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स्वर्भाषा स्वरों में
श्री चन्दन मुनि
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स्वभाषा
स्वरों
औपदेशिक गीतिकात्रयोदशी
मुनि श्री मोहनलाल जी 'सुजान' अनुवादक :
पञ्चतीर्थङ्कर-स्तुतिः
श्री चन्दन मुनिः
प्रकाशक
... पुखराज पेमराज आछा
औरंगाबाद
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पूज्य पिताजो श्री पुखराजजी आछा
की पुण्य स्मृति में प्रकाशित
पुस्तक : स्वर्भाषा के स्वरों में लेखक : श्री चन्दन मुनिः अनुवादक : मुनि श्री मोहनलालजी 'सुजान' संकलयिता : ब्रह्मदेवसिंह ‘गोंडें' प्रथमावृत्ति : अप्रल १६७० प्रकाशक : पुखराज पेमराज आछा
भाजी बाजार, औरंगाबाद
( महाराष्ट्र)
संपर्क सूत्र
मूल्य : ५० पैसा मुद्रक : रामनारायन मेड़तवाल श्री विष्णु प्रिंटिंग प्रेस राजा की मंडी, आगरा-२
साहित्य सौरभ 'शान्ति भवन' ६४ ए. एम. लैन बैंगलोर-२ A
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लेखकीय
स्मृति हरदम मधुर होती है। वह प्रतिक्षण स्मृति-पटल पर न रहती हुई भी कभी-कभी पुनर्नवा होकर भावोद्रेक का हेतु बन जाती है। वहाँ काल का भेद, अभेद में परिणत हो जाता है । जब हम दोनों भाई [धनमुनि एवं चन्दन मुनि पूज्य पिताजी केवलचन्द्रजी स्वामी के सान्निध्य में रहा करते थे और उनके इङ्गितानुसार अपनी जीवन दिशाओं में बढ़ा करते थे, अहा ! वह समय कितना निश्चित एवं निगतङ्क था ! अध्ययन, चिन्तन एवं मनन में ही ज्यादातर समय बीतता था। जो कुछ करना था वह दोनों भाई साथ-साथ ही किया करते थे।
वि० सं० १९६४ में बीकानेर चातुर्मास में आचार्य श्री तुलसी के हम साथ थे । वृहद् व्याकरण का अध्ययन उसी साल पूर्ण हुआ था तथा न्याय के अध्ययन की शुरूआत हुई थी। सं० १९६५ का श्री केवलचन्द्र जी स्वामी का चातुर्मास मोमासर [ बीकानेर राज्यान्तर्गत ] निश्चित हुआ था । वहां हम दोनों भाइयों को भिक्षु-शब्दानुशासन की लवुवृत्ति तत्काल तैयार करने को दी गई थी, जिसका प्रारम्भ मुनि अवस्था में आचार्य श्री ने स्वयं किया था। उम कार्य को दोनों भाइयों ने मिलकर, जैसे-'सहोदरौ केवल वन्द्रनन्दनौ, नाम्ना प्रसिद्धौ धनराजचन्दनौ' सम्पन्न किया । संस्कृत गीतिकाएं
उसी चातुर्मास में ज्येष्ठ भ्राता मुनि श्री धनराजजी ने नव आचार्यों के स्तवन रूप नव संस्कृत गोतिकाए बनाई और मैंने क्रमशः पहले, सोलहवें, बावीसवें, तेवीसवें, चौबीसवें, तीर्थङ्करों की एवं पहले, आठवें, एवं नववें
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[
४
]
आचार्यों की स्तुति रूप आठ गीतिकाए वनाई । आज से लगभग ३० वर्ष पहले का यह हमारा उपक्रम था। बाद में संस्कृत काव्यों का क्षेत्र अधिक विस्तृत होता गया। पञ्चतीर्थी
मुझे इस बात की प्रसन्नता है कि वह मेरी बाल्यकालिक लयुकृति 'पञ्चतीर्थी' के नाम से प्रसिद्ध हुई और उसका अच्छा उपयोग हुआ । अनेकों ने कण्ठस्थ की । विशेष रूप से यह प्रसार सरदार शहर निवासी सेठ श्रीमान्, सुमेरमल जी दूगड़ के द्वारा हुआ। उन्होंने संस्कृत की इन गीतिकाओं को सुमधुर लय से गाया तथा अपने पुत्र कन्हैयालाल जी एवं भंवरलाल जी से कण्ठस्थ करवाई। उसी के परिणाम स्वरूप अनेक साधु-साध्वियों ने भी उन्हें कण्ठस्थ की।
वैसे ही 'गीतिका त्रयोदशी' वि० सं० २००६ में सुरेन्द्रनगर [ सौराष्ट्रान्तर्गत ] में बनाई । उनमें से कतिपय गीतिकाए काफी श्रवणाई बनीं। ये उपयुक्त संस्कृत गीतिकाए यद्यपि पहले मुद्रित हो चुकी थीं, किन्तु भापानुवाद न होने के कारण सर्व-साधारण के लिए विशेष उपयोगी नहीं बनी, फिर भी विद्वत् जनों के अपनाने के कारण इसकी मुद्रित प्रतियाँ प्रायः शेष हो चुकी हैं । पुनः सानुवाद के रूप में प्रस्तुत ये गीतिकाए विशेष रूप से उपयोगी बन सकेंगी और प्रत्येक व्यक्ति इन भक्तिमय एवं आध्यात्मिक गीतिकाओं का रसास्वादन ले सकेंगा । ऐसी आशा हैवि० सं० २००६,
चन्दन मुनि भाद्रपद जन्माष्टमी चिकमगलूर ( मैसूर )
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जीवन-परिचय
मुनि श्री वेणीराम जी तेरापंथ शासन के इतिहास में मुनि श्री वेणीराम जी का गौरव पूर्ण स्थान है। आपका जन्म बगड़ी में हुआ, और सं० १८४४ पाली में श्री भिक्षु स्वामी के कर कमलों से दीक्षा ग्रहण की। आपने विनयमूर्ति मुनि श्री खेतसी जी के सान्निध्य में विद्यार्जन किया। ___ मुनि श्री वेणीराम जी की प्रवचन कला बड़ी आकर्षक एवं प्रभावोत्पादक थी। दृष्टांत, हेतु आदि के द्वारा जनता को प्रभावित कर धर्म के अभिमुख कर लेते थे। वे एक निर्भीक धर्म प्रचारक और साहसी संत थे। विरोध से कभी घबराते नहीं थे। धर्म प्रचार करते हुए एक वार रतलाम में आप पधारे, वहाँ पर विरोध के कारण तीन दिन में नौ स्थान बदलने पड़े, फिर भी आप घबराये नहीं, सत्य की आस्था एवं अडिग साहस लिए डटे रहे।
मालवा प्रान्त में आपने अनेक श्रावकों को समझाया, उज्जैन में कई पर्चाएं हुई और अनेक श्रावक बने । आप स्थानकों में भी निःसंकोच चले जाते और चर्चा के लिए सदा प्रस्तुत रहते ।
द्वितीय आचार्य श्री भारमलजी स्वामी आपका बड़ा सन्मान करते थे । एक बार आप माधोपुर पधारे, वहाँ भारमलजी स्वामी विराजे थे। आपका भारी स्वागत के साथ पुर में प्रवेश करवाया गया । भारमलजी स्वामी की आज्ञा से आपने रामजी को दीक्षा दी थी !
आप अच्छे कवि भी थे, स्वामी जी के जीवन पर आपने एक लयु काव्य लिखकर गागर में सागर की उक्ति चरितार्थ की है।
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६ ]
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सं० १८७० में आपका जयपुर चातुर्मास निश्चित हुआ था । चासटु में आपने अनेक चर्चाएं की, वहां आपके बढ़ते हुए प्रभाव को देखकर कुछ विरोधियों ने द्वेष वश औषधि में विष दिलवा दिया । विष प्रयोग से आपका वहीं पर जेठ सुदि १० स्वर्गवास हो गया ।
शासन के निर्भीक धर्म प्रचारक प्रभावशाली सन्त की पुनीत स्मृतियां आज भी हमें अपने आध्यात्मिक उत्कर्ष की ओर गतिशील बना रही है ।
— पेमराज आछा
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प्रकाशकीय
मनुष्य एक बुद्धिमान प्राणी है। वह अपने विवेक एवं पुरुषार्थ के बल पर जीवन का सर्वांगीण विकास कर सकता है । साहित्य और संगीत उसके विवेक को प्रेरणा एवं पुरुषार्थ को दृष्टि देते हैं इसलिए मानव जीवन में साहित्य एवं संगीत की अत्यन्त उपयोगिता है। ___ मुनि श्री चन्दनमल जी तेरापंथ शासन के महान साहित्यकार, अध्यात्मप्रिय तथा संगीत प्रेमी संत हैं । उनकी उच्चस्तरीय साहित्यिक-वाणी जब संगीत की लयों में मुखरित होती है तो श्रोता मंत्र मुग्ध से होकर झूमने लगजाते हैं। उनकी वाणी हिन्दी की भांति, गुजराती, पंजाबी, एवं देवभाषा-संस्कृत में भी अस्खलित रूप से प्रवाहित होती रहती है । __ 'स्वर्भाषा के स्वरों में' मुनि श्री की उपदेश एवं भक्ति प्रधान मर्मस्पर्शी रचनाओं का संकलन है। प्राञ्जल-मधुर-संस्कृत शब्दावलो जितनी श्रुति मधुर है, उतनी ही उत्प्रेरक भी है । मुनि श्री मोहनलालजी 'सुजान' द्वारा इसका हिन्दी अनुवाद हो जाने से उपयोगिता में चार चांद लग गये हैं। इसके प्रकाशन से अध्यात्म प्रेमी जनों को प्रसन्नता होगी, और संस्कृत विद्वानों को एक नई आनन्दप्रद आध्यात्मिक कृति प्राप्त होगी । पाठकों को इससे दुहरा लाभ होगा ऐसा विश्वास है।
-पेमराज आछा
ओरंगाबाद
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अनु क्रम
औपदेशिक गीतिका त्रयोदशी पञ्चतीर्थङ्कर-स्तुतिः
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औपदेशिकगीतिकात्रयोदशी
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अनुष्टुब्-वृत्तम् योगत्रिकं स्थिरीकृत्य, परमं शान्तिदायकम् । भजस्व रे ! महावीर जिनशासननायकम् ।।
प्रथमा गीतिः ( ओ वीर शासन स्वामी--इति रागण गीयते )
भज भज रे! महावीरं, जिनशासननायकम् । निष्कारण-करुणावन्तं, घनविघ्नविनायकम् ॥
॥ध्रुवपदमिदम्।। इतरत्सर्वं भजसे त्वं, खलु वाञ्छापरवशः । ख । तत्सर्वं न कदापि, तव भवति सहायकम् । निष्का० ।। १ ।। वर्तन्ते स्वयं ह्यनाथास्ते किं तव पातार: ? ते कि.... अहिदष्टानां वर्षाभू-शरणं, किमु पायकम् ? निष्का० ॥ २ ॥ महावीरपदे ये लग्ना, मग्ना न भवाम्बुधौ । मग्ना० । अचिरान्मोक्षं लप्स्यन्ते. सुतरां सुखदायकम् । निष्का० ॥ ३ ॥ त्यक्त्वा 'चन्दन' ! परसेवां, सेवस्व जिनेश्वरम्, ।सेव० । भग्नाया मानसवृत्तेः सुन्दरसन्धायकम् । निष्का० ।। ४ ।।
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गीतिका
आत्मन् ! तू तीनों योगों-मन, वचन और काया-को स्थिर कर जिनशासन के नायक, परम शान्ति के दाता भगवान् महावीर की उपासना
आत्मन् ! तु जिनशासन के नायक, बिना किसी स्वार्थ के दूसरों पर करुणा करने वाले तथा अनेक विघ्नों को नष्ट करने वाले भगवान महावीर की बार-बार उपासना कर ।
१. आकांक्षाओं के वशीभूत होकर तू दूसरों की उपासना करता है, किन्तु वे
कभी भी तेरे (ऊर्ध्वगमन में) सहायक नहीं होते । २. जो स्वयं असहाय हैं, वे तेरा संरक्षण कैसे करेंगे ? अरे ! सर्प से डसे
व्यक्ति को क्या मेंढक की शरण त्राण दे सकती है ? ३ जो मनुष्य भगवान् महावीर के चरणों में लीन हो जाते हैं, वे संसार
समुद्र में नहीं डूबते । वे स्वल्प समय में ही शाश्वत सुखमय मोक्ष को
पा लेते हैं। ४. 'चन्दन' ! त् 'पर' की उपासना छोड़कर 'स्व' (जिनेश्वर) की उपासना कर ।
'पर' की उपासना से भग्न मानसवृत्ति के ये सुन्दर संधायक हैं---जोड़ने वाले हैं।
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अनुष्टुब्-वृत्तम्
दुःखपूर्णेऽत्र संसारे प्राप्येदं मानुषं जनुः । यापनीयो न व कालः, शुभं कुरु कुरु द्रुतम् ॥
द्वितीया गीतिः
( आसावरी - रागेण गीयते )
कुरु कुरु किमपि शुभं भो भ्रातः !
को न विपन्नो यः खलु जातः ? कुरु० । ध्रुवपदमिदम् ॥
जन्मजरामरणादि-निपीडितमत्तमयं जगदेतत् । किं करणीयं तव किं कुरुषं ? वेत्सि न नंज-हितं यत् ।। कुरु० ।। १ ।। गच्छन्त्यधुना केचन, केचन गताः केऽपि गन्तारः । गमनागमन संकुले वर्त्मनि सरति समः संसारः ॥ कुरु० ।। २ ।। का तव माता, जनकः कस्ते, स्वजनजना : के सन्ति ? भावियोग तो मिलिताः सर्वे वद के त्वामनुयन्ति ? || कुरु || ३ || स्फुटा जगद्वैचित्री तदपि न, तव दृक्पथमवतरति ।
हा ! हा !! पीता मोहसुरेयं तव दाक्षिण्यं हरति । कुरु० || ४ ||
2
-
यत्कल्ये कर्तासि सुकृतमयि ! तदद्यैव रचयाशु |
अथवा साम्प्रतमेव, न जाने, घटिकान्तरे परासुः ॥ कुरु० ।। ५ ।। वहति सवेगं सरितो नीरं, चेद्धीवरतां धरसि । कुरुताद् मज्जनमखिलमलापहमिन्द्र सरूपस्त्वमसि ।। कुरु ।। ६ ।। चिदानन्दमय मात्मिकरूपं, 'चन्दन' सततं सुखदम् । अन्तर्मुखीभूय पश्येद, यत् त्रैकालिकविशदम् ।। कुरु० ।। ७ ।।
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| गोतिका
भव्य | इस दुःख से परिपूर्ण संसार में मनुष्य जीवन को पाकर व्यर्थ मत खोना । प्रत्येक पल शुभ कार्य में बिता ।
हे भाई ! तू कुछ शुभ कार्य कर, ऐसा कौन प्राणी है, जो जन्म के बाद
मरता नहीं ? १. यह संसार जन्म, जरा, मृत्यु आदि पीड़ाओं से पीड़ित है। यहाँ तेरा
कर्तव्य क्या है ? और तू क्या कर रहा है ? यह सोच ! तू क्यों न अपने
हित पर ध्यान देता है ? २. कुछ प्राणी अभी काल के मुह में] जा रहे हैं, कुछ पहले ही जा चुके हैं
और कुछ जाने वाले हैं। वस्तुतः गमनागमन-संकुल इस पथ में समूचा
संसार चलता-सा ही दृष्टिगत हो रहा है। ३. तेरी माता कौन है ? तेरा पिता कौन है ? और तेरे स्वजन-सम्बन्धी कौन
हैं ? विधियोग से सभी यहाँ एकत्रित हुए हैं। बोल, इनमें से तेरे साथ
जाने वाले कौन है ? ४. संसार की विचित्रता स्पष्ट है, फिर भी तेरी दृष्टि में नहीं आती,
अफमोम है ! मोहरूपी मदिरा का नशा तुझ अपना भान नहीं
होने देता। ५. जिम शभ कार्य को तू कल करना चाहता है उसे आज ही कर ले ! अभी
क्यों न ही कर लेता ? घड़ी भर के बाद तू जीवित रहेगा या नहीं ?
यह भी नहीं कहा जा सकता। ६. नदी का पानी वेग से बह रहा है। यदि तुझ में गोता लगाने की कुशलता
है तो इसमें एक डुबकी लगा, तेरे समस्त पापमल दूर हो जायेंगे वस्तुतः
तू दिव्य-स्वरूप वाला है। ७. 'चन्दन' ! तेरी आत्मा का स्वरूप नित्य सुखदायी चिदानन्दमय है, जो तीन
काल में कभी मलिन नहीं होता । अन्तमुखी बनकर उसका तू दर्शन कर ।
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अनुष्टुब्-वृत्तम् नार्थजाते सुखं दुःखं, ममतायां तयोः स्थितिः । येन त्यक्तं ममत्वं तत्, स पूर्णानन्दभाग् भवेत् ।
तृतीया गीतिः ( 'विनय ! विधीयतां' इति रागेण गोयते ) दुःखमनेकधा रे ! त्वमनुभवसि चेतन ! ममतायाम् । निर्वृतिनिम्नगा रे ! विमलं वहति सदा समतायाम् ।
दु:खं ध्र वः । इयं मदीया तनुः सुरूपा, मामक मिदं कलत्रम् । ममापत्यमिदमिदं गृहं मे, प्रीतिपरं में मित्रम् ।।
दुःखं....."। १ ॥ एषां सुखे भवसि सुखितस्त्वं, दु:खे दुःखमव॑सि । भौतिकसामग्रीव्यग्रत्वं, दधत् शर्म न समेसि ।।
दुःखं..."। २ ।।-युग्मम् रत्नत्रयीं त्वदीयां रे ! रे !! कि विस्मृतिमाप्तोऽसि । परस्वरूपे निजस्वरूपं मन्वानः सुप्तोऽसि ।
दुःखं....."। ३॥ विधामं कुरु 'चन्दन' किं नहि खिन्नो भ्रामं भ्रामम् । कुरु दर्शनमध्यात्मदशाया, अधुना नामं नामम् ॥
दुःखं....""। ४॥
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३
गोतिका
वस्तु समूह में अर्थात् पदार्थों में न सुख है और न दुःख, किन्तु सुख-दुःख तो ममत्त्व भाव में है । जो ममत्व को त्याग देता है, वह पूर्ण सुखी बन जाता है ।
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चेतन ! तू ममत्व भाव में अनेक शान्ति रूपी सरिता तो सदा
दुःखों का अनुभव करता है, किन्तु समता में ही बहा करती है ।
१. " यह मेरा सुन्दर शरीर है, यह मेरी स्त्री है, यह मेरी संतान है, यह मेरा घर है और ये मेरे परम प्यारे मित्र हैं ।"
२.
- इनके सुख तू सुखानुभूति करता है, वैसे ही इनके दुःख में तू अपने आपको दुखी मानता है । इस प्रकार भौतिक साधनों में व्याकुल बना हुआ तू सही शान्ति को नहीं प्राप्त कर पाता ।
उसे
३. रे आत्मन् ! ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप रत्नत्रयी तेरी निज सम्पत्ति है, तू भूल बैठा है । पर स्वरूप को अपना स्वरूप मानता हुआ सोया पड़ा है।
४. क्या तू संसार में भ्रमण करता हुआ अभी भी खिन्न नहीं हुआ ? 'चन्दन !' आत्मा में विश्राम कर और अध्यात्म दशा में अन्तर्मुख बनता हुआ साक्षात्कार कर ।
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अनुष्टुब्-वृत्तम् इन्द्र कोदण्डवत् सन्ध्यारागवत् स्वप्न राज्यवत्। निजायुर्भङ्गरं विद्धि, विद्य दुद्योतवत् पुनः ।।
चतुर्थी गीतिः ('हो वो दिन धन्य हमारा' इति रागेण गीयते) त्वं कुरुषे किं नु विलम्बमरे ! दर्भाम्भ इवाधिकतरलम् । आयुस्तव चलदल-चपलम् ।
। ध्र वपदमिदम् । मा क्षणं प्रमादी: शास्त्रोक्तं, ध्यानं धर किं कुरुते व्यक्तम् ? पातव्यममृतमिह किं नु पिपाससि गरलम् ? आयु..... ॥ १॥ कथमपि पुनरेति न बत समयः, भृशमौपयिकैः सम्प्राप्तलयः । पूर्वमेव इदमीयादानं सरलम्। आयु..... ॥ २ ॥ पात्राय वितर, शीलं पालय, कुरु तपः, शुभं सुतरां भावय। भवति यथा तव मानवजननं सफलम् । आयु"....." ॥ ३॥ सत्पुरुषाणां शिक्षा शृणु रे, श्रावं श्रावं 'चन्दन' वृणु रे। अत्रैवान्तनिहितं तत्त्वमविरलम् ।
आयु..." ॥ ४॥
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गीतिका
भव्य ! तू अपने आयुष्य को इन्द्र धनुष के समान, संध्या की लालिमा के समान, स्वप्न राज्य के समान और विद्युत के प्रकाश के समान क्षणिक समझ ।
तु विलम्ब क्यों कर रहा है ? यह तेरा आयष्य दर्भ के अग्रभाग पर ठहरी हुई ओस की कणिकाओं के समान तुरन्त विलीन होनेवाला है ।
१. 'समयं गोयम ! मा पमायए' यह शास्त्र का वाक्य क्या सूचित कर रहा
है, इस पर तू जरा ध्यान दे । यहाँ अमृत पीने का मौका है फिर भी तू जहर पीना क्यों चाहता है ?
२. लाख उपाय करने पर भी गुजरा हुआ समय वापिस नहीं लौटता, किन्तु
आते हुए समय को ही सरलता से पकड़ा जा सकता है, अर्थात् पहले की सावधानी से ही समय का सदुपयोग हो सकता है ।
३. सुपात्र को दान दे, ब्रह्मचर्य का पालन कर, तपस्या से तन को तपा और
हमेशा पवित्र भावना रख, जिससे तेरा मनप्य जन्म सफल बन जाए।
. 'चन्दन !' सत्पुरुषों की शिक्षा सुन, सुन-सुन कर उसका आचरण कर,
क्योंकि आचरण से ही साधना का नवनीत प्राप्त होते हैं ।
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अनुष्टुब्-वृत्तम् प्रयातो यौवनो वेगः, शैथिल्यं विग्रहो गतः । शक्तिशून्यानि चाक्षाणि किन्त्वासक्तिर्गता नहि ।।
पञ्चमी गीतिः (अभय जो चाहिए-इति रागण गीयते)
गता शक्तिस्तनोर्हा हा !
न चासक्तिर्गता किन्तु । ध्र व० । हतोऽभूदिन्द्रियग्रामो, न काम: शान्तिमायातः । विरक्तिव्यंज्यते वक्त्राद्, न चासक्तिर्गता किन्तु ।
गता"..."|| १॥ न दन्ताः कुर्वते कार्य, न सम्यक् पच्यते तुन्दे, भोजने भोज्य-वस्तूनां, न चासक्तिर्गता किन्तु ।
गता..."॥२॥ करः कम्पं समासाद्य, न धत्ते लेखनी तावत् कूट-लेखादिकानां तु, न चासक्तिर्गता किन्तु ।
गता.... ॥ ३ ॥ न पूर्ण शक्यते वक्तु, न बन्धुर्मन्यते वाक्यम, सुसेवितदम्भचर्याया, न चासक्तिर्गता किन्तु ।
गता """|| ४॥ .. जनाः सर्वेऽपि भाषन्ते, कथं म्रियते न वृद्धोऽयम् ? चिरं जीवेयमित्येषा, न चासक्तिर्गता किन्तु ।
गता "॥ ५॥ इन्द्रजालेन तुल्यं यद्, विष्टपं सूच्यते नित्यम्, भाषते 'चन्दनः' स्पष्टं, न चासक्तिर्गता किन्तु ।
गता"...॥ ६ ॥
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गीतिका
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यौवन का वेग बह चुका, शरीर में शिथिलता छा गई, इन्द्रियां शक्तिहीन हो चलीं, फिर भी तेरी आसक्ति नहीं गई ?
खेद का विषय है ! शारीरिक शक्ति क्षीण हो गई पर आसक्ति नहीं गई।
१. इन्द्रियों का समूह मृतप्राय हो चला, फिर भी काम-वासना शान्त नहीं
हुई । शब्दों में केवल विरति का प्रदर्शन करता है, किन्तु आसक्ति
नहीं गई ? २. दाँत काम नहीं देते. खाया हुआ भी उदर में अच्छी तरह नहीं पचता,
फिर भी खाद्य पदार्थों की आसक्ति नहीं गई ? ३. हाथों में कम्पनवात होने से ठीक तरह कलम भी नहीं पकड़ी जाती, फिर
भी असत्य लेख आदि लिखने की आसक्ति नहीं गई ? ४. स्पष्टतया बोल भी नहीं सकता, परिजन कहना भी नहीं मानते. फिर
भी जवानी में किए हुए अपने कपट पूर्ण व्यवहारों को सुनाने की आसक्ति
नहीं गई ? ५. 'यह वृद्ध क्यों नहीं मरता' ऐसा जन-जन के द्वारा कहा जा रहा है,
फिर भी "मैं लम्बे समय तक जीता रहूँ," ऐसी आसक्ति नहीं गई ? ६. 'इन्द्रजाल के समान संसार है' ऐसा हमेशा सूचित किया जाता है, चन्दन
मुनि' कहता है, फिर भी संसार की आसक्ति नहीं जाती।
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अनुष्टुब-वृत्तम् ब्र हि ब्र हि द्रुतं ब्र.हि. त्वया कि साधितं शुभम् । अमुत्रजन्मयात्राये, पाथेयं सज्जितं न वा ?
षष्ठी गीतिः (तन नही छूता कोई-इति रागेण गोयते) प्राप्य मानव-जन्म मानव ! कि त्वया प्रवरं कृतम् ? प्रेत्य यात्रायां हित, कि सम्बलं सज्जोकृतम् ? ध्र वपदमिदम् ।। तुल्यवयसस्ते गताः, पूज्या गताः पित्रादयः । तावकं गमनं त्वया, किमु मूलतोऽपि हि विस्मृतम् ? प्राप्य० ॥ १ ॥ विस्मर स्मर सर्वधस्मर-दण्डभन्नहि मोक्ष्यति । जातमखिलं वस्तु कि, नानेन पापेनाहतम् ? प्राप्य० ॥ २ ॥ जायते मृत्योभिया, रोमाञ्चकञ्चुकितं वपुः । मोहमायाधीनचित्तं स्तदपि किमपि न साधितम् । प्राप्य० ॥ ३ ॥ ज्ञायते सकल परं न विधीयतेऽल्पकमप्यहो ! निश्चितं करणीयमेतत् केवलं बहु जल्पितम् । प्राप्य० ।। ४ ।। धन्यधन्यः कोऽपि चन्दन ! साधयेत्परमं पदम् । तस्य पादयुगे सुभक्त्या नैव केन नमस्कृतम् ? प्राप्यः ॥ ५ ॥
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गोतिका
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· बोल, बोल, शीघ्र बतला, तूने क्या शुभ साधना की है ? अरे । परभव की यात्रा के लिए कुछ संबल तैयार किया है या नहीं ?
मानव ! मानव भव पाकर तूने क्या शुभ कार्य किया है ? जन्मान्तर की यात्रा में जो उपयोगी हो, क्या ऐसा पाथेय नैयार कर रखा है !
१ तेरे समवयस्क व्यक्ति चले गए। पूज्यनीय माता पिता आदि भी न
रहे । फिर भी अपना जाना तेरे खयाल रे भी नहीं है, क्या उसे भूल
ही चुका है ? २. तू भूल चाहे याद रख, वह सर्वभक्षी यम (काल) तुझ नहीं छोड़ेगा ।
पैदा हुई कौन-सी वस्तु ऐसी है जो इस धर्म के द्वारा नष्ट न की गई हो ? ३. मौत का नाम सुनते ही शरीर कांप उठता है, फिर भी मोह-माया में
फंसे हुए प्राणो अपने को साधना की ओर नहीं लगाते ।
४. आश्चर्य है ! व्यक्ति जानता सब कुछ है परन्तु करता कुछ भी नहीं है ।
'निश्चित ही मुझ यह करना है केवल ऐसा कहता रहता है। 'चन्दन' जो परमपद की साधना करता है, वही कोई विरल महात्मा धन्यवाद का पात्र है । उस महामना के चरण-युगल में कौन भक्ति पूर्वक, नमस्कार नहीं करता?
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अनुष्टुब्-वृत्तम् पदार्थानां
प्रतिक्षणं
पर्यायपरिवर्त्तनम् ।
किं ध्रुवं तत्त्वमस्तीति किं पर्यालोचितं त्वया ? सप्तमी गीतिः
( ओ वीर शासन स्वामी - इति रागेण गीयते )
यन्निभालितं प्रातः, सायं दृश्यते न तत् क्षणिकेऽस्मिन् संसृतिचक्रे, किं त्वयकावसितं सत् ? ध्रुवपदमिदम् ।
मोहान्धकार- विस्तारात्, किमपि न विज्ञायते - २ | ज्ञानदीपमादाद् किंरूपं मतं जगत् । क्षणिके... ।।१।।
विलसन्ति विचित्रमतानि, नानामतिशालिनाम् - २ | सिद्धान्तरूपतस्तेषु स्वीकृतं ब्रूहि कतमत । क्षणिके... ॥२॥
किं कर्तु मना आयातः, कि कृत्वा यास्यसि - २ | आत्मीयं वस्तु किमङ्गिन् ! किं तव रूपादन्यत् ? क्षरिणके.... ॥३॥
यदि किमपि नैव निर्णीतं, कश्चित् त्वां प्रक्ष्यति - २ | किं प्रतिवक्तासि तदानीमालोचय हृदि किञ्चित् । क्षणिके.... || ( युग्मम्)
'चन्दन' कुरु वन्दनमाराद्, मायाया अग्रत:- २ | पृथक् चात्मसन्धानाद्, मिथ्यास्वरूपमितरत् । क्षणिके.... ।।५।।
१४
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어
पदार्थ प्रतिक्षण पर्याय दृष्टि से परिवर्तित हो रहे हैं । संसार में वह'ध्रुव तत्त्व क्या है' क्या कभी तूने पर्यालोचन किया है ?
गीतिका
प्रातःकाल जो कुछ देखा, वह संध्या समय दिखाई नहीं देता । इस परिवर्तनशील संसार चक्र में 'सत्' क्या है ? [तूने कभी निश्चय किया है ?
१. मोहरूपी अन्धकार की सघनता के कारण कुछ भी मान नहीं हो पा रहा है | ज्ञान-दीप के आलोक में जगत का स्वरूप क्या है, कभी ऐसा मनन किया है ?
२. विभिन्न मनीषियों की विचित्र मान्यताएं हैं । उनमें से सिद्धान्त रूपेण तूने किसे स्वीकार किया है ?
३. "पुरुष ! तू किस उद्देश्य से यहाँ आया है ? क्या कुछ करके जाने वाला है ? तेरी अपनी वस्तु क्या है और स्वरूप से भिन्न तत्व क्या है ?”
४. ये उपर्युक्त प्रश्न यदि कोई तेरे से पूछेगा तो तू क्या प्रत्युत्तर देगा ? कुछ चिन्तन कर, अभी तक इनका तूने कुछ भी समाधान नहीं खोजा है । ५. 'चन्दन' ! इस माया जाल को दूर ही से ही नमस्कार कर । वस्तुतया आत्म-संधान के सिवा सब कुछ मिथ्या है |
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अनुष्टुब्-वृत्तम् चतुर्षु परमाङ्गेषु, दुर्लभेषु प्रकीर्तितम् । प्रथमं खलु मानुष्यमत्रैव सुकरं समम् ।
अष्टमी गीतिः ('सारी दुनिया में दिन'-इति रागेण गोयते)
नैव सुलभा सखे ! मानवीयं तनुः । भाग्यसंयोगतो लब्धमस्यां जनुः। ॥ध्रवपदमिदम् ॥ १ कर्तु मत्रैव दानं त्वया शक्यते, धतु मत्रैव शीलं त्वया शक्यते । योग्यतामेति तपसेऽपि चैषा तनुः । नैव..........॥ १॥ २ आगमानां श्रुतिः प्राप्यतेऽत्रैव हि, सद्गुरोः सङ्गतिः प्राप्यतेऽत्रैव हि। तत्त्वमन्वेष्टुमीशापि चैषा तनुः । नैव .........॥२॥ मुक्तिदात्रीमिमां मन्वते पण्डिताः, सौख्यधात्रीमिमां मन्वते पण्डिताः । द्वारमेषेव भवकाननस्याऽतनु । नैव............॥ ३ ॥ साध्यतां साध्यतां साधनीयं द्रुतम्, सिद्धिमेष्यत्यवश्यं बुधैः सम्मतम्। ४ भाव्यमुद्योगिना चन्दनोक्त शृणु । नैव... "।। ४ ।।
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८
गीतिका
भगवान महावीर ने संसार में चार अंग दुर्लभ बतलाए हैं । उनमें पहला अंग मनुष्यत्व है, क्योंकि इसी से सब कुछ साधा जा सकता है ।
मित्र ! मनुष्य का शरीर पुनः पुनः सुलभ नहीं । भाग्य संयोग से ही इसमें अवतरण हुआ है ।
१. इसी शरीर से दान दिया जा सकता है । यहीं पर घील का पालन किया जा सकता है । तप करने की भी इसी शरीर में योग्यता है ।
२. शास्त्रों के श्रवण का यहां पर ही अवसर है, सद्गुरु की संगति यहीं सुप्राप्य है और तत्व का अन्वेषण करने में भी यही शरीर समर्थ है |
३. ज्ञानी इसी शरीर को मोक्ष दाता (मोक्ष का कारणभूत) मानते हैं । आत्मिक सुखों की परिपुष्टि करने वाला भी इसे ही मानते हैं और भव जंगल से बाहिर जाने का यही एक विशिष्ट मार्ग है, ऐसा स्वीकार करते हैं ।
४. 'चन्दन मुनि' का कथन सुनकर उद्योगी बनकर साधना करो । साध्य तत्व की शीघ्र साधना करो, तुम्हें अवश्य ही सिद्धि प्राप्त होगी यह ज्ञानियों का कथन है ।
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अनुष्टुब्-वृत्तम्
गलत्येव प्रतिक्षणम् ।
अञ्जलिस्थित पानीयं तद्वदेव तवायुष्यं किं न वेत्सि गतं गतम् ?
नवमी गीतिः
('भृशं जपामि पूज्यभिक्षु' इति रागेण गीयते )
गतं गतं गतं वृथैव जीवनं गतम् । गतं तथापि मूढ रे ! त्वया तु नो, मतम् ॥ ध्रुवपदमिदम् ॥
एधते वयस्त्वया सदा विचार्यते,
क्षीयते परन्तु तत्वतो न धार्यते ।
शोच्य - जन्मवासरे महोत्सवैः कृतम् ! गतं ............॥ १ ॥ धर्मकर्मणोह शोतता त्वयाऽऽद्रिता,
ज्ञानदृग् मदान्धलेन हन्त ! मुद्रिता ।
मुनीश्वरान् विलोक्य मस्तकेन नो नतम् । गतं............॥ २ ॥
कुरुष्व धर्ममीरितो यदा तु केनचित् अरे ! वृथाहमस्मि नो कदापि पापचित् ।
त्वं विधेहि यत्त्वयैव कापथे गतम् । गतं..........।। ३ ।।
खादितं समस्तमेव पूर्वसञ्चितम्, परत्रहेतुकं शुभं नहि प्रपञ्चितम् ।
' चान्दनं' वचोऽमृतं विवेकिना धृतम् । गतं "
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४ ॥
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जैसे अंजली में स्थित पानी प्रतिक्षण कम होता जाता है, वैसे हो तेरा आयु निरन्तर क्षीण होता चला जा रहा है।
"चला गया, चला गया तेरा ही जीवन व्यर्थ ही चला गया। फिर भो मूढ़ ! तुझे तो पता तक नहीं चला है।"
१. उम्र प्रतिदिन बढ़ रही है, ऐसा तु हमेशा गोचता रहता है । किन्तु वस्तुतः
वह प्रतिक्षण क्षीण हो रही है, ऐसी तेरी धारणा नहीं है। इसीलिए तू हर साल साल-गिरह मनाता है, किन्तु ज्ञानी कहते हैं कि यह उत्सव का दिन नहीं, बल्कि शोक का दिन है, क्योंकि इसमें तेरा एक आय ष्य-भाग
क्षीण हो चुका है। २. तूने ज्ञान की आंखें मूद रक्खी है अतः मदान्ध बनकर धार्मिक कार्यों में
तू शिथिलता कर रहा है। यह खेद का विषय है कि महर्षियों के आगे
भी तेरा मस्तक नहीं झुकता । ३. 'भाई धर्म कर' यदि ऐसी किसी ने प्रेरणा की तो तूने वापिस कहा
"तेरा कहना व्यर्थ है, क्योंकि मैं कभी पाप करता ही नहीं हूँ। हाँ तू ही धर्म कर, क्योंकि तूने ही पाप-पथ का अनुसरण किया है।" . यहाँ तुने पूर्व-संगृहीत सामग्री का ही उपयोग किया, किन्तु अगले जन्म
के लिए किंचित् भी शुभ संचय नहीं किया। 'चन्दन मुनि' के इस वचनामृत का किमी विवेकी ने ही पान किया है।
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मोहरूपां सुरां पीत्वा, स्वरूपं विस्मृतं त्वया । स्वस्थो भूत्वा क्षणं भ्रातः ! कोऽहं कोऽहं विचारय ।
दशमी गीतिः (मालनियां बन जाऊं-इति रागेण गोयते)
कोऽहं कोऽहं कोऽहं कोऽहं, सततं चिन्तय कोऽहं । सोऽहं सोऽहं सोऽहं सोऽहं, सततं चिन्तय सोऽहं ॥ ध्रुवपदमिदम् ।। स्वरूपभानं सृजसि न यावत्, शान्तिपथं त्वं भजसि न तावत् । । आत्मकाञ्चनं त्यक्त्वा, केतु किं किल वाञ्छसि लोहम् ।कोऽहं....।।१।। प्राप्तव्यं न परस्मिन् किञ्चन, अस्ति समस्तं स्वस्मिन् गुणिजन ! कामदुधा ते गृहे स्थिता, पिब दुग्धं दोहं दोहम् । कोऽहं....॥२॥ याक् करणं तादृग् भरणं, निरन्तरं स्मर सौवं मरणम्, आम्राणां रसनं कुह ? कृत्वा निम्ब-तरूणां रोहम् । कोऽहं....।।३।। ज्ञानमयं तव रूपं विलसति, सदा शुभंकरमसुकं विलसति, तन्मयतां श्रयतां 'चन्दन' दृष्ट्वाऽद्भुतगुणसंदोहम् । कोऽहं....॥४॥
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१०
गीतिका
बान्धव ! मोह रूपी मदिरा का पान करके तू स्वरूप भूल बैठा है, किन्तु क्षण भर स्वस्थ बन और चिन्तन कर कि 'मैं कौन हूँ ?' 'मैं कौन हूँ ?'
'मैं कौन हूँ ?' 'मैं कौन हूँ ?' ऐसा चिन्तन कर 'मैं वही हूँ ?' ( सिद्ध स्वरूप ) ' मैं वही हूँ' ऐसा प्रतिपल अनुभव कर ।
१. जब तक तुझे निज स्वरूप का भान नहीं होता तब तक शान्ति की उपलब्धि नहीं हो सकती । अरे ! आत्म-स्वरूप स्वर्ण को छोड़कर तू विषय-वासना रूप लोहा क्यों खरीदना चाहता है ?
२. तेरे लिए पर भावों में प्राप्त करने योग्य कुछ भी नहीं है । अपने स्वरूप में ही सब कुछ ग्राह्य तत्त्व है । ज्ञानमय आत्मा सचमुच कामधेनु है, वह तेरे अन्दर विराजमान हैं उसका दोहन कर और सहजानन्द रूप दूध का
पान कर ।
३. निरन्तर अपनी मृत्यु को याद रख, क्योंकि करणी के अनुसार ही फल भुगतने पड़ेंगे। यदि नीम का वृक्ष लगायेगा तो आम का रसास्वादन कैसे होगा ?
४. 'चन्दन !' यह सतत कल्याणकारी तेरी आत्मा का स्वरूप हमेशा ज्ञानमय विलसित हो रहा है । इस अपूर्व गुणराशि के साथ तू तन्मय बन ।
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अनुष्टुब्-वृत्तम् लभतेऽनेकधा दुःखं, परभावे निरन्तरम् । स्वभावे रमतां तावदधुना ज्ञानमन्दिरे ।
एकादशी गीतिः (जिधर देखता हूं-इति रागण गीयते) रमतां रमतां रमतां निजभावे । ॥ध्रुवपदमिदम् । अवतरितोऽत्र समं किमु नीत्वा ! यास्यत्यग्रे किमु सह कृत्वा ? किमपि न, किं नु दहति भवदावे ? रमतां....॥ १॥ कुत आयातोऽस्तीति न वेत्ति, गम्यं कुत्रास्तीति न वेत्ति। मध्ये मौढ्यमिति विभावे । रमतां....।। २ ।। गर्वोचितमिह किमपि न मन्ये, विभवयौवने अपि च न गण्ये । स्थैर्य किमपि न देहशरावे। रमतां....॥ ३ ॥ ज्ञानधनाढ्यं भवनं भवतः, किमन्वेषयति 'चन्दन' परत: ? स्वाय नमो भवतोयधिनावे । रमतां....।। ४ ।।
१ स्वाय-आत्मघनाय 'स्वमज्ञातिधनाच्यायां' इति न सर्वादिकार्यम् ।
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गीतिका
प्राणी ! तू परभावों में आसक्त हुआ निरन्तर अनेक प्रकार के दुखों का पात्र बनता है । इसलिए अब तू ज्ञान स्वरूप आत्म-मन्दिर में रमण कर।
अपने स्वरूप में रमण कर, रमणकर !
१. जब तेरा जन्म हुआ तब क्या साथ लेकर के आया था? और महाप्रयाण
के समय आगे के लिए क्या साथ लेकर जाएगा? प्रत्युत्तर स्पष्ट है'कुछ भी नहीं' ! फिर भवदावानल में क्यों तू अपने आप को संतप्त बना रहा है ?
२. कहाँ से आया ? और कहां जाना है ? यह तुझे विदित नहीं है। केवल ___ बीच-बीच में ही विभावों में मूढ़ बना फिर रहा है । ३. धन और यौवन क्षण भंगुर होने के कारण नहीं के बराबर है। अतः जिस
पर तू गर्व करे, ऐसा मुझे कुछ भी प्रतीत नहीं होता। शरीर तो
एक कच्चे सिकोरे जैसा है, जिसमें किसी प्रकार को स्थिरता नहीं है । ४. ज्ञान रूप धन से तेरा भवन भरा हुआ है, तू उसका परद्रव्यों में क्यों
अन्वेषण कर रहा है ? भव-समुद्र में नौका का काम देने वाला स्व-धन [ज्ञान-दर्शनादिरूप] हो है उसे तू नमस्कार कर ।
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अनुष्टुब्-वृत्तम्
अरे ! बाह्यं क्रियाकाण्डमसकृद् विहितं त्वया । अन्तश्चेत् शून्यता तेऽस्ति सिद्धि: सम्भाव्यते कथम् ?
द्वादशी गीति:
( नवराश नथी २ - इति रागेण गीयते)
आचीर्ण बाह्याचरणमहो । नहि सिद्धिरभृत् नहि सिद्धिरभूत् । ॥ ध्रुवपदमिदम् ॥
महाव्रतं गुरु मेरुसमं चेदनुपयुक्तता तत्रास्ते,
,
त्यक्त्वा संसारं मुनिवेषं स्वीकृत्य कष्टमतुलं सोढम । चेन्नान्तज्वला शान्तिमिता, नहि सिद्धिरभूत् २ ।
२४
कोटित्रशुद्ध प्रतिपद्य । नहि सिद्धिरभूत् २ |
निन्दा विकथा नहि करणीया कैरपि मुनिभिस्तु विशेषतया । आचरणे नाचरितं तादृग, नहि
सिद्धिरभूत् २ ।
केनापि समं संस्तववृत्तिः, सत्संयमिनां दोषाय खलु । आचरतां तद्विपरीततया, नहि सिद्धिरभूत २ ।
निष्परिग्रहत्वमुरीकृत्य, मूर्च्छा न करोति महर्षिवरः । चेत् क्षेत्रपात्रगात्रादिषु सा, नहि सिद्धिरभूत् २ । 'घनदुःखानां मूलं तृष्णा' उपदिष्टमिदं संसदि बहुशः । कीर्त्यादिकामना तुदति यदि नहि सिद्धिरभूत् २ । कथनं करणं सदृशं भवतात् चन्दनमुनिरर्थयते वीरम् । केवलमेवं वदतोऽस्य हहा ! नहि सिद्धिरभूत २ ।
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॥ १ ॥
॥ २ ॥
॥ ३ ॥
॥ ४ ॥
॥ ५ ॥
॥ ६ ॥
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१२- | गीतिका
आत्मन् ! बाह्य क्रियाकाण्डों का तूने अनेक बार आचरण किया, परन्तु यदि आन्तरिक शून्यता रही तो सिद्धि कैसे सम्भव हो सकती है ?
बाह्य आचरण वहुत किए, परन्तु खेद है ! सिद्धि नहीं हुई :
१. संसार छोड़, बहुत बार मुनि वेष धारण किया, अनेक कष्टों को सहन
किया। फिर भी यदि अन्तर्वाला प्रज्वलित रही तो सिद्धि नहीं हुई। २. किसी भी व्यक्ति को निन्दा-विकथा आदि नहीं करनी चाहिए। इसमें भी
मुनियों के लिए ये विशेप वर्जनीय हैं । यदि मुनि होकर भी ऐसा आचरण किया अर्थात् निन्दा, विकथा आदि करते रहे तो सिद्धि नहीं हुई । ३. किसी के साथ किया गया संस्तव (रागभाव) मुनियों के लिए दोष का ___ कारण बनता है। यदि आचरण में वीतरागता न रही तो सिद्धि
नहीं हुई। ४. अपरिग्रह व्रत को स्वीकार करता हुआ मुनि किसी भी पदार्थ के प्रति
मूर्छा नहीं करता, परन्तु यदि वहां भी क्षेत्र-गाव-पात्रादिकों में मूर्छा भाव से बना रहा तो सिद्धि नहीं हुई । ५. 'तृष्णा दुखों का मूल है' ऐसा परिषद में अनेक बार उल्लेख किया, परन्तु
यदि यश, कीर्ति आदि की कामना मताती रही तो सिद्धि नहीं हुई।। ६. 'चन्दन मनि' भगवान महावीर से प्रार्थना करता है कि मेरी कथनी-करणी
एक समान हो । परन्तु यदि वह कथन वचन का विषय ही रहा तो सिद्धि नहीं हुई।
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अनुष्टुब्-वृत्तम्
वरवर्णेन रूपेण, वासोभिः साधुमण्डनः । न नरः प्रियतामेति, किन्तु सद्गुणमण्डितः | त्रयोदशी गीतिः
( महावीर प्रभु के चरणों में - इति रागेण गोयते ) निश्छलवादी निर्वैरमनाः पुरुषः प्रियतां समुपैतितराम् । सारल्य-पावनान्तःकरणः पुरुषः प्रियतां समुपैतितराम् ॥
॥ध्रुवपदमिदम् ॥
२६
नालीकमणुकमप्याचष्टे ।
J
पृष्टः सरलं स्पष्टं ब्रूते, परहित - चिन्तानिरतो विरतः पुरुषः प्रियतां समुपैतितराम् ॥ १ ॥ सर्वत्र मित्रतामाद्रियते कुत्रापि न वैरगति भजते । शत्रूनपि मित्रधिया पश्यन् पुरुषः प्रियतां समुपैतितराम् ॥ २ ॥ नहि फटाटोप रोपितवृत्तिः स्वं स्वल्पवेदिनं मन्वानः । नितरामुत्सहते विद्यायै पुरुषः प्रियतां समुपैतितराम् ॥ ३ ॥ परदोषदर्शने मुद्रितदृक् परनिन्दाश्रवणे वधिरसमः । सद्गुण - गरणने संलग्नमतिः, पुरुषः प्रियतां समुपैतितराम् ॥ ४ ॥ निर्मलहृदयः सदयोऽतितरामिष्टं मधुमिष्टं वक्ति वचः । परदारान् मातृदृशा पश्यन् पुरुषः प्रियतां समुपैतितराम् ।। ५ ।। दुःखे दैन्यं नोद्वमति पुनः, सौख्ये नौन्नत्यमथाश्रयते । समदर्शी तात्विकसात्विकदृक्, पुरुषः प्रियतां समुपैतितराम् ॥ ६ ॥ मिथ्यां जगतां लीलां मत्वा, 'चन्दन' नात्रासक्ति वृणुते । कुरुते कार्यं कर्तव्यतया, पुरुषः प्रियतां समुपैतितराम् ॥ ७ ॥
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१३
गीतिका
सुन्दर वर्ण, रूप, वस्त्र और अलंकारों से मनुष्य प्रियता प्राप्त नहीं कर सकता । किन्तु सुगुणों से मण्डित होने पर ही प्रिय प्रतीत होता है 1
जिसका अन्तःकरण सरलता से पवित्र है, ऐसा निश्छलवादी, निर्वैर हृदय वाला पुरुष सभी को अत्यन्त प्रिय लगता है ।
१. जो किसी के पूछने पर सरल एवं स्पष्ट बोलता है ऐसा परहित चिन्तन में लीन, विरक्त पुरुष, सभी को अत्यन्त प्रिय लगता है ।
२. जो सभी जगह मैत्री का समादर करता है, पर कहीं भी वैरभाव का विस्तार नहीं करता । शत्रुता करने वालों को भी मित्र की दृष्टि से देखता है वह सभी को अत्यन्त प्रिय लगता है |
३. बाह्याडम्बर से निवृत्त अपने को अल्पज्ञ मानने वाला निरन्तर ज्ञानप्राप्ति के लिए उत्सुक पुरुष सभी को अत्यन्त प्रिय लगता है ।
४. पर - दोष देखने में जो अपनी आंखों का प्रयोग नहीं करता और परनिन्दा श्रवण में वधिर-सा बन जाता है, केवल सद्गुण गणना में ही जिसकी मति संलग्न है, ऐसा पुरुष, सभी को अत्यन्त प्रिय लगता है ।
५. वह विमल एवं दयालु हृदय वाला मधु-सा मधुर वचन बोलता है । परस्त्री को माता तुल्य मानने वाला पुरुष, सभी को अत्यन्त प्रिय लगता है । ६. जो दुख में दीनता नहीं लाता एवं सुख में फूलता नहीं, ऐसा तात्विक, सात्विक वृत्ति वाला समदर्शी पुरुष सभी को अत्यन्त प्रिय लगता है । ७. जगत की लीला को मिथ्या मानता हुआ जो यहाँ किसी वस्तु पर आसक्ति नहीं करता, केवल कर्तव्यरूप व्यवहार का निर्वाह करता है वह पुरुष, सभी को अत्यन्त प्रिय लगता है ।
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कृपया गुरुवर्याणां रचिता चन्दनषिणा, सुरेन्द्रनगरे गेयरूपा गीतित्रयोदशी।
संपूतिः सुरेन्द्रनगर [ सौराष्ट्रान्तर्गत बढवाण कैम्प में सं० २००६ ] में श्री गुरुदेव की कृपा से गेयकाव्य रूप इस गीतिका त्रयोदशी की चन्दन मुनि ने रचना की।
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पञ्चतीर्थङ्कर-स्तुतिः
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? ऋषभाजन-स्तुातः (तुमको लाखों प्रणाम' इति रागेण गीयते)
ऋषभाय नमः वृषभाय नमः, सखे ! प्रभाते ब्रहि ॥ ऋष० ।।
प्रगे प्रबुद्धो ब्रू हि ॥ ऋष० वृष० ।। सर्वजिनेषु प्रथमजिनाय, श्रीमन्नाभः कुलतपनाय । मिथ्याघनकाननदहनाय, योगिमनोरमणाय । ऋष० ॥ १ ॥ सुकृतगन्धवहने पवनाय, प्रवरबोधिबोधितभुवनाय । भक्तजनापितमुक्ययनाय, वितरद्धर्मधनाय । ऋष० ॥ २ ॥ चतुस्त्रिशदतिशयसहिताय, पुण्डरीकगणभृद्महिताय । अष्टादशदोषैरहिताय, कल्पित-सर्वहिताय । ऋष० ।। ३ ।। सततं शुक्लध्यानरताय, पश्यल्लोकालोकमताय । सुरासुराधीशैः प्रणताय, चिन्मयरूपगताय । ऋष० ॥ ४ ।। भोमभवोदन्वत्तरणाय, जन्ममृत्युसाध्वसहरणाय । यदि तव वाञ्छा शिवशरणाय, तदाध्यानमाधाय ।। ५ ।।
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गोतिका
मित्र ! तू प्रातःकाल जागृत होकर 'श्री ऋषभनाथ भगवान को नमस्कार हो', ऐसा बोल ।
2
१. चौबीस तीर्थंकरों में पहले तीर्थंकर नाभिराजा के कुल में सूर्यं के समान, मिथ्यात्वमय घने जंगल को दहन करने वाले, योगियों के अन्तरंग में रमण करने वाले श्री ऋषभनाथ भगवान को नमस्कार हो, ऐसा बोल । २. 'सुकृत रूपी गंध फैलाने को पवन के समान, उत्कृष्ट ज्ञान से तीन लोक को बोध देने वाले, भक्तजनों के लिए मुक्ति-मार्ग दिखाने वाले, धर्म रूपी धन को वितरित करने वाले ऋषभनाथ भगवान को नमस्कार हो', ऐसा बोल !
३. ' चौतीस अतिशय युक्त, पुण्डरीक गणधर द्वारा पूजनीय, अठारह दोषों से रहित, जन-जन के हित की कल्पना करने वाले श्री ऋषभनाथ भगवान को नमस्कार हो' ऐसा वोलो !
४. शुक्ल ध्यान में निरन्तर तल्लीन रहने वाले, लोक और अलोक के भावों को देखने वाले, देव और देवेन्द्र आदि के द्वारा पूजनीय, चिन्मय (ज्ञानमय ) रूप को प्राप्त होने वाले श्री ऋषभनाथ भगवान को नमस्कार हो' ऐसा बोल !
५. 'मित्र ! यदि तुझे विशाल भव-समुद्र को सन्ताप को हरना है, मुक्ति रूप इच्छा है तो तू ध्यानस्थ बन कर ऐसा बोल !
तरना है, जन्म और मृत्यु के महल में जाने की यदि तेरी हार्दिक भगवान ऋषभनाथ को नमस्कार हो',
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शान्तनजनन्द्र-स्तुतिः
( पीर - पीर क्या करता रे' इति रागेण गीयते ) शान्ति जिनेन्द्रं स्मर नितरामयि भ्रातः ! प्रातरलम् ॥ ध्रुव० ॥ अचिरानन्दनमानन्दकर, काञ्चनरुचिरोचित दिग्विवरम् । रत्ननिधायं मनसि निधाय, सृज नृभवं सफलम् ।। १ ।। क्षयकुष्ठाद्याः पुनरातङ्का, भीमाः कल्पितजीवितशङ्काः । स्मृत्यवतीर्णे यद्भगवति नश्यन्तितमां
तरलम् ॥ २ ॥ किल भूतपिशाचजनितकष्टं चौराग्निभयं च भुजगदष्टम् । सर्वं शमथपथ प्रथते यस्यास्ति तदाख्यत्रलम् ॥ ३ ॥
किं चित्रमुपरितनकष्टहरः खलु बहुल उपायस्त्वन्यतरः । तच्चित्रं यद्धरति सतां तत्स्मृतिरपि पापमलम् ॥ ४ ॥
३२
चन्दन -कथनं सम्यङ मनुषे, यदि तहि परं किं ननु वनुषे ? शान्ति-गुणं गायं गायं गायं पावय निजहृत्कमलम् ॥ ५ ॥
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गीतिका
मेरे प्यारे बान्धव ! तू हमेशा प्रातःकाल श्री शान्तिनाथ भगवान का स्थिरता पूर्वक स्मरण कर ।
१. अचिरा रानी के सुपुत्र, आनन्द प्रदान करने वाले, सुवर्ण वर्ण के शरीर
द्वारा चर्दिन में स्वर्णिम आभा फैलाने वाले, रत्ननिधान की ज्यों उन शान्तिनाथ भगवान को अपने मन में धारण करके इस मनुष्य जन्म को
सफल बना। २. शान्तिनाथ भगवान का नाम स्मरण करने मात्र से ही क्षय, कुष्ठ, आदि
मृत्यु की आशंका पैदा करने वाले भयंकर रोग, शीघ्र ही नष्ट हो
जाते हैं। ३. जिस व्यक्ति के पास भगवान के नाम का अपूर्व बल है, उसके लिए भूत
पिशाचजन्य कष्ट, चोर और अग्नि का भय तथा सर्प दंश आदि का
दुष्प्रभाव पूर्णतया शान्त हो जाते हैं। ४. बाह्य शारीरिक कष्टों के उपशमन होने में क्या आश्चर्य है ? क्योंकि इसके
लिए तो अनेक भौतिक साधन भी विद्यमान हैं। परन्तु आश्चर्य तो यह है कि भगवान का नाम स्मरण जो भी कोई करता है उसके अन्तर पाप मल
भी दूर हो जाते हैं। २५. यदि तू 'चन्दन मुनि' का कथन सही मानता है तो फिर दूसरों के सामने
याचना करने की क्या आवश्यकता है ? तू तो शान्तिनाथ के गुणगान कर और अपने हृदय कमल को पवित्र बना ।
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३ नेमिजिन-स्तुतिः ('भज ले चम्पकली' इति रागेण गीयते)
नम नम नेमिजिनं नेमिजिनम् ।
अधरीकृतकुत्सितकमनम् ॥ध्र व०॥ द्वाविंशतितममाप्तमनारत-मुत्तममुत्तममान्यम् । कृष्णच्छायं विगतापाय, शङ्खाङ्कितमवदान्यम् । नम० १ ॥ सत्समुद्रविजयप्रजमग्र, तद्वद्धृतिधर्तारम् । शेखरायमाणं हरिवंशेऽखिलभवात्तिहारम् । नम० २ ॥ उग्रसेनतनयां नवभवतः, पत्नोभावमुपेताम् । अनुरक्ता व्यक्तां पतिभक्तां, कथमौज्झत्प्रभुरेताम् । नम० ३ ।। नव्यां भव्यां वा हृदयेशां, प्राप्य नरो वरवेशाम्। पूर्वयोषितं को नहि जह्या-दपि कृतभक्तिविशेषाम् । नम० ४ ॥ तद्वत्प्रभुरपि मुक्तिनवोढा-सङ्गोत्साहितचेताः । किमाश्चर्यममुचद्यदि कान्तां, मोहनृपतिबलजेता । नम० ५ ॥ तं ब्रह्मवतविदितौजस्क, कस्को न स्तुतिमेति । चन्दनमुनिरपि मुकुलितपाणि नेमिनाथमध्येति । नम० ६ ॥
३४
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गीतिका
नु नेमिनाथ भगवान को नमस्कार कर । जिन्होंने कुत्सित कामदेव को पराजित कर दिया है।
१. विशिष्ट व्यक्तियों द्वारा सन्मान्य, कृष्णवर्ण, पाप-ताप के संहर्ता, शख
चिह्न वाले, दानशील, उत्तम गुणवान श्री नेमिनाथ बावीसवें तीर्थंकर थे। २. आप समुद्रविजय के ज्येष्ठ पुत्र होने के साथ-साथ समुद्र की तरह गंभीर,
क्षमाशील, हरिवंश के शिरोमणि एवं समग्र भव दुखों के उन्मूलक थे । ३. नव भवों से पत्नी रूप में रही हुई उग्रसेन राजा की पुत्री श्री राजीमती
जो कि पतिव्रता तथा आपसे विशेष अनुरक्त थी, उसको भी आपने क्यों
ठुकरा दी? ४. कौन ऐसा व्यक्ति है जो कि नई. भव्य वेपधारिणी वल्लभा स्त्री को पाकर
विशेष भक्ति वाली पुरातन स्त्री को भी नहीं छोड़ता? ५. नेमिनाथ भगवान ने भी मुक्ति रूपी नव-वधू को प्राप्त करने में उत्साही
बन यदि राजमती को छोड़ दी तो यह क्या आश्चर्य है ? क्योंकि आप मोहराज पर विजय प्राप्त कर चुके थे । ब्रह्मचर्य के द्वारा जिनकी ओजस्विता निखर चुकी है, ऐसे महाप्रभु की कौन स्तुति नहीं करता है ? 'चन्दन मुनि' भी हाथ जोड़कर नेमिनाथ भगवान का ध्यान धरता है।
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४ पार्श्वजिन - स्तुतिः
( ' म्हे छाँ लाडूमल' इति रागेण गीयते )
मोघं भ्रम मा मा, सेवय पार्श्वजिनेश्वरमेकम् । ध्रुव ॥ पार्श्व जिनेन्द्र सेवय-सेवय, प्रथितमहामहिमानम् । कमनीयं मुक्त्यङ्गनया, वामापत्यं गतमानम् ॥ १ ॥ तद्घनधात्यं कर्म निहत्या - सादितकेवलकमलम् । कराऽऽमलकवल्लोकालोकं, लोकमानमति विमलम् ॥ २ ॥ यदुपरि भृशमुल्लुण्ठतया, प्रबलीकृतसौवहन | संहाराब्दसमा जलवृष्टिः, क्षिप्ता बत ! कमठेन ॥ ३ ॥ चित्रं तदपि न कोपारोपणमभवद् यद् भ्रूभङ्ग । अहह ! तितिक्षा तदनुपमेया, चञ्चज्ज्ञानतरङ्ग े ॥ ४ ॥ तं धरणेन्द्र - शिरोधार्यं भगवन्तं स्मारं स्मारम् । चन्दनमुनिरतिहृष्टमना, लघु लभते भवजलपारम् ॥ ५ ॥
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४
गीतिका
रे मनुष्य ! तू निरर्थक इधर-उधर भ्रमण मत कर, एक पार्श्वनाथ भगवान
को उपासना कर ।
१. तू वामा महारानी के सुपुत्र पार्श्वनाथ की आराधना कर । जिन्होंने मान को परास्त कर, उत्कृष्ट महिमा अर्जित कर ली है तथा मुक्ति रूपी स्त्री के प्राणप्रिय बन गए हैं ।
२.
अपने घनघाती कर्मों का मूलोच्छेद कर, केवल ज्ञान रूपी कमला को पाकर, लोक और अलोक को 'करामलकवत्' अति स्पष्ट रूप से देखने लगे ।
३. खेद है कि कमठ तापस ने अपनी अहंमन्यता के वश उच्छङ्खल होकर आप पर प्रलयकाल जैसी मूसलाधार वृष्टि की ।
४. आश्चर्य है ! फिर भी आपकी भृकुटि पर किंचित् भी कोप का आरोपण नहीं हुआ | यह है क्षमाशीलता और ज्ञान लहरों का चमत्कारी प्रभाव !
५. मानव ! तू भी धरणेन्द्र द्वारा शिरोधारित पार्श्वनाथ भगवान का स्मरण कर । 'चन्दन मुनि' इसी माध्यम से भव-समुद्र का पार प्राप्त करता है ।
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५ महावीर - स्तुतिः
('थोड़ी-थोड़ी धीरज राखो' इति रागेण गीयते )
आराधय नितरां महावीरम्, आराधय सुतरां महावोरम् । महावीर प्रोज्ज्वलगुरणहीरम् ॥ ० ॥ ध्रुव० ॥ त्रिशलादेव्यङ्क, कृतखेलं, सिहाङ्कितममलं गत हेलम् । तप्तमवद्दीप्रशरीरम् ॥ आ० ॥ १ ॥
सांसारिकसंस्तवमपहाय,
दुष्करमौनव्रतमादाय ।
यस्त्रोटितवानघहिञ्जीरम् || आ० || २ || देवमनुजकृतकष्टशतानि, मर्षितवान् यो बहुविततानि । तं रत्नाकरमिव गम्भीरम् || आ० || ३ ||
चित्रं विमुखा येऽत्र तवापि, कण्टक तुल्या, वा न कदापि । चैत्रे पत्रयुतं च करीरम् ॥ आ० ॥ ४ ॥ अयि शरणागतवत्सल ! नाथ ! चन्दनसाधु पूर्णकृपातः । दर्शय-दर्शय भवजलतीरम् || आ० || ५ ||
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गीतिका
तू भगवान महावीर की प्रतिक्षण आराधना कर, उज्वल गुण रूपी हारों के स्वामी भगवान महावीर की तू आराधना कर ।
१. त्रिशला देवी की गोदी में खेलने वाले, सिंह चिह्न से शोभित होने वाले,
पाप-ताप को हरने वाले, तपाए हुए स्वर्ण के समान जिनका देदीप्यमान
शरीर है ऐसे भगवान महावीर की तू आराधना कर ! २. जिन्होंने सांसारिक परिचयों को छोड़ा, कठिन मौन व्रत को स्वीकारा, पाप
रूपी जंजीरों को तोड़ फेंका, उन भगवान महावीर की प्रतिक्षण
आराधना कर। ३. जिन्होंने देव व मनु प्यों द्वारा दिए गए अनेक प्रकार के उपसर्गों को सहन
किया है, उन समुद्र की तरह महान् गम्भीर भगवान महावीर की तू
आराधना कर । ४. प्रभो ! कण्टक के समान कुछ व्यक्ति आपसे भी विमुख रहते हैं इसमें
क्या आश्चर्य है ? क्यों कि कर के पौधे चैत्रमास में भी पत्रय क्त नहीं
बनते। ५. हे शरणागत वत्सल ! हे नाथ ! पूर्ण कृपा करके चन्दनमुनि को भव जल
का किनारा दिखलाइये ।
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कुछ महत्त्वपूर्ण प्रकाशन
३)००
२)
३)००
संस्कृत :
आर्जुनमालाकारम् प्रभवप्रबोध काव्यम् ज्योतिःस्फुलिङ्गाः
उपदेशामृतम् हिन्दी :
संगीत सौरभ संतों के सुनहरे शब्द व्याख्यान त्रिवेणी
भाग १, २, ३ प्रबन्ध पैंतालिसी व्याख्यान बत्तीसी
१)५० १)५०
प्रत्येक भाग २)५०
२)५० २)५०
प्राप्ति स्थान
साहित्य सौरभ ६४, ए. एम. लैन, चिकपेठ, बैंगलोर-२
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लेखकका महत्त्वपूण रचनाए संस्कृत: आर्जुनमालाकारम् प्रभवप्रबोधः अभिनिष्क्रमणम् * ज्योतिःस्फुलिङ्गाः उपदेशामृतम् वैराग्यकसप्ततिः प्रबोधपञ्चपञ्चाशिका* अनुभवशतकम् संवरसुधा प्रास्ताविकश्लोकशतकम् * पञ्चतीर्थी आत्मभावद्वात्रिशिका पथिक पञ्चदशकम् प्राकृतः रयणवालकहा* जयचरि णोइ-धम्म-सुत्तीओ* हिन्दी: अन्तध्वनि राजहंस के पंखों पर मौनवाणी मलयज की महक संगीत सौरभ अध्यात्म-पदावली सोना और सुगन्ध व्याख्यान त्रिवेणी भाग 1,2,3 प्रबन्ध पैंतालिसी व्याख्यान बत्तीसी *अप्रकाशित आवरण पृष्ठ के मुद्रकः मोहन मुद्रणालय, आगरा-२ For Private And Personal Use Only