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EPSC0000000
॥ ॐ श्रीपार्श्वः ॥
॥ वंदेऽहम् श्रीजिनेश्वरम् ॥ Peron rve a commenoश्रीमद् आयेसुधम्मखामिविरचितम्-30moorem...-000८००-migg
श्रीस्थानाङ्गसूत्रम् ।
मूल अने श्री अभयदेवसूरिविरचित BANGOO.000.comटीकाना अनुवाद सहित::"BM-0900Doncome
टीकाकारकृत मंगलाचरण. श्रीवीरं जिननाथं नत्वा, स्थानांगकतिपयपदानाम् । प्रायोऽन्यशास्त्रदृष्टं, करोम्यहं विवरणं किंचित् ॥
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श्रीस्था
नाङ्गसूत्र सानुवाद
॥ १ ॥
197990798246YAKKES
*9595493979
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सामान्य केवलीओना स्वामी श्री महावीरप्रभुने नमस्कार करीने स्थानांग ( ठाणांग ) सूत्रना केटलाएक पदोनुं, प्रायः अन्य शास्त्रोवडे जेम जोवाएलुं छे तेम ( अन्य शास्त्रो जोईने ), हुं कईक विवरण - विवेचन करूं हूं.
शास्त्रप्रस्तावना.
अहिं महान् राजानी जेम उत्कृष्ट आत्मिक शक्तिवडे दबाव्या छे पराक्रमवाला रागादि शत्रुओ जेणे, आज्ञानुं पालन करवामां चतुर एवा सेंकडो राजाओवडे हंमेशां सेवायेल छे चरणकमल जेना, समस्त पदार्थना समूहने प्रत्यक्ष करवामां दक्ष एवा केवलज्ञान अने केवळदर्शनरूप श्रेष्ठ उपयोगवडे जाण्यो छे सर्व विषयग्राम ( समूह ) नो स्वभाव जेणे, समस्त त्रण भुवनमां अतिशयबाळं छे साम्राज्य जेनुं, तथा संपूर्ण न्यायप्रवर्त्तक, इक्ष्वाकु कुलनी वृद्धि करनार, प्रसिद्ध एवा सिद्धार्थ राजाना पुत्र, श्रमण भगवान श्रीमान् महावीर - वर्द्धमानस्वामीना अतिशय गंभीर अने महान् अर्थ छे जेने विषे एवा (त्रिपदीरूप ) उपदेशी कुशल बुद्धयादि गुणना समूहरूप माणिक्यनी रोहणाचल भूमि समान, नियुक्त थयेल भंडारीनी माफक श्री गणधरमहाराजावडे पूर्वकालमा चार तीर्थ ( संघ ) मां श्रेष्ठ श्री श्रमण संघना अने तेना संतानो ( शिष्यो ) ना उपकारने माटे रचायेल तथा अनेक प्रकारना अर्थरूप श्रेष्ठ रत्नो छे जेमां, वली देवता अधिष्ठित एवा ( महानिधान समान ठाणांग सूत्रनो ) ज्ञान अने क्रियामां बलवान छतां य कोई पण (पूर्व) पुरुषबडे कई पण कारणवशात् अप्रकाशित (व्याख्या न करावेल) अने ए कारणथी केटलाक भवभीरुना ( कदाच अर्थनो अनर्थ थाय एवा भयथी) विचारमां ( व्याख्या करवानुं ) नहिं आवेल एवा मोटा खजानारूप आ ठाणांगसूत्रनो (अनुयोग अमारावडे कराय छे ) जो के तेवा प्रकारना ज्ञानादि बल रहित छतां पण केवल
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=
१ स्थाना
ध्ययने शास्त्रप्रस्तावना.
॥ १ ॥
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धृष्टतामां प्रधान एवा अने स्व-परना उपकारने माटे अर्थनी रचनाना अभिलापवाळा होवाथी ज नथी विचारेल पोतानी योग्यता जेणे तेमज जुगार आदि व्यसनोमां जोडायेलानी जेम ( एवा अमारावडे ) कुशल एवा प्राचीन पुरुषोना प्रयोगने अनुसरी, तेम ज कडक पोतानी मतिवडे विचारीने तेमज तथारूप वर्तमानकालीन गीतार्थ पुरुषो पासेथी तेना उपायोने सारी रीते पूछने विकासनी जेवो अनुयोग प्रारंभ कराय छे.
66
ते अनुयोगनी फलादि द्वारना निरूपण करवाथी प्रवृत्ति थाय छे. यत उक्तम्* तस्स फलेजोगं मंगल-समुदायत्था तहेव दौराई । तब्भेयंनिरुँत्तिक्कम - पयोयणाई च वच्चाई ॥ १ ॥ "
*
१. फल.
अर्थ - शास्त्रना विषयमा बुद्धिमान् मनुष्योनी प्रवृत्ति माटे फल अवश्य कहेनुं जोईए, अन्यथा आ ग्रंथनुं कई प्रयोजन ( फल ) नथी एवी आशंका करनारा श्रोताओ कंटकशाखा ( बावल )ना मर्दननी जेम प्रवृत्ति न करे. वळी ते फल बे प्रकारनुं छे–१ अनंतर, २ परंपर. ते बेमां अर्थनुं जाणवुं ते अनंतर फल छे, अने अर्थना जाणवापूर्वक अनुष्ठानथी जे मोक्षनी प्राप्ति थाय ते परंपर फल कहेवाय छे. (१)
विशेषावश्यक ( भाष्य ) नी टीकामां प्रयोजन द्वार जुदुं कयुं छे.
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maramanane
का
श्रीस्था
नाङ्गसूत्र सानुवाद ॥२॥
२. योग-संबंध.
EMAD१ स्थानातथा योग एटले संबंध, ते जो उपाय उपयरूप लहीए तो अनुयोग ए उपाय अने अर्थावंगमादि उपेय, तो ते संबंध प्रयो
ध्ययने जनना कथनथी ज कहेवायो छे, तेथी' अवसर लक्षण' अनुयोगनो संबंध कहेवा योग्य छ अर्थात् आ अनुयोगना दानमा योगद्वार. (देवामां ) कोण संबंध एटले अवसर छे ? अथवा अनुयोगना देवामां कोण लायक छ ? तेमां अनुयोगना दानमा भव्य, मोक्षमार्गमां अभिलापावाळो, गुरुनां उपदेशमा निश्चल-स्थिर अने आठ वर्ष जेने दीक्षा लीधे थया होय एवा जे प्राणी (साधु ) होय तेने ज सूत्रथी (मूलपाठथी ) पण आपवा योग्य छे-ए आ अवसर छे अने योग्य पण ते ज छे. यत उक्तम्| तिवरसपरियागस्स उ,आयारपकप्पनाममज्झयणं। चउवरिसस्स य सम्म, सूयगडं नाम अंगति॥१॥
दसकप्पव्ववहारा, संवच्छरपणगदिक्खियस्सेव । ठाणंसमवाओऽवि य, अंगे ते अट्ठ वासस्स ॥२॥ ____ अर्थ-त्रण वर्षना पर्यायवालाने तो आचार प्रकल्प नामर्नु अध्ययन अर्थात् निशीथसूत्र, अने चार वर्षना पर्यायवालाने सारी रीते सूयगडांग नामे सूत्र, (२) पांच वर्षनी दीक्षावालाने ज दशाश्रुतस्कंध, बृहद्कल्प अने व्यवहारसूत्र, तेमज आठ वर्षनी दीक्षावालाने ठाणांग तथा समवायांग सूत्रनी वाचना आपया योग्य छे. (३) अन्यथा बीजी रीते आ सूत्रनो अनुयोग देवामां आज्ञाभंग आदि दोष थवा पामे छे.
१. अर्थनो बोध.
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SHRESTHETTYSHARRESE
३. मंगल. तथा आ अनुयोग (सूत्र ) श्रेयभूत होवाथी विघ्न थवानो संभव छते विनवडे हणायल छे शक्ति जेओनी एवा शिष्यो, एमां प्रवृत्ति न करी शके ते हेतुथी विघ्ननी शांति माटे मंगल करवु उचित छ. उक्तं चवहविग्घाई सेयाई, तेण कयमंगलोवयारेहिं । घेत्तव्वो सो सुमहा-निहिव्व जह वा महाविज्जा ॥४॥
शुभ कार्यों घणा विघ्नोवाळा होय छे, ते कारणथी मंगलोपचार करीने ते उत्तम रत्न-निधान अथवा महाविद्यानी पेठे | ग्रहण करवा योग्य छ (४)
वळी मंगळ क्रमशः शास्त्रनी शरूआतमां, मध्यमां अने अंतमा शास्त्रार्थनी विनरहित समाप्ति माटे, तेनी ज स्थिरता माटे अने तेनी ज अविच्छिन्न परंपरा माटे (आदि, मध्य अने अंत्य मंगल ) करवु जोईए । तदुक्तं
आदिमंगलतं मंगलमाईए, मज्झे पजंतए य सत्थस्स । पढमं सत्थत्था-विग्धपारगमणाय निद्दिष्टं ॥५॥ तस्सेव य थिज्जत्थं,मज्झिमयं अंतिमंपि तस्सेव। अब्बोच्छित्तिनिमित्तं, सिस्सपसिस्साइवंसस्स॥६॥
आ बने गाथाओनो भावार्थ उपर कहेल छे. तेमां आदि मंगल-'सुयं मे आउसं तेणं भगवया' इत्यादि सूत्र छे अथवा आयुष्मता भगवता (आयुष्मान् भगवानवडे) आशब्द, भगवान, बहुमान गर्भमा होवाथी मंगलरूप छे. अर्थात् नंदी अने
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श्रीस्था
नाङ्गसूत्र
सानुवाद
॥ ३ ॥
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भगवत्बहुमानने विषे मंगलपणुं छे. मंग्यते एटले जेनावडे वांछित प्राप्त कराय ते. अहिं मंगल शब्दना अर्थनो घटमान होवाथी आदि मंगल जाणवुं.
| मध्य मंगल
पांचमा अध्ययननुं पहेलुं सूत्र - ' पंच महव्वए ' इत्यादि - क्षायिकादि भावपणाने लईने महाव्रतोनुं मंगलपणुं होवाथी, क्षायिकादि भाव मंगलरूप छे. यदुक्तं- ' नोआगमओ भावो सुविसुद्धो खाइयाइओ ' - नोआगमथी क्षायिकादि सुविशुद्ध भाव मंगलरूप छे, अथवा छठ्ठा अध्ययननुं आदि सूत्र 'छहिं ठाणेहिं संपन्ने अणगारे अरहई गणं धरित्तए ' इत्यादि वचनथी अणगारनो पंचपरमेष्ठिमा समावेश करवावडे मंगलपणुं होवाथी अथवा सूत्रमां कहेल गणधरस्थानोने क्षायोपशमिकादि भाव विशिष्टपणाए मंगलरूप होवाथी आ मध्य मंगल जाणवुं.
अंत्य मंगल
छेल्लुं मंगल तो दशमा अध्ययननुं अत्य सूत्र - ' दसगुणलुक्खा पोग्गला अणता पण्णत्ते' अहिं अनंत शब्द 'वृद्धि' शब्दनी जेम मंगलरूप होवाथी अंत्य मंगल जाणवुं. अथवा सर्व शास्त्र ज निर्जराना कारणभृत होवाथी तपनी जेम मंगलरूप छे. मंगलरूप शास्त्रनुं पण जे मंगलनुं कथन करेल छे ते शिष्योनी बुद्धिमां मंगलत्वनुं ग्रहण करवा माटे. मंगलपणे ग्रहण करेलु शास्त्र मंगल होय - जेम साधु ( साधु मंगलरूप छे तथापि मंगलनी बुद्धिए ग्रहण करवाथी मंगलरूप थाय छे), अहिं एटलं कथन बस छे. जेम शास्त्रोनुं मंगलादि निरूपण करेल छे तेम तेना अनुयोगनुं पण जाणवुं, कारण शास्त्रनुं अने अनुयोगनुं कथंचित् अभेदपणं होय छे.
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CRA
१ स्थाना
ध्ययने
मंगलद्वारवर्णन.
॥ ३ ॥
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४. समुदायार्थ. फल (प्रयोजन ), योग अने मंगल ए त्रण द्वारोनु कथन करवा पछी हवे समुदायार्थनो विचार कराय छे. त्यां स्थानांग ए शाखनुं नाम छे. यथार्थादि भेदथी नाम त्रण प्रकारना छे. ते आ प्रमाणे-१ यथार्थ, २ अयथार्थ, ३ अर्थशून्य. तेमां यथार्थ नाम ते प्रदीप, घट विगेरे, अययार्थ नाम ते पलाश (खाखरो) वगेरे अने अर्थशून्य ते व्युत्पत्ति अर्थ रहित डित्थादि. ते त्रणमा ज समुदायार्थनी परिसमाप्ति होवाथी शास्त्र नाम यथार्थ छे. जे कारणथी एम ज छे ते ज कारणथी तेनुं निरूपण कराय छे. 'स्थान' अने 'अंग' ए बे पद निक्षेप करवा योग्य छे. तेमां स्थान शब्द नाम, स्थापनादि भेदथी पंदर प्रकारचें कयुं छे.
नामंठवणादविए-खेतऽधा उई उवरती वर्सही।
संजमपग्गहजोहे," अचलगणणसंधाभावे" ॥७॥ १. तेमां स्थान एवं जे नाम ते नामस्थान, जे सचेतन अथवा अचेतन वस्तुनुं स्थान ए, नाम कराय छे, ते वस्तुनामवडे स्थान एटले नामस्थान कहेवाय छे. २. तेमज स्थापाय छे ते स्थापना अक्षादि, ते स्थानना आशयवडे जे स्थपायेल ते स्थान कहेवाय छे. तेथी स्थापना एज स्थान ते स्थापना स्थान. ३. द्रव्य-सचित्त, अचित्त अने मिश्र भेदरूप छे. ते गुणपर्यायनो
.. १. चंदनक ( एक शंखनी जात) वगेरे जे स्थापनाचार्य तरीके स्थपाय छे.
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥४॥
१ स्थानाध्ययने स्थानोनुं स्वरूप
h kwanahi
आश्रयं होवाथी स्थान ते द्रव्य स्थान. ते कारणथी कर्मधारय छे. ४. क्षेत्र-आकाश, द्रव्योनो आश्रय होवाथी क्षेत्र एवं जे स्थान ते क्षेत्रस्थान. ५. अध्ध-काल ते ज स्थान, ते वे प्रकारनो छे.१ भर्वस्थिति ते भावकाल अने २ कार्यस्थिति ते कायकाल, स्थिति एज स्थान. ६. ऊर्ध्वपणाए जे पुरुषनुं स्थान ते ऊर्ध्वस्थान-कायोत्सर्ग. अहिं स्थान शब्द क्रियावचन छे एवी रीते ऊर्ध्व शब्दना उपलक्षणथी बेसबु, मूवू वगेरे पण स्थान जाणवू. ७. उपरति-विरति, विविध गुगोनो आश्रय होवाथी विरति ज स्थान छे अथवा अहिं स्थान शब्द विशेषार्थमां छे. तेथी विरतिनो जे विशेष ते विरतिस्थान ते देशविरति अने सर्व विरतिरूप छे तेम. ८. वसति-स्थान कहेवाय छे. जेमां स्थिर थवाय छे ते स्थान. ९. संयमनुं स्थान ते संयमस्थान. अहिं स्थान शब्दभेद अर्थवालो छे. संयम-शुद्धिनी वृद्धि अने हानिथी थयेल विशेषभेदरूप (असंख्यात) संयम स्थान. १०. प्रगह-आदेयवचन होवाथी जेर्नु वचन मान्य थाय ते नायक. ते बे प्रकारना छे-१ लौकिक अने २ लोकोत्तर. तेमां लौकिक राजा, युवराज, महत्तर (श्रेष्ठ पुरुष), प्रधान अने कुमाररूप छे अने लोकोत्तर आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर अने गणावच्छेदकरूप छे. तेनुं जे स्थान ते प्रगहस्थान. ११. योधाओनुं स्थान-१ आलीढ, २ प्रत्यालीढ, ३ वैशाख, ४ मंडल अने ५समपादरूप शरीरनुं विशेप न्यासरूप योध. स्थान. १२. अचलत्व लक्षणवालो जे धर्म ते सादि सपर्यवसित (अंत सहित) इत्यादि चतुभंगरूप छे, तेनुं जे स्थान ते अचलता
१. भवस्थिति ते मनुष्यादि भवना आयुष्यनो स्थिति सुधो रहेवू ते.
२. मनुष्यादिना शरीरमांधी मरीने पुनः ते न कायमा उत्पन्न थर्बु ते कायस्थिति. जेम मनुष्यनी कायस्थिति उत्कृष्टी त्रण पल्योपम | ने क्रोडपूर्व पृथक्त्व होय छे.
Emshamri
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WEREDMINSUPEGETAIL
स्थान.१३. गणना-एक बेथी लइने शीर्षप्रहेलिका पर्यंत जे गणित ते गणना स्थान. १४, संधान-द्रव्यथी कटका करायेल कांचळी वगेरेनु जे जोडाण ते छिन्नद्रव्यसंधान अने रुनी पुंणीथी उत्पद्यमान तंतु ( तांतणा) आदिनुं जोडाण ते अच्छिन्नद्रव्यसंधान. भावथी तो १. प्रशस्तच्छिन्नभावसंधान-ते अप्रशस्तभावमां जइने फरीथी प्रशस्तभावनुं जे जोडाण (प्रसन्नचंद्र राजर्षिनी जेम) ते अने २. अप्रशस्तच्छिन्नभावसंधान-ते औदयिक भावथी चडीने औपशमिकादि भावमा आवीने पुनः औदयिक भावमा जवू ते. हवे ३. अच्छिन्नप्रशस्तभावसंधान ते प्रशस्त भावमा क्षपकादिनी माफक (भरत महाराजानी जेम ) आगळ ( उपर) चडता जवू. ४. अच्छिन्नअप्रशस्तभावसंधान-अप्रशस्तभावमां नीचे छेक ऊतरतां जq ते. उपशमश्रेणिथी पडतां मिथ्यात्व पर्यंत जनारा विगेरे ते (उपरोक्त) प्रशस्तादि भावनुं जे संधान ते ज स्थान, वस्तुनुं एकत्रितपणे जे अवस्थान ते संधान स्थान. १५. भावस्थान-औदयिकादि भावोनुं स्थान एटले अवस्थिति रहेवू त भावस्थान. एवी रीते अहिं स्थान शब्द अनेकार्थ छे. प्रस्तुत विषयमा वसतिस्थान अने गणनास्थानवडे अधिकार छे ते बताववामां आवशे. (७) हवे अंग शब्दनो निक्षेप कहेवाय छे. तत्र गाथानामंग ठवणंगं, दव्वंग चेव होइ भावंगं । एसो खलु अंगस्सा, निक्खेवो चउव्विहो होइ ॥८॥ तेमां नाम अने स्थापना प्रसिद्ध छे, मद्य औषधादि द्रव्यनुं अंग कारण अथवा अवयव ते द्रव्यांग, क्षयोपशमादि भावनुं १. प्रशस्तच्छिन्नभावसंधानादि चार भेद- वर्णन टीकामां साक्षा होवाथी आचारांगनी टीकाथो स्पष्टीकरण करेल छे.
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र
सानुवाद
॥५॥
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जे अंग ते भावांग. अहं भावांगवडे अधिकार छे ते पण आगळ देखाडवामां आवशे. (८)
स्थानांग शब्दनो समुदायार्थ.
जेवी रीते स्थानांग सूत्रमां विषयनुं कथन करायेलुं छे तेवी रीते एकत्व आदि बडे विशेषणवाला आत्मादि पदार्थों जेमां रहे छे, बेसे छे अने निवास करे छे ते स्थान अथवा स्थान शब्दवडे अहिं एक आदि संख्याभेद कहेल छे. ते कारणथी आत्मादि पदार्थोंने प्राप्त थयेल एकथी दश पर्यंत स्थानोनुं कहेनार होवाथी स्थान. जेम आचारनो कहेनार होवाथी आचार सूत्र कहेवाय छे तेम स्थान जाणवुं. ते स्थान क्षायोपशमिक भावरूप सिद्धांत - पुरुषना अंग ( अवयव )नी जेम जे अंग ते स्थानांग (ठाणांग ) ए समुदायार्थ जाणवो.
५. द्वारो.
मां दश अध्ययनो छे. दश अध्ययनोमां पहेलुं अध्ययन ते संख्यामां एक होवाथी अने एक संख्यायुक्त आत्मादि पदार्थनो प्रतिपादक होवाथी एक स्थान छे. महान् नगरनी जेम तेना चार अनुयोग द्वारो होय छे ते आ प्रमाणे- १ उपक्रम, २ निक्षेप, ३ अनुगम, ४ नय, तेमां अनुयोजन ते अनुयोग अर्थात् सूत्रनो अर्थ साधे संबंध करवो ते, अथवा अनुरूप योग्य अथवा अनुकूल जे व्यापार एटले सूत्रना अर्थ कथनरूप ते अनुयोग. (जेम घट शब्दवडे घडो अर्थ कहेवाय छे) आह चअणुजोजणमणुजोगो, सुयस्स नियएण जमभिधेयेण । वावारो वा जोगो, जो अणुरुवोऽणुकूलो वा ॥९॥
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984646&K
१ स्थाना
ध्ययने
द्वारवर्णन.
॥५॥
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SEARTNEURRENTERNMENSE
आ गाथानो भावार्थ उपर कहेल छे. अथवा अर्थनी अपेक्षाए ( अनंत अर्थ होवाथी ) मूत्र लघु (थोड छ ) माटे अणु कहेवाय छे अने तीर्थकरोक्त त्रिपदीरूप अर्थ सांभळीने पछी गणधरो सूत्र रचे छ तेथी अनु ( एटले पाछळ छे ) ए बने विशेषण योग शब्दने आपेल छे. अनु शब्दना वाच्य जे सूत्र तेनो विषय साथे संबंध ते अणुयोग अथवा अनुयोग कहेबाय छे. आह चअहवा जमत्थओ, थोवपच्छभावेहि सुयमणुं तस्स । अभिधेये वावारो,जोगो तेणं व संबंधो ॥१०॥
आ ( भाष्यनी ) गाथानो भावार्थ उपर कहल छे तेना दरवाजाओनी जेम द्वारो-ज्यांधी जइ-आवी शकाय ते-एक स्थानक अध्ययनरूप नगरना अर्थ जाणवाना उपायरूप उपक्रमादि चार द्वारो जाणवा. दरवाजा बगरनुं नगर ते अनगर ज होय छे. जो एक दरवाजो होय तो दुःखे प्रवेश करी शकाय अने कार्यनी हानि माटे ते थवा पामे छे, परंतु चार दरवाजा होय तो गमे ते दरवाजो अनुकूळ थाय अने कार्यनी सिद्धि माटे थवा पामे छे. एवी रीते एक स्थानक अध्ययनरूप नगर पण अर्थाधिगमना उपायरूप द्वारोबडे रहित होय तो अर्थ- जाणवू अशक्य थाय छे.
६. तद्भदद्वार. एक द्वारवाळु शास्त्र पण दुःखे जाणी शकाय छे अने विशेष भेद सहित चार द्वारवालं होय तो अर्थ सुखे जाणी शकाय छे.
७. निरुक्तिद्वार. आ कारणथी द्वारनो उपन्यास फलवालो छे. ते उपक्रमादि द्वारोना क्रमशः बे, त्रण, वे अने बे भेद थाय छे. 'निरु
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद
ISER
१ स्थानाध्ययने क्रमद्वारवर्णन.
क्तिस्तु'-व्युत्पत्ति तो आ प्रमाणे छे-'उपक्रमणं' उपक्रम ए (१) भाव साधन छे. शास्त्रने न्यास देश (जे स्थाने लावधं छे ते)| स्थाने नजिकमां लाव. जे द्वारा गुरुना वचनयोगथी उपक्रम कराय छे ते (२) करण साधन, शिष्यनो श्रवण भाव छते जेमां उपक्रम कराय छे ते (३) अधिकरण साधन, आथी उपक्रम कराय छे अथवा विनीत शिष्यना विनयथी उपक्रम कराय छे ते (४) अपादान साधन. एची रीते 'निक्षेपणं निक्षिप्यते वाऽनेनास्मिन्नस्मादिति वा निक्षेपोन्यासः' निक्षेपण ते निक्षेप, | जेवडे, जेमा, अने जेनाथी निक्षेप करायेल छे ते निक्षेपना न्यास अने स्थापना ए पर्यायनाम छे. एम ज अनुगमनमनुगम् १ इत्यादि जेवडे, जे छते अने जेथी सूत्रना न्यासने अनुकूल व्याख्या करवी ते अनुगम. एम ज नयनं नय इत्यादि वस्तुनुं जाणवु ते नय, अथवा जेवडे जे छते अने जेथी वस्तु जणाय ते नय, अनंत धर्मात्मक वस्तुना एक अंशनुं जे ज्ञान ते नय कहेबाय छे. आ उपक्रमादि द्वारोनो आवी रीते क्रम करवामां शुं प्रयोजन छे ? ते कहेवाय छे.
८. क्रमद्वार. जे उपक्रम रहित छे ते समीपभूत् नथी, जे समीपभूत नथी तेनो निक्षेप नथी करातो, जे नामादिवडे निक्षेप नथी करायेल h] ते अर्थथी अनुगम करातो नथी, जे अर्थथी नथी जाणेल ते नयोथी विचारातुं नथी. एवी रीते एक ज क्रम छे. उक्तं च
दारक्कमोऽयमेव उ, निक्खिप्पइ जेण नासमीवत्थं । अणुगम्मइ नानत्थं, नाणुगमो नयमयविहणो ॥ ११ ॥
ORDER
॥६
॥
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(भाष्य ) गाथाना भावार्थ उपर कहेल छे. ए प्रमाणे ते फलादिक द्वारो कहेवाया, हवे अनुयोगद्वारना भेद कथनपूर्वक एज अध्ययन विचाराय छे. त्यां उपक्रम वे प्रकारनो छे : १ लौकिक अने २ शास्त्रीय. त्यां १ नाम, २ स्थापना, ३ द्रव्य, ४ क्षेत्र, ५ काल अने ६ भाव भेदथी लौकिक छ प्रकारनो छे. तेमां नाम अने स्थापना सुगम छे. द्रव्योपक्रम चे प्रकारनो छे : १ परिकर्म ने २ विनाशउपक्रम. सचेतन, अचेतन अने मिश्र अथवा द्विपद, चतुष्पद अने अपद ( वृक्षादि ) रूप जे द्रव्यनुं गुणांतर गुणविशेषनुं उत्पादन ते परिकर्म, अने द्रव्यनो नाश ते विनाश [ जेम घृत, रसायण वगेरेना प्रयोगथी मनुष्य बलवान थवा पामे छे ते परिकर्म अने तलवार वगेरेथी नाश कराय छे ते विनाश ]. एम ज क्षेत्र - शालिक्षेत्रादिनो हल वगेरे खेडवाथी परिकर्म अने हाथी वगेरे बांधवाथी नाश पामे छे ते विनाश, अज्ञात स्वरूप कालने नाडिकादि शंकुनी छाया अथवा घटिका वगेरेथी जाणवुं ते परिकर्म अने [ नक्षत्रादिनी गतिवडे काल जे अनिष्ट फलदायक थाय छे ते काल विनाश एटले विपर्यास ], न जणायेल गुरु प्रमुखना चित्तने इंगितआकारादिवडे जाणवुं ते भाव परिकर्म ( उपक्रम ). शास्त्र संबंधी उपक्रमो ६ प्रकारना छे, ते आ प्रमाणे- १ आनुपूर्वी, २ नाम, ३ प्रमाण, ४ वक्तव्यता, ५ अर्थाधिकार अने ६ समवतार. १. आनुपूर्वी.
बीजे' स्थळे आनुपूर्वी दश प्रकारे कहेल छे, तेमां उत्कीर्त्तन अने गणना अनुपूर्वीमां आ अध्ययननो समवतार थाय छे. १. महाभाष्यनी टीकामां दश प्रकारनो कहेल छे ते आ प्रमाणे- १ नाम, २ स्थापना, ३ द्रव्य, ४ क्षेत्र, १ काल, ६ गणना, ७ उत्कीर्तन, ८ संस्थान, ९ सामाचारी अने १० भावानुपूर्वी ।
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॥ ७ ॥
4200077484 YE
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उत्कीर्त्तन ते एक स्थान अध्ययन, द्विस्थान अध्ययन अने त्रिस्थान अध्ययन इत्यादि गणन, ते केवल संख्या एक, बे, त्रण इत्यादि ते गणना अनुपूर्वी त्रण प्रकारनी छे-१ पूर्वानुपूर्वी २ पश्चानुपूर्वी, ३ अनानुपूर्वी पूर्वानुपूर्वीवडे विद्यमान प्रथम अध्ययन कहेवाय छे, पचानुपूर्वीवडे दशमुं अध्ययन अने अनानुपूर्वीवडे अनियत छे.
२. नामकथन.
तेमज नाम दश प्रकारे छे. एक नाम, द्वि नाम इत्यादि दश नाम पर्यंत. तेमां छ नाममां आ अध्ययननो अवतार थाय छे. | तेमां पण क्षायोपशमिक - भावमां समग्रश्रुत क्षायोपशमिक भावरूप होवाथी कयुं छे केछव्विनामे भावे, खओवसमिए सुयं समोयरति । जं सुयणाणावरण - क्खओवसमजं तयं सव्वं ॥ १२ ॥
[ अनुयोग द्वार सूत्रमां ] छ प्रकारना नामोमां औदयिकादिक छ भावो कहेला छे. तेमांनां क्षायोपशमिक भावमां सर्व श्रतनो समवतार थाय छे. कारण ? श्रुतज्ञानावरण कर्मना क्षयोपशमथी सर्व श्रुत उत्पन्न थाय छे.
३. प्रमाणकथन.
तथा द्रव्यादि भेदथी प्रमाण चार प्रकारे छे, तेमां आ अध्ययन, क्षायोपशमिक भावरूप होवाथी, भाव प्रमाणमां अवतरे छे. यत आह
दव्वादि चउब्भेयं, पमीयते जेण तं पमाणंति । इणमज्झयणं भावोत्ति, भावमाणे समोयरति ॥ १३ ॥
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9934:4
१ स्थाना
ध्ययने
उपक्रम
वर्णन.
॥ ७ ॥
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जेनावडे जे वस्तु जणाय ते प्रमाण. ते प्रमाण द्रव्यादि चार प्रकारे छे. आ अध्ययन भावरूप होवाथी भाव प्रमाणमां समवतरे छे. भाव प्रमाण गुण, नय अने संख्याना भेदथी त्रण प्रकारनुं छे. तेमां आ अध्ययननो गुणप्रमाण अने संख्याप्रमाणमां ज समवतार थाय छे; वर्त्तमानमां तो नयप्रमाणमां अवतार करातो नथी. यदाह
मूढनइयं सुयं, कालियं तु न नया समोयरंति इहं । अपुहुत्ते समोयारो, नत्थि पुहुत्ते समोयारो ॥१४॥
मूढ छे नैगमादि सात नयो जेमां एवा कालिकश्रुतमां नयो समवतार पामता नथी. ज्यां सुधी चारे अनुयोगो एकीभाव-भेला हता त्यां सुधी नयोनो समवतार थतो हतो, पण ज्यारथी पृथक्भाव थयो- अनुयोगो जुदा जुदा थया त्यारथी अनुयोगमां नयोनो समवतार थतो नथी. गुणप्रमाण वे प्रकारे छे: १ जीवगुणप्रमाण अने २ अजविगुणप्रमाण. तेमां आ अध्ययननो जीवनो उपयोगरूप होवाथी जीवगुणप्रमाणमां अवतार थाय छे. तेमां पण ज्ञान, दर्शन अने चारित्रना भेदथी त्रण प्रमाण छते आनो ज्ञान प्रमाणमां अवतार थाय छे. ज्ञानप्रमाणमां पण प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान अने आगमप्रमाणरूप ज्ञान प्रमाण छे. ते प्रस्तुत अध्ययन आप्तपुरुषना उपदेशरूप होवाथी तेनो आगम प्रमाणमां अवतार थाय छे. आगमप्रमाणमां पण लौकिक
१. आर्य वैर (बज्ज्रस्वामि) पर्यंत कालिकतनो अनुयोग जुदो न हतो त्यारे नयोनो समवतार श्रतो हतो, त्यारबाद आर्यरक्षितसूरिवडे कालिकत अने दृष्टिवादमां अनुयोग जुदा थया. पहेलां एक अनुयोगमां चारे अनुयोगनी व्याख्या थती हती, पछो उपयोगथी भावभावने जाणी आर्यरक्षितसूरिजीए अनुयोग जुदा जुदा कर्या. एनुं विशेष वर्णन आवश्यक टीकादिथी जाणवु.
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१स्थाना
ध्ययने
उपक्रमवर्णन.
श्रीस्था
17 अने लोकोत्तररूप चे भेदमा परम गुरुए रचित होवाची सूत्र, अर्थ अने उभयात्मक त्रण प्रकाररूप लोकोतर आगममां आनो। नाङ्गसूत्र समवतार थाय छे. तथा चाहसानुवाद जीवाणण्णत्तणओ, जीवगुणे बोहभावओ णाणे । लोगुत्तरसुत्तत्थो-भयागमे तस्स भावाओ ॥१५॥ ॥८॥
__आ गाथानो भावार्थ उपर कहेल छे. लोकोत्तर आगम पण आत्मागम, अनंतरागम अने परंपरागमना भेदी त्रण प्रकारे छे. तेमां अर्थथी तीर्थकरो, गणधरो अने तेना शिष्योनी अपेक्षाए अने मूत्रथी गणधरो, तेना शिष्यो अने शिष्योना शिष्योनी अपेक्षा करीने क्रमशः आत्मागम, अनंतरागम अने परंपरागमने विषे आ अध्ययननो अवतार थाय छे. संख्याप्रमाण अन्यत्र (अनुयोग द्वारमा) विस्तृत कहेल* छे तेमां आ अध्ययननो परिमाण (सातमी) संख्यामां अवतार थाय छे. तेमां पण कालिकश्रुत अने दष्टिवादश्रुत परिमाणरूप वे प्रकारमा ए कालिकश्रुत होवाथी कालिकश्रुत परिमाण संख्यामां अने तेमां पण शब्दनी अपेक्षाए संख्यात अक्षर, पदादि स्वरूपवडे संख्यातपरिमाणमा अवतरे छे तथा पर्यायनी अपेक्षाए आगम अनंतागम पर्यायरूप होवाथी अनंतपरिमाणात्मक संख्यामां अवतरे छे. तेमज कयु छ के-'अगंना गमा अणंता पजवा' इत्यादि.
४. वक्तव्यता. वक्तव्यता १ स्वसमय, २ परसमय अने ३ स्वपरसमयना भेदथी त्रण प्रकारनी छे. तेमा आ अध्ययन स्वसमय वक्तव्य. * १. नाम, २ स्थापना, ३ द्रव्य, ४ क्षेत्र, ५ काल, ६ उपमा, ७ परिमाण अने ८ भाव ए आठ प्रकारे संख्सप्रमाण कहेल छे.
AdSTTESENTS
॥८
॥
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तामां ज अतरे छे. कारण ? सर्व अध्ययनो स्वसमयरूप होवाथी. भाष्यकारे कयुं छे के- परसमओ उभयं वा, सम्मदिदिस्त समओ जेणं। ता सव्वज्झयणाई,ससमयवत्तव्यनिययाई॥१६॥
परसमय अने उभय( स्वयर )समय, ते सम्यग्दष्टिने स्वसमय ज छे, कारण के ते सम्यग्दष्टि तेनो यथार्थ विषयविभाग करे छे. जो के केटलाएक अध्ययनोमां परसमय अने उभयसमयनी वक्तव्यता संभळाय छे, तो पण सम्यग्दष्टिए ग्रहण करेल होवाथी सर्व अध्ययनो स्वसमय वक्तव्यतामां नियत छे. तथा अर्थाधिकार वक्तव्यता विशेष ज छे, ते एकत्व विशिष्ट आत्मादि पदार्थना कथन लक्षगरूप छे. प्रत्येक द्वारमा अंगीकृत अध्ययन समवतार लक्षणरूप छे ते लाघव माटे अनुपूर्वी अदि द्वारोमा वर्णन करेल होवाथी पुनः अहिं कहेता नथी. वळी पण कर्बु छ केअहुणा य समोयारो, जेण समोयारियं पइद्दारं। एगट्ठाणमणुगओ,सो लाघवओ ण पुण वच्चो ॥१७॥
आ गाथानो भावार्थ उपरोक्त छे. १ ओघनिष्पन्न, २ नामनिष्पन्न, ३ सूत्रालापकनिधन भेदथी त्रण प्रकारे निक्षेप कराय छे. कयुं छे केभण्णइ घेप्पइ य सुहं, निक्खेवपयाणुसारओ सत्थं। ओहो नाम सुत्तं, निखेत्तव्वं तओऽवस्सं ॥१८॥
निक्षेप पदना अनुसारथी अध्ययन वा उद्देशक सुखपूर्वक भणाय छे अने ग्रहण कराय छे, ते कारणथी १ ओघ, २ नाम अने ३ सूत्रालापकनिष्पन्न आ त्रणे अवश्य निक्षेप करवा योग्य छे. तेमां ओघनुं स्वरूप नीचे प्रमाणे छे
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥९॥
१ स्थानाध्ययने उपक्रम
वर्णन.
HEETLESEANNELEYEXHD ETTE
१. ओघ. ओहो जं सामन्नं, सुयाभिहाणं चउव्विहं तं च। अज्झयणं अज्झीणं, आओ झवणा य पत्तेयं ॥१९॥ नामाइ चउब्भेयं, वन्नेऊणं सुआणुसारेणं। एगट्ठाणं जोज्झं, चउसुंपि कमेण भावेसुं ॥२०॥ (युग्म) __श्रुतनुं जे सामान्य नाम तेने ओघ कहेवाय छे. ते चार प्रकारे छे-१ अध्ययन, २ अक्षीण, ३ आय अने ४ क्षपणा. ते प्रत्येक अध्ययनादिनुं श्रुतानुसारे नामादिक चार प्रकारे वर्णन करीने क्रमशः तेओना भाव निक्षेपामां एक स्थाननी योजना | करवी. त्यां अध्यात्म मन ते शुभ मनने विषे गमन थर्बु अर्थात् जेथी आत्मानुं गमन थाय छे अने जेथी अध्यात्म शब्दवाच्य जे शुभ मन तेनुं आत्माने विषे लई आवq थाय छे अथवा बोध, संयम अने मोक्ष ए त्रणनी जेथी अधिक प्राप्ति थाय छे ते अध्ययन जाणवू. प्राकृत शैलीरडे अज्झयण कहेवाय छे. भाष्यकारे आ संबंधमां का छे केजेण सुहप्पज्झयणं, अज्झप्पाणयणमहियमयणं वा।बोहस्स संजमस्सव, मोक्खस्स व तोतमज्झयणं॥२१
___ आ गाथानो भावार्थ उपर कहेल छे. भणाय, विशेषपणे स्मरण कराय अने जणाय ते अध्ययन छे तथा निरंतर आपवा FF छतां पण जे क्षीण न थाय ( अथवा अव्युच्छित्तिनयथी आ लोकनी माफक कदी पण क्षीण न थाय ) ते अक्षीण, ज्ञानादिकना लाभनो हेतु होवाथी आय, पापकर्माना नाशनो हेतु होवाथी क्षपणा कहेवाय छे. कहां छ के
* मूल अज्झप्पाणयण शब्द छे परंतु प्राकृत शैलीथी प्पा अने णकारनो लोप थवाथी अजयणं थाय छे.
SHESHAMARINEETENYEKO
॥९
॥
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अज्झीणं दिज्जंतं, अव्वोच्छित्तिनयतोअलोगोव्य ।आओ नाणाईणं, झवणा पावाण खवणंति (कम्माणं)
भावार्थ उपर मुजब छे. नाम निष्पन्न निक्षपामां तो आ अध्ययननुं एक स्थानक एवं नाम छ ते माटे एक शब्द अने स्थान | शब्दनो निक्षेप कहेवा योग्य छे. तेमां एक शब्द नामादि सात प्रकारनो छे. तदुक्तं
२. नाम. नौम ठेवणा दंविए, माउयय संगहेकंए चेव । पजव भावे य तहा, सत्तेते एक्कगा होति ॥२३॥
तेमां १ जेनुं 'एक' एवं नाम होय ते नाम एक, २ पुस्तकादिने विषे स्थापन करेल एकेक अंक ते स्थापना एक, ३ द्रव्य एक ते +सचित, अचित्त अने मिश्र भेदरूप त्रण प्रकारे छे. ४ मातृकापद एक तो १ उप्पन्नइ वा २ विगमेइ वा ५ धुवेइ वा-ए मातानी माफक सकल शास्त्रना मूलभूत होवाथी अवस्थित त्रिपदमांथी कोइ पण एक विवक्षित पद, अथवा अकारादि अक्षरात्मक मातृकामांथी कोई पण अकारादि एक अक्षर ते मातृकापद एक, ५ संग्रह एक एटले एक शब्दना उच्चारवडे पण घणा अर्थनो संग्रह कराय छे. जेम जातिना प्राधान्यबडे व्रीहि अर्थात् ब्रीहि शब्दथी अनेक जातना चोखानो संग्रह थाय छे ते संग्रह एक, ६ पर्याय एक-घट द्रव्यना शिविकादि एक पर्यायरूप, ७ भाव एक-औदयिकादि छ भावमांधी कोई पण एक भावरूप. अहिं भाव एकवडे अधिकार छे जेथी गणना लक्षण विशिष्ट स्थान विषय आ एक छे. वली गणना ते संख्या, संख्या ___ + सचित द्रव्य ते पुरुष, अचित्त द्रव्य ते रूपीओ अने मिश्र द्रव्य ते आभूषणयुक्त पुरुष इत्यादि.
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥१०॥
१. स्थानाध्ययने उपक्रमवर्णन.
| ते गुण अने गुण ते भाव, स्थान शब्दनो निक्षप तो प्रथम ज कहेल छ तेमां गणना स्थानवडे अहिं अधिकार छ; तेथी एक लक्षण जे स्थान संख्याभेदरूप एक स्थान, अने एक स्थान विशिष्ट जीवादि अर्थना प्रतिपादनमा समर्थरूप अध्ययन पण एक स्थान छे. ओघनिष्पन्न अने नामनिष्पन्न ए बने निक्षेप कहेवाया.
३. सूत्रालापक. हवे सूत्रालापक निक्षेप कहेवानो समय आवेल छे तेनुं स्वरूप आ प्रमाणे-श्रुतं मे आयुष्मन् ! इत्यादि सूत्रपदोनो निक्षेप, नामादिनुं स्थापन ते कहेबानो समय प्राप्त छ पण ते कहेता नथी. कारण ? सूत्र छते तेनो संभव छे. सूत्र तो सूत्रानुगममा छे अने ते अनुगमनो ज भेद छ, माटे पहेला अनुगम ज वर्णवाय छेअनुगम ये प्रकारनो छ : १ नियुक्तिअनुगम अने २ सूत्रानुगम. तेमा नियुक्ति अनुगम १ निक्षेपनियुक्ति, २ उपोद्घातनियुक्ति अने ३ सत्रस्पर्शिकनियुक्तिना भेदथी त्रण प्रकारनो छे. तेमां पण निक्षेपनियुक्ति अनुगम स्थान, अंग, अध्ययनादि एक शब्दना निक्षेपना प्रतिपादनथी नियुक्तिअनुगभर्नु पण प्रतिपादन थयुं ज छे. उपोद्घातनियुक्ति अनुगम तो-*उद्देसे निद्देसे य निग्गमे' इत्यादि (महाभाष्यनी) बे
* उद्देसे निद्देसे य, निग्गमे खेत कालपुरिसे य । कारणपञ्चय लक्खग नए, समोयारणाणुमए ।। ९७३ ।। कि कहिविहं कस्स, कहि केसु कहं के चिरं हवइ कालं । कइ संतरमविरहियं, भवागरिसकोसणनिरुति ॥ ९७४ ।। (विशेषावश्यकभाष्प) शब्दार्थ -१ उद्देश, २ निर्देश, ३ निर्गम, ४ क्षेत्र, ५ काल, ६ पुरुष, ७ कारण, ८ प्रत्यय, ९ लक्षण, १० नय, ११ समवतार, १२ अनुमत,
RSHANITELSEISHAMALS
H॥१०॥
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N
गाथाथी जाणवो. सूत्रस्पर्शिकनियुक्ति अनुगम तो 'व्याख्या ' ना लक्षणरूप संहितादि छ प्रकारमा १ पदार्थ, २ पदविग्रह, ३ चालना अने ४ प्रत्यवस्थान लक्षणरूप जे व्याख्यानना चार भेदस्वरूप ते सूत्रानुगमने विषे संहिता अने पद लक्षण विशिष्ट व्याख्यानना बे भेद छते होय छे. आ कारणथी सूत्रानुगम कहेवाय छे. तेमां अल्पग्रंथ (थोडा शब्दवाडं) महान अर्थादि विशिष्ट सूत्रना लक्षण सहित अने स्खलितादि दोष रहित सूत्र उच्चार करवा योग्य छे. ते आ प्रमाणे
मू०-सुयं मे आउसं ! तेणं भगवता एकमक्खायं (सू०१) मूलार्थ:-श्री सुधर्मास्वामी जंबूस्वामी प्रत्ये कहे छ-हे आयुष्मन् शिष्य ! ते महावीर भगवाने आ प्रमाणे (आगळ कहेपर वाशे तेम ) जे कहेलं ते में सांभळलु छ (ते ज हुँ कहुं छं).
टीकार्थः-आ सूत्रनी व्याख्या संहितादिक्रमवडे हुं कहुं छ. ते विषे भाष्यकार कहे छ। सुत्तं १ पयं २ पयत्थो ३, संभवतो ४ विग्गहो वियारो य ५। दूसियसिद्धी नियमय-विसेसओ नेयमणुसुत्तं
१ अस्खलितादि गुण सहित सूत्र कहेवू, २ पछी पदच्छेद करयो, ३ पदनो अर्थ कहेवो, ४ जो समासनो संभव होय तो NI १३ शुं, १४ केटला प्रकारे, १५ कोनु, १६ क्यां, १७ कोनामां, १८ केवो रीते, १९ केटलो होय, २० केटल अंतर, २१ अंतर IM रहित, २२ भव, २३ आकर्ष, २४ स्पर्शना, २५ निरुक्तिद्वार ए पचोश द्वारोवडे जाणवा योग्य छे.
१. सूत्रना आठ गुणो अने बत्रीश दोषना अभावर्नु स्वरूप महाभाष्यनी टोकाथों जाणो लेवू.
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥११॥
ध्ययने १ सूत्रम्.
समास (विग्रह) करवो, ५ पछी विचार-तर्क (शंका ) करवो, ६ पछी दृषणने दूर करवू (शंकानुं समाधान ) ते प्रत्यवस्थान, ते पण नयोना मत विशेषोवडे करवू. एम दरेक मूत्रनुं व्याड्यान करवू. तेमां सूत्र एटले संहिता ते कहेवायेल छे, केमके | सूत्रानुगम संहितारूप छे. कयु छे के-"होई कयत्यो वोत्तुं, सपयच्छेयं सुयं सुयाणुगमो” इति. सूत्रानुगम पदच्छेद सहित सूत्रने कही कृतार्थ थाय छे. अस्खलितादि गुण सहित उच्चारेल सूत्रमा केटलाएक अर्थो डाह्या पुरुषोने समजायेल ज छे. आ कारणथी संहिता व्याख्यानो भेद थाय छे अने न जाणेल अर्थने जाणवा माटे पदादि, व्याख्याना भेदो प्रवर्ते छे. त्यां व्याख्या भेदमा-श्रुतं मया आयुष्मन् ! तेन भगवता एवमाख्यातम्' इति आवी रीते पदोनी व्यवस्था करी त्यारे सूत्रालापकनिष्पन्न निक्षेपनो अवसर छे. तेमां आ व्यवस्था छे. जत्थ उजं जाणेज्जा, निवखेवं निविखवे निरवसेसं । जत्थवि यण जाणेज्जा, चउक्कयं निविखवे तत्थ॥२५
ज्यां जे (जेटला) निक्षेपा जाणी शकाय त्यां ते (तेटला) नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव वगेरे निर्विशेष (समस्त) निक्षिप्त करवा, अने ज्यां वधारे न जाणी शकाय त्यां चार निक्षेपा ओछामा ओछा अवश्य स्थापन करवा. तेमां नामश्रुत अने स्थापनाश्रुत प्रतीत छे. उपयोग रहित भणनारनुं सूत्र अथवा पत्रक (पानां) अने पुस्तकमा रहेढुं-लखेलु ते द्रव्यश्रुत छे अने भावश्रुत तो श्रुतना उपयोगवाळाने होय छे. अहिं श्रोत्रंद्रियद्वारा थयेल उपयोगलक्षणरूप भावश्रुतवडे
१. पत्रक अने पुस्तकमा लखेलुं सूत्र भावश्रुतर्नु कारण होवाथो ते द्रव्यश्रुत छे.
॥११॥
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NARESH
अधिकार छे. तथा 'आउसं'ति-आयुष्य एटले जीवित नामादि भेदथी दश प्रकारे छे. ते आ प्रमाणे
नामं १ ठवणा २ दविए ३, ओहे ४ भव ५ तब्भवे य ६ भोगे य ७ ।
संजम ८ जस ९ कित्ती १०, जीवियं च तं भण्णती दसहा ॥ २६ ॥ तेमां नाम १ अने स्थापना २ सुगम छे. 'दविए'त्ति-सचेतनादि भेदवाळू द्रव्य ज जीवननो हेतु होवाथी जे जीवित छे ते | द्रव्यजीवित ३, नारकादि पर्याय विशेष रहित आयुष्य द्रव्य मात्र (आयुःदलिक ) जे सामान्य जीवित ते ओघजीवित ४, नारकादि भव विशिष्ट जीवित ते भवजीवित; जेमके नारकर्नु जीवन वगेरे ५, समान जातीयपणे पूर्वभवनुं जीवन ते *तद्भवजीवित; जेम के मनुष्य मृत्यु पामीने फरीने मनुष्यपणे उत्पन्न थाय ते ६, भोगजीवित चक्रवर्ति वगेरेने होय ७, संयमजीवित साधुओने होय ८, यशजीवित ९ अने कीर्तिजीवित १० जेम महावीर प्रभुने हतुं तेम. अहीं जीवित एटले आयुष्य ज छ, तथा आहं संयमआयुष्य, यशआयुष्य अने कीर्तिआयुष्यवडे अधिकार छे. एवी रीते शेष पदोना जेम संभव थाय तेम निक्षेप कहेवा योग्य छे. आ रीते सूत्रालापक निक्षेप कहेवायो. पुनः पदार्थ (पदनो अर्थ )नुं वर्णन आ प्रकारे-अहिं पांचमा गणधरदेव श्री सुधर्मास्वामी जंबू नामना पोताना शिष्य प्रत्ये चौकस प्रतिपादन करे छे के-में सांभळेलुं छे 'आउसंति. संयमनी
* देव, नारक अने युगलिकने तद्भवजीवित होतुं नथी, कारण ते देवादि फरीने तेनी ते ज योनिमां उपजता नधी. x वाक्य, निक्षेपना अवसरमा भाषाना निक्षेपनी माफक अहि आयुप्यना प्रस्तावमा जीवितनो निक्षेप करेल छे.
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१ स्थानाध्ययने
श्रीस्थानागसूत्र सानुवाद ॥ १२ ॥
१ सूत्रम्.
प्रधानतावडे प्रशस्त अथवा घणु आयुष्य हे विद्यमान जेने ते आयुष्मन् तेना संबोधनमां हे आयुष्मन् शिष्य ! 'नेणं'तिजे नजीक, आंतरावाळु, सूक्ष्म, बादर, बाह्य अने अभ्यंतर सकल पदार्थोंने विपे अबाधित बोलवापणुं होवाथी यथार्थ वक्तापणे जगतमा प्रख्यात, अथवा पूर्वभवमा मेळवेल छे तीर्थकरनामकर्मादि लक्षणरूप परम पुण्यनो समूह जेणे, विनाश थई छ अनादि कालनी लागेली मिथ्यादर्शनादि वासना जेनी, छोडेल छे महान् राज्यवैभव जेणे, देवादिना उपसर्ग समूहना संसर्गवडे अविचलित छे शुभ ध्यानमार्ग जेनो, सूर्यनी माफक घनघाती कर्मरूप निविड वादळाना समूहने तोडवावडे प्रकाश पामेल छ निर्मल केवलज्ञानरूप भानुमंडल जेमनु, इंद्रोरूप भ्रमरोना समूहे सेव्या छे चरणकमल जेना, मध्यमा नामे नगरीमा प्रथम थयेल छे प्रवचन | जेनुं एवा श्री महावीर प्रभु, भगवता' अष्ट महाप्रातिहार्य[ अशोकवृक्षादि ]रूप समस्त जैश्वर्यादि सहित ते भगवाने, एवमिति आ आगल कहेवाशे एवा एकत्वादि प्रकारवडे 'आख्यातमिति आ एटले जीव, अजीवनां लक्षणनी असंकीर्णता[एक बीजामा मळी न जाय ते] रूप मर्यादावडे, अथवा समस्त पदार्थना विस्तारथी व्यापक लक्षणरूप अभिविधिवडे 'ख्यातं'-आत्मादि वस्तुनो समूह कहेल छे. अहिं 'श्रुतमिति-आ निर्णयने कहेनार शब्दवडे पोते चोक्कस करेलं होय ते ज | | बीजाने कहेवा योग्य छ एम कर्दा; अन्यथा कहेवामां ऊलटो दोषनो संभव छे. कयुं पण छे केकिं एत्तो पावयरं ?, सम्म अणहिगयधम्मसब्भावो । अन्नं कुदेसणाए, कट्ठयरागमि पाडेइ ॥२७॥
नथी जाणेल सिद्धांतनो सद्भाव जेणे एवो ते उन्मार्गनी देशनावडे बीजाने महाकष्टकारी अपराधमां पाडे छ (अने L
LEUSTILLELSELENANIYA
॥१२॥
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पोते तो पडेलो ज छ ), आधी उत्कृष्ट बीजु क्यु पाप छे ? अर्थात् कोई नथी. (२७).
'मये ति आ शब्दवडे उपक्रमद्वारवडे कहेवायेल जे भावप्रमाणद्वारगत आत्मा, अनंतर अने परंपर भेदथी भिन्न आगमने विषे आ कहेवातो ग्रंथ, अर्थथी अनंतरागम अने सूत्रथी तो आत्मागम छे. 'आयुष्मन्निति आ शब्दवडे तो शिष्यना चित्तने आह्लाद करनार कोमल वचनवडे आचार्य उपदेश करवो जोइए तेम जणावेल हे. उक्तं चधम्ममइएहिं अइ-सुंदरेहिं कारणगुणोवणीएहिं । पल्हायंतो य मणं, सीसं चोएइ आयरिओ॥२८॥ __ धर्ममय वचनोथी अति सुंदर भाषावडे, कारण एटले पोताने भणवानुं प्रयोजन अने गुण-शीखनार ने ज्ञानपात्रता | विगेरे बताबवावडे शिष्यना चित्तने आनंद कराबता आचार्य शिष्यने प्रेरणा करे छे. (२८).
प्राणीओने आयुष्य अतिशय बहालं होवाथी आयुष्मन् शब्द अत्यंत हर्षजनक छे. कयुं पण छे के-'सब्वे पाणा पियाउया अप्पियवहा सुहासाया दुक्खपडिकूला सब्वे जीविउकामा सञ्बेसिं जीवियं पियं'-सर्व प्राणीओने आयुष्य प्रिय होय छे अने वध अप्रिय छ, सुख अनुकूल अने दुःख प्रतिकूल होय छे, बधा जीववानी इच्छावाला होय छे अने सर्वने जीवित प्रिय होय छे. तथा मनुष्यो, जीवन माटे पुत्र, खी अने धनसंपत्तिने तृण (घास ) तुल्य पण नथी मानता, कारण के तेओने आयुष्य अति वहालुं होय छे. अथवा आयुष्मन्-आ शब्दबडे ग्रहण, धरणादि गुणवाळा शिष्यने शाखनो अर्थ देवा योग्य छे ए अर्थ जणाववा माटे, सर्व गुणोना आधारभृत, समस्त गुणना उपलक्षणरूप लांबा
RAKKKKKKAKKKKKKKXXXXXXXX
३
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सानुवाद
॥ १३ ॥
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आयुष्यरूप गुणवडे गुरुद्वारा शिष्यने आमंत्रण करायुं छे. कहीं पण छे के—
sa दोणमेहे, न कण्हभूमाउं लोट्टए उदयं । गहणधरणासमत्थे, इय देयमछित्तिकारिम्मि ॥२९॥ द्रोण नामनो मेघ वर्षे छते पण काळी भूमिमांथी पाणी बहार जतुं नथी अर्थात् अंतरमां समाइ जाय छे. एवी रीते जेने ज्ञान आपत्राथी नाश न थाय एवा ग्रहण अने धारण करवामां समर्थ शिष्यने विषे गुरुए ज्ञान आप जोईए. (२९). पूर्वोक्त गुणथी विपरीत शिष्यने ज्ञान आपवामां गुरुने दोष छे. आह च
आयरिए सुत्तम्मिय, परिवाओ सुत्तअत्थपलिमंथो । अन्नेसिंपि य हाणी, पुट्ठावि न दुद्धदा वंझा ॥ ३० ॥
अयोग्य शिष्यने ज्ञान आपवाथी आचार्य अने श्रुतनो अवर्णवाद थाय छे तेमज सूत्र अने अर्थनो विनाश थाय छे. बीजा शिष्योने पण ज्ञाननो लाभ मळतो नथी. विशेष काल महेनत करवाथी शिष्य शा माटे कई पण न ग्रहण करे ? एम कोई शंका करे तो तेने आ दृष्टांत कहेवुं के जेम गायना पग बांधीने तेना स्तनोनुं सारी रीते मर्दन करीए तो पण अने पुष्ट होवा छतां पण वांझणी गाय होय ते दूध न ज आपे. (३०). 'तेन' ति आ शब्दवडे तो आप्तत्वादि गुणोथी जाहेरपणे नाम धरावनावडे (कहेलुं) तेथी आ अध्ययनमां प्रमाणपणुं बतावेल छे. वक्ताना गुणोनी अपेक्षाए वचननुं प्रामाण्य होय छे. 'भगवते' ति आ शब्द प्रस्तुत अध्ययन स्वीकारचा योग्य जणावेल छे. अतिशयवान् (प्रभु) अवश्य स्वीकारवा योग्य छे, तेनुं वचन पण उपादेय छे. अथवा 'तेणं' ति आ शब्दथी
१. कृष्णा भूमियंत्र असौ कृष्णभूमः तस्मात् ।
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१ स्थानाध्ययने
१ सूत्रम्.
॥ १३ ॥
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उपोद्घातनियुक्तिमा अंतर्गत त्रीजुं निर्गमद्वार बताव्युं छे. (द्रव्यथी) मिथ्यात्वरूप अंधकार आदि दोषोथी निर्गत (नीकळेलो)। जे पुरुष, तेथी नीकळेलं आ अध्ययन, क्षेत्रथी अपापा ( मध्यम) नगरीमा, कालथी वैशाख शुक्ल इग्यारंसनी प्रथम पोरसीने विषे अने भावथी क्षायिकभावमा वर्तमान होवाथी-आ प्रमाणे आनो गुरुपर्वक्रम( गुरुपरंपरा )रूप संबंध देखाडेलो छे. बली तथाविध भगवाने जे कहेलुं छे ते सप्रयोजन ज छे. एवीरीते सामान्यथी आ अध्ययननी सप्रयोजनता दर्शावी. परम ऐश्वर्यवान जिनेश्वरो पुरुषार्थने बिनउपयोगी कहेता नथी, कारण के तेम कहेबाथी भगवानपणानी हानि थाय. आ ज कारणथी आनो उपाय-उपेय( कारणकार्य )भावरूप संबंध पण देखाडेल छे. भगवाने जे कहेलुं ते आ सूत्ररूपे गुंथायेलु ए उपाय अने पुरुपार्थ ए उपेय जाणवो. आकारणथी ज श्रोताओ श्रवणमा प्रवर्तेल छे. कहेलुं छे के-सांभलनार, सिद्ध छे संबंध जेना एवा निर्णीत अर्थवाला शब्दने सांभळवा माटे प्रवर्ते छे. ते कारणथी शास्त्रनी शरुआतमा प्रयोजन सहित संबंध कहेबो जोइए. 'एवमिति आ शब्दथी भगवानना वचनथी आत्म ( अमारुं ) वचन जुदुं नथी, आ कारणथी ज स्ववचन- प्रमाणपणुं बतावेलुं छे. सर्वज्ञवचनना अनुवादरूप मात्र अमारुं वचन छे, अथवा एवमिति-विषयपणाए करी एकत्वादि प्रकार कहेल छे. अविषयपणानी शंकावडे कागडाना दांतनी परीक्षामां जेम कोई प्रवृत्त थतो नथी तेम श्रोताओनी अप्रवृत्ति न थाय, ए हेतुथी 'आख्यातमितिआ शब्दथी कहेलुं वचन अपौरुषेय वचननो असंभव होवाथी अपौरुषेय वचनरूप नथी. कहुं छे के
१. बैशाख शुक्ल दशमीना दिवसे महावीर प्रभुने केवलज्ञान उत्पन्न घयु अने वैशाख मुद ११ ना तोर्थस्थापना करो तेथी अगीयारस जणावी छे.
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद 1॥१४॥
४१ स्थानावेयवयणं नमाणं, अपोरुसेयंति निम्मियं (तम्मयं) जेण। इदमच्चंतविरुद्धं, वयणंच अपोरुसेयं च ॥३१॥
* ध्ययने जं वुच्चइत्ति वयणं, पुरिसाभावे उ नेयमेवंति । ता तस्सेवाभावो, नियमेण अपोरुसेयत्ते।३। (युग्मम् )
१सूत्रम् जे हेतुथी अपौरुषेय वेद वचन निर्माण करायेल छे तेथी प्रमाणभूत नथी, कारण के वचन अने अपौरुषेय आ बंने परस्पर अत्यंत विरुद्ध छे. जे बोलाय छे ते वचन, पुरुषना अभावमां तो वचन ज क्याथी होय ? ते कारणथी अपौरुषेयत्वमां चोक्कस वचननो ज अभाव छ ( ३१-३२). अथवा आ ( वक्ष्यमाण) भगवाने कलुं छे, पण भीत वगेरेथी नीकळेलु नथी. कोइक आ प्रमाणे स्वीकारे छ-ध्यानमां प्राप्त थयेल अने ते प्रभु स्थिर थये छते चिंतामणि रत्ननी माफक यथाकाम (इच्छित जेम थाय तेम ) भींत बगेरेथी पण देशनाओ नीकळे छ (१). आ वर्णननो अस्वीकार करवा माटे कहे छ के-भीत वगेरेथी नीकळेल देशनाओ तो आप्तपुरुषवडे उपदेशायेली नहिं थाय, ते देशनाओमा विश्वास पण नहि थाय. कारण के आ देशनाओ कोणे कहेली छे तेवी शंका पण प्रगटशे. (२)
बधा पदना समुदायवडे पोतानी उद्धताईनो त्याग करवाथी गुरुना गुणोनी प्रभावनामां तत्पर एवा पुरुषोए शिष्यो माटे देशना करवी एम कहां. एवी रीते देशना आपवाथी शिष्यो गुरुओने विषे भक्तिपरायण थाय, भक्तिपरायणतावडे विद्यादिनी पण सफळता थाय. यदुक्तं१. ताल्बादि स्थानजन्य वचन छे अने अपौरुषेयमां तात्वादि स्थाननो अभाव होवाथी वचननो उच्चार न थइ शके नहि.
॥१४॥
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भत्तीए जिणवराणं, खिजंती पुव्यसचिया कम्मा।आयरियनमोकारेण, विजामंताय सिज्झंति ॥३३॥
जिनश्वरांनी भक्ति करवाथी पूर्वसंचित को क्षय पामे छे. आचार्यने नमस्कार करवाथी विद्या अने मंत्री सिद्ध थाय छे. (३३). अहिं नमस्कार ए भक्ति ज छ अथवा 'आउसंतेणं तिए शब्द भगवाननु विशेषण छ. आयुष्मान् चिरंजीवी भगवानवडे ए प्रमाणे तेनो अर्थ छे. आ विशेषणथी भगवाननुं बहुमान मंगळरूप होवाथी भगवान- बहुमानगर्भित मंगल कहेलुं छे. अथवा 'आयुष्मत्ते'ति बीजा माटे (परोपकार माटे) देशनादि प्रवृत्ति वगेरेथी, प्रशस्त आयुष्यने धारण करनारा मोक्षप्राप्ति करीने पण तीथनो तिरस्कारादि जोइने, अभिमानादि भावथी फरीने आ लोकमां आवनारनी जेम अप्रशस्त आयुषने धारण करता नथी. इतरधर्मी केटलाएकवडे आम कहेवाय छे के धर्मतीर्थना करनारा ज्ञानीओ, परमपद (मोक्ष) पामीने, तीर्थना तिरस्कारथी फरीने पण संसारमा आवे छे. जेमके
[यदा यदा हि धर्मस्य, ग्लानिर्भवति भारत ! । अभ्युत्थानमधर्मस्य, तदाऽऽत्मानं सृजाम्यहम् ॥ १॥] ___एवी रीते ज रागद्वेषनो समूल नाश नथवाथी तेनुं वचन अप्रमाणिक छे. रागादिनो समूल नाश थये छते कया कारणथी फरी आ लोकमां आगमननो संभव थाय ? अथवा आयुष्मता प्राणने धारण करनारा, परंतु सदा संशुद्ध सिद्धरूपे नहि तेने अकरण(अशरीर)पणाथी बोलवानो असंभव छे. अथवा 'आवसंतेणं ति ए मया शब्दनु विशेषण छे तेथी आङिति-गुरुए
१. प्रथम 'आउस ! तेणं' ए बे पदोना भिन्न भिन्न अर्थ कहेल छे. अहि आउसंतेणं एक शब्दरूप कहेल छे ने ते भगवाननु विशेषण छ. २ मोक्षमा जइने फरो संसारमा अवतार धारण करवो ए अप्रशस्त छे.
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र
सानुवाद ।। १५ ।। ★
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देखाडेली मर्यादावडे वसवुं, मर्यादाए वसवाथी - ए शब्दवडे परमार्थथी गुरुनी आज्ञामां रहेवारूप गुरुकुलबासनुं विधान अ छे. गुरुकुलबास ज्ञानादिना हेतुभूत छे. उक्तं च
णाणस्स होइ भागी, थिरयरओ दंसणे चरिते य । धन्ना आवकहाए, गुरुकुलवासं न मुंचति ॥३४॥ गीयावासोती धम्मे, अणाययणवज्जणं । निग्गहो य कसायाणं, एवं धीराण सासणं ॥ ३५॥ (युग्मं)
गुरुकुलवासमां रहेतो थको (साधु) श्रुतज्ञानादिनुं भाजन थाय, सम्यक्त्व अने चारित्रमां अतिशय स्थिर थाय माटे जेओ गुरुकुलबासने यावत् जीवनपर्यंत छोड़ता नथी तेओने धन्य छे ने तेओ धर्म-धनने मेळवनारा छे. (३४.) गीतार्थ बहुश्रुत पासे वस, साधुधर्ममां प्रीति, अनायतनो-साधुओने अयोग्य स्थानोनुं वर्जनुं, कषायोनो निग्रह - उदयमां आवेलने निष्फळ करवो. आ शिष्योने (गुरुकुलवासीओने ) शिखामण छे. अथवा 'आमसंतेणं' ति, आमृशता - भगवानना चरणकमलने भक्तिपूर्वक हस्तयुगलादिवडे स्पर्श करतां, आमृशता शब्दवडे आ प्रमाणे कहे छे. सर्व शास्त्रने जाणनार शिष्ये पण 'गुरुनी पगचंपी वगेरे विनयकार्य न छोडं जोईए. उक्तं च
जहाऽऽहिअग्गी जलणं णमंसे, णाणाहुतीमंतपयाभिसित्तं । एवायरीयं उवचिट्टएज्जा, अनंतणाणोत्रगओऽवि संतो ॥ ३६ ॥ १. आवसंतेणं अने आमुसंतेणं ए बने पाठांतर छे.
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१ स्थाना
ध्ययने
गुरुकुल
वासः
१ सूत्रम्.
॥ १५ ॥
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जेम आहिताग्नि (ब्राह्मण ) अनेक प्रकारनी आहुति (घृतादिनो प्रक्षेप) अने अग्नये स्वाहा ईत्यादि मंत्रपदोवडे अभिषेक करायेल अग्निने नमन करे छे तेम अनंतज्ञाननो प्राप्त थयो थको शिष्य पण आचार्यने विनयवडे सेवे. अथवा 'आउसंतेणं' ति-आजुषमाणेन-श्रवणविधिनी मर्यादावडे गुरुओनी आसेवनाथी. ए शब्दबडे पण एम सूचन कर्यु छे के शास्त्रोक्त विधिवडे योग्य स्थाने रहेल शिष्ये गुरु पासेथी सांभळवू जोईए, जेम तेम नहिं सांभळg. कहुं छे केनिद्दाविगहापरिवजिएहिं गुत्तेहिं पंजलिउडेहिं । भत्तिवहुमाणपुव्वं, उवउत्तेहिं सुणेयव्वं ॥३७॥
निद्रा अने विकथाने छोडीने, त्रण योगने काबमा राखीने, अंजली जोडीने, भक्ति अने बहुमानपूर्वक, जेम थाय तेम एकचित्ते उपयोगपूर्वक सांभळg जोइए. (३७.) एवीरीते पदनो अर्थ कहेवायो. पदविग्रह एटले समास सहिन पद, ते आख्यात आदि पदोमां दर्शावेल छे. हवे चालना (तर्क) अने प्रत्यवस्थान (समाधान) ते बंने शब्दथी अने अर्थथी कहे छे. तेमां शब्दथी ननु (शंका) मे आ शब्दनो मम अने मां-छट्ठी अने चोथी विभक्तिनो एकवचनांत छ, अस्मद् शब्दने मे आदेशथी मे-मह्यं व्याख्यान करवा योग्य छे. अहिं ग्रंथकार समाधान करे छे के 'मे' तृतीयाना एकवचनांत विभक्तिनो प्रतिरूपक आ अव्यय, अस्मद् शब्दना अर्थमां छे माटे दोष नथी. अर्थथी तो चालना (शंका ) वस्तु नित्य छे के अनित्य छे ? नित्य होय तो अप्रच्युत (नाश रहित ) उत्पन्न न थयेल, केवल स्थिररूप नित्यनो लक्षण होवाथी जे भगवाननी समीपमा सांभळवापणानो स्वभाव (हतो ) ते ज स्वभाव शिष्यने उपदेशपणामां केम संभवे ? वळी आनो (श्रोतानो ) पहेला स्वभावना त्यागमा अथवा
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र
सानुवाद ।। १६ ।।
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पूर्व स्वभावना नहिं त्यागवामां शिष्यने उपदेशकत्व होय ? जो त्यागवामां कहेशो तो 'हंत' इति खेदे वस्तुनुं नित्यपणुं नाश थयुं, वस्तु, वस्तुना स्वभावथी भिन्न नथी. कारण के स्वभावनो क्षय थये छते वस्तुनो क्षय थाय छे. ए हेतुथी अपरित्याग पक्ष जो तमे कहेशो तो ते पण नहि घटे, कारण के युगपत् ( एक ज समये ) विरुद्ध वे स्वभावनो असंभव होय छे. जो ए नित्यपक्ष स्वीकारशी तो ते पण योग्य नथी, कारण के सर्वथा नाश पामते छते श्रोतानो श्रवणकालमा ज विनाश होवाथी अने कथनना समयमां बीजानी ज उत्पत्ति होवाथी कहेवानो प्रसंग नहि आवे. यज्ञदत्ते सांभळेल देवदत्तना न कहेवानी जेम. अहिं नयना मतवडे समाधान करे छे. ए हेतुथी नयद्वारनुं अवतरण करे छे-नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ अने एवंभूत ए सात नयो छे. तेमां पहला ऋण नयो, द्रव्य ए ज अर्थ छे एम कहेवावडे द्रव्यार्थिक नयमां अवतरे छे. बीजा चार नयो, पर्याय ए ज अर्थ छे एम कहेवावडे पर्यायार्थिक नयमां अवतरे छे. ते ज उभय मतनो आश्रय की छते द्रव्यार्थ - पणा वस्तु नित्य अने पर्यायार्थपणे तो वस्तु अनित्य छे; माटे ( स्याद्वादपक्षे ) नित्य - अनित्य वस्तु छे. आ हेतुथी गोळ अनेसूनी माफक प्रत्येक पक्षमां कहल दोपनो अभाव छे. एवी ज रीते सर्व व्यवहारनी प्रवृति थाय छे. कहें छे केसव्वं चिय पइसमयं, उप्पज्जइ नासए य निच्चं च । एवं चेव य सुहदुक्ख - बंधमोक्खादिसब्भावो॥३८॥
१. कारण ? सांभळनार यज्ञदत्तनो विनाश होवाथी ते कहो शके नहि, देवदत्त विद्यमान होवा छतां पण सांभळवाना अवसरे नहि होवाथी न सांभळेलुं केम कहो शके ?
२. गुडो हि कफहेतुस्स्यात्, नागरं पित्तकारणम् । उभयोर्न हि दोषस्या- तद्वयमौषधं भवेत् ॥ १ ॥
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१ स्थानाध्ययने
१ सूत्रम् .
॥ १६ ॥
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सर्व वस्तु प्रतिसमये उत्पन्न धाय छे, नाश पामे छे अने नित्य छे. आ बन्ने ( नित्यानित्य ) प्रकारे वस्तुने स्वीकारवाथी सुख, दुःख, बंध अने मोक्षादिनो सद्भाव घटी शके छे. सूत्रस्पर्शिकनियुक्ति अनुगम कह्यो तेत्री रीते स्वीकारेल सूत्रानो आश्रय करीने सूत्रानुगम, सूत्रालापकनिक्षेप, सूत्रस्पर्शिकनिर्युक्ति, अनुगम अने नयो दर्शावेला छे. क्रमपूर्वक भाष्यकारनुं वचन आराध्युं छे स्वीकारेल छे ते भाष्यनुं वचन आ प्रमाणे:
सुत्तं सुत्ताणुगमो, सुत्तालावगकओ य निक्खेवो । सुत्तप्फासियनिज्जुत्ति, नया य समगं तु वच्चंति ॥३९॥ गाथाना भावार्थ उपर कहेल छे. ए द्वारोनो विषय भाष्यकारे कल छे.
होइ कयत्थो बोत्तुं, सपयच्छेयं सुअं सुयाणुगमो । सुत्ताला वगनासो, नामाइन्नासविनियोगं ॥ ४० ॥ सुत्तप्फासियनिज्जुत्ति - निओगो सेसओ पयत्थाई । पायं सो च्चिय नेगम - नयाइमयगोयरो, होइ ॥ ४१ (यु०)
अस्खलितादि गुणयुक्त सूत्र अने तेनो पदच्छेद कहीने सूत्रानुगम कृतार्थ ( सफल ) थाय छे, नामादि निक्षेपनो संबंध मात्र कहीने सूत्रालापक निक्षेप सफल थाय छे अने शेष पदार्थ, पदविग्रह, चालना अने प्रत्ययवस्थानरूप व्याख्या सूत्रस्पर्शिकनिर्युक्तिमां उपयोगी थाय छे. ते पदार्थादि प्रायः नैगमादि नयना अभिप्रायथी जणाय छे. पदार्थादि कहे छते ज नैगमादि नयोनी प्रवृत्ति छे. (४०-४१)
एवी रीते दरेक सूत्रमां पोतानी मेळे अनुसरण करवुं. अमे तो कोई स्थाने कंडक संक्षेप अर्थने कहेशुं. हमणा जे भगवाने
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥१७॥
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कधु ते कहेवाय छे. तेमां सर्व पदार्थोने जाणवा माटे सम्यग् मिथ्याज्ञान, श्रद्धा अने क्रियाद्वारा उपयोग जोडवाथी आत्मानु१ स्थानासर्व पदार्थमा प्रधानपणुं छे. आ हेतुथी सूत्रकार प्रथम आत्मानो विचार कहे छे.
ध्ययने एगे आया । सू० २
एकानेकामूलार्थः-आत्मा एक छे (मू०२)
त्मासिद्धिः टीकार्थः-कोइक अपेक्षाए ( संग्रह नयनी अपेक्षाए) आत्मा एक छे, वे त्रण आदिरूप आत्मा नथी. तत्र अतति
२ सूत्रम्. सततमवगच्छति-अहिं 'अत' धातु सातत्य गमनना अर्थमा छ ए वचनथी 'अत' धातु गतिना अर्थवाळो छे अने गत्यर्थ धातुओ ज्ञानना अर्थवाला होय छे तेथी करीने "अनवरतं जानाति" जे निरंतर जाणे छे ते आत्मा (जीव), अहिं आत्मा शब्द निपातथी सिद्ध थयेल छे, केम के आत्मानुं लक्षण उपयोग छ तेथी अर्थात् सिद्ध संसारी एबे अवस्थामा पण उपयोगभाववडे निरंतर जाणवापणुं छे तेथी. तथा निरंतर बोधनो अभाव मानीए तो अजीवपणानो प्रसंग प्राप्त थाय अने अजीवपणुं थवाथी तेमां फरीथी जीवत्वनो अभाव छे अने फरीथी जीवत्वभाव स्वीकारवामां आकाशादिने पण जीवपणानो प्रसंग आवशे, अने एम मानवाथी जीवन अनादिपणुं स्वीकारखानो अभाव उद्भवशे ( अर्थात् जीवन अनादिपणुं नहि घटे) अथवा जे निरंतर पोताना ज्ञानादि पर्यायोने प्राप्त करे छे ते आत्मा. शंका-एम १. आत्माना विचारमा टोकाकार प्रथम व्युत्पत्त्यर्थ दशाव छे.
॥१७॥
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मानवाथी आकाशादिने पण आत्म शब्दना व्यवहारनो प्रसंग आवशे, कारण के आकाश विगेरे पण पोताना पर्यायोमा सतत गमन करे छे. जो एम नहि मानीए तो आकाशादिमां पण अपरिणामत्ववडे अवस्तुपणानो प्रसंग आवशे. उत्तर-नैवम्एम नथी; केम के अतति सततं गच्छति' इत्यादि व्युत्पत्तिमात्रनुं निमित्तपणुं छे अने उपयोग ज प्रवृत्तिमा निमित्त छे तेथी जीव ज आत्मा छे पण आकाशादि आत्मा नथी. अथवा संसारीनी अपेक्षाए भिन्न भिन्न गतिओमां निरंतर जवाथी अने मुक्त्त( सिद्ध )नी अपेक्षाए भृतकालमा जे आत्मा हतो ते ज वर्तमानमा होवाथी आत्मा छे. तेनुं एकपणु कथंचित ज छ ते बतावे छे:-द्रव्यार्थपणे एकपणुं छे कारण के आत्मानुं एक द्रव्यपणुं छे अने प्रदेशार्थपणे तो आत्मानु असंख्य प्रदेशपणुं होवाथी अनेकपणुं छे. तेमां द्रव्यरूप अथेनो जे भाव ते द्रव्यार्थता, प्रदेशगुण अने पर्यायनी आधारता अर्थात् जे अवयवी ते द्रव्यपणुं छे. प्रकृष्ट-जेना के विभाग केवलीना ज्ञानथी पण न थाय ते प्रदेश अर्थात् निरवयव अंशरूप अर्थनो जे भाव ते प्रदेशार्थता, गुण अने पर्यायनी आधारतारूप अवयव लक्षण विशिष्ट अर्थपणुं जाणवू. शंका-अवयवी द्रव्य ज नथी. गधेडाना शीगडानी माफक द्रव्यनो असंभव होवाथी वक्ष्यमाण (कहेवाता) वे विकल्पवडे अवयवी द्रव्य नथी. कहे छ के-अवयवी द्रव्य अवयवोथी भिन्न छे के अभिन्न छे ? अभिन्न पक्ष तमे स्वीकारी शकशो नहि; कारण अभेद छते अवयवी द्रव्यनी जेम अवयवोर्नु पण एकपणु थाय अथवा अवयवनी जेम अवयवी द्रव्य- पण अनेकपणुं थाय. अन्यथा भिन्न पक्ष ज सिद्ध थाय छे, केम के विरुद्ध धर्मर्नु जे आभासन ते भेदन कारण छे. जो भिन्न पक्ष स्वीकारशो तो अवयवी द्रव्य अवयवोथी भिन्न छ तो ते सर्व अवयवोमा सर्वथा
१. आकाशादि पोताना पर्यायोमा गमन करे छे, परंतु तेमां उपयोगनी प्रवृत्ति नथी. २. गुणपर्यायनो जे समुदाय ते प्रव्य.
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद
१. स्थाना| ध्ययने
एकानेका|त्मासिद्धिः २ सूत्रम्.
॥ १८॥
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समस्तपणे जणाय छ ? के देशथी भिन्न जणाय छे ? जो सर्वात्मपणे कहेशो तो अवयवनी संख्या प्रमागे अवयवी द्रव्यनी संख्या थाय त्यारे अवयवी द्रव्यर्नु एकप' केम घटे ? अने देशी भिन्न कहेशो तो जे देशा(विभागो)वडे अवयवोमा अवयवी द्रव्य वत्त छे ते देशोमां पण ते केवी रीते प्रवत् छ ? देश के सर्वथी ? जो सर्वथी कहेशो तो पूर्वोक्त दोष आवे छे. जो देशथी कहेशो तो ते देशोमां पण केम थाय ? देशथी तेना देशोमां तेना देशोमां, एम विकल्पो करवाथी | अनवस्था दोष थाय छे. समाधानचे विकल्पवडे अवयवी द्रव्यर्नु जे अघटमान कयुं ते तमारं कथन अयुक्त छे. अमे
एकांतथी भेद अथवा अभेदनो स्वीकार ज करता नथी. अवयवोज तथाविध एकपरिणामपणे (एक पिंडरूपे रहेवाथी) अवयवी द्रव्यपणे व्यवहार कराय छ अने ते (अवयवो ) ज तथाविध भिन्न भिन्न परिणामोनी अपेक्षाए अवयवो कहवाय छे. अवयवी द्रव्यनो अभाव स्वीकार कर्ये छते आ घडाना अवयवो छ अने आ वस्त्रना अवयवो छे एम जे भिन्नता अनुभवाय छे ते थई शकशे नहि. तेमज अमुक समये अमुक ज कार्य करवानी इच्छावाळाओने चोकस करेल वस्तुनुं ग्रहण नहि थाय; अने कोई पण जातना कार्यनो नियम ज नहि रहे. सन्निवेश( वस्तुविषयना संकेत )थी घटादिना अवयवोनी प्रतिनियतता-प्रत्येकमां नियम| पणुं थशे एम जो कहो तो ते सत्य छ, कारण के तेज सन्निवेश विशेष अवयवी द्रव्य छे. बली विरुद्ध धर्मनो अध्यास एज
भेदन कारण छ, एम जे कहेलं ते पण बरोबर नथी केम के प्रत्यक्ष ज्ञानने परमार्थ[ प्रत्यक्ष ]नी अपेक्षाए भ्रांतपणुं छे अन संव्यवहार प्रत्यक्ष ]नी अपेक्षाए अभ्रांतपणुं छे. भ्रांतत्व अने अभ्रांतत्वनो अमारावडे स्वीकार कराएलो होवाधी जो तमे कहेशो
१. अहि कथंचित् अभेद पक्ष कह्यो. २ अहि कचित् भेद वह्यो.
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भ्रांत अने अभ्रांत केम घंटे ? एम पण तमे कहेवा माटे शक्तिमान हो तो अमे आ प्रमाणे कहीए छीए के - अवयवनी जेम अथवा नीलवर्णनी माफक अव्यभिचारीपणे तेमज प्रतिभासमान होवाथी अवयवी द्रव्य विद्यमान छे. आ हेतु असिद्धं नथी, कारण के जैम छे तेम प्रतिभासनो अनुभव थाय छे तेमज उक्त हेतु अनैकान्तिक अने विरुद्ध पण नथी, कारण के सर्व वस्तुनी व्यवस्था प्रतिभासने आधीन छे, अगर जो एम नहि मानो तो कोई पण वस्तु सिद्ध नहि थाय. पूर्वपक्षी कहे छे के- केवल अवयवी द्रव्य हो, पण आत्मा आत्मानो प्रत्यक्षादि [ प्रमाणो ]वडे साक्षात्कार न होवाथी विद्यमान नथी. ते आ प्रमाणे- आत्मा अतीन्द्रिय होवाथी प्रत्यक्षवडे ग्रहण करवा योग्य नथी, अनुमानग्राह्म पण नथी. लिंग ( हेतु ) अने लिंगी (पक्ष) ए बने नो साक्षात् संबंध देखवावडे अनुमान प्रमाणनी प्रवृत्ति थाय छे. आत्मा आगमप्रमाणवडे पण जणातो नथी, कारण के आगमोनो परस्पर विसंवाद [ मतभेद ] छे. समाधान-आ असाक्षात्कारता शुं ? ते एक पुरुषने आश्रित छे अथवा वधा पुरुषाने आश्रित छे ? जो एक पुरुषने आश्रित कहेशो तो तेथी वस्तु रहेते छते एक पुरुषाश्रित अनुपलभ्यपणानो संभव होवाथी आत्मानो अभाव सिद्ध थतो नथी. कोई एक पुरुषविशेषनुं घटादि वस्तुनो ग्राहक जे प्रमाण प्रवर्त्ततुं नथी, एटलुं ज कहेवाथी सर्वत्र अने सर्वकालमा घटादि अर्थ ग्राहक प्रमाणनो अभाव छे एम निर्णय करवा माटे तमे शक्तिमान नथी. प्रमाणनी निवृत्तिमां प्रमाणनुं प्रमेय कार्यपणुं होवाथी प्रमेय निवर्त्तन थतुं नथी. कार्य ( घटादि ) ना अभावमां कारण ( दंडादि )नो अभाव देखा तो नथी माटे अनुपलंभ हेतु अनैकांतिक दोषवाळो छे अने बधा पुरुषोने आश्रित अनुपलंभ पक्ष असिद्ध छे, माटे आ अनुपलंभ हेतु प्रक्षमां हेतुना अभाव ते असिद्ध. २ उपलब्धि,
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र
सानुवाद
॥ १९ ॥
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१ पोतानो अनुभव.
असिद्ध छे. तथा सर्वज्ञ हेतुथी बधा मनुष्यो सर्वदा अने सर्व स्थले आत्माने जोता नथी एम कहेवाने तमे समर्थ नथी. वळी कई विशेष कहे छे-घडानी माफक प्रत्यक्षादि प्रमाणोवडे साक्षात्कार होवाथी आत्मा छे. आ हेतु असिद्ध नथी जेथी अमारा जेवा वगेरेने पण प्रत्यक्षथी आत्मा जणाय छे. आत्मा ज्ञानथी भिन्न नथी, कारण के ज्ञान आत्मानो धर्म छे ज्ञान स्वसंवेदनरूप छे अने प्रथम नीलनुं ज्ञान उत्पन्न थयेलं हतुं इत्यादिनी जे स्मृति थवा पामे छे ते ज्ञाननुं स्वसंवेदनपणुं छे. स्वसंवेदन ज्ञान न थये छते स्मृति थती नथी. ( जो स्मृति थती होय तो ) प्रमाता ( जाणनार ) ना बीजा ज्ञाननी ( नहिं अनुभवेल ज्ञानी ) स्मृति थवानो प्रसंग आवशे. ते माटे आत्माथी अव्यतिरिक्त (अभेद ) ज्ञानरूप गुणनुं प्रत्यक्षपणुं छते गुणी जे आत्मा ते प्रत्यक्ष ज छे. अहिं दृष्टांत कहे छे-घटना रूप गुणनो प्रत्यक्ष थये छते गुणी जे घट ते प्रत्यक्ष थाय छे. कर्तुं छे के— गुणपच्चक्रवत्तणओ, गुणी वि जीवो घडोव्व पञ्चक्खो । घडओव्व घिप्पइ गुणी, गुणमित्तग्गहणओ जम्हा ॥ ४२ ॥ अण्णोऽणन्नो व गुणी होज गुणेहिं ?, जइ णाम सोऽणन्नो । णाणगुणमत्तगहणे, घिप्पड़ जीवो गुणी सक्खं ॥ ४३ ॥
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१. स्थानाध्ययने आत्म
सिद्धिः
२ सूत्रम् .
॥ १९ ॥
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KXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX)
अह अन्नो तो एवं गुणिणो न घडादयो वि पच्चक्खा ।
गुणमित्तम्गहणाओ, जीवम्मि कुतो विआरोऽयं? ॥ ४४ ॥ गुण-स्मृत्यादि-ना प्रत्यक्षपणाथी घडानी माफक गुणी जीवनो प्रत्यक्ष थाय छे. पूर्वपक्षगुणना प्रत्यक्षपणाथी गुणीनो प्रत्यक्ष थाय छे ए हेतु अनैकान्तिक छे, केमके आकाशनो गुण जे शब्द ते प्रत्यक्ष छे परंतु गुणी आकाशनो प्रत्यक्ष थतो नथी. उत्तरपक्ष-रूपादिनी माफक शब्द इंद्रियग्राह्य होवाथी आकाशनो गुण नथी परंतु पुद्गलनो गुण छ, माटे तमे कहेल के हेतु अनेकांतिक छे तेम नथी. गुणोर्नु प्रत्यक्षपणुं छते गुणीनुं प्रत्यक्षपणुं केम थाय? एम जो कहेता हो तो अमो पूछीए छीए के-गुणोथी गुणीने भिन्न मानो छे के अभिन्न ? जो अभिन्न होय तो ज्ञानादि गुणने ग्रहण करवा मात्रथी गुणी (आत्मा) साक्षात् ग्रहण थाय ज, जो गुणोथी गुणी भिन्न छ तो घट आदि गुणी तेना रूपादि गुणोनुं प्रत्यक्ष थवाथी जे ग्रहण थाय छे ते पण न थर्बु जोइए. जो आ प्रमाणे छे तो केवल जीवना अभावना ज विचार शाथी थाय छे ? (४२-४३-४४.)
जेओ सर्व पदार्थसमूहना स्वरूपना आविर्भाव( प्रकाश )मां समर्थ ज्ञानीओ छे तेओने तो सर्वात्मभावे (सर्वथा ज) प्रत्यक्ष थाय छे. तेमज अनुमान प्रमाणवडे आत्मा जणाय छे ते आ प्रमाणे-आ शरीर विद्यमान कावडे भोग्यपणुं होवाथी भात. वस्त्रं वगैरेनी जेम करायेलुं छे. आकाशनुं फूल विपक्ष दृष्टांत छे. ते विद्यमान कर्ता जीव छे. शंका-ओदनना कर्तानी माफक
१. आत्मा भोक्ता अने शरीर भाग्य छे. २. ए सपक्ष दृष्टांत छ. ३. आदान अने आदेयपणुं अर्थात् ग्राहक-ग्राह्य नहि होवाथी.
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥ २० ॥
१स्थानाध्ययने आत्म
सिद्धिः २ सूत्रम्,
आत्मा मृत्त सिद्ध थाय छे, माटे 'भोग्यत्व' हेतु, साध्य जे अमूर्त आत्मा ते भोग्यत्वथी विरुद्ध हेवार्थी साध्यविरुद्ध छे. समाधान-ए तमारुं कथन योग्य नथी. संसारी जीवने मूर्तपणे पण स्वीकारेल होवाथी भोग्यत्व हेतु साध्यविरुद्ध नथी. भाष्यकार कहे छे के:जो कत्तादि स जीवो, सज्झविरुद्ध(द्धो)त्ति ते मई हज्जा।मुत्ताइपसंगाओ,तं नो संसारिणो दोसो॥४५॥
आ गाथानो भावार्थ उपर कहल छ. लिंग अने लिंगी( हेतु ने पक्ष )ना साक्षात् संबंधना देखवावडे अनुमाननी प्रवृत्ति थाय छ, ए तमारूं कहे, अयोग्य छ कारण के ए हेतु अनैकान्तिक दोषवाळो छे. लिंगी साथे व्याप्तिवाळो जे लिंग तेना उपलंभना अभाववडे अनुमाननीज एकांतथी अप्रवृत्ति छे. हास्य, रुदन वगेरे लिंग (हेतु) विशेष जे, ग्रहाख्य लिंगी पिशाचादि )ना व्याप्ति ज्ञान विना पण पिशाचादिनु अनुमान करावे छे. जो तमे एम कहेशो के देह ए ज पिशाच छे, परन्तु तेम नथी कारण के व्याप्ति ज्ञानना नियामकी ज्यां ज्यां देह छे त्यां त्यां पिशाचर्नु दर्शन थq जोईए पण बीजाना देहमां पिशाच देखातो नथी. वली भाष्यकार कहे छे के:सोऽणेगंतो जम्हा, लिंगेहि समं अदिट्रपुव्वोवि। गहलिंगदरिसणातो, गहोऽणुमेयो सरीरंमि ॥४६॥ लिंगो( हास्यादि चिह्नो )बडे पूर्व नहि जोयेल जे पिशाच तेना हास्यादि चिह्नोवडे आ शरीरमां पिशाच छे एम अनु१. आत्मा आठ कर्म अने शरोर सहित होवाथी कथंचित-सापेक्षताप मूर्त पण छे.
॥२०॥
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मान करवा योग्य छे, माटे तमारो हेतु अनैकान्तिक छे. आत्मा आगमप्रमाणवडे जणाय हे.
'एंगे आया' ए ज वचनथी अन्य आगमोवडे आत्माना विसंवादनी संभावना करवा योग्य नथी, कारण के आ आगमने सुनिश्चित आप्तपुरुपे कल छे, अहिं घणुं कहेवानुं छे ते स्थानांतरथी जाणवुं. आत्मानो अभाव छते जातिस्मरणादि अने मृत्यु पामेल पिता, दादा बगेरेथी करायेल अनुग्रह अने उपघात ( लाभ-हानि ) प्राप्त नहिं थाय. आत्ममनुं सप्रदेशपं तो अवश्य स्वीकारवा योग्य छे. अवयवना अभावमां तो हस्तादि अवयवांना एकत्व ( एकपणा )नो प्रसंग आवशे अने दरेक अवयव प्रति स्पर्शादिनी अनुपलन्धिनो प्रसंग आवशे. ग्रीवादि दरेक अवयवमां जणातुं रूप गुणविशिष्ट घडानी जेम चैतन्य( उपयोग ) लक्षणरूप आत्माना गुणनो साक्षात्कार थवाथी प्रदेश सहित आत्मा दरेक अवयवमां है. उक्तरीत्या द्रव्यार्थपणाए एक आत्मा छेए स्थापन करें. अथवा एक आत्मा कथंचित्-सापेक्षताए दरेक क्षणमां संभावित भिन्न भिन्न कालवडे करायल कुमारपणं, तरुणपणुं, नरपशुं अने नारकपणुं वगेरे पर्यायोथी उत्पत्ति अने विनाशनो योग छते पण द्रव्यार्थपणाए आत्मानुं एकपणुं छे. जो के कालकृत पर्यायोवडे वस्तु उत्पन्न थाय छे अने नाश पामे छे तो पण स्वर्पर्याय अने परपर्यायरूप अनंतधर्मात्मक वस्तु होवाथी वस्तुनो सर्वथा नाश योग्य नथी. कं छे केः
न हि सव्वहा विणासो, अद्धापज्जायमित्तनासंमि । सपरपज्जायाणंत - धम्मुणो वत्थुणो जुत्तो ॥ ४७ ॥
१. स्वपर्याय स्वद्रव्यादि ते आत्ममां अस्ति स्वभावधी छे अने परपर्याय परद्रव्यादि ते आत्ममां नास्ति स्वभावथी छे.
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र
सानुवाद
॥ २१ ॥
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आ गाथानो अर्थ कल छे. ' प्रतिक्षणं क्षयिणो भावा ' इति आ वचनथी तमारा प्रतिपाद्य विषयनुं जे क्षणभंगुररूप विज्ञान उत्पन्न थाय छे ते क्षणिक विज्ञान वाक्यार्थ ग्रहण परिणामथी असंख्यात समयोवडे ज थाय छे. दरेक समयमां बोलनारनो नाश थये छते क्षणिक विज्ञान ज तमे कही शको तेम नथी. जे कारणथी पद संबंधी एक एक अक्षर पण असंख्यात समयमा उत्पन्न थाय छे. संख्यात अक्षरवाळु पद छे, संख्यात पदवाळं वाक्य छे; माटे तेना अर्थना ग्रहण परिणामथी समयमां ज नाश पामेल बक्तानो सर्व क्षणभंगुर विज्ञानवाद अयोग्य छे. कधुं छे केः
कह वा सव्वं खणियं विन्नायं ?, जई मई सुयाओत्ति । तदसंखसमयसुत्तत्थ -गणपरिणामओ जुत्तं ॥४८॥ नउ पइसमयविणासे, जेणेक्क्क्कक्खरंपि य पयस्स । संखाईयसमइयं संखेज्जाई पयं ताई ॥ ४९ ॥ संखेज्जपयं वक्कं तदत्थगहण परिणामओ होजा। सव्वखणभंगनाणं, तदजुत्तं समयनट्ठस्स ॥ ५० ॥
आ त्रण गाथानो भावार्थ उपर कहेल छे. सर्वथा नाश स्वीकारे छते तृप्ति, श्रम, ग्लानि, साधर्म्य, विपक्ष, प्रत्ययादि, तथा अध्ययन, ध्यान अने भावना ए सर्वे नहि घटी शके; कारण के पूर्व संस्कारनी अनुवृत्ति ( परंपरा ) मां तृप्ति वगेरेनी योग्यता होड़ शके [ जमके भोजन करती वखते भोजन करनार क्षणिक होवाथी प्रत्येक काळ लेतां भोजन करनार भिन्न भिन्न थशे अने भोजनक्रियाने अंते ते भोक्ता पण रहेशे नहि तो तृप्ति कोने थशे ? एम श्रम वगेरेमां जाणी लेवुं ]. भाष्यकार कहे छे के:१. दरेक क्षणमां भवो नाशवंत छे.
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१ स्थाना
ध्ययने
आत्म
सिद्धिः
२ सूत्रम्.
॥ २१ ॥
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तित्ती समो किलामो, सारिक्खविवक्खपच्चयाईणि । अज्झयणं झाणं भावणा य का सव्वनासंमि ? ॥ ५१ ॥
आ गाथानो भावार्थ उपर आभी गयेल छे. अहिं घणुं कहेवानुं छे ते तो स्थानांतरथी जाणवुं तेवी ज रीते स्थिति (ध्रुव), उत्पत्ति अने नाशरूप आत्मा, ध्रुवता ( सत्ता ) नी अपेक्षाए नित्य छे, अने नित्यपणुं होवाथी एक छे. उत्पत्ति अने नाशनी अपेक्षाए तो आमा अनित्य छे अने अनित्यपणुं होवाथी अनेक छे. भाष्यकार पण कहे छे के:जमणंतपज्जय मयं वत्थं भवणं च चित्तपरिणामं । ठिइविभवभङ्गरूवं, णिच्चाणिच्चाइ तोऽभिमयं । ५२ ।। सुहदुक्खबंध मोक्खा, उभयनयमयाणुत्रवत्तिणो जुत्ता । एगयरपरिच्चाए, सव्वव्यवहारवुच्छित्ति । ५३। (युग्मं )
दरेक वस्तु अनंतपर्यायवाळी छे, अने त्रिभुवननी पेठे उत्पाद, स्थिति अने नाशरूप नित्यानित्यादि अनेक विचित्र परिणामवाली मानेल छे माटे उभय नयना मतने अनुसरनाराने ज सुख-दुःख, बंध - मोक्ष वगेरे घटी शके छे, पण बेमाथी एक नयने छोडी देवाथी सर्व व्यवहारनो विच्छेद थाय छे. (५२-५३) वळी कथंचित् आत्मा एक छे ते कारणथी जैनोना मतमां पदार्थनो सामान्य विशेष उभयरूप होवाथी कोइपण पदार्थ एक अथवा अनेक सर्वथा नथी. जो कहेशो के वस्तु विशेषरूप ज छे, तो विशेषोथी भेद - अभेदस्वरूपवडे - विचारतां जे सामान्यनो असंबंध छे ते आ प्रमाणे१. केमक पर्यायनयना मते सर्वथा नाश यतो होवाथी मरेलानो पेढे सुखदुःखादि न संभवे अने द्रव्यनयना मते आकाशादिनी पेठे सर्व नित्य होवाथी सुखदुःखादि न घटी शके.
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श्रीस्था
नाङ्गसूत्र
सानुवाद
।। २२ ।।
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सामान्य, विशेषोथी भिन्न छे के अभिन्न ? ते साक्षात् जणातो न होवाथी भिन्न नहि थाय, केमके साक्षात नहि देखाती वस्तुनो विद्यमानता (सत्ता) वडे व्यवहार करवाने शक्य नथी. जो अविद्यमान वस्तुनो पण व्यवहार स्वीकारशो तो गधेडाना शींगडानो पण प्रसंग आवी जाय. अथवा जो अभिन्न पक्ष ( सामान्य विशेषोथी अभिन्न ) स्वीकारशो तो वे सामान्य मात्र छे के विशेष मात्र छे ? जो सामान्य मात्र होय तो एक (आत्मा) ने विषे सामान्य एक होय नहि, कारण के सामान्य एक थयाथी संकीर्ण व्यवस्था थशे. जेम घटमां घटत्व सामान्य छे पण कंबू, ग्रीवादि विशेषनी प्रतीति थशे नहि. जो विशेष मात्र स्वीकारशो तो विशेषो अनेक रूप छे तेथी संकीर्ण व्यवस्था थवा नहि पामे, तेम एक आत्माने विषे आत्मत्व सामान्य छे अने दुःखसुखादि विशेष छे; माटे सामान्य स्वीकार थवाथी दुःखसुखादिनी प्रतीति थशे नहि. अहिं टीकाकार कहे छे—अमारावडे सामान्य अने विशेषनो एकांतथी भेद-अभेद स्वीकार करायेल नथी परंतु असदृश रूप मुख्यताए अने सदृश रूप गौणताए लड्ने विषमतावडे जाता विशेषो ज, विशेष रूपे कहेवाय छे. ते ज विशेषो, अतुल्य रूप गौण करीने अने तुल्य रूप मुख्य करीने समपणे जणाता सामान्य रूप कहेवाय छे. कं छे केः
१. ब्राह्मण क्षत्रियादि जातिविशेषमां मनुष्यमां मनुष्यत्वरूप सामान्यने गौण करी अने क्षत्रियादिनी अपेक्षाए ब्राह्मणने मुख्य करीने विशेषनो व्यवहार कराय छे. २ ब्राह्मण क्षत्रियादि जातिविशेषने गौण करी अने मनुष्यत्वरूप सामान्यने मुख्य करी अर्थात् सर्व मनुष्यो सरखा छे एम सामान्य व्यवहार कराय छे.
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१ स्थाना
ध्ययने
एकात्मनि
सामान्यविशेषवादः
॥ २२ ॥
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निर्विशेषं गृहीताश्च भेदाः सामान्यमुच्यते । ततो विशेषात्सामान्य- विशिष्टत्वं न युज्यते ॥ ५४ ॥ वैषम्यसमभावेन, ज्ञायमाना इमे किल । प्रकल्पयन्ति सामान्य- विशेषस्थितिमात्मनि ॥ ५५ ॥
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तेज कारणथी ज सामान्य रूपवडे आत्मा एक छे अने विशेष रूपवडे अनेक छे. व्यतिरेकधी एक आत्माना अभाववडे शेष ( अनेक ) आत्माओने अनात्मापणानो प्रसंग आववाथी आत्माओनुं तुल्य रूप नथी, एम कहेवुं नहिं; कारण के तुल्य रूप उपयोग ले - 'उपयोगलक्षणो जीव' इति वचनात् उपयोगरूप एक लक्षणपर्णु होवाथी सर्व आत्माओ एक रूपवाळा छे. एवी रीते एक लक्षण होवाथी एक आत्मा छे अथवा जन्म, मरण अने सुखदुःखादिना संवेदनो ( भोगववामां ) कोइ पण | अन्य सहायक नहि होवाथी एक आत्मा छे एम भाव अहिं सर्व सूत्रानेविषे कथंचित् ( कोइक अपेक्षा) नुं स्मरण कर. अविरोध कथंचित्वादने सर्व वस्तुनी व्यवस्थानुं निबंधन होवाथी. कयुं छे के स्याद्वादाय नमस्तस्मै, यं | विना सकलाः क्रियाः लोकद्वितयभाविन्यो, नैव सात्यमिति ॥ १॥ ते स्याद्वादने नमस्कार थाओ के जे स्याद्वाद विना
लोकमां नारी सर्व क्रियाओ योग्य संगतिने पामती नथी. तथा-नयास्तव स्यात्पदसत्त्वाञ्छिता, रसोपविद्धा इव लोहधातवः । भवन्त्यभिप्रेतफला यतस्ततो, भवन्तमायाः प्रणता हितैषिणः || २ || रसवडे सिद्ध करेल लोह धातुओनी जेम स्यात्पदरूप सच्चवडे लांञ्छित तमारा नयो ( नैगमादि ) छे, जेथी इच्छित फळने आपनारा थाय छे, तेथी १ आ वे लोकोनो भावार्थ उपरोक्त छे.
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श्रीस्थानाङ्ग सूत्र
सानुवाद ॥ २३ ॥
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तेमने हितेच्छु आर्यपुरुषो नमस्कार करे छे. (सू. २ )
आत्मानुं एकपणुं उपर कहेल रीतिथी स्वीकार कर्या छतां पण केटलाएक ( दर्शनकारो ) बडे आत्मानुं निष्क्रियपणुं स्त्रीकार करायेलुं छे. आ कारणथी तेनुं निराकरण ( खंडन ) करवा माटे आत्मानुं क्रियावानपणुं कहेवानी इच्छावाळा सूत्रकार क्रियाना कारणभृत दंडनुं स्वरूप प्रथम कहे छे:
एगे दंडे । सू० ३, एगा किरिया । सू० ४, एगे लोए । सू० ५, एगे अलोए । सू० ६
मूलार्थ:- दंड एक छे. क्रिया एक छे. लोक एक छे. अलोक एक छे.
टीकार्थ:-'एंगे दंडे'- विशेष विवक्षा न करवाथी एक, दंड्यते- ज्ञानादिरूप ऐश्वर्यना हरण करवाथी आत्मा जेनावडे सार रहित कराय छे ते दंड, ते द्रव्यथी अने भावथी वे प्रकारे छे. द्रव्यथी लाकडी, भावथी खराब रीते प्रवर्तावेल मन विगेरे. (सू०३) ते दंडवडे आत्मा क्रिया करे छे एटले क्रियाने कहेवामां आवे छे. 'एगा किरिया' विशेष विवक्षा न करवावडे करण मात्रनी विवक्षा होवाथी एक छे. करबुं ते क्रिया. कायिका वगेरे तेनां प्रकारो छे अथवा 'एंगे दंडे एगा किरिया' त्ति-आ बन्ने सूत्रवडे अक्रियापणाना निषेधवडे आत्मानुं सक्रियपणुं कहेल छे. जे कारणथी दंड अने क्रिया शब्दवडे तेर क्रियानां स्थानो प्रतिपादन करेल छे तेमां १ अर्थदंड, २ अनर्थदंड, ३ हिंसादंड, ४ अकस्मातुदंड अने ५ दृष्टिविपर्यासदंड-ए पांच प्रकारे दंड, ते परना प्राणहरणस्वरूप दंड शब्दथी ग्रहण करेल छे. वधनुं समानपणुं होवाथी दंडनुं एकपणं जाणवुं. क्रिया शब्दवडे
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१. स्थाना
ध्ययने
दण्डक्रिया
लोका
लोकाः ।
३-४-५-६
सूत्राणि.
॥ २३ ॥
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XXXR
MARKARMAKARXXXXXXXXXXXXXXXXX
तो१ मृषाप्रत्यया, २ अदत्तादानप्रत्यया, ३ आध्यात्मिकी, ४ मानप्रत्यया, ५ मित्रद्वेषप्रत्यया, ६ मायाप्रत्यया, ७ लोभप्रत्यया,८ ऐर्यापथिकी-आ प्रमाणे आठ प्रकारे क्रिया कहेल छे. तेनुं एकपणुं तो करण मात्रना समानपणाथी जाणवू. दंड अने क्रियानुं विशेष स्वरूप तेना विवरण प्रसंगे ज कहेशुं. आत्माने अक्रियवानपणुं माननारनुं खंडन आ प्रमाणे छः-जेओए निश्चय आत्मानुं अक्रियवानपणुं स्वीकारेल छे तेम तेओए भोक्तपणुं स्वीकारेल छे. भोक्तपणुं स्वीकारवाथी भोगक्रियानी उत्पत्तिनुं सामर्थ्य छते भोक्तापणुं उत्पन्न थाय छे. ते ज क्रियापणुं छे. हवे वादी कहे छे के:-प्रकृति करे छे अने पुरुष (आत्मा) भोगवे छे. प्रतिबिंब न्यायवडे ए प्रमाणे कहे, अयुक्त छे, कारण के कथंचित् सक्रियपणा विना प्रकृतिनो संबंध छते पण प्रतिबिंबभावनी उत्पत्ति नहीं थाय; केमके रूपांतरनुं परिणमनरूप प्रतिबिंब छे. वळी जो कहेशो के प्रकृतिना विहाररूप बुद्धिथी ज सुखादि अर्थन प्रतिबिंब पडे छे, परंतु आत्माथी प्रतिबिंब पडतुं नथी. त्यारे आत्मानुं ते स्थितिमा रहेवापणुं होवाथी भोक्तृत्व घटी शकशे नहि. अहि घणुं कहेवार्नु छे ते तो स्थानांतरथी जाणवू. (सू०४) उक्त स्वरूप विशिष्ट आत्माना आधारनुं स्वरूप निरूपण करवा माटे कहे छ:-' एगे लोए ' असंख्यात प्रदेशवडे अने अधो, तिर्यग आदि दिशाना भेदवडे विवक्षा न करवाथी एक लोक छे. लोक्यते-केवळज्ञानवडे जे जोवाय छे ते लोक. ते धर्मास्तिकायादि द्रव्योनो आधारभूत आकाशविशेष छे. आ संबंधमां वा छ-जे क्षेत्रमा धर्मास्तिकायादि द्रव्यांनी प्रवृत्ति थाय छे ते क्षेत्र ते द्रव्यो सहित लोक कहेवाय छे अने तेथी विपरीत (एकला आकाशनी प्रवृत्ति होय ) ते अलोक." अथवा लोक, नामादि भेदथी आठ प्रकारे छे. कर्तुं छे के:
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥२४॥
स्थानाध्ययने दण्डक्रिया लोकालोकाः।
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नामं ठवणादविए, खित्ते काले भवे य भावे य । पज्जवलोए य तहा, अविहो लोयनिक्खेवो ॥५६॥
१ नाम अने २ स्थापना सुगम छे. ३ द्रव्यलोक-जीव-अजीवद्रव्यरूप, ४ क्षेत्रलोक-अनंतदेशात्मक आकाशमात्र, ५ काललोक-समय, आवलिकादि,६ भवलोक-नारक वगेरे, पोतपोताना भवमां वर्तता,जेमके मनुष्यलोक, देवलोक, ७ भावलोकऔदयिकादि छ भावो. ८ पर्यायलोक-द्रव्योना पर्यायमात्ररूप. ए आठ प्रकारना लोकनुं केवलज्ञानवडे जोवापणुं सामान्य होवाथी एकपणुं कर्वा छे. (सू०५) लोकनी व्यवस्था, तेनो प्रतिपक्षभूत अलोक छते थाय छे माटे हवे अलोक कहे छे-'एगे अलोए' अनंतप्रदेशात्मकपणुं छते पण तेनी विवक्षा न करवावडे एक अलोक छे. लोक शब्दना निषेधथी अलोक छे पण न जोवापणाए नहि; कारण के केवलज्ञानरूप प्रकाशवडे अलोकनुं पण जोवापणुं छे. शंका-लोकना एक देश(विभाग )ना प्रत्यक्षपणाथी अने तेना देशांतरने पण बाधक प्रमाणनो अभाव होवाथी अमे लोकनी संभावना करीए छीए, परंतु जे आ अलोकनुं देशथी पण अप्रत्यक्षपणुं होवाथी आ अलोक छे एवो निश्चय करवा माटे केम शक्तिमान थशो ? जे कारणथी तमे एकत्रपणाए प्ररूपो छो ? समाधान-अनुमानथी ए प्रमाणे कहीए छीए. ते आ प्रमाणे-लोक, व्युत्पत्तिवाळा शुद्ध पदनु कथन ( नाम) होवाथी विद्यमान विपक्षवाळो छे. अहिं जे वस्तु व्युत्पत्तिवाला शुद्ध शब्दवडे कहेवाय छे, तेनो विक्षेप होय छ एम जाणवा योग्य छे. जेम घटनो [ विपक्ष ] अघट छ तेम व्युत्पत्ति विशिष्ट शुद्ध पदवाच्य लोक छे ते कारणथी विपक्ष सहित छ. जे लोकनो विपक्ष ते
१. अहिं प्रसह्य प्रतिषेधथी 'नझ' समास करवो, परंतु पयुदासथी नहि. न लोक: अलोकः ।
सूत्राणि.
६
॥२४॥
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अलोक, ते कारणथी अलोक छे. वळी शंका-न लोकः अलोकः-एम कहेबाथी घट, पट वगेरेमांज कोई पण एक वस्तु ( अलोक ) थशे. अहिं बीजी वस्तुनी कल्पनावडे शु? (अर्थात् अलोकनी जुदी कल्पना शामाटे करवी ?). समाधान-एम कहेवू नहिं. जे हेतुथी निषेधना सद्भावथी निषेध्य-निषेध करवा योग्यना अनुरूपवडे-समानपणे निषेध होवू जोइए. निषेध्य लोक छ, ते आकाशविशेष जीवादि द्रव्यनुं पात्र छ, आथी चोक्कस अलोक पण आकाशविशेषरूप हो, जोइए. जेम अहिं 'अपण्डित ' एम कहे छते विशिष्ट ज्ञान रहित चेतन ज जणाय छे परंतु अचेतन घटादि नहिं, तेनी माफक अलोक पण लोक समान होवू जोइए. कयुं छे के:
लोगस्सऽस्थि विवक्खो, सुद्धत्तणओ घडस्स अघडोव्व।
[प्रेरकः] स घडादी चेव मती [गुरुः], न निसेहाओतदणुरूवो ॥ ५७ ॥ आ गाथानो भावार्थ उपर कहेल छे. (सू०६) लोकअलोकना विभागनो करनार धर्मास्तिकाय होवाथी तेनुं स्वरूप कहे छे
एगे धम्मे । सू०७, एगे अधम्मे । सू०.८, एगे बंधे । सू० ९, एगे मोक्खे । सू० १०, एगे पुण्णे। सू० ११, एगे पावे। सू० १२, एगे आसवे। सू० १३, एगे संवरे । सू० १४, एगा वेयणा । सू० १५, एगा निजरा । सू० १६
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श्रीस्था
नान
सानुवाद
।। २५ ।।
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मूलार्थ:- एक धर्मास्तिकाय छे. एक अधर्मास्तिकाय छे. एक बंध छे. एक मोक्ष छे. एक पुण्य छे. एक पाप छे. एक आश्रव छे. एक संवर छे. एक वेदना छे. एक निर्जरा छे.
टीकार्थ :- प्रदेशार्थपणे असंख्यात प्रदेशात्मक होवा छतां पण द्रव्यार्थपणे तेनो एकत्व होवाथी धर्मास्तिकाय एक छे. गमनपरिणामने पामेला जीव अने पुद्गलोनुं स्वाभाविक क्रियावत्पणुं छते गतिस्वभावने धारण करवाथी ( सहायक थवाथी ) धर्म अने अस्ति-प्रदेशो तेओना समूहात्मकपणाथी काय ते अस्तिकाय अर्थात् धर्मास्तिकाय हवे तेना विपक्षरूप अधर्मनुं स्वरूप कहे छे -" एगे अधम्मे " द्रव्यथीज एक छे. धर्म नहिं ते अधर्म अर्थात् अधर्मास्तिकाय. धर्मास्तिकाय, जीव अने पुद्गलोने गमनमा सहाय करनार छे. आ (अधर्मास्तिकाय), तेना (धर्मास्तिकाय) थी विपरीत होवाथी स्थिर थवामां मदद करनार छे. शंका- धर्मास्तिकाय अने अधर्मास्तिकायनुं अस्तित्व (होवापर्णु) केम जाणी शकाय ? समाधान-अमे प्रमाणथी कहीए छीए. ते आ प्रमाणे- अहिं गति अने स्थिति, सर्व लोकोने प्रसिद्ध कार्य छे. परिणामी ( कर्त्ता ) ना अपेक्षा कारणने आधीन आत्मलाभरूप कार्य वर्त्ते हे. घटादि कार्योंमां ते प्रमाणे देखाय छे. वळी माटीनो पिंड छते पण दिशा, देश, काळ, आकाश अने प्रकाशादि अपेक्षा कारण सिवाय घट थतो नथी, जो थाय तो माटीना पिंड मात्रथी ज कार्य थाय, परंतु तेम थतुं नथी. जीव अने पुद्गलमां परिणाम कारणपणुं रहेते छते अपेक्षा कारण विना गति अने स्थिति बन्ने य थवाने योग्य नथी अने गति तेमज स्थितिपणुं तो देखाय छे. आ कारणथी ते बन्नेनी सत्ता जणाय छे. जे अपेक्षा कारण छे ते धर्म अने अधर्म छे. आ तात्पर्य छे. गतिपरिणामने पामेला जीवं ने पुद्गलोने जे गतिमां सहायक ते धर्मास्तिकाय. माछलाओने जेम जल गतिमां सहायक छे
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१ स्थानाध्ययने
धर्मास्तिका
याद्या निर्ज
रान्ताः ७–१६
सूत्राणि.
॥ २५ ॥
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तेम. तथा स्थितिपरिणामने पामेला( जीव, पुद्गलो )ने माछला वगेरेने पृथिवीनी जेम स्थितिमा सहायक थाय ने अधर्मास्तिकाय. अथवा विवक्षावडे जल. अहिं आ अनुमान छे:-गति ने स्थिति, कार्य होवाथी घटनी माफक अपेक्षा कारणवाळी छ. त्रण लोकमा जे पोलाण अथवा अभाव ए विपक्ष दृष्टांत छे. वळी कंडक विशेष अलोकनो स्वीकार कर्ये छते लोकना परिमा णने करनारा धर्मास्तिकाय अने अधर्मास्तिकायबडे बन्नेनो स्वीकार अवश्य थवो जोइए. जो स्वीकार नहिं करवामां आवे तो आकाश- समतोलपणुं छते लोक अथवा अलोक एवो भेद नहिं रहे. तेमज केवल आकाश छते गतिवाळा जीयो अने पुद्गलोने प्रतिघात( अटकाव )नो अभाव होवाथी कोई चौकस स्थान नहिं रहे; कारण के संबंधना अभावथी सुख, दुःख अने बंध वगरेनो संव्यवहार नहिं थाय. कयु छे के:तम्हा धम्माधम्मा, लोगपरिच्छेयकारिणो जुत्ता।इहराऽऽगासेतुल्ले,लोगोऽलोगोत्ति को भेओ?॥५॥ लोगविभागाभावे, पडिघाताभावओऽणवत्थाओ । संववहाराभावो, संबंधाभावओ होजा ॥५९॥
आ बन्ने गाथानो भावार्थ कहेवायेल छे. (मू०७-८) धर्मास्तिकाय अने अधर्मास्तिकायवडे उपकार कराएल जे लोकवर्ती संसारी जीव, दंड सहित अने सक्रिय छे ते कर्मवडे बंधाय छे; माटे हवे बंधनुं निरूपण करवामां आवे छे:-'एगे बंधे बंधावू ते बंध. कपाय सहितं होवाथी जीव, जे कमने योग्य पुद्गलोने ग्रहण करे छे ते बंध एवो तात्पर्य छे. ते बंध प्रकृति, स्थिति, प्रदेश
१. प्रत्यक्ष प्रमाणथी गति, स्थिति सिद्ध करोने हवे अनुमान प्रमाणथी सिद्ध करे छे. २. दंडादि सहितनो अपेक्षाए.
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ।। २६ ॥
१. स्थाना
ध्ययने बंधस्वरूपम् ९सूत्रम्
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अने अनुभावना भेदथी चार प्रकारे छे तो पण बंधनुं समानपणु होवाथी एक बंध छ, अथवा मुक्त थयेलने फरी बंधनो अभाव होबाथी एक बंध छे. वळी द्रव्यथी बंध बेडी वगेरे, भावथी कर्मवडे बंध, ते द्रव्य अने भाव बंधमां बंधन- समानपणुं होबाथी एक बंध छे. शंका-जो तमने जीव-कमना संयोग ते बंध इच्छित छ तो ते अधिमान् के आदिरहित छ ? एम वे विकल्प थाय छे. तेमा जो आदिमान पक्ष स्वीकारशो तो शुं पहेलो आत्मा अने पछी कर्म ? अथवा पहेलां कर्म अने पछी
आत्मा ? अथवा कर्म अने आत्मा बन्ने साथे उत्पन्न थाय छे ? आ त्रण विकल्पं थाय छे. तेमां गधेडाना शींगडानी माफक हेतुनो अभाव होवाथी आत्मानी उत्पत्ति प्रथम संभवती नथी, कारण सिवाय उत्पन्न थयेल(वस्तु)नो अकारणथी ज नाश थाय. वली वादी कहे छे-अनादि ज आत्मा छे तो पण कारणनो अभाव होवाथी आकाशनी माफक आत्मानो कर्म साथे योग घटमान नहि थाय. जो कारण सिवाय पण कर्म साथे योग थाय तो मुक्त जीवने पण कर्मनो योग थवो जोइए. जो आ आत्मा नित्य मुक्त ज छे तो मोक्षनी जिज्ञासावडे शुं? अर्थात् मोक्षनी जिज्ञासा ज न होय अने बंधनो अभाव छते मुक्तना कथननो आकाशनी माफक अभाव ज थाय अर्थात् 'आ मुक्त छ' एम कही शंकाशे नहि.
प्रथम कर्म अने पछी आत्मा. आ बीजो विकल्प पण बरोबर नथी; कारण के कर्त्तानो अभाव होवाथी आत्माथी पूर्व कर्मनी उत्पत्ति न थाय. न करायेल कार्यने कर्म कहेवू ते पण इष्ट नथी. कारण विना उत्पत्तिनो अकारणथी ज नाश थाय छे. कर्म अने जीवनुं साथे उत्पन्न थर्बु ए बीजो पक्ष पण योग्य नथी. कारणना अभावथी समकाले बन्नेनी उत्पत्ति छते जमणा-डाबा गायना
१.संसारीनीवोनो अपेक्षाए. २ आ त्रण विकल्प आदिमान् पक्षमा न करेल छे. ३ अहिं प्रथम विकल्प वह्यो.
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॥ २६॥
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शींगडानी जेम, ' आ कर्त्ता, आ कर्म ' आवा प्रकारनो योग्य व्यवहार नहि थाय. वली जीव अने कर्मनो योग आदि रहित छे; ए बीजा (अनादि) पक्षनो स्वीकार करवाथी आत्मा अने कर्मनो वियोग नहि थाय. कारण ? अनादिपणुं होवाथी ज आत्मा अने आकाशना संयोगनी माफक अहिं समाधान करे छे-आदिमान् संयोग पक्षना दोषो, अमारावडे आदिमान् पक्ष न स्वीकाराथी ज निषेध करायेल छे; अने अनादि जीव-कर्मना योगने विषे अनादिपणुं होवाथी जीव-कर्मनो वियोग नहिं थाय एम तमे कहेलं ते अयुक्त छे; केमके संयोगनुं अनादिपणुं छते पण सुवर्ण अने पत्थर ( माटी )नी जेम बियोगनी उपलब्धि थाय छे-जणाय छे. भाष्यकार कहे छे:
जह वेह कंचणोवलसंजोगोऽणाइसंत इगओऽवि । वोच्छिज्जइ सोवायं, तह जोगो जीवकम्माणं॥ ६० ॥
जेम कांचन अने उपलनो अनादिकालनो चाल्यो आवेल संयोग पण, उपाय ( अग्नितापादि ) थी नाश पामे छे तेमजीव अने कर्मनो संयोग ( तप संयमादिथी ) नाश पामे छे. (६०) तेम बीज अने अंकुरनी परंपरानी जैम अनादि संताननो नाश देखाय छे. भाष्यकार कहे छे के:
अन्नतरमणिव्वत्तियकज्जं बीयंकुराण जं विहयं । तत्थ हओ संताणो, कुक्कुडियंडाइयाणं च ॥ ६१ ॥
जेम बीज अने अंकुरमांथी कोइ पण एक वस्तु, कार्यने उत्पन्न कयी सिवाय नाश पामे तो तेमां ( बीज - अंकुरमां ) संताननो नाश थाय छे. तेमज कुकडी ने इंडं, अने पुत्र ने पिता वगेरेमां पण समजवुं. (६१) (सू०९ )
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श्रीस्था
नाङ्गसूत्र
सानुवाद
॥ २७ ॥
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अनादि बंधनो सद्भाव छते पण कोइक भव्यात्मानो मोक्ष थाय छे, माटे हवे मोक्षनुं स्वरूप कहे छे:-' एगे मोक्खे मूका - कर्मपाशथी छूट ते आत्मानो मोक्ष. वाचकवर्य उमास्वाति कहे छे के " कृत्स्नकर्मक्षयान्मोक्षः । " सर्व कर्मनो क्षय थवा मोक्ष थाय छे. ते मोक्ष एक छे. ज्ञानावरणीयादि कर्मनी अपेक्षाए आठ प्रकारे छे तो पण मुकाववाना समानपणाथी, अथवा मुक्त (आत्मा)नो फरी मोक्षनो अभाव होवाथी, अथवा इपत्प्राग्भारा नामे पृथ्वीरूप क्षेत्रलक्षण ते द्रव्यार्थपणाए एक छे. अथवा द्रव्यथी मोक्ष- बेडी वगेरेथी छूटवु, भावथी मोक्ष - कर्मथी छूट ते बन्नेमां छूटवानुं समानपणुं होवाथी मोक्ष एक छे. शंकाजीव अने कर्मनो संयोग अंतरहित छे, कारण के जीव ने आकाशना संयोगनी जेम अनादि छे तो कर्मना वियोगरूप मोक्ष होवाथी जीवने मोक्ष केम संभवे ? समाधान-अनादित्व हेतु अनैकान्तिक छे. धातु ( सुवर्ण सिवाय ) अने कांचननो संयोग अनादि छे, ते पण क्रिया (तापादि) विशेषथी अंत सहित देखाय छे अर्थात् तेनो वियोग थाय छे. ए प्रमाणे आ जीव अने कर्मनो संयोग पण (अनादि छतां ) सम्यग् दर्शन, ज्ञान अने चारित्रवडे अंत सहित थशे. जीव अने कर्मनो वियोग ते मोक्ष कहेवाय छे. शंका-नारक वगेरे पर्यायस्वरूप संसार छे, बीजो संसार नथी, ते नारकादि पर्यायोथी जुदो कोई जीव ज नथी, नारका दि पर्यायो ज जीव छे; कारण के तेनो एक ज अर्थ होवाथी संसारनो अभाव छते नारकादि पर्यायस्वरूपनी जेम जीवनो अभाव छे. अर्थात नरकादि पर्यायस्वरूप संसारनो अभाव छते जीवनो अभाव छे माटे मोक्ष असत् पदार्थ छे. भाष्यकार कहे छे:जं नारगादिभावो, संसारो नारगाइभिन्नो य । को जीवो तं मन्नसि ?, तन्नासे जीवनासोत्ति ॥ ६२' ॥
१. आ गाथा भाष्यमा १९७८ मी छे, प्रभास गणधरने उद्देशीने कहेवायेल हे.
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१. स्थाना
ध्ययने मोक्षस्वरूपम् १० सूत्रम्.
॥ २७ ॥
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आ गाथाना भावार्थ कहवाई गयो छे. अहिं समाधान -नारकादि पर्यायरूप संसारनो अभाव छते अर्थान्तर न होवाथी नारकादि पर्यायस्वरूपनी जेम सर्वथा जीवनो अभाव ज छे तेम जे कहेवुं ते अयुक्त छे, कारण अनर्थान्तर हेतु, अनैकान्तिक छे. कारण ? सुवर्ण अने मुद्रिकानुं अनर्थान्तरपणुं सिद्ध छे पण मुद्रिका ( वींटी )ना आकारनो नाश थये छते सोनानो नाश थतो नथी, तेनी माफक नरकादि पर्याय मात्रनो नाश थये छते सर्वथा जीवनो नाश थशे नहि. भाष्यकार कहे छे के:न हि नारगादिपज्जायमेत्तनासंमि सव्वहां नासो । जीवद्दव्वस्स मओ, मुद्दानासेव्य हेमस्स ॥६३॥
o गाथान भावार्थ कट्टेल छे. वळी पण भाष्यकार कहे छे के
कम्मकओ संसारो, तन्नासे तस्स जुज्जए नासो । जीवत्तमकम्मकयं, तन्नासे तस्स को नासो ? ॥ ६४ ॥
संसार कर्मकृत छे तेथी कर्मनो नाश थये संसारनो नाश घटे छे, पण जीवपणुं कर्मकृत नथी एटले कर्मनो नाश थये छते जीवनो नाश केवी रीते थाय ? अर्थात् न ज थाय. (सू० १०) मोक्ष पुण्यपापनो क्षय थवाथी थाय छे माटे पुण्य-पापनुं स्वरूप कहेवा योग्य छे. तेमां पण मोक्ष अने पुण्यना शुभ स्वरूपनुं साधर्म्य होवाथी प्रथम पुण्यनुं स्वरूप कहे छे- 'एगे पुणे' 'पुण्' धातु शुभ अर्थमा छे. पुणति-शुभ करे छे अथवा ' पुनाति ' आत्माने पवित्र करे छे, माटे पुण्य शुभ कर्म छे. सातावेदनीय वगेरे तेनां वेतालीश प्रकारो छे. यथोक्तम्
सायं उच्चागोयं, नरतिरिदेवाउ नाम एयाउ । मणुयदुगं देवदुगं, पंचेंदियजाति तणुपणगं ॥ ६५ ॥
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श्रीस्था
नाङ्गसूत्र
सानुवाद
।। २८ ।।
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अंगोवंगतियंपिय, संघयणं वज्जरिसहनारायं । पढमंचिय संठाणं, वन्नाइचउक्क सुपसत्थं ॥ ६६ ॥ अगुरुलहु पराघायं, उस्सासं आयवं च उज्जोयं । सुपसत्था विहयगई, तसाइदसगं च णिम्माणं ॥६७॥
“तित्थयरेण सहिया, बायाला पुण्णपगईओ "त्ति. १ सातावेदनीय, २ उच्च गोत्र, ३ मनुष्यायु, ४ तिर्यचायु, ५ देवायु, ६-७ मनुष्यद्विक ( मनुष्यगति ने मनुष्यानुपूर्वी ), ८-९ देवद्विक ( देवगति ने देवानुपूर्वी ), १० पंचेंद्रिय जाति, ११-१५ औदारिकादि पांच शरीर, १६ औदारिकना अंगोपांग, १७ वैक्रिय अंगोपांग, १८ आहारक अंगोपांग, १९ वज्रऋषभनाराच संघयण, २० समचउरस्र संस्थान, २१-२४ शुभं वर्णादि चार, २५ अगुरुलघु, २६ परांघात, २७ उच्छ्वास, २८ आर्तेप, २९ उद्योत, ३० शुभ विहायो ( शुभ चालवानी )गति, ३१-४० त्रसादिदशक, ४१ निर्माण, अने ४२ तीर्थकरनामकर्म. आ प्रमाणे बेंतालीश प्रकारे छतां पण अथवा पुण्यानुबंधी अने पापानुबंधी भेदथी वे प्रकारे छतां
१. प्रथमनी पांच प्रकृति छोडीने शेष प्रकृतिओ नामकर्मनी छे. २. शुक्ल, पोत अने रक्त वर्ण, सुरभि गंध, मधुर, आम्ल (खाटो ) अनेकषायरस, मृदु, लघु, स्निग्ध अने उष्ण स्पर्श-ए इग्यार शुभ प्रकृतिओ छे. ३ पराचातनामकमैनो जेने उदय होय तेने अन्य बलवान् छतां पण जीत मुइकेल थाय ४ आतपनामकर्मनो उदय, ( सूर्यना विमाननां ज ) पृथ्वीकायिक जीवोने होय. १ निर्माणनाम कर्मना उदयधी शरीरना अंगोपांगनी रचना, सुतारनी माफक नियमित रीते थाय छे.
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१ स्थानाध्ययने पुण्यसत्ता
११ सूत्रम्.
॥ २८ ॥
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पण, अथवा दरक जीवो विचित्र ( भिन्नभिन्न ) होवाथी अनंत भेद छतां पण पुण्यनुं समानपणुं होबाथी एक पुण्य छे. शंकाससलाना शींगडानी माफक प्रत्यक्षादि प्रमाणनो विषय न होवाथी कर्म ज विद्यमान नथी, जो कम ज नथी तो पुण्यकर्मनी सत्ता क्याथी होय ? समाधान-आ कहेवू असत्य छ; कारण के कर्म अनुमानथी सिद्ध छे. ते आ प्रमाणे-कर्म सुख-दुःखना अनुभवनो हेतु छे. कार्य होवाथी जेम बीज अंकुरनो हेतु छ तेम अहिं जाणवू. जे अनुभवनो हेतु छे ते कर्म. ते कारणथी कम छे. कदाच आवी तमारी मति (शंका ) थाय के-सुख-दुःखना अनुभव तो इष्ट अने अनिष्ट विषयनी प्राप्तिमय दृष्ट ज (देखातो )हेतु थशे, पण अहिं अदृष्ट कर्मनी कल्पना शा माटे करवी? कारण के प्रत्यक्ष देखाता निमित्तने छोडीने अन्य निमित्तनुं अन्वेषण करवू ते योग्य नथी. समाधान-ए तमारु कथन युक्तिवाळु नथी, कारण के हेतु व्यभिचारी छे. अहिं इष्ट शब्दादि विषयसुखना साधन सहित ये मनुष्योने साधनना फलमां तफावत जोवाय छ अर्थात् एकने दुःखनो अनुभव थाय छ अने बीजाने सुखनो अनुभव थाय छे. तेमज अनिष्ट साधनसंपन्न बन्ने मनुष्योने फलमां भेद जोपाय छे, एकने सुखनो अनुभव थाय छे अने बीजाने दुःखनो अनुभव थाय छे. आ विशेष ( भेद ) हेतु विना संभवी शकशे नहिं. सुख दुःखना अनुभवना हेतुरूप जे दृष्ट हेतु ते साधनोनो विपर्यास होवाथी योग्य नथी. अविशिष्टथी सुख-दुःखनो अनुभव, कार्यपणुं होवाथी घडानी माफक विशिष्ट हेतुवाको छे. समान साधनसंपन्न बने व्यक्तिमा जे तेना फलविशेषमां हेतु ते कर्म, ते कारणथी कम छे. भाष्यकार कहे छ के
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नाङ्गसूत्र
सानुवाद
॥ २९ ॥
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जो तुलसाहणाणं, फले बिसेसो न सो विणा हेउं । कज्जत्तणओ गोयम !, घडो व्व हेऊ य से कम्मं ॥ ६८ ॥
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आ गाथानो भावार्थ कहेवायो छे. कर्मनी सिद्धि माटे बीजुं अनुमानप्रमाण कहे छे- इंद्रियादि विशिष्ट होवाथी आ बालशरीर अन्य देहपूर्वक छे. आ अनुमानमां जे शरीर इंद्रियादिवाएं छे ते शरीर अन्य शरीरपूर्वक जोवाय छे. जेम युवान शरीर बालदेहपूर्वक छे तेम इंद्रियादिवाएं आ बालशरीर छे, ते कारणथी अन्य शरीरपूर्वक छे, अने जे अन्य शरीरपूर्वक आ बालशरीर छे ते कर्म. ते कारणथी कर्म छे. भाष्यकार कहे छे के
बालसरीरं देहंतरपुव्वं इंदियाइमत्ताओ । जह बालदेहपुव्वो, जुबदेहो पुव्वमिह कम्मं ॥ ६९ ॥
आ गाथानो भावार्थ कहेवायेल छे. शंका-कर्मनो सद्भाव छते पण एक पाप ज पदार्थ विद्यमान छे, परंतु पुण्य पदार्थ नथी. जे पुण्यनुं फल सुख कहेवाय छे ते. तरतमयोगथी अल्प पापनुं ज फल छे, जे कारणथी पापनो परम उत्कर्ष ( वृद्धि ) छते अधममां अधम फल थाय छे. तरतमयोगवडे अपकर्ष ( ओछाश ) ना भेदरूप पापनी मात्रानी विशेष वृद्धि अने हानिथी यावत् छेल्लो अपकर्ष, तेमां जे कांईपण पापनी मात्रा रहे छे तेमां ज अत्यंत शुभफलपणुं छे, पापना घटवाथी अने ते पापनो ज १. आ गाथा, भाष्यमा १६१३ मी छे, ते अग्निभूतिने उद्देशोने कहेल छे. २. आदि शब्दधी सुखित्व, दुःखित्व अने प्राणापातादि हेतु जाणत्रा, ३. अहि अन्य शरीर ते कार्मण शरीर जाणत्रु अने ते ज कर्म छे.
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१ स्थानाध्ययने पुण्यसत्ता ११ सूत्रम्
।। २९ ।।
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सर्वथा क्षय थवाथी मोक्ष थाय छे. उदाहरण-अत्यंत अपथ्य आहारना सेवनथी रोग थाय छे अने ते ज अपथ्य आहारनो थोडो थोडो घटाडो करवाथी छेवट अल्प अपथ्य आहारपणुं आरोग्यने करनारुं छे अने सर्वथा आहारना त्यागथी प्राणनो नाश थाय छे. भाष्यकार कहे छ के:पावुकरिसेऽधमया,तरतमजोगाऽवकरिसओसुभया। तस्सेव खए मोक्खो, अपत्थभत्तोवमाणाओ॥७॥
आ गाथानो भावार्थ कहवायेल छे. अहिं समाधान-अत्यंत अल्प पाप होवाथी सुखनो प्रकर्ष एम तमे जे कयुं ते अयुक्त। छे, कारण के आ सुखना प्रकर्षनो अनुभव ते स्वानुकूल कर्मना प्रकर्षनो अनुभव होवाथी दुःखना प्रकर्षना अनुभवनी माफक उत्पन्न थाय छे. जेम दुःखना प्रकर्षनो अनुभव पोताना अनुरूप पापकर्मना प्रकर्षथी उप्तन्न थयेल छ एम तमाराबडे स्वीकार करायल छे, तेम आ सुखना प्रकर्षनो अनुभव पण प्रकर्ष अनुभूति होवाथी पोताने अनुरूप पुण्यकर्मना प्रकर्षथी उत्पन्न थशे. एवी रीते प्रमाणनुं फल छे. (सू०११) पुण्यनो प्रतिपक्षभूत पाप छे माटे हवे तेनुं स्वरूप कहे छ:-'एगे पावे' पाशयतिआत्माने बांधे छ, विकलता करे छे, आत्माने पाडे छे, आत्माना आनंदरसने शोषे छे अने क्षीण करे छे ते पाप छे. ते ज्ञाना
वरणादि ब्याशी भेदरूप छे. ते कहे छे:R नाणंतरायदसगं, दंसण णव मोहणीयछब्बीसं। अस्सायं निरयाऊ, नीयागोएण अडयाला ॥७॥
निरयदुगं तिरियदुर्ग, जाइचउकं च पंच संघयणा।संठाणाविय पंच उ, वन्नाइ चउक्कमपसत्थं ॥७२॥
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र
सानुवाद
॥ ३० ॥
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उवघाय कुविहगई, थावरदसगेण होंति चोत्तीसं । सव्वाओ मिलिआओ, बासीती पावपगईओ ॥७३॥ १-५ पांच ज्ञानावरणीय, ५-१० पांच अंतराय, ११-१९ नव दर्शनावरणीय, २०-४५ छवीस मोहनीय, ४६ असातावेदनीय, ४७ नरकायु, ४८ नचिगोत्र, हवे ४९ थी ८२ सुधीनी नामकर्मनी चोत्रीस प्रकृतिओ कहे छे. ४९-५० नरकगति अने नरकानुपूर्वी, ५१-५२ तिर्यंचगति अने तिर्यचानुपूर्वी ५३-५६ एकेंद्रियादि चार जाति, ५७-६१ पहेला सिवायना पांच संघयण, ६२-६६ पहेला सिवायना पांच संठाण, ६७-७० अशुभवर्णादि चार, ७१ उपघात, ७२ अशुभ विहायोगति, ७३-८२ स्थावरदशक - ए सर्व मळीने ब्यासी पापप्रकृतिओ छे (७१-७३) ते पाप व्यासी भेदे छे तो पण पुण्यानुबंधी अने पापानुबंधी भेदधी वे प्रकारनुं पण छे, अथवा अनंत जीवोने आश्रित होवाथी अनंत प्रकारनुं पण छे, तथापि अशुभनुं समानपणुं होवाथी पाप एक छे. शंका-कर्म छते पण एक पुण्य ज छे, तेनो प्रतिपक्षभूत पापकर्म नधी. शुभ अने अशुभ फलोनी सिद्धि पुण्यथी ज थाय छे. ते आ प्रमाणे:- परम उत्कृष्ट जे आ शुभ फळ,
ते
१. आ ४५ प्रकृति घातिप्रकृतिओ छे. २. समकितमोहनीय अने मिश्रमोहनीय वे प्रकृति 'बंध 'मां नथी माटे २६ कहेल छे. अनादि मिथ्यात्वीने उदयमां पण ते वे नथी. समकित पाम्या बाद मिथ्यात्वमोहनीय जत्रण भागे वर्हेचाय छे अर्थात् त्रण पुंज कराय छे. ३. नील ने कृष्णवर्ण, दुरभि गंध, तिक्त, कटुरस, गुरु, कर्कश, शीत अने रुक्ष ए चार स्पर्श ए नव भेद अशुभ छे. ४ पोताना अंगोपांगथी दुःखी थ ते. जेम प्रतिजीभ ( काकडो ), रसोळी वगेरेथी.
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१ स्थाना
ध्ययने
पापसत्ता
१२ सूत्रम्
॥ ३० ॥
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पुण्यना उत्कपर्ने कार्य छे. पुनः पुण्यना उत्कर्षथी जे अल्प, अल्पतर अने अल्पतम फळ, ते तरतमयोगवडे अपकर्षना भेदविशिष्ट पुण्यनु ज फल छे. तरतमयोगवडे अपकर्षना भेदनी छवट परम प्रकपनी हानि पर्यंत, तथा परमप्रकर्षवडे हीन पुण्यनुं ओछामां ओछु शुभ फळ-कंइक जे शुभ मात्रा ते ज अत्यंत दुःख. आ तात्पर्य छे. ते ज ओछामा ओर्छ पुण्यविशिष्ट दुःख प्रकपनो सर्वथा नाश थये छते पुण्यात्मक बंधना अभावी मोक्ष छे. जेम अत्यंत पथ्य आहारना सेवनथी पुरुपने परम आरोग्य- सुख थाय छे ते ज पुरुषने कंइक कंड़क पथ्य आहारना त्यागथी अने अपथ्य आहारनी वृद्धिथी आरोग्य सुखनी हानि थाय छे तेमज सर्वथा आहारना त्यागथी प्राणनो नाश थाय छे. अहिं पथ्य आहार उपमा छ अने पुण्य उपमेय छे, अर्थात् पुण्य पथ्य आहार समान छे. अहिं समाधान करे छे-जे आ दुःखप्रकपनी अनुभूति ते सुखना प्रकर्षनी अनुभूति( अनुभव )नी माफक प्रकपर्नु अनुभवपणुं होवाथी स्वयोग्य कर्मना प्रकपथी उत्पन्न थाय छे. जेम सौख्य प्रकर्षनी अनुभूति, स्वअनुरूप पुण्यकर्मना प्रकर्षथी उत्पन्नं थाय छे एम तमारावडे स्वीकारायेल छ, तेम आ पण दुःखना प्रकर्षनी अनुभूतिनी (प्रकर्षनी अनुभूति होवाथी) स्वयोग्य पापकर्मना प्रकर्षथी उत्पत्ति थशे. ए प्रमाण- फल छे. वळी भाष्यकार कहे छ केःकम्मप्पगरिसजणियं, तदवस्संपगरिसाणुभूइओ।सोक्खप्पगरिसभूई,जह पुण्णप्पगरिसप्पभवा॥७॥
आ गाथानो भावार्थ कहेवायेल छे. (१२) १. आगाथामां तद् शब्दथी ' दुःख लेवु.
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श्रीस्था
नाङ्गमूत्र
सानुवाद
॥ ३१ ॥
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हवे हमणा ज कल पुण्य अने पापकर्मना बंधना कारणनुं निरूपण करवा माटे कहे छे-' एंगे आसवे ' आश्रयतिनावडे आत्माने विषे कर्मों प्रवेश करे छे ते आश्रव, कर्मबंधनो हेतु छे एम समजवं. ते आश्रव इंद्रिय, कषाय, अवत, क्रिया अने योगरूप ले. क्रमथी ते पांच, चार, पांच, पच्चीश अने त्रण भेदवाको छे. कां छे:
इंदिय ५ कसाय ४ अव्वय ५ किरिया २५ पणचउरपंचपणुवीसा । जोगा ३ तिन्नेव भवे, आसवभेया उ बायाला ॥ ७५ ॥
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आ गाथानो अर्थ स्पष्ट छे. आश्रव बेंतालीश प्रकारे छे अथवा द्रव्य ने भावना भेदथी वे प्रकारे छे. तेमां जलमा रहेल नाव वगेरेमां तथाविध परिणामवडे छिद्रोद्वारा जे जलनो प्रवेश ते द्रव्याश्रव, अने जे जीवरूप नावमां इंद्रिय वगेरे छिद्रथी कर्मरूप जलनो संचय ते भावाश्रव जाणवो; परन्तु आश्रवनुं समानपणुं होवाथी एक ज छे. ( सू० १३) हवे आश्रवना प्रतिपक्षरूप संवरनुं स्वरूप कहे छे' एगे संवरे ' संवियते जे परिणामवडे कर्मना कारणभूत प्राणातिपात वगेरे अटकावाय ते संवर - आश्रवनो निरोध ए तात्पर्य छे. ते संवर समिति, गुप्ति, यतिधर्म, भावना, परीषहजय अने चारित्ररूप छे. ते क्रमशः पांच, त्रण, दश, बार, बाबीश अने पांच मेदवाळो छे. ते बधा मेळववाथी सत्तावन भेद थाय छे. कयुं छे केसमिई ५ गुत्ती ३ धम्मो १०, अणुपेह १२ परीसहा २२ चरितं च । सत्तावन्नं भेया, पणतिगभेयाइं संवरणे ॥७६ आ गाथानो अर्थ कहेवायेल छे. अथवा आ संवर द्रव्य अने भावभेदधी चे प्रकारे छे. तेमां जलमा रहेल वहाण वगेरेना
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१ स्थाना
ध्ययने
आश्रव
संवर
स्वरूपम्
॥ ३१ ॥
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छिद्रोमां हमेशा जे जल प्रवेश करे छे तेने तथाप्रकारना द्रव्यवडे बंध करवं ते द्रव्यसंवर छ, तथा जीवरूप जहाजमा इंद्रियादि छिद्रोद्वारा कर्मरूप जल दाखल थाय छे तेनो समिति वगेरेथी निरोध करवो ते भावसंबर छ. ते संवर बे प्रकारनो छे, तो पण संवरनुं समानपणुं होवाथी एक संवर छे. (मू० १४) केवल संवर छते अयोगि गुणस्थाननी अवस्थामां कमोंर्नु वेदन ज थाय छे परंतु कर्मनो बंध थतो नथी, माटे हवे वेदनानुं स्वरूप कहे छे-'एगा वयणा' वेदनं-वेदना. कर्मना स्वाभाविक उदयवडे अथवा उदारणा करवावडे उदयावलिकामा प्रवेश पामेल कर्मनो अनुभव करवा-भोगवटो करवो. ते वेदना ज्ञानावरणीयादि कर्मनी अपेक्षाए आठ प्रकारे पण छे तेमज विपाकोदय अने प्रदेशोदयनी अपेक्षाए वे प्रकारे पण छे. शिरःलुंचन ( लोच ) वगेरे आभ्युपगमिकी-स्वयं स्वीकारेली अने औपक्रमिकी गेगादिथी थयेली एम बे प्रकारनी पण वेदना छे; तथापि वेदनानुं समानपणुं होवाथी एक ज वेदना छे. (मू०१५) भोगवायेल रसविशिष्ट कर्म ते आत्मप्रदेशोथी खरी जाय छे, नाश पामे छे ए हेतुथी वेदना पछी कर्मना खरवारूप निर्जरानु निरूपण करतां कहे छे-'एगा निजरा' निर्जरणं-निर्जराविशेष नाश पामबु, सर्वथा सडी ( खरी) जq ते निर्जरा आठ प्रकारना कर्मनी अपेक्षाए आठ प्रकारे पण छे, बार प्रकारना तपवडे उत्पन्न थवाथी बार प्रकारनी पण निर्जरा छे. वगर इच्छाए क्षुधा, तृषा, शीत, आतप, दंश (डांस), मशक (मच्छर),
१. अबाधा काल पूर्ण थये कर्मनो उदय छे ते स्वाभाविक उदय. २. जीवना वीर्यबळथी कर्मने उदयावलिमा खेची लावg ते उदीरणा. ३ के इपण प्रकृति, पोतानो अनुभव स्वतंत्रपणे आपे ते विपाकोदय. ४. एक प्रकृत्ति बीजी प्रतिमा मलीने जे फल, प्रदेशो| थी भोगवाय ते प्रदेशोदय,
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद १३२॥
मेलनु सहन करवू अने ब्रह्मचर्य- पालन वगेरे अनेकविध कारणबडे उत्पन्न वाधी निजरा अनेक प्रकारे पण छे. अथवा ११. स्थानाद्रव्यथी वस्त्रादिनु नाश थर्बु अने भावी कर्मोनु खरवू, एम वे प्रकारे पण छे. तथापि निजरानु समानपणुं होवाथी एक ज ध्ययने निजरा छे. शंका-निजरा अने मोक्षमा शो भेद छ? समाधान-देशी कमनो क्षय ते निजरा अने सर्वथा कर्मनो क्षय ते मोक्ष. जीवपदार्थ(सू०१६) अहिं जीव विशिष्ट निजरानुं पात्र प्रत्येक शरीरनी स्थितिमा जथाय छे. साधारण शरीरनी अवस्थामा विशेष निजरा
विशेषाः थती नथी, अतः प्रत्येक शरीरमा रहेल जीवनुं स्वरूप निरूपण करवा माटे कहे छे 'एगे जीवे' इत्यादि अथवा सामान्यथी प्रस्तुत शास्त्रवडे वणवायेल जीवादि नव पदार्थो कया. हवे विशेषरूपे जीवपदार्थनु स्वरूप कहे छः
एगे जीवे पाडिकएणं सरीरएणं । सू० १७, एगा जीवाणं अपरिआइत्ता विगुव्वणा। सू०१८, एगे मणे। सू०१९, एगा वई।सू०२०, एगे कायवायामे।सू० २१, एगा उप्पा। सू० २२, एगा वियती। सू० २३, एगा वियच्चा।सू०२४, एगा गती।सू०२५, एगा आगती। सू०२६, एगे चयणे। सू०२७,एगे उववाए। सू०२८, एगा तक्का।सू०२९, एगासन्ना। सू०३०, एगा मन्ना। सू०३१, एगा विन्नू। सू०३२, 3 एगा वेयणा।सू० ३३, एगा छेयणा । मू०३४, एगा भेयणा । सू० ३५, एगे मरणे अंतिमसारीरियाणं सू० ३६, एगे संसुध्धे अहाभूए पत्ते। सू०३७, एगदुक्खे जीवाणं एगभए । सू०३८,एगा अहम्मपडिमा |
॥३२॥
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जं से आया परिकिले सति। सू० ३९, एगा धम्मपडिमा जं से आया जब हजाए। सू० ४०, एगे मणे देवासुरमणुयाणं तंसि तंसि समयंसि । सू० ४१, एगे [*एगा वई देवा० एगे काय वायामे देवा०] उट्टा कम्वलवी रियपुरिसकारपरक मे देवासुरमनुयाणं तंसि २ समयंसि । सू० ४२, एगे नाणे एगे दंसणे एगे चरिते । सू० ४३
मूलार्थः प्रत्येक प्रत्येक शरीरमा रहेलो जीव एक छे. बहारना पुद्गलो लीथा बिना जीयेने त्रिकुणा एक छे. मनोयोग एक छे. वचनयोग एक छे. शरीरना व्यापाररूप काययोग एक छे. उत्पाद उत्पत्ति एक छे. विगति-विनाश एक छे. विगताची-मरेला जीवनुं शरीर एक छे. गति एक छे. आगति एक छे. च्यवन-वैमानिक अने ज्योतिष्कोनुं मरण एक छे. उपपात - देव अने नारकोनो जन्म एक छे. तर्क एक छे. संज्ञा एक छे. मति एक छे. विज्ञता-विद्वत्ता एक छे. पीडा एक छे. छेदन एक छे. भेदन एक छे. चरमशरीरी जीवोनुं मरण एक छे. निर्मल चारित्रवान यथाभूत अने पात्रनी माफक पात्र (स्नातक) एक छे. एकावतारी जीवोने एक भवग्रहगयी थनारुं एकभूत ( समान ) दुःख एक छे. अधर्म प्रतिज्ञा एक छे, * काटवणा कौंसमां लखेल पाठ बाबूवाळो प्रतिमां छे अने आगमोदय समितिवाको प्रतिनां नया तथापि टीकाकार व्याख्या करतां कहे छे के ‘एगे मगे इत्यादि सूत्रत्रयं आ उपरथी एम समनाय छे के सूत्र त्रगे जाईएका माटे अनोए वचनयोग अने काव्यापारना बन्ने सूत्र लखेल छे. त्यां देवा ०ए पाठयो मनोयोगना पाठनमाण संपूर्ण वांचं.
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श्रीस्थानासूत्र
१ स्थाना
ध्ययने ४ एकयोगता
सानुवाद
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कारण के ते प्रतिज्ञार्थी आत्मा क्लेश पामे छे. धर्मप्रतिज्ञा एक छे, कारण के ते प्रतिज्ञाथी आत्मा पर्यवजात-ज्ञानादि पर्यववाळो थाय छे. देव, असुर अने मनुष्योने ते ते समयमां मनः एक छे. [देवादिने ते समयमां वचन एक छे, देवादिने ते ते समयमां कायव्यापार एक छे. ]' उत्थान, कर्म, बल, वीय, पुरुषकार अने पराक्रम देव, असुर अने मनुष्याने ते ते समयमां एक छे. ज्ञान एक, दर्शन एक अने चारित्र एक छे.
टीकार्थ:-'एगे जीवे' एकः-केवळ जीव्यो, जीवे छे अने जीवशे ते जीव-प्राण धारण स्वभाववाळो ते आत्मा, एक जीव प्रत्ये प्रत्येकशरीरनामकर्मना उदयथी प्राप्त थयेलु जे शरीर ते प्रत्येक दीर्घ वगेरे प्राकृत शैलीथी प्रत्येकक. ते प्रत्येकवडे 'शीर्यत इति' शरीरं-जीरण थाय छे ते शरीर-देह, ते ज अनुकंपित बगेरे स्वभाव सहित शरीरक. तेनावडे जणातो-प्रत्येक शरीरने आश्रित जीव एक छे. अथवा वे 'णकार' वाक्यालंकारना अर्थवाळा छे, तेथी प्रत्येकक शरीरमा जीव एक वर्ते छे-रहे छे एवो वाक्यार्थ थाय, अहिं 'पडिक्वएणं'त्ति एवो पाठ क्यांक देखाय छे. आनो अर्थ न समजायाथी ते पाठनी व्याख्या करी नथी. अहिं वाचनाओर्नु चोक्कसपणुं न होवाथी वधी वाचनाओनी व्याख्या करवाने अशक्य होवाथी अमे कोईक ज वाचनानुं व्याख्यान करशु. बंध, मोक्ष वगेरे आत्माना धर्मो हमणां ज पूर्व कहेला छे. ते अधिकारथी ज आथी आगळ आत्माना धर्मोंने एगा जीवाणं (सू०१८) इत्यादि मूत्रवडे पगे चरित्ते (सू०४३) आ अंत्य सूत्रबडे कहे छे:'एगा जीवाणं'-आ सुगम छे. 'अपरियाइतत्ति' जीवोने विकुर्वणा एक छे. ते विकुर्वणा वैक्रिय समुद्घातबडे क्यांयथी पण बहारना पुद्गलोने ग्रहण कर्या विना भवधारणीय वैकिय शरीरनी रचनालक्षणवाळी स्व स्व उत्पत्तिस्थानमां जीवोबडे जे
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विकुर्वणा कराय छे ते दरेकने भवधारणीय विकुर्बणा एक होवाथी एक ज छे. अथवा सर्व वैक्रिय शरीरनी अपेक्षाए भवधारणीय(विकुर्वणा)नु कथंचित् एक लक्षण होवाथी पण एक छे. वली जे विकुर्वणा, बहारना पुद्गलोने ग्रहण करवापूर्वक कराय छे ते उत्तरवैक्रियनी रचनास्वरूप छे. ते उत्तर विकुर्वणा विचित्र अभिप्रायवाळी होवाथी वैक्रियलब्धिवाळाने तथाप्रकारनी शक्ति होवाथी एक जीवने अनेक पण विकुर्वणा थाय छे तेनो अहिं निषेध करेल छे. शंका-यहारना पुद्गलोने ग्रहण कर्ये छते ज उत्तरवैक्रिय थाय छे ते शाथी निश्चय कराय छ ? जेने लइने आ मूत्रमा 'अपरियाइत्ता' आ शब्दवडे उत्तरवैक्रिय विकुर्वणा छोडी देवा( निषेध करवा )मां आवे छे. जो एम कहेता हो तो भगवती मूत्रना वचनथी उत्तर आपीए छीए ते
आ प्रमाणे:-"देवे णं भंत! महिड्डिए जाव महाणुभागे बाहिरण पोग्गलए अपरियाइत्ता पभू एगवन्नं गावं विउवित्तए ? गोयमा ! नो इणढे ममढे, देवे णं भंते! बाहिरण पोग्गले परियारत्ता पभू ?, हता पभू"त्ति। हे भदंत-पूज्य ! महर्द्धिक यावत् महानुभाग देव, बहारना पुद्गलोने ग्रहण न करीने एक वर्णवाळा एक रूपनी विकुर्वणा करवा माटे समर्थ छे ? हे गौतम ! आ अर्थ समर्थ नथी. हे भगवन् ! देव बहारना पुद्गलोने ग्रहण करीने विकुर्वणा माटे समर्थ छ ? हा, समर्थ छे. अहिं चोकस उत्तरवैक्रिय बहारना पुद्गलो ग्रहण करवाथी थाय छे ए विवक्षित छे. (सू०१८) 'एगे मणे'त्ति' मनन मन:-मनन करवू ते मन. औदारिकादि शरीरनी प्रवृत्तिवडे ग्रहण करेल मनोद्रव्यना समुदायना सहायथी जीवनो जे व्यापार ते मनोयोग. अथवा ' मन्यते अननेति मनः'जनावडे मनन कराय छे ते मन, मनोद्रव्य मात्र ज छे. ते मन,
१. भावरूप व्युत्पत्त्यर्थने लइने भावमन- कथन कहेल छे.
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥ ३४ ॥
१ स्थानाध्ययने एकयोगता
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सत्य अन असत्य वगैरे भेदथी अनेक पण छ अथवा संज्ञिजीवोर्नु असंख्यातपणुं होबाथी असंख्यात भंद पण छे, तथापि मनन लक्षणपणे सर्व मनोनुं एकत्व होवाथी मन एक छे. (सू०१९)'एगावई'त्ति वचनं वाक्-बोलवू ते वचन. औदारिक, वैक्रिय अने आहारक शरीरना व्यापारवडे ग्रहण करायेल भाषाद्रव्यना समूहनी सहायताथी जीवनो व्यापार ते वचनयोग, ए भाव छे. भाषा, सत्य अने असत्य आदि भेदथी अनेक छे, पण सर्व भाषानुं वचन सामान्यमा अंतर्गत होवाथी वचन एक ज छे. (मू०२०) 'एग कायवायाम'त्ति चीयत इति कायः-जेनावडे एकळं कराय छे ते काय-शरीर, तेनो जे व्यापार ते कायव्यायाम. ते औदारिकादि शरीरखडे जोडायेल आत्माना वीर्यनी परिणतिविशेष छे. ते बळी औदारिकादि भेदबडे सात प्रकारे पण छे. | जीवोना अनंतपणाथी अनंत भेदे छे तो पण कायव्यायामना समानपणाथी एक ज छ. जे एक जीवन एक समयमां मन वगेरेनु एकपणुं छे ते आगळना मूत्रमा जपो मणे देवासुरे इत्यादि सूत्रथी विशेष रूपे कहेवाशे. अहिं सामान्यना आश्रयथी ज एकपणानुं कथन कयु छ (सू०२१) 'उप्पत्ति-प्राकृतशैलीथी उत्पाद. ते एक समयमा एक पर्यायनी अपेक्षाए एक छे. तेनां (पर्यायनां) एक समयमां वे वगेरे उत्पाद थता नथी. अथवा उत्पाद विशेषवाळा पर्यायनी अपेक्षा सिवाय पदार्थ (द्रव्यार्थ)पणाए एक उत्पाद छे. (सू०२२) 'वियइत्ति-विगति-नाश. ते पण उत्पादनी माफक एक छे. विकृति, विकार, विगति इत्यादि उचित बीजा व्याख्यानो जोडवा. अमोए तो उत्पादसूत्रना अनुसरणथी व्याख्यान कयु छे. (सू०२३) 'वियच्चत्ति-विगतिनो अर्थ आगळ कहेल होवाथी आ सूत्रमा विगत शब्दनो अर्थ नाश पामेल जीवनो-मरेलनो ए अर्थ छे. तेनी अचा-शरीर ते विगताचा, अर्थात् मृतकनुं शरीर एक छे. प्राकृत शैलीथी विगतार्चा अथवा 'विचच्चा' एबुं रूप छे. विवर्चा-विशिष्ट उत्पत्तिनी रीति अथवा विशिष्ट शोभा,
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ने मामान्यथी एक छ. (मू०२४) 'जह' त्ति-मरण पछी मनुष्यत्वादिमांथी नारकत्वादिने विषे जीवनुं जर्बु ने गति. ते एक जीवने एक वखत एक ज होय छे. ऋजुगति के वक्रगति एक होय, अथवा नरकगति वगेरेमांथी एक गति होय. अथवा पुद्गलनी (गति ) एक छ, अथवा स्थितिना मात्र लक्षण्यपणाधी एटले गमनस्वरूपवडे सर्व जीव अने पुद्गलोनी गति एक छे. (मू०२५) 'आगई' त्ति आगमनमागतिः-आवq ते आगति. नरकवादिमांथी पार्छ आवद्यु, तेनु एकपणु गतिनी माफक जाणवू. (सू०२६) 'चयपत्ति च्यवनं-च्यवन-वैमानिक अने ज्योतिष्कोनु मरण, ते एक जीवनी अपेक्षाए एक छे. नाना जीवोनी अपेक्षाए पूर्वनी माफक जाणवू. (मु०२७) 'उववाएत्ति उपपतनमुपपातः-उत्पन्न थर्बु ते उपपात, ते देव अने नारकोनुं जन्म, ते च्यवननी माफक एक छे (सू०२८) 'ततितर्कणं तर्क:-विमर्श (विशेषविचार), अवाय (निश्चय)थी पहेला अने इहा(विचारणा)थी पछी. प्रायः माधुं खंजवाळq (चेष्टाविशेष) वगेरे पुरुपना धर्मो अहिं घटमानं थाय छे, एवी रीते संप्रत्ययरूप-ज्ञान थq. अहिं एकपणुं पूर्वनी माफक छे. (मू०२९) 'मन्नत्ति संज्ञान-संज्ञा. संज्ञा अर्थात् व्यंजनावग्रहना उत्तरकालमा थनार मतिविशेष छे. अथवा आहार, भय इत्यादि उपाधिवाळी चेतना ते संज्ञा, अथवा नाम ते संज्ञा. (सू०३०) १. बाबूवाळी प्रतिमा “चैकतयैकस्वरूपा" पाठ छे ज्यारे आगमोदय समितिवाळो प्रतमां “पैकरूपा" एवो पाठ टोकामां छे. २. 'अयं स्थाणुर्वा पुरुषो वा' आ हुँठो छे के पुरुष छ ? आ इहा कहेवाय छे, त्यारबाद हस्तादिना चलनथी आ थाणु नथो ए विमश. ३ संज्ञा, मतिज्ञाननो पर्यायवाचक छे.
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद
१. स्थाना* ध्ययने ।एकयोगता
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'मन्न'त्ति प्राकृतशैलीथी मननं मतिः-मनन करवू ते मति-कंईक अर्थनुं ज्ञान थये छते पण मूक्ष्म धर्म वस्तुस्वभाव)नी आलोचनारूप बुद्धि छे. केटलाएक मतिनो अर्थ आलोचन कहे छे. अथवा माननार, मानवा योग्य-स्वीकार आ अर्थ जाणवो. बन्ने सूत्रमा पण सामान्यथी एकपणुं छे. (सू०३१)'एगा विन्नू'त्ति-विद्वान् अथवा विज्ञ-विशेष जाणनार. समान बोधपणुं होवाथी एक छे. 'उत्पाद' शब्दनी उपा शब्दनी माफक 'विन्नू' शब्द प्राकृतपणाथी स्वीलिंगे छे. अथवा भाव प्रत्ययनो लोप थवाथी विद्वत्ता-विज्ञता एक छे. (मू०३२) 'वयण' त्ति पहेला वेदना, सामान्य कमना अनुभवस्वरूप कहेली छे. अहिं तो पीडा स्वरूप ज जाणवी. ते सामान्यथी एक ज छे. (मू०३३) आ पीडाना ज कारण विशेषना निरूपण माटे कहे छ-'छयणे'त्ति छेदनं-शरीग्नु अथवा बीजानु ( काष्ठादिनु ) खड्ग, कुहाडा वगेरेथी छेदन कर (स०३४) 'भेयणे' त्ति भेद-भाला, बरछी वगेरेथी भेदन करवू ( भोंक) अथवा छेदq ते कमनो स्थितिघात अने भेदन तो कर्मना रसनो घात करे ते. एकपणुं तो विशेष स्वरूपनी विवक्षा न करवाथी छे. (स०३५) वेदनाथी मरण थाय छे आ कारणथी ते मरण विशेष कहे छ-'एगे मरणं' इत्यादि मृतिः मरण, अन्ने भवमन्तिमम्-छल्लु एवं शरीर ते अंतिम शरीर, तेमां थनारी-छेल्ला शरीरमा थनारी (वेदना). अहिं उत्तरपदमा वृद्धि थयेल छे. अथवा छेल्लुं शरीर छ जेओने ते अतिमशारीरिका अहिं दधिपणुं प्राकृत शैलीथी थथल छे. अंतिम शरीरमा थनारी बेदनावाळा अथवा छल्ला शरीवाळा १ · अंतिमशारोरिकी ' ए शब्दमां शारीरिकी उत्तरपद छे तेमां 'श'नो 'शा' वृद्धि ययेल छे. २ अंतिमशारीरिका अहि 'क' नो 'का' प्राकृत शैलोथी दीर्घ थयेल छे.
॥३५॥
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जीवोने एक मरण छे, कारण के सिद्धपणामां पुनर्मग्णनो अभाव छ (स०३६) चरमशरीरवाळा जीव स्नातक (निग्रंथ ) थइने मरण करे छ, अतः स्नातकर्नु म्वरूप कहे छ:-'एगे संशुद्ध' इत्यादि एक संशुद्ध-कषाय रहित होवाथी निमळ चारित्रवाळो. यथाभूत-तविक ( केवळी ), पात्रनी जेम अतिशयबाळा ज्ञानादि गुणरत्नोर्नु पात्र, अथवा ज्ञानादि उत्कृष्ट गुणने प्राप्त ययेल ते एक छे. (सू०३७) 'एगे दुक्खे'-छेल्ला भवग्रहणमा थनारुं एक दुःख छ जेने ते एक दुःख छे. 'एगहक्खे'त्ति ए पाठांतरमा तो एक प्रकारे ज आख्या-संशुद्ध वगेरे कथन छ जेने परंतु असंशुद्ध अने संशुद्धासंशुद्ध इत्यादि नथी असंशुद्धादिना निमित्तरूप कषायादिनो अभाव होवाथी ते (संशुद्ध ) एक प्रकारे नामवाळी थाय छे. अथवा एक प्रकारे छ जीव जेने ते एकघाक्ष, प्राणीओने एकभूत-आत्मा समान जाणे छे, कारण के केवळहितवृत्तिपणुं छे. घणा जीवो छतां पण तेओर्नु समस्वभावत्व होवाथी जीवनु एकपणुं छे. अथवा 'एगे संसुद्ध अहाभूए पत्ते' आ सूत्रमा आवेल पत्ते शब्द, बीजा मूत्र साथे संबंध धरावे छे, माटे पूर्व कहेल अर्थवाळा संशुद्ध शब्दथी पत्ते शब्द अन्य अर्थना स्वरूपने कहेनार छे, तेमां प्राकृतपणाथी पत्ते शब्दनो अर्थ प्रत्येक छे. जीवोने पोताना करेल कर्मना भोक्तापणाथी दरेकने दुःख एक छे. ते दुःख केवु छे ? ते कहे छे-प्राणीओमा एकभूतअनन्यपणे (अभेदपणे) रहेलुं छे, परंतु सांख्योनी माफक बाह्य नथी अर्थात् प्रतिबिंबस्वरूप नथी. (सू०३८) वळी अधर्मना अभिनिवेश( कदाग्रह )थी दुःख थाय छे. आ हेतुथी अधर्मनुं स्वरूप कहे छे:-'एगा अहम्मे' इत्यादि, दुर्गतिमां पडता जीवोने धारण करे छे अथवा जीवाने मुगतिमा स्थापे छे तेथी धर्म, कर्ष छ के-"दुर्गतिमां जनारा जंतुओने जेथी धारण
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद
कराय छ अने शुभ स्थानमा ए जीवाने स्थिर करे छ तेथी धर्म कहवाय छे." ने धम, श्रुत अने चारित्रस्वरूप छे. तेना
।४१ स्थाना85 प्रतिपक्ष ते अधर्म छे. अधम विषयप्रतिज्ञा, अथवा अधममा मुख्य जे शरीर न अधमप्रतिज्ञा, ते एक छ, कारण के बधी ध्ययन
प्रतिज्ञा अत्यंत दुःखना कारणवडे एकरूप छे. आ कारणथी ज कहे छ:-जं से इत्यादि कारणी ने प्रतिज्ञानो स्वामी जीय, एकयोगता अथवा अधम प्रतिज्ञावाळो आत्मा रागादिवडे बाधा पामे छे, मंक्लेश पाम छे. अथवा 'सि'निआ पाठांतर छे, तेथी प्राकृतवडे लिंग(जाति )ना विपयासथी जे अधर्म प्रतिज्ञा छते आत्मा क्लेश पाम छ ने एक ज छ. (सू०३९) एनाथी विपरीत कहे छ-'एगे धम्मे' इत्यादि पूर्ववत् एटले धर्म शब्दनो व्युत्पत्त्यर्थ वगरेज कहल छे तेनी माफक जाणवू. नवरं-विशेष कहे छ-पयवो-ज्ञानादि विशेषो उत्पन्न थयेल छ जेन ते पर्यवजात थाय छ-विशुद्ध थाय छे. आहिताग्नि आदि गणथी 'जात' शब्दने उत्तरपदपणुं छ. अथवा पर्यवोने अथवा पयवोने विपे जे प्राप्त थयेल छे ते पर्यवयात, अगर तो विशिष्ट रक्षा वा विशिष्ट ज्ञान, तेने अथवा तेमां प्राप्त थयेल. (मू०४०) धर्म अने अधर्मप्रतिज्ञा त्रण योगथी थाय छे ते कारणथी योगर्नु स्वरूप कहे छ:-'एगे मणे' इत्यादि त्रण मूत्र. तेमा मन इनि मनायांग-जेज समयमा विचाराय छ ते ते समयमां कालविशेष मनयोग एक ज छे. वीप्साना निर्देशवडे कोई पण ममयमां बे विगेरे संख्या तेनी संभवती नथी. आ हेतुथी कहे छजीवाचें एक उपयोगपणुं होबाथी मननु एकपणुं छ. शंका- एक समयमां) एक ज उपयोगवाळो जीव नहिं थाय ? कारण ? एक समये तथाविध जुदा जुदा विषयना उपयोगवाला वे पुरुषनी माफक शीत अने उष्ण स्पर्श विषयनो अनुभव बन्ने १. निठा मूत्रथो । जातपर्या' प्रयोग उचित छे, पण तेनो बाध करीने आहितानि आदि गणथी । पर्यवजात' थयेल छे.
॥३६॥
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देखाय छ अर्थात् बे उपयोग थाय. अहिं समाधान करे छ-जो के आ शीत अने उष्णना बे उपयोग पोताना स्वरूपवडे भिन्न कालमां होवा छतां पण समय अने मननी अति सूक्ष्मतावडे एक समयनी जेम प्रतीत थाय छे, परन्तु ते एक समयमां ज शीत अने उष्ण बनेनी साथे प्रतीति थती नथी. भाष्यकार कहे छेसमयातिसुहमयाओ, मन्नसि जुगवं च भिन्नकालंपि। उप्पलदलसयवेहं, वजह व तमलायचक्रति॥७७॥ ___ समयनु अति सूक्ष्मपणुं होवाथी भिन्न भिन्न काल छतां पण एक समयमा तुं सेंकडो कमलपत्रना वेधनी माफक अथवा अलांतचक्रनी जम (शीत अने उष्ण स्पर्शनो अनुभव ) बन्ने माने छे. वळी एक विषयमा जोडायेलं मन जो बीजा विषयनो | * पण अनुभव करे तो बीजा विषयमां गयेल चित्तवाळो पुरुष आगळ रहेल हाथीने पण केम जाणी शकतो नथी ? भाष्यकार कहे छे के:अन्नविणिउत्तमन्नं, विणिओगंलहइ जइमणो तेणं। हत्थिपिठियं पुरओ, किमन्नचित्तो न लक्खेइ ? ७८
आ गाथानो भावार्थ उपर कहेल छे. अहिं घणुं कहेवानुं छे पण ते स्थानांतरथी जाणवू, अथवा सत्य, असत्य, सत्यासत्य (मिश्र), असत्यामृषा(व्यवहार)रूप चार मनोयोगमा कोइ पण एक ज मनोयोग एक वखते होय छ, अन्योन्य विरोध होवाथी
१. अलातचक्र एटले उंबाडोयु-बळ लाकडुं. ते भिन्न भिन्न समये जुदी जुदा दिशाओमा फरे छे तथापि समय अने दिशानो भेद जणातो नथो तेमन सेंकडो कमलपत्रना वेधमां पण भिन्न भिन्न काळे वेध थाय छे..
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र
सानुवाद ॥ ३७ ॥
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वे वगेरे मनोयोगोनो असंभव छे. हवे मनोयोगना स्वामी कहे छे:-' देवासुरमणुयाणं ' त्ति तेमां कांतिवाळा क्रीडा करनारा ते देवो वैमानिक अने ज्योतिष्को, सुर नहि ते असुरो-भवनपति अने व्यंतरो, मनुथी उत्पन्न थयेल मनुजो मनुष्यो. ते देव, असुर अने मनुष्योने मन एक समयमां एक छे; तथा वचनयोग पण देवादिकोने एक समयमां एक ज छे. तथाविध मनोयोगपूर्वक तथाविध वचनयोग होवाथी अथवा सत्यादि चार वचनयोगमां कोइ पण एक वचनयोग एक समये होवाथी एक छे. ते संबंधमां सूत्रकार स्वयं आगळ कहेशे "छहिं ठाणेहिं णत्थि यावत् दो भासाओ भासित्तए " तथा कायव्यायामकाययोग देवादिने एक समये एक ज छे. सात काययोगमां कोइ पण एक काययोग एक समये होय छे. शंका- ज्यारे आहारक (शरीर ) नो प्रयोग करे छे त्यारे औदारिक शरीर त्यां ज रहेलुं होय छे एम संभळातुं होवाथी एक समये बन्ने काययोग केम होय ? समाधान - विद्यमान छतां औदारिक शरीरनो व्यापार न होवाथी तेमज आहारक शरीरनो ज त्यां व्यापार होवाथी तेम थई शके छे. औदारिक शरीर पण त्यारे आहारक प्रयोगसमये व्यापार ( प्रवृत्ति) करे तो केवलिसमुद्घातमां सातमा छड्डा अने बीजा ए त्रण समयमां औदारिक मिश्रयोगनी माफक मिश्रयोगपणुं थशे. तेमज आहारकप्रयोगकालमां जो औदारिकनो
१. टीकाकारे आपेल छठ्ठा ठाणानो पाठ ते अहि संक्षेपथी लखेल छे. ए पाठनो प्रस्तुत विषयमा एटलो ज उपयोग छे के एक समयमां वे भाषा बोलवानी जीवोनी शक्ति नथी.
२. आ त्रण समयमां कार्मण शरीर साथे औदारिकनो मिश्र थाय छे.
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१. स्थाना
ध्ययने एक योगता ४१ सूत्रम्
॥ ३७ ॥
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व्यापार मानशो तो आहारक शरीरनो प्रयोग करनार नेहि मळे. वळी एम मानवाथी सात प्रकारे काययोगर्नु प्रतिपादन निरर्थक थाय, आ कारणथी कायव्यापार एक ज छे. एवी रीते करेल वक्रिय शरीरवाळा चक्रवादिने पण वैक्रियनी प्रवृत्ति समये प्रवृत्ति रहित औदारिक शरीर होय छे. जो व्यापारवाळु औदारिक शरीर होय तो बन्ने शरीरनुं व्यापारवत्व छते केवलिसमुद्घातनी माफक मिश्रयोगपणुं थवाथी अखंडित ज रहेशे. वळी काययोगने पण औदारिकपणाए अने क्रियपणाए क्रमवडे व्यापार करते छते शीघ्र प्रवृत्तिपणाए मनोयोगनी माफक बन्नेनी एकी साथे भ्रांति थाय तो शो दोष ? एवी रीते काययोगर्नु एकपणुं छते, औदारिककाययोगवडे ग्रहण करेल मनोद्रव्य अने वागद्रव्यनी सहायतावडे थयेल जविना व्यापाररूपपणाथी, मनोयोग अने वचनयोगनो एक काययोगपूर्वकपणावडे पण पूर्वे कहेलुं एकत्व जाणवू. अथवा एने (वचनने) आज्ञाग्राह्य होवाथी अहिं आ वचन ज प्रमाण छे. यतःआणागेज्झो अत्थो, आणाए चेव सो कहेयव्यो। दिदंता दिलुतिअ. कहणविहिविराहणा इयरा॥७९॥
१. आहारक शरीर बनाववा वखते औदारिक साथे मिश्र होय छे परंतु प्रश्न आदि कालमां केवल आहारक शरीरनो व्यापार होय छे ते वखते केवळ आहारक योग होय छे. २. आ० स० वाळी प्रतिमां आणागेज्झो० ए गाथाना चोथा चरणमा इह पाठ छे परंतु इयरा पाठ, बाबुवाळी प्रतिमां तथा अंतर टोकावाली हस्तलिखित प्रतिमां पण इयरा पाठ छे. इह पाठथी छंदोभंग अने ' इतरथा' एवो अर्थ थशे नहि माटे इयरा पाठ शुद्ध जणाय छे. कदाच मुद्रणदोष थवा संभव छे.
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥३८॥
१ स्थाना
ध्ययने एकयोगता ४१सूत्रम्
आज्ञावडे जे अर्थ ग्राह्य छे ते आज्ञाथी ज कहेवा योग्य छे. कहेबाना विधिमां दृष्टांतथी दार्टीतिक अर्थ करवो. एथी ऊलटी रीते। कथन करे तो आज्ञानी विराधना थाय. शंका-एकत्वरूप सामान्यना आश्रयवडे ज सूत्र, गमक-बोधक थशे, तो पछी आ विशेष व्याख्यावडे शुं ? समाधान-एम नहि, कारण ? सामान्यरूप एकत्वने पूर्व सूत्रोबडे कहेवायेल होथी प्रस्तुत सूत्रमा पुनरुक्तिदोषना प्रसंगथी मूत्रमां देवादि शब्द तेमज समय शब्दने ग्रहण करेल छ ते निरर्थक थशे. (माटे विशेष व्याख्या करवी योग्य छ ). आ सूत्रमा देव, असुर अने मनुष्यनुं ग्रहण करेल छे ते विशिष्ट वैक्रियलब्धिसंपन्नपणाथी देवादिकने अनेक शरीरनी रचना होते छते एक समयमा मनोयोगादिनुं शरीरनी माफक अनेकपणुं थशे, आ मान्यतानुं खंडन करवा माटे छे; परंतु तिथंच अने नारकोनो निषेध करवा माटे नथी. शंका-तियच अने नारको पण वैक्रियलब्धिवाळा छे, तेओने पण विकुबणामां शरीरना अनेकपणाथी मन वगेरेनी अनेकपणानी मान्यता संभवे छे, माटे तिर्यंच अने नारकनुं ग्रहण करवू पण योग्य
छे-न्याय्य छे. समाधान-तमारं कथन योग्य छे, परंतु देवादिकनुं जे ग्रहण करेल छे ते अति विशिष्ट लब्धि(शक्ति)वाळा | होवाथी शरीरोनी अत्यंत अनेकता छ, आ कारणथी तेओन ग्रहण करेल छे. बळी प्रधान मुख्य )नो स्वीकार करवाथी इतर-सामान्यनुं ग्रहण स्वतः थाय छे, ए न्यायथी दोष नथी. नारकादिकोथी देवादिकोनुं प्रधानपणुं प्रसिद्ध ज छे. आ मन वगेरेनो
क्रम, यथायोग प्रधानपणाथी करेल छे. प्रधानपणुं ते बहु, अल्प अने अल्पतर कर्मना क्षयोपशमथी उत्पन्न थयेल लाभवडे । १.धणा कर्मोना क्षयापशमथी मनोयोगना, तेथी अल्पकर्मना क्षयोपशमथी वचनयोगनी अने तेथी अल्पतर ( अति ओछो) कमना
क्षयोपशमथी काययोगनी प्राप्ति थाय छे.
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॥३८॥
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करेलं-थयेलुं छे. (मू० ४१) हवे कायव्यायामना ज भेदोनी एकता कहे छे-'एगे उहाणे' इत्यादि उत्थान-चेष्टा-विशेष, कर्म-फरवू वगरे क्रिया, बल-शरीरनुं सामर्थ्य, वीर्य-जीवथी उत्पन्न थयेल शक्ति, पुरुपकार-अहंकार विशेष, पराक्रम-अभिमानमां ज करायेल कार्य. आ सूत्रमा द्वंद्व समास होवाथी प्रथमा विभक्तिनुं एकवचन छे. आ उत्थान वगेरे वीर्यातरायकमना [क्षय | क्षयोपशमथी थयेल जीवना परिणाम विशेषो छ. ए उत्थानादि शब्दोमा प्रत्येकने 'एक' शब्द जोडवो. वीर्यांतरायकमना [क्षय ] क्षयोपशमना विचित्रपणाथी उत्थानादिमा प्रत्येकना जघन्यादि भेदोबडे अनेकपणुं होते छते पण एक समये एक जीवने उत्थानादि विशेष जघन्यादि एक छे, कारण के वीर्यांतरायकर्मना [क्षय ] क्षयोपशमनी मात्रानु एकपणुं छे. कारण ? कार्यनी मात्रा, कारणनी मात्राने आधीन होय छे. सूत्रनो आ भावार्थ छ, विशेष पूर्ववत्. (सू० ४२) पराक्रम | वगेरेथी ज्ञानादि-रूप मोक्षमार्ग प्राप्त कराय छ जेथी कहे छे के:
अब्भुट्ठाणे विणये, परक्कमे साहुसेवणाए य । सम्मइंसणलंभो, विरयाविरइए विरइए ॥८॥
अभ्युत्थान-गुरु वगेरेना आगमनथी ऊभा थवामां, विनयमां अने साधु-सेवामा पराक्रम कर्ये छते, सम्यग्दर्शननो लाभ थाय छे. वळी देशविरति तथा सर्वविरतिनो लाभ थाय छे. आ कारणथी ज्ञानादिनुं निरूपण करवा माटे सूत्रकार कहे छे'एगे नाणे' इत्यादि, अथवा पूर्व कहेली धर्मप्रतिमा ते ज्ञानादिस्वरूप छे. आ हेतुथी ज्ञानादिनुं निरूपण करे छे
१. आगमोदय समितिवाली प्रतिमा क्षय शब्द काटरखूणा कौसमा छे अने बाबूबाळीमा सळंग पाठरूपे छे.
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१ स्थानाध्ययने
श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥३९॥
ज्ञानादि
निरूपणा * ४३ मूत्रम्
ज्ञायन्ते-जेनावडे, जेनाथी अने जेमां अर्थो जणाय छ, निर्णय थाय छे ते ज्ञान. ज्ञान-दर्शननो क्षय अथवा क्षयोपशम अथवा जे जाणवु ते ज्ञान, ज्ञानावरण अने दर्शनावरणना क्षयादिथी प्रगट थयेल आत्मानो पर्याय विशेष, सामान्य विशेषात्मक वस्तुमा विशेषांश ग्रहण करवामां चतुर अने सामान्य अंशनो ग्राहक, पांच ज्ञान, त्रण अज्ञान अने चार दर्शनरूप ते अनेक छ तो पण बोधना समानपणाथी अथवा उपयोगनी अपेक्षाए एक छे. ते आ प्रमाणे-लब्धिथी घणा वोधविशेषोनो एक समये संभव छते पण उपयोगथी एक ज संभवे छे, कारण के जीवोनुं उपयोगपणुं एक छे. शंका-दर्शननुं ज्ञानमां कथनपणुं अयुक्त छे, कारण के ( बन्नेनो) विपयभेद छे. कयु छ के-"जं सामन्नग्गहणं, दंसणमेयं विससियं नाणं" ति,-जे सामान्य स्वरूपर्नु ग्रहण ते दर्शन, अने तेना विशेप स्वरूपनुं ग्रहण ते ज्ञान छे. समाधान-सामान्य ग्राहक होबाथी इहा अने अवग्रहरूप ज दर्शन छे. अने विशेष ग्राहकपणाथी अपाय तथा धारणारूप ज्ञान छ, अथवा आगममां दर्शन अने ज्ञान बन्ने पण ज्ञानना स्वीकारवडे ग्रहण करेल छे. 'आभिनिबोहियनाणे, अट्ठावीसं हवंति पयडीउ' वचनथी आभिनिबोधिक (मति )ज्ञानमां अठावीस प्रकृतिओ (मतिज्ञानना भेदो) होय छे, माटे सामान्यथी दर्शन पण ज्ञानरूप कहेवामां विरोध नथी. शंका-आ पछीना सूत्रमा दर्शन जुर्नु ज कहेलुं छे, तो अहीं ज्ञान शब्दवडे दर्शन पण केम कथन कर्यु ? समाधान-ते उत्तरसूत्रमा दर्शन-श्रद्धाना अर्थमा विवक्षित छे. ज्ञानादि त्रणने सम्यक् शब्दबडे युक्त कर्ये छते, मोक्षमार्ग पण विवक्षित होवाथी श्रद्धानरूप पर्यायवडे ज दर्शननी साथ आ त्रण (ज्ञानादि) मोक्षना मार्गभूत छे. 'एगे दंसणे' त्ति दृश्यन्ते-जेनावडे, जेनाथी अथवा जेनामां पदार्थो श्रद्धारूप थाय छे. दर्शन दर्शनमोहनीय कर्मनो क्षय, क्षयोपशम अथवा
॥३९॥
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(उपशम)रूप दर्शन छे. अथवा दृष्टि दर्शन ते दर्शनमोहनीय कर्मना क्षयादिवडे प्रगट थयेल तत्चना श्रद्धानरूप आत्मानो परिणाम छे. ते उपाधि भेदथी अनेक प्रकारे छे तो पण श्रद्धानना समानपणाथी एक छे. अथवा एक जीवने एक समये एकनो ज भाव होय छे. शंका-अवबोधनुं समानपणुं होबाथी ज्ञान अने सम्यक्त्वमांशु विशेष छे ? समाधान-सम्यक्त्व ते रुचि अने रुचिर्नु कारण तो ज्ञान छ. [ अर्थात् कारणकार्यकृत भेद छे. ] कहेलुं छे के:नाणमवायधिईओ, दंसणमिटुं जहोग्गहेहाओ। तह तत्तरुई सम्मं, रोइज्जइ जेण तं नाणं ॥ ८१ ॥
जेम अवाय अने धारणरूप ज्ञान, अवग्रह अने इहारूप दर्शन इच्छित छे, तेम तत्त्वरूचिरूप सम्यक्त्व छे, अने जेनावडे रुचि थाय छे ते ज्ञान कहेवाय छे (८०) 'चरित्ते'त्ति चर्यते-मोक्षाभिलापी जीवोबडे विधिपूर्वक सेवाय छे ते चारित्र अथवा चर्यते-जेनावडे निवृति(मोक्ष)मां जवाय छे, अथवा कर्मोना संचयने शून्य (खाली) करवू. आ निरुक्त न्यायथी, चारित्रमोहनीय कर्मना क्षयादिथी प्रगट थयेल आत्मानो विरतिरूप परिणाम ते चारित्र. ते आगळ कहेवामां आवनारा सामायिकादि चारित्रना भेदोनुं विरतिरूप सामान्यमा अंतर्भाव थवाथी अथवा एक जीवने एक समये एक चारित्रनो ज सद्भाव होवाथी चारित्र एक छे. आ ज्ञानादिनो आ प्रमाणे क्रमले, कारण के कह्यु छ के-जे जाणेलुं नथी ते श्रद्धानरूप थतुं नथी, जे श्रद्धानरूप थयुं नथी तेनुं सम्यगाचरण करातुं नथी. (सू०४३) ज्ञान वगेरे उत्पत्ति, नाश अने स्थितिवाळां छे अने स्थिति,
१. ज्ञान कारण छे अने दर्शन ( सकित ) कार्य छे.
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श्रीस्था
नाङ्गसूत्र सानुवाद ॥४०॥
समयादिरूप छे. आ कारणथी समयनुं निरूपण करे छ:
एगे समए । सू० ४४, एग पएसे एगे परमाणू । सू० ४५,
एगा सिद्धी, एगे सिद्धे, एगे परिनिव्वाणे, एगे परिनिव्वुए । सू० ४६ मूलार्थः-समय एक छे. प्रदेश एक छे. परमाणु एक छे. सिद्धशिला एक छ. सिद्ध एक छ. सकल कर्मना नाशथी स्वस्थरूप-परिनिर्वाण एक छे, सर्वथा शारीरिक अने मानसिक दुःख रहित परिनिवृत एक छ.
टीकार्थ:-'एगे समए समय-परम निकृष्ट काल-अत्यंत सूक्ष्म-जेना बे विभाग न थाय ते, सेंकडो कमलपत्रना भेदनना दृष्टांतथी अथवा जीरण वस्त्रनी साडीना फाडवाना दृष्टांतथी आगममा प्रसिद्ध होवाथी जाणवू. ते वतमानस्वरूप समय भूतकालनो नाश अने भविष्यकालनी उत्पत्तिनो अभाव होवाथी एक ज छे. अथवा स्वरूपवडे अंश रहित होवाथी समय एक छे. (सू०४४) अंश रहित वस्तुना अधिकारथी ज आ बन्ने सूत्र कहे छ:-' एगे पएसे एगे परमाणू' प्रकृष्ट-अंश रहित, धर्म, अधर्म, आकाश अने जीवोना देश-अवयवरूप प्रदेश एक छे; कारण के स्वरूपथी बीजा वीजा प्रदेश वगेरेमा देशना कथनवडे प्रदेशपणाना अभावनो प्रसंग थशे. 'परमाणु'त्ति परम-अत्यंत, अणु-मूक्ष्म ते परमाणु, इयणुकादि स्कंधाना कारणभूत छ. कहेलुं छे के-“छल्लामा छेल्लु कारण सूक्ष्म अने नित्य परमाणु होय छे. एक वर्ण, एक रस, एक गंध अने (अविरोधी) वे स्पर्शवाळो छ तेमज कार्यथी जणाय छे ते परमाणु" ते स्वरूपथी एक ज छे एम जो न मानीए तो आ परमाणु एQ
१.स्थाना
ध्ययने सिद्धिाकाग्रमिति
साधनं ४४-४६ सूत्राणि
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नाम ज नहि होय. अथवा समय, प्रदेश अने परमाणु अनंत छतां पण तुल्यरूपनी अपेक्षाए तेओर्नु एकपणुं छे. (सृ०४५) जेम तथाविध एकत्य परिणामविशेपथी परमाणुर्नु एकपणुं थाय छे, तेम ते कारणथी ज अनंत परमाणुमय स्कंधर्नु एकपणुं थाय एम देखाडता थका सब बादर स्कंधमां श्रेष्ठरूप इपत्प्रागभार नामविशिष्ट पृथिवीस्कंधनी प्ररूपणा कर छ:-'एगा सिद्धी' सिध्यन्ति-जेने विपे ( जीवो) कृतार्थ थाय छे ते सिद्धि. जो के ते लोकना अग्रभागे छे, तेथी कहलुं छे के-'इहं बुदि चइत्ताणं, तत्य गंतृण सिज्झइ" ति अहिं-मृत्युलोकमां शरीरने छोडीने लोकना अंतमा जईने सिद्ध थाय छे, तो पण लोकांतना समीपपणाथी इपत्प्रागभारा पृथ्वी पण 'सिद्धि' नामवडे कथन कराय छे. कहेलुं छे:-' बारसहिं जोयणेहिं, सिद्धी सबट्टसिद्धाउ' त्ति. सर्वाथसिद्ध विमानथकी बार योजन उपर सिद्धि छे. जो लोकाग्र मात्र ज सिद्धि होय तो तेना पछी जे कहेलं छ:-'निम्मलदगरयवण्णा, तुसारगोक्खीरहारसरिवन्ने स्वच्छ पाणीना रज (कणिया) जेवा वर्णवाळी, हिम, गायनुं दूध अने मोतीना हार तेना जेवी धोळी इत्यादि सिद्धिना स्वरूपर्नु वर्णन केम घटे ? कारण के लोकाग्र तो अमूर्त छे.
आ कारणथी अहिं इषत्प्रागभाराने सिद्धि कहेली छे. द्रव्यार्थपणे पीस्तालीश लाख योजनप्रमाण स्कंधर्नु एक परिणामपणुं होबाथी ते एक छे. पर्यायार्थपणे तो अनंत सिद्धि छे. अथवा कृतकृत्यत्व-कृतार्थपणुं अने लोकाग्र क्षेत्ररूप, अथवा अणिमा, महिमा बगेरे सिद्धि छे. सामान्यथी सिद्धिन एकपणुं छे. सिद्धिनुं वर्णन कर्या वाद सिद्धिनुं वर्णन करे छे-'एगे सिद्धे' सिध्यति स्म-कृतार्थ थया, सेधति स्म वा अथवा फरीन आववावडे जे लोकाग्रने प्राप्त थया ते सिद्ध. सितं वा-अथवा बंधायेल कर्म, ध्मातं बळेल छे जेना ते निरुक्तथी (खंड व्युत्पत्तिथी) सिध्ध-कर्मना प्रपंचथी मृकायेल एटले ते द्रव्यार्थपणाए
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श्रीस्थानागसूत्र सानुवाद ॥४१॥
१ स्थाना* ध्ययने
अजीवधर्माः |४७ सूत्रम्
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एक छे अने पर्यायार्थपणाथी तो अनंत पर्याय छे. अथवा सिध्धोर्नु अनंतपणुं छते पण सिध्धार्नु समानपणुं होबाथी एकपणुं छे. अथवा १ कर्म, २ शिल्प, ३ विद्या, ४ मंत्र, ५ योग, ६ आगम, ७ अर्थ, ८ यात्रा, ९ बुध्धि, १० तप अने ११ कर्मक्षय, आ भेदवडे सिद्धोर्नु अनेकपणुं छते पण सिद्धार्नु, सिद्ध शब्दना उच्चारपणानुं साम्य होवाथी एकपणुं छे. कर्मक्षय सिद्धनो परिनिर्वाणरूप स्वभाव होय छे तेथी हवे ते कहे छे. 'एगे परिनिव्वाणे' परि-सर्वथा, निर्वाणं, सकल कर्मकृत विकार रहित थवाथी स्वस्थ थq ते परिनिर्वाण, ते एक छे. तेनो एक वखत संभव छते फरीने (परिनिर्वाणनो) अभाव होवार्थी परिनिर्वाणरूप धर्मना योगथी तेज कर्मक्षयसिद्धि, परिनिवृत कहेवाय छे. तथा ते देखाडवा माटे कहे छ-'एगे परिनिब्युए' परिनिर्वृतःसर्व प्रकारे शारीरिक, मानसिक अस्वास्थ्य( दुःख )थी रहित ए तात्पर्य छे. तेनुं एकपणुं सिद्धनी माफक भावq. (मू० ४६) अहिं सुधीना सूत्रोवडे प्राय जीवना धर्मो एकपणाए निरूपण कराया. हवे जीवने सहायक होवाथी पुद्गलो अने तेना लक्षणरूप अजीवना धर्मों 'एगे सद्दे' ए आदि सूत्रथी यावत् 'एगे लुक्खे' ए छेल्ला सूत्र पर्यंत ग्रंथवडे एकपणाए ज देखाडाय छे. केटलाएक पुद्गलादिनी तो सत्ता अनुमानथी जणाय छे, अने घटादि कार्यनो साक्षात्कार थवाथी | केटलाएक(पुद्गलो)नी सत्ता व्यवहारिक(इंद्रियसंयोग)रूप प्रत्यक्षथी जणाय छे; माटे कहे छे केः
एगे सद्दे, एगे केवे, एगे गंधे, एगे रैसे, एगे फासे, एगे सुब्भिसंहे, ए एगे सुरुवे, एगे दुरूवे, एगे 'दीहे, एगे हैस्से, एगे वेट्टे, एगे 'तसे, एगे चउरंसे, एगे पिढेले,
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सटे
॥४१॥
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एगे परिमंडले, एगे किण्हे, एगे णीले", एगे लोहिए, एगे हैंलिद्दे, एगे किल्ले, एगे सुब्र्भिगंधे, एगे दुब्भिगंधे, एगे तित्ते, एगे कैंडुए, एगे कैंसाए, एगे अंबिले, एगे मैंहुरे, एगे खडे जा लुक् । सू० ४७
मूलार्थ:- शब्द, रूप, गंध, रेंस, स्पर्श, शुभं शब्द, अशुभ शब्द, सारुं रूप, खरांच रूप, दीर्घ संस्थान, लघु संस्थान, वृत्त (वाटलो) सं०, त्रिकोण सं०, चतुरस्रं (चोरस) सं०, विस्तीर्ण सं०, वलय सं०, कृष्णवर्ण, नीलवर्ण, रक्तवर्ण, पीतवर्ण, श्वेतवर्ण, सुगंध, दुर्गंध, तीखो रस, कडवो रेसे, कषाय (तुंरो) रस, खाटो रस, मधुर रस, कर्कश यावत् लेखो ए शब्दादि दरेक एकेक छे.
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टीकार्थः- आ सूत्रोमां शब्दादि सूत्रो सुगम छे, परंतु शब्दयते-जेनावडे जे कहेवाय छे ते शब्द - अवाज, ए श्रोत्रद्रियनो विषय छे. रूप्यते-जे जोवाय छे ते रूप-आकार चक्षुइंद्रियनो विषय छे. घायते-जे सुंघाय छे ते-गंध, घ्राण (नाक) नो विषय छे. रस्यते-जे आस्वादन कराय छे ते रस, रसना इंद्रियनो विषय छे. स्पृश्यते - जे स्पर्शाय छे-छबाय छे ते स्पर्श, स्पर्शन इंद्रियनो विषय छे. शब्दादिनुं एकपणुं सामान्यथी छे अथवा सजातीय अने विजातीयना भेदनी अपेक्षा सिवाय एकपं भाव. शब्दनाचे भेद कहे छे- 'मुभिसद्दित्ति-शुभ शब्दो मनने गमता, 'दुभित्ति-मनने जे न गमे ते अशुभ शब्द, एवी रीते बीजा पण शब्दो आ वे भेदमां अंतर्भूत थाय छे एम जाणवुं. एवी रीते रूपना व्याख्यानमां पण सुरूप वगेरे श्वेतरूप पर्यंत जे चौद भेद छे ते एकेक छे. तेमां मनने गमतुं रूप ते सुरूप हे अने तेथी विपरीत ते कुरूप छे. दीर्घ-अति
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र सावुवाद ॥४२॥
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लांबु, हस्व-तेनाथी नानु, वृत्तादिक पांच स्कंधना संस्थान(आकार)ना भेद छे. तेमां वृत्त संस्थान मोदक जे छ, ते प्रतर ||१ स्थानाअने घन भेदथी ये प्रकारे छे. वळी ते प्रत्येक (प्रतर-घन)समविषम प्रदेशना अवगाढरूप भेदी चार प्रकारे छे. वीजा III ध्ययन संस्थानो पण एवी रीते जाणवा. तसे'त्ति त्रण छे कोटि (हांस) जेमां ते व्यंस्र (त्रिकोण) छे. चार छ हांसो जेने ते चतुरस्र- 18 अजीवधर्माः चोखूणो छे. तथा 'पिहुल'त्ति पृथुल-विस्तीर्ण. वळी बीजे स्थले पृथुलने ठेकाणे 'आयत' कहेवाय छे ते आयतसंस्थान, ४७ सूत्रम् अहिं दीर्घ, इस्त्र अने पृथुल शब्दवडे विभाग करीने कहेलुं छे, कारण के दीर्घ वगेरे आयत धर्मयविशिष्ट छे. ते आयत, प्रतर-धन-श्रेणि भेदथी त्रण प्रकारे छे. वळी ते प्रत्येक, सम-विषम प्रदेशरूपथी छ प्रकारना छे. जे आयतना के भेद दीर्घ अने इस्व तेनुं कथन शरूआतमां कहेल छे ते वृत्त वगेरे संस्थानोमां आयतनी प्रायः वृत्ति देखाडवा माटे कहेल छे. ते आ प्रमाणे:-दीर्घायत घणो लांबो स्तंभ (थांभलो) गोळ त्रिकोण अने चतुष्कोण छे इत्यादि भावयु, अथवा सूत्रनी गति विचित्र होवाथी आवी रीते उपन्यास करेल छे. 'परिमंडले'त्ति परिमंडल संस्थान वलय(चूडी) आकारे, ते प्रतर-घनभेदथी ये प्रकारे छे. रूपनो भेद ते वर्ण, ते कृष्ण वगेरे पांच प्रकारे स्पष्ट छे; परंतु हारिद्र-पीळो, कपीश-धूसर वगेरे वर्णना संसर्ग(एक बीजाना संबंध)थी थाय छे, माटे तेओनो उपन्यास करेल नथी. गंध सुगम अने दुरभिगंध एम बे प्रकारे छे. जे सन्मुख करे ते सुगंध अने जे विमुख करे ते दुर्गध. साधारण परिणाम अस्पष्ट होवाथी दुगह-दुःखे ग्रहण करी शकाय तेवा संसर्गवडे थवाथी कहेल नथी. रस पांच प्रकारे छे. तेमां श्लेष्म-कफनो नाश करनार ते तीखो रस, वैशद्य-शरदीने जे दूर करनार ते कटुक रस, अन्ननी रुचिने जे बंध करनार ते कषाय रस, सांभळवाथी मोढाने जे पीगळावनार ते खाटो रस, आनंद अने पुष्टिने जे करनार ते मधुर रस. संसर्गथी उत्पन्न थनार लवण रस
४२।।
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ते कहेल नथी. स्पर्श आठ प्रकारे छे. तेमा कर्कश-कठण (न वळी शके तेवो) यावत् शब्दथी मृद वगेरे वीजा छ स्पर्श जाणवा. सुखपूर्वक-सहेलाइथी वळे ते मृदु, नीचे गमन करवामां जे हेतु ते गुरू, प्रायः तीच्छी अने ऊंचे गमन करवामां जे हेतु ते लघु, ठंडीथी करायेल स्तंभन स्वभाववाळो ते शीत, कोमळ पाकने करनार ते उष्ण, संयोग छते संयोगवाळी वस्तुओना बंधनो हेतुपिंडरूप करनार ते स्निग्ध, बंध(पिंड)ने नहिं करनार रुक्ष. आ दरेक एकेक छे. (मू० ४७) पुद्गलना धर्मोनु एकपणुं कड्युं. हवे पुद्गलोथी जोडायेल जीवोना अप्रशस्त धर्मो-अठार पापस्थान संज्ञावाळानुं 'एगे पाणाइवाए' आदि सूत्रना आरंभथी 'दसणसल्ले ' सूत्रवडे एकपणुं कहे छः
एगे पाणाइवाए जाव एगे परिग्गहे । एगे कोहे जाव लोहे । एगे पेजे एगे दोसे जाव एगे परपरिवाए । एगा अरईरई । एगे मायामोसे । एगे मिच्छादंसणसल्ले । सू०४८, एगे पाणाइवायवेरमणे जाव परि वेरमणे । एगे कोहविवेगे जाव मिच्छादंसणसल्लविवेगे । सू० ४९ |
मूलार्थ:-प्राणातिपात एक छे यावत् परिग्रह एक छ, क्रोध एक छे यावत् लोभ एक छे, राग एक छे, द्वेष एक छे यावत् परपरिवाद एक छ, अरतिरति एक छे, मायामृषा एक छे, मिथ्यादर्शनशल्य एक छे. (मू० ४८) प्राणांतिपातनी विरति यावत् परिग्रहनी विरति, क्रोधनो त्याग यावत् मिथ्यादर्शनशल्यनो त्याग. (सू० ४९)
टीकार्थः-तत्रतेमां-पापस्थानमांप्राणा:-उच्छ्वास वगेरे, तेओर्नु अतिपातन-प्राणवाळा साथे वियोग करवो ते प्राणा
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श्रीस्था
नाङ्गसूत्र
सानुवाद ॥ ४३ ॥
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तिपात हिंसा. क. छे - " पांच इंद्रिय, त्रण बल, उच्छ्वास - निच्छ्वास अने आयुष्य आ दश प्राणो भगवंतोए कहेला छे. ते प्राणोनो वियोग करतो ते हिंसा छे. ” ते प्राणातिपात द्रव्य अने भावभेदथी चे प्रकारे छे. अथवा विनाश ( जीव रहित कर ते ), परिताप ( दुःख ) अने संक्लेश ( खेद ) ना भेदथी त्रण प्रकारे छे. क्युं छे केः
तप्पज्जायविणासो, दुक्खुप्पाओ य संकिलेसो य । एस वहो जिणभणिओ, वज्जेयव्वो पयतेणं ॥८२॥
जीवना पर्याय ( तिर्यंचादि ) नो विनाश, दुःख उत्पन्न कर अने खेद उपजाववो - आ त्रण प्रकारनो वध जिनेश्वरोए कल छे ते प्रयत्नवडे त्यागवा योग्य छे. (८२ ) अथवा मन, वचन अने कायावडे करवुं, करावनुं अने अनुमोदनना भेदथी नव प्रकारे छे. वळी ते कोधादि भेदथी छत्रीश प्रकारे पण छे. (१). तथा जुटुं बोलवु ते मृषावाद, ते द्रव्य अने भावना भेदथी वे प्रकारे छे, अथवा ते अभूतोद्भावन वगेरे भेदवडे चार प्रकारे पण छे. ते आ प्रमाणे - 'आत्मा सर्वगत - व्यापक छे' एम जे कहेवुं ते अभूतोद्भावन, 'आत्मा नथी' एम जे कहेवुं ते भूतनिह्नत्र, 'गौ-बळद छतां पण आ घोडो छे' एम कहेवुं ते वस्त्वंतरन्यास, 'तुं कोढियो छो' एम जे कहेतुं ते निंदा ( वचन ). ( २ ). अदत्त - स्वामी ( मालीक), जीव, तीर्थंकर अने गुरुवडे आज्ञा न अपायेल सचित्त, अचित्त अने मिश्र भेदवाळी वस्तुनुं आदान-ग्रहण करवुं ते अदत्तादान- चोरपणुं. ते विविध उपाधिना वशथी अनेक प्रकारे छे. (३) तथा मिथुनस्य - स्त्री अने पुरुषरूप जोडलानुं कार्य ते मैथुन - अब्रह्मचर्य ते मन, वचन अने काया संबंधी करवुं, कराववुं अने अनुमोदवारूप नव भेदोथी औदारिक अने वैक्रिय शरीरना विषयोवडे अढार प्रकारे
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EXCXXXC
१. स्थाना
ध्ययने
पापस्था
नानि
ताद्वैरतिव
४८-४९
सूत्रे
॥ ४३ ॥
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थाय छे. अथवा विविध उपाधिथी घणा प्रकारे छे. (४). तथा परिगृह्यते-जे स्वीकार कराय छे ते परिग्रह. ते बाह्य अने अभ्यंतर भेदथी के प्रकारे छे. तेमां बाह्य-धर्मना साधनो सिवाय धन-धान्य वगरे अनेक प्रकारे छे अने आभ्यंतर तो मिथ्यात्व, अविरति, कषाय अने प्रमाद वगेरे अनेक प्रकारे छे. अथवा परिग्रहणं-सर्वतः ग्रहण करवू ते परिग्रह-मूछी. (५). तथा क्रोध, मान, माया अने लोभ, ते कषायमोहनीय कर्मरूप पुद्गलना उदयवडे प्राप्त थयेल जीवना परिणामो. वळी ए कषायो अनंतानुबंधी वगेरे भेदथी अथवा असंख्यात अध्यवसायस्थानोना भेदथी अनेक प्रकारे छे. (६-९). तथा 'पेजेत्ति-प्रियनो जे भाव अथवा कार्य ते प्रेम, अप्रगट माया अने लोभलक्षण भेदस्वभावरूप ते राग मात्र छे. (१०). तथा 'दोसेत्ति-द्वेषभाव ते द्वेष अथवा दूषण ते दोष, ते अप्रगट क्रोध अने मानलक्षण भेदस्वभावरूप ते अप्रीति मात्र छे. (११), 'जाव'त्ति 'कलहे अभक्खाणे पेसुण्णे' तेमां कलह-कजीओ (१२), अभ्याख्यान-प्रगट खोडं आळ आपq (१३), पैशुन्य-गुप्त रीते छता-अछता दोषनुं प्रगट करवू ते चुगल(चाडी)कर्म (१४), बीजाओनो जे अपवाद करवो (खराब बोलवू) ते परपरिवाद (१५), अरतिमोहनीय कर्मना उदयथी थयेल चित्तना विकार-उद्वेगरूप ते अरति, तथाविध आनंदरूप ते रति. अरतिरति ते एक ज विवक्षित छे, जेथी कोईक विषयमां रति तेने ज विषयांतरनी अपेक्षाए अरति कहे छे. एवी रीते अरतिने ज रति कहेवाय छे. अरतिरतिने विषे एकपणुं औपचारिक छे. (१६) तथा 'मायामोसे 'त्ति माया-निकृति (कपट), मृषा-जूटुं बोलवू, अथवा माया सहित असत्य बोलवू ते मायामृषा,
१. रतिमोहनीयकर्मना उदयथी रति थाय छे माटे अति अने रतिनो वस्तुत: भेद छे.
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र
सानुवाद
।। ४४ ।।
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प्राकृतपणुं होवाथी मायामोष कहेवाय छे. एमां घे दोषनो योग छे. वळी आ मानमृषादि, संयोगदोपना उपलक्षणरूप छे. कोइक एम कहे छे के वेषांतर. भिन्न भिन्न रूप करवावडे लोकोने ठगर्नु ते मायामृषा, प्रेम वगेरे विषयना भेदवडे अथवा अध्यबसायस्थानांना भेदथी पण अनेक प्रकारे छे. (१७). मिथ्यादर्शन-विपरीत दृष्टि, ते ज तोमर वगेरेना शल्यनी जेम दुःखनो हेतु होवाथी शल्य ते मिथ्यादर्शन शल्य, मिथ्यादर्शन १. अभिग्रहिक, २. अनभिग्रहिक, ३. अभिनिवेशिक, ४. अनाभोगिक अने ५. सांशयिक भेदी पांच प्रकारे छे. अथवा उपाधिना भेदी अधिकतर भेद पण छे. (१८). आ प्राणातिपातादि अढार पापस्थानोनुं उक्त क्रमव डे अनेकपर्णु छते पण वध वगेरेना साम्यथी एकपणुं जाणवुं. ( सू० ४८ ) अढार पापस्थानको कह्यां. ये 'एगे पाणाइवायवेरमणे' इत्यादि अठार सूत्रोवडे तेना विपक्षोना एकपणाने कहे छे. आ सूत्रो सुगम छे. विरमण ते विरति तथा विवेक ते त्याग (सू०४९). हमणा पुद्गल सहित जीवद्रव्यना धर्माना एकपणुं जे करूं ते कालना स्थितिरूपपणाए, कारण के काल तेनो धर्म छे. कालना विशेषणाने 'एगा ओसप्पिणी ' आदि सूत्रथी आरंभीने 'सुसमसुसमा ' छेल्ला सूत्रवडे कालं स्वरूप कहे छे:
एगा ओसप्पिणी, एगा मुसमसुसमा जाव एगा दुसमदुसमा । एगा उस्सपिणी एगा दुस्समदुस्समा जाव एगा सुसमसुसमा । सू० ५०
१. मानमृषा, क्रोधमृषा बगेरे उपलक्षणयो मायामृषामां अंतर्भूत छे. २. मंथ-दंडाकार.
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१ स्थान:ध्ययने अबसर्पिणाद्याः
काल
स्वरूपम् ५० सूत्रम
11 28 1!
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मूलार्थ:-एक अवसर्पिणी, एक सुसमसुसमा यावत् एक दुसमदुसमा छे. एक उत्सर्पिणी, एक दुसमदुरामा यावत् सुसमसुसमा एक छे.
टीकार्थः-काल ए केम जणाय छे? एम जो कहेशो तो कहीए छीए के वकुल, चंपक अने अशोकादि वृक्षोमा पुष्पोना प्रदानआववाना नियमवडे देखावाथी. तेनो नियामक कारण काल छे. तेमा 'ओसप्पिणीति घटता आराबडे जे घटे छ, अथवा आयुष्य अने शरीरादि भावोने घटाडे-ढूंका करे छे ते अवसर्पिणी, दश कोडाकोडी सागरोपम प्रमाणरूप कालविशेष छे. सारामां सारं अत्यंत सुखरूप ते मुपमसुषमा नामे अवसर्पिणीनो ज पहेलो आरो, अवसर्पिणीना हानिना स्वरूपवडे एकत्व होवाथी एकपणुं छे, एम सर्वत्र जाणवू. यावत् शब्द मर्यादा देखाडवा माटे छे, तेथी सुषममुषमा इत्यादि सूत्रो स्थानांतरमां प्रसिद्ध जे छ त्यांसुधी कहे. यावत्' दुसमदुसमे' ति आ पद पर्यंत पाठनो संग्रह करवो. अहिं आ अतिदेश, सूत्रनालाघव(संक्षप) माटे छे. एवी रीते सर्व स्थले ' यावत् शब्दनी व्याख्या करवा योग्य छ, अतिदेशवडे प्राप्त थयेला अने 'एक' शब्दवडे समीपमा आवेला पदो आ छ-'एगा सुसमा, एगा सुसमदुसमा, एगा दुसमसुसमा, पगा दुसमे ति आ आराओनुं स्वरूप शब्दना अनुसारथी जाणवु. प्रथमना त्रण आरानुं क्रमशः चार, त्रण अने ये कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण जाणवू. चोथा आरानुं बेंतालीश हजार वर्ष न्यून एक कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण छे. छेल्ला बे आरामा प्रत्येकनुं एकवीश हजार वर्ष प्रमाण छे. बळी आरानी अपेक्षाए जे वृध्धि पामे छे ते, अथवा आयुष्य वगेरे भावोनी जे वृध्धि करावे छे ते उत्स
१. साक्षात् पाठ न होय छतां कहेवा योग्य पाठ लाववो ते अतिदे रा.
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श्रीस्था
नाङ्गसूत्र
सानुवाद ॥ ४५ ॥
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पिंणी. ते कालमानथी अवसर्पिणी प्रमाणे छे. अत्यंत दुःखरूप ते दुसमदुसमा नामे पहेलो आरो. ' यावत्' शब्दथी 'एगा दुसमा, एगा दुसमसुसमा, एगा सुसमदुसमा, एगा सुसमे ति आ पाठ जाणवो. आ छ आरानुं कालमान पूर्वे जणावेल छे ते प्रमाणे छे परंतु ऊंलटी रीते जाणवुं. (स० ५०) जीव, पुद्गल अने काल लक्षणरूप द्रव्यनी विविध धर्म विशेषोनी एकपणानी प्ररूपणा करी. हवे संसारी मुक्त जीव अने पुद्गलद्रव्य विशेषोना तथा नारक अने परमाणु आदिना समुदाय लक्षणरूप धर्म ' ratesari वग्गणा' आ प्रथम सूत्रथी आरंभीने 'एगा अजहनु क. सगुणलुक्खाणं पोग्गलाणं वग्गणे' ति आ छेल्ला सूत्र पर्यंत वर्गणाने कहे छेः
गानेरइयाणं वग्गणा, एगा असुरकुमाराणं वग्गणा, चउवीसदंडओ जाव वैमाणियाणं वग्गणा । एगा भवसिद्धयाणं वग्गणा, एगा अभवसिद्धीयाणं वग्गणा, एगा भवसिद्धि [योणं] नेरइयाणं वग्गणा, एगा अभवसिद्धियाणं नेरइयाणं वग्गणा, एवं जाव एगा भवसिद्धियाणं वेमाणियाणं वग्गणा, एगा अभवसिद्धियाणं वेमाणियाणं वग्गणा । एगा सम्मद्दिट्ठियाणं वग्गणा, एगा मिच्छद्दिट्ठियाणं वग्गणा, एगा सम्मामिच्छद्दिट्ठियाणं वग्गणा । एगा सम्मद्दिट्ठियाणं नेरइयाणं वग्गणा, एगा मिच्छ१. उत्सर्पिणीना प्रथम आरानो काल एकवीश हजार वर्षांनो अने छेल्ला आरानो चार कोडाकोडी सागरोपमनो छे. २. बाबूवाळी प्रतिमां सिद्धियाणं पाठ छे अने आ० सा० वाळी प्रतिमां भवसिद्धि० पाठ छे.
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१ स्थाना
ध्ययने वर्गणास्वरूपम्
| ५१ सूत्रम्
॥ ४५ ॥
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विट्रियाणं नेरइयाणं वग्गणा, एगा सम्ममिच्छद्दिट्रियाणं नेरइयाणं वग्गणा, एवं जाव थणियकुमाराणं वग्गणा । एगा मिच्छादिट्टियाणं पुढविक्काइयाणं वग्गणा, एवं जाव वणस्सइकाइयाणं । एगा सम्मद्दिट्रियाणं बेइंदियाणं वग्गणा, एगा मिच्छद्दिट्टियाणं बेइंदियाणं वग्गणा, एवं तेइंदियाणंपि चरिंदियाणवि। सेसा जहा नेरइया जाव एगा सम्ममिच्छद्दिट्रियाणं वेमाणियाणं वग्गणा॥ एगा कण्हपक्खियाणं वग्गणा, एगा सुक्कपक्खियाणं वग्गणा, एगा कण्हपक्खियाणं नेरइयाणं वग्गणा, एगा सुक्कपक्खियाणं नेरइयाणं वग्गणा,एवं चउवीसदंडओ भाणियव्वो।एगा कण्हलेसाणं वग्गणा, एगा नीललेसाणं वग्गणा, एवं जाव सुक्कलेसाणं वग्गणा, एगा कण्हलेसाणं नेरइयाणं वग्गणा जाव काउलेसाणं नेरइयाणं वग्गणा। एवं जस्स जइ लेसाओ, भवणवइवाणमंतरपुढविआउवणस्सइकाइयाणंच चत्तारि लेसाओ तेउवाउबेइंदियतिइंदिअचउरिदियाणं तिन्निलेसाओ.पंचिंदियतिरिक्ख. जोणियाणं मणुस्साणं छल्लेसाओ, जोइसियाणं एगा तेउलेसा, वेमाणियाणं तिन्नि उवरिमलेसाओ। एगा कण्हलेसाणं भवसिद्धियाणं वग्गणा, एगा [कण्हलेसाणं अभवसिद्धियाणं वग्गणा, एवं छसुवि
१. आ पाठ आगमोदय समितिवाळी प्रतिमा रही गयेल छे.
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥४६॥
१. स्थाना
ध्ययने वर्गणास्क
रूपम् ५१ सूत्रम्
लेसासु दो दो पयाणि भाणियवाणि। एगा कण्हलेसाणं भवसिद्धियाणं नेरइयाणं वग्गणा एगा कण्हलेसाणं अभवसिद्धियाणं नेरइयाणं वग्गणा, एवं जस्स जत्तिलेसाओ तस्स तति भाणियवाओ जाव वेमाणियाणं। एगा कण्हलेसाणं सम्मदिदिआणं वग्गणा, एगा कण्हलेसाणं मिच्छद्दिट्टियाणं वग्गणा, एगा कण्हलेसाणं सम्मामिच्छद्दिट्टियाणं वग्गणा, एवं छवि लेप्सासु जाव वेमाणियाणं जेसिं जदि दिट्टीओ। एगा कण्हलेसाणं कण्हपक्खियाणं वग्गणा, एगा कण्हलेसाणं सुक्कपक्खियाणं वग्गणा, जाव वेमाणियाणं जस्स जति लेसाओ एए अटू चउवीसदंडया ॥ एगा तित्थसिद्धाणं वग्गणा, एवं जाव एगाएकसिद्धाणं वगणा एगा अणिकसिद्धाणं वग्गणा एगा पढमसमयसिद्धाणं वग्गणा एवं जाव अणंतसमयसिद्धाणं वग्गणा ॥एगा परमाणुपोग्गलागं वग्गणा एवं जाव एगा अणंतपएसियाणं खंधाणं वग्गणा। एगा। एगपए सोगाहाणं पोग्गलाणं वग्गणा जाव एगा असंखेजपएसोगाहाणं पोग्गलाणं वग्गणा। एगा एगसमपठितियाणं पोग्गलागं वगणा जाव असंखेजसमयठितियाणं पोग्गलाणं वग्गणा । एगा एगगुणकालगाणं पोग्गलाणं वग्गणा, जाव एगा असंखेज०,
॥ ४६॥
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एगा अणंतगुणकालगाणं पोग्गलाणं वग्गणा । एवं वण्णा गंधा रसा फासा भाणियव्या जाय एगा अगंतगुणलुक्खाणं पोग्गलाणं वग्गणा । एगा जहन्नपएसियाणं खंधाणं वग्गणा एगा उक्कस्सपएसियाणं खंधाणं वग्गणा एगा अजहन्नुकरसपएसियाणं खंधाणं वग्गणा एवं जहन्नोगाहयाणं उक्कोसोगाहणगाणं अजहन्नुकोसोगाहणगाणं जहन्नठितियाणं उक्कस्सठितियाणं अजहन्नुकोसठितियाणं जहन्नगुणकालगाणां उकस्सगुणकालगाणं अजहन्नुकस्सगुणकालगाणं, एवं वपणगंधरसफासाणं वग्गणा भाणियव्वा जाब एगा अजहन्नुकस्सगुणलुवाणं पोग्गलाणं वग्गणा । सू० ५१ ___ मूलार्थ:-नैरयिकोनी वर्गणा एक छे, असुरकुमारोनी वर्गणा एक छ, एवी रीते चोवीश दंडक पर्यंत यावत् वैमानिक देवोनी वर्गणा एक छे. भव्यसिद्धिकोनी वर्गणा एक छ, अभव्यसिद्धिकोनी वर्गणा एक छ, भव्यसिद्धिक नैरयिकोनी वगेणा एक छ, अभव्यसिद्धिक नैरयिकोनी वर्गणा एक छे. एची रीते यावत् भव्यसिद्धिक वैमानिकोनी वर्गणा एक छे अने अभव्यसिद्धिक वैमानिकोनी वर्गणा एक छे. सम्यग्दृष्टि जीवोनी वर्गणा एक छ, मिथ्यादृष्टि जीवोनी वर्गणा एक छ, मिश्रदृष्टि जीवोनी वर्गणा एक छे, सम्यग्दृष्टि नैरयिकोनी वर्गणा एक छ, मिथ्यादृष्टि नैरथिकोनी वर्गणा एक छे, मिश्रदृष्टि नैरयिकोनी वगेणा एक छे, एवी रीते यावत् स्तनितकुमारोने एक वर्गणा कहेवी. मिथ्यादृष्टि पृथवीकायिकोनी वगणा एक छे, एवी रीते
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श्रीस्थानागसूत्र सानुवाद ॥४७॥
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१ स्थाना
ध्ययने वर्गणास्त्र
रूपम् ५१सूत्रम्
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यावत् वनस्पतिकायिकोनी वर्गणा एक छे. सम्यग्दृष्टि बेइंद्रियोनी वर्गणा एक छे, मिथ्यादृष्टि बेइंद्रियोनी वर्गणा एक छे, | एवी रीते तेइंद्रिय चौशिंद्रियोने पण एक वर्गणा जाणवी. शेष (पंचेंद्रियना) पांच दंडको नारकोनी माफक जाणवा. यावत मिश्रदृष्टि वैमानिकोनी एक वर्गणा छे. कृष्णपाक्षिक जीवोनी वर्गणा एक छे, शुक्लपाक्षिक जीवोनी वर्गणा एक छे, कृष्णपाक्षिक नैरयिकोनी वर्गणा एक छ, शुक्लपाक्षिक नैरयिकोनी वर्गणा एक छे, एवी रीते चोवीश दंडको कहेवा. कृष्णलेश्यानी वर्गणा एक छे, नीललेश्यानी वर्गणा एक छे, एम यावत् शुक्ललेश्यानी वर्गणा एक छे, कृष्णलेश्यावाळा नैरयिकोनी वर्गणा एक छे, यावत् कापोतलेश्यावाळा नैरयिकोनी वर्गणा एक छे. एवी रीते जेने जेटली लेश्याओ छे ते कहे छ:भवनपति, वाणव्यंतर, पृथ्वीकायिक, अपकायिक अने वनस्पतिकायिकोने पहेली चार लेश्या छे. तेजस्कायिक, वायुकायिक, बेइंद्रिय, तेइंद्रिय, चतुरिंद्रियोने पहेली त्रण लेश्या छे, पंचेंद्रिय तियंचयोनिको अने मनुष्योने छ लेश्या छे, ज्योतिष्कोने एक
तेजोलेश्या छ, वैमानिकोने उपरनी त्रण लेश्या छे. कृष्णलेश्यावाळा भव्यसिद्धिकोनी वर्गणा एक छे, कृष्णलेश्यावाळा अभव्य& सिद्धिकोनी वर्गणा एक छे, एवी रीते छ लेश्याने विषे पण बे वे पदो कहेवा, कृष्णलेश्यावाळा भव्यसिद्धिक नैरयिकोनी * वर्गणा एक छे, कृष्णलेश्यावाळा अभव्यसिद्धिक नैरयिकोनी वर्गणा एक छे, एवी रीते (जे दंडकमां ) जेने जेटली लेश्याओ
होय तेने तेटली लेश्याओ कहेवी. कृष्णलेश्यावाळा सम्यग्दृष्टिकोनी वर्गणा एक छे, कृष्णलेश्यावाळा मिथ्यादृष्टिकोनी वर्गणा एक छे, कृष्णलेश्यावाळा मिश्रदृष्टिकोनी वर्गणा एक छे, एवी रीते छ लेश्याओने विषे यावत् वैमानिक दंडक सुधी जेओने जेटली दृष्टिओ होय तेटली वर्गणा कहेवी. कृष्णलेश्यावाळा कृष्णपाक्षिकोनी वर्गणा एक छे, कृष्णलेश्यावाळा शुक्लपाक्षिकोनी
KKKXXXXXXXXXXXX)
॥४७॥
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वर्गणा एक छे, एम यावत् वैमानिकोना दंडक सुधी जेने जेटली लेश्याओ छे तेटली पक्षविशिष्ट एकेकी वर्गणा कहेवी. ए आठ बोल ओघ वगेरे चोवीशे दंडकबडे जाणवा. तीर्थसिद्धोनी वर्गणा एक छे, एवी रीते यावत् एक सिद्धोनी वर्गणा एक छे, अनेक सिद्धोनी वर्गणा एक छे, प्रथम समय सिद्धोनी वर्गणा एक छ, एम यावत् अनंत समय सिध्धोनी वर्गणा एक छे. परमाणु पुद्गलोनी वर्गणा एक छे एम यावत् अनंतप्रदेशिक स्कंधोनी वर्गणा एक छे, एक प्रदेशावगाढ (एक प्रदेशने अवगाहीने रहेल) पुद्गलोनी वर्गणा एक छे, एम यावत् असंख्यात प्रदेशोने अवगाही रहेल पुद्गलोनी वर्गणा एक छे. एक समयनी स्थितिवाळा पुद्गलोनी वर्गणा एक छे, यावत् असंख्यात समयनी स्थितिवाळा पुद्गलोनी वर्गणा एक छे, एकगुण काळा वर्णवाळा पुद्गलोनी वर्गणा एक छे, यावत् असंख्यातगुण काळा वर्णवाला पुद्गलोनी वर्गणा एक छे, अनंतगुण काळा वर्णवाळा पुद्गलोनी वर्गणा एक छे. एवी रीते वर्णो, गंधो, रसो अने स्पर्शीनी वर्गणा कहेवी, ते यावत् अनंतगुण रुक्ष स्पर्शवाळा पुद्गलोनी वर्गणा एक छे. जघन्य प्रदेशिक स्कंधोनी वर्गणा एक छ, उत्कृष्ट प्रदेशिक स्कंधोनी वर्गणा एक छ, अजघन्य-उत्कृष्ट (मध्यम ) प्रदेशिक स्कंधोनी वर्गणा एक छे, एम जघन्य अवगाहनावाळा स्कंधोनी उत्कृष्ट अवगाहनावाळा स्कंधोनी अने मध्यम अवगाहनावाळा स्कंधोनी वर्गणा एकेक छे. जघन्य स्थितिवाळा, उत्कृष्ट स्थितिवाळा अने मध्यम स्थितिवाळा स्कंधोनी वर्गणा एक छ, जघन्य गुण काळा वर्णवाळा, उत्कृष्टगुण काळा वणवाळा अने मध्यमगुण काळा वर्णव का स्कंधोनी वर्गणा एक छे, एवी रीते यावत् वर्ण, गंध, रस अने स्पर्शनी वर्गणा एकेक कहेवी, यावत् मध्यमगुण लूखा स्पर्शवाळा पुद्गलोनी वर्गणा एक छे. (मू०५१)
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श्रीस्था
नाङ्गसूत्र सानुवाद ॥४८॥
१ स्थाना
ध्ययने नारकदेक सिद्धिः
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टीकार्थ:-प्रस्तुत विषयमा ‘नेरयाणं 'ति-अविद्यमानमय-नीकळी गयं छे इच्छित फलरूप कम जेनाथी ते निरयो (नरकावासो), तेमां उत्पन्न थयेला नैरयिको-क्लेशविशिष्ट जीवो. ते जीवो भूमि, पाथडा, नरकावास, स्थिति अने भव्यत्वादि भेदथी अनेक प्रकारे छे. ते बधाओनी वर्गणा-वर्ग-समुदायरूप छे. सर्वत्र नारकत्वादि पर्यायोबडे समानपणुं होवाथी वर्गणानुं एकपणुं छे. तथा असुरा:-असुरो ते नवीन यौवनपणाए कुमारोनी माफक कुमारो होवाथी असुरकुमारो, तेओनी वर्गणा एक छे. 'चउवीसदंडउत्ति-चोवीश पदवडे बंधायेल जे दंडक एटले वाक्यनी रीति ते चोवीश दंडक. ते अहिं कहेवा योग्य छे. ते आ
नेरइया १ असुरादी १०, पुढवाइ ५ बेइंदियादयो चेव ४।
नर १ वंतर १ जोतिसिय १, वेमाणी १ दंडओ एवं ॥ ८३ ॥ सात नैरयिकोनो १ दंडक, असुरादिना १० दंडक, पृथ्वी आदिना ५ दंडक, बेइंद्रियादि तिर्यंचना ४ दंडक, मनुष्यनो १ दंडक, व्यंतरनो १ दंडक, ज्योतिष्कनो १ दंडक अने वैमानिकनो १ दंडक. आ प्रमाणे चोवीश दंडक कहेला छे. भवनपतिओ दश प्रकारे छ:असुरा नाग सुवण मा, विज्जू अग्गी यदीव उदहीयादिसि पवणथणियनामा, दसहा एए भवणवासि॥८४
आ गाथानो अर्थ स्पष्ट छे. आ गाथाना क्रमवडे आ सूत्रो कहेवा. 'एगा वेमाणियाणं वग्गणा 'त्ति यावत् चोवीशमा वैमानिक दंडक पर्यंतनी वर्गणा एक छे. आ सामान्य(ओघ) दंडक छे. शंका-नारकोनी सत्ता (अस्तित्व )
॥४८॥
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दुःसाध्य छ तो तेना धर्मरूप वर्गणानुं एकपणुं वा अनेकपर्णु दूर रहो ( अर्थात् ते क्यांथी होय ? ) कारण के- नारको नथी, तो पछी आकाशना फूलनी माफक नारकोना साधक प्रमाणनो अभाव छे. समाधान -' प्रमाणनो अभाव ' जे तमे कल ते हेतु असिद्ध छे, कारण के तेओना साधक अनुमान प्रमाणनो सद्भाव छे, ते आ प्रमाणेः - अत्यंत पापकर्मनुं फळ विद्यमान भोगवनार विशिष्ट छे. कर्मनुं फळ होवाथी पुन्य कर्मना फळनी जेम. तिर्यंच अने मनुष्यो ज उत्कृष्ट पापफलना भोगवनारा नथी, कारण के औदारिक शरीरखाळावडे उत्कृष्ट पापफलनुं भोगवनुं विशिष्ट देवना जन्मना कारणभूत प्रकृष्ट पुन्यना फलनी जेम अशक्य छे. कां छे केः
पात्रफलस्स पगिट्टस्स, भोइणो कम्मओऽवसेसव्व । संति धुवं तेऽभिमया, नेरइया अह मई होज्जा ॥८५॥ अच्चत्थदुक्खिया जे, तिरियनरा नारगत्ति तेऽभिमया ।
तं न जओ सुरसोक्ख-प्पगरिससरिसं न तं दुक्खं ॥ ८६ ॥ युग्मम्
जेम अवशेष - जघन्य मध्यम पापना फलने भोगवनारा तिर्यंच अने मनुष्यो छे ते प्रत्यक्ष जोवाय छे तेम उत्कृष्ट पापना फलने भोगवनारा कोईक चौकस छे; माटे तेवा पापनुं फल भोगवनारा जे कोई छे ते नारको छे, एम स्वीकारर्खु जोईए. अहिं कदाच तमे एम कहेशो के (शंका) - अत्यंत दुःखी जे तिर्यंच अने मनुष्यो छे. ते ज उत्कृष्ट पापना फलने भोगवनारा होवाथी तेओने ज नारको कहेवा जोईए. अदृष्टनी कल्पना करवाथी शो फायदो ? समाधान-आ तमारी मान्यता अयोग्य छे, कारण के
९
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श्रीस्था
नाङ्गसूत्र सानुवाद ॥४९॥
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जे एवा उत्कृष्ट पापना फलने भोगवनारा होय ते सर्वथा प्रकारे दुःखी ज होवा जोईए. जेवू दुःख नरकभूमिमां प्रसिद्ध छे तेवु | ४१ स्थाना
दुःख तिर्यंच अने मनुष्योने होतुं नथी. देवना उत्कृष्ट सुखनी माफक तिर्यच अने मनुष्योने जेम उत्कृष्ट सुख नथी तेम दुःख ध्ययने ४ पण उत्कृष्ट नथी. (८५-८६) शंका-देवोर्नु पण विवादास्पद होवाथी, अर्थात् देवो छे के नहिं ए संदेह होवाथी 'विशिष्ट नारकX देवजन्मना कारणभूत प्रकृष्ट पुन्य फलवत् ' एम सिद्धान्तीए आपेलं जे दृष्टांत ते असिद्ध छे. समाधान-अर्थसहित 'देव' देवसिद्धिः पद शुद् पैद होवाथी घट नामनी जेम व्युत्पत्तिवाछं छे. ते कारणथी देवो छे एम प्रतीति करवी जोईए. वळी पूर्वपक्षी शंका करे
५१ सूत्रम् छे के-दिव्य गुणसंपन्न गणधरादि अने ऋद्धिसंपन्न चक्रवर्त्यादि मनुष्यवडे व्युत्पत्त्यर्थवाडं देवपद सार्थक थशे, पण तमने जे देवनो अर्थ विवक्षित छे ते देवपदनी सिद्धि नहिं थाय. समाधान-जो के कोईक मनुष्य विशेषमा आ देवपणुं कहेवाय छे ते पण औपचारिक छे अने सत्य अर्थनी सिद्धि छते उपचार थाय छे. जेम स्वाभाविक सिंहनो सद्भाव (अस्तित्व ) छते 'माणवक'ने विषे सिंहनो उपचार कराय छे तेम हि जाणवू, भाष्यकार कहे छे:देवत्तिसत्थयमिदं, सुद्धत्तणओ घडाभिहाणंव।अह व मती मणुओ च्चिय, देवो गुणरिद्धिसंपन्नो ।८७। तं न जओ तच्चत्थे, सिद्धे उवयारओमया सिद्धी। तच्चत्थसीह सिद्धे, माणव सीहोवयारोव्वा८८ा युग्मम् *
आ वे गाथानो भावार्थ उपर आवी गयेल छे. वळी१. समास अने तद्धितरहित जे पद ते शुद्ध पद, केवल क्रियापदथो बनेलं होय ते.
॥४९॥
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देवेसु न संदेहो, जुत्तो जं जोइसा सपच्चक्खं । दीसंति तक्याविय, उबघायाणुग्गहा जगओ॥ ८९॥ | आलयमत्तं चमई,पुरं च तव्वासिणो तहवि सिद्धा ।जे ते देवत्ति मया,नय निलया निच्चपडिसुपणा॥९० कोजाणइव किमयं-ति होज णिस्संसयं विमाणाइ । रयणमयनभोगमणा-दिह जह विज्जाहरादीणं॥९१४
(त्रिभिर्विशेषक) देवोने विषे संदेह करवो योग्य नथी कारण के चंद्रादि ज्योतिष्को प्रत्यक्ष (नजरे) जोवाय छे अर्थात् सर्वने ते 8 प्रत्यक्ष छे. बळी जगतने उपघात (धनादिनो नाश) अने अनुग्रह (वैभवादिनुं आपq ) तेनाथी करायेल छे. (माटे देवो छ ). (८९) शंका-जे चंद्रादि देवो तमे कहो छो ते तो आलय मात्र-विमानो छे पण देवो नथी, माटे ज्योतिष्क देवो प्रत्यक्ष छ एम केम कहेवाय ? जेम शून्यनगरना घरो केवल स्थान मात्र छे, पण तेमां लोको नथी होता, तेम चंद्रादि विमानो पण स्थान मात्र छ पण तेमां बसनारा देवो नथी. समाधान-जेम नगरमा वसनारा देवदत्तादि प्रत्यक्ष जणाय छे तेम ते विमानमा रहेनारा देवो पण होवा जोइए, केमके जे निवासस्थान होय ते नित्यशून्य होतुं नथी. (९०) कोण जाणे के आ चंद्र सूर्यादि शुं हशे ? एवी शंका थती होय तो तेनो पण आ उत्तर छे के ते चोक्कस विमानो छे. जेम विद्याधर वगेरेना विमानो रत्नमय होवा साथे आकाशगामी छे तेम अहिं पण जाणवू. (९१) ते देवोना असुरादि भेद आप्तपुरुषना वचनथी जाणवा. शंका-पृथिवी, अप, तेजस् (अनि), वायु अने वनस्पतिकायिक जे प्राणी छे ते जीवपणाए अहिं केम मानी शकाय? कारण के
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श्रीस्था
नागसूत्र
सानुवाद
॥ ५०
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पृथ्वीकायिक वगेरेमां उच्छ्वासादि धर्मोनी प्रतीति थती नथी. समाधान - आप्तवचनथी अने अनुमानप्रमाणथी प्रतीति थाय छे. तेमां आ प्रस्तुतसूत्र आप्तवचन छे. अनुमान तो आ प्रमाणे - वनस्पतिओ, परवाला, लवण अने पत्थर वगेरे पोतपोताना (उत्पत्ति ) स्थानमां वर्तता समानजातीयरूप अंकुरोनो सद्भाव होवाथी अंशेना विकाररूप अंकुरनी माफक जीव सहित छे. भाष्यकार कहे छे
संकुरोव्व सामा-णजाइरुवकुरोवलंभाओ । तरुगणविद्दुमलवणो-पलादयो सासयावत्था ॥ ९२ ॥
आ गाथानो भावार्थ उपर आवेल छे. आ प्रस्तुत प्रसंगमां ' समानजातीय ' शब्दनुं ग्रहण करेल छे ते गाय वगेरेना शींगडाना अंकुरनो निषेध करवा माटे, कारण के ते समानजातीय थतो नथी. तथा भूमि संबंधी जळ, पृथ्वीने खोदते छते स्वाभाविक जळनो संभव होवाथी देइँकानी माफक जीव सहित छे. अथवा आकाश संबंधी पाणी, स्वभावथी आकाशमां थल ( पाणी ) ना पडवाथी मत्स्येंनी माफक जीव सहित छे. वळी भाष्यकार कहे छे:
१. जेम हरस अथवा मसाना मांस अंकुरने कापवाथी पण फरीने वृद्धि पामे छे तेम परवाला वगेरेने छेदवाथी फरी उत्पन्न थाय छे जेथी ते जीव सहित छे. २. आ गाथाना भावार्थथी पृथ्वीकायिक जीवोनी सिद्धि करो छे. ३. भूमिमांथी नीकळेल देडको जेम सजीव छे तेम पाणी पण जीत्र सहित छे. आ पृथ्वी संबंधो पाणीमां जीवनी सिद्धि करवा माटे दृष्टांत आपेल छे. ४. माछलानुं दृष्टांत अंतरिक्षनुं पाणी जीव सहित छे तेनी सिद्धि माटे छे. हस्ता अने चित्रा नक्षत्रमां घणे स्थले माछला पडे छे ते प्रत्यक्ष देखाय छे.
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११ स्थाना
ध्ययने स्थावराणां जीवत्वं
५.१ सूत्रम्
॥ ५० ॥
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भूमिक्त्रयसाभाविय-संभवओ दद्दुरोव्व जलमुत्तं । अहवा मच्छोव सहा-यवोमसंभूयपायाओ ॥१.३॥
आ गाथानो भावार्थ उपर आवेल छे. तथा वायु, बीजानी प्रेरणा सिवाय तिर्यक् (आजुबाजु ) अनियमित दिशामां गायनी माफक गति करवाथी जीव सहित छे. हेतुवाक्यमां ' अपरप्रेरित' शब्दना ग्रहण करवाथी माटीना देफा वगेरेनी साथे व्यभिचाररूप हेत्वाभासदोषनो परिहार करेल छे. एवी ज रीते ' तिर्यक्' शब्दना ग्रहणथी ऊंचे गति करवावाळा धूमाडा साथे अने 'अनियमित' शब्दना ग्रहणथी नियमित गतिवाळा परमाणुनी साथे दोपना परिहार करेल छे. तथा तेजः (अग्नि) आहार ( लाकडा वगैरे ) ने ग्रहण करवायी अग्निनी वृद्धिनो विशेष साक्षात्कार थवाथी अने तेना विकारनुं पुरुषनी माफक प्रत्यक्ष थवाथी जीव सहित छे. भाष्यकार कहे छे
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अपरप्पेरियतिरिया - ऽनियमियदिग्गमणओऽनिलो गोव्व । अनलो आहाराओ, विद्धिविगारोवलंभाओ ।९४
आ गाथानो भावार्थ उपर कहेल छे. अथवा पृथ्वी, पाणी, अग्नि अने वायु वादळा वगेरेना विकार रहित मूर्त्तजातिवाळा होवाथी गाय वगेरेना शरीरनी जेम जीवना शरीरो छे. वादळा वगेरेना विकारो मूर्त्तजातिवाळा होवा छतां पण ते जीवना शरीरो नथी ते माटे दोपना परिहार माटे हेतुमां (अभ्रादिविकारवर्जित ) विशेषण आपेल छे. (९४) फरी भाष्यकार कहे छे:तणओऽणभाइविगा - रमुत्तजाइत्तओऽनिलंताई । सत्यासत्यहयाओ, निज्जीवसजीवरूवाओ ॥ ९५ ॥
पृथ्वी आदि चार, स्व-परशस्त्रथी हणाया होय तो जीव रहित छे अने शस्त्रथी न हणायेल होय तो सजीव छे. आ
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श्रीस्था
नागसूत्र सानुवाद ॥५१॥
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१. स्थाना
ध्ययने स्थावराणां जीवत्वम् ५१ सूत्रम्
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गाथाना पूर्वार्द्धनो भावार्थ उपर कहेल छे. (९५) हवे वनस्पतिओनुं विशेषताए सचेतनपणुं भाष्यनी गाथाओवडे कहे छजम्मजराजीवणमरण-रोहणाहारदोहलामयओ।रोगतिगिच्छाईहि य,णारिव्व सचेयणा तरवो ॥९६॥ छिक्कप्परोइआ छिक्कमित्त-संकोयओ कुलिंगिव्व। आसयसंचाराओ, वियत्त ! वल्ली वियाणाहि॥९७॥ सम्मादयोव सावप्प-बोहसंकोयणादिओऽभिमया। बउलादयो य सद्दा-इविसयकालोवलंभाओ॥९८॥
जन्म, जरा, जीवन, मरण, क्षतसंरोहण (घानुं रुझाबु ), आहार, दोहंद-दोहळो, रोग अने चिकित्सावडे स्त्रीनी माफक वृक्षो चेतन सहित छे. (९६) स्पृष्टप्ररोदिका-रीसामणी विगेरे वनस्पतियो क्रीडा वगेरे जंतुओनी जेम स्पर्श मात्रथी संकोचने पामे छे. हे व्यक्त ! तुं जाण के वेलडी वगेरे स्वरक्षण माटे वाड, वृक्ष अने कोटडी वगेरे उपर आश्रय लेवाना हेतुथी चडे छे. ( ९७ ) शमी ( खीजडा) वगेरे वृक्षो, मनुष्यनी माफक निद्रा, जागवू अने संकोच वगेरेने पामे छ एम स्वीकारेल छे. बकुल, चंपक वगेरे वृक्षो विषयोना-संगीत, मदिरानो गंडूष (कोगळो), सुंदर स्त्रीना चरणवडे ताडनादिनो, वसंतादि ऋतुमां उपभोगनो साक्षात्कार करावे छे, माटे वनस्पति सचेतन छे. (९८)'एगा भवसिद्धिये त्यादि भविष्यतीति भवाःभविष्यकाळमां थनारी सिद्धि-निवृत्ति छे जेओने ते भवसिद्धिको-भव्यो, तेनाथी विपरीत ते अभवसिद्धिको-अभव्यो जाणवा.
१.वियत्त ! आ शब्द व्यक्त नामना गणधरने आमंत्रणार्थे प्रभुर कहेल छे. २ कुष्मांडी-कोळ अने विनोरं वगेरे फळवाळी वनस्पतिने दोहद थाय छे.
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॥५१॥
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शंका- जीवपणुं समान छते भव्य अने अभव्यमां विशेष भेद शो छे ? समाधान - स्वभावथी भेद करायेल छे. द्रव्यत्वनी अपेक्षाए जीव अने आकाशनी समानता छे तो पण स्वभावथी भेद छे.
दव्वाइते तुले, जीवनभाणं सभावओ भेदो । जीवाऽजीवाइगओ, जह तह भव्वेयरविसेसो ॥९९॥
जीव अने आकाशनुं द्रव्यत्व, सच्च, प्रमेयत्वादिपणाए तुल्य रूप होवा छतां पण स्वभावथी भेद छे, एटले जेम आकाश अजीव छे अने चेतन सजवि छे तेम भव्य अने अभव्यनो पण भेद स्वभावथी जाणवो. भव्य अने अभव्यवडे विशेषित-भिन्न अन्य दंडक को. 'एगा समदिट्टियाण' मित्यादि सम्यग् - यथार्थ दृष्टि (दर्शन), तो प्रत्ये रुचि छे जेओने ते सम्यग् - दृष्टि जीवो, मिथ्यात्वमोहनीय कर्मना क्षय, क्षयोपशम अने उपशमथी थाय छे. तथा मिथ्या विपर्यासवाळी, तीर्थंकरोवडे कवाल पदार्थसमूहनी श्रद्धा रहित दृष्टि-दर्शन (श्रद्धान) छे जेओने ते मिथ्यादृष्टि जीवो, मिथ्यात्वमोहनीय कर्मना उदयथी जिनवचननी अरुचिवाळा होय छे. कछु छे के:-" सूत्रोक्त एक अक्षरने पण न रुचवाथी मनुष्य मिथ्यादृष्टि थाय छे, तीर्थंकरोए कहेलुं सूत्र तेओने तो चोक्कस अप्रमाण छे. " तथा कंडक यथार्थ अने कंक मिथ्या छे दृष्टि जेओनी ते सम्यग् मिथ्यादृष्टि (मिश्रदृष्टि) जीवो, जिनोक्त भावो प्रत्ये उदासीन होय छे. आ गंभीर संसाररूप समुद्रना मध्यमां वर्ततो जीव, अनाभोग ( स्वभावतः ) थयेल पर्वत संबंधीना पत्थर घोलने समान यथाप्रवृत्तिकरणवडे प्राप्त थयेला अंतः कोडाकोडी साग
१. नदीना पाणीमां पत्थर आडोअवळो भटकावाथी घसाय हे ते नदीघोलन न्याय कहेवाय छे.
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श्रीस्था
नामसूत्र
सानुवाद ॥ ५२ ॥
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रोपमस्थितिविशिष्ट वेदवा योग्य मिथ्यात्वमोहनीय कर्मनी स्थितिमांथी, उदयकालना क्षणथी आरंभीने अंतर्मुहूर्त सुधी ( भोगवा योग्य स्थितिने) ओलंघीने अपूर्वकरण अने अनिवृत्तिकरणनी संज्ञावाळा विशुद्ध विशेषोवडे अंतर्मुहूर्त्त काळप्रमाण ' अंतरकरण' करे छे, ने ते अंतरकरण कर्ये छते मिथ्यात्वमोहनीय कर्मनी वे स्थिति थाय छे. अंतरकरणनी नीचेनी अंतर्मुहूर्त्तमात्र स्थिति ते प्रथम स्थिति अने ते अंतरकरणथी ज उपरली बांकीनी जे स्थिति ते बीजी स्थिति. त्यां प्रथम स्थितिमां मिथ्यात्वना दलिकोना वेदन- भोगवाथी आ जीव मिथ्यादृष्टि होय छे. ते जीव अंतर्मुहूर्त्तवडे तो ते प्रथम स्थितिनो नाश थये छते मिथ्यात्व दलिकोना वेदननो अभाव होवाथी अंतरकरणना प्रथम समयमां ज औपशमिक सम्यक्त्वने पामे छे. जेम दावानळ, पूर्व बाळेल लाकडावाळा स्थळने अथवा खारी जमीनने प्राप्त थहने ठरी जाय छे-नष्ट थाय छे तेम मिध्यात्वमोहनीय कर्मना वेदनरूप अग्नि, अंतरकरणने प्राप्त थइने टरी जाय छे. औषध विशेष समान ते औपशमिक सम्यक्त्वने प्राप्त करीने मदनकोद्रव समान दर्शनमोहनीयरूप अशुद्ध कर्म त्रण प्रकारे थाय छे-१ अशुद्ध, २ अर्धविशुद्ध अने ३ विशुद्ध. ते त्रण पुंजो( ढगला )ना मध्ये ज्यारे अर्धविशुद्ध पुंज उदय थाय छे त्यारे तेना उदयवशथी जीवने अर्धविशुद्धरूप अरिहंतोए कहेलुं-जो
१. अंतर्मुहूर्त न्यून अंत: कोडाकोडी सागरोपम काल प्रमाणालो. २. प्रथम स्थिति पूर्ण थया पछी शीव अतंरकरणमा प्रवेश करे छे. ३ अंतरकरणनो काल पूर्ण थये छते औपशमिक सम्यक्त्वनो काल पण पूर्ण थाय छे. पछी अवश्य ते जीव त्रण पुंनमाथी कोइपण एक पुत्रमां जाय छे, जेथी जे पुंजनो उदय थाय तेवी दृष्टिवाळो थाय छे.
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१ स्थानाध्ययने दृष्टिखरूपम् ५१ सूत्रम्
॥ ५२ ॥
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वायेल तत्त्वानुं श्रद्धान थाय छे त्यारे मिश्रश्रद्धानवडे आ जीव सम्यग्मिथ्यादृष्टि थाय छे. ते जीव अंतर्मुहूर्त पर्यंत मिश्रदृष्टिपणे रहे छे. त्यारबाद अवश्य सम्यक्त्वपुंजने अथवा मिथ्यात्वपुंजने पामे छे. सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि अने मिश्रदृष्टिवडे विशेषित अन्य दंडक कह्यो. दंडकमां नारक अने दश असुरादि ए इग्यारने पदोने विषेत्रण दृष्टि छ, आथी कधु छे के–' एवं जाव थणिये 'त्यादि. पृथ्वी आदि पांच दंडकमां एक मिथ्यात्वदृष्टि ज छे. ते कारणथी पृथ्वी आदिने मिथ्यात्ववडे ज कथन करायेल छे. कह्यु छ के–'चोद्दसतससेसयामिच्छ 'त्ति चौदे गुणस्थानकवाळा त्रस जीवो छ, स्थावरो तो मिथ्यादृष्टिवाळा ज छे. वेइंद्रिय आदि त्रण दंडकनां जीवोने मिश्राट नथी, कारण के संज्ञि जीवोने ज मिश्रदृष्टिनो सद्भाव छ; तेथी तेओने विषे सम्यग्दृष्टि अने मिथ्यादृष्टिपणाए ज व्यपदेश करेल छे. एवी रीते तेइंदियाणपि चरिंदियाणंपित्ति द्वीन्द्रियनी माफक बे दृष्टिना कथनवडे वर्गणानुं एकपणुं कहे. पंचेंद्रिय तिथंच आदि पांच दंडकोमा दर्शन (दृष्टि) त्रणं पण छ, तेथी त्रण प्रकारे पण तेनुं कथन छे. आकारणथी जकडं छ-'सेसा जहा नेरइय'त्ति अर्थात् जेवी रीते नारकना दंडकमां वर्गणा कहेली छे तेम कहेवी. वळी दंडक पर्यत आ सूत्र-'एगा सम्मद्दिहियाणं वेमाणियाणं वग्गणा, एवं मिच्छदिट्टियाणं, एवं सम्मामिच्छद्दिहियाणं' अहिं सुधी कहे छे.-'जाव एगा सम्मामिच्छे' त्यादि ३ । 'एगा कण्हपक्खियाणं' इत्यादि कृष्णपाक्षिक अने शुक्लपाक्षिकनां लक्षण कहे छे:
१. संज्ञि पंचेंद्रिय जीवने त्रण दृष्टि होय छे अने असजिने मिश्रदृष्टि न होवाथो टीकामा ' अपि ' शब्द ग्रहण करेल छे.
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र
सानुवाद ॥ ५३ ॥
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जेसिमवड्डो पोग्गल - परियट्टो सेसओ उ संसारो । ते सुक्कपक्खिया खलु, अहिए पुण किण्हपक्खी आ॥ १००
4
जे जीवोनो अपार्द्ध - किंचित् न्यून पुद्गलपरावर्त्त संसार बाकी रह्यो होय ते निश्वयथी शुक्लपाक्षिको कहेवाय छे अने जेओनो अर्द्ध पुद्गलपरावर्तथी अधिक संसार होय ते कृष्णपाक्षिको कहेवाय छे. आ वे पक्षोवडे विशेषित आ चोथो दंडक छे. ४. एगा कण्हलेसाण' मित्यादि, जेनाथी जीव कर्मनी साथे चोंटे छे ते लेश्या. यदाह श्लेष इव वर्णवंर्धस्य कर्म्मबंधस्थितिविधात्र्यः " वर्णबंध - चित्रकार्यमां श्लेष ( सरेस ) नी जेम कर्मबंधनी स्थितिने करनारी आ लेश्याओ छे. तथा" कृष्णादि द्रव्यनी सहायताथी स्फटिकनी जेम आत्मानो जे परिणाम, ते परिणाममां आ ' लेश्या ' शब्द जोडाय छे. " आ लेश्या, योगनी परिणतिरूप होवाथी अने योग शरीरनामकर्मनी परिणतिविशेष छे तेथी शरीरनामकर्मनी परिणतिरूप छे. प्रज्ञापना सूत्रनी टीकाना करनारा श्रीमान् हरिभद्रसूरिए योगना परिणाम ते लेश्या छे, एम कधुं छे. शंका-योगनो परिणाम लेश्या म कहेवाय ? समाधान - जे हेतुथी सयोगी केवली, शुक्ललेश्याना परिणामवडे विचरीने आयुष्यनुं शेष अंतर्मुहूर्त्त रहते छते योगनुं रुंधन करे छे, तेथी अयोगीपणुं अने अलेश्यपणुं प्राप्त करे छे आ कारणथी जणाय छे के योगनो परिणाम ते लेश्या वळी ते योग शरीरनामकर्मनी परिणतिविशेष छे, तेथी कहेलुं छे के कर्म ज कार्मण शरीरनुं अने अन्य औदारिकादि शरीरोनुं कारण छे, तेथी औदारिक शरीर युक्त आत्मानो जे वीर्यपरिणतिविशेष ते (१) काययोग छे तथा औदारिक, वैक्रिय अने आहारक शरीरना
१. आलोक प्रशमरति ग्रंथना ३८ मां श्लोकनो उत्तरार्द्ध छे.
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१. स्थानाध्ययने लेश्यावर्णनम्
५१ सूत्रम्
॥ ५३ ॥
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| व्यापारवडे ग्रहण करेल भाषावर्गणाना द्रव्यना समूहनी सहायताथी जे जीवनो व्यापार ते (२) वचनयोग तथा औदारिकादि शरीरना व्यापारवडे ग्रहण करेल मनोवर्गणाना द्रव्यना समूहनी सहायताथी जे जीवनो व्यापार ते (३) मनोयोग. तेथी जेबी रीते कायादिकरणयुक्त आत्मानी जे वीर्यपरिणति ते योग कहेवाय छे तेवी रीते ज लेश्या पण आत्मानी वीर्यपरिणतिरूप छे. अन्य आचार्यों तो स्पष्ट कहे छे:-कर्मनो जे निस्पंद ( रस अथवा झरगुं) ते लेश्या. लेश्या द्रव्य अने भावभेदथी बे प्रकारे छ. तेमां कृष्णादि द्रव्यो ज द्रव्य लेश्या छे, भावलेश्या तो कृष्णादि द्रव्योथी उत्पन्न थयेल जीवनो जे परिणाम ते भावलेश्या छे. आ लेश्या छ प्रकारे छे. तेनुं स्वरूप आगमप्रसिद्ध जांबूना फळने खानार छ पुरुषना दृष्टांतथी अथवा गामना घातक-मारनार छ पुरुषना दृष्टांतथी समजवू. लेश्याना सूत्रो सुगम छे. विशेष कहे छे:-कृष्ण-काळा वर्णवाळा द्रव्यनी सहायताथी उत्पन्न थयेला अशुभ परिणामरूप लेश्या छ जेओने ते कृष्णलेश्यावाळा छे. एवी ज रीते शेष पदो पण जाणवा. हवे विशेष कहे छ:नील लेश्या कंइक सुंदर रूपवाळी छे, एवी रीते आज क्रमवडे यावत् शब्दथी ज'एगा कावोयलेस्साण'मित्यादि त्रण सूत्र जाणवा, तेमां पक्षि विशेष कपोत( पारेवा ) ना वर्णवडे समान जे धूसवर्ण द्रव्यो, तेनी सहायताथी उत्पन्न थयेली ते कापोतलेश्या, कंइक विशेष शुभ फळ लेश्या छ जेओने ते कपोतलेश्यावाळा जाणवा. तेजः-अग्निनी ज्वाळाना वर्ण जेवा जे रक्त द्रव्यो, तेनी सहायताथी जे उत्पन्न थयेली ते तेजोलेश्या शुभ स्वभाववाळी छे. पद्मकमलना गर्भ( अंदरनो भाग )ना जेवा वर्णवाळा पीळा द्रव्यो, तेनी सहायताथी जे उत्पन्न थयेली ते पद्मलेश्या शुभतर छे-विशेष सारी छे. शुक्ल वर्णवाळा द्रव्योथी जे उत्पन्न थयेली ते शुक्ललेश्या अतिशय शुभ छे. आ लेश्याओनुं विशेषतः स्वरूप उत्तराध्ययनना चोत्रीशमा लेश्या अध्ययनथी
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श्रीस्था
नाङ्गसूत्र
सानुवाद
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जाणवुं. ' एवं जस्स जति ' ति नारकोनी माफक ज जे असुरादिकनी जे जेटली लेश्याओं छे, तेना कथनवडे तेनी वर्गणानुं एकपणुं कहे. 'भवणे 'त्यादिना सूत्रवडे तेओनी लेग्याओनो परिणाम कहता अहिं संग्रहणीनी गाथा जणावे छे. काऊ नीला किहा, लेसाओ तिन्नि होंति नरएसुं । तइयाए काउनीला, नीला किण्हा य रिट्ठाए ॥ १०१ ॥ नरकोने विषे कृष्ण, नील अने कापोत ए त्रण लेश्या [ सामान्यतः ] छे. त्रीजी नरकमां कापोत अने नीललेश्या छे अने पांचमी रिष्ठा नरकमां नील अने कृष्णलेश्यां छे. (१०१ )
किण्हा नीला काऊ, तेऊलेसा य भवणवंतरिया । जोइससोहंमीसाण, तेउलेसा मुणेयव्वा ॥ १०२ ॥ कप्पे सणकुमारे, माहिंदे चेव बंभलोए य । एएसु पम्हलेसा, तेण परं सुक्कलेसा उ
॥ १०३ ॥
भवनपति अने व्यंतरने कृष्ण, नील, कापोत अने तेजोलेश्या होय छे, ज्योतिष्क, सौधर्म अने ईशान देवलोकमां एक तेजोलेश्या जाणवी, सनत्कुमार, महेंद्र अने ब्रह्मलोक कल्पमां पद्मलेश्या छे, तेनाथी उपर एक शुक्ललेश्या छे. (१०२-१०३) पुढवी आउवणस्सइ, वायर पत्तेय लेस चत्तारि । गब्भयतिरियनरेसुं, छल्लेसा तिन्नि सेसाणं ॥ १०४॥ बादर पृथ्वी, पाणी अने प्रत्येक वनस्पतिमां कृष्णादि चार लेश्या छे, गर्भज तिर्येच अने मनुष्यमां छ लेश्या छे, शेष१ पहेली -बीजी नरकमां कापोतलेश्या, चोथी नरकमां नीललेश्या अने छट्ठी तथा सातमोमां कृष्णलेश्या छे. २ छठ्ठा देवलोकथी यावत् सर्वार्थसिद्धि वैमान पर्यंत.
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१ स्थाना
ध्ययने
लेश्यावर्णनम्
५१ सूत्रम्
।। ५४ ।।
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तेजो, वायु अने त्रण विकलेन्द्रियमांत्रण लेश्या छे. (१०४) आ सामान्य लेश्यादंडक कयो ५. ए जलेश्यादंडक, भव्य अने अभव्यना विशेषणथी अन्य दंडक छे. 'एगा कण्हलेसाणं भवसिद्धियाणं वग्गणे ' त्यादि-एवी रीते जेम कृष्णलेश्यामा तेम 'छसुवि 'त्ति कृष्णलेश्या सहित छ लेश्याओमां जो कृष्णलेश्यानुं ग्रहण नहिं करीए तो पांच ज अतिदेश्यकथन करवा योग्य थशे. भव्य अने अभव्य लक्षणवाळा बबे पद दरेक लेश्या प्रत्ये कहेवा. जेम के 'एगा नीललेसाणं भवसिद्धियाणं वग्गणे त्यादि ६. लेश्यादंडकमा जत्रण दर्शन( दृष्टि वडे विशेष अन्यदंडक छे. 'एगा कण्हलेसाणं सम्महिटियाणमि' त्यादि. 'जेसिं जइ दिट्ठीओ'त्ति-जे नारकी वगेरेने सम्यक्त्वादि जेटली दृष्टिओ होय तेओने तेटली दृष्टिओ कहेवी. तेमा एकेंद्रियोने मिथ्यात्व ज छ, त्रण विकलेंद्रियोने सम्यक्त्व अने मिथ्यात्व छ अने शेष सोळ दंडकमां त्रणे दृष्टिआ होय छे ७. लेश्यादंडक ज कृष्ण अने शुक्लपक्षविशिष्ट अन्य दंडक छे. 'एगा कण्हलेसाणं कण्हपक्खियाणमि' त्यादि ८. आ आठ पदवडे चोवीश दंडकमां अकेक वर्गणा कहेवी. ते आठ पद आ प्रमाणेः
ओहो १ भव्वाईहिं, विसेसिओ २ दंसणेहिं ३ पक्खेहिं ४।।
लेसाहिं ५ भव्व ६ दंसण ७ पक्खेहिं ८ विसिट्ठ लेसाहिं ॥ १०५॥ १. ओघ-सामान्य दंडक वर्गणा, २. भव्यादिथी विशिष्ट पदवाळी वर्गणा, ३. दर्शन-दृटि सम्यक्त्वादि विशिष्ट पदवाळी, | ४. कृष्णादि पक्षविशिष्ट पदवाळी, ५. कृष्णादि लेश्याविशिष्ट पदवाळी, ६. भव्यविशिष्ट लेश्यापदवा की, ७. दर्शनविशिष्ट
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र
सानुवाद ॥५५ ॥
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लेश्यावाळी अने ८. पक्षविशिष्ट लेश्यावाळी वर्गणा जाणवी. आनी पछी हवे सिद्धनी वर्गणा कहेवाय छे. तेमां सिद्ध वे प्रकारना छे: १ अनंतरसिद्ध अने २ परंपरसिद्ध. तेमां अनंतर सिद्धो पंदर प्रकारे छे. हवे तेओनी वर्गणानुं एकपणुं कहे छे:- 'एगा तित्थे' इत्यादिना - तेमां जेनावडे तराय छे ते तीर्थ, द्रव्यथी नदी वगेरेना सम अने निर्दोष भूमिभाग होय ते, अथवा बौद्धादिनुं प्रवचन - शासन ते द्रव्यतीर्थ. द्रव्यतीर्थपणुं, नदी वगेरेनुं अप्रधानपणुं होवाथी छे अने भावथी तवा योग्य संसारसागरने द्रव्यतीर्थवडे तरवा माटे अशक्य होवाथी तेमज आ तर्थिनुं सावद्यपणुं होवाथी अप्रधानपशुं छे. भावतीर्थ तो संघ छे, जे कारणथी ज्ञानादि भाववडे तेना ( ज्ञानादिना ) प्रतिपक्षरूप अज्ञानादिथी अने भावभूत संसारथकी तारे छे. भाष्यकार कहे छे के— जं णाणदंसणचरित्तभावओ तव्विववखभावाओ । भवभावओ य तारेइ, तेण तं भावओ तित्थं ॥१०६॥
आ गाथानो भावार्थ उपर कहेवायेल छे. अथवा त्रिषु क्रोधरूप अग्निदाहनो उपशम, लोभरूप तृष्णानो निरास अने कर्ममलने दूर करवारूप आ त्रण लक्षणमां अथवा ज्ञानादिलक्षणरूप ऋण अर्थमां जे रहे छे ते ' त्रिस्थ ' प्राकृतशैलीथी 'तित्थ' कहेवाय छे. भाष्यकार कहे छे:दाहोवसमादिसु वा,जं तिसु थियमहव दंसणाईसुं। तो तित्थं सङ्घो च्चिय, उभयं च विसेसणविसेसं ॥१०७
तीर्थ ते संघ अथवा संघ ते तीर्थ. अहिं संघ विशेष्य अने तीर्थ विशेषण अथवा तीर्थ विशेष्य अने संघ विशेषण छे, अर्थात् बन्ने विशेषण अने विशेष्यभाववाळा छे. पूर्वार्द्ध भाग उक्तार्थ छे. क्रोधरूप अग्निदाहनो उपशम आदि त्रण अर्थो
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११ स्थाना
ध्ययने सिद्धभेदाः १५
५१ सूत्रम्
।। ५५ ।।
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फळो छ जेने ते 'व्यर्थ ' छे. प्राकृत भाषाथी 'तित्थ' शब्द छे. भाष्यकार कहे छकोहग्गिदाहसमणा-दओव ते चेव तिन्नि जस्सऽत्था।होइ तियत्थं तित्थं तमत्थसद्दोफलत्थोऽयं ॥१०॥ ___गाथानो भावार्थ उपर्युक्त छे. अहिं अर्थ शब्द फलवाचक छ, अथवा ज्ञानादि त्रण अर्थो-वस्तुओ छ जेने ते व्यर्थ. वळी भाष्यकार कहे छ:
अहवा सम्मइंसण-नाणचरित्ताइं तिन्नि जस्सऽत्था।तं तित्थं पुब्बोदिय-मिहमत्थो वत्थुपज्जाओ ॥१०९॥ ___अहिं अर्थ शब्द वस्तुनो पर्यायवाचक छे. शेषपदो उक्त भावार्थ छे. तेमां तीर्थ छते जे सिद्धो-निवृत्त थया ते ऋषभसेन गणधर वगैरेनी जेम तीर्थसिद्धो छे. तेओनी वर्गणा एक छे (१). अतीर्थ-तीर्थातरमा साधुओना अभावकालमां जातिस्मरणादिवडे प्राप्त करेल छे मोक्ष जेओए ते मरुदेवीनी माफक अतीर्थसिद्धो छे. तेओनी वर्गणा एक छे (२). ' एवं ' शब्दथी 'एगा तित्थगरसिद्धाणं वग्गणे 'त्यादि जाणवू. उक्त लक्षणवाळा तीर्थने अनुकूलपणाए, हेतुपणाए अथवा तेना स्वभावपणाए जे करे छे ते तीर्थकर कहेवाय छे. भाष्यकार कहे छेअणुलोमहेउतस्सी-लयाय जे भावतित्थमेयं तु । कुव्वंति पगासंतिउ,तेतित्थगरा हियस्थकरा ॥११०॥
१. अहि संघ, वस्तु अने ज्ञानादि, संघना पर्यायो छे, ते वस्तुथी अभिन्न छे. २. प्रवाहनी अपेक्षाए. तीर्थ अनादि छे, तो पण प्रत्येक तीर्थकरोनी अपेक्षाए तीर्थ उत्पन्न थाय छे ते कारणथी तीर्थातर कहेवाय छे.
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र
सानुवाद ॥ ५६ ॥
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आनुलोम्य, 'हेतु अने तत्स्वभावपणाए जे आ भावतीने करे छे अने प्रकाशे छे ते हित करनारा तीर्थंकरो छे. तीर्थकरो था थका जे सिद्धो थाय छे ते ऋषभादिनी माफक तीर्थंकरसिद्धो कहेवाय छे. तेओनी वर्गणा एक छे (३). अतीर्थंकरसिद्धो-सामान्य केवलीओ थया थका जे सिद्वो थाय छे ते गौतमादिनी जेम अतीर्थंकरसिद्ध छे. तेओनी वर्गणा एक छे (४). स्वयं-आत्मवडे ( पोतानी मेळे ) बुद्धो-तचना जाणनारा जे स्वयंबुद्धो धया थका सिद्ध थाय ते स्वयंबुद्धो. तेओनी वर्गणा एक छे (५), अनित्यतादि भावनाओनो निमित्तभूत कोई पण एक पदार्थने आश्रयीने जोड़ने परमार्थ जाणनारा ते प्रत्येकबुद्धी थया थका सिद्धो थाय छे ते प्रत्येकबुद्ध छे. तेओनी वर्गणा एक छे (६). स्वयंवुद्ध अने प्रत्येकबुद्धोनो भेद बोधि, उपाधि, श्रुत ने लंगडे कराल छे, ते आ प्रमाणेः-स्त्रयंबुद्धाने बाह्य निमित्त विना ज बोधि प्राप्त थाय छे. प्रत्येकबुद्धीने बाह्य निमित्तनी अपेक्षाए करकंडु विगेरेनी जेम बोधि प्राप्त थाय छे. स्त्रयंबुद्धोने पात्रादि बार प्रकार उपधि होय छे. ते आ प्रमाणेपत्तं १ पत्ताबंधो २, पायठवणं ३ च पायकेसरिया ४ ।
पडलाइ ५ यत्ताणं ६ च, गोच्छओ ७ पायनिज्जोगो ॥ १११ ॥
तिन्नेव य पच्छागा १०, रयहरणं ११ चेव होइ मुहपोत्ति १२ ।
१. बाल वगेरे अने स्थविरादिने अनुरूप जे देशना ते आनुलोभ्य तोथेनी स्थापनामा स्वयं हेतुभूत छे तेथी हेतु अने तीर्थंकरनामकर्मना उदयथी भाव अनुकंपा ते तत्स्वभाव,
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११. स्थाना
ध्ययने सिद्धभेदाः १५
५१ सूत्रम्
॥ ५६ ॥
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१ पात्र, २ पात्रबंध (झोली), ३ पावस्थापन-जेमा पात्र स्थापन करवामां आवे छे ते कंबलनी खंड, ४ पात्रकेसरिकाकोमळ वस्खनो खंड, ५पडला-भिक्षाए जतां पात्रना उपर जे ढांकवामां आवे छ ते, ६ रजत्राण-पात्रनी वच्चे जे वस्त्र मूकवामा आवे छे ते, ७ गोच्छक-कंबलनो टुकडो जे पात्रना उपर बांधवामां छे ते (ए सात प्रकारनो पात्र संबंधी उपधि छे),८-१० त्रण प्रच्छादको (वस्त्रो)-चे सूतरनो अने एक ऊननो, ११ रजोहरण अने १२ मुहपत्ति-आ बार उपधि होय छे. प्रत्येकबुद्धोने त्रण वस्त्र सिवाय नव उपधि होय छे. स्वयंबुद्धोनो पूर्व(भव मां भणेला श्रुत विषे नियम नथी, अर्थात् पूर्वभेवर्नु अध्ययन
करेलु श्रुत होय अथवा न पण होय. प्रत्येकबुद्धोने तो पूर्व जन्मनुं अध्ययन कहेलं श्रुतं चौकस होय छे. स्वयंबुद्धाने लिंग*(मुनिवेष )नो स्वीकार आचार्योनी समीपमा पण होय छे ज्यारे प्रत्येकबुद्धोने तो देव आपे छे. बुद्धबोधितो-आचार्यादिवडे प्रति
बोध पामेला छतां जे सिद्रो थाय ते बुद्धबोधितसिद्धो. तेओनी वर्गणा एक छे (७). उपरना तेम ज स्त्रीलिंगसिद्धो (८), पुरुषलिंगसिद्धो (९), नपुंसकलिंगसिद्धो (१०), रजोहरणादिनी अपेक्षाए स्वलिंगसिद्धो (११), परिव्राजकादि लिंगमां सिद्ध थयेला ते अन्यलिंगसिद्धो (१२), मरुदेवी वगेरे गृहिलिंगसिद्धो (१३), एक समयमां अकेक सिद्ध थयेला ते एकसिद्धो (१४) अने एक समयमां बेथी एक सो आठ सुधी जे सिद्ध थयेला ते अनेकसिद्धो (१५). आ स्त्रीलिंगसिद्धो वगेरेनी एकेक वर्गणा छ, अनेक समय सिद्धोनी निरूपण करनारी गाथा नीचे प्रमाणे छ--
१. वर्तमान भवमा नवीन अव्ययन करेलु श्रुत होय न छे. २. जघन्यथी अभ्यार अंग अने उत्कृष्टयो कंक न्यून दश पूर्व जेटलु श्रुत होय छे.
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भीस्थान नाङ्गस्त्र सानुवाद
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बत्तीसा अडयाला, सट्ठी बावत्तरी य बोद्धव्वा । चुलसीई छन्नउई, दुरहिय अट्ठोत्तर सयं च ॥११२॥ ४१. स्थानाउपरनी गाथार्नु विवरण करतां जणावे छे के-ज्यारे एक समये एकथी मांडी उत्कृष्ट बत्रीस सुधी सिद्ध थाय त्यारे
ध्यवने बीजे समये पण वत्रीस, एवी रीते सतत आठ समय सुधी बत्रीस सिद्ध थाय छे. ते पछी अवश्य अंतर पडे छे. वळी ज्यारे एक
सिद्धभेदह समयमा तेत्रीशथी आरंभीने अडतालीश पर्यंत सिद्ध थाय छे त्यारे निरंतर सात समय सुधी सिद्ध थाय छे. त्यारवाद चोकस अंतर पडे छे. एवी रीते ज्यारे ओगणपचासथी मांडीने यावत् साठ सुधी एक समय सिद्ध थाय छे त्यारे अंतर रहित छ समय पर्यंत ५१ सूत्रम् सिद्ध थाय छे. ते पछी समयादि अंतर थाय छे. एवी रीते अन्य समयोमा पण योजना करवी. यावत् एक सो ने आठ एक समये ज्यारे सिद्ध थाय त्यारे अवश्य समयादि अंतर थाय छे. बीजा आचार्यों तो आ प्रमाणे व्याख्या करे छे-ज्यारे आठ समय सुधी निरंतर सिद्ध थाय छे त्यारे प्रथम समयमा जघन्यथी एक अने उत्कृष्टथी बत्रीश सिद्ध थाय ले. बीजा समयमां जघन्यथी एक अने उत्कृष्टथी अडतालीश सिद्ध थाय छे. तेवी रीते सर्वत्र एक समयमा जघन्यथी एक अने उत्कृष्टथी "बत्तीसे' त्यादि गाथाना भावार्थ प्रमाणे जाणवू एटले के-एक समयमा उत्कृष्टथी बत्रीश, बीजामा अडतालीश, त्रीजा समयमा साठ, चोथामां बोतेर, पांचमामां चोर्यासी, छठामा छन्नु, सातमामा एक सो बे अने आठमा समयमा एकसो ने आठ
* एक समयमा उत्कृष्टथी बत्रोश, बीनामां अडतालीश, वीनामां साठ, चोथामा बोंतेर, पांचमामां चोराशी, छठ्ठामा छन्नु, सातमा समयमा एक सो ने बे अने आठमामा एक सो आठ.
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सिद्ध थाय छे. एम भृतभावरूप समीप संबंधवडे तीर्थादि भेदथी पंदर प्रकारना अनंतरसिद्धोनी वर्गणार्नु एकपणुं कडं. हवे परंपरसिद्धोनी वर्गणा कहे छः-त्यां "अपढमसमयसिद्धाणम्" इत्यादि १३ सूत्रो जाणवा. जे प्रथम समयमा नहि सिद्ध थयेला ते अप्रथमसमयसिदो-सिदपणाना बीजा समयमां वतनारा तेओनी वर्गणा एक छे. एवी रीते यावत् शब्दथी "दुसमयसिद्धाणं तिचउपंचछसत्तट्ठनवदसंसखेजासंखेजसमयसिद्धाण" मिति एम जाणवू. तेमां सिद्धपणाना त्रण समयादिने विषे द्विसमयसिद्धादि कहेवाय छे, अथवा सामान्यथी अप्रथमसमयसिद्ध नामविशेषथी द्विसमयसिद्र नाम कहेवाय छे. आ कारणथी तेओनी वर्गणा एक छे. कोई स्थळे 'पढमसमयसिद्धाणं 'ति एवो पाठ छे. त्यां अनंतरसमयसिद्ध अने परंपरसमयसिद्ध रूप भेद नहि करीने प्रथमसमयसिद्धो ज अनंतरसमयसिद्धो छे एवी व्याख्यादि करवी. द्विसमयादिसिद्धो तो जेम श्रुतमा छे तेम ज कहेवा.
अहिंथी द्रव्य, क्षेत्र, काल अने भावनो आश्रय करीने पुद्गलनी वर्गणाना एकपणानो विचार कराय छे-'एगा परमे'त्यादि जे पूरण, गलन स्वभाववाला छ ते पुद्गलो, ते स्कंधो पण होय माटे कंडक विशेष कहे छे-परमाणुओ-प्रदेश रहित एवा जे पुद्गलो छ तेओनी वर्गणा एक छे. एवं शब्दथी 'दुपरासेयाणं खंधाणं, तिचउपंचछसत्तट्टनवदससंखेजपएसियाणं असंखजपएसियाणमिति-एम जाणवू, द्रव्यथी पुद्गलनी विचारणा करी. हवे द्रव्य पछी क्षेत्रथी विचाराय छ-'एगा एगपएसे 'त्यादि-एक प्रदेशमा क्षेत्रने अवगाहीने रहेला पुद्गलो ते एकप्रदेशावगाढ कहेवाय छे. तेओनी वर्गणा एक छे अने ते परमाणु वगेरे अनंत प्रदेशवाळा स्कंधो पर्यंत होय छे. द्रव्यना परिणामर्नु अचिंत्यपणु होवाथी जेम
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श्रीस्था
नाङ्गसूत्र
सानुवाद ॥ ५८ ॥
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पाद ( पारा ) ना एक कवडे चारिता-खवायेला (मिश्रण थयेला) सुवर्णना सात कर्षो ते एक केपीभूत थाय छे अने फरी प्रयोगवडे अलग करवाथी सात ज कर्ष सुवर्ण थाय छे. 'जाव एगा असंखेज्जपएसोगाढाणमिति पुद्गलोनुं अनंत प्रदेशावगाहीपणुं ज नथी, कारण के लोकप्रमाणरूप अवगाह क्षेत्रनुं पण असंख्येय प्रदेशपशुं छे. हवे कालथी कहे छे'एगा एगसमए' त्यादि - परमाणुत्वादिवडे एकप्रदेशावगाढादित्ववडे अने एकगुण काळादित्ववडे एक समय सुधी ज रहेवानुं छे जेओने ते एकसमयस्थितिवाळा कहेवाय छे. तेओनी वर्गणा एक छे. प्रस्तुत प्रसंगमां पुद्गलो नो अनंत समयनी स्थितिनो अभाव होवाथी असंखेज समय द्वितीयाणमित्युक्तं अर्थात् असंख्यात समयनी स्थिति कही छे. हवे भावथी वर्णवे छे-'एगा एगगुणे'त्यादि - एकथी गणवं (ताडन करं) छे जेओने ते एकगुण. एकगुण काला वर्ण छे जेओने ते एकगुण काळा. जेओथी एकगुण आरंभीने तरतमताथी कृष्णतर, कृष्णतम वगेरे भावोनी पहेलां उत्कर्षनी (द्विगुणकालक वगेरेनी) प्रवृत्ति थाय छे. तेओनी वर्गणा एक छे. एवी रीते सर्वे भावसूत्रो बसो साठ प्रमाणवाला कहेवा. कृष्णवर्णादि वीश भावोने तेरेबडे गुणवाथी ते थाय छे. हवे प्रकारांतरवडे जघन्यादि भेदथी भिन्न द्रव्यादि विशिष्ट स्कंधोनी वर्गणानुं एकपणुं कहे छे:'एगा जहन्नपएसियाणमि 'त्यादि सर्वथी थोडा प्रदेशो- परमाणुओ छे जेओने ते जघन्य प्रदेशिको, द्विप्रदेश वगेरे
१. एक कर्ष वजन न होया छतां पण एक कर्ष धाय छे. कर्ष ते हालमां एक रुपियाभार- तोलो कहेवाय छे. २. एकधी मांडी दश संख्या पर्यंत दश अने संख्यात, असंख्यात तथा अनंत एम १३ सूत्र जाणवा. ३. पोतपोतानी वर्गणामां जघन्य वीणाओनुं अनेकप होवाथी द्विअणुकादिको कहेल छे, परंतु त्रिप्रदेशिक मध्यम कहेवाय छे.
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१ स्थाना ध्ययने सिद्धभेदाः १५
५१ सूत्रम
॥ ५८ ॥
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अणुओना समुदायो ते स्कंधो, तेओनी उत्कृष्ट संख्यावाळा अनंत अणुओ छ जेओने ते उत्कृष्ट प्रदेशिको, तेओनी वर्गणा एक छे. जे जघन्य नहि अने उत्कृष्ट पण नहि ते अजधन्यउत्कृष्ट ( मध्यम ) प्रदेशो छ जेओने ते अजघन्यउत्कृष्ट प्रदेशिको, तेओनी वर्गणा एक छे. मध्यमप्रदेशिक स्कंधोनी अनंत वर्गणा छते पण अजघन्यउत्कृष्ट शब्दना कथनथी वर्गणानुं एकपणुं छे. (१) 'जहन्नोगाहणगाण 'मित्यादि अवगाहंते-जेमा जे रहे छे ते अवगाहना. ते क्षेत्र( आकाश )प्रदेशरूप आ जघन्य अवगाहना छ जेओने ते, अहिं स्वार्थमा 'क' प्रत्यय थवाथी जघन्यअवगाहनका-जघन्य अवगाहनावाळा, तेओनी (एकप्रदेशावगाढोनी) वर्गणा एक छे, उत्कृष्ट अवगाहनकोनी-असंख्यातप्रदेशावगाढोनी वर्गणा एक छे. अजघन्यउत्कृष्टअवगाहनकोनी-संख्यात-असंख्यातप्रदेशावगाढोनी वर्गणा एक छे. (२) समयनी अपेक्षाए जघन्य संख्यावाळी स्थिति छ जेओने ते जघन्यस्थितिको-एक समयनी स्थितिवाळा स्कंधो, तेओनी वर्गणा एक छे. समयनी अपेक्षाए उत्कृष्ट संख्यावाळी स्थिति छ जेओने तेओनी-असंख्यात समयनी स्थितिवाळाओनी वर्गणा एक छे. मध्यमस्थितिकोनुं सूत्र सुगम छे (३), जघन्य
संख्या विशेषरूप एकवडे गणवू छे जेने ते एकगुण काळो, ते एकगुण काळो वर्ण छ जेओने ते जघन्यगुण काळा वर्णवाळा स्कंR] धोनी वर्गणा एक छे. एवी रीते उत्कृष्टगुण काळा वर्णवाळा-अनंतगुण काळा स्कंधोनी बगेणा एक छ. त्रीजुं सूत्र सुगम छ. (३). एवी रीते साठ भावसूत्रो विचारवा (४).(सू०५१) सामान्यथी स्कंधोनी वर्गणाना एकपणाना अधिकारथीज मध्यमप्रदेश
१.त्रिप्रदेशिक स्कंधथी मांडो यावत् एकप्रदेशन्यून उत्कृटप्रदेशिक यो मध्यम जाणवा. २ वर्णादि २० ने जघन्य, उत्कृष्ट | अने मध्यम पदवडे गणवाथो ६० भावसूत्र घाय छे. ३ चारना अंक सुघी द्रव्य, क्षेत्र, काल अने भावथी वर्गणानुं स्वरूप कहेलुं ले.
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श्रीस्था
नाङ्गसूत्र
सानुवाद
॥ ५९ ॥
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विशिष्ट मध्यमप्रदेशावगाढवाळा स्कंधविशेषनुं एकपणुं कहे छे.
एगे जंबूद्दीवे २ सव्वदीवसमुद्दाणं जाव अर्द्धगुलगं च किंचिविसेसाहिए परिवखेवेणं । सू० ५२, एगे समणे भगवं महावीरे इमीसे ओसप्पिणीए चउव्वीसाए तित्थगराणं चरमतित्थयरे सिद्धे बुद्धे मुत्ते जाव सव्वदुक्खप्पहीणे । सू० ५३, अणुत्तरोववाइयाणं देवाणं एगा रयणी उड्डउच्चत्तेणं पन्नत्ता । सू० ५४, अद्दाणक्खत्ते एगतारे पन्नत्ते चित्ताणवखत्ते एगतारे पं० सातीणवखत्ते एगतारे पं० । सू० ५५, एगपएसेोगाढा पोग्गला अणंता पन्नत्ता, एवमेगसमयठितिया एगगुणकालगा पोग्गला अणता पन्नत्ता, जाव एगगुणलुक्खा पोग्गला अनंता पन्नत्ता । सू० ५६ ॥ एगट्ठाणं समत्तं ॥
मूलार्थ:- सर्व द्वीप अने समुद्रोना मध्यमां जंबूद्वीप नामनो द्वीप एक छे यावत् त्रण लाख, सोल हजार, बसो ने सत्यावीश योजन, त्रण गाउ, बसो अठावीश धनुष्य अने साडातेर अंगुल कंडक अधिक परिधिवाळो छे. (सू०५२) श्रमण भगवान् श्री महावीरस्वामी आ अवसर्पिणी कालमां, चोवीश तीर्थंकरमां छल्ला तीर्थंकर एकला, सिद्ध, बुद्ध, मुक्त यावत् सर्व दुःखथी रहित थया (सू० ५३). अनुत्तर विमानना देवोनी काया एक हाथनी ऊर्ध्वपणे ऊंची कहेली छे (सू० ५४). आद्रा नक्षत्रनो तारो एक कहेल छे, चित्रा नक्षत्रनो तारो एक कहेल छे, स्वातिनक्षत्रनो तारो एक छे. (सू० ५५) एक प्रदेशने अवगाही रहेला पुद्गलो अनंत
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१ स्थाना
ध्ययने स्कंधविशेष
स्य एकत्वम् ५२-५६
सूत्राणि
॥ ५९ ॥
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कह्या छे, एवी रीते एक समयनी स्थितिवाळा अने एकगुण काळा वर्णवाळा पुद्गलो अनंत कहेल छे, यावत् एकगुण रुक्षस्पर्शवाळा पुद्गलो अनंत कहेल छे. (सू० ५६)
टीकार्थः-जंबूवृक्ष विशेषवडे ओळखातो जे द्वीप ते जंबूद्वीप नामनो द्वीप ए सामान्य नान छे. यावत् शब्दना ग्रहणथी आ प्रमाणे सूत्र जोQ-जाणवू. सर्वाभ्यंतर, सर्व द्वीपादिथी लघु, वृत्त (गोळ) तेलना पूडलाना आकारवाळो, एक लाख योजन लांबो-पहोळो, त्रिगुण झाझेरी परिधिवाळो, उक्त विशेषणवाळो जंबूद्वीप एक ज छे. पूर्वोक्त विशेषण रहित बीजा अनेक जंबूद्वीपो पण छे (मू० ५२). हमणां जे जंबूद्वीप कह्यो तेना प्ररूपक भगवान महावीरनुं एकपणुं कहे छ:-'एगे समणे' इत्यादिएक-असहाय, आनो संबंध सिद्ध वगेरे शब्द साथे छे. श्राम्यति-जे तपश्चर्या करे छे ते श्रमण, भज्यत इति भगः-समग्रं ऐश्वर्यादि स्वरूप. कडुं छे-समग्र ऐश्वर्य, रूप, यश, लक्ष्मी, धर्म अने प्रयत्न-आ छ अर्थमां ' भग' शब्द वपराय छे. आ
छ अर्थ छे विद्यमान जेने ते भगवान्. वळी ईरयति-विशेषवडे मोक्ष प्राप्त करे छे अने प्राणीने प्राप्त करावे छे, अथवा प्राणी| ओने प्रेरणा करे छ अथवा कर्मोने दूर करे छे अथवा वीरयति-रागादि शत्रुओने जीते अने बीजाओने जीतावे छे, अथवा | निरुक्तिथी वीर शब्द छे. कडुं छे के-“जे कर्मने विदारे छे-नाश करे छे अने तपवडे शोभे छ, तप अने वीर्यवडे युक्त छे ते कारणथी वीर कहेवाय छे. " अन्य वीरनी अपेक्षाए महान् एवो जे वीर ते महावीर. भाष्यमां कहेलुं छे केतिहयणविक्खायजसो, महाजसो नामओ महावीरो। विकतोय कसाया-इसत्तसेन्नप्पराजयओ ॥११३॥
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥६ ॥
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ईरेइ विसेसेण व, खिवइ कम्मा गमयइ सिवं वा । गच्छइ अतेण वीरो,स महं वीरो महावीरो। ११४ ||१ स्थानात्रण भुवनमां यश प्रसिद्ध होवाथी महायशवाळा अथवा कषायादि वैरीना सैन्यना पराजयथी विक्रांत-पराक्रमवाळा ते वीर
ध्ययन (११३) ११४ मी गाथानो भावार्थ कहेवायेले छे. आ अवसर्पिणीमां चोवीश तीर्थकरोने विषे छल्ला तीर्थकर, सिद्ध-कृतार्थ
स्कंधविशेष थया, बुद्ध-केवलज्ञानवडे जाणवा योग्य( पदार्थ )ने जाणनार, मुक्त-कर्मथी मुकायेला, 'यावत् ' शब्दथी ' अंतकडे ' जेणे स्य एकत्वम् भवनो अंत कर्यो छे ते अंतकृत, 'परिनिब्बुडे' परिनिर्वृत-कर्मकृत विकारना विरहथी शांत थयेला, शुं कहेलं (प्राप्त) थाय छे ? ४५२-५६ 'सव्वदुक्खप्पहीणे '-शरीरादिना सर्वे दुःखो जेना नाश थया छे ते सर्वदुःखप्रक्षीण अथवा पहीण. सर्व ठेकाणे बहुव्रीही
सूत्राणि समासमां तांतनो जे परनिपात छे ते अहिताग्न्यादि गणथी थाय छे. अहिं तीर्थंकरोने विषे महावीरनु ज मोक्षगमनमा एकपणुं
छे पण ऋषभादि जिनोनु एकपणुं नथी, कारण के दश हजार वगेरे मुनिओना परिवारवडे तेओर्नु सिद्धपणुं थयेलुं छे.कडं छे के| एगो भगवं वीरो, तेत्तीसाएँ सह निव्वुओ पासो । छत्तीसएहिं पंचहि,सएहिं नेमी उ सिद्धि गओ ॥११५४
एकाकी भगवान् महावीर. तेत्रीश मुनिओनी साथे पार्श्वनाथ सिद्ध थया अने पांचसो छत्रीस मुनिओनी साथे नेमीश्वर भगवान् मोक्ष गया (११५) इत्यादि । (सू० ५३) वीर एकाकी मोक्ष पाम्या ए कडं. सिद्धिक्षेत्रनी नजीकमां अनुत्तर
१. टीकामा 'त्ति ' शब्द लेवाची अहि भाष्यमां आ प्रमाणे संबंध छे. २. बाकीना तीर्थंकरोतुं वृत्तांत आवश्यकनियुक्ति वगेरे शास्त्रथी जाणी लेवु..
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विमानो छ माटे तेमां बसनारा देवोनुं मान कहे छे:-' अनुत्तरे' त्यादि, जेथी अन्य विमानो प्रधान न होवाथी अनुत्तर विजयादि विमानो, तेओने विषे जे उपपात-जन्म, ते छे विद्यमान जेओने ते अनुत्तरोपपातिक देवो. बे ‘णकार' वाक्या| लंकारमा छे. देवो एक रत्नि-हाथ पर्यंतनी अवगाहनावाला छे. क्रोशं कौटिल्येन नदीवत्, अहिं द्वितीया विभक्ति लेवी. । 'उड्डे उच्चत्तेणं 'ति वस्तुनुं अनेक प्रकारे उच्चपणुं छे. एक ऊभा रहेलनु ऊंचपणुं, बीजुं तिर्यस्थित( सूतेल वगेरे )नुं अने त्रीजुं गुणोवडे उच्चपणुं छे. त्रणमां बीजा अने त्रीजाने छोडीने ऊर्ध्वस्थित( ऊभा रहेला )नुं जे ऊंचपणुं ते ऊर्ध्व उच्चत्व आगममा रूढ थयेल छे. ते ऊर्ध्व उच्चत्ववडे सर्वज्ञोए प्ररूपणा करेल छे. अहीं मूलमा अनुस्वार छे ते प्राकृत शैलीथी जाणवू. अनुत्तरोपपातिक देवोर्नु उर्ध्व ऊच्चपणाए एक हाथर्नु प्रमाण जाण. (सू०५४ ) देवना अधिकारथी नक्षत्र देवोर्नु'अदानक्वत्ते' इत्यादि त्रण सुगम सूत्रवडे तारानुं एकपणुं कयु. तारा ज्योतिष्कोना विमानरूप छे. कृतिकादि नक्षत्रोमां तारानुं प्रमाण नीचे प्रमाणे छे
छ ६ प्पैच ५ तिन्नि ३ एंगं १ चउ ४ तिग ३ रसँ ६ वेय ४ जुयल २ जुयलं २ च । इंदिय ५ ऍग १ ऐगं १, विसँय ५ ग्गि३ समुंद ४ वारसगं १२ ॥ ११६ ॥ १. देव-देहमानं प्रत्यंतरमा छे.
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥ १॥
१ स्थाना
ध्ययने स्कंधविशेष४ स्य एकत्वम्
५२-५६ सूत्राणि
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चउरी ४ तिये ३ तिये ३ तिय ३ पंचे ५ सत्त ७ बे२१२ बे२५२ भवेतिया तिन्नि २६ २७ २८३-३-३॥ रिक्खे तारपमाणं, जइ तिहितुल्लं हयं कजं ॥११७॥
उपरना अंक प्रमाणे कृत्तिकाथी आरंभीने भरणी सुधी नक्षत्रो गणवा अने कृतिकाना ६, रोहिणीना ५, मृगवरना ३ यावत् भरणी सुधीना नक्षत्रोना तारा श्लोकमां जणावेला बाजुना अंक प्रमाणे जाणवा. बीजी गाथानां उत्तरार्द्धमां ताराचं फळ कहे छे.ज्यारे जे नक्षत्रमा तारानी संख्या- जे प्रमाण छे ते प्रमाणे ज तिथि होय त्यारे कार्यनी सिद्धि न थाय; नुकशानी थाय (११६-११७). प्रस्तुत सूत्रमा एक स्थानकना अनुरोधथी त्रण नक्षत्रना तारानुं प्रमाण कमु. बाकीना नक्षत्रोनुं तो जे तारानुं प्रमाण छे ते प्रायः आगळना अध्ययनोमां सूत्रकार स्वयं कहेशे. ताराना प्रमाणनो जे कोइ स्थळे विसंवाद-मतभेद छे ते तथाप्रकारना प्रयोजनोमां अमुक नक्षत्र सहित तिथिविशेपर्नु अशुभपणानुं सूचन करवा मतांतरभृत होवाथी उक्त वे गाथाने बाधक नथी (सू०५५), तारा पुद्गलरूप छे माटे पुद्गलनु स्वरूप कहे छे:-'एगप्पएसोगाढे' इत्यादि सुगम छे. विशेष हवे कहे छे-एकत्र प्रदेश क्षेत्रना अंशविशेषमां जे आश्रित थयेला ते एकप्रदेशावगाढो छे, ते परमाणुरूपे अने स्कंधरूपे छे. एवी रीते ५ वर्ण, २ गंध, ५ रस अने ८ स्पर्शना भेदविशिष्ट पुद्गलो कहेवा. आथी ज कयुं छे:-'जाव एगगुणलुक्खे' इत्यादि. (सू०५६) आवी रीते अनुगम
१. दा. त, कृतिका नक्षत्रना छ तारा छे, माटे छठ तिथिमां कृत्तिका आवे तो कार्यसिद्धि न थाय. रोहिणीमां पांच तारा छे माटे पंचमी तिथिमा रोहिणी आवे तो कार्यसिद्धि न थाय एम २८ नक्षत्रोचें फळ जाणवू.
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॥६१॥
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कहेवायो हवे कइंक प्रत्यवस्थान ( समाधान ) ना प्रस्तावमां नयद्वार कहेलुं छे तो पण अनुयोगद्वारना क्रमवडे आवेलुं नयद्वार फरीथी विशेष स्वरूपे कहेवाय छे. तेमां नैगम वगेरे सात नयो छे अने ते ज्ञाननय अने क्रियानयमां अंतर्भाव थाय छे. ते ज्ञान अने क्रियानयथी आ अध्ययननो विचार कराय छे. तेमां ज्ञानक्रियात्मक आ अध्ययनमां, ज्ञाननय ज्ञानने ज मुख्य (श्रेष्ठ) इच्छे छे, कारण के समस्त पुरुषार्थनी सिद्धि ज्ञानना आधीनपणाथी थाय छे. कधुं छे केविज्ञप्ति - विशेष ज्ञान पुरुषोने फल देनार छे, पण क्रिया फळनी देनारी इष्ट नथी, कारण के मिथ्याज्ञानथी प्रवृत्त थयेल पुरुषने फलनी प्राप्तिनो असंभव छे. आ कारणथी आ लोक अने परलोकना फळने इच्छनारे ज्ञानमां ज प्रयत्न करवो जोईए. क्रियानय तो क्रियाने ज इच्छे छे; कारण के पुरुषार्थनी सिद्धिमां क्रियानुं ज प्रयोजनपणुं छे. वळी कं छे के-" क्रिया ज पुरुषोने फल देनारी छे, पण ज्ञान फलने देनारुं इष्ट नथी, तेथी स्त्री अने भक्ष्यना भोगने जाणनार ज्ञानमात्रथी सुखी थतो नथी. " आ कारणथी ऐहिक अने पारलौकिक फलना इच्छकोए क्रिया ज करवा योग्य छे. जैनदर्शनमां तो ज्ञान अने क्रिया बने पैकी कोड़ एकने पुरुषार्थतुं साधनपणुं कां नथी. जेथी कहुँ छे केः
हयं नाणं कियाहीणं, हया अन्नाणओ किया । पासंतो पंगुलो दड्ढो, धावमाणो य अंधओ ॥११८॥
क्रिया वगरनुं ज्ञान हणायेलुं ( फल रहित ) छे अने अज्ञानथी करायेली क्रिया निष्फल छे. देखतां थको पांगळो माणस अने दोडतो थको आंधळो माणस बन्ने बळी जाय छे, अर्थात् ज्ञान पांगळु छे अने क्रिया आंधळी छे, ज्ञान अने क्रियानो संयोग ज फलनो साधक छे. कहां छे के
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ६२॥
१ स्थानाध्ययने
1 स्कंधविशेष
स्य एकन्नम्
५२-५६
सूत्राणि
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संजोगसिद्धीइ फलं वयंति, नह एगचक्केण रहो पयाइ ।
अंधोय पंगू य वणे समिच्चा, ते संपउत्ता नगरं पविट्ठा ॥ ११९ ॥ तीर्थकरो ज्ञान-क्रियाना संयोगनी सिद्धिथी फळ-मोक्षने कह छे. जेम रथ एक पैडावडे चालतो नथी नेम मात्र ज्ञान के क्रियाथी मोक्ष प्राप्त थतुं नथी. आंधळो अने पांगळो बन्ने वनमा आवीने साथे जोडाया त्यारपछी ज नगरमा प्रवेश्या. (११९ ) वळी भाष्यकारे कहेल छ के
नाणाहीणं सब्ब, नाणणओ भणति किं च किरियाए ? ।
किरियाए करणनओ, तदुभयगाहो य सम्मत्तं ॥ १२० ॥ ज्ञाननय, सर्व सुख ज्ञानने ज आधीन कहे छे, परंतु क्रियावडे शुं ? अर्थात् क्रियाथी शुं थवानु छ ? क्रियानय, क्रियाथी ज सुख कहे छे. ज्ञान अने क्रिया ए बन्ने नय ग्रहण करनारने सम्यक्त्व छ-यथार्थपणुं छे. अथवा नैगमादि सात नयो पण सामान्यनयमां अने विशेषनयमां अंतर्भूत थाय छे. तेमां सामान्यनय, प्रस्तुत अध्ययनमां कहेला आत्मादि पदार्थोनुं एकपणु ज माने छे, कारण के सामान्यनयर्नु सामान्यवादीपणुं छे. सामान्यवादी कहे छे-सामान्य ज एक, नित्य, अवयव रहित, निष्क्रिय अने व्यापक-सर्वगत छे. सामान्य रहित होवाथी विशेष नथी. अहिं जे सामान्य रहित छे ते वस्तु ज नथी,
॥६२॥
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दा. त. गधेडानुं शींगईं. जे वस्तु छे ते सामान्य रहित नथी; जेमकं घडो. वळी सामान्यवादी विशेषवादीने कहे छे के तमे विशेषो, | सामान्यथी अन्य-भिन्न स्वीकारो छो अथवा अनन्य-अभिन्न ? जो सामान्यथी विशेषो जूदा कहेशो तो ते असत्-अछता छ, कारण के सामान्य रहित होवाथी ते आकाशना फूलनी जेम असत् छे. जो विशेषो सामान्यथी जुदा नथी तो सामान्य मात्र ज छे. अथवा सामान्यमा विशेषनो उपचार जो होय तो उपचारखडे वस्तुना तत्त्वर्नु चिंतन नहिं थाय. भाष्यकार कहे छे:एक निच्चं निरवय-वमकियं सव्वगं च सामन्नं । निस्सामन्नत्ताओ, नत्थि विसेसो खपुष्पं व ॥१२१ ॥
___ तथा-सामन्नाओ विसेसो, अन्नोऽनन्नो व होज ? जइ अन्नो।
सो नत्थि खपुप्फं, पिवऽणन्नो सामन्नमेव तयं ॥ १२२ ॥ (युग्मम्) आ बन्ने गाथानो भावार्थ उपर कहेवायेल छे. आत्मादि पदार्थोर्नु एकपणुं सामान्यनयथी कहेल छ. विशेषनयना मतथी तो आत्मादिनुं अनेकपणुं ज छे. विशेषवादी कहे छे-सामान्य, विशेषोथी भिन्न छ के अभिन्न ? भिन्न नथी, कारण के आकाशना फूलनी जेम तद्दन प्रत्यक्ष नथी. वळी विशेषोथी सामान्य भिन्न नथी, कारण के दाह, पाक, स्नान, पान, अवगाह, वाह अने दाह आदि सामान्य शब्दवडे सर्व संव्यवहारनो गधेडाना शींगडानी जेम अभाव छे, तेथी कई पण व्ययहार थई शकशे नहिं. जो सामान्य अभिन्न छे तो विशेष मात्र ज वस्तु छ, सामान्य नाम ज नथी. अथवा विशेषामा सामान्य मात्रनो उपचार करेल छे, एम जो कहेशो तो उपचारवडे वस्तुतच नहि विचारी शकाय. भाष्यकार कहे छ
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नो भावार्थ उपरोक्त छे. आवी माधान-कथंचित् एकपणुं अने का अनकपणु छे. कयुं छे के
श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥६३॥
न विसेसत्थंतरभूय-मस्थि सामन्नमाह ववहारो। उवलंभव्ववहारा-भावाओ खरविसाणं व ॥१२३॥
आ गाथानो भावार्थ उपरोक्त छे. आवी रीते आत्मादि पदार्थोनुं अनेकपणुं ज छे. शंका-बन्ने पक्षमा पण युक्तिओनो संभव होवाथी कयु तत्व स्वीकारवू जोइए ? समाधान-कथंचित् एकपणुं अने कथंचित् अनेकपणुं छे. ते आ प्रमाणे-वस्तुनुं समविषमपणुं होबाथी समरूपनी अपेक्षाए एकपणुं छे, अने विषमरूपनी अपेक्षाए तो अनेकपणुं छे. का छे के-"वस्तुनो ज जे समान परिणाम छे ते ज सामान्य छे अने वस्तुना जे विषम परिणाम छे तेज विशेषो छे; तेथी वस्तु एकरूप अने अनेकरूप छे."
१. स्थाना
ध्ययने स्कन्धविशेषस्य एकत्वम् ५२-५६ सूत्राणि
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इति श्रीमदूअभयदेवसूरिविरचित ठाणांग सूत्रना पहेला एक स्थानक अध्ययननो मूल तथा टीकानो अनुवाद समाप्त.
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॥६३॥
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अथ द्वितीयं द्विस्थानकाख्यमध्ययनम् ।
एक स्थानक नामवाळं प्रथम अध्ययननुं व्याख्यान कर्यु हवे संख्याक्रमना संबंधवडे प्राप्त थयेल वे स्थानक नामवाळु बीजुं अध्ययन वर्णववामां आवे छे. आ बीजा अध्ययननो विशेष संबंध कहे छे:- अहिं जैनाने जैनदर्शननी सामान्य- विशेषात्मक वस्तु सम्मत छे. तेमां सामान्यने आश्रय करीने प्रथम अध्ययनमां आत्मादि पदार्थोनुं एकपणाए निरूपण कर्यु, हवे प्रस्तुत अध्ययनमां तो विशेषनो आश्रय करवाथी आत्मादि वस्तु द्विविधपणाए कहेवाय छे. आ संबंधवडे प्राप्त थयेल आ बीजा अध्यायना अनुयोगना उपक्रमादि चार द्वारो होय छे. ते चार द्वारो प्रथम अध्ययननी जेम जाणवा. जे कंडक विशेष होय ते स्वबुद्धिवडे जाणवा योग्य छे. केवल आ चार उद्देशकात्मक आ अध्ययनना सूत्रानुगममां प्रथम उद्देशकनुं आ प्रथम सूत्र उच्चारखु. जदत्थि णं लोगे तं सव्वं दुपओआरं, तंजहा - जीवच्चेव अजीवच्चेव । तसे चैव थावरे चैव १, सजोणियच्चैव अजोणियच्चैव २, साउयच्चैव अणाउयच्चैव ३. सइंदियच्चैव अणिदिए चेव ४, सवेयगा चैव अवेयगा चैत्र ५, सरूवि चेव अरूवि चैत्र ६, सपोग्गला चेव अपोग्गला चेव ७, संसारसमावन्नगा चैव असंसारसमावन्नगा चैत्र ८, सासया चेव असासया चेव ९ । सू० ५७
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श्रीस्था
नाङ्गसूत्र
सानुवाद
।। ६४ ।।
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मूलार्थ:-जे आ लोकने विषे जीवादि वस्तु छे ते सर्व वे प्रकारे छे, ते आ प्रमाणे जीव अनं अजीव. जीवना बे प्रकार छे - १ त्रस अने थावर, २ सयोनिक – संसारी अने अयोनिक -सिद्ध, ३ आयुष्य सहित अने आयुष्य रहित, ४ इंद्रियसहित अने अनिंद्रिय (इंद्रिय रहित), ५ वेदस-वेद सहित अने वेद रहित, ६ रूपी-मूर्त्त (आकार सहित ) अने अरूपी - अमूर्त (आकार रहित), ७ पुद्गल सहित अने पुद्गल रहित, ८ संसारमा रहेला अने संसारमां नहिं रहेल, ९ शाश्वत अने अशाश्वत एम बच्चे प्रकारे जीवो छे. ( सू० ५७ )
टीकार्थ :- आ सूत्रनो पूर्व सूत्रनी साथ आ प्रमाणे संबंध छे-पूर्व कहेतुं छे के एकगुण लूखा पुद्गलो अनंत छे, ते पुद्गलोमां अनेकगुण लूखा पुद्गलो पण होय छे, जेने लइने ते पुद्गलो एकगुण रुक्षपणाए विशेष कराय छे? हा, होय छे. जे माटे 'जदत्थी' त्यादि. हवे परंपरसूत्रन संबंध तो 'श्रुतं मयाऽयुष्मता भगवतैवमाख्यातमेक आत्मे' त्यादि-तेम आ बीजुं अध्ययन पण कधुं छे. 'जदत्थी' त्यादि संहितादिनी चर्चा पूर्वनी जेम जाणवी. जे जीवादि वस्तु विद्यमान छे. 'णं' कार वाक्यना अलंकारमां छे. 'जदत्थि चणं' ति आवो पाठ पण क्यांक छे. ते सूत्रमां अनुस्वार आगमथी धयेल छे अने चकार पुनः अर्थमा छे. आ जीवादि वस्तुनो आ प्रमाणे प्रयोग छे-आत्मादि वस्तु छे, प्रथमना अध्ययनवडे कहेवायेल होवाथी पंचास्तिकायात्मक लोकमां, अथवा लोक्यते -[ केवळज्ञानवडे ] जे प्रमाण कराय-जणाय ते लोक, आ व्युत्पत्तिवडे लोक अने अलोकरूपमा जे वस्तु छे ते सर्व वस्तु वे पद-स्थानमां तथा विवक्षित वस्तु अने तेथी विपरीत लक्षणरूप वे पक्षमां अवतार (समावेश) थाय छे जेना ते द्विपदावतार छे. 'दुपडोयारं' ति आ पाठ क्यांक बोलाय छे त्यांचे पक्षमां प्रत्यवतार छे जेनो ते
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२ स्थानका
ध्ययने
जीवानां
द्वैविष्यं
५७ सूत्रम्
॥ ६४ ॥
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द्वित्यवतार छे, स्वरूपवान् भने प्रतिपक्षवान् इत्यर्थ ' तद्यथे ' ति दृष्टांतना स्थापनमां ' तद्यथा' शब्द छे. 'जीवचेव अजीवचेव 'त्ति-' जीवाश्चैवाजीवाश्चैव, प्राकृतशैलीथी संयुक्त परत्ववडे ह्रस्व थाय. ये चकार समुच्चय अर्थवाळा छे अने ' एव ' कार चोकस अर्थमां छे. 'एव' नो चोकस अर्थ करवावडे राश्यंतर ( त्रीजी राशि ) नो निषेध कहेल छे. | नोजीव नामनी राशि जुदी राशि छे, एम जो कहेशो तो तेम नथी, कारण के 'नो' शब्दनो सर्व निषेधकपणामां स्वीकार करवाथी 'नोजीव ' शब्दवडे अजीव ज चोकस थाय छे अने नो शब्दने देश निषेधक अर्थमां लेवाथी तो जीवनो देश ज चोक्कस थाय छे. देश ( अवयव ) अने देशी ( अवयवी ) नो अत्यंत भेद नथी, माटे आ देश ते जीव ज छे. अथवा 'चेय'ति चय शब्द एवकारना अर्थवाळो छे. ' चिय चेय एवार्थ ' इति वचनात् तथा जीवो ज विवक्षित वस्तु छे अने अजीवो ज प्रतिपक्ष वस्तु छे, एवी रीते सर्वत्र जाणवुं. अथवा ' यदस्ति ' सत्रूप जे वस्तु, जीव अने अजीवना भेदथी वे प्रकारे होय छे. शेष तेमज जाण. हवे त्रस इत्यादि नव सूत्रना समूहवडे जीवतचना ज प्रतिपक्ष सहित भेदोने बताये छे:- तसे चेवेत्यादि, मां त्रसनामकर्मना उदयथी त्राम उद्वेग पामे छे ते द्वींद्रिय वगेरे त्रसजीवो, अने स्थावरनामकर्मना उदयथी गति रहितस्थिर स्वभाववाळा पृथिवीकायिक वगेरे स्थावर जीवो छे. (१). उत्पत्तिस्थान सहित ते सयोनिको संसारी जीवो अने तेनाथी विपरीत अयोनिको सिद्धो छे. (२). जे आयुष्य सहित वर्त छे ते सायुष्क- आयुष्यवाळा संसारी जीवो अने तेनाथी अन्य - आयुष्य
१. वे चकारना संयोगथी प्राकृतनियम प्रमाणे वकार हूस्व थयेल छे..
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुबाद
रहित ते सिद्धो छे.(३). एवी रीते जे इंद्रिय सहित ते संसारी जीवो अने अनिंद्रियो-सिद्ध वगेरे जीवो छे. (४). सवेदको-स्त्रीवेद वगेरेना उदयवाळा जीबो अने वेदना उदय रहित सिद्ध वगेरे जीवो छे (५). मूर्त सहित वर्ते छे ते सरूपिणः-आ शब्द समासांत इन् प्रत्यय कीधे छते सिद्ध थाय छे. संस्थान (आकार) अने वर्णादिवाळा शरीर सहित जीवो अने जे रूपबाळा नथी ते अरूपी-मुक्त जीवो छे.(६). सपुद्गला-कर्म वगेरे पुद्गलवाळा जीवो अने अपुद्गला-सिद्धो छे. (७). संसारमा रहेला संसारी जीवो अने तेथी जुदा ते सिद्धना जीवो (८), जन्म अने मरण विगेरेथी रहित होवाथी शाश्वता-सिद्धना जीवो अने जन्ममरणादि युक्त होवाथी अशाश्वता-संसारी जीवो छे. (९). (सू० ५७) एम जीवतत्त्वना द्विपदावतारर्नु निरूपण करीने अजीवतत्वना द्विपदावतारर्नु निरूपण करे छे:
आगासे चेव नोआगासे चेव । धम्मे चेव अधम्मे चेव। सू०५८, बंधे चेव मोक्खे चेव१, पुन्ने चेव पावे चेव २, आसवे चेव संवरे चेव ३, वेयणा चेव निजरा चेव ४ । सू०५९, दो किरियाओ | पन्नत्ताओ, तंजहा-जीवकिरिया चेव अजीवकिरिया चेव १, जीवकिरिया दुविहा पन्नत्ता, तंजहा
१.' वगेरे ' शब्दथी भवस्थ केलिओ जाणवा, कारण के तेओने क्षायोपशमिकभावनो अभाव छे अने भाव इंद्रियो क्षयोपशमभावे छे. २. नवमा गुणठाणानो अमुक भाग, संख्यातो गया पछी भाववेदना उदयना अभावथी अवेदी होय छे. ३. 'आगासा चेक आवो पाठ आगमोदय समितिवाळी प्रतिमा छे.
२. स्थाना
ध्ययने अजीवबन्धादिक्रियाणां
द्वैविध्यं ५८-५९ ६० सूत्राणि
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सम्मत्तकिरिया चेव, मिच्छत्तकिरिया चेव २, अजीवकिरिया दुविहा पन्नत्ता, तं०-इरियावहिया चेव संपराइगा चेव ३, दो किरियाओ पं० २०-काइया चेव आहेगरणिया चेव ४,काइया किरिया दविहा पन्नत्तातं०-अणुवरयकायकिरिया चेव, दुप्पउत्तकायकिरिया चेव ५, आहिकरणिया किरिया दुविहा पंत-संजोयणाधिकरणिया चेव णिवत्तणाधिकरणिया चेव ६, दोकिरियाओ प० तं०-पाउसिया चेव पारियावणिया चेव ७, पाउसिया किरिया दुविहा पं० तं-जीवपाउसिया चेव अजीवपाउसिया चेव ८, पारियावणिया किरिया दुविहा पं० तं०-सहत्थपारियावणिया चेव परहत्थपारियावणिया चेव ९. दो किरियाओ पं००-पाणाइवायकिरिया चेव अपच्चक्खाणकिरिया चैव १०, पा. णाइवायकिरिया दुविहा पं० तं० सहत्थपाणाइवायकिरिया चेव परहत्थपाणाइवायकिरिया चेव ११. अपच्चक्खाणकिरिया दुविहा पं० २०-जीव अपञ्चक्खाणकिरिया चेव अजीवअपञ्चक्खाण. किरिया चेव १२. दो किरियाओ पं० तं०-आरंभिया चेव परिग्गहिया चेव १३, आरंभिया किरिया दविहा पं००-जीवआरंभिया चेव अजीवआरंभिया चेव १४, एवं परिग्गहियावि १५,दो किरि
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k
श्रीस्था
नाङ्गसूत्र सानुवाद
याओ पं० तं०-मायावत्तिया चेव मिच्छादसणवत्तिया चेव १६, मायावत्तियाकिरिया दुविहा पं० २०
आयभावकणता चेव परभावकणता चेव १७, मिच्छादसणवत्तिया किरिया दुविहा पं० २०-ऊ*णाइरित्तमिच्छादसणवत्तिया चेव तच्वइरित्तमिच्छादसणवत्तिया चेव १८, दो किरियाओ पं० २०दिट्ठिया चेव पुट्ठिया चेव १९, दिट्ठिया किरिया दुविहा पं० त०-जीवदिट्ठिया चेव अर्जावदिट्ठिया चेव २०, एवं पुट्ठियावि २१, दो किरियाओ पं० २०-पाडुच्चिया चेव सामंतोवणिवाइया चेव २२, पाडुच्चिया किरिया दुविहा पं०-२० जीवपाडुच्चिया चेव अजीवपाडचिया चेय २३, एवं सामंतोवणि| वाइयावि २४, दो किरियाओ पं० तं०-साहस्थिया चेव णेसाथिया चेव २५, साहस्थियाकिरिया दविहापंतक-जीवसाहस्थिया चेव अजीवसाहस्थिया चेत्र २६.पवं सत्थियावि २७. दो किरियाओ | पं० तं०-आणवणिया चेव वेयारणिया चेव २८, जहेव णेप्तत्थियाओ २९-३०, दो किरियाओ पं० तं०-अणाभोगवत्तिया चेव अणवखवत्तिया चेव ३१. अणाभोगवत्तिया किरिया दविहा पं० तं०अणाउत्तआइयणता चेव अणाउत्तपमजणता चेव ३२, अणवखवत्तिया किरिया दुविहा पं० तं०
ध्ययने अजीबन्धादिकियाणां द्वैविध्यम् ५८-५९ ६० सूत्राषि
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आयसरीरअणवकखवत्तिया चेव परसरीरअणवकंखवत्तिया चेव ३३, दो किरियाओ पं० तं०पिज्जवत्तिया चेत्र दोसवत्तिया चेव ३४, पेज्जवत्तिया किरिया दुविहा पं० तं० - मायावतिया लोभवत्तिया चैत्र ३५, दोसवत्तिया किरिया दुविहा पं० तं०- कोहे चेव माणे चेव ३६ । सू० ६०
मूलार्थः – आकाश अने नोआकाश एटले धर्मास्तिकायादि पांच बे वस्तु छे, धर्मास्तिकाय अने अधर्मास्तिकाय बे वस्तु छे. ( सू० ५८ ) बंध अने मोक्ष वे छे १, पुन्य अने पाप वे छे २, आश्रम अने संवर वे छे ३, वेदना ( पीडा ) अने निर्जरा वे छे ४. ( सू० ५९ ). वे क्रिया कहेली छे, ते आ प्रमाणे जीव क्रिया अने अजीव क्रिया १, जीव क्रिया चे प्रकारेकहेली छे, ते आ प्रमाणे – सम्यक्त्वक्रिया अने मिथ्यात्वक्रिया २, अजीवक्रिया चे प्रकारे कहेली छे, ते आ प्रमाणेइर्यापथिकी अने सांपरायिकी ३, वे क्रिया कहेली छे, ते आ प्रमाणे कायिकी अने अधिकरणकी ४, कायिकी क्रिया बे प्रकारे कहेली छे, ते आ प्रमाणे - अनुपरत (विराम नहि पामेल ) कायक्रिया अने दुष्प्रयुक्त (दुष्ट रीते प्रवर्त्ताविल) कायकिया ५, अधिकरणकी क्रिया वे प्रकारे कहेली छे, ते आ प्रमाणे- संयोजनाधिकरणकी (शस्त्रादिनी योजना तैयारी करवारूप ) अने निर्वर्त्तनाधिकरणकी ( तैयार करी राखेल) ६, वे क्रिया कहेली छे, ते आ प्रमाणे - प्राद्वेषिकी (विशेष द्वेषरूप) किया अने पारितापनिकी (संताप करवारूप) क्रिया ७, प्राद्वेषिकी क्रिया चे प्रकारे कहेली छे, ते आ प्रमाणे जीवप्राद्वेषिकी अने अजीव द्वेषिकी ८, पारितापनिकी क्रिया वे प्रकारे कहेली छे, ते आ प्रमाणे- स्वहस्तपारितापनिकी क्रिया अने परहस्तपारितापनिकी क्रिया ९,
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२ स्थानका
श्रीस्थानागसूत्र सानुवाद ॥६७॥
ध्ययने
क्रियाणां द्वैविध्यम् ५८-६० मूत्राणि
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बे क्रिया कहेली छे, ते आ प्रमाणे-प्राणातिपात क्रिया अने अप्रत्याख्यान क्रिया १०, प्राणातिपात क्रिया के प्रकारे कहेली छे, ते आ प्रमाणे-स्वहस्तपाणातिपात क्रिया अने परहस्तप्राणातिपात क्रिया ११, अप्रत्याख्यान क्रिया के प्रकारे कहेली छे, ते आ प्रमाणे-जीवअप्रत्याख्यान क्रिया अने अजीवप्रत्याख्यान क्रिया १२, बे क्रिया कहेली छे-आरंभिकी अने पारिग्रहिकी १३, आरंभिकी क्रिया ये प्रकारे कहेली छे, ते आ-जीवआरंभिकी अने अजीवआरंभिकी १४, एवी रीते पारिग्रहिकी क्रिया पण वे प्रकारे छे, ते आ-जीवपारिग्रहिकी अने अजीवपारिग्रहिकी १५, वे क्रिया कहेली छे, ते आ-मायाप्रत्ययिकी अने मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी १६, मायाप्रत्ययिकी चे प्रकारे छे, ते आ-आत्मभाव वंकनता( ठगवारूप) अने परभावबंकनता १७, मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी बे प्रकारे छे, ते आ-ऊनातिरिक्ति ( ओछु अने अधिक कहेवारूप ) मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी अने तद्व्यतिरिक्त ( विपरीत-आत्मादि नथी एम कहेवारूप ) मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी १८, बे क्रिया कहेली छे, ते आ-दृष्टिकी अने पृष्टिकी १९, दृष्टिकी बे प्रकारे कहेली छे, ते आ-जीवदृष्टिकी अने अजीवदृष्टिकी २०, एवी रीते पृष्टिकी वे प्रकारे छे, ते आ-जीवपृष्टिकी (स्पर्श करवारूप) अने अर्जावपृष्टिकी २१, बे क्रिया कहेली छे, ते आ-प्रातीत्यिकी (बाह्य वस्तुने आश्रयीने थयेली) अने सामंतोपनिपातिकी (घणा मनुष्योनी प्रशंसा वगेरेथी थयेली) २२, प्रातत्यिकी क्रिया के प्रकारे छे, ते आ-जीवप्रातीत्यिकी अने अजीवप्रातीत्यिकी २३, एवी रीते सामंतोपनिपातिकी क्रिया के प्रकारे छे, ते आ-जीवसामंतोपनिपातिकी अने अजीवसामंतोपनिपातिकी २४, बे किया कहेली छे, ते आ-स्वहस्तिकी अने नैसृष्टिकी ( फेंकवाथी थयेली) २५, स्वहस्तिकी क्रिया बे प्रकारे छे, ते आ-जीवस्वहस्तिकी अने अजीवस्वहस्तिकी २६, एवी रीते नैसृष्टिकी पण वे प्रकारे छे २७, वे क्रिया कहेली छे, ते आ-आज्ञापनिकी (हुकम करवाथी
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॥६७॥
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थयेली) अने वैदारिणी (चीरवाथी थयेली) क्रिया २८, आ बन्ने क्रियाना बब्बे भेद नैसृष्टिकी क्रियानी माफक जाणवा २९-३०, बे क्रिया कहेली छे, ते आ-अनाभोग प्रत्ययिकी (अनुप्रयोगथी थयेली) अने अनवकांक्षाप्रत्ययिकी (बेदरकारीथी थयेली) ३१, अनाभोगप्रत्ययिकी क्रिया के प्रकारे छे, ते आ-अनुपयुक्त(थी) आदानता ( ग्रहण करवापj) अने अनुपयुक्त(थी) प्रमार्जनता ३२, अनवकांक्षाप्रत्ययिकी क्रिया बे प्रकारे छे, ते आ-आत्म(स्व)शरीरअनवकांक्षाप्रत्ययिकी अने परशरीरअनवकांक्षाप्रत्ययिकी ३३, बे क्रिया कहेली छे, ते आ-प्रेमप्रत्ययिकी अने द्वेषप्रत्ययिकी ३४, प्रेमप्रत्ययिकी क्रिया चे प्रकारे कहेली छे, ते आ-मायाप्रत्ययिकी अने लोभप्रत्ययिकी ३५, द्वेषप्रत्ययिकी क्रिया चे प्रकार छ, ते आ-क्रोधप्रत्ययिकी अने मानप्रत्ययिकी ३६. ( सू० ६०).
टीकार्थः-'आगासे'त्यादि-आकाश-व्योम अने नोआकाश ते आकाशथी अन्य धर्मास्तिकायादि पांच द्रव्यो. धर्मास्तिकाय ते गतिमां मदद करवाना गुणवाळो अने तेथी जुदो अधर्मास्तिकाय ते स्थितिमां मदद करवाना गुणवाळो जाणवो. (सू०५८). विपक्ष सहित बंधादि तत्त्वना चार सूत्रो पूर्वनी माफक जाणी लेवा (सू० ५९). क्रिया थये छते बंधादि आत्माने होय छे, माटे हवे क्रियानुं निरूपण करे छे-'दो किरियेत्यादि ३६ सूत्रो. करवु ते क्रिया अथवा कराय छे ते क्रिया. ते क्रिया के प्रकारे जिनेश्वरोए प्ररूपेली छे. तेमां जीवनो जे व्यापार ते जीव क्रिया, तथा पुद्गलसमुदायरूप जे अर्जाव तेनुं जे कर्मपणाए परिणमन | थर्बु ते अजीव क्रिया छे. (१). अहिं 'चिय' शब्द अने 'चेव' शब्दनो पाठांतरमा प्राकृत शैलीथी द्वित्व थयेल छे. 'अपि च' इत्यादि शब्दनी माफक 'चैव' ए शब्द समुच्चय मात्रमा ज प्रतीत थाय छे. 'जीवकिरिये' त्यादि-तत्वश्रद्धानरूप जे
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श्रीस्था
नाङ्गसूत्र
सानुवाद ।। ६८ ।।
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सम्यक्त्व ते ज जीवन। व्यापाररूप होवाथी जे क्रिया ते सम्यक्त्व क्रिया, एम ज मिथ्यात्व क्रिया पण जाणवी. बळी विशेष कहे छे:मिथ्यात्व एटले तचनुं अश्रद्धान ते पण जीवनो व्यापार ज छे, अथवा सम्यग्दर्शन अने मिथ्यादर्शन छते जे वे क्रिया थाय छे ते सम्यक्त्व क्रिया अने मिथ्यात्व क्रिया कहेवाय छे. (२). 'अजीवकिरिये ' त्यादि-तेमां 'इरियावाहिय' त्ति-ईरणमी - गमन कर - ते गमनविशिष्ट मार्ग ते इर्यापथ, तेमां थयेली जे क्रिया ते ऐर्यापथिकी. आ व्युत्पत्ति मात्र अर्थ छे. प्रवृ तिनुं निमित्त तो केवल योगप्रत्यय छे. ते उपशांतमोहादि त्रण गुणठाणावाळाने सातावेदनीय कर्मपणाए अजीवरूप पुद्गलराशिनुं जे थवं ते ऐर्यापथिकी क्रिया जाणवी. प्रस्तुत विषयमां जीवना व्यापारमां पण अजीवना मुख्यपणानी विवक्षावडे आ अजीव क्रिया कहेली छे. अथवा कर्म विशेषरूप ऐर्यापथिकी क्रिया कहेवाय छे, जेथी कहेलुं छे - "इरियावहिया किरिया दुबिहाबज्झमाणा वेइज्जमाणा य, जा[व] पढमसमये बद्धा बीयसमये वेइआ सा वृद्धा पुट्ठा वेइया णिजिष्णा सेयकाले अम्मं वावि भवतीति- इर्यापथिकी क्रिया वे प्रकारे छे. बध्यमान ( बंधाती ) अने वेद्यमान (वेदाती). जे प्रथम समये बंधायेली अने बीजे समये वेदायेली, बंधायेली स्पृष्टा (क्रिया) भोगवायेली, निर्जरायेली ( स्पर्शाली उदयमां आवेली ) ते भविष्यकालमा ( चतुर्थादि समयमां) अकर्म पण थाय छे. तथा संपरायाः - कषायोमां थयेली ते सांपरायिकी क्रिया. ते ज अ| जीवरूप पुद्गलराशिनी कर्मपणाए परिणतिरूप जीवव्यापारनी विवक्षा न करवाथी अजीवक्रिया छे. ते पहेला गुणठाणाथी यावत् सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानकवाळा जीवने होय छे. (३), 'दो किरिये' त्यादि-वळी बीजी रीते वे क्रिया छे-'काइया चैवतिकायावडे थयेली ते कायिकी - कायानो व्यापार तथा ' अहिगरणिया चेव'त्ति - जेवडे आत्मा नरकादिने विषे अधिकारी
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२स्थानकाध्ययने
क्रियाणां
द्वैविध्यं
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कराय छे ते अधिकरण-अनुष्ठान-(कार्य) अथवा बाह्य वस्तु. अहिं बाह्य वस्तु विवक्षित छे. खड्गादिमां थयेली जे | क्रिया ते अधिकराणिकी. (४). कायिका क्रिया के प्रकारे छ-'अणुवरयकायकिरिया चेवत्ति-सावध(पाप)थकी जे विराम न पामे एवा मिथ्यादृष्टि अथवा सम्यग्दृष्टि जीवनी काय क्रिया, उत्क्षेपण एटले ऊंचे फेंकवू वगेरे लक्षणवाली कमबंधना कारणभूत-अनुपरतकायक्रिया, तथा 'दुप्पउत्तकायकिरिया चेव'त्ति-दुःप्रणिहित-दुष्ट प्रयोगवाळानी दुष्ट प्रवृतिविशिष्ट, इंद्रियोने आश्रयीने इष्ट अनिष्ट विषयनी प्राप्तिमां कंइक संवेग अने निर्वेद( उदासीनता)मा जवावडे, तथा अनिद्रिय(मन)ने आश्रयीन अशुभ मनना संकल्पद्वारा मोक्षमार्ग प्रत्ये माठी रीते रहेल एवा प्रमत्तसंयतनी जे कायक्रिया ते दुष्प्रयुक्तकाय क्रिया. (५). तथा आधिकरणिकी क्रिया के प्रकारे छे. तेमां 'संजोयणाहिगरणिया चेव'त्ति-पूर्वे बनावेला खड्ग अने तेनी मूठ वगेरे वस्तुनुं जे संयोजन-जोडाण करवू ते संयोजनाधिकरणिकी क्रिया अने 'णिव्वत्तणाहिगरणिया चेव'त्ति-जे पहेलाथी ज खड्ग अने तेनी मूठ वगेरेने तैयार करी राखq ते निवर्तनाधिकरणिकी क्रिया (६). वली बीजी क्रिया वे प्रकारे छ 'पाउसिया चेव'त्ति-मत्सरवडे करायेली ते प्रादेषिकी क्रिया, तथा 'पारियावणिया चेव'त्ति-परितापन( ताडनादि दुःखविशेष स्वरूप )वडे जे थयेली क्रिया ते पारितापनिकी क्रिया. (७). प्राद्वेषिकी क्रिया बे प्रकारे-'जीवपाउसिया चेव'त्ति-जीवने विषे प्रद्वेष करवाथीथयेली जे क्रिया ते जीवप्राद्वेषिकी तथा 'अजीवपाउसिया चेव'त्ति-पाषाणादि अजीचमा स्खलना पामेलाने द्वेष थवाथी जे थयेली क्रिया ते अजीवप्राद्वेषिकी. (८). बीजी पण बे प्रकारे-'सहत्थपारियावणिया चेवत्ति-पोताना हाथथी पोताना शरीरने अथवा बीजाना शरीरने दुःख (क्लेश ) करता थकां जे थयेली क्रिया ते स्वहस्तपारितापनिकी तथा 'परहत्यपारियावणिया
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र
सानुवाद ॥ ६९ ॥
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'त्ति - बीजाना हाथथी स्वदेह अने परदेहने परिताप करावता थकां जे थयेली क्रिया ते परहस्तपारितापनिकी. (९) वली वे क्रिया कहे छे- 'पाणाइवायकिरिया चेव'त्ति-आनो अर्थ सुगम छे, तथा 'अपच्चक्खाणकिरिया चैव'त्ति-अप्रत्याख्यानअविरतिना निमित्तथी थयेल जे कर्मबंध ते अप्रत्याख्यान क्रिया, ते अविरतिओने होय छे. (१०). प्राणातिपात किया वे प्रकारे--'सहत्थपाणाइवायकिरिया चेव' त्ति-निर्वेद (कंटाळा) वगेरेथी पोताना प्राणोने पोताना हाथे अथवा क्रोधादिवडे पारकाना प्राणोने नाश करनारनी जे क्रिया ते स्वहस्तप्राणातिपात क्रिया, तथा 'परहत्थपाणाइवायकिरिया चैव 'प्ति - बीजाना हाथे पोताना अथवा परना प्राणोने नाश करावनारनी जे क्रिया ते परहस्तप्राणातिपात क्रिया. (११). बीजी अप्रत्याख्यान क्रिया पण प्रकारे छे - 'जीव अपच्चक्खाणकिरिया चेव' त्ति - जीवना विषयमां प्रत्याख्याननो अभाव ( न करवा) वडे जे बंध वगेरेनी | प्रवृत्ति ते जीव अप्रत्याख्यान क्रिया तथा 'अजीव अपच्चक्खाणकिरिया चेव' त्ति - अजीवो-मद्यादि विषे अर्थात् तेना पच्चखाण न करवाथी जे कर्मनो बंध ते अजीव अप्रत्याख्यान क्रिया. (१२). बळी बीजी रीते वे क्रिया कहेली छे 'आरंभिया चेव' त्ति- आरंभ ते आरंभ, तेमां थयेली जे क्रिया ते आरंभिकी क्रिया, तथा 'परिग्गहिया चेव' त्ति-परिग्रहने विषे जे थयेली क्रिया ते पारिग्रहिकी. (१३). आरंभिकी वे प्रकारे छे-'जीवआरंभिया चेव' त्ति-जीवोना उपमर्दन करनारने जे कर्मबंधन ते जीवआरंभिकी क्रिया, तथा 'अजीवारंभिया चेव'त्ति - अजीवोने, जीवोना कलेवरोने, पिष्ट (लोट) वगेरेथी बनावेली जीवती आकृतिओने अथवा वस्त्रादि प्रत्ये आरंभ करनारनी जे क्रिया ते अजीवआरंभिकी, (१४), 'पारिग्गहिया चेव'त्ति-आ पारिग्रहिकी क्रिया आरंभिकी क्रियानी जेम वे प्रकारे जाणवी, कारण के ते क्रिया जीवपरिग्रह अने अजीवपरिग्रहथी थाय छे. (१५). वळी बीजी रीते वे क्रिया 'मायावतिया
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२स्थानका
ध्ययने
क्रियाणां
द्वैविध्यम्
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* चेव'त्ति-शठपणुं छे निमित्त जे कर्मबंध क्रियानु अथवा जे व्यापारनुं ते मायाप्रत्यया, 'मिच्छादसणवत्तिया चेव'त्तिमिथ्यात्व छे निमित्त जे (क्रियानु) ते मिथ्यादर्शनप्रत्यया. (१६). मायाप्रत्यया चे प्रकारे-'आयभावबंकणया चेव'त्तिअप्रशस्त आत्मभावनुं जे वक्रीकरण-प्रशस्तपणानुं देखाडवं ते आत्मभाववंकनता क्रिया, वंकन( वांकाइ )ना बहुपणानी विवक्षामां (तल्रूप) भाव प्रत्यय विरुध्ध नथी. ते वंकनता, व्यापाररूप होवाथी क्रिया छे, तथा 'परभाववंकणया चेव'त्ति-जूठा लेख करवा वगेरेथी बीजाना अभिप्रायने ठगवा रूप क्रिया ते परभाववंकनता, कारण के वृद्धव्याख्या आवी छे-"तं तं भावमायरह जेण परो वंचिजइ कूडलेहकरणाईहिं'त्ति (१७), बीजी पण बे प्रकारे-ऊणाइरित्तमिच्छादसणवत्तिया चेवत्तिआत्मादि वस्तुना प्रमाणथी हीन अथवा अधिक कहेवारूप जे मिथ्यादर्शन, ते ज छे निमित्त जे क्रियानुं ते ऊनातिरिक्तमिथ्यादर्शनप्रत्यया, ते आ प्रमाणे-शरीर व्यापक आत्मा छे, तो पण आत्माने कोईपण मिथ्यादृष्टि, अंगुष्ठ पर्व मात्र [ यवमात्र ] अथवा श्यामाक नामा चोखामात्र एम हीनपणाए माने छे. वळी अन्य कोइक पांचशे धनुष्य प्रमाण अथवा सर्वव्यापक छ एम अधिकपणाए स्वीकारे छे, तथा 'तव्वइरित्तमिच्छादसणवत्तिया चेव'त्ति-ऊनातिरिक्तमिथ्यादर्शनथी भिन्न जे मिथ्यादर्शन-आत्मा नथी इत्यादि मतरूप निमित्त छ जे क्रियानुं ते तद्व्यतिरिक्तमिथ्यादर्शनप्रत्यया. (१८). वळी बीजी रीते वे क्रिया छे-'दिहिया चेय'त्ति-दृष्टिथी थयेली ते दृष्टिजा अथवा दर्शन (जोवु) अथवा वस्तु, निमित्तपणे छे जे क्रियामां ते दृष्टिका-जोवा माटे जे गतिक्रिया. अथवा जोवाथी जे कर्म उत्पन्न थाय छे ते दृष्टिजा अथवा दृष्टिका क्रिया, तथा 'पुट्ठिया चेव'त्ति-पृष्टि-पूछवाथी थयेली ते पृष्टिजा-प्रश्नथी उत्पन्न थयेल व्यापार, अथवा पृष्ट-प्रश्न अथवा वस्तु ते छे
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श्रीस्था
नाङ्गसूत्र
सानुवाद ॥ ७० ॥
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कारणपणाए जे क्रियामां ते पृष्टिका, अथवा स्पृष्टि-स्पर्श करवाथी जे थयेली क्रिया ते स्पृष्टिजा तेवी ज रीते स्पृष्टिका पण जाणवी (१९). दृष्टिका बे प्रकारे 'जीवदिट्टिया चेव'त्ति-अश्व वगरे जोवा माटे जनारनी जे क्रिया ते जीवदृष्टिका, अथवा 'अजीवदिट्टिया चेव'त्ति-अजीव चित्रकर्म वगरेने जोवा माटे जनारनी जे क्रिया ते अजीवदृष्टिका (२०), 'पुट्टिया चेव' तिएबी रीते पृष्टिका जीव अने अजीवना भेदवडे वे प्रकारे छे, ते आ प्रमाणे- जीवने अथवा अजीवने राग-द्वेषबडे पूछनारनी अथवा स्पर्श करनारनी जे क्रिया ते जीवपृष्टिका अथवा जीवस्पृष्टिका तथा अजीव पृष्टिका अथवा अजीवस्पृष्टिका. (२१). बळी बीजी रीते वे क्रिया छे'पाडुचिया चेव' त्ति बाह्य वस्तु प्रत्ये प्रतीत करीने आश्रय करीने जे थयेली क्रिया ते प्रातीत्यिकी, तथा 'सामंतोव णिवाइया चेव'ति-समंतात् (चौतरफथी) उपनिपात (मनुष्यनो समुदाय) तेमां थयेली जे क्रिया ते सामंतोपनिपातिकी (२२). प्रातीत्यिकी व प्रकारे 'जीवपाडुच्चिया चेव' त्ति जीवने आश्रयीने जे कर्मबंध ते जीवपातित्यिकी, तथा 'अजीवपाडुच्चिया चेव' त्ति- अजीवने आश्रयीने रागद्वेष उत्पन्न थयेल अने तेनाथी थयेल जे कर्मबंध ते अजीवप्रातित्यिकी क्रिया. (२३). अतिदेशथी बीजी पण चे प्रकारे देखाडता थकां कहे छे - 'एवं सामंतोवणिवाइयावि'न्ति-कोई पण मनुष्यनो बळद रूपाळो छे, तेने मनुष्य जेम जेम विशेष जुवे छे अने प्रशंसा करे छेमतेम तेनो मालीक आनंद पामे छे, ते (राग)धी थयेली क्रिया ते जीवसामंतोपनिपातिकी, तथा रथ वगेरेने त्रिषे (स्थादिने जोनार प्रशंसे तेथी) हर्ष थवाथी थयेली जे क्रिया ते अजीवसामंतोपनिपातिकी क्रिया. (२४) वळी बीजी रीते वे क्रिया कहे छे- 'साहथिया चेव'ति, - पोताना हाथवडे थयेली जे क्रिया ते स्वहस्तिकी, तथा 'नेसस्थिया चेव त्ति-फेंक, तमां थयेली जे किया ते अथवा फेंक ज ते नैसृष्टिकी अर्थात् फेंकनारनो जे कर्मबंध अथवा स्वभाव ज क्रिया. ( २५ ) तेमां पहेली वे प्रकारे
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२ स्थानका
ध्ययने
क्रियाणां
द्वैविध्यम्
५८-६० सूत्राणि
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'जीवसाहत्थिया चेव'नि-पोताना हाथमां ग्रहण करेल जीववडे जीवने जे मारे छे ते जीवस्वाहस्तिकी, तथा 'अजीवसाहत्थिया चेव' त्ति- पोताना हाथमां ग्रहण करेल खड्गादि अजीववडे जे जीवने मारे छे ते अजीवस्वाहस्तिका क्रिया, अथवा पोताना हाथवडे जीवने ताडन करनारनी जे क्रिया ते जीवस्वाहस्तिकी अने पोताना हाथवडे अजीवने ताडन करनारनी जे क्रिया ते अजीवस्वास्तिकी क्रिया. (२६). नैसृष्टिकी पण जीवाजीव भेदवडे अतिदेश करतां थका कहे छे' एवं नेसत्थिया चेव'तिते आ प्रमाणे - राजा बगेरेना हुकमधी पाणीनुं यंत्रादिवडे जे काढवुं ते जीवनैसृष्टिकी, अने तीर वगेरेनुं धनुष्यादिथी जे छोडवुं ते अजीवनैसृष्टिकी क्रिया, अथवा गुरुआदिकने जीव-शिष्य अथवा पुत्र देनारनी जे क्रिया ते जीवनेसृष्टिकी, अने एषणीय (शुद्ध) भक्तपानादि अजीव पदार्थने देनारनी जे क्रिया ते अजीवनैसृष्टिकी. ( २७ ). वळी बीजी रीते वे क्रिया' आणवणिया चेव'त्ति - आज्ञापन - आदेश करनारनी जे क्रिया ते अथवा आज्ञानुं आप ते आज्ञापनी, तेज आज्ञापनिका, तेनाथी थयेल कर्मबंध अथवा हुकम अथवा आगमन - मंगावनुं ते आनायनी क्रिया तथा 'वेयारणिया चेव त्तिविदारकुं, विचारखुं अथवा वितारण-ठगनुं ते, स्वार्थिक ( स्वार्थवाळा ) प्रत्ययना ग्रहणथी वैदारिणी विगेरे कहेवु. ( २८ ). आपण बे प्रकारे जीव, अजीवना भेदथी छे, ते आ प्रमाणे - जीवने हुकम करनारनी अथवा बीजा पाथी मंगावनारनी जे क्रिया ते जीवआज्ञापनी अथवा जीवआनायनी, एवी रीते अजीव संबंधी पण अजीवआज्ञापनी अथवा अजीवआनायनी क्रिया. ( २९ ) तथा 'वेयारणिय' ति-जीव अथवा अजीवने फाडे छे, अथवा असमानं जुदी जुदी अनेक वातो बोलनाराओ मां १. प्रत्यंतरमां असमान भागपुया विक्रीणाति द्वैभाषिको वि०' अथवा 'असमानभावेषु ' पाठ छे.
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श्रीस्थानाङ्गस्त्र सानुवाद
स्थानकाध्ययने क्रियाणां
द्वैविध्यम्
५८-६० सूत्राणि
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जीव के अजीव वस्तुने बहेंचतो छतो द्वैभाषिक जे विचार करे हे ते विचारणी. 'परियच्छावेइत्ति भणितं होति अथवा जीव(पुरुष)ने ठगे छ एम कहे, ते जीववैतारणी, गुण न होवा छतां असत् गुणोवडे तुं आना जेबो गुणवान छो अथवा तेना जेवो गुणवान छो एवी रीते पुरुषादिकने ठगवानी बुद्धिवडे अथवा अजीव वस्तु, ते अन्य वस्तु समान न होवा छतां तेना जेवी कहे ते अजीववैतारणी. आ बधुं आतदेशवडे कहे छ:-'जहेव नेसत्थिय'त्ति-जेम नैसृष्टिकी कही छे तेम जाणवी. (३०). बीजी रीते वे कहे छे:-'अणाभोगवत्तिया चेव'त्ति-अनाभोग (अज्ञान) छे निमित्त जे क्रियाना ते अनाभोगप्रत्यया तथा 'अणवकंखवत्तिया चेव'त्ति-अनवकांक्षा-पोताना शरीरादिनी अपेक्षा नहिं करवापणुं ते छे निमित्त जे क्रियान ते अनवकांक्षाप्रत्यया. (३१), पेली बे प्रकारे छ-' अणाउत्ताआइयणया चेव'त्ति-अनायुक्त-उपयोग रहित जीवन जे वस्त्रादि विषयमां ग्रहणपणुं ते अनायुक्तआदानता' तथा अणाउत्तापमजणया चेव'त्ति, उपयोग रहित जीवनी जे पात्रा वगेरे विषयवाळी प्रमार्जनता ते अनायुक्तप्रमार्जनता. अहिं आदान वगेरे शब्दोमां 'ता' स्वार्थिक प्रत्यय प्राकृतशैलीथी अथवा भावनी विवक्षावडे करेल छे. (३२). बीजी पण वे प्रकारे-'आयसरीरे' त्यादि-तेमा पोताना शरीरने नाशकारक कार्योने करनारनी जे आत्मशरीरनी अपेक्षारहित छे निमित्त जे क्रियान ते आत्मशरीरानवकांक्षाप्रत्यया, तेम बीजाना शरीरने नाशकारक कार्योंने करनारनी जे क्रिया ते परशरीरानवकांक्षाप्रत्यया. (३३), 'दो किरिये' त्यादि-त्रण सूत्रो सुगम छे. विशेष कहे छे-प्रेम (राग) ते माया अने लोभस्वरूप अने ट्रेप जे क्रोध अने मानस्वरूप. जे प्रेम निमित्तवाळी ते प्रेमप्रत्यया अने जे द्वेष निमित्तवाळी ते द्वेषप्रत्यया क्रिया जाणवी. ( ३४ थी ३६), अहिं सुगम होवाथी केटलीक व्याख्या करवामां नथी आवी. |
|||७१॥
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( सू० ६० ). आ क्रियाओ प्रायः गर्हणा करवा योग्य छे, माटे हवे गर्हा कहे छे:
दुविहा गरिहा पं० तं०-मणसा वेगे गरहति । वयसा वेगे गरहति । अहवा गरहा
दुविहा पं० तं० - दहिं वेगे अद्धं गरहति, रहस्सं वेगे अद्धं गरहति । सू० ६१
मूलार्थ:- प्रकारे गही कहेली छे, ते आ प्रमाणे- केटलाएक मनवडे ज गह करे छे अने केटलाएक वचनवडे ग करे छे. अथवा ग चे प्रकारे कहेली छे-केटलाएक लांबा काळ सुधी गह करे छे अने केटलाएक अल्प काल पर्यंत गर्हा करे छे. ( सू० ६१ )
टीकार्थ :- ' दुविहा गरहे' त्यादि, विधान करवं ते विधा- वे प्रकार छे जेणीना ते द्विविधा गर्हतुं ते गर्हा - खराब आचरणनी निंदा, ते स्व-परना विषयवडे वे प्रकारे छे, ते पण मिथ्यादृष्टि जीवने अने उपयोग रहित सम्यग्दृष्टि जीवने द्रव्य होय छे. अर्थात् ते अप्रधानगर्हा छे कारण के द्रव्य शब्दनो अर्थ अप्रधान छे. कयुं छे
अप्पान्नेऽवि इहं, कत्थइ दिट्ठो हु दव्वसहोत्ति | अंगारमद्दओ जह, दव्वायरिओ सयाऽभव्व ॥ १ अप्रधानपणाना अर्थमां पण द्रव्यशब्द कोईक स्थले देखाय छे, कारण के द्रव्य शब्द अनेक अर्थवाळो छे. जेम अंगारमर्दक नामना आचार्य सदा अभव्य छे तो पण अप्रधानपणाथी द्रव्याचार्य कहेवाय छे. उपयोगयुक्त सम्यग्दृष्टि जीवने भावगर्हा छे. चार प्रकारनी गर्दा छे, अथवा गर्हणीय भेदधी अनेक प्रकारे छे. ते गर्दा अहिं करणनी अपेक्षाए वे प्रकारे कहेली छे, ते कहे
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र स्थानका
ध्ययने
श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥७२॥
उद्देशः१ ___ गर्दा
द्वैविध्यम्
६१ सत्रम्
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छे-'मणसा वेगे गरहई त्ति-चित्तवडे, अहिं 'वा' शब्द विकल्पार्थ अथवा अवधारणार्थ(निश्चयार्थ)मा छे तेथी मनवडे
ज गही करे छे पण वाणीवडे नहि. कायोत्सर्गमा रहेल, दुर्मुख अने सुमुख नामवाळा ये वे माणसवडे निंदायेल अने न्तुति करायेल, तेओना वचनोथी जणायेल छ सामंतोवडे पराभव पामेल पाताना पुत्र अने राज्यनी हकीकत जेण ते, मनवडे आरंभेल छ पुत्रना पराभवने करनारा सामंतो साथे संग्राम जेणे ते, मनथी कल्पेल शस्त्रोनो क्षय थये छते पोताना माथानो टोप लेवा माटे ऊंचे करायेल हाथथी स्पर्शल छे लोच करायेल मस्तक जेणे ते, मस्तकनो स्पर्श करवाथी उत्पन्न थयेल पश्चात्तापरूप अग्निनी ज्वाळाना समूहवडे अत्यंत वाळेल छे सर्व कर्मरूप इंधन जेणे एवा राजर्षि प्रसन्नचंद्रनी जेम कोई पण एक साधु निंदित कार्यनी निंदा करे छे तेम वचनथी पण अथवा वाणीवडे ज, परंतु मनथी नहि. मनुष्योनुं मनरंजन करवा माटे दुष्ट आचरण वगेरेना कहेवाथी गर्हामा प्रवर्तल अंगारमर्दक वगेरे साधुनी जेम प्रायः कोई अन्य गर्दा करे छे, पण भावथी मनवडे गर्दा न करे. अथवा 'मणसा वेगे'त्ति-अहिं 'अपि' शब्द ते संभावनाना अर्थमां छे, ते(अपि शब्द) वडे नीचे प्रमाणे अर्थ संभवे छे. एक व्यक्ति मनवडे पण गहाँ करें छे अने बीजो वाणीथी गर्दा करे छ, अथवा एक मात्र वाणीवडे नहि परन्तु मनवडे पण गर्दा करे छे, तेम केवल मनवडे नहि, वचनवडे पण गर्दा करे छे, ते ज व्यक्ति गर्दा करे छ अर्थात् बन्ने प्रकारे पण एक ज
व्यक्ति गर्दा करे छे, ए तात्पर्य छे. बीजी रीते गर्हार्नु द्विपणु कहे छ:-'अहवेत्यादि-पूर्वोक्त वे प्रकारनी अपेक्षावडे * पूर्वनी माफक बीजी के प्रकारे गर्दा कहेली छ. अपि शब्द संभावना अर्थमां छे तेथी लांबा काल सुधी पण कोई व्यक्ति यावत् | जीवपर्यंत गर्दा करवा योग्य( पाप.)नी गर्दा (निंदा ) करे छे. अथवा दीर्घ अने ह्रस्वनुं आपेक्षिकपणुं होवाथी बीजी रीते
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।। ७२॥
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विवक्षावडे दीर्घपणु भाववा योग्य छे. एवी रीते अल्प काल पर्यंत पण कोईएक व्यक्ति गर्दा करे छ, अथवा यावत् दीर्घ काल सुधी ज, तथा इस्त्र (अल्प) काल पर्यंत ज यावत् (एक व्यक्ति गर्दा करे छे ) कारण के अपि शब्द निश्चय अर्थमां छे. अथवा एक ज व्यक्ति के प्रकारे कालभेदवडे भावभेदथी गर्दी करे छे अथवा घणा के थोडा काल पर्यंत ज गर्दा करे छे. (सू०६१). निंदा करवा योग्य भूतकाल संबंधी कोने विषे गर्दा थाय छे अने भविष्यकालमां तो प्रत्याख्यान थाय छे. कयुं छे के-'अईयं निंदामि पडुप्पन्नं संवरेमि अणागयं पच्चक्खामी'ति-अतीतकाल संबंधी पापने हुँ निंदु छु, वर्तमानकालीन पापने संबकै छु ( अटकावू छु ) अने अनागतकालीन पापना पच्चक्खाण करुं छु. आ कारणथी हवे प्रत्याख्यान कहे छे
दुविहे पञ्चक्खाणे पं० २०-मणसा वेगे पञ्चक्खाति वयसा वेगे पच्चक्खाति, अहवा पच्चक्खाणे दुविहे पं० २०-दीहं वेगे अद्धं पच्चक्खाति रहस्सं वेगे अद्धं पच्चक्खाति । सू० ६२, दोहिं ठाणेहिं अणगारे संपन्ने अणादीयं अणवयग्गं दीहमद्धं
चाउरंतसंसारकंतारं वीतिवतेज्जा, तंजहा-विजाए चेव चरणेण चेव । सु० ६३
मूलार्थ:-चे प्रकारे पच्चक्खाण कहेल छे, ते आ प्रमाणे-एक मनवडे पण पच्चक्खाण करे छे, एक वचनवडे पण पच्चक्खाण * करे छे. अथवा पच्चक्खाण बे प्रकारे कहेल छे, ते आ प्रमाणे-एक दीर्घ (लांबा) काल पर्यंत पण पञ्चक्खाण करे छे, एक अल्प
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भीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥७३॥
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काल पर्यंत पण पच्चक्खाण करे छ (सू० ६२), बे स्थानक( गुण )वडे युक्त अनगार अनादिकालावशिष्ट, अंत रहित दीर्घकाल X२ स्थानकानरकादि चार गतिरूप संसार अरण्य(जंगल)ने उल्लंघन करे ते आ प्रमाणे-विद्या( ज्ञान )वडे अने चारित्रवडे ज. (सू० ६३). ध्ययने ___टीकार्थः-'दुविहे पञ्चक्खाणे' त्यादि, प्रमादना प्रतिकूलपणाए (प्रमाद छोडीने ) मर्यादावडे ख्यान-कथन करवू उद्देशः १ ते प्रत्याख्यान, विधि अने निषेधस्वरूप प्रतिज्ञा इत्यर्थ. द्रव्यथी प्रत्याख्यान मिथ्यादृष्टिने अने करेल छे चातुर्मासमां मांसजें
४प्रत्याख्यान| पच्चखाण जेणीए तेवी अने पारणाने दिवसे मांसना दानमा प्रवर्तली राजपुत्रीनी जेम उपयोग रहित सम्यग्दृष्टि जीवने होय छे,
राहत सम्यग्दृष्टि जावन होय छ, स्य मोक्षभावप्रत्याख्यान उपयोग सहित सम्यग्दृष्टि जीवने होय छे. ते प्रत्याख्यान देशथी अने सर्वथी तथा मूलगुण अने उत्तरगुणना भेदथी अनेक प्रकारे छे, तो पण करणभेदथी बे प्रकारे कहे छे-मनवडे पण एक (व्यक्ति) प्रत्याख्यान करे छे अर्थात् वध वगेरेनो
हेतोश्च निवृत्तिविषय (त्याग) करे छे. शेष-बाकी पूर्वनी जेम जाणवू. प्रकारांतरवडे पण प्रत्याख्यान कहे छे–'अहवे' त्यादि संगम छे. (मू०
द्वैविध्यम् ६२) ज्ञानपूर्वक प्रत्याख्यान वगेरे मोक्ष- फल (आपनार) छे आ कारणथी कहे छः-'दोहिं ठाणेहिं' इत्यादि-चे स्थान (गुण )- ६२-६३ युक्त अनगार-(जेने घर नथी ते ) साधु, जेनी आदि नथी ते अनादि, अनवदग्र-सामान्य जीवनी अपेक्षाए जेनो अंत नथी ते, लांबो छे काल जेनो ते दीर्घाद्ध, दीर्घ शब्दमा मकार आगमिक छे, अथवा दीर्घ छे मार्ग जेने विषे ते दीर्घाध्व, चतुरंत-नरकादि गतिना विभागवडे चार भागरूप (अहिं चाउरंत शब्दमां दर्घिपणुं प्रकटादिगणना नियमथी छ) एवा भवारण्यने उल्लंघे. ते आ प्रमाणे छे-विद्या( ज्ञान )वडे ज अने चारित्रवडे ज अहिं संसाररूप कांतारनो पार पामवामां ज्ञान अने चारित्रनुं १. दार्घकाल अने अल्पकालना पञ्चक्खाणर्नु स्वरूप गर्हानो जेम जाणवू. २. प्रकटादिभ्यः दीर्घत्वमिति पाणिनिः ।
॥७३॥
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एकी साथै ज-युगपत्वडे कारणपशुं जाणवुं; कारण के ज्ञान अने चारित्रमां एकेकथी ( मात्र ज्ञान के मात्र क्रियाथी) आ लोक संबंधी कार्योai पण अकारणपणुं छे. शंका-ज्ञान अने चरणमां कारणपणाए सामान्य कथन कीधे छते पण ज्ञान ज प्रधान छे, क्रिया नहिं; अथवा ज्ञानज एक कारण छे, क्रिया कारण नथी. जे कारणथी ज्ञाननुं फळ ज क्रिया छे. वळी वादी फरी कहे छे-जेम ज्ञाननुं फळ क्रिया तेम बीजुं पण क्रिया पछी प्राप्त थाय छे. बोध कालमां पण जे ज्ञेयनुं निर्णयात्मक अने रागादिनां विजयरूप आ सर्वनुं सामान्यपणे ज्ञान कारण छे. जेम माटी घडानुं कारण थती छती घट कार्यना वच्चमां थनारा पिंडशिवक-स्थास - कोश अने कुशूल वगेरे पर्यायोना पण कारणपणाने पामे छे, तेम अहिं ज्ञान, संसारना अभाव ( मोक्ष ) नं अने मोक्ष थवा पहेला तत्त्वनुं ज्ञान अने योग, समाधि विगेरेनुं पण कारण थाय छे. वळी स्मरण मात्रथी पवित्र थयेल विषनुं भक्षण, आकाशगमन वगेरे जे अनेकविध फळ साक्षात् प्राप्त थाय छे ते पण क्रियाशून्य ( रहित ) ज्ञाननुं फळ छे. जेम आ प्रत्यक्ष फळ देखाय छे ते अदृष्ट-परोक्ष फळ पण अनुमान कराय छे. भाष्यकारे कं छे
आह पहाणं नाणं, न चरितं नाणमेव वा सुद्धं । कारणमिह न उ किरिया, साऽवि हु नाणत्फलं जम्हा ॥२॥ जह सा नाणस्स फलं, तह सेसंपि तह बोहकालेवि । नेयपरिच्छेयमयं, रागादिविणिग्गहो जो य ॥३॥ जं च मणोचिंतियमंतपूयविसभक्खणादि बहुभेयं । फलमिह तं पञ्च्चक्खं, किरियारहियस्स नाणस्स ॥४॥
आ ण गाथानो भावार्थ उपर आवी गयेल छे. समाधान-जे पहेलां तमे कघुं के "ज्ञान ज प्रधान कारण छे, अथवा
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श्रीस्था
नाङ्गसूत्र
सानुवाद ॥ ७४ ॥
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ज्ञान ज एक कारण छे; क्रिया कारण नथी, जेथी ज्ञाननुं फळ ज क्रिया छे" तेम कहेवुं अयुक्त छे; कारण के जे ज्ञानथी ज क्रिया थाय छे ते क्रियाथी इष्ट फळनी प्राप्ति थाय छे, आ कारणथी ज बने (ज्ञान-क्रिया) पण अमे इच्छीए छीए, जो एम नहि मानो तो ज्ञाननुं फळ क्रिया (जे तमे कहेल ) छे ते क्रियानी कल्पना निष्फळ थशे अने क्रिया रहित ज्ञान ज कार्यने सिद्ध करे, परंतु फक्त ज्ञान कार्यनुं साधक थतुं नथी, कारण के तमोए क्रियानो स्वीकार करेल छे. ज्ञान अने क्रियाना स्वीकारमां ज्ञान परंपराए उपकार करे छे अने क्रिया अनंतर उपकार करे छे. क्रिया अनंतर उपकार करे छे तेथी क्रिया प्रधानतर कारण योग्य छे, पण अप्रधान अने अकारण नथी, अने बन्ने एकी साथे उपकार करे छे तेथी बन्ने प्रधान कारण कहेवा योग्य छे. तथा क्रियानुं अप्रधानपणुं अने अकारणपणुं कहेवुं योग्य नथी. वळी जे वादी क्रियानुं अकारणपणुं स्वीकारे छे ते वादी प्रत्ये आ विशेषपणे कहेवाय छे-क्रिया ज साक्षात् कार्यनी करनारी होवाथी अंत्य कारण छे, ज्ञान तो परंपराए उपकारी होवाथी अनंत्य कारण छे. आथी अहिं कयो हेतु छे जे अंत्य कारण छोडीने तमे अनंत्य कारणने इच्छो छो ? वळी जो ज्ञान-क्रियानुं सहचारीपणुं अंगीकार करो छो तो आ कारणथी पण ज्ञान ज कारण छे, क्रिया नथी आ ( कथन ) मां हेतु नथी. वळी जे तमे कहुँ के-बोधकालेऽपीत्यादि-तेमां ज्ञेयनुं जाणवुं ते ज्ञान ज, अने जे रागादिनो उपशम ते संयम क्रिया ज छे, अने ते ज्ञानरूप कारणथी थाय एम अमो पण स्वीकारीए छीए, परंतु भवना वियोगना कथनरूप ज्ञान-क्रियाना फळमां आ नीचेनो विचार (विवाद ) प्राप्त थाय छे के भववियोगरूप फल ते शुं ज्ञाननुं ? क्रियानुं ? अथवा बन्नेनुं छे ? तेमां ज्ञाननुं ज फल नथी, कारण के ज्ञाननुं फल क्रिया छे. बळी केवल क्रियानुं पण फळ नथी; कारण के गांडानी क्रिया माफक ते क्रिया मात्र छे. आ कारणथी छेवटना
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२स्थानकाध्ययने
उद्देशः १
ज्ञानक्रिया
साध्यो
मोक्षः
६२-६३
सूत्रे
॥ ७४ ॥
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परिणामथी (बीजा पक्षथी ) ज्ञान सहित क्रियानुंज मोक्षफल छ एम कहेवू योग्य छे. जे तमोए कहेलु के-मंत्रादिना स्मरणात्मक ज्ञानमात्रथी साक्षात् फल मले छे ते विषयमा अमे कहीए छीए-मंत्रोने विषे पण विशेष जाप वगेरे क्रियानो साधनभाव छ अर्थात् मंत्रनी साधना करवी ते क्रिया ज छे, पण मंत्रना ज्ञाननो साधनभाव नथी. अहिं कोइ एम कहे के-आ कथन प्रत्यक्ष विरुद्ध छ कारण के कोइक स्थले मंत्रना चिंतनमात्रना ज्ञानथी इष्ट फल जोवाय छे एम जो तमे कहो, तो अहिं अमे कहीए छीए ते इष्टफल मंत्रना ज्ञानमात्रथी थयेलुं नथी, कारण के ते चिंतनमात्र ज्ञानने क्रिया रहितपणुं छे. अहिं जे ( वस्तु ) क्रिया रहित होय ते आकाशपुष्पनी जेम कार्यने उत्पन्न करनार जोवाती नथी. जे कार्यने उत्पन्न करनार छ ते कुंभारनी जेम अक्रिय होय नहि (क्रिया सहित होय छे), आ कथन प्रत्यक्ष विरुद्ध नथी, केमके ज्ञान साक्षात्फलने नजीक लावनारुं देखातुं नथी. फरी वादी शंका करे छे के-जो मंत्रना ज्ञानवडे थयेल इष्टफळ नथी तो कोनाथी मंत्र- फल थाय छे? आ संबंधमा अमे कहीए छीए-मंत्रजापना समयमा मंत्रना संकेत प्रमाणे मंत्राधीन देवोथी इष्ट फलनी प्राप्ति थाय छे. देवोमां सक्रियपणुं होबाथी क्रियावडे थयेलु इष्टफल छे, परंतु केवल मंत्रना ज्ञानवडे ते साध्य नथी. ( भाष्यकार ) कहे छ के
तो तं कत्तो? [आचार्यः ] भण्णति, तस्समयनिबद्धदेवओवहियं ।
किरियाफलं चिय जओ, न मंतणाणोवओगस्स ॥५॥ आ गाथानो भावार्थ उपर कहेल छे.
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श्रीस्थानान
सानुवाद ॥ ७५ ॥
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शंका — सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान अने सम्यक्चारित्र ए रत्नत्रय मोक्षनो मार्ग छे, एम (शास्त्रमां ) संभळाय छे. अहिं तो ज्ञान ने क्रियावडे मोक्षमार्ग कयो छे तो विरोध केम न थाय ? वे स्थानकना अनुरोधथी आवी रीते कथन कर्ये छते पण विरोध नथी एम कहेवुं पण योग्य नथी; कारण के ' विजाए चेव चरणेण चेव ' आ निर्देश ( कथन ) निश्चयगर्भित छे. समाधान -विद्या- ज्ञानना ग्रहणवडे दर्शन- सम्यक्त्व पण अविरुद्ध जाणवुं, कारण के ज्ञाननो भेद होवाथी सम्यग्दर्शननुं पण ग्रहण समज. जेवी रीते अवबोधात्मक ज्ञान छते मतिने आकाररहितपणुं होवाथी अवग्रह अने इहा ए बन्ने दर्शन छे, तथा मतिने साकारपणुं होवाथी अपाय अने धारणा ए बन्नेने ज्ञान कहेल छे. एवी रीते व्यापारवाळं ज्ञान छते जे अपायनो रुचिरूप अंश सम्यग्दर्शन छे ते अवगम-ज्ञाननो बोधरूप अंश ते अवाय ज छे माटे विरोध नथी. सूत्रमां अवधारणात्मक ( एव शब्द ) तो ज्ञानदर्शनचारित्र सिवाय भवना व्यवच्छेद ( नाश )नो अन्य कोई उपाय नथी एम बताववा माटे छे. (सू० ६३) ज्ञान अने चारित्रने आत्मा केम प्राप्त नथी करतो, आ हेतुथी ' दो ठाणाइ ' मित्यादि अगियार सूत्रो कहे छेः
दो ठाणाई अपरियाणित्ता आया णो केवलिपन्नत्तं धम्मं लभेज्ज सवणयाए, तं० - आरंभे चैव परिग्गहे व १, दो ठाणाई अपरियादित्ता आया णो केवलं बोधिं बुज्झेज्जा तं० - आरंभे चैव परिग्गहे चेव २, दो ठाणाई अपरियाइत्ता आया नो केवलं मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारिय पव्वज्जा तं० - आरंभे चैव परिग्गहे चैत्र ३, एवं णो केवलं बंभचेरवासमावसेज्जा ४, णो
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२ स्थानका
ध्ययने
उद्देशः १
आरंभपरि
ग्रहात्यागे
न धर्मश्रव
णादिज्ञानान्तं
६४ सूत्रम्
।। ७५ ।।
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केवलेणं संजमेणं संजमेज्जा ५, नो केवलेणं संवरेणं संवरेजा ६, नो केवलमाभिणिबोहियणाणं उप्पाडेजा ७, एवं सुयनाणंद, ओहिनाणं ९, मणपजवनाणं १०, केवलनाणं ११ । सू०६४
मूलार्थः-वे स्थानने ज्ञपरिज्ञाए जाण्या सिवाय अने प्रत्याख्यान परिज्ञाए छोड्या सिवाय आत्मा, केवलीए प्ररूपेल धर्मने श्रवणपणाए (सांभलवावडे) पामे नहिं ते आ प्रमाणे-आरंभ अने परिग्रह छोड्या सिवाय १, वे स्थानने जाण्या सिवाय अने छोड्या सिवाय आत्मा, शुद्ध बोधि( सम्यक्त्व )ने अनुभवे नहिं (पामे नहि ), ते आ-आरंभ ने अने परिग्रहने छोड्या सिवाय २, वे स्थानने जाण्या सिवाय अने छोड्या सिवाय आत्मा, द्रव्यभावथी मुंड थइने गृहथी नीकळीने विशुद्ध प्रत्रज्या दक्षिा]ने पामे नहिं ते आ-आरंभने अने परिग्रहने ३, एवी रीते आरंभ अने परिग्रहने जाण्या सिवाय अने छोड्या सिवाय शुद्ध ब्रह्मचर्यवासमां वसे नहिं ४, ते शुद्ध संयमवडे आत्मानो संयम करे नहिं (आत्माने काबूमा राखे नहिं ) ५, शुद्ध संवरवडे आश्रव द्वारोने संवरे नहिं ६, परिपूर्ण आभिनियोधिक (मति )ज्ञानने उत्पन्न करे नहि ७, एम श्रुतज्ञानने उत्पन्न करे नहिं ८, एम अविधिज्ञानने ९, एम मनःपर्यवज्ञानने १० अने केवलज्ञानने उत्पन्न करे नहिं ११ (सू०६४)
टीकार्थः-बे स्थान-वे वस्तुने ज्ञपरिज्ञावडे जाण्या सिवाय-जो आ वे आरंभ अने परिग्रह अनर्थने माटे छे तो मने आ आरंभ अने परिग्रहवडे सयुं, एवी रीते त्यागवाना सन्मुख द्वारे करी प्रत्याख्यानपरिज्ञावडे पञ्चक्खाण न करीने ब्रह्मदत्त चक्रीनी जम, आरंभ अने परिग्रहथी विरक्त न थयो. 'अपरियाइत्तत्ति' एवो पाठ क्यांक छे त्यां स्वरूपथी ते बेने ग्रहण न
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श्रीस्था
नाङ्गसूत्र
सानुवाद ॥ ७६ ॥
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करीने [ अर्थात् तेनुं स्वरूप न समजीने ] आत्मा, जिनेश्वरकथित धर्मने सांभळवानी इच्छावडे सांभळवानो लाभ प्राप्त करे नहिं. ते आ प्रमाणे- आरंभाः - खेती वगेरेद्वारा पृथ्वी वगेरेना जीवोना उपमर्द्दनरूप आरंभोने अने ' परिग्रहाः ' - धर्मना साधन सिवाय धन, धान्य वगेरे परिग्रहोने, अहिं एकवचन प्रकम ( नियम ) छते पण व्यक्तिनी अपेक्षाए बहुवचन करेल छे. सूत्रमां ' चेव ' शब्द निश्चयात्मक अने समुच्चयार्थमां पोतानी बुद्धिवडे जाणवा ( १ ), केवलां - शुद्ध सम्यक्त्वने अनुभवे, अथवा विभक्तिना परिणामथी शुद्ध बोधिवडे बोध्य - जाणवा योग्य जीवादि वस्तु प्रत्ये श्रद्धा करे ( २ ), द्रव्यथी मस्तकना लोचवडे अने भावथी कषायादिने दूर करवावडे मुंड थईने गृहथी नीकळीने 'केवलां' ए शब्दनो अहिं संबंध होवाथी केवल परिपूर्ण अथवा निर्मल प्रवज्याने पामे ( ३ ), एवी रीते पूर्व जेम जोडेल छे तेम पछीना वाक्यमां ' दो ठाणाइ' इत्यादि वाक्य कहेवुं. ब्रह्मचर्येण - अब्रह्मना विरामवडे वास- रात्रिमां सूनुं, अथवा ब्रह्मचर्यमां वास-वस ते ब्रह्मचर्यवास, तेने करे- सेवे (४), संयमेन - पृथिवीकायिक वगेरेनी रक्षारूप लक्षणवडे आत्मा प्रत्ये संयम करे (५), संवरेण - आश्रवना निरोधरूप लक्षणवडे आश्रवना द्वारोने बंध करे (६), केवलं - परिपूर्ण - पोताना सर्व विषयाने ग्रहण करनार - 'आभिणिबोहिनाणं ' त्ति अर्थने सन्मुख, अविपर्यय होवाथी नियत, अशंसय होवाथी बोध-स्वभावरूप जाणवुं ते अभिनिबोध, ते ज आभि१, अभि=अर्थने सन्मुख, नि=नियत अने बोध = संशय रहित, एने स्वार्थमां इक प्रत्यय लागवाथी आभिनिबोधिक शब्द थाय छे. अहिं प्रत्येक शब्द अर्थ करवायो विपर्यय, अनव्यवसाय ( अनिश्चित अने संशय ) दोषनुं निवारण करेल छे.
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२ स्थानकाध्ययने
उद्देशः १
आरंभपरि
ग्रहात्यागे
न धर्मश्रव
णादिज्ञानान्तं
६४ सूत्रम्
॥ ७६ ॥
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निबोधक. जे आभिनिवोधिकमय ज्ञान, ते इंद्रिय अने अनिंद्रिय ( मन ) निमित्तवालुं छे, अने ओघ - सामान्यथी बघा द्रव्य अने सर्व पर्याय ( पर्यायोना अनंतमा भागना ) विषयबाळु मतिज्ञान उत्पन्न करे, तथा ' एवं ' इत्यादि शब्दवडे उत्तर पदोमा 'नो केवलं उपाडेज ' त्ति जाणवुं (७), 'सूयनाणं' त्ति जे संभळाय छे ते श्रुत-शब्दज छे, ते भावश्रुतनुं कारण होवाथी ज्ञान ते श्रुतज्ञान, ते श्रुत ग्रंथने अनुसरनारुं छे. ओघ -सामान्यथी सर्व द्रव्य अने असर्वपर्यायने विषय करनारुं अक्षरश्रुत वगेरे चाँद भेदवाद्धं श्रुतज्ञान छे (८), तथा 'ओहिनाणं ' ति जेनावडे, जेथी अने जेने विषे मर्यादा कराय हे ते अवधि अथवा अवधीयते-नीचे नीचे विस्तारतुं अने मर्यादावडे जे जणाय छे ते अवधि, ते अवधिज्ञानावरण कर्मना क्षयो
मरूप ज छे; कारण के अवधिज्ञानना उपयोगनो हेतु छे. अथवा अवधान-विषयनुं जाणवं ते अवधि, अवधि एवं ज्ञान ते अवधिज्ञान, ते इंद्रिय अने मननी अपेक्षा रहित आत्माथी रूपी द्रव्यनुं साक्षात् करवुं (९), तथा 'मणपज्जवनाणं ति मनमां अथवा मननुं पर्यत्र-परिच्छेद ते ज ज्ञान जाणवुं अथवा मनना पर्यवो - पर्यायो - अथवा पर्यायो - अवस्थाविशेषो, ते मनःपर्यव वगेरे, तेओनुं' अथवा तेओने विषे जे ज्ञान ते मनः पर्यवज्ञान. एवी रीते वीजा विषयमां पण जाणं. अढीद्वीपरूप समयक्षेत्रमां रहेल संज्ञि पंचेंद्रियोवडे चिंतन कराता मनोद्रव्यने प्रत्यक्ष करनारुं छे (१०), 'केवलनाणं' त्ति केवल - असहाय, मति वगेरे ज्ञाननी अपेक्षा रहित होवाथी एकलुं, अथवा आवरणरूप मलना अभावथी कलंक रहित, अथवा समग्र ज्ञानावरणादिना अभावथी प्रथमपणाए संपूर्ण उत्पत्ति होवाथी सकल- संपूर्ण छे, अथवा तेना जेवुं बीजुं कोई न होवाथी असाधारण छे
१. मनोवगणाने सर्वथा प्रकारे जाणे अने मनमां जे चितन करे तेने जाणे.
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श्रीस्था
नाङ्गसूत्र
सानुवाद ॥ ७७ ॥
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अथवा ज्ञेयनुं अनंतपणुं होवाथी अनंत छे एवं जे ज्ञान ते केवलज्ञान छे. ( बोधिसूत्रथी केवळज्ञानना सूत्र पर्यंत दश सूत्रमां आरंभ अने परिग्रहने जाण्या सिवाय अने छोड्या सिवाय बोधि वगेरे पामे नहिं ) (११). ( सू० ६४ ) जीव, ज्ञानक्रियारूप धर्म वगेरेने केम प्राप्त करे ते कहे छे:
दो ठाणाई परियादित्ता आया केवलिपन्नत्तं धम्मं लभेज सवणयाए तं०- आरंभे चैव परिग्गहे चव, एवं जाव केवलनाणमुप्पाडेजा । सू० ६५, दोहिं ठाणेहिं आया केवलिपन्नतं धम्मं लभेज सवणयाए तं०-सोच्च च्चैव अभिसमेच्च चैव जाव केवलनाणं उप्पाडेज्जा । सू० ६६
मूलार्थ:-बे स्थानना स्वरूपने सारी रीते समजीने ( उपलक्षणथी छोडीने ) आत्मा केवलीभाषित धर्मने श्रवणपणावडे प्राप्त करे, ते आ प्रमाणे- आरंभने अने परिग्रहने, एवी रीते यावत् केवलज्ञानने उत्पन्न करे. ( सू० ६५ ) वे स्थाने आत्मा, केवलीप्रज्ञप्त धर्मने श्रवणभाववडे पामे ते आ प्रमाणे:- सांभळीने अने जाणीने. एवी रीते यावत् केवलज्ञानने उत्पन्न करे (सु०६६)
टीकार्थ :- दो ठाणा इत्यादि अग्यार सूत्रो सुगम छे (सू० ६५) वळी धर्मादिना लाभमां बीजा वे कारणोने कहे छेदोहिमित्यादि - सुगम छे. फक्त श्रवणभाववडे- 'सोच चेव' त्ति - प्राकृतपणाथी ज ह्रस्वत्वादि थयेल छे, सांभळीने धर्मादिनुं ज स्वीकारबुं थाय छे, 'अभिसमेच' त्ति सारी रीते जाणीने धर्मना उपादेयपणाने जाणे. कछु छे के - "मनुष्य सद्धर्मना श्रवणी ज पाप रहित, तत्रज्ञ, महासस्य अने उत्कृष्ट वैराग्यने प्राप्त थाय छे (१) ते मनुष्य धर्मनी उपादेयताने जाणीने एमां
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२ स्थानका ध्ययने उद्देशः १
| ज्ञानक्रियारूपधर्मप्राप्ती
६५-६६
सूत्रे
॥ ७७ ॥
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भावथी इच्छावालो थयो थको पोतानी शक्तिने विचारीने ग्रहण करवामां दृढताथी प्रवतें है" (२) 'एवं बोहिं बुज्झेज्ञेत्यादि, यावत् केवलनाणं उप्पाडेज' त्ति-एवी रीते बोधिने पामे इत्यादि सूत्रथी यावत् केवलज्ञानने उत्पन्न करे त्यां सुधी जाणी लेवु. (सू०६६) केवलज्ञान कालविशेषमां थाय छे माटे हवे कालविशेषने कहे छे.
दो समाओ पन्नत्ताओ, तं० - ओसप्पिणी समा चेत्र उसप्पिणी समा चेव । सू० ६७, दुविहे उम्माए पं० तं० - जक्खावेसे चेव मोहणिज्जस्स चेव कम्मस्स उदएणं, तत्थ णं जे से जक्खावेसे से णं सुहवेयतराए चेव सुहविमोयतराए चेव, तत्थ णं जे से मोहणिजस्स कम्मस्स उदएणं सेणं दुहवेयतराए चैव दुहविमोययराए चैव । सू० ६८, दो दंडा पं० तं० - अट्ठादंडे चेव अणट्ठादंडे चेव, नेरइयाणं दो दंडा पं० तं० अट्ठादंडे य अणद्वादंडे य, एवं चउवीसा दंडओ जाव वेमाणियाणं । सू० ६९
मूलार्थ:-बे समा- कालविशेष कहेल छे, ते आ प्रमाणे- अवसर्पिणी-उतरतो काल अने उत्सर्पिणी - चढतो काल (०६७). प्रकारे उन्माद ( लछा ) कहेल छे, ते आ प्रमाणे - यक्षावेश ( देवना आवेशरूप ) अने मोहनीय कर्मना उदयवडे थयेल उन्माद, तेमां जे यक्षावेश छे ते सुखबडे भोगवी शकाय अने सुखवडे तजी शकाय, अने जे उन्माद मोहनीय कर्मना उदयवडे छे ते दुःखे भोगवी शकाय अने दुःखे दूर करी शकाय (सू०६८) वे दंड - प्राणातिपातादि कहेल छे, ते आ प्रमाणे- अर्थ -
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥ ७८॥
दंड अने अनर्थदंड. नैरयिकोने बे दंड कहेल छे, ते आ प्रमाणे-अर्थदंड अने अनर्थदंड, एवी रीते चोवीश दंडकमां यावत्
वैमानिकोने बे दंड कहेल छे. (मू० ६९) | टीकार्थः-समा-कालविशेष. बाकी- सुगम छे (सू० ६७). केवळज्ञान, मोहनीयकर्मथी उत्पन्न थयेल उन्मादना क्षयथी थाय छे. आ कारणथी सामान्यपणे उन्मादनुं स्वरूप कहे छे-'दुविहे उम्माणे ' इत्यादि, उन्माद-ग्रह (ग्रहायेल) अर्थात् बुद्धिनुं विपरीतपणुं. यक्षावेशः-शरीरमां देवनुं प्रवेशपणुं, तेथी थयेल उन्माद ते यक्षावेश एक छे अने दर्शनमोहनीय वगेरे कर्मना उदयथी जे थयेल ते बीजो उन्माद. ते बेमा जे यक्षावेशवडे थाय छे ते बहु सुखपूर्वक वेदी शकाय छे, अर्थात् मोहबडे उत्पन्न थयेल उन्मादनी अपेक्षाए घणो ज ओछो अनुभवी शकाय छे, कारण के यक्षावेशने अनेकांतिक अने अनात्यंतिक भ्रमपणुं होय छे. वळी जे बहु सुखे दूर करी शकाय छे तेज सुखविमोच्यतरक छे, कारण के यक्षावेश मंत्र । औषधि अने यंत्रादिवडे साध्य छे. अथवा अत्यंत सुखवडे दर करवा योग्य, तथा जे यक्षावेश प्राणीने अत्यंत सुखवडे ज छोडे छे ते सुखविमोचतरक. बीजो मोहथी थयेल उन्माद तो यक्षावेशथी विपरीत छे, कारण के ऐकांतिक अने आत्यंतिक भ्रम स्वभावपणाए अत्यंत अयोग्य प्रवृत्तिना हेतुपणाए अनंतभवर्नु कारण छ. वळी बीजा अंतर-पेटा कारणना उत्पन्न थवाने लीधे मंत्रादिवडे असाध्य छे, पण कर्मना क्षयोपशमादिवडे ज साध्यपणुं छे. आ कारणथी ज कहेलुं छे:-दुहवेय
१. यक्षावेश थ येल व्यक्ति कोइ बग्वने शुद्विमा पण हेोय छे नेथी डाह्या माणस प्रमाणे प्रवृत्ति करे छे.
२ स्थानका
ध्ययन उद्देशः१
समाउन्माददण्डा: ६७-६९ सूत्राणि
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तराए चेव दुहविमोयतराए चेव 'त्ति-आ मोहावेश अतिशय दुःखपूर्वक दवा योग्य अने दुःखपूर्वक मूकवा योग्य छे. (मू०६८) उन्मादथी प्राणी प्राणातिपातादिरूप दंडमां प्रवते छ अथवा दंडनु पात्र बने छे. आ कारणथी दंडनुं निरूपण करे छे:-'दो दंडे' इत्यादि, दंडः-प्राणातिपात वगेरे, ते अर्थ माटे-इंद्रियादिना प्रयोजन माटे जे कराय छे ते अर्थदंड, प्रयोजन विना जे हिंसादि कराय ते अनर्थदंड. उपरोक्त दंड सर्व जीवोने विषे चोवीश दंडकवडे निरूपण करे छ:-'णेरयाणमि' त्यादि, 'एवमि 'ति-नारकनी माफक अर्थदंड अने अनर्थदंडना कथनवडे चोवीश दंडक जाणी लेवा. विशेष कहे छे-नारकने पोताना शरीरनी रक्षा माटे बीजाने मारवारूप अर्थदडं अने विशेष द्वेष मात्रथी हणवारूप अनर्थदंड होय, पृथिवीकायिक वगेरेने तो अनाभोग-भान वगर पण आहारना ग्रहण करवामां जीववधना सद्भावथी अर्थदंड अने बीजी रीते (आहार ग्रहण सिवाय ) अनर्थदंड होय अथवा बने दंड पण भवांतरमा अर्थदंडादिनी परिणति( परिणाम )थी होय छे; (सू०६९) पण सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रयीथी विशिष्ट जीवोने ज दंड नथी. आ कारणथी रत्नत्रयने | निरूपण करवा इच्छता सूत्रकार सामान्यपणे प्रथम दर्शननुं निरूपण करे छे
दुविहे दंसणे पन्नत्ते तं०-सम्मइंसणे चेव मिच्छादंसणे चेव १. सम्मइंसणे दुवि पं० २०-णिसग्गसम्मदंसणे चेव अभिगमसम्मइंसणे चेव २, णिसग्गसम्मइंसणे दुविहे पं० २०-पडिवाई चेव अपडिवाई चेव ३, अभिगमसम्मदंसणे दुविहे पं० त०-पडिवाई
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥ ७९ ॥
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४२ स्थानकाचेव अपडिवाई चेव ४. मिच्छादंसणे दुविहे पं० २०-आभिग्गहियामिच्छादसणे चेव अणभिगहियमिच्छादंसणे चेव ५, अभिग्गहियमिच्छादंसणे दुविहे पं०
ध्ययने तं०
उद्देशः१ सपजवसिते चेव अपजवासिते चेव ६, एवमणभिगहियमिच्छादसणेऽवि ७। सू० ७०
सम्यग्मिमूलार्थः–चे प्रकारचें दर्शन कहलं छे, ते आ प्रमाणे-सम्यग्दर्शन अने मिथ्यादर्शन (१), सम्यग्दर्शन के प्रकारचें
ध्यादर्शनं कहेलं छे, ते आ प्रमाणे-निसर्ग ( सहज ) सम्यग्दर्शन अने अभिगम (उपदेशथी थयेल ) सम्यग्दर्शन (२), निसर्ग सम्यग्दर्शन के प्रकारनुं छे, ते आ प्रमाणे-प्रतिपाति अने अप्रतिपाति (३), अभिगम सम्यग्दर्शन बे प्रकारनुं छे, ते आ
७० सूत्रम् प्रमाणे-प्रतिपाति अने अप्रतिपाति (४), मिथ्यादर्शन के प्रकारनुं छे, ते आ प्रमाणे-अभिग्रहिक (खोटा मतना आग्रहरूप) | मिथ्यादर्शन अने अनभिग्रहिक ( कोई पण मतना आग्रह रहित अर्थात् सर्वने सरखा गणवारूप) मिथ्यादर्शन (५), अभि-* ग्रहिक मिथ्यादर्शन के प्रकारनुं छे, ते आ प्रमाणे-सपर्यवसित (अंत सहित ) अने अपर्यवसित (अंत रहित ) (६), एवी रीते अनभिग्रहिक मिथ्यादर्शन पण चे प्रकारनुं जाणवू (७). (मू० ७०).
टीकार्थ:-'दुविहे दंसणे इत्यादि सात सूत्रो सुगम छे. विशेष ए के-दर्शन एटले तच्चोने विषे रुचि. सम्यग्-अविपरीत x (जिनदर्शनने अनुसरनारुं ) ते सम्यग्दर्शन तथा मिथ्या-विपरीत दर्शन ते मिथ्यादर्शन (१). 'सम्मइंसणे इत्यादि| निसर्ग-स्वभाव अने अनुपदेश ए शब्दो एक अर्थवाळा छे. ( गुरुना उपदेश सिवाय ते निसर्ग). अभिगम-अधिगम
॥ ७९ ॥
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( गुरुना उपदेशादिरूप ). जे निसर्गथी धयेलं ते निसर्गसम्यग्दर्शन अने अधिगमथी थयेलं ते अधिगमसम्यग्दर्शन. मरुदेवा माताने निसर्गसम्यग्दर्शन अने भरत महाराजाने अभिगमसम्यग्दर्शन जाणवुं ( २ ) ' निसग्गे 'त्यादिपडवाना स्वभाववालुं ते प्रतिपातीसम्यग्दर्शन, ते औपशमिक अने क्षायोपशमिक तेमज अप्रतिपाति ते क्षायिक सम्यक्त्व जाणवुं. तेमां औपशमिकादि त्रणना क्रमवडे लक्षण कहे छे-अहिं उपशमश्रेणिमां प्रवेश करेलाने अनंतानुबंधी चतुष्कनो अने ऋण दर्शनमोहनीयनो उपशम थवाथी औपशमिक सम्यक्त्व होय छे, अथवा जे अनादि मिथ्यादृष्टि, नथी करेल सम्यक्त्व, मिथ्यात्व अने मिश्रनामवाला शुद्ध, अशुद्ध अने अर्द्धविशुद्धरूप मिथ्यात्वपुद्गलना त्रण पुंज जेणे, बळी नथी खपावेल मिथ्यादर्शन जेणे एवो जे जीव, सम्यक्त्वने प्राप्त करे छे तेने औपशमिक सम्यक्त्व होय छे. ते केवी रीते ? अहिं आ जीवने जे मिथ्यादर्शन मोहनीय कर्म उदयमां आवेलं ते अनुभववडे ज नाश पाम्युं, अन्य मिथ्यात्व मोहनीय कर्म मंद परिणामपणाए उदयमां नहिं आवेलं, आ कारणथी अंतर्मुहूर्त्त कालमात्र उपशांत रहे छे. विष्कभितोदय ( उदयनो अटकाव ) | तेटला काल सुधी जीवने औपशमिक सम्यक्त्वनो लाभ होय छे. भाष्यकारे कधुं छे केउवसामगसेढिगयस्स, होइ उवसामिअं तु सम्मत्तं । जो वा अकयतिपुंजो, अखविय मिच्छो लहइ सम्मं॥६ खीणम्मि उदिन्नम्मी, अणुदिज्जंते य सेसमिच्छत्ते । अंतोमुहुत्तकालं, उवसमसम्मं लहइ जीवो ॥ ७ ॥
वे गाथानो भावार्थ कल छे. अंतर्मुहूर्त्त मात्र काल होवाथी ज उपशम समकितनुं प्रतिपातीपणुं छे. अनंतानुबंधी
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श्रीस्था
नाङ्गसूत्र
सानुवाद 1160 11
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कपायनो उदय थये छत उपशम सम्पक्त्वथी पडता जीवने जे सास्वादन सम्यक्त्व कहेवाय छे ते औपशमिकं ज छे. ते सास्वादन पण प्रतिपाती ज छे, कारण के सास्वादननुं जघन्यथी समय मात्र अने उत्कृष्टथी तो छ आवलिका प्रमाण छे. तथा अहिं जे मिथ्यादर्शनना जे दलिक उदयमां आवेल ते क्षय पामेल अने जे उदयमां न आवेल ते उपशांत थयेल. उपशांतस्तंभीभूते उदयविशिष्ट अने मिथ्या स्वभाव दूर करेलुं होय ते अहिं अनुभवमां आवेल एवा क्षयोपशम स्वभावने क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कहेवाय छे. शंका-उपशम समकितमां पण क्षय अने उपशम बन्ने स्वभाव होय छे तेवी ज रीते क्षायोपशमिमां पण बन्ने छे, तो आ वे समकितमां भेद शो ? समाधान आ ज विशेष छे. अहिं क्षायोपशमिकमां जे दलिक (शुद्ध पुंजरूप) वेदाय छे ते दलिक औपशमिकमां वेदाता नथी. बळी अहिं क्षायोपशमिकमां पूर्व जे दलिक उपशांत करेल छेते समय समय प्रत्ये उदयमां आवे छे, वेदायें छे अने क्षय थाय छे. औपशमिकमां तो उदयनो अटकाव मात्र छे. भाष्यकार कहे छे:
मिच्छतं जमुन्नं तं खीणं अणुइयं च उवसंतं । मीसीभावपरिणयं, वेइज्वंतं खओवसमं ॥ ८ ॥
१. उपशमसमकितथी पडता जोवने जे सम्यकृत्वनो आस्वाद होय छे ते उपशमना ज वमन सदृश होवाथो उपशमनो ज भेद छे. २. मिथ्यात्व अने मिनपुंननी अपेक्षाए उदयनो अटकाव ३. सम्यकूत्वपुंजनो अपेक्षाए मिथ्यास्वभाव दूर कराय छे. ४. क्षायोपशमिकमां सम्यकृत्वपुंजना दलिक, विपाकोदयश्री अने मिथ्यात्वदलिक प्रदेशोदयथी वेदाय छे. औपशमिकमां कशुं वेदन थतुं नथी.
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२ स्थानकाध्ययने | उद्देशः १ सम्यग्मि
ध्यादर्शनं
७० सूत्रस्
॥ ८० ॥
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आ गाथाना भावार्थ कल छे. क्षायोपशमिक सम्यक्त्व पण जघन्यथी अंतर्मुहूर्त्त स्थितिवाळु होवाथी अने उत्कृष्टथी छाशठ सागरोपमथी कंईक अधिक स्थितिवाळं होवाथी प्रतिपाती छे. जो के क्षपक ( क्षायिक सम्यक्त्वना प्रारंभकं ) ने समयग्दर्शनना दलिक छेला पुद्गलना अनुभवरूप ( एक समयनी स्थितिवाळं ) वेदक कहेवाय छे, ते (वेदक) पण क्षायोपशमिकनो भेद होवाथी प्रतिपाती ज छे. तथा मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व अने सम्यक्त्वमोहनीयना क्षयथी क्षायिक सम्यक्त्व कहेवाय छे. भाष्यकार कहे छे:
खीणे दंसणमोहे, तित्रिभिवि भवनियाणभूयंभि । निप्पञ्चवायमउलं, सम्मत्तं खाइयं होइ ॥ ९ ॥
अनंतानुबंधी चतुष्कना क्षय क बाद संसारना मूल कारणभूत त्रण प्रकारे पण दर्शनमोह क्षय थये छते अत्यंत विशुद्ध, अतुल्य, क्षायिक सम्यक्त्व होय छे. क्षायिक सम्यकूत्व क्षायिक भावरूप होवाथी अप्रतिपाती ज छे. आ कारणथी ज सिद्धपणामां पण साथै प्रवर्ते छे. (३-४). 'मिच्छादंसणे' इत्यादि - अभिग्रह कुमतनो स्वीकार छे मां ते अभिग्राहक मिथ्यादर्शन जाणवुं. (५). 'अभिग्गहिये' त्यादि - अभिग्रहिक मिथ्यादर्शन, सम्यक्त्वन प्राप्ति थये छते जेनो अथाय छे ते सपर्यवसित, अभव्यने सम्यक्त्वनी प्राप्ति न होवाथी अपर्यवसित- अंतरहित छे. ते मिथ्यात्व मात्र पण अतीत
१. अनंतानुबंधो चतुष्क, मिथ्यात्व अने मिश्रमोहनीयनो क्षय करी, छेल्ले सम्यक्त्वमोहनीयने खपावता एक समय स्थितिक चरम पुद्गलना वेदनरूप अंश ते ज वेदकसम्यक्त्व कहेवाय छे. २. अधिगम सम्यक्त्वना पण प्रतिपाती आदि वे भेद जाणवा
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EXI
श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥८१॥
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(भृत )कालीन नयनी अनुवृत्तिवडे अभिग्रहिक एवो व्यपदेश कराय छे. (६). अनभिग्रहिक मिथ्यादर्शन, भव्य जीवने |सार स्थानकासपर्यवसित अने अभव्यने अपर्यवसित होय छे. आ कारणथी ज कहे छ:-"एवं अणभी'त्यादि (७). दर्शननुं स्वरूप __ध्ययन का, हवे ज्ञान- स्वरूप कहे छे-'तत्र दुविहे नाणे' ए आदि सूत्रथी आरंभीने 'आवस्सयवतिरित्ते दुविहे' इत्यादि उद्देशः१ छल्ला सूत्र पर्यंत २३ सूत्रो कहे छे
प्रत्यक्षदविहे नाणे पं० २०-पच्चक्खे चेव परोक्खे चेव (१), पञ्चक्खे नाणे दुविहे पं० तं०-केवल- | परोक्षज्ञानम नाणे चेव णोकेवलनाणे चेव (२), केवलणाणे दुविहे पं० तं०-भवत्थकेवलनाणे चेव सिद्धकेवल
७१ सूत्रम् णाणे चेव (३), भवत्थकेवलनाणे दुविहे पं० तं०-सजोगिभवत्थकेवलणाणे चेव, अजोगिभवत्थकेवलणाणे चेव (४), सजोगिभवत्थकेवलणाणे दुविहे पं० २०-पढमसमयसजोगिभवत्थकेवलणाणे चेव अपढमसमयसजोगिभवत्थकेवलणाणे चेव (५). अहवा चरिमसमयसजोगिभवत्थकेवलणाणे चेव अचरिमसमयसजोगिभवत्थकेवलनाणे चेव (६), एवं अजोगिभवत्थकेवलनाणेऽवि
१. अभिग्रहिक मिश्यात्व, संज्ञी जीवोने न होय छे, ते कारणथो अभिग्रहिक मिथ्यात्व अपर्यवसित-अंतरहित संभवी शके नहि माटे भूतकालमा थयेल अभिग्रहिक मिथ्यात्वनी प्रतिनी अनुवृत्तिथी अपर्यवसित कहेल छे, अर्थात् अतोत कालनो वर्तमानकालमा उपचार करायेल छे.
॥८१॥
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(७-८), सिद्धकेवलणाणे दुविहे पं० तं० - अणंतरसिद्ध केवलनाणे चेव परंपरसिद्ध केवलनाणे चैत्र (९), अणंतरसिद्धकेवलनाणे दुबिहे पं० तं० - एक्काणंतरसिद्ध केवलणाणे चेव अणेक्कानंतरसिद्धकेवलणाणे चेव (१०), परंपरसिद्ध केवलणाणे दुबिहे पं० तं०- एकपरंपरसिद्ध केवलणाणे चेव अणेक्कपरंपरसिद्ध केवलणाणे चेव (११), णोकेवलणाणे दुविहे पं० तं - ओहिणाणे चेत्र म पजवणाणे चेव (१२), ओहिणाणे दुबिहे पं० तं०-भवपञ्चइए चेत्र खओवसमिए चेव (१३), दोह भवपच्चइए पन्नत्ते, तं०- देवाणं चैव नेरइयाणं चेव (१४), दोहं खओवसमिए पं० तं मणुस्साणं चेव पंचिंदियतिरिखखजोणियाणं चेव (१५), मणपज्जवनाणे दुबिहे पं० तं०-उज्जुमति चेव वि उलमति चेत्र (१६), परोक्खे णाणे दुबिहे पन्नत्ते, तं० - आभिणिवोहियणाणे चेव सुयनाणे चेव (१७), आभिणिबोहियणाणे दुहे पं० तं० - सुयनिस्सिए चेव असुयनिस्सिए चेव (१८), सुयनिस्सिए दुविहे पं० तं०-अत्थोग्गहे चेत्र वंजणोग्गहे चेव (१९), असुयनिस्सितेऽवि एमेव (२०), सुयनाणे दुविहे पं० तं०अंगपविट्टे चेव अंगबाहिरे चेव (२१), अंगबाहिरे दुविहे पं० तं० - आवस्सए चेव आवस्यवइरित्ते
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥८२॥
२ स्थानकाध्ययने उद्देशः१
प्रत्यक्ष
परोक्षज्ञानम् ७१ मूत्रम्
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चेव (२२), आवस्सयवतिरित्ते दुविहे पं० तं०-कालिए चेव उक्कालिए चेव २३ । सू० ७१
मूलार्थः चे प्रकारे ज्ञान कयुं छे, ते आ प्रमाणे-प्रत्यक्ष ज्ञान अने परोक्ष ज्ञान (१), प्रत्यक्ष ज्ञान के प्रकारे कयुं छे, ते आ प्रमाणे-केवलज्ञान अने नोकेवलज्ञान (२), केवलज्ञान वे प्रकारे कयु छ, ते आ प्रमाणे भवस्थकेवलज्ञान अने सिद्धकेवलज्ञान (३), भवस्थकेवलज्ञान के प्रकारे कर्तुं छे, ते आ प्रमाणे-सयोगिभवस्थकेवलज्ञान अने अयोगिभवस्थकेवलज्ञान (४), सयोगिभवस्थकेवलज्ञान के प्रकारे कडु छे, ते आ-प्रथमसमयसयोगिभवस्थकेवलज्ञान अने अप्रथमसमयसयोगीभवस्थकेवलज्ञान (५), अथवा चरमसमयसयोगिभवस्थकेवलज्ञान अने अचरमसमयसयोगिभवस्थकेवलज्ञान (६), एवी रीते अयोगिभवस्थकेवलज्ञानना पण बे भेदो जाणवा (७-८), सिद्धकेवलज्ञान के प्रकारे कर्तुं छे, ते आ प्रमाणे-अनंतर (आंतरा रहित) सिद्धकेवलज्ञान अने परंपरसिद्ध केवलज्ञान (९), अनंतरसिद्धकेवलज्ञान के प्रकारे कह्यु छ, ते आ-एकअनंतरसिद्धकेवलज्ञान अने अनेकअनंतरसिदकेवलज्ञान (१०), परंपरसिद्ध केवलज्ञान वे प्रकारे छे, ते आ-एकपरंपरसिद्धकेवलज्ञान अने अनेकपरंपरसिद्धकेवलज्ञान (११), नोकेवलज्ञान के प्रकारे कयुं छे, ते आ प्रमाणे-अवधिज्ञान अने मनःपर्यवज्ञान (१२), अवधिज्ञान के प्रकारे कर्तुं छे, ते आभवप्रत्ययिक अने क्षायोपशमिक (१३), भवप्रत्ययिकअवधिज्ञान बेने होय छे, ते आ प्रमाणे-देवोने अने नैरयिकोने (१४), क्षायोपशमिक अवधिज्ञान बेने होय छे, ते आ-मनुष्योने अने पंचेंद्रिय तिथंच योनिकोने (१५), मनःपर्यवज्ञान वे प्रकारे कयुं छे, ते आ-ऋजुमति अने विपुलमति (१६), परोक्ष ज्ञान के प्रकारे कर्तुं छे, ते आ प्रमाणे-आभिनियोधिक (मति)ज्ञान अने श्रुतज्ञान (१७), आभिनिबोधिक ज्ञान के प्रकारे कयु छे, ते आ-श्रुतनिश्रित अने अश्रुतनिश्रित (१८), श्रुतनिश्रितमतिज्ञान के प्रकारे
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॥८२॥
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कछे, ते आ-अर्थावग्रह अने व्यंजनावग्रह (१९), अश्रुतनिश्रितमतिज्ञानना पण एवी रीते वे भेद जाणवा (२०), श्रुतज्ञान प्रकारे कछे, ते आ-अंगप्रविष्ट अने अंगबाह्य (२१), अंगबाह्यश्रुत वे प्रकारे कह्युं छे, ते आ-आवश्यक अने आवश्यकव्यतिरिक्त (२२), आवश्यकव्यतिरिक्त श्रुत वे प्रकारे कां छे, ते आ-कालिक अने उत्कालिक श्रुत छे (२३) (सू० ७१)
टीकार्थ :- 'दो नाणे' इत्यादि-सूत्रो सुगम छे. विशेष बोध ते ज्ञान. अश्नाति (त्रिभुवननी ऋद्धि प्रत्ये ) भोगवे छे अथवा ज्ञानवडे पदार्थो प्रत्ये व्याप्ति करे छे, ते कारणथी अक्ष-आत्मा, ते प्रत्ये जे इंद्रिय अने मननी अपेक्षा विना वर्ते छे | ते प्रत्यक्ष ज्ञान अर्थात् अंतर (व्यवधान) रहितपणाए पदार्थने साक्षात् करवामां चतुर छे. भाष्यकार कहे छे:अक्खो जीवो अत्थ-व्वावणभोयणगुणण्णिओ जेण । तं पड़ वट्टइ नाणं, जं पच्चक्खं तामिह तिविहं ॥ १० ॥
प्रत्यक्षज्ञान अवधि वगेरे त्रण प्रकारे छे, शेष उपरोक्त छे. परेभ्यः - बीजाथी जीवनी अपेक्षाए पुद्गलमय होवाथी द्रव्येंद्रिय अने अक्षस्य जीवने जे ज्ञान थाय ते द्वाराए निरुक्तिवशथी परोक्षज्ञान. भाष्यकार कहे छे:अक्स पोग्गलकया, जं दुव्विदियमणा परा तेण । तेहिंतो जं नाणं, परोक्खामिह तमणुमाणं व ॥ ११ ॥
द्रव्येंद्रिय अने मन पुद्गलमय छे तेथी ते आत्माथी भिन्न छे, माटे इंद्रियो अने मनथी थतुं जे मति अने श्रुत ज्ञान ते अहिं अनुमान प्रमाणनी माफक परोक्ष ज्ञान कहेलुं छे. अथवा परै:-इंद्रियो अने मननी साथै उक्षा - जन्यजनकभावरूप छे माटे परोक्ष संबंध छे. अर्थात् जीवने परोक्ष ज्ञान, इंद्रियो अने मनना व्यवधान (अंतर) वडे पदार्थने जणा
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सानुवाद
॥ ८३ ॥
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बनारुं छे, परंतु साक्षात्कार करावनार नथी (१), 'पच्चक्खे' त्यादि, केवलं- एक ज्ञान ते केवलज्ञान, तेथी जुदुं ते नोकेवलज्ञान ते अवधि, मनःपर्यायरूप (२), 'केवले ' त्यादि ' भवत्थके० चेव 'ति संसारमा रहेल केलीनुं जे ज्ञान ते भवस्थकेवलज्ञान एवी रीते सिद्धनुं जे केवलज्ञान ते सिद्ध केवलज्ञान (३), 'भवत्थे' त्यादि, जे काय व्यापारादि योगे सहित छे ते सयोगी. अहिं समासांत प्रकरणथी इन् प्रत्यय थयेल हे सयोगीरूप भवस्थनुं जे केवलज्ञान ते सयोगीभवस्थकेवलज्ञान. नथी योगो जेने ते अयोगी अथवा न योगीति अयोगी-योगवाळो नहि ते अयोगी. शैलेशीकरणमा रहेल, बाकी तेवी ज रीते छे. (४), 'सयोगी त्यादि-सयोगीपणामां प्रथम समय छे जेने ते प्रथमसमय सयोगी, एवीज रीते अप्रथम-बीजा वगेरे समय छे जेने ते अप्रथमसमयसयोगी, शेष पूर्वनी माफक जाणवुं (५), 'अहवे' त्यादि - सयोगी अवस्थानो छेलो समय छे जेनो ते चरमसमयसयोगी, दोष पूर्वनी जेम जाणवुं (६), 'एव' मिति सयोगी सूत्रनी जेम प्रथम, अप्रथम, चरम अने अचरम विशेषण सहित सयोगी सूत्र पण कहेतुं (७–८), 'सिद्धे'त्यादि - वर्तमान समयमा जे अंतर रहित थयेल सिद्ध, ते एक अथवा अनेक होय छे तथा परंपरसिद्ध-वे वगेरे समयो जे सिद्धने थया छे ते परंपरसिद्ध, ते एक अथवा अनेक होय छे. तेओनुं जे केवलज्ञान, ते ते प्रमाणे व्यपदेश कराय छे (९), (१०-११-१२) 'ओहिनाणे' त्यादि 'भवपचइए'त्ति अवधिज्ञानने क्षयोपशमनुं निमित्तपणुं छते पण भवप्रत्यकिना क्षयोपशमने पण भवप्रत्ययरूपना
१. केवलज्ञानमां वास्तविक भेद नथी परंतु स्वामानी अपेक्षाए भेद छे. जेम पाणीमां भेद नथी तथापि पात्र भेदे पाणीनो उपचार थाय छे. * अणंतर सिद्धकेवलनाणेत्यादि १०, ११ अने १२मा सूत्रनो व्याख्या करेल नथी, परंतु मूलसूत्रना अनुवादमां तेनो अर्थ लखेल छे.
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२ स्थान
काध्ययने
उद्देशः १
प्रत्यक्षपरोक्षज्ञानम् ७१ सूत्रम्
॥ ८३ ॥
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प्रधानपणाने लईने, भव ए ज हे निमित्त जेने तेने भवप्रत्यय एवो व्यपदेश कराय छे. ए ज कथननो भाष्यकारे आक्षेप[ दोष]पूर्वक परिहार (निराकरण) करेल हेओहीखओवसमिए,भावे भणितोभवो तहोदइए।तो किह भवपच्चइओ, वो जुत्तोऽवही दोण्हं ? ॥१२॥
अवधिज्ञान, क्षयोपशमभावमां कहेल छे अने भव, उदयिक भावमां कहेल छे, तो देव अने नारक ए बन्नेनुं अवधिज्ञान, भवप्रत्ययिक कहेवू कई रीते योग्य कहेबाय ? आ आक्षेप(दोष)नो अहिं परिहार करे छ
सोऽवि हु खओवसमिओ, किन्तु स एव उ खओवसमलाभो ।
तमि सइ होइऽवस्सं, भण्णइ भवपच्चओ तो सो ॥१३॥ ते [देव-नारकर्नु ] अवधिज्ञान पण क्षयोपशमथी ज थाय छे, परंतु तेवा क्षयोपशमनो लाभ, ते देव-नारकनो भव होते छते अवश्य ज थाय छे ते कारणथी ते अवधि भवप्रत्ययिक कहेवाय छे. यतः-कर्मना क्षयोपशम वगेरे शुं भवादिनिमित्तवाळा छे ? ए प्रश्ननो उत्तर कहे छेउदयक्खयखओवसमो-वसमावि अजं कम्मुणो भणिया।दव्वं खेत्तं कालं, भवं च भावंच संपप्प॥१४॥
कर्मनो जे उदय, क्षय, क्षयोपशम अने उपशम कहेलो छे ते द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव अने भाव ए पांचने प्राप्त करीने थाय छे. वळी अवधिज्ञानावरणनो क्षयोपशम थये छते जे थयेलुं ते क्षयोपशमिक अवधिज्ञान छ (१३-१४-१५), 'मण
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RXXX
श्रीस्थानागपत्र सानुवाद ॥८४॥
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पज्जवे ' त्यादि-ऋज्वी-सामान्यने ग्रहण करनारी मति ते ऋजुमति-"आ वडे घडो चिंतवायो" ए अध्यवसाय (निश्चय)नुं
|४२स्थानका
ध्ययन निबंधन-कारण अर्थात् मनोद्रव्यनुं ज्ञान, तथा विपुला-विशेषने ग्रहण करनारी जे मति ते विपुलमति-" आनावडे जे घडो चिंतवायो" ते घडो सुवर्णनो छे, पाटलीपुत्र देशनो छ, आजे थयेल छे अने मोटो छ-ए वगेरे अध्यवसायना हेतु
उद्देशः १ भूत मनोद्रव्यना विशेष ज्ञानरूप छे. भाष्यकार कहे छे
प्रत्यक्षपरोरिजु सामण्णं तम्मत्त-गाहिणी रिजुमती मणोनाणं पायं विसेसविमुह, घडमत्तं चिंतितं मुणइ॥१५
वज्ञानम्
७१ सूत्रम् विउलं वत्थुविसेसण-माणं तग्गाहिणी मती विउला। चिंतियमणुसरइ घडं, पसंगओ पज्जयसएहि॥१६
बन्ने गाथानो भावार्थ कहेलो छ (१६-१७), 'आभिणिबोहिए' इत्यादि श्रुतने आश्रित जे ज्ञान ते श्रुतनिश्रितमतिज्ञान अथवा श्रुत आश्रित करायलुं छे जेनावडे ते श्रुतनिश्रितमतिज्ञान, व्यवहार कालथी पूर्व श्रुतवडे संस्कारवाळी मतिबाळाने जे वर्तमानमा श्रुतनी अपेक्षा विना ज्ञान थाय छे ते अवग्रहादिस्वरूप श्रुतनिश्रित छे. वळी पूर्वे श्रुतवडे असंस्काखाळी मतिविशिष्ट क्षयोपशमना अतिशय निपुणपणाथी औत्पत्तिकी आदि बुद्धिरूप जे ज्ञान उत्पन्न थाय छे ते अथवा श्रोत्रेन्द्रिय वगेरेथी थयेलं ते अश्रुतनिश्रित मतिज्ञान छे. (१८), भाष्यकार कहे छे
१. प्राय: ऋजुमति, विशेषज्ञानथी विमुख होय छे. २ प्रसंगथी सेंकडो पर्यायोबडे चिंतवायला घडाने जाणे छे.
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पुव्वं सुयपरिकम्मियमतिस्स जं संपयं सुयाईयं ।
[] सुयनिस्सियमियरं, पुण अणिस्सियं मइचउकं ( तं ) ॥ १७ ॥
आ गाथानो भावार्थ कहेलो छे. 'सुए' त्यादि, 'अत्थोग्गहे ' त्ति अर्यते-जे जणाय अथवा अर्थ्यते - अन्वेषण कराय ते अर्थ. ते सामान्यरूप, सर्व विशेषोनी अपेक्षा विना कथन करवा योग्य रूपादि पदार्थनुं अवग्रहण - प्रथम ज्ञान ते अर्थावग्रह. जे विकल्प रहित ज्ञान छे ते दर्शन कहेवाय छे. जे एक समयवाळो अर्थावग्रह छे ते नैश्वयिक छे अने व्यवहारी अर्था वग्रह 'आ शब्द छे' इत्यादि कथन करनार छे ते अंतर्मुहूर्त्त कालप्रमाणवाळो छे. आ अर्थावग्रह, इंद्रियो अने मन संबंधथी छ प्रकारे छे. दीवावडे घडानी जेम जेवडे पदार्थ जणाय छे ते व्यंजन, उपकरणेंद्रिय अथवा शब्दादिपणाए परिणत भाषावर्गणादि द्रव्यना समूहरूप छे तेथी व्यंजन- उपकरण इंद्रियवडे शब्दादिपणार परिणत द्रव्यरूप जे व्यंजनोनो अवग्रह ते व्यंजनावग्रह. अथवा व्यंजन एटले (श्रोत्रादि) इंद्रिय अने शब्दादि द्रव्यनो संबंध भाष्यकार कहे छे
जिज जेणऽत्थो, घडोव्व दीवेण वंजणं तो तं । उवगरणिदिय सदा-दिपरिणयव्त्रसंबंधो ॥ १८ ॥
आ गाथानो भावार्थ कहेलो छे. आ व्यंजनावग्रह, मन अने चक्षुवर्जित इंद्रियोनो चार प्रकारे थाय छे, कारण के मन अने नयनने अप्राप्त ( संबंध विना ) अर्थनुं जाणवापणुं छे अर्थात् मन अने नयन अप्राप्यकारी छे, श्रोत्र, प्राण, रसना अने स्पर्श
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥८५॥
स्थानका
ध्ययने उद्देशः१
प्रत्यक्षपरोक्षज्ञानम् ७१ सूत्रम्
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नेंद्रियो प्राप्त थयेल अर्थने जाणे छ अर्थात् श्रोत्रादि ए चारे इंद्रियो प्राप्यकारी छे. शंका-व्यंजनावग्रह, ज्ञान न कहेवाय; कारण के श्रोत्रादि इंद्रिय अने शब्दादि द्रव्यनो संबंधकाळ होवा छतां पण बहेरानी जेम व्यंजनावग्रहना अनुभवनो अभाव छ, समाधान-तमे कहो छो एम नथी. व्यंजनावग्रह ने अंते ते वस्तुना ग्रहणथी ज (ज्ञानात्मक अर्थावग्रहना) साक्षात्कारना सद्भावथी अहिं जे ज्ञेय वस्तुना ग्रहणना अंतमां, तेथी ज ज्ञेय वस्तुना उपादान-ग्रहणथी साक्षात्कार थाय छे ते ज्ञान छे. जेम अर्थावग्रह पछी अर्थावग्रहवडे ग्रहण करवा योग्य (ज्ञेय) वस्तुना ग्रहणथी इहा थाय छे तेथी ते अर्थावग्रहज्ञान छे. तेवी ज रीते व्यंजनावग्रह पछी तद्ज्ञेय वस्तुना उपादानथी अर्थावग्रह ज्ञान थाय छे, माटे व्यंजनावग्रह ज्ञान छे पण अज्ञान नथी. भाष्यकार कहे छे
अन्नाणं सो बहिराइणं व, तक्कालमणुवलंभाओ।
[आचार्यः ] न तदन्ते तत्तोच्चिय, उवलंभाओ तयं नाणं ॥१९॥ आ गाथानो भावार्थ कहेलो छे. वळी व्यंजनावग्रह कालमां पण ज्ञान छ ज, परंतु सूक्ष्म होइने अव्यक्त होवाथी सूतेला माणसना अस्पष्ट ज्ञाननी माफक साक्षात् जणातुं नथी. इहा वगेरे पण श्रुतनिश्रित ज छे छतां ते कहेल नथी, कारण के द्विस्थानकबे स्थानकनो अनुरोध छे. (१९), 'अस्सुयनिस्सिएवि एमेव' ति अर्थावग्रह अने व्यंजनावग्रहना भेदवडे अश्रुतनिश्रित पण वे प्रकारे छे. आ श्रोत्रंद्रिय वगेरेथी थयेलं जाणवू. जे औत्पत्तिकी आदि बुद्धि अश्रुतनिश्रित छे तेमां अर्थावग्रह संभवे छे. भाष्यकार कहे छ:
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॥८५॥
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किह पडिकुक्कुडहीणो, जुज्झे विवेण उग्गहो ईहा। किं सुसिलिट्रमवाओ, दप्पणसंकेत बिंबंति ॥२०॥
कोई राजाए नटपुत्र भरतनी बुद्धिनी परीक्षा करवा माटे कयु के आ मारा कुकडाने बीजा कुकडा सिवाय तुं युद्ध कराव. आ उपरथी नटपुत्रे मनमा विचार्यु के बीजा कुकडा सिवाय एकलो कुकडो केवी रीते युद्ध करशे ? एम विचार करतां मनमां | एकदम स्फुरी आव्यु के-पोतानुं प्रतिबिंब आगळ जोवाथी अभिमानवडे आ कुकडो युद्ध करशे. आ प्रमाणे सामान्यथी जाण्यु ते अर्थावग्रह नामनो मतिनो पहेलो भेद थयो. ते पछी एवो विचार करे छे के तलावना पाणीमां पडेलु प्रतिबिंब युद्ध करावबा माटे ठीक पडशे के दर्पणमां पडेलु प्रतिबिंब ठीक पडशे ? इत्यादि प्रतिबिंब संबंधी विचारणा ते इहा. एवी इहा थया बाद एवो निश्चय करे छे के पाणी वगेरेमां पडेलुं प्रतिबिंब तो क्षणे क्षणे दूर थाय अने अस्पष्ट होय तेथी युद्ध कराववामां तेवु प्रतिबिंब ठीक नहिं पडे, पण आरीसामां पडेलुं प्रतिबिंब स्थिर अने स्पष्ट होवाथी चरणाघात करवामां ठीक पडशे माटे ते ज (दर्पण ज ) योग्य थशे. ए प्रमाणे विंबविशेषनो जे निश्चय ते अपाय. आ रीते बुद्धिना वीजा उपायोमां पण अर्थावग्रहादि विचारी लेवा. परंतु व्यंजनाग्रह थतो नथी, कारण के व्यंजनावग्रहने इन्द्रियाश्रितपणुं छे. बुद्धिओ( औत्पत्तिकी वगेरे )ने तो मननो संबंध होवाथी बुद्धिोधी भिन्नमां-श्रोत्रादिथी थयेलमा व्यंजनावग्रह मानवा योग्य छे (२०), 'सुयनाणे' इत्यादि प्रवचनरूप पुरुषना
१ आ हकीकत भाष्यनो गाथा ३०० मां कहेली छे. शिष्ये शंका करेल छे के-औत्पत्तिकी वगेरे बुद्धिचतुष्कमां अवग्रहादि | केवी रीते संभवे ? ए संबंधमां नटपुत्र भरतर्नु दृष्टांत आपवामां आवेलुं छे.
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद
*
२ स्थानकाध्ययने उद्देशः १ प्रत्यक्षप
क्षज्ञानम् ७१ सूत्रम्
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अंगोनी जेम अंगो, तेओमां प्रविष्टं-तेना मध्यमा रहेलु ते अंगप्रविष्ट, अने ते गणधरमहाराजावडे करायेलं 'उप्पन्नइ वे' त्यादि त्रण मातृकापदथी थयेलु, अथवा आचारादि ध्रुवश्रुत जाणवू. वळी जे स्थविरकृत अथवा मातृकापद त्रणथी भिन्न व्याकरण(प्रश्न)थी रचेल ते अध्रुवश्रुत, उत्तराध्ययन वगेरे अंगबाह्य जाणवू. भाष्यकार कहे छे:गणहर १ थेराइकतं२, आएसा १ मुक्कवागरणओवा२।धुव १ चलविसेसणाओ २, अंगाणंगेसु नाणत्तं ॥२१
श्री गौतमादि गणधरकृत द्वादशांगीरूप श्रुत ते अंगप्रविष्ट कहेवाय छे अने स्थविरो वगेरेथी रचायेलं (भद्रबाहुस्वामी वगेरेथी करायेल आवश्यकनियुक्त्यादि) ते अंगबाह्य कहेवाय छे. वळी गणधरने तीर्थकर संबंधी जे आदेश-उत्तर, उत्पाद, व्यय अने ध्रौव्वा- त्मक पद त्रणथी उत्पन्न थयेलं ते अंगप्रविष्ट अने प्रश्नपूर्वक-व्याकरण-उत्तर ते मुक्तव्याकरण, तेथी उत्पन्न थयेलु आवश्यकादि श्रुत अंगबाह्य कहेवाय छे. वळी सर्व तीर्थकरोना तीर्थमां नियत-निश्चयभावि जे श्रुत ते अंगप्रविष्ट कहेवाय छे अने अनियत-अनिश्चयभावि तंदुलबैयालिक प्रकीर्णकादि जे श्रुत ते अंगबाह्य कहेवाय छे. (२१), 'अंगवाही' त्यादि, अवश्य करवा योग्य ते आवश्यक, ते आवश्यक सामायिकादि छ प्रकारे कयु छेसमणेण सावएणय, अवस्स कायव्वयं हवइ जम्हा। अंतो अहो णिसस्स य, तम्हा आवस्सयं नामं ॥२२
साधु अने श्रावकवडे दिवस अने रात्रिने अंते जे कारणथी अवश्य करवा योग्य छे तेथी आवश्यक कहेवाय छे. आवश्यकथी जे भिन्न ते आवश्यकव्यतिरिक्तश्रुत छे. (२२), 'आवस्सगवतिरित्ते' इत्यादि० अहिं जे दिवस अने
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रात्रिना पहेला अने छेल्ला वे प्रहरमा ज भणाय छे ते (प्रथम अने छेल्ली पौरुषी) कालवडे थयेल ते (उत्तराध्ययनादि) कालिकश्रत छे. वळी जे काळवेळा (मध्याह्नचतुष्फ) वर्जीने भणाय छे ते अने कालिकतथी उपरना (बाकीना) जे दशवैकालिक | वगेरे श्रुत छे ते उत्कालिकश्रुत कहेवाय छे. (२३) (मू०७१) आवी रीते ज्ञान कह्या पछी हवे चारित्रनुं वर्णन करे छ:
दुविहे धम्मे पं० त०-सुयधम्मे चेव चरित्तधम्मे चेव (१), सुयधम्मे दुविहे पं० २०-सुत्तसुयधम्मे | चेव अत्थसुयधम्मे चेव (२), चरित्तधम्मे दुविहे पं० तं-अगारचरित्तधम्मे चेव अणगारचरित्तधम्मे | चेव (३), दुविहे संजमे पं० तं०-सरागसंजमे चेव वीतरागसंजमे चेव (४), सरागसंजमे दुविहे पं० तं०-सुहुमसंपरायसरागसंजमे चेव बादरसंपरायसरागसंजमे चेव (५), सुहुमसंपरायसरागसंजमे दुविहे पं० तं०-पढमसमयसुहुमसंपरायसरागसंजमे चेव अपढमसमयसु० चेव, अहवा चरिम- | समयसुहुमसं० चेव अचरिमसमयसु० चेव, अहवा सुहुमसंपरायसरागसंजमे दुविहे पं० सं०संकिलेसमाणए चेव विसुज्झमाणए चेव (६), बादरसंपरायसरागसंजमे दुविहे पं० तं०-पढम
१. बाबुवाळी प्रतमा अणगारचरित्तधम्मे दुविहे पं० त० एवो पाठ छे.
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥८७॥
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समयबादरसं० चेव अपढमसमयबादरसं० चेव, अहवा चरिमसमय० चेव अचरिमसमय० चेव
२ स्थानका(७), अहवा वायरसंपरायसरागसंजमे दुविहे पं० तं-पडिवाति चेव अपडिवाति चेव, वीयरागसंजमे ||
ध्ययने
उद्देशः१ दुविहे पं० २०-उवसंतकसायवीयरागसंजमे चेव खीणकसायवीयरागसंजमे चेव (८), उवसंतक-*
धर्मसंयमो सायवीयरागसंजमे दुविहे पं० तं०-पढमसमयउवसंतकसायवीयरागसंजमे चेव अपढमसमयउव०
७२ सूत्रम् चेव, अहवा चरिमसमय० चेव अचरिमसमय० चेव (९), खीणकसायवीयरागसंजमे दुबिहे पं०
तं०-छउमत्थखीणकसायवीयरागसंजमे चेव केवलिखीणकसायवीयरागसंजमे चेव (१०).छउमत्थखी*णकसायवीयरागसंजमे दुबिहे पं० तं०-सयंबुद्धछउमत्थखणिकसाय० चेव बुद्धबोहियछउमत्थखी०
चेव (११), सयंबद्धछउमत्थ० दविहे पं० तं०-पढमसमय० चेव अपढमसमय० चेव अहवा चरिम
समय० चेव अचरिमसमय० चेव (१२), बुद्धबोहियछउमत्थखीण० दुविहे पं० तं-पढमसमय० चेव है| अपढमसमय० चेव, अहवा चरिमसमय० चेव अचरिमसमय० चेव (१३), केवलिखीणकसायवीय
रागसंजमे दुविहे पं० तं०-सजोगिकेवलिखीणकसाय० चेव अजोगिकेवलिखीणकसायवीयराग० चेव
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| (१४), सजोगिकेवलिखीणकसायसंजमे दुविहे पं० तं०-पढमसमय० चेव अपढमसमय० चेव, अहवा
चरिमसमय० चेव अचरिमसमय चेव (१५), अजोगिकेवलिखीणकसायसंजमे दुविहे पं० तं०-पढमसमय० चेव अपढमसमय० चेव, अहवा चरिमसमय० चेव अचरिमसमय० चेव (१६) । सू० ७२
मूलार्थः चे प्रकारे धर्म कह्यो छे, ते आ प्रमाणे-श्रुतधर्म अने चारित्रधर्म (१), श्रुतधर्म के प्रकारे कह्यो छे, ते आ-जेमां | गणधरे अर्थ गुंथेल छे ते सूत्रश्रुतधर्म अने तीर्थकरे जे प्ररूपेल ते अर्थश्रुतधर्म (२), चारित्रधर्म के प्रकारे कयो छे, ते आ
गृहस्थनो चारित्रधर्म अने अनगार( साधु )नो चारित्रधर्म (३), वे प्रकारे संयम कह्यो छे, ते आ-राग सहित जे संयम ते सरागसंयम अने राग रहित जे संयम ते वीतरागसंयम (४), सरागसंयम बे प्रकारे कया छे, ते आ-यूक्ष्मसंपरायसरागसंयम अने बादरसंपरायसरागसंयम (५), सूक्ष्मसंपरायसरागसंयम वे प्रकारे कयो छे, ते आ-प्रथमसमयमूक्ष्मसंपरायसरागसंयम अने अप्रथमसमयमूक्ष्मसंपरायसरागसंयम, अथवा चरमसमयसूक्ष्नसंपरायसरागसंयम अने अचरमसमयसूक्ष्मसंपरायसरागसंयम, अथवा सूक्ष्मसंपरायसरागसंयम बे प्रकारे कह्यो छे, ते आ संक्लेशपरिणामवाळो मूक्ष्मसंपरायसरागसंयम अने विशुद्धपरिणामवाळो | सूक्ष्मसंपरायसरागसंयम (६), बादरसंपरायसरागसंयम वे प्रकारे कह्यो छे, ते आ-प्रथमसमयवादरसंपरायसरागसंयम अने
अप्रथमसमयबादरसंपरायसरागसंयम, अथवा चरमसमयबादरसंपरायसरागसयम अने अचरमसमयबादरसंपरायसरागसंयम अथवा बादरसंपरायसरागसंयम के प्रकारे कह्यो छे, ते आ-प्रतिपाति अने प्रतिपाती (७), वीतरागसंयम वे प्रकारे कह्यो छे, ते आ
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥८८॥
२ स्थानकाध्ययने उद्देशः १ धर्मसंयमौ ७२ सूत्रम्
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उपांतकमायवीतरागसंयम अने क्षीणकपायवीतरागसंयम (८), उपशांतकषायवीतरागसंयम वे प्रकारे कयो छे, ते आप्रथमसमयउपशांतकषायवीतरागरंयम अने अप्रथमसमयउपशांतकपायवीतरागसंयम, अथवा चरमसमयउपशांतकषायवीतरागसंयम अने अचरमसमयउपशांतकषायवीतरागसंयम (९), क्षीणकषायवीतरागसंयम बे प्रकारे कह्यो छे, ते आ-छद्मस्थक्षीणकपायवीतरागसंयम अने केवळीक्षीणकषायवीतरागसंयम (१०), छद्मस्थक्षीणकपायवीतरागसंयम वै प्रकारे कह्यो छे, ते आस्वयंबुद्धछमस्थक्षीणकषायवीतगगसंयम अने बुद्धबोधितछद्मस्थक्षीणकषायवीतरागसंयम (११), स्वयंबुद्धछमस्थक्षीणकषायवीतरागसंयम चे प्रकारे कह्यो छे, ते आ-प्रथमसमयस्वयंबुद्धछद्मस्थक्षीणकपायवीतरागसंयम अने अप्रथमसमयस्वयंबुद्धछमस्थक्षीणकपायवीतरागसंयम, अथवा चरमसमयस्वयंयुद्धछद्मस्थक्षीणकपायवीतरागसंयम अने अचरमसमयस्वयंबुद्धछद्मस्थक्षीणकषायवीतरागसंयम (१२), बुद्धबोधितछास्थक्षीणकपायवीतरागसंयम बे प्रकारे कयो छे, ते आ-प्रथमसमयबुद्धबोधितछद्मस्थक्षीणकपायवीतरागसंयम अने अप्रथमसमयबुद्धयोधितछद्मस्थक्षीणकपायवीतरागसंयम अथवा चरमसमय बुद्धबोधितछद्मस्थक्षीणकषायवीतरागसंयम अने अचरमसमयबुद्धबोधितछद्मस्थक्षीणकपायवीतरागसंयम (१३), केवलीक्षीणकषायवीतरागसंयम वे प्रकारे कह्यो छे, ते आ-सयोगीकेवलीक्षीणकपायवीतरागसंयम अने अयोगीकेवलीक्षीणकषायवीतरागसंयम (१४), सयोगीकेवलीक्षीणकषायवीतरागसंयम, ये प्रकारे कह्यो छे, ते आ-प्रथमसमयसयोगीकेवलीक्षीणकपायवीतरागसंयम अने अप्रथमसमयसयोगीकेवळीक्षीणकषायवीतरागसंयम, अथवा चरमसमयसयोगीकेवलीक्षीणकपायवीतरागसंयम अने अचरमसमयसयोगीकेवलीक्षीणकषायवीतरागसंयम (१५), अयोगीकेवलीक्षीणकषायवीतरागसंयम बे प्रकारे कह्यो छे, ते आ-प्रथमसमयअयोगी
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केवली क्षीणकषायवीतरागसंयम अने अप्रथमसमयअयोगी केवली क्षीणकपायचीतरागसंयम, अथवा चरमसमय अयोगीके वलीक्षीणकषायवीतरागसंयम अने अचरमसमयअयोगकेवली क्षीणकषायवीतरागसंयम (१६) (सू० ७२ )
टीकार्थ :- दुर्गतिमां पडता जीवोने अटकावे अने सद्गतिमां जीवोने जे धारण करे ते धर्म श्रुत-द्वादशांगी ते ज धर्म, ते श्रुतधर्म. चर्यते - मर्यादापूर्वक जे सेवाय छे ते चारित्र अथवा जे चारित्रवडे मोक्ष प्रत्ये जवाय ते चारित्र - मूल अने उत्तरगुणना समुदायरूप धर्म ते चारित्रधर्म (१), 'सुयधम्मे ' इत्यादि० जे वडे अथ गुंथाय छे अथवा सूचवाय छे ते सूत्र, अथवा सम्यग् रीते स्थितपणाए अने व्यापकपणाए सारी रीते कहेवापणुं होवाथी सूक्त, अथवा व्याख्यान करवावडे सुप्त अवस्था( अजागृतपणुं ) होवाथी सुतेलानी माफक सुप्त पण कहीए. भाष्यकारनुं कथन तो आ प्रमाणे छेःसिञ्चति खरइ जमत्थं, तम्हा सुत्तं निरुत्तविहिणा वा । सूएइ सवति सुव्वइ, सिव्वइ सरए व जेणऽत्थं ॥ २३ अविवरियं सुत्तंपि व, सुट्ठियवावित्तओ सुवृत्तं ।
जेमांथी अर्थ खरे छे अर्थात् अर्थनी प्राप्ति थाय छे ते सूत्र कहेवाय छे. अथवा निरुक्तविधिए जेनावडे अर्थ सूचवाय छे, झरे छे, संभळाय छे, विशिष्ट घटनाने पमाडे छे, स्मरण कराय छे ते सूत्र. जेनुं विवरण नहि करायेलुं ते सूतेलानी माफक सुप्त कहेवाय छे अने सारी रीते स्थित (प्रमाणथी अबाधित) अने व्याप्त होवाथी सूक्त कहेवाय छे अर्यते
१. आ २४ मी गाथानो पूर्वार्द्ध अविवरियमित्यादि, २३ मी गाथा साथ संबंध परावतो होवाथी साथे लखेल छे.
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श्रीस्थानागसूत्र सानुवाद ॥८९॥
२ स्थानकाध्ययने उद्देशः १ धर्मसंयमौ ७२ मूत्रम्
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| जिज्ञासुओवडे जे जणाय छे अथवा याचना कराय छे ते अर्थ-व्याख्यान. वळी भाष्यकार कहे छे
जो सुत्ताभिप्पाओ, सो अत्थो अज्जए य जम्हत्ति ॥ २४॥ | सूत्रनो अभिप्राय जनाथी जणाय छे ते अर्थ. 'चरित्ते' त्यादि० अगार-गृह, तेना योगथी अगारो-गृहस्थो, तेओनो जे सम्यक्त्वमूल अणुव्रत वगेरेना पालनरूप चारित्रधर्म ते अगारचारित्रधर्म, एवी रीते बीजो पण जाणवो. हवे विशेष कहे छ-जओने घर नथी ते अनगारो-साधुओ, तेओनो जे धर्म ते अनगारचारित्रधर्म (३), जे चारित्रधर्म ते संयम, आ हेतुथी संयम कहे छ:-" दुविहे' त्यादि जे मायादिरूप स्नेह सहित ते सराग, राम सहित एवो जे संयम अथवा राग सहितनो जे संयम ते सरागसंयम. वीत-गयो छे राग जेमांथी ते वीतराग, वीतराग एवो जे संयम अथवा वीतरागनो जे संयम ते वीतरागसंयम (४), 'सरागे' त्यादि सूक्ष्म-लोभना असंख्यात किट्टिका(सूक्ष्म अणुओ)ना वेदनथी संपरैति-संसरण (भ्रमण) करे छे, जनावडे जीव संसारमा भ्रमण करे ते संपरायकषाय, आ व्युत्पत्त्यर्थ छ. भाष्यकार कहे छ-कोहाइ संपराओ, तेण जुओ संपरीति संसारं । क्रोधादि ते संपराय, तेनाथी युक्त जीव संसारमा भ्रमण करे छ. उपशमश्रीणवाळानो अथवा क्षपकश्रेणिवाळानो लोभकषायरूप सूक्ष्मसंपराय जेने छे एवो सूक्ष्मसंपरायसाधु, तेनो सरागसंयम ते सूक्ष्मसंपरायसरागसंयम, अथवा मूक्ष्मसंपराय एवो साधु. आ कर्मधारय समास छ. बादर-स्थूल, संपराय-कषाय जे साधुने छ अथवा जे संयमने विषे बादरसंपराय छे ते बादरसंपराय, ते सूक्ष्मसंपराय गुणठाणाथी पूर्वना-छहाथी नवमा गुणठाणा सुधीमा होय छे. बाकीचं
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पूर्वनी माफक (५), 'सुहुमे' त्यादि-बे सूत्रमां प्रथम अने अप्रथम समय वगेरेनो विभाग केवलज्ञाननी माफक जाणी लेवो. 'अहवे' त्यादि• उपशम श्रेणीथी पडनारनो जे संयम ते संक्लिश्यमान अने उपशमश्रेणी अथवा क्षपकश्रेणी प्रत्ये चडनारनो जे संयम ते विशुद्धयमान छे. (६), 'बादरे' त्यादि० वे सूत्र, बादरसंपेरायसरागसंयमनुं संयमना प्राप्तिकालनी अपेक्षाए प्रथमं- अप्रथमसमयपणुं छे. चरम (छेल्ला) अने अचरम ( छेल्ला सिवायना बीजा) समयपणुं तो जे पछी-एटले बादरसंपरायसरागसंयम पछी - सूक्ष्मसंपरायसरागसंयमने पामे अथवा असंयतपणाने पामे तेनी अपेक्षाए कहेवाय छे. 'अहवे'त्यादि ० उपशमश्रेणीवाळानुं अगर बीजानुं (छट्टा वगेरे गुणठाणावाळानुं) प्रतिपाती, अने क्षपकश्रेणीवाळानुं अप्रतिपाती ( संयम ) होय छे (७), सरागसंयम कहेवायो हवे वीतरागसंयम कहे छे-'वीयरागे 'त्यादि० उपशांत- प्रदेशथी पण नथी वेदाता कषायो जेने अथवा जेने विषे ते उपशांतकषायवीतरागसाधु अथवा उपशांतकषायवीतरागसंयम, ते अगियारमा गुणस्थानमां वर्तनार होय छे. सर्वथा नाश पामेल छे कषायो जेना ते क्षीणकपायसाधु बारमा गुणस्थानमा वर्तनार होय छे (८), 'उवसंते'त्यादि० बे सूत्र पूर्वनी माफक जाणवा (९), 'खीणेत्यादि, आत्मना स्वरूपने जे आच्छादन करे ते छद्मज्ञानावरणादिघातिकर्म, तेमां रहेनार ते छद्मस्थ-केवली नहि, बाकी पूर्वनी माफक जाणवुं. पूर्वोक्त स्वरूपविशिष्ट केवलज्ञान
१ जे समयमां संयमनी प्राप्ति थाय ते प्रथमसमय अने बाकीना द्वितीय विगेरे समय ते अप्रथमसमय कहेवाय छे. २. कोई साधु नवमा गुणठाणाना छेछा समय पछी दशमा गुणठाणे जाय ते चरमसमयसूक्ष्मसंपरायनी अपेक्षाए कहेवाय छे. अथवा काल करो देवलोकमां जाय के संयमधी भ्रष्ट थई असंयत थाय तेनी अपेक्षाए चरमसमयपणुं कहेवाय छे,
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद
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अने केवलदर्शन छे जेने ते केक्ली (१०), 'छउमत्थे त्यादि स्वयंबुद्ध वगेरेनुं स्वरूप पूर्वनी माफक जाणवु (११), 'सयंबुद्धे'
1४२स्थानकात्यादि नव सूत्रो गतार्थ छ एटले पूर्व कहेला अर्थवाळा छे. (१२ थी १६). (सू०७२) संयम कह्यो, ते जीव अजीवविषयवाळो
ध्ययने होवाथी पृथ्वी विगेरे जीवोना स्वरूपने 'दुविहा पुढवी'त्यादि अख्यावीश सूत्रोवडे कहे छे
उद्देशः १ दुविहा पुढविकाइया पं० २०-सुहुमा चेव बायरा चेव (१), एवं जाव दुविहा वणस्सइका
पृथव्यादि
नां परिणाइया पं० त०-सहमा चेव बायरा चेव (२-५), दुविहा पुढविकाइया पं०२०-पज्जत्तगा चेव
मेवरी | अपजत्तगा चेव (६), एवं जाव वणस्सइकाइया (७-१०), दुविहा पुढविकाइया पं० २०- ७३ सूत्रम्
परिणया चेव अपरिणया चेव (११), एयं जाव वणस्सइकाइया (१२-१५), दुविहा दव्वा पं०
तं०-परिणता चेव अपरिणता चेव (१६), दुविहा पुढविकाइया पं० २०-गतिसमावन्नगा * चेव अगइसमावन्नगा चेव (१७), एवं जाव वणस्सइकाइया (१८-२१), दुविहा दव्वा पं०
तं०-गतिसमावन्नगा चेव अगतिसमावन्नगा चेव (२२), दुविहा पुढविकाइया पं० तं०| अणंतरोगाढा चेव परंपरोगाढा चैव (२३), जाव दव्वा० ( २४-२८) । सू० ७३
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मूलार्थः-पृथ्वीकायिक चे प्रकारे कया छे, ते आ प्रमाणे-मूक्ष्म अने बादर (१), एवी रीते अपकायिकथी यावत् वनस्पतिकायिकना बब्बे भेद कह्या छे, ते आ-सूक्ष्म अने बादर (२-५), वे प्रकारे पृथ्वीकायिक कह्या छे, ते आ-पर्याप्तक अने अपर्याप्तक (६), एवी रीते अप्कायिकथी यावत् वनस्पतिकायिकना बब्बे भेद जाणवा (७-१०), वे प्रकारे पृथ्वीकायिक कह्या छे, ते आ-परिणत (अचित्त ) अने अपरिणत ( सचित्त ) (११), एवी रीते अप्कायिकथी यावत् वनस्पतिकापिकना बब्बे भेद जाणवा (१२-१५), वे प्रकारे द्रव्यो कह्या छे, ते आ-परिणत ( अपेक्षित अन्य परिणामने पामेला ) अने अपरिणत (बीजा परिणामने नहि पामेला) (१६), चे प्रकारे पृथ्वीकायिक कह्या छ, ते आ-गतिसमापनक अने अगतिसमापनक (१७), एवी रीते अपकायिकथी यावत् वनस्पतिकायिकना बब्बे भेद जाणया (१८-२१), बे प्रकारे द्रव्यो कया छे, ते आगतिसमापन्नक (विग्रहगतिने प्राप्त थयेला) अने अगतिसमापन्नक (पोताना स्थानमा रहेला) (२२), वे प्रकारे पृथ्वीकायिको कह्या छे, ते आ-अनंतरावगाढ अने परंपरावगाढ (२३), एवी रीते अप्कायिक, तेजोका वायुका वनस्पतिका० अने द्रव्यो बब्बे प्रकारे जाणवा. (२४-२८) (सू० ७३)
टीकार्थः-पृथ्वी ए ज काय छे जेओने ते पृथिवीकायिनः, अहिं समासांतविधिमा स्वार्थिक प्रत्यय होवाथी पृथवीकायिक, अथवा पृथ्वी ए ज शरीर छ जेओने ते पृथ्वीकायिक. (अहिं तद्धित ठक् प्रत्ययनो इक थयेल छे). जे सूक्ष्मनामकर्मना उदयथी सूक्ष्म जीवो छे ते सर्वलोकमां व्यापक छ अने बादरनामकर्मना उदयथी वर्तनार बादर जीवो, पृथ्वी अने पर्वत
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद १९१॥
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वगैरेमांज छे. पृथ्वीकायिकोनुं सूक्ष्म अने बादरपणुं आपेक्षिक नथी. (१), 'एव' मिति एवी रीते पृथ्वीकायिकना मूत्रनी माफक अप्० तेज० वायु० अने वनस्पतिकायादिना सूत्रो कहेवा. आ कारणथी कहे छे-'जावे'-त्यादि (२-५), 'दुविहे' त्यादि० पांच सूत्रो-पर्याप्तनामकर्मना उदयमा वर्तनारा जीवो, जे चार पर्याप्तिने पूर्ण करे छे ते पर्याप्ता छे अने अपर्याप्तनामकर्मना उदयथी जे पोतानी (चार) पर्याप्तिओने पूर्ण न करे ते अपर्याप्ता छे. अहिं पर्याप्ति एटले शक्ति-सामर्थ्यविशेष जाणवू. ते शक्ति, पुद्गलद्रव्यना उपचयथी उत्पन्न थाय छे. पर्याप्ति छ प्रकारे छे, ते आ प्रमाणेआहारसरीरि दियपज्जत्ती-आणपाणभासमणे । चत्तारि पंच छप्पिय, एगिदियविगलसन्नीणं ॥२५॥
१ आहार, २ शरीर, ३ इंद्रिय, ४ श्वासोच्छ्वास, ५ भाषा अने ६ मन-ए छ पर्याप्ति छे. तेमां एकेंद्रियने चार, विकलेंद्रिय अने असंज्ञी पंचेंद्रियने पांच अने संज्ञी पंचेंद्रियने छ पर्याप्ति होय छे. १ आहारपर्याप्ति नाम-खल (नकामो भाग) अने रसनी परिणमनशक्तिरूप छे, २ शरीरपर्याप्ति-सात धातुपणे रसनी परिणमनशक्तिरूप छे, ३ पांच इंद्रियोने योग्य पुद्गलोने ग्रहण करीने अनाभोग(ईच्छा रहित)थी थयेल वीर्यवडे इंद्रियने तैयार करवानी शक्तिरूप इंद्रियपर्याप्ति, ४ उच्छ्वास अने निःश्वासने योग्य पुद्गलोने ग्रहण करीने उच्छ्वास-निःश्वासरूपे परिणमावीने आन-प्राणपणे नीकळवा(मकवा)नी
१. जेम नाळीयेरनी अपेक्षाए नारंगी नानी छे, अने नारंगीनी अपेक्षाए चीकु नाना छे, तेम पृथ्वीकायिक जीवोमां नथो परंतु सूक्ष्म-बादरपणुं वास्तविक छे. २. अहिं लब्धिअपर्याप्तनी अपेक्षाए आ हकीकत जणावेल छे.
२ स्थानका
ध्ययने उद्देशः १ पृथव्यादीनां परिणा__मेतरी ७३ सूत्रम्
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शक्तिरूप आनप्राणपर्याप्ति, ५ वचनने योग्य भाषावर्गणाना पुद्गलोने ग्रहण करीने, भाषापणे परिणमावीने वचनयोगपणे मकवानी शक्तिरूप भाषापर्याप्ति, ६ मनने योग्य मनोवर्गणाना पुद्गलोने लइने, मनपणे परिणमावीने मनयोगपणे मकवानी शक्तिरूप मनपर्याप्ति. आछ पर्याप्तिओ, पर्याप्तनामकर्मना उदयबडे पूर्ण कराय छे. जे जीवो ते पूर्ण करे छे ते जीवो पर्याप्तक अने अपर्याप्तनामकर्मना उदयवडे जे जीवो ते पूरी करता नथी ते अपर्याप्तक कहेवाय छे. आ छ पर्याप्तिओनो एकी साथे आरंभ कराय छ अने अंतर्मुहूत्तवडे पूर्ण थाय छे. तेमा आहारपर्याप्तिने पूर्ण करवानो काळ एक समय ज छे. ते केवी रीते थाय ? ते संबंधमां प्रज्ञापना सूत्र नीचेनो पाठ जणावे छ:-'आहारपज्जत्तीए अपज्जत्तए णं भंते ! जीवे किं आहारए अणाहारए ?, गोयमा ! नो आहारए अणाहारए'त्ति 'हे भगवन् ! आहारपर्याप्तिवडे अपर्याप्त जीव, शुं आहारक छ के अनाहारक छ ? उत्तर-हे गौतम ! आहारक नथी, अनाहारक छे.' ते आहारपर्याप्तिवडे अपर्याप्त विग्रहगतिमा मळे छेहोय छे. जो बळी उत्पत्तिना क्षेत्रमा प्राप्त थयेल पण आहारपर्याप्तिवडे अपर्याप्तक थाय तो आ प्रमाणे उत्तर होवो जोईए'गोयमा ! सिय आहारए सिय अणाहारए'त्ति-क्यारेक आहार होय अने क्यारेक अनाहारक होय. जेम शरीर वगेरे पर्याप्तिओना विषयमा कहेलुं छे के-'सिय आहारए सिय अणाहारएत्ति. (अर्थात् आहारपर्याप्तिना विषयमा 'सिय' शब्द न होवाथी आहारपर्याप्तिने पूर्ण करवानी एक समयनी ज स्थिति होय छे.) ___बळी आहारपर्याप्ति सिवाय पांच पर्याप्तिओ असंख्यात समयवाळी छे अने ते पांचे अंतर्मुहूर्त्तमा पूर्ण थाय छे. अपर्याप्तक तो उच्छ्वासपर्याप्तिवडे अपर्याप्त ज मृत्यु पामे छे, परंतु शरीर अने इंद्रियपर्याप्तिवडे अपर्याप्ता मरता नथी. जे कारणथी
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अस्थि
नाङ्गसूत्र
सानुवाद
॥ ९२ ॥
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आगामी भवनुं आयुष्य बांधीने मरे छे. शरीर अने इंद्रियादि पर्याप्तिथी पर्याप्त जीवोबडे ज परभवायुष्य बंधाय छे. एबी रीते पूर्वनी माफक जाणं. (६–१०), 'दुविहा पुढवी 'त्यादि० छ सूत्रो, परिणताः-स्वकायशस्त्र ( पृथ्वीथी पृथ्वी हणाय ) अने परकायशस्त्र ( पाणी वगेरेथी पृथ्वी वगेरे हणाय ) बगेरेथी भिन्न परिणामने प्राप्त थयेला अर्थात् अचित्त थयेला. पृथ्वी वगेरेमां द्रव्यथी खातर वगेरेथी मिश्रित द्रव्यवडे, काळथी पोरसी वगेरे (मिश्रित ) काळवडे, अने भावधी वर्ण, गंध, रस अने स्पर्शो, बीजा परिणामपणाए परिणत थयेला ते अचित्त थाय छे. क्षेत्रथी तो
जोयणसयं तु गंता, अणहारेणं तु भंडसंकंती । वायागणिधूमेण य, विद्वत्थं होइ लोगाइ ॥ २६ ॥ हरियाल मणोसिल, पिप्पली य खज्जूर मुद्दिया अभया । आइन्नमणाइन्ना, तेऽवि हु एमेव णायव्त्रा ॥२७॥ आरुहणे ओरुहणे, णिसियण गोणाइणं च गाउम्हा । भूभाहारच्छेदे, उबकमेणेत्र परिणाम ॥ २८ ॥
पोताना स्थानी जाता लवणादि, प्रतिदिवस क्रमेक्रमे आगळ जतां नाश पामतां छतां छेवट एक सो योजनथी उपर जतां सर्वथा अचित्त थाय छे. हवे शस्त्रपरिणत थया सिवाय पण अचित्त थाना कारण कहे छे-१ पोताना उत्पत्तिक्षेत्रनो आहार न मळवाथी, २ एक भाजनमांथी वीजा भाजनमां नाखवाथी अथवा एक वखारमाथी बीजी वखारमां राखवाथी, ३ प्रचंड वायुथी, ४ अन्निना तापथी अने ५ रसोडाना धुंवाडा वगेरेथी लवणादि अचित थाय छे. हरताल, मणशिल, पीपर, खजुर, द्राक्ष अने हरडे पण लवणनी जेम अचित्त थाय छे, पण साधुने आचीर्ण (लेवा योग्य ) अने अनाचीर्णनो विधि जाणवा
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स्थानका ध्ययने
उद्देशः १ पृथव्यादी
नां परिणा
तरौ
७३ सूत्र
।। ९२ ।।
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योग्य छे. पीपर अने हरडे आचीर्ण छे अने खजुर ने द्राक्ष वगेरे अनाचार्ग छे. हरताल बगेरे सर्व वस्तुओनां सामान्यपणे अचित्त थवानां कारणो कहे छे-गाडा, पोठिया (बळद) वगेरे वाहनो उपर चडावतां अने उतारता, लवणादिना ढगला वगेरे उपर बेसवा वगेरेथी, बळदो वगैरेनी पीठ आदि शरीरनी गरमीथी, उत्पत्तिक्षेत्रनी भूमिनो आहार न मळवाथी अने शखना उपक्रमथी अचित्त थाय छे.
परिणामांतर प्राप्त थये छते पण पृथ्वीकायिको ज कहेवाय छे, ते मात्र अचेतन छे. एम जो नहि मानीए तो आ अचेतन पृथ्वीकाय पिंडना प्रयोजन( उपयोगिता )नु कथन केम घटमान थाय ? जेम-"घट्टगडगलगलेवो एमाइ पयोयणं बहुहा । " घट्टक-पात्र वगेरेने घसवामां डगलक-इंट अने लेप वगेरे अचित्त पृथ्यांनो साधुओने बहुधा उपयोग करवो पडे छे. (११), 'एवमित्यादि पांच सूत्रो पूर्वनी माफक कहेवा (१२-१५), द्रवन्तिविचित्र पर्यायो पामे ते द्रव्यो, जीव अने पुद्गलरूप ते द्रव्यो. विवक्षित परिणामना त्यागवडे परिणामान्तरने प्राप्त थयेल ते परिणत द्रव्यो विवक्षितपरिणामवाळा ज छे. जे परिणामांतरने नहि पामेला ते अपरिणत द्रव्यो. आ प्रमाणे छ हुँद्रव्य सूत्र जाणवू (१६), 'दुविहे'त्यादि० छ सूत्रो, गमनपणाने पामेला-गतिवाळा ते गतिसमापन्ना. पृथ्वीकायिक वगेरेना आयुष्यना उदयथी जे पृथ्वीकायिकादि व्यपदेशवाळा विग्रहगतिवडे उत्पत्तिक्षेत्रमा जाय छे ते गतिसमापन्न कहेवाय छे. अगतिसमापन्नजीवो तो स्थितिवाळा (जे गतिमा छे ते ज गतिमा रहेला) छे. (१७-२१), द्रव्यसूत्रमा गति-गमनमात्र ज जाणवू, बाकीर्नु पूर्ववत् | छे. (२२), 'दुविहा पुढवीत्यादि० छ सूत्रो, अनंतर-वर्तमान समयमांज कोइक आकाशदेशमा रहेला तेज अनंतरावगाढको अने
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श्रीस्थानागसूत्र सानुवाद ॥९३॥
२ स्थानका
ध्ययने उद्देशः१ कालाकाशी ७४ सूत्रम्
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आकाशदेशमा जे रहेलाओने बे वगेरे समयो थयेला छे ते परंपरावगाढको जाणवा. अथवा विवक्षित क्षेत्र अथवा द्रव्यनी अपेक्षा | करीने अंतरहितपणे रहेला ते अनंतरावगाढ अने वीजा अंतरसहितपणे रहेला ते परंपरावगाढ (२३-२८). (सू० ७३) हमणा ज द्रव्यर्नु स्वरूप कह्यु, हवे द्रव्यना अधिकारथी द्रव्य विशेष काळे अने आकाशद्रव्यनी प्ररूपणा करे छे.
दुविहे काले पं० २०-ओसप्पिणीकाले चेव उस्सप्पिणीकाले चेव,
दुविहे आगासे पं० २०-लोगागासे चेव अलोगागासे चेव । सू०७४ मूलार्थ:-बे प्रकारे काळ कह्यो छे-ते आ प्रमाणे-अवसार्पिणी अने उत्सार्पणी काळ, आकाश बे प्रकारे कर्तुं छे, ते आ X प्रमाणे-लोकाकाश अने अलोकाकाश..
टीकार्थ:-कल्यते-ओं जणाय छे, अथवा जेनावंडे जणाय छ, अथवा जाणवू, अथवा कला (क्षण ) वगेरेनो समूह ते काळ, वर्तना एटले नवा पुराणादिरूपे निरंतर वर्त्तते वर्तना. पर-देवदत्तथी यज्ञदत्त पहलो जन्म्यो
१. कलणमित्यादि कलसत्वसंख्यानयोः कलनं काल इति भावे प्रत्ययो घञ् परिच्छेद इत्यर्थः, कल्यते वा परिच्छिद्यते वा यतोऽनेन वस्तु, अवर्तरि च कारके संज्ञायां घा, कलयति वा परिच्छेदयंति वा समयादिपर्यायास्तामिति कालः तस्मिन् वा स्थितान् कलयंति, समयादिकलानां वा समूहः कालः । २. कर्मणि प्रयोग छे माटे अहि कर्तानो अध्याहार छे. ३. अहिं काळ करुणरूप छे माटे कर्ता अने कर्मनो अध्याहार छे, ४. आ भाववाचक छे.
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होवाथी पर कहेवाय, अने अपर-यज्ञदत्तथी देवदत्त पाछळ उत्पन्न थयेल होवाथी अपर कहेवाय, एवा लक्षणवाळो काळ अवस पिणी अने उत्सर्पिणीरूपे वे प्रकारनो छे. वे स्थानना अनुरोधथी एम कं नहिं तो अवस्थित लक्षणवाळो महाविदेह तथा भोगभूमि - युगलिक क्षेत्रमां संभवित बीजो भेद पण छे. 'आगासे' ति० सर्व द्रव्योना स्वभावाने आकाशयतिमर्यादापूर्वक प्रकाशे, द्रव्यना स्वभावनां लाभमां अवस्थान ( आधार ) ने आपे ते आकाश. अहिं ' आङ् ' शब्द मर्यादा अने अभिविधिवाचक छे. तेमां मर्यादाना अर्थमां आकाशमा रहेता छतां पण भावो पोताना स्वरूपमा ज रहे छे, आकाशपणाने पामता नथी, एवी रीते ते भावोने पोताने आधीन न करवाथी आकाशस्वरूप थता नथी. अभिविधिना अर्थमां तो सर्व भावोमां व्यापक होवाथी आकाश छे. जे आकाशना देशमां धर्मास्तिकाय वगेरे द्रव्योनी वृत्तिप्रवृत्ति छे तेज आकाश लोकाकाश छे, तेथी विपरीत (जेमां धर्मास्तिकाय वगेरेनी प्रवृत्ति नथी) ते अलोकाकाश छे. (सू० ७४) हमणा ज लोक - अलोक भेदथी आकाश वे प्रकारे कधुं. बळी लोक, शरीरवाळा जीव। अने शरीरोनो सर्वथा आश्रयरूप होवाथी नारक वगेरे शरीरवाळा दंडकवडे शरीरनी प्ररूपणा करे छे
इयाणं दो सरीरगा पं० तं०- अभंतरगे चेव वाहिरगे चेव, अब्भंतरए कम्मए बाहिरए विए, एवं देवाणं भाणियव्वं, पुढविकाइयाणं दो सरीरगा पं० तं० - अब्भंतरगे चैव वाहिरगे चैव, अब्भंतर कम्मए बाहिरगे ओरालियगे, जाव वणस्सइकाइयाणं (१), बेइंदियाणं दो सरीरा
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र
सानुवाद ॥ ९४ ॥
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पं० तं - अभंतरए चेव वाहिरए चेव, अब्भंतरगे कम्मए, अट्ठिमंससोणितबद्धे बाहिरए ओरालिए, जाव चउरिंदियाणं, पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं दो सरीरगा पं० तं०-अब्भंतरगे चैव बाहिरगे चैत्र, अब्भंतरगे कम्मए, अट्ठिमंससोणियण्हारुछिराबद्धे वाहिरए ओरालिए, मणुस्साणवि एवं - चेव (२), विग्गहग इसमावन्नगाणं नेरइयाणं दो सरीरगा पं० तं तेयए चेत्र कम्मए चेव, निरंतरं जाव वेमाणियाणं, नेरइयाणं दोहिं ठाणेहिं सरीरुप्पत्ती सिया, तं० - रागेण चैव दोसेण चैव, जाव वेमाणियाणं नेरइयाणं दुट्ठानव्यतिए सरीरगे पं० तं० - रागनिव्यत्तिए चैत्र, दोसनिव्वत्तिए चेत्र, जाव माणियाणं, दो काया पं० तंथ्-तसकाए चेत्र, थावरकाए चेव, तसकाए दुविहे पं० तं०-भवसिद्धिए चैत्र, अभवासिद्धिए चैत्र, एवं थावरकाएऽवि (३) । सू० ७५
मूलार्थ:- नैरयिकोने वे शरीर कहेल छे, ते आ प्रमाणे- अभ्यंतर शरीर अने बाह्य शरीर. अभ्यंतर ते कार्मण अने तैजस शरीर अने बाह्य ते वैक्रिय शरीर. एवी रीते देवोने पण बे शरीर जाणत्रा. पृथ्वीकाधिकोने वे शरीर कहेल छे, ते आ-अभ्यंतर अने बाह्य अभ्यंतर ते कार्मण शरीर अने बाह्य ने ओदारिक शरीर, यावत् वनस्पतिकायिकोने बे शरीर जाणवा. (१), बेइंद्रियांने
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स्थानका
ध्ययने
उद्देशः १ शरीरस्व
रूपम्
|७५ सूत्रम्
९४
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बे शरीर कट्टेल छे, ते आ-अभ्यंतर अने बाह्य अभ्यंतर ते कार्मण शरीर, बाह्य ते अस्थि (हाडका), मांस अने रुधिरवडे जोडायेल औदारिक शरीर, एवी रीते यावत् चतुरिंद्रियोने वे शरीर जाणवा. पंचेंद्रिय तिर्यंचयोनिकोने वे शरीर का छे, ते आ-अभ्यंतर अने बाह्य, अभ्यंतर ते कार्मण अने बाह्य ते अस्थि, मांस, शोणित, स्नायु ( नाडी), शिरा ( नसो ) थी जोडाल दारिक शरीर. मनुष्याने पण एवी रीते बे शरीरो जागवा (२), विग्रह (वक्र) गतिने प्राप्त थयेला नैरयिकोने वे शरीर का छे, ते आ--तेजस अने कार्मण. एवी रीते आंतरा रहित (सर्व दंडकमा ) या वैमानिकाने वे शरीर जाणवा. नैरयिको वे स्थान(कारण )वडे शरीरनी उत्पत्तिनो प्रारंभ करे छे, ते आ-राग अने द्वेषथी, यावत् वैमानिकना दंडक पर्यंत एम ज जाणवुं. नैरयिकोने वे स्थानवडे शरीरनी निर्वर्तना-परिपूर्णता थाय छे, ते आ प्रमाणे-रागवडे निर्वर्तना अने द्वेषवडे निर्वर्तना कराय छे, यावत् वैमानिक दंडक पर्यंत एम ज जाणवुं. वे काय (राशि ) कहेल छे, ते आ-त्रसकाय अने स्थावर काय त्रसकाय बे प्रकारे कल छे, ते आ-भवसिद्धिक अने अभवसिद्धिक. तेवी ज रीते स्थावरकायना पण भव्य अने अभव्य वे भेद जाणवा (३) (सू० ७५ )
टीकार्थ :- 'रइयाणमित्यादि प्रायः सुगम छे, विशेष कहे छे शीर्यते प्रत्येक क्षणे चय(वृद्धि) अने अपचय (हानि)वडे नाश पामे छे ते शरीर, तेमज सडवा वगेरेना स्वभाव वडे अनुकंपनपणुं होवाथी शरीर. जिनेश्वरोए ते शरीर वे प्रकारनां कहेल छे, ते प्रमाणे अभ्यंतर तथा बाह्य अभ्यंतर-मध्यमां थयेलं ते अभ्यंतर. आ शरीरनुं अभ्यंतरपणुं जीवना प्रदेशो साथै क्षीरनीरना न्यायएकीभूत थवाथी अने भवांतरमां गये छते पण जीवनी साथे गतिमां तेनुं मुख्यपणुं होवाथी तेमज घर वगेरेनी अंदरमा रहेल
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श्रीस्थानागसूत्र सानुवाद ॥९५॥
२ स्थानकाध्ययने उद्देशः १ शरीरस्व
रूपम् ७५ सूत्रम्
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पुरुषनी जेम अनतिशय-ज्ञानवाळाने अप्रत्यक्षपणुं होवाथी आभ्यंतरपणुं छे. तथा बाहेरमां थयेलं ते बाह्य. एर्नु बाह्यपणुं तो जीवना प्रदेशोवडे कोईपण शरीरना केटलाएक अवयवोने विषे अव्याप्तपणु होवाथी अने भवांतरमा साथे न जवाथी अतिशयज्ञान वगरना जीवोने पण प्राय प्रत्यक्ष होवाथी ते बाह्य शरीर छे. 'कम्मए'त्ति०अभ्यंतर कार्मणशरीरनामकर्मना उदयथी थवा योग्य सघळा कर्मोनी उत्पन्न थवानी भूमि-आधाररूप छे. तथा संसारी जीवोने बीजी गतिने विषे जवामां अतिशय सहायक ते शरीर कार्मणवर्गणास्वरूप छे, कर्म ए ज कर्मक-कार्मण छे. कार्मण शब्दनुं ग्रहण करवामां तैजसशरीर पण ग्रहण करायेल छ एम समजी लेबु, कारण के कार्मण अने तैजस एकना विना बाजुं होतुं नथी अर्थात् ते बन्ने सदा साथे रहे छे माटे एकपणानी विवक्षा करी छे. ' एवं देवाणं भाणियब्वं'त्ति जेम नैरायकोने बे शरीर कार्मण अने वैक्रिय कहेल छे तेम असुरकुमार देवोथी आरंभीने वैमानिक पर्यंत देवोने वे शरीर होय छे. कार्मण अने वैक्रिय शरीरनो तेओने सद्भाव होय छे. अहीं चोवीश दंडकोनी विवक्षा होवाथी शेष दंडको कहे छे. 'पृढवी' त्यादि० पृथ्वी वगेरे पांच दंडकोमा तो बाह्यऔदारिकशरीरनामकर्मना उदयथी उदार पुद्गलोवडे थयेलु औदारिक शरीर छे, मात्र एकेन्द्रियोनुं शरीर हाडकां वगेरेथी रहित होय छे. वायुकायिकोर्नु जे वैक्रियशरीर ते मायिक होवाथी अहिं वैक्रियनी विवक्षा करी नथी. (१), 'बेइंदियाणमित्यादि. हाडका, मांस अने रुधिरवडे बंधायेलं जे शरीर ते बाह्य शरीर छे. बेइंद्रियोना औदारिकपणामां पण शरीरना हाडका बगेरे
१. एक नारकनो दंडक अने देवोना १३ दडकमां वे शरीर कार्मण अने बैंक्रिय होय छे. शेष पृथ्वी वगेरे १० दंडकमा कामण अने औदारिक शरीर होय छे.
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॥९५॥
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X( एकेंद्रियनी अपेक्षाए) विशेष छे. 'पंचेंदिए' त्यादि० पंचेंद्रियतिथंच अने मनुष्योने वळी हाडकां, मांस, रुधिर, स्नायु
अने शिरा विशेष छे. (२), बीजी रीते चोवीस दंडकवडे शरीरनी प्ररूपणा कहे छ:-'विग्गहे' त्यादि० विग्रहगति-चक्रगति, ज्यारे विषमश्रेणीमा रहेल उत्पत्तिस्थान प्रत्ये जबानुं होय छे त्यारे जे वक्र गति थाय तेने प्राप्त थयेल ते विग्रहगतिसमापन्न जीवो कहेवाय छे. तेओने बे शरीर होय छे. अहीं तैजस अने कार्मणना भेदबडे विवक्षा छे. एवी रीते चोवीश दंडक जाणवा. शरीरना अधिकारथी शरीरनी उत्पत्तिने दंडकवडे निरूपण करता कहे छे:-' नेरइयाण मित्यादि० स्पष्ट छे, परंतु रागद्वेषथी उत्पन्न थयेल कर्मवडे जे शरीरनी उत्पत्ति तेनो रागद्वेषवडे ज व्यवहार कराय छे, कारण के कार्यमां कारणनो उपचार कराय छे. 'जाव वेमाणियाणं' ति० एम यावत् वैमानिकदंडक पर्यंत जाणवू. शरीरना अधिकारथी शरीरनुं निवर्तनसूत्र पण एवी रीते जाणवू. विशेष ए छे के-उत्पत्ति ते शरूआत मात्र अने निर्वर्तना ते पूर्ण करवू. शरीरना
अधिकारथी शरीरवाळानी बे राशिवडे प्ररूपणा कहे छे–' दो काए' त्यादि० त्रसनामकर्मना उदयथी त्रास पामे छे ते त्रस, तेओनी काय-राशि ते त्रसकाय अने स्थावरनामकर्मना उदयथी स्थिर रहेवाना स्वभाववाळा ते स्थाबरो, तेओनी राशि ते स्थावरकाय, त्रस अने स्थावरकायनी द्विपणानी प्ररूपणा माटे 'तसकाये' त्यादि बे सूत्र सुगम छे. (३) (सू० ७५) पूर्वना सूत्रमा शरीरवाळा भव्य जीवो कह्या. आहिंथी भव्य विशेपोने जे जेम करवाने योग्य छे ते तेम वे स्थानना संबंधवडे कहे छ
दो दिसाओ अभिगिज्झ कप्पति णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा पव्वावित्तए-पाईणं चेव उदीणं
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श्रीस्था
नाङ्गसूत्र
सानुवाद ॥ ९६ ॥
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चैत्र, एवं मुंडावित्तए १, सिक्खावित्तए २, उबट्ठावित्तए ३, संभुंजित्तए ४ संवत्तिए ५, सज्झायमुद्दत्तिए ६, सज्झायं समुद्दिसित्तए ७, सज्झायमणुजाणित्तए ८, आलोइत्तर ९, पडिक्कमित्तए १०, निंदित्तए ११, गरहित्तए १२, विउट्टित्तए १३, विसोहित्तए १४, अकरणयाए अब्भुत्तिए १५, आहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्मं पडिवज्जित्तए १६ (१), दो दिसातो अभिगिज्झ कप्पति णिग्गंथाण वा ग्गिंथी वा अपच्छिममारणंतिय संलेहणाजूसणाजूसियाणं भत्तपाणपडियाइक्खित्ताणं पाओवगताणं कालं अणवकंखमाणाणं विहरित्तए, तं जहा - पाईणं चेव उदीणं चैव (२) । सू० ७६ ॥ विट्ठाण - स्स पढमो उद्देसओ समत्तो ॥ २१ ॥
मूलार्थः–बे दिशाओनी सन्मुख रहीने, निग्रंथो अथवा निग्रंथओने दीक्षा देवा माटे पूर्व दिशा अने उत्तर दिशा कल्पे छे. एवी रीते १ लोच करवा माटे, २ शिक्षा आपका माटे - शीखववा माटे, ३ उपस्थापना ( वडीदीक्षा) माटे, ४ साधे भोजन करावा माटे, ५ संस्तारक मंडलीमां बेसाडवा माटे, ६ स्वाध्यायना उद्देशने माटे, ७ स्वाध्यायना समुद्देश माटे, ८ स्वाध्यायनी अनुज्ञा माटे, ९ आलोचन करवा माटे, १० प्रतिक्रमण करवा माटे, ११ अतिचारनी निंदा करवा माटे, १२ गर्दा करवा माटे, १३ छेदवा माटे, १४ विशुद्धि करवा माटे, १५ फरी न करवापणाए सन्मुख जवा माटे, १६ यथायोग्य प्रायश्चित्त ( तपकर्म ) ने
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२
काध्ययने
उद्देशः १ प्रव्रज्या
दिषु दिशे ७६ सूत्रम्
॥ ९६ ॥
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स्वीकारवा माटेनां कार्यो पूर्व अने उत्तर दिशा सन्मुख करवा (१), वे दिशाओनी सन्मुख रहीने अपश्चिममारणांतिक संलेखनानी आराधना करनारा, भक्तपानना प्रत्याख्यान करनारा तथा पादपोपगत-झाडनी माफक रहेला तथा मरणनी आकांक्षा न करनारा साधु-साध्वीओने स्थिर रहेवा माटे पूर्व अने उत्तर दिशा कल्पे छे. (२).
टीकार्थ:-'दो दिसाओ' इत्यादि० वे दिशाने अंगीकार करीने सन्मुख थड़ने (क्रिया करवी ) कल्पे छे. धन वगेरे ग्रंथथी नीकळेला - छूटेला ते निग्रंथो-साधुओने अथवा साध्वीओने रजोहरण वगेरेना प्रदानद्वारा दीक्षा आपवा माटे पूर्व अने उत्तर दिशा अंगीकार करवी कल्पे छे. कां छे के—
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वाहोउ उत्तर- मुहो व देज्जाऽहवा पडिच्छेजा। जाए जिणादओ वा, हवेज जिणचेइयाई वा ॥२९॥
पूर्व दिशा सन्मुख अथवा उत्तर दिशा सन्मुख ( गुरुए) देवं अथवा ( शिष्योए ) ग्रहण कर अथवा जे दिशामां जिन - केवलज्ञानी, मनः पर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, चौदपूर्वी, दशपूर्वी तथा नवपूर्वीओ होय ते दिशामां अथवा जे दिशामां जिनेश्वरना चित्यो होय ते दिशानी सन्मुख रहीने दीक्षाप्रदानादि देवं अने लेवु. 'एव' मिति० जेम प्रत्राजन ( दीक्षा ) सूत्र बे दिशाना कथनवडे कं एवी रीते मुंडन वगेरे सोळ सूत्रो पण समजी लेवा. तेमां १ मस्तकनो लोच करवा माटे, २ ग्रहणशिक्षानी अपेक्षाए सूत्र तथा अर्थ ग्रहण करवा माटे अने आसेवनशिक्षानी अपेक्षाए तो प्रत्युपेक्षण (पडिलेहण) वगेरे शीखवा माटे, ३ उत्थापना - महाव्रतोमां व्यवस्थापना करवा माटे, ४ भोजनमंडलीमां बेसाडवा माटे, ५ संस्तारक( संथारो ) मंडलीमा बेसाडवा माटे, ६ सारी रीते मर्यादावडे जे भणाय ते स्वाध्याय -अंग वगेरे सूत्रो, ते सूत्रोन उद्देष्टुं
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श्रीस्था
नागसूत्र
सानुवाद ॥ ९७ ॥
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उद्देश माटे एटले के 'योगविधिना क्रमवडे सम्यग् योगथी (तुं) आ भण' ए प्रमाणे उपदेश करवा माटे, ७ समुद्देष्टुं - 'योगनी समाचारीवडे ज आ सूत्र स्थिरपणे परिचित कर' एम कहेवा माटे, ८ अनुज्ञातुं - 'ते प्रमाणे तुं आ सूत्रने धारण कर अने बीजाओने तुं जणाव - कहे' एम कहेवा माटे, ९ आलोचयितुं गुरुनी पासे अपराधोने कहेवा माटे, १० प्रतिक्रमण करवा ( पापथी पाछा हटवा ) माटे, ११ निंदितुं - पोतानी समक्ष (स्वसाक्षीए) अतिचारोनी निंदा करवा माटे, ' सचरित्तपच्छयावो निंद'त्तिपोताना वर्तनो पश्चात्ताप करवो ते निंदा, १२ गर्हितुं गुरुनी समक्ष अतिचारोनी गर्हा करवा माटे, 'गरहाऽवि तहाजातीयमेव नवरं परप्पयासणए 'त्ति-गर्दा पण निंदानो ज प्रकार छे, परंतु बीजानी आगळ प्रकाशित कर ते गर्हा, १३ 'विउट्टित्तए 'त्ति - अलग करवा माटे, तोडवा माटे, विशेष कूटवा माटे अर्थात् अतिचार संबंधी अनुबंध (पाप) नुं विच्छेदन करवा माटे, १४ विशोधयितुं - अतिचाररूप कादवनी अपेक्षाए आत्माने निर्मळ करवा माटे, १५ अकरणतया - ' फरीथी नहिं करूं' एवो स्वीकार करवा माटे, १६ यथार्हम् - अतिचार वगेरेनी अपेक्षाए यथोचित पापनो नाश करनार होवाथी अथवा प्रायः चित्तनुं शुद्ध करनार होवाथी प्रायश्चित्त, कधुं छे के
पावं छिंदइ जम्हा, पायच्छित्तं तु भन्नए तेण । पाएण वावि चित्तं, विसोहए तेण च्छित्तं ॥३०॥ जेथी पाप नाश पामे छे ते कारणथी पायच्छित् कहेवाय छे, अथवा प्रायः अपराधथी थयेल मलिन चित्त (जीव) ने १. अहि चित्त शब्दवडे चित्त अने चित्तवाळानो अभेद उपचार होवाथी जीव कहेवाय छे. चूर्णिकार पण तेम ज कहे छे' चित्त इति जीवस्य व्याख्या
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२ स्थान
काध्ययने
उद्देशः १
प्रव्रज्या
दिषु दिशे
७६ सूत्रम्
।। ९७ ।।
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शुद्ध करे छे तेथी प्रायश्चित्त अहिं प्रायश्चित्त शब्दनी सिद्धि 'पृषोदरादि' थी सिद्ध थाय छे. तपकर्म - निर्विकृतिक- नीवी वगेरेने स्वीकारवा माटे सत्तर सूत्र कहे छे- 'दो दिसे' त्यादि० 'पश्चिम शब्द ज अमंगलरूप छे, तेथी तेनो परिहार करवा माटे अपश्चिम शब्द कहेल छे. मरणना अंतमां जे थनारी ते मारणांतिकी, अपश्चिम छेल्ली ते अपश्चिममारणांतिकी. जेनाथी शरीर अने कषायादि क्षीण कराय छे ते संलेखना - तपविशेष, ते अपश्चिममारणांतिकसंलेखनानी 'जूसण'त्ति सेवा, सेवारूप धर्मवडे 'जूसियाणं' त्ति - तेमां जोडायेलाने अथवा संलेखनावडे झोषितानां क्षीण शरीरवाळाओने, तथा जेओए भक्त ( अन्न ) अने पाणीनुं पञ्चकखाण करेल छे तेओने, वृक्षनी माफक चेष्टा रहितपणे स्थिर थयेलाओने, अनशन विशेष स्वीकारनाराओने, मरणकालने नहिं इच्छनाराओने, विहर्त्तु-रहेवा माटे वे दिशा ( पूर्व अने उत्तर ) सन्मुख रहेवुं कल्पे. (२). एकंदर अढार दिशासूत्रो छे तेमां जेनी व्याख्या करी नथी ते सुगम समजवा. ( सू० ७६ )
॥ बीजा स्थानकना प्रथम उद्देशानी टीकानो अनुवाद समाप्त ॥
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र
सानुवाद 11 86 11
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अथ द्वितीयस्थानकाध्ययने द्वितीयः उद्देशः
अहिं प्रथम उद्देशकमा द्वित्वविशिष्ट जीव तथा अजीवना धर्मो का हवे बीजा उद्देशकमां तो द्वित्वविशिष्ट ज जीवना वा छे. आ संबंधवडे प्राप्त थयेल आ उद्देशकनुं प्रथम सूत्र
जे देवा उड्ढोवैवन्नगा कप्पोववन्नगा विमाणोववन्नगा चारोववन्नगा चारद्वितीया गतिरतिया गतिसमावन्नगा, तेसिणं देवाणं सता समितं जे पावे कम्मे कज्जति तत्थगतावि एगतिया वेदणं वेति अन्नत्थतावि एगतिया वेअणं वेदेति (१) णेरइयाणं सता समियं जे पावे कम्मे कज्जति तत्थगतावि एगतिया वेयणं वेदेति अन्नत्थगतावि एगतिआ वेयणं वेदेंति, जाव पंचेंद्रियतिरिक्खजोणियाणं मणुस्साणं सता समितं जे पात्रे कम्मे कज्जति इहगतावि एगतिता वेयणं वेयंति अन्नत्थगतावि एगतिया वेयणं वेयंति, मणुस्तवज्जा सेसा एक्कगमा (२) । सू० ७७ मूलार्थः- जे देवो ऊर्ध्वलोकमां उत्पन्न थयेला छे, ते वे प्रकारे छे -१ कल्पोपनक - सौधर्मादि देवलोकमां उत्पन्न थयेला १. बाबूबाळी प्रतमां तं दुबिहा पं० तं०- आवो पाठ छे, समितिनी प्रतमां नथी,
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स्थानका
ध्ययने
उद्देशः २ तत्रान्यत्र
कर्म वेदनं
७७ सूत्रम्
॥ ९८ ॥
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अंने २ विमानोपपत्रक-अवयकादिमां उत्पन्न थयेला. बीजा पण कहे छ-चारोपपन्नक-ज्योतिष्को, तेना पण बे भेद छे-१ चारस्थितिक-स्थिर ज्योतिप्को, ते अढीद्वीपनी बहार छे, २ गतिरतिक-गतिसमापनको जे अढीद्वीपमा रहेला छे. ते देवोवडे निरंतर जे | पापकर्म कराय छे-बंधाय छे ते पापना फलने देवभवमा रह्या छतां ज केटलाएक देवो भोगवे छे, अने केटलाएक पापना फलने
भवांतरमा वेदे छे. (१), नरयिकोने सदा-निरंतर जे पापकर्म बंधाय छे ते त्यां रह्या छतां पण केटलाएक नारको पापना फळने वेदे छे, अने केटलाएक भवांतरमां गया छतां पापना फळने वेदे छे. एवी रीते यावत् पंचेंद्रियतियंचो सुधी जाणवू. मनुष्योने सदा-निरंतर जे पापकर्म बंधाय छे ते अहिं ज रह्या छतां केटलाएक मनुष्यो पापना फळने भोगवे छे, अने केटलाएक भवांतरमां पण पापकर्मना फळने भोगवे छे. मनुष्यने छोडीने शेष व्यंतर, ज्योतिष्क अने वैमानिको छे ते एक अभिलापवाळा छ-18 समान पाठवाळा छे (२).
टीकार्थ:-'जे देवे' त्यादि० सूत्रनो पूर्वे कहेल सूत्र साथे संबंध छे. प्रथम उद्देशकना छेल्ला सूत्रमा पादपापेगमन अनशन कडं, तेनाथी केटलाएक जीवोने देवपणुं प्राप्त थाप्त छे, ते कारणथी देव विशेष कहेवावडे तेना कर्मबंधन अने वेदन- प्रतिपादन करता थका कहे छ:-'जे देवे' त्यादि जे सुरो-आगळ कहेवामां आवशे ते वैमानिक देवो, अनशन वगेरेथी उत्पन्न थाय छे, ते केवा छे-'उड्ढ' त्ति. ऊर्ध्वलोकमां उत्पन्न थयेला ते ऊयोपपन्नको वे प्रकारे २-१ कल्पोपपन्नको-सौधर्मादि देवलोकमां उत्पन्न थयेला, तथा २ विमानोपपन्नको-अवेयक अने अनुत्तर विमानोमा उत्पन्न थयेला. विमानोपपन्नको कल्पातीत छे. बीजाचे प्रकार पण कहे छ-'चारोववन्नग' त्ति० चरंति-ज्योतिष्कना विमानो ज्यां भ्रमण करे छे ते
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भीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥९९॥
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चार, ते समस्त ज्योतिश्चक्र क्षेत्र छे. कारण ? मात्र व्युत्पत्त्यर्थनी अपेक्षा करीने शब्दनी प्रवृत्तिना निमित्तनो आश्रय करवाथी, 13 २ स्थानतेमां उत्पन्न थयेला ते चारोपपन्नको-ज्योतिष्को छे. पादपोपगमन बगेरे करवाथी ज्योतिष्कपणु प्राप्त न थाय एम न कहे, कारण के काध्ययने परिणामविशेषथी तेम पण थाय छे. ज्योतिष्को पण बे प्रकारे छे, ते आ प्रमाणे-चार-ज्योतिश्चक्र क्षेत्रमा जेओनी स्थिरता छे ते उद्देशः २ चारस्थितिको, ते समयक्षेत्र(अढीद्वीप)थी बहार रहेनारा घंटानी आकृतिवाळा छे. तथा गमनमा जेओने रति छे ते गतिरतिको
तत्रान्यत्रसमयक्षेत्रमा वर्तनारा छे. गतिरतिको सतत (निरंतर) गति नहि करनारा पण होय छे, आ कारणथी गति-गमनने समिति
कर्मवेदनं निरंतर आपन्नकाः-प्राप्त थयेला ते गतिसमापन्नको-विराम नहि पामनारा छे. पूर्वोक्त चार प्रकारना देवोने निरंतर जे
७७ सूत्रम् पापकर्म-ज्ञानावरणादि, जीवोने निरंतर बंधकपणुं होवाथी श्रियते-बंधाय छे (आ कर्मकर्तृप्रयोग छे), ते देवो कर्मना | अबाधाकालनु उल्लंघन थये छते 'तत्थगयावि' त्ति. 'अपि' अव्यय एवकार ( चोकस ) अर्थमां छे, तेनो प्रयोग आवी रीते-तत्रैव-देवोना भवमा ज, कल्पातीत देवोनो बीजा क्षेत्रमा गमननो असंभव होवाथी अहिं तत्र अने अन्यत्र शब्दवडे भव ज अर्थ विवक्षित-इच्छित छे; परंतु क्षेत्र, शयन अने आसनादि विवक्षित नथी, माटे देवभवमा वर्तनारा केटलाएक देवो, वेदना-उदयरूप विपाक(फळ)ने अनुभवे छे. 'अन्नत्थगयावि' त्ति० देवभवथी बीजा ज भवांतरमा उत्पन्न थयेलाओ बेदनाने अनुभवे छे. केटलाएक तो आ भव अने परभवमां पण वेदनाने अनुभवे छे. बीजा केटलाएक जीवो विपाकोदयनी अपेक्षाए आ भवमा अने परभवमां पण वेदनाने अनुभवता नथी, आ बे विकल्प सूत्रमा जणावेल नथी, कारण के बे स्थानकनो अधिकार चालु छे (१), सूत्रमा कहेल बे विकल्प, सर्व जीवोमा चोवीश दंडकवडे प्ररूपणा करता थका कहे छे:- ।।। ९९ ॥
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'नेरइयाणमित्यादि० आ सूत्र प्रायः सुगम छे. विशेष कहे छ:-'तत्थगयावि अन्नत्थगयावि' एवी रीते अभिलापवडे दंडक, यावत् पंचेंद्रियातयंच सुधी जाणवो. आ कारणथी कहे छे-' जावे 'त्यादि० मनुष्योमा वळी अभिलाप विशेष जाणवा योग्य छ, जेम ' इहगतावि एगइया' इति. सूत्रकार-गणधरमहाराजा पण मनुष्य हता, आ कारणथी परोक्षरूप अनासन्न(दूर )ना कथनभूत 'तत्र' शब्दने मूकीने मनुष्य-सूत्रमा 'इह ' एवा शब्दनो निर्देश कर्यो छे, कारण के मनुष्यभवना स्वीकारपणाए प्रत्यक्षासन्नवाचक इदम् शब्दनो विषय छे. एटला ज माटे कहे छे-'मणुस्सवज्जा सेसा एक्कगम' त्ति० शेष एटले व्यंतर, ज्योतिष्क अने वैमानिको सरखा अभिलापवाला छे. शंका-पहेला मूत्रमा ज ज्योतिष्क अने वैमानिक देवोनो विवक्षित अर्थ कहेल होवाथी अहिं फरीने ज्योतिष्कादि देवोर्नु कथन करवावडे शो हेतु छे ? समाधान-प्रथम सूत्रमां अनुष्ठान(अनशनादि क्रिया)ना फळने देखाडवाना प्रसंगवडे भेद(विशेष)थी कहेल छे. अहीं तो दंडकना क्रमवडे सामान्यथी जणावेल होवाथी दोष नथी. अहिं देखाय छे ते ते सूत्रमा विशेषy कथन होवा छतां पण सामान्यनुं कथन छे, सामान्यना कथनमां तो विशेषतुं कथन होय छे (२). त्यां रह्या थका वेदनाने अनुभवे छे एम कहेलुं छे, आ कारणथी नारकादिनी गति अने आगतिनुं निरूपण करता थका कहे छे। नेरतिता दुगतिया दुयागतिया पं० २०-नेरइण नेरइएसु उववज्जमाणे मणुस्सेहिंतो वा पंचिं* दियतिरिक्खजोणिएहितो वा उववज्जेजा, से चेव णं से नेरइए णेरइयत्तं विप्पजहमाणे मणुस्सत्ताए
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥१०॥
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२ स्थानकावा पंचेंदियतिरिक्खजोणियत्ताए वा गच्छेज्जा, एवं असुरकुमारावि. णवरं, से चेव णं से असुरकुमारे
ध्ययने असुरकुमारतं विप्पजहमाणे मणुस्सत्ताए वा तिरिक्खजोणियत्ताए वा गच्छिज्जा, एवं सव्वदेवा (१),
उद्देशः२ पुढविकाइया दुगतिया दुयागतिया पं० तं-पुढविकाइए पुढविकाइएसु उबवजमाणे पुढविकाइए- नारकाणां हिंतो वा णोपुढविकाइएहितो वा उववजेजा, से चेव णं से पुढविकाइए पुढविकाइयत्तं विप्पजहमाणे ||
गत्यागती पुढविकाइयत्ताए वा णोपुढविकाइयत्ताए वा गच्छज्जा, एवं जाव मणुस्सा (२) । सू० ७८
७८ सूत्रम् मूलार्थ:-नैरयिको वे गतिमा जनारा अने बे गतिमांथी आवनारा कहेल छ, ते आ प्रमाणे-नैरयिक (नरकायुना उदयवाळो ), नरयिकोने विपे उत्पन्न थयो थको मनुष्योमाथी अथवा पंचेंद्रियतियचयोनिकोमाथी उत्पन्न थाय तेथी नैरयिक, नरयिकपणाने छोडतो थको मनुष्यपणामां अथवा पंचेंद्रियतियंचयोनिकमां जाय. एवी रीते असुरकुमारो पण जाणवा. विशेष कहे छे-तेज असुरकुमार, असुरकुमारपणाने छोडतो थको मनुष्यपणामां अथवा तिर्यंचयोनिकपणामां जाय.एवी रीते सर्व देवो जाणवा. (१), पृथ्विकायिको वे गतिमा जनारा अने वे गतिमांथी आवनारा कहेल छे, ते आ प्रमाणे-पृथ्वीकायिक, पृथ्वीकायिकोने विषे उत्पन्न थयो थको पृथ्वीकायिकोमांथी अथवा नोपृथ्वीकायिक(वृथ्वीकायिक सिवायना)मांथी उत्पन्न थाय, तेज पृथ्वीकायिक, पथ्वीकायिकपणाने छोडतो थको पृथ्वीकायिकपणामां अथवा नोपृथ्वीकायिकपणामां जाय, एवीरीते यावत् मनुष्यो जाणवा. (२).
१ नरकायुना उदयवाळो ते नरयिक कहेवाय. आ प्रमाणे ऋजुसूत्रनयना अभिप्रायथी दरेक दंडकमां समनg.
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टीकार्थः-दंडक ( आ सूत्रपाठ) सुगम छे, विशेष कहे छे:-नारको, आधारभूत मनुष्य अने तियंचगतिस्वरूप चे गतिमां गमन छ जेओनुं ते (नारको) वे गतिवाळा छे. अवधि( सीमा )भूत मनुष्य अने तियेचरूप वे गतिमाथी आवर्बु छ जेओन ते वे आगतिवाळा छ. उदयमा आवेल छ नारकनुं आयुष्य जेने ते नारक कहेवाय छे. आ कारणथी कहे छ के'नेरइए णेरइएसु त्ति० नारकोमा अहिं उद्देशक्रमना विपर्यासथी प्रथम वाक्यवडे आगति कही, ‘से चेव णं से 'त्ति० जे मनुष्यपणा वगेरेमाथी नरकमां गयेलो तेज आ नारक, अन्य नहिं. आ कथनवडे एकांत अनित्यपणानुं खंडन कयु. 'विप्पजहमाणे 'त्ति० सर्वथा छोडतो थको, अहिं भूतकाळना भाववडे नारकर्नु कथन छे. आ वाक्यवडे गति कही. तेजस्कायिको, तिर्येच अने मनुष्यनी अपेक्षाए वे आगतिवाळा छे अने तिर्यचनी अपेक्षाए एक गतिवाळा छे. आ वाक्यनो स्वीकार करीने आ प्रकारे (उत्क्रमथी ) व्याख्यान कयु छे. 'एवं असुरकुमारावि 'त्ति० नारकनी माफक वक्तव्यता कहेवी. 'नवरं 'सि० आ विशेष छे:-केवल पंचेंद्रियतियंचोमा उत्पन्न थाय छ एम नहि, पण पृथ्वी, अपू अने वनस्पतिमां तेनी उत्पत्ति थाय छे. सामान्यथी कयु छ के-से चेव णं से इत्यादि जाव तिरिक्खजोणियत्ताए वा गच्छेज' त्ति० 'एवं सव्वदेव' त्ति० असुरकुमारनी माफक देवपदवाळा बारे दंडक कहेवा. तेओनी एकेंद्रिय(पृथ्वी, अपू अने वनस्पति)मां पण उत्पत्ति थाय छ (१), 'णोपुढविकाइएहितो'त्ति आ पृथ्वीकायिकना निषेधद्वारवडे अप्कायिक वगेरे सर्व ग्रहण करेल छे, कारण अहीं वे स्थान
१ आगतिर्नु प्रथम व्याख्यान अने गतिर्नु पछी व्याख्यान कयु छे. २ असुरकुमारथी यावत् ईशान देवलोक पर्यंत.
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श्रीस्था
नाङ्गसूत्र
सानुवाद ॥ १०१ ॥
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कनुं वर्णन छे. नारक वर्जीने श्रेवीश दंडकमांथी पृथ्वीकायिकोमां उत्पन्न थाय छे. ' णोपुढवविकाइयत्ताए ' ति० देव अन नारकना (१४) दंडक छोडीने अपूकाय वगेरे (९) दंडेकमां जाय छे. ' एवं जाव मणुस्स' ति० जेम पृथ्वीकायिको, 'दुगनिया' विगेरे अभिलापोवडे कहेला छे एवी रीते ए ज अभिलापोवडे अपकायिक वगेरे मनुष्य पर्यंतना दंडको 'पृथ्विकायिक' शब्दना स्थानमां अप्कायिक वगेरेनो व्यपदेश ( कथन ) करनारा आ अभिलापोवडे कहेवा. व्यंतर वगेरे पूर्वे अतिदेश करायेल - कहेवाइ गयेला छे. (२). ( सू० ७८ ) जीवना अधिकारथी भव्यादि विशेषणवडे सोळ सूत्रपाठथी दंडकनी प्ररूपणा कहे छे:
दुविहा नेरइया पं० तं०-भवसिद्धिया चेव अभवसिद्धिया चेव, जाव वेमाणिया १, दुविहा नेरइया पं० तं० - अणंतरोववन्नगा चेव परंपरोववन्नगा चेव, जाव वेमाणिया २, दुविहा णेरड्या पं० तं०-गतिसमावन्नगा चैव अगतिसमावन्नगा चेव, जाव वेमाणिया ३, दुविहा नेरइया पं० तं०पढमसमओववन्नगाचे अपढमसमओववन्नगा चेव, जाव वेमाणिया ४, दुविहा नेरइया पं० तं०-आहारगा चैव अणाहारगा चेव, एवं जाव वेमाणिया ५, दुविहा णेरइया पं० तं - उसासा चेव णोउस्सासगा चेव, जाव वेमाणिया ६, दुविहा नेरइया पं० तं०-सइंदिया चेव अणिंदिया चेव, १. पुढवि शब्दथी एक पृथ्वीनो दंडक अने नोपुढवो शब्दथी नव दंडक कहेल छे.
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२ स्थानका
ध्ययने
उद्देशः २ नारकाणां भव्यत्वादि
७९ सूत्रम्
॥ १०१ ॥
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जाव वेमाणिया ७, दुविहा नेरइया पं० २०-पजत्तगा चेव अपजत्तगा चेव, जाव वेमाणिया ८, दुविहा नेरइया पं० २०-सन्नि चेव असन्नि चेव, एवं पंचेंदिया सव्वे विगलिंदियवज्जा, जाव वाणमंतरा (वेमाणिया) ९, दुविहा नेरइया पं० २०-भासगा चेव अभासगा चेव, एवमेगिंदियवज्जा सव्वे १०, दुविहा* नेरइया पं० २०-सम्मद्दिट्ठीया चेव मिच्छद्दिट्ठिया चेव, एगिंदियवज्जा सव्वे ११, दुविहा नेरइया पं० तं.-परित्तसंसारिता चेव अणंतसंसारिया चेव, जाव वेमाणिया १२, दुविहा नेरइया पं० त०संखेज्जकालसमयट्रितीया चेव, असंखेज्जकालसमयद्वितीया चेव, एवं पंचेंदिया एगिदियविगलेंदियवजा जाव वाणमंतरा १३, दुविहा नेरइया पं० तं०-सुलभबोधिया चेव दुलभबोधिया चेव, जाव वेमाणिया १४, दुविहा नेरइया पं० २०-कण्हपक्खिया चेव सुक्कपक्खिया चेव, जाव वेमाणिया १५. दविहा नेरडया पं० तं०-चरिमा चेव अचरिमा चेव, जाव वेमाणिया १६ । स. ७९
मूलार्थ:-वे प्रकारे नैरयिको कहेला छे, ते आ प्रमाणे-भवसिद्धिको अने अभवसिद्धिको, यावत् वैमानिक पर्यंत बब्बे | भेद जाणवा. (१), बे प्रकारे नैरयिको कहेला छे, ते आ-अनंतरोपपन्नको अने परंपरोपपन्नको, यावत् वैमानिक पर्यंत पूर्ववत् |
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र
सानुवाद ॥ १०२
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(२), वे प्रकारे नैरयिको कहेला छे, ते आ-गतिसमापन्नको अने अगतिसमापन्नको, यावत् वैमानिक पर्यंत पूर्ववत् (३), बे प्रकारे नैरयिको कहेला छे, ते आ-प्रथमसमयोपपन्नको अने अप्रथमसमयोपपन्नको, यावत् वैमानिक पर्यंत पूर्ववत् ( ४ ), (विग्रहगतिवाळा ) वे प्रकारे नैरयिको कह्या छे, ते आ-आहारको अने अनाहारको, एवी रीते यावत् वैमानिक पर्यंत पूर्ववत् (५), वे प्रकारे नैरयिको कला छे, ते आ-उच्छ्वासको अने नोउच्छ्वासको (उच्छ्वासपर्याप्तिवडे अपर्याप्ता ), यावत् वैमानिक पर्यंत पूर्ववत् (६), बे प्रकारे नैरयिको कथा छे, ते आ-सेन्द्रियो ( इंद्रिय सहित ) अने अनिंद्रियो ( इंद्रिय रहित, इंद्रियपर्याप्तवडे अपर्याप्तक. ) यावत् वैमानिक पर्यंत पूर्ववत् (७), वे प्रकारे नैरयिको कहेला छे, ते आ-पर्याप्तको अने अपर्याप्तको, यावत् वैमानिक पर्यंत पूर्ववत् (८), चे प्रकारे नैरयिको कहेला छे, ते आ-संज्ञी अने असंज्ञी, एवी रीते (एकेंद्रिय अने विकलेंद्रिय वजने) सर्व पंचेंद्रिय यावत् व्यंतरं सुधी (वैमानिक सुधी) दंडकोमां बब्बे भेद जाणवा. (९), बे प्रकारे नैरयिको कहेला छे, ते आ-भाषको अने अभाषको, एवी रीते एकेंद्रिय वर्जीने बधा दंडकोमां बच्चे भेद जाणवा. (१०), वे प्रकारे नैरयिको कहेला छे, ते आ-सम्यग्दृष्टिको अने मिथ्यादृष्टिको, एवी रीते एकेंद्रिय वजने सर्व दंडकोमां बब्बे भेद जाणवा. (११), चे प्रकारे नैरयिको कहेला छे, ते आ-परित्तसंसारिको अने अनंतसंसारिको, यावत् वैमानिक दंडक पर्यंत बच्चे भेद जाणवा. (१२), बे प्रकारे नैरयिको कहेला छे, ते आ-संख्यात काळसमयनी स्थितिवाळा अने असंख्यात काळसमयनी स्थितिवाळा, एवी रीते
१ व्यंतर पर्यंत दंडकमा संज्ञो अने असंज्ञी बन्ने जाय छे, तेनी अपेक्षाए असंज्ञीपणुं होय छे, परंतु ज्योतिष्क अने वैमानिकमां असंज्ञीपं होतुं नथी. (वेमाणिया ) पाठ जे मूलमां लीघेल छे ते मनपर्याप्तिवडे ज्यां सुधी अपर्याप्त होय छे त्यां सुधी असंज्ञी गणेल छे,
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२ स्थानका
ध्ययने
उद्देशः २
नारकाणां
भव्यत्वादि
७९ सूत्रम्
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एकेंद्रिय अने विकलेंद्रिय वर्जीने पंचेंद्रिय यावत् व्यंतर पर्यंत बब्बे भेद जाणवा. (१३), वे प्रकारे नैरयिको कहेला छे, ते आसुलभबोधिको अने दुर्लभबोधिको, यावत् वैमानिक पर्यंत बब्बे भेद जाणवा. (१४), बे प्रकारे नैरयिको कहेला छे, ते आ-कृष्णपाक्षिको अने शुक्लपाक्षिको, यावत् वैमानिक पर्यंत बब्बे भेद जाणवा. (१५), बे प्रकारे नैरयिको कहेला छे, ते आ-चरम-ठेल्ला (नरकना भवनी अपेक्षाए) भववाळा अने अचरम-जेओनो छेल्लो भव नथी ते, यावत् वैमानिक पर्यंत बब्बे भेद जाणवा. (१६).
टीकार्थः-सोळ दंडक( सूत्र )मां भव्यदंडक सुगम छे. (१), अनंतरदंडकमां 'अणंतर'त्ति० एक जीवनी साथे बीजा जीवो अंतर विना ( ते ज समयमां ) उत्पन्न थयेला ते अनंतरोपपन्नको अने पूर्वोक्तथी विपरीत रीते (एक पछी एक , भिन्न भिन्न समये ) उत्पन्न थयेला ते परंपरोपपन्नको. अथवा विवक्षित देश(क्षेत्र )नी अपेक्षाए जे अंतर रहितपणाए उत्पन्न थयेला ते अनंतरोपपन्नको अने विवक्षित देशमां परंपराए उत्पन्न थएला ते परपरोपपन्नको. (२), गतिदंडकमां गति समापन्नको-नरकमां जता अने बीजा नरकमां गयेला ते अगतिसमापन्नको, अथवा नारकपणाने प्राप्त थयेला ते गतिसमापन्नको अने जेणे नरकगतिर्नु आयुष बांध्यु छे ते द्रव्यनारको अगतिसमापन्नको छे. अथवा चलत्व अने स्थिरत्वनी अपेक्षाए क्रमशः गतिसमापन्नको अने अगतिसमापनको जाणवा. (३), प्रथमसमयदंडकमा ' पढमे ' त्यादि० जेओने उत्पन्न थथे प्रथम समय थयेल छे ते प्रथमसमयोपपन्नको अने तेथी जुदा (बे वगैरे समयना उत्पन्न थयेला ) ते अप्रथमसमयोपन्नपको. (४), आहारदंडकमा आहारको हमेशां होय छे, अनाहारको तो विग्रहगतिमा एक समय अथवा बे समय सुधी होय छे. जे त्रसना डीमां
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श्रीस्थानागपत्र सानुवाद ॥१०३॥
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मरण पामीने त्रसना मां ज उत्पन्न थाय छे तेनी अपेक्षाए आ हकीकत जाणवी. अन्यथा-बीजी रीते त्रण समय पर्यत २ स्थानकाअनाहारक होय छे. (५), उच्छ्वासदंडकमां जे श्वासोच्छ्वास ले छे ते उच्छ्वासको, ते उच्छ्वासपर्याप्तिवडे पर्याप्तको अने तेथी भिन्न ध्ययने उच्छ्वासपर्याप्तिवडे अपर्याप्तको ते नोच्चासको (६), इंद्रियदंडकमां इंद्रियपर्याप्तिवडे पर्याप्तको ते सेंद्रियो अने इंद्रियपर्याप्तिवडे उद्देशः२ अपर्याप्ता ते अनिंद्रियो (७), पर्याप्सदंडकमा पर्याप्तनामकर्मना उदयथी पर्याप्ता छे अने अपर्याप्तनामकर्मना उदयथी अपर्याप्ता छे.
नारकाणां (८), संज्ञीदंडकमां मनपर्याप्तिवडे पर्याप्तको ते संज्ञी-संज्ञावाळा अने मनपर्याप्तिवडे अपर्याप्तको ते असंज्ञी छे. 'एवं पंचिंदिए'
भव्यत्वादि त्यादि० एटले के जेम नारको संज्ञी अने असंबीना भेदवडे कहेला छे तेम, 'एवं विगलोंद्रयवज' त्ति विकल-अपरिपूर्ण
त्ति विकल-अपरिपूर्ण ४७९ सूत्रम् संख्याविशिष्ट इंद्रियो छे जेओने ते विकलेंद्रियोने (पृथ्वी वगेरे, द्वींद्रिय, त्रींद्रिय अने चतुरिद्रियो ) वर्जीने चोवीश दंडकमा | जे बीजा पंचेंद्रियो असुर विगेरे होय छे ते सर्वने संज्ञी अने असंज्ञीपणाए कहेवा, अर्थात् छेल्लं दंडक-' जाव वेमाणिय 'त्ति. यावत् वैमानिक दंडक पर्यंत पण एवी रीते ज कहेवा. कोई प्रतमा 'जाव वाणवंतरिय 'त्ति.
१. सामान्य जीवनी अपेक्षाए आ कथन छे. २ आ व्याख्या सामान्य प्रकारे छे, कारण के अपर्याप्तनामकर्मना उदयबाळा ( लब्धिअपर्याप्तक) नारक अने देवमां संभवे नहिं अने प्रस्तुत सूत्रमा 'जाव वेमाणिया । कहेल छे, माटे अहि एम जणाय छे के जे जीवोए स्वयोग्य पर्याप्ति पूर्ण करेल नथी एवा करणअपर्याप्त जीवोनी अपेक्षाए नारक अने देवो अपर्याप्त होय छे. अथवा करणअपर्याप्तिकालमां पण अपर्याप्तनामकर्मनो उदय होय एम संभवे छे.
॥१०३॥
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एवो पाठ छे, त्यां आ प्रमाणे अर्थ समजवो-जे असंजीओमाथी नारकादिपणाए उत्पन्न थाय छे ते असंज्ञीओ ज [ अपर्याप्तअवस्थामा ] कहेवाय छे, अने असंाओ नारकादिथी आरंभीने यावत् व्यंतर सुधीमा उत्पन्न थाय छे परंतु ज्योतिष्क अने वैमानिकोने विषे उत्पन्न थता नथी. तेओने असंज्ञीपणानो अभाव होवाथी तेओर्नु अहिं ग्रहण करेल नथी. (९), भाषादंडकमां-भाषापर्याप्तिना उदयमा भाषको छे अने भाषापर्याप्तिनी अपर्याप्तक अवस्थामां अभाषको छे. एकेंद्रियोने * भाषापर्याप्ति नथी तेथी कहे छे-' एवमित्यादि० (१०), सम्यग्दृष्टिदंडकमां एकेंद्रियोने सम्यक्त्व नथी, द्वींद्रियो वगेरेने तो सास्वादन सम्यक्त्व होय, परन्तु एटला माटे कयुं छे के-'एगिदियवज्जा सब्वे 'त्ति० (११), संसारदंडकमां संक्षिप्त-थोडा भववाळा ते परीत्तसंसारिको अने अनंतभववाळा ते अनंतसंसारिको (१२), स्थितिदंडकमां काळ शब्दनो अर्थ काळो वर्ण पण होय, समय शब्दनो अर्थ आचार पण थाय, परन्तु अहिं कालरूप समय ते काळसमय, वर्षना प्रमाणथी संख्या करवा योग्य छे. संख्यात काळसमयरूप स्थिति ( रहेQ ) छे जेओनी ते संख्येयकाळसमयस्थितिको दश हजार वर्ष वगेरे स्थितिवाळा, बीजा पल्योपमना असंख्येयभागादि स्थितिवाळा ते असंख्येयकालसमयस्थितिको जाणवा. 'संखिजकालठिइय'त्ति एवो पाठ पण कोई प्रतमा छे, पण ते सुगम छे. 'एवमिति आ प्रमाणे नारकनी माफक बे प्रकारे स्थितिबाळा दंडको कह्या. शुं बधा य दंडको कह्या ? ए प्रश्नना जवाबमां कहे छे के-एम नहि, पण एकेंद्रिय अने विकलेंद्रियोने वर्जीने असुर वगरे पंचेंद्रियो कह्या, कारण के एकेंद्रियादिनी तो बावीश हजार वर्ष वगेरे संख्यातकाळनी स्थिति छे. पंचेंद्रियो पण शु बधा य कह्या ? आशंकानो जवाब आपे छे के एम नहिं, फक्त व्यंतर पर्यंत (नारकथी व्यंतर सुधीना पंचेंद्रियो), एओ ज
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र
सानुवाद
॥ १०४ ॥
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उभय स्थितिवाळा ( संख्यात अने असंख्यातकाळनी स्थितिवाळा ) होय छे. ज्योतिष्क अने वैमानिको तो असंख्या तकाळनी स्थितिवाळा ज होय छे. (१३), बोधिदंडकमां बोधि-जैनधर्मनी प्राप्ति सुलभ छे जेओने ते सुलभबोधिको, अने जैनधर्मनी प्राप्ति दुर्लभ छे जेओने ते दुर्लभवोधिको (१४), पाक्षिकदंडकमां शुक्ल - विशुद्धपणाथी जे पक्ष-स्वीकार ते शुक्लपक्ष, ते वडे | जे विचरे छे ते शुक्लपाक्षिको शुक्लपणुं तो क्रियावादीपणाए छे. कर्तुं छे के किरियावाई भव्वे गो अभव्वे सुक्कपfree in favorखए- क्रियावादी भव्य होय छे, पण अभव्य होता नथी, (तेम) शुक्लपाक्षिक होय छे पण कृष्णपाक्षिक होतो नथी. अथवा शुक्लोनो - आस्तिकपणाए विशुद्धानो, जे पक्ष-समूह ते शुक्लपक्ष, तेमां थयेला ते 'शुक्लपाक्षिको, अने तेनाथी विपरीत पक्षवाळा ते कृष्णपाक्षिको. (१५), चरमदंडकमा जेओने ते नारकादि छेल्लो भव होय अर्थात् फरीथी ते नारकादिमां उत्पन्न नहिं थाय, कारण के मोक्षे जवाथी ते चरम कहेवाय छे अने बीजा एटले जेने फरीथी नारकादिमां उपज छे ते अचरम कहेवाय छे. (१६). एवी रीते शरूआतथी अढार दंडको कहेवाया. (सू० ७९) पूर्वना सूत्रमां वैमानिको चरम अने अचरमपणाए कहेवाया, तेओ अवधिवडे अधोलोक वगेरेने जाणे छे, तेथी तेना जाणवामां आवतां जीवना बे प्रकार वर्णवे छे
दोहिं ठाणेहिं आया अधोलोगं जाणइ पासइ तं० - समोहतेणं चेव अप्पाणेणं आया अहेलोगं जाइ पास असमोहतेणं चेव अप्पाणेणं आया अहेलोगं जाणइ पासइ, आधोहि समोहतासमा
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स्थानकाध्ययने
उद्देशः २
समुद्घात
वैक्रियेतर
तोऽवधिः
देशसर्वतः
शब्दाद्याः
८० सूत्रम्
( १०४॥
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हतेणं चेव अप्पाणणं आया अहेलोगं जाणइ पासइ १, एवं तिरियलोगं २ केवलकप्पं लोग ४। दोहिं ठाणेहिं आया अधोलोगं जाणइ पासइ तं०-विउवितेण चेव अप्पाणेणं आता अधोलोगं जाणइ पासइ अविउवितेणं चेव अप्पाणणं आता अधोलोगं जाणइ पासइ आहोधि विउव्वियाविउवितेण चेव अप्पाणेणं आता अधोलोगं जाणइ पासइ १, एवं तिरियलोगं०४।दोहिं ठाणेहिं आया सद्दाइं सुणेइ, तं०-देसेणवि आया सद्दाइं सुणेइ सव्वेणवि आया सद्दाइं सुणेइ १, एवं रूवाइं पासइ २, गंधाइं अग्घाति ३, रसाइं आसादेति ४, फासाइं पडिसंवेदेति ५। दोहि ठाणेहि आया ओभासइ. तं०-देसेणवि आया ओभासइ सव्वेणवि आया ओभासति १, एवं पभासति २, विकुब्वति ३, परियारेति ४, भासं भासति ५, आहारेति ६, परिणामेति ७, वेदेति ८, निजरेति ९ । दोहि ठाणेहिं देवे सद्दाइं सुणेइ, तं०-देसेणवि देवे सदाइं सुणेति सब्वेवि देवे सद्दाइं सुणेइ १ जाव निजरेति १४ । मरुया देवा दुविहा पं० तं०-एगसरीरे चेव बिसरीरे चेव १, एवं किन्नरा २, ३ किंपुरिसा ३, गंधव्वा ४, णागकुमारा ५, सुवन्नकुमारा ६, अग्गिकुमारा ७, वायुकुमारा ८, देवा दुविहा
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भीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥१०५॥
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पं० तं०-एगसरीरे चेव बिसरीरे चेव । सू० ८० । बिट्ठाणस्स बीओ उद्देसओ सम्मत्तो २-२॥
मूलार्थः-वे स्थानवडे आत्मा अधोलोकने जाणे छे-देखे छे, ते आ प्रमाणे-समुद्घात करवारूप स्वभाववडे आत्मा - अधोलोकने जाणे छे-देखे छे, समुद्घात न करवारूप स्वभाववडे आत्मा अधोलोकने जाणे छे-देखे छे. यथावधिज्ञानी समु
द्घात् करवावडे अने समुद्घात न करवारूप स्वभाववडे आत्मा अधोलोकने जाणे छे-देखे छे. (१), एवी रीते तिर्यग्लोकने (२), ऊर्ध्वलोकने (३) अने परिपूर्ण चौद राजलोकने जाणे-देखे छे. (४). बेस्थानवडे आत्मा अधोलोकने जाणे छे-देखे छे,ते आ प्रमाणे-करेल वैक्रिय शरीररूप स्वभाववडे आत्मा अधोलोकने जाणे छे-देखे छ, न करायेल बैंक्रिय शरीररूप स्वभाववडे आत्मा अधोलोकने जाणे छे-देखे छे. यथावधिज्ञानी कृतवैक्रिय शरीर अने अकृतवैक्रियशरीररूप स्वभाववडे आत्मा अधोलोकने जाणे हे-देखे छे. (१), एवीरीते तिर्यगलोकने (२), ऊर्ध्वलोकने (३) अने परिपूर्ण चौद राजलोकने जाणे छे-देखे छे. (४). बे स्थानवडे आत्मा शब्दोने सांभळे छे, ते आ प्रमाणे-देशथी आत्मा शब्दोने सांभळे छे अने सर्वथी आत्मा शब्दोने सांभळे छे. (१), एवी रीते देशथी अने सर्वथी रूपोने देखे छे.(२), गंधोने सूंघे छे. (३), रसोने आस्वादे छ (४), अने स्पोंने अनुभवे छे. (५) बे स्थानवडे | आत्मा दीपे (प्रकाशे ) छे, ते आ प्रमाणे-देशथी आत्मा दीपे छे अने सर्वथी दीपे छे.(१), एवी रीते आत्मा देशथी अने सर्वथी विशेष दीपे छे. (२), विकुर्वणा करे छे. (३), परिचारणा (मैथुन) सेवे छे. (४), भाषाने बोले छे. (५), आहार करे छे. (६), परिणामने पमाडे छे. (७), अनुभवे छे.(८), अने निर्जरा करे छे-त्याग करे छे. (९).बे स्थानवडे देव शब्दोने सांभळे छे, ते आ प्रमाणे
२ स्थानकाध्ययने उद्देशः २ समुद्घातवैक्रियेतरतोऽवधिः देशसर्वतः शब्दाद्याः ८०सूत्रम्
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देशथी देव शब्दोने सांभळे छे अने सर्वथी देव शब्दोने सांभळे छे. (१) यावत् निर्जरे छे. (१४), मरुत् (लोकांतिक देव विशेष) देवो प्रकारे कहेला छे, ते आ प्रमाणे- एक शरीरवाळा ( कार्मण शरीरवाळा ) अने वे शरीरवाळा ( कार्मण ने वैय शरीरवाळा ) (१), एवी रीते किन्नरो (२), किंपुरुषो (३), गंधर्वो (४), नागकुमारो (५), सुपर्णकुमारो (६), अग्रिकुमारो (७) अने वायुकुमारो बब्बे प्रकारे छे. (८). देवो बे प्रकारे कहेला छे, ते आ प्रमाणे- एक शरीरवाळा अने बे शरीरवाळा. ( सू० ८०)
टीकार्थ :- 'दोही 'त्यादि० चार सूत्रनी व्याख्या करतां कहे छे के आत्मगत ये स्थान - प्रकारवडे जीव अधोलोकने अवधिज्ञानवडे जाणे छे अने अवधिदर्शनवडे देखे छे. ' समवहतेन' वैक्रियसमुद्घातगत स्वभाववडे अथवा अन्य समुद्घातगत स्वभाववडे, अने बीजी रीते समुद्घात न करवारूप स्वभाववडे. ए ज व्याख्या करे छे' आहोही 'त्यादि० जे प्रकारे अवधि छे जेने ते यथावधि (प्राकृत शैलीथी आदिमां दीर्घपणुं करेल छे) अथवा परमावधिथी अधोवत (न्यून) अवधि छे जेने ते अधोअवधि आत्मा-नियत क्षेत्र विषयवाळो अवधिज्ञानी क्यारेक समवहत अने क्यारेक असमवहत एवी रीते वे स्वभाववडे जाणे - देखे छे. ' एवमित्यादि ० ' एवमि 'ति० जेम अधोलोक समवत अने असमTहत वे प्रकारवडे अवधिज्ञानना विषयपणाए कहेल छे. एवी रीते तिर्यग्लोक वगेरे पण जाणवा. तिर्यग्लोक सूत्र, ऊर्ध्वलोक सूत्र अने केवलकल्पसूत्र सुगम छे. विशेष कहे छे- केवल परिपूर्णरूप पोताना कार्यना सामर्थ्यथी कल्प - केवलज्ञाननी जेम अथवा परिपूर्णपणाए केवलज्ञान सदृश, अथवा केवलकल्प - सिद्धांतशैलीए परिपूर्ण लोक (चौद राजलोकरूप) ने जाणे छेदेखे छे (२-४ ). वैक्रियसमुद्घात पछी वैक्रिय शरीर होय छे, आ हेतुथी वैक्रियशरीरनो आश्रय करीने अधोलोक
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KA
श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद
RR
शब्दोने कयास इन्द्रियोवडे सर्वथी सांभाका सथी-न हणायेल श्रा, दसेणवित्ति
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वगेरेना ज्ञानने विषे वे प्रकार कहे छ-'दोही'त्यादि० आ चार सूत्रो सुगम छे. विशेष कहे छ-'विउब्बिएणं'त्ति० करेल वैक्रिय। शरीरवडे जाणे-देख छे. (१-४). ज्ञानना अधिकारमा ज आ बीजो प्रकार कहे छ 'दोही'त्यादि० पांच सूत्रो, 'देसेणवित्ति. देशधी-एक काननो उपघात (विनाश) होते छते एक कानथी सांभळे छे, अथवा सर्वथी-न हणायेल श्रोत्रीद्रयवाळो, अथवा जे संभिन्नश्रोत नामनी लब्धिवाळा (मुनि) ते बधी इंद्रियोबडे सर्वथी सांभळे छे. आ हेतुथी सर्वथी कथन कराय छे. (१), 'एवमिति जेम देश अने सर्वथी शब्दोने कह्या तेम रूपादिने पण जाणी लेवा. विशेष एके-जीभना देशनो प्रसुप्त्यादि दोषवडे | उपघात ( हरकत ) थवाथी देशथी आस्वादे (खाय ) छे एम जाणवू. (२-५). शब्दश्रवण वगेरे जीवपरिणामो कह्या, तेना प्रस्तावथी तेना परिणामांतरोने कहे छे-'दोहीत्यादि० नव सूत्रो सुगम छे. विशेष ए के-अवभासते-खद्योत( खजुआ )नी माफक देशथी दीपे छे अने दीवानी माफक सर्वथी दीपे छे. अथवा देशथी फडकावधिज्ञानी जाणे छे अने सर्वथी अभ्यंतरावधिज्ञानी जाणे छे. (१), 'एवमिति० देश अने सर्वथी विशेषतः दीपे छे. (२), देशथी हाथ वगेरेनुं वैक्रिय करवावडे
१. जीभ जड घइ जवा वगेरेथो ज्ञानतंतु क्रियारहित थाय छे. २. ओरडाना जाळियाथी अंतरित रहेल दीपकनो प्रभाना नोकळपानी समान फडकावधिज्ञान कहेवाय छे. ते फहुको एक जीवने क्षयोपशमनी विचित्रताथो संख्याता अथवा असंख्याता होय छे. आ फडको, मनुष्य अने तिथंच अवधिज्ञानीने होय छे. ३ जीवने सर्वतः अंतररहित एक सरखं ज्ञान होय ते अभ्यंतरावधि जाणj. विशेष निजातुर विशेषावश्यकनी टोका जोवी.
काध्ययने उद्देशः २ समुद्घातवैक्रियेतरतोवधिः देशसर्वतः शब्दाद्या ८० सूत्रम्
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अने सर्वथी-संपूर्ण शरीरनुं वैक्रिय करवावडे विकुर्वणा करे छे. (३), 'परियारेइ' ति० देशथी मनोयोग वगेरेमांथी कोइपण एक योगवडे अने सर्वथीत्रण योगवडे मैथुनने सेवे छे. (४), देशथी जीभना समभाग वगेरेथी अने सर्वथी समस्त तालु वगेरे स्थानवडे भाषाने बोले छे. (५), देशथी मात्र मुखवडे अने सर्वथी ओज आहारनी अपेक्षाए ( सर्व आत्मप्रदेशवडे) आहार करे छे. (६), आहारने ज परिणमावे छे. खल, रसना विभागवडे भक्ताशय ( होजरी ) ना भागने बरोळ वगेरेवडे रुंधवाथी देशथी अने प्लीह वगेरेथी रुंधेल न होवाथी सर्वथी. (७), देशथी हाथ वगेरे अवयववडे अनुभवे छे अने सर्वथी अवयववडे आहार संबंधी परिणामने प्राप्त थयेल पुद्गलोने इष्ट अने अनिष्ट परिणामथी अनुभवे छे. (८), आहार करेला, परिणमेला अने अनुभवेला आहारना पुद्गलोने देशथी अपान ( गुदास्थान ) वगेरेथी अने सर्वथी संपूर्ण शरीरखडे प्रस्वेद ( परसेवा ) नी जेम निर्जरे छे - त्याग करे छे. (९) आ चौद सूत्रो विवक्षित विषयवस्तुन अपेक्षाए लेवा. तेमां देश अने सर्वनी योजना आ प्रमाणे समजवी. जेम देशथी पण विवक्षित शब्दोमांथी केटलाएक शब्दोने सांभळे छे अने सर्वथी समस्तपणे वधा शब्दोने सांभळे छे (१), एवी रीते रूप वगेरेने पण देशथी अने सर्वथी जाणी लेबुं (५), तथा (शब्दादि) विवक्षित वस्तुने देश अथवा सर्वथी प्रकाशे छे (६), विशेष प्रकाशे छे (७), एवी रीते विकुर्वणा संबंधी वस्तुने विकुर्वणा करे छे (८), परिचारणा योग्य स्त्रीशरीरादि प्रत्ये परिचारणा सेवे छे (९), कहेवा योग्य शब्दनी अपेक्षाए देशथी भाषाने बोले छे (१०), सर्वथी भोजन योग्य वस्तुने खाय छे (११), आहरने परिणमात्रे छे (१२), वेदवायोग्य कर्मने अनुभवे छे (१३), देशथी अथवा सर्वथी एवी ते निर्जरे पण छे. (१४), देश अने सर्ववडे सामान्यथी सांभळकुं वगेरे कघुं, विशेष विवक्षामां देवोनुं प्रधानपणुं होवाथी
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२ स्थानका
श्रीस्थानानपत्र सानुवाद ॥ १०७॥
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तेओने आश्रयीने ते (शब्दादि) कहे छ:-'दोही' त्यादि० ए पण विवक्षित शब्दादि विषयनी अपेक्षाए चौद सूत्र देशथी अथवा सर्वथी लेवा. आ हमणा ज कहेल भावो शरीर होय तो ज संभवे छे, आ कारणथी देवोर्नु प्रधानपणुं होवाथी देवोना ज शरीरनु निरूपण करवा माटे कहे छे-'मरुए' त्यादि० आ आठ सूत्र सुगम छे. विशेष कहे छे-मरुतदेवो लोकांतिक देव विशेष छे. का छे के-सारस्वता१दित्य २ वन्य ३रुण ४ गद्दतोय ५ तुषिता ६ व्याबाध ७मरुतो८ अरिष्ठा९श्चेति (तत्वा० अ०४, सू० २६) ते देवो एक शरीवाळा होय छे, कारण के विग्रहगतिमां कार्मण शरीर छे, त्यारपछी वैक्रियभावथी ये शरीरवाळा होय छे, बन्ने शरीरनो समाहार-एकत्रीभूत बे शरीर, ते छे जेओने ते वे शरीरवाळा, अथवा भवधारणीय ( मूळ )ज शरीर ज्यारे होय त्यारे एक शरीर, ज्यारे उत्तरवेक्रिय करे त्यारे बे शरीर होय छे. किन्नर, किंपुरुष अने गंधर्व ए त्रण व्यंतरो छे अने नागकुमारादि चार भवनपतिओ छे. अमुक संख्यामां भेदनुं ग्रहण करेल छे ते बीजा भेदोने बंतावनार छे, परंतु बीजानो निषेध करवा माटे नथी. सर्व जीवोने विग्रहगतिमां एक शरीरपणानी अने विग्रहगति सिवायना समयमां बे शरीरपणानी प्राप्ति होवाथी सामान्यतः कहे छे-'देवा दुविहे 'त्यादि० सुगम छे (सू०८०)
॥बीजा स्थानना बीजा उद्देशानी टीकानो अनुवाद समाप्त ॥
उद्देशः२ समुद्घातवैक्रियेतरतोऽवधिः देशसर्वतः शब्दाद्याः ८० सूत्रम्
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X॥१०७॥
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अथ द्वितीयस्थानकाध्ययने तृतीयः उद्देशः
बीजो उद्देशक कह्यो, हवे त्रीजानो आरंभ करे छे. त्रीजा उद्देशकनो बीजा उद्देशकनी साथ संबंध छे. अनंतर उद्देशकमां जीव-पदार्थ अनेक प्रकारे कह्यो, त्रीजा उद्देशकमां तो जीवने सहाय्य करनार पुद्गलधर्म, जीवधर्म, क्षेत्र अने द्रव्यरूप पढ़ार्थनी प्ररूपणा कहेवाय छे. आ संबंधने दर्शावता आ उद्देशकना पहेला आठ सूत्र नीचे प्रमाणे
दुविहे सद्दे पं० तं०-भासासद्दे चैव णोभासासदे चैत्र, १ भासासद्दे दुविहे पं० तं०-अक्खरसंबद्धे चेव णोअक्खरसंबद्धे चैव २, णोभासास दुविहे पं० तं० - आउज्जसद्दे चेव णोआउज्जसद्दे चैत्र ३, आउज्जसद्दे दुविहे पं० तं०-तते चैव वितते चेव ४, तते दुविहे पं० तं०-घणे चैव झुसिरे चेव ५, एवं विततेऽवि ६, णोआउज्जसद्दे दुविहे पं० तं०- भूसणसद्दे चैव नोभूसणस चेव ७, नोभूसणस दुविहे पं० तं०-तालसदे चैव लत्तिआ सद्दे चैत्र ८, दोहिं ठाणेहिं सहुप्पाते सिया, तंजहा - साहन्नंताण चेव पुग्गलाणं सहुप्पाए सिया भिजंताण चेव पोग्गलाणं सहुप्पाए सिया । सू० ८१ मूलार्थ:-बे प्रकारे शब्द कहेल छे, ते आ-भाषाशब्द- तालु अने जीभना संबंधथी बोलातो अने नोभाषाशब्द-भाषा
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥१०८
२स्थानका
ध्ययने उद्देशः३
भाषाशब्दादि ८१ सूत्रम्
शब्दना जेबो. (१), भाषाशब्द बे प्रकारे कहेल छे, ते आ-अक्षरना संबंधवाळो अने अक्षरना संबंध वगरनो (२), नोभाषाशब्द | चे प्रकारे कहेल छे, ते आ-आतोद्य-ताडन करवाथी थयेल शब्द अने नोआतोद्य-ताडन वगर थयेल शब्द (३), आतोधशब्द | वे प्रकारे कहेल छे, ते आ-तत (वीणा) वगेरेनो अने वितत-चामडाथी मढेल अने तंत्री रहितनो (४), तत पण वे प्रकारे कहेल छे, ते आ-घन अने सुषिर-पोलुं (५), एम वितत पण बे प्रकारे छ (६), नोआतोद्य शब्द बे प्रकारे छे, ते आ-भूषणशब्द-झांझर वगैरे
भूषणनो शब्द अने नोभूषणशब्द-भूषण सिवायनो (७), नोभूपणशब्दबे प्रकारे छे, ते आ-तालजन्य शब्द-हाथना तालथी थयेल | ते तालशब्द अने लत्ति ( कांसीनो ) शब्द (८). बे स्थान( कारण )वडे शब्दोनी उत्पत्ति थाय, ते आ-एकत्रित थतां अथवा | ताडना करातां पुद्गलोथी शब्दोनी उत्पत्ति थाय, अने भेद थतां एटले चीरातां पुद्गलोथी शब्दोनी उत्पत्ति थाय. (सू०८१) ___टीकार्थः-आ सूत्रनो पूर्व सूत्रनी साथे नीचे प्रमाण संबंध छे-अहिं बीजा उद्देशकना अंत्य सूत्रमा देवोना शरीरनुं निरूपण कयु पण ते शरीरवाळा तो शब्दादिना ग्राहक होय छे, माटे अहिं प्रथम शब्दनु निरूपण कराय छे. आ प्रमाणे संबंधनी व्याख्या सुगम छे, विशेष ए के भाषाशब्द-भाषापर्याप्तिनामकर्मना उदयथी प्राप्त थयेल जीवनो शब्द, अने बीजो नोभाषाशब्द (१), अक्षरसंबंध-अक्षरना उच्चारवाळो अने बीजो नोअक्षरसंबंध-अक्षरना उच्चार बगरनो (२), आतोद्य-ढोल वगेरेनो जे शब्द ते आतोद्य शब्द अने नोआतोद्य-वंश (बांसडा) वगेरेने फाडवाथी थयेल शब्द ते नोआतोद्य शब्द (३), तंत्री तेमज चर्म वगेरेथी बंधायेल जे आतोद्य ते ततशब्द (४) ते किंचित् घन ( निविड ), जेम पिंजनिक (पीजण ) वगेरे, अने कांइक शुषिर ( पोकळ ), जेम वीणा, पटह वगेरे, तेनाथी उत्पन्न थयेल जे शब्द ते घन अने शुषिर कहेवाय छे. (५), वितत-ततथी विलक्षणं (भिन्न),
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॥१८॥
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तंत्री वगेरेथी रहित, ते वितत पण भाणक (थाळी) वगरे वाजिबनी जेम घन अने काहेला वगैरे वाजिंत्रनी जेम शुषिर, तेनाथी उत्पन्न थयेल विततशब्द ते घन अने शुषिर कहवाय छे. चोथा स्थानकमां पण फरीने एज कहेवामां आवशे. तत ते वीणादि वाजिंत्र जाणवा अने वितत ते पटह (ढोल) वगैरे जाणवा. घन ते काश्यताल वगेरे अने शूपिर ते वंश (वांसळी) वगेरे कहेल छे. ए प्रमाणे विवक्षाना प्रधानपणाथी विरोध मानवो नहिं. (६), भूषण-नुपूर (झांझर) वगेरे अने नोभूषण-घरेणाथी जुईं. (७), ताल-हस्तताल (हाथथी ताल आपवो ते) अने 'लत्तियत्ति० कंसिका-कांसीओ, ते आतोद्यपणाए अहिं विवक्षित नथी. अथवा 'लत्तियासद्देत्ति० पाटु प्रहारथी थयेल शब्द. (८). शब्दना भेदो कह्या, हवे अहिंथी शब्दना कारणनिरूपण करवा माटे कहे छ-'दोही'त्यादि के कारणवडे शब्दनी उत्पत्ति थाय छे. साथे (भेळा) थयेला पुद्गलोनो-कायभूत शब्दनो उत्पाद थाय, अथवा सामसामे आघात पामवाथी शब्दनी उत्पत्ति थाय छे. (पंचमी विभक्तिना अर्थमां छटी छे.) जेम घंटा अने लाला(लोलक)नी जेम बादर परिणामने पामेल पुद्गलोना संघातथी शब्द उत्पन्न थाय छे, एवी रीते वासना विभागनी जेम भिद्यमान-फाडता-विभाग करता शब्दनी उत्पत्ति थाय छे. (सू० ८१). हवे पुद्गलना संघात अने भेदना कारणनुं निरूपण करवा माटे कहे छे
दोहिं ठाणेहिं पोग्गला साहण्णति तं-सइंवा पोग्गला साहन्नति परेण वा पोग्गला साहन्नंति १. रणशींगडु, शरणाइ, भेरी वगेरे.
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र
सानुवाद
॥ १०९ ॥
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१, दोहिं ठाणेहिं पोग्गला भिजंति तं०-सई वा पोग्गला भिज्जंति परेण वा पोग्गला भिज्जंति २, दोहिं ठाणेहिं पोग्गला परिसडंति, तं०-सई वा पोग्गला परिसडंति परेण वा पोग्गला पेरिसाडंति ३, एवं परिवडंति ४, विद्धंसंति ५ । दुबिहा पोग्गला पं० तं० - भिन्ना चेत्र अभिन्ना चेव १, दुविहा पोग्गला पं० तं०- भेउरधम्मा चैत्र नोभेउरधम्मा चेव २, दुविहा पोग्गला पं० तं०- परमाणुपोग्गला चेव नोपरमाणुपोग्गला चैत्र ३, दुविहा पोग्गला पं० तं०- सुहुमा चैव बायरा चेव ४, दुविहा पोग्गला पं० तं०बद्धपासपुट्ठा चेव नोबद्धपासपुट्ठा चेव ५, दुविहा पोग्गला पं० तं० - परियादितच्चैव अपरियादितच्चैव ६, दुविहा पोग्गला पं० तं०-अत्ता चेव अणत्ता चैव ७ दुविहा पोग्गला पं० तं० - इट्ठा चेत्र अणिट्ठा ८, एवं कंता ९, पिया १०, मणुन्ना ११, मणामा १२ । सू० ८२, दुविहा सद्दा पं० तं०-अत्ता चेत्र अणत्ता चैव १, एवमिट्ठा जाव मणामा २-६, दुविहा रूवा पं० तं०-अत्ता चैव अणत्ता चैव १, जाव मणामा २–६, एवं गंधा रसा फासा, एवमिर्किके छ आलावगा भाणियव्वा १३ - ३० । सू० ८३
१ आगमोदय समितिनी प्रतमां परिसाडिज्जति एवो पाठ छे.
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२ स्थानका
ध्ययने
उद्देशः ३
पुद्गल
भेदादिः
८२-८३
सूत्रे
॥ १०९ ॥
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मूलार्थ:-चे कारणवडे पुद्गलो एकठा थाय छे -बंधाय छे, ते आ प्रमाणे - पोतानी मेळे विस्रसास्वभाववडे पुद्गलो बंधाय छे अथवा पर- बीजा (प्रयोग) बडे पुद्गलो बंधाय छे. (१), वे कारणवडे पुद्गलो भेदाय-जुदा थाय छे, ते आ प्रमाणेपोतानी मेळे अने बजावडे पुद्गलो जुदा थाय छे. (२), वे कारणवडे पुद्गलो सडे छे, ते आ-पोतानी मेळे पुद्गलो सड़े छे अथवा बीजावडे पुद्गलो सडे छे. (३), एवी रीते पडे छे. (४), विध्वंस - विनाश पामे छे. (५). वे प्रकारे पुद्गलो कहेला छे, ते आ प्रमाणे- जुदा थयेला अने जुदा न थयेला (१), बे प्रकारे पुद्गलो कहेला छे, ते आ-पोतानी मेळे भेदाय एवा स्वभाववाळा अने न भेदाय एवा स्वभाववाळा (२), वे प्रकारे पुद्गलो कहेला छे, ते आ-परमाणुपुद्गलो अने नोपरमाणुपुद्गलो (स्कंधो) (३), बे प्रकारे पुद्गलो कहेला छे, ते आ-सूक्ष्मपुद्गलो चार स्पर्शवाळा अने बादरपुद्गलो आठ स्पर्शवाळा (४), बे प्रकारे पुद्गलो कहेला छे, ते आ-सारी रीते मजबूत बंधायला अने मात्र स्पर्श करायेला (५), बे प्रकारे पुद्गलो कहेला छे, ते आ पर्यायातीत पूर्वना पर्यायने छोडेला अने अपर्यायातीत पूर्वना पर्यायने नहि छोडेला (६), वे प्रकारे पुद्गलो कहेला छे ते आ-जीवोए परिग्रहपणे स्वीकारेला ते आत्ता अने जीवोए परिग्रहपणे नहि स्वीकारेला ते अनात्ता (७), बेप्रकारे पुद्गलो कहेला छे, ते आ-इष्टपुद्गलो अने अनिष्ट पुद्गलो (८), एवी रीते कान्त पुद्गलो ( ९ ), प्रिय पुद्गलो (१०), मनोज्ञपुद्गलो (११) अने मनने प्रिय ते मणामा. तेओथी विपरीत अकांत वगेरे जाणवा. (१२). (सू०८२). बे प्रकारे शब्दो कहेला छे, ते आ प्रमाणे जीवे ग्रहण करेला अने जीवे ग्रहण नहि करेला (१), एम इष्ट, कांत विगेरे शब्दो यावत् मणामा पर्यंत, प्रतिपक्ष अनिष्ट वगेरे सहित जाणवा. (२-६). बे प्रकारे रूप कहेल छे, ते आ-जीववडे ग्रहण करायेल अने जीववडे
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२ स्थानकाध्ययने उद्देशः ३ पुद्गलभेदादिः ८२-८३
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श्रीस्था- ग्रहण नहि करायेल (१), एवी रीते यावत् मणामा सुधी बब्बे भेद जाणवा. (२-६). एवी रीते गंध, रस अने स्पर्शना बब्बे | नाङ्गसूत्र भेद जाणवा. एवी रीते एकेकमा छ आलापको कहेवा. (१३-३०) (सू० ८३). सानुवाद
टीकार्थ:-'दोहीत्यादि० पांच सूत्रो सुगम छे. विशेष ए छ के-'स्वयं वेति. स्वभावथी जेम वादळा वगेरेने विषे ॥ ११०॥ * पुद्गलो संबंधवाळा थाय छे तेम, (आ कर्मकतृप्रयोग छे.) 'परेण वा' तथा पुरुष आदिवडे पुद्गलो संबंधवाळा कराय छे. (आ
सकर्मकप्रयोग छ ) (१), एवी रीते भेदाय छे-जुदा पडे छे. (२), तथा पर्वतना शिखरथी जेम पडे छे तेम पुद्गलो पडे छे. (३), कोढ वगेरेना निमित्तथी जेम आंगळी वगेरे सडे छे तेम पुद्गलो सडे छे. (४), वादळाना समूहनी जेम पुद्गलो नाश पामे छे. (५). हवे बार सूत्रवडे पुद्गलोर्नु ज निरूपण करता थका कहे छे-'दुविहे'त्यादि० जुदा पडेला अने जुदा न पडेला. (१), जे पोतानी मेळे भेदाय छे ते भिदुर अर्थात् भिदुरत्व धर्म छे जेओने ते भिदुरवाळा (आ वाक्यमां भाव प्रत्यय अंतर्भूत छे), भिदुरत्व धर्मथी विपरीत ते नोभिदुरधर्मवाळा [ वज्र वगेरे ]. (२), जे अत्यंत सूक्ष्म ते परमाणुपुद्गलो अने स्कंधो ते नोपरमाणुपुद्गलो. (३), जेओनो सूक्ष्मपरिणाम छे तेमज शीत, उष्ण, स्निग्ध अने रुक्ष लक्षणविशिष्ट चार ज स्पर्शवाळा ते भाषा वगेरे चार वर्गणाना पुद्गलो सूक्ष्म छे, अने बादरो तो जेओनो बादर परिणाम छे तेमज पांच वगेरे स्पर्शवाळा जे छ ते औदारिक वगेरे वर्गणाना पुद्गलो छे. (४), शरीरनी चामडीथी रजनी जेम स्पर्शायला ते पार्श्वस्पृष्टो, तेओथी बधायेलाशरीरमा पानी जेम अतिशय मळला, पार्श्वस्पृष्टरूप बंधायेला ते बद्धपश्चिस्पृष्टपुद्गलो. अहिं राजदंतादिगणथी 'बद्ध' शब्दनो प्रथम प्रयोग करेल छे. कयु छ के-पुढे रेणुं व तणुंमि बद्धमप्पीकयं पएसेहिं ' ति० स्पृष्ट-शरीरमा रजनी जेम
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सूत्र
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* स्पर्श करेल अने बद्ध-प्रदेशोवडे पोताना करेल अर्थात् तेनी साथे मळेल. आ बद्धपार्श्वस्पृष्ट पुद्गलो घाणेंद्रियादिने ग्रहणगोचर
छ, तथा नौबध्धा-बंधायेला नहिं परंतु पार्श्वस्पृष्टो एटले बद्ध पदना निषेधवाळा पुद्गलो श्रोत्रंद्रियन ग्रहणगोचर छे. आवश्यक सूत्रमा कयु छ के
पुढे सुणेइ सइं, रूवं पुण पासई अपुटुं तु । गंधं रसं च फासंच, बद्धपुढे वियागरे ॥३१॥
स्पर्शमात्रवडे ज संबंध करायेल शब्दने श्रोत्रंद्रियं सांभळे छे अने स्पर्श करायेला रूपने चक्षुइंद्रिय जुए छे, तथा गंध, रस अने स्पी बद्धस्पृष्ट करायेला ( सारी रीते मळेला ) होय तो घाणेंद्रिय, रसनेंद्रिय अने स्पर्शनेंद्रिय विषय करे छ (ग्रहण करे छ ). बध्धस्पृष्ट अने पार्श्वपृष्ट चे पदना निषेधमा श्रोत्रादिइंद्रियोनो ( उक्त पुद्गलो) विषय न थाय परंतु चक्षुइंद्रियना विषयो थाय. इंद्रियनी अपेक्षाए आ बद्धपार्श्वस्पृष्टतारूप पुद्गलोनी व्याख्या करी. एवी रीते जीवना प्रदेशनी अपेक्षाए अने अन्योन्यनी अपेक्षाए व्याख्या करवा योग्य छे. (५), 'परियाइयत्ति विवक्षित पर्यायने तजेला ते पर्यायातीत अथवा कर्म पुद्गलनी जेम समस्तपणे ग्रहण करेला ते पर्यायातीत. प्रतिपक्ष भेद सुगम छे अर्थात् समस्तपणे ग्रहण नहि करेला ते अपर्यायातीत. (६),
१. गंधादि द्रव्यो करतां भाषानां द्रव्यो सूक्ष्म, विशेष संख्यावाळा अने वासित करनार होय छे. वळी श्रोत्रंद्रिय विषयने ग्रहण करवामां घाणादि इंद्रियो करतां विशेष पटु होवाथो स्पर्श मात्र ग्रहण करे छे. २. गंधादि द्रव्यो भाषादि द्रव्यनी अपेक्षाए. स्थूल, अल्प अने अवासित स्वभाववाळा छे, वळी विषयने ग्रहण करवामां श्रोत्रंद्रियनो अपेक्षाए प्राणादिइंद्रियो आटु छे माटे बइसृष्ट थवायो ग्रहण करे छे .
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥१११॥
जीवे परिग्रह मात्र पणाए अथवा शरीरादिपणे स्वीकारेला ते आत्ता अने प्रतिपक्ष नोआत्ता (७), अर्थक्रियाना अभिलापीओवडे ||२ स्थानकाइच्छायेला ते इष्ट पुद्गलो. (८), सुंदर अने विशिष्ट वर्ण वगेरेथी युक्त ते कांत पुद्गलो (९), प्रिय-प्रीतिकर अने इंद्रियोने ४ ध्ययने आह्लाद आपनार पुद्गलो (१०), सुंदरपणाना प्रकर्षथी जे मनवडे 'आ सारा जणाय छे' एवा विकल्पने उत्पन्न करनारा ते उद्देशः३ मनोज्ञ पुद्गलो (११), सुंदरपणाना प्रकर्षथी बधा य उपभोग करनारना मनने सदा य वल्लभ पुद्गलो ते मणामा. निरुक्त
ज्ञानाद्याविधिवडे भणाया (१२). बीजुं व्याख्यान आ प्रमाणे-सामान्यपणे जीवोने सदा य वहाला ते इष्ट, हमेशां सुंदर भाववडे
चाराः कांतिवाळा ते कान्त, सर्वने द्वेष करवा योग्य नहि ते प्रिय, कथनवडे पण मनने रमाडनार ते मनोज्ञ, विचारणावडे पण
प्रतिमा मनने वहाला ते मणारा. अनिष्टादि प्रतिपक्ष सर्व स्थले सुगम छे. (सू० ८२) पुद्गलना अधिकारथी ज अनंतर (हमणा ज) कहेल प्रतिपक्ष सहित आत्तादि छ विशेषणविशिष्ट पुद्गलना धर्मरूप शब्दादिने 'दुविहा सद्दे'त्यादि० त्रीश सूत्रबडे कहे छे. 'दुविहे' त्यादि० त्रीश सूत्रो सुगम छे. पुद्गलधर्मो कह्या, हवे धर्मना अधिकारथी जीवना धर्मोंने कहे छ
विहे आयारे पं० तं०-णाणायारे चेव नोनाणायारे चेव १, नोनाणायारे दुविहे पं० तं०-४ दसणायारे चेव नोदंसणायारे चेव २, नोदंसणायारे दुविहे पं० २०-चरित्तायारे चेव नोचरित्तायारे चेव ३, नोचरित्तायारे दुबिहे पं० तं०-तवायारे चेव वीरियायारे चेव ४। दो पडिमाओ पं० तंसमाहिपडिमा चेव उवहाणपडिमा चेव १, दो पडिमाओ पं० तं०-विवेगपडिमा चेव विउसग्गपडिमा ॥१११॥
18 सामायिक
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चेव २, दो पडिमाओ पं०२०-भद्दा चेव सुभद्दा चेव ३. दोपडिमाओ पं० २०-महाभद्दा चेव सव्वतोभद्दा चेव ४.दोपडिमाओ पं० तं०-खुड्डिया चेव मोयपडिमा महल्लिया चेव मोयपडिमा ५, दो पडिमाओ पं० तं-जवमज्झे चेव चंदपडिमा वइरमज्झे चेव चंदपडिमा ६, दुविहे सामाइए पं० तं०अगारसामाइए चेव अणगारसामाइए चेव । सू० ८४
मूलार्थ:-बे प्रकारे आचार कहेल छे, ते आ प्रमाणे-ज्ञानाचार अने नोज्ञानाचार (१), नोज्ञानाचार के प्रकारे कहेल छे, ते आ-दर्शनाचार अने नोदर्शनाचार (२), नोदर्शनाचार बे प्रकारे कहेल छे, ते आ-चारित्राचार अने नोचारित्राचार (३), नोचारित्राचार बे प्रकारे कहेल छे, ते आ-तपाचार अने वीर्याचार (४), बे प्रतिमा ( प्रतिज्ञा ) कहेल छ, ते आ-समाधिप्रतिमा अने उपधानप्रतिमा-तप विशेष (१), बे प्रतिमा कहेल छे, ते आ-विवेक( त्याग )प्रतिमा अने कायोत्सर्गप्रतिमा (२), बे प्रतिमा कहेल छे, ते आ-भद्राप्रतिमा अने सुभद्राप्रतिमा (३), बे प्रतिमा कहेल छे, ते आ-महाभद्रा अने सर्वतोभद्राप्रतिमा | (४), बे प्रतिमा कहेल छे, ते आ-लघुमोकप्रतिमा अने वडीमोकप्रतिमा (५), बे प्रतिमा कहेल छे, ते आ-यवमध्यचंद्रप्रतिमा अने वज्रमध्यचंद्रप्रतिमा (६), वे प्रकारे सामायिक कहेल छे, ते आ-गृहस्थनो सामायिक-देशविरतिरूप अने अनगारनो सा. मायिक-सर्वविरतिरूप. (सू० ८४)
टीकार्थ:-'दुविहे आयारे' त्यादि. चार सूत्र सुगम छे, विशेष कहे छे-आचरण करवू ते आचार-व्यवहार, ज्ञान-श्रुत
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अस्थिानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥११२॥
२ स्थानका
ध्ययन उद्दशः३ ज्ञानाधाचाराः
प्रतिमा
ज्ञान, ते संबंधी काल वगेरे आठ प्रकारनो आचार ते ज्ञानाचार. कयु छकाले विणए बहुमाणे, उवहाणे चेव तहय निहवणे।वंजणमत्थ तदुभए,अट्टविहो नाणमायारो ॥३२॥
(१) श्रुतना कालमा भणवू ते कालाचार, (२) विनयपूर्वक भणq ते विनयाचार, (३) अंतरंग प्रीतिपूर्वक भणq ते बहुमानाचार, (४) जे तपबडे सूत्रादिक उप-नजीक धीयते-कराय छे ते उपधानाचार, (५) तथा अनिहवण एटले सूत्रादिनु अनपलाप-उत्थापन करवू नहिं, (६) शुद्ध सत्र पाठ जेम होय तेम बोलवू ते व्यंजनाचार, (७) सूत्रनो यथार्थ अर्थ करवो ते अर्थाचार अने (८) सूत्र तेमज अर्थ उभयर्नु यथार्थ कथन करवु ते तदुभयाचार-आ प्रमाणे ज्ञानना आठ आचार छे. (१), नोज्ञानाचार-ज्ञानथी विलक्षण ते दर्शनादि आचार, दर्शन एटले सम्यक्त्व, तेना निःशंकितादि आठ प्रकारना आचार छे. कयुं छे:णिस्संकिय निकंखिय, निवितिगिच्छा अमूढदिट्ठीय। उववूह थिरीकरणे, वच्छल्लपभावणे अट्ट ॥३३॥
(१)निग्रंथ प्रववचनमा शंकानो अभाव ते निःशंकित, (२) अन्य दर्शनने ग्रहण करवानी इच्छानो अभाव ते निष्कांक्षित, (३) धर्मना फलना संदेहनो अभाव ते निर्विचिकित्सा, (४) तत्त्वार्थमा मृढदृष्टिनो अभाव ते अमूढदृष्टि, (५) गुणवाननी प्रशंसापूर्वक गुणनी वृद्धि करवी ते उपबृंहा, (६) धर्मथी चलित थनारन स्थिर करवु ते स्थिरीकरण, (७) साधम्मिकोनी सेवा-भक्ति ते वात्सल्य अने (८) जिनशासननी प्रभावना-उद्योत करवो. आ आठ आचार दर्शनना छे. (२), नोदर्शनाचार ते चारित्रादि. चारित्राचार समिति अने गुप्तिरूप आठ प्रकारे छे. कबुं छे:
सामायिक
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८४ सूत्रम्
॥११२॥
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पणिहाणजोगजुत्तो, पंचहिं समिई हिंतीहिं गत्तीहि । एस चरित्तायारो, अविहो होइ नायव्वो ॥३॥ ___पांच समिति अने त्रण गुप्तिवडे चित्तनी स्थिरतामा योगना मुख्य व्यापार युक्त आठ आचार चारित्रना जाणवा. (३), नोचारित्राचार ते तपाचार वगेरे. तेमा तपाचार बार प्रकारे छे. कयु छ केबारसविहमिवि तवे.सभितरबाहिरे कुसलदिहे। अगिलाइ अणाजीवी, नायव्वो सो तवायारो॥३४॥
कुशल पुरुषोए जोयेल [ कहेल ] अभ्यंतर सहित बाह्य बार प्रकारना तपने विषे पण ग्लानि रहितपणाए आजीविकानी इच्छा रहित-आशंसा विना जे [ तप करे छे ] ते ज तपाचार जाणवो. (४), वीर्याचार एटले ज्ञानादिने विषे शक्तिनुं गोपन करवू-शक्तिने छपाववी नहि तेमज शक्तिनुं उल्लंघन पण करवू नहि. कयु छ:अणिगृहियबलविरिओ, परकमइ जो जहुत्तमाउतो । जुजइ यजहाथाम.नायव्वो वीरियायारो ॥३५॥
प्रगटबल-चीयविशिष्ट अने उपयोगवाळो-सावधान थयो थको जे यथोक्त (ज्ञानादि ) प्रत्ये पराक्रम करे छे अने यथाशक्ति जोडाय छे ते वीर्याचार जाणवो. (५). हवे वीर्याचारनु ज विशेष कथन करवा माटे छ सूत्रोने कहे छे-'दो पडिमे'त्यादि० प्रतिज्ञा पर्यंत स्वीकार ते प्रतिमा, प्रशस्तभावरूप शांति ते समाधि, तेनी प्रतिमा ते समाधिप्रतिमा. दशाश्रुतस्कंध सूत्रमा आ समाधिप्रतिमा बे भेदवाळी कहेली छे. श्रुतसमाधिप्रतिमा अने सामायिकादिचारित्रसमाधिप्रतिमा. (१) समाधिप्रतिमा, (२) उपधान-तप तेनी प्रतिमा ते उपधानप्रतिज्ञा, ते भिक्षुनी बार प्रतिमा अने श्रावकनी इग्यार प्रतिमारूप छे. (१), विवेचन-विवेक
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥११३॥
अर्थात् त्याग, ते अंतरंग कषायादिनो अने अनुचित बाह्य-गण (गच्छ), शरीर, भातपाणी विगेरेनो त्याग, तेनी प्रतिज्ञा ते विवेकप्रतिमा, कायोत्सर्गनुं करवू ते व्युत्सर्गप्रतिमा. (२), प्रत्येक पूर्वादि चार दिशामा क्रमशः चार प्रहर कायोत्सर्ग करवारूप बे
अहोरात्रना प्रमाणवाळी जे प्रतिमा ते भद्राप्रतिमा. सुभद्राप्रतिमा पण एज प्रकारे संभवे छे, कारण के शास्त्रमा न जोयेल होवाथी | तेनुं वर्णन कर्यु नथी. (३), महाभद्रा पण तेमज जाणवी. विशेष कहे छ-अहोरात्र (आठ प्रहर) प्रत्येक दिशामा क्रमशः कायोत्सर्गरूप चार अहोरात्र प्रमाणवाळी जे प्रतिमा ते महाभद्रा अने सर्वतोभद्रा तो प्रत्येक दश दिशाओमा क्रमशः अहोरात्र कायोत्सर्गरूप दश अहोरात्र प्रमाणवाळी छे. (४), मोकप्रतिमा ते प्रस्रवणप्रतिमा, ते काळना भेदवडे नानी अने मोटी होय छे. व्यवहारसूत्रमा ते माटे कयुं छे–'खुड्डियं णं मोयपडिमं पडिवण्णस्से ' त्यादि० आ मोकपडिमा द्रव्यथी प्रस्रवण विषयवाळी, क्षेत्रथी गाम वगेरेथी बहार, कालथी शरद् अने ग्रीष्म ऋतुमा स्वीकाराय छे, जो भोजन करीने स्वीकाराय तो चतुदेश भक्त(छ उपवास)वडे समाप्त कराय छे, जो भोजन न करीने स्वीकाराय तो सोळ भक्त( सात उपवास )वडे समाप्त कराय छे, भावथी तो दिव्यादि( देव मनुष्य वगेरे )ना उपसर्गनुं सहन करवू, ते क्षुल्लक (नानी) प्रतिमा, एम ज मोटी पतिमा पण जाणवी. विशेष कहे छे-जो भोजन करीने स्वीकाराय तो सोळ भक्तवडे समाप्त कराय छे अने भोजन विना जो स्वीकाराय तो अढार भक्तवडे समाप्त कराय छे. (५), यवनी जेम मध्य छे जेणीनो ते यवमध्या, चंद्रनी माफक कळानी वृद्धि अने हानिवडे जे प्रतिमा ते चंद्रप्रतिमा, ते आ प्रमाणे-शुक्लपक्षना पडवाने दिवसे एक कवळ (कोळियो) आहार करीने, त्यारपछी दिन दिन प्रत्ये अकेक कवळनी वृद्धिवडे पूर्णिमाना दिवसे पंदर कवळ आहार करे, अने कृष्णपक्षना पडवाने दिवसे पंदर कवळनो आहार करीने
२स्थानका
ध्ययने उद्देशः ३ ज्ञानाद्याचाराः प्रतिमा सामायिक
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८५ सूत्रम्
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नी जेम मध्यभाग जेणीमा भाषण सामायिकने कहे छे-'दुविद नगार-साधुरूप स्वामीना
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प्रत्येक दिवसे अकेक कवळनी हानिवडे यावत् अमावास्याना दिवसे एक कवळ आहार करे ते यवमध्याचंद्रप्रतिमा. जे प्रतिमामां कृष्णपक्षना पडवाने दिवसे पंदर कवळ आहार करीने अकेक कवळनी हानिवडे अमावास्याने दिवसे एक कवळ अने शुक्लपक्षना पडवाने दिवसे एक ज कवळ आहार करीने त्यारपछी पुनः अकेक कवळनी वृद्धिबडे यावत् पूर्णिमाने दिवसे पंदर कवळ आहार करे, एटले के वजनी जेम मध्यभाग जेणीमां झीणो होय ते वज्रमध्याचंद्रप्रतिमा. एवी रीते भिक्षादिने विष पण जाणवू. (६). प्रतिमाओ सामायिकवाळाओने होय छे, आ कारणथी सामायिकने कहे छे-'दुविहे' त्यादि० सम-ज्ञान, दर्शन अने चारित्रनो, आय-लाभ ते समाय, ते ज सामायिक छे. ते सामायिक अगारवान्-गृहस्थ अने अनगार-साधुरूप स्वामीना भेदथी देशविरति अने सर्वविरतिरूप बे प्रकारे छे. (सू० ८४ ) जीवधर्मना अधिकारमा जीवना बीजा धोने ' दोण्हं उववाए' इत्यादि चोवीश सूत्रवडे कहे छे
दोण्हं उववाएपं०२०-देवाण चेव नेरइयाण चेव १, दोण्हं उव्वट्टणा पं० तं-करइयाण चेव भवणवासीण चेव २, दोण्हं चयणे पं० तं०-जोइसियाण चेव वेमाणियाण चेव ३. दोण्हं गब्भवकंती पंतं०-मणुस्साण चेव पंचेंदियतिरिक्खजोणियाण चेव ४,दोण्हं गब्भत्थाणं आहारे पं० २०मणुस्साण चेव पंचेंदियतिरिक्खजोणियाण चेव ५, दोण्हं गब्भत्थाणं युड्डी पं० २०-मणुस्साण चेव
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श्रीस्था
२ स्थानकाध्ययन उद्देशः ३ उपपातोद्वर्तनच्य
वनादि
X! पंचेंदियतिरिक्खजोणियाण चेव ६, एवं निबुड्ढी७, विगुव्वणा ८, गतिपरियाए ९, समुग्घाते १०,कालसंनाङ्गसूत्र जोगे ११, आयाती १२, मरणे १३, दोण्हं छविपव्वा पं० तं-मणुस्साणचेव पचिंदियतिरिक्खजोणियाण सानुबाद
चेव १४, दो सुक्कसोणितसंभवा पं० त०-मणुस्सा चेव पंचिंदियतिरिक्खजोणिया चेव १५, दुविहा ॥ ११४॥
ठिति पं० २०-कायहिती चेव भवहिती चेव १६, दोण्हं कायट्टिती पं० तं०-मणुस्साणं चेव पंचिं
दियतिरिक्खजोणियाण चेव १७, दोण्हं भवहिती पं० तं०-देवाण चेव नेरइयाण चेव १८, दुविहे * आउए पं० तं०-अद्धाउए चेव भवाउए चेव १९, दोहं अद्धाउए पं० तं०-मणुस्साण चैव पंचेंदिय- तिरिक्खजोणियाण चेव २०, दोण्हं भवाउए पं० तं०-देवाण चेव णेरइयाण चैव २१, दुविहे कम्मे
पं० तं०-पदेसकम्मे चेव अणुभावकम्मे चैव २२, दो अहाउयं पालेति तं०-देवच्चेव नेरइयच्चेव २३, दोण्हं आउयसंवट्टए पं० तं०-मणुस्साण चेव पंचिदियतिरिक्खजोणियाण चेव २४ । सू० ८५
मूलार्थः बे(प्रकारना) जीवोनो उपपात कहेल छे, ते आ प्रमाणे-देवोनो अने नारकोनो. (१), चे प्रकारना जीवोनी उदर्नना (मरण) कहेल छे ते आ-नैरयिकोनी अने भवनवासीओनी. (२), बे प्रकारना जीवोनुं च्यवन कहेल छे, ते आ-ज्यो
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८५सूत्रम्
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* तिष्कोनुं अने वैमानिकोन. (३), वे प्रकारना जीवोनी गर्भने विषे व्युत्क्रांति-उत्पत्ति कहेल छ, ते आ-मनुष्योनी अने पंचोंद्रिय
तिर्यग्योनिकोनी. (४), बे प्रकारना गर्भस्थ जीवोने आहार कहेल छ, ते आ-मनुष्योने अने पंचेंद्रियतिर्यचयोनिकोने. (५), वे प्रकारना गर्भस्थ[ गर्भमा रहेलाओना शरीर ]नी वृद्धि कहेल छ, ते आ-मनुष्योनी अने पंचेंद्रियतिर्यचकोनी. (६), एवी रीते निवृद्धि-शरीरनी हानि. (७), विकुर्वणा. (८), गतिपर्याय-गर्भमांथी बहार जवु. (९), समुद्घात-मारणांतिकादि. (१०), कालवडे करायेली(गर्भनी) अवस्था. (११), गर्भथकी नीकळवू-जन्म. (१२), मरण. (१३), जाणवा. बेने चामडीवाळा संधिना बंधनो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-मनुष्योने अने पंचेंद्रियतियचोने. (१४), बे शुक्र( वीर्य ) अने शोणित( रुधिर )वडे उत्पत्तिवाळा कहेल छे, ते आ-मनुष्यो अने पंचेंद्रियतियचो. (१५), बे प्रकारे[ जीवनी ] स्थिति कहेली छे, ते आ-कायस्थिति अने भवस्थिति. (१६), बेनी कायस्थिति कहेली छे, ते आ-मनुष्योनी अने पंचेंद्रियतिर्यचोनी. (१७), बेनी भवस्थिति कहेली छ, ते आ-देवोनी अने नारकोनी. (१८), चे प्रकारे आयुष्य कहेल छे, ते आ प्रमाणे-काळप्रधान आयुष्य अने भवप्रधान आयुष्य. (१९), बेनो अद्धायु-काळप्रधान आयुष्य कहेल छे, ते आ-मनुष्योने अने पंचेंद्रियतिर्यचोने. (२०), बेनुं भवप्रधान आयुष्य कहेल छे, ते आ-देवोनुं अने नारकोन. (२१), वे प्रकारे कर्म कहेल छे, ते आ-प्रदेशकर्म अने अनुभव कर्म.(२२), वे यथायु (जेवी रीते बांध्यु होय तेवी रीते आयुष्य पाळे छ-भोगवे छे) कहेल छे, ते आ-देवो अने नारको. (२३), बेनुं आयुष्य संवर्तक(उपक्रमवाळ) कहेल छे, ते आ-मनुष्योनुं अने पंचेंद्रियतियंचोर्नु (२४).
टीकार्थः-आ सूत्रो मुगम छे. विशेष ए के-'दोण्हं ति० चे प्रकारना जीव स्थानकनुं उत्पन्न थर्बु ते उपपात. गर्भ अने संमूर्छन
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥११५॥
लक्षण जन्मना बे प्रकार छ तेथी आ विलक्षण ( जुर्दु ) जन्मविशेष छे. दीव्यन्ति इति देवाः-दीपे छे ते देवो. चार निकायना देवो अने पूर्वनी माफक कहेल नारकोनो ज उपपात-उपजर्बु थाय छे. (१), उद्वर्त्तवं ते उद्वर्त्तना अर्थात् देवादिनां शरीरथी नीकळवु-मरण जाणवू. ते नैरयिको अने भवनवासी देवोने ज ए प्रमाणे व्यपदेश कराय छे कारण के मनुष्यादिने तो मरण ज कहेवाय छे. नारकोनी तथा भवनोने विषे-अधोलोकमा रहेला देवोना आवास विशेषोमा बसवानो स्वभाव छे जेओनो ते भवनवासीओनी उद्वर्त्तना छे. (२), ज्योतिष्को अने वैमानिकोनु मरण ते च्यवन कहेवाय छे. ज्योतिष्षु-नक्षत्रोमा उत्पन्न थयेल ते ज्योतिष्को. आ प्रमाणे शब्दव्युत्पत्ति छ, पण प्रवृत्तिना निमित्तनो आश्रय करवाथी तो ज्योतिष्को चंद्र वगेरे छे. ऊर्ध्वलोकमां वर्तनारा-विमानोमा उत्पन्न थनारा सौधर्मादिवासी देवो, ते वैमानिको. ते बन्नेनु (मरण) च्यवन कहेवाय छे. (३), गर्भगर्भाशयमा जे उत्पत्ति ते गर्भव्युत्क्रांति, मनुना अपत्यो संतानो ते मनुष्यो तेओनी अने जे तिर्छा जाय छे ते तिर्यचो, तेओना |* संबंधवाळी योनि-उत्पत्तिनुं स्थान छे जेओने ते तिर्यचयोनिकोनी गर्भव्युत्क्रांति थाय छे. ते तिर्यंचयोनिको एकेंद्रिय वगेरे पण होय छे, माटे विशेषणविशिष्ट कहे छे के-पंचेंद्रियविशिष्ट तिर्यंचयोनिकोनी गर्भथी उत्पत्ति होय छे. (४), गर्भमां रहेला बन्ने( मनुष्य-तिर्यच )ने आहार होय छे, बीजा ( देव-नारक )ने गर्भनो ज अभाव होय छे. (५), वृद्धि-शरीरनुं वधQ.
। भवनवासो शब्दथी व्यतरोनु पण ग्रहण थाय छे, कारण के तेओना नगरी पण अधोलोकमां छे. अहिं वे स्थानकनो अधिकार होवाथी व्यंतरनो अंतर्भाव करेल छे.
२ स्थानकाध्ययने उद्देशः ३ उपपातोद्: वर्तनच्य
वनादिः ८५ सूत्रम्
क्रांति, मनुना अपत्यायोनिकोनी गर्भव्युत्क्रमकानी गर्भथी उत्पा
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॥ ११५॥
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(६), वात, पित्त विगेरेथी हानि थाय छे ते निवृद्धि. 'निवृद्धि' शब्दमा 'नि' शब्दनो अर्थ अभाव छे. 'निवरा कन्या'-पतिना अभाववाळी कन्यानी माफक. (७), वैक्रियलन्धिवाळा(मनुष्य-तियंचो)ने विकुर्वणा होय छे. (८), गतिपर्याय-चालवू अथवा मरीने गत्यंतरमां गमन करवारूप अथवा वैक्रियलब्धिवाळो गर्भमांथी नीकळीने प्रदेशोबडे बहार संग्राम करे छे ते गतिपर्याय. श्री भगवतीसूत्रमा कयु छे-'जीवे णं भंते! गभगए समाणे जेरइएसु उववलेजा ? गोयमा ! अत्थेगइए उववज्जे जा अत्थेगइए नो उववजेजा, से केणद्वेणं० ?, गोयमा ! से णं सन्नी पंचिंदिए सव्वाहिं पज्जत्तीहिं पज्जत्तए वीरियलद्धीए विउविअलीए पराणीयं आगतं सोचा णिसम्म पएसे निच्छुभइ २ वेउब्वियसमुग्धाएणं समोहन्नइ २ चाउरंगिणिं सेणं विउब्वइ २ चाउरंगिणीए सेणाए पराणीएणं सद्धिं संगाम संगामेई । त्यादि. [प्रश्न] हे भदंत ! जीव गर्भमा रह्यो थको नारकोमा उत्पन्न थाय ? [ उत्तर ] हे गौतम ! कोई एक उत्पन्न थाय अने कोई एक उत्पन्न न थाय. [प्र०] ते शा माटे एम कहो छो ? [उ०] गौतम! ते संज्ञीपंचेंद्रिय, सर्व पर्याप्तिवडे पर्याप्तक, पर-अन्यनी सेनाने आवेली सांभळीने, विचारीने वीर्यलब्धिवडे अने वैक्रियलब्धिवडे प्रदेशोने बहार काटे, काढीने वैक्रियसमुद्घातवडे नवनि पुद्गलोने ग्रहण करे छे, ग्रहण करीने चार अंगवाली सेनानी विकुर्वणा करे अने विकुर्वणा करीने चार अंग
१. प्रत्यंतरमा निर्वृद्धि' शब्द छे अने त्यां निरुदरा कन्या- दृष्टांत आपेल छे. त्या निर शब्द अभावार्थक छे. अथवा निर्धनो राजा पण कहेवाय छे.
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श्रीस्था-1 नाङ्गसूत्र सानुवाद
वर्तन
वाळी सेनावडे अन्यनी सेना साथे संग्राम करे छे. (९), समुद्घात-मारणान्तिक वगेरे. (१०), काळसंयोग-काळवडे करायली ४२ स्थानकाअवस्था. (११), आयाति-गर्भथी नीकळवू. (१२), मरण-प्राणनो त्याग. (१३), 'दोण्हं छविपवत्ति० बन्नेना 'छवि'त्ति० ध्ययने मतुप् प्रत्ययना लोपथी चामडीवाळा 'पब्व 'त्ति० पर्वो-संधिनां बंधनो छ, 'छवियत्त 'त्ति० एवो पाठ छे त्यां चामडर्डाना उद्देशः ३ योग(संबंध)थी छवि तेज छविक, ते 'अत्त'ति० आत्मा-शरीर अर्थात् छविकात्मक शरीर, 'छविपत्त'त्ति आ पाठांतरमा प्राप्त थयेल उपपातोद्चामडी एवो अर्थ छे. गर्भस्थ मनुष्य अने तिर्यचोनो पांचमा सूत्रथी चौदमा सूत्र सुधीनो संबंध जोडवो. (१४), 'दो सुक्के'त्यादि. बेनी (मनुष्य अने पंचेंद्रियतिर्यंचनी) वीर्य अने रुधिरवडे उत्पत्ति थाय छे. (१५), 'कायट्टिति'त्ति० काय-निकायमा पृथ्वी | वगेरेनी माफक असंख्यात उत्सर्पिणी सामान्यरूपे रहेवू ते कायस्थिति, भवने विषे स्थिति अथवा भवरूप स्थिति ते
८५ सूत्रम् भवस्थिति अर्थात् भवकालस्वरूप. (१६), 'दोण्हत्ति० बन्नेनी (मनुष्य अने पंचेंद्रियतिर्यंचोनी) सात अथवा आठ भवग्रहणरूप कायस्थिति होय. पृथ्वीकायिक वगैरेनी पण कायस्थिति छे. [ मूल पाठमां ] पंचेंद्रियतिथंच शब्दवडे पृथ्वी आदिनो निषेध जाणवो नहि, कारण के सूत्रोर्नु अयोग्यतुं निषेध करवापणुं छे. (१७), 'दोण्हे 'त्यादि० देवादिनी फरीने देवत्वादिमां उत्पत्ति न होवाथी देव अने नारकोने भवस्थिति ज होय छे. (१८), 'दुविहे'त्यादि० अद्धा-काळ, काळप्रधान आयुष्य अर्थात् आयुकर्मविशिष्ट अद्धायुष्य. वर्तमान भवनो नाश थये छत काळांतरमा अनुगामी-जेम मनुष्यना आयुष्यनी माफक पाछळ जनारं,
१. पन्नवणा सूत्रना कायस्थितिपदमां एकेद्रियादिनी कायस्थिति कहेल छे.
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कोईने पण भवनो नाश थये छते पण दूर थतुं नथी परंतु उत्कृष्टथी सात अथवा आठ भव मात्र काळ पर्यत अनुवर्ते छसाथ रहे छ, तथा भवप्रधान आयुष्य ते भवायुष्य. ते भवनो नाश थये छते ज दूर जाय छ परंतु काळांतरमा (बीजा भवमां) देवना आयुष्यनी माफक साथे जतुं नथी.(१९), 'दोण्हमित्यादि० वे सूत्र कहेवाइ गयेल अर्थवाला छे. (२०-२१), 'दुविहे कम्मे'
इत्यादि जे कर्मना पुद्गलो ( दलिको ) ज वेदाय छे, परंतु जेवी रीते बांधल रस तेवी रीते नथी वेदातो एटले कर्मना प्रदेश * मात्रपणावडे वेदवा योग्य कर्म ते प्रदेशकर्म, तेम ज जे कर्मनो जेम बांधल रस तेमज भोगवाय छे अर्थात् कर्मना अनुभाव(रस)थी
वेदवा योग्य जे कर्म ते अनुभावकर्म छे. (२२), 'दो' इत्यादि. जेवी रीते बांधेलु आयुष्य ते यथायुष्य, तेने तेवी रीते भोगवे
छे, उपक्रम थतो नथी ते यथायुष्य. | देवा नेरइयाविय असंखवासाउया य तिरिमणुआ।उत्तमपुरिसा य तहा. चरमसरीरा य निरुवकमा॥३६
देवा, नारको, असंख्य वर्षवाळा तिर्यचो, मनुष्यो, उत्तम ( शलाका ) पुरुषो अने चरम शरीरवाळा जीवो निरुपक्रम आयुष्यवाळा छे, आ वचन सत्य होवा छतां पण अहिं वे स्थानवर्णन चालतुं होवाथी अनुरोधने अंगे देव अने नारकर्नु कथन करेल छे. (२३), 'दोण्ह' मित्यादि० संवर्तवु (घटवू) ते संवत, ते ज संवर्तक अर्थात् उपक्रम, आयुष्यनो जे संवर्तक ते आयुष्य संवर्तक छे. (२४), पर्यायना अधिकारथी नियत क्षेत्रना आश्रितपणाथी क्षेत्रवडे कथन करवा योग्य पुद्गलोने कहेवाने इच्छता 'जंबुद्दीवे' इत्यादि सूत्रवडे क्षेत्रना विषयने कहे छे
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श्रीस्था
नाङ्गसूत्र
सानुवाद
॥ ११७ ॥
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जंबूद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरदाहिणेणं दो वासा [पं० तं०] - बहुसमतुल्ला अविसेसमणाणत्ता अन्नमन्नं णातिवहंति आयामविक्खंभसंठाणपरिणाहेणं तं०-भरहे चैव एरखए चेव, एवमे महिलावेणं हिमवए चेव हेरन्नवते चेव, हरिवासे चेव रम्मयवासे चेत्र १, जंबूद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरच्छिमपञ्च्चत्थिमेणं दो खित्ता [पं० तं०] - बहुसमतुल्ला अविसेस जाव पूव्वविदेहे चैव अवरविदेहे चेव, जंबूमंदरस्स पव्वयस्स उत्तरदाहिणेणं दो कुराओ [ पं० तं० ] - बहुसमतुल्लाओ जाव देवकुरा चैव उत्तरकुरा चेव, तत्थ णं दो महतिमहालया महादुमा [पं तं ]बहुसमतुल्ला अविसेसमणाणत्ता अन्नमन्नं णाइवहंति आयाम विक्खंभुच्चत्तोव्वेहसंठाणपरिणाहेणं तं०-कूडसामली चेव जंबू चेव सुदंसणा । तत्थ णं दो देवा महिड्डिया जाव महासोक्खा पलिओवमट्टितीया परिवति तं०- गरुले चेव वेणुदेवे अणाढिते चेव जंबूद्दीवाहिवती २ । सू० ८६
मूलार्थः – जंबूद्वीप नामना द्वीपना मध्यमां मेरुपर्वतनी उत्तर अने दक्षिण दिशाए वे वर्ष (क्षेत्र) कहेल छे, ते आ-अत्यंत समतुल्य अने अविशेष - समान, नाना प्रकारपणाथी रहित छे तेमज एक बीजाने उल्लंघन करता नथी. [तेनां कारणो कहे छे] -
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२ स्थानकाध्ययने
उद्देशः ३ भरतादिक्षेत्र स्वरूपम् ८६ सूत्रम्
॥ ११७ ॥
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लंबाई, पोळाई, आकार अने परिधिवडे सरखा छे. ते कहे छे-भरत अने ऐवत, एवी रीते आ अभिलापवडे हैमवत अने हरण्यवत बन्ने सरखा छे, हरिवर्ष अने रम्यकवर्ष पण समान छे. (१). जंबूद्वीप नामना द्वीपना मध्यमां मेरुपर्वतनी पूर्व अने पश्चिम दिशाए वे क्षेत्र [ कहेल छे, ते आ ] अत्यंत समतुल्य अने अविशेष छे, यावत् लंबाई वगेरेथी सरखा छे. ते पूर्वविदेह अने पश्चिमविदेह. जंबूद्वीपना मेरुपर्वतनी उत्तर अने दक्षिण दिशाए वे कुरुक्षेत्र [कहेल छे, ते आ] अत्यंत समतुल्य अने विशेष रहित, यावत् लंबाई वगेरेथी सरखा छे. ते देवकुरु अने उत्तरकुरु. ते बन्ने क्षेत्रोमां अतिशय मोटा वे वृक्षो [ कहेला छे, ते [आ] अत्यंत समतुल्य अने विशेष रहित- नाना प्रकारपणाथी रहित, परस्पर एक बीजाने उल्लंघन करता नथी तेम ज लंबाई, पहोळाइ, ऊंचाई, ऊंडाई, संस्थान (आकार) अने परिधिवडे समान छे, ते आ प्रमाणे - कूटशाल्मली अने जंबू- सुदर्शन. ते वृक्षाने विषे महर्द्धिक यावत् महासौख्यवाळा अने एक पल्योपमनी स्थितिवाळा वे देवो वसे छे. ते देवोना नाम आ प्रमाणेगरुड -सुपर्णकुमार जातिनो वेणुदेव अने जंबूद्वीपनो अधिपति अनादृत देव छे. (२)
टीकार्थ :- आ सूत्र सुगम छे, विशेष ए के अहिं जंबूद्वीप प्रकरण छे. जंबूद्वीप परिपूर्ण चंद्रमंडलना आकारवाळो छे, तेनी मध्यमां [रहेल] मेरुनी उत्तर अने दक्षिण दिशाथी अनुक्रमे वर्ष ( क्षेत्रो) ने स्थापन करीने, ते आ प्रमाणेभरहं हेमवयंति य, हरिवासंति य महाविदेहंति । रम्मय एरन्नवयं एरवयं चैव वासाई ॥ ३७ ॥
१ भरत, २ हैमवत, ३ हरिवर्ष, ४ महाविदेह, ५ रम्यकूवर्ष, ६ हैरण्यवत् अने ७ ऐरवत-आ सात वासक्षेत्रो छे. प्रज्ञापकनी अपेक्षाए आ प्रत्यक्ष देखातो भरत क्षेत्र छे तेथी उत्तर दिशाए क्रमथी क्षेत्रनी अपेक्षाए बीजा हैमवतादि क्षेत्रो व्यवस्थित छे.
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श्रीस्था- Xभरतादि क्षेत्रोना अंतरोमां वर्षधर पर्वताने स्थापीने, ते आ प्रमाणे
X२ स्थानका नाङ्गसूत्र | हिमवंत १ महाहिमवंत २,पव्वया निसढ ३ नीलवंताय शरुप्पी ५सिहरी ६ एए.वासहरगिरी मुणेयव्वा।३८
ध्ययने सानुवाद || १ लघुहिमवान ,२ महाहिमवान .३ नेपध.४ नीलवान.५ रुकमी अने ६ शिखरी-ए छ वर्षधर पर्वतो प्रज्ञापकनी अपेक्षाए
उद्देशः ३ ॥ ११८ ।। क्रमथी व्यवस्थित जाणवा. एवी रीते सर्व जाणवं. मेरुपर्वतनी उत्तर अने दक्षिण दिशामां (अहिं उत्तरदक्षिणयोः ए वाक्यमां | भरतादि
'एन' प्रत्ययना विधानथी उत्तरदक्षिणेन आ रूप थाय छे.) जिनेश्वरोए बे क्षेत्र कहेल छे. समतुल्य समान अर्थवाळो छ, क्षेत्रस्वरूपम् प्रमाणथी अत्यंत समतुल्य छे. अविशेष-पर्वत, नगर अने नदी वगैरेथी करेल विशेष रहित, अनानात्व-अवसर्पिणी वगेरेथी ४ ८६ सूत्रम् करल आयुष्यादि भावना भेदथी वर्जित. (आ कथननु तात्पर्य शं छे ?) एटला माटे कहे छ-अन्योअन्य एकबीजाने उल्लंघन करता नथी. केवा कारणोथी? ते कहे छ-लंबाईपणे, पहोळाईपणे, संस्थान-पणछ चडावेल धनुष्यना आकारे तेमज परिधिवडे. अहिं द्वंद्व समासमां एकवत्भाव एटले एकवचन करवू, अथवा लंबाइथी बहु समतुल्य छे, ते आ प्रमाणेभरतक्षेत्रपर्यंत आ श्रेणीचौदस य सहस्साई, सयाइं चत्तारि एगसयराइं । भरहद्धत्तरजीवा, छा य कला ऊणिया किंचि ॥३९॥ |
चौद हजार, चार सो एकोत्तेर योजन अने उपर किंचित् न्यून छ कला उत्तरभरतार्द्धनी जीवा छे. कला एटले योजननो १. हरकोइ क्षेत्रनी पूर्वथो पश्चिम सुधीनी उत्कृष्ट-बधारेमा वधारे लंबाई ते 'जीवा' कहेवाय छे.
X॥११८॥
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ओगणीशमो भाग जाणवो. एवी रीते ऐवत क्षेत्रमा जाणवू. तथा अविशेष-पहोकाइथी बन्ने आ प्रमाणे छे-पंच सए छब्बीस, छच्च कला वित्थडं भरहवासं ति० पांचसो छवीस योजन अने छ कला अधिक भरतक्षेत्र पहोळु छे. एज प्रमाणे ऐरवत क्षेत्रनुं पण पहोळाईपणुं जाणवं. अनानात्व-बन्ने क्षेत्र संस्थानथी परस्पर सरखा छे. परिधि एटले जीवा अने धनुष्ठर्नु जे प्रमाण ते परिधि. तेमां जीवातुं प्रमाण उपर कहेलुं छे, धनुपृष्ठनुं प्रमाण नीचे प्रमाणे जाणवू. . चोद्दस य सहस्साई, पंचेव सयाई अटुवीसाइं। एगारस य कलाओ, धणुपुटुं उत्तरद्धस्स ॥४०॥
चौद हजार पांचसो अध्यावीश योजन अने अग्यार कला अधिक उत्तर भरतार्द्धनुं धनुपृष्ठ छे. जेम भरतर्नु कथु तेम ऐरवतर्नु पण जाणी लेवु. अथवा बहुसमतुल्य वगेरे पदो एकार्थवाळा छे. अतिशयार्थपणुं होवाथी पुनरुक्ति दोष नथी. कधु छ के-अनुवाद, आदर, वीप्सा-वे वार उच्चार, अतिशयार्थ, विनियोग हेतु, असूया-गुणमां दोपर्नु आरोपण, कंइक संभ्रम, विस्मय, गणना अने स्मरण-आ अर्थामा पुनरुक्ति दोष नथी. ते वे क्षेत्रो, आ प्रमाणे-भरहे चेव ' त्यादि० 'उत्तरदाहिणणं' आ पाठने यथासंख्य (क्रम) न्यायनो आश्रय न करवाथी अने यथासत्ति (जेम रहेल छे तेम ) न्यायनो आश्रय करवाथी. जंबूद्वीपना दक्षिण भागमा भरत, हेमवान् पर्वत पर्यंत छ, अने जंबूद्वीपना उत्तर भागमां शिखरी पर्वत पर्यंत ऐखत क्षेत्र छे. 'एब' मिति० भरत अने ऐवतनी माफक आ अभिलापबडे 'जंबृद्दीवे दीवे मंदरस्से' त्यादि० शब्दना उच्चारवडे
१ हरकोइ क्षेत्रनो ' जीवा 'ना पूर्व अने पश्चिमना छेडारूप सीमावडे समुद्र सुधो पहोंचतो जे परिधि ते 'धनुपृष्ठ' कहेवाय छे.
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श्रीस्थान नागपत्र सानुवाद ॥११९॥
ध्ययन उद्देशः३ भरतादिक्षेत्रस्वरूपम् ८६ सूत्रम्
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बीजा ये सूत्र कहेवा. ते बेमा आ विशेष छे के 'हेमवए चेवे' त्यादि० हेमवंत क्षेत्र (मेरुनी) दक्षिण दिशाए हिमवान अने महाहिमवान् पर्वतनी मध्यमां छे, हैरण्यवतक्षेत्र मेरुनी उत्तर दिशाए रुक्मी अने शिखरी पर्वतनी मध्यमा छ, हरिवर्षक्षेत्र मेरुनी दक्षिण दिशाए महाहिमवान् अने निषधपर्वतनी मध्यमां छे, रम्यकर्ष मेरुनी उत्तरदिशाए नीलवान अने रुक्मीपर्वतना मध्यमां छे. (१). 'जंबृद्दीवे' त्यादि. 'पुरच्छिमपञ्चत्थिमेणं' त्ति० पुरस्तात् पूर्वदिशामां, पश्चात्-पश्चिम दिशामां यथाक्रमे पूर्व एवो विदेह ते पूर्व विदेह, एम ज अपर ( पश्चिम ) विदेह, आ बन्नेनुं लंबाई विगेरेनुं वर्णन अन्य ग्रंथोथी जाणवू. जंबू'इत्यादि मेरुनी दक्षिण दिशाए देवकुरु अने उत्तर दिशाए उत्तरकुरु क्षेत्र छे. ते बन्नेमा पहेलो देवकुरु हाथीना दांतना आकारवाळा विद्युत्प्रभ अने सौमनस नामना बे वक्षस्कार पर्वतवडे घेरायेलो छे, बीजो उत्तरकुरु क्षेत्र तो गंधमादन अने माल्यवान् पर्वतवडे घेरायेल छे. आ देवकुरु अने उत्तरकुरु अर्द्धचंद्रने आकारे छे अने दक्षिण अने उत्तर दिशामां विस्तृत-विस्तारवाळा छे. तेओर्नु प्रमाण नीचे प्रमाणे छे:अट्ठसया बायाला, एक्कारस सहस[स्स?] दो कलाओ या विक्खंभोय कुरूणं, तेवन्नसहस्स जीवा सिं॥४१
देवकुरु अने उत्तरकुरु बन्नेनी पहोळाई इग्यार हजार, आठसो ने बेतालीश योजन अने बे कळा छे अने बन्नेनी जीवा पूर्वथी पश्चिम पर्यंत त्रेपन हजार योजन छे. 'महइमहालय 'त्ति० मोटा 'अतीति अत्यंत-अत्यंत मोटा, महस्घणा तेजना अथवा महोत्सवोना आलय-आश्रयरूप ते महातिमहआलय अथवा महातिमहालय अर्थात् सिद्धांतनी भाषावडे महान
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प्रशस्तपणाए वे महाद्रुम छे, तेनी पहोळाई, ऊंचाई, ऊंडाई, आकार अने परिधि तेमां वे वृक्षोनुं प्रमाण आ प्रमाणे छेरयणमया पुप्फफला, विक्खंभो अट्ठ अट्ठ उच्चत्तं । जोयणमडुव्वेहो, खंधो दो जोयविद्धो ॥४२॥ दो कोसे विच्छिन्नो, विडिमा छज्जोयणाणि जंबूए । चाउद्दिसिंपि साला, पुव्विल्ले तत्थ सालंमि ॥४३॥ भवणं कोसपमाणं, सयणिज्जं तत्थऽणाढियसुरस्स । तिसु पासाया सालेसु, तेसु सीहासणा रम्मा॥४४॥
जंबूवृक्षना पुष्पो अने फळो रत्नमय छे, विष्कंभ आठ योजननो पहोलो छे, आठ योजननो ऊंचो छे, बे कोश (गाउ) जमीनमां ऊँडो छे, स्कंध (जंबूवृक्षना कंदथी उपरनो अने शाखा ज्यांथी नीकळी त्यां सुधीनो भाग) ते बे योजननो ऊंचो छे अने बे कोश पहाळो छे, चौतरफ विस्तरेली शाखाओना मध्यमां 'विडिम' नामनी एक शाखा सर्व शाखाथी ऊंची छे. ते छ योजन ऊंची छे. चारे दिशामां चार शाखाओ छे तेमां पूर्व दिशानी शाखानी बच्चे अनाहत देवनुं शयन करवा योग्य भवन एक कोशनुं लांबुं छे, शेष त्रण शाखाओमां प्रासादो छे अने ते प्रासादोमां मनोहर सिंहासनो छे. शाल्मली वृक्षमां पण एमज जाणवुं. कूट-शिखरना आकारवाळो शाल्मली वृक्ष ते कूटशाल्मली वृक्ष, ए संज्ञा छे. सुंदर छे दर्शन जेणीनुं ते सुदर्शना, ए पण संज्ञा
१ गाथामां कहेल आठ योजन जमीनना कंदथी आरंभीने वे योजननो स्कंध अने छ योजननी शाखा मळीने आठ योजन जंबूवृक्ष ऊंचो जाणवो. अने कंदथी नीचे बे कोश जमीननी अंदर छे. २ जेनी लंबाई-पहोळाई विषम होय ते भवन, अने समान लंबाई - पोळाई होय ते प्रासाद कहेवाय छे. आ सामान्य नियम छे. अहि तेम न जाणवु.
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सानुवाद
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छे. 'तत्थ' ति० ते वे महान वृक्षोने विषे 'महे' त्यादि० मोटी ऋद्धि-आवास, परिवार अने रत्न वगेरे छे जेओने ते वे महर्द्धिक 'यावत्' शब्दना ग्रहण करवाथी 'महज्जुझ्या महाणुभागा महाय[ज]]सा महाबल 'त्ति० तेमां द्युति-शरीर अने आभूषणनी कांतिवाळा, अनुभाग-वैक्रिय करवा वगेरेनी अचिंत्य शक्तिवाळा, यश-प्रसिध्धिवाळा, बल-शरीरनुं सामर्थ्यवाळा अने सौख्य आनंदस्वरूप, [' महेसक्खा ' एवो क्वचित् पाठ छे, महान् आख्या प्रसिद्धि छे जेओनी ते बन्ने महेशाख्य कहेवाय छे ] पल्योपम पर्यंत आयुवाळा गरुड -सुपर्णकुमार जातिवाळा वेणुदेव अने अनाहतदेव ( जंबूद्वीपना अधिपति ) छे [ सू० ८६ ]
जंबूमंदरस्स पव्वयस्स य उत्तरदाहिणेणं दो वासहरपव्वया [ पं० तं०- ] बहुसमतुल्ला अविसेसमणाणत्ता अन्नमन्नं णातिवहंति आयामविक्खंभुच्चत्ता。वहसंठाणपरिणाहेणं, तंजहा - चुल्लहिमवंते चैव सिहरिच्चैव, एवं महाहिमवंते चैव रुप्पिच्चैव, एवं णिसढे चेव णीलवंते चेव, जंबूमंदरस्स पव्वयस्स उत्तरदाहिणेणं हेमवंतेरण्णवतेसु वासेसु दो वट्टवेतडपव्वता [पं० तं० - ] बहुसमतुल्ला अविसेसमणाणत्ता जाव सद्दावाती चैव वियडावाती चेव, तत्थ णं दो देवा महिड्डिया जाव पलिओवमट्ठितीया परिवसंति तं०-साती चेव पभासे चेव १, जंबूमंदरस्स उत्तरदाहिणेणं हरिवासरम्मतेसु
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२ स्थान
काध्ययने
उद्देशः ३ वर्षवरादिस्वरूपम्
८७ सूत्रम्
।। १२० ।।
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वासे दो वट्टवेयपव्वया [ पं० तं०- ] बहुसम० जाव गंधावाती चैव मालवंतपरियाए चेव, तत्थणं दो देवा महिड्डिया चैव जाव पलिओवमद्वितीया परिवसंति, तंत्र - अरुणे चैव परमे चेत्र, जंबूमंदरस्स पव्त्रयस्स दाहिणेणं देवकुराए पुव्वावरे पासे एत्थ णं आसक्खंधगसरिसा अ[व] द्धचंदसंठाणसंठिया, दो वक्खारपव्त्रया पं० तं० - बहुसमा जाव सोमणसे चेत्र विज्जुप्पभे चेव, जंबूमंदरस्स उतर उत्तरकुरा पुव्वावरे पासे एत्थ णं आसक्खंधगसरिसा अ[व] द्धचंदसंठाणसंठिया दो वक्खारपव्वया पं० तं० - बहु० जाव गंधमायणे चेव मालवंते चेत्र २, जंबूमंदरस्स पव्वयस्त उत्तरदाहिणेणं दो दीहवेयङ्कपव्वया पं० तं० - बहुसमतुल्ला जाव भारहे चेत्र दीहवेयड्डे एरावते चैव दीवेयडे, भारहए णं दीहवेयड्ढे दो गुहाओ पं० तं० - बहुसमतुल्लाओ अविसेसमणाणत्ताओ अन्नमन्नं णाति
आयाम विक्खंभुच्चत्तसंठाणपरिणाहेणं, तं० तिमिसगुहा चैव खंडगप्पवायगुहा चैत्र, तत्थ णं दो देवा महिड्डिया जान पलिओवमद्वितीया परिवसंति, तं०- कयमालए चैव नट्टमालए चेव, एरावयए णं दीहवे दो गुहाओ पं० तं० - जाव कयमालए चैव नट्टमालए चेव ३, जंबूमंदरस्स पव्त्रयस्स दाहि
२१
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद
KAKRAIN
२ स्थानकाध्ययने उद्देशः ३ वर्षधरादि
स्वरूपम् ८७ सूत्रम्
KAKKXXXXXXXXXXXXXXXXXX)
णेणं चल्लहिमवंते वासहरपव्वए दो कूडा पं०२०-बहसमतुल्ला जाव विवखंभुच्चत्तसंठाणपरिणाहेणं, तं०-चल्लहिमवंतकूडे चेव वेसमणकूडे चेव, जंबूमंदरदाहिणेणं महाहिमवंते वासहरपच्चए दो कूड़ा पं० त०-बहुसम० जाव महाहिमवंतकूडे चैव वेरुलियकूडे चेव, एवं निसढे वासहरपव्वए दो कूडा पं० २०-बहुसमा० जाव निसढकृडे चेव रुयगप्पभे चेव ४, जंबूमंदर० उत्तरेणं नीलवंते वासहरपवए दो कडा पं० तं-बहुसम० जाव० सं०-नीलवंतकडे चेव उबदसणकूडे चेव, एवं रुप्पिमि वासहरपव्वए दो कूडा पं० बहुसम० जाव तं-रुप्पिकूडे चेव मणिकंचणकूडे चेब, एवं सिहरिमि वासहरपवते दो कूडा पं० तं०-बहुसम० जाव तं०-सिहरिकूडे चेव तिगिच्छिकूडे चेव ५। सू० ८७ ___ मूलार्थ:-जंबुद्वीपना मेरुपर्वतनी उत्तर अने दक्षिण दिशाए बे वर्षधर पर्वतो ( कहेल छे, ते आ-) बहुसमतुल्य, अविशेष, नानात्वरहित, अन्योअन्य उल्लंघन करता नथी तेमज लंबाई, पहोलाई, उंडाई, संस्थान अने परिधवडे समान छे. ते आ-चुल्ल( लघु )हिमवान अने शिखरी, एवी रीते महाहिमवान अने रुप्पी (रुक्मी), एम ज निषध अने नीलवान. जंबूद्वीपना मेरुपर्वतनी उचर अने दाक्षण दिशाए हैमवत अने हैरप्यवत क्षेत्रमा वे वृत्तवेत.ढ्य पर्वत कह्या छे-बहुसमतुल्य, विशेषरहित, नानात्वरहित, परस्पर उल्लंघन करता नथी, ते आ प्रमाणे-शब्दापाती अने विकटापाती.ते बेमां वे महर्द्धिक देवो यावत् पल्यो
॥१२१ ॥
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XXXKXXXXXXXXXXXXXXXX
पमनी स्थितिवाळा वसे छे, ते आ-स्वाति, अने प्रभास. (१), जंबुद्वीपना मेरुनी उत्तर अने दक्षिण दिशाए हरिवर्प अने रम्यकवर्ष क्षेत्रमा बे वृत्तवैताढ्य पर्वतो ( कह्या छे, ते आ-) बहुरामतुल्य यावत् पूर्वनी माफक जाणवू, ते आ-गंधापाती अने माल्यवंतपर्याय नामना पर्वत छे. ते बनेमां बे देवो महर्द्धिक यावत् पल्योपमनी स्थितिवाळा वसे छे, ते आ-अरुण अने पद्म नामना देव छे. जंबूद्वीपना मेरुपर्वतनी दाक्षण दिशाए देवकुरु क्षेत्रना पूर्व अने पश्चिमना पडखामां, अश्वना स्कंध (खांध ) जेवा, कंइक ओहा अर्धचंद्रना आकारवाला ये वक्षस्कार ( वखारा) पर्वत कहेल छे, ते आ-बहुसमतुल्य यावत् सौमनस अने विद्युत्प्रभ नामे छे. जंबूद्वीपना मेरुनी उत्तर दिशाए उत्तरकुरु क्षेत्रना पूर्व अने पश्चिमनी बाजुमां अश्वना स्कंध सरखा, कंइक ओछा अर्द्धचंद्रना आकारवाला बे वक्षस्कार पर्वत कहेल छे, ते आ-बहुसमतुल्य यावत् पूर्वनी माफक जाणवू. ते बे पर्वतना नाम कहे ई-गंधमादन अने माल्यवंत. (२), जंबूद्वीपना मेरुपर्वतनी उत्तर अने दक्षिण दिशाए ये दीर्घ(लांबा वैताढ्य पर्वत कहेल छे, ते आ-बहुसमतुल्य यावत् पूर्वनी माफक जाणवू. ते आ-भरतक्षेत्रमा दीर्घवैताढ्य अने ऐखतक्षेत्रमा दीर्घवैताढ्य छे. भरतक्षेत्रना दीर्घताढयमां बे गुफाओ कहेल छे, ते बहुसमतुल्य, विशेष रहित, नानाप्रकारपणाए वर्जित, अन्योन्यने उल्लंघन करती नथी, लंबाई, पहोळाई, ऊंचाई, आकार अने परिधिवडे समान छे, ते आ-तमिस्रागुफा अने खंडप्रपात गुफा छ, त्यां बे देवो महद्धिक यावत् पल्योपमनी स्थितियाळा वसे छे, ते आ-कृतमालक अने नृत्यमालक नामना छे. ऐवत क्षेत्रना दीर्घवैताढ्यमां बे गुफाओ कहेल छे, ते आ प्रमाणे-यावत् कृत्कमालक अने नृत्यमालक बे देव पर्यत वर्णन जाणवू. (३), जंबूद्वीपना मेरुपर्वतनी दक्षिण दिशाए चुल्हहिमवान नामे वर्षधर पर्वतमां वे कूट (शिखर) कह्या छे, ते आ-बहुसमतुल्य, यावत् पहो
AKKAKKA KAKKA KAKKARXX)
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श्रीस्था
नाङ्गसूत्र
सानुवाद ।। १२२ ।।
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ळाई, ऊंचाई, संस्थान अने परिधिवडे, ते आ-चुल्लहिमवान कूट अने वैश्रमण कूट. जंबूद्वीपना मेरुनी दक्षिण दिशाए महाहिमवान नामे वर्षधर पर्वतमां वे कूट कहेल छे, ते आ-बहुसमतुल्य यावत् महाहिमवान कूट अने वैडूर्य कूट. एवी रीते निषध नामना वर्षधर पर्वतमांचे कूट कहेल छे, ते आ-बहुसमतुल्य यावत् निषध कूट अने रुचकप्रभ कूट. (४), जंबूद्वीपना मेरुपर्वतनी उत्तर दिशाए नीलवान नामे वर्षधर पर्वतमां बे कूट कहेल छे, ते आ-बहुसमतुल्य यावत् ते आ-नीलवान कूट अने उपदर्शन कूट. एवी रीते शिखरी नामे वर्षधर पर्वतमां बे कूट कहेल छे, ते आ-बहुसमतुल्य यात्रत् ते आ-शिखरी कूट अने तिमिच्छ कूट. (५). ( मू० ८७).
टीकार्थ :- 'जंबू' इत्यादि० वर्ष - क्षेत्र विशेषनी व्यवस्था करनारा होवाथी बन्ने वर्षधर छे. 'चुल्लो 'त्ति० मोटानी अपेक्षाए लघुहिमवान ते चुल्लहिमवान भरतक्षेत्र पछी अंतर रहित (उत्तरमां) छे. वळी शिखरी पर्वत ऐवत क्षेत्रनी आगळ छे, ( अर्थात् शिखरीथी उत्तरमां ऐवत क्षेत्र छे). अने ते बे पर्वत पूर्व अने पश्चिमी लंबाईबडे लवणसमुद्र सुधी जोडायेला छे. चवीस सहस्ताई, णत्रय सए जोयणाण बत्तीसे । चुल्लहिमवंतजीवा, आयामेणं कलद्वं च ॥४५॥
हिमवान पर्वतनी जीवा लंबाईवडे चोवीश हजार, नवशें बत्रीस योजन अने अर्द्धकला छे. एवी रीते शिखरी पर्वतनी जीवा जाणवी तथा बन्ने पर्वत भरतक्षेत्रथी बमणा विस्तारवाळा, एक सो योजन ऊंचा, पच्चीश योजन जमीनमां ऊंडा, आयत अने चतुरस्र (लंबचौरस) संस्थानवडे रहेला छे ते बनेनी परिधि नीचे प्रमाणे छे
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१२ स्थानका
ध्ययने
उद्देशः ३
वर्षधरादि
स्वरूपम्
८७ सूत्रम्
॥ १२२ ॥
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पणयालीस सहस्सा, सयमेगं नव य वारस कलाओ। अद्धं कलाए हिमवंत - परिरओ सिहरिणो चैव ॥४६॥
पिस्ताळीस हजार, एक सो, नव योजन अने साडीबार कळा चुल्लहिमवान अने शिखरी पर्वतनी परिधि छे. जेम हिमवान अने शिखरी पर्वत 'जंबूदीवे ' इत्यादि० अभिलापवडे कथा एवी रीते महाहिमवान वगेरे पण कहेवा. तेमां लघुनी अपेक्षाए महाहिमवान छे. मेरुनी दक्षिण दिशाए महाहिमवान अने मेरुनी उत्तर दिशाए रुक्मी पर्वत छे. एवी रीते दक्षिणमां निषेध अने उत्तरमां नीलवान पर्वत छे. विशेष ए के एओनी लंबाई वगेरे विशेष वर्णन 'क्षेत्रसमास' नामना ग्रंथथी जाणी लेबुं. अहीं तो क्षेत्रसमासनी गाथाओवडे कंडक कहेवाय छे:
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पंचसए छब्बीसे, छच्च कला वित्थडं भरहवासं । दससय बावन्नऽहिया, बारस य कलाओ हिमवंते ॥ ४७॥
पांच सो, छब्बीस योजन अने छ कळानो पहोलो भरतक्षेत्र छे, अने एक हजार, बावन योजन ने बार कळानो पहोलो चुल्लहिमवान पर्वत छे. हेमवए पंचहिया, इगवीससया उ पंच य कलाओ। दसहियबायालसया, दस य कलाओ महाहिमवे ॥४८॥ हैमवत क्षेत्र बे हजार, एक सो पांच योजन अने पांच कळानो पहोलो छे, तथा महाहिमवान पर्वत चार हजार, बसो दश योजन अने दश कळानो पहोलो छे.
हरिवासे इगवीसा, चुलसीइ सया कला य एक्का य। सोलस सहस्स अट्ठसय, बायाला दो कला सिढे ॥४९॥
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥१२३ ॥
सिहरिचुलाना ऊंचा अन्ने मुवान पीतसुवर्णमय लिओनी
KXXXXXXXXXXXXXXX)
हरिवर्ष क्षेत्र आठ हजार, चार सो, एकवशि योजन अने एक कळानो पहोळो छ, तथा निषध पर्वत सोळ हजार, आठ सो २ स्थानबेतालीश योजन अने बे कळानो पहोळो छे.
काध्ययने तेत्तीसं च सहस्सा, छच्च सया जोयणाण चुलसीया। चउरोय कला सकला,महाविदेहस्स विक्खंभो॥५०x उद्देशः ३ तेत्रीस हजार, छसें चोरासी योजन अने चार कला महाविदेह क्षेत्रनो विष्कंभ (पहोळाई ) हे.
वर्षधरादिजोयणसयमुश्विद्धा, कणगमया सिहरिचुल्लाहमवंता। रुप्पिमहाहिमवंता, दुसउच्चा रुप्पकणगमया॥५१ स्वरूपम् | शिखरी अने चुल्लहिमवान ए बे पर्वत सो योजनना ऊंचा अने सुवर्णमय छे. तथा रुविम अने महाहिमवान ए वे पर्वत ८७ सूत्रम् । बसो योजनना ऊंचा छे. तेमा रुक्मि पर्वत श्वेतसुवर्णमय अने महाहिमवान पीतसुवर्णमय छे. | चत्तारि जोयणसए, उव्विद्धा णिसढणीलवंताय। णिसहो तवणिजमओ, वेरुलिओ नीलवंतगिरी॥ ५२ ___चार सो योजनना ऊंचा निषध अने नीलवान ए वे पर्वत छे, तेमां निषध तपावेल सुवर्णमय अने नीलबान पर्वत वैडूर्यमणिमय छे. उस्सेहचउब्भागो, ओगाहो पायसो नगवराणं। वपरिही उतिउणो, किंचूणछभायजुत्तो य ॥ ५३॥
पर्वतोनो जमीनमा अबगाढ (ऊंडाई ) प्रायः ऊंचाईथी चोथो भाग होय छे, वृत्त ( गोळ ) परिधि तो पोतपोतानी पहोळाईथी त्रिगुण अने कंइक न्यून छ भाग युक्त होय छे. चोरस परिधि तो लंबाई अने पहोळाईथी द्विगुण होय छे. 'जंबू'इत्यादि० १ २३॥
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'दो वट्टवेयङ्कपत्र्वय 'ति० पल्य ( पाला ) नो आकार होवाथी बे वृत्तत्वैताढ्य नामथी ते एवा बे पर्वत छे, ने सर्वतः एक हजार योजनना परिमाणवाळा अने रूपामय छे. तेमां मेरुनी दक्षिण दिशाए हैमवत क्षेत्रमां शब्दापाती अने मेरुनी उत्तर दिशाए ऐरण्यवत क्षेत्रमां विकटापाती पर्वत छे. 'तत्थ'त्ति० ते वे वृत्तवैताढ्यमां क्रमवडे स्वाति अने प्रभास नामे देव बसे छे, कारण के त्यां तेना भवन छे. (१), एवी रीते हरिवर्ष क्षेत्रमां गंधापाती अने रम्यक्वर्षमां माल्यवतपर्याय पर्वत छे. त्यां क्रमवडे वे देव ( अरुण अने पद्म) बसे छे. 'जंबू 'इत्यादि० ' पूव्वावरे पासे 'ति पार्श्व शब्दनो प्रत्येकमां ( बन्नेमा ) संबंध होवाथी ( देवकुरुना ) पूर्वना पार्श्व ( पडखा ) मां ने पश्चिमना पड़खामा बे पर्वत छे. ते केवा छे ?एत्थ 'त्ति० प्रज्ञापके उपदेश कराते छते क्रमशः सौमनस अने विद्युत्प्रभ देव कहेल छे. ते केवा छे ? ते वे अवना स्कध समान शरुआतमां नमेल अने छेडे ऊंचा छे. आ कारणथी निषध पर्वतनी नजीकमां चारसो योजन ऊंचा अने मेरुनी पासे तो पांचसो योजनना ऊंचा छे. कहां छे
वासहरगिरितेणं, रुंदा पंचैव जोयणसयाई । चत्तारिसउव्विद्धा, ओगाढा जोयणाण सयं ॥ ५४ ॥ पंचसए उव्विद्धा, ओगाढा पंच गाउयसयाई । अंगुलअसंखभागो, विच्छिन्ना मंदरंतेणं ॥ ५५ ॥ वक्खारपव्वयाणं, आयामो तीस जोयणसहस्सा । दोन्नि य सया णवहिया, छच्च कलाओ चउण्हं पि॥५६
वर्षधरर्वतन समीपे पांचसो योजन विस्तारवाळा, चारसो योजन ऊंचा अने एकसो योजन जमीनमां ऊंडा छे. १ निषधपर्वतनी समोपे सौमनस अने विद्युत्प्रभ अने नीलवान पर्वतनी समीपे गंधमादन अने माल्यवंत आ रीते चार वक्षस्कार पर्वत छे.
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र
सानुवाद ॥ १२४ ॥
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मेरुनी पासे (चार वखारा पर्वतो ) पांचसो योजनना ऊंचा, पांचसो कोशना ऊंडा अने अंगुलना असंख्यातमा भाग मात्र पहोळा छे. चार वक्षस्कार पर्वतोनी लंबाई त्रीश हजार योजन अने छ कळानी छे. 'अवद्ध चंद ति० अपार्द्धचंद्र-कंडक न्यून चंद्रनो आकार अर्थात् हाथीना दांतनी आकृतिना जेवा संस्थानवडे रहेला ते अपार्द्धचंद्रसंस्थानसंस्थित, क्वचित् अर्द्धचंद्रसंस्थानसंस्थितौ ' एवो पाठ छे त्यां अर्द्ध शब्दवडे विभागमात्र विवक्षा कराय छे, परंतु सम ( सरखो ) विभाग नहिं. अने ते बे पर्वतथी देवकुरु अर्द्धचंद्राकार करायेल छे, आ कारणथी ज वक्षाराकार क्षेत्रने करनारा वे पर्वत वक्षार (बखारा ) पर्वत कहेवाय छे. 'जंबू' इत्यादि० वर्णन तेमज जाणवुं. विशेष ए के - उत्तरकुरुक्षेत्रमा पश्चिमनी पासे गंधमादन अने पूर्वनी पा माल्यवान वखारापर्वत छे. (२), ‘दो दीहवेयड' त्ति० वैताढ्यनो निषेध करवा माटे ' दीर्घ ' शब्दनुं ग्रहण करेल छे, वेय शब्दनो वैताढ्य अथवा विजयाड्ढ संस्कार थाय छे. ते बे पर्वत भरत अने ऐरवतना मध्य भागमां पूर्व अने पश्चिमथी लवणसमुद्रने स्पर्श करीने रहेल छे. ते बन्ने पच्चीश योजनना ऊंचा छे, पच्चीश गाउ अंडा छे, पच्चीश योजन पहोळा छे, आयत संठाणवाळा छे, सर्व रूपामय छे अने बने पडखाथी बहार कांचनमंडनथी अंकित छे. कां छे
पणुवी उवि पन्नासं जोयणाण विच्छिन्नो । वेयड्डो रययमओ, भारहखेत्तस्स मज्झमि ॥५७॥
आ गाथानो अर्थ उपर कहेल छे. ' भारहए ण ' मित्यादि० वैताढ्य पर्वतमा पश्चिम भागमां तमिस्रा गुफा पच्चास योजन लांबी, बार योजन पहोळी अने आठ योजन ऊंची छे. आयत चतुरस्र संस्थानवाळी, विजयद्वार प्रमाणे द्वारवाळी (आठ
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२ स्थान
काध्ययने
उद्देशः ३ वर्षधरादिस्वरूपम्
८७ सूत्रम्
॥ १२४ ॥
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योजन ऊंचा अने चार योजन पहोळा ), वज्रना कमाडथी ढांकेली, बहु मध्यभागमां पोतपोतामां ये योजनना अंतरवाळी अने त्रण योजनना विस्तारवाळी उन्मग्नजला अने निमग्नजला नामे वे नदीओवडे युक्त छे. तमिस्रानी माफक पूर्वभागमां खंडपाता गुफा जाणवी. 'तत्थ णं' ति० ते बेमां- तमिस्रा गुफामां कृतमाल्यक अने खंडप्रपाता गुफामां नृत्तमालक नामना चे देव बसे छे. 'एरावए' इत्यादि० ऐरावत क्षेत्रमां पण भरतक्षेत्रनी माफक जाणवुं. (३), 'जंबू ' इत्यादि ० ( चुल्ल ) हिमवान वर्षधर पर्वतमा अगियार कूट- शिखरो छे. तेना नाम आ प्रमाणे छे:- १ सिद्धायतन, २ क्षुल्लहिमवत्, ३ भरत, ४ इला, ५ गंगा, ६ श्री, ७ रोहितांशा, ८ सिंधु, ९ सुरा, १० हैमवत अने ११ वैश्रमण छे. पूर्वदिशामां सिद्वायतनकूट छे, ते पछी क्रमशः पश्चिमथी बाटो सर्वरत्नमय, अने कूटना नामवाळा देवताना स्थानो छे. ते पांचसो योजन ऊंचा, मूळमां तेटला ज पहोळा अने उपर तेना अर्धा विस्तारवाळा छे. पहेला कूटमां सिद्धायतन छे. ते सिद्धायतन पचास योजननुं लांबु, पचीश योजन पोळं, अने छत्रीश योजन ऊंचुं छे. बळी आठ योजनना लांबा अने प्रवेशमां चार योजनना पहोळा त्रण द्वारोवडे युक्त, तेम ज एक सो आठ जिनप्रतिमा सहित छे. शेप दश कूटोमां साडीबासठ योजनना ऊंचा, सवाएकत्रीश योजनना पहोळा तेमज तेमां निवास करनार देवताओना सिंहासनवाळा प्रासादो छे. अहिं प्रस्तुत पर्वतना अधिपतिनो निवास होवाथी अने देवोना निवासभूत कूटोमा पहेलो होवाथी हिमवत् कूटनुं ग्रहण कर्यु, अने सर्व कूटोमां छेल्लुं होवाथी वैश्रमण कूटनुं ग्रहण कर्यु छे, कारण के अत्यारे द्विस्थानकनो अधिकार चाले छे. वळी कां छे:
कत्थई देसग्गहणं, कत्थइ घेप्पंति निरवसेसाई । उक्कमकमजुत्ताई, कारणवसओ निउत्ताइं ॥ ५८ ॥
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श्रीस्थानागसूत्र सानुवाद ॥१२५॥
२ स्थानकाध्ययने उद्देशः३ वर्षधरादि
स्वरूपम् ८७ सूत्रम्
KKXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
कोई स्थळे (सूत्रमा ) वस्तुना एक देश- ग्रहण अने कोई स्थळे समस्त वस्तुनुं ग्रहण कराय छे, (अने केटलाएक सूत्रो) कारणवशात् उत्क्रम (क्रम वगर ) अने क्रमपूर्वक होय छे, माटे सूत्रनी विचित्र गति-पद्धत्ति छ. कूटना संग्रहनी गाथाओ नीचे प्रमाणे छ
वेयडू ९ मालवंते ९, विज्जुप्पह ९ निसह ९ णीलवंते य ९। णव णव कूडा भणिया, एकारस सिहरि ११ हिमवंते ११ ॥ ५९ ॥ रुप्पि ८ महाहिमवंते ८, सोमणसे ७, गंधमायणनगे य ७।
अट्ठ? सत्त सत्त य, वक्खारगिरीसु चत्तारि ॥६॥ चोत्रीश दीर्घवैताढ्य, माल्य वान, विद्युत्प्रभ, निषध अने नीलवान-आ दरेक पर्वतमा नव-नव कूटो कहेला छे. शिखरी अने लघुहिमवान पर्वतमा इग्यार-इग्यार कूट छे. रुक्मी अने महाहिमवान पर्वतमा आठ-आठ अने सौमनस तथा गंधमादन । पर्वतमां सात-सात कूट छे. सोळ वक्षस्कार पर्वतोमां चार-चार कूट कहेल छे.
'जंबू' इत्यादि० महाहिमवान पर्वतमा आठ कूट छ-१ सिद्धकूट, २ महाहिमवान, ३ हैमवत, ४ रोहिता, ५ ही, ६ हरिकांता, ७ हरि अने ८ वैडूर्य, बे कूटनुं ग्रहण करवानुं कारण कहेवाई गयुं छे. ' एव' मित्यादि० एवं शब्दथी 'जंबू' इत्यादि० अभिलाप जाणवो. निषध वर्षधर पर्वतमां-१ सिद्ध, २ निषध, ३ हरिवर्ष, ४ प्राग्विदेह, ५ हरि, ६ धृति, ७
XXXXX XXXXXX-XXXXXX
॥१२५॥
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शीतोदा, ८ अपरविदेह अने ९ रुचक एवा पोतपोताना देवोना नामवाळा नव कूटो छे. अहिं पण बीजा अने छेला कूटना ग्रहणपूर्वक व्याख्यान करवू. (४), 'जंबू' इत्यादि० नीलवान वर्षधर पर्वतने विवे-१ सिद्ध, २ नील, ३ पूर्वविदेह, ४ शीता, ५ कार्ति, ६ नारीकांता, ७ अपरविदेह, ८ रम्यक् अने ९ उपदर्शन ए नव कूट छे. अहिं पण वीजा अने छेल्ला कूटर्नु पूर्वनी माफक ग्रहण जाणवू. 'एव 'मित्यादि० रुक्मी वर्षधर क्षेत्रमां-१ सिद्ध, २ रुक्मी, ३ रम्यक, ४ नरकांता, ५ बुद्धि, ६ रौप्यकला, ७ हैरण्यवत् अने ८ मणिकांचन ए आठ कूट छे. बीजा ने छेल्ला कूटर्नु पूर्वनी माफक ग्रहण कर. 'पव'. मित्यादि० वर्षधर शिखरी पर्वतमां-१ सिद्ध, २ शिखरी, ३ हैरण्यवत्, ४ सुरादेवी, ५ रक्ता, ६ लक्ष्मी, ७ सुवर्णकला, ८ रक्तोदा, ९ गंधापाती, १० ऐरावती अने ११ तिगिच्छि-ए अगियार कूट छे. अहिं पण बीजा अने छेल्ला कूटर्नु पूर्वनी जेम ग्रहण करवू. (५). (सू० ८७) ।
जंबूमंदर० उत्तरदाहिणेणं चुल्लहिमवंतसिहरीसु वासहरपव्वएसु दो महदहा पं. २०-बहसमतुल्ला अविसेसमणाणत्ता अण्णमण्णं णातिवटंति, आयामविक्खंभउब्बेहसंठाणपरिणाहेणं, तंपउमद्दहे चेव पुंडरीयबहे चेव, तत्थ णं दो देवयाओ महड्डियाओ जाव पलिओवमद्वितीयाओ परिषसंति. तं०-सिरी चेव लच्छी चेव, एवं महाहिमवंतरुप्पीसु वासहरपव्वएसु दो महद्दहा पं० २०
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श्रीस्थानाङ्गमूत्र
सानुवाद ।। १२६ ।।
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बहुसम० जाव तं०- महापउम दहे चैव महापोंडरीय दहे चैत्र, देवताओ हिरिचेत्र बुद्धिचैत्र, एवं निसढनीलवंतेसु तिगिंछिद्दहे चेत्र केसरिद्दहे चेत्र, देवताओ धिती चेत्र कित्तिच्चैत्र १, जंबूमंदर० दाहि महाहिमवंताओ वासहरपव्वयाओ महापउमदहाओ दहाओ दो महाणईओ पवहंति, तं०रोहियच्चैव हरिकंतच्चैव, एवं निसढाओ वासहरपव्वताओ तिगिंछिदहाओ दो म० सं०- हरिच्चैव सीओअच्चेव, जंबूमंदर० उत्तरेणं नीलवंताओ वासहरपव्वताओ केसरिद हाओ दो महानईओ पवति तं० - सीता चैव नारिकंता चेव, एवं रुप्पीओ वास हरपव्वताओ महापोंडरीयद्द हाओ दो महानईओ पवहंति, तं० - णरकंता चेव रुप्पकूला चैत्र २, जंबूमंदरदाहिणणं भरहे वासे दो पत्रायद्दहा पं० तं०बहुसम० त० - गंगप्पवातद्द हे चेव सिंधुप्पवायद हे चेव । एवं हिमवए वासे दो पत्रायदहा पं० तं०बहु० तं०-रोहियप्पवातद्द हे चैव रोहियंसपवातद हे चैत्र, जंबूमंदरदाहिणेणं हरिवासे वासे दो पवायद्दहा पं० बहुसम० तं० - हरिपवातद्द हे चेत्र हरिकंतपवातद्द हे चेव, जंबूमंदरउत्तरदाहिणेणं महाविदेहवासे दो पायदा पं० बहुसम० जाब सीअप्पवातद्दह्ने चेत्र सीतोदप्पवायद हे चैत्र ३,
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२ स्थानकाध्ययने
उद्देशः ३ हूदादिस्वरूपम्
८८ सूत्रम्
।। १२६ ॥
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जंबूमंदरस्स उत्तरणं रम्मए वासे दो पायद्दहा पं० तं० - बहु० जाव नरकंतप्पवायद्दहे चेत्र कंपवायचे, एवं हेरन्नवते वासे दो पत्रायद्दहा पं० तं० - बहु० सुवन्नकूलप्पवाय दहे रुपकूलप्पवाय हे चैत्र, जंबूमंदरउत्तरेणं एखए वासे दो पत्रायदहा पं० बहु० जात्र रत| पत्रायद्दहे चेत्र रत्तावइप्पवायद्दहे चेव, जंबूमंदरदाहिणेणं भरहे वासे दो महानईओ पं० बहु० गंगा चैव सिंधू चैत्र, एव जधा पत्रातदहा एवं णईओ भाणियवाओ, जाव एरखए वासे दो महानईओ पं० - बहुसमतुल्लाओ जाव रत्ता चेत्र रतवती चैत्र ४ । सू० ८८
मूलार्थः – जंबूद्वीपना मेरुपर्वतनी उत्तर अने दक्षिण दिशाए चुल्लहिमवान अने शिखरी वर्षधर पर्वत विषे वे महाद्रह कह्या छे, ते आ प्रमाणे - बहुसमतुल्य, अविशेष, नानात्वरहित अने एक बीजाने उल्लंघन करता नथी तेमज लंबाई, पहोळाई, ऊंडाई, संठाण अने परिधिवडे समान छे. ते द्रहना नाम- पद्मद्रह अने पुंडरीकद्रह, ते बे द्रहमां त्रे देवीओ, महर्द्धिक यावत् पल्योपमनी स्थिति ( आयुष्य )वाळी वसे छे. ते देवीओना नाम-श्रीदेवी अने लक्ष्मीदेवी. एवी रीते महाहिमवान अने रुक्मी वर्षधर पर्वत विषे मोटा द्रह कह्या छे, ते आ प्रमाणे - बहुसमतुल्य यावत् पूर्वनी माफक कहेवुं. ते बे द्रहना नाम-महापद्मद्रह अने महापुंडरीकद्रह, अने त्यां तेनी ही अने बुद्धि नामनी अधिष्ठात्री देवीओ वसे छे. ए ज प्रमाणे निवध अने नीलवंत
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥१२७॥
२ स्थानकाध्ययने उद्देशः ३ हदनद्यादि
स्वरूपम् ८८ सूत्रम्
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पर्वतने विषे तिगिछि अने केशरी नामे वे द्रह छे अने धृति अने कीर्ति नामनी तेनी अधिष्ठात्री देवीओ छे. (१), जंबूद्वीपना मेरुपर्वतनी दक्षिण दिशाए महाहिमवंत वर्षधर पर्वतना महापद्मद्रहथी वे महानदी नीकले छे, तेना नाम-रोहिता अने हरिकांता. एवी रीते निषध वर्षधर पर्वतना तिगिछि द्रहथी वे महानदी नीकळे छे, तेना नाम-हरित अने शीतोदा. जंबूद्वीपना मेरुपर्वतनी उत्तर दिशाए नीलवान वर्षधर पर्वतना केसरीद्रहथी वे महानदी नीकळे छे, तेना नाम-शीता अने नारीकान्ता. ए प्रमाणे रुक्मी वर्षधर पर्वतना महापुंडरीकद्रहथी चे महानदी नीकळे छे, तेना नाम-नरकान्ता अने रूप्यकला छे. (२), जंबूद्वीपना मेरुपर्वतनी दक्षिण दिशाए भरतक्षेत्रमा बे प्रपातद्रह कह्या छे, ते आ प्रमाणे-बहुसमतुल्य, तेना नाम-गंगाप्रपातद्रह अने सिंधुप्रपातद्रह छे. ए प्रमाणे हिमवत क्षेत्रमा बे प्रपातद्रह कह्या छे, ते बहुसमतुल्य छ, तेना नाम रोहित्प्रपातद्रह अने रोहितांशाप्रपातद्रह छे. जंबूद्वीपना मेरुपर्वतनी दक्षिण दिशाए हरिवर्ष क्षेत्रमा बे प्रपातद्रह (कुंड) कह्या छे, ते बहुसमतुल्य छे. तेना नाम-हरितप्रपातद्रह अने हरिकान्ताप्रपातद्रह छे. जंबूद्वीपना उत्तर अने दक्षिण दिशाए महाविदेह क्षेत्रमा के प्रपातद्रह कह्या छे. बहुसमतुल्य यावत् शीताप्रपातद्रह अने शीतोदाप्रपातद्रह नामना छे. (३), जंबूद्वीपना मेरुपर्वतनी उत्तर दिशाए रम्यक्वर्षक्षेत्रमा बे प्रपातद्रह कहेल छे, ते बहुसमतुल्य यावत् पूर्वनी माफक कहेवू. तेना नाम-नरकान्ताप्रपातद्रह अने नारीकांताप्रपातद्रह छे. एवी रीते हैरण्यवत क्षेत्रमा बे प्रपातद्रह कहेल छे, ते बहुसमतुल्य, यावत् पूर्वनी माफक. तेना नामसुवर्णकलाप्रपातद्रह अने रूप्यकलाप्रपातद्रह छे. जंबूद्वीपना मेरुपर्वतनी उत्तर दिशाए ऐवत क्षेत्रमा वे प्रपातद्रह कहेल छे, बहुसमतुल्य यावत् पूर्वनी माफक, तेना नाम-रक्ताप्रपातद्रह अने रक्तवतीप्रपातद्रह छे. जंबूद्वीपना मेरुपर्वतनी दक्षिण दिशाए
॥१७॥
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भरतक्षेत्रमा बे महानदी कहेल छे. ते बहुसमतुल्य यावत् रक्ता अने रक्तवती नामनी छे. (४). (मू०८८) टीकार्थः-'जंबू' इत्यादि० अहिं हिमवान आदि छ वर्षधर पर्वतोने विषे छ ज द्रहो छे, ते आ
पउमे १ य महापउमे २ तिगिंछी ३ केसरी ४ दहे चेव ।
हरए महापुंडरिए ५, पुंडरीए चेव य ६ दहाओ ॥ ६१ ॥ १ पद्म, २ महापद्म, ३ तिगिंछी, ४ केशरी, ५ महापुंडरीक अने ६ पुंडरीक. आ छ द्रहो क्रमशः छे. हिमवान पर्वतनी उपर बहुमध्यभागने विषे पद्म छ जेनी अंदर तेवो पद्मद्रह नामनो हद छे. एवी रीते शिखरी पर्वतनी उपर बहुमध्यभागने विपे पुंडरीक नामनो द्रह छे. ते बन्ने द्रह, पूर्व अने पश्चिममा हजार योजन लांबा अने पांचसो योजन पहोळा, चार खूणाने विषे दश योजन ऊंडा, चांदीना कांठावाळा, वज्रमय पाषाणवाळा, तपनीय(रक्तसुवर्ण)ना तलीआवाळा, सुवर्ण मध्य रजतमाणिनी वेळुवाळा छे, चारे दिशाए मणिना पगथिआवाळो, सुखपूर्वक उतरी शकाय एवा, तोरण, ध्वज अने छत्र वगेरेथी सुशोभित, नीलोत्पल अने पुंडरीक कमल वगेरेथी रचित विविध पक्षी अने मत्स्यो जेमां फरी रहेला छे एवा तेमज भ्रमरोना सम्रहवडे उपभोग्य छे. 'तत्थ णं 'ति० ते बे द्रहने विषे बे देवीओ वसे छे, पद्मद्रहमां श्रीदेवी अने पुंडरीकद्रहमां लक्ष्मीदेवी छे. ते बन्ने देवीओ भुवनपतिनिकायमां अंतर्भूत छे, कारण के तेओ पल्योपमना आयुष्यवाळी छे. व्यंतरनी देवीओनुं तो
१. टोकामां चतुर्दशमणिसोपानो पाठ छे, पण जंबूद्वीपपन्नती वगेरेमा चारे दिशाए पगथिआनुं वर्णन छे माटे ते प्रमाणे लखेल छे.
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श्रीस्था
नाङ्गसूत्र
सानुवाद
॥ १२८ ॥
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उत्कृष्ट अर्द्ध पल्योपमनुं आयुष्य होय छे. भवनपतिनी देवीओनुं उत्कृष्ट आयुष्य साडाचार पल्योपम प्रमाण होय छे. कां छे केअद्भुटु अद्धपंचम, पलिओम असुरजुयलदेवीणं । सेस वणदेवयाणं, देसूणं अद्धपलिय मुकोसं ॥ ६२॥
दक्षिण दिशाना असुरकुमारनी देवीओनी उत्कृष्ट स्थिति साडात्रण पल्योपमनी अने उत्तर दिशाना असुरकुमारनी देवीओनी साडाचार पल्योपमनी उत्कृष्ट स्थिति होय छे. शेष उत्तर दिशाना नागकुमारादि नत्र भवनपतिनी देवीओनी उत्कृष्ट स्थिति देशे ऊणी एक पल्योपमनी, अने दक्षिण दिशाना नव भवनपतिनी देवीनी तथा व्यंतरनी बन्ने दिशानी देवीनी स्थिति अपल्योपमनी होय छे. ते चे मोटा द्रहना मध्यमां एकेक योजनना लांबा-पहोळा कमळ छे अने ते अर्द्ध योजन जाडा छे, जलमां दश योजन बुडेला छे अने अर्द्ध योजन ऊंचा छे. वळी तेमां वज्रमय मूल, रिष्ठरत्नमय कंद, वैडूर्यरत्नमय नाळ, वैर्यरत्नमय बाह्यपत्र जांबूनद (सुवर्ण) मय अंदरना पत्रो, पीळा सुवर्णनी कर्णिका (डोडो) अने तपावेल सुवर्णनी केशरा तंतुओ छे. ते बे कमलनी वे कर्णिका अर्द्ध योजननी लांबी पहोळी अने एक कोश (बाहल्य) ऊंची छे. तेना उपर वे देवीओना भवन छे. ' एव 'मित्यादि० महाहिमवान पर्वतमां महापद्मद्रह अने रुक्मी पर्वतमां तो महापुंडरीकद्रह छे. ते बने द्रह बे हजार योजन लांबा अने एक हजार योजन पहोळा छे. वे योजनना लांबा-पहोळा कमळवाळा छे, ते वे कमळमां ने देवीओ से छे. महापद्ममां ह्रीदेवी अने महापुंडरकिमां बुद्धिदेवी छे. 'एव' मित्यादि० निषेध पर्वतने विषे तिगिंछिद्रहमां धृतिदेवी अने नीलवान पर्वत पर केशरीद्रह्मां कीर्त्तिदेवी वसे छे. ते बे द्रह चार हजार योजन लांबा अने बे हजार योजन पहोळा छे. आ संबंधनी गाथा नीचे प्रमाणे छे
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२ स्थान
काध्ययने
उद्देशः ३ हदनद्यादिस्वरूपम् ८८ सूत्रम्
॥ १२८ ॥
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एएसु सुरबहूओ, वसंति पलिओवमद्वितीयाओ । सिरिहिरि धितिकित्तीओ, बुद्धीलच्छी सनामाओ॥६३॥ आ गाथानो भावार्थ उपर कहेवायेल छे. (१), 'जंबू' इत्यादि० तेमां रोहित नदी, महापद्मद्रहथी दक्षिण तरफना तोरणथी नीकळीने एक हजार, छसो पांच योजन कांइक अधिक (पांच कळा) दक्षिण दिशाए पर्वत उपर जड़ने (वहीने) हारना आकारने धारण करवावाळा, कंडक अधिक बसें योजनप्रमाणवाळा, मगर ( मत्स्य ) ना मुख जेवा पडनाळरूप प्रपात - प्रवाहबडे महाहिमवान पर्वतना रोहित नामना कुंडमां पडे छे. मगरना मुखनी जीभ एक योजन लांबी, साडाबार योजन पहोळी अने एक योजन जाडी छे, अने (रोहित नदी ) रोहितप्रपातकुंडमांथी दक्षिण दिशाना तोरणद्वारा नीकळीने, हैमवान क्षेत्रना मध्यभागमा रहेल शब्दापाती नामना वृत्तवैताढ्यपर्वतथी वे कोश दूर रहीने, अठ्यावीश हजार नदीओना परिवार सहित जगती (कोट) ने नीचे भेदीने पूर्व दिशाथी लवणसमुद्रमां जाय छे-भळे छे. प्रवाहमां एटले नीकळती वखते रोहित नदी साडावार योजन पोळी अने एक गाउ ऊंडी छे, त्यारपछी क्रमशः वृद्धि पामती मुख ( समुद्रप्रवेश ) मां एकसो पच्चीश योजन पोळी, अढी योजन ऊंडी तेमज बने पासे वे वेदिका अने वे वनखंडवडे युक्त छे. एवी रीते सर्व महानदीओ, पर्वतो, कूटो अने वेदिका वगेरेथी युक्त छे. हरिकान्ता नदी तो महापद्मद्रहथी ज उत्तरदिशान। तोरणद्वारा नीकळीने कंडक अधिक सोळसो ने पांच योजन सुधी उत्तर सन्मुख थइ, पर्वत उपरथी जइने कंडक बसें योजनप्रमाणवाळा प्रपात (धोध ) बडे हरिकांताकुंडमां तेम ज पडे छे. मगरना मुखनी जीभिका ( जीभ ) नुं प्रमाण पूर्व कहेल प्रमाणथी बेवडं जाणवुं. ते प्रपातकुंडथी उत्तरदिशाना तोरणद्वारा
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥१२९॥
२ स्थानकाध्ययने उद्देशः ३ हृदनद्यादि
स्वरूपम् ८८ सूत्रम्
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नीकळीने हरिवर्षक्षेत्रना मध्य भागमा रहेनार गंधापाती नामना वृत्तवैताढय पर्वतथी एक योजन दूर रहीने, पश्चिमदिशा सन्मुख थइ छप्पन हजार नदीओ सहित समुद्रमा जाय छे. आ हरिकांता नदी रोहित् नदीना प्रमाणथी बमणा प्रमाणवाळी छे. 'एवं' मित्यादि० एवी रीते, 'जंबूहीवे' त्यादि० अभिलापर्नु सूचन करवा माटे कहेल छे. हरित महानदी तिगिछिद्रहनी दक्षिण दिशाना तोरणद्वारा नीकळीने कंइक अधिक सात हजार, चारसो, एकवीश योजन दक्षिण दिशा सन्मुख थइ, पर्वत उपर जईने कंडक अधिक चारसो योजनना प्रमाणवाळा प्रपातवडे हरिकुंडमां पडीने पूर्वना समुद्रमा पडे छे, शेष (लंबाई बगेरे ) हरिकांता नदीनी माफक जाणवू, शीतोदा महानदी तिगिछिद्रहनी उत्तरदिशाना तोरणद्वारा नीकळीने तेटला ज ( पूर्व कहेल कंइक अधिक सात हजार, चारसो, एकवीश योजन) पर्वत उपर उत्तर सन्मुख जइने कंइक अधिक चारसो योजनप्रमाणवाळा प्रपातबडे शीतोदाकुंडमां पडे छे. मगरना मुखनी जीभिका चार योजन लांबी, पच्चास योजन पहोळी अने एक योजननी जाडी समजवी. शीतोदाकुंडथी उत्तरदिशाना तोरणद्वारा नीकळीने देवकुरु क्षेत्रनो विभाग करती थकी, चित्र अने विचित्र कूटवाळा वे पर्वतोने अने निषधद्रहादि पांच द्रहोनो वे भाग करती थकी चोराशी हजार नदीओनी साथे मळवापूर्वक, भद्रशाळ बनना मध्यमां, मेरुपर्वतथी वे योजन दूर रहीने त्यांथी पश्चिम सन्मुख फरीने, विद्युत्प्रभ नामना वक्षस्कार पर्वतना नीचना भागने विदारीने मेरुनी पश्चिम दिशाथी अपर (पश्चिम) महाविदेहना मध्य भागद्वारा एक एक विजयमांथी अठ्यावीश-अठ्यावीश हजार नदीओ साथे मळीने, जयंतद्वारनी नीचेथी पश्चिम समुद्रमा प्रवेश करे छे. शीतोदा नदी प्रवाहमां तो पञ्चाश योजन पहोळी अने एक योजन ऊंडी छे, त्यारपछी अनुक्रमे वधती वधती मुखमां ( समुद्रमा भळती वखते) पांचसो योजन पहोळी
॥१२९ ॥
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अने दश योजन ऊंडी थाय छे. 'जंबू' इत्यादि शीता महानदी केशरीद्रहना दक्षिण तोरणथी नीकळी, कुंडमां पडीने, मेरुपर्वतना पूर्वथी पूर्व विदेहना मध्यथी विजयद्वारनी नीचेथी पूर्व समुद्रमा प्रवेश करे छे. बाकीनी वधी वक्तव्यता शीतोदा समान जाणवी. नारीकांता नदी तो उत्तरदिशाना तोरणथी नीकळीने रम्यक्षेत्रनो विभाग करती छती हरितमहानदीनी वक्तव्यता प्रमाणे रम्यकवर्षना मध्य भागथी पश्चिम समुद्रमा प्रवेश करे छे. 'एवं मित्यादि० नरकांता नदी महापुंडरकिद्रहमांथी दक्षिण दिशाना तोरणद्वारा नीकळीने रम्यक्वपनो विभाग करती छती, हरिकांतानी वक्तव्यता प्रमाणे पूर्व समुद्रमा प्रवेश करे छे. रूप्यकूला नदी तो महापुंडरीकद्रहना उत्तरदिशाना तोरणथी नीकळीने ऐरण्यवान क्षेत्रना चे विभाग करती छती रोहित नदीनी वक्तव्यता प्रमाणे पश्चिम समद्रमा प्रवेश करे छे. (२), 'जंबू' इत्यादि० 'पवायदह' ति० पडवू ते प्रपात, ते प्रपातबडे ओळखाता जे द्रह ते वे प्रपातद्रह. अहिं ज्यां हिमवान आदि पर्वतथी गंगा वगरे महानदी प्रणाल-पडनाळ(धोध)थी नीचे पडे छे ते प्रपातद्रह एटले प्रपात कंड. 'गंगापवायद्दहे चेव'त्ति० हिमवान वर्षधर पर्वतनी उपर रहेल पद्मद्रहना पूर्व दिशाना तोरणथी नीकळीने, पूर्व सन्मुख पांचसो योजन जइने गंगावर्तन कूटमा ( कूटनी नीचेथी) पाछी वळती छती पांच सो शि योजन अने साडीत्रण कळा संधी दक्षिण दिशा सन्मुख पर्वत उपरथी जइने गंगा महानदी, लंबाइबडे अर्ध योजनप्रमाण, पहोळाईवडे सवाछ योजनवाळी, जाडाईवडे अर्द्धगाउवाळी जीभिकाथी युक्त एवा काडेला मगरना मुख समान धोधवडे कंडक अधिक एकसो योजन प्रमाणवाळा अने मोतीना हारना जेवा प्रपात(ऊंचेथी पडवु, ते)थी जे गंगाप्रपातकुंडमां पड़े छे ते कुंड, साठ योजन लांबो अने पहोळो, कंईक न्यून एकसो नेवु योजननी परिधि(घेरावा)वाळो, दश योजन ऊंचो अने विविध मणि
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श्रीस्था
२स्थानका
नाङ्गसूत्र
ध्ययने
सानुवाद ॥ १३०॥
उद्देशः३ इदनद्यादि
स्वरूपम् ८८ सूत्रम्
XXXXXXXXXXXXXKKKKXx)
वडे बंधायेल छे. ते कुंडनी पूर्व, पश्चिम अने दक्षिण दिशामां त्रण त्रण पगथिया जोवा लायक छे. ते विविध तोरणो सहित छे. मध्य भागमां गंगा देवीनो द्वीप छे. ते द्वीप आठ योजन लांबो-पहोळो, कईक अधिक पच्चीस योजननो परिक्षेप-घेरावावाळो छे. पाणीथी उपर वे कोश ऊंचो अने वज्रमय छे. एक कोश लंबाइवाळा, अर्द्ध कोश पहोळाईवाळा, कंईक न्यून एक कोश ऊंचाईवाळा, अनेक (सेंकडो) स्तंभ(थाभला)वडे जोडायेला गंगादेवीना भवनवडे सुशोभित करायेल छे उपरनो भाग जेनो एवो ते कुंड छ, गंगाप्रपात कुंडथी दक्षिण दिशाना तोरणथी नीकळीने प्रवाहमा (नीकळती वखते) सवा छ योजननी पहोळी, अर्द्ध कोश ऊंडी गंगा नदी उत्तरार्द्ध भरतना चे भाग करती छती सात हजार नदीओ साथे मळीने खंडप्रपातगुफाना पूर्व भागथी नीचे वैताढय पर्वतने विदारीने-भेदीने दक्षिणार्द्ध भरतना वे विभाग करती छती ते विभागना मध्य भागथी जईने, पूर्व सन्मुख वळीने बधी मळीने चौदै हजार नदीओ साथे मुखमां (प्रवेशस्थलमा ) साडाबासठ योजन पहोळी अने सवा योजन ऊंडी एवी ते जगतीने भेदीने पूर्वना लवणसमुद्रमा प्रवेश करे छे. ते गंगाप्रपातद्रह. गंगाप्रपातद्रहना प्रमाणे सिंधुप्रपातद्रह पण व्याख्यान करवा योग्य छ अर्थात् तेनुं व्याख्यान करवू. आकारणथी जबे द्रह, लांबा, पहोळा, ऊंडा अने परिधिवडे समान विशेषणवाळा भाववा. बधा य प्रपातद्रहो दश योजन ऊंडा कहेवा. अहिं वर्षधर पर्वतनी नदीओना अधिकारमां गंगा, सिंधु अने रोहितांशानुं तथा सुवर्णकूला, रक्ता अने रक्तवतीनुंजे कथन नथी कयुं तेनुं कारण ए छे के अहीं बे स्थाननोज अधिकार छे. एक एक पर्वतथी त्रण नदीओना नीकळवाना त्रण त्रण स्थान होवाथी अर्थात त्रण त्रण नदीओ नीकळवाथी अने अहीं वे स्थाननो
१. सात हजार नदीओ उत्तराई भरतनी अने सात हजार दक्षिणाई भरतनी मळीने चौद हमार नदीओ जाणवी.
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अधिकार होवाथी तेनुं वर्णन करेल नथी. 'एव' मित्यादि० एम पूर्वनी माफक जाणवुं. 'रोहियप्पवायद्दहे चेव' ति० कहेवायेल स्वरूपवाळी रोहित् नदी ज्यां (जे कुंडमां ) पडे छे, वळी जे कुंड एक सो वशि योजननो लांबो-पहोळो छे, कडक न्यून त्रणसो एंसी योजनना घेरावावाळो अने जेना मध्यभागमां रोहित द्वीप सोळ योजननो लांबो-पहोळो, कंडक अधिक पञ्चाश योजन घेरावावाळो, पाणीना उपर वे कोश ऊंचो छे, गंगादेवीना भवन समान रोहित्देवीना भवनवडे सुशोभित उपरनो भाग छे जेनो ते रोहित्प्रपातद्रह 'रोहियंसप्पवाय दहे चेव ' ति० हिमवान वर्षधर पर्वर्तनी उपर रहेल पद्मद्रहना उत्तरदिशाना तोरणथी नीकळीने रोहितांशा महानदी, कंडक अधिक बसो ने छोंतेर योजन पर्यंत उत्तर सन्मुख थई, पर्वत उपरथी जड़ने लंबाईथी एक योजनवाळी, पहोळाईथी साडाबार योजनवाळी, जाडाइवडे एक गाउवाळी, जीभिकावडे पहोळो करेल मगरना मुखनी जेम प्रणालवडे अने मोतीना हारना आकारवाळा कंइक अधिक एकसो योजनप्रमाणवाळा प्रपातवडे ज्यां पडे छे अने जे रोहितप्रपातकुंड समान मानवाळी हे ते कुंडना मध्यमां रोहितद्वीप समान प्रमाणवाळो रोहितांशद्वीप छे. ते रोहितांशभवनवडे पूर्व कहेल प्रमाणवडे अलंकृत छे, अने जे कुंडथी रोहित नदी समान प्रमाणवाळी रोहितांशा नदी उत्तर तोरणद्वारा नीकळीने, पश्चिम समुद्रमां प्रवेश करे छे ते रोहितांशाप्रपातद्रह छे. 'जंबू' इत्यादि० 'हरिप्पवाय हे वेव' ति० पूर्व कहेल लक्षणवाळी हरित नदी ( कुंडमां ) ज्यां पंडे छे, वळी जे बसो ने चालीश योजन लंबाई अने पहोळाईथी, अने सातसो ने ओगणसाठ योजन परिधिवडे छे, अने जेना मध्यभागमां हरित् देवीनो द्वीप छे ते द्वीप बत्रीश योजन लांबो, पहोळो तेमज एक सो ने एक योजननी परिवाळो छे अने जळना उपर वे कोश ऊंचो छे, वळी हरिदेवीना भवनवडे सुशोभित उपरनो भाग छे जेनो, ते आ हरिप्र
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श्रीस्था
नाङ्गसूत्र
सानुवाद ॥ १३१ ॥
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पातद्रह छे. 'हरिकंतप्पवायद्दहे चेव' ति० पूर्व कहेल स्वरूपवाळी हरिकांता महानदी जे कुंडमां पडे छे, वळी जे कुंडनुं प्रमाण हरितकुंड समान छे, अने हरिद्वीप समान भवन सहित हरिकांतादेवीना द्वीपवडे भूषित मध्यभाग के जेनो ते हरिकांताप्रपातद्रह छे. 'जंबू' इत्यादि० 'सीयप्पवाय दहे चेव' ति० नीलवान पर्वतथी शीतानदी नोकळीने जे कुंडमां पडे छे, बळी जे कुंड लांबो अने पहोळो चारसो एंसी योजन छे अने पंदरसो अढार योजन विशेष न्यून परिधिवाको छे, तथा जेनी मध्यमां चौसठ योजन लांबो अने पहोलो बसो अने बे योजननी परिधिवाळी, जलना उपर वे कोश ऊंचो शीता द्वीप छे, तथा शीता देवीना भवनथी सुशोभित उपरनो भाग छे जेनो ते शीताप्रपातद्रह छे. 'सीतोदप्पवायद्दहे चेव' ति० निपधपर्वतथी शीतोदा नदी नीकळीने ज्यां (कुंडमां) पडे छे ते शीतोदाप्रपातद्रह छे. ते शीताप्रपातद्रह समान छे अने शीतादेवीना द्वीप अने भवन समान शीतोदादेवीनो द्वीप अने भवन छे. (३), 'जंबू' इत्यादि० नरकांता अने नारीकांताप्रपातद्रह (ए बन्ने) तो हरिकांता अने हरित्प्रपातद्रह ( समान छे. अने पोताना नाम समान द्वीप अने देवीओ छे. 'एव' मित्यादि० सुवर्णकूला अने रूप्यकूला प्रपातद्रह (ए बन्ने ) ने रोहितांशा अने रोहितप्रपातद्रह सरखा जाणवा. विशेष स्वयं समजवा योग्य छे. 'जंबू' इत्यादि० रक्ता अने रक्तावतीप्रपातद्रह (ए बन्ने ) ने गंगा अने सिंधुप्रपातद्रह समान कहेवा, परंतु रक्ता पूर्वसमुद्रमां मळनारी, अने रक्तवती पश्चिम समुद्रमां मळनारी छे. 'जंबु' इत्यादि० 'जंबुद्दीवे २ मंदरस्स दाहिणेणं भरहे वासे दो महानदीओ' इत्यादि० 'एव' मिति० अनंतरक्रमवडे 'जह' ति० जेम पूर्वे क्षेत्र क्षेत्रमां बे वे प्रपातद्रह कह्या तेवी रीते नदीओ पण कहेवी. ते आ प्रमाणेगंगा १ सिंधू २ तह रोहियंस ३, रोहीणदी य ४ हरिकंता ५ ।
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२ स्थानकाध्ययने
उद्देशः ३ हूदनद्यादिस्वरूपम्
८८ सूत्रम्
।। १३१ ॥
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हरिसलिला ६ सीयोया ७. सत्तया होंति दाहिणओ ॥ ६४ ॥ सीया य १ नारिकांता २, नरकांता चेव ३ रुप्पकूला ४ य ।
सलिला सुवण्णकूला ५, रत्तवती ६ रत्त ७ उत्तरओ ॥६५॥ मेरुनी] दक्षिण दिशामां गंगा, सिंधु, तथा रोहितांशा, रोहितनदी, हरिकांता, हरितसलिला अने शीतोदा-आ सात नदीओ होय छे. शीता, नारीकांता, नरकांता, रूप्यकूला, सुवर्णकूला, रक्तवती अने रक्ता-आ सात नदीओ मेरुनी उत्तर दिशामां होय छे. जंबूद्वीपना अधिकारथी अने क्षेत्रवडे कथन करवा योग्य पुद्गल धर्मना अधिकारथी जंबद्वीपना भरतादि संबंधी काल, लक्षण, पर्यायधर्मोंने अनेक प्रकारे अढार सूत्रवडे कहे छे
जंबुद्दीवे २ भरहेरवएसु वासेसु तीताए उस्सप्पिणीए सुसमदूसमाए समाए दो सागरोवमकोडाकोडीओ काले होत्था १, एवमिमीसे ओसप्पिणीए जाव पन्नते २, एवं आगमिस्साए उस्सप्पिणीए जाव भविस्सति ३, जंबूदीवे दीवे भरहेरवएसु वासेसु तीताए उस्सप्पिणीए ससमाए समाए मणुया दो गाउयाई उर्दू उच्चत्तेणं होत्था ४,दोन्नि य पलिओवमाई परमाउं पालडत्था ५, एवमिमीसे ओसप्पिणीए जाव पालयित्था ६, एवमागमेस्साते उस्सप्पिणीए जाव पालिस्संति ७.
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श्रास्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥ १३२॥
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जंबुद्दीवे दीवे भरहेरवएसु वासेसु एगसमये एगजुगे दो अरिहंतवंसा उप्पजिंसु वा उपजंति वा उप्पजिसंति वा ८, एवं चक्कवहिवंसा ९, दसारवंसा १०, जंबूभरहेरवएसु एगसमते दो अरहंता उप्पजिसु वा उप्पजंति वा उप्पजिस्संति वा ११, एवं चक्कबहिणो १२, एवं बलदेवा एवं वासुदेवा (दसारवंसा) जाव उप्पजिंसु वा उप्पजंति वा उप्पजिस्संति वा १३, जंबू० दोसु कुरासु मणुआ सया | सुसमसुसममुत्तमिड्डिं पत्ता पच्चणुब्भवमाणा विहरंति, तं०-देवकुराए चेव उत्तरकुराए चेव १४, जंबुहीवे दीवे दोसु वासेसु मणुया सया सुसमुत्तमं इडि पत्ता पचणुब्भवमाणा विहरंति, तं०-हरिवासे | चेव रम्मगवासे चेव १५, जंबू० दोसु वासेसु मणुया सया सुसमदुसमुत्तमामहि पत्ता पञ्चणुब्भ- 3 वमाणा विहरंति.तं-हेमवए चेव एरन्नवए चेव १६, जंबुद्दीव दीवे दोसु खित्तेसु मणुयासया दूसमसुसममुत्तममिड्डि पत्ता पञ्चणुब्भवमाणा विहरंतितं०-पूव्वविदेहे चेव अवरविदेहे चेव १७, जंबूदीवे दीवे दोसु वासेसु मणुया छव्विहंपि कालं पच्चणुब्भवमाणा विहरंति, तं०-भरहे चेव एरवते चेव १८। सू०८९ ४
मूलार्थ:-जंबूद्वीप नामना द्वीपमा भरत अने ऐवत क्षेत्रने विषे अतीत उत्सर्पिणीमां सुषमषम नामना (चोथा) आरानो
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२ स्थान काध्ययने उद्देशः ३ सुषमादृष
मादिस्वरूपम् ८९सूत्रम्
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काळ बे कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण हतो. (१), एवी रीते आवर्तमान अवसर्पिणीमां सुषमदुष्षम नामना (त्रीजा) आरानो काळ बे कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण कहेल छे. (२), एवी रीते आगामी उत्सर्पिणीमां सुषमदुष्पम नामना (चोथा) आरानो काळ पूर्व प्रमाणे थशे. (३), जंबूद्वीप नामना द्वीपमा भरत अने ऐवत क्षेत्रने विवे अतीत उत्सर्पिणीना सुषम नामा (पांचमा) आरामां मनुष्यो वे गाउनी ऊंचाईवाळा तेमज (४),बे पल्योपमना आयुष्यने पाळनारा हता. (५), एवीरीते आ अवसर्पिणीमां सुषम नामना (बीजा) आरामां बे पल्योपमना आयुष्यने भोगवनारा हता. (६), एवी रीते आगामी उत्सपिगीमां सुषम नामना (पांचमा) आरामां बे पल्योपमना आयुष्यने पाळनारा थशे. (७), जंबूद्वीप नामना द्वीपमा भरत अने ऐवत क्षेत्रने विषे एक युगना एक समयमां वे अरिहंतना वंश उत्पन्न थया छे, उत्पन्न थाय छे अने उत्पन्न थशे.(८), एवीरीते वे चक्रानिा वंश (९), बे दशार-चासुदेवना वंश उपज्या छे, उपजे छे अने उपजशे. (१०), जंबूद्वीपना भरत अने ऐवत क्षेत्रने विवे वे अरिहंत उत्पन्न थया छे, उत्पन्न थाय छे अने उत्पन्नथशे. (११), एवी रीते वे चक्रवर्ती उपज्या छे, उपजे छ अने उपजशे. (१२), एवीरीते वे बलदेव अने वे वासुदेव उत्पन्न थया छे, उत्पन्न थाय छे अने उत्पन्न थशे. (१३), जंबुद्धीपना वे कुरुक्षेत्रने विवे मनुष्यो सदा सुषमसुषम (पहेला)
आरानी उत्तम ऋधिने पामीने भोगवता थका विचरे छे ते क्षेत्रो देवकुरु अने उत्तरकुरु (१४), जंबूद्वीप नामना द्वीपमा वे वने विषे मनुष्यो सदा सुषम नामना (बीजा) आरानी उत्तम ऋद्धिने पामीने भोगवता थका विचरे छे, ते वर्षक्षेत्रो हीि अने रम्यकवर्ष (१५), जंबूद्वीपना बे क्षेत्रोमां मनुष्यो सदा सुषमदुष्पम नामना (त्रीजा) आरानी उत्तम ऋद्धिने पामीने भोगवता थका विचरे छे, ते क्षेत्रो हैमवत अने हैरण्यवत (१६), जंबूद्वीप नामना द्वीपमा बे क्षेत्रने विषे मनुष्यो सदा दुष्पमसुपम
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥ १३३ ॥
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(चोथा) आरानी उत्तम ऋधिने पामीने भोगवता थका विचरे छे, ते आ-पूर्वविदेह अने अपरविदेह (१७), जंबूद्वीपना
२ स्थानवे क्षेत्रमा मनुष्यो छ प्रकारना काल संबंधी आयुष्यादि ऋद्धिने पामीने भोगवता थका विचरे छे, ते आ-भरत अने8
काध्ययने ऐवतक्षेत्र (१८). सू० ८९
उद्देशः३ ____टीकार्थ:-आ सूत्रो सुगम छे. विशेष ए के 'तीताए'त्ति० गयेली उत्सर्पिणीनुं स्वरूप पूर्वनी माफक जाणवू. ते उत्सर्पिणीमां अथवा उत्सर्पिणीना सुषमदुप्पमा-बहु सुखवाळा, समा-चोथा आराना लक्षणरूप काल विभागनी स्थिति (अथवा प्रमाण) ये
सुषमादुःपकोडाकोडी सागरोपम हती (१), एवी रीते जंबुद्दीवे २ इत्यादि कहे, विशेष 'इमीसे' त्ति. आ प्रत्यक्ष वर्तमान पूर्वोक्त
मादिअर्थवाळी अवसर्पिणीमा 'जाव'त्ति० दूपमपमा नामना त्रीजा आराने विषे 'दो सागरोवमकोडाकोडीओ काले' 'पन्नत्ते' स्वरूपम् कहेल छे. ए ज पूर्वसूत्रथी विशेष छे. पूर्व सूत्रमा होत्य'त्ति कहेल छे (२), 'एव'मित्यादि० 'आगमिस्साए'त्ति आवती उत्स- ८९ मूत्रम् पिणीमां 'भविष्यति' थशे. ए ज पूर्वसूत्रथी विशेष छे (३),'जंबू'इत्यादि० सुषम नामना पांचमा आरामां 'होत्यत्ति हता (४), 'पालयित्यत्ति० पाळनारा, पूर्व सूत्रथी शब्दभेद विशेष छे (५-७), 'जंबू'इत्यादि० 'एगजुगे'त्ति० पांच वर्षनो युग काल विशेष कहेवाय छे. युगना एक वर्षना एक समयमां, 'एगसमए एगजुगे' आ प्रमाणे पाठ होवा छतां पण व्याख्या उक्त क्रमवडे ज करवी. अर्थना संबंधथी आ प्रकारे ज कहेली व्याख्या छ, अथवा बीजीरीते भावना करवी. अरिहंतीना बे वंश-प्रवाह छे, एक भरतक्षेत्रमा उत्पन्न थयेल अने बीजो एरवत क्षेत्रमा उत्पन्न थयेल. 'दसार'त्ति सिद्धांतनी परिभाषावडे वासुदेवो (८-१३),
१ बोजा सूत्रधी तेरमा सूत्र सुधीजें वर्णन टोकाकारे कोइक शब्दनो अर्थ संक्षेपथी करेल छे माटे मूलसूत्रना अनुवादधी जाणी लेवू.
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'जंवू'इत्यादि० सर्वदा 'सुसममुसमंति० पहेला आरा जेवो जे विपाक ते सुषमसुषमा तेना संबंधवाळी जे ऋद्धि ते सुपमसुषमज, ते उत्तम ऋद्धिने-प्रधान ऐश्वर्य ने अर्थात् उच्च आयुष्य, कल्पवृक्षे आपेल भोग अने उपभोगादिकने प्राप्त थया छता, ते भोगो प्रत्ये अनुभव करता थका विचरे छे, पण सत्ता मात्रथी नहिं, अर्थात् वेदे छे अथवा सुपमसुषम नामना काल विशेपने पामेला अने उत्तम ऋद्धिन अनुभवता थका रहे छे. कडुं छे केदोसुवि कुरासु मणुया, तिपल्लपरमाउणोतिकोसुच्चा। पिट्टिकरंडसयाई,दो छप्पन्नाइं (त) मणुयाणं ॥६६॥ सुसमसुसमाणुभावं, अणुभवमाणाणऽवच्चगोवणया। अउणापन्नदिणाई, अट्टमभत्तस्स आहारो॥६७॥
देवकुरु अने उत्तरकुरु ए बे क्षेत्रने विषे मनुष्यो उत्कृष्ट त्रण पल्योपमना आयुष्यवाळा [जघन्यथी पल्यना असंख्य भाग न्यून पण पल्यनुं आयुष्य होय छे. ], त्रण कोश ऊंचा छे. ते मनुष्योने बशें छप्पन पांसळी होय छे. सुपमसुषम-अत्यंत सुखने अनुभवे छे, तथा अपत्य( संतान )नी प्रतिपालना ओगणपञ्चाश दिवस करे छे. बळी अट्ठम भक्त आहार करे छे. दक्षिणमा देवकुरु अने उत्तरकुरु क्षेत्र उत्तरमां, ते बन्नेमा उपरोक्त 'जंबू' इत्यादि० 'सुसमत्ति० सुषमा-बीजा आरा जेवू सुख, शेष तेमज जाणवू. कयुं छे केहरिवासरम्मएसु, आउपमाणं सरीरउस्सेहो। पलिओवमाणि दोन्नि उ, दोन्नि य कोसासमा भणिया ६८ छट्ठस्स य आहारो, चउसट्टिदिणाणुपालणा तेसिं । पिट्टिकरंडाण सय, अट्ठावीसंमुणेयव्वं ॥ ६९ ॥
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥१३४ ॥
हरिवर्ष अने रम्यक्वप क्षेत्रने विषे बे पल्योपम आयुष्यनुं प्रमाण अने शरीरनी ऊंचाइ बे गाउनी छे. तेओने छह भक्ते आहार अने चोसठ दिवस पर्यंत अपत्यनी पालना होय छ, तथा तेओनी पासळीओ एकसो ने अठ्यावीश जाणवी. 'जंबू' इत्यादि० 'सुसमदुस्सम' ति० सुषमदुष्षम नामना त्रीजा आराना अनुभावनी ऋद्धि ते सुषमदुष्पमऋद्धि, शेष पूर्ववत् जाणQ. कह्यु छ केगाउयमुच्चा पलिओ-वमाउणो वजरिसहसंघयणा । हेववएरन्नवए, अहमिंदणरा मिहुणवासी ॥७॥ चउसट्ठी पिष्टिकर-डयाण मणुयाण तेसिमाहारो।भत्तस्स चउत्थस्स य,उणसीतिदिणाणुपालणया।७१॥
हैमवत अने ऐरण्यवत क्षेत्रने विषे मनुष्यो एक गाऊना ऊंचा, एक पल्योपमना आयुष्यवाळा, वज्रऋषभनाराच संघयणवाळा, अहमिंद्र (स्वामी-सेवकभाव सिवायना) अने युगलीआ होय छे, ते मनुष्योने पांसळीओ चोसठ होय छे, चोथ भक्ते (एकांतरे ) आहार होय छे अने तेओने ओगण्यासी दिवस सुधी अपत्यनी पालना होय छे. 'जंबू' इत्यादि० 'दूसमसुसमं' ति० दुष्पमसुषमा एटले चोथा आरानो भाव, तेना संबंधवाळी जे ऋद्धि ते, दुष्पमसुषमज जाणवी. बाकी पूर्वनी माफक समजबु. कडुं छे केमणुयाण पुवकोडी, आउं पंचुस्सियाधणुसयांइ।दूसमसुसमाणुभावं,अणुहोंतिणरा निययकालं७२
पूर्वविदेह तथा अपरविदेहने विषे मनुष्योनुं आयुष्य क्रोडपूर्वतुं अने ऊंचाइ पांचसो धनुष्यनी हाय छे. तथा दुष्षमसुषमा
२ स्थानकाध्ययने उद्देशः ३ सुपमादुःष
मादिस्वरूपम् ८९ मूत्रम्
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x॥ १३४॥
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KXXXXXXKXKAKXXXXXXXXX KAEXKKKKX.
चोथा आरा समान अनुभावने मनुष्यो हमेशां अनुभवे छे.
'जंबूढ़ीवे ' इत्यादि० 'छब्विहंपि' त्ति० सुषमसुषमादिक उत्सर्पिणी अवसर्पिणीरूप छ आरानो अनुभव भरत, ऐवतने विषे मनुष्यो अनुभवे छे. १८. (सू० ८९) अनंतर जंबूद्वीपने विष काललक्षण, द्रव्यना पर्याय विशेषो करा, हवे तो जंबूद्वीपमा ज कालपदार्थने प्रगट करनार ज्योतिष्कोनी वे स्थानकना अनुपातवडे प्ररूपणा करे छे.
जंबुद्दीवे दीवे दो चंदा पभासिंस वा पभासंति वा पभासिस्संति वा, दो सूरिआ तर्विसु वा तंवति वा तविस्संति वा, दो कत्तिया, दो रोहिणीओ.दो मगासराओ, दो अदाओ, एवं भाणियव्वं, (गाथा)-कत्तिये रोहिणि मगसिर, अर्दा य पुणव्वसूं अ पूसो य । तत्तोऽवि अस्सलेसाँ, महाँ य दो फग्गुणीओ य ॥१॥ हत्थो चित्ती साई, विसाही तहय होति अणुराही ।जेट्ठी मूलो पुवा य, आसाढा उत्तरों चेव ॥२॥ अभिईसवणैधणिट्ठौं सयभिसयों दो य होंति भद्दवैयाँ । रेवति अस्सिणि भरणी नेतव्वा आणपुव्वीए ॥३॥ एवं गाहाणुसारणं णेयव्वं जाव दो भरणीओ [१], दो अग्गी, दो पयावती, दो सोमा, दो रुदा, दो अदिती, दो बहस्सती, दो सप्पी, दो पीती, दो
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श्रीस्था
भगा. दो अज्जमा, दो सविता, दो तट्टा, दो वाऊ, दो इंदग्गी, दो मित्ता, दो इंदा, दो निरती. दो २ स्थाननाङ्गसूत्र * आऊ, दो विस्सा, दो बम्हा, दो विण्हू, दो वसू, दो वरुणा, दोअया, दो विविद्धी. दो पुस्सा, दो |
काध्ययने सानुवाद अस्सा, दो यमा [२], दो इंगालगा १, दो वियालगा २, दो लोहितक्खा ३, दो सणिच्चरा ४, दो
उद्देशः ३ ॥१३५॥
चन्द्रादिआहुणिया ५, दो पाहुणिया ६, दो कणा ७, दो कणगा ८, दो कणकणगा ९, दो कणगविताणगा
त्यनक्षत्रा१०. दो कणगसंताणगा ११, दो सोमा १२, दो सहिया १३, दो आसासणा १४, दो कज्जोवगा
दिस्वरूपम् १५. दो कब्बडगा १६, दो अयकरगा १७, दो दुंदुभगा १८, दो संखा १९, दो संखवन्ना २०, दो 3 सूत्रम् संखवन्नाभा २१, दो कंसा २२, दो कंसवन्ना २३, दो कंसवन्नाभा २४, दो रुप्पी २५, दो रुपाभासा | २६, दो णीला २७, दो णीलोभासा २८, दो भासा २९, दो भासरासी ३०, दो तिला ३१, दो तिल-* पुप्फवण्णा ३२, दो दगा ३३, दो दगपंचवन्ना ३४, दो काका ३५, दो कक्कंधा ३६, दो इंदगी [वा] ३७, धूमकेऊ ३८, दो हरी ३९, दो पिंगला ४०, [३], दो बुद्धा ४१, दो सुका ४२, दो
१. सूर्यप्रज्ञप्ति सूत्रना टीकाकारे आपेल पाठमां ' इंदग्गी । पाठ छे ते शुद्ध जणाय छे.
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बहस्सती ४३, दो राहू ४४, दो अगत्थी ४५, दो माणवगा ४६, दो कासा ४७, दो फासा ४८, दो धुरा ४९, दो मुहा ५०, दो वियडा ५१, दो विसंधी ५२, दो नियल्ला ५३, दो पल्ला ५४, दो जडियाइलगा ५५, दो अरुणा ५६, दो अग्गिल्ला ५७, दो काला ५८, दो महाकालगा ५९, दो सोत्थिया ६०, दो सोवत्थिया ६१, दो वद्धमाणगा ६२, दो पुंससमाणगा ६३, दो अंकुसा ६४, दो पलंबा ६५, दो निच्चालोगा ६६, दो णिच्चुजोता ६७, दो सयंपभा ६८, दो ओभासा ६९, दो सेयंकरा ७०, दो खेमंकरा ७१, दो आभंकरा ७२, दो पभंकरा ७३, दो अपराजिता ७४, दो अरया ७५, दो असोगा ७६, दो विगतसोगा ७७, दो विमला ७८, दो वित्तता ७९, दो वितत्था ८०, दो विसाला ८१, दो साला ८२, दो सुव्वता ८३, दो अणियट्टा ८४, दो एगजडी ८५, दो दुजडी ८६, दो करकरिगा ८७, दो रायग्ला ८८, दो पुप्फकेतू ८९, दो भावकेऊ ९०, [४] सू० ९०
१. पुष्पमाणक अने अंकुश ए वे ग्रहोना नाम बाबूवाळी प्रतिमां नथी, आ वे ग्रहोना नाम ग्रंथांतरमां छे एम टबामां लखेल छे. ६३-६४ अंकवाळा आवे ग्रहोनां नामो ग्रहण करवाथी वे नाम वधे छे, परंतु ग्रहो तो ८८ प्रसिद्ध छे.
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श्रस्थिानाङ्गसूत्र सानुवाद
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मूलार्थ:-जंबूद्वीप नामना द्वीपमा बे चंद्र प्रकाश करता हता, प्रकाश करे छ अने प्रकाश करशे. ये सूर्य तपता हता, तपे छे अने तपशे. बे कृत्तिका, बे रोहिणी, बे मृगशिर, बे आर्द्रा एवी रीते बीजा नक्षत्रो पण जाणवा. कृतिका १, रोहिणी २, मृगशिर ३, आर्द्रा ४, पुनर्वसु ५, पुष्य ६, त्यारपछी अश्लेषा ७, मघा ८, पूर्वाफाल्गुनी ९, उत्तराफाल्गुनी १०, हस्त ११, चित्रा १२, स्वाती १३, विशाखा १४, तेमज अनुराधा १५, जेष्ठा १६, मूल १७, पूर्वाषाढा १८, उत्तराषाढा १९, अभिजित् २०, श्रवण २१, धनिष्ठ २२, शतभिषा २३, पूर्वाभाद्रपद २४, उत्तराभाद्रपद २५, रेवती २६, अश्विनी २७ अने भरणी २८ अनुक्रमे आ नक्षत्रो जाणवा. एवी रीते गाथाना अनुसारे दरेक नक्षत्रो बब्बे जाणवा यावत् भरणी पर्यत. (१), [हवे अठ्यावीश नक्षत्रोना अधिपति देवोनां नाम कहे छ -अग्नि, प्रजापति, सोम, रुद्र, अदीति, बृहस्पति, सप, पितर, भग, अर्यमा, सविता, त्वष्टा, वायु, इंद्राग्नि, मित्र, इंद्र, निर्ऋती, आप, विश्व, ब्रह्मा, विष्णु, वसु, वरुण, अज, विवृद्धि, पुषा, अश्वी अने यम. आ प्रत्येक देवो बब्बे जाणवा. (२), [हवे अठ्यासी ग्रहोनां नाम कहे छ]-अंगारक(मंगळ) १, व्यालक २, लोहिताक्ष ३, शनश्चर ४, आहुणिक ५, प्राणिक ६, कण ७, कनक ८, कणकनक ९, कनकवितानक १०, कनकसंतानक ११, सोम १२, सहित १३, अश्वासन १४, कज्जोवगा १५, कर्बट १६, अयस्कर १७, दुंदुभक १८, शंख १९, शंखवर्ण २०, शंखवर्णाभ २१, कंस २२, कंसवर्ण २३, कंसवर्णाभ २४, रुपी २५, रौप्याभास २६, नील २७, नीलाभास २८, भस्म २९, भस्मराशि ३०, तिल ३१, तिलपुष्पवर्ण ३२, दक ३३, दकपंचवर्ण ३४, काक ३५, काकंध ३६, इंद्राग्नि ३७, धूमकेतु ३८, हरि ३९, पिंगल ४०, (३) बुध ४१, शुक्र ४२, बृहस्पति ४३, राहु ४४, अगस्ति ४५,
२ स्थानकाध्ययने उद्देशः ३ चन्द्रादित्यनक्षत्रादि
स्वरूपम् ९० सूत्रम्
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॥ १३६॥
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माणवक ४६, कास ४७, स्पशे ४८, धुर ४९, प्रमुख ५०, विकट ५१, विसंधि ५२, नियल ५३, पहल ५४, झटितालक ५५, अरुण ५६, अगिल ५७, काल ५८, महाकाल ५९, स्वस्तिक ६०, सौवस्तिक ६१, वर्धमान ६२, पुष्पमानक ६३, अंकुश ६४, प्रलंब ६५, नित्यालोक ६६, नित्योद्योत ६७, स्वयंप्रभ ६८, अवभास ६९, श्रेयंकर ७०, क्षेमकर ७१, आभंकर ७२, प्रभंकर ७३, अपराजित ७४, अरज ७५, अशोक ७६, विगतशोक ७७, विमल ७८, वितत ७९, वित्रस्त ८०, विशाळ ८१, साल ८२, सुव्रत ८३, अनिवृत्त ८४, एकजटी ८५, द्विजटि ८६, करकरिक ८७, राजगल ८८, पुष्पकतु ८९ | अने भावकेतु ९०-आ सर्व ग्रहो बब्बे जाणवा. (४) (सू०९०)
टीकार्थ:-'जंबुद्दीव' इत्यादि सूत्रद्वयं, 'पभासिंसु वत्ति प्रकाश करता हता, प्रकाशवा योग्यने प्रकाश करे छ अने प्रकाश करशे. बन्ने चंद्र सौम्य (शांत) प्रकाशवाळा होवाथी तेओर्नु प्रभासनपणुं कयु अने बन्ने सूर्यने तीक्ष्ण किरणपणुं होवाथी तपाबता हता, एम ज तपावे छे अने तपावशे. आ हेतुथी वस्तुनुं तपq का, आ त्रण कालमा प्रकाशना कथनवडे सर्वकाल पर्यंत चंद्रादि भावोर्नु अस्तिपणुं कडं, आ कारणथी ज कहेवाय छ-'न कदाचिदनीदृशं जगदिति० क्यारे पण आना जेवू जगत न हतुं एम नहि (पण हमेशा छ,) अथवा विद्यमान जगतनो कर्त्ता छे एम कल्पना करवी ते योग्य नथी, कारण के तेने माटे प्रमाण नथी. शंका-सन्निवेश विशेषवाळू जे द्रव्य ते कारणपूर्वक बुद्धिमान् पुरुषवडे घडानी जेम जोवायेल छ, ते सनिवेश विशेषवाळा पृथ्वी, पर्वत वगेरे छे. जे बुद्धिमान छे ते आ ईश्वर जगतनो कर्त्ता छे. समाधान-एम नथी. सन्निवेश-विशेषवाळो वल्मीक (राफडो) छते पण तेमां बुद्धिमान पुरुषना कारणपणानुं जोवापणुं (अर्थात् जगतनो कचों ईश्वर
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद
|
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नथी पण स्वाभाविक छे) नथी. अहिं घणुं कहेवा योग्य छे ते स्थानांतरथी (ग्रंथांतरथी) जाणी लेवु. चंद्रनी वे संख्या होवाथी र स्थानका तेना परिवारनुं पण द्वित्वपणुं कहे छे. 'दो कत्तिए' आदि सूत्रथी 'दो भावकेऊ' ए छल्ला सूत्र पर्यंत कहेल छे. आनो
ध्ययने अर्थ सुगम छे. विशेष ए छे के-बे कृतिका छे ते नक्षत्रनी अपेक्षाए जाणवू, पण तारानी अपेक्षाए नहिं. एवी रीते सर्वत्र
उद्देशः ३ समजी लेवु, 'कत्तिए' त्यादि० त्रण गाथावडे नक्षत्र सूत्रनो संग्रह छे. कृत्तिकादि अट्यावीश नक्षत्रना अनुक्रमे अग्नि वगेरे
चन्द्रादिअठ्यावीश देवो होय छे, ते कहे छ-बे अग्नि १, एवी रीते प्रजापति २, सोम ३, रूद्र ४, अदिति ५, बृहस्पति ६, सर्प ७, पितर ८, भग ९, अर्यमा १०, सविता ११, त्वष्टा १२, वायु १३, इंद्राग्नि १४, मित्र १५, इंद्र १६, निऋति १७, आप
त्यनक्षत्रा१८, विश्व १९, ब्रह्मा २०, विष्णु २१, वसु २२, वरुण २३, अज २४, विवृद्धि २५, (ग्रंथांतरमा अहिर्बुध्न छे.) पूषा २६,
दिस्वरूपम् अश्वी २७, यम २८. ग्रंथांतरमा वळी अश्विनी नक्षत्रथी आरंभीने रेवती नक्षत्र सुधी देवताओना नाम आ प्रमाणे छ-१ अश्वी, ९० सूत्रम् २ यम, ३ दहन, ४ कमलज, ५ शशी, ६ शूलभृत्, ७ अदीति, ८ जीव, ९ फणी, १० पितर, ११ योनि, १२ अर्यमा, १३ दिनकृत्, १४ त्वष्ट, १५ पवन, १६ शक्राग्नि, १७ मित्र, १८ ऐंद्र, १९ निऋति, २० तोय, २१ विश्व, २२ ब्रह्मा, २३ हरि, २४ बुध, २५ वरुण, २६ अजपाद, २७ अहिर्बुध्न, २८ पुषा एम जाणवा. अंगारक वगेरे अठयासी ग्रहो सूत्रमा कहेला ते केवळ अमारावडे जोवायेल केटलाएक पुस्तकोमा यथोक्त संख्या मळती छे. अहिं सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्रने अनुसारे आ संख्या १. अहिआ क्रममा फरक छे पण नाम एक ज छे. सोमने बदले शशी छे इत्यादि एकार्थवाचक छे. फक्त २७ मो अहिबुध्न नामनो
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मेळववी जोइए. आ प्रमाणे सूर्यप्रज्ञप्तिनुं सूत्र छे-"तत्थ खलु इमे अट्ठासीई महागहा पन्नत्ता, तंजहा-१, इंगालए,२, वियालए (यावत्)८८ भावकेऊ.” सूर्यप्रज्ञप्तिसत्रना आ पाठनी मतलब संग्रहणी नीचेनी गाथाओमां कहेल छे, ते आ प्रमाणे
इंगालए १ वियालए २, लोहियक्खे ३ सणिच्छरे ४ चेव । आहुणिए ५ पाहुणिए ६, कणगसनामा उ पंचेव ११ ॥ ७३ ॥ सोमे १ सहिए २ आसा-सणे य ३ कज्जोवए य ४ कब्बडए ५। अयकरए ६ दुंदुहए ७, संखसनामाओ तिन्नेव १० (२१) ॥७४ ॥ तिन्नेव कंसनामा ३, नीला ५ रुप्पी य ७ होंति चत्तारि ।। भास ९ तिलपुप्फवन्ने ११ [दगे य] दग पण [पंच]वण्णे य १३ काय काकंधे॥१५(३६)७५ इंदगि १ धूमकेऊ २, हरि ३ पिंगलए ४ बुहे य ५ सुक्के य ६।
बहस्सइ ७ राहु ८ अगत्थी ९, माणवए १० कास ११ फासे य १२ (४८) ॥ ७६ ॥ १. टोकामां सूर्यप्रज्ञप्तिनो पाठ आपेल छे ते संक्षिप्त कगेने लखेल छे, कारण के ए ज पाठमां कहेल ग्रहोना नामो संग्रहणीनी नव गाथामां कहेल छे.
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥१३८॥
२ स्थान
काध्ययने है| उद्देशः३ * जंबूद्वीपस्य
अपरवर्णनम् | ९१ सूत्रम्
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धूरे १ पमुहे २ वियडे ३, विसंधिणियले ४-५ तहा पयल्ले य ६। जडियाइलए ७ अरुणे ८, अग्गिल ९ काले १० महाकाले ११ (५९) ॥ ७७॥ सोत्थिय १ सोवत्थिय[ए] २, वद्धमाणगे ३ तहा पलंबे य ४ । निच्चालोए ५ णिच्चुज्जोए ६ सयंपभे ७चेव ओभासे ८ (६७) ॥ ७८॥ सेयंकर १ खेमंकर २, आभंकर ३ पभंकरे य ४ बोद्धव्वे । अरए ५ विरए य ६ तहा, असोग ७ तह वीयसोगे य ८ (७५) ॥ ७९ ॥ विमल १ वितत्त २ वितत्थे ३, विसाल ४ तह साल ५ सुव्वए ६ चेव । अनियट्टी ( एगजडी ८ य होइ बिजडी य ९ बोद्धव्वे (८४)॥८॥ करकरए १ रायग्गल २, बोद्धव्वे पुप्फ ३ भावकेऊ य ४ । (८८)
अट्ठासीई गहा खलु, णेयव्वा आणपुवीए ॥ ८१॥ आ गाथाओनो अर्थ मूलसूत्रना अनुवाद प्रमाणे जाणी लेवो. हवे जंबूद्वीपना अधिकारथी बीजुं वर्णन करे छे
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जंबूद्दीवरस णं दीवस्स वेइआ दो गाउयाई उद्धं उच्चतेणं पन्नत्ता । लवणे णं समुद्दे दो जोयणसयसहस्साइं चक्कवालविक्खंभेणं पन्नत्ते । लवणस्स णं समुद्दस्स वेतिया दो गाउयाइ उद्धं उच्चणं पन्नता । सू० ९१, धायइसंडे दीवे पुरच्छिमद्धेणं मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरदाहिणेणं दो वासा पन्ना बहुमतुल्ला जाव भरहे चेत्र एखए चैत्र, एवं जहा जंबुद्दीवे तहा एत्थवि भाणियन्त्रं जाव दो वासु मया छविहंपि कालं पञ्चणुभवमाणा विरहंति तं० भरहे चेव एरखते चेव, णवरं कूडसामली चेव धायइरुक्खे चेव, देवा गरुले चेव वेणुदेवे सुदंसणे चेव (१), धाततीसंडदीवपञ्चच्छिमद्धे णं मंदरस्त पव्त्रयस्स उत्तरदाहिणेणं दो वासा पन्नत्ता बहु० जाव भरहे चेत्र एखए चेव
छविपि कालं पचणुभवमाणा विहरंति भरहे चेत्र एखए चेत्र, णवरं कूडलामली चेव हाती चैव देवा गरुले चेव वेणुदेवे पिपदंसणे चैत्र, धायइसंडे णं दीवे दो भरहाई दो एवाई दो हेमवयाई दो हेरन्नत्रयाइं दो हरिवालाई दो रम्मगवासाई दो पुब्वविदेहाई दो अवरविदेहाई दो देवकुराओ दो देवकुरुमहदुमा दो देव कुरुमहदुमवासी देवा दो उत्तरकुराओ दो
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२ स्थान
काध्ययने
श्रीस्था
उत्तरकुरुमहद्दमा दो उत्तरकुरुमहद्दमवासी देवा (२), दो चुल्लहिमवंता दो महाहिमवंता दो निसहा नाङ्गसूत्र
दो नीलवंता दो रुप्पी दो सिहरी दो सद्दावाती दो सद्दावातवासी साती देवा दो वियडावाती दो सानुवाद
वियडावातिवासी पभासा देवादो गंधावाती दो गंधावातिवासी अरुणा देवा दो मालवंतपरियागा ॥ १३९ ।।४
दो मालवंतपरियागावासी पउमा देवा दो मालवंता दो चित्तकूडा दो पम्हकूडा दो नलिणकूडा दो एगसेला दो तिकडा दो वेसमणकूडा दो अंजणा दो मातंजणा दो सोमणसा दो विज्जुप्पभा दो अंकावती दो पम्हावती दो आसीविसा दो सुहावहा दो चंदपव्वता दो सूरपव्वता दो णाग
पवता दो देवपव्वया दो गंधमायणा दो उसुगारपव्वया (३),दो चुल्लहिमवंतकुडा, दो वेसमणकूडा, * दो महाहिमवंतकूडा, दो वेरुलियकूडा, दो निसहकूडा, दो रुयगकूडा, दो नीलवंतकूडा, दो उव| सणकूडा, दो रुप्पिकूडा, दो मणिकंचणकूडा, दो सिहरिकूडा, दो तिगिच्छिकूडा, दो पउ
मद्दहा, दो पउमद्दहवासिणीओ सिरीदेवीओ दो महापउमद्दहा दो महापउमद्दहवासिणीओ हिरी| [तो] देवीओ, एवं जाव दो पुंडरीयद्दहा, दो पोंडरीयद्दहवासिणीओ लच्छीदेवीओ, दो गंगापवाय
उद्देशः ३ अपरवर्णनम् ९१-९२९३ सूत्राणि
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। १३९॥
Anamoonam
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दहा, जाव दो रत्तवतिपवात दहा (४), दो रोहियाओ, जाव दो रुप्पकूलातो दो गाहवताओ दो दहवतीओ दो पंकवतीओ दो तत्तजलाओ दो मत्तजलाओ दो उम्मत्तजलाओ दो खीरोयाओ दो सीहसोताओ दो अंतोवाहिणीओ दो उम्मिमालिणीओ दो फेणमालिणीओ दो गंभीर मालिणीओ दो कच्छा दो सुकच्छा दो महाकच्छा दो कच्छगावती दो आवत्ता दो मंगलावत्ता दो पुक्खला दो पुखलाई दो बच्छा दो सुवच्छा दो महावच्छा दो वच्छगावती दो रम्मा दो रम्मगा दो रमणिजा दो मंगलावती दो पम्हा दो सुपम्हा दो महपम्हा दो पम्हगावती दो संखा दो णलिणा दो या दो सलिलावती ( णलिणावती ) दो वप्पा दो सुत्रप्पा दो महावप्पा दो वप्पगावती दो वग्गू दो सुवग्गू दो गंधिला दो गंधिलावती ३२ (५), दो खेमाओ दो खेमपुरीओ दो रिट्ठाओ दो पुरीओ दो खग्र्गी तो दो मंजुसाओ दो ओसधीओ दो पोंडरिगिणीओ दो सुसीमाओ दो कुंडलाओ दो अपराजियाओ 'पभंकराओ दो अंकावईओ दो पम्हावईओ दो सुभाओ दो रयणसंचयाओ दो आसपुराओ दो सीहपुराओ दो महापुराओ दो विजयपुराओ दो अपराजिताओ
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥ १४०॥
दो अवराओ दो असोयाओ दो विगयसोयाओ दो विजयातो दो वेजयंतीओ दो जयंतीओ दो २ स्थान
काध्ययन अपराजियाओ दो चक्रपुराओ दो खग्गपुराओ दो अवज्झाओ दो अउज्झाओ ३२ (६), दो भद्दसा
उद्देशः ३ लवणा दो गंदणवणा दो सोमणसवणा दो पंडगवणाई, दो पंडुकंवलसिलाओ दो अतिपंडुकंबल
अपरवर्णनम् सिलाओ दो रत्तकंबलसिलाओ दो अइरत्तकंबलसिलाओ दो मंदरा दो मंदरचूलिताओ, धाय-18९१-९२निसंडस्त णं दीवस्स वेदिया दो गाउयाई उद्धमुच्चत्तेणं पन्नत्ता । सू० ९२, कालोदस्स णं समुदस्स ९३ सूत्राणि वेइया दो गाउयाइं उड्डे उच्चत्तेणं पन्नत्ता । पुक्खरवरदीवड्वपुरच्छिमद्धेणं मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरदाहिजेणं दो वासा पं० बहुसमतुल्ला जाव भरहे चेव एरवए चेव तहेव जाव दो कुराओ पं० देवकुरा चेव उत्तरकुरा चेव, तत्थ णं दो महतिमहालता महद्दमा पं० २०-कूडसामली चेव पउमरुक्खे चेव, देवा गरुले चेव वेणुदेवे चेव पउमे चेव, जाव छब्धिहपि कालं पञ्चणुभवमाणा विहरति । पुक्खरवरदीवढपञ्चच्छिमद्धे णं मंदरस्त पव्वयस्स उत्तरदाहिणेणं दोवासा पं० २०-तहेव नाणतं कृडसामलीचेव महापउमरुक्खे चेव, देवा गरुले चेव वेणुदेवे पुंडरीए चेव, पुक्खरवरदीवड्ढे णं दीवे दो भरहाई दो R१४०॥
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एरवयाइं जाव दो मंदरा दो मंदरचलियाओ, पुक्खरवरस्सणं दीवस्त वेइया दो गाउयाई उड्डमुच्चत्तेणं पन्नत्ता, सव्वेसिपि णं दीवसमुद्दाणं वेदियाओ दो गाउयाई उड्डमुच्चत्तेणं पण्णत्ताओ (२) सू० ९३
मूलार्थ:-जंबूद्वीप नामना द्वीपनी वेदिका बे गाउ ऊंची कहेली छे. लवणसमुद्र, चक्रवालविष्कंभ(गोळनी पहोळाई)| बडे बे लाख योजननो छे. लवणसमुद्रनी वेदिका वे गाउ ऊंची कहेल छे. (सू० ९१). धातकीखंड नामना द्वीपना पूर्वाधमां मेरुपर्वतनी उत्तर अने दक्षिणदिशाए के क्षेत्र कह्या छे. ते बहुसमतुल्य छे यावत् भरत अने ऐवत क्षेत्र, जेम जंबूद्वीपना भरत तथा ऐवतनुं वर्णन कयु छ तेम अहिं पण एवी जरीते जाणवू, यावत् बन्ने क्षेत्रमा मनुष्यो, छ प्रकारना कालना (छ आराना) अनुभावने अनुभवता थका विचरे छे. ते आ भरत अने ऐरवत क्षेत्रमा विशेष ए के-कूटशाल्मली अने धातकी वृक्ष छे. बे गरुल (सुवर्णकुमार जातीय) देव छ ने तेमनां नाम वेणु अने सुदर्शन छ (१). धातकी खंड द्वीपना पश्चिमार्द्धमां मेरुपर्वतनी उत्तर अने दक्षिण दिशाए वे क्षेत्र कह्या छे, ते बहुसमतुल्य छ, यावत् भरत अने ऐवत क्षेत्र, यावत् छ प्रकारना कालना अनुभावने अनुभवता थका विचरे छे. ते भरत अने ऐरवत क्षेत्रमा एटलं विशेष के-कूटशाल्मली अने महाधातकी नामे वृक्ष छे. सुवर्णकुमारजातीय वेणुदेव अने प्रियदर्शन नामना देवो छे. धातकीखंड नामना द्वीपने विषे भरत, ऐरवत, हैमवत, हैरण्यवत, हरिवर्ष, रम्यकवर्ष, पूर्व विदेह, अपरविदेह, देवकुरु, उत्तरकुरु, देवकुरुना महावृक्षो, देवकुरुना महावृक्षना वासी देवो, उत्तरकुरु, उत्तरकुरुना महावृक्षो अने उत्तरकुरुना महावृक्षवासी देवो, ए दरेक बब्बे जाणी लेवा. (२). चुल्लहिमवंत,
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श्रीस्था
नाङ्गसूत्र
सानुवाद ॥ १४१ ॥
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महाहिमवंत, निषेध, नीलवान, रुवमी, शिखरी, शब्दापाती, शब्दापाती ( वृत्तवैताढ्य ) ना वसनारा स्वातीदेव, विकटपाती, विकटापाती ( वृत्तवैताढ्य ) ना वासी प्रभासदेव, गंधापाती, गंधापाती ( वृत्तवैताढ्य ) ना वासी अरुणदेव, मालवैतपर्याय, मालवंतपर्याय ( वृत्तवैताढ्य ) ना वासी पद्मदेव, मालवत ( गजदंत पर्वत), चित्रकूट ( वखारापर्वत ), पद्मकूट, नलीनकूट, एकशैल, त्रिकूट, वैश्रमणकूट, अंजनपर्वत, मातंजन, सौमनस ( गजदंत), विद्युत्प्रभ, अंकावती, पद्मावती, आशिः विषा, सुखावह, चंद्रपर्वत, सूर्यपर्वत, नागपर्वत, देवपर्वत, गंधमादन अने इपुकारपर्वत आ दरेक बच्चे कहेवा. (३). चुल्लहिमवंतकूट, वैश्रमणकूट महाहिमवंतकूट, बैडर्यकूट, निषधकूट, रुचककूट, नीलवंतकूट, उपदर्शनकूट, रुक्मीकूट, मणिकंचनकूट, शिखरीकूट, तिमिच्छीकूट, पद्मद्रह, पद्मद्रहमां वसनारी श्रीदेवीओ, महापद्मद्रह, महापद्मद्रहमां वसनारी ह्रीदेवीओ, एवी रीते यावत् पुंडरीकद्रह, पौंडरीकद्रहमां वसनारी लक्ष्मीदेवीओ, गंगाप्रपातद्रह यावत् रक्तवतीप्रपातद्रह. ए दरेक बब्बे छे. (४). बे रोहिता यावत् बे रुप्यकूला छे. ग्राहवती, द्रहवती, पंकवती, तप्तजला, मत्तजला, उन्मत्तजला, क्षीरोदा, सिंहश्रोता, अंतर्वाहिनी, ऊर्मिमालिनी, फेनमालिनी, गंभीरमालिनी ए दरेक बब्बे नदीओ छे. कच्छ १, सुकच्छ २, महाकच्छ रे, कच्छावती ४, आवर्त ५, मंगलावर्त ६, पुष्कल ७, पुष्कलावती ८, वत्स ९, सुवत्स १०, महावत्स ११, वत्सावती १२, रम्य १३, रम्यक १४, रमणीय १५, मंगलावती १६, पक्ष्मं १७, सूपक्ष्म १८, महापक्ष्म १९, पक्ष्मावती २०, शंख २१, नलिन २२, कुमुद २३, सलिलावती [ नलिनावती] २४ व २५, सुवप्र २६, महावप्र २७, वप्रावती २८, वल्गु २९, सुवल्गु ३०, गंधिल १ पह- 'पद्म' अर्थ बाबूवाळी प्रतमां छे.
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१२ स्थानका
ध्ययने
उद्देशः ३ अपवर्णनम् ९१-९२
९३ सूत्राणि
।। १४१ ॥
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३१ अने गंधिलावती ३२ ए विजयो दरेक बब्बे छे. (५). क्षेमा १, क्षेमपुरी २, रिष्ट ३, रिष्टपुरी ४, खड्गी ५, मंजूषा ६, औषधि ७, पुंडरीकिणी ८, सुसीमा ९, कुंडला १०, अपराजिता ११, प्रभंकरा १२, अंकावती १३, पक्ष्मवती १४, शुभा १५, रत्नसंचया १६, अश्वपुरी १७, सिंहपुरी १८, महापुरी १९, विजयपुरी २०, अपराजिता २१, अपरा २२, अशोका २३, विगतशोका २४, विजया २५, वैजयंती २६, जयंती २७, अपराजिता २८, चक्रपुरी २९, खड्गपुरी ३०, अवध्या ३९ अने अयोध्या ३२ - आवत्रशि विजयोनी क्रमशः बब्बे राजधानीओ छे. (६). वे भद्रशालवन, बे नंदनवन, वे सोमनसवन अने वे पांडुकवन छे. वे पांडुकंबलशिला, अतिपांडुकबलशिला, वे रक्तकंबलशिला अने वे अतिरक्तकंबलशिला छे, वे मेरुपर्वत छे, मेरुपर्वतनी बे चूलिका छे. धातकी खंड नामना द्वीपनी वेदिका वे गाउ ऊंची कहेली छे. (७). ( सू० ९२) कालोदधि समुद्रनी वेदिका वे गाऊनी ऊंची कहेली छे. पुष्करवरद्वीपार्श्वना पूर्वार्धने विषे मेरुपर्वतनी उत्तर अने दक्षिण दिशाए वे क्षेत्र कहेला छे. ते बहुसमतुल्य यावत् भरत अने ऐरवत, तेमज यावत् बे कुरुक्षेत्र कह्या छे ते देवकुरु अने उत्तरकुरु नामना छे. ते बे कुरुक्षेत्रमां अतिशय शोभावाला वे महान् वृक्षो कह्या छे तेना नाम - कूटशाल्मली अने पद्मवृक्ष. ते वृक्षोना अधिष्ठाता वे देवो सुपर्णकुमार जातीय वेणुदेव अने पद्म नामना छे. यावत् त्यां सुधी जाणी लेवुं के छ प्रकारना कालने एटले छ आराना अनुभाव ने भोगवता थका त्यांनां मनुष्यो (भरत तथा ऐखतमां) विचरे छे. (१). पुष्करवरद्वीपार्थना पश्चिमार्धने विषे मेरुपर्वतनी उत्तर अने दक्षिण दिशाए वे क्षेत्र कह्या छे ते आ प्रमाणे- पूर्वनी माफक जाणी लेवुं. विशेष ए कहे छे-वृक्षो कूटशाल्मली अने महापद्म नामना छे. देवो ( तेना अधिपति ) सुवर्णकुमारजातीय वेणुदेव अने पुंडरीक नामना छे. पुष्करवरद्वीपार्द्धद्वीपने विषे वे भरत, बे
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श्रीस्था
नाङ्गसूत्र
सानुवाद ।। १४२ ।।
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ऐरवत यावत् बे मेरु अने वे मेरुपर्वतनी चूलिका छे. पुष्करवरद्वीपनी वेदिका बे गाउनी ऊंची कही छे. (एवी रीते ) बधाय द्वीप तथा समुद्रोनी पण वेदिकाओ वे गाउनी ऊंची कहेली छे. (२) (सू० ९३ )
टीकार्थः-'जंबू' इत्यादि० सूत्र सुगम छे. विशेष कहे छे के जंबूद्वीपरूप नगरने फरता कोट (गढ) नी जेवी जगती छे, ते वज्र ( मणि ) मय छे, आठ योजननी ऊंची, उपर चार योजननी पहोळी अने नीचे ( मूलमां ) बार योजननी पहोळी छे. ते जगती बे गाउ ऊंचा, पांचसो धनुष्य पहोळा अने विविध रत्नमजालें कटकवडे घेरायेली छे. ते जगती उपर जे वेदिका | छे तेने पद्मवरवेदिका कहे छे. ते बे गाउनी ऊंची अने पांचसो धनुष्यनी विस्तारवाळी छे. ते गवाक्ष अने सुवर्णनी घुघरीवाळी घंटा सहित, देवोने बेसवुं, सूनुं, मोहित थवं वगेरे क्रीडाना स्थानरूप तथा वे पडखे वनखंड (बगीचा) बाळी छे. जंबूद्वीपना वर्णन पछी लचणसमुद्रनी वक्तव्यता कहे छे-'लवणे ण' मित्यादि० आ सुगम छे. विशेष ए के चक्रवाल- गोळनुं पहोळाईपणुं ते चक्रवालविष्कंभ जाणवुं. लवणसमुद्रनी वेदिकानुं सूत्र जंबूद्वीपनी वेदिकाना सूत्रनी जेम कहेवुं. (सू०९१). क्षेत्रना प्रसंगथी लवणसमुद्रनी वक्तव्यता पछी धातकी खंडनी वक्तव्यता ' धायइ संडे दीवे' विगेरे सूत्रथी आरंभीने वेदिका सूत्र पर्यंत कहे छे ते सुगम छे. विशेष ए के धातकी खंडनुं प्रकरण पण, जंबूद्वीप अने लवणसमुद्र छे मध्यमां जेने एवा वलय (चूडी) आकारे धातकीखंडने आलेखी (चीत्रीने ) जंबूद्वीपनी माफक हिमवान आदि वर्षधरपर्वताने उभयथी - पूर्व तथा पश्चिम विभागडे भर अने हैमवत वगेरे क्षेत्रोने स्थापीने पूर्व अने पश्चिम दिशामां वलयनी पहोळाईना मध्यमां मेरुपर्वतनी कल्पना
१. जाळीवाळो गोख, २ मेरुपर्वत पूर्व दिशामां अने बाजो पश्चिममां होय छे,
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२ स्थान
काध्ययने उद्देशः ३ अपरवर्णनम् |९१-९२
९३ सूत्राणि
॥ १४२ ॥
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| करीने जाणवू. ए क्रमवडे पुष्करवरद्वीपार्द्ध पण जाणवो. जेमां धातकी वृक्ष विशेषोनो खंड-चनसमूह ते धातकीखंड अने तेथी
युक्त जे द्वीप ते धातकीखंडद्वीप कहेवाय छे. जेम दंडना योगधी दंड कहेवाय छे ते कारणथी धातकीखंड एवो जे द्वीप ते धातकीखंड द्वीप छे. तेनो जे पूर्व अर्थविभाग ते धातकीखंडद्वीपपूर्वार्द्ध छे. पूर्व अने अपर-अर्धता तो लवणसमुद्रनी वेदिकाथी दक्षिण अने उत्तरथी यावत् धातकीखंडनी वेदिका सुधी गयेला ( पहोंचेला) इपुकार पर्वतोवडे धातकीखंडनुं विभक्तपणुं (विभागपणुं) होवाथी कयु छ के| पंचसयजोयणुच्चा. सहस्समेगं च होंति विच्छिन्ना । कालोययलवणजले, पुट्टा ते दाहिणुत्तरओ॥८२
दो इसुयारनगवरा, धायइसंडस्स मज्झयारठिया । तेहि दुहा णिहिस्सइ, पुव्वद्धं पच्छिमद्धं च ॥८३ ___ पांचसो योजन ऊंचा, एक हजार योजन पहोळा, तथा दक्षिण अने उत्तरथी कालोदधि समुद्र अने लवणसमुद्रने स्पर्शीने रहेला, अर्थात् कालोदधि समुद्र अने लवणसमुद्र पर्यंत लांबा एवा बे श्रेष्ठ इषुकार पर्वतो धातकीखंडना मध्यमा रहेला छे. ते वे इषुकार पर्वतवडे पूर्वार्ध अने पश्चिमार्ध एवा वे विभाग धातकीखंडना कहेवायल छे. त्यां 'ण' शब्द वाक्यालंकार तरीके वपरायेल छे. मंदरस्य-मेरुना, एवी रीते धातकीखंडना दरेक पूर्वार्ध अने पश्चिमार्धना प्रकरणमा ओगणोतेर सूत्र प्रमाणने जंबूद्वीपना प्रकरणनी माफक कहेवु अने व्याख्यान करवू. आज कारणथी कहे छ ' एवं जहा जंबूद्दीवे तहे 'इत्यादि. विशेष ए के-वर्षधर बगरनुं स्वरूप-लंबाई वगैरेनी समानता आ प्रमाणे विचारवी.
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥१४३॥
| पवद्धस्स चमज्झे, मेरू तस्स पुण दाहिणुत्तरओ। वासाई तिन्नि तिन्निवि, विदेहवासंच मज्झमि ॥८४ अरविवरसंठियाई,चउरो लक्खाइं ताई खेत्ताई (दीर्घतया)।अंतो संखित्ताई,रुंदतराई कमेण पुणो।।८५
भरहे मुहविक्खंभो, छावढिसयाई चोदसहियाई। अउणत्तीसं च सयं, बारसहियदुसयभागाणं ॥८६॥ [ ६६१४ ३१] अट्ठारस य सहस्सा, पंचेव सया हवंति सीयाला ।
पणपण्णं अंससयं, बाहिरओ भरहविक्खंभो ॥ ८७ ॥ [१८५४७ १] धातकीखंडना पूर्वार्ध अने पश्चिमार्धना मध्यभागे प्रत्येकमां अकेक मेरु छे, ते अकेक मेरुनी दक्षिण अने उत्तरदिशाए त्रण त्रण क्षेत्रो ले अने मध्यभागमा महाविदेह क्षेत्र छे. अर-चक्र (पेडा)ना आरा, तेना विवर(मध्य)ना आकारे भरतादिक्षेत्रो रहेला छे, ते आ प्रमाणे-चक्रनाभिस्थाने जंबूद्वीप अने लवणसमुद्र छे, आराने स्थाने वर्षधर पर्वतो रहल छ अने आराना आंतराने स्थाने वषेधरपर्वतोनी वच्चमां आवेला क्षेत्रो छे. ते दरेक क्षेत्रो चार चार लाख योजनना लांबा के. अंतमां (लवणसमुद्रनी दिशामा) पहोळाईने लईने सांकडा छे ते फरी क्रमथी पहोळाईमां वृध्धि पामता रहेला छे. भरत क्षेत्रमा अंदरेनी पहोळाई छ हजार, छसो चौद योजन अने सर बसो ने बारीआ एकसो ओगणत्रीश भाग अधिक छे. भरतनी
1. लवणसमुद्रनो दिशामां.
२ स्थानकाध्ययने उद्देशः ३
अपरवर्णनम् ४९१-९२
९३ सूत्राणि
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॥१४३॥
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बाहरेंनी पहोळाई अढार हजार, पांचसो सुडताळीस योजन अने १५ एकसो पंचावन, बसो ने बारीआ भाग अधिक छे. चउगुणियभरहवासो [ व्यास इत्यर्थः ], हेमवए तं चउग्गुणं तइयं । हरिवासं [ हरिवर्षमित्यर्थः ] चउगुणियं, महाविदेहस्स विक्खंभो ॥ ८८ ॥
जह विक्खंभा दाहिण - दिसाए तह उत्तरेऽवि वासतिए। जह पूव्वद्धे सत्त उ, तह अवरद्धेऽवि वासाई ॥ ८९ भरतक्षेत्रना अंदरना भागमां अने बाहरना भागमां जे व्यास-पहोळाई छे तेने चारगुणी करवाथी हैमवंत क्षेत्रनी क्रमथी अंदर अने बाहरना भागनी पहोळाई थाय हैमवत क्षेत्रना व्यासने चतुर्गुणित करवाथी हरिवर्षक्षेत्रनो व्यास थाय अने हरिवर्षक्षेत्रना व्यासने चतुर्गुणित करवाथी महाविदेह क्षेत्रनो व्यास (पहोळाई) थाय. जेम दक्षिण दिशाना भरतादि त्रण क्षेत्रनो व्यास को तेम ज उत्तरदिशाना ऐखतादि त्रण क्षेत्रनो व्यास क्रमशः जाणवो. जेवी रीते पूर्वार्ध धातकीखंडना सात क्षेत्रनो व्यास को तेवी रीते पश्चिमार्ध्व धातकीखंडना सात क्षेत्रोनो व्यास पण एम ज जाणवो.
सत्ता उई सहस्सा, सत्ताणउयाई अट्ठ य सयाई । तिन्नेव य लक्खाई, कुरूण भागा य बाणउई ॥ ९० ॥ [ विष्कम्भ इति ] ३९७८९७ । ३ १. कालोदधिनी दिशाए. २. भरतनी जेम ऐरवत, हैमवंतनी जेम हैरण्यवत अने हरिवर्षनी जेम रम्यकवर्षनो व्यास जाणवो.
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नाङ्गसूत्र
सानुवाद ॥ १४४ ॥
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अडवण्णसयं तेवीस, सहस्सा दो य लक्ख जीवाओ। दोण्ह गिरीणायामो, संखित्तो तं धणू कुरूणं ॥ ९१ ॥ देवकुरु अने उत्तरकुरु क्षेत्रनो विष्कंभ (पहोळाई) त्रण लाख, सताणु हजार, आठसो सताणु योजन अने उपर बसो बारीआ चाणु भाग छे. वे लाख, त्रेवीस हजार, एकसो अठावन योजन बन्ने कुरुक्षेत्रनी 'जीवा' छे. ते जीवामां बे गजदंत आकृतिवाळा पर्वतोनी लंबाई एकत्र करवाथी जे परिमाण थाय ते परिमाणवाळं कुरुक्षेत्रोनुं धनुपृष्ठ जाणं. वासहरगिरी १२ वक्खा - रपव्वया ३२ पूव्वपच्छिमद्धेसु । जंबुद्दीवगदुगुणा, वित्थरओ उस्सए तुल्ला ॥९२॥ धातकी खंडना पूर्वार्ध अने पश्चिमाना बार वर्षधर पर्वतो अने वत्रीश वक्षस्कार पर्वतो, ते जंबूद्वीपना वर्षधर अने वखारा पर्वतोथी बमणा पोळा छे अने ऊंचाईमां जंबूद्वीपना पर्वतो प्रमाणे छे. कंचणगजमगसुरकुरु-नगाय वेयड वहदीहाय । विक्खंभोव्वेहसमु-स्सएण जह जंबूदीविच्चा ॥ ९३॥
देवकुरु अने उत्तरकुरुना बन्ने पडखे रहेल कंचनगिरि पर्वतो, उत्तरकुरुमां रहेला यमक नामे वे पर्वत, देवकुरुमां रहेला चित्रविचित्र नामना बे पर्वत, वृत्तवैताढ्य पर्वतो अने दीर्घताढ्य पर्वतो -आ बधा पर्वतोनी पहोळाई, ऊंडाइ अने ऊंचाई जंबूद्वीपना पर्वतो प्रमाणे जाणवी.
लक्खाइं तिन्निदीहा, विज्जुप्पभगंधमादणा दो वि । छप्पन्नं च सहस्सा, दोन्नि सया सत्तवीसा य ॥ ९४ ॥
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२ स्थानकाध्ययने
उद्देशः ३ अपरवर्णनम्
||९१-९३
९३ सूत्राणि
॥ १४४ ॥
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अउणट्ठा दोन्नि सया, उणसत्तरि सहस्स पंचलक्खाय। सोमणस मालवंता, दीहारुंदा दस सयाइं॥९५॥
देवकुरुथी पश्चिम दिशाए विद्युत्प्रभ अने उत्तरकुरुथी पश्चिम दिशाए गंधमादन पर्वत छे. ते बन्नेनी लंबाई त्रण लाख, छप्पन हजार, बसो सत्यावीश योजननी छे. देवकुरुनी पूर्व दिशाए सौमनस अने उत्तरकुरुनी पूर्व दिशाए माल्यवान पर्वत छ. | ते बन्नेनी लंबाई पांच लाख, उगणोतेर हजार, बसो ने उगगसाठ योजननी छे. आ प्रमाण पूर्व मेरुनी समीपमा जाणवू अने पश्चिम मेरुनी समीपमा तो विद्युतप्रभ अने गंधमादननी लंबाई कही ते त्यां सौमनस अने माल्यवंतनी जाणवी; कारण के त्यां संकीर्ण क्षेत्रमा रहेल छे अने जे सौमनस अने माल्यवंतनी लंबाई कही ते त्यां विद्युत्प्रभ अने गंधमादननी जाणवी, कारण के त्यां लांचा क्षेत्रमा रहेल छे. वळी चारे पर्वतो वर्षधर पर्वतनी पासे एक हजार योजन पहोळा छे.
सव्वाओऽवि णईओ, विक्खंभोव्वेहदुगणमाणाओ। सीयासीयोयाणं, वणाणि दुगुणाणि विक्खंभो ॥९६॥ [विस्तरतो वनमुखानीत्यर्थः] वासहरकुरुसु दहा [वर्षधरेषु कुरुषु च ये हुदा इत्यर्थः ], नहीण कुंडाई तेसु जे दीवा ।
उब्वेहुस्सयतुल्ला, विक्खंभायामओ दुगुणा ॥९७॥ [ जंबूद्वीपापेक्षयेति ] धातकीखंडद्वीपमा बधी नदीओ जंबूद्वीपमा रहेल नदीनी अपेक्षाए पहोळाई अने ऊंडाईमां बेवडा प्रमाणवाळी छे.
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र
सानुवाद
।। १४५ ।।
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सीता अने सीतोदा नदीना बे वनमुख पहोळाईमां चमणा प्रमाणवाळा छे. धातकीखंडना पूर्वार्ध अने पश्चिमार्धमा वर्ष हिमवान आदि पर्वतो विषे अने देवकुरु तथा उत्तरकुरु क्षेत्रने विषे जे पद्म वगेरे द्रहो, गंगा नदी वगेरेना कुंडो अने कुंडोमा रहेला जे गंगाद्वीप वगेरे छे ते जंबूद्वीपमां रहेला द्रह वगेरेनी ऊंडाई अने ऊंचाईवडे समान छे अने लंबाई अने पहोळाईवाडे बेवडा प्रमाणवाळा छे. पूर्वार्ध धातकीखंडना अभिलापवडे जंबूद्वीपनुं प्रकरण ( जंबूद्वीपमां कहेल विषय ) क्यां सुधी कहेतुं ? ते माटे कहे छे-'जाव दोसु वासेसु मणुए 'त्यादि० आ सूत्रथी आगळ जंबूद्वीपना प्रकरणमां चंद्रादि ज्योतिष्कोना सूत्रो कहेला छे ते सूत्रो धातकीखंड अने पुष्करार्धद्वीपना पूर्वार्ध्वादि प्रकरणो मां संभवता नथी; कारण के आ अध्ययनमां बे स्थानकनो अधिकार छे ज्यारे धातकीखंड वगेरेमां तो चंद्र वगेरेनुं बहुपणुं ( घणी संख्या ) छे. कां छे के दो चंदा इह दीत्रे, चत्तारि य सायरे लवणतोए । धायइसंडे दीवे, बारस चंदा य सूराय ॥९८॥
आ जंबूद्वीपमां वे चंद्र (वे सूर्य ) छे, लवणसमुद्रमां चार छे अने धातकीखंडमां बार बार चंद्र अने सूर्य छे. चंदोनुं बेपणुं न होवाथी अर्थात् घणा होवाथी नक्षत्र वगेरेनुं पण वेपणुं न होय. ते कारणथी वे स्थानमां तेनो अवतार (वर्णन ) नथी. जंबूद्वीपना प्रकरणथी धातकीखंडनुं विशेषपणुं देखाडता थका कहे छे-' णवर 'मित्यादि० केवल विशेष ए के-कुरुक्षेत्रना सूत्र पछी जंबूद्वीपना प्रकरणमा 'कूडसामली चेव जंबू चेव सुदंसणे' ति० आ पाठ कहेल छे. अहिं तो जंबूवृक्षना स्थानमां धातकीवृक्ष कहेल छे. ते बन्ने वृक्षनुं प्रमाण जंबूद्वीपना शाल्मलीवृक्ष वगेरेनी जेम जाणवुं. ते बे वृक्षना देवसूत्रने
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२ स्थान
काध्ययने
उद्देशः ३ अपरवर्णनम् १९१-९२१९३ सूत्राणि
।। १४५ ।।
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| विषे जंबूद्वीप प्रकरणमा 'अणाढिए चेव जंबुद्दीवाहिवई 'इति. आ वक्तव्यमा कहेवाना स्थानना बदलामा सुदर्शन
देवर्नु कथन करवू. (१). 'धायइसंडे दीवे इत्यादि० आ पश्चिमार्द्ध धातकीखंडनुं प्रकरण [ विषय ] पूर्वार्द्धनी माफक जाणी लेवू. आ ज कहे छ के 'जाव छब्बिहंपि काल' मित्यादि० विशेष कहे छ-'णवरं कूडसामली' त्यादि० धातकीखंडना पूर्वार्द्धमा उत्तरकुरुक्षेत्रने विषे धातकीवृक्ष कह्यो, अहिं तो महाधातकीवृक्ष कहेवो. बळी देवसूत्रमा त्यां (पूर्वार्द्धमा) बीजो देव सुदर्शन कहेल छे, अहिं तो [पश्चिमार्द्धमां] प्रियदर्शन कहेवो. पूर्वार्द्ध अने पश्चिमा मळवाथी संपूर्ण धातकीखंड द्वीप थाय छ, | तेनो आश्रय करीने वे स्थानक-'धायइसंडे गं' इत्यादिवडे कहे छे. बे भरत, पूर्वार्ध अने पश्चिमाधना जे दक्षिण दिशाना विभागमा छे ते वे विभागना भावथी ज वे कहेवाय छे. एवी रीते सर्वत्र छे. भरतक्षेत्र वगेरेनुं स्वरूप पूर्वे कहेलुं छे. 'दो देवकुरुमहादुमे तिचे कूटशाल्मली वृक्षो छे. ते बे वृक्षना वासी बे वेणुदेवो [सुपर्णकुमार जातिना] छे. 'दो उत्तरकुरुमहद्दमे ति० धातकीवृक्ष अने महाधातकी वृक्ष ए छे. ते वृक्षना वासी सुदर्शन अने प्रियदर्शन नामना बे देवो छे. (२). चुल्लहिमवान वगेरे छ वर्षधर पर्वतो, तथा शब्दापाती, विकटावाती ये गंधापाती अने मालवत्पर्याय नामना वृत्तवैताढय पर्वतो अने तेना निवासी अनुक्रमे स्वाती, प्रभास, अरुण अने पद्मनाभ नामना देवोने बब्बे संख्यावडे युक्त क्रमथी बब्बे कहेल छे. 'दो मालवंत 'त्ति० उत्तरकुरु क्षेत्रथी पूर्वदिशामा रहेल बे मालवंत नामना गजदंत पर्वतो छ. ते गजदंत पर्वतोथी भद्रशाल | वन, तेनी वेदिका अने विजयथी आगळ, सीतानदीना उत्तर किनारा पर रहेल, दक्षिण अने उत्तरमा लांबा, बे चित्रकूट पर्वत
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२स्थानका
श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥१४६॥
उद्देशः ३ अपवर्णनम् ९१-९२९३ सूत्राणि
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नामना चे वक्षस्कार पर्वतो छ. ते पछी विजय आवे छे, ते पछी अंतरनदी छे. ते पछी आवेल विजयने छेडे बे पद्मकूट पर्वतो छ. तेवी ज रीते विजय अन अंतरनदी पछी आवेल विजयना अंतमां वे नलिनकूटपर्वत छ, एम ज अंतरित वळी एकशैल नामना वे पर्वतो छ. बळी पूर्वना वनमुखनी वेदिका अने विजयथी पहेला (पश्चिममा ) सीता नदीना दक्षिण किनारा पर रहेल तेम ज (पूर्वनी माफक) त्रिकूट, वैश्रमण, अंजन अने मातंजन आ चार नामना बब्बे पर्वतो छे. त्यारपछी देवकुरुक्षेत्री पूर्व दिशामा रहेल सौमनस नामना बे गजदंत पर्वतो छेत्यारपछी गजदंतना ज आकारवाळा देवकुरुथी पश्चिमदिशामां बे विद्युतप्रभ पर्वतो छ. त्यारपछी भद्रशाल वन, तेनी वेदिका अने विजयथी आगळ तेवी ज रीते अंकापाती, पद्मापाती, आशीविष अने सुखावह नामना बब्बे पर्वतो सीतोदा नदीना दक्षिण किनाराए रहल छे. वळी बीजा पर्वतो-पश्चिमने सामे वनमुखपाळी वेदिका अने विजयथी पूर्व दिशाए क्रमश: चंद्र, सूर, नाग अने देव ए नामवाळा बब्बे पर्वतो छे. त्यारपछी उत्तरकुरुक्षेत्रना पश्चिम भागमा रहेल गंधमादन नामना बे गजदंत पर्वतो छ. आ पर्वतो धातकीखंडद्वीपना पूर्वाद्ध अने पश्चिमार्द्धमा होय छे माटे बब्बे कया छे. वे इषुकार पर्वतो दक्षिण अने उत्तर दिशामा रहेल छे. ते धातकीखंडना वे विभाग करनारा छे. (३). 'दो चुल्लहिमवंतकूडा इत्यादि हिमवान वगेरे छ वर्षधर पर्वतो छ, तेमां बच्चे कूटो, जंबूद्वीपना प्रकरणमा जे कहेल छे ते पर्वतोना बमणापणाथी एक एक नामवाळा बब्बे होय छे. वर्षधर पर्वतोना द्विगुणपणाथी पद्मादि द्रहो पण बमणा छे. ते द्रहमा वसनारी देवीओ पण बमणी छे. गंगादि चौद महानदीओर्नु पूर्व अने पश्चिमार्द्धनी अपेक्षाए द्विगुणपणुं होबाथी ते गंगादि नदीओना प्रपातद्रहो ( कुंडो) पण बब्बे होय छे. ए हेतुथी कहे
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छ के-'दो गंगापवायहहे'त्यादि० (४ ). 'दो रोहियाओ' इत्यादि० नदीना अधिकारमा गंगादि नदीओनुं द्विपणुं होवा छतां पण कयु नथी कारण के जंबूद्वीप प्रकरणमां कहेल-'महाहिमवंताओ वासहरपब्वयाओ महापउमद्दहाओ दो महानदीओ पवहंती'त्यादि० आ सूत्रना क्रमनो आश्रय छे. त्यां (जंबूद्वीप विषयमा) रोहित वगेरे आठ नदीओ ज संभळाय छे. चित्रकूट अने पनकूट ए बे वक्षस्कार पर्वतना मध्यमां (अंतरमां) नीलवंत वर्षधर पर्वतना नितंब(कडना पाछळना भाग )पणे व्यवस्थित होवाथी तथा ग्राहवती कुंडथी दक्षिण तोरणबडे नीकळेली, अठ्यावीश हजार नदीना परिवारवाळी, सीता नदीमा मळनारी, सुकच्छ अने महाकच्छ ए बे विजयोना विभाग करनारी एवी ग्राहवती नामनी नदी छे. एवी रीते यथायोग्य वे वृक्षस्कार पर्वत अने विजयना आंतरामां क्रमथी प्रदक्षिणाए बार अंतरनदीओ पण जोडवी, तेर्नु द्वित्वपणुं (बे पणुं) पूर्वनी माफक जाणवू. अहिं पंकवती नाम छ तेनुं ग्रंथांतरमा वेगवती एयु नाम देखाय छे. तेम क्षारोद एवं अहि नाम छे तेनु क्षीरोद (नदी) एवं नाम बीजे स्थले छे. वळी आ सत्रमा सिंहश्रोता नाम छे तेनुं अन्यत्र सीतश्रोता एवं नाम कहेल छ. फेनमालिनी अने गभीरमालिनी आ बन्ने नामोर्नु अहिं ऊलटी रीते कथन देखाय छे. माल्यवत् नामना गजदंत पर्वत अने भद्रशाल वनी आरंभीने कच्छ वगेरे वत्रीश विजय क्षेत्रो बब्बे प्रदक्षिणाथी जाणी लेवा. (५). तथा कच्छादि विजयोने विषे क्रमथी क्षमादि नगरीओना बत्रीश युगलो (बे वे) जाणी लेवा. (६), मेरुना भद्रशालादि चार बनो छभूमीए भद्दसालं, मेहलजुयलंमि दोन्नि रम्माइं । नंदणसोमणसाइं, पंडगपरिमंडियं सिहरं ॥९९॥
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श्रीस्था
नाङ्गसूत्र सानुवाद ॥१४७॥
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भद्रशाल वन मेरुपर्वतनी तलेटी-भूमिमा छे. नंदन अने सौमनस ए ये रम्यवनो मेरुपर्वतनी बे मेखलाए क्रमशः छे. पांडु
२ स्थानकवन शिखरथी शोभित छ अर्थात् सर्वथी उपर छे. उपरोक्त शास्त्रना वचनथी मेरुपर्वतना विभागथी वनोना विभाग छ. मेरुपर्व
काध्ययने तना पांडुकवननी मध्यमां चूलिका उपर क्रमथी पूर्वादि चार दिशाआने विषे चार शिलाओ छे. अहिं ते संबंधी बे गाथा कहे छ
उद्देशः ३ पंडगवणंमि चउरो, सिलाउ चउसुवि दिसासु चूलाए। चउजोयणउस्सियाओ, सव्वज्जुणकंचणमयाओ
* अपरवर्णनम् पंचसयायामाओ, मज्झे दीहत्तणऽध्धरुंदाओ । चंदध्धसंठियाओ, कुमुंओयरहारगोराओ ॥ १०१॥
४९१-९२पांडुकवनमां चारे दिशामां पण चूलिका उपर चारे शिलाओ छे, ते चार योजन ऊंची, श्वत सुवर्णवाळी, पांचसो | ९३ सूत्राणि योजन लांबी अने मध्यमां दीर्घपणा( जाडाई )थी अढीसो योजन पहोळी, अर्धचंद्रना आकारे रहेली अने कुमुद( श्वेत कमल )ना गर्भमा रहेल मोतीना हार समान गौर (स्वच्छ) वर्णवाळी चारे शिलाओ छ. मेरुना उपर चूलिका एटले शिखर विशेष. तेनुं स्वरूप आ प्रमाणेमेरुस्स उवरि चूला, जिणभवणविहसिया दुवी(४०)सुच्चा। बारस अट्ट य चउरो,मूले मझुवरि रुंदाय १०२
मेरुपर्वतनी उपर जिनभवनोथी विभूषित, चालीश योजन ऊंची तथा मूलमां बार योजन पहोळी, मध्यमां आठ |* योजन पहोळी अने उपर चार योजन विस्तारवाळी चूलिका छ. वेदिका सूत्र जंबूद्वीपनी माफक समजबुं. धातकीखंड १. प्रत्यंतरमा कुम्मो०, कुसुमोव० पाठ छे.
*॥१४७॥
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पछी कालोद समुद्र होय छे माटे तेनी वक्तव्यता कहे छ-'कालोदे त्यादि० सुगम छे. कालोद समुद्र पछी अंतर रहितपणाथी पुष्करवर द्वीपना पूर्वार्ध, पश्चिमार्ध अने तदुभय प्रकरणोने कहे छे-'पुक्खरे' त्यादि० त्रण सूत्रो पण अतिदेशप्रधानवाळा छे. अतिदेशथी मळेलो अर्थ सुगम ज छे. विशेष ए के-पूर्वार्धता अने अपरार्धता धातकी खंडनी माफक वे इषुका| रपर्वतोथी थयेली जाणी लेवी. भरतक्षेत्र वगेरेनी लंबाई वगेरेनी समानता आ प्रमाणे विचारवी
इगुयालीस सहस्सा, पंचव सया हवंति उणसीया । तेवत्तरमंससयं, मुहविक्खंभो भरहवासे ॥१०३॥ [४१५७९ ३४३] पन्न ट्ठि सहस्साई, चत्तारि सया हवंति छायाला।
तेरस चेव य अंसा, बाहिरो भरहविक्खंभो ॥ १०४॥ [६५४४६ ३३] एकतालीश हजार, पांचसो ने ओगणएंशी योजन अने उपर एक सो तोतेर भाग भरतक्षेत्रनो मुख (अभ्यंतर) विष्कंभ छ. तथा पांसठ हजार, चारसो छेतालीश योजन अने उपर तेर भाग बसो बारीआ भरतक्षेत्रनो बहारनो विष्कंभ छे.
चउगुणिय भरहवासो [विस्तर इत्यर्थः], हेमवए तं चउम्गुणं तइयं। [हरिवर्षमित्यर्थः] हरिवासं चउगणियं, महाविदहस्स विक्खंभो ॥१०५॥
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद श्रा१४८॥
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भरतक्षेत्रना विष्कंभ( पहोळाई )धी चारगुणो हैमवतक्षेत्रनो विष्कंभ होय छ, हैमवतक्षेत्रना विष्कंभथी चारगुणो २ स्थानहरिवर्ष क्षेत्रनो विष्कंभ छ अने हरिवर्ष क्षेत्रना विष्कभने चारगुणो करवाथी महाविदेह क्षेत्रना विष्कम थाय छे. एवी रीते काध्ययने ऐरवादि क्षेत्रनुं जाणी लेवु.
उद्देशः ३ सत्तत्तरि सयाई, चोइस अहियाइं सत्तरस लक्खा।
अपरवर्णनम् होइ कुरूविक्खंभो, अट्ट य भागा अपरिसेसा ॥ १०६ ॥ [१७०७७१४ २१३] सत्तर लाख, सात हजार, सातसो ने चौद योजन उपर आठ भाग बसो बारीआ प्रत्येक कुरुक्षेत्रनो विष्कंभ छ. 1९३ सूत्राणि
चत्तारि लक्ख छत्तीस, सहस्सा नव सया य सोलहिया। [एषा कुरुजीवा] [ ४३६९१६ ]
दोण्ह गिरीणायामो, संखित्तो तं धणू कुरूणं ॥ १०७॥ चार लाख, छत्रीस हजार, नवसो ने सोल योजन प्रत्येक कुरुक्षेत्र( देवकुरु )नी जीवा छे. ते जीवामां वे गजदंत आकृतिवाळा पर्वतोनी लंबाई भेळववाथी जेटलुं प्रमाण थाय तेटलुं कुरुक्षेत्रना धनुपृष्ठy प्रमाण जाणवू.
सोमणसमालवंता, दीहा वीसं भवे सयसहस्सा। १ भरतना बाहेरना विप्कभथी चोगुणो हैमवतनो बहारनो विकम अने अंतरना विष्कंभथी ची गुणो अंतरनो विप्कंभ होय छे. २ भरत जेटलो ऐरवतनो, हेमवत जेटलो हेरण्यवतनो अने हरिवर्ष जेटलो रम्यकवर्षनो विप्कंभ जाणी लेवो.
१४८॥
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ख, छत्रीस हजार बाधी जेटलं प्रमाण थाय तसयसहस्सा।
श्री चे गुणो अंतरनो बिष्य
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तेयालीस सहस्सा, अउणावीसा य दोन्नि सया ॥ १०८ ॥ [२०४३२१९] सौमनस अने माल्यवान ए बे पर्वतनी लंबाई वीश लाख, तेंतालीश हजार, बसो ने ओगणीश योजन छे.
सोलाहियं सयमेगं, छठवीससहस्स सोलस य लक्खा।
विज्जुप्पभो नगो, गंधमायणा चेव दीहाओ ॥ १०९ ॥ [१६२६११६] सोळ लाख, छवीश हजार, एकसो ने सोळ योजनना विद्युत्प्रभ अने गंधमादन ए बे पर्वत लांबा छे. महाद्रुमो ( महावृक्षो ) जंबूद्वीप संबंधी महामनी सरखा छे. तथाधायइवरंमिदीवे, जो विक्खंभोउहोइ उणगाणं सो दगुणो णायव्यो, पुक्खरद्धे णगाणंतु ॥ ११०॥
धातकीखंड नामना द्वीपमा जे हिमवान वगेरे पर्वतोनो विष्कंभ छे, तेथी बमणो विष्कंभ पुष्करा, द्वीपना हिमवान वगेरे पर्वतनो होय छे. वासहरा वक्खारा, दहनइंकुंडा वणा य सीयाई। दीवे दीवे दुगुणा, वित्थरओ उस्सए तुल्ला ॥१११॥
वर्षधर पर्वतो, वक्षस्कार पर्वतो, पद्मद्रह वगेरे द्रहो, गंगा वगेरे नदीओ, गंगाप्रपात वगेरे कुंडो अने सीतादि नदीओना १. हिमवान वगेरे. २. चित्र वगेरे.
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥१४९।।
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वर्णनम्
बनो, ए दरेक विस्तारथी (पहोळाईथी) पूर्वना द्वीपथी पछीना द्वीपमा अनुक्रमे बमणा जाणवा अने ऊंचाईथी सरखा जाणवा.
२ स्थानउसुयार जमगकंचण, चित्तविचित्ता य वट्टवेयड्ढा । दीवे दीवे तुल्ला, दुमेहला जे य वेयड्डा ॥११॥ काध्ययने
इषुकार पर्वतो, उत्तरकुरुमा रहेल यमक पर्वतो, देवकुरु अने उत्तरकुरुमां द्रहनी नजीक रहेला कंचनगिरि पर्वतो, देवकुरुमा उद्देशः ३ रहेला चित्रविचित्र पर्वतो अने वैताढ्य पर्वतो ए सर्वे पर्वतो दरेक द्वीपमा तुल्य होय छे अने जे बे मेखलाबाळा वैताढ्य पर्वतो (दीर्घवैताढ्यो) छे ते पण तुल्य जाणवा. पुष्करवरद्वीपनी वेदिकानी प्ररूपणा पछी शेष द्वीप समुद्रनी वेदिकानी प्ररूपणा कहे छ:-'सव्वेसिपि ण 'मित्यादि० इत्यादि सुगम छे. (सू० ९३ ) आ द्वीपसमुद्रो इंद्रोना उत्पातपर्वतना आश्रय
९४ सूत्रम् * वाळा छे माटे हवे इंद्रनी वक्तव्यता कहे छः
दो असरकुमारिंदा पन्नत्ता तं०-चमरे चेव बली चेव १, दो णागकुमारिंदा पं०२०-धरणेचेव भूयाणंदे चेव २, दो सुवन्नकुमारिंदा पं० तं०-वेणुदेवे चेव वेणुदाली चेव ३, दो विज्जुकुमारिंदा पं० २०-हरिच्चेव हरिस्सहे चेव ४, दो अन्गिकुमारिंदा पन्नत्ता तं०-अग्गिसिहे चेव अग्गिमाणवे | चेव ५ दो दीवकमारिंदा पं० तं०-पुन्ने चेव विसिटे चेव ६. दो उदहिकमारिंदा पं० सं०-जलकते चेव जलप्पभे चेव ७, दो दिसाकुमारिंदा पं० तं०-अमियगती चेव अमितवाहणे चेव ८.दो X॥ १४९ ।।
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वातकमारिंदा पं० तं०-वेलंबे चेव पभंजणे चेव ९, दो थणियकुमारिंदा पं० तंः-घोसे चेव । महाघोसे चेव १०.दो पिसाइंदा पन्नत्ता तं०-काले चेव महाकाले चेव १, दो भूइंदा पं० त०सुरुवे चेव पडिरूवे चेव २, दो जक्खिदा पं० तं०-पुन्नभद्दे चेव माणिभद्दे चेव ३, दो रक्खासंदा पं० तं०-भीमेचेव महाभीमे चेव ४, दो किन्नरिंदा पं० तं०-किन्नरे चेव किंपुरिसे चेव ५, दो किंपुरािसंदा पं० तं०-सप्पुरिसे चेव महापुरिसे चेव ६, दो महोरगिंदा पं० तं०-अतिकाए चेव महाकाए चेव ७, दो गंधविदा पं० तं०-गीतरती चेव गीयजसे चेव ८, दो अणपन्निंदा पं० तं०-संनिहिए चेव सामण्णे चेव ९, दो पणपन्निंदा पं० तं०-धाए चेव विहाए चेव १०, दो इसिवाइंदा पं० २०इसिच्चेव इसिवालए चेव ११, दो भूतवाइंदा पं० तं०-इस्सरे चेव महिस्सरे चेव १२, दो कंदिदा पं० तं०-सुवच्छे चेव विसाले चेव १३, दो महाकदिंदा पं० २०-हस्से चेव हस्सरती चेत्र १४, दो
कुभंडिंदा पं० तं०-सेए चैव महासेए चेव १५, दो पतइंदा पं० २०-पतए चेव पतयवई चेव १६, | जोइसियाणं देवाणं दो इंदा पन्नत्ता तं०-चंदे चेव सूरे चेव ३, सोहम्मीसाणेसु णं कप्पेसु दो |
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श्रीस्थानाङ्गमूत्र सानुवाद
२ स्थानकाध्ययने उद्देशः ३
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वर्णनम् ९४ सूत्रम्
इंदा पं० तं०-सके चेव ईसाणे चेव, एवं सणंकमारमाहिदेंसु कप्पेसु दो इंदा पं० तं०-सणंकुमारे चेव माहिदे चेव, बंभलोगलंतएसु णं कप्पेस दो इंदा पं०तं-बंभे चेव लंतए चेव, महासुक्कसहस्सारेसु णं कप्पेसु दो इंदा पं० तं०-महासुक्के चेव सहस्सारे चेव, आणयपाणतारणच्चुतेसु णं कप्पेसु दो इंदा पं० तं०-पाणते चेव अच्चुते पेव, महासुक्कसहस्सारेसु णं कप्पेसु विमाणा दुवण्णा पं० तं०-हालिद्दा चेव सुकिला चेव, गेविज्जगाणं देवा णं दो रयणीओ उड्डमुच्चत्तणं पन्नत्ता । सू० ९४, द्वितीयस्थाने तृतीयोद्देशकः समाप्तः २-३।
मूलार्थ:-चे असुरकुमार देवोना इंद्रो कहेला छे, तेना नाम-चमरेंद्र अने बलीन्द्र (१), बे नागकुमार देवोना इंद्रो कहेल छे, तेना नाम-धरणेंद्र अने भूतानेंद्र (२), बे सुपर्णकुमार देवोना इंद्रो कहेल छे, ते आ-वेणुदेवेंद्र अने वेणुदारींद्र (३), बे विद्युत्कमार देवोना इंद्रो कहेल छ, ते आ-हरींद्र अने हरिस्सहेंद्र (४), बे अग्निकुमार देवोना इंद्रो कहेल छे, ते आ-अग्निशिख अने अग्निमाणव (५), बे द्वीपकुमारदेवोना इंद्रो कहेल छे, ते आ-पूर्ण अने वशिष्ट (६), ये उदधिकुमार देवोना इंद्रो कहेला छे, ते आ-जळकान्त अने जळप्रभ (७), बे दिक्कुमार देवोना इंद्रो कहेल छे, ते आ-अमितगति अने अमितवाहन (८), बे वायुकुमार देवोनां इंद्र कहेल छे, ते आ-लंब अने प्रभंजन (९), वे स्तनित( मेघ )कुमार देवोना इंद्रो कहेल छे, ते आ-घोष
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अने महाघोष (१०), उपरोक्त दश भुवनपति देवोना क्रमशः दक्षिण अने उत्तरदिशाओना मळी वीश इंद्रो छे. वे पिशाचना इंद्रो कहेला छे, तेना नाम-काल अने महाकाल (१), बे भूतोना इंद्रो कहेला छे, ते आ-सुरूप अने प्रतिरूप (२), बे यक्षोना इंद्रो कहेला छे, ते आ-पूर्णभद्र अने माणिभद्र (३), वे राक्षसोना इंद्रो कहेला छे, ते आ-भीम अने महाभीम (४), चे किन्नरोना इंद्रो कहेल छे, ते आ-किन्नर अने किंपुरुष (५), बे किंपुरुषोना इंद्रो कहेला छे, तेना नाम-सत्पुरुष अने महापुरुष (६), बे महोरगोना इंद्रो कहेला छे, तेना नाम-अतिकाय अने महाकाय (७), बे गंधर्वोना इंद्रो कहेल छे, ते आ-गीतरति अने गीतयशा (८). (आठ आठ व्यंतरजातिना क्रमशः दक्षिण अने उत्तरना इंद्रो छे) [२] वे अणपन्नी देवोना इंद्रो कहेल छे, ते आसन्निहित अने सामानिक (९), बे पणपन्नी देवोना इंद्रो कहेला छे, ते आ-धाता अने विधाता (१०), वे ऋषिवादी देवोना इंद्रो कहेला छे, ते आ-ऋषि अने ऋषिपालित (११), वे भूतवादी देवोना इंद्रो कहेला छे, ते आ-ईश्वर अने महेश्वर (१२), ये कंदी देवोना इंद्रो कहेला छे, ते आ-सुवत्स अने विशाळ (१३), बेमहाकंदी देवोना इंद्रो कहेला छे, ते आ-हास्य अने हास्यरति (१४), बे कुंभड (कोहंड) देवोना इंद्रो कहेला छे, ते आ-श्वेत अने महाश्वेत (१५), वे पतंगदेवोना इंद्रो कहेला छे, ते आ-पतंग अने पतंगपति (१६), बे ज्योतिष्क देवोना इंद्रो कहेला छे, ते आ-चंद्र अने सूर्य [३]. सौधर्म अने ईशान देवलोकने विषे बे इंद्रो
१. आ आठ व्यंतरदेवो रत्नप्रभाना हजार योजनना तला मां नीचे उपर सो-सो योजन छोडीने शेष आठ सो योजना रहे छे. २ अणपन्नो वगेरे आठ वाणव्यंतरदेवो रत्नप्रभा पृथ्वीना उपरना सो योजनमा नोचे उपर दश-दश योनन छोडीने शेष ऐसी योजनमा रहे छे. ३ ज्योतिप्कोना असंख्य चंद्र अने असंख्य सूर्य होवाथो असंख्य इन्द्रो छे, तथापि जातिनी अपेक्षाए सामान्यथी बे इन्द्रो कहेल छे.
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥१५१ |
२ स्थानकाध्ययने उद्देशः ३ इंद्रस्य
वर्णनम् ०४ सूत्रम्
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कहेला छे, ते आ-शकेंद्र अने ईशानेंद्र, एम ज सनतकुमार अने माहेंद्र देवलोकने विषे बे इंद्रो कहेला छे, ते आ-सनत्कुमारेंद्र अने माहेंद्र, ब्रह्मलोक अने लांतक देवलोकने विषे बे इंद्रो कहेला छे, ते आ-ब्रह्मेद्र अने लांतकेंद्र, महाशुक्र अने सहस्रार देवलोकने विषे बे इंद्रो कहेला छे, ते आ-महाशकेंद्र अने सहस्रारेंद्र, आनत, प्राणत, आरण अने अच्युत देवलोकने विषे वे इंद्रो कहला छ,त आप्राणतद्र अन अच्युतद्र. महशुक्र कहेला छ. ते आ-प्राणतेंद्र अने अच्युतेंद्र. महाशक अने सहस्रार देवलोकने विपे विमानो वे वर्णवाळा कहेला छे, ते आ प्रमाणे-पीळा अने धोळा ( शुक्ल ), ग्रैवेयक[ नव ]ना देवो ऊंचपणे वे हाथनी अवगाहनावाळा कहेला छे [४].
टीकार्थ:-असुरकुमार वगेरे दश भवनपति निकायोना, मेरुपर्वतनी अपेक्षाए दक्षिण अने उत्तर बे दिशाओना आश्रितपणाए ये प्रकार होवाथी वीश इंद्रो कहेल छे. तेमां चमरेंद्र दक्षिणदिशानो अने बलींद्र उत्तरदिशानो अधिपति छे, एवी रीते सर्वत्र जाणवू. (१). एम ज आठ जातिना व्यंतरनिकायना द्विगुणपणाथी सोळ इंद्रो छे (२). तथा अणपन्त्री वगेरे आठ व्यंतर विशेष [ पेटाभेद ] निकायोना बमणापणाथी सोळ इंद्रो छे. ज्योतिष्कोमा तो असंख्यात् चंद्र अने सूर्य होवा छतां पण जाति मात्रनो आश्रय करवाथी चंद्र अने सूर्य नामना वे ज इंद्रो कहेला छे (३). सौधर्मादि देवलोकना तो दश इंद्रो छे-एवी रीते सर्व मळीने चौसठ इंद्रो थाय छे. देवोना अधिकारथी तेना वसवाना स्थानभूत विमाननी वक्तव्यता कहे छे-'महासुके'त्यादि० सुगम छे. विशेष ए के-हारिद्र एटले पीळा. आ सौधर्मादि देवलोकना विमानोना वर्णोना विषयनो क्रम आ प्रमाणे छसौधर्म अने ईशान देवलोकना विमानो पांच वर्णवाळा छे. श्रीजा अने चोथा देवलोकना विमानो कृष्ण वर्ण सिवाय शेष चार वर्णवाळा छे. पांचमा अने छठा देवलोकना विमानो कृष्ण अने नील वर्ण सिवाय शेष त्रण वर्णवाळा छे. सातमा आठमा
॥ १५१॥
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देवलोकना विमानो पीळा अने घोळा ए वे वर्णवाळा छे. तेनी उपरना विमानो एक श्वेत वर्णवाळा छे. कां छे के— सोहम्मे पंचवन्ना, एक्कगहाणी उ जा सहस्सारो । दो दो तुल्ला कप्पा, तेण परं पुंडरीयाई ॥११३॥
भावार्थ उपर मुजब छे. देवोना अधिकारथी ज वे स्थानकमां आवेली अवगाहना कहे छे- 'गेवेज्जगाण' मित्यादि० आनी पूर्वनी माफक व्याख्या करवी.
॥ ठाणांगसूत्रना बीजा स्थानकना त्रीजा उद्देशानी टीकानो अनुवाद समाप्त ॥
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥१५२॥
अथ द्वितीयस्थानकाध्ययने चतुर्थोद्देशकः
२ स्थानकाध्ययने उद्देशः४ जीवाजीववक्तव्यता ९५ सूत्रम्
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त्रीजो उद्देश करो, हवे चोथा उद्देशाना आरंभ करे छे. आ जीवाजीवनी वक्तव्यताना प्रबंधवाळा चोथा उद्देशानो पूर्वना उद्देशोनी साथे आ संबंध छे. पूर्वना उद्देशामां पुद्गल अने जीवोना धर्मो कह्या, अहिं तो बधुंए जीव अने अजीवात्मकस्वरूप छे एम कहेQ छे. आ संबंधवडे आवेल उद्देशकने समयेत्यादि पचवीश सूत्रोद्वारा करे छे.
समयाति वा आवलियाति वा जीवाति या अजीवाति या पवुच्चति १. आणापाणूति वा थो वेति वा जीवाति या अजीवाति या पवुच्चति २, खणाति वालवाति वा जीवाति या अजीवाति या पव्वुच्चति ३, एवं मुहुत्ताति वा अहोरत्ताति वा ४, पक्खाति वा मासाति वा ५, उति वा अयणाति वा ६, संवच्छराति वा जुगाति वा ७, वाससयाति वा वाससहस्साइ वा ८, वाससतसहस्साइ वा वासकोडीइ वा ९, पुव्वंगाति वा पुवाति वा १०, तुडियंगाति वा तुडियाति वा ११, अडडंगाति वा अडडाति वा १२, अववंगाति वा अववाति वा १३, हुहुअंगाति वा हुहूयाति वा १४, उप्पलंगाति वा उप्पलाति वा १५, पउमंगाइ वा पउमाति वा १६, णलिणंगाति वा णलिणाति वा १७, अच्छाणकरंगाति वा
॥ १५२ ॥
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अच्छणिउराति वा १८, अउअंगाति वा अउआति वा १९, णउअंगाति वा णउआति वा २०, पउतंगाति वा उताति वा २१, चूलितंगाति वा चूलिताति वा २२, सीसपहेलियंगाति वा सीसपहेलियाति वा २३, पलिओवमाति वा सागरोवमाति वा २४, उस्सप्पिणीति वा ओसप्पिणीति वा जीवाति या अजीवाति या पच्चति २५, (१) । गामाति वा णगराति वा १, निगमाति वा रायहाणीत वा २, खेडाति वा कब्बडाति वा ३, मडंबाति वा दोणमुहाति वा ४, पट्टणाति वा आगराति वा ५, आसमाति वा संवाहाति वा ६, संनिवेसाइ वा घोसाइ वा ७, आरामाइ वा, उज्जाणाति वा ८, वणाति वा वणसंडाति वा ९, वावीइ वा पुक्खरणीति वा १०, सराति वा सरपंतीति वा ११, अगडात
लागाति वा १२, दहाति वा णदीति वा १३, पुढवीति वा उदहीति वा १४, वातखंधाति वा उवासंतराति वा १५, वलताति वा विग्गहाति वा १६, दीवाति वा समुद्दाइ वा १७, वेलाति वा वेतिताति वा १८, दाराति वा तोरणाति वा १९, णेरतिताति वा णेरतितावासाति वा जाव माणियाइ वा वेमाणियावासाति वा २०-४३, कप्पाति वा कप्पविमाणावासाति वा ४४, वासाति वा
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥ १५३॥
२ स्थानकाध्ययने उद्देशः ४ जीवाजीववक्तव्यता
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वासधरपव्वताति वा ४५. कूडाति वा कूडगाराति वा ४६.विजयाति वा रायहाणीइ वा ४७. जीवाति | या अजीवाति या पवुच्चति (२)। छाताति वा आतताति वा १, दोसिणाति वा अंधगाराति वा २. ओमाणाति वा उम्माणाति वा ३, अतिताणगिहाति वा उजाणगिहाति वा १, अवलिंबाति वा सणिप्पवाताति वा ५. जीवाति या अजीवाति या पवुच्चइ । दो रासी पं० तं०-जीवरासी चेव अजीवरासी चेव ॥ सू० ९५ । ___ मूलार्थः-समय अने आवलिका (काल) ए जे स्थितिपणे छे ते जीव अथवा अजीवपणाए कहेबाय छे (१), आनप्राणउच्छ्वासनिःश्वास काल अने स्तोक काल जीव अने अजविपणे कहेवाय छे (२), क्षण अने लव (काल) जीव अने अजीवपणे कहेवाय छे (३), एवी रीते मुहूर्त अने अहोरात्र (४), पक्ष अने मास (५), ऋतु अने अयन (६), संवत्सर (वर्ष) अने युग (७), सो वर्ष ने हजार वर्ष (८), लाख वर्ष अने क्रोड वर्ष (९), पूर्वाग अने पूर्व (१०), त्रुटितांग अने त्रुटित (११), अडडांग अने अडड (१२), अपपांग अने अपपात (१३), हूहूतांग अने हूहूत (१४), उत्पलांग अने उत्पल (१५) जीव अने अजीवपणे कहेवाय छे. पांग अने पद्म (१६), नलिनांग अने नलिन (१७), अक्षनिकुरांग अने अक्षनिकुर (१८), अयुतांग अने अयुत | (१९), नियुतांग अने नियुत (२०), प्रयुतांग अने प्रयुत (२१), चूलिकांग अने चूलिका (२२), शीर्षप्रहेलिकांग अने शीर्षग्रहे
९५ सूत्रम्
॥१५३ ॥
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लिका (२३), पल्योपम अने सागरोपमं (२४), उत्सर्पिणी अने अवसर्पिणी (२५) ए दरेक जीव अने अजीवपणे कहेवाय छे. [१] गाम ने नगर (१), निगम ने राजधानी (२), खेड ने कर्बट (३), मटं [डं]ब ने द्रोणमुख (४), पाटण ने आकर (५), आश्रम ने संवाह (६), सन्निवेश ने घोष (७), आराम ने उद्यान (८), वन ने वनखंड (९), वापी (वाव) ने पुष्करिणी (१०), सरोवर ने सरपंक्ति (११), कूप ( कूओ) ने तळाव (१२), द्रह ने नदी (१३), पृथ्वी (रत्नप्रभादि) ने घनोदधि (१४), वातस्कंध (घनवात वगैरे) ने अवकाशांतर (१५), वलय - पृथ्वीने वेष्टन ( वींटवा) रूप घनोदधि वगेरे ने विग्रह- लोकनाडीना वक्र (१६), द्वीप ने समुद्र (१७), ए बधा य जीव अने अजीवस्वरूप छे. वेल-समुद्रना जलनी वृध्धि ने वेदिका - गढना कांगरा (१८), द्वारदरवाजा ने तोरण (१९), नैरयिको अने नरकावासो, एवी रीते यावत् चोवीश दंडकमां वैमानिक अने वैमानिकना वासो ( विमानो) पर्यन्त जे छे ते सर्व जीव अने अजीव स्वरूप छे (२०-४३), कल्प ते देवलोक, अने ते देवलोकना अंशो ते कल्पविमानवासो (४४), वर्ष (क्षेत्रो) अने वर्षधरपर्वतो (४५), कूट ते शिखर, अने कूटागारो (४६), विजय अने राजधानीओ (४७) ए बधा जे छे ते जीव अने अजीवस्वरूप कहेवाय छे. [२], वृक्षादिकनी छाया अने सूर्यनो आतप (१), ज्योत्स्ना - कान्ति अने अंधकार (२), अवमान - क्षेत्रादिनुं प्रमाण हस्तादि अने उन्मान - कर्षादि ( तोलो वगेरे) (३), अतियानगृहनगर वगेरेना प्रवेशमां जे घरो होय ते अने उद्यानगृह ते बगीचामां रहेला घरो (४), अवलिंब अने सणिप्रपात ते रूढिथी जाणवा (५) बे राशि कहेली छे, ते आ प्रमाणे-जविराशि अने अजीवराशि. ( सू० ९५ )
टीकार्थ :- आ सूत्रोनो अनंतर सूत्रथी आ संबंध छे- पूर्वना सूत्रमां जीव विशेषोनुं उच्चत्व लक्षण ( ऊंचाई ) धर्म कह्यो,
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥ १५४॥
४२स्थानका
ध्ययने x उद्देशः४
जीवाजीववक्तव्यता
९५ सूत्रम्
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अहिं तो धर्मना अधिकारथी ज समयादि स्थिति लक्षण धर्म-जीव अने अजीव संबंधी धर्म अने धर्मीना अभेदपणाथी जीव अने अजीवपणाए ज कहेवाय छे. तेमां सघळा य कालप्रमाणोमा आद्य (पहेला) परम सूक्ष्म, अभेद्य, अवयव रहित, उत्पल-कमलना सेंकडो पत्रना भेदनना उदाहरणवडे ओळखातो समय कहेवाय छे. ते समय- अतीत वगेरे कालनी विवक्षावडे बहुपणाथी बहुवचन छे, माटे सूत्रकार कहे-'समयाइ वा' इत्यादि० ' इति' शब्द समीप अर्थ बतावबामां अने 'वा' शब्द विकल्पार्थमां छे. असंख्याता समयना समुदायवाळी आवलिका, क्षुल्लक भवग्रहण कालना बसो ने छप्पन भागे छे [अर्थात् २५६ आवलिकानो एक क्षुल्लक भव थाय छ ]. ते सूत्रमा समयो अथवा आवलिकाओ छे. जे कालवस्तु छ ते सामान्यथी जीव छ, कारण के जीवनो पर्याय छे. पर्याय अने पर्यायवाळानो कथंचित् अभेद छे तथा अजीवोनोपुद्गलादिनो पर्याय होवाथी अजीव कहेवाय छे. मूलमां बे 'च' कार छे ते समुच्चय अर्थमा छे अने जे दीर्घपणुं छे ते प्राकृत शैलीने कारणे छे. प्रोच्यते-कहेवाय छे. जीवादिना व्यतिरेकथी (सिवाय) समय वगेरे नथी, ते कहे छे-जीव अने अजीवोनी सादि अने सपर्यवसानादि (अंत सहित ) वगेरे भेदवाळी जे स्थिति छे ते स्थितिना भेदो समय वगेरे छे. ते जीव अने अजीवनो धर्म छे. धर्म अने धर्मीनो अत्यंत भेद नथी, जो अत्यंत भेद होय तो एक अंशमात्र धर्म [वस्तुनो] जणाते छते प्रतिनियत (चोकस) धर्मीना विषयमा संशय ज नहिं थाय, कारण के ते धर्मीना अन्य धर्मोथी पण तेनो भेद अविशेषपणे छे.
१. काल वस्तुत द्रव्य नथी कारण के ते पंचास्तिकायनो पर्याय छे, वर्तना लक्षण पर्याय सर्व द्रव्यमा सामान्य छे. तेने उपचारथी द्रव्य, व्यवहारनयवडे कहेल छे.
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॥१५४॥
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वळी अनुभवनी वस्तु छे के ज्यारे कोईक पुरुष लीला वृक्षनी तरुण शाखाना विस्तारना विवर(मध्य)ना अंतरथी कंईक पण शुक्ल वस्तुने जुवे छे त्यारे ते एम विचारे छे के शुं आ पताका छे ? अथवा बलाका (बगलानी पंक्ति ) छे ? ए प्रमाणे प्रतिनियत धर्मीना विषयमा संशय थाय छे. जो केवल अभेद होय तो पण सर्वथा संशयनी उत्पत्ति ज नहिं थाय, कारण के गुणना ग्रहणथी तेनु (गुणीनु) पण ग्रहण थाय छे. आ सूत्रमा तो अभेद नयनो आश्रय करवाथी 'जीवाइ या' इत्यादि. कहेलुं छे. अहिं तो समय अने आवलिका लक्षण बे अर्थने, जीव अने अजीवरूप द्वयात्मकपणाए कहेवाथी वे स्थानकमां अवतार जाणवो. एवी रीते आगळना सूत्रो पण गणी लेवा. एम जे विशेष छे ते अमे कहीशं. 'आणापाणू' इत्यादि. 'आनप्राणा' विति. उच्छ्वासनिःश्वासकाल छे ते संख्यात आवलिका प्रमाणवाळो छे. कडुं छे केहट्ठस्स अणवगल्लस्स, निरुवकिट्ठस्स जंतुणो । एगे ऊसासनीसासे, एस पाणुत्ति वुच्चई ॥११४॥
हर्षित, ग्लानि-रोग रहित, निरुपकृष्ट-क्षुधा, तृषा, श्रम विगेरेथी रहित प्राणीनो जे एक उच्छ्वासनिःश्वास छ तेने प्राण [आनप्राण] कहेवाय छे. तथा स्तोक, ते सात उच्छ्वासनिःश्वास काल प्रमाणवाळो छे. संख्यात आनप्राणवाळा क्षणो छे. अने सात स्तोक प्रमाण कालवाळो लव कहेवाय छे. ए प्रमाणे जेम पूर्वना त्रण सूत्रमा जीव अने अजीव एची रीते कहेवाय छे एम कह्यु, तेमज बधा य आगळना सूत्रो जाणवा सतोतेर लव प्रमाणवाळा मुहूर्तो होय छे. कधु छ केसत्त पाणूणि से थोवे, सत्त थोवाणि से लवे । लवाणं सत्तहत्तरीए, एस मुहुत्ते वियाहिए ॥११५॥
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श्रीस्थानाङ्गास्त्र सानुवाद
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भावार्थ उपर मुजब छे. तिषिण सहस्सा सत्त य, सयाणि तेवत्तरिंच ऊसासा। एस मुहत्तो भणिओ. सव्वेहि अणंतनाणीहिं ॥११६ * २ स्थान
त्रण हजार, सातसो अने तोतेर उच्छ्वासनिःश्वासनो एक मुहूर्त सर्वे अनंतज्ञा ओए कहेल छे. त्रीश मुहूर्त प्रमाण काध्ययने एक अहोरात्रि काल छे. पंदर अहोरात्रि प्रमाण एक पक्ष छे. वे पक्ष प्रमाण एक मास छे. बे मास प्रमाण एक वसंतादि ऋतुओ उद्देशः४ छे.त्रण ऋतुना प्रमाणवाळा अयनो छे. बे अयनना प्रमाणवाला वर्षो छे. पांच वर्ष प्रमाणवाला युगो छ, सो वर्ष वगेरे प्रतीत जीवाजीवछे. चोराशी लाख वर्ष प्रमाणवाला पूर्वांगो छे. पूर्वांगने चोराशी लाखवडे गुणवाथी एक पूर्व थाय छे. आ पूर्वनुं मान वक्तव्यता नीचे प्रमाणे छे
१९५ सूत्रम् पुव्वस्स उ परिमाणं, सयरिंखल होति कोडिलक्खाओ। छप्पन्नं च सहस्सा, बोद्धवावासकोडीणं ॥११७ |
७.५६०००००००००० पूर्वनुं प्रमाण तो सिंतेर लाख क्रोड अने छष्पन हजार क्रोड वर्षतुं होय छे एम जाणवू. पूर्वने चोराशी लाखगणो करवाथी एक त्रुटितांग थाय छे एवी रीते पूर्व-पूर्वनी संख्याने चोराशी लाखवडे गुणवाथी उत्तर-उत्तर(आगळ)नी संख्या थाय छे. एम यावत् शीर्षप्रहेलिका पर्यंत जाणी लेवू. ते शीर्षप्रहेलिकार्नु एकसो ने चोरीj अंकनुं स्थान होय छे. अहिं करण (करवानी रीत) गाथा कहे छे
१ एक सो ने चोराणु अंक पर्यंत संख्या थाय छे ते उपर संख्यानो विषय सरसवना प्रमाणथी बतावेल छे, अंकनो विषय नथी.
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इच्छयठाणणे गुणं, पणसुन्नं चउरसीतिगुणितं च । काऊणं तइवारे, पुव्वंगाईण मुण संखं ॥११८॥
प्रथम पांच शून्य ( मींडा) लखवा, पछी इच्छित स्थान अहिं एक अंक ( एकडो ) लखवी तेने एकवडे गुणवाथी ते ज संख्या थाय अर्थात् एक लाख थाय, तेने चोराशीवडे गुणवाथी चोराशी लाख थाय, ए पूर्वागनुं प्रमाण थयुं ज्यारे पूर्वनुं प्रमाण जाणवाने इच्छीए त्यारे पांच शून्य अने इच्छित बीजो अंक (८४) लखवो अर्थात् चोराशी लाखने चोराशी लाखवडे गुणवा त्यारे पांच शून्यने पांच शून्यवडे गुणवाथी बमणा शून्य ( दश ) थाय अने चोराशीना अंकने चोराशीना अंकवडे गुणवाथी ७०५६ थाय एटले सर्व मळीने ७०५६०००००००००० संख्या थाय. एवी रीते आगळ पण गुणाकार यावत् शीर्षप्रहेलिका थाय त्यां सुधी कर. शीर्षप्रहेलिका पर्यंत सांव्यवहारिक संख्यातकाल छे. तेनावडे प्रथम पृथिवी ( रत्नप्रभा ) ना नारकोनुं, भवनपति अने व्यंतरोनुं तथा भरत, ऐवत क्षेत्रने विषे सुपमदुष्पम समय(त्रीजा आरा) ना पश्चिम - ऊतरता भागमां मनुष्य अने तिर्यचोना आयुष्यनुं मान कराय छे. परंतु शीर्षप्रहेलिकानी उपर पण संख्यात काल छे ते अतिशय ज्ञानी सिवायना मनुष्योने व्यवहारनो विषय थतो नथी, एम जाणीने उपमाने विषे दाखल करेल (बतावेल) छे. ए ज कारणथी शीर्षप्रहेलिकाथी आगळ पल्योपम वगेरे (काळ) नो उपन्यास करेल छे. तेमां पल्यकडे उपमा छे जेओमां ते पल्योपमो असंख्यात कोडाकोडी वर्षप्रमाण आगळ कहेवामां आवशे एवा लक्षणवाळा छे. सागरवडे उपमा छे जेओने विषे ते सागरोपमो दश कोटाकोटी पल्योपम प्रमाणवाळा छे. दश कोटाकोटी (कोडाकोडी) सागरोपम
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श्रीस्थानाङ्गस्त्र सानुवाद
२ स्थान| काध्ययने उद्देशः ४ जीवाजीवक्तव्यता ९५ सूत्रम्
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प्रमाणवाळी उत्सर्पिणी छे, एटला ज प्रमाणवाळी अवसर्पिणी छे. (१) कालना विशेष(भेद)नी माफक ग्रामादि वस्तुना विशेषो पण (क्षेत्रभेदो) जीव अने अजीव ज छे ए हेतुथी बे पदद्वारा सडतालीश सूत्रोवडे कहे छे-'गामे त्यादि० अहिआं | प्रत्येकमां 'जीवाई या'-इत्यादि आलापक कहेवो. गामादिनुं जीव अने अजीवपणुं तो प्रतीत ज छे. कर (टेक्ष) वगेरेथी गम्य अर्थात् ज्यां कर वगेरे लेवातो होय ते गाम अने जेओमां कर न लेवातो होय ते न-कर अर्थात् नगर (१), निगम-ज्यां वेपारीओनो निवास होय ते निगम अने जेमां राजाओनो अभिषेक थाय छे ते राजधानी (२), धृळना गढयुक्त जे स्थान होय | ते खेट अने जे कुनगर होय ते कर्बट (३), जेनी चारे दिशाए अर्धयोजनथी आगळ गामो रहेल होय ते मंडळ अने जे स्थानमा जलनो अने स्थलनो एम बे प्रकारनो मार्ग होय ते द्रोणमुख (४), जे स्थानमा जलमार्ग अथवा स्थलमार्ग ए बनेमांथी एक मार्गवडे जq-आवq थाय ते पत्तन (पाटण) अने लोह वगैरेनी उत्पत्तिवाळी जमीन ते आकर अर्थात् खाण (५), जे तीर्थस्थान होय ते आश्रम अने सम (सरखी) भूमिमां खेती करीने जे दुर्गभूमिस्वरूप अर्थात् कठण भूमिमां खेडूतो धान्योने रक्षाने माटे राखे ते संवाह (६), ज्यां सार्थ अथवा सेना ऊतरे ते सन्निवेश अने नदीना कांठा पासे वसवानुं स्थान-गायोने रहेवार्नु स्थान ते घोष (७), विविध वृक्षनी लतावडे शोभायमान अने कदली (केळा) वगेरेथी ढांकेल मृहने विषे स्त्री सहित पुरुषोना जे रमवाना स्थानभूत ते आराम, तथा पत्र, पुष्प, फल अने छाया युक्त वृक्षोवडे शोभायमान, विविध प्रकारना वेषवाळा, उत्कृष्ट मानवाळा एवा घणा जनाने भोजन करवाने माटे जे स्थानने विषे जर्बु थाय ते उद्यान (८), ज्यां एक जातना वृक्षो होय ते वन अने अनेक जातना उत्तम वृक्षो होय ते वनखंड (९), चोखूणी ते वापी (वाव) अने जे वृत्त एटले गोळ होय अथवा जेमां
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कम होय ते पुष्करिणी (१०), सरोवर एटले जलनुं स्थान अने सरपंक्ति ते सरोवरती पंक्ति-बे चार श्रेणी ( ११ ), अगड - कूप ( कूओ), तळाव, द्रह तथा नदी प्रसिद्ध छे (१२-१३), पृथ्वी - रत्नप्रभा वगेरे अने उदधि ते रत्नप्रभादि पृथ्वीनी नीचे रहे घनोदधि (१४), वातस्कंध - घनवायु, तनवायु अथवा बीजा पण वायु अने अवकाशांतर - वातस्कंधोनी नीचे रहेल आकाश-ए उपरोक्त वस्तुओनुं जीवपणुं तो सूक्ष्म पृथ्वीकायिक वगेरे जीवोवडे व्याप्त होवाथी छे. (१५), वलय - पृथ्वीना वेष्टन (बंध ) रूप घनोदधि, घनवात, तनुवात लक्षण, अने विग्रह - लोकनाडीना वक्र स्थान, एओनुं जविषणुं तो पूर्वनी माफक समज. (१६), द्वीप अने समुद्र प्रतीत छे (१७), वेला-समुद्रना पाणीनी वृद्धि अने वेदिका प्रतीत छे (१८), द्वारो-विजय वगेरे दरवाजाओ अने तोरणो–ते दरवाजाओमां जे रहेला होय ते (१९), नैरयिको - किलष्ट (दुःखित) जीवावशेषो, तेओनुं अजीवपणुं कर्म पुद्गलादिनी अपेक्षाए जा अने ते नैरयिकोनी उत्पत्तिनी भूमिओ ते नरकावासो, तेनुं जीवपणुं पृथ्वीकायिकादिनी अपेक्षाए जाणवुं. एवी रीते चोवीश दंडको कहेवा (२०-४३), आ ज कारणथी (सूत्रकार) कहे छे- 'याव' दित्यादि० कल्प, देवलोक अने ते देवलोकना अंश ते कल्पविमानावास (४४), वर्ष - भरतादिक्षेत्र अने वर्षधर पर्वत ते हिमवान वगेरे (४५), कूट - हिमवतकूट वगेरे अने कूटागार - ते कूटोमा ज रहेल देवना भवनो (४६), विजय चक्रवर्त्तीने जीतवा योग्य कच्छादि क्षेत्रना खंडस्वरूप अने राजधानी क्षेमादि नगरी (ज्यां राजा रहे ते ) 'जीवे' त्यादि० अहिंया कहेलं सर्वत्र जोडवु (४७), [२]. जे पुद्गलधर्मो छे ते पण तेमज छे. ए हेतुथी कहे छे- 'छाये' त्यादि ० आ पांच सूत्रो कहेल अर्थवाळा छे, हवे विशेष कहे छे-छाया वृक्षादिनी जाणवी, आतप - सूर्यनो जाणवो. (१), 'दोसिणाति व' ति० ज्योत्स्ना एटले प्रकाश अने अंधकार एटले तम (२), अवमान - क्षेत्र वगेरेनुं
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥ १५७॥
प्रमाण ते हस्त (हाथ), गज विगेरे, अने उन्मान-त्राजवाना तोल, कर्ष, मासो वगेरे ( जोख ) (३), अतियानगृह-नगरादिना प्रवेशमा जे गृह होय ते, अने उद्यानगृह-बगीचामां घर होय ते (४), अवलिंब अने सणिप्रपात रूढिथी (देश विशेषथी) जाणी लेवा. आ बधा य शुं छे? ते बतावे छे-जीवा इति च० जीवोवडे व्याप्त होवाथी अथवा ते जीवोना आश्रितपणाथी अने अजीवा इति च पुद्गलादि अजीवरूप होवाथी अथवा ते(अजीव)ना आश्रितपणाथी, प्रोच्यते-जिनेश्वरोए प्ररूपेल छे. अहिंयां 'जीवाइ येत्यादि' सूत्रपंचकमां पण प्रत्येकने कहे. हवे समयादि वस्तु, जीव अने अजीवरूप ज कया हेतुथी कहेवाय छे ? ते प्रश्नना जबाबमां जणावे छ के-जीव अने अजीवथी जुदी राशिनो अभाव छे. एज कारणणी कहे छ-'दो रासी' त्यादि० सुगम छे. (मू० ९५) जीवराशि तो बे भेदे छ (१) बद्ध-कर्मथी बंधायेल अने (२) मुक्त-कर्मथी छूटेल, तेमां बंधाएल जीवोना बंधना निरूपणने माटे कहे छे
दुविहे बंधे पन्नत्ते तं०-पेज्जबंधे चेव दोसबंधे चेव, जीवाणं दोहिं ठाणेहिं पावं कम्म बंधति, तं०-रागेण चेव दोसेण चेव, जीवा णं दोहि ठाणेहिं पावं कम्मं उदीरेंति, तं०-अब्भोवगमिताते चेव वेतणाते उवक्कमिताते चेव वेयणाते, एवं वेदेति एवं णिजरेंति-अब्भोवगमिताते चेव वेयणाते उवक्कमिताते चेव वेयणाते। सू० ९६ मूलार्थ:-चे प्रकारे बंध कहेल छे. ते आ प्रमाणे-प्रेम( राग)बंध अने द्वेषबंध. जीवोने वे स्थानकद्वारा पापकर्मनो
२ स्थानकाध्ययने उद्देशः४
जीवस्य बद्धमुक्त
भेदी ९६ सूत्रम्
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॥१५७॥
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बंध थाय छे, ते आ-रागथी अने द्वेषथी. जीवाने वे स्थानकद्वारा पापकर्मनी उदीरणा थाय छे, ते आ-अभ्युपगमिकी- स्वयं शिरोलोचनादिवडे स्वीकारेल वेदना, अने औपक्रमिकी - ताव, अतिसारादिवडे उदीरणा थयेली वेदना. एवी रीते वे प्रकारे वेदे अर्थात् उदयमां आवेलुं कर्म भोगवे, वे प्रकारे निर्जरे-क्षय करे, ते अ प्रमाणे - अभ्युपगमिकी वेदनावडे निज्जैरे अने औपक्रमिक वेदनावडे निर्जरे ( सू० ९६ )
टीकार्थ :- प्रेम - राग, माया अने लोभरूप कषायलक्षण, अने द्वेष तो क्रोध अने मानरूप कपायलक्षण छे, जे माटे कहे छे के माया लोभकषाय- श्वेत्येतद् रागसंज्ञितं द्वन्द्वम् । क्रोधो मानश्च पुनद्वेष इति समासनिर्दिष्टः ॥ १ ॥ प्रेम-प्रेमलक्षण चित्तनो विकार उत्पन्न करनार मोहनीय कर्मना पुद्गलनी राशिनुं बंधन छे जीवना प्रदेशोने विषे योगप्रत्यय ( निमित्त ) थी प्रकृतिरूपपणे अने प्रदेशरूपपणे संबंध थाय छे तथा कषायना प्रत्ययथी स्थिति अने अनुभाग (रस) रूप विशेषनुं प्राप्त थबुं ते प्रेमबंध. एवी रीते द्वेषमोहनीय कर्मनो बंध ते द्वेपबंध छे. कं छे के"जोगा पयडिपदेसं, ठितिअणुभागं कसायओ कुणइ "न्ति० प्रकृतिबंध अने प्रदेशबंध योगथी अने स्थितिबंध तथा अनुभागबंध कपायथी करे छे. प्रेम अने द्वेष लक्षणरूप उदयमां आवेल कर्मोवडे जीवोने अशुभ कर्मनो बंध थाय छे,
१. उदयमां नहि प्राप्त थयेल कर्मने आकर्षीने उदयमां लाववा ते उदीरणा कहेवाय, ते जीवनावीर्यवडे थाय छे अने उदय स्वयं अबाधाकाल पूर्ण थये आवे छे.
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श्रीस्था
नाङ्गसूत्र
सानुवाद ।। १५८ ।।।।
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माटे कहे छे- 'जीवाण' मित्यादि० अथवा पूर्व सूत्रनी बीजी रीते व्याख्या करीने आनो संबंधांतर कराय छे. सामान्यथी बंध बे प्रकारे छे, प्रेमथी अने द्वेषथी. ते ते बंध तो अनिवृत्ति अने सूक्ष्मसंपराय पर्यंत गुणठाणावाळा जीवाने आश्रयीने जाणवो. अने जे उपशांतमोह, क्षीणमोह अने सयोगी गुगठाणावाळाने बंध छे ते फक्त योगप्रत्ययवाळो ज छे. तेनी बंधपणाए विवक्षा करी नथी, केमके बंधने पण शेष कर्मबंधना विलक्षग (जुड़ी रीते) पणाथी अबंध कल्प ( समान) छे. जे कर्मनो (सातावेदनीयनो ) आ बंध छे ते अल्पस्थितिक वगेरे विशेषण युक्त छे. कबुं छे के
अयं बायर मउयं, बहुं च रुक्खं च सुक्किलं चेव मंदं महव्वयं तिय, सायाबहुलं च तं कम्मं ॥ ११९ ॥
योगप्रत्ययिक कर्म अल्प, बादर, कोमळ, घणुं, ऋक्ष, शुभ्र, मंद, महाव्ययवाळु अर्थात् घणी निर्जरावाळं अने बहु सातावाळं होय छे. स्थितिवडे अल्प (बे समयनी) स्थितिवाळु, परिणामथी बादर, विपाकवडे कोमल, प्रदेशोवडे घणुं, वालुका(रेती) नी माफक लेपथी मंद, सर्वथा नाश थवाथी महाव्ययवालुं छे. ए ज बतावता थका कहे छे- 'जीवा ण'मित्यादि० जीवो सत्वो ('णं' वाक्यालंकारमां छे) वे स्थानथी- कारणथी पाप-अशुभ भवना निबंधनपणाथी अशुभ छे, पण निरनुबंध नथी, कारण के वे समयनी स्थितिवाळं कर्म अत्यंत शुभ छे, तेनो मात्र योग निमित्त छे, बांधे छे एटले राग अने द्वेषरूप कषायडेज स्पृष्टादि (आत्मानी साये ऐक्यतादि ) अवस्था करे छे. शंका- मिध्याल, अविरति कवाय अने योग ए चार बंधना
१. नवमुं अनिवृत्ति अने दशभुं सूक्ष्मसंपराय गुणठाणं छे, तदुपरांत वीतरागगुणठाणा छे.
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२ स्थान
काध्ययने
उद्देशः ३
जीवस्य
बद्धमुक्त
भेदो
१९६ सूत्रम्
।। १५८ ॥
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हेतुओ छे तो अहिं फक्त कषायो ज केम कर्मबंधनां कारण कह्या ? समाधान-कपायोर्नु पापकर्मना बंधमां प्रधानपणु जणाववा माटे कयुं छे. स्थिति अने अनुभागना उत्कृष्ट कारणपणाथी अथवा अत्यंत अनर्थना करनार होवाथी तेओर्नु प्रधानपणुं-मुख्यपणुं छे. कमु छ केको दुक्खं पावेजा, कस्स वसोक्खेहि विम्हओहोजाको वा नलहेज्ज मोक्खं ? रागद्दोसाजइ न होजा१२०
जो रागद्वेष न होत तो कोण दुःख पामत ? अथवा कोने सुखमां विस्मय थात? अथवा मोक्षने कोण प्राप्त न करत ? [अर्थात् बधा प्राप्त करत, पण राग द्वेष ज अटकावनार छे] अथवा बंधना हेतुओनो देशग्राहक आ सूत्र छ, कारण के द्विस्थानकनो अनुरोध होवाथी दोष नथी. कहेल वे स्थानवडे बांधेल पापकर्मनी जेम उदीरणा, वेदना अने निर्जरा प्राणीओ करे छ तेम त्रण सूत्रवडे कहे छ-'जीवे 'त्यादि. विशेष ए के-अबसरने प्राप्त न थया छतां उदयमां जे लावे छे ते उदीरणा कहेवाय छे. अभ्युपगमेन-अंगीकार करवावडे थयेली अथवा अंगीकार करवामां थयेली ते अभ्युपगमिकी, ते मस्तकनो लोच करवावडे अने तप-आचरणादिवडे वेदना-पीडा जाणवी अने बीजी उपक्रमबडे-कर्मना उदीरण कारणबडे थयेली अथवा ते कर्मना उदीरणमां थयेली औपक्रमिकी, ते ज्वर अने अतिसारादि व्याधि उत्पन्न थवावडे वेदना जाणवी. एवं मिति० कहेल चे प्रकारथी ज वेदे छ-उदीरित थया छतां तेना विपाकने भोगवे छे 'निर्जरयन्ति' प्रदेशोथी खपावे छे. (सू०९६) कर्मनी निर्जरामां तो देशथी अथवा सर्वथी भवांतरमां के मोक्षमा जतां शरीरथी नीकळ थाय छे ए हेतुथी सूत्रपंचकाडे ते विषय वर्णवे छे.
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र
सानुवाद
॥। १५९ ।।
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दोहिं ठाणेहिं आता सरीरं फुसित्ताणं णिज्जाति, तं०- देसेणवि आता सरीरं फुसित्ताणं णिज्जाति सव्वेणवि आया सरीरगं फुसित्ताणं णिज्जाति एवं फुरित्ताणं एवं फुडित्ता एवं संवहतित्ता एवं निवदृतित्ता । सू० ९७ मूलार्थ:-बे स्थानथी आत्मा शरीरने स्पर्शाने नीकळे छे, ते आ प्रमाणे- देशथी पण आत्मा शरीरने स्पशींने नीकळे छे ( इलिकागतिवडे उत्पत्तिस्थाने जतां ) अने सर्वथी पण आत्मा शरीरने स्पर्शीने नीकळे छे ( कंदुकगतिवडे उत्पत्तिस्थाने जतां ). एवी रीते देशथी अथवा सर्वथी शरीरने फरकावीने (कंपावीने ) एम ज देशथी अथवा सर्वथी शरीरने फोडीने, एवी रीते शरीरने संकोचीने, एवी रीते शरीरने जीवप्रदेशोथी जुदुं करीने नीकळे छे. ( सू० ९७ )
टीकार्थ :- 'दोही 'त्यादि० सुगम छे. विशेष- चे प्रकारथी 'देसेणवि' ति० देशथी पण-केटलाएक प्रदेश लक्षणवडेकेटलाएक प्रदेशोनो इलिकागतिवडे उत्पत्तिस्थानमां जतां जीवे शरीरथी बहार काढेला होवाथी आत्मा - जीव शरीरने स्पर्शाने नीकळे छे-मरणकालमां शरीरथी नीकळे छे. 'सव्वेणवि' ति० सर्वेण - सर्वात्मवडे अर्थात् जीवना सर्व प्रदेशोवडे कन्दुक (दडा) जेवी गतिवडे उत्पत्तिस्थाने जतां (जीव ) शरीरथी बहार प्रदेशोने नहिं काढेल होवाथी, अथवा देशेनापि देशथी, अपि शब्दवडे सर्वथी पण, आ अपेक्षा छे. आत्मा, शरीर प्रत्ये, आनो शो अर्थ छे ?- शरीरना देशने-पग वगेरेने स्पर्श करीने अवयवनां अंतरवडे प्रदेशना संकोचथी नीकळे छे ते संसारी जीवो जाणवा. सर्वपणाथी पण तथा अपि शब्दवडे देशथी पण, आ
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२ स्थानका
ध्ययने
उद्देशः ४ जीवस्य
देहानिर्गमनम्
९७ सूत्रम्
१५९ ॥
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अपेक्षा छे. संपूर्ण शरीरने पण स्पर्श करीने नीकळे छे ते सिद्ध जाणवा. आगळ कहेवाशे के "पायणिज्जाणा णिरएसु उववनंती"त्यादि० यावत् “सव्वंगणिजाणा सिद्धेसु"त्ति (पगमांथी नीकळनारा जीवो नरकमां उपजे छे) इत्यादि यावत् सर्वांगमाथी नीकळनारा जीवो सिद्धमां उपजे छे. आत्मावडे शरीरनु स्पर्शन करते छते स्फुरण (कंपन) थाय छे, आ कारणथी कहे छ-'एवं'मित्यादि० 'एव 'मिति. 'दोहिं ठाणेही 'त्यादि० कथन सूचन करवा माटे छे. तेमां देशवडे पण केटलाएक आत्माप्रदेशवडे इलिका (इयळ ) माफक गतिकालमां होय छे. 'सब्वेणावित्ति० सर्व आत्मप्रदेशोवडे पण दडानी जेम गतिकालमां शरीरने फरकावीने [कंपाचीने ] नीकळे छे. अथवा देशतः शरीरना देशथी फोडीने पग वगेरेथी दीकळवाना समयमां छे, सर्वतः-संपूर्ण शरीरने फोडीने सर्वांगथी नीकळवाना समयमां होय छे. स्फुरणथी तो सात्मकत्व (आत्मपणुं) स्फुट-प्रकट थाय छे. आ हेतुथी कहे छ 'एव' मित्यादि. 'एव' मिति० तेमज देशेन-आत्माना देशवडे शरीरने 'फडित्ताणं' ति सचेतनपणाए स्फुरणलिगथी प्रगट करीने इलिकागतिमा छे. सर्वेण-सर्वात्मवडे प्रगट करीने गेंडुक(दडा) गतिमा छे. अथवा शररिना देशथी आत्मकपणाए प्रगट करीने पग वगेरेथी नीकळवाना समयमा छे अने सर्वतः-सर्वांगथी नीकळवाना प्रस्तावमा होय छे. अथवा फुडित्ता-फोडीने अर्थात् नाश करीने, तेमां देशथी-आंख वगेरेना विघात (नाश )बडे, अने सर्वतः समस्त नाशवडे, देवदीपादि जीवनी माफक जाणवू. शरीरने सात्मकपणाए स्फुट करतो थको कोईक (जीव) ते शरीरनुं संकोचन पण करे छे. आ कारणथी कहे छ-' एव 'मित्यादि० 'एव 'मिति तेमज 'संवदृइत्ताणं'त्ति० संवर्त्य-शरीरने संकोचीने देशवडे इलिकागतिमा शरीरमा रहेल प्रदेशोबडे अने सर्वेण-सर्वात्मवडे दडानी जेम गतिमा
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श्रीस्था
नासूत्र
सानुवाद ।। १६० ।।
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सर्वात्मप्रदेशोनुं शरीरमां रहेल होवाथी नीकळे हे अथवा उपचारथी शरीरकं शरीरी (जीव ) प्रत्ये दंडना योगथी दंड पुरुषनी जेम जाणवुं. तेमां देशथी संकोच, मरनार संसारी जीवोने पग वगेरेथी जीवना प्रदेशोना संकोचथी छे अने सर्वथी तो मोक्षमां जनारने होय छे अथवा शरीरने देशथी संकोचीने हाथ वगेरेना संकोचवडे अने सर्वथी सर्व शरीरना संकोचनवडे पिपीलिका (कीडी ) वगेरेनी जेम जाणवुं. आत्मानुं संवर्त्तन ( संकोच ) करता थकां तो शरीरने निवर्त्तन ( जुदुं ) करे छे, माटे कहे छे एवं 'निवहयित्ताणं' ति० तेमज निवर्त्य - जीवना प्रदेशोथी शरीरने अलग करीने ए अर्थ छे. तेमां देशथी इलिकागतिमां अने सर्वथी गेन्दुकगतिमां करे छे अथवा देशथी शरीरने आत्माथी वृथक् करीने पग वगेरेथी नीकळनार अने सर्व सर्वागमाथी नीकळनार, अथवा पांच प्रकारना शरीरना समुदायनी अपेक्षाए देशथी औदारिकादि शरीरने छोडीने अने तैजस कार्मण शरीरने तो ग्रहण करीने ज, तथा सर्वथी बधा (पांच) शरीरना समुदायने छोडीने नीकळे छे अर्थात् सिद्ध थाय छे. ( सू० ९७ ) अनंतर सूत्रमां सर्वथी नीकळवुं कथुं, ते तो परंपरावडे धर्मश्रवणना लाभ वगेरेमां थाय छे. ते जेम थाय छे तेम दर्शावता थका कहे छे
दोहिं ठाणेहि आता केवलिपन्नत्तं धम्मं लभेजा सवणताते, तं० खतेण चेत्र उवसमेण चेव, एवं जाव मणपज्जवनाणं उप्पाडेजा तं० खतेण चेव उवसमेण चैव । सू० ९८ मूलार्थ:-बे स्थान ( प्रकार ) वडे आत्मा केवलीप्ररूपित धर्मने श्रवणपणा प्राप्त करे अर्थात् धर्म सांभळवाना लाभने
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२ स्थानकाध्ययने
उद्देशः ४ जीवस्य
धर्मप्राणः
९८ सूत्रम्
॥ १६० ॥
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पामे, ते आ प्रमाणे-ज्ञानावरण ने दर्शनमोहनीय कर्मना क्षयथी अने उपशमथी (क्षयोपशमथी ), एवी रीते यावन् मनःपर्यवज्ञानने उत्पन्न करे. ते आ-क्षयथी अने उपशमथी (क्षयोपशमथी) (सू० ९८)
टीकार्थः-'दोही'त्यादि० सुगम छे. विशेष ए के 'खएण चेव'त्ति ज्ञानावरणयिना अने दर्शनमोहनीय कर्मना उदयमां प्राप्त थयेल( दलिक )ने क्षय-निर्जरा करवाथी अने उदयमा नहिं प्राप्त थयेलने उपशम करवाथी-विपाकनो अनुभव न करवाथी अर्थात् क्षयोपशमथी एम कलुं थाय छे. यावत् शब्दथी केवलं बोहिं बुज्झेजा मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वएज्जा केवलं बंभचेरवासमावसेज्जा, केवलेणं संजमेणं संजमिज्जा, केवलेणं संवरेणं संवरेज्जा, केवलं आभिणिबोहियनाणमुप्पाडेज्जा इत्यादि जाणवू. केवल बोधिने प्राप्त करे, मुंडित थईने गृहवासथी अनगारपणाने स्वीकारे (प्रव्रजे), केवल ब्रह्मचर्यवासमा वसे, केवल संयममा यत्न करे, केवल संवरखडे संवृत थाय, केवल मतिज्ञानने उत्पन्न करे एवी रीते यावत् मनःपर्यवज्ञानने उत्पन्न करे. केवलज्ञान तो कर्मना क्षयथी ज थाय छे माटे कडं नथी. अहिंआं जो के बोधि वगेरे सम्यक्त्व अने चारित्ररूप होवाथी मात्र क्षयथी अने उपशमथी (पण) थाय छे, तो पण ए ( सम्यक्त्व अने चारित्र) क्षयोपशमथी पण थाय छे. श्रवण अने आभिनिबोधिकादि तो क्षयोपशमथी ज थाय छे. आ हेतुथी सर्वसाधारण क्षयोपशम वे (क्षायक अने उपशम ) पदवडे कहेल छे. (सू० ९८) बोधि, आभिनिवोधिक (मति) श्रुत अने अवधिज्ञान तो छासठ सागरोपम स्थिति सुधी उत्कर्षथी होय छे. सागरोपमो तो पल्योपमना आश्रयवाळा होय छे. आ कारणथी ते बेनी प्ररूपणा करे छ
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श्रीस्था
नाङ्गसूत्र
सानुवाद
॥ १६१
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दुवि अमपन्नत्ते तं०-पलिओवमे चैव सागरोवमे चेव, से किं तं पलिओ मे ? पलिओ मे जं जोयणविच्छिन्नं, पल्लं एगाहियप्परूढाणं होज निरंतरणिचितं, भरितं वालग्गकोडीणं ॥ १ ॥ वाससए वाससए, एक्केके अवहडंमि जो कालो । सो कालो बोद्धव्वो, उवमा एगस्स पल्लस्स ॥ २ ॥ एसिंपलाणं, कोडाकोडी हवेज्ज दसगुणिता । तं सागरोत्रमस्स उ, एगस्स भवे परीमाणं ॥ ३ ॥ सू० ९९
मूलार्थ:-बे प्रकारे अद्धेोपमिक ( उपमावालो काळ ) कहेल छे, ते आ प्रमाणे- पल्योपम अने सागरोपम. ते पल्योपम शुं छे? ते कहे छे-पल्योपम - जे योजन ( चार गाउ ) नो लांबो, पहोळो अने ऊंडो कुओ-पल्य होय, तेने एक दिवसथी सात दिवसना ऊगेला कोटि ( असंख्य ) वालाग्रोवडे ठांसी ठांसीने भरवो. ते वालाग्रमांथी सो सो वर्षे एक एक वालाग्रने काढवाथी जेटले काळे ते पल्य खाली थाय तेटला काळने एक पल्योपम काळ जाणवो. ए एक पल्योपमने दश कोडाकोडीगुणा करवाथी एक सागरोपमना काळनुं प्रमाण थाय छे. ( सू० ९९ )
टीकार्थ :- उपमावडे थयेलं ते औपमिक, अद्धा काळना विषयनी उपमावाळं ते अद्वैौपमिक, उपमान सिवाय जे काळना प्रमाणने अतिशय ज्ञान वगरना जीवोवडे ग्रहण न करी शकाय ते अद्धौपमिक जाणवुं. ते बे प्रकारे छे-पल्योपम अने सागरोपम. पल्यनी उपमा जेने विषे छे ते पल्योपम तथा सागरनी उपमा जेने विषे छे ते सागरोपम. सागरनी जेम मोटा
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२ स्थानकाध्ययने
उद्देशः ४ अध्धास्वरु
पम्
९९ सूत्रम्
।। १६१ ॥
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परिमाणवालं ए अर्थ समजबो. पल्योपम अने सागरोपमरूप औपमिक सामान्यथी (१) उद्धार, (२) अद्धा अने (३) क्षेत्रभेदथी त्रण प्रकारे छे. वळी एकएकना संव्यवहार अने सूक्ष्म भेदथी बे प्रकार छे. तेमां संव्यवहारपल्यापम-एक योजनना लंबाई, पहोळाई अने ऊंचाईवाळा पल्यने मुंडन पछी एकथी सात अहोरात्र पर्यंतना ऊगेला वालाग्रोथी (ठांसी ठांसी ) भरीने प्रतिसमयमां वालाग्रने काढते छते जेटला काळवडे ते पालो खाली थाय ते काळ संव्यवहारिकउद्धारपल्योपम कहेवाय छे. तेवा दश कोडाकोडी व्यवहारिकपल्योपमनुं एक व्यवहारिकउद्धारसागरोपम कहेवाय छे. ते वालाग्रना ज दृष्टिगोचर अति सूक्ष्म द्रव्यना असंख्यात भाग मात्र सूक्ष्म पनक(निगोदिया जीव)नी अवगाहनाथी असंख्यात गुणरूप अवगाहनावाळा खंडो करीने भरेल पल्य (पालो) समये समये एक एक वालाग्रना अपहार( काढवा )वडे जेटला काळे खाली थाय तेटला काळे सूक्ष्मउद्धारपल्योपम थाय छे. तेवा दश कोडाकोडी सूक्ष्मउद्धार पल्योपमवडे सूक्ष्मउद्धारसागरोपम थाय छे. आ सूक्ष्मउद्धार सागरोपमवडे द्वीप अने समुद्रानी परिसंख्या-गणत्री कराय छे. कह्यु छ केउद्धारसागराणं, अड्डाइज्जाण जत्तिया समया। दुगुणादुगुणपवित्थर, दीवोदहि रज्जु एवइया ॥ १२१
अढी उध्धारसागरोपमना जेटला समयो छे तेटला द्वीप अने समुद्रो छे. ते अनुक्रमे एक एकथी बमणा बमणा
१. उत्तरकुरुक्षेत्रना युगलीआना वालाग्रो लेवा एम जंबूद्वीपपन्नतिमां कहेल छे. ग्रन्थांतरमा सामान्य वालाग्र शब्द छे अने क्षेत्रसमासमां वालाग्रना खंड करवा एम पण कहेलुं छे.
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R
श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥१६२॥
| विस्तारवाळा छे. वळी ते सर्व द्वीप तथा समुद्रोनुं प्रमाण मलीने एक राज थाय छे. अध्धापल्यापम अने सागरोपममां पण सूक्ष्म अने बादर एवा बे भेद छे. विशेष ए के-सो सो वर्षे पूर्वोक्त वालाग्रने काढवाथी बादरअध्धा अने काध्ययने ते वालाग्रना असंख्यात खंडने सो सो वर्षे काढवाथी सूक्ष्मअध्धापल्योपम अने सागरोपम पूर्वोक्त रीते थाय छे. आ|| उद्देशः४ सूक्ष्म अध्धापल्योपम अने सागरोपमवडे नारकादिनी स्थिति-आयुष्यनुं मान कराय छे. क्षेत्रपल्योपम अने सागरोपमना
अध्धास्वरुपण एवी रीते सूक्ष्म अने बादर बे भेद छे. विशेष ए के-पूर्वोक्त रीते वालाग्रने भरीने तेने स्पर्शीने रहेला आकाशप्रदेशोने
पम् प्रतिसमये अपहार करतां जेटला काळे ते पल्य खाली थाय तेटला कालने व्यवहारिक (बादर) क्षेत्रपल्योपम कहेवाय छे अने ते वालाग्रना असंख्यात खंडवडे ते पल्यने भरीने तेने स्पीने रहेला अने अस्पृष्ट ( नहि फरसेला ) आकाशप्रदेशोने प्रति
X९९ सूत्रम् समये अपहार करतां जेटला काळे ते पल्य खाली थाय तेटला कालने सूक्ष्मक्षेत्रपल्योपम कहेवाय छे. तेम सागरोपम पण | जाणी लेवू. आ क्षेत्रपल्यापमादिनी प्ररूपणा मात्र विषयमा ज छे. आक्षेत्रपल्योपम अने सागरोपमनो दृष्टिवादमां स्पृष्ट अने अस्पृष्ट प्रदेशना विभागवडे द्रव्यना मानमा प्रयोजन छे एम संभळाय छे. त्रण प्रकारनो बादर भेद प्ररूपणा मात्र छे. ते कारणथी आ प्रकरणमां उध्धार अने क्षेत्र औपमिकनुं निरुपयोगीपणुं होबाथी अने अध्धोपमिकर्नु ज उपयोगीपणु होवाथी अध्धा एवं विशेषण सूत्रमा कहेलुं छे. आ हेतुथी ज अध्धापल्योपमना स्वरूपने कहेवानी इच्छावडे सूत्रकार कहे छ 'से किंत'मित्यादि० हवे ते पल्योपम शुं छे ? जे अध्धानी उपमावडे कहेल छे. आ प्रश्नमां अनुवादवडे आ उत्तर कहे छे 'पलिओवमे त्ति० पल्योपम आवी रीते थाय छे. आ शेष वाक्य छ 'जं जोयणा' (पेली गाथा) १६२॥
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आचेल १ कुद्देसिय, २ सिज्जायर ३ रायपिंड ४ किइकम्मे ५।
वय ६ जेट ७ पडिक्कमणे ८, मासं ९ पज्जोसवणकप्पे १०॥२०३ ॥ १ आचेलक्य, २ औदेशिक, ३ शय्यातरपिंड, ४ राजपिंड, ५ कृतिकर्म, ६ महाव्रत,७ पुरुषज्येष्ठ, ८ प्रतिक्रमण, ९ मासकल्प अने १० पर्युषणाकल्प-आ दश कल्प छे. निर्विशमानो-जे परिहारविशुद्धि तपने आचरे छे ते परिहारको एवो अर्थ छे. तेओना कल्पमां स्थिति आ प्रमाणे होय छे-ग्रीष्म, शीत अने वर्षाकाळमां क्रमथी जघन्य चोथभक्त, छह, अहम, मध्यम छठ विगेरे अने उत्कृष्ट अहम विगेरे तथा पारणे आंबेल ज होय छे. तथा सात पिंडैपणा पैकी पहेली बेनो अभिग्रह ज होय छे अने पाछली पांचमां पण एकबडे भक्त अने एकवडे पाणी लेवू एवी रीते वेनो अभिग्रह होय छे. कयुं छे के
बारस १ दस २ अट्ठ ३ दस ११२, छ? ३ अट्टेव १ छ? २ चउरो य ३। उक्कोसमज्झिमजह-नगा उ वासासिसिरगिम्हे ॥२०४ ॥
पारणगे आयाम पंचसु गहो दोसुऽभिग्गहो भिक्खे । परिहारविशुद्धिक मुनि वर्षाऋतुमा उत्कृष्टथी पांच उपवास, मध्यमथी चार उपवास अने जघन्यथी त्रण उपवास करे छे, शिशिर-शियाळामा उत्कृष्टथी चार, मध्यमथी त्रण अने जघन्यथी ये उपवास, तथा ग्रीष्म-उनादामा उत्कृष्टथी अठम,
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श्रीस्था
नाङ्ग-सूत्र
सानुवाद
५ ३०७
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मध्यमथी छठ अने जघन्यथी एक उपवास करे छे. पारणे आंबेल करे छे. तथा सात पिंडैषणामां पहेली वे छोडीने पांचनुं ग्रहण होय छे, तेमां पण एक भक्तमां अने एक पाणीमां ग्रहण करवानो विवक्षितादिने अभिग्रह होय छे. 'निर्विष्टा'- सेवेल विवक्षित चारित्रवाळा अर्थात् अनुपरिहारको तेना कल्पनी स्थिति आ प्रमाणे जाणवी - दररोज आंबिल मात्र तप अने भिक्षामां पहेली बे पिंडेपणा छोडीने शेष पांचनुं ग्रहण, तेमां पण एक अमुक भक्तनी ने एक पाणीनी एम वे विवक्षित ग्रहण करे; शेष नहिं, कां छे के
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कपट्टियावि पइदिण, करेंति एमेव चायामं ॥ २०५ ॥
कल्पमा रहेला पण एवी रीते ज प्रतिदिन आंबिल करे छे. तेओनो- परिहारविशुद्धिकोनो नव जणानो गण ( समुदाय ) होय छे. ते आ प्रकारे होय छे
सव्वे चरितवंतो उ, दंसणे परिनिट्टिया । नवपुव्विया जहन्नेणं, उक्कोसा दसपुब्विया ॥ २०६ ॥ पंचविहे ववहारे, कप्पंमि दुविहंमि य । दसविहे य पच्छित्ते, सव्वे ते परिनिट्टिया ॥ २०७ ॥
सर्वे निर्विशमानको अने निर्विष्टकायिको - परिहारविशुद्धिको सम्यक्त्वमां परिनिष्ठित अर्थात् निश्चल समतिवाळा होय छे, जघन्यथी नव पूर्ववाळा एटले नवमा पूर्वनी त्रीजी वस्तुना अध्ययनवाळा अने उत्कृष्टथी दश पूर्वी होय छे तथा पांच प्रकारना व्यवहारमा अवस्थित अने अनवस्थित ए वे प्रकारना कल्पमां तेमज दश प्रकारना प्रायश्चित्तमां परिनिष्ठित
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३ स्थानकाध्ययने
उद्देशः ४ कल्पस्थि
तिः २०६
सूत्रम्
।। ३०७ ॥
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दक्षे होय छे. जिन एटले गच्छथी नीकल साधुविशेषो, तेओना कल्पनी स्थिति ते जिनकल्पस्थिति. ते आवी रीते-जघन्यथी पण नवमा पूर्वनी त्रीजी वस्तुनो अभ्यास छते, उत्कृष्टथी तो दश पूर्व कईक न्यून होते छते, प्रथम संहनन छते, तथा दिव्यादि उपसर्ग अने रोगनी वेदनाने जे सही शके छे ते जिनकल्प स्वीकारे छे. ते एकाकी ज होय छे. दश गुणयुक्त स्थंडिलमांज उच्चारादि अने जीर्ण वस्त्रादिने त्यजे छे, एने वसति सर्व उपाधि रहित विशुद्ध होय छे, भिक्षाचर्या त्रीजी पोरसीमां होय छे, पाछली पांच पिंडैषणामां एक ज (अभिग्रह करेली) कल्पे छे, विहार मासकल्पवडे, ते ज वीर्थामां (शेरीमा) छठे दिने भिक्षाटन होय छे-आ प्रमाणे आ मर्यादा 'सुयसंघयणे' त्यादिकाद् गाथाना समूहथी कल्प(भाष्य)मां कहेल छे त्यांची जाणवी. कयुं छे केगच्छम्मिय निम्माया,धीरा जाहे य गहियपरमत्था। अग्गहि जोगअभिग्गहि,उति जिणकप्पियचरितं॥
गच्छमां निर्माता-क्रियाशिक्षादिकमां निपुण, बुद्धिमान् अथवा परिषहादिकमां निश्चल तथा ग्रहण करेल परमार्थवाला अने अग्राह्या एटले बे पिंडैषणा नहिं ग्रहण करवा लायक अने शेष पांच पिंटषणा संबंधी बेना योगमां बेनी मध्ये एकनोज योग
१. परिहारविशुद्धिकोनो नव व्यक्तिनो गण होय छे. तेमां चार तप करनारा, चार वयावृत्य करनारा अने एक वाचनाचार्य होय छे. तेवी रीते छ मास पर्यन्त तप कर्या बाद जे चार जणा वैयावृत्य करनारा होय छे ते तप करे अने तप करनारा वैयावच करे एम छ मास कर्या पछो वाचनाचार्य तप करे अने शेष आठ वैयावृत्य करे. आवी रीते अढार मास सुधी आ तप चाले छे.
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श्रीस्था
नाङ्गसूत्र सानुवाद 1३०८॥
३ स्थानकाध्ययने उद्देशः४ कल्पस्थितिः २०६
सूत्रम्
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एटले व्यापार ज्यारे होय छे त्यारे जिनकल्पिक चारित्रने स्वीकारे छे. धिइवलिया तवसूरा, नितीगच्छाउ ते पुरिससीहा । बलवीरियसंघयणा, उवसग्गसहा अभीरुया ॥
धैर्यबलवाला अने तपमा शूरा-छमास पर्यंत तप करनारा ते पुरुषसिंहो गच्छमाथी नीकळे छे, वळी बल, वीर्य अने संघयण(मजबूत)वाळा, उपसर्ग सहन करवावाळा तथा भय रहित होय छे. स्थविरो-आचार्यादि गच्छमा रहेला, तेओनी कल्पस्थिति ते स्थविरकल्पस्थिति. ते आ प्रमाणेपव्वजो सिक्खोवय-मत्थंगहणं च अनियओवासो। निष्फत्ती च विहारो, सामायारी ठिई चेव॥२१०॥
पहेला प्रव्रज्या कहेवी, त्यारपछी शिक्षापद, पछी व्रतो, पछी सूत्रना अर्थनुं ग्रहण, पछी अनियतवास-नाना | प्रकारना देशर्नु वताव, त्यारपछी शिष्योनी निष्पत्ति, त्यारपछी विहार, त्यारपछी जिनकल्प प्रतिपन्ननी सामाचारी अने बीजाने तेमांज स्थिति. (आ बृहत्कल्पमां द्वार गाथा छे) अहिं सामायिक छते छेदोपस्थापनीय होय छे तेमां होते छते परिहारविशुद्धिक भेदरूप निर्विशमानक, त्यारपछी निर्विष्टकायिक, त्यारपछी जिनकल्प अथवा स्थविरकल्प होय छे माटे सामायिककल्पस्थिति विगेरे ये सूत्रनु क्रमवडे स्थापन करे छे (२०६). कहेल कल्पनी स्थितिनुं उल्लंघन करनारा नारकादि शरीरवाळा थाय छे, माटे|* नारकादिना शरीरनु निरूपण करवा माटे कहे छे.
नेरइयाणं ततो सरीरगा पं० सं०-वेउव्विते तेयए कम्मए, असुरकुमाराणं ततो सरीरगा पं०
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तं०-एवं चेव, एवं सव्वेसिं देवाणं, पुढविकाइयाणं ततो सरीरगा पं० तं०-ओरालिते तेयए कम्मते, एवं बाउकाइयवजाणं जाव चउरिदियाणं॥ सू० २०७, गुरुं पडुच्च ततो पडिणीता पं० त०-आयरियपडिणीते उवज्झायपडिणीते थेरपडिणीते १. गात पडुच्च ततो पडिणीता पं० तं०-इहलोगपडिणीए परलोगपडिणीए दुहओ लोगपडिणीए २, समूहं पडुच्च ततो पडिणीता पं० तं०-कुलपडिणीए गणपडिणीए संघपडिणीते ३, अणुकंपं पडच्च ततो पडिणीया पं० २०-तवस्सिपडिणीए गिलाणपडिणीए सेहपडिणीए ४, भावं पडुच्च ततो पडिणीता पं० तं०-णाणपडिणीए दसणपडिणीए चरित्तपडिणीए ५, सुयं पडुच्च ततो पडिणीता पं० तं०-सुत्तपडिणीते अत्थपडिगीते तदुभयपडिणीए ६ । सू० २०८ . मूलार्थ:-नैरयिकोने त्रण शरीर कहेला छे, ते आ-वैक्रिय, तैजस अने कार्मण. असुरकुमारोने त्रण शरीर कहेला छे, ते आवैक्रिय, तेजस अने कार्मण. एची रीते सर्वे देवोनेत्रण शरीर होय छे. पृथ्वीकायिकोने त्रण शरीर कहेला छे, ते आ-औदारिक, तैजस अने कार्मण, एवी रीते वायुकायिकने छोडीने शेप यावत् चौरिद्रिय पर्यंतना जीवोने त्रण शरीर छे. (सू० २०७) गुरुने आश्रयी त्रण प्रत्यनीक (प्रतिकूल) कहेल छे, ते आ-आचार्यनो प्रत्यनीक (अवर्णवाद बोलनार), उपाध्यायनो प्रत्यनीक अने स्थविरनो प्रत्यनीक १, गतिने आश्रयीने त्रण प्रत्यनीक कहेल छे, ते आ-आलोकप्रत्यनीक-पंचाग्नि तापादिवडे शरीरने कष्ट आपनार, परलोक
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र
सानुवाद ॥ ३०९ ॥
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प्रत्यनीक- विषयसुखमां रक्त अने उभय लोकप्रत्यनीक ते चोरी विगेरे करनार २, समूहने आश्रयी त्रण प्रत्यनीक कहेला ले ते आ - कुल एटले एक आचार्यनी परंपराना साधु, तेनो प्रत्यनीक, गण एटले एक सामाचारीवाळा त्रण कुलोनो समुदाय, तेनो प्रत्यनीक, अने संघ एटले सर्व साधुओनो समुदाय, तेनो प्रत्यनीक ३, अनुकंपा - सहाय, तेने आश्रयीत्रण प्रत्यनीक कहल छे, ते आ-तपरवीनो प्रत्यनीक, ग्लान- असमर्थनो प्रत्यनीक अने शैक्ष (नवीन दीक्षित) नो प्रत्यनीक ४, भावने आश्र प्रत्यनीक कहल छे, ते आ-ज्ञाननो प्रत्यनीक - विपरीत प्ररूपणा करनार, दर्शननो प्रत्यनीक- जिनवचनमां शंकादि करनार अने चारित्रनो प्रत्यनीक - चारित्रने दूषित करनार ५, सूत्रने आश्रयीत्रण प्रत्यनीक कहेल छे, ते आ-सूत्रप्रत्यनीक, अर्थ ते निर्वृति अने टीकादिकनो प्रत्यनीक अने ते बन्नेनो प्रत्यनीक ते तदुभयप्रत्यनीक ६. (सू० २०८)
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टीकार्थ- 'नेरइयाण' मित्यादि० दंडक सुगम छे. विशेष ए के - ' एवं सव्वदेवाणं ति० जेम असुरकुमारोने ऋण शरीर छे एम ज नागकुमारादि भवनपति, व्यंतर, ज्योतिष्क अने वैमानिकाने छे. एम 'वाउकाइयवज्जाणं' ति० वायुने आहारक सिवाय चार शरीरो छे माटे तेनुं वर्जन जणाच्युं छे. एम पंचेंद्रिय तिर्यंचोने पण चार शरीर छे, मनुष्योने तो पांच शरीर पण होय छे माटे ते अहिं बतावेल नथी. आचारनी स्थितिनुं उल्लंघन करनाराओ तो प्रत्यनीक पण होय छे माटे तेओने कहे छे, 'गुरु'मित्यादि० छ सूत्रो स्पष्ट छे. विशेष ए के तत्त्वने जे कहे ते गुरु, तेने आश्रयीने प्रत्यनीक एटले प्रतिकूल स्थविर - जात्यादिवडे. एओनी प्रत्यनीकता आ प्रमाणे जाणवी
जच्चाईहि अवन्नं, विभासइ वट्टइ नयावि उववाए। अहिओ छिद्दप्पेही, पगासवादी अणणुलोमो ॥२११ ॥
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३ स्थान
काध्ययने
उद्देशः ४ प्रत्यनीकाः
२०७
२०८
सूत्रे
।।। ३०९ ।।
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जाति, कुल विगरनो दोष काढीने अवर्णवाद बोले, सेवामां वर्ततो नथी, अनुचित करे ले, छिद्र जुए है, बीजानी समक्ष गुरुना दोषने कहे छे तथा गुरुथी प्रतिकूल रहे छे.
अहवावि वए एवं, उवएसं परस्स देंति एवं तु । दसविहवेयावच्चे, कायव्व सयं न कुवंति ॥ २१२।। ___अथवा एवी रीते पण बोले छे-बीजाने उपदेश आ प्रमाणे आपे छ के-दश प्रकार- बयावृत्य करवू परंतु पोते करता नथी. गति-मनुष्यपणा संबंधी विगेरे, तेमां आ लोकनो-प्रत्यक्ष मनुष्यत्व लक्षणपर्यायनो प्रत्यनीक एटले इंद्रियना अर्थने प्रतिकूलता करनार होवाथी पंचाग्नि तपस्वीनी माफक आलोकप्रत्यनीक, परलोक-जन्मांतर प्रत्ये प्रत्यनीक एटले इंद्रियना अर्थमां तत्पर [विषयसुखलंपट ], बंने प्रकारना लोकनो प्रत्यनाक-चोरी विगेरेवडे इंद्रियना अर्थ (भोग) साधवामां तत्पर. अथवा बीजी रीते जणावे छे के-आ लोकमां उपकारी पुरुषोना भोगसाधनादिने उपद्रव करनार ते आलोकप्रत्यनीक, एवी रीते ज्ञानादिने उपद्रव करनार ते परलोकप्रत्यनीक अने बन्नेने उपद्रव करनार ते उभयलोकप्रत्यनीक. अथवा आ लोक ते मनुष्य लोक, परलोक नारकादि अने उभयलोक एटले बन्ने, प्रत्यनीकता तो तेनी विपरीत प्ररूपणामां छे. कुल-चांद्रादिक, ते कुलोनो समूह ते गणकोटिकादि, ते गणोना समूह ते संघ. प्रत्य नीकपणुं तो एओना अवर्णवाद कहेवावडे जाणवू. कुलादिनुं लक्षण आ प्रमाणेएत्थ कुलं विन्नेयं, एगायरियस्स संतई जाउ। तिण्ह कुलाण मिहो, पुण साक्खाणं गणो होइ॥२१३॥
एक आचार्यनी संतति (शिष्यादि परंपरा ) ते कुल, जेम वज्रसेन आचार्यनी संतति ते चंद्रकुल. तथा अहिं परस्पर
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श्रीस्था
नाङ्गसूत्र
सानुवाद
॥ ३१० ॥
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सापेक्ष त्रण कुलना गण होय छे.
सव्वोऽवि नाणंसण-चरणगुणविभूसियाण समणाणं । समुदायो पुण संघो, गुणसमुदाओत्ति काऊणं ॥ ज्ञान, दर्शन अने चारित्रगुणवडे विभूषित वधा य साधुओनो समुदाय ते संघ कहेवाय छे, केम के गुणोनो समुदाय ते संघ छे एम करीने अर्थात् गुण वगर संघ न कहेवाय. "आणाजुत्तो संघो" इतिवचनात् "अनुकम्पाय" सहायने आश्रयीने तपस्वी - क्षपक, ग्लान - रोगादिवडे असमर्थ, शैक्ष- नवीन दीक्षित, आ बधा य मदद करवा योग्य होय छे. तेओने मदद न करवाथी तथा बीजावडे न कराववाथी प्रत्यनीकता ( शत्रुता ) छे. भाव एटले पर्याय, ते जीव अने अजीव संबंधी, तेमां जीवनो प्रशस्त (रुडो) अने अप्रशस्त (माठो) भाव छे. त्यां प्रशस्त क्षायिकादि भाव अने अप्रशस्त भावविवक्षावडे औदायिक भाव छे. बळी क्षायिकादि भाव ज्ञानादिरूप छे, तेथी भाव-ज्ञानादिने आश्रयीने तेओनी विपरीत प्ररूपणा करवाथी अथवा दोष आपवाधी प्रत्यनीक थाय छे. कछे के
पाययसुत्तनिबद्धं, को वा जाणइ पणीय केणेयं ? किंवा चरणेणं तू, दाणेण विणा उ किं हवइ ॥ २१५ ॥
प्राकृत भाषामा गूंथे एकादशांगीरूप सिद्धांत कोण जाणे छे के ए कोणे रचेतुं छे, केम के सकलाक्षरसंयोगना जाण गणधरो, संस्कृत भापाने छोडीने प्राकृतभाषामां केबी रीते सूत्र गूंथे ? एवी रीते सिद्धांत ज्ञान)नो अवर्णवाद, चारित्रनो अवर्णवाद आ प्रमाणे- चारित्रवडे शुं ? दान बिना चारित्र पाळवाथी शुं थवानुं छे ? अर्थात् सिद्धि न थाय; दानथी ज सिद्धि थाय इत्यादि
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३ स्थानकाध्ययन
उद्देशः ४ प्रत्यनीकाः
२०७
२०८ सू
॥ ३१० ॥
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सूत्र-व्याख्या करवा योग्य,अर्थ- सूत्रनुं व्याख्यान नियुक्ति विगेरे अने तदुभय-ते बन्नेनी. सूत्रादिनी प्रत्यनीकता आ प्रमाणेकाया वया य ते चिय, ते चेव पमाय अप्पमाया य । मोक्खाहिगारियाणं, जोइसजोणीहि किं कजं? ___छकाय अने व्रतो तेज छ, पण बीजा नथी. वळी प्रमाद अने अप्रमाद पण ते ज छे तो सिद्धांतमा वारंवार एजें कथन करवाथी शुं पुनरुक्ति दोष नहिं आये ? तेमज मोक्षना अधिकारी एवा गणधरोने ज्योतिषशास्त्रनुं-अमुक नक्षत्रमा अमुक भोजन करीने कार्यनी सिद्धि करे छे एम कहेबानुं प्रयोजन शुं ? वळी कूर्मोन्नतादि त्रण प्रकारनी योनिनी प्ररूपणा करवानुं प्रयोजन शुं? आवी रीते कहेवू ते सिद्धांतनो अवर्णवाद जाणवो. आधी रीते दृषणर्नु कथन कर, (सू० २०८) कहेल कल्पस्थिति, गर्भज मनुष्योने ज छे, अने नेनुं शरीर माता अने पिताना कारणथी छे माटे ते बन्नेनुं शरीरना अंगोमां हेतुपणुं होते छते तेना विभागने कहे छ
ततो पितियंगा पं० तं०-अट्ठी अट्ठीमिंजा केसमंसुरोमनहे ।
तओ माउयंगा पं० २०-मंसे सोणिते मत्थलिंगे । सू० २०९ मूलार्थ:-पिताना त्रण अंग कहेल छे, ते आ प्रमाणे-१ अस्थि-हाड, २ अस्थिर्नु मध्यरस अने ३ केश-दाढी, मूंछ, रोम, नख. प्रण अंग माताना कहेला छ, ते आ प्रमाणे-१ मांस, २ लोही अने ३ मेद (चरबी) तथा फेफसा विगेरे (मू० २०९)
टीकार्थः-बंने सूत्रो सुगम छे. विशेष ए के-मात्र पिताना अवयवो-अंगो ते पितृअंगो, प्रायः वीर्यनी परिणतिरूप छे. १ अस्थि
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥३१ ॥
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- प्रसिद्ध छे,२ अस्थिमिजा-अस्थिना मध्यमा रहेलो रस,३ केशो-मस्तकना वाल, श्मश्रु-दाढी मूंछना वाळ,रोम-काव विगेरेना वाळ |
अने नखो प्रसिद्ध छे. केश, श्मश्रु,रोम अने नख आ बधा य प्रायः समानपणाथी (वृद्धि विगग्ना कारणथी) एक ज छे. माताना अंगो प्रायः आर्तव (रजस् ) परिणतिरूप छे.१ मांस जाहेर छे, २ शोणित-लोही अने ३ मस्तुलिंग-बाकीना मेद अने
काध्ययन फेफसा विगेरे. केटलाएक कपालना मध्यमा रहेलुं भेजें कहे छे. (सू० २०९) पूर्वोक्त स्थविरकल्पनी स्थिति अंगीकार करेलाने
उद्देश ४ विशिष्ट निर्जराना कारणो कहेवा अर्थे सूत्रकार कहे छे के
श्रमणतिहिं ठाणेहि समणे णिग्गंथे महानिज्जरे महापजवसाणे भवति तं०-कया णं अहं अप्पं वा बहुयं मनोरथवा सुयं अहिजिस्सामि, कया णमहमेकल्लविहारपडिमं उवसंपज्जित्ता णं विहरिस्सामि, कया
वनम् णमहमपच्छिममारणंतितसंलेहणाझुसणाझुसिते भत्तपाणपडियाइ क्खिते पाओवगते कालं अणवकं
४२१०सूत्रम् खमाणे विहरिस्सामि, एवं स मणसा स वयसा स कायसा पागडेमाणे (पहारेमाणे ) निग्गंथे महानिजरे महापज्जवसाणे भवति, तिहिं ठाणेहि समणोवासते महानिजरे महापज्जवसाणे भवति, तं०-कया णमहमप्पं वा बहुयं वा परिग्गरं परिचइस्सामि १, कया णं अहं मुंडे भवित्ता आगारातो अणगारितं पव्वइस्सामि २. कया णं अहं अपच्छिममारणंतियसंलेहणाझसणाझसिते भत्तपाण
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पडियातिक्खिते पाओवगते कालं अणवकखमाणे विहरिस्सामि ३ एवं स मणसा सवयसा स कासा पागडेमाणे ( जागरमाणे ) समणोवासते महानिज्जरे महापज्जवसाणे भवति । सू० २१०
मूलार्थ:-त्रण स्थानक-मनोरथवडे श्रमणनिग्रंथ महानिर्जरावाळो अने महापर्यवसान एटले समाधिमरण विगेरेवाळो थाय छे, ते आ प्रमाणे- १ क्यारे हुं थोडं अथवा घणुं श्रुत भणीश, २ क्यारे हुं एकलविहारीनी प्रतिमाने अंगीकार करीने विचरीश अने ३ क्यारे (हुँ) अपश्चिम मारणांतिक संलेखनानी सेवनावडे सेवित ( आचरणवालो ) थयो थको भातपाणीनो प्रत्याख्यान करतो थको, पादपोपगमन-छेदायेल वृक्षनी माफक स्थिर रहेतो थको, काळने न इच्छतो थको हुं विचरीश, ए प्रमाणे मनवडे, वचनवडे अने कायावडे विचारणा करतो थको निग्रंथ, महानिर्जरा अने महापर्यवसानवाळो थाय छे. त्रण स्थानकमनोरथवडे श्रमणोपासक (श्रावक) महानिर्जरावाळो अने महापर्यवसान (समाधिमरणादि ) वाळो थाय छे, ते आ प्रमाणे- १ क्यारे डुं अल्प अथवा बहु परिग्रहने छोडीश ? २ क्यारे हुं द्रव्यभावथी मुंडित थई, घरथी नीकळीने अणगारपणाने स्वीकारीश ? अने ३ क्यारे अपश्चिम (हेल्ली) मरणांतिक संलेखनानी सेवावडे सेवित थयो थको, भक्तपाननो प्रत्याख्यान करतो थको, पादपोपगमन - वृक्षनी माफक स्थिर रहेवापूर्वक काळने न इच्छतो थको हुं विचरीश, एवी रीते मनवडे, वाणीवडे अने कायावडे विचारणा करतो थको (जागृत थयो थको) श्रमणोपासक, मोटी निर्जरावाळो अने महापर्यवसानवाळो थाय छे. ( ० २१० ) टीकार्थः-'तिही' त्यादि० सुगम छे. विशेष ए के मोटी निर्जरा - कर्मनुं क्षपण (क्षय) छे जेने ते महानिर्जरा, महत्
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श्रीस्थानाङ्गपत्र सानुवाद
| प्रशस्त अथवा अत्यंत पर्यवसान-छेवट अर्थात् समाधिमरणथी एटले के फरीने मरण न करवाथी छेडो छे जे जीवने ते |
३ स्थानमहापर्यवसान. 'एवं समणसा'त्ति० एवी रीते जणावेल त्रण लक्षण छ. स इति-साधु, 'मणस' ति.
काध्ययन मनवडे, (प्राकृतशलीथी इसपणुं छे ) एवी रीते स 'वयसत्ति० वचनवडे अने स 'कायसत्ति० कायावडे एबो अर्थ छे.
उद्देश अहिं 'कायसा' ए शब्दमां सकारनो आगम प्राकृतपणाथी ज छे. त्रणे करणोवडे ए अर्थ छे. अथवा स्व (पोताना) मनवडे विचारणा करतो थको, कोईक प्रतमां तो 'पागडेमाणे' एवो पाठ छे त्यां प्रगट करतो थको एवो अर्थ जाणवो. जेम साधुने म्वरूपम् | कह्या तेम श्रावकने पण निर्जरादिनां त्रण कारणो (मनोरथो )छ,ए बतावतां थका कहे छ-'तिहीं'त्यादि० सुगम छे.(सू० २१०) ४२११-१३ अनंतरकर्मनी निर्जरा कही, ते पुद्गलना परिणामविशेषरूप छे माटे पुद्गलना परिणामविशेषने कहेवा माटे सूत्रकार कहे छे- सत्राणि तिविहे पोग्गलपडिघाते पं० २०-परमाणुपोग्गले परमाणुपोग्गलं पप्प पडिहन्निज्जा लक्खत्ताते वा पडिहणिजा लोगते वा पडिहन्निजा।सू०२११, तिविहे चक्खू पं० २०-एगचक्खू बिचक्खू तिचक्खू, छउमत्थेणं मणुस्से एगचवखू देवे बिचक्खू तहारवेसमणे वा माहणे वा उप्पन्ननाणदंसणधरे से णं तिचक्रवृति वनव्वं सिया। सू०२१२, तिविधेअभिसमागमे पं० तं-उर्दु अहं तिरियं, जयाणंतहारूवस्स समणस्स वा माणस्स वा अतिसेसे नाणदंसणे समुप्पज्जति से णं तप्पढमताते उडमभिसमेति
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ततो तिरितं ततो पच्छा अहे, अहोलोगे णं दुरभिगमे पन्नत्ते समणाउसो । सू० २१३
मूलार्थः-त्रण प्रकारे पुद्गलो(परमाणु विगैरे)नो प्रतिघात( गतिनी स्खलना ) कहेल छे, ते आ प्रमाणे-१ परमाणुपुद्गल, वीजा परमाणुपुद्गलने पामीने-अथडाईने गतिनी स्खलना थाय. (जम पाषाणने फेंकतां थकां बीजा पाषाण साथे अथडाईने ते पाछो पडे छ तेम) २ रुक्ष( लूखा )पणाथी परमाणुपुद्गल स्खलित थाय छे-अटके छ, ३ परमाणुपुद्गल लोकना अंते स्खलित थाय छे-अटके छे; कारण के त्यां धर्मास्तिकायनो अभाव छ (सू०२११)त्रण प्रकारे चक्षु कहेल छे, ते आ प्रमाणे-(चक्षु, द्रव्यथी नेत्र अने भावथी ज्ञानरूप समजबु.) १ एक चक्षु, २ चे चक्षु अने ३ त्रण चक्षु (अहिं चक्षु शब्दथी चक्षुवाळा समजवा ), छमस्थ मनुष्य (विशिष्ट ज्ञान-चक्षु रहित होवाथी) एक चक्षुवाळो छ, देव वे चक्षुधाळा छे (चक्षुरिंद्रिय अने अवधिज्ञान सहित होवाथी) अने उत्पन्न थयेल ज्ञानदर्शनने धरनार एवो तथारूपश्रमण-माहण त्रण चक्षुवाळो कहेवाय. (ते
आ प्रमाण-१ द्रव्यनेत्र, २ परमश्रुत अने ३ अवधिज्ञानरूप नेत्र) (सू० २१२) त्रण प्रकारे अभिसमागम (वस्तुने * यथार्थ स्वरूपे जाणवू ) कहेल छे, ते आ प्रमाणे ऊंचो, नीचो अने तिछो अभिसमागम छे अर्थात् ऊर्ध्व लोकादि प्रत्ये
जाणे छे. ज्यारे तथारूप (श्रुतचारित्र युक्त) श्रमण-माहणने अतिशेष परमावधिरूप ज्ञान अने दर्शन उत्पन्न थाय छे त्यारे ते साधु - पहेला ऊर्ध्वलोकने जाणे छे, त्यारपछी तिर्छा लोकने जाणे छे, त्यारबाद अधोलोकने जाणे छे. हे आयुष्मन् श्रमण ! ते
मुनिन अधोलोकनुं ज्ञान दुष्कर छे माटे अधोलोकने छेल्लु जाणे छे. (सू० २१३)
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३ स्थानकाध्ययने उद्देशः४
३१३॥
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टीकार्थः-'तिविहे' इत्यादि० परमाणु विगेरे पुद्गलोनो प्रतिघात-गतिनी स्खलना ते पुद्गलप्रतिघात छे. १ सूक्ष्म अणुरूप पुद्गल ते परमाणुपुद्गल, ते बीजा परमाणुने पामीने अटके-गतिनी स्खलना थाय, २ लूखापणाथी अथवा तथाविध बीजा परिणामद्वारा गतिथी स्खलना पामे, ३ लोकना अंतमा अटके, केमके त्यांथी आगळ धर्मास्तिकायनो अभाव छ (सू० २११) पुदगलना प्रतिघातने चक्षुवाळोज जाणे छे, माटे चक्षुर्नु निरूपण करवा माटे कहे ठे-'तिविहे' इत्यादि सुगम छे. चक्ष-नेत्र, ते द्रव्यथी आंख अने भावथी ज्ञान, ते छे जेने ते तेना योगथी *चक्षुज अर्थात् चक्षुवाळी जाणवो. चक्षुनी संख्याना भेदथी ते त्रण प्रकारे छे. तेमां एक चक्षुछ जेने ते एकचक्षु, एवी रीते द्विचक्षु अने त्रिचक्षु पण जाणवा. छादयतीति छद्म-ज्ञानावरणीयादि (कर्म)मां जे रहे छे ते छद्मस्थ, ते जो के जेने केवळ ज्ञान उत्पन्न नथी थयुं तेवा बधाय कहेवाय छे तो पण अहिं अतिशयवाळा श्रुतज्ञानादि रहित विवक्षित छे, आ हेतुथी एक चक्षु, चक्षुरिंद्रियनी अपेक्षाए छे. देव, चक्षुरिंद्रिय अने अवधिज्ञानवडे बे चक्षुवाळा छे. आवरणना क्षयोपशमथी उत्पन्न थयेल छे श्रुत अने अवधिरूप ज्ञान तेमज अवधिदर्शनने जे धारण करे छे ते उत्पन्न ज्ञानदर्शनधर कहेवाय, एवो जे मुनि ते त्रिचक्षु अर्थात् १ चक्षुरिंद्रिय,२ परमश्रुत अने ३ परमावधिवडे पूर्वोक्त कथन योग्य थाय, तेज साक्षातनी माफक हेय अने उपादेय समस्त वस्तुने जाणे छे. अहिं केवलीनुं व्याख्यान कयुं नथी. केवलज्ञान अने दर्शनरूप चक्षुनी कल्पनानो संभव छते पण चक्षुरिंद्रियलक्षण चक्षुना उपयोगनो अभाव होवाथी असत्कल्पनावडे तेने त्रण चक्षु विद्यमान नथी, एम करीने केवलीनुं ग्रहण करेल नथी. द्रव्येंद्रियनी अपेक्षाए तो ते पण (केवली पण) विरुद्ध नथी अर्थात् त्रिचक्षु घटी शके
* अहिं जातुपू प्रत्ययनो लोप होवाथी मूलमूत्रमा चक्षुष्मान्ने बदले चक्षु शब्द छे.
स्वरूपम् २११-१३
सूत्राणि
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छे. (०२१२) हमणां ज चक्षुवाळानुं वर्णन कर्यु, तेने अभिसमागम - वस्तुनुं जाणवुं थाय छे ते हेतुथी तेने दिशाना भेदवडे विभाग करता थका कहे छे-'तिविहे' इत्यादि० "अभि" - अर्थने सन्मुखपणाए परंतु विपर्यास - विपरीतपणाए नहि, "सम्”यथार्थ, परंतु संशयपणाए नहिं, तथा 'आ' - मर्यादावडे गमन- जाणवुं ते अभिसमागम अर्थात् वस्तुनुं ज्ञान. अहिं ज (दिशामां) ज्ञानना भेदने कहे छे- 'जया ण' मित्यादि० 'अइसेस' ति० शेष- बाकीना छद्मस्थ ज्ञानोनुं उल्लंघन करनारुं अतिशेष, ते ज्ञान दर्शन परमावधिरूप जणाय छे-घटी शके छे, कारण के केवलज्ञाननो ऊर्ध्वादिक्रमवडे उपयोग न होय, जेन लईने तत्प्रथमतयेत्यादि० सूत्र निर्दोष थाय. परमावधिवाळाना उत्पन्न थयेल ज्ञानादिनी प्रथमता, ते प्रथमपणामां 'उनि ऊर्ध्वलोकने जाणे छे, त्यापछी तिच्छलोकने अने त्यारबाद त्रीजा स्थानमां अधोलोकने जाणे छे. एवी रीते सामर्थ्यथी प्राप्त थयेल अधोलोक दुःखपूर्वक क्रमेवडे छेवटमां जाणवा योग्य होवाथी जाणी शकाय तेम छे. हे आयुष्मन् श्रमण ! आ शिष्यने आमंत्रणरूप छे. (२१३) हमणा अभिसमागम कह्यो, ते ज्ञान अने ज्ञान ऋद्धिरूप अहिं ज कहेवामां आवतुं होवाथी ऋद्धिना समानपणाथी तेनाभेदोने कहे छे
तिविहाइड्डी पं० तं०-देवड्डी राइड्डी गणिड्डी १, देविड्डी तिविहा पं० तं०- विमाणिड्डी विगुव्वणिड्डी परियाणिड्डी २, अहवा देविड्डी तिविहा पं० तं०- सचिता अचित्ता मीसिता ३, राइड्डी तिविधा १. अहि क्रमशः ऊर्ध्वलोकादिनुं जाणवानुं कहेलुं छे तनुं कारण ए के क्षायोपशमिक ज्ञान होय छे.
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श्रीस्थानङ्गसूत्र
सानुवाद ।। ३१४ ।।
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पं० नं० - रन्नो अतियाणिड्डी रन्नो निज्जाणिड्डी रण्णो वलत्राहणकोसकोट्ठागारिड्डी ४, अहवा रातिड्डी तिविहा पं० तं०- सचित्ता अचित्ता मीसिता ५, गणिड्डी तिविहा पं० तं०-णाणिड्डी दंसणड्डी चरित्तिड्डी ६, अहवा गणिड्डी तिविहा पं० तं० - सचित्ता अचित्ता मीसिया ७ । सू० २१४
मूलार्थ:-त्रण प्रकारे ऋद्धि कहेली छे, ते आ प्रमाणे - देवर्द्धि-इंद्रादिकनी ऋद्धि, राजर्द्धि-चक्रवर्ती विगेरेनी ऋद्धि, गणर्द्धिआचार्य विगेरेनी ऋद्धि १, देवर्द्धि त्रण प्रकारे कहेली छे, ते आ प्रमाणे- त्रिमाननी ऋद्धि, विकुर्वणानी ऋद्धि अने परिचारणाविषयसेवानी ऋद्धि २, अथवा देवर्द्धि त्रण प्रकारे कहेली छे, ते आ प्रमाणे सचित्त- पोतानुं शरीर अने अग्रमहिषीनुं शरीर विगेरे, अचित्त-वस्त्राभूषण विगेरे, मिश्र-भूपण सहित देवी विगेरे ३, राजानी ऋद्धि त्रण प्रकारे कहेली छे, ते आ प्रमाणे - राजानी अतियान ऋद्धि-नगरप्रवेश करवामां तोरण विगेरेनी शोभारूप, राजानी निर्यान ऋद्धि-नगरथी नीकळवा वखते हाथी, घोडा विगेरेनी शोभारूफ, राजानी बल (सेना), वाहन, भंडार अने कोठाररूप ऋद्धि ४, अथवा त्रण प्रकारे राजानी ऋद्धि कहेली छे, ते आ प्रमाणे- सचित्त-स्वशरीर अने धान्य विगेरे, अचित्त-धन अने दागीना विगेरे, मिश्र-वस्त्रादियुक्त स्वशरीर विगेरे ५, त्रण प्रकारे गणिनी ऋद्धि कहेली छे, ते आ प्रमाणे-ज्ञानऋद्धि-विशिष्ट श्रुतसंपत्ति दर्शनऋद्धि-निःशंकितपणादि समकितनी ऋद्धि अने चारित्रऋद्धि-निरतिचार महाव्रतादि ६, अथवा त्रण प्रकारे गणि-आचार्यनी ऋद्धि कहेली छे, ते आ प्रमाणेसचित्त-शिष्यादि, अचित्त-वस्त्र विगेरे अने मिश्र - उपधि सहित शिष्यादि ७, (सू० २१४)
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३ स्थानकाध्ययन
उद्देशः ४
देवराज
गणिऋद्धि
वर्णनम्
२१४ सूत्रम्
॥ ३९४ ॥
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EXEXXXX
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टीकार्य :- 'तिविहा इडी' इत्यादि ० सात सूत्रो सुगम छे. विशेष कहे छे के-देव- इंद्रादिनी जे ऋद्धि-ऐश्वर्य ते देवऋद्धि, एबी रीते राजा - चक्रवती विगेरेनी ऋद्धि अने गणि-गच्छना अधिपति आचार्यनी ऋद्धि १, विमानोनी अथवा विमानलक्षण ऋद्धि, ते त्रीश लाख विमानरूप बाहुल्य ( अधिकपणुं ), मोटाई अने रत्न विगेरेनुं सुंदरपणुं ते विमाननी ऋद्धि. सौधर्मादि देवलोकने विषे बत्रीश लाख विगेरे विमाननी संख्यारूप बाहुल्य ( अधिकपणुं ) होय छे. कधुं छे केबत्तीस अट्ठवीसा, बारस अट्ठ चउरो सयसहस्सा । आरेण बंभलोगा, विमाणसंखा भवे एसा ॥२१७॥
त्रीश लाख, अट्ठावीस लाख, चार लाख, आठ लाख अने चार लाख विमान अनुक्रमे पहेला देवलोकथी आरंभीने यावत् पांचमा ब्रह्म नामना देवलोक सुधी होय छे.
पंचास चत्तं छच्चेव, सहस्सा लंतसुक्कसहसारे । सयचउरो आणयपाण - एसु तिन्नारणच्चुयए ॥२१८॥ लांतकमा पच्चास हजार, महाशुक्रमां चालीश हजार, सहस्रारमां छ हजार, आनत अने प्राणतना मळीने चार सो तथा आरण अने अच्युत देवलोकमां बन्नेना मळीने त्रण सो विमानो छे.
एक्कारसुत्तर, हेट्टिमेसु सत्तुतरं च मज्झिमए । सयमेगं उवरिमए, पंचेव अणुत्तरविमाणा ॥ २१९ ॥ नववेकी हेली किमां एक सो ने अगियार, मध्यम त्रिकमां एक सो सात अने उपरली त्रिकमां एक सो विमानो छे.
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श्रीस्थाजान सूत्र
सानुवाद # ३१५ ।।
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तेनी उपर पांच ज अनुत्तर विमानो छे. आ विमानो भवन अने नगरोना उपलक्षणरूप छे. वैक्रिय करवाना लक्षणवाळी ऋद्धि वैक्रिय ऋद्धि, वैक्रिय शरीशेवडे ज वे जंबूद्वीपने अथवा असंख्यात समुद्रोने पूरे छे-भरे छे [आ शक्तिरूप समजवुं ]. श्रीभगवती सूत्रमां कहां छे के "चमरे णं भंते! के महिड्डिए जाव केवतियं चणं पभू विउब्वित्तए ? गोयमा ! चमरे णं जाव पभ्रूणं केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं बहूहिं असुरकुमारेहिं देवेहि य देवीहि य आइन्नं जाव करेत्तए, अदुत्तरं चणं गोयमा ! पभू चमरे जाव तिरियमसंखेज्जे दीवसमुद्दे बहहिं असुरकुमारेहिं आइने जाव करि तए, एस णं गोयमा ! चमरस्स ३ अयमेयारूवे विसयमेत्ते बुझ्ए, नो चेव णं संपत्तीए विउव्विसु ३, एवं स
वि दो केवलकप्पे जंबुद्दीवे जाव आइने करेज" त्ति० प्र०-हे भगवन् ! चमरेंद्र केवी ऋद्धिवाळो छे ? अने यावत् केवी विकुर्वणा करवाने समर्थ छे ? उ० हे गौतम! चमरेंद्र यावत् समर्थ छे जंबूद्वीप जेवा द्वीपने घणा असुरकुमार जातिना देवो अ देवीओवडे भरी शके. त्यारबाद हे गौतम ! चमरेंद्र यावत् समर्थ छे असंख्यात द्वीप - समुद्रोने असुरकुमार जातिना देवो अने देवओवडे परिपूर्ण भरवा माटे. हे गौतम ! आ चमरेंद्रनो आवा प्रकारनो विषयमात्र कह्यो, परंतु संपत्तिवडे करेल नथी, करतो नथी अने करशे नहि. एवी रीते शक्रेंद्र पण वे जंबूद्वीप जेवडा वे द्वीपने यावत् परिपूर्ण भरवा माटे समर्थ छे. परिचारणा-विषयनी सेवनानी ऋद्धि, अन्य देवो प्रत्ये, बीजा देवोने स्वाधीन देवीओ प्रत्ये, पोतानी देवीओ प्रत्ये तेओने वश करीने अने पोताने (स्वशरीरने) विकुवींने परिचारणा करे छे, सचित्ता - पोतानुं शरीर अने अग्रमहिप १. बघा विमानो मळीने चोरासी लाख सताणु हजार अने त्रेवीश छे.
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३ स्थानकाध्ययने
उद्देशः ४ देवराज
गणि ऋद्धिवर्णनम् २१४ सूत्रम्
।। ३१५ ।।
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विगेरे [स्वरूपवाळी] सचेतन वस्तुनी संपत्ति, अचेतना - वस्त्र अने आभूषण विगेरे स्वरूपवाळी अने मिश्रा - अलंकृत थयेल देवी विगेरे स्वरूपवाळी संपत्ति ३, अतियान- नगरमां प्रवेश, तेमां ऋद्धि-तोरण, हाटनी शोभा, मनुष्योनी भीड (समुदाय) विगेरे स्वरूपवाळी, निर्यान- शहरमांथी नीकळवं, तेमां ऋद्धि- हाथीनी अंबाडी अने सामंतपरिवार विगेरे स्वरूपवाळी, बल - चतुरंग सेना, वाहनो - घोडा विगेरे, कोश- भंडार, कोष्ठ-धान्यना भंडार, तेओना घर ते कोष्टागार अर्थात् धान्यनुं घर, तेओनी ऋद्धि अथवा ते जऋद्धि ते बल, वाहन, कोश, कोष्ठागार ऋद्धि. ४, सचित्तादि ऋद्धिपूर्वनी माफक विचारवी - समजवी ५, ज्ञानऋद्धिविशिष्ट श्रुतनी संपत्ति, दर्शन ऋद्धि-जिनवचनमां निःशंकितादिपणुं अथवा शासनने दीपावनार शास्त्रोनी संपत्ति (तर्कशास्त्रनुं ज्ञान ), चारित्रऋद्धि-निरतिचारपणुं. ६, सचिता- शिष्यादि स्वरूपवाळी, अचित्ता - वस्त्रादि विषयवाळी, मिश्रा-तेवी ज रीते वस्त्रादि सहित शिष्य स्वरूपवाळी. ७. प्रस्तुत विकुर्वणा विगेरे ऋद्धिओ बीजाओने पण होय छे; मात्र देवो विगेरेने विशेष स्वरूपवळी होय छे माटे तेओने ज कहेली छे. ऋद्धिनो सद्भाव छते गौरव-अभिमान थाय छे, आ हेतुथी तेना भेदोने कहे छे
ततो गारवा पं० तं०-इड्डीगारवे रसगारवे सातागारवे । सू० २१५, तिविधे करणे पं० - धम्मिते करणे अधम्मिए करणे धम्मिताधम्मिए करणे । सू० २१६, तिविहे भगवता धम्ने पं० तं०- सुअधिज्झिते सुज्झातिते सुतवस्सिते, जया सुअधिज्झितं भवति तदा सुज्झातियं भवति जया सुज्झातियं भवति तदा सुतवस्सियं भवति, से सुअधिज्झिते सुज्झातिते सुतवस्सिते
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Page #344
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श्रीस्था
नाङ्ग छत्र
सानुवाद ।। ३१६ ॥
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सुक्खाते णं भगवता धम्मे पन्नत्तै । सू० २१७
मूलार्थः - त्रण प्रकारे गौरव - भारीपणुं के अभिमान कहेल छे, वे आ प्रमाणे - ऋद्विगौरव - राजादिकनी पूजाथी थयेल अभिमानरूप, रसगौरव - मधुर रस विगेरे मळवाथी थयेल अभिमान अने सातगौरव -सुख मळवाथी थयेल अभिमान (सू० (२१५) त्रण प्रकारे करण - क्रियाअनुष्ठान कहेलं छे, ते आ प्रमाणे- धार्मिक करण - साधुनी क्रिया, अधार्मिक करण-अविरतिमिथ्यादृष्टिनी क्रिया अने धार्मिकाधार्मिक करण- देशविरतिनी क्रिया (सू० २१६) श्री सुधर्मास्वामी श्री जंबूस्वामीने कहे छे के-भगवान् महावीरे त्रण प्रकारे धर्म अनुष्ठान कहेल छे, ते आ प्रमाणे- सुअधित-काल, विनयादि आराधनावडे भणेलं सुध्यान-सारी ते सूत्रना अर्थनुं मनन करेलुं अने सुतपसित-आशंसा (वांच्छा ) रहित सारी रीते तप अनुष्ठान करेलं. ज्यारे सारी रीते अध्ययन करेलुं होय त्यारे श्रुतना अर्थनुं सारुं मनन ( चिंतन ) थाय छे, ज्यारे सारी रीते चिंतन करेलुं होय छे त्यारे सारी रीते तपसित थाय छे. ते सुअधित, सुध्यात अने सुतपसितता-ए त्रण प्रकारे धर्म भगवाने सारी रीते कहेलो छे. (सू० २१७)
टीकार्य :-' तओ गारवेत्यादि० सुगम छे. विशेष ए के - गुरु-मोटाई के भारेपणानो भाव अथवा कार्य ते गौरव, ते बे प्रकारे छे-१ द्रव्यथी वज्रादिनुं अने २ भावथी अभिमान अने लोभरूप अशुभ भाववाळा आत्मानुं, भावगौरवण प्रकारे छे. राजा विगेरेथी करायेली पूजास्वरूप अथवा आचार्यत्वादि स्वरूप ऋद्धिथी अभिमानादि द्वावडे जे गौरव ते ऋद्विगौरव, ऋद्धिनी प्रातिथी अभिमान अने अप्राप्त नहिं पामेलनी प्रार्थनाद्वारा जे आत्मानो अशुभ भाव ते भावगौरव, आ अर्थ छे. एवी
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३ स्था काध्ययने उद्देशः ४ श्रीणि गार
वेत्यादीनि
२१५
२१७
सूत्राणि
।। ३१६
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रोते बीजामां पण जाणवुं. रस-रसनेंद्रियनो अर्थ मधुर विगेरे, सातं-सुख अथवा ऋद्धि विगेरेने विषे गौरव एटले आदर ( इच्छा ) (०२१५). हमणा चारित्रऋद्धि कही, अने चारित्रने करण (क्रिया) छे माटे तेना भेदोने कहे छे- 'तिविहे'इत्यादि० कृतिः-अनुष्ठान कर. ते धार्मिकादि स्वामीना भेदवडे त्रण प्रकारे छे, तेमां धार्मिक-साधुनुं आ धार्मिक ज छे, एम बीजामां पण जाणं. विशेष ए के अधार्मिक-असंयत ( अविरति ) अने त्रीजो देशविरति अथवा धर्ममां थयेलं अथवा धर्म छ प्रयोजन जेनुं ते धार्मिक अनुष्ठान अने तेथी विपरीत ते अधार्मिक अनुष्ठान. एवी रीते त्रीजुं पण (धार्मिक अधार्मिक) अनुष्ठान जाणवुं (सू० २१६ ) हमणां ज धार्मिककरण कहेलं ते धर्म ज छे, माटे तेना भेदोने कहे छे- 'तिविहे 'त्यादि० सुगम छे. मात्र श्रीमहावीर भगवाने कहेलुं छे एवी रीते सुधर्मास्वामी जंबूस्वामी प्रत्ये कहेता हता. सु-सारी रीते काळ अने विनयादिनी आराधनावडे अति-गुरुनी पासे सूत्रथी भणेलं ते स्वधित, तथा सु-विधिपूर्वक गुरु आगळ ज व्याख्यानद्वारा अर्थथी सांभळीने ध्यात वारंवार चिंतन करेलुं जे श्रुत ते सुध्यातं, चिंतननो अभाव छते तच्चनो बोध न थवावडे अध्ययन (भणवुं ) अने श्रवण (सांभळं ) ए ननुं प्रायः फल होतुं नथी. आ वे भेदवडे श्रुतधर्म को तथा सु-आ लोक विगेरेना सुखनी आशा सिवाय तपसित- तपनुं अनुष्ठान ते सुतपसित, आ पदथी चारित्रधर्म कह्यो. आ त्रणेना पण उत्तरोत्तर अविनाभाव (सहचाररूप कारणकार्यभाव) ने बतावे छ- 'जया' इत्यादि० सुगम छे, विशेष ए के दोष रहित अभ्यास विना श्रुतना अर्थनी प्रतीति न थवाथी सुध्यात थतुं नथी, सारी रीते चिंतनना अभावे ज्ञाननी विकलताथी सारुं तप न थाय, ए भाव छे, जे सुअधित विगेरे ऋण पद छे भगवान् श्रीवर्द्धमानस्वामीए धर्म कहेलो छे. ' से ' ति० ते धर्म सारी रीते कल छे, कारण के सम्यग्ज्ञान अने ने
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नाङ्गसूत्र
सानुवाद ॥ ३१७ ॥
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क्रियारूप अने बन्ने (ज्ञान - क्रिया )ने विषे एकांतिक अने आत्यंतिक ( अतिशय ) सुखना सफल उपायवडे उपचार रहित धर्म सुगतिने विषे धारण करवाथी ज धर्म कहेवाय छे, आवश्यकमां कह्युं छे के
नाणं पयासयं सोहओ, तवो संजमो य गुत्तिकरो । तिव्हंपि समाओगे, मोक्खो जिणसासणे भणिओ ॥
ज्ञान प्रकाशक एटले स्वरूपने बतावनार छे, तप - कर्मरूप कचराने शोधनार छे अने संयम गुप्तिकर - नविन कर्मने अटकावनार छे. जे आत्रणेनो समायोग-मिलाप तेने जिनशासनमां मोक्ष कहेल छे ( ' णंकार' वाक्यना अलंकारमां छे.) सारी रीते करेलुं तप ते चारित्र कहां, अने ते प्राणातिपात विगेरेथी विशेष विरतिस्वरूप छे माटे हवे विरतिना भेदोने कहे छे
तिविधा वावत्ती पं० तं० - जाणू अजाणू वितिगिच्छा, एवमज्झोववज्जणा परियावज्जणा । सू० २१८, तिविधे अंते पं० तं०-लोगंते वेयंते समयंते । सू० २१९, ततो जिणा पं० तं० - ओहिणाणजिणे मणपजवणाण जिणे केवलणाण जिणे १, ततो केवली पं० तं०- ओहिनाणकेवली मणपज्जवनाणकेवली केवलनाणकेवल २, तओ अरहा पं० तं०- ओहिनाणअरहा मणपज्जवनाणअरहा केवलनाणअरहा ३ । सू० २२०
मूलार्थ:-त्रण प्रकारे व्यावृत्ति - हिंसादिकनी निवृत्ति कहेली छे, ते आ प्रमाणे जाणू-हिंसादिना फलने दुःखदायक जाणीने तेथी निवर्त्तेते, अजाणु - हिंसादिना स्वरूपने समज्या सिवाय तेथी निवत्ते ते, विचिकित्सा - हिंसादिकथी अशुभ फळ थशे
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३ स्थानकाध्ययने
उद्देशः ४
अवधजि
नादिस्व
रूपम्
२१८
२२०
सूत्राणि
।। ३१७ ॥
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के नहिं एवा संशय सहित तेनाथी निवर्ते ते, एवी रीते अध्युपपादनआसक्ति त्रण प्रकारे छे, ते आ प्रमाणे- विषयने अनर्थरूप जाणीने स्वीकारे छे, विषयने अनर्थरूप न जाणीने स्वीकारे छे अने अनर्थरूप छे के नहि एम संशयथी स्वीकारे छे. एवीज रीते पर्यापदन - भोगवनुं, जाणतो छतो, अजाणतो छतो अने संशयथी विषयने भोगवे छे. (सू० २१८) त्रण प्रकारे अंत (रहस्य) कहेल छे, ते आ प्रमाणे- लौकिक शास्त्रनुं रहस्य, वेद (ऋग्वेदादि) नुं रहस्य अने समय - जिनेश्वर आदिना सिद्धांतोनुं रहस्य. (सू० २१९) ऋण प्रकारे जिन ( रागादिने जीतनार ) कहेल छे, ते आ प्रमाणे- अवधिप्रधान जिन ते अवधिज्ञानजिन, एवी ज रीते मनःपर्याय जिन अने केवलज्ञानजिन छे. १, त्रण प्रकारे केवली कहेल छे, ते आ प्रमाणे- जे केवलीनी जेम विशिष्ट प्रत्यक्ष ज्ञानवाळा ते अवधिज्ञानकेवली, एवी रीते मनःपर्यायकेवली अने केवलज्ञानकेवली २, ऋण प्रकारे अर्हत (देवादिकने पूज्य ) कहेल छे, ते आ प्रमाणे अवधिज्ञानप्रधान अर्हत, एवी रीते ते मनःपर्यवज्ञान अर्हत अने केवलज्ञान अर्हत ३ ( सू० २२० )
'टीकार्थ:-'तिविहे 'त्यादि० व्यावर्तन-कोई पण प्रकारे हिंसादिनी मर्यादाथी निवृत्ति, आ अर्थ छे. ते निवृत्ति हिंसादिना हेतु, स्वरूप अने फळने ते जाणनारनी ज्ञानपूर्वक जे विरति ते ज्ञातानी साथ अभेद होवाथी 'जाणू' एम कहेली छे. अज्ञअजनी ज्ञान विना जे विरति ते अजाणू अने विचिकित्सा संशयथी जे विरति ते. निमित्त अने नैमित्तिकना अभेदथी 'विनिगिच्छा' कहेली छे. व्यावृत्ति आ शब्दवडे हमणां चारित्र कझुं. तेना विपक्षभूत अशुभ अध्यवसाय अने अशुभ अनुष्ठान, ए बन्नेन भेदोने हवे अति देशथी कहे छे-'एव' मित्यादि सूत्रमां ' एव' मिति० व्यावृत्ति ( विरति ) नी जैम ऋण प्रकारे
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सानुवाद ॥ ३१८ ।।
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'अज्झोचवण' ति० अभ्युपपादन- कोईक इंद्रियना विषयने विषे आसक्ति, आ अर्थ छे. तेमां विषयजन्य अनर्थने जाणनारनी विषय परत्वे जे आसक्ति ते जाणू अने अजाणनी जे आसक्ति ते अजाणू तेमज संशयवाळानी जे आसक्ति ते विचिकित्सा. 'परियावज्जण' ति० पर्यापदन - समस्तरूपे सेवयुं आ सेवा पण 'जाणू' विगेरे त्रण प्रकारे छे. (२१८) 'जाणु' ति० ज्ञः, ते ज्ञानथी थाय एम कछु, अने ज्ञान ते अतींद्रियना अर्थेमां प्रायः शास्त्रथी थाय छे माटे शास्त्रना भेदवडे तेना भेदने कहे छे- 'तिविहे अंते ' इत्यादि ० ' अमनमधिगमनमन्तः ' -निर्णय, तेमां लोक-लौकिकशास्त्र, लोकोए बनावेल होवाथी अने ओ द्वारा भगवा योग्य होवाथी - अर्थशास्त्र विगेरे, तेथी, अंत-निर्णय अथवा तेनुं परम रहस्य अथवा पर्यंत ( छेवट) ते लोकांत, एवी रीते वेदना अने समय ( जिन सिद्धांतो )नो अंत पण जाणवो, विशेष ए के ऋगवेद विगेरे चार वेदो अने समयो-जैन विगेरेना सिद्धांतो. (सू० २१९) हमणां समयनो अंत कयो, अने समय ते जिन, केवली तथा अर्हत् शब्दवाच्य | पुरुषोवडे कल यथार्थ होय छे, माटे जिनादि शब्द ( पुरुषो )ना भेदोने कहेवा माटे त्रण सूत्रो कहे छे' तओ जिणे'त्यादि० सुगम छे. विशेष ए के राग, द्वेष अने मोहने जेओ जीते छे तेओ जिनो-सर्वज्ञो छे. कछु छे के - "रागद्वेष तथा मोहने जिओए जीत्या छे ते जिन कहेवाय छे. वळी स्त्री, शस्त्र अने अक्ष-जपमाला रहित होवाथी अईत् ज अनुमान कराय छे. " तथा निश्चयी प्रत्यक्ष ज्ञानपणाए जिनोनी माफक जेओ वर्ते छे तेओ पण जिनो छे. तेमां अवधिज्ञान छे प्रधान जेने * रागद्वेषादि जेओने उपशांत थयेल होय एवा मुनिओ उपचारथी जिन कहेवाय छे. सिद्धांतमां पण " जियकोहे " इत्यादि विशेषण आपेल छे, परंतु बीजा संभवे नहि केम के उपचार पण योग्य स्थानमां कराय छे.
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३ स्थान
काध्ययने उद्देशः अवधिि
नादिस्व
रूपस
२१८
२२०
सूत्राणि
॥ ३१८
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* ते अवधिजिन, एम बीजा बे मनःपर्यायजिन अने केवग्ज्ञानजिन पण जाणवा. विशेष ए के-पहेला बे भेद उपचार करायेल
छ अने हेल्लो भेद उपचार रहित छ (वास्तविक छ ). उपचारनुं कारण तो प्रत्यक्ष ज्ञानीपणुं छे. 'केवलम् ' एक, अनंत अथवा पूर्ण ज्ञानादि छे जेओने ते केवलीओ कडेवाय. कयु छे केकसिणं केवलकप्पं, लोगं जाणंति तह य पासंति। केवलचरित्तणाणी, तम्हा ते केवली होति ॥२२॥
समग्र, अनंत अथवा परिपूर्ण लोकने जाणे छे तथा देख छ, वळी एक ज यथाख्यात चारित्र अने केवळज्ञान छ जेने ते केवलचारित्रज्ञानी, ते कारणथी केवली होय छे. अहिं पण जिननी माफक व्याख्या करवी. देवादिवडे करायेल पूजाने जे योग्य छ ते अहंतो अथवा कई पण छार्नु नथी जेओने ते अरहस, शेष पूर्वनी माफक जाणवू. आ जिन विगरे लेश्या सहित पण होय छे माटे लेश्या-प्रकरणने कहे छे
ततो लेसाओ दुब्भिगंधाओ पं० त०-कण्हलेसा णीललेसा काउलेसा १, तओ लेसाओ सुब्भिगंधातो पं० तं-तेऊ. पम्ह० सुक्कलेसा २, एवं दोग्गतिगामिणीओ ३, सोगतिगामिणीओ ४, संकिलिट्ठाओ ५, असंकिलिट्ठाओ ६, अमणुन्नाओ७, मणुन्नाओ ८, अविसुद्धाओ ९, विसुद्धाओ १०, अप्पसत्थाओ ११, पसत्थाओ १२, सीतलुक्खाओ १३, णि ण्हाओ १४ ।
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श्रीस्थानाङ्गमत्र सानुवाद
स. २२१. तिविहे मरणे पं० २०-बालमरणे पंडियमरणे बालपडियमरणे १, बालमरणे तिविहे पं० तं०-ठितलेसे संकिलिट्रलेसे पज्जवजातलेसे २. पंडियमरणे तिबिहे पं० त०-ठितलेसे असंकिलिट्रलेसे पज्जवजातलेसे ३. वाल.पंडित्मरणे तिविधे पं० तं०-ठितलेस्से असंकिलिट्रलेसे अपज्जवजातलेसे ४ । सू० २२२
मूलार्थ:-त्रण लेझ्याओ दुर्गधवाळी छे, ते आ प्रमाणे-कृष्ण, नील अने कापोत १, त्रण लेश्याओ सुगंधवाळी कहेली छे, ते आ प्रमाणे-तेजोलेश्या, पद्मलेश्या अने शुक्ल लेश्या २, एवी रीते पहेली त्रण लेश्याओ दुर्गतिमा लई जनारी छे ३, पाउली ऋण लेश्याओ सुगतिमा लई जनारी छे ४, पहेली त्रण लेश्याओ संक्लिष्ट-अशुभ अध्यवसायना हेतुभूत छे ५, हेल्ली ऋण लेश्याओ संक्लिष्ट-शुभ अध्यवसायना हेतुभूत छे ६, पहेली त्रण लेश्याओ अमनोज्ञ-माठा रसवाळी छ ७, छेल्ली त्रण लेश्याओ मनोज्ञ-सारा रसवाळी छे ८, पहेली ऋण लेश्याओ अविशुद्ध-खराब वर्णवाळी छे ९, छेल्ली त्रण लेश्याओ सारा वर्णवाळी छे १०, पहेली त्रण लेश्याओ अप्रशस्त-अकल्याण करनारी छ ११, छेल्ली ऋण लेश्याओ प्रशस्त-कल्याण करनारी छे १२, पहली त्रण लेश्याओ शीत अने रुक्ष स्पर्शवाळी छ १३, छेल्ली त्रण लेश्याओ उष्ण अने स्निग्ध स्पर्शवाळी छे १४. (द्रव्य लेश्या पुद्गलमय होय छे.) (सू० २२१)त्रण प्रकारे मरण कहेल छे, ते आ प्रमाणे-अज्ञानी-अविरतिर्नु मरण ते बालमरण, ज्ञान युक्त संयत-साधुनुं मरण ते पंडितमरण अने देशविरतिनुं मरण ते बालपंडितमरण १, बालमरण त्रण प्रकारे
३ स्थानकाध्ययने उद्देशः४ लेश्यामरणवर्णनम्
२२१२२२ सूत्रे
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१९
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कहेल छे, ते आ प्रमाणे-जे मरणमां कृष्णादि लेश्या अविशुद्धपणाथी अवस्थित ( कायम ) छ ते स्थितलेश्य मरण, जे मरणमा संक्लिश्यमान महाकलुषभावथी लेझ्या आवे छे ते संक्लिष्टलेश्य मरण अने जे मरणमा लेश्याना पर्यायोनी विशुद्धि थाय छे ते पर्यवजातलेश्य मरण २, पंडितमरण त्रणे प्रकारे कहेल छे, ते आप्रमाणे-स्थितलेश्य एटले शुक्ललेश्यामां मरण पामी शुक्ललेश्यावाळादेवमा ज उपजे ते, असंक्लिष्टलेश्य मरण-जे मरणमा संक्लिष्ट लेश्या नथी ते अने पर्यवजातलेश्य मरण-बर्द्धमान लेश्यावडे मरण पामीने उपजे ते ३, बालपंडित मरण त्रण प्रकारे कहेल छ, ते आ प्रमाणे-स्थितले श्य मरण-जे विशुद्ध लेश्याए मरे ते ज लेल्यावाळा देवमां उपजे, असंविलालेदय मरण-ते श्रावकना संक्लिष्ट मरणमा लेश्या न होबाथी अने अपर्यवजातलेश्य मरण-ते श्रावकना मरणमां वर्द्धमान लेश्या न होबाथी ४. (मू० २२२)
टीकार्थ:-'तओ'इत्यादि० सुगम छे. विशेष ए के-'दुभिगंधाओ ति० खराब गंधी ते दुर्गधो. लेश्याओ पुद्गलात्मक होवाथी तेओर्नु दुगंधपणुं छे अने पुद्गलोने गंधादिनो अवश्य भाव होय छे. कधु छे केःजह गोमडस्स गंधो, सुणगमडस्स व जहा आहिमडरस। एसोवि अणंतगुणो लेसाणं अप्पसत्थाणं।२२२॥
जेम गायना मृतकनो दुगंध, श्वानना मृतकनी दुर्गध अने सर्पना मृतकनो दुर्गंध छे, तेनाथी पण अनंतगुण दुर्गध अप्रशस्त कृष्णादि प्रण लेश्यानो होय छे. आ लेश्याओनो वर्ण(रंग) नाम प्रमाणे छे. कपोतवर्णवाळी लेश्या ते कापोत लेश्या, धूवाडाना वर्ण जेवी एवो अर्थ छे. १, 'सुम्भिगंधा'त्ति० सुरभिगंधो. कां छे के:
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श्रीस्था
नाङ्गसूत्र
सानुवाद ॥ ३२०
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जह सुरभिकुसुमगंधो, गंधो वासाण पिस्समाणाणं । एतोवि अगंतगुणो, पसत्थलेसान तिप हंपि ॥ २२३ ॥
जेम सुगंधी जाई विगेरे फूलोनो अने चूर्ग करेल चंदनादि वास द्रव्योनो जे गंध छे तेनाथी अनंतगुण गंधू प्रशस्त तेजोलेश्यादि त्रणनो होप छे. तेजः- अग्नि, तेना जेवी वर्णवाळी (लाल रंगवाळी) ते तेजोलेश्या. पद्मकमलना गर्भ-मध्य भागना जेवा वर्गवाळीपीळा वर्णवाळी ते पद्मलेश्या. शुक्ल लेश्या घोळा वर्णशळी छे. २, 'एवं' आ शब्दयी प्रथम सूत्रनी माफक 'तओ' इत्यादि० अभिलापवडे बाकीना सूत्रो कहेवा योग्य छे. तेमां दुर्गति एटले नरक अने तिर्यंचरूप दुर्गति प्रत्ये प्राणीने लई जाय छे ते दुर्गाीतगामिनी लेश्याओ ३, सुगति-देव अने मनुष्यरूप ४, दुःख अध्यवसाय अथवा दुःखना कारणभूत होवाथी संक्लिष्ट ऋण लेश्याओ छे. ५, विरुद्ध पक्ष सुगम छे अर्थात् त्रण लेश्या असंक्लिष्ट छे. ६, मनने न गमता रसयुक्त पुद्गलमय ( लेश्या ) होवाथी त्रण अमनोज्ञ छे. ७, त्रण मनोज्ञ छे. ८, अविशुद्ध-वर्णथी त्रण लेश्या मलिन छे. ९, त्रण लेश्या विशुद्ध छे. १०, अप्रशस्त -त्रण लेश्या अकल्याणरूप छे अर्थात् स्वीकारवा योग्य नथी. ११, त्रण लेश्या प्रशस्त छे. १२, पहेली त्रण लेश्या स्पर्शथी शीत अने रुक्ष छे. १३, पाछली त्रण लेश्या स्पर्शथी स्निग्ध अने उष्ण छे. १४. ( सू० २२१ ) हमणा लेश्याओ कही, हवे लेश्याविशिष्ट मरणनुं निरूपण करवा माटे कहे छे:-' तिविहे 'त्यादि० - बाल - अजाणती माफक जे व छे अर्थात् विरतिनो साधक जे विवेक तेनाथी रहित होवाथी बाल-असंयत कहेवाय, तेनुं मरण ते बालमरण. एवी रीते बीजा वे मरण पण जाणवा. 'पडि' धातु गति अर्थपणाए ज्ञानना अर्थमां होवाथी निरतिरूप फलवडे फलनी माफक विज्ञानसंयुक्त होवाथी पंडित-तवनो जाण अर्थात् संयत, अविरतपणाए बालपणुं होवाथी अने [ कांईक ]
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३ स्थान
काध्ययने
उद्देशः ४
लेश्यामर
वर्णनम्
२२१
२२२ सूत्रे
॥ ३२० ॥
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विरतपणाए पंडितपणुं होवाथी बालपंडित - संयतासंयत कहेवाय १, स्थिता' - मूलस्वरूप रहेली अर्थात् विशुद्विने प्राप्त न थती अने संगिने नहिं प्राप्त थती कृष्णादि लेश्या छे जे ( मरण ) ने विषे ते स्थितलेश्य ( मरण), संक्लिष्ट-संक्लेशने प्राप्त ती लेश्या छे जे ( मरण ) ने विषे ते संक्लिष्टलेश्य ( मरण ), तथा पर्यवा:- अवशिष्टथी विशुध्धि विशेषो ( विशुविना तरतमयोगो) प्रतिसमयमां थयेला छे जे लेश्याने विषे ते पर्यवजातलेश्यमरण. अहिं पहेलां कृष्णादिलेश्यावाळो ज्यारे कृष्णादिलेश्यावाळा नरकादिने त्रिषे ज उपजे छे त्यारे प्रथम स्थितलेश्य मरण होय छे. ज्यारे ( पहेलां ) नीलादिलेश्यावाळो कृष्णादिलेश्या वाळामां उत्पन्न थाय छे त्यारे बीजुं संक्लिष्ट मरण होय छे अने ज्यारे बळी (पहेलां ) कृष्णादिलेश्यावाळो नील- कापोतले श्यावाळामां उत्पन्न थाय छे त्यारे श्रीजुं पर्यवजातलेश्य मरण होय छे. श्री भगवती सूत्रमां छेल्ला मे मरणने लगतुं कथन कहेलुं छे, ते आप्रमाणे " से णूणं भंते ! कण्हलेसे नीललेसे जाव सुक्कलेसे भवित्ता काउलेसेस नेरइएस उजाड़ ?, हंता गोयमा !, से केगद्वेगं भंते! एवं बुवइ ?, गोयमा ! लेसाठाणेसु संकिलिस्समागेषु वा विसु
मासु वा काउलेस्सं परिणमड़ २ काउलेसेसु नेरइएस उववज्जइ "त्ति० प्रश्न हे भगवन् ! निश्चय कृष्णलेश्य, नीलेश्य यावत् शुक्ललेश्यावाळो थईने कापोतलेश्यावाळा नैरयिकोने विषे उत्पन्न थाय ? उ०- हे गौतम! हा, थाय. शा माटे हे भगवन् ! एम कहो छो ? हे गौतम! संक्लिश्यमान अथवा विशुद्धमान लेश्याना स्थानोने विषे कापोतलेश्यामां परिणमे छे, कापोतलेश्यामां परिणमीने कापोतलेश्यावाळा नैरयिकोने विषे उत्पन्न थाय छे. आ कथनना अनुसारे पाछला बे सूत्रमां पण स्थितलेश्य विगेरेना विभाग जाणवो. पंडितमरणने विषे लेश्यानुं संक्लिश्यमानपणुं नथी, केम के संयतपणोन
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥३१॥
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लीधे ज बालमरणथी तेनुं विशेषत्व छे. ३, बालपंडित मरणने विषे तो लेश्यानुं मिश्रपणुं होवाथी ज संक्लिश्यमानपणुं अने ३ स्थानविशुद्धमानपणुं नथी, माटे आ विशेष छे. एवी रीते पंडितमरण वस्तुतः वे प्रकारे ज छे, केमके तेने संक्लिश्यमान काध्ययने ले श्यानो निषेध छते अवस्थित अने वर्धमान लेश्यत्व होय छे; त्रिविधपणुं तो कथन मात्रथी ज छे. बालपडितमरण तो एक उद्देशः ४ प्रकारे ज छे, केम के तेने संक्लिश्यमान अने पर्यवजात लेश्यानो निषध छते अवस्थित लेश्यत्व होय छे. आनुं त्रिविधपणुं शङ्कितेतरतो इतर-संवि लश्यमान अने पर्यवजात लेण्यानी व्यावृत्तिथी (न होवाथी) वणना कथननी प्रवृत्तिमात्र छ (सू० २२२).
त्वाद्यहिअनंतर मरण कां अने जेबी रीते मरेलाने तो जन्मांतरमा जे त्रण वस्तु जेना वास्ते प्राप्त थाय छे ते तेना वास्ते
तादिकदेखाडवा माटे कहे छ
त्वाय तओ ठाणा अव्ववसितस्स अहिताते असुभाते अखमाते अणिस्सेसाते अणाणुगामियत्ताते २२३ भवंति, तं०-से णं मुंडे भवित्ता अगारातो अणगारियं पव्वतितेणिग्गंथे पावयणे संकिते कंखिते विति
सूत्रम् गिच्छिते भेदसमावन्ने कलुससमावन्ने निग्गंथं पावयणं णो सद्दहति णो पत्तियति णो रोएति तं परिस्सहा अभिमुंजिय २ अभिभवंति,णो से परिस्सहे अभिमुंजिय २ अभिभवइ (१),सेणं मुंडे भवित्ता अगारातो अणगारितं पव्वतिते पंचहि महव्वएहि संकिते जाव कलुससमावन्ने पंच महत्वताई नो सद्दहति ||
३२१॥
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जाव णोसे परिरसहे अभिमुंजिय र अभिभवति (२),से णं मुंडे भवित्ता अगारातोअणगारियं पध्वतिते छहिं जीवनिकाएहिं जाव अभिभवइ (३),ततो ठाणा ववसियस्स हिताते जाव आणुगामितत्ताते भवंति, तं०-से णं मुंडे भवित्ता अगारातोअणगारियं पव्वतिते णिग्गंथे पावयणे णिस्संकिते णिक्कंखिते जाव
नो कलससमावन्ने णिग्गंथं पावयणं सद्दहति पत्तियति रोतेति से परिस्सहे अभिमुंजिय २ अभिभवति, * नो तं परिस्सहा अभिजुंजिय २ अभिभवंति (१), से णं मुंडे भवित्ता अगारातो अणगारियं पव्व-*
तिते समाणे पंचहि महत्वएहिं णिस्संकिए णिकंखिए जाव परिस्सहे अभिजुंजिय २ अभिभवइ, नो तं परिस्सहा अभिजुजिय २ अभिभवंति (२), से णं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए छहिं जीवनिकाएहि णिरसंकिते जाव परिस्सहे आभिजुजिय २ अभिभवति. नो तं परिस्सहा अभिजुंजिय २ अभिभवंति ३ । सू० २२३
मूलार्थः-त्रण स्थानक, जेणे निश्चय नथी कर्यो तेने ए त्रण स्थानक, अहितने माटे, अशुभ-दुःखने माटे, अयथार्थपणाने माटे, अनिश्रेयस-अकल्याणने माटे के अमोक्षने माटे, अने अशुभ कर्मना अनुबंधने माटे थाय छे, ते आ प्रमाणे-जे द्रव्य, भावथी मुंड थईने, घरथी नीकळी अणगारपणाने प्राप्त थयेल एवो साधु निग्रंथ प्रवचनमा शंकावाटो, कांक्षावाळो, विति
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श्रीस्था
नाङ्गसूत्र सानुवाद
।। ३२२॥
KKIKKAKKKKK KKKKKKKKKK XXXXK)
पिच्छाबाळो, भेदसमापन्न-'आ आम छे के नहिं' एम द्विधाभावबाळो, कलुपसमापन्न-'आ वचन सत्य नथीं' एम स्वीकारनार ३ स्थानथयोथको, निग्रंथ प्रवचनने श्रध्धे नहिं, प्रतीति-विश्वास आणे नहिं, रुचि करे नहि, आवा प्रकारना साधु प्रत्ये संबंधमा आत्रीने काध्ययन
परिसहो तेनो पराभव करे छे परंतु ते साधु परिसह प्रत्ये संबंधनां आधीने सहन करता नयी १, ते मुंड थईने, घरथी नीकळी उद्देशः ४ ★ अणगारपणाने प्राप्त थयेल साधु, पांच महाव्रतोने विषे शंकाधाळो, यावत कलुपभावने प्राप्त थयो थको पांच महावतोने सदहे ४ शकिदेतरनहि. यावत ते परिसहो प्रत्ये संबंधमा आवीने सहन करे नहि २, ते मुंड थईने, घरथी नीकळी अणमारपणाने प्राप्त थयेल साधु
त्वाद्यहिछ जीवनिकायने विपे शंकावाळो थको यावत् परिसहोने सहे नहि, त्रण स्थानक, जेणे निश्चय कर्या छ तेने प्रण स्थानक,
तादिकहितने माटे यावत् शुभ कर्मना अनुबंध परंपरा)ने माटे थाय छे, ते आ प्रमाणे-ते मुंड थईने, घरथी नीकळी अणगारपणाने
त्वाय प्राप्त थयल साधु-निग्रंथ प्रवचनने विषे शंका रहित, कांक्षारहित, यावत् कलुपभावने प्राप्त न थयो थको निग्रंथ प्रवचन प्रत्ये सदहे छे, प्रतीत आणे छे, रुचि करे छ, परिसहो प्रत्ये संबंधमा आवीने तेने सहन करे छे ( जय करे छे ) परंतु तेने परिसहो
२२३ आवीने पराभव करता नथी. १, ते साधु मुंड थईने, घरथी नीकळी अणगारपणाने प्राप्त थयो थको पांच महाव्रतोने विषे शंका रहित, कांक्षा रहित यावत् परिपहने जीते छे (सहे छे) परंतु परिषहो तेनो पराभव करी शकता नथी. २, ते साधु मुंड थईने, घरथी नीकळी अणगारपणाने प्राप्त थयो थको छजीवनिकायने विषे शंका रहित, यावत परीषहो प्रत्ये जीते छे; परंतु परीपहो तेनो पराभव करी शकता नथी ३. (सू० २२३ )
टीकार्थः-'तओ ठाणे 'त्यादि.त्रण स्थानो-प्रवचन, महाव्रत अने जीवनिकायस्वरूप. अव्यवसित-निश्चय न X॥३२२॥
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करनारने अथवा पराक्रम न करनारने, अहित-अपथ्य माटे, असुख-दुःख माटे, अक्षम असंगतपणा माटे, अनि:श्रेयस - अमोक्ष माटे अने अननुगामिकत्व - अशुभता अनुबंधने माटे थाय छे. 'से णं' ति० जेने त्रण स्थानको अहितादिपणा माटे थाय छे, ते शंकित - देशथी अथवा सर्वथी संशयवाळो, तेमज कांक्षित-मतांतरने पण सारापणाए माननार, विचिकित्सफल प्रत्ये शंकायुक्त, आ कारणथी ज भेदसमापन्न- द्विधाभावने पामेलो, अर्थात् 'आ एम छे के नहिं' एवी मतिवाळो, कलुषसमापन्न-'आम नथी ज' एम स्वीकारनारो, आ कारणथी ज-निर्ग्रथो संबंधी जे आ ते नैग्रंथ, प्रशस्त प्रगत युक्त अथवा प्रथम एवं जे वचन ते प्रवचन -आगम. ( अहि मूलमां दीर्घपणुं प्राकृतपणाने अंगे छे.) सामान्यथी श्रद्धा करतो नथी, प्रीति करतो नथी, करवानी इच्छावाळी थतो नथी. 'त' मिति० जे आवी स्थितिवाळो छे ते साधुना आभास वाळा प्रत्ये, सर्वथा | जे सहन कराय छे ते क्षुधा विगेरे परीषहो, तेना संबंधमां आवीने अथवा परस्पर स्पर्द्धा करीने पराजय करे छे-तिरस्कार करे छे. बाकीनुं सुगम छे. ३, कट्टेल सूत्रधी विपरीत सूत्र पूर्ववत् जाणवुं हित- पोताने अने बजाने आ लोक अने परलोकमां, पथ्य अन्नना भोजननी जेम, दोष नहिं करनार, सुख - तृषातुरने शीतळ जळपाननी जेम आनंदरूप, क्षम- तथाप्रकारना व्याधिने नाश करनार औषध पीवानी जेम योग्य, निःश्रेयस - भावथी पंचपरमेष्ठीने नमस्कार करवानी जेम चोकस कल्याण अर्थात् प्रशंसा लायक, अनुगामिक- प्रकाशवाळा द्रव्यथी थयेल छायानी माफक साथे साथे चालवाना स्वभावरूप (सू० २२३) आवा प्रकारनो साधु आ पृथ्वीमां ज होय छे, आ अर्थरूप संबंधवडे पृथ्वीना स्वरूपने कहे छे:एगमेगा णं पुढवी तिहिं वलएहिं सव्वओ समता संपरिक्खिता,
तं०-घणोद
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३ स्थान
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काध्ययने
श्रीस्थानाङ्गपत्र सानुवाद 2 ३२३॥x
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धिवलएणं घणवातवलएणं तणुवायवलतेणं । सू० २२४, रइया णं उक्कोसेणं
तिसमतितेणं विग्गहेणं उववजंति, एगिंदियवजं जाव वेमाणियाणं । सू० २२५ मूलार्थ:-एकेकी पृथ्वी-रत्नप्रभादक, सर्वतः-चौतरफथी (दिशा ने विदिशाओमां) त्रण वलयवडे [कडाना आकारनी जेम] वीटाएली छे, ते आ प्रमाणे-घनोदधि कटण हिमनी शिलानी जेम पाणीनो समूह, तेना बलयबडे, घनवात-कठण वायुनो समृह, तेना बलयवडे, तनुवात-पातळो वायु, तेना वलयवडे (मु० २२४ )नैरयिको उत्कृष्टथी त्रण समयना विग्रह ( वक्र गमन )वडे उत्पन्न थाय छे. एवी रीते एकेंद्रियने छोडीने यावत वैमानिक पर्यत जाणवू. (सू० २२५)
टीकार्थ:-' एगमेगे' त्यादि० एकेक रत्नप्रभादि पृथ्वी सर्वथी एटले चौतरफथी अथवा दिशाओ अने विदिशाओमां वींटायेली छे. त्रण वलयमांनुं प्रथम घनोदधि वलय, त्यारबाद क्रमवडे वे बलय धनवात अने तनुवात छे. तेमां घन हिम(वरफ)नी शिलानी जेम कठीन उदधि ते धनोदधि, बलयनी जेम तेनुं वलय ते घनोदधि वलय, तेना बडे. एवी रीते बीजा बे वलय पण जाणवा. विशेष ए के-कठण एवो वायु, तथाविध परिणाम युक्त ते घनवात, एवी रीते तनुवात पण तथाविध ( पातळा ) परिणामरूप ज छे. कधुं छे केनवि अफुसंति अलोग, च उसुपिदिसासु सवपुढवीओ। संगहिया वलएहि, विवखंभंतेसि वोच्छामि॥
रत्नप्रभादि सात पृथ्वीओ चार दिशाओने विषे पण अलोकने स्पर्शती नथी, कारण के वलयोवडे ते वीटायेली छे. ते
उद्देशः ४ x घनादध्या
दिवलयानि विग्रहो
त्पादः
२२४
२२५
३२३॥
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वेलयानां विखुभ- विस्तारने हुं कहीश.
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छच्चैव १ अद्धपंचम २, जोयण सद्धं च ३ होइ रयणाए । उदही १ घण २ तवाया ३, जाहासंखेण निद्दिट्ठा ॥ २२५ ॥
रत्नप्रभा पृथ्वीमां घनोदधिनो वलय छ योजन, घनवायुनो वलय साडाचार योजन अने तनुवासनो वलय दोड योजन प्रमाण होय छे.
तिभाग १ ( योजनस्य ) गाउयं चैव २, तिभागो गाउयस्त य ३ ।
आइधुवे पक्खेवो, अहो अहो जाव सत्तमिअं ॥ २२६ ॥
उपर्युक्त त्रण वलयांना प्रमाणमां बीजी नारकीओने माटे आ प्रमाणे वधारो करवो. घनोदधिना वलयमां योजननो श्रीजो भाग, धनवातना वलय मां एक गाउ अने तनुवासना वलयमा गाउनो त्रीजो भाग अर्थात योजननो बारमो भाग उमेखो एटले शर्कराप्रभा पृथ्वीमां घनोद धिनो वलय छ योजन अने योजननो श्रीजो भाग अधिक, घनवातनी वलय पोणापांच योजन अने तनुवातना वलय एक योजन अने एक योजना बार भाग करीए तेवा सात भाग १-१ छे. ए प्रमाणे दरेक पृथ्वीमां उमेरो करवो. आ सात पृथ्वीओने विषे नारको ज उत्पन्न थाय छे माटे तेनी उत्पत्तिनी विधिने कहेवा माटे सूत्रकार कहे छे:- 'नेरइया ण' मित्यादि० त्रण समयो ते त्रिसमय ते छे जेमां ते त्रिसमयिक, ते विग्रह वक्रगमनवडे, 'उक्कोसेणं' ति० त्रसोनो चोकस नामां
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र
सानुवाद ।। ३२४ ।।
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उत्पाद - उत्पत्ति होवाथी वे वांक थाय छे अने तेमां त्रण समयो थाय छे. ते आ प्रमाणे- अग्निकोण ( खूणा थी नैऋतकोणमा एक समयवडे जाय छे, ते पछी बीजा समयवडे समश्रेणीए नीचे जाय छे, त्यारबाद त्रीजा समये समश्रेणीए ज वायव्यकोणमां जाय छे. त्रसकायनी उत्पत्तिमां त्रसोने ज आ प्रकारे उत्कृष्टथी विग्रह - वक्रगति छे. आ कारणथी कहे छे के - ' एगेंदिये ' त्यादि० एकेंद्रियो तो एकेंद्रियोंने विषे पांच समयवडे पण उत्पन्न थाय छे, कारण के त्रसनाडीथी बहार रहेला तेओ सनाडीथी बहार पण उत्पन्न थाय छे. ते आ प्रमाणे
विसाउ दिसं पढमे, बीए पइसरइ लोयनाडीए । तइए उपि धावइ, चउत्थए नीइ बाहिं तु ॥ २२७॥
'पंचमए विदिसीए गंतुं उप्पज्जए उ एगिद्दि ' प्रथम समये विदिशाथी दिशामां जाय छे, बीजे समये त्रसना - डीमां आवे छे, बीजे समये ऊंच जाय छे, चोथे समये त्रसनाडीथी बहारनी दिशामां समश्रेणीए जाय छे अने पांचमे समये विदिशामां जईने एकेंद्रियपणाए उत्पन्न थाय छे. आ संभव मात्र छे, परंतु होय छे तो चार समय ज. श्री भगवतीसूत्रमां ते प्रमाणे कहेल होवाथी जणावे छे-“ अपज्जन्तगसुहुमपुढविकाइए णं भंते ! अहेलोग खेत्तनालीए बाहिरिल्ले खेत्ते स मोहर समोहणित्ता जे भविए उड्डलोयखेत्तनालीए बाहिरिल्ले खेत्ते अपज्जत्तसुहुमपुढविकाइयत्ताए उववजित्तए से णं भंते ! कतिसमइ एणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा ? गो० ! तिसमइएण वा चउसमइएण वा विग्गहेण उववज्जेज्जा " इत्यादि० प्र०-हे भगवन् ! अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव, अधोलोकनी क्षेत्रनाडीथी बदारना
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३ स्थानकाध्ययनं
उद्देशः ४ घनोदध्या
दिवलयानि विग्रहो
त्पाद: २२४२२५
॥ ३२४ ॥
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क्षेत्रमा मारणांतिक समुद्घातथी जोडाईने ऊर्ध्वलोकमां क्षेत्र( त्रस )नाडीथी बहारना क्षेत्रमा अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायपणाए जे उपजवाने योग्य छे, ते जीव हे भगवन् ! केटला समयवाळा विग्रहवडे उत्पन्न थाय ? उ०-हे गौतम ! त्रण समय अथवा चार समयवाळा विग्रहवडे उत्पन्न थाय छे." विशेषणवती( ग्रंथ )मां पण कधुं छे केसुत्ते चउसमयाओ, नथि गई उपरा विणिहिट्ठा । जुजइ यपंचसमया,जीवस्स इमा गई लोए॥२२८॥
सिद्धांतने विषे चार समयवाळी गतिथी उपर वक्रगति कहेली नथी, परंतु लोकमा जीवने आ पांच समयवाळी वक्रगति घटी शके छे. जो तमतमविदिसाए, समोहओ बंभलोगविदिसाए। उववजई गईए. सोनियमा पंचसमयाए ॥२२९॥
जे जीव, सातमी नरकभूमिनी विदिशामा मरणसमुद्घातथी ब्रह्मलोकनी विदिशामां उपजे छे ते चोकस पांच समयवाळी वक्रगतिवडे उत्पन्न थाय छे. उववायाभावाओ, न पंचसमयाहवान संतावि । भणिया जह चउसमया, महल्लबंधे न संतावि॥२३०॥
उक्त रीते जीवने उपजवाना अभावथी पांच समयो थता नथी, अथवा पांच समयो थाय छे छतां पण ( अपवादभूत होवाथी) कहेल नथी. जेम चार समयवाळी गति छतां पण मोटा प्रबंधम (विस्तारवाळा शास्त्रमा) कहेल नबी तेम अहीं पण जाणवू, आ हेतुथी कयुं छे के 'एगिंदियवजं' ति०-एकेंद्रिय छोडीने यावत वैमानिक पर्यतना जीयाने उत्कृष्टथी त्रण
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श्रीस्था
नाङ्गसूत्र
सानुवाद
॥ ३२५ ॥
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समयवाळ विग्रह ( वांक) होय छे ( सू० २२५ ) मोहवाळा जीवोनुं त्रि ( त्रण संख्यावालु ) स्थानक कहींने हमे क्षणि मोहवालाने त्रिस्थानकवडे कहे छे
खीणमोहरस णं अरहओ ततो कम्मंसा जुगवं खिज्जंति तं०- नाणावर णिज्जं दंसणावरणिजं अंतरातियं । सू० २२६, अभितीणवखते सितारे पं० १, एवं सवणो २ अस्सिणी ३ भरणी ४ मगसिरे ५ से ६ जेट्ठा ७ । सू० २२७, धम्मातो णं अरहाओ संती अरहा तिहिं सागरोव मेहिं तिचउभागपलिओ मऊणएहिं वीतिकंतेहिं समुप्पन्ने । सू० २२८, समणरस णं भगवओ महावीरस्स जाव तच्चाओ पुरिसजुगाओ जुगंतकरभूमी, मल्ली णं अरहा तिहिं पुरिससएहिं सद्धिं मुंडे भवित्ता जाव पव्वतिते, एवं पासेवि । सू० २२९, समणस्स णं भगवतो महावीरस्स तिन्नि सया चउदसपुव्वीणं अजिणाणं णिसंकासाणां सव्ववखरसन्निवातीणं जिण इव अवितहवागरमाणाणं उक्कोसिया चउपुव्विसंपया हुत्था। सू० २३०, तओ तित्थयरा चक्कवट्टी होत्या तं-संती कुंथू अरो ३ । सू० २३१ मूलार्थ:- क्षीण थयेल छे मोहनीय कर्म जेने एवा अरिहंतने त्रण कर्मप्रकृतिओ समकाले क्षय थाय छे, ते आ प्रमाणे१. प्रत्यंतर मां ' जिणो इव' पाठ छे.
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३ स्थानकाध्ययने
उद्देशः ४
श्रीणि
प्रकाराणि
२२६२३१
सूत्राणि
।।। ३२५ ॥
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ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय अने अंतराय. (सू० २२६ ) अभिजित् नक्षत्रना व्रण तारा छे, एवी रीते श्रवण, अश्विनी, भरणी, मृगशिर, पुष्य अने जेष्ठा ए छ नक्षत्रना पण त्रण त्रण तारा हे. (सू० २२७) धर्मनाथ अरिहंत ( ना मोक्ष ) थी शांतिनाथ अरिहंत, पोणो पल्योपम ? न्यून त्रण सागरोपम काळवडे (काळ गये छते ) समुत्पन्न - मोक्ष गया (सू० २२८) श्रमण भगवान् महावीरने यावत् त्रीजा पुरुष सुधी (जंबूस्वामी पर्यंत ) युगांतकृतभूमि-मोक्षमार्ग चाल्यो, श्री मल्लिनाथ भगवान् त्रणशें पुरुषोनी साथे मुंड थई दीक्षित था, एवी रीते श्री पार्श्वनाथे त्रणशें पुरुषो साथै दीक्षा लीधी. (सू० २२९) श्रमण भगवान् महावीरने त्रणरों चौदपूर्वीओनी उत्कृष्टी संपदा हती, ते केवा प्रकारना हता ते संबंध कहे छे । के जिन नहिं पण जिन सरखा, सर्व अक्षरना सन्निपात(संयोग) ने जाणनारा अने जिननी माफक अवितथ-यथार्थ कहेनारा एवा चौदपूर्वीओ हता. ( २३०) त्रण तीर्थंकरो चक्रवर्ती हता, ते आ-शांतिनाथ, कुंथुनाथ अने अरनाथ. (सू० २३१)
टीकार्थ :- 'खीणे' त्यादि० क्षीणमोह-नाश पामेल छे मोहनीय कर्म जेने एवा अरिहंतने त्रण कर्मा शो-कर्मप्रकृतिओ समकाळे क्षय पामे छे. कं छे के
चरमे नाणावरणं, पंचविहं दंसणं चउर्विगप्पं । पंचविहमंतरायं, खबइत्ता केवली होइ ॥ २३९ ॥
१. अहि समुत्पन्न' शब्दनो रूढ अर्थ जन्म पाम्या, ए अर्थ घटतो नथी, कारण के तेवो अर्थ करवाथी 'अंतरा' नहीं मळे. विशेष जिज्ञासु प्रवचनसारोद्धार विगेरे जो.
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ।। ३२६॥
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. क्षीणमोह गुणस्थानना छेल्ला समये पांच प्रकारचें ज्ञानावरणीय, चार प्रकारचें दर्शनावरणीय अने पांच प्रकारचें अंतरायकम-आ चौद प्रकृतिओ (युगपत्) खपापीने केवळी थाय छ शेष सुगम छे. (मू० २२६) अनंतर-अशाश्वतार्नु त्रिस्थान कह्यु, हवे शाश्वतार्नु त्रिस्थानक कहे छे. 'अभी' त्यादि० सात सूत्रो सुगम छे. (सू० २२७) परंपर (अंतरसहित) सूत्रमा क्षीणमोहर्नु त्रण संख्याविशिष्ट स्थानक कधु, हवे क्षीणमोहविशिष्ट तीर्थंकरोने ते कहे छे-'धम्म' त्यादि० प्रकरण 'तिचउन्भाग' त्ति. एक पल्योपमना चार भाग पैकी त्रण भागवडे न्यून कयु छ के-“धम्मजिणाओ संती, तिहि उ तिचउभागपलियऊणेहिं अयरेहिं समुप्पन्नो" त्ति० श्री धर्मनाथ जिनथी श्री शांतिजिन पोगो पल्योपम न्यून त्रण सागरोपम काळवडे मोक्ष गया (सू० २२८) 'समणस्से त्यादि० युग-पांच वर्ष प्रमाण काळविशेष, अथवा लोकमां प्रसिद्ध जे कृतयुग विगरे छ ते युगो क्रमथी व्यवस्थित छे, तेथी पुरुषो-गुरुशिष्यना क्रमवाळा अथवा पितापुत्रना क्रमवाळा, युगोनी जेम पुरुषो ते पुरुषयुगो, पुरुषसिंह शब्दनी जेम समास छे तेथी पंचमी विभक्तिनो बीजी विभक्तिमा अर्थ छे. त्रीजा पुरुषयुग पर्यंत अर्थात् जंबूस्वामी सुधी. 'जुग' त्ति० पुरुषयुग, तेनी अपेक्षाए अंतकरो-भवना अंतने कर नारानी अर्थात् मोक्षगामीओनी भूमि-काळ, ते युगांतकरभूमि. कहेवार्नु तात्पर्य एके भगवान् महावीरस्वामीना तीर्थमां तेनाथी ज आरंभीने त्रीजा पुरुष जंबूस्वामी पर्यंत मोक्षमार्ग हतो, त्यारबाद तेनो विच्छेद थयो. 'मल्ली' त्यादि० चे सूत्रनु कथ न-" एगो भगवं वीरो, पासो मल्ली य तिहिं तिहिं सरहिं" ति० श्री महावीर प्रभु एकाकी अने पार्श्वनाथ तथा मल्लिनाथ त्रणशें त्रणशें पुरुषो साथे (दीक्षा लीधी). मल्लिनाथे त्रणशें स्त्रीओ साथे दीक्षा लीधी छे. (सू० २२९) 'समणे त्या दि. 'अजिणाण ति० असर्वज्ञपणाए
३ स्थानकाध्ययने उद्देशः ४
त्रीणि प्रकाराणि २२६
२३१ सूत्राणि
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॥३२६॥
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सर्वज्ञत्वपणाए जिन जेवा नहिं परंतु समग्र संशयना नाश करवावडे जिन जेवा, सर्व - सकल अक्षरना सन्निपातो - अकारादि वर्णना संयोगोछे जेओने ते (स्वार्थिक ईन् प्रत्ययने लेवाथी) सर्वाक्षरसनिपातिओ अर्थात् समस्त शास्त्रना जाणनारा, 'वागरमाणाणं ' ति० व्याख्यान करनारा (एवा चौदपूओ )नी संपदा हती. (सू० २३०) 'तओ' इत्यादि० अहिं कछु ले केःसंत कथं अ अरो, अरहंता चेत्र चक्काही य । अव सेसा तित्थ यरा मंडलिआ आसी रायाणो ।। २३१
श्री शांतिनाथ, कुंथुनाथ ने अरनाथ एत्रण तीर्थकरो ज चक्रवर्तीओ हता; शेष ओगणीश तीर्थंकरो मंडलिक राजाओ हता. (बाकीना तीर्थंकरो मल्लिनाथ ने नेमिनाथ मंडलिक पण नहोता) (सू०२३१) आ तीर्थंकरो विमानोमांथी अवतरेला छे, आ कारणथी विमानना त्रण स्थानकने कहे छे
ओ विजविमाणपत्थडा पं० तं० - हिट्ठिमगेविजविमाणपत्थडे मज्झिमगेोविज्जविमाणपत्थडे उवरिमविजविमाणपत्थडे, हिट्ठिमगेविज्जविमाणपत्थडे तिविहे पं० तं० - हिट्टिम २ विजविमाणपत्थडे हेममज्झिमविजविमाणपत्थडे हेट्ठिमउवरिमगेविज्जविमाणपत्थडे, मज्झिमगेविजविमाणपत्थडे तिविहे पं० तं०-मज्झिमहेट्ठिमगे विज्जावमाणपत्थडे मज्झिम २ गेविज्ज० मज्झिमउवरिगे - * ज्यां सुधी त्रण तोर्थंकरो चक्रवर्तीपदे न हता त्यां सुधो तेओ पण मंडलिको हता अने वासुपूज्य, मल्लिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ अने महावीरस्वामी - आ पांच तोर्थंकरोए राज्य भोगव्युं नथी.
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥३२७
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विज०, उरिमगेविजविमाणपत्थडे तिविहे पं० २०-उवरिमहेटिमगेविज. उवरिममज्झिमगेविज० ३ स्थानउवरिम २ गेविजविमाणपत्थडे । सू०२३२, जीवाणं तिट्ठाणणिव्वत्तिते पोग्गले पावकरमत्ताते चिणिंसु काध्ययने वा चिणिति वा चिणिस्संति वा, तं०-इस्थिणिव्वत्तिते पुरिसनिव्वत्तिए णपुंसगनिव्वत्तिते, एवं
उद्देशः ४ चिणउवचिणबंधउदारवेय तह णिजरा चेव ।सू० २३३, तिपतेसिता खंधा अणंता पण्णत्ता, एवं
प्रस्तटवर्ण
नम् जाव तिगुणलवख। पोग्गला अणंता पन्नत्ता । सू० २३४॥ तिट्राणं समत्तं ततियं अज्झयणं समत्तं ॥
२३२___ मूलाधः-वेयकना विमानोना त्रण प्रस्तट (पाथडा) कहेला छे, ते आ प्रमाणे-हेटिमोवेयकविमान प्रस्तट, मध्यमग्रवे-13 यकविमान प्रस्तट अने उपरिम( उपरलो )ग्रैवेयक विमान प्रस्तट. हेष्टिमग्रैवेयकविमान प्रस्तट त्रण प्रकारे कहेल छे, ते आ
२३४ प्रमाणे-हेहिमहे हिमवेयकविमान प्रस्तट, हेटिममध्यमग्रैवेयकविमान प्रस्तट अने हेहिमउपरिमंग्रेवयकविमान प्रस्तट. मध्यमवेयकविमानप्रस्तट त्रण प्रकारे कहेल छे, ते आ प्रमाणे-मध्यमहेटिमग्रेवयकविमान प्रस्तट, मध्यममध्यमवेयकविमान प्रस्तट, मध्यमउपरिमोवेय कविमान प्रस्तट, उपरिमोवेयकविमान प्रस्तट त्रण प्रकारे कहेल छे, ते आ प्रमाणेउपरिमहि हिमग्रेवयकविमान प्रस्तट, उपरिममध्यमवेयकविमान प्रस्तट, अने उपरिमउपरिमोवेयकविमान प्रस्तट (म० २३२) जीवो ए त्रण स्थानकवडे उपार्जन करेला पुद्गलो पापकर्मपणाए एकठा कर्या, करे छे अने करशे, ते आ प्रमाणेखीवेदवडे संचित करेला, पुरुषवेदवडे संचित करेला अने नपुंसकवेदवडे संचित करेला. एवी रीते-चयन-कर्मपुद्गलोनुं ग्रहण ॥ ३२७॥
सूत्राणि
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मात्र, उपचयन-कर्मना अबाधाकालने छोडीने भोगववा माटे निषेक-कर्मदलिकनी रचना करवी ते, बंधन-निकाचन करवू ते, उदीरण-उदयमां नहिं आवेला कमोंने जीवना वर्यिविशेषवडे खेंचीने उदयमा लाववा ते, वेदन एटले भोगवq ते, निर्जरणजीवना प्रदेशोथी कर्मना पुद्गलोने दूर करवा ते (सू० २३३) आ चयनादि छ पदो भूत, वर्तमान अने भविष्यकाल आश्रयी जाणवा. त्रण प्रदेशिक स्कंधो अनंता कहेला छे एवी रीत यावत् त्रण गुणवाळा रुक्ष पुद्गलो अनंता कहेला छे (मू० २३४)
टीकार्थः-'तओ' इत्यादि० लोकरूप पुरुषना ग्रीवा( कंठ )स्थानमा जे थयेला ( रहेला) ते ग्रेवेयको, एवा विमानो ते अवयक विमानो, तेना प्रस्तटो-पाथडा, ते रचनाविशेषवाळा समूहो. (सू० २३२) आ ग्रैवेयकादि विमानोनो बसबाट कर्मसंबंधथी थाय छे, माटे कर्मना त्रण स्थानकने कहे छे:-'जीवाण' मित्यादि० छ सूत्रो-तेमां त्रण स्थानकवडे एटले स्त्रीवेदादिवडे उपार्जन करेल पुद्गलोने पापकर्म-अशुभ कर्मपणाए उत्तरोत्तर-आगळ आगळ अशुभ अध्यवसायथी एकठा करेला, एवी रीते परिपोषण करवाथी ज विशेष संचय करेला, निकाचित करवाथी दृढ़ बांधेला, अध्यवसायना वशवडे उदयमां नहि आबेल कोने उदयमा प्रवेश करवाथी उदीरणा करेला, अनुभव करवाथी वेदेला, जीवना प्रदेशोथकी परिशाटन-कर्मपुद्गलोने दूर करवाथी निर्जरा करेला. अत्र संग्रहणी अर्द्धगाथा छ-' एवं चिण'' एव' मिति० जेम एक चयन त्रण कालना अभिलापवडे कयुं तेम बधाय पदो कहेवा (सू० २३३ ) कर्म पुद्गलात्मक छे माटे पुद्गलस्कंधो प्रत्ये त्रिस्थानकने | कहे छे-'तिपएसिए' त्यादि० स्पष्ट छे. बधा सूत्रोमां जेनुं व्याख्यान करेल नथी ते सुगम छे. (सू० २३४)
॥त्रीजा स्थानकना चोथा उद्देशानी टीकानो अनुवाद समाप्त ॥
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।।३२८॥
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र-सानुवादस्य प्रथमो विभागः समाप्तः
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पत्र
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पृष्ठ
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पंक्ति
१२
२
४
8
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ક
१४
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४
अशुद्ध
करावेल
" एवा'
एवा
अययार्थ
भावकाल
शुद्ध
प्रगह
क्रोडपूर्व
पृथक्त्व
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शुद्धिपत्रकम्
करायेल
शब्द न जोईए
एवो
अयथार्थ
भवकाल
प्रग्रह
कोडपूर्व
पृथकृत्व
(आठ भवप्रमाण)
अनुगमनमनुगम् अनुगमनमनुगमनम्
ने
अने
पत्र पृष्ठ
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१
१
१
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६
९
१
२
१२
अशुद्ध
जीवनो
दष्टिवादश्रुत
अध्यात्म
एकम
संभवतो ४
विग्गहो
(पदनो अर्थ)
फ्यु
-
अनंतज्ञाननो
(नाशरहित)
ब
शुद्ध
जीवना दष्टवादत
अध्यात्म
एवम्
संभवतो
विग्गहो ४
( पदना अर्थ )
耐
अनंतज्ञानने
( नाश रहित ),
बाव
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शुद्धि
पत्रकम्
भीस्थानास्त्र सानुवाद ३२९ अ
س
प्रत्येक,
२३
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प्रत्ययवस्थान कहेलु कहेशो
भवो ११. पदार्थनो
संवेदनो १ १२ लांछित २ १० कायिका
विहाररूप २ ९ एकत्रपणाए २ ११ विक्षेप
१ ३ विशेष २२ शेष
प्रकृतियो
प्रत्यवस्थान |३० २ ११ उदयमां सत्तामा कहे
| ३१ २ १ आश्रयति आश्रवंति कहेशो के
पज्जवजाए पज्जवनाए भावो
३३ २६ प्रत्येक पदार्थ ज ३४ १ ८ परियारत्ता यरियाइत्ता संवेदनोमां | ३४ १ ८ हता पभू हंता पभू लाञ्छित
३४१ १२ मनन मननम् कायिकी
अननेति अनेनेति विकाररूप
'गई' ति एकत्वपणाए ३९ २ १ ज्ञान-दर्शननो ज्ञानावरण
दर्शनावरणनो विशेष कहे छे के- ३९ २ १४ दर्शन दर्शनशेष ३७
दृष्टिप्रकृतिओ | ४०१ ६ धारणरूप धारणारूप
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xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxsaina
سم
نبي
२४
विपक्ष
३२९
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५८
५८
५८
५९
६२
६४
६७
६८
१
१
१
२
१
१२ सिद्धिनुं
५
अठार
३
इयाने दोने
३
४
19
१
१२
३
३
न्यून पुद्गल -
परावर्त
बांधवामां छे
दसंखे
व्याख्यादि
पाद
बसो अट्ठावीस
देखता
वेदस
सिद्ध
अढार
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अपने
न्यून अर्ध
पुद्गरूपाव
बांधवामां आवे छे
दससंखे०
व्याख्या
पारद
एक सो अट्ठावीस
देखतो
सवेदस
अजीवप्रत्याख्यान अजीव अप्रत्याख्यान अनुप्रयोगथी अनुपयोगथी
६८
६९
७४
७४
७५
७६
७९
८३
८६
८९
९२
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२
२
१
१
१
११
१२
60
९
१२
६
१०
६
चतुर्थादि समयमा तृतीयादि समयमां जीवन्त
जीवनी वळो स्मरण
फळ
आगाराओ
अवि
अर्थदडं अने अक्षम्य
ना ग्रह
व्याख्यान
करवावडे
अंतर्मुहूर्तवडे
बळी मंत्रादिना स्मरण
फनुं
अगाराओ
अब
अर्थदंड
अने मनद्वाराए
अक्षस्य
नावग्रह
व्याख्यान न करवा
वडे
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जुदा जुदा अंतमुंडे
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२
शुद्धिपत्रकम्
बीस्थानाङ्गसूत्र पानुवाद ३२९ब
९४ २ ९५ २ ९५ २ ९९१
AMMU
२
१
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८ भूभाहारच्छेदे माहारच्छेदे ११२ ८ अभवासिद्धिए अभवसिद्धिए
१ 'पृढवी' 'पुढवी ११ मायिक प्रायिक
११३ ९ पादपापे पादपोप
१२२ (विग्रहगतिवाळा) वे प्रकारे नैरयिको १२२ बे प्रकारे नैरयिको कह्या छे, ते आ १२४ कह्या छे, ते आ आहारको (विन- १२४
आहारको हगतिबाळा) | १२८ १३ अपर्याप्तनामकर्मनो पर्याप्तनामकर्मनो १३ आहरने आहारने ५ शरीवाळा शरीरवाळा
भिदुरवाळा भिदुरधर्मवाळा ५ स्पर्श कराएला स्पर्श नहीं कराएला'
९ प्रववचनमा प्रवचनमा
घनारन थनारने
करवु-शक्तिने न करवु शक्तिने १० पतिमा प्रतिमा २ रम्यकवष रम्यकवर्ष
परिधिवडे परिधिवडे समान वैतान्यनो वृत्तवैतादयनो पच्चीश पञ्चाश बे महानदी कहेल वे महानदी कछे, ते बहु हेल छ, तेना नाम समतुल्य गंगा अने सिंधु.
जेवी रीते प्रपातद्रहो कह्या तेम नदीओ कहेवो,
xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx
१०३ २ १०७ १ १०७ १
१११
१
३२९
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२
६
२
३
यावत् ऐवत | १५७ क्षेत्रने विषे बे महा- १५१ नदीओ कहेल छे, | १५४ ते बहु समतुल्य
६
१३
९ १
दूषमदूषमा सुषमदूषमा २ ५ हेवबयेरनवए हेमवयेरन्नबए १३५ १६ तंति
तवंति
१६१ विरहंति विहरंति १४२ २ ५ रत्नमजालकटक- रत्नमयनाल कटक
१६२ १ बडे
१६२ २ २ लबखाइ लक्खाइ १६५१
उक्त
१६६ १ वृक्षस्कार वक्षस्कार | १६९
चूलिका उपर चूलिकानो पडखे महाशकेंद्र महाशुकेंद्र
कहे छेमंडळ मर्डब जनाने जनाने लिगथी लिंगथी सर्वात्मप्रदेशोनु सर्वात्मप्रदेशो (असंख्य) (संख्याता)
बब्बे करीने खंडने खंड कल्पीने यदृच्छोपललब्धि यदृच्छोपलब्धि समासात
समासांत करता
KXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX)
७
कल्पीने
२
३
८ ५
युक्त
१
३
करतो
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भीस्था
शुद्धि
१६९ १७०
१ २
. ९
जो कर्ये तो महाणभावा
जो करे तो महाणुभावा
| १९०१ १९०१
पत्रकम्
बानुबाद ३३० अ
له
له
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८ केवलीने केवलोनो ८ जोडनारने नोडनारनो
वैक्रिय ना कियनो
विचारणमां विचारणामां १३ विशेष विशेषण
निष निर्दोष त्रणवडे त्रण कारणवडे
ऐरक्त ऐरावत ९ कमलशाली कलमशाली
२ वशि बीश ८ उदकरस उदकरस
महिसीण महिसीण , एवं एवं ९ उच्छेद उद्भव
१.३
अप्रत्याखानी- अप्रत्याख्यानो- २०० चतुष्क चतुष्क
२०६१ १७४ १ ६ ९ कषाय ९ नोकषाय
अने ते अने जे
कारण क कारण के १८३ २१३-१४ आयुप्य आयुष्य
२२२१ चरित्रेद्र चारित्रंद्र २२५ २ १८८१५ तेओ
तओ
२२९ २ १८८२ १ परिचारणा छे परिचारणा करे छे | २३०१ ३ पओ..वि पओगेवि
| " " १९. १ २ चोवोशे सोळ । २३२ १
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३३. अ
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२३३
२२४
२३६
२५४
२५५
२३८
प्रकार कम ! कहल गच्छमां धरानी विषे वर्षवार्नु रति
२
३
Xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx)
२ ४ शलि शील
जाति जन्म जाति-जन्म २ १ भतनी भूतकालनी
करवा थका करतां थका १ १ अबइत्त' अबुइत्त' २४ सामान्यनी सामान्यथी २ १ [बदलो] [उत्क्रम ]
णिबुड्ढी, णिवुड्ढी, दशनाभिगम दर्शनाभिगम आसेयादि आज्ञेयादि प्रादि पूर्वादि
२५५ २५६ २६३
प्रकारे केम ! कहेल गच्छमा उपसंपदा घरादिनी विषे वर्षवाने अरति कहेवी दूर कराववो
KKKKXXXXXXXXXXXXXXXXXXXKKAKKAK
कहेवि
तेना
२७४
दूर करवो २७६ १३ तेनो २७८ २ १० एकरूपणाए २८०
गुणांनु २८१
करता थका | २८५ २ १ प्रकार
एकरूपपणाए गुणोनुं करतो थको प्रकारे
करेलु दुकढण,
कहेलै दुकडं, ज
१
१.
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शुद्धि
पत्रकम
श्रीस्थानापत्र पानुवाद ३३०
देवना
xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx
परिचट्टे परियट्टे विविधे त्रिविधे 'कावादि शब्द काढो नाखवो
ज्ञानना आठ कालादि आठ ज्ञानना ३०५ २१. थाय
भवपत्ययिक भवप्रत्ययिक ३१८ दवना
३२० नाशा
नाश करता
करतो
आदिग्धकलबि आदिग्धक्लीब ३२१ २७ उ बासादि उपवासादि ३२३ पाम्या पामवा
३२४ २ ७-९ बावीश त्रेवीश
१ ५ बावीश क्षेत्रसमासनी मोटी | * आ शुद्धिपत्रमा केटलीक भूलो मुद्रणकार्यने अंगेनी नोंधी छे.
टीकामांत्रेवीशजणावेल छे, जे
योग्य जणाय छे एक
पा
ज्ञानअर्हत् अर्हतर्नु श्रावकना श्रावकना मरणमा संविलष्ट मरणमा संक्लिष्ट संयतपणोन संयतपणाने निषध निषेध इच्छावाळी इच्छवाळो वेलयानां वलयोनां अभितीण- अभितोणवखतेक खते
XxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxKKKKKKKKKK
३३०
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