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॥श्री परमात्मने नमः॥ ॥ तपोगच्छनभोनभोमणिभट्टारकपरमपूज्याचार्य
श्रीमटिजयनेमिसूरीश्वरपरिमचरणाम्भोज गायमाणानुयोगाचार्यपन्यास
श्रीमदुदयविजयगणिशिष्यमुनि "नन्दनविजय" विरचितः
॥स्तोत्रभानुः ।।
मान- FUNथी समोर
स.
FGC
राजनगरवास्तव्य. शेठ, लालभाई भोगीलाल
इत्येतस्य द्रव्यसाहाय्येन. राजनगर (अगदावाद )स्थजैनबन्धप्रकाशकसभायाः
कार्यवाहक शा. वाडीलाल बापुलाल इत्यनेन
पाकाश्यं नीतः अमदावाद-श्री जैन एडवोकेटमुद्रणालये शा. चीमनलाल गोकळदास इत्यनेन मुद्रितः भव ५००,
सचे १९१६. मूल्य ०-२-०.
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प्रस्तावना.
प्रिय सज्जनो ? आज आपना करकमलमां आ देवगुरुस्तवनामय स्तोत्रभानु नामर्नु लघुपुस्तक अर्पण करवामां आवेछे, आ पुस्तकती रचनाकरनार जगद्विख्यातभारतमेदिनीमार्तण्डसर्वतन्त्रविद्यावैभषचमत्कृतविद्वन्मण्डलमहामहिमाशाली अमेयगुणनिधानभट्टारकर्ष तपोगच्छाधिराज श्री श्री १००८ श्री आचार्यमहाराज श्री यनेमिसूरीश्वरजीमहाराजना प्रशिष्य अने सिद्धान्तादिना भिशदर्शनप्रभावक अनुयोगाचार्य पन्न्यासजीमहाराजश्री उद जीगणिना शिष्यरत्न पूज्यपाद श्रीमान् नन्दनविजयजी म. तेओसाहेबजी, संसारीपणामां, सौराष्ट्रदेशमां भावनगर प्रान्तम। दशहेरना घतनी हता दशा श्रीमाल वणिग्शतिीय शा. हेमचंद जीना कुलदीपक पुत्ररूपे रत्नकुक्षिणी माता जमनाघाइनी जन्मधारण कर्यो हतो.
तेओश्रीने प्रव्रज्यापर्यायने लगभग प्रण वर्ष थयाछे, ते संसारीपणाना पिता, माता, वडीलबन्धु विगेरे तेओने वन्द सादरी मुकामे गया हता तेओ तेओनी उत्तम प्रकारनी वैने दशा तथा शानादिगुणो देखी अत्यन्त आनन्द पास्या हतास उत्तम जीवोने धन्यवाद घटेछे.
ग्रन्थकर्ता महात्माए लख्युछे के अमारी नवीन कृतिमां अब अलंकार तथा कल्पना विगेरे कांइपण नही देखाय तोपण प्रभु तिनी प्रेरणाथी रचवामां आवेली मारी आ रचनामां जो काइप स्खलना जणाय तो ते सज्जनपुरुषो क्षमा करशे, अने हुं पण ते संबंधे मिथ्यादुष्कृत दउँछु.
प्रियपाठको? शुद्धिमां दृष्टिदोषथी या मुद्रणदोषथी जे भूलो रही होय ते सुझो क्षमा करशे.
निवेदकजैनप्रन्थप्रकाशकसभाना कार्यवाहक वाडीलाल पापुलाल शाह.
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॥ श्रीपरमात्मने नमः ||
॥ श्रीमद्गुरुपादेभ्यो नमः ॥
विद्यापीठादिप्रस्थानपञ्चकाराधकस्वपरागमपरिशीलनावाप्तापूर्वेदम्प र्यचिन्तामणिप्रभूतशीलप्रभावचारित्रचूडामणितपोगच्छनभोनभोमणिभट्टारकपरमपूज्याचार्य
श्रीमद्विजयनेमिसूरिपवित्रचरणाम्भोजभृङ्गायमाणानुयोगाचार्यपन्यास
श्रीमदुदयविजयगणिशिष्यमुनि' नन्दन विजय" विरचितः ॥
॥ स्तोत्रभानुः ॥
( वसन्ततिलका )
तीर्थाद्यमीशममरेन्द्रनरेन्द्रनम्यं
भव्यात्मनां परुषपापतमः पतङ्गम् ऐक्ष्वाकमाद्यमधिपं जिनसङ्घचन्द्रमानन्त्यकेवलपतिं सततं नमामि ॥१॥ स्याद्वादवारिधिविधुर्नरदेववन्द्यः सारङ्गलक्षणधरो भविपुष्करार्कः ॥ मुक्त्यङ्गनासुखरतो जिन शान्तिनाथो
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(२)
भव्यश्रिये भवतु पापवनीकृशानुः ॥२॥ कृत्वा तपोनिचयमाशु मुदाप्तमुक्तिं तं कर्मपङ्कजहिमं शमवारिराशिम् ॥ शुद्धप्रबोधजलधिं यदुवंशकेतुं वन्दे समुद्रविजयाङ्गजमाप्तवर्यम् ॥३॥ ज्ञानश्रियं भवसरित्पतिपोतमध्यं संमोहकुञ्जरहरिं जगदीश्वरेन्दुम् ॥ धैर्येण मेरुसदृशं भृशमाश्वसेनिं वामाङ्गजातमुरगाङ्गमहं स्वीमि ॥४॥ क्षीराब्धिवारिकलशैर्मरुदङ्गनौधैः सुस्नापितं भवगदागदमर्कभासम् ॥ जन्मप्रवाहचितकर्मबलारिवीर
नित्यं जगज्जनविभुं प्रणमामि वीरम् ॥५॥
( शार्दूलविक्रीडितम् )
नानाकर्मरजोऽनिलं प्रकटितस्याद्वादशास्त्रामृतं सेव्यश्री जगदीशवीरममरव्यूहाभिनम्यं सदा ॥ प्राप्तज्ञानदिवाकरं सुखकरं मुक्तिप्रियाया वरं नित्यं नौमि मुनीश्वरं गणधर श्री गौतमस्वामिनम् ॥ १ ॥ सन्मान्यं सुखदायिनं ततयशोदीर्घापगं भूतल
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इष्टार्थामरशाखिनं व्रतसरश्चकाङ्गमिन्दर्चिषम् ।। शिष्यव्यूहसुसेवितं. मदरिपोर्जेतारमानन्ददं वन्देऽहं मुनिराजवृद्धिविजयं शान्तामृताब्धि सदा॥२॥
(शिखरिणी) गुणवातावासं कुमुदपतिभासं प्रतिवरं तरीतारं भावं भवजलधिनावं सुखकरम् ॥ सदा श्रीसङ्घन्दीवरदिनकर सन्नतमहं स्तुवे श्रीसूरीशं मुनिभशशिनं नेमिविजयम्॥१६॥
(वसन्ततिलका) श्रीवीरशासनदिवाकरनेमिसूरि--- पट्टोदयाद्रिकमलप्रिययोगिनाथम् ॥ सिद्धान्तविज्ञमहमातमुनित्वरत्नमासन्नमुक्तिमुदयं प्रणमामि नित्यम् ॥१॥ ॥श्रीचतुर्विंशतिजिनचैत्यवन्दनानि ॥.
॥आदिनाथचैत्यवन्दनम् ॥
( शार्दूलविक्रीडितम् ) यद्ध्यानेन नरा निरन्तरसुखं मोक्षं लभन्तेऽचिर एन्नामस्मरणेन सर्वदुरितं. याति प्रदूरं द्रुतम् ॥
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यन्मूर्तेरभिदर्शनेन नयने शान्ताऽमृतं पाप्नुतो भव्यानामभयाय सोऽस्तु सततं नाभेय आदीश्वरः॥१॥ कृत्वा योऽखिलकमंगाढजलदं दूरं तपोवायुना प्राप्य ज्ञानरविं ददर्श सकलं लोकस्वरूपं भृशम् ॥ गत्वाष्टापदमाप्तबन्धुरपदो नष्टाखिलापत्तिक ऐक्ष्वाको वृषलक्षणो विजयतामादिप्रभुस्सर्वदा ॥२॥ प्रापुः पारमपारजन्मजलधेर्यद्धर्मसन्नौकया प्राप्स्यन्ति प्रमुदाप्नुवन्ति भविनोऽनेके विशुद्धं वरम्॥ विश्वेशानमहं जिनेन्दुमनिशं शान्त्यालयं सुन्दरं दिव्यानन्दनदीपतिं यतिपतिं तं मारुदेवं स्तुवे ॥३॥
॥ अजितनाथचैत्यवन्दनम् ॥
(तोटकम् ) जगतीभविनामघपद्महिम दृढमोहमहागजकेसरिणम् ॥ अजितं सततं जिनचन्द्रमहं प्रणमामि विभुं नृसुरप्रणतम् ॥१॥ भवकर्मखलानभिजित्य बलादसमाचलमाप पदं रुचिरम् ॥ स विभुः प्रवरोऽभयरोपकरो
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(५)
मतिदो वरदोऽस्तु सदोदयदः ॥ २ ॥ जगतां प्रभुतां भवितारकतां भविता लविता भववल्लिवनम् ॥ सुतपश्चरिता शिवमातनुर्ता जितशत्रुसुनन्दन आप्तवरः ॥३॥
॥ श्रीसम्भवनाथचैत्यवन्दनम् ॥ (अनुष्टुब्)
प्रगाढपारमानेता, दुस्तरस्य भवोदधेः ॥ कामितानि प्रदत्ते यद्धर्मः कल्पतरूपमः ॥१॥ चारुपोतं भवाम्भोधौ, विश्वनाथं तमीश्वरम् ॥ यस्य वागमृतं पीत्वा - क्षयं यान्ति पदं जनाः ॥२॥ श्रुताम्भोजसरोवर्य, सत्सङ्घातविधुं विभुम् ॥ सर्वदा सम्भवं भक्त्या, जितारेर्नन्दनं स्तुवे ॥३॥ (त्रिभिर्विशेषकम् ॥)
॥ श्रीअभिनन्दन चैत्यवन्दनम् ॥ ( वंशस्थवृत्तम् ) सुरासुरेज्यं रुचिरं सुखालयं हरन्तमीशं प्रचुरं महाभयम् ॥
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हिरण्यदीप्ति प्रवरप्रबोधिनं ममामि तुर्य जिनराजमिष्टदम् ॥१॥ सुराङ्गनाभिर्वरकाञ्चनैर्घटैः पूर्णेमहाक्षीरसमुद्रवारिभिः ॥ कताभिषेकामलकाञ्चनाचले जिनप्रभो त्वं जय संवराङ्गज ॥२॥ बेनाखिलं गाढमहातमो हतं दुष्कर्मरूपं रविनेव संसृतः॥ जिगाय यो दुष्टमनोजभासुर स्ताच्छमंदाताशु स वोऽभिनन्दनः॥३॥
॥ श्रीसुमतिनाथचैत्यवन्दनम् ।।
( द्रुतविलम्बितम्) वरद इन्दुरुची रुचिरार्णवः श्रुतमतेरभिरूपसुसेवितः॥ प्रहृतकर्ममहाजगलः प्रभुविजयतां सततं स जगद्विभुः ॥१॥ हतमहाखिलमोहतमस्ततिं सकलसौख्यदमाप्तवरास्पदम् ॥ सुखसरोवरहंसमहं स्तुवे
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सुमतिधाम सदा सुमतिप्रभुम् ॥ २॥ सकलसंमृतिदुःखमहोत्पलं हिम इवाभिददाह य इष्टदः ॥ निरुपमः प्रशमाब्धिरसो विभुर्जयति मेघसुनन्दन ईश्वरः ॥३॥ ॥ श्रीपद्मनाथचैत्यवन्दनम् ॥
(शालिनी) रागद्वेषारण्यमाशु प्रघोरं दाह्य दग्धं यत्प्रभासाऽग्निनेव। भव्योधानां त सुसीमात्मजस्य भूत्यै भूयात्पादपाथोजयुग्मम् ॥१॥ दुष्टाज्ञानदृषिसघातशूर सुज़श्रेष्ठ प्राज्ञगम्य प्रधान । दिव्यज्ञान श्रीपते पद्मनाथ मुक्तीशानाभ्यर्चनीयोऽसि मे स्वम् ॥२॥ देवाधीशं सर्वकल्याणवल्लिम् विश्वख्यातं पूजनीयं नृदेवैः। पद्मं पद्मं विश्वभव्यदिरेफैः नित्यं वन्दे नन्दनं श्रीधरस्य ॥३॥
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॥ श्रीसुपार्श्वनाथचैत्यवन्दनम् ॥
(भुजङ्गप्रयातम्) सदा निर्जरेज्यो वरो विश्वनाथो गुणानां पयोधिर्जिनेशोऽमिताभः॥ पृथिव्यात्मजस्सर्वसौख्यप्रदाता प्रभुर्यच्छतान्मुक्तिऋद्धिं विशालाम् ॥१॥ महामोहराजारिवार कठोर मदोन्मत्तमातङ्गयूथं विशालम् ॥ पराजिग्य आयों महाकेसरीव स सुश्रेयसे सर्वदा स्तात् सुपार्श्वः॥२॥ शुभध्यानवारा भवावद्यरूपं मलं येन दूरं प्रगाढं कृतं द्राक् ॥ दयाया नदीकान्तमाखण्डलेज्यं प्रतिष्ठस्य राज्ञः स्तुवे नन्दनं तम् ॥३॥
॥श्रीचन्द्रप्रभुचैत्यवन्दनम् ॥
___ (आर्या) कृत्वा दूरं सहसा, रागद्वेषाम्बुदं महागहनम् ॥ यद्विज्ञानदिनेशः, सततं भासयति कृत्स्नार्थान् ॥१॥ सर्वज्ञेन्दुर्जिनप-श्चन्द्राकाङ्कितपदद्वितय ईशः॥ जन्माम्भोधि तीर्खा, सुखगेहं वरपदं प्राप॥२॥
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दिव्येश्वयों जयतु, ज्ञेशो धर्मदवरः सुहितदाता ॥ चन्द्रशस्स नितान्तं, परमानन्दनंगपर्जन्यः ॥३॥
॥श्रीसुविधिनाथचैत्यवन्दनम् ॥
(उपजातिः) सुपर्वनाथानतमस्तकस्थप्रशस्तमौलिस्थमहामणीनाम् ॥ मरीचिसङ्घातमरं न सेहे यत्पादयुग्मस्थनखबजश्रीः ॥१॥ यन्नामदीपो हृदयस्थितोऽरमनादिकालागतमप्रधृष्यम् ॥ तमा विनाशं नयति प्रसह्य तस्येष्टदातुः सुविधेर्जिनस्य ॥२॥ शिवाछिपारामधनोपमा सा संसारसिन्धौ भ्रमतां जनानाम् ॥ स्याद्वादयुक्ता वरदेशनागीरानन्दनद्यस्तु सदोदयाय॥३॥(त्रिभिर्विशेषकम् ) ॥ श्रीशीतलनाथचैत्यवन्दनम् ॥
(वसन्ततिलका) निधिमुक्तिसुखमनतरं जिनेन्द्र १ नग-वृक्ष.
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(१०) निःशेषसत्ततिनतं निरुपद्रवाघम्।। प्राप्तप्रबोधतरणिं स्मरवारिवाह भित्त्वा स्तुवे लमनिशं जिनशीतलेशम् ॥१॥ तुभ्यं नमो निखिलतत्त्वदिवाकराय तुभ्यं नमः प्रहरते जनजन्मरोगम् ॥ तुभ्यं नमः सुरपतिप्रणताय नित्यं तुभ्यं नमोऽखिलभवोपविनाशनाय ॥२॥ निर्दोष शोषक प्ररोषजलाशयस्य नित्यं प्रतोषद सुधर्मवरप्रणेतः ॥ त्वां नाथ ते रुचिरपादसरोजयुग्म आसक्तनन्दनमधुव्रत आस्तुवेऽहम् ॥३॥ ॥श्रीश्रेयांसनाथचैत्यवन्दनम् ॥
( अनुष्टुब् ) शुद्धधर्मस्य दातार, पातारं जगतां सदा ॥ सर्वभावस्य वेत्तारं, भातारं भुवनत्रये ॥१॥ मुक्तिमार्गस्य देष्टार, पेष्टारं कृत्स्नकर्मणः॥ विश्वविश्वस्य भरि, कतार भव्यशर्मणः ॥२॥ नेतारं जन्मपारस्य, जेतार मोहवैरिणः ॥ श्रीश्रेयांसजिनं भक्त्या, स्तुवे तं विष्णुनन्दनम् ॥३॥
(विभिर्विशेषकम)
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(११)
॥ श्रीवासुपूज्य चैत्यवन्दनम् || ( स्रग्विणी )
शुद्धविज्ञानलक्ष्मीव्रजैर्वन्दितः। शर्मदो विष्टपेशामरेशानतः ॥ कर्मसङ्घातशूरस्य सङ्घातको वासुपूज्यस्तनोतु प्रसौख्यं सदा ॥ १ ॥ सम्यगाखण्डलौघस्तुतार्कोदय
ज्योतिर यब्जयुग्मस्य शर्मोदधेः ॥ वासुपूज्यप्रभोर्नामचिन्तामणिःः
स्मर्यतां सर्वदा सर्वभव्यात्मभिः ॥ २ ॥ पूर्णचन्द्रास्यमर्थ्यं प्रशस्तोदयं केतकीपत्रदृष्टिद्वयं मुक्तिदम् ॥. अष्टसत्प्रातिहार्यप्रदीप्तं विभुं
तं. जयानन्दनं नौमि नन्दोदधिम् ॥ ३ ॥
॥ श्रीविमलनाथ चैत्यवन्दनम् ॥ ( वैतालीयम् ) भवभीमभयोघपर्वतं शमवज्रेण बिभेद वेंगतः ॥ प्रकठोरतरेण भास्वता, भविकल्याणनंगे घनाघनः ॥ १ ॥ निखिलाघमहादृढाटव, विमलभ्यानहुताशनब्रजः ॥
२ नगे- तुक्षे.
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प्रददाह सदाऽस्तु यस्य स, विमलेशस्तनिता शिवस्य नः।।२।।
(युग्मम्) शिवधाम सुराधिपैर्नुत, त्वमनीशाय जिनाप्तचन्द्रमः ॥ कृतपुष्पशराहितक्षय, जय नित्यं सुतवर्मनन्दन ॥३॥
॥ अनन्तनाथचैत्यवन्दनम् ।।
__ (रथोद्धता) जात्यसर्वगुणवारिधिं वरं, भव्यधाम विगतस्पृहं सदा ।। प्रासजन्मविरहं चतुर्दश,स्तौम्यनन्तजिनपं मुहुर्मुहुः॥१॥ रागरोषपरुषान्धकारक, त्वं प्रगच्छ बहुदरमाशु रे ॥ अत्र मे सुहृदयोदयाचलेऽनन्तनाथतरणिः प्रकाशते॥२॥ सिंहसेनतनयः सुरस्तुतः, श्रेयसे त्रिभुवनेश्वरः सदा ॥ अस्स्वनन्तगुणरत्नवारिधि-भव्यदेहिसुखनन्दनःप्रभुः॥३॥
।। श्रीधर्मनाथचैत्यवन्दनम् ॥
(हरिणी) भुवनजलजोद्योतबध्नं तपोधनधारिणं भुवनभविनां पीडावारापहं जगदीश्वरम् ॥ प्रवहणवर संसाराब्धौ महागहने विभुं शमसुखपदं भानोः सूनुं स्तवीमि सदा मुदा॥१॥ अनुपमगुणो भव्यौपानामनादिभवापहः
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समकलशरच्चन्द्रोद्भासाननोऽसमसौख्यदः ।। परमविमलं सिद्धिस्थानं सुशोभयिता विभुभवतु हितकृद्भव्यत्राते स आप्त उदारधीः॥२॥ शमसलिलतश्शान्तोद्दामोरुकामहुताशनः सुरपतिनताद्ध्यब्जद्वन्द्वस्सदाप्तवरो विभुः ॥ सकलजनताभद्रंकारी त्रिविष्टपनायको जयतु सततं धर्मेशानो जगजननन्दनः ॥३॥
॥ श्रीशान्तिनाथचैत्यवन्दनम् ।।
( मन्दाक्रान्ता) चन्द्रद्युत्युज्ज्वलशुचितरक्षीरसिन्धुं विशालं तृन्दछान्तिप्रवरजलधिः सौख्यरलप्रपूर्णः ॥ भीष्मज्वालं प्रभवशिखिनं यस्य शीघ्रं ददाम शश्वजीयाजिनवरवरः सोऽधिपः शान्तिनाथः॥१॥ इष्टाब्जार्णस्त्रिदशविटपो नेह दृष्टस्तथापि देवदुर्यहचनसलिलाहद्धितो धर्मरूपः ।। चित्ताभाष्टं शुभमतिमतां भव्यनृणां प्रदत्ते पादद्वन्दं शरणमसमं तस्य शान्तममास्तु ॥२॥ गाढं बद्धान् विषयजलजेऽनेकभव्यात्मभृङ्गान् मुक्तान् कृत्वा विमलदययाऽस्थापयत् सिद्धिपने॥
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१४ )
तारेशास्यो विदितसकलालोकलोकस्वरूपः शीघ्रं भव्यप्रशिवतनिता सोऽचिरानन्दनोऽस्तु ॥३॥
॥ श्री कुन्थुनाथचैत्यवन्दनम् || ( रथोद्धता ) भूतसंसृतिपयोधिपारक, प्राप्तकेवलविभासितांशुमन् ॥ सूरनन्दन शिवप्रदेधि मे, वं जिनैव शरणं वरं सदा ॥ १ ॥६ विश्ववन्य सुखमन्दिरेश्वर, रञ्जिताखिलजनौघ केवलिन् ॥ जन्मवायवधिमेतुमाशु नः शुद्धधर्मवर पोतदेशक ||२|| शाभमानभुवनत्रये सदा, सुप्रतापजलधे सुधीप्रद ॥ कुन्थुनाथ जगदीश्वर प्रभो, त्वां स्तुवे भविकवृन्दनन्दन ॥३॥ ( युग्मम् )
॥ अरनाथचैत्यवन्दनम् ॥ ( इन्द्रवज्रा )
अनन्तसौख्यास्पदसिद्धिगन्ता नष्टाभिलाषः प्रगताभिमानः ॥ धर्मोपदेष्टा वृजिनौघपेष्टा
कामारिदाता जनकामदाता ॥ १ ॥ आनन्दकल्लोलभृताम्बुराशिसायमानः कृतिवारप मे ॥ तीर्थकरो विश्वविभासमानो
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नित्यं शिवायास्त्वरनाथ एकः ॥२॥ युग्मम् ॥ विश्वत्रयव्याप्तवरप्रताप येनाश्ववाप्तं भुवनेश्वरत्वम् ॥ प्राज्यप्रभावं च जिनारनाथं स्तोम्यन्वहं तं मुनिनन्दनोऽहम् ॥३॥
॥ श्रीमल्लिनाथचैत्यवन्दनम् ॥
(कामक्रीडा) सद्धर्मेशं ज्योतीरूपं शुद्धाचारं लोकेशं शश्वत् कृत्स्ने विश्वे व्याप्तं देवेन्द्रनित्यं नम्यम् ॥ संसारापत्तापार्तानां भव्योघानां त्रातारं कामाग्न्यम्भो मल्लीशानं सिद्धिस्थानस्थं स्तोमि ॥१॥ प्रज्ञावन्तं शान्त्यागारं शीतांश्वास्यं देवेन्द्र संसाराब्धो मौघानां बाढं पारं नेतारम् ॥ अर्हन्नाथं गीरि विश्वाम्भोजे मार्तण्डं कारुण्याब्धि मल्लीशं तं नित्यं भल्या सेवेऽहम् ॥२॥ वीताघानः सर्वोत्कृष्टो दुस्तीर्थोघाप्रत्यक्षो येन प्राप्तो ज्ञानाकों द्राग् लोकालोको बासी सः॥ सौभाग्यश्री: कल्याणायास्त्वाशु प्रज्ञो भव्यानां नन्दावासो दग्धद्वेषो लोकाग्रस्थो मल्लीशः ॥३॥
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॥ श्रीमुनिसुव्रतचैत्यवन्दनम् ॥
(अनुष्टुब् ) मुक्तिकासारचक्राङ्गो, विश्वेशो मुनिसुव्रतः ॥ रक्षतु प्राणिनो भव्यान्, संसारामयपीडितान् ॥१॥ तपोऽनिलस्य वेगेन, दूरं मोहघनाघनम् ॥ कृत्वा यः प्राप विज्ञान-सप्तवाहं विभासिनम् ॥२॥ यहचोऽम्पु मलं हन्ति, कर्मग्रामं च देहिनाम् ॥ कच्छपाएंजनवाता-नन्दनं स्तौमितं सदा॥३॥युग्मम्
॥ श्रीनमिनाथचैत्यवन्दनम् ॥
(उपेन्द्रवजा) अचिन्त्यरूपं समविश्वसार जितेन्द्रियारिं वरशान्त्यगारम् ।। सुखदुमारामपयोदवारं तमाप्तसंसारपयोधिपारम् ॥ १॥ श्रुताम्बुजाम्बूपममीतमोहं प्रमादशत्रप्रविनाशवीरम् ॥ सुराधिदेवं विगताभिलाषं नमामि नित्यं विजयाङ्गजातम् ॥२॥ युग्मम् ॥ प्रभासमानो भुवनत्रयेषु प्रभासमानः सुरनाथनाथः ॥
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(१७) तनोतु सौख्यं भविनो नमीशः सनन्दनः सर्वजनाभिवन्धः ॥ ३॥ ॥ श्रीनेमिनाथचैत्यवन्दनम् ॥
(मालिनी) सकलसुखनिदानं विज्ञवारप्रधानं कृतवृजिनविनाशं वीतसंसारपाशम् ॥ विधुसममुखभासे मोक्षलक्ष्मीनिवासं त्रिभुवनजननाथं स्तोम्यहं नेमिनाथम् ॥१॥ शुचितरपदपद्मोत्कृष्टकल्याणसद्म गिरिवरगिरिनारोद्भासिबिम्बांशुमालिन् ॥ भविकदुरितपङ्क-क्षालनाम्बूपम त्वं कृतमदनजयैधि श्रेयसे नेमिनाथ ॥२॥ सुरनरनुतपादाऽऽ-फुल्लिताम्भोजयुग्मं सिततरयदुवंशाम्भोधिशीतांशुमन्तम् ॥ भुवनतिलकमीशं शङ्खचिन्हं जिनेन्द्र जिनपदजलमीनो नन्दनोऽहं भजामि ॥३॥
॥ श्रीपार्श्वनाथचैत्यवन्दनम् ॥
__(शिखरिणी) समा दृष्टिर्यस्याऽसुरसुरनरेशे च कमठे गतस्तूर्णं पार भवजलनिधेर्गाढगहनम् ॥
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( १८ )
अपारे संसारे विषयपरिषत्पीडितजनान् स नाथः श्रीपार्श्वो जिनवरपती रक्षतु सदा ॥ १ ॥ दयाया अम्भोधिः शुचितरमनीपानिचयदः प्रसूतो वामाङ्गाद्दलितदुरितः संयमिवरः ॥ विराजँल्लोकाग्रे सुखपदकजे हंस इव स विभुः पार्श्वशानः कृतिभततिचन्द्रो विजयताम्॥२॥ महाजन्माम्भोधिप्रवहणवर दोषभरदं त्रिलोक्यम्भोजप्रोल्लसनतरणिं भव्यवरदम् ॥ जितान्तर्दुष्टौघं विततयशसं विश्वभुवने नमामि श्रीपार्श्व समजनसुखाऽऽनन्दनमहम् ॥३॥
॥ श्रीवीरनाथचैत्यवन्दनम् ||
( खग्धरा )
गवा पापापुरीं यः प्रचुरसुखनिधिं वेगतो मुक्तिमाप दिव्याचिन्त्य स्वरूपः स्फुटगुणजलधिः कीर्त्तिकान्तिप्रकान्त तुल्यस्वान्तप्रवृत्तिर्विषमविषधरे सेवके वासवे च सश्रीवीरस्तनोतु प्रहृतमदखल : प्राणिनां भूरिभूतिम् ॥ १ ॥ सम्यग्देवेन्द्रसेव्यः स्मरवनदहनः कामहः कामदाता संसारातङ्गवैद्यः प्रभवभयहरः सिद्धिसौख्यैकभोक्ता ॥ प्राप्तप्रौढप्रतापः कृतवृजिनजयो जन्मपङ्काप्रवाहो
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दीप्रज्योतिर्जिताऊ जयतु जिनवरोवर्द्धमानःप्रकामम्॥२॥ नेत्रानन्दैककन्द स्फुरितविशदधीदातरीशप्रसिद्ध मिथ्यादृपेचकार्कोपम परमशद प्रार्घ्यपादाब्ज वोर ॥ सूतप्रज्ञानसूर्य प्रयतपदगत प्राज्ञपूज्य प्रधान रिष्टाम्भोजार्यमंस्त्वां जिनपदकमलाऽलिः
स्तुवे नन्दनोऽहम्॥३॥ ॥ इति चैत्यवन्दनचतुर्विंशिका ॥
। आदिनाथस्तुतिः॥
॥ वसन्ततिलका ॥ ऐक्ष्वाक नाभिज जिताखिलमोहवीर तीर्थरादिम शमामृतसागरेन्दो ॥ आद्यासुरामरनराधिपसेव्यमान श्रीवीतराग वृषभाङ्क सदा स्तुवे त्वाम् ॥१॥ जन्मार्णवप्रवरपोतक इष्टदायी कन्दप्पंपावकपयोऽचलमुक्तिभर्ती ॥ मिथ्यात्विचूकभविकोत्पलसप्तसप्तिजायाज्जिनेन्द्रनिकरः सुरमौलिनम्यः॥२॥ मोक्षाय लुब्धतरविष्टपदेहिचित्तं न्याय्यं सदा जिनवराननसुप्रसूतम् ॥
जैनागमं सकलदोषतमस्तमोऽरिं विश्वात्मशर्मजलधीन्दुमहं स्तवीमि ॥३॥
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(२०) गन्त्री सदा गगनमाप्तमहासुऋद्धिः श्रीसङ्घविघ्नभरकोकनदे हिमानी ॥ ताासना सुखकरी सदभिप्रणम्या चक्रेश्वरी जयतु नित्यमपारशक्तिः ॥४॥
॥श्रीशान्तिनाथस्तुतिः ॥
॥स्रग्धरा ॥ नृत्यदेवाङ्गनौधैरचलितमनसं कर्मदुष्टारिवीर व्याप्तज्ञानार्कभासंसकलजगति तं विश्वभव्यानवन्तम् ॥ योग्यक्षेन्दं जिनेन्द्रं कुशलजलनिधिं विश्वसेनाङ्गजातं शान्तिवातं धरन्तं सुरनृपतिपतिं स्तोम्यहंशान्तिनाथम्॥१॥ नित्यं नाभेयमीडेऽजितसुमतिजिनौ संभवानन्तमल्लीन् श्रेयोदं नन्दनं तं ससुविधिविमलं पद्मचन्द्रौ सुपार्श्वम्॥ श्रेयांसं शीतलेशं प्रशमरसनिधिं वासुपूज्यारकुन्थून् धर्म शान्तिच नेमिं जिनमुकुटनर्मि सुव्रतं पार्श्ववीरौ ॥२॥ श्रेयोवृन्दं ददाति प्रभवभयभरं हन्ति कामप्रदात्री हर्षवातं प्रदत्ते भवशिखिपतितप्राणधारिबजेभ्यः॥ मुक्त्यम्भाजं प्रसूते भविकशिवतरं सर्वदा सिञ्चते या सार्हद्वाण्यम्बुमाला प्रसरतुसततं गाढपारा त्रिलोक्याम्३ या विघ्नौघप्रहन्त्री प्रगुणगणवती हेमदीप्ति हरन्ती
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( २१ ) सेव्यश्रीशान्तिनाथा निखिलजनमवन्त्यर्हदाज्ञां धरन्ती ॥ इष्टार्थ पूरयन्ती सकलसुखकरी शर्मवल्लिविंशाला सा निर्वाणी प्रदत्तां शुभमतिभविने श्रेष्ठमानन्दवारम् ॥४॥
|| श्री नेमिनाथस्तुतिः ॥
॥ उपजातिः ||
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गत्वा गिरीन्द्रं गिरिनारमाप्त्वा वरव्रतं देवनरेन्द्रपूज्यम् || मुक्तिप्रियां स्नेहभराय आप स नेनिनाथोऽवतु विश्वभव्यान् ॥१॥ ये कर्मस जलदं महान्तं
जहुः स्ववीर्यातुलवायुवृन्दैः ॥ ते सिद्धिसौधप्रतिभासमानाः सुरासुरस्तुत्यजिना जयन्तु ॥ २ ॥
प्रदग्धदोषौघविशालदावं नीतिप्रमाणप्रथितार्थतत्त्वम् ॥
मिथ्यान्धकारार्यमणं सदैव
जैनागमं श्रेष्ठमहं स्वीमि ॥ ३ ॥
सम्यक्त्वरत्नं प्रमुदा धरन्ती त्रिशूलधात्री वरसङ्घपात्री ॥
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(२२) सा कामितोघं परिपूरयन्ती देव्यम्बिका शर्म सदा प्रदत्ताम् ॥ ४ ॥
॥ श्रीपार्श्वनाथस्तुतिः॥
॥ मालिनी ।। दृढतमतमवारं दुःखभारं हरन्तं निखिलभविकचेतः पङ्कजं पुष्पयन्तम् ।। जगति तततपेोऽशुं कर्मरारराति भविहृदयखवासं स्तौमि तं पार्श्वभानुम् ॥१॥ चुलुककृतभवाब्धि संसृतौ प्रभ्रमन्तं जननिकरमवन्तं मुक्तिमार्ग दिशन्तम् ॥ विदितभुवनभावं भावसिन्धौ सुनावं जिनवरतरवारं नौमि विश्वकसारम् ॥२॥ अमितगमनिवासं गूढतत्त्वप्रकाशं विहतसकलदोषाऽहन्मुखाब्जप्रसूतम् ॥ गहनतरमपारं भव्यभृङ्गालिसेव्यं शमरसपरिपूर्ण जैनसिद्धान्तमीडे ॥३॥ कनकसमसुकान्ते भव्यभव्यं धरन्ति वरतरफणिपीठे नित्यमभ्रे चरन्ति ॥ श्रिततमजिनपाचे विघ्नवारं हरन्ति अतुलममलभद्रं देहि पद्मावति त्वम् ॥४॥
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( २३ )
॥ श्रीवर्द्धमान जिनस्तुतिः ॥ ॥ शार्दूलविक्रीडितम् ॥
शच्यः स्नापितवत्य आर्यकलशैर्जन्मोत्सवे यं मुदा प्राप्तानन्तसुखस्स कम्पिततराद्रीशान हेमाचलः ॥ देवेन्द्रादिसुपूजितोऽन्तिमजिनो वीरो विभुस्सर्वविन् मोहाम्भोजहिमः प्रबोधकुमुदेन्दुः पातु वः सर्वदा ॥ १॥ भव्यस्वान्ततमौघनागहरयस्सर्वज्ञतीर्थंकरा विश्वेशाः करुणामृतामनराः श्रेयोनदीना जिनाः ॥ भातज्ञानदिनेश्वरा वरतरा नित्यं सुमद्रंकराः सर्वे ते भिजयन्तु देवमनुजाधीशाभिपूज्याः सदा ॥२॥ मिथ्यात्वक्षितिदारणोत्कटहलिः सत्योत्पलाकपमा मुक्क्यागारसुकुञ्चिका जिनधृता दुर्मोहनिद्राहरा || भव्यारामघनावली सुगुणिनी स्याहादिनी शाश्वती जैनी वाग्भविकाघसिन्धुमथनी वोऽस्तु श्रिये सर्वदा ॥ ३ ॥ श्रीवीराङ्घयरविन्दभृङ्गिजनता विघ्नाग्निमेघावलि सम्यक्त्वाभरणेन शोभितवरे सुश्वेतदन्तावले | सिद्धादेव गोपिके जिनवराज्ञायाः सदेष्टार्थदे भव्येभ्योऽभयदे सदा सुखनिधे दत्तान्न इष्टं द्रुतम् ॥४॥
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(२४) ॥श्रीचतुर्विंशतिजिनस्तवः॥
॥ उपजातिः॥ विज्ञातसात्ममनःस्थभावमुक्षाङ्किनं प्राप्तभवाब्धिपारम् ॥ हतोपसर्गबजमादिनाथं नमामि नाभेयमनन्तवीर्यम् ॥१॥ प्रणीतधर्माणमपेतदोषं बिन्दूकृतापारभवाम्बुराशिम् ॥ व्याप्तप्रतापं भुवनेऽजितं तं स्तवीमि नित्यं भुवनत्रयेशम् ॥ २ ॥ श्रीजैनधर्माम्बरसतवाह भव्यात्मनां पापभरं हरन्तम् ॥ जितारिजातं जिनसंभवेशं सदैव मोक्षाधिपतिं स्तुवेऽहम् ॥ ३॥ मुक्तीश आनन्दसरस्सु हंसः श्रुतार्णवेन्दुस्सुखदायिनाथः॥ स तीर्थकृद्देवनरेशपूज्योऽभिनन्दनस्ताद्भविनां हिताय ॥४ ययावनन्ताचलमुक्तिवासं यस्तं महामोहवनीहुताशम् ॥ प्रबोधपद्माकमधीशपद्मं
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( २५) सदा नमामि द्युमणीन्दुनम्यम् ॥५॥ भव्याङ्गिनां नेत्रमयूरमेघ देवाधिदेवाभिमतेतमोह ॥ भव्योपकारिन् सुमते यतीन्द्र भव श्रिये त्वं सुमतिप्रवाह ॥६॥ आखण्डलासेवितपादयुग्म विशुद्धवाग्भृद्वरमुक्तिवास ॥ कृतान्धविश्वं मदनं विजेतजय प्रभो नाथ सुपार्श्व नित्यम् ॥७॥ भव्यारविन्दार्यमणं जिनेन्द्र स्ववीर्यवीरेण जितेन्द्रियं तम् ॥ मोहानलाम्भोधरमिन्दुभासं चन्द्रप्रभुं देवनरेशमीडे ॥ ८॥ शान्त्यालयं यद्वपुरर्जुनार्चिस्तिरस्करोतीन्दुमपोन्द्रपूज्यम् ॥ सुग्रीवसूनुं सुविधिप्रभुं तं स्तवीम्यहं प्राप्तवरप्रभुत्वम् ॥९॥ आनन्दपद्माकरराजहंसो लेभे वर मुक्तिनिकेतनं यः॥ यदर्शनानश्यति पापतापः
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(२६) स वः श्रिये शीतलशीतलोऽस्तु ॥१०॥ जनाभिलाषं प्रपिपर्ति यस्तं सुरासुरेन्द्राश्रितपादपद्मम् ॥ श्रेयांनिकायं सुखसागरेन्दु श्रेयांसनाथं सततं स्तवीमि ॥११॥ अधदुमान्मूलनवारेणेन्द्रः संसारकान्तारसुसार्थवाहः ॥ भवाब्धिपोतो विमलप्रबोधः श्रियेऽस्तु नित्यं विमलप्रभुः सः ॥१३॥ अपारजन्माम्बुनिधि प्रतीर्य यः प्राप मुक्तिं त्रिजगत्प्रसिद्धम् ॥ अनन्तशक्तिं तमनन्तनाथं नित्यं स्तुवेऽनन्तगुणेष्टगेहम् ॥१४॥ मोहारिजेताऽखिलभाववेता सद्धर्मदाताऽक्षयमुक्तिधाता॥ भव्यान् सुपाता रविवंत्सुभाता श्रीधर्मभर्ताऽस्तु सुखौघकर्ता ॥१५॥ क्षीराब्धिजेत्रा वरशान्तिवारा यः सिञ्चति प्राणिसुखाधिपालीम् ॥ स शान्तधामा वरशान्तिधाम
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(२७) श्रीशान्तिनाथोऽस्तु सदैव शान्त्ये ॥१६॥ तिरस्कृतार्कोजसमीतरागं श्रीकुन्थुनाथेश्वरमाप्तमुक्तिम् ॥ सुरासुरेन्द्र तितारकेन्दं जितान्तरारिं सततं तमीडे ॥१७॥ विज्ञासनिश्शेषपदार्थभावं महेन्द्रमालानतमाप्तसिद्धिम् ॥ सुदर्शनापत्यसुदर्शनं तं स्तुवेऽरनाथं जगदेकनाथम् ॥१८॥ शमासिना पाहतमोहवीरः सुमुक्तिपूर्वाचलवासरेशः ॥ श्रिये स मल्लीश्वर इष्टदायी वल्लिंप्रसिद्धोऽभयवल्लिरस्तु ॥१९॥ सुमित्रजातं वरकच्छपाङ्कःमनादिकर्माटविचैत्यचित्यम् ॥ तं सुनतीन्द्रं मुनिसुव्रतेशं नमाम्यहं नष्टककष्टकष्टम् ॥२०॥ मुक्तिं ययौ तीर्थकरो नमिर्यो विहाय संसारविभासवासम् ॥ ? वल्लिः पृथिवी. २ चित्नाग्निम् ।
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( २८) भव्याभयोद्यानसुवर्षवर्ष तं पूर्णचन्द्राननमानतोऽस्मि ॥२१॥ राजीमतीमिन्दुमुखीं विहाय मुदाप यो मुक्तिमनोज्ञकान्ताम् ॥ गुणाकरं दोषकरीन्द्रसिंह श्रीनेमिनाथं सततं स्तुवेऽहम् ॥२२॥ दिष्टप्रबोधासमहस्तरत्न प्राप्तुं भृशं मुक्तिफलं विशालम् ॥ तपोऽतुलाभूषणभूषितं तं सदा जयन्तं प्रभुपार्श्वमीडे ॥२३॥ दिवौकईशानकिरीटनम्या तपोंशुमत्तेजसिकाभिभान्ती ॥ सुखावलोपद्मजलावली सा श्रियेऽस्तु वीराध्रिनखावली वः ॥२४॥ कृतिबजेज्यवतिनेमिसूरिशिष्याभिरूपोदयनन्दनेन ॥ नता मता मुक्तिरतास्तुतास्ते श्रिये भवन्त्वाशु जिना: सदा वः ॥२५॥
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१ मेघदृष्ठिम्,
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( २९ )
॥ श्रीविजयने भिमूरिपञ्चविंशिका | ॥ उपजातिः ॥
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विहाय सर्व प्रभवोपभोगमादाय रम्यं शिवदं व्रतित्वम् ॥ आप सर्वागमपारमाशु श्रीनेमिसूरिं सततं स्तुवे तम् ॥ १ ॥
विदग्धपद्माकरराजहंसं विदग्धदोषौघविशालदावम् ॥
अखण्ड भूव्याप्तवरप्रतापं श्रीनेमिसूरिं प्रणमाम्यजस्त्रम् ॥२॥ वितन्द्रिपङ्कं प्रविमुक्तदार जगज्जनप्रावृषिका वारम् ॥
स्वदेशना रञ्जितभव्यभारं
श्रीनेमिसूरिं प्रणमाम्यजत्रम् ॥३॥
समस्तनिक्षेपन याम्बुनाथं
स्फुरद्विवेकं स्फुटशर्म हम् ॥ चारुवतं त्यक्तविलासवृन्दं श्रीनेमिसूरिं प्रणमाम्यजस्रम् ॥४॥ उदारबुद्धिं वचनप्रसिद्धिमासन्न सिद्धिं नुवनप्रसिद्धिम् ॥
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विज्ञानदीप्तिवजसुप्रदीप्तं श्रीनेमिसूरिं प्रणमाम्यजस्रम् ॥५॥ उद्दामकन्दर्पहुताशपाथोऽभिरूपसङ्घाभ्रदिनेशमेकम् ॥ प्रमादमातङ्गमृगेन्द्रराज श्रीनेमिसूरि प्रणमाम्यजस्त्रम् ॥६॥ भव्यात्मभृङ्गोरुसमूहसेव्यपादारविन्दद्वितयं मुनीन्द्रम् ॥ सूर्यांशुशोभं सुकलापयोधि श्रीनेमिसूरिं प्रणमाम्यजरूम् ॥७॥ संसारसेतुं जिनधर्मकेतुं प्रभासमानं प्रतिभासमानम् ।। मुनीश्वरं पौर्णिमचन्द्रवत्रं श्रीनेमिसूरि प्रणमाम्यजस्रम् ॥८॥ कामारिसम्बोधमहाप्रवीर सम्बोधपाथोधिमुदारवृत्तिम् ॥ व्यतीतमानं विगताभिलाषं श्रीनेमिसूरिं प्रणमाम्यजस्त्रम् ॥९॥ प्रवीणसन्दोहेसुधांशुमन्तं प्रणष्टसन्देहभरं कृतान्ते॥ १ विनाश, २ समूह,
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सत्यस्वरूपाश्रयणप्रगल्भं श्रीनेमिसरिं प्रणमाम्यजत्रम् ॥१०॥ भव्याङ्गिनां सर्वसमीहितोघप्रसिद्धिपाथोजपयःसमूहम् ॥ सुकेतकीपत्रसमाक्षियुग्म श्रीनेमिसूरिं प्रणमाम्यजस्त्रम् ॥११॥ स्वशोभया चन्द्रकलां बिभर्ति यस्तिग्मभारधिनखश्रियं तम् ॥ सर्वाङ्गिकारुण्यमहासमुद्रं श्रीनेमिसूरिं प्रणमाम्यजस्त्रम् ॥१२॥ गताश्रवं पञ्चमहावतेशं रत्नत्रयस्वामिनमाशयाब्धिम् ॥ श्रेयस्कर जन्मपयोधिपोतं श्रीनेमिसूरिं प्रणमाम्यजस्त्रम् ॥१३॥ जिनेशसिद्धान्तविचारदक्षं तीर्थंकरादिष्टकर मुनीशम् ॥ कषायसङ्घक्षणदाश्ववाह श्रीनेमिसूरिं प्रणमाम्यजस्त्रम् ॥१४॥ समस्तविश्वे ततसाधुवादं भक्ते च शत्रो समभावदृष्टिम् ॥
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( ३२ )
आनन्दभङ्गप्रभृताम्बुराशि श्रीनेमिसूरिं प्रणमाम्यजत्रम् ||१५|| ॥ शालिनी ॥ विज्ञाम्भोजावासहंसायमानो विश्वाम्भोजोद्बोधहंसायमानः ॥ शर्माम्भोजोद्भेदतोयायमानः
शवज्जीयान्ने मिसूरिः प्रकामम् ॥ १६ ॥
निस्तन्द्रौघो जैनधर्माम्बरार्कः
शीतांशूर्जा मुक्तिमार्गप्रदर्शी ॥ प्राज्ञप्राय मुक्तसंसारलीलः शश्वज्जीयान्नेमिसूरिः प्रकामम् ॥१७॥
श्रेयः सिन्धुः स्फारशी प्रभावो भास्वद्विद्यः प्रास्तमानप्रयासः ॥ आशुप्रज्ञो धैर्यकेणाद्रितुल्यः शश्वज्जीयान्नेमिसूरिः प्रकामम् ॥ १८॥
गाम्भीर्येणाम्भोधितुल्यो मुनीन्द्रः कारुण्याधिः शुद्धधर्मस्य वक्ता स्फारज्ञानो भव्य कल्याणहेतुः शश्वज्जीयान्नेमिसूरिः प्रकामम् ॥ १९ ॥
१ तरङ्ग. २ सूयं ॥
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(३३) सत्त्वाधारो योगिनक्षत्रचन्द्रः शास्त्राब्धीन्दुर्वीतसर्वस्पृहोघः ॥ फुल्लाब्जास्यः शुद्धवैराग्यसिन्धुः शश्वजीयान्नेमिसूरिः प्रकामम् ॥२०॥
॥शार्दूलविक्रीडितम् ॥ यस्य प्रौढतमप्रतापतपनः शश्वद्भुवि भ्राजते यस्याध्यम्बुजमातनोति भविनामानन्दभङ्गबजम् ।। यस्य ज्ञानमृगेश्वरेण परवादीभाः प्रणष्टा द्रुतं भव्यादभ्रविभूतये भवतु स श्रीनेमिसूरीश्वरः ॥२१॥ यस्याभ्रेण समं वचो नयगमस्याहादयुक्तं वरं भव्यप्रावृषिकप्रमोदमतुलं नित्यं विधत्ते भृशम् ॥ यस्यातुल्यमरं यशः क्षितितले सर्वासु दिक्षुद्गतं भव्यादभ्रविभूतये भवतु स श्रीनेमिसूरीश्वरः ॥२२॥ सेव्यश्रीगुरुराजवृद्धिविजयः प्रज्ञाः सदा यं श्रिताः सम्यग्बोधसरिच्छिलोच्चयवरः स्याहादपाथोनिधिः॥ अन्तेासिमधुव्रतश्रितपदाम्भोजः प्रशस्तक्रियो भव्यादभ्रविभूतये भवतु स श्रीनेमिसूरीश्वरः ॥२३॥ दिव्यक्षेमनिधिविशुद्धचरणो वाचंयमेशाग्रणीः । स्काराः पूर्वयुगप्रधानविधृताः सर्वे गुणा यं श्रिताः ॥
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( ३४ )
सदा
स्याद्वादाम्बुनिधिप्रभासनविधुर्भूमीश्वराच्यः भव्यादभ्रविभूतये भवतु स श्रीनेमिसूरीश्वरः ॥२४॥ गुर्वादेशधरो महाव्रतिवरो गाम्भीर्यरत्नाकरो मेधाविप्रवरो हतानृतभरो भव्यात्मभद्रंकरः ॥ गच्छैश्वर्यधरो महाभयहरः फुल्लास्त्र दावाशेरो भव्यादभ्रविभूतये भवतु स श्रीनेमिसूरीश्वरः ॥२५॥ यत्स्तोत्रपाठकरणेन महाभयञ्च
याति प्रणाशमखिलाघभरं जनानाम् ॥ तन्नेमि सूरिचरणाम्बुजयुग्ममर्च्य संसेव्यतां भविजनैः सततं पवित्रम् ॥ २६ ॥
॥ श्रीभुवनदीपकस्तोत्रम् ॥ ॥ श्रीमत् परमगुरु विजयनेमिरिद्वात्रिंशिका | यद्वाक्प्रफुल्लितकजे रतमर्त्यभृङ्गे सत्योष्णरश्मिकिरणप्रतिभासमाने ॥ पूर्वाभिरूपसुवृताद्भुतसिद्धिलक्ष्मीव तान्तरामनुपम स्थितिमभ्यकार्षीत् ॥१॥ भृङ्गवजोत्कटविनोदभरप्रदातुः संफुल्लितस्य जलजस्य मनोज्ञशोभा ॥ संस्मारिता ननु जवेन यदास्यभाभिः
१ कामदेव - २ अभि.
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( ३५ )
संस्मारितश्च वरपौर्णिमशीतभास्वान् ॥२॥ विश्वाभिरूपनिचयाभिनतोत्तमाङ्गश्रेणीजिनेन्द्रवरशासनमौलिभान्ती ॥
स्पर्शेन यस्य विमलस्य पदस्य पूता स्तोष्यामि तं प्रतिपतिं किल नेमि सूरिम् ॥३॥ (त्रिभिर्विशेषकम् )
ज्ञातुं कृतीज्य तव किञ्चिदपि स्वरूपं शक्ता न संयमिपते जडबुद्धयस्तु ॥ जानाति रूपमिभबालतरो व्रतिन् किं कण्ठीरवस्य नगभेदकगर्जनस्य ॥४॥ पारं तवासलमते गुणवृन्दसिन्धोयोगीश्वरेण खलु वीतमदेन गम्यम् ॥ निर्बुद्धिरेतुमधिपो दुफलं कुतोऽहं प्राप्नोति किं विमतिवामन उन्नताप्यम् ॥५॥ धीमन्सुने गतधियं तव भक्तिरेव
स्तोतुं प्रयोजयति मां भवरक्षक त्वाम् ॥ प्रावृष्यतीव सुनटन्ति कलापिनो यत् तद्गर्ज्जदम्बुदरवश्रवणैकजन्यम् ॥६॥
अल्पाशयेन तव नाथ मयोच्यमानं स्तोत्रं धरिष्यति हृदि प्रवराशयोऽपि ॥ क्षीराब्धिमौक्तिकमदन्नपि राजहंसः
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( ३६ ) किञ्जल्कमत्ति किल कईमजस्य किं नो ॥७॥ आराद्भवान् प्रवरशान्तरसाम्बुराशि - र्नामैव ते तदपि लोकहितं विधत्ते ॥ दूर स्थितार्ककिरणैररविन्दवन्धान् मुक्ता न किं मधुकराः सकला भवन्ति ॥८॥ वय्येव सन्ति निखिला विमला गुणौघा अत्राद्भुतं न किमपि प्रविकस्वरास्य ॥ प्राचीं दिशं नहि विहाय सहस्त्रभानुः स्फूर्ज्जत्प्रभाप्रकरकोऽन्यदिशं वृणोति ॥९॥ रूपेण कामसदृशोऽप्यभिभूतकामस्थामा त्वमद्भुतशमः समभावदातः ॥ वामिष्टदेवविपिन्ननु सर्वकामो दृष्ट्वैव याति सहसा परिपूर्णभावम् ॥१०॥ श्रेणीकृतामलयशो विबुधप्रवीण
योग्य शश्वदुदयस्य महाप्रताप ॥
उद्गच्छदब्जभरवल्लभताम्रपादा पादस्य ते नखततिः सततं विभाति ॥११॥ अन्धीकृताखिलजगन्मदनप्रगाढ
मेघप्रणाशपवमानप्रदर्शने ते ॥ नेत्राम्बुजस्य भवतीश निमेषमन्दपक्ष्मावलीह नयनद्वितयं जनानाम् ॥ १२ ॥
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(३७) नैसर्गधैर्यविजितामरशैलवर्य स्फारप्रभासमतमीकृतचन्द्रकान्तम् ।। संस्मारकं च शिवतिथ्युडुवल्लभस्य विस्मापकं तव विभाति गुरो ललाटम् ॥१३॥ नाथोज्ज्वलाधिगतिपूततरावनीक सत्यं मितं च सुहितं सुवचोरसं ते ॥ पीत्वामृतं खलु सुदुर्लभपानमाशु धीजीवनस्नपितभव्यजनास्त्यजन्ति ॥१४॥ नाथ प्रधीः कुमतिपर्वतभेदिकायास्त्वद्देशनारवमृगेश्वरगर्जनायाः॥ अज्ञानवादमदमत्तमहाकुतीर्थमातङ्गकास्तु सहसा सकला विनष्टाः ॥१५॥ गम्भीरतारसभृता तव देशनागीमेघावलीध्वनिरिवाहिभुजः सुभव्यान् ॥ सम्यक् प्रमोदयति सारविचारवारा प्रौढाशयप्रकटपुण्यगुणप्रकाश ॥१६॥ संसारकूपपतनार्त्ततरां विमुग्धां रक्षन्ननन्यगतिकां जनतां मुनीश ॥ भारण्डपक्षिवदिलावलये प्रमत्तः स्वामिन्सदा विचरसि प्रहतस्पृहारे ॥१७॥
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(३८) स्याहादभासक सदोदय शर्मधाम निर्यामकं गहनसंसृतिवारिराशौ ॥ सच्छासनं प्रमितिभङ्गनयोपशोभि शश्वत् प्रदीपयसि दीप्तविभ बतिस्त्वम्॥१८॥ भो देहभानकर यत्स्फुरितप्रभावान् मिथ्यात्वसान्द्रतिमिरं व्रजति प्रणाशम् ॥ तन्नामदीप्रकरदीपमजस्लमस्य सेवस्त्र सूरिप्रवरस्य सुभक्तिभावात् ॥१९॥ वत्तः प्रविज्ञ हिमसानुमतो मुनीश कल्याणफुल्लफलिवृन्दविभूषिताङ्गात् ॥ जाता वरा जगति निर्मलकीर्तिगङ्गा सर्वा दिशोऽकृत कृतिन् परमाः पवित्राः ॥२०॥ लोकप्रसिद्धतरवर्यकुलावतंसकोटीश्वरप्रकरपूजितपादपद्म ॥ बुद्धिप्रभावकृतदुष्टमताभिषङ्ग पूज्यो मुनीश सततं जगतीतले त्वम् ॥२१॥ वैराग्यवारिनिधिभासनशीतभानो संसारतारक सदाप्तसमूहसेविन् ॥ चारित्रभास्वरवरायुधमात्तमाशु नाथ त्वया खलु विमोहरिपुं प्रहन्तुम् ॥२२॥
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स्थाने प्रमोदमपरे न जना लभन्ते कृत्वा मुने गुणनिधान सुदर्शनं ते ॥ ग्रीष्मे विहाय सुभगां रवितापतप्तश्छायां सुगन्धिफलिनो दहनं किमिच्छत्॥२३॥ सद्बोधदायककिरीट मुनीश सम्यग् धीश्रीमदोघनुतपादपयोजयुग्म ॥ सर्वात्मना विमलशर्मभृताकृपाश्रीयोगीश ते हृदि कजे युतिते विभाति ॥२४॥ अन्ये स्मरन्त्वपरमप्यहमिज्यबुद्धया त्वामेव नाथ हृदये विशदे स्मरामि ॥ धाराधरं ननु विहाय न नीलकण्ठः पृथ्वीतलेऽपि निखिले भजतेऽन्यमीश ॥२५॥ मुद्धाम धामनलिनीशसम त्वयीन नास्त्येव किञ्चिदपि योगिपते जडत्वम् ॥ स्पष्टप्रकाशितमयूखसमूहसूर्ये ध्वान्तस्थितिस्तु नहि किश्चिदपि प्रभाते ॥२६॥ सन्तीह नाथ बहवः परवादिनोऽपि खं त्वेक एव शिवदोऽनृतवादहीनः॥ भूयिष्ठभानि दिवि सन्ति तथापि शश्वचन्द्रेतरो न वितनोति चकोरहर्षम् ॥२७॥
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अन्धीकृताखिलकुतीर्थिकघूकसक फुल्लौकृताखिलचतुर्विधसङ्घपद्म ॥ दूरीकृताखिलजगजनसङ्घनान्ध योगिस्त्वमत्र तरणे जयतादभीक्ष्णम् ॥२८॥ वक्राद्विनिर्गतगभीरतरस्वनौघतुल्यीकृतामृतपयोधितरङ्गनाद ॥ प्रज्ञाधरीकृतसुरेन्द्रगुरो महौजः श्रेयःश्रियं मुनिप नो वितनु त्वमाशु ॥२९॥ मिथ्यात्वपुद्गधरातलदारणोग्रसीरायमाण जिनदर्शनबीजवप्तः॥ मालायमान हृदये जिनशारदायास्त्वामीश सूक्ष्मसुमते सततं स्तवीमि ॥३०॥ सद्बुद्धिवृद्धिसुलताम्बुद नेमिसूरे स्याहादभृत्सुमतिसिन्धुविधो यशोरम् ॥ त्वदर्शनादुदयमेति नयप्रताप विज्ञान सद्धिविजयं जनता सुऋद्धिम् ॥३१॥ कीर्तिप्रभावकुसुमार्चितपद्मनेत्र वैराग्यचन्दनविलेपनलिप्तचित्त ॥ स्तोत्रं गुणामृतभृतं तव भक्तिरागा
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(४१) ल्लावण्यधाम रचितं च मया निधानं ॥३२॥ आपुष्पदन्तमिदमद्भुतभावशोभि स्तोत्रं सदा मतिमतां हृदयं प्रभायात् ॥ भव्यात्मनां भुवनदीपकनामतेषां प्रज्ञाभिनन्दनवरं हृदि ये धरेयुः ॥३३॥
॥ श्रीमद्गुर्वष्टकम् ॥
॥ उपजातिः॥ विज्ञाय संसारमनित्यमाशु त्यक्त्वा समस्तं भवदुष्टभोगम् ॥ दधार साधुव्रतमिन्द्रपूज्यं यस्तं सुभक्त्योदयमानतोऽस्मि ॥१॥ अनन्तसौख्यग्रहणे सुयत्नं दशप्रकारबतिधर्मयुक्तम् ॥ स्फूजत्सुमेधाकिरणप्रभान्तं गुरुं सुभक्त्योदयमानतोऽस्मि ॥२॥ नयप्रमाणागमधारिमुख्यमाज्ञां गुरूणां सततं धरन्तम्॥ मेधावदोघप्रणतं जयन्तं
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(४२) गुरुं सुभक्त्योदयमानतोऽस्मि ॥३॥ चारित्रचिन्तामणिरक्षणाय सदाप्रयासं करुणानिधानम् ॥ गुणाकरं संयमिपूगपूज्यं गुरुं सुभत्त्योदयमानतोऽस्मि ॥४॥ तपः प्रशस्तोरुधनं मुनीन्द्रं सम्पन्नगाम्भीर्यमनल्पवोधम् ॥ विज्ञक्षसन्दोहनिशाधिनाथं गुरुं सुभक्त्योदयमानतोऽस्मि ॥५॥ स्याहादसिन्धूल्लसनोडुनाथं प्रमोदपाथोधिवरं सनाथम् ॥ प्रमादपाथोजहिमं महान्तं गुरुं सुभत्त्योदयमानतोऽस्मि ॥६॥ विज्ञानसौभाग्यधरप्रवीणं गुर्वमिसैवैकनिविष्टचित्तम् ॥ भव्योपकारं रचयन्तमाशु गुरुं सुभक्त्योदयमानतोऽस्मि ॥७॥ विशारदग्रामनभस्तमोरिं सबोधिबीजोद्भववारिवारम् ॥
१, समूह,
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(४३) सद्बोधदायिप्रवरं सदाहं गुरुं सुभक्त्योदयमानतोऽस्मि ॥८॥ निरारम्भनातं विमलतरवैराग्यजलिधिं गुणग्रामस्थानं मदनवनवहिं कृतधियम् ॥ कृपापूर्णस्वान्तं नयगममहाम्भोधिभपति स्तुवेऽजस्रं भक्त्या सुगुरुमुदयं स्फारधिषणम्॥९॥
नास्त्येव सुन्दरतरा वहुकल्पनाऽत्र नास्त्येव शब्दरचना जनतोषदात्री ॥ ग्रन्थो लघुस्तदपि भक्तिवशाज्जिनस्य निर्बुद्धिना शिशुहिताय मया कृतोऽयम् ॥१॥ नेत्रर्षिनिधिचन्द्राङ्के १९७२ वर्षे भक्त्या गुरोरयम् ॥ नभसः सितसप्तम्यां ग्रन्थः पूर्णीकृतो मया ॥१॥
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( ४४ ) neft: u
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श्रीज्ञातनन्दन चरमतीर्थकृन्महावीरवीरशासन पूर्वाचलोष्णमयूखसधर्मसुधर्मचिन्तामणिदेशकसमीपसंसार सिन्धुपारसकलशास्त्रज्ञशिरोमणिन्यायनीरनिधिप्रकाशन विधुनिसर्गप्रशान्तभुवनम सिद्धमिध्यात्वसान्द्रध्वान्तवितानमणाशसहस्रकिरणकारुण्यमीनाकरशारदौषधीश्वरसुखभामभविभव्यधाम विद्वद्वरभ्रमरभार पूजितप्रशस्तपादपद्मद्वैत स्वगीर्मेघरवरञ्जितभव्यनीलकण्ठसमूहविस्मृत स्मारस्वरूप स्मरस्वाहापतिज्वालजलसमाजगुणगणधरवरजगद्वन्धुजगद्धितकारक तपोगच्छगगन -
हाधिपपवित्रचरित्रपरमपूज्य संविप्रशाखीयभट्टारकाचार्यवर्यश्रीमद्विज
यनेमिसूरिचरणाम्भोजभ्रमरायमाणानुयोगाचार्यपन्न्यासोदय विजयगणिशिप्यमुनिनन्दन त्रिजयविरचितोऽयं
॥ स्तोत्रभानुग्रन्थः समाप्तः ॥ श्रीरस्तु ॥
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६
पृष्ठ. पंक्ति. अशुद्धम्.
९
भासुरं
७ १८
द्विरेफै:
१३ १६
चित्ताभाष्टं
१४
९
१८
१४
२० ९
२० १७
२०
१८
२०
१९
२६
४
२६
ww
६
२६ १४
२६ १६
२७ १९
३४
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८
शुद्धिपत्रम् ॥
शुद्धम्.
भासुर
द्विरेफे चित्ताभीष्टं
शाभमानभुवनत्रये शोभमान भुवनत्र
प्रकान्तः ॥
नेमिनाथो
मुक्तयम्भोजं
प्रकान्त
नेनिनाथो
मुक्त्यम्भाजं
वाण्यम्बु
प्रहत्री
श्रेयां
द्रुमा वेता
वंत्सु
विभास
भरं
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वाण्यम्बु प्रहत्री
ལ ། ལྤ, སྦ
विलास
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमदावादनी औजैनग्रन्थप्रकाशकसभाई पुस्तक प्रसिद्धिखातुं. संबोधप्रकरण ? ? विशेष अमारी सभा तरफथी हालमा जैनग्रन्थो बहार पाडवा कार्य शरु करवामां आवेल छे. ते पैकी हालमां "संबोधप्रकरण" नामनो ग्रन्थ तैयार छे, आ ग्रन्थ 1444 ग्रन्थना का श्रीमान् हरिभद्रमरिमहाराजे मागधीभाषामां गाथावद्ध लगभग बे हजार श्लोकना प्रमाणमां रचेलो छे. आ ग्रन्थमां साधुधर्मनो अधिकार तेम श्रावकधर्मनो अधिकार विगेरे घणाज उपयोगी विषयो दाखल कर्क छे. छपाइ तैयार भयेल छे. जेन तत्त्वपरीक्षा. आ न्यायनो ग्रन्थ परमपूज्य परमोपकारी प्रातःस्मरणीय आचार्य महाराजजी साहेब श्रीमान् विजयनेमिसूरीश्वरजी महाराजजीना विद्वद्वर शिष्य श्रीमान् अनुयोगाचार्य पन्यासजी श्रीउदयविजयजी गणीजी महाराजे संस्कृतभाषामां लगभग 800 श्लोकना प्रमाणमां रचेलो छे, जेमां शब्दनी पोद्गलिकत्वसिद्धि तथा श्रोत्रनी पाप्यकारितासिद्धि निगरे उत्तमविषयो घणी सारीरीते निरूपण कयों छे. अन्य मळवावें स्थान जैन ग्रन्थप्रकाशक सभा. जैनग्रन्थप्रकाशकसभा. चीकांटा शेठ जेसींगभाइमी वाडी) अमदावाद For Private And Personal Use Only