयत्वाभावः स्यात् । ततश्चक्षुषा संबद्धेऽपि व्यक्तिविशेषे गौगारित्यनुवृत्ताकारा प्रतीतिर्न भवेत् । एकार्थक्रियाकारित्वं च यदि सर्वस्वलक्षणेष्वेकमनुस्यूतं स्वीक्रियते तदा सिद्धं तदेव सामान्यम् ।
अथ विकल्पारोपितं तदस्माकमपि सिद्धमेवेति चेत् । मैवम् । विक२५ ल्पस्यार्थागोचरत्वेनार्थेष्वर्थक्रियाकारित्वस्यैकत्वेनारोपणासामर्थ्यात् ।
तन्नैकार्थक्रियाकारित्वादर्थानां सजातीयत्वं युज्यते । नाप्येकप्रत्यवमर्श
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परि. ५ सू. ४]
स्याद्वादरत्नाकरसहितः
(१२२
जनकत्वात् । प्रत्यवमर्शस्य तज्जनकत्वस्य च प्रतिव्यक्ति भेदेनैकत्वासंभवात् । न खलु य एव शाबलये गोप्रत्यवमर्शस्तजनकत्वं च तदेव बाहुलेयेऽपि । तयोरेकव्यक्तिवद्भेदाभावप्रसक्तेः । नाप्येकव्यावृत्तेः । तस्या बहिरन्तर्विकल्पानतिक्रमात् । तत्र सकलव्यक्तिप्वेकव्यावृत्ते. बहिः सद्भावे सामान्यरूपता दुर्निवारा । आन्तरत्वे तु तस्या बहिराधा- ५ रत्वाभावतः कथमतो बाह्यार्थस्य सजातीयत्वसिद्धिः । कथं वा बहीरूपतयावभासनमम्याः । नान्तर्बहिर्वा सेत्यपि स्वाभिप्रायप्रकटनमात्रम् । तथा हि-तथाभूतं व्यावृत्तिस्वरूपं किंचित्, न किंचिद्वा । न किंचिच्चेत्, कथं सजातीयत्वनिबन्धनम् । किंचिच्चेत् । नूनमन्तबहिर्वा तेन भाव्यम् । तत्र च प्रतिपादितदोषानतिक्रमः । किंच , इदं सजातीयत्वं समाना. १० कारलक्षणम् । तच्च स्वयमसमानाकारस्य वस्तुनः स्यात्समानाकारस्य वा । यदि स्वयमसमानाकारस्य तदा कथमन्यव्यावृत्तावपि तस्य समानाकारता भवेत् । गोगजयोरपि महिघ्यादिव्यावृत्तौ समानाकारत्वप्रसक्तेः । अपि च मूर्ताद्धटायथा व्यावर्तते ज्ञान तथा पटोऽपि । ततश्चाऽमूर्तत्वं द्वयोः समानो धर्मः स्यात् । परस्पराश्रयप्रसक्तिश्च । १५ अन्यतो व्यावृत्त्या हि समानाकारत्वात्तस्माच्चान्यतो व्यावृत्तिरिति स्वयं समानाकारस्य तु वस्तुनोऽन्यतो व्यावृत्त्या समानाकारत्वकल्पनावैयर्थ्यम् । पराभ्युपगमप्रसंगश्च स्यात् । स्वयं समानाकारताया एव वस्तुनि सामान्यत्वेन स्याद्वादिभिः स्वीकारात् । ननु यया प्रत्यासत्त्या केचन भावाः स्वयं सदृशपरिणाम बिभ्रति २० तयैव स्वयमतदात्मका अपि सन्तस्तथा कि नाऽवभासेरनिति चेत् । तदप्यनुचितम् । चेतनेतरभेदाभावप्रसंगात् । यथैव हि प्रत्यासत्त्या चेतनेतरस्वभावान्भावाः स्वीकुर्वन्ति तयैव स्वयमतदात्मका अपि सन्तस्तथाऽवभासेरन्नित्यपि ब्रुवाणस्य ब्रह्माद्वैतवादिनो न वदनं वक्रीभवेत् । चेतनेतरव्य .... .... .... .... .... .... .... .... .... २५ .... स्तीति । तथा तदुत्पत्तिर्हि सामान्यप्रतिभासस्य जनिका दूरदेश
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः
[ परि. ५ सू. ४
सामग्री । निकटदेशवर्तिनां चाऽसौ नास्तीति न निकटे तत्प्रतिमासनमिति समः समाधिः | अभ्युपगम्य चैतदुक्तम् । यावतोऽस्ति निकटे सामान्यस्य व्यक्ततरं प्रतिभासनं विशेषप्रतिभासनवत् । निकटे हि निम्बकदम्बादिव्यक्तिषु भासमानासु सुव्यक्तं वृक्षत्वं प्रतिभासते वृक्षोऽयं ५ वृक्षोऽयमिति । न चाऽयमनुगतप्रतिभासो बहिः साधारणनिमित्त निरपेक्षा घटते । प्रतिनियतदेशकालाकारत्वाभावप्रसंगात् । न च व्यक्तय एव तन्निमित्तम् । तासां भेदरूपतयाऽधिष्ठितत्वात् । तथाऽपि तन्निमित्तत्वे कर्कादिव्यक्तीनामपि गौर्गौरिति बुद्धिनिमित्तत्वानुषङ्गः । न चातत्कार्येभ्यो ऽतत्कारणेभ्यश्च व्यावृत्तिरेकप्रत्यवमर्शरूपैकार्थसाधने १० हेतुरत्यन्तभेदेऽपीत्यभिधातव्यम् । सर्वथा समानपरिणामानाधारे वस्तुन्यतत्कार्यकारणव्यावृत्तेरेवासंभवात् । न खलु चक्षुरादयस्तज्जननशक्तिलक्षणसमानपरिणाम विरहिणोऽपि रूपज्ञानलक्षणकार्यहेतवो न पुनः स्पर्शनादयो गुडुच्यादयो वा ज्वरोपशमनशक्तिलक्षणसमानपरिणामरहिता अपि ज्वरोपशमकार्यहेतवो न पुनर्दधित्रपुषादय इति शक्य१५ व्यवस्थम् । किंच, अनुगतप्रत्ययस्य सामान्यमन्तरेणैव देशादिनियमे - नोत्पत्तौ व्यावृत्तप्रत्ययस्यापि विशेषमन्तरेणैवोत्पत्तिः स्यात् । शक्यं हि वक्तुमभेदो विशेषेऽप्येकमेव ब्रह्मादिस्वरूपं प्रतिनियता नेक नीलाद्याभासनिबन्धनं भविष्यतीति किमपररूपादिस्वलक्षणपरिकल्पनया । ततो रूपादिप्रतिभासस्येवाऽनुगतप्रतिभासस्याप्यालम्बनं कल्पनीयमित्यस्ति २० वस्तुभूतं सामान्यम् । एककार्यतासादृश्येनैकत्वाध्यवसायो व्यक्तीनामित्यप्यचारु । कार्याणामभेदासिद्धेर्वाहदाहादिकार्यस्य प्रतिव्यक्ति भेदात् । तत्राऽप्यपरैककार्यतासादृश्येनैकत्वाध्यवसायेऽनवस्था । ज्ञानलक्षणमपि कार्यं प्रतिव्यक्ति भिन्नमेवेति । ज्ञानलक्षणैककार्यतासादृश्येनापि व्यक्तीनां नैकत्वाध्यवसायः संभावनीयः । अनुभवाना२५ मेकपरामर्शप्रत्यय हेतुत्वादेकत्वं तद्धेतुत्वाच्च व्यक्तीनामप्यभिन्नत्वमित्यु - पचारोऽपि श्राद्धिकावधार्य एव । अनुभवानामप्यत्यन्तवैलक्षण्येनैकप्रत्य -
७३०
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परि. ५ स. ४] स्याद्वादरत्नाकरसहितः वमर्शप्रत्ययहेतुत्वानुपपत्तेरितस्था कर्कादिव्यक्त्यनुभवेभ्योऽपि खण्डमुण्डादिव्यक्तिप्वेकपरामर्शप्रत्ययस्योत्पत्तिः स्यात् । अथ प्रत्यासत्तिविशेषात्खण्डमुण्डादिव्यक्त्यनुभवेभ्य एवास्योत्पत्तिापरव्यक्त्यनुभवेभ्य इति चेत् । ननु कोऽन्यः प्रत्यासत्तिविशेषोऽन्यत्र समानाकारानुभवात् । समानो ह्याकारः खण्डादिव्यक्त्यनुभवैरेवाऽनुभूतो ५ नाऽपरब्यक्त्यनुवरिति । न चैकप्रत्यवमर्शहेतुत्वेनाऽभिमता निर्विकल्पकबुद्धयः प्रसिद्धाः स्याद्वादिनामिति । कथं तद्धेतुत्वाच्यक्तीनामप्यभिन्नता । ततश्च वार्तमेतद्वार्तिके कीर्तितं कीर्तिना--
" एकप्रत्यवमर्शस्य हेतुत्वाद्धीरभेदिनी ।
एकधीहेतुभावेन व्यक्तीनामप्यभिन्नता ॥” इति । १० ततोऽबाधबोधाधिरूढत्वात्प्रसिद्धं सदृशपरिणामरूपं वस्तुभूतं सामान्यम् । तम्यानभ्युपगमे
" नो चेत् भ्रान्तिनिमित्तेन संयोज्येत गुणान्तरम् ।
शुक्तौ वा रजताकारो रूपसाधर्म्यदर्शनात् ॥” इत्यस्य विरोधानुषङ्गः । रूपसाधर्म्यशब्देन सदृशपरिणामम्यैवा- १५ भिधानात् । अस्य च श्लोकस्याऽयमर्थः- यदि भ्रान्तिनिमित्तेन सदृशापरापरोत्पत्त्यादिना कारणभूतेन विकल्पबुद्धया नो संयोज्येत न समारोप्येत गुणान्तरं-- स्थिरत्वादि । वाशब्द इवार्थे । शुक्ताविव रजता. कारः संयोज्येत । कथं रजतरूपेण शुक्तिकारूपस्य यत्साघवें चाकचिक्यादि । तस्य दर्शनात् । एतदुक्तं भवति । यदि भ्रान्तिनिमित्तेन २० गुणान्तरं न समारोप्येत तदाऽनुमानादेः प्रमाणान्तरस्थ प्रत्यक्षदृष्टेऽर्थस्वभावे वैयर्थ्यं स्यात् । समारोप्यते च तत् । ततः समारोपव्यवच्छेद एव प्रमाणान्तरस्य फलमिति । ननु व्यक्तिवत्तत्समानपरिणामेप्वपि समानप्रत्ययस्यापरसमानपरिणामहेतुकत्वप्रसंगादनवस्था स्यात् । तमन्तरेणाऽप्यत्र समानप्रत्ययोत्पत्तौ पर्याप्तं खण्डादिव्यक्तौ समानपरि- २५ शामकल्पनयेति चेत् । तद्वैसदृशेष्वपि तुल्यम् । यतस्तेष्वपि विसदृश
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प्रमाणनयतत्त्वा लोकालङ्कारः
[ परि. ५ सू. ४
प्रत्ययो यदि वैसादृश्यान्तर हेतु कस्तदाऽनवस्था । स्वभावतश्चेत्तर्हि सर्वत्र वैसादृश्यकल्पनावैफल्यम् । न च सदृशपरिणामानामर्थवत्स्वात्मन्यपि समानप्रत्ययहेतुत्वेऽर्थानामपि तत्प्रसंग : प्रतिनियतशक्तिकत्वाद्भावानाम् । अन्यथा घटादेः प्रदीपात्स्वरूपप्रकाशोपलब्धिः प्रदीपेऽपि स्वरूपप्रकाश : प्रदीपान्तरादेव स्यात् । स्वकारणकलापादुत्पन्नाः सर्वेऽर्था विसदृशप्रत्ययविषयाः स्वभावत एवेत्यभ्युपगमे समानप्रत्ययविषया अपि ते तथा किं नाऽभ्युपगम्यन्ते । अकं प्रतीतिमपलप्य । प्रयोगश्चात्र, गौगौरित्यादिप्रत्ययो विशिष्टनिमित्तनिबन्धनो विशिष्टप्रत्ययत्वात् । य इत्थं स इत्थं यथा संप्रतिपन्नः । तथा चाड्यं तस्मा१० तथेति । यच्च विशिष्टं निमित्तं स सदृशपरिणाम एव । वासनादेनिमित्तान्तस्य प्रागेव प्रतिहतत्वादिति ।
७३२
५
तत्सामान्यं तिर्यगाख्यं प्रसिद्धं व्यक्तौ व्यक्तौ तुल्यधर्मस्वभावम् । यस्याभावात्प्रत्ययोऽत्रानुयायी न प्रादुःप्यात्सर्वसंवेदनीयः || ५७४ ||४|| अथ द्वितीयं सामान्यस्य भेदं सनिदर्शनं प्रकाशयन्नाह
१५ पूर्वापरपरिणामसाधारणं द्रव्यमूर्ध्व तासामान्यं कटकङ्कणाद्यनुगामिकाञ्चनवदिति ॥ ५ ॥
पूर्वापरपर्याययोः साधारणमेकं द्रव्यम् । द्रवति तांस्तान्पर्यायान्गच्छतीति व्युत्पत्त्या त्रिकालानुयायी यो वस्त्वंशस्तदूर्च्चतासामान्यमि२० त्यभिधीयते । कटककङ्कणाद्यनुगामिकाञ्चनवदिति तु निदर्शनं व्यक्तम् । एवं स्थासादिषु मृव्यादिकं स्वयमभ्यूह्यम् ।
ननु पूर्वापरपरिणामव्यतिरेकेणापरस्य तद्व्यापिनो द्रव्यस्याप्रतीतितोऽसत्त्वात्कथं तलक्षणमता सामान्यं सदिति
बौद्धः । नाऽसौ बुद्धिमान् । प्रत्यक्षत एवाऽर्था
ऊर्ध्वता सामान्यस्य सोपपत्तिकं मण्डनम् । नामन्वयरूपप्रतीतेः प्रतिक्षणभङ्गुरतया स्वप्नेऽपि तत्र तेषां प्रतीत्यभावात् ।
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परि. ५ सू. ५] स्याद्वादरत्नाकरसाहतः
७३३ यथैव हि पूर्वोत्तर विवर्तयोावृत्तप्रत्ययादन्योन्यमभावः प्रतीतस्तथा काञ्चनमृदाद्यनुगतप्रत्ययास्थितिरपि । ननु कालत्रयानुयाथित्वमेकस्थितिस्तस्याश्चाक्रमेण प्रतीतौ युगपन्मरणावधि ग्रहणं स्यात् । क्रमेण तु प्रतीतो न बुद्धिस्तथा तां प्रत्येतुं समर्था क्षणिकत्वादिति चेत् । तदप्यसंबद्धम् । बुद्धेः क्षणिकत्वेऽपि प्रतिपत्तुरक्षाणिकत्वात् । ५ प्रत्यक्षादिसहायो ह्यात्मैव ध्रौव्यात्मकत्वं बहिरन्तश्च समस्तवस्तूनां निश्चिनोति । यथैव हि घटकपालयोः सुखदुःखयोर्वा विनाशोत्पादौ प्रत्यक्षसहायोऽसौ निश्चिनुते तथा मृदात्मरूपतया स्थितिमपि न खलु घटादिसुखादीनां भेद एवावभासते न त्वेकत्वमित्यभिधातुं युक्तम् । एकत्वविकलम्य भेदस्य स्वप्मेऽप्यसंवेदनात् । न चाऽक्षणिकस्यात्मनोऽ- १० विसायकल्वे स्वगतबालतरुणवृद्धाद्यवस्थानामतीतानागतजन्मपरंपराया: समवस्तुविवर्तानां च युगपदेव व्यवसितिप्रसक्तिरिति वाच्यम् । ज्ञानसहायस्यैवात्मनोऽर्थाध्यवसायकत्वाशीकारात् । ज्ञानस्य च प्रतिबन्धकापगमानतिक्रमेण प्रादुर्भावान्नोक्तदोषानुषङ्गः । न च द्रव्यग्रहणेऽ. तीताद्यवस्थानं तम्मादभिन्नत्वाध्यवसायापत्तिरिति वाच्यम् । अभिन्न - १५ त्वस्य ग्रहणं प्रत्यनङ्गत्वात्। अन्यथा ज्ञानादिक्षगानुभवे सच्चेतनादिव - त्क्षणक्षयम्वर्गप्रापणशक्त्यादिव्यवसायानुषङ्गः । तम्माद्यत्रैवात्मनोऽज्ञानपर्यायप्रतिबन्धकापायस्तत्रैवा-यवसायकत्यनियमो नान्यत्रेत्यनवद्यम् । आत्मा प्रत्यक्षसहायोऽनन्तरातीतानागतपर्याययोरेकत्वं प्रतिपद्यत इति स्मरणप्रत्यभिज्ञानज्ञानसहायश्च व्यवहितपर्यायाद्येकत्वमवबुध्यते । स्मरण- २० प्रत्यभिज्ञानयोश्च प्रामाण्यं प्रागेव प्रसाधितम् । ननु स्मरणप्रत्यभिज्ञानयोः पूर्वोपलव्धार्थविषयत्वे प्रथमदर्शनकाल एवोत्पत्तिप्रसंगस्तेन सहैकविषयत्वेनाऽनयोरप्यविकलकारणत्वात् । न चैवं तस्मान्न ते तद्विषये। प्रयोगश्चात्र, यस्मिन्नविकलेऽपि यन्न भवति न तत्तद्विषयं यथा रूपेऽवि. कले तत्राऽभवच्छोत्रविज्ञानम् । प्रथमदर्शनकालेऽविकलेऽप्यर्थे न भवतश्च २५ स्मृतिप्रत्यभिज्ञाने इति । एतदपि युक्तिरिक्तम् । प्रथमदर्शनकाले
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. ५ सू. ५ स्मरणप्रत्यभिज्ञानजनककारणान्तरासंभवेनाऽर्थस्याऽविकलत्वासिद्धेः । स्मरणस्य हि संस्कारप्रबोधोऽपि कारणम् । संस्कारश्च तदर्शनकाले नास्तीति कथं तदुत्पत्तौ तदर्थस्याऽविकलता। प्रत्यभिज्ञानस्याऽप्युत्पत्ती
वर्तमानकालीनं दर्शनं पूर्वदर्शनाहितसंस्कारप्रबोधप्रभवस्मृतिश्चाऽर्थस्य ५ सहकारिकारणम् । ते च तदा न त इति कथं तत्राऽप्यर्थस्या विकलता !
अथ मतमात्मनः स्वयमतीताद्यर्थग्रहणसामर्थे स्मरणाद्यपेक्षावैयर्थ्यम् । तदसामध्ये वा नितरां तद्वैयर्थ्यम् । तदपि वार्तम् । यतः स्मरणादिरूपतया परिणतिरेवात्मनोऽतीताद्यर्थग्रहणसामर्थ तत्कथं तद्
पेक्षावैयर्यम् । ततो निराकृतमेतद्यदुच्यते परैः " पूर्वोत्तरक्षण१० योरग्रहणे कथं तत्र स्थास्नुताप्रतीतिः" इति । आत्मना तयो
ग्रहणसंभवात् । परेषां तु तयोरप्रतीतौ कथं मध्यक्षणम्य तत्राऽस्थास्नुता. प्रतीतिरिति चिन्यम् । पूर्वक्षणदर्शनाहितसंस्कारस्य प्रतिपत्तुमध्यमक्षणदर्शनात्तत्क्षणस्मृतिः । तस्याश्च स इह नास्तीत्यस्थास्नुतावगमोऽ
प्येवं किं न स्यात् । ननु चाऽस्थास्नुता पूर्वोत्तरक्षणयोर्मध्यक्षणेऽभावः । १५ तस्य वा तयोऽसौ । अभावश्च तदात्मकत्वात्तद्हणेनैव गृह्यते । तदप्प
वद्यम् । तदप्रतीतौ तत्राऽस्य, अत्र वा तपोनिषिद्धप्रतीतेरप्यसंभवात् । न ह्यप्रतिपन्नघटस्यान घटो नास्तीति प्रतीतिरम्ति । कथं चैवं स्थास्नुताऽपि न प्रतीयेत । साऽपि हि पूर्वानरक्षणयोर्मध्यक्षणे कथंचित्सद्भाव
स्तस्य वा तत्राऽसौ ! स च तदात्मकत्वात्तद्रहणेनैव गृह्येत । ननु १० स्थास्नुताऽर्थानां नित्यतीच्यते । सा च त्रिकाल्यपेक्षा । तदप्रतिपत्ती
च कथं तदपेक्षनित्यताप्रतिपत्तिरिति चेत् । तदपि न प्रशस्तम् । वस्तुस्वभावभूतत्वेनाऽन्यानपेक्षत्वान्नित्यतायास्तथाभूतायाश्वास्याः प्रत्यक्षादिप्रमाणप्रसिद्धत्वेन प्रतिपादनात् । न खलु स्वयं नित्यता
रहितस्य त्रिकाल्याऽसौ क्रियते । अनित्यतावत् । न हि वर्त२५ मानकालेनाऽनित्यता क्रियते । तस्य त्वन्मतेऽनासत्त्वात् । सत्त्वे वाऽस'
वन्यनित्यः स्वीकर्तव्य इति । तदनित्यत्वस्याऽप्यपरेण कालेन करणेऽ
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परि. ५ सू. ८] स्याद्वाद्रत्नाकरसहितः
७३५ नवस्थाप्रसंगः । ततो यथा स्वभावतः पूर्वोत्तरकोटिभ्यां विच्छिन्नत्वेन कालनिरपेक्षः क्षणः प्रतीयते तथा ताभ्यामनवच्छिन्नत्वेनाक्षणिकत्वमपि । सर्वथा क्षणिकत्वं स्वर्थानामुपरिष्टान्न्यक्षेण प्रतिक्षेप्स्यत इत्यलमिहातिप्रसंगेन । पूर्वोत्तराखिलविवर्तसमूहवर्ति
द्रव्यस्वभावमिति युक्तिबलात्प्रसिद्धम् । सामान्यमन्वयधियः पदमूर्खताख्यं
येन प्रमुक्तमिह किंचन नास्ति वस्तु ।। ५७५ ॥ ५ ॥ अथ विशेषस्य प्रकारप्रकाशनायाह-~विशेषाऽपि द्विरूपो गुणः पर्यायश्चेति ॥ ६॥ १०
सर्वेषां विशेषाणां वाचकोऽपि पर्यायशब्दो गुणशब्दस्य सहवर्तिविशेषवाचिनः संनिधानेन क्रमवर्तिविशेषवाची गोबलीवर्दन्यायादत्र गृह्यते ॥ ६॥
तत्र गुणं लक्षयतिगुणः सहभावी धर्मों यथात्मनि विज्ञानव्यक्तिश- १५
क्त्यादिरिति ॥७॥ सहभावित्वमत्र लक्षणम् । यथेत्यादिकमुदाहरणम् । विज्ञानव्यक्तियत्किंचिज्ज्ञानं तदानीं विद्यमानम् । विज्ञानशक्तिरुत्तरज्ञानपरिणामयोग्यता । आदिशब्दासुखपरिस्पन्दयौवनादयो गृह्यन्ते ।। ७ ।।
पर्यायभिदानी निरूपयन्नाहपर्यायस्तु क्रमभावी यथा तत्रैव सुखदुःखादिरिति
॥८॥
पूर्णतया ।
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः
[ परि. ५ सु. ८
धर्म इति पूर्वसूत्रादनुवर्तनीयम् । क्रमभावित्वमिह लक्षणम् । परिशिष्टं तु निदर्शनम् । तत्रेत्यात्मनि । आदिशब्देन हर्षविषादादीनामुपादानम् ।
इदमत्र तात्पर्यम् । ये सहभाविनः सुखज्ञानवीर्यपरिस्पन्दयौवनादयस्त गुणाः । ये तु क्रमवृत्तयः सुखदुःखहर्षविषादादयस्ते पर्यायाः । नन्वेवं त एव गुणास्त एवं च पर्याया इति कथं तेषां भेद इति चत् । मैवम् । कालभेदविभेदापेक्षया तद्भेदस्याऽनुभूयमानत्वात् | अभिन्नकालवर्तिनो हि सुखज्ञानादयो गुणा: । विभिन्न कालवर्तिनस्तु पर्याया इति । १० न चैवमेषां सर्वथा भेद इत्यपि मन्तव्यम् । कथंचिदभेदस्याऽप्यविरोधात् । न खल्वेषां स्तम्भकुम्भवद्भेदो नापि स्वरूपवदभेदः । किंतु धर्म्यपेक्षयाऽनेदः । स्वरूपापेक्षया तु भेद इति । इत्थं प्रमाणविषये सामान्यविशेषात्मकेऽर्थे प्रत्यक्षप्रतिपन्नस्वरूपेऽपि ये विप्रतिपद्यन्ते तान्प्रतीदमनुमानमुच्यते ! अर्थ: सामान्यविशेषात्मा, अबाध्यमानानुवृत्त१५ प्रत्ययगोचरत्वान्यथानुपपत्तेः । न चाऽत्र साधनमसिद्धम् । घटेषु घटो । घट इत्यनुवृत्तप्रत्ययस्य ताम्रो मार्तिकः सौवर्गः । पटादिर्वा न भवतीति व्यावृत्तप्रत्ययस्य चावाभ्यमानस्य प्रतिप्राणि प्रतीतत्वात् । भ्रान्तोऽयं प्रत्ययः सविकल्पकत्वादिति चेत् । अभ्रान्तस्तर्हि कीदृश इति वक्तुमर्हसि । निर्विकल्पक इति चेत् । मैवम् । तस्यापि निर्विकल्प२० कत्वेन अन्तत्वापतेः । अर्थसामर्थ्य जन्यत्वापस्य भ्रान्तत्वानापतिरिति चेत् । न । अस्थोत्तरस्य सविकल्पकेऽपि तुल्यत्वात् । कचित्तस्य व्यभिचारोपलम्भादतुल्यत्वमिति चेत् । न तस्य निर्विकल्पेऽपि भावात् । व्यभिचारी निर्विकल्पकः प्रत्ययो न नः प्रमाणं तदाभासत्वादिति चेत् । सविकल्प के तु तुल्योऽयं परिहारः । निर्विकल्पकविकुट्टनेन सविकल्प२५ स्यैव समर्थितं च प्रामाण्यम् । इत्यलमिहातिप्रपञ्चेन । तन्नासिद्धिः
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सामान्यविशेषाने कान्तवा• दस्योपपादनम् ।
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परि. ५ सू. ८] स्याद्वादरत्नाकरसहितः प्रस्तुतसाधनम्य । विरुद्धानकान्तिकदोषयोस्तु शङ्कव नास्तीति निरवद्यमिदं साधनमः धर्मिणि सामान्यविशेषात्मत्वं साध्यमुपढौकयत्येव ।
तत्सामान्यविशेषाख्यानेकान्ताक्रान्तमूर्तिकम् । वस्तु प्रमेयमायातं प्रमाणस्योपपत्तितः ।। ५७६ ॥ अत्र गोगाः प्रत्यवतिष्ठन्तेसामान्यविशेषेतिपदार्थ - ननु नाद्यापि पूर्वोक्तं प्रमेयमुपपद्यते । यवादिना नयायिकानां सामान्यभेदयोर्यम्मात्पार्थक्येनैव संस्थितिः मतस्य उपादनपूर्वक सविस्तरं खण्डनम् ।
॥ ५७७ ॥ तथाहि- सामान्यविशेषौ अत्यन्तभिन्नौ भिन्नप्रतिभासत्वाद्यावित्थं तावित्थम् । यथा घटपटौ । तथा चेमौ तस्मात्तथा । घटपटयोहि १० भिन्नप्रतिभासत्वमत्यन्तभेदे सत्येव दृष्टं तत्सामान्यविशेषयोदृश्यमानं कथं नात्यन्तभेदमुपढौकयेत् । अन्यथा अन्यत्राऽप्यस्य तदनुपढौकनप्रसंगः । इतोऽप्यनुमानात्तयोरत्यन्तभेदसिद्धिः । सामान्यविशेषावत्यन्तभिन्नौ विरुद्धधर्मान्वितत्वात् । यावे तावेबम् । यथा पयःपायको । तथा चैतौ तस्मात्तथा । न चानयोविरुद्धधर्मान्वितत्वमसिद्धम् । १५ एकत्वनित्यत्वनिरचयत्वनिष्क्रियत्वादिधर्मान्वितं हि सामान्यम् । एतद्विपरीतधर्मान्वितस्तु विशेषः । तद्यदि वस्तुनः सानान्यस्वभावता स्वीक्रियते कथं विशेषरूपता । सा चेत्कथं सामान्यस्वभावता विरोधात् । किंच सामान्यविशेषयोस्तादात्म्ये पटस्य भावः पटत्वमिति भेदनिष्ठा षष्ठी तद्धितोत्पत्तिश्च न प्राप्नोति । तस्मात्तयोरत्यन्तभेद एव २० युक्तो न पुनर्भेदानेकान्तः । संशयादिदोषसप्तकोपनिपातप्रसक्तेः । ___ तथा हि-केन स्वरूपेण तयोर्भेदः केन चाभेद इति संशयः ॥१॥ तथा यत्राऽभेदस्तत्र भेदम्य विरोधो यत्र च भेदस्तत्राऽभेदस्य शीतोष्णस्पर्शवदिति विरोधः ॥ २ ॥ तथा, अभेदम्यैकत्वस्वभावस्याऽन्यदधिकरणम् । भेदस्यानेकत्वस्वभावस्यान्यदिति वैयधिकरण्यम् ॥ ३ ॥ २५
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः
तथा, एकान्तेनैकात्मत्वे यो दोषोऽनेकस्वभावत्वाभावलक्षणोऽ. नेकात्मकत्वे चैकस्वभावत्वाभावलक्षणः सोऽप्यत्रानुषज्ज्यत इत्युभयदोः || ४ || तथा येन स्वभावेनार्थस्यैकस्वभावता तेनानेकस्वभावत्वस्यापि प्रसंगः । थेन चानेकस्वभावता तेनैकस्वभावत्वस्याप्यनुषङ्ग इति संकरः । 'सर्वेषां युगपत्प्राप्तिः संकरः ' इत्यभिधानात् ॥ ५ ॥ तथा येन स्वभावेनानेकत्वं तेनैकत्वं प्राप्नोति येन चैकत्वं तेनानेकत्वमिति व्यतिकरः । ' परस्परविषयगमनं व्यतिकरः ' इति वचनात् || ६ || तथा यमात्मानं पुरोधाय भेदो यं च समाश्रित्याभेदस्तावात्मानौ भिन्नौ चाभिन्नौ च । तत्रापि तथा परिकल्पनादनवस्था || ७ || तदुक्तम्१० 'संशयविरोधवैयधिकरण्यसंकरमथोभयं दोषः । अनवस्थाव्यतिकरमपि जैनमते सप्त दोषाः स्युः ॥' इति । एवं तत्त्वस्याप्रतिपत्तिरेवानेकान्तवादिनाम् |
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५
१५
[ परि. ५ सु.
अनेकदोषोपनिपातदुःस्थं तस्मादनेकान्तमतं विहाय |
एकान्ततो भिन्नतयाऽभ्युपेयौ सामान्यभेदाविह नीतिमद्भिः॥५७८||
इत्थं योगैः स्वीयमार्गानुरागअस्तस्वान्तैर्जल्पितं युक्तिजालम् | सर्वं चैतन्मोहनिद्राप्रलाप
प्रायं प्रेक्षलक्षणीयं तथा हि ॥ ५७९ ॥ यावत् ' सामान्यविशेषौ अत्यन्तभिन्नौ ' इत्याद्यनुमानमुक्तम् । २० तत्र भिन्नप्रतिभासत्वादिति हेतोः कोऽर्थः । किं मित्रप्रमाणग्राह्यत्वात्, भिन्नाकारावभासित्वाद्वा । आद्यपक्षे आत्मादिनाऽनेकान्तः । प्रत्यक्षादिभिन्नप्रमाणग्राह्येऽप्येकस्मिन्मेदासंभवात् । द्वितीयपक्षेऽपि कथंचिद्विन्नाकारावभासित्वं साधनत्वेनाध्यवसितं सर्वथा वा । यदि कथंचितदा कथंचिदेव, अतः सामान्यविशेषयोर्भेदः सिद्धयेत् । तेनैवाऽस्यावि२५ नाभावसंभवात् । न पुनः सर्वथा तद्विपर्ययात् । तथा च हेतोर्विरुद्धत्वं साध्यविपर्ययसाधनात् । सर्वथा भिन्नाकारावभासित्वं त्वसिद्धम् ।
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८
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परि. ५ सू. ८ स्याद्वादरत्नाकरसहितः सामान्यविशेषयोः कथंचिदभिन्नाकारयोः सतोस्तथैव प्रतिभासात् । अत एव च पक्षस्य प्रत्यक्षबाधा । दूरपादपादिना व्याभिचारस्य हेतोः । न हि दूरासन्नदेशवर्तिप्रतियतणामस्पष्टेतरतया प्रतिभासभेदेऽपि पादपादेत्यन्तभेदः संभवति । ननु चात्र प्रातभासभेदाद्विषयभेदोऽस्त्येव । तथा हि-प्रथमं दूरदेशवर्तिनो विज्ञानं पादपत्वसामान्यविषयम् । उत्तरकालं ५ तु तद्देशोपसर्पणे शिंशपादिविशेषविषयमिति चेत् । तदयविचारितमनोहरम् । एवं हि विषयभेदाभ्युपगमे यमहमद्राक्षं दूरस्थितः पादपमेतर्हि तमेव पश्यामीत्येकत्वाध्यव लायो न स्यात् । तथा यद्यथा निर्बाधाध्यक्षेऽवभासते तत्तथैवाऽभ्युपगन्तव्यम् । यथा नीलं नीलरूपतया निबांधाध्यक्षेऽवभासतेऽवभासेते च कथंचित्तादात्म्येन सामान्यविशेषावित्य- १० नुमानबाधितः पक्षः । न च तथा तवभासिनोऽध्यक्षस्य निर्बाधत्वमसिद्धम् । तद्बाधकस्य कस्यचिदप्यसंभवात् । न खलु प्रत्यक्षं तद्वाधकम् । अत्यन्तत दस्याऽत्राप्रतिभासमानत्वात् । अनुमानमप्येतदेवान्य. द्वा तहाधकं स्यात् । न तावदेतदेव । अत्याध्यक्षबाधितविषयतयोत्थानस्यैवाऽसंभवात् । प्रान्तत्वान्न प्रस्तुतानुमानविषग्रस्य प्रत्यक्षेण बाधेति १५ चेत् । कुतः प्रत्यक्षस्य भ्रान्तत्वम् । प्रस्तुतानुमानेन बाधनाचेत्तर्हि चक्रकापत्तिः । तथा हि-अबाधितविषयतया प्रस्तुतानुमानस्योत्थाने प्रत्यक्षस्यानेन बाधा । तस्यां च सत्यां तस्य भ्रान्तत्वम् । तस्मिन्सति अबाधितविषयतया प्रस्तुतानुमानस्योत्थानमिति । कथं चैवमनुष्णोऽग्निः सत्त्वा जलवत्, इत्यस्याप्यबाधितविषयतया प्रवृत्तिर्न स्यात् । २० साध्यसाधनयोः साहचर्यम्य सपक्षे प्रत्यक्षतः प्रतीतेस्त्राप्यविशेषात् । पक्षस्य प्रत्यक्षबाधनादम्याऽगमकत्वमितरत्राप्यविशिष्टम् । तन्नतेनैवाऽनुमानेन सामान्यविशेषयोः कथांचेतादात्म्यपाहिप्रत्यझस्य बाधनम् । अनुमानान्तरेण तद्बाधनेऽस्य वैयर्थ्यम् | साध्यस्यापि तत एव प्रसिद्धेः ! दृष्टान्तोऽपि साध्यविकलो घटयटयोरपि दृष्टान्तीकृतयोरत्यन्त- २५ भेदासंभवात् । तदसंभवश्व सत्त्वादिनाऽन्योन्यं तयोरभेदात्सुप्रसिद्धः ।
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः परि. ५ मू. ८ साधनविकलश्चायं दृष्टान्तोऽपि .... ... सामान्यविशेषयोरात्यन्तिकं भेदं प्रसाधयति । द्वितीयानुमानेऽपि विरुद्धधर्मान्वितत्वाख्यो हतुवूमेनानैकान्तिकः । न खलु स्वसाध्येतरयोगमकत्वागमकत्वलक्षणविरुद्धधर्मान्वितत्वेऽपि धूमोऽभि .... .... .... .... .... .... .... ५ .... .... .... .... लापचित्तस्य तु सामग्र्यन्तरत्वात्साध्यान्तरं प्रत्यगमकत्वम् । न चैकस्यैव तम्य गमकत्वागमकत्व संभवत इत्यप्यन्धसर्पत्रिलप्रवेशन्यायेन परेषामनेकान्तावलम्बनम् । धूमम्याभिन्नत्वात् । य एव हि गमकः म्वसाध्ये स एव ह्यत्यन्तागमक इति । अथान्यः
स्वसाध्ये गमकोऽन्यश्चान्यत्रागमकस्ताहि यो गमको धूमस्तस्य स्वसा१. ध्यवत्साध्यान्तरेऽपि सामर्थ्यादेकम्मादेव धूमान्निखिलसाध्यसिद्धि
प्रसंगात्विन्तरोपन्यासो व्यर्थः स्यात् । तथा यदपि तद्वस्तुनः सामान्यस्वभावता स्वीक्रियत इत्यादि । तदप्ययुक्तम् । सामान्यविशेषोभयम्वभावस्य वस्तुनः प्रत्यक्षादिप्रमाणप्रतीतत्वात् । प्रमाणप्रतीते
च विरोधानुपपत्तेः । यच्चावाचि — पटस्य भाव' इत्यादि । तदपि न १५ न्याथ्यम् । घण्णा पदार्थानामस्तित्वमित्यत्र भेदाभावेऽपि षष्ठ्युत्पत्तिप्र
तीतेः । न खलु भवतां षट्पदार्थातिरिक्तमस्तित्वादिकमभिमन्यते । षट्पदार्थसंख्याव्याघातप्रसंगात् । ननु धर्मिन्पा एव ये भावास्ते षट् पदार्थाः प्रोक्ताः ! धर्मरूपास्तु तद्व्यतिरिक्ता इति चेत् । कस्त_स्तित्वस्य तैः
सह संबन्धो येन तत्तेषां धर्म: स्यात् । संयोगः समवायो वा । न तावत्सं२० योगोऽस्य गुणत्वेन द्रव्यैकाश्रयत्वात् । नापि समवायः । तस्यैकत्वेनेटेः।
समवायेन चाऽस्य समवायसंबन्धे तम्यानेकत्वप्रसक्तेः । एकत्ये........ कथमेवमस्तित्वस्यास्तित्वमित्यत्रास्तित्वयोरेकत्वे कथं भेदनिबन्धना विभक्तिर्भवेत् । अथ तत्राप्यपरमस्तित्व स्वीक्रियते तदाऽनवस्था
स्यादपरापरधर्मसमावेशे । नच सत्त्वस्य धर्मिरूपत्वानुषङ्गात्पडेव २५ धर्मिण इत्यस्य व्याघातः । ये धर्मिरूपा एव ते षट्वेन विवसेत्, न
द्रव्यादीनां धर्मरूपक्षिता (?) .... .... .... .... ....
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परि. ५ सू. ८]
स्याद्वादरलाकरसहितः
इति त्वस्यापि संभवात् । तथा स्वस्य भावः स्वत्वमित्यादौ भेदाभा वेऽपि तद्धितोत्पत्तरुपलम्मान्न साऽपि भेदपक्षमेवाऽवलम्बते । यच्चावाचि संशयादिदोषसप्तकोपनिपातप्रसक्तरित्यादि तदपि न मनोज्ञम् । साधकबाधकमानाभावादिसामग्र्यभावे कथं प्रत्येककोटिनिर्णये संशयोऽयमुपपन्नः स्थाणुपुरुषप्रतीतौ तत्संशयवदेव । अथानुपजायमानोऽपि ५ संशयोऽत्र बलादापाद्यते । नन्वेवं कम्यचिदपि प्रतिनियतरूपयवस्था न स्यात् । सर्वत्र तम्यापादयितुं सुशकत्वात् । तथाहि-घटादिप्रतिनियतवस्तुप्रभातृत्वमेवात्मनो ज्ञानस्वभावस्य परमात्मस्वरूपम्य वा म्यादित्यादिसंशयस्यापादयितुं मुशकत्वेन न क्वचित् व्यवस्था सिध्येत् । ततो घटादेः प्रतिनियतरूपव्यवस्थामिच्छता नाऽनुपजायमानः संशयो १० बलादापादयितुं शक्यः ॥ १ ॥ विरोधोऽपि भेदाभेदाविवाभे ( ? ) वस्तुरूपादावपि समान इत्येकम्य भेदाभेदवद्रूपादिस्वभावताऽपि न भवेत्। किं चाऽयं भावेभ्योऽपृथग्भूतः पृथग्भूतो वा भवेत् । यद्यपृथग्भूतः कथं विरोधको नाम स्वात्मभूतत्वात्तत्म्वरूप बत् । अथ पृथग्भृतस्तथापि न विरोधकः पृथग्भूतत्वादेवाविरोधकार्थान्तरवत् । तथापि तस्य १५ विरोधकत्वे सर्वः सर्वम्य विरोधकः स्यात् । ननु चार्था न्तरभूतोऽपि विरोधिनोविरोधको विरोधस्तद्विशेषणत्वे सति विरोधप्रत्यय विषयत्वात् । वस्तु न तयोर्विरोधकः स न यथा तथाऽपरोऽर्थस्ततो न सर्व : सर्वस्य विरोधक इति चेन्न तम्य तद्विशेषणत्वानुपपत्तेः । विरोधो हि अभावः । स च तुच्छस्वभावो यदि शीतोष्णद्रव्ययोर्विशेषणं तदा २० सकृत्तयोरदर्शनापत्तिः । अथ शीतद्रव्यम्थैव विशेषणं तदा तदेव विरोधि स्यान्नोप्णद्रव्यम् । तथा न द्विष्ठोऽसावेकत्रावस्थितेः । न चैकत्र विरोधः । सर्वदा तत्प्रसंगात् । एतेनोप्णद्रव्यस्यैव विरोधो विशेषणमित्यपि निरस्तम् । अथ विरुध्यमानत्वापेक्षया कर्मस्थः । विरोधकस्वापेक्षया तु कर्तृस्थो विरोधः । एवं च यद्यपि कर्तृस्था कर्तर्येव कर्मस्था २५ च कर्मण्येव विरोधव्यक्तिस्तथापि सामान्यापेक्षयोभयविशेषणत्वा
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. ५ सू. ८ द्विष्ठोऽसावभिधीयते । तदा रूपादेरपि द्विष्ठत्वनियमापत्तिः । तत्सामान्यस्य द्विष्ठत्वात् । रूपादेर्गुणविशेषात्तत्सामान्यस्य पदार्थान्तरत्वान्न तदनेकस्थत्वमिति चेत् । तर्हि कर्मकर्तृस्थाद्विरोधविशेषात्पदार्थान्तरस्य विरोधसामान्यस्य द्विष्ठत्वे कुतस्तविष्ठत्वं येन द्वयोर्विशेषणं विरोधः । एतेन · गुणयोः कर्मणोर्द्रव्यगुणयोर्गुणकर्मणोव्यकर्मयोवा विरोधो विशेषणम् ' इत्यपास्तम् । विरोधस्य ह्यभावरूपत्वे कथं सामान्यविशेषभावो येनानेकविरोधि विशेषणभूतविरोधविशेषव्यापि विरोधसामान्यमुपेयते । यदि पुनः षट्पदार्थव्यति
रिक्तत्वात्पदार्थशेषो विरोधोऽनेकस्थः । स च विरोध्यविरोधको १० भावप्रत्ययविशेषसिद्धः समाश्रीयते । तदाप्यम्यासंबद्धस्य द्रव्यादौ विशेषत्वं स्यात्संबद्धस्य वा । न तावदसंबद्धस्य । अतिप्रसंगात् । दण्डादौ तथा प्रतीत्यभावाच्च । अथ संबद्धम्य किं संयोगेन समचायेन विशेषणभावेन वा । न तावत्संयोगेन । अस्याद्रव्यत्वेन संयो
गानाश्रयत्वात् । नापि समवायेन । विरोधस्य द्रव्यगुणकर्मसामान्यवि१५ शेषव्यतिरिक्तत्वेनासमवायित्वात् । नापि विशेषणभावेन । संबन्धान्तरे
णासंबद्धे वस्तुनि तस्यासंभवात् ! अन्यथा दण्डपुरुषादौ संयोगादिसंबन्धाभावेऽपि स म्यात् । इत्यलं संयोगादिसंबन्धकल्पनाप्रयासेन । तदित्थं विरोधस्य परामृश्यमानम्याघटमानत्वान्नाथ भेदाभेदयोः परिकल्पयितुं युक्तः ॥ २ ॥ नापि वैयधिकरण्यम् । एकाधारतया निर्वाधबोधे भेदाभेदयोः प्रतिभासमानत्वात् ॥ ३ ॥ नाप्युभयदोषानुषंगः । तस्करपारदारिकाभ्यामतस्करपारदारिकवद्भेदात्मकवस्तुनः केवलभेदाभेदाभ्यां जात्यन्तरत्वात् । न खलु भेदाभेदयोरन्योन्यनिरपेक्षयोरेकत्वं जिनपतिमतानुसारिभिरिष्टं येनायं दोषः स्यात् । तत्सापेक्षयोरेव तद्
भ्युपगमात्तथाप्रतीतेश्च ॥ ४ ॥ नापि संकरव्यतिकरौ । स्वरूपेणैवार्थे २५ तयोः प्रतीयमानत्वात् ॥ ५॥ ६ ॥ नाप्यनवस्था । धर्माणामपरधर्मासंभवात् । ‘धर्मिणोऽनेकरूपत्वं न धर्माणां कथंचन '
२०
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परि. ५ सू. ८ ] स्थाद्वादरत्नाकरसहितः
७१३ इत्यभिधानात् ॥ ७ ॥ एवं संशयादिदोषसप्तकविकुट्टनाद्यदुक्तं तत्त्वस्याप्रतिपत्तिरेवानेकान्तवादिनामिति, तत्प्रत्युक्तम् । तत्सामान्यविशेषयोर्नियमतो भेदः समास्थीयते
यैस्ते न्यायपराङ्मुखाः कुमतयम्तीर्थान्तरीया हताः ॥ स्याद्वादोन्नततोरणो जिनपतेरुतुङ्गसच्छासन
प्रासादः प्रचुरार्थसार्थरुचिरस्तस्माच्चिरं तिष्ठतात् ।। ५८० ॥ सामान्यविशेषाख्योऽनेकान्तः सिद्धिसौधमानीतः ।।
अधुना तु साध्यतेऽसावादिध्वनिसंचितस्तत्र ।। ५८१ ।। तथा हि- समस्तं वस्तु स्वपररूपादिना सदसदात्मकं प्रतिनियत
रूपव्यवस्थानुपपत्तेः । नन्वत्र साध्यपदयोर्विरोधः। १० सदसदनकान्तवादस्य संसाधनम्।
- कथमेकमेव कुम्भादिवस्तु सञ्चासच भवति ।
सत्त्व ह्यत्सत्त्वपरिहारेण व्यवस्थितम् । असत्त्वमपि सत्त्वपरिहारेण । अन्यथा तयोरविशेषः स्यात् । ततश्च तद्यदि सत्, कथमसत् । अथासत्, कथं सदित्यप्रसिद्धमेव सदसदात्मकत्वम् । तथा चाप्रसिद्धविशेषणत्वं पक्षस्य दोषः । प्रतिनियतरूपव्यवस्थाऽन्यथा- १५. नुपपत्त्याख्यो हेतुरप्यसिद्धः । इतरेतराभाववशादेव प्रतिनियतरूपव्यवस्थाया उपपद्यमानत्वात् ।
भावाभावात्मकं वस्तु तदित्थं नोपपद्यते ।
स्वीकार्यों सर्वथा भिन्नौ भावाभावौ बुधैस्ततः ।। ५८२ ।। तदिदमखिलमलीकम् । यतो यदि येनैव प्रकारेण सत्त्वं तेनैवासत्त्वं २० येन चासत्त्वं तेनैव च सत्त्वमभ्युपेयेत । तदा स्पाद्विरोधः । यदा तु म्वरूपादिना सत्त्वं पररूपादिना त्वसत्त्वमिप्यते तदा कास्य गन्धोऽपि ।न खलु वस्तुनः सत्त्वमेव । स्वरूपादिनेव पररूपादिनापि सत्त्वप्रसंगात् । सर्वस्यासर्वात्मकत्वानुषक्त्या सत्वाद्वैतापतेः । तच्च प्रागेव कृतोत्तरम् । नाप्यसत्त्वमेव । पररूपादिनेव स्वरूपादिनाप्यसत्त्वप्रसंगात् । अखि- २५ लस्य खपुष्पप्रख्यत्वापत्या सकलशून्यताप्राः । सापि च प्राक्प्रति
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः (परि. ५ म. ८ क्षिप्तैव । भेदाभेदयोरिव सत्यासत्त्वयोर्विरोधो विधुरयितुं सुशक एव । तन्नाप्रसिद्धविशेषणं पक्षम्य दोषः । यत्तुक्तम् --~-इतरेतराभाव इत्यादि । तदसुन्दरम् । इतरेतराभावस्य घटवम्त्वभेदे घटविनाशे पटाद्यपलब्धि
प्रसंगात्पटाद्यभावस्य विनष्टत्वात् । अथ घटाद्भिन्न इतरेतराभावम्तदा ५ घटपटादीनां परस्परं भेदो न स्यात् । यदा हि पटाद्यभावरूपो घटो
न भवति तदा घटः पटादिरेव स्वात् । यदा च घटस्य घटाभावाद्भिन्नत्वाद्धटरूपता तथा पटादेराप स्याद्धटाभावाद्भिन्नत्वादेव । नाप्येषां परम्परभिन्नानामभावेन भेदः शक्यते कर्तुं तम्य
भिन्नाभिन्नभेदकरणेऽकिंचित्करत्वात् । न चाभिन्नानामन्योन्याभावः १० संभवति । नापि परम्परं भिन्नानामभावेन भेदः क्रियते स्वहेतुभ्य एव
भिन्नानामुत्पत्तेः । नापि भेदव्यवहारः क्रियते । यतो भावनामात्मात्मीयरूपेणोत्पत्तिरेव स्वतो भेदः, स च प्रत्यक्षे प्रतिभासनादेव भेदव्यवहारहेतुः । किंच भावाभावयोमेंदो नाभावनिबन्धनः । अनवस्थाप्रसं
गात् । अथ स्वरूपेण तयोर्मेदस्तदा भावानामपि स्वरूपेणैव स म्या१५ दिति किमपरेण भावेन कल्पितेन । तन्नैकान्ततो भिन्नोऽभिन्नो वा
इतरेतराभावः संभवति । अपि चायं किं स्वतन्त्रो भावध! वा । न तावत्स्वतन्त्रः । तथाविधस्याम्य प्रागेव परास्तत्वात् । अथ भावधर्मः, कम्य पुनर्भावस्य धर्मोऽसौ घटस्य पटम्योभयस्य वा ! यदि घटस्य
तत्रापि किं घटस्वरूपस्य निषेधकः पटम्वरूपम्य वा । प्रथमपक्षे किं घट २० एव घटः स्वरूपस्य प्रतिषेधकः पटे वा | प्रथमे पक्षे कथं घटधर्मोऽसौ
धर्मिण्येवासत्त्वात् । द्वितीये तु पटे सन्, असन् वा घटमयं निषेधेत् । यदि संस्तदा कथं घटधर्मोऽसौ, तादात्म्येनावस्थानात्तद्धर्मताया एव संभवात् । अथ असंस्तदा घटे घटासत्त्वासत्त्वाद्धटसत्त्वव
पटेऽपि घटासत्त्वासत्त्वाद्धटसत्त्वप्रसंग: 1 तन्न घटम्य धर्मः सन्, अस्यैव २५ घटस्वरूपस्य निषेधकोऽसौ । अथ पटम्वरूपस्य निषेधकोऽसौ । तत्रापि
किं पटात्मन्येव घटात्मनि वा । नाद्यः पक्षः । पटाभावस्य घटधर्मत्वेन
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परि. ५ सू. ८ ]
स्याद्वादरत्नाकरसहितः
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पटात्मत्वाभावेन तत्र तन्निषेधं कर्तुमसमर्थत्वात् । द्वितीयपक्षे त्वस्मन्मतसिद्धिः । पटाभावस्य घटधर्मस्य घटात्मकत्वात्पटनिषेधकत्वेनाम्माभिः स्वीकारात् । अथ यदि घटधर्मोऽसौ तदा कथं घटे पटो. नास्तीति पटसामानाधिकरण्येन तत्प्रतीतिः । तद्सत् । संसर्गमात्रप्रतिषेधत्वादस्य भूतले घटो नास्तीतियत् । इह तु तादात्म्यप्रतिषेधस्य ५ प्रक्रान्तत्वात् । तत्र च घटः पटात्मा न भवतीति प्रतीभवत्येव घटसामानाधिकरण्यं पटाभावस्य । एवं पटधर्मत्वे घटाभावस्य सर्व वाच्यम् । यथा हि घटः पटात्मा न भवतीति प्रतीतिरम्ति तथा पटो घटात्मा न भवतीत्यपि । ततोऽपि घटात्मा पटाभावो घटधर्मः पटात्मा च घटाभावः पटधर्म इति युक्तम् । संग्रहनयाभिप्रायादुभयधर्मताप्य- १०. म्याविरुद्धैवेति । न चाभाव एवेतरेतरामावस्येति सौगतः कल्पनीयम् । घटादेः सर्वात्मकत्वप्रसंगात् । तथा हि-यथा घटस्य स्वदेशकालाकारादिना सत्त्वं तथा यदि परदेशकालाकारादिनापि तथा सति स्वदेशादित्ववत्परदेशादित्वप्रसक्तेः कथं न सर्वात्मकत्वं, अथ परदेशादित्ववत्स्वदेशादित्वमपि तस्य नास्ति । तदा सर्वथाऽभावप्रसक्तिः । १५ अथ यदेव स्वसत्त्वं तदेव परासत्त्वम् । नन्वेवमपि यदि परासत्त्वे स्वसत्त्वम्यानुप्रवेशस्तदा सर्वथाप्यसत्वम् । अथ स्वसत्त्वे परासत्त्वस्य तदा परासत्त्वस्याभावात्सर्वात्मकत्वम् । यथाहि स्वासत्त्वासत्त्वास्वतत्त्वं तस्य तथा परासत्त्वासत्त्वात्परसत्वप्रसक्तिरनिवारितप्रसरा विशेषाभावात् । न च परासत्वं कल्पितरूपमिति न तन्निवृत्तिः पर- २०. सत्त्वात्मिकेति वाच्यम् । स्वासत्त्वेऽप्येवं प्रसंगात् । अथ नाभावनिवृत्त्या पदार्थो भावरूपः प्रतिनियतो वा भवति । अपि तु म्वहेतुसामग्रीतः स्वस्वभावनियत एवोपजायते । तथैव चार्थसामर्थ्य भाविनाऽध्यक्षेण विषयी क्रियमाणो व्यवहारपथमवतायो, इति किमितरेतराभावकल्पनया । उच्यते । किंचिकेवलम्वसामग्रीतः स्वम्वभावनियतोत्प- २५ त्तिरेच परासत्त्वात्मकत्वन्यतिरेकेण नोपपद्यते । स्वस्वरूपनियतप्रतिभासनं
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः
[ परि. ५ सू. ८
च पराभावात्मक प्रतिभासनमेव । अत एव स्वकीयरूपानुभवान्नान्यतोऽन्यनिराक्रियेत्येतदपि सदसदात्मक वस्तुप्रतिभासनमन्तरेणानुपपन्नमेव । यदा हि पररूपव्यावृत्तिमत्तत्स्वरूपमध्यक्षे प्रतिभाति तदा स्वस्वरूपमेव परतस्तस्य भेदस्तदग्रहणमेव चाध्यक्षतस्तद्वेदग्रहणम् । अन्यथा पारमार्थिकपरसत्त्वासत्त्वात्मकस्वसत्त्वाभावे स्वसत्त्ववत्परसच्चात्मकत्वप्रसंगान्न तत्स्वरूपमेव भेदो नापि तत्प्रतिभासनमेव "भेदप्रतिभासनं स्यात् । अत एवान्याभावस्य पदार्थात्मकत्वेऽपरापराभावकल्पनया नानवस्था । नापि परग्रहणमन्तरेण तद्वेदग्रहणाभावादितरेतराश्रयत्वाद्भेदाग्रहणम् । न चाभावस्य तुच्छतया सहकारिभिरनु१० पकार्यस्य ज्ञानाजनकत्वम् । नापि भावाभावयोरनुपकार्योपकारकत्वेनासंबन्धो भावाभावात्मकस्य पदार्थस्य स्वसामग्रीत उत्पन्नस्य प्रत्यक्षे तथैव प्रतिभासनात् । न चासदाकारावभासस्य मिथ्यात्वम् । सदाकारावभासेऽपि तत्प्रसंगात् । न चासदवभासस्याभावः । अन्यविविक्तावभासस्यानुभवसिद्धत्वात् । तन्न यदेव स्वसत्त्वं तदेव परासत्त्वमिति १५ साधु । अपेक्षणीय निमित्तभेदाच्च सत्त्वासत्त्वयोनैकत्वं वक्तुं युक्तम् । स्वद्रव्यादिकं हि निमित्तमपेक्ष्यार्थे सत्त्वं व्यवस्थाप्यते । परद्रव्यादिकं पुनरपेक्ष्य सत्त्वम् । ततो विभिन्ननिमित्तनिबन्धनत्वात्सत्त्वासत्त्वयोर्भेदः । एकान्ताभेदे तु सत्त्वासत्त्वयोर्विभिन्ननिमित्तनिबन्धनत्वानुपपत्तिः । तथा हि-यदेकान्तेनाभिन्नं न तत्र विभिन्ननिमित्तनिबन्धनत्वं यथा २० सत्त्वे, असत्त्वे वा । एकान्तेनाभेदश्च सत्त्वासत्त्वयोर्भवद्भिरिष्ट इति ।
प्रतिनियतसदसत्प्रत्ययगोचरचारित्वानुपपत्तिश्चानयोस्तत एव तद्वत् । अभिन्ननिमित्तनिबन्धनत्वे च तत्प्रत्यययोः सर्वत्र हेतुभेदात्फलभेदः, इत्यभ्युपगमो विरुध्येत । ततः सत्त्वासत्त्वयोर्वस्तुनि प्रतीति भूधरशिखरारूढं कथंचित्तादात्म्यं प्रतिपत्तव्यम् । विस्तरतस्तु सदसदात्मक२५ वस्तुविचारः श्रीमंदनेकान्तजयपताकातः प्राज्ञैर्विज्ञेयः । तस्माद्दोषापगम विशदान्मानतः संप्रसिद्धे सत्त्वासत्त्वाभयपरिगते विश्ववस्तुप्रपञ्चे ||
७४६
१ अ. ज. प. प्रथमः परिच्छेदः ।
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परि. ५ सू. ८] स्याद्वादरत्नाकरसहितः
७४७ एकान्ताय प्रमितिविमुखं कथ्यमानाय तीयें: स्वान्तं हन्त स्पृहयतु कथं शेमुषीवल्लभानाम् ।। ५८३ ।।
.. एवं सदसदनेकान्त एष समसाधि साधुयुक्तिशतैः। बौद्धमत खण्डनपूर्वकं नित्यानित्यानेकान्तवादस्य संप्रति नित्यानित्यानेकान्तः साध्यते सम्यक
मण्डना ।
अत्राह ज्ञानश्रीश्रवणदुर्विदग्वशाक्यः कश्चित् --- क्षणिकै कान्ते जीवति कोऽयं तत्साधनमनोरथस्याऽवसरः । तथा हि"यत्सत्तत्क्षणिकं यथा जलधरः सन्तश्च भावा इमे
सत्ताशक्तिरिहार्थकर्मणि मिते सिद्धेषु सिद्धा व सा। १० नाप्येकैव विधान्यदापि परकृनैव क्रिया वा भवेत
द्वेधापि क्षणभङ्गसंगतिरतः साध्यैव विश्राम्यति ॥" सत्त्वमिहार्थक्रियासामर्थ्यमभीष्टं स्वभावहेतुत्वेनोपन्यम्तम् । तच्च प्रमाणतः प्रतिपन्नेषु निःशेषवादिनामविवादसिद्धम् । इति नाश्रयद्वारेण स्वरूपेण वास्यासिद्धिः । नापि विरुद्धता । सपक्षीकृते जलमुचि १५ विलोकनात् । साध्यविपर्ययव्यातिलक्षणस्य विरुद्धस्य साध्यवति दर्शना. नुपपत्तेः । ननु कथमिह क्षणिकत्वावधारणम् । यतोऽस्य सपक्षता स्यादिति चेत् । उच्यते । इह जलधरस्य जलधारणक्रियासमर्थस्तावदेकदा स्वभावो शक्यपरिहारः । क्षणान्तरे च द्वितीयादौ तत्क्रियायाः कृतस्वात्पुनः कर्तुमशक्यत्वात्तज्जातीयामन्यजातीयां वा कुर्यान्न कुर्याद्वा २० कामपि क्रियामिति पक्षाः । एवं तक्रियाकरणक्षणात्प्रागपि वक्तव्यम् । तत्र यदि प्रथमक्षणवत्क्षणान्तरेऽपि तत्करणसमर्थस्वभावोऽम्भोधरः कथं कदाचित्तक्रियाविच्छेदः । क्षणान्तर निवर्तनीयक्रियासमर्थस्वभावत्वे वा क्षणान्तरवत्प्रथमक्षणेऽपि सजातीयेतरक्रियाप्रसवप्रसङ्गः । क्षणान्तरेऽ. पि हि तत्सामर्थ्यसंभवाजननं तच्च तत्राप्यक्षीणम् ।
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः पिरि. ५ स. ८ कार्याणि हि विलम्बन्ते कारणासंनिधानतः ।
समर्थहेतुसद्भावे क्षेपस्तेषां तु किंकृतः ॥५८५|| एतेनाकरणपक्षोऽपि प्रतिक्षिप्तः । यदा विलम्बो ह्यसह्यस्तदादूरोत्सारितमकरणम् । असामर्थे वा समीहितसमयेऽप्यकरणप्रसङ्गः । सदेकत्वभावत्वात् । स्वभावभ्रंशे च प्रतिक्षणं क्षयः सिद्धो जलधरस्य ।। प्रयोगः-यद्यदा यजननसमर्थ तत्तदा तत्करोत्येव । यथान्या कारणसामग्री स्वकार्यम् । शक्तश्चायमुभयदशायामुभयं कार्यमर्जितुमिति स्वभावहेतुपसंगः । विपर्ययप्रयोगश्च-यद्यन्न करोति
न तत्तत्र समर्थम् । यथा शाल्यङ्कुरमकुर्व कोद्रवः । न करोति १. चायं प्रथमक्षणसाध्याः किया द्वितीयादिक्षणसाध्या वा प्रथमक्षण इति
व्यापकानुपलब्धिः । एवं च जलधरस्य तत्तक्रियासु समर्थासमर्थस्वभावतया प्रतिक्षणमन्यत्वेन सपक्षत्वे सिद्ध तत्र वर्तमानस्य सत्त्वहेतोः कुतो विरुद्धता । नाप्यनैकान्तिकशङ्का । सर्वोपसंहारवत्या व्याप्तेः प्रसाधनत्वात् । ननु विपर्ययबाधकप्रमाणवशात् व्यातिसिद्धिः । तस्य च नोपन्यासवार्तापि। तत्कथं व्यातिः प्रसाधितेत्युच्यते । तदचतुरस्रम् । तथा युक्तमेतत् । कर्तुः सा न क्रियान्यदापि किंतु परक्रिया, अक्रियैव वा । अत्र च प्रकारद्वये क्षणभङ्गसंगतेरवश्यंभावोऽतः साध्येन व्यातैव सार्थक्रियासक्तिरिति । नन्वेवमन्वयमात्रमस्तु विप
क्षात्पुनरेकान्तेन व्यतिरेकः कथं लभ्य इति चेत् । प्रागुक्तं २० 'यद्यदा' इत्यादिकानुमानादन्वयव्याप्तिसिद्धेरेव । विपर्ययबाधकशब्देन
पुनरत्रान्वयव्यतिरेकव्याप्तिप्रसाधकप्रमाणयोरुभयोरपि संग्रहः । अन्वयरूपायां हि व्याप्ती साध्यविपर्ययस्य बाधकं सौधने सति । व्यतिरेकरूपायां तु साध्यविपर्यये बाधक साधनस्येति । अथापि व्यतिरेकरूपा
यामेव व्याप्तौ कौतुकमस्ति तदा साप्युक्तव । तथा हि-नाप्येकैव विधा २५ नान्यदापि किंतु परं कृत्वा भवेदक्षणिकाभिमतभावस्थान्यदा पूर्व
१. साधनसत्त्वम् ' इाते न. पुस्तक पाठः । २ — साध्यं विपर्थयबाधकम् ' इति न. पुस्तके पाठः।
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परि. ५०८ ]
स्याद्वादरत्नाकरसहितः
↑
पश्चाद्वेति क्रमनिर्देशः । नैव क्रियां भवेत् । अन्यदा नैवेत्यवधारणान्न पूर्वं नापि पश्चात्क्रियेत्यक्रम निर्देशः । एतस्य च कार्यगतस्य प्रकारयस्य कारणानां क्षणभङ्ग एव सति संगतिरित्यन्तानिर्णीतावधारणया वृत्त्या नित्याद्यावृत्तिरित्यपास्य क्षणभङ्गसंगतिरिति प्राधान्येनोपन्यस्तं वृत्ते । तदक्षणिकादिवत्क्षणिकादपि मा व्यावृत्तिः शंकीति लक्षयि ५ तुम् । एतेनाक्षणिकस्य क्रमयौगपद्याभ्यामर्थक्रियाविरोधाच्छाक्तलक्षणं सत्त्वमवहीयेत । अतः क्षणिकत्व एव विश्राम्यते न व्याप्यत इति क्रमयौगपद्यलक्षणव्यापकानुपलम्भाद्विपर्यये बाधकात्सत्त्वस्यार्थ - क्रियाशक्तिलक्षणस्य क्षणिकत्वेन व्याप्तिसिद्धिरित्युक्तं भवति । तथा च प्रयोगः– यत्क्रमयौगपद्यवत्यामर्थक्रियायां नोपयुज्यते तदन्नार्थक्रिया - १० शक्तम् । यथा हरिपदारविन्दम् । नोपयुज्यते चाक्षणिको भावः क्रमयैौगपद्यवत्यामर्थक्रियायामिति व्यापकानुपलम्भः ।
अपि च---
यन्निर्भाति यथा तथा तदखिलं गंगाम्बु गौरं यथा नो चेन्न प्रतिवस्तु शक्तिनियमः संकीर्णभावे भवेत् ॥ संस्काराः प्रतिभान्ति चेन्द्रियमतिष्वेकक्षणस्थायिनः स्यादेकक्षणवीक्षणादितरथा दृष्टित्रिकालीकला ॥ ५८६ ॥ लिङ्गरूपोपपत्तिव्यवकीर्णोऽयं स्वभावहेतुप्रयोगः । अत्र च सपक्षे भावान्न विरुद्धता दोषः । द्वितीयपादेन चानेकान्तपरिहारः । तथा हि-निर्मानं प्रत्यक्षे प्रतिभानमुक्तम् । ततो यावता विशेषेण २० पदार्थ : प्रत्यक्षे प्रतिभासमासादयति तन्नियमपरिहारण यदि स्वरूपस्थितिमाभजेत तदा सर्वसंकीर्णमस्य स्वरूपमिति सर्वत्र सर्वोपयोगादिप्रसंग ः | अतः स्वरूपनियमे प्रमाणापेक्षायां प्रवृत्तिनिवृत्तिकामस्य यद्यथा प्रत्यक्षे प्रतिभातं तत्तथैव सन्नान्यथेति । तदनेन तथावस्थानव्याप्तः प्रत्यक्षप्रतिभासोऽर्थस्यान्यथावस्थाने विपक्षे व्यापकाभावादसंभ- २५
१ यत्सत्तत् क्षणिकमित्यादिश्लोके ।
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः परि. ५ सू. ८ वस्तथावस्थानेन व्याप्यत इति दर्शितम् । तृतीयपादेन पक्षधर्मोपसंहारः । तदसिद्धिपरिहारश्चतुर्थेन । पूर्वापरकालयोरेकत्वे हि पदार्थस्य दृष्टाद्रूपाद्रूपान्तरविरहात्सकलकालकलाकलितस्य देशान्तरजुषोऽपि रूपस्यावश्यं प्रतिभास इति न देशकालान्तरावस्थाप्रतिपत्तये प्रमाणा५ न्तरपर्येषणावकाशः । अस्ति च पर्येषणा, इदानीमन्यदेशे वा तद्वस्तु
कथमस्ति किंस्विन्नोपनिपातिना रागरसेन सिक्तमिति तदुपनिपातसंभविन्यवसरे विमर्शदर्शनात् । न च दर्शनविषयीकृते तथा संभवः । न च दृष्टेऽप्यनवसायः शक्योऽभिधातुम् । तादृशि जिज्ञासिते रक्तादौ
रूपे क्षणिकतावदनभ्यासाभावात् । अन्यथा पश्चाद्दर्शनेऽपि नावसा१० योदयः स्यात् । तस्मात्तदनवसायस्तदप्रतिभासादेव । ननु यदि क्षण
भङ्गुरता भावानां प्रतिभाता प्रत्यक्षे तदा किमनेन सिद्धोपस्थायिनानुमानेनेति चेत् । उच्यते । शिशपानुमानेनेव व्यवहारः साधनीयः तथा च---
क्षणत्वमध्यक्षधिया यदेतज्ज्ञानं पुनर्न व्यवहार्यमेतत् । अतः समक्षग्रहसाधनेन प्रसाध्यते तद्यवहार एव ।। ५८७ ।।इति।। तदस्य मानद्वितयस्य विश्वतो दोषोपशान्त्या कुशलेषु सत्सु । आकालमेष क्षणभङ्गवादो विजृम्भतामस्खलितं त्रिलोक्याम् ॥ ५८८ ॥
अतीव ताथागत नूतनोऽयं कश्चित्प्रकारस्तव धूर्ततायाः।
दृष्टिं यदामील्य परिस्फुरन्तमपन्हुषे दोषसमूहमत्र ।।५८९॥ २० तथाहि यदवाचि ' सत्त्वमिहार्थक्रियासामर्थ्यम् ' इत्यादि ।
तत्राविवादसिद्धमेव भावेषु वादिनामर्थक्रियासामर्थ्य त्वामेकं बहिःकृत्य । क्षणमात्रलक्षकप्रत्यक्षवादिनो हि भवतः कार्यकारणभावप्रतिपत्तिरेव न संभवति । कुत एवार्थे क्रियासामर्थ्यप्रतीतिः स्यात् । तथा हि-कार्यकारणभावः कचिदर्थयोः, कचनार्थज्ञानयोः, क्वापि ज्ञानयोः प्रतिपत्तव्यः। त्वन्मते चार्थयोस्तावन्नासौ प्रतिपतुं पार्यते ! कारणकाले कार्यस्य कार्यकाले कारणस्य वा प्रतिभासाभावात् । न चैकस्यैव ग्रहणे कार्यत्वं कारणत्वं
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परि. ५ सू. ८] स्याद्वादरलाकरसहितः वा सिध्यति । तयोरितरेतरसंबन्धग्रहणात्तत्त्वव्यवस्थितेः । स्वरूपमेव कार्यत्वं कारणत्वं चेति चेत् । अस्त्वेनत् किंतु एकैकस्वरूपप्रतीतावस्येदं कार्य कारणं वेति प्रतिपत्तिः कुतो नालिकेरद्वीपबासिनोऽप्यनिदर्शनादेव तत्र धूमजनकत्वनिश्चयस्य च प्रसंगात् । परस्परसंबन्धित्वाप्रतिपत्तौ च कार्येण कारणानुमानमस्तमियात् । तदिदमायातम् 'मधु ५ पश्यसि दुर्बुद्धे प्रपातं नैव पश्यसि ' इति । तद्भावे भावस्यावसायाकार्यकारणभावव्यवस्था सुस्थेति चेत् । न । तद्भावे भावस्य क्षणमात्रवेदिना वेदनेन वेदयितुमशक्यत्वात् । क्रमेण द्वयोरपि प्रतिपत्तिरित्यपि त्रपापात्रम् । क्षणोभयभाविनः कस्यचिदेकस्य वेदनस्यासत्त्वात् । द्वयोस्तु क्रमोत्पन्नयोरपि परस्परस्वरूपाप्रतीतेने संबन्धबुद्धिः । विकल्प- १० प्रसादात्तगुद्धिरिति चेत् । अहो उत्तमस्य प्रसादः । स हि कतरत्प्रमाणम् । न प्रत्यक्षम् । अकल्पनापोढत्वात् । नानुमानम् । अलिङ्गजत्वात् । नास्य प्रत्यक्षपरिच्छेदानुकारित्वमस्ति । प्रत्यक्षेण कार्यकारणभावापरिच्छेदात् । किंच तद्भावमावित्वमात्रेण कार्यकारणत्वे रासभसद्भावे धूमोद्गमदर्शनात्तस्यापि १५ तत्कारणतापत्तिः । तदभावेऽपि तद्भावादनापत्तिरिति चेत् । नास्त्येतत् । यो हि धूमक्षणस्तद्भावे भवति स कथं तद्भाववदभावेऽपि स्यात् । उत्पन्नस्य पुनरुत्पादायोगात् । अथान्वयव्यतिरेकाभ्यां संतानस्य कार्यकारणभावोऽभिधीयते । तन्न साधु । क्षणातिरेकिणस्तस्यासंभवात् । भावे वा कार्यकारणभावस्तस्यैव स्यान्न क्षणानाम् । अक्षणिकश्चासौ, इत्यनेनैव २० सत्त्वं व्यभिचारि स्यात् । क्षणिक एवासाविति चेत्तर्हि किमनेनापि भिद्यमानयानपात्रानुयायिभिन्नयानान्तरतुल्येन । यो नान्वयव्यतिरेकग्रहणद्वारेण कार्यकारणभावग्रहणत्राणाय । किंच । कारणात्कार्य भवकथं गृह्यते । किमत एव भवति, आहोस्विद् अतो भवत्येव, किंवाऽतोऽपि भवतीति । एवं च न कार्यकारणभावग्रहो नियमाभावात् । २५
१ लौकिकन्यायः।
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः परि. ५ स्. ८ नाप्यतो भवत्येवेति 1 देशान्तरे कालान्तरे च ततस्तदनुपपत्तेरिति दर्शनात् । नाप्यतोऽपि भवतीति पक्षः । तत्रापि सामर्थ्यादन्यतोऽपि भवतीति स्वयमेव व्यभिचारोपगमात् । ततोऽध्यक्षेणान्वयव्यतिरेकासिद्धेर्न कार्यकारणभावस्यावसायः । अथानुपलम्भादेतदवसायः । हन्त ५ कोऽयमनुपलम्भः। प्रत्यक्षमनुमानं वा । न तावत्प्रत्यक्षम् । तस्य
क्षणान्तरासंसृष्टवस्तुविषयत्वात् । तेन च यथा नान्वयव्यतिरेकग्रहस्तथा प्रोक्तम् । नाप्यनुमानम् । अस्यान्वयव्यतिरेकग्रहणपूर्वकत्वात् । तद्यदि तेनैवान्वयव्यतिरेकग्रहणं तदेतरेतराश्रयदोषः स्यात् । अथानुपलम्भा
न्तरेण तर्हि तत्राप्यन्वयन्यतिरेकग्रहणमन्येनानुपलम्भान्तरेणेत्यनवस्था । १. एतेन प्रत्यक्षानुपलम्भसाधनः कार्यकारणभाव इत्यपि प्रत्युक्तम् । तन्ना
र्थयोः कार्यकारणभावावगमः संभवति । नाप्यर्थज्ञानयोः । समानन्यायत्वात् । किंच योऽयं प्रतिभात्यर्थः स ज्ञानस्यैवाकार इत्यभिमतम् । न च स्वात्मभूतेनार्थाकारेण तस्य जन्यजनकभावः संभवति । स्वात्मनि
क्रियाविरोधात् । ततोऽन्यश्वार्थः कदाचिन्न गृह्यते । ज्ञानसांश्लष्टासांश्ल१५, ष्टाकारद्वयाप्रतिभासनात् । न चाकारदर्शनेनार्थस्य कारणत्वव्यवस्थानं
भ्रान्तिज्ञानेऽप्यर्थाकारदर्शनात् । संवादिन एवाकारस्यार्थादुत्पत्तिरिति चेत् । कुतोऽयमविनोभावः सिद्धः । किंच संवादोऽप्यर्थक्रिया वा स्यादर्थप्राप्तिर्वा । उभयमप्येतदज्ञानरूपं ज्ञानरूपं वा । अज्ञानरूपं चेत् । तत्कथं सिद्धयेदिति महासनम् । अथ ज्ञानरूपम् । तत्रापि द्वयी गतिः । तदेव ज्ञानमपरं वा । यदि तदेव ज्ञानं पुनः पुनरुत्पद्यमान संवादः तद्भ्रान्तिज्ञानेऽपि स्यात् । तदपि हि पुनः पुनरुत्पद्यत एव । अथापरं स्पर्शादिज्ञानम् । तदप्यसत् । यतः केन विशेषेण चक्षुरादिविज्ञानस्य स्पर्शादिविज्ञानं संवाद उच्यते । न हि जैनवत्त्वया दर्शन
स्पर्शनाभ्यामकार्थस्य ग्रहणमिष्टम् । नापि पूर्वोत्तरकालविज्ञानानामेक२५ विषयत्वं तत्कथं ज्ञानान्तरोत्पत्तिः पूर्वज्ञानस्य संवादः । तन्नार्थज्ञान
१ ततोऽन्यत्वेऽर्थः' इति न. पुस्तके पाठः। २ अविनाभावः-व्यातिः
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परि. ५ सू. ८] स्याद्वादरत्नाकरसहितः. योरपि कार्यकारणभावः प्रतीयते । नापि ज्ञानयोः । स्वात्मसंविन्मात्रनिष्ठत्वात् । न खलु कारणज्ञानेनोत्पन्नेन सता कार्यभूतमिदं मे ज्ञानमिति संवेद्यते ! नापि कार्यज्ञानेन कारणभूतमिदं मे ज्ञानमिति । किं च । कार्यकारणभावग्रहणं तदा वः संगतिमुपेयते यदा प्रतिसंधाता स्वीकृतः स्यात् । अथोच्यते प्रतिसंधातृस्वीकारो न संगतः प्रतिसंधे- ५ यत्वामिमताभिर्बुद्धिभिर्भेदाभेदविकल्पाक्षमत्वात् । अभेदेऽपि स एव वा स्याहुद्ध एव वा । अत्र च प्रथमपक्षे कर्मणः, पक्षान्तरे कर्तुरभावात्कः प्रतिसंधानार्थः । भेदेऽपि बुद्धिभ्यो भिद्यमानस्य जडस्य कः प्रतिसंधानार्थः । बुद्धियोगाइष्टुत्ववत्प्रतिसंधातृत्वमिति चेत् । बुद्धिरेव तर्हि द्रष्टुः प्रतिसंधात्री चेति १० नियतस्वीकारे तद्योगादन्यस्य तथात्वमिति किमनेन याचितकमण्डनेन । बुद्धीनां कर्तृत्वामावान्न तन्निबन्धनस्याधिगन्ताधुना, फलस्याधुना प्रतिसंधातेति । तथाविधबुद्धिगतविशेषस्वीकारे तु किमपरेण कर्तव्यं तावतैव पर्याप्तत्वाद्यवहारस्येति । तदपि नैयायिकानेव वराकान्विक्लवयति । य एकान्तेन बुद्धिभ्यो भिन्नं जडं चात्मानमास्थिषत न पुनस्तदभिन्न- १५ चेतनात्मवादिनः स्याद्वादिनः । ननु तर्हि किमिति ते सौगतैः सह कलहायन्ते । तैरिवाहितैरपि तदभिन्नात्मवादिभिस्तत्त्वतो बुद्धीनामेव स्वीकृतत्वात् । यथा च तेषां प्रतिसंधानव्यवस्था तथा ताथागतानामिति चेत् । अलमनया प्रत्याशया। ते हि नाभिन्नमेवात्मानं ताभ्योऽभिदधति यतो बुद्धिभिरेव प्रतिसंधानोपपत्तिः स्याकिंतु भिन्नमपि । २० नन्वेवमप्यात्मनो बुद्धिभ्यो भेदेनावस्थितेभिन्नसंतानात्मवत्कथं प्रतिसंधानघटनेति चेत् । उच्यते । विवक्षितात्मबुद्धीनां कथंचित्तादात्म्यबुद्धीनां कथंचितादात्म्यपरिणामेनाप्यवस्थितेः । न खलु यथा भिन्नसंतानात्मना तासां भेदस्तथैकसंतानस्थितात्मनापि । ननु किमिदमीदृशमिन्द्रजालं यदात्मा बुद्धिभ्यो मिन्नोऽभिन्नश्चेति । इदमीदृशमेवेन्द्रजालं स्वगृहस्थितम- २५
१ लौकिकन्यायः ।
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प्रमाणनयतत्त्व लोकालङ्कारः
[ परि. ५ सू. ८
पि यन्न त्वया चेत्यते । सकललोकयात्रानिर्वाहाय च यत्कल्पते । तथा हि त्वयापि तावच्चित्रज्ञानमुपगतमेव । तच्च नीलाद्याकारेभ्यो भिन्नमभिन्नं च । अन्यथा कथं तच्चित्रं स्यात् । तथैकान्तविविक्तबुद्धिमात्र - सद्भावे प्रतिसंधानाद्यभावेन जनव्यवहारश्च कुतः संपद्यत इति । तदेव ५ क्षणभरज्ञानार्थवादिनां न कथंचित्कार्यकारणभावः प्रतीयते । तद्प्रतीतौ चार्थक्रियासामर्थ्यं सत्त्वं वाद्यसिद्धत्वान्न साधनतां दधाति । यदपि सपक्षे वृत्त्या साधनस्य विरुद्धता विघुरतामभिधित्समानेन नीरदस्य सपक्षता सिद्धये क्षणिकत्वावधारणार्थं ' यद्यदा यज्जननसम - र्थम् ' इत्याद्यवादि । तत्र किमिदं सामर्थ्यं नाम करणं शक्तिव । न १० तावत्करणपक्षः पेशलः । साध्या विशिष्टतादुष्टत्वात् । तथा हि-करणस्य सामर्थ्यशब्दवाच्यतायां यज्जननसमर्थमिति यज्जननकारकमिति हेत्वर्थः । स एतत्करोतीति साध्यस्यापि भिन्नव्यावृत्तिकत्वेन सामर्थ्यकरणयोर्भेदाददोषोऽयमिति चेत् । असदेतत् व्यावृत्तिभेदस्यात्रायोगात् । तथा हि-अत्रायमनिमित्तः सनिमित्तो वा भवेत् । अनिमित्तश्चेत् । १५ शान्तम् । अतिप्रसंगपराहतत्वात् । सनिमितश्चेत् । किमत्र निमित्तं व्यावर्त्यभेदद्वारेण व्यावृत्यो विरोध इति चेत् । स किं मिथो व्याव
प्रतिक्षेपात् उत व्यावर्त्त्याक्षेपप्रतिक्षेपाभ्याम्, उपाधिभेदाद्वा स्यात् । न तावदाद्यात् । न हि यथा गोत्वेनाश्वत्वं तेन च गोत्वं प्रतिक्षिप्यते । तथात्र सामर्थ्येन करणस्य करणेन च सामथ्र्यस्य प्रतिक्षेपोऽस्ति । २० तथात्वे वा यदि सामर्थ्येन करणं प्रतिक्षिप्यते तदा हेतोरसिद्धतेति । नापि व्यावर्त्याक्षेपप्रतिक्षेपाभ्याम् । यस्मादेतौ यत्रैव द्वयोः परापरभावस्तत्रैवोपपद्येते वृक्षत्वशिंशपात्वयोरिव । वृक्षत्वेन हि परेण य एवाश्वत्थकपित्थादय आक्षिप्यन्ते त एवापरेण शिंशपात्वेन प्रतिक्षिप्यन्ते । न चैवं सामर्थ्यकरणयोः संभवति । नाप्युपाधिभेदात् कार्यत्वानित्य२५ स्ववत् । कार्यत्वस्य हि कारणमुपाधिः । अनित्यत्वस्य तु विनाशः । अत्र तु नेदृशः कोऽप्ययमभिधातुं शक्यः । शक्यतां वा तथापि
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परि. ५ स. ८
स्याद्वादरत्नाकरसहितः
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शब्दभेदो वा स्याद्विकल्पभेदो वा । प्रथमपक्षस्तावत्पर्यायशब्दानामाव॑देहिकमकृत्वा नाभिधातुं लभ्यते । द्वितीयपक्षेऽपि स्वरूपकृतो विषयकृतो वा विकल्पभेदो व्यावृत्तिभेदकः स्यात् । यदि स्वरूपकृतस्तदा समर्थोऽसमर्थव्यावृत्तश्चायमित्यतः स्वरूपकृतविकल्पमेदादसमर्थव्यावृत्तेरपि भेदः प्रसज्यते । अथ विषयकृतः स तह-तरेतराश्रया- ५ पत्तिः । विषयभेदे हि सिद्ध विकल्पभेदः सिध्यति। तसिद्धौ च विषयभेदसिद्धिरिति । अथ शक्तिः सामर्थ्य तदापि सा किं १ द्रव्यम्, २ पर्यायः, ३ पर्यायविशिष्टं द्रव्यम्, ४ द्रव्यविशिष्टः पर्यायः ५ उभयं स्वतन्त्रम्, ६ व्यस्यावान्तरजातिविशेषः, ७ पर्यायवैकल्यप्रयुक्तकार्याभाववत्त्वं वा स्यादिति पक्षाः । न तावदन्यं शक्तिः । तत्र च न १० करोति तोयदः प्रथमक्षणकार्य द्वितीयादिक्षणे, द्वितीयादिक्षणकार्य वा प्रथमक्षणेऽतो न सत्तोयदद्रव्यमिति विपर्यययोगे स्यात् । तच्च प्रत्यक्षप्रतिक्षिप्तम् । न च भवतोऽपि नाभिमतं तदा तस्य तोयदद्रव्यत्व['मत्यास्तां तावदयं पक्षः । अग्रेतनपक्षांस्तु नीरदक्षणानामतिसूक्ष्मतया स्पष्टप्रतीतेः कर्तुमशक्ते/जस्यैव करणाकरणदशे समाश्रित्य १५ भावयामः । अथ बीजस्य सहकारिदौकितः पर्यायः शक्तिरिति पक्षः सोऽपि प्रसंगानुत्थानेनैव दुःस्थः । परानभ्युपगमेन हेतोरसिद्धः । न खलु कुसूलमूलावलम्बिनो बीजस्यास्माभिः सहकारिकृतातिशयरूप. पर्यायशक्तिसमवधानमभिधीयते यतः प्रसंगः प्रवर्तेत । ननु पर्यायशक्तिस्तदानीमविद्यमाना क्षेत्रक्षितिक्षेपक्षणे तु संपद्यमाना बीजद्रव्या- .. द्भिन्ना वा स्यादभिन्ना वा, भिन्नाऽभिन्ना वा, अनुभयस्वभावा वा । यदि भिन्ना तदा किमनया काणनेत्राञ्जनरेखाप्रख्यया, विभिन्नाः संनिधिभाजः संवेदनकोटिमुपागताः सहकारिण एवासताम् । अथ सहकारिणः कमपि बीजस्यातिशेषविशेषमपोषयन्तः कथं सहकारितामपि प्रामुयुरिति चेत् ।* तक्षतिशयोऽप्यतिशयान्तरमनारचकन्कयं २५ तवं प्रामुयात् । अथायमारयति तदन्तम् । मसुन्दरमेतत् ।
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प्रमाणनयतत्वालोकालङ्कारः
[ परि. ५ सू. ८
किं नात्र पश्यसि पुरः समुपस्थितमनवस्थादोस्थ्यं तेनापि तदन्तर
स्यावश्यकरणीयत्वात् ।
अथाभिन्ना भवेदेषा शक्ति: पर्यायलक्षणा |
जितं जितं तदास्माभिर्भावस्य क्षणिकत्वतः ॥ ५९० ॥ पर्यायशक्तिर्हि द्रव्यानतिरेकिणी कालान्तरे समुन्मिषन्ती भावदमकृत्यैव कथमासितुं शक्नोति । भिन्नाभिन्नपर्यायशक्तिपक्षोऽप्यंशे क्षणिकत्वमनपयन्न कुशली । तुरीयपक्षोऽपि विधिप्रतिषेधयोरन्यतरनिषेधे तदपर विधानस्यावश्यंभावादसंभवीति । तुण्डमण्डपविडम्बनामिमां मुञ्च बालजनताविभीषिकाम् ।
१० शाक्यशिष्यक सखे सतां पुरः किं करोषि बत धूर्तचेष्टितम् ||५९१॥ एतेषु हि पक्षेषु तृतीय एव पक्षः कक्षीक्रियते । तत्र च न कश्चित्तव दूषणोत्प्रेक्षणक्षणः ।
नन्वत्र पक्षे क्षणिकत्वलक्षणं निरूपितं पूर्वमुदप्रदूषणम् ।
१५
न वाच्यमेतन्निपात शर्करा क्षीरे यदेषा श्रितशीतले स्वयम् ||५९२ || प्रियमेव ह्यस्माकं वस्तुषु क्षणिकत्वं द्रव्यांशद्वारेणाक्षणिकेषु । तेषु पर्यायांशद्वारेण क्षणिकत्वोपगमात् । क्षणिकैकान्तस्यैव कुट्टयितुमुपक्रान्तत्वात् I क्षणिक पर्यायेभ्योऽञ्यतिरेकात्क्षणिकमेय द्रव्यं प्राप्नोतीति चेत् । न । व्यतिरेकस्यापि संभवात् । अत्राह - अर्धजरतीयमेतत् । क्षणिकाक्षणिकं यदेकमेव सखेऽर्धजरतीय मैतत्प्रिय२० मेव प्रमितितः सिद्धेः । यथा ह्येव कामिनी पलिताद्याधारतया जरती, समुन्नतघनस्तनतादिधर्माधारतया त्वजरतीत्यभिधीयते तथेकमेव वस्तु तत्तदपेक्षया क्षणिकमक्षणिकं चोच्यते किमनुपपन्नम् । एतेन पर्यायविशिष्टं द्रव्यं द्रव्यविशिष्टः पर्यायः उभयं स्वतन्त्रं शक्तिरि
3
त्या प्रत्युक्तम् । तुल्ययोगक्षेमत्वात् । अधिकचोभयं स्वतन्त्रमित्यत्र २५ दृष्टान्तस्य साधनविकलताकलङ्कः । न खल्वन्त्यसामग्र्यां द्रव्यपर्यायौ स्वतन्त्रं कार्यं जनयत इति जैनाभ्युपगमः । परस्परापेक्षयोस्तयोस्त
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परि. ५ सू. ८] स्याद्वादरत्नाकरसहितः जनकत्वेन तेनाभ्युपगमात् । अथ द्रव्यम्यावान्तरजातिविशेषः शक्तिः । स किं द्रव्यपर्यायशक्तिभ्यामनातरिक्तोऽतिरिक्तो वा । प्रथमकल्पे जल्पितमेव दूषणम् । द्वितीयकल्पेऽपि न किंचित्तत्प्रसाधकं प्रमाणम् । प्रत्यक्षस्य तत्राप्रवर्तनात् । अनुमानम्य च लिङ्गाभावेनोत्थातुमशक्तः । एवं चावान्तरजातिविशेषम्वरूपसामर्थ्यस्त्र परेषामप्रसिद्धेः कुतः ५ असंगः प्रवर्तेत । प्रवृत्तावपि न करोति च विवादास्पदं बीजे तत्कार्यमतो न तथा रूपसामर्थसमन्वितमिति विपर्यये पर्यवसानासिद्धसाध्यता । न च तादृशं सामर्थ्य दृष्टान्तेऽप्यस्माकमभीष्टमिति तस्य साधनवैकल्यं च । अथ केयं यदृच्छा न च कश्चितम्य विशेष इष्यते करणमकरणं च प्रोच्यत इति । नैतद्वाच्यम् । १० पर्यायशक्तिसाहित्यस्वरूपस्य विशेषस्य स्वीकारात् । अवान्तरजातिविशेषस्य तु स्वभावभेदस्वरूपस्य तम्माननुभूयमानत्वात् । किं च । एतस्मिन्नुपेयमाने कल्पनागौरवमासज्यते । तथा हि-यावदायुर्बीजद्रव्य. मवान्तरजातिविशेषविकलमेवानुभूयमानं क्रमोत्पदिष्णु पर्यायपरंपरोपबू. हितं सरूपविरूपाः कार्यकोटीः करोतीत्येतावतैव सर्वस्मिन्नक्षुण्णे ( सर्वस्मिन् क्षुण्णे ) अनुपलक्ष्यमाणजातिकोटिकल्पना कापटिकविद्येव विस्तरमात्रोपयोगिनी, इन्द्रियाद्यतीन्द्रियभावकल्पनाविलोपप्रसंगश्चात्र । तथा हि यदि बीजादिजातिविशेष दृष्टमप्युपेक्ष्यानुपलक्ष्यमाणः कार्यहेतुर्जातिविशेषः स्वीक्रियते तदा तावतैव पर्याप्तत्वास्किं सहकारिकारणकल्पनया । अथ तेऽपि व्यापिप्रतस्तत्र दृश्यन्त इति कल्पनी- २० यास्तहीन्द्रियादिसहकारिषु किमुत्तरम् । न खलु तेषां ज्ञानाद्युत्पत्ती व्यापारदर्शनमस्ति । अतीन्द्रियत्वात् । एवं च कुतस्तत्कल्पना स्यात् । अथ : दर्शनाभावेऽपि दृष्टकारणान्तरसामग्र्थे ज्ञानादेरदर्शने पश्चादर्शने च किंचिदन्यदपेक्षणीयमस्तीति कार्यव्यतिरेकात्तत्कल्पनेति चेत् । मेवम् । अवान्तरजातिभेदाभावात्तदानीं तत्रोदयादित्ये. २५ तायत कार्यव्यतिरेकम्योपक्षीणत्वात् । विकल्पैरपि बीजस्य द्रव्यपर्या
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः
[परि. ५ स. ८
यशक्तिव्यतिरेकोऽवान्तरजातिविशेषो नोपपद्यते । तथाहि किमसौ शालेः संग्राहकः स्यात्प्रतिक्षेपको वा । शालित्वमपि तस्य संग्राहक स्यात् प्रतिक्षेपकं वा । आद्यकल्पे शिलातल्पशायिनोऽपि शालेरङ्कु
रोत्पादनप्रसंगः । तज्जनकजातिविशेषसद्भावात् । अथ तम्य प्रति५ क्षेपकोऽसौ तदा केदारोदरकर्दमस्यापि शालेः कुतस्त्यमङ्कुरकरणं
तस्याभावात् । शालित्वमपि यदि तत्संग्राहकं तदा कोद्रवादेः कुताऽङ्कुरोत्पत्तिः स्यात् । स्वसंग्राहिकशालित्वस्य तत्राभावेन तस्याप्यभावात् । अथ तत्तस्य प्रतिक्षेपकं तदा शालेर्न कदाप्यकुरो
त्पादो भवेत् तस्य तत्राभावात् । अथ जातिविशेषशालिवेऽन्योन्यं न १. संग्राहकप्रतिक्षेपको । लोकोत्तरमेतत् । लौकिकसकलजातीनां संग्राहकप्रतिक्षेपकत्वेनावस्थितेविरोधाविरोधाभ्यामन्यस्य प्रकारस्थाभावात् । अथ यः शालिभेदो जनकस्तस्यैव संग्राहको जातिविशेषः प्रतिक्षेपकोऽपरम्य शालित्वमप्यन्त्यशालिक्षणसंस्थस्यैव जातिविशेषस्य संग्राहक, प्रतिक्षेपकमन्यस्यति व्यक्तिभेदेन संग्रहप्रतिक्षेपावपि न विरुद्धाविति चेत् । अस्तमितमिदानीं तदतज्जातीयत्वविरोधेन परिदृश्यमानम्। कतिचिद् व्यक्तिप्रतिक्षेपेऽपि परस्परं तुरङ्गकुरङ्गमयोरपि संभेदस्य कचन संभाव्यमानत्वात् । किं च । यो यस्य जातिविशेषः स चेतं व्यभिचरेत् । व्यभिचरेदपि शिंशयापि पादपम् । अविशेषात् । तथा च
दत्तस्त्वयैव स्वभावहेतुमूले कुद्दालः । अथाकालमेष प्राणिति स्वभाव२० हेतुरनुपहतेन स्वेन विपर्ययबाधप्रमाणयुषा । अत्र तु तन्नास्तीति चेत् ।
स्यादेतत् यदि त्वदायत्ता वस्तुव्यवस्थितिः स्यात् । न चैवम् । अतोऽत्रापि तदस्त्येव अन्यथा स्वभावत्वस्याप्यनुपपत्तिः । उपपत्तौ वा किं बाधकघोषाडम्बरेणेति । अपि च विशेषो विशेष प्रति प्रयोजकः ।
अवान्तरजातिविशेवश्च के कार्यगतं विशेष प्रति प्रयोजकः । अङ्कुरत्वं २५ प्रतीति चेत् । एवं तर्हि न बीजस्याङ्कुरं प्रति प्रयोजकत्वमिति शिलाश
कलादेबीजादपि तदुत्पत्तिप्रसाक्तिः । अथ न शिलादावबीजे बीजस्म
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परि. ५ सू. ८]
स्याद्वादरत्नाकरसहितः
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विशेषः समस्ति यतस्ततोऽप्यकुरोत्पत्तिः स्यादिति चेत् । तर्हि शालेविशेषः कोद्रवादावशालौ नास्तीति कथं ततोऽप्यकुरः स्यात् । अथ यथाऽशालिस्वरूपकोद्रवादावसौ विशेषोऽस्ति तथाऽबीजशिलाशकला. दावपि विद्यते किंतु बीजत्वेन सहैकस्मिन्नर्थे समवेत एवाङ्कुरं प्रति प्रयोजक इति चेत् । नैतदनुपद्रवम् । कोद्रवादावपि तस्य भावेन ५ शालित्वव्यभिचारे शालित्वैकार्थसमवायेनेव शिलादावधि भावेन बीजत्वव्यभिचारे बीजत्वैकार्थसमवायेनापि नियन्तुमशक्यत्वात् । विशेषाभावात् । ततश्च यो यथाभूतो यथाभूतमात्मानमन्वयव्यतिरेकावनु - कारयति तस्य तथाभूतस्यैव तथाभूते सामर्थ्यम् । तद्विशेषास्तु कार्यविशेष प्रति प्रयोजकाः शाल्यादिवदिति न कश्चिद्दव्यपर्यायशक्ति- १० व्यतिरेकोऽवान्तरजातिविशेषः कार्यहेतुरस्तीति नायमपि शक्तिः । नापि पर्यायवैकल्यप्रयुक्तकार्याभाववत्त्वम् । व्याहतत्वात् । तथाहि-यः सहकारिटौकितातिशयस्वरूपपर्यायवैकल्ये सति कार्याभाववान् स कथं तत्पर्यायवियोगे कार्यवान् स्यात् । यद्यदभाव एव यन्न करोति तत्तत्सद्भावे तत्करोत्येवेति तु स्यात् । एवं चोत्तंभ्यतां जैनैर्जयवैजयन्ती १५ स्थैर्यसिद्धेरेवमवश्यंभावात् । तथाहि-यदेव द्रव्यं पूर्वमुच्छ्नतापर्यायण विरहितमेव सत् नाङ्कुरं करोति तदेव तेन परिगतं सदुत्तरकालं करोत्येव । ननु पर्याय एवैकः कारकोऽकारकश्चान्योऽस्तु किं द्रव्येणेति चेत् । न । तस्यापि व्याप्रियमाणस्योपलब्धेः । अस्तु तर्हि कारक यथाव्यापारोपलब्धिः । अनुपलभ्यमानव्यापारस्य तु तस्य पूर्व कारकत्व- २० स्वीकरणम् अमूल्यक्रयणम् । असदेतत् । द्रव्यरूपतया तदानीमपि व्याप्रियमाणस्योपलब्ध्या व्यापारानुपलम्भस्यासिद्धेः । तथाहि-कुसलतलवर्तिनो बीजस्य शिलाशकलादरानुकूलः कश्चिद्विशेषः समस्ति न वा । न तावन्नास्ति शिलाशकलपरिहारेण प्रेक्षाकारिणां बीज एव प्रवृत्तेरनुपपत्तेः । अथास्ति तस्य परम्परयाऽकुरकरणप्रवणबीजक्षणो- २५ त्पादनात् । कदा पुनः परम्परायपि तथाभूतं बीजक्षणमयमुत्पादयिष्यति
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः परि. ५ स्. ८ तत्र संशय इति चेत् । स पुनः किंरूपः किं सहकारिषु समवहितेप्वपि तेषु करिष्यति न वेति । किं वा व्यवहितेप्वपि तेषु करिष्यति न वेति । यद्वा यदा सहकारिसमवधानं तदैव करिप्यत्येव किंतु कदा
सहकारिसमवधानमिति संदेह इति । न तावत् पूर्वः । सामान्यतश्चे५ हीजस्य कारकत्वमवधतं तदैताशसंशयस्य कावकाशः । अवकाशे वा
कारकत्वावधारणमपि बीजस्य न स्यात्। नापि द्वितीयः । सहकारिणां सहकारित्वं चेदनवगतं तदा नेदृशसंशयम्यावसरः । तस्मिन् वा सहकारिणस्तत्वेनाबगता न भवेयुः । तृतीये तु तत्सन्तानान्त:पातिनो
बीजक्षणाः सकलाः समानशीलाः प्रामवन्ति । यत्र तत्र सहकारिसम२० वधाने सति करणनियमात् सर्वत्र च सहकारिसमवधानसंभवात् ।
समर्थ एव क्षणे सहकारिसमवधानमिति चेत् । तत्किमसमर्थे सहकारिसमवधानमेव न भवति । सत्यपि वा तत्समवधाने न तस्मात्कार्यजन्म । न प्रथमकल्पः । पाषाणखण्डादावनुरकरणासमर्थेऽपि पाथः
पृथिवीपवनातपसंबन्धदर्शनात् । नापि द्वितीयः । पाषाणग्वण्डादिव सह१५ कारिसाकल्यवतोऽपि बीजात् कदाचिदकुरानुत्पत्तिप्रसंगात् । एवमपि स्यात् । को दोष इति चेन्न तावदिदमुपलब्धम् । आशङ्कयत इति चेत् । न । तत्समवधाने सत्यकरणवत् विरहेऽपि करणमाशङ्कयेत । आशङ्कयतामिति चेत् । तर्हि बीजविरहेऽप्याशङ्कथेत ! तथा चातिनिष्कलंका भिक्षूणां प्रत्यक्षानुपलम्भपरिशुद्धिः । एवं चास्ति स कश्चिद्विशेषः कुसूलम्थबीजम्य, येनान्यपरिहारेण प्रेक्षस्तत्रैव प्रवर्तते । स च कोऽन्यो द्रव्यरूपकारकशक्तिव्यतिरेकेणेति न पर्यायवैकल्यप्रयुक्तकार्याभाववत्त्वमपि शक्तिः । अथ किमनेन विकल्पेन्द्रजालेन तस्य भावस्य यादृशश्चरमक्षणेऽसमर्थो क्षेपक्रियाधर्मा स्वभावतस्तादृश एव चेत्प्रथम
क्षणेऽपि तर्हि तदैव प्रसह्य कुर्वाणो गीर्वाणशापेनापि नापहस्तयितुं २५ शक्यत इति चेत् । स्यादेतदेवम् । यदि तादृश एव तदानीं स स्यात्
किं त्वन्यादृशोऽपि चरमक्षणे हि सहकारिसंनिधानाविभूतपर्यायपेशलोऽसौ
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परि. ५.८ ]
स्याद्वादरत्नाकरसहितः
स्वभावः । प्रथमगे तु तद्विकलः । न चैवं भेद एवं कारकरूपस्य तस्यैव कथंचित् पूर्वमपि भावात् इत्युक्तमेव । एवं च न किंचिद्विचार्यमाणं सामर्थ्यं प्रसंगहेतुत्वेन स्थेमानमास्तिघ्नुत इति कृतं तदुद्धोषणेन । एतेन यदप्युच्यते । " प्रसंग हेतौ व्याप्तिप्रसाधनाय जननमन्तरेण सामर्थ्यव्यवस्थायां सर्वस्य सर्वत्र शक्तव्यवहारप्रसंग: । नियत- ५ वयं प्रतिपन्नो व्यवहारः । न चास्य जननादन्यनिमित्तमुपपद्यते । ततो जननाभावेऽपि पक्षे नियमवत्तालक्षणव्यापकवियोगे नात्मसत्तया वियुज्यमानोऽयं जनन एव विश्राम्यतीति समर्थव्यवहारगोचरत्वमात्रानुबन्धि सिद्धं जननमिति व्याप्तिसिद्धिः" इति । तत्प्रतिक्षिप्तमवगन्तव्यम् । समर्थव्यवहारगोचरस्यापि बीजस्याङ्कुराकरणदर्श- १० नात् । नासौ मुख्यस्तत्रव्यवहारः। तस्य जनननिमित्तत्वात् । जननमन्तरेण सामर्थ्यव्यवस्थायां सर्वस्य सर्वत्र शक्तव्यवहारप्रसंगात् अनियतोऽसौ स्यात् इत्युक्तमेवेति चेत् । उक्तमेतत् । किं तु कीदृशं जननं मुख्य - मर्थव्यवहारहेतुरित्यप्युच्यताम् । एतदप्यक्षेपकारित्वरूपमुक्तमेवेति चेत् एतत्प्रतिविधानमप्युक्तमेव मा विस्मारि । नियमवत्त्वं च शक्तव्यवहारस्य । १५ तथा रूपपर्यायसाहित्ये सत्येव जननमसति साहित्येऽजननमेवेत्येवंस्वभावत्वेऽपि कारणस्योपपद्यते । ततश्च भवदभिमतजननाभावेऽपि शक्तव्यवहारस्य दर्शनान्न तेनास्य व्याप्तिसिद्धिः । तथा च प्रसंगविपर्ययप्रयोगयो रस तेजीमूते क्षणिकत्वासिद्धेर्न सपक्षः कश्चित् । ततश्च यदुक्तं ' सपक्षीकृते जलमुचि विलोकनात् ' इत्यादि तदसम - २० असमेव । किं च क्षणिकैकान्ते कार्यकारणभावस्यानुपपत्तेः कथंचित् क्षणिके तूपपत्तेर्विरुद्धमर्थक्रियाकारित्वरूपं सत्त्वम् । तथाहि -अत्र किमे. कस्मात् कारणादेकं कार्यमुत्पद्यते । अनेकस्मादेकम् । एकस्मादनेकम् अनेकस्मादनेकं या । नाद्यः पक्षः । एकस्मात्प्रदीपादिकारणादशादहनतैलशोषतिमिरस्तोमापनयनाद्यनेक कार्योदयदर्शनात् । नापि द्वितीयः । २५ अनेककारणोत्पाद्यस्यैकत्वायोगात् । न खलु कुलालमृत्पिण्डसूत्र खण्डा
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७६१.
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. ५सू.८ धनेककारणकलापोत्पाद्यस्य कुम्भस्यैक्यं युक्तम् । कारणभेदोपनीततदात्मभूतधर्मनानात्वेन तस्यापि नानात्वात् । कुलालेन हि संस्थानविशेषो मृत्पिण्डेन मुद्रूपतासूत्रखण्डेन चक्राद्विच्छेदः कुम्भे कियते ।
अथ संततेधर्मा ये परस्पर विरोधिनोऽविरोधिनश्च । न तु धर्मा इत्येव ५ विरोधोऽविरोधो वा । नहि ब्राह्मण्यं वैयाकरणत्वेनाविरुद्धमिति चण्डालत्वेनाप्यविरुद्धमभिधातुं शक्यम् । न चाब्राह्मण्यव्याप्तचण्डालत्वेनेव वैयाकरणत्वेनापि विरुद्धम् । यथा चात्र ब्राह्मण्येतरत्वमेव विरुध्यते न वैयाकरणत्वम् । तथा चतुरस्रतादिसंस्थान विशेषेण परिमण्डलतादिसंस्थानविशेष एव विरुध्यतां न तु मृत्स्वभावतादीति कथं संस्थानमू१० द्रूपताद्यविरुद्धधर्माध्यासादनेककारणोत्पाद्यस्यापि कुम्भस्यानेकता स्यात्।
एतदपि परस्य किमपि कुट्टनीकलाप्रागल्भ्यम् । यदयं तावन्निखिलवस्तूनां निरंशतामुद्दाहुः फूत्करोति । सन्ति ते धर्मा इति च व्याचष्टे । अथ परमार्थतो धर्माणामभावाद्वस्तूनां निरंशतोच्यते कल्पनेोपरचि
तत्वेन तु तेषां भावाद्धर्माः सन्तीत्यभिधीयत इति चेत् । ननु कल्प६५ नाप्यनिमित्ता सनिमित्ता वा स्यात् । अनिमित्ता चेत्तर्हि कौतस्कुती
नैयत्येन तस्याः प्रवृत्तिः । तथा च ब्राह्मणोऽपि चण्डालश्चण्डालोऽपि ब्राह्मणोऽभिधीयेत । सनिमित्ता चेत् । किमस्या निमित्तम्, अन्यत्र्यात्रत्तिरिति चेत् । न तर्हि कल्पनामात्रारोपितत्वं धर्माणाम् अन्यव्यावृत्ते
स्तन्निबन्धनस्य स्वयमुक्तत्वात् । तस्याश्च वस्त्वंशरूपतया धर्मत्वात् । २० न किंचिदसौ तत्कुतोऽस्या वस्त्वंशरूपतया धर्मतेति चेत् । तथाभू
तापि सा कल्पना नैयत्यनिमित्तं भवतीति न प्रियापि शपथमन्तरेण प्रत्येति । अथास्य साधारणकारणोपजनितत्वं कल्पनानयत्यानिमित्त तेन ब्राह्मणजन्यो ब्राह्मण एवोच्यते न चण्डालः । ननु ब्राह्मणजन्यत्वं
कल्पनानयत्यनिमित्तं भवत् न किंचित्, किंचिद्वा । न किंचिच्चेत् तर्हि २५ न किंचिदनेन । किंचिचेत्तर्हि किं तद्धर्मादन्यद्भवतु । सन्ति तस्माद
स्तूनां केचित् कथंचिदात्मभूता धर्मा यतो न व्यवहारसंकरः । अथाऽऽ
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परि. ५ स. ८]
स्थाद्वादरत्नाकरसहितः
७६३
सतां यथा कथंचिद्धर्मास्तथापि चतुरस्रतापरिमण्डलतादयो विरोधेनैव ते धर्मिणं भिन्दन्ति । न पुनः संस्थानमृद्रूपतादयोऽविरोधिन इत्युक्तम् । तदसत् । संस्थानमृदूपतादीनामपि कथंचित् विरुद्धत्वात् । अन्यथैक्यापत्तेः । चतुरस्रतापरिमण्डलतादीनामपि कथंचिदविरुद्धत्वात् । अन्यथान्यतरस्य धर्मादित्वाभावप्रसंगात् । सर्वथा विरो- ५ धस्तु न वापि संगच्छते । ननु तर्हि श्रोत्रियोऽपि श्वपाकः श्वपाकोऽपि श्रोत्रियः प्राप्नोतीति चेत् । उच्यते । यद्यत्र कथंचिदित्युपक्षेपं कुरुषे तदा तत्प्राप्तावुत्सवं कारयामः । यदेव हि जीवद्रव्यमादिपर्यवसानशून्ये संसारे श्वपाकपर्यायपरिणतमभूद्भावि वा तदेवेदानी श्रोत्रियपर्यायपरिणतमिति द्रव्यरूपतया श्रोत्रियोऽपि वपाकः १० सोऽपि श्रोत्रियः किं न स्यात् । ननु यदैवासौ श्रोत्रियस्तदैव श्वपाकः किं न भवति । न भवति पर्यायरूपतया तयोविरोधसद्भावात् । क्रमभाविपर्यायाणामनेककालत्वात् । सर्वथा विरोधे तु तयोः श्रोत्रियद्रव्यक्षेत्रकालभावेष्वपि श्वपाकस्याभावापत्त्या सर्वथैवाभावप्रसंगः । अन्यथा सर्वथा विरोधानुपपत्तिः । ननु तथापि कथं संस्थानमृदूपतयोर्भेदाद्धटस्य भेदोऽभिधीयते । तयोः कथंचिदपि विरोधाभावात् । यद्ध्यवच्छेदेन हि यद्विधानं, यद्विधानेन वा यद्यवच्छेदः तत्तेन विरुद्धम् । न च मृन्मयत्वविधानेन पृथदरताव्यवच्छेदशङ्कापि संभवति । ततः संस्थानमुद्रूपतयोविरोधात् सिद्धेः कथं तदाधारधर्मिणो भेदः स्यात् । यतः कारणभेदोपनीततदात्मभूतधर्मनाना- २० त्वेन तस्य नानात्वादित्युच्यमानं समीचीनं स्यादिति । अत्रोच्यते । यदि तावदेतल्लक्षणलक्षितः परस्परपरिहारविरोधः संस्थानमृद्रूपतयो स्ति। मा भूत् । भेदस्तु तयोर्देवेनापि प्रतिषेद्भुमशक्यः । प्रतिषेधे तु तस्य तयोरन्यतरदेव स्यात् । न त्वेवम् । अविरुद्धौ भिन्नावपि धर्मों कथं धर्मिणं भिन्द्याताम् । उच्यते । तद्धर्मितादात्म्यात् । धर्मिणा हि २५ भिन्नानां धर्माणां तादात्म्यं तदा स्यात् यदि धर्मपि कथंचिद्
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः परि. ५ सू. ८ भिद्येत । तस्माद्भिन्ना अपि धर्मा धर्मिस्वाभाव्यभाजो धर्मिभेदका एव । एवं चानेककारणोपजनितं नैकं भवितुमर्हतीति सिद्धम् । एतेन तृतीयपक्षोऽपि प्रतिक्षिप्तः । अनेककार्यमुपादानसहकारिस्वभावेनैकस्योत्पादयतो विरुद्धधर्माध्यासेनैकत्वानुपपत्तेः । ५ एकत्वे तु तस्योपादानसहकारित्वयोरन्यतरत्वापत्त्याऽन्यतरस्यैव कार्य
स्योत्पादप्रसङ्गः । यत्र तु भट्टोद्भटः प्राचीकटत् ! — नात्र कारणमेव कार्यात्मतामुपैति यत एकस्याकारणात्मन एककार्यरूपतोपगमे तदन्यरूपाभावात् तदन्यकार्यात्मनोपगतिर्न स्यात् । किं त्वपूर्वमेव
कस्यचिद्भावे प्रागविद्यमानं भवत्तत्कार्यम् । तत्र विषयेन्द्रियम१० नस्काराणामितरेतरोपादानाहितरूपभेदानां सन्निधौ विशिष्टस्वेत
रक्षणभावे प्रत्येक तब्दावाभावानुविधानादनेकक्रियोपयोगो न विरुध्यते । यत एकक्रियायामपि तस्य तद्भावाभावितैव निबन्धनं सा चानेकक्रियायामपि समाना' इति । तत्रोच्यते । मोपगात्कारणं कार्या
त्मताम् । ते ताबजननस्वभावा इष्टा एव । ततश्च तत्संनिधौ विज्ञा१५ नलक्षणकार्यसंभवात्तजननस्वभावतेषामवधियते । कार्यस्वभावापेक्षया.
कारणस्य जनकरूपतावस्थापनात् । ततो विज्ञानजननम्वभावेभ्य प्रत्येकं कथं तदन्यकार्यसंभवः । तद्भावे वा तेषां तदन्यजननस्वभावता स्यात् । ततश्च विज्ञानमेव न कुथुः । तदन्यजननम्वभावत्वादिति । यं
पुनरयमत्र व्याजहार परिहारम् । नैष दोषः । तेषामनेककार्यक्रिया२० स्वभावत्वात् । तथाहे-ते तदवस्थायां प्रत्येक विशिष्टसजातीयेतर
क्षणजननात्मकास्तेषां तत्सत्तानन्तर्यदर्शनात् । तत्र विज्ञानजननस्वभावतैवेति तस्या जननस्वभावता व्यवच्छिद्यते । तस्या एवं प्रतियोगित्वात् नान्यजननस्वभावता । न चातस्तषामनेकात्मता स्यात् । 'ऐक
स्यैवात्मातिशयस्यानेककार्यहेतुत्वात् इत्यादि । तत्रायं जरविजन्मा २५ महानुभावोऽभिनवभेतमुत्तरमार्गमस्मान् प्रति प्रकाशयति । अनेनैव
नैयायिकतस्करः सर्वस्वापहाराय प्रवेक्ष्यति क्षणादिति तु नावेक्षते इति.
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परि. ५ सू. ८] स्याद्वादरत्नाकरसहितः
७६५ किमत्र ब्रूमः । सोऽपि ह्येवं वक्तुं शक्तः । अतिस्थिरैकस्वरूपस्यापि भावस्यायमेकः स्वभावो यद्भिन्नकालाभिन्नकालानेककार्यकर्तृत्वं नाम । तथा हि-- असौ स्थिरो भावस्तत्तत्सहकारिसन्निधानावस्थासु तत्तकार्यजननात्मकः । तस्मिन् सत्येव तेषां दर्शनात् । नन्वेवं व्योमादौ सत्येव घटादिरुत्पात इति सोऽपि तद्धेतुकः स्यात् । एवं तर्हि ५ त्रिलोकीकलितकलशादिसकलवस्तुक्षणसत्तानन्तरं संवेदनमुदेतीति तदपि तद्धेतुकं स्यादिति न मात्रयापि विशेष इत्यास्तां तावदेतत् । तत्र तत्काले जलाहरणस्वभावतैवेति घटादेस्तत्काले तदजननस्वभावता व्यवच्छिद्यते । तस्या एवं प्रतियोगित्वान्न तु कालान्तरे। तथा च कालभेदेन तज्जननात्तज्जननस्वभावता धर्मभेदेऽपि न धर्मिणो भेदो १० यथा स्वन्मते रूपस्य विज्ञानजननरसजननभेदेऽपीत्यादि तु नैयायिकोक्त्या न स्थिरतकान्तात्प्रमुच्यसे । अथ किमनेन नैयायिककण्टकोपढौकनेन, तब किमुत्तरमिति चेत् । यद्यस्मदुत्तरे कुतूहलमायुष्मतस्तदा तदप्यदूर एव नैयायिकशिक्षाक्षणे वक्ष्यमाणमाकर्णयिष्यसि भोत्स्यसे च मा त्वरिष्ठाः ! यदप्ययमेव जगाद । 'एकस्यानेक- १५ क्रियानभ्युपगमे च योऽयं रूपरसगन्धस्पर्शविशेषाणां कचित् सहभावनियामः प्रमाणपरिदृष्टः स न स्याद् भिन्ननिमित्तानां सहभावनियमायोगात् ' इति । तदपि नास्माकं दूषणम् । एकान्तेन भिन्ननिमित्तजन्यत्वस्य विवक्षितरूपादिप्वस्माभिरनभ्युपगमात् । रूपरसादिसमुदायात्मकैकधर्मिणा ह्युत्पाद्यधर्मिस्वभावा एव ते समुत्पा- २० धन्ते । ततः कथं सहभावनियमाभावसंभावनापि स्यात् । यथा च तेषां तद्धर्मितादात्म्यं तथा कथंचित् रूपाद्यात्मकैकमिसिद्धावभिधास्यते । यस्त्वेवं नोपेयिवान् तस्यैकहेतुजन्यत्वेऽपि तेषां सहभावनियमो मनोरथमात्रमेव । तथा हि कारणे व्यतिक्रान्ते परस्परमेकान्तव्यतिरिक्ता रूपादयः प्रादुर्भवन्तः सहैव भवन्तीत्याशापिशाचिकैवेयम् । २५ अथ चतुर्थपक्षो रूपादिक्षणपुञ्जरूपा हि पूर्वा सामग्री सन्तानवृत्त्या
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः
[परि. ५ सू. ८
प्रवर्तमाना सरूपामुत्तरोत्तरां सामग्रीमारभते । तदप्यसत् । यतः समग्रेभ्यः सामग्री न मिन्ना । अपसिद्धान्तापत्तेः । किंतु समग्रैव । तत्र च पूर्वसमुदायेनोत्तरसमुदायारम्भे तदन्तरगतं समुदायिनमेकैकमे
कैक एवोत्पादयेत् सर्वे संभूय वा । नाद्यः पक्षः। एकस्मादेकोत्पत्तेः ५ प्रतिषिद्धत्वात् । अनेकस्मादनेकोत्पत्तिप्रतिज्ञापरिभ्रंशापत्तेश्च । नापि द्वितीयः । यत एकैकसमुदायिनिप्पत्तौ सर्वसमुदायिनां क्रमेण युगपद्वा व्यापारः स्यात् । क्रमपक्षे क्षणिकत्वक्षतिः । युगपत्पक्षे तु निकुरम्वरूपं कार्य निकुरम्बरूपात्कारणादुत्पन्नमिति कारणप्रविभागे
नियमाभावात् । इदं रूपम्, एष रस इत्येवंरूपादिकार्यप्रविभागो न १० स्यात् । सर्वं रूपं रसो वा स्यात् एकस्मान्निकुरम्बादुत्पन्नत्वात् । अथ निकुरम्बान्निकुरम्बस्योत्पत्तावपि न रूपादीनां स्वरूपसंकरप्रसंगः । पूर्वरूपादिक्षणरुपादानसहकारितया सामग्रीभेदेन रूपादिक्षणानामुत्पादनात् । यदि हि रूपक्षणो रूपवद्रसादिक्षणान्तरं प्रति
उपादानं स्यात्तदा स्याद्रसस्यापि रूपतेति । तदप्यनुपपन्नम् । १५ हेतुरूपाणां रूपादीनामेकस्वभावत्वेनोपादानसहकारिकल्पनाबीज
स्याभावात् । अन्यथा तेषां भिन्नस्वभावतापत्तिः। नहि येनैव स्वभावेनोपादानतैषां तेनैव सहकारिता । अभिवानमात्रभेदापतेः । इति सामग्रीभेदादूपरसादिफलभेदो दुःस्थित एव । सर्वेषां सर्वजनन
स्वभावत्वाददुस्थित इति चेत् । कथं तर्हि तावभ्यस्तावतामुत्पादे २० सर्वेषां रूपादिकार्याणां रूपादित्वेन जातिभेदो निरंशता च स्यादिति
शोभनमदुस्थितत्वम् । एकस्वभावानेकरूपजत्वे ह्यमीषां कार्याणां रूपादीनां सर्वेषां तुल्यतापत्तिः । येभ्य एवैकस्वभावेभ्योऽनेकेभ्य एकमुत्पनं तेभ्य एवान्यदपीति कृत्वा स्वभाववैचित्र्यं वा प्रामोति ।
एकैकस्य तावतावत्स्वभावजन्यत्वादित्यलचनीया न्यायमुद्रा । अथ २५ किमिदमात्मीयपक्षदापैः परपक्षोलनमुपसंक्रान्तन् ।हेतुस्वभावसंक्रान्ति
पझे ह्ययं दोषः । तत्र ोकस्वभावानेकरूपादीनामेव तथा भवनमिति
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परि. ५ सु. ८] स्याद्वादरत्नाकरसहितः
७६७ सर्वेषां कार्याणां तुल्यता स्वभाववैचिञ्यं वा अनिवारितम् । यदा तु प्रतीत्योत्पादमात्रेण कार्योत्पादस्तदा न कश्चिदोषः । तदिदं पिशाचभयात् पितृवनसमाश्रयणम् । नहि कथंचिद्वेतुस्वभावसंक्रान्तिमन्तरेण कार्योत्पाद एव युज्यत इति कार्यकारणानेकान्त उपपादयिष्यते । कवायं प्रतीत्योत्पाद इति मन्त्रस्फोटः क्रियतां तदनन्तर- ५ भावित्वमिति चेत् । नैतत् क्षणिकैकान्तवादिनोऽशेषतत्कालभाविभावसाधारणत्वेन हेतुफलभावनियमहेतुः । तथा हि- विवक्षितहेतुक्षणानन्तरं तत्कालभावि सर्वमेव त्रिभुवनोदरवर्ति क्षणजातमुत्पद्यते। ततस्तत्त्वरूपाद्यननुवेधतुल्यतायामयमेवास्य हेतुरिदमेव वास्य फलमिति कुतस्त्यो नियमः । तिरस्कृत्यान्तःकरणतिभिरमालोच्यतामेतत् । १० किमत्रालोच्यम् । हेतुफलस्वभावो नियमसिद्धः सर्वस्य सुस्थितत्वात् । तथा हि- तयोरेव हेतुफलयोः स स्वभावो येन स एव तस्यैव हेतुस्तदेव तम्यैव च फलमिति । एतदप्युपन्याससामोपदर्शनमात्रसारम् । एवमन्वयांपत्तेः । अन्यथा शब्दार्थायोगात् । तथा हि- स्वो भावः स्वभाव इत्यात्मीया सत्ता । किमुक्तं भवति । तस्यैव हेतोरिय. १५ मात्मीया सत्ता । यत्तदनन्तरं भवत्तदेव तत्कार्यमिति तस्यैव तथाभवनेऽन्वयसिद्धिः । अतत्स्वभावत्वेन हेतोर्विवक्षितहेत्वनन्तरं न विवक्षितकार्योत्पादः । उत्सादे वाऽतिप्रसंग इति कुतो हेतुफलभावनियमः। नन्वलमनेन वाक्छलेन तस्यायं स्वभावः स्वधर्मों यदपगच्छति तस्मिस्तदनन्तरं तदेव भवति । स्यादेतदेवम् । यदि तदाऽन्यत् न भवेत् । २० भवति च । किं तेन भवता न तद्विवक्षिताकारणादिति चेत् । विवक्षितकारणाद्विवक्षितमेव कार्य भवतीत्यत्र किं नियामकन् । तःस्वभाव एवेति चेत् । नासौ तत्स्वरूपाद्यननुवेधवैकल्थे तदनन्तरभावित्व. मात्रेण गम्यते । तस्याशेषतत्कालभाविभावसाधारणत्वादिति परित्यज्यतामसदभिनिवेशः । तेऽन्यदाऽन्यतोऽपि भवन्ति ! ततु त एवेति विशिष्ट- २५ तत्स्वभावत्वावगतेरदोष इति चेत् । नैतद्वाच्यम् । विवक्षितानामन्य
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः
[परि. ५ सु. ८
दाऽभावेनान्यस्माद्भावासिद्धेविशिष्टा हि ते रूपा (?) स्तदैव भवन्ति नान्यदा । सामान्येन तु विवक्षितकार्यस्याप्यन्यतः सिद्धिः। यथाहि तत्कालभावभाविसजातीयवस्तूनि कालान्तरे कारणान्तरेभ्यः प्रभवन्ति । तथा विवक्षितकार्यमपि विवक्षितकारणकार्य न स्यात् । । एवमपि तदेव तजननस्वभावमितरदेव च तज्जन्यस्वभावमित्यभ्युपगमे न्यायबाधा । एवं भूतस्य वामात्रेण स्वभावान्तस्याप्यभिधातुं शक्यत्वात् । तथा ह्येवमपि वक्तुं शक्यत एव । मृत्पिण्ड एवं पटजननस्वभावः पट एव तज्जन्यस्वभावः । एवं तन्तय एव घटजनन
स्वभावा घट एव तज्जन्यस्वभाव इति हेतुफलभावापत्त्या न्यायबाधेति। १० मृत्पिडादिपटाद्योर्देशभेदेनेत्थं तत्स्वभावत्वकल्पना विरुध्यत इति चेत्
न । तत्तत्स्वभाववैचित्र्येण मृत्पिण्डादिघटायोः कालभेदेनेव देशभेदेनापि तयोर्युप्माकं विरोधासिद्धेः। मृत्पिण्डोऽपि हि युष्माकं भिन्नक्षणघटजननस्वभाव एव । एवं पदमधिकृत्य भिन्नदेशपटजननस्वभाव
त्वेऽप्यस्याविरोध एव । घट एव मृत्पिण्डरूपानुकारो दृश्यते नेतरत्रेति १५ घट एव तहेतुको न पट इति चेत् । अस्त्येतत् । किं त्वसौ न तत्स्व
रूपाद्यनुवेधमन्तरेण । ततः किमिति चेत् । अनिवारोऽन्वयः । किं च । किमुपादानकारणस्य स्वरूपम् । किं स्वनिवृत्तौ कार्यजनकत्वमाहोस्विदनेकस्मादुत्पद्यमानककार्थे स्वगतविशेषाधायक
त्वमुत समनन्तरप्रत्ययत्वं नियमवदन्वयव्यतिरेकानुविधानत्वं वा २० भवेत् । प्रथमपक्षे कथंचित्स्वनिवृत्तिः सर्वथा वा । कथंचित्
चेत् परमतप्रसंगः । सर्वथा चेत् । सहकारिणामप्युपादानत्वापत्तिः । द्वितीयपक्षेऽपि स्वगतानां कतिपयशेषाणामाधायकत्वं सकलविशेषाणां वा । तत्राद्यकल्पे रूपस्य रूपज्ञानं प्रत्युपादानभावः प्रसज्येत ।
स्वगतकतिपयविशेषाधायकत्वाविशेषात् । रूपोपादानत्वे च रूपज्ञानस्य २५ चार्वाकवद्वितीर्णः परलोकाय जलाञ्जलिः । द्वितीयविकल्पे तु कथं
निर्विकल्पात् सविकल्पोत्पत्तिरूपाकारात्समनन्तरप्रत्ययाद्रसाकार
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पारे. ५ सू. ८]
स्याद्वादरत्नाकरसहितः
७६९
प्रत्ययोत्पत्तिर्वा स्वगतसकलविशेषाधायकत्वाभावात् । किं च । स्वगतसकलविशेषाधायकत्वे सर्वात्मनोपादेयक्षण एवास्योपयोगात् तत्रानुपयुक्तस्वभावान्तराभावादेकसामग्र्यन्तर्गतमन्यं प्रति सहकारित्वाभावः । ततः कथं रूपादेरसतो गतिः स्यात् । समनन्तरप्रत्ययत्वमप्युपादानलक्षणमनुपपन्नम् । यतोऽयमत्रार्थः । समोऽनन्तरश्च यः प्रत्ययः कारणं ५ स उपादानमिति । तत्र च कार्येण समत्वं कारणस्य सर्वात्मना, एकदेशेन वा ! सर्वात्मना चेत्तर्हि कार्यकारणयोरेककालता स्यात् । तथा च सत्येतरगोविषाणवत् तयोः कार्यकारणभावो न स्यात् । कथंचित् समत्वे तु योगिज्ञानास्मदादिज्ञानयोरप्यानन्तर्येण स्थितयोनित्वादिना समत्वेनोपादानोपादेयभावप्रसंगः । अनन्तरत्वमपि देश- १० कृतं कालकृतं वा भवेत् । न तावत् देशकृतम् । स्वदेशकार्योत्पादकस्याप्युपादानत्योपगमात् । न कालकृतम् । विवक्षितक्षणानन्तरं निखिल भुवनवर्तिवस्तुक्षणानामुत्पतेः । सत्त्वादिना समत्वेन च तदपेक्षया तस्योपादनताप्रसंगात् । नियमवदन्वयव्यतिरेकानुविधानत्वं तल्लक्षणमिति तुरीयपक्षोऽप्यकक्षीकारार्हः । यतोऽयमत्रार्थः । नियमवतो- १५ ऽन्वयव्यतिरेकयोः कार्येणानुविधानं यस्य तदुपादानम् । एतच्च सुगतव्यतिरिक्तसंतानचित्तैर्व्यभिचारि । तेषां स्वजन्येन सुगतचितेन नियमवदन्वयव्यतिरेकानुविधानेऽप्युपादानत्वायोगात् । तदजन्यत्वे तु तस्य तदविषयत्वापत्तिः । 'नाकारणं विषयः' इति स्वयमुपगमात् । अव्यभिचारेणान्वयव्यतिरेकानुविधानत्वाविशेषेऽपि प्रत्यासत्तिविशेष- २० वशात् किंचिदेव किंचित्प्रत्युपादानं न सर्वमिति चेत् । स कोऽन्योऽन्यत्रैकद्रव्यतादात्म्यात् । देशप्रत्यासत्ते रूपरसादिभिः, कालप्रत्यासत्तेः समसमयवर्तिभिः, भावप्रत्यासत्तेश्चैकार्थगोचरानेकपुरुषज्ञानैरनेकान्तात् । न च क्षणिकैकान्तेऽन्वयव्यतिरेकानुविधानं घटते । न हि समर्थे कारणे सत्यभवतः स्वयमेव पश्चाद्भवतस्तदन्वयव्यति- २५ रेकानुविधानं नाम नित्यैकान्तवत् । स्वकाले सति समर्थे कारणे
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. ५ स. ८ स्वसमये कार्य जायते नासतीत्येतावता क्षणिकपक्षेऽन्वयव्यतिरेकानुविधाने नित्येऽपि तत् स्यात् । स्वकालेऽनाद्यनन्ते सति समर्थे नित्ये कारणे स्वसमये कार्यस्योत्पत्ते, असत्यनुत्पत्तेश्च प्रतीयमानत्वात् ।
सर्वदा नित्ये समर्थे सति स्वकाल एवं कार्यं भवत् कथं तदन्वय५ व्यतिरेकानुविधायीति चेत् । तर्हि कारणक्षणात् पूर्व पश्चाच्चानाद्यनन्ते तदभावेऽविशिष्टे कचिदेव तदभावसमये भवत् कार्य कथं तदन्वयव्यतिरेकानुविधायीति समः समाधिः । ततो न नियमवदन्वयव्यतिरेकानुविधानत्वमप्युपादानरूपम् । यदपि ज्ञानश्रीः सूक्ष्ममिवोत्प्रेक्षते ।
'अभ्रान्तसम्मतैकावसायः प्रकृतिविक्रिये ततो हेतुफलस्योपादा१० नोपादेयलक्षणम् । सभागहेतुफलसंततौ परमार्थतो भ्रान्तोऽपि
लोकापेक्षया अभ्रान्तत्वेन संमतः । स एवायमित्येकावसायः प्रत्यभिज्ञानरूप उपादानोपादेयलक्षणं घटतदुत्तरक्षणवत् क्वापि दृश्यते । तत्रायमर्थः । अभ्रान्ता सत्या या समता सादृश्यं तया
उपलक्षित एकावसायः अभिमानिकत्वावसायः प्रत्यभिज्ञानरूपः १५ पारमार्थिकवस्तु न कचिदपि । विसभागोत्पत्तौ तु प्रकृतिरुपादा
नस्य विकृतिरुपादेयस्य लक्षणम् । काष्ठाङ्गारवदिति ।' तदप्यसंबद्धम् । यतस्तत्रैकावसाय उपादानोपादेवलक्षणमिति कोऽर्थः । किमेकावसाय एवोपादानोपादेययोर्लक्षयिता । किं वा तेन हेतुना ते
लक्ष्यते । यद्वा स तयोर्लक्षणं स्वरूपमिति । नाद्यः कल्पः । एकत्व२० परामर्शकुशलत्वेनास्यैकत्वस्यैव लक्षकतयोपादानोपादेयवार्ता प्रति मूक
त्वात् । नापि द्वितीयः । साध्यसाधनयोः प्रतिबन्धस्यावधारयितुमशक्यत्वात् । नहि यत्र यन हेतुफलसंततावेकावसायस्तत्र तत्रोपादानोपादेयभाव इत्यत्र विपक्षे बाधकं किंचित् प्रमाणमस्ति । यदपि हेतुफलसंतती' इत्येकावसायस्य विशेषणमभाणि । तदपि
१' अभ्रान्तसमतैकावसायः' इति ज्ञानश्रीसंमतः पाठः । स चा पृ. ७७३ ६१. स्याद्वादरत्नाकरे खण्डयते ।
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परि. ५सू. ८ } स्याद्वादरत्नाकरसहितः प्रतिवाद्यसिद्धम् । न खलु कलशसंतानो हेतुफलभूतक्षणपरंपरारूप इति वयमास्थिष्महि । सत्त्वानुमानात्तसिद्धावितरेतराश्रयत्वम् । अनुमानान्तरमपि नोपन्यसितुं शक्यमिति न द्वितीयपक्षोऽप्युपपन्नः । एकावसायस्तयोर्लक्षणं स्वरूपमिति तृतीयपक्षेऽपि, ज्ञानसंतानगतस्योपादानोपादेवभावस्वरूपं कथ्येत सार्वत्रिकस्य वा । यद्याद्यस्य तदा ५ घटतदुत्तरक्षणवदिति निदर्शनोपदर्शनमसंगतं स्यात् । तस्याज्ञानरूपत्वात् । न च सर्वत्र ज्ञानेऽप्येकोऽवसायोऽस्ति । नहि भवति यैव घटबुद्धिः सैव पटबुद्धिरिति । अथ य एवाहं घट वेनि स एव पटमित्यस्ति ज्ञानैकत्वावसाय इति चेन्न । एतस्यात्मविषयत्वात् । नन्वात्मनो ज्ञानादन्यस्याभावात् ज्ञानविषय एवायमिति चेत् । न । १० लौकिकैकावसायस्य त्वयाऽत्र विवक्षितत्वात् । लौकिकाचाहमित्यात्मानमेव मन्यन्ते । प्रामाणिकैकावसायविवक्षायां तु भवतो विरुद्धभाषिता स्यात् । तथाहि-तत्त्वतश्चेदभ्रान्तः स एवायमित्येकावसाय: कलशादी, कुतस्तर्हि तत्र हेतुफलतया संतानता कुतस्तरां चोपादानोपादेयता स्यात् । यदप्ययमेव प्राह-'अस्ति च विषयोपरागं विवेच्य चैतन्य. १५ मात्रमामृशत एकपुरुषाभिमताय संतती सैत्रेयं बुद्धिरित्यवसायः' इति । सोऽयमस्य विश्वामित्रस्पर्द्धयेवाभिनवसर्गमनोरथः । विषयोपरागविवेकेन लौकिकानामधान्तत्वेन संमतस्यैकावसायस्य बुद्धिष्वभावात् । यदि हि विषयोपरागविवेकेन प्रकृतबुद्धिप्येकावसायो लौकिकानां प्रादुःष्यात् तदा समस्तोपाधिपरिहारेण, उपाध्यायशिष्यबुध्यो- २० ऽरप्ययं किं न स्यात् । तथा च तयोरप्युपादानोपादेयभावो भवेत् । अथोपाध्यायशिष्यशरीरयोस्तद्भेदग्रहणकारणयोस्तत्र व्यक्तमनुभवात् न तेषां तदेकावसाय इति चेत् । तर्हि घटवुद्धिरियम् पटबुद्धिरियमिति घटपटाधुपाधीनां तद्भेदकारणानां प्रकृतेऽपि व्यकमनुभूतेः कथमयं प्रादुर्भवेत् । अथ सार्वत्रिकस्योपादानोपादेयभावस्यैकावसायः स्वरूपं २५ तदप्ययातिदोषदुष्टम् । अवसायस्य ज्ञानरूपत्वेनोपादानोपादे
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. ५ स. ८ यभूतसमस्तपदार्थस्वरूपत्वानुपपत्तेः । तत्त्वे वा विज्ञानवादप्रसंगः । स च प्रागेव प्रतिहतः । अथैकावसायशब्देनोपचारात् तद्गोचरो विवक्षितः, एकत्वेनाध्यवसीयमाना हेतुफलसंततिरुपादानोपादेय
रूपेति । तथाप्यव्यापकता । सुगतसंवेदनसंताने तस्याभावात् । ५ सुगतज्ञानस्य विधूतकल्पनाजालज्ञानत्वेन लौकिकानां तु तदगोचरत्वेन तत्रैकावसायासंभवात् । प्रामाणिकानां तु तत्रैकावसाये प्रतिपाद्यमाने सुगतज्ञानस्य क्षणिकत्वक्षतिप्रसक्तिरिति न ' अभ्रान्तेत्यादि । उपादानोपादेययोर्लक्षणम् । यदपि 'विसभागोत्पत्तौ प्रकृतिविक्रिये' इत्यु
पादानोपादेयलक्षणमलसि । तत्र केयं विसभागोत्पत्तिर्नाम । विसदृश१० संतानोत्पत्तिरिति चेत् । सा यदि सर्वथा तदा असंभविनी । काष्ठा
कारयोरपि द्रव्यत्वादिना सादृश्यप्रतीतेः। अथ कथंचिदसावभिप्रेता तदा देशान्तरे कालान्तरे च समुत्पद्यमानस्य कथंचिद्विसदृशाङ्गारसंतानस्यात्रत्येदानीन्तनकाष्ठसंतानापेक्षया विकृतत्वप्रसक्तरुपादेयता, अत्र.
त्येदानीन्तनकाष्ठसंतानस्य च तदपेक्षया प्रकृतित्वापत्तेरुपादानता १५ स्यात् । तत्र तत्सत्ताननुगमात् न तेन तस्योपादानोपादेयभाव इति
चेत् । तत् किं विवक्षितकार्यदेशकालयोविवक्षितकारणस्य सत्तानुगमोऽस्ति । ओमिति चेत् । तर्हि सिद्धान्तबाधा । कार्यदेशकालयोस्तसत्तानुवृत्त्या क्षणभङ्गुरताभ्रंशात् । नास्ति चेत् । कथं तर्हि देशा
न्तरकालान्तरवर्तिकार्येणोपादानोपादेयभावः समुपस्थितोऽतिथिः प्रति२० विध्यताम् । किं च । प्रकृतिभूतस्य काष्ठस्याकारो विकृतिरिति कुतो निर्णेय त्वया यावता वह्वेरेवासौ विकारः किं न स्यात् । वह्निसंबन्धिकाष्ठादेव तदुत्पत्तेरिति चेत् नैवम् । काठसंबन्धिवहेरेव तदुत्पत्तिरित्यपि कल्पनाया अनिवारितप्रसरत्वात् । पार्थिव पार्थिवोपादानमेव भवितुमर्हतीति चेत् । कुत एतत् निरणाथि । सभागेषु तथा दर्शना
१. विधूतकल्पनाजालगम्भीरादारमूर्तये । नमः समन्तभद्राय समन्तस्फुरत्विषे' ॥ इति प्रमाणवार्तिकस्य प्रथमश्लोकः ।
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परि. ५. ८ }
स्याद्वादरत्नाकरसहितः
दिति चेत् । एतदपि कुत इति वाच्यम् । अभ्रान्तसमतैकावसायादिति चेत् । न । नीलपरमाणुषु परस्परप्रत्यासन्नेषु निरन्तरं जायमाने परस्परोपादानत्वप्रसंगात् । अस्ति हि तेषां तदुत्पत्तौ सत्यां समत्वमाभिमानिके कत्वाध्यवसायः, अभ्रान्तैकत्वाध्यवसायश्च न कचिदपि । एतेन पाठान्तरव्याख्यापि प्रत्युक्ता । तस्मात् कथंचिदन्वयाय ५ द्रुह्यतां न प्रकृतिविक्रिये अप्युपादानोपादेययोर्लक्षणमुपपद्येते । स्निह्यतां तु तस्मिन्न किंचित् क्षणमिति । एतेन यदप्युपादानलक्षणं धर्मोत्तरः प्राह - ' यस्य संताननिवृत्तौ यदुत्पद्यते तन्निवृत्तिधर्मसंतानमुपादानभितरस्य यथा मृत्संताननिवृत्योत्पद्यमानस्य कुण्डस्य मृदुपादानम्' इति । तत्प्रतिक्षिप्तम् । सर्वथा संताननिवृत्तिपक्षे १० सन्तानान्तरेणापि सहोपादानोपादेयभावः स्यात् । कथंचित्संताननिवृत्तिपक्षे तु कथंचिदन्वयस्य प्रसक्तेः । यदप्ययमेव ' ननु चाहुरस्य बीजमुपादानमपि न सर्वथा विनिवृत्तं मध्यभागान्निर्यतोऽङ्कुरस्य दर्शनात् ' इत्याशङ्कय प्राह- ' न वै बीजमेकं द्रव्यं किं तर्हि परमाणुसमूहस्तस्य त्वक्सारफल्गुभागा भिन्नसंततयः सारभाग- १५ ततेश्वांकुरसंभूतिः' इति । तत्रायं तावद्व्यवहारगोचरीभूयमनापन्नत्वात् । ( व्यवहारगोचरीभूतमतापन्नत्वात् ) क्षणगतमुपादानोपादेयभावनुपेक्ष्य संतानस्यैव व्यावहारिकत्वात् तद्वतमेव तं लक्षयति । व्यवहारवीथीव्यवस्थितामेव बीजस्यैकतां तिरस्कृत्य व्यवहारानहीं तस्य परमाणुमात्रता सन्तानभूयस्तां च प्रतिपादयतीति महन्नैपुण्यमस्य । भवतु २० यात्रैवम् । तथापि कुण्डोत्पादे मृद उपादानता कथमुदाहृता । न खलु कुण्डोत्पादे मृत्संततिः कङ्कणोत्पादे सुवर्णसंततिर्वा निवृत्तेति कोऽप्यधूर्तवञ्चितः प्रत्येति । तदापि मृन्मयमिदं हिरण्मयमेतदिति सर्वैरनुभवात् । क्षणिकत्वान्निवृत्चैव तदा मृदिति चेत् । क्षणिकत्वं तावदधाप्याशीविषमणीयते । अस्तु वा तत्तथापि संतानानेवृत्ताविति २५ लक्षणपदं मा विस्मारि । नहि तदा मृत्संताननिवृत्तिः । तत्क्षणस्यैव
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. ५ सू. ८ निवृतेः । अथात्र मृच्छब्देन तत्पिण्ड एवोच्यते यदि मृन्मयत्वेन तदा कुण्डमप्युच्यताम् । तदविशेषात् । अस्तु वा यथाकथंचित् मृत्पिण्ड एव तच्छब्दवाच्यस्तथापि कथंचिदन्वयं विना नोपादानोपादेयनियम इत्युक्तमेव । यदप्ययमेवोपादानम्य लक्षणान्तरमाह- . ५ 'जनकैराधेयातिशयस्य कार्यस्य समस्तविशेषकोडीकरणसमर्थ
आत्मा यस्मादुत्पद्यते तदुपादानं यथा चक्षुरादिभ्यश्चक्षुर्विज्ञानस्य समस्तोपकारमयं बोधरूपत्वं समनन्तरप्रत्ययादुत्पन्नमिति तदुपादानम् ' इति । तत्रापि किमुच्यतेऽनेन साध स्वमतस्यापि न यः
स्मरति । एकरूपमेव हि कार्यमस्योत्पद्यते ततस्तजनकैराधेयातिशय १० मिति कथं संगच्छते । आधेयातिशयतायां हि तस्य सांशतापत्तेर
नेकरूपता स्यात् । स्वान्मतं, भिन्नस्वभावेभ्यो मिन्नस्वभावमेव कार्य जायते कारणव्यापारविरचितानां कार्यस्वभावविशेषाणामसंकीर्णत्वात् । यथा विषयन्द्रियमनस्कारबलभाविनो विज्ञानस्य विषयात्तदाकारत्वम् ।
तत् ज्ञानेन्द्रियात् न मनस्कारात् । इन्द्रियाद्विषयग्रहणप्रतिनियमो १५ नान्यस्मात् । मनस्काराद्वोधरूपता न परतः । न च कारणव्या
पारविषये नानात्वेऽपि सति कार्य नाना भवति । निर्विभक्तरूपस्यैवास्योपलम्भात् । तदपि युक्तिरिक्तम् । कथं हि नामकस्वभावं कार्य स्वभावविशेषाश्च तदव्यतिरिक्ता एव चित्राः स्युः । नानात्वैकत्वयोः
परस्परल्याहतेः । विषयनि सितादयश्च विज्ञानाव्यतिरेकिणो यथा २० विषयादिभिः क्रियन्ते तद्वद्विज्ञानाव्यतिरिक्तबोधरूपतादिकारिभिर्भनस्कारादिभिरपीत्येवं सर्वेषामशेषमनस्कारादिजन्नत्वे सति विषयनि
सितादिव्यवस्थानुपपत्तिः । तथाहि-न विषयात् तदाकारत्वसंभवो बोधरूपाभेदात् । न चासंभवः । तदाकारत्वात् । तथा न मन
स्काराब्दोधरूपसंभवो विषयाकाराव्यतिरेकात् । न चासंभयो बोध२५ रूपत्वात् । इतीत्थमिन्द्रियादिप्वपि द्रष्टव्यमिति मिथो विरोधसंभवेन
तद्नुपपत्तिः । एतेन यदपि धर्मोत्तरविशेषव्याख्यानकौशलाभिमानी
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परि. ५ सू.८] स्याद्वादरत्नाकरसहितः
७७५ देवबलः प्राह-निर्भागेऽपि च कार्ये आपापोद्वापाभ्यां विशेषहेतूनां विभागसिद्धिरिति छलनोद्यानामनवसरः' इति । तदपि प्रत्युक्तमवसेयम् । अथ मा भूदयं दोष इति स्वभावविशेषाः कार्यतो व्यतिरिक्ता एवेष्यन्ते । एवमपि कारणव्यापारस्य तेष्वेवोपयुक्तत्वात् तत्कार्यमहेतुकमनुषज्यत इति यत्किंचिदेतदिति । कथं कार्यम्य जन- ५ कैराधेयातिशयता संगच्छते । किं च । सर्वैरपि समनन्तरप्रत्ययचक्षुरादिभिर्जनकैनिकार्ये बोधरूपतादयोऽतिशया आधीयन्ते । ततो लक्षणवाक्यं यस्मादिति यच्छब्देन कतरत् निर्धारयामो यस्योपादनता व्यवह्रियेत । ननूक्तं समस्तविशेषकोडीकरणसमर्थ आत्मा यस्मादुत्पद्यत इति सर्वेष्वपि हि जनक्षेषु मध्ये यत्समस्तविशेषकोडीकरण- १०. समर्थवस्तूत्पादनगुणयुक्तं तन्निर्धार्यत इति । भैवं वोचथाः । समस्तविशेषकोडीकरणसमर्थस्य कस्यचिदात्मनः कुतोऽप्युत्पत्तिसंभवात् । सत्यां हि तस्यां कार्यस्यापि कारणकालतैव स्यात् अन्यथा कारणकालानाकलनेन कार्यस्य समस्तविशेषकोडीकरणसामर्थ्यस्यासंभवादिति न किंचित् उपादानकारणं संगच्छते । नापि सहकारिकार- १५ णम् । क्षणिकैकान्ते सहकारिकारणैरुपादानेऽतिशयस्याधातुमशक्तेः । अत्राह- किमिदं गौरत्वमपि पाण्डुरोगतया प्रत्याकलितम् । अतिशयमनासूत्रयतामेव होकं कार्य कुर्वतां तेषां सहकारित्वं सुन्दरम् । किमर्थं तर्हि तेन अपेक्ष्यन्त इति चेत् । को वै ब्रूतेऽपेक्ष्यन्त इति । प्रत्येकमेव हि कार्यजननाय समर्था अन्त्यावस्थाभाविनः क्षणाः का २०. तेषां परस्परापेक्षा । यत्तु प्रत्यासीदन्ति तदुपसर्पणकारणस्यावश्यभावनियमात् नतु संभूय कार्यकारणाय । तत्काले चोपसर्पणनियमहेतुः । तेषां वस्तुम्वाभाव्यात् । प्रत्येकं समर्था हेतवः प्रत्येकमेकैकमेव कार्यं जनयेयुः किमित्येकमनेके कुर्वन्तीति चेत् । अत्राप्यमीषां कारणानि प्रष्टव्यानि । यान्यमूनेकार्थनिवर्तनशीलान् प्रभावयन्ति । २५, वयं तु यथादृष्टार्थस्वरूपवक्तारो न पर्यनुयोगमामः । कार्यमेकेनैव
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. ५ स. ८ कृतं किमपरे कुर्वन्तीति चेत् । न कृतं कुर्वन्ति किं वेकेन क्रियमाणमपरेऽपि कुर्वन्ति । यत्रैकमेव समर्थं तत्रापरेषां क उपयोग इति चेत् । सत्यम् । न ते प्रेक्षापूर्वकारिणो यदेवं विमृश्योदासत इति । तदेतदखिलमाकाशचित्रम् । यदि हि बीजादयः प्रत्येकमेव समर्था५ स्तर्हि किमर्थ कृषीबलः प्रेक्षापूर्वकारी परिकर्भितायां भूमौ बीजकणा
नावपति पयसा च मधुरेणासिञ्चति । परस्पराधिपत्येन तेभ्यः प्रत्येकमङ्गुरजननयोग्यक्षणोपजननायेति चेत् । यद्यङ्कुरजननयोग्यक्षणोपजननाय बीजं स्वहेतुभ्यः समर्थमुपजातं किमवनिसलिलाभ्यामथासमर्थम् ।
तथापि तपोरकिंचित्करः संनिधिः स्वभावस्यापरित्यागात् । तथा च१० यदि समजनि सत्यं वस्तुसार्थोऽसमर्थः
___कथयत सचिवानां संनिविः स्यात् किमर्थः ।। ५९३ ॥
क्षित्युदकाभ्यां बीजस्य स्वसंतानवर्तिनी असमर्थक्षणान्तरारम्भणशक्तिनिरुध्यत इति चेत् । अस्तु तर्हि तस्मात् असमर्थक्षणानुत्पत्तिः।
सुसमर्थक्षणोत्पत्तिस्तु दुर्लभा कारणाभावात् । न च स्वभावभूतायाः १५ शक्रस्ति निरोधः । भावस्यापि विरोधप्रसंगात् । सहेतुकंश्च विनाशः
प्राप्नोति । न विशिष्टक्षणोत्पादनशक्त्याधानं च बीजस्य शक्यं क्षणिक. त्वात् । स्वभावाव्यतिरिक्तशक्त्युत्पादने चोत्पन्नोत्पादप्रसंगात् । तस्मादसमर्थन्योत्पावतो न कदाचिदपि क्रिया । समर्थस्थ चोत्पादानन्तरमेव करणमिति द्वयी गतिः । नन्वर्थान्तरसाहित्ये सति कारणं तस्यानुपयोगादिति नास्ति किमपि क्षणिकैकान्ते सहकारिकारणमपि । एवं चायुक्तमुक्तम् । निकुरम्बान्निकुरम्बस्योत्पत्तावपि न रूपादीनां स्वरूपसंकरप्रसंगः । पूर्वरूपादिक्षणैरुपादानसहकारितया सामग्रीभेदेन रूपादिक्षणानामुत्यादनादिति । नन्वतिशयाधानपक्षेऽपि कथं सहकारिता ।
स्वभावभूतातिशयारम्भाभ्युपगमे हि भावस्याप्युत्पत्त्या क्षणिकत्वप्रसक्तिः। २५ अतत्स्वभावभूतातिशयारम्भाभ्युपगमे तु भावस्य प्राग्वदसाधकत्वमिति। अत्रोच्यते । नायमस्माकमेकान्तो भिन्नान्येव वस्तून्यभिन्नान्येव वा
१ नायमित्यतः विरोध इत्यन्त पृ. ७.७ पं. ६ पाठः प्रकरणपत्रिकायां जी. रक्षाप्रकरणे पृ. ५ पं. ३२ किञ्चित्पाउभेदेन समुपलभ्यते ।
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परि. ५ स. ८] स्याद्वादरत्नाकरसहितः किंतु भिन्नाभिन्नानीति संगिरामहे । तत्र भेदमात्र विकल्पावलम्बनसंभवि दूषणमभेदाश्रयणेन, अभेदमात्रविकल्पावलम्बनसंभवि तु भेदाश्रयणेन प्रतिहतम् । नन्वेतौ भेदाभेदौ विरोधिनौ कथमेकत्र निविशेते । उच्यते । नेमौ विरोधिनौ । सह दर्शनात् । सहानवस्थालक्षणो हि विरोधः । अनवस्थानं चादर्शननिबन्धनम् । न चात्र तदस्तीति ५ नास्ति विरोध इति । अत्रैतदसहिष्णुर्मीमांसाजीवरक्षाप्रकरणे शालिकः प्राह- " नं च तयोः सहदर्शनमुपपद्यते । एकाकारप्रतीतिरेख खल्वभेददर्शनं विलक्षणाकारप्रतीतिस्तु भेददर्शनम् । तत्र यद्येकाकारप्रतीतिस्तार्ह विलक्षणाकारप्रतीतिर्नास्ति विलक्षणाकारत्वे च प्रतीते काकारप्रतीतिरस्ति" इति । तत्र १० किमुच्यतेऽस्य मूढत्वं यद्भट्टद्वेषकषायितमनाः प्रतीतिमपि न पर्यालोचयति । न खल्वेकाकारपरामर्शिन्येव तदितरैव च प्रतीतिः काप्यस्ति । सती हि तां कः समुल्लङ्घथितुमीशः । सदृशविसदृशपरिणामापन्नेषु पदार्थेषु तदाकारोल्लेखिनी तु सा युक्ता समस्ति च तादृशी मैव च भेदाभेदप्रतीतिः । घटो हि प्रतीयमानः सकलवस्तुभ्यः सदृशविसदृशाकारतयाऽभिन्नो भिन्नश्च प्रतीयत इति । किं च त्वयापि तावत् प्रतिज्ञातं प्रत्यभिज्ञानम् । तम्माच्च सिद्धमेव भेदाभेददर्शनम् । तथा हि-- यदेवं कनकं कङ्कणतया परिणतं प्रागासीत् तदेवेदानी केयूरतया संवृत्तमित्यस्ति प्रतीतिः । अत्र च कङ्कणस्य केयूररूपपर्यायप्रतीतेरनुस्यूतैककनकाकारप्रतीतेश्च कथं न नाम भेदाभेद प्रतीतिः २० स्यात् । किं च ।क्षणिकवस्तु विनष्टं सत् कार्यमुत्पादयति, अविनष्ट, उभयरूपं, अनुभयरूपं वा । न तावत् विनष्टम् । चिरतरनष्टस्येवावान्तरनष्टस्यापि जनकत्वविरोधात् नाप्यविनष्टम् । क्षणभङ्गभङ्गप्रसंगात् । नाप्युभयरूपम् । निरंशैकस्वभावस्प विरुद्धोभयरूपासंभवात् । नाप्यनुभयरूपम् । अन्योन्यव्यवच्छेदरूपाणामेकस्यापर विधाननान्तरीयकत्वेनानुभयरूपत्वायोगात् । तदेवं क्षणिकैकान्ते कार्यकारणभावानुए१प्र. पं. पृ. ६ पं. ७
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः परि. ५सू. ८ पत्त्या अर्थक्रियाऽनुपपन्नैव । कथंचिदन्वयिन्येव वस्तुनि तदुपपत्त्या तस्या घटनात् । किं च । अर्थक्रिया क्रमयोगपद्याभ्यां व्याप्तेति भवानेवावोचत् । ते च क्षणिकैकस्वभावेषु न संभविनी । तथा हि- तद्पाणाममीषां देशकमेण कालक्रमेण वा कार्यकरणं नास्ति । एक एवं ५ पदार्थः कचिद्देशे काले वा किंचित्कार्यं कृत्वा पुनरपेक्षितसहकारि
संन्निधिः कथंचिदुपात्तस्वभावान्तरो देशान्तरे कालान्तरे च कार्य कुर्वाणः क्रमेण करोतीत्युच्यते क्षणमात्रस्थायित्वे त्वर्थस्यैवविधक्रमकारित्वं कथं संभवेत् । ननु कर्मधर्मोऽत्र क्रमोऽभिप्रेतो न कर्तृधर्मस्तत्र
क्रमिककार्याणां कर्तुरेकस्याभावेन क्रमासंभवात् । कार्याणां तु क्रम२० स्तथोत्पद्यमानानां सुप्रतीत एव । तथा च क्षणिकं वस्तु क्रमिकाणि कार्या
णि करोतीत्युच्यमाने किमनुपपन्नम् । अत्रोच्यते । कार्याणि क्रमेणोत्पद्यन्त इति को नाम न मन्यते । किंतु क्षणमात्रजीविना भावेन तानि तथोत्पद्यमानानि कयमुत्पादनीयानीति प्रश्ने न किंचिदुत्तरं व्यतारि । योगपद्येनापि नास्यार्थक्रियास्ति । निरंशत्वेन युगपदनेकशक्त्यात्मकत्वाभावात् । तथा हि यया । शक्त्या रूपं रूपान्तरं करोति न तयैव रसादिकम् । रसादेरापे रूपस्वरूपताप्रसंगात् । ततः सर्व रूपकार्य चक्षुषा गृधेत । न चैतत्प्रतीतम् । तस्माद् रूपं रूपान्तरोत्यादशक्त्या तदेव करोति रसाधुत्पादशक्त्या च रसादिक
मित्येवमनेकाः शक्तयः कथं निरंशस्य क्षणिकस्य स्युः । एवं चार्थ२० क्रियाव्यापकयोः क्रमयोगपद्ययोः क्षणिके विरोध एव । अक्षणिके तु
तदविरोधोऽनन्तरमेव निरूपयिष्यते । तथा च सत्त्वं विरुद्धताव्याधिबाधितं नोत्थातुमपि शक्तम् । यदप्युक्तम् ' नाप्यनैकान्तिकशका सर्वोपसंहारवत्या व्याप्तेः प्रसाधनात् ' इत्यादि । तदप्यसंबद्धम् ।
यातेरप्रसिद्धेः । यत्तु तत्प्रसाधनाय ' कर्तुः सा न क्रिया' इत्यादि २५ विपर्यये बाधकमभ्यधायि । तदप्यसत् । अक्षणिकेऽपि परक्रियाया
अविरुद्धत्वेन दर्शितत्वात् । यदपि किमपि प्रागल्भ्यमभ्यस्यता 'अथापि
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परि. ५ सू. ८] स्याद्वादरत्नाकरसहितः व्यतिरेकरूपायामेव व्याप्तौ कौतुकमप्यस्ति ' इत्याद्युक्त्वा पर्यन्ते यत् 'क्रमयोगपद्यवत्याम् ' इत्याद्यनुमानमवादि । तत्र क्रमयोगपद्यलक्षणच्यापकानुपलम्भात् अर्थक्रियासामर्थ्यस्वरूपसत्त्वाभावो भावानाम् , एकान्तनित्यानां कथंचित् नित्यानां वा । आद्यपक्षे सिद्धसाध्यता । एकान्तनित्यानां कथमपि विक्रियानुपपत्तेः तथार्थक्रिया नास्तीति ५ को नाम नाभ्युपैति । ये प्रति प्रमाणोपन्यासेनात्मानमायासयसि । कथंचित् नित्यानां तु क्रमयोगपद्याभ्यामर्थक्रिया नोपपद्यत इति मनोस्थानामप्यपथे। क्रमयोगपद्यरूपव्यापकानुपलम्भस्य तत्रासिद्धेः । किंचित् कृत्वान्यस्य करणं हि क्रमः । अयं च कलशस्य कथंचिदेकरूपस्थैव क्रमेण घटचेटिकामस्तकोपरिपर्यटनेन तासां क्रमं कुर्वतः १० सुप्रतीत एव । अत्र हि भवान् अत्यन्ततार्किकंमन्योऽप्येतदेव तावत् वक्तुं शक्नोति । यस्मादक्षेपक्रियाधर्मणः समर्थस्वभावादेकं कार्यमुदपादि स एव चेत् पूर्वमप्यस्ति तदा तत्कालबत्तदेव तद्विधानः कथं वार्यतामिति। एतच्च प्रागेव प्रतिविहितम् । यौगपद्यमपि यद्यशेषतत्कार्यक्रियाणामेकस्मिन्नेव क्षणे करणमभिप्रेतम् । तदा तत्तादृशं कापि १५ नास्ति । यदा यदा हि यादृशो वस्तुनः सहकारिकृतः कथंचिदात्मभूतः पर्यायो भवति तदा तदा ततादृशं कार्य करोति । अथ युगपद्धटादिकार्यकरणेऽपि योगपद्यमुच्यते । तदा ततादृशं समस्त्येव तस्य । तथाहि- स एव कुम्भः कथंचिदेकस्वभावो भाजनान्तरपिधानम्, अम्बुधारणम्, आत्मगोचरं ज्ञानं च युगपत्कुर्वाणः किं नोपालम्भि २० भवता तन्नाक्षणिकेषु वस्तुषु क्रमयोगपद्याभ्यामर्थक्रिया समर्थयितुमशक्त्यतिद्धतैव तेषु तदनुपलब्धिरिति निरवद्यस्य विपक्षे बाधकस्याभावादनैकान्तिकमेव सत्त्वम् । यदपि ' यनि ति ' इत्यादि द्वितीयमनुमानमवादि । तत्रन्द्रियमतिषु संस्कारा एकस्मिन् क्षणे तावत् अवस्थानशीलः प्रतिभान्तीति हेत्वर्थो विवक्षितः किं वा एकस्मिन्नेव २५ क्षणे स्थानवो न पूर्व नापि पश्चादिति । तत्राद्यपक्षे सिद्धसाधनम् ।
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प्रमाणनयतत्वालोकालङ्कारः
[ परि. ५ सु. ८
को हि नाम प्रामाणिक एकस्मिन् क्षणे स्थितिमतः प्रतिभासमानान् भावांस्तत्रातिष्ठतोऽभिदधीत् । अथैकस्मिन्नेव लक्षणे स्थास्तुता साध्यते ततो न सिद्धसाध्यतेति चेत् । तदसत् । तथाहि तदखिलमिति तच्छब्देन साधनार्थपरामर्शात् । साधने च पूर्वापरत्रुटितैकक्षणप्रति ५ भासस्याद्याप्यविवक्षितत्वात् । किं चैकक्षणावस्थायित्वनिर्भासनं सर्वेषु प्रत्यक्षेषु नास्माकं प्रसिद्धम् । दीदीर्घतराद्युपयोगरूपेषु तेषु व्यादिक्षणावस्थायित्वस्यापि पदार्थानां प्रतीयमानत्वात् । तदुक्तं भट्टजयन्तेनापि पल्लवे
Go
१०
किंचाविच्छिन्नष्टीनां प्रलयोदयवर्जितः । भावोऽस्खलितसत्ताकचकास्तीत्यात्मसाक्षिकम् ||
:
अत्राह — किं तावत्स्वरूपनिष्पतावुपयोगादनेकक्षणस्य व्यापकमध्यक्षम्, अथ क्षणनिष्पन्नस्यैव स्थैर्यात् । तत्रायः कल्पस्तावदसंभवी । ज्ञानस्यावयविरूपतावियोगेन खण्डश उत्पतेरयोगात् । अथ क्षणभेदिनश्च तेऽवयवाः प्रत्यक्षस्य परिच्छित्तिस्वभावास्तदा तावन्त्येव १५ प्रत्यक्षाणीति सिद्धं तेष्वेकक्षणस्थायिता निर्मासनं भावानाम् । अपरिच्छि तिस्वभावत्वे तु तेषां समुदितमपि प्रत्यक्षं न किमपि निर्भासयेत् । अथ प्रत्यक्षावयवैः खण्डशः समुदायेन तु पूर्णस्य वस्तुनः परिच्छेदः । तदाप्याद्यक्षणपरिच्छिन्नः खण्ड एव संपूर्ण वस्तु । तदप्रविष्टस्य ततो भिन्नत्वात् । अन्यथा क्रमेण प्रतीयमानं विश्वमेकमेव वस्तु स्यात् । २० सकलं च प्रत्यक्षमेकमेव प्रत्यक्षमिति द्वितीयपक्षेऽपि निष्पन्नग्रहणव्यापारस्य वा क्षणान्तरव्याप्तिरनिष्पन्नग्रहणव्यापारस्य वा । प्रथमपक्षे सिद्ध एकक्षणप्रतिभासः । द्वितीतपक्षेऽप्यनिप्पन्नग्रहण व्यापारस्यास्य स्थितिरिति दुःश्रद्धेयम् । नहि जन्मानन्तरमस्य ग्रहणव्यापारः । तत्स्वभावस्यैवोत्पतेः । अत्रोच्यते । स्वरूपनिष्पत्तावुपयोगादित्याद्य२५ पक्ष एव कीक्रियतेऽस्माभिः । तादृशं हि तथोपयोगस्य व्यादिक्षणस्थापि यत्स्वरूपं तत् तावतैव कालेन निप्पयते । प्रतिक्षणोपजाय
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परि. ५.८ ]
स्याद्वादरत्नाकरसहितः
माना परापरपर्यायसमुदायात्मकत्वात्तस्य । एकान्तेनावयवव्यतिरिक्तस्यावयविनोऽनभ्युपगमात् । एवं चायुक्तमुक्तम् । 'ज्ञानस्यावयविरूपतावियोगेन ' इत्यादि । तैश्च पर्यायैर्यद्यपि क्षणिका: पर्यायाः प्रतिपन्नास्तथापि तावत् प्रमाणपूर्वापरपर्यायपरम्परात्मा पदार्थः कथंचित् एकत्वेनावस्थितो न तैरवगत इति तद्ग्रहणप्रवणस्तत्पर्यायसमूहस्वरूपस्ते - ५ भ्यः कथंचिद् व्यतिरिक्त उपयोगस्तमवगच्छति । यदप्युदितम् 'आद्यक्षणपरिच्छिन्नः खण्ड एवं संपूर्ण वस्त्विति । तत्र तदप्रविष्टस्य ततो मिन्नत्यादिति हेतौ समुदायप्रवेशाभावस्तत्खण्डस्य सर्वथा कथ्येत कथंचिद्वा । सर्वथा चेत्तदा भिन्नतापि सर्वथा साध्येत कथंचिद्वा । यदि समुदाय सर्वथा प्रवेशाभावात् तत्खण्डस्य सर्वथा भेदः साध्यते तदा १० हेतोरसिद्धिः । खण्डपरंपरात्मक एव दि समुदायः । ततः कथं तस्मिन्नेव खण्डस्य सर्वथा प्रकाशाभावः सिध्धेत् । कथंचिद्भेदसाधने तु विरुद्धता । सर्वथा तत्र प्रवेशाभावस्य सर्वथा भेदेनैवाविना भूतत्वात् । एवं कथंचित् प्रवेशाभावात् सर्वथा भेदसाधनेऽपि विरुद्धतैव कथंचित्प्रवेशाभावात्तु कथं कथंचिद्भेदसाधने सिद्धसाध्यतैव । नचैवं १५ खण्डस्य संपूर्णवस्तुतैव । तस्य तस्मात् कथंचिद्भेदेन संपूर्ण वस्तुतायाः कथंचिन्निवृत्तत्वात् । यदप्युक्तम् अन्यथा क्रमेण प्रतीयमानं विश्वमेकमेव वस्तु स्यात् ' इत्यादि । तदपि न नः प्रतिकूलं संग्रह - नयाभिप्रायेण विश्वस्य प्रत्यक्षस्य चैकत्वेन स्वीकृतत्वात् । क्षणीनिप्पन्नस्यैव स्थैर्यादिति द्वितीयपक्षे त्वनभ्युपगम एवोत्तरम् । अथैंकस्मि - २० नव क्षणे स्थास्तवोऽक्षमतिषु भावाः प्रतिभान्ति न पूर्वं नापि पश्चादिति हेत्वर्थः कथ्यते तदाप्येकक्षणस्थायिनि ज्ञाने तेषां तथाप्रतिभासः स्यात् क्षणत्रयस्थायिनि वा । आद्यकल्पः प्रलापः । अतीतानागतक्षणयोः स्वयमविद्यमानेन तेन तत्र तद्नवस्थानस्य प्रत्येतुमशक्तेः ।
6
·
१ ' एकस्मिन्वा बहुषु वा नामादिविशेषितेषु साम्प्रतातीतानागतेषु घटेषु संप्रत्ययः संग्रहनयः' इति तत्त्वार्थस्. १-३४ भाष्ये ।
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः परि. ५. ८ न च तत्रानवस्थानप्रतीतिमन्तरेणात्रैव क्षणे एतदस्ति न भूतभविध्यतोरिति प्रतीतिर्भवितुमर्हति । तथा च हेतोरसिद्धिः । अथ पूर्वापरक्षणविच्छिन्नत्वेन तस्यावस्थितत्वात् तत्प्रतीतिमन्तरेणापि तत्प्रतीतिरित्युच्यते । ननु पूर्वापरक्षणविच्छिन्नत्वं 'यन्निाति ' ५ इत्यादित एवानुमानात् प्रसिद्धमपरस्माद्वा । अत एव चेदितरेतराश्रयम् । अपरमपि न किंचिद् विचारसहम् । यदि चैकक्षणस्थायिनापि तेन पूर्वोत्तरक्षणयोरभावः प्रतीयमानो न विरुध्यते तदा भावोऽपि पूर्वोत्तरक्षणयोः प्रतीयमानोऽविरोधी । विशेषाभावात् । क्षणत्रयस्था
यिनि तु ज्ञाने तेषां तथा प्रतिभासे हेतोरेकदेशासिद्धता । पक्षीकृतेषु १० सकलसंस्कारेष्वेकक्षणस्थायित्वप्रतिभानस्य हेतोर्विज्ञानवर्जं वर्तनात्
तस्य क्षणत्रयस्थायिनः स्वयं तथैव प्रतिभासात् । यत्पुनरसिद्धतापरिहारे व्याहारि ' पूर्वापरकालयोरेकत्वे हि पदार्थस्य दृष्टाद्रूपान्तरविरहात्सकलकालकलाकलितस्य देशान्तरजुषोऽपि रूपस्यावश्यं प्रतिभासः'
इति । तत्र स्यादेतत् यदग्दिशोऽपि ज्ञानं विनाशावधेर्वस्तुनो वेदक १५ स्यात् । न चैवम् । क्षयोपशमानुरूपं तस्य प्रवर्तनात् । यदप्युक्तम्
'शिंशपानुमानेनेव व्यवहारः साधनीय' इति । तदप्यसत् । यतस्तदा व्यवहारसाधनायेदमुपादीयेतानुमानं यदि प्रत्यक्षेण पूर्वापरक्षणविच्छिनैकक्षणोपलक्षणं स्यात् । न चैवं, पूर्वमपहस्तितत्वात् । किंच ।
अनुमानद्वयेऽप्यस्मिन् व्यादिक्षणस्थायिना ज्ञानेन तावत्कालस्य २० भावस्य प्रतीतेः पक्षस्य प्रत्यक्षस्य बाधा । ननु ज्ञानस्य क्षणिकत्वेन
यादिक्षणावस्थायित्वाभावात् कथं प्रत्यक्षेण पक्षबाधेति चेत् । ननु क्षणिकत्वं तस्याभ्यामनुमानाभ्यां सिद्धं वेदिष्यते । तदेतरेतराश्रयम् । अन्यानुमाने तु दारिद्यम् । तथा स एवायं स्फटिकः स चायं शत. कोटिरित्यहमहमिकया कथंचिदेकत्वं स्फटिकादीनां प्रकटयता प्रत्य
१ शतकोटि:-वज्रः।
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परि. ५ सु. ८ ]
स्याद्वादरत्नाकरसहितः
भिज्ञाज्ञानेनाप्यत्रानुमानद्वितये पक्षस्य बाधा प्रामाण्यं चास्य प्रागेव
प्रकाशितम् । एवं च --
www.
क्षणभावादसाधककृतकत्वस्योपपादनपूर्वकं खण्डनम् ।
एकान्तक्षणभङ्गसंगतिकथाव्याजेन या संस्थिता
लोकेऽस्मिन् विषवल्लरी समधिकं संमोहयन्ती जनान् । सा सत्त्वाद्यनुमानमूलपटलीनिर्मूलनात्सर्वतो
दिष्ट्या शान्तिमुपाजगाम सुचिराचेतस्विनः संप्रति ॥ ५९४ ॥ असमञ्जसमुच्यतेतमां किमिदं जिन निरङ्कुशं
त्वया ।
क्षणभङ्गुरभावसाधकं कृतकत्वं यदिहास्त्यदूषितम्
॥ ५९५ ॥ १०
तथाहि---यत् कृतकं तत् क्षणिकम् । यथा विद्युत् । कृतकाश्च भावाः । हेतोरुत्पद्यमानत्वं हि कृतकत्वम् । तच्च विनश्वरत्वस्वभावनियतमेव । स्वहेतुभ्यो हि भावाः समुत्पद्यमाना विनाशस्वभावनियता एवोत्पद्यन्ते । ततः शिंशपात्ववृक्षत्वयोरिव कृतकत्वक्षणिकत्वयोस्तादास्यसिद्धिः । तथाहि शाखादिमद्विशेष एव शिशपेति यथेयं कचि १५ द्भवन्ती नाशिंशपा स्यात् । अथाशिंशपा स्यात्तदा तस्याः स्वरूपाप्रसिद्धेर्न शाखादिमद्विशेषरूपा सेति शाखादिमत्त्वस्यैव वृक्षत्वात् सिद्धमेव तत्र वृक्षत्वम् । तथा कृतकत्वमपि भूत्वैवाभवनात्मकत्वक्षाणकत्वैकात्मकमिति । यत्र कृतकत्वमस्ति तत्र यथा तदस्ति तथा तदात्मकं क्षणिकत्वमपि । तदाह शङ्करनन्दनः ।
1
' कारणाद्भवतोऽर्थस्य नश्वरस्यैव भावतः । स्वभावः कृतकत्वस्य भावस्य क्षणभङ्गिता ।। न च हेतुसामर्थ्यप्रभवत्वाविशेषेऽपि केचित् क्षणिकाः केचिदक्षणिका भावाः संभविष्यन्तीत्यभिधेयम् । कारणसामर्थ्यभेदात्पावकादिवत् । न वै पावकोत्पादककारणकलापः कश्चित् प्रकाशोष्णस्पर्शरहितं पावकमुत्पादयति कश्चित् तद्विपरीतमिति तत्सामर्थ्यभेदः प्रतीति
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[ परि. ५ सू. ८
गोचरो येनात्रापि क्षणिकाक्षणिकस्वभावभावोत्पादकत्वेन कारणानी सामर्थ्ये भेदः कल्पयेत् । ननु विनशनशीलत्वेऽपि भावानां यदैव वेगवन्मुद्गराद्युपनिपातस्तदैव विनाशो भविष्यतीति चेत् । तदसुन्दरम् । विनश्वरस्यापि प्रतिक्षणमविनाशे मुद्ररादिसंनिधानकालेऽप्यविशेषतो ५ नाशानुपपत्तेः । नहि प्रकाशस्य प्रतिक्षणमप्रकाशतायां कालान्तरे प्रकाशतोपलब्धा । अन्ते च भावानां नाशोपलम्भान्नाशित्वेऽभ्युपगम्यमाने प्रकाशस्य प्रकाशकत्ववत् सिद्धः स्वरूपमात्रानुरोधी विनाशो निर्विलम्बमादावप्यविशेषात् । अपि च । शतसहस्रक्षणस्थितिस्वभावो • भावः प्रथमक्षणे जातो द्वितीयादिक्षणे तथैवास्ते न वा । तथैवास्ते चेत् १० तदान्त्यक्षणेऽप्यस्य तथैवास्तित्वप्रसंगात् न कदाचिद्विनाशः स्यात् । तत्र तत्स्वभावत्यागे वा सिद्धं क्षणिकत्वम् । प्रतिक्षणं स्वभावभेदलक्षणत्वात्तस्य । किंच । वेगवन्मुद्ररादिनाशहेतुर्विनश्वरं वा भावं नाशयति, अविनश्वरं वा । तत्राविनश्वरस्य विनाशे हेतुशतोपनिपातेऽपि नाशानुपपत्तिः । स्वमावस्य गीर्वाणप्रभुणापि अन्यथा कर्तुमशक्यत्वात् । नश्वरस्य च नाशे १५ तद्धेतूनां वैयर्थ्यम् । नहि स्वहेतुभ्य एवावाप्तस्वभावे भावान्तरव्यापारः फलवान् । तदनुपरतिप्रसक्तेः । अपि च भावात् पृथग्भूतो नाशो नाशहेतुभ्यः स्यादपृथग्भूतो वा । यद्य पृथग्भूतस्तदा भाव एव तद्धेतुभिः कृतः स्यात् । तस्य च स्वहेतोरेवोत्पत्तेः । कृतस्य करणा-योगात् तदेव तद्धेतुवैयर्थ्यम् । अथ भिन्नस्तदासौ भावसमकाली - २० तदुत्तरकालभावी वा स्यात् । तत्र सहभावित्वे समकालमेव भावाभावयोरुपलम्भः स्यात् | अविरोधात् । तदुत्तरकालमा चित्वे तु घटादेः किमायातम् । येनासौ स्वोपलम्भं स्वार्थक्रियां च न कुर्यात् । नहि तन्त्वादेः समुत्पन्ने पटे घटः स्वोपलम्भं स्वार्थक्रियां च कुर्वन् केन - चित्प्रतिषेद्धुं शक्यः । ननु पटस्याविरोधित्वात्तदुत्पत्तौ घटस्य न स्वोप२५ लम्भस्वार्थक्रियाकारित्वाभावः । अभावस्य तु तद्विपर्ययादसौ स्यात् ।
१. इन्द्रेणापि ।
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः
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परि. ५ सू. ८] स्याद्वादरत्नाकरसहितः ननु किमिदं विरोधित्वं नाम नाशकलं नाशस्वरूपत्वं वा । नाशकत्वं चेत्तर्हि मुद्रादिवन्नाशोत्पत्तिद्वारेणानेन घटादिरुन्मूलयितव्यः । तथा च तत्रापि नाशेऽयमेव पर्यनुयोग इत्यनवस्था । नाशस्वरूपं चेत् । नत्येवम् । अर्थान्तरत्वाविशेषात् । कथं तु तस्यैवासौ स्यात् अन्यस्यापि कम्मानोच्यते ! किंच । अयमवस्तुरूपः स्यात् वस्तुरूपो वा । तत्रावस्तुरूपत्वे नास्य कार्यत्वधर्माधारता परोन्मूलनलक्षणार्थक्रियाकारिता च युक्ता । वस्तुरूपतापत्तेः । वस्तुनो हि कारणसामग्रीतो भावोऽथक्रियाकारित्वं च स्वरूपम् । अभावोऽपि चेत्तत उत्पघेत परोन्मूलनलक्षणां चार्थक्रियां कुर्यात् तदा कोऽस्यातो विशेषः स्यात् । वस्तुरूपत्वे तु घटादेस्न्यः कपालादिरेव तदा भावस्तस्य च १० सहेतुकत्वं केन प्रतिषिध्यते । मुद्रादीनां विसदृशसंतानोत्पत्तौ व्यापारस्यास्माभिरभ्युपगमात् । घटादयस्तु स्वोत्पत्तिक्षणानन्तरमवस्थानशीला: स्वकारणादेव संजाता न कालान्तरमनुवर्तन्ते । तत: सिद्धं तेषां कृतकत्वेन क्षणिकत्वम् । ये यद्भावं प्रत्यनपेक्षास्ते तद्भावनियताः । यथान्त्या कारणसामग्री स्वकार्योत्पादनं प्रति । विनाशं प्रत्यनपेक्षाश्च १५ सर्ने भावा इत्यतोऽप्यनुमानादुदयानन्तरमस्थायित्वं भावानामिति ।
नैवमेष यदुपैति संगति नाशहेतुरिह कश्चिदप्यतः । वस्तुजातमखिलं क्षणक्षयि प्रोक्तहेतुवशतः प्रसिध्यति ॥ ५९६ ।। अहो समस्तेप्वपि पक्षपातेप्वयं महीयान् मतपक्षपातः । व्यपैति नाद्यापि यदस्य भिक्षोः क्षणक्षयकान्तसमर्थनाशः ।।५९७॥ २० तत्र यदुक्तं ' हेतोरुत्पद्यमानत्वं हि कृतकत्वमिति तत् क्षणक्षयैकान्तकदाग्रहग्रहिलैर्यथा न प्रत्येतुं शक्यम्, यथा च तत्र तन्न घटनामियति कथंचिदक्षणिकवस्त्वविनाभूतत्वात् । तथा सत्त्वहेतोरर्थक्रियासामर्थ्यस्वरूपस्यासिद्धताविरुद्धताभिधानसमये सविस्तरमुपदर्शितमित्यसिद्धं विरुद्धं च । न च कृतकेन सता क्षणानन्तरमेव नष्टव्यमिति २५ नियमोऽस्ति । कृतकं च स्यात् कालान्तरे च नश्येद् विरोधाभावादिति
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः
[ परि. ५ सू. ८
I
संदिग्धानैकान्तिकं च तत् । ननु स्वहेतुभ्यो भावाः समुत्पद्यमाना विनाशस्वभावनियता एवोत्पद्यन्त इत्युक्तं विनाशस्वभाव नैयत्येन भावानां कथमपि कालान्तरानुसरणव्यसनासंभवात् कथमनैकान्तिकताशङ्कापि । उक्तमेतत् । किं तूक्तिमात्रमेव । तथाहि - विनाश५ स्वभावनियता इति कोऽर्थः । किं विनाशे कर्तव्ये स्वभावेन स्वसतया नियता इति, किंवा विनाशस्वभावे विनाशरूपतायां नियतास्त इति । आद्यकल्पनायां विनाशस्य सहेतुकत्वप्रसक्तिः । पदार्थसत्ताया एव तद्धेतुकत्वात् । अथास्तु वस्तुसत्ता हेतुकत्वेन तस्य सहेतुकत्वं, तथापि क्षणिकत्वमप्रतिक्षेपणीयम् । वस्तुसत्ताहेतुकत्वे हि नाशस्य १० तत्सत्ताक्षणसमनन्तरं भावात् कथं क्षणिकत्वप्रतिक्षेपः । नन्वसौ नाशो वस्तुसत्ताकार्यः सन् यदि सदैव तथैवावतिष्ठते तदा कृतकत्वहेतोस्तेनैव व्यभिचारः । अथैतेन व्यभिचारोच्चारणमचारु | न किंचिद्रूपत्वादस्येति चेत् । अचतुरस्रमेतत् । वस्तुनिर्वर्तनीयतया तस्य न किंचिद्रूपताविरोधात् । अथ नाशोऽपि क्षणिकः कक्षीक्रियते १५ तर्हि नाशस्य नाशे द्वितीयक्षणे भावोन्मज्जनापतिः । अथ विनाशस्वभावे विनाशरूपतायां नियता भावा इति पक्ष: । सोऽपि न क्षमः । भावानां विनाशस्वभावताया असंभवात् ॥ प्रतिषेध्यप्रतिषेधयोरेकत्वस्यानुपपत्तेः । उपपत्तौ वा विश्वस्य वैश्वरूप्यानुपपत्तिः । ननु कालान्तरेऽर्थक्रियां प्रत्यशक्तिरेवास्य २० नास्तिता । सा च कालान्तरेऽसमर्थस्वभावत्वमिति चेत् । ननु यदि भावाभिन्ना सती कालान्तरानुषङ्गिण्यस्य नास्तिता तदा नूनमनक्षरमिदमुक्तं यदयमेव भावः कालान्तरानुषङ्गीति । अथ स्वकाल -- वत्कालान्तरेऽस्य नास्तिता नानुषज्यते तर्हि नास्तिताविरोधिनोऽस्तित्वस्य प्रसंग ः । अथ कालान्तरेऽशक्तत्वात् कथं तस्यास्तित्वानु-२५ षङ्गः । शक्तेः सत्तालक्षणत्वादिति चेत् । नतु कालान्तरकार्यं प्रत्यशक्तिरसत्त्वम्, किंवा स्वकार्यमपि प्रति कालान्तरेऽशक्तिरसत्त्वम् ।
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परि. ५ सू. ८] स्याद्वादरत्नाकरसहितः प्रथमकल्पनायां स्वकालेऽप्यसत्त्वप्रसंगः । तदानीमपि तस्य कालान्तरकार्य प्रत्यशक्तत्वात् । कालान्तरकार्यापेक्षया तस्यासत्त्वमेवेति चेत् । किमयं मन्त्रपाठः । नहि यो यत्राशक्तः स तदपेक्षया नास्तीति व्यवन्हियते धूमं प्रत्यशक्तस्य रासभस्याभावव्यवहारे गोचरत्वप्रसंगात् । न खल्वशक्तस्य स्वरूपमपि निवर्तत इति । स्वकार्यमपि प्रति काला- ५ न्तरेऽशक्तिरसत्त्वमिति पक्षे तु यदि कालान्तराधारेयमशक्तिस्तदा कथं तदात्मिका । अथ स्वकालाधारा तदा तदैवासत्त्वप्रसंगः । कालान्तरे तु तत्कालाधाराया अशक्तेरसत्त्वात् सत्त्वप्रसंगः । एवं च भावस्य संबन्धी विधिरात्मा प्रतिषेधः पुनरतोऽन्यः । सोऽपि च पदार्थात्मेति त्वदनुवाददशायामपि प्रतिपादयन्तस्त्रपामहे । ततो विना- १० शरूपतायां नैयत्यमपि न विनाशस्वभावनियतता संगतेत्यनैकान्तिकमेव कृतकत्वमिति । एतेन शङ्करनन्दनोक्तकारिकां यावदुक्तमपास्तम् । यदपि शङ्करनन्दन एव व्याकरोति ।
'नहि स्वहेतुजो नाशो नाशिनां नश्वरात्मता ।
नाशायैषां भवन्तस्ते भूत्वैव न भवन्ति तत् ॥ नाशिनां नश्वरात्मतैव नाशार्थो नतु विनाशहेतुजो विनाशो नाशार्थस्ततो यथा भावविशेषः स्वहेतोघंटात्मको भवन् घट एव भवति घटजनकाद् भावादघटात्मताया असंभवात् तथा विनश्वरो भवन् विनश्वर एव भवति । भूत्वैव समनन्तरं नाशात् । नान्यथा नश्वरः स्यात् । नश्वरात्मतयात्मलाभसमनन्तरनाशितैव क्षणिकत्वम्' २० इति । तत्रोच्यते । कीदृक्षा नश्वरात्मतेह विवक्षिता किं वेगोद्दण्डदण्डादिसंनिपाते प्रणशनशीलता, किं वा स्वयमेव । पौरस्त्य .... .... .... नुत्पादः सिध्यति । अनन्तास्तु विनाशहेतवोऽनियतकालाश्च तेषां सर्वदा सर्वेषां प्रतिबन्धवैकल्ययोरसंभवात् । कश्चिदेको निपतत्येव कालान्तरे । स च निपततः क्षणेनैव भावं विनाशयतत्युिपपद्यते । २५ सापेक्षत्वेऽपि ध्रुवो नाशः । तथा च त्रिलोचनः प्रकीर्णके।
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. ५ स. ८ ' सर्वेषां नाशहेतूनां वैकल्यप्रतिबन्धयोः ।
सर्वदाऽसंभवान्नाशः सापेक्षोऽपि ध्रुवत्वभाक् ।। एवं च ध्रुवभावित्वस्यानपेक्षत्वावष्टम्भस्तम्भस्य भग्नत्वान्नाशस्यानपेक्षत्वमसिद्धम् । किं च । अत्र कोऽयं नाशोऽनपेक्षतया ५ विवक्षितः । किं विनश्यतीति विनाशोऽनवस्थायिभावस्वभावः पर्यु.
दासप्रतिषेधरूपः । किं वा विनशनं विनाशोऽभावमात्र प्रसज्यत्रतिषेधरूपम् । नाद्यः कल्पः । अनवस्थायिभावस्वभावस्याहेतुकत्वेन केनाप्यनभ्युपगतत्वेनासिद्धत्वात् । द्वितीयपक्षेऽपि प्रसज्यरूपो यद्ययमहेतुस्तदा सदा सत्त्वमसत्त्वं वा स्यात् व्योमवद् व्योमाम्बुरुहवच्च । तथा च प्रथमपक्षे भावाभावयोर्यदि विरोधस्तदा कदाचिद् भावोपलम्भो न भवेत् । अथाविरोधस्तयोस्तदा भावाभावयोः सद्भावस्निग्धवान्धवयोरिख युगपदेकत्वावस्थानं स्यात् । द्वितीयपक्षेऽपि समस्तवस्तूनां शाश्वतिकताप्रसक्तिः स्वविरोधिनो
नाशस्य सदैवासत्त्वात् । ननु नास्माकं भावस्य किंचिद् भवति १५ केवलमेकक्षणायुः स्वकारणादुत्पन्नः क्षणान्तरे स एव न भवति ।
तथाच रहस्यम्-न तस्य किंचिद् भवति न भवत्येव केवलम् । इति ! अहो चिराय सुहृदा स्वरहस्योपदर्शनेनानन्दिताः स्मः । परमिदमपि समसूक्ष्मदृष्टिभूत्वा परिभावयित्वायुष्मान् भवतात् । अनन्तरभवनं भवत् तावत् कदाचित्कतयोत्पत्तिमदिति देवेनापि दुर्वारम् । अत एव चाभवनस्य विनाशितया भवनोन्मज्जनं प्रसज्यमानं प्रतिषेधयितुं त्वया कथं शक्यम् । अथ न भवतीति भवनक्रियाप्रतिषेधमात्रमहेतुकमेतत् तत्कथमस्य कादाचित्कत्वं स्यादिति चेत् । उच्यते । भवनस्य कादाचित्क
१' प्रसज्य प्रतिषेधो हि क्रियया सह यत्र नम् ।
पर्युदासः स विज्ञेयो यत्रोत्तरपदेन नन् ।' इति प्रसज्यप्रतिषेधस्य पर्युदासस्य च लक्षणम् । असूर्यपश्या राजदारा इति प्रसज्यप्रतिषेधस्योदाहरणम्। अब्राझणमानयति पुर्युदासस्योदाहरणम् ॥
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परि. ५ सू. ८] स्याद्वादरत्नाकरसहितः तया तत्पूर्वकत्वेन तद्धेतुत्वोपपत्तेः । अन्यथा भवनेऽप्युत्पत्त्याधभावस्त. स्याप्यभवनक्रियाप्रतिषेधमात्रत्वात् । उभयत्र तदतिरिक्त क्रियाया अमावात् । किं च । नायं भवनक्रियाप्रतिषेधो ज्यायान् । विकल्पैरनुपपद्यमानत्वात् । स हि भवनस्वभावस्याभवनस्वभावस्य या क्रियेत । न तावद् भवनस्वभावस्य । अशक्यत्वात् । अन्यथा भवनस्वभावत्वविरोधात् । ५ अभवनस्वभावस्य भवनक्रियाप्रतिषेधे तु प्रयासवैयर्थम् । न हि अभवनम्वभावं भवनं भवितुमर्हति । अभवनस्वभावभवनप्रतिषेधे वा बलाद् भवनापत्तिः स्यात् । एवं च स एव न भवतीति वाङ्गात्रमेतत् । उक्तवदभवनायोगात् । शब्दानुपपत्तेश्च । तथाहिस एवेति भवनस्वभाव भावं परामृश्य न भवतीत्यभिदधतः शब्दार्थ- १० विरोधः प्रकटः । यदा न भवति न तदा भवनस्वभाव इति चेत् । एवं तर्हि अभवनस्वभावः स न भवतीति प्राप्तम् । ततश्च स एवेति क्षीणा वाचोयुक्तिः । ताक्षणभवनस्वभाव एवेति चेत् कथं द्वितीयक्षणे न भवति । एकक्षणभवनस्वभाव इति चेत् । किमेतावता । नहि द्वितीयक्षणोऽपि नैकः । तदेकक्षणभवनस्वभाव इति चेत् । १५ कोऽयं भवनातिरेकेण क्षणो नाम, यत उच्येत तदेकक्षणभवनस्वभाव इति । अतिरिक्तक्षणसद्भावे हि क्षणस्याक्षणिकत्वं स्यात् । तदैव तदपरक्षणाभावात् । भावे त्वनवस्थापत्तिः । तस्यापि भिन्नत्वेनावश्यमपरक्षणादित्यतिरिक्तक्षणापेक्ष्यनिबन्धनाभावादसदेतत् 'तदेक्षण' इत्यादि । एवं चाविशिष्टभवनानन्तरमभवनमिति प्राप्तम् । तथा च सति क्षणि- २० कत्वेऽप्यनिश्चयः । भवनकादाचित्कतया त्वभवनोत्पत्तिः, तन्नाशोत्तरं भवनोन्मजनं चापहृतमेव । उक्तनीतेस्तदवस्थत्वात् । न नश्वरमभवनं तुच्छत्वादिति चेत् । भवनेऽप्यतुच्छतया समानमेतत् । न समानम् । तस्याभवनाविरोधादिति चेत् । अभवनस्य भवने को नाम विरोधः । नीरूपस्य सरूपत्वासंभव इति चेत् । २५ सरूपस्य कथं नीरूपतासंभव इति वाच्यम् । स्वहेतोस्तत्स्वभाव
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प्रमाणनयतत्त्वा लोकालङ्कारः
[ परि. ५ सू. ८ भावादिति चेत् | अभवनस्यैवस्वभावभवने को दोषः । हेत्वभावनिःस्वभावते इति चेन्न । तद्भबनस्यैवाभावनहेतुत्वात् तद्भावभावित्वात् । कस्तुच्छस्य भाव इति चेत् । भावाभवनमेवेति ब्रूमः । एतदेव भावभवनं यद्भावाभवनमिति । एवं च तुच्छतया तद्भावसिद्धिः । ५ अन्यथा भवननाशायोगादिति । नापि निःस्वभावता । तस्य तुच्छ - तया ज्ञेयस्वभावत्वात् । अन्यथा तज्ज्ञानानुपपत्त्या तदेव न भवतीत्यज्ञातोक्तिप्रसक्तिः । भवनज्ञानेनाभवनाज्ञानात् । भवनस्य भिन्नकालत्वेनाभावस्वरूपत्वात् । अथ तस्यैव क्षणादूर्ध्वमभवनस्वभावत्वात् प्रत्यक्षेण च तथैव ग्रहणाद्यर्थार्थं तत्प्रवृत्तेरभव न ज्ञानोपपत्ते१० रुक्तदोषाभाव इति चेत् । न । विहितोत्तरत्वाद् भवनस्य भिन्नकालत्वेनेत्यादिना । अन्यथा त्वभवनानुपपत्तिरेव । तथाहि तत्कालभाविभवनादभिन्नमभवनं यदीष्टं तर्हि भवनमेवैतदिति कथमभवनोपपत्तिः । किं च । नास्य भाविनो नीरूपस्य चेन्द्रियेण ग्रहणमुपपद्यते । अतिप्रसंगात् । तथा न प्रत्यक्षेण कचिद् भवनवदभवनस्य ग्रहः । तथा १५ निश्चयाभावात् । न च निरंशानुभवभावेऽपि विभ्रमात्तदभाव इति भाषणीयम् । भवननिश्चयस्याप्यभावापत्तेः । न च भवननिश्चयनिबन्धनानुभवे भ्रान्तिर्नास्तीति वाच्यम् । अभवननिश्चयनिबन्धनानुभवस्यैव भवननिबन्धनत्वात् । न चैकस्यैव कचिद् विभ्रमः । कचिन्नेति युक्तम् । एकत्वविरोधात् । न चान्तेऽभवननिश्चयात्पूर्वमपि तद्गतिः । अस्य २० पूर्वं सविस्तरमपास्तत्वादिति । एवं च स्वगृहे मङ्गलगानमेतत् 'न भवत्येव केवलम् ' इति । अपि चास्मिन्नुच्यमाने नष्टशब्दस्य कश्चिदर्थोऽस्ति न वा । नास्ति चेत् किमनेनोक्तेन । अस्ति चेत् किं. सत्त्वाद्भिन्नोऽभिन्नो वा । भेदपक्षो न युक्तः । भावातिरिक्ताभावानभ्युपगमात् । अथाभिन्नस्तदास्तिनास्तिशब्दयोः पर्यायता तह्रुद्धयोचैकता स्यात् । तथा च क्षणक्षयिणो भावा, निरन्बयनाशो, न भवत्येव केवलम् इत्यादिशब्दानां सत्त्वातिरिक्तार्थानाभिधायित्वादुच्चा
२५
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___७९१
परि. ५ सू. ८] स्याद्वादरत्नाकरसहितः रणवैयर्थ्यम् । एवं च विनाशस्य कस्यचिद्रौद्धानामसिद्धेः 'ये यद्भावम् ' इत्यत्राप्रसिद्धविशेषणः पक्ष इति तस्मादतोऽपि नो हेतोः .....
___ अथास्तु संयोगादिरतिशयः किं त्वेकान्तव्यतिरिक्तस्यैतस्योत्पादे पदार्थस्य कथंचिदप्यनुपपत्तेः कथं न स्थिरतास्थितिरिति चेत् । नैवम्। ५ तद्धमत्वान्यथानुपपत्त्या तस्यैकान्तव्यतिरेकासिद्धेः । किं च । यदि कञ्चन विशेषमकुर्वाणोऽपि सहकारी स्वीक्रियते तदा समस्तवस्तूनां समस्तसहकारिताप्रसक्तिः । विशेषाकरणेन निःशेषाणामविशेषादिति । न विशेषविधानं विना सहकारी कश्चिदुपपद्यते । स्यान्मतम् । एवंभूत एव भावस्य स्वभावो येन विशेषाकारकमपि प्रतिनियतमेव सह- १० कारिणमपेक्ष्य कार्य जनयतीति । एषापि कदाशा | विकल्पैरनुपपद्यमानत्वात् । तथाहि-यदाऽभीष्टसहकारिसंनिधौ कार्यमसौ समुत्पादयति तदैतस्य प्राचीनोऽकिंचित्करः सहकारिकलायापेक्षालक्षणः स्वभावो व्यावर्तते न वा । यदि व्यावर्तते तदा कथं कथंचिदस्थैर्यप्रतिक्षेपः । स्वभावव्यावृत्तौ स्वभाविनोऽपि तदव्यतिरेकेण तद्वदेव व्यावृत्तेः । अथ न १५ व्यावर्तते कथं तर्हि कर्हि चित्कार्योत्पत्तिः स्यात् । अकिञ्चित्करसहकार्यपेक्षालक्षणस्वभावस्याच्यावृत्तेः पूर्ववत् । तथाहि-य एव तस्य कार्याजननकाले स्वभावः स एव तज्जननकालेऽपि । एवं च यद्यसौ पूर्वं तन्नाजीजनत् पश्चादपि माजीजनत् । अथ पश्चाजनयति तदा पूर्वमपि जनयतु नतु प्रभोरिव स्वैराचारोऽस्य युक्तः । अथाचक्षीत, २० विवक्षितसहकारिणा सह जननस्वभावत्वात् तद्भावेऽसौ तदा तज्जनयति । न पूर्वमपि तदभावादिति । एतदप्यायातपेशलम् । यस्माद्विवक्षितसहकारिणा सह तस्य तज्जननस्वभावत्वमपि यदस्थिरैकरूपं तदा सदैव तत्कार्यमर्जयन्नयं न मुनिशापेनापि प्रतिहन्तुं शक्यः । अन्यथा कथमधिकृतस्वभावस्य स्थैर्य स्यात् । तथाहि- यदि यावदायुरप्यसौ २५ तेन सहकारिणा साकं तत्कार्यजननस्वभावस्तर्हि तत्स्वभावशृङ्खलतया
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः परि. ५ सू. ८. तत्सहकारिणोऽप्यवश्यमाकर्षणीयत्वेन सदैव सत्त्वात् किमिति सदैव तन्नोत्पादयेत् । अनुत्पादयन्वा कथं तत्स्वभाव इति । ततश्च यदैवास्य तत्कार्थमुन्मज्जति तदैवानेन साधमेव तजननस्वभावो न पुन
रन्यदेति सन्यायरणस्तम्भः । एवं च स्वभावभेदे कथं स्थिरता स्यात्। ५ अथोच्यते स्थिरभावस्य स्वभावभेद इति कथापि प्रायश्चित्ताय । तस्य
तथा चित्रसहकारियोगादनेककार्थसाधकत्वेन यावज्जीवमेकस्वभावत्वात् । तथाहि-यावत्सत्त्वमेवंविधैकस्वभाव एवायं भावो येन तस्मादेव तत्तसहकारिसम्पर्क एव तत्रैव तत्रैव काले तस्यैव तस्यैव कार्यस्यावि
भर्भावः । तथा च सति अनन्तरोदितस्वभावाव्यावृत्तावपि न पूर्ववत् १० कार्यस्याभावः । तस्य सहकारिणस्तदैव भावात् । न च पूर्वमपि
कार्यस्य भावः । तत्सहकारिण एवाभावात् । न चाधिकृतकार्योत्पादेऽ. प्यनन्तरोदितस्वभावव्यावृत्तिर्भावस्य । तस्य तथास्वभावत्वात् । न च कृतकार्यस्यैव पुनः करणम् । तम्य तथास्वभावत्वादेव । अथ किमिदं
लीलाविलासचेष्टितमस्य भावस्य । समचिन्त्योऽपर्यनुयोगार्हश्च स्वभावो १५ भावानां किमत्र कुर्म इति । अहो मोहमहोपाध्यायप्रागल्भ्यं यदेवंवि
धानप्येवं नर्तयति । तस्मात् स्वभावादुत्पादेऽपि कार्यस्य न तत्कार्यनिबन्धनस्य तम्य व्यावृत्तिः । तथैव तत्स्वभावस्य सद्भावेऽपि न पुनस्तस्यैव कार्यस्य करणमिति हि कः स्वस्थः श्रद्दधीतापि । तथाहि
यदि तावत् तत्स्वभावम्याव्यावृत्तिः कथमकरणं नाम । तच्चेत् कथम. २०
व्यावृत्तिः । यदैव हि तदनेनोदपादि पुनश्च न करिप्यते । तदैवास्य तत्करणस्वभावस्तदकरणस्वभावेन व्यपनीतः पाण्डित्येनेव जाइयम् । अन्यथा तत्करणस्वभावस्य भावेन हठाद् विवक्षित कार्यप्रसंगः । नहि दहनो दहनस्वभावे नैश्चयिकेऽनपगते न दहति । स्वभावापगमे वा नियतं कथंचिदस्थैर्यम् । अतादवस्थ्यस्यैवास्थैर्यात् । अथोच्यते यथा २५
दहनैकस्वभावोऽपि पावको दग्धदारूणि न दहति दुग्धत्वात् । तेषामितराणि तु तानि दहति अदग्धत्वात् । एवं कालभेदेऽप्येकस्वभावो
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परि. ५सू. ८ ]
स्याद्वादरत्नाकरसहितः
भावस्तत्कार्यं करोति न करोति चेत् किमसमञ्जसं समञ्जसमपि किंचित् । दृष्टान्तेऽप्येकस्वभावत्वानुपपत्तेः । न खलु सर्वथा स्वभावभेदमन्तरेण दहनो दहति न दहति चेत्युपपद्यते यतो दाष्टन्तिकसिद्धिः स्यात् । इत्येवं नास्यानेककार्यकारिणो यावत्सत्त्वमेकस्वभावत्वं सत्यतामनुभवति । तदभावे च नैकान्तस्थिरतापि । एवं च प्रतीयमानमतिश ५. यमकुर्वन्तोऽपि सहकारिणः स्वीकृत : । न च सर्वथा स्थिरत्वं साधयितुं शक्तिमिति ' कृतः शीलविध्वंसों न चानङ्गः शमं गतः ' इति न्यायभाजनतां गतोऽसि । तस्माद् वरं प्रतीयमानातिशयाधायकत्वेनैव सहकारित्वं स्वीकृतम् । तत्र च सिद्धसाध्यत्वमुक्तमेव । तावपि -विवादाध्यासितबीजस्य तदुत्पत्तिनिश्चयविषयीभूतबजिन सजातीयत्वं १० सर्वथाभिप्रेतं कथंचिद्वा । प्रथमकल्पनायां प्रतिवाद्यसिद्धिः । जनयद्रूपाजनयद्रूपविसदृशपरिणामपरिणतयोः सर्वथा सदृशपरिणामानुपपत्त्या सर्वथा सजातीयत्वेन जैनैरनभ्युपगमात् । आस्तां वा सर्वथा सजातीयत्वं तस्य । तथापि सहकारिमध्यमध्यासीनेन बीजेन किंचित्कालमकुरमकुर्वता व्यभिचारी हेतुः । सत्यपि तत्र तज्जातीयत्वेऽङ्कुरादिकार्य. १५ वैकल्यप्रयुक्तत्वासंभवात् । सहकारिसाकल्यस्यैव तदानीं सद्भावात् । अथ यत्संनिधानादनन्तरमेव कार्यमुपजायते त एव सहकारिणो न पूर्वकालभाविनोऽपीति चेत् । नन्वेवं वदन्तः सौगता एव शोभन्ते येषां पूर्वापरकालयोस्तेषां भेदः । भवतां तु य एवाद्यक्षणे संनिधिभाजो बभूवुस्त एवाङ्कुरोपजनसमयेऽपीत्युभयदशायां सहकारितास्तु २० यद्वा मा भूत् । कदाचिदपि संनिधानादेर्विशेषस्योभयदशायामप्यन्यूनातिरिक्तत्वात् । अथ पूर्वकालभाविनस्तेऽन्ये चोत्तरकालिकास्तर्हि - बीजमपि तदन्यत् चौत्तरकालिकमिति किं न स्यात् । अथेष्यत एव तेजः संपर्कात् प्रनष्टं तद् बीजमन्यदेव पाकजरूप्रादिपरिगतपरमाणुभिरारब्धमङ्करोत्पादकमिति चेत् । उत्तिष्ठ तर्हि व्रज सभ जातोऽसि २५:
१ लौकिकन्यायः । अनङ्गः कामः
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः
[परि. ५ सू.८
बीजस्यैवं स्थिरत्वोपपादनेन कृतार्थः । किंच । यदि पौर्वकालिकाः क्षित्यादयो नाङ्कुरकरणे सहकारिणस्तर्हि किमिति कृषीबलस्तान् बीजस्य संनिधापयति । क्रमेण तस्यातिशयपरम्परोपजननायेति चेत् । तार्ह सिद्धं कथंचिदस्थिरत्वं बीजस्य । अतिशयपरम्परायाः कथंचित्ततोऽव्यतिरिक्तत्वात् । अपि चैवं शिलाशकलस्वरूपव्यतिरेकोदाहरणस्य कथं न साध्यव्यावृत्तता । यदि हि तत्र सहकारिसाकल्ये सत्यपि स्वरूपसामर्थ्याभावमात्राप्रयुक्त कार्यवैकल्यमुपदर्शितं स्यात्तदा स्यात्तस्मात् साध्यव्यावृत्तिः । यावता त्वदभिप्रायेण तत्र न सहकारिसाकल्य कदाचिदस्ति । यत्संनिधानादनन्तरमेव कार्यमुपजायते तस्यैव सहकारितया त्वया प्रतिपादितत्वात् । शिलाशकलादेश्च क्षित्यादिसनिधानेऽपि कदाचिदङ्कुरानुत्पत्तेः । अथ सन्तु सहकारिणस्ते किंतु न शकलाः संपर्किणस्तदानीमभूवन्निति । तत्साकल्यासिध्या न सहकारिमध्यमध्यासीनेन बीजेन कंचित्कालमङ्कुरमकुर्वता व्यभिचार
इति चेत् । ननु किं नाम न संनिहितं तत्र क्षेत्रजलादेः सकलस्य १५ मिलितस्य दर्शनात् । अथ न मिलितमद्यापि प्राणिनामदृष्टमिति
चेत् । नैवम् । यत्र हि अदृष्टस्य दृष्टकारणोपहारेणोपयोगस्तत्र तेषां पूर्णतायां कार्यमुपजायते एव । अन्यथा त्वन्मतेऽन्त्यतन्तुसंयोगेऽपि कदाचित्पटो न जायेत । जातोऽपि वा कदाचिन्निर्गुणः स्यात् । बलवता कुलालेन दृढनुन्नमपि चक्र कदाचिन्न भ्राम्येत् तथाविधादृष्टवैगुण्यादित्यपि स्यात् । यत्र तु दृष्टकारणानुपहारेणैवादृष्टस्य व्यापारस्तत्र तद्वैगुण्यात्कार्यस्यानुदयो यथा त्वन्मत एव परमाणुकर्मणा । तदिहापि यदि जलादीनि दृष्टकारणानि सकलानि मिलितानि किमदृष्टं न मिलितं नाम । तत्प्रयुक्तत्वातन्मेलकस्य । अतः कथं साक
ल्यमसिद्धं तत्र | अस्माकं तु सहकारिसाकल्ये सत्यपि तदानी २५ पर्यायस्वरूपसामर्थ्यस्याभावान्नाङ्कुरोत्पादः । उपढौकिते तु तत्सा
कल्येन तस्मिन्नुच्छ्नोच्छूनतरोच्छूनतमादिक्रमेणावश्यमन्त्यक्षणे कार्यो
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परि. ५ सं. ८] स्याद्वादरत्नाकरसहितः पजनः स्यादेव । इति कथंचित्पुनस्तस्य तदुत्पत्तिनिश्चयविषयीभूतबीजजातीयत्वे तदुत्पत्तिनिश्चयेत्यादिहेतुविशेषणस्य वैयर्थ्यम् । यत एतद्विशेषणोपादानेऽपि कथंचित् तज्जातीयत्वविवक्षायां बीजत्वमात्रेणैव सजातीयत्वमीप्सितमायुष्मतः । तच्च बीजजातीयत्वादित्येतावतैव कृतार्थ किमर्थं तद्विशेषणोपन्यासः । यद्प्यवादि 'विवादाध्यासितो ५ भावः ' इत्यादि । तत्र कथंचिद्भेदाभावे साध्ये सिद्धसाध्यता । कालभेदेऽपि तस्याभिन्नत्वेनास्माभिरपि स्वीकारात् । द्रव्यरूपतया तस्यैव भावस्यावस्थानात् । सर्वथा भेदाभावे तु साध्येऽनुमानबाधः । तथाहि-विवादाध्यासितो भावः कालभेदे कथंचिद् भिद्यते । स्वात्मभूतधर्मनिवृत्त्युत्पत्तिमत्त्वान्यथानुपपत्तेः । यदेव हि कुशूलमूलावलम्बिबीजं १० स्वात्मभूताजनयद्रूपधर्मधाम समासीत् तदेवेदानी क्षितिजलानलादिसामग्रीसंपर्कात् तथाविधतद्धर्मोपमर्दैन स्वात्मभूतां जनयद्रुपतामाकलयति । न च धर्मस्य भावात्मभूतत्वमसिद्धमभिधानीयम् । अस्य प्रसाधयिष्यमाणत्वात्। विरुद्धधर्मासंसृष्टत्वलक्षणहेतुरपि कथंचिच्चेदुच्यते तदा विरुद्धतामधिरोहति । तथाहि-सर्वथा भावस्याभेदप्रसिध्द्यर्थमयमुपाददे । अथवा- १५ ऽस्मात् सर्वथा भेदविरुद्धः कथंचिद्धेद एव प्रसिध्यतीति । सर्वथायक्षे त्वसिद्धः। विवादास्पदीभूतभावे जनयद्रूपाजनयद्रूपयोरेव विरुद्धयोधर्मयोः सद्भावात् । अथ न नः प्रयोगाप्रयोगमात्रेण विरोधः । अन्यथा बीजस्याकुररासमजनकत्वाजनकत्वापेक्षया भेदः स्यात् किंतु प्रकारभेदेन । यदा हि यजननं तदा तदजननं विरुद्धं न पुनरन्यदेति कथं कालभेदेन २० जनयद्रूपाजनयद्रूपवोर्विरुद्धत्वं भवेदिति चेत् । तदप्यचतुरस्रम् । अङ्कुरजनकत्वरासभाजनकत्वाभ्यां बीजस्य भिन्नत्वेनाभ्युपगमात् । ननु रासभापेक्षाजनकत्ववदनन्तपदार्थापेक्षाजनकत्वानामनन्तानां धर्माणां संभवेन तदात्मकबीजस्यापि तावद्वा भेदात् किमिदानी बीजमस्तु । तयुक्तम् । तत्तदनन्तधर्माविष्वग्भावपरिणतपदार्थविशेषस्यैव बीजत्वात् २५ न खल्वमी धर्माः सर्वथैव व्यतिरिक्ततनवो यतस्तदात्मा बीनाख्यो
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः
[ परि. ५ सु. ८
धर्मो न स्यात् । तत् सिद्धं बीजं कथंचिदनेकमेककालम् । तद्वदनेककालमपि । मा भूद्वा जनयद्रूपाजनयद्रूपयोर्विरुद्धत्वम् । तथापि नानयोस्ताव देवेनापि भेदोऽपोतुं पार्थते । सति चास्मिंस्तदात्मनो धर्मणोऽपि कथं न भेदो भवेत् । अन्यथा धर्माणां तद्धर्मितादात्म्यमपि न ५ स्यात् । एवं च भेदस्य भवदभिमतस्य विरुद्धधर्माध्यासेन व्यास्यसिद्धेरनैकान्तिकोऽयं व्यापकानुपलम्भः । दृष्टान्तोऽपि परमाणुरूपः साध्यसाधनविकलः प्रतिसंबन्धिपरमाणुसंबन्धनिबन्धनभिन्नस्वभावेभ्यः कथंचिदयाभिन्नत्वेन कथंचिद् भिन्नत्वात् । धर्माणां च कथंचिद् विरोधस्यामिहितत्वात् ।
यौगपुङ्गव तवैष सर्वथा स्थैर्यसाधनमनोरथद्रुमः ।
७९६
१०
दोषदुष्पवनपीडितस्ततः सत्यमापदफलत्व लाञ्छनम् ॥ ५९८ ॥ तदेवमेकान्तेनानित्यत्वं नित्यत्वं च न कस्यचित्प्रमाणस्य गोचरः नित्यानित्यत्वं तु वस्तुनो द्रव्यपर्यायोभयरूपत्वेनानुवृत्तव्यावृत्ताकार संवेदनग्राह्यत्वात् प्रत्यक्षसिद्धमेव । तथाहि - मृत्पिण्डशिवकस्थास कोशकुशूल१५ कलशकपालादिभेदेवविशेषेण सर्वत्र मृदन्वयः संवेद्यते प्रतिभेदं च व्यावृत्तिः । तथा च न यथाप्रतिभासं मृत्पिण्डादिषु संवेदनं तथाप्रतिभासमेव शिवकादिष्वाकारभेदानुभवात् । न च यथाप्रतिभासभेदं तद्विजातीयेषु पयः पावकपवनादिषु तथाप्रतिभासभेदमेव शिवकादिषु मृदन्वयानुभवात् । न चास्यानुभूयमानस्यापि संवेदनस्यापलापः कर्तुं पार्यते । २० सर्वापलापप्रसंगात् । न चास्य संवेदनस्य बाधकः प्रत्ययोऽस्ति । तस्य कदाचिदप्यनुपलब्धेः । तस्मादन्ययाविनाभूतो व्यतिरेको व्यतिरेकाविनाभूतश्चान्वय इति वस्तुस्वभावः । एवं च यत एव नित्यमत एवानित्यत्वं द्रव्यात्मना नित्यत्वात् तस्य चाभ्यन्तरीकृतपर्यायत्वात् । यत एवानित्यमत एवं नित्यं पर्यायात्मनाऽनित्यत्वात् तस्य चाभ्यन्तरी२५ कृतद्रव्यत्वात् । उभयरूपस्य चानुभवसिद्धत्वात् । एकान्तेनाभिन्नस्य भिन्नस्य चोभयस्याभावात् । तथा चोक्तम्- ' द्रव्यं पर्यायवियुतं पर्या
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१ एतदर्थिका गाथा संमतितर्क करणे प्रथमकाण्डे दृश्यते-' व् पज्जवविज्जुभं दव्वविउत्ता य पज्जवा नत्थि ' । इति ।
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परि. ५ स. ८ ]
स्याद्वादरत्नाकरसहितः
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या द्रव्यवर्जिताः । क कदा केन किंरूपा दृष्टा मानेन केन वा ॥' इति । तथा च तयोरभेदसिद्धौ तावत् प्रयोगः । विवक्षितद्रव्यपर्यायौ एक वस्तु, अशक्यविवेचनत्वान्यथानुपपत्तेः । पर्यायादवास्तवात् पृथग्भूतमेव द्रव्यं वास्तवमेकेषाम् । द्रव्यादवास्तवात् पृथाभूत एव पर्यायो वास्तवः परेषाम् । ततोऽसिद्धमशक्यविवेचनत्वमिति न मन्तव्यम् ! तदन्यतराभावेऽर्थे क्रियाया अनुपपत्तेः । न हि द्रव्यं केवलपरस्परविविक्तस्वरूपलक्षणत्वमपि द्रव्यपर्याययोर्भेदं साधयति । परस्परविविक्तस्वरूपलक्षणत्वं च स्याद् भेदश्च न स्याद् विरोधाभावात् । ततः संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिको हेतुरत्रेति नाशङ्कनीयन् । परस्परविविक्तस्वरूपलक्षणत्वेनापि भेदानभ्युपगमे नानात्वं दुर्घटं जगतः स्यादिति विपक्षे १० बाधकप्रमाणसद्भावात् । निश्चितव्यतिरेकत्वात्साधनस्य । अत्र भट्टचट्टः समाचष्टे-'यदि हि स्वभावतो न भेदो धर्मधर्मिगोः संख्यादिभेदादपि नैव भेदः । न हि पररूपाभिधमाना अपि संख्यादय आत्मभूतभेदं बाधितु समर्थः' इति । तत्रायं तावत् न सम्यक् परमतं वेत्ति तद्दषणाय प्रगल्भते चेति चित्रीयते नश्वेतः। न खलु नैयायिकैरिवा- १५ स्माभिः संख्यादय एकान्ते धर्मिणो भिन्ना अभ्युपेयन्ते । यतः पररूपा इत्याद्यभिधीयमानं शोभा बिभूयात् । किंतु कथंचिदभिन्ना अपि । कथंचिदभिन्नाश्च ते धर्मिणस्ते यदा परस्परं भियन्ते तदा धर्मिणमपि कथंचिद् भिन्दन्त्येव । अन्यथा तेषामपि भेदो न भवेत् । यदप्ययमेव प्राह- संख्याभेदस्तावदसमर्थ एकस्मिन्नपि द्रव्ये बहुत्वेन २० व्यवहारदर्शनात् । यथा गुरव' इति । तदप्यपर्वालोचितवचः । अनन्यसाधारणरूपज्ञानादिगुणानां प्राधान्यविवक्षया तत्र बहुत्वस्योपयत्तेः । यत्त्ववाह-' रूपादिनिमित्तत्वे हि गुरुरिति न कदाचिदेकवचनं स्यात् ' इति तदपि परिफल्गु । न खलु सर्वत्र गुणानां प्राधान्यविवक्षयैव शब्दाः प्रयुज्यन्ते । धर्मिप्राधान्यविवक्ष- २५ यापि तेषां प्रयुज्यमानत्वात् । ततो गुरुरित्यत्र धर्मिप्राधान्य
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. ५ स. ८ विवक्षयैकवचनं प्रयुज्यमानं कथं विरोधमध्यासीत् । किं च । यदि संख्याभेदो न भेदकस्तदैकत्रापि कुटे कुटकोटेः कुटकोटावप्येककुटस्य प्रतीतिः किं न स्यादिति प्रतिनियतव्यवहारविरामः प्रसज्येत । यापि दारा इत्यादिकतिपयशब्दकदम्बके बहुत्वसंख्या सापि शब्दशक्तिमाहात्म्यात् सदैव गुणानां प्राधान्यविविक्षया तच्छब्दानां प्रवृत्तेरविरुद्धैव । यत्तूच्यते 'संज्ञापि संकेतनिबन्धना स चेच्छायत्त. वृत्तिरिति कुतस्ततोऽर्थभेदः । एकस्मिन्नपि च संज्ञाभेददृष्टेः कथभस्य भेदनिमित्तता । यथेन्द्रः शक्रः पुरन्दर ' इति । तत्रेच्छा
यत्तवृत्तिः संकेत इति कुहेवाकमात्रम् ! संकेतस्य वस्तुनिष्ठतया १० प्रतिपादितत्वात् । इन्द्रशकादिसंज्ञाभेदोऽपि सर्वथैकस्वरूपे सुरपतौ
नास्माकं सिद्धो यतोऽनैकान्तिकः स्यात् । इन्दनशकनादिशक्तिकदम्बकात्मको हि शक्रस्तत्तच्छक्तिप्राधान्यविवक्षया तैम्तैर्वाचकैरुच्यते । डित्थडवित्थादिशब्दा अपि ततच्छब्दवाच्यतारूपां कांचिदभिधेयगतां
शकिमपेक्ष्य प्रयुज्यन्ते । ततश्च यदुच्यते 'येषां च पर्यायाणां न कदाचि१५ दर्थानुगममात्रा तत्र किं वक्तव्यम्' इति तदज्ञतामेवास्य सूचयतीति ।
यदपि प्रतिपाद्यते-लक्षगभेदोऽप्यहेतुरासद्धत्वात् । न ह्येको भावः क्वचिदप्यन्वयी सिद्धः' इत्यादि । तदपि नोपपन्नन् । यतोऽन्वयित्वं सहक्रमभावि तत्तत्पर्यायानुगामित्वमुच्यते । तच्च कथंचि कस्या एव
मृदो रूपादिगुणेषु स्थासकोशकुशूलकपालकलशादिपर्यायेषु चानुगतायाः २० समीक्षणात् सुप्रसिद्धम् । यत्युनरुच्यते 'पर्यायव्यतिरिक्तस्य द्रव्यस्यासिद्धेस्तस्योपलब्धिलक्षणप्राप्तस्य तद्विवेकानुपलक्षणात् पर्यायेषु च तुल्यरूपकायकर्तृषु द्रव्याभिमानो मन्दमतीनां न पुनस्ततो विलक्षणमुपलभ्यते' इति । तदस्य स्वमतानुरागान्धितदृशो यथावह
स्तुदर्शनासमर्थस्य व्याहृतम् । अत्र हि यथा घटविवेकेन पटस्योपलका क्षणं तथा पर्यायविवेकन द्रव्यस्योपलक्षणं नास्तीति नास्ति पर्यायेभ्यो विविक्तं द्रव्यमिति ने तावत्तवाभिप्रेतं तथास्माभिरप्यभ्युपगमात् । किंतु
१ इदं नेतिपदं तथास्माभिरिति वाक्ये संबन्धनीयम् ।
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परि. ५ सू. ८] स्याद्वादरत्नाकरसहितः पर्यायरूपतया परिणतस्य तस्यानुपलक्षणमिष्टं, तत्र चासिद्धता । तथा परिणतस्य तस्योपलव्धेः प्रतिपादितत्वात् । यदप्यभिधीयते-कार्यभेदस्त्वस्मान् प्रत्यासिद्ध एव । रूपादीनामेव केषांचित् तत्कार्यकर्तृत्वात् ' इति । तदप्यसत् । यदि हि रूपादय एव द्रव्यनिर्वयं कार्यं कुर्युस्तदा व्यस्तदशावर्तितन्तुम्तोमतोऽपि शीतापनोदः किं न ५ स्यात् । तजनकरूपादीनां तदानीमपि विद्यमानत्वात् । तथा च दृष्ट. बाधा, कार्यकारणभावविलोपप्रसंगश्च । तन्मात्रस्य सर्वत्राप्यविशेषण सर्वस्य सर्वकार्यतापत्तेः । अथ विशिष्टास्ते तत्तत्कार्यकारिणस्ततो न दृष्टबाधा, नापि कार्यकारणभावधिलोप इति चेत् । किमिदं तेषां वैशिष्टयं द्रव्यांशादन्यत् प्रसाधयिष्यते च तेभ्यः कथंचिदन्यद्रव्यमिति । १० यत्तच्यते–' कार्य हि द्विविधं भिन्नकालमभिन्नकालं च । तत्र पूर्व भवति भेदनिबन्धनं यदीह संभवेत् । तत्तु न संभवति धर्मधर्मिगोस्तुल्यकालत्वात् । अभिन्नकालस्तु कार्यभेदोऽनैकान्तिको विभक्तपरिणामेषु पटादिषु संभवात पटादयोऽपि हि विभक्तपरिणामा अनेककार्य कुर्वन्तो दृष्टा न च धर्मिरूपेण भियन्ते ' १५ इति । तत्रोच्यते । अभिन्नकालः कार्यभेदो भेदकस्तावत् इह कक्षीक्रियते । तस्य त्वनैकान्तिकत्वकीर्तनमकीर्तिकरम् । धर्मिरूपतया पटा. दीनामभेदेऽपि हि विचित्रकार्यजननशक्त्याख्यधर्मिरूपतया भेदोऽपि विद्यत एव न खलु कार्यभेदाढ़ेद एवेति ब्रूमः । किंतु यत्र कार्यभेदस्तत्र तावद्भेदो भवत्येवेति । स च पटादिषु स्पष्ट एवेति नानेकान्तः। २० यत्पुनः प्रणिगद्यते-'एकस्यानेकक्रियाविरोधाच्च' इत्यादि । तत्क्षणभङ्ग एव प्रतिहतम् । एवं च 'द्रव्यपर्यायरूपत्वात द्वैरूप्यं वस्तुनः किल । तयोरेकात्मकत्वेऽपि भेदः संज्ञादिभेदतः' इत्याशङ्क्य
' इन्द्रियज्ञाननिर्भासि वस्तुरूपं हि गोचरः ।
शब्दानां नैव तत्वेन संज्ञाभेदाद्विभिन्नता ।' इत्यादि यत्कारिकाजालमजल्पि तदखिलं क्षिप्तं लक्षणीयम् । एवं च
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. ५ सू. ८ भट्टचट्ट समुत्तिष्ठ ब्रज सम सखे यतः ।
आशास्ते निष्फलीभूताः सर्वाः स्याद्वादपणे ॥ ५९९ ॥ यदप्यपरैरत्र प्रेयते--' पर्यायनिवृत्तौ द्रव्यस्य निवृत्तिर्भवति न वा। यदि भवति, अनित्यमेव तत् । निवृत्तिमत्त्वात् पर्यायस्वात्मवत् । ५ अथ न भवति तर्हि द्रव्यपर्याययोर्भेदप्रसंगः । तथाहि पर्यायेभ्योऽन्यद्रव्यं तन्निवृत्तावपि तम्यानिवृत्तेस्तुरङ्गादिव कुरङ्ग इति । तदपि प्रत्यादिष्टं भवति, उपन्यस्तनीत्या द्रव्यपर्याययोः । कथंचिद्भेदाभेदसिद्धौ सत्यां पर्यायनिवर्तने कथंचिद् द्रव्यनिवर्तनस्य स्याद्वादिनाम
भीप्सितत्वात् । विजम्भितं चात्र श्रीमदनेकान्तजयपताकायां पूज्यैः १० श्रीहरिभद्रसूरिभिरित्यलमिह द्राधीयस्या चर्चया । एवं नित्यानित्या
त्मके वस्तुनि व्यवस्थापित उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकत्वं वस्तुनः सत्त्वमिति परमार्थतः प्रतिष्ठितं भवति । उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्' इति भगवदुमास्वातिवाचकवचनात् । तथाहि-सर्वं वस्तु द्रव्यात्मना
..... .... .... .... ... .... .... .... .... १५ .... त्यानुपपत्तेरुत्पादव्ययधौव्ययुक्तत्वेनैवास्य सत्त्वं प्रतिपत्तव्यम् । न
चोत्पादादयः प्रत्येकं वस्तुरूपा येन तेषामप्यपरोत्पादादियोगतः सत्त्वेन भवितव्यमित्यनवस्था स्यात् । तेषां वस्त्वेकदेशत्वेन व्यवस्थितत्वात् ।
तेनोत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सदिति भारती । ददाति विद्वलोकाय नूनं जगति भारती ।। ६०० ॥ नित्यानित्यात्मकं सर्वव्यवहारप्रसाधकम् । एवं च सिद्धिमानीतं समस्तं वस्तु मानतः ॥ ६०१ ।।
__अमिलाप्यानमिलाप्यानेकान्तः सिद्धिमेति अभिलाप्यानभिलाप्येकान्तस्य मण्डनम् ।
यन्मानात् । सर्वत्र वस्तुजाते तत् संप्रति दयते सतः
१ अ. ज. पताकायां चतुथाधिकारे । २ तत्त्वा. सू.५.२९.
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पंरि. ५ सु. ८ स्याद्वादरत्नाकरसाहेतः
तथाहि-पमस्तं वस्तु, अभिलाप्यात्मकम्, तथोपलम्भस्यान्यथानुपपत्तेः । न खल्वेकान्तेनाभिलाप्यस्वभावं वस्तु उपलम्भभाजनं भवितुमर्हति । अभिलाप्ययोगपर्यायैरेव स्थूलैः कालान्तरस्थायिभिर्व्यञ्जनपर्यायापराभिधानश्चेतनाचेतनस्य सकलवस्तुनोऽभिलाप्यत्वप्रतीतेर्न पुनरभिलापयोग्यपर्यायपि । नाप्येकान्तेनाभिलाप्यस्वरूपमनभिलापयो- ५ ग्यपर्यायैरेव सूक्ष्मैः प्रतिक्षणभाविनिरर्थपर्यायापरनामधेयः सर्वस्यानभिलाप्यत्वप्रतीतेन त्वमिलापयोग्यपर्यायैरपि । स्यादेतत् । यदि वस्तु, अमिलाप्यानभिलाप्यधर्मकं, एवं तरंभिलाप्यानां धर्माणां शब्देनाभिधीयमानत्वात् । किमित्यकृतसंकेतस्य श्रोतुः पुरोऽवस्थितेऽपि पनसादी वाच्ये शब्दात् न संप्रत्ययवृत्ती स्यातामिति । उच्यते । अकृ- १० तसंकेते वाच्ये ज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमाभावात्तस्य च संकेताद्यभिव्यइयत्वात् । तथाहि-ज्ञस्वभावम्यात्मनो मिथ्यात्वादिजनितज्ञानावरणादिकर्मपटलाच्छादितस्वरूपस्य संकेततपश्चरणदानप्रतिपक्षभावनादिभिम्तदावरणकर्मक्षयोपशमः क्रियते ततो विवक्षिताकारं संवेदनं प्रवतते । अन्यथा तत्प्रवृत्त्यभावात् । नन्वभिलाप्यानभिलाप्यस्वभावमेकं १५ वस्तु विरोधशार्दूलकवलीकृतत्वान्न संभवत्येव । तथाहि-अभिलप्यते यत्तदभिलाप्यम् । तद्विपरीतं चानभिलाप्यमिति । ततश्च तत् वद्यभिलाप्यं न तर्हि अनभिलाप्यमनभिलाप्यं चेन्न तर्हि अभिलाप्यमिति । एकस्यानेकविरुद्धधर्माध्यासानुपपत्तेः । एतदसमीचीनम् । अभिलाप्यत्वानभिलाप्यत्वयोर्भिन्नानिमित्तत्वेनैकत्र वस्तुनि विरोधासिद्धेः। २० ययोभिन्ननिमित्तत्वं न तयोरेकत्र वस्तुनि विरोधो यथा -हस्वत्वदीर्घत्वयोः । भिन्ननिमित्तत्वं चैकत्र वस्तुनि, अभिलाप्यत्वानभिलाप्यत्वयोरिति । न चानयोभिन्ननिमित्तत्वमसिद्धम् । व्यञ्जनपर्यायापेक्षयाऽभिलाप्यत्वस्या थपर्यायापेक्षया त्वनभिलाप्यत्वस्य व्यवस्थापितत्वात् । विरो धनिरासस्तु प्रपञ्चतः सामान्यविशेषानेकान्तवादिवदिहाप्यनुसतव्यः ।२५
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८०२
प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. ५ सू. ८ यस्तु शब्दाद्वैतवादी शब्दार्थयोस्तादात्म्यमभिसंधायाभिलाप्यतैकान्तं प्रतिजानीते । नायमवधानाईः परीक्षकाणाम् । तथाहि-शब्दार्थयोस्तादात्म्यमिति कोऽर्थः । यदि तदात्मनो वस्तादात्म्यं तर्हि द्वायपीष्टावेव । पृथग्भावाभिधानान्नानयोरैक्यमेवेति । एवं च न शब्दब्रह्म५ विवर्तमानं जगदिति कथमभिलाप्यतैकान्तः संभाव्येतापि । अथ तदात्मनो भावस्तादात्म्यमिति । तदसुन्दरम् । शब्दार्थयोस्तादात्म्यमित्यत्र द्वयोरपि प्रधानत्वे तदात्मनो भाव इत्येकतरप्राधान्येन संगत्यसंभवात् । अस्तु वासौ तथापि कस्यायमात्मा यदात्मनो भाव इति । यदि शब्दम्य तर्हि तद्व्यतिरेकेणार्थाभावान्निखिलस्य जगतः शब्दमात्रत्वाच्छब्दार्थयोस्तादात्म्यमिति न न्यायानुकूलं स्यात् । न खलु देवदत्तवन्ध्यास्तनन्धययोस्तादात्म्यमिति प्रतिपादयन्ति विद्वांसः। अथार्थस्यायमात्मा तदाप्यर्थव्यतिरेकेण शब्दाभावादखिलस्यापि विश्वस्यार्थमात्रत्वाच्छब्दार्थयोस्तादात्म्यमित्यसंगतमेव स्यात् । किं च,
अत्र पक्षे लाभामिच्छतो मूलोच्छेदस्तवायातः । अर्थमात्रात्मकत्व१५ सिद्धया विश्वस्य शब्दमात्रात्मकत्वासिद्धेः । विस्तरतश्च शब्दब्रह्म
वादः प्रागेव प्रतिहत इत्यलमिह तद्दषणप्रबन्धेनेति । योऽप्यनभिलाप्यतैकान्तं ताथागतः समातिष्ठते सोऽपि न पटिष्ठः । यदि हि एकान्तेनानभिलाप्यं वस्तु प्रतिज्ञायते कथं तर्हि तथाविधशब्दार्थप्रतीत्यादिकमुपपोत । दृश्यते च चैयावृत्यकरशिरोमणे पनचन्द्रगणे बालवृद्धविद्वलोकसमाकुलातुच्छस्वच्छगच्छोपष्टम्भार्थमन्नपानादिकमा. नयानयेत्याचार्यवचनश्रवणसमयसमनन्तरं तथाविधार्थावगमपुरःसरा तस्य महात्मनोऽन्नपानाद्यानयने स्वलनविकला प्रवृत्तिः, तत्समासादनं, समासादिते चाचार्याणां पुरस्तथा निवेदनमिति कथं नाभिलाप्यत्वसिद्धिः । अपि चानभिलाप्यतैकान्ते स्ववचनविरोधापत्तिः ।
१ रामेति व्यक्षरं नाम मानभङ्गः पिनाकिनः ।' इति वाक्यं शब्दार्थतादात्म्य एव संगच्छते। १ भक्तादिभिर्धापग्रहकारिवस्तुभिरुपग्रहकरणं वैयाकृत्यम् ।
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परि. ५ सू. ८ ] स्याद्वादलाकरसहितः
८०३ अनभिलाप्यतैकान्तशब्देनानभिलाप्यतैकान्तस्याभिधानात् । अनभिलाप्यतैकान्तस्याप्यनभिलाप्यत्वे कुतः परप्रतिपादनम् । तद्वचनाच्चेत् कथमनभिलाप्यतैकान्तः कान्तः स्यात् । परमार्थतो न कश्चिद् वचनात्प्रतिपाद्यते चेत्, स्वयमवाच्यताप्रतिपत्तिः कथम् । वस्तुनि वाच्यतानुपलब्धेश्चेत् । सा यदि दृश्यानुपलब्धिस्तदा सिद्धा क्वचिद्वा- ५ च्यता । क्वचित्सिद्धसत्ताकस्यैव कुम्भादेद्देश्यानुपलब्धिवशादभावप्रतीतेः। विकल्पप्रतिभासिव्यपोहे प्रतिपनाया एव वाच्यतायाः स्वलक्षणे प्रतिषेधाददोष इति चेत् । मैवम् । वस्तुवाच्यतायाः प्रतिषेधायोगात् । तदन्यापोहमानवाच्यताया. एव प्रतिषेधात् । न चान्यापोहवाच्यतैव वस्तुवाच्यतां । तत्प्रतिषेधविरोधात् । अथेयमदृश्यानुपलब्धिर्न तर्हि १० वस्तुनि वाच्यत्वाभावनिश्चयः । अतिप्रसक्तेः । निरस्तश्चायमवाच्यतैकान्तः प्रपञ्चेनापोहव्ययोहप्रस्ताव प्रागेवेति पर्याप्तमिहातिविस्तरेण । स्याद्वादाभ्युपगमे तु न कश्चिदोषः कथंचिद् वाच्यत्वावाच्यत्वयोर्यथोक्तनीत्या वस्तुनि प्रतीयमानत्वादिति ।
अभिलाप्यानभिलाप्यं प्रमाणपर्यशायि विश्वमिदम् । १५ तस्मादङ्गीकार्यं नत्वेकान्तव्यसनदुःस्थम् ॥ ६०३ ॥
_ इत्थं कार्यकारणयोर्भेदाभेदैकान्तोऽपि कुतीर्थिककार्यकारणभेदाभेदैकान्तपMUSHकल्पनाशिल्पिप्रतिलब्धमूर्तिर्न प्रमाणवीथीमा
स्कन्दति । न खलु कापिलपरिकल्पितः कार्यकारणयोरभेदैकान्तः स्वमेऽपि प्रतीयते । संज्ञासंख्यास्वलक्षणादिभेदत- २० स्तन्त्वादिकारणपटादिकार्ययोर्भेदस्याप्यनुभूयमानस्य निन्हीतुमशक्यत्वात् । विस्तरतश्चायं तन्मतमथनप्रस्तावेऽपहस्तयिष्यते । नापि वैशेषिकादिसंमतस्तयो दैकान्तः कदाचनाप्यनुभवभुवमवगाहते। परस्परमशक्यविवेचनत्वलक्षणस्याभेदस्यापि प्रतीयमानत्वात् । अथोच्यते । कार्यकारणे अत्यन्तभिन्ने, अतिभिन्न प्रतिभासत्वात् । य इत्थं त इत्थम् । २५ यथा पावकरयसी । तथा च कार्यकारणे तस्मादत्यन्तभिन्न इति । न
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८०४
प्रमाणनयतत्वालोकालङ्कारः परि. ५ स. ८ चात्र हेतुरसिद्धः । साध्यधामणि भिन्नप्रतिभासत्वस्य सद्भावनिश्चयात् । नाप्यनैकान्तो विरुद्धो वा । विपक्षादत्यन्तं व्यावृतैः । नापि कालात्ययापदिष्टम् । पक्षस्य प्रत्यक्षागमाभ्यामबाधितत्वात् । नापि प्रकरणसमः । प्रतिपक्षोत्थापकस्यानुमानस्यासंभवात् । ननु कार्यकार५ णयोस्तादात्म्य, अभिन्नदेशत्वात् । ययोरतादात्म्यं न तयोरभिन्नदेशत्वम् । यथा सह्यविन्धयोः । अभिन्नदेशत्वं च प्रकृतयोः । तस्मात् तादात्म्यमिति प्रतिपक्षजीवातुर्विद्यत एवानुमानमिति चेत् । न शास्त्रीयदेशाभेदस्यासिद्धत्वात् । कार्यस्य स्वकारणदेशत्वात् । कारण
स्यापि स्वकारणदेशत्वात् । लौकिकदेशभेदस्य तु व्योमात्मादिभि१० र्व्यभिचारादस्यानुमानस्य प्रतिपक्षोत्थापकत्यानुपपत्तेः । ततश्च कथं प्रकरणसमत्वस्यात्रावकाशः ।
अभ्युपगम्या तस्माद् विभिन्नतैवात्र कार्यकारणयोः । यस्यां भजते न्यायः साक्षात् साक्षित्वमक्षुणम् ॥ ६०४ ।। एवमिह योगशिष्यैः कृतं स्वपक्षप्रसाधनमिदं तु ।
वैदग्धीदयितानां विभासते दुर्भगाभरणम् ।। ६०५॥ तथाहि-यत्तावत्कार्यकारणे अत्यन्तभिन्न इत्याद्यनुमानमुक्तम् । तत्र भिन्नप्रतिभासत्वं किं सर्वथा विवक्षितं कथंचिद्वा । प्रथमपक्षे प्रतिवाद्यसिद्धो हेतुः । कार्यकारणयोः सर्वथा भिन्नप्रतिभासत्वस्य
स्याद्वादिनामसिद्धत्वात् । द्वितीयपक्षे तु वाद्यसिद्धिः । तयोः कथं२० चिद्भिन्नप्रतिमासत्वस्य योगैरनङ्गीकरणात् । विरुद्धश्चान्न पक्षे हेतुः ।
साध्यविपर्ययसाधनात् । कथंचिद् भिन्नप्रतिभासत्वस्य सिषाधयिषितत्वात् । न भेदविपरीतेन कथंचिद्भेदेनैवाविनाभूतत्वात् । अथ सर्वथा कथंचिद्वेत्येवंरूपौ विशेषविकल्पो परित्यज्य भिन्नप्रतिभासत्वमात्रं हेतु
त्वेनोपादीयते । तथापि संदिग्धविपक्षल्यावृत्तिकत्वेनानैकान्तिको हेतुः । २५ कथंचित्तादात्म्येऽपि कार्यकारणयोभिन्नप्रतिभासत्वमात्रस्याविरोधात् ।
१ जीवातुः--जीवनौषधम् ।
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परि. ५ सू. ८]
स्याद्वादरत्नाकरसहितः
८०५
८०५
कालात्ययापदिष्टश्च । प्रत्यक्षबाधितपक्षानन्तरमुपन्यस्तत्वात् । प्रत्यक्षेण हि तन्त्वादिकारणपटादिकार्ययोः कथंचित्तादात्म्यमेव प्रतीयते न त्वेकान्तभेदः । प्रकरणसमश्च । विवादापन्न कारणत्वात् । कार्यम् , एकान्तेन नान्यत्, तत्र तम्य वर्तमानत्वान्यथानुपपत्तेः । इत्यनुमानम्य प्रतिपक्षप्रसाधकस्य भावात् । ननु तत्र तस्य वर्तमानत्वमनैकान्तिकं ५ व्यक्तिषु वर्तमानस्यापि सामान्यस्य ततोऽत्यन्तमन्यत्वात् । तदप्यसत्यम् । अत्यन्तान्यत्वस्य सामान्ये सामान्यविशेषानेकान्तवादचर्चायां सविस्तरमपास्तत्वात् तथाभूते तत्र वृत्तनिवारयिष्यमाणत्वाच । ननु तथापि स्थालीस्थितेन दन्नानकान्तिकमेतत् । ततोऽन्यस्यापि दध्नस्तत्र वर्तमानत्योपलब्धः । संयोगो ह्यत्र वृत्तिः । स चार्थान्तरभूतयोरेव १० प्रतीयत इति चेन्न । संयोगिनोः संयोगपरिणामात्मनोः सर्वथान्यत्वासिद्धिः । अन्यथा तदभावप्रसंगात् । ताभ्यां भिन्नस्य संयोगस्योत्पत्तौ हि कथं स्थालीदनोः संयोग इति व्यपदेशः स्यात् । ताभ्यां तस्य जननात् तथा व्यपदेश इति चेत् । न । कर्मणा कालादिना च तज्जननातथा व्यपदेशप्रसंगात् । स्थालीदनोः समवायि- १५ कारणत्वाद्युक्तः संयोगस्य तथा व्यपदेश इति चेत् । कुतः समवायित्वं तयोरेव न पुन: कर्मादेरिति नियमः । इह संयोगिनोः संयोग इति प्रत्ययात्तत्र तस्य समवायसिद्धिरिति चेत् । स तर्हि समवायः पदार्थान्तरभूतः कथमत्रवेहेदमिति प्रत्ययं कुर्यान्न पुनः कर्मादिषु दधिस्थालीभ्यामेव समवायिभ्यां विशेषणविशेष्यभावसिध्या समवायस्य २० तत्रैवेहेदमिति प्रत्ययोत्पत्तिः । ननु कर्मादिषु तदसिद्धेरिति चेत् । समवायस्य विशेषणविशेष्यभाव एव कुतः सर्वत्र न स्यात् । तादृगदृष्टविशेषनियमादिति चेत् । तर्हि किं विशेषणविशेष्यभावेन समवायेन संयोगेन वा कार्य तादृगदृष्टविशेषादेव समवायविशिष्टाः समवायिन इति प्रत्ययस्येहेदं समवेतमिति विज्ञानस्यानेदं संयुक्तमिति २५ बुद्धेश्च जननप्रसंगात् । सर्वस्य वा प्रत्ययविशेषस्यादृष्टविशेषवशवर्तित्व
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः
[ परि. ५सू. ८.
1
सिद्धेः किं पदार्थतद्भेदप्रभेदपरिकल्पनयेति विज्ञानवादप्रवेशः स्यात् । ततः स्थाल्यां संयोगवृत्त्यां वर्तमानेन दनानैकान्तिकत्वं प्रकृतहेतोः । ततोऽसिद्धविरुद्धानैकान्तिककालात्ययापदिष्टप्रकरणसमाख्यदूषणमुद्गरनिर्दलितशरीरत्वान्न भिन्नप्रतिभासत्वादिति हेतुः कार्यकारणयोरत्यन्त५ भेदमर्पयितुं प्रभवतीति । किं च कारणात्कार्यस्य स्वरूपेणात्यन्तभेदे देशकालाभ्यामपि तस्य ततो भेदप्रसक्तिः । अथात्माकाशयोः स्वरूपेणात्यन्तभेदेऽपि देशकालाभ्यां भेदाभावान्न ततः कार्यकारणयोस्तद्धेदप्रसक्तिरिति चेत् । मैवम् । आत्माकाशयोरपि सत्त्वद्रव्यत्वादिना भेदाभावादत्यन्तभेदासिद्धेरभिन्नदेशकालत्वाविरोधात् । स्वरूपेणात्यन्त१० भिन्नानामप्येकद्रव्यवर्तिनां वर्णादीनां देशकालाभेदेनोपलम्भात्तैर्व्यभिचार इति चेत् । मैवम् । तद्व्यतिरेकैकान्तानभ्युपगमात् । यथैव हि वर्णगन्धरसस्पर्शादीनां स्वाश्रयादत्यन्तभेदो नेष्टो दृष्टो वा तथा परस्परतोऽपीति न तैर्व्यभिचारः । ननु स्वरूपभेदेऽपि कार्यकारणयोः समवायेन परस्परं प्रतिबन्धात्कुतो देशकालाभ्यां भेदप्रसक्तिरिति चेत् । १५ समवायस्तर्हि समवायिनोः कार्यकारणयोः समवायान्तरेण तस्य तत्र वृत्तायनवस्थाप्रसंगात् । स्वतो वृत्तौ द्रव्यादेरपि तथोपपत्तेः । समवावैयर्थ्यात् कार्यकारणयोः कुतः परस्परं प्रतिबन्धः स्यात् । यदि पुनरनाश्रितत्वात् संबन्धान्तरानपेक्षः समवायोऽभिमन्यते तदाप्यसंत्रद्धोऽसौ कथं द्रव्यादिभिः सह वर्तेत यतः पृथक् सिद्धिर्न स्यात् । न २० ह्यसंबद्ध एव समवायिभिः समवायसंबन्धो युक्तिमान् कालादेरपि संबद्वत्वप्रसंगात् । संबद्ध एव हि स्वसंबन्धिभिः संयोगसंबन्धो दृष्टस्तस्य तैः कथंचित्तादात्म्यसंबन्धात् । समवायोऽपि विशेषणविशेष्यभावसंबन्धात् समवायिभिः संबद्ध इति चेत् । न । तस्यापि विशेषणविशेष्यभावान्तरेण स्वसंबन्धिभिः संबन्धेऽनवस्थाप्रसंगादन्यथा संबन्धत्व - २५ विरोधात् । तस्य स्वसंबन्धिभिः कथंचित् तादात्म्ये कार्यकारणयोरपि तदेवास्तु किं समवायेन पर्यायान्तरभूतसत्तासामान्येनेव कल्पितेन । तथा
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परि. ५ स. ८)
स्याद्वादरत्नाकरसहितः
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चासिद्धस्तयोः स्वरूपभेदः । तादात्म्यस्य स्वरूपभेदापरपर्यायत्वात् । प्रागसतः सत्तासमवायात् कार्यस्योत्पत्तेर्युक्तमेव सत्तासमवाययोः कल्पनमिति चेत् । मैवं, अनुत्पन्नस्य सत्तासमवायासंभवात् उत्पन्नस्यापि तद्वैयर्थ्यात् । स्वरूपलाभस्यैव स्वरूपसत्तात्मकत्वात् स्वरूपेणासतः सचासंबन्धेऽतिप्रसंगात् । तदित्थं कार्यकारणयोः परस्परप्रतिबन्धहेतोः ५ समवायम्यानुपपत्तेः स्वरूपेणोत्पत्त्यभेदाभ्युपगमे देशकालाभ्यामपि तयोरत्यन्तभेदः स्यादित्यायातम् । तन्न वैशेषिकाद्यभ्युपगतः कार्यकारणयोभैदैकान्त: कथंचिदुपपद्यते । तम्माझेदाभेदः म्बीकर्तुं हेतुकार्ययो. युक्तः । एकान्तस्तु न संगतिमञ्चति तीर्थान्तरीयाणाम् । एवं समस्तवस्तुविषयोऽपि भेदाभेदैकान्तः परपरिसूत्रितः प्रमाणबाधितः । न खल्व- १० भेदैकान्तोऽद्वैतवादिसंमतः स्वमेऽपि प्रतीतः । सत्सामान्यात्मना जीवादिवस्तूनामभेदस्येव कुम्भाद्यात्मना भेदस्यापि प्रतीयमानत्वात् । नापि भेदैकान्तं पदार्थानां ताथागतप्रार्थितं कदाचिदनुभवामः । कुम्भाधात्मना भेदस्येव सत्सामान्यात्मना तेषामभेदस्याप्यनुभूयमानत्वात् । अत्राह बौद्धः-कथमैक्यं भावानाम् । स्वभावसांकर्यापत्तेः । न १५. चाभावाः परस्परमात्मानं मिश्रयन्ति । भेदप्रतीतिविरोधात् । तेषामतत्कार्यकारणव्यावृत्त्या समानव्यवहारभाक्त्वेऽपि परमार्थतोऽसंकीर्णस्वभावत्वात् । तदुक्तम्-- ' सर्वे भावाः स्वभावेन स्वस्वभावव्यवस्थिताः । स्वभावपरभावाभ्यां यस्माद् व्यावृत्तिमागिनः । तस्माद्यतो यतोऽर्थानां व्यावृत्तिस्तनिवन्धनाः। जाति- २० भेदाः प्रकल्प्यन्ते तद्विशेषावगाहिनः ।। तस्माद्यो येन धर्मेण विशेषः संप्रतीयते । न स शक्यस्ततोऽन्येन तेन भिन्ना व्यवस्थितिः । अयमर्थः । सर्वे भावा नतु कतिपये स्वभावात्सजातीयात् परभावाद्विजातीयाच्च व्यावृत्तिं भजन्त इति घिनुण । स्वभावेन स्वलक्षणेनाकल्पितेन व्यावृत्तिभागिन इति संबन्धः । कस्मात्पुनः स्वभावेन २५ व्यावर्तन्त इति स्वस्वभावव्यवस्थितेः कारणात् । एतदुक्तं भवति ।
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प्रमाणनयतत्वालोकालङ्कारः
[ परि. ५ सू. ८
यतः स्वस्वभावे सर्व एव भावा व्यवस्थिता नातः परस्परं स्पन्दन्ते । तस्मात् स्वभावेनासंसर्गिणा समानजातीयविजातीयाद् व्यावर्तन्ते । यतश्चैवं तस्माद् यतो यतो व्यावर्त्यादर्थादर्थान्तराणां व्यावृत्तानां व्यावृत्तिस्तन्निबन्धना । विशिष्टव्यावर्त्यविषयव्यावृत्तिनिबन्धना जाति५ भेदाविशिष्टा जातयः शब्दवाच्या: परिकल्पन्ते । तथा ह्येकस्य घटस्य यथाऽघटाद् व्यावृत्तिस्तथाऽन्येषां घटानाम् । सा च साधारणा व्यावृत्तिः शब्दवाच्या जातिरुच्यते । तस्य स्वलक्षणस्य ये विशेषास्तानवगाहन्त इति । आरोपितजातिप्रतीतौ स्वलक्षणविशेषस्याध्यवसायस्तदवगाहनम् । तस्मादन्यान्यव्यावर्त्यव्यपेक्षया व्यावृत्तयः परिक२० ल्पितमेदा विकल्पैर्विषयीक्रियन्ते । यस्मान्न वस्तुस्वरूपमेकमनेकव्यावृत्तिकं विकल्पेन प्रत्यक्षवद्विषयीकर्तुं पार्थते । व्यावृत्तौ च व्यावर्त्यविशिष्टायामेकस्यां विषयीकृतायामन्यस्या व्यावर्त्यान्तरव्यावृत्तेरविषयीकरणाद्भिन्नाभिन्नविषया विकल्पात्मका व्यवस्थितिरिति
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२५ हेतुद्वयमप्येतन्नासिद्धम् । तदेकान्तवादिनां तथाभ्युपगमात् । नाप्यैकान्तिकं विरुद्धं वा विपक्षे वृत्त्यभावात् । ततः परस्परसापेक्षाभ्यां पृथक्त्वैकत्वाभ्यां न जीवादिवस्तु विरुध्यत इत्यभ्युपगन्तव्यम् । नन्वेकं परस्परविरुद्धोभयाकाराकान्तमित्यतिसाहसम् । हन्त कः सन्नेवं प्रत्यवतिष्ठते । ताथागतश्चेत्, तत्किंचिन्निवेदनं नीलादिनिर्मासैरद्वयसं२० वेदनं न ग्राह्यग्राहकाकारविवेकसंविदाकारैरनेकैराकीर्णमप्येकं स्वीकुवर्ग: सन्नेवं जल्पन् न लज्जसे | ब्रह्मवादी चेत्तर्हि परब्रह्मतेज:शब्दज्ञानज्योतिराकारैर्विद्येतराकारैवानेकैः परिकरितमप्येकं प्रतिपद्यसे । स्याद्वादे तु विप्रतिपद्यस इति किमपि वैशसम् । वैशेषिकादिश्चेत् । तदा स्वारम्भकावयवैरनेकैरप्यारव्धमेकस्वभावं कुम्भा२५ दिकमभ्युपगच्छसि स्याद्वादे पुनर्दषणं प्रयच्छतीत्यनस्पतमतमोविलसितम् । कापिलश्चेत् । तर्हि सत्त्वरजस्तमोभिरने कैरप्याकीर्णामे
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परि. ५ सू. ८ ] स्याद्वादरत्नाकरसहितः कां प्रकृतिमङ्गीकुरुषेऽनेकान्तं पुनः पराकुरुष इति महकैतवम् । किं चामी सपक्षविपक्षयोर्भावाभावाभ्यां समन्वितमेतत्साधनमिच्छन्ति । स्यांद्वादं तु नेच्छन्तीति स्वच्छन्दवृत्तयः । तदेवमेते दुस्तर्कतिमिरतिरस्कृतमतिप्रकाशाः कुतीर्थ्याः सकलवादमूर्धाभिषिक्तमनेकान्तवादमनङ्गीकुर्वाणाः स्वदर्शनमपि व्यवस्थापयितुं न पटीयांस इत्युपेक्षापात्र- ५ मेव न्यायवेदिनाम् । ततः स्थितमेतत् । सत्सामान्यविवक्षायां सर्वेषामैक्यम् ! कुम्भादिभेदविवक्षायां तु पृथक्त्वम् । इतरस्यां विवक्षायां गुणाभावात् । नन्वयुक्तमेतद् विवक्षाविवक्षयोरसद्विषयत्वेन तदशात् पृथक्त्वैकत्वयोर्व्यवस्थानानुपपत्तेरिति चेत् । तदसंबद्धम् । अनन्दधर्मात्मके वस्तुनि विशेष्यविशेषणयोः पृथक्त्यैकत्वयोः सतोरेव तदर्थिभिः प्रति- १०. पत्तभिर्विवक्षाया अविवक्षायाश्च करणान्न त्वसतोः । असति कस्यचिद् अर्थित्यार्थित्वयोरसंभवात् । तस्य सकलार्थक्रियाशक्तिशून्यत्वात् खरविषाणचत् । न हि कस्यचिद्विवक्षाविषयस्य मनोराज्यादेरसत्वे सर्वस्यासत्त्वं युक्तम् । कस्यचित्प्रत्यक्षविषयस्य केशोण्डुकादेरसत्त्वे सर्वस्य प्रत्वाविषयस्यासत्त्वप्रसंगात् । प्रत्यक्षाभासविषयस्यासत्त्वं न पुनः सत्य- १५ प्रत्यक्षविषयम्येति चेत् । तसत्यविवक्षाविषयस्यासत्त्वमस्तु । सत्यविवक्षाविषयस्य तु माभूत् । न काचिद्विवक्षा सत्या विकल्परूपत्वान्मनोराज्यादिविवक्षावदिति चेत् । न । अस्यानुमानस्य सत्यत्वेऽनेनैव हेतो~भिचारात् । तदसत्यत्वे साध्याप्रसिद्धेः । यतोऽनुमानविकल्पादथ परिच्छिद्य प्रवर्तमानोऽर्थक्रियायां न विसंवाद्यते तद्विषयः सन्नेवेति चेत् । २० तर्हि यतो विवक्षाविशेषादर्थं विवक्षितत्वात्प्रवर्तमानो न विसंवाद्यते तविषयः कथमसन् भवेत् । अविवक्षाविषयोऽसन्नेव । अन्यथा तदनुपपत्तेरिति चेत् । न । सकलवाग्गोचरातीतेनार्थस्वलक्षणेन व्यभिचारात् । सर्वम्य वस्तुनो वाच्यत्वात् नाविवक्षाविषयत्वमिति चेत् । न । नाम्नन्तद्भागानां च नामान्तराभावादन्यथानवस्थानुषंगात् । तेषामवि- २५ वक्षाविषयत्वेऽपि सत्त्वे कथमन्यदपि विशेषणमविवक्षाविषयत्वे सदेव
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. ५ सू. ८ न सिध्येत् । तदेवं विविधप्रतिषेधधर्माणां सतामेव विवक्षेतराभ्यां योगस्तदर्थिभिः क्रियेतान्यथार्थनिष्पत्तेरभावात् । न ह्यर्थक्रियार्थिनामर्थनिष्पत्तिमनपेक्ष्य विवक्षेतराभ्यां योगः संभवति येन तदभावेऽ
पि स स्यात् । उपचारमानं तु स्यात् । न चाग्निर्माणवक इत्युपचारात् ५ पाकादावुपयुज्यते माणवकः । ननु चान्यव्यावृत्तय एव विवक्षेतराभ्यां युज्यन्ते न वस्तुस्वभावा यतस्तयोः सद्विषयत्वमिति चेत् । न । शब्देभ्यो वस्तुनि प्रवृत्तिविरोधात् । व्यावृत्तितद्वतोरेकत्वाध्यारोपात् तद्वति प्रवृत्तिरिति चेत् । न । अध्यारोपस्य विकल्पत्वेनाविष. यत्वात् । स्वाविषयेणार्थेन व्यावृत्तेरेकत्वारोपगायोगात् । सामान्येनार्थोऽध्यारोपविकल्पविषय एवेति चेत् । तदपि यद्यन्यव्यावृत्तिरूपं तदा व्यावृत्त्यैव व्यावृत्तरेकत्वारोपात् कुतोऽर्थप्रवृत्तिः । ततस्तामिच्छता एकैकशः परस्परव्यावृत्तयोऽपि परिणामविशेषा एषितव्याः । तस्मात्सूक्तम् — सत्सामान्यविवक्षायां सर्वेषां जीवादीनामैक्यं, कुम्भा
दिभेदविवक्षायां तु पृथक्त्वम् ' इति । प्रयोगश्चात्र, सांवृत्ताभेदवादिनं १५ सौगतं प्रति तावदेवं कर्तव्यः । अभेदः परमार्थसन्, प्रमाणगोचरत्वात् भेदवत् ! सांवृत्तभेदाभिधायिन भद्वैतवादिनं तु प्रत्येवमयं विधेयः। भेदः, परमार्थसन् , प्रमाणगोचरत्वात्, अभेदवत् । सांवृत्तभेदाभेदोभयप्रतिपादिनं शून्यवादिनं पुनः प्रतीत्थमेप विरचनीयः । भेदाभेदौ,
परमार्थसन्तौ, प्रमाणगोचरत्वात्, स्वाभिमततत्ववत् । न चैतेषु प्रयोगेषु २० साध्यसाधनधर्मविकलान्युदाहरणानि । भेदाभेदतदनुभयैकान्ताभिधायिनां यथोक्तसाध्यसाधनधर्मसहितोदाहरणप्रसिद्धेः स्याद्वादिवदिति ।
स्यादभेदश्च भेदश्च भावानां तद्व्यवस्थितः ।
एकान्तस्तु प्रमासिन्धुमध्यं नैवावगाहते ॥ ६०६॥
एवं सूक्ष्मस्थूलप्रतिभासैकान्तोऽपि प्रतीतिपराहतः । न हि २५ प्रत्यक्षे भिक्षुलक्षितं सूक्ष्मपरमाणुलक्षणमेव प्रतिभासते । स्थलन्यापि
घटाद्यात्मनः प्रतिभासनात् । ननु परमाणुष्वेवात्यासन्नासंसृष्टेषु निर्विकल्प
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परि. ५ सू. ८ ] स्याद्वादरत्नाकरसहितः कप्रत्यक्ष प्रतिभासमानेषु कुतश्चिद्विभ्रमनिमित्तादात्मनि परमाणुषु चासन्नमेव स्थूलमाकारं दर्शयन्ती संवृत्तिरविचारितरभ्यप्रतीतिलक्षणा तान् संवृणोति केशादिभ्रान्तिवदिति चेत् । नैवम् । बहिरन्तश्च प्रत्यक्षस्याभ्रान्तत्वकल्पनापोढत्वाभावप्रसंगेन संव्यवहारतः परमार्थतो वा ‘प्रत्यक्ष कल्पनापोढमभ्रान्तम्' इति तल्लक्षणस्यासंभवदोषानुषंगात् । ५ परमाणूनां जातुचिध्यक्षबुद्धावप्रतिभासनात् । त इमे परमाणवः प्रत्यक्षबुद्धावात्मानं च न समर्पयन्ति प्रत्यक्षतां च स्वीकर्तुमिच्छन्तीत्यमूल्यदानक्रषिणः । एतेन स्थूल एवं सूक्ष्मावयवव्यतिरिक्तोऽवयवी प्रतिभासत इति यद् वैशेषिकादिमतम् । तत्रावयव्यप्यमूल्यदानक्रया प्रतिपादितः । न ह्यवयव्यपि सूक्ष्मम्वावयवव्यतिरिक्तो महत्त्वोपेतः १० प्रत्यक्षे प्रतिभासते कुण्डादिव्यतिरिक्तदध्यादिवत् । समवायात्स्वावयवेभ्योऽर्थान्तरमिवावयवी प्रतिभासत इति चेत् । नैवम् । अवयविप्रत्यक्षस्य सर्वत्र भ्रान्तत्वप्रसंगात् । तथा चाव्यभिचारित्वं प्रत्यक्षलक्षणमसंभवि स्यात् । न चैतेऽवयवा अयमवयवी समवायश्चायमनयोरिति त्रयाकारं प्रत्यक्षमनुभूयते सकृदपि यतोऽसावप्यमूल्यदानक्रयी न स्यात् । १५ प्रत्यक्षबुद्धावात्मानर्पणेन प्रत्यक्षतास्वी करणाविशेषात् । तस्मादियं प्रत्यक्षबुद्धिर्देवदत्तादिसंनिधौ करचरणरसनवदनजघननयननासाशिरः श्रव. णभालकपोलकण्ठकन्धराम्कन्धबन्धवंशवरूणजवोरुपााद्यवयवसंनिवेशविशिष्टमा कारं बिभ्राणा सूक्ष्मस्थलाने कान्तात्मकमेव तत्त्वं स्फुटयतीत्यनुभवन्नपि सौगतो वैशेषिकादिर्वा स्वकृतान्तैकान्तावष्टम्भादावभावय- २० नात्मानं विपर्यासयन् विध्वस्त्रमानेऽपि प्राकृतजनप्रतिपन्नसन्मार्गेऽपि परिस्खलतीति सविस्मयं नश्वेतः । एवं सूक्ष्मस्थूलानेकान्तात्मके वस्तुनि स्वभावान्तरस्य प्राधान्यविवक्षायामाकारान्तरस्य गुणभाव: कुम्भोऽयं परमाणवो वेति । कुम्मार्थिनो हि कुम्भविवक्षायां कुम्भः प्रधानं परमाणवस्तु गुणीभूतास्तदनर्थित्वादविवक्षाप्रसिद्धेः । परमाण्व- २५
१ न्या. वि. पृ. ११.
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प्रमागनयतत्त्वालोकालङ्कारः परि. ५ सू. ८ र्थिनस्तु तद्विवक्षायां परमाणव एव प्रधान न पुन: कुम्भस्तद्विवक्षायाः संभवाभावात्तदर्थित्वानुपपत्तेः । न च तदुभयसत्ताविशेषादविशेषेणार्थित्वमनार्थत्वं वा प्रसज्यते । तयोः कुम्भादिसत्तानात्रानिबन्धनत्वा
मोहविशेषोदयस्यापि मिथ्यादर्शनादिकालादिनिमित्तकत्वात् । तदित्थं ५ प्रतीत्यनुरोधेन सूक्ष्मस्थूलाकारात्मकं वस्तु प्रेक्षावद्भिः प्रतिपत्तव्यम् ।
शतशः पराकृतोऽपि स्वमतप्रीत्याकुलीकृतस्वान्तः । स्थूलार्थमसहमानः किमपि ब्रूतेऽत्र सुगतसुतः ॥ ६०७ ॥
परमाणूनामन्योन्यं संबन्धाभावतः स्थूलाकारप्रतीतेन्तत्वात् कथं तद्वशानदात्मकं वस्तु स्यात् । संवन्धी हि स्वरूपेणैव तावन्न संभवति । तथायपमर्थानां पारतव्यलक्षणो वा स्यात्तादात्म्यापरपर्यायरूपाश्लेषलक्षणो वा । प्रथमपक्षे किमसौ निप्पन्नयोः संबन्धिनोः स्यादनिप्पन्नयोर्वा । न तावदनिष्पन्नयोः । स्वरूपस्यैवासत्त्वात् तुरगखरविषाणवत् । निष्पन्नयोश्च पारतन्ध्यामावादसंबन्ध एव । तदाह कीर्तिः
'पारतन्त्र्यं हि संबन्धसिद्धिका परतन्त्रता ।।
तस्मात्सर्वस्य भावस्य संबन्धो नास्ति तत्वतः ॥' नापि यथोक्तरूपश्लेषलक्षणोऽसौ । संबन्धिनोत्वेि तस्य विरोधात् । तयोरक्ये वा सुतरां तदभावः । द्विष्ठत्वात्संबन्धस्य । अथ नैर
न्तयं तयोरूपाश्लेषः। न । अस्यान्तरालामावरूपत्वे तात्त्विकत्वायोगात्। २० प्राप्तिरूपत्वेऽपि प्राप्तेः संयोगापरनामिकायाः परमार्थतः कात्स्न्यैकदेशाभ्यामसंभवात् ।
'तस्मात्प्रकृतिभिन्नानां संबन्धो नास्ति तत्त्वतः॥' किं च । परापेक्षयैव संबन्धः । तस्य द्विष्ठत्वात् । परं चापेक्षते. भावः स्वयं सन्नसन्वा । न तावदसन् ! तम्यापेक्षाधर्माश्रयत्वविरोधात् १' निष्पन्नयोस्तु ' इति न. पुस्तके पाठः ।
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परि. ५ सू.८]
स्याद्वादरत्नाकरसहितः
खरशृङ्गवत् । नापि सन् । तस्य सर्वनिराशंसत्वात् । अन्यथा सत्त्वविरोधात् । तन्न परापेक्षा नाम, यद्रूपः संबन्धः सिध्येत् । उक्तं च -
'परापेक्षा हि संबन्धः सोऽसन्कथमपेक्षते ।
संश्वं सर्वनिराशंसो भावः कथमपेक्षते ॥' किं चासौ संबन्धः संबन्धिभ्यां भिन्नः स्यादभिन्नो वा । यद्य- ५ भिन्नस्तदा संबन्धिनावेव न संबन्धः कश्चित् । भिन्नश्चेत्तर्हि संबन्धिनौ केवलौ कथं संबद्धौ स्याताम् । संबन्धान्तरं विना संबन्धिभ्यां सह कथं भिन्नः संबन्धः संबध्यते । संबन्धान्तराभ्युपगमे चानवस्था स्यात् । तत्रापि संबन्धान्तरानुषंगात् । तत्कः संबन्धमतिः सुदूरमपि गत्वा द्वयोरेकाभिसंबन्धमन्तरेणापि संबन्धे प्रथममेव तथास्तु किमेकाभिसंब- १० न्धेन तथा वचनसंबन्धमतिः । केवलयोः संबन्धिनोरतिप्रसंगात् । यदि च संबन्धिनौ संबन्धश्च स्वेनासाधारणेन रूपेण स्वलक्षणापरनाम्ना स्थितास्तदा सिद्धममिश्रणमर्थानां परमार्थतः । तदाह
'द्वयोरेकाभिसंबन्धासंबन्धो यदि तद्वयोः।
कः संबन्धोऽनवस्था च न संबन्धमतिस्तथा ॥' १५ तद्वयोः कः संबन्ध इति चेत् । अत्र तच्छब्दस्तर्हिशब्दार्थः । ततोऽयमर्थः । संबन्धाख्यैकवस्तुसद्भावाद्वौ संबन्धौ भवत इति यदि कल्प्यते तर्हि द्वयोः संबन्धिनोः कः संबन्ध एकेन संबन्धेन सहेति । तथा---
'तौ च भावौ तदन्यश्च सर्वे ते स्वात्मनि स्थिताः। १०
इत्यमिश्रः स्वयं भावास्तान् मिश्रयति कल्पना ॥' । अस्यार्थ:-तौ च भावौ संबन्धिनौ ताभ्यामन्यश्च संबन्धः । सर्वे ते स्वात्मनि स्वस्वरूपे स्थिताः । तेनामिश्रा व्यावृत्तस्वरूपाः स्वयं भावास्तथापि तान्मिश्रयति योजयति कल्पनेति । अत एव च वास्तवसंबन्धाभावेऽपि तामेव कल्पनामनुरुन्धानैर्व्यवहर्तृमिर्भावानां भेदस्या- २५ न्यापोहायरपर्यायस्य प्रत्यायनाय क्रियाकारकादिवाचिनः शब्दाः प्रयु
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. ५ सू. ८ ज्यन्ते देवदत्त गामभ्याज शुक्लां दण्डेनेत्यादयो न खलु कारकाणां क्रियया संबन्धोऽस्ति । क्षणिकत्वेन तत्काले तेषामसंभवात् । तदुक्तम्--
' तामेव चानुरुन्धानैः क्रियाकारकवाचिनः । __ भावभेदप्रतीत्यर्थं संयोज्यन्तेऽभिधासकाः॥'
कार्यकारणभावस्तार्ह संबन्धो भविष्यतीत्यप्यसमीचीनम् । कार्यकारणयोः सहभावाभावात् । न खलु कारणकाले कार्यम् । तत्काले वा कारणमस्ति । तुल्यकाले कार्यकारणभावानुपपत्तेः । सव्येतरगो
विषाणवत् । तन्न संबन्धिनौ सहभाविनौ विद्येते येनानयोर्वर्तमानः १० संबन्धः स्यात् । अद्विष्ठे च भावे संबन्धतानुपपन्नैव । तदाह
' कार्यकारणभावोऽपि तयोरसहभावतः ।
प्रसिद्धथति कथं द्विष्ठोऽद्विष्ठे संबन्धता कथम् ।।' कारणे कार्ये च क्रमेणासौ संबन्धो वर्तत इत्यप्यसांप्रतम् । यतः
'क्रमेण भाव एकत्र वर्तमानोऽन्यनिस्पृहः । ___ तदभावेऽपि तद्भावात्संवन्धो नैकवृत्तिमान् ॥'
अभ्यार्थ:-क्रमेणापि भावः संबन्धाख्य एकत्र कारणे कार्वे वा वर्तमानोऽन्यनिस्पृहः कार्यकारणयोरन्यतरानपेक्षो नैकवृत्तिमान् संबन्धो युक्तस्तदभावेऽपि कार्यकारणयोरभावेऽपि तद्भावादिति ।
' यद्यपेक्षितयोरेकमन्यत्रासौ प्रवर्तते ।
उपकारी ह्यपेक्षः स्यात्कथं चोपकरोत्यसन् ।' व्याख्या----यदि पुनः कार्यकारणयोरेकं कार्य कारणं वापेक्षान्यत्र कार्ये कारणे वासौ संबन्धः क्रमेण वर्तत इति सस्पृहत्वेन द्विष्ठ एवे. प्यते । तदा तेनोपेक्ष्यमाणेनोपकारिणा भवितव्यम् । यस्मादुपकारी अपेक्ष्यः स्यान्नान्यः । कथं चोपकरोत्यसन् । यदा कारणकाले कार्या
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परि. ५ मू. ८ स्याद्वादरत्नाकरसहितः ख्यो भावोऽसन् । तत्काले वा कारणाख्यस्तदा नैवोपकुर्यादसामर्थ्यात् । किं च
'यद्यकार्थाभिसंबन्धात्कार्यकारणता तयोः ।
प्राप्ता द्वित्वादिसंबन्धात्सव्येतरविषाणयोः ॥ द्विष्टो हि कश्चित्संबन्धो नातोऽन्यत्तस्य लक्षणम् ।' ५ अस्य सार्धश्लोकस्यार्थः । द्विष्ठो हि कश्चित्पदार्थः संबन्धः । नातोऽन्यत्तस्य लक्षणम् । ततश्च योकेनार्थेन संबन्धलक्षणेन योग एव कार्यकारणत्वम् । तदा द्वित्वसंख्यापरत्वापरत्वाद्येकार्थसंबन्धात् सव्येतरविषाणयोरपि कार्यकारणता प्रातेति । क्वचिद् द्वित्वाभिसंबन्धा. दिति पाठः । स च स्पष्टार्थः । किं च
'भावाभावोपधिर्योगः कार्यकारणता यदि । योगोपाधी न तावेव कार्यकारणतात्र किम् ।।
भेदाचेन्नन्वयं शब्दो नियोक्तारं समाश्रितः ।' अस्यार्थ:-स्थिते कार्यकारणरूपत्वे तदाक्षिप्तः संबन्धः कार्यकारणभाव इति । कस्मिंश्चित्सति भावस्तभावे चाभावः कार्यकारण- १५ भावो यस्तद्विशिष्टः संबन्धः कार्यकारणभावो भवति । तदेतद्यदीप्यते तदा संबन्धस्य विशेषणतया यावभिमतौ भावाभावौ तावेव कार्यकारणभावो भवतु । किंतु कार्यकारणयोरपरेण कार्यकरणं भावेन संबन्धेन प्रतिलब्धकार्यकारणरूपयोहि किमपरेण संबन्धेन । तावतेव वस्तुपर्यवसानात् । तथाविधेन स्वरूपप्रतिलम्भेन तु संबन्ध आक्षि- २० प्यत इति न्यायो नाप्यनुभव इति ! न युक्तमेतत् । ननु कार्यकारणयोः संबन्ध इति भेदाद्भवितव्यं तथाभूतयोरपि संबन्धेनेति चेत् । तयुक्तम् । यतः शब्दोऽयं नानुभवः । सोऽपि च संकेतप्रयोक्तृपरतन्त्रो नार्थाश्रय इति नैवमादेर्वस्तुव्यवस्थेति तावेव कार्यकारणतेति युक्तम् ! न त्वपरः संबन्धः । तथा हि--
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. ५ सु. ८ 'पश्यन्नेकमदृष्टस्य दर्शने तददर्शने ।
अपश्यन्कार्यमन्वेति विनाप्याख्यातृभिर्जनः ॥ पश्यन्नेक कारणाभिमतमदृष्टस्योपलब्धिलक्षणप्राप्तस्यानुपलब्धस्य कार्याख्यस्य दर्शने सति । तस्यैकम्य कारणाभिमतस्यादर्शने च ५ सत्यपश्यन्कार्यमन्वेतीदमतो भवतीति निर्विकल्पकप्रत्यक्षतः प्रतिपद्यते जनोऽत इदं जातमित्याख्यातृभिविनापि । ततश्च---
'दर्शनादर्शने मुक्त्वा कार्यबुद्धरसंभवात् ।
कार्यादिश्रुतिरप्यत्र लाघवार्थ निवेशिता ॥'
दर्शनादर्शने मुक्त्वा विषयिणि विषयोपचाराद्भावाभावौ मुक्त्वा १० कार्यबुद्धेरसंभवात् । कार्यादिश्रुतिरप्यत्र भावाभावयोर्मा लोकः प्रतिपद. मियन्तीं शब्दमालामभिदध्यादिति व्यवहारलाघवार्थ निवेशितेति । अथापि स्याद्यदि दर्शनादर्शने एव कार्यबुद्धिम्तर्हि भावाभावी कार्य, न चैतदस्ति । भावाभावाभ्यां कार्यत्वसाधनात् । तस्मादन्यदेव कार्य
त्वमित्यन्या कार्यत्वबुद्धिः । तदयुक्तम् । यतः-- ५ तद्भावभावात्तत्कार्यगतिर्याप्यनुवर्ण्यते ।
संकेतविषयाख्या सा सास्नादेोगतिर्यथा ।' तद्भावभावाल्लिङ्गात्तत्कार्थतागतिर्याप्यनुवर्ण्यतेऽस्येदं कार्यमम्गेदं कारणं चेति संकेतविषयाख्यानमेतदुपदर्श्यते । यथा गौरय सानादिमत्त्वादित्यनेन गोव्यवहारस्य विषयः प्रदर्यते । यतः
'भावे भाविनि तद्भावो भाव एव च भाविता ।
प्रसिद्ध हेतुफलते प्रत्यक्षानुपलम्भतः ।। प्रत्यक्षानुपलम्भतो हि कार्यकारणते प्रतीयते न तु तद्भावभावात् । तद्भावभाव एव तु ते । तथा हि-भावेऽम्यादौ भाविनि धूमस्य भावः
प्रत्यक्षावगतः । भाव एव च तम्याग्न्यादेभांविता धूमस्य न तु पूर्वमेव २५ भाव इत्यनुपलम्भतोऽवगतन् । प्रागग्निसंनिधेरुपलाब्धलक्षणप्राप्तस्य
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पारे. ५ सू. ८ स्याद्वादरत्नाकरसहितः धूमस्याभावावगमात् । य एव चासौ भावे तद्भावोऽभावे चाभावस्तदेव कार्यकारणयोः कार्यकारणत्वम् । एवं च -
'एतावन्मात्रतत्त्वार्थाः कार्यकारणगोचराः ।। विकल्पा दर्शयन्त्यर्था मिथ्यार्थान् घटितानिव ।।' प्रत्यक्षानुपलम्भमात्रावगतभावाभावपरमार्थाः कार्यकारणविषया ५ विकल्पाः । तथाभूता अपि तेऽर्था न सत्यार्थस्वरूपान् दर्शयन्ति । का पुनस्तेषामसत्यवस्तुरूपता । यदिदं घटितानामिव प्रतिभानमस्येदं कार्यमस्य चेदं कारणमिति । घटना चासत्यत्वम् । तथा हि---
'मिन्ने का घटनाऽभिन्ने कार्यकारणतापि का ।
अन्यस्य भावे. विश्लिष्टौ श्लिष्टौ स्यातां कथं च तौ ॥' १० _ कार्यकारणभूतो ह्या भिन्नोऽभिन्नो वा स्यात् । यदि भिन्नस्तर्हि भिन्ने का घटना म्वस्वभावव्यवस्थितेः । अथाभिन्नस्तदाऽभिन्ने कार्यकारणतापि का नैव म्यात् । स्यादेतत् । न भिन्नस्याभिन्नस्य वा संबन्धः । किं तर्हि संबन्धाख्येनकेन संबन्धादिति । अत्रापि भावे सत्तायामन्यस्य संबन्धस्य विश्लिष्टौ कार्यकारणताभिमतौ लिष्टौ भ्यातां १५ कथं च ताविति ।
‘संयोगिसमवायादि सर्वमेतेन चिन्तितम् ।।
अन्योऽन्यानुपकारात्म न संबन्धी च तादृशः ॥' यतश्च कार्यकारणभावो न संबन्धो द्विष्ठत्वाभावेन संबन्धविलक्षण- २० त्वात् । अतः संयोगिसमवाय्यादि कारणमपाकृतं कीदृशमन्योन्यानुपकारात्म परस्परमुपकारशून्यस्वभावम् । कार्यकारणावस्थत्वे परस्परमुपकारम्य पारतन्त्र्येण संश्लेषणापेक्षया चाभावादेकसनिधावपरस्यासिद्धेः। यश्चैवं भावादुपकाररहितः स संबन्धी न भवतीति । अथास्ति कश्चित् समवायी योऽवयविरूपकार्यं जनयति । अतो नानुपकारादसंबन्धितेति । २५ तन्न । यतः--
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. ५ सु. ८ 'जननेऽपि हि कार्यस्य केनचित्समवायिना ।
समवायी तदा नासौ न ततोऽतिप्रसंगतः ॥' जननेऽपि कार्यस्य केनचित्समवायिनाभ्युपगम्यमाने समवायी नासौ तदा जननकाले कार्यस्यानिप्पत्तेः । न च ततो जननात् समवायित्वं ५ सिध्यति । कुम्मकारादेरपि घटसमवायित्वप्रसंगात् ।
* तयोरनुपकारेऽपि समवाये परत्र वा ।
संबन्धो यदि विश्वं स्यात्समवायि परस्परम् ।।' . संबन्धिनोरनुपकारेऽपि समवाये संयोगे वा संबन्धो यदीप्यते तदा विश्वमपि समवाथि । उपलक्षणं चैतदिति । संयोगि च म्यासंयोगेन १० समवायेन वा विश्वं संबन्धि स्यादित्युक्तं भवति ।
'संयोगजननेऽपीष्टौ ततः संयोगिनौ न तौ।
कर्मादेरपि संयोगिता स्याजननात्ततः ।।' यदि संयोगजननासंयोगिता तयोस्तदा संयोगजननेऽपीष्टावभिलषितौ । ततः संयोगजननान्न तौ संयोगिनौ। कर्मणोऽपि संयोगिता१५ पत्तेः । संयोगो धन्यतरकर्मज उभयकर्मजः संयोगजश्चेष्यते । आदि.
ग्रहणासंयोगजस्यापि संयोगिता स्यात् । न सं .... .... .... .... .... .... कयोहिं जन्यजनकभावान्नान्या स्थितिरिति । अस्तु वा कार्यकारणभावलक्षणः संबन्धः, तथाप्यस्य प्रतिपन्नस्याप्रतिपन्नस्य वा
सत्त्वं सिध्येत् । न तावदप्रतिपन्नस्य । अतिप्रसंगात् । प्रतिपन्नस्य २० चेत् । कुतोऽस्य प्रतिपत्तिः । प्रत्यक्षेण चेत् । कारणस्वरूपग्राहिणा
कारणकार्योभयस्वरूपप्राहिणा वा । न तावदनिस्वरूपग्राहिणा । तद्धि तत्सद्भावमेव प्रतिपद्यते । न धूमस्वरूपम् । तदप्रतिपत्तौ च तदपेक्षयाग्नेर्न कारणत्वावगमो न हि प्रतियोगिस्वरूपप्रतिपत्तौ तं प्रति
कस्यचित् कारणत्वमन्यद्वा धर्मान्तरमवगम्यते । नापि हि वहिधू२५ मयोः स्वरूपमेव प्रतिभासते । न तु वढेधूमं प्रति कारणत्वं, न खलु
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परि. ५. ८ ]
स्याद्वादरत्नाकर सहितः
1
स्वस्वरूपनिष्ठपदार्थस्यैकज्ञानप्रतिभासमात्रेण कार्यकारणभावप्रतिभासः । स्तम्भकुम्भादेरपि तत्प्रसंगात् । नाप्येकप्रतिमा सानन्तरमपरप्रतिभासयोगादेव । स्तम्भप्रतिमासानन्तरं हि कुम्भोऽपि प्रतिभासत इति तयो - रपि कार्यकारणभावः स्यात् । न च क्रमभाविपदार्थद्वयप्रतिभाससंबन्धेऽप्येकं ज्ञानमिति वक्तुं शक्यम् । सर्वत्र प्रतिभासभेदस्य भेदनित्र - ५ न्धनत्वात् । अथाग्निमति धूमस्य प्रत्यवभासनावद्भावः सविकल्पकप्रत्यक्षप्रसिद्ध इत्यप्यसमीचीनम् । गन्धस्यापि लोचनज्ञानविषयत्वप्रसंगात् । गन्धस्मरणसहकारिलोचनव्यापारानन्तरं सुरभि चन्दनमिति प्रत्ययप्रतीतेः । तन्न प्रत्यक्षेणासौ प्रतीयते । नापि प्रत्यक्षानुपलम्भाभ्यां प्रत्यक्षस्येवानुपलम्भस्थापि प्रतिषेध्य विविक्तवस्तुमात्रविषयत्वेनात्रा - १० सामर्थ्यात् । अथामि सद्भाव एवं धूमस्य भावस्तदभावे चाभावः । स चैताभ्यां प्रतीयत इत्युच्यते । तर्हि वक्तृत्वस्यासर्वज्ञत्वादिना व्याप्तिः स्वात्, तद्धि रागादिमत्त्वासर्वज्ञत्वसद्भावे स्वात्मन्येव दृष्टं तथा च सर्वज्ञवीतरागाय दत्तो जलाञ्जलि: । अथान्यभावे धूमस्य भावे तद्धेतुकताविरहात्सकृदप्यहेतोरनेस्तस्य भावो न स्यात् । दृश्यते च महानसादा- १५ वग्नितस्तस्य भावस्ततो नानग्धूमसद्भाव इति प्रतिबन्धसिद्धिरित्यभिधीयते । तदप्यभिधानमात्रम् । यथैव हीन्धनादेरेकदा समुद्भूतोऽप्यमिरन्यदाऽरणिनिर्मथनान्मण्यादेव भवन्नुपलभ्यते । धूमो वाग्नितो जायमानोऽपि गोपालघुटिकादौ पावकोद्भूतधूमादप्युपजायते । तथान्यभावेऽपि कदाचिद्धमो भविष्यतीति कुतः प्रतिबन्धसिद्धिः । अथ २० यादृशोऽग्निरिन्धनादिसामग्रीतो जायमानो दृष्टो न तादृशोऽरणितो मय्यादेर्वा धूमोऽपि यादृशोऽग्नितो न तादृशो गोपालघुटिकादौ वह्निप्रभवधूमादन्यादृशात्तादृशभावेऽतिप्रसंगादिति नाग्निजन्यधूमस्य तत्सदृ
-
All
१ गोपालादयोऽजा यस्मिन् पाले दारुनारिकेलादिनिर्मिते तमाखुपत्रभनौ निधाय प्रज्वाल्य च तद्धमं पिबन्ति तदधोभागे यद्वर्तुलाकृति जलसंचयपात्रं तत् घुटिकादेनाभिधीयते । तद्देशी भाषायां हुक्का, गुडगुडी, इत्यभिधीयते ।
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. ५ सू. ८ शस्य चाननेभीवो भावे वा तादृशधूमजनकस्याग्निस्वभावतैवेति न व्यभिचारः । तदुक्तम्----
'अग्निस्वभावः शक्रस्य मूर्धा यद्यग्निरेव सः।
अथानग्निस्वभावोऽसौ धूमस्तत्र कथं भवेत् ॥' ५ इत्यादि । तदेतद्वक्त वेऽपि समानम् । तद्धि सर्वज्ञे वीतरागे वा
यदि स्यादसर्वज्ञाद्रागादिमतो वा कदाचिदपि न स्यादहेतोः सकृदप्यसंभवात् । भवति च तत्ततः । अतो न सर्वज्ञे तम्य तत्सदृशस्य वा संभव इति प्रतिबन्धसिद्धिः । किंच कार्यकारणभावः सकलदेशकालावस्थिताखिलाग्निधूमव्यक्तिकोडीकरणेनावगतोऽनुमाननिमित्तं नान्यथा । न च निर्विकल्पकस्य सविकल्पकस्य वा प्रत्यक्षस्येयति वस्तुनि व्यापारः प्रत्यक्षानुपलम्भयोर्वा । एतेन तृतीयोऽपि पश्चश्चिन्तितः। एवं च न संबन्धस्य स्वरूपमप्यस्ति । तथा च
परमाणवः परम्परमिह संश्लेषं श्रयन्ति न कथंचित् । तस्मात्तत्प्रचयात्मा स्थूलाकारोऽस्तु कथमर्थे ॥ ६०८ ॥ स्थूलाकारनिराकृतिविषयं ताथागतैरिदं गदितम् । शुणितमिव दारु विदलति जैनोदितयुक्तिभारेण ।। ६०९ ।।
तथा हि- यत्तावत् 'परमाणूनामन्योऽन्यं संबन्धाभावतः' इत्यादि तदसंबद्धम् । संबन्धस्यार्थानामबाधिताध्यक्षे प्रतिभासनात् । पटो हि तन्तुसंबद्ध एवावभासते। रूपादयश्च पटादिसंबद्धाः। संबन्धाभावे च तेषां विश्लिष्टताप्रतिभासः स्यात्तमन्तरेणान्यस्य संश्लिष्टता । प्रतिभासहेतोरभावात् । संबन्धानभ्युपगमेऽर्थक्रियाविरोधश्च परमाशूनामन्योन्यमसंबन्धतो जलधारणाद्यर्थक्रियाया अबटनात् । रज्जुवंशदण्डादीनामेकदेशाकर्षणे तदन्याकर्षणं चासंबन्धवादिनो दुर्लभं स्यात् । अस्ति चैतत्सर्वमत एतदन्यथानुपपत्तेश्च संबन्धप्रसिद्धिः । यदपि ' अधमर्थानां पारतन्त्र्यलक्षणो वा स्यात्, तादात्म्यापरपर्यायरूपश्लेषलक्षणो वा' इति विकल्प्य पारतन्त्र्याभावासंबन्धनिराकरणं कृतम् । तदप्ययुक्तम् । यतः पारतन्त्र्य
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परि. ५ सू. ८] स्याद्वादरत्नाकरसहितः स्याभावाद्भावानां सबंन्धाभावमभिदधानास्तेन संबन्धव्याप्तं कचित्प्रतिपद्यन्ते न वा । प्रतिपद्यन्ते चेत्कथं सर्वत्र सर्वदा संबन्धाभावमभिदध्यु. विरोधात् । नो चेत्कथमव्यापकभावादव्याप्याभावसिद्धिः। परोपगमात्तस्य तेन व्याप्तिसिद्धेरदोष इति चेत् । न । तथा स्वप्रतिपत्तेरभावानुषंगात् । परोपगमाद्धि परः प्रतिपादयितुं शक्यः सर्वथा संबन्धाभावं नात्मा । ५ शक्य एव प्रत्यक्षत इति चेत् । न । तस्य निर्विकल्पकत्वेन न कश्चिस्केनचित्कथंचित्कदाचित्संबद्ध इतीयतो व्यापारान्कर्तुमसमर्थत्वात् । अन्यथा सर्वार्थवेदित्वापत्तेः । सर्वार्थानां साक्षात्करणमन्तरेण संबन्धाभावस्य तेन प्रतिपत्तमशक्तेः । केषांचिदर्थानां स्वातन्त्र्यमसंबन्धेन व्याप्तम् । सर्वोपसंहारेण प्रतिपद्य ततोऽन्येषामसंबन्धप्रतिपत्तिरानु- १० मानिकी स्यादिति चेत्, तर्हि स्वातन्त्र्यमर्थानां न तावदसिद्धानाम् । सिद्धानां तु स्वातन्त्र्यात्संबन्धाभावे तत्त्वतः किं तु देशादिनियमेनोद्भवो दृश्यते । तस्य पारतन्त्र्येण व्याप्तत्वात् ! न हि स्वतन्त्रोऽर्थः सर्वनिरपेक्षितया नियतदेशकालद्रव्यभावजन्मास्ति । न चाजन्मा सर्वथार्थक्रियासमर्थः । स्वयं तस्यापाकरणात् । प्रत्यासत्तिविशेषा- १५ देशादिभिर्नियतोत्पत्तिरर्थस्य स्यादिति चेत् । तर्हि स एव प्रत्यासत्ति - विशेषः संबन्धः पारमार्थिकः सिद्धः । तदुक्तम्----
' द्रव्यतः क्षेत्रतः कालभावाभ्यां कस्यचित्सतः ।
प्रत्यासन्नत्वतः सिद्धः संबन्धः केनचित्स्कुटः ।।' कस्यचिद्धि पर्यायम्य सतः केनचित्पर्यायेण सहैकद्रव्ये समवाया- २० व्यप्रत्यासत्तिर्यथा स्मरणम्यानुभवेन सहात्मन्येकत्र समवायस्तमन्तरेण तत्रैव यथानुभवं स्मरणानुपपत्तेः सोममित्रानुभवाद्विष्णुमित्रस्मरणानुपपत्तियन् । संतान प्रात्तदुपपत्तिरिति चेत् । न । संतानत्यावस्तुत्वे तन्नियमहेतुत्वाघटनात् । वस्तुचे वा नाममात्रं भिग्रेत । संतानो द्रव्यमिति न वाचविशेषः । यत्संताने वासनाप्रबोधात संताने स्मरणमिति २५ नियमोपगमोऽपि न श्रेयान् । प्रोक्तदोषानतिकमात् । संतानस्यात्म
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प्रमाणनयतत्त्वालोका लङ्कारः
[ परि. ५.८
द्रव्योपपत्तौ यदात्मद्रव्यपरिणामो वासना प्रबोधस्तदात्मद्रव्यविवर्तः स्मरणमिति परमतसिद्धेः कथं परस्परं भिन्नस्वभावकालयोरनुभवस्मरणयोरेकमात्मद्रव्यं व्यापकमिति च न नोद्यम् । सकृन्नानाकारव्यापिना ज्ञानेनैकेन प्रतिविहितत्वात् । समसमयवर्तिनो रूपरसयोरेकगु५ जिव्याप्तयोरनुमानानुमेयव्यवहारयोग्ययोरेकद्रव्यप्रत्यासतिरनेनेोक्ता
८२२
तदभावे तयोस्तद्व्यवहारयोग्यतानुपपतेः । एकसामप्रधीनत्वा तदुप पत्तिरिति चेत् | केयमेका सामग्री नाम । एकं कारणमिति चेत् । तत्सहकारि, उपादानं वा । सहकारि चेत् । कुलाल कलशयोर्दण्डादिरेका सामग्री स्यात्समानक्षणयोस्तयोरुत्पत्तौ तस्य सहकारित्वात् । १० तथा तयोरनुमानानुमेयव्यवहारयोग्यता न व्यभिचारिणी स्वात् । तदेक सामग्र्यधीनत्वात् । एकसमुदायवर्तिसहकारिकारणमेका सामग्री न भिन्नसमुदायवर्ति, यतोऽयमतिप्रसंग इति चेत्, कः पुनरयमेकसमुदायः । साधारणार्थक्रिया नियता प्रविभागरहिता रूपादय इति चेत् । कथं प्रविभागरहितत्वमेकत्वपरिणामभावे तेषामुपपद्यतेऽतिप्रसं१५ गात् । सांवृतैकपरिणामोऽस्त्विति चेत् । न । तस्य प्रविभागभावहेतुत्वायोगात् । प्रविभागाभावोऽपि तेषां सांवृत इति चेत् । तर्हि तत्त्वतः प्रविभक्ता एव रूपादयः समुदाय इत्यापन्नम् । न चैवं केषांचित्समुदायेतरव्यवस्था । साधारणार्थक्रियानियतत्वेतराभ्यां सोपपन्नेति चायुतम् । सूर्याम्बुजयोरपि समुदायत्वप्रसंगात् । तयोरम्बुजप्रबोधाख्य२० साधारणार्थक्रियानियतत्वात् । ततो वास्तवमेव प्रविभागरहितत्वं सनुदायविशेषस्तेषामेकत्वाध्यवसायहेतुरङ्गीकर्तव्यः । स चैकत्वपरिणाम तात्त्विकमन्तरेण न घटत इति सोऽपि प्रतिपत्तव्य एव । सचैकं द्रव्यमिति सिद्धम् ' स्वगुणपर्यायाणां समुदायः स्कन्धः' इति वचनात् । तथा च सति रसरूपयोरे काग्र्यात्मकयोरेकद्रव्यप्रत्यासत्तिरेव लिङ्ग२५ लिङ्गिव्यवहारहेतुः कार्यकारणभावस्यापि नियतस्य तदभावेऽनुपपतेः संतानान्तरवत् । न हि क्वचिदेव द्रव्ये वर्तमानाः पूर्वे रसादिपर्यायाः
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८२३
परि. ५ स. ८ ] स्याद्वादरत्नाकरसहितः
८२३ पररसादिपर्यायाणामुपादानं न पुनरन्यनेति नियमस्तेषामेकद्रव्यतादात्म्यविरहे कथंचिदुपपन्नः । एकमुपादानम्, एका सामग्रीति द्वितीयः पक्षः सौगतानामसंभाव्य एव । नानाकार्यम्यैकोपादानत्वविरोधात् । यदि पुनरेक द्रव्यमनेककार्योपादानं भवेत्तदा सैवैकद्रव्यपर्यायप्रत्यासत्तिरायाता रसरूपयोः । क्षेत्रप्रत्यासत्तिर्यथा बलाकासलिलयोरेकस्यां भूमौ स्थितयोः। ५ संयुक्तसंयोगो हि ततो नान्यः प्रतिष्ठामियति । जन्यजनकभाव एव तयोः परस्परं प्रत्यासत्तिरिति चेत् । न । अन्यसरः समुद्भूतयोः परत्र सरसि बलाकाया निवाससंभवात् । नैका बलाका पूर्व सरः प्रविहाय सरोऽन्तरमवितिष्ठन्ती काचिदम्ति । प्रतिक्षणं तद्भेदादिति चेत् । न । बलाकाद्रव्यस्य तस्यैव प्रतीतर्बाधकाभावात्तदभ्रान्तत्वानुपपत्तेः । क्षितेः १० प्रतिप्रदेशं भेदादेकत्र प्रदेशे बलाकासलिलयोरनवस्थानान्नैकतत्क्षेत्रप्रत्यासत्तिरिति चेत् । न । क्षित्यवयविनस्तदाधारस्यैकम्य साधनात् । न चैकम्यावयविनो नानावयवव्यापिनः सकृदसंभवः । प्रतीतिसिद्धखाद्वेयाकारख्याप्येकज्ञानवत् । कालप्रत्यासत्तिर्यथा--- सहचरयोः सम्यग्दर्शनसम्यग्ज्ञानसामान्ययोः शरीरे जीवस्पर्शीवशेषयोर्वा । पूर्वोत्तरचर- १५ योर्भरणिकृत्तिकोः कृतिकारोहिण्योर्वा तयोः प्रत्यासत्यन्तरस्याव्यवस्थानात् । भावप्रत्यासत्तियथा- गोगवययोः केवलिसिद्धयोर्वा । तयोरेकतरम्य हि यो भावसंस्थानादिरनन्तज्ञानादिर्वा तादृक्तदन्यतरस्यापि सुप्रतीत इति न प्रत्यासत्त्यन्तरम् । कयोश्चिदनेकप्रत्यासत्तिसंभवे वा न किंचिदनिष्टम् । प्रतिनियतोद्धृतेः सर्वपदार्थानां द्रव्यादि- २० प्रत्यासत्तिचतुष्टयव्यतिरेकेणानुपपद्यमानत्वेन प्रसिद्धेः सैव चतुर्विधा प्रत्यासत्तिः स्फुटः संबन्धो बाधकाभावादिति संबन्धाभावे व्यवतिष्ठते । यच्चोक्तम् 'निष्पन्नयोरनिष्पन्नयोा पारतन्त्र्यलक्षणसंबन्धः स्यात् ' इत्यादि । तदपि न तथ्यम् । कथांचेन्निप्पन्नयोस्तद्ङ्गीकारात् । पटो हि तन्तुद्रव्यरूपतया निप्पन्न एवान्वयिनो द्रव्यस्य २५ पटपरिणामोत्पत्तेः प्रागपि सत्त्वात् । स्वरूपेण त्वनिप्पन्नोऽसौ । तन्तु
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प्रमाणनयतत्वालोकालङ्कारः
[ परि. ५ सु. ८
6
द्रव्यमपि स्वरूपेण निष्पन्नं पटपरिणामरूपतया त्वनिप्पन्नं .... ( तथाझुल्यादिद्रव्यं स्वरूपेण निष्पन्नं ) संयोगिपरिणामात्मकत्वेन त्वनिष्पन्नमिति । यदपि न रूपश्लेषलक्षणोऽसौ ' इत्यादि प्रत्यपादि तदेतदेकान्तवदनः प्रेर्यम् । न पुनरनेकान्तवादिनाम् । *५ ते हि कथंचिदेकत्वापत्ति संबन्धिनो रूपश्लेषं संबन्धमाचक्षते । न च सा द्वित्वविरोधिनी । कथंचित्स्वभावनैरन्तर्ये वा ते संबन्धमभिदधते । तदपि नान्तरालाभावरूपमवास्तवम् । छिद्रमध्यविरहेण्वन्यतमस्यान्तरालस्याभावो हि स्वभावान्तरात्नको वस्तुभूत एव यदा रूपश्लेषः कयोश्चिदास्थीयते निर्बाधस्तथा प्रत्ययविषयस्तदा कथं कल्पनारोपितः १० स्यात् । केनचिदंशेन तादात्म्यमतादात्म्यं च संबन्धिनोर्विरुद्धमित्यपि न मन्तव्यम् । तथानुभवाचित्राकारसंवेदनवत् । एतेन प्राप्तिरूपं नैरन्तर्ये रूपश्लेष इत्यपि स्वीकृतम् । कथंचित्तादात्म्यानतिक्रमाद्यथैव हि कार्यकारणक्षणाभ्यां तन्मध्यक्षणस्यैकदेशेन संबन्धे सांशत्वमनवस्था वा । तदेकदेशस्याप्येकदेशान्तरेण संबन्धात् । कार्त्स्न्येन १५ संबन्धे पुनरेकक्षणमात्र संतानप्रसंग: । कार्यकारणभावाभावश्च सर्वथैकस्मिंस्तद्विरोधादित्येकदेश कार्यपक्षानुपेक्ष्य संबन्ध एवेति कथ्यते । तथा परमाणूनामपि युगपत्परस्पर मेकत्वपरिणामहेतुः संबन्धो नैकदेशेन सर्वात्मना वा येन सांशत्वानवस्थाप्रसंग एकपरमाणुमात्रपिण्डप्रसंगश्च स्यात् । किं तर्हि संबन्ध एवेति कथ्यते । सक्ततोयादिवत् । परमाणूनां सांशत्वमित्यत्र चांशशब्दः स्वभावार्थोऽवयवार्थो वा स्यात् । २० यदि स्वभावार्थो न कश्चिदोषः । परमाणूनां विभिन्नदिग्भागव्यवस्थिताने काणुभिः संबन्धान्ययानुपपत्त्या तावद्वा स्वभावभेदोपपत्तेः । अवयवार्थस्त्वत्रांशशब्दो न युक्तिमान् | अणूनामभेद्यत्वेनावयवासंभवात् । न चैवं तेषामविभागित्वं विरुध्यते । यतोऽविभागित्वं भेदयितुमशक्यत्वं न पुनरेकस्वभावत्वमिति । यच्चोक्तम् ' न स तात्त्विकः संबन्धोऽस्ति प्रकृतिभिन्नानां व्यवस्थिते:' इत्यादि । तदपि नावदातम् । स्वस्वभावव्य२५ बस्थितिरेव तेषां संबन्धसिद्धेः । स्वस्वभावो हि भावानां प्रतीयमानः १ अयं पाठोऽत्र त्रुटितमिव भाति ।
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परि ५ सु. ८ ]
स्याद्वादरत्नाकर सहितः
"
कथंचित्प्रत्यासत्तिर्विप्रकर्षश्च । सर्वथा तंदप्रतीतेस्तेन व्यवस्थितिः कथं संबन्धाभविकान्तं साधयेत् संबन्धसद्भावैकान्तवत् । न चापेक्षिकत्वात्संबन्धस्वभावो मिथ्याप्रतिभास: सूक्ष्मत्वादिवदसंबन्धस्वभावस्यापि तथानुषङ्गात् । न चासंबन्धस्वभावोऽनापेक्षिकः कंचिदर्थमपेक्ष्य कस्यचित्तव्यवस्थितेरन्यथानुपपतेः स्थूलत्वादिवत् । प्रत्यक्षबुद्धौ प्रतिभास - ५ मानोऽनापेक्षिक एवायं तत्पृष्ठभाविना तु विकल्पेनाध्यवसीयमाने । यथापेक्षिकस्तथा वास्तवो न भवतीति चेत् । संबन्धस्वभावे समानमेतत् । न हि स प्रत्यक्षे न प्रतिभासते । यतोऽनापेक्षिको न स्यात् । एतेन ' परापेक्षैव संबन्धस्तस्य द्विष्ठत्वात् ' इत्याद्यपि प्रत्याख्यातम् । असंबन्धेऽपि समानत्वात् । किं चैवंवादी सर्वथा सदसत्त्वाद्य - १० भावस्य परापेक्षाया विरोघमप्रतिपद्यमानः कथं तां प्रतिषेधेत् । प्रतिपद्यमानस्तु सुतरां प्रतिषेद्रुमसमर्थस्तस्याः कचित्सिद्धेरन्यथा विरोधायोगात् । कथं वा निराकुर्वन्नपि परापेक्षा सर्वत्रासंबन्धस्यानापेक्षिकत्वं प्रत्याचक्षीत न चेदुन्नतः । स्वलक्षणमेव संबन्धोऽनापेक्षिकः स्यान्न ततोऽन्यः स चेष्टो नाममात्रे विवादात् वस्तुन्यविवादादिति चेत् । १५ कः पुनः संबन्धमस्वलक्षणमाह । तस्यापि स्वेन रूपेण लक्ष्यमाणस्य स्वलक्षणत्वात् । यदपि ' संबन्ध: संबन्धिभ्यां भिन्नः स्यादभिन्नो वा ' इत्यादि न्यगादि तदपि स्याद्वादिमतानभिज्ञभाषितम् । स्याद्वादिमतं हि भेदाभेदैकान्तपराङ्मुखमिति न तद्दोषास्पदम् । एवं च 'वास्तव संबन्धाभावेऽपि तामेव कल्पनाम् ' इत्यादि, अनुपपन्नम् । २० क्रियाकारकादीनां संबन्धिनां तत्संबन्धस्य च वस्तुरूपस्य प्रतीत्यर्थं तदभिधायकानां प्रयोगप्रसिद्धेः । अन्यापोहस्य च प्रागेवापास्तस्वरूपत्वाच्छब्दार्थत्वमुपपन्नमेव । यच्वोक्तम् ' कार्यकारणभावस्तर्हि संबन्धो भविष्यति' इत्यादिकम् ।' भिन्ने का घटनाऽभिन्ने कार्यकार णतापि का इति कारिकाव्याख्यानं यावत्तदकार्यकारण- २५. भावेऽपि सर्वं समानम् । सोऽपि हि द्विष्टः कथमसहभाविनोः कार्य
.
?
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८२५
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प्रमाणनयतत्वालोकालङ्कारः
[ परि. ५.८
कारणत्वाभ्यां प्रतिषेध्ययोर्भावयोर्वर्तत । न चाद्विष्ठोऽसौ संबन्धाभावत्वविरोधात् । पूर्वत्र भावे वर्तितत्वात्परत्र क्रमेण वर्तमानोऽपि यदि सोऽन्यनिस्पृह एवैकत्र तिष्ठन्कथमसंबन्धः । परस्य ह्यनुत्पन्नस्याभावेऽपि पूर्वप्रवर्तमानः । पूर्वस्य च नष्टत्वेनाभावेऽपि परत्र वर्तमानोऽसावेकवृत्तिरेव स्यात् । पूर्वत्र वर्तमानः परमपेक्षते परत्र च तिष्ठन्पूर्वमतोऽसंबन्धो द्विष्ठ एवान्यनिस्पृहत्वाभावादिति चेत् । कथमनुपकारकं तयोरन्यतरमपेक्षतइति प्रसंगात् । स्वोपकारमपेक्षत इति चेत् । न । असतस्तदुपकारत्वायोगात् । यदि पुनरेकेनाभिसंबन्धात्पूर्वपरयोरर्थयोः कार्यकारणभावस्तदा सव्येतरविषाणयोरसौ संभवति । १० एकेन द्वित्वादिनाभिसंबन्धात् । तथा च सिद्धसाध्यता । द्विष्ठो हि कश्चिदसंबन्धो नातोऽन्यलक्षणो येनाभिमतसिद्धिः । यदि पुनः पूर्वस्याभाव एव यो भावोऽभावे वाऽभावस्तदुपाधिरयोगोऽकार्यकारणभावस्तदा तावेव भावाभावावयोगोपाधी किं नाकार्यकारणभावः स्यात् । तयोंमेंदादिति चेत् । न । शब्दस्य नियोक्तृसमाश्रितत्वेन भेदेऽप्यभेद१५ वाचिनः प्रयोगाभ्युपगमात् । स्वयं हि लोकोऽयमे कमदृष्टस्य दर्शनेऽप्यपश्यंस्तददर्शनेऽपि च पश्यन् विनाप्याख्यातृभिरकार्यमवबुध्यते । एवं चादर्शनदर्शने मुक्त्वा न क्वचिदकार्यबुद्धिरस्ति । न च तयोरेकार्थादिश्रुतिर्विरुध्यते । लाघवार्थत्वात्तन्निवेशस्य । या पुनरतद्भवाभावादतत्कार्थगतिरूपवर्ण्यते सा संकेतविषयाख्या, यथाऽसा२० नादेरगोगतिर्नेतावता तत्त्वतोऽकार्यकारणभावो नाम । भावे सभाविनि भावो भाविनि चाभावितात्रा हेतुफलते प्रसिद्धे प्रत्यक्षानुपलम्भाभ्यामेव । तदेतावन्मात्रतत्त्वार्था एवाकार्यकारणगोचरा विकल्पा दर्शयन्त्यर्थान् । मिथ्यार्थान्स्वयमघटितानिय घटितानपीति समायातम् । भिन्ने हि भावे का नामाघटना तस्थाऽन्याऽवभासते । येनासौ तात्त्विकी २५ स्यात् । अभिने सुतरां न घटना । न च भिन्नावर्थौ केनचिदकार्यकारणभावेन योगादकार्यकारणभूतौ स्यातां संबन्धसिद्धिप्रसंगात्
८२६
५
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परि. ५ सू. ८ ]
स्याहादरत्नाकरसहितः
८२७
तदेवं न तात्त्विकोऽर्था नामकार्यकारणभावो व्यवतिष्ठते । कार्यकारणभाववत् । स्वस्वभावव्यवस्थितार्थान्विहाय नान्यः कश्चिदकार्यकारणभावोऽस्ति । तथा व्यवहारम्नु कल्पनामात्रनिमित्त एव कार्यकारणन्यवहारवदिति चेत् । तर्हि वास्तव एवं कार्यकारणभावोऽकार्यकारणभाववत् । केवलं तयवहारो विकल्पशब्दलक्षणो विकल्पनिर्मित इति ५ किमनिष्टम् । वस्तुरूपयोरपि कार्यकारणभाव इतरथाऽभावो वस्तुधिति तु न युक्तम् । व्याघातात् । कचिन्नीले तरत्वाभाववत् । ततो यदि कुतश्चित्प्रमाणादकार्यकारणभावः परमार्थतः केषांचिदर्थानां सिध्येत्, तत एव कार्यकारणभावोऽपि । प्रतीतेरविशेषात् । यथैव हि गवाश्चादीनामकार्यकारणभावः परस्परमतद्भावमावित्वप्रतीतव्य वतिष्ठते तथा- १० निधूमादीनां कार्यकारणभावोऽपि । तद्भावभावित्वप्र तीतेर्बाधकाभावात् । नन्वकस्मादग्निं धूम वा केवलं पश्यतः कारणत्वं कार्यत्वं वा किं न प्रतिभातीति चेत् । किं पुनरकारणत्वमकार्यत्वं वा प्रतिभाति । सातिशयसंविदां प्रतिभात्येवेति चेत् । कारणत्वं कार्यत्वं वा तत्र तेषां न प्रतिभातीति कोशपानं विधेयम् । अस्मदादीनां तु तदप्रतिभासनं १५ तथा निश्चयानुत्पत्तेः क्षणक्षयादिवत् । तचोभयत्र समानम् । यथैव हि तद्भावमावित्वानश्यवसाथिनां न कचित्कार्यकारणत्वनिश्चयोऽस्ति तथा स्वयमतद्भावभावित्वानध्यवसायिनामकार्यकारणत्वनिश्चयोऽपि । प्रतिनियतसामग्रीसापेक्षत्वाद्वस्तुधर्मिनिश्चयम्य ! न हि सर्वत्र समानसामग्रीप्रभवो निर्णयस्तथान्तरङ्गबहिरङ्गसामग्रीवचित्र्यदर्शनात् । धूमा- २, दिज्ञानजननसामग्रीमात्रात्तत्कार्यत्वादिनिश्चयानुत्पत्तेर्न कार्यत्वादि धूमादेः स्वरूपमिति चेत् । तर्हि क्षणिकत्वादिरपि तत्स्वरूपं माभूतत एव । क्षणिकल्याभावे वस्तुत्वमेव न स्यादिति चेत् । कार्यकारणत्वाभावेऽपि कुतो वस्तुत्वं खरशृङ्गवत् ! सर्वथाप्यकार्यकारणम्य वस्तुत्वानुपपत्तेः कूटस्थवत् । विशेषासंभवात् । ननु च सदपि कार्यत्वं २५ कारणत्वं वा वस्तुस्वरूपं न संबन्धो द्विष्ठत्वाभावात् । कार्यत्वं कारणे
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८२८
प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः { परि. ५ सू. ८ हि न वर्तते कारणत्वं च कार्ये येन द्विष्ठं भवेत् । कार्यकारणभावम्तयोरेको वर्तमानः संबन्ध इति चेत् । न । तस्य कारणाभ्यां भिन्नस्याप्रतीतेः । सतोऽपि प्रत्येकपरिसमाप्त्या तत्र वृत्तौ तस्यानैकत्वापत्तेः ।
एकदेशेन वृत्तौ सावयवत्वानुषक्तेः । सावयवेप्यपि वृत्तौ प्रकृतपर्यनु५ योगम्य तदवस्थत्वावतारात् । कार्यकारणान्तराले तस्योपलम्भप्रसंगाच्च । ताभ्यां तस्याभेदेऽपि कथमेकत्वं भिन्नाभ्यामभिन्नम्याभिन्नत्वविरोधात् । स्व .... .... .... .... .... .... देकपरमाणुमात्रं जगत्स्यात् । सकलजगत्स्वरूपो वा परमाणुरिति भेदाभेदैकान्तवादिनोरुपालम्भः ।
स्याद्वादिनस्तथानभ्युपगमात् । कार्यकारणभावस्य हि संबन्धभ्याबा१० धितप्रत्ययारूढस्य स्वसंबन्धिनोवृत्तिः कथंचित्तादात्म्यमेवानेकान्तवादि
नोऽपीति कथं संबन्धस्यैकत्वं न विरुध्यत इति चेत् । नानाकारतादात्म्ये ज्ञानस्यैकत्वं कुतो न विरुध्यते । तदशक्यविवेचनत्वादिति चेत् । तत एवान्यत्रापि कार्यकारणयोऽहिं द्रव्यरूपतयैकत्वात्कार्यकारणभाव
स्यैकत्वमुच्यते । न च तस्य शक्यविवेचनत्वं मृद्रव्य .... .... .... १५ .... .... .... रनेतुमशक्तेः । क्रमभुवोः पर्याययोरेकद्रव्यप्रत्यासत्तेरु
पादानोपादेयत्वम्य वचनात् । न चैवंविधः कार्यकारणभावः सिद्धान्तविरुद्धः । सहकारिकारणेन कार्यस्य कथं तत्स्यादकद्रव्यप्रत्यासत्तेरभावादिति चेत् । कालप्रत्यासत्तिविशेषात्तत्सिद्धिः। यदनन्तरं हि
यदवश्यं भवति तत्तस्य सहकारिकारणमितरत्कार्यमिति संनिहित२० देशस्येव दूरदेशस्यापि चक्षुषो रूपज्ञानोत्पत्ती सहकारित्वदर्श
नात् । संदंशकादेश्चासुवर्णस्वभावस्य सौवर्णकटकोत्पत्तौ । यदि पुनर्यावत्क्षेत्रं यद्यस्योत्पत्तौ सहकारि दृष्ट यथाभावं च तत्तावत्क्षेत्रं तथाभावमेव च सर्वत्रेति नियता व्याप्तिः स्यात्तदा नोक्तगतिः स्यात् । न चैवमिति । एतेन · संयोगि समवाय्यादि सर्वमेतेन चिन्तितम् । इत्याद्यपि प्रतिहतम् । कार्यकारणभावसिद्धौ संयोगिसमवाय्यादिकारणस्यापि सिद्धेः । यच्चोक्तम् — अस्तु वा कार्यकारण
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परि. ५ सू.८]
स्याद्वादरत्नाकरसहितः
भावलक्षणः संबन्धस्तथाप्यस्य प्रतिपन्नस्याप्रतिपन्नस्य वा सत्त्वं सिध्येत् । न तावदप्रतिपन्नस्य । अतिप्रसंगात् । प्रतिपन्नस्य चेत् 'कुतोऽस्य प्रतिपतिः' इत्यादि, तत्त्वकार्यकारणभावप्रतीतिः प्रत्यक्षानुपलम्भसहायेनात्मना नियते व्यक्तिविशेषे तर्कसहायेन चानियते प्रसिद्धा । एकमेव च प्रत्यक्ष प्रत्यक्षानुपलम्भशब्दाभिधेयम् । तद्धि कार्यकारणभावा- ५ भिमतार्थविषयं प्रत्यक्षमुच्यते । तद्विविक्तान्यवस्तुविषय वस्तु अनुपलम्भशब्दाभिधेयम् । तथा हि- एतावद्भिः प्रकारैधूमोऽग्निजन्यो न स्यात् । यद्यग्निसंनिधानात्प्रागपि तत्र देशे स्यात्, तदन्यतो वा गच्छेत्, तदन्यहेतुको वा भवेत् । एतच्च सर्वमनुपलम्भपुरःसरेण प्रत्यक्षेण प्रत्याख्यातम् । एतेन ' प्रागनुपलब्धस्य रासभस्य कुम्भकारसंनिधानान- १० न्तरमुपलभ्यमानस्य तत्कार्यता स्यात् ' इति प्रतिव्यूढम् । यदि हि तस्य तत्र प्रागसत्त्वमन्यदेशादनागमनमन्याहेतुकत्वं च निश्चेतुं शक्येत स्यादेव कुम्भकारकार्यता, तत्तु निश्चेतुमशक्यम् । न च भिन्नार्थग्राहि प्रत्यक्षद्वयं द्वितीयाग्रहणे तदपेक्षं कारणत्वं कार्यत्वं वा ग्रहीतुमसमर्थमित्यभिधातव्यम् । क्षयोपशमविशेषवतां धूममात्रोपलम्भेऽप्यभ्यासवशा- १५ द्वहिजन्यत्वावगमप्रतीतेः । अन्यथा बाप्पादिवैलक्षण्येनास्यानवधार. णात्, ततोऽम्यनुमानाभावे सकलव्यवहारोच्छेदप्रसंगः । ततः कथंचित्कारणाभिमतपदार्थग्रहणपरिणामापरित्यागवतात्मना कार्यस्वरूपप्रतीतिरभ्युपगन्तव्या । नीलाद्याकारव्याप्येकज्ञानेन तत्स्वरूपप्रतीतिवत् । न च कार्यस्यानुत्पन्नस्यैव कार्यत्वं धर्मोऽसत्त्वात् । नाप्यु- २० त्पन्नस्यात्यन्तभिन्न कार्यत्वं धर्मः । तदन्यतद्धर्मवत् । तत एव कारणस्यापि कारणत्वं धर्मो नैकान्ततो भिन्नम् । तच्च तस्मादभिन्नत्वातद्राहिप्रत्यक्षेणैव प्रतीयते तद्यक्तिस्वरूपवत् । दृश्यते हि पिपासा. द्याक्रान्तचेतसामितरार्थव्यवच्छेदेनाबालं तदपनोदसमर्थे जलादौ तत्प्र. त्यक्षात्प्रवृत्तिः । ननु कार्याप्रतिपत्तौ कथं कारणम्य कारणताप्रतिपत्ति. २५ स्तदपेक्षत्वात्तस्या इति चेत् । कथमेवं पूर्वापरक्षणप्रतिपत्तौ मध्यक्षणस्य
५३
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः
[ परि. ५ सू. ८
ताभ्यां व्यावृत्तिप्रतिपत्तिरपेक्षाकृतत्वाविशेषात्ततः पश्यन्नयं क्षणिकमेव पश्यतीति वचो विरुध्यते । ननु मध्यक्षणस्वभावत्वात्पूर्वापरक्षण व्यावृत्त्योध्यक्षणग्राहिज्ञानेनैव प्रतिपत्तिरिति चेत् । तर्हि कारणत्वधर्मस्यापि कारणस्वभावत्वात्तद्राहिणैव ज्ञानेन प्रतिपत्तिरिष्यतां विशेषाभावात् । ५ वक्तृत्वस्य चासर्वज्ञत्वादिना व्यात्यसंभवः सर्वज्ञसिद्धिप्रघट्टके प्रकटित इति नेह प्रकाश्यते । न चेन्धनादिप्रभवपावकस्य मण्यादिप्रभवपावकादभेदो येन नियतः कार्यकारणभावो न स्यात् । अन्यादृशाकारो .हीन्धनप्रभवः पावकोऽन्यादृशाकारथ्य मण्यादिप्रभवः, तद्विचारे च निपुणेन प्रतिपत्रा भवितव्यम् । यत्नतः परीक्षितं हि कार्यं कारणं १० नातिवर्तते । कथमन्यथा वीतरागेतरव्यवस्था । तच्चेष्टयो: सांकर्योपलम्भात् । कथं चैवंवादिनो मृतेतरव्यवस्था स्यात् । व्यापारव्याहारादिकार्यविशेषस्य हि कचिचैतन्यकार्यतयोपलम्मे सति । अस्यत्र जीवच्छरीरे चैतन्यं व्यापारादिकार्यविशेषोपलम्भात् । मृतशरीरे तु नास्ति तदनुपलम्भादिति कार्यविशेषस्योपलम्भानुपलम्भाभ्यां कारणविशेषस्य भावाभावप्रसिद्धेस्तद्यवस्था युज्येत । तन्न प्रमाणतः प्रतीयमानः संबन्धः स्वाभिप्रेतत्वयन्निन्हवनीयो येन परमाणूनां संबन्धाभावत: स्थलादिप्रतीते श्रन्तत्वात्तदात्मकत्वं वस्तुनो न स्यात् । तस्मादिति व्यवस्थितम् । विवादविषयापनं वस्तु, सूक्ष्मस्थूलाकारात्मकं वस्तुत्वान्यथानुपपत्तेः । न खल्वेकान्ततः सूक्ष्मं स्थूलं वा तद्वस्तुतामास्तिनुते । तथाविधस्य निर्वाघप्रतिभासनावलम्बनत्वेनाम्बराम्बुरुहस्ये वास्तुत्वाद्यथाप्य सर्वथा सूक्ष्माकारं स्थूलाकारं वा परपरिकल्पितं वस्तु न
१५
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८३०
२०
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द्वा । आद्यपक्षे तस्येदं स्वभावद्वयमिति संबन्धानुपपत्तिः । सर्वथा भिन्नस्य च स्वभावद्वयस्य कार्यकर्तृत्वे किमायातं स्वभाविनो रूपक्ष२५ णस्य येनासावपि कार्यकारीति व्यपदेशभाजनं भवेत् । कथंचिदर्थान्तरभूतत्वपक्षे पुनः समायातमेकस्य रूपक्षणस्यानेकस्वभावाक्रान्तत्वम् ।
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परि. ५ सू. ८ ] स्याद्वादरत्नाकरसहितः यदि चैकक्षणवर्तिनस्तस्य सामग्रीभेदेन भेदमननुभवत एव भिन्नदेशानेककार्यकारित्वमिष्यते तर्हि नित्यस्यापि सामग्रीभेदेन भेदमननुभवत एव भिन्नकालानेककार्यकारित्वमिप्यतामविशेषात् । तथा च दत्तः स्वयमेव हस्तः स्थैर्यपक्षप्रसिद्धये । क्षणविनश्वररूपादिस्वलक्षणानां प्रतिभासभेदेन वैलक्षण्यप्रतिज्ञा चेत्थं निनिमित्ता भवेत् । कौट-. ५ स्थ्यालिङ्गितस्यापि द्रव्यस्यान्यान्यसामग्रीसंदोहान्तर्भूततया नवपुराणादिविपर्ययरूपरसगन्धम्पर्शावभासलक्षणानेककार्यकरणाविरोधप्रसंगात् । अन्यञ्च संवेदनमर्थे स्वस्वरूपापेक्षया बहिर्मुखान्तर्मुखसविकल्पाविकल्पभ्रान्ताभ्रान्तादिप्रतिभासमेकं स्वीकुर्वाणोऽपि शाक्यस्तात्त्विकानेकधर्मात्मकत्वं वस्तुनस्तिरम्करोतीति कथं स्वस्थः । अपि १० च युगपत्प्रथमाननीलपीतादिवस्तुव्यवस्थित्यन्यथानुपपत्त्या नानादेशसमाश्रितानेकवस्तुसमुपनीताकारोपरक्तमेकमाकारभेदेऽपि संवेदनमातिष्ठमानः, कथं भिन्नसमयभाविसुखदुःखाद्यनेकपरिणतिवशात्त - दमैकान्ति कं ताथागतः कथयेत् । न्यायस्य समानत्वात् । अथ युगपद्भावित्वात्संवेदनान्तर्भूताकाराणामेकत्वं न पुनः सुखादीनां क्रममा- १५ वित्वादित्यभिधीयते तन्न तथ्यम् । युगपद्भाविनां नानादेशव्यवस्थितानां वस्तूनामप्यभेदप्रसक्तेः । तदित्थं बहिरन्तश्चानेकान्तमन्तरेण सौगतस्य स्वमतव्यवस्थापि दुरुपपादेति तात्त्विकानेकधर्मात्मकत्वेनैव साध्येन प्रमेयत्वाख्यस्य हेतोयाप्तिप्रसिद्धेर्न संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिकतया नैकान्तिकत्वं शङ्कितुमपि युक्तमिति । नापि प्रकृतिपुरुषात्यद्रव्य- २० मात्रजल्पिना कापिलेन प्रकृतानुमाने पक्षस्य प्रत्यक्षवाधितत्वं दोषः प्रकाशनीयः । तस्याप्यनेकान्ताभ्युपगमं विना स्वदर्शनव्यवस्थानस्यासंभवात् । तथा ह्यन्तर एकं चैतन्यतत्त्व द्रष्टुत्वभोक्तृत्वाद्यनेकपरिणामसमनुगतं बहिश्च स्तम्भादिकं वस्तु नवपुराणवृत्तचतुरस्रत्वाद्यनेकपरिणामसमनुगतमेव व्यवहारसमर्थने प्रवर्तते । ननु प्रकृति- २५ पुरुषस्वभावं द्रव्यमेवैकं तात्त्विकम् । परिणामस्तु पर्यायापराभिधानो न
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. ५ स. ८ तात्त्विक इति चेत् । मैवम् । उभयोरपि समस्तप्रमाणेषु प्रथमानयोः सकलव्यवहृतिहेतुभूतयोः पक्षपातं विना तात्त्विकातात्त्विकत्वाभ्युपगमे किं पराजयो न दुर्निवारः स्यात् । अथ कथ्यते 'द्रव्यं सर्वत्राव्यभिचरितस्वभावत्वात्तात्त्विकम् । पर्यायास्तु व्यभिचारित्वादतात्त्विकाः' ५:इति तदप्यवद्यम् । यतो यदि नामद्रव्यमभेदरूपत्वात्सर्वत्रानुवर्तते पर्यायाः पुनर्भेदरूपत्वाच्यावर्तन्ते नैतावता पर्यायस्वरूपं तदतात्त्विकमतिप्रसक्तेर्विश्वस्य परस्वभावपरित्यागावस्थायित्वेनातात्त्विकत्वापत्तेः । अथ द्रव्यमेव पर्यायास्तदभिन्नत्वात्तत्स्वरूपवत् । न सान्त वा
द्रव्यादर्थान्तरभूताः पर्याया निःस्वभावत्वान्नभोऽम्बुरुहवदिति १० तदपि न सत् । पर्याया एव द्रव्यम् । तदभिन्नत्वात्तत्स्वरूपवत् ।
नास्ति वा पर्यायेभ्योऽर्थान्तरभूतं द्रव्यं निःस्वभावत्वान्नमोऽम्बुरुहूवत्, इत्यन्योऽप्यभिदधानः केन प्रतिषिध्येत । तस्मादुभयोरपि पक्षयोर्न कश्चिद्विशेषोपलम्भः समस्तीति यथैवानेकसहक्रमवर्ति पर्यायपरिकरितं द्रव्यमेकमनुभूयते । तथैव तदभ्युपगन्तव्यमिति न तन्निपेद्भुमसौ पटीयानिति सिद्धम् । एतेनात्मत्वव्यतिरिक्तधर्मधर्मिवादी वैशेषिकादिरपि प्रस्तुतानुमाने पक्षस्य प्रत्यक्षबाधां पुरस्कृत्य हेतोः कालात्ययापदिष्टत्वं वदन् अपहस्तितः । यदि धर्मधर्मिणोरत्यन्तं भेद एवं तदा धर्मधर्मिणोऽत्यन्तभिद्यमानमूर्तयस्तत्रैव कथं वर्तेरन् , भेदाविशेषेण सर्वत्रापि तेषां वृत्तिप्रसक्तेः । प्रतिनियत एव धर्मिणि धर्माणां समवायान्नापरत्र वृत्तिरिति चेत् । नन्वत्रापि वक्तव्यं धर्मधर्मिणोयग्रुपकार्योपकारकमावः स्यात्तदेयमपि स्यात् । अन्त्येव धर्मधर्मिणोरुपकार्योपकारकमाव इति चेत् । तायातमनेकधर्मोपकारकस्यैकस्य धर्मिणोऽनेकस्वभावत्वम् । तदन्तरेणानेकोपकारकत्वासंभवात् ।
न खलु येन स्वभावेनैकस्य धर्मस्योपकारस्तेनैवान्यस्य धर्मान्तरोपकार२५ कत्वस्वभावस्य पूर्वस्वभावोपमर्दद्वारेणोत्पत्तेरितरथैकमेवोपकुर्वाणोऽसौ
तिष्ठेत्तदेकस्वभावत्वात् । नन्वन्तरभूताभिः शक्तिभिरनेकस्याय
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परि. ५ सु. ८] स्याद्वादरत्नाकरसहितः
८३३ मुपकुरुते । न पुनर्भिन्नैः स्वभावैस्ततो नानेकान्तावकाश इति चेत् । है .... .... .... .... .... .... .... .... .... .... वशाच्च कथं चित्ररूपणीयभेदाः सर्व एवामी संयोगादयस्तैः स्वीक्रियन्ते । निर्वाधप्रत्ययेषु तेषां तथैव प्रथनात् । अन्यथा प्रथमानानामन्यथा कल्पनायां तु दृष्टहान्यदृष्टकल्पनापत्तेः । तन्न वैशेषिकादिः प्रकृतानुमाने हेतोः कालात्ययापदिष्टतां प्रकटयितुं पटुरिति स्थितम् । मीमांसकस्तु प्रायेण सर्वत्र जैनोच्छिष्टभोजीति न सोऽपि प्रस्तुतानुमानदूषणार्थमुद्यच्छतीति ! चार्वाकस्तु वराकः प्रतीयमानजीवादितत्त्वग्रामलुण्टाकत्वात्प्रामाणिकसदसि प्रवेशमपि न प्राप्नोतीति कस्तदीयक्षुद्रतर्कस्येहावसरः । तदेवमनेकान्तात्मकं बहिरन्तश्च वस्तु १० प्रतिसमयमनुभवन्तोऽपि परे ध्यान्ध्याद्विकृतबुद्धयः कुतर्कविभ्रमादेकान्तपक्षमवलम्ब्यात्मानं परं वा बालिशं साधुवमनः स्खलयन्तः स्वप्रतिपन्नभावस्वभावान्यथानुपपत्त्या तथा प्रतिपादनीया यथा तात्त्विकानेकधर्मात्मकत्वं सर्वस्य वस्तुनः प्रमेयत्वात्प्रतिपद्येरन्निति । तथा वास्तवानेकधर्मात्मकोऽर्थः परस्परविलक्षणानेकार्थक्रियाकारित्वात्पित- १५ पुत्रपौत्रभ्रातृभागिनेयादिसक्तानेकार्थक्रियाकारिदेवदत्तवत् । नात्रासिद्धो हेतुः । आत्मनो मनोज्ञललनावलोकनालिङ्गनमधुरस्वराकर्णनसह. कारफलादिरसास्वादनधनसारादिगन्धाघ्राणश्रवणरसायनीभूतवचनोच्चारणचक्रमणावस्थानहर्षविषादानुवृत्तव्यावृत्तज्ञानादन्योन्यविलक्षणानेका. र्थक्रियाकारित्वेनाध्यक्षतोऽनुभवात् । कुम्भादेश्च स्वरूपपररूपाद्यपेक्षसद- २० सत्प्रत्ययसजातीयविजातीयापेक्षानुवृत्तव्यावृत्तप्रत्ययद्रव्यपर्यायापेक्षनित्यानित्यप्रत्ययजलाहरणादिपरस्परविलक्षणानेकार्थक्रियाकारित्वेन प्रत्यक्षतः प्रतीते: । दृष्टान्तोऽप्यत्र न साध्यसाधनविकलो वास्तवानेकधर्मात्मकत्वपरस्परविलक्षणोऽनेकार्थक्रियाकारित्वयोस्तत्र सद्भावात् । ननु भिन्नप्रतिभासत्वेन धर्मधर्मिणोरत्यन्तभेदसिद्धेः सिद्धेऽपि धर्मिणि वास्तवा- २५
१'ज्ञानाद्यन्योन्य ' इति न. पुस्तके पाठः ।
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः परि. ५ सू. ८ नेकधर्माणां सद्भावे तादात्म्याप्रसिद्धिरिति वैशेषिकादेः प्रत्यवस्थान नोपपत्तिस्थानम् । भिन्नप्रतिभासत्वस्य भेदसिद्धावसमर्थत्वेन प्रतिपादितत्वात्सामान्यविशेषानेकान्तसिद्धाविति । एवं सर्वं वस्तु, अने.
कान्तात्मकम् , तथाप्रतीयमानत्वात् । सत्त्वादर्थक्रियाकारित्वात् । ५ यत्युनरनेकान्तात्मकं न भवति तन्न अभिहितसाधनत्रयाधिकरणं
यथा खरविषाणम् । अभिहितसाधनत्रयाधिकरणं च सर्व वस्तु, तस्मादनेकान्तात्मकमिति । तथा वस्तुभूतानेकधर्माधिष्ठानं भावः सामान्यविशेषसामानाधिकरण्यविशेषणविशेष्यभावादिव्यवहाराणामन्यथानुपप
तेरिति । ननूत्तरपदार्थे निश्चिते सर्वत्र ननः प्रयोगो दृष्टोऽब्राह्मणादि१० यत् । एकान्तश्च यदि कचिनिश्चितः कथं सर्वस्यानेकान्तात्मकत्वं
भवेत् । तथानेकान्तवादस्वीकारे मुक्तोऽपि न मुक्त एव । अनेकान्तवादोच्छेदापत्तेः । अपि तु अमुक्तोऽपीति न मुक्तत्वमुपादेयप्रकर्षः स्यात्तदन्यसाधारणत्वात् । तथा संसार्यपि न सर्वथा संसारी । एकान्तवादापत्तेः । किं तीसंसार्यपीति न संसारित्वं हेयोत्कर्षः स्यान्मुक्तत्वसंवलितत्वात् । किं च, अनेकान्तवादिनो मानमपि न मानमेव । एवं हेत्वाभासोऽपि न तदाभास एव । परमतप्रवेशापत्तेः । यदाह'मुक्तो न मुक्त एव हि संसार्यपि सर्वथा न संसारी । मानमपि न मानमेव हि हेत्वाभासोऽप्यसावेव ॥ एवं सप्रतिपक्षे सर्वस्मिन्नेव वस्तुतत्त्वेऽस्मिन् । स्याद्वादिनः सुनीत्या न युज्यते सर्वमेवेह ॥' इति । अपि च । अनेकान्तात्मकत्वे वस्तुनः सकललोकप्रसिद्धसंव्यवहारनियमोच्छेदप्रसंगः । तथा हि-विषमोदकादि व्यक्त्यभिन्नमनानास्व
भावमेकं सामान्यं वर्तते । ततश्च न विषं विषमेव मोदकायभिन्नसामा२५ न्याव्यतिरेकात् । नापि मोदको मोदक एव विषाभिन्नसामान्याभेदात् ।
२ अतः परं प्रवृत्ति० श्लोकान्लो पृ. ८३५ पं. ४ ग्रन्थोऽनेकान्तजयपताकायामुपलभ्यते । पृ. १५ पं. १९.
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परि. ५ सू. ८]
स्याद्वादरत्नाकरसहितः
किं त भयमुभयरूपम् । ततश्च विषार्थी विषे प्रवर्तेत मोदके च । एवं मोदकार्यपि मोदके विषे च । लोकश्च विषार्थी विष एव प्रवर्तते न मोदके। मोदकार्थ्यपि मोदक एव न विष इति । तदुक्तम्-----
'प्रवृत्तिनियमो न स्याद्विषादिषु तदर्थिनः ।
मोदकाद्यपृथग्भूतसामान्याभेदवृत्तिषु ॥' इति तदयुक्तम् । यतो यत्तावत् ' उत्तरपदार्थे निश्चिते' इत्यादि तदवितथमेव । नयप्रतीत्या निश्चित एवैकान्ते नञः प्रयोगाभ्युपगमात् । न चैवं सर्वम्यानेकान्तात्मकत्वमित्यभ्युपगमविरोधः । प्रमाणविषयापेक्षया सर्वस्य तदात्मकत्वाभ्युपगमात् । नयगोचरापेक्षया त्वेकान्तात्मकत्वम्यापि स्वीकारात् । _ 'अनेकान्तोऽप्यनेकान्तः प्रमाणनयसाधनः ॥'
इत्यभिधानात् । यदपि निगदितमनेकान्तवादस्वीकारे ' मुक्तोऽपि न मुक्त एव' इत्यादि तदपि न चतुरस्रम् । द्विप्रकारो ह्यत्रानेकान्तोऽमानेकान्तः क्रमानेकान्तश्च । तत्र ज्ञानसुखाद्यनेकाक्रमिधर्मापेक्षयाऽक्रमानेकान्तो युगपदप्येकत्रात्मनि तथाविधानेकधर्माणां १५ संभवात् । मुक्तेतराद्यनेकक्रमिधर्मापेक्षया तु क्रमानेकान्तः क्रमेणैव तादृशधर्माणामुपपत्तेः। तथा च य एवात्मा पूर्वममुक्तः स एवोत्तरकालं मुक्त इति न किंचिद्विरुध्यते । एकरूपत्वे पुनरात्मनो बन्धमोक्षाभावः स्यात् । बद्धस्य हि मुक्तत्वम् । न च सर्वथैकरूपस्यावस्थाद्वययोगे युक्तः । विरोधात् । यद्वा स्वमुक्तत्वेनैव मुक्तत्वान्मुक्तान्तर• २० मुक्तत्वे तदयोगान्मुक्तत्वामुक्तत्वयोरेकत्राविरोधः । स्वपरभावाभावोभयाधीनात्मकत्वात्सर्ववस्तूनाम् । अथवा सत्त्वचैतन्यसर्वज्ञत्वासंख्यातप्रदेशत्वादिभ्यो मुक्तामुक्तसाधारणत्वादमुक्तपर्यायेभ्यः कथंचिदव्यतिरिक्तत्वात्सकलकर्मक्षयाभिव्यक्तित्वपर्यायस्थ स्यान्मुक्तः स्यादमुक्त इति न कश्चिद्दोषः । न च य एव सत्त्वादिपर्यायः स एव मुक्तत्व- २५ पर्यायः । प्रतीतिभेदात् । एकान्तैकावे सत्त्वादेरेव मुक्तप्रसंगात् ।
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः परि. ५ स्. । अस्त्वेवमपि न कश्चिद्दोष इति चेत् । न देवदत्तादिषु संसारिषु सत्त्वादिभावेन मुक्तस्त्रप्रसंगात् । देवदत्तादिप्वन्य एव सत्त्वादिरिति चेत् । कस्तयोरन्यत्वे हेतुरिति वाच्यम् । मुक्तत्वामुक्तत्वे एवेति चेत् । तर्हि मुक्तत्वामुक्तत्वधर्मयोः सत्त्वभेदहेतुत्वेन सत्त्वाद्भिन्नत्वं सिद्धम् । सर्वथैकत्वे तु मुक्तत्वामुक्तत्वयोः सत्त्वमात्रत्वाविशेषाद्भेदाभावस्तथा च सत्यभिहित एव दोष इति सूक्ष्मधिया भावनीयमेतत् । एतेन 'संसार्यपि न सर्वथा संसारी' इत्याद्यपि प्रागुक्तं प्रत्युक्तम् । उक्तन्यायस्य तत्त्वतस्तुल्ययोगक्षेमत्वात् । तथा हि- अङ्गारमर्दकादेः संसारिणः स्वस्वरूपेणैव संसारित्वं न संसायंन्तररूपेण । अन्यथा तदभावप्रसंग इति । यच्च कीर्तितम् 'अनेकान्तवादिनो मानमपि न मानमेव ' इत्यादि । तत्र सिद्धसाधनम् । विजातीयादिमानान्तरत्वेन विवक्षितमानस्यामानत्वात् । अन्यथा तदभावप्रसंगादितरेतररूपतापत्तेः । तथा हि- प्रत्यक्षं प्रत्यक्षमानत्वेन मानम्, अनुमानादिमानत्वेन पुनरमानम् ।
एवमनुमानाद्यपि, अन्यथा तस्य प्रतिनियतत्वाभावः । एवं तदाभासोऽपि १५ कथंचिदेव तदाभासस्तस्याप्यनेकान्तात्मकत्वात् । विसंवादेन हि
तदाभासत्वस्य व्याप्तिस्तत्र चास्याव्यभिचारेण मानलक्षणयोगः । विसंवादोऽपि हि ज्ञेयः स च तदाभासात्प्रतीयत एवेति कथं तदाभासस्यापि कथंचिन्न प्रमाणता । न च प्रमेयमिवापरिच्छित्त्यात्मकमेव तदाभासं तथा प्रतीत्यभावात् । एवं हेत्वाभासेऽप्यसिद्धादौ साध्यागमकत्वप्रतिबद्धतया तत्र हेतुत्वेऽन्यत्राहेतुत्वमित्यनेकान्तात्मकता तस्यापि सुप्रतीतैव । एवं च 'मुक्तो न मुक्त एव हि ' इत्यादि कारिकायुग्ममपास्तम् । यदपि 'अनेकान्तात्मकत्वे वस्तुनः सकललोकप्रसिद्धसंव्यवहारनियमोच्छेदप्रसंगः ' इत्यादि प्रत्यपादि तदपि स्याद्वाददंपर्यापर्यालोचकत्वसूच.
कमेव । न हि विषमोदकादिविशेषानान्तरं सर्वथैकस्वभावमेकं निरव२५ यवं सामान्यमित्यभिदधति स्याद्वादिनः । किं तर्हि समानपरिणाम
१ 'अनारमर्दक ' इति देवदत्तादिवत् संज्ञाशब्दः ।
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परि. ५ सू. ८]
स्याहादरत्नाकरसाहेत:
८३७
इति । स च भेदाविनाभतत्वान्नय एव विषादभिन्नः स एव मोदकादिभ्योऽपि । सर्वथा तदेकत्वे समानत्वायोगात् । नन्वेवं समानपरिणामस्यापि प्रतिविशेषमन्यत्वात्तद्भावानुपपत्तिरिति तदसत्यम् । सत्यप्यन्यत्वे समानासमानपरिणामयोभिन्नस्वभावत्वात् । तथा हि- समानबुद्धिध्वनिनिबन्धनस्वभावः समानपरि- ५ णामो विशिष्टबुद्धयाभिधानजननम्वभावस्त्वितर इति यथोक्तसंवेदनाभिधानसंवेद्याभिधेया एव च विषादय इति प्रतीतम् । अन्यथा यथोक्तसंवेदनाद्यभावप्रसक्तिः । अतो यद्यपि द्वयमुभयरूपं तथापि विषार्थी विष एव प्रवर्तते । नद्विशेषपरिणामस्यैव तत्समानपरिणामविनाभूतत्वान्न तु मोदके तत्समानपरिणामाविनाभावाभावात्तद्विशेष- १० स्य ! अतः प्रयासमात्रफला प्रवृत्तिनियमोच्छेदनोदनेति । एवं--
'सर्वस्योभयरूपत्वे तद्विशेषनिराकृतः ।।
प्रेरितो दधि खादेति किमष्ट्रं नाभिधावति ॥' इति केनचित्कुशाग्रीयमतिना यदभिहितं तदपि प्रतिहतम् । . इत्थं च--- तीर्थ्याभिप्रेततत्त्वं घनरजनितमस्तोमरूपं समन्ता
नीत्वा प्रध्वंसधाम स्फुरदमलमिति स्फाररश्मिप्रतानैः । सर्वानेकान्तभास्वानुदयमनुसतस्तीवजाड्यापहारी
कुर्वाणः कोविदानां हृदयसरसिजोज्जम्भणं नित्यमस्तु॥६१०॥ अत्राहुबैशेषिका:--
हं हो अनेकान्तरहस्यवेदिन, वैशेषिकोक्तषट्पदार्थोपपादनखण्डने। असारमुद्गारममुं विमुञ्च ।
एषैव यस्मात षट्पदार्थी
प्रपद्यते गोचरतां प्रमायाः ॥ ६११ ॥ तथा हि-अत्र द्रव्यगुणकर्म सामान्यविशेषसमवायाख्याः षडेव २५ पदार्थाः, न्यूनाधिकत्वप्रतिपादकप्रमाणाभावे सति षट्पदार्थव्यवस्थापक
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः परि. ५ सू.. प्रमाणविषयत्वात् । य एवं त एवम् । यथोभयाभिमता घटादयः षट् पदास्तिथा चामी तस्मात्तथा । एते च पदार्थाः सर्वथान्योन्यासंभविलक्षालक्षितत्वेनैकान्ततः परस्परं भिन्नाः । तथा हि-द्रव्यलक्षणं तावद्रुणादिषु न संभवति । तद्धि द्रव्याभिसंबन्धो न चासौ गुणादिषु विद्यते । तत्र द्रव्यामिति प्रतीत्यभावादिति । ' पृथिव्यप्तेजोवाय्याकाशकालदिगात्ममनांस्येव' एतलक्षणलक्षितानि । लक्षणं च सकलं केवलव्यतिरेक्यनुमानमामनन्ति मनीषिणः । साध्यं च तत्र समानासमानजातीयव्यवच्छेदः ! तथा हि-द्रव्यम्य गुणकर्मणि समानजातीये
सत्तासामान्यस्य द्रव्य इच तयोरपि भावात् । सामान्यविशेषसमवाया१० स्त्वसमानजातीयाः । सत्तासामान्यस्य तेप्वभावात् । द्रव्यत्वादिसंब
न्धेन च तेभ्यः समानासमानजातीयेभ्यो व्यवच्छेदः साध्यते । अथ वा. द्रव्यस्य गुणकर्म सामान्यविशेषसमवायाः समानजातीयाः, वस्तुत्वात् । अभावस्तु असमानजातीयः । तद्विपरीतत्वात् । एवं सर्वत्रापि यथा
संभवं भावनीयम् । यदाहोद्योतकरः-'समानासमानजातीयव्यवच्छे१५ दो लक्षणार्थः' इति । तदिह यो नाम द्रव्यं स्वीकरोतिः
किंतु नागुणादिभ्यो भेदेनावधारयितुं शक्नोति तं प्रति तस्य स्वपरजातीयव्यावृत्तस्वरूपप्रतिपादनार्थमसाधारणो धर्मः कथ्यते द्रव्यत्वाभिसंबन्धाव्यमिति । द्रव्यत्वाभिसंबन्धश्च द्रव्यत्व
सामान्योपलक्षितः समवायः । न चैवरूपो द्रव्यत्वामिसंबन्धो गुणा२० दिषु विद्यत इति । प्रयोगश्च-द्रव्यम् , इतरेभ्यो भिद्यते, द्रव्यत्वादि
संबन्धवत्त्वात् । यत्तु नैवं न तदेवम् । यथा गुणादयः । न तत्तस्मादितरेभ्यो भिद्यते । व्यवहारो वात्र साध्यः । यो हि स्वरूपतो द्रव्यं जानन्नपि कुताश्चिव्यामोहाव्यमिति न व्यवहरति तं
प्रति विपर्ययपरिहाराव्यभिचारेण व्यवहारसाधनार्थमसाधारणो धर्मः २५ कथ्यते । द्रव्यत्वाभिसंबन्धाद्रव्यमिति प्रयुज्यते च । विवादास्पदी.
१. पा. भा. यू. ३ पं. २ ।
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परि. ५ सु. ८ ] स्याद्वादरत्नाकरसहितः . भूतं वस्तु द्रव्यमिति व्यवहर्तव्यं तत एव यत्तु न द्रव्यमिति व्यवन्हियते न तत्तथा यथा गुणो न च न तथैतत्तस्मात्तथेति । क्रियावगुणवत्सवायिकारणत्वं वा द्रव्यस्य लक्षणम् । यदाह कणादःक्रियावद गुणवत्समवायिकारणत्वं वा द्रव्यस्य लक्षणम्' । अत्राप्यनुमाने पूर्ववत्कार्य एवं लक्षणोपेतं च । द्रव्यं, नवधैव, न्यूनाधि- ५ कत्वप्रतिपादकप्रमाणाभावे परस्परब्यावृत्तनवलक्षणयोगित्वात्, यदेवं तदेवम् । उभयाभिमतनवनिपादि (?) पदार्थवत् । तथा चेदं तस्मात्तथा । तथापि च पृथिव्यते जोवायुरूपस्य तावल्लक्षणं पृथिवीत्वाभिसंबन्धात्पृथिवीत्यादिपूर्ववंव्यतिरेक्यनुमानरूपमवसेयम् । द्विविधं चैतत्पृथिव्यादि. नित्यानित्यभेदात् । तत्र परमाणुरूपं १० नित्यं, सदकारणवत्त्वात् । ट्यणुकाद्यवयविरूपं त्वनित्यम् , उत्पत्तिमत्त्वात् । आकाशकालदिशां त्वेकैकत्वात्तल्लक्षणभूतापरसामान्याभावेऽपि पारिभाषिक्यस्तिस्रः संज्ञा एव लक्षणम् । यस्याः संज्ञाया विना निमित्तेन शृङ्गग्राहिकया संकेतः सा पारिभाषिकी । यथायं देवदत्त इति । यस्याः पुनर्निमित्तमादाय संकेतः सा नैमित्तिकी १० यथा गौरिति । व्यतिरेक्यनुमानं च भेदव्यवहारापेक्षयैवमत्र लक्षणीयम् । आकाशकालदिशः, इतरेभ्यो भिद्यन्ते । विवादास्पदीभूतं वा द्रव्यं, आकाशं कालो दिगिति व्यवहर्तव्यम्, अनादिकालप्रवाहायाताकाशादिशब्दवाच्यत्वान्न यदेवं न तदेवम् । यथा रूपादि। न च न तथेदं तस्मात्तथेति । आत्ममनसोरप्यात्मत्वमनस्त्वाभिसं. २०० बन्धो लक्षणम् । अत्रोत्तरत्र च व्यतिरेक्यनुमानं पूर्ववद्विरचनयिम् । एतानि चाकाशादीन्येकान्तेन नित्यानि निरंशानि मनोवानि व्यापकानि । मनस्तु अगुपरिमाणम् । एवं गुणत्वाभिसंबन्धेन
१ 'क्रियागुणवत्समवायिकारणामिति द्रव्यलक्षणम् ।' ११११५ इति कणादसूवधुनातनपुस्तकेधूपलभ्यते । २ घटादि इति युक्तं भाति ।
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [ परि. ५ सू.. द्रव्यानय्यगुणवान् संयोगविभागेप्वकारणमनपेक्ष इत्यनेन वा लक्षणेन लक्षिता रूपादयश्चतुर्विंशतिर्गुणा नित्याश्वानित्याश्च । कर्मत्वाभिसंबन्धेनैकद्रव्यमगुणं संयोगविभागेप्चनपेक्षकारणमित्यनेन वा लक्षणेन लक्षितमुत्क्षेपणादि पञ्चावेधं कर्मानित्यमेव ।' अनुवृत्तप्रत्ययकारणत्व५ लक्षणं सामान्यं द्विविधं परमपरं च नित्यमेव' । 'नित्यद्रव्यवृत्तयोऽ
त्या विशेषाः' । इति लक्षणोपेता विशेषा अनन्ता नित्या एव । 'अयुतसिद्धानामाधार्याधारभूतानामिहेति प्रत्ययहेतुर्थः संबन्धः स समवायः' इति । लक्षणस्तु समवाय एको नित्य एव ।
इत्थं प्रमाणतः सेयं षट्पदार्थी व्यवस्थिता । प्रमाणगोचरा सैव तस्मादस्तु विपश्चितः ॥ ६१२ ॥ एतां प्रमाणविमुखीमतिजर्जरां च ।
वैशेषिकास्त्यजथ किं न पदार्थकन्थान् । एषा हि नः स्फुरदनुत्तरजाडथजात
पीडाविडम्बनपटुर्भवतां भवित्री ॥ ६१३ ।। आसेवध्वमहो तस्मात्तदाडम्बरखण्डनम् ।
सत्यमेकमनेकान्तं पावकं त्रिजगत्यपि ॥ ६१४ ॥ तथा हि-यत्तावदुक्तं ' द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायाख्याः षडेव पदार्थाः ' इति तन्न तथ्यम् । तत्र षट्त्वनियमस्य विचार्य२० माणस्यानुपपत्तेः । यदि हि द्रव्यं गुणः कर्म सामान्य विशेषाश्च
परस्परं समवायाच भिद्यमानानि प्रत्येकमेककान्येव समवायवदभ्युपगम्यरंस्तदा द्रव्यादयः षट् पदार्थाः सिध्येयुः । न चैवं तेषां नवादि. संख्योपेतत्वेन स्वीकारादिति कथं षट्पदार्थव्यवस्थितिः । अथ यद्यपि
१ द्रव्याश्रय्यगुणवान् सयोगविभागेश्वकारणमनपेक्ष इति गुणलक्षणम् । क. सू. १1१1१६. २ एकद्रव्यमगुणं संयोगविभागेष्वनपेक्षकारणमिति कर्मलक्षणम् । क. स. १११।१७. 2 एतदर्थकं वाक्यं प्रशस्तपादभाष्ये पृ. ४.४ प्र. पा. भा. 'पृ. ४. ५प्र. पा. भा. पृ. ५ पं. १
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१०
परि. ५ सू. ८ ] स्याद्वादनाकरसहितः पृथिव्यादीनि द्रव्याणि तावन्नवसंख्यानि तथाप्येतेष्वेकं लक्षणमस्त्येवेति चेत् । तत्किमिदानी द्रव्यलक्षणमेव द्रव्यपदार्थोऽस्तु न पृथिव्यादीनि । न चैतद्युक्तम् । लक्ष्यभूतानां तेषामभावे लक्षणस्य द्रव्यत्वादेरसंभवात् । तस्य त्वद्रव्यपदार्थत्वे सत्यामप्येकतायां न द्रव्यपदार्थ एकः सिध्यति। न खल्वन्येन पायसभक्षणेऽन्यस्य क्षुदुपशमः । अथ लक्षणस्य लक्ष्येष्वभि- ५ संबन्धात्तदैक्ये लक्ष्यमप्येकं युक्तमेवेति चेत् । न नाम युक्तम् । यतस्तत्कथंचिदविष्वग्भावेन तत्राभिसंबध्येत समवायादिना वा । नाद्यः पक्षः । परमतप्रवेशात् । द्वितीये तु नोपचारमन्तरेण तस्यैक्य प्रयुज्यते । पुरुषस्येव यष्टित्वम् । यथा हि पुरुषे यष्टियोगिन्यपि नोपचारमन्तरेण यष्टित्वं तथा पृथिव्यादावपि स्वयमनेकस्मिन्सत्यप्येक- , लक्षणसंबन्धेनोपचारमन्तरेणैक्यं युज्यत इति । नन्वेवं भवतामपि प्रमाणादिष्वैक्यमुपचरितमेव स्यात् । प्रत्यक्षपरोक्षादिभेदेषु स्वपरव्यवसायित्वादिलक्षणगतैक्यस्योपचरितत्वात् । नैतद्वक्तव्यम् । स्वपरव्यवसायित्वादिलक्षणादेकस्मात्प्रत्यक्षपरोक्षादिप्रकाराणां कथंचिदव्यतिरेकात्कथंचिदैक्यस्य तात्त्विकस्य प्रसिद्धेः । न चैवं पृथिव्यादिष्वप्यै- १ क्यसंभवो द्रव्यलक्षणस्य तेभ्योऽत्यन्तं त्वया भेदाभ्युपगमात् । कथं चैवं सामान्यपदार्थो विशेषपदार्थश्चैकः सिध्येत् , परापरसामान्ययोविशेषाणां च सामान्यादिनैकेन लक्षणेनाभिसंबन्धायोगादिति समवाय एवैकः पदार्थः स्यात् । यदि पुनर्यथेहेदमिति प्रत्ययादिविशेषादेकः समवायस्तथा द्रव्यादिरयमिति प्रत्ययाविशेषाव्यादिरप्येकैक एव । पदार्थ इत्यभिधीयते । तदापि वैशेषिकतन्त्रव्याघातो दुःशकः परिहर्तुम् । स्याद्वादिमतस्यैवं प्रसिद्धेः । स्याद्वादिनां हि शुद्धसंग्रहनयात्सत्प्रत्ययाविशेषादेकं सन्मात्रं तत्त्वं शुद्धद्रव्यमिति मतम् । तथैवाशुद्धसंग्रहनयादेकं द्रव्यमेको गुणादिरिति । व्यवहारनयात्तु यत् सत् तद्रव्यं पर्यायो वेति भेदः । यहव्यं तज्जीवद्रव्यमजीवद्रव्यं. २१ च । यः पर्यायः सोऽपरिस्पन्दात्मकः परिस्पन्दात्मकश्चेति । सोऽपि
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५
प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः
[ परि. ५ सू. ८
I
सामान्यात्मको विशेषात्मकश्चेति । सोऽपि द्रव्यादविष्वग्भूतो विष्वग्भूतश्चेति यथाप्रतीति निश्चीयते सर्वदा बाधकाभावात् । वैशेषिकाणां तु तथाभ्युपगमो व्याहत एव । तन्त्रविरोधात् । न हि तत्तन्त्रे सन्मानमेव तत्त्वं सकलपदार्थानां तत्रैवान्तर्भावादिति नयोऽस्ति । स्यान्मतं, द्रव्यपदेन सकलद्रव्यव्याक्तिभेदप्रभेदानां संग्रहादेको द्रव्यपदार्थः । गुण इत्यादिपदेन चैकैकगुणादिभेदप्रभेदसंग्रहाद्गुणादिरप्येकैकः पदार्थो व्यवतिष्ठते । तथा च---
' विस्तरेणोपदिष्टानामर्थानां तत्त्वसिद्धये । समासेनाभिधानं यत्संग्रहं तं विदुर्बुधाः ॥
१०
इति पदार्थधर्मसंग्रहः प्रवक्ष्येत इत्यत्र पदार्थसंग्रहस्य धर्मसंग्रहस्य चैव वैशेषिकव्याख्यानादिति । तदप्यविचारितरम्यम् । परमार्थ - तस्तथैकैकस्य द्रव्यादिपदार्थस्य प्रतिष्ठानुपपत्तेस्तस्यैकपदविषयत्वेनैकत्वोपचारात् । न चोपचरित पदार्थसंख्याव्यवस्थायां पारमार्थिकी पदार्थसंख्या समवतिष्ठते । अतिप्रसंगात् । अथ नात्रैपदविषयत्वेनै१५ कत्वोपचारो वाच्यः | यतोऽयमत्रापि प्रायोऽस्माकं द्रव्यमित्येकः पदार्थः, एकपदवाच्यत्वात् । यद्यदेकपदवाच्यं तत्तदेकः पदार्थः । यथा संप्रतिपन्नः कश्चित् । तथा च द्रव्यम्, एकपदवाच्यम् । तस्मादेकः पदार्थः । एवं गुणादिष्वपि वाच्यम् । एतदपि न वाच्यम् । व्यभिचारात् । सेनावनादिपदे हस्त्यादिधवादिपदार्थस्यानेकस्य वाच्य२० स्य सद्भावात् । ननु सेनापदे वाच्य एक एवार्थः प्रत्यासत्तिविशेषः संयुक्तसंयोगाल्पीयस्त्व लक्षणो हस्त्यादीनामस्ति वनशब्दे च धवादीनामिति न व्यभिचार इति चेत् । न । सेनाशब्दादनेकत्र हस्त्याद्यर्थे प्रतीतिप्रवृत्तिप्राप्तिप्रसिद्धेर्बनशब्दाच्च धवखदिरपलाशादावने कत्रार्थे । यत्र हि शब्दात्प्रतीतिप्रवृत्तिप्राप्तयः समधिगम्यन्ते स शब्दस्यार्थः
१ प्रणम्य हेतुमीश्वरं मुनिं कणादमन्वतः । पदार्थधर्मसंग्रहः प्रवक्ष्यते महोदयः ॥ ' इति प्रशस्तपादभाष्ये मङ्गलश्लोकः ।
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परि. ५. ८ ]
स्याद्वादरत्नाकरसहितः
सिद्धस्तथा वृद्धव्यवहारात् । न च सेनावनादिशब्दात्प्रत्यासत्तिविशेषप्रतीतिप्रवृत्तिप्राप्तयोऽनुभूयन्ते येन स तस्यार्थः स्यात् । प्रत्यासत्तिविशिष्टा हस्त्यादयो धवादयश्च सेनावनादिशब्दानामर्थ इति चेत् । सिद्धस्तर्हि एकपदवाच्योऽनेकार्थस्तेन कथमेकपदवाच्यत्वं न व्यभि चरेत् । न च प्रत्यासत्तिरप्येका हस्त्यादिषु काचिदस्ति । संयुक्त- ५ संयोगानामनेकेषां तत्र भवद्भिरभ्युपगमात् । न च तदल्पीयस्त्वमेकमस्तीति वाच्यम् । तद्धि संख्याविशेषरूपं संयुक्तसंयोगेषु कथं युज्यते । निर्गुणत्वाद्गुणानाम् । गौरिति पदेनैकेन पश्चादेरनेकस्य वाच्यस्य दर्शनादपि व्यभिचारी हेतुः । कश्चिदाह-'न गौरित्येकमेव पदं पश्वादेरनेकस्यार्थस्य वाचकं तस्य प्रतिवाच्यं भेदात् । अन्य एव हि १० गौरिति शब्दः पशोर्वाचोऽन्यश्च दिगादेः । अर्थभेदाच्छन्दभेदव्यवस्थितेः । अन्यथा सकलपदार्थस्यैकपदवाच्यत्वप्रसंगात् ' इति तस्याप्यनिष्टानुषंग: स्यात् । द्रव्यमिति पदस्याप्यनेकत्वप्रसंगात् । पृथिव्याद्यनेकार्थवाचकत्वात् । अन्यदेव हि पृथिव्यां द्रव्यमिति पदं प्रवर्तते, अन्यदेव च जलादिषु । इत्येकपदवाच्यत्वं द्रव्यपदार्थस्या- १५ सिद्धं स्यात् । ननु द्रव्यत्वाभिसंबन्ध एको द्रव्यपदस्यार्थो नानेकपृथिव्यादिः । तस्य पृथिव्यादिशब्दवाच्यत्वात् । तत एकमेव द्रव्यपदं नाकमिति चेत् । तत्किमिदानीं द्रव्यत्वाभिसंबन्धो द्रव्यपदार्थः स्यात् । न चैतद्युक्तम् । तस्य द्रव्यत्वापलक्षितसमवायपदार्थत्वात् । एतेन गुणत्व कर्मत्वाभिसंबन्धो गुणकर्मपदयोरर्थ इत्येदप्यपाकृतम् । गुणत्वकर्म - २० त्वाभिसंबन्धस्य गुणत्वकर्मत्योपलक्षितसमवायपदार्थत्वात् । न चैवं सामान्यविशेषौ पदार्थों सिध्यतः । सामान्ययोर्विशेषेषु च सामान्याभिसंबन्धस्यासंभवादित्युक्तं प्राक् । ततो न द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायाः षडेव पदार्था इति पक्षः क्षेमकरः । हेतोरपि न्यूनाधिकत्व
८
१ स्वर्गेषु पशुवाग्वज्रदिडूनेत्रघृणिरश्मयः' इति कोशात् गोशब्दः पशुवाचकस्तथा दिशः स्वर्गादिश्च वाचकः ।
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प्रमाणनयतत्वालोकालङ्कारः
[ परि. ५ सू.८
प्रतिपादकप्रमाणाभावे सतीति विशेषणमसिद्धम् । यतो न न्यूनत्वग्राहकप्रमाणाभावः सिद्धः । सामान्यविशेषमात्रग्राहकस्यैव प्रमाणस्य प्रागुक्तस्य तद्राहिणः सद्भावात् । तत्र यदेतत्परापरभेदं सामान्यं यच्च नवप्रकारं द्रव्यमुच्यते तत्तिर्यगूर्ध्वताभिख्यसामान्यप्रकारद्वयस्यैवान्त५ नम् । गुणादिकं तु समग्रं गुणपर्याययोर्विशेषयोरन्यतरदेवेति नातोऽन्यद्भवितुमर्हति । न चान्यलक्षणलक्षितौ सामान्यविशेषौ संगच्छेते । यतो द्रव्यादीनां ततो भिन्नलक्षणलक्षितत्वेन तत्र नान्तर्भूतौ भवेताम् | सामान्यविशेषयोरनन्तरमेव निराकरिष्यमाणत्वात् इत्यसिद्धौ न्यूनत्वग्राहकप्रमाणाभावः । एवमधिकत्वग्राहकप्रमाणाभावोऽपि षट्पदार्था१० धिकाभावप्रतिपादकस्य प्रत्यक्षादिप्रमाणस्य सद्भावात् । नाय पदार्थ इति चेत्, कुत एतत् । किमयं पदस्यार्थो न भवति । यद्वास्य तत्त्वज्ञानं न निःश्रेयसहेतुः । अथ वा नायं विधिस्वरूपः किं वा भावपरतन्त्रः । उत कणभुजा न भणित इति । नाद्यः पक्षः | भावपदार्थत्वेनास्य व्यवस्थितत्वात् । यथा १५ द्रव्यादिपदानां द्रव्यादयः । नापि द्वितीयः । यतोऽपदार्जितैनसा प्रध्वंसाभावस्तेषामेव निर्वर्तकस्य प्रकृष्टपुण्यस्य प्रागभावः पृथिव्यादिभ्यश्चात्मनः स्वरूपपरिहारः परिज्ञातो भवति । तदा प्रेक्षाकारी निःश्रेयसाय यतत इति सुतरामेतत्तत्त्वज्ञानं निःश्रेयसोपयोगि । नापि
तृतीयः । यतो नेयं परिभाषावयोः प्रतिपन्नास्ति यद्विधे रूपेणैव पदा२० र्थेन भवितव्यमिति । नाप्येतदर्थे विप्रतिपन्नं परं प्रति प्रमाणमेव । अन्यथा प्रतिषेधरूप एव पदार्थ इत्यपि ब्रुवाणः कश्चिद्वावदूको दुः प्रतिषेधः स्यात् । नापि चतुर्थः । यतः किमिदं पारतन्त्र्यं नाम । किं भावाश्रितत्वं भावनिरूपणाधीन निरूपणत्वं वा । आद्यकल्पनायामाश्रितत्वं किं समवेतत्वं, संयोगिविशेषत्वं विशेषणीभूतत्वं वा । प्रथ२५ मपक्षद्वयेsसिद्धता | अभावस्य द्रव्याद्यन्यतरत्वाभावेन समवायसंयोगयोरसंभवात् । संभवेऽपि चाव्यभिचारित्वमनित्यद्रव्यगुणकर्मसामान्य
८४४
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परि. ५ सू. ८ स्याद्वादरत्नाकरसहितः
८४५ विशेषाणां भावाश्रितत्वेऽपि पदार्थत्वानपायात् । विशेषणीभूतत्वमपि समवायेन व्यभिचारि, तस्य समवायिविशेषणस्यापि पदार्थत्वात् । अथ भावनिरूपणाधीननिरूपणत्वं भावपारतन्त्र्यम् । तथा हि-नाप्रसिद्धभावसद्भावस्य नालिकेरद्वीपनिवासिनस्तदभावप्रतीतिरिति भावपरिज्ञानापेक्षितत्वादभावस्य न पदार्थत्वमिति । तदपि न पेशलम् । एवं ५ सत्यनित्यद्रव्यस्याप्यपदार्थत्वापत्तिः । न खल्बनित्यद्रव्यमवयवनिरूपणमन्तरेण निरूपयितुं पार्यते । भूयोऽव .... .... .... ....रेककालत्वात्कुतस्त्योऽसति द्रव्यत्वाभिसंबन्ध इति चेत् । अस्मादेव त्वदुक्तहेतोरेककालत्वात् । सत्तासंबन्धात्खलु सद्वस्तु । न चासौ द्रव्यत्वाभिसंबन्धात्प्रागस्य समभूत्तदानीमेव भवनात् । एवं १० च द्रन्यमितरेभ्यो भिद्यते द्रव्यत्वाभिसंबन्धत्वादित्यत्र हेतुः स्वरूपासिद्धः।
किं चाभिव्यज्यते जातिः संस्थानायेन केनचित् । गोत्वं लाशूलशृङ्गादिसंस्थानवशतो यथा ॥ ६१५ ॥ यथा वा तप्तयोस्तुल्यरूपयोधृततैलयोः । घृतत्वतैलते तादृग्गन्धेनोल्लसता भृशम् ॥ ६१६ ।। न चापि व्यञ्जकं किंचिद्रव्यत्वप्रतिपत्तये ।
कणभक्षमुनेदर्दीक्षामाश्रिता वक्तुमीश्वराः ॥ ६१७ ॥ क्रियावत्त्वगुणवत्त्वसमवायिकारणत्वमस्त्येव तव्यञ्जकमिति चेत् । प्रत्येक समुदितं यथासंभवं वा तत्तथा स्यात् । नाद्यः पक्षः । यतो २० नान्तरिक्षादौ क्रियावत्त्वं संभवति । नापि सद्यः समुत्पन्नेषु पटादिषु गुणवत्त्वमस्ति । लब्धात्मलाभो ह्यवयवी द्वितीयक्षणे गुणोत्पत्ती समवायिकारणं भवतीति भवद्भिरेवेष्टम् । तथा च योगिनां तत्र द्रव्यबुद्धिर्न स्यात् । नापि समवायिकारणत्वं सर्वदैव वस्तुषु विद्यते । यदैव कार्यमुत्पद्यते तदैवास्य भावात् । ततो न प्रत्येकमेतद्रव्यत्वस्य २५ व्यञ्जकम् । नापि समुदितम् । सद्यः समुत्पन्नेषु पटादिषु त्रितयस्याप्य
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः परि. ५ सू. ८ स्यासंभवात् । व्योमादौ तु क्रियावत्त्वस्य सर्वथैवाभावाच्च । यथासंभवमिति पक्षोऽपि सद्यः समुत्पन्नपटादिष्वस्याभावादेव परास्त - इति न द्रव्यत्वस्याभिव्यञ्जकं किंचिदस्ति । भवदुक्तौ च सामान्यसमवायौ पुरः पराकरिष्येते इत्यतोऽपि स्वरूपासिद्धं द्रव्यत्वाभिसंबन्धरूपं ५ साधनम् । किं च, अस्य केवलव्यतिरेकिणो हेतोः केवलव्यतिरे
कित्वमेव गमकत्वे कारणमन्ताप्तिर्द्वयमपि वा प्रोच्यते । नायः पक्षः । सर्वं, सात्मकम्, सत्त्वात् । यन्नैवं न तदेवम् । यथा गगनेन्दीचरम् । इत्यादेरपि गमकत्वप्रसक्तेः । अथात्र पक्षस्यैकत्र देशे सिद्ध
साधनम् । अन्यत्र पुनरनुमानबाधा । कुम्भस्तम्भाम्भोरुहादौ तथा१० विधपरिस्पन्दप्राणादेरात्मकार्यस्य व्यापकस्य योग्यस्याप्यनुपलब्धेः । न
च न कार्य कचन व्यापकं भवति । कार्यमन्तरेणापि कारणसद्भावात् । न ह्यवश्यं कारणानि कार्यवन्ति भवन्तीति वक्तव्यम् । लैङ्गिकवेद्यस्य वस्तुनो योग्यलिङ्गोपलम्भस्यैव व्यापकत्वात्तदनुपलम्भेनैव च तस्या
सत्त्वावधारणात् । यथा स्तनजघनजवाजानुपादादेिप्रतीकेषु गन्धानु१५ पलम्भेन प्राणादेरिति चेत् । एवमेतत् । इह न कोऽपि प्रतीपवाक्कोऽपि
कोविदः समम्ति सर्वथा । किंतु केवलविपक्षानास्तितानिश्चितं न गमकत्वकारणम् । यत एव हि तत्र साध्यं वाच्यतेऽत एव न केवलव्यतिरेकित्वं गमकत्वे कारणम् । यदि तु स्यात्तदा बलात्साध्यमर्प
येत् । अथान्तप्तिरत्र गमिकेप्यते । नन्वसाविह नास्त्येव, विपक्षे २० बाधकप्रमाणाभावात् । द्रव्यस्यापि गुणाद्यात्मकत्वप्रसंगो विपक्षे बाधकमस्तीति चेत् । नैवम् । इष्टत्वाद्गुणपर्यायात्मकत्वाव्यस्य । यथा चैतदेवं तथा प्रत्यतिष्ठिपाम प्राक् । एतेन द्वयपक्षोऽपि व्यपास्तः । ततो नेदमनुमानमुदात्तम् । एवं व्यवहारानुमाने पृथिवीत्वा
भिसंबन्धात्पृथिवीत्वाद्यनुमानेऽपि दूपर्ण भाषणीयम् । ततो न द्रव्य२५ स्वाभिसंबन्धो द्रव्यलक्षणमक्षुण्णम् । नापि क्रियावदित्यादि । क्रिया.
१ भङ्गं प्रतीकोऽवयव ' इत्यमरः ।
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परि. सू. ८.] स्याद्वादरत्नाकरसहितः संबद्धं हि वस्तु क्रियावदित्युच्यते । न च द्रव्यादन्यक्रियावदस्ति ययवछेदाय शेषविशेषणं क्रियते । यत्पुनरात्रेयः प्रोचिवान्'न क्रियात्वे प्रसंगात् । क्रियात्वमपि क्रियावद्भवति क्रियाधारत्वात् । न च तत् द्रव्यमिति तद्व्यवच्छेदार्थ गुणवदिति । न च खल्वाधार एवाधेयेन तद्वान्भवत्याधेयमप्याधारण तत् ५ व्यपदिश्यते' इत्यादि । तत्राय वर्षीयान्विप्रपुङ्गवोऽनन्तरमेव स्वयमुक्तं नाप्यनुसंदधातीति किं ब्रूमः । कर्म उत्क्षेपणादि तद्यस्मिन्समवायेन वर्तते तक्रियावदिति हि तत्रादावनेन विवत्रे । न च क्रियाल्वे क्रिया समवायेन वर्तते विपर्ययसद्भावात् । अथ क्रियावदिति क्रियासंबद्धतामात्रमुच्यते । तच्च क्रियात्वेऽप्यस्तीति युक्तं तव्यवछित्तये १० गुणवत्त्वविशेषण मिति चेत् । न । एवमपि तद्व्यवच्छेदासिद्धेः । गुणैरपि क्रियात्वस्य संबद्धत्वाद्गुणवत्त्वोपपत्तेः । कोऽत्र संबन्ध इति चेत् । सर्वत्र शिंशपात्वं वृक्षत्ववदित्यादौ वृक्षत्वस्य शिंशपात्वसंबद्धत्वेनाभिधीयमानस्य क इति वाच्यम् । एकार्थसमवाय इति चेत् । अत्रापि परम्परैकार्थसमवाय इति प्रतीहि । एकत्रैव द्रव्ये साक्षा- १५ दुणानां क्रियासमवायद्वारेण तु क्रियात्वस्य च वृत्तेः । गम्यगमकभावः शिंशपात्ववृक्षत्वयोः संबन्ध इति चेदत्रापि स एवास्तु । गुणबत्त्वाविनाभावित्वेन क्रियावत्त्वस्य गमकत्वात् । इतरस्य तु गम्यत्वात् । अथास्तु यत्र समवायेन क्रिया वर्तते । तदेव क्रियावत् । तथापीदमव्यापकं व्यापकद्रव्येषु क्रियावत्त्वासंभवात्, इति तत्संग्रहार्थमुक्तं गुण- २० चदिति । तहदिमेवास्तु कृतमितरेण । अथैवं गुणत्वेऽपि प्रसंगः । गुणत्वमपि हि गुणवद्भवति । गुणाधारत्वात् । न च तव्यमिति तयवच्छेदार्थ क्रियावदिति । तदपि न सुसूत्रमात्रेयेणाभाणि । गुणा रूपादयस्ते यस्मिन्समवायेन वर्तन्ते तद्गुणवदित्यादौ स्वयमेव व्याख्यानात् । गुणसंबद्धतामात्रे तु गुणवत्त्वे व्याक्रियमाणे क्रिया- २५ चत्त्वविशेषणोपादानेऽपि न गुणत्वव्यवच्छेदः । प्रागुक्तसंबन्धमात्रस्य
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः परि. ५ स. ८ गुणवत्त्वेऽपि क्रियया सह संभवात् । अथ विशेषणोभयेऽप्याधाराधेयभूतयोर्वस्तुनोर्यः समवायः स एव संबन्धो विवक्ष्यते । न तु परम्परैकार्थसमवायादिरपीत्युपपन्नमेवेदं द्वयमपीति चेत् । तीदमेव भवतु पर्याप्तं तृतीयेन ! अथैवमपि सत्तायां प्रसंगः । सत्ता हि क्रियागुणयोर्भावास्क्रियावती गुणवती न च सा द्रव्यमिति । तयवच्छेदार्थ समवायिकारणमिति । भवतु तहीदमेव किमपराभ्याम् । न हि द्रव्यादन्यत्समवायिकारणं किंचिदुपेयिवान् । यद्ध्यवच्छेदमिच्छेः । यत्तच्यते समवायिकारणमित्यस्मादेव स्वजात्यवधारणे परजातिव्यवच्छेदे
च सिद्धे क्रियावगुणवदिति वचनं सपक्षकदेशवृत्तिसपक्षव्यापकयोरन्व१० यिनोरवरोधार्थम् । कथं, द्रव्यं वायुः, क्रियावत्त्वाद्गुणवत्त्वात्, आ
काशवदिति । तत्र पूर्वसपक्षैकदेशवृत्तिरुत्तरः सपक्षव्यापकः । कथं द्रव्यत्वे साध्ये द्रव्यमानं सपक्षो न च सर्वद्रव्येषु क्रियावत्वं वर्तत इति सपक्षकदेशवृत्तिगुणवत्त्वं तु सर्वद्रव्यवृत्तित्वात्सपक्षव्यापकं भवतीति ।
त्वया सोऽयमुपक्रान्तः प्रकारः प्रपलायने । त्रपापात्रत्वमात्रेय स्वस्य स्वीकृत्य सर्वथा ॥ ६१८ ॥ क्षणोऽयं लक्षणस्यैव लक्षणानुगुणं ततः । लक्ष्यलक्षणदक्षस्य जल्पितुं तव युज्यते ॥ ६१९ ॥ सहान्वयौ सपक्षस्य व्याप्यव्यापकौ मतौ ।
द्रव्यसिद्धाविमौ हेतू केदमत्रोपयुज्यते ।। ६२० ॥ किं चोचे .... .... .... .... .... .... .... चेत्तदेतदन्यत्रापि समानम् । न हि सकलार्थगतिस्थितयोऽपि सकृद्धाविन्यो धर्माधर्मलक्षणसाधारणनिमित्तमन्तरेणोपपद्यन्ते । शंकर
एवासां साधारणं निमित्तमस्त्वित्यष्ययुक्तम् । तस्य पूर्व निरस्तत्वात् । २५ तर्हि वसुधैव साधारणं निमित्तमस्तु । तत्र सकलार्थगतिस्थितीनां
१ छन्दोमङ्गो दृश्यते । व्याप्यध्यापकसमताविति स्यात् ।
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परि. ५ सू. ८ ]
स्याद्वादरत्नाकरसहितः
संभवादित्यप्यसंगतम् । गगनवर्तिपदार्थगतिस्थितीनां तदसंभवात् । तर्हि नभः साधारणं निमित्तमासामस्तु । सर्वत्र तत्संभवात् । इत्यप्यपेशलम् । तस्यावगाहनिमित्तत्वप्रतिपादनात् । तस्यैकस्यैवानेककार्यनिमित्तत्तायामने कसर्वगतपदार्थपरिकल्पनानर्थक्यप्रसक्तिः । कालात्मादिकसामान्यसमवाय कार्यस्यापि यौगपद्यादिप्रत्ययस्य बुध्यादेरिमतः पूर्वेणे- ५ त्यादिप्रतीतेरन्वयज्ञानस्येहेदमिति संवेदनस्य च नभोनिमित्ततोपपत्तेस्तस्य सर्वत्र सर्वदा सद्भावात् । कार्यविशेषात्कालादिनिमित्तभेदव्यवस्थायां तत एव धर्मादिनिमित्तभेदव्यवस्थाप्यस्तु । विशेषाभावात् । एतेनादृष्टनिमित्तत्वमप्यासां प्रत्याख्यातम् । पुदलानामदृष्टासंभवाच्च । ये यदात्मोपभोग्याः पुद्गलास्तद्गतिस्थितयस्तदात्मादृष्टनिमित्ताश्चेत्तर्हि १० असाधारणं निमित्तमदृष्टं तासाम् । प्रतिनियतात्मादृष्टस्य प्रतिनियतद्रव्यगतिस्थितिहेतुत्वप्रसिद्धेः । न च तदनिष्टम् । भूम्यादिवत्तदसाधारणकारणस्यादृष्टस्यापीष्टत्वात् । साधारणं तु कारणं तासां धर्माधमवेवेति सिद्धः कार्यविशेषात्तयोः सद्भावः । एवं च वैशेषिक दुःस्थ एष द्रव्येष्वनाधिक्यमनोरथस्ते । धर्मेऽप्यधर्मेऽप्यथवा विपक्षे किं नाम कुर्वन्तु मनोरथौघाः ॥ ६२१ ॥ प्रौढप्रमाणप्रतिपन्नरूपं तमः प्रभृत्यस्ति तथा ततोऽन्यत् । ततोऽपि च त्वत्समुपात्तहेतौ विशेषणासिद्धिरसिध्यदस्मिन् ॥ ६२२ ॥
3
१५
ननु द्वेष कलुषितस्वान्तस्य तवायमुल्लापः । न हि तमो नाम द्रव्यान्तरमस्ति भासामभावस्य तमस्त्वात् । तथा च प्रयोगः | अभावरूपं २० तमो द्रव्यगुणकर्मातिरिक्त कार्यत्वात् । यदेवं तदेवम् । यथा कुम्भप्रध्वंसस्तथा चैतत्तस्मात्तथा । एवं छायापि । ननु यदि छायाया द्रव्यान्तरता नोपेयेत तदा तस्यां छत्रादेरर्थान्तरभूतायां भावरूपतया प्रतीतिर्न स्यात् । अस्ति चासौ । ततो बीजादङ्करवत्तस्मादसौ द्रव्यान्तरं सिद्धा । तदसंबद्धम् । आलोकाभावरूपतयास्यां द्रव्यान्तरत्वा- २५ संभवेऽपि विभ्रमवशात्तथा प्रतीतेरुपपत्तेः । तथा हि-येन येन प्रदेशेना
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प्रमाणमयतत्वालोकालङ्कारः
[परि. ४ स...
तपत्रादिप्रतिबद्धं तेजो न संयुज्यते तत्र तत्र छाया प्रतीयते । प्रति-. बन्धकापाये तु स्वरूपेणालोकः समालोक्यत इत्यालोकाभाव एव छाया । द्रव्यान्तरत्वे तु तदपायेऽप्यालोकेन सहावस्थितायास्तम्याः प्रतीतिः स्यात् । अत्र ब्रूमः । अभावरूपं तम इत्यत्र किमभावरूपमेव तम इति साध्यं विवक्ष्यते किं वाभावरूपमपीति । पौरस्त्यपक्षे पक्षस्य प्रत्यक्षबाधा । यथैव हि स्तम्भोऽयं कुम्भोऽयमिति स्तम्भादयो भावा विधिमुखेन प्रत्यक्षेण प्रतीयन्ते । तथेदं तम इति तमोऽपि । केवलारूपतायां तु तस्य प्रतिषेधमुखेन प्रत्ययः प्रादुःप्यात् । किं च गृह्यमाणे भूतलादौ विशेष्ये तद्विशेषेण तयान्यप्रतिषेधमुखेनाभावो गृह्यते न स्वतन्त्रः । तमसि च गृह्यमाणे नान्यस्य ग्रहणमस्ति । न हि बहुलरजन्यां निबिडघटितकपाटतया तिमिरनिकरनिरन्तरापूरितोदरेऽपवरके कुड्यादिविशेष्यं मनागपि गृह्यते । न चालोकादर्शनमात्रमेवैतत् । बहिर्मुखतया तम इति कृष्णाकारप्रतिभासात् । ननु यदि तमस्तत्त्वतः कृष्णाकारं स्यात्तदावश्यं स्वप्रतिभास आलोकमपेक्षेत । कुवलयकोकिलतमालादिकृष्णवस्तूनां सकलानामालोकापेक्षप्रतिभासत्वात् । न चैवम् । अतो नैष तात्विकः कृष्णाकारप्रतिभास इति चेत् । तदपि परिफल्गु। उलकादीनामालोकमन्तरेणापि तत्प्रतिभासात् । अथास्मदादिप्रतिभासमपे. क्ष्यैतदुच्यते । तदपि न पेशलम् ! यतो यद्यपि कुवलयादिकमालोकमन्तरेगालोकयितुं न शक्यतेऽस्मदादिभिस्तथापि तिमिरमालोकमन्तरेणापि ग्रहीतुं शक्यत एव । विचित्ररूपत्वाद्भावानाम् । इतरथा पीतावदातादयोऽपि तपनीयमुक्ताफलप्रभृतयो नालोकनिरपेक्षवीक्षणा इति प्रदीपचन्द्रादयोऽपि प्रकाशान्तरमपेक्षेरन् । विचित्रास्तु पदार्थ
प्रकृतयः प्रमाणसमधिगता न पर्यनुयोगमर्हन्तीत्यभ्रान्तकृष्णाकारप्रति. २५ भासे केवलाभावरूपतायास्तमसो बाधनात्पक्षस्य प्रत्यक्षबाधा स्पष्टैच।
१ बहुल:-कृष्णपक्षः ।
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परि. ५ स. ८] स्याद्वादरलाकरसहितः प्रत्यक्षबाधितपक्षनिर्देशानन्तरप्रयुक्तत्वेन हेतोः कालात्ययापदिष्टता च । साध्यवैकल्यं चात्र पक्षे निदर्शनस्य कुम्भप्रध्वंसस्यापि केवलाभावरूपत्वानुपपत्तेः । मृद्रव्यमेव हि घटाख्यपूर्वपर्यायपरित्यागेन कपालाख्योत्तरपर्यायविशिष्टं घटप्रध्वंस इति निरणायि । तन्नाभावरूपमेव तम इति पक्षः पक्षपाताहः । अभावरूपमपीति पक्षे तु सिद्धसाध्यता । .५ कथंचिदालोकाभावात्मकतया तमोद्रव्यस्याभ्युपेतत्वात् । भावाभावोभयस्वभावात् । समस्तवस्तूनां साध्यसाधनयोरितरेतराश्रयतयाऽसिद्धत्वात् । असिद्धता च हेतोः । तथा हि-तमसो भावरूपतायां द्रव्यगुणकर्मातिरिक्तकार्यत्वं सिध्यति । सिद्धे चास्मिस्तस्याभावरूपताप्रसिद्धिरिति । अनुमानबाधितश्चात्र पक्षः । तथा हि-तमो भावरूपम्, १० घटाद्यावारकत्वात्काण्डपटवदिति । न चास्य घटाद्यावारकस्वमसिद्धम् । घटाद्यावारकं तमो विषयाभिमुखप्रवर्तमाननयनन्यापारनिरोधित्वात्तद्वदेवेत्यतस्तत्सिद्धेः । अपि चालोकस्य प्रागभावः प्रध्वंसाभाव इतरेतराभावोऽत्यन्ताभावो वा तमो भवेत् । न तावदेकस्यालोकस्य प्रागभावस्तमः प्रदीपालोकेनेव प्रभाकरालोकेनापि तस्य १५ निवर्त्यमानत्वात् । यस्य हि यः प्रागभावः स तेनैव निवर्त्यते यथा पटनागभावः पटेनैव । नाप्यनेकस्य, एकेन निवर्त्यमानत्वात्पटप्रागभाववदेव । न च वाच्यं प्रत्यालोकं स्वस्वनिवर्तनीयस्य तमसो भेदात्मदीपादिना निवर्तितेऽपि तमोविशेषे पूषादिनिवर्तनीयं तमोऽन्तरं तदा तदभावान्न निवर्तत इत्येकेन निवर्त्यमानत्वादिति हेतुर- २० सिद्ध इति । प्रदीपादिनिवर्तिततमसि प्रदेशे दिनकरादिनिवर्तनीयस्य तमोऽन्तरस्योपलब्धिलक्षणप्राप्तस्यानुपलब्धेः संप्रतिपन्नवत् । यदि चेदं प्रागभावस्वभावं स्यात्तदा प्रदीपप्रभाप्रबन्धप्रव्वसेऽस्योत्पत्तिर्न स्यादनादित्वात्प्रागभावस्य । नाप्यालोकस्य प्रध्वंसाभावस्तमो निवर्त्यमानत्वात्तस्यैव प्रागभाववत् । नापीतरेतराभावः । तस्य प्रसृतेऽपि २५ प्रचण्डे मार्तण्डीये तेजसि सद्भावेन तमिस्रायामिव वासरेऽपि तमः
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः परि. ५ सु. ८ प्रतीतिप्रसंगात् । नाप्यत्यन्ताभावः । मालोकस्य स्वकारणकलापोपनिपातकाले समुत्पद्यमानत्वात् । यदि ह्यालोकस्यात्यन्ताभावस्तमः स्यात्तदास्य व्योमकुसुमसमत्वमिति निमसमेतस्त्रिभुवनमनाद्यनन्तेऽ
न्धतमसे । एवं च नाभावरूपं तमः प्रागभावाद्यस्वभावत्वाव्योमव५ दित्यमुनाप्यनुमानेन बाधितः पक्षः । तमो भावरूपम्, उत्पत्तिमत्त्वे सति, अनित्यत्वाद्धटवदित्यनुमानेनापि प्रकृतानुमानपक्षबाधा निरो. द्धुमशक्या । प्रागभावेन व्यभिचारनिरासार्थमुत्पत्तिमत्त्वे सतीति कृतम् । प्रध्वंसेनानैकान्तिकत्वं मा भूदित्यनित्यत्वादित्युपात्तः । यच्च शंकर
न्यायभूषणकारावाचक्षाते- 'यो हि भावो यावत्या सामग्र्या १. गृह्यते तदभावोऽपि तावत्यैवेत्यालोकग्रहणसामग्या गृह्यमाणं तम
स्तदभाव एव' इति तदपि न किंचित् । तमोग्रहणसामग्र्या गृह्यमाणस्यालोकस्यैव तदभावताप्रसंगेनानैकान्तिकत्वात् । घटपटयोर्वा समानग्रहणसामग्रीकतया परस्पराभावत्वप्रसंगः ।
तस्मात्पदार्थान्तररूपविवेकेन प्रतिभासमानामध्यक्षेऽन्धकारमालोक१५ विरोधि वस्त्वेव । विरोधित्वे तर्हि कदाचिदालोकमप्यन्धकारः परिभवे
दिति न प्रेर्यम् । प्रतिनियतस्वभावाक्रान्तत्वाद्भावानामन्यथानलस्तूलं यथा दहति तथाऽनलमपि तूलः कदाचिद्दहेदुभयोः परस्परं विरोधाविशेषात् । तन्नालोकस्तमः किंतु वस्त्वेवेति गृहाण 1 किमङ्ग कष्टसंकटे सुखिनमात्मानमावेशयसि । यमपि पूर्वमतारोचकितया कन्दलीकारः स्वकीयं मार्गमुत्पेक्षां चक्रे- 'रूपविशेषोऽयमत्यन्तं तेजोभावे सति सर्वतः समारोपितस्तम इति प्रतीयते' इति । सोऽपि कापथः । निशादावत्यन्ततेजोऽभावे सत्यारोपाधिकरणभूतलादिवस्तुमात्रस्याप्यनुपलब्ध्या रूपविशेषारोपानुपपत्तेः । उपलभ्यमान एव हि कम्बो पीततारोपः प्रतीत इति ।
यच्चातिदिष्टं — एवं छायापि ' इति तदप्येतेन तत्त्वतः प्रत्या२५ छायाया द्रव्यत्वसिद्धिः। दिष्टम् । यत्पुनरूचे 'आलोकाभावरूपत
१ न्यायकन्दल्या पृ. ९ पं. २३१
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परि. ५ सू. ८] स्याद्वादरत्नाकरसहितः यास्यां द्रव्यान्तरत्वासंभवेऽपि विभ्रमवशात्तथा प्रतीतेरुपपत्तेः ' इति .. तत्र भवत एव विभ्रमो यदन्न विभ्रमवशादिति ब्रवीषि । यदि हि द्रव्यतायां बाधकं किमपि स्यात्तदा युक्ता द्रव्यतया तत्प्रतीतेर्विभ्रमरूपता । बाधकं च न तावत्प्रत्यक्षम् । तद्न्यान्तरतायामेव प्रत्यक्षस्य साक्षित्वात् । अनुमानमपि-अभावरूपा छाया, द्रव्यगुणकर्मातिरिक्त- ५ कार्यत्वादित्येव, अन्यद्वा । न तावदाद्यम् । पूर्वमेव पराहतत्वात् । नाप्यन्यदनुमानं बाधकमत्रेक्षामहे । साधकं तु तस्यां द्रव्यतायां विद्यत एवेदमनुमानम् । तथा हि-छाया द्रव्यम्, क्रियावत्त्वात् । कुम्भवत् । चक्षुर्व्यापारा छाया गच्छतीति प्रत्ययोदयात्तस्याः क्रियावत्वमध्यक्षसिद्धमेव । अनुमानावसेयमपि । तथा हि--गतिमती छाया, १० देशाद्देशान्तरप्राप्तिमत्त्वात् , मैत्रवदिति । यच्चान व्योमशिवेनोपादेशि-' तदेतदसत् । भासामभावरूपत्वाच्छायायाः । तथा हि-यत्र यत्र वारकद्रव्येण तेजसः संनिधिनिषिध्यते तत्र छायेति व्यवहारः। वारकद्रव्यगतां च क्रियामातपाभावे समारोप्य प्रतिपाद्यते छाया गच्छतीति । अन्यथा हि वारकद्रव्यक्रियापेक्षित्वं न स्यात्' इति सोऽयं १५ पोस्तुरङ्गवेगविनिर्जयमनोरथः। मुख्यार्थबाधायां हि सत्यामारोपःप्रतिष्ठा प्राप्नोति । न चात्र छायाया गतिमत्त्वे बाधकस्य कणमपि प्रेक्षामहे । न हि छायायां गतिमत्त्वस्य माणवके कृशानुत्वस्येव बाधकमध्यक्षम् । तम्य तद्राहकतयैव प्रवृत्तेः प्रतिपादितत्वात् । अथानन्यथासिद्धेन्द्रियव्यापाराधीनं प्रत्यक्ष प्रमाणम् । इह तु वारकद्रव्यगतगतिगोचर- २० प्रत्ययोत्पादकतयेन्द्रियच्यापारोऽन्यथासिद्धो न छायागतिज्ञानं प्रति हेतुत्वं भजत इति । तदभाजनं नीतेः । यतो यदा युगपच्छनं तच्छाया च लोचनगोचरतामनुसरतस्तदा तावत्संभाव्यते कथंचिदिन्द्रियव्यापारस्यान्यथासिद्धता । यदा तु मध्यन्दिने मध्येऽन्तरिक्षं परिभ्राम्यतः शकुने छाया गच्छन्ती पृथिव्यामवनतवक्त्रेण प्रमात्रा प्रेक्ष्यते तदा २५ तद्गतैव गतिरिन्द्रियव्यापारस्य गोचरः। शकुनिगतिस्त्वनुमानगम्यैवेति
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८५४
प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः
[परि.५ स. १८
नात्रेन्द्रियव्यापारस्यान्यथासिद्धिसंभावनापि । शकुनेस्तदानीमत्यन्तं लोचनागोचरत्वात् । अपि च सिद्धेऽभावस्वभावत्वे छायाया गतिक्रियाया असंभवात्तत्रेन्द्रियव्यापारस्यान्यथासिद्धताभिधानं साधीयस्तां
दध्यात् । तत्पुनरद्यापि दैवकटाक्षितमस्ति । किं च यदि छायायां ५ गतिरारोपितप्रसादोपनतेत्युच्यते तदा मस्तकन्यस्तघटायां घटचेटि
कायामटत्यां चेटिकागतिरेव घटे समारोपात्प्रतिभातीति घटोऽपि तदानीं निष्क्रिय एव स्यात् । अथ तस्यापि चलतो विलोकनान्न निष्क्रियत्वम् । एतच्छायायामपि समानमायुष्मानिक नावधारयति ।
नाप्यत्र गतिमत्त्वस्य व्योम्नीव नीलिम्नोऽनुमानं बाधकमस्यात्रासंभवात् । १. नन्वभावरूपतैव तम्या गतिमत्त्वबाधिका । नैवम् । इतरेतराश्रयपरा
हतत्वात् । अभावरूपतायां हि सिद्धायां तस्या गतिमत्त्वबाधसिद्धिः । सत्यां च तस्यामभावरूपतासिद्धिरिति । भवतु वात्रारोपिता गतिस्तथापि तस्या भावरूपता तत एवापतन्ती दुरपन्हवेत्यहो शरणहेतुरपि मरणहेतुस्ते । तथा हि-भावरूपा छाया, अध्यारोप्यमाणगतित्वात् । वृक्षवत् । यथैव हि जवनप्रभञ्जनप्रेर्यमाणयानपात्रारूढस्य पुंसस्तीरतरुषु भावरूपेष्वेव स्वगतकर्माध्यारोपो नाभावरूपेप्वेवं छायाया अपि भावरूपायाभेव गतिसमारोप उपपन्नो नेतरस्यामिति सुस्थितं तम्या गतिमत्त्वं देशाद्देशान्तरप्राप्तिमत्त्वानुमानेन । यत्पुनरनेनैवोच्यते
'यचेदं देशान्तरप्राप्तिमत्वं तत् किं देशान्तरेण संयोगः समवायो २० वा । न संयोगस्तस्यापि साध्यत्वात् । तथाहि-द्रव्यत्वसिद्धौ संयोगः सिध्यति । संयोगाच द्रव्यत्वमितीतरेतराश्रयत्वं स्यात् । अथ देशान्तरमाप्तिः समवायः सोऽप्यसिद्धः। न ह्येकत्र समवेतमन्यत्र समवैति । छाया त्वेकत्र संबद्धाप्युपलब्धा पुनर्देशान्तरेऽप्युपलभ्यते' इति ।
तदपि यत्किंचित् । यतोऽत्र छायाया देशान्तरेण प्राप्तिसंयोगोऽभिधीयते । २५ यत्र वास्येतरेतराश्रयोद्भावनं तदनुसंधानशून्यतावशात् । न हि देशान्तर
प्राप्तिमत्त्वाव्यत्वं प्रसाधयितुमुद्यताः स्मः । किंतु गतिमत्त्व
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परि. ५ सू. ८] स्याद्वादरत्नाकरसहितः तम्मात्तु द्रव्यत्वमिति । नन्वेवमपि महत्तरे चक्रकसंकटे यूयं पतिताः । तथा हि- देशान्तरसंयोगाक्रियावत्त्वं क्रियावत्त्वाव्यत्वं द्रव्यत्वादेशान्तरसंयोगवत्त्वमिति । उत्स्वमायितमेतत् । देशान्तरप्राप्तेः प्रत्यक्षत एव छायायां प्रसिद्धस्वरूपत्वात् । यदि हि द्रव्यत्वसिध्या देशान्तरप्राप्तिः प्रसाध्येत तदा स्यात्तद्दषणम् । प्रत्यक्षेणेति सिद्धेन देशा- ५ः न्तरप्राप्तिमत्त्वेन सिद्धाक्रियावत्त्वात्सिद्धं छायाया द्रव्यत्वम् । गुणवत्त्वाच्च कुम्भवत्तम्याः सिध्यति । न चासिद्धं गुणवत्त्वं नीला छायेत्यादिप्रतीतेस्तस्या रू .... .... ... .... .... .... ..... .... णी प्रसारयन्तोऽपि प्रतिदिशं नास्याः कमपि स्पर्शमुपलभामहे । तत्कि. मालोकम्य तमुपलब्धवान्भवान् । अथातिप्रतीत एव मध्याहचा- १०. रिणां खल्वाटानामालोकस्योष्णः स्पर्शः । किं नातिप्रतीतः पथिकानां दिनकरकरनिकरनिरन्तरोपनिपातसंतापितवपुषामविरलंकिसलयकलापाभिरामसहकारमहीरुहमहीमतिमनोरथैरुपस्थितानां तच्छायायाः शीत. लम्पर्शः । अथ समीरलहरीसमुह्यमानजललवानुप्रवेशात्तद्गतशीतस्प
ध्यासेन तत्र शीतला छायेति प्रतिभासस्तर्हि प्रभञ्जनप्रेर्यमाणौग्नि- १५ कणानुप्रवेशात्तद्गतोष्णस्पर्शारोपेण प्रभाकरमरी चिनिचय उष्णम्पर्शप्रति. भास इत्यपि किं न स्यात् । अथ निर्वातेऽपि तथैव प्रतिभासात्तद्गत एवायं निश्चीयते तार्ह निरन्तरतरुनिकुरुम्बविडम्बिताम्बरमणिप्रतापे कापि प्रदेशे वातरहितेऽपि शीतस्य स्पर्शम्य प्रतिभासादसावपि छायागत एवेति निश्चयिताम्, अलं पक्षपातेन । २०. तथा चायुर्वेदवाक्यम् -- 'आतपः कटुको रूक्षः, छाया मधुरशीतला । कषायमधुरा ज्योत्स्ना , सर्वव्याधिहरं तमः । इति । यत्त्वत्र रसस्पर्शयोरौपचारिकत्वं प्रकटयन्नाह व्योमशिव:--'ये हि मधुरस्य शीतद्रव्यस्य गुणास्ते छायायाः सेवनाद्भवन्तीति तत्कार्यकर्तृत्वेन तथोक्ता' इति तदप्यपरिभाव्यभाषितम् । मु- २५.
१ और्वाग्निः - दावाग्निः । वडवानलः ।
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः
[ परि. ५ सू. ८
I
स्ख्यार्थबाधायामुपचारप्रवृत्तेः । न चेयमत्रास्ति | अथ छाया मधुरशीतला न भवति, अभक्ष्यापेयत्वात् पावकवदिति व्यापकानुपलब्धिर्बाधकमस्ति । तथा हि- मधुरस्य शीतस्पर्शवतश्च द्रव्यस्य शर्कराक्षीरादेर्व्यापकं भक्ष्यपेयत्वं तस्यात्रानुपलब्धिरिति । तदबन्धुरम् | मधुर५ शीतलद्रव्यस्य भक्ष्यपेयत्वेन व्याप्तेरप्रसिद्धेः । तथा हि- ज्योत्स्ना भवति मधुरं शीतलं च द्रव्यं न च भक्षयितुं पातुं वा शक्या । अथ नासौ मधुरशीतलेति नानया व्याप्तिव्याहृतिः । ननु कुतोऽस्य तदभावसिद्धिः । न तावदमुष्मादेवानुमानात् । अत्रास्याः पक्षकुक्षौ निक्षेपस्याकृतत्वात् । सांप्रतं तु नायं कर्तुं लभ्यते । अथ यदा पूर्वमेवैषा १० पक्षीकृता भवति तदा को दोषः । नन्वेतत्पक्षप्रस्ताव एवैकान्तनित्यत्वसिध्यर्थं पक्षान्तरे गीतनर्तनादी वा क्रियमाणे को दोषः । अत्यन्तमप्रस्तुत कारित्वमिति । एतदन्यत्रापि समानम् । समदृष्टिः पश्यतु भवान् । तथा हि- अस्मद्गदिते छायाया माधुर्यशैत्ये बाधितुं भवतोऽत्र समारम्भः । तत्किं ज्योत्स्त्रया । अथास्यास्तैजसत्वान्मधुर१५ रस्य शीतस्पर्शस्य वा न सद्भावः । तदसत् । तैजसत्वासिद्धेः । अथ ज्योत्स्ना तैजसी, रूपादिषु रूपस्यैवाभिव्यञ्जकत्वात्, प्रदीपवदित्यतस्तस्यास्तत्सिद्धिः । नैवम् । अत्र हेतोरञ्जनादिनानैकान्तिकत्वात् । पराकृतं चेदमनुमानं पूर्वमेवेति मुख्यार्थस्य बाधाया असंभवादनुपचरितमेवैतच्छाया मधुरशीतलेति । ननु यदि छाया शीतस्पर्शवती २० तदास्यत्वमस्याः स्यात् । अम्लस्यैव शीतस्पर्शदर्शनात् । नैतत्पवनेऽप्यस्मादभ्युपगमेन शीतस्पर्श संभवादन्यस्यैवेत्यवधारणसिद्धेः । त्वदभ्युपगमेनाप्यस्या नियतशुक्लरूपानधिकरणत्वादनाप्यत्वप्रसिद्धेः । सिद्धे चानाप्यत्वे शीतस्पर्शस्याप्युदकशीतस्पर्शविलक्षणस्यात्र सत्त्वमविरुद्धम् । यथानुष्णाशीतस्पर्शस्य पृथिव्यां सद्भावेऽप्यवान्तरविशेषवतस्तस्य -२५ समीरे । अन्यथास्यापि पृथिव्यामन्तर्भावप्रसंग: । तदेवं सिद्धा स्पर्शवत्येव
८५६
१ आप्यत्वं जलीयत्वम् ।
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परि. सू. 4]
स्याद्वादरत्नाकरसहितः
छाया । तदित्थं छाया कृष्णगुणवती न भवति स्पर्शरहितत्वादित्यस्यायुक्तत्वात्सिद्धस्तत्र कृष्णगुणः । एवं संख्यापरिमाणपृथक्त्व संयोगविभागपरत्वापरत्ववेगवत्त्वान्यपि । तस्माद्गुणवत्त्वादपि सिद्धा छाया द्रव्यम् । अत्र प्राभाकरः प्राह --- ' नन्वस्तु छाया द्रव्यं तथाप्यगतालोककाश्यपी प्रदेशाद्यतिरेकिणी नासौ समस्ति ' इति । तद- ५ स्याभिनवोत्प्रेक्षापाण्डित्य कण्डूविडम्बनामात्रम् । यतो भूभागादेरेव छायात्वेन प्रतीतेरिदमभिधीयेत । भूभागाद्यतिरिक्तछाया सद्भावे प्रमाणाभावाद्वा । न तावदाद्यः पक्षः । असिद्धत्वात् । न ह्यत्र सामानाधिकरण्येन प्रतीतिरस्त्ययं भूभागादिच्छायेति । किंत्वस्मिन्निति वैयघिकरण्येन । अथ भ्रान्ता वैयधिकरण्येन प्रतीतिः । अभ्रान्ता तर्हि १० कीदृक् । सामानाधिकरण्येनेति चेत् । न तावदियमस्ति 1 सोऽयं हस्तगतप्रासत्यागेन पादाङ्गुकीर्लिलितीत्युपेक्ष्यः प्रेक्षाणाम् । इदं चात्र चित्रम् । यदयं प्राभाकरत्वेन गर्वितोऽपि प्रतीतिभ्रान्ततां भाषते । अथ नेयं भ्रान्तिः किंतु भूभागादिच्छाययोरभेदस्याख्यातिः, तिक्तशर्करामतीताविव माधुर्यस्य । नन्वस्त्वभेदस्याख्यातिस्तु कौतस्कु- १५ ती भूभागादौ छायेति । भूभागाद्यतिरिक्तछाया सद्भावे प्रमाणाभावादित्यप्यक्षमम् । प्रत्यक्षस्यैवालोकवद्भूभागाद्भिन्नायाञ्छायायाः । परिच्छेदकत्वात् । न चेदं तदाभासम् । आलोक परिच्छेदकस्यापि तस्य तदाभासतापत्तेर विशेषात् । अथ नालोकविलोकिप्रत्यक्षस्य तदाभासता । भास्वररूपस्य भूभागाद्यतिरिक्तस्य तास्यालोकस्य सद्भावात् । छाया तु नास्त्येव काचिदिति तद्राहि प्रत्यक्षं तदाभासमेव । नन्वस्या असत्त्वं कुतः सिद्धम् | भूभागादेरेव छायात्वेन प्रतीतेभूभागाद्यतिरिक्तछायासद्भावे प्रमाणाभावाद्वेति पूर्वोक्त विकल्पावर्तनेनानिवृत्तः पर्यनुयोगः । अपि च यदि भूभागादिरेव छाया तदापगतालोकेति किमर्थम् । आलोकापगमविशिष्टो यः काश्यपी प्रदेशादिस्त - २५.
१ काश्यपी पृथिवी ।
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प्रमाणनयतत्वालो कालङ्कारः
[ पार: ५ स. ८
स्यैव छायात्वेनाभिधानार्थमिति चेत् । नन्वालोकापरामशब्दे नालोकाभांबोऽभिधीयते केवलभूतलादिर्वा : 1 आद्यपक्षेः 1 आद्यपक्षे वैशेषिकपक्षक्षोद एवास्य शिक्षा । द्वितीयपक्षे त्वभावमन्तरेण भूभागादेः कैवल्येऽभिधीयमानेऽतिप्रसक्ति: । आलोककलितेऽपि तस्मिन्कैवल्यव्यपदेशप्रसक्तेः । यदि चालोकापगमशब्देन केवलमूतलादिर्भण्यते तदालोकापगमविशिष्ट इत्यादिना केवलभूतलविशिष्टो यः काश्यपीप्रदे शादिरित्यसंबद्धमेवोक्तं भवेत् । एतेन यदाह शालिकस्तखालोकप्रकरणे - ' आलोकेऽपवारिते छायेतीभ्यते । अपगतालोकभूभागव्यतिरेकिणी न रूपान्तरवच्छाया दृश्यते । तेन मन्यामहे ऽपवारिता१० लोकभूभागादिकमेव छाया ' इति तदपि प्रत्याहतम् । यदपि । प्रत्यपादि ' द्रव्यान्तरत्वे तु तदपायेऽप्यालोकेन सहावस्थितायास्तस्याः प्रतीतिः स्यात् ' इति तदपि नोपपन्नम् । छत्रस्य संबन्धिन छायावो हि केचिदालोकाभावमपेक्ष्य प्रसारिणस्तथापरिणताञ्छायाद्द्रव्यतया स्वीक्रियन्ते । ततच्छत्रापायेऽप्यालोकेन सहावस्थानप्रसंजनमस१५ मञ्जसमेव । परिणामिकारणापाये कार्यस्यावस्थानविरोधात् । न खलु मृदादिप्रक्षये क्षणमपि नोपादेरवस्थितिरुपलब्धचरीति सिद्धा छाया द्रव्यान्तरम् ।
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एवं प्रतिबिम्बमपि । छायाविशेषस्वभावत्वादस्य । ननु यदि प्रतिबिम्बस्य द्रव्यान्तरप्रतिबिम्बं द्रव्यान्तरं तर्हि वक्त्राद्विनिर्गता त्वसिद्धिः । छायापुद्गलाः कथं कठिनमादर्शमण्डली विभिद्यान्तः प्रविशेयुः । कथं वा द्वयोः सावयवयोः समानदेशता संगच्छेत । कथं वाश्रयस्यान्तः प्रविष्ठे प्रतिबिम्बद्रव्यान्तरे
१' यदा तु नियतदेशाधिकरणो भाषामभावस्तदा तद्देशसमारोपिते नलिन छायेत्यवगमः । अत एव दीर्घा -हस्वा महतो अरुपीयसी छायेत्यभिमानः तद्दृशव्यापिनः नीलिनः प्रतीतेः । अभावपक्षे च भावधर्माध्यारोपोऽपि दुरुपपाद:' इति न्या. के. पृ. ९ पं. २१. २ प्रकरणपत्रिकायां पृ. १४४. पं.१२. ३ घटादेरिति युक्तम् ।
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परि. ५ सू.८] स्याद्वादरत्नाकरसहितः तस्य परिणामगौरवयोरुत्कर्षों न स्यात् । कथं वा लघीयस्यपि दर्पणतले महीयसो महीध्रादेः प्रतिबिम्बस्योपलम्भः स्यात् । कथं चा सव्यदक्षिणपार्श्वयोर्चिपर्ययेण प्रतिबिम्बे प्रतीतिः । कथं वा बिम्बे चलत्यवश्यं तदपि चलेत्तिष्ठति च तिष्ठेत् । कथं वा बिम्बापाये तस्याप्यपायः स्यात् । अपाये वा कथं न पृथक्तदवयवोपलब्धिरित्या- ५ लूनशीर्णोऽयं प्रतिबिम्बस्य द्रव्यतावादः | तस्मादिदमिह रहस्यम् । यन्मुखादिबिम्बमेव तत्प्रतिभातीति । आह किमेतत् । मुखादिबिम्बमेव तत्प्रतिभात्यथ च पुरः स्थितमिति गृह्यते । उच्यते । दर्पणकृपाणोदकादिपतिता नयनरश्मयः प्रत्यावर्तन्ते प्रत्यावृत्त्य मुखेन संनिकृष्य च मुकुरादिषु मुखमित्युपलम्भयन्ति । तत्राभिमुखं मुखमेतदिति १० भ्रान्ता प्रतीतिः । मुखमित्येतावता तु सम्यगिति । कथमेतदवगभ्यते स्वच्छेषु दर्पणादिषु पतिता नयनरश्मयः प्रत्यावर्तन्त इति नबनरश्मयः, स्वच्छदर्पणादिषु पतिताः प्रत्यावर्तन्ते, तैजसत्वात् । आदित्यरश्मिवत्, इत्यतोऽनुमानात् । अथ कथमवगतमत्र मुखप्रतिभासो न भ्रान्त इति । अलकतिलकादिविपर्ययाभावात् । ये हि यत्र १५ यथा विन्यस्ता अलकतिलकादयस्ते तत्र तथैवोपलभ्यन्ते । ननु दर्पणाभिघातप्रत्यावृत्तनेत्ररश्मिसंबन्धाद्वक्त्रग्रहे मुकुरमुखयोः क्रमेण ग्रहणं स्यात् । नायं प्रसंगः संगतः । तथाग्रहणस्याभिप्रेतत्वात् । कथं तर्हि न लक्ष्यत इति चेत् । आशुभावादिति ब्रूमः । दर्पणपतिता हि नयनरश्मयः प्रथम मुकुरप्रत्ययमुत्पाद्य प्रत्यावृत्त्य मुखेन संनिकृष्य च २० मुखमुपलम्भयन्ति । तस्मान्मुकुरमुखयोरिन्द्रियसंनिकर्षस्याशुभावेनान्तरालस्याग्रहणाद्दर्पणविशेषणो मुखप्रत्ययो भवति दर्पणे मुखमिति । अत्राभिध्महे । यदवादि ' छायापुद्गलाः कथं कठिनमादर्शमण्डलं विभिद्यान्तः प्रविशेयुः' इति तत्र तस्य छायापुद्गलैविभेदाभाव: किमेषां मूर्तत्वाहादरपरिणामापन्नत्वात्कठिनत्वाद्वा। नाद्यः पक्षः । भूर्त- २५
१ बादरपरिमाणं-स्थूलपरिमाणम् । .
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः परि. ५ सु. ८ स्यापि परमाणोरत्यन्तनिबिडविडोजः प्रहरणादेरपि मध्ये प्रवेशसंभवात् । नापि द्वितीयः । बादरपरिणामापन्नस्यापि पावकस्यायःपिण्डान्तः प्रवेशदर्शनात् । अथ नायःपिण्डादौ विद्यमानस्यैव पावकस्यान्तः प्रवेशः । किं तु तत्संयोगात्, सति तद्विनाशे विरलीभूतेष्वयःपरमाणु५ विति चेत् । तदसत् । न खलु तदानीमुन्मीलितलोचनानि भालय
न्तोऽपि प्रतिकालं तत्प्रलयमुपलभामहे । अथानुपलभ्यमानोऽप्येष परिकल्प्यते, दर्पणादिष्वपि परिकरुप्यताम् । प्रतीतिबाधः पुनरुभयत्र । अथाग्निसंयोगस्य तेजोरूपायःपिण्डाक्यविसमुष्टम्भकपार्थिवावयविचिरोधित्वादुपष्टम्भकविनाशेऽयं पिण्डविनाशः संगतो न तु छायापुद्गलसद्धावे १० दर्पणस्य केनचिद्विरोधाभावादिति चेत् । नन्वमिसंयोगोऽयःपिण्डोपष्टम्भकविरोधीति कुतोऽवगतवानसि । पार्थिवे काष्ठादौ तथा दर्शनादिति चेत् । तर्हि पार्थिवे काष्ठादौ लोहलेख्यत्वं दृष्टमिति शतकोटावपि तन्निष्टंक्यताम् । अथ
तत्र प्रत्यक्षबाधः, किं नायमग्निसंयोगादयःपिण्डप्रलयोऽपि । १५ नापि तृतीयो भेदः। असिद्धत्वात् । न हि प्रतिबिम्बपुद्गलेषु
जलपुद्गलेष्विव काठिन्य संभवति। ततश्च यथा नितान्तकठोरचन्द्रकान्तशिलान्तर्जलं न विरुध्यते तथा दर्पणान्तः प्रतिबिम्बमपि । यदप्युक्तं ' कथं वा द्वयोः सावयवयोः समानदेशता संगच्छते ' इति
तदपि समानदेशप्रसारिसमीरातपाभ्यां व्यभिचारि । अथ सावयवयोरपि २० रूपिद्रव्ययोरेव समानदेशता नोपपन्ना समीरातपौ त्वरूपसरू
पाविति न दोषः । तर्हि रूपित्वे सति सावयवयोरिति विशेषणं करणीयम् । न च तदकारि । संप्रतिकरणेऽपि विशेष्यस्य वैयर्थ्यम् । समर्थविशेषणोपादानेनैव साध्यस्य सिद्धत्याद्विशेष्यस्य व्यवच्छेद्या
भावात् । तथा हि-यदि रूपिणां पार्थिवाप्यतैजसपरमाणूनां समान२५ देशता स्यात्तदा तद्व्यवच्छेदाय साक्ष्यवेत्यस्य साफल्यं स्यात् । न चैवं
सकलपरमाणूनां स्वस्वदेशत्वात् । अस्तु तर्हि रूपित्वमेव समानदेशत्वा
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परि. ५ सू. ८]
स्याद्वादरत्नाकरसहितः
भावसाधनायेति चेत् । नैवं करम्बितकनकपारदाभ्यामनैकान्तिकत्वात् । एतेन प्रतिबिम्बरूपद्रव्यान्तरप्रवेशे परिणामगौरवयोरुत्कर्षभावस्य व्यभिचारित्वमभिहितम् । न च वाच्यं काञ्चनस्य तदानीमभावादेव नास्ति तदन्तःप्रवेश इति । तथाविधौषधसंपर्केण तत्परिणामस्य तद्वर्णिकाकान्तस्य च तस्य तम्माद्विविक्तस्य पुनर्दर्शनात् । न चान्यदेव तत्तदानीमु- ५ त्पन्नम् । तत्र प्रमाणाभावात् । तद्रूपतायां तु तस्य तत्परिमाणता तद्वर्णिकाकान्तता च प्रमाणं प्रोक्तमेव । यदपि कथं वा लघीयस्यपि दर्पणतले' इत्याद्यवादि तत्रापि प्रदीपतले कुनलस्य. सकलापवरकोदरपूरणप्रवीणोऽपि प्रभावयवी कथं कलशस्यान्तः प्रदीपे प्रक्षिप्यमाणे तदन्तः प्रविशेदिति समः पर्यनुयोगः । अथान्य एवाय- १० मपवरकोदरपूरणात्कलशोदरपूरकः प्रभावयत्री क्षणिकत्वात्प्रदीपकलिकायाः । तदिहापि तुल्यम् । न हि यदेव विम्बं तदेव प्रतिबिम्ब नाम । किं तु तत्कार्यम् । अथ भवत्वन्यथा तस्य न तु तावतैव लघुवं घटते । बिम्बसमानम्य तस्य कदाचिदनुत्पत्तिप्रसंगात् । अन्यत्वस्य सदापि सत्त्वात् । असाधारणं तु निबन्धनं किं तत्रेति वक्तव्यम् । ननु १५ त्वयापि प्रदीपप्रभावयविनि तद्वाच्यम् । न ह्यपवरकपूरकः कुम्भपूरकः प्रभावयवी पृथगिति लाघवमम्यानघम् । आतिप्रसक्तेः । अथास्त्यन्न लघुत्वनिबन्धनमवकाशस्य तावत्त्वमिति चेत् । तबन्यत्राप्याश्रयस्य तावत्त्वमेवास्तु निबन्धनं, कनीनिकाद्याश्रयभेदेन हि तदपि लघुतमादिभेदमुपजायते । ननु भवतु कनीनिकादिषु तत्तथा । बिम्बाद्वि- २० स्तीर्णे त्वर्णवार्णःप्रभताधाश्रये कुतस्तन्महीयो न भवति । आश्रयस्य महीयस्त्वादिति चेत् । तर्हि तुङ्गगिरिशिखरादिविततावकाशावस्थितदीपप्रभावयव्यपि व्योममण्डलमखिलं किं न व्याप्नोति तावत्त्वादवकाशस्येति समः प्रश्नः । अथ विततावकाशसद्भावेऽपि तदवयवानां तुच्छ-. त्यान्न ब्योभव्यापकप्रभावयविप्रारम्भ इति चेत् । तर्हि प्रतिबिम्बार- २५
१ अर्गवार्थ:-समुद्रजलम् ।
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प्रमाणनयत
प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. ५ स. ८ म्भकाणां बिम्बछायावयवानामपि तुच्छत्वादेव न बिम्बाधिकप्रतिबिम्बारम्भसंभव इति समः समाधिः । ननु शरीरादिच्छाया प्रत्यूषादी पूषाद्यालोकाभावमपेक्ष्य बिम्बात् द्विगुणत्रिगुणादिरप्युपजायते । ततः किं यदि हि तत्रैवं तदा प्रस्तुते किमायातम् । छायात्वात्प्रतिबिम्ब५ छायापि तद्वत्कचिडिम्बाद्विस्तीर्णास्त्वित्युपदर्शितमिति चेत् । प्रत्य
क्षापहस्तितमेतत् । महत्यप्याश्रये बिम्बसमानस्यैव प्रतिबिम्बस्य दर्शनात् । किं चैवमालोकत्वादालोकवत्प्रदीपालोकोऽपि जगत् प्रकाशयतु । न चैवं विचित्रा हि वस्तूनां शक्तयः । ननु कथं
कृपाणे कृष्णवर्णस्य दीर्घस्य च प्रतिबिम्बस्योपलम्भः । उच्यते । आश्र१०. यस्य श्यामत्वादायतत्वाञ्च तत्र तस्य तथोत्पतेः । दर्पणस्य त्वतिस्व.
च्छत्वाद्विम्बाकारानुकारेणैव तत्र प्रतिबिम्बोत्पत्तिः । यदप्यकथि'कथं वा सव्यदक्षिणपार्श्वयोर्विपर्ययेण' इत्यादि तदपि प्रतिविम्बशब्दनिरुक्त्यैव कृतोत्तरम् । परं मिथ्याभिनिवेशान्न चेतयते भवान् । प्रत्यर्थिविन्ध प्रतिबिम्बमुच्यते । प्रत्यर्थिता चास्य सकलतदोबालकतिल. कभङ्गभ्रुकुट्यादिविशेषस्वीकरणेनाभिमुखतया पुरः स्थायित्वम् । तक सव्यदक्षिणपार्थविपर्यासव्यतिरेकेणान नोपपद्यत इति तथैवोत्पत्तिरुपपन्ना । अन्यथा तु प्रतिविम्बमिति व्यपदेश एवास्पानुपपन्नः स्यात् । किंच यन्मते प्रतिबिम्बमर्थान्तरं तस्य सव्यदक्षिणपार्श्वयोर्विपर्यासो
गुण एव । यत एव बिम्बधर्मविपरीतधर्मयोगोऽत एवातोऽस्यान्यत्व२० मिति । यदप्युक्तं- 'कथं वा बिम्बे चलत्यवश्यं तदपि चलेत्'
इत्यादि । तदप्यवद्यम् । अर्थान्तरस्यास्योत्पत्तावपि नियमेन परिणाम. कारणक्रियानुकारितया तस्मिंश्चलति चलनस्य तिष्ठति स्थानस्य च तत्रोपपत्तेः । यथा चलति तिष्ठति वा प्रदीपे तक्रियानुयायितया
प्रकाशावयविन्यपि नियमेन चलनस्थाने । ननु प्रदीपानिःसृत्य प्रका२५ शाक्यवाः प्रकाशावयविनमारम्भन्त इति युक्ते तचलनाचलन
योस्तत्र चलनाचलने । अत्र तु कथम् । उच्यते । यथा प्रकाशाक्य
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परि. ५ सू. ८ }
स्याद्वादरत्नाकरसहितः
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विन्येव छायापुद्गला हि बिम्बान्निसृत्य प्रतिबिम्बरूपतया परिणमन्त इति । यदपि गदित-- ' कथं वा बिम्बापाये तस्याप्यपायः स्यात् ' इति तत्रायमभिप्रायस्ते न निमित्तकारणापाये कार्यस्याप्यपायः काप्युपलब्धः । कुलालाद्यपायेऽपि कलशादेस्तत्कार्यस्य दर्शनादिति । कदभिप्रायोऽसौ । बिम्चस्य प्रतिबिम्ब प्रति परिणामिकारणतया तद. पाये तत्राप्यपायस्य न्यायानुगृहीतत्वात् । न खलु मृदाद्यपाये कलशादावपायो नोपलब्ध इति । अपाये वा कथं न पृथक्तदवयवोपलब्धिरिति त्वनैकान्तिकं सौदामिनीप्रदीपादिद्रव्याणां विनाशेऽपि पृथक्तदचयवानामनुपलम्भात् । अपि च बिम्बाश्रयाभ्यां भिन्ने प्रतिबिम्बे प्रत्यक्षानुमानाभ्यां प्रमीयमाणेनैवविधकुचोद्यानामवसरः । तथा हि- १० स्वच्छे दर्पणादौ वदनादिप्रतिबिम्बमवलोकयामीति प्रतीतिः प्रतिप्राणि प्रसिद्धा । न हीयं वदनं दर्पणं वा विलोकयामीत्येवस्वरूपोपजायते किं तर्हि वक्त्रादेः प्रतिविम्बमिति । न चेयं भ्रान्ता । तत्र नैतदेवमित्येवंरूपस्य बाधकप्रत्ययस्य कदाचिदप्यनाविर्भावात् । तथा यवतो विलक्षणप्रतीतिग्राह्यं तत्ततो भिन्नं यथा मुद्रातः प्रतिमुद्रा । विल- १५ क्षणप्रतीतिग्राह्य चाश्रयभूतदर्पणादिवत्रादिबिम्बाभ्यां वक्त्रादि प्रतिविम्यामिति । न चैतदसिद्धम् । बिम्बाकारानुकारितया हि बिम्बं प्रत्याभिमुख्येन यद्वर्तते तत्प्रतिबिम्बमिति प्रतीयते यथा मुद्राकारानुकारिणी प्रतिमुद्रेति । तथा प्रतीतौं च कथं ततो बिलक्षणप्रतीतिग्राह्यत्वमस्यासिद्धम् । यत्तूक्तम् --- 'दर्पणकृपाणोदकादिप- २० तिता नयनरश्मयः प्रत्यावर्तन्ते' इत्यादि तद्वथोमकुमुभैन्ध्येियस्योत्तंससूत्रणम् । चक्षुषो रश्मिप्रतिपादनमेव हि तावत्सुधियां शिरःशूलम् । पूर्वमपास्तत्वादमीषां किं पुनस्तत्प्रत्यावृत्त्या तस्यैव मुखस्य ग्रहणमिति । सन्तु वा रश्मयः परिच्छिन्दन्तु च दर्पणप्रतितास्ते तदेव वदनम् । कूपादौ तु कथं कठोरकिरणादिप्रतिबिम्बप्रतिभासः। २१ अधोमुखस्य हि प्रमातुनयनार्जवावस्थितपाथःसन्मुखं प्रसृता रश्मयः
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः
[ परि. ५सू. ८.
पाथः परिच्छिन्दन्तु प्रत्यावृत्त्यास्तु वक्त्रम् | सूर्यादिविम्बस्य तु परिच्छेदः कथम् । चक्षुरनार्जवावस्थितत्वेन तस्य रश्मिप्रवृत्त्यविषयत्वात् । अथादृष्टवशाते तत्र तेनापि प्रकारेण प्रवर्तन्त इत्युपगम्यते तर्हि विनैव रश्मीन् व्यवहितमेव च चक्षुरदृष्टवशाद्वारिवस्त्रादिवस्तूनि ५ गृण्हातीति किं नाभ्युपगम्यते । अथात्र कारकत्वं बाधकमस्ति । तथा हि--यत्कारकं तत्संनिकृष्य कार्यकारि कुठारवत् । संनिकर्षश्चात्र रश्मिद्वारेणैवोपपद्यत इति चेत् । नन्वत्रापि रश्मित्वं बाधकमस्त्येव । तथा हि-ये रश्मयस्ते स्वाश्रयप्रगुणावस्थितपदार्थानेवाभिसर्पन्ति यथा प्रदीपादिरश्मयो, रश्मयश्च चक्षुषि त्वयोपगता इति । १० अथ दर्पण प्रतिघातपरावृत्तमार्तण्डीयरश्मिभिर्व्यभिचारिरश्मित्वं हेतुस्तेषां रश्मित्वेऽपि प्रभाकराप्रगुणावस्थितापवरकप्रविष्टपदार्थान्प्रति प्रसारित्वात् । तदपसर्पदर्पणतलोत्पन्नदिनकरप्रतिबिम्बरुपद्रव्यान्तररमीनामेव तथा प्रवर्तनात् । तत्र च व्यभिचाराभावात् । न चादित्यरश्मीनामेव तथा प्रवर्तने प्रमाणमस्ति । यदि चादर्शादिप्रतिहता १५ रश्मयः सुखं प्रकाशयन्ति तदा शिलातलादिप्रतिहता अपि ते तत्प्रकाशयेयुः । विशेषाभावात् । न चात्र स्वच्छतेोपयोगिनी, रश्मिप्रतिघातमात्रस्यैवात्रोपयोगात् । तच्चोभयत्राप्यविशिष्टम्, प्रत्युत शिलादिना घनद्रव्येणातिशायी प्रतिघातो विधीयते । अतस्तत्रातिशयवता तत्प्रतिभासेन भाव्यम् । कारणातिशयाद्धि कार्यातिशयो २० दृष्टो यथा पित्तधातूद्रेकातिशयाच्छङ्गादिषु पीतत्वावभासातिशयः । अस्मन्मते तु स्वच्छ एवादर्शादौ बिम्बसंनिधाने तद्गतच्छायापुद्गलसंक्रमात्प्रतिविम्वमुत्पद्यते । न पुनः शिलादौ तद्विपरीतेऽतस्तत्र तत्प्रतिभासाभावः । किं च, आदर्शादिना प्रतिहता रश्मयो यदि विम्बं प्रकाशयन्ति तदा महतो हस्त्यादेः स्वपरिणामानतिक्रमेणैव प्रतीति२५ प्रसंगालघुत्वप्रतीतिर्न स्यात् । न चैवम् । अतः प्रतिविम्बमेव तत्र तथाभूतमुत्पन्नं प्रतिभासत इत्यभ्युपगन्तव्यम् । आदर्शाद्याश्रयानुसा
દ્રષ્ટ
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परि. ५ सू. ८ स्थाद्वादरत्नाकरसाहितः रितया हि छायापुद्गलैः प्रतिबिम्बमारभ्यते । अतो महतो लघुत्वप्रतिपत्तिरविरुद्धा । अपि च यदि काचकृपाणादौ प्रतिहतास्ते व्यावृत्तबिम्बमेव प्रकाशयन्ति तदा तत्रायतश्याममुखप्रतीतिर्न स्यात् । एतेन यदुक्तं- ' कथमेतदवगम्यते ' इत्यादि तदपि तत्त्वतः प्रत्युक्तमवरान्तव्यम् । यदपि प्रभाचन्द्रः प्राह-प्रतिबिम्बोत्पत्तौ हि जलादिकमुपादानकारणं चन्द्रादिकं च निमित्तकारणं गगनतलावलम्बिनं चन्द्रं निमित्तीकृत्य जलादेस्तथा परिणामात् ' इति, तदस्यात्यन्तार्जवविज़म्भितम् । यथा हि तेजोऽभावमपेक्ष्य ते · पत्रादेश्छायापुद्गलाः पृथिव्यादावाश्रये छायारूपद्रव्यान्तरतया परिणमन्ते तथात्रापि यदि वदनादिबिम्बस्य छायापुद्गला दर्पणादिप्रसन्नद्रव्यसाम- १० प्रीमपेक्ष्य प्रतिबिम्वरूपतया परिणस्यन्ते तदा किं नाम सूर्ण स्यात् । अस्यापि छायाविशेषस्वभावत्वात् । तथा चागमः-- 'सामा उदिया छायाऽभासुरगया निसिम्मि कालाभा। स चेह भासुरगया सदेवन्ना मुणेयव्या । जे आदरिसस्संतो देहावयवा हवंति संकता । तेर्सि तत्थुवलद्वी पगासजोगा न इयरेसि' ॥ प्रकरणचतुर्दशशती- १५ कारोऽपि धर्मसारप्रकरणे प्राह-'न ह्यङ्गनावदनछायानुसंक्रमातिरेकेणादर्शके तत्प्रतिबिम्बसंभवः' इत्यादि ।
सिद्धमित्थं तम छाया प्रतिबिम्बमिति त्रयम् । द्रव्यान्तरं ततो हेतौ विशेषणमसिद्धिभृत् ॥ ६२२ ।। विशेषासिद्धताप्यत्र हेतौ हन्त कृतास्पदा । एकान्तेन विविक्तं यत्क्षित्यादेर्नास्ति लक्षणम् ॥६२३ ॥ क्षित्यादीनि हि सर्वाणि द्रव्याणि द्रव्यतात्मना ।
एकेन परिणामेन तादात्म्येनावतस्थिरे ।। ६२४ ॥ १ श्यामोदिता छायाऽभास्वरगता निशि कालामा । सा चेह भास्वरगता स्वदेहवर्णा ज्ञातव्या । ये आदर्शस्यान्तदेहावयवा भवन्ति संक्रान्ताः । तेषां तत्रोपलब्धिः प्रकाशयोगान्नेतरेषाम् ॥
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. ५ स. ८ तथाभूतान्यपीमानि समस्तान्यपि सर्वथा ।
व्यावृत्तलक्षणानीति को ब्रूयाद्भवतः परः ॥ ६२५ ॥ अपि च---- पृथ्वीपयःपावकमारुतानां द्रव्यप्रबन्धे पुरतश्चतुर्णाम् । आविभ्रता पौगलिकत्वमेकं कामं पृथग्लक्षणता कथं स्यात् ॥६२६।। न पुद्गलात्मत्वमसिद्धिबन्धकीसमृद्धसंबन्धसुदुर्धरं बुधाः । वसुन्धरादेरभिधातुमीशते यतोऽनुमानं निरवद्यमस्ति नः ॥६२७॥
तथा हि-पृथिव्यप्तेजोवायवः पुद्गलद्रव्यपर्यायाः, स्पर्शादिमत्त्वात् । ये तु न तत्पर्याया न ते स्पर्शादिमन्तो यथाकाशादयः । स्पर्शादि१० मन्तश्च पृथिव्यादयस्तस्मात्पुद्गलद्रव्यपर्याया इति । नन्वयं सचेतनाः
तस्वः, स्वापवत्त्वादितिवत्पक्षकदेशासिद्धो हेतुः प्रतिनियमेनैव स्पर्शादीनां पृथिव्यादिषु वृत्तेर्न पुनः साकल्येन । तथा हि-गन्धरसरूपस्पर्शाश्चत्वारोऽपि पृथिव्यामेव वर्तन्ते गैन्धवन्ध्यास्ते पाथसि ।
गन्धरसरहितास्तेजसि । गन्धरसरूपशून्याः समीर इति । १५ तदुक्तम्
'गन्धादयो नियोक्तव्याश्चत्वारः पृथिवीगुणाः ।
अप्तेजोमरुतामेकं पूर्व पूर्वमपोह्य तु ॥' इति । जलादिषु गन्धादीनामनुपलब्धेः सिद्धमस्य पक्षकदेशासिद्धत्वमिति चेत् । ननु किमियमनुपलब्धिः प्रत्यक्षमात्रनिवृत्तिर्विवक्षिता समस्तप्रमाणनिवृत्तिर्वा । न प्रथमा । यतोऽसौ सामान्येनाभावसाधनी स्यात् । योग्यस्यैव वा । नाद्यः पक्षः सूक्ष्मः । सूक्ष्माणामन्तरिक्षादृष्टादीनां चातीन्द्रियाणामभावापत्तेः । न द्वितीयः । तोयादिवर्तिनां तेषामनभिव्यक्तत्वेन योग्यत्वासिद्धेः । शातकुम्भानुद्भूतोष्णस्पर्शवत् ।
अथ यत्तेजोद्रव्यं, तदुष्णस्पर्शवत् । यथा ज्वलज्ज्वलनज्वालाजालम् , २५ तथा च काञ्चनम् । इत्यनुमानेन सत्त्वसिद्धेः । तत्र तस्यानुभूतत्वे
१ बन्धकी- व्यभिचारिणी। २ गन्धवन्ध्याः-गन्धरहिताः
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परि. ५ सू. ८] स्याद्वादरत्नाकरसहितः नावस्थानमदुःस्थम् । इह तु सत्त्वसिद्धिरेव दुर्लभा तेषु तेषामिति चेत् । तदपवित्रम् । पयसि गन्धस्य तेजसि गन्धरसयोः समीरे गन्धरसरूपाणामनुमानतः सत्त्वसिद्धेः । तथा हि- पयो गन्धवत्, तेजो गन्धरसवत् , वायुर्गन्धरसरूपवान् स्पर्शवत्वात्पृथिवीवत् । नान कालात्ययापदिष्टत्वनिष्टकः स्पष्टः । अनुतस्वभावे वस्तुनि विधिप्रति- ५ बेधयोः प्रत्यक्षस्य मूकत्वात्तेन पक्षबाधानुपपत्तेः । अन्यथा शातकुम्भीयोष्णस्पर्शसाधनेऽपि कथं न तत्प्रसंगः । नाप्यागमेनात्र पक्षबाधा । 'स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुद्गलाः' इत्यागमस्य तत्सद्भावसाधकस्यैव सत्त्वात् । स्याद्वादागमस्य प्रमाणत्वमेव न विद्यत इति चेत् । निबद्धकक्षाः कणभक्षपक्षे हहो हताशा भवतां तदेतत् । सज्जक्रमारकेसरिणः किशोराइंष्ट्राङ्कुरोत्पाटनलम्पटत्वम् ।। ६२८ ॥
स्याद्वादागमो हि भगवानपास्तसमस्तकलङ्कपङ्कः प्रमाणतामास्पदीकरोत्येव । अस्तु वास्याप्रामाण्यं तथापि न कालात्ययापदिष्टतास्पर्शः, पयस्तेजोवायुषु गन्धादेः क्रमेणासत्त्वमातेनुषः कस्यचिदागमस्याभावात् । अस्मदागमोऽस्त्येवेति चेत् । तस्किमिदानी प्रतिवाद्या- १५ गमेनापि पक्षवाधा भवतु | ओमिति चेत् ।
हन्त हन्त हहहा तपस्विनी तर्हि सेयमुपशान्तिमायुषी । तर्ककर्कशवितर्कशालिनो जल्पकेलिकलनाकलाविदः ॥ ६२९ ।
प्रथममेव प्रतिवाद्यागमबाधामुत्प्रेक्षमाणेन वादिनानुमानस्यानुपन्यासात् । अथ युक्त्यनुगृहीतेनैव तेन तद्बाधा न तन्मात्रेण तर्हि २० युक्तिरेवोद्भाह्यता पक्षप्रतिक्षेपाय किमनेनान्तरालेऽन्धदर्पणतलावलोकनकल्पेनागमेन ! परं प्रति तस्याप्रामाण्यात् । युक्तिमुखोत्प्रेक्षणैकबद्धलक्ष्यत्वादस्य । इति जलादिष्वपि गन्धादिसिद्धेः सिद्धमनुभूतानां तेषां तत्रावस्थानम् । अथ पृथिव्यादीनां चतुर्णामपि पुद्गलपर्यायत्वेनाभिन्नलक्षणत्वे पृथिव्यामिव जलादिष्वपि तेषामुद्भूततैव भवेत् । अन्यथा तु २५
१ तत्त्वार्थ. ५:२३.
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः परि. ५ सु. ८ सर्वथा भिन्नलक्षणतैवैषामिति चेत् । न । नायनेन तेजसा व्यभिचारात् । न घनभिव्यक्तभास्वररूपोष्णस्पर्श नायनं तेजोऽभिव्यक्तभासुररूपोष्णस्पर्शात्पावकाद्भिन्नलक्षणं भवतां प्रसिद्धम् । द्रव्यसंख्याव्याघातप्रसंगात् । एवं पृथिव्यादेरप्यभिव्यक्तानभिव्यक्तगन्धादियोगेऽपि ५ नान्योन्यमत्यन्तभिन्नलक्षणत्वम् । अथैतदभावे पृथिवीत्वादिप्रतिनियतजातिसम्बन्धस्तेषां कुतस्त्यः। एकान्तेन भिन्नलक्षणत्वाभावे हि यथा पृथिव्यां पृथिवीत्वाभिसंबन्धस्तथाप्तेजःप्रभञ्जनेप्वप्येव स्यात् । दृष्टः खल्वेकलक्षणवत्सु कम्बुग्रीवादिमत्सु संबन्ध एकस्पा घटत्वजातेरिति चेत् । तदप्यसंगतम् । अवान्तरजातियोगस्य सर्वथा लक्षणभेदाप्रसाधकत्वाद्वयक्तिभेदमेव ह्यसौ प्रसाधयति । अन्यथा क्षत्रियत्वाधवान्तरजातियोगादात्मनामप्येकान्तिकं न स्यादेकलक्षणत्वमिति । एवं च द्रव्याणां यः किल नवधात्वसिद्धयेऽभिदधे हेतुस्तत्र विशेष्यं कटाक्षितं ध्रुवमसिद्धतया ।
यच्च परमाणुरूपं सदकारणवत्त्वहेतुना नित्यम् । गदितं द्रव्यचतुर्णां तदप्यसिद्धतास्पदं नूनम् ॥ ६२९ ॥ .... .... .... .... .... .... अणूनां स्कन्धभेदस्य कारणस्य विनिश्चयात् ।। ६३०॥ भेदे हि व्यणुकादीनां जायन्ते परमाणवः ।
अणूनां संहतो यद्वजायन्ते छाणुकादयः ॥ ६३१ ॥ परः प्राह---
यत्र स्कन्धस्य भेदोऽस्ति तत्राथ परमाणवः । जायन्तां न च सर्वत्र स्कन्धभेदो विभाव्यते ॥ ६३२ ।। केषांचित्परमाणूनां स्वतन्त्राणामपि स्थितेः । सर्वदैव ततो नित्याः सिद्धाः केऽपीति कश्मलम् ॥ ६३३ ॥ तेषां स्वातन्त्र्यसंसिद्धौ काचिन्ना ....
.... ॥ ६३४ ॥
२५
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परि. ५ सू. ८] स्याद्वादरत्नाकरसहितः
.... व केऽपि केऽपि तु । पटादेर्भेदतस्तद्वद्भवेयुरणवोऽपि चेत् ॥ ६३५ ॥ नन्वनेन किमाख्यायि दूषणं साधनस्य नः । स्वातन्त्र्यमपि केषांचित्तेषां सिद्धिमियाद्यतः ॥ ६३६ ॥ न तावद्वयभिचारोऽस्ति तैरणुत्वस्य .... । ५ .... .... .... ॥ ६३७॥
यतस्त्वया । विभागात्परमाणूनामिष्टो न तु विपर्ययः ॥ ६३८ ।। ___ अथायमेव सिद्धान्तः पुरस्क्रियते । तथा हि-तत्रेय प्रक्रिया । प्रथममवयवेषु क्रिया, क्रियातो विभागो, विभागात्संयोगो विना.... १०
भेदस्य भाक्त्विादिति चेत् । मा भूत्तावत्स्कन्धभेदस्य तत्कारणता । तथापि नामी निष्कारणा एव । क्रियाया एव तत्कारणत्वात् । नन्वसौ विभागस्थैव कारणं नामीषामिति चेत् । तदशुभम् । विभागस्य तेभ्यः सर्वथा पृथग्भूतस्यासंभवात् । तदेव हि द्रव्यं क्रियया १५ परिणतं सद्विभक्तरूपतां प्रतिपद्यते । तथाभूतं च सत्परमाणव इति व्यपदिश्यते । यथा चायमीदृश उपादानोपादेयभावः सिद्धस्तथा प्रागुक्तम् । एवं च विभक्तरूपतया द्रव्यस्योत्पादासिद्धमणूनां तद्पाणां क्रिया कारणम् । नन्वेवं 'स्कन्धभेदादणवो जायन्ते ' इति प्रागुक्तं विरुध्यते । नैवम् । यदि क्रिया ततो विभाग इत्यादि. २० रप्रातीतिक्यपि प्रक्रिया समाश्रीयते तथापि नाणवो निष्कारणका भवितुमर्हन्तीत्येवमर्थत्वास्क्रियायाः कारणत्वसमर्थनस्य । यावता स्कन्धभेद एव तत्कारणं कुम्भादौ स्कन्धभेदे कपालकलापादिभवनस्यानुभवात् । न हि तत्रावयवक्रियादिस्त्वद्गदिता प्रक्रिया सूक्ष्ममणमीक्षमाणेनापि मांसचक्षुषा । उक्ष्यते । २५ वेगवन्मुद्गरसंपर्कसमनन्तरं कपालमालाया एवं विलोकनात् ।
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. ५ सू. ८ तदनुसारेण च परमागुष्यपि स्कन्धभेद एव कारणाकथिः । व्यवहारनयार्पणेन च स्कन्धभेदः कारणमभाणि । निश्चयनयार्पणेन. तु य एव स्कन्धविभागः स एव परमाणवः । अथ यथणयो जायन्ते
तदा यत्कार्यद्रव्यं तत्स्वपरिमाणादल्पपरिमाणैः कारणैरारब्धं घटव५ दिति व्याप्तिसिद्धेर्विवादास्पदपरमाणूनामप्यल्पीयोभिः कारणैर्भवितव्यम् । तेषामप्यपरैस्तैरित्यनवस्थानात्परमाणूनामभाव एव भवेदिति
चेत् । नैतद्वाच्यम् । व्यालेरसिद्धेः । श्लथावयवकसिपिण्डानां संघाताद्धनाक्यवकर्पासपिण्डेन सूक्ष्मेण संजायमानेन व्यभिचारात् ।
ननु यदीयं व्याप्तिरपसार्यते तदा परमाणूनामभाव एव भवेत्तत्सा१० धकप्रमाणस्याभावादिति चेत् । तदरमणीयम् । अगुपरिमाणतारतम्यं,
क्वचिद्वा श्रान्तं, परिमाणतारतम्यत्वान्महापरिमाणतारतम्यवत् । यत्र चास्य विश्रान्तिस्ते परमाणव इतीत्थं तेषां प्रसिद्धेः । एवं च सदकारणवत्त्वादित्यस्य विशेष्यासिद्धता सिद्धैव । अपि च यद्यमी
नित्या भवेयुस्तदा तत्प्रभवकार्याणां सकृदेवोत्पत्तिः स्यात् , अविकल१५ कारणत्वात् । येऽविकलकारणास्ते सकृदेवोत्पद्यन्ते । यथा समानस
मयोत्पादा बहवोऽङ्गुराः । अविकलकारणाश्च जननैकस्वभावाणुकार्यत्वेनाभिमता भावा इति प्रसंगः । अविकलकारणानामप्येषामनुत्पादे सर्वदानुत्पत्तिप्रसक्तिर्विशेषाभावादिति विपर्यये बाधकं प्रमाणम् । ननु
समवाय्यसमवायिनिमित्तभेदात्त्रिविधं कारणम् । यत्र कार्य सम२. वैति तत्समवायिकारणम् । यथा तन्तवः पटस्य । यतु समवायि
कारणप्रत्यासन्नमवधूतसामर्थ्य च सत्कार्यं जनयति तदसमवायि-- -...--... ... ... .... ..... ... ................... .... ... ... ........--.--.............. -
१५२ लोकव्यवहाराभ्युपगमपरो नयो व्यवहारनय उच्चो । स च कालवर्णस्यैव उत्कटत्वेन लोके व्यवन्दियमाणत्वाद्भगति प्रतिपादयति · कालको भ्रमर' इति 1 परमार्थतस्तु पारमार्थिकार्थवादी नैश्चयिको निश्चयनय उच्यते । स पुनर्भन्यते 'पञ्चवर्णो भ्रमरः' बादरस्कन्धत्वेन तच्छरीरस्य पञ्चवर्णपुद्गलैर्निष्पन्नत्वात्, शुक्कादीनां च न्यग्भूतत्वेनानुपलक्षणादिति ॥ विशे० ३५८९ ।
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परि. ५ सु. ८]
स्याद्वादरत्नाकरसहितः
कारणम् । प्रत्यासत्तिश्च द्वेधा । लध्धी महती च । कार्येण सहैकस्मिन्नर्थे समवायो लब्बी । यथा पटेन सार्धमेकस्मिंस्तन्तुरूपेऽर्थे समवेतस्य तन्तुसंयोगस्य । कार्यकारणेन साकमेकस्मिन्नर्थे समवायो महती । यथा पटगतरूपादिसमवायिकारणेन पटेन सममेकस्मिस्तन्तुरूपेऽर्थे समवेतानां तन्तुरूपादीनाम् । तदेतदुभयमप्यसमवायि- ५ कारणम् । शेषं तूत्पादकं निमित्तकारणम् । यथाऽदृष्टाकाशादि । एवं च संयोगादेरपेक्षणीयस्याभावादविकलकारणत्वं तेषामसिद्धमित्यपि श्रद्धामात्रम् । यतोऽसौ संयोगः सत्तामात्रेण तेषामपेक्षणीयः स्यादतिशयाधायकवेन वा । आधे पक्षे सर्व सर्वस्यापेक्षणीयं स्यात्सत्तामात्रम्प सर्वत्राविशेषात् । द्वितीये त्वभिन्नो १० भिन्नो वासौ तेन तेषामाधीयते । यद्यमिन्नस्तदा तेषां कार्यत्वापत्तिः । अथ भिन्नं कथंचित्सर्वथा वा । कथंचिच्चेचिर जीवतात् । कथंचित्कार्यतायास्तेषामित्थमूरीकरणात् । सर्वथा चेत्कथं तेषामेवाय व्यपदिश्येत । संबन्धाच्चेत्कः पुनरयं स्यात्, समवायः संयोगो विशेपणीभावोऽविष्वग्भावो वा । नाद्यः । समवायस्य क्षेप्स्यमानत्वात् । १५ न द्वितीयः । तस्य द्रव्यत्वापत्तेः । संयोगस्य गुणत्वेन द्रव्याधारत्वान्न तृतीयः । तदुभयाभावे विशेषणीभावाङ्गीकरणेऽतिप्रसंगात् । तुरीयस्तु स्यात् । परमाणूनां कथंचित्कार्यतासमर्पणेन पवित्रत्वात् । किं च , एकान्तेन भिन्नः सन्नुपकार्योपकारकभावं विना कथमयं तत्र संबध्येत ! उपकारकरणे च भेदाभेदविकल्पदिशा तदेवावर्तत इत्यनव- २०. स्थादौःस्थ्यं नापनीपद्यते । अथ संयोग एवामीषामतिशयेनामुनातिशयः कश्चिदासूत्र्यते तर्हि नित्योऽनित्यो वाऽयं भवेत् । नित्यश्चेत्, नित्यं कार्योत्पत्तिः । तदतिशयभूतम्न संयोगस्य नित्यं सत्त्वात् । अथानित्यस्तदा तदुत्पत्तौ कोऽतिशयः, संयोग एव क्रिया वा । संयोगश्चेत्किं स एव , संयोगान्तरं वा । नाद्यः । तस्याद्याप्यसिद्धेः । स्वो- २५ स्पतौ स्वस्यैव व्यापारविरोधाच्च । नापि संयोगान्तरम् । तदपि. हि..
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८७२
प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः
परि. ५ स. ८
नित्यानित्यं वेत्पाद्यावर्तने नानव स्थापतेः । अथ क्रियातिशयः । तथा हि- आत्माऽणुसंयोगाददृष्टापेक्षात्परमाणुयु क्रियोत्पद्यते । क्रियातश्च परस्परं संयुज्यन्ते । नन्वात्मागुसंयोगस्य सदैव विद्यमानत्वान्नि
त्यं तेषु क्रियोत्पत्तिप्रातिः । अयादृष्टापेझोऽसौ कादाचित्क एव । ५ नन्वदृष्टमात्मनां परमाणु क्रियानुत्पतिकालेऽप्यविकलं विद्यत एव । ततः कथं न तदपेक्षात्माणुसंयोगोत्सादः । अदृष्टानामविकलत्वमसिद्धम्, ईश्वरसंजिहीर्षया तदानी तेषां प्रतिबद्धवृत्तिकत्वादिति चेत् । एवं तर्हि न कदाचन कस्यापि कार्यस्योत्पत्तिः स्यात् । ईश्वरेच्छाया नित्यत्वात् । अथ नित्याप्यसौ ततत्सहकारिकारणकलापोपनिपाता१० सर्गविषया संहारविषया च व्यवस्थाप्यते । ननु सहकारिणोऽपि तदायत्तोत्पत्तय इति किं तस्यास्तत्परायत्तताकल्पनेन ।
ईश्वरवादश्च पुरा पराकृतः किमपि कर्कशैोषैः । तत्किं हन्त तदिच्छा तवोत्तरीकर्तुमिह युक्ता ॥ ६३९ ॥ संयोगेऽस्ति तदेवं नापेक्षा काप्यगुप्रबन्धस्य । अविकलकारणताख्यः सिद्धो वस्तुषु ततो हेतुः ॥ ६४०॥ न च युगपज्जायन्ते जन्यान्यणुसञ्चयेन वस्तूनि । तस्माद्विपर्ययोऽयं समस्तु निःशेषदोषपरिहीणः ॥ ६४१ ॥ यज्जायते यदा न हि न तत्तदा विकलकारणं नियमात् ।
अङ्कुर इव शिलायां न च जायन्ते सकृत्पदार्थास्ते ॥ ६४२॥ सर्वथा स्थिरपदार्थसंकथा विस्तरेण च पुरैव फुसिता । स्यात्ततश्च परमाणुनित्यता पक्ष एष कुशली कथं बुधाः ॥६४३॥
व्यणुकाद्यवयविरूपं त्वनित्यमुत्पत्तिहेतुवशात् । इति जगदे यदपि तदप्युपैति युक्तिक्रमं नैव ॥ ६४४ ॥
तथा हि-इत्थं व्यगुकाद्युत्पत्तिं प्रत्यपीपदन् । इहैकस्तावत्परमा२५ णुः कार्यद्रव्यस्यानारम्भक एकस्य नित्यस्यारम्भकत्वे कार्यस्य सत
तोत्पत्तिः स्यात् । अपेक्षणीयाभावात् । अविनाशित्वं च कार्यस्य
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परि. ५ स. ८ }
स्याद्वादरत्नाकरसहितः
प्रसज्येताश्रयविनाशस्यावयविभागम्य च विनाशहेतोरभावात् । त्रयाणामप्यारम्भकत्वमयुक्तम् । महाकार्यद्रव्यस्योत्पती स्वपरिमाणापेक्षयाऽ. ल्पपरिमाणस्य कार्यव्यस्यैव सामर्थ्यदर्शनात् । अणुकं कार्यद्रव्येणैव
.... .... तत एव व्यणुकादेरपि तदस्तु । अपरिमितपरमाणुमयो हि स्कन्धः ५ कश्चिदस्मदादीनां लोचनगोचरे संचरति नान्यः । ननु जलमार्गानुगामिभास्करकिरणदण्डोदरसंचारिसूक्ष्मरजःकणः त्रसरेणुः, अस्मदादिप्रत्यक्षत्वाद्धटवत् । तन्नोत्पत्तिमत्त्वं परसंमतमुपपद्यते । किं च , उत्पत्तिमत्त्वं पर्यायान्तरेण कार्यत्वमेवोच्यते । तच्च यथा न युक्तिपरिपाटिपात्रं परेषां तथा स्थाणुपराकरणप्रक .... कं घटयति । त्रिविधं हि कारणम् । निर्वतकनिमित्तपरिणामिभेदात् । तदुक्तम्
‘निर्वर्तको निमित्तं परिणामी च विधेष्यते हेतुः। ..
कुम्भस्य कुम्भकारावर्तो मृचेति समसंख्यम् ॥' तदिह कुम्भस्य कथंचिन्मृदात्मकस्योत्पादात्पर्यायरूपतयोत्पत्तिः, १५ द्रव्यरूपतया त्वनुत्पत्ति: , कथंचिदुत्पत्तिमत्वाच्च कथंचिदेवानित्यत्वं सिध्यति । ननु न मृदात्मकत्वं कुम्भस्य संभावना .... प्रत्यक्षभेवाक्षूणं साक्षि लक्ष्यत एवात्र । तथा हि- लोचनव्यापारसमनन्तरमेव पण्यमित्येवमाकारावयवेभ्यो भेदेनावयविस्वरूपमामुखयन्ती प्रत्यक्षप्रतीतिर्गोपालहालिकादेरपि स .... .... .... २० व्यवच्छेद्यव्यवच्छेदकभावास्पदत्वात् । यावेवं तावेवम् । यथा राजपुरुषौ तथा चैतत्तस्मात्तथा । दृष्टो हि व्यवच्छेद्यव्यवच्छेदकभावोऽवयवावयविषु पटस्य तन्तवः । तन्तूनां पट इति । भिन्नकर्तृक
णप्रभवत्वाद्वा कटशकटवत् । भिन्नपरिमाणत्वाद्वा कुवलकुवलयवत् । २५
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. ५ सू. ८ भिन्नार्थक्रियाकारित्वाद्वा कलशकुलिशवत् । एकवचनबहुवचनविषयत्वाद्वा नक्षत्रनक्षत्रेशवत् । विरुद्धधर्माध्यासितत्वाद्वा दहनतुहिनवत् । यदि चावयवी, अवयवेभ्यो भिन्नो न भवेत, तदा स्थूलप्रतिभासो न स्यात् । परमाशूनां सूक्ष्मत्वात् । न चान्यादृग्भूतः प्रतिभासोऽ५ न्यादृगर्थव्यवस्थापकः । अतिप्रसंगात् । न च स्थूलाभावे परमाणुरिति व्यपदेशोऽपि संभवी स्थलापेक्षत्वादणुत्वस्येति ।
प्रेमितितभिः प्राकट्यत वैशेषिकपक्षदीक्षितैरेषा । कृत्रिममौक्तिकमालेव हरति हृदयं किन्तु तज्ज्ञानाम् ।।६४५॥
तथा हि-यत्तावत् ' लोचनव्यापारसमनन्तरमेव' इत्यादि गदितम् । १. तन्न युक्तम् । न खलु तन्तुभ्यो भिन्न एव पटः कस्यापि कदापि
प्रतिभासते । त एव हि तथा परिणतिमुषेयिवांसः पटोऽयमिति प्रतीयन्ते । ननु यदि तन्तव एव तथाभूतास्तथा चकासति तर्हि प्रत्ये. कमपि तेषु तथा प्रतीतिः स्वान्न पुनरयं तन्तुरिति । तदसत् । प्रति
तन्तु तथा परिणतेरभावात् । सर्वेषामेव हि तेषां स तयारूपः परि१५ णामः कथं प्रत्येकं चकास्यात् । न चैकान्तेनाभिन्नभेव तेभ्यस्तथा
परिणाममाचक्ष्महे । यतोऽयं दोषः प्राप्तावसरः स्यात् । प्रत्यक्षेण भिन्नस्यैव तस्य प्रतिभासे चायं पट इमे तन्तब इति युगपदेव विभक्तानां चाक्षुषाणां तेषां चन्द्रनक्षत्राणामिव प्रतिभासो भवेत् । अथ विभक्तानामिति विभक्तत्वं किं विभक्तस्वभावत्वं विवक्षितं विभक्तदेशत्वं वा । आद्य चेत्तदास्त्येव विभक्तस्वभावानामवयवावयविनां प्रतिभास इति कः प्रसंगार्थः । द्वितीय त्वनैकान्तिकम् । ज्ञेयत्वादिधर्माणां भिन्नानामपि भिन्नदेशतया प्रतिभासामावादिति चेत् । तत्रोत्तरमेव पक्षमाचक्ष्महे । न च व्यभिचारो ज्ञेयत्वादीनामप्येकद्रव्यगतानां तद्
व्यतादात्म्येनावस्थितत्वादत्यन्तं भेदासिद्धेः । वातातपाभ्यां भिन्नाभ्या२५ मपि, अभिन्नदेशत्वेनोपलभ्यमानाभ्यां व्यभिचार इति चेत् । न ।
- १ छन्दोदृष्टयार्थदृष्टयायमशुद्ध इव भाति !
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परि. ५. ८ ]
चाक्षुपद्रव्याणामेव भिन्नदेशतयोपलम्भस्य प्रसञ्जितत्वात् । तप्तायःपिण्डेनानेकान्त इति चेत् । न । वह्निसंनिधाने तथाविधद्रव्यान्तरोत्पत्त्या तत्र भिन्नद्रव्यद्वयस्याभिन्नदेशोपलम्भासिद्धेः । अथ प्रकृतेऽपि भिन्नदेशत्वेनोपलम्भोऽस्त्येव । पटाद्यवयविनस्तन्त्वाद्यवयवेषु तेषां च पक्ष्मादि स्वावयवेषु स्थितानामुपलम्भादिति चेत् । तन्न । देशशब्देनान्तरिक्षस्य विवक्षितत्वात् । कथमन्यथा भवानेव वातातपाभ्यां व्यभिचारमुदचीचरत् । न हि तयोरेकत्र समवायिकारणे वृत्त्याऽभिन्नदेशत्वमस्ति । द्रव्यद्वयस्य समकालं समवायिकारणैक्यविरोधात् । किं च -- अवयविभिन्न एव गृह्यमाणः समस्तावयचग्रहणादृह्येतावयवमात्रग्रहणाद्वा । प्रथमे कल्पे मध्यापर विभागावयवानामग्रहणाग्रहणमेव तस्य स्यात् । द्वितीयेऽपि तन्त्वग्रमात्रोपलम्भेऽपि पटोपलम्भो भवेत् । अथ भूयोऽवयवेन्द्रियसंनिकर्षानुगृहीतेनावयवीन्द्रियसंनिकर्षेण तस्य ग्रहणम् । ननु कियन्तोऽमी अवयवा भूयांसोऽभिधीयेरन् । दशैकादशादिसंख्या लक्षिता । यावतां वाऽग्रहेऽवयविबुद्धिरुल्लसेत् । आद्यपक्षो न क्षमः । क्वचित्करचरणशिरोग्रीवाद्यवयव त्रयचतुष्टयग्रहणे - १५ प्यवयविबुद्धेरुत्पादाद्दशैकादशादितन्तुग्रहणेऽपि चानुत्पादात् I द्वितीये परस्पराश्रयः | अवयविबुद्धौ हि सिद्धायामवयव भूयस्त्वसिद्धिः । तत्सिद्धौ च तत्सिद्धिरिति । किं च कथं भूयोऽवयवग्रहणादवयविग्रहणमुपपादि । यतोऽर्वाग्भागभाव्यवयवग्राहिणा प्रत्यक्षेण परभागभाव्यवयवाग्रहणान्न तेन तव्याप्तिरवयविनो ग्रहीतुं शक्यते । व्याप्याग्रहणे तेन तद्व्यापकत्वस्यापि ग्रहीतुमशक्तेः । ग्रहणे वातिप्रसंगात् । न च परभागभाविव्यवहितावयवाप्रतिभासनेऽप्यव्यवहितोऽवयवी प्रतिभातीति वक्तुं शक्यम् । व्यवहितावयवाप्रतिभासने तद्रुतत्वेनावयविन: प्रतिभासितुमशक्यत्वात् । नापि परभागभाव्यवयवग्राहिणा प्रत्यक्षेणावग्भागमान्यवयवसंबन्धित्वं तस्य गृह्यते । तत्र हि तदवय २५ वानां प्रतिभासात्तत्संबन्ध्येवाक्यविरूपं प्रतिभासेत नार्वाग्भागभाव्यव
I
स्याद्वादरत्नाकरसहितः
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः परि. ५ सू. ८ वयवसंबन्धि । तेषां तत्राप्रतिभासनात् । तदप्रतिभासने च तत्संबन्धिरूपस्याप्यप्रतिभासनात् व्याप्याप्रतिपत्तौ तद्व्यापकत्वस्याप्रतिपत्तेः । अथात्मास्पिरभागावयवव्यापित्वमवयविनो ग्रहीतुं समर्थ इत्युच्यते । तन्न । सत्तामात्रेण तस्य ग्राहकत्वानुपपत्तेः । अन्यथा स्वापमूर्छाद्य५ वस्थास्वपि तत्प्रतिपत्तिप्रसंगात् । किं तु दर्शनसहायस्तत्र दर्शनं नाव
यविनोऽवयवव्याप्तिग्राहक संभवतीति प्रतिपादितम् । अथार्वाग्भागदर्शने सत्त्युत्तरकालं परभागदर्शनानन्तरम्मरणसहकारीन्द्रियजनितं स एवायमिति । प्रत्यभिज्ञानमध्यक्षमवयविनः पूर्वापरावयवव्याप्तिग्राहकम्। तदयुक्तम् । प्रत्यभिज्ञाज्ञानस्यैव तद्विषयस्य प्रत्यक्षत्वानुपपत्तेः । अक्षानुसारि हि प्रत्यक्षम् । न चाक्षाणामाक्परभागभाव्यक्यवग्रहणाव्यापारः संभवति । व्यवहिते तेषां व्यापारासंभवात् । संभवे वाऽतिव्यवहितेऽपि व्यापारः स्यात् ।
तथा च---
पुरः शचीशस्य सुचारुचारिसंचारि शच्या प्रविरच्यमानम् । १५ महीस्थिता अप्यवलोकयेयुत्स्थं स्फुरत्कौतुकलोलचित्ताः ॥६४६।!
न च स्मरणसहायस्यापीन्द्रियस्याविषये व्यापारः संभवति । यद्यस्याविषयो न तत्र स्मरणसहायमपि प्रवर्तते, यथा परिमलस्मरणसहायमपि लोचनं गन्धादौ । अविषयश्च व्यवहितोऽक्षाणां परभागमान्यवयवसंबन्धित्वलक्षणोऽवयविनः स्वभाव इति न प्रत्यभिज्ञाप्रत्यक्षेणापि भिन्नैकाक्यविग्रहणमुपपद्यते । ननु भवतामपि कथमक्यविग्रहणम् । न हीदं नास्त्येव । नापि मध्यभागमान्यवयवावभासोऽस्तीति । उच्यते । नास्त्येवास्माकमाग्दृशां सर्वात्मनावयविप्रत्यक्षता । यदा यावन्तोऽवयवा गृह्यन्ते तदा तदात्मकस्यैवावयाविनः साक्षात्क
रणात् । कथं तर्हि घटोऽयमिति प्रतीतिरिति चेत् । कतिपयावयव२५ दर्शनेनापरेषामपि तेषां परामर्शात् । न तदप्रत्यक्षं स्यादिति चेत् ।
एवमेवैतत्परमार्थतः । सांव्यावहारिकत्वादम्मदादिप्रत्यक्षाणामतीन्द्रिय
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परि. ५ सू. ८] स्थाद्वादरत्नाकरसहितः
८७७ प्रत्यक्षस्यैव सर्वात्मना वस्तुग्राहकस्य परमार्थतः प्रत्यक्षत्वात् । मन्द. मन्दप्रकाशेऽवयवप्रतिभासमन्तरेणाप्यवयवी प्रतिभासते । ततस्तेभ्योऽत्यन्तभिन्न एवायमिति कश्चित् । सोऽपि न विपश्चित् । तदानीमप्यवयवानां प्रतिभासभावात् । ननु के नाम तदानीमवयवाः प्रतिभासेरन्, अवयवी क इति कथ्यताम् । यो यत्रास्ति स तत्रेति चेत् । अबयवा अपि तस्यैव केचनेति बुद्धयस्त्र । ननु तिमिरपरिकरिते प्रदेशे न चञ्चुचरणादयो निश्चेतुं शक्यन्ते । तत्र किं शकुन्तादिः शक्यते । संस्थानमात्ररूपः शक्यत एवायमिति चेत् । अवयवा अपि तथैव किं न शक्यन्त इत्यवयवात्मकस्यैव सर्वत्राम्य प्रतिभासान्न प्रत्यक्षेण भिन्नस्यैवावयविनो ग्रहणम् । अथ भिन्न एवायं गृह्यते स्वरूपतः १० समवायात्तु तथा प्रतिभास इति चेत् । तकि समवायोऽपि कश्चिदपर. स्तत्रास्ति । ओमिति चेत् । अयमपरो गण्डस्योपरि पिटकोद्भेदः । अवयवावयविनावपि तावदःशकावेकान्तेन पृथग्भूतौ समर्थयितुम् , किं पुनरपरः समवायः। अथाविष्वग्भाव एव तेषां समवायः । तर्हि सिद्धः कथंचिदभेदः । प्रत्यक्षमपि चात्रैव दत्तहस्तकम् । एवं च---
प्रत्यक्षबाधितत्वं पक्षस्य क्षिपति तेऽनुमानततिम् । भस्मीकरोति किं न हि पलालकूटं कृशानुकणः ॥ ६४७ ॥ प्रत्यक्षक्षिप्तपक्षे च हेतूनामभिधानतः ।
कालात्ययापदिष्टत्वं स्पष्टं निष्टक्यतां त्वया ॥ ६४८ ॥ २० नावयवेभ्योऽवयवी भिन्न एवाशक्यविवेचनत्वान्यथानुपपत्तेरित्यनुमानबाधितश्च पक्षः । विवक्षितावयवेभ्योऽन्यत्र नेतुमशक्यत्वं यत्राशक्यविवेचनत्वम् । तच्च तन्त्वादिभ्यः पटादेः पृथग्देशं नेतुमशक्यत्वेन सुप्रसिद्धम् । न चैकद्रव्यवर्तिरूपादिभिर्व्यभिचारः । तेषामपि तहव्यतादात्म्यात्कथंचिदेकत्वात् । अपि च व्यवच्छेद्यव्यवच्छेदभावास्प- २५ दत्वादीनि साधनानि सर्वाण्यपि कथंचित्सर्वथा सामान्येन वा संगी
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. ५ सू. ८ थेरन् । आये कल्पे विरुद्धता कथंचिध्यवच्छेद्यव्यवच्छेदकमावास्पदत्यादीनां कथंचि देनैव व्याप्तत्वात् । द्वितीये तु प्रतिवाद्यसिद्धिः । जैनानां सर्वथा व्यवच्छेदकभावास्पदत्यादेस्तन्तुपटादिप्व
प्रसिद्धेः । तृतीये तु संदिग्धानेकान्तः । सामान्येन व्यवच्छेद्यव्यवच्छे. ५ दकभावास्पदत्वादिसद्भावेन भवितव्यमेव । कथंचिद्भेदेनेत्यत्र प्रमाणा
भावात् । निश्चितव्यवहारश्च व्यवच्छेद्यव्यवच्छेदकभावास्पदत्वहेतुः । घण्णां पदार्थानामस्तित्वमित्यादौ तद्भावेऽपि भेदाभावात् । अथ सदुपल. म्भकप्रमाणविषयत्वं धर्मान्तरं षण्णामस्तित्वमिप्यत इति न हेतोय॑मि
चारः । तदचारु । सप्तमपदार्थप्रसक्तेः । अथ षट्पदार्थव्यतिरिक्ताना३० मपि धर्माणामभ्युपगमान्नायं दोषः । तथा च पदार्थप्रवेशकग्रन्थः--
' एवं धमर्विना धर्मिणामुद्देशः कृतः' इति । असदेतत् । तैस्तेषां संवन्धानुपपत्तेः । तमन्तरेण च धर्ममिभावायोगात् । अन्यथातिप्रसंगात् । न च संयोगलक्षणोऽत्र संबन्धः। संयोगस्य गुणत्वेन
द्रव्येष्वेव भावात् । नापि समवायस्वरूपः । स तावत्तस्य सर्वत्रैकत्वा१५ भ्युपगमात् । समवायेन च सह समवायसंबन्धे द्वितीयसमवायाभ्यु
पगमप्रसंगात् । षड्भिः पदार्थैर्धागामुत्पादनात् । तेषां तैः संबन्धाभ्युपगमे पटायोऽपि तन्त्वादिसंबन्धिनस्तथैव स्युरिति समवायाख्यसंबन्धान्तरकल्पनावैयर्थप्रसक्तिः । भवतु वा षण्णामस्तित्वं धर्मान्तरम् । तथापि व्यभिचार एव । तदस्तित्वेऽपरास्तित्वाद्यभावेऽपि तदस्तित्वप्रमेयत्वाभिधेयत्वानीति व्यवच्छेद्यव्यवच्छेदकभावप्रवृत्तेः । अथ तत्राप्यपरास्तित्वाद्यभ्युपगमस्तदानवस्थाप्रसक्तिः । न चेष्टत्वान्न दोषः । सर्वेषामप्युत्तरोत्तरधर्माधारत्वाद्धर्मित्वप्रसक्तेः षडेव धर्मिणः प्रोक्ता इत्येतस्यानुपपत्तेः । न च धर्मिरूपा एव ये त एव षट्वेनावधारिता
इति वक्तव्यम् । गुणादीनामनिर्देशप्रसंगात् । न हि गुणादीनां २५ धर्मिरूपतैव किंतु द्रव्याश्रितत्वाद्धर्मरूपत्वमिति । यस्त्वाह - सदुपल
१. पा. भाष्ये पृ. ५५. ३.
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८७२
परि. ५ सू. ८J स्याद्वादरत्नाकरसहितः म्भकप्रमाणगम्यत्वं पण्णामस्तित्वमभिधीयते । तच्च षट्पदार्थविषयं ज्ञानं, तस्मिन्सति सदिति व्यवहारप्रवृत्तेः । एवं प्रमाणजनितं प्रमेयत्वमभिधानजनितमभि नीलादिविलक्षणे पीतादौ प्रतिभासमाने नीलादिप्रत्यभिज्ञानमस्ति । तस्मात्कथंचिद्विरुद्धनीलादितादात्म्येनावस्थितं कथंचिदेकं तचित्रं ५ रूपमुपगन्तव्यम् । तथा च व्यभिचारः स्पष्टः ।
एवं च वैशेषिककुञ्जराणां दशानुमानीदशनावलीयम् । दोषैरनेकैश्चलितात्र मूलारक्लेशस्थिते केवलमस्ति हेतुः ॥ ६४९ ।।
यञ्चोक्तम्- स्थूलप्रतिभासो न स्यात्' इति तदप्यसाधीयः । तत्त. दवयवानामवस्थाविशेषस्थ कथंचिदविप्वम्भूतस्यैकस्य चावयविशब्द- १० वाच्यस्याभ्युपगमात् । एवं च तादृशस्थूलावयविव्यपेक्षयाऽणुत्वव्यपदेशोऽपि परमाणुषु सूपपाद एव । अपि च शुचिबिचारचातुरीचुचुचेतसां शेमुषीचक्षुवि नायमेकान्तेनैकरूपः परिस्फुरतीति कथंचिदनेकेनानेन भवितव्यम् । न चानेकेडमी अवयवेभ्यो भिद्यमानमूर्तयः समुपलभ्यन्त इति यावन्तोऽवयवास्ताबदात्मकत्वमवयविनः स्वीकर्त- १५ व्यम् ! तथा हि- यदेकान्तेनैकरूपं न तदनेकवृत्ति चलाचलं रक्तारक्तमावृत्तानावृत्तं वा भवितुमर्हति । एकान्तैकरूपश्चावयवी स्वीकृतस्त्वयेति व्यापकविरुद्धोपलब्धः । अनेकवृत्त्यादेहि व्यापकमनेकत्वं तद्विरुद्धं चैकत्वमत्रोपलभ्यमानमनेकत्वं व्यावर्तयति । तच्च व्यावर्तमानमनेकवृत्त्यादि स्वव्याप्यमादायैव व्यावर्तत इति । अथाचक्षीथाः , २० किमिदं स्वतन्त्रसाधनं प्रसंगसाधनं वा । न प्रथमम् ।
अवयविनः प्रमाणासिद्धत्वेन हेतोराश्रयासिद्धत्वदोषात् । प्रमाणसिद्धत्वे वा तत्प्रतिपादकप्रमाणाबाधितपक्षनिर्देशानन्तरप्रयुक्तत्वेन तस्य कालात्ययापदिष्टत्वदोषदुष्टत्वात् । न च परस्यावयवी सिद्ध इति नाश्रयासिद्धत्वदोष इति वक्तुं युक्तम् । यतः परस्य किं प्रमाण- २५ तोऽसौ सिद्धः स्याइप्रमाणतो वा । प्रमाणतश्चेद्भवतोऽपि किं न
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प्रमाणनयतत्वालोकालङ्कारः
[ परि. ५ सू. ८
सिद्धः । प्रमाणसिद्धस्य सर्वान्प्रत्यविशेषात् । तथा च तदेव कालात्ययापदिष्टत्वं हेतोः । अथाप्रमाणतस्तर्हि प्रमाणं विना प्रमेयस्यासिद्धिरित्येव च वाच्यम् । किमनुमानोपन्यासेन । अप्रमाणसिद्धच परस्यापि न सिद्ध इति पुनरप्याश्रयासिद्धत्वम् । नापि प्रसंगसाधन५ मेतत् । यतो व्याप्याभ्युपगमो व्यापकाभ्युपगमनान्तरीयको यत्र प्रदर्श्यते स प्रसंग | व्याप्याभ्युपगमश्च परस्य प्रमाणपूर्वकत्वेन त्वयावधारितोऽन्यथा वा । आद्यपक्षे न प्रसंगस्योत्थानम् । तेनैव प्रमाणेन तद्व्याप्तेः पराकरणात् । द्वितीयपक्षे तु प्रमाणमेव परः प्रष्टव्यः । किंप्रमाणकोऽयं तवाभ्युपगम इति । न च परस्यैकान्तैक१० रूपत्वस्यानेक वृत्त्यभावादेश्व व्याप्यव्यापकभावः प्रासिध्यत् । अनेकवृत्त्यादिसद्भावेऽपि सामान्यादावेकत्वस्य प्रमाणसिद्धत्वादिति । तदेतदखिलमनलप्लुष्टपलालपूलपर्यन्तमनुकरोति । यतः प्रथमपक्षस्तावदनभ्युपगमादेव निरस्तः । प्रसंगसाधनकरूपे तु यौ विकल्पविकल्पविषातां तौ यदा शब्दानित्यत्वादितूष्णीकामाकलय्य स्थातुमर्हसि १५ त्वम् । तत्प्रतिषेधानुमानस्य सकलस्य तेन तिरस्करणात् । अथाप्रमाणसिद्धस्तर्हि पर एवं प्रमाणं प्रष्टव्यो न चैवम् । तत्र तत्र तत्प्रतिषेधानुमानोपन्यासात् । अथाप्रमाणसिद्ध एव पराभ्युपगमः परं .... ....राभ्युपगमप्रतिषेधं परित्यज्यान्यत्र प्रसंगः प्रत्यपादि । तथा हि- यद्येकान्तैकरूपत्वमूरीक्रियतेऽ२० वयविनस्तदा तद्व्यापकमनेकवृत्त्यभावादिकमपि भवेदिति संभावनागर्भाभ्युपगमद्वारेण प्रसंगमभिधाय तस्य न ...... प्रतिपाद्यते । एकान्तैकरूपत्वविरुद्धं ह्यनेकरूपत्वं तेन व्याप्तस्यानेकवृत्त्यादेरत्रोपलम्भः । विपर्ययहेतुरेव च मौलो हेतुः । न चायं नोभयोरपि सिद्धोऽनेकवृत्यादेस्तत्रोभयसंमतत्वात् । नाप्याश्रयासिद्धोऽ
"
माणस्यात्रानो -
....
433.
4944
4546
२५ वयव
पस्थानात् । यत्खलु यन्मात्रनिमित्तं तत्तस्मिन्सति भवत्येव यथा
1804
....
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1630
....
....
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परि. ५ स. ८ ] स्याद्वादरत्नाकरसहितः
८१ न्त्यकारणसामग्रीमात्रनिबन्धनोऽङ्गुरस्तस्यां सत्यां भवत्येव । विरुद्धधर्माध्यासमात्रनिमित्तश्चानेक .... भावात्सर्वत्राभवनप्रसंगोऽत्र विपर्यये बाधकं प्रमाणम् । तथा हियथा निमित्ताभावेऽपि भवतोऽहेतुकता । तथाऽविकले .... .... विरुद्धधर्माध्यासस्यानेकत्वनिबन्धनत्वाभावेऽनेकत्वकिंवदन्ती च भुव- ५ नेऽस्तमियात् । यदुक्तम्-' यदि विरुद्धधर्माध्यासः पदार्थानां भेदको न स्यात्तदान्यस्य तद्भेदकस्याभावाद्विश्वमेकं स्यात् । प्रतिभासभेदस्यापि समं .... .... .... .... सर्वात्मनैकदेशेन वा वर्तेत । यदि सर्वात्मना तदा यावन्तोऽवयवास्तावन्त एवावयविनः स्युः । स्वभावभेदमन्तरेण प्रत्यवयवं तस्य सर्वात्मना वृत्त्यनुपपत्तेः । १० एवं च युगपदनेककुण्डादिव्यवस्थितविल्यादिवदने .... .... .... .... .... .... .... भागाभावान्नित्यत्वं च कार्यद्रव्यस्य भवेत् । एकस्यापि च जनकत्वेन सामग्र्याऽजनकत्वं प्रतीयमानं व्याहन्येत ! अवयवेषु चावयवीति प्रत्ययाभावः प्रसज्यते । वृत्तौ चैकस्मिन्नवयवे युगपद्भावाभावौ स्याताम् । तथा ह्ये .... १५ .... .... .... ..... .... वर्तते तदपि न । प्रशस्यम् । निरंशस्यावयविनः स्वीकारात् । सांशत्वे वा तेऽपि ततो भिन्नाः स्युरभिन्ना वा । भिन्नत्वे पुनरप्यनेकांशेषु वृत्तरेकस्य सर्वात्मनैकदेशविकल्पा नेति .... .... निमजेदंशिनि वांशः । प्रथमपक्षे तद्वत्करचरणशिरोनीवादिष्वप्य- २० वयवेषु किं नास्य निमजनमभ्युपगम्यते । तथाभ्युपगमे चापरावयविकल्पना न स्यात् । अवयवप्रचयात्मकत्वात्तस्य । द्वितीयपक्षे तु निरंशोऽशी भवेत्तत्र च पूर्वनीतितोऽनेकवृत्तित्वे वा विरुद्धधर्माध्यासि
षु पुरुषावयविनं संबन्धयति तावत्तन्वादिष्वपि किं न संबन्धयेदवृ. २५ तेरविशेषात् । अथ वर्तते तदा तत्रापि यदि समवायो
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः परि. ५ स. ८ वृत्तिस्तदाऽनवस्था । किं च वृत्तेः समवायरूपत्वपरिभाषायामपि न विरुध्यते .... ....
.... .... द्वितीये तु यावदवयवमवयविनो भवेयुरिति सिद्धो विरुद्धधर्माध्यासः । अथ सर्वैकदेशादि
भेंदशब्दः । न च भेदशब्दस्याभिन्नेऽवयविन्युपपत्तिबहुषु दृष्टत्वात् । ५ तथा हि- बहूनामन्यतम ए.... ..... .... ....
दृश्यत एव । अथौपचारिक एवायं पटकारणेषु तन्तुषूपचारतः पटाभिधानप्रवृत्तेस्तत्सामानाधिकरण्येन सर्वादिशब्दप्रयोगादिति चेत् । मैवम् । एवं सर्वदैव पटशब्दाहुवचनप्र.... ....
ति वाच्यमस्य व्यपदेशस्य गौणत्वे स्खलद्वत्तितयाऽगौणाद्भेदप्रसक्तेर्न १० चासावस्ति । तथा हि- सर्वः पटः कुण्डेषु वर्तत इत्यत्र नैवं बुद्धिर्न
पटो वर्तते किंतु तत्कारणभूतास्तन्तव इति । किं च भेदे.... .... युक्तः । मोपपादि वाऽत्र शादिशब्दप्रयोगस्तथापि न शब्दप्रवृत्त्यनुपपतिमात्रप्रेरणया वस्त्वर्थस्य प्रतिषेधः शक्यते विधातुम् । तत्र तच्छन्दाप्रवृत्तावपि व्याप्तव्याप्तिशब्दयोः प्रवृत्त्युपपत्तेः । तथा ह्य....
__ .... स्न्यैकदेशाभ्यां व्याप्ता तौ विहाय प्रकारान्तरेण वृत्तेरसंभवात् । यत्खल्वर्थान्तरभूतं यत्र वर्तते तदेकदेशेन य....
....लत्वं तच्चैकस्य व्याहन्यते । अथावयवानामेव चलाचलत्वं विरुद्धधर्मसंसर्गः। ततोऽ
र्थान्तरभूतस्यावय विनमायोगात् । तथा हि- यदा पुरुषो हस्तमुत्क्षेप्तुमपक्षेप्तुं वेच्छति तदा हस्तवत्यात्मप्रदेशे प्रयत्नो जायते .... तं प्रयत्नं हि तस्योत्क्षेपणापक्षेपणयोरशक्यकरणत्वाद्दुरुत्वस्यापि कारणत्वम् । यदा तु शरीरं चलयितुमिच्छति तदा ....
स्तु निमित्तकारणमिति चेत्तद .... .... तमावतः स्यात् । अथ २५ नायं तत्र स्थितिस्ताहि गच्छती.... ..
दैव स्वावयवेषु समवायात् । अथ गमननिवृत्तिः स्थितिस्तदा प्रोक्त
२०
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परि. ५.८ ]
स्याद्वादरत्नाकरसहितः
04.0
एव दोषः । अथ व्याप्यवृत्त्येव कर्मेति तावत्प्र संयोगस्तत्र समुपलभ्यते चैत्रोऽत्र संयुक्त इति प्रतीतेस्तर्हि करशाखामात्रेऽपि चलिते चैत्रस्य चलनमुपलभ्यत
4444
....
अथात्रावयवसंयोगो भवत्येव तत्कारणस्यावयवसंयो
www.
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....
....
चैत्रश्चतीति ५
रक्तत्वात्त
प्रत्ययानुत्पत्तेरिति नुद्धोप्यमेव तस्याबाध्यमानस्यानुभवात् । अथात्मनि शरीर चलनेच्छया श दवयविरूपस्यारक्तत्वप्रसक्तेर्युगपद्रक्तारक्तरूपद्वयोपलब्धिप्राप्तेः । अपि च तदारम्भकोऽप्यवयवो यद्यवयविरूपस्तदा संयोगस्याव्याप्यवृत्तितया तत्राप्येकदेशवृत्तित्वमिति तुल्यः पर्यनुयोगः । अथाणुरूपस्तदा- १० णूनामतीन्द्रियावयवाश्रितः संयोगोऽप्यतीन्द्रिय एवेति न रक्तोपलम्भो भवेत् । अथ तृतीयः पक्षः । तदप्ययुक्तम् । संयोगस्याप्याश्रयानुपलब्धावनुपलब्धेः । अन्यथा घटपिशा वसंयोगस्याप्युपलब्धिः स्यात् । एवं चाङ्गुलिरूपवद्रागस्याप्यदृष्टाश्रयस्यानुपलब्धेराश्रयोपलब्धावेवोपलब्धेरिति व्याप्यवृत्तिरसावपि स्यात् । गन्धेन च व्याप्यवृत्तिना व्यभिचारः । १५ तस्याश्रयानुपलब्धावप्युपलम्भात् । अथारक्तेष्ववयवेषु समवेतद्रव्यस्योपलब्धावपि न रागसंयोगस्योपलब्धिरित्याश्रयोपलब्धौ नास्योपलब्धिरेदेत्यव्याप्यवृत्तित्वमुच्यते । नैतदपि युक्तम् । रक्तारक्कावयवसमवेतस्यावयविन एकत्वात्तदुपलम्भे रागद्रव्यसंयोगस्याप्यवश्यमुपलम्भोपपत्तेः । अन्यथा तदैक्यायोगात् । अनैकान्तिकं चेदृशमव्याप्यवृत्तिमाश्रयो - २० पलब्धावपि व्याप्यवृत्ते रसादेः कदाचिदनुपलम्भात् । ततः सिद्धं रक्तारक्तत्वं विरुद्धधर्मसंसर्ग इति । आवृतानावृतत्वमपि तथैव । तथा हि- कौपीनादिना शरीरस्यैकदेशावरणे सकलं तदात्रियते न वा | प्रथमपक्षे विवक्षितवाक्यवत्स कलस्यानुपलब्धिप्रसंग: । अथ नेति पक्षः । अवयवावरणेऽपि हि न शरीरस्यावरणमवयवावारकद्रव्य- २५
१ न. पुस्तके, अत्र कानिचिदक्षराण्यसंगतार्थानि सन्ति ।
૮૮૩
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प्रमाणनयत्तत्त्वालोकालङ्कारः
[ परि. ५ सू. ८
संयोगस्य तदावरणे सामर्थ्याभावात् । न खलु यावानवयव द्रव्यसंयोगोऽवयवमावृणोति तावानेवावयविनं तस्य महत्त्वात् । यद्येवं प्रदेशतस्तस्यावरणमस्ति न वा । अस्ति चेत् । न युक्तमेतत् । अनंशस्य प्रदेशाभावस्तथा तन्त्वावरणस्यानुपपत्तेः । उपपत्तौ तु विरुद्धधर्मसंसर्गः ५ स्पष्ट एव । अथावयवावारक द्रव्यसंयोगेनावयविन: प्रदेशतोऽपि शे तस्योपलब्धिप्रसंगात्समोऽप्यवयवी विलोक्येताविशेषात् । न ह्यवयवानामाचरणे वावयविनः कश्चिद्विशेषोऽस्ति । उभयत्रास्यानावृतस्याभ्युपगमात् । समग्रासमग्रशब्दयोश्च यथात्र वृत्तिस्तथोक्तमेव | अवयवाव १० रणेऽप्यवयविनोऽनावरणे च तत्र तस्य वृत्तिविरोधः । यत्खलु यत्र यथा घटादावत्रियमाणे तद्गत
वर्तते .....
૯૪
२०
....
1494
दिना कतिपयावयवानामावरणा
....
तस्याप्यावरण स्वीकर्तव्यम् । यथा च सिद्धो विरुद्धधर्म संसर्गस्ततोऽपि कथंचिदनेकत्वं ततोऽपि चावयवेभ्यः कथंचिदविवाभाव इति । १५ यञ्चोक्तम् -' अनेकवृत्त्यादिसद्भावेऽपि सामान्या
तद्व्यनवदातम् । कथंचिदनेकत्वप्रतिपादकस्यैव प्रमाणस्त्र तत्र प्राक्प्रतिपादनात् ।
इति विचारधुरामधिरोपितो न पुनरेति घटामवयव्यसौ । अवयवव्यतिरेकमुपेयिवानतितरां कथमस्तु सखे ततः ।। ६५० ॥ स्वकप्रतीकप्रकरात्कथंचिद्भिन्नस्वरूपं कलशादिवस्त्वा ?
लक्षणं संप्रति शिक्षयाम ॥ ६५१ ॥
-194
....
....
2004
प्रत्यक्षल
एवं खल्वमी समाचक्षते न रूपादिभ्यः पृथग्भूतोऽवयवी प्रत्यक्षे लक्ष्यते । चक्षुराद्यक्षप्रभवप्रत्यये रूपादिपरमाणुप्रचयस्यैव प्रतिभासात् । नाप्यनुमानेनावयविभावाविनाभावभाजो लिङ्गस्य कस्याप्यसंभवात् । २५ प्रत्युत बाधकमेव तत्रानुमानमुत्तिष्ठते । तथा हि- यदुत्पत्तौ निमित्तं नोपपतिमियर्ति तन्नास्ति यथा वान्ध्येयो नोपपद्यते चावयन्युत्पत्तौ
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परि. ५ सू. ८ ]
स्याद्वादरस्नाकरसहितः
किंचिन्निमित्तमिति । तथा हि- यणुकाद्यवयवव्युत्पत्तौ निमित्तं परमागुसंयोगः समयो .... .... कदेशेन वा स्यात् । यदि सर्वात्मना तदा पिण्डस्याणुमात्रतापतेर्वितीर्णस्तोयाञ्जलिरवयविकथायै । अथैकदेशेनेति पक्ष: । सोऽपि न क्षमः । परमाणूनां देशासंभवात् । तत्संभवे तेषां परमाणुत्वायोगात् । दिग्भागभेदतः परमाणुषट् न युग- ५ पसंयुज्यमानानां तेषां षडंशत्वानुषंगात् । तस्मादयःशलाकाकल्पाः परमाणव एव परमार्थसन्तः स्वीकर्तव्याः । त एव च स्थूलतथाविधाकृतिच्युता अपि तदाकारप्रतीनिमित्ततामुपयान्ति चिकुरा इव तैमिरिकोपलब्धेरिति । करोत्यहो रक्तपटेषु राज्यमेकान्तपक्षास्थितिमोहराजः । १०
यल्लक्ष्यमाण जगतापि साक्षाद्विक्षिप्य जल्पन्ति तदन्यदेते ॥६५२॥ तथा हि-- यदजल्पि ' रूपादिपरमाणुप्रचयस्यैव प्रतिभासात् ' इति तदसत् । यतः किमिदं प्रचयशब्दाभिधेयं धीमताधीतम् । देशः, 'प्रत्यासत्तिः, संयोगविशेषो भूयस्त्वमानं वा । प्रथमपक्षद्वयेऽवयविसिद्विरप्रत्यूहा । देशस्य व्योमायशस्वभावस्य स्वयमवयवित्वादवयविना १५ समानन्यायता संयोगस्य स्वीकारे प्रागेवावयविकक्षीकाराच्च । तृतीयपक्षे न चक्षुरादेः परमाणुप्रचयस्य प्रतिमासः स्यात् । रूपादीनां प्रतिनियतेन्द्रियग्राह्यतया तत्परमाणुप्रचयस्यैकेन्द्रियाविषयत्वात् । नायि प्रतिनियतैरपीन्द्रियैः प्रतिनियतानामपि तेषां ग्रहणमनुगुणं परमाणूनां हृषीकगोचरत्वासंभवाद्विषयलक्षणरहितत्वाद्वस्त्वाकारज्ञानजनकत्वं हि २० विषयलक्षणमाचक्षते भिक्षवः । न च तदणूनां विद्यते । सर्वत्र स्थूलाकारस्यैव संवेदनात् । विलक्षणाकारज्ञानजनकस्यापि विषयभाये चक्षुरादेरपि विषयत्वं स्यात् । अथ नीलाद्याकारार्पकत्वं परमाणूनामस्ति तद्वशेनैव विषयत्वम् । तदयुक्तम् ! यतोऽयं नीलाचाकारः स्थलात्मकत्वेनैव संवेद्यते न परस्परासंश्लिष्टपरमाण्वात्मकत्वेन । २५ कुतश्चायं विशेषोऽवधार्यते नीलायाकारस्यैव बाह्यजन्यत्वं न स्थूला.
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः
[ परि. ५सू. ८
कारस्येति । न ह्याकारतादिना स्थूलाकारवन्नीलाद्याकारोऽपि ज्ञानस्थादाकारादर्थान्तरभूतः कदाचिददर्शि । तत्कथं प्रत्यक्षानुपलम्भाभ्यामपि विशेषस्तदाकारयोः कार्यकारणभावो व्यवस्थाप्यते । अर्थापत्त्या तु स्थूलाकारस्यापि बाह्यजन्यत्वसिद्धिः स्यात् । समानयोग५ क्षेमत्वात् । बहवः संनिविष्टाः परमाणव एव स्थूलत्वेनावभासन्त इति चेत् । नैवम् । संनिवेशस्तेषां देशप्रत्यासत्तिः संयोगविशेषो वेत्यादिनास्य प्रचयवन्निर्मूलनार्हत्वात् । प्रत्येकमसंचितास्थूलेषु परमाशुषु तथाकारं ज्ञानं च भ्रान्तमेव स्यात् । अथ बुभुक्षाक्षामकुक्षेः क्षीरोपढौकनं प्रातरेचैतत्प्रियमेव हि में स्थूलैकप्रतीतेर्भ्रान्तत्वमिति १० चेत् । स्यादेतदेवम् । यदि कालकूटच्छटा लाञ्छनं तत्र न स्यात् । एवं हि कचिदभ्रान्तेन स्थलैकाकारप्रत्ययेनावश्यं भवितव्यम् । सर्वत्राभ्रान्तिपूर्वकत्वात् भ्रान्तेः । न खल्वनाकलितसत्यकलधौतस्य पुंसः शुक्तिशकले कलधौतभ्रान्तिर्भवितुमर्हति । वासनावशादेवामूहशी प्रतीतिः प्रादुर्भवतीति चेत् । तत्किं शुक्त रजतप्रतीतिर्न वास१५ नानिमित्ता यदगृहीतरजतस्य कदाचिन्नोल्लसति । ततो वासनाप्यस्य प्रत्ययस्यास्तु निमित्तम् । किं तु नेयमणुगृहीततथा स्थूलाकारस्योहोद्रुमर्हति । किं च यदि वासनावशात्तथा प्रतीतिस्तदा कथं कोटिप्रमाणानामपि पुंसां घटे घटोऽयं घटोऽयमित्येकाकारैवाहं प्रथमिकया प्रतीतिरुज्जिहीत । वासनाया एकत्वादिति चेत् । नन्वेकत्वमेक२० स्वरूपमेकादृक्षत्वं वा विवक्षितम् । नाद्यः कल्पः । अनेकसंतानस्थितैकवासना
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किमुत्तरं वितरति । अथास्त्वेवं बाह्यस्याभावो ज्ञानस्यैव परमार्थसत्त्वादिति चेत् । न । तस्यापि परमाणुरूपत्वेन प्रकृतदूषणानतिक्रमात् । मा भूत्तदप्यस्तु । परमकाष्ठानिष्ठं शून्यमेवेति चेत् । २५ मैचम् | तस्य प्रागेव प्रतिघातात् । संयोगहेतुस्वभावापेक्षयेति पक्षस्तु. कक्षीक्रियत एव । दिग्भेदेनाणु संयोगहेतु भूतस्वभावलक्षणांशानां पर
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परि. ५ स. ८ ] स्याद्वादरत्नाकरसहितः माणुषु संमतत्वात् । कथमन्यथा नीराहरणाद्यर्थक्रियाकारिणः कुम्मादेर्निवृत्तिः । न हि परमाणवस्तत्कारिणः परस्परमसंश्लिष्टत्वात्कपालप्रतिकपालादिकलापवत् । अथ देशप्रत्यासत्तिभाजस्ते तत्कारिणः । नैवम् । अवयविनोऽनभ्युपगमे देशप्रत्यासत्तेरप्यनुपपत्तेः । घटाधारभू. प्रदेशस्यावयवित्वात् । नैरन्तर्येणोत्पन्नास्तत्कारिण इति चेत् । ननु ५ नैरन्तर्यमेकत्र देशेऽवस्थानम् , अन्तरालाभो वा । आद्यपक्षोऽस्मगृहादिक्षितः । सौगतानामेकदेशस्यासंभवात् । द्वितीये तु किमन्तरालशब्दवाच्यं स्यात् । यद्याकाशं तदा सिद्ध एवावयवी तस्यापि सप्रदेशत्वात् । आलोकमन्तः परमाणवोऽन्तरालं तस्य चाभावो घटादिपरमाणूनामन्तरेषु स्पष्ट एवेति चेत् । न त्वन्तरशब्दवाच्यं व्योम १०. स्यादन्तरालमेव वा ! आद्यः कृतोत्तर एव । द्वितीये तु सुतरामालोकतमःपरमाणूनां तत्र भावोऽभिहितो भवेत् । अन्तराले हि यदान्तरालाभावोऽभिधीयते तदाऽन्तरालशब्दाभिधेया आलोकतमःपरमाणवस्तत्र सिद्धाः स्वीकर्तव्याः । न चालोकतमःपरमाणवो नियताः केचन निश्चिताः सन्ति येषु कापि तदपरेषामालोकतमःपरमाणूनाम- १५ भावोऽभिधीयेत । कपालानि च जलाहरणं कथं न कुर्युः । तदन्तरालभूतेष्वालोकतमःपरमाणुषु तदपरेषां तेषामभावात् । अस्तु वा यत्किचिदन्तरालशब्दवाच्यं तथापि पाषाणखण्डपरमागवः किमिति न जलाहरणं कुर्वन्ति । तेषां नैरन्तर्योत्पादस्य तत्रापि भावात् । अथ तेनैवाकारेणोत्पन्नास्ते तत्कारिणो नान्यथा । नन्वेतदप्यस्मद्गृहभिक्षित. २०. मेव । आकारशब्देन संयोगविशेषादेः कस्यचिदभिधानात् ।
अहो तु खलु चौद्धानां भिक्षुत्वमति युज्यते ।
भिक्षाशीलतयैवैषां यद्गृहे जायतेऽखिलम् ।। ६५३ ॥ एवं चसंयोगहेतुभूतस्वभावषट्रे स्थितेऽणुषु प्रकटे । अवयविजन्मनिमित्तं संयोगः संगतिमगच्छत् ।। ६५४ ॥
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः
परि. ५ सू. ८
सिद्धे चास्मिन्नुपन्यस्तं यत्पुरा साधनं त्वया । स्थूलस्याभावसंसिद्धौ तदसिद्धमिति स्थितम् ॥ ६५५ ।। त एव च स्थूलतथाविधाकृति
च्युता अपीत्यादि यदप्यलप्यत । तदप्यशेष गदितोत्तरक्रमा
दपास्तमेवेति बुधेन बुध्यताम् ॥ ६५६ ।। परिहर ततो दूरादेतान्कलक्कविसंस्थुला
नवयविकथाच्छेदे विद्वन्नलीकमनोरथान् ।। न खलु विदुषां निन्दापात्रे कथंचन कश्चन ____ कवन कुरुते प्रेक्षाकारी परिग्रहपातकम् ॥ ६५७ ॥ एवं च महीप्रमुखं द्रव्यचतुष्कं कणादनिर्दिष्टम् ।
कथमपि नोपैति घटां यन्नित्यानित्यतास्पदं सिद्धम् ।। ६५८॥ यदप्युक्तम्- 'आकाशकालदिश इतरेभ्यो भिद्यन्ते' इत्यादि । तत्र दिशोऽसत्त्वेन वक्ष्यमाणत्वात्पक्षकदेशासिद्धो हेतुः । आकाशे तु द्वयी वि१५ प्रतिपत्तिरावयोरेकान्तनित्यत्वे निरंशत्वे च । तत्रैकान्तनित्यत्वमपहस्तितं प्रागेव । निरंशत्त्वं तु निरस्यते ।
अथ कथमेवं शक्यं निरंशमाकाशम्, सर्वजगद्यापित्वात् । यन्न आकाशस्य निरंशत्व- निरंशं न तत्तथा दृष्टम् । यथा घटः । न च न
खण्डनम् । तथेदं तस्मात्तथा, इत्यनुमानस्य निरंशत्वसिद्धौ २० बद्धकक्षस्य सत्त्वात् । तदयुक्तम् । पक्षम्यानुमानेन बाधितत्वात् । तथा
हि-- नाकाशमनंशम् , सकृद्भिन्नदेशद्रव्यसंबद्धत्वात् । काण्डपेटवत् , इति । यदप्युच्यते- 'निरंशमाकाशं सदावयवानारभ्यत्वात्परमाणुवत् इति । तदप्यनेनैव निरस्तम् । अनुमानबाधितपक्षत्वाविशेषात् ।
किं च यदि सर्वथा सदावयवानारभ्यत्वं हेतुस्तदा प्रतिवाद्यसिद्धः २५ पर्यायार्थादेशात्पूर्वपूर्वाकाशप्रदेशेभ्य उत्तरोत्तराकाशप्रदेशोत्पत्तेः कथं.
१ ध्वजदण्डस्यवस्त्रवत् ।
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परि. ५ स. ८] स्याद्वादरत्नाकरसहितः चित्तदभिन्नस्य व्योन्नोऽपि समुत्पादादारभ्यारम्भकभावोपपत्तेः । अथ कथंचित्सदावयवानारभ्यत्वं हेतुम्तदा विरुद्धः । कथंचिन्निरंश. त्वस्य सर्वथा निरंशत्वविरुद्धस्य साधनात् । स्यान्मतम् । नाकाशस्य प्रदेशा मुख्याः सन्ति स्वतोऽनवधार्यमाणत्वात्परमाणुवत् । पटादीनां हि मुख्याः प्रदेशाः स्वतोऽवधार्यमाणाः सिद्धाः । सुरसरणौ तु ५ स्वतोऽवधार्यमाणत्वं न तेषामस्ति । घटाकाशं पटाकाशमित्युपाधिवशादेवावधारणात्तदनुपपन्नम् । अणुकादीनां व्यणुकाद्यवयवैरनैकान्तिकत्वात् । तेषामस्मदादिभिः स्वतोऽनवधार्थमाणानामपि मुख्यतया भावात् । अत्यन्तपरोक्षत्वादस्मदादिभिस्ते स्वतो नावधार्यन्त इति चेत् । तत एवाकाशप्रदेशाः स्वतोऽनवधार्थमाणाः सन्त्वस्मदादिभिः । १० अतीन्द्रियार्थदर्शिनां तु यथा व्यणुकादयः प्रदेशाः स्वतोऽवधारणीया. स्तथाकाशप्रदेशा अपीति स्वतोऽनवधार्यमाणत्वादित्यसिद्धो हेतुः । उपचरितत्वे चाकाशप्रदेशानां मुख्यकार्यकरणं न स्यात् । सज्जनतयोपचरितोऽपि दुर्जनप्रकृतिरत्र कोऽपि पुमान् । न खलु जनकर्णकुहरं सिञ्चति वचनामृतच्छटया ॥ ६५९ ॥ १५
अन्यथा मुख्यसजनत्वप्रसंगात् । प्रतीयते च मुख्य कार्यमनेकपुद्गलादिद्रव्यावगाहनलक्षणम् । निरंशस्यापि विभुत्वात्तद्युक्तमिति चेत् । कथं विभु निरंशं चेति । सर्वद्रव्यव्यापकत्वं हि विभुत्वम् । तत्कथं निष्प्रदेशस्य स्यात् । किं च कथंचित्सशिमाकाशं परमाणुभिरेकदेशेन संयुज्यमानत्वात्पटवत् । तस्य तैः सर्वात्मना संयु- २० ज्यमानत्वे परमाणुमात्रत्वप्रसंगः । तथा चाकाशबहुत्वापत्तिः । स्यान्मतम् । नैकदेशेन सर्वात्मना वा परमाणुभिराकाशं संयुज्यते किं तर्हि संयुज्यत एव यथावयवी स्वावयवैः, सामान्य वा स्वाश्रयैः समवेयत एवेति । तदसत् । साध्यसमत्वानिदर्शनस्य । तस्याप्यवयव्यादेः सर्वथा निरंशत्वे स्वावयवादिभिरेका- २५
१ सुरसरणिः-- आकाश: । 'अनन्तं सुरवम खम् ' इत्यमरः ।
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः
[ परि. ५ सू. ८
न्ततो भिन्नैः संबन्धे यथोक्तदोषानुषङ्गात् । कात्स्न्यैकदेशव्यतिरिक्तस्य प्रकारस्य तत्संबन्धनिबन्धनस्यासिद्धेः । कथंचितादात्म्यस्य तत्संबन्धत्वे स्याद्वादमतसिद्धिः । सामान्यतद्वतोरवयवावयविनोश्च कथंचित्तादात्म्योपगमात् । न चैवमाकाशस्य परमाणुभिः कथंचित्तादात्म्य५ मित्येकदेशेन संयोगोऽभ्युपगन्तव्यः । तथा च सांशत्वसिद्धिः । किंच सांशमाकाशम्, श्येनमेषाद्यन्यतरोभयकर्मजसंयोगविभागान्यथानुपपत्तेः । श्येनेन हि स्थाणोः संयोगो विभागश्चान्यतरकर्मजः । तत्रोत्पन्नं कर्म स्वाश्रयं श्येनं तदाकाशप्रदेशाद्वियोज्य स्थाण्वाकाशदेशेन संयोजयति । ततो वा विभज्याकाशदेशान्तरेण संयोजयतीति १० प्रतीयते । न चाकाशस्यांशाभावे तद्धटते । कर्माश्रयभूतश्येनस्थाण्वोरेकदेशत्वात् । एतेन मेषयोरुभयकर्मजः संयोगो विभागश्चाकाशस्याप्रदेश न घटत इति निवेदितम् । क्रियानुपपत्तिश्च तस्था देशान्तरप्राप्तिहेतुत्वेन व्यवस्थितत्वाद्देशान्तरस्य चासंभवात् । तत एव परत्वापरत्वपृथक्त्वाद्यनुपपत्तिः पदार्थानां विज्ञेया । यदि च निरंशमाकाशं १५ तर्हि तद्वत्तदाश्रितस्य शब्दस्यापि व्यापित्वापत्तिः । तस्याव्याप्यवृत्तित्वे वा कथं तदधिकरणस्य व्योम्नः सांशत्वं न स्यात् । यतो व्याप्यवृत्तित्वमस्य पर्युदासरूपं वा स्यात् । आद्यपक्ष एकदेश चित्वमेवाभिहितम् । भवेदाकाशं व्याप्य शब्दो न वर्तत इति ब्रुवतस्तदेकदेशे वर्तत इत्यापत्तेः । व्याप्यवृत्तित्वं हि सामस्त्यवृत्तित्वं तत्प्रतिषेधे त्वेक२० देशवृत्तित्वमेव भवति ।
एवं च-
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ध्वनिरेकदेशवृत्तिः प्रदेशशून्ये च वर्तते व्योम्नि ।
इति मे माता वन्ध्येत्यस्य चिरान्मित्रमीक्षितं सूक्तम् ॥६६०॥ प्रसज्यपक्षे तु व्याप्यवृत्तौ निषिद्धायां नभस एकदेशानभ्युपगमे २५ तेनापि वृत्त्यसंभवे वृत्तिमात्रस्यापि प्रतिषेधः स्यात् । न चैतत्तवोपपद्यते । शब्दस्य गुणत्वस्वीकाराद्गुणस्य चावश्यं द्रव्याश्रितत्वा
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परि. ५ स. ८] स्याद्वादरत्नाकरसहितः समवाय एव वृत्तिरिति चेत् । न । तस्य निराकरिष्यमाणत्वात् । यदि च निरंशं नभो भवेतदा श्रवणसमवेतस्येव ब्रह्माण्डवर्तिनोऽपि शब्दस्यास्मदादिभिरुपलम्भः स्यात् । निरंशैकाकाशलक्षणश्रोत्रसमवेतत्वात् । अथ धर्माधर्माभिसंस्कृतकर्णशष्कुल्यवच्छिन्नाकाशदेश एव श्रोत्रम् । तत्र ब्रह्माण्डवर्तिनः शब्दस्यासमवायानास्मदादिभिरुपलम्भः । ५ नन्वयमन्धसर्पविलप्रवेशन्यायेन सावयवत्वाङ्गीकार एव परिहारः । श्रोत्राकाशदेशात् ब्रह्माण्डवर्तिशब्दाधाराकाशम्यान्यत्वात् । किं चैतस्मिन्नभ्युपगमे संतानवृत्या शब्दस्यागतस्य श्रोत्रेणोपलब्धिर्न स्यात् । अपरापराकाशदेशोत्पत्तिद्वारेणास्य श्रोत्रसमवेतत्वासंभवात् । कृशानुवेश्मादीनामेकदेशतावैशसं चापनपद्येत । अभिन्नै- १० कनभःसंसर्गित्वात् । तथा हि---- येनैव वियत्स्वभावेन स कृशानुः संयुक्तस्तेनैवाखिलमपरमपि वेश्म विपिनपलालकूटाविकमित्यनल्पज्वालाजालकरालकृशानुवत्तत्रैव त्रिभुवनमप्यासज्येत । तदेवमस्मिन्नितरामुपस्थिते समन्ततोऽपि व्यसने सुदुस्तरे । उपैहि वैशेषिक सांशतादि वः किमानहैरेभिरुदर्कककशैः ॥६६१॥ १५ यत्तु नामसत व्योम स्वरूपेणापि सौगताः । तेषामेषोऽनुमानाख्यः सेनानीः शिक्षणक्षमः ।। ६६२ ॥
तथा हि- युगपन्निखिलद्रव्यावगाहः साधारणकारणापेक्षो, युगप. निविलद्रव्यावगाहत्वात् । य एवं स एवम् । यथैकसरःसलिलान्तःपातिमत्स्याद्यवगाहः, तथावगाहश्चायं तस्मात्तथा । यच्चापेक्षणीयमत्र २० साधारणं कारणं तदाकाशमिति । नन्वालोकतमसोरेवाशेषार्थावगाहे साधारणकारणत्वं भवित्याः कथमस्मादाकाशसिद्धिरिति चेत् । तदाकुलम् । आलोकतमसोरप्पाकाशाभावेऽगाहस्यायोगात् । ननु सर्वार्थानां यथाकाशेऽवगाहस्तथा तस्याप्यपरत्राश्रयेऽवगाहेन भाव्यमित्यनवत्या ते । अस्य स्वरूपेऽवगाहेऽखिलार्थानामपि स्वात्मन्येवावगा- २५
१ कृशानुवेश्म पाकगृहम् ।
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः परि. ५ सू. ८ हप्रसक्तेः कथमाकाशस्यातः सिद्धिरित्यपि न किंचन । आकाशस्य व्यापित्वेन स्वावगाहित्यसंभवादनवस्थानुपपत्तेरन्यार्थीनामव्यापित्वेन स्वावगाहित्वाभावाच्च । न हि किंचिदल्पपरिणामं वस्तु स्वाधारं दृष्टं
पुण्डरीकादेस्तोयाद्याधारत्वदर्शनात् । कथं तर्हि दिक्कालात्मनां व्योम्न्य५ वगाहो व्यापित्वादिति कश्चित् । सोऽपि न सूक्तवादी । तेषां व्यापि. त्वासिद्धेः । तदसिद्धिश्च दिग्द्रव्यस्यासत्त्वेन कालात्मनोश्वासर्वगतद्रव्यत्वेनाभिधास्यमानत्वात्प्रतीता । नन्वेवमपि कालात्मनोरमूर्तत्वेनानाधेयतासंभवात्कथमाकाशाश्रयता । इत्यप्यमनोज्ञम् । ज्ञानादेरमू
तस्याप्यात्मन्याधेयताप्रतीतेः । एतेनामूर्तत्वान्नाकाशं कस्यचिदधिक१० रणमित्यपि परास्तम् । आत्मनोऽमूर्तस्यापि ज्ञानाधिकरणत्वप्रतीतेः ।। आत्मसिद्धिश्च करिष्यते । एवं च-- अस्त्येव नित्यं विभु सप्रदेशं कथंचिदाकाशमितीहितं नः। संन्यायमार्गोपनिषन्निषण्णस्वान्तस्थितीनामसिधस्कृतीन्द्राः १६६२१ काले तु त्रयो विवादा एकान्तनित्यत्वे निरंशत्वे व्यापित्वे च । त
_ वाद्यः समादधे । द्वितीयोऽप्याकाशनिरंशत्वनि. कालविचारः ।
' रसनदिशाऽपसारणीयः । नित्यनिरंशैकरूपत्वे चास्य कथं भिन्नदेशानेककार्यकारित्वं घटते । ब्रह्मणोऽप्ये. वविधस्यानेकपामारामादिकार्यकर्तृत्वानुषङ्गतस्तदद्वैतासिद्धिप्रसंगात् । विचित्रसहकारिवशात्तस्य तथाविधस्यापि तत्कर्तृत्वाविरोधइत्यध्यन्यत्राविशिष्टमविद्यादेः सहकारिणो ब्रह्मण्यपि संभवात् । न च. स्वरूपमभेदयतां सहकारित्वं संभवतीति स्थाने स्थाने प्रागवोचाम। अतोऽत्र योगपद्यादिप्रत्ययानुपपत्तिरेव । यत्खलु कार्यजातमेकस्मिन्क्षणे कृतं तद्युगपत्कृतमित्युच्यते । कालस्य च नित्यैकत्वादिरूपत्वे २५ तदुत्पाद्यत्वेन कार्याणामेकदैवोत्पत्तिप्रसंगान किंचिदयुगपत्कृतं स्यात् ।
तथा च युगपत्कृतमपि न किंचिद्भवेत् । अयुगपत्कृतापेक्षयैव
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परि २.५ सू. ८ ]
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युगपत्कृतस्य व्यवस्थानात् । चिरक्षिप्रव्यवहाराभावश्च । यत्खलु बहुना कालेन कृतं तचिरेण कृतमित्युच्यते यच स्वल्पेन कृतं तत्क्षिप्रं कृतमिति, तचैतद्दुभयं कालस्य सर्वथा नित्यादिरूपतायां दुर्घटम् । ननु कालस्य तद्रूपतायां सत्यामप्युपाधिभेदाद्वेदोपपत्तेर्न यौगपद्यादिप्रत्ययाभावः । तदुक्तम्- 'मंगिवद्वाचकवद्वोपाधिभेदात्कालभेद:' इति तदप्यसमीक्षितः भिधानम् । यतोऽत्रोपाधिभेदः कार्यभेदएव । स च युगपत्कृतमित्यत्राप्यस्त्येवेति किमित्ययुगपत्प्रत्ययो न स्यात् । अथ क्रमभावी कार्यभेदः कालभेदव्यवहारहेतुः । अथ कोऽस्य क्रमभावः, युगपदनुत्पाद इत्यस्य भाषितस्य कोऽर्थः । एकस्मिन्कालेऽनुत्पाद श्चेत् । नन्वेवमितरेतराश्रयः । यावद्धि कालस्य भेदो न सिध्यति न १० तावत्कार्याणां भिन्नकालोत्पादलक्षणः क्रमः सिध्यति । यावच्च कार्याणां तथाविधः क्रमो न सिध्यति न तावत्कालस्योपाधिभेदाद्वेदः सिध्यतीति । ततः स्वरूपत एव कालस्य भेदोऽभ्युपगन्तव्यः । तथा चैककालमिदं चिरोत्पन्नमिदमनन्तरोत्पन्नमिदमित्यादिव्यवहारः सुघटो नान्यथा । एतेन परापरव्यतिकरोऽपि चिन्तितः । सर्वथा नित्यादिस्वभावे काले तस्याप्यनुपपद्येमानत्वात् 1 यथैव हि भूम्यवयवैरालो कावयवैर्वा बहुभिरन्तरितं वस्तु विप्रकृष्टं परमिति बोच्यते, स्वयैस्त्वन्तरितं संनिकृष्टमपरमिति च । तथा बहुभिः क्षणै रहोरात्रादिमिर्वाऽन्तरितं विप्रकृष्टं परमिति चोच्यते । स्वल्यैस्त्वन्तरितं संनिकृष्टमपरनिति च । बह्वल्पभावश्च कालस्यैकस्वरूपत्वे सर्वथा दुर्वेटः । यत्परापरादिप्रत्यय हेतुस्तदनेकस्वरूपम् । यथा भूम्यादिप्रदेशाः परापरादिप्रत्ययहेतुश्च काल इति । अथ यौगपद्यादिप्रत्ययानां तल्लिङ्गभूतानां सर्वत्राविशेषादेकरूप एवायं युज्यते । तदप्युक्तिमात्रम् । तदविशेषस्यासिद्धत्वात् । न हि यौगपद्यादिप्रत्ययास्तलिङ्गभूताः स्वरूप
१५
स्याद्वादरत्नाकरसहितः
१ ' मणिवाचकवा नानात्वोपचारः इति वै. द. प्र. पा. भा. धृ. २५ पं. २ ।
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. ५ सू. तोऽन्योन्यमविशिष्टाः । परम्परम्वरूपविविक्ततया तेषां प्रत्यक्षतः प्रतीतेः । प्रत्येकमपि चैषां विशिष्टतानुभूयत एव । न हि युगपद्भुक्ताः सुप्तः स्थिता गताश्चेत्यादौ तत्प्रत्ययानामविशेषोऽस्ति । प्रतीतिविरोधात् । अस्तु वा तत्प्रत्ययाविशेषस्तथाप्यत: का लम्यैकम्वरूपत्वाभ्युपगमे गुरुत्वादिप्रत्ययाविशेषाद्गुरुत्वपरिमाणादेरप्येकत्वस्वरूपत्वप्रसंगः । तुल्याक्षेपसमाधानत्वात् । ततो गुरुत्वपरिमाणादेरप्यनेकगुणरूपतावत्कालस्यानेकस्वरूपताभ्युपगन्तव्या । नित्यनिरंशैकस्वरूपत्वे चास्यार्थानां भूतभविष्यद्वर्तमानत्वं दुर्घटम् । अतीतानागतवर्तमानकालभेदाभावात् । सिद्धे हि सद्भेदे तत्संबन्धादर्थानां तथा व्यपदेशः म्यान्नान्यथा । १० अतिप्रसंगात् । अस्तु वा तत्र तद्भेदः । तथाप्यसौं स्वतोऽपरातीता
दिकालसंबन्धादतीतादिक्रियासंबन्धाद्वा स्यात् । न तावत्स्वतः । नित्यनिरंशत्वभेदरूपत्वयोर्विरोधात् । नाप्यपरातीतादिकालसंबन्धात् । अपरकालम्यैवासंभवात् । संभवे वाऽनवस्था । तदतीतत्वादेरप्यपरा
तीतादिकालसंबन्धनैवोपपत्तेः । अथातीतादिक्रियासंबन्धात्तथाविधकाल१५ संबन्धाद्रा । प्रथमविकल्पेऽनवस्था । द्वितीयविकल्पे त्वन्योन्याश्रयः ।
सिद्धे हि क्रियाणामतीतादित्वे तत्संबन्धात्कालस्यातीतादित्वसिद्धिः । तसिद्धौ च तत्संबन्धातासां तत्सिद्धिरिति । भवतु वा कुतश्चितत्रातीतादिभेदसिद्धिस्तथापि कालस्य सर्वथैकस्वरूपत्वप्रतिज्ञाने स्ववचनविरोधः । स्ववाचैवाम्यांतीतादिरूपतया भेदप्रतिपादनात् । लोकविरो२० धश्च । न खलु लौकिका अतीतादिरूपस्य पूर्वाहमध्याह्नापरालम्ब
भावस्य शीतोष्णवर्षास्वरूपम्य च कालस्यैकत्वं प्रतिपद्यन्ते । प्रत्येक तस्य तैमैदाभ्युपगमात् । अनुमानविरोधश्च । तथा हि-~~यत्समेतरधर्माध्यस्तं द्रव्यं तदनेकस्वरूपं, यथा पृथिन्यादि । सूक्ष्मेतरधर्माध्यस्तं
च कालद्रव्यमिति । यथैव हि पृथिव्यादिद्रव्यम्य परमाण्वितररूपतया २५ जीवद्रव्यम्य च कुन्थुगजादिम्वभावतया समेतरधर्माध्यस्तत्वादनेकस्व
१ कुन्थुः- स्वल्पप्रमाणो जन्तुः ।।
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परि. ५ सू. ८]
स्याद्वादरत्नाकरसहितः
रूपत्वं तथा कालद्रव्यस्यापि समयमुहूर्तादितद्विशेषापेक्षया तत्तद्धर्माध्यस्तत्वसंभवादनेकस्वरूपत्वं प्रतिपत्तव्यम् । व्यापकत्वं चास्य नोपापादि प्रसाधकप्रमाणाभावात् । अथ कालः सर्वगतो द्रव्यत्वे सत्यमूर्तत्वाव्योमवत्, इत्यस्त्येव तदयुक्तम् । यतः किमिदममूर्तत्वं नाम विवक्षां चकृवानसि । अचाक्षुत्वं रूपादिरहितत्वं सर्वगतद्रव्यपरिमाणा- ५ म्पदत्वन् , असर्वगतद्रव्यपरिमाणाभाववत्त्वम् , असर्वगतद्रव्यपरिमाणसमवायाभाववत्त्वं वा । आये भेदे समीरेण व्यभिचारः । तस्याचाक्षुषद्रव्यस्याप्यसर्वगतत्वात् । द्वितीये तु मनसा तस्य त्वया रूपादिराहित्येन म्वीकृतस्यासर्वगतत्वेनोपगमात् । तृतीये पुनरितरेतराश्रयसंभवादासेद्धिः । सर्वगतद्रव्यपरिमाणास्पदत्वसिद्धौ १० हि कालस्य सर्वगतत्वसिद्धिः । तत्सिद्धौ च तत्सिद्धिरित । चतुर्थे तु कोऽयं कालेऽसर्वगतद्रव्यपरिमाणस्याभावः । किं प्रागभावः प्रध्वंसोऽत्यन्ताभाव इतरेतराभावो वा । न तावत्प्रथमौ । त्वन्मतेन कालेऽसर्वगतद्रव्यपरिमाणस्य कदाचिदवर्तिप्यमाणत्वात्, अवृतत्वाच । यदि हि कदाचित्कालस्य तद्भावि भवेत्तदा संप्रति प्रागभावः १५ स्यात् । यदि च भूतं भवेत्, तदा संप्रति प्रध्वंसः स्यात् । न चैवम् । न तृतीयः। कालेऽस्माकमसर्वगतद्रव्यपरिमाणात्यन्ताभावस्यासिद्धत्वात् । नापि चतुर्थः । पटादेरपि सर्वगतत्वापत्तेः । तस्याप्यसर्वगतद्रव्यपरिमाणस्वरूपेणासंकीर्णत्वात्तदितरेतराभाववत्त्वात् । अथासर्वगतद्रव्यपरिमाणसमवायाभाववत्त्वमिति पञ्चमः पक्षः। न च पटादेः सर्वगतत्त्वापत्तिः। २० तत्र तादृशपरिमाणसमवायाभावस्याभावादिति चेत् । ननु तत्समवायस्याप्यभावो न तावत्प्रागभावप्रध्वंसस्वरूपः प्रतिपादनीयस्तादृशपरिमाणसमवायस्य त्वन्मतेन काले कदाचिदभावात् । अत्यन्ताभावः पुनरसिद्धः कालस्यासर्वगतद्रव्यपरिमाणाविष्वम्भूतत्वेनास्माभिः स्वीकृतत्वात् । इतरेतराभावस्तु तस्य तेन कथंचित्स्वरूपममिश्रयत: २५ समस्त्येव । किं त्वयमनैकान्तिकः कुम्भादिना । तम्यासर्वगतद्रव्य
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः परि. ५ सू. ८ परिमाणसमवायेन स्वरूपेणासंकीर्णस्वभावतमा तदितरेतराभाववत्त्वेऽप्यसर्वगतत्वात् । ततो नेदमनुमानं साधु । अनुमानबावितपक्षत्वाच्च । तथा हि- कालः सर्वगतो न भवति व्योमान्यत्वे सति द्रव्यत्वात् । यदेवं तदेवम् । यथा पुद्गलद्रव्यम् । तथा चायं तस्मात्तयेति ।
एवं चनित्यनिरंशव्यापकरूपो यः पर्षकल्लि किल कालः । अटति स न घटाको तद्विररीतस्ततोऽस्तु बुधाः ॥ ६६३ ॥ आलोक्य स्वीकृतं कालक्रयममामित्सुकः । करोत्यकाण्ड एवात्र शास्यस्तत्क्षेपडम्बरम् ॥ ६६४ ॥
नातीतादिभेदभिन्नः कालः कोऽप्यस्ति यत्संबन्धादर्थानामतीतादित्वं स्यात् । स्वतः परतो वास्तवेदानुपपत्तेः । स्वतो हि कालस्वातीतादित्वेऽर्थानामपि स्वत एव तदस्तु । अलं काल कल्पनया । परतोऽप्यतीतादिकालान्तररामिसंबन्धादतीतादिक्रियामि संबन्धाद्वा । त
स्यातीतादित्वाभ्युपगमे प्रागुक्तदोषानुपङ्गः । अतः पौर्वापर्यादिनोत्पन्नेषु १५ पदार्थेषु पूर्वापरादिसंकेतसमुद्भतमनस्काराभोगनिबन्धनमतीतादिज्ञानमात्रमेवास्ति न पुनरतीतादित्वम् । तदुक्तम्
'विशिष्टसमयोद्भुतमनस्कारनिवन्धनम् । परापरादिविज्ञानं न कालानो दिशश्च तत् ॥१॥' अहो वाचाटतादोपादेष सौगतदुर्दुरः । एतेषां दोषसा गां दृष्टिगोचरतां गतः ॥ ६६५ ॥ तथा हि--- यदवादि ' नातीतादिभेदभिन्नः कालः कोऽप्यस्ति । इति । तत्र तस्यासत्त्वं प्रमाणबाधितमेव । कार्यत्वहेतोस्तत्स्वरूपानुमापकस्य सद्भावात् । तथा हि- कटकमुकुटादिवस्तूनां वर्तना बहि
१ तत्वसंग्रहे लो. ६२९१
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पारे. ५ सु. ८ ] स्याद्वादरत्नाकरसहितः
८९७ रङ्गकारणापेक्षा कार्यत्वात्तन्दुलपाकवत् । यत्तद्वाहिरङ्गं कारणं स कालः । का पुनरियं वर्तना नाम प्रतिद्रव्यपर्यायमन्तीतैकसमया म्वसत्तानुभूतिर्वर्तना।
'अन्ततिकसमयः स्वसत्तानुभवोऽभिधा ।
यः प्रतिद्रव्यपर्यायं वर्तना सेह कीर्त्यते ॥ इति वचनात् । ननु कालवर्तनाया व्यभिचारः स्वयं वर्तमाने कालस्यैकत्र समये तदभावात् । न हि कालसमयः स्वसत्तानुभूतौ प्रयोजकमपरमपेक्षते । स्वयं सर्वप्रयोज कस्वभावत्वात् । स्वप्रयोजकत्वे सर्वप्रयोजकस्वभावत्त्वविरोधात् । सर्वज्ञविज्ञानस्य स्वरूपपरिच्छेदकत्वाभावे सर्वपरिच्छेदस्वभावत्वविरोधवत् । तदसत् । काले वर्तनाया १० अनुपचरितरूपेणासद्भावात् । यस्य हे सत्तान्येन वय॑ते तस्य सा मुख्या वर्तनात्र विवक्षिता । कर्मसाधनत्वात्तस्याः । कालस्य तु नान्येन सत्ता वय॑ते । स्वयं सत्तावृत्तिहेतुत्वादन्यथा नवस्थानुषंगात् । ततः कालभ्य स्वतो वृत्तिरेव । उपचारतो वर्तनात् । वृत्तिवतयोविभागाभावान्मुख्यवर्तनानुपपत्तेः । ननूपचरितवर्तनारूपवृत्त्यापि व्यभिचारो १५ दुर्निवारः । कार्यत्व सत्यप्यस्यां वहिङ्गनिमित्तत्वासंभवात् । तदयुक्तम् । अकालवृत्तित्वे सति कार्यवादिति सविशेषणस्य हेतोः सामर्थ्यादवसीयमानत्वात् । यथा पृथिव्यादयः स्वतोऽर्थान्तरभूतज्ञानवेद्याः प्रमेय .... दि ज्ञानं तन्मूर्तद्रव्यन्यतिरिक्तपदार्थनिबन्धनं तत्प्रत्ययविलक्षणत्वात् । २० सुखादिप्रत्ययवत् । यद्यपि दिग्लिङ्गाविशेषादियमेकैव तथापि प्रदक्षिमावर्तपरिवर्तमानमार्तण्डमण्डलमरीचिनिचयभुज्यमानकाञ्चनाचलकटकसंयोगोपाधिकृताः पूर्वापूर्वदक्षिणादक्षिणेत्यादयो दश प्रकाराः कल्पन्ते देवतापरिग्रहवशाच्च पुनरेव दिग्दशधा व्यपदिश्यते । ऐन्द्री आग्नेयी याम्या नैती वारुणी वायव्या कौबेरी ऐशानी नागीया ब्राह्मी चेति । २५ अत्रोच्यते । यत्तावदुत्तम् — मूर्तेप्वेव द्रव्येषु ' इत्यादि । तदसंगतम् ।
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः
परि. ५.८
यतोऽमी प्रत्ययाः कार्यभूताः सन्तः कारणमात्रस्यैवानुमापका: । न दिग्द्रव्यलक्षण कारणविशेषस्य । तत्र च सिद्धसाध्यता । तेषामाकाशलक्षणकारणपूर्वकत्वाभ्युपगमात् । तस्यैव दिगिति नामान्तरकरणे नाम्न्येव विवादो नार्थे । दिशस्ततो द्रव्यान्तरत्वासिद्धेः । न च दिग्द्रव्यासंभवे क प्राच्यादिव्यवहारः स्यादित्यभिधातव्यम् । आकाश - प्रदेशश्रेणिवेवादित्योदयादिवशात्प्राच्यादिव्यवहारोपपत्तेः । तथा चैषां न निर्हेतुकत्वं स्यात् । तथाभूतप्राच्यादिदिक्संबन्धाच्च मूर्तद्रव्येषु पूर्वापरादिप्रत्ययविशेषस्योत्पत्तेर्न परस्परापेक्षया मूर्तद्रव्याण्येव तद्वेतको
येनैकतरम्य पूर्वत्वासिद्धिः । तदसिद्धौ चैकतरस्य पूर्वत्यासिद्धिरितीत१० राश्रयत्वेन पूर्वापरप्रत्ययाभावः स्यात् । ननु मूर्तद्रव्येषु पूर्वादिप्रत्यय
स्याकाशप्रदेशश्रेणिहेतुत्वे आकाशप्रदेशश्रेणावपि तत्प्रत्ययम्य किं हेतुत्वं स्यादिति चेत् । स्वरूपहेतुत्वमेवेति त्रूमः । नत्प्रदेशपङ्क्तेः स्वपररूपयोः पूर्वापरादिप्रत्ययहेतुम्वरूपत्वात् । प्रकाशस्य स्वपररूपयो:
प्रकाशहेतुस्वरूपवत् । कथमन्यथा दिकप्रदेशेष्वपि तत्प्रत्ययोत्पत्तिः १५ स्यात् । तत्र हि पूर्वापरादिप्रत्ययोत्पत्तिः स्वभावतो दिन्द्रव्यान्तरांपे
शया परम्परापेक्षया वा स्यात् । यदि स्वभावतस्तदा तत्प्रत्ययपरावृत्तिन स्यात् । यत्र हि दिक्प्रदेशे पूर्वप्रत्ययहेतुत्वं तत्र तदेव नापरप्रत्ययहेतुत्वं स्यात् । यत्र च तन्न तत्र पूर्वप्रत्ययहेतुलमिति । अस्ति च तत्परावृत्तिः।
यत्र हि दिक्प्रदेशे विवक्षितप्रदेशापेक्षया पूर्वप्रत्ययहेतुत्वं दृष्टं तत्रैवा२. न्यप्रदेशापेक्षयाऽपरप्रत्ययहेतुत्वम् । तदाह
'प्राग्भागो यः मुराष्ट्राणां मालवानां स दक्षिणः ।
प्राग्भागः घुनरेतेषां तेषामुत्तरतः स्थितः ॥ इति । दिग्द्रव्यान्तरापेक्षया तत्र तत्प्रत्ययहेतुत्वेऽनवस्था। तत्रापि तत्प्रत्ययहेतुत्वस्यापरदिग्द्रव्यहेतुत्वप्रसंगात् । परम्परापेक्षया च तत्प्रदेशानां २५ तत्प्रत्ययहेतुत्वेऽन्योन्याश्रयानुषङ्गः । ' सवितुमरुप्रदक्षिणमावर्तमान
१ वै. द. प्र. पा. भा. पृ. २९ पं. ४ ।
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पूर्वादि
परि. ५ सु. ८ ] स्याद्वादरत्नाकरसहितः स्य' इत्यादिन्यायेन दिग्द्रव्ये प्राच्यादिव्यवहारोपपत्ता तत्प्रदशपङ्क्तिप्वप्यत एव तद्व्यवहारोपपतेरलं दिग्द्रव्यकल्पनया । अन्यथा देशद्रव्यस्यापि कल्पनाप्रसंगः । अयमतः पूर्वो देश इत्यादिप्रत्ययस्यापि देशद्रव्यमन्तरेणानुपपत्तेः । तथा च नव द्रव्याणीति द्रव्यसंख्याव्याघात : स्यात् । पृथिव्यादिरेव देशद्रव्यमित्यनुपपन्नम् । तस्य पृथिव्यादि. ५ प्रत्ययहेतुत्वेनायमतः पूर्वो देश इति प्रत्ययहेतुत्वानुपपत्तेः । अथ
.... .... शगुणेनापि प्रत्यक्षेण शब्देनानेकान्त इति चेत् । नेवम् । एतस्मिन्नाकाशगुणत्वस्य निषेत्म्यमानत्वात् । ततः परोक्षात्मधर्मा यदि बुद्धिस्तदानीमप्रत्यक्षव स्यात् । न च तथेति प्रसंगविपर्ययावतारः । तथा हि- यदस्मदादिप्रत्यक्षं न तद - १० त्यन्तपरोक्षगुणिगुणः । यथा घटरूपादि । तथा च बुद्धिरिति सिद्धं प्रत्यक्षेणैवात्मनोऽसर्वगतत्वम् । ननु नास्य प्रत्यक्षेण तथा प्रतीतियुक्ता । तम्य नियतदेशावच्छेदोल्लेखिशब्दप्रयोगानास्पदत्वात् । न ह्येतावति प्रदेशे समस्त्यात्मेति प्रत्यक्षमतिः कस्याप्युदेति । तदपि नोपपद्यते । शरीरमात्रेऽत्रात्मा मदीय इत्युल्लेखवता स्व. १५ संवेदनेन तत्प्रतीतिसद्भावात् । अस्तु वा नियतदेशोल्लेखिशब्दप्रयोगानास्पदत्वम् । तथापि कथं प्रत्यक्षेण तदनुभवः । न हि शब्दानुविद्धत्वं प्रत्यक्षम्य म्वरूपम् । येन तदभावे तम्यार्थस्वरूपविवेचकत्वाभावः स्यात् । तत्र तदनुविद्वत्वस्य प्रागेव कृतोत्तरत्वात् । अतोऽनुभवोत्तरकालीन एव सर्वत्र शब्दप्रयोगः । अनुभते ह्यनेकधर्माध्यासिते २० वस्तुनि यत्रांशेऽनुभवप्रबोधनिबन्धनं संकेतम्मरणमुपजायते तत्रैव शब्दप्रयोगो नान्यत्र तत्कथं तदप्रयोगातदनुभवाभावः। नियतदेशोल्लेखिशब्दाप्रयोगाद्देशनैयत्याननुभवे च कालाकारनैयत्यस्या - प्यननुभवः स्यात् । न हि घटस्य सुखित्वस्य च बहिरन्तः. प्रतीतौ देशकालाकारनैयत्योल्लेखिनामत्रेदानीमीदृशशब्दानां प्रयोगोऽ- २५ स्ति । अतोऽत्र प्रतीतो प्रतिनियतस्य वस्तुम्वरूपम्य कम्यचिदपि
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२००
प्रमाणनयतत्त्वालाकालङ्कारः
पिरि. ५ म. ८
प्रतिभासाभावात्वपुष्पप्रतीतितो नास्याः कश्चिद्विशेषः स्यात् । सत्त्वासत्त्वप्रतिभासकृतः सोऽत्रास्तीति चेत् । न । सदसच्छब्दयोरप्रयोगे तस्याप्यसंभवात् । अस्तु वासौ तथापि परमाण्वाकाशप्रतीतितः किंकृतोऽस्याविशेषः स्यात् । स्फुटत्वात्स्फुटत्वप्रतिभासकृत इति चेत् । ५ न । नियतदेशकालाकारग्रहणव्यतिरेकेण स्फुटत्वास्फुटत्वप्रतिभासस्यैवासंभवात् । ततः प्रत्यक्षप्रतीतेरितरप्रतीतितो विशेषमिच्छता देशादि नैयत्यप्रतिभासस्तच्छब्दाप्रयोगेऽप्युपे नव्यः । न च भवतापि शब्दानुविद्धमेव प्रत्यक्षं कक्षीचक्रे निर्विकल्पस्यापि प्रत्यक्षस्याभ्युपगमात् ।
इति सिद्धा प्रत्यक्षेणात्मनः सर्वगतत्वबाधा । अनुमानेनापि साम्त्येव । १० तथा हि--- नात्मा सर्वगतः क्रियावत्त्वात् । यदेवं तदेवम् । यथा
वायुस्तथा चायं तस्मात्तथेति । न चास्य क्रियावत्त्वमसिद्धम् । प्रत्य. क्षेणैव तत्प्रतीतेः । तथा हि- प्रत्यक्षेण सर्यो देशान्तरमायान्तमास्मानं प्रतिपद्यते । तथा च बदत्यहमद्य योजनमेकमागत इति । मनः
शरीरं वा समागतमिति चेत् । किं पुनस्तदहंप्रत्ययवेद्यम् । तथा १५ चेञ्चार्वाकमतानुषङ्गः । अथ यथा स्थूलोऽइमिति शरीरमात्रनिमित्तः ।
प्रत्ययस्तथागतोऽहमित्यादिरपीति चेत् । नन्वहं सुखीत्यादिरपि किं न तथा स्यात् । सुखस्यात्मनि संभवादात्मगोचर एवायमिति चेत् । गतिरप्यात्मनि संभवत्येवेति सोऽपि तन्निमित्त: किं न स्यात् । अथ नात्मा क्रियावान् , सर्वगतत्वात् , गगनवदित्यनुमानवाधितत्वात्तत्र गतेरसंभव एव । नैवम् । इतरेतराश्रयापत्त्या हेतोरत्रासिद्धत्वात् । सिद्धे हि तम्य क्रियावत्त्वाभावे सर्वगतत्वसिद्धिः । तत्सिद्धौ च क्रियावत्त्वाभावसिद्धिरिति सिद्धं प्रत्यक्षेणैव तत्र क्रियावत्त्वम् । अनुमानतोऽपि तसिध्यति । तथा हि- क्रियावान् , आत्मा, अन्यत्र द्रव्ये क्रियाहेतुत्वात् , समीरणवदिति । कालेन व्यभिचारान्न हेतुर्गमकोऽत्रेति चेत् । न ! कालस्य क्रियाहेतुत्वाभावात् । क्रियानिर्वर्तकत्वं हि क्रियाहेतुत्वमिह साधनम् । न पुनः क्रियानि
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पारे. '५ सू. ८
स्याद्वादरत्नाकरसहितः
मित्तमात्रत्वम् । तस्य काले सद्भावाभावान्न व्यभिचारः। कालो हि परिणामिनां निमित्तमात्रम् । स्थविरगतो यष्टिवत् । न पुनः क्रियानिवर्तकः पर्णादी पवनवत् । नात्मा शरीरादौ क्रियाहेतुः । निर्गुणस्यापि मुक्तस्य तद्धेतृत्वप्रसंगात् । प्रयत्नो धर्मोऽधर्मश्वात्मनो गुणो हि शरीरेऽन्यत्र चाव्ये क्रियाहेतुम्ततोऽसिद्धो हेतुरिति परेषामाशयो ५ न युक्तः । प्रयत्नस्य गुणत्वासिद्धेः । वीर्यान्तरायक्षयोपशमादिकारणादिना ह्यात्मप्रदेशपरिस्पन्दः प्रयत्नः क्रियैवेति स्याद्वादिभिः स्वीकारात् । धर्माधर्म योरपि पुद्गलपरिणामत्वसमर्थनान्नात्मगुणत्वम् । सन्नप्यसौ प्रयत्नादिरात्मगुणः सर्वथात्मनो भिन्नो न प्रमाणसिद्धोऽस्तीति निवेदितम् । कथंचित्तदाभिन्नस्तु शरीरादौ क्रियाहेतुरित्यात्मैव तद्रे- १० तुरुक्तः स्यात् । तथा च कथमसिद्धो हेतुः प्रयत्नवदात्मसंयोग एव शरीरादौ क्रियाहेतुरिति चेत् । मैवम् । एवमप्यम्य स्वाश्रयादात्मनः कथंचिदभेदेनात्मन एव क्रियाहतुवचनात् । भेदेऽपि क्रियावान् , आत्मा, तद्धेतुगुणाश्रयत्वात् , वायुवत् । इत्यनुमानात्तस्य क्रियावत्यमेव सिध्यति । गगनेन व्यभिचारोऽत्रेति चेत् । न । तस्य क्रियाहेतुगु- १५ णाश्रयत्वापिद्धेः । संयोगस्तद्धे नुस्तत्र गुणोऽस्तीति चेत् । नैवम् । तस्य तद्धेतुत्वासिद्धः । समीरसंयोग एव हि तृणादी क्रियाहेतुः । न पुनराकाशतृणादिसंयोगः । सर्वदा तत्सद्भावेन सदैव तत्र तदुत्पत्तिप्रसक्तेः । न च य एवं तृणादौ समीरसंयोगः स एवाकाशेऽस्तीति प्रतियोगि, संयोगस्य भेदात् । अथ यथौष्ण्यापेक्षया वह्निसंयोग: २० कुम्भादौ रूपादीपाक जाञ्जनयति न पुनः म्वाश्रये कृष्णवर्त्मनि तथात्मसंयोगोऽपि शरीरादौ क्रियाहेतुर्न त्वात्मनि स्वाधार इति चेत् । तदयुक्तम् । यतो यदि नामायं संयोगश्चाश्रये पाकजानजनयन्नान्यत्र ताञ्जनयति । तदा प्रस्तुते किमायातम् ! न हि चाषेण पञ्चाशद्भवति निदर्शनमात्रोपदर्शने हि क्रियाहेतुगुणाश्रयत्वहेतोर्न नाम मनागपि २५ त्र्याप्तिः खण्डयितुं पार्यते । अथ तन्य सक्रियत्वे लोष्टादिव मूर्त्यभि
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः
परि. ५ सू. ८
संबन्धः स्यात् । तत्र केयं मूर्ति म । असर्वगतद्रम्परिनाणं रूपादिमत्त्वं वा । तत्राद्यः पक्षः कक्षीकृतत्वान्न दोषावह: । द्वितीये तु नास्ति व्याप्तिः । न खलु सक्रियेण तथाविधमूर्तिमतेव भाव्यम । मनसानैकान्तिकत्वात् । तम्य रुपादिरहितस्यैव परैः स्वीकारात । ५ अथात्मन: सक्रियत्वे कुम्भादिवदनित्यत्वं स्यात् । तन्न । परमाणु
भिर्मनसा च व्यभिचारात् । किं च । अस्यामुत: कथंचिदनित्यत्वं प्रसज्यते । सर्वथा वा । यदि कथंचिन्न प्रसंगः । तथास्माभिरभ्युपगमात् । सर्वथा वनित्यत्वस्य घटादावप्यसिद्धत्वासाध्यविकलत्वं
दृष्टान्तस्य । किं च । आत्मनो निष्क्रियत्वे संसाराभावः म्यात । १० संसारो हि शरीरस्थ मनस आत्मनो वा भवेत् । न तावच्छरीरस्य ।
मनुष्यलोके भस्मीभूतम्य तम्यामरपुरादावगमनात् । नापि मनसः । निष्क्रियस्याम्यापि तद्विरहात । सक्रियत्वेऽपि क्रियायाम्तम्मादभेदे. तद्वन्नित्यत्वप्रसंगान्नाम्य कचित्क्षणमात्रमप्यत्रस्थानं स्यात् । भेदे
तु संवन्धासिद्धिः । समवायम्य निषेत्स्यमानत्वादन्यम्य चासंभवात् । १५ अचेतनं च मनोऽनिष्टनरकादिपरिहारेणाभिमते स्वर्गादो कथं प्रवर्तेत।
स्वभावत ईश्वरात्तदात्मनोऽदृष्टाद्वा । प्रथमपक्षे दत्तः सर्वत्र ज्ञानाय जलाञ्जलिः । द्वितीये तु शम्भुप्रतिषेध एव समाधानम् । को वायमीश्वरस्याग्रहो यतस्तत्प्रेरयति न तदात्मानम् । आत्मप्रेरणा बेदमप्यनु.
गृहीतं भवति । २० . अज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः ।
ईश्वरप्रेरितो गच्छेत्स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा ।।' इति । तृतीये तु ज्ञातमज्ञातं वात्मना मनः प्रर्यत । न ज्ञातम् । जन्तुमात्रम्य तत्परिज्ञानाभावात् । नाप्यज्ञातम् । अज्ञातस्य बाणादिवत्प्रेरणासंभवात् । ननु स्वप्ने हम्त्यादयोऽज्ञाता एवं प्रेर्यन्ते ।
१ महाभा. व.प. अ. ३० श्लो. २८१ २ अयं पाठ: प्र. के. मार्तण्डेऽस्ति । मूले त 'न तु' इत्यसंगतमस्ति ।।
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परि. ५ सू. ८] स्याद्वादरत्नाकरसहितः तदनुचितम् । अहितपरिहारेण हिते प्रेरणासंभवात् । ज्वलज्ज्वलनज्वालाजालेऽपि तदा हम्नादिप्रेरणोपलम्भात् । चतुर्थपक्षोऽपि न साधीयान् । अचेतनम्यादृष्टस्यापि तत्प्रेरकत्वायोगात् । तत्प्रेरितस्यात्मन एव वरं प्रवृत्तिरस्तु । चेतनत्वात्तस्य । दृश्यते हि वशीकरणौषधसंयुक्तस्य चेतनस्यानिष्टग्रहगमनपरिहारेण विशिष्ट ग्रहगमनम्। ५ तन्न मनसोऽपि संसारः । आत्मनस्तु स्यात् , यद्येकदेहपरित्यागेन देहान्तरमसौ बजेदिति सिद्धमात्मनः क्रियावत्त्वम् । ततोऽपि चासर्वगत्वमिति । यत्पुनरात्मनो विभुत्वसिद्धावभिधीयते । देवदत्तं प्रत्युपसर्पन्तः पश्चादयो देवदत्तविशेषगुणाकृष्टाः संप्रत्युपसर्पणत्वाद्धासादिवत् । त्रासो हि देवदत्तं प्रत्युपसर्पन्देवदत्तविशेषगुणेन प्रयत्न- १०. रूपेणाकृष्यमाणो दृष्टः । ततः पश्चादयोऽपि तथैव युक्ता इति तदाकृष्टिहेतोगुणस्य सिद्धिः । न वा प्राप्तानां तेषां तेन गुणेनाकर्षणं संभवतीति तैस्तद्गुणस्य प्राप्तिसिद्धिः । तथा देवदत्ताङ्ग नाङ्गादिकं, देवदत्तगुणपूर्वकम्, कार्यत्वे सति तदुपकारकत्वात् , प्रासादिवत् । कार्यदेशे च सन्निहितं कारणं कार्यजन्मनि व्याप्रियते नान्यथा । १५ अतिप्रसंगात् । अतस्तदङ्गनादिकायप्रादुर्भावदेशे तत्कारणजनन्यादिवद्देवदत्तगुणसिद्धिः । यत्र च गुणाः प्रतीयन्ते तत्र तद्गुण्यप्यनुमीयते । तमन्तरेण तेषामनुपपत्तेः । स्वाश्रयसंयोगापेक्षाणां गुणानामाश्रयान्तरे कर्मारम्भकत्वोपपत्तेश्च । तथा हि- अदृष्टं स्वाश्रयसंयुक्त आश्रयान्तरे कारभते । एकद्रव्यत्वे सति क्रियाहेतुगुणत्वात्प्रयत्न- २० वत् । न चास्य क्रियाहेतुगुणत्वमसिद्धम् । अग्नेरूद्धज्वलनं वायोस्तिर्यक्पवनम् , अणुमनसोश्चाद्यं कर्म, देवदत्तविशेषगुणकारितं, कार्यत्वे सति तदुपकारकत्वात् , पाण्यादिपरिस्पन्दवदित्यनुमानतस्तसिद्धेः । नाप्येकद्रव्यत्वमसिद्धम् । एकद्रव्यमदृष्टं विशेषगुणत्वाच्छब्दवत्, इत्यतस्तसिद्धेः । एकद्रव्यत्वादित्युच्यमाने रूपादिभिर्व्यभि- २५ चारः । तन्निरासार्थ क्रियाहेतुगुणत्वादित्युक्तम् । अम्मिन्नेवाभिधीयमाने
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२०४
प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः
[ परि. ५ सु. ८
तु करमुसलसंयोगेन स्वाश्रयासंयुक्तस्तम्भादिक्रियाहेतुनाऽनेकान्तः । तन्निरासार्थमकद्रव्यत्वे सतीति ।
तदेतदफलं सर्वमूषरे कृषिकर्मवत् ।
निर्निमेषपरीक्षारख्यचक्षुषा लक्ष्यते बुधैः ।। ६६५ ॥ तथा हि--
. शरीरमात्मा तद्योगः शरीरं युक्तमात्मना । आत्मा शरीरसंयुक्त आत्मांशो वा तथाविधः ॥ ६६६ ॥ देवदत्तध्वनेवांच्यप्रयोग प्राचि कथ्यते । इत्युग्राभ्येति षड् दी षण्मुखस्येव षण्मुखी ।। ६६७ ।। शरीरं चेत्तदा सिध्येत्तदेव व्याप्तिमत्तव । नात्मा तथा च जातोऽयं पिपासोः पावकागमः ॥ ६६८ ॥ अथात्मा तन्न नित्यत्वव्यापिल्लाभ्यामयं यतः । आकृष्यमाणवस्तूनां विद्यते देशकालयोः ॥ ६६९ ॥ न चामूदृशमात्मानं प्रति कम्यारि सर्पणम् । युज्यतेऽत्यन्तमाश्लिष्टं यथा मातुः शिशुं प्रति ॥ ६७० ॥
तथा हिं-- अर्थोऽन्यदेशोऽपरदेशमर्थं प्रति प्रयातीह यथा शरादिः । यद्वान्यकालोऽपरकारमेनं यथा घटादीन्प्रति मृत्तिकादिः ।। ६७१।।
एवं च यत्प्रोक्तमिहानुमाने विशेषणं धर्मिणि यच्च साध्यम् । २० यश्चापि हेतुः सकलं तदेतत्परस्य यज्ञे स्वविकल्पमात्रम् ॥ ६७२ ।।
गापि तन्त्वात्मसंयोगपक्षः संगतिमङ्गति । यतो गुणस्वरूपोऽयमिष्यते कणभुक्सुतैः ।। ६७३ ।। युक्तो गुणो न चैकस्मिन्गुणानां निर्गुणत्वतः । पश्वाद्याकृष्टिकृत्तस्मिन्नदृष्टं तत्कुतो भवेत् ।। ६७४ ।। चतुर्थपञ्चमौ पक्षौ प्रतिक्षेप्यौ यथा पुरा । प्रतिक्षिप्तो पुरश्चारिद्वैतीयीकाविमौ स्फुटम् ।। ६७५ ॥
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परि. ५ सू. ८]
स्याद्वादरत्नाकरसहितः
षष्ठप्रकारे पुनरात्मनोंऽशः
सतात्त्विकः स्याकिमतात्त्विको वा । अतात्त्विकश्चेत्कथमत्र सिध्ये
न तात्त्विको नैव भवेद्गुणः सः ।। ६७६ ॥ तादृशांशगुणनिर्मिता ततः
प्रेत्यतापि परिकल्पिता भवेत् । कल्पिताग्निनरनिर्मिता क्वचि.
त्तात्त्विकी किमिह तिग्मतास्ति भोः ॥ ६७७ ।। स्वीकृतं हन्त वैशेषिकेण त्वया
व्यक्तमेवं च ताथागतं दर्शनम् । आत्मसक्तः प्रदेशस्ततोऽतात्त्विकः
कीर्त्यमानः कथं कर्तिये कल्पताम् ॥ ६७८ ॥ तात्त्विकश्चेदभिर्नोऽथवा भेदवा
न्स्यादयं तावदाद्यो न पक्षः क्षमः । प्राक्तनात्मप्रकारप्रतिक्षेपकृत्
स्पष्टनिष्टाकिताशेषदोषाप्तितः ॥ ६७९ ॥ भिन्नं तं चेदाश्रयेथास्तदानीं
पश्वादिः स्यात्तगुणाकृट एव । एवं चैतस्यैव सत्यात्मभावे
किं कर्तव्यं भोस्तदन्येन पुंसा ॥ ६८० । २० अपि च । शरीरसंयुक्तात्मप्रदेशस्य देशान्तरवर्तिपश्चादिना प्राप्तेरसंभवात् । न चाप्राप्तानां तेषां तेन गुनाकर्षणं संभवतीति प्रागुक्तं न्याहन्यते । प्राप्तिसंभवे वा प्रदेशस्यापि व्यापकत्वात्कथं तं प्रति पश्चादेरुपसर्पणं स्यादिति प्रागुक्त एव दोषः । अथ तस्यापि देशस्थापरः प्रदेशः कोऽपि देवदत्तशब्दवाच्यस्तार्ह तत्रापि तदेव २५
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः परि. ५ स. ८ दूषणमित्यनवस्था । अपि चात्मनः सकाशात्प्रदेशम्य भिन्नत्वे कथं तस्यायमिति व्यपदेशः । तेषु वर्तमानाच्चेत्तदाऽवयविपक्षनिक्षिप्ताशेषदूषणानुषङ्गः । अवयविवद्विनाशितापत्तेश्च परलोकाभावः स्यात् । तन्न देवदत्तशब्दवाच्यः कश्चित्परस्य घटते यं प्रत्युपसर्पणवन्तः ५ पश्चादयः स्वाकर्षणकारणस्य गुणत्वं साधयेयुः । आकर्षणकारणत्वेन
च संमतो देवदत्तात्मगुणः किं ज्ञानदर्शनादिरदृष्टं वा स्यात् । प्रथमपक्षे कालात्ययापदिष्टो हेतुः । ज्ञानादीनां पश्चाद्याकर्षणे व्याप्रियमाणानां तदेह एव प्रत्यक्षादितः प्रतीतेः । अथादृष्टं तर्हि तदाकर्षण
सन्निमित्तमम्माभिरपीष्यत एव । तदात्मगुणत्वं तस्य प्रमाणवाधित२० मित्यग्रे दर्शयिष्यते । अस्तु वा तस्यात्मगुणत्वं तथापि देवदत्तशरीर
संयुक्त आत्मप्रदेशे वर्तमानमदृष्टं देशान्तरवर्तिपश्वादिषु देवदत्तं प्रत्युपसर्पणवत्सत्क्रियाहेतुरुत देशान्तरवर्तिपश्वादिसंयुक्तात्मप्रदेशे किं वा सर्वत्र । तत्राद्यपक्षो न श्रेयान् । अतिव्यवहितत्वेन तत्रास्य प्राप्ते
रभावादाकर्षणहेतुत्वासंभवात् । अथ स्वाश्रयसंयोगसंबन्धसंभवात्तद१५ भावोऽसिद्धः । तदसत् । तस्य सर्वत्र सद्भावतः सर्वस्याकर्षणप्रसक्तः ।
यददृष्टेन यजन्यते तददृष्टेन तदेवाकृष्यते । न सर्वमित्यवद्यम् । देवदत्तोपभोग्यपश्चादिशरीरारम्भकपरमाणूनां नित्यत्वेन तददृष्टाजन्यतयाकर्षणाभावप्रसंगात् । तथाप्याकर्षणेऽतिप्रसंगः । अथ यदेव योग्यं
तदेवाकृष्यते । तदवद्यम् । स्वरूपसहकारित्र्यतिरिक्ताया योग्यताया२० स्त्वयानभ्युपगमात् । तस्याश्च विवक्षिताकृष्यमाणपदार्थवदविवक्षितेऽ
पि भावात् । द्वितीयपक्षेऽपि यथा वायुः स्वयमुपसर्पन्नन्येषां तृणादीनां तं प्रत्युपसर्पणहेतुः । तथाऽदृष्टमपि स्वयं तं प्रत्युपसर्पदन्येषामुपसर्पणहेतु देशान्तरवर्तिद्रव्यसंयुक्तात्मप्रदेशस्थमेव शब्दवत्प्रतिक्षणमन्य
दन्यच्चोत्पद्यमानं वा । प्रथमपक्षे सक्रियत्वेनादृष्टस्य वायुवव्यत्वापत्त्या २५ गुणत्वं बाध्येत । किं च । इदं स्वयमेव तं प्रत्युपसर्पत्यदृष्टान्तराद्वा ।
स्वयमेवाम्य तं प्रत्युपसर्पणे देशान्तरवर्तिपश्चादीनामपि तथैव तत्प्रसं
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परि. ५ स. ८ ] स्याद्वादरत्नाकरसहितः गाढदृष्टकल्पनावैफल्यम् । तं प्रत्युपसर्पणवत्त्वादिति हेतुश्च सव्यभिचार: । अदृष्टान्तरात्तस्य तं प्रत्युपसर्पणेऽनवस्था । तस्याप्यदृष्टान्तगत्तं प्रत्युपसर्पणप्रसंगात् । अथ देशान्तस्वर्तिपश्वादिसंयुक्तात्मप्रदेशस्थमेव तत्तेषां तं प्रत्युपसर्पणहेतु । नैवमन्यत्र प्रयत्नादौ गुणे तथानभ्युपगमात् । न खलु प्रयत्नो ग्रासादिसंयुक्तात्मप्रदेशस्थ एव ५ ग्रासादेदेवदत्तमुखं प्रत्युपसर्पणहेतुः । अन्तरालप्रयत्नवैफल्यप्रसंगात् । अथ प्रयत्नवैचित्र्यदृष्टेरदृष्टेऽप्यन्यथाकल्पनम् । तथा हि- कश्चित्प्रयत्नः स्वयमपरापरदेशवानपरत्र क्रियाहेतुः । यथानन्तरोदितोऽ. घरश्चान्यथा यथाशरासनाध्यासस्थानसंयुक्तात्मप्रदेशस्थ एवं शरादीनां लक्षप्रदेशप्राप्तिक्रियाहेतुरिति चेत् । तीयं विचित्रता पश्चादिसमा- १० कर्षणहेतुभूतगुणानां स्वाश्रयसंयुक्तासंयुक्तपश्चाद्याकर्षणहेतुत्वेन किं नष्यते । विचित्रशक्तित्वाद्भावानाम् । तथा दर्शनाभावादिति न वाच्यम् । अयस्कान्तस्पर्शगुणस्य स्वाश्रयासंयुक्तलोहद्रव्यं प्रत्याकर्षणदर्शनात् । अथात्र द्रव्यमाकर्षणकारणं न म्पर्शगुणो द्रव्यरहितस्य तस्याकृष्टिहेतुल्लादर्शनात् । एवं तर्हि तत एव प्रयत्नस्यापि न ग्रासा- १५ छाकर्षणनिमित्तता स्यात् । तथा च ग्रासादिवदिति दृष्टान्तः साध्यविकलो भवेत् । अथ द्रव्यस्य तत्र कारणत्वे प्रयत्नरहितस्यापि तत्प्रसक्तिरिति चेत् । म्पर्शरहितस्यायस्कान्तस्यापि किं न तत्प्रसक्तिः। तद्रहितस्य तम्यादृष्टे यं दोष इति चेत् । दृष्टिश्चेत्प्रमाणं तहिं लोहद्रव्याकर्षणोत्पत्तावुभयं दृश्यत इत्युभयमपि तत्तत्र कारणमस्तु । विशे- २० पामावात् । तथा च तं प्रत्युपसर्पणवत्त्वादिति व्यभिचारी हेतुः । तृतीयपक्षेऽपि शब्दवदपरापरस्योत्पत्तावपरमदृष्टं कारणं तदुत्पत्ती प्रसक्तं तत्राप्यपरमित्यनवस्था । अन्यथा शब्देऽपि किमदृष्टलक्षणनिमित्तपरिकल्पनया । अथ सर्वत्रादृष्टस्य वृत्तिस्ताहि सर्वद्रव्यक्रियाहेतुत्वम् । यददृष्टं तद्व्यमुत्पादयति । तत्तत्रैव क्रियामुपरचयतीत्य- २५ भ्युपगमे शरीरारम्भकेषु परमाणुषु क्रिया न स्यादिति प्रागेवोक्तम् ।
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. ५ स. ८ किं च । यथा तद्विशेषगुणेन प्रयत्नाख्येन समाकृष्टास्तं प्रत्युपसर्पन्तो प्रासादयः समुपलभ्यन्ते तथा नयनाञ्जनादिद्रव्यविशेषेणापि समाकृष्टाः स्त्र्यादयस्तं प्रत्युपसर्पन्तः समुपलभ्यन्त एव । ततः किं प्रयत्नसधर्मणा केनचिदाकृष्टाः पश्चाद्य उत नयनाञ्जनादिसधर्मगेति ५ संदेहः । शक्यं ह्येवमनुमानं रचयितुं परेणापि, नयनाञ्जनादिसधर्मणा, विवादगोचरचारिणः पश्वादयः समाकृष्टा देवदत्तं प्रत्युपसर्पन्ति तं प्रत्युपसर्पणवत्त्वाद्वनितादिवत् । अथ तदभावेऽपि प्रयत्नादप्युपसपणदृष्टेरनै कान्तिकत्वमस्य प्रयत्नसधर्मणो गुणस्याभावेऽप्यञ्जनादेरपि
तद्दष्टेस्त्वदीयहेतोरपि किं नानै कान्तिकत्वम् । अथाञ्जनादावनुमीय१० मानस्य प्रयत्नसधर्मणोऽदृष्टाख्यस्य हेतोः सद्भाबादव्यभिचासे, अन्य
त्राप्यञ्जनादिसधर्मणोऽजुमीयतानस्य सद्भावेनाव्यभिचार एव । तत्र प्रयत्नसामर्थ्याददृष्टस्य वैफल्येऽन्यत्राप्यञ्जनादिसामर्थ्यात्तद्वैफल्य समानम् । अथाञ्जनादेरेव तद्धेतुत्वे सर्चस्याञ्जनादिमतः स्याद्याकर्षण
प्रसक्तिः । न चाञ्जना दौ सत्यप्यविशिष्टे तद्वतः सर्वान्प्रति तदाक१५ र्षणमवसीयते । ततो यद्वैकल्यात्तन्नाकृप्यते तदपि कारणं नाञ्जनादि
मात्रमिति । तदेतत्प्रयत्नकारणेऽपि समानम् । न हि सर्व प्रयत्नवन्तं प्रति ग्रासादय उपसपन्ति । तदपहारादिदर्शनात् । ततोऽत्राप्यन्यत्कारणमनुभीयताम् । अन्यथा न प्रकृतेऽप्यविशेषात् । ततः प्रयत्न
वदञ्जनादेरपि तं प्रति तदाकर्षणहेतुत्वात्कथं न संदेहः । अञ्जनादे २० स्त्र्याधाकर्षणं प्रत्यकारणत्वेन तदर्थिनां तदुपादानं स्यात् । न च
दृष्टसामर्थ्यस्याप्यञ्जनादेः कारणत्वाभावक्लतिपरिहारेणान्यकारणत्वकल्पने भवतोऽनवस्थामुक्तिः । अथाञ्जनादिकमदृष्टसहकारि तत्कारणं न केवलमिति । नन्वेवं सिद्धम् । अदृष्टवदञ्जनादेरपि तत्र कारणत्वं
ततः संदेह एव । किं ग्रासादिवत्प्रयत्नसधाकृष्टाः पश्चादयः किं वा २५ स्यादिवदञ्जनादिसधर्मणा देवदत्तसंयुक्तेन द्रव्येणेति संदिग्धं तं प्रत्यु
पसर्पणवत्त्वादित्येतत्साधनम् । सपरिम्पन्दात्मप्रदेशमन्तरेण ग्रासा
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परि. ५.८ ]
स्याद्वादरत्नाकरसहितः
द्याकर्षण हेतोः प्रयत्नस्यापि देवदत्तविशेषगुणस्य परं प्रत्यसिद्धत्वात् । साध्यविकलता चात्र दृष्टान्तस्य । एतेन देवदत्ताङ्गनाङ्गादिकमित्यपि प्रत्युक्तम् । उक्तदोषाणां तुल्यत्वात् । यतूक्तं ' अदृष्टं स्वाश्रयसंयुक्त आश्रयान्तरे कर्मारभते ' इत्यादि । तत्र हेतोः कालात्ययापदिष्टत्वम् । प्रत्यक्षबाधितपक्षानन्तरप्रयुक्तत्वात् । प्रत्यक्षेण हि देशान्तरवर्तिदेव - ५ दत्ताङ्गनाङ्गमणिमौक्तिकादिभिरसंयुक्त एवात्मानुभूयते । अथानेनैवानुमानेन प्रत्यक्षं बाधिष्यत इति कुतस्तत्रापि प्रकृतदोषावकाशः स्यात् । अथानन्यथासिद्धं तत्र प्रत्यक्षमिति तेनैवानुमानं बाध्यते । तर्हि प्रकृतेऽपि तदेवमेवेति तेनैवानुमानं बाध्यताम् । अथ तावत्यात्मप्रदेशे प्रत्यक्षप्रमासमवायात्तथा प्रतीतिः । नैवम् । आत्मनो निर्देशस्य त्वया १० स्वीकारात् । कल्पितत्वे तु प्रदेशस्य सर्वथा प्रतीत्युत्पत्तिरेव न स्यात् । कल्पितामौ माणवके पावकादिवत् । न च समवायः प्रतीतौ कारणं कुम्भादावसमवेताया अपि प्रत्यक्षप्रमायास्तत्प्रत्यायकत्वात् । अथेन्द्रियार्थसन्निकर्षेण तद्विषयतया प्रत्यक्ष प्रमोत्पादना कुम्भादिप्रतीतिः । नन्वेवं ब्रुवता त्वया स्वयमेव समवायस्य १५ प्रतीतौ कारणत्वमपन्हुतम् । किं च एवमप्यात्मनः संनिकर्षेणात्मगोचरतया प्रत्यक्ष मोत्पादनात्कथं न व्याप्यात्मप्रतीतिर्जायते । ननु प्रदेश वृत्तिरेवात्ममनः संनिकर्ष इति तत्रैव तामुत्पादयितुमीशस्तर्हि कुम्भाद्यवयविन्यपि परिपूर्णप्रत्यक्षं मोत्यादि । सर्वं सर्विकया संनिकर्षस्य तत्राप्यभावात् । मध्यपरभागावस्थितावयविना नयन- २० रश्मीनां संयोगाभावात् । तस्मात्तावन्मात्रादेवात्मनस्तथा प्रत्यक्षोत्पतिरिति सिद्धं हेतोः कालात्ययापदिष्टत्वम् । विशेष्यासिद्धत्वं च । अष्टे पोद्गलिकत्वप्रतिपादकप्रमाणस्य चक्ष्यमाणत्वात् गुणत्वात् सिद्धेः । तेनैव च प्रमाणेन बाधितपक्षत्वादद्मेरूर्ध्वज्वलनमित्याद्यनुमानमपि नोत्थातुं शक्तम् । कार्यत्वे सति तदुपकारकत्वादितिहेतु- २५ श्राञ्जनतिलकादिसामर्थ्यसमाकृष्यमाणकामिनीप्रमुखपदार्थैर्यभिचारी |
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः परि. ५ स. ८ देवदत्तविशेषगुणकारितमित्यत्र च विशेषशब्दस्य वैयर्थ्यम् । देवदत्तगुणकारितमित्येतावतैवादृष्टस्य क्रियाहेतुगुणत्वसिद्धेः । विशेषणासिद्धत्वं चास्य हेतोर्यत एकद्रव्यत्वमेकस्मिन्द्रव्ये समवायित्वमुच्यते । तच्चायुक्तम् । समवायस्य निषेत्स्यमानत्वात् । यतूक्तं ५ ' नाप्येकद्रव्यत्वमसिद्धमेकद्रव्यमदृष्टं विशेषगुणत्वाच्छब्दवत् ' इति तत्रादृष्टशब्दयोः पौगलिकत्वेन साधयिष्यमाणत्वाद्धेतोरसिद्धिः । दृष्टान्तस्य साधनवैकल्यं च । एकद्रव्यत्वस्यकत्र द्रव्ये समवायरूपस्य शब्दे प्रसिद्धेः । गुणरूपम्य चास्य सतः क्रियाहेतुत्वं किं देवदत्त.
शरीरसंयुक्तात्मप्रदेशे द्वीपान्तरवर्ति .... .... .... .... १. नत्वात्कलशादिवत् । न हि कलशादिरचेतनात्मको ज्ञाताहमिति
प्रत्येति । चैतन्ययोगाभावादसौ न तथा प्रत्येतीति चेत् । न । अचेतनस्यापि चैतन्ययोगाच्चेतनोऽहमिति प्रतिपत्तेनिरस्तत्वात् । एवं चात्मा स्यादभिन्नः स्वबुद्धेः संसिद्धोऽयं शुद्धयुक्तिप्रसादात् । हंहो तस्माद्योगपक्षप्रवीणा: कक्षीकार्य नात्र जाडयं कदाचित् ।।६८१॥ १५ ये तु सौगतमतावलम्बिनः शेमुपीक्षणकदम्बकात्पृथक ।
नाभ्यमंसत पुमांसमग्रतस्तत्पराकरणमातानिप्यते ॥ ६८२ ॥ मनस्यपि विप्रतिपत्तित्रयम् । नित्यत्वे निरंशत्वेऽगुपरिमाणत्वे च ।
___ तत्र नित्यत्वं प्रोक्तश्या निरसनीयमनुदिशा । विज्ञानवादातिरिक्तं पुरुषमनङ्गीकुर्वतां बौद्धानां ननु कथमस्य नित्यत्वनिरासः । तथा हि-मनो
वजन नित्यमस्पर्शत्वाद्वयोमवदित्यतस्तन्नित्यमेव सिध्यति । तदसत् । यस्मादतः कथंचित्सर्वथा वा तन्नित्यत्वं साध्येत । प्रथमे सिद्धसाधनम् । द्वितीये साध्यविकलो दृष्टान्तः । सर्वथा नित्यत्वस्य व्योमन्यप्यसिद्धेः । अथास्थानित्यतायामारम्भकं कारणं
विजातीयं सजातीयं वा भवेत् । न विजातीयम् । तस्यारम्भकत्वा. २५ संभवात् । विजातीयानां नारम्भकत्वमित्यभिधानात् । नापि सजाती
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परि. ५ सू. ८ ] स्याद्वादरत्नाकरसहितः यम् । यतो मनःप्रादुर्भावे कारणभूतानेकमनःसद्भावप्रसक्तिरेकस्य द्रव्यान्तरोत्सत्तावकारणत्वात् ' द्रव्याणि द्रव्यान्तरमारभन्ते' इति वचनात् । न चैत्र शरीरेऽनेकमनःसद्भावोऽस्ति । प्रतिशरीरमेकैकतया मनसां स्थितत्वात् । अन्यथा प्रतिशरीरं युगपदेव रूपादिज्ञानोत्पतिः म्यात् । न च प्रतिनियतशरीरावरुद्धत्वेनान्योन्यं कारणा- ५ भिमतमनसा संयोगः संभवति । नाप्यसंयुक्तानां मनोजनकत्वं तेषामतिप्रसक्तेः । अथ मुक्तमनसां तदवरुद्धत्वाभावतः परस्परं संयोगसंभवात्तजनकत्वमिप्यते । तदसंबद्धम् । धर्माधर्माधिष्ठिताना तेषां तजनकत्वानुपपतेः । अतोऽन्य कार्यत्वानुपपत्तेनित्यतव श्रेय. सीति । तद्युक्तम् । यतो यदि मन आरम्भकाणां मनस्त्वेनैव सजा- १० तीयत्वमभिधीयते तदा तन्तुपटादीनामपि कार्यकारणभावो न स्यात् । तेषामन्योन्यासंभव्यवान्तरसामान्याधारतया तदपेक्षया सजातीयत्वासंभवात् । न हि तन्तुत्वापेक्षया पटम्य फ्टत्वापेक्षया तन्तूनां चा सजातीयत्वमस्ति । अथ पृथिव्यादिमपेक्ष्य त्रसजातीयत्वमुच्यते तर्हि तद्पेक्षया यथा तन्तुपटादीनां सजातीयत्वसंभवात्कार्यकारणभावम्तथा २५ पुद्गलद्रव्यापेक्षयाण्वादिना मनसः सजातीयत्वसंभवात्स स्यादविशेपात् । न च मनसः पौद्गलिकत्वमसिद्धम् । अनुमानात्तत्सिद्धेः । तथा हि-विवादास्पदं मनः पौगलिक द्रव्येन्द्रियत्वान्नयनादिवत् । ननु नयनादीनां प्रतिनियत रूपादिप्रकाश रुतमा प्रतिनिघतभून कार्यता निर चाथि । मनसस्त्वविशेषतः सकलरूपादिप्रकाशकतमा तत्कार्य-२० त्वासंभवात्कथं नयनादिइष्टान्तेन तय पुदल कार्यत्वं भवदित्यपि दुराशामात्रम् । प्रतिनियतभूत .... .... .... .... .... .... .... .... .... द्विशरारुतां सः ॥
यदप्पयादि गुण याभिसंबन्धेन द्यावी अगवान् । संयोगविभागेष्वकारणम नपेक्ष इत्यनेन वा लागेन ' इत्यादि । तत्र गुण-२१ स्वाभिसंबन्धस्तावगुणलक्षणं द्रव्यत्याभिसंबन्धव पराकरणीयः ।
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः
परि. ५ मू. ८
द्रव्याश्रयीत्यादि पुनरित्थं तज्ज्ञापयति । द्रव्यं तूभयथा । द्रव्याश्रितमनाश्रितं च ! तथा सर्वं कर्म । आत्रेयो व्याख्यातवान्– 'नित्यमस्याश्रयः पारतन्त्र्यं द्रव्ये ' इति द्रव्याश्रयी । द्रव्याश्रयीत्यतिशायने मत्वर्थीयः । तेनैतव्याश्रितम् । न तु सर्वव्याश्रितमाकाशकालदिगात्मनामक्रियत्वात् । गुणा अस्य सन्तीति गुणवान् न गुणवान् अगुणवानित्यनेन द्रव्याद्वैधयं दर्शयति । संयोगाश्च विभागाश्च संयोगविभामाः । तेषु संयोगविभागेष्वकारणं किं सर्वथा । न । किं तीनपेक्षः । किमुक्तं भवति । सापेक्षः कारणमिति । किं सर्वो गुणो
न किं तर्हि संयोगविभागावेव । कथं संयोगस्तावत्संयोगे कर्तव्ये १० द्रव्योत्पत्तिमपेक्षते । कस्मात् । संयोगजसंयोगसमवायिकारणत्वा:
कार्यद्रव्यम्य । तथा हि-तन्त्वोराकाशेन सह यः संयोगः स द्वितन्तुकाकाशसंयोगे कर्तव्ये द्वितन्तुकलक्षणस्य तन्त्वोः कार्यद्रव्यस्योत्पत्तिमपेक्षते । तथा कारणयोवंशदलयोविभागोऽपि स किं यम्य वंशदल
स्याकाशदेशेन विभागमभिनिर्वतयिष्यन्वंशविनाशमपेक्षते । कस्मात् । १५ अविनष्टेऽस्वातन्त्र्यात् । स्वतन्त्रावयववृत्तिर्हि विभागो विभागमारभते
न तु कार्यवद्द्यवयववृत्तिरिति । व्यवच्छेद्यव्यवच्छेदकभावं च विशेषणानामेवं निरदीदिशत् । द्रव्याश्रयी गुण इत्येतावदस्तु । मा भूदगुणवान् । संयोगविभागेष्वकारणमिति । न कार्यद्रव्ये प्रसंगात् ।
कार्यद्रव्यमपि द्रव्याश्रयि न च गुण इति तद्व्यवच्छेदार्थमगुणवानि२० त्यन्यगुणवान् । गुण इत्येतावदस्तु । माभूपाश्रयी संयोगवि
भागेष्वकारणमिति । न । कर्मत्वे प्रसंगात् । कर्मत्वमप्यगुणवत् । न च तद्रुण इति तब्यवच्छेदार्थ द्रव्याश्रयीति । द्रव्याश्रयी अगुणवान्गुण इत्यस्तु, मा भूत्संयोगविभागेष्वकारणामिति । न । कर्मणि
प्रसंगात् । कर्मापि द्रव्याश्रयि अगुणवत् । न च तद्गुण इति २५ तद्व्यवच्छेदार्थं संयोगविभागेप्वकारणमिति । संयोगविभागे
प्वकारणम्, इत्येतावदस्तु मा भूहव्याश्रयी अगुणवा
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परि. ५ सू. ८ स्थाद्वादरत्नाकरसहितः निति । कस्मात् । द्रव्यकर्मणोविभागसंयोगकारणत्वात् । कर्म खलु स्वाश्रयमाश्रयान्तराद्विभज्याश्रयान्तरेण संयोजयतीति द्रव्यकर्मणोविभागसंयोगकारणत्वं तद्विपरीतः संयोगविभागेष्वकारणं गुण इत्युक्ते न कचित्प्रसंगः । तस्माद्व्याश्रयी अगुणवानिति नाभिधेयमिति न हेतुः । विशेषणार्थत्वाव्याश्रयीत्यभिधानस्य । द्रव्याश्रयीत्य- ५ भिधानं हेतुविशेषणार्थमुपादीयते । कथं यथा गम्येत रूपादयः केनचिजा .... .... .... .... .... .... .... .... .... ....प्रकृतत्वात् । अथानेन सविशेषणेनानुमानेन गुणत्वसामान्य रूपादिषु प्रसाध्य तद्विशिष्टानां तेषां संयोगविभागेप्चित्यादिलक्षणमाख्यायत इति चेत् । तदचतुरस्रम् । यतो यद्यमुनोऽनुमाना- १० गुणत्वेन प्रसिद्धा रूपादयस्तदा किमपरेण सिद्धोपस्थायिना लक्षणेन कर्तव्यम् । यच्चोक्तम् ' अगुणवानिति स्वरूपोपवर्णनमेतत् ' इत्यादि तत्रेदानी बहुतरमस्य स्वरूपमुपवर्णनीयं भवेदद्रव्यत्वमकर्मत्वमविशेषत्व. मित्यादीति न किंचिगुणलक्षणमुपपद्यते । येऽप्यमी तल्लक्ष्यभूता रूपरसगन्धम्पर्शसंख्यापरिमाणपृथक्त्वसंयोगविभागपरत्वापरत्वनुद्धिमुख- १५ दुःखेच्छाद्वेषप्रयत्नगुरुत्वद्वत्वस्नेहसंस्कारधर्माधर्मशब्दस्वरूपाः ‘रूपरसगन्धस्पर्शाः संख्याः परिमाणानि पृथक्त्वं संयोगविभागों परत्वापरत्वे बुद्धयः सुखदुःखे इच्छाद्वेषौ प्रयत्नाश्च गुणाः' इति कणादवचनात् । 'चकारेण येऽत्रानुक्ता गुणत्वेन च लोके प्रसिद्धा गुरुत्वद्रवत्वस्नेहसंस्कारधर्माधर्मशब्दास्ते सप्त सूच्यन्ते' इति तयाख्या- २० नाञ्च चतुर्विंशतिर्गुणा गीयन्ते । तेऽपि न समगंसन्त । तत्समतायास्तेषां संख्यायाः स्वरूपस्य च विचार्यमाणस्यानुपपत्तेः । तथा हि-- संख्या तावद्विदितैव । स्वरूपं तु रूपत्वाद्यभिसंबन्धः । रूपं चामीषु चक्षुरिन्द्रियग्राह्यं पृथिव्युदकज्वलनवृत्ति । रसो रसनेन्द्रियावसेयः
१. द. १.११६। २ एतस्सदृशं वै. द. उपस्कारे विद्यते। परमुपस्कारकार श्तद्ग्रन्यकृतोऽर्वाचीनतरः ।
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२१४ ___ प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः परि. ५ म.८
पृथिव्युदकवृत्तिः । गन्धो घ्राणेन्द्रियपरिच्छेद्यः पृथिवीवृत्तिः । स्पर्शस्वगिन्द्रियावबोध्यः पृथिव्युदकज्वलनपवनवृत्तिः । एते च रूपरसगन्धस्पर्शाः पार्थिवपरमाणुप्वनित्याः पावकसंयोगात् । तत्र पाकजाना
तेषामुत्पत्तेः । तथा हि-केचित्कन्दुके पच्यमानस्य कलशादेः प्रागव५ स्था। विसदृशरूपादियोगिनः पाककारणभूतवेगवदमिसंयोगपर्यालोचन
या प्रलयोदयौ कल्पयांबभूवुः । यद्यपि हि कन्दुकनिक्षिप्ताः कुम्भादयस्तृणपर्णादिपिहितवपुषोऽपि तद्विवरप्रसृतनयनरश्मिना न विनष्टा इत्युपलभ्यन्ते । यद्यपि तसंख्यास्तत्परिमाणास्तन्निवेशास्तद्देशाश्च पका अपि दृश्यन्ते तथापि पतन्तो विभाज्यन्ते । यद्यपि च तदा तेषां कदिकारककला .... .... .... .... .... .... ‘विनोस्तु संयोगजः संयोगः' इति केचित् । तदसारम् । सक्रियम्यावयविनः क्रियात एवावयव्यन्तरेण संयोगात् । यदि चैवं नेष्यते तदाबयवानामपि स्वाक्यवापेक्षयावयवित्वेन सर्वत्रावयविषु कर्मजस्य संयोगस्योच्छेदः स्यात् । तथासति चाक्यविनि कर्माभावो भवेत् । संयोगजस्तु संयोगः समुत्पन्नमात्रम्य चिरोत्पन्नस्य वा निष्क्रियस्य कारणं संयोगिभिरकारणैः सह कारणाकारणसंयोगपूर्वकः कार्याकार्यगतः । स चैकम्माद्वाभ्यां बहुभ्यश्च संयोगेभ्यो भवति । एकस्मात्तावतन्तुवीरणसंयोगावितन्तुवीरणसंयोगः । उभयकर्मजो
मेषयोरपसर्पणात् । द्वाभ्यां तन्त्वाकाशसंयोगाभ्यां द्वितन्तुकाकाशसं२० योगः । बहुभ्यश्च तन्तुतुरीसंयोगेभ्य एकः पटतुरीसंयोगः । अयं च सधः समुत्पन्नम्य निष्क्रियस्य द्रव्यस्य संयोगजः संयोगः । चिरोत्यनस्य तु देवदत्तस्य निष्क्रियस्य सक्रियहस्तकुड्यसंयोगपूर्वको देवदरकुडयसयोगः । स हि न हस्तक्रियाकार्यो व्यधिकरणस्य कर्मणः
संयोगहेतुत्वादर्शनात् । सर्वश्चायं प्रयोगो मूर्तामूर्तानेकद्रव्यप्रदेशवृत्तिः २५ समानासमानजात्यारम्भकः । समानजातीयम्य संयोगम्यासमानजाती
१ कन्दुके घटपचन्यां 'भट्टी' इति देशीभाषायाम् ।
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परि. ५ सू. ८] स्याद्वादरलाकरसहितः यस्य द्वितूलके कार्ये प्रचयात्मा स्थूलपरिमाणस्यारम्भकः स्वाश्रये पटादौ । परत्र तु द्वितूलके स्थूलपरिमाणस्यारम्भकः । सामान्यगुणरूपो द्वीन्द्रियग्राह्योऽपावगव्यभावी च । तथा द्रव्यगुणकर्महेतुः । तथा हि-तन्तुसंयोगो द्रव्यम्य पटम्य हेतुः । आत्ममनःसंयोगो बुद्धयादीनां गुणानां हेतुः । एवं भेर्याकाशसंयोगः शब्दगुणस्य । ५ प्रयत्नवदात्महस्तसंयोगो हस्तकर्मणो हेतुः। एवं वेगवद्वायुसंयोगस्तृण. कर्मण इति प्राप्तिपूर्विकाऽप्राप्तिर्विभागः । स च त्रिविध एव । अन्यतर. कर्मज उभयकर्मजो विभागजश्चेति । तत्रान्यतरकर्मजः श्येनस्थापसर्पणात् । उभयकर्मजो मेषयोरपसर्पणात् । विभागजस्तु द्विविधः । कारणविभागाकारणाकारणविभागाच्च । तत्र कारणविभागात्ताव- १० द्वेशदलयोविभागाद्दलाकाशविभागः । न चायमसिद्धः । विवक्षिता. वयवक्रियाकाशदेशेभ्यो विभागं न करोति द्रव्यारम्भकसंयोगविरोधिविभागोत्पादकत्वाद्या पुनराकाशदेशविभागकी सा द्रव्यारम्भ. कसंयोगविरोधिविभागोत्पादिका न भवति । यथा विकसत्कमलदलक्रिया । न च तथा विवक्षितावयवक्रिया तस्मादाकाशदेशेभ्यो विभागं १५ न करोतीति । यदि हि भिद्यमानवंशाद्यवयविद्रव्यस्य दललक्षणावयवयोः क्रियाकाशदेशेभ्यो विभागं कुर्यात्तर्हि वंशाद्यवयविद्रव्यारम्भकसंयोगविरोधिविभागोत्पादकत्वमेवास्यां न स्यात् । कमलदलक्रियावत् । ततो वंशाधवयवक्रियाऽवयवान्तरादेव विभागं करोति । नन्वाकाशदेशादिति विभाग एवाकाशदेशविभागोत्पादकोऽवयवानामभ्युपेयः । तथा २० हि-यदावयवे कर्मोत्पन्नमवयवान्तराद्विभागं करोति न तदाकाशदेशात् । यदा त्वाकाशदेशान्न तदावयवान्तरादिति स्थितिः । किंकृता पुनरियं स्थितिरिति चेत् । उच्यते । या ह्यवयवक्रिया नौभागविभागकारिणी नासौ द्रव्यारम्भकसंयोगप्रतिपक्षभूतं विभागमारभमाणा दृश्यते दिनकरकिरणपरामर्शोपजनितकमलविकासकारिक्रियावत् । २९ तदेवं कथमिति । कमलम्य मुकुलविकासदशयोः प्रत्यभिज्ञायमान
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. ५ सु. ८ त्वेनाविनाशनिश्चयात् । इयं तु पाट्यमाने वंशे दलक्रिया द्रव्यारम्भकसयोगप्रतिद्वन्द्वीभूतविभागारम्भिकोपलभ्यत इति नासौ नमसो विभागमारभेतेत्यत एषा स्थितिरस्तीति विभागजविभागकल्पना क्रियते
संयोगान्तं कर्मेति तावस्थितम् । अन्यथा हि तस्य कालान्तर५ स्थायित्वं नित्यद्रव्यसमवेतस्य च नित्यत्वं स्यात् । तस्मात्कर्मणोऽचिरजीवित्वात्तदविनाशकेन संयोगेन भवितव्यम् । उत्तरश्च संयोगः पूर्वसंयोगोपरमे सति जायते नान्यथा । न च विभागव्यतिरिक्तः कश्चन संयोगस्य हन्ता समस्ति ।
कर्मानन्तरसंयोगजन्म निर्मातकौशलम् ।
न हि प्राक्तनसंयोगविनाशाय प्रकल्प्यते ।। ६८३ ॥ तस्माद्विभागेनैव संयोगवैरिणा भाव्यम् । स च यदधिकरणो विभागस्तदधिकरणमेव संयोगमुपशमयति । न ह्यङ्गुलिविभागः । कुण्डबदरसंयोगोपमर्दाय प्रभवतीत्यतो न वंशदलवृत्तिविभागो दलाकाश.
संयोगमपहन्तुमलमिति । नूनं दलाकाशसंयोगविरोधिना दलाकाश१५ विभागेन भवितव्यम् । तदिदानीं तस्योत्पत्तिकारणचिन्तायां
क्रियाया वंशदलविभागमात्रोपजननचरितार्थत्वातन्निर्माय विभागान्तरनिर्माणे विरम्य व्यापारासंवेदनावश्यं वंशविभाग एवं प्रत्यासन्नतया दलाकाशविभागारम्भकोऽभ्युपगमनीयः । एवमनभ्युपगमे कर्मनित्यत्व
प्रसंगात् । कारणाकारणविभागात्तु विभागः करकुडयविभागाकुड्य२० कलेवरविभागः । कलेवरकारणं हि करस्तदकारणं च कुडयं
तयोविभागादयं जायते । न ह्ययं शरीरक्रियाकार्यः । तदानीं शरीरस्य निष्क्रियत्वात् । नापि हस्तक्रियाकार्यः । व्याधिकारणस्य कर्मणो विभागहेतुत्वादर्शनात् । अतः कारणाकारणविभागस्तस्य कारणमिति
कल्प्यते । संयोगवदस्यपि मूर्तामूर्तानेकद्रव्यप्रदेशवादयो२५ (तित्वात् । येन ) ? वस्मयं विभागशब्दहेतुः । विभागहेतुत्वं
दर्शितम् । शब्दहेतुत्वं तु वंशे पाट्यमाने सति योऽयमाद्य:
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परि.५ मु. ८]
स्थाद्वादरत्नाकरसहितः
शब्दस्तस्य वंशदलविभागः कारणम् । परत्वमपरत्वं च परापराभिधानप्रत्ययनिमित्तम् । तद्विविधं दिक्कृतं कालकृतं च । दिक्कृतं देशविशेषप्रत्यायकम् । कालकृतं वयोभेदप्रत्यायकम् । तत्र दिक्कृतस्योत्पत्तिरभिधीयते । कथमेकस्यां दिश्यवस्थितयोः संयुक्तसंयोगबहुत्वाल्पत्वे सत्येकम्य द्रष्टुः संनिकृष्टमवधिं कृत्वा तस्माद्विप्रकृष्टोऽयमिति ५ परत्वाधारे विप्रकृष्टा बुद्धिरुत्पद्यते । तामपेक्ष्य परेण दिक्प्रदेशेन योगात्परत्वस्योत्पत्तिः । विप्रकृष्टं चावधिं कृत्वेतरस्मिन्सनिकृष्टा बुद्धिरुत्पद्यते । तामपेक्ष्यापरेण दिक्प्रदेशेन योगादपरत्वस्योत्पत्तिः । कालकृतयोरपि कथं वर्तमानकालयोरनियतदिग्देशसंयुक्तयोर्युवस्थ - विरयो रूढश्मश्रुकायस्थ वलीपलितादिसान्निध्ये सत्येकस्य द्रष्टु. १० युवानमवधिं कृत्वा स्थविरे विप्रकृष्टा बुद्धिरुत्पद्यते । तामपेक्ष्य परेण काठपदेशेन योगात्परत्वस्योत्पत्तिः । स्थविरं चावधिं कृत्वा यूनि संनिकृष्टा वुद्धिरुत्पद्यते । तामपेक्ष्यापरेण कालप्रदेशेन योगादपरत्वस्योपत्तिः । एते चापेक्ष्यबुद्धिविनाशादाश्रयविनाशाद्वा विनाशिनी मूत. कैकद्रव्यव्याप्यवृत्तिनी सामान्यगुणरूपे द्वीन्द्रियग्राह्ये अयाबद्रव्य . १५ भाविनी सर्वत्र कारणं च । बुद्धिरुपलब्धिज्ञानं प्रत्यय इति पर्यायाः । सा चानेकप्रकारार्थानन्त्यात्प्रत्यर्थनियतत्वाच । तस्याः सत्यप्यनेक. विधत्वे समासतो द्विविधा । विद्या चाविद्या च । तत्राविधा चतुर्विधा संशयविपर्ययानध्यवसायस्वमलक्षणा । विद्यापि चतुर्विधा प्रत्यक्षलैङ्गिकस्मृत्यार्षलक्षणा । द्विविधापीयमात्मैकद्रव्यप्रदेशवृत्तिवैशेषिकगुणरूपाऽ. २० यावव्यभाविनी अन्तःकरणग्राह्यात्ममनःसंयोगप्रभवापरत्वापरत्वद्वित्वद्विपृथक्त्वादीनां निमित्तम् । अनुग्रहलक्षणं सुखम् । अनुगृह्यतेऽनेनेत्यनुग्रहः । अनुग्रहलक्षणमनुग्रहस्वभावमित्यर्थः । सुखं ह्यनुकूलस्वभावतया स्वविषयानुभवं कुर्वत्पुरुषमनुगृह्णाति । अयमर्थः स्रगाद्यभिप्रेतविषयसांनिध्ये सतीष्टोपलब्धीन्द्रियार्थसंनिकर्षाद्धर्माद्यपेक्षा- २५ निमित्तादात्ममनसोः संयोगाच्चासमवायिनो यदनुग्रहाभिष्वङ्गनय -
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः परि. ५ सू. ८ नादिप्रसादजनकमुत्पद्यते तत्सुखं संनिहितेऽप्यभिमतेऽर्थे विषयान्तरव्यासक्तस्य सुखानुत्पादादिष्टोपलब्धेः कारणत्वं गम्यते । वियुक्तस्य सुखाभावाद्विषयसंनिकर्षम्यापि कारणत्वावगमः । अनुग्रह स्त्विह सुखविषयं संवेदनम् । तच्च सुखमतीतविषयेषु स्मृतिजम् । अनागतेषु ५ संकल्पजम् । यत्तु विदुषामसत्सु विषयानुम्मरण संकल्पेवाविर्भवति
तद्विद्याशमसंतोषधर्मविशेषनिमित्तमिति । शेषमस्यात्मैकद्रव्यप्रदेशवृत्त्यादिबुद्धिवत् । उपघातलक्षणं दुःखम् । उपहन्यतेऽनेनेत्युपघातः । उपघातलक्षणमुपत्रातस्वभावमित्यर्थः । दुःखमुपजातं प्रतिकूल.
स्वभावतया स्वात्मविषयमनुभवं कुर्वदात्मानमुपहन्ति । अयमर्थः-- १० विषाद्यनभिप्रेतविषयसांनिध्ये सत्यनिष्टोपलब्धीन्द्रियार्थसनिकर्षादध
थिपेक्षानिमित्तादात्ममनः संयोगाच्चासमवायिनो यदम!पघातदैन्यनिमित्तमुत्पद्यते तद्दःखम् । अमर्षोऽसहिष्णुता द्वेष इति यावत् । उपघातो दुःखानुभवः । दुःखे सति तदनुभवलक्षण आत्मोषधातः
स्यात् । दैन्यं विच्छायता । तेषां निमित्तम् । अतीतेषु सर्पव्याघ्र१५ चौरादिषु स्मृतिजम् । अनागतेषु संकल्पजम् । अस्यापि शेषमात्मैक
द्रव्यप्रदेशवृत्त्यादिबुद्धिवत् । स्वार्थ परार्थं वा । अप्राप्तप्रार्थना इच्छा । सा चात्ममनसोः संयोगात्सुखापेक्षास्मृत्यपेक्षाद्वोत्पद्यते । प्रयत्नम्मृतिधर्माधर्मनिमित्तं कामोऽभिलाषो रागः संकल्पः कारुण्यं वैराग्यमुपधाभाव इत्येवमादयः । इच्छाभेदा मैथुनेच्छा कामोsभ्यवहारेच्छाऽभिलाषः । पुनःपुनर्विषयानुरञ्जनेच्छा रागः । अनागतकरणेच्छा संकल्पः । स्वामनपेक्ष्य परर्दुःखप्रहाणेच्छा कारुण्यम् । दोषदर्शनाद्विषयपरित्यागेच्छा वैराग्यम् । परवश्चनेच्छा उपधा । अन्तर्निगूढेच्छाभावश्चिकीर्षा जिहीर्षेति क्रियाभेदादिच्छाभेदा
भवन्ति । शेषमस्या अपि सर्व बुद्धिवत् । प्रज्वलनात्मको द्वेषः । २५ यस्मिन्सति प्रज्वलितमिवात्मानं मन्यते स द्वेषः । स ' चात्ममनसोः संयोगादु:खापेक्षात्स्मृत्यपेक्षाद्वोपजायते प्रयत्नधर्माधर्म
२०११
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परि. ५ सू. ८] स्याद्वादरत्नाकरसहितः स्मृतिनिमित्तम् । तत्रैनं हन्मीति प्रयत्नो द्वेषात् । वेदार्थविप्लवकारिषु द्वेषाद्धर्मः । तदर्थपरिपालनपरेषु द्वेषादधर्मः ! स्मृति.... .... .... .... ....गणनया गुणानां चतुर्विंशतेरधिकत्वात् । अथ नीलधवलादिव्यक्तिभेदेऽपि सर्वत्र रूपल्वसामान्याविशेषादेक एकरूपोऽयं गुण इति न तत्संख्याक्षतिरिति चेत् । तर्हि धर्माधर्मयोरप्यदृष्टत्वसामान्य- ५ विशेषादेक एवायमपि गुणः स्यादिति कथं न तत्संख्याव्याधातः । अथादृष्टत्वं नाम नास्त्येव सामान्यम् । ननु रूपत्वमपि कथं भवेत् । नीलादौ सर्वत्र रूपं रूपमिति प्रत्ययानुवृत्तरिति चेत् । इतरत्राप्यदृष्टमदृष्टमिति प्रत्ययानुवृत्तेस्तदस्तु । अथोपाधिक एवायं प्रत्ययो न सामान्यनिमित्तः । सामान्येषु सामान्यप्रत्ययवदिति चेत् । नीला. १०. दावपि किं न तथा । कस्तत्रोपाधिरिति चेत् । धर्माधर्मयोः क इति वाच्यम् । दर्शनयोग्यपदार्थेतरत्वामति चेत् । इतरत्रापि चक्षुर्ग्राह्यत्वं भविष्यति । दर्शनयोग्यपदार्थेतरत्वस्य चोपाधित्वे गुरुत्वमप्यदृष्ट इति व्यपदिश्येत । तस्योपाधेस्तत्र भावात् । अथ नीलादिषु रूपप्रत्ययानुवृत्ती रूपत्वसामान्यनिमित्ता तावदुभाभ्यामपि प्रतिपन्नेति चेत् । १५: एवमेतत् । न हि तदस्माभिः प्रतिषिध्यते किं तु प्रसंगः प्रवर्त्यते । यदि धर्माधर्मयोरदृष्टप्रत्ययानुवृत्तिरौपाधिकी तदाऽन्यत्रापि सा तथैव स्यात् । समानयोगक्षेमत्वात् । किं च भवतापि यत्र वस्तुन्युपेत्रमाने बाधकोपनिपातस्तत्रैव तत्प्रत्ययस्यौपाधिकत्वमुपागामि । यथा सामान्येषु सामान्योपगमेऽनवस्थोपनिपाते सामान्यप्रत्ययस्य । न चादृष्टत्वोपगमे २०. किंचिद्वाधकमस्ति । गुणेषु चतुर्विशतिसंख्याव्याघातोऽस्तीति चेत् । असदेतत् । अस्याद्यापि विवादास्पदीभूतत्वात् । अथ धर्माधर्मों तदुभयवत्येकसामान्यानुगतौ न भवतो गुणत्वात् । यावेवं तावेवम् । यथा सुखदुःखे तथा चैतौ । ततस्तथेत्यनुमानमस्त्येव बाधकमिति. चेत् । तदभम् । सुरभ्यसुरभिगन्धाभ्यां गुणत्वस्य व्यभिचारित्वात् । २५ . तौ हि गुणौ तदुभयवर्तिनैव सामान्येन गन्धत्वेनानुगतौ च । न च
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः परि. ५ स. ८ वाच्य ' अनुष्णाशीतस्पर्शवत् सुरम्यसुरभ्योरुभयाभावसमन्वितस्तृतीयो राशिर्गन्धत्वानुगतोऽस्तीत्यनयोस्तदुभयव]कसामान्यानुगतत्वान्न गुणत्वस्य व्यभिचारः' इति प्रशस्तकरभाध्योक्तिविरो
धापत्तेः । तथा चायमाह-'सुरभिरसुरभिश्च' इत्यन्यथा त्वनुष्णाशी. ५ तवेदनमप्यदध्यादिति न चतुर्विंशतिसंख्यानीषु संगच्छते । यथावसरमेषाग्रेऽपि पराकरिष्यते । योऽपि पृथिव्युदकज्वलनवृत्तीत्यादिश्चतुर्णा रूपादीनां पृथिव्यादौ वृत्तिनियमो न्यगादि । सोऽपि नोपापादि । पृथिव्यादीनां चतुर्णामपि पौद्गलिकत्वेन तञ्चतुष्टयाधिष्ठानत्वात्।
यत्तु न तथा तेषामनुभवनं तदनुभूतत्वादिति प्राक्प्रतिपादितमेव । १० यच्च पाकजोत्पत्तिप्रक्रियोद्धोषणेन पार्थिवपरमाणुषु रूपादीनामेका.
न्तेनानित्यत्वमाप्यादिपरमाणुकार्यद्रव्येषु नित्यमनित्यं चावाचि तदपि - नित्यानित्यानेकान्तस्य प्राक्समर्थनादपास्तम् । यच्च 'मूतककद्रव्यव्याप्यवृत्तयः' इत्युक्तं तत्रैकान्तरूपे द्रव्येऽमीषां वृत्तिरीप्सामासे तद्विपरीते वा । तत्र न तावत्प्राच्यः पक्ष: पेशलः । द्रव्यम्य स्वावयवेभ्यः कथंचिदविष्वग्भूतस्य प्रसाधितत्वेनैकान्तकरूपत्वस्य तत्राप्रसिद्धेः । द्वितीयपक्षे तु न किंचिदनिष्टम् । व्याप्यवृ. त्तित्वं चामीषामेकान्तकरूपाणामननुरूपमेव । एवं हि कुंचिकादिविवरवर्तिसूक्ष्मप्रदीपाद्यालोकोद्योतितापवरकादिव्यवस्थितपृथुतरपटादिद्रव्य
समवेतशुक्लादिरूपाभिव्यक्ती याबद्र्व्यवर्तिनो रूपादेरुपलब्धिः २० स्यात् । अन्यथा निरंशैकरूपताव्याहतिः । तर्हि तद्रूपस्य
प्रतिभासाप्रतिभासलक्षणविरुद्धधर्माध्यासो युक्तो विरोधात् । कथंचिदेकरूपाणां तु तेषां युक्ता व्याप्यवृतिः। रूपरसगन्धस्पर्शाद्यात्मकत्वात्पटादिद्रव्यस्य । स्वाश्रयादन्यत्रारम्भका इत्यपि स्वगृहमान्यम् ।
यतोऽयमत्राभिप्रायः--अवयवैः स्वसमवेतकार्ये निष्पाद्यमाने तद्वर्तिने २५ रूपादयस्तत्रैव रूपादीनारभन्ते न स्वाश्रयभूतेष्ववयवेष्विति ।
प्र.पा. भा. पृ. ४५।
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परि. ५ स. ८ ] स्याद्वादरत्नाकरसहितः
९२१ एतच्चानुपपन्नम् । न ह्यवयवैभिन्नोऽवयवी निष्पाद्यत इत्यत्र प्रमाणमस्ति यतस्तद्वर्तिभिस्तैस्ते तत्रारभ्येरन् । द्रव्यं तु प्राक्तनाकारपरित्यागेनोतरमाकारमाक्रमदुपलभ्यते यथा पिण्डाकारपरित्यागेन कुम्माकारमाकालयन्ती मृत् । ननु तन्तवः कुविन्दकरव्यापारात्पटमारममाणा दृश्यन्ते । नैवम् । तत्रापि पार्थिवद्रव्यस्यैव विशकलिततन्तुपर्यायपहाणेन ५ समुदितत्वपर्यायप्राप्तेर्दर्शनात्तत्समुदायस्यैव च पटद्रव्यव्यपदेश्यत्वात् । न चैवं पटस्य निरवयवत्वं स्वावप्रवद्रव्याद्रकातिरेकेण पटस्यापि सावयवत्वात् । तस्मान्न रूपादीनां स्वाश्रयादन्यत्रारम्भकत्वं युक्तम् । वैशेषिकगुणा इति च कोऽर्थः-विशेषो व्यवच्छेदस्तस्मै ये भवान्त गुणास्ते वैशेषिकगुणा रूपादयः । ते हि स्वाश्रयमितरस्माद्वयव. १०. च्छिन्दन्ति न सांख्यादयः । तेषां स्वतो विशेषाभावात् । यस्तु तेषां विशेषः स स्वाश्रयविशेषकृत एवेति चेत् । तदसंगतम् । गुरुत्ववेगनैमित्तिकद्रवत्वादीनामपि वैशेषिकगुणत्वापत्तेः । तेषामपि स्वाश्रयस्य मूर्तिमतः पृथिव्यादेव्यस्येतरस्मादमूर्तादाकाशादेव्यवच्छेदकत्वात् । अथ गुरुत्वस्य पृथिव्युइकोबैगय पृथिव्यादिषु चतुर्षु नैमित्तिकत्वस्य १५. पृथ्वीतेजसो: साधारणधर्मत्वात् । सामान्यगुणत्वं तर्हि रूपादीनामपि केषांचित्तद्भवेत्तेषामपि द्रव्यत्रयचतुष्टयद्रव्यसाधारणधर्मत्वात् । समानजातीयकारणगुणपूर्वकत्वं चावयवैरवयव्यारम्भे पराकृते पराकृतमेव यावव्यभावित्वमपि नामीषां संगच्छते । यस्मादेतेषां पर्यायप्रवाहसत्त्वापेक्षयकपर्यायसत्त्वापेक्षया वाभिधीयेत । न । आद्यपक्षे विप्रति- २० पत्तिः । घटादिद्रयं यावदमीषामपरापरेषामुत्पदिष्णूनां प्रवाहस्य स्वीकारातस्य कथंचित्तदात्मकत्वात्याकजानामप्येवं यावद्व्यभावित्वापत्तेश्च । द्वितीयपक्षे तु प्रत्यक्षपीडा । सत्येव पटादौ प्रत्यग्राणां तेषां विनाशेन पुराणानामुन्मज्जतां प्रत्यक्षेण प्रेक्षणात् । न च पाकजोत्पत्तिक्रमेण पटादिरूप्यन्य एवो- २५ त्पद्यत इति वाच्यम् । अत्र प्रमाणाभावात् । सर्वस्योपन्यम्यमानस्य
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९२२
प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः
परि. ५२.८
तस्य स एवायं पटादिरिति प्रत्यभिज्ञानेन बाधनात् । न च सदृशापरापरोत्पत्तिविप्रलब्धबुद्धीनां प्रमातृणामपनीतोद्गतनखशिखरादिष्विवात्रापि भ्रान्तमेवेदं प्रत्यभिज्ञानमिति वक्तव्यम् । नखादेरिव पटादेरापि प्रध्वंसोत्पादसिद्धिनिबन्धनप्रमाणमन्तरेणैवंविधव्यवस्थायाः कर्तुमशक्तेः । ५ न रूपादीनां प्रध्वंसोत्पादावेव पटादिप्रध्वंसोत्पादयोः प्रमाणम् ।
तद्विनाशोत्पादयोर्द्रव्यस्यापि ताभ्यां भीवतव्यमेवेति नियमाभावात् । न च तेषां यावद्रव्यमावित्वनिर्णयातन्नियमः साधीयान, याव
व्यभावित्वस्याद्यापि विवादपङ्कनिममत्वात् । ननु रूपादिपर्यायप्रध्वंसोत्पादेर्याद्रव्यस्यापि कथंचित्तावुपगतावेव । अन्यथा सर्वथा १. द्रव्यपर्याययोर्भेदापत्तेः । तथा च सिद्धममीषां कथंचिद्यावय
भावित्वमपीति चेत् । एवमेतत् । किं त्वेवं न कश्चिद्यावद्दव्यभावी गुणो नाम स्यात् । संयोगादिगुणानामप्येवं यावद्दव्यभावित्वसिद्धेः । एवमग्रेऽपि सर्वं दूषणं स्वयमूहनीयम् । विशेषस्तु दूत
यिष्यते । यस्तु ताथागतो रूपादयोऽगव एव न गुणा इत्यगादी१५ तस्य कुतोऽयमभ्युपगमः । भेदानुपलब्धेश्चेत् । तत्किमय
मणूनुपलभते संचितांस्तानिति चेत् । नतु संचयस्तेषां स्थूलाकारपरिणामः परमाणुभ्यः कथंचिदतिरिक्तः प्राक्साधितस्ततस्तस्यैवोपलब्धिरस्ति नाशूनाम् । अपमपि रूपरसगन्धस्प
त्मैिव न तद्वानिति चेत् । कुतः । एतद्भेदानुपलब्धेश्चेन् । सा यदि २० देशकालभेदेनानुपलब्धिर्विवक्षिता तदा रूपादिभिरेव व्यभिचारिणी ।
अथ स्वरूपभेदेन तदाऽसिद्धा । पटप रूपादय इति तेषां भिन्नस्वरूपेण प्रतीतः । ततः सिद्धा अमी कथंचित्म्यूलाकारातिरेकिणः । यदुक्तम् ' द्वित्वादिसंख्यानुपरार्धता(र्धतोs)अनेकद्रव्या' इति । तत्र
परार्धान्तैव संख्येति कुतस्त्या नियतिः । परार्धमेव यावत्र्यवहार२५ दर्शनादिति चेत् । नन्वयं व्यवहारः पामरप्रायपुरुषाणामेव संबन्धी
विवक्षितो विदुषां वा । प्रथमे कल्ये शतादेरपि संख्यात्वं दुरापम् ।
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परि. ५ सू. ८ स्याद्वादरत्नाकरसहितः शतमिति न किंचिजानीमो विंशतिपञ्चकं तु दद्म इत्येवं तेषां व्यवहारदर्शनात् । द्वितीये त्वेकाधिकपरार्धेऽपि विद्वद्भिर्व्यवहरणास्कथं न तस्याः संख्यात्वं स्यात् । तथा च दृश्यते विदुषां व्यवहारः 'परार्धानां परार्धानि प्रसूते श्लोकतर्णकान्' इत्यादि । अथ गणितशास्त्रे--'मध्यं परार्धमाहुर्यथोत्तरं दशगुणं तज्ज्ञाः ' इति परार्धमेव ५ यावदस्या अभिधानात्तदन्तैवेयमवसीयत इति चेत् । तदयुक्तम् । सदभिन्नस्याभिधेयाव्यापकत्वादियत्ता हि संख्या समाख्यायते । सा च परार्ध इवैकाधिकपरार्धादावप्येवंभूतैवानुभूयते । किंचेदं गणितशाम्यं नियामकतया व्याख्येय किंतूपलक्षक (ण) तया । एवमन्यदपि दशगुणया वृद्धथा अङ्कस्थानं ज्ञेयमिति । 'यंत्र इयत्ताव्यवहारः १० परिसमाप्यते स परार्धः' इति श्रीधरः । सोऽपि यद्येवं तेन वचसा दशगुणितं मध्यं परार्धशब्दाभिधेयमभिदधीत तदा प्राक्तनेनैवापास्तः । अथ यतः कुतोऽपि पुरस्तादियत्ताव्यवहारो नास्ति तत्परार्धाभिधेयमभिदध्यात्तदा सर्ववाद्यविवादप्रतिपन्नप्रामाण्यगणितशास्त्रबाधापत्तिः । सत्र दशगुणितमध्यस्य परार्धाभिधेयत्वेन प्रसिद्धेः । यच्चोक्तम्- १५ ' एकत्वेभ्योऽपेक्षानामकानेकविषयबुद्धिसहितेभ्यो निष्पत्तिः । इति तदप्ययुक्तम् । यतोऽनेकविषयबुद्धिसहितेभ्य इत्यत्र किभेकविषयबुद्धिसाहित्याभावो विवक्षायां चक्रे द्विव्यादिपदार्थगोचरसाहित्यं वा । यद्याद्यः पक्षस्तदा सुतमत्तमूछिताद्यवस्थास्वप्यस्य भावावित्वादिसंख्योत्पत्तिः कथं न स्यात् । अथ द्वितीयपक्षः । तथा च श्रीधरः- २० 'अनेकशब्द एको न भवतीति व्युत्पत्त्या द्वयोर्बहुषु च द्रष्टव्यः' इति । अत्र च परस्पराश्रयदोषः । उत्पन्ने हि द्वित्वादी तत्र तद्धिरुत्पत्स्यते । तदुत्पती च द्वित्वादेरुत्पत्तिरिति । अथ नैकमनेकमेकत्वाभावविशिष्टं वस्तु तद्विषयबुद्धिसहितेभ्य इत्यत्र विवक्षितम् ।
१ न्या. के. पृ. ११५ पं. ७ 'यत्र' इत्यत्र यस्मिन्' इत्यस्ति न्यायकन्दल्याम् । . २ था. क. पृ ११२ पं. १२।
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः परि. ५ सु. ८ तदप्यक्षमम् । द्वयादिवस्तुप्वेकत्वाभावस्याभावात् । तेषां स्वेन म्वनैकत्वेनाधिष्ठितत्वात् । अथ द्वयादिष्वेकस्यैकत्वस्याभावः सुप्रतीत एव । नन्वेकमेकत्वमिति स्वसिद्धान्तविरुद्धमभिधीयते । एकत्यस्य गुणत्वेन तत्रैकत्वगुणान्तराभावस्य निर्गुणा गुणाः' इति त्वत्सिद्धान्तेऽभिधानात् । ५ औपचारिकं तत्तत्र भविष्यतीति चेत् । किंगतम्य तस्य तत्रोपचारः ।
द्रव्यगतस्येति चेत् । ननु द्रव्येऽपि तावत्तदेवैकत्वमस्ति नान्यदिति तदेव तत्रोपर्यत इत्यहो शुद्धा बुद्धिः । अस्तु वा यथाकथंचिदनेकविषयबुद्धिसहितशब्दार्थस्तथापि यदि बुद्धिसकाशाद्वाह्यार्थस्योत्पादः
स्यात्तदा द्वित्वादिवदन्यस्याप्यर्थस्यायं किं न भवेत् । अथ द्वि१० त्वादिरेव तदन्वयव्यतिरेकानुविधायित्वात्तस्यैव ततः समुत्पत्तिरिति
चेत् । नैवम् । अभिव्यञ्जकल्वेनापि तस्यास्तेनान्वयव्यतिरेकयोरनुविधानस्य संभवात्प्रदीपस्येव पटादिना । अथ यदि द्वित्वादिकमबुद्धिजं स्याद्रूपादिवत्पुरुषान्तरेणापि प्रतीयेत । नियमहेतोरभावात् ।
बुद्धिजत्वे तु यस्य बुद्धया तज्जन्यते तेनैवोपलभ्यत इति नियमोपपत्तेः। १५ प्रयोगस्तु-द्वित्वादि बुद्धिजं नियमेनैकप्रतिपत्तृवेद्यत्वात् । यन्नियमेनैक
प्रतिपत्तवेद्यं तद्बुद्धिजं यथा सुखादिकम् । नियमेनैकप्रतिपत्तृवेद्यं च द्वित्वादि तस्मादिदमपि बुद्धिजमिति । तदपि नोपपद्यते । नियमेनैकप्रतिपत्तवेद्यस्यासिद्धेश्चैत्रेणेव मैत्रेणापि द्वित्वार्थिद्यमानत्वात् । अन्यदेव
द्वित्वादि मैत्रेण वेद्यत इति चेत् । कुत एतत् । तदपेक्षाबुद्धिवशादन्य२० स्यैव तम्योत्पत्तेरिति चेत् । तदचतुरस्रम् । चक्रकचक्राकीर्णत्वात् ।
तथा हि-सिद्धे द्वित्वादेर्बुद्धिजत्वे चैत्रापेक्षया मैत्रस्यान्यद्वित्वादिवदेकत्वसिद्धिः । तत्सिद्धौ चैत्रस्य नियमेनैकप्रतिपत्तवेद्यत्वसिद्धिः । तसिद्धौ चैत्रस्य बुद्धिजत्वसिद्धिरिति । किं च यदेव चैत्रेण द्वित्वा
दिकमवेयते यदि तदेव मैत्रेणापि देयेत तदा को दोषः स्यात् । न २५ खलु योग्यदेशावस्थितः पदार्थः प्रतिनियतेनैव प्रमात्रा प्रतीयत इति
नियमोऽस्ति । रूपादेरनियतपत्तृपरिच्छेद्यत्वदर्शनात् । ननु सुखादि
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परि. ५.८ ]
स्याद्वादरत्नाकर सहितः
धर्मः प्रतिनियतेनैव वेद्यमानो दृश्यते । सत्यम् । तस्य प्रतिनियतात्मसमवायित्वे तमेव प्रतियोग्यदेशत्वात् । द्वित्वादिकं तु बाह्यार्थधर्मतया रूपादिवत्तद्देशवर्तिप्रमातृनशेषानपेक्ष्य योग्यदेशमेवेति तद्वत्प्रकाशेत । न च नियतप्रमातृवुद्धिजन्यत्वात्तस्यैव तग्रहीतृत्वं योग्यम् । एवं हि सति कलशादिरपि येनैवं जनितं तस्यैव ग्रहीतुं योग्यः स्यात् । असिद्धं चाद्यापि प्रमातृबुद्धिजत्वं द्वित्वादेः । नन्वेवं रूपादिवद्वित्वादेरवि प्रथमदर्शनसमय एव किं न प्रतिभासः । ननु निरन्तरतर तिमिरनिकरपरिकरिते मूर्तेः कुम्भस्यापि किं नासौ । अभिव्यञ्जकस्यालोकस्यासंभवादिति चेत् । इतरत्राप्यभिव्यञ्जिकाया अपेक्षा बुद्धेरभावादित्यवेहि । यदा त्वसौ संपद्येव भवति तत्प्रतिभासः । ननु कुम्भा - १० दावभिव्यते यथा तद्देशवर्तिनः शेषप्रमातृणां तत्प्रतिभास: प्रभवति तथा चैत्रसकापेक्षा बुद्ध्यमिव्यते द्विवादी मैत्रादीनामपि तद्बुद्धिर्भवेत् । न चैवमिति । न व्यक्तिपक्षः क्षेमकर इति चेत् । नैवम् । उत्पत्तिपक्ष एवैतद्दषणावताराद्वयादौ स्वजनकादन्यैरपि प्रतिभासदर्शनात् । अभिव्यक्तिपक्षे तु नायं दोषो यतश्चक्षुः स्पर्शन सहकारिणोऽ- १५ भिव्यञ्जकाः स्वयमुपलभ्यमाना एवान्यमुपलम्भयन्ति । घटाद्यभिव्यञ्जकप्रदीपाद्या लोकशरीरसंसक्ततोयशीतस्पर्शाभिव्यञ्जकवायुवत् । न च
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९२५
चैत्रबुद्धिमैत्रादीनामध्यक्षा । तमेव प्रति तस्याः स्वसं
विदितत्वाच्चक्षुरायगोचरत्वाच्चेति तं प्रत्येकेयमभिव्यञ्जिका किंविघयासावपेक्षा बुद्धिरिति चेत् । एकल्वादिगोचरेति ब्रूमः । तथा हि-पदार्थ २० एकस्मिन् ज्ञाते पदार्थान्तरमेकमपेक्ष्य द्वित्वमभिव्यज्यते । एकस्मिन् द्वयोर्वा ज्ञातयोद्वविकं वापेक्ष्य वित्वमभिव्यज्यते । एकस्मिन् द्वयोस्त्रिषु वा ज्ञातेषु त्रीन् द्वावेकं वापेक्ष्य चतुष्ट्रमभिव्यज्यत इत्यादि तावज्ज्ञेयं यावत्पर्यन्तसंख्येति न नियमेनैकप्रतिपत्तवेद्यत्वं सिद्धम् । अनुमानबाधितश्चात्र पक्षः । तथा हि- द्वित्वादिकं बुद्धिजं न भवति २५ संख्यात्वादेकत्ववदिति पराकृते चैवं द्वित्वादेर्बुद्धिजत्वेऽपेक्षा बुद्धि
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५९
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. ५ सू. ८० विनाशाद्विनाश इति दूरोत्सारितमेव ! एवं च सिद्धमेकल्यवद्वित्वादेरपिपदार्थेषु सदैव सत्त्वमिति ।
ये सुगतसमयवासितमनसः संख्यास्वरूपमात्रेऽपि ।
विप्रतिपत्तिं विदधति तेषामेषा क्षणं शिक्षा ॥ ६८४ ।। ५ यदि हि संख्या काचिन्न स्यात्तदानीं तत्प्रत्ययो निरालम्बनः म्यात् । अथ न संख्या प्रत्ययोऽम्तीन्द्रियजस्तत्रैकस्मिन्स्वलक्षणे प्रतिभासमाने स्पष्टमेकत्वसंख्याया: प्रतिभासनाभावात् । न हीदं स्व. लक्षणमियमेकत्वसंख्येति प्रतिभासद्वयमनुभवामः । नापि लिङ्गजोऽयं संख्याप्रत्ययः, संख्याप्रतिबद्धलिङ्गम्य प्रत्यक्षसिद्धम्याभावात् । तत एव न शब्दोऽयं प्रत्याक्षानुमानमूलः । योगिप्रत्यक्षमूलोऽयमिति चेत् । न । तस्य तथावगन्तुमशक्यत्वात् । ततोऽयं मिथ्या प्रत्ययो निरालम्बन एवेति । तदयुक्तम् । एवं हि तस्य देशादिप्रतिनियमो न स्यात् । कारणरहितत्वादन्यानपेक्षणात्सर्वत्र सर्वदा सत्त्वमसत्त्वं वा प्रसज्ज्येत ! निरालम्बनोऽपि समनन्तरप्रत्ययनियमात्प्रतिनियतोऽयमिति चत् । न । बहि:संख्यायाः प्रतिनियतायाः प्रतीतेः । बहिर्वस्तुषु संख्याध्यवसीयमाना वासनामात्रहेतुका मिथ्याकल्पनामि केव । आपेक्षिकत्वास्थविष्ठत्वादिधर्मवदिति चत् । न । नीरूपेषु शशविषाणादिष्वपि तत्प्रसंगात् । तत्कल्पनास्वस्न्येवेति चेत् । तर्हि ताः कल्पनाः स्वरूपेणासत्याः सत्या वा ! न तावदसत्याः । स्वमतविरोधात् । सत्याश्चेत्कथामिदानी स्वरूपेण सत्यासु कल्पनासु संख्या परमार्थतो न स्यात् । ताम्वपि स्वकल्पनान्तरारोपितापेक्षिकत्वाविशेषाहिर्वस्तुविवेति चेत् । म्यादेवं यदि कल्पनारोपितावेनापेक्षिकत्वं व्याप्तं सिध्येत् । न चैव वस्तुसत्स्वपि नीलादिरूपेवस्य प्रसिद्धेः । नीलनीलतरयोहि
रूपयोर्यथा नीलापेक्षं नीलतरं रूपं तथा नीलतरापेक्षं नीलमिति २५ नीलादिरूपेषु बस्तुसस्त्वपि भावादापेक्षिकतायां न कल्पना
रोपितत्वेन व्याप्तिस्वगभ्यते । यतः संख्ययोर्बहिरन्तश्च नीलरूपत्वं
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पार. ५ मू.८]
स्याद्वादरत्नाकरसहितः
९२७.
स्यात् । यदि पुनरस्पष्टावभासित्वे सत्यापेक्षिकत्वादिति हेतुस्तदा साधनविकलो दृष्टान्तः । स्थविष्ठत्वादिधर्माणां स्पष्टावभासित्वात् । तत्तत्र भान्तमिति चेत् । न । बाधकाभावात् । स्थविष्ठत्वादिधर्मप्रतिभासो न स्पष्टो विकल्पत्वादनुमानादिविकल्पवदित्यनुमानं तबाधकमिति चेत् । न । पुरोवर्तिनि वस्तुनीन्द्रियजविकल्पेन स्पष्टेन व्यभि- ५ चारात । तस्यापि पक्षीकरणादल्यभिचार इति चेत् । तर्हि संभाव्यत्यभिचारो हेतु: स्पष्टत्वेन विकल्पत्वस्य विरोधासिद्धेः । क्वचिद्रिकल्पत्वस्यास्पष्टत्वेन दर्शनात् । स्पष्टत्वेन व्यभिचारात्तस्यापि पक्षीकरणाव्यभिचार इति चेत् । तर्हि संभाव्यत्यभिचारो हेतुः स्पष्ट - स्वेन विकल्पत्वम्य विरोधासिद्धेः कचिद्रिकल्पत्वम्यास्पष्टत्वेन दर्शनात् । १० स्पष्टत्वेन विरोधे चन्द्रद्वयप्रतिभासे प्रतिभासत्वस्यासत्त्वेन दर्शनास्वसंचित्प्रतिभासस्यापि सत्यत्वं मा भूतथाविरोधसिद्धेरविशेषात् । अथ प्रतिभासत्वाविशेषेऽपि स्वसंवित्प्रतिभासः सत्यः शशिद्वयप्रतिभासमस्वसत्यः संवादाद्विसंवादाच्च प्रोच्यते । तर्हि विकल्पत्वाविशेषेऽपीन्द्रियजविकल्पः स्पष्टः साक्षादर्थग्राहकत्वात् । नानुमानादिविकल्पोऽ- १५ सालादर्थग्राहकत्वादित्यनुमन्यताम् । तथा चेन्द्रियजविकल्पन व्यभिचार एव । निर्विकल्पत्वादिन्द्रियजस्य ज्ञानम्य नेन्द्रियजो विकल्पोऽ. म्तीति चेत् । न । तस्य प्राक्प्रसाधितत्वात् । .... .... .... विधे एव तथा व्यवन्हियते इति किं नाङ्गीकुरुपे किमिति पक्षणातानपेक्षं न क्षणमीक्षसे । अथ न संस्थानविशेषम्वरूपाणि पृथुत्वा- २० दीनि महत्त्वपरिमाणमेव ह्युत्तरदक्षिणे अपेक्ष्य पृथुसंकीर्णतयाऽव ऊव चापेक्ष्यागाधतया व्यवन्हियते तहि पूर्वपश्चिमे अपेक्ष्य महत्त्वमेव दीधहस्वत्वेन व्यवन्हियतामिति कथं चातुर्विध्यम् । किं च किमाकारः स पुमानिति सम्थानविशेषे प्रश्नेऽपि प्रोच्यते प्रांशुम्यो वेति । ततोऽनयोः संस्थानरूपतेच ज्यायसी । अथैवं महत्त्वमपि संस्थानविशेष एव २५ स्यान्, न परिमाणमिति चेत् । मैवम् । अस्य निःशेषसंस्थानविशेषैः
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९२८
प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [ परि. ५ सू. ८. सह वृत्तेः । अशेषमपि हि वृत्तव्यत्रचतुरस्रदीर्घहस्वपृथुसंकीर्णादिकं वस्तु महदुच्यत एव । संस्थानविशेषरूपत्वे तु महत्त्वस्य नैवं स्यात् । न हि संस्थानविशेषः संस्थानविशेषान्तरणाशेषेण समानाश्रयः समुपलभ्यते । वृत्तत्वस्य व्यत्रचतुरस्रतादिपरिहारेण व्यस्यत्वादेर्वृत्तत्व चतुरस्रतादिपरिहारेणावस्थितेः । न च महत्त्ववदैर्ध्य हस्वत्वे अपि समस्तसंस्थानविशेषसमावेशिनी । वृत्तव्यसादौ तदभावात् । न हि बदरापेक्षयामलकं दीर्ष व्यवहरन्ति प्रमातारः किं तु महदेवेति । एवं चापेक्षिकमणुत्वमपि संस्थानातिरिक्तपरिणामरूपमिति मन्तव्यम् । यत्पुनरनापेक्षिकमन्त्यम
णुत्वं परमाणौ तस्यासंयुक्तद्रव्याधारत्वान्न संस्थानविशेषरूपताशंका१० मपि गच्छतीति सिद्ध द्वे एव परिमाणे इति । ताथागतं प्रति पुनारू
पादिवदेतयोनिशितमतिभिर्द्रव्यात्कथंचिदतिरेकिरूपयोः सिद्धिरिह वाच्या । यच्च नित्यमाकाशकालदिगात्मसु परममहत्त्वमित्युक्तम् । तदप्ययुक्तम् । आकाश एव । कयंचिदनित्यस्य तस्य भावात् । दिशोऽ
सत्त्वेन कालात्मनोव्यापकत्वेनाकाशस्य कथंचिदनित्यत्वेन च १५ निरूपितत्वात् । यद्गदितम् — अनित्यं त्र्यशुकादिद्रव्येष्वण्वपि नित्या
नित्यविकल्पाविभेदम् ' इत्यादि तत्रापि वस्तूनां नित्यानित्यत्वेन साधनात्कथंचिदनित्यत्वमेव द्रष्टव्यम् । यदपि कुवलादौ भाक्तत्वमणुव्यवहारस्य व्याहारि । तदपि न चेतोहारि । महत्त्वव्यवहारस्यापि
तत्र भाक्तत्वापतेः । अथाशुल्कव्यवहार एव भाक्तः । आपेक्षिकत्वात् । २० कुवले ह्यामलकमपेक्ष्यागुत्वं व्यवन्हियते न त्वणुवत्स्वतस्तदण्विति
चेत् । तर्हि तत एव महत्त्वव्यवहारो भाक्तोऽस्तु । तत्र सर्पपमपेक्ष्य महत्त्वव्यवहारात् । न पुनराकाशवत्तत्स्वतो महदिति समानम् । न च यदापेक्षिकं तेन भाक्तेनैव भवितव्यमिति नियमो नीलापेक्षया नीलतर
स्वरूपस्यापेक्षिकस्याप्यमाक्तत्वात् । मुरूपस्य नीलतरत्वस्य तत्रानुभ२५ वात् । अथ यदि तत्राणुत्वं तात्त्विकं स्यात्तदा महत्त्वाभाव एव भवेत् ।
अगुत्वमहत्त्वयोरेकत्र विरोधात् । तथा च कुवलादेरचाक्षुत्वमेव स्यात् ।
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परि. ५ सू. ८] स्याद्वादरत्नाकरसहितः
९२९ महत्त्वाभावात् । “महत्यनेकद्रव्यवत्त्वाद्रूपाच्चोपलब्धिः' इति वचनादिति चेत् । तदसंबद्धम् । विरोधस्यासिद्धेः । भिन्नभिन्नरूपेण तयोस्तत्रावस्थानात्सामान्यविशेषवत् । यदि हि यथामलकाद्यपेक्षया कुवलेऽप्यणुत्वं तथा तदपेक्षयैव महत्त्वमप्यधीयेत तदा स्याद्विरोधसंरोधः । नचैवं सर्षपाद्यपेक्षयैव तत्र महत्त्वव्यवहारात् । एवं च समिदि- ५ क्षुवंशादिषु न्हस्वव्यवहारस्य भाक्तत्वमपाकरणीयम् । यदुक्तम्-'संयुक्तमपि द्रव्यं यद्वशात्' इत्यादि तदपि न सहृदयसंवादि । अपोद्धारव्यवहारस्य परम्पराभावादेव सिद्धेः पृथक्त्वकल्पनाया निष्प्रमाणकत्वात् । ननु कथमभावस्येदमतः पृथगिति विधिप्रत्ययविषयत्वं संगच्छते, तस्येदं न भवतीत्यादिप्रतिषेधप्रत्ययस्यैव गोचरत्वेन प्रसिद्धेरिति चेत् । नैवम् । १० इयं छायेत्यभावेऽपि विधिप्रत्ययस्य त्वया स्वीकारात् । यस्तु नीलरूपारोपस्वरूपां छायामाह--तस्य घटप्रध्वंसोऽत्रेति कथं विधिप्रत्ययः । अथ प्रध्वंसो नाशोऽभाव इति तत्प्रत्ययोऽभावप्रत्यय एवं तर्हि पार्थ. क्यमप्यन्यस्यान्यम्वरूपत्वप्रतिषेध इति तत्प्रत्ययोऽप्यभावप्रत्ययः किं न स्यात् । यत्तु व्योमशिवो व्याजहार-नैव पदार्थान्तरावधिं विन- १५ कत्वादिसंख्याविशिष्टस्य पृथगिति व्यवहारस्य ततोऽर्थान्तरत्वात् । तथा हीतरेतराभावविशिष्टो व्यवहारः पदार्थान्तरावधित्वेन प्रवर्तते । न चैकत्वादिसंख्यानुरक्तस्तद्विलक्षणश्वायमित्यर्थान्तरनिमित्तः' इति तदपि स्वसिद्धान्तश्रद्धाविजम्भितम् । वैलक्षण्यासिद्धेः । पृथक्त्वव्यवहारस्याप्ययमम्मात्पृथगिति सावधित्वेनैव प्रवृत्तेरितरेतराभावस्यापि २० कचिदेकस्य द्वयोर्बहूनामत्राभाव इति संख्यानुरक्तत्वेन प्रतीतेः । नियमेन तु पृथक्त्वव्यवहारोऽपि न । तथायमस्मात्पृथगिति संख्योल्लेखमन्तरेणापि भावात् । अथायमित्येकवचनेनोल्लिख्यमानैकस्वसंख्यास्त्येवाति चेत् । अयमयं न भवतीत्यत्राप्येवमस्तु । यत्तूदयनः प्राह- 'पृथगादिशब्दाः पर्याया इत्यनुमन्यामहे न त्वभावार्था २५
१ . द. ४११६
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९३०
प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. ५ मू. ८ इति पञ्चम्या सम्बन्धानुपपत्तेन हि घटापटः पृथगिति घटापटो न भवतीति वाक्यार्थः ' इति तदपि न कुशलाय । यतो यदि पञ्चमीसंबन्धानुपपत्तिमात्रेणैतेषां शब्दानां सर्वथाप्यभावार्थत्वं प्रतिषिध्यते तदा षष्ठीसंबन्धानुपपत्त्याऽभावशब्दम्याभावार्थत्वमपि कथं ५ म्यात् । न हि घटस्याभावोऽत्रास्तीति घटम्पात्र नास्तीत्यपि वा
क्यार्थः संगच्छते । किं तु घटोऽत्र नास्तीति । ततः कथमभावशब्दस्याभावार्थत्वं स्यात् । अथ घटम्याभायोऽत्रेत्यभावोऽल्लेखिनी प्रतीतिः । न चात्राभावशब्दस्याभावोऽभिधेय इति महच्चित्रम् । अय
मस्मात्पृथगित्यन्यत्रान्यस्य स्वरूपाभावोल्लेखिनी प्रतीतिः । न चात्र १० पृथक्शब्दस्याभावोऽभिधेय इति किं न चित्रम् । अथ घटोऽत्र नाम्तीति
नञोऽभावद्योतकत्वात्कर्तृवाचकेन घटशब्देनैव क्रियाया अभिसंबन्धः । ततश्च प्रथमैव घटशब्दात् । घटस्याभावोऽत्रास्तीत्यत्र स्वभावशब्देन कर्तवाचकेन क्रियाया अभिसंबन्धसंभवात् । तत पत्र
प्रथमा । तत्संबन्धत्वेन तु घटशब्दात्यष्ठी । तात्पर्य प्रति तूम१५ यत्रापि नास्ति विशेषः । ताई घटः पटो न भवतीत्यत्रापि नत्रो
द्योतकत्वेनान्यार्थत्वाभावान्न तद्योगे घटशब्दात्पञ्चमी । पृथक्शब्दस्य तु वाचकत्वेनान्यार्थत्वात् । अन्यारादितरतें' इत्यनेन द्योतने ततः सा भवत्येव । तात्पर्य प्रति तूभयत्रापि नास्ति कश्चिद्विशेष इति
सर्व तुल्यम् । यदा तर्हि घटे पटस्याभाव इत्यभावश्चनेर्वाचकम्य २० प्रयोगस्तदा कथं न पञ्चमीति चेत् । अस्याप्यन्यार्थत्वाभावात् । स
एव ह्यन्यार्थः शब्दो योऽर्थान्तराभावोपहितेऽर्थान्तरे वर्तते । यथा घटात्पटः पृथगित्यत्र घटाभावोपहिते पटे वर्तमानः पृथक्शब्दः । न चाभावशब्दस्तथा । सर्वदाऽभावमात्रनिष्ठत्वात् । न हि भवति घटे
पटोऽभाव इति । किं तु पटस्याभाव इति । यदा तपटो घट इत्यु२५ च्यते तदानीमपटशब्दोऽभावोपहितपदार्थान्तरवाचकोऽन्यार्थोऽस्त्येव ।
१ पा. सू. २॥३॥२९॥
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परि. ५ सू. ८]
स्याद्वादरत्नाकरसहितः
९३१
पटाभावोपहितघटप्रतिपादकत्वादिति कथं नान्न पञ्चमीति चेत् । ननु कुत: शब्दादत्र पञ्चमी प्रेर्येत किमपटशब्दाद्धटशब्दाद्वा । नाद्यः पक्षः । अन्यार्थशब्दयोगे शब्दान्तरादेव पञ्चमीप्रयोगप्रतिपादनात् । न हि घटः पटात्पृथमित्यत्र पृथक्शब्दादेव पञ्चमी प्रयुज्यते । नापि द्वितायः । यतो यस्यान्यार्थेन शब्देन साक्षात्संबन्धो न भवति तम्मादेवेयं पञ्चमी ५ विधीयते । यथा घटः पटात्पृथगित्यत्रैव घटात् । न चात्रापटशब्दस्तथा । तस्य साक्षाद्वघटशब्देनैव संबन्धात् । न चात्र शब्दान्तरमस्ति यतः पञ्चमी शङ्कयेत ततोऽपटशब्दम्याप्यन्यादिशब्दैः समानयोगक्षेमत्वासंभवान्नान्यार्थत्वम् । अपि च पृथगादिशब्दाः पर्याया इत्यत्रेतरशब्दोऽपि पृथक्शब्दसमानार्थतया संमतस्ते । इदमम्मात्पृथगन्यदी- १० न्तरमितरद्भिन्नमिति त्वयैव स्वग्रन्थेऽभिधानात् । तच्चासंगतम् । इतरध्वनेरन्यार्थतायाम् 'अन्यारादितरते' इत्यत्रान्यार्थत्वेनास्य गतत्वान्न भिन्नस्योपादानं स्यात् । अथापोद्धारव्यवहारापेक्षया तस्य पर्यायता द्वयोरुपलक्षितयोरेकतरवचनत्वरूपेण तु विशेषणेतरशब्दः सूत्रे भेदेनोद्दिष्टः । तर्हि तदपेक्षयैव ननादरपि पर्यायतास्तु । द्योतकत्वादिना १५ तु विशेषेण सूत्रेऽन्यार्थत्वेन न गृह्यत इति किं न स्यात् । पृथक्त्वगुणाकक्षीकरणे चायं विशेषलाभो यद्गुणः कर्मणः पृथगुणकर्मणी सामान्याद्गुणकर्मसामान्यानि विशेषेभ्यो गुणकर्मसामान्यविशेषाः समवायादित्यम् वलद्वतिरनुभूयमानः पृथक्त्वव्यवहारोऽनुपचरितवृत्त्यैव समर्थितः स्यात् । अन्यथा तु द्रव्येष्वेव पृथक्त्वस्य भावात्तत्रैव २० तत्प्रत्ययो मुल्यः स्यादिति । यच्च 'अप्राप्तिपूर्विका प्राप्तिः संयोगः' इत्युक्तं तत्रापि यदा प्राग्भाविसान्तरत्वस्वरूपपरिणामपरित्यागेन निरन्तररूपतया यः कथंचित्तादात्म्यपरिणामः स संयोगः संमतस्तदा न कश्चित्प्रत्यर्थी । नैरन्तर्येण परिणतानि हि वस्तूनि संयुक्तव्यवहारगोचरतां प्रतिपद्यन्ते । निरन्तरावस्थितदेवदत्तयज्ञदत्तगृहयत् । २५ ननु नायं दृष्टान्तः कान्तः । स्तम्भाद्यनेकपदार्थसंयोगस्वभावयोर्गृहयोः
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प्रमाणनयतत्त्वालीकालङ्कारः
[ परि. ५सू ८
संयोगगुणाश्रयानुपपत्तेः । निर्गुणत्वाद्गुणानामिति चेत् । नैवम् | गृहस्यावयवत्वेन संयोगगुणत्वायोगात् । कथं पृथ्वीपाथस्तेजसांविजातीयानामारम्भकत्वमिति चेत् । नीलधवलादितन्तूनां कथं पार्थिवा एवामी सर्वेऽपीति चेत् पृथिवीपाथस्तेजांस्यपि द्रव्याणि किंन ५ भवन्ति द्रव्यत्वेन सजातीयत्वे कालाकाशादिद्रव्यान्तरमपि तदारम्भकं स्यादिति चेत् । पार्थिवत्वेन सजातीयत्वे मृत्स्नादिकमपि किं न पटारम्भकं स्यात् । तन्तुत्वेन सजातीयत्वमत्र विवक्ष्यत इति चेत् । अत्रापि पौगलिकत्वेनेति विद्धि । पौगलिकत्वेन सजातीयत्वे पर्वतसमुदारम्भः प्रभृतिकमपि गृहारम्भकं भवेदिति चेत् । तन्तुत्वेनापि १० सजातीयत्वे पर्वत तुल्यस्तन्तुकूटोऽपि पटारम्भकः किं न भवेत् । भवत्येव यदि तावत्परिमाणपटनिष्पादन निपुणस्तन्तुवायः स्वादिति चेत् । इतरत्रापि भवत्येव तद्गृहारम्भकं यदि तथाविधः सूत्रधारः स्यात् । यथा तु भूयांसस्तन्तुवायास्तदंशेभूयसः पटान्निष्यादयन्तीति संभाव्यते तथान्यत्रापि संभावनेयमनिवार्या । ननु पौगलिकोऽप्यौर्व१५ वन्हिर्न कदाचिद्रहारम्भको दृस्तरिंक जरतरतन्तु संन्तानः पटारम्भकः कदाप्यालोकि । यथा तु नूतनपरिणामापन्नानां प्रागारम्भसामर्थ्यं तेषामासीत्तथौर्वानलादेरपि परिणामान्तरापन्नस्य तदासीदेवेति सर्वं तुल्यम् । एवं च गृहं द्रव्यं सजातीयद्रव्यारम्यत्वात्पटवदिति सिद्धम् । तथा च सिद्धस्तत्र संयोगः । न च सन्नप्यसौ भिन्न २० एव भविष्यतीति वाच्यम् । तथानीक्षणाद्भिन्नत्वाविशेषेण चैत्रकुण्डलसंयोगस्यापि मैत्रकुण्डलसंयोगापत्तेश्च । तत्र तस्य समवायान्न । कश्चिद्दोष इति चेत् / सिद्धस्तर्हि कथंचिद्व्यतिरेकः कथंचिदविण्वग्भावादन्यस्यास्य निराकरिष्यमाणत्वात् 1 यस्तु संयोगं स्वरूपतोऽपि पराकुरुते सौगतस्तस्य संयुक्तावताविति प्रत्ययः २५ किमालम्बनः स्यात् । न तावद्रूपालम्बनः । तत्प्रत्ययविलक्षणत्वाद्रूपादिनिमित्तो हि प्रत्ययो नीलं पीतमित्याकारेणैवोल्लसेत् । अस्तु तर्हि
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परि. ५ स. ८] स्याद्वादरत्नाकरसहितः
९३३ निरालम्बन इति चेत् । कुतोऽस्योत्पत्तिः । वासनापरिपाकादिति चेत् । नीलादिप्रत्ययोऽपि तत एवास्तु । नीलादेर्विकल्पम्तत एवानुभवस्त्वर्थादिति चेत् । संयोगानुभवोऽपि तत एवास्तु । नास्त्येव संयोगरूपोऽर्थ इति कुतस्तदनुभवः स्यादिति चेत् । नीलादिरूपोऽर्थः कुतः स्यात् । प्रतिभासस्तु यथैकस्य तथान्यस्याप्यम्त्येव द्रव्यैकदेशत्वनिमित्तः संयोग- ५ प्रतिभास इति चेत् ! मैवम् । एकस्य देशस्य सौगतानामभावात् । द्रव्यनैरन्तयनिवन्धनोऽयमिति चेत् । अन्तराभावो यदि तुच्छस्तदा न किंचिदनेनोक्तं स्यात् । अथातुच्छस्तदा संयोगहेतुक एवायमुक्तो भवेत्, इति सिद्धः संयोगः । यस्तु चिरोत्पन्नस्य संयोगजः संयोगो न्यपादि । नायमवदातः । कर्म जत्वात्तम्प । हस्ताद्यवयवक्रियायां तद- १० विश्वग्भूतम्यावयविनोऽपि कथंचिक्रियायाः प्राक्प्रसाधितत्वात् । यदपि 'अप्राप्तिपर्विका' अइत्याचवादि तत्रापि यदि नैरन्तपरिणामपरित्यागेन सान्तररूपतया परिणतिर्विभागोऽभिधीयते तदा न विवादः । अन्यत्तु सर्व संयोगवद्वितर्कणीयम् । यस्तु विभागजो विभागः समगीर्यत नासो संगच्छते । ननूक्तं तत्सिद्धौ साधनम् । द्रव्यारम्भक- १५ संयोगविरोधिविभागोत्पादकत्वादिति । सत्यं किं त्वनै कान्तिकम् । यदा हि भुजगद्रव्ये विफणपरिहारेणोत्कणत्वमुपजायते तदा तावत्तदवयवेषु क्रियानभोभागेभ्यो विभागं करोतीति त्वयापि प्रतिपद्यते । सा च द्रव्यारम्भकसंयोगविरोधिविभागोत्पादिकैवेति कुतो नानेकान्तः । ननु भुजगद्रव्यमुभयदशायामपि तदेव । तथैव प्रत्यभिज्ञानादिति नाम्या . २० स्तादृशविभागोत्पादकत्वमिति चेत् । ताह बंशेऽपि पायमाने दारुद्रव्यं बंशदलदशायां तदेव तत एव हेतोरिल्यन्यत्रापि नाम्याम्तदुत्पादकत्वं स्यात् । तथा चासिद्धो हेतुर्भवेत् । वंशद्रव्यं तावद्विनष्टमेवेति चेत् । अन्यत्रापि विफणद्रव्यं विनष्टमेव । यदि तत्र तद्विनाशः कथं फणित्वेन प्रत्यभिज्ञानमिति चेत् । अन्यत्रापि यदि वंशविनाशः कथं २५ दारुरूपतया प्रत्यभिज्ञानमिति समानम् । ननु विफणिता फणिद्रव्या
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः परि. ५ म. ८ वस्थैव न द्रव्यं वंशोऽपि दारुद्रव्यावस्थैव न द्रव्यमिति किं न स्यात् । वंशस्य द्रव्यत्वं त्वयापि स्वीकृतमिति चेत् । न केवलमस्यैव । विफणद्रव्यस्यापि । ननु विफणता
यदि द्रव्यं न तदा भावप्रत्ययेन तन्निर्दिश्यतेति चेत् । वंशोऽपि ५ यदि द्रव्यं तदा दारुद्रव्यस्य वंशतेति कथं भावप्रत्ययेन निर्दिश्यते ।
यथा च दारुद्रव्यपर्यायतामपेक्ष्य तथा निर्देशो द्रव्यत्वं पुनरपेक्ष्य वंश इति निर्देशस्तथाऽन्यत्राप्येकत्र विकणता । अन्यत्र तु विकगं द्रव्यमित्यभिधीयता को दोषः । ननु वंशस्य म्वकीयनवपुराणादिपाय
परम्परापेक्षया द्रव्यत्वं युज्यतां नाम । विफणद्रव्यस्य तु तत्कथमिति १० चेत् । नन्वत्रापि सन्त्येवोच्छासनिश्वासा अन्ततः प्रतिक्षणभाविनः
शुद्धपर्यायरूपा अर्थपर्यायात्तदपेक्षया तत्किं न भविष्यति । ततः सिद्धमिदं विफणद्रव्यावयवक्रिया द्रव्यारम्भकसंयोगविरोधिभागोत्पा. दिका नभोमागविभागकारिणी चेति सिद्धो व्यभिचारः । कथमेकैव
क्रियावयवविभागमाकाशावयवविभागमुत्तराकाशसंयोगं च कर्तुं शक्तेति १५ चेत् । तत्किमेकेन वस्तुनैकमेव कार्य कर्तव्यं, तथात्वे हि कथमे
कोऽपि प्रदीपस्तैलापहारं तिमिरसंहारं कजलभार स्वगोचरं ज्ञानं च कर्तुं समर्थः स्यात् । ततो विचित्रशक्तयो भावा विचित्राणि कार्याणि कर्तुमीशत एव । विकसत्कमलदलरूपो व्यतिरेकदृष्टान्तोऽपि साधना
व्यावृत्तः संकुचितकमलद्रव्यदलेषु क्रियाया द्रव्यारम्भकसंयोगविरोधि२० विभागोत्पादकत्वात्तद्विनाशेन विकस्वरत्कमलद्रव्यान्तरस्यैवोत्पत्तेः ।
कालात्ययापदिष्टता चास्य हेतोरनुमानबाधितप्रतिज्ञानन्तरं प्रयुक्तत्वात्। तथा हि विवक्षितावयवक्रिया, आकाशदेशेभ्यो विभागं करोति । क्रियात्वात्, यैवं सैवम् । यथाङ्गुलिक्रिया । तथा चेयं तस्मात्तथेति ।
न चात्र तथाविधविभागजनकत्वक्रियात्वयोः सहभावमात्रं न व्यासि२५ रिति वाच्यम् । व्यभिचारादर्शनात् । तदप्युपाघेरनुपलम्भात् ।
अन्यथा धूमादावपि कार्यकारणभावस्य शङ्कयमानौपाधिकत्वेन व्याय
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पारे. ५ मू. ८]
स्याद्वादरत्नाकरसहितः
भावापत्तेः । एतेन ‘यदि हि भिद्यमानवंशाद्यवयविद्रव्यस्य' इत्यादि प्रत्युक्तम् । योऽपि कारणाकारणविभागाद्विभागोऽभ्यधायि सोऽपि नोपपद्यते । करक्रियायां सत्यामवश्यमवयविनि क्रियायाः प्राक्प्रसाधनात्, इति कमंज एव विभागोऽस्ति न विभागजः । यदुक्तं 'परत्वमपरत्वं च' इत्यादि तत्र परत्वापरत्वे रूपादि च पदार्थ ः सहैवोत्पद्यते । न त्वपेक्षा ५ बुद्धिवशात्पश्चात् । तस्या द्वित्वादाविवाभिव्यञ्जकत्वेनैव व्यवस्थितेः । किं च कालापेक्षयोः परत्वापरत्वयोरपेक्षात्रुद्धिकाले कथमुत्पत्तिरुत्पद्यते । युवस्थविरपिण्डयोहि परापरकालप्रदेशाभ्यां संयोगम्तदुत्पादकोऽकथि। न च यदा देवदत्तम्यापेक्षाबुद्धिस्तदा तौ विद्यते यतस्ताभ्यां तत्संयोगः स्यात् । कालम्य नित्यत्वात्तदापि तौ स्त एवेति चेत् । ननु कालभ्य १० नित्यत्वे तयोरभाव एव भवेत् । ननु तदानी सत्तानित्यम्यैकरूपत्वेन देशासंभवात् । यौ तु कल्पितो देशौ तौ तदानीमसन्तावेवेति कथं ताभ्यां तसंयोगः स्यात् । अपि च परत्वापरत्ववन्मध्यममिति व्यवहारकारणं मध्यमत्वमपि किं न कक्षीक्रियते । ननु कुतः कारणादम्यो. त्पत्तिः स्यादिति चेत् । यत एव तदाधारभूतम्य पदार्थस्य । कुतो वा १५ परत्वापरत्वयोरप्युत्पादो निगद्यते । अपेक्षाबुद्धेनिमित्तात्परापरदिकालप्रदेशसंयोगादसमवायिकारणाचेति चेत् । न त्विदमप्यपेक्षाबुद्धेमध्यमदिकालप्रदेशसंयोगाचोत्पत्म्यते को दोषः । केवलमियमपेक्षाबुद्धिः संनिकृष्टासनिकृष्टोभयगोचरेति मध्यमौ दिक्कालौ न कौचिद्विवेत इति चेत् । किं मध्यस्थपदार्थदेशे तयोरसत्त्वान्नित्यव्यापकत्वात्तथा २० व्यवहाराभावाद्वा । नायः पक्षः । अनभ्युपगमात् । न द्वितीयः । परापरदिकालयोरप्यभावापत्तेः । न तृतीयः । मध्यमादिक्प्रदेशो मध्याहोऽयमिति दिकालप्रदेशायास्तच्यवहारदर्शनात् । यथा च मध्यमत्वमुपचरितमनयोस्तथा परत्वापरत्वे अपीति मध्यमत्वमपि वा गुणत्वेन स्वीकरणीयम् । परत्वापरत्वे अपि वा तत्त्वेन त्यज्यताम् । नान्तराव- २५ स्थातुं लभ्यते । शेषमनयोर्द्धित्वादिवढ्षणीयम् ! तदेव चैते ताथा
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Or
प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. ५ स. ८ गतं प्रति समर्थनीये । यदपि बुद्धिभेदस्याविद्यायाश्चातुर्विध्यमभ्यधायि । तदप्यसाधीयः । स्वप्नस्य विपर्ययेऽन्तर्भावात् । विपरीतैककोटिनिष्ट
नं हि विपर्ययलक्षणम् । तन्मात्रापि विद्यत एव । स्वग्ने हि यदा देशान्तरास्थितो वयस्य इह स्थितो दृश्यते तदा तत्र देशान्तरस्थित५ त्वाद्विपरीतस्येहस्थत्वस्य धर्मस्य निर्णयो विपर्ययलक्षणभक्षुणमस्त्येव ।
अथ विपर्ययान्तर्गतम्याप्यमुख्योपरतेन्द्रियग्रामत्वं प्रलीनमनस्कत्वं च विशेषमपेक्ष्य शुक्तिकादौ रजतादिप्रत्ययरूपाद्विपर्ययाद्भेदेनोपादानमिति चेत् । ननु किं प्रयोजनोऽयं ततो भेदोपन्यासः । प्रयोजनमन्तरे
णापि तथोपन्यासे हि. कस्यचिदात्मालोकेनैकतानतया जाग्रद्दशायामप्यु१० परतेन्द्रियग्रामस्याङ्गुष्ठप्रमाणः श्यामाकतण्डुलप्रमाणो वायमात्मेत्यादिवि
पर्ययो ज्ञानमपि भेदेनोपन्यसनीयं स्यात् । ऐन्द्रियकविपर्ययाद्विशेषसद्भावात् । विद्यापि न चतुर्धात्वमादधाति । तांगमादेरपि विद्याभेदस्य विद्यमानत्वात् । यथा चैतस्य प्रत्यक्षानुमानाभ्यां भेदः प्रामाण्यं
च तथा प्रागेवावो चाम । आत्मप्रदेशवृत्तित्वायावद्व्यभावित्वेऽपि १५ नास्या उपपद्यते । कथंचिहृद्ध्यात्मन आत्मनः प्राक्प्रसाधितत्वात् ।
न च बुद्धिरूपस्वरूपापायेऽप्यात्मनः कचित्कदाचिदवस्थानमुपपन्नम् । निःस्वरूपस्य खरविषाणादेरपि सत्त्वप्रसंगात् । न चैते आत्मप्रदेशवतित्वायायव्यभावित्वे सर्वबुद्धिव्यापिनी विरूपाक्षबुद्धौ म्बयमनिष्टेः ।
तस्या आत्मव्यापिकाया नित्यायाश्च स्वीकारात् । न चाम्मदादिबुद्धय२० पेक्षयैवात्र विशेषणे नेश्वरबुद्ध्यपेक्षया । तम्या अम्मद्वद्धिभ्यो वैशिष्टया
दिति वक्तव्यम् । एवं हि तत्वादेव गुणत्वमप्यम्या मा भूदिति सप्तमपदार्थापतिः । यदपि 'परत्वादिनिमित्तत्वम् । अस्याः प्रागुक्तं तदपि परत्वादीनामबुद्धिजत्वसमर्थनादेव पराम्तमवगन्तव्यम् ।
यच्च सुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्नानामात्ममनःसंयोगजत्वम् । २२५ अगादि तदपि नावदातम् । मुखदुःखयोर्वेदनीयोदयजन्यपरिणाम
विशिष्टस्येच्छाद्वेषयोर्मोहनीयोदयोत्पाद्यपरिणामापन्नस्य प्रयत्ने वीर्या
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परि. ५ सु. ८ ]
स्याद्वादरत्नाकर सहितः
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न्तरायक्षयोपशम विशेष संगतस्थात्मन एव कारणत्वनिर्णयात् । उत्पन्ना एव मी मनः सापेक्षसमुत्पन्नसंवेदनेन वेद्यन्त इति । प्रयत्नस्य चैतेषु परिस्पन्दरूपत्वेन कर्मतैव युज्यते न गुणत्वम् । न चात्मनो व्यापकत्वात्कथं परिस्पन्द इति वक्तव्यम् । व्यापकत्वस्यात्मनि प्रागेव प्रतिक्षेपात्परिस्पन्दस्य च साधनात् । किं च यथात्मन्यमी गुणास्तथा भयमपि किं न गुणत्वेन निजगदे । अथ कुतोऽपि स्वस्यापार्यत्वंता भय ( स्वस्थावार्यत्वं तद्भयम् ) मिति बुद्धिविशेष एव भयं तर्हि - 'अप्राप्तप्राप्तिचिन्ता इच्छा । परापकारचिन्ता द्वेषः इत्येतावपि बुद्धिविशेषाचेव किं न स्याताम् । अथाप्राप्तप्रार्थनेच्छाप्रज्वलनात्मको द्वेष इति कथमनयोर्बुद्धिरूपता स्यादिति चेत् । तर्हि उद्रेकस्वरूपं १० भयमपि कथं तद्रूपं स्यात् । अथ बुद्धिरनयोः कारणं न तु तद्रूपावेवाम् । तथा हि--प्रथमं प्रमाता वस्तु जानाति, तत इच्छति, द्वेष्टि वा । तदितरत्रापि तुल्यम् । प्रथमं हि पाटच्चरादीञ्जानाति ततो विमेतीति । अथास्तु तज्ज्ञानपूर्वकता भवस्य न तु तावन्मात्रेणास्य बुद्धेर्भेदो युक्तः । पाटच्चरादिबुद्धितो बुद्धधन्तररूपस्यैवास्योत्पादिति चेत् । तदखिलं १५ तदितरत्राप्यन्यूनातिरिक्तमेव । अथ कथमिच्छाद्वेषयोर्बुद्धिरूपतां भवन्तो वर्णयन्ति । ततो भिन्नकारणजन्यत्वेनानयोर्युष्मन्मते वर्णनात् । ज्ञानवृत्तिक्षयक्षयोपशम जन्या हि बुद्धिमहनीयोदय कार्यों पुनरिच्छाद्वेषौ । न वा कारणभेदेऽपि कार्यस्याभेदो युज्यते । घटपटयोरप्यभेदापत्तेरिति चेत् । एवमेतत् । अत एव प्रसंगरूपतयैतदुपन्यासो मोहनीयकार- २०णकमपि चेद्भयं बुद्धिरूपतया प्रकञ्चते तदानीमिच्छाद्वेषौ वराकौ केनापराधेन परिभूयेते । तावपि हि बुद्धिरूपतया वण्यताम् । न चैवम् । ततस्तद्भयमपि गुणान्तरमेवेति स्थितम् । एवं शोकजुगुप्सादयोऽपि । सौगतं प्रति पुनरमीषां विज्ञानाभिन्नहेतुजत्वस्य हेतोः प्राक्पराकृतत्वात्कथंचिदतिरेकिणां सिद्धिः कृतैव । गुरुत्वमपि पदार्थानां पतन- २५. शक्तिरतीन्द्रियेति केचित् । सोऽपि यदि गुणो गण्यते तर्हि स्फोट
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः
परि. ५ सु. ८
घटनशक्तिरपि कृपीटयोनिर्गुणोऽस्तु । नाम्त्येव सा काचिदिति चेत् । गुरुत्वमपि मा भूत् । तदभावे कथं पतनभिति चेत् । शक्त्यभावे स्फोटोऽपि कथम् । प्रतिबन्धाभावसहकृता कृशानोरिति चेत् । पतनमपि संयोगरूपप्रतिबन्धकविशेषाभावेन सहकृतात्फलादेरस्तु । ५ ततो यदि गुरुत्वं गुणोऽभ्युपगम्यते तदा प्रतिकार्य भिन्नशक्तिकत्वा
दावानामायातमानन्त्यं गुणानाम् । लघुत्वं च कुतो न गुणः । गुरुत्वाभावरूपत्वात्तम्य न गुणत्वमिति चेत् । गुरुत्वमपि लघुत्वाभावः किं न स्यात् । ननु गुरुत्वाभावरूपत्वे तारतम्यं न स्यादित्यन्यत्रापि
समानम् । ननु पतनरूपकार्यदर्शनाद्गुरुत्वमनुमिमीमहे । लधुत्वं तु १० कुतोऽनुमातव्यमिति चेत् । कुत्रापि तावदुत्पन्नात् । प्रतीत हि निर्वातनिष्कम्पप्रदीपकुलेषुत्पतनं कचित्तिर्यपवनान्नितिं हि तियपवनं पवने । यद्यपि चात्र म्पर्शवहादरपुद्गलत्वेन गुरुत्वमपि जलभूभ्योरिव निर्मीतमस्ति तथापि वस्तुस्वाभाव्याल्लघुत्वमेवात्रातिशयवत् ।
जलभूम्योस्तु गुरुत्वमेव । अत एव न तयोः पवनवदुत्पतनमपि संपद्यते । १६ यदा तु नाराचे समारोपस्तयोः क्रियते तदैकतरपाश्चारोपितगरीयो
द्रव्येणान्यतरगुरुद्रव्यम्य गुरुत्वे प्रतिबद्धे लघुत्वस्योत्कलितस्य भावाद्भवत्येवोत्पतनम् । अत एव च निश्चीयतेऽस्मात्तस्य लघुत्वं यतो व्यवहरन्तीदमस्माल्लुध्विति निपतद्गरीयो द्रव्यकारितमेवास्योत्पतनमिति चेन् । नैवे विपर्ययस्यापि कल्पयितुं सुशकत्वात् । शक्यं ह्येवमपि वक्तुमुत्पतल्लघुद्रव्यकारितमिति सिद्धम् । स्वतन्त्रावस्थायां तु तस्य गुरुत्वमेवातिशयवदिति सम्यैव कार्य जायते न लघुत्वम्येति । सैद्धान्तास्तु गुरुत्वं लघुत्वं च स्पर्शविशेषावेतो म्पर्शनप्रत्यक्षोपलक्ष्यावित्याहुः ! तो च कथंचिद्भिन्न प्राक्म्पर्शगुणसाधनादेव
सौगतं प्रति प्रसिद्धौ बोद्धव्यौ । एवमेव स्नेहरूक्षतास्पर्शावपि २५ वक्ष्यमाणो । द्रवत्वमपि यदि परिणामविशेषः स्कन्धानाम
१ कृपीटयोनिः - अग्निः।
२०
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२४
परि. ५ स. ८] स्थाद्वादरत्नाकरसहितः भिधीयते तदासौ स्वीक्रियत एव । परमाणुषु शक्तिरूपतयैव तदस्ति न खलु पार्थिवा अग्मयास्तैजसा वा विसदृशतत्तज्जात्युपलक्षिताः परमाणवः केचित्सन्ति पुद्गलमात्ररूपत्वात्तेषामित्युक्तं प्राक् । तं तं पुनः संघातमापन्नास्तथा तथा व्यपदिश्यन्त इति कुतोऽणषु तसंभवेत् । नीलगुणादिवचास्यापि सौगतं प्रति सिद्धिः । स्नेहोऽपि ५ म्वीक्रियते न पुनरप्स्वेव पार्थिवद्रव्येप्वपि दर्शनात् । प्रतीतो हि तैलवतजतुमधूच्छिष्टादिषु पामरप्रायपुरुषाणामप्यद्भयः सविशेषोऽसौ ! न हि शुद्धान्तःकुम्भे संग्रहस्त कार्य तथा दृश्यते यथा तैलादिकुम्भे । अथोपष्टम्भकान्तद्रव्यगत एव तत्र स्नेह : प्रतिभासते न पुनः स्वगत एवेति चेत् । मैवम् । विपर्ययस्यापि कल्पनापत्तेः । शक्यते वक्तुम- १० म्भसि पार्थिवोपष्टम्भकद्रव्यगतोऽसौ चकास्ति न तु स्वगत इत्यम्भस्येव तदभावः । तस्माद्यत्र यथा प्रतीतिस्तत्र तथैवाभ्युपगमः संगच्छत इत्युभयस्या अबाधिताया: सद्भावादुभयत्रापि तदुपगमो युक्त एव । यथा च खेहो गुण: कथ्यते तथा तत्समानयुक्ति रूक्षत्वमपि गुणो गणनीयः । न रूक्षत्वं नाम मुणोऽस्ति स्नेहाभावे रुक्षत्वव्यवहार- १५ सिद्धेरिति चेत् । न । रूक्षताभावे स्नेहव्यवहारप्रसंगात्लेहस्याप्यभावापत्तेः । शीतोष्णम्पादिवत्म्पर्शनेन्द्रियतत्मेहम्य विधिमुखेन प्रतिभासागुणरूपतास्वीकारे रूक्षत्वस्यापि सास्तु । द्वयमपि चैतरम्पर्शविशेषरूपमेवेति स्नेहम्य म्पर्शात्पृथगभिधानमसंगतमेव । यदि लेहः स्पर्शविशेषरूप: स्यात्तर्हि चक्षुषा निरीक्षितमात्र एव तैलादौ १० स्निग्धोऽयमिति प्रतीतिन भवेदिति चेत् । नेयं चाक्षुषी प्रतीतिरपि त्वानुमानिकी । इराद्भासुररूपे निरीक्षिते, उप्योऽयं वहिरितिप्रतीतिवत् । यथा हि तादृशं रूपं तादृशम्पशक्निामावित्वेन समुपलब्धं पुनः क्वचिद्दश्यमानं तं गमयति तथात्र तैलं तथाभूतम्पर्शाबिनाभाविनिश्चितं तं गमयत्वेव । एवं चाम्य द्वीन्द्रियग्राह्यत्वमपि २५ व्यपाकृतमवगन्तव्यम् । योऽपि संस्कारस्त्रेधा न्यधाथि । तत्र न
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. ५ सू. ८ वेगो नाम सातत्येन क्रियोत्पादादन्यः कुतश्चित्प्रमाणात्प्रतीयते । वेगेन गच्छतीति प्रतीतेरेवासौ प्रतीयत इति चेत् । तर्हि क्षिप्रं गच्छतीति प्रतीतेः क्षिप्रता गुणो भवेत् । क्रियाणां शीघ्रमुत्पादे
प्रतीतिरियमिति चेत् । अन्यत्रापि तथास्तु । क्रियासातत्योत्पादनिमित्तत्वे ५ चास्याः प्रतीतेः स्वीकृता । वेगेन शास्त्रं जानाति वेगेन षष्टिकाः पच्यन्त
इत्यादिप्रतीतिरप्यस्खलन्ती सकलप्रमातृकाणामुत्पद्यमानानुपचारितवृत्त्यैव समर्थिता स्यात् । न ह्यत्र वेगो गुणः संभवति । तस्य नियतदिक्रियाप्रबन्धहेतुत्वेनाभ्युपगमात् । तस्याश्चात्र भावाद्वेगेनाभ्युपगमे कथं शरादौ सातत्येन क्रियोत्पत्तिः स्यात् । तदुत्पादककारणाभावाद्धनु:संयोगादाद्यक्रियाया एवोत्पत्तिरिति चेत् एवं तर्हि सातत्येनोत्पद्यमानानां शब्दानां हेतुर्योमन्यपि वेगोऽङ्गीकरणीयः । संयोगाद्विभागाद्वाद्यशब्दस्यैवोत्पादात् । आयो द्वितीयम्य द्वितीयस्तृतीयस्येत्येवमुत्तरोत्तरः शब्द उत्तरोत्तरस्य शब्दस्य कारणमिति चेत् । कर्मस्वप्येवमस्तु । कथमेवं
कदाचित्कर्मविराम इति चेत् । वेगाभ्युपगमेऽपि कथं वेगस्य तत्का१५ रणस्य कचित्कुड्यादिसंयोगेन विरोधिना विनाशात् कचित्तु स्तिमि
तमारुतसंयोगेनेति चेत् । अस्माकमपि तेनैव संयोगेन कारणभूतस्य कर्मणो विनाशात्तदग्रतस्तदनुत्पादोऽस्ति । एवं चेयतैव सर्वस्याक्षुण्णस्योपपत्तेः किमनेन कर्तव्यम् । भावनास्थितिस्थापकावपि स्मृतौ ।
स्थितिस्थापने च जनथितव्ये शक्तिविशेषौ भावानामभ्युपगम्यते । २० शक्तिरूपयोरप्यनयोर्गुणतायामानन्त्यं गुणानां तासामानन्त्यात् । आत्म
नोऽसत्त्वात् । किमधिकरणा स्मरणशक्तिः प्रतिक्षणमपरापरेषामेव तथा
१ षष्टिका:- तन्दुलजातिविशेषाः । एते तन्दुला वीजवापानन्तरं रात्रीणां षष्ट्या-मासद्वयेनेति यावत् पच्यन्ते । षष्टिकाः षष्टिसत्रेण पच्यन्त इति व्युत्पत्तिः !
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पारे . ५ सु. ८] स्याद्वादरलाकरसहितः तथा पदार्थानामुत्पादात्कस्य स्थितिस्थापनशक्तिरपि स्यादिति सौगतः। सोऽप्यात्मनः समर्थयिष्यमाणत्वात् । क्षणिकत्वस्य च प्राक्प्रातक्षिसत्वादपास्त एवावगन्तव्यः । धर्माधर्मयोस्तु द्रव्यरूपत्वेन समर्थितत्वात्समर्थयिष्यमाणत्वाच्च न गुणत्वम् । अनुगुणे तत्प्रस्तावन एव च शाक्यचार्वाकयोरप्येतत्परिपन्थिनोः प्रतिक्षेपः प्रेक्षणीयः । यदपि ५ शब्दस्याम्बरगुणत्वेन प्रतिपादनम् । तदपि नावदातम् । पौगलित्वेनास्य प्राक्साधनात् । ननु च वक्तव्यापारात्पुद्गलम्कन्धः शब्दतया परिणमन्नेकोऽनेको वा परिणमेत् । न तावदेकः । तस्य सकृत् सर्वदिग्गमनायोगात् । नाप्यनेकः । एकस्माद्वक्तव्यापारादनेकशब्दोत्पत्तेरनुपपतेः । न च व्यापारानैक्यं सकृदेकस्य वक्तः संभवति । १० प्रयत्नस्यैक्यात् । अस्तु वानेकोऽयं तथापि यावद्भिः सर्वदिक्कैः श्रोतृभिः श्रयते शब्दः । तावत्संख्या वक्तव्यापारान्निष्पन्नास्तच्छ्रोत्राभिमुखं गच्छन्ति । तस्मिन्सदृशशब्दकोलाहलश्रवणं श्रोतजनस्य कुतो न,
१ 'वेगाख्यो भावनासज्ञः स्थितस्थापकलक्षणः । संस्कारस्त्रिविधः प्रोको नासौ संगच्छतेऽखिलः ॥ ६८४ ।। क्षणिकत्वात्पदार्थानां न काचिद्विद्यते क्रिया। यत्प्रबन्धस्य हेतु: स्यात्संस्कारो वेगसंज्ञकः॥ ६८५॥ भावनात्यस्तु संस्कारश्चेतसो वासनात्मकः । युक्तो नात्मगुणश्चेदं युज्यते तन्निराकृतेः ॥ ६८६ ॥ स्थितिस्थापकरूपस्तु न युक्तः क्षणभङ्गतः । स्थितार्थासंभवाद्भावे ताप्यादेव संस्थितिः ॥ ६८७ ॥ क्षणं त्वेकमवस्थानं स्वहेतोरेव जातितः । पूर्वपूर्वप्रभावाच प्रबन्धनानुवर्तनम् ॥ ६८८ ॥ नान्यथोदयवानेष कस्यासी स्थापकस्लतः । न चास्य दृष्टहेतुत्वं संस्कारोऽन्योऽपि वा भवेत् ॥ ६८९ ॥ उत्पन्नस्यैव चेष्टोऽयं वस्त्रादेः स्थापको गुणः । गुणसंस्कारनामैवं सर्वथापि न संभवी ॥ ६९० ॥ मनोयोगात्मना पूर्व विस्तरेण निबन्धनात् । परोक्तलक्षणोपेतं नादृष्टमुपपद्यते ॥ ६९१ ॥' इति तत्त्वसंग्रहे।
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२४२ प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. ५ सू. ८
भवेत् । सर्वेषां शब्दानामेकैकश्रोतृग्राह्यत्वपरिणामाभावादिति चेत् । तयेककः शब्द एकैकश्रोतृग्राह्यत्वपरिणतः सर्वदिशो गच्छन्नेकैकदिक्केनैव श्रोत्रा श्रूयत इत्यायातम् । तच्चायुक्तम् । एकदिक्केषु प्रणिधानवत्सु श्रोतृषु स्थितेष्वत्यासन्नश्रोतृश्रुतस्य परापरश्रोतृश्रवणविरोधात् । ५ परापर एव शब्दः परापरश्रोतृभिः श्रूयते न पुनः स एवेति चेत् ।
स तर्हि परापरः शब्दः किं वक्तव्यापारादेव प्रादुर्भवेदाहोस्विपूर्वपूर्वश्रोतृश्रुतशब्दात् । प्रथमपक्षे कथमसौ परापरैः श्रोतृभिः श्रूयमाणः पूर्वपूर्वैः समानाकाशश्रेणिस्थैरपि न श्रूयत इति महदाश्चर्यम् ।
श्रवणेऽनुकूलकलश्रुतिरेव भवेत्तेषाम् । तद्ब्राह्यत्वपरिणामामावस्योक्त१० त्वान्नायं दोष इति चेत् । नन्वयमपि कुतो न स्यात् । तत्कारणानां
तथाजनकस्वभावत्वादिति चेत् । सेयं पादप्रसारिका । द्वितीयविकल्पे तु पर्यन्तस्थितश्रोतृश्रुतशब्दादपि शब्दान्तरोत्पत्तिः कथं न भवेत् । पुद्गलम्कन्धम्य तदुपादानम्य सद्भावात् । वक्तव्यापारजनितवायु
विशेषम्य तत्सहकारिणस्तत्राभावादिति चेत् । तर्हि वायवीयः शब्दोऽ१५ म्तु किं वा परेण पुद्गलविशेषेण तदुपादानेन कलितेन कर्तव्यम् ।
तथोपगमे स्वमतविरोधः स्याद्वादिनो दुर्निवार इति । तदेतदखिलं सविशेषमम्बरगुणत्वेऽपि शब्दस्यावतरत्येव । तथा हि-ताल्वाद्याकाशसंयोगादाकाशे शब्दः प्रादुर्भवन्नेक एव प्रादुर्भवेदनेको वा ! प्रथमपक्षे
कुतस्तस्य नानादिकैः श्रोतृभिः श्रवणं सकृत्सर्वदिक्कगमनासंभवात् । २० द्वितीयपक्षोऽपि नोपपद्यते । एकस्मात्ताल्वाद्याकाशसंयोगादनेकशब्दो
त्पत्तिविरोधात् । न चानेकस्ताल्वाद्याकाशसंयोगः सकृदेकस्य वक्तुः संभवति । प्रयत्नस्यैकत्वात् । न च प्रयत्नभेदं विना ताल्वादिक्रियापूर्व ........ .... रागकम्ताल्वाद्याकाशसंयोगो युज्यते । यतोऽनेकः शब्दः
स्यात्, अस्तु वा यतः कुतश्चिदाद्यः शब्दोऽनेकस्तथापि सदृशशब्दानां २५ कोलाहलश्रुतिप्रसंगः । समानशब्दस्यानेकसकृत्सर्वदिकाशेषश्रोतृश्रव
णाभिमुखस्योत्पत्तेः । यदि पुनरेकैकस्यैव शब्दस्यकैकश्रोतृग्राह्यस्वभाव
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परि. ५ सू. ८]
स्याद्वादरत्नाकरसहितः
तयोत्पतेर्न समानशब्दकलकलश्रुतिरिति मतम् । तदैकदिक्केषु समानप्रणिधिषु श्रोतृषु स्थितेप्वत्यासन्नश्रोतृश्रुतस्य परापरश्रोतृश्रवणविरोधः । परापर एव शब्दः परापरश्रोतृभिः श्रूयते न पुनः स एवेति चेत् । स तर्हि परापरः शब्दः पूर्वपूर्वश्रोतृश्रुतशव्दात्प्रादुर्भवेत्ताल्वाद्याकाशसंयोगादेव वा । न तावत्ताल्वाद्याकाशसंयोगात् । यतो ५ यत्रैवायमसमवायिकारणभूतोऽस्ति तत्रैव कार्यमुत्पादयितुष्टेि । तन्तुसंयोगादौ तथा दर्शनात् । न च परापरश्रोतृश्रोत्रप्रदेशेषु ताल्वाद्याकाशसंयोगः समस्ति । नापि पूर्वपूर्वश्रोतृश्रुतशब्दात्प्रत्यासन्नतमश्रोतृश्रुतम्य शब्दस्यान्त्यत्वाच्छब्दान्तरारम्भकत्वविरोधात् । तथा च कथं शेषश्रोतृणां तच्छ्वणं स्यात् । तस्यापरशब्दारम्भकत्वे वान्त्य एव १० शब्दः श्रूयते नानन्त्य इति सिद्धान्तव्याघातः । अथ प्रत्यासन्नतमश्रोतारं । प्रत्यसौ शब्दोऽन्त्यस्तेन श्रयमाणत्वान्न प्रत्यासन्नतर तेनास्याश्रवणात्तेन च श्रूयमाणोऽसौ तमेव प्रत्यन्तो न तु प्रत्यासन्न प्रति । तत एव सोऽपि तमेव प्रत्यन्तो न दूरश्रोतारं प्रतीति मतिः । सापि न श्रेयसी । शब्दस्यैकस्यान्त्यत्वानन्त्यत्वविरोधात् । एकद्रव्यः शब्दः १५ सामान्यविशेषवत्त्वे सति बाखैकेन्द्रियप्रत्यक्षत्वाद्रूपादिवदित्यतोऽनुमानात् । अत्र परमाण्वादिभिर्व्यभिचारपरिहारार्थमिन्द्रियप्रत्यक्षत्वादिति तथापि घटादिनानेकान्तम्तन्निवृत्त्यर्थमेकेति । एकेन्द्रियप्रत्यक्षत्वादित्युच्यमानेऽप्यात्मना व्यभिचारस्तन्निरासार्थं बाह्येति । रूपत्वादिनानेकान्तनिराकरणार्थं च सामान्यविशेषवत्त्वे सतीति । तथा कर्मापि शब्दो न भवति संयोगविभागाकारणत्वाद्रूपादिवदेव । आ( अ )तश्च न द्रव्यं न कर्म शब्दो, अनित्यत्वे सति नियमेनाचाक्षुषप्रत्यक्षत्वात् । यदेवं तत्तथा । यथा रसादिः । तथा च शब्दम्तम्मात्तथेति । आत्मना व्यभिचारपरिहारार्थमनित्यत्वे सतीति । तथाप्यचाक्षुषप्रत्यक्षपरिच्छिद्यमानद्रव्यकर्मभ्यामनेकान्तः । तव्यवच्छित्तये नियमेनेति । २५ तयोः शब्दादियदचाक्षुषप्रत्यक्षत्वनियमासंभवात् । तथाशब्दो न द्रव्यं
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः परि. ५ मू. ८ न कर्म । व्यापकद्रव्यसमवेतत्वात् । सुखादिवदिति । ततः सिद्धं द्रव्यकर्मान्यत्वे सतीति हेतोर्विशेषणम् । द्रव्यकर्मान्यत्वादित्युच्यमाने सामान्यादिना व्यभिचारः । तन्निवृत्त्यर्थं सत्तासंबन्धित्वादिति । ततः सिद्धमस्य गुरुत्वम् । स च पारिशेष्यादाकाशस्यैव गुणः । तथा हि५ न तावत्स्पर्शवतामणूनां विशेषगुणः शब्दोऽस्मदादिप्रत्यक्षत्वात् ।
कार्यद्रव्यरूपादिवत् । नापि कार्यद्रव्याणां पृथिव्यादीनां विशेषगुणोऽ. सौ कार्यद्रव्यान्तराप्रादुर्भावेऽप्युपजायमानत्वात् । सुखादिवत् । कारणगुणपूर्वकत्वादिच्छादिवत् । अयावन्यभावित्वात्तद्वदेवाश्रया
द्रेर्यादेरन्यत्रोपलब्धेश्च । स्पर्शवतां हि पृथिव्यादीनां यथोक्तविपरीता १० गुणाः प्रतीयन्त इति । नाप्यात्मनो विशेषगुणः शब्दोङ्कारेण विभक्त
ग्रहणाबाह्येन्द्रियप्रत्यक्षवादात्मान्तरग्राह्यत्वाच्च । बुद्धयादीनां पुनरात्मगुणानां तद्वैपरीत्योपलब्धेः । नापि मनोविशेषगुणोऽसौ, अस्मदादिप्रत्यक्षत्वाद्रूपादिवत् । नापि दिकालविशेषगुणोऽसौ । तत एव तद्वत् ।
अतः पृथिव्यादिव्यतिरिक्ताश्रयाश्रितोऽसौ तद्वृत्तिबाधकप्रमाणसद्भावे १५ सति गुणत्वात् । यस्त्वेवं न भवति नासौ तथा । यथा रूपादिः ।
तथा च शब्दस्तस्मा तद्व्यतिरिक्ताश्रयाश्रित इति । स च तयतिरिक्त आश्रय आकाशमेवेति सिद्धमस्याम्बरगुणत्वमिति । तदखिलमलोकम् । गुणः शब्द इत्यादौ हे तोविशेषणैकदेशःसिद्धत्वात् । कर्मान्यत्वे सत्यपि हि शब्दस्य द्रव्यान्तरत्वप्रसिद्धम् । द्रव्यलक्षणलक्षितत्वेनास्य द्रव्यत्वोपपत्तेः । गुणक्रियावत्त्वं हि द्रव्यलक्षणम् । तच्चाविकलं शब्देस्तीत्यतो द्रव्य शब्दो गुणक्रियावत्त्वाद्यदि .... .... .... .... .... महान् शब्दोऽस्मदादिप्रत्यक्षत्वात्पटादिवदिति नात्मना व्यभिचारी हेतुस्तस्याव्यापकत्वेन प्राक्प्रसावितत्वादिति सिद्धं शब्दः पुद्गलस्क
न्धपर्याय इति । स चायं द्वेधा भाषात्मकोऽभाषात्मकश्च । भाषात्मको२५ ऽपि द्विकारोऽक्षरात्मकोऽनक्षरात्मकश्च । प्रथमः शास्त्राभिव्यञ्जकः
संस्कृतादिभेदादार्यम्लेच्छव्यवहारहेतुः । अनक्षरात्मको द्वीन्द्रिया
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परि. ५ सू. ८
स्याद्वादरत्नाकरसहितः
दीनामनतिशयज्ञानस्वरूपप्रतिपादनहेतु: । स एष प्रायोगिक एव । अभाषात्मकोऽपि द्वेधा----प्रयोगविश्रसानिमित्तत्वात् । तत्र प्रयोगनिमितश्चतुर्दा ततादिभेदात् । ततस्तन्त्रीप्रभवः, आनद्धो मुरजादिसमुद्भवः, घनः कांस्यतालादिजनितः । सौषिरो वंशादिनिमित्तः। विश्रसानिमित्तः शब्दो मेघादिप्रभव इति ।
गुणाश्चतुर्विंशतिरेवमते परीक्षिता येन सदाद्रियन्ते । जिनाश्चतुर्विंशतिरप्यमुष्मिन्प्रसादसान्द्रे नयने भजन्ते ॥ ६८५ ॥ यञ्चाबाचि ‘कर्मत्वाभिसंबन्धनकद्रव्यमगुणं संयोगविभागप्वनपेक्षं
.. कारणमित्यनेन वा लक्षणेन लक्षितमुत्क्षेपणादि नैयायिकोक्तकर्मलक्षणपरीक्षा । पञ्चविधं कर्म' इति । तत्र कर्मत्वाभिसंबन्धो १०
द्रव्यत्वाभिसंबन्धवत्प्रतिरोधनीयः । लक्षणान्तरं पुनरात्रेयो विवृणोति-- 'एक द्रव्यमिति नाद्रव्यं न चानेकद्रव्यमित्यर्थो नास्य गुणाः सन्ति स्वयं च गुणो न भवतीत्यगुणं संयोगाश्च विभागाश्च संयोगविभागास्तेषु संयोगविभागेषु कारणमित्युत्पन्नं कर्म स्वाश्रयमाश्रयान्तराद्विभज्य संयोजयतीति । तेषु १५ च संयोगविभागेषु कर्तव्येषु कर्म कारणान्तरं नापेक्षत इत्यनपेक्षं न पुनः समवायिकारणमपि नापेक्षित इति । यद्वा संयोगविभागा .... कर्मासाधारण नापेक्षते , इत्यनपेक्ष न पुनः साधारणमपि नापेक्षत इति । दिशः खलु संयोगविशेषापेक्षं कर्म स्वाश्रयस्य संयोगविभागाचारभते तथा च प्रेरकस्य यां दिशं प्रति २० प्रयत्नसमारम्भस्तदभिमुखं कर्म जायते तस्माच कर्मगस्तदभिमुखौ संयोगविभागौ भवतः' अनेनादृष्टेश्वराद्यपेक्षस्य कर्मणः संयोगविभागारम्भो व्याख्यात इति । तत्र गुणो न भवतीत्यगुणमिति तत्पुरुषसमासमाचक्षाणोऽयमात्मनो महद्वैयाकरणत्वमाविरुकरोति तत्पुरुषस्योत्तरपदार्थप्राधान्याद्धि न गुणोऽगुण इति पुंलिङ्ग एवागुण- २५ शब्दः संगच्छते न त्वगुणमिति नपुंसकलिङ्गः । न चैवं कृते कश्चि
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प्रमाणनयतत्वालोकालङ्कारः
[ परि. ५ सू. ८
द्विशेषलाभोऽस्य संयोगविभागेष्वनपेक्षं कारणमित्यनेनैव गुणेभ्यो व्यवच्छेदस्यैतदर्भीीदृष्टस्य सिद्धत्वात् । यदाह स एव - 'संयोगविभा गेष्वनपेक्षं कारणमित्येतावत्कर्मलक्षणमेकद्रव्यमगुणमित्यभिधानं तु कर्मस्वरूपोपवर्णनार्थं न पुनः कर्मलक्षणार्थम् ' इति । एवं धनेन ५ ब्रुवतानक्षरमिदमाख्यायि निरर्थकमेवेदमभिधानमत्रेति । किं चेदमपि लक्षणं नावदातमिति व्याप्तिदोषावतारात् । संयोगविभागयोर्गुणयोरपि संयोगविभागोत्पत्तावनपेक्ष कारणत्वात् । तावपि हि तदुत्पत्तौ समवायिकारणव्यतिरिक्तं कारणान्तरं नापेक्षते । नन्वपेक्षेते एव कारणान्तरं तत्साधारणमसाधारणं वा । साधारणं चेतत्कि कर्मपक्षे काकैर्म१० क्षितं साधारणस्येश्वरबुद्ध्यादेः कारणस्योपेक्षणीयस्य त्रिः स्वयमेवानेनाभिधानात् । असाधारणं चेत्तदप्यत्राक्षूणमीक्ष्यत एव । असाधारणस्य पूर्वसंयोगाभावस्योत्तरे संयोगे कर्तव्येऽनेनापेक्षणात् । कर्म हि विभागमारभ्य विभागात्पूर्वसंयोगनिवृत्तावेवोत्तरसंयोगमारभत इति । अथ पूर्वसंयोगे सत्युत्तरसंयोगो न भवतीत्युत्तरसंयोगोत्पत्ती पूर्वसंयोगः १५ प्रतिबन्धकस्तस्मात्पूर्वसंयोगाभावविशिष्टं कर्मोत्तरसंयोगमारभते
}
न च प्रतिबन्धकाभावविशिष्टस्य कर्मणः कारणत्वे सापेक्षकारणत्वप्रसंगो गुरुत्ववत्, यथा पतनकर्मणि निरपेक्ष कारणं गुरुत्वम् । अथ च संयोगाभाववदेव पतनकारणमिति चेत् । तदप्ययुक्तम् । यतो यदि प्रतिबन्धकाभावसह कारिसापेक्षत्वेऽप्यस्यानपेक्षकारणत्वं कथ्यते । २० किमिदानीं सापेक्षकारणं स्याद्वीजादेरप्यनपेक्ष कारणत्वापत्तेः । यतु गुरुत्वं दृष्टान्तीकृतम् । तदपि नोचितम् । तस्यापि सापेक्षस्यैव पतनकारणत्वोपपत्तेः सामग्र्या एव निरपेक्षकारणत्वव्यवस्थापनात् । पञ्चप्रकारत्वमेतरपादशि तदपि नोपपद्यते ।
▸
९४६
२५
यच्च
तथा
मी अस्य पञ्च प्रकाराः । उत्क्षेपणमपक्षेपणमाकुञ्चनं प्रसारणं गमनमिति । तथा च सूत्रम्- 'उत्क्षेपणमपक्षेपण माकुञ्चनं प्रसारणं
१ वं द. १।१।७२
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परि. ५ भू. ८ ]
स्याद्वादरत्नाकरसहितः
गमनमिति कर्माणि ' इति । तत्रोत्क्षेपणं यदूर्ध्वाधः प्रदेशैः संयोगविभागकारणं कर्मोत्पद्यते । यथा शरीरावयवे तत्संबन्धे च मुसलादावृर्वदिग्भागभाविभिराकाशाद्यर्थेः संयोगकारणमघोदिग्भागभाविभिश्च विभागकारणमिति । यत्सूक्तविपरीत संयोगविभागकारणं तदपक्षेपणम् । ऋजुनो द्रव्यस्य कौटिल्यकारणं कर्माकुञ्चनम् । तद्यथा - ऋजु बाह्रा ५ दिद्रव्यं स्वाद्यावयवानामङ्गल्यादीनां तादृशैः स्वसंयोगिभिराकाशाद्यैविभागे सति मूलप्रदेशैश्च संयोगे येन कर्मणां कुटिलं संपद्यते तदाकुञ्चनम्। तद्विपर्ययेण तु संयोगविभागोत्पत्तौ येन कर्मणावयवी ऋजुः संपद्यते तत्कर्म प्रसारणम् । अनियत दिग्देशैर्घटादिभिर्यत्संयोगविभागकारणं तद्गमनम् । उत्क्षेपणादिकं तु चतुःप्रकारमपि नियतदिग्देशैस्तैस्तत्कार- १० गम् । अत एव पञ्चैव कर्माणि भवन्ति भ्रमणस्पन्दनरेचनादीनां गमन एवान्तर्भावादिति । तदशेषमसंगतम् । उत्क्षेपणादीनामशेषाणामपि गमनरूपत्वात्तथाविधप्रत्ययस्य सर्वत्रैवोत्पादात् । तथा हि-ऊर्ध्वं गच्छ त्यग्रप्रदेशान्मूलप्रदेशं गच्छति, मूलप्रदेशादग्रप्रदेश गच्छतीति सर्वेषामपि भवति प्रत्ययः । तथा च प्रयोगविश्रसारूपोभयनिमित्तापेक्षो देशा- १५ देशान्तरप्राप्तिहेतुः परिस्पन्दात्मा परिणामविशेषः कर्मेत्येतावदेवास्तु कृतमुत्क्षेपणादिगणनया । अथ यथात्मत्वस्य संज्ञान्तरं पुरुषत्वं तथा गमनत्वमपि । समस्तभेदव्यापकत्वात्कर्मत्वस्य । यत्तु विशेषसंज्ञया पृथ
मनग्रहणं कृतं तदुत्क्षेपणादिशब्दैरनवरुद्धानां भ्रमणादीनां संग्रहाश्रम् । तदकरणे हि विशेषणसंज्ञोद्दिष्टानामुत्क्षेपणादीनामेव कर्मत्वसंज्ञा- २० विषयत्वं भवेत् । अथ च भ्रमणादयो हि लोके कर्मत्वेन प्रतीतः । ततस्तेषामपि परिग्रहार्थं तस्य पृथग्ग्रहणमिति चेत् । एवं तर्हि सुतरां कर्मपञ्चता पञ्चतां प्राप । उत्क्षेपणादिवत् भ्रमणादीनां गमनभेदानां भूयसां भावात् । यथा खलु गमनभेदः किंचिदुत्क्षेपणमपरमपक्षेपणादि । तथा भ्रमणस्पन्द नहसूकचारीकरणाङ्गहारादिक ( हसनकरचरणाद्यङ्ग - २५ हारादिक) मपीति कथं पञ्चैव कर्माणि स्युः । अथ सर्वस्यापि भ्रमण
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९४८
प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. ५ सु. ८ स्पन्दनादेः कर्मणोऽनियतदिग्देशसंयोगविभागहेतुत्येनैक्यात्कथं तत्संख्याव्याघातः । तर्हि, उत्क्षेपणापक्षेपणाकुञ्चनप्रसारणानामपि नियतदिग्देशसंयोगविभागकारणत्वेनैक्यादनियतदिग्देशं नियतदिग्देशमिति द्वावेव
कर्मभेदी भवेतामिति कथं न सत्संख्यापरिक्षयः । अथ तदविशेषेऽप्यवान्त. ५ रविशेषसमुद्भवादुत्क्षेपणादिभेदपरिकल्पना तर्हि तत एव । तदविशेषेऽपि भ्रमणस्पन्दनादिभेदकल्पनापि किं न स्यात् । अथ यदि भ्रमणस्पन्दनादेरुत्क्षेपणादिवद्भिन्नजातीयत्वं स्यात्तदानीमेकत्रैकदैव कर्मद्वयं युज्यते । रूपादिवढ्याप्यवृत्तित्वात्कर्मणः । तस्मादेकमेवेदं गमनाख्यं
कर्मेति निीयते भ्रमति स्पन्दते चेति । प्रत्ययभेदस्तु तत्तत्संयोग१० विभागहेतुक इति चेत्तर्हि, उत्क्षेपणादि भ्रमणादि चैकमेव कर्म
स्वीकर्तव्यम् । भवति हि भ्रमद्भमरकादौ दारकेण करतलेनोक्षिप्यमाणे भ्रमणोत्क्षेपणप्रतीतिरिति । अनियतदिग्देशसंयोगविभागकारणं भ्रमणादिकमेव गमनशब्देनोच्यते । उत्क्षेपणादिषु तु तथाप्रत्ययो भाक्त इति
कश्चित्तस्यापि न पञ्चतैवं कर्मणि व्यवतिष्ठते । विपर्ययस्यापि कल्प१५ यितुं सुशकत्वात् । नियतदिग्देशसंयोगविभागकारणमुत्क्षेपणादिक
मेव गमनशब्देनोच्यते । भ्रमणादिषु तु गमनप्रत्ययो भाक्त इत्यपि हि बदतां न नाम वक्त्रं कश्चित्प्रतिरुणद्धि । तथा चोत्क्षेपणादि. चतुष्टयस्य गमनरूपतयैक्यात् भ्रमणादीनां च भूयस्त्वात्कुतो न तत्संख्याव्याहतिः । न चोत्क्षेपणादौ गमनप्रत्ययो बाध्यते । यतस्तस्य भाक्तत्वं तत्र भवेत् । यच्चैतत्कर्मणां साधर्म्यमुच्यते । उत्क्षेपणादीनां पञ्चानामपि कर्मत्वसंबन्ध एकद्रव्यवत्वं क्षणिकत्वं मूर्तद्रव्यवृत्तित्वं अगुणवत्त्वं गुरुत्वद्रवत्वप्रयत्नसंयोगजन्यत्वं स्वकार्यसंयोगिविरोधित्वसमवायिकारणत्वं संयोगविभागनिरपेक्षकारणत्वं स्वपराश्रयसमवेत
कार्यारम्भकत्वं समानजातीयानारम्भकत्वं प्रतिनियतजातियोगित्वं चेति। २५ तत्र कर्मत्वाभिसंबन्धः प्राक्परास्तः । एकद्रव्यत्वमिति कोऽर्थः । एक
दैकस्मिन्द्रव्ये एकमेव कर्म वर्तत एकं कर्म एकत्रैव द्रव्ये वर्तत इति
२०
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परि. ५ सू. ८ ]
स्याद्वादरत्नाकर सहितः
·
चेत् । तत्रैकमेकत्रैव वर्तत इति युक्तम् । एकत्रैकमेव वर्तत इति त्वयुक्तम् । एकत्रापि कर्मद्वयोपलम्भात् । अथैकस्मिन्द्रव्ये युगपद्विरुद्धेोभयकर्मसमवायः स्यात्तदितरो वा । आद्यस्तावदसंभवी । तयोः परस्परं प्रतिबन्धात् । दिग्विशेषसंयोगविभागानुत्पत्तौ देशादेशान्तरप्राप्तिहेतुत्वतल्लक्षणाभावात् । अथ द्वितीयस्तदैकस्मादेव कर्मणस्तद्देश- ५ द्रव्यसंयोगविभागयोरुत्पत्ते द्वितीय कल्पना वैयर्थ्यमिति । तन्न तथ्यम् । पक्षद्वयस्याप्युपपत्तेरेकत्र चैत्रादिशरीरावयविनि हस्तोत्क्षेपस्य पादापक्षेपस्य च विरुद्धस्य भ्राम्यद्भ्रमरकादौ भ्रमणोत्क्षेपणादेरविरुद्धस्य च कर्मणो युगपत्प्रतीतेः । न च वाच्यं हस्तपादयोरवयवयोरेव ते कर्मणी न त्वेकस्यावयविनस्तदुभयमस्तीति । एवं हि श्येन- १० स्थाणुसंयोगादिरपि न स्यात् । तत्रापि चरणमस्तकयोस्त्वव वयोरेव संयोगे न श्येनस्थाण्वोरिति वक्तुं शक्यत्वात् । चरणमस्तकयोरपि वान संयोगस्तयोरप्यवयवित्वादित्येवं च तदवयवयोरप्यवयवित्वेन परम्परया तत्कारणभूतानामजूनामेवासौ भवेत् । तथा चावयवी निष्कर्मा संयोगस्य च परोक्षमेव भवेत् । संयोगस्य प्रदेशवृत्तिनावय- १५ व्यंशे वृत्तिरुपपन्नैव न तु कर्मण इति चेत् । कुत एतत् । प्रदेश एव तदुपलम्भाच्चदयं कर्मण्यपि न नाम नास्ति । यदि विरुद्धयोरप्युत्क्षेपणापक्षेपणयेोरेकत्र संभवः स्यात् । तदा छायातपयोरप्येवं किं न भवेदिति चेत् । नतु भवत्येव । एकस्मिन्पटे तयोर्द्वयोरप्यवस्थानात् । यत्र पटांशे छाया तत्र नास्त्येवातप इति चेत् । तत्कि २० यत्रोत्क्षेपणं तत्रैवांशेऽपक्षेपणमप्यम्मा भिरभ्यधीयेत येनेत्थमुच्येत । ततोऽशभेदेन विरुद्धेऽपि कर्मणी एकत्रावयविनि स्त एव । सामस्त्येन तु ते तत्रोपपद्येते यस्त्वेकस्मादपवर कादपवरकान्तरं गच्छति पुंसि तन्मध्यवर्तिनः प्रमातृद्वयस्य युगपत्प्रवेशनिष्क्रमणविरुद्धकर्मद्वयप्रत्ययः स औपाधिक एव | अपवर कोपाधेर नावेऽभावात् । तस्मा - २५ मनमात्रनिमित्त एवायं व्यवतिष्ठते गच्छतीति प्रतीतेरुपाधिभावाभाव
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः
[परि. ५ सू.८
दशायामविशेषात् । न .... .... .... .... .... .... .... .... .... प्यौपाधिक एवेति वक्तव्यम् । तत्रोपाधेः कस्याप्यनुपलक्षणात् । तथापि तत्कल्पनायामुक्षेपणादिप्रत्ययस्यापि तथात्वापत्ते: कुतः कर्मणः पञ्चधात्वं स्यात् । यदपि क्षणिकत्वं साधर्म्यमिति चेत् । ५ तदपि नोपपन्नम् । धानुष्कदेशालयदेशं यावदाणादावे कस्यैव कर्मणः समुपलम्भात् । सदृशापरापरकर्मक्षणोत्पादाकेशनखादिवत्तत्र तथा प्रतीतिरिति चेत् । नैतत्सत्यम् । एकत्वबाधकोपदर्शनमन्तरेण तथा कल्पनानुपपत्तः । क्षणिकत्वे चास्य कथमुक्षेपणमिदमित्यादि. प्रत्ययोत्पत्ति: स्यात् । तद्युत्क्षेपणत्वादिजात्यभिव्यञ्जकः कर्मक्षणस्तत्समुदायो वा भवेत् । न तावत्तत्क्षणो यतो यावति प्रदेशे परमाणोरनुप्रवेशः .... .... .... .... .... .... .... यदप्यवादि 'अनुवृत्तप्रत्ययकारणलक्षणं, सामान्यं द्विविधं परम
परं नित्यमेव' इति तत्र कोऽयमनुवृत्तः सामान्यपदार्थ परीक्षणम् ।
प्रत्येया नाम । किं च परमपरं वा १५ सामान्यमिति । अनुगतप्रत्ययोऽनुवृत्तप्रत्ययः । परसामान्य
सत्ताख्यम् । तच्च त्रिषु द्रव्यगुणकर्मसु पदार्थेष्वनुवृत्तप्रत्ययस्यैव कारणत्वात्सामान्यमेवोच्यते न विशेषः। अपरं तु द्रव्यत्वगुणत्वकर्मत्वादिलक्षणम् । तच्च स्वाश्रयेषु पृथिव्यादिप्यनुवृत्तप्रत्ययहेतुत्वासामान्यमित्युच्यते । स्वाश्रयस्य च विजातीयेभ्यो व्यावृत्तप्रत्ययहेतुतया विशेषणात्सामान्यमपि सद्विशेषसंज्ञा लभते । तथा हि- द्रव्यादिप्वगुण इत्यादिकापीयं व्यावृत्तबुद्धिरुत्पद्यते । तां प्रति द्रव्यत्वादिसामान्यानामेव हेतुत्वं नान्यस्य । न ह्यगुणत्वादिकमपरमस्ति । अपेक्ष्यभेदाच्चैकस्य सामान्यविशेषभावो न विरुद्धयते । यद्वा सामान्य
रूपता मुख्यतो विशेषसंज्ञा तूपचारतो विशेषाणामिव द्रव्यत्वादी२५ नामपि व्यावृत्तबुद्धिनिबन्धनत्वादिति चेत् । अत्रोच्यते । यदुक्तम्--
'अनुगतप्रत्ययोऽनुवृत्तप्रत्ययम्' इति तत्रानुगतश्चासौ प्रत्ययश्चेत्यनुगत
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परि. ५ सू. ८] स्याद्वादरत्नाकरसहितः प्रत्ययः किं वानुगते वस्तुनि प्रत्यय इति । आद्यपक्षे कोऽयं प्रत्ययस्यानुगमो नाम, ऐक्यं सादृश्यं वा । न तावदैत्यम् । प्रत्ययानां क्षणिकत्वेन प्रतिविशेषमैक्यासंभवात् । अथ सादृश्यमनुगमः प्रत्ययस्य । ननु किंकृतं तस्य सादृश्यं विषयसादृश्यकृतं विषयैक्यकृतं वा । यद्याद्यः पक्षः । तदा न कश्चिद्विवादः । सदृशपरिणामात्मकस्य प्रतिव्यक्ति व्यवस्थितसामान्यस्य तादृशप्रत्ययहेतुतयास्माभिरपि स्वीकारात् । अस्यैव चानुभवसमृद्धिबन्धुरत्वात् । विषयैक्यकृते तु प्रत्ययसादृश्यस्वीक्रियमाणानुगते वस्तुनि प्रत्यय इत्ययमेव पक्षोऽभ्यु. पेतः स्यात् । न चासौ संगच्छते । अनुगतस्यैकस्यानै कम्थस्यैकान्तभदिनः सामान्यस्य विचार्यमाणस्यायोगात् । अथ किं विचारैः । १०. प्रत्यक्षमेव तावत्प्रमाणं विभिन्नगवादिव्यक्तिव्यतिरिक्तमेकं सामान्यमर्पयति । गवाद्यनुगताकारेन्द्रियप्रभवप्रत्यये तथाविधस्यैव तस्य प्रतिभासनात् । न हीदं प्रत्यक्षमेकाकारवस्त्वालम्बनमन्तरेणोपपद्यते । निर्हेतुकत्वं सर्वदा सत्त्वस्यासत्त्वस्य वा प्रसंगात् । गोपिण्डेप्विवान्यत्रापि वा नियामकामावतः प्रवृत्त्यनुषङ्गात् । न च व्यक्त्यालम्बनत्वा- १५ दयमदोष इति वाच्यम् । व्यक्तीनां व्यावृत्तरूपतयैकाकारप्रत्ययालम्बनत्वायोगात् । अन्याकारप्रत्ययस्यान्यालम्बनत्वे सर्वत्रानाश्वासादिति । तदपि नोपपद्यते । शाबलेयादिसदृशव्यक्तिव्यतिरेकेणापरस्यकाकारस्य सामान्यस्याक्षजप्रत्यये प्रतिमासाभावात् । न ह्यक्षव्यापारेण शाबले. यादिषु व्यवस्थितं भूतकण्ठे गुण इव भिन्नमनुगताकारं सामान्य २० केनचिलक्ष्यते । अथ न भूतकण्ठे गुणवदप्रतिभासनादभावः स्वरूपणैव सर्वार्थानां प्रतिभासनादन्यथाभूतकण्ठानामपि गुणवदप्रतिभासनादभावः स्यादिति चेत् । तदपि पराभिप्रायानभिज्ञभाषितम् । यतोऽयमत्राभिसंधिःयदि सामान्यमनेकसंबद्धमेकमिष्यते तदा यथा भूतकण्ठेप्वनेकेप्वेक एवं गुणः सम्बद्धः प्रतिभासते तथेदमपि प्रतिभासेत । न चैवम् । ततो २५ नैतत्तथारूपमुपेतव्यमिति । अथ यथा चित्रज्ञानस्यानेकनीलादिसम्बन्धि
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. ५ सू.८ त्वेनेष्टस्य गुणवदप्रतिभासनेऽपि नाभावो भवति तथास्यापि न भविष्यतीति चेत् । सत्यम् । यदि हि चित्रज्ञानवत्सामान्यमभ्युपगम्यते तदा को नामैतत्पराकुर्यात् । न खलु चित्रज्ञानमध्येकमेव
किं त्वनेकनीलाद्याकारात्मकत्वादनेकयपि । तद्यदि सामान्यमप्य५ नेकव्यक्त्यात्मकत्वात्कथंचिदनेकं स्यात् । तदा को नामैतत्तथा नातिष्ठेत ।
कीदृशश्वाय गवाद्यनुगताकारप्रत्ययः । किं य एवायं गौः स एवायमपि । किं वायमपि गोरयमपि गौः । यद्वा गौगौरिति सामान्येनेति । नाद्यः पक्षः श्रेयान् । शाबलेयबाहुलेयविशेषयोरक्यापत्तेः । द्वितीयपक्षस्तु
युक्तः । अयमित्यनेन सदृशाकारसाधारणं वस्तुमात्रं परामृश्य गौरि२. त्यनेन सदृशपरिणामपरामर्शात् । गौगौरिति प्रत्ययो न त्वत्संमतसामा
न्योल्लेखवानेव भवितुमर्हति । सदृशपरिणामात्मसामान्येऽप्यविरोधात् । किं च यद्ये कमेव सामान्यमिष्यते तदानीमेकत्रैव व्यक्तौ तस्य परिसमाप्तत्वात्कथं व्यक्त्वन्तरे समुपलभो भवेत् । सर्वगतत्वादिति
चेत् । ननु सर्वसर्वगतत्वं व्यक्तिसर्वगतत्वं वाङ्गीकृत्येदमुच्यते । सर्वसर्व१५ गतत्वे खण्डादिव्यत्यन्तरालेऽपि गोत्वोपलम्भप्रसंगः । तत्रानुपलम्भो
हि तम्याव्यक्तत्वाद्यवहितत्वाद्दरस्थितत्वाददृश्यात्मत्वात्स्वाश्रयेन्द्रियसम्बन्धविरहादाश्रयसमवेतरूपाभावाद्वा । नायः पक्षः श्रेयात् । यस्मादव्यक्तत्वादन्तराले तम्यानुपलम्भे व्यक्तिस्वात्मनोऽप्यनुपलम्भोऽत
एव तत्रास्तु । अन्तराले व्यक्त्यात्मनः सद्भावावेदकप्रमाणाभावा. २० दसत्त्वादेवानुपलम्भे सामान्यस्यापि सोऽसत्त्वादेव तत्रास्तु । विशेषा
भावात् । किं च प्रथमव्यक्तिग्रहणवेलायां तदभिव्यक्तम्य सामान्यस्य सर्वात्मनाभिव्यक्ति तैव । अन्यथा व्यक्ताव्यक्तस्वभावभदेनानेकत्वानुषङ्गादसामान्यरूपतापतिः । तस्मादुरलब्धिलक्षणप्राप्तस्य व्यक्त्य
न्तराले सामान्यस्यानुपलम्भादसत्त्वं व्यक्तिस्वात्मवत् । ननु स्वव्यक्त्य२५ न्तरालेऽस्ति सामान्यं युगपद्भिनदेशस्वाधारवृत्तित्वे सत्येकत्वाद्वंशा
दिवत्, इत्यनुमानात्तत्र तत्सद्भावसिद्धिरिति चेत् । तदप्ययुक्तम् ।
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परि. ५ सू. ८]
स्याद्वादरत्नाकरसहितः
पक्षस्य शशमस्तकशृङ्गासङ्गतमित्यादिवत्पदार्थान्तरोपलम्भरूपानुपलम्भबाधितत्वाद्धेतोः स्वरूपसिद्धत्वाच । न हि भिन्नदेशासु व्यक्तिषु सामान्यमेकं युगपद्वर्तमानं प्रत्यक्षतः स्थूणादौ वंशादिवत्प्रतीयते । यतो युगपद्भिन्नदेशस्वाधारवृत्तित्वे सत्येकत्वं तस्य सिद्धयत्स्वाधारान्तरालेऽस्तित्वं साधयेत् । किं चाव्यक्तत्वात्तत्र तस्यानुपलम्भस्तदा ५ सिध्येद्यदि व्यक्त्यभिव्यङ्गयता सामान्यस्य सिद्धा स्यात् । न चैव नित्यकरूपस्या भव्यक्तरेवानुपपत्तेः । तथा हि-व्यक्तिरुपकारं कुर्वती सामान्य व्यञ्जयेदितस्था वा । कुर्वती चेत्कोऽनया तस्योपकारः क्रियेत ! तज्ज्ञानोत्पादनयोग्यता चेत् । सा ततो भिन्ना, अभिन्ना वा विधीयेत । भिन्ना चेत्तत्कारणे सामान्यस्य न किंचित्कृतमिति तदवस्थास्यानमि- १० व्याक्तिः । अभिन्ना चेत्तत्कारणे सामान्यमेव कृतं स्यात् । तथा चानित्यत्वम् । तज्ज्ञानं चेतहि कथं सामान्यसिद्धिः । अनुगतज्ञानस्य व्यक्तिभ्य एव प्रादुर्भावात्। तत्साहायस्याप्यत्र व्यापार इत्यपि श्रद्धामात्रम् । यतो यदि घटोत्पत्तौ दण्डाद्युपेतकुम्भकारवद्युक्त्युपेतं सामान्यमनुगतज्ञानोत्पत्ती व्याप्रियमाणं प्रतीयेत । स्यादेतत् । तच्च नास्त्येव । न किंचित्कुर्व- १५ त्याश्च व्यञ्जकत्वे विजातीयवक्तेरपि व्यञ्जकत्वमङ्गः। तन्नाव्यक्तत्वातस्य तत्रानुपलम्भः । नापि व्यवहितत्वात् । सर्वसर्वगतत्वविरोधापतेः । नापि दूरस्थितत्वात् । अत एव । नाप्यदृश्यात्मत्वात् । विवक्षितव्यक्तिदेशेऽप्यनुपउम्भापतेः । न चैकस्यैव क्वचिद्दश्यत्वं कचित् पुनरप्यदृश्यत्व नुपपद्यते । विरोधात् । अदृश्यसामान्यप्रदेशे व्यक्तिप्राप्तावपि २० तदनभिव्यक्तिप्रसंगाच्च । न चादृश्यमपि प्राक्सामान्यं तदानीं दृश्यस्वभावमेवाभूदिति वक्तव्यम् । अनित्यत्वप्राप्तेः । स्वाश्रयेन्द्रियसंबन्धविरहादित्यप्यसत् । आश्रयाश्रधिभावस्योपकार्योपकारकभावे सत्येव कुण्डबदरादिवत्संभवात् । बदराणां हि गुरुत्वादधो गच्छतां गतिप्रतिबन्धेन स्थितिलक्षणोपकारकर्तृत्वात्कुण्डमाधारः स्थापकः । सामान्यस्य २५ तु निष्क्रियत्वेन पनामावान्न कश्चिदाधारः संभवतीत्यनाश्रितत्वा
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परि. ५ स. ८ त्यागूमप्युपलम्भः स्यात् । यत्तु केनचिदुच्यते- 'सामान्यस्य क्रमेण स्वात्मप्रकाशन कार्यान्तरकरणं वा स्थितिः। सा तदाधारसामर्थ्याद्भवति । तदाधाराभावे ह्यसामर्थ्यप्राप्तिरेव गतिः । सा चासत्याधारे
न भवतीत्याधारः स्थापक उच्यते' इति तदप्यसंगतम् । गतिस्थिति५ शब्दयोः कर्मविशेषे तन्निवृत्तौ च लोके रूढत्वान्नूतनशब्दार्थपरि
कल्पनानुपपतेः । तथा परिकल्पनायां हि न किंचित्कचिद्दषणं स्यात् । अनित्यः शब्दश्चाक्षुषत्वादित्युक्तेऽपि चाशुषत्वस्य कृतकत्वार्थपरिकल्पनायामसिद्धेचंसयितुं शक्यत्वात् । न च सामान्यचलनरूपं
गमनं संभवति यतस्तन्निवृत्तिराधारः क्रियेत । किं च म्वाश्रयेन्द्रिय१० संबन्धवशाद्यत्कीचिद्गृह्यते सामान्य तस्मादन्यत्रागृह्यमाणमपि
तदभिन्नमेवेति । तत्राप्यनेन स्वाश्रयेन्द्रियसंबन्धवतैव भाव्यम् । अन्यथा भेदापत्तेरिति कथं न तत्रापि तद्ग्रहणम् । एतेनाश्रयसमवेतरूपाभावादित्यपि प्रत्युक्तम् । ततः सर्वसर्वगतत्वे सामान्यस्य व्यक्त्य
न्तरालेऽप्युपलम्भः स्यादेव । अथान्तरालशब्देन किं पिण्डान्तरं १५ कर्कादिकमाकाशादिदेशो मूर्तद्रव्याभावो वाभिधीयते । यद्याद्यपक्ष
स्तदा कर्कादौ गोत्वादेरवृत्तेरग्रहणमनुपपन्नमेव । न हि यद्यत्र नास्ति तत्तत्र गृह्यत इति परस्याप्यभ्युपगमः । एतेनाकाशादिदेशमूर्तद्रव्याभावपक्षावपि प्रतिक्षिप्ताविति चेत् । तदप्यसंगतम् । एवमभिधाने सर्वत्र तदभिधानानिवृत्तेर्घटद्वयान्तराले पटादिद्रव्यस्याग्रहणादभाव २० इत्यत्रापि विकल्पै(ल्प्योतदोषाणामभिधातुं शक्यत्वात् । अथान्त
रालशब्दस्यात्र लोकप्रसिद्ध एवार्थः सुषिरमात्ररूपोऽविचारितरमणीयः प्रकल्पते । तर्येतदन्यत्रापि समानमिति न पर्यनुयोगावकाशः । अपि च कर्कादौ गोत्वादेरवृत्तेरिति कोऽर्थः । किं तत्र समवायाभावात्सत्त्वाभावाद्वा । नाद्यः पक्षः । न हि यद्यत्र समवेतं न भवति न २५ तत्तत्रोपलभ्यत इति नियमोऽस्ति । भूतले कलशादेरनुपलम्भप्रसङ्गात्।
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परि. ५ सू. ८] स्याद्वादरत्नाकरसहितः
९५५ नापि व्यङ्ग्यत्वे सति यद्यत्रोपलभ्यते तत्तत्र समवेतमेव । प्रदीपालोके. नाभिव्यक्तानां तत्रासमवेतानामप्युपलम्भात् । न च सामान्य व्यञ्जके समवेतमेचोपलभ्यत इत्यपि नियमः । सामान्यविशेषयोव्यङ्ग यव्यञ्जकभावस्य प्राक्पराकरणात् । कर्कादौ सत्त्वाभावादनुपलम्भः सामान्यस्येत्यपि नोपपन्नम् । सर्वगतत्त्वाभावापत्तेः । अथ व्यक्तिसर्वगतं ५ सामान्यमङ्गीकृत्योच्यते तर्जुत्पत्स्यमानव्यक्तिदेशे तत्ताव दसदभ्युपगन्तव्यम् । अन्यथा व्यक्तिसर्वगतत्वव्यातिप्राप्तेः । तत्रोत्पन्नायां च व्यक्तो कुतस्तत्तत्र भवेत् । न तावद्व्यक्त्या सहैवोत्पद्यते । नित्यत्वेन स्वीकृतत्वात् । व्यक्त्यन्तरादागच्छेदिति चेत् । ननु ततस्तदागच्छत्यूर्वव्यक्तिं परित्यज्यागच्छेदपरित्यज्य वा । प्रथमपक्षे १० तस्यास्तद्रहितत्वप्रसंगः । अथापरित्यज्य तत्रापि किं व्यक्त्या सहैवागच्छेत्केनचिदंशेन वा । प्रथमपक्षे शाबलेयेऽपि बाहुलोऽयमिति प्रतीतः स्यात् । द्वितीयविकल्पस्त्वयुक्तः । निरंशत्वेनास्यांशवत्तया प्रवृत्यसंभवात् । सांशत्वे चाम्य व्यक्तिवदनित्यत्वप्रसंगः । तदुक्तम्--
'अन्यत्र वर्तमानस्य ततोऽन्यस्थानजन्मनि । तस्मादचलतः स्थानावृत्तिरित्यतियुक्तिमत् ।। न याति न च तत्रासीदस्ति पश्चान्न चांशवत् ।
जहाति पूर्व नाधारमहो व्यसनसन्ततिः ॥ इति । अथ प्रमाणसिद्धो वस्तुस्वभावो नोपहासमात्रेण त्यक्तुं शक्यते । २० विचित्रा हि पदार्थानां शक्तिर्यथा मन्त्रादिसंस्कृतं वस्त्रमुदरस्थं व्याधिविशेषं छिनति नोदरस्थान्त्रादिकम् । तस्मात्तथा यद्वस्त्राकारविलक्षणो यः प्रत्ययः स तव्यतिरिक्तनिमित्तान्तरनिबन्धनो यथा वस्त्रादिषु रक्तादिप्रत्ययस्तथा चाय पिण्डादिषु गवादिप्रत्ययः, गवादिष्वनुवृत्त
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः परि. ५ सु. ८ प्रत्ययः पिण्डादिव्यतिरिक्तनिमित्तनिबन्धनो विशिष्टप्रत्ययत्वान्नीलादिप्रत्ययवद्गोपिण्डादर्थान्तरं गोवं भिन्नप्रत्ययविषयत्वाद्रूपस्पर्शादिवत्तस्येति व्यपदेशत्वाच्चैत्रतुरङ्गमवत् । गौ¥रित्यभिन्नाभिधानप्रत्ययावनुवृत्तवस्तुनिमित्तावभावसामान्याभिधानप्रत्ययान्यत्वे सत्यनुवृत्ताभि५ धानप्रत्ययत्वात् । चर्मवस्त्रादिषु नीलद्रव्यसंबन्धान्नीलं नीलमित्यभिधान
प्रत्ययवदित्यादीन्यनुमानानि । तत्र पिण्डादेवतिरिक्तमात्रमेकान्तेन वा व्यतिरिक्त निमित्तान्तरं साध्येत । आद्यपक्षे सिद्धसाधनम् । सदृशपरिणामस्य कथंचियतिरिक्तस्य निमित्तान्तरस्येष्टत्वात् ।
द्वितीयपक्षे तु पक्षम्य प्रत्यक्षबाधा कथंचियतिरिक्तात्मकसामान्यो१० पलम्भेन तद्व्यतिरेकैकान्तस्य बाधात् । अत एव कालात्ययापदिष्टत्वं
हेतोः । साध्यविकलता च दृष्टान्तस्य । जैनानामेकान्तस्य कचिदप्रसिद्धः । ये ऋमित्वानुगमित्ववस्तुत्वोत्पत्तिमत्त्वसत्त्वादिधर्मोपेताः प्रत्ययान्ते नित्यसर्वगतसामान्यनिबन्धना न भवन्ति । यथा भावेष्व
भावोऽभाव इति । सामान्येषु वा सामान्य सामान्यमिति प्रत्ययाः ! १५ तथा च विवादाध्यासिता: प्रत्यया इत्यनुमानबाधश्च सर्वत्र । यदुक्तम्
'परसामान्यं सत्ताख्यम्' इति तत्रैतया भिन्नैकरूपया सत्तया सत्त्या सतो वस्तुनः समवायः स्यादसतो वा । सत: सत्तासमवाये वैयर्थ्यम् । तथापि तत्समवायेऽनवस्था । असतः सत्तासमवाये
खरविषाणादेरपि स भवेत् । अविशेषात् । अथ तत्समवाया२० प्राग्वस्तु स्वयं न सन्नाप्यसत् । अत एवं सत्तासमवाया
तत्सदित्युच्यते । तदेतदलौकिकं किमपि प्रमेयरहस्यमनेनालोकितम् । तथा हि-सदिति वचनात्तस्य सतासंबन्धात्प्रागभाव उक्तः । सत्प्रतिषेधलक्षणत्वादस्य । नो अप्यसदित्यभिधानात्युनर्भावोऽसत्त्वनिषेधरूपत्वा
द्भावस्य रूपान्तराभावात् । तथा च वैयाकारणा:- 'द्वौ प्रतिपेधी २५ प्रकृतमर्थ गमयतः' इति । तार्किका अपि नेदं निरात्मक जीवच्छ
रीमित्यत्र नैरास्यनिषेधेन सात्मकत्वं साधयतो निषेधद्वयस्य विधायक
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परि. ५ स. ८] स्याद्वादरत्नाकरसहितः त्वमेव प्रतिपन्नाः । कश्चिदाह नैवं प्रयोगः क्रियतेऽपि तु सात्मक जीवच्छरीरं प्राणादिमत्त्वादिति । तेनाप्येवं प्रयोग कुर्वता सात्मकत्वाभाको नियमेन प्राणादिमत्त्वाभावेन व्याप्तोऽभ्युपगन्तव्यः । अन्यथा व्यभिचाराशङ्कानतिवृत्तेः । तदभ्युपगमे चेदमवश्यवक्तव्यम् । जीव. च्छरीरे प्राणादिमत्त्वं प्रतीयमानं स्वभावं निवर्तयति । स च निवर्त- ५ मानः स्वव्याय्यं सात्मकत्वाभावमादाय निवर्तते । अन्यथा तेनासौ व्याप्तो न स्याद्यस्मिन्निवर्तमानेऽपि यन्न निवर्तते न तेन तयाप्त यथा निवर्तमानेऽपिः प्रदीपेऽनिवर्तमानः पटादिः । न निवर्तते च प्राणादिमत्त्वाभावे निवर्तमानेऽपि सात्मकत्वाभाव इति निवर्ततेऽसाविति चेत् । तन्निवृत्तावपि सात्मकत्वं यदि न सिध्यति न तर्हि १० सात्मकत्वाभावो निवर्तते सात्मक.... .... ............ ....माप्तत्वे सर्वव्यक्तिभेदानामन्योऽन्यमेकरूपताप्रसक्तिः । एकव्यक्तिपरिनिष्ठितस्वभावसामान्यसंसृष्टत्वात् । एकव्यक्तिरूपवत् । सामान्यस्य वानेकरूपतापत्तियुगपदनेकवस्तुपरिसमाप्तरूपत्वादतिदूरदेशावस्थिताने कभाजनव्यवस्थितानेकाम्रादिफलवदित्यनु- १५ मानबाधः . यत्तु ' प्रत्येकसमवेतार्थ' इत्यादिकारिकाव्याख्यायां जर्यामनशकरिकायां (!) प्राह-'गोमतिर्धर्मिणी कृत्मवस्तुविषयेति साध्यो धर्मः कृत्स्नरूपत्वादिति हेतुः । या या कृत्स्नरूपा सा सा कृत्स्नवस्तुविषया व्यक्तित्रुद्भिवदिति दृष्टान्तः' इति, तत्र सर्वारमना कृत्लवस्तुविषयत्वं गोमतेर्यद्यनेन विवक्षितं तदानीमेकन्यक्तिग- २० गतस्यापि तस्य निश्चये सकलव्यक्तिनिष्ठतया निश्चयः स्यात् । न चासौ सकलव्यक्तिमन्तरेणोपपद्यत इति तन्निर्णयोऽपि प्रसज्ज्यते कर्थचिकृत्लवस्तुविषयत्वे पुनरस्थाः सिषाधयिषिते सिद्धसाध्यता । यदपि 'एकाकारबुद्धिग्राह्यत्वात् ' इत्येकत्वसाधनं तदप्यनन्तरमेव कृतोत्तरम् । नन्युक्तेषु : वाक्येषु ब्राह्मणादिनिवर्तनमिति दृष्टान्तोऽपि साध्य२६ विकलः । इतरेतराभावरूपाया ब्राह्मणादिनिवृत्तरेक्यायोगात् । न
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः
परि. ५ सू. ४
खल्वभावः कश्चिदेकस्तुच्छ उभयाभिमतोऽस्ति । भावान्तरस्वभावत्वेन तस्यास्माभिः प्रागुपपादितत्वात् । त्वयापि तथैव प्रतिपन्नत्वाद्भावान्तराणां चानेकत्वेन तदात्मकाभावस्याप्यनैक्यात्कथमैक्यं साध्यं तत्र बर्तते । अनुमानबाधितश्चात्र पक्षः । तथा हि-ये यत्र नोत्पन्ना न च ५ प्रागवस्थायिनो नापि पश्चादन्यतो देशादागतिमन्तस्ते तत्र न वर्तन्ते
यथा रासभशिरसि तद्विषाणादयः । तथा च सामान्यं तच्छून्यदेशोत्पादवति शाबलेयादिके वस्तूनीति व्यापकानुपलब्धिरिति । नैकं किंचन शाबलेयादिषु गोत्वादिसामान्यमुपपद्यते ततः । सदृशपरिणाम रूपमेव तदभ्युपगन्तव्यम् । ब्राह्मणत्वादिकं तु सदृशपरिणामरूपमपि नास्त्येव । प्रत्यक्षादिना तदप्रतीतेः । तथा हि-प्रत्यक्षेण प्रतीयमानं ब्राह्मण्यं किं निर्विकल्पकेन सविकल्पकेन वा प्रतीयते । न तावन्निर्विकल्पकेन । तत्र जात्यादिप्रतिभासाभावात् । तथा चावाचि भट्टन----
'अस्ति ह्यालोचना ज्ञानं प्रथमं निर्विकल्पकम् । बालमूकादिविज्ञानसदृशं शुद्धवस्तुजम् ॥ ततः परं पुनर्वस्तुधर्मेर्जात्यादिभिर्यथा।
वुद्धथावसीयते सापि प्रत्यक्षत्वेन संमता ।।' इति । नापि सविकल्पकेन । विस्फारिताक्षस्य पुरोवर्तिखण्डमुण्डक
भैदिव्यक्तिषु गवाश्चादिजातिवन्मनुष्यव्यक्तिषु मनुष्यत्वपुंस्त्वाद्यतिरिक्तब्राह्मणस्य कस्यचिदप्रतिभासात् । अथ प्रतिभासत एवैत२० विशिष्टसहकारिसमन्वितेन्द्रियप्रभवप्रत्यक्षे पुरश्चारिषु क्षत्रियादिषु तद्वै
लक्षण्येन ब्राह्मणेष्वेव ब्राह्मणोऽयं ब्राह्मणोऽयमिति प्रत्यक्षदर्शनादिति चेत् । ननु किमिदमिन्द्रियसहकारित्वेनात्रेष्ट ब्राह्मणभूतस्य पितृजन्यत्वं, पितृगोचरोऽविप्लुतत्वोपदेशः, आचारविशेषः, संस्कारविशेषः, वेदा.
ध्ययनं, यज्ञोपवीतादिकं, ब्रह्मप्रभवत्वं वा । तत्राद्यपक्षोऽनुपपन्नः । २५ यतः पित्रोर्ब्राह्मण्ये सिद्धे तजन्यत्वेन पुत्रस्य ब्राह्मण्यं सिध्येत् ।
१ मी. श्लो. वा. सू. ४ प्रत्य. सू. श्लो. ११२।१२।।
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परि. ५ सू. ८] स्याद्वादरत्नाकरसहितः तम्चानयोब्राह्मणभूतपितृजन्यत्वासिध्येत् । तथाभूतपुत्रजनकत्वाद्वा । प्रथमपक्षेऽनवस्था। बीजाङ्कुरवदनादित्वात् । तत्कार्यकारणप्रवाहस्य नानवस्था दोषायेत्यप्ययुक्तम् । यतो बीजाङ्कुरयोः कार्यकारणभावः पूर्वबीजाङ्गुरकार्यकारणभावग्रहणनिरपेक्षः प्रमाणतः प्रतीयते । अत्र तु पूर्वपूर्वब्राह्मण्यप्रतिपत्त्यभावेऽपरापरब्राह्मण्यप्रतिपत्तेः । कर्तुमशक्यत्वान्न दृष्टान्तदाान्तिकयोः साम्यम् । द्वितीयपक्षे वन्योन्याश्रयः । सिद्धे हि पितृब्राह्मण्ये ब्राह्मणभूतपितृ जन्यत्वेन पुत्र ब्राह्मण्यसिद्धिः । तस्सिद्वौ च बाह्मणभूतपुत्रजनकत्यापितृवामप्रसिद्धिरिति । अविप्लुतेन ब्राह्मणेनाविप्लुतायां ब्राह्मण्यामुत्तादितो ब्राह्मग इत्यविप्लुतमातापित्रुपदेशस्तत्सहकारीत्यपि श्रद्धामात्रम् । प्रमागतोऽप्रतिपन्नेऽर्थे वास्तवोपदेशा- १० संभवात्सकलशून्यतोपदेशवत् । अथ प्रत्यक्षत एव ब्राह्मण्यं प्रतीत्य यथोक्तोपदेशो विधीयते । तदसत्यम् । परस्परश्रेयःप्रसंगान् । सिद्धे हि ब्राह्मण्यप्रत्यक्षत्वे प्रनागभूतत्रयोक्तोपदेशसिद्धिः । तसिद्धौ च तथाभूतोपदेशसहकृतेनेन्द्रियेग ब्राह्मणप्रत्यक्षतासिद्धिरिति । अविप्लु. तत्वं च विवक्षितपित्रपेक्षयाऽनादिकालपितृप्रवाहापेक्षया वाभिप्रेतम् । १५ यदि विवक्षितपित्रपेक्षया तत्राप्यनयोस्तजन्मन्प्रविप्लुतत्वमभिमतमना. दिकाले वा । तज्जन्मनि चेत्तर्हि केन तत्र तयोः प्रतीयेत पुत्रेणा. न्यैर्वा । न तावत्पुत्रेण । स्वजन्मकाले तस्य तद्विवेवनासामर्थ्यात् । नाप्यन्यैः । तद्धि तैः प्रत्यक्षतः प्रतीयतानुमानादागमाद्वा । न तावप्रत्यक्षतः । अयमेतस्मादेवैतस्थामुत्पन्न इत्येवं रूपस्यार्थस्याग्दिशा २० प्रत्यक्षीकर्तुमशक्यत्वात् । नाप्यनुमानात् । प्रत्यक्षाविषथे भवतानुमानानभ्युपगमात् । न च पित्रोरविप्लुतत्वे किंचिल्लिङ्गमस्ति । तद्विसंवृताकारादिविशेषोऽस्त्येवविलक्षणता वा । न ताव प्रथमः पक्षः । दुश्वारिणीनामतीव संवृताकारदर्शनात् । द्वितीय पझोऽपि न श्रेयान् । यतो यदि वितेतरप्रभवापत्येषु विलक्ष. २५ शाकारता सिद्धयेत्, तदानीमविलशगाकारापत्योपभाषित्रोरवि.
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः
[ परि. ५.८
प्लुतत्वं निश्चीयेत । न चासौ सिद्धा । न खलु वडवायां रासभतुरगप्रभवापत्येष्विव ब्राह्मण्यां ब्राह्मणाप्रभवापत्येषु वैलक्षण्यं प्रतीयते । आगमतोऽप्यपौरुपेयात्पौरुषेयाद्वा । तयोरविप्लुतत्वस्य प्रतिपत्तिः स्यात् । न तावदपौरुषेयात् । तत्प्रतिपादकस्यापौरुषेयस्यागमस्यैवा५ संभवात् । पौरुषेयोऽप्यागमस्तत्प्रणेत्रा प्रमाणान्तरेणानयोर विप्लुतत्वे प्रतिपन्ने सति प्रवर्तमानः प्रमाणतां भजते न च तत्प्रतिपत्तिः कुतश्चिदप्यस्तीत्युक्तम् । तन्न तज्जन्मन्यनयोरविप्लुतत्वं कुतश्चिप्रत्येतुं शक्यम् । एतेनानादिकाले तयोस्तत्प्रतिपत्तिः प्रत्युक्ता । ययोर्हि तज्जन्मन्यप्यविप्लुतत्वं प्रत्येतुं न शक्यम् । तयोरनादिकाले १० तत्प्रतीयत इति महच्चित्रम् । एतेनैवानादिकालपितृप्रवाहापेक्षयात्रिप्लुतत्वप्रतिज्ञापि प्रतिक्षिप्ता । किं च सदैवावलानां प्रबल कामातुरतयेहजन्मन्यपि व्यभिचारोपलम्भादनादौ काले ताः कदा किं कुर्वसीति ब्रह्मणापि ज्ञातुमशक्यम् । एतेन तदपि प्रत्युक्तं स्वविशेषव्यतथा जातिविशेषाश्वेतर जातिपरिहारेणावभासमाना जात्यन्तरपरिहारेण १५ स्वजातिं व्यञ्जयन्ति यथा गवादयः । अतः प्रथमदर्शने प्रतिभातमपि व्यञ्जकभेदग्रहणान्नोल्लिखति कभेदाग्रहणं चात्यन्तसुसदृशावयवत्वादुपपन्नम् । अत्यन्तसुमद्दशगोगवयवत् । दृश्यते च द्रव्यपरीक्षकाणां कूटाकूटवियेके मणिपरीक्षकाणां च मणिकाचादिविवेकेऽवधानवतां नैसर्गिकाभ्यासिकप्रतिभासामग्री सद्भाव २० एव कूटाकूटविवेको मणिकाचादिविवेकश्च । एवमिहाप्यविप्लुतेन ब्राह्मणेनाविप्लुतायां ब्राह्मण्यामुत्पादितो ब्राह्मण इत्यौपदेशिकमातापितृब्राह्मण्यज्ञानलक्षणसामग्रीसद्भाव एव । ब्राह्मणोऽयमिति विवेकेन प्रतिभासः प्रवर्तत इति । अविप्लुतनिर्णयस्त्र कर्तुमशक्तेरुक्तत्वात् । आचारविशेषश्चक्षुः सहकारीति चेत् । न त्वसौ ब्राह्मण्यस्याधारणो याज२५ नाध्यापनप्रतिग्रहादिः । स च तत्प्रत्यक्षतानिमित्तं न भवति । अव्याप्तेरतिव्याप्तेश्चानुषंगात् । याजनादिरहितेषु हि ब्राह्मणेष्वपि तन्निश्चयाभाव
ब्राह्मण्यं
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पारे. ५ सू. ८ ] स्याद्वादरत्नाकरसहितः प्रसंगादव्याप्तिः । धूर्तशूद्वेष्वप्यखिलस्य याजनाद्याचारस्योपलब्धितो ब्राह्मण्यनिर्णयानुषंगाचातिव्यातिः । अथ मिश्यायमाचारस्तत्र । अन्यत्र कुतः सत्यः । ब्राह्मग्यसिद्धेश्चेदन्योन्याश्रयः । सिद्धे ह्याचा. रसत्त्वे ब्राह्मण्यसिद्धिः । तसिद्धौ चाचारसत्यत्वसिद्धिरिति । एतेन संस्कारविशेषम्य वेदाध्ययनस्य यज्ञोपवीतादेश्च चक्षुःसहकारिता ५ प्रत्युक्ता । अव्याप्त्यतिव्याप्त्योरत्राप्यविशेषात् ब्रह्मप्रभवत्वमपि न लोचनसचिवीभवितुमर्हति । अतिप्रसंगात् । सकलपाणिनां तत्प्रभवतया ब्राह्मण्यप्रसंगात् । किं च ब्रह्मणो ब्राह्मणप्रमस्ति न वा। नास्ति चेत्, कथमतो ब्राह्मणोत्पत्तिः । न ह्यमनुष्यान्मनुप्योत्पत्तिः प्रतीता । अथा. स्ति किं सर्वत्र, मुखप्रदेश एव वा । यदि सर्वत्र तर्हि सर्वप्राणिनां १० ब्राह्मण्यानुषणः । अथ मुखप्रदेश एव तदान्यत्रास्याः शूद्रत्वानुषंगान्न विप्राणां तत्पादादयो बन्धाः स्युः । न च प्रभवत्वं विशेषणं ब्राह्मण्यप्रत्यक्षताकाले केनचित्प्रतीयते । न चाप्रतिपन्नं विशेषणं विशेष्यप्रतिपत्तुमाधातुं समर्थम् । अतिप्रसङ्गात् । तन्न प्रत्यक्षेण ब्राह्मण्यपरि. च्छेदः
अथानुमानेन परिच्छेदः । तथा हि- ब्राह्मण इति ज्ञान व्यक्तिवर्णविशेषाध्ययनाचारयज्ञोपवीतादिव्यतिरिक्तनिमित्तनिबन्धनं तन्निमित्तकवुद्धिविलक्षणत्वाद्वादिज्ञानवदिति । तदुपेक्ष्यम् । यतो यदि व्यक्त्यादिभ्यो व्यतिरिक्तं निमित्तमात्रमस्य ज्ञानस्य विषयत्वेन साध्यते तदा सिद्धसाध्यता । तत्समुदायस्य समुदायिभ्यः कथञ्चिदव्यतिरिक्त- २० स्य तद्विषयत्वेन स्वीकारात् । अथ प्रतिव्यक्ति परिसमाप्तमेकमेकान्तव्यतिरिक्तमाभिधीयते तदा पक्षस्य प्रतिपक्षबाधितत्वम् । कटकालापादिब्राह्मणव्यक्तिषु हि ब्राह्मणज्ञानं व्यक्त्यादिव्यतिरिक्तसामान्यनिमित्तरहि. तमेवाध्यक्षतः प्रतीयते । अश्रावणत्वविविक्तशब्दवत् । अनैकान्तिकश्चात्र नगरादिज्ञानेन हेतुः । तत्र व्यक्त्यादिव्यतिरिक्तनिवन्धनाभावेऽ- २५ पि तन्निमित्तबुद्धिविलक्षणत्वस्य त्वमतेनोपलम्भात् । न खलु नगर
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૨
प्रमाणनयतत्त्वालोका लङ्कारः
सेना वनमित्यादिज्ञाने व्यक्त्यादिव्यतिरिक्ततथाभूतप्रत्ययनिबन्धनं किंचित्त्वयाभ्युपगतमस्ति । ततो नानुमानादपि ब्राह्मण्यनिर्णयः । नाप्यागमात् । यतोऽसौ पौरुषेयो वा स्यादपौरुषेयः । न तावद - पौरुषेयः ः । तस्य कार्य एवार्थे प्रामाण्याभ्युपगमात् । ब्राह्मण्यस्य ५ नित्यतयेष्टितोऽकार्यत्वात् । नापि पौरुषेयात् । तस्य प्रमाणान्तरसापेक्षत्वात्तस्य चात्रासंभवात् । नाप्यनुमानात् । तस्य सादृश्यालम्बनत्वात् । अप्रतिपन्ने च प्रमाणान्तरेण ब्राह्मण्ये कथं तेन सादृश्यं कथंचित्प्रतीयेत । यतस्तद्दर्शनात् ब्राह्मण्यमवगम्येत । नाप्यथीपतेः । तत्प्रतिपत्तिर्ब्राश्ह्मण्यजातिव्यतिरेकेणानुपपद्यमानस्य प्रमाणपट्टविज्ञातस्य १० कस्यचिदप्यर्थस्याप्रतीयमानत्वात् । ननु ब्राह्मणत्वसामान्याभावे वर्णाश्रमव्यवस्था तन्निबन्धनस्तपोदानादिव्यवहारश्च सर्वजनसंप्रतिपन्नो नोपपद्येतेति कल्पनीयम् । तन्नैवम् । क्रियाविशेषयज्ञोपवीतादिचिन्हो पलक्षिते प्रकृतिविशेषे तद्व्यवस्थायास्तद्व्यवहारस्य चोपपत्तेः । अथैवं गोत्वादिसदृश परिणामस्याप्यभावापत्तिः । शक्यं हि तत्राप्येवं वक्तुं १५ सानाककुदाद्युपलक्षिते वस्तुनि गवादे ( ? ) ज्ञान यवानामेकत्राविश्यग्भावेनावस्थितानां
खण्ड मुण्डादिपिण्डान्तरसाधारणो मातङ्गतुरङ्गविहङ्गाद्यसाधारणश्च यः कथंचिद्यतिरिक्तः । तथानुभवेन व्यवस्थाप्यमानसमुदायः स एव सदृशपरिणामः प्रोच्यते । न चैतादृशोऽवयवसमह
....
....
२० द्यत एव स कश्चन विशेषो यः परस्परमसाधारणः । लक्षयन्ति चैनं निपुणधियः परस्परासंकीर्णव्यवहारप्रवर्तनात् । प्रकृते तु नायं कश्चिन्निश्चेतुं शक्यते । ब्राह्मणभूतपितृजन्यत्वादेदुर्ज्ञेयत्वेन प्रतिपादितत्वात् । तन्न भवत्कल्पे
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7...
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१ वेश्यापाटक: वेश्यासंनिवेशः ।
[ परि. ५ सू. ८
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पमन्यथा वेश्यापाटकादिप्रविष्टानां ब्राह्मणीनां ब्राह्मव्याभावो भवेत् । न हि विद्यमानमेव तां व्यक्ति सामान्यं
२५
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परि. ५ सू. ८} स्याद्वादरत्नाकरसाहेत. तदानीमुज्झति । युतसिद्धिप्रसंगात् । अथास्त्येव · तदानीमाप तदवस्थं तत्, तर्हि कथं तासां निन्दानादानं च स्यात् । जातियतः पवित्र .... .... .... .... .... .... .... .... दीनां गृहे चिरोधितानामपीष्टं शिष्टैरादानं न तु ब्राह्मणीनाम् । अथ क्रियाभ्रंशात्तासां निन्छतानादानं चेष्यते तर्हि किमनेनान्त- ५ गडुना ब्राह्मण्येन कल्पितेन । कल्पयित्वापि तक्रियाविशेषादिवशादेव वन्द्यताया ब्राह्मण्यव्यवहारम्य चाभ्युपगम.... .... .... .... तस्मान्न ब्राह्मण्यसामान्यमपि परोपगत्तमुपपद्यते । सामान्यसंज्ञस्तदयं पदार्थः सिद्धिं चतुर्थोऽपि न तीथिकानाम् । समेति सम्यग्वि प्रमान्तरेण प्रमाणमूला सकला हि सिद्धिः ॥६८६॥ १० यत्पुनरगादि नित्यद्रव्यवृत्तयोऽन्त्या विशेषाः' इत्यादि ।
तत्रायमर्थः । .... .... विशेषपदार्थपरीक्षणम् ।
.... ....
त्यद्रव्येष्वेव वर्तन्त एव य इति विशेषाः । नित्यद्रव्येप्वेोते द्रव्यगुणकर्मसामान्यानां व्यवच्छेदः । द्रव्यगुणकर्माणि हि द्रव्येश्वेव वर्तन्ते न नित्येष्वेवेति । सामान्यानि तु न द्रव्येष्वेव न नित्येष्वेवेति वर्तन्त एवेति बुद्धिशब्दादीनां व्यवच्छेदः । तेषां समस्त ....
पर्यन्तरूपत्वादन्तत्वं तेषु भवा अन्त्याः । तेषु स्फुटतरमालक्ष्यमाणत्वात् । वृत्तिम्त्वेषां सर्वम्मिन्नेव परमाण्वाकाशकालदिगात्ममनोलक्षणे २० नित्यद्रव्ये विद्यते । अत एव नित्यद्रव्यवृत्तयोऽन्त्या इत्युभयपदोपादानम् । एते च प्रतिद्रव्यमे .... .... दीनां गवादिषु तुल्याकृतिनिमित्तो गौरिति । गुणनिमित्तः शुक्ल इति । क्रियानिमित्तः शीघ्रगतिरिति । अवयविनिमित्तः ककुद्मानिति । संयोगनिमित्तो महाघण्ट इति, अश्वादिभ्यो व्यावृत्तः प्रत्ययः प्रादु- २५ भवति । तस्माद्विशिष्टाना .... .... .... .... ....
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प्रमाण नयतत्त्वालोकालङ्कारः परि. ५ स. ८ .... .... लक्षणोऽयं विलक्षणमिति प्रत्ययवृत्तिर्देशकालविप्रकर्पोपलव्यः स एवायमिति प्रत्यभिज्ञानं च यतो भवति ते योगिनां विशेषप्रत्ययेनोन्नीतसत्त्वा अन्त्या विशेषा अस्मदादीनां प्रसिद्धाः । तथा च प्रयोगोऽत्र तुल्यजातिगुण .... .... .... .... .... ध्वपरविशेषयोगाव्यावृत्तिबुद्धिपरिकल्पनायामनवस्थादिबाधकोपपत्तेः । उपचारातेषु तद्बुद्धिः । तर्हि परमावादिप्वपि भिन्न. विशेषनिबन्धना नेयमभ्युपगन्तया । तेषां तत्र भिन्नाभिन्नव्यावृत्तरूपकरणानुपपत्ते धकस्य. सद्भावात् । भिन्नम्य हि व्यावृत्तरूपस्य करणे
न किंचिदण्यादीनां कृतं स्यात् । तथा चाव्या वृत्तेषु स्वयं तेषु व्या१० वृत्तबुद्धिर्वा नैव योगिनां भवेत् । अभिन्नम्य तु तभ्य करणे त एव
कृता इति तेषामनित्यतापत्तिः । ननु यथा दीपादीनां स्वत एव भासुररूपता तत्स्वभावत्यान्न घटादिसम्बन्धात् । घटादीनां तु सत्सम्बन्वादेव विशेपेषु स्वत एवं व्यावृत्तप्रत्ययहेतुत्वं तत्स्वभावत्वान्न विशेषा
न्तरसंबन्धात्, परमाण्वादौ तु तद्योगादिति । एतदप्यपालोचितवचनम् । १५ यतः प्रदीपादिसंबन्धाद्धटादयः पदार्थाः परित्यक्तप्राक्तनाभासुरत्व.
पर्यायाः कथञ्चिदन्य एव भासुरत्वपर्यायजुषो जायन्त इति युक्तं तेषां तत्सम्बन्धाद्भासुररूपत्वम् । न च परमाग्वादिप्येतत्संभवति । तेषां सर्वथा नित्यत्वाभ्युपगमतः प्राक्तनाविविक्तरूपत्यागेनापरविविक्तरूपतयानुत्पत्तेः । ननु परमाण्यादावविविक्तरूपस्यैवासंभवात्कम्य परित्यागेन ते विविक्तस्वभावाः स्युः । नित्यैकरूपाणां तेषां सर्वदा विशेषपदार्थालिङ्गितत्वेन सर्वदा विविक्तरूपस्थैव संभवादित्यपि श्रद्धामात्रम् । तन्नित्यैकरूपत्वस्य परमाणुविचारावसरे परास्तत्वात् । अनुमानबाधितश्च व्यतिरिक्तविशेषेभ्यस्तत्प्रत्ययप्रादुर्भावः । तथा हिविवादापन्नेषु भावेषु विलक्षणप्रत्ययस्तव्यतिरिक्तविशेषनिबन्धनो न २५ भवति । विलक्षणप्रत्ययत्वाद्गुणादिषु तत्प्रत्ययवदिति ।
एवं च---
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परि. ५ सु. ८]
स्याद्वादरत्नाकरसहितः
न पञ्चमोऽप्येष विशेषनामा वैशेषिकाणां घटते पदार्थः । तल्लक्षणं कुञ्जरकेशरालीश्लाघासमानं प्रतिभाति तस्मात् ।। ६८७ ।। बच जल्पितम् ' अयुतसिद्धानामाधार्याधारभूतानाभिहेति प्रत्यय
.. हेतुर्यः सम्बन्धः स समवायः' इत्यादि तत्र समवायपदार्थपरीक्षणम्।
क्षिणम्' केयमयुतसिद्धिर्नाम । अभिन्न देशे वृत्तिः, अभि. ५ नकालता, अभिन्नधर्मिता, अभिन्न कारणप्रभवत्वं, अभिन्नस्वरूपत्वंवा । नाद्यः पक्षः। असिद्धत्वात् । न हि य एव तन्तूनां देशाम्त एव पटम्यापि। तन्तवो हि स्वांशु स्थिताः । पटस्तु तेविति । न द्वितीयः । असिद्धत्वादेव । तन्तुपटादीनां कार्यकारणभावेन पूर्वापरकालत्वात् । न तृतीयः । तत एव । न ह्यवयव्यादीनां क्वचिदेकस्मिन्धर्मिण्याश्रि- १० तत्वमस्ति । नापि चतुर्थः । तस्मादेव हेतोस्तन्तूनां प्रवेण्यादेः पटस्य तन्तुत्वादेः कारणम्य प्रसिद्धेः ! अभिन्नस्वरूपत्वं तु, अन्यस्यान्यान्य. रूपतापत्तिः । एकलोलीभावेनात्मलाभो वा भवेत् । प्रथमपक्षे प्रत्यक्षविरोधः। न खलु जात्यादेव्यक्त्यादिस्वरूपापत्तिः प्रत्यक्षतः प्रतीयेत । द्वितीयपक्षे तु तथा परिणतिरेवाविष्वम्भावस्वभावा पदार्थानामयुत- १५ सिद्धत्वमित्यस्मन्मतसिद्धिः । अपि च सिद्धिशब्देनात्र किं ज्ञप्ति. रुत्पत्तिर्वाऽभिप्रेता । यदि ज्ञप्तिस्तदा सामान्यतद्वदादीनां युतसिद्धिप्रसक्तिः । अनुवृत्तव्यावृत्तादिरूपतया तेषां परस्परं पृथगेव स्वरूपसंवेदनात् । तथा च तत्र समवायाभावो भवेत् । अथोत्पत्तिस्तदा युतसिद्धिरपृथगुत्पत्तिरित्यायातम् । तदपि जात्यादेनित्यत्वाभ्यु- २० पगमार्घटम् । अथ युतसिद्धेरभावमात्रमयुतसिद्धिः । सा च जात्यादावस्ति । तेनायमदोष इति चेत् । नैवम् । इत्थमाकाशादीनामप्ययुतसिद्धिप्रसक्तेः । अथ युतसिद्धिवैपरीत्येनायुतसिद्धिर्व्यवस्थाप्या । तत्र नित्यानां तावद्वयोरेकस्य वा परस्परं संयोगविभागहेतुभूतकर्मसमवाययोग्यतोऽयुतसिद्धिः । द्वयोः परमाण्वोः पृथग्गमन. २५ माकाशपरमाण्योश्चान्यतरस्य पृथग्गमनमिति । अनित्यानां तु द्वयो
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प्रमाणनय तत्त्वालोकालङ्कारः
[ परि. ५सू. ८
रन्यतरस्य चापृथगाश्रयाश्रयित्वलक्षणः परस्परपरिहारेणान्यत्राश्रये समवायोऽयुतसिद्धिः । द्वयोः पृथगाश्रयाश्रयित्वं घटपटयोः शकुन्याकाशयोश्चान्यतरस्य शकुनेः पृथगाश्रयाश्रयित्वं यद्यप्यन्यतरपृथग्गमनमप्यस्ति तथापि तस्य पृथग्गमनस्य न ग्रहणम् । नित्यविष५ यत्वात्तस्य । यदि पुनर नित्यानामपि पृथग्गमनं युतसिद्धिरुच्येत । तदा त्वगिन्द्रियशरीरयोः पृथग्गमनाभावादयुत सिद्धत्यं भवेत् । ततश्च तयोः परस्परसंयोगो न स्यात् । तस्य युतसिद्धिव्याप्तत्वात् । न चायं तत्र नास्ति कुण्डचदरादिवत्तस्यैव तत्र युज्यमानत्वात् । तस्मादनित्यानां न पृथग्गमनं युतसिद्धिः । नित्येषु पुनराश्रयाभावादेव पृथगाश्रयाश्रयित्वं १० नास्तीति तेषां पृथग्गमनमेव युतसिद्धिः । न त्वनित्यानां पृथगाश्रयाश्रितत्वरूपायां युतसिद्धावभिधीयमानायां घटपटवतन्तुपटयोरपि युतसिद्धिरेव भवेत् । पटस्य तन्तुषु तेषां च स्वांशुषु वृत्तेरिति चेत् । नैवम् । यतो यत्रोभयोः परस्परपरिहारेण पृथगाश्रयाश्रयित्वं तत्र युतसिद्धिर्विवक्षिता । न चेयमत्रास्ति पटस्य १५ तन्तुष्येवाश्रितत्वात् । तत एवंविधयुत सिद्धिद्वयविपरीताऽयुतसिद्धिः सुघटैव । सिद्धिशब्देन चात्र गमनं निष्पत्तिश्च वाच्यमिति । तदपि नोपपद्यते । दिकालाकाशात्मनां नित्यसम्बधिनां व्यापकतया द्वयोरेकस्य चा परस्परसंयोगविभागहेतु भूतकर्म समवाय योग्यता रूपयुत सिद्धेरभावेनायुतसिद्धिप्रसंगादित्यतिव्यापनीयमयुतसिद्धिः । चक्रकापतिश्चात्र ! २० तथा हि- समयायसिद्धौ द्वयोरेकतरस्य वा संयोगविभागहेतुभूत कर्मसमवाययोग्यत्वरूपाया द्वयोरेकतरस्य वा परस्परपरिहारेणान्यत्राश्रये समवाय इत्येवंरूपायाश्च युतसिद्धेः सिद्धिः । तत्सिद्धौ च तद्वैपरीत्येनायुतसिद्धिरिति । अपि च येथे घटपटयो: पृथगाश्रयाश्रयित्वयुतसिद्धिः प्रागभ्यवायि, नेयमुपपत्तिमती । कपालकलशयोस्तन्तुपटयोश्च २५ यथाक्रममाश्रयाश्रयित्वयोरप्रसिद्धेः । न हि कपालानि तन्तवश्चाश्रयो घटः पढश्चाश्रयीति कस्यचित्प्रसिद्धम् । कथमेवमिह कपालेषु घट
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હૃદ
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परि. ५ सु. ८] स्याद्वादरत्नाकरसहितः इह तन्तुषु पट इति प्रतीतेरुत्पत्तिरिति चेत् । कम्येयं प्रतीतिरुत्पद्यते स्वदर्शनाहितसंस्कारस्य भवतोऽपक्षपातिनोऽन्यस्यापि वा । नाद्यपक्षः । तथात्वेऽस्याः कल्पनामात्रत्वप्रसंगात् । न च कल्पनाया: पदार्थस्वरूपानुरोधः । तस्याः स्वातन्त्र्यवृत्तित्वात् । ततो वस्तुव्यवस्थापने व्यवस्थाप्रसक्तेः भवत्कल्पितम्यापि वस्तुनोऽन्यथान्येन कल्पयितुं ५ शक्यत्वात् । द्वितीयपक्षे त्यसिद्धिः । तन्तुसमुदायात्मायं पट इति पटेऽत्र तन्तव इति का सर्वेषां प्रतीत्युत्पत्तेः । एवं च पृथगाश्रयायित्व. रूपयुतसिद्धरसिद्धेः कथं तद्वैपरीत्येनागुतसिद्धिः सिध्येत् । कन्दलीकारोऽप्येतादृशीमेवायुतसिद्धिमभिधानोऽनेनैव निरस्तः । यत्तूदयनः प्राह---- अयुतसिद्धाः प्राप्ताश्च ते सिद्धाश्चेत्य- १० युतसिद्धाः प्राता एव सन्ति न वियुक्ता इति यावत्तेषां संबन्धः प्राप्तिलक्षणः समवायस्तेन संयोगो व्यवच्छिन्नस्तस्याप्राप्तिपूर्वकत्वादजसंयोगाभावो वक्ष्यते ' इति तदम्यात्यन्तव्युत्पन्नमन्यस्यातिसंस्कृतवातूल ब्राह्मणविशेषवत्केवलमनाय शरीरत्व. गिन्द्रिययोर्घटाकाशयोराकाशात्मनोश्च प्राप्तयोरेव सिद्धयोरयुतसिद्धत्वेन १५ समवायप्रसंगात् । अस्तु वा यथाकथञ्चिदयुतसिद्धत्वं तथापि कोऽत्र व्यवच्छेद्यव्यवच्छेदकभावः । अत्र श्रीधरस्तावयाहरति-- 'अयुतसिद्धयोः संवन्ध इत्युच्यमाने धर्मस्य सुखस्य च यः कार्यकारणभावलक्षणः सम्बन्धेः सोऽपि समवायः प्रामोति । तयो. रात्मकाश्रितयोर्युतसिद्ध्यभावात, तदर्थमाधारमाधार्यभूतानामिति २० पदम् । न त्वाकाशशकुनिसंवन्धनिवृत्यर्थमयुतसिद्धिपदेनैव तस्य निवर्तित्वात् । एवमप्याकाशस्याकाशशब्दस्य च वाच्यवाचकभावः समवायः स्यात्तनिवृत्त्यर्थमिहनत्ययहेतुः' इत्येतावतैवास्याभिमतसिद्धेः । न चैवं धर्मसुखयोः कार्यकारणभावस्य .... .... ....
१.पा. कं. पृ. १४ पं. २ किरणावल्या पृ. १३३. मुले पाठभेदो वर्तते । मा. कं पृ. १४ पं. १८
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः [परिः ५ सूः ८ .... नानेव विशेषणेन किंचित् । व्योमशिवानुसारी तु वक्ति' अयुतसिद्वानाप्रित्येक लक्षणं, आधार्याधारभूतानामिति तु द्वितीयम् । पाद्वयस्याप्यस्य सावधारणस्थ व्याख्यानात् । तथा ह्ययु
. .... .... द्धयोर्घटस्त५ द्वाचकशब्दयोस्तु युतसिद्धयोर्वाच्यवाचकभावः । आत्मतगोचराहमिति
ज्ञानयोरयुतसिद्धयोर्घटतद्गोचरज्ञानयोस्तु युतसिद्धयोर्विषयविषयिभाव इति । तथा, आधार्याधारभूतानामेव यः सम्बन्धः स समवायः । न च संयोगो वाच्यवाचकभावो विषयविषयिभावश्चाधार्याधारभूतानामेव
भवति । अन्यथाभूतानामपि भावानां तद्दर्शनादिति न हे .... १० .... यः स सम्बन्ध कार्यो यथेह कुण्डे दधीति प्रत्ययः । तथा
चायमबाध्यमानेहप्रत्ययस्तस्मात्सम्बन्धकार्य इति । तदपि नोपपद्यते । यतो यदि वाच्यवाचकभावादिना सामान्येनैव व्यभिचार उद्भाव्येत तदाऽवधा .... .... ....
द्भायनं तदा कथमेतत्स्यात् । यः खलु विशिष्टो बाच्यवाचक१५ भावादिः संबन्धः सोऽयुतसिद्धानामेवाधार्याधारभूतानामेव चेति नानेनावधारणेन तस्य व्यवच्छेदः । अपि चाधार्याधारभूताना ....
___.... .... .... ......... .... मिति विशेषणं सिध्यति । तत्सिद्धौ च समवायसिद्धिरिति । द्वितीयपक्षे तु किं सम
वायेन कर्तव्यमाधाराधेयभावेनैव पर्याप्तत्वात् । यच्चा .... .... .... २० .... .... ....नानार्थविशेषणत्वं नाना । न पुनः सत्त्वम् ।
तस्य ततो भेदादिति चेत् । तर्हि घटादिविशेषणत्वाधारत्वेन सत्त्वस्य प्रतीतौ सर्वार्थविशेषणत्वाधारत्वेनापि प्रतिपत्तेः । स एव संशयापायः स चार्थसंशयापायः सर्वार्थविशेषत्वाधारत्वस्य ततोऽनन्तरत्वात् ।
तस्यापि नानारूपस्य सत्त्वाद्भेदेनार्थविशेषणत्वाधारत्वमपि नानारूपं २५ सत्त्वाद्भिन्नमेष्टव्यम् । तथा तदाधारत्वमपीत्यनवस्थापत्तिः । पर्यन्ते
तस्य ततोऽनन्तरत्वे प्रथमत एव नानार्थविशेषणत्वान्नानारूपादन
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परि. ५ सू. ८ ] स्थाद्वादरत्नाकरसहितः र्थान्तरत्वसिद्धिः । सिद्धं नानास्वभावं सत्त्वं सकृन्नार्थविशेषणं तद्वत्समवायोऽस्तु । अनेन द्रव्यत्वादिसामान्यं द्वित्वादिसंख्यानं पृथक्त्वादिकमवयविद्रव्यमाकाशादि विभुद्रव्यं च स्वयमेकमपि युगपदनेकार्थविशेषणमिति निरस्तम् । सर्वथैकस्य तथाभावविरोधसिद्धेरिति । समवायस्य नानात्वेऽनित्यत्वप्रसंगः संयोगवदिति चेत् । न । आत्म- ५. भिर्व्यभिचारात्कथंचिदनित्यत्वस्येष्टत्वाच्च । किं चायं सम्बन्धिभ्योऽत्यन्तभिन्नमूर्तिः सन्समवायः कथं तैः सह सम्बध्येत यतस्तद्विशेषणतया चकास्यात् । न ह्यसम्बद्धं विशेषणं नाम । अतिप्रसंगात् । अभावस्यापि कथञ्चिदविष्वग्भूततया प्राक्प्रसाधितस्य विशेषणतोपपत्तेः। ततोऽयमपि विशेषणं सन्केन सम्बन्धेन सम्बध्येत ! न तावत्संयोगेन । १० तस्य गुणत्वेनाद्रव्यस्वभावे समवाये संभवाभावात् । नापि समवायान्तरात् । तस्यैकरूपतयाभ्युपगमात् । नापि विशेषणविशेप्यभावात् । यतः कोऽयं विशेषणविशेष्यभावो नाम । षट्पदार्थेभ्योऽतिरिक्तोऽनतिरिक्तो वा । अतिरिक्तो भावरूपोऽभावरूपो वा । न तावद्भांवरूपः । घडेव पदार्था इति नियमविघातप्रसंगात् । नाप्यभावरूपः । अनभ्युपंगमात् । अनतिरिक्तोऽपि किं द्रव्यरूपो गुणादिस्वभावो वा । नाद्यः पक्षः । गुणाद्याश्रितत्वाभावप्रसंगात् । अत एव न गुणकर्मस्वभावोऽपि ! नापि सामान्यादिरूपः । तेषु तदभावप्रसंगात् । न हि सामान्यादी सामान्यादित्रयं संभवति । अनवस्थादिदोषोपनिपातात् । ततो नायं विशेषणविशेष्प्रभावः परस्य कश्चिद्धटते । अस्तु वायं .. कश्चित्तथापि समवायसमवायिभ्यो यद्यभिन्नस्तदा समवायसमवाथिनां तादात्म्यसिद्धिरमिन्नात् । अभिन्नानां तेषां तद्वद्भेदविरोधाद्भिन्न एवेति चेत् । नन्वयमप्यत्यन्तं भिन्नः कुतस्तत्रैव नियम्येत । समवायाच्छेदितरेराश्रयः । सिद्धे हि समवायनियमे ततो विशेष्यभावनियमसिद्धिः। तत्सिद्धौ च समवायनियमसिद्धिरिति । परस्माद्विशेष्यविशेषणभावादिति २५ चेत् । तर्हि पर्यनुयोगोऽनवस्था च । सुदूरमपि गत्वा स्वसंबन्धिभिः
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प्रमाणनयतत्वालोका लङ्कारः
[ परि. ५ सू. ८
संबन्धस्य तादात्म्योपगमे परमतप्रसिद्धिः । अथात्यन्तभिन्नमूर्तिरपि समवायः स्वत एव संबन्धिभिरभिसंबध्यत इति चेत् । पदार्था अपि स्वत एव परस्परमभिसंबद्धा भवन्तु । किममुना कर्तव्यम् । अथ समवाय एव स्वतोऽभिसंबध्यते संबद्धरूपत्वात् । न पदार्थास्तद्वि५ परीतत्वात् । यथा दहन एवं स्वतो दहति दहनरूपत्वात् । न पुनरन्ये पदार्था इति । प्रयोगः समवायः संबन्धान्तरं नापेक्षते स्वयं संबन्धत्वात्, यस्तु नैवं यथा घटादिः । स्वयंसंबन्धश्च समवायस्तस्मात्संबन्धान्तरं नापेक्षत इति । तदप्ययुक्तम् । संयोगेनानेकान्तत्वात् । स हि स्वयं संबन्धः संबन्धान्तरापेक्षश्च । ततः समवायस्य संबन्धि - १० भ्योऽत्यन्तभेदाभ्युपगमे संबन्धासिद्ध्या विशेषणत्वाभावप्रसंगात् । कथंचितादात्म्यपरिणामेनावभासमानोऽयं गुणादिवद्वस्तुपर्याय स्वरूपः
९७०.
स्वीकर्तव्यः ।
षष्ठोऽपि नाभ्येति ततः पदार्थः सद्युक्तिकोटी समवायमाना । स्वाधारतोऽत्यन्तपृथक्तयैकः प्राजल्पि वैशेषिकदर्शने यः ॥ ६८८ ॥ १५ एवं च वैशेषिकतन्त्रसिद्धा प्रमाणगम्यास्ति न षट्पदार्थी |
स्याद्वाद एवास्तु तत कृतीन्द्राः प्रमाणवीथीमवगाहमानः ।। ६८९ ।। नैयायिकोपकल्पितषोडशतत्त्व व्यवस्थितौ । नैयाथिको तषोडशपदार्थ- सत्यां मानानामधिगम्यः कथमास्तां नन्वने
परीक्षणम् ।
कान्तः || ६९० ॥
२०
तथा हि---प्रमाणप्रमेयसंशयप्रयोजनदृष्टान्तसिद्धान्तावयव तर्क निर्णयवादजल्पवितण्डाहेत्वाभास च्छल जातिनिग्रहस्थानानां पोडशपदार्थानां क्रमेण लक्षणमिदम्- 'अर्थपरिच्छित्तिसाधनं प्रमाणम्' तचतुर्विधम्- ' प्रेत्यक्षानुमानोपमानशब्दाः प्रमाणानि ' इत्यभिधानात् ।
१ न्या. मं. पु. ७, २५२ गौ. सू. १।१।३ ।
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परि. ५२.८ ]
स्याद्वादरत्नाकर सहितः
"
'तत्परिच्छेद्यमात्मादि' द्वादशविधं प्रमेयम् । तथाच सूत्रम् - आत्मशरीरेन्द्रियार्थबुद्धिमनःप्रवृत्तिदोषप्रेत्यभावफलदुःखापवर्गास्तु प्रमेयम्' इति । 'तंत्रात्मा सर्वस्य सुखदुःखसाधनस्य द्रष्टा । सर्वस्याश्च सुखादिसंवेितेराश्रयत्वेन भोक्ता । तस्य भोगायतनं शरीरं भोगसाधनानीन्द्रियाणि भोक्तव्या इन्द्रियार्थाः ' । बुद्धिरुपलब्धि- ५ र्ज्ञानमित्यनर्थान्तरम् । सर्वथोपलब्धौ नेन्द्रियाणि प्रभवन्तीति । सर्वविषयं मनः । बाङ्गनःकायव्यापारः शुभाशुभ फलप्रवृत्तिरित्युच्यते, पुरुषस्य कर्मसु प्रवर्तयितारो रागद्वेषमोहा दोषाः । देहेन्द्रियादिसंघातस्य संघातान्तरग्रहणं प्रेत्यभावः । प्रवृत्तिदोषजनितः सुखदुःखोपभोगः फलम् | 'बोधनालक्षणं दुःखम् ' तस्य च यत्नेन परिहार्यत्वा- १० रूफलात्पृथगुपादानं शरीरादिनैकविंशतिभेदभिन्नेन दुःखेनात्यन्तिको वियोगोऽपवर्गः । एकविंशतिभेदास्तु शरीरं षडिन्द्रियाणि षडूविषया: 'पड्बुद्धयः सुखदुःखे इति । शरीरं दुःखायतनत्वाद्दः खम् । इन्द्रियाणि विषया बुद्धयश्च तत्साधकभावात् । सुखं दुःखानुषंगाद्दः खं स्वरूपत इति । ' नानार्थविमर्शः संशयः । ' संमानानेकधर्मोपपत्ते- १५ विप्रतिपत्तेरुपलब्ध्यनुपलब्ध्यव्यवस्थातच विशेषापेक्षो विमर्श: संशय: ' इति सूत्रकारवचनात् । स च वार्तिककारमते वा । तथा हि-- समानधर्मोपपतेरुपलब्ध्यनुपलब्ध्यव्यवस्थातश्च विशेषापेक्षो विमर्शः संशयः । समानधर्मस्य स्थाणुपुरुषयोरूयतालक्षणस्योपपत्तेरुपलब्धेः । स च समानो धर्म उपलभ्यमानो न केवलः संशयहेतुः किं तूपलब्ध्यनुपलब्ध्यव्यवस्थातो विशेषांशे साधकबाधकप्रमाणाभावाद्विशेषापेक्षः स्थागुर्वा पुरुषो वेति विमर्शः संशयः । तथा
"
१ न्या. भै ५. ७ पं, २६ । २ गौ. ४ गो. सू. १।१।१५। ५ गौ. सू. ७ गौ.सू. १।१।२३ । ८ न्या. वा. ऽथुनोपलभ्यते )
सु. १1१|९| ३ गौ.सू. वा. भा. १|१|९| १।१।२१ । ६ न्या. मं. पृ. ७१.२६ ॥ पु. ८७ पं. १९ ( वार्तिकेऽक्षरमेदो
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[ परि. ५ सू. ८
1
समानजातीयमसमानजातीयं वानेकमनेकस्मात् व्यावृत्तो धर्मोऽनेकधर्मस्तदुपपतेरुपलब्ध्यनुपलब्ध्यव्यवस्थातो विशेषापेक्षः संशयः । यथाशब्देन विभागजत्वदर्शनात् । किमयं गुणो द्रव्यं कर्मेति विभागजत्वं सजातीये कचिदुणे विजातीये वा द्रव्ये कर्मणि च ५ न वर्तते । अतः संशयहेतुः । किं भूतस्यास्य विभागजत्वमिति । तथा विप्रतिपत्तेरुपलब्ध्यनुपलब्ध्यव्यवस्थातो विशेषापेक्षः संशयः । यथा, अस्त्यात्मेत्येके । नास्त्यात्मेत्यपरे । न च सद्भावासद्भावौ सममेकत्र भवतः । तस्मात्तत्त्वानवधारणमस्त्यात्मा नास्त्यात्मेति वा संशयः । भाष्यकारमते तूपलध्यनुपलब्धी पृथक्संशयकारणमिति पञ्चधा. १० संशयः । तथा हि- उपलब्ध्यनुपपत्तेरुपलब्ध्यनुपलब्ध्यव्यवस्थातो विशेपापेक्षः संशयः । यथोदकं सदुपलभ्यते तडागादिषु मरीचिषु चाविद्यमानम् । इदानीं कचिदुदकोपलब्धौ तत्त्वव्यवस्थापकप्रमाणस्यानुपलब्धेः सोदकमसद्वेति संदेहः । तथानुपलब्ध्यनुपपत्तेरुपलब्ध्यनुपलब्धपव्यवस्थातो विशेषांपेक्षः संशयो यथा सन्मूलकी१५ लकादि नोपलभ्यते । सच्चानुपपन्नं विरुद्धं वा । इदानीं पिशाचोऽपि सनोपलभ्यते । सत्त्वेति संशयः समानोऽनेकश्च धर्मो ज्ञेयस्थः । विप्रतिपत्त्युपलब्ध्यनुपलब्धयस्तु ज्ञातृस्था इति भेद: । हिताहितप्राप्तिपरिहारौ तत्साधनं च प्रयोजम् । 'यमर्थमधिकृत्य प्रवर्तते तस्प्रयोजनम्' तच्च द्विविधम् । मुख्यं सुखदुःखप्राप्तिपरिहारौ तत्साधनं २० गौणम् । प्रतिबन्धावरणस्थानं दृष्टान्तः 1 तथा च सूत्रम् — लौकिकपरीक्षकाणां यस्मिन्नर्थे बुद्धिसाम्यं स दृष्टान्तः नैसर्गिक वैनयिकं चातिशयमाता लौकिकाः । तद्विपरीताः
7
९७२
प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः
१ गौ.सू. वा. भा. पू. ४२ पं. ५ ।
१११.२५ ।
.
९ गौ. सू. १।१।२४ । ३. मौ. सू.
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स्याद्वादरत्नाकरसहितः
परि. ५. ८)
परीक्षकाः । तेषां साध्यसाधनाधिकरणत्वेन तद्रहितत्वेन वा बुद्धिसाम्यविषयोऽयां दृष्टान्तः । ' प्रेमाणतोऽभ्युपगम्यमानः सामान्यविशेषवानर्थः सिद्धान्तः'। 'तैन्त्राधिकरणाभ्युपगमसंस्थित्यर्थान्तरभावात् '। तत्र 'सर्वतन्त्राविरुद्धः स्वतन्त्रेऽधिकृतोऽर्थः सर्वतन्त्रसिद्धान्तः । सर्वेषां संप्रतिपत्तिविषय इत्यर्थः । यथा प्रमाणानि प्रमेयसाधनानि प्राणादीन्द्रियाणि गन्धादयस्तदर्था इत्यादि । 'समानतन्त्रसिद्धः परतन्त्रासिद्धः प्रतितन्त्रसिद्धान्तः' यथा भौतिकानीन्द्रियाणि योगानाम् । अभौतिकानीन्द्रियाणि सांख्यानाम् | 'सिद्वावन्यप्रकरणसिद्धिः सोऽधिकरणसिद्धान्तः' । यस्मिन्नर्थे सिध्यति तदनुयायीन्यर्थान्तराण्यपि सिध्यन्ति सोऽधिकरणसिद्धान्तः । यथेन्द्रियव्यतिरिक्त आत्मा दर्शनस्पर्शनाभ्यामेकार्थग्रहणादित्येकस्मिन्नर्थे सिध्यति गुणव्यतिरिक्तो गुणी नियतविषयाणीन्द्रियामीत्यादीन्यर्थान्तराण्यपि सिध्यन्ति । 'अपरीक्षिताभ्युपगमात्तद्विशेषपरीक्ष गमपगमसिद्वान्तः । तद्विशेषपरीक्षणमिति । तस्यापरीक्षितस्यैव वस्तुनाऽम्बुगतस्य ये विशेषास्तेषां परीक्षणम् । अपरीक्षितोऽपि हि कञ्चिदर्थो बुद्ध्यतिशय चिरव्यापयिषया १५ मौवादिभिस्तथेत्यभ्युपगम्यमानोऽभ्युपगमसिद्धान्तः । यथास्तु द्रव्यं शब्दस्तथाप्यनित्य इति परार्थानुमानवाक्यैकदेश मूला अवयवाः । तथा च सूत्रम् - 'प्रतिज्ञाहेतू दाहरणोपन यनिगमनान्यवयवाः' इति । तत्र 'साध्यधर्मविशिष्टस्य धर्मिणो निर्देशः प्रतिज्ञा' । यथाऽनित्यः शब्द इति । निवचनं हेतुः । यथा कृतकत्वादिति । दृष्टान्तवचन- २० मुदाहरणम् । दृष्टान्तो द्विविधः । साधर्म्येग वैधर्म्येण च 1 यत्र प्रयोज्यप्रयोजकभावेन साध्यसाधनधर्म परस्तित्वं ख्याप्यते स साधदृष्टान्तः । तस्य व्याप्यव्यापकभावगर्भ वचनमुदाहरणम् । यद्य
1
१ गौ. सु. ११/२६ पाउमेो दृश्य । २ गो. सू ११११२७ ३ गौ.सू. १।१।२८३ ४ गौ. सु. १।१।२९।५ बौ. सू. ११३०६ गौ. सु. १३१३१ गौ. सू. १।२।३२१ ८ गौ. सू. १।१।३३ पाठान्तरम् ।
७
६२
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९७४
प्रमाणनयतत्त्वालोकारङ्कारः परि. ५ स. ८ कृतकं ततदनित्यं दृशम् । यथा घट इति । यत्र साध्याभावः ख्याप्यते स वैधर्म्यदृष्टान्तः । तस्य व्याप्यव्यापकभावगर्भ तथाभूतमेव वचनमुदाहरणम् । यत्रानित्यत्वं नास्ति तत्र कृतकत्वमपि नास्ति यथाकाश इति साधम्यवैधर्योदाहरणानुसारण तथेति न तथेति वा साध्यधर्मिणि हेतोरुपसंहार उपनयः । यत्कृतकत्वं तदनित्यं दृष्टं यथा घट इति साधोदाहरणे । तथा च कृतकः शब्द इत्युपनयः । यदनित्यं न भवति तत्कृतकमपि न भवति यथाकाशमिति वैधर्योदाहरणेन च । तथा कृतकः शब्द इत्युपनयः । हेत्वपदेशेन पुनः साध्यधनोपसंहरणं निगमनम् । तस्मात्कृतकत्वादनित्यः शब्द इति । अविज्ञाततत्त्वे धर्मिण्यकतरपक्षानुकूलार्थदर्शनेन तस्मि
सम्भावनाप्रत्यय ऊहस्तकः । यथा चाह केलिप्रदेशादावर्ध्वत्वदर्शनात्सुरुषेणानेन भवितव्यमिति सम्भावनाप्रत्ययः । न चायं संशयोऽववाहनप्रदेशे पुरुषवत्स्थाणोरसंभाव्यत्वेन
समकक्षतया स्थाणुपुरुषयारनुल्लेग्नात् । न च पुरुषनिर्णयोऽयं १५ रात्रावपि स्थाणुखननसम्भावनया । तत्यक्षम्य सर्वात्मनानपनो
दात् । पुरुषनिश्चयहेतूनां च शिरःपाण्यादिविशेषाणामप्रतिभासात्पक्षप्रतिपक्षविषयसाधनोपलम्भपरीक्षया तदन्यतरपक्षावधारणं निर्णयः | 'वीतरागकथा वस्तुनिर्णयाला' । 'वादो विजिगीषुकथा । पुरुषश
क्तिपरीक्षणकला जल्यः' । जल्पविशेषो वितण्डा । अहेतवो हेतुबदा२० भासमाना हेत्वाभासाः । हेतोः पञ्च लक्षणानि पक्षधर्मत्वादीनि । तेषा
मेककापाचे पञ्च हेत्वाभासा भवन्त्यसिद्धविरुद्धानेकान्तिक कालात्ययापदिष्टप्रकरणसमाः । तत्र पक्षधर्मत्वं यस्य नास्ति सोऽसिद्धः । यथाऽनित्यः शब्दश्चाक्षुषत्वादिति । सपक्षे सत्त्वं यस्य नास्ति विपक्षे
चास्ति स साध्यविपर्ययसाधनाद्विरुद्धः । यथावोऽयं विषाणित्वा२५ दिति । विपक्षादपरिच्युतः पक्षसपक्षयोर्वर्तमाना हेतुः सव्यभिचारित्वा
१ न्या. मं. पृ.८ पं. ३। २ न्या. मं.पू. ८ पं. ३॥
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परि. ५ सू.८] स्याद्वादरत्नाकरसहितः दैनैकान्तिकः । यथा नित्यः शब्दः प्रमेयत्वादिति । प्रत्यक्षागमवि. रुद्धः कालात्ययापदिष्टः, अबाधितपक्षपरिग्रहो हेतुप्रयोगकालमतीत्यासावपदिष्ट इति । अनुष्णोऽमिः कृतकत्वाद्धटवदिति प्रत्यक्षविरुद्धपक्षानन्तरप्रयुक्तत्वेन, ब्रामणेन सुरा पेया द्रवत्वाजलवादित्यागमविरुद्धपक्षान्तरप्रयुक्तत्वेन च कालात्ययापदिष्टः । विशेषाग्रहणा- ५ त्प्रकरणे पक्षे संशयो भवति । नित्यः शब्दोऽनित्यो वेति । तदेव विशेषाग्रहणं भ्रान्त्या हेतुत्वेन प्रयुज्यमानं प्रकरणसमो हेत्वाभासो भवति । अनित्यः शब्दोऽनित्यधर्मानुपलब्धेर्घटवन् । नित्यः शब्दोऽनित्यधर्मानुपलब्धेराकाशवदिति । 'अर्थविकल्पैर्वचनविघातलम् । यथा नवकम्बलो देवदत्त इत्यादौ । नवः कम्बलोऽभ्येति हि नूतन- १० विवक्षया कथिते परः संख्यामारोप्म निषेधति । कुतोऽस्य नव कम्बला इति । वायभिप्रेतवस्तुप्रतिषेवार्थसमर्थो जायमानो हेतुप्रतिबिम्चनप्रायः प्रसंगो जातिः । यथा हेत्वादिसंमतवाक्यार्थप्रतिषेधाय जायतेऽसमर्थः प्रसंगोऽयं स जातिरिति कथ्यत इति । ' सत्यवस्त्वप्रतिभासो विपरीतप्रतिभासश्च निग्रहस्थानम् ' । तत्कालानुचिता १५ क्रियेत्यर्थः । यहुक्तम्- 'निग्रहस्थानमित्याहुस्तकालानुचितां क्रियाम् ' इति । अत्र समाधीयते । यदुक्तम् – प्रमाणेत्यादि तदविचारितमनोहरम् । भवत्परिकलितानां प्रभाणादिषोडशपदार्थानां स्वरूपतः प्रमाणेन विचार्यमाणानामघटमानत्वात् । तथा हि- यस्ताबद्भवद्भिः सकलपदार्थानां गरिष्ठत्वात्प्रथमतः प्रमाणपदार्थः प्रति- २० पादितः स यथा स्वरूपतः प्रमान विचार्यमाणो नोपप यते तथा प्रत्यक्षादिप्रमाणस्वरूपनिरूपगावसरे प्रबन्धन प्रसाधितम् । अतो भवत्परि. कल्पितप्रमाणपदार्थस्याव्यवस्थितेः कथं तत्परिच्छेद्यत्वेनात्मादिप्रमेयतत्त्वमपि व्यवतिष्ठेत । यथा चात्मा नित्यव्यापित्वादिस्वभावो भवदभिमतो न युज्यते तथा षट्पदार्थपरीक्षावसरे प्रपञ्चितम् । शरीरं २५
१ न्या. मं. पृ. ८ पं, ५। २ न्या, में, पृ. ८ पं. ६३
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः परि. ५सू. ८ स्वावयवेभ्यः सर्वथार्थान्तरभूतमवयविनिरासादेव निरस्तम् । भौतिकानि प्राप्यकारीणीन्द्रियाणि रूपादयस्तदर्था बुद्धयन्तरवेया बुद्धिरणुपरिमाणं मनश्चेति चतुष्टयमपि पुरैव पराकृतन् ! भवदभिमतवाङ्मनः
कायानामव्यवस्थितेस्तद्वयापाररूपा प्रतिरप्यव्यवस्थितैव । कूटस्थ५ नित्यस्य व्यापकस्य निष्क्रियस्य चात्मनः कर्मसु प्रवर्तयितारो दोष
अपि रागादयो न घटन्ते । परिणामिन्येवात्मनि तेषामुपपत्तेः । एतेन नित्यादिस्वरूपस्यात्मनः प्रेत्प्रभावोऽपि परास्तः । प्रवृत्तिदोषदूषणात्तजन्यं सुखदुःखोपभोगलक्षणं फलमपि दूषितम् । अनेन बाधना
स्वरूपं दुःखमपि प्रत्याख्यातम् । अपवर्गश्च भवत्कलिमतो मोक्षस्वरूप. १० निरूपणप्रवट्टके विघटयिष्यते । तन्न द्वादशविधं प्रमेयमवतिष्ठते ।
अपि चास्य द्वादशविधत्वावधारणं तावत्येव प्रमाणव्यापारपरिसमातेः प्रयोजनपरिसमाप्तेर्वा स्यात् । आधः पक्षोऽनुपपन्नः । कालाकाशादिप्रपञ्चेऽपि प्रमाणव्यापारप्रतीतेः । न च तत्प्रपञ्चस्वैवात्रान्तर्भाव इत्यभि
धातव्यम् । ततोऽस्यात्यन्तविलक्षणत्वात् । तथाविधानामप्येषामत्रा१५ न्तभावे आत्मन्येवाशेषार्थानामन्तर्भावात् । ब्रह्माद्वैतप्रसंगतो गता
षोडशपदार्थकल्पना । द्वितीयपक्षेऽपि प्रयोजनस्यापवर्गलक्षणस्य नेतेष्वेव परिसमाप्तिः । तत्प्रसाधकानां दीक्षातपोध्यानादीनामत्र संग्रहाभावात् । तथा चानुपपन्नमिदमगादि जयन्तेन-- 'इत्येप षोड शपदार्थनिबन्यनेन |
निःश्रेयसस्य मुनिना निरदेशि पन्थाः । अन्यस्तु सन्नपि पदार्थगणोऽपवर्ग
मार्गोपयोगविरहादिह नोपदिष्टः।।' इति । पदार्थसंख्यायां संशयपरिंगगने च विपर्ययानध्यवसाययोरपि २५ परिगणनप्रसंगः । न्यायप्रवृत्त्यङ्गत्वमप्यनयोः संशश्वदनिवार्यम् ।
विपरीतानध्यवसितयोरपि प्रतिपाद्यत्वात् । ततो नैतदपि तस्यैक
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परि. ५ म. ८]
स्याद्वादरत्नाकरसहितः
९१७
परिगणने कारणम् । न्यायप्रवृत्त्यङ्गत्वात्तम्य । परिगणने चानुग्रहेच्छापरिभवाभिलापलाभपूजाख्यात्यादेरपि परिगणनप्रसंगः । तत्प्रत्यङ्गत्वाविशेषात्प्रयोजनस्यापि लौकिकस्य तावत्कृष्यादिप्राप्तिलक्षणस्य मुमुक्षुशास्त्रे पदार्थत्वेन भणनमननुगुणम् । तज्ज्ञानस्य निःश्रेयसाधिगमन्यभिचारोपलम्भात् । लोकोत्तरस्यापि तस्य ५ निःश्रेयसाधिगमलक्षणस्य पदार्थत्वेन कथनं न तथ्यम् । भवदभ्युपगतनिःश्रेयसस्य निराकरिष्यमाणत्वेन तज्ज्ञानतदधिगमयोर. नुपपत्तेः । दृष्टान्तस्याप्यनुमानान्तर्गतत्वेन पृथक्परिसंख्यानमनुपपन्नम्। अन्यथा लिङ्गादेरवि तत्प्रसंगः । सिद्धान्तस्तु प्रतिज्ञातो नार्थान्तरम् । अतोऽस्य पृथग्लक्षणाभिधानमनर्थकम् । सवैरेव हि शास्त्रकारैरपसि. १० द्धान्तं ब्रुवाणो निगृह्यते । न च सिद्धान्तलक्षणप्रतिज्ञातः पृथततः क्रियते । तस्या एव सिद्धान्तत्वेन सर्वेषां सुप्रसिद्धत्वात् । अवयवानां च पदार्थसंख्यायां परिगणनेऽनुमानस्यापि पृथक्परिगणनप्रसंगः । तस्य प्रमाणान्तर्गतत्वात् । पृथगपरिगणनेऽवयवानामनुमानात्मकत्वान्न पृथक्परिंगणनं स्यात् । प्रधानभूतं चानुमानं प्रमाणान्तर्गतत्वान्न पृथ- १५ गुपादीयते । तदन्तर्भूतास्त्ववयवाः पृथगुपादीयन्त इति महती प्रेक्षापूर्वकारिता । उपादानेऽप्येषामियत्तावधारणमयुक्तम् । यावद्भिर्विवक्षितार्थप्रतिपत्तिर्भवति तावतामेवोपादानाईत्वात् । सा च कचित्कियद्भिर्भवतीत्युदयनोऽपि पञ्चमाध्याये तात्पर्यपरिशुद्धौ- 'स्यादेतदेवं तर्हि दूषणस्यापि पश्चावयवप्रयोगप्रतिपाद्यता प्रामोति परार्थानु- २० मानात् ' इत्याशङ्कयाह- 'अतः परिषत्प्रतिवाद्यनपेक्षितत्वात्पञ्चावयवप्रयोगानभिधानमिति' इति । तस्य च प्रमाणविषयपरिशोधकत्वनुच्यते भवद्भिः। तच्च प्रमाणविषयतिरोधायकापनेतृत्वं संशयादिव्यवच्छेदेन तन्निश्वायकत्वं तद्हणे प्रवृत्तस्य प्रमाणस्याग्रेसरतया तत्स्वरूपविवेचनमात्रं वा । प्रथमयक्षे प्रतीतिविरोधः । घटा- २५ दितिरोधायकस्यान्धकारादेस्तादपनयनाप्रतीतेः । द्वितीयतृतीयपक्ष
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९७८
प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः (परि. ५ सू. ८ योरप्रमाणात्मकोऽसौ तथा तन्निश्चयं तद्विवेचनमात्रं च कुर्यात्पमाणात्मको वा । न तावदप्रमाणात्मकः । प्रमाणविषयस्याप्रमाणात्मना तेन परिशोधनानुपपत्तेः । यदप्रमाणं न तत्प्रमाणविषयपरिशोधकम् । यथा मिथ्याज्ञानम् । प्रमेयो वार्थोऽप्रमाणं च भवद्भिः परिकल्पितस्तर्क इति । तत्परिशोधकत्वे चास्य प्रमाणवप्रसंगः । यत्प्रमाणविषयपरिशोधकं तत्प्रमाणं यथानुमानादि । प्रमाणविषयपरिशोधकश्च भवद्भिः परिकल्पितस्तर्क इति ! अस्तु तर्हि प्रमाणात्मक एवासाविति चेत् । न । चत्वार्येव प्रमाणानीति प्रमाणसंख्याव्याघातप्रसक्तेः। निर्णयश्च
प्रमाणस्य फलम् । तस्य च तस्मादेकान्तेन भिन्नस्य भवदभ्युपेतस्य १० फलपरिच्छेदे प्रतिषेध्यमानत्वान्नान पदार्थतया निर्देशः कर्तुं युक्त इति ।
वादजल्पवितण्डानां तु स्वरूपं वादलक्षणैककथाव्यवस्थापनावसरे निराकरिष्यते । हेत्वाभासानामपि पृथक्पदार्थतया परिंगगनं निष्प्रयोजनम्। अन्यथा प्रत्यक्षाद्याभासानामपि तथा परिगगनप्रसंगात्षोडशपदार्थ
संख्याक्षतिप्रसंगः । प्रत्यक्षादिप्रमाणनिर्देशसामर्थ्यादेव तदामासानां १५ लब्धत्वादपरिगणने पञ्चलक्षणकहेतुनिर्देशसामर्थ्यादेव हेत्वाभासा
नामपि लब्धत्वादपरिगणनमस्त्वार्यशपात् । छलं तु बालकीडाप्रायं न प्रामाणिकानां निःश्रेप्रसार्थिनामवलम्बितुचितमिति । जातिस्तु दूषणाभासस्वभावा हेत्वाभासैरेव संग्रहीतेति किमित्येभ्यः पृथक्कथ्यते । निग्रहस्थानं पुनरनन्तत्वान्नेयत्तयावधारयितुं शक्यमिति न तल्लक्षणमपि सोपयोगमिति । विस्तरस्तु छलजातिनिग्रहस्थानानां प्रत्येकदूषणं वादलक्षणैककथावस्थापनसमये प्रकाशयिप्यते । अभ्येत्यतः षोडशतत्त्वमार्गोऽप्ययं प्रमाणस्य न गोचरत्वम् । सांख्योक्ततत्त्वान्यपि चैव तर्क....णः परिभावयन्तु ।। ६९१ ।। तथा हि- एवममी प्रधानादीनि पञ्चविंशतितत्त्वानि व्यावर्ण
यन्ति । प्रदधाति धारयति महदादीसांस्यतत्त्वपरीक्षणम् ।
विकारानिति प्रधानम् । तञ्च संक्षेपतस्विविध
२५
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परि. ५ सु. ८] स्याद्वादरत्नाकरसहितः कार्य करणं शक्तिरिति । त्रेधा हि जगत्, स्थितं कार्य तन्मात्रादिकरणं खादिशक्तिर्गुणत्रयमित्यभिधानात् । न हि कार्यकरणशक्तेर्व्यतिरिक्तो जगत्प्रपञ्चोऽस्ति । तत्र कार्य दशविधम् । तन्मात्रमहाभूतसंज्ञकं करणं त्रयोदशविधं बुद्धीन्द्रियकर्मेन्द्रियान्तःकरणबुद्धयहंकारभेदात् । शक्तिश्ाननुभूयमानस्वभावा प्रकृतिरेकैच । मूलोपादानभूततत्सद्भावावेदकं तु- ५
‘भेदानां परिमाणात्समन्वयाच्छक्तितः प्रवृत्तेश्च ।
कारणकार्यविभागादविभागाद्वैश्वरूप्यस्य ।।' इति । हेतुपञ्चकं परिमितत्वं ह्येककारणपूर्वकस्थैव प्रतिपन्नम् । यथा घटघटीशरावोदञ्चनाइरेकमृव्यपूर्वकम्य । परिमितं चेदं व्यक्तमेका बुद्धिरेकोऽहंकारः पञ्च तन्मात्राणि, एकादशेन्द्रियाणि पञ्चभूतानि । १० अत एतेषां भेदानां परिमितम्वभावानां यत्तदेक कारणं तदप्रधानमेवेति तदस्तित्वसिद्धिः । समन्वयाच्च यग्रजातिसमन्वितं हि यत्तत्तदात्मककारणकार्य यथा घटादयो विशेषा मज्जातिसमन्विता मृदात्मक कारण कार्याः सत्त्वरज-तमोजातिसमन्वितं चेदं महदादि व्यक्तं तत. स्तदात्मकप्रधानपूर्व कमिति सत्त्वस्य हि प्रसादलाघवाद्वर्षप्रीत्यादिकं १५ कार्थ, रजसस्तापशोषोपष्टम्भावगादिकं, तमसो विषाददैन्यबीभत्सगौरखावरणादिकम् । तदुक्तम् - 'सचं लघु प्रकाशकमिष्टमुपष्टम्भक चलं रजः । गुरु वरणकमेव तमः प्रदीपचार्थतो वृत्तिः।। इति। अस्य व्याख्या- 'सत्वमेव लघु प्रकाशकामिष्टं सांख्याचार्यः । तत्र कार्यस्योद्गमनहेतुर्मो लाघवं गौरवप्रतिद्वन्दि । यतोऽनेरूद्मज्वलनं भवति । २० तदेव लाघवं कस्यचितिर्यपवनहेतु यथा वायोः । एवं करणानां वृत्तिपटुत्यहेतुर्लाघवं गुरुत्वे हि मन्दानि स्युः । प्रकाशकत्वं तु सत्वस्य स्पष्टप्रतिप्रतिहेतुत्वमुच्यते, सत्चतमसी स्वयमाक्रियत्वास्वकार्यप्रवृत्ति प्रत्यक्सीदती रजसोयष्टभ्येते । अवसादात्मच्याव्य स्वकार्य उत्साहं प्रयत्न कार्येते तदिदमुक्तम् 'उपष्टम्भकम्' इति । २५
१ सा. का. १५ । २ सां. का. १३ । ३ सां. त. को. १३।
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः परि. ५ सू. ८ कस्मादित्यत उक्तम् 'चलम्' इति । तदनेन रजसः प्रवृत्त्यर्थत्वं दर्शितम् । इतवाव्यक्तमस्तीत्याह -'शक्तितः प्रवृत्तेश्च' इति । कारणशक्तितः कार्य प्रवर्तत इति सिद्धम् । अशक्तात्कारणात्कार्यस्यानुपपत्तेः शक्तिश्च कारणगता न कार्यस्याव्यक्तत्वादन्या । न हि ५ सत्कार्यपक्षे कार्यस्याऽव्यक्तताया अन्यस्यां शक्तावस्ति प्रमाणम् । अयमेव हि सिकताभ्यस्तिलानां तैलोपादानानां भेदो यदेते धेव तैलमस्त्यनागतावस्थं न सिकतासु' इति । कारणकार्यविभागाच्च कारणकार्ययोविभाग इदं कारणमिदं कार्यनिति बुद्धया
द्विधावस्थापनं सोऽवस्थितैकभावपूर्वको दृष्टः । यथा स्थासकोशादि१० कारणकार्यविभागोऽवस्थितैकमृत्पूर्वकः । अस्ति चायं महदादिषु
तस्मादवस्थितैकभावपूर्वकः । यश्चावस्थित एको मावस्तदव्यक्तम् । तथा- अविभागाद्वैश्वरूप्यस्य । विश्वरूपमेव वैश्वरूप्यमिति स्वार्थिकः ष्यञ् । इह यद्विश्वरूप नानाप्रकारं तस्याविभागो दृष्टः । तद्यथा मृदपेक्षया
घटघटीशरावोदश्चनादीनां विश्वरूपाश्च महदादयस्ततस्तेषामप्यविभागेन १५ भवितव्यम् । योऽसावविभागस्तदव्यक्तम् । एवं प्रमाणतः प्रसिद्धसत्ताका प्रकृतिरनेन क्रमेण तत्त्वसृष्टौ प्रवर्तते ।। 'प्रकृतेमहांस्ततोऽहंकारस्तस्माद्गणश्च षोडशकः । तस्मादपि षोडशकात्पश्चभ्यः पञ्च भूतानि ॥' इति ।
प्रथमं हि प्रकृतेमहानेको व्यापको विषयाध्यवसायरूप आसर्ग२० प्रलयस्थायी बुद्धयपराधीनः प्रभवति । स चास्मादृशामसंवेद्यस्वभावः ।
ततस्तु याः प्रतिप्राणिविभिन्ना बुद्धिवृत्तयो निःसरन्ति ताः संवेद्यस्वभावाः । ततश्चाहंकारस्तथाविधो जलनिधेरिख प्रतिप्राणिविभिन्नस्तैस्तैः स्थलोऽहं सुरूपोऽहमित्याद्यहंकारतरङ्गविशेषः प्रसरति । स चा.
हक्कारो वैकृतो भूतादिश्चेति प्रथमतो द्विप्रकारः प्रसरति । तत्र वैकृता२५ त्सत्त्वप्रधानादहंकारात्प्रकाशरूप एकादशविध इन्द्रियगणोऽयं प्रादुर्भ
सां. का. २२॥
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परि. ५ म. ८ ] स्याद्वादत्नाकरसहितः वति । पञ्च श्रोत्रत्वक्चक्षुर्जिव्हाघ्राणलक्षणानि बुद्धये बुद्धिमभिव्यक्तुमिन्द्रियाणि वाक्पाणिपादपायपस्थसंज्ञानि कर्मणे कमाभिव्यक्तये । इन्द्रियाणीति मनः संकल्परूपं ग्रामेऽहं प्रस्थितः सुवर्णस्य प्राप्तिभविष्यति द्रव्यस्य चेत्यादिसंकल्पवृत्तिभूतादेस्तु तमःप्रधानादहङ्कारात्पञ्च तन्मात्राणि प्रादुर्भवन्ति । तेभ्यः षोडशक- ५ गणादपकृष्टेभ्यः सूक्ष्मशब्दस्पर्शरूपरसगन्धस्वभावम्यः पञ्च भतान्याकाशादीन्याविर्भवन्ति । तत्र शब्दतन्मात्रादाकाशं शब्दगुणं, शब्दतन्मात्रसीहतात्पर्शतन्मात्राद्वायुः शब्दस्पर्शगुगः, शब्दस्पर्शतन्मात्रसहिताद्रूपतन्मात्रात्तेजः शब्दस्पर्शरूपतन्मात्रसहिताद्रसतन्माबादापः शब्दस्पर्शरूपरसगुणाः, शब्दस्पर्शरूपरसतन्मात्रसहिताद्ग- १० न्धतन्मात्राच्छब्दस्पर्शरूपरसगन्धगुणा पृथिवी जायत इति । मात्रग्रहणं च भूतत्वाभावज्ञापनार्थं शब्दतन्मात्रादिषु विज्ञेयम् । भूतस्वभावानि शब्दतन्मात्रादीनि न भवन्ति । भतकारणानि तु भवन्तीति भावः । एतानि च योगिनामेव श्रोत्रादिभिरिन्द्रियैः परिच्छिद्यन्ते । सक्षमस्वभावाक्रान्तत्वात् । अस्मदादीनां तु श्रवणादी- १५ न्द्रियैः स्थूला एव शब्दादयो विषयी कर्तुं शक्यन्त इति । अयं च महदादिप्रपञ्चः प्रकृतौ सन्नेवाविर्भावं प्रतिपद्यते ।
"असदकरणादुपादानग्रहणात्सर्वसंभवाभावात् ।
शक्तस्य शक्यकरणात्कारणभावाच सत्कार्यम् ।।' इति वचनात् । अस्वार्थ:-असदकरणादिति । असञ्चेत्कारण. २० व्यापारात्पूर्व कार्य घटादि तर्हि नाम्य सत्त्वं शक्यं कर्तुम् । न हि नीलं शिस्पिसहस्रेणापि पीतं शक्यं कर्तुम् । सदसत्त्वे घटस्य धर्माविति । ....
दभिन्नत्वाद्यत्पुनः सन्न भवति तत्कारणादभिन्नमपि न भवति । २. १ सांत, कौ. पृ. १.. । २ सां. का. ९!
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प्रमाणनयत्तत्त्वालोकालङ्कारः
यथा करिकेसरनिकुरम्बमिति । न च कारणादभिन्नत्वं कार्यस्यासिद्धं तत्वसाधकानुमानसद्भावात् । तथा हि- ने पटस्तन्तुभ्यो भिद्यते तद्धर्मत्वात् । यद्यतो भिद्यते तत्तस्य धर्मो न भवति । यथा गौरवस्य धर्मश्च पदस्तन्तूनां तस्मात्तेभ्यो न भिद्यते । यथा तन्तुपटौ ५ परस्परं न भिद्येते । उपादानोपादेयरूपत्वात् । यौ पुनर्भिद्येते न तानुपादानोपादेयरूपौ यथा घटपटौ । इतथानर्थान्तरत्वं तन्तुवयोः संयोगप्राप्त्यभावात् । अर्थान्तरत्वे हि संयोगो दृष्टो यथा कुण्डबदरोरप्राप्ति यथा हिमवद्विन्ध्ययोः । न चेह संयोगाप्राप्ती स्तः । तस्मान्नार्थान्तरत्वम्' इति । तदेवमभेदे सिद्धे तन्तव एव तेन १० संस्थानभेदेन परिणताः पट इति स्वात्मक्रियानिरोधबुद्धिव्यपदेशार्थक्रियाभेदाच नैकान्तिकं भेदं साधयितुमर्हन्ति । एकस्मिन्नपि तत्तद्विशेषाविर्भवतिरोभावाभ्याभयामविरोधात् । यथा कूर्मस्याङ्गानि कूर्मशरीरे निविशमानानि तिरोभवन्ति निःसरन्ति चाविर्भवन्ति । ननु कूर्मस्तदङ्गानि चोत्पद्यन्ते ध्वंसन्ते वा । एक१५ मेकस्या मृदः सुवर्णस्य वा कुटकटकादयो विशेषा निःसरन्ति, आविर्भवन्त उत्पद्यन्त इत्युच्यन्ते न पुनरसतामुत्पादः सतां वा निरोधः । यथाह व्यासः -- 'नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ||' इति । तथा च कूर्मः स्त्रावयवेभ्यः संकोचत्रिकासिभ्यो न भिन्नः । एवं कुटकटकादयो मृत्सुवर्णादिभ्यो न २० भिन्नाः । एवं चे तन्तुषु पट इति बुद्धिव्य देशश्व । ययेह
वने तिलका इत्युपपन्नः । न चार्थक्रियामेदो भेदमापादयत्येकस्यापि नानार्थक्रियस्य दर्शनात् । यथैक एव चन्हिदहकच पावकचेति । तस्मात्प्रत्येकं तन्तरः प्रावरणमकुर्वाणा अपि मिलिता आविर्भूतपट भावा: प्रावरित्र्यन्ति । न च भेत्स्यन्ते । २५ स्यादेतदाविर्भावः पटस्य कारणव्यापारात्प्राक्सनसन्वा । स
१ सो. त. कौ. पू. ६४. पं. ८ । १ भ.गी.२११६॥
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[ परि. ५. सु. ८
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९८३
परि. ५ स. ८ ]
स्याद्वादरत्नाकरसहितः चेदसन्प्राप्तमसत उत्पाद इति । अथ सन्, कृतं तर्हि कारणैः। न हि सति कार्य कारणानां प्रयोजनं पश्यामः । आविर्भाव वाविर्भावान्तरकल्पनेऽनवस्थाप्रसंगः । तस्मादाविर्भूतपटभावास्तन्तव इति रिक्तं वचः । अत्रोच्यते । असदुत्पद्यते इत्यत्रापि मते केयमसतामुत्पत्तिः सत्यसती वा । सती चेत्कृतं कारणैः । असती ५ चेत्तस्या अप्युत्पत्त्यन्तरमित्यनवस्था । अथोत्पत्तिः पटानार्थान्तरमपि तु पट एवासौ तथापि यावदुक्तं भवति पट इति तावदुक्तं भवत्युत्पद्यत इति । ततश्च पट इत्युक्ते उत्पद्यत इति । न च वाच्यं पौनरुक्त्याद्विनश्यतीत्यपि न वाच्यं विरोधात् । तस्मानामीभिर्गजविकल्पैस्तत्वमुपप्लावनीयम् । तथा च सत एव ५० पटादेराविर्भावाय कारणापेक्षेत्युपपन्नम् । न च पटरूपेग कारणानां संबन्धस्तद्रूपस्याक्रियात्वात्, क्रियासंबन्धित्वाच कारकाणामन्यथा कारकत्वाभावात् ।' तदित्थं कार्यस्य कारणादभेदे प्रतिषिद्धे सन्नेवासौ महदादिप्रपञ्चः प्रकृतेः सकाशादाविर्भवतीति सिद्धम् । नन्वेवमभेदे व्यक्ताव्यक्तयोः कथं कार्यकारणभावव्यवस्थेति चेत् । उच्यते- १५ हेतुमदनित्यमव्यापि सक्रियमनेकमाश्रितं लिङ्गम् । सावयवं परतन्त्रं व्यक्तं विपरीतमव्यक्तम् ॥' इति लक्षणभेदात् । तथा हि'व्यक्तं हेतुमत, हेतुः कारणमस्यास्तीति कृत्वा' प्रधानेन हि हेतुमती बुद्धिः । बुद्धयाहंकारोऽहंकारेण षोडशको गणः पञ्चभिस्तन्मात्रैः पञ्च महाभूतानि न त्वेकमव्यक्तं तत्कारणभावात्, चिद्रूपश्च पुरुषो न २० जडस्वरूपस्य कारणमत्यन्तविलक्षणत्वात् । तथा महदादि व्यक्तमनित्यं विनाशि तिरोभावीत्यर्थः । नन्वेवमव्यक्तं तस्या अहेतुमत्वेनानित्यत्वायोगात् । अव्यापि च व्यक्तं नियतदेशवर्तित्वात् । नन्वेवमव्यक्तं विभुत्वात् । तथा व्यक्तं सक्रिय परिस्पन्दवत् । तथा हि
१ सो. का. १०। २ सां.त. को. पृ. ७० पं.२३ सा.त. कौ. पृ. ७० पं. ३
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१८४
प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः
परि. ५ रसू.
बुद्धयादय उपात्तमुपात्तं देहं त्यजन्ति देहान्तरं चौपाददत इति तेषां परिस्पन्दः । शरीरपृथिव्यादीनां च परिस्पन्दः प्रसिद्ध एव । न पुनरेवमव्यक्तं, यद्यपि चास्याप्यस्ति परिणामलक्षणा क्रिया तथापि परिस्पन्दो नास्ति । अनेकं च व्यक्तं महदादिसंचयरूपत्वात् । अव्यक्तं ५ पुनरेकमन्यथा बहूनां प्रधानानामीश्वराणामिव परस्परमतभेदेन कार्यारम्भे प्रवर्तमानानां काचव्यान्न( १ ) कार्यनिष्पादकत्वं स्यात् । आश्रितं च व्यक्तं यस्मादुत्पद्यते तस्य तदाश्रितत्वात् । नन्वेवमव्यक्तं 'अभेदेऽपि कथंचिद्भेदविवक्षाश्रयाश्रयिभावो यथेह बने तिलकाः' इत्यत्र
लिङ्गं च व्यक्तं लीनं सूक्ष्मं स्वकारणं गमयतीति लयं गच्छतीति वा । १० प्रलये हि महदादि यथास्वं कारणेघु लीयते न निरन्वयं नश्यति ।
न त्वेवं प्रधानं तद्गम्यकारणान्तरम्यासंभवात् । सावयवं च व्यक्तमवयवनमवयवो मिश्रणं संयोग इति यावत् । अवाप्तिपूर्विका प्राप्तिश्च संयोगस्तेन सह वर्तत इति सावयवम् । तथा हि- पृथि
व्यादयः परस्परं संयुज्यन्ते । एवमन्येऽपि । न तु प्रधानस्य १५ बुद्धयादिभिः संयोगस्तादात्म्यात् । नापि सत्त्वरजस्तमसां परस्पर
संयोगोऽप्राप्तेरभावात् । परतन्त्रं च व्यक्तं बुद्ध्या हि स्वकार्येऽहंकारे जनयितव्ये प्रकृत्या पूरऽयेक्ष्यते । अन्यथा क्षीणा सती नालमहंकारं जनयेतुमिति स्थितिः । एवमहकारादिभिरपि स्व
कार्यजनन इति सर्व स्वकार्यजनने प्रकृत्यापूरमपेक्षते । तेन २० प्रकृति परामपेक्षमाण कार्योपक्रमणे परतन्त्रं व्यक्तम् ।' नन्वेश्म
व्यक्तं कारणान्तरासंभवेन । तस्य स्वतन्त्रत्वात् । न चैवमनयोरात्यन्तिको भेद एव । ' त्रिगुणमविवकिविषयः सामान्यमचेतनं प्रसवधर्मि | व्यक्तं तथा प्रधानं तद्विपरीतं तथा च पुमान् ' ॥ इति लक्षणाभेदात्तयोरभेदस्थाप्युपपत्तेः । तथा हि त्रिगुणमिति त्रयो
१ सां. त. कौ. पृ. ७१ पं. २॥ २ सां. त. काँ. पृ. ७१ पं. ७ ३ सां. का. ११।४ सां. त. कौ. पृ. ७२ पं. १४॥
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९८५
परि. ५ सु. ८] स्याद्वादरत्नाकरसहितः गुणाः सुखदुःखमोहा अस्येति त्रिगुगं व्यक्तं प्रवानं च । तदनेन सुखादीनामात्मगुगत्वं पराभेनतं पराकृतम् । अविवेकि यथा प्रधानं स्वतो न विविच्यते । एवं महदाइयो (?) प्रधानाद्विविच्यन्ते तदात्मकत्वात् । ये प्राहुर्विज्ञानमेव हर्षविषादशब्दाद्याकारं न पुनरितोऽन्यस्त दुर्मेति तान्प्रतीदमुक्तं विषय इति । व्यक्तं ५ प्रधानं च विषयो विज्ञानादहिरिति यावत् । अत एव सामान्यं साधारगं सर्वपुरुषोपभोग्यत्वादेश टीवत् । विज्ञानाकारत्वे पुनरसाधारणत्वाविज्ञानानां वृतिरूपाणां घटाइयोऽप्यसाधारगाः रेस्तवाचकतयानेकस्मिनकीभूलनामङ्गे बहूनां प्रतिसंधानमुपनायेत । अचेतनं सर्व एव बुद्धयादयोऽचेतना न तु बौद्धादी- १० नामिव बुद्धेचैतन्यनित्यर्थः । प्रसवधर्मि प्रसवः कार्यजननं धर्मो - स्थास्तीति । तथा हि प्रकृतियुद्धि जनयति, बुद्धिरप्यहंकारम् । अहंकारे.ऽपि तन्मात्राणीन्द्रिय गि चैकादश तन्मात्राणि तु महाभूतानि जनयन्ति । व्यक्तवृत्तापरेशार्थ प्रधानस्योक्तम् । तथा प्रधानमिति व्यक्ताव्यक्ताम्यां पुरुषस्य वैधाभिधानार्थमभिहि- १५ तम् । तद्विपरीतः पुनानिति । स्य देतत् । अहेतुमचनित्यत्वादि प्रधानसाधर्म्यमसित पुरुषस्य । एग्मनेकत्वं व्यक्तसाधर्म्यमस्ति । तत्कथनुच्यते तद्विपरीतः पुमानित्यतः कथितम्-तथाचेति । चकारोऽप्यर्थः । यायहेतुनचादि साधर्म्यनस्ति तथापि त्रैगुण्यादिकं पुरुषस्य वैपरीत्यं व्यक्त व्यताम्यामित्यर्थः ।
संख्यातुं सांख्याना मुपितं संख्याविदां मतं तस्मात् । यत्रै कान्ताभिन्नं प्रधानमगमन्मितेर्मार्गम् ।। ६९२ ॥
१ सा. त.कौमुद्यां तु विज्ञान यया परेण न गृह्यते परबुद्धेरप्रत्यक्षत्वादित्यभित्रायः । तथा च नर्तकीलताभ एकस्मिन् बहूनां प्रतिसंवानं युक्तम् '
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः परि. ५ स. ८ कपिकुलपरिपन्थि चापलं तदिदं यत्किल चक्रुरुद्धताः । कपिलस्य सुतास्ततः क्षणं कुर्मः शिक्षणमेषु युक्तितः ॥ ६९३ ।। तथा हि-- यत्तावदवादि - तत्सद्भावाचेदकं तु भेदानां परिणामात् ' इत्यादि हेतुपञ्चकं तदाश्रयासिद्धिदोष हुप्त्वा युक्तम् ! प्रक. ५ तेरसंवेद्यस्वभावतया स्वरूपेणासिद्धत्वाद्ध्यतिरेकेणासिद्धत्वाच्च । परि
मिततत्त्वादिकं हि साधनं भेदेषु वर्तते । अस्तित्वं तु साध्यं प्रकृताविति । अथ महदादिभेदानामेवात्रैककारगर्वकत्वं प्रसाध्यते । तेनोक्तदोषद्वयाभावः । तदपि न सुन्दरम् । प्रधानपुरुषैर्व्यभिचारात् ।
तत्रैकत्वाने कत्वसंख्यया महापरिमाणेन च परिमितत्वेऽप्येक कारण१० पूर्वकत्वासंभवात् । किं च परिमितं च स्यादेककारणपूर्वकं च न
भवेत्, किं विरुध्येत । दृष्टान्तस्तु साध्यविकलः । कुम्भादेरेककारणपूर्वकत्वासंभवात् । न ह्येकं किंचिजनकं प्रतीयते सहकारीतरकारणप्रभवत्वात्कार्याणाम् । मृअस्याप्यनेकावयवसमुदायात्मकत्वान्न सर्वथैक
त्वम् । अतः परिमितत्वनने कारणपूर्वकत्वेनैव व्याप्तत्वाद्विरुद्धम् । १५ समन्वयादित्यप्पनैकान्तिकम् । प्रकृतिपुरुषाणामेककारणपूर्वकत्वाभावेऽ
पि नित्यव्यापित्वादिधर्मैः समन्वयसंभवात् । पुरुषाणां च भोक्तृत्वादिधर्मेरिति । भिन्नजातीनां च जलानिलादीनाभेकोपादानप्रभवत्त्वं दुरुपपादम्। पदार्थजातिभेदस्य कारणैकत्वविरोधित्वात् । असिद्धं चेदं साधनम् ! न
हि समयभूत ग्रामस्य सुखदुःखमोहमयत्वेनान्वितत्वसिद्धिरस्ति । सुखादी२० नामन्तःसंविद्रूपतया प्रतिभासतो बाद्यार्थानां तन्मयत्वानुपपत्तेः । न हि
कश्चिद्वाचं स्रक्चंदनादिकं सुखमिति प्रतिपद्यते । सुखजनकत्वेनाबालं तत्प्रसिद्धेः । न च कार्यकारणयोरेकत्वमनौपचारिक प्रामाणिकैराद्रियते । एतेन ' सत्त्वं लघु प्रकाशकमिष्टम् ' इत्यादिकारिका
सव्याख्याना प्रत्याख्याता । सक्चन्दनादीनां सुखदुःखमोहमयत्वाप्र२५ सिद्धौ सत्त्वरजस्तमोमयत्वस्याप्रसिद्धेः शक्तितः प्रवृत्तरित्यस्यापि शक्तेः
कार्याव्यक्ततारूपायाः सकाशात्कार्यप्रवर्तनादित्यर्थः । तत्र केयं
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परि. ५. ८ ]
स्याद्वादरत्नाकर सहितः
कार्याव्यक्तता नाम | कारणात्मन्यव्यक्तं कार्यमेवेति चेत् । ननु तद्व्यक्तकार्याद्यतिरिक्तमव्यतिरिक्तं वा I न तावद्व्यतिरिक्तम् | सत्कार्यवादव्याहतिप्रस केः । नाकयतिरिक्तम् । तत्र व्यक्ताव्यक्तरूपतानुपपत्तेरेकत्वादित्यसिद्वैव शक्तितः प्रवृत्तिः
त्यमविद्यमानसाध्याश्च परमते कारकत्वेनाभि
मताः पदार्था इति । न चाभिव्यक्तौ तेषां व्यापार: । तत्रापि सत्त्वासत्त्वपक्षयोः करणासंभवात् । न खलु सापि विद्यमाना कर्तुं युक्ता । करणानुपरमप्रसंगात् | अविद्यमानायाश्च तस्याः करणे सत्कार्यवादहानिः स्यादिति कारकत्वस्यासत्त्वात्कथं क्रियमाणं
40**
3449
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त्वात् क्रियमाणत्वादिति साधनं न कारण- १० व्यापारात्प्राक्कार्यस्यैकान्तसत्त्वसिद्धये प्रभवति । नाप्युपादानसंबद्धत्वादिति प्रत्यक्षवाघादेरत्राप्यवतारात् । उपादानेन च कार्यस्य संबन्धस्तादात्म्यमेव च सांख्यैराख्यायेत तत्र च कार्यकारणयो. स्तादात्म्यं सर्वथा वा स्यात्कथंचिद्वा | प्रथमकल्पनायामुपा
4444
....
....
....
2407
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सर्वथा तादात्म्यस्य कार्यकारणयोर्जे नैरनभ्युपगमात् । द्वितीय कल्पनायां तु वाद्यसिद्धः । न खल्वनेकान्तवादिभिरिव कायि है: कार्यकारणयोः कथंचितादात्म्यं प्रतिज्ञायते । प्रतिज्ञाने वा सर्वथा सत्कार्यवादविरोधापत्तिर्येन हि रूपेण कार्यस्य कारणेन सह न
पन्नमेव । तथा बिरुद्धोऽप्ययं हेतुर्भवति । प्रकृतसा- २० ध्यविरुद्धेन कथंचित्सत्त्वेनैवान्यथानुपपन्नत्वात् । न च कारणव्यापारापूर्व कार्यस्य कथंचिदसत्त्वस्वीकारे तदर्थिनां प्रतिनियतोपादानग्रहणं दुरुपपादमिति वाच्यम् । अन्वयव्यतिरेकसमधिगम्यो हि कार्यकारणभावः । यच्च यस्मादन्वय भिस्तदेवोपादीयते न सर्वम् । तथा च प्राकार्यसद्भावाङ्गीकारो व्यर्थः । २५ तदङ्गीकारे मूलत एवोपादानग्रहणाभावप्रसक्तेन हि विद्यमानवस्तु
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१५
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१८
प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः परि. ५ सू. ८ सिद्धयर्थ कश्चिदुपादानं गलाति .... .... .... .... ग्रहणानुषङ्गात् । तन्नोपादानसंबद्धत्वादपि सत्कार्यवादसिद्धिः । नियतरूपेण नियतादुत्पन्नत्वादित्यपि साधनं वाद्यसिद्धम् । यस्खलु स्वरूपेणाविद्यमानं तत्पतिनियतं कारणमासाद्य प्रतिनियतेनात्मना समुत्पाद्यते .... .... कार्य सर्वात्मना विद्यमानमेव तथाविधस्य चोत्पत्तिप्रतिपादनमसंगतमपि प्रसंगात् । प्रकृतिपुरुषयोरपि सर्वात्मना विद्यमानयोरुत्पादापत्तेरविशेषात् । तथा च हेतुमदनित्यमित्यादिना त्रिगुणमविवेकिविषय .... .... .... .... ....
.... ....क्ताद्वैपरीत्याभिधानमसंबद्धमेव स्यात् । किं च ' सर्व १० सर्वत्र विद्यते' इति कापिलैः प्रतिज्ञायते ततो यथा तिलादिषु तिरो
हितेनात्मना तैलादिकं समस्ति तथा तरङ्गिणीतीरवर्तिनीषु सिकतास्वपीति ताभ्योऽपि तैलादेराविर्भावः प्रतिरोढुं न पार्यते । तथा च कथं नियतरूपेण नियतादुत्पन्नत्वादिति साधनं कपिलमतानुयाविना नासिद्धम् । विरुद्ध चेदं निवतरूपेण नियतादुत्पन्नत्वस्य साध्यत्वाभिमतसर्वथासत्त्वविरुद्धेन कथवित्सत्त्वेनैवाव्यभिचारित्वात् । पक्षदूषणं चात्रापि पूर्ववदनुसरणीयमिति कर्तुं शक्यत्वादित्येतदपि साधनं वाद्यसिद्धमेव । न खलु स .... .... विषयोरपि कार्यत्वापत्तिः । विरुद्धत्वादिकं च दूषगमिहापि प्राग्वदभ्यूयम् । कारणादभिन्नत्वादि. त्यति साधनं न सत्कार्यवादपक्षमुत्थापयितुं समर्थम् । असिद्धत्वादिदोषदुष्टत्वात् । तथा हि-सर्वथा कार्यस्य कारणादभिन्नत्वमत्र हेतुत्वेनाभिमतं कथंचिट्ठा । तत्राद्यपक्षे प्रतिवाद्यसिद्धत्वम् । हेतोः सिद्धत्वात् । द्वितीयपक्षे तु वाद्यसिद्धत्वम् । कारणात्कार्याणां कथंविदभेदस्य कापिलैरप्रतिज्ञानात् । अपरं च दोषजालमिहावि प्रागिव स्याद्वादाने
ज्यातमतिभिः स्वयमेव तर्कणीयम् । यानि च न पटस्तन्तुभ्यो भिद्यते २५ तद्धर्मत्वादित्येवमादीनि कारणात्कार्यस्याभेदसाधनान्यनुमानानि परेषां
तान्य ....
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परि. ५ सू. ८ }
स्याद्वादरत्नाकरसहितः
प सर्वथैवाभेदः साध्यते तदा प्रत्यक्षबाधित्वं पक्षदोषः संज्ञासंख्यास्वलक्षणादिविशेषेण कार्यकारणयोर्भेदस्यापि प्रत्यक्षेण प्रतीयमानत्वात् । कथंचिदभेदसाधने तु सिद्धसाध्यता कार्यकारणयोः कथंचिदभेदस्य जैनरभिमतत्वात् । यच्चान्यदुक्तम् ' असदुत्पद्यते' इत्यत्रापि मते केयमसतामुत्पत्तिः सत्यसती वेत्यादि । तदप्येकान्तवादिनां दूषणम् । ५ न पुनरेकान्तकर्मावरणसुरक्षितत्रुद्धिशरीराणाम् । न खलु म्याद्वादिभिः सर्वथा सतोऽसतो वा कार्यस्योत्पत्ति: स्वीक्रियते । किं तर्हि कथंचित्सदेव सतः । तस्माञ्चोपत्तिनैकान्ततो व्यतिरेकिणी काचिदस्तीति कथं तस्या न हि परिणामान्तरं स्वीकुर्वाण: पदार्थ उत्पन्न इत्यभिधीयते । प्रसाधितं चाधस्तादुत्पादव्ययध्रौव्यात्मकत्वं समस्तार्था- १० नामित्यलमतिप्रसंगेन । किं च सत्कार्यवादाभ्युपगमे शास्त्रप्रणयनं हेतुप्रकाशनं च शिप्यान्प्रति भक्तः किमर्थमिति कथनीयम् । संशयोच्छित्तिनिश्चयोत्पत्त्यर्थमिति चेत् । कथं तयोरुच्छित्युत्पत्ती म्याताम् । अथ हेतूपन्यासादिना संदेहस्य तिरोभावमा विधीयते नात्यन्तमुच्छित्तिर्नाभावो विद्यते सत इति प्रतिज्ञानात् । निर्णयम्याप्याविर्भाव. १५ मात्रं तेन क्रियते न पुनरविद्यमानम्योत्पत्तिर्नासतो विद्यते भाव इति स्वीकारादिति चेत् । तदपि स्वरुचिविरचितदर्शनप्र .... ....
व पुनः संशयाविर्भावप्रसक्तेः । तथा च पञ्चविंशतितत्त्वनिश्चयाभावाद्दत्तो मोक्षाय निवापाञ्जलिः । एवं चेदमप्यसंगतम् ।
२० 'पञ्चविंशतितत्त्वज्ञो यत्र तत्राश्रमे वसन् ।
जटी मुण्डी शिखी वापि मुच्यते नात्र संशयः ।।' आविर्मावश्च सन्नसन्वा न संभवीत्यभिहितमिति निर्णयम्याप्याविर्भावमात्रं तेन क्रियते .... .... इत्याद्यापि परास्तम् । अथ शास्त्रप्रणयनसाधनप्रयोगयोः २५
१निबाम:-पितृदानम् ।
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः
[परि. ५ सु. ८
साफल्यार्थमसतो निर्णयस्योत्पत्तिः सतः संदेहस्य विनाशश्चाभ्युपग. म्यते तर्हि 'नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः' । इत्यादिवचः कथं न विरोधमास्कन्देत । कथं वा सत्कार्यबादसिद्धये प्राक्प्रयुक्तस्य क्रियमाणत्वादेहेतुपञ्चकम्यानेनैव व्यभिचारो न ५ भवेत् । तदेवं प्रकृतिसद्भावस्य प्रकृतौ महदादिसद्भावम्य च कुतश्चि.
वेतोरप्रसिद्धरनयोर्भेदाभेदप्रतिपादकं हेतुमदनित्यम् ' इत्यादि, 'त्रिगुणमविवेकि' इत्यादि च कारिकाद्वयं सव्याख्यानं खपुष्पसौरस - व्यावर्णनप्रख्यमित्येदप्युपेक्षणीयं प्रेक्षादक्षैः।
एवं चकापिलकुलशैलजालमेतद्विश्वविलोडनलालसं किलासीत् । दृढनयदम्भोलिपाततस्तच्चके जैनेन्द्रेण भिन्नपक्षम् ।। ६९४ ।। तस्मान्मानेप्वशेषेप्वपि विषयतयानेकधर्मस्वभावो ____ भावग्रामः प्रवीण: प्रथत इति मुहुर्भावनीयं भवद्भिः ॥ एकान्तास्तु प्रणीताः सुगतसुतमुखैर्ये विनाशित्वमुख्याः
ख्यातिर्मानेषु तेषां गगननलिनवन्नावकाशं समेति ॥ ६९५ ।। यस्मात्प्रादुरभूदियं व्यवहृतिश्चित्रा नृणां मूलतः
तप्तं येन सुदुष्करं तप इह त्यक्त्वैव राज्यश्रियम् ॥ दिव्यज्ञानमहोदधौ त्रिभुवनं यस्यैकरत्नायते
कुर्यादीप्सितसिद्धिमेष भगवान् श्रीनाभिराजाङ्गनः।।६९६॥ नम्रानेकत्रिदशमुकुटश्लिष्टनानामणीनां
भाभिः कीर्ण कुवलयदलश्यामलं यस्य गात्रम् ॥ लक्ष्मी व्योम्नः सुरपतिधनुःसंगिनः संचकर्ष
श्रीमानिष्टं स भुवनगुरुः सुव्रतो नस्तनोतु ॥ ६९७ ।।
वाग्वैभवं निरुपमा विभुता विभूतिः २५ शुभ्रांशुरश्मिपटली धवलं यशश्च ।
१ छन्दोभङ्गो दृश्यते ।
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परि. ५ स. ८ ] स्याद्वादरत्नाकरसहितः यस्याः प्रसादवशतः कृतिनां भवन्ति
सा भारती वितनुतां मम वाञ्छितानि ।। ६९८ ॥ सौगन्ध्येन मनोरमे विकसिते पङ्केहेऽवस्थितां ___लक्ष्मी नित्यमवेत्य संश्रितवती तत्म्पर्द्धया भारती ।। शके वक्त्रसरोरुहं निरुपमं येषां ममाभीप्सितं ___ श्रीमन्तो मुनिचन्द्रसूरिगुरवः कुर्वन्तु ते सर्वदा ।। ६९९ ॥
इति शास्त्रवार्तासमुच्चयसमुद्रसमुल्लासनपूर्णचन्द्रश्रीमन्मुनिचन्द्रसूरिपादपद्मोपजीविना श्रीदेवाचायण विरचिते स्याद्वादरत्नाकरे प्रमाणनयतत्वालोकालङ्कारे विषयस्वरूपनिर्णयो नाम पञ्चमः परिच्छेदः ॥ ५ ॥
पञ्चमपरिच्छेदः समाप्तः ॥
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शुद्धिपत्रकम् ।
ox
शुद्धम्
पृ.
पं.
शुद्धम् द्धयो
तत्रे
अशुद्धम् षयो कल्प न्तस्य
सौ मर्च
पृ. पं. अशुद्धम् ७२७६तत्र ७९८ १२ शील: ७३२ ११धीत् ७३४ १५ तीत
शीला: धीत
न्तरस्य रसो सव
तीय
७८० २२ ७८१
स
ते
my my
७८४
ह्यत्त्स घटः
क्षणा लप्येत कादा यथा पयो दब्वं
v८८ १९
७३६ ५क्षणी ७३९ प्येत् ७४३ १२ कदा ७४४ २०द्यर्थी
, २०1पवो ७४७ १९ द्रव्वं ७४९ ३ विवि , १० तथा ७५३ ११ प्यैका ७५५ २४ रैय ७५७ २६ स्या थे
ह्यस घटे धमा
शक्य निर्णी तन्ना यम शय
হাথ निणर्णी तदत्रा यत शेष
विव
तथा ७९८ २६ ध्यानका ८०० २३ यर स्यार्थ ८.१
कुता
ཡྻོ ཙྪཱ ཝ % ཡྻོ ཙྪཱ ཙྪཱ བྷྱཱ ཙྪཱ ཙྪཱ ཡྻོ ༧ ཚོ– ཝཱ ཙྪཱ བྷྱཱ ཙྪཱ ཙྪཱ ཝཱི – ཤྩ བྷཱུ ཙྪཱ –, ཝཱི ', ༔ ༔ ༔ ལྤ,
P
१०
कुतो माणा लब्धि रया तत्रव्य
७५८ ७५९
२० तां २० य इत्थं त
लब्धिः
ता ये इत्थं ते भिन्ने
८.३ "
तत्रव्य
८०४॥
वृत्तेः
न्य
एवं भू.
ढभ्य एवंभू न्तरस्य
न्तस्य
७६४ २३ वृत्तैः ७६६ १९ वृत्त्यां ७६८ प्रत्व ७६८६ शिरः श्रव ७७१ २१ तयोरुपा ७७३ २० पेक्षा ७७४ २४सरः समु ७७५ २५ अयं पाठोत्र ७७६१ ५पतेः
त्रता
प्रता ब्दोध
द्वोध
प्रत्य शिरःश्रव ८११ १७ तयो रूपा ८१२ १९ पेक्ष्या ८१४ २१ सर:समु
२३७ अत्र ८२४ २६ पत्तेः ८२५ ५
८२६ १९ ८२८ ३
वत
बल:
वलः
र्थस्थ
श्रस्य
नेक
भेद
७७६ १८ नैक ७७७ २०योगे
भेदन
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अशुद्धम्
णाम
सवा
पेण
माना
तत्र
डौज : प्र
काथ
मत्वा
न
संन्या
घड़
त्पाद
प्रदेशा
सुप्तः
स्यांती
गतत्त्वा
पङ्गः
भावत्त्व
भिर्नो
मनः सं
तेव
विश
कक
भीव
देर्यात्र
रपि
नाख
क्षुत्व
शुद्धम्
णामा
समवा
भ्रूण
मान
तत्र तत्र
ढौज प्र
कथि
मत्त्वा
पट्टेन
सन्न्या
घ इ
त्पाद
प्रदेशाः
सुताः
स्वाती
गतत्वा
पङ्गः
भावत्व
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मनःसं
तैव
विश
कैक
भवि
दयोद्र
रपि
ना रू
क्षुषत्व
पु.
८३७
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( २ )
पं. अशुद्धम्
९. अइ
३ नास्या
९१८
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९२२
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१३. त्यादि
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११ तत्रेव
१६पेक्षि
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२१ बा
१३ | ताव
६ धा
९ | त्पन्न
१ | बन्धः
१० न्या. के.
२६ रेरा
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शुद्धम्
इ
नास्या
पेक्षा
किंग
त्यादादि
शात् ।
तत्रैव
पेक्ष
रोति ।
ध्रु
चय
प्रत्ययो
कम
व्यक्त
श्वन्य
क
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स्तुनी
घर्में
णस्यत्व
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ताव
साधा
त्पन्नं
बन्धः
३ न्या. कं. रेतरा
पु.
९३३
ور
९.३५
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९३७ १५
९४० १५
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९.४५
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२.
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९ ४९
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23
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पं.
१२
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१६. ९५४ १०.
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२४
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९५८
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९६७
९६९
142272401001720170222427404024444
११ १४
२०
१५
१९
८
२३
२४
१४
१९
२४
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________________ શ્રી જિનશાસના જય હો !!! II શ્રી ગૌતમસ્વામીન નમઃ | | શ્રી સુધમસ્વિામીને નમ: || જિનશાસનના અણગાર, કલિકાલના શણગારા પૂજ્ય ભગવંતો અને જ્ઞાની પંડિતોએ શ્રુતભક્તિથી પ્રેરાઈને વિવિધ હરતલિખિત ગ્રંથો પરથી સંશોધન-સંપાદન કરીને અપૂર્વજહેમતથી ઘણા ગ્રંથોનું વર્ષો પૂર્વેસર્જનકરેલછે અને પોતાની શક્તિ, સમય અને દ્રવ્યનો સવ્યય કરીને પુણ્યાનુબંધી પુણ્ય ઉપાર્જન કરેલ છે. કાળના પ્રભાવે જીણ અને લુપ્ત થઈ રહેલા અને અલભ્ય બની જતા મુદ્રિત ગ્રંથો પૈકી પૂજ્ય ગુરુદેવોની પ્રેરણા અને આશીર્વાદિથી સ.૨૦૦૫માં 54 ગ્રંથોનો સેટ નં-૧ તથા .૨૦૦૬માં 36 ગ્રંથોનો સેટ ની 2 સ્કેન કરાવીને મર્યાદિત નકલ પ્રીન્ટ કરાવી હતી. જેથી આપણો શ્રુતવારસો બીજા અનેક વર્ષો સુધી ટકી રહે અને અભ્યાસુ મહાત્માઓને ઉપયોગી ગ્રંથો સરળતાથી ઉપલબ્ધ થાય, પૂજ્યા સાધુ-સાધ્વીજી ભગવંતોની પ્રેરણાથી જ્ઞાનખાતાની ઉપજમાંથી તૈયાર કરવામાં આવેલ પુસ્તકોનો સેટ ભિન્ન-ભિન્ન શહેરોમાં આવેલા વિશિષ્ટ ઉત્તમ જ્ઞાનભંડારોની ભેટ મોકલવામાં આવ્યા હતા. આ બધાજપુસ્તકો પૂજ્ય ગુરુભગવંતોને વિશિષ્ટ અભ્યાસ-સંશોધના માટે ખુબજરુરી છે અને પ્રાયઃ અપ્રાપ્ય છે. અભ્યાસ-સંશોધના જરૂરી પુસ્તકો સહેલાઈથી ઉપલળળની તીમજ પ્રાચીન મુદ્રિત પુસ્તકોનો શ્રુત વારસો જળવાઈ રહે તો શુભ આશયથી આ થોનો જીર્ણોદ્ધાર કરેલ છે. જુદા જુદા વિષયોના વિશિષ્ટ કક્ષાના પુસ્તકોનો જીર્ણોદ્ધાર પૂજ્ય ગુરૂભગવતીની પ્રેરણા અને આશીર્વાદિથી અમો કરી રહ્યા છીએ. લો અભાઈ તથા સંશોધના માટે વધુમાં વઘુઉપયોગ કરીને શ્રુતભક્તિના કાર્યની પ્રોત્સાહન આપશી. લી.શાહ બાબુલાલ સરેમા જોડાવાળાની વંદના મંદિરો જીર્ણ થતાં આજકાલના સોમપુરા દ્વારા પણ ઊભા કરી શકાશે...! = પણ એકાદ ગ્રંથ નષ્ટ થતા બીજા કલિકાલસર્વજ્ઞ કે મહોપાધ્યાય શ્રી યશોવિજયજી ક્યાંથી લાવીશું...???