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॥ श्रीजिनाय नमः ॥
(साग्वयगूर्जरभाषांतरसहीतं च) ॥ श्रीसुरसेनमहासेनचरित्रम् ॥
(मूळकर्ता-वर्षमानसूरी) अन्वय सहीत भाषांतर कर्ता तथा छपावी प्रसिद्ध करनार पंडित हीरालाल हंसराज.
आ ग्रंचना अन्वय तथा भाषांतरना प्रसिद्ध कर्ताए सर्व हक स्वाधिन राख्या छे. सने १९२९.
मूल्य क.०-८-० Printed st Juin Biskutoday Printing PressJAMNAGAR
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सूरसेन चरित्रं
॥
१
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॥ श्रीजिनाय नमः ॥
11 सान्वय ॥ अथ श्रीसूरसेनमहासेनचरित्रं प्रारभ्यत ॥
भाषांतर (मूलकर्ता-श्रीवर्धमानसूरिः) अन्वय सहित गुजराती भाषांतर कर्ता पंडित श्रावक हीरालाल हंसराज (जामनगरवाळा) रोद्रातधी-शस्त्रदान-पापशिक्षा-प्रमादिताः । अनर्थदण्डस्तच्यागः स्यात्तृतीयं गुणवतम् ॥ १॥
अन्यय:-रीत आर्त धी शस्त्र दान पाप शिक्षा प्रमादिताः, अनर्थ दंडः, तत् त्यागः तृतीय गुण व स्मात् ॥१॥ अर्थः-रौद्रध्यान, आर्तध्यान, शखो आपा, अने पापकार्योनो उपदेश, तथा प्रमादपणुं, ए अनर्थ दंड छे, तेओनो जे त्याग करवो, ते श्रीजु गुणत्रत कहेवाय. ॥१॥ अनर्थदण्डवोरामत्रतधोरा महोदयम् । लभन्ते शुभसंभारभासुराः सुरसेनवत् ॥२॥ अवयः-अनर्थ दंड वीराम व्रत धीराः, शुभ संभार भासुराः सुरसेनवत् महोदयं लभते. ॥२॥
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सूरसेन
चरित्रं ।। २॥
SONASHIKARI
ट्री अर्थः-अनर्थदंडविरमण नामना व्रतनुं (पालन करवामां) धैर्यवाळा, तथा पुण्यना समूहथी देदीप्यमान थयेला मनुष्यो सुर-पा सान्वय सेननीपेठे म्होटो उदय पामे छे. ॥ २॥
भाषांतर तथाहि देवपूजोद्यद्गन्धान्धैर्मधुपैर्मुहुः । गीतप्रशस्तिरस्ति श्रीबन्धुरा बन्धुरा पुरी ॥३॥
॥२॥ ___अन्वयः-तथाहि-देव पूजा उद्यत् गंध अंधैः मधुपैः मुहुः गीत प्रशस्तिः, श्री बंधुरा बंधुरा पुरी अस्ति. ॥ ३ ॥
अर्थः-ते मूरसेनमहासेननुं उदाहरण कहे छे-जिनपूजामां बेहेकी रहेली सुगंधिमां आसक्त थयेला भमराओए वारंवार गायेली रछे प्रशंसा जेनी, तथा लक्ष्मीथी मनोहर ययेली बंधुरानामनी नगरी छे. ॥ ३ ॥
श्रीवीरसेन इत्युग्रवीरसेनाशिरोमणिः । वृत्तः पवित्ररश्यामस्तस्यामजनि भूधवः ॥४॥ ___ अन्वयः-तस्पां उग्र वीर सेना शिरः मणिः, पवित्रैः वृतैः अश्यामः श्री वीरसेनः इति भूधवः अजनि. ॥४॥ अर्थ:-ते नगरीमा प्रचंड मुभटोना सैन्यनो मालिक, तथा निर्मल आचरणोथी उज्ज्वल श्रीवीरसेननामनो राजा हतो. ॥ ४॥
अन्तरारिप्रहारेषु धर्मकाण्डाद्भुतौ सुतो। सुरसेनमहासेनो तस्याभूतामुभी शुभो ॥ ५॥ ___ अन्वयः-तस्य अंतर अरि प्रहारेणु धर्म कांड अद्भुतौ, सुरसेन महासेनौ उभौ शुभौ मुतौ अभूतां. ॥ ५॥ | अर्थः–ते राजाने (कषायोरूपी) अंतरंग शत्रुओने मारवामां धर्मरूपी बाणोवडे आश्चर्य करावनारा, सुरसेन अने महासेननामना
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सान्वय भाषांतर
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सूरसेन वे उत्तम पुत्रो हता. ।।५।। चरित्रं
उपमानोपमेयत्वमभिधानाभिधेयता । रूपे च साहचर्य च व्यचार्यत तयोर्जनैः ॥ ६॥
अन्वयः-तयोः रूपे च साहचर्ये च उपमान उपमेयत्वं, अभिधान अभिधेयता जनः व्यचार्यत. ॥६॥ ॥३॥
अर्थः-तेओना रूपमाटे तथा सहचारीपणामाटे (परस्पर) उपमा तथा उपमेयपणाने, अने अभिधान तथा अभिधेवपणाने लोको मनमां धारण करता हता. ॥ ६॥ दृशो सदवलोकेषु बाहू मोहादिमर्दने । चरणो सच्चरित्रेषु तो धर्मस्य व्यराजताम् ॥७॥
अन्वयः-सदवलोकेषु धर्मस्य दशौ, मोह आदि मर्दने वाहू, सत् चरित्रेषु चरणी तो पराजता. ॥ ७॥ अर्थः-उत्तम कार्योने अथवा सज्जनोने जोवामां धर्मनी बन्ने आंखोसरखा, मोह आदिकनो नाश करवामां चे हाथसरखा, तथा उत्तम आचरणोमां वे पगोसरखा, ते बन्ने कुमारो शोभता हता. ॥ ७ ॥ अजायत रसज्ञायामन्येयुः श्वयथुः पृथुः । अकस्माद्विस्मयकरो महासेनस्य दुःसहः ॥८॥
अम्बय:-अन्येयु: महासेनस्य रसज्ञायां पृथुः, विस्मयकरः, दुःसह श्वयधु: अकस्मात् अजायत. ॥ ८॥
अर्थः-एकदिवसे ते महासेनकुमारनी जिहामां, विस्तीर्ण, आश्चर्यकारक तथा न सहन थइ शके एवो सोजो अकस्मात् उ13ात्पन्न थयो..॥ ८॥
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मूरसेन
21 सान्वय
भाषांतर
चरित्रं
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उपशान्त्ये व्यधुवेद्या यद्यदोषधमुच्चकैः । ववृधे तेन तेनापि जिह्वाशोफः स लोभवत् ॥ ९॥
अन्वयः-उपांत्वे वैद्याः यत् यत् औषध उच्चकैः व्यधुः, तेन तेन अपि सः जिहा शोफः लोभक्त वडवे. ॥९॥ अर्थः-तेनी शांतिमाटे वैधोए जे जे औषध अति उयमथी को, ते ते औषधी पण निडानो ते सोजो लोभनीपेठे वृद्धि पामया लाग्यो. ॥९॥ औषधं धर्म एवास्य युक्तमित्युक्तयस्ततः । तं वैद्या मुमुचुनिःस्वं भुजंग गणिका इव ॥ १०॥
अन्वया-अस्य औषधं धर्मः एव युक्तं, इति उक्तयः वैद्याः, गणिकाः निःस्वं भुजंग इव, तं मुमुचुः ॥ १० ॥ अर्थ:-आनेमाटे हवे धर्मरूपी औषधज योग्य के, एम कहीने कैयोए, वेश्याको जेम निर्धन आशकने तजी दे, तेम तेने तजी दीपों. (अर्थात वैषो निराश थइ चाया गया.) ॥१०॥ कमेण कुधिता तस्य रसज्ञा राजजन्मनः । मक्षिकाणामनिर्वारसत्रागारत्वमाययौ ॥ ११ ॥
अन्वयः-क्रमेण तस्य राज जन्मनः कृथिता रसना, मलिकाणां अनिर्वार सत्र आगारवं आयपी. ॥ ११ ॥ अर्थः-अनुक्रमे ते राजपुवनी सही गयेली जिहा, मक्षिकात्रो माटे अटकावरहित दानशालापणाने प्राप्त थइ, ( अर्थात् घणी मक्षिकाभो तेमे हेरान करका लागी.) ॥११॥
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सूरसेन
चरित्रं
BRETRENDINESHRISHABHAR
उग्रदुर्गन्धभूः कान्तापितृमातृभिरप्यसो । चण्डालपाटक इवावगैर्दूरादमुच्यत ॥ १२ ॥
सान्वय अन्वयः-अवगैः चंडाल पाटकः इव, उग्र दुर्गंध भूः असो, कांता पित मातृभिः अपि दूरात अमुच्यत. ।। १२ ।।.
भाषांतर अर्थःचटेमार्गुभो जेम कसाइवाडाने दूर छोटी दीये तेम भपंकर दुर्गपना स्थानरूप एवा ते राजकुमारने (तेनी) स्त्रीए तथा मातापिताए पण दूर तजी दीधो. ॥ १२ ॥ तं तथाभूतमुद्भाव्य भ्रातृस्नेहवशंवदः। दुर्गन्धं दुःसहं जित्वा सुरसेनः समीपगः ॥१३॥ रोगोऽसौ यावदस्यास्ति न किंचित्तावदाहरे । म्रियते यद्यनेनैष म्रियेऽनशनतस्ततः ॥१४॥ इति न्यविशत भ्रातुरग्रेस दृढनिश्चयः।वीजयन्वसनान्तेन मक्षिका मुखपातिनीः॥१५॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥ __ अन्वयः-तयाभूतं तं उद्भाच्य भ्रातृ स्नेह वशंवदः सुरसेनः दुःसहं दुर्गधं जित्वा समीपगः, ॥ १३ ॥ यावत् अस्य असौ रोगः अस्ति, तावत् किंचित् न आहरे, यदि अनेन एषः म्रियते ततः अनशनतः निये, ॥१४ ।। इति दृढ निश्चयः सः मुख पातिनीः मलिकाः वसन अतेन वीजयन् भ्रातुः अग्रे न्यविशत. ॥ १५॥ त्रिमिर्विशेषकम् ।।
अर्थ:-ए रीतनी दुर्गधथी तेने एकाकी पडेलो जाणीने भाइना स्नेहने वश धयेलो ते सुरसेन ते दुःसह दुर्गधनी दरकार कर्क विना तेनी पासेज बेसवा लाग्यो, ॥ १३ ॥ तथा ज्यांसपी आनो आ रोग छे, त्यां मुधी मारे कई पण खावू नथी, अने कदाच आ रोगथी ते मरी जाय, तो मारे पण अनशन करीने मरी जवं, ॥१४ ॥ एवो दृढ निश्चय करीने ते मुखमां पढती माखीओने |31
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मूरसेन चरित्रं
सान्वय भाषांतर
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GARACTECORRECORAT
बखना छेदाथी उडाटतोथको भाइनी पासेज बेसी रहेवा लाग्यो. ॥ १५ ॥ त्रिभिर्विशेषकं ।। नमस्काराख्यमन्त्रेणाभिमन्त्र्य प्रासुकं पयः । तं मुहः स्मारयंश्चास्य सिषेच रसनामसौ ॥ १६ ॥
अन्वयः-असौ नमस्कार भाख्य मंत्रेण मासुकं पयः अभिमंत्र्य, मुहुः तं स्मारयन् अस्य रसनां सिषेच. ॥१६॥ अर्थ:-वळी ते सुरसेनकुमार नवकारनामना मंत्रथी पासुक जल मंत्रीने, तथा वारंवार ते नवकारमंत्रनु स्मरण करावतोयको तेनी जीवाने (ते जलवडे) सींचवा लाग्यो. ॥ १६ ॥ सेके सेके व्यथाशान्तिर्विशेषं समजायत । कमात्तस्य क्षुधार्तस्य कवले कवले यथा ॥ १७॥
अन्वय:-क्षुधा आर्तस्य यथा कवले कवले, (तथा) सेके सेके क्रमात् तस्य विशेष व्यथा शांतिः समजायत. ॥१७॥ अर्थः-श्रुधाथी पीडित बयेला मनुष्यने जेम कोळीए कोळीए शांति थाय छे, तेम (ते जलना) सिंचनथी अनुक्रमे तेने विशेष प्रकारे व्याधिनी शांति धवा लागी. ॥१७॥ निर्व्यथं निर्बणं नीरुग्निर्गन्धं च सुगन्धि च । मुहूर्तात्तन्मुखं जज्ञे क न धर्मः प्रभावभाक् ॥ १८॥ ___ अन्वयः-मुहूर्तात् तत् मुखं निबंध, निर्बण, नीरुक्, च निर्गध, च सुगंधि जज्ञे, धर्मः क प्रभाव भारु न? ॥१८॥
अर्थः-(एरीते) एक मुहूर्तजेटला समयमांज तेनुं मुख व्याधिरहित, चांदारहित, निरोगी, दुर्गधविनानु, अने सुगंधि ययु, केमके का धर्म क्या प्रभावशाली नथी होतो? ।। १८॥
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सूरसेन
सान्वय भाषांतर
चरित्र
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ट्रा धर्मेणास्तः स रोगः श्राग्मुक्तो वैद्यगणेन यः। भानुच्छेयं तमश्छेत्तुं खद्योताः क किल क्षमाः ॥१९॥
__अन्वयः-यः वैद्य गणेन मुक्तः, सः रोगः श्राग् धर्मेण अस्तः, भानु च्छेयं तमः छेत्तुं किल खद्योताः क्व क्षमाः ? ॥ १९ ॥ अर्थः-जे रोगने वैद्योना समूहे तजी दीपो, ते रोगने तुरत धर्मे नष्ट कर्यो, केमके मूर्यथी नष्ट थनारा अंधकारने छेदवाने खरेखर पतंगीयांओ क्याथी समर्थ थइ शके? ।। १९ ।' राहमुक्तं रविमिव प्राप्तपर्वच्छविच्छटम् । तं रोगमतं वीक्ष्याभल्लोकः सोऽपि सोत्सवः ॥ २० ॥
अन्वयः-राहु मुक्तं रवि इव, रोग मुक्तं तं प्राप्त पूर्वच्छवि छटं वीक्ष्य सर्वः अपि लोकः सोत्सवः अभूत् ॥ २० ॥ अर्थः-राहुथी मुक्त थयेला सूर्यनीपेठे, रोग रहीत थयेला ते राजकुमारने पूर्वनी पेठे शरीरनी (मनोहर) कांतिवाळो जोइने सर्व कोइ मनुष्यो आनंदित थया. ॥ २० ॥ विशेषतस्ततस्तारे धर्मभारे सहोदरी । तो बभूवतुरुद्भासी शरदीवेन्दुभास्करी ॥ २१ ॥
अम्बयः-ततः तौ, सहोदरी, शरदि इंदु भास्करौ इच तारे धर्मभारे विषेषतः उदासी बभूवतुः ॥ २१ ॥ अर्थः-पछी ते बन्ने भाइओ शरदऋतुमां चंद्र अने मूर्यनीपेठे मनोहर जैनधर्म धारण करवामां विशेष प्रकारे तेजस्वी थया. ॥ श्रीभद्रबाहुराचार्योऽवधिज्ञानमधिष्ठितः। कदापि तत्पुरोद्यानं यामिवेन्दुरभूषयत् ॥ २२ ॥
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सूरसेन चरित्र ॥८॥
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भाषांतर
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__ अन्वयः-कदापि अवधि ज्ञान अधिष्ठित: श्रीभद्रबाहुः आचार्यः, इन्दुः या इच तत् पुर उद्यानं भभूषयत् . ॥ २२ ॥
अर्थः-(एवामां) एक दिवसे अवधिज्ञानवाला श्रीभद्रबाहुनामना आचार्य, चंद्र जेम आकाशने, तेम नगरीना उद्यानने विभूपित करवा काग्या. ॥ २२ ॥
प्रदक्षिणात्रयेणोपभ्रेमतुर्नेमतुश्च तम् । उपविश्य ततो धर्मदेशनां पपतुश्च तौ ॥ २३ ॥ ' अन्वयः-ततः तौ तं प्रदक्षिणा त्रयेण उपभ्रेमतुः, च नेमतुः, च उपविश्य धर्मदेशनां पपतुः ॥ २३ ॥ अर्थः-पछी ते बन्ने भाइओए आचार्यमहाराजने त्रण प्रदक्षिणा करी, वांया, तथा (त्यां) बेसीने (तेमनी) धर्मदेशनानु पान कर्यु. (अर्थात् तेमनो धर्मोपदेश सांभळ्यो.) ।। २३ ॥
सुरसे सुरसेनेन निपीते देशनामृते । अपृच्छयत गुरुर्धातरसनारोगकारणम् ॥ २४ ॥ ___अन्वयः-सुरसेनेन सरसे देशना अमृते निपीते, गुरुः भ्रातृ रसना रोग कारणं अपृच्छचत. ॥ २४ ॥
अर्थः-(पछी) ते सरसेने उत्तमरसवालुं देशनारूपी अमृत पीधाबाद गुरुमहाराजने (पोताना) भाइनी जिड़वाना रोगनुं कारण पूछयु. ॥ २४ ॥ सच प्रवचनक्षीरार्णववीचीनिभं वचः । उपाददे भवदवोद्भवक्लेशहरं गुरुः ॥ २५॥
अन्वयः-च सः गुरुः प्रवचन क्षीर अर्णव बीची निभं भव दव उद्भव क्लेश हरं वचः उपाददे.॥ २५ ॥
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सूरसेन
चरित्रं
॥ ९॥
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अर्थः-त्यारे ते गुरुमहाराज आगमोरूपी क्षीरसमुद्रना मोजां सरतु, तथा संसाररूपी दावानलथी उत्पन्न थयेलां कष्टने हरनाएं वचन बोल्या के, ॥ २५ ॥
भृभृषाभृतमाहूतपुरुहूतपुरप्रभम् । पुरं मणिपुरं नाम विद्यते विश्वविश्रुतम् ॥ २६ ॥
अन्वयः - भू भूषा भूतं, आहूत पुरुहूत पुर मर्म, विश्व विश्रुतं मणिपुरं नाम पुरं विद्यते ॥ २६ ॥ अर्थः- पृथ्वीना अलंकारसरखु, तथा इंद्रनी नगरीनी कांतिने धारण करना, अने जगतमां प्रख्यात मणिपुर नामनुं नगर छे. तस्मिन्करमलितारानिवदनो मदनो भटः वभूव भगवद्धर्मसुधाम्बुधिसुधाकरः ॥ २७ ॥
अन्वयः - तस्मिन् कश्मलित अराति वदनः, भगवत् धर्म सुधा अंबुधि सुधाकरः मदनः भटः बभूव ॥ २७ ॥ अर्थः— ते नगरमां ज्ञांखां करेल हे शत्रुओना मुखो जेणे, तथा जिनेश्वरमनुना धर्मरूपी अमृतना महासागरने (बृद्धिपमा वामां) चंद्रसरखो मदननामनो सुभट (रहेतो) हतो. ॥ २७ ॥
तुल्याकृती तुल्यशक्तो तुल्यार्थो तुल्यतेजसो । धीरवीराभिधौ तस्य सुतो जातो भुजाविव ॥ २८ ॥
अन्वयः तस्य भुजौ इव तुल्य आकृती, तुल्य शक्ती, तुल्य अर्थी तुल्य तेजसौ, धीर वीर अभिधौ सुतौ जातौ ॥ २८ ॥ अर्थ :- तेना बने हाथनीपेठे, सरखा आकारवाळा, सरखां बळवाळा, सरखी समृद्धिवाळा, अने सरखां तेजवाळा धीर अने वीरनामना बे पुत्रों थया ।। २८ ।।
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জইনজ। ৬
सान्वय भाषांतर
॥ ९ ॥
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सान्वय
मूरसेन चरित्र
भाषांतर
॥ १० ॥
॥१०॥
ACAAKAARA.
जिनप्रवचनवादानन्दामन्दसुधारसो । तौ भवाहिभुवा ग्रस्तौ न मोहविषमूर्छया ॥ २९ ॥ ___ अन्यवः-जिन प्रवचन स्वाद आनंद अमंद सुधा रसौ ती, भव अहि भुवा मोह विपमूठया न ग्रस्तौ. ॥ २९ ।।
अर्थः-जैन आगमोना स्वादना आनंदरूपी अति अमृतरसमा मग्न थयेला एवा तेश्रो संसाररूपो सर्पथी उत्पन ययेली मोहरूपी विषनी मूर्छाथी ग्रस्त था नही. ॥ २९ ॥ कदाप्येतो गतावात्मोद्याने दहशतुर्मुनिम् । स्वमातुलं वसन्ताख्यं पुंवृतं पतितं भुवि ॥ ३०॥
अन्वयः-कदापि आत्म उपाने गती पती वसंत आरू स्त्र मातुलं मुनि पुरा भुवि पतितं दहशतुः ।। ३० ।। अर्थः-एक वखते पोताना बगीचामां गयेला एवा तेओ बन्नेए वसंत नामना पोताना मामा मुनिराजने पुरुपोथी वींटायेला तथा पृथ्वीपर पडेला जोया ॥ ३०॥ किमभूत्किमभृदेतदिति व्याकुलचेतसि । धोरेऽथ पृच्छति पुमानेकस्तत्राश्रुमुग्जगो ॥ ३१ ॥
अन्वयः-अथ कि अभूत् ? किं अभून ' इति व्याकुल चेतसि धीरे पृच्छति, तत्र एक' पुमान अश्रुमुन् जगौ. ॥ ३१ ॥
अर्थः-पली (अरे!) आ शुं थयु ? शु थयु? एम ब्याकुल हृदयथी धीरे पूउवाथी, सां एक माणसे आंखोमां आंसुओ लावी का कधु के, ॥ ३१॥
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मूरसेन
चरित्रं
॥। ११ ॥
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प्रतिमास्यमिमं साधुं दवैको दुष्टपन्नगः दुर्गे नृपापराची प्रविष्टोऽस्मिन्महाविले ॥ ३२ ॥ अन्वयः - प्रतिमास्थं इमं साधुं दष्ट्वा एकः दुछ पन्नग, नृप अपराधी दुर्गे इव अस्मिन् महाचिले मविष्टः ॥ ३२ ॥ अर्थ :- काउसमां उभेला आ साधुने दंश मारीने एक दुइ सर्प, राजानो गुन्हेगार जेम किल्लामां भराइ बेसे, तेम आ म्होटां बिलमां भराइ बेठो छे. ॥ ३२ ॥
अथ मातुलमोहेन कुधा धीरानुजोऽभ्यधात् । रे रङ्काः किमसौ नश्यन्नहिः पापी हतो न हि ॥ ३३ ॥ अन्वयः - अथ मातुल मोहेन धीर अनुजः कुधा अभ्यधात् रे रंका ! असौ न पापी अहिः हि किं न हतः ? ।। ३३ ।। अर्थः- (त्यारे) मामाना मोहथी ते धीरना न्हाना भाइ वीरे क्रोधथी क के, अरे नामदों ! ते नाशी जता पापी सर्पने खरेखर (तमोए) केम मारी न नाख्यो ? ।। ३३ ।।
धीरस्तमभ्यधात्सर्पे गते जोवति कर्मतः । हहा महात्मन्कि पापं मुधा बघ्नासि जिह्वया ॥ ३४॥
अन्वयः- - धीरः तं अभ्यधात् हहा ! महात्मन् ! कर्मतः सर्वे जीवति गते सुधा जिह्वथा पापं किं बध्नासि ? ॥ ३४ ॥ अर्थः-त्यारे धीरे तेने कछु के, अरे ! भलामाणस ! कर्मयोगे ते सर्प जीवतो चाल्यो गयो छे, हवे फोकट जीमथी शामाटे (तुं) पाप बांधे छे ? ॥ ३४ ॥
कुपाभ्यधीत वीरोऽपि दुष्टे दष्टमहामुनी । तस्मिन् हतेऽपि धर्मः स्याद्धतिवाचा कपातकम् ॥ ३५ ॥
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सान्वय
भाषांतर ।। ११ ।।
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मूरसेन चरित्र
॥ १२ ॥
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अन्वयः-वीरः अपि क्रुधा अभ्यधीत, दष्ट महामुनौ तस्मिन् दुष्टे हते अपि धर्मः स्यात्, हति वाचा पातकं क्य? ॥ ३५ ॥
सान्वय अर्थः-(त्यारे) ते वीरे पण क्रोधरी कछु के, जेणे (आबा) महामुनिराजने दंश मार्यों छे, एवा ते दुष्ट सर्पने मारवाथी तो धर्म
भाषांतर हा थाय, (तेने) मारवानी फक्त वात करवायीज वळी पाप क्या वळगी जबानुं इतुं ॥ ३५ ।। क्षत्रधर्मो ह्ययं साधुपालने दुष्टनिग्रहे । इत्यसत्यं यदि ततो मजिह्वामेतु पातकम् ॥ ३६॥
॥ १२॥ अन्वयः-भत्र हि साधु पालने, दुष्ट निग्रहे क्षत्र धर्मः, इति यदि असत्य, ततः मत् जिहां पात एतु. ॥ ३६॥ अर्थः-आ जगतमा खरेखर साधुओचं पालन करवू, अने दुशोनो नाश करवो, ए क्षत्रिओनो धर्म छे, जो ते वात असत्य होय, तो भले मारी जिह्वाने पाप बलगी जाय ॥ ३६॥ धीरस्त्वचिन्तयन्वाचं तस्यापारकृपारसः । यतीन्द्रं जीवयामास मणिमन्त्रौषधीबलात् ॥ ३७॥
अन्वयः-धीरः तु तस्य बाचं अचिंतपन अपार कृपा रसः मणि मन्त्र ओषधी बलात् यति इन्द्रं जीवयामास. ॥ ३७॥ । अर्थः-धीरे तो तेना वचननी दरकार कर्यां विना अत्यंत कृपारसमां मग्न थइने, मणि, मन्त्र तथा औषधीओनां बलथी ते मुनिराजने जोवाड्या. ॥ ३७॥ यतीन्द्रजीवनात्धीर्ति महानन्दस्य वर्णिकाम् । धारयन्तो भटस्यैतो सुती सर्वजनस्तुती ।। ३८ ॥ पालयन्तो शुभं धर्म ज्वालयन्ती च पातकम्।क्षालयन्तौ च कीर्त्या स्वं सुचिरं तो ननन्दतुः ३९ युग्मं 131
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सूरसेन चरित्रं
भाषांतर
॥१३॥
CARROREKACTER
अन्वयः-यतींद्र जीवनात महानंदस्प वर्णिकां प्रीतिं धारयंती, सर्व जन स्तुतौ, भटस्य एतौ मुतौ ।। ३८ ।। शुभं धर्म पालपती, ट्रा | च पातकं ज्वालती, च कीर्त्या स्वं झालयंती. तो मुचिरं ननंदतुः ।। ३९ ॥ युग्मं ।
अर्थ:-ते मुनिराजने जीवादवाथी महान् आनंदना नमुनारूप प्रीतिने धारण करता, तथा सर्व लोकोची प्रशंसा पामेला, सुभटना | ते बन्ने पुत्रो, ॥३८ ।। मनोहर धर्म पालताथका, तथा पापोने बालता थका, अने कीर्तिवडे पोताना आत्माने निर्मल करताथका तेभो घणा काळ सुधी समृद्धि पाम्या. ॥ ३९ ॥ धीरः कमेण पूर्णायुः सुरसेन भवानभूत् । अनालोचितताहग्वाग्वोरस्त्वेष तवानुजः ॥४०॥
अन्वयः-(हे) सुरसेन ! क्रमेण पूर्णायुः धीर: भवान् अभूत, अनालोचित ताग वाग वीरः तु एषः तव अनुजः ॥ ४०॥ भर्थ:-हे सुरसेन ! अनुक्रमे आयु संपूर्ण थयावाद धोरनो जीव तुं थयो, अने तेवां वचननी आलोचना नही करीने वीरनो जीव आ नारो न्हानो भाइ थयो छे. ॥ ४०॥ असाध्यः सर्ववैद्यानामनवद्यौषधीविदाम् । सर्पप्रहतिवापापाजिह्वारोगोऽस्य जातवान् ।। ४१ ॥
अन्वयः-अनवध ओषधी विदां सर्व वैद्यानां असाध्यः अस्य जिहवा रोगः सर्प पहतियाक पापात जातवान, ।। ४१ ॥
अर्थः-(बळी) निर्मल औषधीओने जाणनारा एवा सर्व वैद्यो पण जेनो उपाय न करी शक्या, एवो आ महासेनने जीभनो रोग 3|| सर्पने मारवाना वचनना पापथी थयो हतो. ॥ ४१ ।।
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सूरसेन || यतिसंजीवनादेव लब्धरुग्भङ्गलब्धिना । निरासि रसनारोगो महासेनस्य स त्वया ॥ १२ ॥
सान्वय ला अन्वयः-यति संजीवनात् एव लम्ध रुग् भंग लन्धिना त्वया महासेनस्य सः रसना रोगः निरासि. ॥ ४२ ॥
भाषांतर अर्थ.-मुनिने जीवाडबाथीज प्राप्त ययेल छे रोगो मटाडवानी लधि जेने, एवा ते महासेननो ते जीभसंबंधी रोग दूर कर्यो. ४२ | ॥ १४ ॥
शा॥१४॥ इति ज्ञात्वा स्ववृत्तान्तं जातजातिस्मृती तदा । सुरसेनमहासेनौ भवातों भेजतुर्बतम् ॥ ४३ ॥ ___ अन्वयः-इति स्व वृत्तांत ज्ञात्वा जात जाति स्मृती सुरसेन महासेनौ तदा भा आतों व्रतं भेजतुः ।। ४३ ॥
अर्थः-एवीरीतनुं पोतानुं वृत्तांत जाणीने थयेल छे जातिस्मरण ज्ञान जेओने, एवा ते सुरसेन अने महासेने तेज बखते संसा| रथी वैराग्य पमीने दीक्षा लीधी. ॥४३॥
व्रतं व्रततिवत्सिक्त्वा तो चारुचरितामृतैः ॥ धर्मप्रसून मुक्तिफलं कालादबापतुः ॥४४॥ ___ अन्वयः-तौ व्रततिवत् व्रतं चारु चरित अमृतैः सिक्त्वा कालात धर्म प्रमूनर्ज मुक्ति फल अवापतुः ॥ ४४ ॥
अर्थ:-पछी तेओ बन्ने वेलडीनीपेठे ते चारिखने मनोहर आचरणोरूपी अमृतवडे सींचीने, समय आव्ये धर्मरूपो पुष्पमाथी 2 उत्पन्न बयेला मुक्तिरूपी फलने प्राप्त थपा. ॥ ४४ ॥ 20] सुरसेनमहासेनदृष्टान्तेनामुना जनाः । अनर्थदण्डं दुःखोघहेतुं त्यजत दूरतः ॥ ४५ ॥
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-हे लोको! आ सुरसेन तथा महासेनना दृष्टांतथी दुःखोना समूहना कारणरूप अनर्थदंडने दूरथीजतनी आपो? ॥४५॥
॥ एरीते अनर्थदंड वतना संबंधमां सुरसेन महासेननी कथा कही. ॥ ॥ इति अनर्थदंडविरमणवतमाहात्म्योपदर्शने सुरसेनमहासेनचरित्रं समाप्तं ॥ श्रीरस्तु॥ आ चरित्र श्रीवासुपूज्यचरित्रनामनामहाकाव्यमांथी स्वपरनाश्रेयने माटे तेना अन्वय तथा गुजराती भाषांतर करी जामनगर निवासी पंडित श्रावक हीरालाल हंसराजे पोताना
श्रीजैनभास्करोदय प्रीन्टींग प्रेसमा छापी प्रसिद्ध कथु छे ॥ श्रीरस्तु ॥
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