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आगमोद्धारक-ग्रन्थमालायाः सप्तदशं रत्नम् ।
ॐ नमो जिनाय । आगमोद्धारक-आचार्यप्रवरश्री-आनन्दसागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।
महोपाध्याय-श्रीमद्-धर्मसागरगणिविरचितं सूत्रव्याख्यानविधिशतकम्।
संशोधकः
प०पू० गच्छाधिपति-आचार्य-श्रीमन्माणिक्यसागर
सूरीश्वरशिष्यः मुनिलाभसागरः।
प्रतयः ५००]
[मूल्य २.०० न०पै० वीर संवत् २४८८: वि० सं० २०१८
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आगमोद्धारक-ग्रन्थमालायाः सप्तदशं रत्नम् ।
ॐ नमो जिनाय। आगमोद्धारक-आचार्यप्रवरश्री-आनन्दसागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।
महोपाध्याय-श्रीमद्-धर्मसागरगणिविरचितं सूत्रव्याख्यानविधिशतकम्।
संशोधकः प०पू० गच्छाधिपति-आचार्य-श्रीमन्माणिक्यसागर
सूरीश्वरशिष्यः मुनिलामसागरः।
प्रतयः ५०० ]
[ मूल्य २.०० न०पै० वीर संवत् २४८८ :: वि० सं० २०१८
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प्रकाशिका मीठाभाई कल्याणचंद पेढी, कपडवंज (जि० खेड़ा)
द्रव्यसहायककलकत्ता (गुजराती) श्वेताम्बर मूर्तिपूजक तपागच्छ जैन संघ
६६, कैनिंग स्ट्रीट कलकत्ता-१
मुद्रक :सुराना प्रिण्टिग वक्स ४०२, अपर चितपुर रोड, कलकत्ता-७
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किंचिद् वक्तव्य ।
आ स्वोपज्ञवृत्तिविभूषित 'सूत्रव्याख्यानविधिशतक' नामनो ग्रन्थ जिनागमना अभ्यासी एवा बुधजनोना करकमलमां अर्पण करवामां आवे छे ।
आ ग्रंथना रचयिता बहुश्रुत-महोपाध्याय श्रीमद धर्मसागरगणिवर छ । जो के ग्रन्थकारे आखा ग्रन्थमां क्यांय पोताना नामनो निर्देश कर्यो नथी, परन्तु आ ग्रन्थनी हस्तलिखित पुस्तक उपर 'महोपाध्याय श्रीधर्मसागरगणिवरकृतं' आवो ऊल्लेख छे, ए विगेरे उपरथी आ ग्रन्थना रचयिता पू० उपाध्यायजी संभवित छ । पूज्यश्रीना प्रतिबोधकगुरु जीवनपर्यन्त विगइना त्यागी पंडित शिरोमणी पू० श्री जीवर्षिगणि हता, प्रव्रज्याहेतु गुरु पू० आचार्य श्री आनन्दविमलसूरिजी अने ज्ञानसंपद् गुरु पू० आचार्यश्रीविजयदानसूरिजी हता।
पूज्यश्री विद्याध्ययनमाटे पू० आचार्यश्री विजयहीरसूरिजी साथे देवगिरि पधार्या हता अने न्यायशास्त्रमा निष्णात थया हता। पूज्यश्रीने वि० सं० १६०८ वर्षे पू० आचार्य श्री विजयदानसूरिजीए उपाध्यायपदथी अलंकृत कर्या हता ।
पूज्यश्रीए कल्पकिरणावली-प्रवचनपरीक्षा-तत्त्वतरंगिणीमहावीरजिनस्तुति विगेरे अनेक ग्रन्थोनी रचना करीने जिनशासननी अजोड़ सेवा करी छ ।
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[ घ ] पूज्यश्रीना उपाध्याय-श्रीश्रुतसागरगणिविगेरे विद्वान् शिष्यो तेमज उपाध्याय-श्रीशांतिसागरगणि विगैरे अनेक प्रशिष्यो हता।
संशोधनमा अमदावाद डेलाना उपाश्रयना हस्तलिखितज्ञानभंडारनी प्रति उपरथी शासनकंटकोद्धारक गणिवयं श्री हंससागरजी महाराजजीना शिष्य ज्योतिर्विद मुनिवर्य श्री नरेन्द्रसागरजी महाराजजीए स्वहस्ते लखेली अने सुरत श्री जैनानन्दपुस्तकालयनी प्रति उपरथी संशोधित बुक अमोने प्राप्त थइ हती।
तेना आधारे आ ग्रन्थ, सावधानीथी संशोधन करवामां आव्यं छे छतां कोइ भूल रहेली जणाय तो सुज्ञोए सुधारी वांचq ए अभ्यर्थना ।
लि० कलकत्ता, कार्तिक सुदी पंचमी संशोधक
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प्रकाशकीय निवेदन |
-
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प०पू० गच्छाधिपति आ० श्री माणिक्यसागरसूरीश्वरजी महाराज आदि ठाणां वि० सं० २०१० ना वर्षे कपडवंजशहरमा मीठाभाइ गुलालचन्दना उपाश्रये चातुर्मास बीराज्या हता आ अवसरे तेओश्रीना पवित्र आशीर्वादे आगमोद्धारकग्रन्थमालानी स्थापना थएली हती । आ ग्रन्थमालाए त्यारबाद प्रकाशनोनी प्रगति ठीक-ठीक करीछे ।
तेओश्रीनी पुण्यकृपाए आ 'सूत्र व्याख्यान विधिशतक' नामना ग्रन्थने आगमोद्धारक ग्रन्थमालाना १७ मा रत्नतरीके प्रगट करतां अमने बहु हर्ष थाय छे I
आनी प्रेसकोपी मुनिवर्य श्री लाभसागरजी महाराजजीए करेली छे तेमज आनुं संशोधन प० पू० गच्छाधिपति आ० श्री० माणिक्यसागरसूरिजीनी पवित्रदृष्टि नीचे तेओश्रीए करेल छे, ते बदल तेओश्रीनो तेमज जेओए आना प्रकाशनमां द्रव्य तथा प्रति आपवानी सहाय करीछे ते बधानो आभार मानीए
वीए ।
लि०
रमणलाल जयचन्द
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शुद्धिपत्रम् ।
पृ० पं०
अशुद्धम् भुकते
शुद्धम् भुङ्क्ते
णाम
णामम
उवग्धा
उग्धा
वन्ध्य
न्तरो
२२ ४ ३१ १५ ३१ २१ ४२ २
वन्ध्य नन्तरो प्पमुहा
पमुहा
जिन
निज
४८ १८
जन जैन
ग्रह ताया अपरि तायाः परि
उद्वृत्त्य उद्धृत्य अनन्तरोक्तागमबाधानुरोधेन प्रज्ञापना-- वृत्त्यभिप्रायेण च युक्त्या तथा भणने न कश्चिद् दोषः इति प्रत्यन्तरे ।
९० २२
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सूत्रव्याख्यानविधिशतकस्य विषयानुक्रमः ।
पृष्ठम्
विषयः
- सूत्रेषु सामायिकस्य प्रथमाध्ययनत्वं तत्रापि ' णमो अरिहंताणं' इत्यस्य
प्रथमपदत्वम् ।
गणधर कृतसूत्रस्य स्वरूपं सूत्रलक्षणं सूत्रगुणाश्च ।
द्वात्रिंशत् सूत्रदोषाः ।
सूत्रव्याख्यानस्य कर्तुः श्रोतुश्च स्वरूपम् ।
अनुयोगस्य प्रकारत्रयम् ।
नियुक्तेः प्रकारत्रयम् ।
उद्देशादि २६ द्वाराणां किञ्चिद् व्याख्यानम् ।
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तीर्थातीर्थयोः स्वरूपम् ।
प्रकारान्तरेण तीर्थस्वरूपं कुत उत्पन्नं कियत्कालस्थायि च ।
साम्प्रतं तपागणस्यैव तीर्थत्वम् ।
महानिशीथसूत्रप्रमाणवादिनां तीर्थलम् ।
लौकिकलोकोत्तरभेदेन उन्मार्गस्य द्वैविध्यम् ।
दिगम्बर- पौर्णिमीयकादीनां तीर्थाभासत्वं शिवभूति चन्द्रप्रभाचार्यादीनां
लौम्पक मतस्वरूपम् |
भगवत्यां नन्दी-जीवाभिगमादीनां अतिदेशः ।
चरमश्रुतचरस्य श्रुते प्रक्षेपोद्धारादेरधिकारः ।
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४
७
तीर्थकराभासत्वं च |
२२
बोटिकस्य वीर सं० ६०९ वर्षे रथवीरपुरे उत्पत्तिः ।
२३
देश विरतानां सुवर्णादिप्रतिमावत् साधूनां धर्मोपकरणस्यापरिग्रहत्वम् । २५
पूर्णिमापक्षस्य उन्मार्गत्वावगमोपायः ।
२७
२६
३२
३४
१०
११
१३
१४
१५
१६
१७
२१
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[ ज । भिल्लदृष्टान्तेन एकपदस्यानेकार्थत्वम् । मिथ्यात्वस्वरूपम् । सम्यक्त्वस्वरूपं मिथ्यात्वविभागश्च । आगाढमिथ्यात्वस्य विभागः। तीव्रमिथ्यादृशां मार्गानुसारिकृत्याभावः । मार्गानुसारिकृत्यस्य स्वरूपम् । उत्सूत्रभाषी जिनवचनानुवादी न भवति । दिगम्बरादीनामादिकर्तारः। शिष्यत्वं विना गुरुत्वाभावः। उत्सूत्रभाषिणां धर्मकथाश्रवणादिनिषेधः । लोकोत्तर मिथ्यादृशामुत्पत्तिस्वरूपम् । लौकिकमिथ्यात्वस्य आभिग्रहिकादिप्रकाराः तत्स्वरूपं च । व्यक्ताव्यक्तमिथ्यात्वस्वरूपं कर्मवादिस्वरूपं च । भव्यानां अव्यवहारिक-व्यवहारिक भेदं तत्सम्बन्धिकालं च । क्रियारुचिभवनकालः तचिह्न च । सम्यक्त्वप्राप्तियोग्यताकालः । अभव्यानां व्यवहारिकत्वाभावः। सांशयिकानाभिग्रहिका भिग्रहिकाभिनिवेशिकानां उत्तरोत्तरं
तीव्रतीव्रतरत्वं । नागपुरीयलौम्पकमतस्य मूलप्ररूपणा । जैनप्रक्रिया। लौम्पकमतखण्डनम् ।
१०८
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ॐ नमो जिनाय आगमोद्धारक-आचार्य-श्रीआनन्दसागरसूरीश्वरेभ्यो नमः । महोपाध्यायश्रीधर्मसागरगणिप्रवरप्रणीतं स्वोपज्ञवृत्तिविभूषितं
व्याख्यानविधिशतकम्। ॥ श्री गुरुभ्यो नमः ।। इह हि तावत् जैनप्रवचनमात्रस्य व्याख्यानविधेर्दिशं दर्शयितं सूत्रव्याख्यानविधिशतकाभिधानस्य प्रकरणस्य निर्विघ्नपरिसमाप्त्यर्थ मंगलं, श्रोतुः प्रवृत्त्यर्थ चाभिधेयं दिदर्शयिषः प्रथमगाथामाह--
णमिऊण महावीरं, जिणवयणं अत्थवायगं गहिउँ । सुत्तरयणाइ रइयं, जह णायं तह पवक्खामि ॥ १ ॥
व्याख्या--महावीर-श्रीमहावीरनामानं तीर्थकरं, नत्वाप्रणम्य, जिनवचनं-तीर्थकृभाषितं, अर्थवाचकं -जीवाजीवादिपदार्थवाचकं शब्दसमूह, गृहीत्वा-आदाय तीर्थकृन्मुखान्निशम्य, सूत्ररचनया-गद्यपद्यबन्धुररचनया ( रचितं ) निबद्धं सत् यथा ज्ञातं-गुरुपारम्पर्यागतेनाऽऽगमेनावगतं तथा वक्ष्यामीति । अत्र प्रथमपादेन मंगलमुत्तरपादत्रिकेण चाभिधेयं दर्शितमिति गाथार्थः ॥ १ ॥
अथ यथा ज्ञातं तथाऽऽगमोक्तामेव गाथामाह-- अत्थं भालइ अरहा, सुत्तं गंथंति गणहरा निउणं । सासणस्स हिअट्ठाए, तो सुत्तं पवत्तइ ॥ २ ॥
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व्याख्यान विधि
___ व्याख्या--अर्थ-जीवादिपदार्थ, कारणे कार्योपचारात् पदार्थविषयकज्ञानजनकत्वेन जीवाजीवादिपदार्थवाचकशब्दसमूह, भाषतेऽर्हन्-जिनेन्द्रः, तत् श्रुत्वा गणधराः-गौतमादयः सूत्रं---गद्यपद्यरचनात्मकं वक्ष्यमाणनिर्दोषत्वाद्यष्टगुणोपेतं, प्रश्नन्ति-निबध्नन्ति, कथं ? निपुणं यथा स्यात्तथा, सूत्ररचनायां नैपुण्यं तावत् सूत्रलक्षणोपेतसूत्ररचनेनैव स्यात् । तत्र सूत्रलक्षणमनन्तरं वक्ष्यते । अथ सूत्रलक्षणोपेतसूत्ररचनायाः प्रयोजनमाह'सासणस्स' इत्यादि। शासनस्य हितार्थ-सर्वसम्पत्प्राप्तिहेतव इत्यर्थः । अनेन भणनेन तीर्थव्यतिरिक्तानां लौकिकलोकोत्तरमिथ्यादृशां सम्यक्त्वानभिमुखानां हितं न भवत्येवेत्यर्थादापन्नमवसातव्यं, मिथ्यादृगभिमतमार्गाणां नाशकत्वात् । यदाऽऽगमः--
णिबुइपहसासणयं, जयइ सया सवभावदेसणयं । कुसमयमयणासणयं, जिणिंदवरवीरसासणयं ॥१॥
इति सूत्ररचनादिनादारभ्य तीर्थ यावत्सूत्रप्रवृत्तिरिति गाथार्थः ॥ २ ॥ ___ अथ गणधररचितेषु सूत्रेषु किं प्रथममध्ययनं १ तत्रापि किं प्रथमं पदमिति दर्शयन्नाह
सव्वेसि सुत्ताणं, सामाइअसुत्तमाइमझयणं । तस्साइपयं तु णमो-अरिहंताणं समयसिद्धं ॥३॥
व्याख्या-सर्वेषां सूत्राणां-गणधररचितानां मध्ये प्रथममध्ययनं सामायिकसूत्रं 'सामाइअमाइअं सुअनाणं जाव बिंदुसाराओ'त्ति आवश्यकनियुक्तिवचनात् । तस्याप्याद्य पदं
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शतकम्।
"णमो अरिहंताण'मिति समयसिद्धं-समये-जैनशासने बालका. नामपि प्रतीतत्वात् सिद्ध-सिद्धिप्राप्तं, नमस्कारस्य सामायिकाध्ययनान्तर्गतत्वादिति गाथार्थः ।। १ ॥
अथ 'नमो अरिहंताण' मितिपदस्य सूत्रत्वेन तल्लक्षणपरिज्ञापनाय सामान्यतो गणधरकृतसूत्रस्य स्वरूपमाहगणहररइयं सुत्तं, लक्खणजुत्तं हविज्ज णियमेण । तल्लक्खणं तु आगम-भणि तह किंचि दंसेमि ॥४॥
व्याख्या-गणधररचितं सूत्रं नियमेन-निश्चयेन लक्षणयुक्तं, एवो गम्यो, लक्षणयुक्तमेव भवेत् । तच्च यथाऽऽगमे भणितं तथा किंचिद्दर्शयामीति गाथार्थः ॥ ४ ॥ __अथ सूत्रलक्षणमाहअप्पग्गंथ १ महत्थं २, बत्तीसादोसविरहिनं ३ जं च । लक्खणजुत्तं सुत्तं ४, अट्ठहि अ गुणेहि उववेअं ॥ ५ ॥
व्याख्या-अल्पग्रन्थं च महाथ चेति विग्रहः । उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त सदितिवत् द्वात्रिंशदोषरहितं यच्च लक्षणयुक्तं अष्टभिर्गुणैरु(प)पेतं सूत्रं भवति । ते चाष्टौ गुणा अमीणिदोसं १ सावंतं च २ हेउजुत्त ३ मलंकिअं ४ । उवणीयं ५ सोक्यारं च ६, मिअं७ महुर ८ मेव य॥१॥त्ति।
तत्र निर्दोषं च वक्ष्यमाणद्वात्रिंशद्दोषरहितं, सारवत्-बहुपर्यायं गोशब्दवत् सामायिकवद्वा, अन्वयव्यतिरेकलक्षणा हेतवस्तैयक्तं, अलंकृतं-उपमानादिभिरुपेतं, उपनीतं च-उपनयोपसंहृतं, सोपचारं-अग्राम्याभिधानं, मितं-वर्णादिनियतपरिमाणं, मधुरं श्रवण
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व्याख्यान विधि
मनोहरमिति । अल्पग्रन्थमहार्थताभणनेन नियुक्तिभाष्यचादयोऽभ्युपगन्तव्या इति दर्शितं । तेषामेव सूत्रार्थरूपत्वात्, अन्यथा महार्थताया असम्भवात् । क्वचिदन्येऽपि सूत्रगुणा यथा
अप्पक्खर१ मसंदिद्धं २, सावं ३ विस्सओमुहं ४ । अत्थोभ ५ मणवज्ज ६, सुत्तं सवण्णभासि ॥ १ ॥
अल्पाक्षरं--मिताक्षरं सामायिकाभिधानवत्, असन्दिग्धंसैन्धवशब्दवत् लवणोदकाद्यनेकार्थसंशयकारि न भवति, सारवत्-बहुपर्यायं, विश्वतोमुखं-प्रतिसत्रमनुयोगचतुष्टयाभिधानात् , अस्तोभकं-वैहेहकारादिछिद्रपूरणस्तोभशून्यं स्तोभका-निपाताः, अनवद्य-अगर्दा अहिंसाद्यभिधायकं 'षट्शतानि नियुज्यन्ते, पशूनां मध्यमेहनि । अश्वमेधस्य वचनान्न्यूनानि पशुभिस्त्रिमि' ॥१॥ रित्यादिवचनवत् हिंसाद्यभिधायकं न भवति। एवविधं सत्रं सर्वज्ञभाषितं भवतीति गाथार्थः ॥ ५ ॥ ____ अथ सूत्रलक्षणे भणितान् द्वात्रिंशतो दोषानाहअलिअ १ मुवधायजणयं २, इच्चाइअसंधिदोसपज्जंता । बत्तीसा सुत्तदोसा, भणिआ णिज्जुत्तिअणुओगे ॥ ६ ॥ __व्याख्या--- अलीकोपघातजनकमित्यादिसन्धिदोषपर्यंताः द्वात्रिंशद्दोषाः सत्रस्य भणिताः नियुक्त्यनुयोगे-नियुक्तिव्याख्याने अर्थान्नमस्कारनियुक्तिव्याख्यानस्यादौ श्रीहरिभद्रसूरिभिरिति गम्यं, तथाहि-- अलिय १ मुवघायजणयं २, णिरत्थय ३
मवत्थयं ४ छलं ५ दुहिलं ६ ।
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शतकम् ।
णिस्सार ७ महिअ ८ मूणं ९
पुणरुत्तं १० वाहय ११ मजुत्तं १२ ॥ १ ॥ कमभिण्ण १३ वयणभिण्णं १४,
विभत्तिभिण्णं १५ च लिंगभिण्णं १६ च । । अणभिहिअ १७ मपयमेव य १८,
सहावहीणं १९ ववहिअं २० च ॥ २॥ काल २१ जइ २२ च्छवि २३ दोसा
समयविरुद्धं २४ च वयणमित्तं २५ च । अत्थावत्तीदोसो २६, णेओ असमासदोसो२७ अ ॥ ३ ॥ उवमा २८ रूवगदोषो २९, णिद्देस ३०
__ पयत्थ ३१ संधिदोसो अ ३२ । एए उस्सुत्तदोसा, बत्तीसं हुंति णायव्वा ॥ ४ ॥
एतासां गाथानां वृत्तिव्याख्यानुसारेण सक्षेपार्थस्त्वेवंअलीक-अनतं अभूतोद्भावनं भूतनिन्हवश्च ईश्वरकर्तृकं जगत्, नास्त्यात्मेत्यादि । १ । उपघातजनक-जीवधातहेतुः, यथा-वेदविहिता हिंसा धर्मायेत्यादि ।२। निरर्थक-वर्णादिनिर्देशमा अ आ इ ई इत्यादि । ३ । अपार्थक-पौर्वापर्यादप्रतिसम्बद्धार्थ, यथा-दश दाडिमानीत्यादि । ४ । छलं-नवकम्बलो देवदत्त इत्यादि । ५ । द्रुहिलं-द्रोहस्वभावं, यथा-यस्य बुद्धिर्न लिप्येत, हत्वा सर्वमिदं जगत इत्यादि । ६। निस्सारं-परिफल्गु, वेदवचनवत् । ७। अधिकं-वर्णादिभिः । ८ । तैरेव हीनं न्यूनं । ९ । पुनरुक्तता-शब्दतोऽर्थतश्च इन्द्र-इन्द्र इत्यादि,
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ब्याख्यान विधि
Runni.antar
इन्द्रः शक्र इत्यादि । अथवा अर्थादापन्नस्यार्थस्य स्वशब्देन पुनरुक्तता, यथा-देवदत्तो दिवा न भुङ्कते इत्युक्ते अर्थादात्री भुकते इति, तस्य च साक्षाच्छब्देन भणनं पुनरुक्तता । १० । व्याहतं-पूर्वापरल्याहतिः, यथा-कर्म चास्ति फलं चास्ति कर्ता च नास्तीत्यादि । ११ । अयुक्तं-अनुपपत्तिक्षम, यथा-तेषां गजतटभ्रष्टै-गजानां मदबिन्दुभिः । प्रावर्तत नदी घोरा, हस्त्यश्वरथवाहिनी ॥१॥ त्यादि । १२ । क्रमभिन्नं यथा-शब्दरूपादयः श्रोत्रचक्षुरादीनां विषयः, तत्र रूपशब्दादय इति भणनं । १३ । वचनभिन्न-यथा-वृक्षावेतौ पुष्पिता इत्यादि । १४ । विभक्तिभिन्न-विभक्तिव्यत्ययः, एष वृक्ष इति वक्तव्ये एष वृक्षमिति भणनं । १५ । लिङ्गभिन्न-लिङ्गव्यत्ययः, यथाअयं स्त्रीरित्यादि । १६ । अनभिहितं-स्वसिद्धान्तेऽनुपदिष्टं, यथा-वैशेषिकस्य दशमं द्रव्यं प्रकृतिरूपमित्यादि । १७ । अपदं-अन्यच्छन्दोऽधिकारे अन्यच्छन्दोऽभिधानं, यथा-आर्यापदे वैतालीयाभिधानं ॥ १८ ॥ स्वभावहीनं-वस्तुनः स्वभावतोऽन्यथाभिधानं, यथा-शीतो वहिरित्यादि । १९ । व्यवहितंअन्तर्हितं प्रकृतमुत्सृज्याप्रकृतं व्यासतोऽभिधाय पुनः प्रकृतभणनं । २० । कालदोषः-कालव्यत्ययः, यथा-रामो वने विशतीत्यादि ।२१ । यतिदोषः-अस्थानविरतिरविरतिर्वा । २२। छविः-अलङ्कारविशेषस्तेन शून्यं । २३ । समयविरुद्धंच-स्वसिद्धान्तविरोधि, यथा-वैशेषिकस्य सप्तमः पदार्थः प्रकृतिरूपः । २४ । वचनमात्रं-यथा अयं प्रदेशो लोकमध्य
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मित्यादिभणनं । २५ । अर्थापत्तिदोषः - यत्रार्थादनिष्टापत्तिः,
इत्यर्थादब्राह्मणघातापत्तिः । २६ ।
1
यथा ब्राह्मणो न हन्तव्य असमासदोषः समासविधौ सत्यसमासकरणं, यथा- राजपुरुष इत्यत्र तत्पुरुषसमासे कर्तव्ये विशेषणसमासकरणं बहुव्रीहिसमासकरणं वेत्यादि । २७ । उपमादोषो यत्र हीनाधिका उपमा क्रियते, यथा-मेरुः सर्वपोपमः सर्षपो मेरुसन्निभ इत्यादि |२८| रूपकदोषः यथा पर्वते निरूपयितव्ये शिखरनिरूपणं । २९ । निर्देशदोषो - वाक्यासमाप्तिदोषः, यथा - देवदत्तः स्थाल्यामोदनमित्येव वक्ति, न पुनः पचतीत्यादि ३० । पदार्थदोषः - यत्र वस्तुनः पर्यायस्य पदार्थान्तरत्वेन कल्पना, यथा-द्रव्यपर्यायाणां सत्तादीनां पदार्थान्तरत्वेन कल्पनं वैशेषिकस्य ३१ । असन्धिदोषः सन्धिप्राप्तौ तदकरणं दुष्टसन्धिकरणं वेत्यादि ३२ । इत्येवं सूत्रस्य द्वात्रिंशद्दोषा हारिभद्य सविस्तरं भणिताः, अनुयोगद्वारे च 'अप्परगंथ महत्थं बत्तीसादोसविरहिअं जं चेत्यादिना सूचिता अपि तद्वृत्तावतिदिष्टा इतिगाथाथः || ६ ||
「
अथोक्तलक्षणस्य सूत्रस्यानुयोगः कथं केन कर्तव्यः केन च श्रोतव्यः १ इत्याह-
एवंविह सुत्तस्स उ, तिहिं पयारेहिं होइ अणुओगो | कायो सुगुरूहिं, सोअच्वो णिउणसीसेहिं ||७||
व्याख्या -- एवंविधस्य सूत्रस्यानुयोगो व्याख्यानं, त्रिभिः प्रकारैरनन्तरवक्ष्यमाणगाथोक्तप्रकारैः सुगुरुभिः कर्तव्यः, श्रोतव्यः श्रोतव्यश्च निपुण शिष्यैः । तत्र गुरोः शोभनत्वं
चकारो गम्यः,
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७
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व्याख्यान विधि
तावत्, अर्थतस्तीर्थकरात् सूत्रतश्च गणधरात् अच्छिन्नपरम्परागतेन उद्देशसमुद्देशादिविधिना 'सुअणाणस्स उद्देसो समुद्दे सो अणुण्णा अणुओगो पवत्तइ' त्ति वचनात् , उपात्तसूत्रार्थधारित्वेनैव । गुरुत्वं च संयतत्वेनैवावसातव्यं, संयतानामेव सूत्रार्थयोरनुज्ञादानेऽधिकारात् ।
यदागमः-'तिविहा समणण्णा पं० सं०-आयरियत्ताए १, उवज्झायत्ताए २, गणित्ताए ३', त्ति श्री स्थानांगे [ सू० १७४] । अत्र प्रथमभङ्ग अनुयोगाचार्य एवापसातव्यः । एवं विधेन गुरुणा क्रियमाणोऽनुयोगो निपुणशिष्यैश्च श्रोतव्यः इति । अत्र शिष्यस्य नैपुण्यं तावत् , सुगुरूक्तविधिना गृहीतं सार्थ सूत्रं शुभफलवद् भवति, न पुनरितरथापीति सम्यगपरिज्ञानेनावसातव्यं । अत एव सुगुरुभिरपि वाचनायोग्यत्वेन परीक्षाप्राप्तस्यैव विनेयस्य वाचना दातव्या, न पुनरितरस्यापि । यदागमः-'तओ अवायणिज्जा पं० तं० अविणीए १, विगइपडिबध्धे २, अविओसिपाहुडे ३', त्ति, श्रीस्थानांगे [ सू० २०३ ] । एतद्वृत्तौ च-'संवासिता अपि वाचनाया अयोग्याः, न वाचनीयाः-न सूत्रं पाठनीयाः, अर्थमप्यश्रावणीयाः। सूत्रापेक्षयार्थस्य गुरुत्वात् । तथा अव्यवसितप्राभृतकोऽनुपशान्तक्रोधो मन्तव्यः'। तथा अयोग्यस्य शिष्यस्य वाचनादातुर्भावतस्तीर्थोच्छेदपातकं स्यात् । यदागमः-- 'इहराउ मुसावाओ, पवयणखिसाय होइ लोगंमि । सेसाणवि गुणहाणी, तित्थुच्छेओ अ भावेणं ॥१॥'ति ।
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शतकम्
एतच्च समनुज्ञासूत्रस्य व्याख्यायां भाष्यकारवचनं । एवं सुशिष्यस्यापि कोलतस्त्रिवर्षादिपर्यायप्राप्तस्याचारांगादेर्वाचना दातव्या । यदागमः --
तिवरिसपरिआगस्स उ, आयारपकप्प णामज्झयणं । चउवरिसपरिआगस्स उ सूअगडं णाम अंगंति ॥१॥
इत्यादि व्यवहारसूत्रे । एवं चानुज्ञातसूत्रार्थस्य साधोधर्मकथायामप्यधिकारो, न पुनर्गृहस्थादेः । यदागमः --
'चत्तारि पुरिसजाया पं० तं०-आघवतित्ता णाममेगे जो उछजीविसंपन्ने' इत्यादिचतुर्भङ्गीवृत्तौ-'आख्यायकः सूत्रस्य, न चोञ्छजीविकासम्पन्न:-अनेषणानिरत इत्यर्थः, स चापद्गतः संविग्नः संविज्ञपाक्षिको वेत्यादि यावत् द्वितीयभंगे यथाच्छन्दः, तृतीये साधुः, चतुर्थे गृहस्थादिः इति । एवं च संविज्ञपाक्षिकसाधुव्यतिरिक्तानां धर्मकथायामनधिकार एव भणितः । तेन तेषां समीपे धर्मकथाश्रवणं महापापमेव । अत एव गोष्ठामाहिलसमीपे धर्मकथाश्रवणं श्रीसंघेन प्रतिषिद्धं । एतेन एतेऽपि धर्म मेवोपदिशन्ति, तत्श्रवणे को दोष ? इति भ्रान्तिरपि निरस्ता, जिनाज्ञामुल्लङध प्रवृत्तेमहापापरूपत्वात् । किञ्च-सर्वेषामपि वादिनामुपदेशो निजनिजमार्गप्रवृत्तिहेतुरेव भवति, तन्मार्गप्रवर्तनं चोन्मार्गप्रवृत्तिरूपत्वेन महानर्थरूपमेवेति पर्यालोच्यं । यदि च परं कदाचित् श्रावकोऽपि निजकुटुम्बस्य पुरस्ताद्धम कथयति, तदा गुरव इत्थमादिशन्तीति गुरूपदेश'पारतनयेणैव जिनाज्ञा, न पुनः साधुवत्सभाप्रबन्धेनेति श्रावक
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व्याख्यान विधि
प्रतिक्रमणचूदिौ । एतेन पुस्तकसिद्धान्तपुरस्कारेण नवीनमार्गव्यवस्थापकाः सर्वेऽपि जैनागमविगोपका एवेति दर्शितं बोध्यं । सिद्धान्तोक्तव्यतिकराभावेऽपि अध्ययनाध्यापनोपदेशादिषु प्रवर्तनात् । उक्तव्यतिकरस्तु परम्पराशन्यानां लेशतोऽपि न भवति, तेषां जैनागमस्य लेशतोप्यभावात् । जैनप्रवचने च साम्प्रतमागमः परम्परागम एव भवतीत्यग्रे दर्शयिष्यते । अत एव तेषां जैनागमवचनानुवादोऽपि न भवति, नवीनमार्गप्रकाशकत्वेन शिवभूतिचन्द्रप्रभाचार्यादीनां स्वयमेव देवस्वरूपत्वादित्य व्यक्तिकरिष्यते इति गाथार्थः ॥७॥ ____ अथानुयोगस्य प्रकारत्रयं दिदर्शयिषुः भगवत्याद्यागमोक्तामेव गाथामाह-- सुत्तत्थो खलु पढमो, बीओ णिज्जुत्तिमीसओ भणिओ। तइयो अ गिरवसेसो, एस विही होइ अणुओगे ॥८॥ ___व्याख्या-सूत्रस्यार्थः सूत्रार्थः, सूत्रार्थ एव केवलः प्रतिपाद्यते यस्मिन्ननुयोगेऽसौ सूत्रार्थ इत्युच्यते। सूत्रमात्रप्रतिपादनप्रधानोऽर्थः सूत्रार्थः । खलुशब्दस्त्वेवकारार्थः । स चावधारणे । एतदुक्तं भवति-गुरुणा सूत्रार्थमात्राभिधायकः प्रथमानुयोगो कर्तव्यः । मा भूत् प्राथमिकविनेयस्य मतिसम्मोहः । द्वितीयस्तु अनुयोगो नियुक्तिमिश्रकः कार्यः । तत्र नियुक्तिरपि सव्याख्याना वक्तव्या । तस्या अपि सूत्रव्याख्यानता निजव्याख्यानात्तैव भवति, सूत्रस्येव तस्या अपि सूत्रत्वेन दुरवगाह्यत्वात् । अत एव निर्युक्तेरपि अनुयोगः सूत्रस्येवा विशेषेण भणितः । यदा
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शतकम् i
११
गमः - 'से कि तं अणुगमे २ दुबिहे पं० तं० सुत्ताणुगमे निज्जुत्तिअणुगमे' त्ति श्री अनुयोगद्वारे । तृतीयस्तु निरवशेषःप्रसङगानुप्रसंगागतः सर्वोप्यर्थो वाच्यः । तत्र प्रसंगागतो भाष्यस्तद्व्याख्यानरूपः । अनुप्रसंगागतस्तु तदनुगतचरित्रादिरूपः पुरो वक्ष्यते इति गाथार्थः ॥ ८ ॥
अथ याणामपि प्रकाराणां प्रकृते भणितिमधिकृत्य विशेषमाह---
।
तत्थणुओगो पढमो, पढमपयस्सेव पुत्रभणियस्स । सुपसिद्धो इअराणं, दंसेमि दिसंपि तस्सेव || ६ |
व्याख्या तत्र त्रिषु अनुयोगप्रकारेषु पूर्वभणितस्य 'णमो अरिहंताण' मित्येतावन्मात्रस्य प्रथमपदस्य प्रथमोऽनुयोगः सुप्रसिद्धः, शब्दव्युत्पत्तिमात्र गम्यत्वात् । स चैवं नम इति नैपातिकं पदं करचरणमस्तकैः सुप्रणिधानरूपो नमस्कारो भवत्वित्यर्थाभिधायकं । केभ्यो ? अर्हदृभ्यः - अमरवरनिर्मिताष्टमहाप्रातिहार्यरूपां पूजामर्हन्तस्तेभ्य इत्यादिरूपेणाव सातव्यः । इतरयोस्तु - निर्युक्तिमिश्रक-निरवशेषलक्षणयोरनुयोगयोः 'तस्यैव ' णमो अरिहंताणमितिपदमात्रस्यैव दिशं दर्शयामीति गाथार्थः ॥ 8 ।
अथ द्वितीयानुयोगस्य स्वरूपं दर्शयन् निर्युक्तिविवेकमाहजो णिज्जुतीत्तो, बीओ भणिओ अ सुत्तअणुओगो । सा णिज्जुती तिविहा, सुपसिद्धा होइ जिणसमए ॥१०॥ व्याख्या--यः चकारो गम्यः, यश्च सूत्रानुयोगो निर्युक्तिमिश्रको द्वितीय भणितः । सा च निर्युक्तिस्त्रिविधा
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१२
व्याख्यान विधि
त्रिप्रकारा सुप्रसिद्धा जिनसमये-जिनशासने अनुयोगद्वारोक्तत्वेन वादिप्रतिवादिनो नाममात्रेण सम्मता। सा चैवं-'णिज्जुत्ति अणुगमे तिविहे पं० तं०-णिक्खेवणिज्जुत्ति अणगमे १, उग्धायणिज्जुत्ति अणुगमे २, सुत्तफासिअणिज्जुत्तिअणुगमे ३, त्तिअनुयोगद्वारे इति गाथार्थः ॥ १० ॥ ___अथ तिसृष्वपि नियुक्तिषु प्रकृते विवक्षितप्रयोजनवशेन सर्वसूत्रसाधारणां नियुक्तिमाहतासु उवुग्धायभिहा, णिज्जुत्ती सव्वसुत्तसामण्णा । उद्देसाइ छब्बीस दारगाहाहि ताउ इमा॥ ११ ॥ ___ व्याख्या-तासु-तिसृप्वपि नियुक्तिषु, उपोद्घाताभिधाउपोद्घातनाम्नी नियुक्तिः सर्वसूत्रसामान्या-सर्वसूत्रसाधारणा मन्तव्या। तेन श्रीभद्रबाहुस्वामिकृता या दश नियुक्तयो भणिताः, ताश्च विवक्षया विशेषरूपाः निक्षेपनियुक्तिसूत्रस्पर्शिकनियुक्तयोऽवसातव्याः । तासां च प्रतिसूत्रं भिन्नत्वात् । या चोपोद्घातनियुक्तिः सा चोद्देशादिषड्विशतिद्वाराभिधायिकाभ्यां गाथाभ्यां भवति । ते च द्वारगाथे इमे-अनन्तरं वक्ष्यमाणे इति गाथार्थः ॥ ११ ।।
अथ द्वारगाथाद्वयमाह - उद्दे से १ णिह से २,
___ अणिग्गमे ३ खित्त ४ काल ५ पुरिसे ६ अ । कारण ७ पच्चय ८ लक्खण ६,
णए १० समोआरणा ११ णुमए १२ ॥१२॥
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शतकम् 1
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किं १३ कहहिं १४ कस्स १५ कहिं १६, केसु १७ कहं १८ किच्चिरं हवइ कालं २६ ।
क २० संतर २१ मविरहिअं २२,
भवा २३ गरिस २४ फासण २५ णिरुत्ती २६ ॥ १३ ॥ ( युग्मम् ) व्याख्या - चानयोः संक्षेपतोऽनुयोगद्वारवृत्तितः विस्तरतस्तु आवश्यक नियुक्ति तद्वृत्तिभ्यामेवेत्यनुयोगद्वारवृत्तावपीत्थमेव भणितं । तत्रोपोद्घातनिर्युक्तिरावश्यक नियुक्त्यन्तर्गता सर्वत्राप्यतिदेशेन वक्तव्या । परमिह सर्वसूत्रसाधारणत्वपरिज्ञानाय द्वार - विवेकपरिज्ञानमात्रहेतुः किंचिद् व्याख्यानं यथा उद्देशन मुद्देशः-सामान्याभिधानरूपो यथाध्ययनमित्यादिरूपेण वक्तव्य इति क्रिया सर्वत्रापि मन्तव्या १ । तथा निर्देशनं निर्देशः - विशेषाभिधानं, यथा सामायिकमित्यादि । तथा निर्गमनं निर्गमः कुतः सामायिकं निर्गतमिति । तथा तौ क्षेत्रकालौ च ययोः सामाकिमुत्पन्नं, तौ च वक्तव्यौ ४ - ५ । कुतः पुरुषान्निर्गतमिति ६ । तथा केन कारणेन गौतमादयो भगवत्समीपे श्रृण्वन्तीति ७ । तथा प्रत्ययः केन प्रत्ययेन भगवतेदमुपदिष्टं ८ । तथा लक्षणंसम्यक्त्व सामायिकादीनां स्वरूपभणनं । तथा नया नैगमादय: १० । तथा समवतारः - यो नयो यत्र समवतरति ११ । तथानुमतं - कस्य व्यवहारादेः किं सामायिकमनुमतं १ १२, । किं सामायिकं कस्मिन् प्रत्यवतर्ति ? १३ । कतिविधमिति १४ । कस्य सामायिक १५ । क्व सामायिकं १६ । तथा केषु
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१३
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१४
द्रव्येषु सामायिकं १७ । कथं केन
स्यात् १८ । कियत्कालं सामायिकं १६
।
M
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सान्तरं - कियदन्तरेण
कस्य युगपत् प्रतिपद्यमानकाः २० । सामायिकं २१ । अविरहितं - निरन्तरं २२ । भवाः कियन्त उत्कृष्टाः २३ | आकर्षाः कस्मिन् कियन्तः २४ | स्पर्शना २५ । निरुक्तिः- निश्रिता उक्तिः २६ । इति षड्विंशतिद्वाराणां विवेकनिमित्तं नाममात्रेण व्याख्यानं । एवं च यस्मिन् द्वारे प्रकृतं प्रयोजनं तत्तद्वारपुरस्कारेणा वक्ष्यते इति गाथायुग्मार्थः । १२ । १३
अथ कीदृश्या नियुक्त्या द्वितीयं सूत्रस्य व्याख्यानं भवतीति दर्शयति
व्याख्यान विधि
प्रकारेण सामायिकं
कियन्तः सामायि
एआहिं गाहाहिं, वित्थररूवाहिं जा य णिज्जुत्ती ती सानुगमाए, अणुओगो सुत्तमित्तस्स || १४ ||
व्याख्या -- एताभ्यामनन्तरोक्ताभ्यां द्वारगाथाभ्यां विस्तररूपा, हिरवधारणे, विस्तररूपैव या निर्युक्तिः, तया सानुगमया-सानुयोगया सूत्रमात्रस्यानुयोगो भवति सानुयोगनिर्युतिमिश्रको द्वितीयोऽनुयोगो भवति । तत्र युक्तियुक्ता सम्मतिस्तु दर्शितैवेति गाथार्थः ॥ १४ ॥
अथ
द्वितीयप्रकाख्याख्यानानुसारेण तीर्थातीर्थयोः
स्वरूपमाह
तेणं चिअ जस्स णमो अरिहंताणं ति साणुओगपयं । सम्मं तं खलु तित्थं, मग्गो सेसं अतित्थंति ||१५|| व्याख्या- 'तेन' प्रागुक्तप्रकारेण द्वितीयव्याख्यानेन, चिअ
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शतकम्।
एवार्थे, द्वितीयव्याख्यानानुसारेणैव यस्य ‘णमो अरिहंताण' मिति सानुयोगपदं-सानुयोगनिर्यक्तिलक्षणव्याख्यानसंयुक्तं पदं सामायिकाध्ययनस्य प्रथमपदं सम्मति' सम्यग् प्रमाणं भवति, तत् खलुरवधारणे, तदेव तीर्थ-साधुसाध्वीश्रावकश्राविकासमुदायात्मकं, मार्गो-मोक्षमार्गो भवति । शेषं-यस्योक्तप्रकारेण 'णमो अरिहंताण' मिति पदं प्रमाणं न भवेत्, तदतीर्थ-तीर्थ न भवेत् । अतीर्थ च जिनाज्ञाबाह्यमत एव उन्मार्ग एवेत्यर्थाद् बोध्यमिति गाथार्थः ॥१६॥
अथ प्रसंगतः प्रकारान्तरेणापि तीर्थस्वरूपमाह-- तं वा तित्थं जं चिअ, णिज्जुत्तिपमुहसबसुअठाणं । संपइ वीरजिणाओ, उप्पणं जाव दुप्पसहो ॥१६॥
व्याख्या--वा-अथवा, तत्तीर्थ', चिअ एवार्थे, व्यवहितः सम्बध्यते, तदेव तीर्थ यत् नियुक्तिप्रमुखं सर्वश्रुतं-नियुक्तिभाष्यादिकं सकलश्रुतं, तस्य स्थानं-आश्रयः, यन्नियुक्त्यादिसर्वश्रुत स्थानं भवति, तदेव तीर्थमित्यर्थः । तच्च तीर्थ साम्प्रतं कुत उत्पन्न कियत्कालं स्थायि ? इत्याह-'संपईत्यादि । सम्प्रतिवर्तमानं तीर्थं वीरजिनात्-श्रीमहावीरादुत्पन्न-वर्तमानं तीर्थ श्रीमहावीरव्यवस्थापितमित्यर्थः । एतेन शिवभूत्यादिव्यवस्थापिताः समुदायास्तीर्थानि न भवन्तीति दर्शितं । तेषां श्रीमहावीरव्यवस्थापितत्वाभावादित्यग्रे वक्ष्यते । तच्च यावदुःप्रसभंदुःप्रसभनामाचार्यः तावदच्छिन्नं भवतीत्यर्थः । यदागमः--
'जंबूद्दीवे २ भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए देवाण प्पि
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१६
व्याख्यान विधि
याणं केवइयं कालं तित्थं अणुसज्जिस्सइ ? गो० जंबुद्दीवे २ भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए इगवीसं वाससहस्साई तित्थं अणुसज्जिस्सइ' त्ति भग० श० २ उ० ८इति गाथार्थः ।१६। __ अथ पुनरपि प्रकारान्तरेण तीर्थ व्यवस्थापयन्नाहतं तित्थं जिणठवियं, जस्साइगरोण लन्भई अण्णो। वीराओ वीरेण, दुप्पसहंतं तयं भणिअं ॥१७॥
व्याख्या--तत्तीर्थ जिनस्थापितं भवेत्, यस्यादिकरो वीरात्-श्रीमहावीरतीर्थकरादन्यश्चन्द्रप्रभाचार्या दिवदपरो न लभ्यते । तस्य कर्ता श्रीमहावीर एव । तच्च तीर्थं दुःप्रसभान्तं वीरेण-श्रीमहावीरतीर्थकृता, भणितं-भगवतीसम्मत्याप्राग प्रदर्शितमेव । तच्च साम्प्रतं परिशेषात् तपागण एव तीर्थं भवति । तस्यादिकर्ताऽन्यः श्रीमहावीरादपरः कोऽपि नोपलभ्यते । न चैवं पौर्णिमीयकौष्ट्रिकादिसमुदायास्तथा भविष्यन्तीति शंकनीयं । तेषामादिकतृ णां चन्द्रप्रभाचार्य-जिनदत्ताचार्यादीनां सर्वसम्मतत्वात् तदीयवचनै रेवाग्र व्यवस्थापयिष्यमाणत्वाच्च । या तु श्रीजगञ्चन्द्रसरितस्तपागण इति ख्यातिः, सा तु यात्रानिमित्तकसंघपतिख्यातिवत् तदानी तपोमात्रजन्या । तपसः कर्तव्यस्य भगवदाज्ञा विषयत्वात् । यदागमः-- 'छट्ठाणा अत्तवतो हिआए सुहाए खमाए णिस्सेसाए आणुगामिअत्ताए भवंति । तं०-परिआए १ परिआले २ तवे ३ सुए ४ लाहे ५ पूआसक्कारे ६' त्ति श्री स्थानाङ्ग । तेन तथाभूतः स (तपागण) एव परिशेषादच्छिन्नं तीर्थ मन्तव्यमिति गाथार्थः ।।
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१७
अथ पुनरपि प्रकारान्तरेण तीर्थ व्यवस्थापयन्नाह-- अहवा जस्स पमाणं, महाणिसीहं हविज्ज तं तित्थं । हरिभद्दत्तं लिहियं, महाणिसीहस्स आयरिसे ॥१८॥
व्याख्या--अथवेति प्रकारान्तरद्योतने । यस्य महानिशीर्थ-श्रीमहानिशीथसत्रं प्रमाणं, तत्तीर्थ मन्तव्यं । एतच्च हरिभद्रोक्तं-श्रीहरिभद्रसूरिणा भणितं, श्रीमहानिशीथाऽऽदर्श अर्थात् पूर्वाचायैलिखितमित्यक्षरार्थः। भावार्थस्तु यद्यपि गणधरकृते श्रीमहानिशीथसूत्रे श्रीवज्रस्वामिव्यतिकरो नासीत् , परं तथापि उद्देहिकादिखण्डितपत्रेभ्यः प्रवचनहितार्थ यथावबोधमन्योन्यसङ्गत्या श्रीमहानिशीथसूत्रलिखने तस्यैव तृतीयाध्ययने यथा श्रीहरिभद्रसरिणा श्रीवजस्वामिव्यतिकरो लिखितः । तथाहि____ 'एअंतु जं पंचमंगलमहासुअखंधस्स वक्खाणं तं महया पबंधेण अणंतगमपज्जवेहिं सुत्तम्स य पिहब्भूआहिं णिज्जुत्तिभासचुण्णीहिं जहेव अणंतणाणदंसणधरेहिं तित्थगरेहिं वक्खाणिों तहेव समासओ वक्खाणिज्जतं आसी। अह अण्णया कालपरिहाणिदोसेण ताओ णिज्जुत्तिभासचण्णीओ बुच्छिन्नाओ । इओ अ वच्चंतेण कालसमएणं महड्ढिपत्ते पयाणुसारी वयरसामी नामा दुवालसंगसुअहरो समुप्पण्णो। तेणेसो पंचमंगलमहासुअक्खंधस्स उद्धारो मलसुत्तमज्झ लिहिओ। मलसुत्तं पुण सुत्तताए गणहरेहिं अस्थत्ताए अरिहंतेहिं भगवंतेहिं धम्मतित्थगरेहिं तिलोअमहिएहिं वीरजिणिंदेहिं पण्णविति श्रीमहानिशीथे तृतीयाध्ययने। प्रयोजनवशेन लिखितः तथा वृद्धसम्प्रदायात्
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व्याख्यान विधि
mamuraruram
वृद्धः-पूर्वाचायः श्रीहरिभद्रसूरिव्यतिकरोऽपि तदनन्तरमेव लिखितः । तथाहि
"एत्थ य वुड्ढसंपयाओ जत्थ य जस्स जं पयं पएणाणलग्गं सुत्तालावगं ण संपज्जइ तत्थ सुअहरेहिं कुलिहिअदोसो ण दायव्यो, किन्तु जो सो एअस्स अचिंतचिंतामणिकप्पभूअस्स महाणिसीहसुअक्खंधस्स फुवायरिसो आसी, तेहिं चेव खंडाखंडिएहिं उद्देहिआईहिं हेऊहिं बहवे पत्तगा पडिसडिया, अच्चंत-सुमहत्थातिसयंति इमं महाणिसीहसुयखधं कसिणपवयणस्स परमसारभूअं परमतत्तं महत्थं कसिणपवयणवच्छल्लएणं बहुमव्वसत्तोवयारिअंति का तहा आयहिअट्टयाए आयरिअहरिभद्दण जं तत्थ आयरिसे दिटुंतं सव्वं समईए साहिऊणं लिहि अण्णेहिंपि सिद्धसेणदिवायर-वुड्ढवाइअजक्खसेण-देवगुत्तजसवद्धणखमासमणसीसरविगुत्त-णे मिचन्द-जिणदासगणि-खबगसच्चसिरिप्पमुहेहिं जुगप्पहाणसुअहरेहिं बहुमण्णिअमिण' ति । ___एतेन श्रीमहानिशीथश्रुतस्कन्धमधिकृत्य अश्रोतव्ययत्तत्प्रलापिनो निरस्ता बोध्याः । अचिन्त्यचिन्तामणिकल्पं श्रीमहानिशीथसूत्रं सकलप्रवचनहितार्थ प्रवचनवत्सलेन श्रीहरिभद्रसूरिणा खण्डितपत्रेभ्यः यावद्यथादृष्टं तावदेव स्वमत्या समुचितीकृत्य लिखितं तत्कालवर्तिभिर्युगप्रधानश्रुतधरैरप्यभ्युपगतमित्येव लिखितत्वात् । एतेन यः कश्चित् श्रीमहानिशीथसूत्र श्रीहरिभद्रसू. रिणा स्वमत्या लिखितं, तेनान्येषां बहुश्रुतानां सम्यग् श्रद्धानं नास्ति, एवं श्रीहरिभद्रसूरिणा स्वयमेवोक्तं, अतो नास्माक
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१६
मपि श्रद्धानमिति पूर्वापरविरोधपरिज्ञानशून्यो वातिकवाचालो निरस्त एव । तदुक्तवचनानामिह गन्धस्याप्यभावात् । अत्रार्थे श्रीमहानिशीथाऽऽदर्शलिखिता पूर्वाचार्यवचनसम्मतिरेव। तथाहि -'अत्र चतुर्थाध्ययने बहवः सैद्धान्तिकाः काँश्चिदालापकान् न सम्यग श्रद्दधते इत्येवं तैरश्रद्धानरस्माकपि न सम्यग श्रद्धानमित्याह श्रीहरिभद्रसूरिः, न पुनः सर्वमेवेदं चतुर्थाध्ययनमन्यानि वा अध्ययनानि, अस्यैव चतुर्थाध्ययनस्यैव कतिपयैः परिमितैरालापकैरश्रद्धानमित्यर्थः । यतः स्थान-समवायजीवाभिगम-प्रज्ञापनादिष न कथञ्चिदिदमाचख्ये-यथा प्रेत्य सन्तायस्थलमस्ति, तद्गुहावासिनस्तु मनुजास्तेषु परमाधार्मिकाणां पुनः २ सप्ताष्टवारान् उपपातः, तेषां तैर्दारुणैर्वज्रशिलाघरट्टकसंपुरैर्दलितानां परिपीड्यमानानामपि संवत्सरं यावत् प्राणव्यापत्तिर्न भवतीति । वृद्धवादस्तु पुनर्यथा तावदिदमार्ष सूत्रं विकृतिश्च नात्र प्रविष्टा, प्रभूताश्चात्र श्रुतस्कन्धेअर्थाः सुष्ठ अतिशयेन सातिशयानि गणवरोक्तवचनानीति | तदेवं संस्थिते न किञ्चिदाशङ्कनीय' । अत्र बहुश्रुतैर्नामप्राहेण उक्तासङ्गतार्थवचनानि (वाक्यानि) विमुच्य सर्वमपि श्रीमहानिशीथं प्रमाणीकृतं । वृद्धैस्तु वाक्यानां विरुद्धार्थत्वमेव नाभ्युपगतं । अभ्युपगतं चानुक्तमप्युक्तमिति भणित्वा सकलमपि महानिशीथमप्रमाणतया वातिकवाचालैरिति । तत्र निदानं तावत् प्रक्रियावाचकनिज-निज-वचनविरोधिवचनात्मकत्वमेव । तथा च सिद्धं श्रीमहानिशीथसूत्रप्रमाणवादि तीर्थमिति
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व्याख्यान विधि
श्रीहरिभद्रसूरिणोक्तमवसातयं । अन्यथा प्रागुक्तप्रकारेण वचनानुपपत्तिः प्रसज्येत । न चैतत्तीर्थस्वरूपं औष्ट्रिकेति प्रसक्तं, तस्यापि श्रीमहानिशीथसूत्रस्याङ्गीकारादिति वाच्यं । मुग्धजनआन्तिजनकस्य तस्य तीर्थसमीपस्थित्यर्थं वचोमात्रेणाङ्गीकारात् । कथमन्यथा अनादिसिद्धं पाक्षिकं पूर्णिमायामेवासीत, चतुर्दशी तु पर्युषणाचतुर्थीवदाचरितेति भणितिः स्यात् । तद्द्व्यञ्जकं तु अष्टमीपाते चतुर्थतपश्चैत्यपरिपाटीप्रमुखमष्टमीकृत्यं सप्तम्यां चतुर्दशीपाते च पाक्षिककृत्यं पूर्णिमायामिति । यत्तु खरतर - भेदविशेषेण विधिप्रपायां चतुर्मासकचतुर्दशीपाते पूर्णिमा युक्तेति भणितं, तदपि तीर्थसम्मत परम्परालेोपेन जमालिवत्तीर्थ बाह्यताभिव्यञ्जकं भवत्येव । यदागमः -
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आयरिअपरं परएणं, आगयं जो उ आणुनुब्बीए । कोइ अवाई, जमालिणासं स णासीहिति ॥ १ ॥ चि सुत्रकृदङ्गनिर्युक्तौ ।
जमालिवत्तीर्थप्रतिपक्षों हि नियमान्मिथ्यादृष्टिरेव स्यात् । तस्य च जिनप्रवचनमात्रस्याप्यप्रामाण्येनाभ्युपगमे कुतो महानिशीथाभ्युपगमः । तेन लौम्पकस्य ' णमो अरिहंताण' मिति पदस्येव तस्यापि श्रीमहानिशीथस्याङ्गीकारोऽपि वचोमात्रेण, न पुनर्भावत इति नातिप्रसङ्गः । यदि वचोमात्रेणाङ्गीकारोऽपि प्रमाणतयाभ्युपगम्यते तर्हि दिगम्बरादयः सर्वेऽपि सम्यग्दृश एव भवेयुः । देवोऽर्हन्, गुरुः सुसाधुः, धर्मस्तु केवली प्रज्ञप्त एवेतिरूपेण देवादीनां वचोमात्रेणाभ्युपगमात् । तस्मात्
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शतकम् 1
२.१
सर्वेषामपि जैनाऽऽभासानां जैनप्रवचनाभ्युपगमोऽपि निज
एवोपहास्य करो
निजमतिविकल्पितप्रक्रियानुरोधेन द्रव्यत
मन्तव्य इति तात्पर्यमिति गाथार्थः ॥ १९ ॥
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अथ तीर्थव्यतिरिक्तानामुन्मार्गभूतानां विवेकमाह - सेसा खलु उम्मग्गा, लोडअलोउत्तरेहिं दुविगप्पा | लोइअ उम्मग्गा पुण, कविलप्पमुहा मुणेअन्वा ॥ १६ ॥
व्याख्या--शेषा-उक्तस्वरूपतीर्थव्यतिरिक्ताः उन्मार्गाः, खलरवधारणे, संसारमार्गा एव । मार्ग इत्यत्रैकवचनं, उन्मार्गा इत्यत्र बहुवचनं च मार्ग एक एव भवति, उन्मार्गास्तु बहव इति ज्ञापनार्थमेव । एतच्च लौकिकमार्गेऽपि प्रतीतमेव । जिगमि। षितनगराभिमुखं प्रत्येक एव मार्गः, शेषास्तु नवापि दिश उन्मार्गा एव । तेनोन्मार्गा लौकिक लोकोत्तराभ्यां द्विविकल्पाः द्विप्रकाराः, तत्रेति शेषः । तत्र लौकिकोन्मार्गाः कपिलशब्देन कापिलेयदर्शनं - सांख्यदर्शनमित्यर्थः, तत्प्रमुखाः कापिलेय सौगताक्षपादादयोऽनेकविधा भिन्न-भिन्नस्वरूपाः प्रतीता एव । ते च सर्वेऽपि नयवादाः संख्यया वचनसंख्याका अपि सम्भवन्ति । यदागमः
जावइआ वयणपहा, तावइआ चेव हुंति णयवाया । जावइया णयवाया, वयणपहा तत्तिया चेव ॥ १ ॥ त्ति गाथार्थः ॥१९॥
अथ लोकोत्तरोन्मार्गानाह
लोउत्तरा य संपइ, दिगंबरप्पमुहपासपज्जता । ते पुण तित्थाभासा, तित्थयराभाससंठविआ ||२०||
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२२
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व्याख्यान विधि -
व्याख्या -- लोकोत्तराश्चोन्मार्गा - लोकोत्तर मिथ्यादृष्टयः, सम्प्रति वर्तमानकाले, दिगम्बरप्रमुखाः पाशपर्यन्ताः - पाशचन्द्रीयपर्यवसानाः, प्रमुखशब्दात् पौणिमीय कौष्ट्रिकाञ्चलिक-सार्द्धपौणिमीय काऽऽगमिक-लौम्पक-कटुक-वन्ध्यनामानो प्रायाः । ते च तीर्थाभासाः तीर्थवदाभासन्ते इति तीर्थाभासाः । ते च किंलक्षणाः १ तीर्थकराभाससंस्थापिताः ' कारणानुरूपं कार्य' मिति वचनात् तीर्थाऽऽभासास्तीर्थकराऽऽभाससंस्थापिता एव भवन्ति । तेन तीर्थकराभासाः शिवभूति१ चन्द्रप्रभाचार्य २ जिनदत्ताचार्य ३ नरसिंहोपाध्याय ४ सुमतिसिंहाचार्य५ शीलदेव६ लम्पक७ कटुक ८ वन्ध्य९ पाशचन्द्रनामभिः क्रमेणावसातव्या इति गाथार्थः ॥ २० ॥
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अथ दशापि तीर्थमासास्तीर्थ कराभासाश्चोपोद्घातनियुक्तौ ये यथा दूषिताः तथा तान् क्रमेणाह - तेसु वि णिज्जुत्तीए, णामग्गाहेण दूसिआ खमणो । सेसा परूवणाए, णिअमेणं दूसिया हुँति ||२१|| व्याख्या -- तेष्वपि - दशस्वपि नामग्राहेण क्षपणको दिग म्रो दूषितः, शेषास्तु प्ररूपणया नियमेन दूषिता भवन्ति । क्व १ निर्युक्त अर्थादुपोद्घातनिर्युक्ताविति गाथार्थः ॥ २१ ॥
॥२१॥
अथ पोद्घातनियुक्तावपि बोटिकः कस्मिन् द्वारे भणितः १ इति दर्शयन्नाह-
छब्बीसा इकारस, दारं तस्सेव जाय णिज्जुत्ती । तीए जमालिमुहा, बोडियपज्जंतया भणिया ||२२||
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शतकम्
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२३
व्याख्या -- षडविंशतौ एकादशं द्वारं समवतारलक्षणं, तस्यैव या निर्युक्तिः, तस्यां जमालिप्रमुखाः बोटिकपर्यन्ताः भणिताः । तत्राविद्यमानापत्यत्वेन जमाल्यादीन् परित्यज्य बोटिकोऽधिकृतो वक्ष्यते इति गाथार्थः ||२२||
अथ बोटिकस्योत्पत्तिमधिकृत्य कालं क्षेत्रं च निर्युक्तिगाथयैवाह-
छब्वाससयाई णवत्तराई, तइआ सिद्धिं गयस्स वीरस्स | तो बोडिआण दिट्ठि, रहवीरपुरे समुपण्णा ||२३||
व्याख्या च सुगमैवेति गाथार्थः ||२३||
अथ बोटिकस्योत्पत्तिनिमित्तपरिज्ञानाय निर्युक्तिगाथामाहरहवीरपुरं यरं, दीवगमुजाण अज्जकण्हे य । सिवस्सुवहिंमि य, पुच्छा थेराण कहणा य ||२४|| व्याख्या - रथवीरपुरं नगरमित्यादि यावत् 'तत्थ य दीवगमुज्जाणं, तत्थ य अज्जकण्हा णाम आयरिआ समोसढा, तत्थ य एगो सहसमल सिवभूई णामेत्यादि सर्वं हारिभद्रीयवृत्तौ कथानकादव सातव्यमिति गाथार्थः ||२४||
अथ बोटिकस्य नाम्यत्रतं मरीचिवचनेन दूषयितुं निर्युक्ति
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गाथामाह -
सुक्कंबरा य समणा, णिरंबरा मज्झ धाउरताई । हुरंतु अ मे वत्थाई, अरिहोमि कसायकलुसमई ||२५|| व्याख्या च वृत्तिगता यथा - शुक्लान्यम्बराणि वस्त्राणि येषां ते शुक्लाम्बराः श्रमणाः । तथा निर्गतमम्बरं येभ्यस्ते निर
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२४
व्याख्यान विधि -
म्बराः - जिनकल्पिकादयः, 'मज्झत्ति' ममेत्यादि हारिभद्रीयवृत्तितोऽवसातव्यमिति गाथार्थः ||२५||
अथ मरीचिता यदुक्तं, तद्व्यक्तीकुर्वन्नाह--- तेहि समणा दुविहा, कहिआ ते थेरकप्पणिकप्पा | जिणकप्पो वुच्छिन्नो, जम्बूनिव्वाणसमयंमि ||२६||
व्याख्या -- येन कारणेनेह जिनकहिपकादय एव निरम्बराः भणिताः तेन कारणेनेह श्रमणा द्विविधाः कथिताः । ते च स्थविरकल्पिका जिनकल्पिकाश्चेति । तत्र जिनकल्पः साम्प्रतं नास्तीति दर्शयति- 'जिणकप्पो' त्ति | जिनकल्पो जम्बूनिर्वाणसमये व्युच्छिन्नः । यदुक्तं --
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१ २ ३
४
मण- परमो हि पुलाए, आहारग खवग-उवसमे कप्पे ।
८
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67
·
Ε
90
संजमतिग-केवल-सिज्झणा य जंबू म्मि बुच्छिन्ना || १ || इति प्रवचनसारोद्धारे । तत्र कप्पोत्ति जिनकल्प इति गाथार्थः ||२६||
अथ साम्प्रतं कः कल्पः १ कथं भवतीत्याह-संपइ अ थेरकप्पो, सज्झो आहारवत्थमाईदि ।
हि सामग्गिअभावा, कज्जं संपज्जए किंचि ॥२७॥
'
व्याख्या - सम्प्रति एकः स्थविरकरूपो वर्तते इति गम्यं । स च आहारवस्त्रादिभिः साध्यः । आहारादिकमन्तरेण स्थविरकल्पकानां शरीरस्थितिरेव न भवति, शरीराभावाच्च एकोऽपि कल्पो न भवति, कुतः स्थविरकरूपः १ अत एव श्री स्थानांगे
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शतकम्।
'कप्पति णिगंथाण वा णिगंथीण वा तओ वत्थाइ' मित्यादिना साधनां वस्त्रादेः कल्प्यतापि भणिता। नहि कारणसामग्यभावे किंचित्कार्य सम्पद्यते । यदुक्तं'नाकारणं भवेत्कार्य, नान्यकारणकारणं ।
अन्यथा न व्यवस्था स्यात्, कार्यकारणयोः क्वचित् ॥१॥ इति गाथार्थः ॥२७॥
अथवं नामग्राहेण दूषितो दिगम्बरः किं कृतवानित्याहइच्चाइ अ णिज्जुत्तिपमुहवयणेहिं दूसिओ खमणो । तित्थं व तेण (मओ) तेणं, मूलाओ आगमो चइओ॥२८॥
व्याख्या-इत्यादिनियुक्तिप्रमुखवचनैर्दूषितः क्षपणक:दिगम्बरः, तीर्थमिव तीर्थाभिमत आगमः अपिगम्यः, आगमोऽपि मूलात् त्यक्तः । पौणिमीयकादीनामिव अंशतोऽपि निजप्रक्रियारूपतयापि नाभ्युपगतः तेन । यद्यपि तीर्थाभिमतागमसम्मत्या दिगम्बरमतनिराकरणं प्रायोऽसम्भवि, तथापि देवोऽहन्नेवेत्यादिभणनेन अयमपि मार्गः सिद्धान्तोक्तो भविष्यतीति मुग्धजनभ्रान्तिनिरासार्थमवसातव्यमिति गाथार्थः ॥२८॥
अथ मुग्धजनभ्रान्तिकारणं दिगम्बरवचनं निराकुर्वन्नाह-- धम्मोवगरणमित्तं, परिग्गहो ता सुवण्णजिणपडिमा । परिमिअपरिग्गहम्मि, जइ हुज्जा देसविरईणं ॥२६॥
व्याख्या-धर्मोपकरणमात्रं यदि परिग्रह उच्यते तर्हि सुवर्णजिनप्रतिमा, उपलक्षणाद् रजतरला दिप्रतिमा तत्पूजोपकरणानि सौवर्णकलशादीनि च परिग्रहतया देशविरतीनां
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व्याख्यान विधि
परिमितपरिग्रहेऽर्थादन्तभवेयुः । तदपि त्यजनबुद्ध या । यतः परिमितपरिग्रहोऽपि सर्वपरिग्रहत्यजनबुद्धिमतामेव भवति । अत एव स्वल्पः स्वल्पतरः परिग्रहः शोभनः । यदुक्तं -
'संसारमूलमारम्भास्तेषां हेतुः परिग्रहः ।
तस्मादुपासकः कुर्याद्, अल्पमल्पं परिग्रह ।।१॥ मिति योगशास्त्रे । एवं सुवर्णप्रतिमादिकमपि स्वल्पं स्वल्पतरमेव शोभनं सम्पद्यते, परिग्रहरूपत्वात् । तच्च न कस्यापि सम्मतं । तस्माद्यथा सुवर्णप्रतिमादिकं ( परिमित ) परिग्रहो न भवति, तथा साधनां धर्मोपकरणान्यपि परिग्रहो न भवति, धर्मोपकरणव्यतिरिक्तः परिग्रह इतिवचनात । परं साधनां मूर्च्छयाधिकवस्त्रपात्रादिधारणं धर्मोपकरणमेव न भवति 'मुच्छा परिन्गहो वुत्तो' त्तिवचनात् । अत एव साधनां स्वशरीरेऽपि मूर्छा न भवति 'अवि अप्पणो वि देहमि नायरंति ममाइअं तिवचनात् । वस्त्रादिमायाश्च शरीरमर्छाऽऽयत्तत्वादिति गाथार्थः।। __ अथ प्ररूपणयोदिष्टमार्गानाहअह जे परूवणाए, उम्मग्गा ते अ मग्गपडिवक्खा। चंदप्पहाइहितो, संजाया लोअविक्ाया ॥३०॥ __व्याख्या-'अथेति नामग्राहेण दूषितस्य दिगम्बरस्य भणनानन्तरं ये प्ररूपणया उन्मार्गाः, ते च मार्गस्य-तीर्थस्य प्रतिपक्षा एव, चन्द्रप्रभाचार्या दिभ्यः सञ्जाताः लोकविख्याताः । यावन्तः पूर्णिमापाक्षिकाभ्युपगन्तारः, तेषां सर्वेषामपि चन्द्रप्रभाचार्यः पितामहः । तेन ततो जाताः आञ्चलिकागमि
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शतकम्।
कादयो लोक विख्याताः-सम्यगदृष्टिलोकविश्रुताः । सम्यगदृशो हि जानन्ति-यदेते पौणिमीयकान्निर्गताः इति गाथार्थः ॥ अथ यया नियुक्त्या पूर्णिमापक्ष उन्मार्गो ज्ञायते, तां नियुक्तिमाह महुराए जिणदासो, इच्चाइआ णिगमस्स णिज्जुत्ती । तीए चउदसिमग्गो, उम्मग्गो पुण्णिमापक्खो ॥३१॥
व्याख्या-महुराए जिणदासो इत्यादिरूपा'महुराए जिणदासो, आभीर विवाह गोण उववासो ।
भंडीर मित्त वच्छे, (अबच्चे) भत्ते णागोहि आगमणं ॥१॥ ति गाथा निर्गमस्य षडविंशतिद्वारेषु तृतीयद्वारस्य नियुक्तिरपि उपसर्गनियुक्त्यन्तर्गता 'तोए' त्ति तस्यां नियुक्तौ चतुर्दशीमार्गःचतुर्दश्यामेव चतुर्थतपःप्रभृति पाक्षिककृत्यं मार्गः। एवं च सति तत्प्रतिपक्षः-पूर्णिमापक्ष उन्मार्गः। मार्गोन्मार्गयोश्च परस्परं प्रतिपक्षरूपत्वादित्यक्षरार्थः । भावार्थस्तु सकथानकः हारिभद्रीयवृत्तितोऽवसातव्यः । स च दिग्मात्रेण त्वेवं-'सोवि सावओ अमिच उद्दसीसु उववासं करेइ पोत्थयं च वाएइ, तेवि-तावपि कंबलशंबलनामानौ वृषभौ तं सोऊण भद्दया जाया जम्मि दिवसे सावगो ण जेमेति तं दिवसं तेवि ण जेमंति, तस्स सावगस्स भावो जाओ' त्ति श्रीहारिभद्र्यां । अत्र हि श्रीपार्श्वनाथतीर्थसम्बन्धिनो जिनदासश्रावकस्य चतुर्दश्यां नियमेनोपवासकरणे चतुर्दश्यामेव पाक्षिककृत्यमनादिसिद्धं भणितं, अर्थात् पूर्णिमापाक्षिककृत्याभ्युपगन्ता पूर्णिमापक्षः उन्मार्ग एवेति गाथार्थः ॥३१॥
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व्याख्यान विधि -
अथोपोद्घातनिर्युक्त्यैव लौम्पकमतं निराकर्तुं द्वारपरिज्ञा
नाय उपोद्घातनियुक्तेविवेकमाह
अह बीया वरवरिआ, णिग्गमदारस्त होइ णिज्जुती । ती विदारगाहा, समासिआ सा इमा होइ ||३२||
व्याख्या - अथेति पूर्ववत् । द्वितीया avatar 'वीरं अरिट्ठणेमि' मित्यादिरूपा निर्गमद्वारस्य पड्विंशतिद्वारेषु तृतीयद्वारस्य निर्युक्तिर्भवति । तस्यामपि द्वितीयवरवरिका नियुक्तावपि या सभाष्यद्वारगाथा, सा इमा - अनन्तरवक्ष्यमाणा भवतीति गाथार्थः ॥ ३२ ॥
अथोद्दिष्टां निर्गमद्वारान्तर्गतां निर्युक्तिद्वारगाथामाहणिव्वाणं चिगागि, जिणस्स इक्खाग सेसगाणं च । सकहा थभ जिणहरे, जायग तेणाहि अग्गिति ||३३||
व्याख्या च हारिभद्रीयवृत्तितोऽवसातव्येति गाथार्थः । ३३ । अथ साम्प्रतमभिहितद्वारगाथायाः द्वारद्वयव्या चिख्यासया मूलभाष्यगाथामाह-
थूभसय भाउआणं, चउवीसं चैव जिणहरे कासी । सव्वजिणाणं पडिमा, वण्णपमाणेहिं णिअएहिं ||३४||
|
व्याख्या - स्तूपशतं भ्रातृणां भरतः कारितवानिति । तथा चतुर्विंशतिमेव जिनगृहे - जिनायतने, 'कासीति - कृतवान्' काः १ इत्याह-सर्वजिनानां प्रतिमाः वर्णप्रमाणैर्निजनिजैः - आत्मीयैरित्यर्थः इति गाथाथः || ३४ ॥
एतच्च व्याख्यानं हारिभद्रीय वृत्तिगतमव सातव्यं ।
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शतकम् ।
२६
अथैतद् गाथाद्विकं लौम्पकमतमधिकृत्य कीदृशं भवतीति दर्शयितुं प्रथमं लौम्पकमतस्वरूपमाह
पडिमाराइअपक्खो, मुक्खाणं होइ मच्छिाणं व । लूालालाजालं, तणछिज्ज मणुअबालाणं ॥३५॥
व्याख्या--प्रतिमा रातिपक्षः- जिनप्रतिमावैरीजनसमूहः, मूर्खाणां-धर्माधर्मस्वरूप-विवेकविकलानां, मक्षिकाणामिव लूनालालाजालं। यथा लूतालालाजालपतिता मक्षिकाः तत्रैव मृत्युमाप्नुवन्ति, तथा प्रतिमाऽर्वचोजालपतिताः मक्षिकाकल्पाः मर्खास्तत्रैवानन्त-संसारभाजो भवन्ति । तदपि जालं तृणच्छेद्यतृणमात्रेण विदारणीयं, केषां ? मनुजबालानां दण्डादिग्राहका युवानो दूरे, मनुजबालकानामपि क्रीडागृहीततृणेनापि छेद्य भवति । एवं च सति प्रतिमाऽरातिपक्षोऽपि बहुश्रुता दूरे, अल्पश्रुतभाजामपि सम्यग्दृशां तृणेनापि छेद्यो भवतीति गाथार्थः॥३५॥
अथ तृणकल्पं किं?इत्याहतणकप्पं पण एअं, गाहदुगं अप्पबुद्धिसंगहिरं। लंपगम उत्तजालं लीलाए तेण सुहछिज्जं ॥३६॥
व्याख्या-तृणकल्पं-तृणसदृशं पुनरेतत् गाथाद्विकं 'निव्वाण' मित्याद्यनन्तरोक्तं अल्पबुद्धिसंगृहीतं, तेन लौम्पकमतोक्तजालं लीलया-सुखेन छेद्य भवतीति गाथार्थः ॥३६॥
अथ लौम्पकविकल्पमिष्टापत्त्यैव दषयन्नाहएअं अपमाणं ति अ, भासंते होइ इट्ठफलसिद्धि । अरिहंताणंपि पयं, अपमाणं तस्स किं सेसं १ ॥३७॥
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३०
व्याख्यान विधि
7
व्याख्या - एतद् गाथाद्विकमप्रमाणं अस्माकं प्रमाणं न भवतीति भाषमाणे लुम्पके इष्टफलसिद्धिरर्थादस्माकं वांछित - फलसिद्धिः । कारणमाह - ' अरिहंताणं पि' ति णमो अरिहंताणमित्यपि पदमप्रमाणं भवेत् किं शेषं अनुयोगद्वारादि सर्वमपि श्रुतं तस्य लौम्पकस्य । यस्य तु सर्व श्रुतमप्रमाणं तेन सह । श्रुतप्रमाणवादिनां विवादोऽकिञ्चित्कर एव, ग्रन्थसम्मत्यादिकं दर्शयितुमशक्यत्वात् । अयं भावः - यदि लौम्पको भणति -निर्युक्तिभाष्यादिकमस्माकमप्रमाणं, तर्हि श्रुतमात्रस्याप्रामाण्ये सिद्धे श्रुतप्रमाणवादिनां उक्तगाथाद्विकेनापि जिनप्रतिमाराधनसिद्धिः अन्यथा तस्याप्रामाण्यासम्भवात् । यदि च भणति प्रमाणं तर्हि तेनैव प्रतिमाराधन सिद्धिरित्युभयथापीष्टफलसिद्धिरिति गाथार्थः ॥ अथोक्तगाथाद्विकस्याप्रामाण्ये सिद्धे सर्वं श्रुतमप्रमाणं कथं भवति १ इत्याह-गाहादुगपरिहारे, परिहारो होड़ सुत्तमित्तस्स | जं णिज्जुत्तिजुत्तो, अणुओगो सुतमित्तस्स ||३८|| व्याख्या-गाथाद्विकपरिहारे - अनन्तरोक्त नियुक्ति - भाष्यगाथयोः परिहारे सूत्रमात्रस्य परिहारो भवेत् । तत्र हेतुमाह - 'जं णिज्जुतीत्यादि । यस्मात् कारणात् सूत्रमात्रस्यानुयोगो व्याख्यानं निर्युक्तियुक्तो भणितः 'बीओ णिज्जुत्तिमीसओ भणिओ' ति वचनात् । नियुक्तियुक्तयाख्यान परिहारे च व्याख्येयं सूत्रं सर्वमपि परिहृतं भवेत् । व्याख्येयव्याख्यानयोरन्योन्यानुविद्धत्वादिति गाथार्थः ||३८||
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शतकम्
अथ नियुक्तिरपि कीदृशी सूत्रानुयोगो भवेद् ? इत्याहअणुओगे साणुगमा, णिज्जुत्ति सेव सुत्तअणुओगे। अण्णहणुओगदारं, अपमाणं होइ वत्तन्वं ॥३६॥
व्याख्या-अनुयोगे-पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् अनुयोगद्वारे सानुगमा-सानुयोगा नियंक्तिर्मणिता ; सैव-तथाभूतैवसव्याख्यानैव सूत्रव्याख्यानं भवति, अन्यथा यदि सव्याख्याना सूत्रव्याख्यानं नोच्यते, तर्हि अनुयोगद्वारं-अनुयोगद्वारसूत्रमप्रमाणं वक्तव्यं भवेत् । तत्र सूत्रनियुक्त्योरविशेषेण व्याख्यानयोभणितत्वात् ।
'से किं तं अणगमे २ दुविहे पं०२० सुत्ताणुगमे णिज्जुत्तिअणुगमे त्ति वचनादिति गाथार्थः ॥३६॥
अथातिदेशेन पराभिप्रायं दूषयन्नाहएएणं णिज्जुत्ती, अपमाणं भासमाइपक्खेवा । इअ वयणं पक्खित्तं, भासाईणं पमाणत्ता ॥४०॥
व्याख्या--एतेनान्तरोक्तयुक्तिप्रकारेण नियुक्तिरस्माकं प्रमाणमेव, परं भाप्यादिप्रक्षेपादप्रमाणं गडुलितत्वादिति वचनं प्रक्षिप्तं-निरस्तं, कुतो ? भाष्यादीनामपि प्रमाणत्वात्-प्रमाणभूतभाष्यादिप्रक्षेपैनियुक्तिरप्रमाणं न भवेदित्यर्थः ॥४०॥
अथ प्रमाणभूतेन सूत्रवाक्यादिना युक्तं प्रमाणमपि यद्यप्रमाणं भवेत्, तर्हि अतिप्रसंगेनेष्टापत्तिमाह
अण्णह णंदिप्रमुहातिदेसवयणेहिं भगवई जुत्ता । अपमाणं वत्तबा, एवंपि समीहिअं अम्हं ॥४१॥
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३२
व्याख्यान विधि
व्याख्या -- अन्यथा प्रमाणभूतेन वाक्यादिना संयुक्ता निर्युक्तिर्यद्यप्रमाणं भवेत्तर्हि भगवती अपिर्गम्यः, भगवत्यप्यप्रमाणा वक्तव्या स्यात्, तस्या अपि नन्दी - जीवाभिगम-प्रज्ञापनासिद्धगण्डिकानामतिदेशवाक्यैर्युक्तत्वात् । तथाहि - 'से किं तं आयारो ? आयारेणं समणाणं निग्गंथाणं आयारगोअरो, एवं अंगा भाणियव्वा, जहा गंदीए जाव
सुत्तत्थो खलु पढमो, बीओ णिज्जुत्तिमीसओ भणिओ । तइओ अ णिरवसेसो, एस विही होइ अणुओगे || १॥ त्ति । भग० श० २५, उ० ३ । तथा एवं 'जहा जीवाभिगमे पढमो र अउसो णिरवसेसो भाणियव्वो' त्ति, भगवती सूत्र - शतक ० ११, उ० ३ । तथा 'णेरइआ भंते! केवइअं कालं ठिई पण्णत्ता, एवं बीअठिइपदं णिरवसेसं भाणियव्वं जाव अजहणेत्यादि भ० श० ११, उ० ११ । तथा उज्जुमईणं भंते! अपए सिए जहा नंदीए जाव भावओ इत्यादि । भग० श० ७, (८) उ० २ तथा प्रकरणस्याप्यतिदेशो, यथा- 'जाव सिद्धगंडिआ सम्मत्ता, कप्पाण पट्टा बाहुल्लुच्चत्तमेव संठाणमित्यादि । भग० श० ९, (२) उ०७ । एतद्वृत्तौ च सिद्धगण्डिकासिद्धस्थानप्रतिपादनप्रकरणमित्यादि । एतेनाऽस्माकं प्रकरणमप्रमाणमिति व बाणो लौम्पको निरस्तो बोध्यः । भगवत्यामप्यतिदेशरूपेण प्रकरणसम्मतेर्दर्शितत्वात् प्रकरणाप्रमाणवादिनो लौम्पकस्य भगवत्याः सुतरामेव परिहारार्हत्वात् । ननु भो ! भगवत्यां यदतिदेशरूपेण नन्दीप्रभृतिकं भणितं, तत्
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शतकम्।
गणधरकृतं साम्प्रतं व्युच्छिन्नं, यच्च विद्यमानं तत्ततोऽन्यदेवेति चेत् । सत्यं, तर्हि निर्युक्तावपि भाष्यादिकं तथैवाभ्युपगन्तव्यं, उभयत्रापि युक्तेस्तौल्यात् । अत एव नियुक्तौ मूलभाष्यगाथा इत्यादि भणितमपि। तथा 'सत्त पवयणणिण्हगा पं०२०-बहुरया १ जीवपएसिआ २ अन्वत्तिआ ३ सामुच्छेइया ४ दोकिरिया ५ तेरासिया ६ अबद्धिआ ७ इत्याद्यधिकारो गोष्ठामाहिलोत्पत्तेः पश्चादेव प्रक्षितः । यदि च श्रीसुधर्मस्वामिना गोष्ठामाहिलो निह्नवत्वेन श्रीस्थानाङ्ग भणितोऽभविष्यत्, तर्हि गोष्ठामाहिलो भणति तत् सत्यं, उत दुर्बलिकापुष्पप्रमुखः श्रीसंघो भणतितत् सत्यमिति निर्णयार्थ तीर्थङ्करसमीपे शासनदेवतायाः प्रेषणं नाऽभविप्यत् । निह्नवत्वेन श्रीमहावीरोक्तो गोष्ठामाहिलोऽसत्यवादीति निश्चयात् । किञ्चास्तामन्यत , गोष्ठामाहिलस्य दीक्षादिकमपि नाऽभविष्यत् । एवं जमालिप्रभृतयः शेषनिह्नवा अपि नामप्राहेण प्ररूपणया वा सूत्रेऽनुक्ता एवावसातव्याः । एवं प्ररूपणाकारी अमुकनामा साधुनिह्नवो भविष्यतीति । सूत्रोक्ताकल्प्यवस्तुविषयप्रभृतिरागमव्यवहारिणोऽपि न भवति ‘णो इमं सावज्जति पण्णवेत्ता पडिसेवित्ता (ण) भवतीति वचनात् । नहि श्रुतव्यवहारि निन्द्य कृत्यं केवल्यपि करोति, श्रुतव्यवहारस्य केवलिनोप्यभिमतत्वात् । यच्च श्रुते आगमव्यवहारिणो बलवत्त्वं, तत्सामान्योक्तविध्युल्लङ्घनेन विशिष्टाचारस्य निश्चयादवसातव्यम् । तच्च श्रुतव्यवहारनिन्द्य न भवति, फ(ब)लवत्तया निन्द्यकर्तव्यस्य तत्रासम्भवात् । यथा श्रीस्थलभद्रस्य कोशागृहे
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३४
व्याख्यान विधि
चतुर्मासकावस्थानं । तस्मात् सर्वस्यापि श्रुतस्य प्रायो यथासम्भवं प्रक्षेपोद्धारसम्बन्धपरावृत्त्यादिकमर्यादाकारकः प्रायः चरमश्रुतधर एव भवति, तस्यैव तथाप्रवृत्तावधिकारात् । तेन तथाभूतः सम्प्रति श्रीवज्रस्वाम्येवेति । वृद्धसम्प्रदायोऽपि सम्यगेव । प्रायोग्रहणात् क्वचित्कदाचित युगप्रधानः युगप्रधानश्रुतधरो वाऽपि सम्भवति, तत्कृतस्यापि तीर्थसम्मतत्वात् । यथा सभाप्रबन्धेन श्रीकल्पसूत्रवाचना। अन्यथा एकादशाङ्गधारिणां मेघकुमार-स्कन्धक-जमालिप्रभृतीनां अङ्गादिष अविद्यमानानामपि व्यतिकराः सूत्रे केन प्रक्षिप्ताः सर्वसम्मता जाता ? इति पर्यालोच्यम् । यत्तु नियुक्तिभाप्यचूर्णादीनामाधुनिकत्वेन भणनं, तत्कालानुभावात् अवशिष्टानां प्राचीनानामेव संक्षिप्ताथपाठपरावृत्त्यादिना वृत्ते रिवावसातव्यं । प्राचीनत्वं च पूर्वाचार्यसम्मत्या श्रीमहानिशीथादर्श लिखितं प्राग प्रदर्शितमेव । तेन नियुक्तिभाष्यचूाद्यनंगीकारे अर्थप्रत्यनीकताऽपि। यदागमः'सुअं पड़च्च तओ पडिणीआ पं० तं० सुत्तपडिणीए १ अत्थपडिणीए २ तदुभयपडिणीए' ३ त्ति । श्रीस्थानांगे। वृत्तियथा-सूत्र-व्याख्येयं, अर्थस्तद्व्याख्यानं निर्युक्त्यादिः, तदुभयं च द्वितयमिति । तस्मात् प्रक्षेपमात्रेण प्रमाणं सदप्रमाणं न भवत्येव, प्रत्युताऽनुकूलप्रक्षेपस्य सूत्रव्याख्यानभूतत्वेन मूलस्य दायहेतुत्वात् । तेन प्रमाणस्थ सूत्रादेरप्रामाण्यं तावदप्रमाणप्रक्षेपेण एव स्यात् । अप्रमाणप्रक्षेपस्तु तीर्थाभिमतसूत्रनियुक्त्यादौ क्वापि न सम्भवति विरोधात् । यदि चागमविपरीतप्रक्षेपोऽपि तीर्थसम्मतो
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३५
भवेत्तर्हि दिगम्बरादिमार्गा अपि तीर्थदृष्या न भवेयुः आगमविरुद्धप्रभृतेरपि तीर्थसम्मतत्वात् । तस्मात् प्रक्षेपमात्रेण यदि निर्युक्तेः परिहारस्तर्हि भगवत्यादेः सुतरामेव परिहारः कर्तव्यः, तत्रापि प्रक्षेपस्य प्राग् प्रदर्शितत्वात् । यदि च सत्यपि प्रक्षेपे भगवत्याद्यङ्गीकारस्तर्हि नियुक्त्यादेरपीति, उभयथापि साम्यात् । एवं उभयथाप्यस्माकं समीहितं सम्पन्नमित्यध्याहार्यमिति लौम्पकेन सह विवादस्य पर्यवसानादिति गाथार्थः ॥ ४१ ॥ अथैवमुक्तप्रकारेण सूत्रेऽपि प्रासादप्रतिमादीनां कारापकादेः सुलभत्वेऽपि श्रद्धानकारणमाहते अणुओगजुत्ते, सुत्ते परिमाणकारगप्पमुहा । सुलहा सद्दहणं पुण, दंसणमोहस्स खओवसमे || ४२ ॥
व्याख्या -- येन कारणेन प्रकृतसूत्रानुकूलग्रन्थान्तरवचनेन मिश्रितं प्रमाणं सदप्रमाणं न भवति, तेन कारणेनानुयोगयुक्तेसानुयोग नियुक्तियुक्ते प्रसंगानुप्रसंगागतानुयोगयुक्ते च सूत्रे 'णमो अरिहंताण' मितिपदमात्रलक्षणे प्रतिमाकारकप्रमुखाःप्रतिमा- प्रासाद-प्रतिष्ठा कारककारापकप्रमुखाः सुलभा :- सुखं लभ्याः । तथाहि - साधारणप्रासादप्रतिमादीनां कारापणादौ मुख्यवृत्त्याधिकारः चक्रवर्त्यादिसम्यग्दृशां राज्ञामेवेति पञ्चा - शकादौ भणितः, तत्कारितानां च प्रासादादीनां मात्सर्यादिदोषराहित्येन सर्वसम्मतत्वेन चोपादेयत्वात । तेनास्यामवसर्पियां प्रतिमादिकारापकः प्रथमः सम्यग्दृष्टी राजा भरतचक्रवर्ती । तेन कारितमष्टापदादौ जिनभवनादिकम् । तच्चोपोद्घात
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व्याख्यान विधि
निर्यु क्तित्र्याख्यानभूतया 'थूभसय भाउ आण' मित्यादिभाष्यगाथया प्रागुपदर्शितमेव । परमुक्तप्रकारेण श्रद्धानं पुनर्दर्शनमोहनीयस्य क्षयोपशमे उपलक्षणात् ज्ञानावरणीय क्षयोपशम सहकृते सत्येव स्यात् । उभयोरपि सहकार्यसहकारिभावसम्बन्धेन कारणत्वादिति गाथार्थः ॥ ४२ ॥
1
अथोक्तार्थसंवादनार्थं नमस्कारनिर्यु क्तिगतां गाथामाहणाणावर णिज्जस्स उ, दंसणमोहस्स तह खओवसमे । जीवमजीवे अट्ठसु, भंगेसु अ होइ सव्वत्य ॥ ४३ ॥
व्याख्या - जीवाजीवानधिकृत्य अप्टसु भङ्गेषु श्रद्धानं तु ज्ञानावरणीयस्य दर्शनमोहनीयस्य च क्षयोपशमे सत्येव सर्वत्र भवति । ते चाष्टौ भङ्गा अमी - एकः साधुः १ एका प्रतिमा २ बहवः साधवः ३ बहुव्यः प्रतिमाः ४ एकः साधुरेका प्रतिमा ५ एकः साधुर्बह्व्यः प्रतिमाः ६ बहवः साधवः एका प्रतिमा ७ बहवः साधवः बहव्यः प्रतिमाः ८ इति । सर्वत्रापि श्रद्धानं सम्यग्दृशामेव भवति । तस्यैव ( तेषामेव ) तयोः कर्मणोस्तथैव क्षयोपशमात् । तत्र केवलसूत्रार्थ लक्षणः प्रथमोऽनुयोगः 'नमोऽहृद्भ्यः इत्यत्रार्हन्ति शक्रादिकृतां पूजामित्यर्हन्तस्तेभ्य इति शब्दव्युत्पत्त्यैवावसातव्यः । तदनुकूला निर्युक्तिर्यथा
'अरिहंत बंदणणमंसणाई, अरिहंति पूअसकारं । सिद्धिगमणं च अरिहा, अरिहंता तेण वच्चंति' || १ ||त्ति | तथा 'अरिहन्तृभ्य' इत्यत्र अरीन् घ्नन्तीति अरिहन्तारस्तेभ्योऽरिहन्तृभ्योऽरयः के १ इतिप्रश्ने निर्युक्तिर्यथा
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'अट्टविहंपि अ कम्मं, अरिभूअं होइ सव्वजीवाणं । तं कम्ममरिहंता, अरिहंता तेण वुच्चंति' । १ ।।
तत्राष्टविधान्यपि कर्माणि जीवेन निबद्धान्येव भवन्ति । निबन्धस्तु कार्यत्वेन कारणायत्त इति प्रसंगागतानि कर्मबन्धकारणान्यपि वक्तव्यानि । तत्र ज्ञानावरणीयदर्शनावरणीयकर्मबन्धकारणानि यथा--
'पडिणोज अंतराओ-बघायए तप्पओसणिण्हवणे । आवरणदुगं भूओ, बंधइ अच्चासणाए अ' ॥ १॥ त्ति । तथा दर्शनमोहनीयकर्मबन्धकारणानि यथाअरिहंतसिद्धचेइअ-तवसुअगुरुसंघसाहुपडिणीओ ।
बंधइ दंसणमोहं, अणंतसंसारिओ जेण ॥ १॥ त्ति श्रीआचारांगवृत्तौ सम्मतितया भाष्यकारवचनं । तथा उपोद्घातनियुक्तिव्याख्यानभूतायां 'थभसय भाउआणं' इत्यादिभाष्यगाथायां जिनप्रतिमा भणिताः । ताश्च प्रतिष्ठिता एव पूज्या भवन्तीति प्रसंगागतं प्रतिष्ठाकारकश्रीनाभसूरिव्यतिकरनिबद्धंश्रीशत्रुञ्जयमाहात्म्यं वक्तव्यं । तच्च श्रीपुण्डरीकगणधरकृतं सपादलक्षप्रमाणमासीत् । साम्प्रतं च क्रमेण तदुद्धाररूपमवसातव्यम् । जिनप्रतिमाप्रतिष्ठा च केन विधिना भवतीत्यनुप्रसङ्गागतं श्री हरिभद्रसूरि - पादलिप्ताऽऽचार्योमास्वातिवाचकप्रभृतिविरचिताः प्रतिष्ठाकल्पा अपि वक्तव्याः । एवं च सति णमो अरिहंताण' मिति पदमात्रय ‘सुत्तत्थो खलु पढमो' इत्यादिगाथोक्तैस्त्रिभिः प्रकारैर्व्याख्यानकरणे नियुक्ति-भाष्य-चूर्णि-चरित्रादिकं
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व्याख्यान विधि
त्ववश्यं वक्तव्यमेव । अन्यथा 'णमो अरिहंताण' मिति पदस्य व्याख्यानासम्भवात् । अव्याख्यातं च सूत्रं सुप्तकल्पमेव भवति । यदागमः-'सुअधम्मे तिविहे पं० तं०-सुत्तसुअधम्मे १ अत्थसुअधम्मे २ तदुभयसुअधम्मे ३' त्ति श्री स्थानांगे । वृत्तियथा'सूयते-सूच्यते वाऽर्थोऽनेनेति सूत्रं, सुस्थितत्वेन व्यापित्वेन च सुष्ठक्तत्वात्सूक्तं, अव्याख्यानेन अप्रतिबुद्धावस्थत्वात्सुप्तं इव सुप्तम् । न चैवं 'सुत्तं' ति पदस्य त्रिधा निरुक्तिकल्पनमनुचितमिति वाच्यं । एकस्यापि पदस्य प्रवचनाऽनाबाधयाऽनेकार्थाभिधायकत्वात् । अत्र वृद्धसंबादेन दृष्टान्तोऽपि--
'भिल्लम्स तिन्नि भज्जा, एगा मग्गेइ पाणिभं देहि । बीआ मग्गइ हरिणं, तइआ गवरावए गीअं ॥१॥ ति ।
तिसृभिर्भार्या भिर्याचितो भिल्लः 'सरो णन्थिति एकेनैव वाक्येन सर्वासामपि निर्वचनं कृतवान् । अत्र प्राकृतनिप्पत्त्या एकत्वेऽपि शरो नास्ति? सरो नास्ति२ स्वरो नास्तीति निरुक्तिभेदेन नानार्थत्वात् । एवमेकमेव सुत्तंति पदं वृत्तिकारणागमानाबाधया विधापि व्याख्यातं । त्रयाणामप्यर्थानां प्रवचनाऽनाबाधकत्वात् । अन्यथा महार्थता-सर्वतोमुखत्वाद्यभावेन सूत्रमेव न स्यात्। अत एव एकमेव सूत्रं द्रव्यानुयोगादिभिश्चतुभिरनुयोगैाख्यायमानमासीत् । तस्मान्णमो अरिहंताणमिति पदस्य नियुक्तिभणितेषु अष्टसु भङ्गषु श्रद्धानं ज्ञानावरणीय-दर्शनमोहनीयक्षयोपशमे सत्येव, नान्यथेति तात्पर्यमिति गाथार्थः ॥४३॥
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शतकम्
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अथ प्रतिमाऽरातिसमुदायस्य ज्ञानावरणीयदर्शनमोहनीययोः कर्मणोः क्षयोपशमाऽभावेन यत्स्यात्तदाह--- तयभावा सद्दहणं, ण होइ तेणेव तस्स मिच्छत्तं । मिच्छत्ता जिणपडिमा-पडिवक्खो जाव तित्थस्स ॥४४॥
व्याख्या-तदभावादुक्तलक्षणकर्मणोः क्षयोपशमाऽभावेन श्रद्धानमर्थाजजिनप्रतिमाविषयं न भवति । तेनैव तस्य मिथ्यात्वं । मिथ्यात्वाच्च जिनप्रतिमायाः प्रतिपक्षो-वैरी भवति । न केवलं जिनप्रतिमाया एव, यावत् तीर्थस्यापि, यावत्करणात्तीर्थकरादेहणं, तीर्थ-तीर्थकर-जिनप्रतिमादीनामन्योन्यानुविद्धत्वेन सम्बन्धात् । अन्योन्यानुविद्धत्वं चाऽऽराधनमधिकृत्य परस्परमविनाभावित्वेनावसातव्यम् । अत एव तीर्थप्रतिपक्षस्य तीर्थकरप्रतिपक्षत्वस्याऽऽवश्यकत्वात्, तीर्थस्य तीर्थकरपूज्यत्वात् । यदागम:
तित्थपणामं काउं, कहेइ साहारणेण सद्देणं । सव्वेसिं सण्णीणं, जोअगणीहारिणा भयवं ।।१।। तप्पुविआ अरिहया, पूइयपया य विणयकम्मं च ।
कयकिच्चो वि जह कह, कहेइ णमइ तहा तित्थं ॥ ति श्री आवश्यकनियुक्तौ। तीर्थस्य तीर्थकरपूज्यत्वं च सर्वगुणाश्रयत्वेनैव । यदुक्त
'एअंभि पूइयंमि, णस्थि तयं जं न पूइयं होइ ।
भुवणेवि पूणिज्ज, ण गुणट्ठाणं तओ अन्न' ॥१॥ ति पञ्चाशके। एतेन वयं तीर्थकरं तु मन्यामहे, तीर्थेन किं प्रयोजनमिति निजम तिकल्पनया धाष्यमाश्रिता अपि निरस्ता बोध्याः।
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४०
व्याख्यान विधि
तीर्थानभ्युपगमे तीर्थकरस्याप्यनभ्युपगमात् । नहि पुत्रानभ्युपगमे तज्जनकत्वेन पितृत्वाभ्युपगमः सम्भवति । पुत्रेणैव पितृत्वव्यपदेशस्य जायमानत्वात् । एवं च यथा जातेन पुत्रेण देवदत्तस्य पितृत्वपदवी दत्ता, तथा जिनेन व्यवस्थापितेन तीर्थेन जिनस्य तीर्थकरपदवी दत्ता । अत एव कृतकृत्योऽपि भगवान् जिनस्तीर्थ नमस्करोति । यदागमः--'तित्थपणामं काउ' मित्यादि गाथायुग्मं अनन्तरप्रदर्शितं बोध्यम् । किञ्च-तीर्थानभ्युपगमे तीर्थंकरस्याप्यनभ्युपगम एवेत्यत्र युक्तिं 'एएणं सव्वेसिं एगो तित्थंकरो'त्ति गाथाव्याख्यायां वक्ष्याम इति गाथार्थः ।४४।
अथ प्रतिमाऽरेस्तीर्थप्रतिपक्षत्वसूचकं वचनमाह-- तेणं तित्थमतित्थं, अतित्थमवि भासइ सुतित्थंति । तमसच्चं जगपावा, अहिअं पावं जिणिंदुत्तं ॥४५॥
व्याख्या--येन कारणेन लौम्पकस्तीर्थप्रतिपक्षः, तेन कारणेन श्रीमहावीरव्यवस्थापितमच्छिन्नपरम्परागतं ( तीर्थ ) यत्तदोरध्याहारात् यत्तदतीर्थ-तीर्थ न भवतीत्येवं तीर्थस्यातीर्थतया भणनं, अतीर्थमपि-जिनप्रतिमारिसमुदायात्मकं, सुतीर्थ-शोभनं तीर्थमिति भाषते, एवमनृतमसत्यभाषणं जगत्पापादधिकं पापं-कारण कार्योपचारात् अधिकपापकारणं 'जिणिंदुत्तं' जिनेन्द्रेणोक्तम् । तथाहि--'उम्मग्गमग्गसंपट्टियाण साहूण गोयमा ! णणं । संसारो अ अणंतो, होइ अ सम्मग्गणासीणं' ॥१॥ [ गच्छाचारः ] ति वक्ष्यमाणमवसातव्यं यथा
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xY
एकत्राऽसत्यजं पापं, पापं निःशेषमेकतः ।
द्वयोस्तुलावधृतयो-राद्यमेवातिरिच्यते ॥१॥ इति योगशास्त्रवृत्तौ। एवं तीर्थमतीर्थमतीर्थं च तीर्थमिति भाषणं सर्वोस्कृष्टमृषाभाषणं तीर्थप्रतिपक्षत्वाभिव्यञ्जकम् । एवं सर्वेऽप्युत्सूत्रभाषिणस्तीर्थप्रतिपक्षा एव इत्यग्रे वक्ष्यते इति गाथार्थः ।।४५।।
अथोक्तप्रकारेण मृषाभाषणस्य मूलकारणमाह--- जेणं जिणतणेणं, णिअणामविगप्पिसं सबुद्धीए । तं सच्चंति कयट्ठा, तित्थमतित्थं महामोहा ॥४६॥
व्याख्या--येन कारणेन स्वबुद्धया-वयं जैना इत्येवंरूपेण जैनत्वेन निजनाम कल्पितं तन्नाम सत्यमिति कृत्यर्थं-करणार्थ तीर्थमतीर्थत्वेनातीर्थं च तीर्थत्वेन भाषणं महामोहात्-उत्कृष्टमिथ्यात्वमोहनीयोदयादवसातव्यम् । अयं भावः-जैनानां मते उत्सूत्रभाषिणो मिथ्यादृष्टित्वेन प्रवचनबाह्याः। तेन-ते न जैनाः, नान्यतीथिका वा, हरिहरादीनां देवत्वेनाऽनभ्युपगमात् । नापि गृहस्थाः, यतिलिङ्गधारित्वात् । अपि तु व्यक्तनाम्ना वक्तुमशक्यत्वात् अव्यक्ताः। यदि च मिथ्यादृष्टित्वेऽपि जैना भवन्ति, तहि जैनाः सम्यग्दृशो मिथ्यादृशश्चेति द्वविध्येन वक्तव्याः स्युः। तच्चाद्य यावत्केनापि नोक्तं, न वा श्रुतं, उत्सूत्रभाषिणो मिथ्याप्टित्वं च वचोमात्रेण सर्वसम्मतम् । तेन यदि आत्मानं जैनत्वेन नाऽमणिष्यत् , तर्हि ते जैनमजैनत्वेनाजैनं च जैन वेन नाऽमणिष्यत् , प्रयोजनाभावात् , यथा सौगतादयः । प्रयोजनं चात्मनो जैनत्वेन सिद्धिरेव । जैनत्वं च तीर्थान्तर
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४२
व्याख्यान विधि
वर्तित्वेनैव स्यात्, जिनस्यापत्यं जैन इति शब्दव्युत्पत्तेः । तीर्थान्तरवर्तित्वं च जिनसमुदायस्य तीर्थत्वेनैव स्यात् । तच्च निजमार्गप्रतिपक्षभूतस्य तीर्थयातीर्थतया भणनेनैव स्यात्, विरुद्धयो योस्तीर्थयोरसम्भवात् । ननु भो ! जिनस्यापत्यत्वाऽभावेऽपि जिनो देवोऽस्येति जैन इति शब्दव्युत्पत्त्या सम्यग्दृष्टिदेवादीनामिव जैनत्वं भवत्येवेति चेत् । सत्यं, तीर्थप्रतिपक्षभूतमार्गमाश्रितानां तीर्थव्यवस्थापकस्य जिनस्य देवत्वेन श्रद्धानमेव (न) भवति, तीर्थविरोधस्य तीर्थकरविरोधनियतत्वात् । जिनस्य कर्तव्ये वचसि च विश्वासाभावात् जिनस्य मृषाभाषित्वाद्यभ्युपगमे वचोमात्रेण तीर्थकराभ्युपगमः स्वात्मनः तद्वचो श्रोतृणां च महानर्थहेतुरुन्मार्गप्रवृत्तिहेतुत्वात् । किञ्च-वल्लभपुत्रघातकेन सह मैत्री किं केनाऽपि कस्यापि दृष्टा श्रुता वा । न चैवं सम्यगदृष्टिदेवादीनां सम्भवति, तीर्थेन सह विरोधाभावात् । तीर्थविरोधित्वं चाग्रे वक्ष्यते इति गाथार्थः ॥४६॥
अथोक्तप्रकारेण मृषाभाषणं मिथ्यात्वोदयादेव स्यात्, तेन सामान्यतो मिथ्यात्वस्वरूपं किञ्चिदाह
मिच्छत्ता विवरीअं, सब्बो लोओ वइज्ज सम्बंपि । जइ कत्थवि सम्मं तं, घुणअक्खरणायओ णेअं ॥४७॥
व्याख्या-मिथ्यात्वात् सर्वो लोको विपरीतं वदेत्-सम्यगवस्तुस्वरूपं न भाषते । तुरध्याहार्यः, स तु कुत्रचित् सम्यग-सत्यं भाषते, तत् घुणाक्षरन्यायतः । यदागमः
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४३
'सम्म छिट्ठीउ सुमि, अणुवउत्तो अहेउअं चेव ।
"
जं भासइ सा मोसा - मिच्छादिट्ठीवि अ तहेव ' ॥ १ ॥ ति दशवे० नि० । एतद्गाथावृत्तौ - 'मिथ्यादृष्टिरपि तथैवउपयुक्तोऽनुपयुक्तो वा यद् भाषते सा मृषैव । घृणाक्षरन्यायेन क्वचित् संवादेऽपि सदसतोरविशेषात् यदृच्छोपलब्धेरुन्मत्तवदि'ति । तस्मात् मिथ्यादृष्टिः सर्वत्र विपरीतभाषीति गाथार्थः ॥ ४७| अथ मिथ्यात्ववत् तत्प्रतिपक्षभूतस्य सम्यक्त्वस्य स्वरूपभणनपूर्वकं सामान्यतो मिथ्यात्वविवेकमाह---
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णिज्जुत्ती अणुओगो, जस्स पमाणं खु तस्स सम्मत्तं । सेसाणं मिच्छतं, आगाढं वा अणागाढं ॥ ४८ ॥
व्याख्या - निर्युक्तेरनुगमो - भाय्यादिस्वरूपं व्याख्यानं, सूत्रव्याख्यानभूताया अपि निर्युक्तेरनुगमस्य प्रवचने भणितत्वात् । तथाहि - 'से किं तं अणुगमे १२ दुविहे पं० तं० सुताणुगमे १ णिज्जुत्तिअणुगमे २' त्ति श्री अनुयोगद्वारे । सोऽनुयोगो यस्य प्रमाणं सत्यतयाङ्गीकारः, तस्य सम्यक्त्वं भवति । निर्युक्त्यनुगमस्य भाष्यचूर्ण्यादिरूपस्य प्रामाण्याभ्युपगमे जनप्रवचनमात्रमपि प्रमाणतयाभ्युपगतं भवेत् उभयपदाव्याहृत्यैव व्याप्तेः । एवं च तस्य सम्यक्त्वं भवत्येव । यदुक्तं --- 'सव्वाई' जिणे सर भासिआइ, वयणाई णण्णहा हुंति । इअ बुद्धी जस्स मणे, सम्मत्तं निच्चलं तस्य' || १ || ति । जिनोक्तस्यैकस्याप्यक्षरस्याश्रद्धाने मिथ्यात्वं पुरो वक्ष्यते । शेषाणां तुर्गम्यः, शेषाणां तु मिथ्यात्वं खरवधारणे, मिथ्या
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व्याख्यान विधि
त्वमेव । तत्र मिथ्यात्वं द्वधा-आगाढं-तीव्र, वा-अथवा, अनागाढं-मन्दं, वा विकल्पार्थे भवतीति सामान्यतो विभागो दर्शित इति गाथार्थः ॥ ४८॥
अथ प्रथमतया मणितस्याऽऽगाढमिथ्यात्वस्य विभागमाहआगाढं पुण लोइअ-लोउत्तर भेअओ अ दुविगप्पं । तेसिमसग्गहदोसा, दोसो णिअमा अ जिणसमए ॥४६॥ . व्याख्या-आगाढं पुनर्मिथ्यात्वं लौकिकलोकोत्तरभेदतो द्विविकल्पं-द्विप्रकारं, भवति । 'तेसि' ति धर्मधर्मिणोः कथचिदभेदात् तद्वतामागाढमिथ्यादृशामसद्ग्रहदोषात्-निज-निज गुरूपदेशपरतन्त्रक्रियारुचिलक्षणासद्ग्रहदोषमाहात्म्यात् जिनसमये-जैनशासने, नियमात्-निश्चयेन द्वेषो भवति । यदागम:----'से एगइओ समणं वा माहणं वा दिस्सा णाणाविहेहिं पावकम्मेहिं अत्ताणं उवक्खाइत्ता भवति, अदुवा णं अच्छराए आप्फालेता भवति, अहवा फरुसं वइत्ता भवतीत्यादि, यावत् अहम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिए' त्ति सूत्र कृ० द्वि० श्रु० (सू० ३२) वृत्तिर्यथा-'साम्प्रतं विपर्यस्तदृष्टयः आगाढमिथ्यादृष्टयोऽभिधीयन्ते- से एगइओ' इत्यादि । व्याख्या-'अथै ककः कश्चित् आभिग्रहिकमिथ्यादृष्टिरभद्रकः साधुप्रत्यनीकतया श्रमणादीनां निर्गच्छतां प्रविशतां वा स्वयं निर्गच्छन् प्रविशन् वा नानाविधैः पापोपादानभूतैः कर्मभिः आत्मानमुपख्यापयिता भवतीत्येतदेव दर्शयति-अथवेत्ययनुत्तरापेक्षया पक्षान्तरग्रहणार्थ, क्वचित् साधुदर्शने सति मिथ्यात्वोपहतदृष्टि
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शतकम् ।
Q
तथा अपशकुनोऽयमित्येवं मन्यमानः सन् दृष्टिपथादपसारयन् परुषं वचो ब्रूयात् तद्यथा - ओदनमुण्ड ! निरर्थककायक्लेशपरायण ! दुर्बुद्धे ! अपसराऽग्रतः, तदसौ भ्रुकुटिं विदध्यात् असभ्यं वा ब्रूयादित्यादि यावदिदमुक्तं भवति यो हि क्रूरकर्मकारी साधुनिन्दापरायणः तद्दाननिषेधकः स दक्षिणगामुको भवति - दाक्षिणात्येषु नरकतिर्यग मनुष्यामरेषु उत्पद्यते । ताग्भतश्चायमतो दक्षिणगामुक इत्युक्त' मित्यादि । एवं जिनप्रवचने प्रतीतोऽभिनिवेशिनाम्ना हि लोकोत्तराऽऽगाढ मिथ्यादृष्टिः मन्तव्यः | नवरं - जैनं मार्ग जैनाऽऽभासमार्गत्वेन, जैनाभासमार्ग च जैनमार्गत्वेन ब्रुवाणो जैनमार्गविध्वंसकः सन् साध्वादीनां सर्वेषामपि प्रत्यनीको मन्तव्यः | जैनमार्गविध्वंसकत्वं चोलुत्रभाषकस्यैव स्यात् । यदागमः -
अ अ राओ असमुट्टिएहिं, तहागएहिं पडिलब्भ धम्मं । समाहिमाघातमजोसयंता, सत्थारमेवं फरुसं वयंति | १ | त्ति श्रीसूत्रकृदङ्ग (अ०१३, गा०२) वृत्तिर्यथा - 'अहो अ राओ अ समुट्टिएहि मित्यादि । व्याख्या - अहोरात्रं- अहर्निशं, सन्यगुत्थिताः - सदनुष्ठानवन्तः तेभ्यः श्रुतधरेभ्यः तथागतेभ्यो वा तीर्थभ्यो धर्मं श्रुतचारित्राख्यं प्रतिलभ्य - संसारनिस्तरणोपायं धर्ममवाप्यापि कर्मोदयान्मन्दभाग्यतया जमालिप्रभृतय इवात्मोत्कर्षात् तीर्थकृदाख्यातं समाधिं - सम्यग्दर्शनादिकं मोक्षपद्धतिम जोषयन्तोऽसेवयन्तः - सम्यगकुर्वाणाः निह्नवाः बोटिकाश्च स्वरुचिविरचितव्याख्याप्रकारेण निर्दोषं सर्वज्ञप्रणीतमार्गं विध्वं
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४६
व्याख्यान विधि
सयन्ति कुमार्ग च प्रवेदयन्ति, ब्रुवते च - असौ सर्वज्ञ एव न भवति यः क्रियमाणं कृतमित्यध्यक्षबाधितं प्ररूपयति । तथा च पात्रादिपरिग्रहात् मोक्षमार्गमाविर्भावयतीत्यादि । एवं साम्प्रतीना अपि यश्चतुर्दश्यां पाक्षिकं कृत्यं, स्त्रीजिनपूजां, श्राद्धानां मुखवस्त्रिकादिकं यावत्पृथिव्याद्युपमर्दस्थानं जिनप्रतिमापूजादिकं च प्ररूपयति, स सर्वज्ञ एव न भवतीति ब्रुवाणाः प्रवचनविध्वंसका एव मन्तव्या इति गाथार्थः ॥ ४९ ॥
अथाऽऽगाढमिथ्यादृशां मार्गकृत्यं दूरे, मार्गानुयायि कृत्यमपि ( न ) भवतीति दर्शयतितुल्लाहिं किरियाहिं, ण होइ मग्गाणुसारि किच्चपि । उप्पहपह किरिआणं, तुल्लाणवि अंतरं गुरुअं ॥ ५० ॥
व्याख्या–तुल्याः–सम्यग्दृग् मिथ्यादृग्भ्यां विधीयमानत्वेन समाः क्रियाः- तपः संयमादिलक्षणाः, ताभिः क्रियाभिरागाढमिथ्यादृशां मार्गानुयायि कृत्यमपि न भवति । तत्र दृष्टान्तमाह--' उप्पहेत्यादि । उत्पथं - जिगमिषितनगरं प्रत्युन्मार्गः, पन्था च मार्गः, उत्पथं च पन्था चोत्पथपन्थानौ तयोः क्रियाःसमीहितनगर प्राप्तिनिमित्तगमनादिरूपाः पादादिगमनाऽन्नभोजनपानीयपानस्नान-सुस्थानविश्राम श्रमापनयनादिरूपाः, तासां तुल्यानामपि परस्परमन्तरं गुरुकं - महद् भवति । तच्चैवं याभिः क्रियाभिः प्रेप्सितनगरस्य प्रत्यासन्नतादिभवनानुक्रमेण नगरप्राप्तिर्भवति, ताभिरेव क्रियाभिरुन्मार्गगामिनां प्रेप्सितनगरात् दूरदूरतरभवनादिक्रमेण नगरानवाप्तिरेव स्यात् । एतच्च सर्वानु
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भवसिद्धमेव । एवं जिनमार्गाश्रितानामन्यतीर्थिकमार्गमाश्रितानामुत्सूत्रभापिमार्गमाश्रितानां चांशतः कथञ्चित् साम्येऽपि महदन्तरमवसातव्यम् । अयं भावः-जैनदर्शनं तावन् मोक्षमार्गत्वेन मार्गः, शेषाणि तु सौगत-कापिलेयादिदर्शनानि जमाल्यादिदर्शनानि च संसारमार्गत्वेनोन्मार्गाः । यदागमः
'कुप्पवयणपासंडी, सब्वे उम्मग्गपट्ठिआ ।
सम्मग्गं तु जिणक्खायं, एस मग्गो हि उत्तमे ॥१॥ त्ति श्री उत्तरा ० २३ (गा० ६३) तत्र यद्यपि दिग्वैपरीत्येन सर्वासामपि क्रियाणां वैपरीत्यं भवति, अन्यथा विपरीतकार्याऽसम्भवात, तथापि कथञ्चित् परिहारोपादानाभिधानादिना साम्यं सम्भवति । परं तन्मार्गानुयायि कृत्यं न भवत्येव, मुक्तिपथत्वाभावात् । यतः सम्यग्ज्ञानादेर्मुक्तिपथत्वं 'सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्ग, (तत्त्वार्थ०) इति वचनात् । अत एवं यावत् राज्यादिपरित्यागोऽपि यथा सम्यगदृशा मुक्तिकारणं न तथा मिथ्यादृशामपि । प्रत्युत महानर्थहेतुरेव । यदुक्तं
'बाह्यग्रन्थ(परि)त्यागा-न्न चारु नन्वत्र तदितरस्यापि ।
कञ्चकमात्र(परि)त्यागा-न्नहि भुजगो निर्विषो भवति ॥१॥ इति षोडशके। वृत्तिर्यथा-'ननु बाह्यलिङ्गस्य कथमप्राधान्यं भवद्भिरुच्यते १ यतस्तत्परित्यागरूपमित्याशङ्क्याह-बाह्यग्रन्थ व्याख्या-बाह्यग्रन्थत्यागात- धनधान्यस्वजनवस्त्रादित्यागान्न चारु-न शोभनं बाह्यलिङ्गम् । ननु-निश्चितमेतत् अत्र लोके, तद् बाह्यलिङ्ग इतरस्यापि मनुष्यतिर्यग प्रभृतेरपि सम्भवति, एन
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४८
व्याख्यान विधि
मेवार्थ प्रतिवस्तूपमया दर्शयति-कंचुकमात्र परित्यागात् - उपरिवर्तित्वमात्रपरित्यागात्, नहि नैव, भुजगः- सरीसृपः, कथंचि निर्विषो भवतीति । आस्तामन्यत्, मिथ्यादृशां ज्ञानमप्यज्ञानं, एवं स्वाभिमत देवाद्याराधनशुभाध्यवसायोऽपि मिथ्यात्व - मेवेति श्रीहरिभद्रसूरिकृतस्य श्रावकविधिप्रकरणस्य वृत्ताविति गाथार्थः ॥ ५० ॥
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अथ मिथ्यादृग्मार्गाभिमतक्रियाणां फलं दर्शयन्नतिप्रसंगमाह
जं ताओ किरिआओ, थिरयाहेऊ असग्गहाणं सिं । अore अरिहंता इअ, सहणा होइ सम्मत्तं ।। ५१ ।।
व्याख्या - यद्यस्मात् कारणात् ता अनन्तरोक्ताः क्रियाःनाग्न्यव्रत पूर्णिमा पाक्षिक स्त्रीजिनपूजानिषेध श्राद्धमुखवस्त्रिकादिनिषेध - जिनप्रतिमातत्प्रतिष्ठानिषेधरूपाः 'सिं' ति । तेषां दिगम्बरादीनामसद्ग्रहाणामसग्रहवतां निज- निज-गुरूपदेशपर - तन्त्र क्रियारुचीनामसद्ग्रहस्य स्थिरताहेतवः । यतस्ते दिगम्बरादयः सर्वेऽपि निज निज - क्रियापरायणाः वयमेव जिनोक्तक्रियाकारिस्वेन जैनाः । शेषास्तु सर्वेऽपि जैनाऽऽभासाः जिनोक्त क्रियाकारित्वाभावादित्येवं निज- निज-मार्ग क्रियाभिरेवा सद्गृहस्य स्थिरता भवति । अथ यदि तेषामसद्ग्रहस्य स्थिरता न स्यात्तर्हि प्रत्यासन्नभावि सम्यक्त्वं भवेत् तथाभूतश्रद्धानस्य पराभिप्रायेण मार्गानुयायित्वादित्येवं सूक्ष्मदृशा पर्यालोच्यम् ।
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रातकम् ।
४६
यत्तु ' अहवा सव्वं चिअ वीयरायवयणाणुसारि जं सुकड' मित्यादिचतुः शरणप्रकीर्णकगाथावृत्तौ मिथ्यादृष्टिसम्बन्ध्यपि मार्गानुयायि कृत्यमनुमोदनीयं भणितं, तत् सम्यक्त्वाऽभिमुखमिथ्यादृष्टेरेवाऽवसतव्यम् । स चाऽऽगाढमिथ्यादृष्टिर्न भवत्येव, किन्तु कश्चिदनागाढ मिथ्यादृष्टिर्वक्ष्यमाणमार्गाऽनुयायि कृत्यं कुर्वन्नवसातव्य इति गाथार्थः ॥ ५१ ॥
अथ मार्गाsनुयायि कृत्यं कीदृशं भवतीति दर्शयतिता ससमग्गासग्गह- परिचायनिमित्तमेव जं किच्चं । सम्मत्तकारणं वा, तं खलु मग्गाणुसारिति ॥ ५२ ॥ ।। ।। व्याख्या- 'ता' तस्मात् कारणात् स्वस्वमार्गाः - शाक्यादिदिगम्बरादिदर्शनानि तद्विषयोऽसग्रहः - निज निजगुरूपदेशपरतन्त्ररुचिलक्षणः, तत्परित्यागस्य निमित्तं कारणं यत्कृत्यं, वाअथवा, सम्यक्त्वकारणं-शुद्धश्रद्धानादिहेतु:, तत् खलुखधारणे, तदेव मार्गानुयायि कृत्यं - ज्ञानादिप्राप्त्यनुकूलमित्यक्षरार्थः । भावार्थः पुनरेवं यद्यपि आगाढमिथ्यादृष्टेर्मार्गाऽनुयायि कृत्यं प्रायो न सम्भवति, परं तथापि कस्यचित्तथा भव्यत्वयोगेन मन्दीभूताऽऽगाढमिथ्यात्वस्यासद्द्महपरित्यागद्वारा सम्यक्त्वप्राप्तिः स्यात् । यदागमः - 'मग्गाणुसारिअ'ति । व्याख्या- 'असद्ग्रहपरित्यागेनैव तत्वप्रतिपत्तिर्मार्गानुसारितेति वन्दारुवृत्तौ । तेनाऽसग्रहपरित्यागहेतुरेव मार्गानुयायि कृत्यं । ततो येन कर्तव्येनाऽसद्ग्रहपरित्यागो न भवति (तन्मार्गानुयायि कृत्यमपि न भवती ) ति तात्पर्यं । अनाऽऽगाढमिथ्यादृशां तु असद्द्महाऽभावेन यत्कृत्यं
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व्याख्यान विधि
सम्यक्त्वप्राप्तिहेतुस्तदेव मार्गाऽनुसारीति विकल्पो दर्शित इति गाथार्थः ।। ५२ ॥
__ अथाऽसद्ग्रहपरित्यागहेतुः स्वरूपतः कीदृग् भवतीति प्रसङ्गतो दर्शयतिजं किंचिवि परसमए, णाभिमयं अभिमयं च जिणसमए । सम्मत्ताभिमुहाणं, तं खु असग्गहविणासयरं ॥ ५३॥
व्याख्या-यत् किञ्चिदपि, कत्यं श्रद्धानं वेति विशेप्यपदमध्याहार्य, परसमये-जैनव्यतिरिक्तदर्शने, नाऽभिमतंनिजमार्गत्वेन नाऽङ्गीकृतं, अभिमतं च जैनसमये-जैनशासने, जैनैरात्मीयमार्गत्वेनाऽभ्युपगतमित्यर्थः । सम्यक्त्वाऽभिमुखानां 'तं खु' त्ति । तदेव असद्ग्रहविनाशकरं-सम्यक्त्वसूर्यप्रकाशस्पृष्टानामसद्ग्रहध्वान्तोच्छेदकमित्यर्थः । असद्ग्रहपरित्यागपूर्वकसम्यक्त्वप्राप्तिहेतुत्वात् । न चैवं तन्मार्गाऽभिमताऽकरणनियमादिकमपि तथा। तस्योभयवादिसम्मतत्वेन असद्ग्रहपरित्यागो दूरे, प्रत्युत तदुभयवादिसम्मतं जैनसम्मत्योभावितं निजनिजमार्गदाढ्यहेतुः । अत एव आस्तामन्यः, सर्वज्ञो भगवान् श्रीमहावीरोऽपि उभयवादिसम्मताथै वेदपदैरेव गौतमादीनां संशयोच्छेदं कृतवान्, परकीयसम्मतेनिजमार्गदाढ्यहेतुत्वात् । अन्यथा तदुद्भावनस्य वैयथ्यं स्यात् । यदि चोभयवादिसम्मतं कृत्यं श्रद्धानं वा असद्ग्रहपरित्यागहेतुसर्गाऽनुयायि कृत्यमभविष्यत्, तर्हि सर्वेषामपि व्यक्तमिथ्याशां तत्क्षणमेवाऽसद्ग्रहपरित्यागेन सम्यक्त्वप्राप्तौ व्यक्तमिथ्यात्वमुच्छि
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न्नसंकथमेवाऽभविष्यत्, प्राणातिपाताधकरणनियमस्य वचोमात्रेण प्रायः सर्वसम्मतत्वात् । तस्मात सत्यप्यकरणनियमादौ निजमार्गाऽसद्ग्रहस्य तादवस्थ्यं किं निमित्तकमिति पर्यालोचनायां द्रव्यतोऽपि शुभकर्तव्यस्योभयवादिसम्मतमेव परिशेषात् सिध्यति । अत एव 'देवोऽहन्नेवे त्यादिव्यक्त्या श्रद्धानादौ सत्यपि लोकोत्तरमिथ्यादृप्टेरसद्ग्रहस्याऽपरित्यागः । उत्सूत्रभाषिणां तथाभूतश्रद्धानस्यैवासद्ग्रहत्वेन परिणमनात्। बीजं तावदस्मदीयो मार्गोऽहता भाषित इति श्रद्धानमेवेति तात्पर्यमिति गाथार्थः।५३।
अथाऽऽगाढमिथ्यादृशोर्मध्ये यल्लोकोत्तरमागाढतरमिथ्यात्वं, तदधिकृत्य विशेषमाहतत्थवि जं लोउत्तर-मागाढतरं विराहगस्स तयं । जेणं हविज तेणं, दवेणवि अलियवयणुत्ति ॥ ५४ ॥
व्याख्या-तत्रापि-लौकिकलोकोत्तरयोरागाढ मिथ्यादृशोमध्ये अभिग्रहिकापेक्षया अभिनिवेशी आगाढतरोऽवसातव्यः, अभिनिवेशमिथ्यात्वमागाढतरमित्यर्थः । तत्र हेतुमाह-विराहगस्से'त्यादि । येन कारणेन 'तकं तत् अभिनिवेशमिथ्यात्वं विराधकस्यैव भवति, तेन कारणेन द्रव्येणाऽपि-द्रव्यतोऽप्यलीकवचनः जैनप्रवचनं प्रतीत्येतिशेषः । अनुवादेनाऽपि जिनवचनाsपलापित्वात् । अयं भावः-अभिनिवेशी हि नियमात् उत्सूत्रमार्गस्थितः सन्मार्गनाशक एवं स्यात् । तेन तस्य नियमादनन्तसंसारः । यदागमः
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व्याख्यान विधि
उम्मग्गमग्गसंपट्टि-आण साहूण गोअमा ! णणं ।
संसारो अ अणतो, होइ अ सम्मम्गणासीणं ॥१॥ ति गच्छाचारप्रकीर्णके । अत्रोन्मार्ग उत्सूत्रभाषिमार्गः, तस्य मार्ग:परम्परा, तत्र सम्प्रस्थितानां मार्गनाशकानां चेत्यादि । तत्र मार्गनाशकत्वं च प्राक प्रदर्शितप्रकारेणावसातव्यम् । शाक्यादिराभिग्रहिकस्तु पृष्टः सन् जैन जैनत्वेन, अजैन चात्मीयं मार्गमजैनत्वेन भाषमाणो द्रव्यतः सत्यवादी । द्रव्यत्वं च जैनमार्ग जैनत्वेन भाषमाणोऽपि सत्यत्वेन श्रद्धानाभावात् । तच्च द्रव्यतः सत्यं भावतः सत्यत्वस्य कारणमपि स्यात् । तेनैव कारणेन शाक्यादिजैनप्रवचनं सम्यगिति सामान्यतः श्रद्धानमात्रेणापि निजमार्गाऽसद्ग्रहपरित्यागेन अव्यक्तसम्यगदृष्टिरित्यभिधीयते । अभिनिवेशिनस्तु दिगम्बरादेः देवोऽर्हन्नेव, नापरः शाक्यादिपरिगृहीतजिनप्रतिमाऽपीतीत्येवं व्यक्त्या श्रद्धानेऽपि निजमार्गाऽसद्ग्रहस्य तादवस्थ्यात् मिथ्यादृष्टित्वमेव । तत्र कारणं तावत् दुरपनेयाऽसद्ग्रहवशेन द्रव्यतोऽपि मृषाभाषित्वमेव । तेन मिथ्यात्वमप्यस्याऽऽगाढतरमेव, असाध्यव्याधिकल्पत्वादिति गाथार्थः ॥५४॥
अथोत्सूत्रभाषी देशेन जिनवचनानुवादी भवति नवेत्याशंक्याहदेसेणं जिणवयणा-णुवाइणो तहवि ते न तहभूआ। णिअवयविरोहिवयणं, जिणिंदवुत्तंपि णो वृत्तं ॥५५॥
व्याख्या-देशेन जिनवचनाऽनुवादिनो भवन्ति. यद्यपीति
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गम्यं, तथापि ते उत्सूत्रभाषिणो न तथाभूताः-नाऽनुवादिन इत्यर्थः । यत इति गम्यम् । यतस्ते निजवचनविरोधिवचनं जिनेन्द्रोक्तमपि नोक्तमिति वदन्ति । एवं च सति तेषां निजवचनमेव प्रमाणं सम्पन्नम् । न पुनर्जिनेन्द्र णोक्तं, तस्यानुक्तत्वेन भणनात् । यत्तु व्यवहारतः क्वचिदनुवादसदृशं दृश्यते, तत् तदाऽऽभासरूपमवसातव्यम् । अयं भावः-उत्सूत्रभाषिभिनिजनिजमार्गप्रवर्तनावसरे यावदनुष्ठानादिकं निज-निजप्रक्रियारूपतया विकल्पितं, तत्र किंचिद् जिनोक्तवचनमप्यादाय प्रक्रियारूपतया विकल्पितं यदुक्तं ततस्ते भगवत्प्रणीतशास्त्रेभ्यो गौणं समीचीनमित्यादि प्राक् प्रदर्शितं बोध्यम् । एवं च यावदुत्सत्रभाषिमार्गेऽनुष्ठानादिकं तत् सर्व निजनिजप्रक्रियारूपतया विकल्पितम् । अन्यथा जैनाऽऽभासत्वासम्भवादिति गाथार्थः ।।५५।।
अथोक्तार्थसमर्थनाय दृष्टान्तगर्भगाथामाहजह विसलित्ते पत्ते, दुद्धं ववहारओ विसं इहरा। एवं उस्सुत्तजुए, पत्ते सुत्तपि विन्नेअं॥५६॥ ___व्याख्या-यथा विषेण-हालाहलादिना लिप्ते-म्रक्षिते पात्रेस्थाल्यादिभाजने दुग्धमाधाराधेयभावसम्बन्धेन नियोजितं व्यवहारतो दुग्धमुच्यते । इतरथा, तुर्गम्यः। इतरथा तु-निश्चयतस्तु विषमेव, विषस्यैव कार्यकरणात् । एवमुत्सूत्रयुक्त पात्रे-उत्सूत्रभाषिजने सूत्रमपि विज्ञयम् । दृष्टान्तदार्टान्तिकयोर्योजना त्वेवं-यथा विषमिश्रिते भाजने व्यवहारतो दुग्धमपि निश्चयतो विषमेव । एवमुत्सूत्रभाषिजने व्यवहारतः किञ्चित् सूत्रमपि
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निश्चयत उत्सूत्रमेव | व्यवहारोऽपीह मुग्धजनापेक्षया मन्तव्यः । विदुषां तूभयत्रापि उत्सूत्रमेव । तच्च जिनोक्तमेव न भवति । अतो न जिनोक्तानुवादः। यथा विषसंयुक्तं दुग्धं गव्यं न भवति, तथाभूतस्य दुग्धस्य गोरजातत्वात् । न च गोदध्यादौ व्यभिचार: शंकनीयः। इदं दुग्धमिति व्यवहारं यावन्निजस्वरूपाऽपरित्यागात्। अत एव निश्चयव्यवहाराभ्यां दुग्धमेव । यच्चोक्तमुपधानपञ्चाशके-उत्सूत्रवचनद्वयव्यतिरिक्तं गोष्ठामाहिलोक्तं प्रमाणतया भणितं, तद् व्यवहारतो जिनवचनाऽनुवादरूपत्वेनोक्तमवसातव्यम् । न पुनर्गोष्ठामाहिलोक्तत्वमात्रेणापि । एतद्व्यञ्जकं तु उत्सूत्रद्वयभणनेन शेषं तु सूत्रमेवेति वचनमेव । सूत्रं तु गणधरकृतत्वेन प्रमाणमेव । तदनुवादस्तु तद्वदेव प्रमाणं व्यवहारतो, निश्चयतश्च प्रागवदवसातव्यम् । यदि च निश्चयतोऽपि तदनुवादः प्रमाणं भवेत् , तर्हि गोष्ठामाहिलसमीपे धर्मकथाश्रवणनिषेधानुपपत्तिः प्रसज्येत । न चैवं निश्चयव्यवहारयोविवेकेन भणनमनागमिकं भविष्यतीति शङ्कनीयं, आगमेऽपि तथैव भणनात् । तथाहि
पयमक्खरंपि इक्कंपि, जो न रोएइ सुत्तणिदिट्ट ।
सेसं रोअंतो विहु, मिच्छादिट्टी जमालिव्व ॥ १॥ त्ति पञ्चसंग्रहादौ । अत्र 'शेष रोचयन्नपी' ति भणनेन स्वरुच्यविषयाक्षरा दिव्यतिरिक्तस्य जिनवचनमात्रस्य श्रद्धानं व्यवहारत एव । तदनुसारेण भणनमपि जिनवचनाऽनुवादो व्यवहारत एव । स चानुवादो द्रव्यतः सत्य एव । सर्वेषामप्यनुवादानां
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द्रव्यतः सत्यत्वेनाऽऽवश्यकत्वात् । अन्यथा अनुवाद एव न स्थात् , उक्तस्य वचनाभावात् । निश्चयतस्तु अनुवादेऽभिनिवेशाऽसम्भवात् । नहि लौकिकमिथ्यादृष्टिः निश्चयतः द्रव्यतः सत्यवादो जमालिबदभिनिवेशी स्यात् । एतच्चान वक्ष्यते । एतेन मिथ्यादृष्टिरुपयुक्तोऽनुपयुक्तो वा यद् भाषते, सा मृपैवेति प्रागुक्तवचनेन सह विरोधशङ्कापि परास्ता । भावतोऽसत्यभाषित्वमधिकृत्यैवोक्तत्वात् । अन्यथाऽनुवादस्याऽसत्यत्वापत्त्या जगद्व्यवस्थाभङ्गः प्रसज्येत । अत एवाऽनुवादवचनान्यधिकृत्य जैनैः सह विरोधाभावः मिथ्यादृशामपीति । मिथ्याष्टित्वं च भावतस्तदश्रद्धानात् । तच्चाऽहंदादिष्वदेवत्वादिबुद्धिद्वारैव स्यात् । सा च बुद्धिर्जिनोक्तस्याऽक्षरस्याऽप्यश्रद्धानं दूरे, सन्देहेनाऽपि स्यात् । यदुक्तं-'एकस्मिन्नप्यर्थे, सन्दिग्धे प्रत्ययोऽर्हति हि नष्टः । मिथ्यात्वदर्शनं तत, स चादिहेतुर्भवगतीना' ॥१॥ मिति श्री आ०नि०३० । एतेनोत्सूत्रभाषिणां देशेनाऽपि जिनवचनाऽनुवादो द्रव्यतः सत्यरूपोऽपि व्यवहारत एव, न पुनलौकिकमिथ्यादृशामिव निश्चयतोऽपीति तात्पर्यमिति गाथार्थः ॥ ५६ ॥ ___अथ लौकिकमिथ्यागपेक्षया लोकोत्तरमिथ्या दृष्टिवरीया. निति भ्रान्तिनिरासार्थमाहलोइयमिच्छादिट्ठी, सम्मदिहिन वयणमित्तस्स । अणुवाए अविवाई, णिच्छयो दबसच्चवया ॥ ५७ ॥
व्याख्या-लौकिकमिथ्यादृष्टिः सम्यग्दृष्टिवद् वचनमा
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त्रास्याऽनुवादे अविवादी स्यात्-वचनमात्रस्याऽनुवादमधिकृत्य सम्यग्दृग-मिथ्यादृशोरभेदः एव स्यात् । तेनोभावपि द्रव्यतः सत्यवादित्वमधिकृत्य तुल्यावेव भवत इत्यर्थः । तेनैव सम्यग्दृष्टिवद् लौकिकमिथ्यादृष्टिरपि नोत्सूत्रभाषी स्यात्, जिनवचनाऽपलापित्वाभावात् जिनोक्तानुक्तयोर्याथार्थ्यन भाषणात् । न चैवं लोकोत्तरमिथ्यादृष्टिः सम्भवति । तस्य जिनेनोक्तमप्यनुक्तं, अनुक्तं चोक्तमित्येवंरूपेण जिनवचनाऽननुवादिनः उत्सूत्रभाषित्वात् । एवं देशेनाऽननुवादित्ववद् देशेनाऽनुवादित्वमपि भवति, परं निजवचनाऽविरोधेनैवेति बुद्ध्या अनुवादो व्यवहारतो द्रव्यतः सत्यो, न पुनर्निश्चयतः । जिनोक्तत्वेनाऽनुवादाभिप्रायाभावात् । यथा गोष्ठामाहिलो भणति-जिनेनापरिमितं प्रत्याख्यानं स्पृष्टमबद्धं च कर्म भणितमित्येवमननुवदन्नेव तदविरोधेनैव शेषवचनाऽनुवादी व्यवहारतो देशेन द्रव्यतः सत्यवादी, न पुनर्निश्चयतोऽपि । एवं साम्प्रतीनाः सर्वेऽपि उत्सूत्रभाषिणो वक्तव्याः । नहि
अकसिणपवत्तगाणं, विरयाविरयाण एस खलु जुत्तो। संसारपयणुकरणे, दबत्थए कूवदिढतो ॥१॥ त्ति चतुर्विंशतिस्तवनियुक्तिवचनं जिनेन भणितमिति लौम्पको वदति, निजवचनविरोधिवचनेन निजमतोच्छेदापत्तेः । लौकिकमिथ्याप्टिस्तु आस्तामन्यत्, निजमार्गदूषकवचनस्याऽपि अनुवादको भवति । यथाऽर्हन्नस्मदीयं धार्मिकाऽनुष्ठानमधर्मतया भाषते इत्यादिरूपेणाग्रे वक्ष्यते इति गाथार्थः ॥५५॥
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शतकम् ।
५७
अथ सम्यग्दृष्टिलौकिक मिध्यादृष्टिश्चेत्युभावपि अनुवदन्तौ द्रव्यतः सत्यवादिनौ भवतः, तत्र किं कारणमिति परिज्ञानाय
अनुवादस्वरूपमाह
सव्वेवि अणुवाया, णिअमा दव्वाओ सच्चवयणाई | अणुवाए अविवाओ, जमणुष्णं सव्ववाईणं ॥ ५८॥
व्याख्या–सर्वेऽप्यनुवादाः सम्यग्दृशां मिथ्यादृशां च परस्परं यावन्तो भवन्ति तावन्तो नियमात् - निश्चयेन द्रव्यतः सत्यवचनानि भवन्ति । द्रव्यत्वं च वचनविषयानपेक्षत्वेनावसातव्यम् । वचनविषयापेक्षया तु अनुवाद एव न भवति, किन्तु वक्तुर्निजवचनान्तर्गतत्वेन निजवचनतया परिणतो भवति । 'तन्मध्यपतितस्तद्ग्रहणेन गृह्यते' इति न्यायात् वक्तुर्वचनं च भावतः सत्यमसत्यं च भवतीत्य दर्शयिष्यते । अथ सर्वेषामप्यनुवादानां द्रव्यतः सत्यत्वे हेतुमाह - 'अणवाए' इत्यादि । यत् यस्मात् कारणात् सर्ववादिनामनुवादे अन्योऽन्यमविवादो -विवादाभावः, द्रव्यतः सत्यत्वाभावे च नियमेन विवादो भवत्येव, तस्यैव विवादकारणत्वात् । यथा जिनवचनाऽननुवादिभिः पौर्णिमीयकादिभिः सह विवादः । यथा लोकेऽपि गां गजं ब्रुवाणेन सह विवादो निश्चितो भवति । तस्मात् सर्वेषामप्यनुवादानां साम्यमेवेति गाथार्थः ॥ ५८ ॥
अथ विवादकारणान्याह -
अणुवायाणं विसया, सद्धाऽणुट्ठाणवाय गवयाई । पग्गं भिन्नाई, तेहिं विवाओ अ सव्वेसिं ॥ ५६ ॥
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व्याख्यान विधि
व्याख्या-अनुवादानां विषयाः धर्ममधिकृत्य श्रद्धाऽनुष्ठानवाचकवचांसि भवन्ति । तत्र श्रद्धानं श्रद्धा-स्वाभिमत-देव-गुरुधर्म-तदितरविषयकाऽऽराध्याऽनाराध्यबुद्धिः, अनुष्ठानं च-- धार्मिकबुद्ध्या प्रवृत्तिनिवृत्तिरूपा क्रिया, एतद द्वयं च प्रतिवादिनं भिन्न-भिन्नमेवेति सर्वसम्मतम् । तयोश्च वाचकानि वचनानि प्रतिमार्ग भिन्नभिन्नान्येव । सर्वेषामपि वादिनां भिन्न-भिन्नश्रद्धा-क्रियावत्त्वात् । तैर्वचनैः सह विवादः सर्वेषामपि समान एवेति गाथार्थः ॥ ५९॥ __ अथाऽनुवादोऽपि यथाऽनुवक्तुरनुवादव्यतिरिक्तवचनं भवति, तथाऽऽहअणुवाओ निअवयणं, सम्माइविसेसणेहिं संजुत्तो। तं भासगमासज्ज उ, सच्चमसच्चं च भावाओ ॥ ६ ॥
व्याख्या-अनुवादः सम्यगादिविशेषणैः संयुक्तोऽनुवक्तुरनुवादव्यतिरिक्तं निजवचनं भवति । तच्चेति गम्यम् । तच्चाऽनु(वाद)वक्तुर्वचनं, भाषकं-वक्तारमासाद्यानुवक्तारं प्राप्य भावतः सत्यमसत्यं च भवति । द्रव्यतः सत्योऽप्यनुवादस्तदतिरिक्ताऽनवादकवचनतया परिणतो भावतः सत्यमसत्यं चाऽनुवादकवचनं भवतीत्यक्षरार्थः। भावार्थः पुनरेवं-अनुवादो हि नियमात वचनविषयको भवति । 'उक्तस्य वचनमनुवाद' इति वचनात् । तथैव भगवतीवृत्तावपि भणितम् । स चानवादः सम्यगादिवचनविशेषणविशिष्टोऽनवादकवचनं, तथाहि-अस्माकं देवोऽहन्नेवेति जैनवचनं, अस्माकं देवः सुगत इति सौगतवचनं
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शतकम् ।
तथाऽस्माकं देवोऽहन्नेवेति जैनाः, सुगत एवेति सौगताः वदन्तीत्येवं रूपेणानुवक्तुर्वचनमनुवादो भवति । जैन-सौगताभ्यां तथैव उच्यमानत्वात् । स एवाऽनुवादो जैना देवमर्हन्तं वदन्ति तत् सम्यग, अर्हति देवत्वस्य विद्यमानत्वात् । सौगतास्तु असम्यग्वादिनः, सुगते देवत्वस्यासत्त्वादि(ति) वचनविशेषणविशिष्टोऽनुवादोऽनुवादो-न भवति, जैनैः सौगतैश्चोक्तप्रकारेण सम्यगादिवचनविशिष्टवचनस्यानुक्तत्वात् । किन्तु परिशेषात् अनुवक्तुरेव वचनं भवति, निजवचनान्तर्गतस्याऽनुवादस्याऽपि निजवचनतया परिणमनात् । 'तन्मध्यपतितस्तद्ग्रहणेन गृह्यते' इति न्यायात् । अत एव विशेषणभेदात् विशिष्टभेद' इति वचनमपि । तेन सम्यग्दृशं वक्तारमासाद्य सम्यग्दृशोच्यमानमित्यर्थः, भावतः सत्यं भवति । जैनाः सम्यगवादिनः असम्यगवा दिनश्च सौगता इति याथार्थेन भणनात् । मिथ्यादृशा तूच्यमानं भावतोऽसत्यमेव भवति, सर्वत्राऽपि वैपरीत्येन भणनात् । मिथ्यादृष्टिरुपयुक्तोऽनुपयुक्तो वा यद् भाषते, सा मृषेवेति दशवै० नि० वृत्तिवचनात् । एवमनुवादस्याऽनुवादकवचनतया परिणतौ स्वरूपं दर्शितमिति गाथार्थः ॥ ६०॥
अथोक्तार्थसमर्थनाय दृष्टान्तमाहजह परतित्थिअवयणं, अणुवयणं होइ जिणवरिंदस्स । मिच्छत्ति वयणजत्तं, जिणवयणं सवओ सच्चं ॥ ६१ ।।
व्याख्या-यथा परतीर्थिकवचनस्याऽनुवादो जिनेन्द्रस्य भवति । तच्चाऽनुवादवचनं मिथ्येतिविशेषणविशिष्टं (अनुवादा
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६०
व्याख्यान विधि
तिरिक्तं) जिनवचनं भवति । तच्च वचनं सर्वतः - सर्वप्रकारेण, सत्यं स्यात् । ' एगंतसच्चवयणा सिवगइगमणा जयंतु जिणा' इति वचनात् । तच्चैवं - 'अण्णउत्थिआ णं एवमाइक्खंति भासंति पण्णवेंति परूवेंति' तीत्यादि यावत 'एगे वि अ णं जीवे एगेणं समएणं दो आउआई पडिसंवेदेति, तं० इहभविअं परभविअं च, जं समयं इहभविअं आउअं पडिसंवेदेति तं समयं परभविअं पडिसंवेदेति, जं समयं परभविअं आउयं पडसंवेदेति तं समयं इहभविअं पडिसंवेदेति' तीत्यादिवचनानि परतीर्थिकवचनानि । तानि च तथैव जिनेनोच्यमानानि जिनस्यानुवादरूपाणि भवन्ति । तान्यपि 'जे ते एवमाहंसु मिच्छं ते एवमाहंसु, अहं पुण गोअमा ! एवमाइक्खामीत्यादि यावत् 'एगे वि अ णं जीवे एगेणं समएणं एगं आउअं पडिसंवेदेति' [ भग० श० ५ उ० ३ ] इत्यादिविशिष्टवचनानिअनुवादव्यतिरिक्तवचनानि भवन्ति । यतो वादिनो निराकरणं तदीय- वचनानुवादायत्तमेव भवति । तेन जिनस्यापि तदनुवादो युक्त एव । एवं जैनाऽऽभासास्तीर्थं करवचनानामनुवादका न भवन्ति, जिननाम्नैव प्रवृत्तिमत्त्वेन निजमतोच्छेदस्य बाधकस्य विद्यमानत्वादिति तात्पर्यमिति गाथार्थः ॥ ६१ ॥
अथ दिगम्बरादयः सर्वेऽपि जिनवचनानुवादरहिताः केनोक्ताः १ इति दर्शयति
एवं जिणिदवयणाणुवायरहिया दिगंबरप्पमुहा । णिज्जुत्तिसणिएणं, तित्थेणुग्घोसिआ बाटं ॥ ६२ ॥
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शतकम् ।
जिनवचनानुवादरहिताः
ग्राह्याः ।
व्याख्या -- एवमुक्तप्रकारेण दिगम्बरादयः, आदिशब्दात् पौर्णिमीय कौष्ट्रिकाञ्चलिकादयो तीर्थेन - श्री महावीरव्यवस्थापितसाध्वादिसमुदायलक्षणेन उद्घोषिताः - उच्चैःशब्देन लोकेभ्यो ज्ञापिताः, कथं ? बाढं- अत्यर्थ, तदुल्लेखस्त्वेवं—– ननु भो लोकाः ! दिगम्बरादयोऽर्हदवचनानुवादरहिताः तीर्थप्रतिपक्षाः मोक्षं प्रत्युन्मार्गभूताः इति ज्ञात्वा परिहरन्त्विति । तीर्थेन किंलक्षणेन १ निर्युक्तिसंज्ञितेन - निर्युक्त्या प्रेरितेन, निर्युक्तिपदमनुयोगद्वाराद्युपलक्षकम् । एतच्च 'णिव्वाणं चिइगागिइ जिणस्स इक्खागगाणं तु' इत्यादि प्रागुपदर्शितमिति गाथार्थः ॥ ६२ ॥
अथ पराभिप्रायं दूषयितुं प्रथमं पराभिप्रायमाह - तेसिं सव्वेसिं चिr, णिअणिअमग्गा हवंति तित्थाई । सेसं सव्वमतित्थं, इय बुद्धी सासया तेसिं ॥ ६३ ॥
|
व्याख्या- तेषां - जैनाऽऽभासानां सर्वेषां सम्प्रति दिगम्बरादिपाशचन्द्रीयपर्यन्तानां निज- निजमार्गाः स्वस्वाभिमतसाध्वादिसमुदायास्तीर्थानि भवन्ति । यथा दिगम्बरस्य ननावेव देवगुरू भवत इति श्रद्धानात्मकः ( वान् ) समुदायस्तीर्थ | पौर्णिमीयकादीनां च पूर्णिमापाक्षिक कृत्य श्रद्धानात्मकसमुदायास्तीर्थानि भवन्ति । शेषं स्वस्वाभिमतमार्गाऽतिरिक्त सर्वमप्यतीर्थमिति शाश्वता - नियता बुद्धिरिति तेषामभिप्राय इति गाथार्थः ॥ ६३ ॥ अथैवं स्वस्वाभिमततीर्थानां भिन्नत्वे सिद्धे तीर्थकरमधिकृत्याऽभेदबुद्धिं निराकुर्वन्नाह
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६१
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६२
ब्याख्यान विधिएएणं सव्वेसि, एगो तित्थगरोत्ति दुबयणं । सम्बेसि तित्थाणं, आइगरा हुंति तित्थयरा ॥ ६४ ॥
व्याख्या--एतेन-नाम-प्ररूपणादिना भिन्नत्वभणनेन सर्वेषामपि जैनानां जैनाऽऽभासानां च तीर्थकरः, तुरध्याहार्यस्तीर्थकरस्तु नाम्ना साम्येन एक एवेति वचनं दुर्वचनं-पापवचनं, तत्र हेतुमाह-यत इति गम्यं, यतः कारणात् सर्वेषामपि वादिनामादिकरा एव तीर्थङ्करा भवन्ति । यथा श्रीऋषभादितीर्थानामादिकराः श्रीऋषभादयो देशकालादिना भिन्न-भिन्नस्वरूपा भवन्ति । न पुनः सर्वेषामपि तीर्थानामेकम्तीर्थङ्करः । एवं दिगम्बरादिसमुदायानां तीर्थत्वेनाभिमतानां भिन्नभिन्नप्ररूपणाऽऽचारादिमतां सुतरां भिन्नभिन्ना एवादिकरा भवन्ति । परं श्रीऋषभादीनां तीर्थकरत्वेन तव्यवस्थापितसमुदायानो च तीर्थत्वेन परस्परं श्रद्धानमधिकृत्य भेदाभावः, प्ररूपणादिना भेदाभावात् । दिगम्बरादीनां तु परस्परं वैपरीत्यमिति विशेषो बोध्य इति गाथार्थः ॥६४॥
अथ दिगम्बरादीनामादिकर्तारः के ? इति प्रश्ने नाममाहेण तानाहतेसि तित्थयरा पुण, सिवभूइप्पमुह णाम आइगरा। वीरजिणो अम्हाणं, तित्थयरो तं मह असच्चं ।। ६५ ।।
__व्याख्या-तेषां-दिगम्बर-पौर्णिमीयकौष्ट्रिकाऽऽञ्चलिकाऽऽगमिक-लौम्पक-कटुक-वन्ध्य-पाशचन्द्रीयाणां, पुनर्नामेति कोमलामन्त्रणे, तीर्थकराः क्रमेण शिवभूतिप्रमुखाः, प्राकृतत्वाद्वि
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शतकम् ।
६३
भक्तिलोपः, प्रमुखशब्दात् चन्द्रप्रभाऽऽचार्य - जिनदत्ताऽऽचार्य - नरसिंहोपाध्याय सुमतिसिंहाऽऽचार्य शीलदेव लुम्पक-कटुक
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वन्ध्य-पाशचन्द्रनामानो ग्राह्याः । शिवभूतिचन्द्रप्रभाऽऽचार्यादीनामेव दिगम्बर- पौर्णिमीयकादितीर्थानामादिकरत्वात् । एतच्च प्रायः तदीयग्रन्थानुसारेण केषाञ्चिच्च लौम्पकादीना माधुनिकत्वेन किंवदन्त्यापि प्रतीतमेव । यत्तु तेषां जैनत्वेन ख्यातिनिमित्तं तीर्थस्पर्द्धा निमित्तं चाऽस्माकं तीर्थकरो वीर इति नाममात्रेण भनं तन्महदुत्कृष्टम सत्य मलीक भाषणं, श्रीमहावीरेण सह सम्बन्धाऽभावात् । सर्वथा सम्बन्धाऽभावे च तत्तीर्थत्वाभ्युपगमे जगद्व्यवस्थाभङ्गः प्रसज्येत । नहि दिवंगते देवदत्ते कन्यायाः परिणयनपूर्वक पुत्रोत्पत्तिः किं केनाऽपि दृष्टा श्रुता वा? एवं श्रीमहावीरात्तेषामुत्पत्तिरसम्भविनीति गाथार्थः ॥६५॥
अथ जैनाssमासानां श्रीमहावीर : तीर्थकरो न भवतीति नास्माभिरेवोच्यते किन्तु तदीयैरपि तथैवोच्यमानमस्तीति
1
2
दर्शयति'णिअपरतित्थगरत्ता, तित्थयरो णेव तेसिं वीरजिणो । णिअतित्थं अण्णाओ, अण्णमतित्थंति सद्दहणा ॥ ६६ ॥ व्याख्या - निजस्य परेषां च तीर्थानि निजपरतीर्थानि तानि करोतीति निजपरतीर्थकरः, तस्य भावस्तत्त्वं तस्मात् श्रीमहावीरस्तीर्थकरो न भवति । तत्र हेतुमाह - 'णिअतित्थ 'मित्यादि । यतो निजतीर्थमन्यस्मात् - श्रीमहावीरादन्यः शिवभूत्यादिः तस्माज्जातमिति शेषः । अन्यत चकारो गम्यः अन्यच्च
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व्याख्यान विधि
पराभिमततीर्थादपरं चातीर्थ-तीर्थ न भवतीति श्रद्धानादित्यक्षरार्थः । भावार्थः पुनरेवं-यद्यपि दिगम्बरो जैननामधारी तथापि निजमतिकल्पितेन लिंगेन सूत्रतोऽपि सिद्धान्तेन चान्यतीर्थिककल्पः, तेन तं परित्यज्य प्रथमं पौर्णिमीयकः प्रष्टव्यः-ननु भो पौर्णिमीयक ! तव वीरजिनस्तीर्थकरः किं भवदभिमततीर्थस्य पौर्णिमीयकसमुदायस्य आदिकतृत्वन औष्ट्रिकाधभिमततीर्थस्यादिकर्तृत्वेन वा १ नाद्यो, भवतोऽप्यनभिमतत्वात् । यतः पौर्णिमीयकसमुदायस्यादिकर्ता चन्द्रप्रभाऽऽचार्यः सर्वसम्मतः । अत एव भवदीयैरप्युक्तं, तथाहि
'श्रीचन्द्रप्रभसूरिराट् स भगवान् प्राचीकशत् पूर्णिमा'मिति पौर्णिमीयकृतक्षेत्रसमासवृत्तिप्रशस्तौ । एवमममतीर्थकृच्चरित्रेऽपि । नापि द्वितीयः, तवानिष्टत्वात्, यतोऽन्यत् , चकारो गम्यः, अन्यच्च-निजसमुदायादपरं यावदस्मदभिमतं तीर्थ चतुर्दशीपाक्षिककृत्यविशिष्टं साध्वादिसमुदायात्मकं तत्कत त्वेन भवतस्तीर्थकरो न भवति । तदतीर्थमिति श्रद्धानात् तीर्थकरत्वाऽतीर्थकरत्वयोः परस्परं विरोधात् । तेन तदादिकर्तृ त्वेनाऽपि भवतस्तीर्थकरो न भवति, किन्तु चन्द्रप्रभाऽऽचार्य एव तीर्थकरो मन्तव्यः, पौर्णिमीयकाभिमतस्य तीर्थस्यादिकर्तृत्वात् । अत एव चन्द्रप्रभाऽऽचार्यादेः देवस्वरूपमग्र दर्शिष्यते। एवं लौम्पकोऽपि वक्तव्यः-नन भो लौम्पक ! तवाभिप्रायेण तीर्थ तावत जिनप्रतिमाप्रतिपन्थिजनसमुदायरूपमेव तस्यादिकर्ता श्रीमहावीरो न भवति, तेन सह साक्षात्परम्परया वा सम्बन्धाऽभावात । किन्तु
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शतकम् ।
,
त्वन्नाम्नैवाभिव्यञ्जितो लुम्पकनामा लेखकः । अत एवाऽऽबालगोपालप्रसिद्धो वृद्धसम्प्रदायोऽपि - 'संवत पनर अठोतरइ जांणि, लुंकु लेहुं मूलनिर्वाणि । तेहनइ शिष्य मिल्यु लखमसी, तेहनई बुद्धि हइयाथो खसी 'त्यादि । यदि च तस्य तीर्थकरत्वं नाभ्युपगम्यते, तर्हि तद्व्यवस्थापितो भवदभिमतजनसमुदायस्तीर्थमपि न भवेत्, अतीर्थकरलुम्पकेन व्यवस्थापितत्वात् । तेन यदि भवदीयः समुदायस्तीर्थं तर्हि लुम्पक एव तीर्थकरः । तथा च शब्दव्युत्पत्तिरपि सम्यग् लुम्पको देवताऽस्येति लौम्पकः । अथवा लम्पकस्यापत्यं लौम्पकः । एवं सर्वत्राऽपि सम्यगुपर्यालोचनया यस्य कस्यापि समुदायस्य आदिकर्ता नामग्राहेण वक्तुं शक्यते, तस्य श्रीमहावीरस्तीर्थकरो न भवत्येव । तदादिकर्तृत्वाभावात् । यथा श्रीमहावीरव्यवस्थापितस्य समुदायस्यादिकर्ता श्रीपार्श्वनाथो न भवति, नामग्राहेण श्रीमहावीरस्योपलभ्यमानत्वात् । एवं चन्द्रप्रभाऽऽचार्यादिव्यवस्थापितसमुदायानां चन्द्रप्रभाऽऽचार्यादय एव तीर्थकराः, न पुनस्तद्व्यतिरिक्ताः श्री ऋषभादयोऽपीति गाथार्थः ।। ६६ ।।
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६५
अथ चन्द्रप्रभाऽऽचार्यादिभ्यो जातानां समुदायानां श्रीमहावीरजातत्यभणने सर्वलोक गर्हणीयदूषणमाहजो अण्णाओ जाओ, अण्णं पिअरं व अण्णतित्थयरं । जंपs लोअविरुद्धं, अलज्जओ अहव गयमण्णो ॥ ६७ ॥ व्याख्या - यः पौर्णिमीयकादि - लौम्पकादिसमुदायः, अन्यस्मात् - श्रीमहावीरादपरस्मात् चन्द्रप्रभाऽऽवार्यादेः लुम्पक लेखका
MANA
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व्याख्यान विधि -
देश्च जातः - समुत्पन्नः, अन्यं - ततोऽपरं श्रीमहावीरं अस्मदीयसमुदायस्याऽऽदिकर्ता श्रीमहावीर इत्येवं 'जंपइ' त्ति कथयति, कमिव १ अन्य पितरमिव दरिद्र निजपितरमपलप्य कंचनं महर्द्धिकं पितरं अस्मदीयः पिता नाऽयं किन्त्वयमेवेत्येवं वैपरीत्येन भाषते । तच्च भाषणं विरुद्धं सर्वलोके गर्हणीयं, एवं च भाषमाणः लज्जा- लोकापवादभीतिजन्या व्रीडा यस्य सोऽलज्जकः । अथवा 'गतसंज्ञः ' - गता नष्टा संज्ञाव्यक्तचेतना यस्मात् स तथा, असंज्ञिकल्प इत्यर्थः । तस्मात् तदीयसमुदायाः असंज्ञित्वात् लज्जारहिता अवसातव्या इति गाथार्थः ॥ ६७ ॥
कोदृश: ? अलज्जकः- न विद्यते
अथ तेषां श्रीमहावीरस्तीर्थकर इति वचनमपि वक्तुमयुक्तमिति दृष्टान्तेन दर्शयति
वीरजिणेणं ठविअं, तित्थमतित्यंति भासगा सव्वे | माया मे वंज्झत्ति अ, वयणविरोहं ण याणंति ॥ ६८ ॥
व्याख्या - वीर जिनेन - श्रीमहावीरेण व्यवस्थापितं तीर्थं दुः प्रसभाऽऽचार्यं यावद् अच्छिन्नमप्यतीर्थं तीर्थं न भवतीति भाषकाः- वक्तारः, सर्वेऽपि जैनाऽऽभासा भवन्ति । ते च 'माता मे वन्ध्येति' वचनविरोधमजानानाः मन्तयाः । यदि च तद्व्यवस्थापितं तीर्थं न भवेत् कथं तर्हि स तीर्थकर, यदि च स तीर्थ
I
.
करः, कथं तर्हि तद्व्यवस्थापितं तीर्थं न भवेत् । अतीर्थव्यव
"
स्थापकत्व तीर्थ करत्वयोर्विरोधादिति गाथार्थः ॥ ६९ ॥
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शतकम्।
अथैवं वचनविरोधेन अच्छिन्ने तीर्थे सिद्धे शेषमतीर्थ तदीयमुखेनैव व्यवस्थापयन्नाह
वीरजिणो जइ देवो, तित्थयरत्तेण तुम्हमम्हं व। . ता तहविरं तित्थं, सेसमतित्थं सओ सिद्धं ॥६९||
व्याख्या-यदि वीरजिनो युष्माकमस्माकमिव तीर्थकरत्वेन देवः 'ता' तर्हि तव्यवस्थापितं-अस्मदभिमतसमुदायस्तीर्थ, शेषं तु तद्व्यतिरिक्तं चन्द्रप्रभाऽऽचार्या दिव्यवस्था पितसमुदायात्मकमतीर्थ स्वतः सिद्धं विनया.."सिद्धमिति गाथार्थः ॥ ६९ ॥ ___ अथैवं पौर्णिमीयकमार्गादीनां चन्द्रप्रभाऽऽचार्या दिव्यवस्थापितत्वे सिद्धे चन्द्रप्रभाऽऽचार्यादयः स्वस्वाभिमतसमुदायान् प्रति किं देवस्वरूपा उत गुरुस्वरूपा वेति शङ्कायामाहलोइयदेवसरूवा, चंदप्पहमाइणो ण गुरुरूवा। सीसत्ताभावाओ, गुरूवएसस्सणायत्ता ॥७॥
व्याख्या-लौकिकदेवस्वरूपाश्चन्द्रप्रभाऽऽचार्यादयः, न गुरुस्वरूपा:-गुरुस्वरूपभाजो न भवन्तीत्यर्थः । तेषां लौकिकदेवस्वरूपत्वं च अष्टादशदोषसाहित्येऽपि देवस्वरूपात् प्रतिमार्ग भिन्नभिन्नप्रक्रियाकरणाच्च । अथ गुरुस्वरूपाऽभावे हेतुमाह'सीसत्ते'त्यादि । शिप्यत्वाऽभावात् शिष्यत्वमन्तरेण गुरुत्वं न भवत्येव । यहागमः
हंतूण सव्वमाणं, सीसो होऊण ताव सिक्खा हि ।
सीसस्स हुंति सीसा, ण हुँति सीसा असीसस्स ॥१॥ त्ति चन्द्रवेध्यकप्रकीर्णके । तत्रापि हेतुमाह-'गुरूवएस'त्ति । यतस्ते
ह।
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व्याख्यान विधि
किलक्षणाः १ गुरूपदेशस्यानायत्ताः-गुरुपदेशमन्तरेण निजनिजमार्गप्रवर्तका इत्यर्थः । गुरूपदेशाऽऽयत्तप्रवृत्तिमन्तरेण शिष्यत्वं न स्यात्, शिष्यत्वाऽभावे च गुरुत्वं न स्यात् । अर्थादेवस्वरूपा एवेति भावः। 'सीसस्स हुंति सीस'त्ति । कस्यचिदपि शिष्यत्वमन्तरेण गुरुत्वं न भवत्येव, गुरुत्वशिष्यत्वयोः सामानाधिकरण्यात् । तेन न भगवति श्रीमहावीरे व्यभिचारः । तस्य शिष्यत्वाऽभावेन गुरुत्वस्याप्यभावात्, किन्तु देवत्वमेव । यच्च धर्माऽऽचार्यत्व-प्रव्राजनाऽऽचार्यत्वादिगुरुत्वव्यपदेशः, स च तमेव तीर्थकरमधिकृत्यौपचारिको मन्तव्यः। अत एव तेषामपि देवत्वेन श्रद्धानं तीर्थकृत्येव । तेन शिष्यत्वं कस्यचिद्देवतायत्तं गौतमादीनामिव, कस्यचिच्च गुर्वायत्तं जम्बूस्वाम्यादीनामिव, परमुभयथापि शिष्यत्वगुरुत्वयोः सामानाधिकरण्यमेव । अत एव सर्वेषामपि सम्यगदृशां आसतामन्ये, तीर्थकराणामपि देवत्वेन श्रद्धानमर्हत्येव, गुरुत्वेन श्रद्धानं गौतमादिषु सुसाधुष्वेव, धर्मत्वेन श्रद्धानं केवलिप्रज्ञप्तज्ञानादिष्वेवेति बोध्यम्। अन्यथा सम्यगदृष्टित्वासम्भवात् । अत एव चन्द्रप्रभाचार्यादीनां नवीनमार्गप्रकाशने गुरूपदेशानपेक्षणं देवत्वेनैव (देवत्वं) तदीयमार्गे, गुरुत्वं च तदपत्येषु, धर्मत्वं च तदुपदिष्टज्ञानादावित्यर्थाद् बोध्यम् । जैनाऽऽभासत्वं च तेषां देवगुरुधर्मधार्मिकाऽनुष्ठान-तद्वत्सु प्रायो नामादिभिजनानुकृतिमात्रेणावसातव्यम् । इति गाथार्थः ॥७॥
अथ शिवभूतिचन्द्रप्रभाऽऽचार्यादयो जिनाऽऽज्ञावर्तिनो न भवन्ति, तच्च युक्तमेवेति दर्शयति
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जिणवयणाणणुवयणा, चंदप्पहमाइणो अ सम्वेवि । णेअमजुत्तं जम्हा, सर्यपि ते हंति तित्थयरा ॥७१॥
व्याख्या-चन्द्रप्रभाऽऽचार्यादयः सर्वेऽपि जिनवचनाननुवचनाः-जिनवचनानुवादिनो न भवन्ति । जिनेनोक्तमप्यनुक्तं, अनुक्तं चोक्तमित्येवं भणनात् । न चैतत्तेषामयुक्तं, किन्तु युक्तमेव । तत्र हेतुमाह-यद्-यस्मात् कारणात् ते चन्द्रप्रभाऽsचार्यादयः स्वयं, अपिरेवार्थे, स्वयमेव तीर्थकराः, तीर्थत्वेनाभिमतानां निजनिजमार्गाणामादिकर्तृत्वादिति गाथार्थः ॥७१॥ ____ अथ येन कारणेन ते देवस्वरूपाः, तेन कारणेन निजनिजमार्गेषु प्रक्रियाकर्तारोऽपि भवन्तीति दर्शयतितम्मूला पइमग्गं, भिण्णाभिण्णेव पकिरिया हुन्जा। जह अण्णउत्थियाणं, अण्णाणस्सेव माहप्पा ॥ ७२ ॥ ____ व्याख्या-ते-चन्द्रप्रभाऽऽचार्यादयो मूलमादिकारणं यस्याः सा तन्मूला । प्रक्रिया हि निज २ मार्गमर्यादा, तस्याः प्रणेतारः सर्वेष्वपि दर्शनेष आदिकर्तार एव भवन्ति। तेन पूर्णिमापाक्षिकादिकृत्यविशिष्टा प्रक्रिया चन्द्रप्रभाऽऽचार्येण कृता, स्त्रीजिनपूजानिषेधादिविशिष्टा जिनदत्ताऽऽचार्येण तथा श्राद्धप्रतिक्रमणमुखव स्त्रिकादिनिषेधादिविशिष्टा नरसिंहोपाध्यायेनेत्यादिना यावत् जिनप्रतिमानिषेधरूपा लुम्पकलेखकेन कृता मन्तव्या। एतेन प्रवचनवति यत्सूत्रादिकमभ्युपगतं परिहृतं च तत्सर्वं निज २ मार्ग-प्रक्रियारूपमवसातव्यं, निजनिजवचनाऽविरोधेनैव यदृच्छया सूत्रार्थयोरभ्युपगमात् । न पुनर्जिनोक्त
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व्याख्यान विधि
त्वेनैव यदुक्तं, ततस्ते भगवत्प्रणीतशास्त्रेभ्यो गौणं समीचीनमर्थलेशमुपादाय पश्चादभिनिवेशतः स्वमत्यनुसारेण तास्ताः स्वप्रक्रियाः प्रपञ्चितवन्तः । उक्तं चसुनिश्चितं नः परतन्त्रयुक्तिष, स्फरन्ति याः काश्चन सूक्तिसम्पदः । तवैव ताः पूर्वमहार्णवोत्थिता, जगत्प्रमाणं जिनवाक्यविग्रुषः ॥१॥ इति नन्दीवृत्तौ २१४ पत्रात्मके पुस्तके १६ पत्रे । ___अत एव ते श्रीमहानिशीथादिकं सूत्रमपि न प्रमाणयन्ति, निज २ प्रक्रियादूषकत्वात् । यत्त वयं जिनोक्तमेव कुर्मः इति वचनं, तत् तदीयप्रक्रियावचनानुवादरूपमेव मन्तव्यम् । कथमन्यथा चतुर्दशीपाक्षिक-स्त्रीजिनपूजा-श्राद्धमुखवस्त्रिकादि यावत् जिनप्रतिमादिकं जिनोक्तमप्यनुक्तं पूर्णिमापाक्षिक-स्त्रीजिनपूजानिषेध-जिनप्रतिमानिषेधादिकं जिनेनानुक्तमप्युक्तमिति भाषते । प्रक्रिया च प्रतिमार्ग भिन्नभिन्नैव भवति । तत्र दृष्टान्तमाह-यथाऽन्यतीथिकानां साङ्ख्यशाक्यादीनां प्रक्रिया भिन्नभिन्नैव भवति । तत्र हेतुमाह-अज्ञानस्यैव माहात्म्यात् । अज्ञानं हि कुत्सितज्ञानं । तच्च मिथ्यादृशामेव भवति । तदपि ज्ञानावरणीयक्षयोपशमवैचित्र्यात् नानाप्रकारं स्यात् । तेन तज्जन्यप्रक्रियापि नानाप्रकारैव स्यात्, 'कारणानुरूपं कार्यमिति वचनात् । सा च निज २ मार्गाणामादिकतृ कृतैव भवति । आदिकर्तृत्वं च तथाभूतमार्गाणामन्यकर्तुरभावेन चन्द्रप्रभाऽऽचार्यादीनामेवेति प्राक् प्रदर्शितं । अत एव निज २ मार्गेषु शास्त्रप्रवृत्तिरपि प्रक्रियानुरोधेनैव स्यात् । तथाहि-'श्री
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७१
चन्द्रप्रभसूरिंराट् स भगवान् प्राचीकशत् पूर्णिमा' मित्यादि प्राक्
प्रदर्शितं तथा
विंति जहां देहं ओसरणे भावजिणवरिंदाणं ।
*
तह तप्पडिपि सया, पूइति ण सवणारीओ || १ | ति जिनदत्ताऽऽचार्यकृतचैत्यवन्दनकुलके । तथा
पूएइ मूलपडिमंपि, साविआ चिइनिवासिसम्मतं । Toभावहार कल्लाणगंपि, गहु होइ वीरस्स ॥ १ ॥ त्ति जिनदत्तकृतोत्सूत्रपदोद्घाटनकुलके । तथा आञ्चलिकेनापि श्रीआवश्यकनिर्युक्तिदीपिकायां
सामाइयंमि उ कए, समणो इव सावओ हवइ जम्हा | एएण कारणेणं, बहुसो सामाइयं कुज्जा ॥ १ ॥ । अत्र बहुशः सामायिककरणं जन्मापेक्षया, न तु दिनापेक्षयेति व्याख्यातम् । अत एव सम्यग्दृशां तदीया ग्रन्था अप्यनुपादेया एव, सर्वासामपि उक्तप्रक्रियाणां सर्वज्ञमूलकत्वाभावात् । अत एव जैनप्रवचने प्रकियाभेदो न भवति, सर्वेषामपि सर्वज्ञानामेकवाक्यत्वात् । तेन चतुर्विंशतावपि तीर्थेषु प्रक्रियाभेदो न भवत्येव । यत्तु आद्यन्तयोस्तीर्थयोः पञ्च महाव्रतानि, शेषेषु तु तीर्थेषु चत्वारि, तन्न प्रक्रियाभेदः । स्त्री परित्यागस्य सर्वत्रापि समानत्वात् सर्वैरपि तीर्थकरैः तथैव भणितत्वात्, एकवाक्यताया अनपायात् । अयं भावः प्रागुक्तप्रकारेण लोकोतर मिथ्याभिमतानां तीर्थानां तीर्थकराणां च परस्परमपि
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७२
व्याख्यान विधि
भिन्नत्वे सिद्धे सिद्धस्तत्तदभिमतः सिद्धान्तोऽपि भिन्न-भिन्न एव । यद्यपि स सिद्धान्तो जैनाभिमतसूत्रैकदेशरूपः, तथापि स न जिनवचनरूपः । किन्तु तत्तदभिमततीर्थ करवचनरूपः, स्वस्वाभिमतमार्गानाबाधयैव अर्थकरणेन निज २ प्रक्रियारूपतया कल्पितत्वात् । सम्मतिस्तु नन्दी सूत्रवृत्तिः प्राक् प्रदर्शितैव । प्रक्रियायाः प्रणेतारस्तु निज २ मार्गाणामादिकर्तार एव भवन्ति । सिद्धान्तस्य चैकत्वाभ्युपगमे सर्वेषामपि प्रवचनसाधर्मिकत्वापत्त्या परस्परमपि प्ररूपणादिना भेदो न स्यात् । अस्ति च भेदः । तेन यथाऽस्मदभिमतसिद्धान्ते जैनप्रवचनं सम्यगिति क्वापि नोक्तमतो नाऽस्माकं तदङ्गीकारः । तथा सर्वेऽपि जैनाऽऽभासाः प्रक्रियारूपतया विकल्पितं सूत्रैकदेशं सिद्धान्तं पुरस्कृत्य निषेधमुखेन परस्परं ब्रुवाणा मन्तव्याः । परं लौम्पको भणति - अस्मदभिमतसिद्धान्ते जिनप्रतिमा आराध्यतया नोक्ता, अतो नाऽस्माकं तदङ्गीकार इत्यादि । एतच्च लौम्पकस्येव अस्माकं परेषां च सम्मतमेव । यतस्तदभिमतस्तीर्थङ्करो लम्पकनामा लेखकः सर्वसम्मतः । तस्य च प्रतिमा जिनप्रतिमातया विकल्पिता, सा च प्रतिमा आराध्यतया न कस्यापि सम्मता तदंशे (तद्विषयक) विप्रतिपत्तेरेवाभावात् । शेषास्तु जैनाभासाः स्वस्वाभिमततीर्थकर प्रतिमा आराध्येति वदन्तीति विशेषो बोध्यः । एवं च सति सर्वेऽपि जैनाऽऽभासाः तीर्थतीर्थकरयोर्महाशातनाकारिणो मन्तव्याः । सर्वेषामपि स्वस्वाभिमतमार्गाऽतिरिक्तमार्गाणां मिथ्यादृष्टित्वे
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नाऽभ्युपगमे जैनमार्गस्यापि तदन्तर्गतत्वेन मिथ्यादृष्टित्वाऽभ्युपगमात् । अत एवेति नियमेनानन्तसंसारिणः, जैननामधारित्वेऽपि जैनप्रवचनेन सह विरोधादिति तात्पर्यमिति गाथार्थः ॥७२॥
अथैवं सति तदीयमुखनिर्गताः धार्मिकशब्दाः श्रोतव्या न वा इति शंकायामाहतम्मुहम्मिअसद्दा, सोउमकप्पा तहा सुदिट्ठीणं । जह गुट्ठमाहिलमुह-धम्मकहासवणपडिसेहो ॥ ७३ ॥
व्याख्या-तेषां पौर्णिमीयकादीनां मुखानि तेभ्योऽर्थान्निर्गताः धार्मिकशब्दाः-मुग्धजनापेक्षया व्यवहारतो धर्मवाचकाः, सुदृष्टीना-सम्यगदृशां, श्रोतुमप्यकल्प्याः । केचित्तीर्थकृद्वचनानुवादाभासरूपा अपि निज २ मार्गव्यवस्थापकोत्सूत्रमिश्रितत्वेन निश्चयतस्तदीयतीर्थकरवचनरूपाः केवलमनर्थरूपा एव । तत्र दृष्टान्तमाह-'जहे'त्यादि । यथा गोष्ठामाहिलः सप्तमो निहवः, तन्मुखाद्धर्मकथाश्रवणं तस्य प्रतिषेधः श्रीसंघन कृत इति शेषः । यदुक्तं
'उवहि १ सुय २ भत्तपाण ३, अंजलिपग्गहे ति य ४ । दायणा य५ णिकाए य ६, अब्भुट्टाणेति आवरे ७॥१॥ किइकम्मस्स य करणे ८, वेयावच्चकरणे इय ९।
समोसरणसन्निसेज्जा १० कहाए अ११ निमंतणे १२ ॥२॥ एस बारसविहो'त्ति उत्तराध्ययनबृहद्वृत्तौ, तदृष्टान्तेनोसूत्रभाषिणां धर्मकथाऽपि न श्रोतव्येति गाथार्थः ॥७३।।
अथ लोकोत्तरमिथ्याशमधिकृत्योक्तातिदेशेन विशेषमाह
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व्याख्यान विधि
एएणं लोउत्तर-उम्मग्गा सम्वहा अदब्वा । णिज्जुत्तीए भणिआ, अणुभणिआ पुबसूरीहिं ॥ ७४॥
व्याख्या-एतेनानन्तरोक्तदोषवशेन लोकोत्तरमिथ्यादृशः सर्वथा-सर्वप्रकारेण, आलापसंलापसम्भुञ्जनादिना अद्रष्टव्या - द्रष्टुमप्यकल्प्याः नियुक्तौ भणिताः। तथाहि
'उम्मग्गदेसणाए, चरणं णासिंति जिणवरिंदाणं ।
बावण्णदंसणा खलु, ण हु लब्मा तारिसा दटुं' ॥१॥ त्ति श्रीवन्दननिर्युक्तौ। एतच्चूर्णियथा--'जे पुण जहिच्छोवलंभं गहाय अण्णसिं सत्ताणं संसारं णित्थरित्तकामाणं उम्मन्गं देसयंति, तत्थ गाहा-उम्मग्गदेसणाए क(च)रण-अणुट्ठाणं णासिंति जिणवरिंदाणं सम्मत्तं अप्पणो अण्णेसिं च, ते वावण्णदंसणा जेण ते क(च)रणं ण सद्दहंति, भोक्खो अ विज्जाए करणेण अ भणिओ, अण्णे सिं च मिच्छत्तुप्पायणेणं, एवमादिएहिं कारणेहिं वावण्णदसणा, खलसद्दा जइवि केई णिच्छयविहीए अ अबावण्णदंसणा तहवि ते वावण्णदंसणा इव दट्टव्वा, ते अ द टुंपि ण लब्भा किंमंग पुण संवासो संभुंजणा संथवो वा, हुसद्दो अविसद्दत्थो, सो अ ववहिअसंबंधो दरिसिओ चेव, ण लज्मा णाम ण कप्पंति' त्ति । यद्यपि कस्यचित्तथाभव्यत्वयोगेन निवेभ्योऽपि सम्यक्त्वलाभो भवति, तथापि ते मिथ्यात्वोपहतमतयो वर्जनीया एव । यदागमः-'जइवि हु समुप्पाओ, केसिंचि वि होइ निवेहिपि ।
मिच्छत्तहयमईओ, तहावि ते वज्जणिज्जाओ' ॥१॥ इति बृहत्कल्पभाष्ये (गा० १११८)। अयं भावः-यद्यपि कस्य
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चिद्रोगिणो विषभक्षणमपि रोगविशेषविनाशहेतुर्भवति, तथापि विषभक्षणं सर्वैरपि परिहरणीयमेव । न पुनस्तदृष्टान्तेन अन्यैरपि भक्षणीयं । एवमुत्सूत्रभाषिणोप्युपदेशो मन्तव्य इत्यर्थः । ननु भो ! यद्यपि नियुक्तिभाष्यादौ भणितं, तथापि कालानुभावात् अन्यैरनुक्तत्वेन सदस्यऽप्रकाश्यं भविष्यतीति शंकानिरासार्थमाह-'अणु भणित्ति अनुभणिताः-तथैवोक्ताः, पूर्वसूरिभिः-हरिभद्रसूरिप्रभृतिभिः । तथाहि'इअरेसुवि अ पओसो, णो कायवो भवट्टिई एसा । णवरं विवज्जणिज्जा, विहिणा सइ मांगणिरएणं॥१॥ त्ति उपदेशपदे । वृत्तिर्यथा-'इतरेष्वपि-जिनवचनप्रतिकूलानुष्ठानेष्वपि समुपस्थितदुर्गतिपातफलमोहाद्यशुभकर्मविपाकेषु लोकोत्तरभिन्नेषु, जन्तुषु प्रद्वेषो-मत्सरस्तदर्शने तत्कथायां चाक्षमारूपो, नो-नैव, कर्तव्यः । तत्कि कर्तव्यं १ इत्याह-भवस्थितिरेषा-यतः कर्मगुरखोऽद्यापि अकल्याणिनो जिनधर्माचरणं प्रति प्रहपरिणामा न जायन्ते इति चिन्तनीयम् । नवरं-केवलं, वर्जनीयाः-आलापसंलापविश्रम्भादिभिः परिहरणीयाः, विधिना-विविक्तग्रामनगरवसत्यादिवासरूपेण, सदा-सर्वकालं, मार्गनिरतेन-सम्यगदर्शनादिमोक्षमार्गस्थितेन साधुना श्रावकेण च । अन्यथा तदीयाऽऽलापसंलापसम्भाषणादिना संसर्गकरणेन कुष्ठज्वररोगोपहतसंसर्ग इव तत्तदोषसञ्चारात् इहपरलोकयोरनर्थावाप्तिरेव । अत एवोक्तं
'सीहगुहं वग्धगुहं, उदयं च पलित्तयंपि सो पविसे | असिवं ओमायरिश्र, दुस्सीलजणप्पिओ जो उ॥१॥त्ति ।
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व्याख्यान विधि
प्रागभणितमपि प्रयोजनवशेनेह स्मारितमिति । प्रभृतिशब्दात यावत् श्रीमुनिसुन्दरसूरिप्रमुखाः ग्राह्याः । यतः-उपधानप्रतिक्रान्ति-जिनार्चा दिनिषेधतः ।
न्यू निता दुःषमादोषात् प्रमत्तजनता प्रियाः ॥१॥ तथा-आज्ञाभङ्गान्तरायोत्था-ऽनन्तसंसारनिर्भयः ।
सामाचार्योऽपि पाश्चात्यैः, प्रायः स्वैरं प्रवर्तिताः ॥२॥ इति श्रीमुनिसुन्दरसूरिकृतत्रिदशतरंगिण्यां । यथा कालाऽनुभावाल्लोकोत्तरोन्मार्गा भूयांसः, तथा तीर्थान्तर्वत्तिनोऽपि साधवः श्रावकाश्च अनाभोगवशेन जिनाऽऽज्ञारुचयोऽल्पीयांसः प्रायो मन्तव्याः । यदुक्तं
'एअं पाएण जणा, कालाणुभावा इहंपि सव्वेपि । णो सुंदरत्ति तम्हा, आणासुद्धेसु पडिबंधो'॥१॥ त्ति
वृत्तिर्यथा-'एवमुक्तोदाहरणवत् प्रायेण-बाहुल्येन, जनालोकाः, कालाऽनुभावात्-वर्तमानकालसामर्थ्यात्, इहाऽपिजैनमतेऽपि, सर्वेऽपि साधवः श्रावकाश्च, नो-नैव, सुन्दरा:शास्त्रोक्ताऽऽचारसाराः वर्तन्ते । किन्त्वनाभोगदोषात् शास्त्रोक्तप्रतिकूलप्रवृत्तयः । इतिः पूर्ववत् । तस्मात् कारणात् आज्ञाशुद्धेषुसम्यगधीतजिनागमाऽऽचारवशात् शद्धिमागतेषु साधुष श्रावकेषु च, प्रतिबन्धो-बहुमानः, कार्थः।' एवं लोकोत्तरमिथ्यादृशो यथा द्रष्टुमप्यकल्प्यतया भणिताः, तथा भाष्यकारोऽपि----
'जे जिणवयणुत्तिण्णं, वयणं भासंति जे उ मण्णंति । सदिट्ठीणं तदसणंपि संसारबुढिकरं' ।।१।। ति ।
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न चैवं लौकिकमिथ्यादृशोऽपि भविष्यन्तीति शङ्कनीयं । तेषां प्रामादिभिः परित्यागाऽसम्भवेनोक्तप्रकारासम्भवात् । नहि क्वाप्यागमे उत्सूत्रभाषिवत् सांख्यादयोऽपि जैनप्रवचनविध्वंसका इति भणितं । तेषां जैन जैनत्वेन भाषमाणानां जिनवचनानुवादित्वेन जैनप्रवचनविध्वंसकत्वाभावादुत्सूत्रभाषिणास्तु जैनमजैनत्वेन भाषमाणा जिनवचनाननुवादित्वेन जमाल्यादयो जैनप्रवचनविध्वंसका इति तात्पर्यमिति गाथार्थः ।।७४।। ___ अथ तीर्थप्रतिपक्षाणां यदि उक्तप्रकारेण सूत्रार्थयोः परिज्ञानमभविष्यत् , तर्हि ते किमकरिष्यन्नित्याह-- एवं च सुत्तमत्थं, सम्मं जाणिंसु तित्थपडिवक्खा । ता अणुोगदारं, चइंसु जह महाणिसीहंपि ।। ७५ ॥
व्याख्या-एवं-प्रागुक्तप्रकारेण, सूत्रमर्थं च तीर्थप्रतिपक्षाःउत्सूत्रभाषणेन तीर्थविध्वंसकाः। यदीति गम्यं, यदि सम्यगघुणाक्षरन्यायेनाऽपि समीचीनमज्ञास्यत् 'ता' तर्हि अनुयोगद्वारमप्यत्यक्षत, उपलक्षणात् निजवचनविरोधिवचनात्मकं श्रीभगवतीप्रमुखमपि ग्राह्यम् । दृष्टान्तमाह-'जहे त्यादि। यथा महानिशीथमपि-श्रीमहानिशीथसूत्रमपि त्यक्तं, अपिशब्दात् निर्यक्त्यादिकमपि त्यक्तमिति गाथार्थः ॥७५।।
अथ श्रीमहानिशीथवदनुयोगद्वारपरित्यागे हेतुमाहजं अणुओगे आगम, तिविहो दुविहो अ अणुगमो भणियो। सो तस्सेब पमाणं, जस्स य णिज्जुत्तिपमुहंपि ॥ ७६ ॥
व्याख्या-यत्-यस्मात् कारणात्, अनुयोगे-अनुयोगद्वारे,
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व्याख्यान विधि
आत्मागमाऽ १ नन्तरागम २ परम्पराऽऽगम ३ लक्षणस्त्रिविध आगमः, सूत्रानुगमो १ निर्युक्त्यनुगमश्चेति द्विविधोऽनुगमो भणितः । स चाऽऽगमोऽनुगमश्च तस्यैव प्रमाण-सत्यतया अंगीकारः, यस्य नियुक्तिप्रमुखं-नियुक्तिभाष्यचादिकमपि, प्रमाणमितीहापि सम्बध्यते, प्रमाणं भवेत् । अयं भावः-यथा चतुर्दशीपाक्षिककृत्योपधानमालारोपणजिनप्रतिमाराधनाद्यभिधायकत्वेन यथासम्भवं निज २ मतदूषकं श्रीमहानिशीथमपि त्यक्तं, तथा सम्प्रति परम्पराऽऽगमनियुक्त्यनुगमयोः प्रतिपादकत्वेन परम्पराशून्य नियुक्त्याद्यर्थः सर्वैरपि उत्सूत्रभाषिभिनिज २ मार्गदूषकमनुयोगद्वारमपि त्यक्तमभविष्यत् । परम्पराया अभावे परम्पराऽऽगमस्याप्यभावात् । 'ग्रामो नास्ति कुतः सीमे'ति न्यायादिति गाथार्थः ।।७६॥ ____ अथ नियुक्तिभाप्यचूादीनां तीर्थकृभाषितानां व्युच्छिन्नत्वेन कथं तदाऽऽयत्तसूत्रव्याख्यानाऽऽचारादिप्रवृत्तिरिति पराऽऽशङ्कामुद्भाव्य तन्निराकरणमाहणिज्जुत्तिभासचण्णी, जिणिंदभणिआ य जाउ वुच्छिन्ना । ता वित्थरत्थसुत्ता, अण्णह सुत्तत्यवच्छेओ ॥ ७७ ॥ ___व्याख्या–याश्च नियुक्तिभाप्यचर्णयो जिनेन्द्रभाषिताः सम्प्रति व्युच्छिन्नाः, ता विस्तरार्थसूत्रा मन्तव्याः । न पुनमलतोऽपि | बाधकमाह-'अण्णहे'त्यादि । अन्यथा मूलतोऽत्युच्छेदाभ्युपगमे सूत्रार्थस्यापि व्युच्छेदः स्यात् , तस्य नियुक्त्याधात्मकत्वात् । तच्च 'सुत्तथो खलु पढमो' इत्यादि प्रागुपदर्शित
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मेव । न च देशेन व्युच्छेदे तदुच्छेदभणनमयुक्तमिति शङ्कनीयं, सर्वेषामपि तीर्थकृतां द्वादशाङ्ग्या आदिकरत्वानुपपत्तिप्रसक्तेः। केषांचित् तीर्थप्रवृत्तिकाले द्वादशाझ्या देशनैव व्युच्छिन्नत्वादिति सम्यक पर्यालोच्यम् । किञ्च-यदि पौर्णिमीयकादयः 'अप्परगंथमहत्थ'मित्यादिसूत्रलक्षणमज्ञास्यत्, तर्हि श्रीमहानिशीथे चतुर्दशीशब्दो वर्तते, न पुनः पाक्षिकशब्द इत्यादिकं नावक्ष्यत् । चतुर्दशीपाक्षिकशब्दयोः पर्यायवाचित्वेन इन्द्रः शक्रः इत्यादिवदर्थतः पुनरुक्तताया अपरिज्ञानात् । एवं लौम्पकोऽपि उपासकदशाङ्गे परतीर्थिकपरिगृहीतचैत्यानामकल्प्यतैवोक्ता, न पुनः क्वापि स्वीर्थिकपरिगृहीतचैत्यानां कल्प्यतेति नावक्ष्यत् । देवदत्तो दिवा न भुङ्क्त इत्यर्थादापन्नस्य रात्रिभोजनस्य, रात्रौ भुङ्क्ते इतिशब्देन साक्षाद्भणने पुनरुक्ततावत् अर्थादापन्नायाः स्वतीर्थिकपरिगृहीतचैत्यानां कल्प्यतायाः साक्षातशब्देन भणने पुनरुक्तता स्यात् । सा च दशमो दोषः गणधरकृते सूत्रे न सम्भवति, सूत्रदोषाऽपरिज्ञानेन सूत्रकरणेऽनधिकारापत्तेः । तथा नियुक्त्याद्यनङ्गीकारोऽपि नाभविष्यत्, अल्पग्रन्थमहार्थतायाः अन्यथानुपपत्त्या नियुक्त्याद्यङ्गीकारस्थाऽऽवश्यकत्वात् । अन्यथा सूत्रलक्षणभंगेन सूत्रमेव न स्यात् । एतेन सूत्रेऽविद्यमानं कुतस्तद्वृत्तौ भणितमिति शंकापि परास्ता । नियुक्त्या दिकमन्तरेण 'सुत्तत्थो खलु पढमो, बीओ णिज्जुत्तिमीसओ भणिओ' इत्यादि व्याख्यानविधिविलोपापत्त रित्यादि स्वयमेव पर्यालोच्यमिति गाथार्थः ॥ ७७ ॥
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अथ प्रसङ्गतः साम्प्रतीनानां लोकोत्तरमिथ्यादृशामुत्पत्तिस्वरूपमाहतत्थवि केई तित्था, विणिग्गया केई सयं समुप्पण्णा । मुच्छिअणाडिसमुच्छिम-कप्पा सव्वेवि अम्बत्ता ॥ ७८ ॥
व्याख्या-तत्रापि-सम्प्रति प्रसिद्धलोकोत्तरमिथ्यादृष्टिष्वपि, केचिद्दिगम्बर-पौर्णिमीयकौष्ट्रिक-पाशचन्द्रीयनामानश्चत्वारोऽपि जैनाऽऽभासमार्गाः तीर्थादनन्तरनिर्गतैः शिवभूति-चन्द्रप्रभाऽऽचार्य-जिनदत्ताऽऽचार्य-पाशचन्द्रनामभिर्व्यवस्थापितत्वेन तीर्थादनन्तरविनिर्गताः। आश्चलिक-सार्द्धपौर्णिमीयकाऽऽगमिकनामानस्त्रयोऽपि पौर्णिमीयकनिर्गतैनरसिंहोपाध्याय-सुमतिसिंहाचार्यशीलदेवनामभिर्व्यवस्थापितत्वेन तीर्थात परम्परविनिर्गताः । केचिच्च लौम्पक-कटक-वन्ध्यनामानस्त्रयोऽपि स्वयमेव समुत्पन्नाः, साक्षात्परम्परया वा तीर्थस्पर्शस्याप्यभावात् । तत्र वन्ध्यो लौम्पकाद्विनिर्गतः इति विशेषो बोध्यः । अथ तेषां क्रमेण स्वरूपमाह-'मुच्छिणाडी'त्यादि । मच्छिता-मीमापन्ना सहसा अलभ्यमाना नाडयो येषां ते मछितनाडयः । ते च सम्मूच्छिमाश्च मच्छितनाडिसम्मूच्छिमाः, प्राकृतत्वाद् व्यंजनलोपो द्रष्टव्यः । अत एव सर्वेऽप्यव्यक्ताः-व्यक्तचेतनारहिताः, तेनैव तीर्थकरं देवं वदतामपि तेषां तीर्थकरव्यवस्थापिततीर्थप्रतिपक्षभूतमार्गाणां प्ररूपणायाः सम्भवात् । अयं भावः-नवीनमार्गप्ररूपणावसरे मिथ्यात्वबाणप्रहतानां अनन्तसंसारवृद्धिलक्षणमरणाभिमुखत्वेन अलभ्यमानसम्यक्त्वनाडयो मूच्छितनाडयः ।
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शतकम् ।
ते चाव्यक्तवेतना एव भवन्ति । एतच्च तीर्थादनन्तरनिर्गतानां शिवभूति - चन्द्रप्रभाचार्य - जिनदत्ताचार्य - पाशचन्द्रानधिकृत्यैवोक्तमवसातव्यम् । तेषां हि पूर्वं तीर्थान्तर्वर्तित्वेन व्यवहारतः सम्यक्त्वमासीत् । तेन नवीन मार्गप्रवर्तनावसरे तीर्थस्य हृदये खड़क्कनात् । अत एवालभ्यमानसम्यक्त्वाः । तदपत्यानां तु मूलतोऽपि सम्यक्त्वप्राणराहित्येन मृतजातकल्पत्वात् । तेन तेषां च न ग्रन्थिभेदोऽपि । सम्मूच्छिमास्तु मूलतोऽपि संज्ञिचेतनारहिताः, अगर्भजातत्वात् । परं केषांचित् दुर्बलधर्माणां सम्यक्त्ववान्तिहेतुत्वेन कृमिविशेषगण्डोलककल्पाः मन्तव्याः । अव्यक्तत्वं च सर्वेषामपि विशिष्टचेतनाराहित्येन समानमेव । एतच्च प्रागनेकथा दर्शितमिति । एतेन केचिद् भ्रम्मग्रहमाहात्म्यात् । श्रीमहावीरव्यवस्थापितं तीर्थं व्युच्छिन्नमपि आस्माकी मार्गप्रवर्तकैः श्रीमहावीरभाषित सिद्धान्तादुद्धृतमिति वदन्तोऽपि निरस्ता बोध्याः । व्युच्छिन्नतीर्थोद्धारस्य केवलिनापि कर्तुमशक्यत्वात् । एतच्चाऽश्रुत्वा केवल्यधिकारे भगवत्यामपि प्रतीतमेव । नह्यवाप्तलेख्यकमात्रेण गृहस्वामी जायमानः कोऽपि केनापि दृष्टः श्रुतो वा ? । किञ्च व्युच्छिन्ने तीर्थे साध्वादीनामप्यभावात् सिद्धान्तपुस्तकमेव न स्यात् । प्रयोजनाभावेन पुस्तकस्य कारकरक्षकयोरभावात् । न च द्रव्यलिग्यायत्तं सिद्धान्तपुस्तकमासीदिति वाच्यम् । द्रव्य लिङ्गिनामपि तदानीमभावात् । तेषां च निवानामिव तीर्थाऽविनाभावित्वात् । नहि ज्ञातिमर्यादां विना अयं ज्ञातिबहिरिति वक्तुं शक्यते । प्रयोजनं च पुस्तकस्य अगृहीतसिद्धांत
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व्याख्यान विधि --
संकेतका नाल्पप्रज्ञावतां गुरुसमीपे संकेतग्रहनिमित्तकत्वं, गृहीतसिद्धान्तसंकेतकानां साधूनां च मध्ये कस्यचित्तथाविधज्ञानावरणीयक्षयोपशमाभावजन्यसंशयादिनिरासार्थं संस्कारोदबोधकत्वमेव | स च संस्कारोऽपि सक तज्ञानजन्यः । सङ्कतस्तु सर्वज्ञमूलकोऽपि गुरुशिष्यक्रमाऽऽयत्त एव स्यात् । साधोरभावे च कस्य संस्कारोबोधकत्वं कस्य वा संकेतग्रहनिमित्तकत्वं भवेत् । 'ग्रामो नास्ति कुतः सीमेति न्यायात् । एतेन पुस्तकस्य ज्ञानजनकत्वमेव प्रयोजनमिति वक्तापि निरस्तो बोध्यः । पुस्तकस्यसिद्धान्तसङ्को नग्रह जनकत्वाभावेन ज्ञानजनकत्वाभावात् । नहि पट्टकाss लिखितजम्बुद्वोपादिवर्तिवर्ष वर्ष घर नदी हदादीनां परिज्ञानमगृहीतसङ्क ेतकस्य कस्यापि जायमानं दृष्टं श्रुतं वा, प्रत्यक्षबाधात् । संकेतग्रहस्तु, गुर्वायत्त एव । गुरुत्वं च शिष्य त्वाऽविनाभावीति प्राक् प्रदर्शितम् । तेन गुरोरपि संकेतग्रहो निजगुर्वायत्त एव । एवं च तावद् वक्तव्यं यावत् सर्वज्ञः श्रीमहावीर इति । एतेन सर्वेऽपि मार्गाः जैनधर्मबुद्धया प्रवर्तमानाः तीर्थराज्ञाऽऽराधका एव भवन्ति । आशयस्य शुद्धत्वादिति निजमतिकल्पनाऽपि परास्ता । जैनाऽऽभासानामनुपपत्तिप्रसक्तेः । किंच - आज्ञा वगधकानां शुभाध्यवसायो दूरे, प्रत्युताऽनन्तानुबन्धिन एवं कषाया भवन्ति । यदागमः 'जे णं गोयमा ! आणा वराहगे. से णं अणंताणुबंधी कोहे, से णं अनंताणुबंधी भाणे, सेणं अनाणुचंधी केअत्रे, सेणं अनंताणुबंधी लोहे -
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शतकम्।
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इत्यादि श्रीमहानिशीथपञ्चमाध्ययने। एतदपि सम्यक् पर्यालोच्यमिति गाथार्थः ।।७८॥ ___अथ क्रमप्राप्तं लौकिकमिथ्यात्वं विवेचयन्नाह - लोइयमिच्छत्तं पुण, सरूवभेएण हुज्ज चउभे । अभिगहिअ१ मणभिगहियं२, संसइयं३ तह अणाभोगं ।७६ |
व्याख्या-लौकिकमिथ्यात्वं पुनः स्वरूपभेदेन-भिन्न-भिन्नम्वरूपेण चतुर्विधं चतुःप्रकारं भवति । तथाहि-आभिग्रहिकं १ अनाभिग्रहिकं २ सांशयिकं ३ अनाभोगं ४ च । तथेति समुच्चये। तत्राऽऽभिग्रहिक सुगतेश्वरादिव्यक्तनामादिभिर्नियतानामेवादेवादीनां देवत्वादिना श्रद्धानात्मकं । यदुक्तं
'अदेवे देवब द्धिर्या, गुरुधीरगुरौ च या।।
अधर्मे धर्मब द्धिश्च, मिथ्यात्वं तद्विपर्यया ॥१॥'दिति योगशास्त्रम् । अनाभिग्रहिकं तु सर्वाण्यपि दर्शनानि शोभनानीति श्रद्धानात्मकं गोपालादीनामिव । यत्त केचिज्जैनमार्गमाश्रिता अपि कालानुभावात् अनाभोगवशेन यावन्तोऽर्हदेवादितत्त्ववादिनस्ते सर्वेऽपि शोभना एवेति श्रद्धानभाजः, ते सर्वेप्यनाभिग्रहिकविशेषा मन्तव्याः। जैनमार्गमाश्रितत्वेन सम्यगशामपि केषाञ्चित् सम्यक्त्वनाशहेतुत्वात् । तथा सांशयिक स्वस्वाभिमतमार्गव्यवस्थापनपरायणानि सर्वाण्यपि दर्शनानि शोभनानि उत कतिचित् किंचिद् वेत्यध्यवसायात्मकम् । तथाऽनाभोग: अनामोगेन निवृत्तमनाभोगम । ननु भो! अनाभोगो मिथ्यात्वं कथं स्यात् ? सम्यग्दृशामपि सत्त्वादिति चेत् । सत्यं, न हि वयं
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व्याख्यान विधि
सर्वोऽप्यनाभोगो मिथ्यात्वमिति ब्रमः, किन्तु यो ह्यज्ञानसमानाधिकरणः सोऽनाभोगो मिथ्यात्वं । ज्ञानसमानधिकरणम्तु छद्मस्थत्वाभिव्यंजकः सन् क्वचिदतिचाररूपोऽपि स्यादिति तात्पर्यमिति गाथार्थः ॥ ७९ ॥
अथ पंचानामपि मिथ्यात्वानां व्यक्तत्वाव्यक्तत्वाभ्यां विवेकमाहतत्थवि जमणाभोगं, अवत्तं सेसगाणि वत्ताणि । चत्तारिवि जं णिअमा, सणाणं हुंति भवाणं ॥८०॥
व्याख्या-तत्रापि-पञ्चस्वपि मिथ्यात्वेष अनाभोगो मिथ्यात्वमव्यक्तं, देवगुरुधर्मविषयकव्यक्तचेतनाशून्यत्वात् । शेषाण्येवशेषकानि-आभिग्रहिकादीनि चत्वाय पि व्यक्तानि,देवादिविषयकव्यक्तचेतनाघटिताध्यवसायात्मकत्वात् । तत्र हेतुमाह-यत्यस्मात् कारणात् , नियमेन-निश्चयेन, संज्ञिनामपि भव्यानामेव भवन्ति, न पुनरभव्यानामपि । तेषां तु कदाचित् कुलाचारवशेन व्यवहारतो व्यक्तमिथ्यात्वे सम्यक्त्वे वा सत्यपि, निश्चयतः सर्वकालमनाभोगमिथ्यात्वमेव भवति । तेन ते चाभव्या व्यावहारिकत्वादिव्यपदेशभाजोऽपि न भवन्ति । तेषां चानादितः सर्वकालं चतृसृष्वपि गतिषु पुनः पुनः परावर्त्तनेन परिभ्रमणात् । एतच्चाने व्यक्तीकरिप्यते । व्यक्तमिथ्यादृशां तु तथाभव्यत्वयोगेन कदाचित् केषाञ्चित् क्रियावादित्वाभिव्यञ्जकं कर्मवादित्वमपि भवति । कर्मवादित्वं च धार्मिकानुष्ठानजन्यो मोक्षो, नान्यथेत्यध्यवसायरूपमेव । यदुक्तं-'य एव कर्मवादी स एव
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शतकम् ।
क्रियावादी' त्याचाराङ्गप्रथमाध्ययनवृत्तौ । तच्च कालेश्वरादिकृतमेव सर्वमितिवादिनां न सम्भवन्ति, कालेश्वरादिककृतत्वेन कर्मवादित्वाभावात् । क्रियावादिनां चोत्कर्षतोऽप्येकपुद्गलपरावर्ताविशेषः संसारो भवतीति गाथार्थः ॥ ८० ॥
अथानन्तरोक्त मिथ्यादृग्भव्यानां भेदं तत्सम्बन्धिकालं च
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गाथाद्वयेन विभणिषुः प्रथमगाथामाह
भव्यावि अववहारिअ ववहारिअमेअओ दुविगप्पा | अववहारिअकालो, अत पुग्गलपट्टा ॥८१॥ अनंत व्याख्या - मव्या अपिरेवार्थे भव्या एव अव्यावहारिकव्यावहारिकमेदतो द्विविकल्पाः - द्विभेदाः केचिद् भव्या अव्यावहारिकाः केचिच्च व्यावहारिका इत्यर्थः । तत्राव्यवहारिकाणां कालः - संसारस्थितिकालः अनन्तपुद्गलपरावर्ता :अनन्तपुद्गलपरावर्त्तकालं यावत् संसारावस्थितिरनादित्वादिति गाथार्थः ॥ ८१ ॥
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अथ द्वितीयगाथामाह -
I
चवहारीणं णिअमा, संसारो जेसि हुज्ज उक्कोसो तेसिं आवलिअ असंख भागसम पुग्गल परट्टा ||२|| व्याख्या व्यावहारिकाणां तुर्गभ्यः, व्यावहारिकाणां तु नियमात्- निश्चयेन, येषामुत्कृष्टः संसारो भवेत्, तेषामावलिका संख्येयभागसमयप्रमाणपुद्गलपरावर्ताः । यदुक्तं
'अवहारिअम, भमिऊण अणतपुग्गलपट्टे । कवि ववहाररासिं, संपत्तो णाह ! तत्थवि अ ॥१॥
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व्याख्यानविधि
उक्कोसं तिरिअगई-असन्नि-एगिदि-वण-णपुंसेसु । भमिओ आवलिअअसंख-भागसमपुग्गलपरट्टे' ॥२।। इति कायस्थितिस्तोत्रे । आवलिका च कालविशेषः प्रवचने प्रतीतः । अत एवोत्कृष्टो वनस्पतिकालो यः प्रवचने एतावानेव भणितः । स च व्यावहारिकभव्यानधिकृत्यैवोक्तोऽवसातव्यः । तथाहि-'वणस्सइकाइआ णं पुच्छा, जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं अणंतं कालं, अणंता उम्सप्पिणीओसप्पिणी कोलओ, खित्तओ अणंता लोगा असंखेज्जा पुग्गलपरट्टा' इति प्रज्ञापना १८पदे । यदि चेदं सूत्रं सांव्यवहारिकजीवापेक्षं न म्यात , तर्हि सर्वेषामपि भव्यानां मुक्तिसिद्धौ मुक्तिपथव्यवच्छेदः प्रसज्येत, तावत्कालप्रमाणानां भव्यानां परिमितत्वात् । अत एव प्रज्ञापनावृत्तिकृता सांव्यवहारिका असांव्यवहारिकाश्चेति राशिद्वयं युक्त्या समथितं । तथाहि—'सकाइए दुविहे पं० २० -अणादीए वा अपज्जवसिए १, अणादीए वा सपज्जवसिए २'त्ति प्रज्ञापना १८ पदे। एतवृत्तिर्यथा तत्र यः संसारपारगामी न भविष्यति सोऽनाद्यपर्यवसितः, कदाचिदपि तस्य कायव्यवच्छेदासम्भवात् । यस्तु मोक्षमधिगन्ता सोऽनादिसपर्यवसितः, तस्य मुक्त्यवस्थासम्भवे सर्वात्मना शरीरपरित्यागोदित्यादि यावत् । किंचैवं यावत् वनस्पतीनां निलेपनमागमे प्रतिषिद्धं, तदपीदानी प्रसक्तं । कथमिति चेत् । उच्यते-इह हि प्रतिसमयं असंख्येया वनस्पतिभ्यो जीवा उद्वर्तन्ते, वनस्पतीनां च कायस्थितिपरिमाणमसंख्येयाः पुद्गलपरावर्ताः, ततो यावन्तोऽसंख्येयेषु पुद्गल
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शतकम्।
परावर्तपु समयास्तैरभ्यस्ता एकसमयोवृत्ता जीवा यावन्तो भवन्ति, तावत परिमाणमागतं वनस्पतीनां । ततः प्रतिनियतपरिमाणतया सिद्धं निल्लेपनं, प्रतिनियतपरिमाणत्वात् । एवं च गच्छता कालेन सिद्धिरपि सर्वेषां भव्यानां प्रसक्ता । तत्प्रसक्तौ च मोक्षपथव्यवच्छेदोऽपि प्रसक्तः, सर्वभव्यसिद्धिगमनानन्तरमन्यस्य सिद्धिगमनाऽयोगात । आह च---
'काठिई कालेणं, तेसि मसंखेज्जयावहारेणं । णिल्लेवणमावण्णं, सिद्धीवि अ सव्वभव्वाणं ॥१॥ पइसमय मसंखेजा, जेणु बट्टति तो तदभत्था । कायट्टिइग समया, वणम्सईणं च परिमाणं ॥२॥
न चैतदस्ति, वनस्पतीनामनादित्वस्य निर्लेपनप्रतिषेधस्य सर्वभव्यासिद्धर्मोक्षपथाव्यवच्छेदस्य च स्त्र २ प्रदेशे सिद्धान्तेऽभिधानात् । उच्यते-इह द्विविधा जीवाः-सांव्यवहारिका असांव्यवहारिकाश्च । तत्र ये निगोदावस्थात उदवृत्त्य पृथ्वीकायादिभेदेष वर्तन्ते, लोके दृष्टिपथमागताः सन्तः पृथ्वीकायादिव्यवहारमनुपतन्तीति सांव्यवहारिका उच्यन्ते । ते च भूयोऽपि निगोदावस्थामुपयान्ति, तथापि ते सांव्यवहारिका एव । संव्यवहारे पतितत्वात् । ये पुनरनादिकालादारभ्य निगोदावस्थामुपगता एवावतिष्ठन्ते, ते व्यवहारपथातीतत्वादसांव्यवहारिकाः । कथमेतदवसीयते ? द्विविधा जीवाः सांव्यवहारिका असांव्यवहारिकाश्चेति । उच्यते-युक्तिवशात् । इह प्रत्युत्पन्नवनस्पतीनामपि निलेपनं प्रतिषिद्धं, किं पुनः सकलवनस्पतीनां, तथा भव्या
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व्याख्यान विधि
नामपि । तच्च यद्यसांव्यवहारिकरा शिनिपतिता: अत्यन्तवनस्पतयो
न स्युः, ततः कथमुपपद्यते । तस्मादवसीयते अस्त्य सांव्यवहा रिकरा शिरपि यद्गतानां वनस्पतीनामनादिता । किञ्चेयमपि गाथा गुरूपदेशादागता समये प्रसिद्धा
"
'अत्थि अनंता जीवा, जेहिं ण पत्तो तसाइपरिणामो । तेवि अणंताणंता, णिगोअवासं अणुवसंति' ॥१॥
इति प्रज्ञापनावृत्तौ । तथा पूर्वाचार्यवचसाऽपि राशिद्वयं सिद्ध्यति । यदाह श्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रमणः
'सिज्यंति जत्तिआ किर, इह संववहारजीवरासीओ | इति अणाइवणस्सइ-रासीओ तत्तिआ तम्मि' ॥१॥ त्ति विशेषणवत्यां । तथा चिन्तामणिमन्त्रस्तोत्रेऽपि - ' एवं महाभयहर' मित्यादिगाथावृत्तौ भवन्ति गुणभाजनमिति भव्याःसिद्धिगमनयोग्या, ते चाव्यवहारिकनिगोदा अपि भवेयुः । सन्ति हि ते जगति भव्याः, ये कदाचिदपि न सेत्स्यन्ति । तथा च वृद्धाः
'सामग्गिअभावाओ, बवहारिअरासि अप्पवेसाओ | भव्वावि ते अनंता, जे सिद्धिसुहं ण पाविति ॥ १॥ न प्राप्स्यन्तीत्यर्थः । अतस्तद्व्यवच्छेदार्थमाह-जायन्ते व्यावहारिकराशाविति जनाः, भव्याश्च ते जनाश्च ते भव्यजनाः, तेषां हर्षोत्पादक कल्याणपरम्पराया निधानमे (मि)वेत्यादि । एवंच प्राप्तव्यवहारराशीनां नियमेन सिद्धिगमनं भवत्येवेति सिद्धमव सातव्यं । अत्र हि प्रज्ञापनावृत्तिकर्तुरभिप्रायेण सूक्ष्मपृथिव्यादिजीवा निगोद
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शतकम्। जीवाश्च असांव्यवहारिका,अन्यथा प्रत्येकशरीरिणो व्यावहारिका इत्येवोक्तमभविष्यत् । यच्च 'केवलनिगोदेभ्य उद्धत्य पृथिवीकायादिभवेषु वर्तन्ते' इत्यादि भणितं, तत् सूक्ष्मपृथिव्यादिजीवानामसङ्खयेयत्वेनाल्पत्वात् अवश्यभाविव्यावहारिकत्वाद्वा अविवक्षणादिति सम्भाव्यते । सम्यग निश्चयस्तु बहुश्रुतगम्य इति । एवं चाइसांव्यवहारिका जीवाः सूक्ष्मपृथिव्यादिषु निगोदेषु च सर्वकालं गत्यागतीः कुर्वन्तीति सम्पन्नं । एतदर्थसंवादिका च प्रवचनसारोद्धारवृत्तिरपि । तथाहि'असंखोसप्पिणिसप्पिणीओ, एगिदिआण य चउण्हं । ता चेव अणंताओ, वणस्सइए अ बोद्धव्या' ॥१॥ इति गाथावृत्तौ। 'अनादिसूक्ष्मनिगोदेभ्य उद्धत्य शेषजीवराशिपूत्पद्यन्ते, ते पृथिव्यादिविविधव्यवहारयोगात् सांव्यवहारिका' इति भणितम् । तेनानादिसूक्ष्मनिगोदजीवाः अव्यवहारिण इत्यत्र समासविधिस्त्वेवं-सूक्ष्माश्च पृथिव्यादयश्चत्वारः, निगोदाश्च सूक्ष्मबादरसाधारणवनस्पतयः, न विद्यते आदिर्येषां तेऽनादयःअप्राप्तव्यवहारराशय इत्यर्थः । तथा च सूक्ष्माश्च निगोदाश्चेति द्वन्द्वः,अनादयश्च ते सूक्ष्मनिगोदाश्चेति कर्मधारयः । यदि च सर्वत्रापि कर्मधारयः क्रियते, तदा बादरनिगोदजीवा व्यवहारिणः सम्पद्य रन् । तथा न भवन्ति । यतो बादरनिगोदजीवेभ्यः सिद्धा अनन्तगुणा वक्तव्या स्युः । तत्कथं १ इतिचेत् । उच्यतेयतो यावन्तः सांव्यवहारिकराशितः सिद्धयन्ति, तावन्त एव जीवाः असांव्यवहारिकराशेविनिर्गत्य सांव्यवहारिकराशावा
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व्याख्यान विधिगच्छन्ति । यदाह-'सिझति जत्तिआ किरे'त्यादि प्राक् प्रदर्शित-- मेव । एवं च व्यवहारराशितः सिद्धा अनन्तगुणा एवोक्ताः । तत्र यदि बादरनिगोदजीवानां व्यावहारिकत्वं भवति, तर्हि बादरनिगोदजीवेभ्यः सिद्धा अनन्तगुणा एव सम्पद्य रन् । सन्ति च सिद्धेभ्यो बादरनिगोदजीवा अनन्तगुणाः, तेभ्यः सूक्ष्मजीवा असंख्येयगुणाः। यदागमः --'एएसि णं भंते! जीवाणं सुहुमाणं१ बायराणंर णो सुहुमाणं णो बायराणं३ कयरे २ हितो अप्पा वा बहुया वा ४ । गो० सव्यथोवा जीवा णो सुहुमा णो बायरा, बायरा अणंतगुणा, सुहुमा असंखेजगुणा' इति प्रज्ञा ० पद १८ । वृत्तिर्यथा-'एएसि णं भंते ! जीवाणं सुहुमाण' मित्यादि । सर्वस्तोका जीवा ‘णो सुहुमा णो बायरा' सिद्धा इत्यर्थः । तेषां सूक्ष्मजीवराशेर्बादरजीवराशेश्च अनन्ततमभागकल्पत्वात् । तेभ्यो बादरा अनन्तगुणाः, बादरनिगोदजीवानां सिद्धेभ्यो अनन्तगुणत्वात् । तेभ्यश्च सूक्ष्मा असंख्येयगुणाः, बादरनिगोदेभ्यः सूक्ष्मनिगोदानामसंख्येयगुणत्वादिति। एवं चाऽऽगमबाधा स्फुरैद । तेन 'ग्रन्थस्य ग्रन्थान्तरं टीके तिवचनात् सर्वज्ञमूलकाऽऽगमाऽनाबाधयैव व्याख्यानं युक्तमिति । तत्र सूक्ष्मपृथिव्यादीनां निगोदानां चाऽनादित्वमप्राप्तव्यवहारराश्यपेक्षया मन्तव्यम् । प्राप्तव्यवहारराशीनां तु जीवानां सूक्ष्मपृथिव्यादिनिगोदपर्यन्तानां सर्वेषामपि सादित्वमेव स्यात् । यद्यपि प्रत्येकशरीरिणः सूक्ष्मपृथिव्यादयोऽव्यवहारिण इति क्वाप्यागमे साक्षान्नोक्तं, तथापि अनन्तरोक्ताऽऽगमवाधानुरोधव्यवहारित्ववचनेऽपि न
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किञ्चिद् बाधकम् । प्रज्ञापनावृत्त्यभिप्रायेण च युक्त्या तथा भणने न कश्चिद्दोषः, प्रकारान्तरेणाऽऽगमबाधाया अनपायात् । ननु भोः ! काश्चन युक्तयोऽसमीचीना अपि भवन्ति, तेन कथं तद्गम्ये वस्तुनि सम्यग् विश्वासः ? इति चेत् । मैवं तर्हि धूमादिहेतुगम्ये वह यादिवस्तुन्यपि सम्यग् विश्वासानुपपत्तिप्रसक्तेः, केषाञ्चिद्धेतूनामाप्यसमीचीनत्वात् । एवमागमगम्येऽपि वस्तुनि वक्तव्यं प्रसज्येत, आगमानामपि केषाञ्चिदसमीचीनत्वात् । तस्माद्यथा व्यभिचारादिदोषदुष्टहेतवोप्यहेतव एव, विवक्षितवस्त्वसाधकत्वात् । इतरे तु हेतव एव । यथा वा सर्वज्ञमूलकाऽऽगमवाधित आगमोप्यनागम एव, अयथार्थवस्तुवाचकत्वात् । इतरस्तु आगम एव, यथार्थवस्तुवाचकत्वात् । एवं युक्तिरपि बलवद्य क्तिबाधिता न युक्तिः, किन्त्वबाधितैव । तस्याश्चाबाधितत्वपरिज्ञानायानुमानप्रयोगो यथा-बादरनिगोदजीवा न व्यवहारिणः, तेषां सिद्धेभ्योऽनन्तगुणत्वात्, यथा सूक्ष्मनिगोदजीवाः। तथा अनादिमन्तः सक्ष्मा बादराश्च निगोदजीवा अव्यवहारिण एव, अन्यथा व्यवहारित्वभवनसिद्धिगमनयोरपर्यवसितत्वानुपपत्तेः । अपर्यवसितत्वं च सिझति जत्तिया किरे'त्यादिगाथोक्तक्रमणावसातव्यम् । तथा सांव्यवहारिका जीवाः सिध्यन्त्येव, आवलिकाऽसंख्येयभाग(सम) पुद्गलपरावर्त समयपरिमाणत्वेन परिमितत्यात्, व्यतिरेकव्याप्त्या सिद्धा निगोदजीवाश्च दृष्टान्ततयावसातव्याः । प्रज्ञापनावृत्तिसम्मतिखसातव्या । अयं भावः-आवलिकाऽसंख्येयभागपुद्गलपरा
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वर्तसमयप्रमाणा व्यवहारिणो जीवा भवन्ति । निदानं तावत् तावता कालेन तथाभव्यत्वयोगेन यथासम्भवं सर्वेषामपि व्यवहारिणां नियमेन सिद्धिगमनमेव । एवं च प्रकृते बाधकयुक्तरेवाभावाद् युक्तिगम्ये वस्तुनि सम्यगविश्वासो युक्त एव । अत एव प्रज्ञापनावृत्तिकृतापि युक्तिपुरस्कारेणैव राशिद्वयं व्यवस्थापितं प्राक् प्रदर्शितं । तत्र युक्तेर्व्याप्तिरूपता चैवं-यथा अन्यत्र पर्वते वह्नि धुमान्यथानुपपत्तेः । एवमस्तीह अव्यवहारराशिः, व्यवहारित्वभवनसिद्धिगमनयोरपर्यवसितत्वान्यथानुपपत्तेः । अत एवाऽऽगमतुल्यैव यक्तिरपि मन्तव्याः । यदागमः-- 'तं तह वक्खाणिज्जं, जहा जहा तस्स अवगमो होइ । आगमिअमागमेणं, जुत्तीगम्मं तु जुत्तीए' ॥१॥ति पंचवस्तुके।
एतेन बादरनिगोदजीवप्रभृतयः सर्वऽपि जीवा अनादिसूक्ष्मनिगोदेभ्यो निर्गताः सन्त एव सांव्यवहारिकव्यपदेशभाजो भवन्तीति पराकूतमपि परास्तं। सर्वेषामपि जीवानां सिद्धिप्राप्तिप्रसक्तौ संसारस्थितेरुच्छेदापत्तेः । तत्कथं ? इति चेत् । उच्यतेयावन्तः सिद्धयन्ति तावन्त एवाव्यहारराशितो निर्गत्य व्यावहारिका भवन्ति । एवं च तथा भव्यत्वयोगेन यथासम्भवं सर्वकालमसांव्यवहारिकजीवराशेविनिर्गत्य व्यावहारिकभवनेन व्यावहारिकजीवराशेश्च सिद्धभवनेन असांव्यवहारिक जीवराशेहीन्या सिद्धानां च वृद्ध्या तादवस्थ्याभाव एव । तादवस्थ्यं च व्यावहारिकजीवानां संख्यामधिकृत्यैव मन्तव्यम् । यदि च बादरनिगोदजीवा व्यावहारिका उच्यन्ते, तर्हि सूक्ष्मबादर
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निगोदजीवेभ्यः सिद्धा अनन्तगुणा एव सम्पद्य रन् । एतच्चासम्भवि, तावतां जीवानामेवाभावात् । सिद्धाश्च सर्वकालेनाप्येकस्य निगोदस्यानन्ततमभागवर्तिनः स्युः । यदुक्तं'जइआ होही पुच्छा, जिणाण मग्गंमि उत्तरं तइआ । इक्कस्स णिगोअस्स य, अणंतभागो य सिद्धिगओ' ॥१॥त्ति ।
तथा च सिद्धं सूक्ष्मबादरनिगोदेष्वेव सर्वकालं व्यवहारिणां स्थितिः । व्यावहारिकाणां तु सामान्यतः सर्वकालं तादवस्थ्येऽपि विशेषतः प्रतिजीवमुत्कर्षत आवलिकाऽसंख्येयभागपुद्गलपरावर्तस्थितिः । तत उर्ध्व नियमात् सिद्धिरेव तेषां भवेत् । तत्र सम्मतिस्तु प्रागुपदर्शितैव । यत्तु क्वचिदाधुनिकप्रकरणादौ प्रज्ञापनाद्यागमविरुद्धानि वचनानि भवन्ति । तच्च तीर्थान्त.
तिनामसद्ग्रहाभावादनाभोग एव कारणम् । अनाभोगस्तु महतामपि भवति, तस्य च छद्मस्थमात्रस्य सत्त्वेन छद्मस्थलिङ्गत्वात् । यदुक्तं'न हि नामाऽनाभोगश्छद्मस्थस्येह कस्यचिन्नास्ति । ज्ञानावरणाय हि, ज्ञानावरणप्रकृति कर्म' ॥१॥इति। तीर्थबाह्यानां तु मिथ्यादृशामज्ञानमेव, तच्च सर्ववस्तुविषयकमिति अनाभोगाऽज्ञानयोविंशषो बोध्यः । ननु भो ! सांव्यवहारिकजीवानामनन्तपुद्गलपरावर्ताः अपि सम्भवन्ति । आवलिकाऽसंख्येयभागपुद्गलपरावर्तान्तरितस्यापि भूयो भूयः परिभ्रमणस्योक्तत्वात् । यदुक्तं-एते च निगोदे वर्तमानाः जीवा द्विधा, तद्यथा-सांव्यवहारिका असांव्यवहारिकाश्च । तत्र ये सांव्यव
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व्याख्यान विधि
हारिकास्ते निगोदेभ्य उद्धृत्य शेषजीवराशिमध्ये समुत्पद्यन्ते तेभ्य उद्धृत्य केचिद् भूयोऽपि निगोदमध्ये समागच्छन्ति । तत्राप्युत्कर्षतः आवलिका संख्येयभागगतसमयप्रमाणान् पुद्गलपरावर्तान् स्थित्वा भूयोऽपि शेषजीवेषु मध्ये समागच्छन्ति । एवं भूयोभूयः सांव्यवहारिकजीवाः गत्यागतीः कुर्वन्तीति संग्रहणी - वृत्ताविति चेत् । मैवं भूयोभूयः परिभ्रमणेऽपि उक्ताऽसंख्येयपुद्गलपरावर्तीतिक्रमणस्याभावात् आवलिका संख्येयभागपुद्गलपरावर्तानामसंख्येयत्वमेवेति ( प्रतीतौ ) कुतो भूयोभूयः शब्देनाऽऽनन्त्यकल्पनाया गन्धोऽपि । तेन भूयोभूयः परिभ्रमण - ऽपि असंख्यातत्वं तु तदवस्थमेव । अत एतावता कालेन व्यावहारिकाणां सर्वेषामपि सिद्धिर्भणितेति प्रागुपदर्शितमिति गाथार्थः ॥८२॥
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अथ सांव्यवहारिकभव्यानामावलिकाऽसंख्येयभागपुद्गलपरावर्तकालादूर्ध्वं किं स्यादित्याह
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तेण परं सिद्धिगई, तेसिंणिअमेण हुज्ज जिणभणिआ । जं ते पुणो वि अव्यवहारितं नेव पाविति ॥ ८३ ॥ व्याख्या - तेन -- ततः, परं-उक्तलक्षणकालादूर्ध्वं तेषां - सांव्यवहारिकाणां नियमेन - निश्चयेन, सिद्धिगति : - मुक्तिलक्षणा पंचमगतिर्भवेत् । किंलक्षणा सिद्धिगतिः ? जिनभणिता-तीर्थंकरोपदिष्टा । तत्र सम्मतिस्तु प्रज्ञापनावृत्तिरेव । सा च प्राक् प्रदशिता । अथोत्तरार्द्धेन मुक्तिगमनं निश्चिनोति जं ते पुणोदीत्यादि । यत् - यस्मात् ते व्यवहारिणः पुनरव्यवहारित्वं नैव
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प्राप्नुवन्ति । अयं भावः-व्यवहारिणां हि उक्ताऽसंख्येयपुद्गलपरावर्तकालादूल संसारस्थितिख्यवहारित्वभवनेनैव स्यात् । अव्यावहारिकाणामेव अनन्तपुद्गलपरावर्तस्थितेभणितत्वात । तच्च व्यवहारिणां न भवत्येव, आगमे निषिद्धत्वात् । सम्मतिस्तु दर्शितैव। तस्मादुक्ताऽसंख्येयपुद्गलपरावर्तकालादधिकसंसारावस्थितिरसांव्यवहारिकत्वमन्तरेण न स्यादेव । अव्यवहारिकत्वं तु व्यावहारिकाणां न भवत्येवेति परिशेषात् सिद्धिगतिगामिन एव भवन्तीति गाथार्थः ।। ८३ ॥ ___अथ व्यवहारिष्वपि विशेषमाहतेसु वि एगो पुग्गल-परिअट्टो जेसि हुज्ज संसारो। तहमवत्ता तेसि, केसिंचि अ होइ किरिअरुई ॥८४||
व्याख्या-तेप्वपि-व्यवहारिप्वपि जीवेष, येषामेकपुद्गलपरावर्तावशषः संसारो भवेत् , तेषां मध्ये तथाभव्यत्वात्-तथाभव्यत्वयोगेन केषांचित्क्रियारुचिः-मोक्षनिमित्तधार्मिकानुष्ठानकरणाभिप्रायो भवतीति गाथार्थः ।। ९४ ॥ ___अथ क्रियारुचेश्चिह्नमाहतीए किरियाकरणं, लिंगं पुण होइ धम्मबुद्धीए । किरिआरुईणिमित्तं, जं वुत्तं वत्तमिच्छत्तं ॥८॥ ___ व्याख्या-क्रियारुचेर्लिङ्ग-चिह्न, पुनर्वढे धूमवत् क्रियाकरणमेव मुक्तिनिमित्तमिति गम्यं । यत्तु स्वर्गादिप्राप्तिनिमित्तं चक्रवा दिपूजाप्राप्तिनिमित्तं वा क्रियायाः करणमभव्यानामपि भवति, तन्न क्रियावादित्वाभिव्यञ्जकं, मुक्तिप्राप्तिनिमित्तं क्रिया
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व्याख्यान विधिकरणाभावात् । एतच्च व्यवहारतः छदमस्थगम्यत्वेन लिङ्गमवसातव्यम् । अथवा यथा क्रियारुचेः कार्य क्रियाकरणं, तथा तस्या अपि कारणं किं ? इत्याह-'किरिआईत्यादि । क्रियारुचेनिमित्तकारणं व्यक्तमिथ्यात्वं यदनन्तरोक्तं -'तत्थवि जमणाभोग'मित्यादिगाथायां भणितं, उपलक्षणात व्यक्तमिथ्यात्वमन्तरेण एकपुद्गलपरावतस्यापि भव्यस्य क्रियारुचिर्न भवति । तथा च क्रियायाः कारणं क्रियारूचिः, क्रियारुचेश्च कारणं व्यक्तमिथ्यात्वमेव । न चैवमव्यक्तमिथ्यात्वापेक्षया व्यक्तमिथ्यात्वं शोभनं सम्पन्न क्रियारुचिहेतुत्वादिति शंकनीयं, व्यक्तमिथ्यात्वस्य जैनप्रवचनविषयकक्लिष्टपरिणामात्मकत्वेन दीर्घस्थितिकमिथ्यात्वमोहनीयकर्मबन्धहेतुत्वात् सम्यक्त्वप्राप्तेः प्रतिबन्धकत्वाच्च। अनाभोगमिथ्यात्वस्य सदन्धन्यायेन सम्यक्त्वप्राप्तेरप्रतिबन्धकत्वमग्रे दर्शयिष्यते। परं सर्वत्राप्यनुक्तमपि तथाभव्यत्वं कारणतया मन्तव्यमेव । तच्च तत्तज्जीवस्वभावोऽनादिसिद्ध एवेति गाथार्थः ॥ ८५ ॥
अथ क्रियावादिष्वपि विशेषमाहतेसु वि अवड़पुग्गल-परिअट्टो जेसि हुज्ज संसारो। सम्मत्तजोग्गयाए, लहंति ते कइ सम्मत्तं ॥८६॥
व्याख्या-तेष्वपि-क्रियावादिष्वपि येषां भव्यानामपा - पुद्गलपरावर्तावशेषः संसारो भवेत् , तेषां सम्यक्त्वप्राप्तियोग्यतायां केचित् साक्षात् सम्यक्त्वं लभन्ते। अयं भावः-अपार्द्धपुद्गलपरावर्तावशेषसंसारस्य भव्यस्य सम्यक्त्वप्राप्तियोग्यता सम्पन्ना, परं
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सम्यक्त्वप्राप्तिः तथाभव्यत्व सहकृतकालादिसामग्री योगेन नानाप्रकारा भवति । तेन सम्यक्त्व प्राप्त्यनन्तरमपि केषाञ्चित् संसारोऽपार्द्धपुद्गलपरावर्तावशेषो भवति तेषां तथाभव्यत्वस्य तथैवानादिसिद्धत्वात् यावत् केषांचिदन्तर्मुहूर्तावशेषोऽपि
संसारो भवति, तत्कारणस्य तथाभव्यत्वस्य प्रतिभव्यं भिन्नत्वात् । तेन तदायत्तैव शेषकारणसामग्रीति गाथार्थः ॥ ८६ ॥ अथ सिंहावलोकनन्यायेन व्यवहारित्वमव्यवहारित्वं च कथं भवति ? इति दर्शयति-लोअववहारविषयं पत्तेअसरीरमेव जेसि सई । ते वहारिअभव्या, सेसा ववहारबाहिरिआ ॥८७॥
व्याख्या -- लोकव्यवहारविषयं प्रत्येकशरीरं - बादरपृथिव्यादिसम्बन्ध्येव भवति । तस्यैव इयं पृथिवी, इदं जलमित्यादिव्यवहारविषयत्वात् । कथं ? 'सई'ति । सकृद् एकवारमपि भवेत्, येषां भव्यानां ते व्यावहारिकभव्याः, शेषाः - निगोदाः सूक्ष्मपृथिव्यादयश्च व्यवहारबाह याः - अव्यावहारिकाः । सम्मतिस्तु 'इह द्विविधा जीवा' इत्यादिरूपेण प्राक् प्रदर्शितैवेति गाथार्थः ॥ ८७॥
अथाऽभव्यजीवाः सांव्यवहारिका उताऽसांव्यवहारिका वा १ इत्याशंकायामाह -
तेणं अभव्यजीवा, ण हुंति ववहारमाश्वयविसया | ते पुण पडिवडिआणं, अनंतभागो अ सव्वेवि ॥ ८८ ॥ व्याख्या - येन कारणेन व्यावहारिकाः उत्कर्षतोऽप्यावलिकाऽसंख्येयभागपुद्गलपरावर्तकालान्नियमेन सिद्धिगतिगामिनो
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व्याख्यान विधि
भवन्ति, तेन कारणेनाऽभव्यजीवाः सांव्यवहारिकादिवचोविषयाःसांव्यवहारिकादिव्यपदेशविषया न भवन्ति । ते पुनरभव्याः सम्यक्त्वप्रतिपतितानामनन्ततमभागवर्तित्वेन सर्वकालं भव्यानामिव व्यवहारित्वभवनासम्भवात् । ननु भो ! व्यावहारिकत्वमपि सर्वजीवसाधारणमेवोक्तम् । यदुक्तं
'सर्वे जीवा व्यवहार्य-व्यवहारितया द्विधा । - सूक्ष्मनिगोदा एवान्त्यास्तेभ्योऽन्ये व्यवहारिणः ॥१॥इति योगशास्त्रवृत्तौ । तेनाऽभव्या अपि भव्यवद् भवन्त्विति चेत् । मैवं, तत्र भव्यानधिकृत्यैव सर्वशब्दप्रयोगात् । ननु भो ! एवमपि 'सूक्ष्मनिगोदा एवाऽन्त्या' इति भणनेन बादरनिगोदजीवा व्यवहारिणो भणिताः । एवं च (व्यवहारराशितोऽपि) बादरनिगोदजीवेभ्यः सिद्धाः अनन्तगुणा एव सम्पद्य रन् । यावन्तो यस्मिन् समये सिद्ध्यन्ति तावन्त एव तस्मिन्नेव समये अव्यवहारराशितो व्यवहारराशावागच्छन्ति । यदाह श्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रमण:
'सिझति जत्तिया किर, इह संववहारजीवरासीओ। इंति अणाइबणस्सइ-रासिओ तत्तिया तम्मि ।१त्ति विशेषणवत्यां। तथा च संसारो भव्यविरहितस्तदानीमेवाभविष्यत् । सूक्ष्मनिगोदजीवानामपि बादरनिगोदजीवेभ्योऽसंख्येयगुणत्वात् । भणितंच-सर्वकालेनापि एकस्य निगोदस्यानन्ततमभागो जीवाः सेत्स्यन्तीति । यदुक्तं-'जइआ होहिइ पुच्छा' इत्यादि प्रागुक्तमिति परस्पराऽसंगतिः स्फुटैवेति चेत् । मैवं, सूक्ष्माश्च
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निगोदारचेती तरेतरद्वन्द्वकरणे असंगतिदोषगन्धस्याप्यभावात् । एतच्च प्रज्ञापनासूत्रवृत्त्यभिप्रायेण प्राक् समर्थितमपि । सम्यग्जिज्ञासुभिः सैव वृत्तिः सम्यक् पर्यालोच्या । अयं भावः - व्यवहारित्वं प्राप्यापि केचिज्जीवाः तथाभव्यत्वयोगेन व्यक्तमिथ्यात्वं वा सम्यक्त्वं वाऽवाप्य क्रियावादित्वाभिव्यञ्जक क्रियाकारिणो भवन्ति । क्रियाकरणं हि क्रियावादित्वजन्यं भवति, न क्रियाजन्यं क्रियावादित्वं क्रियावादित्वमन्तरेण तद्व्यंजकनाना क्रियाकरणे सामर्थ्याभावात । एवं यथोक्तसंसारस्थितिरपि न क्रियाजन्या, न वा सम्यक्त्वजन्या । किन्तु एकपुद्गलपरावर्तावशेषसंसारस्य जीवस्य क्रियाकरणयोग्यतायां सत्यां कस्यचिन्मोक्षप्राप्त्यभिप्रायेण क्रिया भवति, कस्यचिच्च न भवति । प्राप्तव्यशुभाशुभ गत्यनुसारेण कालादिसामग्रीजन्यकारणभूतायाः क्रियायाः सम्पत्तेः। एवमपार्द्धपुद्गलपरावर्त्ताविशेषसंसारस्य जीवस्य सम्यक्त्वप्राप्तियोग्यतायां सत्यां तथाभव्यत्वयोगेन कस्यचित् सम्यक्त्वलाभो भवति, कस्यचिच्च नेति । अन्यथा क्रियाकरणानन्तरं सम्यक्त्वप्राप्यनन्तरं च एकपुद्गलपरावर्तः अपार्द्धपुद्गलपरावर्तश्च संसारः क्रियावादिनां सम्यग्दृशां च नियमेन भवेत् । क्रियाकरणात् सम्यक्त्व प्राप्तेश्च पूर्वमजातत्वात् तयोर्जातयोश्च जातत्वात्, एतच्च न सम्भवति, मरुदेवी मेघकुमारादौ व्यभि चारात् । तेषां क्रियाकरणसम्यक्त्व प्राप्त्योरभावेऽपि अल्पसंसारस्य जातत्वात् । तस्माद्यथाप्रवृत्तकरणसहकृतेन प्रत्यात्मनिष्ठ भिन्नभिन्न [व] तथा भव्यत्वयोगेन सञ्जातयथोक्तसंसारो भवति । स च
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व्याख्यानविधि
तथाभूतः क्रियाकरणं सम्यक्त्वप्राप्तिं चाधिकृत्य सर्वकालं स्वरूपयोग्यताया अधिकरणं भवति । फलोपहितयोग्यतायास्तु अधिकरणं कदाचिदेव भवति, तथाभव्यत्वयोगेन कालादिसामग्र याः कादाचित्कत्वात् । एवं क्षायोपशमिकसम्यक्त्वं तदपगमश्च कस्यचित्तथाभव्यत्वयोगेन एकद्व यादिक्रमेण यावदसंख्येयवारानपि सम्यक्त्वप्राप्तिर्भवति । 'असंखवारा खओवसमे'त्तिवचनात् । सम्यक्त्वापगमे च मिथ्यात्वं पंचानामन्यतरदेव स्यात् । तत्र कारणं तावन्मुख्यवृत्त्या तथाभव्यत्वमेव । तच्च कालादीनां पंचानां मध्ये जीवस्वभावविशेष एव मन्तव्यः । परं मिथ्यात्वेप्वपि आगाढमिथ्यात्वं असदग्रहवतामेव भवति। निश्चयतोऽसद्ग्रहे च सति मार्गानुयायि कृत्यमपि न भवति, सहानवस्थानात् । यदागमः-'मग्गाणुसारित्ति । असग्रहपरित्यागेनैव तत्त्वप्रतिपत्तिर्मार्गानुसारितेति वन्दारुवृत्तौ । अत एवासद्ग्रहः सम्यक्त्वप्राप्तिप्रतिबन्धको मन्तव्यः । स चाभिग्रहिकाभिनिवेशिकयोस्तीव्रत्वेन समानोऽप्याभिनिवेशिकस्य तीव्रतरः, सर्वा शैः शद्धत्वात् । तच्च जैनेऽप्यजैनत्वेन श्रद्धानादिति गाथार्थः ।। ८८ ॥ अथाऽभव्यानां सांव्यवहारिकत्वाभावहेतुसूचिको गाथामाहजं चिअ अज्जप्पभिई, संजायं तं अणंतखत्तो वि। तह तं भविस्सइ पुण, ण होइ सिं जेण ते थोवा ॥८६॥
व्याख्या-यद्-वस्तुजातं, अद्यप्रभृति सजातं, चिअ एवार्थे व्यवहितः सम्बध्यते, तदेव अनन्तकृत्वोऽनन्तशः, अपिरेवार्थे,
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अनन्तश एव सञ्जातं । तत्तथैव-तेनैवप्रकारेण पुनरनन्तश एव भविष्यति । यदागमः-०००००००
एतच्च 'सिं'ति । तेषामभव्यानां न सम्भवति, येन कारणेन ते-अभव्याः, स्तोकाः-परिमिताः, सम्यक्त्वप्रतिपतितानामनन्ततमभागवर्तित्वात् । तेषां चानाद्यपर्यवसितं व्यवहारित्वभवनं न सम्भवति । अत एव ते अभव्या न व्यवहारिणो, नाप्यव्यवहारिणो। किन्तु व्यवहारित्वादिव्यपदेशबाह या इति तात्पर्यमिति गाथार्थः ॥ ८९ ॥ __ अथाऽभव्यानां मिथ्यात्वं किं कीदृशं भवति ? इति दर्शयतिमिच्छत्तं पुण तेसि, अणभोगं मंदमवि अ अणवरयं । तिव्वं पि संसयाई, ण होइ जं साइसंतं च ॥६॥ ___व्याख्या-मिथ्यात्वं पुनस्तेषामभव्यानामुपलक्षणाद् भव्यानामप्यव्यवहारिणां च मन्दमप्यनवरतं-सर्वकालीनं निरन्तरमनाभोगमेव मिथ्यात्वं भवति । तस्यैव अनाद्यपर्यवसितत्वात् । सांशयिकादिकं च तीवमपि तेषां न भवति । तत्र हेतुमाहयद्-यस्मात्, व्यक्तमिथ्यात्वं सादि-आदिमत्, सान्तं च-सपर्यवसितं च, तचाभव्यानां न सम्भवति, किन्तु भव्यानामेवेति तात्पर्यम् । एतेनोत्कटमिथ्यात्वमनाभोगरूपमेव, अनन्तपुद्गलपरावर्तसंसारस्थितिहेतुत्वादिति मुग्धकल्पनापि परास्ता । अनाभोगमिथ्यात्वस्य संसारस्थितिहेतुत्वाभावात् । नयव्यवहारिणो जीवा अनाभोगमिथ्यात्वेन संसारस्थितिभाजो भवन्ति, सत्यप्यनाभोगे व्यवहारित्वभवनात् । अत एवानाभोगमिथ्यात्वस्य
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व्याख्यान विधि
सम्यक्त्वप्राप्तेरप्रतिबन्धकत्वेन भणितिः । यदाह श्रीहरिभद्रसूरिः-यथाऽस्य भगवतो नाममात्रमप्यजानानाः प्रकृत्यैव भद्रका ये भवन्ति, ततश्च मार्गानुसारिणः सदन्धन्यायेन अनाभोगतोऽप्यस्य वचनानुसारेण प्रवर्तन्ते । तानप्येवंविधाननल्पविकल्पान् लोकान् एष कर्मपरिणामो महानरेन्द्रो यद्यपि संसारनाटके कियन्तमपि कालं नाटयति तथापि सदागमस्याभिप्रेता इति मत्वा अधमपात्रभावं नारकतिर्यक्कुमानुषकदमररूपं तेषां न विद्यते इति उपमितिभवप्रपञ्चायां । अनाभोगमिथ्यात्वं चाव्यक्तमिथ्यात्वं गुणस्थानकवृत्तावुक्तमवसातव्यम् । अत एवानाभोगे मिथ्यात्वे वर्तमाना जीवाः न मार्गगामिनो, न वोन्मार्गगामिनो भण्यन्ते । अनाभोगमिथ्यात्वस्यानादिमत्त्वेन सर्वेषामपि जीवानां निजगृहकल्पत्वात् । लोकेऽपि निजगृहे भूयः कालं वसन्नपि न मार्गगामी, नवोन्मार्गगामीति व्यपदिश्यते, किन्तु निजगृहान् निर्गतः समीहितनगराभिमुखं गच्छन्मार्गगामी, अन्यथा तून्मार्गगामीति व्यपदिश्यते । एवं च तथा भव्यत्वयोगेनानादिमिथ्यात्वान्निर्गतो यदि जैनमार्गमाश्रयते तदा मार्गगामी, जैनमार्गस्यैव मोक्षमार्गत्वात् । यदि च शाक्यादिदर्शनं जमाल्यादिदर्शनं वाश्रयते, तदोन्मार्गगामीति व्यपदिश्यते । तदीयदर्शनस्य संसारमार्गत्वेन मोक्षं प्रत्युन्मार्गभूतत्वात् । यदागमः
'कुप्पवयणपासंडी, सव्वे उम्मग्गपट्टिआ।
सम्मग्गं तु जिणक्खायं, एस मग्गो हि उत्तमे ॥ १ ॥ ति।। उत्त० २३ । अत्र हि कापिलेयादिकुदर्शनतिन एवोन्मार्ग
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तया भणिताः, तेषामेवोन्मार्गोपदेशकत्वेन लोकानामुन्मार्गभूतत्वात् । अत एव भणितं
'सेसा मिच्छदिट्टी, गिहिलिंग-कुलिंग-दवलिंगेहिं ।।
जह तिणि उ मुक्खपहा, संसारपहा तहा तिण्णि ।।१॥ त्ति उपदेशमालायां। अत्र गृहिलिङ्गिनो ब्राह्मणा मन्तव्याः, तेषामेवोन्मार्गभाषकत्वेन तथात्वादिति गाथार्थः ।। ९० ।। ____ अथ प्रसङ्गतो व्यक्तमिथ्यात्वेष्वपि किं मिथ्यात्वं कुतो मिथ्यात्वान्मन्दं तीव्र वा भवतीति विवेकेन परिज्ञानाय गाथामाहसंसइअमणभिगहिरं, अभिगहि अभिणिवेसिअं कमसो। अणुष्णविवावाए, मन्दाइअ जाव तिव्वतमं ॥६१॥
व्याख्या-सांशयिक १मना भिग्रहिक २माभिग्रहिक ३माभिनिवेशिकं४ चेति क्रमश:-क्रमेणान्योन्यविवक्षया मन्दं १ तीव्र २ तीव्रतरं ३ तीव्रतमं ४ च भवेदित्यक्षरार्थः ।
भावार्थः पुनरेवं-सांशयिकादीनां देव-गुरु-धर्मविषयकव्यक्तचेतनामूलकत्वेन साम्येऽपि अनाभिग्रहिकाद्यपेक्षया मन्दं सांशयिक, सांशयिकापेक्षया चानाभिग्रहिकं तीव्र, ततोऽप्याभिग्रहिक तीव्रतरं, ततोऽप्याभिनिवेशिकं तीव्रतम, सर्वोत्कृष्टमिथ्यात्वरूपत्वात् । मिथ्यात्वं च अदेवादिषु देवत्यादिना संज्ञायत्त्वात् । तच्चैवं-सांशयिक हि जैनप्रवचनं सम्यग नवेति संशयात्मकं मन्दमिथ्यात्वम् । ततश्च सर्वाण्यपि दर्शनानि शोभनानीत्यादिरूपमनाभिग्रहिकं तीन, तस्याभिग्रहिककल्पत्वात् । यदुक्तं
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व्याख्यान विधि
'सुनिश्चितं मत्सरिणो जनस्य, न नाथ ! मुद्रामतिशेरते ते । माध्यस्थ्यमास्थाय परीक्षका ये, मणौ च काचे च समानुबन्धाः ॥ १ ॥ इति द्वात्रिंशिकायां । ततश्चाभिग्रहिकं तीव्रतरं, अयं जैनो मार्गों न सम्यग , वेदबाह्यत्वात् शुद्रपाण्डिकधर्मत्वाच्चेति जैनरूपेण मार्गविषयकद्वेषमूलकत्वात् । ततोऽप्याभिनिवेशिकं तीव्रतमं, तद्व्यञ्जकं तु जिनवचनानामननुवादित्वमेव । तच्च प्राक प्रदर्शितमिति गाथार्थः ॥ ९१ ॥ - अथाभिनिवेशिमिथ्यादृष्टिप्वपि नागपुरीयलौम्पकोऽल्पश्रुतवतां दुरधिगम्य इति मत्वा तदीयस्वरूपं किञ्चिद्विशेषतो व्यक्तीक्रियते-- तत्य विक्ष अभिणिवेसी, णागपुरिअलंपगो हि दुरहिगमो। अप्पसुआणं सिं जे, वयणविरोहं ण याणंति ॥ १२ ॥
व्याख्या-तत्रापि-व्यक्तमिथ्यात्वेष्वपि, धर्मधर्मिणोः कथंचिदभेदात् नागपुरीयलौम्पकः अभिनिवेशी तेषामल्पश्रुतानां दुरधिगमः-दुःखेनाधिगमो-ज्ञानं यस्य स तथा । तेषां केषां ? ये वचनविरोधं अहं मौनीत्यादिवद्वदव्याघातं न जानन्ति, तेषां दुरधिगम्य इत्यर्थः। हिरेवार्थे। दुरधिगम्य एवेति गाथार्थः ।।९२।। ___ अथ तेषां मूलप्ररूपणापि निजवचनविरोधिनीति दर्शयन्नाहसवण्ण वि जिणिदो, णिअयं णिण्णइ ण उण इअरपि । एवं तम्मयमूल-परूवणा पावकम्मुदया ।। ६३ ।।
व्याख्या-सर्वज्ञोऽपि जिनेन्द्रोऽर्हन् नियतं-अवश्यभावि
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शतकम् ।
१०५
वस्तु, निर्णयति इदमित्थमेव भावीति निर्णयं भणति, न पुनरितरदप्यनियतमपि अनवश्यभाव्यपि । एवमुक्तप्रकारेण तन्मते - नागपुरीयलौम्पकमते, मूलप्ररूपणा - प्रक्रिया रूपत्वेनाऽऽदिप्ररूपणा, कुतः १, पापकर्मोदयात् तीव्रमिथ्यात्वमोहनीय कर्मोदयात् । तत्कथं ? इति चेद्, उच्यते यदि सर्वज्ञः कथमनियतं न निर्णयति ? यदि च न नियति कथं सर्वज्ञ १ इति वचनविरोधं, अहं मौनीत्यादिवन्न जानातीति गाथार्थः ॥ ९३ ॥
।
अथोक्तप्रकारेण न वाणोऽपि जिनो यथा सर्वज्ञो भवति
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न भवति च, तथा दर्शयन्नाह
जर णिअयमणिअयं वा, एगसहावेण सव्वया हुज्जा । ता अरिहा सव्वण्ण, अण्णह णिअमाण सव्वन्नू ॥ ९४ ॥
व्याख्या - यदि नियतमनियतं वा वस्तु एकस्वभावेन सर्वदा सर्वकालं भवेत्, 'ता' - तर्हि, अर्हन् सर्वज्ञो भवेत्, याथार्थेन परिज्ञानात् । अन्यथा यदि च कदाचिदप्यनियतं सन्नियतं भवेत्, तर्हि तदपरिज्ञानात् सर्वज्ञो न भवेत् नियमात् निश्चयेन, भूतानां भाविनां (भवतां ) भूयमानानां च पदार्थानामेकतरस्याप्यज्ञाने सर्वज्ञत्वहानिस्तवापि सम्मति गाथार्थः ॥ ९४ ॥
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अथायुरधिकृत्य तदीयकल्पनामाहणिरुवकमसोवकम-मेएहिं दुविहमाअं होइ | पढमं णिअयमणिअयं, बियंति विगप्पिअं तेण ॥ ९५ ॥ व्याख्या- निरुपक्रमसोपक्रमलक्षणौ यौ भेदौ, अर्थाद्विशेषणभूतौ, ताभ्यामायुर्द्विविधं भवति - निरुपकमायुः सोपक्रमायुश्चेति ।
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व्याख्यान विधि
तत्र प्रथम-निरुपक्रमायुर्नियतं, सोपक्रमायुश्च द्वितीयमनियतमायुरिति तेन-प्रकृतलौम्पकेन विकल्पितमिति गाथार्थः ॥ ९५ ॥ ____ अथ प्रकृतलौम्पकमुखेनैव केवलिनः सर्वत्रापि निर्णय एवं भवतीति व्यवस्थापनार्थ लौम्पकमेव प्रश्नविषयीकुर्वन्नाहणणु सोवकमाउ-स्सुवक्कमा जिणवरेण विणाया। जइ ता तंपि अणिण्णेइ, अण्णहा व सम्वन्नू ॥ ९६ ॥
व्याख्या-ननु भो लौम्पक ! सोपक्रमायुषो ये उपक्रमाः प्रत्यायुभिन्ना भिन्ना एव भवन्ति । ते च यदि जिनवरेण-तीर्थकृता, विज्ञाता-विशेषेण प्रत्यायुभिन्नस्वरूपेण ज्ञाता-अवगताः, 'ता'तर्हि, तदपि-सोपक्रमायुरपि निर्णयति, अन्यथा-विज्ञानाऽसम्भवात, सर्वज्ञो नैव भवेत-न भवेदेवेत्यर्थः । अस्ति च सर्वज्ञस्त्वयापि तथैवाभ्युपगमात् । किंच-उपक्रमाणामज्ञाने इदं सोपक्रमायुरिति विशिष्टज्ञानमेव न स्यात् । विशिष्टज्ञानस्य विशेषणज्ञानजन्यत्वादिति गाथार्थः ॥६६॥
अथोद्दिष्टस्थ लौम्पकस्य भ्रान्तिकारणमाहजइ-ता-सहन्भंतो, संसयवयणं वइज्ज मूढमणां । अमुणंतो ताणत्थं, कप्पिअप्रत्येण भंतिकरो ॥ ९७ ।।
व्याख्या-यदि-तर्हिशब्दाभ्यां भ्रान्तो-व्यामूढः मिथ्याखोपहतावबोध इति यावत् । संशयवचनं वदेत् मूढमना-मूर्खः यदि-तर्हिशब्दयोर्वक्तुः संशयं भाषते 'ताणार्थ ति तयोर्यदि-तर्हिशब्दयोरर्थमभिधेयमजानानः कल्पितार्थेन-निजमतिविकल्पितार्थकरणेन, भ्रान्तिकरो-भ्रमोत्पादकः मुग्धश्रोतगामिति गम्यं ।
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शतकम्
अयं भावः-यदि सोपक्रमायुष्कस्य पुरुषस्योपक्रमो मिलिष्यति, तर्हि मृत्युमाप्स्यति, नान्यथेति । यथा यद्ययं धर्म करिष्यति, तर्हि सुखी भविष्यतीति, वक्तुः संशयमन्तरेण तथा प्रयोगाऽसम्भवादिति तस्याभिप्राय इति गाथार्थः ॥ ९७ ॥ ___ यथोक्तप्रकारेण कल्पना भ्रान्त्यैवेति भ्रान्तिसमर्थनाय यदितर्हिशब्दयोरभिधेयमाहजम्हा जइ-तासद्दा, णिआमगा कज्जकारणाणमिहं । अण्णय-वइरेगेहि, लोअपसिद्धं ति विष्णेअं ॥ ९८ ।। ___व्याख्या-तस्मादेव भ्रान्तिः, यस्मात् कारणात् इह-जगति यदि-तहिंशब्दौ कार्यकारणानां-कार्यकारणभावसम्बन्धानां, नियामको-निश्चायको भवतः, काभ्यां १ अन्वयव्यतिरेकाभ्यां 'सति सद्भावोऽन्वयोऽसत्यसद्भावश्च व्यतिरेक' इत्येवंरूपाभ्यां, यथा-यदि मृत्पिण्डदण्डकुलालादीनि सामग्री स्यात्तर्हि घटोत्पत्तिः स्यात, तदभावे च न स्यादेवेत्येवं प्रकृतेऽपि बोध्यम् । अन्यथा यदि सावधाचार्य उत्सूत्रं नाऽवक्ष्यत्तर्हि अनन्तकालं संसारे नाऽभ्रमिप्यदित्यादिप्रयोगानुपपत्तिप्रसक्तेः । तत्र सन्देहाऽभावात् । एवं चानेकधा प्रयोगा भवन्तीति लोकप्रसिद्धं विज्ञ यमिति गाथार्थः ।। ९८ ॥
अथोद्दिष्टलौम्पकं दूषयितुं प्रथमं जैनप्रक्रियामाहकालाइपंचजणि, सव्वं कज्ज हविज्ज जिणसमए , तत्थ य एगा णिअई, सेसचउक्कं अणिअइत्ति ॥१६॥
व्याल्या-कालादिपंचजनितं, आदिशब्दात् स्वभावादयो
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१०८
व्याख्यान विधि
ग्राह्याः। तथा च काल १ स्वभाव २ नियति ३ पूर्वकृत ४ पुरुषकार ५ लक्षणाः पंच, तैर्जनितं सर्व कार्य जिनसमये-जिनशासने भवेत् । यदुक्तं'कालो१ सहाबोर णिअई ३, पुवकयं४ पुरिसकार५ णेगंता । ___ समवाए सम्मत्तं, एगंते होइ मिच्छत्तं ॥१॥ सम्मतिसूत्र । तत्र एका नियतिः, शेषचतुष्कं तु अनियतिरिति गाथार्थः ।९९।
अथ परमतं दूषयन्नाहतेहिं जणि कज्जं, णिअयाणिअयं जिणेण पण्णत्तं । तं चिअ णिअया भिष्णं, अणिअयमेवं महामोहो ॥१०॥
व्याख्या-ताभ्यां-नियत्यनियतिभ्यां जनितं कार्य-कार्थमात्रं, नियतानियतं जिनेन प्रज्ञप्तं तं चित्ति । तदेव नियताद् भिन्नमनियतं भवतीति । एवं महामोहो-मिथ्यात्वमोहो मन्तव्य इति गाथार्थः ।। १०० ॥ ____ अथ पुनरपि परविकल्पमाहजंणिअयं तमणिअयं, ण होइ एग विरुद्धधम्मेहिं । जं सीअं तं उसिणं, किं केण सुअं व दट्ट वा ? ॥१०१॥
व्याख्या—यन्नियतं तदनियतं न भवति । किमेकं विरुद्धधर्माभ्यां-नियतत्वानियतत्वाभ्यां विरोधात् । तत्र दृष्टान्तमाहयत् शीतं-शीतस्पर्शाधिकरणं, तदुष्णं-उष्णम्पर्शाधिकरणं, किं केनापि दृष्टं श्रुतं वा ? नेतीति गाथार्थः ॥ १०१ ॥
अथ शीतोष्णस्पर्शयोरिव नियतत्वानियतत्वयोः सामानाधिकरण्यं न भवतीत्येवं कल्पनायाः मूलकारणमाह
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१०६
काल-णय-कारणाणं, भिण्णाभिण्णस्सरूवममुणंतो। अविरोहं पि वइज्जा, विरोहमण्णाणमाहप्पा ।। १०२ ।।
व्याख्या-कालश्च नयाश्च कारणानि चेतीतरेतरद्वन्द्वः । तेषां भिन्नाभिन्नस्वरूपमजानानः-कालादीनां भेदेनाभेदेन च वस्तूनां स्वरूपं भिन्नं भवति नवेति परिज्ञानशून्य इत्यर्थः । अविरोधमपि विरोधं वदेत् । कुतोऽज्ञानमाहात्म्यात्-मिथ्यात्वमोहनीयोदयसहकृतं यदज्ञानं तद्विपरीतावबोधेन कुत्सितज्ञानमज्ञानं, नञः कुत्सार्थत्वात्, ततः । अत एव क्रोधादिसर्वपापादज्ञानं महापापं । यदुक्तं
'अज्ञानं खल भो कष्टं, क्रोधादिभ्योऽपि सर्वपापेभ्यः ।
यस्माद्वितमहितं वा, न वेत्ति येनाऽऽवृतो लोकः ॥ १ ॥ इति । अयं भावः-कालनयकारणानां भिन्नत्वेन सामान्याधिकरण्येऽपि न विरोधः, तथाहि कालभेदेन शीतोष्णस्पर्शयोरपि सामान्याधिकरण्यं भवत्येव । य एव तामसाः परमाणवः, त एव तेजस्तया परिणमन्ते । य एव तेजसाः परमाणवस्त एवं तमस्तया परिणमन्ते इति वचनात् । तत्र तामसाः परमाणवः शीतलाः, तेजसाश्चोष्णाः इति सर्वसम्मतं । एककालीनयोस्तु शीतोष्णस्पर्शयोः सामानाधिकरण्यं न भवत्येव, कालभेदजन्यं परिणामान्तरमन्तरेण विरोधात् । तथा नयभेदेन विरोधाभावो, यथा-यदेव वस्तु द्रव्यार्थिकनयापेक्षया नित्यं, तदेव पर्यायार्थिकनयापेक्षया अनित्यं, सर्वेषामपि पदार्थानां द्रव्यत्वेन तादवस्थ्येऽपि पर्यायाणां प्रतिसमयं भिन्नत्वात । अत एव जैनानां दीपा
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व्याख्यान विधि
दिव्योमपर्यन्ताः पदार्थास्तुल्या एव भवन्ति । यदाह श्रीहेमचन्द्रसूरिः
'आदीपमाव्योम समस्वभावं, स्याद्वादमुद्रानतिभेदि वस्तु ।
तन्नित्यमेवैकमनित्यमन्यदिति त्वदाज्ञां द्विषतां प्रलापाः ।। इति द्वात्रिंशिकायां । विरोधस्तु द्रव्यार्थिकनयाभिप्रायेण पर्यायार्थिकनयाभिप्रायेण वा नित्यमनित्यं च बदतोऽवसातव्यः । एवं भिन्नकारणजन्यत्वापेक्षया विरोधोऽपि न भवत्येव । यतो जैदानां मते सर्वमपि कार्य कालादिपञ्चसमवायजन्यं भवति । तत्रैका नियतिस्तजन्यत्वाऽपेक्षया सर्वमपि कार्य नियतं, नियतिव्यतिरिक्तकालादिचतुष्टयजन्यत्वाऽपेक्षया अनियतं, नियत्यनियत्योः कारणभूतयोभिन्नत्वेन तदुभयजन्यत्वाऽपेक्षया सर्व कार्य नियतानियतं भवति । तेन नियतत्वानियतत्वयोः सामान्याधिकरण्ये वक्तव्ये विरोधगन्धोऽपि न भवति । भवति च विरोधो नियत्याऽनियत्या वा जन्यं सर्व कार्य नियतानियतमिति वदतः। तत्र दृष्टान्तस्तु पितृत्वपुत्रत्वविशिष्टः पुरुषः । स च निजपितृजन्यत्वाऽपेक्षया पुत्रः, निजपुत्रजनकत्वाऽ पेक्षया च पितेति न विरोधः। भवति च विरोधः निजं पितरं पुत्रं वा अधिकृत्य पितृत्वपुत्रत्वयोः सामान्याधिकरण्यं वदतः । अथवा मातापितृजन्यः पुत्रोऽपि दृष्टान्तो बोध्यः । परं कालादिपञ्चसमवायजन्यत्वेन साम्येऽपि मुख्यवृत्तिमधिकृत्य पंचानामपि अनियमेन विवेकव्यपदेशो भवति, यथा-कर्मणामुदीरणा पुरुषकारेणैव भवतीति व्यपदेशः । यदागमः-'जं तं भंते ! अप्पणा
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चेव उदीरेति, अप्पणा चेव संवरेति' त्ति । भग० श० १ उ०३ । वृत्त्येकदेशो यथा-'इह यद्यप्युदीरणादौ कालस्वभावादीनां कारणत्वमस्ति, तथापि प्राधान्येन पुरुषवीर्यस्यैव कारणत्वमुपदशयन्नाह-'जं तमित्यादि व्यक्त'मिति विशेषो बोध्य इति थार्थः ।। १०२ ॥
अथोक्तार्थाभिधायिकामागमसम्मतिमाहबीअंगे पुण एवं, सुत्ते वित्तीइ जुत्तिपुब्बंपि । जं भणियं तंपि इहं, पसंगओ दंसिअं अं॥ १०३ ॥ ___ व्याख्या-द्वितीयाङ्ग-सूत्रकृदङ्गनाम्न्यङ्ग, पुनःशब्दः पूर्वसङ्गतिद्योतनार्थः । एवं-प्राकप्रदर्शितमेव सर्व वस्तु पंचसमवायजन्यत्वेन नियतानियतं, न पुनः किंचिन्नियतं किंचिच्चानियतमिति विवेकेन भणनं तद्वदित्यर्थः । क्व ?, सूत्रे वृत्तौ च युक्तिपूर्वमपि-युक्तियुक्तमित्यर्थः । यद् भणितं तदपीह प्रकरणे प्रसङ्गतः-प्रागुक्तस्य लौम्पकविशेषस्य परिज्ञानार्थमित्यर्थः । सूत्रोक्तमेवानूक्तमित्यर्थः इति ज्ञयं-ज्ञातव्यं । अथ सूत्रोक्तस्य दिग्दर्शनं त्वेवं-'एवमेआणि जंपंता, बाला पंडिअमाणिणो । "णिअयाणिअयं संतं, अयाणंता अबुद्धिआ ।। १ ।। इति श्री सूत्रकृदङ्ग ऽध्य ० १, उ० २ । वृत्त्येकदेशो यथा-'एवमित्यनन्तरोक्तस्योपदर्शने । 'एतानि' पर्वोक्तानि नियतवादाश्रितानि वचनानि जल्पन्तोऽभिदधतो बाला इव बालाः--सदसद्विवेकविकला अपि सन्तः पण्डितमानिन:-आत्मानं पण्डितं मन्तं शीलं येषां ते तथा, किमिति ते एवमुच्यन्ते ? इति तदाह-यतो 'णि
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व्याख्यान विधि
अयाणिअयं संतं' ति। सुखादिकं किंचिन्नियतिकृतं-अवश्यभाव्युदयप्रापितं तथा अनियतं-आत्मपुरुषेश्वरादिप्रापितं सत्नियतिकृतमेवैकान्तेनाश्रयन्ति, अतोऽजानानाः सम्यग सुखदुःखादिकारणं, अबुद्धिकाः-बुद्धिरहिता भवन्तीति । तथाहिआहेतानामित्यादि यावत् तदेवं नियत्यनियत्योः कर्तृत्वेन युक्त्युपपन्ने सति नियतेरेव कर्तृत्वमभ्युपगच्छन्तो निर्बुद्धिका भवन्तीत्यवसेयम् । अत एव 'एगमेगे उ पासस्था' इत्यादि पुरोवर्तिसूत्रस्य व्याख्याने 'सर्वस्मिन्नपि वस्तुनि नियतानियते सतो'ति भणितमिति सूक्ष्मदृशा सूत्रकृदङ्गस्य वृत्तिरेव सम्यग पर्यालोच्येति गाथार्थः ॥ १०३ ॥
अथ प्रकृतप्रकरणस्य निगमनमाहएवं खल सुत्तत्थं, सम्म सुणिउण सम्मदिट्ठीहिं । णे तित्थगरेहि, भणिअमिणं ति सुबुद्धीए ॥ १०४ ॥
इति सूत्रव्याख्यानविधिशतकसूत्रं समाप्तम् । ___ व्याख्या-एवं-प्रागुक्तप्रकारेण, सूत्रार्थ-सूत्रव्याख्यानं, सम्यक् श्रुत्वा सम्यग्दृष्टिभिज्ञेयं, कया १, इह सूत्रार्थकरणं तीर्थकृर्भिणितमिति बुद्ध्या ज्ञेयं 'सुत्तत्थो खलु पढमो' इत्यादिरूपेण सूत्रव्याख्यानं तीर्थकृभिर्भणितमिति श्रद्धेयमिति तात्पर्यमिति गाथार्थः ॥ १०४ ॥ । इति सूत्रव्याख्यान विधिशतकस्य वृत्तिः समाप्तेति भद्रमिति ।
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आगमोद्धारक ग्रन्थमालाना प्रकाशनो। 1. सर्वज्ञशतक सटीक महोपा०श्रीधर्मसागरजीकृत पत्राकारे 3.00 2. सूत्रव्याख्यानविधिशतक बुकाकारे 2.00 3. धर्मसागर ग्रन्थसंग्रह 2 2.50 (श्रीमहावीरविज्ञप्तिद्वात्रिंशिका-षोडशश्लोकी महावीरजिनस्तोत्र) 4. औष्ट्रिकमतोत्सूत्रदीपिका " 1.00 5. तात्त्विकप्रश्नोत्तराणि आगमोद्धारककृत पत्राकारे 7.50 6. आगमोद्धारककृतिसंदोह प्रथमविभाग 4.50 द्वितीयविभाग 1.87 तृतीयविभाग 1.00 चतुर्थविभाग , प्रेसमा 10. षोडशकजीपर आगमोद्धारकश्रीनां व्याख्यानो भागबीजो अने आगमोद्धारकश्रीनी बे कृतिओ सानुवाद बुकाकारे 2.75 11. कुलकसंदोह श्रीपूर्वाचार्यकृत , 0.75 12. संदेह समुच्चय श्रीज्ञानकलशसूरिनिर्मित, 0.75 13. जैन स्तोत्र संचय प्रथमविभाग 1.00 14. द्वितीयविभाग " 1.50 8. 5 प्राप्तिस्थानो१-श्री जैनानन्द पुस्तकालय, सुरत, गोपीपुरा / २-श्री सरस्वती पुस्तक भंडार अमदाबाद ठे० रतनपोल हाथी खाना। For Private And Personal Use Only