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।। कोबातीर्थमंडन श्री महावीरस्वामिने नमः ।। ।। अनंतलब्धिनिधान श्री गौतमस्वामिने नमः ।।
।। गणधर भगवंत श्री सुधर्मास्वामिने नमः ।। । योगनिष्ठ आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।। ।। चारित्रचूडामणि आचार्य श्रीमद् कैलाससागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।।
आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर (जैन व प्राच्यविद्या शोधसंस्थान एवं ग्रंथालय)
पुनितप्रेरणा व आशीर्वाद राष्ट्रसंत श्रुतोद्धारक आचार्यदेव श्रीमत् पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा.
जैन मुद्रित ग्रंथ स्केनिंग प्रकल्प
ग्रंथांक:१३६१
बन
आराधना
महावीर
अमृतं
तु विद्या
तु
श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र
शहर शाखा
आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर-श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर-३८२००७ (गुजरात) (079)23276252,23276204 फेक्स : 23276249
Websiet : www.kobatirth.org Email : Kendra@kobatirth.org
आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर शहर शाखा आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर त्रण बंगला, टोलकनगर हॉटल हेरीटेज़ की गली में पालडी, अहमदाबाद - ३८०००७ (079) 26582355
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- श्री हर्षपुष्पामृत जैन ग्रन्थमाला-ग्रन्थाङ्क-१०६
श्री महावीरजिनेन्द्राय नमः - पूज्याचार्यदेवश्री विजयकर्पू रामृतसूरिभ्यो नमः श्रीरुद्रपल्लीयगच्छीयाचार्य श्री वर्धमान मूरिविरचितः
ॐ स्वप्नप्रदीपः॥ पूज्याचार्यदेव श्री माणिक्यसूरीश्वर विरचितश्च
ॐ शाकुनसारोद्धारः ॥
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सम्पादकः संशोधकश्चतपोमूर्तिपूज्याचार्यदेव श्रोविजयकर्पू रसूरीश्वर पट्टधर-हालारदेशोद्धारक पूज्याचार्यदेव
श्री विजयामृतसूरीश्वर पट्टधरः पू. आ. श्री विजयजिनेन्द्रसरिवरः
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जामनगर ४५ दिग्विजय प्लोटस्थ श्री हालारी वीशा पोसवाल तपागच्छ उपाश्रय धर्मस्थानक ट्रस्ट
इत्यनेन प्रदत्तसाहाय्येन प्रकाशिकाश्री हर्षपुष्पामृत जैन ग्रन्थमाला
लाखाबावल-शांतिपुरी ( सौराष्ट्र) Fireseree xsex.
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SOOOOOOOHere
... ....... .............. श्री हर्षपुष्पामृत जैन ग्रन्थमाला-ग्रन्थाङ्क-१०६
श्री महावीर जिनेन्द्राय नमः पूज्याचार्यदेवश्री विजयकर्पू रामृतसूरिभ्यो नमः श्रीरुद्रपल्लीयगच्छीयाचार्य श्री वर्धमानमूरिविरचितः
+ स्वप्नप्रदीपः ॥ पूज्याचार्यदेव श्री माणिक्यसूरीश्वर विरचितश्च __ शाकुनसारोद्धारः ॥
सम्पादक: संशोधकश्चतपोमूर्तिपूज्याचार्यदेव श्रोविजयकर्पूरसूरीश्वर पट्टधर-हालार देशोद्धारक पूज्याचार्यदेव __ श्री विजयामृतसूरीश्वर पट्टधरः पू. आ. श्री विजयजिनेन्द्रमूरिवरः
जामनगर ४५ दिग्विजय प्लोटस्थ श्री हालारी वीशा प्रोसवाल तपागच्छ उपाश्रय धर्मस्थानक ट्रस्ट __इत्यनेन प्रदत्तसाहाय्येन प्रकाशिकाश्री हर्षपुष्पामृत जैन ग्रन्थमाला लाखाबावल-शांतिपुरी ( सौराष्ट्र)
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प्रकाशिकाश्री हर्षपुष्पामृत जैन ग्रन्थमाला लाखाबावल-शान्तिपुरी ( सौराष्ट्र)
वीर सं० २५०८
वि० सं० २०३८
सन् १९८२
प्रथमावृत्ति प्रति-५५०
प्राभार
आ प्रकाशन माटे प्राचीन साहित्यना उद्धार माटेनी उदार भावनाथी प्रेराइने श्री हालारी वीशा ओसवाल तपगच्छ उपाश्रय प्रने धर्मस्थानक ट्रस्ट-जामनगर (४५ दिग्विजय प्लोट) तरफथी ज्ञान खातेथी सहकार मलतां तेमना तरफथी आ ग्रन्थ प्रगट करेल छे. तेमनी शास्त्रोद्धारनी भावनानी अनुमोदना करीए छीए।
लि०
शाक मारकेट सामे जामनगर (सौराष्ट्र)
महेता मगनलाल चत्रभुज
nama
मुद्रक
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********** र प्रास्ताविक * Xxxkkkkk**
जैन शासनमां कल्पसूत्र दर वर्षे वंचाय छे तेमां भगवानना च्यवन समये माताने आवेला चौद स्वप्ननु वर्णन छे. प्रभूना पिता पण स्वप्नना फल जाणवा पाठकोने बोलावे छे भने अष्टांग निमित्तना कुशल पाठको फल कहे छ ।
आ स्वप्नशास्त्र अंगे अनेक ग्रन्थो छे. श्री जिनवल्लभसूरिजी म. ए ११६७ मां स्वप्नाष्टकविचार, श्री सर्वदेवसूरिजी महाराजे १२८७ मां स्वप्नसप्ततिका (टीका), श्री जिनपतिसूरिजी म. ना शिष्य श्री जिनपाल उपाध्यायजी म. ए १२९४ मां स्वप्नविचारमाध्यादि रच्या (जै. सा. इ.)
स्वप्नशास्त्र श्री दुर्लभराजना पुत्र जैन गृहस्थ श्री जगद्देवे (१२२०) अने स्वप्न प्रदीप या स्वप्नविचार श्री वर्धमानसूरिजी म. ए रचेल छे. (जै. सं. सा इ.)
आ पुस्तकमां स्वप्न प्रदीप जेनु बीजु नाम स्वात्मावबोधजस्वप्नविचार छे ते लेवामां आव्युछे, जेमां ५ उद्योत छे, अने श्री कल्पसूत्रमा ७२ स्वप्नानो उल्लेख ते विगेरे आमां जणाव्या छ।
कर्ता रुद्रपल्लीयगच्छीयाचार्यदेव छे. तेओ क्यारे थया अने आ ग्रन्थ क्यारे रच्यो ते जाणी शकायुनथी।
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आ पुस्तकमां आपेल बीजो ग्रन्थ शाकुनसारोद्धार छे. जेनो शाकुन शास्त्र तरीके पण उल्लेख थयो छे. आ ग्रन्थना कर्ता आ. श्री माणिक्यसूरीजी म. छे. तेमने वि. सं. १२३८ मां आ ग्रन्थ रच्यो छे. (जै. सं सा. इ.) ११ प्रकरणमां ग्रन्थनो समावेश कर्यो छे आ ग्रन्थ कर्ता अंगे विशेष माहिती प्राप्त थइ नथी।
शकुन विषय मां नरपति जयचर्या ग्रन्थ (१२३२ ) धारानां आम्रदेवनां पुत्र जैन गृहस्थ नरपतिए लखेल छे बीजा ग्रन्थोमां शकुनदी पिका, शकुनप्रदीप ( श्री लावण्य शर्मा ), शकुनविचार, शकुन सप्तत्रिशिका, शकुन रत्नावलि याने कथाकोश (श्री अभयदेव शिष्य श्री वर्धमान), शकुनावलि याने बीजकौस्तुभ (महर्षि गौतम ) शकुनावलि (श्री हेमचन्द्र ) ग्रन्थो छे. (जै. स. सा. इ.)
शकुनोना प्रसंगो अनेक वाचवा मले छे. भरत महाराजा बाहुबलीने जीतवा जाय छे त्यारे अनेक अपकुशन थयानुवर्णन छे. रुद्रसोमाए पोताना पुत्रने दृष्टिवाद भणवा कह्य भने ते पुत्र आर्यरक्षित प्रयाण करे छे इक्षुना भारा मले छे तेना उपरथी साडा नव वस्तुनु ज्ञान नकी करे छे. पेथडशाह विद्यापुर छोडी मांडवगढ आवे छे त्यारे नाका पासे सर्पनी फेण ऊपर बेठी दुर्गा अवाज करे छे. पेथडशाह ते आश्चर्य जोइ भयथी उभा रही जाय छे. ते वखते जाणकार शास्त्रज्ञए कह्य वणिक् ! तमे अज्ञान छो. जो भय विना जात तो राजा थात हवे तमे नगरमां जशो तो राजा नहीं पण राजा जेवा थशो. पेथडशाह मांडवगढमां गया अने सारङ्गदेव राजाना मन्त्रीश्वर बन्या।
___ आ रीते स्वप्न अने शकुनज्ञान उपयोगी छे, परन्तु ते धर्मशास्त्र नथी अने तेथी ते शास्त्र धर्मप्रेमी श्रद्धाशील विवेकी जीवो
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माटे हितकारी बने छे. अने धर्महीन अश्रद्धालु अने अविवेकी जीवो माटे हानो कर्ता बने छे. अने एथोज शास्त्रकारोए सम्यग्दृष्टीए ग्रहण करेलु सर्व श्रुत सम्यग्श्रुत अने मिथ्यादृष्टीए ग्रह्य सर्वश्रुत मिथ्याश्रुत कह्य छ।
ए हेतुथी विवेकी माटे हितकारी बने ते हेतुथी पूर्वाचार्योए आ के आवा ग्रन्थोनी रचना करो छे. अने ए हेतुने विवेकी आत्माओ सफल बनावे अने निश्रेयना साधक बने एज शुभ अभिलाषा।
२०३८ प्र.-आसो सुद १५
जैन उपाश्रय २. ओसवाल कोलोनी
जामनगर (सौराष्ट्र)
लि०जिनेन्द्रसूरि
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-: विषयक्रमः :
स्वमप्रदीपः
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उद्योतः विषयः
दैवतस्वप्नविचारः .... द्वासप्तति महास्वप्नविचार: शुभस्वप्नविचारः अशुभस्वप्नविचारः ... शुभाशुभविचारः
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»
تم
प्रकरणं
له سه ه
शाकुनसारोद्धारः
विषय दिक्स्थानप्रकरणं ग्राम्यतित्तिरिप्रकरणम् .... तित्तिरिप्रकरणम् दुर्गाप्रकरणम् लट्टाधिरोलिकाक्षुतप्रकरणम् वृकप्रकरणम् रात्रेयप्रकरणम् हरिणप्रकरणम् श्वानचेष्टाप्रकरणम् आकस्मिकयुद्धप्रकरणम् .... सर्वसंग्रहप्रकरणम्
م م ه م م
ه مه
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॥ शुद्धिपत्रकम् ॥
पृष्ठं
पंक्ति
विनिदिशेत् बुक्कसाः
2006 km
अशुद्धं पृष्ट विनिदिशेद वुक्कसा: देहाद्र पक्के
देहाद
* MamM
पक्वे
क्ष्वेण्ड
क्ष्वेड स्तण्डुलाश्च वदन्ती श्रेष्ठा तिष्ठेत्
पृष्ठे
स्तण्डलान
वन्दती ३७
श्रेष्टा
तिष्टेत् ३७/४१/४३/२०/४/४ ४४/४५ १८ पृष्टे ३६/४० २०/६ श्रेष्ट:
विष्टा
उच्च दुच्चतरं ५७ २० वक्रो ५८ १३ वक्र ५८ १७ वक्रः ६१ १७ वक्र ६३ २ रुंज |
४१
श्रेष्ठः विष्ठा उच्चादुचतरं वक्त्रो वक्त्रं वक्त्रः वक्त्र रुज
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॥ नमो सुयनाणस्स ।। श्री हर्षपुष्पामृत जैन ग्रन्थमाला (लाखाबावल) नी योजना
- प्राचीन ग्रन्थोना उद्धार अंगे - श्री श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन संघो तथा उदार भाविकोने
* नम्र विनंति *
सुज्ञ महाशय,
जणावतां आनन्द थाय छे के श्री जैन शासननो आधार श्रतज्ञान अने जिनबिंब छे श्री जिन मन्दिरो तथा जिर्णोद्धार विगेरे थाय छे ते जेम जरुरी छे अने ते धर्म कार्योमां जेम रस लेवाय छे तेम श्रुतज्ञानना उद्धारना कार्यमां पण रस लेवानी सर्वे श्री संघो तथा भाविकोनी आत्मकल्याणार्थे अगत्यनी फरज छ । ___ घणा प्राचीन ग्रन्थो अलभ्य बन्या छे अने घणा हजी अप्रकाशित पण छे. आ दिशामां अमे प. पू. हालारदेशोद्धारक पू. आ. श्री विजयअमृतसूरीश्वरजी महाराजना शिष्य पू. आचार्यदेव श्री विजयजिनेन्द्रसूरीश्वरजी म. ना मार्गदर्शन नीचे एक प्रवृत्ति करवानुं नक्की कयु छे. अत्यार सुधीमा ४५ आगम सूत्रो केटलाक आगमोनी टीकाओ तथा पूर्वाचार्योना ग्रन्थोनुं प्रकाशन कयु छ ।
आ योजनामां वांची विचारीने आपश्री योग्य सहकार अने मार्गदर्शन आपशो एवी नम्र विनंति छ ।
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प्राचीन ग्रन्थ प्रकाशन योजना (१) आ योजनामा रुपया एक हजार थी रु० २५०००) सुधीना एक-एक ग्रन्थन प्रकाशन थशे. नानी रकमो एकत्र करीने मोटा ग्रन्थो माटे उपयोग करवा माटे दातानी इच्छा हशे तो थशे.
(२) आ योजना हेठल प्रकाशित थनार ग्रन्थनी किंमत रखाशे नहि, वेचाण थशे नहि.
(३) आ ग्रन्थनी ५०० नकल छपाशे जेमांथी ७५ नकल पू. आचार्यदेवो आदि ने, ३५० नकल जुदा-जुदा संघो ने, २५ नकल लाभ लेनार दाता ने, २५ नकल सम्पादक ने, २५ नकल प्रकाशक संस्था ने आपवामां आवशे. भेट मोकलवाना स्थलोना वर्ग करीने बधा तेजम अमुक ग्रन्थो ते ते वर्गना स्थानोने मोकलाशे.
हाथ बनावटना कागलमां पण लांबो काल टके माटे ५० नकल छपाववानु राख्यं छे.
(४) जे ग्रन्थनी वधु नकलो छपाववानी जरूर जणाशे ते ग्रन्थना दाता ने जणावाशे अने जो ते लाभ लेशे तो तेने नहितर बीजाने वधु नकलोनो लाभ आपी शकाशे.
(५) जेमने पोताना तरफथी प्रकाशित थता ग्रन्थोमां फोटो के टुक जीवन चरित्र छपाववं हशे तेमने ते खर्च अलग आपवानो थशे.
(६) व्यवस्था खर्च तथा भेट ग्रन्थो मोकलवानी व्यवस्थानो खर्च तेनी किमत साथे गणाशे.
(७) दाताए केटली रकम सुधीना ग्रन्थनो लाभ लेवो छे ते जणावq ते मुजब ग्रन्थ नाम नक्की करोने जणावाशे अने तेमनी अनुमति आव्ये ग्रन्थ ते दाता तरफथी तैयार थशे.
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घणां संघो पासे ज्ञानद्रव्य छ वली घणां भाविकोए संघो काढया छ, मन्दिर बनाव्या छे के प्रतिमाओ भरावी छे, उत्सवउजमणां कर्या छ-ते दरेक भाविको जो एक-एक प्राचीन ग्रन्थ प्रकाशित करवान राखे तो झाझा हाथ रलियामणा ए न्याये थोड़ी महेनते सेंकडो ग्रन्थोनुं प्रकाशन थई जाय. भण्डारो पण समृद्ध थई जाय. महेनत अमे करशुं अने उदारता तमे बतावजो.
आ नम्र विनंति ध्यानमा लई आप आपनी शक्ति, भक्ति, भावना अने उल्लास मुजब आ कार्यमा सहकार आपवानुं नक्की करी नीचेना सरनामे जणावशो.
* प्राचीन ग्रन्थ प्रकाशन योजना *
c/o महेता मगनलाल चत्रभुज शाह मार्केट सामे, निशालफली
जामनगर (सौराष्ट्र) आपना सद्भाव भर्या पत्रनी राह जोशुं.
पूज्य आचार्यदेवादि पूज्यो ने नम्र विनंति छे के आपश्री आ कार्यमां मार्गदर्शन तथा कया कया ग्रन्थोनी प्रथम जरूर छे तथा कयां कयां ग्रन्थ आप सम्पादन करी आपी शको तेम छो-ते विगेरे जणाववा कृपा करशोजी.
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॥ अहंम् ॥ तपोमृतिपूज्याचार्यदेव श्रीविजय कग्सरिभ्यो नमः श्रीरुद्रपल्लीमगच्छीयाचार्य श्रीवर्धमान सूरिविरचितः || श्रीस्वप्रपदीपः (स्वात्मा व बोध जस्वप्नाधिकारः) ॥
॥ अथ दैवतस्वप्नविचाररूप. प्रथम उद्योतः ॥
परमात्मावबोधजम् ।
परात्मानं नमस्कृत्य पूर्व शास्त्रानुरोधेन किश्चित्स्वप्नफलं ब्रुवे ॥१॥ स्वप्नचतुविधः प्रोक्तो देवः स्वानुभवप्रजः । धातुप्रकोपजश्चैव चिन्तोद्भूतश्चतुर्थकः ॥२॥ graat aaraart frष्फलौ द्वौ दिवानिशम् । आयः सदा द्वितीयस्तु निशि सौख्यस्थितस्य च ॥३॥ देवयक्षादयो विप्रा गावो राजा च लिङ्गिनः । पितरो देवमूर्तिश्व वाक्चेष्टेपां च दैवतम् ॥४॥ सुखस्थस्य महास्वप्नः पूर्वकर्मानुसारतः । यो भाविकः स्वप्नः स ज्ञेयः स्वानुभावजः ॥५॥ वातपित्तमल श्लेष्म - मूत्रमालिन्यरोगजः दुःशय्यादिभवः स्वप्नः स ज्ञेयो दोषजोऽफलः ॥ ६॥
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चिन्तावियोगदुश्चेष्टा-दिनकृत्यस्मृतिभ्रमात् । कोऽपि यो जायते स्वप्नो वंध्याश्चिन्तोद्भवः स तु ॥७॥ एकद्वित्रिचतुर्याम... प्रान्तस्वप्नफलं क्रमात् । वर्षाष्ट वेदैकै मास-स्तदिने वा दिनत्रये ॥८॥ दैवतस्त्रिविधः स्वप्नो दर्शनालापचेष्टितैः । क्रमेण त्रितयं वक्ष्ये फलं वच्मि समासतः ।।६।। अर्हबुद्धमहादेव-विरश्चिगरुडध्वजाः । अम्बिकायक्षगन्धर्व-क्षेत्रपालादयः सुराः ।१०॥ शास्त्रोक्तविधिना वर्ण-कलशायुधवाहनाः । सौम्याः सुखानि यच्छन्ति स्वप्ने दृष्टा न संशयः॥११॥ फलशाखामृतो वंश-वृद्धिं दीघां महोबतिम् । चारुवस्त्रं राजमान्यं लक्ष्मीपति सभूषणाः ।।१२।। पुष्पादिवृष्टिं कुर्वाणा महोत्सवकराः परम् । ध्यानस्तिमितनेवास्तु महाज्ञानप्रकाशकाः ॥१३॥ एते विकटरूपाश्च दुःखशोकप्रदा नृणाम् । ह्रस्वा मानविघाताय दीना दन्यप्रदायकाः ॥१४॥ रुदन्तो बहुशोकाय नग्ना दारिद्र यहेतवे । पलायमाना भाषन्ते .परचक्रोद्भवं भयम् ॥१५॥ युद्धाय स्युः कम्पमानाः कृशा दुर्भिक्षकारिणः ।। रोगं मलिनमूनो दारिद्र यं भूषणोज्झिताः ॥१६॥
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गायन्तश्च हसन्तश्च नृत्यन्तो मृत्युदायकः । हस्ताद्धस्तं पृष्टहस्तं यच्छन्तो भयभञ्जनाः ॥१७॥ स्नानान्ते पतनपरा दोषमुच्छिष्टतां भयम् । कथयन्ति महापापं स्वादन्तो खाद्यमुत्तमाः ||१८|| जय जीव तथा नंद सुखं तिष्ठ स्थिरीभव । इत्यादि वचनं तेषां सर्ववाञ्छितदायकम् ॥१६॥ पत गच्छ म्रियस्वेति वचन दुःखदं पुनः । शुमा शुभकरी चेष्टा दुश्चेष्टैषा न शोभना ॥२०॥ तेषां च प्रतिमाः स्वर्ण-रूप्यरत्नविनिमिताः। धातुश्वेताश्ममययश्च स्वप्ने दृष्टाः सुखावहाः ॥२१॥ अस्थिकाष्ठदृषदन्त-लोहलेप्यक्षताश्च ताः । भग्ना व्यङ्गा दुःखकग ग्रन्थिमत्यो न शोभनाः॥२२।। स्वेदनिलोठरुदन-रक्तोद्गारस्मितान्विताः । गीतनृत्यकम्पयुक्ता मृत्य्वापदुःखदायकाः ॥२३॥ दुःस्थानकस्थिताः पूजा कान्ति प्रतिमा ध्रुवम् । अपूजा भ्रष्टगेहाश्च तद्भशं कथयन्ति ताः ॥२४॥ पितरो मृततुल्याश्च प्रहृष्टाः श्वेतवाससः । सभूषणाः शुभाचाराः स्वप्ने कुशलकारिण ॥२५।। स्युः श्राद्धकाक्षिणः क्षामा नग्ना वसनकारिणः । श्मशानवनमध्यस्था याचन्ते स्थानमात्मनः ॥२६॥
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रुदन्तश्च वियोगाय क्लेशाय मलिनाम्बरः ।। गायन्तश्च हसन्तश्च कथयन्ति महोत्सवम् ॥२७॥ पुत्रप्रदाः फलकराः शुमदाश्च पयाकराः । स्वप्ने यद्यत्प्रयच्छन्ति तत्तल्लाभं विनिदिशेत् ।२८।। कथयन्ति च यद्वाक्यं पितरस्तन चान्यथा । तृष्णातुरजलाकाङ्क्षा मुक्तकेशाः क्षयङ्कराः ॥२६.! मुण्डिता दीक्षिताश्चैव कथयन्ति कुलक्षयम् । लिङ्गिना स्वस्ववेषाढया निष्पापाः शान्तमूर्तयः ॥३०॥ शुभचेष्टाः शुभाकाराः शुभं यच्छन्ति देहिनाम् । मुनयो गौतमाया ये ते दृष्टाः सत्फलप्रदाः ॥३१॥ पुनः पुनः स्वप्नदृष्टाः स्वस्वदेवप्रसाददाः । ऋरास्तद्देवकोपाय शामा दारिद्र यमचकाः । ३२।। अन्यान्यवेषाः प्रभ्रष्टा गीतनृत्यम्मितान्विताः । दुर्भाषणाच दुःशीला न शुभाः कापि लिङ्गिनः ॥३३॥ द्विजास्तु लिङ्गिवद् ज्ञेयाः सुभाषा वेषशालिनः । मुण्डितत्वं जटालत्वं त्वशुभं च विशेषतः ॥३४।। गावः वीरं सान्त्यस्तु सवत्साश्चातिशोभनाः । आरोग्यं कुलवृद्धिं च भूमिलाभं वदन्त्यमू: ।।३।। दीनाः कृशा भग्नश्मा रुदन्तः कुलनाशदाः । कौसुम्भवेषा मरणं कथयन्ति गवां गणाः ॥३६॥
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S
भिक्षार्थिनः पुण्यज्ञाभं पूर्णपात्रा महाश्रियम् । आशीमुखा वंशवृद्धिं कथयन्त्येव लिङ्गिनः || ३७ | मृता धृतव्रणाश्विनाः पलायनपरायणाः । प्रदिशन्ति वै गावो देशक्षयकुलक्षयो ||३८|| नृपः सिंहासनासीन —— श्छत्रवस्त्रोपशोभितः । सभूषणो हयारूढो रथेभनरवाहनः ॥३६॥ सुवाक् शस्त्रकरश्चैव स्वप्ने दृष्टो महार्थदः । पूर्वोक्ताद्विपरीतस्तु दुःखशोकप्रदो नृणाम् ||४० ॥ दण्डभृन्मरणं दत्ते दारिद्रयं पादचारगः । नृपः यस्य समासेन स्थापनं कुरुते मुदा ॥४१॥ स्वप्ने तस्य विनिर्देश्यं राज्यं वा स्वर्गमेव च । देवाः प्रवजिता विप्रा गावः पितर एव वा ॥ ४२ ॥ नृपाः स्वप्ने वदन्त्यत्र यत्तत्सत्यं न संशयः । मलमूत्रवातपित्त - श्लेष्म रोगप्रकोपतः ॥४३॥ एतेषां दर्शनं भाषा निष्फलाचिन्तनादपि । इत्येतदैवतं स्वप्नं द्विजलिङ्ग्यादिभेदतः
।
||४४||
इति रुद्रपल्लीयगच्छे श्रीवर्धमानसूरिकृते स्वप्नप्रदीपेस्वात्मावबोधजस्वप्नाधिकारे देवतस्वप्नविचाररूपः प्रथम उद्योतः ||१||
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सिंहरत्नोघगिरयो
पुरीषसमत्स्याश्च
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॥ अथ द्वासप्ततिमहास्वप्न विचारो द्वितीयोद्योतः ॥
धातुप्रकोपजः स्वप्न - चिन्तास्वप्नश्च निष्फलः । व्याख्यानमेतयोर्लोके निष्फलत्वान्न कथ्यते || १ || आत्मावबोधजः स्वप्नः क्रमाद्वयाक्रियतेऽधुना । स्वदेहपर देहादि - चेष्टाभिः सोऽप्यनेकधा ॥२॥ द्वासप्ततिमहास्वप्ना व्यतिरिक्ताश्च देहतः । तेषां त्रिंशच्छुभफलाः शेषा दुष्टफलाः पुनः ॥३॥ अन् बुद्धो हरिः शम्भु ब्रह्मा गुह्यविनायकौ । लक्ष्मीगौरी नृपो हस्ती गौपः शशिभास्करौ ||४||
विमान गेहज्वलनाः
स्रगम्बुधिसरोवराः T ध्वजः पूर्णघटस्तथा ।।५।।
1
कल्पद्रु सफलद्रुमाः
इति त्रिंशच्छुभाः स्वप्ना दृष्टाः सत्फलदायकाः ||६|| सर्वे दृष्टा राज्यकरा ऊना भूरिधनप्रदाः । एकं द्वयं त्रयं चापि दृष्टवंशानुसारतः ॥७॥ राजमान्यधनप्राप्ति - विद्यालाभकरं परम् । एषाञ्चैव करारोहो धनपुत्रादिलाभदः एपामारोहणं चैव स्वस्वराज्यपदप्रदम् 1 एषां स्वदेहे विशनं राज्यभोगप्रदायकम् ॥६॥
||८॥
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एषां देहे प्रवेशस्तु शोकदुःखादिकारकः । स्त्रीणां गर्भसमावेश एतेष्वन्यतमस्य च ||१०|| प्रवेशो जठरे तस्याः पुत्रस्य पदमुत्तमम् । चतुर्दशानामेतेभ्यः स्वप्ने मुखप्रवेशतः ॥११॥ स्त्रीणामर्हचक्रिणोश्च जन्मसारस्य सूचकम् । सप्तानां वासुदेवस्य चतुर्णा सात्विकस्य च ॥१२॥ द्वयोमहानरे द्रस्ये--कस्य स्यान्मण्डलेशितुः । नृणां राज्यप्रदा ज्ञेया अल्पाल्पधनदायकाः ॥१३॥ एते त्रिंशन्महास्वप्ना व्यतिरिक्ताश्च देहतः। शुभाः शुभफलाः श्रेष्ठाः प्राणिनां हर्षदायकाः ||१४|| द्विचत्वारिंशदधुना दुःस्वप्ना देहवर्जिताः । महापापा महाघोरा दुःखदा शोकदा नृणाम् ॥१५॥ गन्धर्वा राक्षसा भूताः पिशाचाश्चापि वुकसाः । महिषा हि प्लवङ्गाश्च कण्टकद्रुनदीगणः ॥१६।। खर्जश्मशानदासेराः खरमार्जारकुक्कुराः । दारिद्र थकूपसङ्गीत-नीचब्राह्मणभूतयः ॥१७॥ अस्थिच्छदितमाकुस्त्री--चर्मरक्ताश्मवामनाः । कलहो विकृता दृष्टि: शोषश्चापि माम्भसाम् ॥१८॥ भूकम्पग्रहरागौ च निर्घातो भङ्ग एव च । पृथिवीमजनं चैव ताराणां पतनं तथा ॥१६॥
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चंद्रसूर्यादिविस्फोटो महावायुर्महातपः । दुर्वाक्यानि द्विचत्वारिं--शदु स्वप्नाः प्रकीर्तिताः ॥२०॥ दर्शनं स्पर्शनं चैषां प्रवेशारोहसङ्गमाः । आगमः श्रवणं चैव खदेहे विशनं तथा ॥२१॥ देशे ग्रामे स्थितिश्वैषां महाकष्टप्रदायिनी । महारोगमहादुःख--महापापकरा अमी ॥२२॥ स्त्रीणां वैधव्यजनका नृपाणां राज्यभङ्गदाः । देशस्य नाशकर्तागे मुनेर्धर्मक्षयङ्कराः ॥२३॥ अन्येषां पतनायैव देहाद्र वंशात्पदादपि । मृत्यवे कापि जायन्ते प्रध्वंसाय निरन्तरम् ॥२४॥ इति द्वासप्ततिस्वप्ना निजदेहाद्वहिर्गताः । व्याख्यातं फलमेतेषां पूर्वशास्त्रानुसारतः ॥२५॥ नरा विहङ्गास्तियचो वस्तून्यन्यानि यानि च । स्वप्ने शुभानि भद्राय विपरीतानि चान्यथा ॥२६॥
इति रुद्रपल्लीयमच्छे श्रीवर्धमानसूरिकृते स्वप्नप्रदीपे स्वात्मावबोधजस्वप्नाधिकारे द्वासप्त तिमहास्वप्नविचारो द्वितीयोद्योतः समाप्तः ॥ २ ॥
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॥ अथ शुभस्वप्नविचारस्तृतीयोद्योतः ।। ये स्वदेहबहिर्भता-स्तेऽत्र स्वप्ना निदर्शिताः। स्वदेहपरदेहाभ्यां दर्श्यन्ते सङ्गताः परे ॥१॥ पूर्व शुभाः प्रदयन्ते-ऽप्यशुभास्तदनन्तरम् ।। स्वप्नानन्तरकतव्यं वक्ष्यामश्च ततः परम् . ॥२॥ गजारोहे प्रभुत्वं स्या--द्धमों गोवृषरोहणे । गवा रोहे महीप्राप्तिः शैलारोहे महोन्नतिः ॥३॥ कुलवृद्धिदुमागेहे प्रासादारोहणे धनम् । प्रभुत्वं तुरगारोहे श्वेतं श्रेष्ठं परे परम् ॥४॥ हंसारोहे महाकीर्तिः सिंहारोहे महावलम् । धनं स्यात्पुरुषारोहे बेडारोहेऽप्यरोगताम् ॥५॥ मन्त्रित्वं वाहनारोहे पद्मारोहे श्रियां ततिः । पाल्यारोहे स्वामिसेवा महिलारोहणे शुभम् ॥६॥ स्वस्य स्वस्यैव हि फलं परस्य परदर्शने । द्रव्यलाभे परं द्रव्यं फललामे सुतोद्गमः ॥७॥ तुरङ्गलामे स्वामित्वं गजलामे च राज्यता । श्रीलामे च महालक्ष्मी-गोलाभे भूमिमता ॥८॥ प्रतापो वह्निलामे तु दीपलामे चिदात्मता। धर्मः स्याद् वृषलाभे तु पक्षिलामे सुभोगता ।।।
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१०
द्रविणं मांसलामे तु प्रमोदो मद्यलाभतः । घृतमीनादिलामे तु भवेद् गृहमहोत्सवः ॥१०॥ उपानही पादुकानां छत्रवाहनयोरपि खड्गस्य लाभे निर्देश्यं निश्चयात् स्वजनं नृणाम् ॥ ११ ॥ कुर्कुटीवडवाक्रौञ्ची -- महिषीणां च लाभतः । पक्षिणानां च जायेत स्त्रीलाभो नात्र संशयः ॥ १२ ॥ शस्यलाभे विवाहः स्यात् प्रीतिस्तम्बूललामतः । वस्त्रलाभे च सन्मानं पदं दुग्धस्य लाभतः ॥१३॥ मञ्जिष्ठादिद्रव्यलाभे स्वजनैः प्रीतिरुत्तमा । शृङ्गारचापरादीनां लाभे सिंहासनस्य च ॥ १४ ॥ सौभाग्यमायुरारोग्यं राज्यं चैव विनिर्दिशेत् । सिद्धिः स्यान्मन्त्रलाभे तु धान्य लाभे धनं घनम् ||१५|| महत्त्वं रत्नलाभे तु प्रभुता नरलाभतः । इत्यादिशुभवस्तूनां लाभः सर्वसुखावहः ॥१६॥ क्षीरानभोजने विद्या यशस्तु दधिभोजने । पञ्चगव्याशने कल्यं सर्पिषो भोजने जयः ॥ १७॥ नरमांसाशने लक्ष्मी -- नृपत्वं नृशिरोऽशने । शेषमांसाशने द्रव्य - मामे पक्के सुखं पुनः ॥ १८ ॥ तिलमापखलान् मुक्त्वा शेषान्नस्याशने धनम् । मद्यपाने महालाभो जलपानेऽप्यरोगता ॥१६॥
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११
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॥२२॥
।
शुभम् ॥ २३ ॥
I
फलादिखादने नृणा - मचिन्तितधनागमः । नृखादने महीशस्त्रं पुण्यं स्याद्धिमखादने ॥ २० ॥ पीनश्वेताहतिभृतो नार्या आलिङ्गनं शुभम् । सुहृदालिङ्गनं श्रेष्टं नृपालिङ्गनमिष्टदम् ॥२१॥ आलिङ्गनं जीवतां च तैस्तैः प्रीतिकरं परम् । लेपश्चन्दनविण्मूत्र -- दग्नामधिकलाभदः अगम्यागमनं श्लाध्यं विना शुकविरेचनैः मलिनास्वरतं विद्यात् सर्व स्त्रीसुरतं चुम्बनालिङ्गनरत - स्तनमर्दन कर्म --स्तनमर्दन कर्म यत् तन्नृर्णा शुभदं स्त्रीभि- यदि क्षरति नो बलम् ॥२४॥ देवीप्रसादजनकं लक्ष्मीवृद्धिसुखप्रदम् 1 बीजभ्रशं विना नारी - स्पर्शनालिङ्गनादिकम् ॥ २५॥ देहे नारीप्रवेशस्तु महाश्रीराज्यदायकः । पुष्पवृष्टिः पुष्पलाभः स्वर्णवस्त्रादिवर्पणम् ॥ २६ ॥ तत्र देहे स्वदेहे च सुखवृद्धिकरं परम् । देहस्य ज्वलने सौख्यं शय्यादिज्वलने तथा गृहस्य ज्वलने लक्ष्मी-ग्रमदाहे तटीशिता । ज्वलने सर्वदेशस्य महाराज्यं विनिर्दिशेत ॥ २८ ॥ वस्त्राणि चालयन्नृणामृण मुक्ति विनिर्दिशेत् । हस्तयोः चालने भोगान् पादशौचे च पूज्यताम् ॥ २६ ॥
॥२७॥
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१२
परस्त्रीणां च सम्भोगे तेषां लक्ष्मीविकर्षणम् । महिष्यश्वीगा भोगे ध्रुवमारोग्यता दिशेत् ॥३०॥ नाभौ वल्लीद्रुमादीनां प्ररोहे राज्यमुत्तमम् । अन्त्राणां वेष्टनं दंगे तदीशत्वप्रकाशकम् ॥३१॥ सर्पदंशाकरे लाभः साहस्रो दशमे दिने । श्वेतसर्पस्य भृङ्गस्य भ्रमर्या वृश्चिकस्य च ॥३२॥ जलौकसो गजाध्वंसः स महालाभहेतवे । रज्जूभिनिगडैबन्धो विवाहः सुतकारकः ॥३३॥ मरणं स्वायुषो वृद्धय महासन्मानलाभदम् । शूलारोहो राज्यदायी चर्मप्रावरणाद्धनम् ॥३४॥ शास्त्रपाठो विवेकाय भक्ष्यपाकश्च लाभदः । घते वादे रणे चैव जयो विजयते ध्रुवम् ॥३५॥ राज्यं च शिरसो भेदा-त्सप्तधातुवधात् त्रिधा । गोशृङ्गतारासूर्येन्दु-श्रतकीलालपानतः ॥३६॥ नाभेजलोद्भवाच्चैव ध्वजालिङ्गनतस्तथा । सिंहसपव्याघ्रघाता-मणिपात्रे च भोजनात् ।।३७।। गिरिद्रुमोन्मूलनाच्च राज्यमेव विनिर्दिशेत् । स्वाङ्गकर्तनतः सौख्यं दर्पणस्यापि लाभतः ॥३८॥ मुद्रावीणास्रजो लाभात् पृष्ठमानी समागमम् । पातात प्रतोलीदुर्गादे-निभयत्वं चिरं भवेत् ॥३॥
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कूपादिलङ्घनालाभः कोऽप्यचिन्त्यः प्रजायते । तारासूर्येन्दुसंस्पर्शे महत्त्वं महदादिशेत् ॥४॥ यदुक्तमेषां मध्ये तु जागरे दुःखसंश्रयम् । तच्छुभं शेषमशुभं स्वप्ने प्रोक्तं विचक्षणैः ॥४१॥ शुभमप्यशुभं यच्च स्वप्ने कथितमुसमैः । तत्तथा शेषमादिष्टं निंद्यं निद्यं शुभं शुभम् ॥४२॥ इति रुद्रपल्लीयगच्छे श्रीवर्धमानसूरिकृते स्वप्नप्रदोपे स्वात्मावबोधजस्वप्नाधिकारे शुभस्वप्नविचार
स्तृतीय उद्योतः समाप्तः ।। ३ ।। ।। अथ अशुभस्वप्नविचारश्चतुर्थ उद्योतः ।। अथ दुःस्वप्नजफलं यथाशास्त्रं प्रकाश्यते । रोगचिन्तायभावेन जायते तस्य निश्चयः ॥१॥ सङ्गीते निश्चयाच्छोको हास्ये वैलक्ष्यमञ्जसा । नृत्ये कुलस्य पीडा च रोगः स्यादेहभूषणे ॥२॥ रक्तगन्धः स्रगासङ्गे मरणं वा महागदः । मागर्भप्रवेशे तु सङ्कट महदादिशेत् ॥३॥ नखकेशश्मश्रुवृद्धौ ऋणरोगौ न संशयः । यावन्न मुण्डनस्वप्नः पुनरेव हि जायते ॥४॥ नाभेरन्यत्र दुर्वाद्र-प्ररोहे न शुभं कचित् । पक्षिनीडो निजे देहे ध्रुवं दारिद्रयकारकः ॥५॥
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प्रासादगृहवृक्षाद्रि-भृगुपातात्कुल क्षयः। यशोधनक्षयं विन्या-देतेभ्योऽप्यवरोहतः ॥६॥ सङ्क्लेशः स्याद् घृतपासे सङ्कटं जलमजने । जलस्नाने मुण्डने च हानिरेव सुनिश्चिता ॥७॥ तैलाभ्यङ्गे महारोगो, दुर्बुद्धिस्तैलपानतः । पाषाणक्षीरकटुक-तिलभक्षणतो मृतिः ॥८॥ अङ्गारास्थिगुडानां च भक्षणे स्यादरिद्रता । मालिन्यं मलिने वस्त्रे नग्ने वै दुःखिता ध्रुवम् ॥६॥ पिष्टपवादिकलेंपै-दुष्कर्मकरणं भवेत् । परस्य शरणप्राप्तौ निर्देष्टव्यं महाभयम् ॥१०॥ दहने मूत्रणे छदौं रोगोत्पत्तिलघीयसी । शिरच्छेदे पदभ्रशो पाहुच्छेदेऽप्यवीर्यता ॥११॥ शस्त्रस्य देहविशने विज्ञेयं वैरिणश्छलम् । देहे वा व्यसने वापि छत्रे वा वाहनेऽपि वा ॥१२॥ कज्जलादिप्रलेपेन महामालिन्यमादिशेत । छत्रभङ्गे भूमिकम्पे निर्घाते ग्रहणेऽपि च ॥१३॥ दिग्दाहे स्वप्नसम्भूते पृथिव्यां स्यादुपद्रवः । दुर्भिक्षमनुज्वलने विपद्वाहनभङ्गतः ॥१४॥ कृष्णं कृष्णपरीवारं लोहदण्डधरं नरम् । यदा स्वप्ने निरीक्षेत मृत्युर्मासस्त्रिभिस्तथा ॥१५॥
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स्वप्ने मुण्डितमभ्यक्तं क्तिगन्धं स्रगम्बरम् । यदा स्वप्नं निरीक्षेत मृत्युर्मासै स्त्रिभिस्तदा ॥१६॥ स्वप्ने स्वं भक्षयमाणं श्व-गृध्रकाकनिशाचरैः। उह्यमाणं खरोष्ट्राधे-र्यदा पश्येत्तदा मृतिः ॥१७॥ छदिमूत्रं पुरीषं वा सुवर्णरजतानि वा । स्वप्ने पश्येद्यदि तदा मासानव जीवति ॥१८॥ शस्त्रघाते व्रणोत्पत्ति--दौस्थ्यं वस्त्रे पटचरे । मृतिम तालिङ्गने च दुःखं दुवृषदर्शने ॥१६॥ कवचादिपरीधाने विकारी रक्तसम्भवः । कुशेन्धनादिसम्प्राप्तौ रोगे मृत्युः स्ववेश्मनि ॥२०॥ सर्पवृश्चिकखजूरैः प्रविष्टः कस्य नाशिके । ध्रुवं भवेत्तयोश्छेदो बन्धनं सर्पवेष्टनैः ॥२१॥ स्तम्भभङ्गे मुख्यमृत्यु-गृहपाते कुलक्षयः । महापृष्टौ महातापो दहने हिमपातनम् ॥२२॥ महानद्यादिपूरे च परचक्रे निजं भयम् । गिरिगे परचक्र' तु वृक्षशोषेऽप्यवर्षणम् ॥२३॥ अङ्गारसर्पपाषाण-रजोरक्तादिवृष्टितः । तत्र देशे विजानीयाद् दुर्भिक्षं राजविड्म्वरम् ॥२४॥ अशुभैः शकुनैः सर्वै स्वप्ने दृष्टै महीस्पृशाम् । यत्प्रत्यक्षैः फलं शास्त्रे तदेव फलमादिशेत् ॥२५॥
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दुःखं विदेशगमने राजदण्डे दरिद्रता । नीचकर्मादिकरणे किश्चिद् दुःखं स्वकर्मजम् ॥२६॥ वल्मीकारोहणेक्ष्वेण्डभयं नियतमादिशेत् । रक्तस्य पतने हानिः श्रीनाशो मलवान्तितः ।।२७।। भक्ष्ये श्वाने(शनि) शृगाले च वानसे वानरेऽपि च । स्वप्ने शय्यां समायाते रोगो मृत्युश्च संकटम् ॥२८॥ रक्षोवतालभृतेषु देशय्यागतेषु च । आपन्मरणमादेश्यं छिद्र सूर्यभूवोमृतिः ॥२६।। नेत्रश्रवणयो शे मनोमोहा प्रजायते । विवरादिप्रवेशश्च निधिलामोज्झितोऽशुभः ॥३०॥ मुद्रावजितताम्रायः-सीसवंगादिलाभतः व्ययसायस्य नैष्फल्यं स्वप्ने कथितमुत्तमै ॥३१॥ रोगोत्पत्तौ मनोदुःखं नखनाशे दरिद्रता । शिरोवस्त्रादिपतने भवेदरिपराभव: ॥३२॥ अथान्यधातनास्पापं कार्यभङ्गः स्वपातनात् । देहे शल्यप्रवेशे तु शुलं नाडीव्रणं दिशेत् ॥३३॥ कौलीनं निष्फले चौर्य रोगोऽप्यङ्गारभक्षणे । मृतकादिसमाकर्षे भवेद्मणादिघातनम् ॥३४॥ काष्ठमारे समानीते गृहदाहो न संशयः । इत्याद्यशुभदाः स्वप्ना विबुधैः परिकीर्तिताः ॥३॥
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१७
शकुनानि समस्तानि स्वप्ने दृष्टानि मानवैः । शुभानि स्युः सुखदानि दुःखदान्यशुभानि तु ॥३६॥ वाचामगोचरं यत्स्या-दचिन्त्यं यन्मनोरथैः । पूर्वपूर्व भवाभ्यस्तं दृश्यते स्वप्नगं हि यत् ॥३७।। चिन्ताप्रकोपाद्यभावे यत्स्वप्नं दृश्यते नरैः। तत्सर्व सफलं बुद्ध्या व्याख्येयं शास्त्रधीमता ॥३८॥ अपरः स्वप्नविचारः कथं शास्त्रे निबद्धथते । यावान पूर्व विनिर्दिष्ट-स्तावानवोदितो मया ॥३॥ शेषं शकुनयच्छास्त्र-बुद्धिमादाय बुद्धिमान् । व्याकरोतु यथाबुद्धि यथोचित्याच्छुभाशुभम् ।।४०॥
इति रुद्रपल्लीयगच्छे श्रीवर्धमानसूरिकृते स्वप्नप्रदीपेस्वात्मावबोधजस्वप्नाधिकारेऽशुभस्वप्नविचार
चतुथ उद्योतः समाय: ।।४।। ॥ अथ शुभाशुभविचारः पञ्चम उद्योतः ॥ स्वप्नानन्तरकर्तव्यं कथयामि यथाविधि । किं कर्तव्यं शुभे स्वप्ने विरुद्ध क्रियते च किम् ॥ १॥ प्रकोपचिन्तानिमुक्तः स्वप्नं दृष्ट्वा शुभं नरः । प्रबुद्धो यस्तु जीवेति जय नन्देतिवाङ्मुखः ॥ २॥
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१८
सुखासननिविष्टः सन् स्वप्नस्मरणतत्परः । निजेष्टदेवतामन्त्र--स्तोत्रनामग्रहान्विता ॥३॥ नमोऽस्तु ते जगन्नाथे जगत्स्वामिनि चाम्बिके । प्रयच्छ प्रार्थयामि त्वां स्वप्नस्यामुष्य मे फलम् ॥ ४ ॥ इति वाणी वदन वारं-- वारं शुभकथापरः । नयेद्विभावरी शेषां यावत्सूर्योदयो भवेत् ॥ ५ ॥ मलमूत्रे ह्यनुत्सृज्य दुःश्रवाच्छादितश्वशः । मूर्खाणां कृपणानां च स्त्रीजितानां च पापिनाम्। ६॥ दुर्भाषिणां द्वेषिणां च खलानां गुरुनिन्दिनाम् । मुखान्यपश्यन्तेषां वजेत्स्वप्नमनुस्मरन् ॥ ७ ॥ राजानं स्वामिनं वापि मंत्रिणं बुद्धिशालिनं । गुरु विप्रं लिङ्गिनं च ब्रजेत् स्वप्नार्थवाधिनम् ॥ ८॥ फलं पुष्पं तथा द्रव्यं तस्योगायनतां नयेत् । तं प्रणम्य महाभक्त्या स्वप्नं तस्याग्रतो वदेत ॥६॥ तन्मुखात्तत्फलं श्रुत्वा जय जीवेतिवाग्नरः । पुनः प्रणम्य सत्कारं तस्य कुर्याद्विशेषतः ॥१०॥ स्त्रीणां च मृढबुद्धीनां बालानां पापिनां पुरः । शुभं स्वप्नं न चाख्येयं न श्राव्यं तन्मुखात् फलम् ॥११॥ तथा विलोक्य दुःस्वप्नं पुनः शयनमाचरेत् । अमङ्गलं प्रतिहतं वाचमे वदेत्ततः ॥१२॥
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१६
आख्येयं नैव कस्यापि मलं मूत्रं समुत्सृजेत् । स्नानं दानं जपं होमं विशेषेण समाचरेत् ॥१३॥ उपवासं तद्दिने तु कृत्वा स्वप्नार्थवेदिनः । प्रणम्य तन्मुखात् श्रव्यं स्वप्नशास्त्रं समस्तकम् || १४॥ एतेनैव विधानेन दुःस्वप्नः प्रलयं व्रजेत् । शुभः स्वप्नोद्वितीयस्यां रजन्यां जायते ध्रुवम् ॥ १५ ॥
इति रुद्रपल्लीयगच्छे आचार्यश्री वर्धमानसूरिकृते स्वप्नप्रदीपे स्वात्मावबोधजस्वप्नाधिकारे शुभाशुभस्वप्नविचारे पंचमोद्योत समाप्तः ॥ ५ ॥
॥ इति श्रीस्वप्नप्रदीपः समाप्तः ॥
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॥ अहम् ॥ हालारदेशोद्धारक पूज्याचार्यदेव श्रीविजयामृतसरिभ्यो नमः पूज्याचार्यदेव श्री माणिक्यसूरिवरविरचितः
॥ श्रीशाकुनसारोद्धारः॥
॥ अथ प्रथमं दिक्स्थानप्रकरणम् ॥
उपास्महे परं ज्योति-धोतितान्तरविग्रहम् । यदुद्योताजगत्कृत्स्नं प्रत्यक्षमिव वीक्ष्यते ॥१॥ यस्याः प्रसादादन्योऽपि नीरक्षीरविवेकवान् । हंसोन्नतां तमोहंत्री स्तुवे भागवती गिरम् ॥२॥ बाञ्छितानां प्रदानत्वाद्गुरून् कल्पतरूनिव । शाकुनाख्यं महाज्ञानं किश्चिद्वन्मि समासतः ।।३।। केषांचिद्दर्शनं श्रेष्ठं गमनं कोतनं स्वरः । शकुनानां तथा चेष्टा-भेदा एवमनेकधा ।। ४ ॥ त्रिविधः शकुनः प्रोक्तः क्षेत्रिको जाधिकस्तथा। आकस्मिकस्तृतीयश्च विधा शांतादिभेदतः ॥ ५ ॥ शांते शान्तं भये दीप्तं मित्रं मिश्रेषु कर्मसु । शकुनं फलदं तच व्यत्यये व्यत्ययो भवेत् ।। ६ ॥
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२१
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शान्तं धर्मादिकृत्यं स्यात् परचक्रादिभीतिजम् । दीप्तं वाणिज्यकर्मादि मिश्रं पुनरुदाहृतम् ॥ ७ ॥ ईशानेन्द्री हुताशाख्या दग्धज्वलितधूपिताः । एवं क्रमेण विज्ञेया दिशो दीप्ता मनीषिभिः ॥ ८ ॥ पूर्वाग्नेयी कालकाष्टा वह्निदक्षिणनैऋताः । याम्या नैऋत्यवारुण्यः क्रव्याद्वरुणवायवः ॥ ६॥ वारुणवायु कौबेरी - वायूदीची शिवालयाः 1 कौबेरीशानपूर्वाशा यामैकैकं खेः पुरः ॥ १० ॥ एवं दग्धा दिशो ज्ञेयाः शेषाः शान्ताः शुभे शुभाः । विशेषेण निगद्यन्ते तद्भेदाः शकुनार्णवात् ॥ ११ ॥
|| त्रिभिर्विशेषकं ।
दग्धा प्रज्वलिता धूम्रा मिश्रा नारी सकर्दमाः । भस्माङ्गारवती ज्ञेया दिगीशान्यादितः क्रमात् ॥१२॥ रविः श्रर्यात यामाशां तदा तत्पूर्वतो दिशः । दग्धाद्या रात्रपाश्चात्य - यामार्धाद्गणयेच्च ताः ॥ १३ ॥ उदयास्तो स्थिरं मूल-मस्थिरं सूर्य संक्रमात् । निवासो दक्षिणानाम - प्रमाणं नैऋतं विदुः || १४ || समीरणाख्यं खरक उत्तरा ध्रुवमुच्यते । शेषाः प्रसिद्धनामान - श्राग्नेयीशानपश्चिमाः ॥ १५ ॥ युग्मं ।
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स्थिराणां न शुभो मृले चञ्चलानां पुनः पुनः । उन्मूल्यन्ते बद्धमौला राजवह्निभयादिभिः ॥१६।। गृह्णन्त्युन्मूलिता मूतं मृलोच्छशकुनेरिताम् । निवासजं तु शकुनं शुभस्योद्ध्वं शुभाय तत् ।' १७॥ अशुभोद्धमभव्यं स्यात् सर्वत्रैवं विचारणा । नष्टप्राप्तिझटित्येव विशेषोऽयं निवासजः ॥१८॥ शुभो शुभे दक्षिणस्या-मशुभेष्वशुभः पुनः । यदि मध्ये न रोगी स्या-च्छकुनो रोगिमृत्युदः ॥१६॥ प्रमाणं निःप्रमाणानां प्रमाणः कुरुतेतराम् । ध्रुवे ध्रुवा अध्रुवाः स्यु-निश्चलाश्चपलाः पुनः ॥२०॥ सर्व तात्कालिक कार्य-मादशाहात्प्रसिद्धयति । भग्नं तदूर्व कष्टेन साध्यं मासादनन्तरम् ॥२१॥ निश्चये नैव तजातं ध्रु वे कार्य न भज्यते । यनिष्पन्नं कृतं कर्म तत्तथैव शुभाशुभम् ।।२२॥
॥ त्रिभिर्विशेषकं ॥ गुविलस्य प्रमूढस्य परिणामो न बुध्यते । गच्छतो व्यग्रचित्तस्य कार्यस्य फलमाप्नुयात् ॥२३॥ कार्य कृत्वा निवृत्तस्य सुस्थितस्य ध्रु वोदये । विनश्यत्यथ नो चेद्वा तत्पश्चात्सुखदं न हि ॥२४॥
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हीनं हीनतरं कार्य जायते न हि भज्यते । खरके खरतरं हि स्यात् स्वस्थानां भयदानतः ॥२५॥ उत्खकिकानां खरकः स्थानदो वाऽहरागमे। अप्रयाते गृहं चौरे लोप्नं मार्गेऽपि लभ्यते ॥२६॥ पश्चिमायां विलम्बेन सर्वकार्येषु सिद्धयः । वर्षार्थ शकुनस्तस्यां जागत्यां वृष्टिकारणम् ।।२७।। दक्षिणा पश्चिमा शान्ता सदा दीप्ता तु पावकी । ईशानी शान्तदीप्ता तु मारवे शाकुने मता ॥२८॥ तयोर्दीप्तोऽपि नो दुष्टः सर्वथा किन्तु मध्यमः । दीप्तदीप्सतसे वह्नौ शान्तदीप्तस्तु शाम्भवे ॥२६॥ विद्योत्सवगृहारम्भ-प्रपादेवगृहादिषु । . व्रतोधापनदीक्षादौ शान्त धम्र्येषु कर्मसु ॥३०॥ लाभे सन्देहदोलास्थे परचकागमे भये । युद्धे बन्धे नवे रोगे दीप्तमेवावलोकयेत् ॥३१॥ पोतारोहो भूपसेवा कृषिर्देशान्तरे गतिः । इत्यादिमिश्रकार्याणि मिश्रे सिद्धान्त निश्चितम् ॥३२॥ ध्र वस्य खरकस्यापि मध्ये स्यात्पश्चचारकः । प्रभाते शकुने जाते सन्ध्यार्वाग्लभ्यते फलम् ॥३३॥ सन्ध्यायां शकुने जाते आप्रभातात्फलं भवेत् । वर्षणापि न यत्कार्य सिद्धं तद्दिनसिद्धिदम् ॥३४॥
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२४
वर्षेणापि न यद्भग्नं मन्यते तत्क्षणादपि । एवं विनष्टो जायेत निष्पन्नोऽर्थो विनश्यति ॥३५॥ कार्याय गच्छतां यस्मै पश्चारे शकुनो भवेत् । तत्कार्य सर्वथा भग्नं देवैरपि न मिद्धयति ।।३६।। सर्वथा न विनश्येत् ध्र वे कार्ये फलं ननु । पञ्चारके तु शकुने सर्वथा भग्नमेव तत् ॥३७॥ ब्रह्ममध्यन्दिने दीप्तं तच्छकुनोऽपि तत्फलः । रसातलं तु सन्ध्यायां वदन्ति केचिदप्यदः ॥३८॥ शुभोऽशुभो वा शून्याङ्गे पटिष्टोऽपि वृथा भवेत् । अपटिष्टोऽपि जीवाङ्गे शुभाशुभविधौ पटुः ॥६३।। अल्पेऽल्पं महति प्राज्यं शकुने प्राप्यते फलम् । आदौ मध्येऽवसाने च कार्याणां स विलोक्यते ।।४०॥ निविश्या दक्षिणे भागे संमुखाः शकुनाः शुभाः। विपरीताश्च वामाने प्रवासे फलकाक्षिभिः ॥४१।। शुभः प्रागशुभः पश्चा-दशुभः प्राक् ततः शुभः । पाश्चात्यः फलदोऽवश्यं शकुनः सर्वकर्मसु ॥४२॥ नार्याख्या दक्षिणाः श्रेष्ठाः शिवादुर्गाविवर्जिताः। नराह्वयाः शुभा वामा वृद्धतित्तिरमन्तरा ॥४३॥ ग्रामे वन्यो भयं दत्ते ग्राम्यो वन्ये त्वनर्थदः। रात्रिश्चरो दिवा वन्ध्यो-ऽहश्चरो विफलो निशि । ४४॥
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प्राणायामाष्टकं कुर्या-दाद्ये द्विगुणितं द्वये । तृतीये शकुनाभावे तदिने शकुनं न हि ॥४५।। शकुनोबली क्रोशान्तः क्रोशाङ्घ तु निष्फला । न जातः सर्वथा यस्तु स स्यात्प्रोषितमृत्यवे ॥४६॥ शकुनः शकुनं दत्वा दीप्तां यदि दिशं व्रजेत् । तदा तस्यैव पश्चत्वं तत्फलं पथिकस्य न ।।४७। समकालं सजातीया वामदक्षिणराविणः । शकुनास्तोरणाख्यास्ते सिद्धिं कुयु गमागमे ॥४८॥ आसन्ने फलमासन्नं दाजे दूरगं फलम् । मिश्रं मिश्रे तु शकुने फलमाहुर्मनीषिणः ॥४६॥ गृहमित्तिवप्रवाघ्या-द्यन्तरे शकुनो भवेत् । दृश्यते चेदर्धफल-मदृष्टमफलं विदुः ॥५०॥ रुगातः क्षुधितो भीतो बननीडादिसङ्गवान् । नो ग्रायः शकुनः सीमा-शैलाद्यन्तरितः शिशुः ॥५१॥ स्पष्टचेष्टः पटुः श्वाऽपि निर्भीको निकटस्थितः। सर्वार्थसिद्धये ग्राह्यः शकुन: स्पष्टदर्शनः ॥५२॥ इत्याचार्यश्रीमाणिक्यसूरि विरचिते शाकुनसारोद्धारे
दिग्रस्थानप्रकरणं प्रथमम् ।।१।।
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॥ श्रय द्वितीयं ग्राम्यतित्तिरिपकरणम् ।।
मनोवायोगनुकूल्ये ग्राम्ये च शकुने शुभे । यात्रा कार्या वदाम्यादौ ग्राम्यानारण्यकांस्तथा ॥५३॥ नव्यं सिंहासनं यातुः सम्मुखं कार्यसिद्धये । जीणं तदल्पलाभाय त्रिपादो मचिकाधमा ॥५४॥ भृङ्गारयुगलं यात्रा-कालेऽमिमुखमुत्तमम् । तदेव निष्फलं भग्न--मुझंगाय पयोभृतम् ॥५॥ फलपुष्पाज्यसङ्कीणं विशेषफलदायकम् । दधिपानीयसंपूर्ण श्रेयसे कुङ्कुमोदकैः ॥५६॥ पूरितं कटके यातु--तकद्वयवसायिनः । लाभं विशेषवृद्धिं च रक्तचन्दनसंकुलम् ॥५॥ सुखकृचन्दनव्याप्त--मृद्धिवृद्धिकरं पुनः । मिश्रं मिश्रफलं पुत्र-लाभदं केवलं भवेत् ॥८॥
चतुर्भिः कलापकं ॥ अञ्जनमञ्जनपात्रे शुभं नो कपैरादिषु । मषी हानिकरी हस्ते विक्रतुस्त्वन्यथा शुभा ॥५॥ अचित्रिता चित्रितापि खट्वा कल्याणसम्पदे । मञ्चकः सिन्दुरीस्यूतोऽशुभः शीर्षे विशेषतः ॥६॥
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खट्वाङ्गान्यपलीहीशाः सम्मुखानि फलं क्रमात् । शिरोऽर्तिचरणव्याधि-तुदपीडाप्रदानि तु ॥६१॥ संमुखा मृत्तिका गौरा शुभदा कृष्णमृत्तिका । तुच्छलामा कर्कराठ्या रजः सर्वत्र गर्हितम् ॥२॥ सर्व सजीकृतं शस्त्रं श्रेष्ठं शौनिकर्तिका । केशकर्तनमुख्यानि नापितास्त्राणि वर्जयेत् ॥६३॥ शाकपात्रं शुभं सर्व-माकलिंगवर्जितम् । घृतं दृष्टं श्रुतं श्रेष्ट तैलं द्वधापि कुत्सितम् ॥६॥ संपूर्णफलदं मत्स्य-द्वयं रहव उत्तमाः । एकस्तुच्छफलः शुल्क-मत्स्यो विफलदर्शनः ॥६॥ दीपोऽभिमुखः प्रथम-रात्रौ वांछितदायकः । निशाशेषे पुनस्तुच्छों-गनार्थे दीपिका शुभा ॥६६॥ दारुभागेऽनर्थदायी दीप्तेऽप्याद्रो न शोभनः । दुग्धं सर्वाधर्म वीणा तंत्रिका च शुभा भवेत् ॥६७॥ शद्रहस्तेऽर्धफलदा विप्रहस्ते तु शोभना । म्लेच्छहस्तगता वीणा विफलाकर्णिता शुभा ॥६॥ संमुखीनं शुभं वाद्यं मिलातोयं तु वर्जितम् । तुर्य पुनः श्रुतं दृष्टं शुभाशुभफलोदयम् ॥६६॥ सूर्यवंश्यानि कमला-न्येकद्वित्रिबहूनि वा । दिने कुशलकारीणि निशायामफलानि तु ॥७॥
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२८
दिवसे च सोमवंश्या- न्यर्धे न निशि सर्वतः । मूढकः शकटा रूढोऽभिमुखो भोगवित्तदः ॥ ७१ ॥ आदर्शोऽभिमुखः श्रेष्ठो वक्त्रं तत्र विलोक्यते । नेचते यदि तत्रास्यं मृतिघातादिभीस्तदा ॥ ७२ ॥ संमुखा रोचना भव्या लतां विषलतां विना | पुष्पजातिः समग्रापि रक्तपुष्पं विना शुभा ॥ ७३ ॥ विशेषादग्रथितं पुष्पं सकामार्थदं पथि । Rareerद्वयं भव्यं पट्ये कोपरि लाभदा ॥ ७४ ॥ सैव चिन्ताप्रदा मध्ये एकं वस्त्रमशोभनम् । बहूनि बहुलाभाय तच्च सम्मदितं शुभम् ॥७५॥ तदेवाशोभनं धौतं प्रत्यक्षोद्वेगहेतवे । तूलिकाभिमुखा श्रेष्ठा सा निन्द्या निन्द्यहस्तगा ॥७६॥ कर्णादिभूषणं स्त्रीणां देवाभरणमुत्तमम् । प्रधानधातु निष्पन तुच्छं काच विनिर्मितम् ॥ ७७ ॥ पित्तलत्रपुताम्रादि-निर्मितं न हितं भवेत् । सोद्वेगलाभदं ताम्रा - भरणं कैश्चित्कीर्यते ॥ ७८ ॥ घटितो वाप्यघटितः शुभो धातुः शुभप्रदः । हानि कुत्कुत्सितो धातु-लहं सर्वाधमं द्विधा ॥ ७६ ॥ शुभधातुभवा देव मूर्तिर्भव्या परा न हि । पन्मृतिरपि श्रेष्ठा पूज: हल्पफला परा ॥ ८० ॥
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२६
स्त्रियो हस्तगतं वन्धं छगणं धेनुज पुनः । नृशीर्षे वंशपात्रस्थं तुच्छं माहिषमर्त्तिदम् १८१॥ ध्वजा सदण्डा रुचिरा कृष्णनीलाम्बरोद्भवा । अभव्या कथिता कैश्चित् प्रवेशे गमनेऽपि सा ॥२॥ कुमारी कृतशृङ्गारा शुभा रोदनवजिता । मुक्तकेशौ नरौ नारी नग्नाभ्यक्ता च निन्दिता ॥३॥ अथ कुमार्यो द्वे तिस्रो बढयो वा खेलनादिकाः । विदधानाः शुभाश्चेष्टाः शुभाः स्युव्यत्ययेऽन्यथा ॥७॥ कुलस्त्री सर्वथा श्रेष्ठा सशृङ्गारा समत् का । दुश्वारिणी प्रसिद्धा च सगर्भा निंदिताङ्गना ॥८॥ दध्ना सुसम्भृतं भाण्डं शुभं ज्ञेयं च सर्वदा । हस्ताद्धस्तं विचटितं चन्दनं चित्तनन्दनम् ॥८६॥ तदेव देवतादेहा-दुत्तीर्णमफलं पुनः । दूर्वाङ्कुराणि शस्यानि मूलोरखातानि नो पुनः॥८७॥ मस्तके शकटे वापि हरितं शुभदं नृणाम् । तदेव निष्फलं शुष्कं मृत्यवे खलदर्शनम् ॥८॥ कुञ्जरः सम्मुखो भव्यः परं मत्तो निरङ्कुशः । अनर्थ कुरुते घोरं कार्यभङ्गाय जायते ॥८६॥ वनहस्ती प्रतिगज-त्रासितोऽभिमुखोऽशुभः। लीलाविहारी शुभदो हय आकर्णितः शुभः ।।१०॥
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३०
॥६३॥
दृष्टो विशेषलाभाय सपर्याणः पदाप्तये । विफलो घोटकस्त्रस्तो निन्द्यश्वारूढपाण्डवः ॥६॥ चतस्वामिकोऽश्वः स्याश्चित्तचिन्तितसिद्धये । farai सुरतक्रीडा दृष्टादौ भोगलब्धये ॥ ६२॥ दम्पत्योः सुरतं दृष्ट राज्यादिपदलाभदम् । तदेव विफलं प्रान्ते गतबीजं द्वयोरपि सद्यः प्रसूता सुरभी सवत्सा कामधेनुवत् । हीनाङ्गाल्पफला सापि वृष एकः सदा शुभः ॥६४॥ किं पुना रश्मिना बद्धौ वृषौ द्वौ सम्मुखौ यदि । तयोमध्ये मयेदेको यद्यग्रे शुभदौ तदा 11211 तौ समौ तुच्छलाभाया - थैकोऽग्रे पृष्ठगः पुरः I रश्मिहस्तो नरो मध्ये भङ्क्त्वा कार्य तु सिद्धिदौ ॥६६॥ ग्लानार्थे मृत्युदं मांसं रश्मिवद्धो वृषो यथा 1 शब्दमाद्यः परोऽप्येष गृह्यते यमकिङ्करैः ॥६७॥ सम्मुख सिद्धये मद्य - वारूणी किन्तु हस्तगा । उन्मत्तस्य विकलस्य सापि तुच्छफलोदया ॥६८॥ सर्वेषां वन्यजीवानां मांसं कार्यकरं मतम् I तुच्छं शशकमसिं च सर्पमांसं च दुःखदम् ||६|| मांसं जलजजीवानां कुरुचिल्ल विना शुभम् । अजामांसं सदा श्रेष्टं खुरशीर्ष वहिः कृतम् ॥ १०० ॥
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३१
चामरे श्रीकरी छत्रं वरेण्यानि प्रवासिनः । भग्नदण्डान्यनिष्टानि स्वामिशीस्थितानि च ॥१॥ अक्षता यवगोधूमा-स्तण्डलाच युगन्धरी । धान्यानि कार्यकारीणि मुद्गा माषाश्च निंदिताः ॥२॥ तिला द्रव्यापहाराय वल्लाढक्योऽतिमध्यमाः । कामुख्यं तुषान्नं च तुच्छलाभाय सम्मुखम् ॥३॥ पिष्टान्नमशुभं सर्व भ्रष्टं धान्यं न सिद्धये ।। सिद्धमन्नं सर्वसिद्धथै कथितं . कष्टहेतवे ॥४॥ शीर्षस्थः शकटस्थोऽपि कार्यभङ्गाय कण्टकः । शाड्वलः सोऽपि लाभाय केचिदेवं विदुबुधाः॥५॥ श्रुतो दृष्टोऽथ भूपालो-ऽनर्थसाथ निकृन्तति । सोऽप्यश्वहत एकाकी प्रत्युतानर्थदायकः ॥६॥ सर्वः कोऽप्यात्मविद्वेषी विरुद्धो ब्राह्मणः पुनः।। कृतभोज्योऽथ गृहीत-निर्वापः शुभदो भवेत् ॥७॥ नान्यथा सम्मुखायातं कारयेन्मन्त्र पावनम् । ब्राह्मणाः पाठितो मन्त्रं दुरितं हन्ति यायिनाम् ॥८॥ दर्शनं श्वेतभिक्षणां सर्वोत्तमफलप्रदम् । किंपुनः मूरिसंयुक्तं राजयोगोऽयमुत्तमः ॥६॥ न केवलं मयैवोक्तं श्रीव्यासेनापि भाषितम । शकुनार्णवेऽपि निर्णीतं शुभं निर्ग्रन्थदर्शनम् ॥१०॥
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३२
श्रमणस्तुरगो राजा मयूरः कुञ्जरो वृषः । प्रस्थाने वा प्रवेशे वा सर्वसिद्धिकरः स्मृतः ॥ ११ ॥ भट्टः कल्याणमुखो वेदमुखो ब्राह्मणस्तथा (शस्तः) । श्वेताम्बरः सभितो राज्याय वदन्ति शकुनज्ञाः ॥ १२ ॥ शकुन सप्तत्यां भारतोक्तंरथमारुत पार्थ गाण्डीवस्त्रं करे कुरु । निर्जितां मेदिनीं मन्ये निर्ग्रन्थो यदि सम्मुखः ||१३|| अथ शकुनार्णवोकं -
पद्मिनीराजहंसाच निर्ग्रन्थाश्च तपोधनाः । यं देशमनुसर्पन्ति तत्र देशे शिवं वदेत् ॥ १४ ॥ भट्टारकजटिचिन्ता-यकोऽशस्यस्तु सर्वथा । एकस्तपोधनो भस्मोद्धूलिताङ्गोऽतिदुःखदः || १५॥ बहवो बह्वनर्थाय दृष्टाः स्वप्नेऽपि निन्दिताः । तपस्विनी स्त्री त्रिफला रोगिणो मृत्युदा हि सा ॥ १६ ॥ भृतभिक्षापात्रपाणिः सर्वोऽपि दर्शनीयकः । सम्मुखः कार्यकर्ता च रिक्तोऽनथैपरम्पराम् || १७ । यात्राकाले प्रवेशे च य आत्मनो हितावहः । नरो व कामिनी वापि लाभतेजःसुखप्रदौ ॥ १८ ॥ दृष्टः श्रुतोऽथवा शत्रुः कार्यं हन्ति न केवलम् । किं स्वनर्थाय महते वेश्यास्त्री मङ्गलप्रदा ||१६||
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विवाहे स्थावरार्थे च सन्तानार्थे शुभा न सा । पुत्रपौत्रादिसन्तान-वृद्धय कार्यत्रयं न हि ॥२०॥ विफला सा वयोऽजीता वृद्धय वर्धापनं मतम् । फलानि फलदाणि द्राक्षाम्रादीनि यायिनाम् ॥ २१ ॥ आमानि च वराणि स्युः कष्टाय मध्यमानि तु । पक्कानि फलजातिस्तु शेषाल्पाल्पफला मता ॥ २२ ।। कार्यनाशं विनष्टा सा-प्याम्ला दुःखाय केवलम् । गदिता रिक्तभाण्डं तु कुरुते न फलोइयम् ॥ २३ ॥ नीरस्य घट एकः स्या-त्सम्पूर्ण: पूर्णलाभदः । अर्धपूर्णोऽर्धलाभाय विघटं कामितार्थदम् ॥२४॥ नरशीस्थितं तच्च सर्वसिद्धिनिबन्धनम् व्यङ्गं तदल्पलाभाय रिक्तं भग्नं हितं न तत् ॥ २५ ॥ द्विघटं नैव वन्द्यं स्यात् क्रमान् गत्वा विशेषतः । तावद्भिदिवसास-स्तद्गेहे शोकसम्भवः ॥ २६ ॥ अनतः सङ्गुलं स्थालं भाग्यहीनाः प्रवासिनः । न पश्यन्ति स्त्रियो हस्ते यथान्धा वस्तु सञ्चयम् ॥ २७ ॥ सफलं पुत्रलाभाय दुर्वाश्रीखण्डसंयुक्तम् । साधकं सर्वकार्याणां पात्रमक्षतसकुलम् ॥२८॥ सानर्थलाभदं तच्च व्यङ्ग्यस्त्रीपाणिपङ्कजे । शुभः स्यादशुभः किश्चित् परिणेतु वरो व्रजन् ॥ २६ ॥
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३४
परिणीतो वरः सोऽपि सवधूकस्तु सम्मुखः । भाग्योदयेन महता भवेत्कस्यापि यायिनः ॥३०॥ यानकाले स्वदेहाच्चे-द्वणाद्वा कण्टकादिना । रक्तश्रावो मवेद्यस्य रक्तहानिः प्रजायते ॥३१॥ सभार्यः ससुतः प्रायः सम्मुखः शुभदो नरः । मृतमार्यो दुःखदाता वन्ध्यास्त्री कर्मनिष्फलम् ॥ ३२ ॥ रजस्वला पक्षषटकं स्वजनान्तनु पौकसि ।। चित्ते शङ्कां ददात्येव कार्यासद्धिर्न दृश्यते ॥३३॥ करोत्यनादरं कार्य सदौर्भाग्यापि निन्दिता । मृतसुता कार्यमादौ सफलं विफलं तथा ॥ ३४ ॥ मलिना सम्मुखा योषा कुर्वती वस्तुविक्रयम् । तदा तासां द्विधा भेदः कथितः शकुनागमे ॥३५॥ लवणं मरिचाद्यर्थी लभ्यते इति जल्पती ।। अभव्या जीरकं हिङगु - धूपकुङ्कुमधान्यकम् ॥ ३६ ।। शाकं हरिद्राकाचादि-भूषणं लभ्यते इति । वन्दती सा शुभा ख्याता गमनागमनेऽपि च ॥३७॥ लवणं लभ्यते किश्चि--द्वदन्ती सा शुभां विदुः । प्रत्यक्षं लवणं याते भस्म गन्थमिव त्यजेत् ॥ ३८ ॥ शुभाय महिलार्थेषु तथा विगतकचुका । राजकार्य मंगलाय वृष्टयर्थ स्वल्पवृष्टये ॥३६॥
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नीलकृष्णाम्बरधरो नरः स्त्रीवनमिद्धये । मेघवृष्टिनिमित्तं तु कुरुते मेघवर्षणम् ॥४० ।। पट्टसूत्रं शुभं कृष्ण-मप्यन्यन्निन्यतेऽसितम् । भण्डविज्ञानकुशला स्त्री नरो वा विगहितौ ॥४१॥ पित्तादितो विकलाङ्ग–विटौ यानेऽतिनिन्दिताः। बधिर सम्मुखो जातो जल्पितः कुरुते फलम् ॥४२॥ मुकः कार्य वाच्यमाने-~-ऽपशब्दाय भवेदलम् । पाणिपादश्रवोनाशा-भ्रष्टा गतिनिवारकाः ॥४३ ॥ यानकाले ह्यगढक--गजाज्ञाकलहादिकम् । अस्तु दूरे कार्यसिद्धि--बन्धनादि प्रयच्छति ॥४४॥ गतिमङ्गोङ्गसादश्च स्खलनं पाणिपादयोः । द्वारघातादिवस्त्राणां लगनं न हि सुन्दरम् ॥४५॥ गृहाण धूलिभस्मादी--त्यादिवाक्यं निषेधकम् । प्रियं वदच्छुभं डिम्भं विवस्त्रं विमुखं न हि ।। ४६ ॥ विवादे गच्छतां द्रम्मा--नादायागच्छ वेगतः । क्षेमं करोति शब्दोऽयं परं किश्चिद्भयावहम् ॥४७॥ सम्मानी च मन्थानः काष्टं क्रकचमस्थिला। विषं लोहं सितारा च सम्मुखानि शुभानि न ॥४८॥ लोहकारायुधं सर्व सम्मुखं निन्दितं सदा । अथ कश्चिद्वदत्येत- -दादाय व्रजतः शुभम् ॥ ४६॥
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पादाता
राज्ञस्त्र सन्ति कार्य पतति चर्चार्या
३६
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गलद्घटीकोऽभिमुखो गन्त्रिकं पुरुषाकृष्टं
॥ ५० ॥
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एकं चक्रं भ्राम्यमाणं शकटस्य विशेषतः यदि सम्मुखमभ्येति तत्फलं कथ्यतेऽग्रतः ॥ ५१ ॥ स्वामिभिस्तस्करै रिभ्यें- विधृत्य गलकन्दले 1 गुप्तौ निक्षिप्यते बद्ध्वा महाकष्टेन मुच्यते ॥ ५२ ॥ युग्मं ॥ मन्त्रमेकं वृषाकृष्टं कुरुते दुःखसञ्चयम् I सम्मुखो महिषारूढः कृतान्त इव मूर्तिमान् ॥ ५३ ॥ खरारूढो जलोत्सारं कुरुते वा विगोपनम् । रासभोऽथ धृतः कर्णे पूर्वोदितफलप्रदः ॥ ५४ ॥ प्रवासरहितस्यापि महोद्वेगकरः खरः 1 शकुनेनानेन पुन - - हे व्यावृत्य गम्यते ।। ५५ ।। फलं द्विविधमुष्ट्रस्य स आरूढनरोऽफलः
1
रज्ज्वा
बद्धस्तथाकृष्टो महाकष्टं प्रयच्छति ॥ ५६ ॥ बहूष्टाः समवायेन सम्मुखा देशविड्वरम् । कुर्वते पथिकक्षेमं प्रवासो द्विगुणो भवेत् ॥ ५७ ॥ उष्ट्रो वस्तुभराक्रान्तः सम्मुखः कुरुतेतराम् । कार्य समाप्तिपर्यन्तं
देहद्रव्यक्षयङ्करः मृतिबन्धवधादिकृत्
सोद्वेगं भूरिलाभदम् ॥ ५८ ॥ उष्ट्रासनदर्शनात् । नियोगिव्यवसायिनोः ॥ ५६ ॥
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३७
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उष्ट्रद्वयं गले बद्ध-- मेकस्मिंथटितः परम् यद्याकर्सति पीडा स्यात् पथिकाङ्गेऽतिदुस्सहा ॥६०॥ यदा योक्त्रगडडुलकं भूमिस्थः खेटको व्रजेत् । ज्ञेयं ज्ञेयं प्रवासिना
॥ ६१ ॥
तदेव योक्त्रगन्त्रकम् । सर्वकर्मसु शोभना ॥ ६२ ॥
परहस्तगतं कार्यमिति प्रवेशे सर्व सौख्याय महिषी सद्यो विजाता परं विवाहकार्ये च पड्डुकेन सहाशुभा । श्रेष्टा सर्पाड्डिका सापि धनमानादिभोगदा ॥ ६३ ॥ महिषी चेद् गृहद्वारे तिष्टेत् पड्डुकसंयुता । मृतिचौगदिभयदा सापि वृद्धये सपडिका ॥ ६४ ॥ महिषी चेहतुमती महिपत्रासिता सती । सम्मुखा भयदा याने प्रवेशेऽपि न सिद्धिदा ॥ ६५ ॥ गर्भभृत्यै नीयमाना महिषी धेनुर्खती । सम्मुखाद्विविधं तामा - मग्रतः कथ्यते फलम् ॥ ६६ ॥ सुखेन यदि संयोगं लभन्ते तत्सुखेन हि । कार्यसिद्धिर्न चेदिप्सेत् पुमान् यदि चतुष्पदः ॥ ६७ ॥ ऋतुभोगं तदा कार्य - सिद्धिः कष्टेन भूयसा । सर्वथाथ न वाच्छेत् कार्यनाशस्तु सर्वथा ॥ ६८ ॥ युग्मं ॥ आकृष्टो महिषो वामः सम्मुखो मृत्युरूपवत् । स एव पृष्ठे लग्नेन माहिषिकेण निष्फलः ॥ ६६ ॥
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३८
आरूढमाहिषकेण मृत्यु दत्ते प्रवासिनः । पानीयभृततदङ्गः सम्मुखः कार्यसिद्धये ॥ ७० ॥ सम्मुखाश्च तथा रूत-कर्षामोर्णा विगर्हिताः । डिम्भोत्सङ्गा शुभा नारी विशेषानन्दनान्विता ॥ ७१ ॥ नरयानं सुखं दत्ते स्कन्धारूढनरो नरः । वृषारूढः करोत्यर्थ नारी वाधिकलाभदा ॥७२ ।। गारुडिकः ससर्पश्चे-द्विरुद्धः सर्पवर्जितः । शुभाशुभं फलं दद्यात् सदा निन्यस्तु पण्डकः ॥७३॥ पाणिगृहीत वृश्चिकः क्रयाण कविसाधने लाभदो राजकार्येषु परं शत्रुरुदीयते ॥७४ ।। द्रव्येण कार्यसिद्धिः स्यात् प्रवेशोद्वाहकर्मणि ।। दत्ते उपपत्तिदोपं क्षेत्र व्रजत ईतिभिः ॥७५ ॥ गच्छतां चेच कटके सम्मुखो धृतवृश्चिकः । जैत्रपत्रं स कुरुते दत्त मानधनादिकम् ॥७६ ॥ वैद्यादीनां रोगिणोऽर्थे वृश्चिकोपद्रवो यदि । दोपोद्भवा तस्या पीडा दोषशान्तौ स जीवति ।। ७७ ॥ दीपोत्सवे दैववशा-दि लग्गेत वृश्चिकः । तद्वर्ष तस्य सोद्वेगं धनमानादिहानिदम् ॥ ७८ ॥ वृश्चिको वस्तुमध्ये वा कुर्वतां वस्तुविक्रयम् ।। महाघतां तदा तस्य वस्तुनः कथयत्यदः ॥७६ ॥
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देवतासरस्यान्त-वृश्चिको यदि सन्मुखः । नैवेद्यं दीयतां दीन-याचकेभ्यो यथास्थितम् ॥ ८० ॥ गुविण्याः पुत्रिकाजन्म न परस्या नराप्तये । नरस्य महिलालाभं पीडा वृश्चिकदंशजा ॥१॥
॥ अष्टभिः कुलकं ॥ अरोदनः शकः श्रेष्टः प्रवासे चिन्तिताप्तये । प्रवेशे न शुभः सोऽपि दीघरोगमृतिप्रदः ॥२॥ सन्तत्यथं सम्मुखः स्यात् प्रदीपः पुत्रं दत्ते दीपिका पुत्रिकाश्च । वा हीनो रोगदस्तैलहीनो-ऽल्पायुः स्यात्सर्वकार्येषु चैवम् ।८३ यदि दोलायते दीपो दृष्टमात्रः प्रवासिनाम् । जायते पुनरावृत्ति-रथाग्निशकुनं वे ॥४॥ रोगिणो व्यतिकरेऽग्निरभव्यः शास्त्रापाठनियतस्य शुभाय । क्षेत्ररक्षकतपोधनपिण्ड-दारुहस्तदहनो मरणाय ॥८५॥ प्रवेशेऽभिमुखो वह्निः सधूमो ग्रामविड्वरम् । प्रधाननरकष्टञ्चो-द्वेगाय स्वगृहाङ्गणे ॥८६॥ गृहानिस्सरता स्वीय-भार्याहस्ते भवेद्यदि ।। विवादाय चतुर्घटय आद्याः शीते शुमो मतः ॥७॥ याशस्तादृशो वह्नि-मृद्भाण्डे मृतिभीप्रदः । धूपाङ्गार सनैवेद्यः श्रेष्टः कैश्चित्तदुच्यते ॥८॥
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शरावसंस्थितो वह्निः यदि सन्मुखमागतः । बजेत्तदा म्रियेताशु मुच्येत च विपर्यये ॥४॥ उपर्याच्छादितो वह्निः सर्वकार्येष्वनर्थदः ।। क्षेत्रकृत्ये गच्छतोऽति-दुर्भिक्षाय द्विधापि सः ॥ १० ॥ अन्धो भवेदप्यधमः पुमाश्चे-दाकर्षको नार्यथ कार्यहन्त्री । विपर्यये व्यत्यय एक एव श्रेष्टः स्त्रियः स्त्रीमहते भयाय ॥६॥ गदिताः शकुना ग्राम्याः सम्मुखाः केऽपि संमुखोद्भूताः। सव्यापमव्यगवा वानेया अथ विवक्ष्यन्ते ॥ ९२॥
इत्याचार्यश्रीमाणिक्यसूरिविरचिते शाकुनसारोद्धारे
ग्राम्यतित्तिरिप्रकरणं द्वितीयं समाप्तम् ॥२॥ अथ तित्तिरिःयात्रायां तित्तिग्र्वािम-स्वरः क्षेमाय दक्षिणः । लाभदः कन्यकार्थे तु दक्षिणो वरलब्धये ॥१॥ वामः पूर्व दक्षिण: स्यात्ततोऽपि पश्चाद्वामचिन्तितार्थप्रदाता। लाभस्यार्थे दक्षिणे दुर्गराज्या वामे वामोऽप्यागमे श्रेष्ठकारी ॥२॥ ग्रामे पुरे वा दिशि दीप्तकायां स्थानस्थितानामरुणोदये चेत् । उद्वेगदायी निशि सर्वेदिच करोति शून्यं ध्वनिराखुकस्य ॥३॥ वारुण्यां ध्वनितोऽस्ते तु तित्तिरिश्चौरभीतिदः । सभये भीतिहन्ता च ध्रुवे मध्यान्दिने ध्वनिः ॥४॥
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धाटीभिये स ईशाने सर्वदिक्षु न शोभनः । स्थानस्थितस्यैककालं सर्वदा सर्वथा त्यजेत् ॥५॥ गृहीतपरवित्तस्य वामः क्षेमाय दक्षिणः ।. वाहरामेलकः पृष्टे प्रवेशे दक्षिणोऽशुभः ॥६॥ प्रामे प्रविशतामस्ते सन्ध्यायर्या चौरभीतिदः । क्षेत्र षण्मासपर्यन्तं ग्रामे च वत्सरावधि ॥७॥ प्रवेशसीमायात्रायां सर्वेषु फलमीदृशम् ।। रागिणोऽर्थे रोगघाती वामः शान्तदिशि स्थितः ॥८॥ दक्षिणो दिशि दीप्तायां दीर्घरोगाय सम्मतः । मुधा शून्ये प्रवेशे तु शून्यस्थो रोगिघातकः ॥ ॥ इत्याचार्य श्रीमाणिक्यसूरिविरचिते शाकुनसारोद्धारे
तृतीयं तित्तिरिप्रकरणं समाप्तं ॥३॥
अथ दुर्गा
भस्मैन्धोङ्गारविष्टाश्म-विलास्थिकण्टकाकुलम् । चिताशवादिविकृत-मिति स्थानं जुगुप्सितम् ॥१॥ दुर्गागति शुनश्चेष्टां नैव ये भैरवारवम् । जानन्ति शकुनज्ञास्ते कथ्यन्ते कषिभिः कथम् ॥२॥ दुर्गा प्रवासिनः वामा शुमा दक्षिणगामिनी । तथाविधा द्वितीयापि राज्या दिपदलाभदा ॥३॥
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४२
वामादौ दक्षिणा पश्चात् सा प्रान्तेऽनर्थदायिनी । दक्षिणादौ ततो वामा भयदान्तेऽर्थसिद्धये ॥४॥ श्रेयसे तोरणारावा कन्यादानाय गच्छताम् । पूर्व वामा दक्षिणान्ते परलाभाय सम्मता ॥५॥ व्यत्ययात्परिणीतच टाल(वाह)यित्वा वरं परम् । सा वक्ति पदलाभार्थ वा मोच्चं गच्छती शुभा ॥ ६ ॥ नीचैर्यान्ती स्वरं कृत्वा न भव्या नीचलाभदा । जान्वधो गच्छती नीचा सोचगा भालमानतः ॥७॥ गच्छन्ती त्वरितं तूर्ण पूर्ण कुर्याच सा फलम् । उत्तमा उच्चगमना व्यत्यये व्यत्ययात्फलम् ॥८॥ उच्च दुच्चतरं यान्ती सात्मनो न फलोदया । आत्मोचानां फलं तस्याः केवलं कुशलाय सा ॥३॥ प्रवेशे सूर्यश्मिस्था वामे स्त्रीपक्षहानिदा । दक्षिणे नरपक्षे तु प्रवेशे दक्षिणा शुभा ॥१०॥ वामोद्वेगकरी प्रोक्ता यात्रायां जलवेश्मगा । वृत्तिप्रासादवृक्षादि-मध्यगा सा पुनः शुभा ॥११॥ निष्फलान्यत्र शकुनि-भूमिरावान्यलब्धये ।। निखातकार्यादन्यत्र कूपादिखनने शुभा ॥१२॥ सर्वकार्येषु हदती (१) दुष्टा भीतस्य सा शुभा । वृष्टयर्थ हदती सैव दुर्गा दुर्भिक्षकारिणी ॥१३॥
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यद्यग्रगामिनी याति दुर्गा प्रवासिना सह । अग्रे लाभं समाख्याति महान्तं खगसंयुता ॥१४॥ आगत्यर्थप्रार्थिता दक्षिणाङ्गे वामे वाङ्गे नीडकंसा विशन्ती। यानावृत्तिः स्यादथो पुत्रहेतोः पृष्टे दुर्गाग्रे खगः पुत्रदायी ॥१५॥ दुर्गाग्रे पृष्टतः पक्षी कन्याजन्म तदा वदेत् । वामस्वरा दक्षिणगा सखगा रोगशान्तये ॥ १६ ॥ निःस्वनस्थानकादुच्चं चटन्ती रोगवृद्धये । नीचगा रोगहन्त्री स्या-द्वामगा जीर्णरोगिणः ॥१७॥ वामा दक्षिणगा तारा विताग तद्विपर्यये ।। राजकार्य गता तारा खगेन सहिता शुभा ॥१८॥ वामगा दक्षिणारावा राज्यार्थे शकुनिने सा । विशन्ती कोष्टकं वाट-के राजग्रहकारिणी ॥१६॥ सखगा सा खगं त्यक्त्वा यात्यन्यत्र पदाप्तये । नार्थलाभः खगोऽन्यत्र याति चेदरिभीतये ॥२० ।। तौ द्वावप्यन्यान्यदिशं गतौ राज्यविरोधको । रिपूच्छेदविनष्टार्थे शुभा दीसा भयादिके ॥२१॥
॥ त्रिभिर्विशेषकं ।। तारा यान्ति लामदासा सभक्ष्या काष्टाद्यास्या हानिदा वामगा च । लाभं दद्यानाजयेऽग्रे खगश्चेत् पृष्टे देवी तारगा जैत्रदायी ।२२।
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४४
अग्रे देवी खगः पृष्टे तारगौ सन्धिकारिणौ । वितारगौ घातकरौ वाम शब्दं विधाय तौ ॥ २३ ॥ चतुष्पदध्वजच्छत्रो-परिशब्दा जयावहा । चतुष्पदकचाकर्ष कुर्वन्ती हानिकारिणी ॥ २४ ॥ परराष्ट्रं मांसवक्ता हस्तगं वक्ति चण्डिका ।। वस्त्रणमुखी घाते पलान् बन्धयते युधि ॥२५॥ स्थानस्थितानां सूर्यास्ते प्राच्या कुर्यादुमा धनिम् । नृपप्रसादं कुरुते शान्तेऽतिथ्यागमाय च ॥२६॥ दीप्ते तु ध्वनिता दुर्गा सा किश्चिदुक्तहानये । उदयेऽस्ते वा दक्षिणस्यां ग्रामात्सा क्षेमलाभदा ॥ २७ ॥ शुभा सदैव कौवेर्या-मध्रुवान् स्थापयत्यलम् । शैवाग्नेय्योः सदा भीत्यै वायव्यां दुःखिनः शुभा ॥ २८ ॥ सुखिनश्चाशुमा किञ्चित् पाण्डवी ध्वनिता सती ।। ब्रह्मस्थाने च मध्याह्न कलिघातग्रहादिकृत् ॥३१॥ गेहान्तर्ध्वनिता भीत्यै पट्ट तु स्वामिमृत्यवे ।। शय्यायां महिलाकष्टं दुर्गायाः कुरुते खः ॥३०॥ पालने बालकष्टाय गृहमध्ये विजायते । शून्यकृद्भवनद्वारे समक्ष्या ध्वनिताभदा ॥३१॥
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यत्र तत्र स्थिताप्यन्य-त्रासाच्छब्दपरायणा । शुभशुभा वा विफला फलदा सा स्वभावजा ॥३२॥ इत्याचार्यश्रीमाणिक्यसूरिविरचिते शाकुनसारोद्धारे
दुर्गाप्रकरणं चतुर्थ समाप्तं ॥ ४ ॥ अथ लहादिलट्टा दक्षिणगमना यात्रायां वामगा प्रवेशे च । सम्मुखमायान्त्यग्रे गतस्य सौख्यादिदात्री सा ॥३३॥ पृष्टत आगच्छन्ती पृष्टे सौख्यं करोत्युभयभागे । लट्टाद्वयं यदि कलि विवाहयात्रे तदा नेष्टे ॥ ३४ ।। गृहभूमिर्न ग्राह्या न व्यवहारः शुभोऽनयोयुद्धम् । दुष्टं दर्शनमिष्टं विवाहकार्येषु लट्टायाः ॥३५॥ स्वप्नेऽपि पुत्रलाभं हयलामं खञ्जनौ तथा दृष्टौ । लट्टा प्रवेशकाले दक्षिणगा तत्फलं वच्मि ॥३६ ।। विवाहार्थे वधूक्लेशं वयस्यधैं क्रयाणकान् । व्यवसाये न लाभः स्याद् ग्रामे ग्रामान्तरं पुनः॥ ३७॥ क्षेत्रिकं राजके भागे क्षेत्रप्रवेशसीमनि । ग्राहयति पुनः स्वामि-मिलने दक्षिणा शुभा ॥ ३८ ॥ त्रासिता पक्षिणान्येन त्रासमायाति यायिनः । फल-तृणवस्त्रपुष्प-मुखी तद्वस्तुवृद्धिकृत् ॥३९ ।। पूर्वस्मिन् दिवसे क्षेत्रे दृष्टा लट्टा फलानना । क्षेत्रं प्रविष्टा फलदा प्रचुरां कुरुते कृषिम् ॥ ४० ॥
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४६
सै
क्षेत्राद्विनिर्यातो - पद्रवाय समूषका दृष्टा मूषकशङ्कायै लड्डा कृषिप्रयोजने 11 82 11 लट्टाद्वयस्य शकुने याते या पश्चिमा फलं तस्याः ।
I
॥। ४४ ।।
I
अथ चेल्ला द्वितयं समकालं भाग्यलाभः स्यात् ॥ ४२ ॥ दृष्टा सभाषा चेल्लट्टा सस्त्रीकस्य सुतप्रदा । वरार्थिनो वरप्राप्त्यै रिपोर्लाभो नियोगिनः ॥ ४३ ॥ दृष्टा वायस संयुक्ता शत्रुचौरभयङ्करी लट्टाचाषावथो दृष्टौ वायसद्वयमध्यगौ केचिदन्ये विनाश्यन्ते यापिनचौर मेल के वायसैर्यदि तावेव हन्येते पश्यतोऽशुभम् ॥ ४५ ॥ नीलेन चटकेनापि त्रास्यमाना स्वकीविदा | दोपं दत्ते चाषयुद्धं स्वीयज्ञातिविशेषदम् ॥ ४६ ॥ विरुद्धं चेष्टितं यद्य - तत्सर्वं चापलट्टयोः । दर्शनेन तयोरेव हन्यते चाथ पल्लिका ॥। ४७ ।। प्रवासे पल्लिका दृष्टा हयादिवाहनोपरि । तद्वाहन विनाशाया ---तपत्रे छत्रभङ्गदा ॥ ४८ ॥ स्त्रीलाभाय स्तासक्ता युद्ध्यमाना घिरोलिका | दृष्टा युद्धं समाख्याति स्वभावादर्शनं न तु ॥ ४६ ॥ प्रयाणके स्वदेहोर्ध्वं मूत्रं विष्टां च कुर्वती । रोगं दत्ते दक्षिणांगे चटन्ती पल्लिका शुभा ॥ ५० ॥
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४७
वामे चटन्ती भक्तान्त--विषप्रायभयाय सा । वस्त्रास्थिता वह्निभीति कुरुते गृहगोधिका ॥५१॥ स्थानस्थस्य सुताजन्म शय्यायां पुत्रजन्मदा । सकुटीमध्यगा पार--दारिकदूषणाय सा ॥५२॥ चटिता मस्तके यस्य चिरं तिष्ठति पल्लिका । निर्वाणं तस्य चटित--मात्रोत्तीर्णापि कष्टदा ॥ ५३ ॥ यस्य स्थानोपविष्टस्य चरणं वा तदंगुलिम् । दशत्यत्यंतकष्टाय स्वरचेष्टाथ कथ्यते ॥५४॥ पल्लिकाया गृहद्वारे स्वरोऽतिथिसमागमम् । कुस्ते स्वस्थचित्तस्य पृष्ठे चौरदरं स्वरः ॥ ५५ ॥ गृहदेवालये पल्ली ध्वनिता व्यंतरादिकाम् । दोषशकां समाख्याति धनकेऽग्निभीतये ॥ ५६ ॥ ब्रह्मणि सुप्तस्य यदा रौति सुवीरस्य वीरभयहन्त्री । नृपतिप्रसादवर्धा--पनिकां शान्तस्य सदा वक्ति ।। ५७ ॥ पल्लीद्वयं त्रयं वा दिशि जनपदविडवरं रटत्कुरुते । दिशिप्रधाननरकष्ट--कारकं विदिशि तुच्छफलम् ॥ ५८॥ दुग्धस्थाल्युपरिस्था घिरोलिका चतुष्पदस्य रोगाय । ध्वनिता चुतस्य शकुनं यात्रायां सर्वप्राप्यशुभम् ॥ ५९ ।। पूर्व शकुनं भव्यं जुतमथ पूर्व क्षुतस्ततो भव्यं । द्विविधमपि न प्रमाणं क्षुतमेव परं प्रमाणं तु ॥ ६ ॥
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४८
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वामविभागे सफलं न दक्षिणे पृष्ठतः शुभं तच्च । क्षुतमग्रेऽग्रे कष्टं केचिद्वामे शुभं नाहुः ॥ ६१ ॥ पौनःपुनिकं व्यर्थ हठहास्यभयादिभिविंडालस्य ।
पुनः चुतम् ।
जायते ॥ ६५ ॥
स्थानस्थस्य च मृत्यु – करं पशुक्षुतं कष्टदं नित्यम् ॥ ६२ ॥ वस्तुविक्रय कर्तव्ये क्षुतं विक्रयकारकम् I लाभदं वस्तुनो प्राहे तच स्याद्धयवसायिनाम् || ६३ ॥ नष्टान्वेषे गच्छतां च तच्च नष्टाप्तये भवेत् । नव्यवस्त्रपरिधाने तत्प्राप्ति कुरुते भोज्यहोमधर्मपूजां कुशलान्ते पुनः सविशेषतरं कार्यं पुनर्व्यावृत्य क्षुतं प्रेतक्रियान्ते च पुनः प्रेतक्रियाकरम् । अन्नतरमृतुस्नानात् स्त्रियः कन्या प्रसूयते ॥ ६६ ॥ ऋतुस्नानस्य सम्भोगा -- दन्तरं पुत्रजन्मने बलिनं रिपुमाख्याति चुतं रिपुविनिग्रहे ॥ ६७ ॥ शत्रुस्थानस्थितस्याय हस्ते चटति रोगिणः । कार्ये वैद्याकारणाय गच्छतां रोगिमृत्युदाम् ॥ ६८ ॥ वैद्यस्यागच्छतो रोगं तुतो हन्ति चणादपि । गोक्षुतः सर्वकार्येषु सर्वदैव न शोभनः ॥ ६६ ॥ व्यापारस्या गृहीतस्य क्षुतं व्यापारवृद्धये दत्ते नियोगिनो लेख्ये कुर्याच हरकं पुनः
।
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।। ६४ ।।
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४६
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I
।। ७४ ।।
1
देवकष्टाय विदितं मलस्नातस्य चेत्तुतम् । कस्याप्युदकदानाय भोज्यादौ दृष्टिदोषकृत् ॥ ७१ ॥ जितशत्रोः शत्रुभीत्यै शत्रुभीत्यागतस्य च । उच्चाल्य गेहागमने पुनरुच्चालनाय तत् ॥ ७२ ॥ व्यवहारार्थं ददतो द्रव्यनाशाय सक्षतः 1 कर्पणान्वेषणे यातुः क्षुतं जलदवृष्टये जलदवृष्टये ॥ ७३ ॥ वृष्टया लोकनशकुने क्षुतं जलदसूचकम व्यापारकार्ये व्यापारे निवारयति हानित: हेपादिभूषणे नव्ये घटिते भूषणासये प्रेष्यातिथीन् व्याघुटतः प्राघुणागतये क्षुतम् ॥ ७५ ॥ तदेव दिशि दीप्सायां प्रेषितानां तदा पथि प्राघूर्णानां चौरभीत्यै शान्तायामपरागमः शुभादनन्तरं श्रेष्ट - मशुभादन्तरं क्षुतम् अशुभं सर्वकार्येषु निगद्यन्ते वृका अथ ॥ ७७ ॥ इत्याचार्य श्रीमाणिक्यसूरिविरचिते शाकुनसारोद्धारे लट्टाधिरोलिकाक्षुतप्रकरणं पंचमं समाप्तम् ॥ श्रीरस्तु ॥५॥ यात्रायामुत्तरन् वाम - श्रौरभीतिकरो वृकः 1 दक्षिणे कष्टकृत् सार्थे स्त्री यदि स्यात्तदर्त्तये ॥ १ ॥ वरस्य परिणीतस्य सवधूकस्य गच्छतः उत्तरन्ति यदि वृका निकटे
।
॥ ७६ ॥
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पितृवेश्मनः ॥ २ ॥
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पितृमावृविनाशाय समीपे श्वशुरौकसः । वधूश्वश्वोः पुत्रपित्रो-रेकवासनिवारकाः ॥३॥ युग्मं ।। क्षेत्र यातुः कृषिकस्य विना वृष्टि रुजे वृकाः । क्षेत्रमध्ये विलुठन्तो दुर्मिनानर्थसूचकाः ॥४॥ यद्यग्रे मेघवृष्टिश्चे-ज्जाता भवति वामगाः । तदा कृषिवलिवई-वृद्धिदाः कषु कस्य ते ॥५॥ दक्षिणागे उत्तरन्तः पूर्ण कृत्वा कृषि वृकाः ।। विनाशयन्ति तां पश्चा-चौरराजमयादिना ॥६॥ दर्शने तु यदा वृष्टे रौति दीर्घस्वरो वृकः । तदा यग्निभयं ज्ञेयं पृष्ठेऽपि पृष्ठशोकदः ॥७॥ पूर्व गृहीते व्यापारे ग्रामे वा गच्छतो वृक्षः । प्रमाणपदवीं वामे प्रापयत्युत्तरन् भृशम् ॥८॥ उत्तरन् दक्षिणे ग्रामं व्यापारं वा विचालके । विनाशयति स्वस्थाने कृतकृत्यस्य गच्छतः ॥६॥ सद्रव्यस्य द्रव्यनाशं निद्रव्यस्यार्थलाभदः ।। चौरस्य स्वामिनो वार्थः परार्थग्रहणाय चेत् ॥१०॥ गच्छतो वाममुत्तीर्य सुखान्वेषी फलप्रदः । भवेद्बकाणां शकुनो दीप्ते सर्वत्र शोभनः ॥११॥
त्रिभिर्विशेषकं ।।
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५१
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भूमिं यदा विलिखति घातान् कारयते युधि । दीर्घपात्सम्मुखीभूयो - पविशरिसन्धये ॥ १२ ॥ आगमे उत्तरन् वामे दीर्घसार्थे पृथक्पृथक् । फलं दत्तेऽग्रे स्थितस्य देहद्रव्यव्ययादिकम् ॥ १३ ॥ पृष्ठे स्थितस्य स्त्रीपक्षे तृतीयस्य सुतार्त्तिकृत् । तदूर्ध्वं बहुसार्थे स्या -- चौरात्तिव्याविभीतिदः ॥ १४॥ युग्मं ॥ एतत्फलं निर्गमेऽपि स्वामिनश्च नियोगिनः । देशसीम्नि प्रवेशे च वामागे उत्तरन् वृकः ॥ १५ ॥ तत्र देशे परचक्र - भीतये दक्षिणाङ्गगः । विनाशयति तं देश--मनावृष्टया वृकस्य सः ॥ १६ ॥ युग्मं ॥ सर्वकार्याणि भक्ष्यास्यः पक्षयोरुभयोरपि । भवेच्चेत्साधयत्येव Tr शकुनस्त्वयम् ॥ १७ ॥
इत्याचार्य श्री माणिक्यसूरिविरचिते शाकुनसारोद्धारे वृकप्रकरणं षष्ठं समाप्तम् ॥ श्रीरस्तु ||६|
यात्रायां गच्छतां वाम ध्वनिताः फेरवः शुभाः । निषेधयन्ति ते एव गमनं दक्षिणाखाः ॥ १ ॥
उद्गणिते यदा ग्रामे गच्छर्ता दक्षिणस्वराः 1 भृगालास्तं पुनर्प्रापं कथयन्ति
करस्थितम् ॥ २ ॥
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५२
स्थानस्थानां चतुर्दितु समकालविराविणः । वेष्ट भीति समाख्यान्ति सर्वथैवाशुभा दिने ॥३॥ मध्यरात्रि यावदस्ते. घमणौ चोत्सरासु च । उद्वेगाय मध्यरात्रा-- ते शुभकारिणः ॥४॥ मध्यरात्रादुपर्यों-दयं यावन्न शोभनाः । ईशानन्द्रयोदक्षिणस्यां सदैव जम्बुकाः शुभाः ॥५॥ कौबेर्यामपि सन्ध्यायां शुभाः स्युरथ जम्बुकाः ।। यात्रायां व्रजतां वाम--स्वरा श्रेष्ठा शृगालिका ॥६॥ तस्कराणां नृपाणां च विशेषाद्दक्षिणा न तु । गच्छतो देवयात्रायां दीप्तदिक्स्थापि सा शुभा ॥७॥ राजद्वारे दीप्तवाम-गतापि शुभदायिनी । बहुस्वरा सा विफला शुक्लपक्षे शिशूज्झिता ॥ ८॥ शुभा दक्षिणशब्दापि पुनामाद् गृहागमे । स्वदेशे गच्छतो लब्ध--व्यापारस्य न सा शुभा ॥ ॥ शान्ता दक्षिणरावापि राजकार्याय कीतिता । विनाशयति दीप्ता सा राजकार्य नियोगिनम् ॥ १० ॥ स्थानस्थानां शिवा मध्य--राबादधर्व महाभिये । उत्तरेशानयोः सूर्यो--दये ईशानपूर्वयोः ॥११॥ सूर्योदयाद्याममेकं पूर्वाग्नेय्योद्वितीयके । याम्याग्नेय्योस्तृतीये तु यामे नेऋतयाम्ययोः ॥१२ ॥
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चतुर्थे नैऋतापाच्यो--रस्ताद्यावन्महानिशाम् । अपाच्यानिलकौबेरी--वशुभा ध्वनिता शिवा ।। १३ ।।
त्रिभिर्विशेषकं ॥ अतीवसौख्यशुभदा याम्यां निश्यरुणोदये । पूर्वस्यां तत्पुराध्यक्ष--मितरं कुरुते शिवा ॥१४॥ अस्ते शिवा पश्चिमायां परचक्रभयाय सा । शुमा कुबेरदिश्यस्ते ग्रामान्तः शून्यकारिणी ॥ १५ ॥ अश्वमध्ये कृतरवा शिवा युद्धप्रपञ्चकृत् ।। अथ घूकस्वरो वामो यात्रायां गच्छतः शुभा ॥१६॥ दक्षिणो मृतये किंचिद् दुष्टं दर्शनमस्य हि । यात्राकाले प्रवेशे च सर्वथा सर्वदा त्यजेत् ॥१७॥ सन्ध्याकाले प्रवेशे भू-म्युपविष्टः कृतस्वरः । दृष्टो रोगप्रदो घूकः सोऽप्यार्त्तानां भयापहः ॥ १८ ॥ गृहोपरि गृहद्वारे नाम गृह्णाति यस्य वा । म्रियते यस्य गेहान्त--ने श्रेष्ठः स द्वयोरपि ॥ १६ ॥ यात्राकाले रटन् घूको हयादिवाहनोपरि । तद्वाहनविनाशाय दृष्टो घूकोऽफलो दिवा ॥२०॥ उपरिस्थो रात्रिरवो घूघूशन्दं करोति यद्भवने । नियतं तस्याधिपतिं षण्मासार्वाग् विनाशयति ॥ २१ ॥
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ग्रामे यस्मिन् बहवो घूका विचरन्ति तत्र निजचकम् । कथयन्ति दिवा दृष्टाः कृतस्वरा वाममृतये तौ ॥ २२ ॥ भैरवा दक्षिणारावा शुभा वामरवा शिवा । प्रशस्या विपरीता च कष्टोद्वेगौ ददाति सा ॥ २३ ॥ सर्वथा जम्बूकी त्याज्यो-भयथा कैश्चिदुच्यते । एतन्नैव शुभा वामा शशकोऽपीदृशो मतः ॥ २४ ॥ भैरवा वामशब्दादौ दक्षिणा स्यात्ततो यदि । कष्टं विधाय मयं तं निर्वाणे कार्यकारका ॥२५॥ कौशिके दक्षिणे भूत्वा पश्चाद्वामस्वरो यदि । अतीवकष्टं दत्वा स निर्वाणे कष्टविघ्नहा ॥२६॥ पिङ्गलाफेरुजम्बूक्यो वृको घूकोऽह्नि शन्दिताः । निशि तित्तिरिशब्दाश्च जगदुद्वासहेतवः ॥२७ ।।
इत्याचार्यश्रीमाणिक्यसूरिविरचिते शाकुनसारोद्धारे
रात्रेयप्रकरणं सप्तमं समाप्तं ॥ श्रीरस्तु ॥७॥ अथ हरिणःभाग्येन भूयसा गौरा हरिणा यान्ति दक्षिणाम् । विषमा यान्ति वामाङ्गे सकृष्णास्तेऽपि शोभनाः॥१॥ उत्तीर्य दक्षिणे आदौ पश्चाद्वामेऽतिनिन्दिताः । कैश्चित्कृष्णो मृगश्चैव कैश्चित्सर्वोऽपि नादृतः ॥२॥
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यूथादेको वामगश्चेन्मृगः स्या-च्छ्न्यामाशां सार्थमध्यात्स येषाम् तेषामन्तं लाभहन्ता परेषां जीवाङ्गे वा दक्षिणोऽर्थ ददाति ।३।। वामे गत्वा निविष्टश्वे-द्वेगार्तिकृत्सवागुरः । बन्धनादिमयं दत्वा पश्चान्मोचयते मृगः ॥४॥ उत्तीर्य संमुखीभूय तिष्ठत्यतीवसुन्दरम् । मृत्रयत्यथ चेद्रकुः स्वपक्षे लाभदः स्मृतः ॥ ५ ॥ उदकक्रियो विपक्षे कारयत्येक एणकः । पुरीषकृयदोत्तीय विपक्षे कष्टदायकः ॥६॥ लाभदः स्वीयपक्षे चे-दुत्तीर्य प्रविशत्पयः । नेत्ररोगाय यद्येको वामगो मृगमध्यतः ॥७॥ खनत्युत्तीय चेद्भुमि निधानक्षितिलब्धये । स्वपक्षे परपक्षे तुः क्षेत्रपातादिभीतये ॥८॥ उत्तीर्य पृष्ठतो याति वेष्टनं वा करोति चेत् ।। स्वस्थस्य वेष्टनप्राप्ति समयस्य भयं हरेत् ॥६॥ हरिणानामुत्तरता यदि द्वयं वलति मार्गतोऽर्धाच्चेत् । कार्यार्थिनोऽर्धफलदं सर्वेष्वपि कार्यपात्रेषु ॥१०॥ नंतं शृङ्ग विषाणेनो-~-वेगं कुयु प्रवासिनः । सुरतं चेद्विदधते कार्यसिद्धिस्तदोत्तरा ॥११॥ यद्युत्तीर्यात्मनो मध्ये क्रीडां कुर्वन्ति रवः । कन्यात्रयस्य लामादि दधुः शान्तिदिशं गताः ॥१२॥
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यद्युत्तरन्तस्त्रस्यन्ते सारमेयवृकादिना केनापि शत्रुणा कार्य निष्पन्नं तद्विनाश्यते ॥ १३ ॥ वासिता एकमेकं चेद् भूत्वा यान्ति दिशो दिशम् । तिष्ठन्तो देशभङ्गश्च गच्छन्तोऽशुभसम्भवम् ॥१४॥ कुटुम्बस्य विरोधेना--न्यत्रान्यत्र भवेद्गतिः । राजग्रहेण वा स्थान-वासं रक्षन्ति ते मृगाः ॥ १५ ॥
इत्याचार्यश्रीमाणिक्यसूरिविरचिते शाकुनसारोद्धारे हरिणप्रकरणमष्टमं समाप्तम् ॥ श्रीरस्तु ॥८॥
अथ श्वानप्रकरणंश्वानश्च वामगः श्रेष्ठः स्थानेष्वेतेषु निन्दितः । जम्ममाणो धुनानोग-श्रुती विलुठन् गूथकृत् ॥ १॥ द्विजात्यादिषु वर्णेषु श्वेतवर्णादिमण्डलः । विशेषपूर्णफलदो वर्णान्यत्वे तु तुच्छदः ॥ २ ॥ श्वानः पूर्व वामः पवाद्दक्षिणगतस्तदा मार्गे । क्षेमं कृत्वान्तेङ्गा-तिं वा राजग्रहं कुर्यात् ॥३॥ गच्छता लेख्यदानाय सर्ववर्णनियोगिनाम् । किश्चिदुद्वेगदो वामः पदभ्रष्टस्य सोऽतिहः ॥४॥ सोऽपि दूरे भाषमाणो राजग्रहकरो मतः । भव्यः सर्वत्र भक्ष्यास्यः केशास्थ्यादिमुखोऽशुभः ॥५॥
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दीर्घपादः पथि स्थित्वा रोदिति श्वा प्रवासिनः । तत्कुटुम्ब रोदयते मार्ग खनति वित्तदः ॥६॥ न विशत्यर्धमार्गे चे-त्तदा ग्रामान्तरे स्थितः। भवति श्वा विलुठति मार्गार्धे देहकष्टदः ॥७॥ दक्षिणस्थो वजन् मागें शुभो वामे च निन्दिनः । मार्गस्थः सम्मुखौ रोति तदा स्वजनमृत्युदः ॥८॥ वामे स्त्रीपक्षघात्यन्य-स्मिन् स्वपक्षं तु पृष्ठतः । करोति वेश्मन्यसुखं हदमानोऽशुभः सदा ॥६॥ भीतिं हरति भीतम्य यदि श्वद्वय मुत्तरेत् । यः पश्चात्तस्य चेष्टायाः फलं च प्रथमोऽफलः ॥ १० ॥ शुन्या सहोत्तरति चेत् श्वानचेष्टा तथापि हि । विपरीता शुनीचेष्टा रतासक्तोऽत्यनर्थदः ॥११॥ तादृशोऽपि शुभो वृष्टौ मूत्रयन्नपि वृष्टये । स्थानस्थितस्य यम्य श्वा देहं जिघ्रति लाभदः ॥ १२॥ अतीवात्राशुभो ज्ञेय आसनादौ पुरीषकृत् ।। मृत्रयन् शान्तिदिगचक्रः स श्रेष्ठो दक्षिणांहिणा ॥ १३ ॥ दीप्तायां वामपदेनो-दकदानाय मण्डलः । विपरीते फलं तस्य मध्यमं जायते पुनः ॥१४॥ गृहान्तविरुवनन्य-पुरुषं वक्ति कुक्कुरः । बाधवक्रो गृहपृष्ठे विरुवन् क्षत्रभीतये ॥१५ ।।
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५८
सूर्योदये गृहोद्ध चे-दग्निभीत्यै यथातथा । शृगालैः सहितो रात्रौ रुवन् दारुणभीतिदः ॥१६॥ विशन्नस्थिमुखो गेहे स्वामिपुत्रादिमृत्यवे । क्रीडति स येन साधं तस्य सौख्यं प्रयच्छति ॥१७ । क्रयाणकोर्ध्व मूत्रयन् भषणो लाभदायकः । यद्यद्गृहीत्वा गेहान्त-विशेतद्वस्तु गृह्यते ॥१८॥ गृहीत्वा गोमयं गेहे विशन् गोहरणाय सः ।। आत्मानं दशनः खादन स्थानं शून्यं करोति सः ॥११॥ चतुष्पथे राजमार्गे गोवत्सी कामयन् स च । परचक्रभयं मासि सप्तमे तत्र मण्डले ॥२०॥ दक्षिणेनांघ्रिणा कर्ण बिलिखन् वृद्धिसूचकः ।। भषणो बिलिखंश्चक्षुः प्रतिसूः प्रियसङ्गमे ॥ २१ ॥ प्रामाय विलिखन् वक्रं स्कन्धं विलिखन कुक्कुरः । वृषभाश्वादिलाभाय पाश्व कुटुम्बवृद्धये ॥ २२ ॥ एनेष्वेव स्थानकेषु वामपादेन नो शुभः । वामाङ्ग बिलिखन् भूमि खनन् वित्तं प्रयच्छति ॥ २३ ॥ अस्थिवज भक्ष्यवक्रः श्रेष्ठः सोऽथ पुरे यदि । वेलाकूले घनाः श्वानो रुवन्तो वाहनागतिम् ॥२४ ।। परचक्रागर्ति कुयु-रन्यत्रैतत्स्वचेष्ठितम् । समस्तं कार्तिके मासि फलमल्पं विदुधाः ॥२५ ॥
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५९
यदि श्वा पललं ज्ञात्वा मुखे नीरं विगाहते 1
।
11 2011
I
॥ २६ ॥
स ग्रामो वह्निना सर्वो दह्यते कथयत्यदः ॥ २६ ॥ अकस्माद्यदि खनत शुनको देहलीतलम् निशि क्षात्रं पातयित्वा गेहं मुष्णन्ति तस्कराः तूलिकोच्छीपैके खट्वां यदि सेवति मण्डलः जार प्रवेशस्तद्गेहे जायते निशि सर्वेदा ॥ २८ ॥ गृहोपरिष्टाद्वर्षासु भषणो रुवन् गोग्रहम् । अथ चौरान् घनं वारि कुरुते सप्तरात्रत, निमज्यापसूत्रेटयति धुनत्यङ्ग रुजो भयम् । aafe सम्भवत्येव यद्यर्को रक्षति स्वयम् ॥ ३० ॥ दक्षिणगो धवलः श्वा प्रवेशे जायते यदि जीवितं तत्समानं को दद्यात्पान्थस्य नापर: ग्रामप्रवेशे दशनान् दर्शयनिति वक्ति सः पथिक त्वं सुखं भूरि लप्स्यसे धनसञ्चयम् ॥ ३२ ॥ प्रवेशे निर्गमे वापि मक्षिकाकुलसङ्कुलम् । ये पश्यन्त्यर्थनाशं ते कष्टमायासमाप्नुयुः ॥ ३३ ॥ शुनो देहं धुनानस्य गमनं ये प्रकुर्वते । धनमानोज्झिताः कष्टा — द्गेहं गच्छन्ति ते नराः ॥ ३४ ॥ विलोक्य सुरतासक्तौ खरश्वानौ प्रयान्ति ये । चित्तचिन्ताधिको लाभ - स्तेषां निश्चयतो भवेत् ॥ ३५ ॥
।
॥ ३१ ॥
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निर्गमं कुर्वतां नृणां करोति वा प्रदक्षिणाम् । अकार्येऽपि गतास्तेऽग्रे लभन्ते समरं नराः ॥३६ ॥ सम्मुखो यदि निर्मीको मण्डलो गच्छतां भवेत् । सन्मानं संपदं सौख्यं गतस्तत्र स लप्स्यते ॥ ३७ ।। लात्वा पुष्पं फलं मांसं प्रवेशं कुरुते गृहे । स्वर्ण रूप्यं धनं तस्य मण्डलः खलु दर्शयेत् ॥ ३८ ॥ सूर्योदये घनाः श्वानो स्वन्त्य॒र्धानना रविम् । प्रेक्ष्य नश्यन्ति ते ग्रामाः षण्मासावधितः स्फुटम् ॥ ३६ ।। ऊर्धास्यास्तेऽपि मध्याह्न प्रेक्ष्य भानु द्विजातिषु । कुर्वन्ति रोगिसङ्घातं शकुन रितीरितम् ॥ ४० ॥ सूर्यास्तसमये तेऽथ विधाय प्रसृतं मुखम् । तारं स्वन्तो दुर्मिक्षं कुर्वन्ति भानुदर्शनात् ॥४१॥ गृहे प्रविश्य चेदन्नं विक्षिपन् कथयत्यदः । गृहिणी हि ददात्यर्थ जारस्येति विचारय ॥४२॥ खनित्वोपरि गेहस्य पुरीषं कुरुते शुनि । जारस्यागमनं वक्ति पार्वे धनिकयोषितः ॥ ३३ ॥ प्रक्षालनं तु भाण्डानां पीत्वा पश्चात्पिबेत्पयः ।। षण्मासार्वाग् गृहस्थस्या-लीकं चटति तस्य हि ॥४४॥ काष्टाश्मनी दोरकं वा लात्वेकः प्रविशन् गृहम् । महानर्थोऽथवा तस्य म्रियते कोऽपि तद्गृहे ॥४५ ।।
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उत्सीर्षके पदं कृत्वा यदि शेते शुनिस्तदा । आगच्छद्वल्लभं वक्ति तद्वेश्मन्यचिरादपि ॥४६ ।। गच्छतो निग्रहे शत्रो-त्तिास्योऽभिमुखश्च सः ।। यद्यरिः सम्मुखोऽभ्येती-ति ज्ञेयं गच्छता तदा ।। ४७ ।। चलता रोगिणो गेहे यदि श्वायाति दक्षिणः । स रोगी मुच्यते रोगा-हुसौख्यं समश्नुते ॥४८ ।। नष्टस्यान्वेषणे यातां दक्षिणो भषणो व्रजेत् । गृहे स्थितिनां तल्लोत्रं समेति निजवेश्मनि ॥४६ | पान्थस्य गच्छतो ग्राम पुंश्चिह्न भषणो निजम् । लिहन्नुपपत्तिं वक्ति भागे वामे च दक्षिणे ॥५०॥ मृशलोखले सूर्प सणं पटुं च कुक्कुरः । दत्वोच्छीर्षे स्वपिति च जारमाख्याति तद्गृहे ॥ ५१ ।। नीरतीर्थे तटस्थश्चे-दङ्ग कम्पयते शुनिः । तत्र देशे धनां मेघ--वृष्टिं वदति भाविनीम् ॥५२॥ चन्द्राकौं प्रेक्ष्य वर्षासु रौत्यूचंवदनो यदि । ससरात्राद्वारि पतिष्यति वदत्यदः ॥५३॥ प्रसार्य चक्रमाकाशे जुम्भी कुर्वनिरीक्ष्यते । जलपातो भवत्याशु प्रचुरश्चेष्टयानया ॥५४॥ रटन् भ्राम्यंश्च रथ्यासु सहर्षेः प्रेक्ष्य भास्करम् । राजलोकाद्गृह्यतेऽर्थो विधृत्येति विचार्यताम् ॥ ५५ ॥
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६२
सम्मार्जनीं च कर्पासं सणकं मर्पकङ्कतौ । गृहीता सम्मुखोऽभ्येति तद्गृहं पूर्यते धनैः ॥ ५६ ॥ जम्भां दत्वा नभः प्रेक्ष्य मुश्चत्यणि रौति च । स्थाने तस्मिमिति ज्ञेयं विद्युत्पातो भविष्यति ॥ ५७ ॥ गच्छता दक्षिणः श्वानो वामः प्रविशतां भवेत् ।। कर्षकाणां स आख्याति कृषिकर्म विधत्त मा ॥ ५८ ॥ विवाहार्थे शुभः शुन्या विधत्ते प्रश्रवं यदि । ऊर्ध्व विवाहिता कन्या सुतसौख्यार्थभाग्भवेत् ॥ ५६ ।। गलं वक्त्रं शिरःकर्णी नेत्रे दक्षिणपाणिना ।। स्पृशन्नूछ विवाहार्थे श्वा दत्ते चिन्तिताधिकम् ॥६० ॥ वामांहिणा वामभागं वक्त्रं घर्षति चावनौ । कण्डूयते कुमायूढा सा रण्डा जायतेऽचिरात् ॥६१॥ हृष्टास्यं भषणं प्रेक्ष्य क्रीडन्तं कान्तया सह । विवाह्यते कुमारी या सा सौख्यं लभते तराम् ॥ २॥ अत्यातुरो व्यात्तवक्त्रः सम्मुखोऽभ्येति कुक्कुरः । शकुनेनानेन कन्यो-ढा स्याद् दुःखस्य भाजनम् ॥ ६३ ॥ पूर्वाह्न शकुना ये तु ते दिवा फलदायिनः । अपराह्न तु ते रात्रौ शकुनज्ञा वदन्त्यदः ॥६४ ॥ शीर्ष धुनानो यद्येति भषणः पथि वेगवान् । प्रवासिनोऽग्रे गतस्य कार्यसिद्धिर्भवेन हि ॥६५॥
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भषणः पङ्कलिप्ताङ्गः सम्मुखोऽभ्येति चेत्पथि । प्रवासिनो रुज प्राण-संशयं विदधात्यलम् ॥६६॥ विष्टां कृत्वा पुनर्भूमौ शुनको यदि घर्षति । ग्रामान्तरात्स आयाति पथिकः पादवर्जितः ॥६७ ॥ ये यान्ति भषणं प्रेक्ष्य लुठन्तं भूमिमण्डले । धनमानोज्झितां भिक्षा ते भ्राम्यन्ति गृहे गृहे ॥६॥ प्रदक्षिणेन करेण श्वा पाणि घर्षति वामकम् । एकच्छत्रं तदा राज्यं पथिकः समवाप्नुयात् ॥६६॥ गच्छता कन्यकार्थे तु श्वानो वामः प्रशस्यते । अकुलीनापि चेढा कन्या सा जायते सती ॥७० ॥ हलप्रवाहं प्रथमं कुर्वतां याति दक्षिणः । आगतापि कृषिर्गे हे कर्ष कैर्नापि भुज्यते ॥ ७१ ।। यदि वा निजपश्चिह्न पाणिग्रहणकर्मणि । लेढि गौरी समाप्यढा कलङ्कयति सा कुलम् ॥७२॥ दक्षिणेन करेण श्वा शीर्ष घर्षन् वदत्यदः । भाण्डागारगजोपेता भूरायत्ता प्रवासिनः ॥७३॥
इत्याचार्यश्रीमाणिक्यसूरिविरचिते शाकुनसारोद्धारे श्वानचेष्टाप्रकरणं नवमं समाप्तं ॥ श्रीरस्तु ॥६॥
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६४
आकस्मिकस्य युद्धस्या-नर्थम्य च निगद्यते । निमित्तमाकस्मिकश्च सर्वमत्र शुभाशुभम् ॥१॥ यस्य श्वानद्वयं स्थान-स्थितस्य वहवोऽथवा । कुर्वन्ति युद्धमीशाने क्षत्रेण क्षत्रियैः सह ॥ २ ॥ पूर्वस्यां दिशि युद्धयन्ते परचक्राहवस्तदा । काकद्वितीयमीशान्यां पक्षावास्फालयन् युधि ॥३॥ अन्यस्यामपि दीप्तायां दिश्याजये शुना वृतिः । वाग्विवादाय शान्तायां स्थानस्थफलमीदृशम् ॥४॥ चटकद्वयं घना वा युध्यन्तोऽग्रे पतन्ति निजमध्ये । वृद्धावृद्धिवश्यं विप्रचयो वा भवत्याशु ॥५॥ निपतन्त्यथ देहोपरि तदा भवेद्भार्यया सहोद्वेगः पश्चिमभागे चेदथ रिपुतो भीति समाख्यान्ति ॥ ६ ॥ नीडादौ तु चटकं यत्पुरतो लाति तस्य पीडा स्यात् । गृह्णात्यथ चटकं चे-झार्याकष्टं करोत्याशु ॥ ७ । चेत्करेणोपविष्टस्य सर्ववर्णनियोगिनः । स्थानस्थितस्यान्यत्रापि चटको मस्तके चटेत् ॥८॥ व्यापारिणस्तदान्यस्या--गमनं कथयत्यसौ । चटका वस्त्रलाभाय सौख्यव्यापारवृद्धिदाः ॥ 8 । युग्मं ।। विडालद्वयमीशान्यां स्थानस्थस्य करोति यत् । तत्तस्कारादियुद्धाया--ग्नये सन्तापहेतवे ।।१०।।
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युद्धयन्त ओतको वेष्ट---यन्ति सृष्टिं च वेष्टनात् । लाभदा व्यत्यये भीति कुयु भीतस्य तेऽशुभाः ॥११॥ नियोगिनोऽपरस्यापि स्वजनान्तः स्थितस्य चेत् । विडालिकामन्त्रयत ओतुर्वा दीर्घरावकृत् ॥१२॥ शत्रोदर्शनमाख्याति दीप्तदिश्यात्मनोऽशुभम् । शान्तायां शत्रुविद्वष्टि ओतोषं च रोदितम् ॥ १३ ॥युग ।। दीप्तायां नखरी जीवः सम्भोगः कुरुते दिशि । तस्य किश्चिद्वमहानिः शान्तायामफलं पुनः ॥ १४ ॥ वृष्टये किन्तु वर्षासु कोतू दीप्तदिशि स्थितौ । धृतस्य कुरुते विष्टा स विमुच्येत बन्धनात् ॥ १५ ॥ यम्य रोगाभिभूतस्य श्वानोऽकस्माद्गृहाङ्गणे । गृहोद्ध्वं वा स्वरं दीर्घ कुरुते तस्य पञ्चताम् ॥ १६ ॥ देवतावसरे यस्य देवगेहे. गतस्य वा । पटी ज्वलति तस्य स्या-महाकष्टपरम्परा ॥१७॥ गजकुलं प्रस्थितस्य यस्यैकोधिरथ द्वयम् । एडीस्यात्तेन नो गम्यं विज्ञप्तं तत्र निष्फलम् ॥१८॥ प्रभातसमये यस्या-दर्श दृष्टे मुखप्रभा । श्यामा राजभयं वार्ता यशुमा स्वस्थचेतसः ॥१६॥ यस्य रोगं विनाप्यनो--दकमास्वादवर्जितम् । करोति वार्तापशुभा--मथवा राजविड्वरम् ॥२०॥
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६६
नियोगिनः क्षत्रियस्य चेद् दुर्गा मस्तके विशेत् पदप्रतिष्टावश्यं स्याद् भूमिलाभः कुटुम्बिनः दत्ते भार्यामभार्यस्य सपत्नीदा पुनः स्त्रियः काको जनापवादं च शोकं वा मस्तके स्त्रियः शीर्षे नरस्योपविष्टः काको मृत्याद्यनर्थदः । तस्यैव मैथुनं दृष्ट्रं कष्टकुद्वत्सरावधि अकस्मात्तिलकं बाल-मपत्यं कुरुते यदि ।
यस्य तस्य समाख्याति शोकवार्ता दिनद्वयात् ॥ २४ ॥ अथ यस्य गृहभित्तौ ग्रहिलो बालश्च लिखति गेरुक्कया । महिष्यभिधानरूपे
कष्टं तस्यापि जायेत
।
॥ २१ ॥
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।। २२ ।।
॥ २३ ॥
।। २५ ।।
यस्य स्थानस्थितस्याग्रे दीप्तायामस्थिसञ्चयम् । शुनिर्विमुञ्चन् कष्टाय शान्तायामर्थसम्पदे ॥ २६ ॥ अहिरहिना सह युध्यन् भूपस्य कलिं करोति देहस्य | कष्टसार्था - नहियुद्धं दृष्टमचिरेण
अपरस्य
॥ २७ ॥
युद्धं
शत्रुपक्षतः
।। २८ ।।
सर्पनकुलयो --- लभिदं स्वामिनस्त्वपरस्यापि व्यवसाय फलप्रदम् तदेव रोगिणो रोगं क्षुधार्त्तस्य क्षुधं तथा बन्धनं तस्करस्यापि विनिहन्ति क्षणादपि ॥ २६ ॥
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नकुलद्वयस्य
स्वस्थस्यातिथिसङ्गमम्
।
युद्धं अस्वस्थस्य भयं दद्याच्छ्रन्यायां दिशि निष्फलम् ॥ ३० ॥
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नकुलस्तु दीप्ताशातो गृहं प्रविशन् सव्ययम् । कुरुते भषमाणः श्वा विशन् गेहमसद्वययम् ॥ ३१ ॥ श्वनकुलौ शान्तदीप्तौ विशन्तो विफलौ मतौ । रतं शकुनिकायास्तु दृष्टं लाभकरं नृणाम् ॥३२॥ बहिणो यस्य गेहोर्ध्व भ्राम्यन्ति लीलया खलु । सुखवार्ता सदा तेषां कथयन्त्यचिरादपि ॥३३॥ गृहोपरिष्टानीडं न शुभं देवगृहोपरि । स्वचक्रशङ्का देशस्य कुर्याद्दुष्टोऽपरो न हि ॥३४ ॥ वभित्तौ गृहे ग्रामे शकुनिका घना यदि । तत्र राजभयं कुयु-निविशन्त्यो भयेऽशुभाः ॥ ३५ ॥ यस्योपविष्टस्याशायां शान्तायां मुश्वती पलम् । तस्य लाभं ददात्यर्थ---व्ययं दीप्तदिशि स्थिता ॥३६॥ निविष्टा दिशि शान्तायां शकुनिर्भक्षती पलम् । प्राधूर्णकागमं कुर्या-द्दीप्तायां तस्करागमम् ॥३७॥ मृतं मुश्चति यस्याग्रे सर्पमन्यधनाप्तये ।। ततो राजोपद्रवञ्च कपदं वृद्धिहेतवे ॥ ३८ ॥ शीऐं यस्योपविशति दक्षिणांशे च वामके । शाकिनीभयदा बन्धु-~-पीडा श्वशुरकष्टकृत् ॥३६॥ चतुःपथे कृष्णसर्प ग्रामस्य नगरस्य वा । शकुनी मुश्चति स्थानं तद्राज्ञा दण्डयतेऽचिरात् ॥४०॥
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कृष्णाहिमोचन गेहे तत्स्वामिपुरुषार्तिदम् । स्त्रीशय्यायामुपविशन् सत्पत्नी स प्रयच्छति ॥११॥ शय्याविशंती सर्पिणी स्वामिनो घातिनी मता । रथोद्ध्वं भूपयात्रादौ विमुखा जयदा मता ॥४२ ।। पराजयं सम्मुखा सा जयं छत्रध्वजोपरि ।। शकुन्तिकोपविष्टा-स्या-द्विविधापि शुमा मता ॥४३॥ उद्दिष्टकन्यायाञ्चाये दृष्टाग्रे वजतः पथि ।। शकुन्तिकोपविष्टा च शत्रुधातं ददाति हि ॥४४॥ भत वर्गान्तकृत्कन्या-दानाय बजता पुनः । एवं विधेऽपशकुने पक्षद्वितयघातिनी ॥५७ ॥ युग्मं ॥ स्वस्थस्य बजतो ग्राम--मुपविष्टस्य वा समित् ।। उद्वेगाय तयोदृष्टं देशान्तराजये क्रमात् ॥४५॥ स्वस्थोपविष्टस्य यदक्षिदेशाद् गृह्णाति जीवं शकुनी द्रुतं च । तस्याशुभं वाच्यमथास्तकाले देशे स्वराष्ट्राद्भयमामनन्ति ॥४६॥
इत्याचार्यश्रीमाणिक्यसूरिविरचिते शाकुनसारोद्धारे प्राकस्मिकयुद्धप्रकरणं दशमं समाप्तम् ॥ श्रीरस्तु॥१०॥ अथ जाहकःयात्रायां जाहक प्रेक्ष्य न गम्यं निःस्वनश्रुतौ । गन्तव्यमेव यो नाम शृणोति तस्य सुन्दरम् ॥ १॥
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सङ्घा दितीर्थयात्रायां गच्छतो जाहकोऽप्रतः । स्थितो याति तदा यात्रां प्रमाणपदवीं नयेत् ॥२॥ जाहगृहीतसर्प-दर्शनं पार्श्वयोढयोः । दत्तोद्वेगं प्रयाणेषु पश्रात्कुर्यात् सुखं बहु ॥३॥ दुभिक्षाय तथा क्षेत्रे गच्छता तस्य दर्शनम् । परिणेतुर्गच्छतश्च विवाहे भङ्गकारकम् ॥४॥ नियोगिनो गृहीतव्या--पारस्य गच्छतः स्वकम् । देशं तदर्शनं चौराद्युपद्रुतं सदा भवेत् ॥५॥ अथ गृहोपकरणवस्तूनां निमित्तंदेवतावसरपट्ट--स्याकस्माद्भङ्गतो भवेत् । सिहासनस्य मंगेन स्थानभ्रंशोऽचिरादपि ॥६॥ ज्वलितेन देहकष्टं शय्याज्वलनेन वल्लभापीडा। कौसुंभरक्तवस्त्र-प्रज्वलने भतु रोगः स्यात् ॥७॥ अंगलग्नपरीधान--पटीप्रज्वलने महत् कष्टं स्यादपमानं च दौर्भाग्यं कञ्चुके पुनः ॥८॥ देवानां यवनिकया दीपितया चित्तनाशमाप्येत् । स्त्रीवस्त्रप्रज्वलने-कस्माजायेत गुरुकष्टम् ॥६॥ गेहमध्ये विना वह्नि निश्युद्योतः शुभो न हि । स्वाम्यरिष्टं देवकोपो वहीपुस्तकदीपने ॥१०॥
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शस्त्रज्वलने समर--श्छत्रध्वजदीपने च घातकभीः । देवध्वजाश्वलांगूल-ज्वलने देशस्य नाशः स्यात् ॥ ११ ॥ बालस्य बालपोतानां ज्वलनं पूर्वतोऽशुभम् । दयित्वा करोत्यन्ते तं पोतं सौख्यदं पितुः ॥ १२ ॥ राजमार्ग प्रतोल्याश्च चलने नृपतिः परः । परचक्रागमो वा स्याद् दुर्भिक्षं वा प्रजामृतिः ॥१३॥ दीपिकापतनं स्वामि--समीपे गच्छतोऽशुभम् । स्वामिनोऽथ विवाहे च वरस्य सुखकन्न हि ॥१४॥ यात्रायामात्मनो दुष्टं रोगिणोन्तविधायकम् । व्यवसाये न लाभाय दीपिकापतनं भवेत् ॥१५॥ पितृश्राद्धं कारयित्वा नखकेशादिकर्तनम् । रतादि कृत्वा द्यूतं च यात्रा सूतकद्वये ॥ १६ ॥ सिद्धार्थाः सम्मुखाः श्रेष्ठा--स्तत्तैलं त्यज्यते पुनः । शुष्कच्छगणकयोगं लवणावकरं त्यज ॥१७॥ तोरणदितं वामे शुभप्रदं सम्मुखं च तदशुभम् । पृष्ठं च पृष्ठघाते परं न दृश्यो रुदितकारी ॥१८॥ केशास्थिचर्मगुडतक्रवशातृणानि,
कासगूथतुषाश्मिरुजोरुगार्ताः। अङ्गारकपरतिलन्तुदवद्धदेहा
श्छिन्नाङ्गबागुरिकलुब्धकसर्वशाखाः ॥ १६ ।।
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लोष्टारघट्टिकघरट्टविषाणितकु
श्चुल्लीकिलिअपरिवर्तिकशौंडिकाश्च । सूधिमणतितयूखलपिञ्जनानि,
मृदाण्डिकारजकयाचकभडकाश्च ॥ २० ॥ लोहकारदिवाकीर्ति-मुख्या: पूर्वोदिता अमी ।। प्रयाणे सम्मुखास्त्याज्याः सर्वेऽप्यन्त्यजजातिजाः ।। २१ ।। खटीपुटीसपुटीकासराव-युग्मं कपाटानि कपदमीक्षः । दुर्वाहसंतीकुशरत्ननिधानकुम्भि-पिण्डोत्तमणोरूवितानधन्याः।। सेतिकाशकरोपान-साभृतं व्यवहारिकः प्रतिसीराप्रभृतयो-ऽभिमुखाः सर्वसिद्धये ॥२३ ।। दृष्टे सर्प विडाले च गमनं नैव सुन्दरम् । पल्लीशशकगोधाखु-शरटेऽपि ब्रजेन्न हि ॥ २४ ॥ यद्येते सम्मुखा एयु--र्दैवादुर्यागतो वृकाः । अर्थनाशं मनस्तापं मृतिं कुर्यः प्रवासिनः ॥ २५ ॥ रासभाश्वतरोष्ट्राणां ध्वनितं वापतः शुभम् । तरक्षद्विपिशाईलाः शुभा वापविराविणः ॥ २६ ॥ राजकीरष्टिट्टिभश्च वामरावौ सदाहतो । कपिञ्जलः कुकुटश्च शुभौ दक्षिणभाषिणी ॥ २७ ॥ काको वामे लपन भव्यो मधुरं वाञ्छितार्थदः । अजित्वा दक्षिणात्करं दत्तंऽनर्थ घनं पुनः ॥२८॥
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दक्षिणे वामभागे वा वनिता कोकिला शुभा । शकुन्तिकाग्रे वामे च गृह्यते यायिभिः पथि ॥ २६ ॥ निर्धनानां धनं दत्ते दक्षिणो वृद्धतित्तिरः । पृष्ठप्रदेशे गृध्रस्तु कार्यसार्थकगे लपन् ॥ ३० ॥ रजकी नीलचटिका दृष्टापि कार्यनाशिनी । पक्षयोरुभयोग्राह्य कपिमर्कटबूस्कृताम् ॥३१॥ त्राटुकृतं वृषभस्यापि श्रुतं दृष्टं च कामदम् । बृहितं तु गजस्येवं श्रुतस्तु महिषीरवः ॥ ३२ ॥ प्रयाणे ब्राह्मणी वामा शुभाय शिखितांडवम् । कीर्तनं दर्शन केका विषमाः केकिनो मताः ॥ ३३ ॥ शशोत्वहिपोत्रिगोधाः कीर्तनादेव सत्तमाः । वभुखञ्जनचापाजा-स्त्रिधापि शुभकारिणः ॥३४॥ पुष्पाक्षतादिविनाधि-गणं सम्पूजयेत्सदा । गृहीत्वा निशि गच्छेत वाम गोशुचिपौरुषौ ॥३५ ।। अन्त्यजादिमन्दिरेषु सुस्पष्ट शृण्वतो गिरम् । उपश्रुतिरियं ज्ञेया सा तथैव शुभाशुभा ॥३६ ।। रथाङ्गहंसराजकीर-चटकाः सारसास्तथा । लट्टाचकोरचाषाश्च पक्षिणः खञ्जनादयः ॥३७॥ दक्षिणा गतिरेतेषां कीर्तनं दृष्टिदर्शनम् । स्वरश्च सर्वकार्येषु ददात्यविकलं फलम् ॥३८॥ युग्मं ॥
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भारद्वाजक्रौञ्चचाप-शिखिनां दर्शनं श्रिये ।। भाग्येन भूरिणा तेषां लभ्यते दक्षिणा गतिः ॥ ३९ ॥ रूप्यवर्तिका दृष्टाप्यु-भयत्र गमनाशुभा । नखिनो दंष्ट्रिनो जीवा वागमाः शुमदाः सदा ॥ ४०॥ उलूको भैरवा क्रोष्टी तथा वृद्धविनायकः । एतेषामेकमेवाङ्गम् प्रवेशे गमनेऽपि च ॥४१॥ प्रयाणे ये शुभाः प्रोक्ताः शकुना वामदक्षिणाः । प्रवेशे व्यत्ययात्ते च भवन्ति फलदा भृशम् ॥ ४२ ।। लाभ हानि विदधति मुदं दुःखमेकान्तरौद्रमायुर्घ मरणमथवा सर्वकामार्थ सिद्धिम् । ये संग्रामे विजयमतुलं भंगदा ये च वक्तुः ॥ तेषां भावं क इह शकुनानां प्रगल्भप्रभावः ॥ ४३ ॥ ये जन्मादि शुभाशुभं विवृणुते कालावधि प्राणिनां । याप्तं निखिलं जगत्त्रयमिदं येभ्यो विना किञ्चन ।। ज्ञानं भूतभविष्यमावि विषयं विज्ञायते न स्फुटं । विश्वोन्मेषकरा जयन्तु शकुना अभ्यांसभास्वत्प्रभाः॥४४॥ दुरन्तदारिद्रयतमोनिहन्त्री ज्ञानद्रुपां क्रूरजनुर्धरित्री। मनीषिणां कण्ठमलङ्करोतु शास्त्राधिजा शाकुनरत्नमाला ॥४॥ सारं गरीयः शकुनार्णवेभ्यः पीयूषमेतद्रचयाश्चकार । माणिक्यसूरिः सुगुरुप्रसादा-द्यत्पानतः स्याद्विबुधप्रमोदः।४६
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गुम्फेऽस्मिन् यत्कुटं सञ्जातं बुद्धिविभवकल्यात् । कृत्वा मयि प्रसादं तत्सर्व शोधयन्तु बुधाः ॥ ४७ ॥ वसुविह्निचंद्र-ऽन्दे(१३३८)सुयुजे पूर्णिमातिथौ रचितः। शकुनानामुद्धारो-ऽभ्यासरशादस्तु चिद्रूपः ॥४८॥ इत्याचार्यश्रीमाणिक्यसूरिविरचिते शाकुनसारोद्धारे सर्वसंग्रह
प्रकरणमेकादशं समाप्तम् ॥ श्रीरस्तु॥११॥
॥ इति श्री माणिक्यसूरिविरचित ॐ श्री शाकुन सारोडारः समाप्तः ॥ COOOOOO
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