Book Title: Sthanang Sutram Part 04
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Catalog link: https://jainqq.org/explore/009310/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ dishhh जैनाचार्य - जैनधर्म दिवाकर - पूज्यश्री - घासीलालजी - महाराज - सुधाख्यया व्याख्यया समलङ्कृतं विरचितया हिन्दी - गुर्जर - भाषाऽनुवादसहितम् - ॥ श्री - स्थानाङ्गसूत्रम् ॥ (चतुर्थो भागः ) STHANANGA SŪTRAM नियोजक : संस्कृत - प्राकृतज्ञ - जैनागमनिष्णात - प्रियव्याख्यानि - पण्डितमुनि श्री कन्हैयालालजी - महाराजः प्रकाशक. "अखण्ड सौभाग्यवती श्रीमती विजयकुमारी जैन, धर्मपत्नी श्री हजारीलालजी जौहरी दिल्ली - तत्प्रदत्त द्रव्य साहाय्येन अ० भा० श्वे० स्था० जैनशास्त्रोद्धार समितिप्रमुख: श्रेष्ठि- श्री शान्तिलाल - मङ्गलदास भाई -महोदयः मु० राजकोट प्रथमा - आवृत्ति प्रति १२०० वीर संवत् विक्रम संवत् २४२२ २०२२ मूल्यम् - रू० २५-०-० ईसवीसन् १९६५ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મળવાનું ઠેકાણું : श्री म. सा. ३. स्थानवासी ___ . न शास्त्रोद्धार समिति, है. गरेडिया वा रोड, सीट, ( सौराष्ट्र ). Pablished by : Shri Akhil Bharat S. S Jain Shastroddhara Samiti, Garcdia Kuva Road, RAJKOT, (Saurashtra), W. Ry, India ता ये नाम केचिदिह नः प्रथयन्त्यवज्ञां, जानन्ति ते किमपि तान् पति नैप यत्नः । उत्पत्स्यतेऽस्ति मम कोऽपि समानधर्मा, कालोद्ययं निरवधिर्विपुला च पृथ्वी ॥ १ ॥ हरिगीतच्छन्दः LE करते अवज्ञा जो हमारी यत्न ना उनके लिये। जो जानते हैं तत्त्व कुछ फिर यत्न ना उनके लिये ॥ जनमेगा मुझसा व्यक्ति कोई तत्त्व इससे पायगा। है काल निरवधि विपुलपृथ्वी ध्यान में यह लायगा ॥ १ ॥ भूयः ३.२५%300 પ્રથમ આવૃત્તિ પ્રત ૧૨૦૦ વીર સંવત્ ૨૪૯૨ વિક્રમ સંવત ૨૦૨૨ ઈસવીસન ૧૯૬૫ मुद्र: મણિલાલ છગનલાલ શાહ નવપ્રભાત પ્રિન્ટીંગ પ્રેસ, घlil 3, अमहावाह. Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाव संप्रदाय के पू. सोहनलालजी म. सा. की आज्ञामें विचरनेवाले पू. ___ मयारामजी म. के शिष्यानुशिष्य परम प्रतापी श्री व्याख्यानवाचस्पति-स्वर्गीय मदनलाल जी महाराजको अष्टक (मालिनी छद) परिधृतगुणमाल शुद्धधर्मालबालं, विमलगतिमरालं शुद्धभावैर्विशालम् । सकलमनसि दुःखान्मन्यते त्वां वियुक्तं मुमुनिमदनलालं शुद्धभालं भजध्वम् ॥ १ ॥ हरिगीत छंद हिन्दी गुणगण विमल धारण किये, जो आलवाल सुधर्मके थे हंस सम जो चाल चलते, मूल थे शुभ कर्म के । हम मानते हिय तापसे, दूरस्थ उन मतिमानको, हे भव्य जन मज भावसे, मुनि मदनलाल महानको ॥१॥ अमृतसरससारां शुद्धतत्त्वैकधारां प्रशमरसगभीरां भव्यलोका मयूराः । मधु-मधुरगिरते पीतवन्तोऽत्यनृत्यन्, सुमुनिमदनलालं शुद्धभालं भजध्वम् ॥२॥ हिन्दी पीयूष सम अतिशय सरस, अरु शान्त रस गभीरकी। तात्विक मधुर मधुमय विमल वाणी परममति धीरकी। भविजन श्रवण कर नाचते, उन दिव्य सन्त मुजानको, हे भव्यजन भज भावसे, मुनि मदनलाल महानको ॥ २ ॥ त्वयि शशि निजगत्यां, निष्फलथेऽत्रलोकाः, सुखिन इव यदाऽऽसन्, त्वं ह्यकस्मात्कथं हा । गत इत इति खेदै, दुःखिनस्ते जनास्तं सुमुनि मदनलालं, शुद्धभालं भजध्वम् ।। ३ ।। Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी-- अति निष्फलक सदा उदित, परिपूर्णचन्द्र समानसे, मुखिया सकल दुनियां हुई, पीयूप वाणी पानसे । हैं आज दुखिया दीखती वे विरहमें श्रीमानको, हे भव्यजन मन भावसे, मुनि मदनलाल महानको ।। ३ ॥ यदि कमपि मदीय, मन्तु मालोक्य विद्वन। त्यजसि सपदि हा-हा ? त्यज्यतां जीव कायाः । पडपि निरपराधा, रक्षणीया स्त्वया तं,मुमुनि मदनलालं शुद्धभालं भजध्वम् ।। ४ ।। हिन्दी-- मुनिवर ! हमारे कोइ भी अपराधसे हा रूठकर यदि त्याग हमको कर रहे, पर जीव पटक निकाय पर । करके दया रक्षा करो, करुणानिलय धीमानको, हे भव्यजन भज भावसे, मुनि मदनलाल महानको ॥ ४ ॥ तरुणकरुणधारी, शुद्धता पूर्वचारी जिनवचनविहारी, सर्व पापापहारी । निविड तिमिरहारी, ज्ञानदीपात्सदा तं, मृमुनि मदनलाल, शुद्धभालं भजध्वम् ॥ ५ ॥ हिन्दी-- जो शुद्धता पूर्वक विचरते, तरुणकरुणावरान थे, जो पापहारक सर्वदा, जिनवचनश्रद्धावान थे। अज्ञानहारक ज्ञानसे, उन दिव्य सन्त सुजानको, हे भव्यजन भज भावसे, मुनि मदनलाल महानको ॥ ५ ॥ सकलभुवनचिन्ता - हारि - चिन्तामणियः पुनरपि जनवा-छा, पूरणे कल्पवृक्षः । मुगतिसरणि नेता, सद्गुरु स्तत्त्ववित्तं,सुमुनि मदनलाल शुद्धभालं भन्नध्वम् ॥ ६॥ हिन्दी-- सबके मनोरथ पूर्ण करने, कल्पवृक्ष समानजो, , चिन्ता हरणमें थे पुनः, चिन्तामणी परमान जो । Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फिर मोक्ष पथ नेता गुरू उन दिव्य सन्त सुजानको, हे भव्यजन भन भावसे, मुनि मदनलाल महानको ॥ ६ ॥ शमदम प्रशमाया, ये दुरापा गुणास्त्वां श्रयितुमिह यतन्ते, नो स्थलं ते लभन्ते । कथय पुनरुपायं, नामतस्त्वं स्थितस्तंसुमुनि मदनलालं, शुद्धभालं भजध्वम् ॥ ७ ॥ हिन्दी-- दुर्लभ प्रशम शमदमगुणादिक शुद्ध अति गुणवानको निज वास हित पाते नहीं हैं, योग्य सुखमय धामको । कह दो मुने ! वे क्या करें हा छोड़ के श्रीमानको, हे भव्यजन मन भावसे, मुनि मदनलाल महानको ।। ७ ।। तब मुनिवर ? शुद्ध दर्शनं स्वप्नमध्ये,__भवतु करुणदृष्टि र्जायतां सर्व संघ-। इति भविजन शुद्धा प्रार्थना यत्कृते तं, सुमुनि मदनलालं शुद्धभालं भजध्वम् ॥ ८॥ हिन्दीमुनिराज ! हमको स्वप्नमें भी, आपका दर्शन सदा, होता रहे हो करुणदृष्टी, संघके ऊपर सदा । है भव्य जनकी प्रार्थना, जिनके लिये विद्वानको, हे भव्यजन भज भावसे, मुनि मदनलाल महानको ।।८।। घासीलालकृतं स्वेतदष्टकं भावतः पठेत् । यो नरः सततं भक्त्या सत्वरं स सुखी भवेत् ।। ९ ।। हिन्दी-- इस अष्टकको जो पढे, वरने मंगलमाल सदाकाल मुखसे रहे, कहते घासीलाल ॥९॥ Page #6 --------------------------------------------------------------------------  Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ सदेशके शब्द अब तक कानोंमें गूंज कर एक अनुपम रोमांच प्रस्फुटित कर देते हैं। "धर्म पर जो अधिकार कर लेता है वह उसका जीवन भर साथ देता है । धर्मको अपनानेवाला चाहिये । धर्मको अपनाने में कितना त्याग करना पड़ता है ? पूर्व-पुरुषों के उदाहरण समक्ष हैं। उन्होंने धर्म पर सब कुछ न्यौछावर कर डाला, उसीके लिये जिये, उसीके लिये मरे । यह छोटी वात नहीं बहुत बड़ी है । धर्म मिलना कठिन नहीं-पालन करना कठिन है। तुम समझदार हो, सुयोग्य हो, जो पाया है उसे संभाल कर रखोगे तो सब तरहसे समुन्नत बनोगे। ईमानदारी से कदम बढाते रहो तो तुम्हारा जीवन चमके गा, तब क्याही आनंद आयेगा ?" वास्तबमें उस कल्पवृक्षकी छाया असीम थी, कभी छोटी नहीं हुई, जो आया सभाको उसमें स्थान मिला तथा मिली अद्भुत शांति ! करुणाके सागरः गुरुदेवके मनमें करुणाका असीम सागर हिलोरे लेता था। उनके नेत्रों में आर्द्रता थी, वाणीमें सान्त्वनाका स्वर तथा हृदयमें दुःख दूर करने की लगन । सरल तथा शुद्ध हृदय लेकर जो भी उनके निकट आया, उसे आन्तरिक स्नेह से सराबोर कर दिया। जीवन-चित्रण:-- गुरुदेव का जन्म पंजाब प्रान्तके रोहतक जिले के ग्राम : राजपुर' में विक्रम सं० १९५२ में हुआ था। पिताश्री मुरारीलालजी व माता गेन्दोबाई-बडे तपोनिष्ठ धर्मात्मा एवं सरल स्वभावके थे । प्रकृतिने जिस पुष्पको एक कोने में खिलाया, किसे पता था वह अपने सौरभसे संसारको सुरभित कर डालेगा। __उस नये फूलका नाम रखा मातापिताने “ मौजीराम" चूंकि उनके आंगनमें मौज-खुशी फुट पडी थी। मौनीरामजीका वचपन धार्मिक संस्कारों में आगे बढ़ा । ७ वर्ष की उम्रमें मां छोड़ गई । अब पिताही जीवन रक्षक थे, गांवमें कुछ पढाई शुरू की। ९ वर्ष के होने पर देहली मौसीके (मासी) घर आ गये । पहाडी धीरज पर बहूत बडा मसिद्ध जैन घराना था, जहां मौजीरामजीकी शिक्षा सम्पन्न हुई । यौवनमें कदम रखा । मौसाजी की दुकानका कार्य संभाल लिया। किंतु जिन्हें बहुत ऊंची आध्यात्मिक साधना करनी होती है, वे भौतिकताके रंगीन वातावरणमें घिरे नहीं रह सकते । Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीक्षा:-- देहलोमें साधू संतों का आगमन प्रायः सदैव रहा है । चांदनी चौक, वारा शिदरीमें उस समय परम पूज्य, चारित्र चूडामणी, युग प्रधान मुनिवर श्री मयारामजी महाराज के परम प्रतापी शिष्य, श्रद्धेय, गणावच्छेदक, श्री छोटेलाल जी महाराज विराजमान थे। उन्ही के श्री चरणोंका आश्रय श्री मौजीरामजीको मिला । विक्रम संवत १९७१ भाद्रपद कृष्ण दशमी के दिन वामनौली, जिला मेरठ (उ० प्र०) में बड़ो धामधुमसे दीक्षा हुई। उन्हें श्री छोटेलालजी महाराजके शिष्य बहुश्रुत श्री नाथूलाल जी महाराज का शिष्य बनाया गया। और उसी समय नाम परिवर्तन के साथ २ मौनीरामजी से बदल कर आप श्री मदनलालनी महाराज बन गये। विनय-भक्ति तथा वुद्धि-प्रतिभा विनय-भक्ति, तप-संयम, तथा स्वाध्याय-ध्यानमें माण पणसे जुटे रहते थे। बुद्धिप्रतिभा तथा धारणाशक्ति बडी प्रखर थी । ६० गाथाएँ (श्लोक) एक दिन में याद कर लेते थे। आगमों का ज्ञान प्राप्त करके बहुश्रुत वने । माकृत भाषा पर आपका प्रभुत्व था । मुखसे जो शब्दावली निकलती थी, वह बडी शुद्ध तथा प्रभावोत्पादक होती थी। उनकी वाणी ओन था, मनमें उत्साह तथा आत्मामें थी संयमकी लहर। स्वाध्याय-संयमकी कुंजी: लगभग तीन हजार गाथाओंको स्वाध्याय वे प्रतिदिन किया करते थे। उनका यह विचार रहता था कि प्रतिवर्ष सब आगमोंका अर्थ सहित स्वाध्याय हो । प्रायः कहा करते कि " यदि श्रमण स्वाध्याय-रत रहे तो बहुत सी व्यर्थ वातोंसे बचा रहेगा । उसकी साधुतामें ररा पैदा होगा, तप संयममें रुचि बढेगी।" वाणीके जादगर-व्याख्यानवाचस्पति । ___ श्रुतसम्पन्नताके कारण वाचस्पतिजी की वाणीमें अनुभूतिकी स्निग्धता, तर्कका पैनापन और आम्थाकी गंभीरता थी। उनके व्यक्तित्वमें अद्भुत आकपण थे-वाणीकी सारगर्भिता, भाव-प्रवणता और भापाका प्रवल प्रवाह । आने श्रोताओंके तन और मन पर हुकूमत करना उन्हें खूब आता था। उनकी वाणीके वेगवान प्रवाहमें बहकर उनके श्रोता कमी करुण रसकी धारा फुटने पर वरवस रो उठते थे, और कभी हकी सतह पर थिरकते थे । वाणीके इसी जादूने पंजाब मंघ की ओरसे विक्रम सं० १९९२ में उन्हें ' व्याख्यानवाचस्पति' पदसे अभिनन्दित कराया था। Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाजसुधारकः— अपने युग के समाज सुधारकोंमें वाचस्पतिजी सबके अगुआ थे। युवकों और शिथिलाचारियों को चेतावनी देनेवाले उनके तीक्ष्ण वचन वाण, समाजउत्थान, धर्मप्रचार एवं संयम रक्षाके हितार्थ बजाया गया उनका तेजस्वी विगुल, अनुशासन और साधू समाचारीके गौरव के सार-संभाल करने वाले उनके नेत्र - युग्म आज एक स्मृतिमात्र बन कर रह गये हैं । पदकी निलोभताः गुरुदेव जिस कार्यको हाथ में लेते थे उसके लिये अपनेको अर्पित कर देते थे । साथी आत्मा के विरुद्ध दुनियांकी लाख खुशामदों के बावजूद, उक्त कामको छोड़ने में भी नहीं हिचकते थे जिसको वे उपयुक्त न समझते । श्रमण संघ निर्माण में जो कार्य उन्होंने किया, बढ़ी उनकी कर्मशीलता एक प्रमाणे हैं | अमृतसर से अर्थात् हिन्दुस्तान के एक छोर से चले | मौसम सख्त, मार्ग कठिन, तथा शरीर अस्वस्थ । सादडी (मारवाड) पहुॅचे। अथक प्रयत्नोंसे साध्यसिद्धिमें जुटे । जब तक मनमें उद्देश्य पूर्ति की आशा रंही कभी पीछे न हटे । पर जब ढंग खराब देखा, सुधारकी आशा न रही तो जिस लगन और शान से जुटे थे, उसी लगन और शानसे पीछे हट गये । उनके व्यक्तित्व, अनुशासन निष्ठता, संयमकी कड़कता और आगम ज्ञानसे प्रभावित होकर, इन्कार करने पर भी भीनासर साधूसंमेलन के अवसर पर उन्हे प्रधान मंत्री पद दिया गया। किंतु उनकी योग्य देखरेख और यथार्थ पथ प्रदर्शनका लाभ संघ के भाग्य में बंधा नहीं था । श्रमण संघकी आन्तरिक स्थिति बिगडने लगी । आचार्य आचार्य के अधिकारों का स्पष्टीकरण न हो सका ध्वनियंत्र के मसला सुलझने की बजाय और अधिक उलझने लगा, मन्त्रीमंडलका असंतोषप्रद रुख व कार्य देखा तो उन्होंने प्रधान मंत्री पद से फौरन त्यागपत्र दे डाला। गुरुदेवका त्यागपत्र इन कार्योंको शीघ्र हल करने की प्रेरणा देता, यदि उसे उपेक्षित करके अन्धकारमें फेंकन दिया जाता । गुरुदेव भी और मंत्रियों की तरह कागजी कार्यवाहियोंके बल पर अपने पदको बनाये रख सकते थे, किंतु ऊपरी लापापोती करना वे आत्महनन के तुल्य समझते थे । "संतका जीवन मंगल है वहां मरण भी 1 71 गुरुदेवका जीवन जितना महान पा उतनीही मृत्यु भी । एक वर्षसे उन्हें केन्सर था । सर्जिकल इलाज के लिये विनंती की गई तो वडी संजीदगी से फर्माया स्था०-२ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० " भाई ये चंद टके जो संयमके इकट्ठे किये हैं, उस नाशवान् शरीर के लिये नहीं लुटाऊंगा " समुच धन्य थे आप जिन्होंने संयमरूपी टकोंकी संभाल में इस बहुमूल्य शरीरका वलिदान कर दिया । जंडियाला गुरु (जिला अमृतसर) की पावन भूमि गुरुदेव विराजे थे । रोग बढता जाता था, आहार घटता गया। मुंहके जरूम बढते गये। पानी पीना और सांस लेना कठिन हो गया । अन्तिम दिनोंकी वेदना इतनी भयंकर थी कि वर्णन करने कलमका दिल भी दहल उठता है । दर्शन करके हर आदमी का दिल भर आता था । किंतु बाहरे, उनकी अद्भुत सहनशीलता, शांति और मृदु- सौम्यता ! अन्तरात्मा पूर्णतया रोशन थी । उन्होंने अपनी वृत्तियों तथा प्रवृत्तियों को संक्षिप्त कर लिया था। हर समय आत्म समाविका ही ध्यान रहता था । अन्तरात्माकी साक्षीसे चौरासी लाख जीवयोनी और चतुर्विध श्री संघ से खमित - खमाना करके आत्मशुद्धिकी ओर अग्रसर हुए । प्रनि सल्लेखना और संथारे की ओर ध्यान गया । शिष्यों से संधारा कराने को कहा । मौसमकी वडी गरमी और रोगकी भयंकरताको देख कर शिष्य साहस न कर सके । आखिरकार उस नरसिंहने अन्तिम दिन ता. २७ जून १९६३ को स्वयं संथारा धारण कर लिया और समाधि पूर्वक अपनी महायात्राको सम्पन्न किया । गुरुदेव के स्मारक:गुरुदेवकी सुज्ञ - विज्ञ, सुविनीत शिष्य मंडळीमें कितना त्याग - वैराग्य, कितना आपसी स्नेह - प्रेम, कितनी गुरुभक्ति और आदर है । वास्तव में सव मुनिराज पूर्ण समर्थ हैं । सुयोग्य हैं । गुरुदेवश्री के स्मारक स्वरूप हैं । उनकी जीवन्त संस्थाएँ हैं । उनकी अनुपम कृति हैं । उनके दर्शन कर हृदय उल्लसित हो जाता है । श्रद्धा सुमन: गुरुदेव जीवनका जहां से स्पर्श करें वहांसे एक मृदु तथा मधुर झंकार सी उठती हैं । शब्दों में किस प्रकार संजोयें ? क्या अथाह सागर कभी बांधा गया है ? फिर भी मनको श्रद्धाको कुछ अकिंचन शब्द सुमनोंमें गूंथनेका प्रयत्न किया है। कोटि २ वंदन: ऐसी विरल विमल विभूति, ज्ञानी-ध्यानी त्यागी और तपस्त्री महान आत्माको मेरे कोटि कोटि वंदन हैं। उनके श्री चरणोंका शरणा जन्म जन्मान्तरों तक प्राप्त हो । -महताबचंद चोरड़िया दिल्ली — Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આમુરબ્બીશ્રીઓ જ . શેઠશ્રી શાંતિલાલ મંગળદાસભાઈ અમદાવાદ (સ્વ.) શેઠશ્રી શામજીભાઈ વેલજીભાઈ વીરાણું–રાજકોટ = * * * (સ્વ) શેઠશ્રી છગનલાલ શામળદાસ ભાવસાર– અમદાવાદ, * * * * * * ૩ T: : - 1 * ------ અખાનાના કદ્ધની - શેઠશ્રી રામજીભાઈ શામજીભાઈ વિરાણુ-રાજકોટ વચ્ચે બેઠેલા લાલાજી કિશનચંદજી સે જોહરી ઉભેલા સુપુત્ર ચિ મહેતાબચન્દજી સા નાના – અનિલકુમાર જૈન (દયા) Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આમુરબ્બીશ્રીઓ ૧ : પ.પ૦ લીટર વારિઆ (સ્વ) શઠ રંગજીભાઈ મોહનલાલ શાહ ભાવઃ અમદાવાદ ને બિનબાઈ વિરાણી (સ્વશ્રી દિનેશભાઈ કાંતિલાલ શાહ અમદાવાદ, Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * આવમુરબ્બીશ્રીએ શ્રી વૃજલાલ દ્લભજી પારેખ રાજકાય. કોઠારી હરગાવિ જેચંદભાઇ રાજકાય. શેઠશ્રી મિશ્રીલાલજી લાલચંદ્રજી સા. લુણિયા તથા શેઠશ્રી જેવતરાજજી લાલચ છ સા. (સ્વ) શેઠશ્રી ધારશીભાઇ જીવણલાલ ખારસી. સ્વ શ્રીમાન્ રોશ્રી મુકનચંદ્રજી સા. ખાલિયા પાલી મારવાડ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આઘમુરબ્બીશ્રીઓ કરો 1 પદ S - LITY -- * * * ! ! ! ! '+ ! [ * * » સ્વ. શેઠશ્રી હરિલાલ અનોપચંદ શાહ સ્વ. શેઠ તારાચંદ્રની સાદે મેરા ખંભાત, મદ્રાસ, श्रीमान् शेट सा. चीमनलालजी सा. ऋषभचंदजो सा. अजीतवाले (सपरिवार) :: 1 • 5 , , ૧ વચ્ચે બેઠેલા મેટાભાઈ શ્રીમાનું મૂલચંદજી જવાહરલાલજી બરડિયા ૨ બાજુમાં બેઠેલા ભાઈ મિશ્રી લાલજી બરડિયા ૩ દવા વી નાનાભાઈ પૂનમચંદ બરડિયા થી િસદી રીમાનકર સા. રોહિયા Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाङ्गसूत्र भाग चौथेकी विषयानुक्रमणिका विपय mo509 अनुक्रमाङ्क पृष्ठाङ्क पांचवे स्थानका दूसरा उद्देशा १ पांचवे स्थानके दूसरे उद्देशेका विषय विवरण २ विहारके विषय में कल्पने योग्य और नहीं कल्पनेयोग्यका निरूपण२-१० गुरुप्रायश्चित्तका निरूपण ११-१६ निर्ग्रन्थों के राजाके अन्तःपुरमें प्रवेशका निरूपण १६-२० स्त्रियों में रही हुई क्रियाविशेषका निरूपण २०-२३ ६ गर्भके संवन्धमें-गर्भ विषयका निरूपण २३-२८ ७ साध्वी के संबद्ध कथनका निरूपण २८-३६ ८ आस्रव, संवर वगैरह द्वारोका निरूपण ३६-४० ९ आस्रव विशेषरूप क्रिया स्थानका निरूपण ४०-५२ १० निर्जराके उपायभूत परिज्ञाका निरूपण ५२-५४ ११ व्यवहारका निरूपण ५४-७० संयत और असंयतों में सुप्त और जाग्रत के स्वरूपका निरूपण ७०-७२ १३ कर्मवन्धके कारणका निरूपण १४ उपघातके स्वरूपका निरूपण ७४-८१ १५ बोधीके सम्यक प्राप्तिका और अमाप्तिके कारणको निरूपण ८१-९२ संयमके स्वरूपका निरूपण ___५३-१०३ संयम और असंयमका निरूपण १०३-१०८ वादर भेदवाले वनस्पतिका, पांच प्रकारके वादर भेदोंका निरूपण आचार कल्पकेस्वरूपका निरूपण १०९-११९ मनुष्य क्षेत्रमें रहे हुवे पदार्थ विशेषका निरूपण ११९-१२८ २१ ऋषभ विगैरह तीर्थ करोंका निरूपण १२२-१३० भावमवुद्वको कारण के होने पर जिनाज्ञाकी अनतिक्रमणता होने का निरूपण १३१-१४२ २३ आचार्य और उपाध्यायके अतिशयमें रहने पर जिनाज्ञाका अनुल्लंघनका निरूपण १४२-१५१ १८ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ अचार्य और उपाध्यायके गणसे बाहर होनेके विपयका निरूपण २५ ऋद्धिवाले मनुष्य विशेषका निरूपण तीसरा उद्देशा 18 २६ अस्तिकाय के स्वरूपका निरूपण १५९-१७१ २७ इन्द्रियोंके अथको और इन्द्रिय संबंधी पदार्थों का निरूपण १७१-१८७ २८ वादर जीवविशेषका निरूपण १८७-१९१ २९ ३० ३१ ३२ ३३ ३४ ३५ मत्स्यके दृष्टान्त से भिक्षुके स्वरूपका निरूपण ३६ वनीपकके स्वरूपका निरूपण ३७ अचेलक के प्रशंसास्थानोंका निरूपण ३८ उत्कट पांच भेर्दोका निरूपण समितिके पांच प्रकारका निरूपण ३९ ४० atra स्वरूपका निरूपण ४१ वनस्पतिजीव के योनिविच्छेदका निरूपण ४२ ४३ ४४ ४५ ૪૬ ४७ ४८ ४९ सचेतन वायुका विशेष प्रकार से निरूपण करनेवाले निर्ग्रन्थका निरूपण निर्ग्रन्थोंके उपधि विशेषका निरूपण कायादिक धपकरणताका निरूपण aah स्वरूपका निरूपण aur haath ज्ञेय अज्ञेय पदार्थीके त्रिपयका कथन अधोलोक में रहे हुए एवं ऊर्ध्वलोक में रहे हुए अतीन्द्रिय भावका निरूपण पांच प्रकारके संवत्सरका निरूपण जीवका शरीर से निर्गम (निकलना) का निरूपण आयुके छेदका निरूपण आनंतका निरूपण १५१ - १५५ १५६-१५८ पांच प्रकार के अनन्तका निरूपण ज्ञानके स्वरूपका निरूपण स्वाध्याय पंचविधताका निरूपण प्रत्याख्यानके स्वरूपका निरूपण १९२-२०६ २०५-२१० २१०-२१८ २१८-२२१ २२१-२२४ २२५-२२८ २२८-२३० २३०-२३४ २३५-२३७ २३७-२३९ २३९-२४१ २४१-२४४ २४४-२४७ २४७-२५८ २५८- २६० २६०-२६२ २६०-२६२ २६४-२६७ २६७-२६८ २६९–२७० २७१-२७४ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० प्रतिक्रमणके स्वरूपका निरूपण २७५-२७७ ५१ पांच प्रकारके वाचनास्थानका निरूपण २७९-२८१ ५२ नारकादिकों के यथावस्थित भावोंका निरूपण २८१-२८२ ५३ जम्बूद्वीप आदिके यथावस्थित भावोंका निरूपण २८३-२८५ ५४ भरतक्षेत्रमें स्थित तीर्थंकरोंका निरूपण २८५-२८६ ५५ क्षेत्रभूत चमरचञ्चादिका निरूपण २८६-२९० छटा स्थान प्रारंभ५६ छठे स्थानका विषय विवरण २९१ ५७ गणधरोंके गुणका निरूपण २९२-२९६ ५८ जिनाज्ञाका अविराधकपनेका निरूपण २९७-३०० ५९ छद्मस्थों के स्वरूपका निरूपण ३००-३०४ ६० जीवको अजीव करनेका छह पकारताका निरूपण ३०४-३०६ ६१ संसारिकजीवका निरूपण ३०६-३११ ६२ जीवोंके दुर्लभ पर्याय विशेषका निरूपण ३१३-३१८ ६३ 'इन्द्रियार्थों के छ प्रकारका निरूपण । ३१८-३२० '६४ साता और असाताके षड्विधताका निरूपण ३२१-३२२ ६५ छह प्रकार के प्रायश्चितोका निरूपण ३२२-३२४ ६६ छह प्रकारके मनुष्य आदिकोंका निरूपण ३२४-३२५ ६७ छह प्रकारके ऋदिवालोंका निरूपण । ३२६६८ उत्सर्पिणी कालमें जम्बूद्वीप के मनुष्यके प्रमाणका निरूपण ३२७-३२९ ६० छह प्रकारके संहननका निरूपण । ३२९-३३२ ७० छह प्रकारके संस्थानका निरूपण ३३२-३३५ ७१ अनात्मावाले जीवोंको अहित करनेवाले छह स्थानोंका निरूपण ३३५-३३६ ७२ छ प्रकारके आर्य मनुष्योका निरूपण ३३९-३४१ लोकस्थितिका निरूपण ३४१-३४३ जीवोंकी गति और दिशाओंका निरूपण ३४४-३४८ ७५ संयत मनुष्यों के आहारग्रहणऔर आहारका ग्रहण नहीं करनेका निरूपण ३४९-३५२ ७६ उन्मादस्थानका निरूपण ३५२-३५५ ७७ छह प्रकारके प्रमादका निरूपण २५५-२६१ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ N ८४ . ममाद विशिष्ट प्रत्युपेक्षणाका नि पण लेश्याके स्वरूपका कथन देवमूत्रका कथन दिवकुमार्यादिकोका निरूपण धरणेन्द्रादिकोंका सामानिक साहबीका निरूपण विशिष्ट मतिवाले देवोकी गति के भेदका निरूपण तपके भेदोका निरूपण विवादके स्वरूपका निरूपण क्षुद्रप्राणियों के स्वरूपका निरूपण छह प्रकारकी गोचरचर्याका निरूपण असाधुचर्या के फलभोगनेवालौकी गतिका निरूपण साधुचर्या के फल भोगनेवालेका निरूपण नक्षत्रों के स्वरूपका निरूपण संयम और असंयमके स्वरूपका निरूपण मनुष्य क्षेत्रमें रही हुई वस्तुका निरूपण कालविशेषका निरूपण ज्ञानके स्वरूपका निरूपण अवधिज्ञानके स्वरूपका वर्णन ज्ञानि के अवचन-नही कहने योग्यका निरूपण अवचनमें प्रायश्चित्तका कथन कल्प विषयका निरूपण कल्पस्थितिका निरूपण महावीरस्वामी संवधी कथन देवके संबंधी निरूपण अहारका परिणाम और विपरिणामका निरूपण छह प्रकारके प्रश्नका निरूपण इन्द्र के अनादिपनेका निरूपण भेद सहित आयुवन्धका निरूपण औदयिक विगैरह भावों का निरूपण छ प्रकारका मतिक्रमणका निरूपण ३६१-३६७ ३६७-३६९ ३६०-३७० ३७०-३७३ ३७३३७४-३८७ ३८७-३९३ ३९२-३०५ ३९५-३०७ ३०७-४०० ४०१-४८२ ४०२-४०४ २०४-४१० ४१०-४१२ ४१२-४१८ ४१८-४२१ ४२१-४२४ ४२४-४२७ ४२७-४२९ ४२९-४५१ ४५२-४६० ४६१-४७१ ४७१-४७२ ४७३ ४७४-४७७ ४७७-४८० ४८१-४८४ ४८५-४९४ ४९५-५११ ५११-५१५ ९६ ९७ १०० १०१ १०२ १०३ १०४ १०६ १०७ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० १०८ चयादिका कथन ५१६-५१७ सातवें स्थानका प्रारम्भ१०९ सातवें स्थानका विषयविवरण ५१८११० .. सात प्रकारके गणोंके अपक्रमण-निकलनेका निरूपण ५१९-५२६ १११ सात प्रकार के विभङ्गज्ञानका निरूपण ५२६-५४३ ११२ सात प्रकार के जीवोंका निरूपण ५४३-५४८ ११३ संग्रहके स्थानोंका निरूपण ५४८-५५३ ११४ , पिंडैषणाका निरूपण ५५४-५६४ ११५ सात प्रकारकी पृथ्वीयोंके स्वरूपका कथन ५६४-५६९ ११६ बादर वायुकाय के स्वरूपका कथन ५६९-५७० ११७ सात प्रकारके भयस्थानोंका निरूपण ५७१-५७२ ११८ छ छद्मस्थौको जाननेका निरूपण ५७३-५७५ ११९ केवलीयों को जाननेका कथन ५७५ सात प्रकारके मूलगोत्रका निरूपण ५७६-५७९ सात प्रकारका मूलनयका निरूपण ५८०-६०३ १२२ सात प्रकारके स्वरोका निरूपण .६०३-६३६ - लोकोत्तर कायक्लेशोंका निरूपण ६३६-६३८ १२४ मनुष्यलोक और वर्षधर पर्वतों का निरूपण ६३९-६४३ १२५ कुलकर आदिका निरूपण ६४३-६४७ १२६ दण्डनीतिका निरूपण ६४८-६५१ १२७ चक्रवर्ती राजाके एकेन्द्रिय पंचेन्द्रियवाले रत्नों का निरूपण ६५१-६५३ १२८ दुष्पम-सुपम काल ज्ञानका कथन ६५३-६५९ १२९ सात प्रकारके आयुष्यके भेदोंका कथन ६६०-६६१ १३० मल्लीनाथ भगवान्का वर्णन ६६२-६६५ १३१ दर्शनके स्वरूपका निरूपण ६६६-६६७ १३२ छद्मस्थावस्थासे प्रतिवद्ध सूत्रका कथन ६६७-६७० १३३ सात प्रकारकी विकथाओं का निरूपण ६७०-६७४ १३४ आचार्य के सातिशयपनेका निरूपण ६७४-६७७ १२१ १२३ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३७ १३९ १४१ संयम और असंयम आदिके भेदों का निरूपण ६७८-६८१ अतसी कुसुम आदि धान्यों का योनिकाल-उत्पादक । स्थिति कालका निस्पण ६८२-६८४ वादर-अप्कायिक आदिकों का स्थितिकालका निरूपण ६८४-६८५ शक्र और ईशानेन्द्र के अग्रमहिपीयोंकी संख्याका और स्थितिका निरूपण ६८६-६८८ सनत्कुमार आदि कल्यों में रहे हुए देवों की स्थितिका निरूपण ६८९-६९० नन्दीश्वरद्वीपके अन्तर्गत द्वीपों का निरूपण ६९१-६९५ चमरेन्द्रादिवों के अनीक और उनके अनीकाधिपतियों का निरूपण ६९५-७०४ चमरेन्द्रादिको के पादातानीफ और उनके अनीकाधिपतियों का निरूपण ७०४-७१२ सात प्रकारके वचन विकल्पों का निरूपण ७१२ विनयके स्वरूपका निरूपण ७१३-७२७ समुद्घातके स्वरूपका निरूपण ७२७-७३५ निदनों के स्वरूपका निरूपण ७३५-७३९ साता और असाताके स्वरूप का निरूपण ७३९-७४० ज्योतिष्क देवों का निरूपण ७४१-७४५ देवों के निवासभूत कूटोका निरूपण ७४६-७४८ द्वीन्द्रिय जीवों का निरूपण ७४८-७४९ चयादिका निरूपण ७४९-७५१ १४२ १४३ १४४ १४५ १४६ १४७ १४८ १४०, १५० समाप्त Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ॥ श्री वीतरागाय नम: । श्री जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्य श्री घासीलालबति विरचितया सुधाख्यया व्याख्यया समलङ्कृतम् - श्री-स्थानागसून्नम् । (चतुर्थों भागः ) अथ पञ्चमस्थानस्य द्वितीयोद्देशः प्रारभ्यतेउक्तः प्रथमोद्देशकः, सम्पति द्वितीयः मारभ्यते । अस्य उद्देशकस्य अनन्तरोक्तेन उद्देशकेन सह अयमभिसम्बन्धः-अनन्तरे जीववक्तव्यता प्रोक्ता अस्मिबपि सैव उच्यते, इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्येदमादिमं सूत्रम्. तथा-प्रथमोद्देशकान्त्यमत्रेण सहास्य द्वितीयोद्देशकपथममत्रस्यायमभिसम्बन्धः, वत् मूत्र केवलिनिग्रन्थापेक्षया प्रोक्तम् , इदं तु छद्मस्थनिग्रन्थापेक्षया पोच्यते-तत्र निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां विहारविषये कल्प्याकल्प्यविधिमुपदर्शयति पांचवें स्थानका दूसरा उद्देशा .. प्रथम उद्देश कहा जा चुका है, अब इस पांचवें स्थान का यह द्वितीय उद्देश प्रारम्भ होता है, इस उद्देशेका गत प्रथम उद्देशेके साथ इस प्रकारसे सम्बन्ध है, कि प्रथम उद्देशेमें जीव वक्तव्यता कही गई है। सो इस उद्देशे में भी वहीं कही जावेगी तथा प्रथम उद्देशेके अन्तिम सूत्रके साथ इस द्वितीय उद्देशेके प्रथम सूत्रका सम्बन्ध ऐसा है, कि वह सूत्र केवलीकी अपेक्षासे कहा गया है, और यह छमस्थ निर्ग्रन्थकी अपेक्षासे कहा जा रहा है, मो इममें निर्ग्रन्थ और निग्रन्थिनियोंके विहारके विषयमें कंल्पाकल्प विधिको सूत्रकार प्रकट करते हैं-- - - पांयमा स्थानना भी देशो . પહેલો ઉદ્દેશક પૂરો થયે. હવે પાંચમાં સ્થાનને બીજો ઉદ્દેશક શરૂ થાય છે આગલા ઉદ્દેશક સાથે આ ઉદ્દેશકને આ પ્રકારનો સંબંધ છે. પહેલા - ઉદ્દેશામાં જીવવક્તવ્યતાનું કથન કરવામાં આવ્યું છે. આ ઉદ્દેશામાં પણ એ જ વિષયનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવશે પહેલા ઉદ્દેશાના છેલ્લા સૂત્ર સાથે આ ઉદ્દેશાનો સંબંધ આ પ્રમાણે છે – તે પહેલા ઉદ્દેશાના છેલા સૂત્રમાં કેવલીને અનુત્તરોનું કથન કરવામાં આવ્યું છે, ત્યારે આ સૂત્રમાં છવાસ્થ નિર્ચ થના વિહારના વિષયમાં પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે. તેમને (સાધુ અને સાધ્વીઓને) કે વિહાર કઢપે છે. અને કે વિહાર કલ્પ નથી, તે સૂત્રકાર અહીં પ્રકટ કરે છે– स्था-१ - - - Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थानान मूलम्--नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा इमाओ ओ गणियाओ वियंजियाओ पंच महण्णवाओ महाईओ अंत मासरूम दुक्खुत्तो वा तिक्खुत्तो वा उत्तरितए वा संतरितए वा तं जहा- गंगा १ जउणा २ सरऊ ३ एरावई ४ मही ५ | पंचहि ठाणेहिं कप्पइ, तं जहा--भयंसि वा १, दुब्भिक्खसि वा २, पवहेज वा णं कोई ३, ओघंसि वा एजमाणंसि महया ४ वा अणारिएहिं ५ ॥ सू० १ ॥ छाया -नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्मन्थीनां वा इमा उद्दिष्टा गणिता व्यञ्जिताः पञ्चमहार्णवा महानदी : अन्तर्मासस्य द्विकृत्वो वा त्रिकृत्वो वा उत्तरीतुं वा संततुं वा तद्यथा - गङ्गा १, यमुना २, सरयू ३. ऐरावती ४, मही ५। पञ्चभिः स्थानैः कल्पते, तद्यथा - भये वा १, दुर्भिक्षे वा २, प्रव्यथते वा खलु कोsपि ३, कौ वा एजमाने महति वा ४, अनार्येषु ५ ॥ मृ० १ ॥ टीका- 'नो कप्पड़' इत्यादि - निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा इमाः = अग्रे वक्ष्यमाणत्वेन आसन्नतया प्रत्यक्षा उद्दिष्टाः = ' महानद्यः' इति रूपेण सामान्यतोऽभिहिताः, गणिताः = पञ्चसंख्यकत्वेन गणनाविषयीकृताः, व्यञ्जिताः = गङ्गेत्यादि नाम्ना प्रकटीकृताः, पञ्च पञ्चसंकष्पह निग्गंथाणं वा निग्रंथीणं वा' इत्यादि सूत्र १ ॥ 'नो टीको निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थिनियोंको ये उद्दिष्ट सामान्यतासे कही हुई गणित पांच संख्यासे गिन के कही हुई व्यञ्जित प्रगट की पांच महार्णववाली महानदियाँ एक मासके बीच में दो बार या तीन थार उतरना या नाव आदिमें बैठकर पार करना कल्पित नहीं है, वे नंदियां ये हैं- गंगा १ जमुना २ सरयू ३ ऐरावती ४ और मही ५ । ' "नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा " त्याहि टीडार्थ-श्रभष्णु निर्थ थे। भने निर्थ धिनी सोने या उद्दिष्ट, गणित, व्यक्ति, અને પાંચ મહાણું વવાળી મહા નદીઓને એક માસમાં એ વાર કે ત્રણ વાર તેમાં ચાર્લીને અવા ઘેાડી આદિમાં બેસીને પાર કરવાનુ` કલ્પતું નથી. તે પાંચ નદીઓનાં નામ નીચે પ્રમાણે છે— (१) गौंणा, (२) यमुना, (:) सरयू, (४) गैरावती भने (4) भाही. Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टोका स्था०५उ०२सू०१ विहारविषये फल्याकल्प्यनिरूपणम् ख्यकाः महार्णवशः बहूदकाः महानदीः मासस्य अन्तःमध्ये द्वि कृत्वो-वारद्वयं, त्रिःकृत्वो-चारत्रयं वा उत्तरीतुं बाहुनड्डादिना लवयितु सतरीतुं नावादिना सम्यक्तया लवयितुं वा नो कल्पते । उत्तरणसन्तरणयोरकल्पनीयत्वम् आत्मसयमयोविघातस्य शवलचारित्रस्य च संमवात् । उक्त च-" अंतोमासस्य तो दगलेवे करेमाणे सबले" छाया-अन्तर्मासस्य त्रीन् दकलेपान् कुर्वन् शवल इति । दकलेपाजला पांच कारणोंसे इन महानदियों के पार करना कल्पिन भी है, जैसेभयके समयमें १ दुर्भिक्षके समयमें २ कोई निरन्तर कष्ट देता हो तो ऐसी स्थितिमें ३ नदियोंका प्रचुर प्रवाह उन्मार्गगामी होने के समयमें ४ और अनार्या द्वारा आक्रमण होने के समय में ५ इन महानदियोंको जो उद्दिष्ट विशेषण दिया गया है, उसका कारण यह है, कि ये "महानदियां हैं, इस रूपसे ये कही गई हैं, तथा ये पांच संख्यामें यहां प्रकट की गई है, इसलिये "गणिताः" इस विशेषणसे इन्हे विशेषित किया गया है, तथा “गंगा जमुना" इत्यादि नामों द्वारा इन्हें अभि. हित किया गया है, इसलिये "व्यचिता" इस पदसे इन्हें युक्त किया गया है, महार्णव शब्दसे यह समझाया गया है, कि ये महानदियां बहुत पानीवाली होती हैं, इनमें अगाध जल रहता है, इन महानदियों में उतरना या इन्हें नाव आदिमें बैठकर पार करना इसलिये निषिद्ध નીચેના પાંચ કારણોને લીધે તેમને તે મહા નદી પાર કરવાનું ४६ छ ५९] म३-(१) मयना समयमां, (२) हुर्भिक्ष ( ना) समयमा (૩) કેઈ નિરંતર કષ્ટ દેતું હોય એવી પરિસ્થિતિમાં, (૪) નદીઓને પ્રચુર પ્રવાહ ઉન્માર્ગગામી થાય ત્યારે અને (૫) અનાર્યો દ્વારા આક્રમણ થાય ત્યારે આ મહાનદીઓને “ઉષ્ટિવિશેષણુ લગાડવામાં આવ્યું છે કારણ કે તેમને ઉદ્દેશીને એમ કહેવામાં આવ્યું છે કે તે મહાનદીઓ છે. તેમને यांयनी सध्यामां मही ५४ट ४२वामा आपी छे, तथा तमने "गणिता" આ વિશેષણ લગાડવામાં આવ્યું છે. તથા “ગંગા, જમુના આદિ નામો દ્વારા તેમને અભિહિત કરવામાં આવેલ છે, તેથી તેમને “યંજિતા ” વિશેપણ લગાડવામાં આવ્યું છે. “મહાર્ણવ” આ શબ્દ દ્વારા એ વાત પ્રકટ કરવામાં આવી છે કે તે મહાનદીઓ બહુ જ પાણવાળી છે તેમાં અગાધ જળ હોય છે. આ મહાનદીઓમાં ઉતરવાને અને નાવ આદિ દ્વારા તેમને પાર કરવાનો, તે કારણે નિષેધ કરવામાં આવ્યું છે કે એવું કાર્ય કરવાથી Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ स्थानानसूत्रे वतरणम् । ता एव महानदी : मोह - तद्यथा - गङ्गा, यमुना इत्यादि । पञ्चस्थानकानुरोधादत्र प्रसिद्धा गङ्गादयो महानयः प्रोक्ताः तेन इवोsतिरिक्ता अपि बदका महानद्यो न कल्पन्ते उत्तरीतुं सन्तरीतुं वेति बोध्यम् । इत्वं निषेधमुक्त्वा सम्प्रति तदपवादमाह - पंचहि ठाणेहिं ' इत्यादि । पञ्चभिः स्थानः साधूनां साध्धीनां वा इमा यहूदका महानदीः उत्तरीतुं संतरीतुं वा कल्पते । यैः स्थानः कल्पते तानि स्थानानि माह तद्यथा-मये शत्रुभूतराजादिजनिते धर्मोपकरणहरणविषय के कहा गया है, कि ऐसे कार्थसे आत्मा और संयमका विराधना होता है, और चारित्रमें शबलता आनी है। कहा भी है- "अंतो मासस्स तओ" इत्यादि दकले शब्दका अर्थ जलमें उतरना जलको नाव आदिके द्वारा पार करना ऐसा है, यहां पञ्चस्थानक के अनुरोधसे प्रसिद्ध गंगा आदि महानदियांही प्रकटकी गई हैं, अतः इनसे भी अतिरिक्त जो बहुकवाली महानदियां हैं, उनमें भी उतरना और उन्हें पार करना भी साधु सीके लिये कल्प नहीं है । इस प्रकार से यह कथन निषेधमुखसे किया है, अब इस विषय में जोअपवाद है, उसे प्रकट करनेके निमित्त सूत्रकार कहते हैं- " पंचहि ठाणेहिं" इत्यादि हां इन पांच कारणोंके उपस्थित होने पर साधु और साध्वियों को ये बकवाली महानदियों में उत्तरना और उन्हें नाव आदि द्वारा पार करना पडे तो वे कर सकते हैं वे पांच कारण इस प्रकार से हैं- शत्रु भूत किसी राजा आदि द्वारा यदि ऐसा भय આત્મા અને સંયમના ત્રિધાત થાય છે, અને ચારિત્રમા શબલતા (કમજોરી ) आवे छे. - पाछे - " अतो मासस्स तओ " इत्यादि. , “४४झेय" या शब्दना अर्थ "मां उतरवु' अथवा भसने नाव आदि દ્વારા પાર કરવું થાય છે. અહી પાંચ સ્થાનનું પ્રકરણ હોવાથી ગ’ગાદિ પાંચ પ્રખ્યાત મહાનદીએ જ પ્રકટ કરવામાં આવી છે. પણ તે સિવાયની જે ઘણા પાણીવાળી મહાનદીએ છે, તેમાં ઉતરવાનું અને તેમને પાર કરવાનું પણ સાધુ સાધ્વીઓને કલ્પતું નથી, એમ સમજવું. આ પ્રકારે તે પાંચ નદીઓને પાર કકવાને નિષેધ કરવામાં આવ્યો છે. છતાં પશુ તેના જે અપવાદ છે, તે હવે પ્રકટ કરવામાં આવે છે "पंचहि ठाणेहि ” इत्यादि-नीयेना यांग अरथे। छलवे तो तेथेो અગાધ જળવાળી અને ઉપર્યુંક્ત વિશેષશેવાળી તે મહાનદીએમાં ઉતરી શકે છે, અથવા તેમને નાવ આદિ વડે પાર કરી શકે છે(૧) કૈાઇ શત્રુ રાજને Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खुँघेाटोका स्था०ंड०२०२ विहारविषये कल्पया कल्पयनिरूपणम् ५ भये सति २ | दुर्भिक्षे वा अथवा भिक्षाया अभावे सति ३ | वा=अथवा कोऽपि शत्रुत्त्रमापत्रः पुरुषो निरन्तरं प्रव्यथते - अन्तर्भावितण्यर्थत्वाद् व्यथामुत्पादयति चेता, अथवा - ' महेद् वा खलु कोऽपि ' इविच्छाया, कोऽपि पुरुषो गङ्गादौ पत्रहेत् - प्रवाहयेत् = क्षिपेत् तदा ३ | अत्रापि अन्तर्भावितण्यर्थता | वा = अथवा दकौवे - उन्मार्गगामितया मचुरे गङ्गादीनाम् जलसमूहे महता वेगेन एजमाने = आगच्छति सति ४। वा=अथवा अनार्येषु म्लेच्छेषु आक्रामत्सु सत्सु - म्लेच्छेभ्यो जीवनचारित्रादीनामपहारसंभवात् तदाक्रमणे सति ५। एभिः पञ्चभिः कारणैनिर्ग्रन्था निर्ग्रन्थ्यो वा गङ्गाद्या महानदीरुत्तरीतुं संतरीतुं वा शक्नुवन्ति । तदुक्तम्अवाहे दुब्भिक्खे, भए दओघंसि वा महंतंसि । परिभवतालणं वा, जया परो वा करेज्जासि ॥ १ ॥ 1 66 छाया - आवाधायाम् दुर्भिक्षे भये दौधे वा महति । परिभवताडन वा यदा परो वा करिष्यति ।। १ ।। इति ॥ सू० १ ॥ उपस्थित किया गया हो कि जिसमें धर्मेपकरणके अपहरण होने की बात हो, अथवा दुर्भिक्ष भिक्षाकी प्राप्ति जय नहीं रहीं हों अथवा शत्रुताको धारण करनेवाला कोई पुरुष निरन्तर व्यथाको कष्टको दे रहा हो अथवा कोई पुरुष गङ्गा आदि में बहा देता है, अथवा उन्मा गंगामी हो जाने से गंगा आदिका प्रचुर जलसमूह बडे - वेगसे घढ रहा हो अथवा जब म्लेच्छ अनार्यजन आक्रमण कर रहे हों और ऐसी स्थिति में उनसे जीवन की या चारित्रकी अपहृति (नाश) होने की संभावना हो तो ऐसे इन पांच कारणोंके होने पर निर्ग्रन्थ-साधु साध्वियों को गंगा કારણે એવા ભય ઉપસ્થિત થયા હોય છે કે જેને લીધે ધર્મોપકરણના અપહરણના ભય ઉત્પન્ન થયેા હાય. (૨) દુર્ભિક્ષને કારણે . જે સિક્ષાની પ્રાપ્તિ अशज्य जनी गई होय, (3) अथवा है. शत्रु निरन्तर व्यथा ( अष्ट ) પહાંચાડી રહ્યો હાય, અથવા (૪) ઉમાગગામી થવ ને કારણે ગંગા આદિને પ્રચુર જલસમૂડ ઘણા જ વેગથી વૃદ્ધિ પામી રહ્યો હાય અથવા કાઈ વ્યક્તિ પેાતાને પરાણે ગંગા આદિમાં ડુબાડી દેશે એવા ભય ઉત્પન્ન થયા ઢાય, અથવા (૫) મ્લેચ્છોનુ જ્યારે આક્રમણ થઇ રહ્યું હોય અને તે કારણે જ્યારે જીવન નષ્ટ થવાના સંભવ જણાતા હાય, આ પાંચ કારણેા જ્યારે ઉપસ્થિત થાય, ત્યારે શ્રમણ નિગ ચા અને નિ'થીઓને ગગાદિ મહાનદીઓમાં ઉતરવાનું અને નાવ આદિ દ્વારા તેમને પાર કરવાનું ક૨ે છે પણ ખરૂ, Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानागने मूलम्-णो कप्पइ णिग्गंथाण वा णिगंथीण वा पढमपाउसंसि गामाणुगामं दूइजित्तए । पंचहिं ठाणेहिं कप्पइ, तं जहा-भयसि वा दुभिक्खंसि वा जाव महया वा अणारिएहिं । वासावासं पनोसबियाणं णो कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा गामाणुगामं दुइजित्तए । पंचहि ठाणेहिं कप्पइ, नं जहा- णाणट्रयाए १ दंसणट्रयाए २ चरित्तट्टयाए ३ आय. रिय उवज्झाया वा से विसुंभेज्जा, ४ आयरियउवज्झायाण वा बहिया वेयावच्चकरणयाए ५॥ सू० २ ॥ छाया-नो कल्पने निनन्यानां वा निर्ग्रन्थीनां वा प्रथमपाटपि ग्रामानु. ग्रामं द्रोतुम् । पञ्चभिः स्थानः कलपते, तद्यया-भये वा दुर्मिक्ष वा यावत् महता, वा अनार्येषु । वर्षावासं पर्युषितानां नो कल्पते निर्म न्यानां वा निर्गन्धीनां वा प्रामानुग्राम द्रोतुम् । पञ्चभिः स्थानः कल्पते, तद्यपा-ज्ञानार्यतया १, दर्शनार्थतया २, चारित्रार्थतया ३, आचार्योपाध्याया वा तस्य विष्वग्भवेयुः ४, आचार्योपाध्यायानां वा वहिः वैयारत्यकरणतया ५॥ सु० २॥ टीका-'णो कप्पइ' इत्यादि-- प्रथमप्रापि-प्राट् वर्षाऋतुः सा जवन्यमध्यमोत्कृष्टभेदेन त्रिविधा। तत्रजघन्या चतुर्मासप्रमाणा-आषाढ़पूर्णिमायां चातुर्मासनिवासार्थ समागमनात् १, आदि महानदियों में उतरना और नाव आदि द्वारा उन्हें पार करना कल्पित है । कहा भी है-" आवाहे दुन्भिक्खे" इत्यादि। ___ इस गाथाका अर्थ पूर्वोक्तानुसारही है ।।मू०१॥ 'णो कप्पह णिग्गंधाण वा णिग्गंधीण वा पढमपाउसंसि' इत्यादि २ ॥ टीकार्थ-वर्षा ऋतु जघन्य मध्यम और उत्तमके भेदसे तीन प्रकारकी कही गई है, इनमें चातुर्मास प्रमाण जो वर्षाऋतु है वह जघन्य वर्षाऋतु ह्यु पश्य मे छ ? " आवाहे दुमिक्खे" त्यामा माथाना सय ५२ લખ્યા અનુસાર જ સમજ. | સૂ. ૧ છે ___ "णो कप्पद णिगंथाण वा णिग्गंधीण वा पढमपाउसंसि" त्याह ટીકાઈ–વર્ષ તુને જઘન્ય, મધ્યમ અને ઉત્કૃષ્ટના ભેદથી ત્રણ પ્રકારની કહી છે. તેમાંથી ચતુમય પ્રમાણ જે વર્ષાઋતુ છે, તેને જઘન્ય વર્ષાઋતુ કહે છે. Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुघाटीका स्था०५४०२०१ विहारविषये करण्याकल्पयनिरूपणम् मध्यमा पञ्चमासिकी दृष्टि बाहुल्यादिकारणेनापाढकृष्णमतिपदायामेव समागमनात् २ उत्कृष्टा - पण्मासप्रमाणा पूर्वोक्त कारणवशादापाठकृष्णप्रतिपदात आरभ्याधिकमाससद्भावेन कार्त्तिकों यावद् भत्रति । प्रथमा चासौ प्रावृट् चेति प्रथमप्रावृट् । मातृइ-हेमन्त - ग्रीष्मरूपाणां त्रयाणाम् ऋतूनां मध्ये प्रावृषः प्राथम्यात् मातृड् ऋतुः प्रथममाद् इत्युच्यते । तस्मिन् निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां वा ग्रामानुग्रामम् = ग्राममनुगतो ग्रामः - ग्रामानुग्रामस्तम् नो कल्पते द्रोतुं गन्तुं है, वह आषाढकी पूर्णिमासे लेकर चार मास तक निवासके लिये होती है १ मध्यम वर्षाऋतु पांच महिने की होती है, वृष्टिकी अधिकता होने पर यह आषाढ कृष्ण प्रतिपदासेही आ जाती है, उत्कृष्ट वर्षाऋतु छह महिनेकी होती है, पूर्वोक्त कारणके वशसे आषाढ कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अधिक मासके सद्भाव हो जाने से कार्तिक तक होती है, प्रथम जो वर्षाऋतु है, वह प्रावृट्-वर्षाऋतु है, इसे जो प्रथम प्रावृट् वर्षाऋतु कहा गया है, उसका तात्पर्य ऐसा है कि प्रावृट्र हेमन्त एवं ग्रीष्म इन तीनमें इन तीन ऋतुओं के मध्य में वर्षाऋतुको प्रथम गिना गया है, इसलिये यहां वर्षाऋतुको “ प्रथम " विशेषणसे विशेषित किया गया है, ताप इसका यही है, कि जब वर्षाऋतु प्रारम्भ हो जाती है, तथ निर्ग्रन्थों एवं निर्ग्रन्थिनियोंको एक गाँव से दूसरे गांव में विचरण करना " 6 તે અષાઢી પૂનમથી શરૂ કરીને કાર્તકી પૂનમ સુધીના ચાર માસની હાય છે. મધ્યમ વર્ષાઋતુ પાંચ માસની હોય છે વૃષ્ટિની અધિકતા હોય ત્યારે તે અષ દ્રી કૃષ્ણ પ્રતિપાદથી શરૂ થઈ જાય છે. (ગુજરાતમાં દરેક માસના શુકલ પક્ષ પહેલાં અને કૃષ્ણપક્ષ પછી આવે છે જ્યારે મારવાડ વગેરેમાં કૃષ્ણપક્ષ પહેલા અને શુકલપક્ષ પછી આવે છે. આ રીતે અષાઢ વદ એકમથી વર્ષોંઋતુ શરૂ થાય તે પાંચ માસની વર્ષાઋતુ થાય છે. ) ઉત્કૃષ્ટ વર્ષાઋતુ છ માસની હાય છે. પૂર્વાંકત કારણે અષાઢ વદી એકમથી વર્ષાઋતુ શરૂ થતી હાય અને વચ્ચે કોઇ અધિક માસ આવતા હૈાય ત્યારે વર્ષાઋતુ છ માસની થાય છે. પ્રથમ જે વર્ષાઋતુ છે તેને પ્રાવૃત્ વર્ષાઋતુ કહે છે. પ્રવૃ વર્ષા, હેમન્ત અને ગ્રીષ્મ આ ત્રણે ઋતુઓમાં વર્ષાઋતુને પ્રથમ ગણવામાં આવી હાવાથી વર્ષાઋતુની આગળ “ પ્રથમ ” વિશેષણુ વપરાયુ' છે. આ સૂત્રમાં એવું પ્રકટ કરવામાં આવ્યુ છે કે જ્યારે વર્ષાઋતુને પ્રારંભ થાય છે, ત્યારે નિગ્ર થા અને નિષ્રથીઓને એક ગામથી ખીજે ગામ વિહાર કરવાના નિષેધ કર્યાં છે. આગમમાં 66 આ પ્રકારના વિહાર સાધુઓને કલ્પતા નથી ” એવું વિધાન Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . स्थानागसूत्रे जीवै भूमेयाप्तत्वात् । इत्थं निर्गमननिषेधमुक्त्वा सम्प्रति तदपवादमाह-पंचहि ठाणेहिं ' इत्यादि । सूत्राक्तै भयदुर्भिक्षादिभिः कारणैरतु गन्तुं करपते एवेति । 'वासावास' इत्यादि-वर्षापासंर्पाकालं पपितानां स्थितानां निर्ग्रन्यानो निर्ग्रन्थीनां वा ग्रामानुग्रामं गन्तु न कल्पते । ज्ञानार्थतादिभिः पञ्चभिः स्था. नैस्तु कल्पते एव । तदेवोपदर्शयितुमाह-पंचति ठाणेहिं ' इत्यादि । तथाहिनिपिद्ध है, आगमसे वर्जित हैं, क्योंकि उस समय दीन्द्रियादि जीवोंसे भूग्नि व्याप्त हो जाती है, इस तरह से एक ग्रामसे दूसरे ग्राममें जानेका निषेध प्रकट कर अब सूत्रकार इसमें जो अपबाद मार्ग है, उसका कथन करते हैं-"पंचहि ठाणेहिं कप्पद " इत्यादि । यद्यपि वर्षातुमें साधु साध्वियों को एक स्थानसे दूसरे स्थान में आनाजाना शास्त्राज्ञानुसार निषिद्ध है, और ऐसाही यह उत्सर्ग मार्ग है, परन्तु फिर भी इस विषयमें अपवाद मार्ग ऐसा है, कि यदि सूत्रोक्त भय दुर्भिक्ष आदि कारण उपस्थित हो जाते हैं, तो ऐसी स्थितिमें वर्षा ऋतुमें भी साधु आदिको एक स्थानसे दूसरे स्थान ग्राममें जाना कल्पित कहा गया है । " वासावासं पज्जोसविधाणं णो कप्पह०॥ इत्यादिवर्षाकालमें एक स्थान पर ठहरे हुए साधु आदिको एक गांवसे दूसरे ग्राम विहार करना उचित नहीं है-शास्त्राज्ञासे विरुद्ध है, परन्तु-"पं. चहि ठाणेहिं कप्पइ तं जहाँ णायाए ? ' इत्यादि-इन कारणों को लेकर वे वर्षाकाल में भी एक स्थान से दूसरे स्थान पर जा सकते हैं, इनमें सबसे पहिला प्रयोजन रूप कारण ऐना है, कि यदि वे ज्ञान છે, કારણ કે તે સમયે ભૂમિ હીન્દ્રિય દિ જીવોથી વ્યસ્ત હોય છે આ રીતે વર્ષાકાળમાં એક ગામથી બીજે ગામ વિહાર કરવાનો નિષેધ ફરમાવીને હવે સૂત્રકાર તેના જે અપવાદે છે તે પ્રટ કરે છે "पच हि ठाणेहि कप्पह " त्याहि-नयना पाय २२ माथा પણ કારણ ઉપસ્થિત થાય તે એવા સંગમાં વર્ષાઋતુમાં પણ સ ધુ સાધ્વીને से सामथी भीर माम विडा२ ४२३। ४६ " वामावासं पज्जोसवियाणं णो कप्पह" त्याहि-q lon! गे: ममा २९। साधु सापाने त ગમથી બીજે ગામ વિહાર કરે તે ઉચિત નથી-એવું કરવું તે શઆજ્ઞાથી वि.छे ५२-तु " च चहि ठणे िकप्पइ जहा णाणदयाए१ " त्याल નીચે બતાવેલા પાંચ કારણોને લીધે તેઓ વર્ષાવતુમાં પણ એક ગામથી બીજે ગામ વિહાર કરી શકે છે– Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०५उ०२सू०२ विहारविपये कल्प्याकल्प्यनिरूपणम् ज्ञानार्थतया-ज्ञानमेव अर्थ:-प्रयोजन यस्य स जानार्थः, तस्य भावरतत्ता तयाज्ञानप्रयोजनमुद्दिश्य गन्तुं कल्पते । अयं भावः-कश्चिदाचार्यो पूर्वश्रुतस्कन्धधारको भक्तं प्रत्याख्यातुकामो भवेत् । यदि तत्सकागादसावपूर्वश्रुतस्कन्धो न गृह्येत तदाऽसौ विच्छिद्येत, अतस्तद्ग्रहणार्थ गन्तुं कल्पते इति १ । एवं दर्शनार्थ. तया भक्तं प्रत्याख्यातुकामात् कुतश्चिदाचार्याद् दर्शनप्रभावकशास्त्राध्ययनार्थ गन्तुं कल्पते इति । तथा-चारित्रार्थतया यत्र क्षेत्रे वर्षावासस्थितिः कल्पिता, प्राप्त करने के लिये अभिलापी है, तो इस उद्देश्यको लेकर वे उस काल में विहार कर सकते हैं १ । तात्पर्य इसका ऐसाहै-कि अपूर्व श्रुतस्कन्धधारक कोई आचार्य हो, और वह भक्त प्रत्याख्यान(सथागकरनेका अभिलापी हो रहा तो ऐसी स्थितिमें यदि उसके पास जाकर वह अपूर्व श्रुतस्कन्ध ज्ञान प्राप्त नहीं किया जाता है, तो उसका विच्छेद हो जाता है, अत: वह अपूर्व श्रुतस्कन्ध विच्छिन्न हो जाये इस अभिलापासे प्रेरित हुआ साधु उस ज्ञानको प्राप्त करने को वर्षाकालमें भी विहार कर सकता है, दूसरा कारण है, ऐमा है कि दर्शन प्रभावक शास्त्रका ज्ञाता यदि कोई आचार्य भक्त प्रत्याख्यान करनेवाला हो रहा हो तो उससे उस दशेन प्रभावक शास्त्रको अध्ययन करनेके लिये साधु वर्षाकालमें भी उसके पास जानेके लिये विहार कर सकता है २। तृतीय कारण ऐसा (૧) જ્ઞાનાર્થે—કઈ સાધુ જ્ઞાન પ્રાપ્ત કરવાની અભિલાષાવાળો હોય, તે તે ઉદ્દેશ્યને લીધે ને વાળમાં પણ વિકાર કરી શકે છે. આ કથનને ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે – અપૂર્વ શ્રતસ્કન્ધ ધારક કેઈ આચાર્ય હોય, અને તે આચાર્ય ભક્તપ્રત્યાખ્યાન (ચતુવિધ આહારના ત્યાગપૂર્વક સંથારો) કરવાની અભિલાષા સેવાતું હોય તે એવી પરિસ્થિતિમાં જે તેની પાસે જઈને કઈ જ્ઞાનપિપાસુ સાધુ તે અપૂર્વ મૃતકન્ય જ્ઞાન પ્રાપ્ત કરી ન લે તે તેને વિચ્છેદ થઈ જવાને સંભવ રહે છે તેથી તે અપૂર્વ કૃતક જ્ઞાન વિછિન્ન ન થઈ જાય એવી શુભ અભિલાષાથી પ્રેરિત થયેલે સાધુ વર્ષાકાળમાં પણ તે જ્ઞાનને પ્રાપ્ત કરવા માટે વિહાર કરીને ને શ્રુતસ્કન્ધ ધારક સાધુ પાસે જઈ શકે છે હવે બીજુ કારણ પ્રકટ કરવામાં આવે છે–દર્શન પ્રભાવક, શસ્ત્રના જ્ઞાતા એવા કેઈ આચાર્ય ભક્ત પ્રત્યાખ્યાન કરવાને શ્ચિાર કરી રહ્યો હોય તે તે દર્શનપ્રભાવક શાસ્ત્રને અભ્યાસ કરવા નિમિત્ત સધુ વર્ષાકાળમાં પણ તેમની પાસે જવાને માટે વિહાર કરી શકે છે. स्था -२ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाङ्गसूत्रे १० तत्क्षेत्रं यदि अनेपणास्त्रयादि दोपदुष्टं भवेचदा चारित्ररक्षणार्थं कल्पने गन्तुमिति ३ | तथा - आचार्योपाध्याया वा 'मे' इति तस्य साधोः अत्र जानावेकवचनं, तेन तेषां साधूनामित्यर्थः, विष्वग्भवेयुः = शरीरात् पृथग्भवेयुः म्रियेरन्, तत्र गच्छे चेदन्य आचार्य उपाध्यायो वा न भवेत् तदा तेषां साधूनां कल्पते गन्तुमिति । अथवा - ' विसुंभेज्जा' इत्यस्य विश्रम्भेपुरितिच्छाया । आचार्योपाध्यायाः तस्य = तं साधुं विश्रम्भेयुः - विश्वस्युः, तदाऽत्यन्तरहस्य कार्यं कर्तुं तस्य साधो र्गन्तुं कल्पते इति ४| तथा - आचार्योपाध्यायानां हि वर्षाक्षेत्राद् वहिर्वर्त्तमानानां रोगादिग्रस्तानां वैयावृत्यकरणतया वैयावृत्यकरणार्थ साधो गन्तु कल्पते ॥ ५ ॥ इति ॥ सू० २ ॥ है, कि जिस स्थान में वर्षावास किया है, वह क्षेत्र यदि अनेपणा स्त्री आदि के दोष से दुषित है, तो अपने चारित्रकी रक्षा के लिये साधु वर्षाकालमें भी अन्यत्र जा सकता है, चतुर्थ कारण ऐसा है, वर्षावास करनेवाले साधुओं का यदि कोई आचार्य अथवा उपाध्याय शरीरसे पृथक्कू हो गया हो - मर गया हो और उस गच्छ में अन्य आचार्य या उपाध्याय न हो तो ऐसी स्थिति में उन साधुओंका वर्षाकालमें भी अन्यत्र विहार करना कल्पिक कहा गया है अथवा - " विसुंभेज्जा की संस्कृत छाया " विश्रम्भेयुः " ऐसी भी होती है, तो इस पक्षमें इसका ऐसा अर्थ होता है, कि वे आचार्य अथवा उपाध्याय यदि उस साधु का विश्वास करते हैं, तो अत्यन्त रहस्यमय (गुप्त) उस कार्यको करने के लिये उस साधुका वर्षाकालमें भी बिहार करना कल्पित कहा गया है, 33 ત્રીજું કારણ આ પ્રમાણે છે—જે સ્થળે ચાતુર્માસમાં વાસ કર્યાં હાય, તે ક્ષેત્ર જો અનેષણા, શ્રી આદિના દોષથી દૂષિત હાય, તે પેત'ના ચારિ ત્રની રક્ષા નિમિત્તે સાધુ ત્યાંથી અન્ય સ્થળે વિહાર કરી શકે છે. 66 ચેાથુ કારણ આ પ્રમાણે છે—કઇ ક્ષેત્રમાં ચાતુર્માંસ વર્ષોંવાસ કર્યાં બાદ જો તે સાધુઓના આચાય અથવા ઉપાધ્યાય કાળધર્મ પામી જાય, અને તે ગચ્છમાં અન્ય આચાય અથવા ઉપાધ્યાય ન હાય, તે એવી પરિસ્થિતિમાં તે સાધુઓને વર્ષાકાળ દરમિયાન પણ વિહાર કરવા ક૨ે છે અથવા विसु भेज्जा " मा पहनी संस्कृत छाया विश्रम्भेयुः આ પ્રમાણે પણ થાય છે. તે તે સસ્કૃત છાયાની અપેક્ષાએ આ પ્રમાણે અર્થ થાય છે-- જો તે આચાર્ય અથવા ઉપાધ્યાય તે સાધુ ઉપર ખૂમ જ વિશ્વાસ ધરાવતા હાય તે કોઈ અત્યન્ત રહસ્યમય કામ કરવાને માટે તે સાધુને વર્ષાકાળમાં પશુ વિહાર કરવા ક૨ે છે. પાંચમું કારણ નીચે પ્રમાણે છે— " " Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०५ उ २ सू ३ गुरुप्रायश्चित्तनिरूपणम् छमस्थाः केचित् अनुद्घातिका भवन्तीति अनुद्घातिकानां पञ्च स्थानानिप्राह मूलम्-पंच अणुरघाइया पण्णत्ता, तं जहा-हत्थकम्मं करेमाणे १, मेहुणं पडिसेवमाणे २, राईभोयणं भुंजमाणे ३, सागारियं मुंजमाणे ४, रायपिडं मुंजमाणे ५ ॥ सू० ३॥ छाया–पञ्च अनुद्घातिकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-हस्तकमकुर्वाणः १ मैथुनं पतिसेबमानः २ रात्रिभोजनं भुञ्जानः ३ सागारिकपिण्डं शुञ्जानः ४, राजपिण्ड भुजानः ५॥ मू० ३ ।। टीका-पंच अणुग्घाइया' इत्यादि अनुद्घातिकाः-उद्घात लघूकरणं, स न विद्यते यस्य प्रायश्चित्तरूपतपोविशेषस्य तत् अनुयातं-गुरु प्रायश्चित्तम् , तदस्ति येषां प्रतिसेवनाविशेषवशात्तेऽनुद्घातिकाः ते च पञ्चसंख्यकाः प्रज्ञप्ता । तद्यथा-' हस्तकमकुर्वाणः' इत्यादि। पांचवां कारण ऐसा है, कि वर्षाक्षेत्रसे बाहर वर्तमान आचार्य या उपाध्याय हों और वे रोगग्रस्त हो गये हों तो ऐसी स्थितिमें उनकी वैयावृत्ति करनेके लिये साधुका बाहर जाना कल्पित कहा गया है ५।२। कितनेक छमस्थ अनुद्घातिक होते हैं। अतः अब सूत्रकार उन अनुदूघातिकों के पांच स्थानोंका निरूपण करते हैं_ 'पंच अणुग्घाइया पण्णत्ता' इत्यादि सूत्र ३ ॥ टीकार्थ-उद्घात शब्दका अर्थलघु करनाहै, यह लघुकरण रूप उद्घात जिस प्रायश्चित्त रूप तपविशेषका नहीं होता है, ऐसा वह गुरु प्रायश्चित्त प्रतिसेवना विशेषके वशसे जिनको होता है, वे अनुदधातिकहें। ये अनुद्घातिक पांच प्रकारके होते हैं-एक हस्तकर्मको करनेवाले १ दूसरे (૫) સાધુઓએ અમુક ક્ષેત્રમાં વર્ષાવાસ કર્યો હોય, અને તે ક્ષેત્રની બહારના કેઈ ક્ષેત્રમાં રહેલા આચાર્ય અથવા ઉપાધ્યાય બીમાર થઈ જાય, તે એવી પરિસ્થિતિમાં તેમનું વૈયાવૃત્ય (સેવા) કરવા માટે સાધુને વિહાર ४२३। ४६च्य गाय छे. ॥ सू. २ ॥ કેટલાક છવસ્થ અનુદ્દઘાતિક હોય છે. હવે સૂત્રકાર તે અનુવાતિ કેના पांय स्थानानु नि३५ छ-"पंच अणुग्घाइया पण्णत्ता " त्याह ટીકાર્થ–“ઉદ્દઘાત” એટલે “લઘુ કરવું આ લઘુકરણ રૂપ ઉદ્ઘાત જે પ્રાયશ્ચિત રૂપ તપવિશેષને થતું નથી એવુ તે ગુરુ પ્રાયશ્ચિત્ત પ્રતિસેવના વિશેષના પ્રભાવથી જેમને થાય છે, તેમને અનુદ્દઘાતિક કહે છે. તે અનુદ્ધાતિક નીચે પ્રમાણે પાંચ પ્રકારના હોય છે—(૧) હસ્ત કર્મ કરનારા, (૨) મિથુનનું સેવન Page #32 --------------------------------------------------------------------------  Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधाटीफा स्था० ५ उ०२ सू०३ गुरूप्रायश्चित्तनिरूपणम् "संति मे सुहुमा पाणा, तसा अदुव थावरा । जाओ राओ अपासतो, कहमेसणियं चरे ॥१॥ उदउल्लं बीयसंसतं, पाणा निवडिया महि । दिया ताहि विवज्जिज्जा, राओ तत्थ कह चरे ॥२॥ एयं च दोसं दण, नायपुत्तेण मासियं । सव्याहारं न सुंअंति, निग्गंथा राइभोयणं ॥३॥ छाया -सन्ती मे सूक्ष्माः प्राणाः सा अथवा स्थावराः । याद रात्रौ अपश्यन् , कथमेपणीयं चरेत् ॥१॥ उदका वीजसंसक्तां प्राणा निपतिता महीम् । दिदा तान् विवर्जयेत् , रानौ तत्र कथं चरेत् ॥२॥ एतं च दोषं दृष्ट्वा ज्ञातपुत्रेण भापितम् ।। सर्वाहारं न भुञ्जते निर्ग्रन्या रात्रिभोजनम् । ३॥ इति । जो भोजन रात्रि में किया जाता है, वह भावकी अपेक्षा रात्रि भोजन है, रात्रिभोजनमें दोष इस प्रकार कहे गये हैं “ संतिमें सुहमा पाणा" इत्यादि । रात्रिमें सूक्ष्म उस जीव और स्थावर जीव दृष्टिपथ नहीं होते हैं, अतः अहिंसा व्रतकी रक्षा करनेवाले मुनिजन उसमें भिक्षावृत्ति नहीं करते हैं । पानीसे आई हुई एवं घीजसे युक्त हुई भूमिमें प्राणी बहुतसे गिरते रहते हैं, अत: दिलमें तो उनका बचाव हो जाता है, परन्तु रात्रि में इनका बचाव नहीं हो सकता है, इस प्रकार के इस दोषको देखकर सातपुत्र महावीरने रात्रि में भिक्षावृत्तिका और रात्रिके भोजनका त्याग करना कहा है। આવે છે, તેને ભાવની અપેક્ષાએ રાત્રિ જન કહે છે રાત્રિભોજનના આ प्रमाणे या ४ा छ-" सति मे सुहमा पाणा" त्याह રાત્રે સૂકમ ત્રસજી અને સ્થાવર જ દષ્ટિગોચર થતાં નથી તેથી અહિંસા વ્રતની રક્ષા કરનારા મુનિજને રાત્રે ભિક્ષાવૃત્તિ કરતા નથી. પાણીથી ભીની થયેલી અને બીજથી યુક્ત બનેલી ભૂમિમાં ઘણું જ આવી પડતાં હોય છે દિવસે તો સાવધાનીપૂર્વક ચાલવાથી તેમની રક્ષા થઈ જાય છે, પણ રાત્રે તે તેઓ નજરે જ નહીં પડતા હોવાથી તેમની વિરાધના થઈ જાય છે. આ પ્રકારની પરિસ્થિતિને વિચાર કરીને શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે રાત્રે ભિક્ષાવૃત્તિ માટે ફરવાને અને રાત્રિભૂજન કરવાને નિષેધ કર્યો છે. તથા Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाजस्त्र - - - तथा " जइवि हु फासुगदव्यं, कुन्थू पणगा तहावि दुप्पस्स । पच्चकवं नाणी विहु, राईभत्तं परिहरंति ॥१॥ जह वि य पिवीलिगई, दीसंति पईवजोइउज्जोए । तहवि खलु आणाइणं मूलवथविराहणा जेण" ॥२॥ छाया-यद्यपि खलु मासुमद्रव्य कुन्थवः पनकास्तथापि दुर्दर्शाः । प्रत्यक्षं ज्ञानिनोऽपि खलु रात्रिभक्तं परिहरन्ति ॥१॥ यद्यपि च पिपीलकादयो दृश्यन्ते प्रदीप ज्योतिरुयोते । तथापि खलु अनाचीर्ण मूलवतविराधना येन ॥२।। इति ॥३॥ तथा-सागारिकपिण्डम्-भगारेण सह वतते सागारः, स एव सागारिक:शय्यातरः तस्य पिण्ड:-आहारः, तं भुझानः । सागारिकपिण्ड भोजने हि दोपा भवन्ति । तदुक्तम् -- "तित्ययरपडिक्कुटो, आणा अन्नाय उगामे न मुज्झे । अविमुत्ति अलाघवया दुल्लहसेज्जा य वोच्छेओ ॥१॥" छाया-तीर्थकरप्रतिक्रुष्ट आज्ञा, अज्ञातं उद्गमश्च नो शुध्येत् । अविमुक्तिरलाघवता, दुर्लभशय्या च व्युच्छेदः ॥१॥ इति । अयं भावः तीर्थकरैः प्रतिक्रप्टो-निपिद्धः शय्यातरपिण्डः, अतः स न तथा--" जइविहु फासुगदव्य " इत्यादि इन गायाका अर्थ स्पष्ट है, अगारसे जो युक्त होता है, वह सागार है, यह सागारही सागारिक है। इसे शय्यातर कहा गया है, इनके घरका आहार जो है, वह सागारिक पिण्ड है, इस सागारिक पिण्डको इसलिये वर्जित कहा है, कि यह सदोष होता है । जैसे कहा है "तित्थयरपडिक्कुटो" इत्यादि । शय्यातरपिण्डका लेना तीर्थ करोने निषिद्ध किया है, अतः जो " जइ वि हु फासुगव्वं " त्याह___ गाथा मानो मर्थ २५७८ छे. मा२ (५) थी युतरे हाय छ, તેને સાગાર કહે છે. તે સાગાર જ સાગરિક છે તેને શય્યાતર કહેવામાં આવેલ છે. જે સાધુએ જે શ્રાવકાદિના ઘરમાં આશ્રય લીધે હોય, તે ઘરના આહારને શય્યાતર પિંડ અથવા સાગારિક પિંડ કહે છે તે સાગરિક પિંડને નિષેધ કરવાનું કારણ એ છે કે તે સદેષ હોય છે. કહ્યું પણ છે કે – ""तिस्थियरपडिक्कुटो त्याहશય્યાતર ગ્રહણ કરવાને તીર્થકરેએ નિષેધ કર્યો છે, તેથી જે સાધુ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०५ उ०२ सू०३ गुरुपायश्चित्तनिरूपणम् ग्राह्यः अथ तं साघु गृहीयान , तदा तीर्थकृतामाज्ञा विराधिता भवेत् । शय्यातरस्य गृह्ये निवासवशात्तभक्षमज्ञातं न भवतीति तदज्ञातत्वं स्वरूपतया न शुध्येत् । तथा-प्रत्यासन्नतया भैक्षपानादिनिमित्तं भूयोधूयस्तद्गृहे प्रविशतः साधोरूद्गमोऽपि न शुध्येत् । तथा-साधोः अविमुक्तिः-लोभो भवेत् स्वाध्यायश्रवणादिना आवर्जितः शय्यातरो दधिदुग्धादिकं प्रणीतं द्रव्यं साधवे दद्यात् । साधुश्च तद्नइणलोलुपतया तद्गृहं. न परित्यजेदिति । तथा-अलाघवता-प्रचुरविशिष्टान्नपा. नादि लाभेन शरीरालाघवता प्रचुरवस्त्रादिलाभेन उपकरणालाघवता च भवेत् । तथा-दुर्लभशय्या-" येन किल शय्या दीयते, तेन आहाराधपि देयम्" इति भयाद् गृहिणः शय्या न प्रयच्छेयुः, ततश्च साधूनां दुर्लभा शय्या भवेत् । इत्थ साधु इसे लेता है, वह तीर्थंकरोंकी आज्ञाका विराधक होता है १, दूसरा शय्यातरके गृहमें निवासके वशले उसका भक्ष अज्ञात नहीं रहता है, अतः उसकी अज्ञातता स्वरूपसे शुद्ध नहीं होतीहै २, तीसरे उसके प्रत्यासन्न (समीप)होनेसे भैक्ष पान आदिके निमित्त बार२ उसके घर में प्रवेश करनेवाले साधुका उद्गम दोष भी शुद्ध नहीं होताहै ३, चौथे साधुको ऐसा लोभ भी हो जाता है, कि स्वाध्याय श्रवण आदिसे आकृष्ट हुआ शय्यातर मेरे लिये प्रणीत पुष्टिकर दहि दुग्ध आदि द्रव्य देगा। इस प्रकार के लोभले आकृष्ट हुआ साधु उसके घरको नहीं छोडता है, प्रचुर विशिष्ट अन्न पान आदिके लाभले उसके शरीर में अलाघयता एवं प्रचुर वस्त्रादिके लाभले उपकरण सम्बन्धी अलाघवता हो सकती हैं, तथा-दुर्लभशय्या-"जो शय्या स्थान देता है, वह आहार आदि તેને લે છે, તે તીર્થકરોની આજ્ઞાને વિરાધક બને છે. વળી શય્યાતરના ઘરમાં નિવાસને લીધે તેને શૈક્ષ (ભેજનની સામગ્રી) અજ્ઞાત રહેતું નથી, તેથી તેની અજ્ઞાતતા સ્વરૂપની અપેક્ષાએ શુદ્ધ હેતી નથી વળી તેની સમી. પમાં જ રહેલા હોવાને કારણે આહારપાણ આદિને માટે વારંવાર તેના ઘરમાં પ્રવેશ કરનાર સાધુને ઉમ પણ શુદ્ધ હોતે નથી વળી સાધુના મનમાં એ લોભ થાય છે કે સ્વાધ્યાય શ્રવણ આદિ દ્વારા મારી તરફ આકર્ષિત થયેલે શય્યાતર મારે માટે ઘી, દૂધ, આદિ પુષ્ટિકર દ્રવ્ય આપશે. આ પ્રકારના લેભથી યુક્ત થયેલે સાધુ તેનું ઘર છોડતો નથી પ્રચુર અને આદિના લાભથી તેના શરીરમાં અલાઘવના આવી જાય છે અને પ્રસર વઆદિના લાભથી ઉપકરણ સંબંધી અલાઘવતા આવી જવાને સભવ રહે છે तथा " दर्लभशय्या " " २ शय्यास्थान है छे ते माहाल ५० श.." Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाङ्गसूत्रे शय्यातरात् पिण्डदाने शय्याया एव व्युच्छेदो भवेदिति । तथा-शव्यातरात् तृण क्षारडगलशय्यासंस्तारपीठफलकादीनां सोपधिकरय गेक्षस्य चादान नास्ति दोप इति । तशा-राजपिण्डं-राज्ञः पिण्डो राजपिण्डस्त भुञ्जानः । राजाविह चक्रवर्तिवलदेववासुदेवादि गृह्यते । तदर्थं निष्पन्नं पिण्ड भुञ्जानः ५। एतैरनन्तरोक्तैः पञ्चभिः कारणैः साधवो गुरुपायश्चिना: भगन्तीति ।। सू० ३ ॥ राज्ञोऽधिकारात् सम्मति राजान्तःपुरमाश्रित्य मंत्रमाह मूलम्-पंचहि ठाणेहिं समणे णिगंथे गयंतेउरमणुपवि. समाणे नाइकमइ, तं जहा- नगरे सिया सबओ समंता गुत्ते भी देगा' इस भय से गृहस्थजन शय्या भी नहीं देते अतः लाधुजनोंको शय्या दुर्लभ हो सकती है, इस प्रकार शरपातरसे पिण्डके लेने में शय्याहीका व्युच्छेद हो सकता है, शय्यातर से तृण, क्षार उगल (?) शय्या संस्तार, पीठफलक एवं सोपधिक (वस्त्र पात्र आदि उपकरण सहित ) शिष्य के लेने में (?) कोई दोष नहीं है १ । राजपिण्डमें राजपद से चक्रवर्ती, बलदेव और वासुदेव आदि गृहीत हुए हैं। इनके लिये निष्पन्न हुए पिण्डको जो लेता है-उसे अपने आहारके उपयोगमें लाता है, वह राजपिण्ड मोक्ता है, इस प्रकार हस्तकम करनेवाला, मैथुनका प्रतिसेवन करनेवाला, रात्रिभोजन करनेवाला, सागारिक पिण्डका भोजन करनेवाला, और राजपिण्डका भोजन करनेवाला साधुजन गुरू प्रायश्चित्तके योग्य होते हैं। सू० ३ ॥ આ પ્રકારની ભાવના સાધુ સેવવા માંડે, તે ગૃહસ્થ દ્વારા શાસ્થાન દેવાનું પણ બંધ થઈ જાય, આ રીતે સાધુએને માટે શાસ્થાન પણ દુર્લભ થઈ જાય. આ રીતે શય્યાતરની પાસેથી પિંડ લેવામા શરમાને જ યુછેદ થવાને ભય રહે છે ક્ષય્યાતર પાસેથી તૃણ, ક્ષાર, શય્યાસંસ્તાર, પીઠ, ફલક અને સપધિક (વા પાત્ર આદિ ઉપધિ સાથે) શિષ્ય લેવામાં કોઈ દેષ લાગતું નથી. રાજપિડ એટલે રાજાને માટે તૈયાર થયેલ આહાર રાજપિંડ ગ્રહણ ગ્રહણ કરવામાં પણ સાધુને દોષ લાગે છે. “રાજા” પદથી અહીં ચકવતી બળદેવ, વાસુદેવ આદિ ગૃહીત થયેલ છે. આ રીતે હરતકર્મ કરનાર, મૈથુનનું પ્રતિસેવન કરનાર, રાત્રિભેજન કરનાર સાગરિક પિંડનો આહાર કરનાર અને રાજપિંડને આહાર કરનાર साधु गुरु प्रायश्चित्तने पात्र भने छ. ॥ सू. 3 ॥ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०५ उ०२ सू०४ निर्ग्रन्थानां राजान्त पुरप्रवेशनिरूपणम् १७ गुत्तदुआरे, बहवे समणमाहणा णो संचाएंति भत्ताएवा पाणाए वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा, तेसिं विन्नवणहयाए रायंते. उरमणुपविसिज्जा १, पाडिहारियं वा पीढफलगसेज्जासंथारंगं पञ्चप्पिणमाणे रायंतेउरमणुपविसिजा २, हयस्त वा गयस्स वा दुटुस्स आगच्छमाणस्स भीए रायंतेउरमशुपविसिज्जा ३,परोव णं सहसा वा वलसा वा बाहाए गहाय अंतेउरमणुपवेसेज्जा ४, बहिया व णं आरामगयं वा उज्जाणगयं वा रायंतेउरजणो सवओ समंता संपरिक्खिवित्ता णं निवेसिज्जा ५। इच्चेएहिं पंचहि ठाणेहिं समणे णिग्गंथे जाव णाइकमइ ॥ सू० ४ ॥ छाया-पञ्चभिः स्थानः श्रमणो निर्ग्रन्थो राजान्तःपुरमनपविशन् नाति. क्रामति, तद्यथा-नगरं स्यात् सर्वतः समन्ताद गुप्तं गुप्तद्वारम् , बहवः श्रमणमाहना नो शक्नुवन्ति भक्ताय वा पानाय वा निष्क्रमितुं वा प्रवेष्टुं वा, तेषां विज्ञापनार्थाय रानान्तःपुरमनुप्रविशेत् १, मातिहारिकं वा पीठफलकशय्यासंस्तारक प्रत्यर्पयन राजान्तःपुरमनुप्रविशेत् २, हयाद् वा गजाद् वा दुष्टात् आगच्छतो भीतो राजान्तःपुरमनुमविशेत् ३, परोवा खलु सहसा वा वलेन वा वाही गृहीत्वा अन्तःपुरमनुप्रवेशयेत् ४, बहिवा खल आरामगतं वा उद्यानगतं वा राजान्तः पुरजनः सर्वतः समन्तात् सम्परिक्षिप्य खलु निवेशयेत् ५. इत्येतैः पञ्चभिः स्थानः श्रमणो निम्रन्थो यावत् नातिकामति ॥ ४॥ टीका-पंचहि ठाणेहि ' इत्यादि पञ्चमिः स्थानै कारणैः श्रमणो निर्ग्रन्थो राजान्तःपुरं अनुप्रविशन् नातिक्रामति-तीर्थकृताम् आज्ञाया उल्लङ्घको न भवति, तान्येव स्थानानि प्राह-तद्यथा। राजाके अंधिकारको लेकर अब सूत्रकार राजाके अन्तःपुरको आ. श्रित करके सूत्र कहते हैं-'पंचहि ठाणेहि समणे णिग्गंथे' इत्यादिसूत्र४॥ टोकार्थ-पांच कारणोंको लेकर राजाके अन्तःपुरमें प्रवेश करता हुआ मुनिजन तीर्थंकरोंकी आज्ञाका उल्लङ्घन करनेवाला नहीं होताहै, वे पांच આગલા સૂત્રમાં રાજાને ઉલેખ થયો છે. આ સંબંધને લીધે સૂત્રકાર હવે રાજાના અંતઃપુર વિષેના સૂત્રનું કથન કરે છે थ-"प'चहि ठाणेहि समणे णिग्गथे " त्याનીચે દર્શાવવામાં આવેલાં પાંચ કારણોને લીધે રાજાના અન્તઃપુરમાં स्था-३ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाङ्गसूत्रे नगरं सर्वनः समन्तात-दिक्षु विदिक्षु गुप्त रक्षितं प्राकारपरिवेष्टितत्वात् , गुप्तद्वारम्-गुप्तानि-पिहितानि द्वाराणि यस्य तत्तथा स्यात् भवेत् , ततश्च किम् ? इत्याह-तेन हेतुना बहवः श्रमणमाहनाः श्राम्यन्ति-तपस्यन्तीति श्रमणाः,'माइन्याः' मा मारय इन्युपदेशपरा माहनाः, श्रमणाश्च माहनाश्चेति कर्मधारयः, उत्तरगुणमूल. गुणयुक्ताः मंशता इत्यर्थः, अथवा-श्रमणाः शाक्याः माहना।ब्राह्मणाः, भक्ताय या पानाय वा निर्गन्तुं नगराद्वहिर्गन्तुं वा पवेष्टुंबानो शक्नुवन्ति, तदा तेषां श्रमण माहनानां विज्ञापनार्थी य-अन्तःपुरस्थस्य राज्ञः प्रमाणभूतराझ्यावा सन्निधौ प्रयोजनं विज्ञापयितुं रोजान्तःपुरम् अनुपविशेत् । इति प्रथम स्थानम् १। वा=अथवा साधुः मातिढारिक प्रतिहियते प्रयोजनवशादानीय पुनरपर्यने यत्तत्मातिहारिकं पुनः फोरण इस प्रकार से हैं, जैसे-कोई नगर प्राकारसे परिवेष्टित होनेसे गुप्त हो, रक्षित हो, गुप्तद्वारवाला हो-जिसके दरवाजे बन्द हो रहे हों पेसा हो, अतः अनेक श्रमणमाहण-उत्तरगुण मूलगुण युक्त संयत 'अथवा-श्रमण-शाक्य और माहण दयाका उपदेश देनेवाला आहार पानके लिये नगरसे बाहर जाने के लिये या उसमें प्रवेश करने के लिये समर्थ न हो रहे हों तो ऐसी स्थिति में उन अमण माहनों की इस प्रका रकी खयर देनेके लिये-अन्तःपुरमें स्थित राजाके पास अथवा प्रमाणभूत रानीके पास उनके प्रयोजनको प्रकट करनेके लिये-श्रमण निर्ग्रन्थ राजाके अन्तःपुरमें प्रवेश कर सकता है ११ ऐगा यह प्रथम कारण है, द्वितीय कारण ऐसा है, कि प्रातिहारिक प्रयोजनवश लाकरके देनेके પ્રવેશ કરતો શ્રમણ નિગ્રંથ તીર્થકરની આજ્ઞાને વિરાધક બનતું નથી. કેઈ નગર કેટથી ઘેરાયેલું હોવાને લીધે ગુપ્ત હોય, રક્ષિત હય, ગુપ્ત દ્વારવાળું હોય એટલે કે જેના દરવાજા બંધ કરી દેવામાં આવ્યા હોય, અને તે કારણે એવી પરિસ્થિતિ પેદા થઈ હેય કે અનેક શ્રમણ અને માહણ ( ઉત્તરગુણ મૂલગુણ) યુક્ત સંયત અથવા શ્રમણ એટલે શાકય મુનિએ અને માહણ એટલે દયાને ઉપદેશ આપનારા સાધુઓ) આહાર પાનની પ્રાપ્તિ માટે નગરની બહાર પણ જઈ શકતા ન હોય અને બહારથી નગરની અંદર પ્રવેશ પણ કરી શકતા ન હોય, તે આ પ્રકારની પરિસ્થિતિમાં તે શ્રમણ માહણેની તે પ્રકારની સિતિનું રાજા પાસે નિવેદન કરવા માટે અથવા પ્રમાણભૂત રાણેની પાસે તેમના પ્રજનને પ્રકટ કરવા માટે કઈ પણ શ્રમ નિથ રાજાના અંતઃjરમાં પ્રવેશ કરે, તો તે જિનાજ્ઞાને વિરાધક ગણાતું નથી. Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुपो टीको स्था०५ उ०२ सू०४ निर्ग्रन्थानां राजान्तःपुरप्रवेशनिरूपणम् .. १९. समर्पगीयं पीठ कलकगच्यासंरतारकं -तत्र पीठं चतुष्किकादिकम् , फलका पट्टादिका, शय्या-शरीरप्रमाणा, संस्तारका अर्द्धततीयहस्तप्रमाणः, पीठादीनां द्वन्द्व एकवद्भावश्च, तत् प्रत्यर्पयन्ः प्रत्यर्पयितुकामो राजान्तःपुरमनुमविशेत् ।' पीठादीनां प्रत्यर्पणं तदानयनं विना नोपपद्यते, अतस्तदानयनाथमपि साधूना मन्तःपुरमवेशो न तीर्थकृदाज्ञाविराधको भवतीति बोध्यम् । इति द्वितीयम् २॥ . तथा आगच्छतो दुष्टात्-उन्मत्ताद् हयाद् वा गजाद् वा भीतः साधू राजान्त:पुरम् अनुपविशेत्-इति तृतीय स्थानन ३ तथा-पर:-स्वातिरिक्तः कश्चिज्जनः तस्करादिशकया सहसा अकस्मात् बलेन बलपूर्वक वाही गृहीत्वा राजान्त:पुरम् अनुप्रवेशयेत् इति चतुर्थ स्थानम् । तथा-बहिः-जगराद् बहिः आरायोग्य ऐसे जो पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक हैं, उन्हे चापिस करनेकी. इच्छावाला मुनिजन अन्तःपुरमें प्रवेश कर सकता है । चौकी आदिका नाम पीठ है, पट्ट आदिका नाम फलक है, शरीर प्रमाण शय्या होती है, और अढाई हाथ प्रमाण संस्तारक होताहै, पीठादिकोंका प्रत्यर्पण उन्हें लाये विना तो होता नहीं है, अतः इन्हें लेने के लिये भी साधुका अन्तःपुरमें प्रवेश करना तीर्थंकरकी आज्ञाका विराधक नहीं होता है, . इस प्रकारका यह द्वितीय स्थान है, तृतीय स्थान इस प्रकारसे है, यदि - कोई दुष्ट उन्मत्त-हय-घोडा अथवा-गज आ रहा हो तो उससे सरा हुआसाधु रोजाके अन्नापुरमें प्रवेश कर सकताहै, ऐसा यह तृतीय कारण है, चौथा कारण ऐसा है, कि कोई मनुष्य तस्करादिकी शङ्कासे जय (२) पी3, ५४, शय्या, सस्ता२४ मा यो साया लाय પાછી સે પવાને માટે પણ સાધુ રાજાના અન્તપુરમાં પ્રવેશ કરી શકે છે. यौली (Has) मान (पी' ४ छ, पट्ट माहिन 'स' छ. શરીરપ્રમાણુ શય્યા હોય છે અને અહી હાથપ્રમાણ સંસ્કારક હોય છે પીઠ આદિ પહેલા લાવ્યા હોય તે જ પાછું આપવાને પ્રશ્ન ઊભું થાય છે, તેથી પ્રોજનવશ પીઠ, ફલક આદિ લેવા માટે રાજાના અંત પુરમાં પ્રવેશ કરનાર સાધુ પણ જિનાજ્ઞાને વિરાધક ગણાતું નથી. - ત્રીજ' કારણ નીચે પ્રમાણે છે-કેઈ મુનિ ભિક્ષાચર્યા આદિ કારણે નીકળ્યા હોય, ત્યારે કોઈ ઉન્મત ઘડે હાથી આદિ માર્ગ ઉપર દોડી રહ્યા હોય, તે તેનાથી બચવા માટે તે સાધુ રાજાના અંતપુરમાં પ્રવેશ કરે, તે જિનાજ્ઞાને વિરાધક ગણ નથી. શું કારણ—કેઈ અમલદાર અથવા માણસ તેને ચાર માની લઈને Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाइसने मगतम्-आरामः-विविधपुष्पजात्युपशोभितः स्थानविशेषः, तत्र गत-स्थितं, वाअथवा उद्यानगतम्-उद्यानम्-पुष्पफलोपेतवृक्षयुक्तं स्थानं, तत्र गतं साघु कौतूरला. दिवशाद् राजान्तःपुरजनः सर्वतः समन्तात्-चतुर्दिस्यः सम्परिक्षिप्य-उत्थाप्य खल्लु राजान्तःपुरं निवेशयेत् । इति पञ्चमं स्थानम् ५। निगमयन्नाह-इत्येतेः पूर्वक्तिः पञ्चभिः स्थानः राजान्तःपुरमनुमविशन् अमणो निर्ग्रन्थो नातिकामनि तीर्थकदाज्ञाया विराधको न भवतीति ।।मू० ४॥ अन्तःपुराधिकारात् सम्प्रति स्त्रीमतं क्रिया विशेषमाह मूलम्-पंचहि ठाणेहिं इत्थी पुरिसेण सद्धिं असंवसमाणीवि गर्भ धरे जा, तं जहा--इत्थी दुधियडा दुन्निसण्णा सुक्कपोग्गले अधिहिजा १, सुक योग्गलसंसिदेव सेवत्थे अंतोजोणीए अणुपवि. सेज्जा २, सयं वा सा सुक्कपोग्गले अणुपवेसेज्जा ३, परोव से दस्ती अकस्मात् हाथों को पकड़कर राजाके अन्तःपुरमें डाल देता है, तो ऐसी स्थितिमें वह साधु तीर्थ यार की आज्ञाका विराधक नहीं होता है, अथवा-नगरसे बाहर उचान में स्थित हुए साधुको विविध पुष्पजातिसे उपशोभित स्थान विशेषमें स्थित मुनिको-अथवा उद्यान में-पुष्पफलसे सुशोभिन वृक्षों से युक्त स्थान में-स्थित मुनिको योही कौतूहल आदिके वशले राजाके अन्तःपुरका जन ऊंचा उठाकर उसमें रख दे तो ऐसी स्थिति में वह साधु तीर्थ करकी आज्ञाका विराधक नहीं होता है। इस तरहके इन पांच कारणोंसे राजाके अन्तःपुर में प्रविष्ट हुआ मुनिजन तीर्थ करकी आज्ञाका विराधक नहीं होता है । सू० ४ ॥ પરાણે પકડીને તેને અંત. પુરમાં રાજાની સમક્ષ ખડે કર, તે એ પરિસિથતિમાં પણ તે સાધુ જિનાજ્ઞાને વિરાધક ગણાતો નથી. પાંચમું કારણનગરની બહાર ઉદ્યાન આદિ સ્થાનમાં વિવિધ પુખેથી સુભિત સ્થાન વિશેષમાં રહેલા કે મુનિને અંતઃપુરને કે માણસ કુતહલથી પ્રેરાઈને અંતપુરમાં ઉપાડીને લઈ જાય, તે એવી પરિસ્થિતિમાં પણ તે સાધુ જિનેશ્વર ભગવાનની આજ્ઞાને વિરાધક ગણાતું નથી. આ પ્રકારના પાંચ કારણેમાંના કેઈ પણ કારણે રાજાના અતઃપુરમાં પ્રવેશ કરનાર મુનિ . તીર્થકરની આજ્ઞાને વિરાધક ગણાતું નથી, છે સૂ. ૪ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०५ उ०२ सू०५ स्त्रीगतक्रियाविशेषनिरूपणमे २१ सुकपोग्गले अणुपवेसज्जा ४, सीओदगवियडेण वा से आयममाणीए सुक्कपोगला अणुपविसेज्जा ५! एच्चेपहिं पंचहि ठाणेहिं जाव धरेज्जा ॥ सू० ५॥ ___ छाया-पञ्चमि स्थानः स्त्री पुरुषेण साईम् असंवसन्ती अपि गर्भ धरेन् , तयथा-स्त्री दुर्वित्ता दुर्निपण्णा शुक्रपुद्गलान अधितिष्ठेतू१, शुक्र पुद्गलसंसृष्टं वा तस्या वस्त्रम् अन्तयाँनौ अनुपविशेत् २, स्वयं वा सा शुक्रपुद्गलान अनुप्रवेशयेत् ३, परोवा तस्याः शुक्रपुद्गलान् अनुप्रवेशयेत् ४, शीतोदकविकटेन वा तस्या आवामन्त्याः शुक्रपुद्गला अनुप्रविशेयुः । इत्येतैः पञ्चभिः स्थान विद् धरेत्।। मू०५|| टीका-पंचहि ठाणेहिं ' इत्यादि वक्ष्यमाणैः पञ्चभिः स्थानः कारणः स्त्री पुरुषेण सार्द्धम् असंवसन्तो अपि पुरुषमसंगताऽपि गर्भ धरे धत्तुं शक्नुयात् । तान्येत्र स्थानान्याह-तद्यथा-स्त्री दुहिता-विता-विगतावरणा, दुष्टुविता, दुर्विता-विवृतात्वं तूत्तरीयापरिधानेनापि संभवतीति दुरिति विशेषणमुक्तं, तेन सर्वथा नग्नेत्यर्थः । एतादृशो सती दुनिषण्णा-दुष्ठु निषण्णा-उपविष्टा-वैरूप्येणोपविष्टेत्यर्थः एवंभूता सती शुक्रपुद्गलान-कथंचित पुरुषनिसृष्टान् बीयपुद्गलान् अधितिष्ठेत् योन्याकथंचिदाकृष्य संग्रहीयात् । इति प्रथम स्थानम् । तधा-शुक्रपुद्गलसंसृष्टं-कथंचिच्छुक्रपुद्गलयुक्तं अन्तःपुरके अधिकारसेही अव सूत्रकार स्त्रीगत क्रिया विशेषका कथन करते हैं--पंचहिँ ठाणेहिं इत्थी पुरिसेण सद्धिं इत्यादि सूत्र ५॥ दीकार्थ-पांच कारणोंसे पुरुषके माथ नहीं रहती हई भी पुरुषके साथ संगम नहीं करती हुई भी स्त्री गर्भवती हो सकती है, वे पांच कारण इस प्रकारसे हैं-कोई स्त्री बिलकुल नग्नावस्थामें योनिको प्रसार कर उस स्थान पर यदि बैठ जाती है, कि जहां पर पुरुषका वीर्य पहिलेसे निकला हुआ पड़ा हो तो ऐसी स्थितिमें वह अपनी योनि द्वारा किसी तरहसे उन वीर्य पुद्गलोको खींचकर उसके भीतर लेजाकर गर्भ धारण અન્તપુરના અધિકારની સાથે સુસંગત એ સ્ત્રીગત ક્રિયાવિશેષને मधि२ १५:माछ-" पंचहिं ठाणेहिं इत्थी पुरिसेण सद्धि "त्यालટીકાર્ય-પુરુષની સાથે સંભોગ ન કરવા છતાં પણ નીચેના પાંચ કારણોને લીધે સ્ત્રી ગર્ભવતી બની શકે છે–(૧) કેઈ સ્ત્રી બિલકુલ નગ્નાવસ્થામાં નિને પ્રિસારીને એવા સ્થાન પર બેસે કે જયાં પુરુષનું વીર્ય પહેલેથી જ પડેલું હોય. તે એવી પરિસ્થિતિમાં તે પિતાની નિ દ્વારા કેઈપણ રીતે તે વીર્યપલેને ખે ચીને તેની અંદર દાખલ કરી દેવાથી ગર્ભ ધારણ કરી શકે છે. Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૨ स्थाना वस्त्रं तस्याः स्त्रिया अन्तर्योनी - योनिमध्ये अनुप्रविशेत् । इह वस्त्रमित्युपलक्षणं, तेन अन्यदपि तथाविधं केशादिकं बोध्यम् । यथा केशिमात्रा रोगविशेषनिवारणार्थे रक्तनिरोधनाद्यचा अज्ञातशुकपुलसंयोगाः केशा योनी बद्धास्तत एव गर्भो जातः । तस्माद् गर्भात् केशिमुनिरुत्पन्न इति । इति द्वितीयं स्थानम् । तथासा स्त्री स्वयं पुत्रकामनया गुरुपुहलान् अन्तर्यांनी प्रवेशयेत् । अयं भात्रः - शीलरक्षणार्थिनाव परपुरुपगममनाकाङ्क्षन्ती काचित् पुत्रकामा स्त्री शुक्रपुद्रकान् स्वयमेव योनिमध्ये प्रवेशयेदिति । इति तृतीयं स्थानम् । तथा-परः = स्वातिरिक्तः कर सकती है, ऐसा यह प्रथम कारण है, द्वितीय कारण ऐसा है, कि पुरुषके वीर्य से गीला हुआ वस्त्र यदि स्त्रीकी योनि के भीतर घोंस दिया जाता है. तो उससे भी वह गर्भ धारण कर सकती है, यहां "वस्त्र" यह उपलक्षणरूप है, इससे यह भी ग्रहण कर लेना चाहिये कि पुरुषके वीर्य से गीले यदि लिङ्गादिके ऊपरके बाल आदि हों और वे वस्त्रादिमें बांधकर योनिके ऊपर बांध लिये जावे तो इस स्थिति में भी स्त्रीको गर्भ रह सकता है, जैसे- केशीकी माताने रोग विशेषको दूर करने के लिये या रक्तका निरोधन करने अदिके लिये शुक्र पुद्गल संयोगवाले केशोंको योनिके ऊपर बांध लिया था, सो उसीसे उसको गर्भ रह गया. था, और उस गर्भ से केशिश्रमण उत्पन्न हुए थे, इस प्रकारका यह द्वितीय स्थान है, तृतीय कारण ऐसा है, कि कोई पुत्रकी कामनावाली. स्त्री पुरुषके पतित वीर्यको योनि के भीतर घर ले तो ऐसी स्थिति से भी બીજુ કારણ આ પ્રમાણે છે—જો પુરુષના વીયથી ખરડાયેલા વસ્રને કાઈ શ્રી પેાતાની ચૈાતિમાં પ્રવેશાવે છે, તે તેના દ્વારા પણ તે સ્ત્રી ગર્ભ ધારણ કરી શકે છે અહી વસ્ર તે ઉપલક્ષણ રૂપ છે. અહી એવુ પણ ગ્રહણ કરવુ જોઈએ કે પુરુષના લિંગાદિની ઉપરના અને આસપાસના વયથી ખરડાયેલા બાલને કાઈ વસ્ત્રમાં ખાંધીને ચેાનિની ઉપર બાંધી દેવામાં આવે, તે પણ સ્ત્રી ગર્ભ ધારણ કરે છે. જેમકે કેશી શ્રમણની માતાએ રાગવિશેષને દૂર કરવા મઢે અથવા રક્તસ્રાવ અટકાવવા માટે શુષ્ક પુદ્ગલ (વીય પુદ્ગલ) ના સયેાગવાળા દેશોને ચેાનની ઉપર બાંધી દીધાં હતાં, અને તેના દ્વારા જ તેને ગમ રહ્યો હતા, અને તે ગર્ભમાંથી કેશી શ્રમણુ ઉત્પન્ન થયા હતા. ફાઇ ત્રીજું કારણુ નીચે પ્રમાણે છે--કાઈ પુત્રની કમનાવાળી સ્ત્રી પુરુષના પતિત વીય ને પાતાની ચાનિમાં દાખલ કરી કે, તે એવી પરિસ્થિતિમાં પણ તે સ્ત્રીને ગર્ભ રહી શકે છે. આ કથનના Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ सुभाटीका स्था. ५९ २ २.५ स्त्रीगतक्रियाविशेषनिरूपणम् श्वश्वादिजनः तस्या योनौ शुक्रपुद्गलान् अनुप्रवेशयेत् । इति चतुथै स्थानम् । तथा शीतोदकविकटेन-शीतोदकरूपं यद् विकटं समयपरिभाषया जलं तेन आचामन्या:-शौचं कुर्वत्या, तस्याः स्त्रियो योनिमध्ये तज्जलस्थिताः शुक्रपुद्गला अनुप्रविशेयुरिति पश्चमं स्थानम् । इत्येतैरुपरिनिर्दिष्टैः पञ्चभिः कारणैः स्त्री पुरुषासं. गताऽपि गर्भ धरेदिति ।। सू० ५ ॥ यैः स्थानः पुरुषेण संगताऽपि स्त्री गर्भ न धरेत् , तानि स्थानानि पाइ__मूलम्-पंचहि ठाणेहिं इत्थी पुरिसेण सद्धि संवसमाणा. वि गभं नो घरेज्जा, तं जहा-अप्पत्तजोठवणा १, अइकंतजो. वह गर्भवती हो सकती है, इस तृतीय कारणका भाव ऐसा है, कि कोई शीलवती स्त्री अपने शीलकी तो रक्षा करना चाहती है, और पुत्रकी अभिलाषावाली भी बनी हुई है, तो वह पर पुरुषके साथ संगम नहीं करती हुई भी यदि शुक पुद्गलोंको अपने हाथसेही अपनी योनिके भीतर रख लेती है, तो ऐसी हालत में वह गर्भवती हो सकती है, चतुर्थ कारण इस प्रकारले है, यदि उसकी सास आदि रूप स्त्रोजन उसकी योनिमें शुक्र पुद्गलोंको रख देती है. तो इससे भी वह गर्भवती हो सकती है, पांचों कारण ऐसा है, कि शौचको करते समय उस स्त्रीके योनिके अन्दर पानी लेते समय उस जलमें पतित शुक्र पुद्गल यदि प्रविष्ट हो जाते हैं, तो इससे भी वह गर्भवती हो सकती है, इस तर. हके इन निर्दिष्ट पांच कारणों से स्त्री पुरुषसे अभुक्त होती हुई भी गर्भवती हो सकती है। सू०५॥ ભાવાર્થ એ છે કે-કેઈ શીલવતી સ્ત્રી પુત્રની કામનાવાની છે તે પિતાના શીલનું રક્ષણ કરવા માગતી હોવાથી પરપુરુષ સાથે અબ્રહ્મનું સેવન કરતી નથી પણ કેઈ પુરુષના પતિત વય પુદ્ગલેને પિતાના હાથમાં લઈને પિતાની નિમાં દાખલ કરી દે છે. આમ કરવાથી તે ગર્ભવતી થઈ શકે છે. ચાથું કારણ નીચે પ્રમાણે છે–જે તેની સાસુ આદિ કોઈ પણ વ્યક્તિ કઈ પુરુષના શુક પુલેને તેની યોનિમાં નાખી દે તો પણ તે ગભર ધારણ કરી શકે છે. પાચમું કારણ–જાજરૂ ગયા બાદ પાછું લેતી વખતે જે જળનો ઉપગ કરવામાં આવે, તે જળમાં કઈ પુરુષના શુક પુતલે ભળેલાં હોય, તે તે શુક પુદ્ગલે તે સ્ત્રીની નિમાં દાખલ થઈ જાય તે તે સ્ત્રી ગર્ભવતી બની શકે છે. આ પ્રકારના પાંચ કારણેને લીધે પુરુષની સાથે મૈથુનસેવન કર્યા વિના પણ સ્ત્રી ગર્ભવતી થઈ શકે છે. એ સૂ ૫ છે Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाङ्गसूत्रे २४ चणा २, जाइवंझा ३, गेउन्न पुट्टा ४, दोमणंसिया ५। इच्एहिं पंचहि ठाणेहि जाव नो घरेज्जा | पंत्रहि ठाणेहिं इत्थी पुरि. सेण सद्धिं संमाणी वि तो गव्धं घरेज्जा, तं जहा -निच्चोउया १, अणोउया २, वावन्नसोया ३, वाविद्धसोया ४, अपंगपडवणी ५। इच्चे एहिं पंचहि ठाणेहिं इत्थी पुरिसेण सद्धि संससाणीव गमं नो धरेज्जा, तं जहा - उउम्मि णो गिगामसेविण यावि भवइ १, समागया वा से सुक्कपोग्गला पडिविद्धति २, उदिष्णे वा से पित्तसोणिए ३, पुरा वा देवकमणा ४, पुतफले वा नो निद्दिट्ठे भवइ ५ । इच्चेएहिं जाव नो धरेज्जा ॥ सू० ६ ॥ " छाया -- पश्चभिः स्थाने स्त्री पुरुषेण सार्द्धं संवसन्त्यपि गर्भ नो धरेत्, ता-माप्तयौवना १, अतिक्रान्तयौवना २, जातिवन्ध्या ३, ग्लान्यष्टा ४, दौर्मनस्त्रिका ५। इत्येतैः पञ्चभिः स्थानैः यावद् नो धरेत् । पञ्चभिः स्थानैः स्त्री पुरुषेण सार्द्धं संन्यपिनो गर्भं धरेत् तद्यथा-नित्यर्चुका १, अनुका २, २ व्याद्विस्रोताः ४, नगरविसेविनी ५) इत्येतैः पञ्चभिः स्थानः स्त्री पुरुषेण सार्द्धं संवन्त्यपि गर्भं नो धरेत् । पञ्चभिः स्थानैः स्त्री पुरुषेण सार्द्धं संवन्त्यपि गर्भ नो धरेत्, तथथा ऋतो नो निकामसेविनी चापि भवति १, समागता वा तस्याः शुक्रपुङ्गलाः प्रतिविध्वंसन् २, उदीर्ण वा तस्याः वित्तशोणितम् ३, पुरा वा देवकर्मणा ४, पुत्रफलं वा नो निर्दिष्टं भवेत् ५। इत्येते यविद् नो धरेत् ॥ ०६ ॥ टीका- ' पचहि ठाणेहिं ' इत्यादि पञ्चभिः स्थानैः=कारणैः स्री पुरुष संगताऽपि गर्भं नो धरेत् । येषु स्थानेषु सत्लु गर्भं न धरेत् तानि स्थानानि माह तद्यथा - अनाप्तयौवना न प्राप्तं यौवनं अब सूत्रकार उन पांच कारणोंको प्रकट करते हैं, कि जिनसे पुरुपसे संगत हुई भी स्त्री गर्भको धारण नहीं कर सकती है- -- પુરુષની સાથે સભાગ કરવા છતાં પણ જે પાંચ કારણેાને લીધે સ્ત્રી ગર્ભ ધારણુ કરી શકતી નથી, તે કારણેા હવે સૂત્રકાર પ્રકટ કરે છે. Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था. ५ उ.२ ६ गर्भविषय निरूपणम् २५ यथा सा १, अतिक्रान्तयौवना = अतिक्रान्तं यौवनं यस्याः सा गतयौवना २, जातिवन्ध्या - जाते : = जन्मत आरभ्य वन्ध्या = निर्वोजा, ३ ग्लान्यस्पृष्टा-ग्लान्येन= रोगेण स्पृष्टा = ग्रस्ता ४, तथा - दौर्मन स्पिका - दौर्मनस्यं शोकादिकमस्ति यस्याः सा, “ दौर्मन स्थिता - इति च्छायापक्षे तु दौर्मनस्यं संजातं यस्याः सा - शोकादि संकुलेत्यर्थः ५, इत्येतैः पञ्चभिः स्थानः खी पुरुपसंगताऽपि गर्भ न धरेत् । 'पंचहि ठाणेहिं इत्थी पुरिसेण सद्भि' इत्यादि सूत्र ६ । टीकार्थ-पुरुष के साथ संगम करती हुई भी स्त्री इन पांच कारणों से गर्भवती नहीं हो सकती है - वे पांच कारण इस प्रकार से हैं- यदि वह अप्राप्त यौव नवाली है, तो वह पुरुष के साथ रत होती हुई भी गर्भवती नहीं हो" सकती है | इसी तरह से वह यदि गत यौवनवाली है, यौवनावस्था से वह रहित हो चुकी है, तो ऐसी स्थिति में भी वह पुरुष द्वारा भुक्त होती हुई भी गर्भवती नहीं हो सकती है | तथा-यदि वह जाति से जन्मसेही बन्ध्या है, निर्बीजा है, तो वह पुरुष से रतिक्रिया करती हुई भी गर्भवती नहीं हो सकती है३, यदि वह ग्लान्य स्पृष्टा है, रोगग्रस्त है, तो भी वह पुरुष के साथ संगम करती हुई भी गर्भवती नहीं हो सकती है, और यदि वह रतिक्रियामें रत होती हुई भी शोकादिसे युक्त मनवाली बनी रहती है- प्रसन्न चित्त नहीं रहती है, तब भी वह गर्भयती नहीं हो सकती है५, अथवा - " दोमणसिया " की छाया-" दौर्मनस्थिता " ऐसी भी होती है, इम पक्षमें यदि वह शोक आदिसे युक्त अर्थ - " पचहि ठाणेहि इत्थी पुरिसेण सद्धि " પુરુષની સાથે સભાગ કરવા છતાં पशु નીચેના પાંચ કારણેાને લીધે સ્ત્રી ગભ ધારણ કરી શકતી नथी. (૧) યુવાવસ્થામાં આવ્યા પહેલાં જે કાઈ કન્યા પુરુષ સાથે રતિક્રિયા કરે, તા તે ગર્ભવતી થતી નથી. (૨) જે સ્ત્રી યૌવન વ્યતીત કરી ચુકી છે, એટલે પ્રૌઢા અથવા વૃદ્વા બની ચુકી છે, તે પુરુષ સાથે સ ભેગ કરવા છતાં પણ ગર્ભ ધારણૢ કરી શકતી નથી (૩) જે કઈ સ્ત્રી જન્મથી જ વયા (નિખીજા) હાય, તેા પુરુષ સાથે રતિક્રિયા કરવા છતાં પણ ગર્ભવતી ખની શકતી નથી, (૪) જે તે રાગગ્રસ્ત હૈાય, તેા પણ પુરુષની સાથે સંભેાગ કરત્રા છતાં ગર્ભવતી ખની શકતી નથી. (૫ પુરુષની સાથે તિક્રિયા કરવા છતાં પણ જે શ્રી શેાકાકુલ હાય એટલે કે પ્રસન્નચિત્ત ન હાય, તે ગર્ભવતી ખની શકતી नथी. " दो मणसिया " આ પદ્મની સંસ્કૃત છાયા ८५ 'दमिनस्थिता " सेवाभां स्था०-४ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . स्थानाङ्गले अयायान्तरमूत्रद्वयम्यापि उपक्रमोपसहावाक्यमेव व्याख्येयम् । तत्र प्रथमापान्तरमृत्रोक्तानि पञ्चस्थानान्येतानि, तथाहि-नित्यत्तुंका-नित्यं सर्वदा न तु दिन मे । ऋतु रक्तनिरूपो यस्याः सा १, तथा-अनृतुका-न विद्यते ऋतु. यस्याः मा २ नया-व्यापन त्रोता:-यापन्न गोगादिना प्रतिहत स्रोतागर्माप्रचि यस्याः मा ३, तया-व्याविस्रोता:-व्याविद्धवातादिना व्याप्तत्वेन महनगनिक घोतो यस्याः मा ४, नया-अनङ्ग पति से विनी-अनं-मैथुनोपयोगि है, तो भी गर्भवती नहीं हो सकती है, ऐसा अर्थ होता है, अतः इस मरद के इन पांच कारणोंसे पुरूपके साथ संगम करती हुई भी स्त्री गर्भ धारण नहीं कर सकती है यह प्रकट किया, अब और भी गर्भ धारण नहीं करनेके जो कारण हैं, मूत्रकार उन्हें प्रकट करते हैं, इनमें प्रथम कारण नित्यर्तुक है, जिसके तीन दिन तकही ऋतुधर्म नहीं रहता है-किन्तु सदाही रज प्रवाहित होता रहता है, ऐसी यह श्री गर्भवती नहीं हो सकती है, तथा जो अन्तुक है, ऋतुधर्मसे रहित है, यह भी गर्भवती नहीं हो सकती है, जो व्यापन्न स्रोता है, वह भी गर्भवती नहीं हो सकती है, अर्थात् रोगादिकसे जिसके गर्भाशयका छिद्र चन्द हो गया हो प्रतिहत हो गया हो ऐसी वह स्त्री भी गर्भ धारण करने में असमर्थ होती है। जिसका वातव्याधि आदिसे व्याप्त होने के कारण गर्भाशयका छिद्र गर्भ धारण करने की शक्तिसे रहित कर दिया गया हो ऐसी वह भी स्त्री गर्भ धारण नहीं कर सकती આવે, તે તેનો અર્થ આ પ્રમાણે પણ થાય છે-જે તે શેકદિથી યુક્ત હેય તે પશુ ગર્ભવતી બની શકતી નથી. ગર્ભ ધ રણ ન કરી શકવાના બા પણ કેટલાક કારણો છે, તે સૂત્ર४२ ४३ ५४८ ४२ 2-" नित्यतुं क " श्रीन महिनामा त्राहिस सुधी २४ ચાવ ઘતે નથી, પણ કાયમ રજસ્રાવ ચાલુ રહે છે, તે સ્ત્રી ગર્ભવતી नीती नथी. (२) अन्तुक" २ श्री तुमयी २क्षित डाय छे, तेने ५६, न ही शत नयी (3) " व्यापनस्रोता " शानि ॥२२ रे સ્ત્રીના ગર્ભાશયનું કિ બધ થઈ ગયું હોય છે, તે સ્ત્રી પણ ગર્ભ ધારણ કરી શક નથી (૪) ઈ વ્યાધિને કારણે (વાત વ્યાધિ આદિને કારણે) જેના ગર્ભાશયના છિદ્રને ગર્ભ ધારવુ કરવાને અસમર્થ કરી નાખવામાં આવ્યું કેય, ને બી પણ ગર્ભ ધારણ કરી શકતી નથી, (૫) જે સ્ત્રી મૈથુન સેવનના Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबाटीकां स्था०५ उ०२ सू०६ गर्भविषय निरूपणम् मुख्यमङ्गं लिङ्ग भगव, तन्निषेधोऽनङ्गं तेन आहार्यलिङ्गादिना मैथुनं प्रतिसेवते या सा ५) एभिः पञ्चभिः कारणैः पुरुष संगताऽपि स्त्री गर्भ न दधातीति । तथाऋतौ = आवकाले निकाम सेविनी - निकामं वीर्यपातावधि मैथुनं सेवते या सा तथा नो भवति । इति प्रथमं स्थानम् । तथा-तस्या योनौ समागता वीर्यपुद्गलाः प्रतिविध्वसन्ते= योनिदोषाद् विनष्टशक्तिका भवन्ति । इति द्वितीयं स्थानम् । तथा-तस्याः पित्तशोणितं = पित्तप्रधान शोणितम् उदीर्णम् = उद्गतं भवेत् उदीर्णे पित्तशोणिते वीजं न मरोहतीति भावः, इति तृतीयं स्थानम् | पुरा गर्भधारणात् पूर्वं देवकर्मणा - देवकिमया देवतानुभावेन शक्त्युपघातः स्यादिति शेषः, यद्वा है, तथा जो मैथुन सेवनके अंग योनि और लिङ्गके सिवाय अनङ्गसे लिङ्गके सिवाय अनङ्गसे - आहार्य (2) लिङ्ग आदिसे काम सेवन करती है, ऐसी वह भी स्त्री गर्भ धारण नहीं कर सकती है, तात्पर्य यही है, कि पुरुष संगत हुई भी स्त्री इन पांच कारणों के कारण गर्भवती नहीं हो सकती है, गर्भ धारण करनेमें बाधक और भी कारणान्तर हैं, जो इस प्रकार से हैं- इनमें प्रथम कारण वह है, जो वीर्यपात हो जाने के याद भी मैथुन सेवा क्रियामें रत रहती है । तथा-योनिमें पतित वीर्य पुद्गल जिसकी योनि के दोष से विनष्ट शक्तिवाले हो जाते हैं । तथा जिसका पित्त शोणित निकल गया होता है, तब बीज अङ्कुरित नहीं होता है ॥ ३ ॥ तथा जिसकी गर्भ धारण 'शक्ति किसी देवता प्रभावसे नष्टकर दी गई है, अथवा - गर्भ निरोधक અ'ગ વડે મૈથુન સેવન કરતી નથી, એટલે કે પુરુષના લિંગ વડે મૈથુન સેવન કરતી નથી, પણ લિંગ સિવાયના અનંગ વર્ડ-આહા લિંગ આદિ વડે કામસેવન કરે છે, તે સ્ત્રી પણુ એ રીતે ગર્ભ ધારણુ કરી શકતી નથી. ગર્ભ ધારણ કરવામાં સ્ત્રી નીચેના અન્ય કારણાને લીધે પણ અસમથ અને છે—(૧) પુરુષના વીર્યના સ્રાવ થઈ ગયા ખાદ પણ પુરુષ સાથે રિતક્રિયા કરવાથી સ્ત્રીને ગર્ભ રહેતા નથી. (૨) ચેાનિમાં પ્રવિષ્ટ થયેલાં વીયપુદ્ગલા જે સ્ત્રીની ચેાનિના કોઈ દોષને લીધે વિનષ્ટ શક્તિવાળા થઈ જતાં હાય તે સ્ત્રી પણ ગભ ધારણ કરી શકતી નથી. (૩) જે સ્ત્રીનું પિત્તશાણિત નીકળી ગયુ` હાય છે, તે સ્ત્રી પણ ગર્ભ ધારણ કરી શકતી નથી. (૪) જેની ગ પારણુ શક્તિ કોઈ દેવતાના પ્રભાવથી નષ્ટ થઈ ગઇ હાય, તે સ્ત્રી પણ ગભ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानासूत्रे देवकार्मगात् ' इतिच्छाया - तत्र देवश्व कार्मणं चेति देवकार्मणम् इति समाहारइन्द्रः, तस्मात् देववशात् तथाविधद्रव्यसंयोगाद् वा शक्त्युपघातः स्यात् । इति चतुर्थं स्थानम् । तथा-तस्याः स्त्रिया जन्मान्तरकर्मप्रभावेण पुत्रफलं नो निर्दिष्टं भवेत् ५॥ इति पञ्चमं स्थानम् । इत्येतैः पञ्चभिः स्थानैः पुरुपसंगताऽपि स्त्री गर्भे नो धरेदिति ॥ सु० ६ ॥ ટ ५ स्त्रीविantsधिकारः प्रस्तुत एव तदधिकारादेव सम्मति साध्वी वक्तव्यताप्रतिबद्ध सूत्रद्वयात्मकमेकं सूत्रमाह मूलम् - पंचहि ठाणेहिं निग्गंथा निरगंथिओ य एगयओ ठाणं वा सिज्जं वा निसोहियं वा चेएमाणा णाइकमंति, तं जहा - अत्थेगइया निरगंथा निग्गंधीओ य एवं महं आगामियं छिन्नावायं दोहसद्धमडविमणुपविट्टा, तत्थेगयओ ठाणं वा सेज वा निसीहियं वा चे माणा णाइकमंति ९, अत्थेगइया निग्गंथा निगंीओ य गामंसि वा णयरंसि वा जाव रायहाणिसि वा वास उवागया एगइया जत्थ उवस्तयं लभति एगइया णो लमंति, तत्थेगयओ ठाणं वा जाव नाइकमंति २, अत्थगइया निरगंथा निग्गंथीओय नागकुमारावासंसि वा सुवणकुमारा वा संसि वा वास उवागया तत्थेगयओ जाव णाइक्कमति ३, आमोऔषधि आदिके द्वारा जिसकी गर्भ धारण शक्तिका निरोध कर दिया गया है । तथा जन्मान्तर में पूर्वजन्म में - कृत कर्म के प्रभाव से जिसे पुत्रफल प्राप्त होना नहीं बदाहै, ऐसी स्त्री भी गर्भवती नहीं हो सकती है सू६ ॥ 1 ધારણ કરી શકતી નથી. અથવા ગર્ભનિરોધક ઔષધિ દ્વારા જે સ્ત્રીની ગર્ભ ધારણ કરવાની શક્તિના નિરોધ કરી નાખવામાં આવ્યે હાય, તે સ્ત્રી પણુ ગર્ભ ધારણ કરી શકતી નથી. (૫) પૂર્વજન્મના કૃતકર્મને લીધે જેના નસી. ખમાં પુત્રફુલ પ્રાપ્તિ લખાઈ જ ન ાય, એવી આ પશુ ગર્ભ ધારણ शती नथी. ॥ सू. ६ ॥ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधी रीका स्था० ५ ९०२ सू०७ साध्वीविषयनिरूपणम् सगा दीसंति ते इच्छंति निग्गंधीओ चीवरवडियाए पडिगाहितर तत्थेगयओ ठाणं वा जाव णाइकमति ४, जुवाणा दीसंति ते इच्छंति णिग्गंथीओ मेहुणपडियाए पडिगाहित्तए तत्थेगयओ ठाण वा जाव णाइकमंति ५। इच्चेएहिं पंचहिं ठाणेहिं जाव नाइकमति । पंचहि ठाणेहि समगे निग्गंथे अचेलए सबलियाहिं निग्गंथीहिं सद्धि संवसामाणे नाइकमइ, तं जहा--खित्तचित्ते समणे णिगंथे णिगंथेहिमविनालाणेहिं अचेलए सचेलियाहिं निग्गंधीहि सद्धिं संवसमाणे णाइकमइ १, एवमेएणं गमएणं दित्तचित्ते २, जक्खाइटे ३, उम्मायपत्ते ४, निरगंथोपचावियए समणे निग्गंथे जिग्गंथेहि अविजमाणेहिं अचेलए सचेलियाहिं निग्गंथोहि सद्धि संवसमाणे णाइक्कमइ ५॥ सू०७ ॥ छाया--पञ्चनिः स्थानः निम्रन्था निम्रन्थ्यश्च एकतः स्थानं वा शयर वा नैषेधिकी वा चेतयन्तो नातिकामन्ति, तद्यथा-सन्त्येके निर्ग्रन्था निर्ग्रन्थ्य एका महतीम् अग्रामिकां छिन्नापाती दीर्घाध्वामटवीम् अनुपविष्टाः, तत्रैकर स्थानं वा शय्यां वा नैषेधिको या चेतयन्तो नातिक्रामन्ति ११ सन्त्येके निर्गन्ध निर्ग्रन्थ्यश्च प्रामे वा नगरे वा यावत् राजधान्यो वा वासम् उपागताः, एकके य उपाश्रयं लभन्ते,एककं नो लमन्ते तत्रैकतः स्थानं वा यावद् नातिकामन्ति। सन्त्येक निर्ग्रन्था निग्रन्थ्यश्च नागकुमारावासे वा सुपर्णकुमारावासे वा वासम् उपागताः, त कतो यावद् नातिकामन्ति३। आमोपका दृश्यन्ते, ते इच्छन्ति निर्ग्रन्थिकाः चीवरप्रति ग्रहीतुं, तत्रैकतः स्थानं वा यावद् नातिक्रामन्ति ४। युवानो दृश्यन्ते, ते इच्छति निर्ग्रन्थिकाः मैथुनपतिज्ञया प्रतिग्रहीतुम् , तत्रैकतः स्थानं वा यावत् नातिक मन्ति ५। इत्येतैः पञ्चभिः स्थानः यावत् नातिकामन्ति । पञ्चभिः स्थानः श्रमग निर्ग्रन्थः अचेलकः सचेलिकाभिः निन्थीभिः सार्द्ध संवसन् नातिकामति तद्यथा क्षिसचित्तः श्रमणो निन्यो निर्ग्रन्थेषु अविद्यमानेषु अचेलकः सचेलिकाभिः नि न्थीभिः सार्द्ध संवसन नातिकामति १। एवमेतेन गमकेन दृप्तचित्तो २ यक्षाविर ३, उन्मादप्राप्तो ४, निग्रन्थी प्रत्राजितः श्रमणो निम्रन्यो निम्रन्थेषु अविद्यमाने अचेलकः सचेलिकाभिः निर्ग्रन्यीभिः साई संवसन् नातिक्रामति ५ ॥सू० ७॥ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० २०... ..................... ......... स्थानानने टीका--'पंचहि ठाणेहि ' इत्यादि पञ्चभिः स्थानै कारणैः निर्ग्रन्था निर्ग्रन्थ्यश्च एकतः एकस्मिन् स्थले स्थानंकायोत्सर्गम् उपवेशनं वा शल्पां-संस्तारकं वा नैषेधिकीं स्वाध्यायभूमि वा चेतयन्ता कुर्वन्तो नातिकामन्ति=नोल वयन्ति जिनाज्ञाम् । तानि स्थानानि माहसन्ति भवन्ति । एके-केचिद् नि स्था निर्ग्रन्थ्यश्च, ते किल काञ्चित् एकां महतींविशालाम् अग्रामिकाम् ग्रामरहिम् छिन्नापाताम्-छिन्ना आपाताः-जनानामा. गमनानि, उपलक्षणाद् गमनानि वा यम्यां सा तां, दीर्घाध्याम्-दीर्घः अध्या-मार्गो यस्यां सा तां-महापथाम् , यद्वा-'दीर्घाद्वाम् ' इति च्छाया. दीर्घः महान अद्धा कालो निस्तरणे यम्याः सा तां-दीर्घ काललनीयामुलन योग्याम् अटवीम् अनुप - अब सूत्रकार इसी स्त्री विषयक अधिकारके सम्बाधले साध्वीकी वक्तव्यतासे प्रनिवद्ध सूत्रद्वयात्मक एक सत्रका कथन करते हैं__'पंचहि ठाणेहि निग्गंथा निग्गधीओ' इत्यादि सूत्र ७॥ टीकार्थ-निग्रन्थ और निर्ग्रन्थनियां-साधु और साध्वी-यदि इन पांच कारणों को लेकर एकही जगह कार्यात्मर्ग करते हैं, या बैठते हैं विस्तर करते हैं, या स्वाध्याय करते हैं, तो वे जिनाज्ञाके विराधक नहीं होते हैं, पे पांच कारण इस प्रकारसे हैं-जैसे-कितनेक निर्ग्रन्थ और निम्रन्थनियां एक ऐसी अटवीमें पहुंच जाते हैं, कि जो बहुत विशाल है, जिसमें एक भी ग्राम नहीं है, मनुष्योंका भी आगमन आनाजाना जिसमें नहीं है, जो लम्बे रास्तावाली है, अथवा जिसे पार करना बहुत समय साध्य है, ऐसी भयंकर गहन अटवीमें पहुंच जाने पर આગલા સૂત્રમાં વિષયક કથન કરવામાં આવ્યું છે. સાધ્વીઓ પણ સ્ત્રીઓ જ હોય છે. આ સંબંધને અનુલક્ષીને હવે સૂત્રકાર સાધવીઓની વક્તવ્યતાથી યુક્ત સૂત્ર દ્રયના સમૂહરૂપ એક સૂત્રનું કથન કરે છે. 30-"पंच हि ठाणे हि निग्गंधी निग्गंधीओ "त्याह- . निय थे। (साधुस!) भने नियिनिया (सावीसी) ने भा पांय કારણેને લીધે એક જ જગ્યાએ કાર્યોત્સર્ગ કરે, બેસે, સ્વાધ્યાય કરે, અથવા શયન કરે, તે તેઓ જિનાજ્ઞાના વિરાધક થતાં નથી. (૧) કેટલાક નિર્ચ અને નિગ્રંથીઓ કઈ એક એવી ગહન અને વિશાળ રyટવીમાં આવી પહોંચ્યાં છે કે જેમાં એક પણ ગામ નથી, મનુષ્યનો - અવરજવર પણ જ્યાં થતું નથી, જેને પાર કરીને કઈ ગામમાં પહોંચવું ઘણું જ દુષ્કર છે, ઘણું જ લાંબા સમયે જેને પાર કરી શકાય એવી છે, તો Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१ सुधा टीका स्था० ५ उ०२सू० ७ साध्वीविषयनिरूपणम् विष्टाः। तत्र अटव्याम् एकत्र एकस्मिन् स्थले स्थानं वा शय्यां वा नषेधिकीं वा चेतयन्ता कुर्वन्तो निर्ग्रन्था निर्ग्रन्थ्यश्च नातिक्रामन्ति-नोल्लयन्ति जिनाज्ञामिति प्रथम स्थानम् । तथा-सन्ति एके निर्ग्रन्था निग्रन्थ्यश्च, ये किल ग्रामे वा नगरे वा यावद् राजधान्यां वा वासं निवासम् उपागताप्राप्ताः, तेषु मध्ये एके-निग्रन्था वा निर्ग्रन्थ्यो वा अत्र-ग्रामादौ उपाश्रयं गृहस्थेन निवासार्थं प्रदत्तं स्थानं लभन्ते-- प्राप्नुवन्ति, एकके अन्यतरे पुनों लभन्ते, तत्र एकत्र स्थले स्थानादिकं कुर्वन्तो निग्रन्था निर्ग्रन्थ्यश्च नातिक्रामन्तीति द्वितीय स्थानम् । तथा-सन्ति एके निर्ग्रन्था यदि साधुजन एवं साध्वियां एकही स्थान पर ठहर जाते हैं बैठ जाते हैं, कार्यात्सर्ग करते हैं, आदि २ क्रियाएँ करते हैं, तो ऐसे वे निन्य साधु और साध्वियां तीर्थंकर प्रभुकी आज्ञाके विराधक नहीं होते हैं, ऐसा यह प्रथम कारण है। द्वितीय स्थान-कारण ऐसा है-कितनेक साधुसाध्वियां विहार करती हुई किसी एक ग्राम में था नगरसें आदि आ. जाती हैं-वहां वे गृहस्थके द्वारा प्रदत्त किसी उपाश्रयमें ठहर जाती हैं, परन्तु यदि और भी साधु सोध्वियां ऐमी बची रहती हो कि जिन्हें ठहरने के लिये स्थान न मिला हो तो ऐसी स्थितिमें वे सबके सप यदि एकही स्थानमें ठहर जाते हैं, वहीं पर अपनी २ धार्मिक क्रियाएँ करते हैं, तो वे जिनाज्ञाके विराधक नहीं माने जाते हैं। तृतीय स्थान ऐसा એવી પરિસ્થિતિમાં સાધુઓ અને સાધ્વીઓ તે ગહન અટવીમાં એક જ સ્થળે રોકાઈ જાય, બેસી જાય, અને કાયોત્સર્ગ આદિ ક્રિયાઓ કરે, તે તે પ્રમાણે કરવાથી તે સાધુઓ અને સાધવીએ તીર્થંકર ભગવાનની આજ્ઞાની અવગણના કરનાર ગણાતાં નથી બીજુ કારણ નીચે પ્રમાણે છે કેટલાક સાધુઓ અને સાધ્વીઓ પ્રામાનુગામ વિચરતાં વિચરતાં કેઈ એક ગામ, નગર આદિમાં આવી પહોંચે છે. ધારો કે કેટલાક સાધુઓ અથવા સાદરીઓ ત્યા કેઈ ગૃહસ્થ દ્વારા આપવામાં આવેલા કેઈ ઉપાશ્રયમાં ઉતરે છે. કેટલાક સાધુ અથવા સાધ્વીએને તે ગામ આદિમાં ઉતરવાને માટે કે અલગ સ્થાન મળી શકતું નથી. તે એવી પરિસ્થિતિમાં તે સાધુઓ અને સાધ્વીઓ તે એક જ સ્થાનમાં ઉતરે અને કાર્યોત્સર્ગ આદિ ક્રિયાઓ કરે, તે તેઓ જિનેશ્વર ભગવાનની આજ્ઞાના વિરાધક ગણાતાં નથી ત્રીજું કારણ આ પ્રમાણે છે–જે કઈ સાધુઓ અને સાધ્વીઓ કે નાગકુમારાવાસમાં અથવા સુપર્ણકુમારાવાસમાં એક સાથે જ વાસ કરે, તે Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानागावे निन्थ्यश्च, ये किल नागकुमारावासे-नागकुमारगृहे वा सुपर्णकुमारावासे= सुपर्णकुमारगृहे वा वासम् वसतिम् उपागताः, तस्य नागकुमारावासस्य सुपर्णकुमारावासस्य च अति शून्यत्वात् , अथवा-बहुजनाश्रयत्वात् अनायकत्याच निग्रन्थी शीलरक्षार्थ तत्र नागकुमारावासदौ स्थानादिकं कुर्वाणा नि ग्रन्या निन्थ्यश्च नातिक्रामन्तीति तृतीय स्थानम् । तथा-क्वचित् स्थले निम्रन्या निग्रन्थयश्च उपागताः, तत्र आमोपका:-आमुप्णन्ति-चोरयन्तीति आमोपकाः चौरा दृश्यन्ते, ते चौरा इच्छन्ति चीवरप्रतिज्ञया=चीवरोद्देशेन-वस्त्रापहरणेच्छयेहै-यदि किननेक साधु साधिवयां किसी एक नागकुमारावास में या सुपर्णकुमारावास में आकर ठहर जाते हैं तो ऐसी स्थितिमें वे जिना. ज्ञाके विराधक नहीं माने गये हैं, क्योंकि निर्घन्धों के साथ निर्घन्धी के वहरने का ऐसा अभिप्राय रहता है कि इनके सहारे से मेरे शील की रक्षा हो जावेगी, क्योंकि यह आवास अतिशून्य है। ___ अथवा--यह बहुजनाश्रय है या इसका कोई नायक नहीं है, अतः ऐसी स्थिति में यहां दुघलनी भी आ सकते हैं, इसलिये साधु महाराज के पास ठहरने से मेरे शीलकी रक्षा हो सकती है, इस अभिप्रायसे वह यदि उनके साथ ठहर जाती है, और वे उसे ठहरा लेते हैं, तो ऐसी स्थितिमें वे जिनाज्ञा के विराधक नहीं माने जाते हैं। चतुर्थ स्थान ऐसा है ---किसी स्थान पर निन्य और निर्गन्थनियों आये हों और वहां उन्हें चोर लुटेरे दिखलाई दिये हो. और वे चोर यह चाहते हों कि हम इन निर्ग्रन्थनियों को लूट ले ताकि हमे તેઓ જિનાજ્ઞાના વિરાધક ગણાતા નથી. આવા સ્થાનોમાં સાદવીઓ એકલી રહે તે તેમના શીલની રક્ષા કરવાને તેઓ અસમર્થ બને છે, સાધુઓ પણ તે જગ્યાએ ઉતર્યા હોય, તો તેમના શીલની રક્ષા થઈ શકે છે, સાધુઓની હાજરીમાં ત્યાં કેઈ દુર ચારી આવવાની હિંમત કરી શકતું નથી. આવા આવાસ કાં તો નિર્જન હોય છે, કાં તો બહુજનાશ્રિત હોય છે, અથવા તો ત્યાં કઈ રક્ષક જ હેત નથી એવી જગ્યાએ દુરાચારીઓ પણ આવી શકે છે. આ પ્રકારની પરિસ્થિતિમાં ત્યાં કઈ સાધુઓ ઉતર્યા હોય, તે તેમની સાથે પિતાના શીલની રક્ષાના વિચારથી પ્રેરાઈને, સાધ્વીઓ પણ આવીને ઉતરે, તે તેઓ જિનાજ્ઞાની વિરાધક ગણાતી નથી. ચોથું કાણુ–કેઈ ગામ આદિમાં સાધુઓ અને સાધ્વીઓ અલગ અલગ ઉપાશ્રયમાં ઉતર્યા હોય, અને તે ગામ આદિમાં ચાર લૂટારાને Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधाबीका स्था०५३०२ सू०७ साध्वीविषय निरूपणम ३३ स्यर्थः, निर्ग्रन्थिकाः प्रतिग्रहीतुम् = अपहर्त्तुम्, तत्र सम्प्राप्येऽपि पृथकस्थाने एकतः= एकस्मिन् आवासे स्थानादिकं कुर्वाणा निर्ग्रन्या निर्ग्रन्थ्यश्च नातिक्रामन्तीति चतुर्थ स्थानम् । तथा - क्वचित् स्थाने निर्ग्रन्था निर्मन्थ्यच समुपागताः, तत्र युवानो दृश्यन्ते, ते इच्छन्ति मैथुनप्रतिज्ञया मैथुनो शेन निर्यन्धिकाः पतिग्रहीतुम्, तत्र शक्यायामपि पृथक्स्थितौ एकत्र स्थले स्थानादिकं कुर्वाणा निर्ग्रन्था निर्ग्रन्ध्यश्च नातिक्रामन्तीति पञ्चमं रथानम् ५। इत्येतैः पञ्चभिः स्थानैः निर्ग्रन्था निर्ग्रन्थ्यश्च एकस्मिन् स्थले स्थानादिकं कुर्वन्तो जिनाला विराधका नो भवन इनसे कपडे मिल जायेंगे तो ऐसी स्थिति में यदि उन्हें ठहरने के लिये दूसरा स्थान भी हो, पर यदि वे जहाँ निर्ग्रन्थ ठहरे ए हैं वहां आकर ठहर जाती हैं और निर्ग्रन्थ उन्हें ठहरा लेते हैं, तो ऐसी स्थिति में वे जिनाज्ञा के विराधक' नहीं माने गये हैं । पोचवां क ण ऐसा हैयदि किसी स्थान पर निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थनियां आगई हो वहां जवान मनुष्य उन निर्ग्रन्थिनियों को देखकर उनके साथ मैथुनकर्म करने के लिये उतारु हो गये हों तो ऐसी स्थिति में वहां दूसरा स्थान उन्हें ठहरने योग्य भले ही हो, पर यदि वे साधुओंके साथ ठहर जाती हैं और साधुजन उन्हें अपने पास ठहरा देते हैं, तो वे इस दशा में जिनोज़ा के विराधक नहीं होते हैं । इस प्रकार के इन पांच कारणों के होने पर निर्ग्रन्थ और निर्मन्थनियां यदि एक ही स्थान पर ठहर जाते 1 . ઉપદ્ર- ખૂબ જ વધી ગયે! હાય. તે ચાર લૂટારા પેાતાનાં કપડાં આદિ ચારી જશે એવા ડર સાધ્વીઓને લાગતા હાય, તે એવી પરિસ્થિતિમાં તે સાધ્વીએ પેાતાનું અલગ આશ્રયસ્થાન છેડીને તે સાધુએની પાસે આવીને ઉતારા કરે અને સાધુએ તેમને ત્યાં ઉતરવા પણ કે, તે એવા સચેગેામાં તેઓ જિનાજ્ઞાના વિરાધક ગણાતા નથી. પાંચમુ. કારણુ અમુક સાધ્વીએ કાઇ સ્થળે આવીને ઉતરેલી હાય, હવે એવુ મને કે ત્યાં રહેતા કોઇ દુષ્ટ ચુવાના તેમની સાથે મૈથુન સેવન કરવાને કૃતનિશ્ચયી થયા હાય, તેા એવી પરિસ્થિતિમાં પોતાના શીલની રક્ષા કરવા નિમિત્ત તે સાધ્વીએ તે અલગ આશ્ર સ્થાનને છેડીને કાઇ સાધુઓની સાથે એક જ આશ્રયસ્થ નમાં જઇને રહે અને તે સાધુએ તેમને ત્યાં રહેવા કે, તે! આ પ્રકારની પરિસ્થિતિમાં તે જિનાજ્ઞાના વિરાધક ગણાતાં નથી. આ પ્રકારના પાંચ કારણેામાંના કેાઈ પણ કારણને લીધે સાધુએ અને સાધ્વીએ स्था०-५ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानावसूत्रे दम्पायन्य वन एथनिकृनो निर्भया निरोग तथा मिनादिरूपैःपञ्चभिः कामिनि न्यीगि सार्द्धम् श्री नावि स्यानानिप्रद तद्यथा-सिमचितः = चन्दन तिम्पदिनः श्रमणो निर्धन्य इतरेषु इत्येव यमानेषु मनमनर्थकता विरा काजी काव्यानेन गन-पाठेन दृप्तजिला के माने जाते हैं। यह अपवाद सूत्र हैराण में निर्यन्त्र निर्मथिनियों को एक जगह निशा से करनेवाला नहीं कहा गया है, इसी दिनादिकारणों से अल-चस्त्ररहित साधु निर्वाचनका निर्गन्धनियों के साथ रहता हुआ भी की आप का प्रतिकमण करनेवाला नहीं होता है। वे पांच नेमणे निरांचे " इत्यादि-अनवन है, अस्तव्यस्त हो रहा है, विगतवन्त्र हो गया है, वस्त्रतर निों की अग्रि ܐ. मोदि से जिसका नि पानी अब हैन Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाटीका स्था०५७०२ सू०७ साध्वीविषयनिरूपणम् चित्ता-हर्षादिना उन्मत्तः २, यक्षाविष्टः यक्षगृहीतः ३, उन्मादमाप्त वातादि क्षोभादन्मादभावं गतः ४, अयं त्रिविधोऽपि निग्रन्थो सचित्तत्वादिवशात अचेलकः निर्ग्रन्थीभिः सह संबसन्नपि जिनाज्ञाचिराधको न भवतीति स्थानत्रयमिति चतुर्थं स्थानम् । तधा-निर्ग्रन्थी प्रवागितः-निन्थ्या -दीक्षादायक-तद्रसकपाध्वभाव-परमवैराग्यवत्यप्रवर्धमानपरिणामवत्वादिकारणवशात् साध्व्या. प्रवाजितः पुत्रादिः श्वशुरादि वा, स च बालवाद् अचेलः, महानपि वृद्धत्वादिना मानता में सचेलक सबस्न निर्ग्रन्थनियों-साध्वियों के साथ रहता हुआ तीर्थकर की आज्ञा का चिराधक नहीं होता है, ऐसा यह प्रथम कारण है । "एवमेतेन गमकेन दृप्तचित्तो" इत्यादि— इसी रीति से इमी पाठ से हर्षादि आदि से उन्मत्त हुआ २ यक्ष से अवशिष्ट हमा-ग्रहीत हुआ-३ उन्माद को प्राप्त हुआ-वाल आदि के क्षोभसे उन्माद भाव को प्राप्त हुआ ४ भी अवण निर्ग्रन्थ यदि अचेलक वस्त्र रहित इन दृप्तचित्तता आदिके वश हो जाता है, और निग्रन्थनियों के साथ रहता है, तो भी वह जिनाज्ञा का विराधक नहीं, इस प्रकार के यहां तक ये ४ स्थान हैं, पांचों स्थान इस प्रकारसे है-किसी निर्ग्रन्थी साध्वी के द्वारा ऐसी अवस्थामें कि जब दीक्षा देनेवाला दीक्षा रक्षक साधुका अभाव हो और दीक्षा लेनेवाला परम वैराग्य से वधित परिणामवाला हो रहा हो, दीक्षित किया गया पुत्र (સવ) સાધ્વીઓ તેમની પાસે રહી શકે છે. આ પ્રમાણે કરવામાં તે સધુ, કે સાવી જિનાજ્ઞાના વિરાધક બનતાં નથી. " एवमेतेन गमेन दृ चित्तो" त्याह એ જ પ્રમાણે (૨) હર્ષના અતિરેકને કારણે ઉન્મત બની ગયેલા, (૩) શરીરમાં યક્ષાદિને પ્રવેશ થવાને કારણે ઉન્માદાવા પામેલા, (૪) વાતાદિના પ્રકાશને કારણે ઉત્ત થઈ ગયેલા, એવા કેઈ શ્રમણ નિર્થ થ , નગ્નાવસ્થામાં રહેલા હોય અને તેમની સાથે સચેલક સાધ્વીઓ રહે, તે એવી પરિસ્થિતિમાં તે નિર્ગથે કે નિ થિની જિનાજ્ઞાન વિરાધક ગણાતા નથી. . પાંચમું કારણ નીચે પ્રમાણે છે–દીક્ષાદાયક અને દીક્ષારક્ષક સાધુને અભાવ હેય, અને દીક્ષા લેનાર પુત્ર, સસરા આદિ પરમ વૈરાગ્યથી વર્ધિત પરિણામવાળે થઈ રહ્યો હોય, એવી પરિસ્થિતિમાં તેમને કોઈ નિર્ણથી (સાવી) દ્વારા દીક્ષા પ્રદાન કરવામાં આવે છે. દીક્ષા લેનાર પુત્ર ધારે કે Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ દ स्थानान अचेलः, यहि अन्येषु निर्ग्रन्थेषु अविद्यमानेषु सत्य सचेलिकाभिर्निर्ग्रन्थोभिः 1 सह समन्नपि तीर्थकुदाज्ञाविराधको न भवतीति पञ्चमं स्थानम् ॥० ७|| अनन्तरत्रे जिनाज्ञानातिक्रामति इत्युक्तं, तदतिक्रमणशीलच आज्ञाविराको भवति, आज्ञाविराधना च आवरूपा भवति, अत: आस्रवद्वाराणि, वस्त्रपित्या संवरद्वाराणि पुनर्दण्डलक्षणान् आस्रवविशेषांश्च प्राह --- मूलम् - पंच आसवदारा पण्णत्ता, तं जहा मिच्छन्तं १, अविरइ २, पसाए ३, कसाया ४ जोगा ५। पंच संवरदारा पण्णत्ता, तं जहा - संमत्तं १ बिरई २ अपमाओं ३, अकसाइत्तं ४, अजोगिनं ५ | पंच दंडा पण्णत्ता, तं जहा - अड्डादंडे १ अगट्टा दंडे २ हिसादंडे ३ अकस्हादंडे ४ दिट्ठीविप्परियासि यादंडे ५|| सू० ८ ॥ छाया - पश्च आम्रवद्वाराणि मज्ञतानि तद्यथा-मिथ्यात्वम् १ अविरतिः २ ममादः ३ कपायाः ४ योगाः ५। पञ्च संरद्वाराणि प्रज्ञतानि, तद्यथा - सम्य, चनं १, विरतिः २ अममादः ३ अपायित्वम् ४ अयोगित्वम् ५। पञ्च दण्डाः प्रतप्ताः तथथा - अर्थदण्डः १ अनर्थदण्डः २ हिंसादण्डः ३ अकस्मादण्डः १ दृष्टिविपर्यासदण्डः ॥०८|| आदि अथवा श्वशुर आदि यदि अचेलक हुआ-बालक होने से अचेलक हुआ पुत्र और बड़ा होने पर भी वृद्धता आदि के कारणसे अचेलक हुआ श्वशुर आदि अन्य निर्ग्रन्थों के अभाव में उनकी अविद्यमानता में सचेलक निर्ग्रन्थनियों के साथ यदि रहता है, तब भी वह तीर्थंकरकी आज्ञाका विराधक नहीं होना है, ऐसा यह पांचवां स्थान है || सू० ७ ॥ બાલક છે. તે અચેલક (નગ્ન ) હાય તા પણ સાધ્વીજી તેની પાસે રહી શકે છે. દીક્ષા લેનાર સસરા આદિ યારે કે વૃદ્ધ હેાય અને વૃદ્ધાવસ્થાને કારણે અચેલક ( નવસ્થાવાળા ) થઈ ગયા હોય, અને અન્ય સાધુએ ત્યાં વિદ્ય માન ન હોય, તે એવી પરિસ્થિતિમાં સચેલક સાધ્વીએ સાથે રહેતા શ્રમણ નિગ્રંથ ભગવાનની આજ્ઞાને વિરાધક થતા નથી. !! સૂ. ૭ ! Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबा डीका स्था०५ उ०२ ०८ आंत्रवादिनिरूपणम् टीका - पंच आसवदारा ' इत्यादि - आस्रवद्वाराणि - आखरणम् - आस्रवः- जीवरूपे तडागे कर्मरूपजलरय प्रवेशः तस्य द्वाराणीव द्वाराणि उपायाः, तानि दि पंच संपकानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा मिथ्यास्वम्=अनत्त्वे तत्वाध्यवसानरूपं विपरीतश्रद्वानमित्यर्थ इति प्रथमं स्थान १| अविरतिः पापक पैतोऽनिवृत्तिः निवत्तेरभावः २ प्रमादः - अनवधानता अनन्तर सूत्र में " जिनाज्ञा को माननेवाला जिनाज्ञाका विराधक नहीं होता है " ऐसा कहा गया है और जो जिनाज्ञा को नहीं मानता है वह जिन (ज्ञाका विराधक होता है, जिनाज्ञाकी विराधना आम्रव रूप होती हैं । अतः अब सूत्रकार आस्रव द्वारों का और आस्रव द्वारों के रूकने रूप संवर द्वारों का तथा दण्ड रूप आस्त्रव विशेषांका कथन करते हैं -- " पंच आसवद्वारा पण्णत्ता " इत्यादि -- टीकार्थ- आस्रव द्वार पांच कहे गये हैं, जैसे- मिथ्यात्व १, अविरति २, प्रमाद ३, कषाय ४ और योग ५ | पांच संघर द्वार कहे गये हैं, जैसेसम्यक्त्व १, विरति २, अप्रमाद ३, अक्रपायिता ४ और अयोगिता ५ दण्ड पांच कहे गये हैं, जैसे- अर्थदण्ड १, अनर्थक २, हिंसादण्ड २, अकस्मात् दण्ड ४ और दृष्टिविपर्यास दण्ड ५. " जीवरूप तालाब में कर्मरूप जलका जो प्रवेश है वह आस्रव है, इस आस्रव के द्वार जैसे जो द्वार हैं वे आलवद्वार हैं। आस्रव के आनेके जो उपाय कारण हैं वे पांच हैं, जैसे-मिथ्यात्व आदि अतत्वमें જિનાજ્ઞાનું પાલન કરનારા જિન જ્ઞાનો વિરાધક થતા નથી, ” એવુ' આગળ કહેવમાં આવ્યું છે, જે જિનાજ્ઞાને માનતા નથી તેએ જિના જ્ઞાના વિરાધક ગણાય છે જિનાજ્ઞાની વિરાધના આસ્રવ રૂપ હાય છે. તેથી હવે સૂત્રકાર અસવદ્વારનું અને આસ્રવેાનો નિરોધ કરનારા સ'વરદ્વારાનું તથા દંડ રૂપ આસવિશેષેનું કથન કરે છે. 'पच आसत्रदारा पण्णत्ता " त्याहि- 66 यांग आवद्वारा उह्यां छे - (१) मिथ्यात्व (२) अविरति, (3) प्रभा (४) प्रषाय, अने (५) योग, पांय सवरद्वार ह्यां--(१) सभ्य४त्व, (२) विरति, (3) अप्रमाद, (४) अनुषायिता भने (4) अयोगिता 'उ पाथ ह्यां छे – (१) अर्थ:, (२) अनर्थ: 3, (3) डिसाइंड, (४) अस्मात् छौं भने (4) दृष्टि विपर्यास 'ड. જીવ રૂપ તળાવમાં કમ રૂપ જળનો જે પ્રવેશ થાય છે, તેનું નામ આવ છે. તે આસવના દ્વાર જેવાં જે દ્વાર છે તેમને આસવદ્વાર छे. भावे ( ) ना आगमना नीये अभाये यांथ भरो। -- Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पोमोशन - - - - कर्तव्या-कर्त्तव्ययोरमत्तिप्रवृत्तिरूपा ३। कपायाः-क्रोधादिलक्षणाः ॥ योगाः मनोयोगादयः ५। इत्येतानि पञ्च आन बद्वाराणि बोध्यानि। सम्पति एतत्पतिपक्षभूनानि संघरद्वागणि माह-तथाहि संवरद्वाराणि-संवरणं संवरः= समितिगुप्ति प्रकृतिभिरात्मतडागे आगच्छत्कौसलीलानां निरोधनम् । तस्य द्वारा णीत्र द्वाराणि । तानि पश्चविधानि प्रज्ञप्तानि । तद्यथा-सम्यक्त्वम् १, विरतिः २ अप्रमादः ३ अकपायित्वम् ४, अयोगिन्याम् ५' तथा-दण्ड:-दण्ड यते निःसारी क्रियते आत्मा यैस्ते दण्डा:प्राणव्यपरोपणादिरूपाः । प्राणवियोजनादिरूपाः ते च पञ्चविधाः प्राप्ताः । पञ्चविधत्यमेवाह-तद्यथा-अर्थदण्ड.-अर्थाय-पानां तत्वाध्यवसानरूप जो विपरीत श्रद्धान है, वह मिथ्यात्व है, पापकर्म से विरक्ति नहीं होना इसका नाम अविरति है, अनवधानताका नाम प्रमाद है, यह प्रमाद कर्तव्य में अप्रवृत्तिरूप और अकर्तव्यमें प्रवृत्तिरूप होता है, क्रोधादिरूप कषाये हैं, और मनोयोग आदिरूप योग हैं, इनसे कर्मों का आना होता है, अतः इन्हे आप्रवद्वार कहा गयाहै, आस्रवका प्रतिपक्षी संचर होता है, इस संवरके छार उपायभी पांच कहे गये हैं, आत्मारूपी तालाबमें आनेवाले कर्मरूप जलका जो समिति गुप्ति आदिकों द्वारा निरोध कर दिया जाता है, वही संवर है, इसके भी पांच द्वार कहे गये हैं, जैले सम्यकप आदि ये पांच द्वार आस्तव द्वारोंसे विपरीत होते हैं। आत्मा अथवा अन्य जीव जिनके द्वारा प्राणव्यप. - મિથ્યાત્વ આદિ પાંચ કારણે અહીં ગ્રહણ કરવા જોઇએ. અતત્વમાં તત્ત્વાધ્યવસાન રૂપ જે વિપરીત તોમાં શ્રદ્ધા છે, તેનું નામ મિથ્યાત્વ છે. પાપકર્મથી નિવૃત્ત ન થવું તેમાં પ્રવૃત્ત જ રહેવું તેનું નામ અવિરતિ છે. અનવધાનતાનું નામ પ્રમાદ છે. કરવા ચેગ્ય કાર્યોમાં પ્રવૃત્ત ન થવું અને ન કરવા ચોગ્ય કાર્યોમાં પ્રવૃત્ત થવું તેનું નામ જ પ્રમાદ છે કોધ, માન, માયા અને લેભરૂપ ચાર કષાય છે મનોગ, વાળ અને કાગ રૂપ ત્રણ યોગ છે. તેમના દ્વારા કર્મોનું આગમન થાય છે. તેથી તેમને આવકાર રૂપ કહ્યા છે. આસવનો પ્રતિપક્ષી સંવર છે તે સંવરના ઉપાય રૂપ જે પાંચ કારણે છે તેમને સંવરદ્વાર કહે છે. આત્મા રૂપી જળાશયમાં પ્રવેશ થતાં કર્મરૂપ જલને જે સમિતિ, ગુપ્તિ વગેરે દ્વારા રોકવામાં આવે છે, તેનું નામ જ સંવર છે. તેને સમ્યકત્વ આદિ જે પાંચ દ્વાર કહ્યાં છે, તેઓ આસવારે કરતાં વિપરીત હોય છે. આત્મા અથવા અન્ય જીવ જેમના Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा ठीका स्था०५ उ०२ ६० ८ आस्रवादिनिरूपणम् ३९ स्थावराणां वा आत्मनः परस्य वा प्रयोजनाय दण्डो वधः १ | अनर्थदण्डः - अनर्थो= निरर्थको यो दण्डः सः निष्प्रयोजनो दण्ड इत्यर्थः २ | हिंसादण्डः - ' अयं मम पुत्रादिकं हिंसितवान् हिनस्ति हिंसिष्यति वेति बुद्धया यः शत्रु प्रभृतीनां दण्डः स हिंसादण्डः २ तथा-अकस्माद् दण्डः - अन्यत्रधार्थ महारे कृते अस्माद् योऽन्यस्य दण्डः-प्राणव्यपरोपणं सः ४ तथा दृष्टिविपर्यास दण्डः - दृष्टिविपर्यासेनदृष्टिवैपरीत्येनं - मित्रस्याप्यमित्रधिया यो दण्डः सः ५ इत्येते पञ्च दण्डा त्रयोदशक्रियास्थानानां मध्ये वर्त्तन्ते । अत्र तु पंचस्थानानुरोधेन पञ्चैव स्थानानि गृहीतानि । तानि त्रयोदशक्रियास्थानानि यथा - 66 अट्ठा १ हा २ हिंसा ३ कम्हा ४ दिट्ठी ५ य मीस दिन्ने ६ य । अज्झत्थ ८ माणा ९ मित्ते १० माया ११ लोभे १२ रियावहिया १३ ॥ १॥" रोपणादि रूप दण्डको पाता है, वे दण्ड हैं, ये दण्डभी अर्थदण्ड आदि के भेद से पाच प्रकार के कहे गये हैं, इनमें स जीवोंका अथवा स्थावर जीवका तथा अपना तथा परका प्रयोजनवश वध करना वह अर्थदण्ड है, निष्प्रयोजन प्राणातिपात करना वह अनर्थदण्ड है, इसने मेरे पुत्रादिका वध किया था अथवा अय भी वध करता है, आगे भी यह ऐसाही करेगा इस अभिप्राय से जो शत्रु आदिकोंका वध कर दिया जाता है, वह हिंसादण्ड है, अन्यको मारनेके लिये तैयार हुए व्यक्तिले जो अकस्मात् में दूसरे की हिंसा हो जाती है, वह अकस्मात् दण्ड है, दृष्टिके विपर्यास से जो प्राणातिपात हो जाता है, वह दृष्टि विपर्यास दण्ड है, जैसे- अमित्रकी बुद्धिसे मित्रका वध हो जाता है। ये पांच दण्ड १३ દ્વારા પ્રાણવ્યપરાણુ આદિ રૂપ દડને પ્રાપ્ત કરે છે, તેમને દડ કહે છે. તે દંડના પણ અર્થદ'ડ અ દ્વિ પાંચ પ્રકાર કહ્યા છે. ત્રસ જીવાનો, સ્થાવર જીવાનો પેાતાનો કે પરનો કાઈ પ્રત્યે,જનને લીધે વધ કરવા તેનું નામ અર્થડે છે કઈ પણ જાતના પ્રયાજન વિના જીવહિંસા કરવી તે અનર્થદડ છે આ જીવે મારા પુત્ર આદિનો વધ કર્યાં હતા, વધ કરે છે કે વધ કરશે, એવી માન્ય તાથી પ્રેરાઇને શત્રુ આદિને જે વધ કરવામાં આવે છે તેનું નામ હિંસાઇડ છે કેાઈને મારવાને તૈયાર થયેલી વ્યક્તિ દ્વારા કાઈ અન્ય વ્યક્તિની અક સ્માત્ હત્યા થઈ જાય તેા તેને અકસ્માત્ દંડ કહે છે ધૃવિપર્યાસને કારણે જે પ્રાણુાતિપાત થઈ જાય છે, તેને દૃષ્ટિવિપર્યાસ દડ કહે છે. જેમકે મિત્રને અમિત્ર માનીને તેનો વધ થઈ જાય તે તે વિપર્યાસ દડ કહેવાય છે આ પાચ દડનો ૧૩ ફિયાસ્થાનોમાં સમાવેશ થઈ જાય છે, પરન્તુ અહીં Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाशस्त्रे Yo छाया-अर्थो नर्थो २ हिंसा ३ कस्मात् ४ दृष्टिश्च ५ मृपा ६ असं ७ च । अध्यात्मं ८ मानो ९ मित्रं १० माया ११ लोमः १२ ऐर्यापथिकी १३ ।। इति । ॥ मु० ८ ॥ अथ आवविशेषरूपाणि क्रियास्थानानि प्राह मूलम् - पंत्र किरियाओ पण्णत्ताओ, तं जहा- आरभिया १, परिग्गहिया २, मायावत्ति ३, अपच्चक्खाणवत्तिया ४, मिच्छादंसणवतिया || मिच्छादिट्टियाणं नेरइयाणं पंच किरियाओ पण्णत्ताओ तं जहा- आरंभिया जाव मिच्छादंसणवत्तिया ५। एवं सवेलि निरंतरं जाव मिच्छादिट्ठियाणं वेमाणियाणं । नवरं त्रिगलिंदिया मिच्छादिट्ठी न भणणंति, सेसं तहेव । १ । पंच किरियाओ पण्णत्ताओ, तं जहा - काइया १ अहिगरणिया २ पाओसिया ३ पारितावणिया ४ पाणाइवायकिरिया था णेरड़या पंच एवं चेत्र जाव वैमाणियाणं २ पंच किरियाओ पण्णसाओ, तं जहा - दिट्टिया १ पुट्टिया २ पाडुच्चिया ३ सामंतोवणवाइया ४ साहत्थिया ६। एवं णेरड्याणं जान वैमाणियाणं क्रिया स्थानोंके बीच में हैं, परन्तु यहां पांच स्थानोंके अनुरोध से पांचही स्थान गृहीत हुए हैं । वे १३ क्रिपास्थान इस प्रकार से हैं "f अट्ठा हिंसा " इत्यादि । इन १३ क्रिया स्थानों में अर्थ अनर्थ आदि ये पांच दण्ड आये हैं । इन १३ क्रिया स्थानों से जीव वध होता है । सू० ८ ॥ પાચ સ્થાનોનો અધિકાર ચાલતા હૈાવાથી પાચ જ સ્થાન ગ્રહણ કરવામાં આવ્યાં છે તે ૧૩ ક્રિયસ્થાન નીચે પ્રમાણે છે- -- "" अट्ठा हिंसा " त्याहि ते तेर द्वियास्यानोभां अर्थ, अनय आदि આ પાંચ દડને તે સમાવેશ થયેલે જ છે. તે તેર ફ્રિયાસ્થાના વડે જીવवध थाय छे, ॥ सू. ८ ॥ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा का स्था०५ उ०२ सू०९ कियास्थाननिरूपणम् ४१ ३। पंच किरियाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-सत्थिया १ आणव. णिया २ वेयारणिया ३ अणासोगवत्तिया ४ अणवखवत्तिया, ६, एवं जाव वेसाणियाणं ४। पंच किरियाओ पण्णताओ, 'तं जहा-पेज्जवत्तिया १ दोमबत्तिया २ पओगकिरिया ३ समुदाणकिरिया ४ इरियावहिया ६, एवं मणुस्साणवि । सेसाणं नस्थि ६ ॥ सू० ९॥ छाया–पञ्च क्रियाः प्रज्ञप्ताः तद्यथा-आरम्भिकी १, पारिग्रहिकी २, माया प्रत्यया ३, अप्रन्याख्यानपत्यया ४ मिथ्यादर्शनप्रत्यया ५ मिथ्याष्टिकानां नैरयिकाणां पञ्च क्रियाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा आरम्भिकी १ यावद मिथ्यादर्शनप्रत्यया ५। एवं सर्वेषां निरन्तरं यावद् मिथ्यादृष्टिकानां वैमानिकानाम् । नवरं विकले. न्द्रिया मिथ्यादृष्टयो न भण्यन्ते, शेषं तथैव ॥१॥ पञ्च क्रियाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-कायिकी १ आधिकरणिकी २, प्राद्वेपिकी ३ पारितापनिकी ४ प्राणा. तिपातक्रिया दा नैरयिकाणां पञ्च, एवमेव निरन्तरं यावद् वैमानिकानाम् २॥ पञ्च क्रियाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-दृष्टिका १ पृष्टिका २ प्रातीत्यिका ३ सामन्तोपनिपातिकी ४ स्वाहस्तिकी ५। एवं नैरयिकाणां यावद् वैमानिकानाम् ३ पञ्च कियाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-नैष्टिकी १ आज्ञापनिका २, बैदारणिका ३ अनाभोगप्रत्यया ४ अनवकाशामत्यया ५। एवं यावद् वैमानिकानाम् ४। पञ्च क्रियाः प्राप्ताः तद्यथा-प्रेमपत्यया १ उपप्रत्यया २ प्रयोगक्रिया ३ समुदानक्रिया ४ ऐर्यापथीकी ५। एवं मनुष्याणामपि । शेपाणां नास्ति ५॥ सू०१॥ टीका-पंच किरियाओ' इत्यादिक्रियाः करणानि क्रिया:-कर्मबन्धकारणीभूवचेष्टा इत्यर्थ, ताहि पञ्च प्रज्ञप्ता । पञ्च संख्यकन्यमेवाइ-'आरम्भिकी' इत्यादि । तत्र-आरम्भिकी-आ अय सूत्रकार आस्रव विशेषरूप क्रिया स्थानोंकी प्ररूपणा करते हैं 'पंच किरियाओ पण्णताओ इत्यादि सूत्र ९॥ टीकार्थ-कर्मयन्ध कारणभूत जो चेधा विशेष हैं, वे क्रियाएँ हैं, ये क्रियाएँ હવે સૂત્રકાર આસ્રવવિશેષ રૂપ ક્રિયા સ્થાનની પ્રરૂપણ કરે છે. -" च किरियाओ पण्णत्तोश्रो" त्याह-- કર્મબન્ધનમાં કારણભૂત જે ચેષ્ટાવિશે હોય છે, તેમને ફ્લિાઓ કહે स्था-६ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाङ्गसूत्रे. ४२ रम्भः पृथीच्या मर्दनं स प्रयोजनं यस्याः सा पृथीव्यापमर्दनरूपा क्रिये 9 त्यर्थः |१| तथा पारिग्रडिकी - परिग्रहः = धर्मोपकरणातिरिक्तवस्तुयहणं धर्मोपकरणे मूर्च्छावा, स प्रयोजनं यस्याः सा परिग्रहार्था क्रियेत्यर्थः | २| तथा-माया प्रत्यया माया=अनार्जवम्, उपचक्षणत्वात् क्रोबादिरपि सा प्रत्ययः=कारणं यस्याः सा, मानवन्धन क्रियेत्यर्थः ॥ ३ ॥ - अप्रत्याख्मानप्रत्यया-अमत्याख्यानम् = अनिवृत्तिः, तत् प्रत्ययो यस्याः सा अपत्याख्यानजन्या क्रियेत्यर्थः ||४ | तथा - मिथ्यादर्शनप्रत्यया- मिथ्या= विषरीतदर्शनं श्रद्धानं तदेव प्रत्ययो हेतुर्यस्याः सा, मोहोदयजन्या क्रियेत्यर्थः , पांच कही गई है - आरम्मिकी १ पारिग्रहिकी २ मायाप्रत्यया३ अप्रश्याख्यान त्या ४ और मिथ्यादर्शन प्रत्यया जिस क्रियाका प्रयोजन पृथिवी आदिका उपमर्दन करनेरूप होता है, वह आरम्भ क्रिया है, आरम्भ विना प्राणानपान होता नहीं है, इसलिये आरम्भ क्रियाको पृथिवीकायिक आदिके उपमर्दनरूप कहा गया है, धर्मोपकरण से अतिरिक्त वस्तुओंका ग्रहण करना अथवा धर्मेपकरणमें मृच्छ रखना यह प्रयोजन जिस क्रियाका होता है, वह पारिग्रहिकी क्रिया है, जिस क्रियाका कारण माया एवं उपलक्षणसे क्रोधादिक भी होते हैं, Enter किया है, अनिवृत्ति-त्यागका अभाव अप्रत्याख्यान है, यह अप्रत्याख्यानभाव जिस क्रियाका कारण होता है, वह अप्रत्याख्यानजन्य क्रिया अप्रत्याख्यान क्रिया है, विपरीत दर्शनका नाम मिथ्यादर्शन है, यह मिध्याश्रद्वानरूप मिथ्यादर्शन जिस क्रियाका हेतु होता, छे, भेदी हियामा पांथ ही छे -- (१) आरम्लिडी, (२) पारिश्रडिडी, (3) માયાપ્રત્યયા, (૪) અપ્રત્યાખ્યાનપ્રત્યયા અને મિથ્યાદર્શનપ્રત્યયા, જે ક્રિયાનું પ્રત્યેાજન પૃથ્વીકાય આદિને ઉપમાઁન કરવા રૂપ હોય છે, તે આરમ્ભ ક્રિયા ’ છે. આરમ્ભ વિના પ્રણાતિપાત થતા નથી, તેથી આરમ્ભ ક્રિયાને પૃથ્વીકાયિક આદિના ઉપમન રૂપ કહેવામાં આવેલ છે. ધમેપકરણ સિવાયની વધારાની વસ્તુઓને ગ્રહણ કરવી અથત્રા ધર્મોપકરણમાં મૂર્છાભાવ રાખવા રૂપ પ્રયેાજન જે ક્રિયાનું હાય છે, તે ક્રિયાને પારિગહિકી ક્રિયા કહે છે. જે ક્રિયાનું કારણુ સાચા હાય છે અને ઉપલક્ષણથી ક્રોધાદિક પણ હાય છે, તે ક્રિયાને માયાપ્રત્યયા ક્રિયા કહે છે. અનિવૃત્તિ ( ત્યાગના અભાવ ) ને અપ્રત્યાખ્યાન કહે છે. તે અપ્રત્યાખ્યાન ભાવ જે ક્રિયાનું કારણ હાય છે, તે અપ્રત્યાખ્યાનજન્ય ક્રિયાને અપ્રત્યાખ્યાન પ્રત્યયા ક્રિયા કહે છે. વિપરીત દેશનનું નામ મિથ્યાદાન છે. તે મિથ્યાશ્રદ્ધાન રૂપ મિથ્યાદર્શીન જે ક્રિયાનું 1 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधा टीका स्था०५ उ०२ सू०९ क्रियास्थाननिरूपणम् ॥५॥ इति । एता हि पञ्च क्रिया मिथ्याष्टिनरयिकादि-मिथ्याष्टिकमा. निकान्तानां चतुर्वि शतिदण्ड फोक्तानां भवन्ति । चतुर्विशति दण्ड के तु ये विकलेन्द्रियाः एकद्वित्रिचतुरिन्द्रियाः सन्ति, ते हि मिथ्याटीति विशेषणेन न विशिष्यन्ते, तेषु सदैव सम्यग्दृष्टित्वाभावेन व्यवच्छेनामावात् । ननु तेष्वपि सासादना भान्ति, ततश्च तेपामपि मिथ्यादृष्टीति विशेषणं योज्यमेवेतिचेन्न, तेपामल्पत्वे नेहाविवक्षणादिति । अमुमेवार्थमाह सूत्रकारः-'मिच्छादिहियाणं नेरहै, ऐसी वह मोहके उदयसे उत्पन्न हुई क्रिया मिथशादर्शन किया है, ये पांच क्रियाएँ मियादृष्टि नैरयिकसे लेकर मिथ्याष्टिक वैमानिक तक ससस्न चौबीस दण्डसमें होती है, चौवीस दण्डकमें जो एकेन्द्रिय दोहन्द्रिय तेन्द्रिय और चीडन्द्रिय जीव हैं वे "मिथ्याष्टि" इस विशेषगसे विशेषिन नहीं होते हैं, क्योंकि इनमें सम्यग्दृष्टित्वके अभारसे व्यवच्छेद्य होने का अभाव है, अर्थात् इनमें यदि सम्यग्दृष्टि कोई जीव पाया जाता तो इस दृष्टिके अभावले यहां मिथ्याष्टित्व आता है, परन्तु यहां तो ऐसी हालत है नहीं-अतः ये मिथ्यादृष्टि विशेषतावाले नहीं कहे जाते हैं। यदि यहां पर ऐसी आशंका की जावे कि इनमें भी सासादन सम्यग्दृष्टि होते हैं, अतः यह दृष्टि जिनके नहीं हैं वे मिथ्यादृष्टि हैं, इस तरह उनमें भी " मिथ्याष्टि" यह विशेषण लगाना चाहिये सो इसका समाधान ऐसा है, कि जिनमें सालादन सम्यग्दृष्ठि કારણ હોય છે, એવી મોહના ઉદયથી ઉત્પન્ન થયેલી ક્રિયાને મિથ્યાદર્શન ક્રિયા કહે છે. મિથ્યાદષ્ટિ નારકથી લઈને વૈમાનિકે પર્યન્તના ૨૪ ડકના સમસ્ત જેમાં આ પાંચે કિયાઓને સદ્ભાવ હોય છે જેવીસ દડકમાં જે એકેન્દ્રિય, હરિદ્રય, ત્રીન્દ્રિય અને ચતુરિન્દ્રિય જીવે છે તેમને “મિથ્યાષ્ટિ” આ વિશેષણ લગાડી શકાતું નથી, કારણ કે તેમાં સમ્યગ્દષ્ટિત્વના અભાવથી વ્યવરછેદ્ય હવાનો અભાવ છે, એટલે કે તેમાં જે સમ્યગ્દષ્ટિ કઈ જીવન સદભાવ હોય, તે તે દષ્ટિના અભાવથી ત્યાં મિથ્યાષ્ઠિત્વ આવે છે. પણ ત્યાં તો એવી હાલત નથી. તેથી તેમને મિદષ્ટિ વિશેષણવાળા કહેવાતા નથી. જે અહીં એવી આશંકા કરવામાં આવે કે તેમનામાં પણ સાસાદન સમ્યગ્દષ્ટિ હેય છે, તેથી આ દષ્ટિને જેમનામાં અભાવ છે, તેમને મિથ્યાદષ્ટિ જ ગણવા જોઈએ, છતાં તેમને મિથ્યાદૃષ્ટિ વિશેષણ લગાડવાની શા કારણે ના પાડવામાં આવી છે? તો આ શંકાનું સમાધાન નીચે પ્રમાણે છે-- Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानागसूत्रे इयाणं' इत्यारभ्य 'सेसं तहेव' इत्यन्तेन सन्दर्भेणेति ॥१॥ पुनरपि कायिक्यादिभेदेन पञ्च क्रियाः प्राह-तथाहि-कायिकी-कायेभवा कायेन निता वा, हस्तादिव्यापाररूपेत्यर्थः ॥१॥ आधिकरणिकी अधिकरणं खङ्गादिकं तत्र भवा तेन वा नित्ता । इयं द्विविधा भवति-निवर्तनाधिकरणक्रियासंयोजनाधिकरणक्रिया च । तत्र या खगादीनां तन्मुष्टयादीनां च निर्वर्तनलक्षणा क्रिया सा प्रथमा । या तु निर्वृत्तानामेव तेषां संयोजनलक्षणा सा द्वितीयेति । २ । माद्वेपिकी-पद्वेपोमात्सर्यम्-अन्य शुभद्वेष इत्यर्थः, तेन निता या क्रिया सा-' मारयाम्येनम् ' पाये जाते हैं, ऐसे वे सासादन सम्यग्दृष्टि बहतही कम होते हैं अतः उनकी यहां अविवक्षा है, विवक्षा नहीं की गई है, इसीका पुष्टि सूत्रकारने "मिच्छादिहियाणं नेरझ्याणं " यहांले लेफर “सेसं तहेव" यहां तक संदर्भसे प्रकट की गई है १। पुनश्च-कायिकी आदिके भेदसे क्रियाएँ पांच होती हैं-इनमें जो क्रिया शरीरमें या शरीर के द्वारा होती है, वह कायिकी क्रिया है, यह क्रिया हस्तादिके व्यापाररूप होती है ? आधिकरणिकी-खङ्गादिरूप अधिकरणमें या खगादिरूप अधिकरणके द्वारा जो क्रिया होती है वह आधिकरणकी क्रिया है, यह क्रिया दो प्रकारकी होती है-एक निर्वर्तनाधिकरण क्रिया और दूसरी संयोजनाधिकरण क्रिया इनमें जो खड्गादिकोंका या उनकी मूंठ आदिका बनाना है, वह निर्वर्तनाधिकरण क्रिया है, तथा जो ग्वद्गादिकोंका और उनकी मुठ आदिका पररपरमें संयोजन है, वह संयोजनाधिकरण क्रिया है । प्रोष नाम मात्सर्यका है, अन्यके शुभके प्रति द्वेषरूप परिणतिका होना इसका તેઓમાં સાસાદન સમ્યગ્દષ્ટિ છે ઘણાં જ ઓછાં હોય છે. તેથી સૂત્રકારે गड तेभने ६५ ५ नथी. सूत्रारे “ मिच्छादिद्रियाणं नेरइयाणं " थी साधन "सेसं तहेव" मा सूत्र५४ सुधाना ४थन द्वारा २१ पातनी पुष्टि ४१ छ. ' ક્રિયાના કાયિકી આદિ પાંચ ભેદ પણ કહ્યા છે. જે ક્રિયા શરીરમાં અથવા શરીર દ્વારા થાય છે તે ક્રિયાને કાયિકી ક્રિયા કહે છે. તે ક્રિયા હસ્તાદિની પ્રવૃત્તિ રૂપ હોય છે. (૨) આધિકરણિકી ક્રિયા-તેના બે પ્રકાર કહ્યા છે-નિર્વતનાધિકરણ ક્રિયા અને સંજનાધિકરણ ક્રિયા. તલવાર, તેની મૂઠ આદિ બનાવવાની ક્રિયાને નિર્વતનાધિકરણ ક્રિયા કહે છે. તલવાર આદિકેનું અને તેમની મૂઠ આદિનું પરસ્પરમાં જે સાજન કરવા રૂપ ક્રિયા છે તેને સજનાધિકરણ કિયા કહે છે. (૩) પ્રષિકી ક્રિયા-અન્યના લાભને જોઈને તેના પ્રત્યે દ્વેષ રૂપ પરિણતિ ઉત્પન્ન થાય છે, તેનું નામ પ્રàષ છે. Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुपाटीका स्था० ५ ०२ ४०९ कियास्थाननिरूपणम् इत्यशुभमनः संकल्प रूपा।३। पारितापनिकी-परितापनं नाम दुःखं तेन नित्ताखङ्गादिघातेन पीडाकरणरूपा ४ा तथा प्राणातिपातक्रिया-प्राणाः उच्छ्वासादयः तेषाम् अतियातनं प्राणवतःसकाशाद् वियोजनं, नाशनं, माणातिपातः, तद्रपा क्रिया ५। एताः कायिक्यादयः क्रियाश्चतुर्विंशतिदण्ड कोक्तनायिकादिवैमानिकान्तानां सर्वेषां बोध्याः ।। पुनरपि दृष्टिकादिभैदैः पश्च क्रिया: प्राह-तथाहि दृष्टिका-दृष्टं दर्शनम् = अवलोकनं तद्विपयं वस्तु वा निमित्ततया यस्यामस्ति सा दृष्टिका अश्वादि चित्रनाम मात्सर्य है, इस मात्मर्यरूप प्रवेषसे जो क्रिया होती है, वह प्राछेषिकी क्रिया है, यह प्राद्वेषिकी क्रिया “में इसे मारूं" इस प्रकारके मानसिक संकल्परूप होती है । परितापन नाम दुःख है, इस दुःख रूप परितापन से जो किया होती है, वह पारितापनिको क्रिया है, यह क्रिया खङ्ग आदिके घातसे पीडा करनेरूप होता है ४। तथा उच्छ्रवास आदि पाणोंका प्राणवालेसे वियोजन करनाइलका नाम प्राणातिपात है, और इस रूप जो क्रिया है, वह प्राणातिपात किया है ५। ये कायिकी आदि क्रियाएँ चौघीस दण्डकोक्त नैरयिकसे लेकर वैमानिक तकके समस्त जीवोंको होती हैं । - पुनश्च-दृष्टिक आदिके भेदसे क्रियाएँ पांच प्रकारकी होती हैं, जैसेदृष्टिका१ आदि इनमें दर्शनका नाम दृष्टहै, अथवा-अवलोकनका-देखनेका नाम दृष्ट है, अथवा-अवलोकनकी विषयभूत जो वस्तु है, वह दृष्ट है, આ પ્રàષને કારણે જે ક્રિયા થાય છે તેને પ્રાàષિકી ક્રિયા કહે છે. “હું તેને भार" मा प्रा२ना मानसि स४६५ ३५ माया जाय छे. (४) ५२. તાપનિકી ક્રિયા-પરિતાપન એટલે દુખ આ દુખરૂપ પરિતાપન વડે જે કિયા થાય છે તેને પરિતાપનિકી કિયા કહે છે. લાકડી, તલવાર આદિના ઘા વડે પીડા કરવા રૂપ આ ક્રિયા હોય છે. (૫) પ્રાણાતિપાત કિયા-ઉચ્છવાસ આદિ પ્રાણને પ્રાણવાળા ઇમાથી અલગ કરવા તેનું નામ પ્રાણાતિપાત છે. તે પ્રાણાતિપાત રૂપ જે ક્રિયા હોય છે તેને પ્રાણાતિપાત ક્રિયા કહે છે. કાયિકીથી લઈને પ્રાણાતિપાત પર્ય-તની પાંચ ક્રિયાઓને નારકથી લઈને વૈમાનિકે પર્ય-તના ૨૪ દકના સમસ્ત જીવોમાં સદ્દભાવ હોય છે. દષ્ટિક આદિના ભેદથી પણ ક્રિયાઓ પાંચ પ્રકારની કહી છે-દશનનું નામ દુષ્ટ છે અથવા અવલોકનનું નામ દષ્ટ છે. અથવા અવલોકનનાં વિષય Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ स्थान " कर्मादिदर्शनार्थं गमनरूपेत्यर्थः । यद्वा-' दृष्टिजा ' इतिच्छाया । दृष्टेजता दृष्टिगा, दर्शनजनिता क्रियेत्यर्थः । १। पृष्टिस- पृश्नः तदस्ति निमित्त तया यस्यां सा-जीवादीन् रागादिना पृच्छतो या किया सा सावद्यप्रश्वजनिता क्रियेत्यर्थः । ' स्पृष्टिका ' इति वा च्छाया । स्पृष्टं = स्पर्शनं तदस्ति निमित्तत्तया यस्यां सा- रामादिना स्पृशतो या क्रिया सा स्पर्शजन्या- क्रियेत्यर्थः । 'पृष्टिना' इति वा च्छायाक्षे पूर्वोक्तएवार्थी बोभ्यः । यह दृष्ट निमित्त रूपसे जिस किया है, वह दृष्टिका किया है, यह दृष्टिका क्रिया अश्वादिके चित्र आदिको देखने के लिये गमन करने रूप(जाने रूप ) होती है, अथवा " विडिया " की संस्कृत छाया (6 दृष्टिजा " ऐसी भी हो सकती है, इस में देखनेसे जो क्रिया होती है, वह दृष्टिजा किया है, ऐसा अर्थ होता है १। पृष्टिका-पृष्ठ नाम प्रश्नका है, यह प्रश्न जिन क्रियामें निमित्त होता है, वह दृष्टिका किया है, ऐसी यह पृष्टिका क्रिया जीवादियों के विषय में या रागादिकों के चिपमें पूछने वाले को होती है, अथवा सावध प्रश्नसे जो क्रिया उत्पन्न होती है, वह पृष्टिका क्रिया है, अथवा " पुट्टिया " की संस्कृत छाया " स्पष्टिका " ऐसी भी होती है, इसका अर्थ ऐसा होता है, कि जिस क्रियामें स्पर्शन निमित्त होता है, वह स्पृष्टिका क्रिया है, रागादिके રૂપ જે વસ્તુ છે તેનું નામ દૃષ્ટ છે, જે ક્રિષામાં આ દૃષ્ટ નિમિત્ત રૂપ હોય છે તે ક્રિયાને દૃષ્ટિકા ક્રિયા કહે છે. આ દૃષ્ટિકા ક્રિયા અય્યાદિકાનાં ચિત્રને જોવાને માટે ગમન કરવા રૂપ હોય છે. અથવા दिट्टिया " नी संस्कृत छया << તેના અર્થ આ પ્રમાણે થાય છે દેખવાથી જે ક્રિયા થાય છે, તેને દૃષ્ટિજા दृष्टिजा " सेवामां आवे तो दिया हे छे. " "" (૨) પૃષ્ટિકા ક્રિયા—પૃષ્ઠ એટલે જે પૂછવામાં આવે તે પ્રશ્ન જે ક્રિયામાં તે નિમિત્ત રૂપ ાય છે, તે ક્રિયાને પૃષ્ઠિકા ક્રિયા કહે છે. જીવાદ્વિર્ડના વિષયમાં અધવા રાગાદિકાના વિષયમાં પ્રશ્ન પૂછનારને આ ક્રિયા લાગે છે. અથવા સાવદ્ય પ્રશ્નથી જે ક્રિયા ઉત્પન્ન થાય છે, તેને વૃષ્ટિકા डिया हुडे छे. मधवा " पुट्टिया " नी संस्कृत छाया स्पृष्टिका તેના અર્થ આ પ્રમાણે થાય છે-“ જે ક્રિયામાં સ્પર્શી નિમિત્ત રૂપ હાય છે પણ થાય તે ક્રિયાને સ્પુષ્ટિકા ' ક્રિયા કહે છે. ” રાગાદિકને વશવર્તી થઈને સ્પર્શ કરનાર ८८ " Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - --- - सुधा टीका.स्था०५ उ२ सू९ कियास्थाननिरूपणम् मातीतिकी-वाह्यं वस्तु जीवाजीव प्रतीत्य-आश्रित्य या क्रिया भवति सा ३। सामन्तोपनिपातिकी-समन्तात्सर्वत उपनिपातः जनानां सम्मिलनं, तत्रभवा-क्रिया । अश्वादि स्थादिकं लोकाः प्रशंसन्ति, तत्पशंसां श्रुत्वा प्रहृष्यतोऽश्वादिरथादिपतेरियं क्रिया भवति ४। तथा-स्वाहस्तिकी-स्वहस्तेन नित्ता क्रिया। स्वहस्तगृहीतजीवादिना जीवान् मारयतः क्रिया स्वाहस्तिकीत्युच्यते ५। एताः पश्चापि क्रिया नैरयिकादि वैमानिकान्तानां भवन्तीति ॥३॥ वशवर्ती होकर छूनेवाले व्यक्तिकी जो स्पर्शजन्य क्रिया है, वह स्पृष्टिका क्रिया है अथवा-"पृष्टिजा स्पृष्टिजा" इस पक्षमें भी यही पूक्ति अर्थ है २। प्रातीतिकी जीव अजीव रूप बाह्य वस्तुको प्रतीत करके आश्रित करके जो क्रिया होती है वह प्रातीतिकी क्रिया है ३। सामन्तो. पनिपातिकी सब तरफसे मनुष्योंको जो सम्मिलन होता है, वह सामतोपनिपात हैं, इस मामन्तोपनिपातमें जो क्रिया होती है, वह सामन्तोपनिपातिकी क्रिया है, परस्पर सम्मेलन में अश्वरथादिकी लोक जय प्रशंसा करते हैं तब इम प्रशंसाको सुनकर हर्षित होते हुए अश्वस्थाधिपतिके यह क्रिया होती है ४। स्वाहस्तिकी-अपने हाथ से जो क्रिया निष्पन्न होती है वह स्वाहस्तिकी क्रियाहै, अपने हस्नसे गृहीत जीवादिकों आरा जीवोंको मारनेवाले प्राणीकी क्रिया स्वाहास्तिकी क्रिया कहलातीहै ५। ये पांच क्रियाएँ नैरयिकसे लेकर वैमानिक तकके जीवोंको होती हैं। व्यतिनी २ या उसय छ तर टिलिया ४९ छ. अथवा “ पुटिना रपृष्टिजा" मा सस्त छाया पामा भाव त ५ ते ६५२ भुrut म थाय छे. (3) मातीत या-- म ३५ मा पस्तुने प्रतीत शन આશ્રિત કરીને જે ક્રિયા થાય છે, તેને પ્રાતીતિકી ક્રિયા કહે છે. (५) - सामतापनिपातिकी छिया-यामेरथी मावान भासानु सम्भिલન થાય છે, તેને “ સામાનિપાત ' કહે છે આ સામજોપનિપાતમાં જે ક્રિયા થાય છે, તેને સામા પરિપાતિક ક્રિયા કહે છે. આવા સમેલનમાં અશ્વ, રથ આદિની જ્યારે પ્રશંસા થાય છે, ત્યારે તે પ્રશંસા સાંભળીને હર્ષિત થતા અશ્વપતિ, રથપતિ આકિ આ પ્રકારની ક્રિયાવાળા હોય છે (૫) સ્વાહસ્તિક ક્રિયા–પિતાના હાથથી જ જે કિયા થાય છે તેને સ્વાહસ્તિકી ક્રિયા કહે છે. પિતાને હાથે પકડેલા જીવાદિકે દ્વારા જીવને મારવાની જે કિયા થાય છે તેને સ્વહસ્તિકી કિયા કહે છે. આ પાંચે કિયાએને નારકેથી લઈને વૈમાનિકે પર્ય-તના જીવમાં સદ્ભાવ હોય છે. ૩ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ - स्थानास्त्रे पुनरपि पञ्च क्रियाः माह-तथाहि-नैसृष्टिकी-निमुष्टं-विसर्जन पापाणादीनां प्रक्षेपण मिति यावत , तत्र भवा क्रिया ११ आज्ञापनिका-आज्ञापनस्य-आदेशनस्य इयम् , आज्ञापनसेव वा आज्ञापनी, सैवेयम्-आज्ञापनि का:-आज्ञापनविषया क्रिया । जीवाजीनान् अनाययतः क्रियेत्यर्थः २। वेदारणी-विदारणमेव वैदारणीताने जीवाजीवान् विदारयनः क्रिया ३। अनामोगप्रत्यया-अनामोगा अज्ञाना. दिक, स एव प्रत्ययः कारणं यस्याः सा-मज्ञानेन पात्रादि आददतो निक्षिपतो वा समवन्ती क्रियेत्यर्थः ४ । तथा-अनवसाक्षाप्रत्यया-अनवकाक्षा-स्वश पुनश्च--क्रियाएँ पांच प्रकारकी हैं-जैसे-जैसृष्टिकी १ आज्ञाप. निका २ वैदारणिका ३ अना भोगप्रत्यया ४ एवं अनवकाङ्क्षा प्रत्यया ५ इनमें-जो नेसृष्टिकी क्रिया होती है, वह पापान आदिके फेंकने पर होती है, आज्ञापनिका क्रिया जीवोंको एवं अजीवोंको परकी प्रेरणासे आनेवालेके होती है, जो किया आदेशसे सम्बन्ध रखती है, या स्वयं ओज्ञापनरूप होती है, वह आज्ञापनी क्रिया है, यह आज्ञापनी क्रियाही आज्ञापनिका क्रिया है, यह क्रिया आज्ञापन विषयवाली होती है, जीवोंको एवं अजीवोंको विदारण करनेवालेके बैदारणी क्रिया होती है, जिस क्रियाका कारण अज्ञान होताहै, वह अनाभोग प्रत्यया क्रिया है, अनाभोग नाम अज्ञान आदि का है यह अनाभोगही जिस क्रिया का कारण होता है, ऐसी वह क्रिया अनाभोग प्रत्यया क्रिया है, यह क्रिया अज्ञानसे पात्रादिको उठानेवाले के था अज्ञान से पात्रादिकों को धरनेवाले को होती है, अनवकाङ्क्षा प्रत्यया नीय प्रमाणे पांय ४२नी (याये। ५९ सय छ-(1) नेटी , (२) माज्ञापनि, (3) हाशि, (४) मनाला प्रत्यया मन (५) सन. વકાંક્ષા પ્રત્યયા. પથથર આદિને ફેકવાથી નૈસૃષ્ટિકી ક્રિયા થાય છે. જે ક્રિયા આદેશ સાથે સંબંધ રાખતી હે ય છે અથવા પિતે જ આજ્ઞાપન રૂપ હોય છે તેને આજ્ઞાપની અથવા આજ્ઞાનિક ક્રિયા કહે છે. જીવ અને અજીને પરની પ્રેરણાથી મારનારને કે વ્યથા પહચાડનારને આ ક્રિયા લાગે છે. જનું અને અજેનું વિદારણ કરનાર વડે વારણી ક્રિયા થતી હોય છે. જે ક્રિયા અજ્ઞાનને કારણે થાય છે, તે ક્રિયાને અનાગ પ્રત્યયા ક્રિયા કહે છે અનાગ એટલે અજ્ઞાન વગેરે આ અનાગ જ જે યિાનું કારણ હોય છે. એવી ક્રિયાને અભેગ પ્રત્યયા ક્રિયા કહે છે. અજ્ઞાનથી પાત્રાદિ ઉઠાવનાર કે મૂકનાર આ ક્રિયા લાગે છે. પિતાના શરીર આદિ સંબંધી અનક્ષિાને કારણે જે ક્રિયા થાય છે, તે ક્રિયાને અનવકાંક્ષા પ્રત્યયા કિયા કહે છે. Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुघाटीका स्था०५ उ०२ सू०९ क्रियास्थाननिरूपणम् रीरायनपेक्षत्वं, सैव प्रत्ययं-कारणं यस्याः सा-इहलोका परलोकापायानपेक्षस्य क्रियेत्यर्थः ५। एता नेसृष्टिक्याद्यनवकाङ्क्षप्रत्ययान्ताः पञ्चापि क्रिया नैरयिकादि वैमानिकान्तानां चतुर्विशतिदण्डकोक्तानां बोध्याः । पुनरपि पश्च क्रियाः माहतथाहि-प्रेमप्रत्यया-प्रेम-रागः प्रत्ययोः हेतुर्यस्यां क्रियायां सा, रागजन्याक्रिया १। द्वेप प्रत्यया-द्वेषा-अभीतिः प्रत्ययो यस्यां सा-द्वेपजन्या क्रिया २। प्रयोगक्रिया-वीर्यान्तरायक्षयोपशमाविर्भूतवीर्येण आत्मना प्रयुज्यते व्यापार्यते इति प्रयोगः मनोवाकायलक्षणः, तस्य क्रिया कारणं व्यापार:-मनोवाकायव्यापार किया वह है, कि जिसका कारण स्वशरीरादिकी अनपेक्षा होती है, यह क्रिया उसको होती है कि जिसे इहलीक सम्बन्धी और परलोक सम्बन्धी उपायकी परवाहही नहीं होती है, ये पांचों ही क्रियाएँ नैरयिकसे लेकर थैमानिक तकके समस्त चौवीस दण्डकस्थ जीवों को होती हैं। पुनश्च--क्रियाएँ पांच प्रकार की हैं-जैसे-प्रेम प्रत्यया १ देष प्रत्यया २ प्रयोग क्रिया ३ समुदान क्रिया ४ और ऐपिथिकी क्रिया ५ जिस क्रियामें प्रेम-राग हेतु होता है, वह प्रेमप्रत्यया क्रिया है, तात्पर्य यह है कि जो क्रिया रागसे जन्य होनी है, वह प्रेमपत्यया क्रिया है १ जिस क्रिया अप्रीति कारण होती है, अर्थात् जो क्रिया छेषजन्य होती है, वह शेषप्रत्यया क्रिया है, वीर्यान्तराय कर्मके क्षयोपशमसे आविर्भूत वीर्यसे युक्त आत्माके द्वारा जो व्यापार किया जाता है, उसका नाम प्रयोग है, यह प्रयोग मन वचन कायरूप होता है, अर्थात् मन वचन આ ક્રિયા તેના દ્વારા થાય છે કે જેને અલેક અને પરલેક સંબધી ઉપાથની પરવા હોતી નથી. નારથી લઈને વૈમાનિકે પર્યરતના ૨૪ દંડકના સમસ્ત જીવોમાં આ પાંચે ક્રિયાઓનો સદ્ભાવ હોય છે. . ૪ लियाना नाय प्रभार पांय ४२ ह्या छ-(१) प्रेम प्रत्यया, (२) द्वेष प्रत्यया, (3) प्रयोग ठिया, (४) समुहान ठिया भने (५) मर्यापथिली દિયા. જે ક્રિયામાં પ્રેમ-રાગ કારણરૂપ હોય છે તે ક્રિયાને પ્રેમ પ્રત્યથા ક્રિયા કહે છે. એટલે કે રાગજન્ય જે કિયા હોય છે તેને પ્રેમપ્રત્યયા ક્રિયા કહે છે. જે ક્રિયામાં અપ્રીતિ કારણરૂપ હોય છે, અથવા જે ક્રિશા શ્રેષજન્ય હોય છે, તેને દ્વેષપ્રત્યયા ક્રિયા કહે છે વર્યાન્તરાય કર્મના લોપશમથી આવિત વીથી યુક્ત આત્મા દ્વારા જે વ્યાપાર કરાય છે, તેનું નામ પ્રયોગ છે. તે પ્રાગ મન, વચન અને કાયરૂપ હોય છે એટલે કે મન, વચન અને કાયની स्था०-७ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानासूत्रे ५० इत्यर्थः ३ । समुदानक्रिया-प्रयोगक्रियेकरूपतया गृहीतानां कर्मत्रगणानां सम्यकं प्रकृतिवन्वादिभेदेन देश सर्वोपयातिरूपतया च आदानं स्वीकरणं समुदानं, तद्रूपा क्रिया, यद्वा-समुदानम् = जनसमूहः, तस्य क्रिया । तथा - ऐर्यापथिकीईरणे = गमनम् - ईर्ष्या, तद्विशिष्टः पन्था ईयपथ तत्र भवा ऐर्यापथिकी-उपशान्तकाकी क्रियारूप जो आत्माका व्यापार है, वही प्रयोग है, और यही प्रयोग किया है, समुदान क्रिया-प्रयोग किया द्वारा एकरूपसे गृहीत हुई कर्म वर्गणाओंका जो प्रकृतिबन्ध आदि के भेद से विभाग होता है, और उसमें भी देशघाति एवं सर्वधातिके अंशोंका पड़ना होता है, यह समुदान किया है, जैसे किसी जीवने प्रयोग क्रिया द्वारा कार्मण वर्गणामका सामान्यरूपमें बन्ध किया, अब उनमें कितनिकवर्गणाओंका ज्ञानावरणीय आदि रूपसे प्रकृतिबन्ध हुआ उसमें भी मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधि ज्ञानावरण मनःपर्यवज्ञानावरण इस रूपसे जो उसका परिणमन हुआ है, वह देशघातिरूप से उसका प्रकृतियन्ध है, और जो केवल ज्ञानावरण रूपसे उसका परिणमन है, वह सर्वघातिरूप से प्रकृतिवन्ध है, यही इस समुदान क्रियाका तात्पर्य है, अथवा समुदान नाम जनसमूहका है, इसकी जो किया है, वह भी समुदान क्रिया है ४। ईरण - नाम गमनका है, यह ईरणही ईर्ष्या है, इस ईसे विशिष्ट जो मार्ग है, वह ईर्यापथ है, अर्थात् गमनका साधक जो मार्ग है, वह ईर्ष्याપ્રવૃત્તિરૂપ આત્માને જે વ્યાપાર છે તેને પ્રયાગ કહે છે, અને એ જ પ્રત્યેાગ ક્રિયા છે. હવે સમુદાન ક્રિયાનો અથ સ્પષ્ટ કરવામાં આવે છે પ્રયાગક્રિયા દ્વારા એક રૂપે ગ્રહણુ કરાયેલ કવ ણુાઓને જે પ્રકૃતિઅન્ય અગ્નિ રૂપે વિભાગ થાય છે, અને તેમાં પણ દેશઘાતિ અને સ`ઘાતિ રૂપ જે વિસાગા પડે છે. તેનું નામ સમુહાન ક્રિયા કહે છે. જેમકે--કાઇ જીવે પ્રયોગક્રિયા દ્વારા કાર્માંણુ વાએને સામાન્ય રૂપે અન્ય કર્યાં. તેમાંથી કેટલીક વણુાઓના જ્ઞાનાવરણીય આદિ રૂપે પ્રકૃતિમન્ય થયે. હવે તેનું જે મતિજ્ઞાનાવરણુ, શ્રુતજ્ઞાનાવરણ, અવધિજ્ઞાનાવરણુ અને મન વજ્ઞાનાવરણુ રૂપે જે જે પશુમન થયું છે તે દેશાતિ રૂપે તેના પ્રકૃતિષધ છે. અને જે કેવળજ્ઞાનાવરણુરૂપે તેનું પરિણમત छे, તે સઘાતિ રૂપે अधृतिमन्ध छे, मे આ સમુઢાન ક્રિશ્નાનો ભાત્રા છે અથવા સમુદ્દાન એટલે જનસમૂહ તે જનસમૂહની જે ક્રિયા છે તેને સમુદ્રાન ક્રિયા કહે છે. भैर्यापथिडी दिया--" ईरण " भेटसे गमन. ते धरने છે. જે માગે થઈને ગમન કરવાનું હોય તે માને ‘ યપથ ’કહે છે, તે धर्या डे Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०५ उ०२ १०९ क्रियास्थाननिरूपणम् मोहक्षीणमोहसयोगि केवलिन केवलयोगप्रत्ययासातावेदनीयकर्म गन्धरूपेत्यर्थः ५। प्रेममस्ययाद्यैर्यापथिक्यन्ताः पञ्चकत्वेनोक्ताः क्रियाश्चतुर्विशति दण्डकेषु मनुष्याणामेव भवन्ति नत्वन्येपाम् , ऐपिथिकी क्रियाया उपशान्तमोहापथ है, इस ईर्यापथमें जो क्रिया होती है, वह ऐपिथिकी क्रिया है, यह ऐपिथिकी क्रिया उपशान्त मोह क्षीणमोह और सयोगकेवलियोंको होती है, इसका कारण केवल योगही होता है, तात्पर्य इस कधनका ऐसा है, कि यद्यपि ईका अर्थ गमन है, पर यह अर्थ केवल व्युत्पत्ति लक्ष्य है, क्योंकि ईर्यापथ जो क्रिया होती है, वह केवल योगसेही होती है, इसलिये ईयांका अर्थ योग लेना चाहिये, जिस प्रकार कोरे घडे पर धूल मिट्टी नहीं जमती है, वह उस पर पड़ जाने पर भी तत्काल उससे दूर हो जाती है, वैसे ही योगले जायमान ईर्यापथ क्रिया द्वारा गृहीत कर्मपुशल कषायके अभावमें आत्मासे चिकना नहीं है, आतेही वह उससे अलग हो जाता है, इसी लिये यह क्रिया ११ ग्या रहवे १२ बारहवे और १३ तेरहवे गुणस्थानवाले जीवोंको कही गई है, ईर्यापथ क्रियासे जो कर्म होताहै, वह सातावेदनीय बंधरूप होताहै, और इसकी केवल एक समयकीही स्थिति होती है, अर्थात् पहले समय वन्ध होता है दूसरे समय इसका वेदन होता है और तीसरे समय निर्जरण हो जाता है ये पांच क्रियाएँ चौबीस ઈર્યાપથમાં જે ક્રિયા થાય છે, તેને એર્વોપથિકી ક્રિયા કહે છે. આ અર્યાપથિકી ક્રિયા ઉપશાત મેહ, ક્ષીણમેહ અને સગી કેવલીઓ દ્વારા થાય છે. , તેનું કારણ માત્ર યોગ જ હોય છે. આ કથનનો ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે કે ઈર્ષાનો અર્થ ગમન છે, પણ આ અર્થ તે માત્ર વ્યુત્પત્તિ લભ્ય અર્થ જ છે, કારણ કે ઈપથ જે ક્રિયા હોય છે તે કેવળ રોગથી જ થાય છે, તેથી અહીં ઈને અર્થ ગ લેવું જોઈએ જેમ કેરા ઘડા ઉપર રજ આદિ જામતું નથી, કદાચ તેના પર રજ પડી હોય તો પણ તે પવન આદિ વડે ઊડી જાય છે, એ જ પ્રમાણે ગજન્ય ઈર્યાપથ કિગ્રા દ્વારા ગ્રહીત કર્મ પુલ કષાયને અભાવે આત્મા સાથે ચાટી જતાં નથી, આવતાં સાથે જ તેઓ આત્માથી અલગ થઈ જાય છે. તેથી ૧૧ માં, બારમાં અને તેમાં ગુણસ્થાનવાળા છે આ ક્રિયા કરે છે, એમ કહેવામાં આવ્યું છે ઈર્યાપથ ક્રિયા દ્વારા આવેલું જે કર્મ હોય છે, તે સાતાદનીય બન્યરૂપ હોય છે, અને તેની માત્ર એક સમયની જ સ્થિતિ હોય છે. આ પાંચ કિયાઓ ૨૪ - Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ स्थानासूत्रे दित्रयेष्वेव सद्भावात् । अमुमेवार्थमाह-' एवं मणुयाणवि सेसाणं णत्थि ' इति । क्रियाया विस्तृत व्याख्या अस्मिन्नेव म्रत्रे द्वित्यानकस्य प्रथपोद्देश केवकोकनीयेति ॥ ०९ ॥ अनन्तरं कर्मबन्धकारणीभूताः क्रिया उक्ताः सम्मति तस्यैव कर्मणो निर्जरो पायभूतां परिज्ञामाह - मूलम् - पंचविहा परिन्ना पण्णत्ता, तं जहा - उबहिपरिन्ना १ उवस्यपरिन्ना २ कायपरिन्ना ३ जोगपरिन्ना : भत्तपाणप रिन्ना ५ ॥ सू० १० ॥ छाया - पञ्चविधा परिक्षा प्रज्ञता, तद्यथा - उपधिपरिक्षा ? उपाश्रयपरिज्ञा २, कपायपरिज्ञा ३ योगपरिज्ञा ४ भक्तपानपरिज्ञा ५ ॥ म्र० १० ॥ दण्डकमै केवल मनुष्योंकोही होतीहै, अन्य जीवों को नहीं होती है, तथा ऐर्यापथिकी जो क्रिया है, उपासनीय क्षीणमोह और सयोग केवल इन तीनही होती है, यही बात - " एव मनुस्साणवि सेमाणं णत्थि " इम सूत्रपाठ द्वारा प्रकटकी गई है, कियाको विस्तृत व्याख्या इसी के विस्थानक के प्रथम उदेशक में देख लेनी चाहिये ॥ मृ० ९ ॥ इस तरह से कर्म की कारणभूत क्रियाएँ कहीं अब सूत्रकार उसी कर्मकी निर्जरा उपायभूत परिक्षाका कथन करते हैं- you 'पंचबिहा परिन्ना पण्जना' इत्यादि सन १० ॥ टीकार्थ- परिज्ञा पाँच प्रकारकी कही गई हैं जैसे उपधिपरिजा१ उपाश्रयपरिज्ञा २ कपायपरिज्ञा ३ योगपरिज्ञा ४ और भक्तपान परिज्ञा ५ जिसके કાના બધાં જીવે કરતાં નથી પશુ માત્ર મનુષ્યા જ કરે છે. મનુષ્યેામાં પણ ૧૧, ૧૨ અને ૧૩ મા શુશુસ્થાનવાળા મનુષ્યે એટલે કે ઉપશાન્ત મેહ, ક્ષીણુમેહ અને 'સયેગી કેવલી, એ ત્રણુ જ મર્યાપથિકી ક્રિયા કરતા હાય છે. એ જ વાત एवं मणुम्साण वि सेसाणं णत्थि " આ સૂત્રપાઠ દ્વારા વ્યક્ત થઈ છે ક્રિયાની વિસ્તૃત વ્યાખ્યા સ્પા સૂત્રના દ્વિસ્થાનકના પહેલા ઉદ્દેશામાં આપવામાં આવી છે તેા જિજ્ઞાસુ પાઠકે એ ત્યાંથી તે વાચી લેવી ! સૂ. ૯॥ આ રીતે કર્મબન્ધનના કારણભૂત ક્રિયાઓનુ નિરૂપજી કરીને હવે સૂત્રકાર એ જ કની નિરાના ઉપાયરૂપ પરિનાનું કથન કરે છે. ८८ CC 'q'afagı qfear qua" uile ટીકા-પુરિજ્ઞા પાચ પ્રકારની કહી છે...(૧) ઉપધિ પરિજ્ઞા, (૨) ઉપાશ્રયપરિજ્ઞા (3) उपाय परिज्ञा, (3) योग परिक्षा भने (4) लस्तयान परिज्ञा. Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुंधाटीका स्था०५३०२०१० निराजरोपायंभूनां परिशानिरूपणे ५३ टीका-पंचविहा' इत्यादि परिज्ञा-परिज्ञायते इति परिज्ञा-कल्पनीयाकल्पनीयवस्त स्वरूपरय ज्ञान, तत्पूर्वकं प्रत्याख्यानं च । इय द्रव्यतो भावतश्च भवति । तत्र द्रव्यतोऽनुपयुक्तस्य, भावनस्तूपयुक्तस्य भवति । तदुक्तम् " भावपरिणा जाणणं पच्चक्खाणं च भावेणं" छाया-भावपरिज्ञाज्ञानं प्रत्याख्यानं च भावेन इति । तत्र द्रव्यपरिज्ञा सचित्ताचित्तमिश्रभेदेन त्रिविधा भवति, भावपरिज्ञा तु ज्ञपरिज्ञाप्रत्याख्यानपरिज्ञाभेदेन द्विविधा भवति । द्रव्यभावभेदभिन्ना एपा परिज्ञा उपध्यादिभेदेन पञ्चविधा भवति । तथाहि-उपधि-परिज्ञा-उपधेः रजोहरणसदोरकमुखास्त्रिकादेः परिज्ञा ११ उपाश्रय-परिज्ञा-उपाश्रयस्य-उपश्रीयते धारा जाना जाता है वह परिज्ञा है, यह परिज्ञा कल्पनीय अकल्पनीय घस्तुके स्वरूपके ज्ञानरूप होती है, एवं इस ज्ञानपूर्वक जो प्रत्याख्यान होता है, तद्रूप होनी है, यह परिज्ञा द्रव्य और भाव के भेद से दो प्रकार से होती है, अनुपयुक्त आत्माके जो परिज्ञा होती है, वह द्रव्यपरिज्ञा है, और उपयुक्त आत्माके जो परिज्ञा होती है, वह भाव परिज्ञाहै। कहाभीहै "भावपरिण्णा जाणणं " इत्यादि। क्योंकि प्रत्याख्यान भावसे होता है, इसलिये भावपरिज्ञा ज्ञानरूप होती है, द्रव्यपरिज्ञा सचित्त, अचित्त और मिश्रके भेदसे तीन प्रकारकी होती है और जो भावपरिज्ञा है, वह ज्ञपरिज्ञा और प्रत्याख्यान परिज्ञाके भेदसे दो प्रकारकी होती है, द्रव्य और भावके भेदसे भेदवाली यह परिज्ञा उपधि आदिके भेदसे જેના દ્વારા જાણવામાં આવે છે તે પરિજ્ઞા છે. કલ્પનીય અને અકલ્પ નીય વસ્તુના સ્વરૂપના જ્ઞાનરૂપ તે પરિણા હેાય છે, અને આ પ્રકારના જ્ઞાનપૂર્વક જે પ્રત્યાખ્યાન થાય છે, તે પ્રત્યાખ્યાન રૂપ તે હેય છે. તે પરિજ્ઞા દ્રવ્ય અને ભાવના ભેદથી બે પ્રકારની હોય છે. અનુપયુક્ત આત્માની જે પરિણા હેય છે તેને દ્રવ્ય પરિણા કહે છે, અને ઉપયુક્ત આત્માની જે પરિજ્ઞા હોય છે તેને ભાવ૫રિજ્ઞા કહે છે. કહ્યું પણ છે કે " भावपरिण्णा जाणणं " त्या-- પ્રત્યાખ્યાન ભાવથી થાય છે, તે કારણે ભાવપરિજ્ઞા જ્ઞાનરૂપ હોય છે. દ્રવ્યપરિક્ષાના સચિત્ત, અચિત્ત અને મિશ્ર એવાં ત્રણ ભેદ પડે છે, અને ભાવ પરિણાના પરિજ્ઞા અને પ્રત્યાખ્યાન પરિણા નામના બે ભેદ પડે છે, દ્રવ્ય અને ભાવરૂપ મુખ્ય બે ભેદેવાળી આ પરિણા ઉપધિ આદિના ભેદથી Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानानसूत्रे संयमयात्रानिर्वाहार्थं यः स उपाश्रयः = त्रसतिरूपस्तस्य परिज्ञा २। कपायपरिज्ञाकपाया:= मोहनीय कर्म पुद्गलोदय सम्पाद्यजीव परिणामाः क्रोधमानमाया लोभाः, तेपां परिज्ञा३ | योग रिज्ञा-योगाः = मनोयोगादयः, तेपां परिज्ञा४ । तथा भक्तपानपरिक्षाभक्तम्=अशनमोदनादि पानं = पेयं मासुकजलादि, तयोः परिज्ञा ५| इति ॥ सू० १० ॥ परिज्ञा च व्यवहारवतां भवतीति व्यवहारं प्ररूपयति ܐܕ मूलम् - पंचविहे वत्रहारे पण्णत्ते, तं जहा -आगमे १ सुए २ आणा ३ धारणा ४ जीए ५। जहा से तत्थ आगमे सिया आगमेणं बवहारं पटुवेज्जा १, णो से तत्थ आगमे सिया, जहा से तत्थ सुए सिपा, सुष्णं वत्रहारं पट्टवेज्जा २, णो से तत्थ सुए सियार, एवं जाव जहा से तत्थ जीए सिया४ जीएणं पांच प्रकारकी होती हैं, इनमें रजोहरण एवं मुखवस्त्रिका आदिकी जो परिज्ञा है वह उपधिपरिज्ञा है । जो संयम यात्राके निर्वाहके लिये आश्रित किया जाता है वह उपाश्रय है, इस उपाश्रयकी जो परिज्ञा है, वह उपाश्रयपरिज्ञा है २ | मोहनीय कर्मके पुद्गलोंके उदयसे उत्पन्न हुए जो क्रोध मान माया और लोभ रूप जीवके परिणाम हैं, वे कषाय हैं, इन कषायों की जो परिज्ञा है, वह कषाय परिज्ञा है, मन वचन और, कायरूप योगोंकी जो परिज्ञा है, वह योगपरिज्ञा है, तथा ओदनादिरूप अशनकी एवं प्रासु जलादिरूप पेय की जो परिज्ञा है, वह भक्तपान परिज्ञा है || सू० १० ॥ પાંચ પ્રકારની હાય છે. તેમાં રસ્તેરણ, સુખવસ્ત્રિકા આદિની જે પરિજ્ઞા છે, તેને ઉદ્ધિ રિજ્ઞા કહે છે સંયમ યાત્રાના નિર્વાહને માટે જે સ્થાનનો આશ્રય લેવામાં આવે છે તે સ્થાનનું નામ ઉપાશ્રય છે. તે ઉપાશ્રયની જે પરિજ્ઞા છે તેને ઉપાશ્રય પરિના કહે છે. મેાહનીય કનાં પુàાના ઉદયને લીધે ઉત્પન્ન થયેલ ક્રાધ, માન, માયા અને લેભરૂપ જીવતું જે પરિણામ છે તેને કષાય કહે છે તે કચેાની જે પરિજ્ઞા છે તેને કષાય પરિજ્ઞા કહે છે. મન, વચન અને કાયરૂપ ચેગેાની જે પુરિજ્ઞા છે તેને ચેગ પરિશા કહે છે તથા ભાત આદિ રૂપ અશનની અને પ્રાસુક જલાદિ રૂપ પાનની જે પિરણા છે તેને ભક્તપાનપરિક્ષા કહે છે. સૂ, ૧૦ તા A Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०५ उ०२ सु११ व्यवहारनिरूपणम् रूपणम् ५५ ववहारं पवेज्जा ५। इच्चे एहिं पंचहिं ववहारं पट्टवेज्जा, आगमेणं जाव जीएणं । जहा जहा से तत्थ आगमे जाव जीए तहा तहा ववहारं पटुवेज्जा । से किमाहु भंते ? आगमबलिया समणा णिग्गंथा ? इच्चेयं पंचविहं ववहारं जया जया जहिं जहिं तया तयातहिं तहिं अणिस्सियोवस्सियं सम्मं ववहरमाणे समणे णिग्गंथे आणाए आराहए भवइ ॥ सू० ११॥ . . . छाया-पञ्चविधो व्यवहारः प्रज्ञप्तः, तयथा-आगमः १ श्रुतम् २, आज्ञा ३ धारणा ४ जीतम् ५। यथा वस्य तत्र आगम: स्यात् आगमेन व्यवहार प्रस्थापयेत् १, नो तस्य तत्र आगम: स्यात् , यथा तस्य तत्र श्रुतं स्यात्, श्रुतेन व्यवहार पस्थापयेत् ३, नो तस्य तत्र श्रुतं स्यात् , एवं यावत् यथा तस्य तत्र जीतं स्यात् , जीतेन व्यवहारं प्रस्थापयेत् ५। इत्येतेः पञ्चमिव्यवहारं प्रस्थापयेतू-आगमेनं यावद् जीतेन । यथा यथा तस्य तत्र आगमो यावद् जीतं तथा तथा व्यवहारं प्रस्थापयेत् । अथ किमाहु भदन्त ! आगमवलिकाः श्रमणा निर्ग्रन्थाः ? इत्येतं पश्चविधं व्यवहारं यदा यदा यत्र यत्र तदा तदा तत्र तत्र अनिश्रितोपा श्रितं सम्यग् व्यवहरमाणः श्रमगो निर्ग्रन्थ आज्ञाया आराधको भवति ।।मू०११॥ टीका-'पंचविहे ' इत्यादि व्यवहरणं-व्यवहारः-मोक्षार्थिमवृत्तिनिवृत्तिरूपः, तद्धतुकत्वादत्र ज्ञान विशेषोऽपि व्यवहारः । स पञ्चविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-आगम्यन्ते=परिच्छिद्यन्ते यह परिज्ञा व्यवहारवालोंको होती है, इसलिये अय सूत्रकार व्यव. हारका प्ररूपण करते हैं-पंचविहे ववहारे पण्णत्ते इत्यादि' सूत्र ११ ॥ टीकार्थ--व्यवहार पांच प्रकारका कहा गया है, जैसे-आगम १ श्रुत २ आज्ञा ३ धारणा ४ और जीत ५। ' व्यवहार मोक्षाभिलाषियोंकी प्रवृत्ति और निवृत्तिरूप होता है; આ પરિક્ષા વ્યવહારવાળામા હોય છે. તેથી હવે સૂત્રકાર વ્યવહારની प्र३५। 3रे छ. " पंचविहे ववहारे पण्णत्ते " त्याl:-- टी -व्य१९ २॥ नाय प्रभारी पांय ४१२ ४ह्य छ--(१) भाम, (२) श्रुन (3) मासा. (४) पार! मन (५) छत, Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाpar संयमात्रनिहायः स उपाश्रयः = त्रसतिरूपस्तरय परिज्ञा २ । कषायपरिज्ञाकपाया:=मोहनीय कर्म पुद्गलोदय सम्पाद्यजीव परिणामाः क्रोधमानमाया लोभाः तेषां परिज्ञा३ | योग ररिज्ञा-योगाः = मनोयोगादयः, तेपां परिशा४ । तथा भक्तपानपरिज्ञाभक्तम्=अशनमोदनादि पानं = पेयं प्रासुकजलादि, तयोः परिज्ञा ५| इति ||सू० १० ॥ परिज्ञा च व्यवहारवतां भवतीति व्यवहारं प्ररूपयति ५४. मूलम् - पंचविहे वहारे पणत्ते, तं जहा - आग मे १ सुए २ आणा ३ धारणा ४ जीए ५। जहा से तत्थ आगमे सिया आगमेणं ववहारं पटूवेज्जा १, णो से तत्थ आगमे लिया, जहा से तत्थ सुए सिपा, सुएणं वत्रहारं पट्टवेज्जा २, णो से तत्थ सुए सियार, एवं जात्र जहा से तत्थ जीए सिया४ जीएणं पांच प्रकारकी होती है, इनमें रजोहरण एवं मुखबत्रिका आदिकी जो परिज्ञा है वह उपधिपरिज्ञा है १| जो संयम यात्राके निर्वाहके लिये आश्रित किया जाता है वह उपाश्रय है, इस उपाश्रयकी जो परिज्ञा है, वह उपाश्रयपरिज्ञा है २ | मोहनीय कर्मके पुद्गलोंके उदयसे उत्पन्न हुए जो क्रोध मान माया और लोभ रूप जीवके परिणाम हैं, वे कषाय हैं, इन कषायों की जो परिज्ञा है, वह कषाय परिज्ञा है, मन वचन और कायरूप योगोंकी जो परिज्ञा है, वह योगपरिज्ञा है, तथा ओदनादिरूप अशनकी एवं प्रासुक जलादिरूप पेयकी जो परिज्ञा है, वह भक्तपान परिज्ञा है || सू० १० ॥ પાંચ પ્રકારની હાય છે. તેમાં રોઙરણ, મુખવગ્નિકા આદિની જે રિજ્ઞા છે, તેને ઉપવિ રિજ્ઞા કહે છે. સયમ યાત્રાના નિર્વાહને માટે જે સ્થાનનો આશ્રય લેવામાં આવે છે તે સ્થાનનું નામ ઉપાશ્રય છે. તે ઉપાશ્રયની જે રિજ્ઞા છે તેને ઉપાશ્રય પરિજ્ઞા કહે છે. માહનીય કર્મનાં પુāાના ઉદયને લીધે ઉત્પન્ન થયેલ કાધ, માન, માયા અને લેભરૂપ જીવતું જે પરિણામ છે તેને કષાય કહે છે તે કચેાની જે પરિજ્ઞા છે તેને કષાય પરિજ્ઞા કહે છે. મન, વચન અને કાયરૂપ ચેગાની જે રિજ્ઞા છે તેને ચાગ પરિશા કહે છે તથા ભાત આદિ રૂપ અશનની અને પ્રાસુક જલાદિ રૂપ પાનની જે પિરણા છે તેને ભક્તપાનપરિક્ષા કહે છે. સૂ, ૧૦ તા Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुषा टीका स्था०५ उ०२ सु.११ व्यवहारनिरूपणम् ५५ वहारं पट्टवेज्जा ५। इच्चे एहिं पंचहिं ववहारं पट्टवेज्जा, आगमेर्ण जाब जीएणं । जहा जहा से तत्थ आगमे जाव जीए तहा तहा ववहारं पटुवेज्जा । से किमाहु भंते ? आगमबलिया समणा णिगंथा ? इच्चेयं पंचविहं ववहारं जया जया जहिं जहिं तया तयातहि तहिं अणिस्सियोवस्सियं सम्मं वबहरमाणे समणे णिग्गंथे आणाए आराहए भवइ ॥ सू० ११॥ . . छाया-पञ्चविधो व्यवहारः मज्ञप्तः, तुयथा-आगमः १ श्रुतम् २, आज्ञा ३ धारणा ४ जीतम् ५। यथा तस्य तत्र आगम: स्यात् आगमेन व्यवहार प्रस्थापयेत् १, नो तस्य तत्र आगम: स्यात् , यया तस्य तत्र श्रुतं स्यात् , श्रुतेन व्यव. हारं पस्थापयेत् ३, नो तस्य तत्र श्रुतं स्यात् , एवं यावत् यथा तस्य तत्र जीत स्यात् , जीतेन व्यवहारं प्रस्थापयेत् ५' इत्येतेः पञ्चभिव्यवहारं प्रस्थापयेतू-आगमेन यावद् जीतेन । यथा यथा तस्य तत्र आगमो यावद् जीतं तथा तथा व्यवहारें प्रस्थापयेत् । अथ किमाइ भदन्त ! आगमालिकाः श्रमणा निर्ग्रन्थाः ? इत्येतं पश्चविधं व्यवहारं यदा यदा यत्र यत्र तदा तदा तत्र तत्र अनिश्रितोपा श्रितं सम्यग्र व्यवहरमाणः श्रमगो निग्रन्थ आज्ञाया आराधको भवति ।।मु०११।। टीका-पंचविहे ' इत्यादि व्यवहरणं-व्यवहार:-मोक्षार्थिवृत्तिनिवृत्तिरूपः, तद्धतुकत्वादत्र ज्ञान विशेषोऽपि व्यवहारः । स पञ्चविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-आगम्यन्ते=परिच्छिद्यन्ते यह परिज्ञा व्यवहारवालोंको होती है, इसलिये अय सूत्रकार व्यव. हारका प्ररूपण करतेहैं-पंचविहे ववहारे पण्णत्ते इत्यादि' सूत्र ११ ॥ ___टीकार्थ--व्यवहार पांच प्रकारका कहा गया है, जैसे-आगम १ श्रुत २ आज्ञा ३ धोरणा ४ और जीत ५॥ __व्यवहार मोक्षाभिलाषियोंकी प्रवृत्ति और निवृत्तिरूप होना है। - આ પરિજ્ઞા વ્યવહારવાળામાં હોય છે. તેથી હવે સૂત્રકાર વ્યવહારની ५३५९! 3रे छ. “ पंचविहे ववहारे पण्णत्ते " ध्याह-- टी -व्यप २ नये प्रभा पांय ४१२ ४ा छे--(१) मागम, (२) श्रत (3) माश. (४) धारमन (५) त. Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानास्त्रे ५६ अर्था अनेनेति-आगमः, केवलज्ञान १ मनःपर्ययज्ञाना २ वधिज्ञान ३ चतुर्दश पूर्व ४ दशपूर्व ५ नवपूर्व ६ पः परिधः ॥१॥ श्रुतम् न आदि पूर्वेभ्योऽवशिष्टम् आचारागादिकम् । यद्यपि नादिपूर्वाण्यपि श्रुतान्येव, तथाऽप्यतीन्द्रियार्थज्ञान हेतुत्वेन सातिशयत्यात केवलाद् एषां आगमध्यपदेशः ।२। आज्ञा-अगीतार्थस्याग्रे गूढार्थान्यदेशस्थितं गीताथै निवेदयितुं यदतिचारालोचनम् गीतार्थमाधु नाऽपि नथैव शुद्धिदानं सा ॥३॥ धारणा-द्रव्याघपेक्षया यस्मिन्नपराधे गीतार्थ इस व्यवहारका हेतु ज्ञान विशेष होता है, अतः यह ज्ञान विशेष भी ध्यवहार रूप है यह व्यवहार आगम आदिके भेदसे पांच प्रकारका जो कहा गया है, तो उसका तात्पर्य ऐसाहै जिसके द्वारा पदार्थ जाने जाते हैं; यह आगम व्यवहार है, ऐसायह आंगनव्यवहार के वलज्ञान १ मनः पर्य यज्ञान २ अवधिज्ञान ३ चतुर्दश पूर्व ४ दशपूर्व ५ और नवपूर्वके भेदसे ६ प्रकारका है १। इन नवादि पूर्वो से अवशिष्ट जो आचाराङ्ग आदि हैं वे श्रुत है यद्यपि नवादि पूर्व भी श्रुतही हैं परन्तु अतीन्द्रिय अर्थज्ञानके हेतु होने के कारण मातिशय होनेसे केवलज्ञानकी तरह इनमें आग मका व्यपदेश होता है २। अगीतार्थके आगे गूढार्थ पदों द्वारा अन्य देशस्थित गीतार्थके पास निवेदनके निमित्त जो अतिचारोंका ओलोचन है तथा गीतार्थ साधुके द्वारा भी उसी प्रकारसे जो शुद्धिका देना है वह आज्ञाहै ३, द्रव्यादिककी अपेक्षासे जित अपराधमें गीनाथ माधुद्वारा વ્યવહાર એ ક્ષ ભિલાષીએ ની પ્રવૃત્તિ અને નિવૃત્તિ રૂપ હોય છે આ વ્યવહારને હેતુ જ્ઞાનવિશેષ હોય છે તેથી તે જ્ઞાનવિશે પણ વ્યવહ ર રૂપ છે. તેના આગમ વ્યવહ ર આદિ જે પાંચ પ્રકાર કહેવામાં આવ્યા છે, તેમનું હવે સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવે છે-- જેના દ્વારા પદાર્થોને જાણવામાં આવે છે, તે આગમ વ્યવહાર છે. તે भासम व्यवडा२ना नीचे प्रमाणे मे ५3 छ--(१) सज्ञान. (२) मनः पर्यज्ञान, (3) अवधिज्ञान, (४) यौः पूर्व, (५) इस पूर्व मने (6) 14 पू. આ નવાદિ પૂર્વે સિવાયનાં જે આચારાંગ આદિ છે, તેઓ મૃતરૂ૫ છે જે કે નવીદિ પૂર્વ પન્ન થતરૂપ જ છે, પરંતુ અતીન્દ્રિય અર્થજ્ઞાનના હેતુ હેવાને કારણે સાતિશય હોવાથી કેવળજ્ઞાનની જેમ તેઓમાં આગમનો વ્યપદેશ થાય છે. અગીતાર્થની આગળ ગૂઢાર્થ પદે દ્વરા અન્ય દેશસ્થિત ગીતાર્થની પાસે નિવેદનને નિમિત્ત જે અતિચારનું આલેચન છે, તથા ગીતાર્થ સાધુ દ્વારા પણ એ જ પ્રકારે જે શુદ્ધિ અપાય છે તેનું નામ આજ્ઞા છે. દ્રવ્યાદિકની Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा का स्था० उ०२ १.११ व्यवहारस्वरूपनिरूपणम् - .. ५७ साधुना यथा विशुद्धिः कृना, तां संपधार्य तस्मिन्ने वापराधे यदन्यः साधुस्तथैव विशुद्धिं करोति "सा धारणा । अथवा-गच्छोपग्राहिणो वैयाहत्यकरिशेपानुचितस्य प्रदर्शितानाम् उचितप्रायश्चित्तपदानां, यद-धारणं सा-धारणा ।४। तथाजीतम्-द्रव्यक्षेत्रकालभावपुरुषमतिसेवाजत्या संहननधृत्यादि परिहाणिमपेक्ष्य यत् प्रायश्चित्तदानं तत् , अथवा-यत्र गच्छे कारणवशाद् यः सूत्रातिरिक्तः प्रायश्चित्तव्यवहारः प्रवर्तितो बहुभिरन्यैश्चाप्यनुवर्तितः सः ॥५॥ इति । ऑगमादि व्यवहारप्रदर्शिका गाथा अपि अन्यत्रोक्ताः । तथाहिजैसी विशुद्धिकी गई हो उस विशुद्धि को हर्दय में धारणकर उसी अपराधमें जो अन्य साधुभी उसी प्रकारको दिशुद्धि करता है, वह धारणा है। अथवा-जों साधु गच्छका, उपकार करता है; वैयावृत्त्य करता है परन्तु यदि उससे कोई ऐसा कार्य बन जाता है; किलो. समस्त साधुओंको अनुचित लगता है तो उसके निमित्त दिखलाये गये प्रायश्चित्त पदोंकी,जो धारणा है वह धारणा है तथा-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव एवं पुरुष प्रतिसेवाकी अनुवृत्तिसे संहनन पृति आदिकी हीनताकी अपेक्षा करके जो प्रायश्चित्त दिया जाता है वह जीत व्यवहार अथवा-जिस गच्छमें कारणके वशले जो सूत्रातिरिक्त प्रायश्चित्त व्यवहार चल रहा है तथा अनेकोंने भी उसकी सराहनाझी हो ऐसा वह व्यवहार जीत व्यवहार है, आगम आदिरूप व्यवहारको दिखलानेवाली जो गाथाएँ અપેક્ષાએ જે અપરાધમાં ગીતાર્થ સાધુ દ્વારા જેવી વિશુદ્ધિ કરવામાં આવી હિય તે વિશુદ્ધિને હદયમાં ધારણ કરીને એ જ પ્રકારનો અપરાધ થઈ જતાં અન્ય સ ધ પણ એ જ પ્રકારે જે વિશુદ્ધિ કરે છે તેને ધારણું કહે છે. અથવા જે સાધુ ગચ્છને ઉપકાર કરે છે–વૈયાવૃત્ય આદિ કરે છે, પરંતુ તેના દ્વારા કોઈ એવું કાર્ય થઈ જાય કે જે સમસ્ત સાધુઓને અનું ચિત લાગે છે, તે તેની વિશુદ્ધિ નિમિત્તે બતાવવામાં આવેલા પ્રાયશ્ચિત્ત પદની જે ધારણા છે, તેનું નામ ધારણું સમજવું દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર, કાળ, ભાવ અને પુરુષ પ્રતિસેવાની અનુવૃત્તિની અપેક્ષાએ સંહનન, ધૃતિ આદિની હીનતાને વિચાર કરીને જે પ્રાયશ્ચિત્ત આપવામાં આવે છે તેને છતવ્યવહાર કહે છે અથવા જે ગચ્છમાં કઈ કારણે સૂત્રાતિરિક્ત (સૂત્રમાં જેને આધારે ન મળતું હોય એ ) વ્યવહાર ચાલી રહ્યો હોય તથા અનેક સાધુ આદિ દ્વારા જે વ્યવહારની પ્રશ સા કરાઈ હોય તેવા વ્યવહારને જીતવ્યવહાર કહે છે. આગમ આદિ રૂપ વ્યવહારનું સ્વરૂપ બતાવતી કેટલીક ગાથાઓ અન્ય શાસ્ત્રોમાં આપેલી છે, તે ગાથાઓ હવે અહીં આપવામાં આવે છે - स्था०-८ Page #80 --------------------------------------------------------------------------  Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीको स्था०५३०२ सू०११ व्यवहारस्वरूपनिरूपणम् गाथा-नो इंदियपचारखो बहारो सो समासओ तिविहो । ओहिमणपज्जवे य केवलनाणे य पञ्चक्खो ॥३॥ छाया-नो इन्द्रियप्रत्यक्षो व्यवहारः स समासतस्त्रिविधः ।। अधिमनापर्यवं च केवलज्ञानं च प्रत्यक्षः ।।३।। गाथा-पञ्चवागमसरिसो होइ परोक्खो वि आगमो जस्स । - चंदमुहीव उ सो वि हु आगम ववहारवं होइ ॥४॥ छाया--प्रत्यक्षागमनमदृशो भवति परोक्षोऽपि आगमो यस्य । चन्द्रमुग्वीव तु सोऽपि खलु आगमग वहारवान् भवति ॥४॥गाथा-परोक्वं ववहारं आगमओ सुयहरावबहरंति । चोदस दसपुनधारा नवबिग गंध इत्थी य ॥ ५ ॥ छाया-पारोक्षं व्यवहारम् आगमत श्रुतधराः व्यवहरन्ति । ___चतुर्दश दशपूर्वधरा नवपूर्विका गन्धहस्तिनः ॥५॥ " नोइंदियपच्चक्खो" इत्यादि । नो इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष संक्षेपसे तीन प्रकारका है-अवधिज्ञान १ मनःपर्णवज्ञान २ और केवलज्ञान ३ ॥३॥ . "पच्चक्खागमसरिसो" इत्यादि जिस प्रकार मुखमें चन्द्रमाका उपचार करके लोग स्त्री को चन्द्रमुखी कह देते हैं-इसी प्रकारसे जिस मुनिका परोक्ष भी आगम वस्तु. स्वरूपका सम्यक् रूपसे निर्णायक होता है, तो वह मुनि भी उपचारसे आगम व्यवहारवाला कह दिया जाता है, क्योंकि उसका आगम भी प्रत्यक्षागमके जैसा मान लिया जाता है ॥४॥ " नो इंदिय पञ्चक्खो" साहि- न्द्रिय अन्य प्रत्यक्ष सविसमा ત્રણ પ્રકારને કહ્યું છે -(૧) અવધિજ્ઞાન, (૨) મન પર્યવજ્ઞાન અને કેવળજ્ઞાન. ૩૫ " पच्चक्खागमसरिसो" त्याह-रेम भुममा यन्द्रमाना यार કરીને લોકે કઈ સ્ત્રીને ચન્દ્રમુખી કહી દે છે, એ જ પ્રમાણે જે મુનિને પરોક્ષ આગમ પણ વસ્તુ સ્વરૂપને સામાન્ય રૂપે નિર્ણાયક હોય છે. તે મુનિને પણ ઉપચારથી આગમ વ્યવહારવાળા કહેવામાં આવે છે, કારણ કે તેમના આગમને પણ પ્રત્યક્ષ આગમ સમાન માની લેવામાં આવે છે. જો Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा -- जं जमोल्लं रयणं तं जाणड़ रयणत्राणिओ निउणं । इय जागइ पच्चत्रवी जो सुज्झ जेण दिनेणं || ६॥ छाया - यद् यथामूल्यं रत्नं, तद् जानाति रत्नवाणिजो निपुणम् । इति जानाति प्रत्यक्षी, यः शुध्यति येन दत्तेन ॥६॥ गाथा - कस्य विज्जुर्ति वाहारस्से परमनि अगस्त । जो अत्थओ वियाग सो वहारी अणुन्नाओ ||७| “पारोक्खं ववहारं " इत्यादि । इस परोक्ष व्यवहारको परवादियोंको भगाने के लिये गन्ध हस्ती के जैसे चतुर्दशपूर्वर, दश पूर्वघर और नवपूर्वघर आगम रूपसे व्यवहृत करते हैं ॥ ५ ॥ "जं जहमोल्लं रणं " इत्यादि । जिस रहनका जैसा मूल्य होता है, इस बातको जिस तरह जौहरी जन अच्छी तरह जानता है, उसी तरहसे प्रत्यक्ष ज्ञानी भी इस बात को भली प्रकार से जानता है, कि कौन अतीचारवाला किस प्रायश्चित्तसे शुद्ध होता है, अतः वे उस अतिचारवालेकी उसी प्रायश्चित्त से शुद्धि करते हैं ||६|| स्थानाङ्गसूत्रे इस प्रकार जो मुनि केवलज्ञानले मन:पर्ययज्ञानसे अवधिज्ञानसे अतिचारोंको जानकर चौदह पूर्वधारी होने से अतिचारोंको विशुद्धिके जो प्रायश्चित्त देता है, वह प्रायश्चित्तदान आगम व्यवहाररूपसे कहा " पारोक्खववहार ' छत्याहि- परमतवादीओने પરાસ્ત કરવાને માટે ગન્ધદ્ધસ્તિ સમાન ચૌદ પૂર્વધારી, દશ પૂર્વધારી અને નવ પૂત્રધારીએ આ પરાક્ષ વ્યવહારને આગમરૂપે ઉપયાગ કરે છે. ! ૫ ! “ जं जहंमोल्लं रयणं ” इत्यादि-प्रेम या रत्ननुं डेंटलु भूल्य' होय છે તે ઝવેરી જ સારી રીતે જાણી શકે છે, એ જ પ્રમાણે પ્રત્યક્ષ જ્ઞાની પણ એ ધાતને બરાખર જાણી શકે છે કે કયા અતિચારવાળા કયા પ્રાયશ્ચિત દ્વારા શુદ્ધ થાય છે તેથી તેએ ચૈાગ્ય પ્રાયશ્ચિત્ત આપીને તે અતિચારવાળાની शुद्धि उरावी . छे । ६ । 21 આ રીતે જે,સુનિ કેવળજ્ઞાન દ્વારા, મન:પર્યવજ્ઞાન દ્વારા કે અવધિજ્ઞાન દ્વારા અતિચારાને જાણીને, ચૌદ પૂર્વ ધારી કે દસ પૂર્વધારી કે નવ પૂર્વ ધારી હાવાથી અતિચારાની વિશુદ્ધિને માટે જે પ્રાયશ્ચિત દે છે, તે પ્રાયશ્ચિતદાનને આગમ વ્યવહાર રૂપ માનવામાં આવે છે. 112 - Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा कास्था०५३०२ २०११ व्यवहारस्वरूपनिरूपणम् छाया-कल्पस्य च नियुक्ति व्यवहारस्यैव परमनिपुणम्य । ___ यः अर्थतो विजानाति, स व्यवहारी अनुज्ञातः ।। ७ ।। गाथा-तं चेवऽणुमज्जते ववहारविहिं पनड जहुत्तं । एसो सुयववहारो पन्नत्तो, बीयरागेहिं ॥८॥ . छाया-तमेव अनुपजन् व्यवहारविधि प्रयुनक्ति यथोक्तम् । एष श्रुतव्यवहारः प्रज्ञप्तो वीतरागः ॥ ८॥ गाथा-अपरक्कमो तबस्सी गंतु जो सो दिकारगसमीवे । न चएइ आगंतु सो सोहिकरोऽवि देसाभो ।।९।। गया है, अब श्रुतनामक जो द्वितीय व्यवहार है, उसे मृत्रकार प्रकट करते हैं-" कप्पस्त व निजुत्ति" इत्यादि । । । ___ जो मुनि वृहत्कल्प सूत्रकी तथा प्रायश्चित्तविधि स्कुट विचारयुक्त व्यवहार सूत्रकी तथा अपि शब्दके अर्थवाले जाव पदले गृहीत निशीथ सूत्रकी एवं दशाश्रुत सूत्रकी नियुक्तिको अर्थरूपसे जानना है, यह मुनि व्यवहारी कहा गया है-" तंचेाऽणुसज्जते' इत्यादि। उस व्यवहारीकाही अनुसरण करता हुआ जो मुनिजन अतिचार के प्राप्त होने पर श्रुनोक्तिका अनुसरण करके व्यवहारविधि प्रायश्चित्तको देता है, उस मुनिका श्रुतानुसारसे यह प्रायश्चित्त प्रदानरूप व्यवहार वीतरागियोंने श्रुतव्यवहार कहा है ।।८।। "अपरकम्मो तवस्ती" इत्यादि। .. आज्ञा नामका जो तृतीय व्यवहार है, वह इस प्रकारले-है-जो तपस्वी गमनशक्तिसे हीन हो गया है, ऐसा वह तपस्वी शोधिकारकके હવે શ્રત નામનો વ્યવહારને જે બીજો ભેદ છે, તેનું સ્વરૂપ સૂત્રકાર ४८ ४२ छ-" कस्स य निज्जुत्ति" ध्याह- मुनि ४८५ सूत्रनी તથા પ્રાયશ્ચિત્તવિધિમાં સ્પષ્ટ વિચારયુક્ત વ્યવહાર સૂત્રની તથા “અપિ” શબ્દના અર્થવાળા “ભાવ” પકથી ગૃહીત નિશીથ સૂત્રની અને દશાશ્રુત - સૂત્રની નિર્યુક્તિને અર્થરૂપે જાણે છે, તે મુનિ વ્યવહારી કહેવાય છે. . ૭ 'तचेवाऽ गुसज्ज " त्याह-ने व्यवहारीनु १४ मनुसरण ४शन જે સુનિજન અતિચારોની વિશુદ્ધિને માટે શક્તિનું અનુસરણ કરીને જે પ્રાયશ્ચિત્ત દે છે, તે પ્રાયશ્ચિત પ્રદાન રૂપ વ્યવહારને વિતરાગીએ યુતવ્યવહાર કહ્યો છે. . ૮ .." अपरकम्मो तबस्सी" त्याहि-वे. माज्ञा नाभना alan व्यवहार સ્પષ્ટીકરણ આવે છે કે તપસ્વી ચાલવાને અશક્ત બની ગયું છે. તેથી તે Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ', स्थामाङ्गो छाया-अपराक्रपस्तपस्सी गन्यः शोधिकारकसमीपे । । न शक्नोति आगन्तुं स शोधिकरोऽपि देशात् ॥९॥ . गाथा--भह पट्टवेइ सीसं देसंत रगमणेनहचेट्ठाओ। . . . इच्छामऽजो ! काउ', सोहिं तुज्झ सगासम्मि ॥१०॥ छापा-अथ प्रस्थापति शिघ्य देशानरगमननष्टचेष्टाः।। . . .. इच्छाम आर्य । कतुं शोपि तव सकाशे ॥१०॥ गाथा-पो वाहारविहिण्णू, अणुसज्जित्ता सुभओवएसेणं । ' सीसम्म दे आणं, तस्प इमं देह पन्छित्तं ॥११॥ । . पासमें प्रायश्चित्त देनेवाले के समीप जानेके लिये असमर्थ हो रहा है, तथा शोधिकारक भी अपने आश्रित्त स्थानसे उसके पास्समें आने के लिये असमर्थ हो रहा है ।।१।। __ " अह पट्टवेह सीस" इत्यादि। ऐसी हालत में वह तपस्वि उस शोधिकर प्रायश्चित्त प्रदाताके पास गुहार्थ पदोंसे युक्तकर अपने संदेशको देकर अपने शिष्यको भेजना है, उस संदेश में वह शिष्यके मुख से ऐमा कहलवाना है कि-हे आर्य ! मेरी अब देशान्तरमें आनेजानेकी शक्ति नहीं है, और आपके पास प्रायश्चित्त करना चाहती ॥१०॥ "सो वचहारविहिष्णू " इत्यादि । तब यह संदेशवाहक शिष्यके मुखसे ऐसा सुनकर शास्त्रोक्त पद्धनिके अनुसार विचार करता है, कि इस प्रकारके अतिचार सेवीके શાધિકારકની પાસે પ્રાયશ્ચિત લેવાને જઈ શકે તેમ નથી, તથા શોધિકારક (પ્રાયશ્ચિત દેનાર મુનિ) પણ પિતાના આશ્રય સ્થાનેથી ત્યાં જઈ શકવાને समय नथी. । । __“ अह पवेइ सीसं" त्यात-41 प्रा२नी परिस्थितिमा ते 'तपस्वी તે શેધિકારની પાસે, ૮ 9 પદેથી યુક્ત એ પિતાનો સંદેશ લઈને પિતાના શિષ્યને મળે છે તે સંદેશ દ્વારા તે શિષ્ય સાથે એવું કહેવરાવે છે કે “હે આ ! હવે એક જગ્યાએથી બીજી જગ્યાએ ગમન કરી શકવાને સમર્થ નથી, તેથી હું આપની પાસે આવી શકું તેમ નથી, પણ હું આપની આજ્ઞાનુસાર પ્રાયશ્ચિત્ત લેવા માગું છું”. ! ૧૦ "सो ववहारविहिण्णू " ध्याति--त्यारे ते स शिपाईने भुमे સાંભળીને તે શેધિકારક (ગીતાર્થ સાધુ) શાસ્ત્રોક્ત પદ્ધતિ અનુસાર વિચાર यु કરે છે કે આ પ્રકારના અતિચારોનું સેવન કરનારને આ પ્રકારનું પ્રાયશ્ચિત્ત Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सपाटीका स्था०५ उ०२ १०११ व्यवहारस्वरूपनिरूपणम् छाया--स व्यवहारविधिज्ञः, अनुपज्य श्रुतोपदेशेन । शिष्याय ददाति आज्ञां, तस्मै इदं देहि प्रायश्चित्तम् ॥११॥ गाथा--जेणऽनयाइ दिटं सोहीकरणं परस्स कीरंतं । तारिसयं चेव पुणो, उप्पणं कारणं तस्स ॥१२॥ छाया--येन अन्यदा दृष्टं, शोधिकरणं परस्य क्रियमाणम् । तादृशकं चैव पुनः, उत्पन्न कारणं तस्य ॥१२॥ गाथा--सो तम्मि चेव दवे खेत्ते काले य कारणे पुरिसे। तारिसयं चेव पुणो करितु भाराहओ होइ ॥१३॥ छाया--स तस्मिन्नेव द्रव्ये क्षेत्रे काले च कारणे पुरुषे । . . ताशकं चैव पुनः, कारयन् आराधको भवति ।।१३।। लिये यह प्रायश्चित्त देना चाहिये अतः वह गूढार्थ पदोंले युक्त करके प्रायश्चित्तको शिष्यसे कह देना है, और आज्ञा देता है, कि तुम जाकर मेरी ओरसे इस प्रायश्चित्तको देना ॥ ११॥ "जेणऽनगइ दिलं" इत्यादि । धारणाका नाम चतुर्थ व्यवहार इस प्रकारसे है-जिस साधुने किसी एक समय अतिचारपाले साधुको अपने अतिचारोंकी शुद्धि करते हुए देख लिया हो और अब उसे देखनेवाले साधुको या उसी प्रायश्चित्सको किये हुए पहिलेवाले साधुको कारण उपस्थित हो गया है ॥१२॥ तो वह मुनि उसी द्रव्यके होने पर उसी काल के होने पर उसी क्षेत्रके होने पर उसी कारणके होने पर उसी पुरुषके होने पर वैसेही प्रायश्चित्तको करवाता है, तोही आराधक होता है ॥१३॥ वैयावृत्य દેવું જોઈએ. તેથી તે ગૂઢાર્થપદેથી યુક્ત કરીને શિષ્યને પ્રાયશ્ચિત વિધિ કહી દે છે, અને તેને એવી આજ્ઞા કરે છે કે તમે જઈને મારા તરફથી તેમને આ પ્રાયશ્ચિત દેજે. ! ૧૧ હવે વ્યવહારના ચોથા ભેદ રૂપ ધારણ નું સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવે छे-" नेणऽनयाइ दिटुं" त्या- साधुये मतियारथी युत सेवा કઈ સાધુને પિતાના અતિચારની શુદ્ધિ કરતો જે હય, ત્યારબાદ કયારેક તે (દેખનાર) સાધુને અથવા જેણે તે પ્રાયશ્ચિત્ત કરેલું છે એવા સાધુને પ્રાયશ્ચિત્ત લેવું પડે એવું કારણ ઉપસ્થિત થયું હે ય, તે તે મુનિ એ જ દ્રવ્ય, એ જ કાળ, એજ ક્ષેત્ર એ જ કારણ અને એજ પુરુષ હોય ત્યારે એવું જ પ્રાયશ્ચિત જે કરાવે છે, તે જ તેને આરાધક કહી શકાય છે. ૧૨-૧૩ , Page #86 --------------------------------------------------------------------------  Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुघाटीका स्था०५ उ०२ सू०११ व्यवहारम्वरूपनिरूपणम् अवधारयत । स आगमव्यवहारः प्रत्यक्षारोक्षभेदेन द्विविधो ज्ञातव्यः ॥१॥ तत्र प्रत्यक्षः पुनरिन्द्रियज नोइन्द्रियजभेदेन द्विविधो बोध्यः । इन्द्रियज प्रत्यक्षस्तत्र पञ्चेन्द्रियार्थविषयकत्वेन पञ्चविधः ।२। नोइन्द्रियजन्यः प्रत्यक्षस्तु संक्षेपतः त्रिविधो भवति । त्रैविध्यं तस्य केवलज्ञानमनःपर्यवज्ञानावधिज्ञानभेदाद् वोध्यम् ॥३॥ यस्य मुनेः परोक्षोऽपि आगमः वस्तु स्वरूपस्य सम्यग् निर्णायकत्वात् प्रत्यक्षागमसदृशो भवति । चन्द्रमुखीव-मुखे चन्द्रत्वप्नुपचर्य यथा रमणी चन्द्रमुखीत्यभिधीयते तथैव उपचारात्-स मुनिरपि आगमव्यवहारवान् भवति ॥४॥ अमुं पारोक्षं व्यवहारं श्रुतधरा आगमतो व्यवहरन्ति ते श्रुनधरा के ? इत्याह-ते डि परवादिविद्रावणे गन्धहस्तिसदृशाः चतुर्दशपूर्वधरा दशपूर्वधरा नवपूर्वधराश्व वोध्याः ॥५॥ सम्प्रति आगमव्यवहारिणः प्रशंसापरां गाथामाह-'जं जहमोल्लं' इत्यादि । यद् रत्नं यथामूल्यं भवति तत् रत्नवाणिनो निपुणं यथा स्यात्तथा जानाति, इति अमुना प्रकारेणैव प्रत्यक्षी-प्रत्यक्षज्ञानी अपि जानाति यत् , योऽतीचारवान् येन प्रायश्चित्तेन दत्तेन शुद्वयति, स तथैव अतीचारवते प्रायश्चित्तमपि ददाति।।६।। ___ इत्थं यो मुनिः केवलज्ञानेन मनापर्यव ज्ञानेन अवधिज्ञानेन चतुर्दशपूर्वधरत्वेन दशपूर्वधरत्वेन नवपूर्वधरत्वेन वाऽतीचारविशुद्धये यत् प्रायश्चित्तं ददाति, तत् प्रायश्चित्तदानम् आगमव्यवहारट्त्युच्यते । अथ श्रुतनामक द्वितीयं व्यवहारमाहयो मुनिः कल्पस्य बृहत्कल्पसूत्रस्य तथा-परमनिपुणस्य-प्रायश्चित्तविधौ स्फुटविचारयुक्तस्य व्यवहारसूत्रस्य च, एवकारोऽप्यर्थंकः, तेन निशीथदशाश्रतयोः संग्रहः, निशीथस्य दशाश्रुतत्य च, नियुक्तिम् अर्थतो विजानाति स मुनिः व्याहारी अनुजाता कथितः । ७। तम् व्यवहारिंगमेर अनुपनन् अनुवघ्नन् अनु. सरन् यो मुनिः अतीचारे सम्प्राप्ते यथोक्तम्-श्रुतोक्तिमनुसृत्य व्यवहारविधि प्रायश्चित्तं प्रयुनक्ति ददाति, तस्य मुनेः श्रुतानुमारेण प्रायश्चित्तप्रदानरूप एष व्यवहारो वीतरागैः श्रुत व्यवहारश्रुतव्यवहार इति नास्ना प्रज्ञप्तः परपितः ॥८॥ अथ जाज्ञानामकं तृतीयं व्यवहारमाह-यः अपराक्रमःमनशक्तिपर्जितः तपस्वी शोधिकारक समीपे प्रायश्चित्तमातुः समीपे गन्तुं न शक्नोति, शोधिकारकोऽपि देशात्-आश्रितस्थलात् आगन्तुं न शक्नोति ॥९॥ अथ अनन्तरं स तपस्वी तस्य शोधिकारकस्य समीपे शिष्यं गूढार्थपदै. सन्दिश्य प्रस्थापयति अपयति, कि सन्दिश्य प्रेषयति ? इत्याह-हे आर्य ! देशान्तरणमननष्टचेष्टाः-अशक्त्या देशान्तरगमने नष्टाः चेष्टा येषां ताशा वयम् सकाशे-त्यत्तः शोधिप्रायश्चित्तं कर्तुमिच्छामः, इति ॥१०॥ ततः सन्देशवाहकः शिष्यप्नुयात् स व्यवहारविधिज्ञः शोधिकारकः श्रुतोपदेशेन शास्त्रेण अनुपज्य-सन्देशं यथावद् विचार्य " तस्मै Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धानाने अतीचारसेविने मुनये इदं मायश्चित्तं देहि " इति गूढार्थपदैः तामै शिष्याय आज्ञां ददाति, तर आज्ञानाम फस्ततीयो व्याहारः ॥११॥ इति । अथ-धारणा. नामकं च व्याहारमाह-येन साधुना अन्पदा-अन्यस्मिन् समये अतीचारव. तोऽन्यस्य साधोः क्रियमाणं शोधिकरण प्रायश्चिनं दृष्टं, तस्य सायोश्चापि पुनः ताशकमेव कारण प्रायश्चित्तकारणं सपुत्पन्नम् ।१२। म मुनिः तस्मिन्नेव द्रव्ये क्षेने काले कारणे पुरुपे च सति ताशमेव प्रायश्चित्तं कारयन् याराधको भाति ॥१३॥ अषमा-वैपावृत्त्यरो यः शिष्यो देशहिण्ड को वापि यः शिष्यो भवति, स देशम् आधारयन् यत् प्रायश्चित्तपदानां धारणं करोति, स धारणानामकअतुर्थोव्यवहारो भवतीति ॥ १४ ॥ अथ जीतनामकं पञ्चमं व्यवहारमाह-यश्र व्यवहारो बहुश्रुतः साधुभिः वहुशा अनेकनारम् वृत्त प्राचरितः, अन्यैश्च स घयवहारो न निवारितःन प्रनिपिद्धः । ततश्च स व्यवहारः वृत्तानुवृत्तपत % परम्परया प्रनि प्राप्तो भवति । एतत् प्रायश्चिनं जीतेन-जीतव्यवहारेण कृतं भवति । जीतनामव्यवहारनिष्पन्नमिदं प्रायश्चित्तमिति भावः ॥ १५ ॥ इति । ___ अथ आगपादीनाम् उत्सर्गापनादं प्राह-'जहा से' इत्यादिना तस्य ध्यवहत्तः-प्रायश्चित्तदातुः तत्र-तेपु आगमादिव्यवहारेपु मध्ये, तस्मिन् वा पाय. श्चित्तदानादि व्यवहारकाले, तस्मिन् वा व्यवहतव्ये वस्तुनि विपये यथा यथाप्रकारः केवलादीनामन्यतमः आगम: स्यात् , तदा आगगेन व्यवहारं प्रस्थापयेत् प्रवर्तयेत् न तु श्रुनादिमिः, आगमापेक्षया तेपाममाधान्यात् आगमेऽपि ___ अब मृत्रकार आगमादिकों के उत्सर्ग और अपवादका कथन करते हैं-" जहा से " इत्यादि-प्रायश्चित्त दानाको उन आगमादि व्यवहारोंके पीचमें अथवा-प्रायश्चित्त देने आदि के समयमें अधवा व्यवहार करने योग्य वस्तुमें जिस प्रकारका केवल आदिकोंमेसे कोई एक आगम होता है, उस समय उसी आगमसे व्यवहार चलाना चाहिये शुतादिसे व्यव. हार नहीं चलाना चाहिये क्योंकि आगम आदिकी अपेक्षासे उनमें હવે સૂત્રકાર આગમ આદિકના ઉત્સર્ગ અને અપવાદનું કથન કરે છે " जहां से" त्याह - प्रायश्चितता, भाग २ વ્યવહારો કહ્યા છે, તેમાંથી આગ મને (કેવળ આદિ આગમનો) જે વ્યવહાર સમયે શકય હોય તે સમયે આગમને આધારે જ વ્યવહાર ચલાવે જેએ-શ્રત આદિને આધારે વિહાર ચલાવવું જોઈએ નહીં એટલે કે જ્યાં સુધી આગમને આધારે પ્રાયશ્ચિત્ત આપી શકાય તેમ હેય ત્યાં સુધી શ્રતાદિને આધારે પ્રાયશ્ચિત્ત આપવું જોઈએ નહીં, કારણ કે કૃતાદિ કરતાં આગમમાં Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था ५ उ २ सू. ११ व्यवहारस्वरूपनिरूपणम् केवलज्ञानादिपूर्वपर्यन्ते पविध पूर्वस्मिन् सति परेण परेण व्यवहारो न प्रकल्पनीयः, उत्तरोत्तरापेक्षया पूर्वपूर्वस्य सातिशयत्वेन बलीयस्त्वादिति १। यदि तत्र आगमो न स्यात् , तर्हि तत्र यथामकारक श्रुत भवेत् , तेन व्यवहारं प्रस्थापयेत् २। यदि तत्र श्रुतं नो भवेत्तदा आज्ञपा व्यपहार प्रकल्पयेत् ३। आज्ञाया अभावे धारणया ४, तदभावे तु जीतेन व्यवहारं प्रकल्पयेत् । एतनिगम यन्नाह-भागमेन याबद् जीन भागमादि जीतान्तरित्येते.-पञ्चभिः व्याहार प्रस्थापयेदिति सामान्यतो निगमनम् । विशेषतस्तु-यथा यथा तस्य तत्र आगमो यावद् जीतं अप्रधानता है, केवलज्ञानसे लेकर पूर्व पर्यन्तके छह आगमलें भी पूर्व पूर्वके होने पर आगे २ के आगमसे बहार नहीं चलाना चाहिये क्योंकि उत्तर उत्तर की अपेक्षासे पूर्व में सातिशयता होने से अधिक बलवत्ता है, यदि वहां आगम न हो तो फिर जिस प्रकारका वहां श्रुत हो उससे व्यवहार चलाना चाहिये यदि वहाँ श्रुत न हो तो फिर वहां आज्ञासे व्यवहार चलाना चाहिये आज्ञाके अभावमें धारणासे और धारणाके अभाव में जीतसे व्यवहार चलाना चाहिये । यही बात "आगमेन यावत् जीतेन" इस सूत्र द्वारा प्रकटकी गई है, कि आगमसे लेकर जीत तकके पांच व्यवहारोंसे व्यवहार करनेवाला अपना व्यवहार चलावे। इस प्रकारका यह कथन सामान्य उत्सर्ग रूपसे कहा गया है, परन्तु विशेष रूपसे अपवाद रूपसे यह कथन इस प्रकार से भी कहा गया है, कि व्यवहार करनेवाला जस्ता પ્રધાનતા રહેલી છે. કેવળજ્ઞાનથી લઈને પૂર્વ પર્યન્તના છ આગમોમાંથી પૂર્વ પૂર્વનો સદભાવ હોય ત્યારે ઉત્તર ઉત્તરને આધારે વ્યવહાર ચલાવવું જોઈએ નહીં, કારણ કે પાછળના પ્રકારે કરતાં આગળના પ્રકારોમાં સાતિશયતા હોવાથી અધિક બલવત્તા છે. જે આગમને વ્યવહાર શકય ન હોય તે જે પ્રકારના મૃતનો સદ્ભાવ હ ય તે પ્રકારના શ્રી દ્વારા વ્યવહાર ચલાવવું જોઈએ અજ્ઞાના અભાવમાં ધારણ વડે અને ધારણાના અભાવમાં छत 43 ०५२ सावन मे. पात " आगमेन यावत् जीतेन" આ સૂત્ર દ્વારા પ્રકટ કરવામાં આવી છે એટલે કે વ્યવહારિક આગમથી લઇને છત પર્યન્તના પાંચ વ્યવહ રે દ્વારા પિતાને વ્યવહાર (અતિચારોની શુદ્ધિ કરાવવા રૂપ વ્યવહાર) ચલાવવું જોઈએ આ પ્રકારનું આ કથન સામાન્ય ઉત્સગ રૂપે સમજવું, પરંતુ અપવાદ રૂપે અહીં આ પ્રમાણે કહે. Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानासूत्र स्पात् तपा तथा व्याहारं प्रस्थापना प्रवचनविरुदै व्याहारं प्रस्थापयेदितिनिगमनम् । सम्प्रति एतैरागमादिभिः व्याहत्तुः फलं प्रश्नद्वारेगाह-' से किमाहु ' इत्यादिना, 'से' तत्पश्चविधं व्यवहारं किम्-किमर्थम् आहुः कथयन्ति, एकेन आगमव्यवहारेणैवेष्टसिद्धेः, यतः श्रमणा निर्ग्रन्था आगमत्रलिकाः आगमत्रलसम्पन्ना एव भवन्ति ? इति शिष्यप्रश्नः । उत्तरयति-इत्येतं पञ्चविधपञ्चप्रकारक व्यवहारं-व्यपहरमाण इत्यग्रेग सम्बन्धः यदा-यदा-यस्मिन् यस्मिन् जहाँ आगमादि हो उससे वहां अपना व्यवहार चलावे अर्थात् आगम न हो तो श्रुतसे श्रुत न हो तो आज्ञासे आज्ञा न हो तो धारणासे और धारणा न हो तो जीतसे अपना व्यवहार चलावे, परन्तु वह प्रवचनसे विरुद्ध व्यवहारोंसे अपना व्यवहार न चलावे। ___अब प्रश्नकर्ता ऐसा प्रश्न पूछता है, कि इन आगमादिकोंके अनुसार व्यवहारकर्ताको क्या फल होता है ? यही वात-"से किमाहु इस सूत्र द्वारा प्रश्न रूप में प्रकट की गई हैं, अर्थात यह जो पांच प्रकारका व्यवहार कहा गया है, सोकिप्सलिये कहा गया है क्योंकि एक आगम व्यवहारसेही इष्ट फल की सिद्धि हो जाती है, कारण जो श्रमण जन होते हैं वे आगमरूप बल से सम्पन्नही होते हैं, अर्थात् आगत रूप चल से सम्पन्नहीं श्रमण जन होते हैं-इस शिष्यके प्रश्न के उत्तर प्रभु कहते हैं-" इत्येतं" इत्यादि-इस प्रका रके पांच प्रकार के व्यवहारको जय २ जहाँ २ तब २ वहां २ अनिश्रिવામાં આવ્યું છે-“ જ્યાં આગમ આદિ જેનો સદ્દભાવ હોય તેના દ્વારા વ્યવ હારિક વ્યવહાર ચલાવવું જોઈએ ” એટલે આગમ ન હોય તે શ્રત વડે, શ્રત ન હોય તે અજ્ઞા વડે, આજ્ઞા ન હોય તે ધારણ વડે, અને ધારણું ન હોય તે છત વડે તે પિતાને વ્યવહાર ચલાવે, પરંતુ પ્રવચનની વિરૂ દ્વને પવહાર તે તેણે ચલાવવું જોઈએ નહીં. પ્રશ્ન-આગમાદિ કે અનુસાર વ્યવહાર કરનારને કયા ફળની પ્રાપ્તિ थाय छ १" मे पात " से किमाहु" त्या सूत्रा२प्रश्न ३ये 42 કરવામાં આવી છે. પ્રશ્નકર્તા એ વાત પૂછવા માગે છે કે “એક આગમ વ્યવહાર વડે જ ઈફલથી સિદ્ધિ થઈ જાય છે, તે પાંચ પ્રકારના વ્યવહારનું શુ પ્રજન છે ? શ્રમણે તે આગમરૂપ બલથી સંપન્ન જ હોય છે, તે આમ વ્યવહાર સિવાયના વ્યવહારની શી આવશ્યકતા છે? उत्तर-" इत्येतं" याह-24 पांय ना व्यवहारने त्यारे न्यारे અને જ્યાં જ્યાં ચલાવવાની આવશ્યકતા જણાય, ત્યારે ત્યારે અને ત્યાં ત્યાં Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साडीका स्था०५ ७० २११ व्यवहार स्वरूपनिरूपणम् काले यत्र यत्र यस्मिन् यस्मिन् प्रयोजने वा क्षेत्र वा यो य उचितः, तदा तदा तस्मिन्काले तत्र तत्र तस्मिन् तस्मिन् प्रयोजने वा क्षेत्रे वा अनिश्रितोपाश्रितम्-अंमिश्रित पशिसादोपरहिनैस्तीर्थ करगणधरादिभिः उपाश्रितः स्वीकृत स्तम्, अंबा-' अनिश्रितोपाश्रितम् ' इति क्रियाविशेषणम् । तत्र-निश्रितः शिष्यत्वमुपागतः, उपाश्रितः शिष्यएव चैयावृत्त्यकारकः, निश्रितश्च-उपाश्रित तोपाश्रित होकर जो श्रमण निर्ग्रन्थ अच्छी तरहसे चलाता है, वह श्रमण निर्ग्रन्थ आज्ञाका आराधक होता है, तात्पर्य इसका ऐसा है-जो शिष्यने ऐसी आशंकाकी है कि श्रमण निर्ग्रन्थको एक आगम व्यवहारकाही आश्रय करना चाहिये और उससेही अपना व्यवहार चलाना चाहिये उस व्यवहारोंकी उसे क्या आवश्यकता है, सो इसका उत्तर यहां सूत्रकारने इस प्रकारसे दिया है-कि जिप्स २ कालमें जिस २ प्रयोजनमें अथवा जिस २ क्षेत्र में जो २ व्यवहार उचित हो एवं उस उस कालमें उस २ प्रयोजनमें अथवा उस २ क्षेत्रमें जो २ व्यवहार सर्व प्रकारके आशंसा दोषों से विहीन हुए तीर्थ करों द्वारा स्वीकृत हुआ हो उस २ व्यवहारसे अपने व्यवहारको करनेवाला चलानेवालाही श्रमण निग्रन्थ आज्ञाका आराधक होता है। यहां " अनिश्रितोपाश्रितं" पदको " व्यवहारं" इस पदका विशेषण मानकर ऐसा अर्थ किया गया है, अथवा "अनिश्रितोगाश्रितं" इस पदको जब क्रिया विशेषण "અનિશ્ચિત પાશ્રિત થઈને જે શ્રમણ નિર્થ થ સારી રીતે ચલાવે છે, તે શ્રમણ નિગ્રંથ જિનાજ્ઞાને આરાધક ગણાય છે. આ કથનને ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે–જે શિષ્ય એ સંદેહ કર્યો છે કે શ્રમણ ન થે એક આગમ વ્યવહારને જ આધાર લેવું જોઈએ અને તેની મદદથી જ પિતાને વ્યવહાર ચલાવે જોઈએ-અન્ય વ્યવહારની આવશ્યકતા જ શી છે ! તે તેને ઉત્તર સૂત્રકારે અહીં આ પ્રમાણે દીધે છે-- ' “જે જે કાળે, જે જે પ્રજનમાં અથવા જે જે ક્ષેત્રમાં જે જે વ્યવહાર ઉચિત હે ય, અને તે તે કાળે, તે તે પ્રજામાં અથવા તે તે ક્ષેત્રમાં જે જે વ્યવહાર સર્વ પ્રકારના આશંસા દેથી વિહીન બનેલા તીર્થકર દ્વારા સ્વીકૃત થયે હોય, તે તે વ્યવહાર પ્રમાણે પિતાને વ્યવહાર ચલાવનાર શ્રમણ નિર્ગથે જ ભગવાનની આજ્ઞાને આરાધક ગણાય છે અહી " अनिश्रितोपाश्रित'" मा पहने " व्यवहारं " पहनु विशेष मानीन मा प्रमाणे अर्थ ४२वा मान्य छे. ५Y " अनिश्रितोपाश्रित" मा पहने જે ક્રિયાવિશેષણું માનવામાં આવે તે આ પ્રમાણે અર્થ થાય છે – Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाचे -निश्रितोधिनी, नौ न विद्यते यस्मिन्तद यथा स्यात्तया-अभिग्रहविशेष गरे नवीन नवान श्री रन पुगतन शिष्येश्च वैयारत्त्यमकारयन्नित्यर्थः । यहानितिन गगा आयिन-देपश्च निधिोपाश्रिते, ते उभे न विद्यते यस्मिस्तद् AFETIME पनि त. मनि पर्यः । अयशा-निश्रितं च-माहारादि लाभे. 71, उगवि र शिपाया गया. एतद्वयं नास्ति यस्मिस्तद् यथास्था. जा-महाराशिवालालादिनः, शिग्यदायककुलापेक्षा रहितथ सन्नित्यर्थः । यामागः क्तव्यवहारं कुर्वागः प्राज्ञाया:-जिनाज्ञायां प्रा. ० २६१ ली । रमाएर पभाव व्यवहारंग व्यहरंग प्रोक्तं भगवद्भिरिति। मू०११) अमाननारा संवानां तत्प्रतिपक्ष भूनानाम पंय नानां च सुप्तनागररकरू. एमाद--- गृा-संजनमगुस्साणं लुत्ताणं पंच जागरा पण्णत्ता, तं जा-सा जाब काया । संजतमगुस्साणं-जागराणं पंच सुत्ता परगना, तं जहा-सदा जाव फाहा । अतंजयमणुस्साणं सुत्ताणं बा जागगणं वा पंच जागरा पणत्ता, तं जहा-सदा जाव माना ॥ स्तू. १२ ॥ गा जाता है, तब हम पक्ष में ऐमा अर्थ होता है, कि अभिग्रह विशे. पशी अपेक्षा फर के नवीन शिष्यों को दीक्षा न देते हुए और पुराने शिशर गाय न कराते हए अपवा रागळेपसे रहित होते हुए अश्या-आहारादिक, लाभको इच्छासे और उपाश्रित-शिष्यदायक अन्टकी अपेक्षास रदिन होते हुए कल्पके अनुसार पूर्वोक्त व्यवहारको फन्नं वाटा प्रमाण निर्ग्रन्य जिनाज्ञाका आगधक होता है, इस तरह नवर : यारने व्यवहार करना भगवान्ने कहा है ।। मृ० ११॥ મ- હિની એક નવીન શિવેને દાન દેના, અને 4. मे १.३.१ ना ४२वना या सवा शपथा रित અને કંગ વ આકરાવિક વબની દાથી અને ઉપાશ્ચિત-શિષ્યદાયક २३ ति ना ५४६ ४१ (नियम) अनुसार पूर्वरित - A ને નર અ ધિ જિનાને આરાધ જ ગણાય છે. . .१ ५ १२५.२ १५३५९२ ४२वार्नु सावार्नु २. .. . 11 ॥ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०५ ७०२ सू०१२ संयतासंयतानां सुप्त नाग्रतानिरूपणम् ७१ छाया-संयतमनुष्याणां सुप्तानां पञ्च जागराः प्रज्ञप्ताः, तथथा-शब्दा यावत् स्पर्शाः । संयतमनुष्याणां जागराणां पञ्च सुप्ताः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-शक्षा यावत् स्पर्शाः । असंयतमनुष्याणां सुप्तानां वा जागराणां वा पश्वनागराः प्राप्ताः, तद्यथा-शब्दा यायत स्पर्शाः ।। सू० १२ ॥ टीका-'संजयमणुस्साणं' इत्यादिसुप्तानां-निद्रावतां संपतमनुष्याणां साधूनां पञ्च जागराः-जाग्रतीति जागराः जागर इत्र जागरा:-असुप्तवत् प्रज्ञप्ताः । ते के ? इत्याह-तद्यथा-शब्दाः यावद स्पर्शाइति । अयं भावः-शब्दादयो हि सुप्तानां संयतानां प्रज्जलदनलवनप्रतिहत शक्तिमन्तो भवन्नि, तस्मिन् काले तेषां कर्मबन्ध कारणस्य निद्रारूपत्रमादस्य सद्नानात्, ततश्च सुप्तावस्थायां प्रतिवु दास्ते शब्दादयः कर्मवन्धकारणं भवन्तीति । तथा श्रमणके प्रस्तायसेही अब सूत्रकार संयतोंके और इनके प्रतिपक्ष असंयतोंके सुप्त एव जागर स्वरूपका कथन करते हैंटीकार्थ-'संजयमणुस्साणं तुत्ताणं पंच जागरा पणत्ता' इत्यादि इत्र १२॥ जो संयत मनुष्य-साधुजन निद्राबाले हैं, उनके असुप्तकी तरहपांच जाग. ग्ण कहे गये हैं वे इस प्रकार से हैं-शब्द यावर स्पर्श इसका भाव ऐसाहैजो संयत जन सुप्तहैं, उनको शब्दादिक प्रज्वलित अग्निकी तरह अप्रति हत शक्तिवाले होते हैं. क्योंकि उस कोलमें उनके कर्मबन्धका कारणभूत निद्रारूप प्रमादका सद्भाव होता है, इमलिये सुप्त अवस्थामें पतिधुद्र हुए अप्रतिहत शक्तिवाले बने हुए वे शब्दादिक कर्मबन्धके कारण होते हैं। तथा जो संयत जन अनिन्द्रित हैं-सचेन हैं-उनके पांच जाय શ્રમણનો પ્રસ્તાવ ચાલી રહ્યો છે, તેથી હવે સૂત્રકાર સંયત અને અસંયતના સુપ્ત અને જાગરણ વરૂપનું કથન કરે છે-- टीथ-" सजयमणुस्साणं सुत्ता' पच जागरा पण्णत्ता" या-- २ सय मनुष्यो ( साधुमा) निद्रापार ( मसा१५ न ) 314 छ, તેમના અસુખના જેવાં પાંચ જાગરણ કહ્યા છે--ને પાંચ જાગરણે શખથી લઈને સ્પર્શ પર્યરતના ગ્રહણ કરવા. આ કથનને ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે-- જે સંયતજન સુખ છે તેમને માટે શબ્દાદિક પ્રજવલિત અગ્નિની જેમ અપ્રતિહત શક્તિવાળાં હોય છે, કારણ તે કાળે તેમનાનાં કર્મબન્ધના કારણભૂત નિદ્રારૂ પ્રમાદને સદૂભાવ હોય છે. તેથી સુપ્ત અવસ્થામાં પ્રતિબુદ્ધ થયેલા અપ્રતિહિત શક્તિવ ના બનેલા તે શબ્દાદિક કર્મબન્ધના કારણભૂત બને છે. જે સંયત જન અનિદ્રિત (સાવધાન) છે, તેમના પાંચ જાગરણ સુમના Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ D ७२ स्थानाङ्गसूत्रे जागराणाम् भनिद्रितानां साधूनां पञ्च सुपा:-सुनाइव-निद्रितवत् , प्रज्ञप्ताः । ते के ? इत्याह-गदा यापन स्पर्शाः । जागरितानां साधूनां शदादयः पश्च भस्मन्छनाग्निवन् प्रतिह शक्तपो यान्ति, तस्मिन् काले कर्मवन्धकारणीभूतस्य प्रमादम्यामचात् , ततश्च जाग्रहास्थायां ते न तेषां कर्मवन्ध कारणं भवन्तीति । अथ अपंय तानाश्रित्य प्राह-' असंजय ' इत्यादिना । सुप्तानां वा जागराणां वा अमेयनमनुध्यागाम् असंयमिनां शब्दादयः पञ्च जागरा:-अनिद्रिता भवन्ति । अयं भावः- असं यताहि प्रमादयस्तो भान्ति, अस्तेषां स्वप्नजाग्रदुभयावस्थायामपि शब्दादयोऽप्रतिहनशक्तिमत्वात् कर्मपन्धहेतु का भानीति । मु० १२ ।। रण सुप्तकी तरह कहे गये हैं-निद्रिनकी तरह प्रकार किये गये हैं, वे पांच जागरण शब्दसे लेकर स्पर्श तक हैं, तात्पर्य ऐसा है, कि जो सयतजन जागरित होते हैं, उनके शब्दादिक पांव जागरण भस्मसे आच्छादित हुई-ढं की हुई अग्नि की तरह प्रतिहत शक्तिवाले होते हैं, क्योंकि उस कालमें कर्म पन्ध के कारणभून प्रसादका असत्त्व रहता है, इसलिये वे जाग्रत अवस्थामें उनको कर्मबन्धके कारण नहीं होते हैं. " असंजय" इत्यादि- असंयत मनुष्य चाहे सुप्त हो चाहे जागरित हो उनके तो शब्दादिक पांच जागरण सदा अनिद्रितही होते हैं, इसका भाव ऐमा है, असयत जीव प्रमादवाले होते हैं, इसलिये उन्हें स्वप्न अवस्था एवं जाग्रत अवस्थामें दोनों अवस्थाओं में भी शब्दा. दिक अप्रतिहत शक्ति वाले होने से कर्मवन्धके हेतु होते हैं ||४० १२॥ સમાન કદ છે-નિશ્ચિત જેવા પ્રકટ કરવામાં આવ્યા છે શખથી લઈને સ્પર્શ પર્વતના પાંચ જાગરણ સમજવા. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે જે સંવત મનુષ્ય જાગૃત હોય છે, તેમના શબ્દાદિક પાંચ જાગરણ જેના પર રાખ વળી ગઈ છે એવા અગ્નિના જેવા પ્રતિહત શક્તિવાળા હોય છે, કારણ કે તે કાળે કર્મબન્ધના કારણભૂત પ્રમાદને અભાવ રહે છે, તેથી જાગૃત અવસ્થામાં તેમને કર્મબન્ધ થવાના કારણેને અભાવ રહે છે. " असंजय " याहि--सयत भनुध्ये लो सुन डोय Mpd હોય, પણ તેમને માટે તે શહાદિક પાંચ જાગરણ સદા અનિદ્રિતસમાન જ - હોય છે આ કથનને ભવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે–અસંવત મનુષ્ય પ્રમાદ વાળા હોય છે. તેથી તેમને માટે તો સુખ અને જાગૃત આ બને અવસ્થામાં શબ્દાદિક અપ્રતિકત શક્તિવાળા હોવાથી કર્મબંધમાં કારણભૂત બને છે. સ. ૧૨ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधाडीका स्था०५ ७०२ सू०१३ कर्मबन्धकारणनिरूपणमा संयतासंयताधिकारात्तदुभयसंबद्धं सूत्रमाह मूलम् - पंचहि ठाणेहिं जीवा रयं आदिज्जति तं जहा - पाणाइवाएंणं जाव परिग्गहेणं । पंचहिं ठाणेहिं जीवा रयं वमंति, तं जहा - पाणाइवायवेरमणेणं जाव परिग्गहवेरमणेणं ॥ सू०१३ ॥ ७३ छाया - पञ्चभिः स्थानैः जीवा रज आददेति, तद्यथा- प्राणातिपातेन यावत् परिग्रहेण । पञ्चभिः स्थानैः जीवा रजो वमन्ति, तद्यथा - प्राणातिपातविरमणेन यावत् परिग्रहविरमणेन || सु० १३ ॥ टीका- ' पंचहि ठाणेहिं ' इत्यादि - पञ्चभिः स्थानैः जीवाः रजः - रज्यते = जीवस्य शुद्धस्वरूपं मलिनं क्रियते - ऽनेनेति - रजः कर्म आददविगृह्णन्ति बध्नन्तीति यावत् । तद्यथा-माणातिपातेन यावत् परिग्रहेण । प्राणातिपातादिपरिग्रहान्ताः पञ्च जीवस्य कर्मवन्धकारणानि भवन्तीति भावः । तथा-जीवाः पञ्चभिः-स्थानैः रजः = कर्म वसन्ति - उद्विलन्तिक्षप - यन्तीति यावत् । तद्यथा- प्राणातिपातविरमणेन यावत् परिग्रहविरमणेनेति ॥सू०१३॥ संयत और असंयतके अधिकारसे इन दोनोंसे संबद्ध सूत्रका कथन सूत्रकार करते हैं- 'पंचहि ठाणेहिं जीवा रयं आदिज्जंति' इत्यादि टीकार्थ- पांच कारणों से जीव रजको जीवके शुद्ध स्वरूपको मलिन करनेके कारणके कारण कर्मरजको बांधते हैं, वे पांच कारण ये हैंप्राणातिपात यावत् परिग्रहका तात्पर्य यही है, कि प्राणातिपात से लेकर परिग्रह तक पांचोंही पाप जीवको कर्मबन्धके कारण होते हैं ! तथा जीव पांच कारणोंसे कर्मों का क्षय करते हैं, वे पांच कारण ये हैं प्राणातिपात विरमण यावत् परिग्रह विरमण || सू० १३ ॥ સયત અને અસયતના અધિકાર સાથે સબદ્ધ એવા કે રજ વિષયક सूत्रनुं वे सूत्रअर उथन १रे छे." प'च हि ठाणेहिं जीवा रयं आदिजंति” त्यांहि— ટીકાથ–પાંચ કારણેાને લીધે જીવ પોતાના શુદ્ધ સ્વરૂપને મિલન કરનાર રજની (४२०४नी) नभावर रे छे. ते यांस अरथे। नीचे प्रभायें है - પ્રાણાતિપાતથી લઈને પરિગ્રહ પÖન્તના કારણેા અહીં અહેણું કરવા જોઈએ. આ કથનના ભાવાથ એ છે કે પ્રાણાતિપાતથી લઇને પદ્મિહ પન્તના પાંચે પાપ જીવને કર્મના અન્ય કરાવવામાં કારજીભૂત બને છે. તથા પ્રાણાતિપાત વિરમણુથી લઈને પરિગ્રહ વિરમણુ પર્યન્તના પાંચ કારણેાને લીધે જીવ કર્મના ક્ષય કરે છે. ! સૂ. ૧૩ ॥ स्था०-१० Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाम संयतानेवाधिकृत्य सम्पति सूत्रद्वयमाह मूलम्-पंचमालियं गं भिक्खुपडिम पडिवनस्स अणगारस्स कप्पति पंच दत्तीओ भोयणस्त पडिंगाहेत्तए पंच पाणगस्त ॥ सू० १४ ॥ छाया-पञ्चमासिकी खलु भिक्षुमतिमा प्रतिपन्नस्य अनगारस्य कल्पन्ते पञ्च दत्तयो भोजनस्य प्रतिग्रहीतुं पञ्च पानकस्य ।। सू० १४ ॥ टीका-'पंचमासियं ' इत्यादि- . व्याख्या स्पष्टा ।। सू० १४ ॥ - - मूकम्-पंचविहे उवधाएं पण्णत्ते, तं जहा- उग्गमोवघाए १, उप्पायणोवघाए २ एसणोवधाए ३ परिकम्मोवघाए ४ परि हरणोवघाए ५। पंचविहा विसोही पण्णत्ता, तं जहा--उग्गमवि। सोही १ उपायणविसोही २ एसणाविसोही ३ परिकम्मवि सोही ४ परिहरणविसोही ४ ॥ सू० १५॥ ___छाया---पश्चविधउपघातः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-उद्गमोपघातः १ उत्पादनोपघातः २ एपणोपघातः ३ परिकर्मोपघातः ४ परिहरणोपघातः ५। पञ्चविधा विशोधयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-उद्गमविशोधिः १ उत्पादनाविशोधिः २ एपणाविशोधिः ३ परिकर्मविशोधिः ४ परिहरणविशोधिः ५ ॥ सू० १५ ॥ टीका--पंचविहे ' इत्यादि उपघातः अशुद्धता, स पञ्चविधः प्रज्ञप्तः । पञ्चविधत्वमेवाह-तद्यथा-उद्गमोपघात:-उद्गमै उद्गमदोपैराधाकर्मादिभिः पोडशविधैर्भक्तपानोपकरणवसतीनाम् संयतोंको लेकरही सूत्रकार अब ये दो सूत्र और कहते है-- 'पंचमासियं णं भिक्खुपडिस पडिवनस्ल अणगारस्स' इत्यादि १४॥ टीकार्थ-पंचमासिकी भिक्षु प्रतिभाको प्राप्त मुनिके लिये पांच दत्तियां भोजनकी और पांचही दत्तियां पानककी लेना शास्त्रविहीत हैं ।।. १४॥ સંયને અનુલક્ષીને જ હવે સૂત્રકાર નીચેના બે સૂત્રે કહે છે. २t-" प'चमासियज भिक्खुपडिम पडिवनस्त अणगारस्स" ईत्यादि પાંચ માસિક ભિક્ષુ પ્રતિમાની આરાધના કરનાર મુનિને પાંચ ભેજનની દત્તિઓ અને પાંચ પાનક (પેય)ની દત્તિઓ લેવી કલ્પ છે. સૂ. ૧૪ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ झुंडी स्था०५ उ० सू०१४ उपघातस्वरूपनिरूपणम् ७५ उपघातः = अशुद्धता १। उत्पादनोपघातः- उत्पादनाभिः = धान्यादिभिः पोडशभिरुत्पादनादोषैर्भक्त पानादीनामशुद्धता २ एपणोपघातः- एपणया-शङ्कितादिभिर्दशभिरेपणादोषैरुपघातः ३ । परिकर्मोपघातः परिकर्म - वस्त्रपात्रादेः छेदनसीवनादि, तेन उपघातःपात्रादेरकल्पनीयता । तत्र वस्त्रस्य परिकर्मोपघातो यथा 'पंचवि उवघा पण्णत्ते' इत्यादि सूत्र १५ || टीकार्थ - उपघात शब्दका अर्थ अशुद्धता है, यह अशुद्धता पांच प्रकारकी कही गई है - उद्गमोपघात १ उत्पादनोपघात २ एषणोपघात ३ परिharyana ४ और परिहरणोपघात -५ पांच प्रकारकी विशोधि कही गई है - जैसे- उद्गम विशोधि १ उत्पादनाविशोधि २ एषणाविशोधि ३ परिकर्मविशोधि ४ और परिहरण विशोधि ५ । आधाकर्म आदि १६ प्रकार के उद्गम दोषोंसे भक्तपान उपकरण इनके आलयोंकी स्थानों की अशुद्धता यह उद्गमोपघात है १| धात्री आदि १६ प्रकारके उत्पादना दोषोंसे भक्तपान आदिकों की अशुद्धता यह उत्पादनोपघात है २ । शङ्कित आदि १० प्रकारके एषणा दोषोंसे भक्तपान आदिकों की अशुद्धता एषणोपघात है ३ । वस्त्रपात्र आदिकों का छेदना सीना आदि परिकर्म है, इससे जो वस्त्रपात्र आदिकी अकल्प नीयता है, वह परिक्रमेपिघात है ४। वस्त्रका परिकमेपघात ऐसा है " पचविहे उवधाए पण्णत्ते " त्याहि ટીકા-ઉપઘાત એટલે અશુદ્ધતા તે અશુદ્ધતા રૂપ ઉપઘાતના નીચે પ્રમાણે यांय प्रहार उह्यां छे- (१) उद्धभेोपघात, (२) उत्पादनोपधात, (3) शेषयेोयघात, (४) परिभयघात भने (५) परिहरणेोपघात. यांय अारनी विशेोधि ( विशुद्धता ) उडी छे -- (१) उद्भविशेोधि, - उत्पादना विशेोधि, (3) भेषयविशेोधि, (४) परिभविशेोधि भने (4) परिहरण विशेोधि. આધાકમ દોષ આદિ ૧૬ પ્રકારના ઉદ્ગમ દોષા કહ્યા છે. આહાર, પાણી, અને ઉપકરણના સ્થાનાની અશુદ્ધતાનું નામ ઉમાપઘાત છે. ધાત્રીદેષ આદિ ૧૬ પ્રકારના ઉત્પાદના દેષાથી આહાર આદિમાં જે અશુદ્ધતા આવી જાય છે તેનું નામ ઉત્પાદને પઘાત છે. શકિત આદિ ૧૦ પ્રકારના દાષાથી આહાર આદિમાં જે અશુદ્ધતા આવી જાય છે તેને એષણાપઘાત કહે છે. વસ્ત્ર પાત્ર આદિકાનું છેદ્યન કરવું' અથા સાંધવું', તેનુ' નામ પરિકમ છે. તેને કારણે વસ્ત્રાદિમાં જે અકલ્પનીયતા આવે છે તેને પરિકમ્મપઘાત કહે છે, पत्रना परिभ्रमनु स्वयं मा प्रहार होय छे-" तिण्डुत्रारि फालियाणं " छत्याहि Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानास " तिण्हुवरिफालियाणं, वत्थं जो फालियं तु संसीवे । पंचण्डं एगतरं, सो पावइ आणमाईणि ॥ १॥" छाया-त्रयाणामुपरि पाटितानां वस्त्रं यः पाटितं तु संसीव्येत् । पञ्चानामेकतमत् स प्राप्नोति आज्ञादीनि ॥ १ ॥ इति । अयं भावः-यः पञ्चानाम् ऊर्णादि पञ्चविधानां वस्त्राणां मध्ये एकतमत्= अन्यतमं वस्त्रं त्रयाणां पाटितानाम्-तिसृणां थिग्गलिकानाम् उपरि पाटितं तु= यदि संसीव्येत् , तदा स साधुः आज्ञादीनि आज्ञाविराधनादि दोपान् माप्नोतीति । पात्रस्य परिकर्मोपघातो यथा'" अवलक्खणेगांधे, दुगतिग अइरेगवंधगं वावि । जो पायं परियटइ, परं दिवड्राओ मासाओ ॥ १॥" छाया-अपलक्षणैकवन्धं द्वित्रिकातिरेकवन्धनं वापि । यः पात्रं परिवर्तयति परं द्वयपात् मासात् ॥१॥ इति । " तिण्हुवरि फालियाणं " इत्यादि । जो साधु उर्णा आदि पांच प्रकारके वस्त्रोंमेंसे किसी एक वस्त्रको फटे हुए तीन थेगली से अधिक थेगली लगावे वह साधु आज्ञा विराधना आदि दोषोंको प्राप्त करता है, पात्रका परिकपिघात इस प्रकारसे है " अवलक्खणेगबंधे " इत्यादि । जो पात्र स्वरूप रहित हो एवं एक बन्धनवाला हो ऐसे उस पात्रको जो साधु १॥ डेढ माससे अधिक समय तक रखताहै, वह साधु आज्ञा. विराधना आदि दोषवाला होता है, अच्छे लक्षणवाला पात्र एक पन्धनसे युक्त हुआ भी यदि डेढ माहसे भी अधिक काममें ले लिया जाता है, तो उससे साधुको आज्ञा विराधना आदि दोष नहीं लगता है। જે સાધુ ઉણું (ઉનને બનાવેલાં) આદિ પાંચ પ્રકારના વસ્ત્રોમાંથી કઈ પણ એક પ્રકારના ફાટેલા વસ્ત્રને ત્રણ કરતાં વધારે થીગડાં લગાવે છે, તે તે સાધુ જિનાજ્ઞાને વિરાધક ગણાય છે. પાત્રને પરિકમેપઘાત આ प्रारना ४ो छ. " अवलक्खणेगवंधे, त्याह-- જે પાત્ર સ્વરૂપ રહિત હોય અને એક બનવાળું હોય, તે પાત્રને ૧ માસ કરતાં અધિક સમય સુધી પિતાની પાસે રાખનાર સાધુ આશાવિરાધના આદિ દેષવાળે ગણાય છે. જે પાત્ર સારાં લક્ષણોવાળું અને એક બન્યનવાળું હોય, તેને ૧ માસથી અધિક સમય સુધી ઉપયોગમાં લેવામાં આવે તે તેથી સાધુને આજ્ઞાવિરોધના આદિ દેષ લાગતા નથી. બે અથવા Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ dia सुभा टीका स्थी०५ ७०२ सू०१५ उपघातस्वरूपनिरूपणम् __अयं भावः-यत् पात्रम् अपलक्षणैकवन्धम्-अपगतं लक्षणं-स्वरूपं यस्य तत् एवंभूतं सत् एकबन्धम् एकवन्धनयुक्त भवेत् , तत् पात्रं यः साधुः द्वयपा(त्द्वितीयम् अपार्द्ध यस्मिंस्तद् द्वयपार्द्ध तस्मात्-सार्धात् मासात् परं परिवर्तयतिपरिमुळे स आज्ञाविराधनादिदोषभाग् भवति । मुलक्षणं पात्रमेकवन्धनयुक्तमपि साधमासात्परमपि परिभुञ्जानः साधुः आज्ञादिदोषभाग् नो भवति । तथा-द्विकत्रिकातिरेकवन्धनं-द्वाभ्यां वन्धनाभ्यां, त्रिभ्यो वन्धनेभ्यश्चाधिकबन्धनयुक्तं चतुबन्धनयुक्तं मुलक्षणमपि पात्रं सार्धमासात्परं परिभुञ्जानः साधुराज्ञादिदोपभाग् भवति । किंचिदूनचतुर्वन्धनयुक्तं पात्रं परिभुञ्जानः साधुस्तु :आज्ञादिविराधको न भवतीति बोध्यम् । वसतेः परिकर्मोपघातस्तु " दमिय धूमिय वासिय, उज्जोइयं वलिकडा अवत्ता य । सित्ता संसहावि य, अप्पणीया उ सा वसही ॥ १॥" छापा-धवलिता धूमिता वासिता उद्योतिता वलिकृता अव्यक्ता च । सिक्ता सम्पृष्टाऽपि च अकल्पनीया तु सा वसतिः ॥१॥ इति । ___ अयं भावः-या वसतिः-धवलिता-शुभ्रीकृता, भ्रमिता = दंशमशकादीनां विनाशाय कृतधूमा, वासिता-मुगन्धिता, उयोतिता-प्रदीपादिना प्रकाशिता, तथा दो बन्धनोंसे या तीन बन्धनोंसे अधिकबन्धन युक्त-चार घन्धनयुक्त पात्र यदि सुलक्षणवाला भी है, तो उसे जो साधु १॥ डेढ माससे अधिक समय तक अपने काममें लेता है, वह साधु आज्ञा भंग आदि दोषोंका पात्र माना जाता है । परन्तु कुछ कम चार बन्धनयुक्त पात्रको अपने काममें लेनेवाला सोधु आज्ञादिका विराधक नहीं होता है, वस. तिका परिकपिघात इस प्रकारसे है___" मिय धूमिय वासिय" इत्यादि । ' तात्पर्य यहहै कि जो वसति (उपाश्रय)धवलित हो चूनेसे पोत कर ત્રણ કરતાં અધિક એટલે કે ચાર, પાંચ આદિ બન્યોથી યુક્ત પાત્ર સુલક્ષણયુક્ત હોવા છતાં પણ તેને ૧ માસથી અધિક સમય પર્યંત ઉપયોગ કરનાર સાધુ આજ્ઞાવિરાધના આદિ દેને પાત્ર ગણાય છે, પરન્તુ ચારથી એાછા બન્ધનયુક્ત પાત્રને ૧ માસથી અધિક સમય માટે ઉપયોગ કરનાર સાધુ આજ્ઞાદિને વિરાધક ગણાતું નથી. વસતિ (રહેઠાણ)ને પરિકપઘાત मा प्रारछ. " दूमिय धूमिय वासिय " त्याह-- જે વસતિ (રહેઠાણ) ના આદિ વડે ઘળેલી હેય, મચ્છર, ચાંચડ, Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ स्थाना वन्दिता कुरादिना भूतार्थं बलिः कृतो यस्यां सा, अव्यक्ता = गोमयादिना उपलिना, सिता=जय सेकयुक्ता, तया-संसृष्टा सम्मार्जिता चापि भवति, सावसतिः कपनीया वोव्येति ४ तथा परिहरणोपघातः - परिहरणम् = आसेवनं तेन उत्पातः = उप-यादेरकल्पनीयत्वम् । तत्र - उपधेः परिहरणोपघातो यथा - एकाकि हिण्डकेन साबुना यदासेवितमुपकरणं तद् ग्रहीतुं न कल्पते इति । परन्तु स गच्छनिर्गतः साधुरेकाफी सन्नपि जागर्त्ति दुग्धादिविकृतिषु च मतिवद्धो न भवति तदा चिरेणापि गच्छे समागच्छवोऽस्य साधोरुपधिः ग्रहीतुं कल्पते । सफेद की गई हो शमशक आदिकों के विनाशके लिये जिसमें धूम किया गया हो, धूप आदि जलाकर जिसे सुगंधित किया गया हो, प्रदीप आदिसे जिसे प्रकाशयुक्त किया हो, भूतके लिये जिसमें मान आदिसे दिदी गई हो, गोवा आदिसे जो लीपी गई हो, जलका जिसमें छिड काय किया गया हो और जिसको कूडाकचरा निकाल कर साफ कर दिया गया हो ऐसी वह वसति साधुजनों को ठहरने के लिये अकल्पनीय है, परिहरणोपघात इस प्रकार से है परिहरण नाम आसेचनका है, इससे जो उपधि आदिकी अकल्पनीयता है, वह परिहरणोपघात है, इसमें उपधिका परिहरणोपघात इस प्रकार से है - एकाकी भ्रमण कर नेवाले साधुके द्वारा आसेवित जो उपकरण हो वह लेना योग्य नहीं है, परन्तु गच्छसे निर्गत साधु अकेला होता हुआ भी यदि जागरित हे दूश्वादि विकृतियोंमें प्रतिबद्ध नहीं होना है, तो बहुत दिनोंके बाद भी गच्छ में आने पर उस साधुकी उपधि आदि लेना कल्प्य है तदुक्तम् i . - ઈિને નાશ કરવા માટે ધૂમાડા કરવામાં આવ્યા હાય, ધૂપ આદિ વડે જેને યુગન્ધયુક્ત કરવામાં આવેલ હાય, પ્રક્રીપ વડે જેને પ્રકાશિત કરવામાં આવેલ હાય, જેમા ભૂતને માટે અડદના બાકળા વગેરે ખાળી દેવામાં આવેલ હેલ્થ, છાણુ આદિ વડે જેને લીંપવામાં આવેલ હોય, જેમાં પાણી છાંટવામાં આવ્યું ડેય, જેમાંથી કચરૈપૂત્તે સાફ કરાવવામાં આવેલ હાય, એવી વસતિ ( શ્વાન ) માધુને રહેવાને માટે અકલ્પનીય ગણાય છે. પરિપઘાતનું સ્વરૂપ મા પ્રમાણે છે—પરિહરણુ એટલે આસેવન. ઉષધિ આદિની જે અકલ્પનીયતા છે, તેને પરિહરણાપદ્ય ત કહે છે. તેમાંનો દધિને પરિકમ્હે પઘાત આ પ્રકારને છે—એકલા વિહારી સાધુ દ્વારા આસેવન જે ઉપકડ્યુ હોય, તે લેવા ચેગ્ય નથી, પરંતુ ગચ્છમાંથી નીકળી ગયેલા ધુ એક વિચારી હવા છતાં પશુ જાગૃત હોય (દૂધ આદિ વિકૃતિઓમાં અનિબદ્ધ ડેય) તે એવા સાધુ ઘણા દિવસેા પછી પન્નુ ગચ્છમાં પા Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधाटीका स्था. ५३.२ सू.१५ उपघातस्वरूपनिरूपणम् ७९ तदुक्तम् "जग्गण अप्पडिवज्झण, जइवि चिरेणं न उवहमे ।". . छाया-जागरणम् 'अप्रतिबन्धो यद्यपि चिरेण नोपहन्यते । इति । तथा-वसतेः परिहरणोपघातो यथा-यः कश्चित् साधुर्यत्र वसत्यां शेषकालस्य मासमेकं वर्षाकालस्य वा चातुर्मासी स्थित्वा पुनस्तत्रैव तिष्ठति ततः सा वसतिः कालातिक्रान्तदोषदुष्टा भवति । यः साधुः यत्र वसत्यां शेषकालस्य मास. मेकं तिष्ठति, वर्षाकालस्य वा चातुर्मासी तिष्ठति, ततो विहृत्य तद्विगुणं कालमनतियाप्य यदि पुनस्तत्रैव वसतौ समायाति तदा सा वसतिरुपस्थानदोषदुष्टा भवति । तदुक्तम्--- " उउवासा समईया, कालातीया उ सा भवे सेजा। ___सा चेव उबढाणा, दुगुण दुगुणं आज्जिता ॥ १ ॥" " जग्गणअप्पडिवज्झण" इत्यादि। - वलतिका (उपाश्रय)परिहरणोपघात इस प्रकारसे है-जो कोई साधु जिस वसतिमें शेषकालके एक मास तक अथवा वर्षाकालके चार मास तक ठहर कर पुनः वहीं पर ठहर जाता है, वह वसति कालातिकान्त दोषसे दुष्ट होती है, जो साधु जिस वसतिमें शेष कालके एक महिना तक ठहरता है, अथवा वर्षाकालके चार मास तक ठहरता है फिर इसके पाद वहांसे विहार कर यदि उससे द्विगुणित कालको समाप्त नहीं करके उसी वसतिमें आ जाता है, तो वह वसति उपस्थान दोषसे दोषयुक्त होती है-कही भी है-" उउवासा समईया " इत्यादि। આવી જાય, તે તે સાધુની ઉપાધિ આદિ લેવા ગ્ય (કલ્પનીય) ગણાય છે. ४युं ५छ । “जग्गण अप्पडिवझण" त्याह વસતિ (રહેઠાણ) ને પરિહરણોપઘાત આ પ્રકારનો છે–સાધુઓને શેષકાળમાં એક માસ સુધી અને ચોમાસામાં ચાર માસ સુધી એક જ જગ્યાએ રહેવાનું ક૯પે છે જે એક જ જગ્યાએ તેથી વધારે સમય સુધી રહે તે તે વસતિ કાલાતિક્રાન્ત દેષથી દૂષિત થાય છે. જે કઈ સાધુ અમુક વસતિ (સ્થાન) માં રોષકાળમાં એક માસ સુધી અને વર્ષાકાળમાં ચાર માસ સુધી રહીને ત્યાંથી વિહાર કરે છે, પણ તેના કરતાં બમણે સમય વ્યતીત થઈ ગયા પહેલાં તે વસતિમાં આવે, તે તે વસતિ ઉપસ્થાન દેવથી દૂષિત थाय छे. ४धु ५ छ : “ठवासा समईया " त्या-- Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० यानुवः समतीता. कालातीता तु सा भवेत् शय्या | सा एवं उपस्थानाद्विगुणं द्विगुणम् अवर्जयित्वा ||१|| इति । तथा भक्तरुप परिहरणोपत्रातः परिष्ठापकं प्रति भवति । वयुक्तम्-" विधिगद्दियं विद्दिभुतं, अगं भत्तपाणभोत्तनं । वियि विहिते, एत्य य चउरो भवे भंगा ॥ १ ॥ अवावयविधिगहियं, विहिभुत्तं तं गुरुहणुन्नायं । ऐसा नाशुनाया गहणे दिन्ने य निज्जुहणं " ॥२॥ छाया -- विधिगृहीतं विधिमुक्तम् अतिरेकं भक्तानं भोक्तव्यम् । विधिमुक्ते, अत्र च चत्वारो भवेयुर्भङ्गाः || १ || चिविधगृहीतं विधिभुक्तं तद्गुरुभिरनुज्ञातम् । शेषा नानुज्ञाना गृहीने दत्ते च निर्घृणा ॥ २ ॥ इति । निर्वृणा=यागः । गुरुभिरशनादिकं परिष्ठावयितुमाप्त शिष्यं प्रति परि छाप्याशनादिविषयकः परिहरणोपयातो भवतीति वोध्यम् । तथा-विशोधिःविशेोधनं विशेोधिः कल्प्यता, सा पञ्चविधा प्राप्ता । पञ्चविधत्वमाह - तद्यथाउमरियादि । उमादिदोष परिहारेणैव भक्तानां विशोधिर्योध्येति॥ सू. १५ । - 6 स्थाना मे भक्तका परिकरणोपचात इस प्रकार से हैं यह भक्तका परिहरणोपान पराक (परित करनेवाले) प्रति होता है कहा भी है विहियं विहितं "इत्यादि। निर्गुणा का अर्थ त्याग करना है, गुरुजनों द्वारा अशनादिककी परिपना करने के लिये आज्ञापित हुए शिष्य के परिष्ठापना करने योग्य अनादि सम्बन्धी परिघात होता है, ऐसा जानना चाहिये । यताका नाम विजवि है, यह कल्पतरूप विशोष पांच धन (तार) के पति या अमरनो छे--मात (4) पिनेयुक्रे "" त्यहि પણ એણે પાત્ર કરવી. ગુરુજના દ્વારા અશનાહિકની પદ્મિષ્ઠાપના * ગ શ સાચે મ છે એવા શિપને પરિપના કરવા ચેમ્પ भादि गंजी पनि बगेछे, म सभ J પાન વચ્ચે વ કહે છે. તે કલ્પના રૂપ વિશેષિ પાંચ પ્રકામની 1 - ′′ સાદુ પાંચ વિશેધિ બીં હણ કરવી. ઠૂમ ખાત Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०५ उ०२ सू०१६ घोघेरप्राप्ति - प्राप्तिकारणनिरूपणम् ८१ उपघातत्य जीवा अधार्मिकत्वेन बोधेरमाप्तिस्थानेषु प्रवर्त्तन्ते, विशुद्धितो जीवास्तु धार्मिकत्वेन वोधेः प्राप्तिस्थानेषु प्रवर्तन्ते इत्युपदर्शयितुमाहमूलम् - पंचहि ठाणेहिं जीवा दुल्लभबोहियत्ताए कम्मं पगरेति, तं जहा--अरहंताणं अवन्नं वयमाणे १, अरहंतपन्न तस्स धम्मस्स अवन्नं वयमाणे २, आयरियउवज्झायाणं अवन्नं वयमाणे ३ चाउवन्नस्त संघस्त अवन्नं वयमाणे ४, विवकतव बंभचराणं देवागं अवन्नं वयमाणे ५। पंचहि ठाणेहिं जीवा सुलभबोहियत्ताए कम्मं पगरेंति, तं जहा - अरहंताणं वनं वयमाणे जाव वित्रक्क तत्र बंभचेराणं देवाणं वन्नं वयमाणे ॥ सू० १६ ॥ छाया -- पञ्चभिः स्थानैः जींवा दुर्लभबोधिकतया कर्म प्रकुर्वन्ति, तद्यथाअर्हताम् अवर्ण वदनंं १, अत्मज्ञप्तस्य धर्मस्य अपर्णे बदन २, आचार्योपाध्यायानाम् अवर्ण वदन् ३, चातुर्वर्णस्य संघस्य अवर्णे वदन् ४, विपक्वतपत्रह्मचर्याणां देवानाम् अपर्णे वदन् ५। पञ्चभिः स्थानैः जीवाः सुलभवोधिकतया कर्म कुर्वन्ति, तद्यथा - अर्हतां वर्ण वदन् यावत् विद्यातपोब्रह्मचर्याणां देवानां वर्णं वदन् ॥ ० १६॥ प्रकार की होती है, जैसे- उद्गम विशोधि आदि उद्गमादि दोषों के परि हार से ही भक्तोंकी विशोधि होती है, ऐसा जानना चाहिये || सू० १५ ॥ सूत्रार्थ - उपघात वृत्तिवाले जो जीव होते हैं, वे अधार्मिक होने से बोधिके अप्राप्ति स्थानों में प्रवृत्ति करते हैं और जो विशुद्ध वृत्तिवाले जीव होते हैं, वे धार्मिक होनेसे घोधिके प्राप्ति स्थानों में प्रवृत्ति करते हैं सो इसी ઢાષાના પરિહારથી આહારાદિમાં વિશેાધિ ( વિશુદ્ધિ ) જળવાય છે, એમ સમજવું! સ્. ૧૫ ॥ E સૂત્રા-ઉપઘાત વૃત્તિવાળા જીવા અધાર્મિક હોવાને કારણે ખેાધિના અપ્રાપ્તિ સ્થાનામાં પ્રવૃત્તિશીલ રહે છે, અને જે વિશુદ્ધ વૃત્તિવાળા હાય છે તે ધાર્મિક હાવાથી એધિના પ્રાપ્તિ સ્થાનામાં પ્રવૃત્તિવાળા હોય છે, એ જ વાત ત્રકાર આ સૂત્ર દ્વારા પ્રકટ કરે છે. स्था - ११ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ વર્ષ स्थानासूत्रे टीका--पंचहि ठाणेद्दि ' इत्यादि -- जीवाः पणिनः पञ्चभिः स्थानः कारणैः दुर्लभवोधिकतया दुर्लमा बोधिर्यस्य स दुर्बलयोः, तस्य भावस्तत्ता तया दुष्प्राप्यजिनधर्मकत्वेन कर्म= मोहनीयादि प्रकुर्वन्तिधनन्ति । तान्येव स्थान न्याह तद्यथा - अई ताम् अत्र = निन्दां वदन् कुर्वन् जीवो दुर्लभवोधितासम्पादकं कर्म करोति । अर्हतामवर्णवादो यथा- " नत्थी अरहंती, जाणं वा कीस भुंजए भोए 2 1 पाहुडिये तु जीवइ एमाइ जिणाण' उ अण्णो || १ ||" छाया - नास्ति अर्हन्निति, जानानो वा कथं भुङ्क्ते भोगान् । माभृतिकां तूपजीपति, एवमादिर्जिनानां तु अवर्णः || १ || इति | अयमर्थ:-' अर्हन् ' इति नास्ति । अर्हन् यदि भवेत्, तर्हि जानानोऽपि = घातको अब सूत्रकार प्रदर्शित करते हैं 'पंचाहि ठाणेहिं जीवा दुल्लभवोहियत्ताए' इत्यादि सूत्र १६ ॥ टीकार्य इन पांच स्थानों से जीवों को बोधिकी जिनधर्म की प्राप्ति दुर्लभ होती है, अतः वे मोहनीय आदि कर्मो का बन्ध करते हैं । वे स्थान इस प्रकार से हैंजो जीव अर्हन्त प्रसुका अवर्णवाद करता है, उसे वोधिकी प्राप्ति दुर्लभ होती है । अवर्णवादका अर्थ निन्दा करना है । तात्पर्य इस कथनका ऐसा है, कि जो प्राणी अर्हन्त प्रभुकी निन्दा करता है, ऐसा वह प्राणी दुर्लभ योषिता उत्पादक कर्मका बन्ध करता है। अर्हन्त प्रभुका अचर्णवाद इस प्रकार से होता है- " नत्थी अरहंतन्ती" इत्यादि । इसका ऐसा अर्थ है- अर्हन्त नामका कोई व्यक्ति ही नहीं यदि वह है तो केवलज्ञान से वह समस्त पदार्थों को जानता "qafe lofe oftar gevalguang" Scull આ પાંચ સ્થાને (કારણેા) ને લીધે જીવાને માટે આધિની પ્રાપ્તિ દુ`ભ ખની જાય છે, તેથી તેએ માહનીય આદિ ક્રર્માંના અન્ય કરે છે, તે પાંચ કારણે! નીચે પ્રમાણે છે—(૧) જે જીવ અર્હુત પ્રભુના અવર્ણવાદ કરે છે, તેને આધિની પ્રાપ્તિ દુલભ ખની જાય છે. અત્રણ્ વાદ એટલે નિન્દા. ખા કથનના ભાવાથ એ છે કે જે જીવ અહુત પ્રભુની નિન્દા કરે છે, તે જીવ દુર્વ્યા ખે:ધિતાના ઉત્પાદક કનેા બન્ધ કરે છે. અન્ત પ્રભુના અવધુ વાદ या प्रारे थाय छे -- " नत्थी अरहंतत्ति " इत्याहि- 4 અહુ તનું અસ્તિત્વ જ નથી. જો વિદ્યમાન કેવળજ્ઞાન વડે સમસ્ત Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुघाटीका स्था०५ उ०२ सू०१६ बौधेरप्राप्ति-प्राप्तिकारणनिरूपणम् ३ ज्ञानयुक्तः सन्नपि स कथं भोगान भुङ्ते ? तु-पुनः स प्राभृतिकांसमवसरणादिरूपाम् ऋद्धिम् उपजीवति । यदि अईन भवेत् न स एवं कुर्यात् । एवमादिरहता मवर्णवादो बोध्य इति । अत्रेदं बोध्यम् यदुच्यते अर्हन्तो नाभूवन्निति, तन्न, तत्मणीववचनानामधाप्युपलब्धेः। यत्ते सोगान् अक्तवन्तोऽतस्तेषामज्ञत्वं यत् साध्यते, तदप्यकिंचित्करमेव, निश्चयज्ञानित्वेन सातकर्मणस्तीर्थकरनामादि-कर्मणश्चाऽवश्यवेधत्वेन तदुपादानात् । यत्तच्यते, ते प्राभृतिकामुपजीवन्तीति तदपि न समीचिनम् , वीतरागत्वेन तेषां तदतिशयवशाज्जायमानासु प्राभृतिकादिषु प्रतिहुआ भी भोगोंका भोक्ता कैसे हो सकता है ? और कैसे वह समवसरणादिरूप ऋद्धिका भोक्ता हो सकता है ? यदि वास्तव में यह अर्हन् होता तो वह ऐसा नहीं कर सकताहै, इत्यादि रूपसे ऐसा कथन करना अर्हन्त प्रभुका अवर्णवाद है। यहां ऐसा समझना चाहिये-जो लोग ऐसा कहते हैं कि अर्हन्त हुएही नहीं है, सो उनका ऐसा कहना ठीक नहीं है क्योंकि उनके प्रणीत वचनरूप. आगम अभी तकभी उपलब्ध हो रहे हैं । जो उन्होंने भोगोंको भोगा है-सोइससे उनमें अज्ञता साध्यकी जाती है, वह भी अकिन्चितकरही है, क्योंकि वे निश्चय ज्ञानी थे सातावेदनीय कर्म और तीर्थ कर नाम आदि कर्म उनके द्वारा अवश्यवेव थे इसलिये उन्हें भोग भी भोगना पडे हैं। रही समवसरणादि रूप ऋद्धिकी वात सो यह भी उनमें दोषावह नहीं है, क्योंकि वे तो वीतरागी होते हैं, अत: उसमें उनका किसीभी प्रकारका प्रतिबन्ध नहीं होता है, वह तो केवल उनके अतिशयके वशसे उत्पन्न होती है, इस પદાર્થોને જાણવા છતાં પણ તે ભેગોને ભક્તા કેવી રીતે હોઈ શકે છે, અને સમવસરણ આદિ રૂપ ઋદ્ધિને ભક્તા કેવી રીતે હેઈ શકે ? જે ખરેખર તેઓ અહંત હેત તે એવું કરત જ નહીં ” આ પ્રકારના કથન દ્વારા અહંત પ્રભુને અવર્ણવાદ થાય છે. અહત થયા જ નથી એવી માન્યતા સાચી નથી, કારણ કે તેમના પ્રત વચનરૂપ આગમે અત્યારે પણ મોજૂદ છે. તેમણે સમવસરણ આદિ રૂપ ત્રાદ્ધિ જોગવી હોવાથી તેમનામાં અજ્ઞતા માન્ય કરવી, એ વાત પણ માની શકાય તેમ નથી. કારણ કે તેઓ અવશ્ય જ્ઞાની જ હતા. સાતવેદનીય કર્મ અને તીર્થંકર નામ આદિ કર્મ તેમના દ્વારા અવશ્ય વેદ્ય હતા તે કારણે તેમને ભેગે પણ ભેગવવા પડયા હતા. સમવસરણ આદિ ઋદ્ધિની જે વાત કરવામાં આવી છે, તે તે તેમના અતિશયને પ્રભાવે ઉત્પન્ન થઈ હતી, તેઓ તે વીતરાગ હેવાથી તેમાં તેમની કેઈ પણ પ્રકારની આસક્તિ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .स्थानाक्षे वन्धाभावादिति । इति प्रथमं स्थानम् १। तथा-अर्हत्पज्ञप्तस्य धर्मस्य-श्रुतचारिप्रात्मकस्य अवर्ण=" प्राकृतभापानिवद्धन श्रुतेन किम् ? चारित्राद् दानमेव श्रेयः, किं चारित्राराधनेने " त्यादि रूपेण निन्दां वदन् जीवो दुर्लभबोधिता सम्पादक फर्म प्रफरोतीति । तदाक्षेपनिरासस्तु एवं वोध्या, तथाहि-श्रुतस्य प्राकृतमाषा निवद्धत्वं स्त्रीवालकादीनामपि सुखेनावबोधार्थम् । निर्वाण पति चारित्रस्य साक्षादुपकारित्वं दानस्य तु परम्परया, इत्थं च दानात् चारित्रमेवश्रेय इति । इति द्वितीयं प्रकारका यह प्रथम स्थान है । दूसरा स्थान ऐसा है कि अर्हन्त प्रज्ञप्त श्रुत चारित्र रूप धर्म का अवर्णवाद करना इससे भी जीव दुर्लभ योधिताके सम्पादक कर्मका बन्ध करता है, इस प्रकारका अवर्णवाद करनेवाला जीव ऐसा कहता है, कि शुत तो प्राकृत भाषामें निबद्ध है, उससे हमें क्या लाभ है ? चारित्रकी अपेक्षा दान देनाही. श्रेयस्कर है, चारिनाराधनसे क्या लाभ होता है, इस प्रकारसे केवलि प्रज्ञप्त श्रुत चारित्र रूप धर्मका अवर्णवाद करनेवाला जीव दान मोहनीय कर्मका बन्ध करता है, यह दर्शनमोहनीय कर्मयोधिकी प्राप्तिको दुर्लभ बनाता है, इसके द्वारा कृत आक्षेपका निरास इस प्रकारसे समझना चाहिये-श्रुत जो प्राकृत भाषामें निबद्ध हुए हैं, सो उसका कारण ऐसा है, कि वेस्त्री और चालकों तकको भी अच्छी तरहसे समझ में आजावे इसलिये प्राकृत भाषामें निबद्ध किये गये हैं। निर्वाणके प्रति चारित्रमें साक्षात् ન હતી. આ રીતે અહંત પ્રભુ થયા જ નથી એ માન્યતા ધરાવનાર તેમને 'અવર્ણવાદ કરે છે. બીજું કારણ--અહંત પ્રાપ્ત કૃતચરિત્ર રૂપ ધર્મને અવવાદ કરનાર જીવ પણ દુર્લભ બોધિતાના ઉત્પાદક કમને બન્ધ કરે છે. આ પ્રકારને અવર્ણવાદ કરનાર જીવ એવું કહે છે કે શ્રુત તે પ્રાકૃત ભાષામાં નિબદ્ધ છે. એવા શ્રતથી શું લાભ થવાને છે ? ચારિત્ર કરતાં તે દાન દેવું જ વધારે શ્રેયસ્કર છે. ચારિત્રની આરાધનાથી શો લાભ થવાને છે? આ પ્રકારે થતચારિત્ર રૂપ ધર્મને અવર્ણવાદ કરનારે જીવ દશન મેહનીય કર્મને બધ કરે છે. તે દર્શન મેહનીય કર્મ બેધિની પ્રાપ્તિને દુર્લભ બનાવી નાખે છે. તેમની આ દલીલનું નિરાકરણ આ પ્રમાણે કરી શકાય છે. શ્રતને પ્રાકૃત ભાષામાં નિબદ્ધ કરવા પાછળનો આશય એ છે કે એમ કરવાથી સ્ત્રીઓ અને બાલકે પણ તેને સારી રીતે સમજી શકે છે, 'નિર્વાણની Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधाटीका स्था०५०२०१६ बोधेर प्राप्ति - प्राप्तिकारण निरूपणम् ટપ स्थानम् २। तथा-आचार्योपाध्यायानाम् अवर्णम् = ' बालोऽयमित्यादिनिन्दां वदन् जीवो दुर्लभ वोधितासम्पादकं कर्म प्रकरोति, अतस्तेषां चालत्वादि निमित्तीकृत्य अवर्णवादो न कार्यः । न हि पलितशीर्षादिना वृद्धो, यस्तु बुद्धयादिना बुद्धः स एव यथार्थ वृद्धः । 65 डहरा विजे सुबुद्धो वेया " छाया - दहरा अपि श्रुतबुद्धयपेताः" इति । इति डहरा=वालकाः तृतीयम् ३ । चातुर्वर्णस्य चत्वारो वर्णाः श्रमणाः श्रमण्यः श्रावकाः श्राविकाश्चेति भेदा यस्मिन् स चतुर्वर्णः, स एव चातुर्वर्णस्तस्य तथाभूतस्य संघस्य = समुदायस्य अवर्णम् = उपकारिता आती है, दानमें नहीं उसमें तो परम्परारूपसेही उपकारिता आती है, इस दानकी अपेक्षा चारित्र मेंही प्रधानता है । इस प्रकार से यह द्वितीय स्थान है, तृतीय स्थान ऐसा है, आचार्य उपाध्यायोंका अवर्णवाद करना यह जीव बाल है, इत्यादि रूपसे निन्दा करनेवाला जीव दुर्लभोधिता सम्पादक कर्मका बन्ध करता है, 'अर्थात् पापका उपा र्जन करता है । इसलिये उनमें बालत्वादिको निमित्त बनाकर उनका अवर्णवाद नहीं करना चाहिये । अर्थात् ये आचार्य याल हैं क्या समझते हैं इत्यादि कथन न करना | चालोंके सफेद हो जाने से ही कोई वृद्ध नहीं माना जाता है - असली में वृद्ध तो वही है, जो बुद्धि आदि गुणोंसे वृद्ध है "डहरावि य जे सुबुद्धोववेद्या" इस प्रकारका यह तृतीय स्थान है, चतुर्थ स्थान इस प्रकार से है-चार वर्णरूपमुनि, आर्थिक, श्रावक और श्राविकारूप संघकी समुदायकी - निन्दा करना यह चातुर्वर्ण संघका अवर्णवाद है, जैसे- "यह संघ कैसा है, जो પ્રાપ્તિ માટે ચ રિત્ર જ સાક્ષાત્ ઉપકારી થઇ પડે છે-દાનમાં સાક્ષાત ઉપકારતાને સદ્ભાવ નથી. તેમાં તે પરમ્પરા રૂપે જ ઉપકારતા આવે છે. તેથી દાન કરતાં ચારિત્ર જ શ્રેયસ્કર છે. ત્રીજુ` કારણુ——માચાય અથવા ઉપાધ્યાયને પણ દુર્લભ ખેાધિના ઉત્પાદક કના અન્ય કરે છે. તેમને અવવાદ કરવા જોઇએ નહી. વાળ સફેદ થઇ જવાથી જ માણુસ વૃદ્ધ થતા નથી. ખરી રીતે તે જે જ્ઞાન આદિમાં વૃદ્ધિ પામ્યા હાય છે, से? वृद्ध छे उद्धुं यागु छे - " डहरा वि य जे सुद्धोववेया " અવણુ વાદ કરનાર જીવ આચાર્યને ખાલ કહીને ચેાથું કારણુ—સાધુ, સાધ્વી, શ્રાવક અને શ્રાવિકા રૂપ ચતુર્વિધ સ*ધની નિન્દા કરવી તે ચાતુર્વાણુ ( ચતુર્વિધ ) સઘના અત્રણ વાઈ છે. આ સબ્ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानास "कीहशोऽयं संघो, योऽमार्गमपि मार्गीकरोति' इत्येवं निन्दा बदन दुर्लभ बोधितासम्पादकं कर्म प्रकरोति जीवः । वस्तुतस्तु चातुर्वर्णः सङ्घो ज्ञानादिगुणसमुदायात्मकत्वान्नकदाचिदपि अमार्ग मागी करोति, अपितु स तीर्थकरादि प्रवतितं मार्गत्वेनाश्रयतीति निन्दकाक्षेपो गुपैवेति चतुर्थम् ४। तथा-विपक्वतपो ब्रह्मचर्याणां-विपक्वं परिपाकावस्थामुपगतं-प्रकृष्टतां प्राप्तं तपो ब्रह्मचर्य भवान्तरे येषां तेषाम् , यद्वा-विपक्यम्-उदयावस्थायामागतं तपो ब्रह्मचर्य तहेतुकं देवायुष्कादि कर्म-येषां तेषां देवानाम् अवर्णम्" नं सन्ति देवाः । यदि ते भवेयुस्तर्हि ते कदाचिदप्युपलभ्येरन्नपि । न च तेषां कदाचिदप्युपलब्धिर्भवति । सन्तु वा अमार्गको भी मार्ग करता है,इस प्रकार से संघकी निन्दा करनेवाला व्यक्ति दुर्लभ बोधिताके सम्पादक कर्मका बन्ध करता है, वास्तवमें देखा जाय तो चातुर्वर्ण सङ्घ ज्ञानादि गुणोंका समुदायरूपही होता है, अतः यह कभी भी अमार्गको मार्गरूप नहीं करता है, किन्तु तार्थंकर आदि द्वारा प्रव. तित मार्गकोही वह मार्ग रूपसे आश्रित कात्ताहै, अत: इस तरहसे निन्द कका आक्षेप झूठाही है ४। पांचवां कारण ऐसा है, जो व्यक्ति विपक्वतपो ब्रह्मचर्यवाले देवोंकी निन्दा करता है, वह दुर्लभबोधिता सम्पादक कर्मका धन्ध करता है-भवान्तरमें जिनका तप और ब्रह्मचर्य विपक्व विशेषरूपसे परिपाकको प्राप्त हुआ है, सर्वोत्कृष्ट हुआ है, यद्वापरिपक्व उद्य अवस्थामें आया है, तप एवं ब्रह्मचर्य हेतुक देवायुष्कादि कर्म जिन्हों के ऐसे देवों का अवर्णवाद करना " अर्थात् देवं नहीं हैं यदि वे होते तो कभी तो दिखाई देते, अतः कैसे કેવું છે કે જે અમાર્ગને પણ માર્ગ ગણે છે.” આ પ્રકારના વચનો દ્વારા સંઘની નિન્દા કરનાર દુર્લભાએ પિતાના ઉત્પાદક કર્મને બન્ધ કરે છે ખરી રીતે તે. ચતુર્વિધ સંઘ જ્ઞાનાદિ ગુણોના સમુદાય રૂપ જ હોય છે, તેથી તે કદી પણ અમાર્ગને માર્ગ રૂપે માનતા નથી. તે તો તીર્થકર આદિ દ્વારા પ્રવર્તિત માર્ગે જ, ચાલતું હોય છે. તેથી તેને અમાર્ગ ગણવે તે તેને અવર્ણવાદ જ કરવા બરાબર છે. - પાંચમું કારણ–જે માણસ વિપકવ તપે બ્રહ્મચર્યવાળ દેવેની નિન્દા કરે છે, તે પણ દુર્લભ બેધિતાના ઉત્પાદક કર્મને અન્ય કરે છે. ભવાન્તરમાં જેમનું તપ અને બ્રહ્મચર્ય વિપકવ થયેલું છે. વિશેષ રૂપે પરિપકવ થયેલું છે સર્વોત્કૃષ્ટ રહેલું છે અથવા જે તપ અને બ્રહ્મચર્ય હેતુક દેવાયુષ્ઠાદિ કમને જેમને ઉદય થયે છે એવા દેને Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०५ ३०२ ०१६ बोधेर प्राप्ति प्राप्तिकारण निरूपणम् ૩૭ ते, तथाऽपि कामासक्तमानसैर्विरतिवर्जितैः, निर्निमेषैश्रेष्टावर्जितै म्रियमाणैरिव चनकार्यानुपयोगिभिश्च तै र्न किंचित् प्रयोजनम् " इत्येवं निन्दां वदन् जीवो दुर्लभबोधितासम्पादकं कर्म करोति । देवविषयकाक्षेप निरासस्त्वेवम् - विद्य मानवका देवाः, तत्कृतनिग्रहानुग्रयोः साक्षादुपलम्भात् कामासक्तिस्तु तेर्पा मोहातकयात् । S 1 तदुक्तम् - " एत्थ पसिद्धी मोहणीयसाय वेयणीयकम्मउदयाओ । कामपत्ता विरई कम्मोदयओ चिय न तेसिं ॥१॥ माना जाये कि देव हैं, अथवा मान भी लिया जावे कि वे हैं - तो भी उनसे लाभही क्या है, क्योंकि रातदिन वे कामसेवन में आसक्त रहते हैं, रितिका वे पालन नहीं करते हैं पलकें उनकी झपकनी नहीं हैं, चेष्टावर्जित वे होते हैं, प्रवचनके किसी कार्यमें वे आते नहीं हैं, अतः मरे हुओं की तरह उनसे कुछ भी प्रयोजन नहीं है " इस प्रकारका अव वाद करनेवाला जीव दुर्लभबोधिताका उपार्जन कर्मका बन्ध करता है, देवविषयक आक्षेपका निराकरण इस प्रकार से है, देवोंकी सत्ता विद्यमान है, क्योंकि उनके द्वारा निग्रह और अनुग्रह हुआ साक्षात् देखा जाता है, काममें आसक्ति तो उनमें मोह एवं सात कर्मके उदय से देखी जाती है, तदुक्तम् 16 एत्थ सिद्धी मोहणीय " इत्यादि । देवोंको चारित्र मोहनीय અત્ર વાદ કરનાર દુલ ભ ખેાધિના ઉત્પાદક ક્રમના અન્ય કરે છે. તેમના અવવાદ કરનાર આ પ્રમાણે કહે છે- દેવેનું અસ્તિત્વ જ નથી. જે ધ્રુવે! હાય તે કાઇ વાર પણ આપણી નજર કેમ પડતાં નથી ? કદાચ તેનું અસ્તિત્વ માની લેવામાં આવે, તે તેમના દ્વારા આપણને શા લાભની પ્રાપ્તિ થવાની છે ? તેઓ રાતદિન કામલેગાનું સેત્રન કર્યાં કરે છે, વિરતિનું પાલન તે કરતાં જ નથી, તેમની આંખેાની પાંપા તે અનિમિષ હાય છે ( પલકારા રહિત હોય છે), તેઓ ચેષ્ટાઓથી રઢ઼િત હાય છે, પ્રવચનના કાઇ પણુ કાર્યોંમાં તેએ આવતા નથી, તેથી મૃત આદમીની જેમ કાઈ પણુ કામના નથી. ” દેવવિષયક આ આક્ષેપનું હવે નિરાકરણ કરવામાં આવે છે— દેવેાની સત્તા ( પ્રભાવ ) વિદ્યમાન છે, કારણ કે તેમના દ્વારા નિગ્રહ અને અનુગ્રહ થતે સાક્ષાત્ જેવામાં આવે છે. તેએ કામભોગેામાં જે આસક્તિ ધરાવે છે, તે તે મેહનીય અને સાતાવેદનીય કર્મના ઉદયથી लेवामां आवे छे. ४ युछे है : " एत्यपसिद्धि मोहणीय " त्यिाहि Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थामा । अणिमिस देवसहावा, निच्चेद्वाऽणुतरा उ कयकिच्चा । कालणुभावा तित्थुन्नपि अन्नत्य कुव्वंति ॥२॥" छाया-अत्रं प्रसिद्धि महिनीय सातवेदनीय कदयात् । काममसक्तिः, विरतिः कदियत एव न तेपाम् ॥१॥ अनिमेपा देवस्वभावाः निश्वष्टा अनुत्तरास्तु कृतकृत्याः । कालानुभावात् तीर्थोन्नति मपि अन्यत्र कुर्वन्ति ॥२॥ इति । इति पञ्चमं स्थानम् ५। एभिः पञ्चभिः स्थानी वा दुर्लभवोधिका भवन्तीति वोध्यम् । अथ सुलभवोधितामाह-'पंचहि ठाणेहिं ' इत्यादि । पञ्चभिः स्थानः जीवाः सुलभबोधिकतासम्पादकं कर्म प्रकुर्वन्ति । कानि तानि स्थानानि ? इत्याह-तद्यथा-अर्हतां वर्णम् स्तुति वदन्-कुर्वन् जीवः सुलभवोधिकता सम्पा. दकं कर्म प्रकरोति । अहंतां वर्णवादो यथाकर्मका उदय रहता है, अत: उनमें विरति नहीं होती है, देव स्वभावत: अनिमिष होते हैं, तथा अनुत्तरवासी जो देव हैं वे कृतकृत्य होनेसे निश्चष्ट होते हैं । देव कालके प्रभावसे अन्यत्र तीर्थ को उन्नत भी करते हैं, इस प्रकारका यह पांचवां कारण है, इन पूर्वक्ति पांच कारणोंसे जीव दुर्लभ बोधिवाले होते हैं । अब सुलभ बोधिवाले जीव कैसे होते हैं-इस बात को सूत्रकार प्रकट करते हैं पंचहिं ठाणेहिं" इत्यादि । जीव पांच कारणों से सुलभ योघितांके सम्पादक कर्मका बन्ध करते हैं वे पांच कारण इस प्रकारसे हैंअर्हन्तोंकी स्तुति करना १ क्योंकि अर्हन्तोंकी स्तुति करनेवाला जीव દેને ચારિત્ર મેહનીય કર્મને ઉઠય રહે છે, તેથી તેમનામાં વિરતિનો અભાવ રહે છે. દેવો સ્વાભાવિક રીતે જ અનિમિષ હોય છે, તથા અનુત્તર વિમાનનિવાસી જે દેવો છે, તેઓ કૃતકૃત્ય હોવાથી નિગ્રેષ્ટ (ચેષ્ટા રહિત) હોય છે. દેવ કાલના પ્રભાવથી અન્યત્ર તીર્થની ઉન્નતિ પણ કરે છે. આ પ્રકારનું આ પાંચમું કારણ છે આ પાંચ કારણેથી જીવ દુર્લભ બાધિવાળો બને છે. હવે સૂત્રકાર એ વાત પ્રકટ કરે છે કે જીવ સુલભ બધિવાળે કેવી शत मन छ. “पचहि ठाणेहिं" त्या જીવ નીચેના પાંચ કારણોને લીધે સુલભ બધિતીના ઉત્પાદક કર્મને અન્ય કરે છે–-(૧) અ ને વર્ણવાદ કરવાથી એટલે કે તેમની સ્તુતિ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०५ उ०२ सु०१६ बोधेरप्राप्ति-प्राप्तिकारणनिरूपणम् " जियरागदोसमोहा, सधन्नू तिदसनाहकयमहिमा । अच्चंतसच्चवयणा, सिवगइगमणा जयति जिणा" ॥१॥ छाया-जितरागद्वेषमोहाः, सर्वज्ञाः त्रिदशनाथकृतमहिमानः । ___अत्यन्तसत्यवचनाः, शिवगतिगमना जयन्ति जिना. ॥१॥ इति । इति प्रथम स्थानम् १। एवमेव अर्हत् मरूपितधर्मादि विपक्वतपो ब्रह्मचर्यदेवान्तानां चतुर्णा वर्ण वदन जीवः मुलभवोधिकतासम्पादकं कर्म प्रकरोति । तत्र-अर्हत्प्ररूपितधर्मस्य वर्णवादो यथा__ "वत्थुपयासणमूरो, अइसयरयणाण सायरो जयइ ।। सव्वजगजीव बंधुरवंधू दुविहो वि जिणधम्मो ॥१॥" छाया-वस्तुपकाशनमूर्यः, अतिशयरत्नान सागरो जयति । सर्व जगज्जीव बन्धुरबन्धु विविधोऽपि जिनधर्मः ॥१॥ इति । . इति द्वितीय स्थानम् २। आचार्योपाध्यायवर्णवादो यथासुलभबोधिताके सम्पादक कर्मका बन्ध करता है, अर्हन्तोंका वर्णवाद स्तुतिपाठ इस प्रकारसे कहो गया है, "जियरागदोखमोहा" इत्यादि । ____ अर्हन्त प्रभु रागद्वेषको जीतनेवाले होते हैं, वे सर्वज्ञ होते हैं, उनकी महिला इन्द्र करते हैं । उनके वचन अत्यन्त सत्य होते हैं, और नियमतः ये उसी भवले मोक्षमें जाते हैं ऐसा यह प्रथम स्थान है, इसी तरहसे अर्हत् प्ररूपित धर्मका जो वर्णवाद करते हैं, यावत् परिपक्वतप और ब्रह्मचर्यवाले देवोंका जो वर्णवाद करते हैं, ऐसे जीव सुलभयोधिताके सम्पादक कर्मका पन्ध करते हैं, अर्हत्प्ररूपित धर्मका वर्णवाद इस प्रकारसे है-" वत्थुपसायण सूरो " इत्यादि। अर्हत्प्ररूपित धर्म वस्तुओंको प्रकाशित करने के लिये सूर्यके जैसा કરવાથી જીવ સુલભ બધિતાના સંપાદક કર્મને બધ કરે છે અહની स्तुति ७१ मा प्रमाणे २ छ- ' जियरागदोसमोहा ” ध्याह-- અહંત પ્રભુ રાગદ્વેષને જીતનારા હોય છે, તેઓ સર્વજ્ઞ હોય છે, ઈન્દ્રો પણ તેમને મહિમા ગાય છે. તેમનાં વચન સર્વથા સત્ય જ હોય છે, તેઓ એ જ ભવમાં અવશ્ય મોક્ષ પ્રાપ્ત કરે છે.” * બીજું સ્થાન--અહં ત પ્રરૂપિત ધર્મને વર્ણવાદ કરનાર જીવ પણ સુલભ બાધિતાના સંપાદક કર્મને બન્ધ કરે છે. અહંત પ્રરૂપિત ધર્મ વર્ણવાદ या प्रभारी थाय छे. " वत्थुपसायणसूरो" त्याहि-प्र३पित धर्म વસ્તુઓને પ્રકાશિત કરવામાં સૂર્યના સમાન છે, તે અતિશય રૂપ રત્નોને स्था०-१२ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० "तेर्सि नमो तेर्सि नमो, भावेण पुणो तेसिचेव णमो । रहस्य. जे नाणं देति भव्वाणं " ॥१॥ खाण - तेभ्यो नमः, तेभ्यो नमः, भावेन पुनस्तेभ्य एव नमः । परनिरता ये ज्ञानं ददति भव्येभ्यः ॥ १ ॥ इति । इति तृतीय स्थानम् ३। चातुर्वर्णस्य वर्णवादी यथा"वनियमसमंजनः विणयज्जवसंविमुत्तिगुणजुत्तो । लोओ, स जयड संघो चाउव्वण्णो ॥ १ ॥ छायातपो नियमसत्यसंयम विनयार्जवक्षान्तिमुक्तिगुणयुक्तः । शीलशीकनलोकः स जयति सङ्घतुर्वर्णः ॥ १॥ इति । इति चतुर्थ स्थानम् | देववर्णवादी यथा है, अतिशय रूप रत्नोंका समुद्र है, समस्त जगजीवोंका अनोखा बन्धु है, यह गृहस्थ धर्म और मुनिधर्मके भेदसे दो प्रकारका है, इस प्रका स्का वह द्वितीय स्थान है, आचार्य उपाध्यायका वर्णवाद इस प्रकार से है-" तेमि नमो तेर्सि नमो " इत्यादि । उन आचार्य उपाध्यायोंको मेरा मन वचन कापरूप भावसे बारथार नमस्कार से जो बिना किसी चाहना के परका हित करनेमें लगे रहते ऐ, और निर्मल ज्ञानका दान देते हैं, ऐसा यह तृतीय स्थान है, चतुपूर्ण वर्णवाद हम प्रकार से है (( तव नियम सच्च संगम ' इत्यादि । जो चतुर्विध संघ तप, नियम, सभ्य, संगम, विनय, आर्जव. क्षान्ति, मृग आदि गुणांक, और जिसने शीलसे लोकको वशमें कियाहै, ऐसा यह चतुर्विध श्रीमंच मदा जयशील रहो इस प्रकारका यह चतुर्भ स्थान है, I સાગર છે. તે સમસ્ત મસાી વેના અનેખા બન્ધુ છે, તે ગૃહસ્થ ધ અને અનિગમતા ભેથી એ પ્રકારને છે ** પાન-આચય અને ઉપાધ્યાયને વણ વાદ કરવાથી જીવ સુલભ ટૉ ચિત્રો બને છે. તેમની સ્મૃતિ આ પ્રમાણે કરી શકાય " तेसि नमो વિ એ નિષ્કામ ભાવે પચિનના કાર્યમાં પ્રવૃત્ત निर्माण ज्ञाहता है, ना आयार्यो भने अध्यायोन कने नगधी नाश कर नन्हकार से " ૧૯ स्थानाङ्गसूत्रे 7 A Cart नि छ मनु भनी पाथी મને અન્ય કુ છૅ, ચર્વિધ સંઘની આ પ્રમાણે સ્મૃતિ निम, नियम, नृत्य, भयम, विनय, आव, થી મુક્ત છે, અને જેણે શીલથી લેાકને વશ श्रीमती भुजय . " Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०५ उ०२ सू०१७ प्रतिसलीनाऽप्रतिसलीनतानिरूपणम् ९१ "धण्णा खल ते देवा, विसविमोहावि इत जिणसविहे । धम्म सुणंति सम्म, तित्थपभावं च कुवंति" ॥१॥ छाथा-धन्याः खलु ते देवाः विषयविमोहा अपि हन्त ! जिनसविधे । धर्म शृण्वन्ति सम्यक्, तीर्थ प्रभावं च कुर्वन्ति ।। इति । इति पञ्चमं स्थानम् ५। एभिः पञ्चभिः स्थान: जीवाः मुलभवोधिका भवन्तीति बोध्यम् । स्थानस्थानिनोरभेदोपचारात् स्थानी एव स्थानत्वेन निर्दिष्ट इति ।। सू० १६ ॥ संयतासंयतसंवद्धमेव 'पंच पडिसंलीण इत्याचारभ्य आरोपणा पर्यन्तेन सूत्रसप्तकेन प्राह-- __मूलम्-पंच पडिसलीणा पण्णत्ता, तं जहा-सोइंदियपडिसंलीणे जाव फासिंदियपडिसंलोणे। पंच अप्पडिसंलीणा, पण्णता, तं जहा-सोइंदिय अप्पडिसलीणे जाव फालिदिय अप्पडिसंलीणे । पंचविहे संवरे पण्णत्ते, तं जहा-सोइंदियसंवरे जाव फासिंदियसंवरे । पंचविहे असंवरे पण्णत्ते, तं जहा-सोइंदियअसंवरे जाव फासिदिय असंवरे ॥ सू० १७ ॥ देववर्णवाद इस प्रकारसे है -" धण्णा खलु ते देवा" इत्यादि वे देव धन्य हैं, जो विषयोंसे विमुख रहते हैं और जिनेन्द्र भगव. न्तके निकट श्रुतचारित्ररूप धर्मका प्रवण करते हैं, और तीर्थकी प्रभा. वना करते हैं। इस प्रकारका यह पांचवां स्थान हैं-इस प्रकारके इन पांच कारणोंसे जीव सुलभ बोधिवाले होते हैं-यहां स्थान और स्थानीमें अभेदके उपचारसे स्थानीही स्थान रूपसे निर्दिष्ट हुआ है । सू० १६॥ પાંચમું સ્થાન–દેવેન વર્ણવાર કરવાથી પણ જીવ સુલભ બધિની प्रालि ४२ छ. हेवानी 4 पा प्रमाणे ४२३ मे, "धण्णा खलु से देवा" या "धन्य छ । वान है-२मा विषयाथी सहा विभुम २ છે અને જિનેન્દ્ર ભગવાનની સમીપે શ્રુતચારિત્ર રૂપ ધર્મનું શ્રવણ કરે છે, અને તીર્થની પ્રભાવના કરે છે ? આ પ્રકારનું પાચમું સ્થાન છે. આ પ્રકા રના આ પૂર્વોક્ત પાંચ કારણેથી જીવ સુલભ બોધિવાળો થાય છે. અહીં સ્થાન અને સ્થાનીમાં અભેદ ગણને સ્થાની જ સ્થાન રૂપે નિર્દેશ કરવામાં मान्य छे. ॥ सू. १६ ॥ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नागसूत्र __ छाया-पञ्च प्रतिसंलीनाः प्रज्ञप्ताः, तथथा-श्रोत्रेन्द्रियप्रतिसंलीनो यावत् स्पर्शेन्द्रियपतिसंलीनः । पञ्च अप्रतिसलीनाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-श्रोत्रेन्द्रियाप्रति संलीनो यावत् स्पर्शेन्द्रियाप्रतिसंलीनाः । पञ्चविधः संवरः, प्रज्ञप्तः, तद्यथा-श्रोत्रेन्द्रिय संवरो यावत् स्पर्शेन्द्रियसंघरः । पञ्चविधोऽसंवरः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-श्रोत्रेन्द्रिया संवरो यावत् स्पर्शेन्द्रियासंवरः ॥मू० १७ ॥ टीका-पंच पडिसंलीणा' इत्यादि- प्रतिसंलीना: कूर्मवदिन्द्रियगोपना श्रोत्रेन्द्रियप्रतिसंलीनादिभेदैः पञ्च संख्यकाः। अप्रतिसंलीना अपि श्रोत्रेन्द्रियापतिसंलीनादिभेदैः पञ्च - संख्यका वोध्याः । संवरस्तु श्रोत्रेन्द्रियसंवरादिभेदैः पञ्चविधः । असंवरोऽपि श्रोत्रेन्द्रिया संवरादिभेदैः पञ्चविधो वोध्यः । अत्र श्रोत्रेन्द्रियादिरूपेण यः क्रमो निर्दिष्टः स तत्तदिन्द्रियस्य क्षयोपशमवाहुल्यकृतो वोध्यः। प्रतिसंलीनाप्रतिसलीनत्वेन च धर्मी पुरुष उक्तः । संवरासंवरत्वेन तु धर्म एवेति ॥ सू० १७॥ .. अब सूत्रकार संयतासंयत संबद्ध ही" पंच पडिसलीणा" यहांसे लेकर आरोपणा पर्यन्नके सात सूत्रों द्वारा कथन करते हैं पंच पडिसलीणा पण्णत्ता इत्यादि सूत्र-१७॥ टीकार्थ-कूर्मकी तरह इन्द्रियोंका गोपन करनेवाले श्रोत्रेन्द्रिय प्रति संलीना. दिके भेदसे पांच कहे गये हैं, तथा अप्रतिसंलीन भी श्रोत्रेन्द्रिय अप्रतिसंलीन आदिके भेदसे पांच कहे गये हैं संवर भी श्रोत्रेन्द्रिय संवर आदिके भेदसे पाँच प्रकारका कहा गया है, तथा असंवर भी श्रोत्रेन्द्रिय असंवर आदिके भेदसे पांच प्रकारका कहा गया है, यहां जो श्रोत्रेन्द्रिचादि रूपसे क्रम कहा गया है, वह उन २ इन्द्रियोंके क्षयोपशमकी व सूत्र२ सयतासयत विषय “पच पडिसंलीणा" थी धन 'आरोपणा' यन्तन सात सूत्रानु जयन ४३ छ.. "पंच पडिसलीणा पण्णता" त्याहટીકાઈ-કાચબાની જેમ ઈન્દ્રિયનું ગોપન કરનારા શ્રોત્રેન્દ્રિય પ્રતિસંલીન આદિના. ભેદથી પાંચ પ્રકારના કહ્યા છે. અપ્રતિ સંલીનના પણું શ્રોત્રેન્દ્રિય અપ્રતિસલીન આદિ પાંચ ભેદ કહ્યા છે. સંવરના પણ શ્રોત્રેન્દ્રિય સંવર આદિ પાંચ ભેદ કહ્યા છે. અસંવર પણ શ્રોત્રેન્દ્રિય સંવર આદિના ભેદથી પાંચ પ્રકારને કહ્યો છે. અહીં જે શ્રોત્રેન્દ્રિય આદિ રૂપે ક્રમ કહેવામાં આવે કે તે ક્રમ તે તે ઇન્દ્રિયના ક્ષપશમની બહુલતાને અનુલક્ષીને કહ્યો છે. Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधाटीका स्था० ५ उ०२ सू०१८ सयमस्वरूपनिरूपणम् मूलम्-पंचविहे संजमे पण्णत्ते, तं जहा-सामाइयसंजमे १ छेदोवटावणियसंजमे, २ परिहारविसुद्धियसंज मे, ३ सुहुमसंपरायसंजमे, ४ अहाक्खाय संजमे ५ ॥ सू० १८ ॥ छायापञ्चविधः संयमः प्रज्ञप्तः, तद्यधा-सामायिकसंयमः १, छेदोपस्थापनीयसंयमः २, परिहारविशुद्धिकसंयमः ३ सूक्ष्मसंपरायसंयमः ४ यथाख्यातसंयमः ५। सू० १८॥ टीका--'पंचविहे ' इत्यादि-- संयमः-संयमनं संयमः-सावधव्यापारविनिवृत्तिः । सच सामायिकसंय'मादिभेदेन पञ्चविधः तत्र सामायिकसंयमः-समानांप्सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्रतपोरूपाणां रत्नानाम् आयो-लाभः। यद्वा-समानि=ज्ञानादीनि तेषु तैर्वा बहुलताको लेकर कहा गया है, प्रतिसंलीन रूपसे और अप्रतिसंलीन रूपसे धर्मी पुरुष कहा गयाहै, और संवर रूपसे धर्म कहा गयाहै सू०१७॥ ___'पंचविहे संजमे पण्णत्ते' इत्यादि सूत्र १८॥ संयम पांच प्रकारका कहा गया है, जैसे सामायिक संघम १ छेदो. -पस्थापनीय संघम २ परिहारविशुद्धिकसंयम ३ सूक्ष्म संपराय संयम ४ और यथाख्यातसंयम ५ सावध व्यापारसे निवृत्ति होना इसका नाम संयम है, यह संयम पूर्वोक्त रूपसे सामायिक आदिके भेदसे पांच प्रकार है, जिस संयममें सम्यग्दर्शन,सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र सम्यकूतप रूप रस्नोंका लाभ होता है, वह अथवा समरूप ज्ञानादिकोंमें अथवा समरूप ज्ञानाપ્રતિસ લીન રૂપે અને અપ્રતિસલીને રૂપે ધર્મી પુરુષ કહ્યો છે અને સંવર રૂપે અને અસંવર રૂપે ધર્મ કહ્યો છે. જે સૂ. ૧૭ છે "पंचविहे संजमे पण्णत्ते" त्याल સંયમના નીચે પ્રમાણે પાંચ પ્રકાર કહ્યા છે--(૧) સામાયિક સંયમ, (२) छेटे।५स्थानीय सयभ, (3) परिक्षा२. विशुद्धिः सयम, (४) सूक्ष्म સં૫રાય સંયમ અને (૫) યથાખ્યાત સંયમ. સાવધ વ્યાપાથી નિવૃત્ત થવું તેનું નામ સંયમ છે. તે સંચમના સામાજિક આદિ પૂક્તિ પાંચ ભેદ છે. જે સંયમમાં સમ્યગ્દર્શન, સમ્યજ્ઞાન, સમ્યક્રચારિત્ર અને સમ્યફ તપ રૂ૫ રને લાભ થાય છે, તે સંયમનું નામ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाशास्त्र आयो गमनम् । अपि वा समोरागद्वेपायस्पृष्टान्तःकरणः स्ववन्निखिलभूतपशी विशुद्ध आत्मा तुन्छितानल्पचिन्तामणि कल्पतरु कामधेनुभिर्गहनभवगहन परिभ्रमणजन्यवंशनाशकरपूर्ज्ञानदर्शनादिभिः संतत्वात् तस्य आय:=प्राप्तिः स्त्रात्मविशुद्धीकरणमिति यावत् , समायः, स एव सामायिकम् । सावधयोगविरमणात्मकशेषमणि चारित्रं सामान्यतः सामायिकमेयोच्यते । तदेव छेदादिविशेषणैर्विशिष्टं सत् शब्दार्थाभ्यामनेकविधत्वं लभते । तच्च तत्र प्रथमो भेदो निर्विशेषणं सामायिकमेव इत्वरकालिकयावज्जीवेतिभेदेन दिकों द्वारा जो गमन है, वह अथवा-रागद्वेष आदिसे अस्पृष्ट अन्तःकरणका जो लाभ है, वह समाय है, अर्थात्-जो कामधेनु, कल्पवृक्ष और चिन्तामणि इनको भी तुच्छ फीका कर देते हैं, एवं गहनकान्तारके जैसे इस भवके भ्रमणसे जन्य क्लेशका जो सर्वथा विनाश कर देते हैं, ऐसे अपूर्व ज्ञान दर्शनादिकोंसे संवृत्त होने के कारण विशुद्ध बना हुआ जो आत्मा है, कि जो समस्त प्राणियोको अपने समान देखता है, वह सम है, इस समका जो आय प्राप्ति है, वह समाय है, यह समाय आत्माकी विशुद्धि करने रूप होता है । ऐसा समायही सामायिक है । यह सामाधिक जितना भी सावद्ययोग विरमणरूप चारित्र है, सामा न्यतः तद्रूपही कहा जाता है, यह सामायिक चारित्रही छेदादिक विशेषणोंसे विशिष्ट हुआ शब्द और अर्थकी अपेक्षा अनेक प्रकारताको प्राप्त करता है । इनमें जो प्रथम भेद है, वह तो बिना किसी विशेषणका है, સમાય છે. અથવા સમરૂપ જ્ઞાનાદિકમાં અથવા સમરૂપ જ્ઞાનાદિ દ્વારા જે ગમન છે તેનું નામ “સમાય છે. અથવા--રાગદ્વેષ આદિ વડે અપૂણ અંતકરણને જે લાભ છે તેનું નામ “સમાય છે. એટલે કે જે કામધેનું, કલ્પવૃક્ષ અને ચિત્ત મણિને પણ ફિપાડી દે છે, જે ગહન અટવીને સમાન આ સંસારના ભ્રમણથી જનિત કલેશેને સર્વથા વિનાશ કરી નાખે છે, એ સંસારના સમસ્ત જીવો તરફ સમભાવ રાખનારે જે આત્મા છે, અને જે જ્ઞાન દર્શનાદિ વડે સંવૃત હોવાને सीप विशुद्ध मन छ, तर 'अभ' ४ . ते सभनी २ माय (प्राति) થવી તેનું નામ “સમાય છે તે સમાય આત્માની વિશુદ્ધિ કરવા રૂપ હેય છે એવા સમાયને જ સામાયિક કહે છે. તેને સાવદ્ય ગ વિરમગુરૂપ જે ચરિત્ર છે, તે ચારિત્રરૂપ સામાન્યતઃ ગણવામાં આવે છે તે સામાયિક રૂ૫ ચારિત્ર જ છેદાદિક વિશેષણોથી યુક્ત થયેલા શબ્દ અને અર્થની અપેક્ષાએ અનેક પ્રકારતાને પ્રાપ્ત કરે છે. તેમાંથી જે પહેલે ભેદ છે તે કઈ પણ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०५ उ२ स १८ संयमस्वरूपनिरूपणम् द्विविधम् । तत्र-इत्वरकालिकं सामायिक पथमान्तिमतीर्थकृतोस्तीर्थयोरनारोपितव्रतस्य भवति । यावज्जीवं तु मध्यमतीर्थकृतां महाविदेहवर्तितीर्थकृतां च तीर्थेषु उपस्थापनाभावाद् अनारोपितत्रतस्य भवतीति वोध्यम् । तदुक्तम् " सबमिण सामाइयं, छेदादिविसेसओ पुण विभिन्नं । अविसे सियमादिमयं, ठियमिह सामन्नसन्नाए ॥१॥ . सावज्जजोगविरइत्ति तत्थ सामाइयं दुहा वं च। इत्तरमावकहति य, पढमं पढमंतिमजिणाणं ॥२॥ तित्थेसु अणारोवियवयस्त सेहस्स थोवकालीयं । सेसाणमावकहियं, तित्थेमु विदेहयाणं च ॥३॥ .. ' छाया-सर्वमिदं सामायिकं छेदादिविशेषतः पुनर्विभिन्न । ___अविशेषितमादिमकं स्थितमिह सामान्यसंज्ञया ॥१॥ इसमें किसी भी प्रकारका विशेषण नहीं है, इस प्रकार निर्विशेषणरूप यह सामायिक इत्वर कालिक और यावज्जीव इस प्रकारसे दो प्रका. रका कहा गया है, इनमें इत्वरकालिक जो सामायिक है, वह प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरके तीर्थ के अनारोपित व्रतवाले प्राणीको होता है, तथा यावज्जीव जो सामायिक है, वह मध्यके शेष २२ तीर्थंकरोंके एवं महा विदेहवी तीर्थकरोंके तीर्थमें उपस्थानके अभावसे अनारोपित व्रतयाले प्राणीको होताहै, कहा भी है-" सव्वमिणं सामाइयं" इत्यादि। यह समस्त सामायिक छेदादिके विशेषसे भिन्न २ हो जाता है, "सामायिक " ऐसी यह सामान्य संज्ञा है, सावध योगसे विरति होना इसका नाम सामायिकहै. यह सामायिक इत्वर और यावत्काधिकके વિશેષણ વિનાને છે આ પ્રકારે વિશેષણરહિત તે સામાયિકના બે પ્રકાર કહ્યા છે--(૧) ઇવરકાલિક અને (૨) યાવજીવ ઈત્વરકાલિક સામાયિકને સદ્ભાવ પહેલા અને છેલ્લા તીર્થ કરના તીર્થન અનાપિત વ્રતવાળા જીવોમાં હોય યાવાજીવ સામાયિકને સદ્ભાવ વચ્ચેના ૨૨ તીર્થંકરના અને મહાવિદેહવર્તી તીથ કરોના તીર્થમા ઉપસ્થાનના અભાવે અનાપિત ગ્રતવાળા જેમાં હોય છે. घु ५ -" सव्वामिणं सामायं " याह. - આ સમસ્ત સામાયિક છેદાદિના વિશેષથી રહિત હોય છે. સામાયિક ? એવી આ સામાન્ય સંજ્ઞા છે સાવદ્ય ગેમાથી વિરતિ થવું તેનું નામ સામાયિક છે. તેના ઈવર અને થાવસ્કયિક નામના બે ભેદ છે. તેમાંની ઇવર Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ स्थानाङ्गसूत्रे सावद्ययोगविरतिरिति तत्र सामायिकं द्विधा तच्च । यावत्कथिकमिति च मम मथमान्तिमजिनयोः ||२|| तीर्थयोरनारोपितव्रतस्य शैक्षकस्य स्तोककालिकं । शेषाणां यावत्कथिकं तीर्थेषु विदेदकानां च ॥ ३॥ इति । , - " सामायिकं च तत् संयमश्चेति सामायिकसंयमः = सामायिकरूपः संयम इत्यर्थः । इति प्रथमं स्थानम् । तथा छेदोपस्थानिकसंयमः - छेदः पूर्वपर्यायस्य छेदनम् उपस्थापनं नेषु' आरोपणं, चैतद्द्वयं यत्र तच्छेदोपस्थापनं तदेव छेदोपस्थापनिकम्, यद्वा-छेदव उपस्थापन च छेदोपस्थापने, ते विशेते यत्र तच्छेदोपस्थापनिकम् अथवा छेदेन = पूर्व पर्यायस्य छेदनेन उपस्थाप्यते = आरोच्यते यन्महाव्रतरूपं चारित्रं तच्छेदोपस्थापनोयम् । इदमप्यनतिचारसातिचा भेदसे दो प्रकारका है, इनमें इत्वर सामायिक प्रथम और अन्तिम तीर्थकरके तीर्थमें अनारोपित व्रतवाले शैक्ष शिष्य के स्तोककालिक होता है । तथा जो यावत्कथित सामायिक हैं, वह बाकीके २२ तीर्थंकरोंके और विदेषक्षेत्र सम्बन्धी तीर्थंकरों के तीर्थ में उपस्थानके अभाव से अनारोपित व्रतवाले जीव के शिष्य को होता है | मामायिकरूप जो संयम है वह सामायिक संयम है । पूर्वपर्याय के छेदनका नाम छेद है, और व्रतोंमें आरोपण करनेका नाम उपस्थापन है । यह दोनों जिस समय में होते हैं, वह छेदोपस्थान है, यह छेदोपस्थानही छे: दोपस्थानिक है, अथवा - जो महाव्रतरूप चारित्र पूर्वपर्या छेदन से आरोपित किया जाता है, वह छेदोपस्थापनीय है, यह भी अनतिचार કાર્લિક સામાયિકના સદ્ભાવ પ્રથમ અને અન્તિમ તીર્થંકરાના તીમાં અનારાંતિ વ્રતવાળા શોમાં શિષ્યેમાં હાય છે. તે સ્તાકકાલિક હાય છે. ચાવત્કથિક સામાયિકના સદૂભાવ બાકીના ખાવીશ તીકરાના અને વિદેહ ક્ષેત્રના તી કરાના તી'માં ઉપસ્થાનને અભાવે અનારે પિત વ્રતવાળા જીવેાના શિષ્યામાં હોય છે. સામાયિક રૂપ જે સયમ છે તેનું નામ સામાયિક સ`ચમ છે. આ પ્રકારનુ` સયમના પ્રથમ ભેદનુ' સ્વરૂપ છે. । ૧ । પૂર્વાપર્યાયના ઇંદનનુ નામ છેદ છે, અને તેામાં આરોપણ કરવાનું નામ ઉપસ્થાપન છે. આ બન્નેને જે સમયમાં સદ્ભાવ હાય છે, તે સમયનુ' નામ છેઢાપસ્થાપન છે. છેદેપસ્થાપત જ દેપસ્થાપનિક છે. અથવા જે મહાવ્રત રૂપ ચારિત્ર પૂર્વપર્યાયના છેદન વડે આરેાપિત કરાય છે, તેનું નામ છેપ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा रीका स्था० ५ ७०२ सू०१८ संयमस्वरूपनिरूपणम् राभ्यां द्विविधम् । तत्र प्रथमम् - इस्वरसामायिकस्य शैक्षकस्य पञ्चयामप्रतिपत्तुः पार्श्वनाथसाधोः केशिश्रमणादेवा । द्वितीयं तु मूलप्रायश्चित्तप्रतिपन्नस्य साधोरारोप्यते । तदुक्तम्... " परियायस्स उ छेओ, जत्थोवछावणं वएवं च । ... छेभोवट्ठावणमिह, तंमणइयारेतरं दुविहं ॥१॥.... सेहस्स निरइयारं, तित्थंतरसंकमेव तं होज्जा। .... मूलगुणघाइणो साइयारमुभयं च ठियकप्पे " ॥ २ ॥ 'छाया–पर्यायस्य तु छेदो, यत्रोपस्थापनं व्रतेषु च ।। । छेदोपस्थापनमिह, तदनंतिचारमितरद द्विविधम् ॥१॥ ' . ' शैक्षस्य निरतिचारं, तीर्थान्तरसंक्रमेवा तद् भवेत् । मूलगुणघातिनः सातिचारम् उभयं स्थितकल्पे ॥२॥ : स्थितकल्पे-पथमान्तिमतीर्थकरयोरवस्थितसमाचारे इत्यर्थः । छेदोपऔर सातिचारके भेदसे दो प्रकारका होता है, इनमें प्रथम भेद इत्वर सामायिकवोले शिष्यको होता है, अथवा-तीर्थान्तरके संक्रममें होता है, जैसा कि पार्श्वनाथके साधु केशिश्रमण आदि को हुआ है और द्वितीय भेद मूल प्रायश्चित्त का स्वीकार करनेवाले साधुको होता है, कहा भी है-"परियायस्स उ छेदो" इत्यादि। पूर्वपर्यायका छेद और व्रतोंमें उपस्थान जहां होताहै, वह छेदोपस्थापनीयहै, यह अतिचार और सातिचारके सेसे दो प्रकारका कहा गया है, शक्षको (नवीन)शिष्यको निरतिचार होताहै, अथवा-तीर्थान्तरके संक्रममें वह होता है, और मूल गुणघाती साधुको वह सातिचार होताहै, एवं प्रथम तथा अन्तिम तीर्थंकरके अवस्थिति समाचाररूप स्थितकल्पमें दोनों प्रकाસ્થાપની છે તે પણ અનતિચાર અને સાતિચારના ભેદથી બે પ્રકારનું કહ્યું છે તેમાંના પ્રથમ ભેદને સદ્ભાવ ઈસ્વર સામાયિકવાળા શિષ્યમાં હોય છે, અથવા તીર્થાન્તના સંક્રમમાં તેને સદ્ભાવ હોય છે. જેમકે પાર્શ્વનાથના સાધુઓ કેશિમુનિ આદિ અનતિચાર છેદો પસ્થાપનીય હતા. બીજા લેતો સદૂભાવ મૂળ પ્રાયશ્ચિત્તને સ્વીકાર કરનાર સાધુમાં હોય છે.. घु ५५ छ है “परियायस्स उ छेदो" त्य: પૂર્વ પર્યાયનું છેદન અને વ્રતોમાં ઉપસ્થાન જ્યાં થાય છે, તેનું નામ છેદે પસ્થાપનીય છે તે અનતિચાર સાતિચારના ભેદથી બે પ્રકારનું કહ્યું છે. શૈક્ષમાં નિરતિચારને સદ્ભાવ હોય છે, અથવા તીર્થાન્તરના સંક્રમમાં તે હોય છે મૂલગુણઘાતી સાધુમાં સાતિચારને સદ્ભાવ હોય છે. પ્રથમ તથા અંતિમ તીર્થકરના અવસ્થિત સમાચાર રૂપ સ્થિતકલ્પમાં બન્ને પ્રકારના છેદો પસ્થાપનીય स्था०-१३ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाले गानि र नन मंगमति छेदोपाधापनिकसंयमः, अयमपि प्रथमान्तिमतीर्थनीतीनि योध्यमि'न । इति द्वितीयम् । तथा-परिहारविशुद्धिकसंयम:पनि परिहा:-नपोविगेपः, तेन विशुद्धं-परिदारविशुद्धम् , अथवा-परिरगेविगेन हो यस्मिनन् परिहारविशुद्धम् , तदस्ति यस्मिस्तत् परिहारकिया । यद्राररिहारे ग-तपोविशेषण कर्म निर्जरारूपा विशुद्धि यस्मिस्तत् पाविधिकम् । एतच्च निर्विशमानकनिर्विष्टकायिकभेदेन द्विविधम् । तत्र दं चात्रिनयमानाः माधो निर्विशमानका उच्यन्ते, तैः सेव्यमानत्वादिदं नामिपि निर्विशमानकमुन्यने । ये तु इदं चारित्रं निर्विष्टवन्तः आसेवितवन्तः, के निष्किापिका उन्यन्ते । तेरासे विनत्तादिदं चारित्रं निर्विष्टकायिकमित्युच्यते। रापस्थापनीय होना है, छेदोपस्थापनीय रूप जो संयम है, यह भी प्रथम नोर्ध कर और अन्तिम तीर्थ करके तीर्थ में होता है । इस प्रका से या द्वितीय संयम है। परिहार विशुद्धिक संयम-परिहरणका नाम परिवार है, यह परिहार तपो विशेषरूप होता है, इस परिहारसे जो वित होता है, वह अपवा परिहारविशेषरूपसे शुद्ध जिसमें होता व परिहार विशुद्ध है, यह परिहार विशुद्ध जिसमें है, वह परिहार नितिक अथवा-परिहाररूप तप विशेष कर्मकी निर्जराल्पविशुद्धि निती , यह परिहारविशुद्धिक है, यह निर्विशमानक और निधि शायि भेदसे दो प्रकारका है, इस चाग्निको पालन करते मां निर्दिशमानक कहलाते हैं, परन्तु उनके द्वारा सेव्यमान होनेसे ' છે , પરંપનિક રૂપ જે સંયમ છે તેને છેદે પથાનિક સંયમ કહે છે કે, ભાવ પ પહેલા તીર્થંકર અને છેલ્લા તીર્થકરના તીર્થમાં હેય છે આ પ્રકારનું યા બીજા વેદનું કવરૂપ છે. ५२६० १ ५५-५२९२५नु नाम प२ि०१२ से. ते ५२२ છે . બે છે. આ પરિવારની અપેકએ જે વિશુદ્ધ હોય છે તેને ૧૧ નાં આ પરિવાર વિશેષ રૂપે વિશુદ્ધ દેય છે તેને પરિવાર વિરુદ્ધ કંડ છે કે કરિ.૨ વિદ્ર જેને ય છે તેને પ&િાર વિચદ્ધિક કહે છે. - 1. ૨, ૨ ૩ વિ ટમને નિર્જરા રૂપ વિકૃદ્ધિ જેમાં થાય છે . .२८ दि . नना ये मासे. ..., थि _.. . ना पात्राने निविमान उपाय, .... .... पान त्रिने ५ वशमान। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधारीका स्था०५ ७०२ सू०१८ संयमस्वरूपनिरूपणम् तदुक्तम्-" परिहारेण विसुद्धं, सुद्धोय तवो जहि विसेसेणं । . .. .. तं परिहारविरुद्धं, परिहारविसुद्धियं नाम ॥ १॥, . तं दुविकप्पं निविसमाणनिचिट्ठकाइयवसेणं.। . परिहारियाणुपरिहारियाणकप्पट्टियस्सावि" ॥२॥ .. छाया-परिहारेण विशुद्धं, शुद्धं च तपो यत्र विशेषेण । ., . ... तत परिहारविशुद्धं परिहारविशुद्धिकं नाम ॥१॥ . . . तद द्विविफल्पं निर्विशमाननिर्विष्टकायिकवशेन । .. पारिहारिकानुपारिहारिकाणां कल्पस्थितस्यापि ॥२॥ इति । अत्रेदं बोध्यम्-इह हि नवसंख्यकः साधूनां गणो भवति । तत्र चत्वारः परिहारतपोविशेषं कुर्वन्ति, ते पारिहारिका उच्यन्ते, चत्वारस्तुतद्वैयावत्यकारकाः अनुपारिहारिका भवन्ति, एकस्तु कल्पस्थितो वाचनाचार्या गुरुकल्पो भवति । एतेषु निर्विशमानकानामयं परिहारो भवति । तथाहि-ग्रीष्मे जघन्यादीनि चतुथपष्ठाप्टमानि, शिशिरे तु पष्ठाष्टमदशमानि, वर्षास्वष्टमदशसद्वादशानि पारण के यह चारित्र भी निर्विशमानक कहा गया है । जिन्होंने इस चारित्र को सेवन कर लिया है, वे निविष्टकायिक कहे जाते हैं कहा भी है | " परिहारेण विसुद्धं " इत्यादि। ___ यहां इस प्रकार समझना चाहिये-यहां नौ साधुओंका गण होता है, इनमें चार परिहोर तपोविशेष करते हैं-इन्हें पारिहारिक कहा जाता है, और चार इनका वैयावृत्त्य करनेवोलें होते हैं, इन्हें अनुपारि हारिक कहा जाता है, एक कल्पस्थित वाचनाचार्य होता है, जो गुरूके जैसा होताहै, इनमें निर्विशमानकोंका यह परिहार होताहै, जैसे-ग्रीष्ममें जघन्यादि रूपसे चतुर्थ, षष्ठ, अष्टम, शिशिरमें (शियामें) षष्ठ, अष्टम, કહેવામાં આવ્યું છે. જેમણે આ ચારિત્રનું સેવન કરી લીધું છે તેમને નિવિષ્ટ अयि वाम मा छ.४ ५ छ , “ परिहारेण विसुद्धं त्या પરિહાર વિશુદ્ધિક રૂપ સંયમનું આ પ્રકારનું સ્વરૂપ સમજેવુંનવ સાધુઓનું એક ગણુ હોય છે. તેમાંથી ચાર સાધુઓ ચરિહાર વિશેપની આરાધના કરે છે. તે ચાર સાધુને પરિહારિક કહેવામાં આવે છે. બીજા ચાર સાધુઓ તેમનું વૈયાવૃત્ય કરે છે. વિયાવૃત્ય કરનારા તે સાધુઓને અનુ પારિહારિક કહેવાય છે. બાકીને એક સાધુ કપસ્થિત વાચનાચાર્ય હોય છે. જે ગુરુના જે હેય છે. તેમાંના જે નિર્વિશમાનકે છે (પરિહારિકે છે). તેમને આ પ્રકારનો પરિહાર હોય છે-શ્રીમમાં તેઓ એક, બે અને ત્રણ , Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० स्थानास्त्र चाचामाम्लम् । इतरेषां तु सर्वेषामाचामाम्लमेव । एवं चत्वारो निर्विशमानकाः पण्मासान् यावत् परिहारं कुर्वन्ति । तत एते निर्विशमानकाः सन्तस्तलैयातत्यकारका भवन्ति, ये पूर्व वैयारयकरास्ते पारिहारिका भवन्ति । ते पारिहारिकाः पड़ मासान् यावत् परिहारं कुर्वन्ति । ततस्तेऽपि निर्विष्टकायिका भवन्ति । ततो वाचनाचार्यः पड़ मासान् यावत् परिहारं करोति । निर्विष्टकायिकेष्वष्टसु एको वाचनाचार्यो भवति, अन्ये तु वैयारत्त्यकारका भवन्ति । इत्थम् अयं परिहारविशुद्धिकः कल्पः अष्टादशमासिको भवति । परिहारविशुद्धिकं च तत् संयमश्चेति परिहारविशुद्धिकसंयम:-परिहारतपःसाध्यविशुद्धियुक्तः संयम इत्यर्थः । इति तृतीय स्थानम् । दशम और वर्षा में अष्टम दशम और द्वादश इन परिहारोंको करते हैं, एवं पारणाके दिन आचामाम्ल (आंबिल) करते हैं चाकी और सव. मुनि जन (आंपिल) आचामाम्लही करते हैं। इस तरह से चार निर्विशमानक छह महीने तक परिहार तप करते हैं, इसके पादसे चार निविष्टकायिक धन जाते हैं, और उनकी वैयावृत्ति करनेवाले होते हैं, और जो पहिले वैयावृत्त्यकारक थे वे पारिहारिक तप होते हैं । वे पारिहारिक छह महीने तक परिहार तप करते हैं, तब वे भी निविष्टकायिक हो जाते हैं, इसके बाद जो वाचनाचार्य है, वह छह महीने तक परिहार करती है, आठ निविष्टकायिकोंमें एक वाचनाचार्य हो जाता है, और दूसरे वैयावृत्त्यकारक होते हैं । इस प्रकारका यह परिहारविशुद्धिक कल्प १८ मासका होता है, परिहार विशुद्धिक रूप जो संयम है, वह परिहार ઉપવાસ, શિશિરમાં બેત્રણ અને ચાર ઉપવાસ અને વર્ષમાં ત્રણ ચાર અને પાંચ ઉપવાસ કરે છે. પારણાને દિવસે તેઓ આયંબીલ કરે છે. બાકીના પાંચે સાધુએ આયંબીલ જ કરે છે. આ રીતે છ માસ સુધી ચાર નિર્વિશમાનક પરિહાર કર્યા કરે છે, ત્યારબાદ તેઓ-નિર્વિષ્ટકાયિક બની જાય છે અને છ માસ સુધી તેમનું વૈયાવૃત્ય કરન રા ચાર સાધુઓ પરિહારક થાય છે. ત્યાર બાદ તેઓ પણ નિર્વિકાયિક થઈ જાય છે. ત્યારબાદ તેમના વાચનાચાર્ય છ માસ સુધી પરિહાર કરે છે. તે સમય દરમિયાન આઠ નિર્વિકાયિકોમાંથી એક વાચનાચાર્ય બને છે અને બાકીના સાધુઓ વાવૃત્ય કરે છે. આ રીતે આ પરિહાર વિશુદ્ધિક કપ ૧૮ માસ સુધી ચાલે છે. આ પ્રકારને પરિહાર વિશુદ્ધિક રૂપ જે સંયમ છે તેને પરિહાર વિશુદ્ધિક Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०५ ७०२ सू०१८ संयमस्वरूपनिरूपणम् १०१ तथा-सूक्ष्म संपरायसंयमः-संपरैति-पर्यटति संसारमेभिरिति संपरायाः= कषायाः, सूक्ष्मा लोभांशाविशेषाः सम्पराया यत्र स मुक्ष्मसम्परायः-लोभकिट्टिकारूपकषाययुक्त इत्यर्थः । स च विशुध्यमानकसंक्लिश्यमानकभेदेन द्विविधः । तत्र विशुध्यमानकक्षपकश्रेणिमुपशमश्रेणिचारोहतो भवति, सक्लिश्यमानास्तु उपशमश्रेणितः प्रच्यमानस्य भवति । तदुक्तम् " कोहाइ संपराओ, तेणजओ संपरीइ संसारं । तं सहुमसंपराय, मुहुमो जत्थावसेसो उ ॥१॥ । सेटिं विलम्गओ तं, त्रिसुज्झमाणं तओचयं तस्स । ___ तह संकिलिस्समाण परिणामवसेण विन्नेयं ॥२॥" विशुद्धिक संयम है, अर्थात् परिहार तपसे साध्य जो विशुद्धि उस विशुद्धिसे युक्त जो संयम है, वह परिहार विशुद्धिक संयम है । मूक्ष्म संपराय संयम-जिनके कारण जीव संसार में भटकता है, वे संपराय कषाय हैं । जिल संपरायोंमें सूक्ष्म लोभके अंशही अविशेष रहते हैंअर्थात् केवल सूक्ष्म लोभ कषायका जो सद्भाव है, वह सूक्ष्म संपराय है, इस तरह जो संयम लोभ रूप, कषायसे युक्त होना है, वह सूक्ष्म संपराय संयमहै, यह १० वें गुणस्थानवी जीवको होता है, यह संयम विशुध्यमानक एवं संक्लिश्यमानकके भेदसे दो प्रकारका होता है, इनमें विशुध्यमानक क्षपकणि एवं उपशमणि पर आरोहण चढते हुवे करते हुए जीयको होताहै, और संक्लिश्यमानक उपशमश्रेणिसे गिरते हुए जीवको होता है, तदुक्तम्-" कोहाइ संपराओ" इत्यादि । સંયમ કહે છે એટલે કે પરિવાર તપ વડે સાથ જે વિશુદ્ધિ છે તે વિશુ. દ્ધિથી યુક્ત જે સંયમ છે. તેનું નામ પરિહાર વિશુદ્ધિક સંયમ છે કે ૩ - સૂમસં૫રાય સંયમ–જેમને કારણે જીવ સંસારમાં ભટકે છે, તે કષાએને સપરાય કહે છે. જે સંપરામાં સૂકમલેભને અંશ જ બાકી રહી જાય છે એટલે કે સૂમલભ કષાયને જ જેમાં સદુર્ભાવ હોય છે, તે સંપ રાયને સૂમસં૫રાય કહે છે આ રીતે જે સંયમ લેભકિટ્ટિકા (સૂમલોભ) રૂપ કષાયથી યુક્ત હોય છે, તેને સૂમસં૫રાય સંયમ કહે છે. ૧૦ માં ગુણસ્થાનવર્તી જીવમાં તેને સદૂભાવ હોય છે. તેના વિશુધ્ધમાનક અને સંકિલશ્યમાનક નામના બે ભેદ પડે છે. ક્ષેપક શ્રેણિ અને ઉપશમ શ્રેણિ પર આરહણ કરતા જીવમાં વિશુધ્ધમાનક સૂમસંપાયને સદ્દભાવ હોય છે, પરન્ત ઉપશમ શ્રેણિથી નીચે ઉતરતા જીવમાં સંકિલશ્યમાનકને સદૂભાવ હોય છે, ४४ प है " कोहाइ संपराओ" त्याल Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . स्थानाक्षे छाया-क्रोधादिः संपरायः, तेन यतः संपरैति संसारम् । स मुक्ष्मसम्पराया, सूक्ष्मो यत्रावशेपस्तु ॥१॥ श्रेणि विलगतः स विशुध्यमानः, ततश्चवमानस्य । तथा संक्लिश्यमानः परिणामवशेन विज्ञेयः ॥२।) इति । अत्रेदं बोध्यम्-संख्येयानां लोभखंडानाम् उपशमनं बादरसंपराय उच्यते चरमस्य तु संख्येयखण्डस्य असंख्येयानि खंडानि क्रियन्ते, तेषु प्रतिसमयमेकै कस्य खंडस्य उपशमनं सूक्ष्मसंपराय उच्यते । तथा-बादरसम्परायोपशमयुक्तो वादरसम्परायः, सूक्ष्मसम्परायोपशमयुक्तस्तु सूक्ष्मसम्पराय उच्यते । इति । सूक्ष्मसम्परायश्च स संयमश्चेति सूक्ष्मसंपरायसंयमः-लोभांशरूपकपाय. युक्तः संयम इत्यर्थः । इति चतुर्थ स्थानम् । तथा-यथाख्यातचारित्रसंयमः यहां ऐमा समझना चाहिये-संख्यातलोभ खण्डोंका उपशम यादर संपराय कहलाता है, इनमें से अन्तिम संख्यातवे खण्डके असंख्यात टुकडे अपनी धुद्धिसे और करोइनमेसे प्रति समयमें एक २ खण्डका जो उपशमनहै, वह सूक्ष्म संपरायहै, तथा चादर संपरायके उपशमसे युक्त जो पादर संपरायहै, वा घादर संपराय है । उपशम रूप जो संयणहै वह सूक्ष्म संपराय संयमहै, तात्पर्य इसका यहीहै, कि लोभ कषायवालाजो संयमहै वह मूक्ष्मसंपराय संयम है, ऐसा यह चौथा संयम है ४, यथाख्यात संघम-भगवान्ने जो संयम यथार्थ रूपसे और विधिके अनुसार कहा है, वह यथाख्यातसंयम है,. अथवा सर्व जीव लोकमें जो प्रसिद्ध हो અહીં એવું સમજવું જોઈએ કે સંખ્યાત લે અંડેનું ઉપશમન બાદર સંપરા કહેવાય છે તેમાંથી અન્તિમ સંખ્યામાં ખંડના બીજા અસંખ્યાત ટુકડા પિતાની કલ્પનાથી કરવામાં આવે. તેમાંથી પ્રત્યેક સમયે એક એક ખંડનું જે ઉપશમન છે, તે સૂફમસંપરાય છે, તથા બાદંરપરાયના ઉપશમથી યુક્ત જે બાદર સંપરાય છે, તે બાદરે સંપરાય છે. સૂમસં૫રાય ઉપશમ રૂપ જે સંયમ છે તેનું નામ સૂમસં૫રાય સંયમ છે. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે લેકિટ્ટકા (સૂકમલેભ) રૂપ કષાયવાળે જે સંયમ છે તેનું નામ સૂમ सप२राय सयम छे. मा सयभना याया ४३५ छ । ४।। યથાખ્યાત સંયમ–ભગવાને જે સંયમ યથાર્થ રૂપે અને વિધિ અનુસાર કરે છે, તેને ચયાખ્યાત સંયમ કહે છે. અથવા સમસ્ત જીવલેકમાં જે પ્રસિદ્ધ છે તેનું નામ યથાખ્યાત છે. યથાખ્યાત અકષાય રૂપ હોય છે. યથાખ્યાત ચારિત્રરૂપ જે સંયમ છે, તે યથાખ્યાત ચારિત્ર સંયમ છે. આ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था० ५७०२ सू०१९ संयमासंयमनिरूपणम् १०३ यथा-याथातथ्येन आङ=अभिविधिना च यद् भगवता ख्यात कथितम्-यथाख्यातम् , यद्वा-सर्वस्मिन् जीवलोके ख्यातं-प्रसिद्धं यथाख्यातम् अकषायमिति । यथाख्यातं च तत् चारित्रं चेति यथाख्यातचारित्रम् , - तद्रूपः सयमः यथाख्यातचारित्रसंयमः । अयं च छद्मस्थस्य उपशान्तमोहस्य क्षीणमोहस्य च भवति, तथासयोगस्यायोगस्य च केवलिनो भवति । इति पञ्चमं स्थानम् ॥ सू०.१८॥ . ___संयमप्रस्तावात्सयम, तत्मतिपक्षभूतमसंयमं च माह- " मूलम् --एगिदिया णं जीवा असमारभमाणस्स पंचविहे संजमे कजइ, तं जहा-पुढविकाइयसंजमे जाक वणस्सइकाइयसंजमे । एगिदिया णं जीवा समारभमाणस पंचविहे असंजमे कजइ, तं जहा-पुढविकाइयअसंजमे जाव वणस्लइकाइय असंजमे ॥ सू० १९ ॥. . . , छाया-एकेन्द्रियान् खलु जीवान् असमारभमाणस्य पञ्चविधः संयमः क्रियते, तद्यथा-पृथिवीकायिकसयमो यावद् वनस्पतिकायिकसंयमः एकेन्द्रियान् खलु जीवान् समारभमाणस्य पञ्चविधः असंयमः क्रियते, तद्यथा-पृथिवीकायिकासंयमो यावद् वनस्पतिकायिकासंयमः ॥ १९॥ वह यथाख्यात अकषायरूप होता है, यथाख्यात चारित्ररूप जो सयम है, वह यथाख्यातचारित्रसंयम है, तात्पर्य इसको यह है, कि यथाख्यात चारित्र संयम अकषायवाले उपशान्तमोह और क्षीणमोहको होता है, ये दोनों छद्मस्थ वीतराग कहे गये हैं और सयोग केवली १३ वें गुणस्थानवालेको एवं अयोगकेवली चौदहवें गुणस्थानवालेको होता है, ऐसा यह यथाख्यात चारित्रका कथन है । सू० १८॥ · , अप सूत्रकार इसी संयमके प्रस्तायको लेकर संयम और संयमके કથનને ભાવાર્થ એ છે કે યથાગ્યાત ચારિત્રસંયમને સદૂભાવ અકષાયવાળા ઉપશાન્તમોહ ક્ષીણમેહવાળા જીવોમાં હોય છે. તે બન્નેને છાસ્થ વિતરાગ કહે છે. સગી કેવલી–૧૩ માં ગુણસ્થાનવાળા અને અગી કેવળી ૧૪ ચૌદમાં ગુણસ્થાનવાળામાં તે સંયમને સદ્ભાવ હોય છે. આ પ્રકારનું સંયમના પાંચમાં ભેદ રૂપ યથાખ્યાતચારિત્રનું કથન સમજવું. સૂ. ૧૮ | Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ स्थानासो टीका.-' एगिदियाणं ' इत्यादि एकेन्द्रियान् जीवान् असमारंभमाणस्य-संघट्टादिना अनुपमर्दयमानस्य साधोः सप्तदशप्रकारेषु संयमेषु मध्ये पञ्चविधः पञ्चप्रकारकः संयमः क्रियते भवति । कर्मणः संयमस्य कर्तृत्वेन विवक्षितत्वात् 'कृ' धातुभवत्यों भवतीति बोध्यम् । संयमस्य पञ्चविधत्वमेवाह-तद्यथा-पृथिवीकायिक संयमा संघट्टाधुपरमः १। एवम्-अकायिकसंयमः -२, तेजस्कायिकसंयमः ३, वायुकायिकसंयमो ४ वनस्पतिकायिकसंयमश्च ५ वोध्यः। एतद्वैपरीत्येन पञ्चविधोऽसंयमो योध्य इति ।। सू० १९ ।। । । प्रतिपक्ष असंयमका कथन करते हैं--- .. .. . : 'एगिदियाणं जीवा असमारभमाणस्स' इत्यादि सूत्र १९ ॥ संघट्ट आदि द्वारा एकेन्द्रिय जीवका उपमर्दन नहीं करते हुए साधुको १७ प्रकार के संयममें से पांच प्रकारका संयम होता है। यहां "कृ" धातु " भवति" अर्थमें लिया गया है । वह पांच प्रकारका संयम ऐसा है, पृथिवीकायिक संयम यावत् वनस्पतिकायिक संयम यहां यावत्पदसे "अपकाधिक संयम, तेजस्कायिक संयम वायुकायिक संयम " इन तीन संयमोंका ग्रहण हुआ है । इन पांच संयमोंसे विरुद्ध पांच प्रकारका असंयम होता है । पृथिवीकायिक जीवोंका संघट्ट आदि करनेका त्याग करना यह पृथिवीकायिक संयम है, इसी तरहसे यावत् वनस्पतिकायिक संयम तक कथन जानना चाहिये। सू० १९॥ હવે સૂત્રકાર સંયમ અને સંયમના પ્રતિપક્ષ રૂપ અસ યમનું કથન કરે છે. " एगिदियार्ण जीवा असंमारभमाणस्स" त्याह સંઘટ્ટન આદિ દ્વારા એકેન્દ્રિય નું ઉપમર્દન (હત્યા) નહીં કરનારા સાધુ વડે ૧૭ પ્રકારના સંયમમાંથી પાંચ પ્રકારના સ યમનું પાલન થાય छ. महा 'कृञ्' धातु 'भवति' ना अ भा १५सय छे. संयमन त पाय પ્રકાર નીચે પ્રમાણે સમજવા-(૧) પૃથ્વીકાયિક સંયમ, (૨) અપૂકાયિક સંયમ (3) ते४२४यि: सयम, (४) पायि४ सयम अने. () बनस्पतिवि સંયમ, આ પાંચ સંયમથી વિરૂદ્ધ પાંચ પ્રકારના અસંયમ હોય છે. પૃથ્વીકાયિક જીના સંઘદૃન આદિને ત્યાગ કરે તેનું નામ પૃથ્વીકાયિક સંયમ છે એ જ પ્રમાણે અપૂકાયથી લઈને વનસ્પતિકાયિક પર્યાના સંયમ વિષે ५Y समा. ॥ सू. १८ । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुपार्टीका स्था०५ उ०२ सू०२० संयमासंयमनिरूपणम् - मूलम् -पंचिंदिया णं जीवा असमारभमाणस्स पंचविहे संजमे कन्नइ, तं जहा-सोइंदियसंजमे जाव फासिदियसंजमे । पंचविया णं जीवा समारभमाणस्त पंचविहे असंजमे कज्जइ, तं जहा-लोइंदिय असंजमे जाव फासिदिय असंजमे। सव्वपाणभूयजीवसत्ताणं असमारभमाणस्त पंचविहे संजमे कजइ, तं जहा--एगिदिय संजमे जाव पंचिंदियसंजमे । सवपाणभूयजीवसत्ता णं समारभमाणस्ल पंचविहे असंजो कजइ, तं जहा-- एगिदियअसंजमे जाव पंचिंदिय असंजमे ॥ सू० २० ॥ __छाया-पञ्चन्द्रियान् खलु जीवान् असमारभमाणस्य पञ्चविधः संयमः क्रियते, तद्यथा-श्रोत्रेन्द्रियसंयमो यावत् स्पर्शेन्द्रियसंयमः । पञ्चेन्द्रियान खलु जीवान् समारभमाणस्य पञ्चविधोऽसंयमः क्रियते, तद्यथा-श्रोत्रेन्द्रियासंयमो यावत् स्पर्शन्द्रियासंयमः । सर्वपाणभूतजीवसत्त्वात् खलु असमारभमाणस्य पञ्चविधः संयमः 'पंचिंदियाणं जीवा असमारभमाणस्स' इत्यादि सूत्र २० ॥ सूत्रार्थ-पञ्चेन्द्रिय जीवोंका संघटन आदि द्वारा उपमर्दन करनेका त्याग करनेरूप जो संयम है, वह पांच प्रकारका है जैसे-ओनेन्द्रिय संयम यावत् स्पर्शेन्द्रिय संयम इसी तरहसे संघट्ट आदि द्वारा पञ्चेन्द्रिय जीवोंका उपमर्दन करने रूप जो असंयम है, वह भी पांच प्रकारका है, जैसे-श्रोत्रेन्द्रिय असंयम यावत् स्पर्शेन्द्रिय असंयम समस्त प्राण, भूत जीव एवं सत्वोंके संघटन आदि द्वारा मर्दन करने का त्याग करनेवाले " प'चिंदियाण जीवा असमारभमाणस" त्याहસૂત્રાર્થ–પંચેન્દ્રિય જીવોનું સંઘટ્ટન આદિ દ્વારા ઉપમર્દન નહીં કરવા રૂપ જે સંયમ છે, તેને પાંચ પ્રકાર નીચે પ્રમાણે છે-શ્રોત્રેન્દ્રિય સંયમથી લઈને સ્પર્શેન્દ્રિય સંયમ પર્યન્તના પાંચે ઈન્દ્રિયોના સંયમ અહીં ગ્રહણ કરવા જોઈએ. એ જ પ્રમાણે સંઘદૃન આદિ વડે પંચેન્દ્રિય જીવોનું ઉપમદન કરવા રૂપ અસંયમના પણ નીચે પ્રમાણે પાંચ પ્રકાર પડે છે–શ્રોત્રેન્દ્રિય અસંયમથી લઈને સ્પર્શેનિદ્રય અસંયમ પર્યન્તના પાંચ પ્રકારે અહીં ગ્રહણ કરવા જોઈએ. સમસ્ત પ્રાણ, ભૂત, જીવો અને સર્વેનું સંઘટ્ટન આદિ દ્વારા મદન કરવાને ત્યાગ કરનાર જીવ દ્વારા પાંચ પ્રકારના સંયમનું પાલન થાય Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ स्थाना क्रियते, तद्यथा-एकेन्द्रियसंघमो यावत् पञ्चेन्द्रियसंयमः । सर्वप्राणभूतजीव सत्त्वान् खळु समारभमाणस्य पञ्चविधः असंयमः क्रियते, तद्यथा-एकेन्द्रियासंयमो यावत् पश्चन्द्रियासंयमः ॥ स० २० ॥ टीका-पंचिदिया ' इत्यादि " पुढविदगअगणिमारुय वणस्सइ विविचउपणिदियाजीरा । पेहुप्पेहपमउजणपरिवगमणोवईकाए ॥१॥ छाया-पृथिव्युदकाग्निमारुताः वनस्पतिढित्रिचतुःपञ्चन्द्रिया अजीवाः प्रेक्षोत्प्रेक्षा प्रमार्जनं परिप्ठापनं मनोवाक काया ॥१॥ इत्यत्र सप्तदश विधः सयमः मोक्तः तत्र तस्य संयमस्य नवमो भेदः पञ्चन्द्रियमंयमः प्रोक्तः। स एवात्र श्रोत्रेन्द्रियसंयमादिभेदैः पच्चविधत्वेनोच्यते। तथाहिपञ्चेन्द्रियान् जीवान असमारभमाणस्य पञ्चन्द्रियजीवानां विराधनामकुर्वतो जीवस्य श्रोत्रेन्द्रियसंयमादिरूपः पञ्चविधः सयमो भवति तत्र श्रोत्रेन्द्रियस्य विराधनापरिवर्जनं श्रोत्रन्द्रियसंयमः एवं चक्षुरिन्द्रियादि तत्तदिन्द्रियस्यजीवको पांच प्रकारका संयम होता है, जैसे-एकेन्द्रिय संयम यावत् पंचेन्द्रिय संयम मयस्त प्राण भून जीव एवं सच्चोंका मंघटन आदि द्वारा मदनकरनेरूप असंयम पांच प्रकारका है, जैसे-एकेन्द्रिय असंयम यावत् पञ्चेन्द्रिय असंयम। " पुढविदग अगणिमारुय" इत्यादि। हम गाथा द्वारा जो १७ प्रकारका संयम कहा गया है, उममें मंय. मका नौवां भेद जो पञ्चेन्द्रिय संयम कहा है, वही यहां सघ्रमें श्रोत्र. न्द्रिय संयम आदिके भेदों द्वारा पांच प्रकार से कहा गया है, जो जीव पश्चेन्द्रिय जीवोंकी विराधना नहीं करता है, ऐसे जीवको श्रोत्रेन्द्रिय संयम आदि रूप पांच प्रकारका संयम होता है, इनमें श्रोत्रेन्द्रियकी विराधनोका त्याग करना वह श्रोत्रेन्द्रिय संयम है, इमी तरहसे चक्षु છે તે પાંચ પ્રકારે નીચે પ્રમાણે છે-એકેન્દ્રિય સંયમથી લઈને પંચેન્દ્રિય સંયમ પર્યન્તના પાંચ પ્રકાર અહીં સમજી લેવા. સમસ્ત પ્રાણ, ભૂત, જીવા અને સરનું સંઘઠ્ઠન આદિ દ્વારા મર્દન કરવા રૂપ અસંયમના પણ નીચે પ્રમાણે પાંચ પ્રકાર છે-એકેન્દ્રિય અસંયમથી લઈને પંચેન્દ્રિય મિંયમ પર્યન્તના પાંચ પ્રકારો અહીં સમજી લેવા. ___“पुढविदगअगणिमारुय " त्याह આ ગાથા દ્વારા સંયમના જે ૧૭ પ્રકાર બતાવવામાં આવ્યા છે, તેમાં નમો ભેદ જે પચેન્દ્રિય સંયમ કહ્યો છે, એ જ અહીં સૂત્રમાં કોન્દ્રિય સંયમ આદિના ભેદથી પાંચ પ્રકારને કહ્યો છે. જે જીવ પંચેન્દ્રિય જીવોની વિરાધના કરતું નથી, એવા જીવ દ્વારા શ્રોત્રેન્દ્રિય સંયમ આદિ રૂપ પાંચ પ્રકારના સંયમનું પાલન થાય છે. તેમાં શ્રોત્રેન્દ્રિયની વિરાધનાને ત્યાગ કરે Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'सुधा टीका स्था ५ उ.२ सू. २० सयमासंयमनिरूपणम् १०७ विराधना परिवर्जनं तत्तदिन्द्रियस यमो वोध्य इति । एतद्वैपरीत्येन पञ्चविधइन्द्रियासयमो वोध्य इति । पूर्वमेकेन्द्रियपश्चेन्द्रियजीवाश्रयेण संयमसंयमा. सर्वजीवाश्रयत्वेन तावुच्येते ‘सत्रपाणभूय' -इत्यादिना । सर्वप्राणभूतजीवसत्त्वान् सर्वे च ते प्राणाश्च भूताचे जीवाश्च सत्त्वाचेति-सर्वप्राणभूतजीवसत्त्वास्तान् असमारभमाणस्य अविराधयतो जीवस्य एकेन्द्रियसंयमादिपञ्चेन्द्रिय संयमान्तः पञ्चविधः मंयमो भवति । प्राणादीनां भेदस्त्वेवं बोध्या, तथाहि" प्राणा द्वित्रिचतुः प्रोक्ताः भूतास्तु तरवः स्मृताः । । जीवाः पञ्चेन्द्रिया ज्ञेयाः शेषाः सच्चा इतीरिताः " ॥१॥ इति । ' रिन्द्रिय आदि इन्द्रियोंकी विराधना करनेका त्याग करना वह इन्द्रिय संयम है, इन इन्द्रियों के संयमसे विपरीत पांच प्रकारका इन्द्रिय असंयम होता है, संयम और असंयमका वह पूर्वोक्त कथन एकेन्द्रिय और पश्चन्द्रिय जीवोंके आश्रयको लेकर कहा है, अब समस्त जीवोंके आश्रयसे संयम असयमका कथन सूत्रकार करते हैं-" सव्वपाणभूय" इत्यादि-समस्त, प्राणोंकी समस्त भूतोंकी समस्त जीवोंकी और समस्त सत्वोंकी विरा. धना करनेवाले जीवको एकेन्द्रिय संयम आदिसे लेकर पञ्चेन्द्रिय संयम तक पांचों प्रकारका संघम होता है, प्राणादिकोंमें भेद इस प्रकारसे कहा गया है-प्रागा द्वित्रिचतुः प्रोक्ता" इत्यादि । दो इन्द्रियवाले तेइन्द्रियवाले और चार इन्द्रियवाले जीव " प्राण" તેનું નામ શ્રોત્રેન્દ્રિય સંયમ છે, એ જ પ્રમાણે ચક્ષુરિન્દ્રિય, ઘ્રાણેન્દ્રિય, રમનેન્દ્રિય અને સ્પર્શેન્દ્રિયની વિરાધનાને ત્યાગ કરે તેનું નામ અનુક્રમે ચક્ષુરિન્દ્રિય સંયમ, ધ્રાણેન્દ્રિય સંયમ, રસનેન્દ્રિય સંયમ અને સ્પશેન્દ્રિય સંયમ છે. એ ઈન્દ્રિયોના સંયમથી વિપરીત પાંચ પ્રકારની ઈન્દ્રિય અસ યમ હેય છે. સંયમ અને અસંયમનું આ કથન એકેન્દ્રિય અને પંચેન્દ્રિય જીવોને આધારે કરવામાં આવ્યું છેહવે સમસ્ત જેને આધારે सयम भने मसयमनु ४थन सूत्रा२ रे छ-" सव्वपाणभूय " ઈત્યાદિ–સમસ્ત પ્રાણેની, સમસ્ત ભૂતાન, સમસ્ત જીની અને સમસ્ત સની વિરાધના ન કરનાર છે એકેન્દ્રિય સંયમથી લઈને પંચેન્દ્રિય સંયમ પર્યન્તના પાંચ પ્રકારના સંયમનું પાલન કરનારા ગણાય છે. પ્રાદિકને मा प्रमाणे म समय-"प्राणा द्वि त्रि चतुः प्रोक्ता " त्याहि દ્વીન્દ્રિય, ત્રીન્દ્રિય અને તુરિન્દ્રિય અને “પ્રાણ કહે છે. વનસ્પતિ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ स्थानाङ्गसूत्र ____ अत्र पृथिव्यादिपञ्चेन्द्रियपर्यन्ता नव सयमा बोध्याः। यतः एकेन्द्रियसंयमेन पृथिव्यादयः पञ्च, द्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रिया इति चत्वारः, इत्युभयेप संकलनया नव । सर्वप्राणभूतजीवसत्चानां विराधनां कुर्वतस्तु एकेन्द्रियासयमादिपश्चन्द्रियासंयमान्तः पञ्चविधासंयमो भवति ।। स० २० ॥ एकेन्द्रियभेदेनोक्तस्य वनस्पतेर्वादरभेदस्य पञ्चविधत्वमाह मूलम् -पंचविहा तणवणस्सइकाइया पण्णत्ता, तं जहाअग्गवीया १ मूलवीया २ पोरवीया ३ खंधवीया ४ वीयरुहा ५॥ सू० २१ ॥ छाया-पञ्चविधास्तृणवनस्पतिकायिकाः प्रज्ञप्ताः, तबधा-अग्रवीजाः १ भूलवीजाः २ पर्ववीजाः ३ स्कन्धवीजाः ४ वीजरुहाः ५ ॥ सू० २१ ॥ इस शब्दसे कहे गये हैं, वृक्ष '' भूत " इस शब्दसे कहे गये हैं " पञ्चेन्द्रिय" जीव इस शब्दसे कहे गये हैं, इनसे अतिरिक्त एकेन्द्रिय जीव " सत्त्व " शब्दसे कहे गये हैं । यहां पृथिवी आदिसे लेकर पञ्चेन्द्रिय तकके नौ संयम हैं, क्योंकि एकेन्द्रिय संयमसे पृथिव्यादिक पांच द्वीन्द्रिय तेइन्द्रिय चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय संघनसे चार इस प्रकारसे ये नौ संयम होते हैं । सर्व प्राण, भूत, जीव एवं सत्त्व इनकी विराधना कर. नेवाले जीवके एकेन्द्रिय असंघमसे लेकर पञ्चेन्द्रिय असं यम तक पांच प्रकारका असंयम होता है । सू० २० ॥ एकेन्द्रियके भेदसे कथित हुए वनस्पतिका जो बादर भेद है, उसकी पंचविधताका कथन अब सूत्रकार करते हैंકાયિકને “ભૂત” કહે છે, પંચેન્દ્રિયોને “જીવ' કહે છે, તે સિવાયના એકેન્દ્રિય જીને “સત્વ' કહે છે. અહીં પૃથ્વીકાયિક સંયમથી લઈને પચેન્દ્રિય સંયમ પર્યન્તના નવ પ્રકારના સંયમ કહ્યા છે. “એકેન્દ્રિય સ યમ” આ પદ દ્વારા પૃથ્વીકાયિક સંયમથી લઈને વનસ્પતિકાયિક સંયમ પયેતના પાંચ ભેદ ગ્રહણ થયા છે. આ સિવાયના ચાર ભેદ નીચે પ્રમાણે છે-કીન્દ્રિય સંયમ, ત્રીન્દ્રિય સંયમ, ચતુરિન્દ્રિય સંયમ અને પંચેન્દ્રિય સંયમ સમસ્ત પ્રાણે, ભૂત, છે અને સોની વિરાધના કરનારે છ વડે એકેન્દ્રિય અસંયમથી લઈને પંચેન્દ્રિય અસંયમ પર્યન્તના પાંચ પ્રકારના અસંયમ સેવાય છેસૂ. ૨૦ એકેન્દ્રિયના ભેદરૂય જે વનસ્પતિકાય છે, તેના બાદર વનસ્પતિ રૂપ ભેદના પાંચ પ્રકારનું સૂત્રકાર હવે કથન કરે છે. Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुंघा टीका स्था०५ उ० २ सू०२१ वनस्पतेर्यादरभेवपञ्चकनिरूपणम् १०२ टीका-पंचविहा' इत्यादि-- तृणवनस्पतिकायिकाः-तृगरूपाः बादररूपा ये वनस्पतिकायिकाजीवा सन्ति ते अग्रवीनादिभेदेन पञ्चविधा बोध्याः। तत्र-अग्रबीजाः कोरण्टकादयः १, मलवीजा: कमलकन्दादयः २, पर्ववीजा:-क्षुवंशादयः ३, स्कन्धवीना शल्लक्यादयः ४ वीजरुहावटादयः ५ इति ।। मू० २१ ॥ पूर्व वनस्पतिकायिकजीवाः प्रोक्ताः, तेषां रक्षणं त्वाचारेणैव भवतीत्यत आचारस्वरूपमाह मूलम् -पंचविहे आयारे पण्णत्ते, तं जहा-णाणायारे १ दसणायारे २ चरित्तायारे ३ तवायारे ४ वारियायारे ५ ॥सू०२२॥ छाया--पञ्चविध आचारः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-ज्ञानाचारः १ दर्शनाचारः २ चारित्राचारः ३ तप आचारः ४ वीर्याचारः ५ ॥ मू० २२ ।। 'पंचविहा तणवणस्सइकाइया पण्णत्ता' इत्यादि खू० २१ ॥ तृणरूप जो बादर वनस्पतिकायिक जीव हैं, वे अग्रबीज आदिके भेदसे पांच प्रकारके कहे गये हैं, जिनका अग्रभागही बीजरूप होता है, ऐसे कोरण्टक आदि अग्रबीज हैं १। जिनका मूलही 'बीजरूप होता है, ऐसे कमलकन्द आदि मूलबीज हैं । जिनका पर्वही बीजरूप होना है, ऐसे इक्षु (गन्ना) वंश आदि पर्वबीजहैं, तथा जिनका स्कन्धही बीजरूप होता है, ऐसे शल्लकी आदि स्कन्धयीज हैं, और जो वनस्पति बीजसे उत्पन्न होते हैं ऐसे वे वड आदि बीजरूप वनस्पति बीज हैं ।स० २१॥ - इन कथित वनस्पतिकायिक जीवों का रक्षण आचारसेही होता है, अतः अब सूत्रकार आचारका स्वरूप कहते हैं-- "पंचविहा तणवणस्सहकाइया पण्णत्ता" त्याह તૃણું રૂપ જે બાદર વનસ્પતિકાવિક જીવે છે, તેમના નીચે પ્રમાણે પાંચ પ્રકાર પડે છે– (૧) અબીજ -જેમને અગ્રભાગ જ બીજુંરૂપ હોય છે, એવા કરંટક આદિને “અબીજ કહે છે (૨) જેમનું મૂળ જ બીજરૂપ હોય છે, એવા કમલકન્ટે આ દિને “મૂળબીજ' કહે છે (૩) જેમના પર્વ જ (ગાંઠ) બીજરૂપ હોય છે, એવા શેરડીના સાઠા આદિને “પર્વબીજ' કહે છે. (૪) જેનું થડ भी। ३५ डाय छ, मेवी शसी माहिने '२४.५ ४ ४९ छ (५) २ વનસ્પતિ બીજમાંથી ઉત્પન્ન થાય છે, એવા વડ આદિના બીજને “બીજરૂપ વનસ્પતિ બીજ' કહે છે ! સૂ. ૨૧ છે - ઉપર જે વનસ્પતિકાયિક આદિ ની વાત કરી તેમનું રક્ષણ આચાર દ્વારા જ થાય છે. તેથી હવે સૂત્રકાર આચારનું સ્વરૂપ પ્રકટ કરે છે. Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० स्थानास टीका--' पंचविहे ' इत्यादि -- आचरणम्-आचारः-ज्ञानादिविषयकमनुष्ठानमित्यर्थः । स च ज्ञाना चारादिभेदेन पञ्चविधः । तत्र - ज्ञानाचार - ज्ञानं ज्ञानं तद्विषय आचारः - श्रुतज्ञानasoor आचार इत्यर्थः । तदुक्तम् - " काले १, विणए २ वहुमाणे ३ उवहाणे ४ तहय अनिण्हवणे ५ । वंजण ६ अत्थ ७ तंदुभए ८ अट्ठविदो नांणमायारो ॥ १ ॥ " छाया -- कालो विनयो बहुमानम्, उपधानं तथा च अनिवनम् । व्यञ्जनम् अर्थस्तदुभयम्, अष्टविधो ज्ञानाचारः ॥ १ ॥ छवि १ | , तथा - दर्शनाचारः - दर्शनं सम्यक्त्वं तद्विपयआचारः - सम्यक्त्वतां व्यव हार इत्यर्थः । अयमप्यष्टविधः । तदुक्तम्- 'पंचविहे आवारे पत्ते' इत्यादि सृ० २२ ॥ टीकार्थ-आचार पांच प्रकारका कहा गया है, जैसे- ज्ञानाचार१ दर्शनाचार २ चारित्राचार ३ तप आचार ४ और वीर्याचार ५ आचरणका नाम आचार है, यह आचार ज्ञानादि विषयक अनुष्ठानरूपं होता है, यह पूर्वोक्तरूपसे पांच प्रकारका कहा गया है, इनमें श्रुतज्ञान सम्बधी जो आचार है, वह ज्ञानाचार है, यह ज्ञानाचार आठ प्रकारका है । कहा भी है- " काले विणए बहुमाणे " इत्यादि । काल १ विनय २ बहुमान ३ उपधान ४ अनिव ५ व्यञ्जन ६ अर्थ ७ और तदुभय ८ दर्शननाम सम्यक्त्वका है, इस सम्बन्धी जो आचार है, वह दर्शनाचार है, यह दर्शनाचार सम्पत्व सहित जीवों को टीअर्थ - " पंचविहे आयारे पण्णत्ते " त्यिाहि આચારના નીચે પ્રમાણે પાંચ પ્રકાર કહ્યાં છે—(૧) જ્ઞાનાચાર, (૨) दर्शनायार, (3) थारित्रायार, (४) तय आधार भने (५) वीर्याचार, -1 આચરત્રુને આચાર કહે છે. તે આચારા જ્ઞાનાદિ વિષયક અનુષ્ઠાન રૂપ હાય છે. તેના જ્ઞાનાચાર આદિ પાંચ પ્રકાર છે. શ્રુતજ્ઞાન સમધી જે આચાર છે; તેને જ્ઞાનાચાર કહે છે. તે જ્ઞાનાચારના નીચે પ્રમાણે આઠ- પ્રકાર છે— " काळे विणए बहुमाणे " त्याहि (१) ४.१, (२) विनय, (3) अडुभान, (४) उपधान, (५) अनिह्नव (६) व्यथन, (७) अथ मने (८) तहुलय સમ્યકત્વને દશન કહે છે. દર્શન સ ખ ધી જે આચાર છે તેને દાનાચાર હે છે. તે દનાચાર સષકત્લ યુક્ત જીવાના વ્યવહાર રૂપ હોય છે. તેવા 1 Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुपारीकास्था०५३०२ सू०२२ माचारस्वरूपनिरूपणम् " निस्सकिय १ निक्कंखिय २, निधितिगिच्छा ३ अमूढदिट्टी ४ य। उववृह ५-थिरीकरणे ६, वच्छल्ल ७, पभावणे ८ अट्ट |॥१॥" छाया--निश्शङ्कितं निष्कासितं, निर्विचिकित्सा अमूढदृष्टिश्च ।। उपवृंदा-स्थिरीकरणे वात्सल्य-प्रभावने अष्ट ।। १ ।। इति । तथा--चारित्राचारः-चारित्रं-सर्वविरतिलक्षण, तद्विषयआचारः, समित्या. दिरूप चारित्र पालनात्मकोऽष्टविधो व्यवहारः।। तदुक्तम्--पणिहाण नोगजुनो, पंवहि समिईहि तिहि य गुत्तीहि ।। __ एम चरित्तायारो, अट्ठविहो होइ णाययो ॥१॥ १॥" छाया-प्रणिधानयोगयुक्तः(पशनव्यापारवान्)पञ्चभिः समितिमिस्तिसभिश्वगुप्तिभिः। एष चारित्राचारः अष्टविधो भवति ज्ञातव्यः ।।१।। इति । व्यवहाररूप होता है, यह भी आठ प्रकारका है, जैसे-" निस्संकिय निक्कंखिय" इत्यादि। . निश्शंकित १ निष्कांक्षित २ निर्विचिकित्सा ३ अमूढदृष्टि ४ उपहा ५ स्थिरीकरण ६ वात्सल्य ७ और प्रभावना ८ चारित्राचार-मर्वविरति रूप जो संयम है, वह चारित्र है, इस चारित्र सम्बन्धी जो आचार है, वह चारित्राचार है. यह चारित्राचार समिति आदिके पालने रूप होताहै, और यह भी अण्ठ प्रकारका है जैसे " पणिहाणजोगजुत्तो" इत्यादि। पांच समितियोंसे एवं तीन गुप्तियोंसे युक्त जो प्रशस्त व्यापारघाला होता है, वह चारित्राचार है, इस प्रकार यह चारित्राचार पांच समिति और तीन गुप्तिरूप होनेसे आठ प्रकारका है, तप आचार १२ પણ નીચે પ્રમાણે આઠ પ્રકાર છે. "निस्संक्रिय निकखिय" त्या: (१) नि:शत, (२) निक्षित, (3) रिसा, (४) अभूहिट (५) 64डा, (६) स्थिरी४२, (७) वात्सल्य माने (८) प्रापना. ચારિત્રાચાર–સર્વવિરતિ રૂપ જે સંયમ છે તેને ચારિત્ર કહે છે. તે ચારિત્ર વિષયક જે આચાર છે તેને ચારિત્રાચાર કહે છે. તે સમિતિ આદિના પાલન રૂપ હોય છે. તેના પણ નીચે પ્રમાણે આઠ પ્રકાર કહ્યા છે. ___ "पणिहाणजोगजुत्तो" त्याह પાંચ સમિતિઓ અને ત્રણ ગુપ્તિઓથી યુક્ત એ જે સાધુને પ્રશસ્ત વ્યાપાર છે, તેને ચારિત્રાચાર કહે છે. આ રીતે પાંચ સમિતિ રૂપ પાંચ પ્રકાર Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाङ्गसूत्रे ११२ तथा - तप आचारो - द्वादशविध तपोऽनुष्ठानात्म कस्तपस्वि नामाचारः । तमो द्वादशभेदास्तु वाह्याभ्यन्तरमेदाद् बोध्याः । तत्र वाद्यभेदाः पट् तथा हि- "अगणयरिया, मिवायरिया य रमपरिथागो । कायको पनि लीया य, वज्ज्ञो तभी होइ ॥ " छाया -- अनशनम् ऊनोदरिका भिक्षाचर्या च रस परित्यागः । कायक्लेशः प्रतिस लीनता च वाह्यं तपो भवति ॥ इति । तथा - आभ्यन्तरभेदाः षट्, तथाहि- " प्रावच्छित्तं विणभो, वैयावचं तदेव सज्झाओ । झागं च विस्पग्गो एवो अति तवो || छाया -- प्रायश्चित्तं विनयो वैयावृत्त्यं तथैव स्वाध्यायः । ध्यानं च व्युत्सर्गः, एतदाभ्यन्तरं तपः ॥ प्रकारका होता है, तपस्वियों का जो तपोंके अनुष्ठान करनेरूप आचार है, वह तप आचार है, तपके १२ भेद ६ बाह्य तप औरं ६ आभ्यन्तर तपके भेदसे होते हैं जैसे - " अणसणमूणोयरिया " इत्यादि । अनशन १ नोदरिका २ भिक्षाचर्या ३ रसपरित्याग ४ काय. क्लेश ५ और प्रतिसंलीनता ६ ये बाह्य तप हैं, आभ्यन्तर तपके ये ६ भेद हैं- " प्रायश्चित्तं विणओ " इत्यादि । प्रायश्चित्त १ विनय २ वैयावृत्य ३ स्वाध्याय ४ ध्यान ५ और व्यूसर्ग ६ आत्मा एवं शरीरकी शक्तिका नाम वीर्य है, ज्ञानाचारका અને ત્રણ ગુપ્તિરૂપ ત્રણ પ્રકાર મળીને તે કુલ આઠ પ્રકારના હાય છે. તપ આચાર—તપસ્વીઓને-તપનું અનુષ્ઠાન કરવા રૂપ-જે આચાર હાય છે તેને તપાચાર કહે છે. તેના ૧૨ પ્રકાર છે ૬ બાહ્ય તપ અને ૬ આભ્ય ન્તર તપ બારૈ ભેદોના નામ નીચે પ્રમાણે છે “aqanqmafa” Seuile— (१) अनशन, (२) ओहरित, (3) भिक्षायय, (४) रसपरित्याग, (५) अयम्प्रेश भने (६) प्रतिस जीनता, या मानप छे. माभ्यन्तर तपना से नीचे प्रमाणे छे " पायच्छित्तं त्रिणओ " इत्यादि (१) अयश्चित्त, (२) विनय (3) वैयावृत्य, (४) स्वाध्याय (५) ध्यान અને (૬) વ્યુત્સર્ગ વીર્યાચાર-આત્મા અને શરીરની શક્તિનું નામ વીય છે નાચારના ज्ञ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधाटीका स्था०५ उ०२ सू०२२ आचारकल्पमेदनिरूपणम् ११३ तथा-वीर्याचार:-वीर्यम्=आत्मशरीरसामर्थ्य, तस्यानन्तरोक्तेषु पत्रिशद्विधेषु ज्ञानाचारादिपु स्फोरणम् । इति । सू० २२ ॥ ___ आचारस्य प्रस्तुतत्वात् सम्पति आचारप्रकल्पस्य भेदानाह-- मूलम्-पंचविहे आयारपकप्पे पण्णते, तं जहा-सासिए उग्धाइए १, मासिए अणुरघाइए २, चाउमासिए उग्घाइए ३, चाउम्मासिए अणुग्घाइए ४, आरोवणा ५। आरोवणा' पंचविहा पण्णता, तं जहा-पट्टविया १ ठविया २ कसिणा ३ अकलिणा ४ हाडहडा ५ ॥ सू० २३ ॥ ___ छाया-पञ्चविध आचारप्रकल्पः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-मासिकमुद्घात्तिकम् १, मासिकमनुद्घातिकम् २, चातुर्मासिकमुद्घातिकम् ३, चातुर्मासिकमजुद्घातिकम् ४, आरोपणा पञ्चविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-प्रस्थापिता १, स्थापिता २, कृत्स्ना ३, अकृत्स्ना ४, हाडहडा ५॥ सू० २३ ।। ८ दर्शनाचारका ८ चारित्राचारका ८ तप आचारका १२ कुल ३६ प्रकारके ज्ञानाचार आदिकोंके परिपालन में जो वीयरूप शक्तिका प्रकट करना है, वह वीर्याचार है ॥सू० २२॥ अब सूत्रकार आचार प्रकल्पके भेदोंका कथन करते हैं'पंचविहे आधारकप्पे पण्णत्ते' इत्यादि सू० २३ ॥ . सूत्रार्थ-आचार प्रकल्प पांच प्रकार का कहा गयाहै, जैसे-मासिक उदघातिक १ मासिक अनुदातिकर चातुर्मासिक उद्घातिक३ चातुर्मासिक अनु. द्वातिक४ और आरोपणा ५ इनमें आरोपणा पांच प्रकारकी कही गईहै - जैसे-प्रस्थापिता१ स्थापिता २ कृत्स्ना३ अकृत्स्ना४ और हाडहडा ५ ૮, દર્શનાચારના ૮, ચારિત્રાચારના ૮ અને તપાચારના ૧૨ એ રીતે કુલ ૩૬ પ્રકારના જ્ઞાનાચારાદિકના પરિપાલનમાં જે વીર્યરૂપ શક્તિનું પ્રકાશન થાય છે, તેનું નામ વીર્યાચાર છે છે . ૨૨ હવે સૂત્રકાર આચાર પ્રકલ્પના ભેદનું કથન કરે છે. सूत्राथ:-" पचविहे आयारपकप्पे पण्णत्ते" त्याहઆચાર પ્રકલ્પના નીચે પ્રમાણે પાચ પ્રકાર કહ્યાં છે –(૧) માસિક, याति:, (२) मासि मनुध ति:, (3) यातुर्मासि धाति, (४) यातुर्मा સિક અનુદ્ઘતિક અને (૫) આપણું. તેમાંથી આપણા પાંચ પ્રકારની ४ी छ. रेभ (१) प्रस्थापिता, (२) २पिता, (3) सना, (४) मलना, मन (५) 83831. स्था०-१५ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाङ्गसूत्रे ११४ टीका - पंचविछे आयारपकप्पे ' इत्यादि आचारप्रकल्पः-प्रकृष्टः कल्पः = प्रायश्चित्तरूपो यत्र सः मकल्पः, आचारस्य = आचाराङ्गस्य प्रकल्पः = निशीथाख्योऽव्ययनविशेष आचारप्रकल्पः, स च पञ्चविधायचित्तरूपकत्वात् पश्ञ्चविधः । तथाहि मासिकमुद्धातिकम् - मासेन निवृत्तं मासिकम्, उद्घातः = भागपातः सान्तरहानं वा तद् विद्यते यत्र तत् उद्घा तिकम् । सार्द्धसप्तविंशतिदिनप्रमाणं प्रायश्चित्तं मासिकमुद्धातिकमुच्यते । लघुमासप्रायश्चित्तमित्यर्थः । उक्तंचात्र " अद्वेण छिन्नसेसं, पुंव्त्रद्वेण तु संजुयं काउं । देज्जा लहुदाणं, गुरुदाणं तत्तियं चैव ॥ १||" छाया - अर्जुन छिन्नशेषं, पूर्वार्द्धन तु संयुतं कृत्वा । दीयते लघुकदानं गुरुदानं तावदेव ॥ इति । मासिक तपोऽधिकृत्य अस्या गाथाया भावार्थ एवं बोध्यः, तथाहि - मासे अर्जेन छिन्ने सति पञ्चदशदिनानि शिष्यन्ते । मासापेक्षया पूर्वस्य पूर्वतपसः पञ्चविंशतिदिनात्मकस्य अ सार्द्धद्वादशकम् उभयसंकलनया सार्द्धसप्तविंशति प्रायश्चित्त रूप प्रकृष्टकल्प जहां होता है, वह प्रकल्प है, आचाराङ्गरूप आचारका जो प्रकल्प है, वह आचार प्रकल्प है, यह आचारप्रकल्प निशीथ नामक अध्ययन विशेष रूप है यह पूर्वोक्त रूपसे पांच प्रकारका है, क्योंकि यह प्रायश्चित्तका प्ररूपक होता है, वह मासिक द्वाति कहलाता है, इसे लघुमास प्रायश्चित्त कहा गया है। कहा भी हैअद्वेण छिनसे से ' इत्यादि । " मासिक तपकी अपेक्षासे इस गाथाका ऐसा अर्थ है, मासके आधे दिन पन्द्रह दिन होते हैं, मासकी अपेक्षासे २५ दिनात्मक पूर्वतपके आधे १२ ॥ दिन होते हैं, १५ और १२|| साढे बारहको परस्पर में जोड़ने से २७|| साडेसताईस होते हैं । लघु प्रायश्चित्त यदि एक मासका देना हो तो वह२७॥दिनकाही પ્રાયશ્ચિત્ત રૂપ પ્રકૃષ્ટ કલ્પ જ્યાં હાય છે, તે પ્રકલ્પ છે. આચારાંગ રૂપ આચારના જે પ્રકલ્પ છે, તેનું નામ આચાર પ્રકલ્પ છે તે આચાર પ્રકલ્પ નિશીથ નામના અધ્યયન વિશેષરૂપ છે તેના પૂર્વોક્ત પાંચ પ્રકારે કહ્યાં છે તે પ્રાયશ્ચિત્તની પ્રરૂપણા કરે છે માસિક ઉદ્ઘાતિકને લઘુમાસ પ્રાયશ્ચિત્ત પણ " अद्वेण छिन्न सेसं " इत्याहि- માસિક તપની મપેક્ષાએ આ ગાથાના અથ આ પ્રમાણે થાય છે— માસથી અર્ધો દિવસ એટલે ૧૫ દિવસ થાય છે. માસની અપેક્ષાએ ૨૫ નાત્મક પૂર્વ તપના અર્ધાં દિવસે ૧૨૫ થાય છે, ૧૫ અને ૧૨ ના સરવાળા Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०५ उ०२ सू०२३ आचारकल्पभेदनिरूपणम् ११५ दिनानि भवन्ति । एतावदिनात्मकं मासिकं लघुमायश्चित्तं दातव्यम् । गुरु प्रायश्चित्तं तु मासावधिकमेव दातव्यमिति ॥१॥ तथा-मासिकम् अनुद्घातिकम् न उद्घातिकम् अनुद्घातिकम्-यथाश्रुतप्रायश्चित्तं गुरुमायश्चित्तमित्यर्थः । एतत त्रिंशदिनप्रमाणं भवतीति ॥२॥ तथा-चातुर्मासिकम् चतुभिर्मासैनित्तम् चातुर्मासिकं तद्रूपम् उद्घातिकम्लघु चतुर्मासमायश्चित्तमित्यर्थः ॥३॥ तथा-चातुर्मासिकम् अनुद्घातिकम् गुरु चतुर्मासप्रायश्चित्तमित्यर्थः ॥४॥ तथा-आरोपणा-आरोप्यते इत्यारोपणा-मायचित्तानामुपयुपर्यारोपणं यावत् पण्मासान्, तत ऊर्ध्वं तु भगवतो महावीरस्वामिनस्तीर्थे आरोपणा न भवति । अयं भाव:-" आरोवणाचडावणत्तिमाणियं होइ " छाया-आरोपणा आरोहणेति भाणितं भवति इति । यो हि यथाप्रतिसेवितः मालोचयति तस्य प्रतिसेवना-निष्पन्नमेव मासलघुमासगुरुप्रभृतिक दीयते, देना चाहिये और गुरु प्रायश्चित्त दिया जावे तो वह तो एक पूरे मास तककाही देना चाहिये १ तथा-मासिक अनुद्धातिक गुरु प्रायश्चित्त रूप होता है, और यह तीस दिनका होता है, जो प्रायश्चित्त चातुर्मासिक उद्घातिक होता है, वह ३ मास २७॥ दिनका होता है, इसे लघु चातुमासिक प्रायश्चित्त भी कहा गया है, जो प्रायश्चित्त चातुर्मासिक अनुद्धातिक होता है, वह शुरु चातुर्मासिक होता है, अर्थात् पूरे चार मासका होता है, प्रायश्चित्तोंके ऊपर जो प्रायश्चित्त ६ मास तक लगातार दिये जाते हैं, वह आरोपणा है, इसके बाद महावीर स्वामीके शासनमें आरोपणा नहीं होती है, भाव यह है, "आरोवणा चडावपत्ति भाणियं होइ" आरोपणा आरोहणा कही गई है, जो प्राणी जैसे ૨છા સાડીસત્યાવીસ આવે છે જે એક માસનું લઘુપ્રાયશ્ચિત્ત દેવું હોય તે પૂરા ૩૦ દિવસનું દેવાને બદલે ૨છા સાડીસત્યાવીસ દિવસનું દેવું જોઈએ, જે ગુરુપ્રાયશ્ચિત્ત દેવું હોય તે તે પૂરા ૩૦ દિવસનું હોવું જોઈએ. આ પ્રકારના ૩૦ દિવસના પ્રાયશ્ચિત્તને માસિક અનુદ્ધાતિક કહે છે. જે પ્રાયશ્ચિત્ત ૩ માસ ૨ા દિવસનું દેવામાં આવે છે તેને લઘુચાતુર્માષિક અથવા ચાતુ મસિક ઉદ્ઘાતિક કહે છે પૂરા ચાર માસના પ્રાયશ્ચિત્તને ચાતુર્માસિક અનુદૂઘાતિક અથવા ગુરુચાતુર્માસિક કહે છે. સતત છ માસ પર્યન્તનું જે પ્રાયશ્ચિત્ત દેવામાં આવે છે તેનું નામ આરોપણું છે. મહાવીર પ્રભુના શાસનમાં તેટલા સમય કરતાં વધારે સમયની આપણુ દેવામાં આવતી નથી. "आरोवणा चडावगत्तिमाणिय होइ" भारोपणाने सारोड ४ i भार Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ C स्थाना " यस्तु न तथा तस्य तत्तावद दीयत एव माया निष्पन्नं चान्यद्वारोग्यते इत्यारीपणेति । आचारप्रकल्पस्य केपुचिदुदेशकेषु लघुमासप्रायवित्तं प्रयते, केचित् गुरुमासमायश्चित्तम्, केपुचिद् लघुचतुर्मासमायविनं केपुचिद गुरु चतुर्मासप्रायश्चित्तम् केषुचित् आरोपगा । इति पञ्चविधायवित्तमल्पकला दमाचार प्रकल्पः पञ्चविधो बोध्य इति । अत्र आरोपणा आचारसकल्पस्य पञ्चमभेदत्वेनोक्ताः तस्या एव सम्मति पञ्चविधत्वमाह-' आरोवणा पंचविद्या' इत्यादोपका सेवन करता है, वह उसकी आलोचना उसीके अनुसार करता है, तो उसे उस प्रतिसेवना के अनुसारही मास लघु मासक आदि प्रायश्चित्त दिये जाते हैं, और जो प्रतिसेवित दोपके अनुसार आलोचना नहीं करता है, उसे प्रायश्चित्त तो दियाही जाता है, परन्तु उस प्रायवित्त में मायासे निष्पन्न हुए अन्य प्रायश्चित्ती आगेपणा की जानो है, इस प्रकार से यह आरोपणा होती है, आचार प्रकम्प के किन्हीं २ उद्देशकों में लघुमास गायश्चित्त प्ररूपित्त हुआ है, किन्हीं २ उमेशकों गुरुमास प्रायचित्त प्ररूपित हुआ है, और किन्हीं २ उदेशको आरो पण प्ररूपित हुई है, इस तरह से पांच प्रकारके प्रायवित्तका प्ररूपक होने से यह आचार प्रकल्प पांच प्रकारका कहा गया है, ऐसा जानना चाहिये यहाँ आरोपणा आचार प्रकल्पके पञ्चम ने रूपसे कही है, सो अब उसकेही सूत्रकार पांच भेद प्रकट करनेके लिये कहते हैंછે. જે જીવ જેવા દોષનું સેવન કરે છે, તે દેોપની તેના દ્વારા તેને અનુરૂપ અલાચના કરાય છે-તેને પ્રતિસેત્રનાને અનુરૂપ જ માસક્ષુ, માસગુરુ આદિ પ્રાયશ્ચિત્ત દેવામાં આવે છે, જે માણુમ્ર પ્રતિસેવિત દેશને અનુરૂપ આલેાચના કરતા નથી, તેને પ્રાયશ્ચિત્ત તે દેવામાં આવે જ છે, પરન્તુ તે પ્રાયશ્ચિત્તમાં માયાથી નિષ્પન્ન થયેલા અન્ય પ્રાયશ્ચિત્તની આરાપણા કરાય છે. આ પ્રકારનું તે આરાપણાનૂ સ્વરૂપ હોય છે. આચાર પ્રકલ્પના કાઈ કાઈ ઉદ્દેશકેમાં લધુમાસ પ્રાયશ્ચિત્તની પ્રરૂપા કરવામાં આવી છે, કઈ કઈ ઉદ્દેશકેામાં ગુરુમાસ પ્રાયશ્ચિત્તની, કેાઈ કોઈ ઉદ્દેશકોમાં લઘુ ચાતુર્માસ પ્રાયશ્ચિત્તની, કઇ કેઈ ઉદ્દેશકેામાં ગુરુ ચાતુર્માસ પ્રાયશ્ચિત્તની અને કાઇ કાઇ ઉદ્દેશકેમાં આરેપણાની પ્રરૂપણા કરવામાં આવી છે. આ રીતે પાંચ પ્રકારના પ્રાયશ્ચિત્તોનુ પ્રરૂપક હાવાને કારણે આ આચાર પ્રકલ્પને પાંચ પ્રકારના કહેવામાં આવેલ છે, એમ સમજવું. અહીં આરે પશુને આચાર પ્રકલ્પના પાંચમાં બે રૂપ પ્રકટ કરવામાં આવી છે. હવે સૂત્રકાર તે આરાપણાના પાંચ ભેદા પ્રકર मेरे छे. Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था. ५ उ २ सू.२३ आवारकाभेदनिरूपणम् ११७ दिना । आरोपणा हि प्रस्थापितादिभेदैः पञ्चविधा भवति । तत्र प्रस्थापिताआरोपणीयेषु बहुषु प्रायश्चित्तेषु सत्सु यद् लघुमासगुरुमासादिप्रायश्चित्तेषु कस्य चिदेकस्य प्रस्थापना सा प्रस्थापितेत्युच्यते ॥ १॥ तथा-स्थापिता - यः कश्चित् मासगुर्वादिप्रायश्चित्ताहे भवति, म गुरोर्वैयावृत्त्यं करोति, अतस्तस्य प्रायश्चित्त वैयावृत्त्य समाप्तिं यावत् स्थापितम्, ततः पश्चात् स प्रायश्चित्तं करिष्यतीत्येपा स्थापितेत्युच्यते ॥२॥ तथा - कृत्स्ना - यत्र झोपो न क्रियते सा । झोपस्त्वयम् - भगवतो महावीरस्वामिनस्तीर्थे पण्मासान्तमेव तपो भवति पण्णां मासानामुपरि ये " आरोवणा पंचविहा " इत्यादि । यह आरोपणा प्रस्थापित आदिके भेदसे पांच प्रकारकी होती है, इनमें जो आरोरणा आरोपणीय अनेक प्रायश्चित्तोंके होने पर लघुमास गुरुमास आदि प्रायश्वित्तों में से किसी एक मायश्चित्त के प्रस्थापनारूप होती है, वह आरोपणा " प्रस्थापिता " इस रूपसे कही गई है, तथा जो कोई मासगुरु आदि प्रायश्चित्त के योग्य होता है, वह पहिले गुरुकी वैयावृत्ति करता है, अतः जबतक वैयावृत्तिकी समाप्ति नहीं हो जाती है, तब तक उसका प्रायश्चित्त स्थापित रहता है, इसके बाद वह प्राय चित्त करता है, इस तरह से यह आरोपणा स्थापितारूप कही गई है, तथा जिस आरोपण में झोष नहीं किया जाता है, वह आरोपणा कृत्स्ना आरोपणा है, झोषका अभिप्राय ऐसा है, कि भगवान् महावीर स्वामीके तीर्थ में छह मास तकही तप होता है, छह मासके बाद जो मास अप" आरोवणा पंचविद्दा " त्याहि 1+ તે આાપેણાના પ્રાથ પિત આદિ પાંચ ભેદ કહ્યાં છે જે આપણા, આરાપ ણીય અનેક પ્રાયશ્ચિત્તોના સંદ્ભાવ હોયત્યારે લઘુમાસ, ગુરુમાસ આદિ પ્રાયશ્ચિ ત્તોમાંથી એક પ્રાયશ્ચિત્તની પ્રસ્થાપના રૂપ હોય છે, તે આરેાપણુને પ્રસ્થા 'પિતા' કહે છે. તથા જે કાઈ સાધુ માસગુરુ આદિ પ્રાયશ્ચિત્તને ચેાગ્ય હોય છે, તે પહેલાં ગુરુનુ' તૈયાનૃત્ય કરે છે, તેથી જ્યાં સુધી વૈયાવૃત્તિની સમાપ્તિ થઈ જતી નથી, ત્યાં સુધી તેનું પ્રાયશ્ચિત્ત સ્થાપિત રહે છે, ત્યારબાદ તે પ્રાયશ્ચિત્ત કરે છે. આ રીતે આ આરાપણાને ‘સ્થાપિતા ’ રૂપ કહેવામાં આવી છે. તથા જે આરાપણામાં ‘ઝેષ ’ કરાતે નથી તે આરાપણાને કૃના આપણા ” કહે છે. ઝેષને ભાવાથ નીચે પ્રમાણે છે મહાવીર પ્રભુના તીર્થમાં છ માસ સુધીનું જ પ્રાયશ્ચિત્ત માપી શકા " - Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाङ्गपत्र मासा अपराधिनो भवन्ति, तेपां क्षयगं भवति, अर्थात् पण्मासाधिकमासानां प्रा. यश्चित्तमपराधिपु नारोप्यते । किमिव ! यथा प्रस्थे धान्ये मातव्ये तदधिकधान्यस्यापनं भवति तदिवेति । पण्मासाधिकमासानां यत्मायश्चित्तानारोपणं स एव झोपो बोध्यः । तस्याभावेन परिपूर्णत्वादियं कृत्स्नेत्युच्यते इति ॥३॥ तथा-अकृत्स्ना-यत्र पण्मासाधिकमासानां प्रायश्चित्तं नारोप्यते इति सा अपरिपूर्णत्वात् अकृत्स्नेत्युच्यते, इति ॥४॥ तथा-हाडहडा-यस्यापराधिनो लघुगुरुमासादिप्रायश्चित्तेपु यत् प्रायश्चित्तं प्राप्त, तत् तस्मिन्नेव काले तस्मिराधीके होते हैं, उसकी क्षपणा हो जातीहै, अर्थात् अपराधियोंमें छह माससे अधिक मासोका प्रायश्चित्त आरोपित नहीं होता है, जैसे-जिस प्रस्थमें (नापविशेप) जितना धान्य समानेके योग्य होताहै, उस प्रस्थमें उतनाही धान्य समाता है, अधिक धान्य वहांसे गिर जाता है, इस तरह छह माससे अधिक मासोंके प्रायश्चित्तको जो अनारोपणा है, वही झोप है, इसके अभावसे छह माससे अधिक प्रायश्चित्त देनेके अभावसे यह आरोपणा पूर्ण होने के कारण कृत्स्ना आरोपणा कही जाती है । जिसमें छ माससे अधिक मास का प्रायश्चित्त की आरोपणा नहीं की जाती है वह अपरिपूर्ण होने से "अकृत्स्ना" आरोपणा कही जातोहै. तथा हाडहडा जो आरोपणा है, वह ऐसी है कि जिस अपराधीके लघुमास गुरुमास आदि प्रायश्चित्तों में से जो प्रायश्चित्त हो वह उसी कालमें उसमें છે અપરાધીને છ માસથી વધારે માસનું પ્રાયશ્ચિત્ત આપી શકાતું નથી ૬ માસ કરતાં વધારે સમયનું પ્રાયશ્ચિત્ત આરેપિત કરી શકાતું નથી. જેમ કે પાત્રમાં જેટલું ધાન્ય સમાઈ શકે તેમ હોય એટલું જ ધાન્ય તેમાં ભરી શકાય છે, પરંતુ જે તેથી વધારે ધાન્ય તેમાં નાખવામાં આવે તે તે પાત્રમાંથી બહાર નીકળી જાય છે, એ જ પ્રમાણે છ માસથી વધારે માસના પ્રાયશ્ચિત્તની જે અનારીપણું છે, તેનું નામ જ “ઝેષ” છે. છ માસથી અધિક સમયના પ્રાયશ્ચિત્તને અભાવ હેવાને કારણે, તે આપણા (છ માસના પ્રાયશ્ચિત રૂપ આરોપણ) પૂર્ણ હોવાને કારણે તેને “કૃતના આરોપણ” કહે છે. જેમાં છ મહીનાથી વધારે મહિમાનું પ્રાયશ્ચિત્તની આપણું કરવામાં આવતી નથી તે અપરિપૂર્ણ હેવાથી “અકસ્ના આરોપણ કહેવાય છે. હાડહડા આરોપ” આ પ્રકારની છે–જે અપરાધીને લઘુમાસ, ગુરુમાંસ આદિ પ્રાયશ્ચિત્તોમાંથી જે પ્રાયશ્ચિત્ત દેવાનું હોય, તે પ્રાયશ્ચિત એ જ કાળે તે અપરાધીમાં આરેપિત કરવામાં આવે છે, તેથી તે આપણાને Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०५ उ०२ सू०२४ मनुष्यक्षेत्रस्य पदार्थविशेषनिरूपणम् १११ न्नारोप्यते इति सा ' हाडहडा' इत्युच्यते । कृतापराधस्य सद्य एव यत्प्रायश्चित्तारोपणा सा ' हाडहडे 'ति भावः ॥० २३॥ संयतासंयतसम्बन्धितया सूत्राणि मागभिहितानि, तत्र संयतासंयतगत. वस्तुविशेषाः मोक्ताः, तेषां व्यतिकरस्तु मनुष्यक्षेत्र एव भवतीति मनुष्यक्षेत्रस्थान पदार्थविशेषानाह मूलम्-जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पचयस्स पुरथिमेणं सीयाए महानईए उत्तरेणं पंच वक्खारपव्वया पण्णत्ता, तं जहामालवंते, १ चित्तकूडे २ पम्हकूडे ३ णलिणकूडे ४ एगसेले ५॥१॥ जंबू मंदरस्स पुरथिमेणं सीयाए महानईए दाहिणेणं पंच वक्खारपव्वया पण्णत्ता, तं जहा-तिकूडे १ वेसमणकूडे २ अंजणे ३ मायंजणे ४ सोमणसे ५ ॥२॥ जंबू मंदरस्ल पञ्चत्थिमेणं सीओदाए महाणईए दाहिजेणं पंच वक्खारपचया पण्णता, तं जहा-विज्जुप्पो १ अंकावई २ पम्हावई ३ आसीविसे ४ सुहावहे ५ ॥३॥ जंबूमंदरस्स पञ्चत्थिमेणं सीओदाए महाणईए उत्तरेणं पंच वक्खारपवया पण्णत्ता, तं जहा-चंदपव्वए १ सूरपव्वए २ णागपव्वए ३ देवपव्वए ४ गंधमायणे ५॥४॥ जंबूमंदरदाहिणेणं देवकुराए कुराए पंच महदहा पण्णत्ता, तं जहा-निसहदहे १ देवकुरुदहे २ सूरदहे ३ सुल: आरोपित किया जाता है, इसलिये यह " हाडहडा" कही गई है, तात्पर्य यह है, कि जिसने जो अपराध किया है, उस अपराधकी उसो समय जो प्रायश्चित्तकी आरोपणा है, वह हाडहडाआरोपणा है सू. २३॥ હાડહડા” કહી છે. એટલે કે જેણે જે અપરાધ કર્યો હોય તે અપરાધના પ્રાયશ્ચિત્તની એ જ સમયે જે આપણા કરવામાં આવે છે તેને "5881 भारोप! " डी. छ. ॥ सू, २३ ।। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानास्त्रे सहे ४ विज्जुद ५ ॥ ५ ॥ जंबू मंदरस्त उत्तरकुराए कुराए पंच महा पण्णत्ता, तं जहा- नीलवंतदहे १ उत्तरकु२ चंद्र रावणदहे ४ मालवंत दहे ५ ॥ ६ ॥ सव्वे विणं वखापव्वया सीया सीओयाओ महाणईओ मंदरं वा पवने मंत्र जोयणसयाई उ उच्चतेणं पंच गाउयसयाई उच्णं ॥७॥ धायसंडे दीवे पुरत्थिमद्वेणं मंदरस्त पत्रवलपुरस्थिमेणं सीयाए महाणईए उत्तरेणं पंच वक्खारपव्यया पण्णत्ता, तं जहा - मालवंते, एवं जहा - जंबूदीवे तहा जाव पुक्रवरविपच्चत्थिमद्धे वक्खारा दहा य उच्चत्तं भाणियवं । समयसंत्ते पणं पंच भरहाई पंच एरवयाई एवं जहा चउडाणे विश्व उदेसे तहा एत्थ वि भाणियन्त्रं जाव पंच मंदरा पंच मंदरचूलियाओं, णत्ररं उसुयारा णत्थि ॥ सू० २४ ॥ 1:5 छाया - जम्बुद्वीपे त्री मन्दरस्य पर्वतस्य पौरस्त्ये सीताया महानद्या उत्तरे पर्वताः मतमाः नद्यथा- माल्यवान, १ चित्रकूट, २ पद्मकूटः, ३ afari, e gabe: 411211 संगत असंगनके सम्बन्ध के सूत्र सूत्रकारने पहिले कह दिये हैं, उनमें संगत अमंगन गन जो वस्तुविशेष कहे गये हैं, उनका व्यतिकर होना है, इस कारण अब सूत्रअनुपस्पा विशेषका कथन करते हैं વન અને આયન બ્યક સૂત્રની પ્રરૂપા સૂત્રકારે પહેલાં કરેલી सेवेनोम अपन विशेषभदेव भांगावे छे तेम ૨ ના થાવ તો મનુષ્યમાં જ સાવી શકે છે તેથી दो सुपर पोटाशेषेनु ध्यन रे -- . Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०५३०२ सू०२४ मनुष्यक्षेत्रस्यपदार्थविशेषनिह्मपणम् १२१ " जन्न मन्दरस्य पौरस्त्ये सीताया महानद्या दक्षिणे पञ्च वक्षस्कारपर्वताः, प्राप्ताः, तद्यथा-त्रिकूटः १, वैश्रमणकूटः, २ अञ्जनः, ३ मायाञ्जन', ४ सौमनसः ५ ॥२॥ जम्बूमन्दरस्य पाश्चात्ये सीतोदाया महानथा दक्षिणे पञ्च वक्षस्कार पर्वताः प्रज्ञप्ताः तद्यथा विद्युत्मभः १, अलावती, २ पमावती ३, आशीविषः ४, मुखावहः ५ ॥३॥ जम्बू मन्दनस्य पाश्चात्ये सीतोदाया महानया उत्तरे पञ्च वक्षस्कारपर्वताः, प्राप्ताः, तद्यथा- चन्द्रपदतः, १ सूरपर्वत , २ नागपर्वतः, ३ देवपर्वतः, ४ गन्धमादनः ५ ॥४॥ जंबुद्दीचे दीवे अंदरसूल इत्यादि मु० २४ ॥ सूत्रार्थ-जंबूद्वीप नामके इस द्वीपमें लन्दर (मेरु) पर्वतकी पूर्वदिशामें सीता महानदीकी उत्तर दिशामें पांच वक्षस्कार पर्वत कहे गये हैं उनके नाम इस प्रकारसे हैं-माल्यवान् १ चित्रकूट २ पाकट ३ नलिनकूट४ और एकशैल५ । जम्बूद्वीपस्थ मन्दर (मेह) पर्वतकी पूर्व दिशामें सीता महानदीकी दक्षिण दिशामें पांच वक्षस्कार पर्वत कहे गये हैं-उनके नाम इस प्रकारसे हैं-त्रिकूट १ वैश्रमण कूट २ अञ्जन ३ मायाञ्जन ४ और सौमनस५ जम्बूद्वीपस्थ महामन्दर पर्वतकी पश्चिम दिशामें सीतोदा महानदीकी दक्षिण दिशामें पांच वक्षस्कार पर्वत कहे गये हैं-उनके नाम इस प्रकारसे हैं-विद्युत्प्रभ १ अङ्गावती २ पद्मावती ३ आशीविप ४ और सुखावह ५ जम्बूद्वीपस्थ मन्दर पर्वतकी पश्चिम दिशा में लीतोदा महानदीकी उत्तर दिशामें पांच वक्षस्कार पर्वत कहे गये हैं। जैसे-चन्द्रपर्वत १ सूर पर्वत २ नाग पर्वत ३ देवपर्वत ४ और गन्धमादन पर्वत ५ "जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स" त्याह સૂત્રાર્થ– જંબુદ્વિપ નામના આ દ્વીપમાં મન્દર પર્વતની પૂર્વ દિશામાં વહેતી સીતા મહાનદીની ઉત્તર દિશામાં પાંચ વક્ષસ્કાર પર્વતે આવેલા છે. તેમનાં नाम मा प्रमाणे छ–(१) माझ्यवान्, (२) यि , (3) ५८, (४) નલિનકૂટ અને (૫) એકલ જબૂદ્વીપમાં આવેલા મન્દર પર્વતની પૂર્વ દિશામાં વહેતી સીતા મહાનદીની દક્ષિણ દિશામાં પાંચ વક્ષસ્કાર પર્વતે આવે વા છે તેમનાં નામ આ પ્રમાણે ४-(१) त्रिकूट, (२) वैश्रमस्ट, (3) मगन, (४) मायान मन (५) सौमनस જંબુદ્વીપના મન્દર પર્વતની પશ્ચિમ દિશામાં આવેલી સીદા મહાનદીની દક્ષિણ દિશામાં પંચ વક્ષસ્કાર પર્વતે આવેલા છે તેમનાં નામ આ प्रभारी छ-(१) विधुत्प्रस, (२) २५४वती, (3) पावती, (४) माशीविष भने (५) सुमावड. स्था०-१६ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ स्थानापने जस्य मन्दरदक्षिणे देवकुरोः कुरोः पञ्च महाहदाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-निषधइदः १, देवकुरुहूदः, २ सरहदः, ३ गुलस इदः ४ विद्युत्मम हृदः ५॥५॥ जज्बू मन्दरस्योत्तरकुरु कुरुपु पञ्च महाहदाः प्रज्ञप्ताः, तबधा-नीलबद् इदः, १ उत्तर-कुरुहूदः, २ चन्द्रहदः, ३ ऐरावणहूदः, ४ सालबद् हृदः ५ ॥६॥ सर्वेऽपि खलु वक्षस्कारपर्वताः सीता सीतोदे महानद्यौ मन्दरं वा पर्वतं प्रति पञ्च योजनशतानि अर्ध्वमुच्चत्वेन पश्च गव्मृतिशतानि उद्वेधेन ॥७॥ धातकीखण्डे द्वीपे पौरस्त्या? खलु मन्दरस्य पर्वतस्य पौरस्त्ये सीताया महानद्या उत्तरे पञ्च वक्षस्कार____ जम्बूद्वीपस्थ मन्दर पर्वतकी दक्षिण दिशामें देवकुल पांच महाद कहे गयेहैं-उनके नाम इस प्रकार सेह-निषध हद (द्रह) १ देवकुम इदर खूर हूद ३ तुलस हद ४ और विद्युत्प्रभ हद ५। जम्बूद्वीपस्थ मन्दर पर्वतके उत्तर कुरुमें पांच महारुद कहे गये हैं उनके नाम इस प्रकारसे हैं नीलवत् हद १ उत्तरकुरू हूद २ चन्द्र इद ३ ऐरावण हद ४ और माल्यवद् इद ५ समस्त वक्षस्कार पर्वत सीता सीतोदा महानदियोंकी तरफ और सन्दर पर्वतकी तरफ पांचसो योजन ऊंचे हैं और उद्वेधसे (भू. मिके अन्दर गहराइमें) पांचसौ गव्यूति (दो कोस) प्रमाण हैं। धातकी खण्ड द्वीपमें पौरस्त्याने मन्दर(मेस)पर्वतके पूर्वदिशामें सीता महानदीके उत्तरमें पांच वक्षस्कार पर्वत कहे गये हैं उनके नाम इस જબૂદ્વીપના મન્દર પર્વતની પશ્ચિમ દિશામાં આવેલી સીદા મહા નદીની ઉત્તર દિશામાં પાંચ વક્ષસ્કાર પર્વત છે. તેમનાં નામ આ પ્રમાણે छे-(१) यन्द्र त, (२) सू२ पति, (3) नाम पत, (४) हे पत भने (५) गन्धमादन पर्वत. જંબુદ્વીપમાં આવેલા મન્દર પર્વતની દક્ષિણ દિશામાં આવેલા દેવામાં પાંચ મહાહર છે. તેમનાં નામ આ પ્રમાણે છે –-(૧) નિષધ હદ, (૨) દેવકરુ , (3) सू२४, (४) सुतस ४ भने (५) विधुत्प्रसाद જબૂદ્વીપના મન્દર પર્વતની ઉત્તર દિશામાં આવેલા ઉત્તરકુરુમાં પણ नीय प्रभाव पांय म छे -(१) नासवत् (२) उत्त२४२ 8, (३) य , (४) १२। ६ म2 (५) भास्यात् ह. સમસ્ત વક્ષસ્કાર પર્વતે સીતા અને સીતા મહાનદીઓની તરફ અને મન્દર પર્વતની તરફ ૫૦૦ જન ઊંચા છે, અને તેમને ઉદ્ધવ ( જમીનની અંદરની ઊંડાઈ) ૫૦૦ ગભૂતિપ્રમાણ છે. ધાતકીખંડ દ્વીપના પૂર્વાધમાં મદર પર્વતની પૂર્વ દિશામાં સીતા મહા નવીની ઉત્તરે પાંચ વક્ષસકાર પર્વતે આવેલા છે તેમનાં નામ આ પ્રમાણે છે. Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०५ उ०२ सू०२४ मनुष्यक्षेत्रस्यपदार्थ विशेषनिरूपणम् १२३ पर्वताः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - माल्यवान् एवं यथा जम्बूद्वीपे तथा यावत् पुष्करवर द्वीपा पायाच्या वक्षस्कारा हदा उच्चत्वं भणितव्यम् ||८|| समयक्षेत्रे खलु पञ्चभरतानि पञ्च ऐरावतानि । एवं यथा चतुःस्थाने द्वितीयोदेशे तथा अत्राऽपि भणितव्यं यावत् पञ्च मन्दराः पञ्च मन्दर चूलिकाः। नवरम् इषुकारा न सन्ति ।। ० २४ ॥ टीका - जंबुद्दीवे ' इत्यादि - व्याख्या सुगमा, तथापि किंचिदत्र लिख्यते - वक्षसि = मध्ये गोप्यं क्षेमं द्वौ संभूय कुर्वन्ति ये ते वक्षस्कारा गजदन्तापरपर्यायाः पर्वतविशेषाः । ते च माल्यतो गजदन्तकाद प्रदक्षिणया चतुर्दिक्षु वर्तमानाः चतुःसूत्रोक्ता विंशतिसंख्यकाः प्रकार से हैं- माल्यवान् इत्यादि इनका नाम जैसा जम्बूद्वीप के प्रकरणमें कहा गया है, वैसाही है, पुष्करवरद्वीपार्द्ध में और पाश्चात्यार्द्धमें वक्षस्कारों का हूदों का और इन की वक्षस्कार पर्वत की ऊंचाई का कथन पहिले की तरहसेही कहना चाहिये । समयक्षेत्र में पांच भरत और पांच ऐरवत क्षेत्र हैं । चतुःस्थान में द्वितीय उद्देशे में जैसा कहा गया है, वैसा यहाँ पर भी कह लेना चाहिये यावत् पांच मन्दर और पांच मन्दर चूलिकाएँ हैं, विशेषता केवल इतनी सीही है, कि इकार नहीं हैं । टीकार्थ - इसकी व्याख्या सुगम है, तब भी कुछ इस विषय में लिखा जाता है, वक्षस्कार पर्वतोंका दूसरा नाम गजदन्त भी है, यह विशेष पर्वत है । इनका वक्षस्कार ऐसा नाम इसलिये हुआ है कि ये दो एकत्रित होकर अपने मध्यमें क्षेत्रको गोप्य करते हैं । ये माल्यवान् માલ્યવાન્ ઈત્યાદિ નામ જ દ્વીપના પ્રકરણમાં ઉપર કહ્યા અનુંસાર સમજવા. પુષ્કરવરદ્વીપાધમ માં અને પશ્ચિમમાં વક્ષસ્કારાનુ, હદોનું અને વક્ષસ્કાર પર્વતની ઊંચાઇનુ કથત આગળના કથન પ્રમાણે જ સમજવું, સમયક્ષેત્રમાં પાંચ ભરત અને પાંચ અરવતક્ષેત્ર છે ચતુઃસ્થાનકના ખીજા ઉદ્દેશામાં તેમને વિષે જેવું કથન કરવામા આવ્યુ છે એવું જ કથન અહીં પણ કરવું જોઇએ, આ રીતે “ પાંચ મન્દર અને પાંચ મન્દર ચૂલિકા છે, ” ત્યાં સુધીનું કથન ગ્રહણુ કરવું જોઇએ. અહીં કેવળ એટલી જ વિશેષતા છે કે અહીં ઇકારના સદ્ભાવ નથી ટીકા-આ સૂત્રની વ્યાખ્યા સુગમ હાવા છતાં પણુ અહી તેમનું ઘેાડુ' સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવે છે. વક્ષસ્કાર પત્રતાનુ ખીજું નામ ગજઇન્ત પણ છે. તે પર્વતાને વક્ષસ્કાર કહેવાનું' કારણ એ છે કે તે એ પહાડા એકત્ર થઇને તેમની વચ્ચેના ક્ષેત્રને ગુપ્ય ( અદૃશ્ય ) કરે છે. તે માલ્યવાન્ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . १३४ स्थानागसूत्रे सन्ति । तथा-देवकुरुपु निपधवर्पधरपर्वतात् उत्तरस्यां दिशि सप्तमागविभिन्नस्यैकस्य योजनस्य चतुरो भागान् चतुस्त्रिंशदधिकानि अष्टशतयोजनानि गत्वा शीतोदाया महानधाः पूर्वापरतटवर्तिनी विचित्रटचित्रकूटनामानौ पर्वतों स्तः । तयोः प्रत्येकपर्वत-उच्चत्वेन योजनसहस्रप्रमाणः, मूळे सहस्रयोजनायामविष्कम्भयुक्तः, उपरितनप्रदेशे च पञ्चशतयोजनायामविष्कम्भयुक्तः। तो च पर्वतौ प्रासादपरिमण्डितौ स्व स्वनामसदृशविचित्रटचित्रकूटनामक देव निवासधूतौ विज्ञेयौ । ततस्ताभ्यां पर्वताभ्यां पूर्वोक्तान्तर्ययुक्तः शीतोदा महानदी मध्यभागवर्ती दक्षिणोत्तरतः सहस्रयोजनान्यायतः पूर्वापरतः पञ्चशनयोजनानि गजदन्तसे प्रदक्षिणा करते हुए चारों दिशामें स्थित हैं। यहां चारों सूत्रों द्वारा ये बीस कहे गये हैं। तथा-देवकुरुओंमें निषव वर्षधर पर्वतसे उत्तर दिशामें एक योजनके लात मागमें से चार भाग अधिक ८३४ योजन तक आगे जाकर शीतोदा महानदी के पूर्व और पश्चिम तट पर स्थित विचित्रकूट और चित्रकूट नामके दो पर्वत हैं । इनमें प्रत्येक पर्वतकी ऊंचाई १ हजार योजनकी है, सूलमें प्रत्येक पर्वतका आयाम और विष्कंभ एक हजार योजनका है, और ऊपरका इनका प्रदेश पांचसौ योजनका लम्बा चौड़ा है, ये दोनों पर्वत प्रासादोंसे मण्डित हैं, और अपने २ नामके जैसे विचित्रकूट एवं चित्रकूट नामवाले देवोंके थे निवासस्थानरूपहैं । इन दोनों पर्वतोंसे आगे पूर्वोक्त आन्तर्यसे युक्त शीतोदा महानदीके मध्य भागमें रहा हुआ दक्षिणसे उत्तर तक एक हजार योजनका आयामदाला पूर्वले पश्चिम तक पांचसो योजनका ગજદનની પ્રદક્ષિણ કરતા હોય એવી રીતે તેની ચારે દિશાઓમાં આવેલા છે. અહીં ચાર સૂત્રો દ્વારા એવાં ૨૦ વક્ષસ્કાર પર્વતે પ્રકટ કરવામાં આવ્યાં છે. તથા દેવકુરુઓમાં નિષધ વર્ષધર પર્વતથી ઉત્તર દિશામાં ૮૩૪/૪/૭ જિનપ્રમાણ અંતરે શીદા મહાનદીના પૂર્વ અને પશ્ચિમ તટ પર વિચિત્રકૂટ અને ચિત્રકૂટ નામના બે પર્વત છે. તે પ્રત્યેક પર્વતની ઊંચાઈ ૧ હજાર જનની છે. તેમના મૂળભાગની લંબાઈ-પહોળાઈ ૧૦૦૦ એજનની અને શિરેભાગની લબાઈ-પહોળાઈ પ૦૦ જનની કહી છે. તે બને પર્વતે પ્રાસાદેથી મંડિત છે તે પર્વતો વિચિત્રકૂટ અને ચિત્રકૂટ નામના દેવોના નિવાસસ્થાન રૂપ છે. આ બને પર્વતેથી આગળ જતા પૂર્વોક્ત આન્તર્યથી યુક્ત શીદા મહાનદીના મધ્યભાગમાં રહેલું, દક્ષિણથી ઉત્તરમાં ૧૦૦૦ યજનના આયામ (લંબાઈ) વાળું અને પૂર્વથી પશ્ચિમમાં પ૦૦ જનની Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधाटीका स्था०५उ०२सू०२४ मनुष्यक्षेत्रस्यपदार्थविशेषनिरूपणम् १२५ विस्तीर्णी वेदिकावनपण्डद्वयवेष्टितो दश योजनानि भूमिमवगाढोऽर्द्धयोजन वाइल्यैकयोजनविष्कम्भात्मकेन नानामणिमयेन दशयोजननालेन अर्द्ध योजनविस्तीर्णक्रोशोच्छूितकर्णिकायुक्तेन निपधनामकदेवनिवासभूतभवनविभूषित मध्येन तदद्ध प्रमाणयुक्तैरष्टोत्तरशतसंख्यकै पौः तदितरैश्च सामानिकादि देवनिवासभूतैरनेकलौः पझैः समन्तादू संपरिक्षिप्तेन महापद्मन विराजन्मध्यभागो निषधो नाम महादः। एवं देवकुरु हूदादयोऽपि तत्तद्धदसमानदेव निवासभूता उक्तान्तर्ययुक्ता विज्ञेयाः । अत्रेद वोध्यम्-नीलवन्महादः स्वस्वसमान नामकदेवनिवासभूताभ्यां विचित्रकूटचित्रकूटपर्वतवक्तव्यतासदृशवक्तविस्तारवाला वेदिका वनखण्डवयसे वेष्टिन हुआ एवं १० योजन तक भूमिमें विस्तृत ऐसा निषध नामका लहाहद् है, यह महारुद आठ योजनके बाहल्यवाले एक योजनके विष्कंभवाले नाना मणियोंसे युक्त दश योजनके नालवाले आधे योजनकी विस्तारवाली एव एक कोशकी ऊंची ऐसी कणिकासे युक्त एवं जिसका मध्य भाग निषध नाम के देवके निवासभूत भवनसे विभूषित हैं, ऐसे एक महापद्मसे जिसका मध्यभाग विराजित हैं, ऐसा है । यह महापद्म अपने प्रमाणसे आधे प्रमाणवाले ऐसे १०८ पद्मोंसे (कमलों) एवं इनसे अतिरिक्त और भी अनेक लक्ष पद्मोंसे जो कि सामानिक आदि देवों के निवासभूत हैं, चारों ओरसे घिरा हुआ है, इसी तरहसे देवकुरुहूद आदि भी अपने २ समाननामवाले देवोंके निवासभूत हैं, और युक्त आन्तयेवाले हैं, ऐसा जानना चाहिये। यहां ऐसा समझना-कि नीलवत् जो महाहूद है, वह अपने समान પહેળાઈવાળુ વેદિકા અને વનખડદ્રયથી વેષ્ઠિત એવું, અને ૧૦ એજન સુધી ભૂમિમાં વિસ્તૃત એવું નિષધ નામનું મહહદ છે. તે મહા હા આઠ જન લાંબા, એક જન પહોળા, વિવિધ મણિએથી યુક્ત, ૧૦ જનની નાલ. વાળા, અર્ધા એજનની વિરતારવાળી અને એક કેશ ઊંચી એવી કર્ણિકાથી યુક્ત અને જેને મધ્યભાગ નિષધ નામના દેવના નિવાસસ્થાન રૂ૫ ભવનથી વિભૂષિત છે એવા એક મહાપદ્મથી યુક્ત છે તે મહાપ, તેના કરતાં અર્ધા પ્રમાણુવાળા ૧૦૮ પડ્યોથી અને તે સિવાયના બીજા પણ અનેક લક્ષપોથી ઘેરાયેલું છે તે પ સામાનિક આદિ દેવના નિવાસસ્થાન રૂપ છે. એ જ પ્રમાણે દેવકુરુ હદ આદિ હદો પણ તેમના જેવા જ નામવાળા દેવના નિવાસસ્થાન રૂપ છે, અને ઉપર્યુક્ત આન્તર્યવાળા છે એમ સમજવું. Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ स्थानाशस्त्र व्यतायुक्ताभ्यां यमकाभिधानपर्वताभ्यामनन्तरं द्रष्टव्यः । ततो दक्षिणत उत्तर कुरु दादयश्चत्वारो हुदा बोध्या इति । एतेषु सर्वे पु महाहदेपु एकैको महादो दशभिर्दशभिः काश्चनकनामकैः पर्वतैयुक्तो विज्ञेयः । एते पर्वतास्तु शतयोजनो. च्छ्रिता मूले शतयोजनविष्कम्भयुक्ताः उपरि पञ्चाशयोजनविस्तृता स्व समान नामकैदेवैरधिष्ठिताः प्रत्येकं पूर्वापरतो दशयोजनान्तरेण व्यवस्थिता वोध्याः। एते ये विचित्रकूटादिपर्वतहदवासिनो देवाः सन्ति, तेपामसंख्येयतमजम्बू द्वीपे द्वादशयोजनसहस्रपमाणास्तन्नामिका नगर्यो भवन्तीति बोध्यम् । एते वक्षस्कारपर्वताः कस्यां दिशि वर्तन्ते ? इति प्ररूपयितुमाहनामवाले निवास भूत यमक नामके दो पर्वतोंके अन्तर बादमें है, इन दोनों पर्वतोंके सम्बन्धकी वक्तव्यता विचित्रकूट और चित्रकूट की वक्तव्यता जैसी है इससे दक्षिण दिशामें उत्तरकुरु हृदादि चार हूद हैं । इन समस्त महादो में एक एक महारुद दश दशका काश्चन नामक पर्वतोंसे युक्त हैं। ये सब पर्वत १०० योजन हैं। मूलमें सी १०० योजनके ही विस्तारवाले हैं। तथा ऊपर में हनका विस्तार पांचसो योजनका है, और ये अपने २ जैसे नामवाले देवोंसे अधिष्ठित हैं, ये प्रत्येक पर्वत पूर्वसे पश्चिम तक १०-१० योजनके अन्तरले व्यवस्थित हैं । ये विचित्रकूट आदि पर्वतवासी और हृदवासी जो देव है सो इनकी जम्बूद्वीपके असंख्यात भागमें १२ योजन प्रमाणवाली उनके नामचाली नगरियां हैं। ये वक्षस्कार पर्वत किल २ दिशामें हैं ? इस बात की प्ररूपणा करने के જેમકે જે નીલવત મહાહક છે તે નીલવતુ નામના દેવના નિવાસ રૂપ છે. તે મડાહટ યમક નામના બે પતે પછી આવે છે આ બને પર્વતનું વર્ણન વિચિત્રકૂટ અને ચિત્રકૂટના વર્ણન પ્રમાણે જ સમજવું. તેની દક્ષિણ દિશામાં ઉત્તરકુરુ હર આદિ ચાર હદ આવેલાં છે. તે પ્રત્યેક મહા છંદ દસ દસ કાંચન નામના પર્વતોથી યુક્ત છે તે બધાં પર્વતે ૧૦૦ યોજનાના વિસ્તારવાળા છે. તેમને વિસ્તાર મૂળભાગમાં ૧૦૦ એજનને અને ઉપરના ભાગમાં ૫૦૦ એજનને છે, તે પર્વતે તેમના જેવાં જ નામવાળા દેથી અવિચ્છિત છે. તે પ્રત્યેક પર્વત પૂર્વથી પશ્ચિમ સુધી ૧૦–૧૦ એજનના અંતરે વ્યવસ્થિત છે. તે વિચિત્રકૂટ આદિ પર્વતવાસી અને હદવાસી જે દે છે તેમની જંબુદ્વીપના અસંખ્યાતમાં ભાગમાં ૧૨ યોજન પ્રમાણુવાળી નગરી છે. તે નગરીઓનાં નામે તે દેનાં નામ જેવાં જ છે. તે વક્ષસ્કાર પર્વતે કઈ કઈ દિશામાં છે, તે સૂત્રકાર હવે પ્રકટ કરે છે. Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०५ उ०२ सू०२४ मनुष्यक्षेत्रस्थ पदार्थविशेषनिरूपणम् १२७ ' सव्वे विणं ' इत्यादि । सर्वेऽपि जम्बूद्वीपादि सम्वन्धिनो वक्षस्कार पर्वताः सीता सीतोदे महानद्यौ पुनः मन्दरं पर्वतं च ' तेण ' ते द्वे खलु नदी पर्वते लक्षणी कृत्य नदीद्वयं मन्दरपर्वतं च प्रतीत्यर्थः एतन्महानदीद्वयदिशि मन्दरपर्वतदिशिचेति भावः, पञ्च योजनशतानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन पञ्च गव्यूति शतानि च उद्वेधेन सन्ति । तत्र मन्दरपर्वत दिशि माल्यवत्सौमनसविद्युत्प्रभ गन्धमादननामानचत्वारो गजदन्ताकारपर्वताः यथोक्तस्वरूपाः सन्ति । इतोऽन्ये वक्षस्कारपर्वताः सीता सीतोदा महानदी दिशि वर्त्तन्ते, इति । यथा जम्बूद्वीपे यावत्प्रमाणा वक्षस्कारपर्वता महादा प्रोक्तास्तथैव धातकीखण्डस्य पूर्वार्धअपरार्द्ध, पुष्करार्द्धस्य पूर्वार्द्धअपराद्धे च वोध्याः । अमुमेवार्थं दर्शयितुमाह सूत्रकारः ' धायइसंडे ' इत्यादि ' वक्खारा दहाय उच्चत्तं भाणियन्त्रं ' लिये सूत्रकार कहते हैं " सव्वे वि णं " इत्यादि ये जम्बूद्वीपादि सम्बन्धी जो वक्षस्कार पर्वत हैं वे सब सीता सीतोदा नामकी जो महानदियाँ है, उनकी ओर और मेरुपर्वतकी ओर हैं, अर्थात् इन नदी की एवं मन्दर की दिशा में हैं । इनकी ऊंचाई इस दिशा में पांचसौ योजन की है और उद्वेध गन्धमादन इनका पांचसौ गव्यूतिका है । मन्दर पर्वतकी दिशा में माल्यवत् सौमनस विद्युत्प्रभ और गन्धमादन नामके चार गजदंत के आकार जैसे पर्वत पूर्वोक्त स्वरूपवाले हैं । इनसे अन्य वक्षस्कार पर्वत सीता सीतोदा महानदियों की दिशामें हैं । जिस प्रकार से जम्बूद्वीपमें जितने प्रमाणोपेत ये वक्षस्कार पर्वत और महाहद कहे हैं, उसी प्रकार से वे धातकीखण्डके पूर्वार्द्धमें और पश्चिमार्द्ध में पुष्करार्धके पूर्वार्ध में और पश्चिमाद्ध में भी हैं, ऐसा जानना चाहिये। इसी बात को प्रकट करने के लिये सूत्रकारने " धायइ संडे" इत्यादि - " सव्वे विणं " इत्यादि - ते वक्षस्र पर्वती सीता भने सीताहा નામની મહાનદીએ અને મન્દર પર્યંતની દિશામાં છે તેમની ઊંચાઈ તે દિશામાં ૫૦૦ ચેાજનની છે. અને તેમના ઉદ્વેષ (ભૂમિની અંદરના વિસ્તાર) ૫૦૦ ગભૂતિ પ્રમાણ છે મન્દર પર્વતની દિશામાં માણ્યવત્, સૌમનસ, વિદ્યુત્પ્રભ અને ગન્ધમાદન નામના ગજાન્તના આકાર જેવા પતા પૂર્વોક્ત સ્વરૂપવાળા છે તે સિવાયના જે અન્ય વક્ષસ્કાર પતા છે, તેએ સીતા અને સીતાદા મહાનદીએની દિશામાં છે જ મૂઢીપમાં જેટલા પ્રમાણવાળા આ વક્ષસ્કાર પર્વત અને મહાડદો કહ્યાં છે, એટલા જ પ્રમાણવાળા વક્ષસ્ક ૨ પર્વતા અને મહાડદો ધાતકીખડના પ્લૅમાં, પશ્ચિમા માં અને પુષ્કરાના પૂર્વી અને પશ્ચિમામાં પણ આવેલા છે. એ જ વાતને સૂત્રકારે धायइ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ स्थानागसूत्रे इत्यन्तमिति । सम्पति भरतादीनि क्षेत्राणि, तत्रस्थितपर्वनादीश्च पञ्चस्थानत्वेन प्ररूपयितुमाह- समयबखेत्तेणं' इत्यादि समयक्षेत्रे समयः आदित्यगतिसमभिव्यज्यमानऋत्वयनादिकालः, तद्युक्तं क्षेत्रं समयक्षेत्रं, मनुष्यक्षेत्रमित्यर्थः, तस्मिन् पञ्च भरतानि पञ्च ऐस्वतानि, यावत्करणात् पञ्च हैमनतानि पञ्च हैरण्य वतानि, एवमितोऽन्यान्यपि क्षेत्राणि भावनीयानि, तथा तत्र 'शब्दापातिनः पर्वतानार र पञ्च मन्दराः पञ्च मन्दरचूलिकाः' इत्यन्तः सर्वोऽपि पाठश्चतुम्थानक द्वितीयो शकवद् वाच्यः । परन्तु इघुकारपर्वताश्चत्वार एव सन्ति, अतस्तेऽत्र न वाच्याः । अत एवाह-' णवरं उमुयारा नत्थि' इति ।'मू० २४॥ स्त्र से लेकर "वग्वारा दहा य उच्चत्तं माणियव्वं' यहां तक मुत्र कहा है। अब सूत्रकार समयक्षेत्रमें अढाइद्वीप मनुष्यक्षेत्र में भरतादि क्षेत्रों की और उम में रहे हुए पर्वन आदिकों की प्ररूपणा पांचस्थान कसे करते हुए कहते हैं कि “ समयक्खेत्तेणं " इत्यादि आदित्यकी गतिसे प्रकट होने योग्य ऋतु अयन आदि रूप समय से युक्त जो क्षेत्र है वह लमयक्षेत्र है, ऐला समयक्षेत्र मनुष्यक्षेत्र दाई द्वीप हैं । इन मनुष्यक्षेत्र में पांच भरत पांच ऐश्वत यावत्-पांच हैमवत पांच हैरण्यवत और इनसे भी अन्य और भी क्षेत्र हैं, तथा शब्दापाती पर्वतोंसे लेकर पांच मन्दर और पांच अन्दर चूलिकाएँ हैं । इत्यादि यहां तकका सब पाठ चतुर्थ स्थानकके द्वितीय उद्देशककी नरहसे कह लेना चाहिये । परन्तु इषुकार पर्चन चारही हैं, अतः वे यहां नहीं कहना संडे" थी सन " वखारा दहाय उच्चत्तं भाणियव्य " मा सूत्रपा४ पयનના લખાણ દ્વારા વ્યક્ત કરી છે. હવે સૂત્રકાર સમક્ષેત્રમાં (મનુષ્યક્ષેત્રમાં) રહેલાં ભરતાદિ ક્ષેત્રની અને તેમાં આવેલા પર્વતાદિકેની પાંચ સ્થાનકની અપેક્ષાએ પ્રરૂપણ કરે છે. ___“समयखेत्तेण" त्यादि-सूर्य नी गति 43 ५४८ यतां तु, मयन આદિ રૂપ સમયથી યુક્ત જે ક્ષેત્ર છે, તેને સમયક્ષેત્ર કહે છે. એવું સમયક્ષેત્ર (મનુષ્યક્ષેત્ર) અઢી કપ છે. આ મનુષ્યક્ષેત્રમાં પાંચ ભારત, પાંચ ઐરાવતા યાવતુ પાંચ હૈમવત, પાંચ હૈરયત અને તે સિવાયના બીજાં ક્ષેત્રે પણ છે. વળી ત્યાં શબ્દાપાતી પર્વતથી લઈને પાંચ મન્દર અને પાંચ મન્દર ચૂલિકાઓ પર્યન્તનું બધું છે. ચોથા સ્થાનકને બીજા ઉદ્દેશામાં આ વિષયને અનલક્ષીને જેવું કથન કરવામાં આવ્યું છે, તેવું કથન અહીં પણ ગ્રહણ કરવું જોઈએ, પરંતુ પુકાર પર્વત ચાર જ છે, તેથી અહીં તેમનું કથન Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __सुधा टीका स्था०५ उ०२ सु०२६ ऋषभादि तीर्थकरविपये निरूपणम् १२९ ___ अनन्तरं मनुष्यक्षेत्रस्थानि पर्वतादिरूपाणि वस्तूनि प्रोक्तानि, सस्पति तदधिकारादेव भग्तक्षेत्रस्य वर्तमानावसर्पिणीभूषणानाम् ऋपभादीनां सम्बधिक किंचित् प्ररूपयति मूलम् - उसंभेणं अरहा कोसलिए पंच पणुलयाई उड्डूं उच्चत्तेणं होत्था । भरहे णं राया चाउरंतचकवट्टी पंच धणुस. याइं उडुउच्चत्तेणं होत्था । बाहुवली णं अणगारे एवंचेव । बंभी णामं अज्जा एवं चेव । एवं सुंदरी वि ॥ सू० २५ ॥ ___ छाया-ऋषभः खलु अर्हन् कौसलिकः पञ्च धनुश्शतानि ऊर्ध्वम् उच्चत्वेनाभवत् । भरतः खलु राजा चातुरन्तचक्रवर्ती पश्च धनुश्शतानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेनाभवत् । वाहुबली खलु अनगार एवमेव । ब्राह्मीनामार्या एवमेव । एवं सुन्दरी अपि २५॥ टीका-' उसमेण ' इत्यादिव्याख्या स्पष्टा । नवरं कोसले भवः कौसलिकाकोसलदेशोत्पन्नः। ऋषभः= आदिजिनः । भरतादयश्च तदपत्यानि वोध्यानि ॥सू० २५ ॥ चाहिये, इसीलिये वे " णवरं उसुयारा नक्षि" इस सूत्रपाठसे वर्जित किये गये हैं। सू० २४ ॥ ___ इस प्रकार से मनुष्यक्षेत्रस्थित पर्वतादिरूप वस्तुओंका कथन कर अब सूत्रकार इसी अधिकारको लेकर भरतक्षेत्र में वर्तमान अवसर्पिणी कालके भूषणरूप जो ऋषभादि हुए हैं, उनसे सम्बन्धित थोडासा कथन करते हैं । " उस भेणं अरहा कोसलिए पंच" इत्यादिटीकार्थ-कोसल देशमें उत्पन्न हुए ऋषभदेव अर्हन्त पांचसो धनुष ऊचे थे भरत राजा जो कि चातुरन्त चक्रवर्ती थे। पांचसौ धनुष ऊचे थे और ४२ मे नही “णवर उसुयारा नस्थि" मा सूत्रपा४ द्वारा वात પ્રકટ કરવામાં આવી છે કે ઈષકાર પર્વત ચાર જ હોવાથી તેમનું કથન मही' ४२ ले नही. ॥ सू. २४ ॥ આ પ્રકારે મનુષ્યક્ષેત્રના પર્વત આદિનું કથન કરીને હવે સૂત્રકાર ભરતક્ષેત્રમાં વર્તમાન અવસર્પિણીકાળના ભૂષણ રૂપ જે ત્રષભદેવ આદિ પુરુષ થયા હતા તેમને વિષે થોડું કથન કરે છે. " उसमेणं अरहा कोसलिए पंच" त्याह ટીકાર્થ–પેશલ દેશમાં ઉત્પન્ન થયેલા રાષભદેવ જિનેશ્વરની ઊંચાઈ પ૦૦ ધનુષપ્રમાણ હતી ચાતુરન્ત ચક્રવર્તી ભરત રાજા પણ ૫૦૦ ધનુષપ્રમાણુ ઊંચા હતા. બાહુબલી અણગાર, બ્રાહતી આર્યા અને સુંદરીની ઊંચાઈ પણ એટલી જ स्था०-१७ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० स्थानास्त्रे उपरि निर्दिष्टाः सर्वेऽपि युद्धाः । बुद्धश्च जीवो भावतो मोहक्षयाद्, द्रव्यतश्च निद्राक्षयाद् भवतीति द्रव्ययोघं कारणत उपदर्शयति मूलम्-पंचहिं ठाणेहिं सुत्ते बिबुज्झेजा, तं जहा--सदेणं १ फासेणं २ भोयणपरिणामेणं ३ णिहक्खएणं ४ सुविणदंसणेणं ५॥ सू० २६ ॥ छाया-पञ्चभिः स्थानः सुप्तो विबुध्येत, तद्यथा-शब्देन १ स्पर्शेन २ भोजनपरिणामेन ३ निद्राक्षयेण ४ स्वप्नदर्शनेन ५ ॥ म० २६॥ टीका-पंचहिं ' इत्यादि पञ्चभिः स्थानः कारणैः सुप्तो जीवो विबुध्येत जागरितो भवेत् । तद्यथातथाहि-शब्देन कस्यचित् शब्दं श्रुत्वा १, स्पर्श न कस्यचित् स्पर्शमुपलभ्य २, बाहुवली अनगार ब्राह्मी आर्या एवं सुन्दरी भी इतनी ही ऊंची थीं, ऋषभदेव सर्व प्रथम तीर्थकर हैं। भरन बाहुवली आदि सब इनकी संतान पुत्रपुत्री हैं । सू० २५ ॥ ये ऊपरमें कहे गये ऋषभादिक सब बुद्ध थे, जीव बुद्ध जो होता है वह भावले मोहके क्षयंसे और द्रव्य से निद्राके क्षयसे होता है। इसलिये सूत्रकार अब कारणको लेकर द्रव्यबोधका कथन करते हैं । " पंचहि ठाणेहि सुत्त विवुज्झेझा" इत्यादि सुप्त जीव पांच कारणोंसे जागरित हो सकता है, वे पांच कारण ये हैं-शब्द १, स्पर्श २, भोजन परिणाम ३, निद्राक्षय ४ और स्वप्नदर्शन ५ । किसीके शब्दको सुनकर १ किसीके स्पर्शको उपलब्ध कर હતી. ઋષભદેવ સૌથી પહેલા તીર્થંકર થઈ ગયા, અને ભરત, બાહુબલી, પ્રાણી અને સુંદરી તેમના પુત્રપુત્રી હતાં. એ સૂ ૨૫ છે ઉપર જેમનું વર્ણન કરવામાં આવ્યું છે, તે ઋષભાદિ બુદ્ધ હતા. ભાવની અપેક્ષાએ મેહના ક્ષયથી અને દ્રવ્યની અપેક્ષાએ નિદ્રાના ક્ષયથી જ જીવ બુદ્ધ થઈ શકે છે. તેથી હવે સૂત્રકાર દ્રવ્યબોધના કારણેનું નિરૂપણ કરે છે. " पचहि ठाणेहि सुत्ते विबुज्झेज्जा" त्याहि સુસ જીવ નીચેના પાંચ કારણોને લીધે જાગૃત થઈ શકે છે–(૧) શબ્દ, (२) २५, (3) सानपरिणाम, निद्राक्षय भने (५) २२ शन, કેઈને અવાજ સાંભળીને અથવા કોઈ વ્યક્તિ દ્વારા શરીરને સ્પર્શ થવાથી સૂતેલી વ્યક્તિ જાગી જાય છે. એ જ પમાણે ભૂખને કારણે પણ તે Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधाटीका स्था०५उ०२स् २६ भावप्रबुद्धस्थकारणेसति अज्ञानतिक्रमणतानि० १३१ भोजन परिणामेन = भोजन परिपाकेन - बुभुक्षयेत्यर्थः ३ तथा निद्राक्षयेण = निद्राया अपगमेन ४, स्वप्नदर्शनेन चेति ५ । जागरणस्य निद्राक्षयः साक्षात्कारणम्, निद्राक्षयस्य च शब्दस्पर्श भोजन परिणामाः परम्परा कारणम्, अतो जागरणकारणस्य निद्राक्षयस्य हेतुत्वेन शब्दादीन्यपि जागरणकारणानि वोव्यानीति सू०२६॥ इत्थं कारण निर्देशपुरस्सरं द्रव्यप्रबुद्धमुक्तवा, सम्प्रति भावप्रबुद्धस्य कारणे सति जिनाज्ञानतिक्रमणतामाह मूलम् - पंचहिं ठाणेहिं समणे णिग्गंथे णिग्गंथिं गिव्हसाणे वा अवलंबमाणे वा णाइक्कमइ, तं जहा - निग्गंथिंच णं अन्नयरे पसुजाइए वा पक्खिजाइए वा ओहाएजा, एत्थ णिग्गंथे णिग्गंथिं गिण्हमाणे वा अवलंबमाणे वा नाइकमइ ॥ १ ॥ णिग्गंथे णिग्गंथि दुग्गंसि वा विसमंसि वा पक्खलमाणि वा पवमाणि वा गिण्हमाणे वा अवलंबमाणे वा नाइकमइ ॥२॥ णिग्गंथे णिग्गा सेयंसि वा पंकंसि वा पणगंसि वा उद्गंसि वा उक्करमाणिं वा उवुज्झमाणं वा गिण्हमाणे वा अवलंब - सोता 'हुआ प्राणी जग जाता है, इस प्रकार वह सूख से भी जग जाता है, तथा निद्राका अपग्रम हो जावे तो भी वह जग जाता है तथा सोती हुई अवस्था में स्वके देखने से भी जग जाता है । जागरणका साक्षात्कारण निद्रा क्षय है और निद्राक्षपके शब्द श्रवण, स्पर्शोपलब्धि एवं भोजन परिणाम- बुभुक्षा ये सब परम्परा कारण हैं । इसलिये जागरण के कारण निद्राक्षयके हेतु होने से शब्दादिकों को भी जागरणकी कारण यहां कहा गया है ऐसा जानना चाहिये || सू० २६ ॥ જાગી જાય છે, ઊંઘ પૂરી થવાથી પણ તે જાગી જાય છે, અને ઊંઘમાં સ્વગ્ન દેખવાથી પશુ તે જાગી જાય છે. જાગરણનું સાક્ષાત્કારણુ નિદ્રા છે, અને શબ્દ શ્રવણુ, સ્પર્શોપલબ્ધિ, ભૂખ અને સ્વદર્શન, આ ખધાં નિદ્રાક્ષયના પરમ્પરા કારા છે, તેથી તે જાગૃતિના કારણભૂત નિદ્રાક્ષયમાં હેતુરૂપ હોવાથી તેમને પણુ જાગરણના કારણ રૂપે અહી પ્રકટ કરવામાં આવ્યા છે, એમ સમજવું! સૂ. ૨૬ ॥ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩૨ स्थानासूत्रे माणे वा इक्कम ॥ ३ ॥ णिग्ग्रंथे णिग्गंथिं नात्रं आरोहमाणे वा ओरोहमाणे वा णाइक्कमइ ॥ ४ ॥ खित्तचित्तं दित्तचित्तं जक्खाइटुं उम्मायपन्तं उवसग्गपत्तं साहिंगरणं सपायच्छित्तं भत्तपाणपडियाइ क्खियं अट्टजायं वा निग्गंथे निग्बंथिं गिण्हमाणे वा अवलंबमाणे वा णाइक्कमइ ॥ सू० २७ ॥ छायाः पञ्चभिः स्थानैः श्रमणो निर्मन्थो निर्ग्रन्थों गृह्णन् वा अवलम्बमानो वा नातिक्रामति, तद्यथा-निर्ग्रन्थीं च अन्यतरः पशुजातिको वा पक्षिजातिको चा उपहन्यात्, तत्र निर्ग्रन्थो निर्मन्थीं गृह्णन् वा अवलम्बमानो वा नातिक्रामति ॥ १ ॥ निर्ग्रन्थ निर्यर्थी दुर्गे वा विपमे वा प्रस्खलन्तीं वा प्रपतन्तीं वा गृह्णन् वा अत्रलम्बमानो वा नातिक्रामति || २ || निर्ग्रन्थो निर्ग्रन्थों से के वा पढे वा पनके वा - इस प्रकार कारणके निर्देशपूर्वक द्रव्य प्रबुद्धका कथन करके अथ सूत्रकार भाव प्रवुद्ध में कारणके होने पर जिनराज्ञाकी अनतिक्रमणता होती है ऐसा कथन करते हैं । सूत्रार्थ - " पंचहि ठाणेहिं समणे णिग्गंधे " इत्यादि पांच कारणोंसे श्रमण निर्ग्रन्थ निर्ग्रन्थी साध्वीको सहाय देता हुआ जिनाज्ञाका विराधक नहीं होता है, वे पांच कारण ये हैं- जैसे- किसी साध्वी को कोई पशु उद्धत हुआ बैल आदि या पक्षिजातिक- गीध आदि चोट पहुंचा देता है और वह गिर पड़ती है, उठ नहीं सकती है तो ऐसी स्थिति में अन्य साध्वी जनके अभाव में वहां पर स्थित हुआ साधु આ પ્રકારે કારણના નિર્દેશપૂર્ણાંક દ્રવ્યપ્રમુદ્ધનુ' કથન કરીને હુવે સૂત્રકાર એ વાતનું પ્રતિપાદન કરે છે કે અમુક સમૈગામા ભાવપ્રબુદ્ધ અમુક પ્રકાર વર્તવાથી જિનાજ્ઞાના વિરાધક ગણાતા નથી. शुत्रार्थ - " प चहि ठाणेहि समणे णिग्गंथे " इत्यादि નીચેના પાંચ કારણામાંથી કાઇ પણ કારણુ ઉદ્ભવે ત્યારે કોઇ શ્રમણ્ निर्भय अर्ध निर्थथीने ( साध्वीलने ) सहारे। माये, तो ते मिनाज्ञान। વિરાધક ગણાતા નથી—(૧) કાઈ ઉન્મત્ત આખàા આદિ પશુ કે ગીધ આદિ પક્ષી કેાઇ સાધ્વી પર ધસી જઇને તેમને ભૂમિપર પછાડી નાખે અને તેઓ પેાતાની જાતે ઊભા થવાને સમ ન હેાય તથા તેમને ટંકે આપીને ઊભા કરનાર કે।ઈ અન્ય સાધ્વીજી પણ ત્યા હાજર ન હાય, તે એવી પરિસ્થિતિમાં Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०५३ २सू २६ भावप्रबुद्धस्य कारणे सति आज्ञानतिक्रमणतानि० १३३ उदके वा अवकृष्यमाणां वा अपोह्यमानां वा गृहन् वा अवलम्बमानो वा नाति. क्रामति ॥३॥ निर्ग्रन्थो निर्ग्रन्थी नावमारोहयन् वा अवरोहयन् वा नातिक्रामति ॥४॥ क्षिप्तचित्तां हप्तचित्तां यक्षाविष्टाम् उन्मादमाताम् उपसर्गप्राप्ताम् साधिकरणां सप्रायश्चित्तां भक्तपानमत्याख्याताम् अर्थजातां वा निग्रन्थो निन्थी गृहन् वा अवलम्मानो वा नातिकामति ५ ।मु० २७॥ टीको–'पंचहि ठाणेहि ' इत्यादि पञ्चभिः स्थानः कारणैः श्रमणो निर्ग्रन्थो निग्रन्थी गृह्णन् याहादी ग्रहणं कुर्वन् वा अवलम्बमानाबाहादौ गृहीत्वा धारयन् वा, अथवा-' सवंगिय तु गहण अवलंवणं तु देसस्मि" छाया-'सार्वाङ्गिकं तु ग्रहण करेण अवलम्बनं तु देशे ' इति, गृ = सर्वाश ग्रहणं कुर्वन् , अवलम्बमानः हस्तादौ धरन् वा नाविकामति=नोल्लइयति जिनाज्ञाम् । तान्येव स्थानान्याह-तद्यथा--कांचित् निन्थीं साध्वीम् अन्यत: कश्चित पशुजातिक'-उद्धतगवादि ची पक्षिजातिको गृध्रादि उपहन्यात-उप घातं कुर्यात, तत्र-उपघाते अन्यस्या निर्गन्धिशाया अभावे तां निग्रन्थी गृहन वा अवलम्बमानो वा निग्रन्थ आज्ञां नातिक्राति सकारणत्वात् । निष्कारणं तु गृह्णन् अवलम्वमानो वा जिनाज्ञामतिक्रामत्येव, अतश्च तत्र दोषा भवन्त्येव । दोषाश्चात्रैवमुक्ताः, तथाहि " मिच्छत्तं उडाहो, विराहणा फास भाव संबंधो । पडिगमणाई दोसा, सुत्ताभुत्ते य नायव्या ॥१॥" उसे सहायता दे सकताहै । इस स्थिति में वह जिनाज्ञाका विराधक नहीं होती है, टीकाथ-साहू आदि पकड़कर उठाना इसका नाम ग्रहणहै और उसे अपने दोनों हाथो में उठा लेना इसका लाल अवलम्बन है। अथवा-सव्वंगियं तु गहणं करेण अवलंबणं तु देसम्मि" उसे पूरा उठा लेना यह ग्रहण है और उसे अपने हाथका सहारा देकर उठाना यह अबलस्पन है । साधु जब विना किसी कारण ऐसा करता है तो अवश्यही वह जिनाज्ञाका विराधक होता है, क्योंकि ऐसा कर. કેઈ સાધુ તેમને મદદ કરે–તેમનો હાથ ઝાલીને તેમને ઊભાં કરે, તે તે સાધુ જિનાજ્ઞાને વિરાધક ગણાતો નથી साथ -- डाथ मा ५४82 834 तेनु नाम 'अक्षय છે અને પિતાના બન્ને હાથમાં ઉપાડી લેવાં તેનું નામ 'म न' छ सयवा-" सव्वंगिय तु गहणं करेण अवलबण तु देसम्मि" તેમને પૂરેપૂરા ઉઠાવી લેવા તેનું નામ ગ્રહણ છે, અને તેમને પોતાના હાથને આધાર આપીને ઊભા કરવા તેનુ નામ અવલ બને છે. કોઈ પણ કારણ વિના સાધુ એવું વર્તન કરે છે તે જિનાજ્ઞાને વિરાધક ગણાય છે, કારણ કે એવું ४२वामा तेने प्रारना होष दागे छे “मिच्छत्त उछाहो" त्या: Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानासूत्रे १३४ छाया - मिथ्यात्वमुड्डाहो विराधना स्पर्शे भाव सम्बन्धः । प्रतिगमनादयो दोषा भुक्ताऽभुक्ते (भोगे अभोगे च सति) ज्ञातव्याः इति। इति प्रथमं स्थानम् । तथा-निर्ग्रन्थो दुर्गे-दुःखेन गम्यते इति दुर्गः, स च त्रिविध:- वृक्ष दुर्गः श्वापद दुर्गे छेच्छदुर्गव, तदुक्तम् — "" तिविहं च होइ दुग्गं, रुक्खे सावयमणुस्स दुग्गं च । छाया - त्रिविध सवति दुर्गे वृक्ष श्वापदमनुष्य दुर्गश्च इति । तस्मिन् तथोक्ते मार्गे वा विपमेन्गर्तपापाणादि संकुले पर्वते वा प्रस्खलन्तीं गत्या प्रस्खलितां नेमें ऐसे दोष कहे गये हैं " मिच्छतं उड्डाहो " इत्यादि -- मिथ्यात्व उड्डाह आदि ये दोष उसे लगते हैं, ऐसा यह प्रथम कारण है । दूसरा कारण ऐसा है - इस कारण में जब साध्वी किसी दुर्गमें या किसी विषम स्थानमें रिपटकर गिर पढ़ती है या चलते २ उसका पैर मोंच जाता है कि जिससे वह चलने में सर्वथा असमर्थ बन जाती है तो ऐसी स्थिति में भी साधु उसे सहाय दे सकता है तो वह जिनाज़ाका विराधक नहीं माना गया है । जिस स्थान पर दुःखसे चला जाय वह दुर्ग है, यह दुर्ग तीन प्रकारका कहा गया है - एक वृक्ष दुर्ग, दूसरा श्वापद दुर्ग और तिसरा स्लेच्छ दुर्ग कहा भी है । " तिविहं च होई दुरगं " इत्यादि - ऐसे दुर्ग में अथवा गर्त (खड्डा ) पाषाण आदि से संकुल पर्वत के ऊपर चलती चलती साध्वी प्रस्खलित हो जाती है, या भूमिमें गिर पड़ती है तो ऐसी કારણ વિના એવું કરવાથી સાધુને મિથ્યાત્વ, ઉડ્ડાહ આદિ દેષ લાગે છે આ પ્રકારનું પહેલુ કારણ સમજવું. ખીજું કારણુ આ પ્રમાણે છે—કાઈ સાધ્વી કાઈ દુર્ગોમાં અથવા કેાઈ વિષમ સ્થાનમાં ચાલતાં ચાલતાં લપસી જાય અથવા ચાલતાં ચાલતાં તેમના પગ મચકોડાઇ જવાને લીધે તેએ ચાલી શકે તેમ ન હાય, તે એવી પરિસ્થિતિમાં તેમને સહારા દેનાર સાધુ જિનાજ્ઞાના વિરાધક ગણાતા નથી. दुर्ग त्र प्रभारना ह्या छे - (१) वृक्ष हुर्ग, (२) श्राय: हुर्ग, मने (3) મ્લેચ્છ દુર્ગા, એવા સ્થાન પર ચાલવામાં મુશ્કેલી પડે છે. કહ્યુ પહ્યુ છે કે तिविह' च होइ दुगं " त्याहि " એવા માર્ગ પર અથવા ગ, પાષાણુ આદિથી યુક્ત પર્વત ઉપર ચાલતાં ચાલતાં જે કાઈ સાધ્વીજી પ્રખ્ખલિત થઈ જાય-લપસી જાય અથવા Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था.५३.२सू २६ भावपवुद्धस्य कारणेसति आज्ञानतिक्रमणतानि० १३५ भवन्तीं वा प्रपतन्ती भूमौ पतनं प्राप्नुवतीं बा, प्रस्खलन-प्रपतन लक्षण प्रदशिका गाथा यथा "भूमीए असंपत्तं, पत्तं वा हत्थजाणुजाईहिं । पक्खलणं नायव्यं, पवडण भूमीए गत्तेहिं " ॥१॥ छाया-भमौ असंप्राप्तं प्राप्तं वा हस्तजानुकादिभिः। प्रस्खलनं ज्ञातव्यं, प्रपतनभूमौ गानः॥१॥ इति गाथाऽनुसारेण भूमौ असंप्राप्तिः, हस्तजानुकादिषु केनचिदेकेनाङ्गेन वा प्राप्तिः प्रस्खलनं, सर्वगानभूमौ प्राप्तिस्तु प्रपतनम् , तत् प्रस्खलनं प्रपतनं वा प्राप्नुवती निर्ग्रन्थीं गृह्णन वा अवलम्बमानो वा आज्ञा नातिक्रामतीति द्वितीयं स्थानम् । तथा-निर्ग्रन्थः सेके सीयते बध्यते यस्मिन्नसौ सेकः सजलकर्दमस्थितिमें साधु उसे सहाय दे सकता है । इसमें जिनाज्ञाके उल्लखान करने जन्य दोषसे वह लिप्त नहीं हो सकता है, प्रस्खलन और प्रपतन का लक्षण इस प्रकारसे कहा गया है। "भूमीए असंपत्तं" इत्यादिजिसमें चलते २ इस प्रकारकी स्थिति हो जाय कि भूमि पर गिरना तो हो नहीं किन्तु फिसलना हो जाय वह स्खलन है अथवा हाथ घुटनोंके बलही जमीन पर गिरना हो जाय वह प्रस्खलन है। ऐसे प्रस्खलन में शरीर पशु के जैसा झुक जाता है, तथा उसमें भूमिका स्पर्श नहीं होता है, जमीन पर जो शरीरका पतन हो जाता है वह प्रपतन है। इस गाथा अनुसार भूमि पर गिरना तो हो नहीं उस ओर केवल झुकना हो अथवा-हस्तजानुकादि अंगोमें से किसी एक अङ्ग द्वारा भूमिका स्पर्श हो वह प्रस्खलन है और समस्त अङ्गोंसे जिस पतनमें जमीनका स्पर्श हो जाय वह प्रपतन है। तृतीय कारण ऐसा है कि જમીન પર પડી જાય, તે તેમને સહારે દેનાર સાધુ જિનાજ્ઞાને વિરાધક ગણાતું નથી. પ્રખ્ખલન અને પ્રપતનનું લક્ષણ આ પ્રમાણે છે. " भूमिए असंपत्त" छत्यादि-न्यारे यासता यासतi भान ५२ भाभु શરીર પડી જાય છે, ત્યારે પ્રપતન થયું ગણાય છે, પણ લપસી જવાને કારણે શરીર એક બાજુ મૂકી જાય છે અને હાથ આદિ કે એક જ અંગને આધારે જમીન પર ખડું રહે છે, ત્યારે તેનું પ્રખલન થયું કહેવાય છે. પ્રપતન વખતે આખું શરીર ભૂમિને સ્પર્શ કરે છે, પણ પ્રખલન વખતે તે કોઈ એક જ અંગ ભૂમિને સ્પર્શ કરે છે. Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानानसूत्रे १३६ } स्तस्मिन् वा, पट्टे जलरहिते कईसे वा, पनके-पनका शैवालः तत्र वा, उदकेजले वा अपकृष्यमाणाम् = परिपतन्तीं का, अपोद्यमानां जलधाराभिः प्रवहमानां वा निर्ग्रन्थीं गृह्णन् वा अवलम्बमानोवा नातिक्रामति जिनाज्ञाम् । इह पतनं पढे पनके च बोध्यम् । अपवाहनं तु सेके उदके च वोध्यम् । इति तृतीयं स्थानम् । तथानिर्ग्रन्थो निर्ग्रन्थीं नात्रम् आरोहयन् = नौकोपरि निर्ग्रन्थया आरोहणं कारयन् वा, तथा - अरोहयन्= नौकातोऽवतारयन् वा नातिक्रामतीति चतुर्थ स्थानम् । तथाक्षिप्तचित्तां=क्षिप्तं नष्टं चित्तं यस्याः सा ताम्, क्षिप्तचित्तता तुरागमयापमानादिना भवति । तदुक्तम् -- अब साध्वी से कमें जल सहित कीचड में फंस जाय, पङ्कमें जल रहित कीचड में फंस जाय पनक में शैवाल सें फंस जाय अथवा जल में किसी प्रवाह में फंस जाय, उसमें गिर पड़े या उसमें वह जावे तो ऐसी स्थिति में उसे सहायता करने के अभिप्राय से प्रेरित हुआ माधु सहारा देता है तो वह जिनाज्ञाका विराधक नहीं होता है । यहां पतन पङ्क और पनकमें समझना और अपवाहन सेक (सिंचन) एवं उदकमें समझना । चतुर्थ कारण ऐसा है-निर्ग्रन्थों निर्ग्रन्थों नावमारोह वा अबरोहयन् वा नातिक्रामति " निर्ग्रन्थ जब निर्ग्रन्थीको नाव पर चढाता है या नावसे उसे नीचे उतारता है तो वह इस स्थिति में जिनाज्ञाका विराधक नहीं होता है। पांचवां कारण ऐसा है - क्षिप्तचित्तांतचित्तां यक्षाविष्टाम्, उन्मादप्राप्ताम्, उपसर्गमाताम्, साधिकरणां सप्रायश्चित्तां, भक्तपानप्रत्याख्याताम् अर्थजातां वा निर्ग्रन्थां - निर्ग्रन्थीं गृह्णन् वा अवलम्बमानो वा नातिक्रामति " जय साध्वी 1 - ત્રીજું કારણ આ પ્રમાણે છે—જયારે કોઈ સાધ્વીજી કોઈ જલયુક્ત ખાડામાં અથવા જલરહિત કીચડમાં ફસાઇ જાય, લીલ, શેવાળ આદિમાં ફસાઈ જાય, પાણીના પ્રવાહમાં ફસાઈ જાય અથવા તણાતાં હાય, તે એવી પરિસ્થિતિમાં તેમને મદદ કરવાના આશયથી તેમના સહારા કેનાર સાધુ જિનાજ્ઞાના િવરાધક ગડ્ડાતા નથી અહીં પતન પક અને પનકમાં સમજવું અને અપવાહન પાણીના પ્રવાહમાં સમજવું थोथु - "निमन्यो निर्ग्रन्थी नावमारोहयन वा अवरोहयन् वा नातिक्क्रामति” કાઈનિ ય કોઈ નિગ્રથીને બેસાડવામાં મદદ કરે અથવા નાવમાંથી ઉતરવામાં મદદરૂપ બને, તે એવી સ્થિતિમાં તે જિનાજ્ઞાના વરાધક ગણાતા નથી. पायभु रशु – “ क्षिप्तचित्ताँ, दृप्तच्चित्तां यक्षाविष्टाम्, उन्मादप्राप्ताम्, उपवास, साधिकरणां, सनायश्चित्ता, भक्तपानप्रत्ख्याताम् अर्थजातां वा Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुपाठीका स्था ५३०२सू०२७ भावप्रबुद्धस्य कारणेसति माशानतिक्रमणतानि० १३७ "रागेण या भएणवा, अहवा अवमाणिया महतेणं। . एएहिं खित्तचित्ता, होई भणियं जिर्णिदेहि ॥" छाया-रागेण वा भयेन वा, अथवा अपमानिता महता। एतैः क्षिप्तचित्ता भवति कथितं जिनेन्द्रः ।। इति । अथवा-दृप्तचित्ताम-दृप्तम्-दर्पयुक्तं उद्धतमिति यावत् चित्तं यस्याः सा ताम् , उद्धतचित्तता तु सम्मानादिना भवति, तदुक्तम्-- " इ एस असंमाणाखित्तो संमणओ भवे दित्तो। अग्गीव इंधणेणं, दिप्पइ चित्तं इमेहिं तु ॥१॥ लाभमएण उ मत्तो, अहका जेऊण दुज्जयं सत्तुं ।" छाया-इत्येष असंमानात् क्षिप्तः सम्मानतो भवेद् दृप्तः।। अग्निरिव इन्धनै प्यति चित्तमेभिस्तु ॥१॥ लाभमदेन तु मत्तः अथवा जित्वा दुर्जयं शत्रुम् ।। इति । क्षिप्त नष्ट चित्तवाली हो जाय क्योंकि क्षिप्तचित्तता तो राग, भय, अपमान आदिसे हो ही जातीहै। कहाभीहै-"रागेण वा भएण वा"इत्यादि। ऐसा जिनेन्द्रदेवने कहा है कि क्षिप्तचित्तता राग, भय अथवा अपं. मोनसे हो जाती है अथवा जब वह साध्वी दृप्त दर्पयुक्त-उद्धत चित्त वाली हो जाय, क्योंकि उद्धत चित्तता तो सम्मान आदि से हो ही जाती है। कहा भी है-" इह एस असंमाणाखित्तो" इत्यादि । . ___ मनुष्य असंमानसे क्षिप्त होता है और संमानसे दृप्त होता है। जिस प्रकार अग्नि इंधनसे इस होती है। लाभसे या मदसे अथवा दुर्जय निग्रंन्यो निमंन्यों गृह्णन् वा अवलम्बमानो वा नातिकामति" न्यारे ४४ સાધ્વીજી ક્ષિત ચિત્તવાળાં (ઉન્માદયુક્ત) થઈ જાય ત્યારે તેમને સહારે દેનાર સાધુ જિનાજ્ઞાને વિરાધક ગણાતું નથી. ક્ષિપ્તચિત્તતા રાગ, ભય, અપમાન આદિ કારણને લીધે થઈ જાય છે કહ્યું પણ છે કે : " रागेण वा भएण वा" त्याह निन्द्रदेव मेलु लुछ क्षियित्तता (यित्तभ्रम) राम, भय, અથવા અપમાનથી થાય છે અથવા જ્યારે તે સાધ્વી દર્પયુકત ચિત્તવાળાં થઈ જાય છે, ત્યારે પણ એવું બને છે, કારણ કે સન્માન આદિને કારણે ઉદ્ધત ચિત્તતાને સદભાવ તે જોવા મળે જ છે. કહ્યું પણ છે કે : 'इह एस असंमाणाखित्तो" त्याहि જેમ અગ્નિ ઈધનથી પ્રજ્વલિન થાય છે, તેમ મનુષ્ય અસંમાનથી ક્ષિપ્ત થાય છે, અને સમાનથી કમ (દર્પયુકત) થાય છે. લાભ પ્રાપ્ત થવાથી, મદથી અથવા દુર્જય શત્રુને હરાવવાથી મનુષ્ય મત્ત થાય છે. स्था-१८ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८. ."'.. . . । स्थानायो' अथवा-यक्षाविष्टाम्-यक्षेण देवविशेषेण आविष्टा आस्थिता ताम् । यक्षाघेशस्तु पूर्वभववैरादिना भवति । तदुक्तम्-- "पुव्वभरवेरिएणं, अहवा रागेण रागिया संती। .. .. एएहि जक्खइहा, “ कहिया सिरि जिणयरिदेहि ॥१॥ .... छाया--पूर्वभाववैरिकेग अथवा रागेण रागिता सती। . . . एताभ्यां यक्षाविद्या कथिता श्री जिनवरेन्द्रः ॥इति । __ अथवा-उन्मादमाप्ताम्-उन्मादः चितानवस्थितिः, तं प्राप्ता ताम् | उन्मादो पक्षावेशो मोहनीयश्चेति द्विविधो भवति । तत्र यक्षावेशः पूर्वगतः । अयं मोहनीयो बोध्यः । अयंच रुपाङ्गदर्शनेन पित्तमूर्छयावा भवति । तदुक्तम्-- शत्रुको जीतने से मनुष्य मत्त होता हैं अथवा वह साध्वी यक्षाविष्ट हो जाय, देवविशेषसे आस्थित हो जाय-पक्षावेश तो पूर्वभवके वैर आदि से हो ही जाती है। कहानी है-" पुचभववेरिएणं" इत्यादि। : जिनेन्द्रदेवने इन दो कारणोंसे. माध्वीको यक्षाविष्टा कहा है, या तो वह किसी पूर्वभवके वैरी देव आदिसे आक्रान्त हो जाय या किसी विशेष रागसे अनुरक्त हो जाय तो ऐसी स्थितिमें वह यक्षांविष्टा कहीं जाती है अथवा जो वह साध्वी उन्मादको प्राप्त हुई हो । चित्तकी अन. पस्थितिका (विक्षेप)नाम उन्माद है; इस उन्मादको स्थिति में वह आगई हो, उन्माद यक्षावेश और मोहनीयके भेदसे दो प्रकारका होता है, यक्षाधेश रूप उन्माद तो ऊपर प्रकट करही दिया गया है, यह मोहनीय रूप 'અથવા તે સાથ્થી જ્યારે યક્ષાવિષ્ટ થઈ જાય એટલે કે તેમના શરીરમાં થ નામના દેવવિશેષને પ્રવેશ થવાને કારણે તે સાધ્વી જ્યારે ઉન્મત્ત બની જાય ત્યારે તેને અવલંબન આદિ રૂપે સહારે આપનાર સાધુ જિનાજ્ઞાને वि२०५४ शाता नथी. " पुत्वभववेरिएण" त्याहि - જિનેશ્વર ભગવાને એવું કહ્યું છે કે નીચેના બે કારણોને લીધે સાધ્વીને યક્ષાવિષ્ટા કહેવાય છે–(૧) કઈ પૂર્વભવના વેરી દેવાદિને શરીરમાં પ્રવેશ થવાથી અથવા (૨) કઈ વિશેષ રાગ વડે અનુરક્ત થઈ જાય, તે એવી સ્થિતિમાં તેને યક્ષાવિષ્ટા કહેવામાં આવે છે. તે અથવા જ્યારે કોઈ સાથ્વી ઉન્માદાવસ્થામાં-ચિત્તભ્રમની હાલતમાં હોય ત્યારે પણ તેને સહારે દેનાર સાધુ જિનાજ્ઞાને વિરાધક થતો નથી. ઉન્મા બે પ્રકારે કહ્યા છે–ચક્ષાવેશ રૂપ ઉન્માદ–તેનું સ્વરૂપ ઉપર સ્પષ્ટ કરવામાં આવ્યું છે. (૨) મઠનીય રૂપ ઉન્માદ-ચિત્તભ્રમ રૂપ આ - ઉમાદ રૂપગ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - सुधारीका स्था०५७०२४०२७ भावप्रवुद्धस्य कारणे लति आशानतिक्रमणतानि० १६५ " उ-माओ खलु दुविहो, जवखाएसोयमोहणिज्जो य ।. जक्खाएसो वुत्तो, गोहेण इमं तु वोच्छामि ॥१॥ रुबंग दट्टणं, उम्माओ अहवं पित्तमुच्छाए। . उम्मायस्स य भया, कहिया तित्थंकराईहि ॥२॥" छाया-उन्मादः खलु द्विविधो यक्षावेशश्च मोहनीयश्च । .. यक्षावेशउक्तो मोहेनेनं तु वक्ष्यामि ॥१॥ रूपमनं च दृष्ट्वा उन्मादोऽधवा पित्तमृच्छया। उन्मादस्य च भेदौ कथितौ तीर्थङ्करादिभिः ।। २॥ इति । '' अथवा-उपसर्गप्राप्ताम्-उपसर्गम्-उपद्रव प्राप्ता ताम् । उपसर्गश्च दिव्यमानुषतिर्यककृतत्वात् त्रिविधो वोध्यः । तदुक्तम्उन्माद है, चित्तकी अनवस्थिति रूप यह उन्माद रूपाङ्ग दर्शनसे या पित्तकी मूर्छासे होता है । कहाभी है- - - - - - ... " उम्माओ खल्लु दुविहो ” इत्यादि। . इस गाथाका अर्थ स्पष्ट है, अथवा जब वह साध्वी उपसर्ग प्राप्त हुई हो, उपद्रवको प्राप्त करनेकी स्थितिवाली हो गई हो, देवकृत उपसर्ग, मानुषकृत उपसर्ग, तिर्यककृत उपसर्ग, इस प्रकारसे उपसर्ग तीन प्रकारका होता है, जो उपसर्ग देव द्वारा कृत- होता है वह दिव्य उपसर्ग है; जो उपसर्ग मनुष्य द्वारा किया गया होता है वह मानुष उप. संग होता है और जो उपसर्ग पशु द्वारा किया गया होता है वह तिर्यक् कृत उपसर्ग होता है । सो ही कहा गया है निथी अथवा पित्तनी भूछtथी थाय छे ४ ५५ छ : "उम्माओ खलु 'दुविहो" त्यादि. २म! गाया। २५ष्ट छ । અથવા જ્યારે કેઈ સાધ્વીને ઉપસર્ગો અનુભવવા પડતા હોય ત્યારે પણ તેને સહારે દેનાર સાધુ જિનારાને વિરાધક ગણતો નથી ઉપસર્ગના નીચે પ્રમાણે ત્રણ પ્રકાર છે–દેવકૃત ઉપસર્ગ, મનુષ્યકૃત ઉપસર્ગ અને તિર્યચ. કૃત, ઉપસર્ગ. જે ઉપસર્ગો દેવ દ્વારા કરાય છે, તેમને કહ્યુંઉપસર્ગો કહે છે, મનુષ્ય દ્વારા કરાતા ઉપસર્ગોને માનુષી-ઉપસર્ગ કહે છે અને તિર્યકરો દ્વારા Adi S५सनि तिय यकृत सी ई-छ., मे २४ , पात तिविहे व पसग्गे" त्या यामे द्वारा व्य३d ४२वाम मावी छ । Page #162 --------------------------------------------------------------------------  Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुघाटोका स्था०५३०२१०२७ भावप्रबुद्धस्य कारणेसति आमानतिक्रमणतानि० १४१ छाया-अर्थ वा हेतुं वा श्रमणीनां विरहिते कथयतः । मृच्छया विपतितायाः कल्पते ग्रहणं परिज्ञया ॥ इति । .. अयमर्थः-संस्तारकस्य अर्थम् उद्देश्य हेतु कारणं वा कथयता उपदिशतो निर्ग्रन्थस्य पुरतो मूर्च्छया निपतितायाः निन्थ्याः श्रमणीनां विरहिते सति परिज्ञायाम् अनशने ग्रहणं कल्पते इति । अथवा-अर्थजाताम्-अर्थः पतिचौरादेः कार्य प्रयोजनमिति यावत् जातो यतः सा तथा ताम्-पतिचौरादिना संयमाचाल्यमानामित्यर्थः । उक्त चात्र___ " अट्ठोत्तिजीए कज्जं, संजय एस अट्ठजायाउ । तं पुण संजमभावा चालिज्जतं समवलंब ॥३॥" छाया-अर्थ इति यस्याः कार्य संजातम् एषा अर्थजाता तु । तो पुनः संयमभावाचाल्यमानां समवलम्बः ॥१॥ इति । इसका भाव ऐसाहै-संस्तारकके (अनशन) प्रयोजनको अथवा कारणको कहते हुए, उपदेश देते हुए, निग्रन्थके समक्ष यदि कोई यावज्जीव भक्तप्रत्याख्यानवाली साध्वी गिर पडी हो और उस समय वहां अन्य साध्वियां न हो तो ऐसी अवस्थामें साधुका उसे सहारा देना दोषावह नहीं है अथवा-जब वह अर्थजाता हो, पति अथवा चोर आदि जिसे संयमसे चलायमान कर रहे हो । कहाभी है - "अहो त्ति जीए कज्ज" इत्यादि । जिसे पति अथवा चोर आदिका भय उपस्थित हो गया हो, इस स्थितिमें जो साध्वी आगई हो ऐसी वह अर्थजाता साध्वी है। इस तरह અથવા કેઈ સાધીએ આજીવન અનશનવ્રત અંગીકાર કર્યું હોય, અને શારીરિક અશકિતને કારણે તેઓ પડી જાય તે ત્યાં અન્ય સાધ્વીઓ હાજર ન હોય એવી પરિસ્થિતિમાં તેમને સહારે દેનાર સાધુ જિનાજ્ઞાને વિરાધક ગણાતું નથી. અથવા જ્યારે તે સાધ્વીજી અર્થાતા હેય (જેને પતિ અથવા ચાર આદિ સંયમથી ચલાયમાન કરી રહ્યા હોય એવી સાઠવીને અજાતા કહે છે) ત્યારે તેને સહારે દેનાર સાધુ પણ જિનાજ્ઞાને વિરાધક ગણાતું નથી. ४ ५ छ है “ अट्ठो ति जीए कजं " त्याह જેને પતિ અને ચોર આદિને ભય, ઉપસ્થિત થયો હોય એવી પરિ સ્થિતિમાં મૂકાયેલા સાધવીને અહીં અર્થ જાતા સાઠવી કહેવામાં આવેલ છે. Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानानने क्षिप्तचिचार्थ जातापर्यन्तासु कामपि निग्रन्थी गृह्णन् वा अवलम्बमानो वा निर्ग्रन्थो जिनाज्ञां नातिक्रामतीति पञ्चसं स्थानम् ॥ छ० २७ ॥ अनन्तरं येषु कारणेषु वर्त्तमानो निर्ग्रन्थो जिनाज्ञां नातिक्रामति तान्युक्तानि, सम्प्रति निर्धन्यविशेषा आचार्योपाध्याया येषु अतिशयेषु वर्तमाना जिनाशी नातिक्रामन्ति तानाह ૪ર " मूलम् - आयरियउवज्झायस्स णं गर्णसि पंच अइसेसा पण्णत्ता, तं जहा - आयरिय उवज्झाए अंतो उवस्यस्स पाए निगिज्झिय निगिञ्झिय पष्फोडेमाणे वा पमजेमाणे वा णाइकम १| आयरियउवज्झाए तो उवस्सस्स उच्चारपासवणं विगिंचमाणे वा विसोमा वा णाइकमह, २ आयरियउवज्जाए पभू इच्छावेयावडियं करेजा इच्छा णो करेजा ३ | आयरिय उवज्झाए अंतो उवस्सस्स एगरायं वा दुरायं वा गांगी वसमागे जाइकमइ. ४. आयरियउवज्झाएं बाहि उवस्यस्त एगरायं वा ۱ ! दुरायं वा वसमाणे पाइकमइ ५ ॥ सू० २८ ॥ ܕ क्षिप्तचित्त से लेकर अर्थजाता पर्यन्त तककी किसी भी अवस्थामें पतित हुई किमी भी साध्वीको सहारा देनेवाला साधु निर्ग्रन्थ जिनाज्ञाका अतिक्रमण - उल्लंघन करनेवाला नहीं होता है, इस तरह से यह पांचव स्थान है ॥ म्रु० २७ ॥ इस तरहसे जिन कारणोंको लेकर निर्ग्रन्थ जिनाज्ञाका उलङन करनेवाला नहीं होना है, उनको प्रदर्शित कर अब सूत्रकार निर्ग्रन्थ विशेष जो आचार्य और उपाध्याय हैं, वे जिन अतिशयों में वर्तमान होकर जिनाज्ञाका उल्लङ्घन नहीं करते हैं, उनका कथन करते हैं-, J આ રીતે ક્ષિક્ષચિત્તથી લઇને અર્થજાતા પતની કોઈ પણ પરિસ્થિતિમાં મૂકાયેલા સાધ્વીજીને સહારા · દેનાર-શ્રમણુ નિથ જિનાજ્ઞાનો વિાધક गात नथी या प्रास्तु' या पांचभु र समन्वु ॥ सू. २७ ॥ " श्या 'प्राश्नी परिस्थितियां साध्वी ने सहारो हेनार श्रम निर्भन्थ જિનાજ્ઞાનો વિરાધક ગણાતા નથી, એ વાત પ્રકટ કરીને હવે સૂત્રકાર એ વાત પ્રકટ કરે છે કે આચાય અને ઉપાધ્યાય રૂપ નિગ્રંથ વિશેષેા કયા અ તશયાથી યુકત હાવા છતાં પણ જિનાજ્ઞાની અવગણના કરનારા ગણુાતા નથી. -1 Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुधा टीका स्था०५उ २सू २८ आचार्योपाध्यायातिशयनिरूपणम् १४३ .: 'छाया-आचार्योपाध्यायस्यांखल्ल गणे पञ्च अतिशेषाः प्रज्ञप्ताः,, तद्यथाआचार्योपाध्यायः अन्तरुपाश्रयस्य पादौ निगृह्य निगृह्य परकोटयन वा प्रमाजयन् वा नातिकामति १। आचार्योपाध्यायः - अन्तरुपाश्रेयस्य उच्चारप्रस्रवणं विवे. चयन् वा विशोधयन् वा नातिनामति २। आचार्योपाध्यायः प्रभुः इच्छा वैगवृत्त्यं कुर्यात् इच्छा न कुर्यात् ३। आचार्योपाध्यायः- अन्तरुपाश्रयस्य एकरात्रं वा द्विरात्रं वा एकाकी वसन् नातिकामति, ४], आचार्योपाध्यायो बहिरुपाश्रयस्य एकरात्रं वा द्विरात्रं वा वसन् नातिकामति ५ ॥१०.२८,॥ .. :... . - टीका- आयरियउवज्झायस्स' इत्यादि-... . आचार्योपाध्यायस्य-आचार्यः-केपांचिदर्थमदातृत्वात् । स एंव उपाध्यायः केपांचित् साधूनां सूत्रप्रदातृत्वात् , आचार्यश्चासौ उपाध्याय चेति आचार्योपाध्याय, यद्वा-आचार्योऽन्यः, उपाध्यायश्चान्यः,उभयोः समाहारे-आचार्योपाध्याय, तस्आचार्योपाध्यायस्य आचार्योपाध्याययोर्वा खल-निश्चयेन गणे-साधुसमुदाये पञ्च अतिशेषा-अतिशयाः अन्यसाध्वपेक्षया प्रज्ञप्ता: कथिताः । तद्यथा-आचार्योंपाध्यायः-आचार्योपाध्यायपदविशिष्ट एकः साधुः: आचार्यत्वोपाध्यायत्वविशिष्टं "आयरिय उवज्झायस्स.णं गणसिइत्यादि। आचार्योपाध्यायके अथवा आचार्य और उपाध्यायके गणमें पांच अतिशेष अन्य साघुकी अपेक्षा अतिशय कहे गये हैं, वे इस प्रकारले हैं-"आयरिय उषज्झाए अंतो उबस्सयस्त" इत्यादि । । । । . जो आचार्योपाध्याय-आचार्यरूप उपाध्याय किन्हीं. किन्हीं साधुऑको अर्थ और सूत्र.. प्रदाता. होने, से, आचार्य रूप और उपाध्याय रूप हुआ ऐसा वह !. आचार्योपाध्याय अथवा स्वतंत्र उपाध्याय-उपाश्रयके भीतर शिष्यजनको इस अभिः प्रायसे ऐसा कहकर “कि चरणों परकी धूलिको झटकारनेसे उड़ी हुई चरण रज अन्यके ऊपर पड़ जाती हैं, अतः वे न पड जायें इसलिये चरणोंको उपाश्रयके बाहरही झटकार लेना चाहिये, " उपाश्रयके भीतर .." आयरिय उवज्झायरस णं गणंसि " त्याहि , ( 1: આચાર્યોપાધ્યાયમાં અથવા આચાર્ય અને ઉપાધ્યાયમાં, પાંચ અતિશેષ એટલે કે અન્ય સાધુઓની અપેક્ષાએ અતિશય કહૃાા છે. તે પાંચ અતિશયે नाये प्रमाणे -" शायरिगउवज्झाए अंतो उवस्त्रयस्म " त्या- साया. ચૈપાધ્યાય-આચાર્ય રૂપ ઉપાધ્યાય કઈ કઈ સાધુઓને અર્થના દાતા હોવાને કારણે આચાર્ય રૂપ ગણી શકાય છે અને કઈ કઈ સંધુઓને સૂત્રના પ્રદાતા હોવાથી તેઓ ઉપાધ્યાય રૂપ ગણાય છે, એવાં તે આચાર્યોપાધ્યાય અથવા સ્વતંત્ર આચાર્ય અને સ્વતંત્ર ઉપાધ્યાય ઉપાશ્રયની અંદર શિષ્યોને આ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ स्थानास्त्रे साधुद्वयं वा उपाश्रयस्य वसतेः अन्तमध्ये निगृह्य निगृह्य-प्रस्फोटनेन उड्डीय मानैश्चरणरजोभिरन्यजीवविराधना मा भवेदिति यतनया शिष्य भूयो भूयो निवार्य पादौ प्रस्फोटयन्-आभिग्रहिकेण अन्येन वा साधुना स्वकीय रजोहरणादिना चरणयोः प्रस्फोटनं कारयन् वा, प्रमार्जयन्-शनैः शोधयन् वा नातिकामति जिनाज्ञाम् । अयमत्राभिमाय:-आचार्य उपाध्यायो वा कुलगणादिकार्येण निर्गत्य प्रत्यावृत्तः। सचोत्सर्गेण उपाश्रयाद् वहिरेच चरणो प्रस्फोटयति, यदि तत्र कश्चित् सागारिको भवति तदा स उपाश्रयमध्ये प्रस्फोटयति । प्रस्फोटनं च प्रमार्जनविशेष एच, नहीं" पैरोंके झटकारने से चार २ निषेध करताहै और वह स्वयं अपने पैरोंको किसी आभिग्रहिकसे अथवा किसी अन्य साधुसे अपने रजोहरण आदिसे उपाश्रयके भीतर झटकारताहै दूरकराता है या उनकी धीरे २ प्रमार्जना कराना है तो ऐसा कराता हुआ वह आचार्य या उपाध्याय जिनाज्ञाका विराधक नहीं होता है । तात्पर्य इस कथनका ऐसा है-- आचार्य अथवा उपाध्याय कुलगण आदिके कार्यके निमित्त याहर गये और उस कार्य करके वे फिर पीछे लौट आये तो उत्सर्ग मार्ग तो यहीहै कि वे उपाश्रयके बाहर ही अपने दोनों पैरों को प्रमार्जन कर ले पीछे उपाश्रयके भीतर प्रविष्ट होते हैं, परन्तु यदि वहां कोई सागारिक होता है तो वे उपाश्रयके भीतर अपने पैरोंको प्रमार्जन करवाते हैं, यह प्रस्फोપ્રમાણે કહે છે. “પગ પર લાગેલી રજને ઝાપટવાથી તે જ ઉડીને કેઈની ઉપર પડે છે, તેથી તમારે ઉપાશ્રયની બહાર જ પગની રજને ઝાપટી નાખવી नमे, पाश्रयमा आपटवा, नये नही." આ પ્રમાણે તેઓ શિખેને ઉપાશ્રયની અંદર પગની રજ ઝાપટી નાખવાને વારંવાર નિષેધ કરે છે, પરંતુ તેઓ પિતે કેઈ આભિગ્રહિક પાસે અથવા કેઈ અન્ય સાધુ પાસે પિતાના પગને રજોહરણ આદિ વડે ઉપાશ્રયની અંદર જ ઝપટાવે છે અથવા ધીરે ધીરે તેની પ્રમાર્જના કરાવે છે, તે એવું કરનાર તે આચાર્ય અથવા ઉપાધ્યાય જિનાજ્ઞાના વિરાધક ગણાતા નથી. આ કથનનું તાત્પર્ય નીચે પ્રમાણે છે– આચાર્ય અથવા ઉપાધ્યાયને કુલ, ગણ આદિના કાર્યને નિમિત્તે બહાર જવું પડયું છે. ત્યારબાદ જ્યારે તેઓ પાછા ફરે, ત્યારે ઉત્સર્ગવિધિ પ્રમાણે તે તેમણે ઉપાશ્રયની બહાર જ પોતાના બંને પગનું પ્રમાર્જન કરીને જ ઉપાશ્રયમાં પ્રવેશ કરે જોઈએ, પરંતુ જે ત્યાં કઈ સાગરિક હોય છે તો તેઓ ઉપાશ્રયની અંદર દાખલ થયા બાદ પણ પોતાના પગનું Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - सुधा टीका स्था.५उ.२स्लू २८ आचार्योपाध्यायातिशयनिरूपणम् १५५ तच्च प्रत्युपेक्षणपूर्वकमेव भवति । प्रत्युपेक्षणं च चक्षुयापार एवेति सप्तभङ्गा अत्र भवन्ति । तथाहि-न प्रत्युपेक्षते न च प्रमाष्टि-इति प्रथमो भङ्गः। न प्रत्यु. पेक्षते प्रमाष्टिं चेति द्वितीयो भङ्गः । प्रत्युपेक्षते न च प्रमाष्टि-इति तृतीयो भङ्गः। प्रत्युपेक्षते प्रमार्टि चेति चतुर्थों भङ्गः । प्रत्युपेक्षणं प्रमार्जन च दुष्ठुतया मुष्टुतया चापि भवतीति चतुर्थे भङ्गे चत्वारो भङ्गा बोध्याः । तत्र दुष्प्रत्युपेक्षते दुष्पमार्टि-इति प्रथमो भङ्गः । दुष्प्रत्युपेक्षते सुप्रमाष्टिं इति द्वितीयो भङ्गः। सुप्रत्यु. टन रूप पैरोंका झटकारना प्रमार्जन विशेषरूप ही है, यह प्रत्यु पेक्षणपूर्व. कही होता है, और प्रत्युपेक्षण-पडिलेहण चक्षुव्यापार रूप होता है, अतः यहां सात मङ्गा होते हैं-जैसे-" न प्रत्युपेक्षते न प्रमाष्टिं १" न वह प्रत्युपेक्षा करताहै, और न प्रमार्जना करता है ? "न प्रत्युपेक्षते प्रमाष्टिं च २" प्रत्युपेक्षा तो नहीं करता है पर प्रमार्जना करता है २ "प्रत्युपेक्षते न च प्रमाटि ३" प्रत्युपेक्षा तो करता है, पर प्रमार्जना नहीं करता है ३ " प्रत्युपेक्षते प्रमाष्टिं च ४" और प्रत्युपेक्षा भी करता है, और प्रमार्जना भी करता है ४ इस चतुर्थ भङ्गाके भी चार भंग होते हैं, क्योंकि प्रत्युपेक्षण और प्रमार्जन दुष्ठुरूपसे विना उपयोगके और सु. "ठुरूपसे उपयोगसे भी होते हैं, वे चार भंग इस प्रकारसे हैं " दुष्प्रत्युपेक्षते दुष्प्रमाटि १" यदि वह अलावधानीसे अच्छी तरहसे नहीं उपयोग दिये विना ही-प्रत्युपेक्षा करता है, और प्रमार्जना करता है, तो वह प्रथम भंगवाला है । " दुष्प्रत्युपेक्षते सुप्रमाष्टि २” यदि वह प्रत्यु: પ્રમાર્જન કરાવી શકે છે જેહરણ આદિ વડે બને પગને કઈ સાધુ પાસે ઝપટાવવા એ પણ પ્રમાર્જન વિશેષરૂપ જ હોય છે. તે કિયા પ્રત્યુપેક્ષણપૂર્વક થાય છે, અને પ્રત્યુપેક્ષણ ચક્ષુવ્યાપાર રૂપ હોય છે, તેથી અહીં રાત ભાંગા (विपी ) मन छ “न प्रत्युपेक्षते न प्रमाष्टि" (१) ते प्रत्युपेक्षा ४२ते। नथी भने प्रभारी ना ५४] ४२तो नथी. (२) “ न प्रयुपेक्षते न प्रमाष्टिं च" अत्युपेक्षा त ४२तो नयी ५ अमाना रे छ (3) प्रत्युपेक्षते नप प्रमाटि" प्रत्युपेक्षा तो ४२ 2, ५ प्रभा ना ४२ नथी. (४) प्रत्यक्ष प्रमाष्टिं च" प्रत्युपेक्षा ५ ४३ छ भने प्रभान पY ४२ छे. या योया ભાંગાના પણ ચાર ભાંગી પડી શકે છે, કારણ કે પ્રત્યુપેક્ષણ અને પ્રમાર્જન દુષ્ટ રૂપે (ઉપયોગ રહિત પ) અને સુહુ રૂપે (ઉપયોગ સહિત) પણ થાય छे. ते या२ मin नीय प्रमाणे समा . “ दुष्प्रत्युपेक्षते दुष्प्रमाप्टिं"नते અસાવધાનીથી પ્રત્યક્ષા કરે છે અને અસાવધાનીથી પ્રમાર્જના કરે છે, તે स्था०-१९ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानामुत्रे १४६ पेक्षते दुष्प्रमार्ष्टि - इति तृतीयो भङ्गः । सुमत्युपेक्षते ग्रुप्रमार्ष्टि इति चतुर्थो भङ्गः । चतुर्थभङ्गस्य भङ्गचतुष्टयकरणेन शेपास्त्रय एवेति सप्तभङ्गा बोध्याः । अत्रान्तिमः शुद्धः । अवशिष्टेषु सामाचारी न भवति । यदि तु सागारिकम्ततो गमनोन्मुखो भवेत्तदा यावता कालेन सप्तपदान्यवक्रम्यन्ते तावन्तं कालम् उपाश्रयात् बहिरेवविष्ठेत् गतेच तस्मिन् पादौ गस्फोटयेत् । आचार्यस्य पादप्रस्फोटनमाचार्या " पेक्षा तो अच्छी तरह से नहीं करता है, पर प्रमार्जना अच्छी तरह से करता, तो वह इस द्वितीय अंगवाला है । "प्रत्युपेक्षते दुष्प्रमार्ष्टि ३" यदि वह प्रत्युपेक्षण अच्छी तरह ले करता है, और प्रमार्जन ठीक तरहसे नहीं करता है तो वह इस तृतीय मंगवाला है ३ " सुप्रत्युपेक्षते सुमा ४ " और यदि वह अच्छी तरह से प्रत्युपेक्षण करता है, और अच्छी तरहसे ही प्रमार्जन करता है, तो वह इस चतुर्थ भंगवाला है, चतुर्थ भंगके चार भंग करने से शेष भंग ३ही अंग है, इस प्रकार कुल ये ७ अंग होते हैं । चतुर्थ भंगका जो अन्तिम चौथा भंग है वही शुद्ध है, अवशिष्ट मंगोंमें सामाचारी नहीं होती है, यदि सागारिक वहांसे मनोन्मुख होता है, तो जितने समय में वह सात पैर आगे बढता है, उतने काल तक उपाश्रयसे बाहर रहना चाहिये और फिर उसके चले जाने पर फिर चरणों को प्रमार्जन करना चाहिये आचार्यका पादप्रस्फोटन " चला लगामां (२) दुष्प्रत्युपेक्षते सुप्रमार्ष्टि " ले ते प्रत्युप्रेक्षा तो सारी रीते કરતા નથી પણુ પ્રમાર્જના સારી રીતે કરે છે, તે તેને ખીજા ભાંગામાં भूडी शाय . " सुप्रत्युपेक्षते दुष्प्रमार्ष्टि (3) ले ते प्रत्युप्रेक्षा तो सारी રીતે કરે છે પણ પ્રમાના સારી રીતે કરતે નથી, તે તેને ત્રીજા ભાંગામાં भूमी शाय छे. " सुप्रत्युपेक्षते सुप्रमार्ष्टि " ले ते प्रत्युपेक्षा पशु सारी रीते रे छे, અને પ્રમાના પણ સારી રીતે કરે છે તા તેને ચાથા ભાંગાવાળા કહે છે. આ રીતે આગળના ત્રણ ભાંગા અને ચાચા ભગના જે ચાર ભાંગા અને છે, તે મળીને કુલ છ ભાંગા થાય છે. ચેાથા ભાંગાના જે ચાર ભાંગા કહેવામાં આવ્યા છે તેમાંના જે ચેાથેા ભાંગા છે, એજ શુદ્ધે છે, માકીના ભાંગાએમાં સામાચારી થતી નથી. જે સાગારિક ત્યાંથી ગમન કરવા માટે, તે જેટલા સમયમા તે સાત ડગલાં આગળ વધે છે, તેટલા કાળ સુધી ઉપાશ્રયની બહાર રહેવુ જોઇએ અને તે ચાલ્યા ગયા ખાદ પગતુ પ્રમાન કરવુ. જોઇએ. આચાય કરતાં દ્વીક્ષાપર્યાંયની અપેક્ષાએ જે સાધુ નાના હાય તેથે જ આચાર્યાંના પગનુ રોહરણુ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधाटीका स्था०५३०२ २८ आचार्योपाध्यायातिशयनिरूपणम् ૭ पेक्षया पर्याय लघु साधुना कर्तव्यं न तु पर्यायज्येष्ठेन । पर्याय ज्येष्ठास्तु. आचार्यस्य गुरुतुल्या एव । आचार्यः सागारिकस्य सत्तायामुपाश्रयान्तर्गत एव पादौ प्रस्फोटयतीत्युक्तम् । तत्र उपाश्रयो यदि विपुलो भवेत्तदाऽपरियुक्तस्थाने उपविश्य पादौ तेन प्रस्फोटनीयौ । यदि उपाश्रयः सङ्कुचितः भवेत्तदा स्वसंस्तारकावकाशे एव समुपविष्टेन तेन पादौ प्रस्फोटनीयौ । अथ चेदाचार्योपाध्याय, सदैव समागच्छतस्तदा तयोर्यः पर्यायज्येष्ठस्तस्य पूर्वं पादमस्फोटना कार्यो । daisuta | इति प्रथमोऽतिशेषः । तथा - आचार्योपाध्याय उपाश्रयस्व मध्ये आचार्यकी अपेक्षा जो पर्याय में लघु साधु हो ऐसेही साधुको करना चाहिये पर्यायी अपेक्षा ज्येष्ठ साधुको नहीं करना चाहिये क्योंकि पर्याय ज्येष्ठ जो साधु हैं वे आचार्यके गुरुतुल्यही होते हैं | आचार्य सागारिकको सत्ता में मौजूदगी में उपाश्रय के भीतर ही दोनों पैरोंको पूंजता है, ऐसा कहा है, सो यदि उपाश्रय विपुल बडा हो तो उसे अपरि युक्त स्थान में बैठकर अपने दोनों पैरों को शुद्ध करना चाहिये और यदि उपाश्रय छोटा है, तो उसे अपने संस्तारक के स्थान परही बैठकर पैरोंको पूंज लेना चाहिये यदि आचार्य और उपाध्याय साथही साथ आये हों तो उन दोनों में जो पर्यायसे जेष्ठ है, उसे पहिले चरणोंका प्रमार्जन करनी चाहिये उसके बाद दूसरेको करनी चाहिये इस प्रकारका यह प्रथम આદિ વડે પ્રસ્ફેટન ( રજ ઝાપટવાનું કાર્યં ) કરવુ' જોઈએ, પરન્તુ આચાય કરતાં જે સાધુ દીદીક્ષાપર્યાંયવાળા હાય, તેણે આચાર્યનુ. પાઇપ્રસ્ફોટન કરવુ‘ જોઈએ નહી”, કારણ કે પર્યાયજ્યેષ્ઠ જે સાધુએ હાય છે તેએ તા આચાર્યના ગુરુ સમાન ગણાય છે આચાય સાગારિકની હાજરી હૈય ત્યારે ઉપાશ્રયની અંદર જ અન્ને પગની પ્રમાના કરે છે, એવુ' અહીં જે કહેવામાં આવ્યુ છે તેના ભાવાર્થ એ છે કે જે ઉપાશ્રય વિશાળ હાય તે તેમણે અપભુિકત સ્થાનમાં બેસીને જ પેાતાના મન્ને પગ ધાવા જોઇએ, પણ જો ઉપાશ્રય નાના હાય તે તેમણે પેાતાના સંસ્તારકના સ્થાન પર બેસીને જ પેાતાના પગની પ્રમ જ ના કરવી જોઈએ, જે આચાય અને ઉપાઘ્યાય અને મહારયી સાથે આવ્યા હોય, તેા તે બન્નેમાં દીક્ષાપર્યાયની અપેક્ષાએ જ્યેષ્ઠ હાય તેમણે પેાતાના પગની પ્રમાના પહેલાં કરવી જોઇએ, અને ત્યાર ખાદ લઘુ દીક્ષાપર્યાયવાળાએ પેાતાના પગની પ્રમાના કરવી જોઇએ. આ પ્રકારનુ પહેલા અતિશેષનુ સ્વરૂપ છે. Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ स्थानास्त्रे उच्चारप्रस्रवणं विवेचयन् परिष्ठापयन् वा विशोधयन् वा निनाज्ञां नातिकामति । अत्रेदं वोध्यम्-आचार्य उपाध्यायो वा उत्सर्गतो विचारभूमि न गच्छति दोपसम्भवात् , तथाहि-आचार्यादिः कदाचिद् तिथिपु गच्छन् पूर्व 'श्रुतादिगुणयुक्तोऽय'-मिति बुद्धया श्रावकादिभिरभ्युत्थानादिना सक्रियते, ययनेकशो विचारभूमि गच्छति ततः श्रावकादय आलस्यवशात् न तथा कुर्वन्ति, ततोऽन्ये कदाचित् एवं मन्यन्ते-यदेते श्रावकादयो गुणिनां पूजका भवन्ति, ते चैन अतिशेष है। द्वितीय अतिशेष ऐसा है-आचार्य और उपाध्याय उपा. अयमें उच्चार और प्रस्रवणका निवारण करते है तो वे जिनाज्ञाका उल्लङ्घन नहीं करते हैं, यहां ऐसा समझना चाहिये आचार्य अथवा उपाध्याय दोषोंकी संभावनासे विचारभूमिमें नहीं जाते हैं, इसका कारण ऐसा है, कि जब वे विचार भूमिमें जाते समय मार्ग से निकलते हैं, तो उस समय पहिले श्रावक लोग उन्हें इस बुद्धिसे कि ये श्रुतादि गुणोंले युक्त हैं, अभ्युत्थान आदि द्वारा सत्कृत करते हैं, पर यदि ये धार२ विचार भूमिमें जानेके लिये मार्गसे होकर निकलने लगते हैं, तो श्रावक आदिजन आलस्यके वशसे भार २ ऐसा नहीं भी करते हैं तो ऐसी उनकी दशा देखकर अन्य जन कदाचित् ऐसा भी मानने लगते हैं, कि ये श्रावकजन तो गुणिजनोंके पूजक होते हैं, और फिर દ્વિતીય અતિશેષ આ પ્રકારને છે–આચાર્ય અને ઉપાધ્યાય જે ઉપા શ્રયમાં ઉચ્ચાર અને પ્રસ્ત્રવણની (મળમૂત્રની) પરિઝાપના અથવા વિશાધના કરે, તે તેઓ જિનાજ્ઞાની વિરાધના કરનારા ગણાતા નથી. અહીં એમ સમજવું જોઈએ કે આચાર્ય અથવા ઉપાધ્યાય દેશની સંભાવનાને લીધે વિચારભૂમિમાં (શૌચભૂમિમાં) જતા નથી. તેનું કારણ નીચે પ્રમાણે સમજવું. ત્યારે વિચારભૂમિમાં જવા માટે તેઓ નીકળે છે ત્યારે તેમના માર્ગમાં જે જે શ્રાવકે આવે છે, તેઓ તેમને કૃતાદિ ગુણેથી યુકત ગણીને ઉત્થાન આદિ દ્વારા તેમને સત્કાર કરે છે. પણ જો તેઓ વારંવ ૨ વિચારભૂમિમાં જવાને માટે માર્ગ પરથી પસાર થાય છે, તે 2 વર્ક વગેરે આળસને આધીન થઈને અભ્યથાન આદિ દ્વારા તેમને સાકાર કરવાને કદાચ બંધ પણ કરી નાખે છે. માર્ગેથી પસાર થતાં તે આચાર્ય આદિને શ્રાવકે દ્વારા અભ્યસ્થાન આદિ દ્વારા સત્કાર ન થતે જોઈને બીજા લેકે કદાચ એવી પણ કલ્પના કરવા માંડે છે કે શ્રાવકે તે ગુણીજના પૂજક હોય છે, છતાં તેઓ આ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४१ सुधा डीका स्था०५०२ सू० २८ आचार्योपाध्यायातिशयनिरूपणम् न सत्कुर्वन्ति, अतो नूनमयं पतित इति । तथा-अयं द्विर्भुङ्क्ते इत्यवर्णवादो भवति, मत्सरिकर्तृकमरणापाशङ्काऽपि च तस्य भवतीति । इति द्वितीयोऽतिशेषः । : तथा - आचार्य उपाध्यायो वा प्रभुः = स्वामी मवति गणनायकत्वात्, अतस्वस्य यदि इच्छा भवेत् तदा स वैयावृत्यं = साधुभ्यो भक्तपानादिदानरूपं कुर्यात्, तस्य इच्छा न भवेत्तदा न कुर्यान् । आचार्यादिगणनायको भवति, अतस्तस्य वैयावृत्त्यकरणे कामचारः, स स्वेच्छया कुर्यादपि, नापि च कुर्यात् । नास्ति तस्मिन् प्रतिबन्ध इति भावः । इति तृतीयोऽतिशेषः । तथा - आचार्य उपाध्यायो ये अब ऐसा क्यों नही करते हैं, जो इनके ये गुरुजन यहाँसे होकर निकलते हैं, और ये उनका अभ्युत्थान आदि द्वारा सरकार आदि नहीं करते हैं, अतः नियम से ये पतित हैं, इसलिये ये ऐसा करते हैं, तथा ये दो बार भोजन करते हैं, इसीलिये इन्हें अनेक बार विचारभूमिमें जाना पड़ता है, ऐसा अवर्णवाद भी होता है, तथा जो मात्सर्य भावसे युक्त होते है, ऐसे व्यक्तियों द्वारा उन्हें अपने मारे जाने आदिकी शङ्का भी हो सकती है, इसीलिये वे उच्चार प्रसवण आदि उपाश्रयके भीतरही करते हैं, और उसकी विशोधना करते हैं, ऐसा यह द्वितीय अतिशेष है, तृतीय अतिशेष ऐसा है, गणनायक होनेसे आचार्य या उपाध्याय अपने गणका स्वामी होता है, अतः यदि उसकी इच्छा होती है, तो वह अन्य साधुजनोंकी भक्तपान आदिके देनेरूप उनकी वैयावृत्ति करता है, और यदि उसकी इच्छा नही होती है, तो वह ऐसा नहीं भी करता है, आचार्य आदि गणनायक होते हैं, अतः अन्य साતેમના આચ ના અભ્યુત્થાન આદિ દ્વારા સત્કાર શા માટે કરતાં નથી ? અવશ્ય આ સાધુનું પતન થયુ` હતુ` જોઈએ, અને તે કારણે શ્રાવકે તેમનેા સત્કાર નહી કરતા હાય વળી લેાકેા એવી કલ્પના પણ કરે છે કે તેઓ એ વાર જમે છે, તેથી તેમને અનેકવાર વિચારભૂમિમાં જવુ પડે છે, આ પ્રકારના તેમને અવવાદ ( નિંદા ) પણ થાય છે. વળી સાત્મયભાવ ચુકત વિરેધીએ વડે પેાતાની હત્યા થઈ જવાની શંકા પણ તેમને રહે છે, તે કારણે તેઓ ઉચ્ચાર પ્રસ્રવણુ આદિ ઉપાશ્રયની અંદર જ કરે છે અને તેની વિશેષના કરે છે. આ પ્રકારને આ ખીજો અતિશેષ છે. ત્રીજો અતિશેષ આ પ્રકારના છે—ગણુનાયક હાવાને કારણે આચાય અથવા ઉપાધ્યાય પાતાના ગણુના સ્વામી હેાય છે. અન્ય સાધુઓને ભક્તપાન આદિ દેવા રૂપ તેમનુ વૈચનૃત્ય તે ઐચ્છિક રીતે કરે છે, એટલે કે તેમની Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानानसूत्र वा साधनादिरूप कारणवशात् उपाश्रयस्य मध्ये एकरात्रं वा द्विरा' वा एकाकी वसन् नातिक्रामति जिनाज्ञामिति चतुर्थोऽतिशेषः । तथा-आचार्य उपाध्यायो वा साधनादिरूपकारणवशात् उपाश्रयाद् वहिः एकरात्रं वा द्विरात्रं वा एकाकी वसन् जिनाज्ञां नातिक्रामतीति पञ्चमोऽतिशेषः । अत्रेदै बोध्यम् - गणावच्छेदक स्यादितस्त्रयोऽतिशेपा न भवन्ति, अन्तिमो द्वो भवतः । तदुक्तम् "गणावच्छेयगस्स गणसि णं दो अइसेसा पण्णत्ता, तं जहा-गणावच्छेयए अन्तो उपस्सयस्स एगरायं वा दुरायं वा वसमाणे णो अइशामइ १, गणावच्छेयए धुओंकी वैयावृत्ति करनेमें उसकी कामचारता है, उसकी इच्छा होती है, तो वह करता है, और नहीं होती है तो नहीं करता है। अन्य साधुओंकी वैयावृत्ति करने में उसे प्रतिबन्ध नहीं है। चतुर्थ अतिशेष ऐसा है, आचार्य अथवा उपाध्याय साधनादि रूप कारणके वशसे उपाश्रथमें एक रात या दो रात तक अकेला रहता है, तो वह जिनाजाका उल्लङ्घन नहीं करता है, पांचवां अतिशेष ऐसा है, आचार्य अथवा उपाध्याय साधनादि रूप कारणके वशसे उपाश्रयके बाहर एक रात अमवा दो रात तक यदि बाहर रहता है, तो वह जिनाज्ञाका घिराधक नहीं पाता है, आदिके तीन अतिशेष गणावच्छेदकको नहीं होते हैं, अन्तिम दो अतिशेष होते है तदुक्तम्-- "गणावच्छेयगस्ल गणसिणं दो अहसेसा पण्णत्ता-तं जहा गणा. बच्छेधए बाहिं उवस्सयस्त एगरायं वा दुराय वा वसमाणे णो अइक्कઈચ્છા થાય તે કરે છે અને ઈચ્છા ન થાય તે કરતા નથી. તેઓ ગણનાયક હોવાથી તેમને માટે વૈયાવૃત્ય કરવાનું ફરજિયાત નથી, અને વૈયાવૃત્ય કરવાને નિષેધ પણ નથી. ચેથે અતિશેષ આ પ્રકારને છે–આચાર્ય અથવા ઉપાધ્યાય સાધના આદિ રૂપ કારણે ઉપાશ્રયમાં એકથી બે રાત સુધી એકલા રહે તે તેઓ જિનાજ્ઞાના વિરાધક ગણાતા નથી. " પાંચમ અતિશેષ આ પ્રકાર છે – આચાર્ય અથવા ઉપાધ્યાય સાધના આદિ રૂપ કારણને લીધે ઉપાશ્રયની બહાર એક અથવા બે રાત સુધી રહે છે, તે તેઓ જિનાજ્ઞાન વિરાધક ગણાતા નથી. પહેલાં ત્રણ અતિશેષને ગણાવછેદકમાં સદૂભાવ હેતે નથી, છેલ્લા બે અતિશેને જ તેમનામાં સદ્દભાવ હોય છે. કહ્યું પણ છે કે "गणावच्छेयास्स गर्णसि णं दो अइसेसा पण्णत्ता-तजहा गणावच्छेयए पाहि उवस्सयस्छ एगरायं वा दुरायं वा वसमाणे णो अइक्कमइ । गणावच्छेयए Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ঘীক্ষা খাতoo২৫ জানুয়াহাবিহাথলিক बाहिं उक्स्सयस्ल एगरायं वा दुरायं वा वसमाणे णो अइक्कमइ २॥" ' छाया-गणायच्छेदकस्य गणे खलु द्वौ अतिशेपौ प्रज्ञप्ती, तद्यथा-गणावच्छे. दका अन्तरुपाश्रयस्य एकरात्रं वा द्विरात्रं वा वसन् नातिकामति १, गणावच्छेदको वहिरुपाश्रयात् एकरानं वा द्विरात्रं वा वसन् नातिकामति २॥ इति । यदि आचार्योपाध्यायगणावच्छे इकाः सहैव समागच्छेयुस्तत्र यदि गणाव. च्छेदः पर्यायज्येष्ठो भवति, तदा पर्यायज्येष्ठत्वाद् गणावच्छेदकस्य प्रथम पादप्रस्फोटना, अनन्तरमाचार्योपाध्याययोः पर्यायक्रमानुसारेणेति ।मु० २८॥ ___आचार्योपाध्याययोर्गणेऽतिशेषा उक्ताः, सम्प्रति तयोरतिशयविपरीतानि गणनिर्गमनकारणानि प्राह - मूलम्-पंचहिं ठाणेहि आयरिय उदज्झायस्स गणावामणे पण्णते तं जहा-आयरिय उवज्झाए पर्णलि आणं वा धारणं वा नो सम्म पउंजित्ता भवइ । आयरियउबज्झाए गणसि आहारायणियाए किइकम्मं वेणइयं णो सम्म पउंजिला भव • २॥ आयरियउवज्झाए गगंसि जे सुयपजवजाए धारेइ ते काले काले लो सम्ममणुप्पवाएत्ता भाइ ३। आवरियउबझाए मह १ गणावच्छेयए बाहिं उबस्सयल एगरायं वा दुरायं वा वसमाणे णो अइक्कमइ २ " इसका अर्थ पूर्वक्किानुसारही है-- ____ यदि आचार्य उपाध्याय और गणावच्छेदक ये तीनों सापही आते हैं, तो उनमें यदि गणांवच्छेदक पर्यायसे ज्येष्ठ है, तो उस गणावच्छेदककी पादप्रस्फोटना (प्रमार्जना) सबसे पहिले होतीहै, इसके बाद आचार्य और उपाध्यायकी पर्यायके क्रमानुसार होती है ॥सू० २८॥ बाहिं उवस्सयस एगरायं वा दुराय वा वसमाणे णो अइक्कमइ२ " આ સૂત્રપાઠને ભાવાર્થ પૂર્વોક્ત કથન અનુસાર જ સમજે. જે આચાર્ય, ઉપાધ્યાય અને ગણાવચ્છેદક એ ત્રણે સાથે જ આવે, તે ગણાવછેદક જે પર્યાયની અપેક્ષાએ છ હોય તે તે ગણાવચ્છેદની પાદપ્રસ્કેટના (પગની પ્રમાર્જન) સૌથી પહેલાં થાય છે અને ત્યાર બાદ પર્યાયના કમ અનુસાર આચાર્ય અને ઉપાધ્યાયના પગની પ્રમાજના થાય છે. સૂ. ૨૮ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५. स्थानास्त्रे गणसि सगणियाए वा परगणियाए वा निगंथीए पहिल्से भवइ । मिते णाईगणे वा से गणाओ अ मेजा, तेसि संगहीवरगहट्टयाए गणावश्कमणे पण्णत्ते ॥ सू० २९ ॥ छाया-पञ्चभिः स्थानः आचार्योपान्यायस्य गणापक्रमणं प्रज्ञप्तम् , तद्यथाआचार्योपाध्यायो गणे आनां वा धारगां वा नो सम्यक् प्रयोक्ता भवति १, आचार्योपाध्यायो गणे यधारानिकतया कृतिकर्म वैनयिकं नो सम्यक् प्रयोक्ता भवति २। आचार्योपाध्यायो गणे यानि श्रुतपर्यवजानानि धारयति तानि काले काले नो सम्यक् अतुम वाचयिता भाति ३। आचायों पाध्यायो गणे स्वगणिकायां वा पागणिकायां वा निग्रयां वहिग्यो भाति ४। मित्रं ज्ञाति गणो वा नम्य गगान नाकामेन् नेपां संग्रहोयग्रहाय गगापक्रनणं पज्ञप्तम् ४ ॥३०२९।। टीमा-'पहिं ठाणेहि ' इत्यादि पञ्चभिः स्थानः कारणैः आचार्योपाध्यायस्य-आचार्योपाध्यायत्तविशिष्ट स्यायाधीः आचार्यस्य उपाध्याय य च साधुदयस्य वा गणापक्रमणम्-गणातगठन अपकमण-निस्सरणंम्बहिर्गमनम् प्रक्षतम् । तद्यथा-तानि स्थानान्याहप्राचार्योपाध्यायो गणेच्छे आज्ञां=' हे मुने ! भवतेदं विधेयम् । इत्येवंरूपाम् , आचार्य और उपाध्यायके गणमें इस प्रकारले जो अनिशेष होते हैं वे प्रकट किये अर सूत्रकार इन दोनोंके गणसे निर्गमन होने के कारगोको जो अतिशयोंसे विपरीत होते हैं कहते हैं--- पंचहि ठाणेहि आयरिय उरन यस्त' इत्यादि सूत्र २९ ॥ दीकार्थ-पांच फारणोंको लेकर आचार्य रूप उपाध्यायका अथवा आचार्य एवं माध्यायका गच्छसे निस्सरण होना कहा गया है-चे पांच कारण इन्न प्रकान्से है-"आचार्योपाध्यायो गणे आज्ञा वा धारणा वा" इत्यादि રાગ અને ઉપાધ્યાયના ગમા આ પ્રકારના જે અતિશે હોય છે તે પ્રકટ કરવામાં આવ્યા. હવે સૂત્રકાર તે બનેના ગણમાંથી નીકળી જવ ને કારનું નિરૂપ કરે છે. અતિશયો કરતાં નિર્ગમન વિતરીત હોવાથી અનિમેનું નિરા કરીને કાર નિર્ગમનના કારણે પ્રકટ કરે છે. -" चदि शाहि आयरियच्यायाम "यવિના પાંડા કાને લીધે આચાર્ય રૂપ ઉપાધ્યાયને અથવા આચાર્ય અને પાયને થી નીકળી જવું પડે છે. તે કારણે આ પ્રમાણે છે. 13) "सापशिंग शो गये आशा पा धारणा वा त्याने मायार्य Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०५ ७०२१०२९ माचार्योपाध्याययोर्गणनिष्क्रमणनिरूपणम् १५३ धारणां= नेदं विधेयम् । इत्येवंरूयां वा नों सम्यग्र यौचित्येन प्रयोक्ता-अबतको भवति । अयं भावः-गगस्य दुविनीतत्वात् आज्ञा धारणां वा गणे प्रवर्त यितुमशक्नुवन् आचार्य उपाध्यायो वा गणादपक्रामति कालकाचार्यबदिति । आज्ञाधारणयोविशिष्टव्याख्याऽस्यैव स्थानकस्य प्रथमोद्देशे त्रयोदशसूत्रे द्रष्टव्या । इति प्रथम स्थानम् । तथा-आचार्योपाध्यायो गणे-गणधिपये यथारानिक तया पर्यायज्येष्ठानुसारेण कृतिकर्मचन्दनकं वैनयिक-विनयं च नो सम्यक प्रयोक्ता भवति । अयं भावः-आचार्येगापि प्रतिक्रमणक्षामणादिषु पर्यायज्येष्ठानामुचितो आचार्य या उपाध्याय गच्छमें आज्ञाका-" हे मुने ! आपको यह करना चाहिये " इस प्रकार का निषेध का औचित्यरूपसे यदि प्रवर्तक नहीं होता है, तथा आज्ञा और धारणा नहीं करा सकता है, तो उसे गणसे पृथक् हो जाना चाहिये ऐसा यह प्रथम कारण है। तात्पर्य इसका ऐसा है, कि अपना गण यदि दुविनीत हो गया है, और वह गणमें अपनी आज्ञा एवं धारणाको प्रवृत्त कराने में अशक्य है, तो ऐसी स्थितिमें उसका कालकाचार्यकी तरह गणसे बाहर होना श्रेयस्कर है १ आज्ञा और धारणाकी विशिष्ट व्याख्या इसी स्थानके प्रथम उद्देशकमें १३ वें सूत्र में देख लेनी चाहिये । द्वितीय स्थान ऐसा है-आचार्य एवं उपाध्याय यदि अपने गणमें पर्याय ज्येष्ठके अनुसार कृतिकर्म वन्दनक एवं वैन'यिक विनय इनके प्रयोक्ता नहीं होते हैं, तो उन्हें गणसे पृथक् हो जोना चाहिये, इसका भाव ऐसा है. आचार्य को भी प्रतिक्रमण क्षामणा आઅથવા ઉપાધ્યાય પિતાના ગણમાં આજ્ઞા અને ધારણાનું ઉચિત રીતે પાલન કરાવવાને સમર્થ ન હોય તો તેમણે ગણમાંથી નીકળી જવું જોઈએ. “હે મુનિ ! તમારે આ પ્રમાણે કરવું જોઈએ ” આ પ્રકારના આદેશને माज्ञा ४ छे. “ मुनि ! तमारे मा प्रमाणे न ४२वु नये" मा પ્રકારના નિધનું નામ ધ રણા છે. આ કથનનું તત્પર્ય એવું છે કે પિતાને "શિષ્યસમુદાય દુર્વિનીત થઈ ગયેલ હોય અને તે કારણે પિતાની આજ્ઞા અને ધારણાનું તેમની પાસે પાલન કરાવવાનું અશક્ય બની ગયું હોય, તો એવી પરિસ્થિતિમાં કાલકાચાર્યની જેમ તેમણે ગણમાંથી નીકળી જવું જોઈએ. આજ્ઞા અને ધારણાની વિસ્તૃત વ્યાખ્યા આજ સ્થાનના પહેલા ઉદ્દેશાના ૧૩ માં સૂત્રમાં આપવામાં આવી છે, તે ત્યાંથી વાંચી લેવી જોઈએ. ; मा २६ २मा प्रमाणे -- मायाय भने- 6५.ध्याय १.ताना ગણમાં દીક્ષાપર્યાયની અપેક્ષાએ કૃતિકર્મ, વદણ અને વૈનાયિકના પ્રત્યક્તા ન હોય, તે તેમણે ગણમાંથી અલગ થઈ જવું જોઈએ. આ કથનને ભાવાર્થ स्था०-२० Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनयः कर्त्तव्य एव । स चेद आचार्यसम्पदा साभिमानरतथा न करोति तदा तस्य' गणान्निष्क्रमणं भवति । एवमुपाध्यायस्यापि बोध्यमिति । इति द्वितीयं स्थानम् । तथा-आचार्योपाध्यायो यानि श्रुतपर्यवनातानि=सुत्रार्थप्रकारान्धारयति अवगच्छति तानि काले काले यथावसरं नो सम्यक-याथातथ्येन अनुमवाचयिता-पाठयिता भवतीति-गणादपक्रामतीति तृतीय स्थानम् । तथा-आचायोपाध्यायो गणे स्थितः सन् स्वगणिकायां स्वगच्छस्थितायां परगणिकायांपरगणस्थितायां वा निग्रन्थयां साठयां बहिर्लप:-पाक्तवाशुभकर्मोदधवशेन सकलकल्याणाश्रयस्थानसंयमप्रासादाद वहिर्गतालेश्या अन्तःकरणं यस्य स तधाभूतः-आसक्तो भवतीति गणादपक्रान्तो भवति । गुणाढयस्याचार्यस्य नैवं दिमें पर्यायसे ज्येष्ठ साधुजनोंका उचित विनय करना चाहिये यदि वह आचार्य संपदारले अभिमान सहित होता हुआ ऐसा नहीं करता है, तो उसका गणसे निष्क्रमण होता है, इसी प्रकार से उपाध्यायके सम्बन्धमें भी जानना चाहिये ऐसा यह द्वितीय स्थान है। तृतीय स्थान ऐसा है, आचार्य और उपाध्याय जिन सूत्रार्थ प्रकारको जानते हैं, उन्हें यथावसर वे यदि सम्यक रूपसे शिष्योंको पढानेवाले नहीं होते हैं तो उन्हें गणले पृथक हो जाना चाहिये । चतुर्थ कारण ऐसाहै, कि आचार्य एवं उपाध्याय गणमें स्थित होता हुआ अपने गच्छमें रही हुई या पर गच्छमें रही हुई निन्धीके ऊपर अहिलेश्यावाला बन जाता है-आसक्त हो जाता है, तो वह गणसे बाहर निकाला जाता है " गुणाढ्य आचायके ऐसा भाव संभचित नहीं होता है " ऐसी विचारणा नहीं करनी એ છે કે આચાર્યું પણ પ્રતિકમશ, ખામણાં આદિમાં દીક્ષા પર્યાયની અપેક્ષાએ પિતાના કરતાં છ જે સાધુઓ હોય તેમનો ઉચિત વિનય કરે જોઈએ અને આ પ્રકારના પર્યાય જ્યેષ્ઠ સાધુઓને એગ વિનય અન્ય સાધુઓ પાસે પણ કરાવવું જોઈએ જે આચાર્ય અભિમાનને કારણે પર્યાય સાધુઓને વિનય ન કરે તે તેમને ગણુમાંથી નીકળી જવું પડે છે. ઉપધ્યાયને પણ એ જ પ્રકારના કારણને લીધે ગણમાંથી નીકળી જવું પડે છે. ત્રીજુ કારણ–આચાર્ય અને ઉપાધ્યાય જે સ્વાર્થ પ્રકારોને જાણતા હોય. તેમનું યોગ્ય અવસરે શિષ્યને સમ્યફ રીતે અધ્યયન ન કરાવે, તે તેમણે ગણુમાંથી નીકળી જવું જોઈએ. શું કારણ–-જે આચાર્ય અથવા ઉપાધ્યાય પિતાના ગચ્છની અથવા અન્ય ગચ્છની નિગ્રંથીમાં આસકિત થઈ જાય–તેના પ્રત્યે કુદષ્ટિ કરે છે, તેમને ગણમાંથી નીકળી જવું પડે છે. “ગુણાઢય (ગુણસંપન્ન) આ આચાર્યમાં Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुंधा टीका स्था०५ उ०२ सू०२९ आचार्योपाध्याययोर्गल निष्क्रमणनिरूपणम् १५५ संभाव्यते इति विचारणा न कार्या । यतः प्राक्तनाशुभघनचिक्कणगुरुवज्रसारकमेदियाद् ज्ञानाढ्या अपि उत्पथमवृत्ता भवन्ति । तदुक्तम्- 46 कम्माई गं घचिकणाई गरुयाई वज्जसाराई | नापि पुरिसं पंथाओ उत्पहं निति ॥ १ ॥ " छाया -- कर्माणि नूनं घनचिक्कणानि गुरुकाणि वज्जसाराणि । ज्ञानाव्यमपि पुरुषं नूनं पथ उत्पथं नयन्ति ॥ १ ॥ इति । इति चतुर्थ स्थानम् । , तथा - तस्य = आचार्यस्य मित्र सुहृत् ज्ञातिगणः स्वजन वर्गो वा कुतश्चित् कारणात् गगात् अपक्रामेत् = निर्गच्छेत् तेषां = निर्गतानां सुहृत्स्वजनानां संग्र होपग्रहार्थम् - सङ्ग्रहः = स्त्रीकरणम् उपग्रहः = वस्त्रादिदानैरुपष्टम्भः, तदर्थं गणाप क्रमणं गच्छान्निर्गमनम् आचार्योपाध्यायस्य प्रज्ञप्तमिति पञ्चमं स्थानकम् ॥ सू० २९ ॥ चाहिये क्योंकि प्राक्तन अशुभ घन चिक्कण वज्रसार कर्म के उदयसे ज्ञानाढ्यजन भी उत्पथ में प्रवृत्त हो जाते हैं, जैसा कि कहा हैकम्माई पूर्ण " इत्यादि 46 घनचिक्कण गुरु वज्रसार कर्म ज्ञानाढ्य पुरुषको भी उन्मार्गमें ले जाते हैं। पांचवां स्थान ऐसा है, यदि आचार्य एवं उपाध्यायके सुहृत्जन अथवा ज्ञातिगण - स्वजनवर्ग गणसे बाहर हो गये हों तो उन निकले हुए सुहृत् जन एवं स्वजनोंके संग्रह एवं उपग्रह के लिये स्वीकार एवं वस्त्रादिकों से उन्हें धर्म में स्थिर करनेके लिये गच्छसे बाहर होना कहा गया है, ऐसा यह पांचवां स्थान है | सृ० २९|| પ્રકારના ભાવ સ‘ભવી શકતે નથી, " मेवी वियारा उरवी लेये नहीं, કારણુ કે પ્રાક્તન, અશુભ, ઘન, ચીકણા અને વજ્રસાર કર્માંના ઉદયથી જ્ઞાનાઢય પુરુષનુ પણ પતન થઈ જાય છે અને તે અવળે માર્ગે ચડી જાય છે. કહ્યું यछे ! “ कम्माई णूणं " त्याहि-धन, भीमा, गुरु भने वन्सार જ્ઞાનાય પુરુષને પણ ઉત્પન્થમાં ( અવળે માગે) લઈ જાય છે. પાંચમું કારણ—જો આચાય અથવા ઉપાધ્યાયના સુદ્ધુજને અથવા જ્ઞાતિગણુ ( સ્વજનેાના સમૂહ ) ગણુમાંથી મહાર નીકળી ગયેલ હાય, તે તેમના ( નીકળી ગયેલા તે લેકેના ) સંગ્રહ અને ઉપગ્રહને માટે-સ્વીકાર અને વસ્ત્રાદિકે વડે તેમને ધર્માંમાં સ્થિર કરવાને માટે તેમણે ગચ્છમાંથી नीजी वु लेो. ॥ सू. २७ ॥ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानामसूत्र ___ आचार्यस्य गणादपक्रमणमनन्तरसूत्रे प्रोक्तम् । आचार्यस्तु ऋद्धिमाने भवतीति ऋद्धिमतो मनुष्यविशेपानाह___ मूलम्-पंचविहा इंडिमंता मणुरमा पण्णता, तं जहाअरहंता चक्कवट्टी बलदेवा वासुदेवा भावियप्पाणों अणगारा ॥ सू० ३०॥ ॥ इइ पंचमटाणस्स बिइओ उदेसो । छाया-पञ्चविधा ऋद्धिस तो मनुष्याः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-अर्हन्तः, चक्रवर्तिनः, बलदेवाः, वासुदेवाः, भावितात्मानोऽनगाराः ॥ सू० ३०॥ ॥ इति पञ्चमस्थानस्य द्वितीय उद्देशः ॥ टीका-पंचविहा' इत्यादि ऋद्धिमन्तः-ऋद्धि-लब्धिः, सा च-आमगोपधिः विगुडोपांवः, श्लेष्मीपधिः-१-जल्लौपधिः २ जल्लो मलः, स एव ओपधिः, सायधिः, संभिन्नश्री .... आचार्यका गणसे उपक्रमण (निकलना) अनन्तर मूत्र में कहा गया है, आचार्य तो ऋद्धि वालाही होता है, अतः अब सूत्रकार ऋद्धिवाले मनुष्य विशेषोंका कथन करते हैं___ पंचविहा इड्मिता मणुस्सा- पण्णत्ता' इत्यादि सूत्र ३०॥ . . . टीकार्थ--ऋद्धिवाले मनुष्य पांच प्रकार के कहे गये हैं जैसे-अन्ति १ चक्रवर्ती २ वलदेव ३ वासुदेव ४ और भावितात्मा अनगार ५ ऋद्धि नाम लब्धिका है, यह ऋद्धि अनेक प्रकार की होती है, जैसे-आमीपधि १. वि डौषधि २ श्लेष्मौषधि ३ जल्लोषधि ४ सषिधि .५ - આગલા સૂત્રમાં આચાર્યના ગણમાંથી અપક્રમણ (નીકળી જવાની ક્રિયા છે. ના કારણે પ્રકટ કરવામાં આવ્યા. આચાર્યો તે ઋદ્ધિવાળા હોય છે. તેથી वे सूत्र४.२ ऋद्धिसपन्न विशिष्ट व्यतिमातुं ४थन ४२ छ. . . . .' - पंचविहा इढिीमता मणुस्सा पण्णत्ता " त्या द्विसपन्न मनुष्याना नाय प्रमाणे पाय २ ४६॥ ॐ-(१) मत, १२) यता, (3) महेव, (४) वासुदेव भने () मावितामा मसार, दिभेट धि. तेना मने मारे। हा छ.. रेम (१) मामशौषधि, (२) विध्रुषधि, (७) मौषधि, (४) reaौषधि, (५) सवी पधि, Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुंघा टीका स्था०५ उ०२ सू०३० ऋद्धिमन्तमनुष्यवशेषनिकरणम् १५७ तृत्वलब्धिः ६, संमिन्नोवत्वम् युगपत्सर्वशब्दश्रवणशक्तिमत्ता अवधिलब्धिः ७ ऋजुमतित्वलब्धिः ८, विपुलपतित्वलब्धिः ९, चारणत्वलब्धिः १० वाशीविश्वलब्धिः ११, आशीविषत्व-शापानुग्रहसामर्थ्यम् केवलित्वलब्धिः १२, गणधरत्वलब्धिः १३, पूर्वधरत्वलब्धिः १४, अहत्वलब्धिः १५, चक्रवतित्वलब्धिः १६, बलदेवत्तलब्धिः १७, वासुदेरपलब्धिः १८ क्षीरातत्व, मध्वालवत्त, सपिरास्रवत्वलब्धिः १९, कोष्ठबुद्वित्वलब्धिः २०, पदानुसारित्वलब्धिः २१, बीजद्वित्वलंब्धिः २२,, तेजोलेश्यत्वलब्धिः २३, आहारकत्वलब्धिः २४, शीतलेश्यत्वलब्धिः २५, वैक्रियत्वलब्धिः २६, अक्षीणमहानसचलब्धिः २७, हुलाकत्वलब्धिः २८, उक्तं च-" उदयख यख ओवसमोबसमसमुत्या बहुप्पगाराओ। एवं परिणामवसा, लद्धीमी होति जीवाणं॥ छाया-उदय क्षय क्षयोपशमोपशम समुत्था बहुमकाराः। " एवं परिणामवशाद लब्धयो भवन्ति जीवानाम् ॥ इति । ' एवं प्रकारा ऋद्धिरस्ति प्राचुर्येण येषां ते तथाभूना मनुष्याः पञ्चनिधाः प्रज्ञप्ताः । पञ्चविधत्वमेवाह-तबया-अर्हन्त इत्यादयः। तत्र-भावितात्मान:संमिन्नश्रोत्र लब्धि ६, अवधि लब्धि ७, ऋजुमति लब्धि ८, विपुलमति लब्धि ९, चारण लब्धि १०, आशीविष लब्धि ११, केवलि ब्धि १२, गणधरलन्धि १३, पूर्वधर लन्धि १४, अहत्व लन्धि १५, चक्राव. तित्व लब्धि १६, बलदेव लन्धि १७, वासुदेव लधि १८, क्षीरालय, मध्यात्रव, लपिरास्त्रव लब्धि १९, कोष्ठवुद्धि लब्धि २०, पदानुसारि लब्धि २१, बीजवुद्धि लब्धि २२, तेजोलेश्या लब्धि २३, आहारक लब्धि २४, शीतलेश्या लब्धि २५, वैक्रिय लब्धि २६, अक्षीण महानस लब्धि २७, पुलाक लब्धि २८. सोही कहाहै-"उद्यखय खओवसमा" इत्यादि। शुभ कर्मों के उदयसे कर्मो के क्षयसे कर्मों के क्षयोपशमले कर्मों के उपशमसे एवं शुभ परिणामोंके वशसे जीवोंको अनेक प्रकारकीलब्धियां उत्पन्न होती हैं । ऐसी ऋद्धि जिनके प्रचुर मात्रामें होती हैं वे ऋद्धि(6)सलिन्नश्चीयसन्धि, (७) मhिeo, (८) भतिक्षयि, (A) विमति albu, (१०) यार , (११) माविषधि , (१२) aalay, (१३) सन्धि, (१४) पूर्वधरधि , (१५) ACADE, (१६) पति-पसमध, (१७) मणqeva, (१८) पावसधि(१८) क्षी , भवानप, सपिराससलय, (२०) भुद्धिज्यि , (२१) पहानुसारीमाधि, (२२) मीभुद्धिसलिय, (२३) वेश्या , (२४) मा २४सन्धि , (२५) शातोश्यासलिय, (२६) वैठियम, (२७) पक्षीभानसल, (२८) gals. सधि पोरे युं ५ छ है " उदय खय खओवममो" त्याह શુભ કર્મોના ઉદયથી, કર્મોનો ક્ષયથી, કર્મોના ક્ષપશમથી, કર્મોના ઉપશમથી અને શુભ પરિણામોના નિમિત્તથી જીને અનેક પ્રકારની લબ્ધિ. એની પ્રાપ્તિ થાય છે. એવી લબ્ધિ અથવા અદ્ધિથી ખૂબ જ સંપન્ન પુરુષને Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - स्थानांतसूत्रे १५८ भावितः सामनया वासितः आत्मा यैस्ते तथा-शुभवासनावासितान्तःकरणा अनगारा: साधवः । एतेषु पञ्चम आदितश्चतुर्णाम् ऋद्धिमत्वम् अहेत्वादिभिः, यथासम्भवामशौंपध्यादिभिश्च वोध्यम् । पञ्चमभेदस्य ऋद्धिमत्वं तु आमीपध्यादिभिरेवेति ॥ सू० ३०॥ इति श्री विश्वविख्यातजगवल्लभ प्रसिद्धवाचकपञ्चदशभापाकलि. तललितकलापालापकाविशुद्धगद्यपधनैकग्रन्थनिर्मापक-बादिमानमर्दक श्रीशाहू छत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त ' जैनशास्त्राचार्य । पदभूपित कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालप्रतिविरचितायाँ श्री स्थानाङ्गमत्रस्य सुधाख्यायां व्याख्यायां पश्चमस्थानके द्वितीयोद्देशकः समाप्तः ॥५-२॥ मान् कहे जाते हैं ये ऋद्धियां मनुष्योंको होती हैं, अतः वे मनुष्य पाँच प्रकार के पूर्वोक्त रूपसे प्रकट किये गये हैं । जल्ल नाम मलका है, यह मलही जन औषधिरूप हो जाता है, वह जल्लीपधि है, शाप एवं अ. नुग्रहकी जो सामर्थ्य है, वह आशीविष ऋद्धि है, एकही साथ समस्त शब्दाको सुननेशी शक्तिका प्रकट होना संमिन्ननोतृत्व है, जो साधुजन सदासलाले वासित अन्तःकरणवाले होते हैं वे भाविनात्मा अनगार हैं। इन पांचों में से जो आदिके चार मनुष्य हैं उनमें अर्हत्त्वादिसे एवं यथासंभव आमशी षधि आदिसे ऋद्धिमत्ता जानना चाहिये तथा जो पंचम भेद है उससे आमशौषधि आदिलेही ऋद्धिमत्ता जानना चाहिये । सू० ३०॥ श्री जैनाचार्य श्री घासीलालजी महाराज रचित " स्थानाङ्गमत्र" की सुधा नामकी व्याख्याके पांचवें स्थानका द्वितीय उद्देशा समाप्त ॥ ५-२॥ અદ્ધિમાનું કહેવામાં આવે છે. એવા ત્રદ્ધિમાન પુરુષોના અહત આદિ પૂર્વોકત પાંચ પ્રકારે સમજવા. “જલ” એટલે “મળ” તે જલજ જ્યારે ઔષધિ રૂપ બની જાય છે, ત્યારે તેને જલ્લીવધિ કહે છે. શાપ અને અનુ ગ્રહનું જે સામર્થ્ય છે તેનું નામ આશીવિષ લબ્ધિ છે એકી સાથે સમસ્ત શબ્દોને શ્રવણ કરવાની શક્તિ જે ઋદ્ધિને લીધે પ્રાપ્ત થાય છે, તે ઋદ્ધિને સંભિન્નશ્રોતૃત્વ અદ્ધિ કહે છે. જે મુનિ સદ્દવાસનાથી યુક્ત અન્તઃકરણવાળા હેય છે, તેમને ભાવિતામાં અણગાર કહે છે. ઉપર્યુકત પાંચમાંથી જે શરૂ આતના ચાર મનુષ્ય છે તેમનામાં અહંવાદિની અપેક્ષાએ અને યથા સંભવ આમશૌષધિ આદિની અપેક્ષાએ અદ્ધિમત્તા સમજવી જોઈએ અને જે પાંચમે પ્રકાર છે તેમાં આમશૌષધિ અ દિની અપેક્ષાએ જ બદ્ધિમત્તા સમજવી. સૂ. ૩૦ છે પાંચમાં સ્થાનકને બીજો ઉદ્દેશક સમાસ છે Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ तृतीयोदेशकः प्रारभ्यते उक्तो द्वितीयोदेशकः, सम्प्रति तृतीय आरभ्यते । अस्य च पूर्वाद्देशकेन सहायमभिसम्बन्धः । पूर्वस्मिन्नुदेश के जीवधर्माः प्रायः प्ररूपिताः । अस्मितृतीयोदेशके अजीवजीवधर्माः प्ररूप्यन्ते, इत्यनेन सवन्धेनायातस्यास्य तृतीयोद्देशकस्येदमादिमं सूत्रम् तथा-द्वितीयोद्देशकान्त्यपुत्रेण सहास्य तृतीयोदेशकपथममूत्रस्यायगभिसम्बन्धः-देशकान्त्याने ऋद्धिमन्तो जीवास्तिकायविशेपा उक्ताः, इह तु असं. ख्येयानन्तपदेशलक्षण ऋद्धिमन्तः समस्ता अस्तिकाया उन्च्यन्ते____ मूलम्-पंच अस्थिकाया पण्णत्ता, तं जहा-धम्मस्थिकाए १, अधम्मस्थिकाए २, आगासस्थिकाए ३, जीथिकाए ४, पोग्गलस्थिकाए ५। धम्प्तस्थिकाए अबन्ने अगंधे अरसे अफासे , - पांचवे स्थानके तीसरा उद्देशेका प्रारंभ - पंचम स्थानका द्वितीच उद्देशा समास हुआ अब सूत्रकार इसका तृतीय उद्देशक प्रारंभ करते हैं, पूर्व उद्देशकके साथ इसका ऐसा संबंध है, कि पूर्व उद्देशकमें प्रायः जीव धों की प्ररूपणा हुई है, और अब इस तृतीय उद्देशकमें अजीव जीव धर्मों की प्ररूपणा होती है, तथा द्वितीय उद्देशकके अन्तिम सूत्र के साथ इस तृतीय उद्देशकके प्रथम सूत्रका संबंध ऐसा है, कि पूर्व उद्देशकके अन्तिम सूत्र में ऋद्धिमान् जीवास्तिकाय विशेष कहे गये हैं, परन्तु यहां असंख्यात प्रदेशरूप और अनन्तप्रदेशरूप ऋद्धिवाले समस्त अस्तिकाय कहे जा रहे हैं-- - पांयमा स्थानना जीन देश - પાંચમાં સ્થાનને બીજો ઉદ્દેશક પૂરો થયે. હવે સૂત્રકાર ત્રીજા ઉદ્દેશકને પ્રારંભ કરે છે. આ ઉદ્દેશકને આગલા ઉદ્દેશક સાથે આ પ્રકારને સંબધ છે. આગલા ઉદ્દેશકમાં છવધર્મોની પ્રરૂપણા કરવામાં આવી છે, હવે આ ત્રીજા ઉદ્દેશામાં અજીવ અને જીવધર્મોની પ્રરૂપણા કરવાની છે. બીજા ઉદ્દેશકના છેલ્લા સૂત્ર સાથે આ ઉદ્દેશકના પહેલા સૂત્રને સંબંધ આ પ્રકાર છે-બીજા ઉદેશકના છેલા સૂત્રમાં ત્રાદ્ધિસંપન્ન જીવાસ્તિકાય વિશેષનું કથન કરવામાં આવ્યું હતું, પરંતુ અહીં અસંખ્યાત પ્રદેશ રૂપ અને અનંત પ્રદેશ રૂપ અદ્ધિવાળા સમસ્ત અસ્તિકાયની પ્રરૂપણ કરવામાં આવે છે. Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानास्त्रे १६० अरूची अजीचे सासए अवट्टिए लोग दधे । से समालओ पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा - दव्वओ खितओ कालओ भावओ गुणओ । दव्यओ णं धम्मत्थिकाए एवं नं न्तओ लोगपसाणतेत्ते, कालओ ण कयाइणासी, न कयाइ न भवड़, न कवाइ न अविस्तइति भुवं य भविस्सइ य, धुवे जियए सासर् अक्खए अव्वए अबडि गिचे, भावओ अवन्ने अगंधे अरसे फासे गुणओ गणगुणे च । अधम्मत्थिकाए अने एवं चेत्र, नवरं गुणओ ठाणगुणे २ आगासत्थिकाए अवन्ने एवं चैव, खेत्तओ लोगालोगपमाणमित्ते, गुणओ अवगाहणा गुणे, सेस तं देव ३ | जीवत्थिकाए णं अबन्ने एवं चैत्र, णवरं दव्वओ णं जीवत्थिकार अनंताई दव्बाई अरुवी जीवे सासए, गुणओ उपभोगणे, सेसं तं चैव ४। पोग्गलत्थिकाए पंचवन्ने पंचरसे दुगंधे अटूफासे रुवी अजीवे सासए अवट्टिए जाव दव्वओ णं पोग्गलत्थिकाए अनंताई दवाई, खेत्तओ लोगमाणसेते, कालओ ण कयाइ णासी जाव णिच्चे, भावओ वन्नुमंते गधमंते रसमंते फासमंते, गुणओ गहणगुणे ॥ सू०१ ॥ छाया - पञ्च अस्तिकायाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-धर्मास्तिकायः १, अधर्मास्तिकायः आकाशास्तिकायी ३ जीवास्तिकायः ४ पुगलास्तिकायः ५। धर्मास्तिकायः अवर्णः भगन्धः अस्तः-अस्पर्शः अरूपी अजीवः शाश्वतः अवस्थितो लोकद्रव्यम् । स समासतः पञ्चविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा - द्रव्यतः कालतः भावतो गुणतः । द्रव्यतः खलुधर्मास्तिकाय एकं द्रव्यम्, क्षेत्रतो लोक प्रमाणमात्रः, कालतो न कदापि नासीत्, न कदापि न भवति, न कदापि न भविष्यतीति अभूद् भवति भविष्यति च ध्रुवो नित्यः शाश्वतः अक्षयः अव्ययः अवस्थितो नित्यः भावतः - अवर्णः अगन्धः Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०५३० ३ सू० १ अस्तिकायस्वरूपनिरूपणम् १६१ अरसः अस्पर्शः, गुणतो गमनगुण १। अधर्मारितकाय: अवर्णः एवमेव, नवरं गुणतः स्थानगुणः २ । आकाशास्तिकायः अवर्ण एवमेव, क्षेत्रतो लोकालोकममाणमात्रः, गुणतः - अवगाहनागुणः, शेषं तदेव ३ जीवास्तिकायः खलु अवर्णः एवमेव नवरं द्रव्यतः खलु जीवास्तिकायः अनन्तानि द्रव्याणि अरूपी जीवः शाश्वतः, गुणत उपयोगगुणः शेष तदेव ४। पुद्गलास्तिकायः पञ्चवर्णः पञ्चरसो द्विगन्धः अष्टस्पर्श' रूपी अजीवः शाखनः अपस्थितो यावद द्रव्यतः खलु पुद्गलास्तिकायः अनन्तानि द्रव्याणि क्षेत्रतो लोकप्रमाणमात्रः, कालतो न कदापि नासोत् यावद् नित्यः, भावतो वर्णवान् गन्धवान् रमवान् स्पर्शवान्, गुणतो ग्रहणगुणः ५ ॥ मू० १ ॥ टीका - पंच अस्थिकाया ' इत्यादि -- 4 अस्तिकायाः - अस्ति शब्दः अभूवन् भवन्ति भविष्यन्ति चेति त्रिकालवाचकः, अस्ति च ते काया:=प्रदेशानां राज्ञयश्चेति, यद्वा-अस्तिशब्दः प्रदेशवाचकः, अस्तीनां=प्रदेशानां कायाः- राशयः । ते च पञ्चविधाः प्रज्ञप्ताः । पञ्चविधन्वमेवाह - 'पंच अतिकाया पण्णत्ता' इत्यादि सूत्र १ ॥' टीकार्थ- पाँच अस्तिकाय कहे गये हैं- जैसे धर्मास्तिकाय ? अधर्मास्तिकाय २ आकाशास्तिकाय ३ जीवास्तिकाय ४ और पुद्गलास्तिकाय ५ यहां जो अस्ति शब्द है, वह त्रिकालका वाचक है, अर्थात् ये धर्मास्तिकाय आदि पहिले थे वर्तमान में हैं, और आगे भी रहेगें । प्रदेशों की राशिका नाम का है, इस तरह जो अस्तिरूप काय हैं, वे अस्निकाय हैं । अथवा-अस्ति शब्द प्रदेशका वाचक है, इस तरह जो अस्तियोंकी प्रदेशोंकी राशियां हैं, वे अस्तिकाय हैं, ये अस्तिकाय धर्म स्तकाय आ दिके भेदसे पाँच प्रकार के कहे गये हैं, इन धर्मास्तिकायादि की व्याख्या पच अस्थिकाया पण्णत्ता " इत्यादि 66 टीडार्थ-यांथ अस्तिप्रय उद्या – (१) धर्मास्तिक्षय, (२) अधर्मास्तिमाय, (3) આકાશાસ્તિકાય, (૪) જીવાસ્તિય અને (૫) પુદ્ગલાસ્તિકાય અહીં જે અસ્તિ પદ છે, તે ત્રિકાળનું વાચક છે એટલે કે આ ધર્માં સ્તિકાય આદિ પહેલા હતાં, હાલમાં છે અને ભવિષ્યમાં પશુ હશે જ પ્રદેશેાની રાશિને ‘ કાય' કહે છે. આ રીતે જે અસ્તિ રૂપ કાય છે, તેમને અસ્તિકાય કહે છે અથવા અતિ’ શબ્દ પ્રદેશના વાચક છે . આ રીતે જે અસ્તિએની ( अहेशानी ) २. शिथे। छे, तेभने अस्तिथ डे हे या अस्तिप्रयना धर्माસ્તિકાય આદિ પાચ પ્રકારે છે તેમની વ્યાખ્યા પ્રથમ સ્થાનમાં આપામાં આવી છે, તે ત્યાંથી વાચી લેવી. ८ स- २१ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानानसूत्रे 1 " तद्यथा-धर्मास्तिकायः अधर्मातिकाय इत्यादि । धर्मास्तिकायादीनां व्याख्या प्रथम स्थानaise सेवा | धर्मास्तिकायादिक्रमेण यो निर्देशः कृतस्तत्रायं हेतुर्बोध्यः । धर्मान्द्रो योङ्गलिका, अतः पूर्व धर्मास्तिकायः प्रोक्तः । तदनु धर्मारितकाय प्रतिपक्षात अमरिकाः । धर्माधर्मास्तिकाययोराधारभृतत्वाचत आकाशास्ति कायः । ततायो जीवास्तिकायः । तत्पश्चात् जीवास्तिकायोपग्राहक: पुगलातिकाय प्रोक्ता । सम्प्रति धर्मास्तिकायादीनां स्वरूपं क्रमेणाह - ' धम्म - त्थकाए' इत्यादिना तत्र धर्मातिकाय: - अवर्ण:- न विद्यते वर्णः शुक्लादिः पञ्चविधो यस्य सःशुक्लादि पञ्चविधवर्णरहितः, अगन्धः सुरभिदुरभि - प्रथम स्थान से जान लेना चाहिये । इन धर्नास्तिकायादिकों का जो पूर्वोक्त रूपसे निर्देश किया गया है, उसमें ऐसा विचार है कि धर्मास्तिकाय में जो धर्म है, वह माङ्गलिक है, इसलिये सबसे पहिले अस्तिका यो धर्मास्तिकायका कथन किया गया है, इस धर्मानिकायका प्रतिपक्ष होनेसे उसके बाद अधर्मास्तिकायका कथन किया गया है, इन काय और अधर्मास्तिकायका आधारभूत होनेसे इन दोनोंके बाद आकाशास्तिकायका कथन किया गया है, इस आकाशास्तिकायका आय जीवस्तिका है, और इस जीवास्तिकायका उपग्राहक पुद्गलास्तिकाय है, इसलिये जीवास्तिकाय के बाद पुद्गलास्तिकायका कथन किया गया है । १६२ अब मनकार धर्मास्तिकायादिकों के स्वरूप का कथन करते हैं-"थिकाए" इत्यादि - यह धर्मास्तिकाय शुक्लादिके भेद से पांच प्रकार के वर्ण से रहित है, सुगन्ध और दुर्गन्ध इन दोनों गन्धसे ધર્માસ્તિકાયમાં ધર્મ' શબ્દ માંગલિક ાવાથી સમસ્ત અસ્તિકાયામાં સૌથી પહેલાં ધર્માસ્તિકાયની પ્રરૂપણા કરવામાં આવી છે. ધર્માસ્તિકાયના પ્રતિપક્ષ રૂપ હવાને કારણે અધર્માસ્તિકાયની પ્રરૂપણુા ત્યાર બાદ કરવામાં આવી છે. ધર્માસ્તિકાય અને અધર્માસ્તિકાયના આ ધારભૂત આકાશાસ્તિકાય છે, તે કારણે તે બન્નેની પ્રરૂપણા કર્યા બાદ આકાશાન્તિકાયની પ્ર3પશુા કરી છે. આ આકાશાસ્તિકાયનું આધેય જીવાસ્તિકાય છે અને છત્રાસ્તિકાય ુ ઉપગ્રાહક પુદ્દલાસ્તિકાય છે, તે કારણે આકાસ્તિકાયનું કધન કર્યાં ખાદ અનુક્રમે છત્રાસ્તિકાય અને પુદ્ગલાસ્તિકાયનું કથન કરવામાં આ યું છે. હવે સૂત્રકાર ધર્મસ્તિકાય વગેરેના અરૂપનું નિરૂપણ કરે છે “ धम्मत्थिकाए " त्यादि-धर्मास्तिप्रय शुद्ध अहि यांग प्रारना વથી રહિત છે, સુગન્ધ અને દુર્ગન્ધ રૂપ અન્ને પ્રકારના ગધથી રહિત Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घाटीका स्था. ५ उ ३ . १ अस्तिकायस्वरूपनिरूपणम् १६३ गन्धद्वयवर्जितः । अरसः=मधुरादिरसपञ्चरुवर्जित' । अस्पर्श: मृदुकर्कशा - द्यष्टविध स्पर्श वर्जितः । अरूपी-रूपम् आकार:- वर्णादिमत्त्वं तदस्यास्तीति रूपी, न रूपी - अरूपी-अमूर्तः | अजीवः - जीवः = उपयोगलक्षणं जीवक्रव्यम्, न जीव:अजीवः=अचेतनः । शाश्वत : - मतिसमय तस्य सद्भावात् । अवस्थितः - धर्मास्तिकायस्य यत् स्वरूपं नित्यत्यात्तेनैव स्वरूपेण स सर्वदा स्थायी । तथा-लोकद्रव्यम्लोकस्य अंशभूतं द्रव्यम् | लोकस्य सर्वात्मकं द्रव्य त्वयं नास्ति, पश्चास्तिकायात्मक लोकस्यैकदेशत्वात् । तदुक्तम्— पंचत्थिकायमइये लोए अणाइनिहणे । " - 6 रहित हैं, मधुरादिके भेदले पांचों प्रकारके रलसे रहित है, एवं मृत्यु कर्करा आदि आठ प्रकारके स्पर्शसे रहित है । आकाशका नाम रूप है, रूप यह उपलक्षण है, इससे रूप रम आदि चारों गुणोंका ग्रहण हुआ है अतः यह अरूपी है, इसका तात्पर्य ऐसा है, कि यह रूप रस गन्ध आदिसे रहित होनेके कारण अरूपी है, अमूर्त है | उपयोग लक्षवाला जो होता है, वह जीव है, यह धर्मास्तिकाय ऐसा नहीं है अतः अजीव हैं, प्रतिसमय इसका सद्भाव रहता है, अतः इव है, धर्मास्तिकायका जो अपना स्वरूप है, उस स्वरूपसे यह नित्य होनेके कारण सर्वदा स्थायी रहता है, अतः यह अवस्थित है, तथा यह लोकका अंशभूत द्रव्य है, इसलिये यह लोकद्रव्य है, यह लोक पंचास्तिकाय रूप है, केवल धर्मद्रव्यरूप नहीं है, अतः यह लोकका सर्वात्मक द्रव्य नहीं है, किन्तु उसका एक अंशभूत द्रव्य है । कहा भी है છે, મધુરાદિ પાંચે પ્રકારના રસથી રહિત છે અને મૃદુ, કશ આદિ આઠે પ્રકારના સ્પર્શથી રહિત છે. આકાશનું નામ રૂપ છે રૂપ તે ઉપલક્ષણ છે, તેના દ્વારા રૂપ, રસ, આદિ ચારે ગુણાનું ગ્રહણ થયું છે. તેથી તે અરૂપી છે આ કથનનું તાપ એ છે કે ધર્માસ્તિકાય રૂપ, રસ, ગંધ અને સ્પર્શ વી રહિત હોવાને લીધે અરૂપી છે-અમૂર્ત છે જીવની જેમ તે ઉપયેગ લક્ષણવાળુ’ નથી, તે કારણે તે અજીવ છે. પ્રતિસમય તેનેા સદ્ભાવ રહે છે, તેથી તેને શાશ્વત કહ્યું છે તેનુ પેાતાનુ જે સ્વરૂપ છે તે સ્વરૂપે તે નિત્ય હોવાને લીધે સ્થાયી રહે છે, તેથી તેને અવસ્થિત કહ્યુ છે. ધર્માસ્તિકાય આ લેકના 'શમૃત દ્રવ્ય ટાવાથી તેને લેાકદ્ર” કથ્રુ છે અ લેક પંચાત્મિકાય રૂપ છે, પરન્તુ માત્ર ધદ્રવ્ય રૂપ નથી, તેવી તેને લેકના સવાત્મક દ્રવ્યરૂપ કડી શકાય નહિ, પણ તેના એક ભૂત દ્રવ્ય રૂપ જ કહી શકાય છે, Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ स्थानामध्ये छाया-पञ्चास्तिकायमयो लोकः अनादिनिधनः--इति । तदेव विशदयति-' से समासो ' इत्यादि । स धर्मास्तिकायो द्रव्यादिभेदेन संक्षेपतः पश्चविधो बोध्यः । तत्र द्रव्यता द्रव्यत्यमाश्रित्य धर्मास्तिकायः एकं द्रव्यम्-तथाविधै कपरिणामस्य सत्त्वेनैकत्वसंख्याया एवेद सद्भावात् । क्षेत्रतः क्षेत्रमाश्रित्य लोकपमाणमात्रः-ठोकस्य प्रमाण-लोकप्रमाणम् असंख्येयाः प्रदेशाः, तत्प्रमाणमस्येति । कालतः कालमाश्रित्य अयं धर्मास्तिकायः त्रैकालिका, त्रैका. लिकत्वमेव विशदयति-न कदापि नासीत अर्थात्-अस्य धर्मास्तिकायस्य भूतकालिकी सत्ता सर्वदा आसोदेव । तथा-अयं न कदापि न सवति-अस्य वर्तमानकालिकी सत्ता सर्वदा तिष्ठन्येव । तथा च-अयं न कदापि न भविष्यति-अस्य _ "पंचयिकाथमध्ये " हत्यादि । यह लोक पंचारितकाय मय हैं, और अनादि अनन्त है, इसी विषयो अब सत्रकार विशद रूपसे प्रकट करते हैं-"सलमानो" हत्यादि-यह धर्मास्तिकाय द्रव्यादिके भेदसे संक्षेपतः पांच प्रकारका कहा गया है-जैसे-द्रव्यकी अपेक्षा धर्मास्तिकाय एक द्रव्य है, क्योंकि तथाविध एक परिणामके सत्वसे एकत्व संख्याकाही इसमें सद्भाव पाया जाता है। क्षेत्रकी अपेक्षा यह धर्मास्तिकाय लोकप्रमाण मात्र है, अर्थात् लोकाकाशके जितने प्रदेश हैं, असंख्यात प्रदेश हैं-उतनेही प्रमाणवाला यह धर्मास्तिकाय है, क्योंकि तिल में तैलकी लरह यह पूरे लोकोकागमें व्यापक है, कालकी अपेक्षा यह धर्मास्तिकाय त्रैकालिक है, ऐसा भूतकालका कोई समय नहीं था कि जिसमें यह न रहा हो वर्तमानकाल भी ऐसा नहीं है, कि ४धु पY छ “ पचत्यिकायमइये" या -- આ લેક પંચાસ્તિકાયમય છે, અને અનાદિ અનત છે. એ જ વિષયનું હવે સૂત્રકાર વિસ્તૃત રૂપે નિરૂપણ કરે છે “से समासओ" प्रत्याहि-ते घस्तियना दयादिना सेयी पांय २ પડે છે-દ્રવ્યની અપેક્ષાએ ધમસ્તિકાય એક દ્રવ્ય છે, કારણુ કે તથવિધ (તે પ્રકારના એક પરિણામના સત્ત્વ ( રાદુભાવ) થી એકવ સંખ્યાનો જ તેમાં સદૂભાવ સંભવી શકે છે. ક્ષેત્રની અપેક્ષાએ આ ધર્માસ્તિકાય લેકપ્રમાણ માત્ર છે, એટલે કે કાકાશના જેટલા પ્રદેશ છે (કાકાશના અસંખ્યાત પ્રદેશ છે) એટલા જ પ્રમાણુવાળું આ ધર્માસ્તિકાય છે, જેમ તલમાં તેલ રહેલું હોય છે એ જ પ્રમાણે તે પૂરેપૂરા કાકાશમાં વ્યાપક છે, ક ળની અપેક્ષાએ ત્રણે કાળમાં તેને સદ્ભાવ કહ્યો છે. ભૂતકાળને કોઈ પણ સમય એ ન હતો કે જ્યારે તેનું અસ્તિત્વ ન હય, વર્તમાનકાળે પણ તેનું અસ્તિત્વ ન હોય Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधाका स्था०५ उ०३ सू०१ अस्तिकाय स्वरूपनिरूपणम १६५ भविष्यत्कालिकी सत्तापि सर्वदा स्थास्यत्येव । इति हेतोरयम् अभूत् भवति भविष्यति । इत्थं चायं धर्मास्तिकाय त्रैकालिको बोध्यः । त्रैकालिकत्वादेव अयं धर्मास्तिकाय ध्रुवः | धौव्यं च एकसृष्टचापेक्षयाऽपि संभाव्यतेऽत आह-नियतः = सर्वदा एकरूपेण स्थित इति । नियतत्वमने सृष्टयपेक्षयाऽपि संभाव्यमत आहशाश्वत इति, शाश्वतत्वं तु मलयाभावात् । एवम् अक्षयः सर्वदा सद्भावित्वात् । तथा - अनपयः = अविनाशी - केपांचित् पर्यायाणामपागमेऽप्यनन्तपर्यायत्वात् । अवस्थितः - अक्षयत्वेनाव्ययत्वेन च सर्वदा स्थितिशीलः । अनेन प्रकारेणायमोघतो नित्यः । अथवा यतोऽयं । धर्मारितका यखैकालिका, अतएवासी ध्रुव नियतः = एकरूप | शाश्वतः = प्रतिक्षणं विद्यमानः । अतएव - अक्षयः क्षयवर्जितःजिसमें यह नहीं रहा है, और भविष्यत् काल भी ऐसा नहीं होगा। कि जिसमें इसका सद्भाव नहीं रहेगा अर्थात् भूतकाल में वर्तमानकाल में और भविष्यत् कालमें सर्वदा यह रहा है। रहता है और रहेगा का लिक होने से यह धर्मास्तिकाय ध्रुव है, ध्रुवना एक सृष्टिकी अपेक्षासे भी संभवित होती है, अतः इसके लिये कहा गया है, "नियतः " यह धर्मास्तिकाय सर्वदा एकरूपसे स्थित रहता है, नियतता अनेक सृष्टिकी अपेक्षा से भी संभवित हो सकती है, अतः इसके लिये कहा गया हैशाश्वत " यह शाश्वत है, क्योंकि इसमें क्षयका अभाव है, इसी तरहसे यह अक्षय है, क्योकि इसका सर्वदा सद्भाव रहता है, तथा यह धर्मास्तिकाय अव्यय है, अविनाशी है, क्योंकि कितनेक पर्यायोंके अपगम हो जाने पर भी यह अनन्तपर्यायवाला होने से कभी भी विनष्ट 16 એવુ' નથી અને ભવિષ્યકાળમાં પણ કાઈ સમય એવા નહી હાય કે જ્યારે તેનુ' અસ્તિત્વ નહીં હાય. એટલે કે ભૂત, વર્તમાન અને ભવિષ્યકાળમાં તે અનુક્રમે હતું, છે અને રહેવાનુ જ છે. આ રીતે ત્રણે કાળમા તેનુ અસ્તિત્વ હોય છે, તે કારણે તેને કુત્ર કહ્યુ છે. ધ્રુવતા એક સૃષ્ટિની અપેક્ષાએ પણ સભવિત હોય છે, તેથી તેને નિયત । વિશેષણ લગાડયુ છે આ ધર્માસ્તિકાય સદા એક જ રૂપે સ્થિત છે. નિયતતા અનેક સૃષ્ટિની અપેક્ષાએ પશુ સ ભવી શકે છે, તેથી તેને શાશ્વત વિશેષણ લગાડયુ છે તેના ક્ષય થતા નથી તેથી તેને માય કહ્યુ છે. અધવા તેને કાળ સભાવ રહે છે તેથી તેને અક્ષય કહ્યુ છે આ ધર્માસ્તિકાય અવ્યય ( અવિનાશી ) હૈં, કારણ કે કેટલાક પર્યાયે તુ ગમન ધઇ જવા છતા પશુ તે અનન્ત પર્યાયેવાળુ હાવાથી કદી પણ વિન” થતું નથી. તથા Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानागसूत्रे अवयविद्रव्यापेक्षया, अक्षत इतिन्छायापक्षेतु अक्षतः परिपूर्णः । तथा-अव्ययःअवयवापेराया। तथा-अवस्थितः-निश्चलत्वात् । यतोऽयं ध्रुवत्वादिविशिष्टोऽत एव नित्य इति । तथा-भावतोऽयं धर्मास्तिकायो वर्णगन्धरसस्पर्शवर्जितः । तथा-गुणता कार्यतचायं गमनगुणः-गमनंगतिः गुणः गतिपरिणामपरिणतानां जीवपुद्गलानां सहकारिकारणत्वात् कार्य मत्स्यानां जलस्येय यस्यासौ, यद्वा-गतो-गमने गुण उपकारो यस्मात् सः गगनोपकारक इत्यर्थः । इति प्रथनहीं होता है, तथा यह धर्मास्तिकाय अक्षय एवं अव्यय होनेसे सर्वदा स्थितिशील है, इसलिये यह अवस्थित है, इसी प्रकार से यह सामान्य रूपसे नित्य है, अथवा-जिस कारण यह धर्मास्तिकाय त्रैकालिक है, इसी कारणले यह अव है, नियत एक रूप है, शाश्वत है-प्रतिक्षण विद्यमान है, और इसीसे यह अक्षय है, अवयव द्रव्यको अपेक्षा क्षयरहित है, अथवा अक्षत है-परिपूर्ण है, तथा-अघयवकी अपेक्षा अव्यय है, निश्चल होनेसे अवस्थित है, जिस कारण यह ध्रुवत्व आदि विशेपणोंवाला है, इसीलिये यह नित्य है, तथा भावकी अपेक्षाले-यह धर्मास्तिकाय वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्शसे रहित है, तथा कार्यकी अपेक्षासे यह गमन है गुण जिसका ऐसा है, अर्थात् जिस प्रकार मत्स्योंके चलने में सहायक जल होता है, उसी प्रकार गति क्रिया परिणत जीव और पुद्गलोंको गमन करने में यह सहायक होता है, अतः गमन है, गुण. कार्य जिसका ऐसा इसे कहा गया है, अथवा गमन है उपकार जिससे ધર્માસ્તિકાય અક્ષય અને અવ્યય હોવાથી સર્વદા સ્થિતિશીલ હોવાને કારણે તેને અવસ્થિત કહ્યું છે. આ પ્રકારે તે સામાન્ય રૂપે નિત્ય છે અથવા જે કારણે આ ધર્માસ્તિકાય કાલિક છે, એ જ કારણે તે ગ્રુવ છે, નિયત (એક ३५) छे, श्वत ( प्रतिक्षण विद्यमान ) छे, अने तीन ते अक्षय छ, અવયવ દ્રવ્યની અપેક્ષાઓ તે ક્ષયરહિત છે અથવા અક્ષત (પરિપૂર્ણ ) છે, તથા અવયવની અપેક્ષા એ અવ્યય છે, નિશ્ચલ હોવાને કારણે તે અવસ્થિત છે. તે કારણે તે કૂવવ આદિ વિશેષણવાળું છે, તે કારણે જ તે નિત્ય છે. ભાવની અપેક્ષાએ આ ધર્માસ્તિકાય વર્ણ, રસ, ગળ્યું અને સ્પર્શથી રહિત છે હવે આ ધર્માસ્તિકાયના કાર્યનું નિરૂપણ કરવામાં આવે છે—જેવી રીતે પાણીમાં ગતિ કરન માછલાંઓને પાણીમાં ગતિ કરવામાં જળ સહાયક બને છે, એ જ રીતે ગતિકિ પરિણત જીવ અને પુદ્રને ગમન કરવામાં આ ધતિકાય સહાયભૂત બને છે. તેથી તેને ગમનરૂપ ગુણકાર્યવાળું કહ્યું છે અથવા ગમનમા જેના દ્વારા ઉપકાર (સહાયના) થાય છે તેને ગતિગુણ કહે Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुंधा टीका स्था०५ उ० ३ ०१ अस्तिकाय स्वरूपनिरूपणम् १६७ मोऽस्तिकायः । तथा-अधर्मास्तिकायोऽपि धर्मास्तिकायवदेव अवर्णादि स्वरूपो बोध्यः । द्रव्यक्षेत्रकालभावानाश्रित्याऽप्ययं धर्मास्तिकायनदेव | विशेषस्त्वयम्यदयं गुणतः स्थानगुणः - स्थानं=स्थितिः गुणः कार्यं यस्य सः, अयदि स्थिति परिणतानां जीवपुद्गलानामपेक्षाकारणातया स्थितिरूपं कार्य करोति । यहा - स्थाने = स्थितौ गुणः = उपकारो यरमात् सः जीवपुद्गलानां स्थितावुपकारक इत्यर्थः । इति द्वितीयोऽस्तिकायः । तथा-आकाशास्तिकायोऽपि धर्मास्तिकायदे अवर्णादिस्वरूपः । तथा द्रव्यकालभावानाश्रित्यापि पूर्ववदेव । तथा क्षेत्रमाश्रित्य वह गतिगुण है, जीव और पुद्गलोके अपनी २ गतिमें गलन करने में यह उपकारक होता है । इस प्रकारका यह प्रथम अस्तिकाय है । तथा अधर्मास्तिकाय भी धर्मास्तिकायकी तरहही अवर्णादि स्वरूपवाला है, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा लेकर यह धर्मास्तिकाय की तरहही है, विशेषता केवल इतनीसी है, दि यह गुणकी कार्यकी अपेक्षा स्थिति है गुणकार्य जिसका ऐसा है, यह अस्तिकाय स्थितिमें ठहरने में परि णत हुए जीव और पुद्गलोंको अपेक्षा कारणरूप होने से स्थितिरूप कार्य करता है, जिस प्रकार ठहरने में मुसाफिरोंको छाया मदद करती है, उसी प्रकार से यह भी ठहरने में उन्हें उदासीन रूपसे कारण होता है अथवा जीव और पुद्गलोंको अपनी स्थिति में जिससे उपकार होता है, वह स्थितिगुण है, तात्पर्य इसका यही है, कि जीव और पुद्गलोको ठहरनेमें उपकार होता है इस प्रकारका यह द्वितीय अस्तिकायहै, तथा आकाशास्तिकाय भी धर्मास्तिकाकी तरहही अवकाशदान अवर्णादि स्वरूपवाला है, एवं છે. જીવ અને પુèાને પાતપેાતાની ગતિ કરવામાં તે મદદ રૂપ બને છે. આ પ્રકારનું ધર્માસ્તિકાય નામના અસ્તિકાયના પહેલા ભેદનુ સ્વરૂપ છે. द्रव्य, 24 અધમર્માસ્તિકાય પણ ધર્માસ્તિકાયની જેમ અવર્ણાદિ સ્વરૂપવાળુ છે. કાળ, ક્ષેત્ર અને ભાવની અપેક્ષાએ તે ધર્માસ્તિકાયના જેવુ' જ છે, પશુ માત્ર ગુણુની ( કા*ની ) અપેક્ષાએ તેમાં તફાવત છે ધર્માસ્તિકાય પુāાને ગતિકામાં મદદ રૂપ અને છે, ત્યારે અધર્માસ્તિકાય તેમને સ્થિતિકાયÖમાં મદદ રૂપ બને છે એટલે કે ગતિપરિણત જીવા અને પુત્લાને થેાલવામાં મદરૂપ થાય છે જેમ વૃક્ષની છાયા મુસાફરોને ધેાભવામાં મદદરૂપ બને છે, તેમ ધર્માં સ્તકાય જીવેા અને પુત્લાની ગતિ અટકાવીને તેમને થેભવામા સહાયભૂત ખને છે આ રીતે ગતિને બદલે સ્થિતિમા ઉપકારક ખનવાનું કાર્ય તેના દ્વારા થાય છે આ આસ્તિકાયના ખીત ભેદનુ સ્વરૂપ છે Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाङ्गसूत्रे लोकालोकपमाणमात्र:= लोकालोकयोर्यत् अनन्तमदेशात्मकं प्रमाणं, नत्प्रमाणं यस्य सः । लोकालोकसम्वन्धि यहरत्तदेशात्मकं प्रमाणं, तत्ममाण आकाशा स्तिकायः क्षेत्र ध्यः । तथा-गुणतः = गुणमाश्रित्य श्रवगाहनागुण-अवगानाजीवादीनामाश्रय गुणः कार्यं यस्य स तथा । जीवायाश्रयमदानरूपकार्ययुक्त इत्यर्थः । अथना अवगाहनायाम् गुण उपकारो यस्मात् सः - अवगाहनाविषय होपकारहेतुक उत्यर्थः । इति तृतीयोऽस्तिकायः । तथा जीवास्तिकायोऽपि पूर्ववदेव अवर्णादि स्वरूपः । विशेषरत्वय यदयं क्रमसः - अनन्तानि द्रव्याणि= अनन्तद्रव्यपरूपः । प्रत्येकजीवस्य द्रव्यत्वात् जीवानां चानन्तत्वात् जीवास्थिकायस्य अनन्तद्रव्यात्मकत्वं बोध्यम् । तथायं जीवास्तिकायः - अरूपी=अमूर्त्तः, द्रव्य कोल और भावकी अपेक्षा से भी इस सम्बन्ध में कथन पूर्वके जैसा ही है, क्षेत्रकी अपेक्षा यह लोकालोक प्रमाण मात्र है, अर्थात् आकाशके प्रदेश अनन्त है, क्योंकि लोक और अलोक में सामान्य रूपसे आकाश रहता है, अतः अपेक्षा आकाशास्तिकाय के इतने प्रदेश कहे गये है. इसलिये लोक सन्धी जो अनन्त प्रदेश प्रमाणता है। वही प्रदेश प्रमाणता क्षेत्रकी अपेक्षासे आकाशास्तिकाय में कही गई है, ऐसा समझना चाहिये तथा गुणकार्यकी अपेक्षा यह आकाशास्तिको अवगाहना वाला है, अर्थात् जीवादिकोंको अपने आश्रय देना यही इसका कार्य है, वा अवगाहनामें है, गुण उपकार - जिससे वह अ बगाहना हुएहै, इस तरह अवगाहना विषयक उपकार में यह हेतुवाला है, जीवास्तिकाय भी पूर्व की तरहही अवर्णादिवाला है, इसमें जो विशेपता है, वह इस प्रकार से है, यह पकी अपेक्षा अनन्त द्रव्य स्वरूप હવે આકાશાસ્તિકાયના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરવામાં આવે છે. તે પશુ ધર્માસ્તિકાય તથા અધર્માસ્તિકાયની જેમ વધુ, અન્ય, રસ અને સ્પથી રહિત છે. દ્રવ્ય, કાળ અને ભાવની અપેક્ષાએ તે લેાકાલેાક પ્રમાણે માત્ર જ છે, એટલે કે આકાશના પ્રદેશ અન ́ત છે, કારણ કે લેાક તથા અલેાકમાં સામાન્યતઃ આકાશ રહે છે. તેથી તે દૃષ્ટિએ વિચાર કરતાં આકાશાસ્તિકાયના એટલા પ્રદેશ કહ્યા છે. તેથી લેાકાલેક સખ ́ધી જે અનંત પ્રદેશપ્રમાણતા છે, એ જ પ્રદેશપ્રમાણુતા ક્ષેત્રની અપેક્ષાએ આકાશાસ્તિકાયમાં કહી છે, એમ સમજવુ'. ગુણુકા ( ઉપયેગીતા )ની અપેક્ષાએ વિચાર કરવામાં આવે તે તે અવગાહના ગુણવાળુ' છે એટલે કે જીવાદિકાને આશ્રય દેવાનુ જ તેનું કાય છે. આ રીતે અવાર્ડના વિષયક ઉપકાર કરનાર ડાવાથી તેને અવ ગાહના ગુણવાળુ કહ્યુ છે. १६८ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 सुधा टीका स्था० ५ उ. ३ सू०१ अस्तिकायस्वरूपनिरूपणम् जीवः = चेतनावान् शाश्वतः = अविनाशी च बोध्यः । गुणतस्त्वयम् - उपयोगगुण:उपयोजनमुपयोगः, उपभुज्यते वस्तुपरिच्छेदं प्रति व्यापार्यते जीवोऽनेनेति वा उपयोग:- बोधरूपो जीवस्य तचभूतो व्यापारः । स च साकारानाकारभेदाद् द्विविधः । यदा सचेतनेऽचेतने वा वस्तुनि उपयुञ्जान आत्मा सपर्यायमेव वस्तु परिच्छिनत्ति तदा स उपयोगः साकार इत्युच्यते । स च छद्मस्थानामन्तर्मुहर्त्त १६९ है, क्योंकि प्रत्येक जीव स्वतंत्र द्रन्थ है, और जीव हैं अनन्त इसलिये यह जीवास्तिकाय द्रव्यकी अपेक्षा अनन्त कहा गया है, तथा यह जीवास्तिकाय अरूपी अमृर्त है, चेतनावाला होने से यह जीवरूप है, और शाश्वत अविनाशी है । गुणकी अपेक्षा यह उपयोग गुणवाला है क्योंकि पदार्थों को जानने की तरफ यह उन्मुख होता है, पदार्थों को जाननेकी तरफ उन्मुग्द होना इसीका नाम उपयोग है, इसीलिये- “ इन्द्रियणालिक्या शब्दादीनामुपलब्धिरूपयोगः " ऐसा उपयोगका लक्षण किया गया है, अथवा वस्तु परिच्छेद करने के प्रति जीव जिसके द्वारा न्यापारयुक्त किया जाता है, वह उपयोग है, यह उपयोग जीवका तत्त्वभूत एक व्यापाररूप होता है । यह साकार उपयोग और अनाकार उपयोगके भेदसे दो प्रकारका कहा गया है, जिस समय पर्याय सहित सचेतन अथवा अचेतन वस्तुको जाननेके लिये आत्माका बोधरूप व्यापार होता है, वह साकार उपयोग है, यह साकार उपयोग छद्मस्य जीवोंको अन्त ८८ જીવાસ્તિકાય પણુ અવÎદિવાળું છે તેમાં એટલી જ વિશેષતા છે કે દ્રવ્યની અપેક્ષાએ અનત દ્રશ્યસ્વરૂપ છે, કારણ પ્રત્યે, જીવ્ર સ્વત ત્ર દ્રવ્ય છે, અને જીન્ન મન'ત છે, તેથી જીવાસ્તિકાયને દ્રવ્યની અપેક્ષાએ અન’ત કહ્યું છે તથા તે જીવાસ્તિકાય અરૂપી અમૃત છે, ચેતનાવાળું હાવાથી તે જીરૂપ છે અને શશ્વત અવિનાશી છે. ગુણની અપેક્ષાએ તે ઉપચેગ ગુણુવાળું છે, કારણ કે તે પદાર્થોને ાણવાની વૃત્તિવાળું છે. “ પદાર્થોના વિષયમાં જાણુવાને તત્પર થવું તેનુ નામ જ ઉપયેગ છે તેથી જ इन्द्रिय प्रणालिकया शब्दादिनामुपलब्धिरुपयोग " था अारनं उपयोगनुं लक्षण म्ह्युं छे अथवा વસ્તુ પરિચ્છેદ્ર ( વસ્તુ વિષયક એધ) ને માટે જીલ જેના દ્વારા વ્યાપારયુક્ત કરાય છે તે ઉપચેગ છે અ ઉપયેગ છત્રના તત્ત્વભૂત એક વ્યાપાર રૂપ હાય છે તે ઉપયેગન બે પ્રકાર છે—(1) સાકાર ઉપયેગ અને (૨) અના કાર ઉપચેગ પર્યાય સહિત સંચેતન અથવા અચેતન વસ્તુને જાણવાને માટે શાત્માને મેષરૂપ જે વ્યાપાર ચાલે છે તેનું નામ સાકાર ઉપયેગ છે આ स्था०-२२ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थाना १७० कालं तिष्ठति, केवलिनां तु एकं समयम् । यदा च वस्तुनः सामान्यतया परि च्छेदस्तदायाकार उपयोगो भवति । अयमपि छमस्थानामन्तर्मुहूर्त्त तिष्ठति, केवलिनां तु एकं समगम् | अत्रेदं बोध्यम्-छद्मस्थानां माकारोपयोगकालोडना • कारोपयोगकालादसंख्गुणः पर्यायपरिच्छेदकतया चिरकालगलनाछरथानां तथा स्वाभाव्यात् । उपयोगी गुणो धर्मोयस्य स तथा साकारानाकाररूपचैतन्यधर्मयुक्त इत्यर्थः । इतिचतुर्थोऽतिकायः । तथा-पुस्तिकायः पञ्चवर्णः शुका दिपञ्चवर्णयुक्तः, पञ्चरसः = मधुरादि पश्ञ्चरससंपन्नः, द्विगन्धः तुरभिदुरभिगन्धद्वययुक्तः, अष्टस्पर्श = मृदुकर्कशाद्य विधस्पर्श सठितः, रूपी मूर्तः, अजीवः = अचेतनः । तथा - शाश्वतः अवस्थितो लोद्रव्यं च । स पुनर्द्रव्यादिभेदैः पञ्चविधः । तत्र तक रहता है, और केवलियोंको एक समय तक रहता है, यहाँ ऐसा समझना चाहिये-छझस्थोंके साकारोपयोगका काल अनाकारोपयोग कालसे असंख्यात गुणा है, क्योंकि पर्यायोंको जानने के रूपमें इसका चिरकाल गल जाता है, क्योंकि छद्मस्थोंका ऐमाही स्वभाव होता है, उपयोग है, गुणधर्म जिसका ऐसा यह जीव है, अर्थात् यह जीव साकार अनाकाररूप चैतन्य धर्म से युक्त है तथा - पुद्गलास्तिकाप शुक्लादि पांच वाला है, मधुरादि पांच रसोंवाला है, सुरभि दु रभिरूप दोनों गन्धवाला है, और मृदु कर्कश आदि आठ प्रकार के स्प शिवाला है, रुपी है, मूर्त है, अजीव अचेतन है, तथा शाश्वत अवस्थित है, और लोकद्रव्य है, लोक भरमें यह व्यापक है, यह पुद्गलास्तिकाय द्रव्यादि के भेद से पांच प्रकारका है, पकी अपेक्षा यह पुद्गलास्तिकाय अनन्त द्रव्यात्मक है क्षेत्र की अपेक्षा यह लोकप्रमाण है, સાકાર ઉપયેગને સદ્ભાવ છદ્મસ્થ જીવેામાં એક અન્તસૂત પન્ત રહે છે અને કૈવલીએમાં એક સમય પન્ત રહે છે અહીં એવુ સમજવું જોઇએ કે છદ્મસ્થાને સાકાર પચેગનેા કાળ અનાકારેાપયેાગના કાળ કરતાં અસખ્યાત ગળેા છે, કારણ કે પાંચાને જાણવામાં તેને ચિરકાળ વ્યતીત થઈ જાય છે, કારણ કે છદ્મસ્થાના એવા જ સ્વભાવ હોય છે આ જીવ ઉપયાગરૂપ ગુણધવાળા છે, એટલે કે આ જીવ સાકાર અનાકાર રૂપ ચૈતન્યધમ થી યુક્ત છે. પુદ્ગલાસ્તિકાયનું સ્વરૂપ આ પ્રકારનું છે—પુદ્ગલાસ્તિકાય શુકલ આદિ પાંચ વર્ઘાથી, મધુર આદિ પાંચ રસેાથી, સુરભિ અને દુરભિ રૂપ એ ગન્ધાથી અને મૃદું, કશ આદિ આઠ પ્રકારના સ્પર્શથી યુક્ત હોય છે. તે રૂપી-મૂત છે, અજીવ–અચેતન છે, શાશ્વત અવસ્થિત છે અને લેાકદ્રવ્ય છે. એટલે કે સમસ્ત લેાકમાં વ્યાપેલુ છે. દ્રવ્યાદિના ભેદથી તે પુદ્ગલાસ્તિકાયના પાંચ ભેદ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ খি মীজা খo৭ ০৪ ০৫ অছিলাযথলিবল द्रव्यतः पुद्गलास्तिकायोऽनन्त द्रव्यात्मकः । क्षेत्रतो लोकप्रमाणः । कालतश्च त्रैकालिकत्वमेवाह-'ण कया विणासी' इत्यादिना । भावतश्चायं वर्णगन्धरसरपशवान् । गुणतश्चायं ग्रहणगुगः-ग्रहणम् औदारिकशरीरादितया ग्राह्यन्यम् , इन्द्रियग्रायत्वं वा, अथवा-वर्णादिमत्त्वात् परस्पर सम्बन्धो ग्रहणम् , तद्गुणो धर्मो यस्य स तथा । इति पञ्चमोऽस्ति कायः ।। सू० १ ॥ पश्चास्तिकायाः प्रोक्ताः । सम्पति तद्गत जीवास्तिकायसम्बन्धीनि वस्तूनि प्राह-अध्ययनसमाप्तिं यावत् । तत्र प्रथमं गतिभेदानाह मूलम्---पंच गईओ पण्णताओ, तं जहा-निरयगई १, तिरियगई २, मणुयगई ३, देवगई ४, सिद्धिगई ५॥ सू० २ ॥ __छाया-पञ्च गतयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-निरयगतिः १, तिर्यग्गतिः २, मनुष्यगतिः ३, देवगतिः ४, सिद्भिगतिः ५ ॥ सु० २ ॥ कालकी अपेक्षा यह त्रैकालिक है, इसी बातकी पुष्टिके लिये सूत्रकारने " न कदापि नासीत् " इत्यादि सूत्र कहा है, भावकी अपेक्षा यह वर्ण, गन्ध, रस और स्पशाला है, गुणकी अपेक्षा यह ग्रहण है, औदारिक शरीरादिरूप ग्राह्यता अथवा इन्द्रियों द्वारा प्रात्यता अथवा-वर्णादिमत्व होनेसे परस्पर सम्बन्ध रूपता है, गुणधर्म जिसका ऐसा ग्रहण गुण. वाला है । अर्थात् षडण पडन धर्मवाला है । इस प्रकार से यह पंचम अस्तिकाय है ।। सू० १॥ इस प्रकार पांच अस्तिकाय कहे अब सुत्रकार तद्गत जीवास्तिકહ્યા છે દ્રવ્યની અપેક્ષાએ પુલાસ્તિકાય અને તે દ્રવ્યાત્મક છે, ક્ષેત્રની અપેસાએ તે લેકપ્રમાણ છે, કાળની અપેક્ષાએ તે વૈકાલિક છે એટલે જ સૂત્રકારે " न कदापि नासीत् ॥ २॥ सूत्रा द्वारा तेनुं तो 1 मस्तिस्य वार्नु પ્રતિપાદન કર્યું છે. ભાવની અપેક્ષાએ તે વર્ણ, ગધ, રસ અને સ્પર્શથી યુક્ત છે, અને ગુણની અપેક્ષાએ તે ગ્રહણ ગુણવાળું છે, એટલે કે દારિક શરીરાદિ રૂપ ગ્રાહ્યતા અથવા ઇન્દ્રિો દ્વારા ગ્રાહ્યતા અથવા વદિપી યુકત હોવાને કારણે પરસ્પર સંબંધ રૂપના જ જેને ગુણધર્મ છે એવું વ્રણ ગુણવા તે છે એટલે કે તે સડવું, પડવું વગેરે ધર્મવાળું છે. આ પ્રકારનું પુલાસ્તિકાયનું સ્વરૂપ કહ્યુ છે કે સુ ૧ ! આ પ્રકારે પાંચ અતિકાનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું. હવે સૂત્રકાર Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नीम - या कम्पनेने या सा गतिः- क्षेत्रविशेष रुपा रामपतिगतिः- नाम कर्मा चरम निष्पा स् पञ्चविधाः पाप्ताः । पञ्चविधनियम इत्यादि । निये- नाके गतिः- गगनं- निरयगतिः विनयगतिः २ गम्यतेऽनयेति गतिःपिना गतिनियत रिति । निर्यमतिः-निर्यक्षु गतिः १, निर्यरखनेवाली जो बाते हैं, उनका कथन अध्ययनकी समाप्ति पनि हो ये कहते हैं यस ताओं उत्यादि २ ॥ श्री विना मगति, अथवा जो जीव द्वारा प्राप्त की जानी क्षेत्रविशेषरूप होती है, अथवा जिम मेरी सतिगमन होता है, वह गति है, ऐसी तिनाउ प्रकृति होती है. अथवा जीवकी जा अवस्था नामकर्मी उत्तर प्रकृतिरूप यति द्वारा की जाती है, वह गति है। जीवस्थाएँ होती हैं ये गनियां पांच कही गई हैं सेनि निर्व२नुपनि देवगति और सिद्ध गमता है, निरनिनिग्य क्षेत्र विशेष में गति है, वह निरयगति हैं, क्षेत्र विशेष ܚ ܕܬܨ 9 721 " पदी से पवन देखते थान 42 Nen of (f f सम्ययनी अमाप्ति तिनं हरे के १ से २० द्वाराम राय है उपदेय, भवानी जतिथे A ने जति नामाती कामप्रति इप्रति अपनी इन E. (af) .41 नम्यमनि, (५) निशनि दिशेष नने दिपति क्षे Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०५ उ०३ ०३ इन्द्रियार्थान् इन्द्रियपदार्थाचनिरूपणम् १७३ क्षेत्ररूपागतिः २ तिर्यक्त्वमापिका वा गतिः ३ । २ । एवं देवगति ३ तुष्यति रपि ४ भावनीया |8| सिद्धिगतिः - सिद्धौ गतिः १, गिदिवासी गतिचेति वा, दद्द नामपकृति नस्तीति ५ ॥ ०२ ॥ अनन्तरमुत्रे सिद्धिगतिः प्रोक्ता । सा च इन्द्रियार्थान् कपायादथ निमिचीकृत्य मुण्डितत्वे सति भवतीन्द्रियान् इन्द्रियकपायादिगुण्डांथ प्राह मूलम् - पंच इंदियत्था पुण्णता, तं जहा- सोइंदियत्थे जाव फासिंदियत्थे | पंच मुंडा पण्णत्ता, तं जहा- सोइंदियझुंडे जाव फासिंदिय मुंडे | अहवा पंच मुंडा पण्णत्ता, तं जहा- कोहमुंडे १ माणमुंडे २ मायासुंडे ३ लोहसुंडे ४ सिरमुंडे ॥ सू० ३ ॥ ա छाया - पञ्च इन्द्रियार्थाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-योत्रेन्द्रियार्थो यावत् स्पर्शेन्द्रि यार्थः । पञ्च मुण्डाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-श्रोत्रेन्द्रियमुण्डो यावत् स्पर्शेन्द्रियमुण्डः । अथवा - मुण्डाः पञ्च प्रज्ञप्ताः, तथा - क्रोधमुण्डो १ मानमुण्डो २ मायामुण्डो ३ लोभमुण्ड ४ शिरोमुण्डः ५ ।। सू० ३ ।। अथवा इस क्षेत्र विशेषरूप निरयके प्राप्त कराने वाली जो गति है, वह निरयगति है, तिर्यश्चों में जो गति-गनन किया जाता है, वह तिर्यश्च गति है, अथवा तिर्यक् क्षेत्र रूपवाली जो गति है, वह तिर्यञ्च गति है । इसी तरहका कथन देवगति और मनुष्यगति सम्न्धमें भी जानना चाहिये सिद्धि में जो जाता है, वह सिद्विगति है, अथवा सिद्धिरूप जो गति है, वह मिद्धिगति है, यहां नामकर्मकी प्रकृति नहीं है ॥ ३०२ ॥ इस अनन्तर सूत्र में जो सिद्धगति कही गई है, वह इन्द्रियार्थ और कषायों को निमित्त करके मुण्डित होने पर होती है, अतः अब सूत्रकार છે. અથવા તે ક્ષેત્રવિશેષ રૂપ નિશ્યને પ્રાપ્ત કરાવનારી જે ગતિ છે તેનુ નામ નિરયગતિ છે. તિય ચામા જે ગમન થાય છે તેનું નામ તિય ચગતિ છે, અથવા તિક્ ક્ષેત્રરૂપ જે ગત છે તેને તિગત કહે છે. અથવા તિય ચ દશાને પ્રાપ્ત કરાવનારી જે ગતિ છે તેને તિય ચગતિ કહે છે. એ જ પ્રકારનુ કથન મનુષ્યતિ અને દેવગતિ વિષે પશુ સમજવુ. મિક્રિયા જે નય છે તેનુ નામ સિદ્ધિગતિ છે. અથવા સિદ્ધિરૂપ જે ગતિ છે તેનું નામ સિદ્ધિગતિ છે અર્પી નામકમની પ્રકૃતિને સદ્ભાવ હાતે નથી ! સૂ૨ ૫ આગલા સૂત્રમાં મિદ્ધિમતિના ઉલ્લેખ થયા છે. ઇન્દ્રિયા અને કા ચેાના ત્યાગપૂર્વક મુઠિત થઈને શ્રમણુપર્યાય ગીકાર કરવાી તેની પ્રાપ્તિ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ D स्थानास्त्रे टोका-- पंच इदियत्था' इत्यादि इन्दियार्थाः- इन्द्रनात् सर्वविषयोपलब्धिभोगलक्षणपरमैश्वर्यसद्भावात्-इन्द्रोजीवः, तस्य लिङ्गं, तेन वा दृष्टं सृष्टं जुष्टं दत्तं दुर्जय वा इन्द्रियं श्रोत्रादिकम् , तच्च नामस्थापनाद्रव्यभावभेदाच्चतुर्विधम् । तत्र नामस्थापने सुगमे । द्रव्येन्द्रियं तु निर्व त्युपकरणभेदाद द्विविधम् । तत्र नि ति: आकारः । सा च वायाभ्यन्तरभेदाद् इन्द्रियाओं को और इन्द्रिय कपायोंसे मुण्डित हुए व्यक्तियोंको लेकर कथन करते हैं--'पंच इंदियस्था पण्णत्ता' इत्यादि सूत्र ३॥ टीकार्थ-इन्द्रियोंके अर्थ विषय पांच कहे गये हैं जैसे श्रोत्रेन्द्रियका अर्थ थावत् स्पर्शनेन्द्रियार्थ ५ इन्द्रका जो चिह है, वह इन्द्रिय है, इन्द्र शब्दसे यहां आत्मा लिया गया है, क्योंकि वह सर्व विषयोंकी उपलब्धि एवं उनके भोगरूप जो परमैश्वर्य अनुभव करने वाला है, उस जीवका जो चिह्न है, यह इन्द्रिय है, अथवा उस जीवरूप इन्द्रसे जो दृष्ट है, सृष्ट है जुष्ट है दत्त है अथवा दुर्जय है वह इन्द्रिय है, अथदा इन्द्रसे होनेवाला है, ऐसी ये इन्द्रियां श्रोत्रादिक हैं । ये श्रोत्रादिक इन्द्रियां नाम स्थापना द्रव्य और भावके भेदसे चार प्रकार की हैं, इनमें नाम और स्थापनारूप इन्द्रियां सुगम हैं। द्रव्येन्द्रिय निर्वृत्ति और उपकरणके भेदसे दो प्रकारकी है निवृत्तिका नाम आकार है, यह निर्वृत्तिरूप થાય છે તેથી હવે સૂત્રક ૨ ઇન્દ્રિયાનું અને ઇન્દ્રિય કથિી રહિત થવા રૂ૫ સુંડિત અવસ્થા ધારણ કરનાર વ્યક્તિઓનું કથન કરે છે At-" च इंदियस्था पण्णत्ता" त्याह छन्द्रियाना विषय३५ पथ पांय ४ा छ-(१) श्रोत्रन्द्रियार्थी, (२) नन्द्रिया, (3) प्राणेन्द्रियाथ, (४) २सनेन्द्रियार्थ मने (५) २५न्द्रयार्थ ઈન્દ્રનું જે ચિહ્યું છે તે ઈન્દ્રિય છે. ઈન્દ્ર શબ્દ દ્વારા અહીં આત્મા ગ્રહણ થયે છે, કારણ કે સર્વ વિષેની ઉપલબ્ધિ અને અનેક ભોગ રૂપ પરઐશ્વર્યને અનુભવ તે કરે છે, તેની જીવને પ્રાપ્તિ કરાવનાર જે બાહ્ય સાધનો છે તેને ઈન્દ્રિયો કહે છે. અથવા તે જીવ રૂપ ઈદ્રથી જે દષ્ટ છે, સુણ છે, જુદ છે, દત્ત છે, અથવા દુર્જય છે, તે ઈન્દ્રિય છે. એવી ઈન્દ્રિયે શ્રોત્રેન્દ્રિય આદિ પાંચ છે. તે શ્રોત્રાદિક ઇન્દ્રિય નામ, સ્થાપના, દ્રવ્ય અને ભાવના ભેદથી ચાર પ્રકારની છે. તેમાંથી નામ અને સ્થાપના રૂપ ઈન્દ્રિયે સુગમ હોવાથી અહીં તેમનું વધુ વિવેચન કર્યું નથી. બેન્દ્રિયના નિવૃત્તિ અને ઉપકરણ નામના બે ભેદ કા છે. નિવૃત્તિ એટલે આકાર તે નિવૃત્તિરૂપ ઇન્દ્રિયના પણ બાહ્ય અને Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०५ उ०३ सू०३ इन्द्रियार्थान् इन्द्रियकषायांश्च निम्पणम् १७५ द्विविधा । तत्र बाह्या अनेकविधा आभ्यन्ता निर्वृत्तिः श्रोनादीनां क्रमेण कदम्बपुष्पधान्यममूरातिमुक्तकपुष्पचन्द्रिकाक्षुरप्रनानापकारसंस्थाना। उपकरणेन्द्रिय तु विषयगुणसामर्थ्यरूपम् । इदं छेपच्छेदने खगधारेव भवति । यथा धारायामुपहतायो खड्ग छेयच्छेदने समयों न भवति तथैव उपकरणेन्द्रियासत्वे निर्वृत्ती सत्यामपि इन्द्रियं विषयान्न गृहातीति । तथा भावेन्द्रियलब्ध्युपयोगभेदाद द्विविधम् । तत्र लब्धीन्द्रियम्-तदावरणक्षयोपशमरूपम् । उपयोगेन्द्रियं च म्वविषये इन्द्रिय भी बाह्य और आभ्यन्तरके भेदसे दो प्रकारकी है। बाध्य नित्ति इन्द्रिय अनेक प्रकार की है, आभ्यन्तर निर्वृत्ति श्रोत्रादिकके क्रमसे कदम्बपुष्प, धान्यमसूर अतिमुक्तकपुष्प चन्द्रिका क्षुरप तथा नाना प्रकारके संस्थानवाली है। अर्थात प्रोत्रेन्द्रियकी आभ्यन्तर निवृत्ति कदम्ब पुष्पके समान है, आंखको आभ्यन्तर नित्ति मसूर के दालके समान है, नाककी आभ्यन्तर निवृत्ति अतिमुक्तकपुष्प चन्द्रिकाके समान है, रसनेन्द्रियकी निवृत्ति क्षुरम (जस्तरा)के समान है, और स्पर्शन इन्द्रियकी आभ्यन्तर निवृत्ति अनियमित आकारवाली है। विषयोंको ग्रहण करनेकी शक्तिरूप उपकरण इन्द्रिय होती है यह छेधको छेदनमें खड्गधाराके समान होती है, अर्थात् जिस प्रकारसे धारके उपहत हो जाने पर खड्ग तलवार छेदने के योग्य पदार्थों को छेदने में समर्थ नहीं होती है, उसी प्रकार उपकरण इन्द्रियके अभावमें निवृत्तिके होने पर भी इन्द्रिय विषयोंको ग्रहण नहीं करती है, तथा यह भाबेन्द्रिय આભ્યન્તરના ભેદથી બે પ્રકાર કહ્યા છે. બાહ્ય નિવૃત્તિ ઈન્દ્રિય અનેક પ્રકારની છે અને આભ્યન્તર નિવૃત્તિ અનુક્રમે શ્રોત્રેન્દ્રિયથી લઈએ તે કદમ્બપુષ્પ, ધાન્યમસુર, અતિમુક્તક પુષ્પ ચદ્રિકા, સુરપ્ર (અસ્ત્રો) અને વિવિધ સ સ્થાનવાળી છે. એટલે કે શ્રોત્રેન્દ્રિયની આભ્યન્તર નિવૃત્તિ (આકાર) કદમ્બપુષ્પ સમાન છે, આંખની અત્યન્તર નિવૃત્તિ મસૂરની દાળ સમાન છે, નાકની આભ્યન્તર નિવૃત્તિ અતિમુકતક પુષ્પચન્દ્રિકા સમાન છે, જીભની આભ્યન્તર નિવૃત્તિ અને સમાન છે, અને સ્પર્શેન્દ્રિયની આક્યન્તર નિવૃત્તિ અનિયમિત આકારવાળી છે. વિષયને ગ્રહણ કરવાની શકિત રૂપ ઉપકરણ ઈદ્રિય હોય છે. તે છેદ્યનું છેદન કરવામાં તલવારની ધારસમાન હોય છે એટલે કે જેમ પાર વિનાની તલવાર–બૂડી તલવાર છેઠવા ગ્ય પદાર્થને છેદેવામાં અસમર્થ નિવડે છે, એ જ પ્રમાણે ઉપકરણ ઇન્દ્રિયનો અભાવ હોય ત્યારે નિવૃત્તિને સદૂભાવ હોવા છતાં પણ ઈન્દ્રિય વિષને ગ્રહણ કરી શકતી નથી, Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म्यानासो व्यापारः । उक्तं च-- 'इंदो जीरो सम्योवलद्विभोगपरसेमरत्तण भो । सोनाइ भेपमिदियमिह नल्लिंगाट भावाभो ॥ १ ॥ तं नामादि चउद्धा, दयं निव्वनिओवकरणं च । आगारो निवत्ती, चित्ता बज्झा इमा अंतो ।। २ ।। पुप्फ कलंघुयाए, बन्नमसरामुत्तचंदो य । होउ खुरप्पो नाणागिई य सोडदियाई णं ॥ ३ ॥ विषयगण समत्यं, उवगाणं दियंतरं तंपि । जं नेह तद घाए. पिण्ड निगितिमा वि॥ ४ ॥ लधुपओगा भाविदियंतु लद्धित्ति जो खोवमयो । होड तगावरणाणं. तल्लाभे चेव से मंपि ॥५॥ जो सविसयवावारो. मो उपभोगो सचेगकालम्मि । एगेग वेत्र तन्हा, उपभोगिदिओ सयो ।। ६ ॥ एगिदियाइभेया, पडुब सेमिंदियाई जीवाणं । अहया पडुच्च लदि दियंपि पंचिंदिया सव्वे ॥७॥ जं किर बउलाईणं, दीसड से सिंदिनोबलं भो वि । ते णत्थि तदावरणकावओवरामसंभवो नेति ।। ८ ।। छाया-इन्द्रो जीवः सपिलब्धिभोगपरमेश्वर्यात । श्रोत्रादिभेदमिन्द्रियमिह नल्लिङ्गादिभावात् ।। १ ॥ लब्धि और उपयोगके भेद से दो प्रकार की होती है। इनमें लब्धिरूप जो मावेन्द्रिय है, वह तदाबरणक्षयोपशम रूप होती है, और उपयोग रूप जो भाचेन्द्रिय होती है, वह अपने विषय में व्यापोररूप होती है। कहा भी है-"इंदो जीवो सम्बोवलद्धि" इत्यादि। इन गाथाओंका भावार्थ ऐमाहै-"इन्द्रस्य लिङ्ग इन्द्रियम् इन्द्रेण इन्द्रजीव दृष्टादित्वात् वा इन्द्रियम् ' इस व्युत्पत्तिके अनुसार इन्द्रका चिह्न होने તે ઉપકરશે ઇન્દ્રિયના બે ભેદ છે—(૧) ભાવેન્દ્રિય લબ્ધિ અને (૨) ભાવેન્દ્રિય ઉપયોગ તેમાંથી જે લક્વિરૂપ ભાવેન્દ્રિય છે તે તદાવરણ પરામ રૂપ હોય છે અને ઉપગ ૩૫ જે ભાવેન્દ્રિય હોય છે તે પિતાના विषयमा व्यापा२ ( प्रवृत्ति) ३५ उय छ. युं ५ : । "इमो जीनो सम्वोवलद्वित्यादि मा माथासानी मावा नीय प्रमाणे छ-" इन्द्रस्य लिन इन्द्रियम् इन्द्रग मादित्वात् वो इन्द्रियम् ” मा ०युत्पत्ति मानुस २७न्द्रनु यिन वाया Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७७ सुध टीका स्था८५ उ.,३ सू०३ इन्द्रियार्थान् इन्द्रिपदावनिरूपणम् तत् नामादि चतुर्दा द्रव्यं नि तिरुपकरणं च । आसारो निशिः चित्रा वाघा सन्तरिमा ।। २ ॥ पुष्प कलम्बुकायाः धापगयरातिमुक्तचन्द्रं च । भवति क्षुरप्रो नानाकृतिय श्रीनेन्द्रियादीनाम् ।। ३ ।। विषयग्रहणगामीम् , उपकरणम् इन्द्रियान्तरं तदपि । यन्नेह तदुपधाते गनाति नित्तिभावेऽपि । ४ ॥ लब्ध्युषयोगौ मावेन्द्रिय तु लब्धिरिति यः अयोपशमः । भवति तदारणा तल्ला एव शेपमपि ॥ ५ ॥ यः स्वरिपयव्यापारः स उपयोगः स चैनकाले। एकेन एय तस्मात उपयोगकेन्द्रिय सर्वः ।। ६ ॥ एकेन्द्रियादिभेदाः प्रतीत्य शेषेन्द्रियाणि जीनानाम् । अथवा प्रतीत्य लम्पीन्द्रियमपि पञ्चेन्द्रियाः सर्वे ।। ७ ॥ यस्किल बङ्गलादीनां श्यते शेपेन्द्रियोपलम्भोऽपि । तेनास्ति तदावरण क्षयोपशमसंमत्रतेपाम् ॥ ८ ॥ इति ।। से या इन्द्र के द्वारा इष्ट आदि होनेसे मोनादिकोको इन्द्रिय कहा गयाहै। " इदि परमेश्वर्ये" के अनुसार इद् धातुसे इन्द्र शब्द पनता, समस्त पदार्थों का ज्ञाला इछा बन जाता है, ऐसा बन जालाही आत्मा का परमै श्वर्य है, ऐसे परमैश्वर्थवाला यह आत्माही हो सकता है, और द्रव्य नहीं हो सकताहै, अतः इन्द्र की तर यह जीव परमैश्वर्यवाला हो सकनेके कारण इन्द्र कहा गया है. इस इन्द्रकादी यह चिह्न है, इस हन्द्रिय रूप चिह्नसे ही आत्मा जीबकी पहिचान होती है, यहां ज्ञानेन्द्रियों की ही यह यात चल रही है इसलिये श्रोत्रादिक इन्द्रियां पांचही कही गई है, क्योंकि छमस्थ जीव इनकी सहायताले ही इनके विषयों का ज्ञाता हो सकता है ॥ १ ॥ અથવા ઈન્દ્રના દ્વારા દર આદિ હોવાથી ત્રાદિકને બદ્રિો કહેવામાં આવેલ छ. " इदि परमैश्वये" ना अनुसार “इद" धातुमांथी छन्द्र भन्या छे સમસ્ત જ્ઞાનાવરણ અને દર્શનાવરણને અભાવ થઈ જાય ત્યારે આત્મા સમસ્ત પદાર્થોને ગાતા ( દા) બની જાય છે. પે બની જવું એજ આત્માનું પરઐશ્વર્યું છે. એવા પરમેશ્વયવાળે આ આત્મા જ હોઈ શકે છે–બીજું દ્રવ્ય હોઈ શકતું નથી તેથી તે ઈન્દ્રની જેમ પરમેશ્વર્યસંપન્ન હેઈ શકવાને કારણે તને ઈદ્ર કહૃાો છે. આ ઈ-દ્રનું જ તે ચિહ્ન છે આ ઇન્દ્રિય રૂપ ચિહ્ન વડે જ આત્માને (જીને ) ળ ની શકાય છે. અહી જ્ઞાનેન્દ્રિયોની જ વાત ચાલી રહી છે અહીં વાદિક પાંચ ઇન્દ્રિયે કહી છે, અને છતાથ જી તેમની સહાયતાથી જ તેમના વિષયોને (તે પાચે ઈન્દ્રિયોના વિષને) જાણી શકે છે !' स्था०-२३ Page #200 --------------------------------------------------------------------------  Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सचा टीका स्था ५ उ०३ सू०३ इन्द्रियार्थान् इन्द्रियपदार्थाश्च निरूपणम् १७२ इनमें निवृत्ति नाल रचनाका है, यह इन्द्रियाशार रचना पुनलों में भी होती है और आत्मप्रदेशों में भी होती है । अर्थान् पुगलों के प्रदेश भी इन्द्रियोकार रूपसे परिणमते हैं और आत्मप्रदेश की इन्द्रियाकार रूपसे परिणमते हैं । श्रोनादिक इन्द्रियों के आकार में जो पुलके प्रदेश एवं आत्माके प्रदेश परिणलते हैं वे द्रव्धेन्द्रिय हैं। एवं क्षयोपशम चिशेपसे होनेवाला जो आत्मा का परिणाम है, ज्ञानदर्शन रूप यह भावेन्द्रिय है, द्रव्येन्द्रियके दो भेद है-निवृत्ति और उपकरण-निवृत्तिका अर्थ रचना है, इसलिये निवृत्ति द्रव्येन्द्रियका अर्थ हुआ-इन्द्रियाकार रचना यह पाथ और आभ्यन्तरके लेदले दो प्रकार की है, याय निवृत्ति से इन्द्रियाकोर पुद्गल रचला ली गई है और आश्यन्तर निवृत्ति से इन्द्रियाकार आत्मप्रदेशके लिये कहे गयेहैं । यद्यपि प्रतिनियन इन्द्रिय सम्पधी ज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम सङ्ग होता है, तथापि अंगोपान नाम कर्म के उदयसे यहां पुद्गल प्रचय-समूहरूप जिान द्रव्येन्द्रियकी रचना होतीहै, वहीं के आत्मप्रदेशोंमें उस२ इन्द्रियको कार्य करनेकी क्षमता होती है। उपकरणका अर्थ है-उपकार का प्रयोजन साधन यह भी पाय और आभ्यन्तरके भेदसे दो प्रकारका है, नेत्र इन्द्रिय में जो कृष्ण शुक्ल નું નામ નિવૃત્તિ છે. આ ઈનિદ્રયાકાર રચના પુલેમા પણ થાય છે અને આત્મપ્રદેશોમાં પણ થાય છે. એટલે કે પુદ્ગલેના પ્રદેશ પણ ઈન્દ્રિયાકાર રૂપે પરિણમે છે અને આત્મપ્રદેશે પણ ઈન્દ્રિયાકાર રૂપે પરિણમે છે શ્રોત્રાદિક ઈન્દ્રિયોના આકારમાં જે પુલના પ્રદેશ અને આત્માના પ્રદેશે પરિણમે છે, બેન્દ્રિયરૂપ છે અને ક્ષપશમ વિશેષ દ્વારા ઉત્પન્ન થતું જે આત્માનું પરિણામ છે, તે જ્ઞાનદર્શન રૂપ ભાવેન્દ્રિય છે. કબેન્દ્રિયના બે ભેદ છે–(૧) નિવૃત્તિ અને ઉપકરણ. નિવૃત્તિ એટલે રચના નિવૃત્તિ બેન્દ્રિય એટલે ઇન્દ્રિયાકાર રચના તે નિવૃત્તિના બે ભેદ છે—(1) બાહ્ય અને આભ્યન્તર. બાહ્યનિવૃત્તિ દ્વારા ઈન્દ્રિયાકાર પુલરચના ગ્રહણ કરવી જોઈએ. જો કે પ્રતિનિયત ઈન્દ્રિય સંબધી જ્ઞાનાવરણ કર્મને પશમ સર્વાગી હોય છે, છતાં પણ અંગોપાંગ નામકરણના ઉદયથી જ્યાં પુલ પ્રચયરૂપ જે કન્દ્રિયની રચના થાય છે, ત્યાના આત્મપ્રદેશોમાં તે તે ઇન્દ્રિયને કાર્યો કરવાની ક્ષમતા હોય છે ઉપકરણ એટલે ઉપકારનું પ્રયોજક સાધન તે પણ બાહ્ય અને આ નરના ભેદથી બે પ્રકારનું છે નેન્દ્રિયમાં Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानामात्र नित्तिः चिना अनेकविधा । अयं भारः-नाया नितिः, पर्पटिकादिरूपा । सा च विचित्रा-प्रनिनि यतरूपतया उपदेष्टुपदास्यत्वात् । तथाहि-मनुष्यकोंनेत्रयोरुभयपावतोभवतः, भुत्रौ बोपरितनश्रवणबन्यापेक्षया सगे, तुरगस्य नेत्रयोपरि तीक्ष्णे चाग्रभागे, इत्यादि प्रकारा जातिभेदान्नानाविधा वाला निर्वृत्ति रिति । अन्तरिमा आभ्यन्तरा नि तिस्तु संग प्राणिनां समानव । स्पर्शेन्द्रियनिर्वृ त्तेस्तु वाद्याभ्यन्तरभेदा न भवन्ति, नानातिकत्वात् । 'ठमा अंतो' इत्यत्र प्राकृतत्वात् इमनिच् प्रत्ययः प्रको पूर्व निर्दिष्ट इति ॥ २ ॥ सम्प्रतिइंद्रियाणाम् आभ्यन्तरसंस्थानान्याह- पुष्कं कलंयुयाए ' इत्यादिना श्रोत्रेन्द्रिमण्डल है वह आभ्यन्तर उपकरण है, और अक्षिपत्र आदि रूप जो है वह नात्य उपकरण है । यही बात यहां “माया निवृत्ति चित्रा" इस कान से प्रदशित की गई है। बाल निवृत्ति अनेक प्रकार की होती है, क्योंकि यह प्रतिनियत आकार रूपसे बाहीं नहीं जा सकती है। जैसे-मलुप्यके काल नेत्रोंके दोनों पार्थ भाग में होते हैं और उपरितन श्रवणबन्धकी अपेक्षा से दोनों को समान होती हैं। तुरग-घोडा के दोनों नेत्रों के ऊपर तीक्ष्ण अग्र लाग होते हैं, इत्यादि प्रकार के जाति भेदले नाना प्रकार की बाब निवृत्ति होती है । परन्तु आभ्यन्तर जो निवृत्ति होती है वह लमस्त जीवों के समान होती है। स्पर्शनेन्द्रिय निवृत्ति के तो साय और आभ्यन्तर ऐसे दो भेद नहीं होते हैं, क्योंकि वह नाला आकृतिवाली होती है ।। २ ।। જે કૃષ્ણ શુલ મડળ છે, તે આભ્યન્તર ઉપકરણ છે અને જે અક્ષિપત્ર (પાંપણ) આદિ રૂપ ઉપકરણ છે, તે બાહ્ય ઉપકરણ છે. એ જ વાત અહીં " बाधा निवृत्ति चित्रा” मा सूत्र५४ वास ५४८ ४२पामा मापी छ. ६ નિવૃત્તિ (બાહ્યાકાર) અનેક પ્રકારની હોય છે, કારણ કે તે પ્રતિનિયત આકા રવાળી સંભવી શકતી નથી જેમકે માણસના કાન નેત્રે ના બન્ને પાર્શ્વભાગમાં હોય છે. અને ઉપરીતન શ્રવણબની અપેક્ષાએ બને ભ્રમરે સમાન હોય છે. ઘેડાના બન્ને નેત્રે ઉપર તીક્ષણ અભાગ (બને કાન) હોય છે, ઈત્યાદિ પ્રકારે જાતિ અનુસાર વિવિધ પ્રકારની બાહ્ય ઇન્દ્રિય નિવૃત્તિ હોય છે. પરંતુ સમસ્ત જેમાં જે આભ્યન્તર નિવૃત્તિ હોય છે તે તો સમાન જ હોય છે. સ્પર્શેન્દ્રિય નિવૃત્તિના તે બાહા અને આતરિક રૂપ બે ભેદ પડતાં જ નથી કારણ કે તે વિવિધ આકૃતિવાળી હોય છે . ૨ ! Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०५ उ०३ सू०३ इन्द्रियार्थान् इन्द्रिय पदार्थाश्च निसपण १८१ यादीनां श्रोत्रचक्षुर्घाणरसनस्पर्शनेन्द्रियाणां क्रपेण कदम्ब पुष्पादीनि संस्थानानि वोध्यानि । तत्र श्रोत्रेन्द्रिय कदम्यपुष्पसंस्थानम्-कदम्बपुष्पाकारमानगोलकरूप मित्यर्थः । चक्षुरिन्द्रिय-मनुरधान्यसंस्थानम् । घ्राणेन्द्रियम्-अतिमुक्तकसम चन्द्रकसंस्थानम् । रसनेन्द्रिय क्षुरप्रसंस्थानम् । स्पर्शनेन्द्रियं तु नानासंस्थानम् । इति ॥ ३ ॥ अथ द्रव्येन्द्रियस्य द्वितीयमेद निरूपयति-'विसयमाण इत्यादि, उपकरणं विषयमदणसामय, तपि इन्द्रियान्तरम् निर्वतीन्द्रियाद अन्यदिन्द्रियं बोध्यम् । अयं भायः-कदम्बपुष्पाग्राकृतिमांसगोलकरुपायाः श्रोत्राद्यन्तनिवृत्तेः ___ अप सूत्रकार इन्द्रियों के आभ्यन्तर संस्थान का कथन करते हैं" पुप्फ फलंघुयाए" इत्यादि-श्रीन, चक्षु, घ्राण एवं रसन इन इन्द्रियो फा सस्थान क्रमसे कदम्बपुष्प के जला मसूर धान्यकेजैसा अतिमुक्तक कुसुभ के चन्द्रक जैसा एवं क्षुरम के जैसा है । एवं स्पर्शनेन्द्रिय का संस्थान नियमित नहीं होने से बह नाना संस्थानवाला है। अर्धा । भोन्द्रिय का संस्थान कदम्प पुष्पके जैसा, चक्षु इन्द्रिय का संस्थान चंद मसूर की दाल जैसा, घाणेन्द्रियका संस्थान अतिदुक्तक कुलमके चन्द्रक जैसा, रसनेन्द्रिय का संस्थान क्षुरप्र के जैसा है।॥ ३ ॥ ___ "विसयमहणाइ " इत्यादि-द्रव्येन्द्रिय का द्वितीय भेद जो उप. करणेन्द्रिय है, यह विषयको ग्रहण करने की सामर्थ्यरूप है, इसलिये इसे इन्द्रियानर रूप-निवृत्ति इन्द्रिय से अन्य इन्द्रिय रूप कहो गयाहै। तात्पर्य इसका यह है कि कम्न पुष्प आदि की आकृतिरूप जो मांस गोलक है, इस मांसगोलक रूप जो श्रोत्र आदि की आभ्यन्तर निवृत्ति હવે સૂત્રકાર ઇન્દ્રિયના આભ્યન્તર સ સ્થાનનું કથન કરે છે– "पुष्फ कलंघुयाए" त्यादि-श्रोत्र, यक्षु, प्रा. सन २सना धन्दयोन સ સ્થાન અનેકમે કદ પુપ જેવું, મસૂરની દાળ જેવું, અતિમુકતક કસમના ચન્દ્રક જેવું અને શુર, (અઋ) જેવું છે પશેન્દ્રિયનુ સ સ્થાન નિયમિત નથી પણ વિવિધ આકારવાળું છે એટલે કે શ્રોત્રેન્દ્રિયને આકાર કદ પુષ્પ સમાન છે, ચક્ષુઈન્દ્રિયને આકાર મસૂરની દાળ સમાન છે, ધ્રાણેન્દ્રિયને આકાર અતિમુક્તક કુસુમના ચન્દ્રક સમાન છે, અને રસનેન્દ્રિયને આકાર આ સમાન છે | ૩ | "विमयगाहणाइ" त्याह-द्रव्येन्द्रियना 940न्द्रिय ३५ भान ભેદ છે તે વિષયને ગ્રહ કરવાના સામર્થ્ય રૂપ છે, તેથી તેને ઇન્દ્રિયાન્તર રૂપ–નિવૃત્તિ ઈનિદ્રય કરતાં અન્ય ઈન્દ્રિય રૂપ કહેવામાં આવેલ છે. આ કથનનું તાત્પર્ય નીચે પ્રમાણે છે–કદમ્બપુ આદિની આકૃતિ રૂપ જે મારગેવક છે, આ માંસળેલક રૂપ જે શ્રોત્ર આદિની આભાર નિવૃત્તિ છે, તે આવ્યન્તર Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८२ स्थानाव विषयग्रहण सामर्थ्यम् उपकरणद्रव्येन्द्रियमिति । यद्यस्माद् हेतोः तदुपयातेविषयग्रहणसामर्थ्यरूपीपकरणेन्द्रियस्य उपघातेनाशे सति निशिसद्भावेऽपि= इन्द्रियस्य बाह्याभ्यन्तराकारसत्त्वेऽपि इन्द्रियं विषयान् न गृशाति, यथा धारायामुपहतायां । खगः किमपि वस्तु न छिनत्ति-इति ।। ४ ।। अथ भावेन्द्रियं मरूपयति'लधुवोगो' इत्यादि । भावेन्द्रियं तु लब्धीन्द्रियोपोगेन्द्रियभेदाद द्विवि धम् । तत्र यस्तदावरणानां अयोपशमस्तद् लब्धीन्द्रियम् । नल्लाभेलब्धीन्द्रियस्य माप्तावेव शेषमवि=अवशिष्टमपि इन्द्रियम् अर्थाद द्रव्येन्द्रियं भवतीति बोध्यम् है, सो इस आभ्यन्तर निवृत्ति की जो विषय को ग्रहण करने की शक्ति है वह द्रव्येन्द्रिय है, क्योंकि विषय ग्रहण करने की सामर्थ्य स्प जो उपकरणेन्द्रिय है उसके नाश होने पर निवृत्तिके सद्भाव में भी पाय एवं आभ्यन्तर के होने पर भी इन्द्रिय विषय को ग्रहण नहीं करती है, जैसे खड्गधारा के भोथरी हो जाने पर किसी भी वस्तुका छेदन नहीं कर पाता है ।। ४ ।। अब सूत्रकार भावेन्द्रिय को प्ररूपणा करते हैं-" लधुवभोगो" इत्यादि । यह भावेन्द्रिय लब्धि एवं उपयोग के भेद से दो प्रकार की है तदावरणों का जो क्षयोपशम है यह लब्धीन्द्रिय है। अर्थात्-भतिज्ञानावरण, चक्षुर्दर्शलावरण, और अचक्षुर्दर्शनावरण का क्षयोपशम होकर जो आत्मामें ज्ञान और दर्शन रूप शक्ति उत्पन्न होती ई वह लब्धि इन्द्रिय है, यह लब्धि इन्द्रिय आत्माके सब प्रदेशों में पाई जाती है, નિવૃત્તિની વિશ્યકને ગ્રહણ કરવાની જે શકિત છે, તે ઉપકરણ બેન્દ્રિય છે, કારણ કે વિષય ગ્રહ કરવાના સામર્થ્ય રૂપ જે ઉપકરણેન્દ્રિય છે તેનો નાશ થાય તે નિવૃત્તિને સદભાવ હોવા છતાં પણ એટલે કે બ હ્ય અને આભ્યન્તરનો સદૂભાવ હોવા છતા પણ ઈન્દ્રિય વિષયને ગ્રહણ કરતી નથી. જેમ તલવારની ધાર બૂઠી થઈ ગઈ હોય તે તલવાર કઈ પણ વસ્તુનું છેદન કરી શકતી નથી, એ જ પ્રમાણે ઉપકરણે ન્દ્રિયને નાશ થવાથી ઈન્દ્રિય પણ વિષયને ગ્રહણ કરી શકતી નથી. કે ૪ व सूत्रा२ लावन्द्रियनी ५३५। ४२ छ. " लद्धवओगो" त्याहઆ ભાવેન્દ્રિય લબ્ધિ અને ઉપગના ભેદથી બે પ્રકારની કહી છે મતિજ્ઞાનવરણુ, ચક્ષુદર્શનાવરણ અને અચક્ષુ દશનાવરને પશમ થવાથી આત્મામાં જે જ્ઞાન અને દર્શન રૂ૫ શનિ ઉત્પન્ન થાય છે, તેનું નામ લબ્ધિ ઈન્દ્રિય છે. તે લબ્ધિ ઇન્દ્રિયને સદુભાવ આત્માના સવળા પ્રદેશમાં હોય છે કારણ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था० उ०३०३ इन्द्रियार्थान् इन्द्रियपदार्थांच निश्पणम् १८३ ॥ ५ ॥ भावेन्द्रियस्य द्वितीयभेदमाह - ' जो सविमय ' इत्यादिना । श्रोत्रादेरिन्द्रि er : स्वविषयव्यापारः - स्त्रविषये = तत्तदिन्द्रियग्राह्ये शब्दादौ व्यापारः स उपयोग:- उपयोगेन्द्रियमित्यर्थः । राच एककाले = एकस्मिन् समये श्रोत्रादिषु एकेनैव केनचिदिन्द्रियेण भवति, तस्मात् देतो: सर्वोऽपि जीव एकेन्द्रिय एव भवतीति ॥ ६ ॥ ननु सर्वोऽपि जीव एकेन्द्रियस्तर्हि एकेन्द्रियद्वीन्द्रियादि जीवभेदो न सिध्यतीति चेदाह - ' पर्गिदियाइभेया ' इत्यादि । जीवानाम् एकेन्द्रियद्वीन्द्रि क्योंकि क्षयोपशम सर्वाङ्ग होता है । तथा-लब्धि निवृत्ति और उपकरण इन तीनों के होने पर जो विषयों प्रवृत्ति होती है, उपयोगेन्द्रिय है, यहां कोई ऐसी आशंका कर सकता है कि उपयोग इन्द्रिय का कार्य है, पर यहाँ उपचार से अर्थात् कार्यमें कारण का उपयोग को भी इन्द्रिय कहा | अथवा इन्द्रियका मुख्य अर्थ उपयोग है, इसलिये भी उपयोग को इन्द्रिय कह दिया है ॥ ५ ॥ " जो सवियस " इत्यादि - - श्रोत्रेन्द्रिय आदिका जो स्वविषय के प्रति व्यापार है, अर्थात् अपने २ ग्राय शब्दादिको ग्रहण करने रूप जो प्रवृत्ति है वह उपयोग है, उपयोगेन्द्रिय है । ऐला यह उपयोग एक समयमें किसी एक इन्द्रिय से ही होता है ॥ ६ ॥ " एगिदियाइभेया " इत्यादि । इस कारण समस्त भी जीव एक इन्द्रियवाले ही होते हैं । यदि यहां पर ऐसी शंका की जावे कि यदि समस्त जीव एक इन्द्रियवाले કે ક્ષયે પશમ સર્વાંગી :હાય છે તથા લબ્ધિ, નિવૃત્તિ અને ઉપકરણ આ ત્રણેના સદૂભાવ હાય ત્યારે વિષયેામાં જે પ્રવૃત્તિ થાય છે, તે ઉપયેગેન્દ્રિય રૂપ છે. અહીં કેાઈ એવી આશકા કરી શકે છે કે ઉપયાગ ઇન્દ્રિય નથી, પણ ઈન્દ્રિયનું ફૂલ છે, છતાં તેને ઇન્દ્રિય રૂપ કેવી રીતે કહેા છે ? તે તેની શકાતુ' સમાધાન આ પ્રમાણે કરી શકાય છે—જો કે ઉપર્યેાત્ર ઇન્દ્રિયનુ' કાય' છે, પરન્તુ અહીં કાર્યમાં કારણનું આરેાપણું કરીને ઉપયાગને પણ ઇન્દ્રિય કહેવામા આવેલ છે. અથવા ઇન્દ્રિયના મુખ્ય અર્થ ( ષિય ) ઉપયાગ છે, તેથી ઉપચેાગને ઇન્દ્રિય કહેવામાં આવેલ છે ! પા " जो सविषय " त्याहि-श्रोत्रेन्द्रिय साहिनी पोतपोताना विषयने એટલે કે શબ્દાદિકાને ગ્રહણ કરવા રૂપ જે પ્રવૃત્તિ છે, એ જ ઉપયેગ છે અને તે ઉપયેાગ ૪ ઉપયેાગેન્દ્રિય રૂપ છે એવે તે ઉપયેગ એક સમયમાં ઇન્દ્રિય વડે જ થાય છે ! ૬ ॥ " एगिदियोइभेया" - र समस्त लव मेन्द्रिय વાળા જ હાય છે Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानानसूत्रे यत्रीन्द्रचरन्पञ्चेन्द्रियभेदाः , शेषेन्द्रियाणिनि चुपकरणवविधरूपान शिष्टेन्द्रियाणि प्रतीत्यमाश्रित्य हव्याः । अथवा लीन्द्रियं प्रतीस्य = आश्रित्य सर्वेपि जीताः पञ्चेन्द्रिया भवन्तीति ॥ ७ ॥ चतु कथं सर्वेऽपि जीवाः पञ्चेन्द्रिया भवन्ति इत्याह-' जं फिर उत्पादिना । यद् यस्मा देनो फिल निश्चयेन वकुलादीनां कुशादीनां वनस्पतिविशेषाणां शेपेन्द्रियोपलम्योऽपि= स्पर्शनेन्द्रियातिरिक्तेन्द्रियलाभोऽपि दृश्यते, तेन हेतुना ज्ञायते यन् तेषां बकुला दीनामपि तदारणक्षयोपशमसंभवोऽस्ति । अन्यथा वकुलस्य कामिनीमुखार्पितमदिरागण्डूपेण चंद्रकस्य अतिसुरभिगन्धोदकसेवनेन तिलकस्य कामिनीकटाहै तो फिर एकेन्द्रिय बन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय रूप जो जीवों के भेद हैं वे सिद्ध नहीं हो सकते हैं। तो इसका उत्तर ऐसा है कि ऐसे जो ये भेद हुए हैं ये निवृत्ति उपकरण एवं लब्धि इन इन्द्रियों से भिन्न जो इन्द्रियां है, उनकी प्रतीति करके आश्रित कर के ही हुए हैं अथवा धीन्द्रियरूप भावेन्द्रिय को लेकर समस्त जीव पंचेन्द्रिय होते हैं ॥७৷ समस्त जीव पंचेन्द्रिय कैसे होते हैं ? तो इसके लिये " जं किर " इत्यादि द्वारा समझाया गया है कि कुलवृक्ष आदि जो वनस्पति विशेष हैं उनके रपन इन्द्रिय से अतिरिक्त उन्द्रियों का लाभ भी देखा जाता है, कि मकुल आदिकों के भी तदाचरण का क्षयोपशम संभव है नहीं तो कुलको कामिनी के सुख से अर्पित मदिरा के कुल्ले से चंपक के अति सुरभि गन्धोदक के सिंचन से तिलक के कामिनीजनों के १८४ શકા——જો સમસ્ત જીવેા એક ઇન્દ્રિયવાળા હાય, તેા જીવાના એકે ન્દ્રિય, દ્વીન્દ્રિય, શ્રીન્દ્રિય, ચતુરિન્દ્રિય અને પચેન્દ્રિય રૂપ ભેદે શા માટે પાડયા છે ? ઉત્તર~મા જે ભેદેા પડવામાં આવ્યા છે. તે નિવૃત્તિ ઉપકરણ અને લબ્ધિ, આ ઈન્દ્રિયાથી ભિન્ન જે ઇન્દ્રિયા કહી છે તેમને આધારે જ પાડવામાં આવેલ છે અથવા લિધીન્દ્રિય રૂપ ભાવેન્દ્રિયની અપેક્ષાએ સમસ્ત જીવ पथेन्द्रिय होय छे. ॥ ७ ॥ સમસ્ત જીવે. પચેન્દ્રિય કેવી રીતે હોય છે ? આ વાત નીચેના સૂત્ર पाठ द्वारा समभववायां भारी छे, “ जं किर" इत्याहि- सवृक्ष साहि જે વનસ્પતિ વિશેષ છે તેમનામાં સ્પર્શેન્દ્રિય સિવાયની ઇન્દ્રિાના સદ્ભાવ જોવામાં આવે છે તે કારણે એવુ માની શકાય છે કે બકુલ આફ્રિકામાં પશુ તકાવરણીય કર્મના ક્ષાપશમ સવિત છે જો આ વાત અસવિત હાંત તે બકુલવૃક્ષને અતિ સુગન્ધીદાર ગન્ધાદક છાંટવાથી, તિલકવૃક્ષને કાઈ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुध टीका स्था.५ उ०३ सू०३ इन्द्रियार्थान् इन्द्रिपदार्थाश्च निरूपणम् १८५ क्षविक्षेपेण, विरहमवृक्षस्य च पञ्चमस्वरश्रवणेन पुष्प पल्लवादि संभयो न स्या. दिति ॥ ८॥ ननु वकुलादयो यदि पञ्चन्द्रियास्तहि ते पञ्चेन्द्रियत्वेन कथं न व्यरहियन्ते ? इत्यत आह--- " पंचिंदियव्य वउलो, नरोत्र सविसओवलंभाउ । तहवि न भण्णइ पंचिदिओत्ति बज्झि दिया भावा " ॥९॥ छाया-पञ्चेन्द्रिय एव बकुलः, नर इव सर्वविषयोपलम्भात् । तथापि न भण्यते पञ्चेन्द्रिय इति बाह्येन्द्रियाभावात् ॥९॥ अयमर्थः-उपलक्षगत्वात् चम्पकादिश्च सर्व विषयोपलम्भात् नरइव पश्चेन्द्रिय एव । तथापि स वाह्येन्द्रियाभावात् पञ्चेन्द्रिय इति न भण्यते इति ॥९॥ एवं भूतस्य इन्द्रियस्य अर्थाः विषयाः, शब्दादयः पञ्चसंख्यकाः प्रज्ञाता, कटाक्ष विक्षेप ले एवं विरहक वृक्षके पञ्चम स्वरके अवग से पुष्पपल्लव आदिका जो संभव होता है वह नहीं होना चाहिये ॥ ८॥ __ यदि यहां पर ऐसी शका की जावे कि बकुल आदि पंचेन्द्रिय माने जाते हैं तो फिर इनमें पञ्चेन्द्रियत्व रूपका व्यवहार क्यों नहीं होता है ? तो इसके लिये ऐसा कहा गया है "पंचिंदियव्यवउसो" इत्यादि । वकुल चंपक आदि वृक्ष सर्व विष. यके उपलंभक होने से मनुष्य की तरह पंचेन्द्रिय ही हैं, फिर भी बाह्येन्द्रियके अभावसे पंचेन्द्रिय इस रूपसे नहीं कहे जाले हैं ॥९॥ __इस प्रकार की इन्द्रिय के जो अर्थ हैं, विषय हैं वे इन्द्रियार्थ हैं, ऐसे ये इन्द्रियार्थ शब्दादिक रूप पांच होते हैं । जिससे सुना जाता है કઈ કામિનીના કટાક્ષ વિક્ષેપ સંભળાવવાથી અને વિરફ્ટવૃક્ષને પંચમ સ્વરના સૂરનું શ્રવણ કરવવાથી પુષ્પપલવ આદિ જે આવવા માંડે છે, તે આવવાનું સંભવી શકત નહીં. ૮ છે શકા–જે બકુલ આદિને અહીં પચેન્દ્રિય રૂપ બતાવવામા આવેલ છે, તે તેમનામાં પંચેન્દ્રિયત્ન રૂપે વ્યવહાર કેમ થતો નથી. શા માટે તેમને એકેન્દ્રિય રૂપે માનવામાં આવે છે? माना समाधान भाट मेयु' यु छ , “ पचि दियधव उसो" ઈત્યાદિ––બકુલ, ચપક આદિ વૃક્ષે સર્વ વિષયના ઉપલંભક હોવાથી તેમને મનુષ્યની જેમ અહીં પચેન્દ્રિય રૂપ બતાવ્યા છે. છતા પણ બાઘેન્દ્રિયના અભાવે કરીને તેમને એકેન્દ્રિય રૂપ જ ગણવામાં આવે છે–પચેન્દ્રિય ૩૫ ગણાતાં નથી. છે ૯ આ પ્રકારના ઈન્દ્રિયેના જે અર્થ (વિષય) છે, તેમને ઈન્દ્રિયાઈ કહે स्था०-२४ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानासूत्रे तानेबाद-तद्यथा-श्रोत्रेन्द्रियार्थ :- भूपतेऽनेनेति श्रोत्रम्, तच्च तदिन्द्रियं च श्रोत्रेन्द्रियं तस्य अर्थो विषयः शब्दः । यावत् - शब्दात् - चक्षुरिन्द्रियार्थः प्राणेन्द्रि यावः रसनेन्द्रियार्थ ग्राद्यः । तत्र चक्षुरिन्द्रियार्थो रूपम्, त्राणेन्द्रियार्थो गन्धः । रसनेन्द्रियार्थो रसः, स्पर्शनेन्द्रियार्थश्च स्पर्श इति । १८६ 1 तथा - युण्डः - मुण्डनम् - अपनयनम् - गुण्डः । स च द्विविधो- द्रव्यतो भावतथ । तत्र - द्रव्यतः केशापनयनम् । भावतस्तु मनस इन्द्रियार्थनिष्ठ रागद्वेषयोः कपायाणां वाऽपनयनम् । द्रव्यभावरूपमुण्डयोगात् पुरुषोऽपि मुण्डः । स च पञ्चविधः ज्ञतः । पञ्चविधत्वमाह तद्यथा-श्रोत्रेन्द्रियमुण्डः - श्रोत्रेन्द्रिये मुण्ड: श्रोत्रेन्द्रियेण वा मुण्डः । श्रोत्रेन्द्रियविपयशब्दे रागाधयनयनात् पुरुषः श्रो ऐसी जो इन्द्रिय है यह श्रोत्रेन्द्रिय है । इस इन्द्रिय का विषय शब्द है, यहां यावत् शब्द से " चक्षुरिन्द्रियार्थः प्राणेन्द्रियार्थः रसनेन्द्रियार्थः स्पर्शनेन्द्रियार्थः " इनका ग्रहण हुआ है । चक्षुइन्द्रिय का विषय रूप है घाणेन्द्रिय का विषय गन्ध है, रसनेन्द्रिय का विषय रस है, और स्पर्शनेन्द्रिय का विषय स्पर्श है । दूर करने का नाम मुण्ड है, यह मुण्ड दो प्रकार का होता है, एक द्रव्य से सुण्ड और दूसरा भाव से मुण्ड केशों का दूर करना, मस्तक से केशों का लुंचन आदि करना यह द्रव्य से सुण्ड है तथा मनसे इन्द्रिय के अर्थों में रागद्वेप करने का अथवा कषाय करने का त्याग करना यह भाव से मुण्ड है । इस द्रव्य और भावरूप सुड के संबंध से पुरुष भी मुण्ड होता है, यह सुण्ड पांच प्रकार कहा गया है । जैसे-श्रोत्रेन्द्रिय मुण्ड, जो श्रोत्रेन्द्रिय में मुण्ड अथवा श्रोत्र છે. એવાં તે ઇન્દ્રિયાથે શબ્દાદિ રૂપ પાચ પ્રકારના હોય છે. જેના દ્વારા સભળાય છે તે ઇન્દ્રિયને શ્રોત્રેન્દ્રિય કહે છે. તે ઇન્દ્રિયને વિષય શબ્દ છે. मड्डी' ' यावत्' यह वडे यक्षुरिन्द्रियार्थ प्राशेन्द्रियार्थ, रसनेन्द्रियार्थ भने સ્પર્શેન્દ્રિયા ગ્રહણુ કરવા જોઇએ . ચક્ષુઇન્દ્રિયના વિષય રૂપ છે, ઘ્રાણેન્દ્રિયને વિષય ગન્ધ છે, રસનાઈન્દ્રિયને વિષય રસ છે અને સ્પર્શેન્દ્રિયના વિષય स्पर्श' छे. ६२ ४२वु' तेनुं नाम " भुड " छे. ते भुड (भुंडन ) मे प्रभास्तुं छे- (१) द्रव्यनी अपेक्षा मे भुउन भने (२) लवनी अपेक्षा मे भुउन भक्तકના કેશનું લુંચન આદિ કરવુ તેનું નામ દ્રવ્યની અપેક્ષાએ મુંડન છે. તથા મનથી ઇન્દ્રિયાના વિષચેટમાં રાગદ્વેષ કરવાને અથવા કષાય કરવાના ત્યાગ કરવેા તેનું નામ ભાવની અપેક્ષાએ મુંડન છે. આ દ્રવ્ય અને ભાવ રૂપ સુંડ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % 3D सुधाटीका स्था० उ०३सू०४ वादर जीवविशेषनिरूपणम् १८७ वेन्द्रियमुण्ड इत्युच्यते । एवं चक्षुरिन्द्रिय-मुण्डादिरपि बोध्य इति । प्रकारान्तरेण पुनरपि पञ्चविधान् मुण्डानाह-क्रोधसुण्ड -क्रोधस्य अपनयात् क्रोधे सुडः क्रोधेन वा मुण्ड इति ११ एवं मानमुण्डो २ मायामुण्डो ३ लोभमुण्डः ४ गिरोमुण्डश्च ५ बोध्य इति ।मु० ३॥ मुण्डनं च वादरजीवविशेषाणामेव भवतीति वादरजीव विशेषानाह-- मूलम्-अहेलोगे णं पंच बायरा पण्णत्ता, तं जहा-पुढविकाइया १ आउकाइयार वाउकाइया३ वणस्सई काइया ४ ओराला तसा पाणा ५ ॥१॥ उड्डलोगे णं पंच बायरा पण्णता, तं जहाएवं तं चेव । तिरियलोगे णं पंच बायरा पण्णत्ता, तं जहाएगिदिया जाव पंचिंदिया ३॥ पंचविहा वायरतेउकाइया पण्णत्ता, तं जहा-इंगाले १ जाला २ मुम्मुरे ३ अच्ची ४ इन्द्रिय से खुण्ड होता है-अर्थात् श्रोत्रेन्द्रिय के विषयभूत शब्दमें राग देष होने रूप भाव कोई २ करता है, वह पुरुषोनेन्द्रिय सुण्ड कहा जाता है, इसी प्रकार से चक्षु इन्द्रिय मुण्ड आदि भी समझ लेखा चाहिये । इस द्वितीय प्रकारान्तर से भी मुण्ड पांच प्रकार के कहे गये हैं, जैसे-क्रोध मुण्ड, मान मुण्ड, माया मुण्ड, लोम मुण्ड और शिगे मुण्ड है, जो क्रोध को हटा देता है, क्रोच करने का त्याग कर देताहै, वह क्रोध मुण्ड है, इसी प्रकारसे मान सुण्ड आदि भी समझ लेना चाहिय।।मु०३॥ નના સંબધથી પુરુષ પણ મુરિત થાય છે તે મુંડ (મુ ડિત) ના પાચ ५४.२ ४॥ छ-(१) श्रोत्रन्द्रिय मुंड, (२) सुरिन्द्रिय मुंडे, (३) प्राणेन्द्रिय भु, (४) २सनेन्द्रिय भु म (५) २५NCद्रय भु. જે શ્રોત્રેન્દ્રિયમાં સંડ અથવા શ્રોત્રેન્દ્રિયની અપેક્ષાએ મુંડ અથવા શ્રોત્રેન્દ્રિયના વિષય રૂ૫ શબ્દમાં રાગદ્વેષથી રહિત હોય છે તેને શ્રેગ્નેન્દ્રિય મુંડ કહે છે. એ જ પ્રમાણે ચક્ષુરિન્દ્રિય મુંડ આદિ વિષે પણ સમજવું. मी शत पशु पांय ४२ना भु ४ छ-१) ओ५४७, (२) रानभुड, (3) भायाभु, (४) सालभु मन (५) शिभु. रे भास होप २ કરે છે-ક્રોધને ત્યાગ કરે છે તેને કોઇ મુંડ કહે છે. એ જ પ્રમાણે માનમુંડ मालि विप समन: ॥ सू. ३ ॥ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानासूत्रे १८८ अलाए | पंचविहा बायरवाडकाइया पण्णत्ता, तं जहा - पाईवाए १ पीणवाए २ दाहिणवाए ३ उदीणवाए ४ विदिसवाए || पंचविह अचित्ता पाउकाइया पण्णत्ता, तं जहाअकंते १ ते २ पीलिए ३ सरीराणुगए ४ संमुच्छि५ ।। सू० ॥ छाया - अधोलोके खलु पञ्च वादराः प्रज्ञप्ताः तवा - पृथिवीकायिकाः १, अष्कायिकाः २, वायुकायिकाः ३, वनस्पतिकायिकाः ४, उदारासनाः प्राणाः ५| १। लोके खलु पञ्च वादराः मताः, तद्यथा एवं तदेव ! तिर्यग्लोके खलु पञ्च वादराः मज्ञप्ताः, यथा - एकेन्द्रिया यावत् पञ्चेन्द्रियाः । पञ्चविधा वादरतेजस्कायिकाः ः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा १ अङ्गारो २ जाला २ मुर्मुरः ३ अर्चिः ४ अलाम् ५॥ पञ्चविधा वादवायुकायिकाः प्रज्ञताः, तद्यथा - प्राचीनदातः १, प्रतीचीनवातः २, दक्षिणत्रातः ३, उदीचीनवानः ४ विदिग्ातः । पञ्चविधा अवित्ता वायुकायिकाः, प्रज्ञाः, तद्यथा - आक्रन्तः १ मा २ पीडितः ३ शरीरानुगतः ४ पूर्च्छिमः ५ ॥ ० ४ || टीका - ' अहेलोगे ' इत्यादि - अधोलोके खलु = निश्चयेन पश्च- पश्च संख्या बादराः सन्ति । तेच पृथिवी कायिकाः १, अष्कायिकाः २, वायुकायिकाः ३, वनस्पतिकायिकाः ४ तथाउदाराः=स्थूलाः त्रसाः माणाः प्राणिनः ५ तेजस्कायिका वायुकायिका अपि त्रा भवन्तीति' उदाराः ' इति विशेषणमुक्तम् । उदारलंचै केन्द्रियापेक्षया बोध्यम् । यह मुण्डित अवस्था जो विशेष बादरजीव होते हैं, उन्हीं को होती | अब सूत्रकार वादरजीन विशेषोंका कथन करते हैं " अहे लोगेणं पंच वायरा पत्ता " इत्यादि । टीकार्थ-अधोलोक में पांच पाइरहें जैसे- पृथिवीकाधिक१, अप्रकायिकर वायुकाधिक ३ वनस्पतिकाधिक ४ तथा उदार स्थूल प्राणी ५ तेजस्कायिक एवं वायुकायिक भी त्रस होते हैं, इसलिये उदार ऐसा विशेषण આ મુંડિત અવસ્થાના સદ્ભાવ ખાદર જીર્ય વિશેષામા હાય છે. તેથી હવે સૂત્રકાર માદર જીવ વિશેષનું કથન કરે છે. 2 (C अहे लोगेणं पांच वायरा पण्णत्ता " हत्याहि ટીકા-ધોલેાકમાં નીચે પ્રમાણે પાંચ ખાતર જીવા હોય છે-(૧) પૃથ્વીકાયિક (२) अयूजयिड, (३) वायु, (४) वनस्पतिशा ने (५) उहार स्थूৱ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुंधा टीका स्था०५४०३ सू० ४ बादरजीवविशेषनिरूपणम् १८९ अधोलोकवदेव ऊर्ध्वलोकेऽषि पञ्च वारा वोध्याः । अयोलोकोयलोकयोश्च ते. जसा वादरा न सन्तीति पश्च बादरा उताः। नन्तु अधोलोके कपाटद्वये चापि तैजसा बादराः सन्ति, तर्हि कथयुक्तम्-अधोलोकोवलोकयोश्च तैजसा वादरा न सन्ति ? इति चेदाह-यद्यपि सन्ति परन्तु तेऽल्यतया न विवक्षिताः । ये चो कपाटद्वये तेऽपि उत्पत्स्यमानत्वेन उत्पत्तिस्थान-स्थितत्माद् न शिवलिता इति । तियालो केऽपि एकेन्द्रियादि पञ्चेन्द्रियान्ताः पञ्च बादराः सन्ति । तत्रएकेन्द्रियाः-एकंपनिलक्षणम् इन्द्रियम्-ए केन्द्रियजातिनामकोदयात्सदावरकहा है। एकेन्द्रियकी अपेक्षा से उदारता जाननी चाहिये, अधोटोक की तरह उर्ध्वलोक में भी इसी तरह से पांच पादर हैं। अधोलोक एच उर्ध्वलोक में तैजस पादर नहीं हैं। शंका--अधोलोक में एवं उर्च कपाटद्वय में तेजल बाद है, तो फिर आप अधोलोक एवं उर्ध्व लोक में तैजस बादर नहीं है ऐसा कैसे कहते हैं ? उत्तर--यद्यपि ये वहां हैं परन्तु वे वहां बहुत थोडे हैं, इसलिये वहां वे विधक्षित नहीं हुए हैं। तथा जो ऊर्चकपाटद्वय में तेज बादर कहे गये हैं, वे भी उत्पत्स्यमान होने से उत्पत्तिस्थान के आश्रित होने रूपसे विवक्षित नहीं हुए हैं। निर्यगलोक में भी एकेन्द्रिय से लेकर पञ्चेन्द्रिय तक पांच बादर हैं। जिनको एकेन्द्रिय जाति नाम कर्म के उदयसे और तदाहरण के क्षयोपशम से एक स्पर्शन इन्द्रिय है वे ત્રસ પ્રાણી. તેજસ્કાધિક અને વાયુકાર્ષિક પણ ત્રસ હોય છે, તેથી સ્થૂલ ત્રસ પ્રાણીને “ઉદાર” વિશેષણ લગાડવામાં આવ્યું છે. આ ઉદારતા એકેન્દ્રિયોની અપેક્ષાએ સમજવી જોઈએ. ઉર્વલેકમાં પણ એ જ પ્રકારના પાંચ બાદરો છે. અધોલક અને ઉર્વલેકમાં તૈજસ બાદર નથી. શંકા–અલકમાં અને ઉદવકપાટ કયમાં પણ તેજસ બાદરો - ભાવ હોય છે, છતાં આપ શા કારણે એવું કહે છે કે ઉર્વલોક અને અલેકમાં તેજસ બાદરને સદ્ભાવ નથી ? ઉત્તર–જો કે તેમનું ત્યાં અસ્તિત્વ છે ખરું, પણ તેઓ ત્યાં ઘણાં જ અલ્પ પ્રમાણમાં છે, તેથી અહીં તેમને ઉલ્લેખ કરવામાં આવ્યો નથી. તથા જે ઉદર્વકપાટયમાં તેિજસ બાદર કહ્યા છે, તેઓ પણ ઉત્પસ્ય. માન હોવાથી ઉત્પત્તિ સ્થાનમાં આશ્રિત હોવા રૂપે વિવક્ષિત થયા નથી. તિર્થક્ષેકમાં પણ એકેન્દ્રિયથી લઈને પંચેન્દ્રિય પર્વતના પાંચ પ્રકારના પાદર Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानशिस्त्र णक्षयोयगमाच्च -पृथिव्यादय इत्यर्थः एवमेव द्वीन्द्रियमभृतीनामप्य बोध्यः । एकेन्द्रियादि पश्चेन्द्रियान्तेषु पूर्वपूर्वापेक्षया उत्तरोत्तरत्र इन्द्रियविशेपो जाति विशेपश्च वोच्य इति । सम्प्रति एकेन्द्रियानेच त्रिपञ्च स्थानकत्वेनाह-पंचविता' इत्यादि । वादरतेजस्झायिका जीवाः पञ्चविधाः पञ्चप्रकाराः प्रज्ञप्ता: कथिताः । पश्वविधत्वगो:-तद्यथा-अङ्गारः प्रसिद्धः १। ज्वाला-छिन्नमूलाऽग्निशिया २। मुर्मुस सभामाग्निकणरूपः ३। अअिच्छिन्नमूलाऽग्निशिखा ४। अलातम्= उल्मुकम्-अर्द्ध दग्धकाष्ठरूपम् ५। तथा-चादर-वायु कायिकाः पञ्चसंख्यकाः सन्ति । एकेन्द्रिय हैं, ऐसे ये एकेन्द्रिय पृथिवि आदि हैं। इसी तरह से दो इन्द्रिय आदिकोंका भी अर्थ समझ लेना चाहिये । एकेन्द्रिय से लेकर पञ्चेन्द्रिय तकणे पूर्व २ की अपेक्षा उत्तरोत्तर में इन्द्रिय की विशेषता जाति नामकर्म की विशेषता कह लेनी चाहिये। ___ अय सूत्रकार एकेन्द्रियों को ही तीन पांच स्थानकों से कहते हैं। "पंचविहा" इत्यादि--चादर तेजस्कायिक जीव पांच प्रकारके कहे गये हैं, जैसे--अङ्गार १, ज्याला २, मुर्मुर ३, अचि ४ और अलात ५। इनमें अङ्गार तो प्रसिद्धहै १ जो अग्निशिखा छिन्न मूलचाली होती है वह ज्वाला है जो भस्म सहित अग्निकण रूप होता है वह मुमुर है, जो अग्निशिखा अच्छिन्न मूलवाली होती है वह अचि है। एवं जो अर्धदग्ध काष्ट रूप होता है वह उल्मुक अलान है । बादर वायुकारिक જીવે છે. એકેન્દ્રિય જાતિ નામકર્મના ઉદયથી અને તાવરણ (તેનું આવરણ કરનાર) ક્ષયોપશમથી જેમને એક સ્પર્શેન્દ્રિયને જ સદ્દભવ હોય છે, તેમને એકેન્દ્રિય જી કહે છે. પૃથ્વીકાય આદિ છેને એકેન્દ્રિય કહે છે. એ જ પ્રમાણે હીન્દ્રિય આદિ કેના વિષયમાં પણ સમજવું એ કેદ્રિયથી લઈને પંચેન્દ્રિય પર્યન્તના જીવોમાં પૂર્વ પૂર્વની અપેક્ષાએ ઉત્તરોત્તરમાં ઈન્દ્રિયની વિશેષતા અને જાતિનામકર્મની વિશેષતાનું કથન થવું જોઈએ. - હવે સૂત્રકાર જુદી જુદી ત્રણ રીતે એકેન્દ્રિના પાંચ પ્રકારનું કથન ३२ छ. " पंचविहा "त्याह-मा२ ४५४ 04 पांय ना ४॥ छे-(१) २ २, (२) wil, (3) भुभु२, (४) मयि मन (५) मसात. અંગાર એટલે દેવતાને અંગારે. જે અતિશિખા છિન્ન મૂળવાળી હોય છે તેને “વાલા કહે છે, જેના ઉપર રાખ બાઝી ગઈ હોય એવા અગ્નિ કાને-ગાને “મુમુર” કહે છે જે અગ્નિશિખા અછિન્ન મૂળવાળી હોય છે તેને “અર્ચિ” કહે છે અધ દધ કા આદિ રૂપ જે અગ્નિ છે તેને मसात' छ । Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ सुपा टीका स्था.५३ ३ ४ यादरजीवविशेषनिरूपणम् पञ्चसंख्यकत्वमेवाह-तथा-प्राचीनवाता-पूर्वदिग्वातः १, प्रतीचीनवात.प श्चिमदिग्बातः, २ दक्षिगवाता दक्षिगदिग्वातः ३, उदीची नवाता उत्तरदिग्वानः ४। एभ्यो भिन्नो वातो विदिग्वात इति ५) । तथा-अचित्ता वायुकायिकाः पञ्चविधाः प्राप्ताः, तद्यथा-आक्रान्तःचरणा दिना आक्रान्ते भूतलादौ यो भवति स आक्रान्त इत्युच्यते १॥ मातः-माते शङ्खादौ वायुर्मातः २।पीडिता-निष्पीडयमाने जलार्द्र वस्त्रे वायुः पीडितः३। शरीरानुगतः उद्गारोच्छवासादिः ४ सम्मूच्छिमः व्यजनादि जन्यः । एते आक्रान्तादयः पूर्वमचेतनाः पश्चात् सचेतना अपि भवन्तीति ।मु० ४॥ पांच प्रकारके हैं, जैसे--प्राचीनवात, प्रतीचीनयान, दक्षिणवात, उदी चीनवात और विदिग्वान ५ इनमें पूर्व दिशाका जो बात है वह प्राचीन वात है, पश्चिम दिशाका जो वात है वह प्रनीचीन बात है, दक्षिण दिशाका जो बात है वह दक्षिगवात है, उत्तर दिशाका जो बात है वह उदीचीन बात है तथा इनसे भिन्न जो बात है वह विदिग्यात है। अचित्त जो वायुकायिक हैं वे पांच प्रकार के हैं, जैसे-आक्रान्त १, घमात २, पीडित ३, शरीरानुगत ४ और सम्पूच्छिप ५। चरणादि द्वारा आक्रान्त होने पर भूतल आदिमें जो वायु होता है वह घ्मात घायु है, जलार्द्र वस्त्र जब निष्पीडयमान होता है, तब जो वायु होता है वह पीडिन वायु है, शरीर में जो उद्गार उच्छ्वास आदि रूप बायु होता है वह शरीरानुगत वायु है, एवं जो वायु व्यजन आदिसे जन्य होता २ वायुयि पांय ४२ना छाछ-(१) प्राचीनकात, (२) नी. यानात, (3) Elajात, (४) यीनपात भने (५) विहात. પૂર્વ દિશાના વાયુને પ્રાચીનવાત કહે છે, પશ્ચિમ દિશાના વાયુને પ્રતિ ચીનવાત કહે છે, દક્ષિણ દિશાના વાયુને દક્ષિણ વાત કહે છે, ઉત્તર દિશાના વાયુને ઉદીચીનવાત કહે છે, અને એ સિવાયની દિશાઓના વાયુને વિદિગ્યાત કહે છે. અચિત્ત વાયુકાયિકના નીચે પ્રમાણે પાંચ પ્રકાર છે–(૧) આક્રાન્ત, (२) भात, (3) पीडित, (४) शरीरानुगत मने (५) स भूमि २२० દ્વારા આકાન્ત થતી વખતે ભૂતલ આદિમાંથી જે વાયુ નીકળે છે તેને આકા ન્તવાયુ કહે છે શંખ આદિને વગાડતી વખતે જે વાયુ છૂટે છે તેનું નામ ખાતવાયુ છે ભીને અને જ્યારે ફડફડાવવામાં આવે છે, ત્યારે જે વાયુ નીકળે છે તેને પીડિતવાયુ કહે છે. શરીરમાંથી ઉવાસ વખતે, વાછૂટ વખતે અને શબ્દના ઉચ્ચારણ વખતે જે વાયુ નીકળે છે તેને શીરાનુગત વાયુ કહે Page #214 --------------------------------------------------------------------------  Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधाटीका स्था ५ उ०३ सू० ५ विशेषतो सचेतनस्य निरूपणम् १९३ कुशीलः ४, यथा मूक्ष्मकुशीलो ५ नाम पञ्चमः। निर्गन्धः पञ्चविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-प्रथमसमयनिग्रन्थः, १ अप्रथमसमयनिर्ग्रन्थः, २ चरमसमयनिग्रन्थः, ३ अचरमसमयनिम्रन्थः, ४ यथासूक्ष्म निर्ग्रन्थः, ५। स्नातः पञ्चविधः प्रज्ञप्तः-तद्यथा-अच्छविः १, अशबलः, २ अकर्मा शः, ३ संसृद्धज्ञानदर्शनधरः ४ अर्हन् जिनः केवली, ४ अपरिस्रावी ५ ॥ ५॥ टीका-पंच निग्गंथा ' इत्यादि निर्ग्रन्थाः-श्रमणाः, ते पञ्चविधाः प्रज्ञताः । पञ्चविधत्वमेवाह-तद्यथा-पु. लाकः-तन्दुलकणरहित पलखिरूप निस्सारं धान्यं पुलाक इत्युच्यते, तत्सदृश. चारित्रयुक्तः साधुरपि पुलाक इत्युच्यते । अयं भावः-तपः-श्रुतसमुत्पन्नायाः संघादि प्रयोजने सति ससैन्यस्य __पहिले पञ्चेन्द्रिय सामान्य रूपसे कहे गये हैं। अब पञ्चन्द्रियों में विशेषरूप जो निर्ग्रन्थ हैं उन्हें अथवा सचेतन अचेतन जो वायु कही गई है सो उसकी यथार्थ रूपसे रक्षा करनेवाले जो निर्ग्रन्थ हैं उन्हें अब सूत्रकार प्रकट करते हैं--" पंच निग्गंथा पण्णत्ता" इत्यादि । टीकाथ-निर्ग्रन्थ पांच प्रकार के कहे गयेहैं, वे ये हैं --पुलाक १ वकृश२ कुशील ३ निर्ग्रन्थ ४ और स्नात ५ । तन्दुलकणों से रहित पलञ्जिरूप जो पोचा निस्सार धान्य होता है उसे पुलाक कहा जाता है, इसके जैसे चारित्र से युक्त जो साधु होता है वह भी पुलाक कहलाता है । तात्पर्य यह है कि तप और श्रुत को आराधना से उत्पन्न हुई-तथा संघादिके प्रयोजन होने पर ससैन्य चक्रवर्ती आदिके विनाश करने में समर्थ પહેલાં પચેન્દ્રિયનુ સામાન્ય રૂપે કથન કરવામાં આવ્યું હવે પંચેન્દ્રિય વિશેષરૂપ જે નિગ્રંથો છે તેમનું સૂત્રકાર નિરૂપણ કરે છે. તે નિ જ સચેતન અચેતન જે વાયુ કહ્યા છે, તેનું યથાર્થ રૂપે રક્ષણ કરે છે. આ પ્રકારના સંબધને અનુલક્ષીને વાયુકાયિકેના પ્રકારોનું નિરૂપણ કરીને હવે सूत्र॥२ नि यानु नि३५५ ४२ छ “ पंच निग्गथा पण्णत्ता " त्या टी-निय याना नाय प्रमाणे पाय १२ ४ा छ-(१) पुसा, (२) मधुश, (3) ३२३, (४) निथ मने (५) २नात ચોખાના કથિી રહિત જે પરાળ હોય છે તેને પુલાક કહે છે. તેના જેવા ચારિત્રથી યુક્ત જે સાધુ હે ય છે તેને પણ પુલાક કહેવાય છે એટલે કે તપ અને કૃતની આરાધનાથી ઉત્પન્ન થયેલી અને સંઘાદિના રક્ષણનું પ્રયજન ઉદ્ભવે ત્યારે સૈન્યયુક્ત ચકવર્તી આદિનો વિનાશ કરવાને સમર્થ स्था-२५ Page #216 --------------------------------------------------------------------------  Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०५ २०३ सु०५ विशेषतो मचेतनस्य निरूपणम् बकुशा-शिथिलाचारितया करचरणप्रक्षालनं नयनादिमलाद्यपनयनं च यः शरीरसौन्दर्याथ करोति सः । उपकरणवकुशश्च य अकाल एक चोलपट्टादिकं प्रक्षाल्य पात्रादिकं च तेलेन चमत्कृत्य विभूपार्थ धारयति सः। उभयेऽप्येते प्रभूतवस्त्रपात्रादिरूपाम् ऋद्धिं 'एते गुणवन्तो विशिष्टाः साधवः' इत्यादि प्रवादरूपां स्याति च कामयन्ने, सातगौरवयुक्ततयाऽहोरात्रानुष्ठेयक्रियासु नोयुक्षते, घृष्टजतलाम्यजितशरीरत्वादिना एपां शिष्यपरिवारोऽसंयमयुक्तो भवति, तथासर्वदेशच्छेदाही तिचारजनितशबलत्वेनैते बहुच्छेदशवलयुक्ताश्चापि भवन्तीति प्रक्षालन एवं नयन आदि के मलादिक का अपनयन शारिरिक लौन्दर्य के निमित्त करता है वह शरीर पकुश है । तया जो अकाल में ही चोलपटक आदि का प्रक्षालन करके एवं पात्रादिकों को तैलसे चिकना करके सौन्दर्य के निमित्त धारण करता है वह उपकरण बकुश है। ये दोनों भी वस्त्र पात्रादि रूप ऋद्धि को तथा ये "गुणशाली विशिष्ठ साधुजन हैं " इत्यादि प्रवादरूप ख्याति को कामनावाले होते हैं, सात गौरव युक्त होने के कारण रातदिन की अनुष्ठेय क्रियाओंमें ये उपयोग पूर्वक प्रवृत्ति करनेवाले नहीं होते हैं । जङ्घादिकों में तेल की मालिश करने से एव चिकनाचुपड़ा शरीर आदि रखनेसे इनका शिष्य परिवार असंयम युक्त होता है तथा सर्वदेश संयम को छेदने के योग्य जो अतिचार होते हैं अर्थात् समस्त रूपसे संयम को या देशरूपसे संयम को छेदने योग्य जो अतिचार हैं, उन अतिचारों को ये सेवन करते हैं, વારંવાર પ્રક્ષાલન કરે છે, અને આખ, કાન આદિને મેલ વાર વાર કાઢયા કરે છે–આ બધું શરીર સૌ દર્ય નિમિત્તે કરનાર સાધુને શરીર બકુશ કહે છે, જે સાધુ અકાળે ચોલપટ્ટક આદિનું પ્રક્ષાલન કરીને અને પાત્રાદિકેને તેલ અથવા વાર્નિશ આદિ વડે મુલાયમ અને ચળકતાં કરીને સૌદયને નિમિત્તે ધારણ કરે છે, તે સાધુને ઉપકરણ બકુશ કહે છે. આ બંને પ્રકારના સાધુઓ અપાત્રાદિ રૂપ અદ્ધિની અને “ આ ગુણસંપન્ન વિશિષ્ટ સાધુજન છે ? આ પ્રકારની ખ્યાતિની કામનાવાળો હોય છે. સાત ગૌરવયુક્ત હેવાને કારણે રાતદિનની અનુચ્છેય ક્રિયાઓમાં તેઓ ઉપયોગ પૂર્વક પ્રવૃત્તિ કરનારા હેતા નથી. વ આદિપર તેલનું માલિશ કરવાથી અને સ્નિગ શરીરાદિ રાખવાને કારણે તેમને શિષ્ય પરિવાર પણ અસ યમયુક્ત હોય છે તથા સમત રૂપે સ યનું છેદન કરનારા અથવા દેશ રૂપે સંયમનું છેદન કરનારા જે અતિચારો છે તેમનુ તેઓ સેવન કરતા હોય છે તેથી તેમને સંયમ અતિચારયુક્ત હોય છે. Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाङ्गसूत्रे नवरदिप विनागने ममर्थायाः कन्धेल्पजीवनेन ज्ञानायतिचारासेवनेन या समन्टन यमनारगलनात पञ्जिपन्निस्सारो यः स पुलाक उच्यते इति । उत्तंचात्र " जिन प्रणीतादागमान सदैवाप्रतिपातिनी ज्ञानानुमारेण क्रियानुष्ठायिनो लब्धिमुपजीवन्तो निर्ग्रन्याः पुलाकाः भवन्ति " इति । चायं लब्धिपुलामाऽऽसेवनापुलाकभेदेने द्विविधो ज्ञेयः १। तथावकुमा-गर्ग यमयोगाद वकुश:-गरीरोपकरणविभूपादिना शवलचारित्रः । अय मोहनी यक्षय प्रन्युयुक्तः शरीरयकुशोपकरणवकुशभेदेन द्विविधः । तत्र मी लब्धिकी प्राप्तिसे अथवा जानादिक्रमें अतिचार के आसेवन से सकल मंयम रूप मारके गल जाने के कारण जो पलञ्जि (पलाल ) की तरह मारसे रहित होता है, ऐसा वह साधु पुलाक कहलाता है । कहा भी है--" जिनप्रणीतादागमात् अवाप्रतिपातिनो ज्ञानानुसारेण नियानुष्टायिनो लब्धिमुपजीवन्तो निग्रन्थाः पुलाकाः भवन्ति" जो जिन प्रणीत आगम के अनुसार सदा अपनी क्रियाएँ करता है, एवं उसीका जो श्रद्वाल होता है और जो लविधवाला होता है वह पुलाकमुनि है। यह पुल्टाक लब्धिपुलाफ और आसेवना पुलाक के भेद से दो प्रकार का है, जो शरीर और उपकरणको विभूषा आदि से शबल चारित्रवाला Fता है और हमीसे जिमता संयम यकुग होता है, अतिचार सहित होता, ऐमा माधु या कहा गया है, यह वकुश शरीर बकुश और उपकरण चकग के भेद से दो प्रकारका है। इनमें जो कर,चरण का એવી લબ્ધિની પ્રાપ્તિ વડે, અથવા નાનાદિકમાં અતિચારનું સેવન કરવાથી અલ સાયમ રૂપ રાગ ઝરી જવાને કારણે પરાળની જેમ સારરહિત હોય છે, थे। माथुने ५ प्रहे छे ५५ छ है " जिनप्रणीतादागमात् मदैवा प्रनिपानिनो मानानुसारेण कियानुष्ठायिनो लब्धिमुरजीवन्तो निर्ग्रन्यो पुलाका भवन्ति " साधु A Gril 14 अनुसार पातानी यास। ४२ છે, અને તેના પ્રત્યે જે શ્રદ્ધાવાળે હેય છે, અને જે લબ્ધિવાળો હોય છે, તે ભાઇને પુલામુનિ કહે છે તે પુવાકના લબ્ધિ પુલાક અને આસેવના પુલા नाकमा नाय . જે શરીર અને ઉપકરને વિભૂષિત કરવાને કારણે શબલ (દષિત) રાત્રિા ય છે અને તે કારણે જેને સંયમ બકુશ હિય છે-અતિચાર મરિન ર ય છે, તેવા અને કુશ કંડ છે. બકુળના બે પ્રકાર પડે છે– (૧) કરીર બળ અને (૨) ઉપક! બકુશ જે સાધુ હાથ, પગ આદિનું Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०५ उ०३ सु०५ विशेषतो सचेतनस्य निरूपणम् १९५ नकुश:- शिथिलाचारितया करचरणप्रक्षालनं नयनादिमलाद्यपनयनं च यः शरीरसौन्दर्यार्थं करोति सः । उपकरणवकुशश्च य. अकाल एव चोलपट्टादिकं प्रक्षाल्य पात्रादिकं च तैलेन चमत्कृत्य विभूपार्थं धारयति सः । उभयेऽप्येते प्रभूतवस्त्रपात्रादिरूपाम् ऋद्धिं 'एते गुणवन्तो विशिष्टाः साधवः' इत्यादि प्रवादरूपां स्पातिं च कामयन्ते, सातगौरवयुक्ततयाऽहोरात्रानुष्ठेयक्रियासु नोघुञ्जते, घृष्टजङ्घतैलाभ्पचितशरीरत्वादिना एपां शिष्यपरिवारोऽसंयमयुक्तो भवति, तथासर्व देशच्छेदार्दा तिचारजनितशवलत्वेनैते बहुच्छेदशबलयुक्ताचापि भवन्तीति प्रक्षालन एवं नयन आदि के मलादिक का अपनयन शारिरिक सौन्दर्य के निमित्त करता है वह शरीर बकुश है । तथा जो अकाल में ही चोलक आदि का प्रक्षालन करके एवं पात्रादिकों को तैलसे चिकना करके सौन्दर्य के निमित्त धारण करता है वह उपकरण बकुश है । ये दोनों भी वस्त्र पात्रादि रूप ऋद्धि को तथा ये " गुणशाली विशिष्ठ साधुजन हैं " इत्यादि प्रवादरूप ख्याति को कामनावाले होते है, सात गौरव युक्त होने के कारण रातदिन की अनुष्ठेय क्रियाओं में ये उपयोग पूर्वक प्रवृत्ति करनेवाले नहीं होते हैं। जङ्घादिकों में तेल की मालिश करने से एव चिकनाचुपड़ा शरीर आदि रखने से इनका शिष्य परिवार असंयम युक्त होता है तथा सर्वदेश संयम को छेदने के योग्य जो अतिचार होते हैं अर्थात् समस्त रूपसे संयम को या देशरूपसे संयम को छेदने योग्य जो अतिचार हैं, उन अतिचारों को ये सेवन करते हैं, વારવાર પ્રક્ષાલન કરે છે, અને આંખ, કાન આદિના મેલ વારવાર કાઢયા કરે છે-આ બધુ' શરીર સૌદર્ય નિમિત્તે કરનાર સાધુને શરીર ખકુશ કહે છે. જે સાધુ અકાળે ચાલપટ્ટક આદિનું પ્રક્ષાલન કરીને અને પાત્રાદિકાને તેલ અથવા વાર્નિશ આદિ વડે મુલાયમ અને ચળકતાં કરીને સૌને નિમિત્તે ધારણ કરે છે, તે સાધુને ઉપકરણ અકુશ કહે છે. આ બન્ને પ્રકારના સાધુએ વજ્રપાત્રાદિ રૂપ ઋદ્ધિની અને આ ગુણસ'પન્ન વિશિષ્ટ સાધુજન છે ” આ પ્રકારની ખ્યાતિની કામનાવાળે! હાય છે. "C સાત ગૌરવયુક્ત હાવાને કારણે રાતદિનની અનુષ્ઠેય ક્રિયાએમાં તેએ ઉપયેાગપૂર્વક પ્રવૃત્તિ કરનારા હાતા નથી. 'ધ આદિપુર તેલનુ' માલિશ કરવાથી અને સ્નિગ્ધ શરીરાદિ રાખવાને કારણે તેમને શિષ્ય પરિવાર પશુ અસ યમયુક્ત હાય છે, તથા સમરત રૂપે સયસનુ' છેદન કરનારા અથવા દેશ રૂપે સયમનું છેઝન કરનારા જે અતિચારે છે તેમનુ તેએ સેવન કરતા હોય છે તેથી તેમને સંયમ અતિચારયુક્ત હોય છે Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थाना १९६ २। तथा - कृशीलः - उत्तरगुणप्रतिसेवनेन संज्ज्वलनकपायोदयेन वादुपितत्वात् कुत्सितं शीलम् = अष्टादशशीलाङ्ग सहस्रभेदं यस्य स तथा । अयं प्रतिसेवनाकुशील कपायकुशीलभेदाद् द्विविधः । तत्र ये नैर्ग्रन्थ्यमापन्ना अपि अनियतेन्द्रियत्वात् पिण्डविशुद्धिसमितिभावना तपः प्रतिमाभिग्रहादिषु उत्तरगुणेषु कथंचित् किंचिदेव विराधनां कुर्वन्तो जिनानामुल्लइयन्ति ते प्रतिसेवनाकुशीलाः । ये तु संयता सन्तोऽपि कथंचिदुदीरितसंज्वलनकपाया भवन्ति ते कपायकुशीला इति । तथा-निर्ब्रन्थः-निर्गतो ग्रन्थाद - मोहनीयाभिधाद् यः सः । अयं च क्षीणकषायोपशान्तमोहभेदेन द्विविध इति ४ अतः इनका संघम अतिचार युक्त होता है। उत्तर गुणोंके प्रतिसेवन से अथवा संज्वलनकषाय के उदय से दूषित होने से १८००० शील के भेद जिसके कुत्सित हैं वह कुशील है, यह कुशील प्रतिसेवना कुशील और कषाय कुशीलके भेदसे दो प्रकारका है । जो निर्ग्रन्थभावको प्राप्त हुए भी अनियत इन्द्रियवाले होने से पिण्ड वि शुद्धि समिति भावना तप एवं अभिग्रह आदिरूप उत्तर गुणोंमें किसी तरह से कुछ थोडी बहुत विराधना करते हुए जिनाज्ञाका उल्लङ्घन करते हैं वे प्रतिसेवनाकुशील हैं, तथा जो संगत होते हुए भी कथञ्चित् उदय प्राप्त संज्वलन कषायवाले होते हैं वे कपायकुशील हैं । तथा जो मोहनीय रूप ग्रन्थसे निर्गत होता है, वह निर्ग्रन्थ है यह नि ग्रन्थ क्षीण कषाय और उपशान्त मोहके भेदसे दो प्रकारका होता है, ઉત્તરગુષ્ણેાના પ્રતિસેવનથી અથવા સ`જવલન કષાયના ઉદયથી દૂષિત થવાને કારણે જેના ૧૮૦૦૦ શીલના ભેદ કુત્સિત થયેલા છે, એવા સાધુને કુશીલ કહે છે તેના બે ભેદ કહ્યા છે—(૧) પ્રતિસેવનાકુશીલ અને (२) उषा शील. જે સાધુ અનિયત ઇન્દ્રિયવાળા ( ઇન્દ્રિયેાપર કાબૂ રાખવાને અસમ) होवाने अर पिंडविशुद्धि, समिति, भावना, तप, प्रतिमा भने अलिग्र આદિ રૂપ ઉત્તરગુ@ામાં કોઇપણ પ્રકારે વધુ એછી વિરાધના કરતા હૈડાવાથી જિનાજ્ઞાનું ઉલ્લ ઘન કરે છે, તે સાધુને પ્રતિસેવનાકુશીલ કહે છે. સયત હાવા છતાં પણ જેમનામાં સંજવલન કષાયને વધુ એછો. ઉદ્દય હાય છે, એવા સાધુઓને કષાય કુશીલ કહે છે. જે સાધુ માહનીય રૂપ ગ્રન્થ ( બન્ધન) થી મુક્ત હાય છે, તેને નિગ્રંથ કહે છે. તે નિગ્રંથના નીચે પ્રમાણે એ ભેદ કહ્યા છે(૧) ક્ષીણુકષાય अने (२) उपशान्तभीड. Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९७ सुधा टीका स्था०५७ ३सू ५ विशेषतो सचेतनस्य निरूपणम् स्नातकः -- शुक्लध्यानरूपजलक्षालितसकलपातिकमल समृहतया स्नात इव स्नातः, स एव स्नातकः । अयमपि सयोग क्ल्ययोगकेवलिभेदेन द्विविध इति ५। इत्थं निर्ग्रन्यभेदानुक्त्वा सम्पति तेपामेव एकैकस्य पञ्च पञ्चभेदानाहजो शुक्लध्यानरूप जलले क्षालित हुए सकल घानियो कर्मरूप मलवाला होता है, अतएव जो स्नातकी तरह स्नात होता है, ऐसा वह साधु स्नातक कहा गया है। जिसमें सवज्ञता प्रकट हो चुकी है, वह स्नातक है। यह स्नातक सयोग केवली और अयोग केवलीके भेदसे दो प्रकारका होता है। तात्पर्य इस समस्त कथनका ऐसा है कि यहां निर्ग्रन्थके तरतम रूपसे होनेवाले मोवोंकी अपेक्षा ये पांच भेद किये गयेहैं । मूलगुण तथा उत्तर गणमें परिपूर्णता प्राप्त न करते भी वीतराग प्रणीत आगमसे कभी अस्थिर न होनेवाला पुलाक निर्ग्रन्थ है । पुलाक नाम पलालका है, वह जैसे सारभाग रहित होता है, वैसेही ये निर्ग्रन्थ होते हैं ये पुलाक उत्तर गुणोंको उत्तमतासे नहीं पालते हैं साथमें मूलगुणों में भी पूर्णताको प्राप्त नहीं होते हैं । जो व्रतोंको पूरी तरहसे पालते हैं किन्तु शरीर और उपकरणोंको संस्कारित करते रहते हैं ऋद्धि और यशकी अभिलाषा रखतेहैं, शिष्यादि परिवार से धिरे रहते हैं । एवं मोहजन्य दोषसे युक्त है वे बकुशहैं। कुशील निग्रन्थ दो प्रकारके શુકલધ્યાન રૂપ જલ વડે જેને ઘાતિયા કર્મરૂપ મળ (મેલ) ધોવાઈ જવાને કાણે જે સાધુ સ્નાત મનુષ્યના જે બની ગયેલ હોય છે તેને સનાતક કહે છે. અથવા જેનામાં સર્વજ્ઞતા પ્રકટ થઈ ચુકી છે તે સ્નાતક છે તે સ્નાતકના નીચે પ્રમાણે બે ભેદ કહ્યા છે-(૧) સચોગ કેવલી, (૨) અગ કેવલી આ સમરત કથનનો ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે–અહીં નિગ્રંથના તરતમ રૂપે પ્રકટ થનારા ભાવની અપેક્ષાએ પાંચ પ્રકાર કહ્યા છે મૂળગુણ અને ઉત્તરગુણામાં પરિપૂર્ણતા પ્રાપ્ત ન કરવા છતા પણ વીતરાગ પ્રણીત આગમમાં સદા સ્થિર રહેનાર સાધુને અહી પુલાક નિગ્રંથ કહ્યો છે પુલાક એટલે પરાળ, પરાળ જેમ સારભાગ રહિત હોય છે, એ જ પ્રમાણે આ મુલાક નિગ્રંથ પણ સારરહિત હોય છે, કારણ કે તેઓ ઉત્તરગુણોનું સંપૂર્ણ રીતે પાલન કરતા નથી એટલું જ નહિ પણ મૂળગુણોમાં પણ પૂર્ણતા પ્રાપ્ત કરતા નથી જે વ્રતનું સંપૂર્ણત પાલન કરે છે, પરંતુ શરીર અને ઉપકરણને રાંસ્કારિત કરતા રહે છે, ઋદ્ધિ અને યશની અભિલાષા એવે છે, પરિવારથી વીંટળાયેલા રહે છે, અને મહજન્ય દોષથી યુક્ત હોય છે, એવા સાધુઓને Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ स्थानाशास्त्र 'पुलए पंचविहे ' इत्यादिना । पुलाका=आसेवनापुलाकलब्धिपुलाकभेदेन द्विविधः प्रोक्तः तत्रआसेवनापुलाकः - ज्ञानपुलाकादिभेदेन पञ्चविधः । तत्र - यस्खलित मिलितादिभिराचारै जीतमाश्रित्यात्मानमसारं करोवि स ज्ञानपुलाकः १॥ होते हैं-प्रतिसेवनाकुशील औरकपाय कुशील जिनकी परिग्रहसे आसक्ति नहीं है जो मूलगुणों और उत्तरगुणोंको पालते हैं तो भी कदाचित् उत्तरगुणोंकी विराधना कर लेते हैं, वे प्रतिसेवनाकुशील हैं जो अन्य कषायों पर विजय पाकर भी संज्वलन कषायके आधीन हैं वे कषाय कुशील निर्ग्रन्थ हैं। जिन्होंने रागद्वेषका अभाव कर दिया है, और अन्तमुहर्त में जो केवलज्ञानको प्राप्त करते हैं वे निर्ग्रन्थ निर्ग्रन्थ हैं । सर्वज्ञता प्राप्त जो निर्ग्रन्थ हैं वे स्नातक हैं। इस प्रकार निर्ग्रन्थके भेदोंको कहकर अब सूत्रकार उनमेंसे एक एकके पांच २ भेदोंको कहते हैं-" पुलाए पंचविहे " इत्यादि-पुलाक आसेवना पुलाक एवं लब्धिपुलाकके भेदले दो प्रकार का कहा गया है-इनमें जो आसेवनापुलाक है, वह ज्ञानपुलाक आदिके भेदसे पांच प्रकारका है, जो खलना मिलित आदि आचारोंसे ज्ञानको आश्रित करके आत्माको असार करता है, वह ज्ञानपुलक है १ कुदृष्टिके संस्तव બકુશ કહે છે. કુશીલ નિર્ચ થના બે પ્રકાર કહ્યા છે––(૧) પ્રતિસેવનાકુશીલ न्मने (२) ४षायशीस. જેમને પરિગ્રહ પ્રત્યે આસક્તિ નથી, જેઓ મૂળગુણો અને ઉત્તરગુણેનું પાલન કરે છે, છતાં પણ જેઓ કયારેક ઉત્તરગુણોની વિરાધના કરી નાખે છે, એવા સાધુઓને પ્રતિસેવનાકુશીલ કહે છે જે સાધુઓ અન્ય કષાયો પર વિજય પ્રાપ્ત કરવા છતાં સંજવલન કષાયને આધીન રહે છે, તે સાધુઓને કપાય કુશીલ કહે છે. જેમણે રાગદ્વેષનો અભાવ કરી નાખે છે અને અન્તમુહૂર્તમાં જેઓ કેવળજ્ઞાન પ્રાપ્ત કરે છે, તેમને નિગ્રંથ કહે છે. જેમણે સર્વજ્ઞતા પ્રાપ્ત કરી છે એવા નિગ્રંથને સ્નાતક કહે છે. નિર્ચ થના ભેદનું નિરૂપણ કરીને હવે સૂત્રકાર તે પ્રત્યેક ભેદના જે पांच पांय पहे। ५९ छ तेनू थन ४२ छ. " पुलाए पचविहे" त्यादि પુલાકના આસેવના પુલાક અને લબ્ધિપુલાક નામના બે ભેદ કહ્યા છે. તેમાથી જે આસેવન પુલાક છે તેમાંથી જ્ઞાનપુલાક આદિ પાચ ભેદ કહ્યા છે. જે અલનામિલિત આદિ આચાર વડે જ્ઞાનને આશ્રિત કરીને આત્માને અસાર કરે છે, તે સાધુને જ્ઞાન પુલાક કહે છે. (૨) કુદણિના સંસ્તવ આદિ વડે જે Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा डीका स्था०५ उ०३ सू०५ विशेषतो सचेतनस्य निरूपणम् १९९ तथा - कुदृष्टि संस्तवादिना यो दर्शनं निम्सारं करोति स दर्शनपुलाकः २। तथामूलोत्तरगुणान् यः प्रतिसेवते स चरणपुलाकः ३ । यः साधूनां यलिङ्गं ततोऽधिकलिङ्गं गृह्णाति स लिङ्गपुलाकः । यस्तु किंचित् प्रमाद्यति मनसा वा अकल्प्यं गृह्णाति स यथासूक्ष्मपुलाको नाम पुलाकस्य पञ्चमो भेद: ५। लब्धिपुलाकश्च एकविध एवेति स नात्र निवक्षित इति । तथा शरीरवकुशोपकरणवकुशभेदद्वय विशिष्टो वकुशोऽपि आभोगवकुशादिभेदेन पञ्चविधः । तत्र - यः शरीरविभूपासुपकरणविभूषां च चिन्तनपुरस्सरं करोति स आभोगवकुशः १। यः सहसाकरोति सः अनाभोगवकुगः २ । यः प्रच्छन्नतया करोति स तवकुः ३। यः प्रकटतया करोति सः असटत चकुशः ४। सट आदिसे जो दर्शनको निस्सार करता है, वह दर्शन पुलाक है २ सृलगुणों एवं उत्तर गुणोंकी जो प्रतिसेवना करता है, वह चरणपुलाक है ३ जो साधुओंका लिङ्ग है उससे अधिक लिङ्गको जो ग्रहण करता है, वह लिङ्ग पुलाक है, ४ जो कुछ २ प्रमाद पतित हो जाता है, अथवा मनसे अकल्पयको ग्रहण करता है, वह यथासूक्ष्म पुलाक है । यह पुलाकका पांचवां भेद है । लब्धिपुलाक एक प्रकारकाही होता है, अतः उसकी यहां विवक्षा नहीं हुई है । शरीर यकुश एवं उपकरण बकुश के भेद से दो भेदवाला हुआ वकुश भी आभोगवकुश आदिके भेदसे पांच प्रकारका है, इनमें जो विचारपूर्वक शरीरकी विभूषा एवं उपकर की विभूषाको करता है, वह आभोगवकुश है १ और सहसा विना विचारेही शरीर की विभूषा एवं उपकरणकी विभूषाको करता है, वह अनाभोग घकुश है २ । तथा जो गुप्त रूपसे शरीरादिकोंकी विभूषा દનને નિસ્સોર કરે છે, તેને ઇશનપુલાક કહે છે. (૩) મૂલગુણ્ણા અને ઉત્તર ગુ@ાની જે પ્રતિસેવના કરે છે તેને ચરણપુલાક કહે છે. (૨) રજોહરણ, મુહ પત્તિ આદિ રૂપ સાધુઓના જે લિંગ છે, તેના કરતાં અધિક લિંગને ધારણ કરનાર સાધુને લિંગપુલાક કહે છે. (૫) જે સાધુ થાડા ઘેટા પ્રમાદી બની ગયેા હાય છે તેને અથવા જે મનથી અકલ્પ્સને ગ્રહણ કરે છે તેને યથાસૂમ પુલાક કહે છે. લબ્ધિપુલાક એક જ પ્રકારના હોય છે તેથી અહી તેનું વિવેચન કર્યું' નથી હવે સૂત્રકાર અકુશના ભેદોનું નિરૂપણ કરે છે. મકુશના મુખ્ય બે ભેદ કહ્યા છે—() શરીર કુશ અને (ર) ઉપકરણ ખકુશ અકુશના નીચે પ્રમાણે પાચ ભેદ પણ પડે છે~(૧) આભાગ બકુશ--જે સાધુ વિચારપૂર્વક શરીર અને ઉપકરણેાની વિભૂષા કરે છે તેને આભેગ ખકુશ કહે છે. (૨) વિના વિચારે જ સહસા શરીર અને ઉષકરાની વિભૂષા કરનાર સાધુને અનભેળ અકુરા કહે Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० स्थानासो तत्वमसंवृतत्वं च मूलोत्तरगुणाश्रितत्वं बोध्यम् । तथा यः किंचित् प्रमागति नेत्रमलायपनयनं वा करोति स यथा गमवकुशो नाम पञ्चमवकुशभेदः ५। तथापतिसेवनाकुशीलकपायकुशील भेदद्वयविशिष्टः कुशीलोऽपि ज्ञानकुशीलदर्शन कुशीलादिभेदेन पञ्चविधः । तत्र-यो ज्ञानमुपजी गन् पिण्ड विशुद्धयादि स्खलनादि पूर्वकं पिण्डादिकं प्रतिसेवमानो जिनानाम् उल्लङ्वयति स ज्ञानगीलः । एवं दर्शनचारित्रं लिहं च उपजीवन दर्शनकुशीलश्चारित्रकुशीलो ३। लिप कशील वोध्यः । तथा-'अयं तपश्चरतीत्येवं जनैः प्रगसितो यो हप्यति स यथामूखमकरताहै, वह संवृत पकुशई ३। एवं जो प्रकट रूपमें शरीरादिकोंकी यि. भूषा करताहै, वह असंवृत्त बकुश ४। संवृतत्व और असंवृतत्व मूल गुण और उत्तर गुणों के आश्रित जानना चाहिये । तथा जो कुछ प्रमाद पतित होता है, अथवा नेत्रके मैल आदिका अपनयन करता है, वह यथा सूक्ष्मयकुश नामका पांचवां भेद है, प्रतिसेवना कुशील और कषाय कुशील इन दोनों भेदोंसे विशिष्ट जो कुशील है, वह ज्ञानकुशील दर्शनकृशील आदिके भेदसे पांच प्रकारका है। इनमें जो ज्ञानसे युक्त होता भी पिण्ड विशुद्धि आदिमें स्खलना आदि पूर्वक पिण्डादिकका प्रतिसेवन करता है, वह जिनेन्द्रकी आज्ञाका उल्लङ्घन करता है, ऐसा यह ज्ञानकुशील है १ । इसी प्रकारसे दर्शन और चारित्र एवं लिङ्गको धारण करता हुआ अर्थात् उन्हें अपने निर्वाह करनेका साधन मानता है, ऐसा वह दर्शनकुशील और चारित्रकुशील लिङ्ग कुशील कहा गया है। तथा यह तपस्या करता है, ऐसी जनोंछारा कृत प्रगછે (૩) જે ગુપ્ત રૂપે શરીરાદિ કેની વિભૂષા કરે છે તેને સંવૃત બકુશ કહે છે. (૪) જે પ્રકટ રીતે શરીરાદિકેની વિભૂષા કરે છે તેને અસંવૃત બકુશ કહે છે. સંવૃતત્વ અને અસંવૃતત્વ મૂલગુણ અને ઉત્તરગુણેને આશ્રિત સમજવું. (૫) જે સાધુ શેડ થોડા પ્રમાદી થઈ ગયેલ હોય છે તેને અથવા જે સાધુ નેત્ર આદિના મેલનુ અપનયન કરે છે તેને યથાસૂફમળકુશ કહે છે. કુશીલના પ્રતિરસેવનાકુશીલ અને કષાયકુશીલ નામના બે ભેદનું પ્રતિપાદન તે આગળ કરવામાં આવ્યું છે તેના જ્ઞાનકુશીલ, દર્શનકુશીલ આદિ પાંચ ભેદ પડે છે. જે સાધુ જ્ઞાનસંપન્ન હોવા છતાં પણ પિંડવિશુદ્ધિ આદિમાં ખલનપૂર્વક પિંડાદિકનું પ્રતિસેવન કરે છે, તે જિનાજ્ઞાનું ઉલ્લંઘન કરે છે. તેથી એવા સાધુને જ્ઞાનકુશીલ કહે છે. એ જ પ્રમાણે દર્શનકુશીલ, ચારિત્રશીલ અને લિંગકુશીલ વિષે પણ સમજવું. લિંગને (સાધુવેષને) ધારણ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०५ २०३०५ विशेषतो सचेतनस्य निरूपणम् २०१ कुशल ५ | इति । तथा कपायकुशीलस्य पञ्चविधत्वमेवं बोध्यम् । तथाहि यः staादिना विद्यादिज्ञान प्रयुक्ते स ज्ञानकुगोल: १| कोधादिकषायेण यो निश्शतित्वादिकं दर्शनाचार विराधयति स दर्शनकुशलः २ तथा यः क्रोधादिवशात् कमपि शपति रा चारित्रकुशीलः ३ | यत्र क्रोधादिना लिङ्गान्तर गृह्णाति स लिङ्गकुशीलः ४| तथा यो सनमा क्रोधादिकपायान् करोति स यथासक्षमकुरीलो नाम पञ्चमः कुशीलभेदः ५। तथा क्षीणकषायोपशान्तमोहभेदद्वय विशिष्ट निर्ग्रन्थः प्रथम समय निर्ग्रन्थादिभेदेन पञ्चविधः । तत्र यः अन्तममाणाया निर्ग्रन्थाद्धायाः प्रथम तिष्ठति स प्रथममनिर्णय: । प्रथम समातिरिक्तसमयेषु सासे जो हर्पित होता है, यह वामशील है १| तथा कपाय कुशील पांच प्रकारका इस तरह से है जो क्रोध आदिके वश होकर विद्यादिज्ञानको प्रयुक्त करता है वह' ज्ञानकुशील है ? क्रोधादिक कायसे जो निःशंकित आदि दर्शनाविधना करता है, वह दर्शनकुशील है | जो क्रोधादिक के क्शसे किसी को शाप देता है; वह चारिकुशील है ३। फोधादिकके क्श से जो अन्य लिङ्गको धारण करता है वह शील है ४ तथा जो अपने धनसे क्रोधादिक कषायों को करता है वह सूक्ष्म कुशील है | क्षीणकषाय और उपशान्तमोह इन दो भेदोंवाला निथ प्रथम समय के निर्ग्रन्थाटिकके भेदसे पांच प्रका रका है- इनमें जो अन्तर्मुहुर्त प्रमाणवाले निर्ग्रन्यकाल के प्रथम सम रहता है, यह समय निर्ग्रन्थ है ? जो अन्तर्मुहूर्त प्रमाणवाले नि કરવા છતા તેને પેતાના નિર્વાહનુ સાખન માનતા સાધુને લિંગકુશીલ કહે છે. પેાતાની તપસ્યાની લેાકેા દ્વારા પ્રશ'સા થતી જોઇને હર્ષ પ્રમતા સાધુને સૂક્ષ્મશીલ કહે છે સ્પાય કુશીલના પશુ એવા જ પાંચ પ્રકાર छे (૧) જે કેધાદિથી યુક્ત થઇને વિદ્યાદિજ્ઞાનને પ્રયુક્ત કરે છે તેને જ્ઞાનકુશીલ કહે છે. (૨) ક્રોધાદિક કષાયને અધીન થઈને જે નિઃશકિતાદિ દર્શોના ચારની વિરાધના કરે છે તેને દનકુમીલ કહે છે. (૩) જે ક્રોધાદિકને આધીન થઇને કોઇને શાપ આપે છે તેને ચાસ્ત્રિકુશીલ કહે છે . (૪) ક્રોધાદિકને આધીન થઈને જે અન્યલિંગને ધારણ કરે છે તેને ડિંગકુશીલ કહે છે. (૫) જે પેાતાના રાનમાં જ કોધાદિક કષાયેા કરે છે તેને યામ્મકુશીલ કહે છે ક્ષીનુષ ય અને ઉપશાન્ત મેહ, આ બે ભેદોવાળા નિત્ર ચેાના નીચે પ્રમાણે પાચ પ્રકાર પણું પડે છે—(૧) પ્રથમ સમય નિગ્રંથ-૨ે અન્તમુત પ્રમાણવાળા નિગ્ર થકાળના પ્રથમ સાયમા રહે છે, તેને પ્રથમ સમય નિગ્ર ધ महे छे. (२) અપ્રથમસમય નિ ધરે અન્તમુદત પ્રમાણુવાળા નિધ स्था०-२६ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म्थानासूत्र ૨૦૨ यस्तिष्ठति सोऽप्रथमममयनिग्रंन्यः २। तथा-योऽन्तर्मुहर्नमाणाया निर्यन्धाद्धायाश्चरमसमये निष्ठति स चरमसमयनिग्रन्यः ३। तथा-यश्चममत्यादन्यस्मिन् यावच्छै लेश्यवस्थाचग्मसमये तिष्ठति सोऽचरमरामपनिर्ग्रन्थः । यरतृ निन्या. द्वायाः अन्तर्मुहर्सप्रमाणायाः प्रथ समयादारभ्य शैलेश्यवस्थायाचन्मसमयपर्यन्तेपु सर्वेषु समये यु निष्ठनीति स यथा सूक्ष्मनिर्गन्ध इनि ५' तया-पयोगकेवल्ययोगकेवलिभेदद्वयविशिष्टः स्नातकः अच्छव्यादिभेदेन पञ्चविधः । तत्र-काययोगनिरोधेन यस्य छवि शरीरं नास्ति सोऽच्छविः । अयं बोध्यम्-अयोगकेलिनां काययोगनिरोधो भवस्येवेति तेपामच्छवित्वं गुस्पष्ट । सयोगके वलिनोऽपि यदा ग्रंन्धकालके प्रथम समयले अतिरिक्त समयों में रहता है, वह अप्रथम समय निर्धन्ध है २। जो अन्तहर्त प्रमाणबाले निर्ग्रन्थकालके चरम समयमें रहता है, वह चरम गय निन्थ है ३। जो चरम समयसे अन्य समय यावत शलेशी अवस्थाले चरम समय में रहता है, वह अचरम समय निम्रन्थ है । जो अन्तर्मुहर्त नाणवाले निन्ध कालके प्रथम लमयसे लेकर शाखेशी अवस्थाके चरम समय पर्यन्त लय समघोंसें रहता है, वह सभामुक्ष्म निर्गन्ध है । संयोग केवली और अयोग केयली रूप दो भेदोखे विशिष्ट जो निम्रय है, वह अच्छवि आदिके भेदसे पांच प्रकारका है, इनमें कारयोग लिगेधले जिसको शरीर नहीं होता है, यह अच्छवि है, यहां इल प्रकार समलना चाहियेअयोग केवलियों के काययोगमा तो निरोध होता है, इसलिये उनमें अ. કાળના પ્રથમ સમય સિવાયને સમયમાં રહે છે તેને અપ્રથમ સમય નિગ્રંથ કહે છે. (૩) ચરમસમય નિર્ચ થ-જે અતત પ્રમાણવાળા નિગ્રંથકાળના य२५ ( अन्तिम ) समयमा २४ छ, an -५२६समय नि' से 9. (४) અચરમ સમય નિગ્રંથ-જે ચરમ સમય કરતાં અન્ય સમયમાં શૈલેશી અવસ્થામાં ચરમ સમય પયતના સમયમાં રહે છે, તેને અગરમસમય નિથ કહે છે. (૫) યથાસૂમ નિગ્રંથ-જે અન્તત પ્રમ ગુવાળ નિર્શથકાળના પ્રથમ સમયથી લઈને શિશી અવસ્થામાં ચરમ સમય પર્વતના બધા સમચિમાં રહે છે, તેને યથાસૂમ નિ થ કહે છે - સંગ કેવલી અને અગકેવલી રૂ૫ બે ભેદવાળા જે સનાતક નિરાશે છે તેમના અછવી આદિ પાંચ પ્રકાર કહ્યાા છે કાયોગના નિરોધને કારણે જેમને શરીરનકાયાના વ્યાપારનો અભાવ હોય છે તે નિગ્રંથને અચ્છવિ કહે છે. અહીં એવું સમજવું જોઈએ કે અયોગ કેવલીના કાયાગને તે નિરોધ થઈ ગયેલો જ હોય છે, તેથી તેમનામાં Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०३ सुधा टीका स्था० उ०३ ० ५ विशेषतो सचेतनस्य निरूपणम् सूक्ष्मकाययोगेन बादरकाययोगं निरुन्धन्ति तदा सेषामपि अच्छवित्वं भवति । विरोधस्त्येवं बोध्यः - भगवान् सयोगकेवली भयोपग्राहि कर्मक्षपणाय परमनिर्मलमत्यन्तामकम्पं परमनिर्जरा कारणं ध्यानं प्रतिपत्तुकामो योगनिरोधार्थमुपक्रमते । तत्र प्रथमं वादरकामयोगेन वादरमनोयोगं निरुणद्धि, ततो वादरवाग्योगम् । ततः सूक्ष्मकाययोगेन चादरकाययोगं निरुणद्धि ततः सूक्ष्मकाययोगेनैव सूक्ष्ममनोयोग सूक्ष्मवाग्योगं च । सूक्ष्मकाययोगं तु सूक्ष्मक्रियमनिवर्त्ति शुक्लध्यानं ध्यायन् स्वावष्टम्भेनैव निरुणद्धि, अन्यस्य अवष्टम्भनीयस्य योगस्य तस्मिन् काले अभावात् । च्छविता तो सुस्पष्टही है, संयोग केवली भी जब सूक्ष्म कायके यो से वादकाय योगका निरोध करते है, तब उनके भी अच्छषिता होती है, निरोध इस प्रकार से होता है-भगवान् सयोग केवली भवोपग्राहि कर्मके क्षपणके लिये परम निर्मल अत्यन्त अप्रकम्प एवं परम निर्जराके कारणरूप ध्यान करनेके अभिलाषी होते हैं, तब वे योग निरोधके लिये उपक्रम करते हैं, उसमें वे प्रथम कापयोगले बादर मनोयोगका निरोध करते हैं, बादमें चादर वाग्योगका निरोध करते हैं । इसके बाद सूक्ष्म काययोग से वाद काययोगका निरोध करते हैं, पाद में वे सूक्ष्म काययोगसेही सूक्ष्ममनोयोगका और सूक्ष्म वाग्योगका निरोध करते हैं। सूक्ष्म क्रिया अनिवृत्ति शुक्लध्यानको ध्याते हुए वे केवली अपने अवष्टंभसेही सूक्ष्म कायका निरोध करते हैं। क्योंकि उस समय अन्य अवष्टंभनीय योगका अभाव होता है, उस ध्यानके लामर्थ्य से वे અવિતા સુસ્પષ્ટ જ છે. સ'ચાગ કૈવલી પણ જ્યારે સૂક્ષ્મ કાયના ચેાગથી ખાતર કાયયેાગના નિરોધ કરે છે, ત્યારે તેમનામા પણ અવિતા જ ડાય છે. નિરોધ આ પ્રમાણે થાય છે-ભગવાન સચેાગ કેવલી ભવેાપગ્રા િકના ક્ષપણુને માટે પરમ નિર્માંળ અત્યન્ત અપ્રકમ્પ પરમનિજ રાના કારણરૂપ ધ્યાન ધરવાની અભિલાષાવાળા થાય છે. ત્યારે તેએ ચેગનિર્ધને માટે ઉપક્રમ કરે છે. ત્યારે તે પહેલા કાયયેાગ દ્વારા ખાદર મનેચેગને નિરેષ કરે છે, ત્યાર બાદ માદર વાગ્યેાગના નિરેધ કરે છે ત્યાર બાદ સમ કાયયેાગ વર્લ્ડ આદર કાયયેાગના નિરેધ કરે છે ત્યારબાદ તેઓ ભૂમકાયયેાગ વડે જ સૂક્ષ્મ મનેયેગને અને સૂક્ષ્મ વાગ્યેગના નિરોધ કરે છે. સુક્ષ્મ ક્રિયા નિવૃત્તિ શુકલ ધ્યાન ધરતા ધરતા તે કૈવલી પેાતાના અવLભથી જ સુક્ષ્મ ક્રાયના નિરાધ કરે છે, કારણુ કે તે સમયે અન્ય અવષ્ટ ભનીય ચંગના અભાવ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानावसूत्रे तद्ध्यानसामर्थ्यात् स वदनोदरादिचित्ररपूरणेन संकुचितदेह त्रिभागवर्त्ति प्रदेशो भवति । तदनन्तरं समुच्छिन्नक्तियमप्रतिपाति शुक्लल्यानं ध्यायन् मध्यमप्रतिपश्या हस्त्रपश्चाक्षरोच्चारणमात्र कालं शैलेशीकरणं प्रविशति इति । वादकाययोगनिरोधानन्तरं यावत् सूक्ष्मकाययोगं न निरुणद्धि तावत् मयोगिकेवली भवति । अस्यामवस्थायां वादकाययोगाभावेन अच्छविलम् । सूक्ष्मकाययोगनिरोधानन्तरं अयोगकेवली भाति । तत्र तु अच्छविल सुस्थितमेवेति तत्त्वमिति । इति स्नात कस्य प्रथमो भेदः | अतिचारेभ्यो निर्गतत्वादगवलो द्वितीयः । अक्रमशः नास्ति कर्मणः अंश :- लेशोऽपि क्षतिकर्मत्यावरच स इति तृतीयः । तथा संशुद्धज्ञानदर्शनधरः- संशुद्धं - ज्ञानदर्शनान्तर संपर्कशून्यत्वाद् यद् ज्ञानदर्शनं तस्य धरा = धारकः, अर्हन्-नरामरनमस्काराईलात्, जिनो जितकपायलात् केवली - परिपूर्णरत्नत्रयत्वादिति चतुर्थः । अपरिस्रावी - सफलयोगनिरोधेन निष्क्रियस्वादिति पञ्चमः । इति ।। ० ५ ॥ ૨૦૪ वदन उदर आदि विचर के पूरण होनेसे संकुचितदेह त्रिभागवत प्रदेशाले हो जाते हैं। इसके बाद समुच्छिन किया अप्रतिपाती शुक्लध्यानको ध्याते हुए वे मध्यम प्रतिपत्तिसे ह्रस्व पंचाक्षरके उच्चारण मात्र कालक शैलेशीकरण में प्रवेश करते है । बादर काययोग के निरोधके बाद जब तक सूक्ष्म काययोगका विरोध नहीं कर लेते हैं, तय तक वे सयोग केवली होते हैं, इस अवस्थमें वाद काययोगके अभाबसे उनमें अच्छविता सुस्थितही हो जाती है, इस प्रकारका यह स्नात कका प्रथम भेद है, अवल यह इसका द्वितीय भेद है इस अव स्थायें वे अतिचारोंसे रहित हो जाते हैं। अक्रमश यह तृतीय भेद है इस अवस्थायें क्षपित कर्मवाले हो जाने से उनके कर्मो का अंश तक भी नहीं रहता है । संशुद्ध ज्ञान दर्शनघर यह चतुर्थभेद है, इस अवस्थामें હાય છે. તે ધ્યાનના સામર્થ્યથી તેએ દન, ઉત્તર આદિ વિવર પૂરણ થવાથી સ’કુચિત દેહવાળા–ત્રિભાગવતી પ્રદેશવાળા થઈ જાય છે. ત્યાર ખાઇ સમુચ્છિન્ન ક્રિયા અપ્રતિપાતી શુકલધ્યાનને ધરતા થયાં તેએ મધ્યમ પ્રતિપત્તિ વડે પાંચ ઝુવાક્ષરોના ઉચ્ચારણ પ્રમાણકાળ સુધી જ શૈલેશીકરણમાં પ્રવેશ કરે છે. ભાદર કાચચેાળના નિધ કર્યા બાદ જ્યા સુધી તેએ સૂમ કાયયેાગના નિરાધ કરી લેતા નથી ત્યાં સુધી તેએ સયેાગ કેવલી જ ગણાય છે. આ અવસ્થામાં તે અતિચારાથી રહિત થઈ જાય છે. (૩) અર્કમાંશ નામના ત્રીજે ભેદ છે. આ અવસ્થામાં તેમના કર્મના ક્ષય થઈ જવાથી તેમના કર્મોના અંશ પણ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०५ सुधा टीकास्था०५३० ३ सू० ६ निम्रन्थोपधिविशेपनिरूपणम् निर्गन्यप्रस्तावात् सम्पति तेपामेव उपधिविशेषान् मदर्शयति मूल-कप्पइ णिग्गंथाण वा गिरगंथीण वा पंच वत्थाई धरित्तए वा परिहरितए वा तं जहा-जंगिए १ संगिए न साणए ३ पोत्तिए ४ तिरीडपट्टए ५ णानं पंचमए । कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण बा पंच रयहरणाई धरित्तए वा परिहरित्तए वा, तं जहा--उण्णिए १ उहिए २ लाणए ३ पञ्चापिच्चयए ४ मुंजापिच्चिए ५ नामं पंचभए ॥ सू० ६ ॥ छायाकल्पते निर्ग्रन्थानो वा निम्रन्थीनां वा पञ्चवस्त्राणि धत्तं वा परिहत्तुं वा, तद्यथा-जाङ्गमिकम् १ भाभिकम् २ शाणकम् ३ पौतिक ४ तिरीटपटक ५ नाम पञ्चकम् । कल्पते निन्थानां वा निन्धीनां वा पञ्च रजोहरणानि धत्त वा परिहत्ते वा, तद्यथा-औणिकम् १, भौष्टिकम् २, शाणकम् ३ वल्वजहितस्वमयं ४ मुञ्जकुट्टितत्वङ्मयं ५ नाम पञ्चमकम् ।। मू०६॥ उनका ज्ञानान्तर और दर्शनान्तरके संपर्कसे ज्ञानदर्शन शन्य हो जाता है, इसलिये ऐसे ज्ञान और दर्शनके वे धारी हो जाते हैं। "अर्हन जिन; केवली अपरिनावी ५" इस प्रकार नर और अमरस नमस्कार करने योग्य हो जानेसे वे अर्हन हो जाते हैं जिन कषायचाले होनेसे वे जिन हो जाते है, और परिपूर्ण रत्नत्रयवाले हो जाने से केवली हो जाते हैं ऐसा यह चतुर्थ भेद है, और अन्त में सकल घोगों के निरोधसे वे निष्क्रिय बन जाने के कारण अपरित्रावी हो जाते हैं ऐसा यह पांच भेद है |सू०५॥ બાકી રહેતો નથી (૪) સંશુદ્ધ જ્ઞાન દર્શનધર નામનો ચે ભેદ છે આ અવસ્થામાં જ્ઞાનાન્તર અને દર્શનાતરના સંપર્કથી તેમનું જ્ઞાન અને દર્શન વિહીન થઈ જાય છે, તે કારણે તેઓ જ્ઞાન અને દર્શનને ધારણ કરનારા सनीय " अर्हन जिन. केवली अपरिनावि " मा प्ररे मनुष्ये। मन દેવે દ્વારા વન્દનીય થઈ જવાથી તેઓ અહંત બની જાય છે. કષાયોને જીત નારા હોવાને કારણે તેઓ જિન કહેવાય છે અને પરિપૂર્ણ રત્નત્રયવાળા થઈ જવાને લીધે તેઓ કેવલી બની જાય છે, એ આ ચે ભેદ છે અને સકળ રોગોને નિરોધ કરીને તેઓ નિષ્ક્રિય બની જવાને કારણે અપરિસાવી Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ संथागाला ___टीका-'कप्पर ' इत्यादि निम्रन्थानां निन्थोना या पाच-पश्चविधानि वस्त्राणि धत्तुग्रहीत वा परिष्ठतम् आसेवितु कल्पते । तान्येव बसण्याह-तन्यथा-जागमिकम्-जनमःवसा मेपादयस्तल्लोमनिष्पन्न कम्बलादिकम् । भाषिकम्-मा-भतमी, (आपली) तत्त्वग्मिनिष्पन्नम् । शाणकम्शणसूत्रनिष्पन्नम् । पोनि कम्-पोनं कामं वझं तदेव । तिरीटपट्ट कम्-तिरीटनामक क्षविशेषत्रचानिर्मिनम् । उक्तं चात्र " जंगमजाय जंगिय, तं पुण विगलिदियं च पचिदि । एक्केपि च इत्तो, दोइ विभागेण णेगविदं ।। १ ।। अब मन्त्रकार निर्गन्धके प्रकरणसेही उनकी पिशेप उपधिका प्ररूपण करते हैं-'कप्पह णिग्गंधाण वा' इत्यादि सन ६ ॥ टीकार्थ-निग्रन्थोंको अथवा निर्ग्रन्थनियों को पांच प्रकार के बसोंका धारण करना और उनका आसेवन करना कल्प्य कहा गया है। ये पांच प्रकारके वस्त्र ये-जागमिक माझिकर शाणक३ पालिका और निरीटपट्टक ५ जो वन मेषादिक (महादि) जगम जीवोंके रोमले निष्पन्न होता है, घह जागनिक है जैसे-कारणल आदि भा नाम अतसी अलसीका है, इस अलसीकी छालसे जो वस्त्र निर्मित होता है, वर मागिक है, शणके सूत्रोंसे जो वस्त्र धनता है, यह शाणक है, पोत नाम कपासका है, इस कपासले जो वस्त्र निर्मित होता है, वह पतिक मन्त्र है, और जो वस्त्र तिरीट नामक पृक्ष विशेषकी छालले निर्मित होता है, वह तिरीटपटक થઈ જાય છે, આ પાંચમે ભેદ સમજ. સૂ. ૫ | નિધન અધિકાર ચાલી રહ્યો છે, તેથી હવે સૂત્રકાર તેમની વિશિષ્ટ ५धिनु नि३५ ४२ . " कप्पइ णिगधाण वा " त्या: ટીકાર્ય-નિર્ગને અને નિગ્રંથીઓને નીચે બતાવેલા પાંચ પ્રકારના વસ્ત્રો धा२३५ १२१॥ मन तमना ५या ४२३॥ ४६५ छ-(१) मि, (२) wins, (3) शार, (४) पोति मने (५) तिरीट ५४४. જે વા ઘેટા આદિ જગમ ના વાળમાંથી બને છે, તે વઓને જગમિક કહે છે. કમ્બલ આદિને આ પ્રકારનું વસ્ત્ર કહી શકાય છે. અલસીને ભંગ કહે છે. અલસીની છાલમાંથી જે વા બને છે, તે વસ્ત્રને ભાંગિક કહે છે. શણના રેસામાંથી જે વર્ષો બને છે તેને શાણુક કહે છે. કપાસને પિત કહે છે. તે કપાસમાંથી જે વસ્ત્ર બને છે તેને પોતિકવર્સ કહે છે. જે વસ્ત્ર તિરીટ નામના વૃક્ષની છાલમાંથી બને છે તેને તિરીટ પટ્ટક કહે છે. Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधाटीका स्था०५ उ०३ सू०६ निग्रन्थोपधिधिशेष निरूपणम् पट्टसुवणे मलए, अंनुय चीणं य विगलिंदी | नोट्टयमयलोमे, कुतवे सिट्टियपंचिंदी || २ || अशी वंमीमाइय, भंगियं सायं तु सणको | पोतं कप्पासमयं, तिरीडरुक्खा तिरीडपट्टो || ३ ॥ छाया -- जङ्गमजातं जाङ्गमिकं तत् पुनर्विकलेन्द्रियं च पञ्चेन्द्रियम् । एकैकमपि च इतो भवति विभागेन पञ्चविधम् ॥ १ ॥ पट्टः सुवर्ण मलयम् अशुकं चीनांशुकं च विकलेन्द्रियम् । और्णम् औट्रिकं मृगलमकुतुपं किट्टिनं पञ्चेन्द्रियम् ॥ २ ॥ अतसी वंश्यादिजं भाङ्गिकं शाकं तु शणवल्कः । पोतं कार्पासमयं तिरीदृक्षात् तिरीपट्टः || ३ अयमर्थः - जङ्गमाज्जातं व जागमिकं भवति । तत्पुनः विकलेन्द्रियजन्यत्वाद विकलेन्द्रियं पञ्चेन्द्रियजन्यत्वाच्च पञ्चेन्द्रियं भवति । इतः अत्र भेदद्वयमध्ये एकमपि विभागेन - विकलेन्द्रियाणां पञ्चेन्द्रियाणां च जीवानां भेदेन अनेकविधं भवति ॥ १ ॥ पट्ट्वचं प्रसिद्धम् सुवर्ण = सुवर्णवर्णसूत्रनिर्मितं कृमिज २०७ । कहा भी है- " जंगमजायं जंगियं " इत्यादि । जो वस्त्र जङ्गमसे उत्पन्न होता है, वह जागमिक है, यह वन विक छेन्द्रियों के रोम से जन्य होनेसे विकलेन्द्रिय होता है, और पञ्चेन्द्रिय के रोमसे जन्य होने से पञ्चेन्द्रिय होता है, इस तरह इन दो भेदों के बीच में एक वस्त्र भी विकलेन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय जीवोंके भेदसे अनेक प्रकारका होता है ? पदत्र ? सुवर्णवा २ मलयवस्त्र३ अंशुक बारीक बल्ल ४ और atriशुक के भेद वस्त्र पांच प्रकारका होता है, यह पांच प्रकारका वस्त्र विकलेन्द्रिय जीवोंके रोमसे उत्पन्न होता है, इनमें पट्टवत्र प्रसिद्ध है । अच्छे वर्णवाले सूत्र से जो वस्त्र निर्मित होता है, वह सुवर्णवस्त्र है, यह धु पशु छे " जंगमजायं जंगिय " त्याहि જે વજ્ર જગમ જીવેાના વાળમાંથી ઉત્પન્ન થાય છે તેને જાંગમિક કહે છે તે વસ્તુ વિકલેન્દ્રિચેના શમમાંથી ઉત્પન્ન થતું હાવાથી વિલેન્દ્રિય જન્ય પણ હાય છે અને ચેન્દ્રિયાના રામમાથી ઉત્પન્ન થતું હાવાથી પચેન્દ્રિયજન્ય પણ હોય છે. વિકસેન્દ્રિયજન્ય વસ્ત્ર પશુ પાંચ પ્રકારનું હાય છે—(૧) પટ્ટવસ્ત્ર (२) सुष, (3) भाय वस, (४) अंशुवर ( 4 ) ने श्रीनां वा पांये પ્રકારના વસ વિકલેન્દ્રિય જીવાના રેશમમાંથી બને છે પટ્ટ વસ્ત્ર જાણીતું ડૅાવાથી અહીં તેનું વણુ ન કર્યું' નથી, સુંદર વઘુ વાળા તતુમાંથી જે વસ અને છે, તેને સુવણુ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानासूत्रे २०८ , मित्यर्थः, मलपं=पलग देशोद्भवं वस्रम्, अंशुकंव, चीनांशुक कौशेयम् - चीनदेशो वा श्रपनयं वस्त्रम् एतत् पाद पचि चिकलेन्द्रियजम् । तथा-और्गिकम् = अभियम् चैट्रिक उष्ट्ररोमजम् मृग मृगोमजम् । उपलक्षगत्वा शमरोगजं नृपकरोमजं चापि 9 लोम्नो जातलाई , बोध्यम् । नथा -कुनुपम् - छागमनम् किहिनम् = एतेपासेन निकृष्टरोमनिर्मितम् || २ || तथा अवसरवादिनं नाङ्गिकं न भवति निष्यन्तं तु शाक , वस्त्र कृमिज (रेशमी ) होता है, सलयवन्त्र - मलयवेशका बना हुआ होता है, जो यन्त्र चिकना होता है, वह अंशुक कहलाता है, जो वन्त्र चीन देशका घना होता है, अथवा रेशमका बना होता है, वह चीनांशुक कहलाता है, जो बस्त्र उटके रोमोंका बना होता है, वह औष्ट्रिकव है, जो वस्त्र ऊर्जाका बना होता है, वह और्णिक बल है, जो यन्त्र मृगके रोमका बना होता है, यह गलोम वस्त्र है, क्षण से " शशरोम सूपकरोमज " इन वस्त्रोंका भी ग्रहण हुआ है, खरगोश के रोमोंका घना हुआ वस्त्र शशरोमज है, और चूहों के रोम से बना बन्न सृपकरोमज है, जो वस्त्र बकरे के रोम से बनता है, वह कृतुप वस्त्र है, तथा इन्हीं के निकृष्ट (हलके) रोमों से जो चम्न पनाया जाता है, वह किजिया है, तथा - अलसी आदि की छालसे जो घन घनाया जाता है, वह भाङ्गिक वस्त्र है । शणके डोरों से जो वस्त्र बनाया जाता है, वह शानक है, વસ્તુ કહે છે. તે વક્ષ રેશમના કીડાઓની લાળમાંથી મને છે. મલય વસ મલય દેશમાં ખને છે. જે વસ્ત્ર બહુ જ મુલાયમ હોય છે તેને અશુક વજ્ર કહે છે જે વસ્ત્ર ચીન દેશમાં બને છે અથવા રેશમમાંથી બને છે તેને ચીનાંશુક કહે છે. પચેન્દ્રિયજન્ય વસ્ત્રોના નીચે પ્રમાણે અનેક પ્રકાર પડે છે—જે મ ઊ'ટની રુવાટીમાંથી બને છે તેને ઔક્ટ્રીક કહે છે. જે વસ્ત્ર ઊનમાંથી ખને છે તેને ઔણિક વસ્ત્ર કહે છે જે વસ્ત્ર મૃગની રુવાટીમાંથી બને છે તેને भृगोम वस्त्र उडे छे. उपलक्षयुथी " शशरोमश मूषकरोमज " सससानी રુંવાટીમાંથી ખનેલુ શશરામજ વસ્ત્ર અને મૂષકાની રુંવાટીમાંથી મનાવેલુ भूषपशु ही ग्रह से. (४) ' कुतुपवस्त्र' भे वख ७१४. राना वाणमांथी जने छे, तेने तुपत्र हे छे (4) 'किट्टिीजवस्त्र' तेमनी ०४ નિકૃષ્ટ રુવાટીમાંથી જે વસ મને છે તેને કિટ્ટિવસ્ત્ર કહે છે અળસી આદિની છાલમાંથી જે વસ્ત્ર બને છે, તેને ભાંગિકવસ્ત્ર કહે છે. શણના રેસામાથી જે વસ્ર વણુવામાં આવે છે, તેને શાણુત્રસ્ત્ર કહે છે. કપાસ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०५ उ०३ सू६ निधोपधिविशेपनिरूपणम् भवति कर्पासनिर्मित तु पोतमुन्यते, तया-तिरीक्षवचया यद् वस्त्रं निष्पद्यते तत् तिरीटपट्टकमुच्यते ॥३॥ ___ यद्यपि साधु झल्पनीयं पञ्चविधं प्रोक्तं तथापि उत्सर्गतः साधुमिः कार्पासमो. णिकं च द्विविधमेव वस्त्रं ग्राह्यम् । तदुक्तम् ___"कप्पासिण उ दोन्नी उन्निय एको य परिभोगो"। छाया-कासिकस्य तु द्वे औणिकमेकं च परिभोगः इति । तथा - " कप्पाप्तियस्स असईवागयपट्टो य कोसियारो य । असई य उणियस्स वागयकोसेज्नपट्टो य ।। १ ॥" छाया-कापासिकस्यासति वाल्वजपट्टश्च कौशिकाकारश्च । असति च औणि के वावजः कोशेयपदृश्च ॥ १ ॥ इति । एतदप्यल्पमूल्यनगेव ग्राह्यं न तु बहुमूल्यकम् । दशमुद्रादिमूल्यकं वस्त्र बहुमूल्य बोध्यमिति । तथा-निग्रन्थानां निर्यस्थीनां वा पञ्चविधानि रजोहरणानि धतुं परिग्रहीतुवा कल्पते । पश्चविधत्वमेवाह-तथथा-औणिकम्-मेपलो. और कपासके डोरोले जो वस्त्र बनाया जाता है, वह पोतवस्त्र कहलाता है, तथा तिरीट वृक्षकी छालले जो वस्त्र निष्पन्न होता है, वह तिरीटपटक है ३ । यद्यपि प्लाधुजनोंको कल्पनीय पांच प्रकारका वस्त्र कहा गया है, तब भी उत्सर्गसे साधुजनोंको कार्पास और औ. णिक ये दो वस्त्रही ग्रहण करना चाहिये । कहा भी है " कप्पासिया उ दोन्नी " इत्यादि। काासिक आदि जो बस्त्र साधुजनोंको धारण करने योग्य कहे हैं, वे दस्त्र भी ऐसे धारण करना चाहिये जो अल्पमूल्यके हों वह मूल्यवाला न हो। दशमुद्रा आदिके मूल्यवाला वस्त्र बहुमूल्य कहाँ गया है। तथा-निर्ग्रन्थों को एवं निग्रन्थनियों को पांच प्रकारके रजोहरण ના સૂતરમાથી જે વસ્ત્ર વણવામાં આવે છે, તેને પિ તવસ્ત્ર કહે છે. તિરીટવૃક્ષની છાલમાંથી જે વસ્ત્ર બનાવવામાં આવે છે, તેને તિરીટ પટ્ટક કહે છે. જો કે સાધુઓને માટે ઉપર્યુક્ત પાંચ પ્રકારના વસ્ત્રને કપ્ય કહ્યા છે, છતાં સાધુઓએ સુતરાઉ અને ઊનના બનાવેલા વલ્લેજ ગ્રહણ કરવા તે વધારે अथित छे. ४घु ५९ छ " कप्पासिया उ दोन्नी" त्या સૂતરાઉ આદિ જે વા સાધુજનેને માટે ધારણ કરવા યોગ્ય કહ્યા છે, તે પણ બહુ મૂલ્યવાન હોવા જોઈએ નહીં, પણ સસ્તા હોવા જોઈએ દશ મુદ્રા આદિ ભાવના કપડાને બહુમૂલ્ય કહ્યા છે. સાધુ અને સાધ્વીઓને નીચે પ્રમાણે પાંચ પ્રકારના રજોહરણ જ કલ્પ स्था०-२७ Page #234 --------------------------------------------------------------------------  Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०५ उ० ३ सू०७ काय देर्धापकारणनानिरूपणम ____टोका-'धम्म चन्माणस्स' इत्यादि धर्म=श्रुतचारित्ररूपं चरता आसेपानस्य पञ्च निधास्थानानि आलायन स्थानानि धर्मोपग्रहकारणानि प्राप्तानि, तान्येवाह-नशा-दाय -पडजीवनिकायः, संयमोपकारकत्व शास्त्रे प्रसिद्धं, तथापि किञ्चिदय ने-पृथिवीकायस्य संयमो पकारकत्वं स्थाननिपादन त्वग्वर्तनादिना १। अप्कायस्य धारनादिजलपानादिनार। तेजस्कायस्य वायुपकोपादौ तप्तेप्टिका तापिकादिना ३ वायुकायस्य श्वासोच्छा___ 'धम्मं चरमाणस्स पंच निस्सा ठाणा पत्ता' इत्यादि स्त्र ७॥ टीकार्थ-श्रुत चारित्ररूप धर्मको आसेवन करनेवाले श्रमण निन्थोंके धोएग्रहमें कारणभूत पांच स्थान कहे गये हैं, जैसे-षड् जीवनिकायरूप षट्काय १ यह संयनका उपकारक होता है, यह बात यद्यपि शास्त्र में प्रसिद्ध है, तब भी यहां उसे प्रकट किया जाना है -पृथिवीकायिक एक स्थान पर बैठने में और पाव आदि परिवर्तन करने में सहायक होने के कारण संयमका उपकारक होता है, अर्थात् पृथिवी पर संयमी जीव एक स्थान पर बैठता है, उस पर अपने पाच भाग आदिको वद. लता है, इस तरह पृथिवीकाधिक जीव अपने ऊपर स्थान आदि देने रूपसे संयनके पालन कराने में उपकारक होता है । अप्काय पान आदि क्रिया द्वारा संयमका उपकारक होता है, तेजस्कायिक वायुप्रकोप आदि के होने पर तत ईटसे सेक आदि करानेरूपले संयसका उपकारक होता “ धम्म घरमाणस्स पच निस्साठाणा पण्णत्ता" त्याहટીકાર્થ-શતચારિત્ર રૂપ ધર્મની આરાધના કરનારા શ્રમણ નિચેના ધર્મોપગ્રહમાં કારણભૂત નીચે પ્રમાણે પાંચ સ્થાન કહ્યાં છે– (૧) પજવનિકાય રૂપ છકાય–તેઓ સંયમમાં ઉપકારક થઈ પડે છે, તે વાત તે શાસ્ત્રોમાં પ્રસિદ્ધ છે તેઓ કેવી રીતે સંયમમાં ઉપકારક થાય છે તે હવે પ્રકટ કરવામાં આવે છે–પૃથ્વીકાય, જીરો એક સ્થાન પર બેસવામાં અને પડખું ફેરવવા અ દિમાં સહાયક હોવાને લીધે સ યમની આરાધનામાં ઉપકારક થઈ પડે છે એટલે કે સંયમી જીવ એ થાન પર બેસે છે અથવા તે સ્થાન પર પોતાના પાર્વભાગ આદિને બદલે છે તે સ્થાન પૃથ્વીકાય રૂપ જ હોય છે. આ રીતે પૃથ્વીકાવિક જીવ પોતાની ઉપર બેસવા, ઊઠવા આદિ રૂપ થાન આપીને સયમના પાલનમાં સડાયક બને છે અપૂકાય પાન (પીવાની ક્રિયા) આદિ દ્વારા સયમના પાલનમાં ઉપકારક બને છે, વાયુને પ્રકેપ થાય ત્યારે તમ ઈટ વડે સેક આદિ કરાવવામાં તેજસ્કાલિક ઉપકારક Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ स्थानाक्षस सादिना ४। वनस्पतिकायस्य पात्रपीठफल कोपधभैपज्यादिना ५। सकायस्य कम्बलरजोहरणादिना मुनेः संयमोपकारकत्वमिति प्रथमनिश्रास्थानम् १। तथा गणः-गच्छोऽपि धर्मोपग्राहकः । तदुक्तम् " गुरुपरिवारो गच्छो, तत्थ वसंताण निज्जरा विउला। विणयाउ तहा सारण, माईहिं न दोस पडिवत्ती । १ ॥ अन्नोन्नावेक्खाए, जोयम्मि तर्हि तर्हि पयतो।। नियमेण गच्छवासी, असंगपयसाहगो णेभो ।। २॥" छाया-गुरुपरिवारो गच्छः, तत्र वसा निर्जरा विपुला । विनयात्तथा सारणादिभिन दोपप्रविपत्तिः ॥ १ ॥ अन्योन्यापेक्षया योगे तत्र तत्र पर्यटन् । नियमेन गन्छवासी असहपद साधकोज्ञेयः ॥ २ ॥ है। वायुकाय श्वासोच्छ्वास रूपसे सहायक होने से सयमका उपकारक होता है, और वनस्पतिकाय पात्र पीठ, फलक आदि रूपसे एवं औषधि आदि रूपसे संयमका उपकारक होता है । तथा उसकाय संयमके उपकारक जो कम्बल रजोहरण आदि हैं उनके रूपले संयमका उपकारक होता है । इस प्रकारका यह प्रथम निधास्थान है, तथा गणगच्छ भी धर्मोंपग्राहक होता है । कहा भी है- 'गुरु परिवारोगच्छो" इत्यादि । ___ गुरु परिवारका नाम गच्छ है, इस गच्छमें रहनेवाले मुनिजनोंके कर्मों का विनय एवं सारण आदिसे निर्जरा अधिक होती है, तथा उसमें रहनेवालोंके चारित्रमें अतिचार आदिरूप दोष भी नहीं लगते हैं। अन्य अन्यकी अपेक्षासे उस उस योग, विहार करता हुआ साधु થઈ પડે છે. વાયુકાયિક શ્વાસોચ્છવાસની ક્રિયામાં સહાયક બનીને સંયમપાલ નમાં સહાયભૂત બને છે. વનસ્પતિકાયિક પાત્ર, ફલક, પીઠ આદિ ઉપકરણો રૂપે તથા ઔષધિ આદિ રૂપ સંયમના પાલન માં ઉપકારક બને છે. ત્રસકાયની રુવાટીમાંથી સંયમીને વસ્ત્ર, રજોહરણ આદિ બને છે, તેથી તેઓ સંયમમાં ઉપકારક બને છે. આ પ્રકારનું આ પ્રથમ નિશ્રાસ્થાન સમજવું. (૨) ગણુ અથવા ગ૭ સાધુનું બીજુ નિશ્રાસ્થાન છે. કહ્યું પણ છે કે "गुरुपरिवारो गच्छो" त्यहि- गुरुना परिवारने २७ ४ छ. એવા ગ૭માં રહેનારા સાધુ દ્વારા વિનય અને સારણ આદિ વડે કર્મોની નિર્જરા અધિક થાય છે. વળી ગચ્છમાં રહેનાર સાધુઓના ચારિત્રમાં અતિચાર આદિ રૂપ દે લાગવાનો સંભવ પણ ઓછો રહે છે. અન્ય અન્યની Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुंधा टीका स्था०५ उं०३ सू०७ कायादेर्धर्मोपकारणतानिरूपणम् २१३ योगः - कुशलमनोवाक्कायोदीरणलक्षणः । असङ्गः = मोक्षः । इति द्वितीयं निश्रास्थानम् २ | तथा - राजाऽपि धर्मोपग्राहको भवति, दुष्टकृतोपद्रवतः साधूनां रक्षणात् । उक्तं चात्र (C जिणुत्तं परमं धम्मं, पालिज्जालु कहं जगा ? | " सिया णो धम्ओि राया, तेयंसी पुहवीतले ॥ १ ॥ छाया - जिनोक्तं परमं धर्म, पालयेयुः कथं जनाः । स्यात् नो धार्मिको राजा, तेजस्वी पृथिवीतले ||१|| अन्यतीर्थिकैरप्युक्तम्"लोकाले लोके, धर्मं कुर्युः कथं हि ते । क्षान्ता दान्ता अहन्तारक्षेद्राजा तान्न रक्षति ॥ १ ॥ ܕܐ गच्छवासी संयमी नियमसे असङ्ग पदका साधक होता है, ऐसा जानना चाहिये २ | धार्मिक क्रियाओंमें कुशल मन वचन और कार्यका बना रहना यह यहां योग शब्द से लिया गया है । अथवा सर्वदा मन वचन और काकी शुद्धिका बना रहना यह योग शब्दसे गृहीत हुआ है । असङ्ग शब्दका अर्थ मोक्ष है । इस प्रकारका यह द्वितीय निवास्थान है २ तथा राजा भी धर्मोपकारक होता है, क्योंकि वह दुष्टजनकृत उपद्रवसे साधुओं की रक्षा करता है । कहा भी है " जिणुतं परमं धम्मं " इत्यादि । इस भूमण्डल पर यदि तेजस्वी राजा न हो तो मनुष्य जिनोक्त धर्मकी आराधना कैसे कर सकते हैं । अन्य तीर्थिकोंने भी ऐसा कहा અપેક્ષાએ તે તે ચેાગમાં વિચરતા ગચ્છવાસી સ*યમી સાધુ નિયમથી જ अस (भोक्ष) पहने। साधा भने छे. ધાર્મિક ક્રિયાઓમાં મન, વચન અને કાયને પ્રવૃત્ત કર્યા જ કરવા તેનું નામ ચેગ છે. અથવા મન, વચન અને કાયને સર્વદા શુદ્ધ રાખવા તેનું नाम योग छे. 'असं' भेटो' भोक्ष' मा प्रास्तु या जीभु નિશ્રાસ્થાન છે. (૩) રાજા પણ સાધુઓને ધમ સાધનામાં ઉપકારક થઈ શકે છે, કારણુ કે દુષ્ટ લાકા દ્વારા કરાતા ઉપદ્રવેાથી તે સાધુએની રક્ષા કરે છે. કહ્યુ પણ છે કે जिणुत्तं परमं धस्मं " त्याहि મા પૃથ્વી પર જે રાજા ન હેાત તે મનુષ્ય જિનાક્ત ધર્મનો આશ ધના કેવી રીતે કરી શકત ! અન્ય મતવાદીએએ પણ એવુ જ કહ્યુ` છે કે Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अराजकेहि लोकेऽस्मिन् सर्वतो विदुने भयात् । 1 रक्षार्थमस्य सस्य, राजानमसृजत् प्रभुः || २ || इति । इति तृतीय निश्रा स्थानम् ३। तथा-गृहपति सय्यदायको धर्मोपग्रहकारको भवति, आवासदायकत्वेन तस्यापि तथात्त्रात् । तदुक्तम् 64 धृतिर्मतिर्गतिस्तेन, दत्ता दत्त सुखं तथा । गुणिभ्यः साधुमुख्येभ्यो, येन नाम समर्पितः ॥ १ ॥ " इति । -" जो देइ उवस्मयं जइवराणत नियमजोगजुत्ताणं । तेगं दिन्नात्यन्नासयगासगविगप्पा ॥ १ ॥ 97 तथा स्थानास्त्रे है-" क्षुद्र लो कु लोके " इत्यादि । क्षुदलोकों से युक्त इस लोक में अगर शांन दति दयालु की रक्षा राजा नहीं करे तो धर्म की रक्षा कैसे किया जाय । इन दोनों लोकोंका अर्थ स्पष्ट है । इस प्रकारका यह तृतीय स्थान है, चतुर्थ निशास्थान गृहपति है, क्योंकि गृहपति शय्यादायक होता है, अतः वह धर्मोपकारक होता है, इसलिये निवासदायक होने से वह भी विधान है । कहा भी है-" धृतिर्मतिर्गतिरतेन ' इत्यादि । जिसने साधुजनोंके लिये वाम प्रदान किया है, उसने उनके लिये वृति मति ज्ञान और गति प्रदान की है, तथा सुख दिया है । तथा" जो देह उवस्सयं " इत्यादि । जो तप, नियम, योग युक्त साधुजनोंके लिये उपाय देता है, वह उनके लिये शयन, आसन, वस्त्र, अन्न, पान आदि सब कुछ दिया क्षुद्रलोकाकुळे लोके " त्यहि मा जन्ने सोनो अर्थ स्पष्ट छे— (४) साधुगोनु थोथु निश्रास्थान गृड्डयति (गृहस्थ ) छे. २ } ગૃહપતિ શય્યાદાયક હૈય છે આ રીતે સાધુને નિવાસસ્થાન આપનાર હેાવાને કારણે તેને પણ નિશ્ર સ્થાન રૂપ પ્રકટ કરવામાં આવેલ છે. पाशुहे " "वृतिर्मतिर्गतिस्तेन " इत्यादि જેથે સાધુને નિવાસસ્થાન પ્રાન કર્યું છે, તેણે તેમને ધૃતિ, મતિ, ज्ञान भने गति प्रदान ४री छे तथा तेभने सुभ आभ्युं छे. तथा " जो देव उत्रस्लयं ” धूत्यादि—में तय नियम गने योगयुक्त साधुयाने उपाश्रय याये छे, तेथे तेमने शयन, आसन, वस्त्र, अन्न, पाथि आदि रुघणुं माप्यु છે, એમ સમજવું. આ પ્રકારનું આ ચૈત્યું નિશ્રસ્થાન છે, ८८ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१५ सुधा टीका स्था०५ ७०३१.७ कायादेर्धर्मावकारणतानिरूपणम् छाया--पो ददात्युपाश्रयं यतिवरे यस्तो नियमयोगयुक्तेभ्यः । तेन दत्ता वस्त्रानपानशयनासनविकल्पाः ( प्रकाराः) ॥१॥ इति । इति चतुर्थ निश्रास्थानम् ।। तथा-शरीरमपि धर्मोपग्राहकम् । तथा चोक्तम्" शरीरं धर्मस धुक्तं, रक्षणीयं प्रयत्नतः। शरीरात् स्रवते धर्मः, पर्वतात् सलिलं यथा ॥ १ ॥" इति । इति पञ्चसं निश्रास्थानम् ५। एनस्पञ्चविधनिश्रास्थानोपग्राहिका गाथा एवं निर्दिष्टातथाहि-"धर्म चरतः साधोलोक निश्रापदानि पञ्चैव । राजा गृहपतिरपरः, पटकाया गणशरीरे च ॥१॥ इति । "म०७॥ समझना चाहिये इस प्रकारका यह चीथा निश्रास्थान है । तथा पांचा निश्रास्थान धषिग्राहक शरीर भी है। कहा भी है " शरीरं धर्मसंयुक्तं" इत्यादि । धर्मसंयुक्त शरीरकी बडी सावधानीके साथ रक्षा करनी चाहिये क्योंकि जिस प्रकार पर्वतले पानी झरता है, उसी प्रकार शरीरसे धर्मरूप पानी झरता है। इन पांच प्रकार के निवास्थानों में धोपग्राहिकता प्रकट करनेवाली एक यह गाथा भी है-" धर्म चरतः साधोलेकि " इत्यादि । धर्मका आचरण करनेवाले साधुके नित्रापद पांचही होते हैं । एक षट्काय दूसरा गण तीसराराजा चौथा गृहपति और पांचवां शीरहै ७॥ (૫) સાધુઓનું પાચમું નિશ્રાસ્થાન ધર્મોપગ્રાહક શરીર છે કહ્યું પણ छ ? " शरीरं धर्मसयुक्तं ' त्याल-मसयुत शरीन unll सावधानी પૂર્વક રક્ષા કરવી જોઈએ, કારણ કે જેમ પર્વત પરથી પાણી ઝરે છે એ જ પ્રમાણે શરીરમાંથી ધર્મરૂપી પાણી ઝરે છે. આ પંચ પ્રકારના સ્થાનમા ધર્મોપગ્રાહિતા પ્રકટ કરનારી એક ગાથા नीय प्रमाणे छ. “धम चरत साधोलोके" त्या ધર્મની આરાધના કરતા સાધુઓને માટે રાજા, ગૃહપતિ, છકાયના વે, ગણ અને શરીર એ પાંચ જ નિશ્રાસ્થાને છે કે સૂ. ૭ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ स्थामा साधु सम्बन्धीनि पश्च निश्रास्थानान्युत्त वा सम्प्रति निधिरूपाणि लौकिकानि पञ्च निवास्थानान्याह-- मूलम्--पंच णिही पाणता, तं जहा--पुत्तणिही १ मित्तणिही २ सिप्पणिही ३ धणणिही ४ धन्नणिही ५॥ सू० ८॥ छाया-पञ्च निधयः प्रज्ञप्ताः तद्यथा-पुत्रनिधिः १ मित्रनिधिः २ शिल्पनिधिः ३, धननिधिः ४, धान्यनिधिः ५ ॥ सू०८॥ टीका-पंच णिही' इत्यादि निधयः पञ्चसंख्यकाः प्रज्ञप्ताः, तानेवाह-तद्यथा-पुत्रनिधिः-न्ति धीयतेस्थाप्यते यत्र स निधिः-विशिष्टरत्न सुवर्णादि द्रव्यभाजनं, निधिरिव निधिः, पुत्रश्चासौ निधिश्चेति । धनोपार्जनेन मातापित्रोः परिपोषकतया पुत्रस्य निधिः त्वम् । अत एव पुत्रमुखावलोकन पित्रोरानन्दजनक भवति । तदुक्तम्'" जन्मान्तरफलं पुण्यं, तपोदानसमुद्भवम् ।। सन्ततिः शुद्धवंश्या हि परत्रेह च शर्मणे ॥ १ ॥ इति ॥ इति प्रथमो निधिः १। इस प्रकारसे साधु संबन्धी पांच निश्रास्थानोंको कह कर अब सूत्रकार लिधिरूप लौकिक पांच निश्रास्थानोंका कथन करते है-- ___ 'पंच णिही पण्णत्ता' इत्यादि सत्र ८॥ निधि पांच कही गई हैं-जैसे-पुत्रनिधि १ मित्रनिधि २ शिल्प. निधि ३ धननिधि ४ और धान्यनिधि ५। विशिष्ट रत्न सुवर्णादि द्रव्यका जो भाजन होता है, वह निधि है, पुत्ररूप जो निधि है, वह पुत्रनिधि है, पुत्रको जोनिधिरूप कहा गया है, उनका कारण धनोपार्जन द्वारा मातापिताका परिपोषक होनेसे कहा गया है, इसीलिये पुत्र के सुखका अवलोकन मातापिताको आनन्दका जनक होता है। कहा भी है--" जन्मान्तरं फलं पुण्यं " इत्यादि। આ રીતે સાધુઓના પાચ નિગ્રસ્થાને પ્રકટ કરીને હવે સૂત્રકાર નિધિ રૂપ પાંચ લૌલિક નિશ્રાસ્થાનેનું નિરૂપણ કરે છે. “प'च णिही पण्णत्ता" त्यादि पाय घसरना निEि Bा छ-(१) पुत्रनिधि, (२) भित्रनिधि, (3) NEनिधि, (४) धननिधि भने (५१ धान्यनिधि.. વિશિષ્ટ રન સુવર્ણાદિના ભંડારને નિધિ કહે છે પુત્ર રૂપ જે નિધિ છે તેને પુત્રનિધિ કહે છે પુત્રને નિધિરૂપ કહેવાનું કારણ એ છે કે તે ધને પાર્જન કરીને માતાપિતાનું પાલન વિણ કરે છે તેથી જ પુત્રનું દર્શન અથવા પુત્ર પ્રાપ્તિ માતાપિતાને માટે આનંદજનક થઈ પડે છે. કહ્યું પણ છે કે "जन्मान्तर फल पुण्यं " त्याह Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुघाटीका स्था०५७०३०८ कायादेर्धमोंपकरणतानिरूपणम् ૫૭ तथा - मित्रनिधिः- मेयति-स्नियतीति नि= सुन्, तचतनिधिश्चेति । अर्थादि साधने साहाय्यकरणेन मित्रस्यानन्दजनकत्वात् निधित्वम् । तदु'कुतस्तस्यास्तु राज्यश्री, कुतस्तस्य मृगेक्षणाः । (( J यस्य शूरं विनीतं च नास्ति मित्रं विचक्षणम्ः " ॥ १ ॥ इति । इति द्वितीयो निधिः २ | तथा - शिल्पनिधिः- शिल्पं = चित्रादिविज्ञानं तदेव निधिः- शिल्प - निधिः । शिल्पं च विद्याया उपलक्षणम् । तेन विद्यापि निधिरिव पुरुषार्थसाधकत्वाद् बोध्या । तप और दान से उत्पन्न हुआ पुण्य परलोकमें जीवों को सुख देनेघाला होता है, परन्तु शुद्धवंश में उत्पन्न हुई संतति परलोक एवं इहलोक दोनों लोकों में आनन्द देनेवाली होती है । इस प्रकार की यह पुत्ररूप निधि पहिली लौकिक निधि है । जो स्नेह करता है, वह मित्र सुहृत् है । सुहृत रूप जो निधि है, वह सुहृत् निधि है । मित्रको जो निधिरूप कहा गया है, उसका कारण यह है, कि वह अर्थादिके साधन में सहायता करनेसे आनन्दजनक होता है । कहा भी है- " कुनस्तस्यास्तु राज्यश्रीः " इत्यादि । जिसको शुर विनीत एवं विचक्षण मित्र नहीं है, उसको कहांसे तो राज्यश्री हो सकती है, और कहांसे मृगेक्षणा- मृग के जैमी नेत्रबोली प्राणप्यारी हो सकतीं है । इस प्रकारकी यह द्वितीय निधि है । चित्रादिके विज्ञानका नाम शिल्प है, यह शिल्लरूप जो निधि है, वह शिल्पनिधि है । शिल्प यह विद्याका उपलक्षण है, इससे पुरुषा તપ અને દાન કરવાથી પ્રાપ્ત થતુ પુણ્ય તા જીવને પરલે કમા જ સુખદાયી થાય છે, પશુ સુપુત્ર તેા આલેક અને પરલેાક રૂપ બન્ને લેકમાં સુખદાયક થઈ પડે છે. આ પ્રકારના આ પુત્રરૂપ નિધિને પહેલે લૌકિક નિધિ હ્યો છે. (૨) નિત્રને ખીજા લૌકિક નિધિરૂપ કહ્યો છે. જે સ્નેહ કરે છે તે મિત્ર-સુત્ છે. એવા મિત્રરૂપ નિધિને મિત્રનિધિ અથવા સુહૃનિધિ કહે છે મિત્રને નિધિરૂપ કહેવાનુ કારણ એ છે કે તે અર્ધાંદિની પ્રાપ્તિમાં સહાયક ખનતે હેાવાથી આનંદદાયક થઈ પડે છે. કહ્યું પણ છે કે : ic Hatatung nzaef: Full જેને શૂર, વિનીત અને વિચક્ષણ મિત્ર હાતા નથી તેને રાજ્યશ્રીની પ્રાપ્તિ કેવી રીતે થઈ શકે અને મૃગના જેવા નયનવાળી પ્રાણપ્યારી પણ કેવી રીતે સભવી શકે! આ પ્રકારના આ ખીન્ને લૌકિકનિધિ કહ્યો છે. (૩) શિલ્પનિધિ—ચિત્રાદિના જ્ઞાનનું નામ શિલ્પ છે. આ પ્રકારના શિલ્પરૂપ જે નિધિ છે તેને શિપનિધિ કહે છે, શિલ્પ' પદ્મ વિદ્યાનું* ઉપલક્ષણ स्था०-२८ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानास उक्त च"विद्यया राजपूज्य: स्यात् , विद्यया रामान्यता । विया हि सर्व ठोकस्य, वशीकरणकारणम् " ॥ १ ॥ इति । इनि तृतीयो निधिः ३। तथा-धननिधिः-कोशः । धान्यनिधिश्च कोप्ठागारः इति चतुर्थपश्चनौ निधी । ४ । ५॥ मू० ८ ॥ ' इत्थं निधिः पञ्चविधः प्रोक्तः, स च द्रव्यतः पुत्रादि , भावतस्तु कुशलानु पठानरूपं ब्रह्म वय, तदेव शौचत्वेन विवक्षन् अन्यान्यपि शौचानि माह- मूलस्-सोए पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा-पुढविसोए १ आउसोए २ तेउसोए ३ मंतसोए ४ बंसोए ॥५॥ सू० ९॥ __छाया--शौचं पञ्चविध प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-पृथिवोशौचम् , १ अशीयम् २, तेजाशौचम् ३, मन्त्रशौचम् ४, ब्रह्म शौचम् ५॥ मू०९॥ धका साधनरूप होनेसे पिया भी निधिकी तरह समझनी चाहिये। कहा भी है-" विद्यया राज्यपूज्यः स्यात् " इत्यादि। मनुष्य विद्यासे राज्यपूज्य हो सकता है, और विद्यासे वह सर्य. मान्य हो सकता है, क्योंकि विद्या सर्वलोकको वशमें करनेका एक यशीकरण मन्त्र है, हम्न प्रकारका यह तृतीय निधिस्थान है। इसी प्रकारसे कोरा और धान्यागार रूप जो निधि है, वह चतुर्थ पंचम निधि है ४-५ ।। स्तू० ८॥ इस प्रकारसे पांच निधियों का कथन किया इनमें व्यरूप निधि पुत्रादिक हैं, और भावरूपनिधि कुशालानुष्ठानरूप ब्रह्मचर्य है, इसको शौचरूपसे कहने की इच्छाचाले आचार्य अब अन्य शौचोंका काथन करते हैं। હેવાથી તે વિદ્યાને પણ નિધિરૂપ સમજવી. વિદ્યા જ પુરુષાર્થમાં સાધનરૂપ मन छ. ह्य' ५५४ छ विद्यया राज्यपूज्यः स्यात् " पाहि વિદ્યાને કારણે મનુષ્ય રાજા વડે પણ પૂજાય છે. વિદ્યા વડે માણસ સમસ્ત કેમાં માનનીય બને છે, કારણ કે વિદ્યા સમસ્ત મનુષ્યને વશ કરવામાં વશીકરણ મંત્રની ગરજ સારે છે. આ પ્રકારનો આ ત્રીજે નિધિ સમજે. એ જ પ્રમાણે કેશ અને ધાન્યાગાર રૂપ જે ચે. અને પાંચમ નિધિ છે, તેને વિષે પણ સમજવું કે સૂ ૮ ૫ - આ પ્રકારના પાંચ નિધિએનું કથન કરવામાં આવ્યું. તેમાંથી પુત્રાદિકને દ્રય રૂપ નિધિ સમજવા કુશલાનુષ્ઠાન રૂપ બ્રહ્મચર્યને ભાવરૂપ નિધિ સમજ. તેને શૌચ રૂપે પ્રકટ કરવાની અભિલાષાવાળા સૂત્રકાર હવે અન્ય Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुघटीका स्था०५ उ०३ सू०९ शौच न्यायनिरूपणम टीका- सोए ' इत्यादि शुचिःशुद्धिः सैत्र शौचम् । तच द्रव्यतः चतुर्विध भाषन एकविधम् । पश्च. विधमपीदं शौचं तत्तन्नाम्ना व्यपदिशति, तप्रधा-पृथीवीशीवम्-पथिव्या-मृत्तिकया शौच शुद्धिः-शरीरादिपु मृत्तिकाया घर्पणापले पनेन ततो मलदुर्गन्धदूरीका रणमित्यर्थः । इति प्रथमं शौचम् । तथा अशौचम्-अद्भिः-जलैः शौचम्=प्रक्षा. लनम् २१ तेजः शौचम्-तेजसा अग्निना तद्विकारेण भस्मना वा शौचम् ३॥ मन्त्र शौचम्-मन्त्रेण-शुचिविद्यया शौचम् ४। तथा-पञ्चमं ब्रह्मशौचम्-ब्रह्मब्रह्मचर्यादि कुशलानुष्ठानं, तदेव शौच ब्रह्मशौचम् । अनेन सत्यशौचं तपः शौचम इन्द्रियनिग्रहशौच सर्वभूतदयाशौचम् चेति चतुर्वियमपि शौच गृहीत्तम् सोए पंचविहे पण्णत्ते' इत्यादि सूत्र ९॥ . .. - टीकार्थ-शौच पांच प्रकारका कहा गया है जैसे-पृथिवी शौच १ अपशौच २ तेजः शौच ३ मन्त्र शौच ४ और नावाचयें शौच ५ शुद्धिका नाम शौच है, यह द्रव्यकी अपेक्षा चार प्रकारका कहा गया है, और भावकी अपेक्षा एक प्रकारका कहा गया है, पाँच प्रकारके भी हम शौचको सूत्रकारने उस २ नामसे कहो है, जैसे पृधिवीशौच आदि-मृत्तिका द्वारा जो शुद्धि की जाती है वह पृथिवीशौच है, मिट्टी से हाथोंको धोना , शरीर पर मिट्टी लगाना इत्यादि लौकिक क्रियाएँ इस पृथिवी शौचमें आ जाती हैं । जलसे शुद्धि करना यह अय् शौच है। तेज अग्निसे या राग्वसे शुद्धि करना यह तेजः गौच है मंत्र से शुचि विद्यासे • जो शुद्धि करता है यह मन्त्र शौच है, ब्रह्मचर्य आदि कुशल अनु ष्ठान करमा यह ब्रह्म शौच है। इससे सत्यशौच, तपः शौच, इन्द्रिय शीयाने ५४८ ४२ छ. 'सोए पचविहे पण " त्याह साथ-शायना नीय प्रमाणे पांय ४२ -(१) पृथ्वीशीय, (२) म५शौय, (3) तशीय, (४) मशीय, मने (५) प्रहायशीय શૌચ એટલે શુદ્ધિ દ્રવ્યની અપેક્ષાએ શૌચના પૃથ્વીશૌચથી લઈને મંત્રશૌચ પર્યન્તના ચાર પ્રકાર સમજવા અને ભાવની અપેક્ષાએ તેને બ્રહ્મચર્યશૌચ નામને એક જ પ્રકાર સમજ - માટી દ્વારા શરીરની જે શુદ્ધિ થાય છે તેનું નામ પૃથ્વીૌચ છે. માટી વડે હાથની શુદ્ધિ કરવી, શરીર પર માટીને લેપ કરવો આવિ લૌકિક ક્રિયાએને આ પૃથ્વી શોચ રૂપ કહી શકાય છે. પાણી વડે શરીર આદિની શુદ્ધિ કરવી તેનું નામ અપચ છે પ્રકાશ, અગ્નિ અથવા રાખ વડે શુદ્ધિ કરવી તે તેજશૌચ છે. માત્ર વડે (શુચિ વિદ્યા વડે) શુદ્ધિ કરવી તેનું નામ મંત્રશૌચ છે. પ્રાચર્ય આદિ કુશલ અનુષ્ઠાન કરવા તેનું નામ બ્રāશૌચ છે. બ્રા Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૦ "6 सत्यं शौचं तपः शौचं, शौचमिन्द्रियनिग्रहः । सर्वभूतदया शौच, जलशौंच च पञ्चमम् ॥ १ ॥ " इति । अन्यतीर्थिकैः पुनरिदं शौचं सप्तविधं मोक्तं तथाहि"सप्तस्नानानि प्रोक्तानि स्वयमेव स्वयम्भुवा । व्यभावविशुद्धयर्थम् ऋषीणां ब्रह्मवादिणाम् ॥ १ ॥ आग्नेयं वारुणं ब्राह्म, वायव्य दिव्यमेव च । पार्थिवं मानसं चैत्र स्नानं सप्तविध स्मृतम् ॥ २ ॥ आग्नेयं भस्मना स्नानमवगाह्येतु वारुणम् आपोहिष्ठामयं ब्राह्म वायव्यं तु गवां रजः ३ ॥ , स्थानासूत्रे निग्रह शौच और सर्वभूत दया शौच ये जो चार प्रकारके शौच हैं, वह भी गृहीत हो जाता है । कहा भी है " सत्यं शौच तपः शौचं " इत्यादि । अन्य तीर्थिकोंने जो सात प्रकारका शौच कहा है वह इस प्रकार से " सप्त स्नानानि प्रोक्तानि " इत्यादि । ऋषी ब्रह्मचारियोंका द्रव्य एवं भावकी शुद्धि के लिये स्वयंभूने ये सात स्नान कहे हैं - आग्नेय १ वारुण २ ब्राह्म ३ वायव्य ४ दिव्य ५ पार्थिव ६ और मानस स्नान ७ इनमें जो राखसे स्नान किया जाता है, वह आग्नेय स्नान है, जलसे जो स्नान किया जाता है, वह वारुण स्नान है.... मंत्र से जो स्नान किया जाय ... वह ब्रह्मस्नान है, गोधूलिसे શૌચમાં સત્યશૌચ, તપ.શોચ, ઇન્દ્રિય નિગ્રહશૌચ અને સભૂત દયાશૌચના પણ સમાવેશ થઈ જાય છે. કહ્યું પણ છે કે— " सत्यं शौच तपः शौच " त्याहि અન્ય તીથિકાએ સાત પ્રકારના જે શૌચ કહ્યા છે, તે નીચે પ્રમાણે છે " सप्तस्नानानि प्रोक्तानि " त्याहि બ્રહ્મચારી ઋષિઓની દ્રવ્યશુદ્ધિ અને ભાવશુદ્ધિ નિમિત્તે સ્વયંભૂઐ सात स्नान ह्यां छे- (१) आग्नेय, (२) वारुणु, (3) ग्राह्म, (४) वायव्य, · (4) द्विव्य, (६) पार्थिव भने (७) मानस स्नान. 1 રાખથી જે સ્નાન કરાય છે તેનું નામ આગ્નેય સ્નાન છે. પાણી વડે જે સ્નાન કરાય છે, તેનું નામ વારુજી સ્નાન છે. મંત્ર વડે જે સ્નાન ફરાય છે, તેનું નામ બ્રહ્મસ્નાન છે. ગેધૂલિ વડે જે સ્નાન કરાય છે, તેનુ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा रोको स्था०५१०३ सू०१० छद्मस्थकेवलिनोरशेयज्ञेयपदार्थनिरूपणम् २१ सूर्यदृष्टं तु यदृष्ट, तदिव्यमुपयो विदुः । पार्थिवं च मृदा स्नानं, मनः शुद्धिस्तु मानसम् ॥ ४ ॥” इति ।मु०९॥ पूर्वमुत्रे ब्रह्मशौचभुक्तम् तच्च जीवशुद्धिरूपम् । जीवं तु छद्मस्थो न विजानाति केवली तु विजानातीति सम्बन्धाच्छद्मस्थकेवलिनोरज्ञेयज्ञेयपदार्थान् पञ्चधा "प्रतिपादयति मूलम् -पंच ठाणाई छउमत्थे सव्वभावेणं ण जाणइ, ण पासइ, तं जहा-धम्मस्थिकायं १ अधम्मत्थिकायं २ आगासथिकाय ३ जीवं असरीरपडिबद्धं ४, परमाणुपोग्गलं ५। एयाणि चेव उप्पन्ननाणदंसणधरे अरहा जिणे केवली सम्वभावेणं जाणइ पालइ धम्मत्थिकायं जाव परमाणुपोग्गलं ॥सू० १०॥ छाया-पश्च स्थानानि छद्मस्थः सर्वभावेन न जानाति न पश्यति, तद्यथाधर्मास्तिकायम् १ अधर्मास्तिकायम् २ आकाशास्तिकायम्' ३ जीवम् अशरीरप्रतिवद्ध ४ परमाणु युद्गलम् ५। एतान्येव उत्पन्नज्ञानदर्शनधरः अर्हन् जिनः केवली 'सर्वमावेन जानाति पश्यति-धर्मास्तिकायं यावत् परमाणुपुद्गलम् ॥०१०।। जो स्नान किया जाता है, वह वायव्य स्नान है, मूर्यका आताप लेना यह दिव्य स्नान है, मृत्तिका से जो स्नान है, वह पार्थिव स्नान है, और मनकी शुद्धि करना यह मानस स्नान है ।मु०॥ इस प्रकारसे यह शोच कहा है, यह शौच जीदकी शुद्धि रूप होता है, छद्मस्थ जीवको नहीं जानता है, केवलीही जीवको जानते हैं, सो इस सम्बन्धको लेकर अबसूत्रकार छद्मस्थ और केवलीके जो अज्ञेय ज्ञेय पदार्थ हैं, उनके पांच प्रकारोंका कथन करते हैं-- _ 'पंच ठाणाई छउमत्थे सव्वभावेणं ण जाणइ इत्यादि' सूत्र १० ॥ નામ વાયવ્યસ્નાન છે. સૂર્યના તડકા વડે જે આતાપના લેવાય છે, તેનું નામ દિવ્યસ્નાન છે. માટી વડે જે સ્નાન કરાય છે, તેનું નામ પાર્થિવસ્નાન છે. અને મનની શુદ્ધિ કરવા રૂપ માનસસ્નાન હોય છે. એ સૂ. ૯ | આ પ્રકારના આ શૌચ કહ્યાં છે તે શૌચ જીવની શુદ્ધિરૂપ હોય છે. છદ્મસ્થ મનુષ્ય જીવને જાણતા નથી, કેવલી જ જીવને જાણે છે. આ પ્રકારના સંબધને અનુલક્ષીને હવે સૂત્રકાર છસ્વસ્થ અને કેવલીને જે અય અને રેય પદાર્થો છે તેમના પાંચ પ્રકારનું કથન કરે છે. Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५३ स्थानात सूत्रे टीका - पंच ठाणाई ' इत्यादि छास्थः- अवधिज्ञानमनःपर्यवज्ञानवर्तितो मुनिः पञ्चस्थानानि सर्वमा'वेन= साक्षात्कारेण= प्रत्यक्षतयेत्यर्थः, न जानाति न पश्यति । तानि स्थानान्याह - - तद्यथा-धर्मा स्विकार्यमित्यादि । तत्र अशरीए प्रतिबद्धम् = शरीरवर्जित जीवम् । परमाणुपुद्गलम् - परमाणुश्रासौ पुति तम् । इदं द्वणुकादीनामप्युपलक्षणम्, तेन यणुकादीनपि छद्मस्थः साक्षात्कारेण नो जानाति नो पश्यति । श्रुतज्ञानेन टीकार्थ - अवधिज्ञान एवं मनः पर्यवज्ञान से रहित मुनिरूप छद्मस् इन पांच स्थानों को सर्वभाव से साक्षात् रूप से प्रत्यक्षरूप से नहीं जानता है, नहीं देखता है, वे पांच स्थान इस प्रकार से हैं वर्मानिकाय १ अधर्मास्ति काय २ आकाशास्तिकाय ३ अशरीरप्रतिवद्ध जीव ४ और परमाणु पुल ५ । इन्हीं पांच स्थानोंको उत्पन्नज्ञानदर्शनधारी अर्हन्त जिन केवी सर्वभावसे साक्षात् रूपसे जानते हैं देखते हैं। वे पांच स्थान धर्मास्तिकाय यावत् परमाणु पुद्गल हैं । अवधिज्ञान एव मनः पर्यवज्ञानघाले जीव भी छद्मस्थ जीवमं गृहीत किये गये हैं, अतः वे यहां गृहीत न हों इसीलिये टीकाकारने उन्हें वर्जित किया है, अशरीर प्रतिबद्धका भाव है, शरीर से रहित जीव परमाणु पुद्गल द्व्यणुक आदिका उपलक्षण है, अतः जैसा चछद्मस्थ परमाणु पुलको साक्षात् नहीं जानता है, उसी प्रकार से वह द्व्यणुक आदिको भी साक्षात् रूपसे नहीं जानना पच ठाणाई छउमत्ये सम्भावणं ण जाणइ " त्यहिઅવિષેજ્ઞાન અને મન પવજ્ઞાનથી રહિત એવા છદ્મસ્થ મુર્તિ આ પાચ સ્થાનેાને સભાવે, સાક્ષાત્ રૂપે, પ્રત્યક્ષ રૂપે જાણુને નથી. (૧) ધર્માસ્તિકાય (२) अधर्मास्तिप्राय (3) अ अशास्तिडाय, (४) अशरीर अतिमद्ध मने (4) परमाणु युद्धस. 66 એ જ પાંચ સ્થાનાને ઉત્પન્ન જ્ઞાન દશનધારી અર્હત જિન કેવલી સ ભાવે-સાક્ષાત્ રૂપે જાઘે છે અને દ્વેષે છે એટલે કે ધર્માસ્તિકાયથી લઈને પરમાણ્ પુદ્ગલ પર્યન્તના પાંચે સ્થાનાને કેવળજ્ઞની જીવ પ્રત્યક્ષ રૂપે જાણી શકે છે અને દેખી શકે છે અવિજ્ઞાની અને મનઃ યજ્ઞાતવાળા જીવને પણ છદ્મસ્થ જ ગણવામાં આવે છે, તેથી તેમને અહીં ગૃહીત કરવાના ન હાવાથી સૂત્રકારે તેમને અહીં વર્જિત કર્યાં છે. " अशरीर असिद्ध " ' એટલે શરીરથી રહિત છત્ર પરમાણુ પૉલ યણુક આનું ઉપલક્ષણ છે. તે છદ્મસ્થ જેમ પરમાણુ' પુદ્દલને સાક્ષાત્ રૂપે જાણતા નથી, એ જ પ્રમાણે તે યણૂક આદિને પણ્ સ ક્ષાત્ રૂપે જાણુતા નથી. શ્રુતજ્ઞાનની સહાયતાથી જ · Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था.५उ ३सू १० छास्थकेवलिनोरशेयझेयपदार्थनिरूपणम् २२३ तु धर्मास्तिकायादीन् जानात्येवेति अत्रेदं बोध्यम्-अवधिज्ञानी मनापर्यवज्ञानी च यद्यपि छद्मस्य एव तथापि स नेह विवक्षितः धर्मारितकायादीनां चतुर्णा सा. क्षात्कारेण ज्ञानाभावेऽपि परमाणुपुद्गलस्य साक्षात्कारेण ज्ञानात् । ननु सर्वभावेन इत्यस्य सर्वपर्यायेण इत्यर्थः, एवं च अवधिज्ञानी मनापर्ययज्ञानी च सर्वपर्यायेण परमाणुपुद्गलं न जानातीति छनस्थपदेन अवधिमनःपर्ययज्ञानिगोरपि ग्रहणे है, श्रुतज्ञानको सहायतालेही जानता है, तात्पर्य ऐसा है-यद्यपि अबधिज्ञानी मनः पर्ययज्ञानी छद्मस्थही हैं, परन्तु यहां उनकी विवक्षा नहीं हुई है, क्योंकि वे परमाणु पुद्गलको तो साक्षात् रूपसे जानते हैं, भलेही वे धर्मास्तिकायादिक चारको साक्षात् रूपसे नहीं जानते। - शंका-" सर्वभाव" इस पदका अर्थ है, सर्वपर्यायसे अतः अब विज्ञानी एवं मनः पर्ययज्ञानी जो जीव है, वह सर्वभावसे सर्वपर्या. पसे परमाणुपुद्गलको जानला नहीं है, इसलिये छनस्थ पदसे अवधि ज्ञानी और मनःपर्ययज्ञानी इनका भी ग्रहण कर लिया जावे तो क्या हानि है ? उत्तर-" सर्वभावेन" इस पदका अर्थ दि " सर्वपर्यायः" ऐसा माना जाय और ऐसा मानकर यह कहा जायकि अशरीर प्रति. पद् जीवको छद्मस्थ सर्व पर्यायरूपले साक्षात् नहीं जानता है, साक्षात् नहीं देखता है, तो इसका भाव ऐसा होता है, कि वह शरीर प्रतिबद्ध જાણે છે આ કથનનુ તાત્પર્ય એવું છે કે અવધિજ્ઞાની અને મનપજ્ઞાની છવાસ્થ જ છે, છતાં પણ અહી તેમની વિવસા થઈ નથી કારણ કે તેઓ પરમાણુ પુલને તે સાક્ષાત રૂપે જાણે જ છે, ભલે તેઓ ધર્માસ્તિકાય આદિ ચારને સાક્ષાત્ રૂપે જાણતા નથી --" समाव" मा पहने। म ‘स पर्यायनी अपेक्षा' थाय છે તેથી અવધિજ્ઞાની અને મન:પર્યયજ્ઞાની જે જીવે છે. તેઓ સર્વભવે, સર્વ પર્યાયની અપેક્ષાઓ-પરમાણુ યુદ્ધલને જાણતા નથી, એવું સિદ્ધ થાય છે તે પછી છઘ પ વડે અવધિજ્ઞાની અને મન પર્યાયજ્ઞાનીને પણ ગ્રહણ કરવામાં શો વાધો છે ? . उत्तर- सर्वभावेन " मा पहने। मथने " स य ३" भान. વામાં આવે, તે અને એ પ્રકારનો અર્થ માનીને જો એવું કહેવામાં આવે કે “અશરીર પ્રતિબદ્ધ જીવને છાસ્થ સર્વ પર્યાય રૂપે સાત જાણતો નથી અને સાક્ષાત દેખતે નથી,” તે તેના દ્વારા એ ભાવ પ્રકટ થાય છે Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानासूत्रे २२४ - न कापि हानिरितिचेत्, अशेच्यते यदि सर्वभाषेन इत्यस्य सर्वपर्ययेण इत्यर्थः स्वीक्रियते, तर्हि 'अशरीरप्रतिबद्धं जीत्रं छद्मस्थः सर्वपर्यायेण न जानाति न पश्यतीत्युक्ते शरीरप्रतिवद्धं जीवं तु सर्वपर्यायेण जानाति पश्यतीत्यर्थे गम्यते । न च शरीरमतिवद्धं जीवम् अवधिज्ञानी मनःपर्ववज्ञानी च सर्वपर्यायेण जानाति । अतः ' सर्वभावेन ' इत्यस्य ' साक्षात्कारेण ' इत्येवार्थे युक्तः । परमाणु पुद्गलं तु साक्षात्कारेण अवध्यादि ज्ञानीजानात्येव, अतः - छत्रस्थपदेनात्र अध्यादि रहित एव ग्राह्य इति । जिनस्तु एतानि पञ्च स्थानानि साक्षात्कारेण जानाति - इत्याह-' एयाणि चेव ' इत्यादि इति ॥ १० ॥ O पूर्वोक्त धर्मास्तिकायायतिरिक्तानप्यतीन्द्रियभाव न जिनो जानातीत्यधोलोकोदूर्ध्वलोकवर्तीन् अतीन्द्रियान् भावान् पञ्च स्थानकत्वेनाह- मूलम् - अहोलोएणं पंच अणुत्तरा महइमहालया महानिरया पण्णत्ता, तं जहा - काले १ महाकाले २ रोरुए ३ महाजीवको साक्षात् जानता है, और साक्षात् देखता है, परन्तु ऐसा अर्थ मानना भी संगत नहीं होता है, क्योंकि अवधिज्ञानी और मनः पर्ययज्ञानी जीवको शरीर प्रतिवद्ध जीवको सर्वपर्यांय सहित न जानता है, और न देखता है, इसलिये " सर्वभाव " पदका अर्थ " साक्षात्कार ऐसाही यहां करना चाहिये " सर्वपर्यांय " ऐसा नहीं करना चाहिये अतः ऐसी अर्थ संगति में कोई दोष नहीं आता है, क्योंकि अवधिज्ञान आदिवाले जीव परमाणु पुगलको साक्षात् रूपसे जानते ही हैं । इसलिये छद्मस्थ पद से यहां अवधिज्ञान आदिले वर्जित पुरुषही लेना चाहिये । जिन भगवान् तो इन पांच स्थानोंको साक्षात् रूपही से जानते हैं, यही बात " एयाणि चेव " इत्यादि सूत्र पाठ द्वारा प्रकटकी गई है । सू० १० ॥ 11 કે તે શરીર પ્રતિખદ્ધ જીવને સાક્ષાત્ જાણે છે અને સાક્ષાત્ દેખે છે, પરન્તુ એવા અર્થ પશુ સંગત લાગતા નથી કારણ કે અધિજ્ઞાની અને મનઃપય જ્ઞાની મનુષ્ય શરીર પ્રતિબદ્ધ જીવને સપર્યાય સહિત જાણુતા નથી અને દેખતા નથી તેથી “ સભાવ ” પદને અર્થ અહીં “ સાક્ષાત્કાર ” જ કરવા જોઇએ . “ સપર્યાય ” એવા અર્થ અહીં કરવા જોઇએ નહી તેથી એવી અસંગતિમાં કોઇ દોષ રહેતા નથી, કારણ કે અવધિજ્ઞાન આદિવાળે! જીવ પરમાણુ પુદ્ગલને સાક્ષાત્ રૂપે જાણે જ છે. તેથી છદ્મસ્થ પદ દ્વારા અહીં અવધિજ્ઞાન : દિથી રહિત પુરુષને જ ગ્રહણ કરવેા જોઇએ જિતેન્દ્ર ભગવાન तो आ पाये स्थानने साक्षात् ३ये ये छे, मेवातने " एयाणि चेव " ઇત્યાદિ સૂત્રપાઠ દ્વારા પ્રકટ કરવામાં આવેલ છે. ા સૂ, ૧૦ ॥ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा का स्था०५ ३०३सू०११ अधोलोको लोपवत अतीन्द्रियमानि० २२५ रोलए ४ अप्पइट्ठाणे ५। उडलोए णं पंच अणुत्तरा महइमहालया महाविमाणा पण्णत्ता, तं जहा-विजए १ वैजयंते २ जयंते ३ अपराजिए ४ सव्वदसिद्धे ॥ सू० ११ ।। छाया--अधोलोके खलु पञ्च अनुत्तरा महातिमहालयाः महानिरयाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-कालो १ महाकालो २ रौरवो ३ महारौरवः ४ अप्रति ठान: ५। ऊर्ध्वलोके खलु पञ्च अनुत्तरा महातिमहालया महाविमानाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-विजयो १ वैजयन्तो २ जयन्तः ३ अपराजितः ४ सर्वार्थसिद्धः ५ ।मु० ११।। इन पूर्वोक्त धर्मास्तिकाय आदि से अतिरिक्त भी अतीन्द्रिय पदा. धों को जिन भगवान् जानते हैं, यही बात प्रकट करने के लिये अपोलोकवी अलोवती अतीन्द्रिय सामोशी प्ररूपणा अघ सूत्रकार पांच स्थानोले करते हैं--'अहोलोएणं पंच अणुत्तरा' इत्यादि सून ११॥.. सूत्रार्थ--इस सूत्रको व्याख्या स्पष्ट है-अधोलोकमें साल पृथिवी हैं उनमें जो सातवीं पृथिवी है, उसमें पांच अनुत्तर बहुत बड़े विशाल महानिरय कहे गये हैं, उनके नाम इस प्रकार से हैं-काल १ महाकाल २, रौरव ३, महा रौरव ४, और अप्रतिष्ठान ५, उवलोकमें पांच नाम अनुत्तर महाविमान जो कि बहुत बडे विशाल कहे गये हैं, उनके नाम इस प्रकार से हैं-विजय १ वैजयन्त २ जयन्त ३ अपराजित ४ और सर्वार्थ सिद्ध ५। આ પૂર્વોક્ત ધર્માસ્તિકાય આદિ સિવાયના અન્ય અતીન્દ્રિય પદાર્થોને પણ જિન ભગવાન જાણે છે એ જ વાતને પ્રકટ કરવા માટે સૂત્રકાર હવે અલેકવર્તી અને ઉર્વવર્તી અતીન્દ્રિય ભાવની પ્રરૂપણ પાંચ સ્થાનની अपेक्षा ४२ छ. " अहोलोएण पंच अणुत्तरा " त्याह સૂત્રાર્થ–આ સૂત્રની વ્યાખ્યા સુગમ છે અલોકમાં સાત પૃથ્વી (રત્નપ્રભા આદિ નરકે) છે. તેમાંની જે સાતમી પૃથ્વી છે તેમાં પાચ અનુત્તર (ઘણાજ विशा) २४वास मासा छ. तमना नाम मा प्रमाणे छ-(१) ल, (२) मास, (3) पोप, (४) मडारी२३ गने () मप्रतिष्ठान. ઉર્વલોકમાં પ ચ અનુત્તર મહાવિમાને છે તેમનાં નામ આ પ્રમાણે छे-(१) मिश्य, (२) वैश्यन्त, (3) ४य-1, (४) मपराजित गने (५) સર્વાર્થસિદ્ધ, स्था०-२९ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ स्थाना tame टीका--' अहोलोए ' इत्यादि- व्याख्या स्पष्टा । नत्ररम्-अधोलोके सप्तमपृथिव्याम् | अनुत्तराः - नास्ति उत्तरः = उत्कृष्टो येभ्यस्ते - सर्वोत्कृष्टा इत्यर्थः । सर्वोत्कृष्टत्वं तु उत्कृष्टवेदनादित्वात् ततः परं नरकाभावाद वा वोध्यम् । महातिमहालयाः - अतिमहान्तः - अति विशाला इत्यर्थः । अति महत्वमादितचतुवर्णां क्षेत्रतोऽप्यसख्यातयोजनत्वेन बोध्यम् । अप्रतिष्ठानो यद्यपि क्षेत्रतो योजनलक्षप्रमाण एव तथापि तत्रत्यानां नारकजीवानामायुषोऽतिमहत्वात्तस्य महत्त्वं बोध्यमिति । एवमूर्ध्वलोकेऽपि विज्ञेयम्, न वरम् ऊर्ध्वलोके सातावेदनादित्वं बोध्यम् ।। सू० ११॥ टीकार्थ - इस सूत्र की व्याख्या स्पष्ट है, जिनकी अपेक्षा कोई और उत्कृष्ट नहीं होता है, वे अनुत्तर है- सर्वोत्कृष्ट हैं । सर्वोत्कृष्टता इनमें उत् वेदनावाले होने से आई हैं । अथवा इनके बाद और नरक नहीं इस कारण भी इनमें उत्कृष्टता कही गई है, महातिमहालय शब्दका अर्थ अति विशाल है। इनमें अतिविशालता आदिके चारोंमें क्षेत्रकी अपेक्षा असंख्यात योजनके होनेसे है । अपतिष्ठान यद्यपि क्षेत्रकी अपेक्षा १ लाख योजनाही है । तब भी वहांके नारक जीवोंकी आयु अति महान है, इसलिये इसमें इस अपेक्षा अति महत्ता कही गई है। इसी तरह कथन उर्ध्वलोक में भी जानना चाहिये। यहां पर जो महत्ता प्रकट की गई है यह " सातावेदनीयका तीव्र उदय रहता है, अतः उसले यहां सातवेदन आदिका प्रकृष्ट अनुभव होता रहता है " इस अपेक्षा प्रकट की गई है । सू० १९ ॥ ટીડા જેના કરતાં કઈ પશુ ઉત્કૃષ્ટ ન હોય તેને અનુત્તર અથવા સર્વત્કૃષ્ટ હે છે. કાલ, મહાકાલ આદિ પાંચ નરકવાસેામાં ઉત્કૃષ્ટ વેદનાવાળા નારકાને કારણે સચેત્કૃષ્ટતા સમજની અથવા તે નરકાવાસૈાની નીચે બીજી કાઈ પન્નુ નરકા નહીં હાવાને કારણે પણ તેમાં સર્વોત્કૃષ્ટતા સમજવી. ‘મહાતિમહાલય ’ એટલે અતિ વિશાળ' પહેલાં ચાર નરકાવાસા અસખ્યાત ચેાજનપ્રમાણ હાવાને કારણે તેમનામાં ક્ષેત્રની અપેક્ષાએ અતિ વિશાળતા સમજવી. તે કે અપ્રતિષ્ઠાન નામના પાંચમા નરકાવાસ એક લાખ ચેાજતપ્રમાણુ જ છે, છતાં પણ તેમાં નારકનું આયુષ્ય અતિ મહાન હાવાથી તે દૃષ્ટિએ તેમાં સર્વોત્કૃષ્ટતા પ્રકટ કરવામાં આવી છે. એ જ પ્રકારનું કથન ઉલાકના પાંચ અનુત્તર વિમાના વિષે પશુ સમજવું. ત્યાં સાતાવેદનીયના તીવ્ર ઉદય રહે છે. તેથી તે અનુત્તર વિમાનનિવાસી દેવે સાતાવેદનીય આદિના પ્રકૃષ્ટ અનુભવ કરે છે. તે કારણે તેમાં સર્વત્કૃિષ્ટતા પ્રકટ કરવામાં આવી છે. ॥ સૂ. ૧૧ ૫ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०५ उ०३ सू०१२ पञ्चविधपुरुषस्वरूपनिरूपणम् २२७ अनुत्तरनरकेषु अनुत्तरविमानेषु च विशिष्टसत्ता एव पुरुपा गन्उन्तीति पञ्चविधान पुरुपानाह-- मूलम्---पंच पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-हिरिसते १ हिरिमणसत्ते २ चल सत्ते ३ थिरसत्ते ४ उदयणसत्ते ५ ॥सू०१२॥ छाया-पञ्च पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, तपथा-ही सत्त्वः १ हीमनः सत्त्वः २ चलसत्तः ३ स्थिरसत्वः ४ उदयनसचः ५ ।मु० १२॥ टीका-'पंच पुरिसजाया' इत्यादि-- पुरुपजातानि-पुरुष प्रकाराः पञ्च मरूपितानि । तान्येवह-तद्यथा-झीसत्यःहिया लज्जयो सत्-स्थिति:-अवष्टम्भः अविचलत्वमिति यावत् परीपहेषु यस्य संयतस्य, संपामादिपु वा घस्य संयतेतरपुरुषस्य सः ।। तधा-हीमनःसत्त्व:हिया-मनस्येव सत्यं न तु शरीरे, शीतादौ कम्पादि-विकारदर्शनाद यस्य सः ___अनुत्तर नारकों में और अनुत्तर विमानों में विशिष्ट शक्तिशाली पुरुषही जाते हैं, इसलिये अब सुत्रकार पांच प्रकार के पुरुप का कथन करते हैं--'पंच पुरिसजाया पण्णत्ता' इत्यादि सूत्र १२ ॥ टीकार्थ-पुरुष जात पांच कहे गये हैं जैसे-हीसत्त्व १ हीमनः सत्त्व २ चल सत्व ३ स्थिर सत्त्व ४ और उदयन सत्व ५ जिस संयतकी परीषहके आने पर लज्जावश अपने संयम भावसे अविचलता बनी रहती है, वह हीसत्त्व है, अथवा संयतसे इतर जिस प्राणीकी संग्राम आदिकोंमें लज्जाके वशसे स्थिरता रहती है, वह ही सत्त्व है, लज्जासे स्थिति अघिचलता जिसकीहै ऐसा वह प्राणी ही सत्त्व है। लज्जाके वश जिसके અનુત્તર નાકમાં અને અનુત્તર વિમાનમાં વિશિષ્ટ શક્તિશાળી છે જ જાય છે. તેથી હવે સૂત્રકાર પાંચ પ્રકારના પુરુષનું કથન કરે છે. "पंच पुरिसजाया पण्णत्ता" त्याहटी-पुरुषांना नीचे प्रमाणे पाय २ ४ा छ-(१)ी सत्व, (२) मन: सरन, (3) Aa Ar३, (४) स्थिर सत्व मन (५) हयन सर. પરીષહ આવી પડે ત્યારે જે સંયત લજજાને કારણે પિતાના સંયમ ભાવમાંથી ચલાયમાન થતું નથી–અવિચલ જ રહે છે તેને સર્વ કહે છે. અથવા સંગ્રામ આદિમાં લજજાને કારણે જે માણસ અવિચલ રહે છે તેને સર્વ કહે છે. આ રીતે લજાને કારણે જ જેની અવિચલતા ટકી રહી છે એવા જીવને હીસત્વ કહે છે. લજજાને કારણે જેના મનમાં જ માત્ર હસવુ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ કરંટ स्थान |२| चलसत्त्वः-चलम्=अस्थिरं सत्त्वं यस्य सः |३| अचलसत्त्वः - अचलं' = स्थिरं सच्त्रं यस्य सः |४| तथा-उदयनसचः -उत् ऊर्ध्वम् अयन - गमनं यस्य तत् उदययनम् - उदयगामि प्रवर्द्धमानमिति यावत् सच्वं यस्य स इति पञ्चमः ९ ॥ १२ ॥ अनन्तरं सच्चवान् पुरुषः पञ्चमसंख्यकत्वेन प्रोक्तः । सचवान् पुरुषच मायो भिक्षुरेवेति तत्स्वरूपं दृष्टान्तमाह- मूलम् - पंच मच्छा पण्णत्ता, तं जहा - अणुसोयचारी १, पडिसीयचारी २ अंतचारी ३ मज्झचारी । एवमेव पंच भिक्खागा पण्णत्ता, तं जहा - अणुसोयचारी १ जाव सव्वचारी ५ ।। सू० १३ ॥ छाया--पञ्च मत्स्याः प्रज्ञताः, तद्यथा - अनुस्रोतवारी १ मतिस्रोतथारी २ अन्तचारी ३ मध्यचारी ४ सर्वचारी । एवमेव पञ्च भिक्षाकाः ममाः तथथाअनुसोतारी १ यावत् सर्वचारी ५ || सू० १३ ॥ heart स्थिरता रहती है, शरीर में नहीं क्योंकि शीत आदिके समय शरीर कम्पादि विकार देखा जाता है, ऐसा वह प्राणी होमनः सत्य है | जिसका सत्व अस्थिर होता है ऐसा वह प्राणी चल सत्य है, जिसका सत्व-पल स्थिर होता है, ऐसा वह प्राणी अचल सत्व है । और जिसका सत्व प्रवर्द्धमान होता है, ऐसा वह प्राणी उदयन सत्व है ॥ लू० १२ ॥ सत्त्ववान् पुरुष पांच प्रकारका कहा अब सूत्रकार यह प्रकट करते हैं। कि सत्त्ववान् पुरुष प्रायः भिक्षुही होता है अतः भिक्षुका स्वरूप दृष्टान्तपूर्व प्रगट किया जाता है-' पंच मच्छा पण्णत्ता' इत्यादि सूत्र १३ ॥ (સ્થરતા રહે છે–શરીરમા રડેતી નથી ( કારણ કે શીતાદિને અવસરે તેના શરીરમાં કંપાદિ વિકાર નજરે પડે છે), એવા જીવતે “હીમનઃ સત્ત્વ ” કહે छे. अस्थिर सत्त्वा छत्रने “यसत्त्व " डे थे. नेतुं सत्य ( भनोस ) સ્થિર હાય છે એવા જીવને “ અથુલ સત્ત્વ ” કહે છે होय छे, भेत्रा उत्रने " हयन सत्त्व " हे छे. ॥ સત્યવાન્ પુરુષના પાંચ પ્રકાર પ્રકટ કરવામાં ભિક્ષુ ( સાધુ ) જ સત્યવાન્ હાઈ શકે છે. તેથી હવે સૂત્રકાર भिक्षुना स्त्र३पतु निश्चय ४२ छे. "पंच मच्छा पण्णत्ता " इत्यादि -- જેનું સત્ત્વ પ્રમાન १२ ॥ આવ્યા. સામાન્ય રીતે દેષ્ટાન્ત સહિત Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीकास्था०५ उ०३ सू०१३ मत्स्यप्रान्तेन स्वरूपनिरूपणम् टीका--' पंच मच्छा' इत्यादि -- मत्स्याः पञ्च संरूपका भवन्ति । तत्र मथमः- अनुस्रोतधारी - प्रवाहानुकृळचरणशीलः | १| प्रतिस्रोतश्चारी= प्रवाहसंमुखचरणशीलः २| अन्तचारी = पार्श्ववारी ३। मध्यचारी=मध्यमागे संचरणशीलः ४ तथा सर्वेचारी = अनुस्रोतः प्रतिस्रोतोSaमध्येषु सर्वत्र संचरणशीलः ५ । इति । इत्थं दृष्टान्तमुक्त्वा सम्मति दाष्टन्तिकमाह - ' एवमेव ' इत्यादि । एवमेव = अनेनैव प्रकारेण पञ्च संख्या भिक्षवोऽपि भवन्ति । तत्र कश्चित् अनुस्रोतचारी = उपाश्रयसमीपात् क्रमेण भिक्षार्थी चरणशीलः २२५ टीकार्थ- मत्स्य पांच प्रकार के कहे गये हैं- जैसे- अनुस्रोतश्वारी १ प्रतिचारी २ अन्तवारी ३ मध्यचारी ४ और सर्वचारी ५उसी प्रका रसे पांच भिक्षुक कहे गये हैं जैसे- अनुलोनचारी १ यावत् सर्वचारी ५। जो मत्स्य प्रवाह अनुकूल चलने के स्वभाववाला होता है, वह अनुचारी होना है, जो प्रवाहके संमुख चलने के स्वभाववाला होता है, वह प्रतिस्रोतश्चारी होता है, जो पार्श्व में चलने के रचभाववाला होता है, यह पार्श्वचारी होता है, जिसका स्वभाव मध्यभागमें संचरण करनेका होता है, वह मध्यचारी है, और जिसका स्वमात्र प्रवाहके अनु कूल प्रवाह के प्रतिकूल चलने का एवं अन्तमें और मध्यमें चलनेका होता है वह सर्वचारी है, इसी तरहसे भिक्षु भी पांच प्रकार के होते हैं, इनमें कोई एक भिक्षु ऐसा होता है, जो उपाश्रयके पास से ही क्रमशः भिक्षा करने के स्वभाववाला होता है, ऐसा वह भिक्षु अनुखोनचारी टीडार्थ-मत्स्यना न ये प्रमाये पांग अमर ह्या छे - (१) अनुस्रोतयारी, (२) प्रतिस्त्रोतयारी, (3) अन्तयारी, (४) मध्ययारी मने (५) सर्वयारी. એ જ પ્રમાણે ભિક્ષુકના પણ અનુસ્રોતચારી આદિ પાંચ પ્રકાર કહ્યા છે. જે મત્સ્ય પ્રવાહના વહેણની દિશામાં જ ચાલવાના સ્વભાવવાળા હાય છે, તેને અનુસ્રોતચારી કહે છે. જે મત્સ્ય પ્રવાહના વહેણની વિરૂદ્ધની દિશામાં ચાલવાના સ્વભાવવાળા હાય છે તેને પ્રતિસ્રોતચારી કહે છે જે પ્રવાહુની ખાજીમાં ચાલવાના સ્વભાવવાળા હાય છે, તેને અન્તચારી કહે છે. જે મત્સ્ય પ્રવાહના મધ્યભાગમા સચરણુ કરનારા હાય છે, તેને મધ્યચારી કહે છે. જે મત્સ્ય પ્રવાહની દિશામાં, પ્રવાહની સામે, પ્રવાહની પડખે અને પ્રવાહના મધ્યભાગમાં સંચરણ કરનારા હાય છે તેને સવચારી કહે છે. એ જ પ્રમાણે . ભિક્ષુક પણુ પાંચ પ્રકારના હૈય છે. જે મિક્ષુક ઉપાશ્રયની નજીકના ઘરથી શરૂ કરીને ક્રમશઃ અન્ય ઘરેામાંથી શિક્ષા પ્રાસ કરનારા હાય છે તેને અનુ. Page #254 --------------------------------------------------------------------------  Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०५ ०३ सू०१४ वनीपकस्वरूपनिरूपणम् टोका--' पंच वणीमगा ' इत्यादि -- वनीपका:- चन्वते याचन्ते ये ते - याचका इत्यर्थः । स्वभक्तान् प्रशंसादिभि दनाभिमुखकारका इत्यर्थः । ते च पञ्चविधाः प्रज्ञप्ताः । तानेवाह - तद्यथा - अतिथि वनीपकः - भोजनकाले उपतिष्ठमानोऽतिथिः सोऽतिथिदानमशंसया स्वभक्ता दातुराहारादिकं याचतेऽतः सोऽतिथिवनीपक इत्युच्यते । - अतिथिदानप्रशंसा यथा- tf पारण देइलोगो, उबगारिसु परिजिएस जुसिएस | जो पुण अद्धाखिन्नं अतिहिं पूएइ तं दाणं ॥ १. " छाया - मायेण ददाति लोक उपकारिभ्यः परिचितेभ्यो जुष्टेभ्यः । यः पुनरव्वखिन्नमतिथि पूजयति तद्दानमिति ॥ १ ॥ २३१ aatee ३ श्ववनीपक ४ और श्रमण वनीपक ५ जो प्रशंसा आदि द्वारा अपने भक्तों को दानके अभिमुख करनेवाले होते हैं वे वनीपक हैं। इनमें जो वनीपक भोजन कालमें आता है, और अतिथि दानकी प्रोसासे अपने भक्त दातासे आहार आदिकी याचना करते हैं, ऐसा वह याचक अतिथिवीपक है अतिथि दानकी प्रशंसा इस प्रकार से हैपाएण देह लोगो इत्यादि । 46 लोक प्रायः उपकारीके लिये या परिचितजनके लिये या सेवा करनेचालेके लिये जो कुछ बनता है, वह देता है पर वह दान नहीं है, पर दान वही है जो मार्ग से चलकर आये हुए खिन्न अतिथिजनके लिये प्रत्युपकारकी आकाङ्क्षा किये विना आहारादि देता है, कृपणवनीपक प्रभा જે પ્રશંસા આદિ દ્વારા પેાતાના ભક્તને દાન કરવાને પ્રેરે છે, તેમને વનીપક કહે છે. જે વનીપક લેાજન કરવાને સમયે આવીને અતિથિદાનની પ્રશંસા કરીને દાતા પાસેથી આહારાદિની યાચના કરે છે, તે વની१४ (याय ४ ) ने ' अतिथि वनीय' उडे छे. गतिथिदाननी प्रशंसा भा वामां भावी छे, " पाएण देइ लोगो " इत्यादिસામાન્ય રીતે તે લેાકેા ઉપકારીજનાને અથવા પરિચિતજનાને અથવા પેાતાની સેવા કરનાર લેાકેાને કઈને કઈ આપે છે-યથાશક્તિ મદદ કરે છે, પરન્તુ મા પ્રકારની મદદને દાન કહી શકાય નહીં. દાન તે તેને જ કહી શકાય કે જે કંઈ પણ પ્રકારના પ્રત્યુપકારની આકાંક્ષા વિના આપવામાં આવે છે. આગણે આવીને ઊભેલા કાઇ દુઃખી અને અજાણ્યા અતિથિને જે આહા. રાહિનું દાન કરાય છે તેને જ સાચું દાન કહે છે. Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थामाङ्गो कृपणवनीप:-कृपणो दरिद्रः, स एव वनीपकः। बोहि स्वरय दारिद्रयाख्यानपुरस्सरं स्वस्मै दीयमानं दानं प्रशं पति म कृषणवनीपकः । कृपणदानप्रदौसा यथा " किविणेसु दुम्मणेसु य, अबंधवायंकि जुंगियंगेसु । पूाहिज्जेलोए, दाणपडानं हरइदेतो ॥१॥ छाया--कृपणेभ्यो दुर्मनोभ्यश्च अवान्धवातङ्किव्यगिताङ्गेभ्यः । पूजा: लोके दानपताकां हरति ददत् ।।१।। इति । ब्राह्मणवनीपका-यो हि ब्राह्मगाय दीयमानं दानं प्रशंसन भिक्षर्थ चरति सः । ब्राह्मणदानप्रशंपा यथा-- "लोगाणुराहकरिसु, भूमीदेवेसु बहुलं दाणं । अक्षिणाम भयंधुसु, किं पुण छकम्मनिरयाणं ॥१॥" वे हैं, जो अपनी दरिद्रताके प्रकाशनपूर्वक अपने लिये दिये जा रहे दानकी प्रशंसा करता है । कृपणदानकी प्रशंसा इस प्रकारसे है "किविणेसु दुम्मणेतु य" इत्यादि । जिनका कोई पन्धु नहीं है, आतङ्कले जो सदा युक्त बने रहते हैं, शरीर जिनका उपाङ्ग आदिसे रहित हो रहा है, ऐसे कृपण दुःखित जनों के लिये जो देता है,वह अपनी दान पताका को इस लोक में फहराता है। जो वनीपक ब्राह्मणके लिये दिये जाते दानकी प्रशंसा करता हुआ भिक्षाके लिये भ्रमण करता है, वह ब्राह्मण वनीपक है, ब्राह्मण 'दान प्रशंसा इम्म प्रकार है-" लोगाणुग्गहनारिसु" इत्यादि । लोकका अनुग्रह करनेवाले भूमिदेवों में ब्राह्मणो में दिया गया दान જે યાચક પિતાની દીનતા પ્રકટ કરીને દાતા પાસે દાન માગે છે અને પિતાને આપવામાં આવતા દાનની પ્રશંસા કરે છે તેને “કૃપણ વનીપક' કહે छ. ४५ डाननी 'सा मा प्रमाणे ४१ छ-" क्रिविणेसु दुम्मणेसु य" ઇત્યાદિ જેમને કઈ બધુ નથી, જેઓ સદા આતકથી યુક્ત જ રહ્યા કરે છે, જેમનું શરીર ઉપાંગ આદિથી રહિત હોય, એવા કૃપણ દુઃખિતજનોને જે માણસ દાન આપે છે, તે પિતાની યશપતાકાને આ લેકમાં ફરકાવે છે જે વની તક (યાચક) ને અપાતા દાનની પ્રશંસા કરી કરીને દાતા પાસેથી દાનની યાચના કરે છે તેને બ્રાહ્મણ વનપક કહે છે. બ્રાહ્મણને અપાતા દાનની આ પ્રમાણે પ્રશંસા કરવામાં આવે છે. " लोगाणुग्गहकारिसु" त्याहલેકેનું કલ્યાણ કરનાર ભૂદેને (બ્રાહ્મણને) આપવામાં આવતું દાન Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुग टीका स्था. ५ उ.३ १४ वनीपक म्यरूपनिरूपणम् २३३ छाया-लोकानुग्रहकारिषु भूमिदेवेषु बहुफलं दानम् । अपि नाम ब्रह्मवन्धुपु किं पुनः पट्कर्मनिरतेषु । १॥ इति । पदावन्धका जन्मना ब्राह्मणान तु कर्मणा । तशा-श्ववनीपक:-श्वार्थ वनीपकः । श्वभ्यो दोयमानस्य दानरय प्रशंसा यथा" अविणाम होज्ज सुलभो, गोणाईणं तणाइ आहारो । छिच्छिक्कारछयाणं, न हु सुलभो होज सुणयाणं ॥१॥ केलासभवणा एए, गुज्झगा आगया महि । चरति जक्खरूवेणं, पूयाऽपूया हियाऽहिया ॥२॥" छाया--अपि नाम भवेत् सुलभो गवादीनां तृणादिराहारः । छिच्छीकारहतानां न खलु मुलभो भवेत् शुनकानाम् ॥१॥ कैलासभवनादेते गुह्यका भागता महीम् । चान्ति यक्षरूपेण पूजिता अपूजिता हिवा अहिताः । २॥ इनि। घहुत फलवाला होता है, जब ऐसी हातहै तो फिर पट्काई विस्त प्रहाबन्धुओंमें दिये गये दानकी बातही क्या कहनी ? यहां ब्रह्मबन्धुले जो जन्मले ब्राह्मण है, कर्मसे नहीं ऐसा नालण लिया गया है। जो कुत्तों के लिये बनीपक होता है, वह ववनीपक है, वह कुत्तोंके लिये दिये गये दानकी प्रशंसा इस प्रकार से करता है-"अविणाम होज्ज सुलभो" इत्यादि। ___गवादिकों के लिये तो तृणादिका आहार सुलभ होता है, परन्तु छिछीकारसे हत हुए कुत्तोंको आहार सुलभ नहीं होता है, ये कुत्ते, कैलासभवन से आये हुए गुह्यक-देव विशेष हैं। ये यक्षरूपसे पृथ्वी ઘણું જ ફલદાયી ગણાય છે. તે પછી પક્કમ નિરત બ્રહ્મબંધુઓને અર્પણ કરાતાં દાનના ફળની તો વાત જ શી કરવી ! અહી ભૂદેવ પદ જન્મે બ્રાહ્મણ કમે બ્રાહ્મણ નહીં એવા બ્રાહ્મણનું વાચક છે. અને “બાબધુ” પર જન્મે પણ બ્રાહ્મણ અને કમેં પણ બ્રાહાણનું વાચક છે. જે વનપક કૂતરાઓને નિમિત્તે અપાતાં દાનની પ્રશંસા કરે છે તેને ધવની પક” કહે છે કૂતરાને માટે અપાતાં દાનની આ પ્રમાણે પ્રશંસા કરવામાં આવે છે. ગાયઆદિને તે ઘાસચારો આદિ આહાર સરળતાથી પ્રાપ્ત થાય છે, પરંતુ જેના પ્રત્યે લેકે નફરતથી જુવે છે અને જેને લકે હડધૂત કરે છે એવા કૂતરાઓને તે આહાર, મિ દુર્લભ થઈ પડે છે તે કૃતરાઓ કેલાસ ભવનમાંથી આવેલા ગુહ્યક (દેવવિશે ) છે તેઓ યક્ષ રૂપે ભૂમિપર સંચુરણ स-३० Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - स्थानाही गुह्यकाः-देवविशेषः । एते पूजिता:-भोजनादिना सत्कृता हिताय, भपू जिता अहिताय भवन्तीति भावः । तथा-श्रमणवनीपकः - निन्थशाक्यताएस. गैरिकाजीकरूप. पञ्चविधः श्रपणः । तत्र निग्रन्थो वनीपको न भवति । शाक्गादय एवं वनीयका उच्यन्ते । तत्र शाक्यश्रमणवनी पकदानप्रशंसा यथा---- " झुंजनि चित्ताम्मट्ठिया व कारुणिय दाणरूपणो य । अविकामगद्दभे वि न नस्सए किंपुण जईसु ॥१॥ छाया--भुञ्जन्ति चित्रकर्म स्थिता इव कारुणिका दानरुचयन । अपि नाम कामगर्दभेषु अपि न नश्यति किं पुनर्यतिषु ॥१॥ इति । कामगर्दभा-विषय लोलुपातेपु दत्तं दानमपि न नश्यति किं पुनर्यतिषु दत्तम् एवमेव तापसवनीपकादि दानप्रशंसाऽपि अवगम्येति ।'०१४।। पर चलते रहते हैं। भोजनादिले जो इनका सत्कार करता है, वह उसके हित के लिये होता है, और जो इनका सस्कार नहीं हारता है, वह उसके आहितके लिये होता है । श्रयणवनीपक-निन्थ, शाक्य, तापस, गैरिक और आजीवकके भेदले पांच प्रकारका है, इनमें जो निन्न होता है, वह धनीपक नहीं होता है, किन्तु जो शाक्य आदि होते हैं, वे ही बनीपक कहलाते हैं। इनमें शाय श्रमण बनीपक दान प्रशंसा इस प्रकारसे है-" भुजति चित्ससम्महिषा" इत्यादि। , जो प्राणी विषयों में लोलुप है, उनमें दिया गया दान भी जव नष्ट नहीं होता है, तो फिर पनि जनों में दिया गया दान निष्फल कैसे हो सकता है । इसी प्रकारस दानको प्रशंसा जानना चाहिये ॥सू० १४॥ કર રહ છે ભેજના િવડે તેમને સત્કાર કરનારનું કલ્યાણ થાય છે, અને તેમને ભેજનાદિ વડે તૃમ નહીં કરનારનું અહિત થાય છે श्रवणुपनी५४ पांय ५२ छ-(१) निय, (२) शय, (3) ५स, 6) ગેરક અને (૫) આજીવક તેમાંથી જે નિથ હોય છે, તેઓ વનીક હેતા નથી, પરંતુ શાક્ય આદિ જ વનપક હોય છે. શાયશ્રમણ વનપકને અપાતાં દાનની પ્રશંસા આ પ્રમાણે કરવામાં આવી છે. " मुजति चित्तकम्मद्विया'' त्यात વિષય ઉપ મનુષ્યને દેવામાં આવેલુ દાન પણ જે નષ્ટ થતું નથી, તે યતિઓને અપાતાં દાનની તો વાત જ શી કરવી ! આ પ્રકારની દાનની પ્રશંસા સમજવી. એ સૂ. ૧૪ છે Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०५ उ०३ सू० ५ अचेलस्य प्रशसन्धाननिरपणम् २३५ ___अनन्तरमने पञ्चविधो बनीपकः प्रोक्तः । स च साध्वाभासो न तु साधुः । साधुश्व अचेल एर भवतीति अवे ठत्वस्य पश्च प्रशसा स्थानानि प्राह-- मूलम्-पंचहिं ठाणेहिं अचेलए पसत्थे भवइ, तं जहाअध्यापडिलेहा १, लापविए पलत्थे २, रूबे वेसाणिए ३, तवे अशुषणाए ४, बिउले इंदियनिग्गहे ५ ॥ सू० १५॥ छाया-पञ्चभिः स्थानरचेलका प्रशस्तो भवति तद्यथा-अल्पा प्रतिलेखा १,लाघविकप्रशस्तम् २,ख्यं वैश्वासिकम् ३, तपः अनुज्ञातम् ४, विपुल इन्द्रिय निप्रदः ५।१५। टीका--'पंचहि ठाणेहिं ' इत्यादि-- अचेलका-न सन्ति चेलानि-वस्त्राणि यस्य सः । स च निनकल्पिकस्थविरकलिकभेदेन द्विविधः । तत्र जिनकल्पिकस्याचेलत्वं चेलाभावादेव । स्थविरकल्पिमस्तु अत्यल्पमूल्यकपरिमितजीणेमलिन-वस्त्रधारकः। अचेलकत्वं चास्य ____अनन्तर सूत्र में जो पांच प्रकारके वनीपक कहे गये हैं, सो वनीपक साध्या भासरूप होते हैं, सच्चे साधु नहीं होते हैं। क्योंकि सत्य साधु जो होता है, वह तो अचेलही होता है, इसलिये अब सूत्रकार अचेलताके पांच प्रशंसा स्थानोंका कथन करते हैं-- . पंचहिं ठाणेहिं अचेलए इत्यादि सूत्र १५ ॥ टीकार्थ--जिसको वस्त्र नहीं होते हैं, वह अचेलक है, यह अचेलकजिन कल्पिक और स्थविरकल्पिकके भेदसे दो प्रकारका होता है. इनमें चेलके अभावसे जिनकल्पिको अचेलता है । तथा जो स्थविरकल्पिक हैं, उनमें जो अचेलता आती है, वह अत्यल्प मूल्यवाले परि આગલા સૂત્રમાં વનપકના પાંચ પ્રકારનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું. તે વનપક સાચા સાધુ હોતા નથી–તેઓ તે સાધુ હોવાને ભાસ જ કરાવે છે સાચે સાધુ તે અચેલ (વરહિત) જ હોય છે. તેથી હવે સૂત્રકાર સેલના પાંચ પ્રશંસાસ્થાનું કથન કરે છે. “पंचहिं ठाणेहि अचेला" या: જેમને વસ્ત્ર હતાં નથી તેમને અલક કહે છે. તે અલકના નીચે પ્રમાણે બે પ્રકાર કા છે– (૧) જિનકદ્વિપક અને (૨) વિર કપિક. ચેલ (વસ્ત્ર) ના અભાવને લીધે જિનપિકમાં આવેલા કડી છે. સ્થવિર કહિ૫કોમાં અપમૂઘવ ળાં, પરિમિત, જીર્ણશી અને મલિન વસ્ત્રોને ધારણ કરવાને Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानासूत्रे तथाविधवधारकत्वादेव | भयं च सदोरकमुखवत्रिका रजोहरणप्रभृति त्रिविधा छुपकरणधारकः । सोऽयमचेलकः पञ्चभिः स्थानैः प्रशस्तः = प्रशंसनीयो भवति तीर्थकरगणधरादिभिः । तान्येव स्थानान्याह तद्यथा - अल्ला प्रतिलेखा = पतिलेख्योपधेः स्वल्पत्त्रसद्भावाद् अल्पं प्रतिलेखनम् । इत्थं च न तेषां स्वाध्यायादो प्रतित्रातो भवतीति बोध्यम् । इति प्रथमं स्थानम् १ | लाघविकं प्रशस्तम्- प्रश स्तम्=अनिन्द्यं यथास्यात्तथा लाघविकम्-लघोर्भावो लाघवं तदेव लाघविक यतो भवतश्च । इति द्वितीयं स्वानम् २ | रूपं वैश्वासिकम् - रूपम् = सदोर रुमुखवस्त्रिकारजोहरणादिवारणलक्षणः साधुचेपः, वैश्वासिक विश्वासोत्पादकम् निछोंमित जीर्णशीर्ण मलिन वस्त्रों के धारण करने से आनी है । यह स्थविरकल्पिक सदोमुखचत्रिका एवं रजोहरण आदि विविध उपकरणका धारक होता है, ऐसा वह अचेलक पांच स्थानोंसे प्रशात प्रशंसनीय तीर्थकर गगरादिकों से कहा गया है। वे पांच स्थान इस प्रकार से हैं- एक अल्पा प्रतिलेखा १ दूसरा - हास्न लाघविक २ तीसरा वैश्वासिक रूप ३ चौधा - अनुज्ञाततप ४ एवं पांचवां - विपुल इन्द्रिय निग्रह ५ । प्रतिलेखन करने योग्य जो उनके पास उपधि होती है, वह अत्यल्प होती है, इसलिये उनका प्रतिलेखन कर्म भी अल्प होता है, अतः उन्हें स्वाध्याय आदि करने में प्रतिघात नहीं होता है, इस प्रकारका यह प्रथम स्थान है, द्रव्य और भावकी अपेक्षा लघुनाका होना यह प्रशस्त लाघविक है । ऐसा यह द्वितीय स्थान है। मदोरक सुखखिका एवं रजोहरण आदिरूप जो साधुवेब उनका होता है, वह निलेभिताका રશ્ચંદ - કારણે અત્રેના સમજવી. તે સ્થતિરકલ્પિક સધુએ સદ્રેરક મુહપત્તી, રોહરણુ આઢિ ત્રિવિધ ઉપકરણના ધરઝુ કરનારા હાથ છે. એવા તે અચેલકેાને તિર્થંકરાએ અને ગશુધરાએ નીચેનાં પ ચ કારણે ને લીધે પ્રશસ્ત કહ્યાં છે(१) सध्या प्रतिमा, (२) प्रशस्त साधविङ, (3) वैश्वासि ३५, (४) अनुજ્ઞાત તપ અને (૫) વિપુલ ઇન્દ્રિય નિગ્ર, તેની પાસે પ્રતિલેખના કરતા લાયક જે ઉપધિ હોય છે, તે અતિ અપ હાય છે. તેથી તેની પ્રતિલેખના કરવાનુ કામ પશુ અલ્પ જ હોય છે, તેથી તેને સ્વાકષાય આદિ કરવામાં પ્રતિઘાતથઞા નથી, આ પ્રકારનું' આ પ્રથમ સ્થાન છે. ખીજું સ્થાન—દ્રવ્ય અને ભાવની અપેક્ષાએ લઘુતાના સદ્ભાવ દેશ તેનુ નામ પ્રશસ્ત લાવિક છે. ત્રીજું સ્થાન—સદેારક મુહુપત્તી, રોહરણ આદિ રૂપ તેને જે દ્વેષ હોય છે તે નિભિતાના સૂચક હાવ થી અન્ય લેàામાં વિશ્વાસેાત્પાદક થઈ પડે છે. Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा का स्था०५३०३ सू०१६ उत्कटानां पञ्चभेदनिरूपणम २३७ भतामूचकत्वादिति तृतीय स्थानम् ३। तपः शरीरोपकरणसंगोपनरूपम् अनुशात तीर्थकरानुमोदितं स्यादिति चतुर्थम् ४॥ तथा-विपुल इन्द्रियनिग्रहः-इन्द्रियाणां निग्रहो-नियमनं विपुलो-महान् भवेत् , प्रतिकूलशीतवातातपादि सहनादिति पञ्चमं स्थानमिति ५। अचेलकविषये विशेष जिज्ञासुभिरुत्तराध्यनयसूत्रस्य द्वितोयेऽध्ययने त्रयोदशगाथ या मत्कृता प्रियदर्शिनी टीकाऽवलोकनीयेति ॥ मू० १५ ॥ इन्द्रियनिग्रहं च सत्त्वोत्कटा एव कर्तुं प्रभवन्तीति उत्कटानां पञ्चभेदानाह मूलम्-पंच उक्कला पणत्ता, तं जहा-दंडुक्कले १ रज्जुकले २ तणुकले ३ देसुकले ४ सव्वुकले ५॥ सू० १६ ।। __ छाया-पञ्च उत्कटाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-दण्डोत्कटो १ रामोत्कटः २ स्तन्योत्कटः ३ देशोत्कटः ४ सर्वोत्कटः ५ ॥ सू० १६ ।। सूचक होनेसे विश्वालोत्पादक होता है । ऐसा थह तृतीय स्थान होता है । शरीर और उपकरणका संगोपनरूप जो तप है, कि जिसे वे करते हैं, वह तीर्थ करादि द्वारा अनुमोदित होता है । ऐसा यह चतुर्थ स्थान है । तथा उनका जो इन्द्रियों को निग्रह होता है, वह महान् होता है, क्योंकि प्रतिकूल शीत, वान, आतप आदिको वे सहन करते हैं, ऐसा यह पांचवां स्थान है । अचेलकके विषयमें विशेष जाननेके अभिलाषि. योंको उत्तराध्ययन सूत्रके द्वितीय अध्ययन में आगत १३ वी गाथाकी' प्रियदर्शिनी टोका देखनी चाहिये ।।सू० १५॥ । इन्द्रियांका निग्रह वे ही कर सकते हैं, जो उत्कट होते है, अतः अब सूत्रकार उत्कटोंके पांच भेदोंका कथन करते हैं-- ___ पंच कला पण्णत्ता' इत्यादि सूत्र १६ ॥ ચોથું સ્થાન–શરીર અને ઉપકરણના સંગાપન રૂપ જે તપ તેઓ કરે છે, તે તિર્થંકરાદિ દ્વારા અનુદિત છે પાંચમું સ્થાન–તેઓ ઈન્દ્રિયને પૂબજ નિગ્રહ કરે છે. પ્રતિકૂળ ટાઢ તાપ, પવન આદિ તેઓ સહન કરે છે અલકના વિષયમાં વધુ માહિતી મેળવવાની જિજ્ઞાસાવાળા પાઠકેએ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્રના બીજ અધ્યયનની ૧૩ મી ગાથાની મારા દ્વારા લખાયેલી પ્રિયદર્શિની ટીકા વાંચી જવી. . સ. ૧૫ છે Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ स्थानाशास्त्र टीका-पंच उक्कला' इत्यादि डलयोरभेदात् ' उक्कला' इत्यस्य — उत्कटाः' इनिन्छाया । उत्कटा : प्रकष्टाः पञ्चमख्यकाः प्रज्ञप्ताः । तत्र प्रत्येक नामतो निर्दिशति-तद्यथा-दण्डोस्कट:-दण्ड:-आज्ञा अपराधे सति दमनं वा उत्कट:-प्रकृष्टः-भवलो यस्य स तथा । दण्डेन वा उत्कटो दण्डोत्कट इति ॥ १ ॥ एवं राज्योत्कट रतैन्योत्कटादि. ध्वपि बोध्यम् । तत्र-राज्यप्रमुत्यम् । स्तन्यम् चौर्यम् । देश:-प्रसिद्धः । सर्व = दण्डादि समस्तम् । इति । - उत्कल ' इतिच्छाया पक्षेतु ' दण्डोत्कलः ' इत्यादि टीकार्य--पांच प्रकार के उत्कट कहे गये हैं, जैसे-दण्डोत्कट १ राजशेत्कट २ स्तैन्योत्कट ३ देशोत्कट ४ और सत्कट ५ ड और ल में अभेद होने से " उकल" इसकी संस्कृतच्छाया नत्कट ऐसी होती है। उपट हानका अर्थ प्रकृष्ट है। ये प्रष्ट दण्डोत्कट आदिके भेदसे पांच प्रकारके कहे गये हैं-दण्ड नाम आज्ञा है, अथवा अपग पके होने पर दमन करना इसका नाम दण्ड है, यह दण्ड जिसका प्रबल होता है वह दण्डोत्कट है, अधवा-जो दण्डसे उत्कट होता है, वह दण्डोत्कट है। इसी तरहका कथन राज्योत्कट स्तैन्पोत्कट आदिके सम्बन्धमें भी जानना चाहिये । राज्य नाम प्रभुनाका है, और स्तैन्य नाम चोरीका है, देश प्रसिद्ध हैं । तथा-दण्डोदि समस्तसे जो उत्कट होता है, वह सर्वो. स्कट है । " उक्कल "की जब संस्कृत छाया " उत्कल" ऐसी होगी જે જીવો ઉકટ હોય છે તેઓ જ ઇન્દ્રિયોને નિગ્રહ કરી શકે છે. તેથી હવે સૂત્રકાર ઉત્કટના પાંચ ભેદનું નિરૂપણ કરે છે. "पंच उकला पण्णत्त। " या પાંચ પ્રકારના ઉત્કટ કહ્યા છે તે પ્રકારે નીચે પ્રમાણે છે–૧) દંડે४४, (२) रायोट, (3) अन्ये (४८, (४) देशो मरे (५) स४ि८. “उ" भने 'ल' भi मले बाथी “ उक्कल " नी स२४1 छाया । उत्कट" थाय छ. 62 शने। अर्थ प्रष्ट थाय छे. ते प्रटना ६४८ આદિ પાંચ પ્રકાર કહ્યા છે. દડ એટલે અજ્ઞા. અથવા અપરાધ થઈ જાય ત્યારે દમન કરવું તેનું નામ દંડ છે તે દંડ જેને પ્રબલ હેય છે તેને ડાકટ કહે છે અથવા જે દંડની અપેક્ષાએ ઉત્કટ હેક્ય છે તેને દંડેસ્કટ કહે છે એ જ પ્રકારનું કથન રાકટ, તૈકટ આદિના વિષે પણ સમજવું. રાજ્ય નામ પ્રભુતાનું છે અને ચેરીને તૈન્ય કહે છે. દેશ શબ્દ જાણીતું છે. તથા દંડાદિ સમસની અપેક્ષાએ જે ઉત્કટ હોય છે, તેને સર્વોત્કટ કહે છે. Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०५ उ०३ सू०१७ पञ्चविधसमितिनिरूपणम् २३९ च्छाया | उत्कलनीत्युत्कल-वृ इत्यर्थः । दण्ड उत्तलो यस्य सः, दण्डेन वा उत्कल इति विग्रहः । एवं राज्योत्कलादिष्वपि विग्रहो बोध्य इति । सू० १६ ॥ उत्कटोऽनन्तरमुत्रे पञ्चत्रिवः प्रोक्तः । स चासंयत एव । संयदस्तु समितिभिरेव उत्कटो भवतीति पञ्चविधाः समितीः प्राह मूलम् - पंच समिईओ पण्णत्ताओ । तं जहा - ईरियासमिई १ भासा समिई २ जाव परिद्वावणियाससिई ५ ॥ सू० १७ ॥ छाया - पञ्च समितयः मक्षप्ताः । तद्यथा - ईर्यासमिनिः १ भाषासमितिः २ यावत् परिष्ठापनिकासमितिः ५ ॥ भ्रू० १७ ॥ टीका- ' पंव समिईओ ' इत्यादि समितयः- सम्यक् = एकीभावेन इतयः = मतयः, शोभनैकाय परिणामत्रतश्रेष्ठा । तो इस पक्ष में उत्कल शब्दका अर्थ प्रवृद्ध होना है, इस तरह दण्ड से जो उत्कल है, वह अथवा दण्ड जिसका उत्कल है, वह दण्डोत्कल है । इसी तरह से राज्योकल आदि में भी विग्रह जानना चाहिये । सू० १६ । इस अनन्तर सूत्रमें जो यह उत्कट पांच प्रकारका कहा गया है, वह असंयतही होता है, तथा जो संघत होता है, वह तो समिति आदिसेही उत्कट होता है, अतः अन कार पांच समितियों का कथन करते हैं 'पंच समिईओ पण्णत्ताओ' इत्यादि सूत्र १७ ॥ टीकार्थ- समितियां पांच कही गई हैं जैसे-ईर्यातमिति र भाषासमिति २ यावत्परिष्ठापना समिति ५ एकीभाव से जो प्रवृत्तियां उनका नाम समिति है, शोभन एकाग्र परिणामवालेकी जो चेष्टाएँ हैं, वे उत्कल " सेवामां आवे तो तेना राज्य S उकल આ પદની સંસ્કૃત છાયા अर्थ ' अवृद्ध' थाय छे, तो तेना हो, उस પડે છે દડની અપેક્ષાએ જે ઉત્કલ છે તેને અથવા તેને દડાત્કલ કહે છે એ જ પ્રમાણે રાજ્યેત્કલ सभनवु ॥ सू. १६ ॥ આગલા સૂત્રમાં જે પાંચ પ્રકારના ઉત્કટ કહ્યા તેએ અસયત જ હોય છે. સયતા સમિતિ આદિની અપેક્ષાએ જ ઉત્કટ હાય છે. તેથી હવે સૂત્રકાર यांश समितिमनु' उथन रे छे. "पच ससिईओ पण्णत्ताओ " त्याहिसमितियों पाथ ही है- (1) समिति, (२) भाषासमिति, (3) शेषष्या समिति, (४) माहान लाई मात्र निक्षेप समिति ने (4) परिક્ષાપનિકા સમિતિ. ܕ "L आदि पांच प्रा જેને દંડ ઉત્કલ છે આદિ વિષે પશુ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २४० स्थानात इत्यर्थः, ताः पञ्च प्रज्ञप्ताः । ता एव समितीः माह-तद्यथा-ईर्याप्तमितिः-ईरणम् ईयां मनं तत्र समितिः-प्सम्यक् प्रवृत्तिः। ईर्यासमिति नीम जीवरक्षार्य पुरतो युग्यमात्रधूभागन्यस्तदृष्टिना गमनम् । तथा-भापासमितिः-भापणं भाषावाणी, तस्यां समितिः । भापाममिति म सावधपरिहारपूर्वक निश्वयठितमितासन्दिग्धार्थभापणम् , यावच्छब्दात्-र पणासमितिरादानमाण्डामत्रनिक्षेपणासमितिश्च ग्राह्या । तत्र-एपणासमितिः-एपणमेपणा तस्यां समितिः । एपणासमिति नाम द्वात्रिंशदोपवर्जनेन भक्तादिग्रहणे प्रत्तिः । तथा-आदानभाण्डामत्रनिक्षेपणासमितिः-भाण्डामत्रयोरादाने ग्रहणे निक्षेपणे स्थापने च समिति समितियहि, ये समितियां ईर्यासमिति आदिके भेदसे पांच प्रकारकी कही गईहै, उनमेंसे जो साधु गमनमें सम्परु प्रवृत्ति करता है ऐसी उसकी वह मवृत्ति ईर्यासमितिहै । इल ईयर्यासमिनिमें प्रकृत हुआ साधु पहजीवनिका. धके रक्षाके निमित्त युग्यमात्र (मरा प्रमाण) भूभागका निरीक्षण करता हुमा आगे २ चलना है। सावत्र वचनके परिहारपूर्वक निरवच हितमित एवं असंदिग्ध अर्थका कथन करना हिनामित मिय बचन बोलना इसका नाम भाषासमिति है । यहां यावत् सबसे "एपणासमिति आदानभाण्डमात्रनिक्षेपण समिति" इन दो ममितियों का ग्रहण हुभा है। ४२ दोष रहित आहारके ग्रहणमें जो प्रवृत्ति बह एषणासमितिहै भाण्ड एवं पात्रके लेने में और धरने में जो सुप्रतिलेखना एवं सुपमार्जना आदि यनवापूर्वक प्रवृत्ति है, वह आदान भाण्डमात्रनिक्षेपणा ममिति જતનાપૂર્વકની જે પ્રવૃત્તિ બે છે તેમનું નામ સમિતિ છે. અથવા શોભન એકાગ્ર પરિણામવાળાઓની જે પ્રવૃત્તિઓ છે, તેમનું નામ સમિતિ છે. ચાલતી વખતે જનતાપૂર્વક ચાલવું, જી હિંસા ન થાય એવી રીતે ચાલવું, એવી ગમનની સમ્યક્ પ્રવૃત્તિ કરનાર સાધુની તે પ્રવૃત્તિને ઈર્યામિનિ કહે છે જીવરક્ષા માટે સાધુએ ચાલતી વખતે યુગ્ય પ્રમાણ (ધુંસરી પ્રમાણે) ભૂમિનું નિરીક્ષણ કરતા કરતાં આગળ ચાલવું જોઈએ. સાવધ વચનના પરિત્યાગપૂર્વક નિરવદ્ય, હિત, મિત અને અવિશ્વ વચન બોલવું તેનું નામ ભાષાસમિતિ છે. ૪ર દોથી રહિત આહાર ગ્રહણ કરવાની સાધુની જે પ્રવૃત્તિ છે તેને એષણ સમિતિ કહે છે. ભાડ (પાત્ર) અને માત્રને લેતી વખતે અને મૂકતી વખતે જે સુપ્રતિલેખના અને સુરમાના આદિ પૂર્વકની પ્રવૃત્તિ થાય છે, तर " माहान Hinमत्र निक्षेप समिति" . Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुषा टीका स्था.५ उ. ३ १ १८ जोवस्वनिरूपणम् सुप्रतिलेखितसुप्रमार्जिताटिक्रमेण प्रत्तिः । तधा-परिष्ठापनि कासमितिः-उच्चारस्प-पुरीपस्य, प्रस्रवणस्य-मूत्रस्य, खेलस्य लेष्मणः, शिड्डाणस्य नासिकोद्भवमलस्य, जल्लस्य शरीरमलस्य च परिष्ठापनिकायां-त्यागे समितिः सम्यक् प्रवृत्तिः ॥ सू० १७ ॥ निर्ग्रन्थाच जीवरक्षार्थमेव समितियुक्ता भवन्तीनि जीवस्वरूपमाह-- म्लम्--पंचविहा सोनारसमावन्नगा जीवा पण्णत्ता, तं जहा.. एगिदिया जाव पंचिंदिया । एगिदिया पंचगइया पंचागइया पण्णता, तं जहा-एगिदिए एगिदिएसु उबवजमाणे एगिदि. एहितो जाव पंचिंदिएहिंतो वा उबवजेजा, से चैव णं एगिदिए एगिदियत्तं विप्पजहमाणे एगिंदियत्ताए वा जाव पंचिं. दियत्ताए वा गच्छेजा । बंदिया पंचगइया पंचागइया एवं बेव ३। एवं जाव पंचिंदिया पंचगइया पंचागइया पण्णत्ता । पंजिदिया जाव गच्छेजा ५॥ पंचविहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा--कोहकलाई जाव लोहकसाई अकसाई । अहवा पंचविहा सम्धजीवा पण्णत्ता, तं जहा-नेरईया जाब देवा सिद्धा ।।सू०१८॥ छाया-पञ्चविधाः संसाररायापनका जीवाः प्रज्ञताः, तद्यथा-एकेन्द्रिया यात् पञ्चेन्द्रियाः । एकेन्द्रियाः पञ्च गतिकाः पञ्चागतिकाः प्रज्ञप्ताः, तबधाएकेन्द्रियएकेन्द्रियेपु उत्पधमान एकेन्द्रियेभ्यो यावत् पश्चेन्द्रियेभ्यो वा उपपघते, स एव खलु एकेन्द्रिय एकेन्द्रियत्वं विप्रजहन एकेन्द्रियतया दा यावत् पञ्चेन्द्रियतया वा गच्छनि २। द्वीन्द्रियाः पञ्चगतिकाः पञ्चागतिका एवमेव ३॥ एवं यात पञ्चेन्द्रियाः पञ्चगतिकाः पञ्चागतिकाः प्रज्ञप्ताः ४, पश्चेन्द्रिया यावत गम्छन्ति ५। पञ्चविधाः सर्वनीवाः प्रज्ञप्ताः, तयथा-क्रोधकपायिणो यावत् लोभ है, एवं मलमूत्रके श्लेष्मा शिवाण-नाकके मलके जल्ल शरीरके मैलके त्यागमें जो सम्यक्प्रवृत्ति है वह परिष्ठापनिका समिति है ॥४० १७॥ મળમૂત્ર, કફ, શિંઘાણ-નાકમાંથી નીકળતે ચીકણે પદાર્થ અને જલ ( २२ मेस) ना त्यामनी ५ त्ति छ तेनु नाम '२. पनि समिति छ. ॥ सू. १७ ॥ स्था०-३१ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ स्थानासू फपापिणः अपाविणः । अपवा-पञ्चविधाः सर्वनीयाः मज्ञप्ताः, तथा नेरयिका यावत् देवाः सिद्धाः ।। १० १८ ॥ टीका-विहा' इत्यादि संसारसमापनकाः-संसरण संसार: नारकतिर्यग्नरामरभवानुभवभ्रमणलक्षणः, तं सम्यक् एकीभावेन आपना: माताः, संपारसमापन्नाः, त एव संसारसमाप. मकाः भवतिनो जीश इत्यर्थः । ते च पञ्चविधाः कथिताः । पञ्चविधत्वमेवपाह-वद्यथा-एकेन्द्रियाः एकेन्द्रियजीवाः, यावत्-पञ्चेन्द्रिया=पञ्चन्द्रियजीवाः । यावत्पदेन-द्वीन्द्रियत्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रियजीवा ग्राह्याः। पते प्रत्येकं पञ्चगतिकाः पञ्चागतिकाश्च भनन्ति । तदेव प्रदर्शयति-' एगिदिया पंचगइया - इत्यादि । एकेन्द्रियाः-एक स्पर्शनलक्षणम् इन्द्रियं येषां ते तथाभूता जीवाः . निर्गन्ध जीवरक्षा निमित्तही समितियोंसे युक्त होते हैं, अतः अध सूत्रकार जीवके स्वरूपका कथन करते हैं- पंचविहा संसारसमावन्नगा' इत्यादि मूत्र १८ ॥ टीकार्य-नारक निर्यक् मनुष्य और देयके भघोंका भोगना-उनमें भ्रमण करना. इसका नाम संसार है, इस संसारको जो एकीभावसे प्रास हैं, वे संसारसमापन्नक हैं। तात्पर्य यह है कि जो भववर्ती जीव हैं वे समारसमापन्नक हैं। ये संसारलमापन्नक जीव एकेन्द्रिय यावत् पञ्चेन्द्रिय जीवसे पांच प्रकार के हैं । यहाँ यावत्पदसे "दीन्द्रिय, तीन्द्रिय एवं चतुरिन्द्रिय" जीवोंका ग्रहण हुआ है । ये प्रत्येक पंचगतिक और पंच आगतिक होते हैं। यही चान अब सूत्रकार प्रकट करते हैं-" एगि. दिया पंचाइया" इत्यादि । सिनको एक स्पर्शन इन्द्रिय होती है ये નિ થે જીવરક્ષાને નિમિત્તે જ પાંચ સમિતિઓથી યુક્ત હોય છે, - તેથી હવે સત્રકાર જીવના સ્વરૂપનું કથન કરે છે. "पंचविहा संसारसमावन्नगा " त्यात ટીકાઈ-નારક, તિર્યંચ, મનુષ્ય અને દેવને ભને ભેગવવા તે ભમાં શ્રમણ કરવું તેનું નામ સંસાર છે જેઓ આ સંસારમાં ઉપર્યુક્ત કઈ પણ ગતિનું જીવન જીવી રહ્યા છે તેમને સંસાર સમાપન્નક કહે છે. એટલે કે ભવવત જેને સંસાર સમાપક કહે છે તેમના કેન્દ્રિયથી લઈને પચેન્દ્રિય પર્યન્તના પાંચ દ કહ્યા છે તે પ્રત્યેક પંચગનિક અને પંચ આગતિક હોય छ. मे पात सूत्र४१२ ५४८ ४२ छ. " एगिदिया पंचगइया "त्याह જે જેને એક માત્ર સ્પર્શેન્દ્રિયને જ સદ્દભાવ હોય છે, તેમને એકે Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ כי सुधा टीको स्था०५ ३०३ सू० १८ जीवस्वरूपनिरूपणम् २४३ સ્ટેફ पञ्चगतिकाः - पञ्चतु गतिः = गमनं येषां ते तथा, पञ्चागतिका - पञ्चभ्य आगतिः = आगमनं येषां ते तथासूताश्च प्रज्ञप्ताः । तत्र एकेन्द्रियाणां पञ्चागतिकत्वमादतथा - एकेन्द्रियेषु = एकेन्द्रियाणां मध्ये एकेन्द्रिय उत्पद्यमानः = ए केन्द्रियत्वेन जायमानो जीवः एकेन्द्रियेभ्यो यावत् पञ्चेन्द्रियेभ्यो वा = एकेन्द्रियादि पञ्चेन्द्रि यान्तानां मध्ये कुतश्रिदागत्य उत्पद्यते = जायते । इत्थं पञ्चागतिकत्वमुक्त्वा सम्मति पञ्चगतिकत्वमाह -' से चेवणं' इत्यादिना । स एव खलु एकेन्द्रियःय एकेन्द्रियादेः कस्माचिदपि समागत्य एकेन्द्रियत्वेन समुत्पन्नः स एव एकेन्द्रियो जोत्र एकेन्द्रियत्वं विपनहत्= परित्यजन् एकेन्द्रियतया वा यावत् पञ्चेन्द्रियतया वा गच्छतीति । एवमेत्र दीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियपञ्चेन्द्रियाणां पञ्चागतिकत्वं पञ्चगतिकत्वं च बोध्यमिति । अथ सर्वजीवानां पञ्चविधत्वं प्रकारद्वयेन माहएकेन्द्रिय जीव हैं । ये जीव पंचगतिक होते हैं-पांच गतियों में जिनका गमन होता है वे पंचगतिक हैं तथा पांच गतियों से जिनका आगमन होता है वे पंचागनिक हैं | एकेन्द्रियों में उत्पद्यमान कोई जीव एकेन्द्रिय से आकर, द्वीन्द्रिय से आकर इन्द्रियसे आकर, चौइन्द्रियसे आकर और पचेन्द्रिय से आकर इस तरह किसी भी इन्द्रियवाले जीवोंमें से आकर - एकेन्द्रिय जीवरूपसे उत्पन्न हो सकता है । इसी तरहसे एकेन्द्रिय जीव मरकर एकेन्द्रिय जीव से लेकर पञ्चेन्द्रिय जीवों तक उत्पन्न हो सकता है । अर्थात् एकेन्द्रिय जीव मरकर एकेन्द्रिय रूप से भी उत्पन्न हो सकता है, यावत् वह पंचेन्द्रिय रूप से भी उत्पन्न हो सकता है। इसी तरहले द्वीन्द्रिय जीव, तेइन्द्रिय जीव, चौइन्द्रिय जीव और पंचेन्द्रिय जीव इनमें भी पच आगतिकता और पंच गतिकता जाननी चाहिये " पंचविहा सव्व ન્દ્રિય જીવે કહે છે. તેએ પચગતિક હોય છે અને પચારિક હૈ ય છે. પાંચ ગતિએમાં જેમનુ' ગમન થાય છે, તે જીવાને પંચગતિક કહે છે. પાંચ ગતિમાં જેમનુ આગમન થાય છે તેમને પંચાગતિક કહે છે. એકે ન્દ્રિયેમાં ઉત્પન્ન થતે જીવ એકેન્દ્રિયામાંથી દ્વીન્દ્રિયમાંથી, ત્રિન્દ્રિયમાંથી, ચતુરિન્દ્રિયે માથી કે પચેન્દ્રિયામાથી, આ રીતે પા૨ે પ્રકારના જીવામાંથી આવીને એકેન્દ્રિય જીવ રૂપે ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. એ જ પ્રમાણે એકેન્દ્રિય જીવ મરીને એકેન્દ્રિયથી લઇને પચેન્દ્રિય પન્તના જીવામાં ઉત્પન્ન થઈ જાય છે એટલે કે એકેન્દ્રિય જી મરીને એકેન્દ્રિય જીવ રૂપે પશુ ઉત્પન્ન થાય છે, દ્વીન્દ્રિય જીવ રૂપે પણ ઉત્પન્ન થાય છે, ત્રીન્દ્રિય, ચતુરિન્દ્રય અથવા પ"ચેન્દ્રિય જીવરૂપે પણ ઉત્પન્ન થાય છે એ જ પ્રમાણે ઢીન્દ્રિયેળાં, ત્રન્દ્રિયમાં, ચતુ રિન્દ્રિયેટમાં, અને પ'ચેન્દ્રિયામાં પણ પચ ગતિકતા અને ૫ચ આગતિકતા Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४४ स्थानीय 'पंचविहा सयजीवा' इत्यादि । नैरयिका १ यावत् , यावत्सदेन तियश्चः २, मनुष्याः ३, देवाः ४, सिद्धाश्च ५। तत्र-संगारिणः सिद्धाश्च समस्ता अपि जीवाः क्रोधकपायिप्रभृतिभेदेन पश्चमकारकाः योध्याः । तत्र क्रोधरूपायिप्रभृतयश्चत्वारः पसिद्धाः। अरूपायिणस्तु उपशान्तमोहादयः। अथवा-नरयिकादिभेदाभिन्नाः पञ्चविधा जीवा योध्याः इति ॥ मू० १८ ॥ जीवप्रस्तावात् सम्प्रतिवनस्पतिजीवानां योनिमाश्रित्म पञ्चस्थानानि प्राद मूलम्-अह मंते ! कलमसूरतिलमुग्गमासणिप्पायकुलत्थआलिसंदग सईणपलिमंथगाणं एएसि गं धन्नाणं कुमा उत्ताणं जहा लालीगं जाव केवइयं कालं जोणी संचिइ १, गोयमा ! जहपमेणं अंतो मुहत्तं उनोसेणं पंच संबच्छराई । तेण परं जोणो पमिलायइ जाब तेग परं जोगीनोच्छेए पणते __छाया-अथ भदन्त ! कलममूरतिलमुद्गमापनिष्पावकुलथालिसन्दकनुयरीपलिमन्थकानाम् एतेषां खलु धान्यानां कोष्ठागुप्तानां यथा शालीनां यावत् कियन्त कालं योनिः सन्तिष्ठते ?, गौतम ! जयन्येन अन्तमुहत्तम् , उत्कर्षण पश्च संवत्सरान् । ततः परं योनिः प्रम्लायति यावत्तः परं योनिव्युच्छेदः प्रज्ञप्तः ॥ १९॥ जीवा" इत्यादि-नैरयिक १ तथा यावत्पद ग्राह्य तिर्यञ्च २ मनुष्य ३ देव ४ और सिद्ध ५ इस प्रकारसे भी समस्त जीव पांच प्रकार के होते हैं । तथा-संसोरी और सिद्ध ये समस्त भी जीव क्रोध कपायी आदिके एवं अषायीके भेदसे पांच प्रकारके होते हैं। इनमें क्रोध कषायवाले, मान कंषायवाले, माया कषायवाले और लोभ कषायवाले ये चार प्रसारके कषायघाले जीव संसारी जीव हैं एवं उपशान्त कषायवाले, क्षीण कषायवाले सयोग केवली और अयोग केवली ये अकपायी जीवहैं ।।१८। सावी. “ पंचविहा सव्यजीवो" त्याह समस्त याना पाया । नीय प्रमाणे हा छ-(१) ना२४, (२) तिय"य, (3) भनु य, (४) ३५ म२ (५) सिद्ध તથા સંસારી અને સિદ્ધ એ સમસ્ત જીવો ક્રોધકષાયી આદિના અને અકષાયીના ભેદથી પાંચ પ્રકારના હોય છે. તેમાથી ક્રોધકષાયવાળા, માનકષાયવાળા, માયાકષાયવાળા, અને લેભકષાયવાળા, આ ચાર પ્રકારના કાચવાળા સંસારી હોય છે, અને ઉપશાન કષાયવાળા, ક્ષીણકષાયવાળા, સાગ કેવલી અને અગકેવલી, એ ચાકષાયી જી હેય છે. જે સૂ. ૧૮ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधांटीका स्था०५ उ०३ सू०१९ वनस्पतिजीवानां योनिष्युच्छेद २४५ टीका - ' अह भंते ' इत्यादि 6 - 6 अथ ' इति प्रश्ने ' भदन्त ' इत्यामन्त्रणे । हे भदन्त । कलमरतिलमुद्रमापनिप्पावकुलत्था लिसन्द कतुनरी पलिम थकानां तत्र कल' मटर' इनि भाषाप्रसिद्धो धान्यविशेषः, मसूर तिलमुद्गमापाः प्रसिद्धाः, निष्पावो वल्लःare ' इति प्रसिद्ध, कुलत्थः = 'कुळधी' इति ख्यातो धान्यविशेषः, आलिसन्दको राजमाप:-' चौला बोरा ' इत्यादिनाम्ना लोके प्रसिद्धाः, 'सईणा ' -तुबेरी - अरडर' इति भाषा प्रसिद्रा, पल्गिन्यकः - कृष्णनणक इति । फलममुरादीनाम् एतेषां धान्यानां शालीनां यथा-सालीनामित्र कोठागुप्तानां कोष्ठागारे रक्षितानां यावत् - यावत् शब्दात् पल्या गुप्तानाम् - पल्यम् - वंशकटकादिकुतो धान्याधारपात्रविशेषः, तत्र आगुप्तानाम्, म गुप्तान म् - मञ्च:- ' मंचान ' इति भाषामद्धिः, तत्र आगुमानाम्, मालागुमानां गृहोपरित भागे संरक्षितानाम्, अवलिप्तानाम्परदेश वायगोनयादिना उरलिप्य रक्षिताना, लितानाम् सर्वतः कृत " जीवके प्रस्ताव से अब सूत्रकार वनस्पति जीवों की योनिको आश्रित करके पांच स्थानोंका कथन करते हैं 'अह भंते! कलमतूर तिलमुग्ग' इत्यादि सूत्र १९ ॥ टीकार्थ- हे भदन्त ! कल, मटर, मसूर, तिल, मुग, मुंग, माष, उडद, नि. पाव वाल, कुलत्य-कुलधी, आलिसन्दक-राजमाष रौशा-चौला, सईणाअरहर और पलिमन्धक - काला चना- इन सब धान्यकी चाहे ये कोष्ठाप्त हों - कोष्ठागार में भरकर रखे हुए हों यावत् चाहे बांस के बने हुए पिटारे में भरकर रखे हुए हों चाहे - आगुप्त हो-मन्नान के ऊपर भरकर रखे गये हों चाहें मालागुप्त हों-घर के ऊपर के भाग में संरक्षित हों चाहे लिप्त हों- - सब तरफ से वर्तनमें भरकर जिसमें लेप कर दिया જીવના અધિકાર ચાલી રહ્યો છે, તેથી હવે સૂત્રકાર વનસ્પતિ જીવેાની ચેનિને આશ્રિત કરીને પાચ સ્થાનાનું કથન કરે છે. 66 अह भंते ! कलमसूर विलमुग " इत्यादि अर्थ- गीतमस्वाभीना अश्न - लगवन् ! वटा, भसूर, तब, भग, मह, પાલ, કળથી, ચેાળા, તુવેર, ચણા વગેરે ધાન્યાની અંકુરોત્પાદન શક્તિ કેટલા સમયની કડી છે? અહીં તે ધાન્યના સંગ્રહ કરવાની જુદી જુદી રીતેા પ્રકટ કરવામાં આવી છે. આ રીતેાને આવરી લઇને આ પ્રમાણે પ્રશ્ન પૂછવામાં આન્યા છે ૪ ભગવન્ ! કોઠારમાં ભરીને સઘરી રાખેલા, વાંસની ખતાવેલી પેટીમાં રાખેલા, કાઇ ઊ ચા માંચડા ઉપર સ’ઘરેલા, ઘરના ઉપરના ભાગમાં સંઘરેલા (માલાસ ), માટીથી લિપ્ત પાત્રમાં ભરી રાખેલા, માટીથી અલિસ પાત્રમાં ભરી રાખેલા, માટીથી લેપ કરેલા ઢાંકણાવાળા પાત્રની અંદર રાખેલા Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૪૯ स्थाना 1 लेवानां विहितानाम् = आच्छादितानाम्, मुद्रितानाम् = मृत्तिकादिमुद्रावतां, लान्छितानाम् = रेखादिभिः कृताञ्जनानां कियन्तं कालं योनि उत्पादशक्तिः सन्ति ष्ठ ? कोष्ठागारादिरक्षितानां करसम्रादिदशविधधान्यानां योनिः कियत्कालावधितिष्ठति' इति मश्वाशयः । भगवानाह - हे गौतम । एतेषां धान्यानां योनिः जनन्येन अन्तर्मुहूर्तम् उत्कर्षे तु पश्च संवत्सरान् तिष्ठति ततः परम्= तदनन्तर योनिः पलायन=र्णादिना हीयते याच्छन्द्रात् ततः परं योनिः विस=नश्यति ततः परं बीजम् अवीजं भाति = उत्तमपि तन् न प्ररोहति । गया हो ऐसी जगह में रखे गये हों चाहे अब लिप्त हों - ऐसे पात्रमें भर कर रखे गये हों कि जिसका द्वार पहिले ढकन से ढक दिया गया हो और बाद में गोवर आदिसे छाय कर दिया गया हो चाहे लिप्त हों-सा मान्य रूप से ढककर रखे हुए हों, चाहे मुद्रित हों-मिट्टी आदिका लेप कर रखे गये हों चाहे लान्छित हों-रेखा आदि द्वारा जो चिन्हित कर दिये गये हों कितने काल तक उत्पादन शक्ति रहती है ? अर्थात् कोष्ठागार आदि में भर कर रखे गये इन कल मजूर आदि दश प्रका एके धान्यों की अङ्करोत्यदन शक्ति कितने समय तक रहती है, ऐसा प्रश्नाशय है-इस पर भगवान् कहते हैं - हे गौतम ! इन १० प्रकारके धान्यों की अङ्करोत्पादन शक्ति जघन्यसे एक अन्तर्मुहूर्त की है, और उत्कृष्टसे पांच वर्ष की है, इसके बाद उनकी वह अङ्करोत्पादन शक्ति वर्णादि द्वारा कमजोर हो जाती है फिर वे अङ्कुरोत्पादन करने में शक्ति सम्पन्न 'नहीं रहते हैं । यही बात "बीजं अभीजं भवति " इस पोठ द्वारा प्रकट की गई है अर्थात् वह केवल देखने मेंही बीज लगता है, पर वास्तवमें કે લેપ કર્યા વગરના ઢાંકણાવાળા વાસણમાં રાખેલા, રેતી રાખ આદિમા राजेश्वा वटालु, भसूर, तत्र, भग अउछ, वास, उजथी, योजा, तुवेर, या આદિ ધાન્યાની અરાત્પાદન શક્તિ કેટલા કળની કહી છે ? મહાવીર પ્રભુને ઉત્તર—હે ગૌતમ! વટાણા ન્યાદિ આ ૧૦ પ્રકારના ધાન્યની અંકુરેત્પાદન શક્તિ એછામાં એછા એક અન્તમુહૂર્ત પ્રમાણ કાળની અને અધિકમાં અધિક પચ વર્ષ સુધીની હાય છે. ત્યારમાદ તેની અકુરોત્સાહન શક્તિના ક્ષય થઇ જાય છે અને આખરે તેમની તે શક્તિ નષ્ટ થઇ જાય છે, એટલા કાળ બાદ તેમે અકુરેાદન કરવાની શકિતથી રહિત जनी लय हे. मे ४ वांत सूत्रारे " वीज अवीजं भवति " આ સૂત્રપાઠ દ્વારા પ્રકટ કરી છે, એટલે કે પાંચ વર્ષ બાદ તેએ ખીજ જેવા દેખાતાં Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०५३० ३ सू० २० पचविध संवत्सरनिरूपणम् ૨૪૭ अत एव हे गौतम ! ततः पर तेनां योनिव्यवच्छेदः = मरोहण शक्ति प्रणाशः प्रज्ञप्तः प्ररूपितः । अर्थात् उक्तकालानन्तरं कलममुरादीनि अचित्तानि भवन्तीति ॥ म्र० १९ ॥ अनन्तरमुत्रे कलमपुरादीनां योनिव्युच्छेदः पञ्चभिः संवत्सरैर्भवतीत्युक्तम् । सम्प्रति संवत्सरानेव पञ्चविधत्वेना - मूलम् - पंच संवच्उरा पण्णत्ता, तं जहा णक्खत्त संवच्छ रे १ जुगसंच्छरे २ पमाणसंवच्छरे ३ लक्खणसंवच्छरे ४ सणिचरसंच्छरे ५ । १ । जुगसंवच्छरे पंचविहे पण्णत्ते, तं जहाचंदे १ चंदे २ अभिवड़िए ३ चंदे ४ अभिवडिए ५ चैत्र । २ । माणसं वच्छरे पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा - नक्खते १ चंदे २ उऊ ३ आइचे ४ अभिवडिए ५ । ३ । लक्खणसंवच्छरे पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा - समगं नक्खत्ता जोगं जोयंति समगं उऊ परिणमति । णच्चण्हो णइसीओ बहूदओ होइ नक्खत्ते ॥ १ ॥ ससिलगलपुण्णमामी जोएई विसमचारणक्खते । कडुओ बहूदओ य तमाहु संघच्छरं चंदं ॥ २ ॥ विस पत्रालिणो परिणमंते अदूसुदेति पुप्फफलं । वासं ण सम्भं वास, तमाहु संच्छर कम्मं । ३ । पुढविदगाणं तु रसं, पुप्फफलाणं तु देइ आइच्चो । अप्पेण विवासेण, सम्मं निष्कजए वह दोज नहीं रहना है, क्योंकि वह खेत में बोये जाने पर अङ्कुरों को उत्पन्न नहीं कर सकता है। इसी कारण हे गौतम! पांच वर्ष बाद उनकी योनिका विच्छेद-प्ररोहण शक्तिका विनाश कहा गया है, अर्थात् ये कल मसूर आदि धान्य उक्त कालके बाद अचित्त हो जाते हैं ॥ ६०१९॥ હાવા છતાં પણ ખરી રીતે અખીજરૂપ જ મની ગયા હૈાય છે. કારણ કે તેમને ખેતરમાં વાવવામા આવે તે તેમાંથી અ`કુરા ઉત્પન્ન થતા નથી તે કારણે હૈ ગૌતમ ! પાંચ વર્ષ બાદ તેમની યાનિના વ્યચ્છેદ -ઉત્પાદન શક્તિને વિનાશ કહ્યો છે. એટલે કે તે વટાણા આદિ ધાન્ય ઉપયુક્ત કાળ દરનિયાન अति धन्य है ॥ सु. १५ ॥ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પટ ' स्थानास्त्रे सस्सं । ४। आइच्चतेयतविया, खणलत्रदिवसा उऊ परिणमंति पूरिति रेणुथलयाई, तमाहु आभिवडियं जाण ॥ ५॥ सू०२० ॥ __छाया-पञ्च संवत्सराः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-नक्षत्रसंवत्सरः १ युगसंवत्सरः २ प्रमाणसंवत्सरः ३ लक्षणसंवत्सरः ४ शनैश्वरसंवत्सरः ५ ११। युगसंवत्सरः पञ्चवियः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-चन्द्रः १ चन्द्रः २ अभिवद्धितः ३ चन्द्रः ४ अभिवद्धितश्चैव ५।२। प्रमाणसंवत्सरः पञ्चविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-नक्षत्रः १ चन्द्र: २ ऋतः ३ आदित्यः ४ अभिवद्धितः ५ । ३ । लक्षण संवत्सरः पश्च विधः प्रज्ञप्तः, तद्यथासमकं नक्षत्राणि योग योजयन्ति समकम् ऋतकः परिणमन्ते । नात्युष्णो नातिशीतो बहुदको भाति नक्षत्रः । १ । शशी सकलपौर्णमासी योजयति विपमवार नक्षत्रः । कटुको बहुदकश्च तमाहुः-संवत्सरं चान्द्रम् ।। २॥ विषम प्रालिनः परिणमन्ते अनृतुपु ददति पुष्पफलम् । वर्ष न सम्यग् वर्षति तमाहुः संवत्सरं फार्मणम् ॥३॥ पृथिव्युदकानां तु रसं पुष्यफले यस्तु ददाति आदित्यः । अल्पेनापि वर्गेण सम्यग निष्पद्यते सस्यम् ॥४॥ आदित्यतेजस्तापिताः क्षणलयदिवसा ऋतवा परिणमन्ते । पूरयन्ति रेणुमिः स्थल कानि तमाहुः अभिवदितं जानीहि ।। ४ ।। सू० २० ॥ टीका -'पंच संबच्छरा' इत्यादि संवसरा:-नक्षत्रसंवत्सरादिभेदेन पञ्चविधा वोध्याः । तत्र-द्वादशनक्षत्रनागात्मको योध्यः । नक्षत्रमासस्तु चन्द्रस्य नक्षत्रमण्डलभोगकालः । चन्द्रस्य इस सूत्रा कल महर आदि धान्यों को योनिका छेद पांच वर्षके शद हो जाता है ऐसा कहा है सो अन सून तार उन्हीं संवत्सरोका पंचविध रूपसे कथन करते हैं-'पंच संबच्छरा पणता' इत्यादि स्वना२०॥ टीकार्थ-संवत्सर पनि प्रकारके कहे गयेहैं-जैसे-नक्षत्र संवत्सर युग संवत्सर २ प्रमाण संवत्सर ३ लक्ष ग संवत्लर ४ और शनैश्चर संव. सर ५ इनमें जो नक्षत्र संवत्सर होता है, वह १२ नक्षत्रोंके मास रूप આગલા સૂત્રમાં એવું કહેવામાં આવ્યું છે કે વટાણા, મસૂર આદિ ધાન્યની નિનો પાંચ વર્ષમાં વિનાશ થઈ જાય છે. હવે સૂત્રકાર એ જ સંવત્સર (વ) ના પાંચ પ્રકારનું કથન કરે છે “पय संपच्छ। पण्णत्ता" इत्यादिसाथ-सवत्स२ ५in मरना i -(१) नक्षत्र सवत्सर, (२) युगसक. (म२, (3) प्रभा २ स२, (४) सक्ष सत्य२ गने (५) शनश्व२ सवत्स२. નક્ષત્ર સંવ-સર બાર નક્ષત્રના મસ રૂપ હ ય છે. ચન્દ્રને નક્ષત્ર મંડળને જે ભેગકળ છે તેને નક્ષત્રમાસ કહે છે. નક્ષત્ર મંડળના ભેગકાળ રૂપ નક્ષત્ર Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा रीका सा० ५ ००३ सू०२० पंचविसंवत्सरनिरूपणम् २४९ नक्षत्रमण्डलभोगस्तु सप्तविंशत्या दिनैः सप्तपण्टिभागविभक्तस्यैकस्य दिवसस्य एकविंशत्या भागेश्व (२७३३ ) भवति । एतावदिवसप्रमाणो नक्षत्रमास एकस्मिन् नक्षत्रसंवत्सरे तु सप्तविंशत्यधिकानि त्रीणि शतानि दिनानि सप्तपप्टिभागविभक्तस्यैकस्य दिवसम्य एकपञ्चाशद्भागाश्च (३२७१३ ) भवन्तीति ।। युगसंवत्सरः-पञ्चसंवत्सरात्मकं युगं, तदेकदेशभूतश्चन्द्रादिसंवत्सरो युगसंवत्सर इति । प्रमाणसंवत्सरः प्रमाण-परिमाण दिवसादीनां, तेनोपलक्षितो वक्ष्यमाण एच नक्षत्र संवत्सरादि लक्षणसंवत्सरः वक्ष्यमाण स्वरूपाणां लक्षणानां प्राधान्येन प्रमाणसंवत्सर एव । शनैश्चरसंवत्सरः शनैश्चरेण निष्पादितः होता है चन्द्र फे नक्षत्र मण्डलका जो भोगकाल होता है यह नक्षत्र मास होता है, चन्द्र के नक्षत्र मण्डलका भोगकाल २७ दिन और ६७ भागों में विभक्त एक दिनके २१ भाग प्रमाण होता है, अर्थात् नक्षत्र मास नक्षत्र मण्डलका भोगकोल २७।२१-६७ सउसठिया इक्कीस दिनका होता है । एक नक्षत्र संवत्सरमें ३२७ दिन और एक दिनके ६७ भागों से ५१ भाग होते हैं। युग. संवत्सर-पांच संवत्सरोंका एक युग होता है, इसको एकदेश भृत चन्द्रादि संवत्सर होता है, यह चन्द्रादि संवत्सरही युग संघस्सर है। प्रमाण संवत्सर दिवस आदिके प्रमाणसे उपलक्षित जो नक्षत्र संवत्सर आदि है वही प्रमाण संवत्सर है. लक्षण संवत्सर-जिनका स्वरूप आगे कहा जानेवाला है, ऐले लक्षणों की प्रधानताले जो प्रमाण संप. स्सर है, वही लक्षण संवत्सर है । शनैश्चर लंबरलर-जो संवत्सर शनैમાસ ર૭/૨૧/૬૭ સડસતીયા એકવીસ દિવસ હોય છે. એવાં બાર નક્ષત્રમાસનું એક નક્ષત્ર સંવત્સર થાય છે તે નક્ષત્ર સંવત્સરના ૩૨૭૫૧૬૭ દિવસ હોય છે. યુગ સંવત્સર–પાંચ સંવત્સરાને એક યુગ થાય છે. તેના એકદેશભૂત (ભાગ રૂ૫) ચન્દ્ર સ વત્સર હોય છે. તે ચન્દ્રાદિ સંવત્સર જ યુગ સંવત્સર છે પ્રમાણ સંવત્સર–દિવસ આદિના પ્રમાણુથી ઉપલક્ષિત જે નક્ષત્ર સંવસર આદિ છે, એ જ પ્રમાણ સવિસર છે. લક્ષણ સંવત્સર–તેના સ્વરૂપનું પ્રતિપાદન આગળ કરવામાં આવશે. એવા લક્ષણેની પ્રધાનતાવાળું જે પ્રમાણુ સંવત્સર છે, તેનું નામ જ લક્ષણ રાંવત્સર છે શનૈશ્વર સંવત્સર–જે સંવત્સરનુ શનીચર વડે નિર્માણ થાય છે, તેને નેશ્વર સંવત્સર કહે છે એટલે કે જેટલા સમયમાં શનીને ગ્રહ એક નક્ષ स्था-३२ Page #274 --------------------------------------------------------------------------  Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घोटीका स्था ५ उ०३ सू० २० पचविघसंवत्सर निरूपणम् રંકર तत्र - युगसंवत्सरः- चन्द्रचन्द्राभिवर्द्धित चन्द्राभिवर्द्धितसंवत्सरेति पञ्चविधः । चंद्रसंसरो द्वादशभिचन्द्रमा मैवति । एकस्मिन्द्रमासे एकोनत्रिंशरिनानि द्विषष्टिभाग विभक्तस्यैफ दिवसस्य द्वात्रिंशङ्गागा / २९३२ - ६२ ) भवन्ति । अयं च कृष्णप्रतिपद आरभ्य पौर्णमासी मभिव्याप्य भर्वात । एकस्मिंश्चन्द्रसंवत्सरे चतुष्पञ्चाशदधिकानि त्रीणि शतानि दिनानि द्विपष्टिभागविभक्तस्यैकस्य दिवसस्य द्वादशभागाच ( ३५४ १२-६२ ) भवन्तीति । भभिवर्द्धितसंवत्सरस्तु द्वादशभिरभिवर्द्धितमासैत्रयोदशभिवा भवति । एकस्मिन् अभिवर्द्धितमा से एकत्रिंशदिनानि चतुर्विंशत्यधिकैकशवभाग-विभक्तस्यैकस्य दिवसस्य एकविंशत्यधिकैकशतभागाव ( ३१ = १२१ - १२४ ) भवन्ति । अनेन क्रमेण द्वादशमासममाणे एकस्मिन्नभिवर्द्धितसंवत्सरे व्यशीत्यधिकानि श्रीणि शतानि दिनानि द्विषष्टिभागविभक्तस्य एकस्य दिवसस्य चतुश्चत्वारिंशद् ताका कथन करते हैं- "जुगसंचच्छरे " इत्यादि - चन्द्र १ चन्द्र २ अभिवर्द्धत ३ चन्द्र ४ और अभिवर्द्धित ५ इनमें चन्द्र संवत्सर १२ चन्द्र मासोंसे होता है, एक चन्द्रमासमें २९ दिन एवं ६२ भागों में विभक्त एक दिन ३२ भाग होते हैं, यह कृष्णपक्षकी प्रतिपदा से लेकर पौर्णमासी तक होता है, एक चन्द्र संवत्सर में ३५४ दिन और ६२ भागों में विभक्त हुए एक दिन के १२ भाग होते हैं । अभिवर्द्धित संवत्सर १२ अभिवर्द्धित महिनों से अथवा १३ चन्द्र मासोंसे निष्पन्न होना है, एक अभिवृद्धिमासमें एकतीस दिन और १२४ भागों में विभक्त हुए एक दिनके १२१ भाग होते हैं । इस तरह द्वादश मास प्रमाण एक अभिवर्द्धित संवत्सर में ३८३ दिन और ६२ भागों में विभक्त हुए एक दिन के ४४ भाग होते हैं । 66 ' जुग संवच्छरे " इत्यादि – (१) यन्द्र, (२) यन्द्र, (3) अभिवर्द्धिता (४) शुन्द्र भने (4) मलिवर्द्धित. तेमांनु यन्द्र संवत्सर १२ यन्द्रभासोनु ખને છે. એક ચન્દ્રમાસના ૨૯૩૨।૬૨ દિવસ થાય છે. કૃષ્ણપક્ષની પ્રતિપદા ( વદી એકમ ) થી લઇને પૂનમ સુધીના દિવસેાના એક ચાન્દ્રમાસ થાય છે. એવા ખાર ચાન્દ્રમાસેતુ' એક ચન્દ્રસ'વત્સર બને છે. તેના ૩૫૪૬૧૨૬૨ દિવસ થાય છે. અભિવૃદ્ધિંત સવત્સર (અધિક માસવાળુ' વર્ષ) ૧૨ અભિહિત મહિ નાનુ અથવા ૧૩ ચાન્દ્રમાસેાનુ` બને છે. એક અભિવૃદ્ધૃિત માસના ૩૧/૧૨/૧૨૪ દિવસ હાય છે, અને ૧૨ માસપ્રમાણુ એક અભિવૃદ્ધિંત સવ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ स्थानागसूत्र भागाध ( ३८३ ४४-६२) भवन्तीति । एभिश्चन्द्रादिभिः पञ्चभिः संवत्सरेरेकं युगं भवति । तत्राभिवद्धितसंवत्सरेऽधिकमासो बोध्य इति । युगसंवत्सरमतिपादिका गाथाऽन्यत्रैवमभिहिता, । तथाहि "चंदो बदो अभिवडिओ य चंदमभिवडिओ चेव । पंच सहियं जुगमिणं, बिट्ट तेल्लोकदंसीहि ॥ १ ॥" छाया-चन्द्रश्चन्द्रोऽभिवद्धितश्च चन्द्रोऽमिवर्द्धितश्चैव । पञ्चसहितं युगभिदं दृष्टं त्रैलोक्यदर्शिभिः ।। १ ।। इति । -तथा-प्रमाणसंवत्सरः नक्षत्रः १ चन्द्रः २ पातुः ३ आदित्यः ४ अभिवद्धित ५ इति पञ्चविधः । तत्र-नक्षत्रः नक्षसंवत्सरः पूर्वोक्तलक्षणः । पूर्वस्माद विशेषस्त्वयम्-तत्र नक्षत्रमण्डलस्य चन्द्रभोगमात्रं विवक्षितम् । इह तु दिन तदभागादिप्रमाणमिति विशेषः ।१। तथा-चन्द्र - चन्द्रसंवत्सर उक्त लक्षण एव । २ । विशेषस्त्वयं-तत्र तस्य युगावयवत्वमा विवक्षितम् , इइ इन चन्द्रादिक पांच संवत्सरोंसे एक युग बनता है, अभिवद्धित संवत्सरमें अधिक लाल होता है, युग संवत्सर की प्रतिपादिक गाथा अन्यत्र इस प्रकारले कही गई है-"चंदो चंदो अभिवडिभोय" इत्यादि। तथा-प्रमाण सवलर-पांच प्रकारका कहा गया है-जैसे नक्षत्र १ चन्द्र २ ऋतु ३ आदित्य ४ और अभिवद्धित ५ इनमें पूर्वोक्त लक्ष. णघाला नक्षत्र शब्दले गृहीत हुआ है। पूर्वकी अपेक्षा इसमें ऐसी विशेषता है कि वहां नक्षत्र मण्डलका चन्द्रभोग मात्र विवक्षित हुआ है, उक्त लक्षणयाला चन्द्र संघरसरही यहां चन्द्र शब्दसे विवक्षित हुआ है । परन्तु उसकी अपेक्षा यहां ऐसी विशेषता है, कि वहां पर युगकी ન્સરના ૩૮૩૪૪૬૨ દિવસ થાય છે. આ ચન્દ્રાદિક પાંચ સંવત્સરને એક યુગ બને છે. અભિવદ્વિત સંવત્સરમાં એક અધિક માસ હોય છે. યુગ સંવન્સરનું પ્રતિપાદન કરતી ગાથા અન્યત્ર આ પ્રમાણે કહી છે " चदो पदो अभिवढिओ य" त्याहि. तथा प्रमाण सवत्स२ पाय प्रा२नु प्रयु छ-(१) नक्षत्र, (२) यन्द्र, (३) तु, (४) साहित्य म२ (५) ममिवर्द्धित. पूरित सक्षपाणु नक्षत्र સંવત્સર જ અહીં નક્ષત્ર પદથી ગૃહીત થયું છે. અહીં પૂર્વની અપેક્ષાએ એટલી જ વિશેષતા છે કે ત્યાં નક્ષત્રમ ડળના ચન્દ્રભેગની જ માત્ર વિવક્ષા કરવામાં આવી છે, અને અહીં દિન અને દિનને ભાગ આદિ પ્રમાણુ વિવશિત થયેલ છે. ઉપર્યુક્ત લક્ષણવાળું ચન્દ્ર સંવત્સર જ અહીં શાખ વડે વિવક્ષિત થયું છે. પરંતુ તે કથન કરતાં અહીં એટલી જ વિશેષતા છે કે Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०५ उ ३ सू २० विधत्सरनिरूपणम् २५३ तु प्रमाणं विवक्षितमिति । तथा ऋतुः ऋतुसंवत्सरः ऋतवो लोकमसिद्धा वसन्वादयः, तत्प्रधानः संवत्सर इत्यर्थः । अयं च सावनमासकर्ममासपर्यायैः द्वादशभि तमासैर्निष्पद्यते । एकैकस्मिन् ऋतुमासे त्रिंशदहोरात्रा (३०) भवन्ति । एकस्मिन् ऋतुसंवत्सरेतु पष्टयधिकशतत्रय प्रमाणा अहोरात्रा (३६०) भवन्तीति । तथा - भादित्य = आदित्य संवत्सरः अयं च द्वादशभिरादित्यमासेनिष्पद्यते । एकस्मिमादित्यमासे तु सार्द्धर्निगद्दिनानि (३० १-२ ) भवन्ति । एकस्मिन्नादित्य-संवत्सरे पट्पष्टयधिकशतत्रयमाणानि ( ३६६ ) दिनानि भवन्तीति । अभिवर्द्धित उक्तलक्षण एव । ५ नक्षत्रादि भेदेरुक्तोऽयमेव प्रमाण संवत्सरो लक्षणप्राधान्येन यदा निर्दिश्यते तदा लक्षण संवत्सरो भवति । अयं लक्षण संवत्सरोऽपि चन्द्रादिभेदेन पञ्चविधो भवति । अवयवता मात्र विवक्षित हुई हैं, और यहां उसका प्रमाण विवक्षित हुआ है । वसन्त आदिक ऋतुओं की प्रधानताचाला जो संवत्सर है, वह ऋतुसंवत्सर है । यह संवत्सर सावन मास कर्ममास पर्यायवाले १२ ऋतुमासों से निष्पन्न होता है। एक २ ऋतुमासमें तीस अहोरात्र होते हैं | आदित्य संवत्सर - यह १२ आदित्य मासों द्वारा निष्पन्न होता है, एक आदित्य मासमें ३०१ दिन होते हैं । एक आदित्य संवत्सर में ३६६ दिन होते हैं । अभिवर्द्धित - इसका लक्षण कह दिया गया है । नक्षत्र आदिके भेदों से कहा गया यही प्रमाण संवत्सर लक्षणों की प्रधानता से जय निर्दिष्ट होता है, तब लक्षण संवत्सर होता है। यह लक्षणसंव ત્યાં યુગની અવયવતાની જ વિત્રક્ષા થઈ છે અને અહી તેનું પ્રમાણ વિવક્ષિત થયું છે. વસંત આદિ ઋતુઓની પ્રધાનતાવાળું જે સવત્સર છે તેને ઋતુ. સવત્સર કહે છે. તે સ'વત્સર શ્રાવણુમાસ આદિ ૧૨ માસેનું બને છે તે પ્રત્યેક ઋતુમાસમાં ૩૦ દિવસ અને ૩૦ રાત્રિ હોય છે. આ રીતે એક ઋતુસ'વત્સરના ૩૬૦ દિનરાત થાય છે. साहित्य संवत्सरते मार साहित्य (सूर्य) भासोनु' भने छे. ૩૦।૧।૨ દિવસને એક આદિત્યમાસ અને ૩૬૬ દિવસનુ એક આદિત્ય संवत्सर थाय छे. અભિવૃદ્વૈિત સ'વત્સરતુ' વરૂપ આગળ પ્રકટ થઇ ચુકયુ છે. નક્ષત્ર આદિકાના ભેદની અપેક્ષાએ પ્રતિપાદિત પ્રમાણુ સવશ્વરની જ્યારે લક્ષણ્ણાની પ્રધાનતાપૂર્વક નિર્દેશ થાય છે, ત્યારે તેને લક્ષણુ સ'વત્સર કહે છે તે લક્ષણુ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રહ્યું स्थानाङ्गले पश्चविधत्वमेवाह-' तथा ' इत्यादिना । तत्र प्रथमं नक्षत्रसंवत्सरमाह'समगं' इत्यादिना । नक्षत्राणि-कृत्तिकादोनि समकं समतया योग-कार्तिकीपौर्णमास्यादितिथिना सह संवन्धं योजयन्ति=कुर्वन्ति । अयं भावः-पानि नक्ष. प्राणि यासु तिथिषु उत्सर्गतो भवन्ति तानि तास्वेव यत्र भवन्ति । तत्र-ज्येष्ठः श्रावणो मार्गशीर्पश्चेति त्रयोमासास्तत्तन्नाम्ना नो समागच्छन्ति यथा ज्येष्ठो मासो मूलनक्षत्रेण, श्रावणो धनिष्ठानक्षत्रेण, मार्गशीर्षश्च आर्टानक्षत्रेण समाग छति, शेषा मासास्तत्तन्नक्षत्र नामानोभवन्ति यथा कृत्तिकाभिः कार्तिको मासः, पुष्येण पीपः, इत्यादि। स्लर श्री चन्द्र आदिके अदरले पांच प्रकारका होता है। जो इस प्रका रसे हैं-नक्षत्र १ चन्द्र इत्यादि इनमें अब पहिले मूत्रकार नक्षत्र संवत्सरका कथन करते हैं-" समग" इत्यादि-कृत्तिकादि नक्षत्र समतासे कार्तिकी पौर्णमामी आदि तिथिके साथ जिसमें सम्पन्ध करते हैं यह नक्षत्र संवत्सर है, भाव यह है कि जो नक्षत्र जिन तिथियों में उत्सर्गसे सामान्य रूपसे होते हैं वे नक्षत्र उन्हीं तिथियों में जहाँ होते हैं जैसे-जेठ, श्रावण, मार्गशीर्ष ये तीन माल उन २ नक्षत्रोंके नामसे नहीं आते हैं क्योंकि ज्येष्ठ मास मृल नक्षत्र के साथ श्रावणमास घ. निष्ठा नक्षत्र के साथ और मार्गशीर्ष आर्द्रा नक्षत्रके साथ आता है शेष मास उन २ नक्षत्रोंके नामवाले होते हैं जैसे कृत्तिकाले कार्मिक मास पुष्य नक्षत्रसे पीप माम इत्यादि कहा भी हैસંવત્સર પણ ચન્દ્ર આદિના ભેદોની અપેક્ષાએ પાંચ પ્રકારનું કહ્યું છે. જે પાંચ પ્રકારે નીચે પ્રમાણે છે-નક્ષત્ર, ચન્દ્ર ઈત્યાદિ. તે પાચ પ્રકારોમાંના नक्षत्र सबस२ नामाना पडे। प्रा२नुसूत्र ५२४३ ४थन ४२ छे. "समग" त्याहि. કૃતકાદિ નક્ષત્ર સમાનતાપૂર્વક કાર્તિકી પૂર્ણિમા આદિ તિથિની સાથે જેમાં સંબંધ કરે છે, તેનું નામ નક્ષત્ર સંવત્સર છે આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે જે નક્ષત્રો જે તિથિઓમાં સામાન્ય રૂપે હોય છે તે નક્ષત્રો જે તિથિએમાં સામાન્ય રૂપે હોય છે, તે નક્ષત્રે એ જ તિથિઓ માં જ્યાં હોય છે, જેમકે જેઠ, શ્રાવણ, માગશીર્ષ (માગશર) આ ત્રણ માસનાં નામ તે તે નક્ષત્રના નામ ઉપરથી પડયા નથી, કારણ કે જેઠ માસ મૂલનક્ષત્ર સાથે, શ્રાવણ્ માસ ધનિષ્ઠા નક્ષત્રની સાથે અને માગશર માસ આદ્ર નક્ષત્રની સાથે આવે છે. બાકીના મહિનાએ તે તે નક્ષત્રના નામવાળા હોય છે. જેમકે કનિક પરથી કારતક માસ, પુષ્ય નક્ષત્ર પરથી પિષ માસ, ઈત્યાદિ નામે નક્ષત્ર પરથી જ, પડયાં છે. કહ્યું પણ છે કે Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१५ सुधा का स्था०५ उ०३ सू०२० पंचविधसंयत्मनिरूपणम् उक्तं च-" जेठो वच्चइ मूलेणं सावणो धणिहाहिं । __ अहासु य मासिरो सेसा नक्खत्तनामिया मासा ॥१॥" छाया-ज्येष्ठो ब्रजति मुलेन श्रावणो धनिष्ठाभिः।। आर्द्रासु च मार्गशीर्ष, शेषा नक्षत्र नामानो मासाः ॥१॥ इति । ___ तथा--यत्र समक-साम्येनैव ऋतवः परिणमन्ते न विपमतया । अर्थात्कार्तिक्या अनन्तरं हेमन्तऋतुः, पोप्या अनन्तरं शिशिरऋतुरित्येवं साम्येनैव ऋतव' परिणति गच्छन्तीति । तथा-यो न अत्युप्णः न चातिशीत:-अर्थात् समशीतोष्णो भवति तथा-बहूदक:-बहन्युदकानि स्मिस्तथाभूतश्च भवति, स लक्षणतः नक्षत्रसंवत्सरो भवतीति । नक्षत्रचारलक्षणलक्षितत्वादयं नक्षत्रसंवत्सरो योध्यइति । अथ चन्द्रगंवत्सरं लक्षणतो निर्दिशति-'ससिसगल, इत्यादिना । शशी चन्द्रो यत्र सकल पौर्णमासी:-योजयति-सकलपौर्णमापीमिः सह सम्बन्धं " जेहो पच्चा, मूलेणं” इत्यादि___ तथा-जहां छहों ऋतुएँ समानरूपसे परिणमती हैं, विषम रूपसे नहीं अर्थात-कार्तिकीके बाद हेमन्त ऋतु पौषीके बाद शिशिर ऋत इस प्रकार की समानतालेही जहां ऋतुएँ परिणतिको प्राप्त करती हैं, तथा जो न अतिशीत होता है, और न अति उष्ण होता है, किन्तु समशीतोष्ण रहता है, तथा जिलमें बहुत पानी होता है, ऐसा वह प्रमाण संवत्सर नक्षत्र संवत्सर होता है, यह संवत्सर नक्षत्रोंकी गतिरूप लक्षणोंसे लक्षित होनेके कारण नक्षत्र संवत्सर कहा गया है, ऐसा जानना चाहिये १ चन्द्र संवत्सर-जिल संवत्सरमें चन्द्र सकल पौर्ण " जेवो वच्चइ,, मूलेणं " त्या6 તથા–જેમાં છએ ઋતુઓ સમાન રૂપે પરિણમે છે–વિષમ રૂપે પરિ. હુમતી નથી એટલે કે કાર્તિક પછી હેમન્ત તુ, પિષ પછી શિશિર ઋતુ, આ પ્રકારની સમાનતાથી જ જ્યાં ઋતુઓ પરિણમે છે, અને જ્યારે અતિ ઠંડી પણ હતી નથી અને અતિ ગરમી પણ હોતી નથી, પરંતુ સમશીતoણ આહવા જ રહે છે તથા જેમાં ખૂબ જ વરસાદ વરસે છે એવું તે પ્રમાણ સંવત્સર નક્ષત્ર સંવત્સર રૂપ હોય છે. તે સંવત્સર નક્ષત્રની ગતિ રૂપ લક્ષ થી લક્ષિત હોવાને કારણે નક્ષત્ર સંવત્સરને નામે ઓળખાય છે, એમ સમજવું જોઈએ. ચન્દ્ર સંવત્સર–જે સંવત્સરમાં ચન્દ્ર બધી પૂર્ણીમાઓ સાથે સંબંધ રાખે છે તથા વિષમ ચાલવાળાં નશો જેમાં હોય છે એવા સંવત્સરને ચન્દ્ર Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ स्थानासो करोति । नथा-यो विपमचारनक्षत्र:-विषमः चारा-चलनं येषां तानि तथा भूतानि नक्षत्राणि यत्र स तथाभूनो भवति । तथा-कटका अत्य॒णः, अनि शीतो वा भवति । तथा-बदरच भवति । पचंविधो यः संवत्सरः, तं चन्द्रसंवत्सरमाह-चन्द्रचारलक्षणलक्षितत्वादय संवत्सरो लघणतश्चन्द्रो योव्य इति २। अथ ऋतुसंवत्सर लक्षणतो निर्दिगति-विसमं' इत्यादिना । यत्र प्रवाटिना वृक्षाः विषम वैषम्येण परिणमन्ने परिणता भान्ति-अफरायुभेदावस्था यान्ति । तथा-अनुतपु-अस्वकालेऽपि पुष्पफलं मयन्छन्ति स्वभावतः चत्रादिपु पुप्पफलो. द्गमशीला अपि रसालला माघादिपु पुपादिशालिनो भवन्ति । तथा-पत्र मेयो वर्ष=वृष्टिं न सम्यग् वर्ष ति, एवंभूनो यः संवत्सरन्तं तीर्थक्रप्रभृतिभिलक्षणतः कार्मणं संवत्सरम् आह । अयं कामण संवत्सर एवं नातुसंवत्सरः सावनसंवत्समालियोंके साथ सम्पन्ध करता है, तथा विद्यम चालवाले नक्षत्र जिममें होते हैं, ऐना जो संवत्लर होता है, तथा जो कटुक अत्युप्ण होता है। अथवा अतिशीत होता है, तथा यसदक-बगल जलयाला होता है, ऐसा जो संवत्सर होता है, रह चन्द्र संवत्सर चन्द्रली गतिरूप लक्षणोंसे लक्षित होनेके कारण लक्षणकी अपेक्षा चन्द्र लवरसर कहा गया है। ऋतु संवत्सर - जिसमें प्रवाली वृक्ष विषमता रूपले परिणत होते हैं-अादिकोंके उभेद होने रूप अवस्थाको प्राप्त करते हैं राधा-अकालमें ली जो पुप्प फलको देते हैं जैसे स्वभावसे चैत्र आदिमें पुष्पफलोद्मशील भी सालवृक्ष-आम्र. वृक्ष माघ आदि बहीनों में प्रध्पादि देनेवाले हो जाते हैं, तथा जिसमें वृष्टि अच्छी तरहसे नहीं होती है, ऐसा जो संवसर है, वह तुसंवत्सर है, इस ऋतु संवत्सरफा नामही फार्मग संघरसर है, यह कामण संपत्लरही ऋतु लवस्तर और सावन संदरलर नामान्तरथाला સંવત્સર કહે છે. તે સંવત્સરમાં અતિશય ઠંડી અથવા અતિશય ગરમી પડે છે અને ભારે વરસાદ પડે છે. આ સંવત્સર ચન્દ્રની ગતિરૂપ લક્ષણેથી લક્ષિત હેવાને કારણે તેને લક્ષણની અપેક્ષાએ ચદ્ર સંવત્સર કહે છે. | ઋતુ સંવત્સર–જેમાં વૃક્ષ વિષમ રૂપે પરિમન પામે છે અંકુરાધિને ઉદ્દભેદ થવા રૂપ દશાને પ્રાપ્ત કરે છે, તથા અકાળે પણ જે ફૂલફળ દે છે, જેમકે ચૈત્ર માસમાં પુષ્પ અને ફેમીલ કમ્રાળ આમ્રવૃક્ષ મહા આદિ માસમાં કુલફળ દેતાં થઈ જાય છે, તથા જે સંવત્સરમાં સારી વૃષ્ટિ થતી નથી, તે સંવત્સરને ઋતુ સંવત્સર કહે છે. આ ઋતુ સંવત્સરને જ કામણ સંવત્સર કહે છે. અથવા આ કામણ સંવત્સરના જ ઋતુસંવત્સર અને પાવન સંવત્સર રૂપ બીજા નામે કહ્યાં છે. Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०५ उ. ३ सू २० पञ्चविधसंवत्सर निरूपणम् 1 रथ प्रोच्यते इति ३ | आदित्यसंवत्सर लक्षणतो निर्दिशति - ' पुढविदगाणं इत्यादि । यत्र संवत्सरे आदित्यः = सूर्यः पृथिव्युदकानां रसं=माधुर्यस्निग्धतादिलक्षणं पृथिवीजलसम्बन्धिरसं पुष्पफलेभ्यो ददाति = प्रयच्छति । तथा - अल्पेनावि वर्षेण = अल्पदृष्टयाऽपि तथाविधवमावेऽपि सस्यं = शाल्यादिकम् अन्नं सम्यक्= याथातथ्येन निष्पद्यते = जायते । सोऽयं संवत्सरो लक्षणन आदित्यसंवत्सर उच्यते इति । अथ अभिवर्द्धितसंवत्सरं लक्षणतो निर्दिशति - ' आदिच्चतेयतत्रिया ' इत्यादिना । यत्र संवत्सरे आदित्यतेजस्तापिताः = सूर्यकिरणै' संतापिताः क्षणलवमुहूर्त्त दिवसाः - क्षणः = कालविशेषः लवः = एकोनपञ्चाशदुच्छा सममाणः सप्तसप्तति लत्रप्रमाणः दिवस: अहोरात्रः, एषां द्वन्द्वे ते तथाभूताः - क्षणलमुहूर्तदिवसाः ऋतवथ परिणमन्ति । तथा सूर्यकिरणतापितास्त एव क्षणलबमुहूर्त्त दिवसाः रेणुभिः वायुरिक्षत रेणुभिः कहा गया है, ' पुढविदगाणं " जिस सवत्सर में सूर्य पृथिवी एवं उद ऋतवश्च के रसको पृथिवी सम्बन्धी रसको एवं उदक सम्बन्धी रसको - मधुरता स्निग्धताको - पुष्प फलोंके लिये देता है, तथा अल्प भी दृष्टि से जिस संवत्सर में शालि आदि अन्न अच्छी तरह से निष्पन्न होता है, ऐसा यह संवत्सर इन लक्षणोंकी अपेक्षासे आदित्य संवत्सर कहा गया है " आदिच्च तेतविया " इत्यादि । जिस संवत्सर में सूर्य के तेजसे किरणोंसे तापितकाल - विशेष रूप क्षण मुहूर्त ४९ उच्छ्वास प्रमाण लव एवं अहोरात्ररूप दिवस और ऋतुएँ, दो दो साम प्रमाणवाली होती है तथासूर्यकी किरणोंसे तापित हुए वे ही क्षण लव मुहूर्त और दिवस एवं ऋतुएँ वायु से उडाई गई धूलि द्वारा स्थलोंको पूरित कर देती हैं, સવત્સરમાં સૂર્ય मादित्य भवत्र – “ पुढविदगाणं " इत्यादि - પૃથ્વી અને ઉદકના રસને-પૃથ્વીસ ધી રસને અને પાણી સખ`ધી રસને એટલે કે પુષ્પ અને લેાને મધુરતા અને સ્નિગ્ધતા અપે છે, તથા જે સંવત્સરમાં અલ્પ વૃષ્ટિ થવા છતા પણ ડાંગર આદિ ધન્યા વિશેષ પ્રમાણુમાં ઉત્પન્ન થાય છે, તે સવત્સરને આદિત્ય સવત્સર કહે છે << आदिच्च तेयतविया " इत्याहि - = २५७ જે સ‘વત્સરમા સૂર્યના તેજથી (કરા વર્ડ) કાળવિશેષ રૂપ ક્ષસ, મુષ્કૃત ૪૯ ઉચ્છ્વાસ પ્રમાણુ લવ, અહેરાત્ર રૂપ દિન રાત, તથા બબ્બે માસ પ્રમાણવાળી ઋતુએ તમ થાય છે અને સૂર્યાંના કિરણેાથી તપ્ત થયેલી એ જ ક્ષÌ, લવ, મુહૂત દિવસ અને ઋતુ પવન વડે ઉડેલી ધૂળ વડે સ્થળાને ભરી દે છે, તે સ વત્સરનું નામ અભિવ स्था०-३३ " Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाजसो स्थलानि पूरयन्ति, तं संवत्सरम् अभिवद्धितम् आह तीर्थकृत्मभृतिरिति हे शिष्य ! त्वं जानीहि । यद्यपि सूर्यतेजसा पृथिव्यादयस्ताप्यन्ते तथापि उपचारात् क्षणादयोऽपि तथोच्यन्ते, इति ॥ मू० २० ॥ ___ अनन्तरमुत्रे संवत्सर उक्तः । संवत्सरश्च कालः, काले व्यतीते तु शरीरिणां शरीरान्निर्गमो भवतीत्यतस्तन्मार्ग निरूपयति____ मूलम्-पंचविहे जीवस्त णिजाणमग्गो पण्णत्ते, तं जहापाएहिं १ ऊरूहि २ उरेणं ३ लिरेणं ४ संव्वंगेहिं ५॥ पाएहिं णिजाणमाणे निरयरगामी भवइ । ऊरूहि णिजाणमाणे तिरियगामी भवइ २॥ उरेणं णिजाणमाणे मणुयगामी भवइ ३॥ सिरेणं णिजाणमाणे देवगामी भवइ ४, सव्वंगेहिं णिजाणमाणे सिद्धिगइपज्जवलाणे पएणते ५॥ सू०२१ ॥ छाया-पञ्चविधो जीवस्य निर्माणमार्गः प्रज्ञप्तः तद्यथा-पादाभ्याम्, १ अरूभ्याम् २, उरसा ३, शिरमा ४, सङ्कि: ५। पादाभ्यां निर्यान निरयगामी भवति । अरुभ्यां निर्यान् तिर्यग्गामी भवति २। उरसा निर्यान् मनुजगामी भवति ३। शिरसा निर्यान् देवगामी भवति ४। सर्वाङ्ग निर्यान् सिद्धिगतिपर्यवसानः मशप्तः ।। सू० २१ ॥ भर देती हैं, उस संवत्सरका नाम अभिवद्धित संवत्सर है। ऐसा तीर्थंकर आदिकोंने कहा है, मो हे शिष्य ! तुम इस कथन पर विश्वास करो । यद्यपि सूर्यकी किरणोंसे पृथिवी आदि तपाये जाते हैं क्षणादिक नहीं परन्तु उपचारसे वे भी तपाये जाते हैं, ऐसा कह दिया जाता है, इसीलिये क्षणादिक तपाये जाते हैं ऐसा कह दिया गया है । सू० २० ॥ इस पूर्वोक्तमें संवत्सर कहा गया है, यह संवत्सर कालरूप होता है। कालके व्यतीत होने पर शरीरधारियोंका शरीरसे निर्गम होताहै, હિંત સંવત્સર છે, એવું તીર્થકરેએ કહ્યું છે. તે હે શિષ્ય ! તું આ કથનને વિશ્વાસપૂર્વક સાચું માની લે. જો કે સૂર્યના કિરણે વડે પૃથ્વી આદિને તપાવવામાં આવતાં નથી, છતાં પણ અહીં ઔપચારિક રીતે એવું કહેવામાં આવ્યું છે કે ક્ષણ, લવ આદિ સૂર્યના કિરણે વડે તપે છે, જે સૂ૨૦ છે આગલા સૂત્રમાં સંવત્સરની પ્રરૂપણ કરવામાં આવી. તે સંવત્સર કાળ. રૂપ હોય છે. આયુકાળ પૂરો થતાં શરીરધારીઓને આત્મા શરીરમાંથી નીકળી Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधाटीका स्था०५ उ०३ सू०२१ जीवस्य निर्याणमार्गनिरूपणम् २५९ टीका-पंचविहे ' इत्यादि जीवस्य निर्माणमार्गः-निर्याण-मृत्युसमये शरीरिणः शरीरान्निस्सरणं, तस्य मार्गः पादादिरूपः पञ्चविधः कथितः । पञ्चविधत्वमेवाह-तद्यथा-पादाभ्याम् इत्यादि । जीवः शरीरात पादादिमिः पञ्चभिर्मान: परलोके गच्छतीति भावः । तत्र जीवो येन मार्गेण यत्र गच्छति तत् प्राह-पाएहिं ' इत्यादि । पादाभ्यांचरणरूपमार्गेण निर्यान्-शरीराद् निर्गच्छन् जीवो निरयगामी भवति १। एवम्अरुभ्यां-जङ्गाभ्यां कटेरधोजान्वोरुपरिभागरूपाभ्यां तियग्गामी २१ उरसावक्षसा मनुजगामी ३। शिरसा देवगामी च भवति । तथा-सर्वाङ्गः पादादिभिः अतः अब सूत्रकार उस मार्गका निरूपण करते हैं___"पंचविहे जीवस्स णिज्जाणसग्गे पण्णत्ते" इत्यादि सूत्र २१॥ टीकार्थ-जीवका निर्याण मार्ग पांच प्रकारका कहा गयाहै, जैसे-दो चरणोंसे १ दो जंघोंसे २ छोतीसे ३ शिरसे ४ और सर्वाङ्गसे ५ मृत्युके समय जीवका जो शरीरसे बाहर निकलना होता है, उसका नाम निर्याण है, इस नियोणका चरणादि रूप मागें पांच प्रकारका कहा गया है, अर्थात् जीव शरीरसे चरण आदि पांच मागों से होकर निकल कर परलोकमें जाताहै, यही बात यहां मूत्रकारने प्रकट कीहै, जोजीवशारीर से चरणरूपमार्गसे होकर निकलताहै, वह निरयगामी नरकगामी होता है १ जो जीव दो जनाओंसे होकर निकलता है, वह तिर्यग्गामी होता है। जो जीव छातीसे होकर निकलता है, वह मनुजगामी होता है, जो जीव शिरले होकर निकलता है, वह देवगामी होता है, और चरणादि જાય છે. હવે સૂત્રકાર છવના નિર્માણમાગની પાંચ વિધાતાનું નિરૂપણ કરે છે. ___ "प चविहे जीवरस णिज्जोणमग्गे पण्णत्ते" प्रत्याहिટીકાર્થ-જીવને નિર્માણમાર્ગ પાંચ પ્રકારને કહ્યો છે જે પાંચ પ્રકાર નીચે प्रभाए छ-(१) मे २२॥ द्वारा, (२) मे घा , (3) छाताभाथी, (४) भस्त भांथा मन (५) सागामाथी. મૃત્યુ સમયે શરીરમાંથી જીવને જે બહાર નીકળવાનું થાય છે, તેનું નામ નિર્માણ છે. તે નિર્માણના ચરણાદિ રૂપ પાચ માર્ગ બતાવ્યા છે. સૂત્રકારે આ સૂત્ર દ્વારા એજ વાત પ્રકટ કરી છે કે ચરણાદિ પાંચ માર્ગોથી છવ શરીર માંથી નીકળી જાય છે. જે જીવ શરીરમાથી ચરણરૂપ માર્ગે થઈને નીકળી જાય છે તે નિરયગામી બને છે. બે જ ઘાઓ રૂપ માર્ગેથી નીકળતે જવ તિયામાં ઉત્પન્ન થાય છે, છાતી રૂપ માર્ગેથી નીકળતે જીવ મનુષ્ય ગતિમાં ઉત્પન્ન થાય છે. મસ્તકરૂપ માર્ગેથી નિકળતે જીવ દેવગતિમાં Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૬૦ स्थानानसूत्रे सकलैरङ्गैः निर्यान=शरीराद् निर्गच्छन् जीवः सिद्धिगतिपर्यवसानः गतेः पर्यव सानं पर्यन्तो गतिपर्यवसानं सिद्धो गतिपर्यवसानं यस्य सः - सिद्धिपदगामी प्रज्ञप्तः =मरूपितस्तीर्थक्रुद्भिरिति ।। ० २१ ॥ शरीरिणः शरीरान्निष्क्रमणमायुपश्छेदे भवतीति छेदनं पञ्चविधत्वेनामूलम् - पंचविहे छेय पण्णत्ते, तं जहा- उप्पायछेयणे १ विपछेयणे २ बंधच्छेयणे ३ पएसच्छेयणे ४ दोधारच्छेयणे ५। ॥ सू० २२ ॥ छाया - पञ्चविधं छेदनं मज्ञप्तं, तद्यथा = उत्पादच्छेदनं १, व्ययच्छेदनं २, वन्धच्छेदनं ३ प्रवेशच्छेदनं ४ द्विधाकारच्छेदनम् ५ ॥ भ्रू० २२ ॥ टीका - पंचविहे ' इत्यादि , " छेदनं विभजनं पञ्चविधं प्रज्ञप्तम्, पञ्चविधत्वमेवाह - तद्यथा-उत्पादच्छेदनम्उत्पादो- देवत्वादि पर्यायान्तरस्य उत्पत्तिः तेन छेइनं जीवादिद्रव्यस्य विभजरूप समस्त अङ्गों से होकर निकलना है, वह सिद्धिपद गामी होता है । ऐसा तीर्थंकरों का कथन है ॥ म्रु० २१ ॥ जीवका शरीर से निकलना आयुके छेद होने पर होता है, अतः अथ सूत्रकार छेद में पंच प्रकारताका कथन करते हैं "पंचविहे पणे पण्णत्ते" इत्यादि मूत्र २२ ॥ छेदन पाँच प्रकारका कहा गया है, जैसे- उत्पादच्छेदन १ व्यव च्छेदन २ बन्धच्छेदन ३ प्रदेशच्छेदन ४ और द्विधाकारकच्छेदन ५ | टीकार्थ - विभजनका नाम छेदन है, यह छेदन उत्पाद छेदन आदि के भेद से पाँच प्रकारका जो कहा गया है, उसका तात्पर्य ऐसा है, कि जो छेदनઉત્પન્ન થાય છે. જે જીવ ચરણાદિ રૂપ સમસ્ત અગેામાંથી નીકળે છે, તે सिद्धिगतिमां गमन कुरे छे, मेवु' तीर्थ १२ लगवानानुं स्थन छे. ॥ सू २१ ॥ જ્યારે આયુના બધના છેદ થાય છે, તૂટે છે, ત્યારે જ જીવ શરીરમાંથી નીકળે છે. તેથી હવે સૂત્રકાર છેદના પાંચ પ્રકારેની પ્રરૂપા કરે છે. " पंचविहे छेयणे पण्णत्ते " त्याहि વિભજન અથવા તૂટવા રૂપ ક્રિયાનું નામ છેઠન છે. તેના નીચે પ્રમાણે यांग प्रा२ ह्या छे – (१) उत्पाद छेहन, (२) व्यूवरछेहन, (3) मन्धछेदन, (४) अहेशर छेदन भने (4) द्विधार छेदन. ટીકા-જે છેદન રૂપ વિભજન દેવત્વ આદિ અન્ય પર્યાયની ઉત્પત્તિને લીધે થાય છે, તેનું નામ ઉત્પાદચ્છેદન છે આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે પ્રત્યેક Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा डीका स्था०५१०३ ०२२ आयुश्छेदनिरूपणम् नम् १ | व्ययच्छेदनं - व्ययः = मानुपश्वादि - पर्यायस्य विनाशः तेन छेदनं=जीवा दिद्रव्यस्य विभजनम् २। बन्धच्छेदनं - बन्धनं बन्धः = जीवापेक्षया कर्म, स्कन्धापेक्षया सम्बन्धश्व, तस्य छेदनं विनाशः ३ । प्रदेशच्छेदनं - तस्यैव जीवादेः प्रदेशतः निर्विभागावयवतो बुद्धधा छेदनं विभागः ४ तथा द्विधाकारच्छेदनम्द्विधाकरणं-द्विधाकारः=जीवादेरेव द्रव्यस्य भागद्वयकरणं, तद्रूपं छेदनम् । उपल क्षणं चैतत्त्रिधाकरच्छेदनादीनामपि १। २६९ अथवा - उत्पादस्य= उत्पत्तेः छेदनं विरह उत्पादछेदनं, यथा नरकगतौ द्वादश मुहूर्त्ताः १ तथा व्यवच्छेदनम् - व्ययस्य-उद्वर्तनायाः छेदनं विरहः यथा - नरकगतौ द्वादश मुहूर्त्ताः २ वन्धच्छेदनं बन्धनविरहः, अयम् - उपशान्तमोहस्य सप्त विकर्मबन्धनापेक्षा भवति ३। प्रदेशच्छेदनम् = प्रदेश विरह :- अयं विसंयोजितारूप विभजन देवत्वादि पर्यायान्तर की उत्पत्तिसे होता है, वह उत्पादच्छेदन है, तात्पर्य ऐसा है कि प्रत्येक जीवादि द्रव्य परिणमन स्वभावरूप है, अतः उसमें पूर्व पर्यायका विनाश और उत्तर पर्यायका उत्पाद होता रहता है, जब उत्तर पर्यायी विवक्षित किसी भी देवदत्तत्वादि रूप पर्यायी उत्पत्ति होती है, उस समय जीवादि द्रव्यका भी विभाजन होता है, क्योंकि उस पर्यायके उत्पाद में उस पूर्व पर्यायवाले जीवादि द्रव्यका विभजन हो जाता है, इसी तरह जब पूर्व पर्यायका मानुपत्वादि रूप पर्यायका विनाशरूपव्यय होता है, उस समय उस व्यय से जीवादि द्रव्यका विभाजन होता है २ । जीबकी अपेक्षासे कर्मका बन्धन बन्ध है, और स्कन्धकी अपेक्षासे सम्बन्धका नाम बन्ध है, इस बन्धका जो विनाश है, वह बन्धच्छेदन है, जीवादिके प्रदेश से निर्विभाग अवજીવાદિ દ્રવ્ય પરિણમન સ્વભાવવાળુ હેાય છે, તેથી તેની પૂર્વ પર્યાયના વિનાશ અને ઉત્તર પર્યાયના ઉત્પાદ થતા જ રહે છે. જયારે ઉત્તર પર્યાયની ( દેવ તિર્યંચ આદિ રૂપ પર્યાયની) ઉત્પત્તિ થાય છે, ત્યારે છત્રાદિ દ્રવ્યનું પશુ વિભજન થાય છે, કારણ કે તે પર્યાયના ઉત્પાદમાં તે પૂ પર્યાયવાળા જીવાદિ દ્રવ્યનું વિભજન થઈ જાય છે. આ રીતે જ્યારે માનુષત્વ આદિ રૂપ પૂર્વ પર્યાયને વિનાશ રૂપ વ્યય થાય છે, ત્યારે તે વ્યયને લીધે જીવાદિ દ્રવ્યનું વિભજન થાય છે. જીવની અપેક્ષાએ કતુ જે અધન છે તેનું નામ બન્ધ છે. અને સ્કન્ધની અપેક્ષાએ જે પુદ્ગલેના સાધ છે તેનું નામ પણ અન્ય છે. આ અન્યના વિનાશ થવા તેનુ નામ બન્ધચ્છેદન છે. વાદિના પ્રદેશેાની અપેક્ષાએ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ %3D રદર स्थानाङ्गले नाम् अनन्तानुवन्ध्यादि-कर्मपदेशानाम् ४। तथा-द्विधारच्छेदनम्-२ धारे यस्य तद् द्विधारं, तच्च तच्छेदनं च ५। उपलक्षणत्वात्-त्रिधारच्छेदनादिकमपि ग्रामम् । तच क्षुरखगचकादिकम् । छेदनशब्दसाभ्यादिदमत्रोक्तमिति ॥ सू० २२ ॥ यवसे बुद्धि द्वारा छेद नरूप विभाग है, वह प्रदेशच्छेदन है । जीवादि द्रव्यकोही विभाग द्वयरूप छेदन करना यह विधाच्छेदन है, यह विधाकारक छेदनादिकोंका भी उपलक्षण है । अथवा-उत्पत्तिरूप उत्पादका जो छेदन विरह है, यह उत्पादच्छेदन है, जैसे-नरकगतिमें १२ मुहूर्त १ तथा व्ययरूप उद्वर्तनका जो छेदन है, वह व्ययच्छेदन है, जैसे नरकगतिमें १२ मुहूर्त बन्धनका जो विरह है, वह बन्धच्छेदन है, यह उपशान्त मोहवाले जीवके सात प्रकार के कर्मवन्धकी अपेक्षासे होता है, ३। प्रदेश विरहका नाम प्रदेशच्छेदन है, यह विसंयोजित अनन्तानुघन्धि आदि कर्म प्रदेशोंका होता है तथा द्विधारच्छेदन, दो हैं धारा जिसकी वह द्विधार है ऐसा द्विधाररूप जो छेदन है, वह द्विधारच्छेदन है ५। उपलक्षण होनेसे इस पद द्वारा विधारच्छेदन आदिका भी ग्रहण कर लेना चाहिये ऐसा वह द्विधारच्छेदन क्षुर खड्ग चक्र आदि रूप होता है, छेदन धर्मकी समानताले यह यहीं कहा है ।। सू० २२ ॥ નિવિભાગ અવયવની અપેક્ષાએ બુદ્ધિ દ્વારા છેદન રૂપ જે વિભજન છે તેનું નામ પ્રદેશછેદન છે. જીવાદિ દ્રવ્યનું જ બે વિભાગ રૂપ છેદન કરવું તેનું નામ દ્વિધાછેદન છે. આ કથન ત્રિવિભાગકારક છેદનનું પણ ઉપલક્ષણ છે. અથવા–ઉત્પત્તિ રૂપ ઉત્પાદનનું જે છેદન (વિરહ) છે, તે ઉત્પાદન છેદન છે. જેમકે નરકગતિમાં ૧૨ મુહૂર્તને વિરહકાળ હોય છે. વ્યય રૂપ ઉનાનું જે છેદન છે, વિરહ છે. તેનું નામ વ્યયડેદન છે જેમકે નરકમાં ૧૨ મુહૂર્ત પ્રમાણ જે બન્ધનને વિરહ છે તેનું નામ બન્યછેદન છે. તે ઉપશાન્ત મેહવાળા જીવના સાત પ્રકારના કર્મબન્ધની અપેક્ષાએ થાય છે. પ્રદેશ વિરહનું નામ પ્રદેશચ્છેદન છે. તે વિસજિત અનતાનુબધી આદિ કર્મપ્રદેશોનું થાય છે. તથા દ્વિધારછેદન જેની બે ધારા છે તેને દ્વિધાર કહે છે એવું જે દ્વિધારરૂપ છેદન છે તેને દ્વિધારછેદન કહે છે. ઉપલક્ષણની અપેક્ષાએ અહીં ત્રિધાર છેદન આદિ પણ ગ્રહણ કરવા જોઈએ એવું તે દ્વિધારછેદન અસ્ત્રો, તલવાર, ચક આદિ રૂપ હોય છે. છેદન ધર્મની સમાનતાને લીધે અહીં તેનુ કથન કરવામાં આવ્યું છે. એ સૂ. ૨૨ છે Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा ठीका स्था. ५ उ ३ सू१० आनन्तर्यनिरूपणम् छेदनाभावे तु आनन्तर्यमेव भवतीतिच्छेदन विपरीतमानन्तर्यमाहमूलम् - पंचविहे आणंतरिए पण्णत्ते, तं जहा - उप्पायनंतरिए १, वियतरिए २ पएसाणंतरिए ३ समयाणंतरिए ४ सामण्णाणतरिए ५ ॥ सू० २३ ॥ छाया - पञ्चविधम् आनन्तर्य प्रज्ञप्तम्, तद्यथा - उत्पादानन्तर्यम् १, व्ययानन्तर्यम् २, प्रदेशानन्तर्यम् ३, समयानन्तर्यम् ४, सामान्यानन्तर्यम् ५ ॥ ० २३|| टीका- ' पंचविहे ' इत्यादि -- २६३ आनन्तर्यम् - सातत्यं छेदनभावो विरहाभाव इति यावत्, तच्च पञ्चविधं प्रज्ञप्तम् । पञ्चविधत्वमेवाह - तथथा - उत्पादानन्तर्यम् - उत्पादस्य = उत्पत्तेः आनन्तर्य = सातत्यम् । यथा - नरकगो जीवानामुत्कर्षतोऽसंख्येयाः समया इति १ | व्ययानन्तर्यम् - व्ययस्य= उद्वर्त्तनाया आनन्तर्थ = मातत्यम् । यथा-नरक गतौ जीवाना छेदनके अभाव में तो आनन्तर्षही होता है, अतः अब सूत्रकार छेदन से विपरीत आनन्तर्यका कथन करते हैं "पंचविहे आणतरिए पण्णत्ते" इत्यादि सूत्र २३ ॥ 1 ठीकार्य - आनन्तर्य पांच प्रकारका कहा गया है जैसे - ऊत्पाद आनन्तर्य १ व्य आनन्तर्य २ प्रदेशानन्तर्य ३ समयानन्तर्य ४ | और सामान्यानन्तर्य ५ उत्पाद का निरन्तर होना यह उत्पादानन्तर्य है । आनन्तर्य शब्दका अर्थ यही है कि निरन्तर होना या छेदनका अभाव होना या विरह कालका अभाव होना इस तरह उत्पत्तिका जो सातत्य है, सतत होना है, वह उत्पादानन्तर्य है । जैसे- नरकगति में जीवोंकी उत्पत्तिका आनन्तर्य उत्कृष्टसे असंख्यात समयका है । उद्वर्तनाका सातत्य निरन्तर છેદનના અભાવમાં તે આનન્તના જે સદ્ભાવ રહે છે તેથી હવે સત્રકાર છેદનથી વિપરીત સ્વરૂપવાળા આનન્તનું નિરૂપણ કરે છે. q'afa enviafe quo" Suile- टीडार्थ-आनन्तर्य पांय प्रभार अछे -- (१) उत्पाद मानन्तर्य, (२) प्रदेशा नन्तर्यं, (3) सभयानन्तर्य भने (4) सामान्यानन्तर्य. નિરન્તર ઉત્પાદનુ હેવુ તેનું નામ ઉત્પાદ આનન્તય છે. આનન્તય એટલે નિર તર હાવું અથવા છેદનને અભાવ હાવા અથવા વરહેકાળને અભાવ હાવા આ રીતે ઉત્પત્તિનું સાતત્ય ( સતત સદ્ભાવ ) વુ' તેનુ' નામ જ ઉત્પાદનાન્ત છે. જેમકે નરક ગતિમાં જીવાની ઉત્પત્તિનુ આનન્તય વધારેમાં વધારે અસખ્યાત સમયનુ છે. ઉદ્દતનાનું નિરન્તર સાતત્ય હાવું 66 Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानानसूत्रे मुत्तौऽसंख्येयाः समया इति २ प्रदेशानन्तर्यम् - निर्विभागावयवरूपाणां प्रदेशानाम् आनन्तर्यम् ३। समयानन्तर्यम् समयानाम् आनन्तर्यम् ४ । एतद्द्वयं प्रतीतमेव । तथा सामान्यानन्तर्यम् - पत्र उत्पादव्ययादिरूपं विशेषणं न विवक्ष्यते, एवंविधं यदनन्तर्यमात्रं तत् सामान्यानन्तर्यम् ५। अथवा श्रामण्यानन्तर्यमितिच्छाया । श्रामण्यस्य आनन्तर्यम् - सातत्यम् । एतत् आकर्षविरहेण बहुजीवापेक्षया श्रामण्यप्रतिपत्त्या वा बोध्यम् । एतत्पुनरष्टौ समया इति ॥ म्रु० २३ ।। ૧૬૪ पूर्व समयदेशानाम् आनन्तर्यमुक्तम्, समयाः प्रदेशाश्वानन्वा एव भव न्तीति अनन्तस्य पञ्चविधत्वमाह- मूलम् - पंचविहे अनंतर पण्णत्ते, तं जहा - णामानंतर १ ठवणानंतर २ दवाणंतर ३ गणणानंतर ४ पसानंतर ५। अवा पंचविहे अनंतर पण्णत्ते, तं जहा - एगओनंतर १ होना यह व्ययानन्तर्य है, जैसे- नरकगति में जीवोंका व्ययानन्तर्य उत्कृष्टसे असंख्यात समयका है, निर्विभाग अवपत्ररूप प्रदेशोंका जो आनन्तर्य है वह प्रदेशानन्तर्य है । समयोंका जो आनन्तर्यहै, वह सम यानन्तर्य है, प्रदेशानान्तर्य और समयानन्तर्य ये दो प्रतीतही हैं । जिस आनन्तर्यमें उत्पाद, व्यय आदिरूप विशेषण विवक्षित न हो ऐसा जो आनन्तर्य है वह सामान्यानंतर्य है, अथवा "सामण्णाणतरिए" की संस्कृत छाघा श्रामण्यानन्तर्य ऐसा भी होती है, यह आक के विरहसे अथवा बहु जीवोंकी अपेक्षासे या श्रामण्य की प्रतिपत्तिसे होता है, यह आठ समयका होता है ॥ सू. २३ ॥ તેનુ નામ વ્યયાન્તય છે. જેમકે નરક ગતિમાં જીવાનુ` વ્યયાનન્તય વધારેમાં વધારે અસખ્યાત સમયનુ છે. નિવિભાગ અવયવ રૂપ પ્રદેશાનુ' જે આન न्तथ छे, तेनु' नाभ प्रदेशानन्तरं छे. समयानु ? मानन्तर्य छे, तेनुं नाम સમયાનન્તય છે. પ્રદેશાનાન્ત અને સમયાનાન્તય, એ છે પ્રતીત જ છે જે આનન્તમાં ઉત્પાદ, વ્યય, આદિ રૂપ વિશેષજી વિક્ષિત ન હેાય એવા માનન્તયને સામાન્યાન્તય કહે છે. અથવા " सामण्णाणंतरिए " नी संस्कृत છાયા શ્રામઘ્યાનન્તય પણ થાય છે. તે આના વિરહથી અથવા મહુ જીવેાની અપેક્ષાએ અથવા શ્રામણ્યની પ્રતિપત્તિની અપેક્ષાએ હાય છે. તે सभय होय हे ॥ सू. २३ ॥ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधाटीका स्था०५ उ०३ सू०२४ पञ्चविधानन्तकनिरूपणम् २६५ दुहओऽणतए २ देसवित्थाराणतए ३ सबवित्थाराणंतए ४ सासयाणंतए ५ ॥ सू० २४ ॥ ___ छाया–पञ्चविधम् अनन्तकं प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-नामानन्तकं १ रथापनानन्तकं २ द्रव्यानन्तकं ३ गणनानन्तकं ४ प्रदेशानन्तकम् ५। अथवा पञ्चविधम् अनन्तकं प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-एकतोऽनन्तकम् १, उभयतोऽनन्नकं २ देशविस्तारा. नन्तकं ३ सर्वविस्तारानन्तकं ४ शाश्वतानन्तकम् ५ ॥ सू० २४ ॥ टीका--'पंचविहे ' इत्यादि-- अनन्तकस्य पञ्चविधत्वं प्रकारद्वयेनात्रोक्तम् । तत्र प्रथम प्रकारो नामानन्तकम्-इत्यादि । तत्र-यस्य नाम 'अनन्त' इति कृतं स नामानन्तकम् ११ इस ऊपरके सूत्र में समय एवं प्रदेशोंका आनन्तर्य कहा है समय और प्रदेश अनन्तही होते हैं, इसलिये अब सूत्रकार अनन्तकी पांच प्रकारताका कथन करते हैं___'पंचविहें अणंतर पण्णत्ते' इत्यादि सूत्र २४ ॥ टीकार्थ-अनन्तक पांच प्रकारका कहो गया है, जैसे-नामानन्तक१ स्थापनानन्तक २ द्रव्यानन्तक ३ गणनानन्तक ४ और प्रदेशानन्तक ५ अथवा एकतोऽनन्तक १ उभयतोऽनन्तक २ देशविस्तारानन्तक ३ सर्वविस्तारानन्तक ४ और शाश्वतानन्तक ५ इस सूत्र द्वारा अनन्तकमें पंचविधता दो तरहसे प्रकट की गई है-हनमें प्रथम प्रकार नामानन्तक आदि रूपसे है, जिसका नाम “ अनन्त " इस रूपसे कर दिया गया हो આગલા સૂત્રમાં સમય અને પ્રદેશના આનન્તર્યનું કથન કરવામાં આવ્યું. સમય અને પ્રદેશ અનન્ત હોય છે તેથી હવે સૂત્રકાર અનન્તના પાંચ प्रसनु ४थन ४२ छे “पंचविहे अणंतर पण्णत्ते" त्या: ટીકાથે-આનન્તક પાચ પ્રકારના કહ્યા છે–(૧) નામાનન્તક, (૨) સ્થાપનાનાતક (3) द्रव्यानन्त, (४) बनानन्त: मने (५) प्रदेशानन्तs. Aथवा तेना मा પ્રમાણે પાંચ પ્રકાર પણ પડે છે– (१) सते! अनन्त, (२) उभयत अनन्त, (3) शिविस्तारानन्ता, (४) सविस्तारान-त: अने. (५) शावतानन्त આ સૂત્રમાં બે પ્રકારે અનન્તકમાં પંચવિધતા પ્રકટ કરવામાં આવી છે. જેનું નામ “અનન્ત રાખવામાં આવ્યું હોય, તે નામાનન્તક છે. જે અક્ષ स्था०-३४ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थामा यस्याक्षादेः अनन्तेति कल्पनया स्थापना कृता तत् स्थापनानन्तकम् - जीवद्रव्याणी पुद्गलद्रव्यागा वा यदनन्तकं तद् द्रव्यानन्तकम् ३। गणनानन्तकम्-गणना संख्यानं तद्रूपम् अनन्तकम् अविवक्षितपरापयादि संख्येयविषयः संख्याविशेप इत्यर्थः ४। नथा प्रदेशानन्तकम् प्रदेशानांसंख्येयादेशानाम् अनन्तकमिति ५। अथ द्वितीयं मकारमाह- अहवा पंचविहे ' इत्यादिना । तत्र-कतोऽनन्त कम्-एकता आयामलक्षणेन एकेनौशेन अनन्तकम्-एकश्रेणी क्षेत्रमित्यर्थः १। उभयतोऽनन्तकम्-उभयता आयामविस्ताराभ्याम् उभाभ्याम् अनन्तकम्-प्रतरक्षेत्रमित्यर्थः २। देशविस्तारानन्तकम्-देशः क्षेत्रस्य रुचकापेक्षया यः पूर्वाधन्यतमदिग्लक्षणः, वह नामानन्तक है, जिस अक्ष (पाशा) आदिकी "अनन्त " इस कल्पनासे स्थापना करली गई हो वह स्थापनानन्तक है, जीव द्रव्योंका अथवा पुद्गल द्रव्योंका जो अनन्तक है, वह द्रव्यानन्तक है, गणना नाम गिनतीका है, इस गिनती रूप जो अनन्तक है, वह गणनानन्तक है, इस गणनानन्तकमें अणु आदिकों की जो संख्यातता है, वह अविवक्षित होनेसे विषय नहीं होती है, यह गणनानन्तक संख्या विशेषरूप होता है, तथा संख्यात प्रदेशोंकी जो अनन्तता है वह प्रदेशानन्तक है, अब अनन्तकी द्वितीय प्रकारता इस प्रकारसे है-आयाम रूप एक अंशसे जो क्षेत्र समश्रेणीवाला होता है, वह एकतोऽनन्तक है, आयाम एवं विस्तारसे दोनोंसे जो क्षेत्र प्रतररूप वर्गरूप होता है, वह उभयतोऽनन्तक है, क्षेत्रका रुचक आदिकी अपेक्षा पूर्वादि अन्यतम दिशा आदिका ( पा) माहिनी “ मनन्त " मा ४६५नाथी स्थापना री सेवामा मावा હોય, તે સ્થાપનાનનક છે. છવદ્રવ્યોનું અથવા પુલ દ્રવ્યોનું જે અનન્તક છે, તે દ્રવ્યાનન્તક છે. ગણન એટલે ગણતરી. આ ગણતરી રૂપ જે અનન્તક છે તેને ગણનાનન્તક કહે છે આ ગણનાનન્તકમાં અશુ આદિની જે સંખ્યાતતા છે તે અવિવક્ષિત હોવાથી તે પ્રતિપાદિત થતી નથી, તે ગણુનાનન્તક સંખ્યાવિશેષ રૂપ હોય છે. સ ખ્યાત પ્રદેશની જે અનન્તતા છે તેનું નામ પ્રદેશાનન્તક છે. બીજી રીતે અનન્તના જે પાંચ પ્રકારે બતાવ્યા છે, તેમનું હવે સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવે છે-- આયામ (લંબાઈ) રૂપ એક અંશની અપેક્ષાએ જે ક્ષેત્ર સમીવાળું હોય છે, તેને “એકતા અનન્તક' કહે છે. આયામ અને વિસ્તાર, એ બંનેની અપેક્ષાએ જે ક્ષેત્ર પ્રતર રૂપ-વર્ગરૂપ હોય છે, તેને “ઉભયતઃ અનન્તક કહે છે. ક્ષેત્રને ચક આદિની અપેક્ષાએ પૂર્વાદિ કોઈ પણ દિશાને જે Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६७ सुधी टीका स्था०५ उ०३ सू २५ शान स्वरूपनिरूपणम् तस्य विस्तारो-विष्कम्भस्तस्य प्रदेशापेक्षयां अनन्तकम् ३. सर्वविस्तारानन्तकम्सर्वतो विस्तारो यस्य स सर्वविस्तार:-सर्वाकाशः, तस्य प्रदेशापेक्षया अनन्तकम् ५ तथा-शाश्वतानन्तकम्-शाश्वतम्-अनाद्यपर्यवसित जीवादिद्रव्यं, तस्य अनन्तकम्-अनन्तकालस्थितिकत्वादिति ।। सू० २४ ।।। __ अनन्तरसूत्रोक्तार्थपरिच्छेदो ज्ञानाद् भवतीति ज्ञानम्वरूपं निरूपयितुमाह मूलम्-पंचविहे नाणे पण्णत्ते, तं जहां आलिणिबोहियणाणे १ सुयणाणे २ ओहिणाणे ३ मणंपज्जवणाणे ४ केवलणाणे ५॥ सू० २५ ॥ छाया–पञ्चविधं ज्ञान मज्ञप्तम्, तद्यथा-आभिनियोधिकज्ञान १ श्रुतज्ञानम् २ अवधिज्ञानं ३, मनःपर्यवज्ञानं ४ केवलज्ञानम् ५ ॥ म० २५ ॥ टीका-'पंचविहे ' इत्यादि । व्याख्या निगदसिद्धा। विस्तरस्तु नन्दीमूत्रस्य मत्कृतायां ज्ञानचन्द्रिका व्याख्यायां विलोकनीयः ॥ सू० २५ ॥ जो विस्तार-विष्कम्भ है, सो इस विस्तारमें जो प्रदेशोंकी अपेक्षासे अनन्तक है, वह प्रदेशानन्तक है, जिसका सर्व रूपले विस्तार है, ऐसा वह सर्वाकाश सर्व विस्तार पदसे यहां लिया गया है, इस सर्वाकाशरूप सर्व विस्तारमें जो प्रदेशोंकी अपेक्षा अनन्तक है, वह सर्व विस्तारानन्तक है । अनादि अनन्तरूप जो जीवादि द्रव्य है, वह यहां शाश्वत शब्दसे गृहीत हुआ है, इस शाश्वतकी जो अनन्तता है, वह अनन्तकाल तक स्थितिबाला होनेसे शाश्वतानन्तक है ।। ० २४ ।। इस ऊपरके सूत्र में उक्त अर्थका परिच्छेद ज्ञान से होता है, इसलिये अब सूत्रकार ज्ञानके स्वरूपका निरूपण करते हैं - વિસ્તાર (વિષ્ક) છે તે વિસ્તારમાં પ્રદેશની અપેક્ષાએ જે અનન્તક છે તેનું નામ પ્રદેશાનન્તક છે જેને સર્વ રૂપે વિસ્તાર છે એવા સર્વકાશને અહીં સર્વ વિસ્તાર પરથી ગ્રહણ કરવામાં આવેલ છે. તે સકાશ રૂપે સર્વ વિસ્તારમાં પ્રદેશોની અપેક્ષાએ જે અનન્તક છે તેને સર્વ વિસ્તારોનન્તક કહે છે. અનાદિ અનન્ત રૂપ જે છત્રાદિ દ્રવ્ય છે, તેને અહીં શાશ્વત પદથી ગ્રહણ કરવામાં આવેલ છે. આ શાશ્વતની જે અનન્તલા છે તે અનનતકાળની સ્થિતિ વાળી છે તેથી તેને શાશ્વતાનન્તક કહે છે કે સૃ. ૨૪ છે આગલા સૂત્રમાં જે વિષયનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે તે વિષયને પરિ (બે) જ્ઞાન વડે જ થાય છે. તેથી હવે સૂત્રકાર જ્ઞાનના પ્રકારનું Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानासूत्रे ૧૯૮ इत्यं ज्ञानं पञ्चविधत्वेनोक्त्या सम्मति तदावरकं कर्म पञ्चविधत्वेनाहमूलम् - पंचविहे णाणावरणिजे कम्मे पण्णत्ते, तं जहाआभिणिबोहियणाणावरणिजे जाव केवलनाणावरणिजे ॥सू०२६ ॥ W " छाया - पञ्चविधं ज्ञानावरणीयं कर्म प्रज्ञप्तम् तयथा-आमिनिवोधिकज्ञानायावत् केवलज्ञानावरणीयम् || सू० २६ || वरणीयं टीका -- पंचविहे ' इत्यादि ज्ञानावरणीयं - ज्ञानम् उक्तलक्षणम् आवृगोति = आच्छादयति यत् कर्म तत् पञ्चविधं प्रज्ञतम् । पश्चविवमेवाह - तद्यथा - आमिनिवोधिकज्ञानावरणीयमित्यादि ।। ० २६ ।। 'पंचविहे गाणे पण्णत्ते' इत्यादि सूत्र २५ ॥ टीकार्थ- -ज्ञान पाँच प्रकारका कहा गया है, जैसे-आभिनिबोधिक ज्ञान १ श्रुतज्ञान २ अवधिज्ञान ३ मन:पर्ययज्ञान ४ और केवलज्ञान ५। इन पांच स्थानोंके विषय में विशेष कथन जानने के अभिलाषियों को नन्दनकी ज्ञानचन्द्रिका नामकी व्याख्या देखनी चाहिये || सू० २५ ॥ ज्ञानकी पंचविधता कहकर अब सूत्रकार इनके आवारक कर्मों की पंचविधताका कथन करते हैं 'पंचविहे णाणावर णिज्जे कम्मे पत्ते इत्यादि ० २६|| टीकार्थ- ज्ञानको आचरण करनेवाला जो ज्ञानावरणीय कर्म है, वह पांच प्रकारका कहा गया है, जैसे- आभिनियोधिक ज्ञानावरणीय यावत् केवनिश्चय पुरे छे. " पंचविहे जाणे पण्णत्ते " त्याहि ટીકા-જ્ઞાનના નીચે પ્રમાણે પાચ પ્રકાર કહ્યા છે—(1) આમિનિòાધિક જ્ઞાન (२) श्रुतज्ञान, (3) अवधिज्ञान, (४) मनापर्यय ज्ञान अने (4) ठेवलज्ञान. આ પાંચે જ્ઞાનના સ્વરૂપનુ વિસ્તૃત નિરૂપણુ નન્દીસૂત્રની જ્ઞાનચન્દ્રિકા નામની ટીકામાં કરવામાં આવ્યુ છે. તેા જિજ્ઞાસુ પાઠકેએ ત્યાંથી તે वांथी देवु. ॥ सू. २५ ॥ જ્ઞાનના પાંચ પ્રકારનું કથન કરીને હવે સૂત્રકાર તેના આવરક કર્મોની पयविधतानु उथन रे . " पचविहे णाणावरणिज्जे कम्मे पण्णत्ते " त्याहि જ્ઞાનાવરણીય કર્મ પાચ પ્રકારના કહ્યા છે—(૧) આભિનિષેાધિક જ્ઞાનાવરણીય, શ્રુત જ્ઞાનાવરણીય, અવધિજ્ઞાનાવરણીય, મન:પર્યય જ્ઞાનાવરણીય મને કેવળજ્ઞાનાવરણીય, Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा ठीका स्था०५ उ०३ सू०२३ पञ्चविधस्वाध्यायनिरूपणम् રહેશ इथं ज्ञानावरणीयं कर्म पञ्चविधत्वेनोक्त्वा सम्मति तत्क्षपगोपायविशेषं स्वाध्यायं पञ्चविधत्येन प्ररूपयति मूलम् - पंचविहे सज्झाए पण्णत्ते, तं जहा - वायणा १ पुच्छणा २ परियट्टा ३ अणुप्पेहा ४ धम्मका ५ ।। सू० २७ ॥ छाया -- पञ्चविधः स्वाध्यायः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-वाचना ९ प्रच्छना २ परि वर्तना ३ अनुप्रेक्षा ४ धर्मकथा ५ || सू० २७ ॥ टीका - - ' पंचविहे ' इत्यादि -- स्वाध्यायः-तु-शोभनम् आ = मर्यादया अध्ययनं = पठनादिकं स्वाध्यायः, पञ्चविधः । पञ्चविधत्वमेवाह - तद्यथा-वाचना = गुरो. सकाशाद्विनयलज्ञानावरणीय ५ जो कर्म ज्ञानका आवरण करता है, उसे आच्छादित करता है, वह ज्ञानावरणीय कर्म है, इसी प्रकार से श्रुतज्ञानावरणीय कर्म है इत्यादि ॥ सू० २६ ॥ इस प्रकार से ज्ञानावरणीय कर्म पांच प्रकारका कहकर अब सूत्रकार उसके के उपाय विशेषको और स्वाध्यायको पांच प्रकारका कहते हैं - पंचविहे सज्जाए पण्णत्ते' इत्यादि सू० २७ ।। स्वाध्याय पांच प्रकारका कहा गया है, जैसे- वाचना ९ प्रच्छना २ परिवर्तना ३ अनुप्रेक्षा ४ और धर्मकथा ५ । ठीकार्थ-मर्यादापूर्वक जो मूल सूत्रका अच्छी तरह से पठनादिक किया जाता है, वह स्वाध्याय है, यह स्थाध्याय पांच प्रकारका बाचना आदिके જે કર્મ જ્ઞાનના ઉપ૨ આવરણ રૂપ બની જાય છે, જ્ઞાનને આચ્છાદિત કરી દે છે, તે કર્મને જ્ઞાનાવરણીય કર્યાં કહે છે. જેમકે શ્રુતજ્ઞાનનુ' આવરણુ કરનાર જે કમ છે તેને શ્રુતજ્ઞાનાવરણીય કમ કહે છે. એ જ પ્રમાણે ખાકીનાં अभ विषेषु समन्न्वु ॥ सू. २६ ॥ જ્ઞાનાવરણીય કના પાચ પ્રકારા પ્રકટ કરીને હવે સૂત્રકાર તેના ક્ષયના ઉપાય વિશેષા રૂપ સ્વાધ્યાયના પાંચ પ્રકાશને હવે પ્રકટ કરે છે, पंचविहे ज्ञाये पण्णत्ते " इत्यादि (( स्वाध्याय पांथ अठानां ह्यां - (१) वायना, ( २ ) प्रखना, (3) पविर्तना, (४) अनुप्रेक्षा, अने (५) धर्म था. મર્યાદાપૂર્ણાંક મૂળ સૂત્રનુ જે પઠન આદિ કરવામાં આવે છે તેનુ નામ સ્વાધ્યાય છે તેના વાચના આદિ જે પાંચ ભેદે કહ્યા છે તેનું હવે સ્પષ્ટી४२४२वामां आवे छे -- Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० स्थानाशपूर्व पूर्वकं सूत्रायतदुभयानां ग्रहणम् १। प्रच्छनाधाठितस्य शिष्यस्य वाचनायां संशयोत्पत्ती तन्निराकरणाय यद् गुरोः समीपे प्रच्छनं सा मच्छनो २। परिवर्तनाचा. चनया याचितस्य प्रच्छन या विशोधितस्य सूत्रातदुमयस्य विस्मृतिर्माभूदिति यत् छत्रस्य पुनः पुनरावृत्तिः सा, ३। अनुप्रेक्षा अनुप्रेक्षणम् अनुप्रेक्षा-गृहीतस्य सूत्रार्यतदुभयस्प विस्मृति मा भूदिति या तचिन्तना सा ४। धर्मकथा-धर्मस्य श्रुतचारित्ररूपम्य कयनंयाख्यान-धर्म कथा ५। वाचनापच्छनापरिवर्तनानुप्रेक्षाभिरभ्यस्तश्रुतेन साधुना धर्मकथाफर्तव्येति भावः ॥ सू० २७ ।। भेदसे जो कहा गया है, उसका अभिप्राय ऐसा है, कि विनयपूर्वक गुरूके पामसे जो मूत्रका अर्थका और मूत्रार्थ दोनोंका ग्रहण किया जाता है, पढे हुए विषय में शिष्यफो जो शंका आदि हो जाती है, सो उस शंकाको दूर करनेके निमित्त जो गुस्से पूछा जाता है, वह प्रच्छना है, वाचनासे सीखे गये और प्रच्छनाले विशुद्ध किये गये सूत्रकी अर्थको और स्त्रार्थ दोनोंकी विस्मृति न हो जाय इस अभिप्राय जो पुनः पुनः आवृत्ति करना है, वह परिवर्तना करना है, गृहीत सूत्र अर्थ और तदुभयकी विस्मृति न हो जाय इस अभि. प्रायसे जो चिन्तना है, वह अनुप्रेक्षा है, तथा श्रुतचारित्र रूप धर्मका जो व्याख्यान है, वह धर्मकया है । वाचना, प्रच्छन्ना, परिवर्तना और अनुप्रेक्षा इनसे अभ्यस्त शुनवाले साधु को धर्मकथा करनी चाहिये ऐसा हम कथनका भाव है ।। सू० २७॥ - વિનયપૂર્વક ગુરુની પાસે જે સૂત્રનું અને અર્થને ગ્રહણ કરવાનું કાર્ય થાય છે, તેનું નામ વાચને છે. જે વિષયને શિષ્ય દ્વારા અભ્યાસ કરાય હોય તે વિષયમાં કઈ શંકા ઉદ્દભવે તે તેના નિવારણ માટે ગુરુને જે પ્રશ્ન પૂછવામાં આવે છે, તેનું નામ પ્રછના છે. વાયના દ્વારા જે સૂવ અથવા અર્થને શ કરવામાં આવે છે અને પ્રાથના દ્વારા જે સૂત્ર અને અર્થને વિશુદ્ધ કરવામા આવ્યે હોય તેની વિસ્મૃતિ ન થઈ જાય તે માટે ફરી ફરીને તેનું પુનરાવર્તન કરવું તેનું નામ પરિવર્તન છે ગૃહત સૂત્ર, અર્થ અને સૂત્રાર્થની વિસ્મૃતિ થઈ ન જાય, તે માટે વારંવાર તેનું ચિન્તન કર્યા કરવું તેનું નામ અનુપ્રેક્ષા છે. શ્રુતચારિત્ર રૂપ ધર્મનું જે વ્યાખ્યાન કરવામાં આવે છે, તેનું નામ પડ્યા છે વાચના, પછના, પરિવર્તન અને અનુપ્રેક્ષા, આ ચાર કે જેને શાન સંપાદન કર્યું છે એવા સાધુએ જ ધમકથા (વ્યાખ્યાન) ४२वी शि. ॥ ३, २७ ।। Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०५ उ०३ सू०२८ प्रत्याख्यानस्वरूपनिरूपणम् ૨૦૧ धर्माभिभूतमिवाभावा एव भविनो विशुद्धप्रत्याख्यानमाजो भवन्तीति प्रत्याख्यानं निरूपयति- मूलम् - पंचविहे पच्चक्खाणे पण्णत्ते, तं जहा - सद्दहण सुद्धे १ विणसुद्धे २ अणुभासणासुद्धे ३ अणुपालणासुद्धे ४ भावसुद्धे ५ || सू० १८ ॥ छाया -- पञ्चविधं प्रत्याख्यानं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा - श्रद्धानशुद्धं १ विनयशुद्वम् २ अनुभाषणाशुद्धम् ३ अनुपालनाशुद्धं ४ भावशुद्धम् ५ ॥ ० २८ ॥ टीका --- पंचविहे पच्चक्खाणे ' इत्यादि -- प्रत्याख्यानम् - प्रति = प्रतिषेधतः आ=मर्यादया विवक्षित कालमानया ख्यानं = प्रकथनं प्रत्याख्यानम् । तच पञ्चविधं प्रज्ञप्तं = मरूपितम् । पञ्चविधत्वमेवाहतथा श्रद्धानशुद्धम् श्रद्धानं श्रद्धा ' तथेद ' मिति विश्वासस्तेन शुद्धं निरवद्य, श्रद्धानाभावे तु तत्सावद्यं भवति । तदुक्तम् — धर्मकथा से जिनके मिथ्यात्व नष्ट हो चुके हैं, ऐसेही भव्य जीव विशुद्ध प्रत्याख्यानवाले होते हैं, अतः अब सूत्रकार प्रत्याख्यानका निरुपण करते हैं- 'पंचविहे पञ्चकखाणे पण्णत्ते' इत्यादि सू० २८ ॥ प्रत्याख्यान पांच प्रकारका कहा गया है, जैसे- श्रद्धानशुद्ध १ वि - नयशुद्ध २ अनुभाषणा शुद्ध ३ अनुपालना शुद्ध ४ और भाव शुद्ध ५। टीकार्थ- प्रतिषेध करके जिसका कथन विवक्षित कालको मर्यादा तक किया जाना है, वह प्रत्याख्यान है, यह प्रत्याख्यान श्रद्धान शुद्ध आदिके मेदसे पांच प्रकारका कहा गया है, जो प्रत्याख्यान श्रद्धा से यह ऐसा ही है, इस प्रकार विश्वाससे शुद्ध निरवद्य होता है, वह श्रद्धान शुद्ध ધર્મ કથા દ્વારા જેમના મિથ્યાભાવ નષ્ટ થઈ ચુકયા હાય છે એવાં જ ભવ્ય જીવે! વિશુદ્ધ પ્રત્યાખ્યાનવાળા હાય છે, તેથી હવે સત્રકાર પ્રત્યાખ્યાનનું સ્વરૂપ પ્રકટ કરે છે पंचविहे पच्चक्खाणे पण्णत्ते " इत्याहि "L ટીકાથ–પ્રત્યાખ્યાનના નીચે પ્રમાણે પાંચ પ્રકાર કહ્યા છે–(૧) શ્રદ્ધાનશુદ્ધ, (२) विनयशुद्ध, (3) अनुभाषाशुद्ध, (४) अनुपासना शुद्ध भने (५) भावशुद्ध. પ્રતિષેધ ( નિષેધ કરીને જેનું કથન અમુક ચેાસકાળની મર્યાદા પન્ત કરવામાં આવે છે તેનું નામ પ્રત્યાખ્યાન છે. તે પ્રત્યાખ્યાન શ્રદ્ધાનશુદ્ધ આદિના ભેદથી પાચ પ્રકારના છે આ વસ્તુ આદિ ત્યાગ કરવાને પાત્ર છે, એવી શ્રદ્ધાપૂર્ણાંક જે પ્રત્યાખ્યાન લેવામાં આવે છે, તે પ્રત્યાખ્યાનને શ્રદ્ધાનશુદ્ધ કહે છે. શ્રદ્ધાના સદ્ભાવમાં જ પ્રત્યાખ્યાન શુદ્ધ-નિરવદ્ય હાઈ શકે છે, Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૭૧ " पचक्खाणं सन्वन्नुदेसियं जं जहिं जया काले । तं जो सब नरो, तं जाण सरहणसुद्धं ॥ १ ॥ " FथानT छाया -- प्रत्याख्यानं सर्वज्ञदेशितं यद् यत्र यदा काले । वद् यः श्रद्दधाति नरस्तद् जानीहि श्रद्धानम् ॥ १ ॥ इति ॥ १॥ विनयशुद्धम् - विनयेन शुद्धं विनयाभाववशुद्धम् । एवमग्रेऽपि तत्तदभावे अशुद्धता वोध्या । विनयशुद्धमेवमुक्तम्- 11 " fasstree विसोर्हि, पउंजए जो अहीणमतिं । वयणकायगुत्तो, तं जाणसु विणयओ सुद्धं ॥ १ ॥ छाया --कृतिकर्मणो विशोधि प्रयुङ्क्ते यः अहीनातिरिक्तम् । मनोनयनका गुप्तः तं जानीहि विनयतः शुद्धम् ॥ १ ॥ इति ॥ २ ॥ प्रत्याख्यान है, श्रद्धानके अभाव में तो वह सावद्य होता है। कहा भी है" पच्चकखाणं सव्त्रन्नुदेसिये " इत्यादि । जिम कालमें जो प्रत्याख्यान सर्वज्ञ भगवान् ने कहा है, उस पर जो विश्वास करता है, वह प्रत्याख्यान श्रद्धान शुद्ध प्रत्याख्यान है | जो प्रत्याख्यान विनयसे शुद्ध होता है, वह प्रत्याख्यान विनय शुद्ध प्रत्याख्यान है, जो प्रत्याख्यान विनयके अभाव में होता है, वह अशुद्ध प्रत्याख्यान है - इसी तरहसे आगे भी उन र के अभाव में प्रत्याख्यान में अशुद्धता जाननी चाहिये - चिनय शुद्ध प्रत्याख्यानके विषय में ऐसा ही कहा गया है - " किइ कम्मस्स विसोहि " इत्यादि मन वचन और कायले गुप्त हुआ जो मनुष्य कृतिकर्मी न होन और न अधिक ऐसी विशुद्धि करता है, वह विनय शुद्ध प्रत्याख्यानતેના અભાવમાં તે તે અશુદ્ધ-નિરવદ્ય જ ડાય છે. કહ્યુ પણ છે કે ઃ " पचखाणं सव्वन्नुदेसियं " इत्यादि જે કાળે જે પ્રત્યાખ્યાન કરવાનુ` સજ્ઞ ભગવાને ફરમાવ્યું છે, તે કાળે શ્રદ્ધાપૂર્વક તે પ્રત્યાખ્યાન કરનારના પ્રત્યાખ્યાનને શ્રદ્ધાનશુદ્ધ પ્રત્યાખ્યાન કહે છે. જે પ્રત્યાખ્યાન વિનયની અપેક્ષાએ શુદ્ધ હાય છે, તે પ્રત્યાખ્યાનને વિનય શુદ્ધ પ્રત્યાખ્યાન કહે છે. જે પ્રત્યાખ્યાનમાં વિનયના અભાવ હાય છે–વિનયની અપેક્ષાએ અશુદ્ધ હાય છે, તે પ્રત્યાખ્યાનને અશુદ્ધ પ્રત્યાખ્યાન કહે છે. એ જ પ્રમાણે આગળ પણ જે જે પ્રકાર કહેવામાં આવ્યા છે, તેમાં પશુ તે વિષયના અભાવમાં અશુદ્ધતા સમજવી વિનયશુદ્ધ પ્રત્યાખ્યાનના વિષયમાં मेवु छे " aिrकम्मस्स विसोहि " इत्यादि Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०५ उ० ३ सू०२८ प्रत्य ख्यानस्वरूपनिरूपणम् २७३ 66 अनुमापणाशुद्धम् - अनुभाषणम् - जनुभापणा = ' वोमिर' इतिगुरुणा प्रोचते यत् शिष्यस्य ' वोसिरानि ' इति कथनं सा, तथा शुद्धम् । तदुक्तम्-अणुभासइ गुरुत्रयणं, अक्खरपयवंजणेहिं परिशुद्धं । पंजलिउड अभिहो, तं जाणणुभासणासुद्धं ॥ १ ॥ छाया -- अनुभाषते गुरुवचनम् - अक्षरपदव्यञ्जनैः परिशुद्धम् । " प्राञ्जलिपुट: अभिमुखस्तद् जानीहि अनुभाषणाशुद्रम् ||१|| इति ||३|| अनुपालनाशुद्रम्-अनुपालनम् - अनुपालना = गृहीतस्य व्रतस्य परीषदोपसर्गादिवपि परिपालनं, तथा विशुद्रम् । उक्तं च- है, अनुभापणा शुद्ध प्रत्याख्यान इस प्रकार से हैं, कि जब गुरुके द्वारा " वोसिरे " ऐसा कहा जावे तब जो शिष्य " वोसिरामि " ऐसा कहता है वह अनुभाषण - अनुनापणा है इस अनुभाषणाले जो प्रत्याख्यान शुद्ध होता है, वह अनुभाषणा शुद्ध प्रत्याख्यान है । कहा भी हैअणुभासह गुरुवयण " इत्यादि । 46 अक्षर पद एवं व्यञ्जनोंसे परिशुद्ध जिस भाषणको गुरू कहता है उस भाषण के बाद जो दोनों हाथ जोड़कर और उनके समक्ष होकर शिष्यका भाषण करता है, वह अनुभाषा शुद्ध प्रत्याख्यान है । अनु. पालना शुद्ध-गृहीत व्रतका जो परोषह एवं उपसर्ग आदिके आने पर મન, વચન અને કાયની અપેક્ષાએ ગુમ થયેલે પુરુષ-મનોગુપ્તિ, વચનગુપ્તિ અને કાયઝુમિથી યુક્ત પુરુષ-ન્ને કૃતિકમની હીન વિશુદ્ધિ પશુ કરતા નથી અને અધિક વિશુદ્ધિ પણ કરતા નથી, તે તે વિનયશુ પ્રત્યાખ્યાનવાળા ગણાય છે. અનુભાષઙ્ગા શુદ્ધપ્રત્યાખ્યાન જ્યારે ગુરુ દ્વારા aifat " 2011 वामां आवे त्यारे शिष्य " वोसिरामि " था यह गोसे छे म अરના અનુકથનને અનુભાષા કહે છે. આ અનુભાષણાથી જે પ્રત્યાખ્યાન શુદ્ધ હોય છે, તે પ્રત્યાખ્યાનને અનુમાણુશુદ્ધ પ્રત્યાખ્યાન કહે છે. કહ્યુ પણ છે " अणुभासइ गुरुवयणं " छत्याहि- "L અક્ષર, પદ્મ અને વ્યંજનાની અપેક્ષાએ પરિશુદ્ધ એવુ જે ભાણુ (વ્યાખ્યાન ) ગુરુ કરે છે, તે ભાષણ સાંભળીને તેમની સમક્ષ ઊભા થઈને વિનયપૂર્ણાંક એ હાથ જોડીને જે પ્રત્યાખ્યાન કરવામાં આવે છે, તેને અનુ भाषा शुद्ध प्रत्याण्यान उडे छे. गुरुन्यारे " वोसिरे " पहने उभ्या रे त्यारे प्रत्याख्यान धार ४२२ " वोसिरामि " पहने उभ्या उरीने मा પ્રકારના પ્રત્યાખ્યાન લે છે. અનુપાલના શુદ્ધ--ગૃહીત વ્રતનું પરીષહેા અને ઉપસગે આવી પડે તે स्था०-१५ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ स्थानास्त्रे - - ---- __ " तारे दभिक्खे, आयके वा मन्ड समुप्पणो । जं पालियं न भग्गं, जाणणुपारणा सुद्धं ॥२॥" छाया-कान्तारे दुर्भिक्षे आतके वा महति रायुन्यन्ने । यत्पालि न भग्नं तद् जानीहि अनुशलनाशुदम् ॥ १॥ इति ॥४॥ भावशुद्धम्-भावेन-रागद्वेपेहलो गायाशंगारूपं परिणामराहित्येन यद् निरवयं तद् भावशुद्धम् । तदुक्तम्-" रागेण व दोसेण च, परिणामेण व ण दृत्तियं जं तु । तं खलु पञ्चकखाणं, भावविमुन्द्रं गुणेयव्यं ॥ १॥" छाया-रागेण वा द्वेपेण वा परिणामेन वा न दूपितं यत्तु ।। तत्खलु प्रत्याख्यान भारविशुद्ध ज्ञातव्यम् ॥१॥ इति ।।५।। मु० २८॥ भी चलायमान ल हो कर परिपालन करताहै, वह अशुपालनाहै इस अनु. पालनसे जो प्रत्याख्यान शुद्ध होता है वन अनुपालना शुद्ध प्रत्याख्यान है । कहा भी है-'कंतारे बुभिक्खे" इत्यादि। भयंकर गहन बनने पड जाने पर भिक्षके आजाने पर किसी भयंकर रोगमे फल जाने पर जो अपने पालित व्रतको अग्न नहीं करता है वह अनुपालना शुद्ध प्रत्याख्यान है। जो प्रत्याख्यान रागद्वेष इहलोक परलोक आदिकी आशंसारूप परिणामसे रहित होकर किया जाता है, ऐसा यह निरचय प्रत्याख्यान भावशुद्ध प्रत्याख्यानहै । कहा भी है-"राण व दोसेण" इत्यादि । जो प्रत्याख्यान राग एवं द्वेषके परिणामसे दूषित नहीं है, ऐसा वह प्रत्याख्यान भावविशुद्ध कहा गया है । सू० २८ ॥ પણ ચલાયમાન ન થતાં પાલન કરનારના પ્રત્યાખ્યાનને અનુપાલના શુદ્ધ प्रत्याभ्यान ४९ . ४ ५ छ कतारे दुन्भिस्खे" त्याहि-- ભચંકર ગહન વનમાં અટવાઈ ગયા હોય, દુલિંક્ષને કારણે ભૂખે મરવાને પ્રસંગ આવી પડયો હૈય, ભયંકર રોગમાં જકડાયા હોય, ત્યારે પણ જે માણૂસ પિતે ગ્રહણ કરેલા વ્રતને દઢતાપૂર્વક પાળે છે, એવા માણસના પ્રત્યાખ્યાનને અનુપાલના શુદ્ધ પ્રત્યાખ્યાન કહેવાય છે. જે પ્રત્યાખ્યાન રાગદ્વેષ અને આક પરલેકની આશંસા રૂપ વૃત્તિ રાખ્યા વિના કરવામાં આવે છે, એવાં નિરવ પ્રત્યાખ્યાનને ભાવશુદ્ધ પ્રત્યાध्यान ४ छ. यु ५५ छ ? " रागेण व दोसेण व" त्याह--२ प्रत्या., ખ્યાન રાગ અને દ્વેષના પરિણામથી દૂષિત હોતા નથી, તે પ્રત્યાખ્યાનને ભાવવિશુદ્ધ કહેવાય છે. એ સૂ. ૨૮ છે Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधाटीका स्था०५ उ०३ तू०२९ प्रतिक्रमणहरूपनिरूपणम् २७५ कृतमत्याख्यानस्य कदाचिदतियारसभावनाऽपि भवति, ततश्च तत्र प्रतिक्रमणं क्रियते इति प्रतिक्रमणस्य पञ्चविधलमाह - मूलम्-पंचविहे पडिकाणे पण्णते, लं जहा-आसवदारपडिक्कमणे १, मिच्छतपडिकसणे २ कसायपडिकामणे ३ जोगपडिक्कमणे ४ भावपडिकमणे ४ ॥ सू० २९ ॥ ___ छाया-पञ्चविध प्रतिक्रमणं प्रज्ञप्तम् , तपथा-आस्रवद्वारप्रतिक्रमणं १ मिथ्यात्वप्रतिक्रमणं २ कपायप्रतिक्रमणं ३ योगपतिक्रमण ४ भावप्रतिक्रमणम् ५ ॥ ॥ मू० २९ ॥ टीका-पंचविहे पडिकमणे' इत्यादि प्रतिक्रमण-प्रति-प्रतीपं क्रमणम्-शुभयोगेभ्योऽशुभयोगान् प्रतिपन्नस्य आत्मनः पुनः शुभयोगेषु गमनम् । तदुक्तम्'" स्वस्थानाद यत् परस्थानं, प्रमादस्य वाद् गतः । तत्रैव क्रपणं भूयः, प्रतिक्रमणमुच्यते ॥ १ ॥ जिसने प्रत्याख्यान किया है, ऐले पुरुषको कदाचित अतिचारीक होनेकी संभावना भी हो सकती है, अतः उसके होने पर प्रतिक्रमण किया जाता है, इसलिये अब सूत्रकार प्रतिक्रमणकी पंचविधताका वर्णन करते हैं-'पंचविहे पडिक्कमणे पण्णत्ते" इत्यादि सून्न २९ ॥ प्रतिक्रमण पांच प्रकारका कहा गया है, जैसे-आखबहार प्रतिक्रमण १ मिथ्यात्व प्रतिकमण २ कपाय प्रतिक्रमण ३ योग प्रतिक्रमण ४ और भाव प्रतिक्रमण ५ शुभ योगोंसे अशुभ योगों में पहुँची हुई आल्लाका पुनः शुभ योगों में आना इसका नाम प्रतिक्रमण है । कहा भी है પ્રત્યાખ્યાન કરનાર પુરુષને કયારેક અતિચાર લાગવાને સંભવ રહે છે. તે અતિચારેની શુદ્ધિ માટે પ્રતિકમણ કરવામાં આવે છે. તેથી હવે સૂત્રકાર પ્રતિક્રમણના પાચ પ્રકાશનું કથન કરે છે. "पंचविहे पडिकमणे पण्णत्ते" त्याह-- પ્રતિક્રમણના નીચે પ્રમાણે પાંચ પ્રકાર કહ્યા છે--(૧) આસ્રવાર પ્રતિभy, (२) मिथ्यात्व प्रतिम, (3) ४५ य प्रतिभY, (४) यो प्रतिभा मन (५) ला५ प्रतिभ. શુભ ગેમાથી અશુભ ગેમાં પહેલા આત્માનું ફરીથી શુભ योगमा भाव तेनु नाम प्रति म छे. ४ ५५ छे " स्वस्थानात् यत् Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TET स्थानासूत्रे क्षायोपशमिकाद्मानादौदविकस्य वनं गतः । तत्रापि च स एवार्थः प्रतिक्लगमात् स्मृतः ॥ २ ॥ " इति । तदिदं प्रतिक्रमणं पञ्चविधं शतम् । पञ्चविधत्वमेवाह - तद्यथा - आस्रवद्वारप्रतिक्रमणम् - आस्रवद्वाराणि= पाणातिपातादीनि रातः प्रतिक्रमणं निवर्तनम् २ | मिध्यात्वप्रतिकरणम् - मिध्यात्वम् आकमाना मोग सहगाकारैर्नवति, ततः प्रत्तिक्रमणं - निवर्त्तनम् २। कपायप्रतिक्रमणम्-रुपायेभ्यः प्रतिनिवृत्तिः ३| योगप्रतिक्र 61 'स्वस्थानात् यत् परस्थानं " इत्यादि । प्रमाद के वशसे जीवका जो अपने स्थान से हटकर परस्थानमें गमन है, और फिर वहां से जो पुनः अपने स्थान पर आजाना वह प्रतिक्रमण है । " क्षायोपशमिकाद भावाद् " इत्यादि । इसी तरहसे जो कोई जीव क्षायोपशमिक भाव से औदयिक भावका वर्शगत हो जाता है, और पुनः उसी क्षायोपशमिक भावमें आकर प्राप्त जिसके प्रभाव से हो जाता है वह प्रतिक्रमण है । ऐसा यह प्रतिक्रमण पांच प्रकारका कहा गया है, इनमें जा आस्रवद्वार प्रतिक्रमण है, वह प्राणातिपातादि रूप जो ओसव द्वार है, उनसे निवर्तन रूप पीछे हटने रूप होता है । मिथ्यात्व प्रतिक्रमण - आभोग ' (जानकर ) अनाभोग (अनजान ) एवं सहसाकार (अकस्मात् ) से मिथ्यात्व होता है, सो इस मिथ्यात्व से जो जीवका निवर्तन है, वह मिथ्यात्व प्रतिक्रमण है, कषाय से जो प्रतिनिवृत्ति है, वह कपाय प्रतिक्रमण है, परस्थान' " त्याहि प्रभाहने अरो छवनु स्वस्थानमांश्री नाणीने परस्थानमां જે ગમન થાય છે, અને ફરીથી ત્યાંથી સ્વસ્થાનમાં જે આગમન થાય છે तेनु' नाम प्रतिभय् छे " क्षायोपशमिकाद् भावाद् " इत्याह- કાઇ જીવ ક્ષાયેાપશમિક ભાવમાંથી ઔયિક ભાવમાં આવી જાય અને ફ્રી ઔદિયેક ભાવમાંથી ક્ષાર્યપામિક ભાવમાં આવી જાય છે, આવુ' જેના પ્રભાવથી બને છે તેનુ' નામ પ્રતિકમણુ છે એવા પ્રતિક્રમણના પાંચ પ્રાર કહ્યા છે--અસત્રદ્વાર રૂપ જે પ્રતિક્રમણુ છે તે પ્રાણાતિપાત આદિ રૂપ જે આસત્ર દ્વારા છે તેમનાથી નિવન રૂપ (तेभ ५२तां अटवा ३५) होय छे. आलोग (लङ्गीने ) अनालोग (अल જીતા) અને અકસ્માતથી જે મિથ્યાત્વનું સેવન થઈ જાય છે, તે મિથ્યાત્વથી નિવૃત્ત થવુ તેનુ' નામ મિથ્યાત્વનું પ્રતિક્રમણ છે. કાચેમાંથી નિવૃત્ત થવુ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था. ५ २. ३ ए २९ प्रतिक्रमणवरूपतिरूपणम् मणम्-अशुभेभ्यो मनोबाकाययोगेभ्यः प्रतिक्रमणप्रतिनिवर्तनम् ४। तथा-भावमतिक्रमणम्-अविनक्षितविशेषेभ्यः आस्त्रद्वारादिभ्यः प्रतिनिवर्तनम् । तदुक्तम् -- ___"मिच्छ ताइ न गच्छइ, न य गन्छावेह नाणुजाणाइ । जं मणवइकाएहि, तं भणियं भावपडिकमण ॥ १॥" छाया-मिथ्यात्वादि न गच्छति न च गमयति नानुजानाति । यद् मनोवाकायैस्तद् भणिनं भावपतिक्रमणम् ॥ १ ॥ इति ॥ भास्त्रवद्वारादि विशेषरूपेण विवक्षायां तु आस्त्रबद्वारमतिक्रमणादीनि पूर्वोतानि चत्वारि स्थानानि वोध्यानि । तदुक्तम्" मिच्छत्तपडिक्कमण, तहेच असंजमा पडिकमणं । कसायाण पडिक्कमण, जोगाण य अप्पसत्थाणं ॥ १॥" छाया-मिथ्यात्वमनिक्रमणं तथैव असंयमात् मतिक्रमणम् । कपायाणां प्रतिक्रमणं योगानां चापशरतानाम् ॥१॥ इति ॥ रमू० २९ ॥ अशुभ मन वचन काययोगोंसे जो प्रतिनिवर्तन है, वह योग निवर्तन है४ अविवक्षिा विशेपौवाले आस्रवारोंसे जो प्रतिनिवर्तल है, वह भावप्रतिक्रमण है। कहा भी है-"मिच्छत्ताइ न गच्छद" इत्यादि । जो जीव मन बचन कारसे मिथ्यात्व आदि भायोंमें न स्वयं जाता है, न दूतराको पहुँचाता है, और न उनकी अनुमोदना करता है, वह भाव प्रतिक्रमण है। ___ आत्रब द्वार आदिकी विशेष रूपले विवक्षामें तो पूर्वोक्त आत्रक छार प्रतिक्रमण आदि चार स्थान होते हैं। कहा भी है-"मिच्छत्त पडिक्कमणं " इत्यादि। તેનું નામ કાય પ્રતિક્રમણ છે. અશુભ, મન, વચન અને કાય જેગોને પરિત્યાગ કરે તેનું નામ ગપ્રતિક્રમણ છે અવિવક્ષિત વિશેવાળા આસવારથી જે પ્રતિનિવર્તન થાય છે, તેનું નામ ભાવ પ્રતિક્રમણ છે. કહ્યું पy छे " मिच्छत्ताइ न गच्छइ" त्याह-- - જીલનું મન, વચન અને કાય વડે મિથ્યાત્વ આદિ ભાવમાં જાતે જવું નહીં, અન્યને તે ભાવમાં લીન કરવા નહીં અને તે પ્રકારના ભાવની અનુમદના કરવી નહીં તેનું નામ ભાવપ્રતિક્રમણ છે. આ સવકાર આદિની વિશેષ રૂપે વિવક્ષામાં તે પૂર્વોક્ત આ અવદ્વાર પ્રતિક્રમણ આદિ ચાર સ્થાન હોય છે, ४५ छ ? 'मिच्छत्त पडिकमणं " त्यादि--(१) मिथ्या प्रतिमा, Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ स्थाtrres यस्य सतिः सादिता भवति स एव भावयतिक्रमणं विधत्ते इति हेतोः सूत्रं वाचनीयं शिक्षणीयं च भवतीति सूत्रस्य पञ्चवाचनास्थानानि पञ्च शिक्षा स्थानानि चाह - मूलम् - पंच िठाणेहिं सुतं वाएजा, तं जहा -संगहट्टयाए १, उवरगहणट्टयाए २, णिज्जरणट्टयाए ३, सुत्ने वा मे पज्जव जाए भवित ४, सुत्तस्स वा अवोच्छित्तिणयट्ट्याए || पंचहिं ठाणेहिं सुतं लिक्खिना, तं जहा - णाणट्टयाए १, दंसणट्टयाए २, चरितट्टयाए ३, वुग्गहविमोयणट्टयाए ४, अहत्थे वा भावे जाणिस्सामित्तिक ४ सू० ३० ॥ छाया-पञ्चभिःस्थानैः सूत्रं वाचयेत्, तथथा - संग्रहार्थतायै, १ उपग्रहणार्थताये, २ निर्जरणार्थ वायै, ३ सूत्रं वा मे पर्यवयात भविष्यति, ४ सूत्रस्य वा अव्युच्छित्तिनयार्थतायै ५। पञ्चभिः स्थानैः सूत्रं शिक्षेत तद्यथा - ज्ञानार्थतायै दर्शनार्थतायै, चारित्रार्थतायै व्यग्रहविमोचनार्थतायै यथास्थान वा भावान् ज्ञास्यामीति कृत्वा ॥ सू० ३० ॥ " टीका - पंचहि ठाणेहिं सुतं ' इत्यादि -- पञ्चभिःस्थः वावयेत् पाठयेत्, तान्येव पञ्चस्थानानि प्राहतद्यथा-संग्रहार्थतायै - संग्रहणं संग्रह: - शिष्यकर्तृकं श्रुतोपादानं, तदेव अर्थः = प्रयोजनं यस्य स तथा, तस्यभावस्तत्ता, तस्यै - ' शिष्याः श्रुतानि संगृहीयु - रिति Heater प्रतिक्रमण १ असंयम प्रतिक्रमण २ कषाय प्रतिक्रमण ३ और अप्रशस्तयोग प्रतिक्रमण ४ ॥ ० २९ ॥ टीकार्थ - जिसकी प्रति सूत्रभावित होती है, वही भावप्रतिक्रमण करता है, इस कारण से सूत्र वाचने योग्य होता है, और सिखने योग्य होता है, इसी अभिप्राय से अब सुन्नकार पांच बाचना स्थानोंको कथन करते हैं। (२) असयम प्रतिभाणु, (3) उषाय प्रतिभयु अने (४) अप्रशस्त योग પ્રતિક્રમણુ, ।। સૂ ૨૯ ॥ ટીકા-જેની મતિ સૂત્રભાવિત હાય છે, એ જ ભાવપ્રતિક્રમણ કરે છે. આ કારણે સૂત્ર વાંચવા તથા શીખવા ચાગ્ય તથા શિખવા ચાગ્ય ગણાય છે. તેથી જ હવે સૂત્રકાર પાંચ વાચના સ્થાનેાનું અને પાંચ શિક્ષા સ્થાનાનુ' કથત Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधारीका स्था०५ उ०३ सू०३० पंचविषवाचनास्थाननिरूपणम् २८९ प्रयोजनेन सूत्रं वाचयेत् । अथवा-वाचनया एक शिष्या संगृहीता भवन्तीति शिप्यान संग्रहीतुमत्र वाचयेत् । इति प्रथम स्थानम् १। उपग्रहणार्थतायै-उपग्रहण=पुष्टिः, तदेव अर्थ:अयोजनं यस्य म राया, तस्य भावरतता, तस्यै-'बाविता एते शिप्यास्तपः संयमाराधने सनाः रान्त उपयन्भिता मनन्तु ' इति प्रयोजनेन सूत्रं वाचयेत्-इति हितीयं स्थानम् २। निर्जरणार्थतायै-निजरणं-निर्जराकर्मक्षयः अर्थो यस्य स तथा तस्य भावरतत्ता तरयै-'कर्माणि मे निर्जरतां गच्छन्तु -इति हेतोः सूत्र वाचयेत्-इति सूतीनं स्थानम् ३। ' सूत्रं वा मे पर्यय यातं भविष्यति, वा अथवा वाचयतो मम सा पर्यव्यातं यवान-ज्ञानादि विशेपान् यात-प्राप्तं-ज्ञानविषयीकृतं भविष्यति' इति हेतो. सूत्र वाचयेत्-इति 'पंचहिं ठाणेहिं सुत्तं बाएज्जा' इत्यादि सूत्र ३० ॥ टीकार्थ-पांच कारणोंसे स्त्र-शुत पढना चाहिये वे पांच स्थान इस प्रकारसे हैं-शिष्यजन शुतज्ञा संग्रह करे इस प्रयोजनसे शिष्य के लिये सूत्रकी वांचना देनी चाहिये अथवा वांचनासेही शिष्योका संग्रहण होता है-वाचनासेही शिष्योंकी प्राप्ति होती है, इस अभिप्रायसे शिष्योंके लिये स्वतनी बाँचना देनी चाहिये ऐसा यह प्रषभ कारण है, द्वितीय कारण ऐसा है, कि सूत्रकी वाचनासे युक्त किये गये शिष्य तप और संयमकी आराधना करने में समर्थ होते हैं, और तभी जाकर उनकी पुष्टि होती है, कर्म क्षय करनेके लिये वे शक्ति खग्पन्न एनते हैं, इस प्रयोजनसे श्रुत पहाना चाहिये लुतीय कारण ऐसा है-शुतकी वाचनासे मेरे कर्मों की निर्जरा हो इस अभिप्रायसे श्रुतकी वाचना देनी चाहिये ४२ ४. “ पंचहि ठाणेहि सुत्तं वाएज्जा" त्या-- ટીકાર્ય–નીચેના પાંચ કારણોને લીધે શિષ્યોને સૂત્ર-શ્રતને અભ્યાસ કરાવો न--(१) शिष्य। श्रुतना सब ४२, 241 प्रयोनयी शुरु शिध्यने શ્રતની વાચન દેવી જોઈએ. અથવા વાચના દ્વારા જ શિષ્યની પ્રાપ્તિ થાય છે, એવી માન્યતાને કારણે પણ શિષ્યને કૃતની વાચન દેવી જોઈએ. (૨) શ્રતની વાચનાથી યુક્ત હોય એવો શિષ્ય જ તપ અને સંયમની આરાધના કરવાને સમર્થ હોય છે, અને ત્યારે જ તેમની પુષ્ટિ થાય છે. કર્મને ક્ષય કરવાને તેઓ સમર્થ બને છે. આ પ્રયોજનથી શ્રતને અભ્યાસ કરાવવું જોઈએ. (૩) શ્રુતની વાચના દેવાથી મારા કર્મોની નિર્જરા થશે, मेवी लानाथी राउन ५ श्रुननी पायना हेपामा भाव 2. (४) “ सुत्ते Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રદo स्थानाङ्गसूत्रे चतुर्थ स्थानम् ४॥ सत्रस्य अव्युच्छित्तिनयार्थतायै-अव्युच्छित्तिः-अव्यवच्छेदो नन्त मिति यावत्, तया नया=गयनं कालान्तरमापणं, स एव अर्थः-प्रयोजन यस्य स तथा, तस्य भावस्तत्ता तस्यै-कालान्तरेऽपि 'स्त्रपरम्परा अविच्छिन्ना तिष्ठतु ' इति हेतो. स्त्र वाचयेत्-इति पञ्चमं स्थानम् ५। तथा-पञ्चभिः स्थान कारणै. सूत्रं शिक्षेत, तान्येव स्थानान्याह-तद्यथा-ज्ञानार्थताये-ज्ञान-तत्वानां विवेकः, स एवार्थों यरय स तथा तम्य भापरलत्ता, तस्यै-तत्त्वपरिज्ञानार्थ सूत्रं शिक्षेत । १। दर्शनार्थतायै-दर्शन-श्रद्धानं जिनवचनेप्वभिरुचिस्तदा ।२। चारित्रार्थकायै-चारित्रं सदनुष्ठानं तदर्थम् । ३ । व्युद्ग्राविमोचनार्थनायैविपरीत उद्ग्रहः-व्युद्ग्रहः मिथ्याला भिनिवेशः, तस्य विमोचनम् =स्वपरेभ्योऽपचतुर्थ कारण ऐसा है कि-" चुने वा से पज्जवधाए भविस्वह" शुनकी पानी देनेवाले झुझे समझानादि विशेषोंगा प्राप्त करानेवाला होगा पंचस कारण ऐसा है, कि सूत्रकी नावा देने से सूत्र पारपरा विच्छिन्न नहीं होगी यह निरन्तर बनी रहेगी इस प्रकारके ये पांच कारण हैं, जो अत्तकी वाचना देने के लिये इस सूत्र डारा प्रकट किये गये हैं। ___अब सुत्रकार यह प्रकट करते हैं, कि इन पांच कारणोंले मूत्र सीखना चाहिये-उनमें प्रथम कारण ऐसा है कि सूत्र के सीखने से तत्वोंका विवेक प्राप्त होगा अर्थात् तत्त्यों के परिज्ञान के लिये मात्र सीखना चाहिये १ तत्त्वोकी श्रद्धा-जिनमगीत बचनों में रुचि मात करनेके लिये सूत्र सीखना चाहिये-सदनुष्ठानरूप चारित्रकी आराधना करनेके लिये वा मे पजवयाए भविस्स" श्रुतनु मध्ययन ४२१११ाथी भने सूत्र (Qत) જ્ઞાનાદિ વિશેની પ્રાપ્તિ થશે, એવી ભાવનાથી પણ ગુરુ દ્વારા શિને થનની વાચના દેવામાં આવે છે. (૫) શિષ્યને સૂત્રની વાચના દેવાથી સૂત્ર પરમ્પરા નિરન્તર ચાલુ રહેશે–સૂત્રે વિ છન્ન નહીં થાય, એવી ભાવનાથી પણ શિષ્યોને શ્રતનું અધ્યયન કરાવવામાં આવે છે. આ પ્રકારના પાંચ કારણેને લીધે સૂત્રની વાચના દેવામાં આવે છે. હવે સૂત્રકાર સૂત્ર શીખવાનું શા કારણે જરૂરી છે, તે બતાવતાં પાંચ કારણેનું નિરૂપણ કરે છે–(૧) તાના પરિઝાનને નિમિત્ત સૂત્રનું અધ્યયન થવું જોઈએ કૃતને અધ્યયન વિના કેવલી પ્રરૂપિત ધર્મના તરનું જ્ઞાન પ્રાપ્ત થઈ શકતું નથી. (૨) તત્તમાં શ્રદ્ધા–જિન પ્રણીત વચનેમાં રુચિ પ્રાપ્ત કરવા માટે પણ સૂત્રનું અધ્યયન કરવું જોઈએ (૩) સદનુકાન રૂપ ચરિત્રની આરાધના કરવાને માટે સૂત્રનું અધ્યયન કરવું જોઈએ. (૪) મિથ્યાત્વ રૂપ અભિ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुभाटीकास्था०५ उ० ३ सू०३१ नारकादीनां यथावस्थितभावनिरूपणम् २८१ नयनं, तनिमित्तम् । ४ । वा अथवा ' यथास्थान् तीर्थकरप्ररूपितान् यथाऽवस्थितान् भावान जीवाजीवादिस्वरूपान् ज्ञास्यामि'-इतिकृत्वा इति हेतोः सूत्रं शिक्षेत । ५॥ सू० ३० ॥ पूर्व यथावस्थितभावाः प्रोक्ताः, ते च ऊर्ध्वलोकादिषु सन्ति, तत्र सौधर्मादीनां यथावस्थितान् भावानाश्रित्य एवत्रयम् , तथा नारकादीनां यथावस्थितान् भावानाश्रित्य नूनचतुर्विंशति च प्राइ----- मूलम् --सोहम्लीलाणेसु णं काप्पेसु त्रिमाणा पंचवण्णा पपणत्ता, तं जहा-किण्हा जाब सुकिल्ला १। सोहमीसाणेसु जं कप्पेसु विमाणा पंच जोयणलयाई उड्ढे उच्चत्तेणं पण्णत्ता २॥ वंभलोगलंतएसुगंकप्रेसु देवाणं भवधारणिजसरीरगा उनोसेणं पंचरयणी उई उच्चत्तेणं पण्णत्ता ३। नेरइया णं पंचवन्ने पंचरसे पुग्गले वंचिंसु वा बंधति का बंधिस्संति वा, तं जहा-- किण्हे जाव सुकिल्ले, तित्तेजाब सहरे। एवं जाव वेगाणिया।सू०३१॥ छायण-सौधर्मेशानयोः खलु अल्पयोः विमानाः पञ्चवर्णाः प्रज्ञप्ताः तद्यथा-कृष्णायावत् शुक्लाः ११ सौधर्मेशानयोः खलु कल्पयोः विमानाः पञ्चयोजनशतानि अर्ध्वमुच्चत्वेन प्रज्ञप्ताः । २। ब्रह्मलोक लान्तकयोः खलु कल्पयोः देवानां भवधारणीयशरीरकाणि उत्कर्षेण पञ्चरत्नीनि अमुञ्चत्वेन प्रज्ञप्तानि ३। नेरयिकाः खल्लु पञ्चवर्णान् पश्चरसान् पुदलान् अवनन् बजन्ति भन्तस्यन्ति चा, तद्यथा-कृष्णान् । यावत् शुक्लान्, ति कान् यापद् मधुरान् एवं यावद् वैमानिकाः २४ ॥सू०३१॥ सूत्र सीखना चाहिये लिध्यात्व रूप अभिनिवेश दूर करने के लिये सत्र सीखना चाहिये अधवा-ती कर प्ररूपिन घावस्थित जीवाजीवादि रूप तत्त्व मुझे ज्ञान होंगे ऐसे प्रयोजनको सिद्ध करने के लिये सत्र सीखना चाहिये इस प्रकारके ये पांच कारण सूत्रके सीखने में हैं ॥३०॥ निवेशने ६२ ४२१। भारी सूत्रनु अध्ययन ४२७ मे. (५) तय ४२ ३. પિત યથાવસ્થિત જીવ અજવાદિ રૂપ તત્વનું અને જ્ઞાન થવું જ જોઈએ, એવી ભાવનાથી પ્રેરાઈને પણ શ્રતનું અધ્યયન કરવામાં આવે છે. આ પ્રકારના पांय ने सीधे सूत्र (श्रत) नु मध्ययन थाय छे. ॥ सू. ३० ॥ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाङ्गसूत्रे * टीका - सोहम्मीसाणेसु णं ' इत्यादि- 1 व्याख्या स्पष्टा । नवरम्-अवध्नन्, वघ्नन्ति, अत्स्यन्ति, एषां पदानां शरीरादितया पुद्गलानां वन्धनं कृतवन्तः कुर्वन्ति करिष्यन्ति चेत्यर्थः । नैरयिकाणामित्र सर्वेषां चतुर्विंशतिदण्ड कोक्तानां पञ्चवर्णपश्ञ्चरसात्मकपुद्गलबन्धनं भवति । तदुक्तम् -' एवं जात्र वैमाणिया ' इति ॥ सू० ३१ ॥ कथित यथावस्थित भाव ऊर्ध्वलोक आदिकों में होते हैं उनमें सौधर्मादकों यथावस्थित भावोंको लेकर तीन सूत्र, तथा नारकादिसे लेकर वैमानिक तक चौवीस दण्डको यथावस्थित भावोंको लेकर २४ सूत्र सूत्रकार कहते हैं- 'सोहम्मीसाणेस' इत्यादि लू० ३१ ॥ arate-arधर्म ईशान कल्पोंके विमान पांच वर्णों वाले कहे गये हैं । जैसेकृष्णवर्णवाले, नीलवर्णवाले, लालवर्णवाले, पीतवर्णवाले, शुक्ल वर्णवाले सौधर्म और ईशान इन दो कल्पों में जो विमान हैं वे ऊंचाई में पांचसौ पांचसौ योजन के हैं - अर्थात् उनकी ऊचाई पांचसौ योजन की है । ब्रह्म लोक और लान्तक इन दो कल्पोंके देवोंका भवधारणीय शरीर उत्कृष्ट से पाँच रत्नि प्रमाण ऊंचा है, नैरयिक जीवोंने पांच वर्णावाले पुलोंका पांच साल का बन्ध किया है, अब भी वे ऐसेही पुगलोंका बन्ध करते हैं, और भविष्यकाल में भी वे ऐसेही पुगलोंका बन्ध करेंगे । पांच वर्णों वाले पुद्गलों उन्होंने कृष्णवर्ण के पुद्गलोंसे लेकर यावत् शुक्ल ઉપયુ ક્ત યથાવસ્થિત ભાવ ઉર્ધ્વલક આફ્રિકામાં હાય છે. ઉવ લેાકમાં આવેલા સૌધર્માદિકના યથાવસ્થિત ભાવાનુ` ત્રણ સૂત્રેા દ્વારા અને નારકાઢિ કાના યથાવસ્થિત ભાવાનું ૨૪ સૂત્ર દ્વારા સત્રકાર નિરૂપણ કરે છે— सोहमीसा " इत्यादि 66 સૌધમ અને ઈશાન કલ્પાનાં વિમાના પચ વધુ વાળાં કહ્યાં છે. એટલે કે તે વિમાના કૃષ્ણ વવામાં, નીલ વણવાળાં, લાલ વણુવાળાં, પીત વધુવાળાં અને શુકલ વર્ચુ વાળાં હાય છે. સૌધમ અને ઈશાન કલ્પામાં જે વિમાને છે તેમની ઊઁચાઈ ૫૦૦ ચૈાજનની છે. બ્રહ્મàા અને લાન્તક કપાના દેવાના ભવધારણીય શરીરની ઉત્કૃષ્ટ ઊંચાઈ પાંચ નિપ્રમાણુ ( પાંચ હાથની) છે. નારક જીવાએ પાંચ વર્ણવાળા પુàાને અને પાંચ રસેાવાળા પુદ્ગલેના અન્ય કર્યો છે, હાલમાં પણ તેએ એવા જ પુદ્ગલેના અન્ય કરે છે અને ભવિષ્યમાં પણ તેઓ એવા જ પુદ્ગલેના અન્ય કરશે. આ કથનનુ તાત્પર્ય એ છે કે તેમણે કૃષ્ણથી લઇને શુકલ પર્યંન્તના પાંચ વર્ણવાળા પુદ્ગલાના Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८३ सुधा टीका स्था ५ उ. ३ सू ३२ जम्बूद्रीपादेर्य यावस्थित मावनिरूपणम् तिर्यग्लोके च जम्बूद्वीपादयो यथावस्थिता भात्राः सन्ति, तानाश्रित्य सूत्र चतुष्टयीं प्राह मूलम् - जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं गंगामहाई, पंच महाणईओ समपेंति, तं जहा- जउगा १, सरऊ २ आदी ३ कोसी ४ मही ५ | १| जंबू मंदरस्स दाहिनेणं सिंधुमहाणई, पंच महाणईओ समप्पति, तं जहा - सयद्दु १, विभासा २, वितत्था ३, एराबई ४ चंद्रभागा ५ | २| जंबू मंदरस्स उत्त रेणं रत्ता महाणई, पंच महाणईओ समप्र्पति, तं जहा - किव्हा वर्ण aaa पुगलोंका और पांच रसोंवाले पुलोंमें उन्होंने तिक्त रससे लेकर यावत् मधुर रसवाले पुद्गलों तकका बन्ध किया है, इसी तरहका इनके बन्ध होनेका कथन वर्तमान कालमें और भविष्यत् कालमें भी कर लेना चाहिये इसी तरहका इन वर्णवाले पुद्गलोंका और रसवाले पुद्गलोंका कथन त्रिकालको लेकर यावत् वैमानिक देवों तक कर लेना चाहिये नारकसे लेकर वैमानिक तक चौवीस दण्डक के जीवों में पाँच वर्ण दो गंध पांच रस आठ स्पर्श वाले पुद्गलोका बन्ध हुआ है, होता है, और आगे होगा ऐसा जो यह कथन है, वह शरीरादि रूपसे उनके उनका बन्ध हुआ है, वह होता है, और आगे भी उनका उनके बन्ध होगा इस रूप से समझना चाहिये || सूत्र ३१ ॥ અને તિકતથી લઈને મધુર પન્તના પંચ રસવાળા પુદ્ગલેને અન્ય ભૂતકાળમાં કર્યાં છે. એ જ પ્રકારના અન્ય તે વત માનકાળમાં પણુ બાંધે છે અને ભવિષ્યકાળમાં પણ ખાંધશે, એવું કથન પણ ગ્રહણ થવુ' જોઈએ. આ પાંચે વર્ણવાળા અને પાંચે રસવાળા પુડ્વેના અન્યનુ` કથન ત્રિકાળને અનુ લક્ષીને વૈમાનિક પન્તના જીવેશમાં પણ થવુ જોઈએ તારકાથી લઈને વૈમા નિકા પન્તના ચાવીસે દડકના જીવે પાંચ વર્ણોવાળાં અને પાંચ રસવાળા પુદ્ગલેાના મન્ય કરતા હતા, કરે છે અને કરશે. આ કથનના ભાવાર્થ એ છે કે તેમને શરીરાદિ રૂપે તેમના બન્ધ થયેા હતેા, થાય છે અને ભવિષ્યમાં પણુ થવાના જ છે. ૫ સ્૦ ૩૧ ॥ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानसूत्रे ૮૪ १ महाकिण्हा २ नीला ३ महानीला ४ महातीरा ५। ३ । जंबूमंदरस्स उत्तरेणं रत्तावई महानई, पंचमहानईओ समप्पेंति, तं जहा - इंदा १ इंदसेणा २ सुसेणा ३ वारिसेणा ४ महाभोया ५| ४ || सू० ३२ ॥ छाया - जम्बूद्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणे गङ्गा महानदी, पञ्च महानद्यः समाप्नुवन्ति तद्यथा-यमुना १, सरयूः २ भादी ३ कोशी ४ मही ५ | |१| जम्बू मन्दरस्य दक्षिणे सिन्धुः महानदी, पञ्च महानयः समाप्नुवन्ति, तद्यथाशत: १, विपाशा २, विस्ता ३, ऐरावती ४, चन्द्रभागा ५। । २ । जम्बू मन्दरस्य उत्तरे रक्ता महानदीः पञ्च महानद्यः समाप्नुवन्ति तद्यथा - कृष्णा १ महाकृष्णा २ नीला ३ महानीला ४ महातीरा ५। । ३ । जम्बू मन्दरस्य उत्तरे रक्ता तिर्यग्लोक में जम्बूद्वीप आदि भाव जैसे अवस्थित हैं, सूत्रकार अब उनको आश्रित करके सूत्र चतुष्टयका कथन करते हैं 'जंबुद्दीवे दीवे मंदररस पत्रयस्स दाहिणेणं' इत्यादि सूत्र ३२|| जम्बूदीप नामके द्वीपमें लन्दर पर्वतकी दक्षिण दिशामें जो भारतक्षेत्र में गंगा नामकी महानदी है, उसमें पाँच महानदियां मिली हुई है - जैसे-यमुना १ सरयू २ आदी ३ कोशी ४ और मही ५ (१) जम्बूद्वीप नामके द्वीपमें सन्दर पर्वतकी दक्षिण दिशा में जो सिन्धु महानदी है, उसमें भी पांच महानदियां मिली हुई हैं, जैसे- शतद्रू १ विपाशा २ वितस्ता ३ ऐरावती ४ और चन्द्रभागा ५ ( २ ) जम्बूद्रीप नाम के द्वीप में मन्दर पर्वतकी उत्तर दिशामें रक्ता नामकी તિય Àાકમાં જ બુદ્વીપ આદિ ક્ષેત્રે આવેલાં છે. તેમાં પર્વત, નદીએ વગેરેના સદ્ભાવ છે. આ વિષયને અનુલક્ષીને સૂત્રકાર ૨૪ સૂત્રાનું કથન કરે છે-जंबुद्दींचे दीवे मंदरस्स पत्रत्रयस्स दाहिणेणं " त्याहि 66 જમ્મૂદ્રીપ નામના દ્વીપમાં મન્દર પર્વતની દક્ષિણ દિશામાં જે ભરતક્ષેત્ર આવેલું છે, તે ભરતક્ષેત્રમાં ગંગા નામની મહાનદી વહે છે. તેને પાંચ મહાનદીએ મળે છે. જેમનાં નામ નીચે પ્રમાણે છે--(૧) યમુના, (૨) સરયૂ, (३) शाही, (४) अशी अने (५) भही ॥ १ ॥ જદ્દીપ નામના દ્વીપમાં મન્દર પર્વતની દક્ષિણ દિશામાં જે સિંધુ નામની महानही वड़े छे तेने यंत्र भडानद्वीओ। भणे छे -- (१) शाहू (२) विपाशा (3) वितस्ता, (४) भैरावती भने (५) यन्द्रभागा ॥ २ । જ'બૂદ્દીપ નામના દ્વીપમાં મન્દર પતની ઉત્તર દિશામાં જે રસ્તા Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुचा का स्था०५३०३ सू०३२ जम्बूद्वीपादेयथावस्थितभावनिरूपणम २८५ वती महानदी पञ्च महानधः समाप्नुवन्ति, तद्यथा-इन्द्रा १, इन्द्रसेना २, सुपेणा ३ वारिषेणा ४ महाभोगा ।।४।। सू० ३२ ॥ ___टीका-'जंबुद्दीवे दीवे ' इत्यादि व्याख्या स्पष्टा । नवरं-जम्बूद्वीपाख्यमन्दरपर्वतस्य दक्षिणे-दक्षिणदिशि भरतक्षेत्रे गङ्गा नाम महानदी वर्तते, तत्र पञ्च महानद्यः समाप्नुवन्ति-संगता भवन्ति । शेषं स्पष्टम् ।। सू० ३२॥ ___ अनन्तरसूत्रे भरतक्षेत्रे स्थिता महानद्यः प्रोक्ताः, तत्प्रस्तावात् सम्प्रति तद्वति तीर्थकर सम्बन्धि सूत्रमाह____ मूलम्-पंच तित्थगरा कुमारवासमझे वासित्ता मुंडा जाव पवइया, तं जहा-वासुपुजे १ मल्ली २ अस्टिनेनी ३ पासे ४ वीरे ५॥ सू० ३३ ॥ ___ छाया-पश्च तीर्थकराः कुमारवासमध्ये उपित्वा मुण्डा यावत् प्रबजिताः, तद्यथा-वासुपूज्यो १ मल्लिः २ अरिष्टनेमिः ३ पार्श्वः ४ वीरः ५॥ सू० ३३ ॥ जो महानदी है, उसमें पांच महानदियां मिली हैं जैसे-कृष्णा १ महाकृष्णा २ नीला ३ महानीला ४ महातीरा ५ (३) ____ जम्बूद्वीप नामके द्वीपमें मन्दर पर्वतकी उत्तर दिशामें जो रक्ता. चती नामकी महानदी है, उसमें भी पांच महानदियां मिली हैं जैसेइन्द्रा१ इन्द्रसेना२ सुषेणा३ बारिषेणा४ और महाभोगा (४)०३२॥ इस ऊपर के सूत्र में भरतक्षेत्र में स्थित जो महानदियां हैं, वे प्रकट की गई हैं, अघ इसी भरतक्षेत्रके सम्बन्धको लेकर उसमें हुए जो तीर्थंकर हैं उनके विषयमे सूत्रकार सूत्रका कथन करते हैंનામની મહાનદી છે, તેને નીચેની પાંચ મહાનદીઓ મળે છે--(૧) કૃષ્ણ, (२) भाए!, (3) नlal, (४) भडनी मने (५) मडाती। ॥ ॥ જબૂદ્વીપ નામના દ્વીપમાં મન્દર પર્વતની ઉત્તર દિશામાં જે રક્તાવતી નામની મહાનદી છે તેને જે પાંચ મહાનદીઓ મળે છે તેમના નામ નીચે प्रभाव छ-(१) छन्द्री, (२) छन्द्रसेना, (3) सुषेय, (४) पारिषष्य। सने (५) भडाना। ४ ॥ सू. ३२ ॥ ઉપરના સૂત્રમાં ભરતક્ષેત્રમાં આવેલી મહાનદીઓનાં નામ પ્રકટ કરવામાં આવ્યા. હવે સૂત્રકાર એ જ ભરતક્ષેત્રમાં થઈ ગયેલા તીર્થકરેના વિષયમાં ४यन रे छ. "पंच तित्थगरा कुमारवासमझे" त्याह Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानसूत्रे टीका -' पंच तित्थगरा ' इत्यादि व्याख्ण स्पष्टा । नवरं - कुमारयाममध्ये कुमारे = कुमारत्वे वसनम् = अवस्था नम् - कुमारवासः, तन्मध्ये अर्थात् - कौमार्ये । उपित्वा = स्थित्वा । वासुपूज्यादयो भगवन्त राज्येऽनभिपिता एव दीक्षां गृहीतवन्त इति सूत्राः ॥ ०३३ ॥ " भरतादि क्षेत्रमात्रात् क्षेत्रभूतचमरचञ्चादि वक्तव्यतां पञ्चस्थानकत्वेनाह मूलम् - चमरचंचाए रायहाणीए पंच सभा पण्णत्ता, तं जहा - सभासु हम्मा १, उववायसभा २, अभिसेयसभा ३, अलंकारियसभा ४, ववसायसभा ५। एगमेगे णं इंदाणे पंच सभाओ पण्णत्ताओ, तं जहा - सभामुहम्मा १ जाव बवसायसभा ५ ॥ सू० ३४ ॥ छाया - चमरचञ्चायां राजधान्यां पञ्च सभाः मज्ञप्ताः, तद्यथा-सभा सुधर्मा १, उपपात सभा २, अभिषेक सभा ३, अलङ्कारिकसभा ४, व्यवसायसभा 'पंच तित्थगरा कुमारवासनज्ज्ञे' इत्यादि सू० ३३ ॥ पाँच तीर्थंकर कुमार कालमें ही दीक्षित हुए हैं, उनके नाम इस प्रका रसे हैं - वासुपूज्य १ मल्लि २ अरिष्टनेमि ३ पार्श्वनाथ ४ और वीरप्रभु ५ इन पांचोंका राज्य में अभिषेक नहीं हुआ है, इन्होंने विना राज्यमें अभिषिक्त हुएही दीक्षा ग्रहण की है ॥ ३३ ॥ भरतादि क्षेत्र के प्रस्ताव को लेकर क्षेत्रभूत चमरचञ्चा आदिकी वक्तव्यताका कथन पांच स्थानोंको आश्रित करके अब सूत्रकार कहते हैंचमरचचाए रायहाणीए' इत्यादि सू० ३४ ॥ घमरचञ्चा नामकी राजधानी में पांच सभा कही गई हैं जैसे - सुधमसभा १ उपपात सभा २ अभिषेक सभा ३ अलङ्कारिक सभा ४ एवं પાંચ તીર્થંકરાએ પેતાની કુમારાવસ્થામાં જ પ્રવ્રજ્યા લીધી હતી. એટલે કે રાજ્યગાદીએ તેમના અભિષેક થયા પહેલાં જ તેમણે દીક્ષા ગ્રહણ अभी हुती तेमनां नाम नीचे प्रमाणे - ( 1 ) वासुपूज्य, (२) भक्षिनाथ, अरिष्टनेमि, पार्श्वनाथ भने (4) महावीर अनु ॥ सू. 33 ॥ ભરતાદિ ક્ષેત્રવિષયક પ્રસ્તાવ ચાલી રહ્યો છે ચારચચા નામની રાજ ધાની પણ એક ક્ષેત્ર રૂપ છે તેથી હવે સૂત્રકાર પાંચ સ્થાનેને આધાર तने समस्यानुं वन ४रे छे. " चमरचचाए रायहाणीए " इत्यादि ચમરચા નામની રાજધાનીમાં પાંચ સભા કહી છે. તે સભાઓનાં Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०५ उ०३ सू०३४ क्षेत्रभूतचमरचञ्चादिनिरूपणम् २८७ ५। एकैकस्मिन् खन्लु इन्द्रस्थाने पञ्च सभाः प्रज्ञताः, तद्यथा - सभा सुधर्मा १ यावद् व्यवसाय सभा ५ । ० ३४ ॥ टीका - ' चमरचचाए ' इत्यादि - व्याख्या सुगमा | नवरं चमरचञ्चा नाम राजधानी रत्नप्रभा पृथिव्यां चमरस्य असुरकुमारराजस्य बोध्या । यत्र देवसभा सा सुधर्मा सभा । यस्थामुत्पद्यते सा उपपातसभा । यस्यामभिषेको भवति सा अभिषेकसभा | यस्यां मण्डनं क्रियते सा अलंकारिकसभा | यस्यां कर्तव्यानां विनिश्चयो भवति सा व्यवसाय सभा । एताः पञ्चापि सभा यथाक्रमम् उत्तरपूर्वस्यां दिशि = ईशानकोणे द्रष्टव्या । इन्द्र स्थाने = इन्द्रनिवासभूते स्थाने इत्यर्थः ॥ सू० ३४ ॥ व्यवसाय सभा ५ एक एक इन्द्रस्थान में पांच २ सभाएँ कही गई हैं जैसे - सुधर्मा सभा १ यावत् व्यवसाय सभा ५ चमर चञ्चा नामकी राजधानी रत्नप्रभा पृथिवीमें असुरकुमारराज चमरकी है, जहां देवसभा है, वह सुधर्मा सभा है, जहां पर उत्पाद (जन्म) होता है, वह उपपात सभी है २ जिसमें अभिषेक होता है ३ जिसमें मण्डन किया जाता है, वह अलंकारिक सभा है, और जिसमें कर्त्तव्य कार्यो का विनिश्चय होता है, वह व्यवसाय सभा है, ये पाँचोंही सभाएँ यथाक्रम से उत्तर पूर्व दिशा में ईशान कोने में हैं । इन्द्रका जो निवासभूत स्थान है, वह इन्द्रस्थान है | सू० ३४ ॥ नाभ नीचे प्रमाये छे— (१) सुधर्मा सला, (२) उपपात सला, (3) अलिषेऽ सभा, (४) असारिङ सला, गने (५) व्यवसाय सला. પ્રત્યેક ઈન્દ્રસ્થાનમાં સુધર્માં સભાથી લઈને વ્યવસાય સભા પર્યન્તની પાંચ સભાએ હાય છે. રત્નપ્રભા પૃથ્વીમાં અસુરકુમારરાજ ચમરની ચમરચા નામની રાજધાની આવેલી છે. તે રાજધાનીમા જ્યાં દેવાની સભા મળે છે તે સ્થાનને સુધર્માં સભા કહે છે, જ્યાં ઉત્પાદ ( જન્મ ) થાય છે તે સ્થાનને ઉપપાત સભા કહે છે. જે સભામાં અભિષેક થાય છે, તેને અભિષેક સભા કહે છે. જેમાં મ`ડન કરવામાં આવે છે, તેનુ' નામ અલંકારિક સભા છે. જે સભામાં કન્ય કાનિા નિર્ણય થાય છે, તે સભાને વ્યવસાય સા કહે છે. તે પાંચે સભાઓ ઈશાન કાજીમાં અનુક્રમે આવેલી છે. ઇન્દ્રનું જે નિવાસસ્થાન હાય छेतेने इन्द्रस्थान ४ ॥ सु. ३४ ॥ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮૮ स्थानासो अनन्तरसूत्रे देवनिवाम उक्तः, तदधिकारादेव सम्प्रति नक्षत्रमूत्रमाह मूलम्-पंच णखत्ता पंचतारा पण्णत्ता, तं जहा--णिहा १, रोहिणी २, पुणवसू ३, हत्थो ४, विसाहा ५ ॥ सू० ३५॥ छाया-पश्च नक्षत्राणि पश्चनाराणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-धनिष्ठा १, रोहिणी २, पुनर्वसुः ३, हस्तः ४, विशाखा ५ ।। सू० ३५ ॥ टीका-'पंच णकावता' इत्यादिव्याख्या स्पष्टा ॥ सू० ३५ ॥ प्राणिनां नक्षत्रादि देव रूपता च कर्मपुद्गलचयादि सत्त्वे एव भवतीति चगादीनाह-- ___ मूलम् --जीवाणं पंचहाणनियत्तिए पोग्गले पावकम्मत्ताए विणिंसु वा चिणंति वा चिणिस्तंति वा, तं जहा-एगिदियनिवत्तिए जाव पंचिंदियनियत्तिए। एवं--चिण उवचिण बंध उदीर वेद तह तह णिजश र । पंच पएनिया संधा अर्णता पण्णता । पंच पएसोगाढा पोरगला अजंता पण्णत्ता जाव पंचगुणदखा पोग्गला अणंता पण्णता ॥ सू० ३६ ॥ ॥ पंचमदाणस्स तईओ उद्देलो॥ ॥पंचसं ठाणं लमत्तं ॥ इस ऊपर के सूत्र में देव निवास कहा है, इसी अधिकारको लेकर अन्य सबकार नक्षत्र सूत्रका कथन करते हैं-- 'पंच नक्वत्ता पंच तारा पण्णत्ता' इत्यादि मु० ३५ ॥ पांच नक्षत्र पांच ताराओवाले कहे गये हैं जैसे-धनिष्ठा १ रोहिणी • पुनर्वस्तु ३ हस्त ४ और विशाखा ५ ॥ स्त्र ३५ ॥ આગલા સૂત્રમાં દેવનિવાસનું કથન કર્યું. નક્ષત્ર પણ દેવે જ છે. તેથી હવે સૂત્રકાર પાંચ સ્થાને આધારે નક્ષત્રોનું કથન કરે છે "प च नक्खत्ता पंच तारा पण्णता" त्याहि नीय सणेai पांय नक्षत्र पांय-पांय तारापोवाणां छ-(१) धनिष्ठा, (२) शडियी, (3) पुन, (४) त मन (५) विशा . ॥ सू. ३५ ॥ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुषा टीका स्था०५ उ०३ सू०३६ क्षेत्रभूतचमरखञ्चादिनिरूपणम् २८९ __ छाया--जीवाः खलु पञ्चस्थाननितितान् पुद्गलान् पापकर्मतया अचिन्वन् वा, चिन्वन्ति वा चेष्यन्ति वा, तद्यथा-एकेन्द्रियनिति तान् यावत् पञ्चेन्द्रियनिवतितान् । एवं-चय उपचयो वन्धः उदीरो वेदस्तथा निजैरा चैव । पञ्चप्रदेशिकाः स्कन्धाः अनन्ताः प्रज्ञप्ताः । पञ्चप्रदेशावगाहाः पुद्गलाः अनन्ता' प्रज्ञप्ता: यावत् पश्चगुणरूक्षाः पृद्गला अनन्ताः प्रज्ञप्ताः ॥ सू० ३६॥ ॥ पञ्चमस्थानस्य तृतीय उद्देशः॥ ॥ पञ्चमं स्थानं समाप्तम् ।। प्राणियों में जो नक्षत्रादि देवता रूपता होती है, वह कर्मपुद्गलचय आदिके होने परही होती है अतः अब पत्रकार चय आदिका कथन करते हैं ___ 'जीवाणं पंचट्ठाणनिव्वत्तिए' इत्यादि सू० ३६ ॥ “जीवोंने पांच स्थानोंसे निर्तित हुए पुगलोंका पापकर्म रूपसे चयन (उपार्जन) किया है, वर्तमान में वे उनका चयन करते हैं, और आगे भी वे उनका चयन करेंगे वे पांच स्थान इस प्रकारसे हैं-एकेन्द्रियरूप स्थान १ यावत् पश्चेन्द्रियरूप स्थान इसी तरहका कथक चय, उपचय, धन्ध, उदीरणा, वेद तथा निर्जराके सम्बन्धमें भी जानना चाहिये । पांच प्रदेशोंवाले पुद्गल स्कन्ध अनन्त कहे गये हैं। पांच प्रदेशों में अवगाढ हुए पुनल स्कन्ध अनन्त कहे गये हैं। यावत् पांच गुण रूक्ष. वाले पुद्गल स्कन्ध अनन्त कहे गये हैं ? જીમાં જે નક્ષત્રાદિ દેવતારૂપતા હોય છે તે કર્મપુને ચય આદિ થવાથી જ થાય છે. તેથી હવે સૂત્રકાર ચય આદિનું કથન કરે છે. " जीवाणं पंचट्ठाणनिव्वत्तिए " त्या જીવોએ પાંચ સ્થાનમાંથી નિવર્તિત થયેલાં પુદ્ગલેને પાપક રૂપે ચય કર્યો છે-ઉપાર્જન કર્યું છે, વર્તમાન કાળે પણ તેઓ તેમને ચય કરે છે અને ભવિષ્યમાં પડ્યું તેઓ તેમને ચય કરશે તે પાંચ સ્થાને નીચે प्रभारी छ-(१) सन्द्रिय ३५ २५ न, (२) दीन्द्रिय ३५, (3) त्रीन्द्रिय ३५, (૪) ચતુરિન્દ્રિય રૂપ અને (૫) પંચેન્દ્રિય રૂપ સ્થાન. એ જ પ્રકારનું કથન ઉપચય, બન્ય, ઉદીરણ, વેદન તથા નિર્જરા વિષે પણ સમજયું. પાંચ પ્રદેશવાળા પુદ્ગલરકા અનંત કહ્યા છે, પાંચ પ્રદેશમાં અવગાહિત થયેલા પુદ્ગલરક અનન્ત કહ્યા છે, (યાત, પાંચ ગણી રૂક્ષતાવાળાં પુદલ स्था०-३७ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० स्थानानसूत्रे टीका--' जीवा णं ' इत्यादि -- अस्य व्याख्या पूर्ववद् बोध्या । नवरं तस्मिन् तस्मिन् स्थाने तत्तत्संख्यकस्थानकत्वेनोक्तम् । अत्र तु पञ्च स्थानकत्वेनेति । सू० ३६ ॥ इति श्री विश्वविख्यात - जगद्वल्लभ - प्रसिद्धवाचक - पञ्चगमापाकलितललितकलापालापक-मविशुद्ध गद्यपद्यनेकग्रन्थ निर्मापक - वादिमानमर्दक- श्रीशाहछत्रपति कोल्हापुर राजमदत ' जेनशास्त्राचार्य ' पदभूपित - कोल्हापुरराजगुरु बालब्रह्म वारी- जैनाचार्य - जैनधर्म दिवाकर-पूज्यश्री - घासीलालवतिविरचितायां ' स्थानामुत्रस्य ' सुधाख्यायां व्याख्ययां पञ्चमस्थानस्य तृतीयोदेशः सम्पूर्णः ॥ ५-३ ॥ पञ्चमं स्थानम् सम्पूर्णम् इन सब सूत्रोंकी व्याख्या सुगम है तथा पूर्व में उस उस स्थान में उस उस स्थानकी संख्या के रूपसे उनकी व्याख्या जैसी की गई है, वैसीही व्याख्या इनकी यहां पञ्च स्थानक रूप से कर लेनी चाहिये । श्री जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर श्री घासीलालजी महाराजकृत स्थानांङ्गसुत्रकी सुधा नामकी व्यख्या के पांचवें स्थोकका तीसरा उदेशक समाप्त ॥ ५-३ ॥ ॥ पांचवा स्थान समाप्त ॥ સ્કન્ધા અનત કર્યાં છે આ બધાં સૂત્રની વ્યાખ્યા સુગમ છે. આગળ જે સ્થાનમાં તે તે સ્થાનની સખ્યા રૂપે તેમની જેવી વ્યાખ્યા કરવામાં આવી છે, शेट्टी ४ व्याख्या सहीं पांथस्थान ३ये १२वी . ॥ सू. ३६ ॥ શ્રી જૈનાચાય જૈનધમ દિવાકર શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ કૃત સ્થાનાંગસૂત્રની સુધા નામની ટીકાના પાંચમા સ્થાનને ત્રીજો ઉદ્દેશે સમાપ્ત ! ૫–૩ {k ! પાંચમું સ્થાન સમાપ્ત ! Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठं स्थानका प्रारभ्यते-- उक्तं पञ्चमं स्थानम् , सम्प्रति संख्याक्रमप्राप्त पष्ठं स्थानमुच्यते । अस्य च पूर्वेण सहायमभिसम्बन्धः-पूर्वस्मिन् स्थाने जीवादिपर्यायाः प्ररूपिताः अत्रापि तेषामेव प्ररूपणा क्रियते, इत्यनेन सम्बन्धेन आयातस्य अस्य षष्ठस्थानकस्येदमादिम सूत्रम्-"छहिं ठाणेहि इत्यादि अस्यानन्तरसूत्रेण सहायं सम्बन्धः अनन्तर स्थानकान्तिमसूत्रे 'पञ्चगुणरूक्षाः पुद्गला अनन्ताः प्रज्ञप्ताः, इत्युक्तम् , एपां पुद्गलानां प्रज्ञापकत्वमर्थतरतीर्थकराणां, सूत्रतश्च गणधराणां भवति, ते च यगुणयुक्ताएव भवन्तीति तान् गुणान् प्रदर्शयति ॥छठा स्थानका प्रथम उद्देशक ।। पांचवां स्थान कहा जा चुका है, अब संख्याके क्रमसे प्राप्त हुआ छठा स्थान कहा जाता है, इसका पूर्व स्थानके साथ ऐसा सम्बन्ध है, कि पूर्वस्थानमें जीवादि पर्याये प्ररूपित हुई हैं, यहां पर भी वे ही प्ररूपित की जा रही हैं, तथा पांचवे स्थानके अन्तके सूत्रके साथ इस छठे स्थानके प्रथम स्त्रका सम्बन्ध ऐसा है, कि पांचवें स्थानके अन्तिम सूत्रमें जो पंच गुणे रूक्ष पुगल स्कन्ध अनन्त कहे गये हैं, सो इनकी ऐसी अर्थ रूपसे प्रज्ञापना तीर्थकरों ने की है, और सन्न रूपले प्ररूपणा गणधरोने को है, अत: जिन शुगोंसे युक्त होते हैं, उन्हीं गुणोंका अव सूत्रकार कथन करते हैं-'छहिं ठाणेहि संपन्ने अणगारे' इत्यादि ॥ -- स्थान देश १ - પાંચમાં સ્થાનનું કથન સમાપ્ત થયું. હવે છઠ્ઠા સ્થાનનું કથન કરવામાં આવે છે. પૂર્વ સ્થાન સાથે તેને સંબંધ આ પ્રકારને છે પૂર્વ સ્થાનમાં જીવાદિ પર્યાયની પ્રરૂપણા કરવામાં આવી છે, અહીં પણ તેમની જ પ્રરૂપણા કરવામાં આવશે, પાંચમાં કથાનકના છેલલા સૂત્ર સાથે આ સ્થાનના પહેલા સૂત્રને સંબંs આ પ્રકાર છે-પાંચમાં સ્થાનના અંતિમ સૂત્રમાં એવું કહેવામાં આવ્યું છે કે પાંચ ગણી રૂક્ષતાવાળા પુદ્ગલસ્કન્ધ અનંત કહ્યા છે. તેમની અર્થરૂપે આ પ્રકારની પ્રજ્ઞાપના તીર્થકરેએ કરી છે, અને સત્ર રૂપે પ્રરૂપણુ ગણધરોએ કરી છે તે ગણધર જે ગુણોથી યુક્ત હોય છે તે ગુણેનું સૂત્રકાર હવે કથન કરે છે. - "छहि ठाणेहि संपन्ने अणगारे " त्याह Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९५ स्थानाचे मूलम्-छहिं ठाणेहिं संपन्ने अणनारे अरिहइगणं धरित्तए, तं जहा--सड्डी पुरिसजाए १, सच्चे परिसजाए २, मेहावी पुरिसजाए ३, बहुस्सुए पुरिसनाए ४, सत्तिमं पुरिलजाए ५, अप्पाधिकरणे पुरिसजाए ६ ॥ सू० १ ॥ छाया-पडभिः स्थानः सम्पन्नोऽनगारः अर्हति गणं धारयितुम् , तद्यथा-श्रद्धिपुरुष. जातम् १, सत्यम् पुरुषजातम् २, मेवावि पुरुप नातम् ३, बहुश्रुतं पुरुषजातम् ___४, शक्तिमत् पुरुषजातम् ५, अल्पाधिकरणं पुरुषजातम् ६ ।। सू० १ ।। टीका-'छहिं ठाणेहि ' इत्यादि पभिः स्थान =गुणैः सम्पन्नः अनगार। साधुरर्हति योग्यो भवति गणंगच्छं धारयितुमर्यादायां संवारयितुम् । तान्येव स्गानान्याह-तद्यथा-श्रद्धिपु. रुपजातम्-श्रद्वाशीला पुरुपविशेषः-यः कश्चित पुरुः श्रद्वाशीलो भवति सइत्यर्थः । इति प्रथमो भेदः । तथा-सत्यं पुरुषजावम्-सद्भ्यो-जीवेभ्यो हित सत्यं -जीवानां हितचिन्तनपरः पुरु विशेषः । एवंविध पुरुषो गणधारक आदे टीका-जो अणगार छह स्थानों से गुणों से युक्त होता है, वही अणगार गच्छको धारण करने के योग्य होता है, गणोंको मर्यादामें चलानेके योग्य होता है । वे स्थान इस प्रकार से है-अद्धि पुरुप जान १ सत्य पुरूष जात २ मेधाधि पुरुष जात ३ बहुत पुरुष जात ४ शक्तिमत्पुरूष जात ५। और अल्पाधिकरण पुरुष जान ६ इनमें श्रद्धाशील जो पुरुष विशेष है, वह अद्वि पुरुष जात है, जीवोंके लिये जो हितकारी होता है वह सत्य है, जीयोंके हित के चिन्तबन में जो पुरुष विशेष लगा रहता है, ऐसा वह पुरुष विशेष लल्य पुरुष जात है, ऐसा वह पुरुप विशेष साथ-२ भा२ स्थ.नाथी (७ अरना शुशथी) युक्त य छ, એ જ અણગાર ગચ્છને ધારણ કરવાને યોગ્ય હોય છે અને ગચ્છમાં મર્યા દાનું પાલન કરાવનાર હોય છે. તે છ સ્થાન નીચે પ્રમાણે છે (१) "श्रद्धि पुरुपजात"-२ श्रद्धाशा पुरुष विशेष उय छ, तर , “શ્રદ્ધિ પુરુષ જાત” કહે છે. એટલે કે ગણધરને તીર્થકર ભગવાનના વચને પ્રત્યે અપાર શ્રદ્ધા હોવી જોઈએ. (२) “ सत्य पुरुपजात"-छान साट २ हितरी उय छ, तनुं નામ જ સત્ય છે. જે પુરુષ જીવોના હિતનું ચિતવન કર્યા કરે છે તેને Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०६ सू०१ गणघरगुणनिरूपणम् यवचनश्च भवति । इति द्वितीयो भेदः । तथा-मेधात्रिपुरुषजातम्-धारणावतीबुद्धिर्मधा, सा वर्तते यस्य तत् मेवात्रिपुरुषजातम्-मेवायुक्तः पुरुषविशेषः । एवं प्रकारः पुरुषविशेषोऽन्यस्मात् झटिति श्रुतं गृहीत्वा शिष्यानध्यापयितु समर्थो भवति । यद्वा-'मेधावी' इत्यम्य मर्यादायां धावतीति निर्वचनम् । मर्शदायां गमनशीलः पुरुषविशेषो गणं मर्यादायां प्रवर्तयति । इति तृतीयः । तथा-बहुश्रुतंबहु-प्रभूतं श्रुतं-सूत्रार्थरूप आगमो यस्य तत्तथा, पुरुषनातं-पुरुषविशेषः । अधीतप्रभूतश्रुतः पुरुषविशेषः इत्यर्थः । अबहुश्रुतस्तु न कदापि गणस्य उपकारको भवति तदुक्तम् । गणधारक होता है, और आदेय वचनवाला होता है, यह द्वितीय भेद है, धारणावाली जो बुद्धि है, उसका नाम मेधा है, ऐसी खेधाले युक्त जो पुरुष विशेष होता है, वह मेधावि पुरुष जात है, ऐसा पुरुष विशेष शीघही दूसरोंसे श्रुतको ग्रहण कर शिष्यों को पढा देता है, यद्वा-" मेधावी" इसका अर्थ जो "मर्यादामें रहता है" ऐसा भी होता है, मर्यादा में गमनशील जो पुरुष विशेष होता है, वह गणको गणकी मर्यादाके अनुसार अच्छी तरहसे चला सकता है, ऐसा यह तृतीय स्थान है, जिसका सूत्ररूप एवं अर्थरूप आगम प्रभूत होना है, है, अर्थात् जिसे सूत्रार्थरूप आगमका विशेष ज्ञान होता है, ऐसा वह पुरुष विशेष बहुश्रुत पुरुषजात कहा गया है, क्योंकि जो अल्परूपसे श्रुतका ज्ञाता है, वह गणका उपकारक नहीं होता है। कहा भी हैસત્ય પુરુષ જાત' કહે છે. ગણધર આ પ્રકારને પુરુષ વિશેષ હવે જોઈએ, અને આદેય વચનેવાળો હે જોઈએ. (3) " मेधावि पुरुष जोत-धारावाजीर भुद्धि छ तेतुं नाम 'भधा' છે. એવી મેધાથી યુક્ત જે પુરુષવિશેષ હોય છે તેને મેધાવિ પુરુષ કહેવાય છે. એવો મેધાવિ પુરુષ અન્યની પાસેથી મૃતનું ગ્રહણ પણ વિશેષ ઝડપથી કરી શકે છે, અને શિષ્યાને ઝડપથી શ્રત જાણવી શકે છે. મેધાવી” એટલે મર્યાદામાં રહેનાર” એ અર્થ પણ થાય છે. જે પુરુષ પિતે મર્યાદાને પાલન કરનારો હોય છે, તે ગણુને પણ મર્યાદા અનુસાર સારી રીતે ચલાવી શકે છે. માટે જ ગણધર મેધાવિ હોવા જોઈએ. (૪) બહુશ્રુત પુરુષ જાત-જેનું સૂત્ર રૂપ અને અર્થ રૂપ આગમ પ્રભૂત ( વિશાળ) હોય છે એટલે કે જેને સૂત્રાર્થ રૂપ આગમનું વિશેષ જ્ઞાન હોય એવા પુરુષને બહુશ્રુત પુરુષ કહેવાય છે એવા બહુશ્રુત અણગર જ ગણધરના પદને માટે યોગ્ય ગણાય છે જેને કૃતનું અપજ્ઞાન હોય છે તે ગણન ઉપકારક થઈ શકતું નથી. કહ્યું પણ છે કે Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ स्थानशिसत्रे ___ "सीमाण कुणइ कह सो, तहाविहो हंद नाणमाईणं । अहियाहिय संपत्ति, संसारुच्छेयणि परमं ? ॥ १ ॥ छाया-शिष्याणां करोति कथं स तथाविधो हन्त ज्ञानादीनाम् । अधिकाधिकसम्पत्ति संसारोच्छेदनी परमाम् ? ||१॥ इति । तथा च-" कहं सो जयउ आीओ, कहं वा कुणउ अगीयनिस्साए । कई वा करेउ गच्छं, सबालबुट्टाउँलं सो उ ॥ १॥" छाया-कथं स यनतामगीन, कथं वा करीतु अगीतनिश्रायाम् । कथं वा करोतु गन्छ सवालछाकुलं स तु ॥ १ ॥ इति । । अयम:- भगीनाथः साधुः स्वपरोद्धरणार्थ कथं यतताम्=प्रयत्नवान् भवतु । अबहुश्रुतत्वात् स म्परोद्धरणो न कदापि समर्थो भवति । तथा-अगीतनिश्रायाम्पबहुश्रुतसाशेरधीनतायां वा कथं स्त्रोहरणार्थ प्रयत्न करोतु । अपहुश्रु. "सीसाण कुणइ कहें तो" इत्यादि । अल्पनुनका जाना होता है, वह ज्ञानादिकों की अधिकाधिक संप. त्तिको शिष्यजनों में उत्कृष्ट रूप से कैसे कर सकता है, तात्पर्य यह है, कि जो अल्पश्रुतधारी होता है, वह पुरुष शिपयजनों में ज्ञानादि रूप संपत्तिको अधिकाधिक रसपा कैले वृद्धि करता है, अर्थात् नहीं कर सकता है । तथा च-" कह लो जय अगीओ" इत्यादि। इसका अर्थ ऐलाहै, जो साधु अगीतार्थ होता है, वह स्त्र और परके उद्धार करने में प्रयत्नशाली कैसे हो सकता है, अर्थात् वह कदापि नहीं हो सकता है, क्योंकि वह अपहुश्रुतवाला होना इतथा-अबहुश्रुत साधुकी अधीनता रहा हुआ गण अपने उद्धार करने का प्रयत्न कैसे कर सकता है। अर्थात् कदापि वह आत्मोद्धार करने में प्रश्नवाला नहीं हो सकता " सीसाण कुणइ कह सो" त्याल અ૮૫ શ્રતનો જ્ઞાતા હોય એવો પુરુષ શિબેને જ્ઞાનાદિક સંપત્તિની અધિકાધિક પ્રાપ્તિ કેવી રીતે કરાવી શકે ! શ્રતનું વિશાળ જ્ઞાન ધરાવનાર પુરુષ જ શિવેને જ્ઞાનદિ રૂપ સંપત્તિની વધારેમાં વધારે પ્રાપ્તિ કરાવી શકે છે, માટે જ ગણધર બડુકૃતધારી હોવા જોઈએ. वणी-" कह सो जयउ अगीओ" त्याह જે સાધુ અગીતાર્થ હોય છે, તે પિતાને અને વરને ઉદ્ધાર કરાવવામાં પ્રયત્નશી કેવી રીતે થઈ શકે છે. એટલે કે તે તેમ કરવાને સમર્થ થત નથી. અપકૃત સાધુની અધીનતામાં રહેલે ગણ કદી પણ આત્મોદ્ધાર કરવાના કાર્યમાં પ્રયત્નશાળી થઈ શકતું નથી. અપકૃત સાધુના વચનેમાં Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९५ सुधा टीका स्था०६ १०१ मणघरगुणनिरूपणम् ताधीनो गणो न कदापि आत्मोद्धरणे समयों भवतीति । तथा-स गणाधिपोऽबहुश्रुतः साधुरतु कथं वा सवालहद्धाकुलं वालवृद्धयुक्तं गछं करोतु काय प्रवर्तयतु । अबहुश्रुतत्वात् तस्य वचने गणो न निष्ठावान् भवतीति तेन प्रेरितोऽपि गणः कार्य न प्रवर्तते । इति चतुर्थः । तथा-शक्तिमत्-शक्तिः शरीरादि सामर्थ्यरूपा, तद्युक्तं पुरुषजातं-पुरूपप्रकारः । एवंविध एव साधुरनेकविधापद्स्यो गण मात्मानं चोद्धत्तुं समर्थों भवति । इति पञ्चमः । तथा-अल्पाधिकरणम्-अल्पस्= अविद्यमानम् अधिकरणं स्वपरपक्षविषयः कलहो यस्य तत्तथाविधं पुरुपजातम् । ' अल्प' शब्दोऽत्र अभागर्थकः । एवविधः साधुरवर्तनया गणस्योपकारको है । तथा वह अबहुश्रुनवाला साधु अपने गणके बालवृद्ध साधुओं को अपने २ कार्य में कैसे प्रवृत्त करा सकता है। क्योंकि उसके वचन पर अबहुत होनेले गण निष्ठावान नहीं होती है, और न उसके द्वारा प्रेरित हुआ भी गण अपने कलव्य कार्यमें प्रवृत्ति कर सकता है। ऐसा यह चतुर्थ कारण है । तथा-जो शरीरादिकी सामर्थ्यरूप शक्तिसे संपन्न होता है, ऐसा वह पुरुष विशेषही अनेकविध आपत्तियोंले गणका और अपना निजका उद्धार करने में समर्थ होता है, ऐसा यह पांचयां स्थान है, अल्पाधिकरण यह छठा स्थान है, जिस साधुके स्वपर पक्ष विषयक कलह रूप अधिकरण अल्प-अविद्यमान है, ऐसा वह साधु विशेष अविद्यमान अधिकरण कहा गया है, यहाँ अल्प शब्द अभाव अर्थका कहनेवाला है, ऐसा अल्प अधिकरणाला साघु अनुवसनासे गणका उपकारक होता है, गुणी और गुणमें अभेद् सम्बन्ध मानकर ગણુને પુરતી શ્રદ્ધા પણ હોતી નથી. તે કારણે અપડ્યુત સાધુ ગણના આબાલ વૃદ્ધ સાધુઓને પિતાપિતાના કર્તવ્ય પાલનમાં પ્રવૃત્તી પણ કરી શકતું નથી. આ રીતે ગgધર બહુશ્રતધારી હોય તે જ ગણ તેમના વચને પર વિશ્વાસ મૂકીને તેમની આજ્ઞા પ્રમાણે પ્રવૃત્તિ કર્યા કરે છે. (૫) શક્તિમપુરુષ જાત-શારીરિક શક્તિ આદિથી સંપન્ન હોય એ પુરુષવિશેષ જ અનેક પ્રકારની આપત્તિઓમાથી ગણુનું અને પિતાનું રક્ષણ કરવાને સમર્થ હોય છે. (૬) અલ્પાધિકરણ પુરુષ જાત-જે સાધુમાં સ્વ પક્ષ અને પરપક્ષ વિષયક કલહ રૂપ અધિકરણ અલ્પ હોય છે, એવા સાધુને અહીં અલ્પ અધિક २पाणे ४छो छ. '६५' ५४ " मला" नुं पाय छे. सवो . અધિકરણવાળે સાધુ અનુવર્તના વડે ગણને ઉપકારક થાય છે. ગુણી અને Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ स्थानाङ्गसूत्रे भवति । इति षष्ठः । गुणगुणिनोर भेदोपचाराद् गुणी एवात्र गुणत्वेन निर्दिष्टः । अन्यथा तु अद्वित्वं सत्यत्वमित्यादि चूयादिति । अन्यत्र तु गणिनः रवरूपमेवमुक्तम् , तथाहि" सुत्तत्थे निम्माओ, पियदढधम्मोऽणुपत्तणाकुसलो । जाई कुठरांपन्नो, गंभीरो लद्विमंनो य ॥ १ ॥ संगद्वग्गहनिरओ, कय करणो परपणाणुरागी य । एवं विहोउ भणि भो, गगामी निगवरिंदेहि ।। २॥" छाया-त्रार्थे निर्मातः (कुश :) प्रिय हटवर्मोऽनुवर्तनाकुशलः । जातिकुलसंपन्नो गम्भीरो लधिमांश्च ॥ १ ॥ संग्रहोपग्रहनिरतः कृत करणः प्राचनानुरागी च । एवंविधस्तु भणितो गगस्वामी जिनपरेन्द्रैः ॥ २॥ इति ।मु० १॥ अभेइका उपचार कर-गुणीही यहां गुणरूप से प्रकट किया गया है, नहीं तो अद्वित्व सत्यत्व इत्यादि रूपसे सत्रकारको सूत्र में कहना चाहिये था । गणिका स्वरूप अन्यत्र ऐसा कहो गया है-"सुत्तत्थे नि. म्माओ" इत्यादि । जो सूत्र के अर्थ में कुशल अतिवाला होना है, जिनेन्द्र प्रतिपादित धर्ममें जिसको दृढता होती है, वह धर्म जिलको अपने प्राणों से भी अधिक प्यारा होता है, अनुवर्तनामें जो कुशल होता है, जाति झुलसे जो संपन्न होता है, गंभीर होता है लब्धिवाला होता है ॥१॥ संग्रह एवं उपग्रह (रक्षण) करने में जो निरत होता है, कृनकारण होता है, और प्रवचन का अनुरागी होता है, वही गगका स्वामी होना है, ऐसा जिनेन्द्र ने कहा है ॥२॥ मू० १ ॥ ગુગમાં અનેક સંબંધ માનીને અહીં ગુણીને જ ગુગરૂપે પ્રકટ કરવામાં આવેલ છે. જો આ પ્રકારને અર્થ ગણું કરવાનું ન તે , સત્યત્વ, ઈત્યાદિ રૂપે સૂત્રકારે કથન કરવું જોઈતું હતું. ગણિનું આ પ્રકારનું સ્વરૂપ ४ह्यु छ : " सुत्तत्ये निम्माओ" त्या જે સૂત્રના અર્થમાં કુશળ મતિવાળા હોય છે, જિનેન્દ્ર ભગવાન દ્વારા પ્રતિપાદિત ધર્મ પ્રત્યે જેને અવિચળ શ્રદ્ધા છે, જેને ધર્મ પ્રાણોથી પણ અધિક પ્યારે છે, અનુવર્તનામાં જે કુશળ હોય છે, જેઓ ઉત્તમ જાતિ અને કળથી સંપન્ન હોય છે, જેઓ ગંભીર હોય, લAિધારી હોય છે. સંગ્રહ અને ઉપગ્રહ (રક્ષણ) કરવામાં જે નિરત હોય છે, કૃતકરણ હોય છે અને પ્રવચન પ્રત્યે અનુરાગવાળા હોય છે, એવા સાધુ જ ગણુના સ્વામી ગણધર બનવાને ચગ્ય ગણાય છે, એવું જિનેન્દ્ર ભગવાને કહ્યું છે. જે સૂ. ૧ , Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०६ सू० २ जिनाशाया अविराधात्वनिरूपणम् २९७ इत्थं यगुणै गणधरतां साधको यान्ति, ते गुणाः प्रोक्ताः। संपत्येवंगुणवि. शिष्टगणधराज्ञायां वर्त पानो निग्रन्थो यैः स्थानः जिनाज्ञाविराधको न भवति तानि स्थानानि माह-- मूलम्--छहि ठाणेहिं निरगंथे निगथि गिण्हमाणे वा अवलं. बमाणे वा नाइकमइ,तं जहा-खित्तचित्तं; १, दित्तचित्तं, २ जक्खा. इटुं, ३ उम्मायपत्त, ४ उवसम्मपत्तं, ५, साहिगरणं ६ ॥सू०२॥ छाया-पड्भिः स्थान. निर्ग्रन्थो निग्रंन्यों गृह्णन् वा अवलम्बमानो वा नातिकामति, तद्यथा-क्षिप्तचित्तां १, हप्तचित्तां २, यक्षाविष्टाम् ३, उन्मादमाप्ताम् ४, उपसर्गमाप्ताम् ५, साधिकरणाम् ६ ॥ सू० २ ॥ टीका-'छहि ठाणेहिं ' इत्यादि अस्य सूत्रस्य व्याख्या पश्चमस्थानकस्य द्वितीयोद्देशे सप्तावशतिसत्रे गता तव एवावगम्या । नवरम्-ताधिकरणां कलह कुर्वतीम् ।। २ ॥ इस प्रकार जिन गुणोंसे साधु गणधरताको प्राप्त करते हैं, वे गुण कहे । अब सूत्रकार यह प्रकट करते हैं कि जो निबन्ध ऐसे गुण विशिष्ट गणधरकी आज्ञामें रहना है, वह जिन स्थानों द्वारा जिनकी आज्ञाका बिराधक नहीं होता है, वे स्थान ये हैं टीकार्थ-'छहिं ठाणेहिं निग्गंथे' इत्यादि न० २॥ इन ६ कारणोंको लेकर निर्गन्धों को अपने हाथसे ग्रहण करनेवाला या उसे अपने हाथों में उठानेवाला साधु जिन आज्ञाका विराधक नहीं होता है, वे कारण इस प्रकारसे हैं-क्षिप्तचित्ता १ दृप्तचित्ता २ यक्षाविष्टा ३ उन्मादप्राप्ता ४ उपसर्गमासा ५ और साधिकरणा ६ इस જે ગુણેને લીધે સાધુ ગણધર બની શકે છે, તે ગુણોનું કથન કરીને હવે સૂત્રકાર એ વાત પ્રકટ કરે છે કે જે નિર્ચ થ એવા ગુણેથી ચક્ત ગણધરની આજ્ઞામાં રહે છે, તે ક્યા સ્થાને દ્વારા (કયા સંજોગોમાં) જિનની माज्ञानी विराध थने नथी. "छदि ठाणेहि निरगंथे "त्याह ટીકાથ–નીચે બતાવેલાં ૬ કારણોને લીધે નિધીને (સાધ્વીજીને) પિતાના હાથ વડે સહારો આપનાર અથવા પિતાના હાથમાં ઉપાડી લેનાર સાધુ જિનેશ્વર ભગવાનની આજ્ઞાને વિરાધક ગણતો નથી. (१) क्षियित्ता, (२) ६यित्ता, (3) यक्षाविष्टा. (४) मा प्रासा, (५) G५स प्राता भने. (६) साधि४२५!, स्था०-३८ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थामास पुनरपि यैः स्थानः साधयो जिनाज्ञा नातिकामन्ति तानि स्थानानि माह मूलम्-छहि ठाणेहिं निगंथा निगंथीओ य साहम्मियं कालगयं समायरमाणा णाइक्कमति, तं जहा-अंतोहितो वा बहिणीणेमाणा १, बाहीहि तो वा निवाहिणीणेमाणा वा २, उबेहमाणा वा ३, उवासमाणा वा ४, अणुन्नवेसाणा वा ४, तुसिणीए वा संपवयमाणा ६ ॥ सू०३ ॥ छाया-पभिः स्थानः निग्रन्थाः निन्थ्यश्च साधर्मिक कालगत समाचरमागा नातिकामन्ति, तद्यथा-अन्तस्तो वा वहिनयन्तः १, वहिप्टो वा निर्बहिः नयन्तः २, उपेक्षमागा वा ३, उपासीना वा ४, अनुज्ञापयन्धो वा ५, तूणी या संप्रव्रजन्तः ॥ ० ३॥ टीका-'छहि ठाणे हि इत्यादि निम्न्या:-साधनो निन्थ्या साध्यो बा, उभये या पड्मिा स्थानः साध. मिकं समानधर्माणं साधु कालगतं समाचरन्तः-उत्थापनादि क्रियाविषयं कुर्वन्तो सबकी व्याख्या पांचवे स्थानके दितीय उद्देशे के २७ वे सूत्रमें की गई है, अतः यहीसे देख लेनी चाहिये। वहां पर पांच स्थानोंका वर्णन है, यहां" साधिकरणा" यह ६ वां स्थान है इसका अर्थ है 'कलह करती हुई '२॥ पुनश्च-साधु जिन स्थानों को लेकर जिनाजाका विराधक नहीं होता है, वे स्थान इस प्रकार से हैं यह प्रकट करते हुए सूत्रकार कहते हैं 'छहि ठाणेहिं निग्गंया निग्गंधीओ' इत्यादि ० ३ ॥ टीकार्य-निग्नन्ध साधु और निर्ग्रन्थ साध्वियां ये दोनों इन छह कारणोंसे પાચમા સ્થાનના બીજા ઉદ્દેશાના ર૭ માં સૂત્રમાં લિસચિત્તા આદિ પહેલાં પાંચ કારણેની સ્પષ્ટતા કરવામાં આવી ચુકી છે. તો ત્યાંથી તે વાંચી aa.७३ स्थान " साधि !" छ. तर म " सई ४२ती" थाय छे. એટલે કે કલહ કરતી સાધ્વીને હાથ પકડીને અથવા ઉપાડીને દૂર લઈ જનાર સાધુ જિનાજ્ઞાન વિરાધક ગાતો નથી | સૂ. ૨ | વળી–જે કારણોને લીધે જે જે સંજોગો ઉદ્ભવવાથી એક બીજાને સ્પર્શ કરનાર સાધુ સાધ્વીએ જિનાજ્ઞાના વિરોધક ગણતા નથી, તે કારણે हे सूत्रा२ ५४८ ४२ छ “ छहि ठाणेहि निगिया निग्गथीओ" त्याટીકાથ–સમાન ધર્મવાળા સાધુને કાળધર્મ પામેલા જાણીને તેની ઉત્થાપના, Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका त्या०६१ साबोजिनाबाऽवेराध त्वनिरूपणम् नांतिक्रामन्ति=जिनातां नोल्लङ्घयन्ति । तान्येव स्थानान्याह-तथा-अन्तस्तो वसतेराभ्यन्तराद् बहिबाह्यपदेशं नयन्तः पापयन्तो नातिकामन्ति जिनाज्ञामिति प्रथम स्थानम् । वा अथवा वहिष्टः सतेबहिः प्रदेशात निर्वहिः-नितरां बहिः निर्वहिः-बाह्यपदेशादपि वहिः-दूरप्रदेशं नयन्त इति द्वितीय स्थानम् । तथाउपेक्षमाणाः-विलापाधकरणरूपाम् उपेक्षां कुर्वतो वा, इति तृतीयं स्थानम् । उपासीना:-रात्रिनागरया तत्समीपे उपविश तो वा इति चतुर्थ स्थानम् । अनुज्ञासमान धर्मवाले लाघुको कालगत जानकर उसकी उत्थापनादिक निया विशेष करते हुए जिनाज्ञाका उलङ्घन नहीं करते हैं वे स्थान इस प्रकार हैं जब समान धर्मवाला कोई साधु कालगत हो जाता है, और वे जब उसे वसतिसे-उपाश्रयसे बाहर निकालते हैं, तो उस स्थिति में वे जिनाज्ञाकी विराधना करनेवाले नहीं होते हैं। ऐसा यह प्रथम स्थान है। दूसरा स्थान ऐसा है, कि उपायके वाल्व प्रदेशसे भी बहुत दूर तंक जब वे उसे ले जाते हैं, तब भी वे जिनाज्ञाकी विराधना करनेवाले नहीं होते हैं। तीसरा स्थान ऐसा है-सलाल धर्मवाले साधुके मरजाने पर जो वे दिलाप आदि क्रिया नहीं करते हैं। अथवा-उत्सर्ग से वे बिलकुल उपेक्षा भाव धारण कर लेते हैं, ऐसी स्थितिमें वे जिनाज्ञाके विराधक नहीं होते हैं। चतुर्थ कारण इस प्रकार से हैं, जब वह समान धर्मबाला साधु यदि रात्रि में मर जाता है, और वे यदि આ ક્રિયાવિશેષ કરતાં સાધુ અને સાધ્વીઓ નીચે દર્શાવ્યા મુજબ ' પ્રસંગમાં જિનાજ્ઞાના વિરોધક ગણાતા નથી. (૧) જ્યારે સમાન ધર્મવાળા કેઈ સાધુ કાળધર્મ પામે, ત્યારે તેમના શિબને ઉપાશ્રયમાંથી બહાર કાઢનાર સાધુ સાધ્વીઓને જિનાજ્ઞાની વિરાધના કરનારા ગણાતાં નથી, એવું આ પહેલું સ્થાન સમજવું. બીજું સ્થાન–ઉપાશ્રયની બહાર તે શું પણ ઉપાશ્રયથી દૂર દૂરના સ્થળે તેના શબને લઈ જનાર સાધુ સાધ્વીએ પણ જિનાજ્ઞાન વિરાધક ગણાતા નથી. ત્રીજું સ્થાન-સમાન ધર્મવાળા સાધુનું અવસાન થઈ જવાથી જેઓ વિલાપ આદિ કરતાં નથી–સંસારના સંબંધને અનિત્ય માનીને જેઓ આ પ્રસંગે પણ ઉપેક્ષાભાવ ધારણ કરી લે છે, એવા સાધુસાધ્વીઓ પણ જિના જ્ઞાની વિરાધના કરનારા ગણાતા નથી. ચોથું સ્થાન કેઈ સમાન ધર્મવાળો સાધુ રાત્રે અવસાન પામે, તે Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ૨૦૨ स्थानाङ्गसूत्रे वा, तं जहा जीवं वा अजीवं करितए १, अजीवं वा जीवं करिए २, एगलमणं वा दो भाषाओ भासित्तए ३, सयं कर्ड कम्मं वेदेसि वा मा वा वेदेमि ४, परमाणुपोग्गलं वा छिंदि - तर वा मिंदित्तए वा अगणिकाएण वा समोदहित्तए ५ बहिया लोगंतागमणयाए । सू० ५ ॥ छाया-पट् स्थानेषु सर्वजीयानां नास्ति ऋद्धिरिति वा द्युतिरिति वा यश इति वाचलमिति वा वीर्यमिति वा पुरुस्कार इति वा पराक्रम इति वा, तद्यथाजीवं वा अजीव कर्तुम् १, अनीवं ना जीवं कर्तुम् २, एकसमयेन द्वे भापे भाषि स्वयं कृतं वा कर्म वेदयाममा वा वेदयामि ४, परमाणुपुले वा छेतुं वा भेतुं वा अग्निकायेन वा समादग्धुम्र, वहि व लोकान्ताद् गमनाय३ || सू०५ ॥ टीका' छहिं ठाणेहि ' उत्पादि पट्नु स्थानेषु विषयेषु सीनीपानां सर्वज्ञ अस्थानां सकळजीवानां नास्ति छोंकी शक्ति ऐसी नहीं है, जो वे धर्मास्तिकाय आदिके त्रिष. में ज्ञान और दर्शन हो सके अतः इस शक्तिके असावे धर्मास्तापादिकको नहीं जानते हैं और न देखते हैं, ऐसा कहकर अब सूत्रकार जिन स्थानोंसे सम्हन जीवों के भी ऋद्रयादि शक्ति नहीं होती है ऐसे उन स्थानोंका कथन करते हैं 'छहि ठाणेहिं सवजीवाणं गत्थि' इत्यादि ५॥ टीकार्थ-छह स्थानोंमें विपद्य सिद्ध एवं संसारी इन मरून जीवों को ऋद्धि विभूति नहीं है, बुति-नान्ति-महात्म्य नहीं हैं, यश पराक्रमादि जनित प्रसिद्धि नहीं है, बल शारीरिक शक्ति नहीं है, वीर्य आत्मा शक्ति नहीं ધર્માસ્તિકાય આદિના વિષયમાં જાણવાની અને `ખવાની શક્તિ છદ્મસ્થ જીÀામાં હાતી નથી. તેઓ કેવળજ્ઞાનને અભાવે તેમને જાણી શકતા નથી અને કેવળઢશનને અભાવે તેમને દેખી શકતા નથી આ પ્રકારનું' કથન કરીને હવે સૂત્રકાર સમસ્ત જીવામાં જે જે ઋદ્ધિ અને શક્તિના અભાવ હાય છે તે અભાવનાં સ્થાનેા પ્રકટ કરે છે. "छहि ठाणेहिं सव्वजीवाणं णत्थि " इत्यादि ટીકા-નીચે દર્શાવેલા છ સ્થાનમાં(વિષયામ) સિદ્ધ અને સંસારી જીવાની ઋદ્ધિ, દ્યુતિ, મહાત્મ્ય, યશ, શારીરિક શક્તિ અને આત્મશક્તિ તથા પુરુષકાર અને પરાક્રમ, કાઇ પણુ રીતે ઉપયાગી નિવડતાં નથી. કહેવાનું તાત્પર્ય એ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टोका स्था० ६ सू०५ जीवाजीवकरणादिनिरूपणम् ऋद्धि-विभूतिः, ' इति ' वाक्यालङ्कारे 'वा' अथवाथै एवं सर्व त्रापि विज्ञेयम् । नास्ति द्युतिः कान्ति: महात्म्यम् , नास्ति यश-पराक्रमादिजनिता प्रसिद्धिः, नास्ति बल-शारीरिकशक्तिः, नास्ति वीर्यम् आत्मशक्तिः, नास्ति पुरुषकार:= पौरुपम् , नास्ति पराक्रमः-उत्साह इति । अयं भावः-वक्ष्यमाणेषु पट्सु स्थानेषु सिद्धसंसारिणः सर्वेऽपि प्राणिनः ऋद्धयादि शक्तिमन्तो न भवन्तीति । तान्येव स्थानानि प्राह-तद्यथा-जी वा अनीवं कर्तुम्-जीवमजीवत्वेन परिणतं कत न कोऽपि शक्नोतीति प्रथमं स्थानम् । एवम् अजीवं जीवं कर्तुं न कोऽपि शक्नोतीति द्वितीय स्थानम् । एकसमयेन द्वे मापे सत्यासत्यादिरूपां भाषाद्वयं भापितुं न कश्चित् शक्नोतीति तृतीय स्थानम् । स्वयंकृत-घोपार्जितं कर्म उदयावलिकायां प्रविष्टं सत 'वेदयामि मा वेदयामि' इति स्वेच्छया कश्चिद् वेदनम् अवेदनं वा कर्तुं न शक्नोति । अयं विशेषः-एतव्यं सर्वज्ञानामामोगनिवर्तितम् , अन्येपां है, पुरुषकार पौरुष नहीं है, और पराक्रम-उत्साह नहीं है, तात्पर्य यह है, कि इन छह स्थानों में समस्त जीव चाहे वे सिद्ध हो या संसारी हो ऋद्धयादि शक्तिवाले नहीं होते हैं, वे छह स्थान इस प्रकारसे हैं" जीव वा अजीवं कर्तुम् १" कोई भी जीव जीवको अजीव रूपसे करने की क्षमता (सामर्थ्य) आदि नहीं रखता है १ " अजीवं यो जीवं कर्तुम् ” कोई भी जीव अजीवको जीयरूपले परिणमानेकी क्षमता आदि नहीं रखता है" एक समयेन छे भाचे भाषितुम् " कोई भी जीव एक समय में सत्यासत्यादि रूप दो भाषाएँ बोल सके ऐसी क्षमता आदि नहीं रखता है, “ स्वयं कृतं वा कर्म वेद्यामि सा वा वेदयामि ४" कोई भी जीव ऐसा नहीं है, जो अपनी इच्छाके अनुसार स्वयं कृतकर्मका वेदन करें या नहीं करें ऐसी शक्तिवाला हो । तात्पर्य ऐसा છે કે જીવ ભલે સ સારી હોય કે સિદ્ધ હોય, પરંતુ નીચેના છ કાર્યો કર. વાને સમર્થ હોતે નથી–– (१) “जीव वा अजीव वा कर्तुम् " ५ मां ने म ४२वार्नु सामथ्य तु नथी. “ अजीव वा जीव कर्तुम् ” ४ प १ भने १ ३थे परिणभावाने समय नथी. (3) " एक समयेन द्वे भापे भाषितम" ५ ७१ मे समय सत्यासत्या ३५ मे भाषामा माली शवान समर्थ रात नथी. " स्वयं कृतं वा कर्म वेदयामि मा वा वेदयामि " ५ मा मेवी ऋद्धि खाती नथी ॐ पातानी २७॥ અનુસાર પિતાના કૃતકર્મનું વેદન કરે અથવા ન કરે. એટલે કે પિતાની ઇચ્છા Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानास्त्रे चानाभोगनितितं भवतीति । इति चतुर्थ स्थानम् । तथा न कश्चित् शक्नोति परमाणुपुटलं छेत्तुं-खगादिना द्विधा मर्तुम् , भेत्तुं सूच्यादिना विदारयितुं, अग्नि कायेन समादग्धं= प्रस्मसात् कर्तुं वेति पञ्चमं स्थानम् । तथा न कश्चित् शक्नोति लोकान्ताद् बहिर्गमनायेनि पष्टं स्थानम् ।। मू० ५ ॥ जीयम् अजीचं कर्नु मित्युक्तमिति जीवनस्तावामपनि तस्यैव पड़ भेदानाह मूलम्-छजीवनिकाया पण्णत्ता, तं जहा-पुढ विकाइया जाव तसकाइया ॥ सू० ६॥ छाया-पजीवनिकायाः प्रज्ञप्ताः, तयथा-पृथिवीकायिका यावत् त्रसकाविकाः ॥ मू० ६॥ है, कि अपनी इच्छाके अनुसार कृत कर्मका वेदन करना और कृतकार्य का बेदन नहीं करना ऐसी ऋद्धि आदिवाला कोई भी जीव नहीं है । सर्वज्ञके ये दो आभोग : निर्वर्तित होते हैं। ऐसा यह चतुर्थ स्थान है। पांचवां स्थान ऐसा है, कि कोई भी जीव ऐमी ऋद्धिः आदिवाला नहीं है, जो परमाणुपुद्गलको खड्ग आदि द्वारा टुकडे कर लके गा उसका सची आदि द्वारा विदारण कर सके या अग्नि द्वारा उसे जला सके तथा छठा स्थान ऐसा है, कि कोई भी जीव ऐसी ऋद्धि आदिवाला नहीं है, कि जो लोकान्त बाहर जानेके लिये समर्थ हो । स्व०५ ॥ जीवको अजीव करने के लिये कोई भी समर्थ नहीं है, इत्यादि जो ऊपरके मुत्रमें कहा है, सो इसी जीव प्रस्तावको लेकर अब सूत्रकार અનુસાર કુકર્મનું વેદન કરવું કે વેદન ન કરવું, એવી અદ્ધિ આદિવાળે કઈ જીવ હોતો નથી. આ બને સર્વસમાં આગ નિર્વર્તિત હોય છે, અને અન્ય જીમાં અનાગ નિર્વર્તિત હોય છે, એવું આ ચોથું સ્થાન સમજવું (પ) ઈ પણ જીવમાં એવી કદ્ધિ આદિને સદ્ભાવ હોતું નથી કે તે પરભણ પંદ્રલના ખડગ આદિ દ્વારા ટુકડા કરી શકે કે સેય આદિ દ્વારા તેને છેદી શકે, કે અગ્નિ દ્વારા તેને બાળી શકે (૬) કેઈ પણ જીવ એવી અદ્ધિ વાળ હતો નથી કે જે લોકાતની બહાર જઈ શકવાને સમર્થ હોય છેસૂ. ૫ ! આગલા સૂત્રમાં એ ઉલ્લેખ થયે છે કે “જીવને અજીવ કરવાને ફેઈ સમર્થ નથી. ” આ જીવના પ્રસ્તાવના અનુસંધાનમાં હવે તેના ૬ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०६ सू० ६ जीवाजीव करणादिषड्मेदनिरूपणम् ३०५ टीका- छज्जीवनिकाया' इत्यादि व्याख्या स्पष्टा । नारं निकायानां पविधत्वं प्रतिज्ञाय प विधत्वोपदर्शने निकायिनो यदुक्ताः, तत् समुदायसमुदायिनोरभेदत्वमाश्रित्य । नहि समुदायात् समुदायी व्यतिरिच्यते । इति ॥ सू० ६॥ जीवा एव कालगतास्तारकानहादिपूपपद्यन्ते, इति तारकाग्रहाणां पविध त्वमाह मूलम्-छ ताररगहा पण्णता, तं जहा-सुक्के १ बुहे २ बहस्सई ३ अंगारए ४ सनिच्चरे ५ केऊ ६ ॥ सू० ७ ॥ ___ छाया-नट ताराग्रहाः प्रज्ञताः, तद्यथा-शुक्रो १ बुधो २ वृहस्पतिः ३ अङ्गारकः ४ शनैश्चरः ५ केतुः ६ ॥ सू०७ ॥ उसीके ६ भेदोंका कथन करते हैं 'छज्जीवनिकाया पण्णत्ता' इत्यादि सूत्र ६॥ टीकार्थ-जीव निकाय ६ प्रकार के कहे गये हैं जैसे-पृथिवीकायिक १ यावत् प्रसकायिक ६ इस सूत्रकी व्याख्या स्पष्ट है। सूत्रकारने जो निकायोंमें षट् विधताकी प्रतिज्ञा करके जो उनके प्रदर्शनमें छ प्रकारके निकायी यहां प्रकट किये हैं सो समुदाय समुदायीमें अभेदका आश्रय करके उन्हें किया है, क्योंकि समुदायसे समुदायी भिन्न नहीं होता है ॥६॥ कालगत हुए जीवही तारकाग्रह आदिकोमें उत्पन्न होते हैं। अब सूत्रकार उनकी षट् विधताका कथन करते हैंભેદનું કથન કરવામાં આવે છે, टी-" छज्जीवनिकाया पण्णत्ता " त्याह જવનિકાય ૬ પ્રકરના કહો છે પૃથ્વીકાયથી લઈને ત્રસકાવિક પર્યન્તના ૬ પ્રકારે અહીં ગ્રહણ કરવા જોઈએ. આ સૂત્રને અર્થ સરળ છે. સૂત્રકારે નિકામાં છ પ્રકારના હેવાનું કથન કરીને, તેમના છ પ્રકાર પ્રકટ કરવાને બદલે નિકાના છ પ્રકારનું જે પ્રદર્શન કર્યું છે તે નિકાય (સમુદાય) અને નિકાયી (સમુદાયી) માં અભેદને આશ્રય લઈને કરવામાં આવ્યું છે, કારણ કે સમુદાયથી સમુદાયી ભિન્ન હેતું નથી. સૂ. ૬ - કાળધર્મ પામેલા છ જ તારા રૂપ રહે આદિકમાં ઉત્પન્ન થાય છે, તેથી હવે સૂત્રકાર તેમના છ પ્રકારનું કથન કરે છે. 'स्था०-३९ ___ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ . स्थानास्त्रे टीका-'छ तारगहा' इत्यादि- व्याख्या सुगमा । नवरम्-ताराग्रहाः तारारूपाग्रहाः। ग्रहा लोके नव मसिद्धाः। परन्तु चन्द्रादित्यराहूनामतारकारत्वात् पडेव ताराग्रहा वोध्या इति । अङ्गारको मङ्गलः ॥ सू० ७॥ - पूर्व ताराग्रहा उक्ताः, ते च संसार एव सन्तीति संसारिजीवानाह मूलम्-छविहा संसारसमापन्नगा जीवा पण्णत्ता, तं जहा-पुढविकाइया जाव तसकाइया । पुढविकाइया छगइया छआगइया पण्णत्ता, तं जहा-पुढविकाइए पुढविकाइएसु उववज्जमाणे पुढविकाइएहिंतो वा जाव तलकाइएहिंतोवा उववज्जेज्जा, सो चेव णं पुढधिकाइए पुढविकाइयत्तं विप्पजहमाणे पुढविकाइयत्ताए वा जाव तसकाइयत्ताए वा गच्छेज्जा। आउकाइयावि छ गइया छ आगइया । एवं चेव जाव तसकाइया ॥ सू० ८॥ 'छाया-पड्विधाः संसारसमापनका जीवाः प्रज्ञताः तद्यथा-पृथिवीकायिका यावत् त्रसकायिकाः । पृथिवीकायिकाः पड्गतिकाः पडागतिकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा 'छ तारग्गहा पण्णत्ता' इत्यादि स्मू० ७ ॥ तारा रूप ग्रह ६ प्रकारके कहे गये हैं जैसे-शुक्र १ वुध २ वृहस्पति ३ अंगारक (मंगल) ४ शनैश्चर ५ एवं केतु ६ । __ व्याख्या इसकी स्पष्ट है, लोकमें ग्रह नौ प्रसिद्ध हैं, परन्तु चन्द्र आदित्य राहु ये तारका रूप नहीं है, इसलिये ६ ही ताराग्रह हैं । अगा. रक नाम मंगलका है ।। सू० ७॥ “छ ताराग्गहा पण्णत्ता" इत्याहि. તારા રૂપ જે બ્રહે છે તેમના નીચે પ્રમાણે ૬ પ્રકાર કહા છે – (१) शु४, (२) सुध, (3) ४२५नि (गुरु), (४) म॥२४ (भ७) (५) शनैश्च२ ( शनि) मन (६) तु. આ સૂત્રની વ્યાખ્યા સરળ છે લોકમાં નવ ગ્રહ પ્રસિદ્ધ છે, પરંતુ ચન્દ્ર, સૂર્ય અને રાહુ, આ ત્રણ ગ્રહ તારા રૂપ નહીં હોવાથી અહીં તારા રૂ૫ ગ્રહ છ જ કહ્યા છે. મંગળના ગ્રહને અંગારક કહે છે કે સૂ. ૭ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०६ सू० ८ संसारजीव निरूपणम् ३०७ पृथिवीकायिकाः पृथिवीकायिकेषु उत्पधमानः पृथिवीकायिकेभ्यो वा यावत् त्रस. पापिकेभ्यो वा उत्पद्येत । स एव खलु पृथिवीकायिकः पृथिवीफायिकत्वं विम जहत् पृथिवीकायिकतया वा यावत् असकायिकतया वा गच्छेत् । अकायिका __ अपि षड्गतिकाः षडागतिकाः । एवमेव यावत् त्रसकायिकाः ॥ सू० ८॥ टीका-छविहा' इत्यादिसंसारसमापनका संसरणं पहिभ्रमणं संसार' नारकतिर्यग्नरामरभवेषु परिभ्रमणम्, तं सम्यक् एकीभावेन आपन्नाः पाप्ताः संसारसमापन्नाः, त एव संसारसमान्नकाः भववर्तिनो जीवा इत्यर्थः । ते व घविधाः प्रज्ञप्ताः कथिताः । पविधत्वमेवाहतद्यथा-पृथिवीकायिकाः पृथिवीकायिकजीवाः । यावत् त्रसकायिकाः । यावत्प ये ऊपरके सूत्रमें कहे गये ताराग्रह संसार में ही हैं, इसलिये अब सूत्रकार संसारी जीवोंका कथन करते हैं__ 'छबिहा संसार समापन्नगा' इत्यादि मू० ८॥ टीकार्थ-संसार समापनक जीव संसारी जीव छ प्रकारके कहे गये हैं, जैसेपृथिवीकायिक १ यावत् त्रसकायिक ६ इनमें जो पृथिवीकायिक जीव हैं वे षटू गतिक और षट् आगतिक हैं-जैसे-पृथिवीकायिकों में उत्पन्न हुआ पृथिवीकायिक जीव पृथिवीकायिकोले आकर पृथिवीकायिक रूपसे उत्पन्न हो सकता है, यावत् त्रसकायिकों से आकर पृथिवीकायिक रूपसे उत्पन्न हो सकता है, वही पृथिवीकायिक जीव पृथिवीकाधिक रूप अपनी अवस्थारूप पर्यायको छोडकर पुनः पृथिवीकायिक रूप से उत्पन्न हो सकता है, यावत् लकाधिक रूपसे उत्पन्न हो सकता है, આગલા સૂત્રમાં જે તારા રૂપ ગ્રહની વાત કરવામાં આવી છે, તેઓ સંસારમાં જ છે. તેથી હવે સૂત્રકાર સંસારી જીનું કથન કરે છે. टी-" छव्विहा संसारसमापन्नगा" त्या: સંસાર સમાપન્નક જી–સંસારી જી ૬ પ્રકારના કહ્યાં છે. પૃથ્વી કાયિકથી લઈને ત્રસકારિક પર્વતના ૬ પ્રકારે અહીં ગ્રહણ કરવા જોઈએ. જે પૃથ્વીકાયિક જીવે છે તેઓ ષટુ ગતિક (છ ગતિમાં ગમન કરનારા) અને ષટુ આગતિક (છ ગતિમાંથી પૃથ્વીક વિકેમાં ઉત્પન્ન થનારા) હોય છે જેમકે પૃથ્વીકાયિમાં ઉત્પન્ન થયેલે જીવ પૃથ્વીક યિક માંથી આવીને પૃથ્વી કાયિક રૂપે ઉત્પન્ન થઈ શકે છે, અને અપ્રકાયિક, વાયુ વિક, તેજસ્કાયિક, વનસ્પતિ કાયિક અને ત્રસકાયિકમાંથી આવીને પણ પૃથ્વીકાયિક રૂપે ઉત્પન્ન થઈ શકે છે. એ જ પૃથ્વીકાયિક જીવ પિતાની પૃથ્વીકાયિક અવસ્થા રૂપ પર્યાયને છોડીને ફરી પૃથ્વીકાયિકથી લઈને ત્રસકાયિક પતના છએ પ્રકારના જમાં ઉત્પન્ન Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'स्थानासूत्रे देन - अकायिक तेजस्कायिक वायु कायिकवनस्पतिकायिकाः संग्राह्याः । एतेषु प्रत्येकजीवः पङ्गतिकः पडागतिक भवति । तदेव दर्शयति- ' पुढविकाइया छग्गइया' इत्यादि - पृथिवीकायिका जीवाः पङ्गतिकाः - पट्ट्ट = पृथिवीकार्यिकादिषु पजीवनिकायेषु गतिः - गमनं येषां ते तथा = पटकायेषु गमनशीलः । पडागतिकाः- पद्भ्यो कायिकेभ्य आगतिः = आगमनं येषां ते तथाभूताश्च प्रज्ञप्ताः । तत्र पृथिवी कायिकानां पडागतिकत्वमाह - तद्यथा- पृथिवीकायिकेपु = पृथिवीकायिकानां मध्ये पृथिवीकायिक उत्पद्यमानः = पृथिवी कायिकत्वेन जायमानो जीवः पृथिवीकायिकेभ्यो वा यावत् सकायिकेभ्यो वा = पृथिवीकायिकादि यावत् इसी तरह से अपकायिक जीव भी पद् गतिक और पट् आगतिक कहे ये जानना चाहिये इसी तरहसे यावत् प्रकायिक भी जानना चाहिये + नारक तिर्यग् नर असर इन भवोंमें जो जीवका परिभ्रमण है, वह संसार है, इस संसारको जो एकी भावरूप से प्राप्त हैं वे संसार समापन्नक हैं, अर्थात् भववर्ती जो जीव में वे संसार समापन्नक हैं, ये पृथिवीकायिक जीवसे लेकर जसकाधिक जीव तक छह प्रकारके कहे गये हैं । यहां यावत् शब्द से " अपकायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक " इनका ग्रहण हुआ है, इनमें प्रत्येक जीव छह गतिवाला और छह आगतिवाला होता है, यही बात सूत्रकारने " पुढविकाइया छग्गहया " इत्यादि पाठ से प्रदर्शित की है, इसके द्वारा सूत्रकारने यह समझाया है, कि पृथिवीकामिक जीव पटू जीवनिकायो गमनशील होता है, अर्थात् वह पृथिवीकायिक पर्यायको छोडंથઈ શકે છે. એ જ પ્રમાણે અષ્ઠાયિક છત્રને પણ છ ગતિક અને છ ભાગ તિક સમજવા, એવું જ કથન ત્રમકાયિક પર્યન્તના જીવે વિષે પશુ સમજવું, ना२४, तिर्यय, मनुष्य भने देव, या भो ? परिभ्रम थाय छे, તેતુ' નામ જ સસાર છે. આ સસાર જેમણે પ્રાપ્ત કર્યાં છે એવાં જીવાને સ'સાર સમાપન્નક કહે છે. એટલે કે આ ચાર ગતિમાંની કેાઈ પણ ગતિમાં रद्धेला लत्रने अथवा पृथ्त्री अधिक, अडायिक, तेनस्सायिक, वायुट्ायिङ, वनસ્પતિકાયિક અને ત્રષકાયિક આ છ પ્રકારના છાને સ'સાર સમાપન્નક કહે છે. T ૩૦૮ પ્રત્યેક જીવ છ ગતિવાળા અને છ ગતિવાળા હાય છે એ જ વાત सूत्रारे " पुढविकाइया- छाइया ” ઈ યાદિ સૂત્રપાઠ દ્વારા પ્રદર્શિત કરી છે, તેના દ્વારા સૂત્રકારે એ સમજાવ્યું છે કે પૃથ્વિકાયિક જીવ છ નિકાયેામાં ગમનશીલ હોય છે, એટલે કે પૃથ્વિકાયિક પર્યાયને છેડીને श्री पृथ्वी Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था० ६ सु० ८ संसारजीवनिरूपणम् त्रसकायिकान्तानां मध्ये कुतश्चित् आगत्य उत्पधेत जायेत । इत्थं पडागतिकत्व. मुक्त्वा सम्पति षड्गतिकत्वमाह-से चेव णं' इत्यादिना । स एव खलु पृथिवीकायिकः यः पृथिवीकायिकादेः कुतश्चित् समागत्य पृथिवीकायिकस्वेन समु त्पन्नः स एव पृथिवीकायिको जीवः पृथिवीकायिकत्वं विप्रजहत् परित्यजत् पृथिवीकायिकतया वा यावत् त्रसफायिकतया वा गच्छेदिति । एवमेव अप्कायिकादि त्रसकायिकान्तानापि पडागतिकत्व पड्गतिकत्वं च वो व्यमिति ।।०८। कर पुनः पृथिवीकायिकमें उत्पन्न हो सकता है, अपकायिकमें उत्पन्न हो सकता है, तेजस्कायिको उत्पन्न हो सकता है, वायुकायिक उत्पन्न हो सकता है, बनस्पतिकायिक में उत्पन्न हो सकता है और त्रसकायिकमें भी उत्पन्न हो सकता है, इसी तरहले यह पृथिवीकायिकसे आकर पृधित्रीकायिकमें उत्पन्न हो सकता है, अप्कायिकले आकर पृथिवीकारिकमें उत्पन्न हो सकता है, यावत् प्रसकायिकसे आकर पृथिवीकाथिकलें उत्पन्न हो सकता है, इस प्रकोरसे छह गतिमें जाने का और छह गति से आने का कथन करके अब सूत्रकार अप्कायिक आदिकों में भी षद गति में जाने का और षट् गतिसे आनेका कथन इलो प्रकारसे कर लेना चाहिये ऐसा समझते हैं, इसमें जैसा कथन पृथिवीकायिकमें किया गया है, वैसाही कथन यहां पर भी कर लेना चाहिये और यह सब करन वसकायिक तक करना चाहिये । स०८॥ કાયિમાં પણ ઉત્પન્ન થઈ જાય છે, અથવા અપ્રકાયિમાં અથવા તેજસ્કાયિકમાં અથવા વાયુકાયિકમાં અથવા વનસ્પતિકાયિકમાં અથવા ત્રસાયિકમાં ઉત્પન્ન થઇ જાય છે. એ જ રીતે જીવ પૃશિવકાવિકમાંથી આવીને ફરી પૃથ્વીકાયિકમાં ઉત્પન્ન થઈ શકે છે, અપ્રકાયિકમાંથી આવીને પણ પૃથ્વીકાયિકમાં ઉત્પન્ન થઈ શકે છે, અને ત્રસકાયિક પર્વતની કઈ પણ પર્યાયમાંથી આવીને - પૃથ્વીકાયિકમાં ઉત્પન્ન થઈ શકે છે. આ પ્રકારે છ ગતિમાં જવાનું અને છે ગતિમાથી આવવાનું કથન કરીને હવે સૂત્રકાર અપૂકાયિક આદિમાંથી છે ગતિમાં જવાનું અને છ ગતિમાંથી અપૂકાયિક આદિકમાં આવવાનું કથન પણ - એ જ પ્રમાણે કરી લેવાનું સૂચન કરે છે. એટલે કે અપ્રકાયિકથી લઈને વસકાયિક પર્યન્તના જીવે પણ પિતાપિતાનું તે ગતિનું આયુષ્ય પૂરૂ કરીને પૃથ્વીકાયિકથી લઈને ત્રસકાયિક પર્યન્તના છએ પ્રકારના છમાં ઉત્પન્ન થઈ શકે છે. અને અપૂકાયિકમાં પૃથ્વીકાયિક આદિ છએ પ્રકારના છની આગતિ થઈ શકે છે એ જ પ્રમાણે ત્રસકાયિક પર્યતન ની ગતિ અને આગતિ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० स्थानास्ने सम्प्रति प्रकारत्रयेण सर्वजीवानां पइविधत्वमाह-- मूला-छविहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा-आमिणिबोहियणाणी जाव केवलणाणी अन्नाणी । अहवा छव्विहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा-एनिंदिया जाय पंचिं दिया अणिदिया । अहवा छविहा सव्व जीवा पणत्ता, तं जहा-ओरालियसरीरी, १ वेउत्रियसरीरी २, आहारगलरीरी, ३, तेयगसरीरी, ४ कम्मगसरीरी, ५ असरीरी ६ ॥ सू० ९॥ छाया-पधिधाः सर्वजीवाः प्रमाः, तथया-आमिनिबोधिज्ञानी यावत् केवलज्ञानी अज्ञानी । अथवा पइविधाः सर्वजीवाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-एकेन्द्रियाः यावत् पश्चेन्द्रिया अनिन्द्रियाः । अथवा पडविधाः सर्वजीवाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-औदारिकशरीरी १ वैक्रियशरीरी २ आहारकशरीरी ३, तेजसशरीरी, ४ कर्मजशरीरी, ५ अशरीरी ६ ॥ ०९॥ टोका' छबिहा' इत्यादिव्याख्या रपटा । नवरम्-अन प्रथमे प्रकारे पष्ठे भेदे ये अज्ञानिना= अब सूत्रकार तीनप्रकार समस्त जीवों में छह प्रकारका कथन करते हैं छबिहा लब्धजीवा पण्णता इत्यादि सू०९॥ समस्त जीव छह प्रकार के कहे गये हैं-जैसे-आभिनि योधिकज्ञानी यावत् केवलज्ञानी और अज्ञानी अथवा-इस प्रकारसे भी समस्त जीव छह प्रकार के कहे गये हैं-जैसे-औदारिक शरीरी १ वैक्रिय शरीरी २ आहारक शरीरी ३ तैजस शरीरी ४ कार्मण शरीरी ५ और अशरीरी ६ વિષે પણ સમજવું સૂ. ૮ | હવે સૂત્રકાર ત્રણ રીતે સમસ્ત જીવેના છ પ્રકારનું કથન કરે છે– " छबिहा सव्वजीवा पण्णता"या: સમસ્ત સંસારી જીના છ પ્રકારે પડે છે. જેમકે આમિનિબે ધિક સાનીથી કેવળજ્ઞાની પર્યંતના પાંચ પ્રકારો અને (૬) અજ્ઞાની. અથવા સમસ્ત જીવોને આ પ્રમાણે ૬ પ્રકાર પણ પડે છે–(૧) દરિક શરીણી, (૨) વકિલ शरी, (3) 48.२४ शरी, (४) ते शरीरी, ५ मा २१३ मन (6) अशी અહીં પહેલી રીતે જે ૬ ભેદો પાડવામાં આવ્યા છે, તેમાના જે અજ્ઞાની Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०६ सू० ८ संसारजीवनिरूपणम् मिथ्यात्वोपहतज्ञानास्ते देशाज्ञानि सर्वाज्ञानिभाषाज्ञानिभेदात् त्रिविधा वोध्याः। द्वितीये प्रकारे षष्ठे भेदे ये अनिन्द्रियास्ते अपर्याप्ताः, उपयोगतः केवलिना, सिद्धाश्चेति त्रिविधा वोध्याः । तृतीये प्रकारे तैजसशरीरी धर्मजशरीरी च प्रोक्तौ, तत्रेदं बोध्यम्-ननु यत्र तैजसशरीरं तत्र कार्मणशरीरमपि भवति, उभयोनियमेन साहचर्यात् । एवं च तेजसशरीरी कार्मणशरीरी वा एकएव कश्चित् शरीरी निर्देलु शक्यते, न तु द्वयमिति चेव आह, यद्यपि तैजसकार्मणशरीरयोरेकजीवाश्रितत्वेन तद्वयशरीरान्यतरशरीराश्रितत्वेन एकएव शरीरी निर्देश्यरतथापि शरीरभेदात् शरीरी अपि भेदेन निर्दिष्ट इति । अशरीरीत्वत्र सिद्ध इति ॥ सु० ९॥ यहां प्रथम प्रकार के ६ भेदमें जो अज्ञानी लिथ्यात्वसे उपहत ज्ञानवाले कहे गये हैं, वे देशाज्ञानी, सर्वाज्ञानी और भावज्ञानीके भेदसे तीन प्रकारके होते हैं, द्वितीय प्रकार में जो छठा भेद है, वे अपर्याप्त उपयोगसे केवली और सिद्धके भेदसे ३ प्रकारके होते हैं, तृतीय प्रका. रमें जो तेजस शरीरी एवं कर्मण शरीरी कहे गये हैं, तो इस विषयमें कोई ऐसी आशंका कर सकता है, कि जहां तैजस शरीर होता है, वहां कामण शरीर भी होता है, क्योंकि इन दोनोंका नियमसे साहचर्य सम्बन्ध है, इस तहहसे या तो तैजस शरीरीही कहना था या कामण शरीरीही कहना था, एकही कोई कहना था, दोनोंको नहीं कहना था, सो इसका उत्तर ऐसा है, कि बात तो ठीक है, पर यहां जो इस प्रकारसे निर्देश हुआ है, वह इस बातको प्रकट करनेके लिये निर्दिष्ट મિથ્યાત્વથી ઉપહત જ્ઞાનવાળા જે કદા છે, તેમના દેશજ્ઞાની, સર્વીજ્ઞાની અને ભાવાજ્ઞાની નામના ત્રણ ભેદ છે. બીજી રીતે જે છ ભેદ બતાવ્યા છે, તેમાંના છઠ્ઠા ભેદવાળા જીના નીચે પ્રમાણે ત્રણ પ્રકાર પણ પડે છે– (१) अपर्याप्त, (२) 6पयागनी अपेक्षा वली मन (3) सिद्ध બીજી રીતે સમસ્ત જીવના જે છ દે બતાવવામાં આવ્યા છે, તેમાં તેજસ શરીરી અને કાશ્મણ શરીરી નામના જે બે અલગ ભેદ પાડવામાં આવ્યા છે, તેથી કેઇને એવી આશંકા થાય કે “ જ્યાં તેજસ શરીરનો સદુભાવ જ હોય છે, ત્યાં કામણ શરીરને પણ સદૂભાવ જ હોય છે. કારણ કે તે બન્નેને નિયમથી જ સાહચર્ય સંબંધ છે. આ પ્રકારની પરિસ્થિતિમાં કાં તે તેજસ શરીરી નામનો અથવા તે કાર્પણ શરીરી નામને એક જ પ્રકાર કહેવા જોઈતા હતે. બનેના અલગ અલગ પ્રકાર બતાવવાની આવશ્યકતા ન હતી. આ શંકાનું સમાધાન નીચે પ્રમાણે કરી શકાય–અહીં જે આ પ્રકારે નિર્દેશ થયે છે તે એ વાતને પ્રકટ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानानसूत्रे ... एकेन्द्रियभेदेनोक्तस्य वनस्पतेर्वादरभेदस्य पविधत्वमाह मूलम्-छन्विहा तगवणस्सइकाइया पण्णत्ता, तं जहाअरगबीया १, मूलबीया २, पोरबीया ३, खंधबीया ४, बीयरुहा ५, संमुच्छिमा ६ ॥ सू० १०॥ छाया---एडविधाः तृणवनस्पतिकायिकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-अग्रवीजाः १, मूलवीजाः २, पर्वबीजाः ३, स्कन्धवीजाः ४, वीनरुहाः ५, सच्छिमाः ६ ।। सू० १० ॥ टीमा--'छविहा' इत्यादि-- गानस्पतिकायिकाः-तृणरूपा बादररूपा ये वनस्पतिकायिका जीवाः सन्ति ते अग्रगीमादिभेदैः पविधा वोध्याः । तत्र-अग्रवीजा:-करण्टकादयः १। मृलजीजाः-उत्पल फन्दादयः २। पर्यवीजा:-क्षुवंशादयः ३। स्कन्धवीजाः शल्लहुआ है कि शरीरके भेदले शरीरीमें भेद होता है। अशरीरीसे यहां सिद्ध गृहीत हुए हैं। स्०९।।। एकेन्द्रियके भदसे उक्त जो वनस्पति हैं सूक्ष्म और चादरके भेदसे दो प्रकारके होते है, इनमें जो बादर वनस्पति हैं, वे छह प्रसारके हैं, यही बात अब सूत्रकार प्रकट करते हैं 'छवियहा तणवणस्पहकाइया पणता इत्यादि स० १०॥ टीकार्थ-तृणरूप-चादर रूप जो वनस्पतिकायिक हैं, वे अग्रवीजादिके भदले ६ प्रकारके कहे गये हैं। इनमें जो करण्टक आदि हैं, वे अग्रबीज वनस्पतिकायिक हैं, उत्पल फन्दादिक मूलबीज वनस्पतिकायिक हैं । इक्षु र्वाश आदि पर्वबीज वनस्पतिकायिक हैं, शल्लकी आदिक કરવા માટે થયો છે કે શરીરના ભેદને કારણે શરીરમાં પણ ભેદ સંભવી શકે છે આ સૂત્રમાં સિદ્ધ જીને અશરીરી રૂપે ગ્રહણુ કરવામાં આવ્યા છે. જે સૂ. ૯ એકેન્દ્રિયના ભેદ રૂપ જે વનસ્પતિકાયિક જીવે છે, તેમના સૂકમ અને બાદર નામના બે પ્રકારે છે. તેમાંથી બાદર વનસ્પતિના ૬ ભેદે પડે છે. એ જ વાત હવે સૂત્રકાર પ્રકટ કરે છે. "छविहा तणवणस्सइकाइया पण्णता" त्याह તુણરૂપ-બાદર રૂપ જે વનસ્પતિકાયિક છે તેમના નીચે પ્રમાણે છ ભેદ yal -(१) समी-४२८४ माहि मी वनस्पतिशायि छे. (२) મલબીજ-ઉત્પન્ન કન્ટાદિક મૂલબીજ વનસ્પતિકાયિક છે. (૩) પર્વબીજ–શેરડી વાંસ આદિ પર્વવીજ વનસ્પતિકાયિક છે. (૪) સ્કબીજ-શલકી આદિ. સ્કન્ધ બીજ વનસ્પતિકાયિક છે. (૫) બીજરૂહ-વડ આદિ બીજરૂહ વનસ્પતિકાયિક છે. Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०६ सू०११ जीवानां दुर्लभपर्याय विशेषनिरूपणम् ३१३ क्यादयः ४ | बीजरुहाः - चटादयः ५ सम्मूर्च्छिमाः दग्धभूमौ असत्यपि बीजे ये प्ररोहन्ति ते ६ || सू० १० ॥ अनन्तरसूत्रेषु जीवाः मरूपिताः । सम्प्रति तेषामेत्र जीवानां ये पर्यायविशेषा दुर्लभास्तानाइ -- मूलम् - छट्टाणाई सवजीवाणं णो सुलभाई भवंति, तं जहा-माणुस भत्रे १, आयरिए खित्ते जम्मं २, सुकुले पच्चाथाई ३, केवलिपन्नत्तस्स धम्मस्स सवणया ४, सुयस्स वा सद्दहणया ५, सद्दहियस्स वा पत्तियस्स वा रोइयरस वा सम्मं कारणं फासणया ६ ।। सू० ११ ॥ छाया -- पट्ट् स्थानानि सर्वजीवानां नो सुलभानि भवन्ति, तद्यथा - मानु sant भवः १, आर्ये क्षेत्रे जन्म २, सुकुले प्रत्यायातिः ३. केवलिमज्ञसस्य धर्मस्य श्रवणता ४, श्रुतस्य वा श्रद्धानता ५, श्रद्धितस्य वा प्रतीतस्य वा रोचितस्य वा सम्यक् कायेन स्पर्शनता ६ ॥ सू० ११ ॥ स्कन्दपीज वनस्पतिकायिक हैं। वट आदि बीजरुह वनस्पतिकायिक हैं और जो जली हुई भूमिमें पीजके अभाव में उत्पन्न होजाते हैं वे सम्मूच्छिम वनस्पतिकायिक हैं अब सूत्रकार इस बातको प्रकट करते हैं, कि जीवोंको ये २ पर्याय विशेष दुर्लभ हैं- 'छाणाई सब्वजीवाणं' इत्यादि सू० ११ ॥ समस्त जीवोंके ये छह पर्यायें रूप स्थान सुलभ नहीं हैं वे इस प्रकार से हैं मनुष्य व १ आर्यक्षेत्र में जन्म २ सुकुल में जन्म ३ केवलि प्रज्ञप्त धर्म की श्रवणता : अतका श्रद्वान ५ एव श्रद्धा के विषयभूत अथवा प्रतीतिके विषयभूत अथवा रुचिके विषयभूत पदार्थकी अच्छी (૧) ક્રમ્બૂદ્ધિમ-દગ્ધભૂમિમાં ખીજના અભાવમાં પશુ જે ઉત્પન્ન થઈ જાય છે તેને સમ્બૂદ્ધિમ વનસ્પતિકાયિક કહે છે ! સૂ. ૧૦ ॥ હવે સૂત્રકાર એ વાત પ્રકટ કરે છે કે જીત્રને કઈ કઈ પર્યાયવિશેષાની आप्ति हुन्छे" छठाणाइ सव्त्रजीवाणं " इत्यादि સમસ્ત જીવેને માટે આ છ પર્યાય રૂપ સ્થાનની પ્રાપ્તિ દુલ્હા गाय छे – (१) मनुष्य अव, (२) सुमुक्षसां न्भ, ( 3 ) आार्यक्षेत्रमां भ (४) ठेवतीयज्ञस धर्मनु श्रवणु, (4) श्रुत अत्ये श्रद्धा, (१) श्रद्धाना विषयभूत અથવા પ્રતીતિના વિષયભૂત અથવા રુચિના વિષયભૂત પાની કાયા વડે स्था०-४० Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानानस टीका-'छठाणाई' इत्यादि-- पट स्थानानि सर्वजीवानां मुलभानि नो भवन्ति कानि तानि स्थानानि ? इत्याह-तद्यथा-मानुष्यको-मनुष्यसम्बन्धी भयो-जन्म न सुलमो भवति । तदुक्तम् " 'ननु पुनरिदमतिदुर्लभमगाधसंसारजलधिविनष्टम् । मानुष्यं खद्योतकतडिल्लताविलसितप्रतिभम् " ॥ १ ॥ इति । इति पथमं स्थानम् । -तथा-आर्य क्षेत्रे अपविशतिजनपदरूपे जन्म-उत्पत्तिः मुलभं न भवति। तदुक्तम्-- " सत्यपि च मानुपत्वे, दुर्लभतरमार्यभूमिसंभवनम् । ___यस्मिन् धर्माचरणपणत्वं माप्नुयात् पाणी" ॥१॥ इति । इति द्वितीय स्थानम् । तरहसे कायसे स्पर्शवत्ता व मनुष्यभव तुलभ नहीं होता है, यह पात इस प्रकारले प्रकट की गई है-" ननु पुनरिदप्रति दुर्लभम्" इत्यादि । जिस प्रकारले अगाध संसार समुद्र में पतित हुए रलका पुन: मिलना अति दुर्लभ है, इसी प्रकार से प्राप्त किये गये इस मनुष्यजन्मका नष्ट हो जाने पर पुनः मिलना भी बडा दुर्लभ है, यह मनुष्यजन्म खद्योत और वितत्की चमकके जैसा देखते २ नष्ट हो जाता है, आर्यक्षेत्र में जन्म मिलना स्तुलन नहीं है, सो इस विषयमें ऐसा समझाया गया है-" सत्यपि च मानुषत्वे " इत्यादि । मनुष्य जन्मके मिल जाने पर भी आये भूमि में जन्म धारण करना इस जीवको महाकुलभ है, क्योंकि इस जीयको धर्माचरण करनेमें સારી રીતે સ્પર્શના. મનુષ્યભવની પ્રાપ્તિ સુલભ નથી, એ વાતનું નીચેની गाथा वारा प्रतिपाहन ४२वामा मान्छे : " ननु पुनरिमतिदुर्लभ" त्यात જેમ અગાધ સમુદ્રમાં પડી ગયેલા રતનની ફરીથી પ્રાપ્તિ થવી દુર્લભ ગણાય છે, એ જ પ્રમાણે પ્રાપ્ત થયેલા આ મનુષ્ય જન્મને વ્યર્થ ગુમાવી બેસવાથી કરી તેની પ્રાપ્તિ થવી ઘણી જ દુર્લભ ગણાય છે. આગિયા અને વિજળીની ચમક જેમ જેન જોતામાં નષ્ટ થઈ જાય છે, તેમ મનુષ્ય જન્મ પણ જોતજોતામાં નષ્ટ થઈ જાય છે. આર્યક્ષેત્રમાં જન્મ થ, તે પણ દુર્લભ છે. આ વાત નીચેના સૂત્ર । पुष्ट ४२१ मावी छे " सत्यपि च मानुपत्वे" त्याह કદાચ મનુષ્ય જન્મ મળી જાય, તે પણ આર્યભૂમિમાં જન્મ ધારણ કરવાનું તો આ જીવને માટે ઘણું જ દુર્લભ ગણાય છે, કારણ કે ધર્માચરણ - (१) ननु-निश्चये। Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुघाटीका स्था. ६ ₹१० ११ जीवानां दुर्लभपर्याय विशेषनिरूपणम् ફળ तथा - सुकु = ऐक्ष्वाकादौ कुले प्रत्यायातिः जन्म सुलभा न भवति । उक्तंच" कार्यक्षेत्रोत्पस, सत्यामपि सत्कुलं न सुलभं स्यात् । सच्चरणगुणमणीनां, पात्र प्राणी भवति यत्र ॥ १ ॥ " इति । इति तृतीयं स्थानम् । तथा -- केवलिमाप्तस्य तीर्थकर प्ररूपित्तस्य श्रवणता - श्रवणं न सुलभा भवति । तदुक्तम्- 44 धर्मस्य श्रवचारित्रलक्षणस्य सुलहा सुरलोग सिरी, रयणायरमेहला मदी सुलहा | निकुइहजणियक, जिणवयण सुईजए दुलहा || १ | " छाया -- सुलभा सुरलोकश्रीः, रत्नाकरमेखळा सही सुलभा । निति सुखजनितरुचि निवचनश्रुतिर्जगति दुर्लभा ॥१॥ इति । इति चतुर्थ स्थानम् । प्रवीणता इस आर्य क्षेत्र में ही प्राप्त होती है, आर्यक्षेत्र में २५ || क्षेत्रही कहे गये हैं । ऐचाकु आदि कुलमें जन्म लेना सुलभ नहीं है, सो इसके लिये ऐसा कहा गया है-" आर्यक्षेत्रोत्पत्ती " इत्यादि । जीवको मनुष्य की प्राप्ति हो जाने पर और आर्य क्षेत्रमें जन्ममिल जाने पर भी ऐक्ष्वाकु आदि सत्कुल में (उत्तम) जन्म मिलना सुलभ नहीं है- क्योंकि सम्यक् चारित्र रूपी गुण मणियोंका पात्र यह जीव सत्कुलमेंही बनता है, केवल प्रज्ञप्त - तीर्थंकर कथित श्रुतचरित्र रूप धर्मका सुनना महादुर्लभ है - सो कहा है "1 सुलहा सुरलोगसिरी " इत्यादि । देवलोकी लक्ष्मीका मिलना सुलभ है, जिसका मध्यभाग रत्नोंकी खनिसे भरा पडा हो ऐसी भूमिका मिल जाना भी सुलभ है, परन्तु કરવાની પ્રવીણતાની પ્રાપ્તિ તે આ ક્ષેત્રમાં જ થાય છે. એવા આ ક્ષેત્ર ૨૫૫૫ કહ્યાં છે. અક્ષ્વાકુ આદિ કુળમાં જન્મ થવા, તે પણુ સુલભ નથી. કહ્યું પણ छे" आर्यक्षेत्रोत्पत्तौ ” इत्यादि જીત્રને કદાચ મનુષ્ય ભવ પણ મળી જાય, આ ક્ષેત્ર પણ મળી જાય, છતાં પણ અવાકુ અહિ સત્કલમાં જન્મ થવે સુભ નથી, સત્કલમાં જન્મેલે જીવ જ સમ્યક્ ચારિત્ર રૂપ મણિએને પાત્ર મને છે. કેવલી પ્રજ્ઞસ—તી કર પ્રરૂપિત શ્રુત ચારિત્ર રૂપ ધર્મોનું શ્રવણ તા તેથી પણ વધુ દુલ ભ ગણાય છે. કહ્યું પણ છે કે “ सुलहा सुर लोग सिरी " त्याहि દેવલાકની લક્ષ્મીની પ્રાપ્તિ સુલભ ગણાય છે, રત્નાથી ભરપૂર ભૂમિભાગ (ખાણુ) ની પ્રાપ્તિ પશુ સુલભ ગણાય છે, પરન્તુ જીવને મુક્તિના સુખમાં Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩૬ स्थानाङ्गसूत्रे तथा -- श्रुतस्य श्रद्धानं न सुलभं भवति । अयं भावः - केवलिप्ते धर्मे श्रुतेऽपि तत्र श्रद्धा दुर्लभा भवतीति । तदुक्तम्- 66 भाइच सुवर्ण लड, सद्धा परमदुह्रदा । सोधा नेयाज्यं मग्गं, वहवे परिभस्लइ || १ || " छाया -- कदाचित् श्रवणं लब्ध्वा श्रद्धा परमदुर्लभा । aar (अपि) नैयायिक मार्गे वदत्रः परिभ्रश्यन्ति ॥ १ ॥ इति । इति पञ्चमं स्थानम् । तथा -- श्रद्धितस्य - सामान्येन श्रद्धाविषयीकृतस्य, वा अथवा प्रतीतस्य = उपपत्तिभिः प्रत्ययविपयीकृतस्य, वा=अथवा रोचितस्य = रुचिविपयी कृतस्य श्रुतस्य सम्यक्=याथातथ्येन कायेन शरीरेण स्पर्शनता - स्पर्शनम् आचरण सुलभा न भवति मनोरथमात्रेण अविरतवत् स्पर्शनं तु सुलभमेव । " इस जीवको मुक्ति सुखमें रुचिको उत्पन्न करनेवाले जिन वचनको सुनना महा दुर्लभ है | अनका श्रद्वान होना अर्थात् जिन वचनके ऊपर जीव की प्रतीतिका जगना घडा ही दुर्लभ है - केवलि प्रज्ञप्त धर्मके सुनने पर भी उस पर श्रद्धा होना महादुर्लभ है । कहा भी है- 'आहच्च सचणं लध्धुं " इत्यादि । जिन प्रणीत वचनको सुनकर भी उस पर श्रद्धाका होना जीवके लिये बड़ा कठिन है, क्योंकि जीव न्याया नुकूल मार्ग से भ्रष्ट हो जाते हैं । तथा जो अत सामान्य से श्रद्धाका विषय भी बनाया गया हो, अथवा -युक्ति आदिकोंसे जो अतज्ञानका भी विषय बनाया गया हो अथवा रुचिका विषय भी बनाया गया हो परन्तु शरीर से सम्यक् રુચિ ઉત્પન્ન કરાવનાર જિનવચનના શ્રવણને લાભ પ્રાપ્ત થવા અતિ દુર્લભ ગણાય છે. કદાચ જીવને કેવલી પ્રજ્ઞમ ધર્મના શ્રવણુની પણ તક મળી જાય, પરન્તુ કેવલી ભગવાનનાં વચના પ્રત્યે શ્રદ્ધા જાગૃત થવી, રુચિ ઉત્પન્ન થવી અને તેની પ્રતીતિ થવી ઘણી દુર્લભ છે. કહ્યું' પણ છે કે 61 आइच्च सवणं लद्धुं ” ईत्याहि-दिन प्रथित वयनानुं श्रवणु श्वा છતાં પણ જીવને તે વચના પ્રત્યે શ્રદ્ધા ઉત્પન્ન થવી ઘણી મુશ્કેલ છે, કારણ કે જીવ ન્યાયાનુકૂલ માર્ગથી ભ્રષ્ટ થઈ જાય છે. કદાચ એવું પણુ ખની શકે કે જીવને કેવલી પ્રજ્ઞપ્ત વચનામાં શ્રદ્ધા ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. અથવા યુક્તિ આર્દિક દ્વારા તેને જ્ઞાનના વિષય પણ બનાવવામાં આાવે છે, અથવા રુચિના વિષય પણ મનાવવામાં આવે છે, પરતુ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा का स्था०६ सू०११ जीवानां दुर्लभपर्यायविशेषनिरूपणम् ३९७ उक्तंच-" धम्मं पि हु सदहतया, दुल्लहया कारण फासया । इयकामगुणेढि मुच्छिया, समयं गोयम ! मा पमायए ॥१॥" छाया--धर्ममपि श्रद्दधत्का:, दुर्लभाः कायेन स्पर्शकाः ।। इति कामगुणेषु मूच्छिताः, समयं गौतम । मा प्रमादीः ॥१॥ इति । इति षष्ठं स्थानम् । प्रमादादिषु व्यापृता एव प्राणिनोदुर्लभमनुष्यभवका भवन्ति, नत्वन्ये । यतो मनुष्यभवमाश्रित्य उक्तपपि-- " एयं पुण एवं खलु, अनाणपमायदोसओ नेयं । जं दीहा कायठिई, भणिया एगिदियादीणं ॥ १॥ एसा य असइ दोसा सेवणो धम्मवज्जचित्ताणं । ता धम्मे जइयत्वं, सम्मं सइ धीरपुरिसेहि ॥ २॥" छाया--एतत् पुनरेवं खलु अज्ञान ममाददोपतो ज्ञेयम् । ___ यद् दीर्घा कायस्थितिः भणिता एकेन्द्रियादीनाम् ॥ १॥ रूपमें उसकी स्पर्शना करना तो इस जीवको महा दुर्लभ है, अविरत की तरह मनोरथ भाषले स्पर्शना तो सुलभ है सोही कहा है " धम्मपि हु सतया" इत्यादि। हे गौतम ! धर्म की श्रद्वा करनेवाले जीव ऐसे दुर्लभ है, जो उसके कथनके अनुसार अपनी प्रवृत्तिको बना लेते हैं। क्योंकि यह संसार कामगुणों में मूञ्छित बना हुआ है अतः हे गौतम तुम एक समय भी प्रमादमें पंतित मत बनो क्योंकि प्रमादमें पतित हुए जीवही दुर्लभ मनुष्यभववाले बनते हैं। अन्य नहीं क्योंकि मनुष्यभवको आश्रित करके ऐसा कहा गया है-" एयं पुण एवं खलु" इत्यादि। શરીર વડે સમ્યફ રૂપે તેની સ્પર્શના (આચરણ) કરવાનું કાર્ય તે જીવને માટે સૌથી વધારે કઠણ ગણાય છે. અવિરતની જેમ મનોરથ માત્રથી જ २५शाना सायन यता सुशन छे. ४ह्यु ५ छ “ धम्म पि हु सदहंतया " त्याल હે ગૌતમ ! ધર્મ પ્રત્યે શ્રદ્ધા ધરાવનારા જીવે દુર્લભ છે. ધર્મ પ્રત્યે શ્રદ્ધા રાખવા છતાં ધર્મ અનુસાર પિતાની પ્રવૃત્તિ કરનારા છો તે અતિ દુર્લભ છે, કારણ કે આ સંસાર કામમાં મૂછિત બને છે. માટે છે ગૌતમ ! એક ક્ષણ માટે પણ પ્રમાદ કર જોઈએ નહીં. જે જીવ પ્રમા કરે છે તેને માટે મનુષ્યભવની પ્રાપ્તિ દુર્લભ બની જાય છે માટે મનુષ્ય પ્રમાદને ત્યાગ કર જોઈએ. મનુષ્યભવને આશ્રિત કરીને એવું કહ્યું છે કે "एवं पुण एवं खलु" त्यादि Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ स्थानान एषा चास दोपावतो धर्मवचितानाम् । तस्माद् धर्मे यतितव्यं सम्यक् सदा धीरपुरुपैः ||२|| इति ॥० ११॥ इन्द्रियार्थ सति मानुपत्यादिकं सुलभं भवति, तदसंवरे दुर्लभमिति इन्द्रियार्थस्य पङ्क्त्विमाह- मूलम् - छ इंदियत्था पण्णत्ता, तं जहा --सोईदियत्थे जाव फालिदियत्थे नो इंदियत्थे ॥ सू० १२ ॥ छाया -- पट् इन्द्रियार्थाः प्रशप्ताः, तद्यथा श्रोत्रेन्द्रियार्थो यावत् स्पर्शेन्द्रियार्थो नो इन्द्रियार्थः ॥ ०१२ ।। टीका -' छ इंदियत्था ' इत्यादि -- इन्द्रियार्था:-इन्द्रियाणाम् अर्थाः = त्रिषया पट्पट् संख्यकाः मशप्ताः । तानेवोह -तयथा-श्रोत्रेन्द्रियार्थ:-श्रोत्रेन्द्रियस्य- अर्थो विषयः शब्दः । यावत्पदात् एकेन्द्रियादिक जीवोंकी जो यह दीर्घकालकी काय स्थिति प्रकटकी गई है, कही गई है, उसका कारण जीवका वारंवार प्रमादका सेवन करना है। प्रमादका सेवन करनेवाला जीव धर्मसे वर्जित चित्तवाला हो जाता है, इसलिये धीर पुरुषोंका यह कर्त्तव्य है, कि वे धर्म सदा प्रयत्नशील रहे || सू० ११ ॥ इन्द्रियोंके अर्थ यदि इस जीवको संवरकी प्राप्ति हो जाती है, तो मानुषत्व आदिकी प्राप्ति उसे सुलभ हो जाती है, इन्द्रियार्थके असंवरमें नहीं उस अवस्थामें तो वह दुर्लभही बन जाती है, अतः अब सूत्रकार इन्द्रियार्थी पवित्रताका कथन करते हैं એકેન્દ્રિયાદિક જીવેાની આ જે દીર્ઘકાળની કાયસ્થિતિ પ્રકટ કરવામાં આવી છે, તેનું કારણ એ છે કે તે જીવેએ પૂર્વભવમાં વારવાર પ્રમાદનું સેવન કર્યું હોય છે. પ્રમાદનું સેવન કરનારા જીવ ધથી ર્જિત ( રઢિત ) ચિત્તવાળા બની જાય છે. તેથી ધર્મની પ્રવૃત્તિમાં પ્રવૃત્તિશીલ રહેવાનું ધીર પુરુષાનું કર્તવ્ય થઈ પડે છે ! સૂ ૧૧ ૫ ઇન્દ્રિયાના અČમાં ( વિષયેામાં) જો આ જીવને સ'વરની પ્રાપ્તિ થઈ જાય છે, તે તેને માટે માનુષત્વ આદિની પ્રાપ્તિ સુલભ ખની જાય છે. ઇન્દ્રિ યાર્થીના અરાવરમાં તેા તે દુર્લભ બની જાય છે. તેથી હવે સૂત્રકાર છ પ્રકારના ઇન્દ્રિયાથેનુિં કથન કરે છે. Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०६ रू. १२ इन्द्रियार्थ पविधत्वनिरूपण चक्षुरिन्द्रयार्थः घ्राणेन्द्रियार्थों रसनेन्द्रियार्थश्च ग्राह्यः । तत्र-चक्षुरिन्द्रियार्थों रूपम् । घ्राणेन्द्रियार्थों गन्धः । रसनेन्द्रियार्थी रसः । स्पर्शनेन्द्रियार्थः स्पर्शः। नोइन्द्रियार्थः नो शब्दो देशनिषेधपरः सादृश्यपरश्च । तत्र-औदारिकत्वार्थपरिच्छेदकत्वरूपधर्मद्वययुक्तमिन्द्रियं भवति । तत्र धर्मद्वयमध्ये औदारिकत्वरूपो धर्मों मनसि नास्ति, इति देशनिषेधात् नोइन्द्रियं मनः । अथवा-नो शब्दः सादृश्या. र्थकः । इन्द्रियसादृश्यं च अर्थपरिच्छेदकत्वेनेति नो इन्द्रियं मनः । तस्य अर्थ: 'छ इंदियस्था पण्णत्ता" इत्यादि सन्न १२ ॥ इन्द्रियोंके अर्थ विषय छ कहे गये हैं जैले-श्रोनेन्द्रियका विषय यावत् स्पर्शनेन्द्रियको विषय और नोइन्द्रियका विषय इन्द्रियों के विषय ६ प्रकारके कहे गये हैं, इनमें श्रोत्रेन्द्रियका विषय शब्द है, यावत् शब्दसे गृहीत हुए चक्षुरिन्द्रियका विषयरूप है, घ्राणेन्द्रियका विषय गन्ध है, रसना इन्द्रियका विषय रस है, और स्पर्शन इन्द्रियका विषय स्पर्श है । नो इन्द्रियमें नो शब्द देश निषेध परक और सादृश्य परक है, इस तरह जो इन्द्रिय औदोरिकरूप और अर्थ परिच्छेदकरूप दो धर्मसे युक्त होता है, वह इन्द्रिय है, इन दो धर्नामेंसे मन में औदारिकादि रूप धर्म नहीं है, इस कारण औदारिकत्वरूप एक देश निषेधसे मन नो इन्द्रिय है, अथवा नो शब्द सादृश्यार्थक जन माना जाता है, तय जो अर्थपरिच्छेदकलाको लेकर इन्द्रियके समान होता है, वह नो “छ इंदियत्था पण्णत्ता" त्या6ि ઈન્દ્રિયોના અર્થ (વિષય) છ કહ્યાં છે –(૧) શ્રોત્રેન્દ્રિયથી લઈને સ્પર્શેન્દ્રિયના વિષય પર્યરતના પાંચ ઈન્દ્રિયાર્થીને અહીં ગ્રહણ કરવા જોઈએ. (५) नन्द्रियना विषय. ઈન્દ્રિયોના વિષય છ પ્રકારના બતાવ્યા છે. શ્રોત્રેન્દ્રિય વિષય શબ્દ છે, ચક્ષુરિન્દ્રિયને વિષય રૂપ છે, ઘ્રાણેન્દ્રિય વિષય ગબ્ધ છે, રસના ઈદ્રિયને વિષય રસ છે અને સ્પર્શેન્દ્રિય વિષય સ્પર્શ છે. “ને ઈન્દ્રિય ” આ પદમાં ને શબ્દ દેશનિષેધપરક અને સાશ્યપરક છે. ઈન્દ્રિય તેને કહે છે કે જે દારિક રૂપ અને અર્થ પરિ છેદક રૂપ ધર્મયથી યુક્ત હોય છે. આ બે ધર્મોમાંથી ઔદરિકત્વ રૂપ એકદેશના નિષેધને લીધે મનને નો ઈન્દ્રિય રૂપે કહ્યું છે અથવા “ને પદને જે સાદડ્યાર્થક માનવામાં આવે, તે નો ઇન્દ્રિયને અર્થ આ પ્રમાણે થાય છે–“જે અર્થ પરિએએફતાને લીધે Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० स्थानागसूत्रे विषयो जीरादिः । मनो हि आन्तरकरणं, करणं चेन्द्रियमेवेति तदर्थोऽपि इन्द्रियाथें इति पडिन्द्रियार्था उक्ताः ॥ सू० १२॥ __इन्द्रियार्थानां संवरे असंपरे च सति मनुष्यत्वादिकं सुलभं दुर्लमं च भवतीत्युक्तम् , इन्द्रियार्थसंबरासंबरौ च इन्द्रियमंबरासंबराधीनापिति इन्द्रियाणां संवरान् असंवसंश्च प्राइ--- मूलम् --छविहे संवरे पण्णते, तं जहा--सोइंदियसंवरे जाव फालिदियसंवरे नोइंदिय संवरे । छबिहे असंवरे पण्णते, तं जहा-सोइंदिय असंवरे जाव फासिदिय असंवरे नोइंदियअसंबरे ॥ सू० १३ ॥ ___छाया-पद्विधः संवरः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-श्रोत्रेन्द्रियसंवरो यावत् स्पर्शेन्द्रियसंवरो इन्द्रिय है, ऐसा अर्थ होता है, अर्थ परिच्छेदकता मनमें है ही इसलिये मन नोइन्द्रिय है, इस मानका विषय जीवादि पदार्थ है, मन आन्तरकरण है, और जो करण होता है, वह इन्द्रियरूपही होता है, इन्द्रियका अर्थ इन्द्रियार्थ होता है, इस कारण इन्द्रियार्थ छ कहे गये हैं । सू.१२॥ इन्द्रियार्थले संवर होने पर मनुष्यत्व आदि पर्याय सुलभ होती है, और असंवर होने पर वह दुर्लभ होती है, ऐसा जो कहा गया है, सो इन्द्रियार्थका संवर और असंबर इन्द्रियों के संघर और असंवरके आधीन होता है, अतः अब सूत्रकार इन्द्रियोंके संबर और असंवरका विवेचन करते हैं-"छबिहे संवरे पण्णत्ते" इत्यादि स्तृ० १३ ॥ ઈન્દ્રિયોના સમાન છે, એવું મન નો ઈન્દ્રિય રૂપ છે અર્થ પરિચે છેઠકતાને મનમાં અવશ્ય સદૂભાવ છે, તેથી મન “નો ઈન્દ્રિય” જ છે. મનનો વિષય જીવાદિ પદાર્થ છે. મન આન્તર કરણ છે, અને જે કરણ હોય છે તે ઈન્દ્રિય ૩૫ જ હોય છે ઇન્દ્રિયના વિષયને ઈન્દ્રિયાઈ કહે છે ઈન્દ્રિય ૬ હેવાથી ઇન્દ્રિયોથે પણ છ કહ્યા છે. તે સૂ. ૧૨ છે ઈન્દ્રિયામાં સંવરની પ્રાપ્તિ થવાથી મનુષ્યત્વ આદિ પર્યાયે સુલભ થઈ જાય છે, અને અસંવરના ભાવમાં તે દુર્લભ બની જાય છે, એવું આગળ કહેવામાં આવ્યું છે. ઇન્દ્રિયાથને સંવર કે અસંવર ઈન્દ્રિયોને સંવર અને અસંવરને આધીન હોય છે. તેથી હવે સૂત્રકાર ઈન્દ્રિયોના સંવર અને मस पर विवयन ४२ छ. "छबिहे संवरे पण्णत्ते" याह Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खुधाटीका स्था०६ सू०१४ सातालातयो पइविधत्वनिरूपणम् ३२९ नोइन्द्रियसंवरः । पइविधोऽसंवरः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-श्रोगेन्द्रियासंवरो यावत्स्पर्शेन्द्रियासंबरो नोइन्द्रियासंवरः ।। सू० १३ ॥ टीका-'छबिहे' इत्यादि-- व्याख्या सुगमा ।। सु० १३ ॥ . संवरे असंवरे च सति सातमसातं च भवति, इति सातासातयोः प्रत्येक पइविधत्वमाह मूलम् --छबिहे साते पण्णत्ते, तं जहा-सोइंदियसाते नोइंदियसाते । छविहे असाते पण्णत्ते, तं जहा--सोइंदियासाते जाव नोइंदियालाते ॥ सू० १४ ॥ __ छाया-पड्विधम् सात प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-श्रोनेन्द्रियसातं यावत् नोइन्द्रियसातम् । पड्विधम् असातं प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-श्रोनेन्द्रियासातं यावत् नोइन्द्रियासातम् ॥ सू० १४ ॥ टीका-'छबिहे ' इत्यादि- सात-सुखं, तत् पड विघ-पट्प्रकारकं प्रज्ञस्तं-प्रखपितम् । षड्विधत्वमेवाहतयथा-श्रोगेन्द्रियसातम्-मनोज्ञशब्दश्रवणेन यत् सुखं भवति तत् श्रोगेन्द्रिय संवर छह प्रकारका कहा गया है, जैसे ओत्रेन्द्रियसंवर यावत् स्पर्शनेन्द्रिय संवर और नो इन्द्रिय (याने मन) संवर । असंवर भी छह प्रकारका कहा गया है, जैसे-श्रोत्रेन्द्रिय असंवर यावत् स्पर्शनेन्द्रियअसंवर और नोइन्द्रिय असंबर इस सूत्रकी व्याख्या सुगम है ।मु.१३॥ - संवर और असंवरके होने पर सात और असात होता है, अतः अय सूत्रकार प्रत्येक सात एवं असातमें षट् प्रकारताका कथन करते हैं સંવરના ૬ પ્રકાર કહ્યા છે–(૧) શ્રોત્રેન્દ્રિય સંવર, (૨) ચક્ષુરિન્દ્રિય स१२, (७) प्रारीन्द्रिय सर, (४) २सनेन्द्रिय स १२, (५) ३५0 न्द्रय स १२ भने (6) न न्द्रिय स१२ ( भन स.१२) અસંવરના પણ છ પ્રકાર કહ્યા છે– શ્રોત્રેન્દ્રિય અસંવરથી લઈને નો ઈન્દ્રિય અસંવર પર્યન્તના ઉપક્ત ૬ પ્રકારે અહીં ગ્રહણ કરવા જોઈએ. આ સૂત્રની વ્યાખ્યા સુગમ છે. એ સૂ. ૧૩ सव२ ४२ असव२।। सावमा सात ( साता, सुम) भने અસાત (અસાતા, દુખ) નો સદ્ભાવ રહે છે. તેથી હવે સૂત્રકાર સાત અને અસાતના ૬ પ્રકારનું કથન કરે છે. स्था-४१ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानासो माम् । एवं च भूमिनियमानादिकमपि चिनेयम् । तथा-उष्ट चिन्तनतो यत् मुखं मानिन नोनियमानामिनि । नशा-असानदायमपि पइविध भाति । तत्र दो बार भवति तत् श्रोनेन्द्रियाबातम् । एवम् अमनोज्ञमापिनादिनानिन्द्रिामा योध्यम् । अनिष्टचिन्तनतो यद् दुःखं भवति ना नानिमामिति । म०११ ॥ पूवाको निरपिनं दावन्य क्षयश्च पायश्चित्ताद् भवतीति मायश्चिTET पाना: प्रला नदिह पायच्छिते पण्णले, तं जहा--आलोयणारिहे १, पदिकमणारिह २, तदुभयारिहे ३, विवेगारिहे ४, विउसग्गारिहे ५ नारिह ६॥ स १५ ॥ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधाटीका स्था ६ सू० १५ षड्विधप्रायश्चित्तनिरूपणम् छाया-पइविधं प्रायश्चित्तं प्राप्तम् , तद्यथा-आलोचनाहम् १, प्रतिक्रम‘णार्हम् १, तदुभयाहम् ३, विवेकाहम् ४, व्युल्सर्गाहम् ५, तपोऽहम् ६ ॥१०१५।। टीका- छबिहे ' इत्यादि । प्रायश्चित्तम् पवित्र वोध्यम् । तत्र यद् गुरुनिवेदनया शुध्यति-तदालोचनाह मायश्चित्तस् ११ मिथ्यादुष्कृतेन यत् शुध्यति तत् पतिक्रमणाम् । यदालोचनामिथ्यादुष्कृताभ्यां शुष्यति तत् उभयाहम् ३। आधाकदिौ परिष्ठापिते यत् शुध्यति तद् विवेकार्हम् ४। कायचेष्टानिरोधतो यत् शुध्यति तत् व्युत्सर्हिम् ५। निर्विकृत्तिकादिना तपसा यत् शुध्यति तत् तपोऽहम् ६ इति ।। सु० १५ ॥ __सूत्रके अन्तमें दुःखका निरूपण किया और दुःखका क्षय प्रायश्चित्तसे होताहै, इसलिये अब सूत्रकार प्रायश्चित्तके छह भेदोंका कथन करतेहैं 'छबिहे प्रायच्छिते पण्णत्त' इत्यादि स्तू० १५ ॥ प्रायश्चित्त छह प्रकारका कहा गया है, जैसे-आलोचनाह १ प्रतिक्रलणार्ह २ तदुभयाई ३ विवेकाह ४ व्युत्साह ५ और तपोऽहं ६ । इनमें जो शुरूसे निवेदन करने पर दोष शुद्ध होता है, वह आलो चना प्रायश्चित्त है, जो मिथ्यादुष्कृतसे शुद्ध होता है, वह प्रतिक्रमणाह प्रायश्चित्त है, जो आलोचना एवं प्रतिक्रमण इन दोनोंसे शुद्ध होता है, वह तदुभयाई प्रायश्चित है, आषाकर्म आदिके परिष्ठापित होने पर जो शुद्ध होता है, वह विवेकाहं प्रायश्चित्त है, कायचेष्टाके પૂર્વસૂત્રના અંતમાં દુખનું નિરૂપણ કર્યું છે. અને દુઃખને સૂત્રકાર પ્રાયશ્ચિત્તના ૬ ભેદનું કથન કરે છે. "छविहे पायच्छित्ते पण्णत्ते" त्या प्रायश्चित्तता नीय प्रमाणे प्रा२ ४ा छ-(१) मासायना, (२) प्रतिभा , (3) तमया, (४) 418, (५) व्युत्साड मने (६) त५:४ ગુરુની પાસે નિવેદન કરવા માત્રથી જ જે દેષની શુદ્ધિ થઈ જાય છે, તે દેષની શુદ્ધિરૂપ પ્રાયશ્ચિત્તને આલેચનાતું પ્રાયશ્ચિત્ત કહે છે. જે મિથ્યા દુષ્કૃત વડે શુદ્ધ થાય છે, તેને પ્રતિક્રમણીં પ્રાયશ્ચિત્ત કહે છે. જે દેષની શુદ્ધિ આલોચના અને પ્રતિક્રમણ આ બન્ને દ્વારા થાય છે, તેને તદુયાહુ પ્રાયશ્ચિત્ત કહે છે. આ ધાર્મ દેષથી દૂષિત થયેલા આહારાદિને પરિષ્ઠાપિત કરવાથી (પરડવવાથી) જે શુદ્ધ થાય છે તેને વિવેકાણું પ્રાયશ્ચિત્ત કહે છે. કાયચેષ્ટાના નિધથી જે શુદ્ધ થાય છે તે દેશના પ્રાયશ્ચિત્તને વ્યુત્સગઈ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ઉરઈ स्थानागपूत्रे प्रायश्चित्तवहनशीलारतु मनुप्या एव भवन्तीति 'छबिहा मणुरसा' इस्यारभ्य लोकस्थितिस्मृतपर्यन्तं मनुष्यसम्बन्धीनि सूत्राणि माह--- मूलम्--छबिहा मणुरुसग्गा पण्णत्ता, तं जहा--जंबूदीवगा, धायइसंडदीवपुरस्थिमद्धगा २, धायइसंडदीवपञ्चस्थिमद्धगा ३, पुक्खरवर दीवड्पुरस्थिमद्धगा ४, पुश्खरवरदीवडपञ्चत्थिमद्धगा ४, अंतरदीवगा ६॥ अहवा छबिहा मणुरुसा पण्णत्ता, तं जहासंमुच्छिसमणुरुला--कम्मभूमिगा १, अकस्मभूमिगा २, अंतरदीवगा ३, गन्भवतियमणुस्सा-कम्मभूमिगा १, अकम्मभूमिगा २, अंतरदोवगा ३ ॥ स० १६ ॥ छाया-पहविधा मनुष्यकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-जम्बूद्वीपगाः १ धातकीखण्डद्वीपपौरस्त्याधंगाः २, धातकीखण्डद्वीपपाश्चात्याई गाः ३, पुष्करवरद्वीपा धपौरस्त्याई गाः ४, पुष्करबरद्वीपार्वपाश्चात्त्याधंगाः ५, अन्तरद्वीपगाः ६। अथवा निरोधसे जो शुद्ध होता है, वह व्युत्साह प्रायश्चित्त है, एवं निर्विकृतिक (बिनाविगय ) आदि तपसे जो दोप शुद्ध होता है, वह तपोऽर्ह प्रायश्चित्त है। सु० १५ ॥ प्रायश्चित्तको अङ्गीकार करनेवाले मनुष्यही होते हैं इसलिये अब सत्रकार "छबिहा मणुमा" यहांले लेकर लोकस्थिति पर्यन मनुष्य संवन्धी सूत्रों का कथन करते हैं-"छबिहा मणुस्सगा पगत्ता" इत्यादि मनुष्य ६ प्रकारके कहे गये हैं-जैसे जम्बूद्रीपग १ धातकीखण्ड दीप पौरस्त्यार्धग २ धातकीखण्डनीष पाश्चात्याग ३ पुष्करवरद्वीपार्ध. पौरस्त्याचग ४ पुष्करवरद्रीपार्ध पाश्चात्याधंग ५ एवं अन्तरद्वीपग ६ પ્રાયશ્ચિત્ત કહે છે. નિર્વિકૃતિક આદિ તપ દ્વારા દેશની શુદ્ધિ કરવાને ગ્ય પ્રાયશ્ચિત્તને (તપેઠું (તપ: અ) પ્રાયશ્ચિત્ત કહે છે કે સૂ. ૧૫ છે મનુષ્ય જ પ્રાયશ્ચિત્ત લે છે આ સંબંધને લીધે હવે સૂત્રકાર મનુષ્ય विषय सूत्रानु थन ४२ छ "छबिहा मणुस्सा" मीथी २३ ४शन લોકથિતિ પર્યન્તના સૂત્રોમાં સૂત્રકારે મનુષ્ય વિષયક કથન કર્યું છે. "छव्विहा मणुस्सगा पण्णत्ता" त्याह मनुष्यता नीय प्रमाणे ६ ४॥३१ ४ छ-(१) यूद्वी५५ (. द्वीपमा समेत ) ती म दीपना पूर्वा भन्भेसा, (3) धातकी म દ્વીપના પશ્ચિમાઈમાં જન્મેલા, (૪) પુષ્કરવર દ્વીપાઈના પૂર્વાર્ધમાં જન્મેલા, (૫) પુષ્કરવર દ્વીપાર્શ્વને પશ્ચિમાર્ધમાં જન્મેલા અને (૬) અન્તરદ્વીપમાં જન્મેલા Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२५ सुधा दीका स्था०६ १६ षड्विधमनुष्यादिनिरूपणम् प्रविधा मनुष्याः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-सम्मूच्छिममनुष्याः-कर्मभूमिगाः १, अकमभूमिगाः २, अन्तरद्वीपगाः ३, गर्भव्युत्क्रान्तिकाः-कर्मभूमिगाः १, अकर्मभूमिगाः २, अन्तरद्वीपगाः ३ ॥ सू० १६ ॥ टीका--'छबिहा' इत्यादि-- मनुष्याणां पविध प्रकारद्वयेन बोध्यम् । तत्र प्रथमे प्रकारे जम्बूद्वीपगा' इत्यादयः षड्भेदाः। द्वितीये प्रकारे पूर्व सम्मच्छिमगर्मव्युत्क्रान्तिकभेदेन मनाया द्विविधाः । तत्र सम्मृच्छिमा त्रिविधा भवन्ति, गर्भव्युत्क्रान्तिका अपि त्रिविधा भवन्तीति पड्विधा मनुष्या भवन्तीति ॥ सू० १६ ॥ तथा-- मूलम्-छबिहा इड्डीमंता मणुस्ला पण्णत्ता, तं जहा-अर. हंता १, चकवट्टी २, बलदेवा ३, वासुदेवा ४, चारणा ५, विजाहरा ६ ॥ सू० १७॥ - अथवा-इस प्रकारसे मनुष्य ६ प्रकारके कहे गये हैं जैसे-सस्नू. च्छिम मनुष्य कर्मभूमिग १ अकर्म भूलिग २ अन्तरद्वीपग ३ गर्भव्यस्क्रान्तिक कर्मभूमिग १ अकर्मभूमिग २ और अन्तरदीपग ३।। इस सत्र मनुष्यों की षट् प्रकारता प्रकट की गई है, यह दो प्रकारसे प्रकटकी गई है, इनमें प्रथम प्रकारतामें "जम्बूद्वीपग" यहाँले लेकर " अन्तरदीपग" तक कथन हुआ है, द्वितीय प्रकारतामें सम्मूच्छिम एवं गर्भव्युत्क्रान्तिकके भेदसे मनुष्य दो दो प्रकारके होते हैं, इनमें सम्मुच्छिम मनुष्य कर्मभूमिग, अकर्मभूमिग, और अन्तरली. पग तीन प्रकार के होते हैं, और गर्भव्युतकान्तिक मनुष्य भी ३ प्रकारके होते हैं, इस तरह ६ प्रकार के मनुष्य होते हैं । स०१६। અથવા–મનુષ્યના નીચે પ્રમાણે ૬ પ્રકાર પણ પડે છે–(૧) સન્મુછિમ મનુષ્ય કર્મભૂમિગ, (૨) સમૂછિમ અકર્મભૂમિગ, (૩) સમૂછિમ અન્તરદ્વીપગ, (૪) ગર્ભવ્યુત્કાત્તિક કર્મભૂમિગ, (૫) અકર્મભૂમિગ અને (६) सन्तवी41 * આ સૂત્રમાં બે રીતે મનુષ્યને ૬ પ્રકારે પાડવામાં આવ્યા છે. પહેલી રીતે “ જ બૂઢીપગ થી લઈને “અતરદ્વીપગ પર્યન્તના ૬ પ્રકાર પ્રકટ કરવામાં આવ્યા છેબીજી રીતે મનુષ્યના મુખ્ય બે ભેદ પડ્યા છે(૧) સમૃમિ અને (૨) ગર્ભવ્યુત્કાન્તિક તેમાંથી સમૂછિમ મનુષ્યના કર્મભૂમિ જ આદિ ત્રણ પ્રકાર પડે છે, અને ગર્ભવ્યુત્કાતિકના પણ કમભૂમિ જ, અકર્મભૂમિ જ અને અન્તરદ્વીપ જ નામના ત્રણ પ્રકાર પડે છે, આ રીતે કુલ છ પ્રકાર થાય છે. જે સૂ. ૧૬ છે Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानातसूत्रे छाया--पविधा ऋविरतो मनुष्याः प्राप्ताः, तबथा-अर्हन्तः १, चक्रवर्तिनः २, बलदेवाः ३, वासुदेवाः ४, चारणाः ५, विद्याधराः ६॥ मू०१७॥ टीका--'छबिहा' इत्यादि-- व्याख्या स्पष्टा । नवरम्-चारणाः-जवाचारणा विद्याचारणाश्च वोथ्याः । विद्याधरा:-चैताढयादिवासिनः ।। सु० १७ ॥ तथा-- मूलम्-छविहा अणिमिता पणत्ता, तं जहा-हेमवंतगा १, हेरनवंतगा २, हरिवंसगा ३, रमनगवंसगा ४, कुरुवालिणो ५, अंतरदीवगा ६ ॥ सू० १८॥ छाया--पविधा अनृद्धिमन्तः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-हैमवतगाः १, हैरण्यवतगाः २, हरिवर्पगाः ३, रम्यक्रवर्षगाः ४, कुरुवासिनः ५, अन्तरद्वीपगाः ६॥सू०१८॥ टीका--'छबिहा' इत्यादि । व्याख्या सुगमा ।। सु० १८ ॥ "छविहा इड्डीमंता मणुस्ला" इत्यादि स्लू० १७ ॥ ऋद्विधारी मनुष्य ६ प्रकार के होते हैं, जैसे-अर्हन्त १ चक्रवर्ती २ बलदेव ३ वासुदेव ४ चारण ५ और विद्याधर ६। इसकी व्याख्या स्पष्ट है, जङ्घाचारण और विद्याचारणके भेदसे चारण मनुष्य दो प्रकार के होते हैं, वैनाढय आदि पर्वतवासी जो मनुष्य होते हैं वे विद्याधर हैं । सु०१७॥ "छविहा अणिमिंता पत्ता" इत्यादि सूत्र १८॥ जिनको किसी भी प्रकारकी ऋद्धि नहीं होती है, वे अऋद्धिमान् प्राणी ६ प्रकारके कहे गये हैं जैसे-हेमवर्षग १ हैरण्यवर्षग २ हरिवर्षग " छव्विहा इड्ढीमंता मणुस्सा" त्याह द्विधारी भनुष्याना नये प्रमाणे ६२ ५ छे-(1) पन्त, (२) 24, (3) महेव, (४) वासुदेव, (५) या२ मन (6) विद्याधर. આ સૂત્રની વ્યાખ્યા સુગમ છે. જંઘાચારણ અને વિદ્યાચારણના ભેદથી ચારણ મનુષ્ય બે પ્રકારના કહ્યા છે. વિદ્યારે વિતાઢય આદિ પર્વતેના નિવાસી डाय छे. ॥ सू. १७ ॥ " छठियहा अणि ढिमंता पण्णता" इत्यादि - જેમને કોઈ પણ પ્રકારની બદ્ધિને સદ્ભાવ હેતે નથી એવાં છદ્ધિ २हित मनुष्याना नाथे प्रभारी ६ ५२ ४ा छ-(१) उभवन, (२) डै२५य. Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०६सू.२०उत्सविण्यां जंबूद्वीपस्य मनुण्य प्रमाणादिनिरूपणम् ३२७ - -- तथा मूलम् - छव्विहा ओसप्पिणी पण्णत्ता, तं जहा--दुसमदुसमा जाव सुसमसुसमा ॥ सू० १९ ॥ ... छाया--पविधा अवसर्पिणी प्रज्ञप्ता, तद्यथा-दुष्पमदुष्पमा यावत् सुषमसु. पमा ॥ सु० १९॥ टीका--'छबिहा' इत्यादि-- व्याख्या स्पष्टा । नवरं यावत्पदा-दुष्पम २ दुष्षम सुषमा ३ सुषमदुष्पमा ४, सुपमा ५ ग्रायाः ॥ सू० १९ ॥ तथा-- मूलम्-जंबुद्दीवे दीये भरहेरवएसु वासेसु तीयाए उस्सप्पिणीए सुसमसुसमाए समाए मणुया छच्च धणुसहस्लाइं उडमुच्चत्तेणं इत्था, छच्च अद्धपलिओवमाई परमाउं पालइत्था १, जंनुद्दीवे दीवे भरहेरवएतु वासेसु इमीले ओसप्पिणीए सुसमसुसमाए समाए एवं चेत्र २, जंबूद्दीवे दीवे भरहेरचए आगमेस्लाए उस्तप्पिणीए सुसमसुसमाए समाए एवं चेत्र जात्र छच्च ३ रम्पकवर्षग ४ कुरुबासी ५ और अन्तरदीपग ६ इस सूत्रकी व्याख्या सुगम है ।। सू० १८॥ "छविहा ओसप्पिणी पणन्ता" इत्यादि सूत्र १९ ॥ अवसर्पिणी ६ प्रकारकी कही गई है, जैसे-दुष्पम दुष्षमा १ यावत सुषम सुषमा ६ यहाँ यावत्पदले-दुष्पमा २ दुषम सुषमा ३ सुषम दुषमा ४ सुषमा ५ इनका ग्रहण हुआ है॥ १९॥ वष, (3) विष, (४) २भ्य४१, (५) रुपासी मने (६) मन्ती ॥ આ સૂત્રની વ્યાખ્યા સુગમ છે. એ સૂ. ૧૮ છે ___ "छविहा ओसप्पिणी पत्तणत्ता" ध्याह અવસર્પિણના નીચે પ્રમાણે ૬ પ્રકાર કહ્યા છે—(૧) દુષ્કમ દુષમા, (२) दुषमा, (3) दुषम सुरमा, (४) सुषभ हुपमा, (५) सुषमा भने (१) सुषभ सुषमा ॥ सू. १८ ॥ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , ३२८ स्थानानपत्रे पलिओवमाई परमाउं पालइस्संति ३, जंबुद्दीबे दीवे देवकुरु उत्तरकुरासु सणुया छ धणुसहस्साई उर्दू उच्चत्तेणं पण्णत्ता, छच्च अद्धपलिओरमाइं परमाउं पालेति ४, एवं धायइसंडदीवपुरस्थिमद्धे चत्तारि आलावगा जाब पुक्खरवरदीवड्वपच्चस्थिसद्धे चत्तारि आलावगा ॥ सू० २० ॥ छाया--जम्बूद्वीपे द्वीपे भरतैरवतयोः वर्षयोः अतीतायाम् उत्सर्पिण्यां सुपनमुपमायां समायां मनुनाः पट् च धनु सहस्राणि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन अभवन् पद च अर्धपल्योपमानि परमायुः अपालयन् । जम्बूद्वीपे द्वीपे भरतैरवतयोः वर्षयोः अस्यामपसपिण्याम् सुपमपमायां समायामेवमेव २। जम्बूद्वीपे द्वीपे भरतैरवते आगमिष्यन्त्यामुत्सर्पिण्यां सुपमसुपमायां समायाम् एवमेव यावत् पट् अई पल्योपमानि परमायुः पालयिष्यन्ति ३। जम्बूद्वीपे द्वीपे देवकुरूत्तरकुरुषु तथा--'जम्बुद्दीवे दीवे मरहेरवएस्सु' इत्यादि सूत्र २० ॥ टीकार्थ जम्बूद्वीप सम्बन्धी भरतक्षेत्रमें और ऐरवत क्षेत्रमें अतीत कालकी उत्सर्पिणीमें सुषम स्तुपमा नाम आरेमें मनुष्य ६ हजार धनुपके उंचे थे ६ अर्ध पल्योपमकी उनकी उत्कृष्ट आयु थी १ जम्बूद्वीप नामके द्वीपमें भरत ऐरक्त क्षेत्र में इस अवसर्पिणी में सुषम सुषमा नोमके आरेमें ऐसाही वाथन कर लेना चाहिये २ जम्बूदीप नाम के द्वीपमें भरतक्षेत्र और ऐरवत क्षेत्र में आगामी सुषमसुषमा नामके आरेमें इसी तरहसे कथन जानना चाहिये यावत् ६ अई पल्योपमकी वहां उत्कृष्ठ आयु श्री ३ जम्बूद्वीप नासके बीपमें देवगुरु और उत्तरकुरूमें मनुष्य ६ हजार तथा " जम्बूहीवे दीवे भरहेरवएसु" त्या જબૂદ્વીપના ભરતક્ષેત્ર અને એરવતક્ષેત્રમાં અતીતકાળની ઉત્સર્પિણીના સુષમ સુષમા નામના આરામાં મનુષ્યની ઊંચ ઈ ૬ હજાર ધનુષપ્રમાણ હતી, અને તેમનું ઉત્કૃષ્ટ આયુષ્ય છ અર્ધપલ્યોપમનું હતું. ! ૧ ! ' જંબુદ્વિપના ભરત અને ઐરાવતક્ષેત્રમાં આ અવસર્પિણના સુષમ સુષમા નામના આરામાં મનુષ્યની ઊંચાઈ અને આયુષ્યના વિષયમાં પણ ઉપર્યુક્ત કથન ગ્રહણ થવું જોઈએ. ૨ જબૂલીપના ભારત અને ઐરાવત ક્ષેત્રમાં આગામી ઉત્સર્પિણના સુષમ સુષમા નામના આરામાં પણ મનુષ્યની ઊંચાઈ ૬ હજાર ધનુષ્યપ્રમાણ અને તેમનું ઉત્કૃષ્ટ આયુષ્ય ૬ અર્ધપત્યોપમનું હશે. | ૩ | Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधागेका स्था०६ सू०२० उत्सपिण्या जंबूद्वीपस्य मनुष्यप्रमाणादिनिरूपणम् ३२९ मनुनाः पधनुः सहस्त्राणि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन प्रज्ञप्ताः षट् च अर्द्ध पल्योपमानि परमायुः पालयन्ति ४। एवं धातकीखण्ड द्वीपपौरस्त्याः चत्वार आलापका यावत् पुष्करवरद्वीपाश्रृपाश्चात्याद्ध चत्वार आलापकाः॥ सू० २०॥ टीका--'जंबुद्दीवे दीवे ' इत्यादि-- जम्बूद्वीपनामा द्वीपस्थे भरते ऐवते च क्षेत्र अतीतायाम् उत्सर्पिण्याम् सुपम सुषमा नामक समायां मनुनाः षट् च धनुः सहस्राणि-त्रीनकोशान् ऊर्ध्वम् उच्चत्वेन अभवन् , तथा-पट च अर्थपल्पोपमानि-नीणि पल्योपमानि परमायु:उत्कष्टमायुः अपालयन्=पालयन्ति स्मेति ११ एपमग्रेऽपि व्याख्या बोध्या॥सू०२०॥ मूलम्--छबिहे संघपणे पण्णत्ते, तंजहा--बइरोलमणारायसंघयणे १, उसमगाराय संघयणे २, नारायसंघयणे ३, अद्धनाराय. संघयणे ४, खीलियासंघयणे ५, छेवट्ठसंघणे ६ ॥ सू० २१ ॥ __ छाया--पड्विधं संहननं प्रनप्त, तद्यथा-वज्रऋपभनाराचसंहननत् १ ऋषभनाराचसंहननं २, नाराच संहननं ३, कोलिका संहनने ४, सेवातसंहननम् ५॥ सू० २१॥ धनुषके ऊंचे होते कहे गयेहैं, और अर्धपल्योपमकी इनकी उत्कृष्ट आयु कही गईहै ४ इसी तरहसे धानकी खण्ड दीपके पौरस्त्या में (पूर्वके आधा भाग)चार आलापक यावत् पुष्करवर द्वीपार्धके पाश्चात्यार्धमें चार आलापक कहलेना चाहिये । छह अर्घ पल्योपनका भाव है ३ पल्योपम ६ हजार धनुषसे ३ कोश लिये गये हैं, क्योंकि २ हजार धनुषका एक कोश होता है । सू० २० ।। જંબુદ્વીપ નામના દ્વિીપના દેવકુરુ અને ઉત્તરકુરુ નામના ક્ષેત્રમાં મનુષ્યની ઊંચાઈ ૬ હજાર ધનુષપ્રમાણુ કહી છે અને તેમનું ઉત્કૃષ્ટ આયુષ્ય ૬ અર્ધપલ્યોપમનું કહ્યું છે. ૩ ૪ ૫ એ જ પ્રમાણે ધાતકીખંડ દ્વીપના પૂર્વાર્ધના મનુષ્ય વિષે ચાર આલા. પક કહેવા જોઈએ એ જ પ્રમાણે પુષ્કરવર દ્વીપાઈના પશ્ચિમાર્ધ પર્યાના દ્વિીપના મનુષ્યો વિષે પણ ચાર-ચાર આલાપકે કહેવા જોઈએ. બે હજાર ધનુષને એક કેશ થાય છે. તેથી ૬૦૦૦ ધનુષપ્રમાણુ ઊંચાઈ એટલે ૩ કેશપ્રમાણ ઊંચાઈ સમજવી છે અર્ધપપમનું આયુષ્ય એટલે ત્રણ ૫ पभर्नु मायुष्य सभा ॥ सू. २० ॥ स्था०-४२ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० थानान टीका--' छन् ' इत्यादि -- संहननं - हन्यन्ते दृढतामापाद्यन्ते शरीरपुद्गला येन तत्, अस्था रचनाविशेषः, शक्तिविशेषो वा । तत् पवििधं षट्प्रकारकं प्रज्ञप्तम् । तद्यथा-वज्रऋपभनाराचसंदनम्, तत्र वज्र = कीलिकाकारमस्थि, ऋषभः = तदुपरिपरिवेष्टनपट्टाकु तिकोऽस्थिविशेषः, नाराच' = उभयतो मर्कटबन्धः । तथा च द्वयोरस्थ्नो रुभयतो द्वयोः पाकृतिना तृतीयेनास्था परिवेष्टितयोरुपरि तदस्थित्रयं पुनरपि दृढीकर्तुं निखातमस्थित्रयभेदकं कीलिकाकारं वज्रनामस्मस्थि यत्र भवति टीकार्थ-तथा-"छबि संघयणे पण्णत्ते तं जहा" इत्यादि संहनन ६ प्रकारका कहा गया है, जिसके द्वारा शरीर पुल दृढताकों प्राप्त करते हैं, उसका नाम संहनन है, यह संहनन हड्डियोंकी रचना विशेषरूप होता है, अथवा शक्ति विशेषरूप होता है, संहनन ६ प्रका रका कहा गया है, जैसे वज्र ऋपमनाराच संहनन १ इस संहननमें वज्र नामकी हड्डी कीलक के आकार की होती है, और इसके ऊपर एक हड्डी ऐसी होती है, जो परिवेष्टन पट्टकी आकृतिके जैसी होती है, इसका नाम ऋषभ है, तथा दोनों तरफ जो सर्क होता है, उसका नाम नाराच है, तथा च दोनों तरफ सबन्ध बन्ध एवं पट्टकी आकृति जैसी तृतीय से परिवेष्टित हुई ऐसी दो हड्डियोंके ऊपर जो इन तीनों हड्डियों बहुत अधिक दृढ करनेके लिये कीलेके जैसी गढी हुई टीअर्थ - तथा " छवि संघयणे पण्णत्ते तं जहा " छत्याहि હનના ૬ પ્રકાર કહ્યા છેજેતા દ્વારા શરીરનાં પુદ્ગલા દૃઢનાને પ્રાપ્ત કરે છે તેનું નામ સંહનન છે, તે સહનન હાડકાંની વિશિષ્ટ રચનારૂપ હાય છે અથવા શક્તિ વિશેષરૂપ હાય છે તે સહુનનના છ પ્રકારો નીચે પ્રમાણે ह्या छे - (१) व ऋषलनाशय सांडुनन, (२) ऋषभनाथ सनन, (3) નારાચ સહનન, (૪) અતારાચ સહનન, (૫) કીલિકા સ ́હનન અને (૬) સેવાત્ત સહનન હવે વઋષભનારાચ સહનનનું સ્ત્રરૂપ કેવું હોય છે તે પ્રકટ કરવામાં આવે છે—આ સનનમાં ફીક્ષકના આકારની વજા નામની હડ્ડી ( હાડકું) ઔાય છે. તેના ઉપર એક એવી હડ્ડી હાય છે કે જે પરિર્વન પટ્ટના જેવા આકારની હાય છે, જેનુ નામ ઋષા છે. તથા ખતે તરફને જે મર્કટન્ય હાય છે તેનું નામ ‘નારાચ’ છે તથા ખત્ને તરફના મટાવની સાથે અન્ય અને પટ્ટની આકૃતિ જેવુ.ત્રીજુ હાડકા વડે પરિવેષ્ટિત થયેલા એ હાડકાઓની ઉપર એ ત્રણે હાડકાઓને ખૂમ જ દૃઢ કરવાને માટે ખીલાના જેવી રચનાવાળા Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका त्या०६ रु २१ पइविधसंहनननिरूपणम् तद् वज्रऋषभनाराचं, तच्च तत्संहनन चेति तन् । १। तथा-ऋपभनाराचसंहननम्-यत्र संहनने वज्र नास्ति ऋपयनाराची तु विद्यते तत् ॥ २॥ नाराचसहननम् यत्र संहननेन बननपभो न स्तः, केवलो नाराचो भवति, तत् ॥ ३ ॥ अर्द्ध नाराचसंहननम्-यत्र तु एकपावन नाराजो द्वितीयपार्थेन च वज्रं तत् ॥४॥ हड्डी रहती है, कि जिसका नाम वज्र अस्थि है, ऐसी रचना विशेष जिस शरीरमें होता है, वह वन ऋपमनाराच संहनन है, तात्पर्य इस कथनका केवल यही है, कि जिस शरीरके वेष्टन कीलें और हड्डियां वज्रमय होती है, वह पूर्वक्ति संहनन है, व्यवहार में जिस प्रकार दो काप्टोको जोडनेके लिये पहिले तो लोहेकी पंचसे उन्हें जकड दिया जाता है, और फिर उस पंचके ऊपर विशेष मजबूतीके लिये कीले भी ढोक दी जाती है, इसी तरहकी रचनाजिस शरीर में हड्डियोंकी होती है, वही वज्र ऋषभनाराच संहनन है, दूसरा संहनन है ऋषभनाराच संहनन इस संहननमें बज्र नामकी अस्थि नहीं होती है, केवल ऋषभ और नाराचही होते हैं, तृतीय संहनन है नाराच-इस संहनन में वज्र और प्रषभ ये दोतों नहीं होते हैं, केवल नाराच उभयतः मर्कट. बन्धही होता है, चतुर्थ संहनन है-अर्धनाराच-इस संहननमें एक तरफ तो नाराच होता है, ओर दूसरी और वन रहना है, पांचवां જે હાડકા રહે છે તેનું નામ વજ અસ્થિ છે આ પ્રકારની રચના વિશેષને જે સંહનનમાં સદ્ભાવ હોય છે, તે સંહનનને વજાપભનારાચ સંહનન કહે છે, આ કથનનો ભાવાર્થ આ પ્રમાણે છે–જે શરીરનાં વેષ્ટન, કીલે (ખીલીઓ ) અને હાડકાંઓ વજી પય હેાય છે તે શરીરને વજીભનારા સંતનનવાળું કહે જેમ બે લાકડાંને જોડવાને માટે પહેલાં તો લેટાના પંચ વડે તેમને જકડી લેવામાં આવે છે, અને ત્યાર બાદ વિશેષ મજબૂતીને માટે તે પંચ ઉપર ખીલાઓ પણ ઠેકવામાં આવે છે. આ પ્રકારની હાડકાંની રચના જે શરીરમાં હોય છે તે શરીરને વજીભનારાચ સ હનનવાળું શરીર કહે છે. (૨) અષભનારા સંહનન-આ સંહનામાં વજી નામના અસ્થિને સદ્દભાવ હોતે નથી. માત્ર રસ અને નારાચને જ સદ્દભાવ હોય છે (3) नाराय सहनन---- सननमा १०० मने पस, म मन्न હતાં નથી પણ નારાય ( ઉભયતટ મર્કટ બધ) જ હોય છે. (૪) અર્ધનારા સંહનો--આ પ્રકારના સંહનનમાં એક તરફ નારાચ હોય છે અને બીજી તરફ વજા રહે છે, Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानागसूत्र कीलिकासंहननम्-यत्र संहननेऽस्थीनि वज्रापरनामधेयकीलिकामागेण अक्वद्धानि भवन्ति तत् ॥ ५ ॥ तथा-सेवा संहननम्-सेरा परस्परं पर्यन्तस्पर्शलक्षणा; यत्र संहनने सेवामागतानि अस्थीनि भवन्ति, स्नेहाभ्यवहरणतैलाभ्यङ्गवि. श्रामणादिरूपां च परिशीलनो नित्यमपेक्षते तत् ॥ १॥ इति । शक्तिविशेषपक्षे तु- सागवान् ' इति भापापसिद्धशाखोटकाष्ठादेरिव दृढत्व संहननं बोध्यम् । इति ॥ सू० २१ ॥ तथा मूलम्-छविहे संठाणे पण्णत्ते, तं जहा- समचउरंसे १, जग्गोहपरिमंडले २, साई ३, खुजे ४ वामणे ५ हुंडे ६ सू॥२२॥ छाया-पइविध संस्थानं प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-समचतुरस्रम् १, न्यग्रोधपरिमल्डलं २, सादि ३, कुब्ज ४, वामनं ५, हुण्डम् ६ ॥ मू० २२ ॥ संहनन है कोलिका-इस संहननमें हड्डियां वज्र नामक फीलिका मात्रसे बंधी हुई रहती है, तथा छठा संहनन है-सेवात-इस संहननमें सेवा तक आगम हड्डियां होती हैं, अर्थात् हड्डियां आपसमें एक दूसरी हड्डिके कोनोंसे मिलीजुली रहती हैं । तेल लगानो तैलसे मालिश करना थका. वर होने पर विश्राम देना आदि रूप परिशीलना की जो नित्य अपेक्षा रखना है, ऐसा जो संहनन है, वह सेवात संहनन है, ६ इस प्रकारसे ये ६ संहनन हैं, शक्ति विशेष पक्ष में तो " सागवान " शाखोट काष्ठ आदिकी तरह जो दृढता है, वह संहनन है, ऐसा जानना चाहिये ।सू०२१॥ . (૫) કલિકા સંહનન–-આ સંહનનમાં હાડકાં માત્ર વજી નામની કલિક વડે જ બંધાયેલાં રહે છે. (૬) સેવા સંહના--આ સંહનમાં હાડકાંઓ અન્યની સાથે એક બીજાના ખૂણાઓ વડે મળેલાં રહે છે. આ પ્રકારના સંહનનવાળું શરીર તેલની માલિશની તથા થાક લાગે ત્યારે વિશ્રામ આદિ રૂપ પરિશીલતાની (સેવાની) અપેક્ષા રાખે છે, તેથી એવા સંહનનને સેવાd સંવનન કહે છે. मा माना ॥ ७ सनन ४ा छ. शहितविशेष पो त " सागवान् " શાખટ કાષ્ટ આદિની જેમ જે દઢતા છે, તે સંહનન છે, એમ સમજવું न . ॥ सू. २१ ॥ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०६ १०२२ षविधसंस्थाननिरूपणम् टीका-'छबिहे' इत्यादि संस्थानम् -अश्यवरचनारूपः शरीराकारः षड्विधं प्रज्ञसम् । तद्यथा-समयतुरस्त्रम-समा-तुल्याः चतस्रः अस्त्रया-कोटयो यस्य तत् । अस्त्रयस्त्विह-चतुदिविभागोपलक्षिताः शरीरावयवाः । अयं भाव:-यत्र संस्थाने सर्वेऽपि शरीरावयवाः चतुर्दिगू विभागोपलक्षिताः शरीरलक्षणोक्तपमाणममिता भवन्ति, न तु युना अधिकाः तत्संस्थानं समचतुत्न बोध्यमिति ॥१॥ तथा-न्यग्रोधपरिमण्डलम्-यत्र संस्थाने न्यग्रोधवत् परितो मण्डलं भवति तत् । अयं भावः-यथा न्यग्रोधो टीकार्थ-तथा-"छविहे संठाणे पण्णत्ते" इत्यादि सूत्र २२ ॥ संस्थान छह प्रकारका कहा गया है, जैसे-समचतुरस्त्रसंस्थान १ न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थान २ सादि संस्थान ३ कुजसंस्थान ४ वामन संस्थान ५ और हुंडक संस्थान ६ अवयवोंकी रचना रूप जो शरीरका आकार है, उसका नाम संस्थान है, जिस संस्थानमें शरीरका आकार ठीक प्रमाणमें होता है, वह समचतुरस्त्र संस्थान है, समान कोटि जिसकी होती है, अर्थात् शरीरके अमुक अवयव अमुक दिशाकी ओर उस शरीरके अनुसार इतने प्रमाणवाले होना चाहिये अमुक दिशाकी ओर इतने प्रमाणवाले होने चाहिये इस तरहके प्रमाणसे युक्त जिस शरीरमें उसके अवयव हों कमती बढनी न हों ऐसा वह संस्थान समः चतुरस्त्र संस्थान है । दूसरा संस्थान-न्यग्रोधपरिमण्डल है, इस संस्थान में न्यग्रोधकी वटवृक्ष तरह परितः मण्डल होताहै, तात्पर्य ऐसाहै, जैसे आय-तथा “ छबिहे संठाणे पणत्ते" त्यासंस्थानना छ ४२ ४ा छ-(१) समयतु२ख सस्थान, (२) न्याय परिभास संस्थान, (3) साहि सथान, (४) २४ सस्थान, (५) वामन सस्थान भने (6) ३४ संस्थान. અવયની રચના રૂપ જે શરીરને આકાર છે તેનું નામ સંસ્થાન છે. જે સંસ્થાનમાં શરીરને આકાર સપ્રમાણ હોય છે, તે સંસ્થાનને સમચતુરસ્ત્ર સંસ્થાન કહે છે. શરીરના જે ભાગના અવયવનું જેટલું પ્રમાણ હોવું જોઈએ એટલા પ્રમાણવાળા તે અવયે હાય-કેઈ પણ અવયવ પ્રમાણમાં વધારે ઘટાડે ન હોય, એવા સપ્રમાણ અવાવાળા શરીરને સમચતુરસ સસ્થાન કહે છે. જોધપરિમંડલ સંસ્થાન–ન્યગ્રોધ એટલે વડનું ઝાડ. જેમ વડનું ઝાડ ઉપરના ભાગમાં પરિપૂર્ણ આકારવાળું હોય છે, પણ તે નીચેના ભાગમાં પરિ. Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानामसूत्रे वटवृक्ष उपरि परिपूर्णाकारो भवति, अधरतु न तथा, तथैव यत्संस्थानं नाभे. रुपरि शरीरलक्षणोक्तावयवसमन्वितं भवति, तदधस्तु हीनमधिकं वा भवति, तत्संस्थान न्यग्रोधपरिमण्डलं बोध्यमिति ॥ २ ॥ तथा-सादि-आदिना-प्रमाणोपेतरूपेण सह पर्वते इति सादि । अत्र आदि शब्देन नाभेरधोमागो गृह्यते । ततश्च यत्र संस्थाने नाभेरधस्तनः प्रदेशः शरीरलक्षणोत्तपमागयुक्तो भवति, उपरिभागम्तु न तथा, तत् संस्थान सादीत्युच्यते, इति ॥ ३ ॥ कुजम्-यत्र संस्थाने पाणिपादशिरोप्रोत्ररूपा अवयवाः अन्यूनाधिकममाणा भवन्ति अवशिष्टा वक्षःन्यग्रोध-बटवृक्ष जारर्ने परिपूर्ण आकारवाला होता है, और अपने नीचे बह परिपूर्ण आकारवाला नहीं होताहै, उसी तरहले जो संस्थान नाभिसे ऊपर तो शरीर लक्षणोक्त प्रमाणवाले अवयवों से युक्त होता है, और नीचे नाभिले नीचे ऐसा नहीं होता है, हीन अवयोंवाला भी होता है, अधिक अवयवोंवाला भी होता है, ऐसा संस्थान न्यग्रोध परिमण्डल संस्थान है, 'सादिसंस्थान' यह तृतीय संस्थान है, इस संस्थान में आदि शब्दसे नाभिका अवो भोग गृहीत हुआ है, अतः जिस संस्थानमें नाभिसे नीचे का प्रदेश शरीरके लक्षगों में जैसा आकारका प्रमाण कहा गया है, उस प्रमाणसे युक्त हो और ऊपरका प्रदेश वैसा न हो ऐसे संस्थान का नाम सादि संस्थान है, यह संस्थान न्यग्रोध परिमण्डल संस्थान विपरीत होता है । कुज यह चतुर्य संस्थान है-इस संस्थान में कर, चरण, शिर, ग्रीवा ये सब अवयव अन्यूनाधिक प्रमागवाले होते પૂર્ણ આકારવાળું હોતું નથી, એ જ પ્રમાણે જે શરીરનું સંસ્થાન નાભિથી ઉપરના ભાગમાં તે સપ્રમાણ અવયથી (શાસ્ત્રોક્ત લક્ષણોવાળાં અવયથી) ચક્ત હોય, પરંતુ નાભિથી નીચે રહીન અવયવાળું અથવા અધિક પ્રમાણયુક્ત અવયવોવાળું હોય, તે સંસ્થાનને ન્યથ્રોધ પરિમંડલ સંસ્થાન કહે છે. આ સંસ્થાનમાં વટવૃક્ષની જેમ પરિતા મંડલ હોય છે. તેની સ્પષ્ટતા ઉપર કહ્યા પ્રમાણે સમજવી. સાદિ સંસ્થાન--અહીં આદિ પદ વડે નાભિને અર્ધો ભાગ ગૃહીત થયે જે સંસ્થાનમાં નાભિની નીચેના ભાગના અવયને આકાર સપ્રમાણે હાથ પણ નાભિની ઉપરના ભાગના અવય સપ્રમ ણ આકારવાળા ન હોય એવા સ્થાનને સાદિ સંસ્થાન કહે છે. આ સંસ્થાન જોધપરિમંડલ સંસ્થાન કરતાં વિપરીત લક્ષણોવાળું હોય છે. - કુન્જ સંસ્થાન-આ સંસ્થાનમાં હાથ, પગ, મસ્તક, ડેક આદિ અવહવે અન્યૂનાધિક પ્રમાણુવાળા ( સપ્રમાણ ) હેય છે, પણ વક્ષસ્થલ આદિ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुषा टीका स्था०६ सू२३ अनात्मवतः भहितायाद्यर्थ षस्थाननिरूपणम् ३३५ स्थलादयस्तु अवयवाः शरीरलक्षणोक्तप्रमाणरहिता भवन्ति, तत ॥ ४ ॥ वामनम्यत्र संस्थाने पाणिपादशिरोग्रीवरूपा अवयवाः लघको भवन्ति, तत् ॥ ५॥ तथाहुण्डम्-यत्र संस्थाने एकमप्यङ्ग शरीरलक्षणोक्तप्रमाणोपेतं न भाति, ततू दामू०२२॥ तथा मूलम्--छटाणा अगत्तवओ अहियाए असुहाए अखमाए अणिस्तेयसाए अणाणुगामियत्ताए भवंति, तं जहा--परियाए १, परियाले २, सुए ३, तवे ४, लाभे ५. पूयासकारे ६। छटाणा अत्तवओ हियाए जाव आणुगामियत्ताए भयंति, तं जहा--परि याले जाव पयालक्कारे ॥ सू० २३ ॥ छाया-पट् स्थानानि अनात्मवतः अहिताय अशुभाय अक्षमाय अनिःश्रेयसाय अनानुगामिकतायै भवन्ति, तद्यथा-पयायः १, परिवारः २, श्रुतम् ३, तपः ४, लाभः ५, पूजासत्कारः ६ पट् स्थानानि आत्मवतो हिताय यावत् आनुगामिकतायै भवन्ति, तद्यथा-पर्यायः परिवारो यावत् पूनासत्कारः ॥सू०२३॥ हैं, और वक्षःस्थल आदि अवयव शरीर लक्षणोक्त प्रमाणसे रहित होते हैं, ऐसा वह स स्थान कुब्ज संस्थान है, तात्पर्य यह है, कि कुन्जसंस्थानमें हाथ चरण आदि तो लम्बे होतेहैं, और मध्यभाग छोटा होता है, वामन यह ५ वां संस्थान है, इस संस्थानमें कर, चरण, शिर और ग्रीवा ये अवयव तो लघु होते हैं, और मध्य भाग बड़ा होता है, लषा जिस संस्थान में एक भी अंग शरीर लक्षणोक्त प्रमाणवाला नहीं होता है, वह हुण्डक संस्थान है । मू० २२ ॥ અવય જૂનાધિક પ્રમાણવાળા હોય છે. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે આ સંસ્થાનમાં હાથ, પગ આદિ અંગે તે ચગ્ય લંબાઈવાળા હોય છે, પણ મધ્ય ભાગ માટે હોય છે. વામન સંસ્થાન–આ સ સ્થાનમાં હાથ, પગ, મસ્તક, ડોક આદિ અવ ય લઘુ (હીન પ્રમાણવાળા) હોય છે, પણ મધ્ય ભાગ (અધિક પ્રમાણ पाणी ) जय . હડક સંસ્થાન–જે સંસ્થાનમાં શરીરનું એક પણ અંગ શાસ્ત્રોક્ત લક્ષણવાળા પ્રમાણુવાળું હોતું નથી પણ પ્રત્યેક અંગ ન્યૂનાધિક પ્રમાવાળું હોય છે, તે સંસ્થાનનું નામ હુડક સંસ્થાન છે, જે સૂ. ૨૨ છે Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानास्त्रे - - - टीका-छटाणा ' इत्यादि । अनालवतः-अपायो हि आत्मा स्वस्वरूपावस्थि तत्वादात्मेति उच्यते, एवं विध आत्मा यस्य भरति स आत्मवान् न आत्मवान्-अनात्मवान् तस्य अनात्मवतः-सकपायजीवस्य पटू स्थानानि-वस्तूनि अहिताय अपथ्याय, अशुभाय-पापाय, 'अमुखाय' इतिच्छाया पक्षे-अनुवाय-दुःखाय, अक्षमाय= टीकार्थ--"छठ्ठाणा अणत्तबमोअहियाए अनुहाए" इत्यादि सूत्र २३॥ ___ अनात्मावाले जीव के लिये छह स्थान अहित के निमित्त अशुभके निमित्त अक्षान्तिले निमित्त अकल्याणके निमित्त और अनानुगामि. कलाके निमित्त होते हैं, यहां अनात्मा शब्दसे जिसमें आत्मा नहीं है, ऐसा अर्थ नहीं लिया गया है, किन्तु जिसकी आत्मा कपाय सहित है, ऐसा प्राणो यह अर्थ लिया गया है, क्योंकि कपाय विहीन आत्मा अपने स्वरूपमें अवस्थित रहता है, अतः सच्चे अर्थ में वही आत्मा है, ऐसा आत्मा जिसका होता है, वह आत्मावाला है, और ऐसा आत्मा जिसका नहीं होता है, वह अनात्माघाला है, ऐसे अनात्मावाले जीवको पर्याय आदि ६ स्थान अहित आदिके लिये होते हैं-वे ६ स्थान इस प्रकारसे हैं-पर्याय १, परिवार २, श्रुत ३, तप ४, लाभ ५ और पूजा सत्कार ६ अहितका भाव अपथ्य है, अशुमका तात्पर्य पाप है, अथवा " असुहाए" शब्दको संस्कृत छाया-" असुखाय' ऐसी भी टा-तया " छदाणा अणत्तओ अहियाए असुहाए" त्याह અનાત્માવાળા જીવોને નીચેનાં છ સ્થાન અહિતકારી, અશુભકારી, અક્ષાન્તિકારી, અકલ્યાણકારી, અને અનાનુગામિકતાના નિમિત્ત રૂપ થઈ પડે छ. मी मनात्मा' ५६ " मामा विनान" म मथपाय नथी. પરન્તુ અહીં કષાયયુક્ત આત્માને માટે જ “અનાત્મા’ શબ્દને પ્રવેગ થયો. છે, કારણ કે કષાય રહિત આત્મા જ પિતાના મૂળ સ્વરૂપમાં અવસ્થિત રહે છે, માટે કષાય રહિત આત્મા જ ખરા અર્થમાં આત્મા કહેવાને ચગ્ય છે. જે જીવનો આત્મા કષાય રહિત હોય છે એવા જીવને જ આત્માવાળો કહી શકાય છે, જેનો આત્મા એ હું નથી તેને અનાત્માવાળે કહી શકાય છે. એવા કષાયયુક્ત જીવને માટે જે ૬ સ્થાન અહિત આદિનું નિમિત્ત બને ते ५४८ ४२वामां आवे छे-(१) पयाय, (२) परिवा२, (3) श्रुत, (४) तय, (५) मन (6) पूनसर४१२, ' આ સૂત્રમાં અહિત શબ્દ અપષ્યના અર્થમાં, અને અશુભ શબ્દ પાપના राममा १५२॥ये! छे. " असुहाए " मा ५६नी सकृत छाया “ असुखाय" Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०६ सू०२३ अनात्मवतः अहितायाद्यर्थ षड्स्थाननिरूपणम् ३३७ असामर्थ्याय अक्षान्त्यै वा, अनिःश्रेयसाय अकल्याणाय, अनानुगामिकतायै अशुभानुवन्धाय भवन्ति तद्यथा-पर्यायः जन्मकालः, प्रव्रज्याकालो वा । अयं च महानेव गृह्यते, यतोऽनात्मवान् महापर्याययुक्तश्चिन्तयति - यदहं ज्येष्ठोऽस्मि जन्मना प्रव्रज्यया वेति । अथवा-स्वल्पोऽपि प्रवज्याकालो गृहस्थापेक्षयाऽभिमानकारणं भवतीति । तत्र-जन्मपर्यायो ब्रह्मदत्तचक्रवर्तिन इव, प्रव्रज्यापर्यायः-कण्डरीकम्येवाहितादितया भवति । इति ॥ १॥ तथा-परिवार:-शिष्यादिः । २। होती है, तब इलुका अर्थ असुख-दुःख ऐला होता है, तथा अक्षम शनका अर्थ असामर्थ या अशान्ति, अनिःश्रेयसका अर्थ अकल्याण और अनानुगामिकताका अर्थ अशुभानुबन्ध ऐसा होना है, इस तरहसे ये ६ स्थान क्रोधादि कपाय सहित जीवके लिये अहित आदिके निमित्त होते हैं । पर्यायसे यहां जन्मकाल या प्रव्रज्याकाल लिया गया है, ये जन्मकाल और प्रवज्याकाल भी महान् कालके ही गृहीत हुए हैं । अल्प काल के नहीं क्योंकि अनात्मवात् जीव महापर्याप युक्त होकर ऐमा विचार करता है, कि में जन्मसे अथवा पर्यायसे ज्येष्ठ हूं इस तरहखे पर्याय उसे अहित अभिमान आदि का कारण बनती है, प्रत्रज्याकाल थोड़ा भी हो तब भी वह उसे अन्य गृहस्थकी अपेक्षा अभिमानका कारण बनता है, जिस प्रकारले ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती के लिये जन्मपर्याय अहित अभिमान आदिका कारण हुई है, और प्रवचा पर्याय कण्डरीकके लिये अहित आदिका પણ થાય છે તે પક્ષે તેને અર્થ અપુખ અથવા દુખ થાય છે. “અક્ષમ ? शहना अर्थ असामथ्य ' अथवा 'मशान्ति ' याय छ. " मनि:श्रेयस" એટલે “અકલ્યાણ” અને “અનાનુગામિકતા” એટલે “અશુભાનુબ એ અર્થ થાય છે આ પ્રકારના પર્યાય આદિ ૬ સ્થાન કોધાદિ કષાયથી યુક્ત જેને માટે અહિત આદિના નિમિત્ત રૂપ બને છે પર્યાય પદ અહીં જન્મકાળ અથવા પ્રવજ્યાકાળનુ વાચક છે તે જન્મકાળ અને પ્રવજ્યાકાળને પણ અહીં દીર્ઘકાલિન રૂપે જ ગ્રહણ કરવામાં આવે છે, અલ્પકાલિન રૂપે ગ્રહણ કરાયા નથી, કારણ કે અનાત્મવાન્ જીવ મહાપર્યાયવાળો હોય તો એવો વિચાર કરે છે કે “હું જન્મની અપેક્ષાએ અથવા પર્યાયની અપેક્ષાએ જ્યેષ્ઠ છે જે આ પ્રકારે તેને તેની પર્યાય અભિમાન આદિનું કારણ બને છે પ્રવયા કાળ ટૂંકો હોય તે પણ એવા જીવને માટે પ્રવજ્યા અભિમાનનું કારણ બની શકે છે, કારણ કે તે બ્રહ્મદર ચકવર્તીને માટે જન્મપર્યાય અહિત, અભિમાન આદિનું કારણ બની હતી અને કડરીકને માટે પ્રવજ્યા પર્યાય જેવી રીતે स्या०-४३ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाङ्गसूत्रे ३३८ "" श्रुतं = पूर्वगतादिरूपं च अहितादितया भवति । तदुक्तन्जह जह बहुस्सु संमओ य सीगण संपरिवुडो य । अविणिच्छिभ य समय तह तह सिद्धं तपडिणीओ ॥ १ ॥ " छाया -यथा यथा बहुश्रुतः सम्मतच शिष्यगणसम्परिष्कृतश्च । अनिश्चित समये (शास्त्रे ) तथा तथा मिद्धान्तप्रत्यनीकः ||१|| इति इति द्वितीयतृतीय स्थाने || २-३ | तथा - तपः - भगनादि रूपं द्वादशविधम् ४ | लाभः = अनशनादीनां प्राप्ति: ५। पूजासत्कारः - पूजा = स्तत्रादिरूपा, तत्पूर्वकः सत्कारः = वस्त्रादिदानरूपः ६ इति । तथा एतान्येव पट् स्थानानि कारण हुई है। तथा शिष्यादि रूप परिवार एवं पूर्वगतादि रूप न भी उसके लिये अहित आदिका निमित्त होता है । तदुक्तम् । 66 जहा जह बहुस्सुओ " इत्यादि । मनुष्य जैसे २ बहुश्रुत होता है, लोकमें मान्य होता है, शिष्य समूह से परिवृत होता है, वैसे २ वह सिद्धान्तसे श्रद्धा विहीन होकर प्रत्यनीक आचारविचारवाला बनता जाता है, और उससे दूर होना जाता है, इसी तरह से अनात्म जीवको तप अनशनादि रूप १२ प्रकारका तप, लाभ- अशनादिकी प्राप्ति, पूजासत्कार आदि रूप पूजा और पूजा पूर्वक वस्त्रादि दान रूप सत्कार ये सब स्थान रूप बातें उस अनात्मनाले जीव के लिये अहित आदि के निमित्त होती हैं, परन्तु जो आत्मवान् निष्पाप जीव है, उसे ये અહિત આદિનું કારણુ ખની હતી એ પ્રમાણે અનાત્મવાન્ ( કષાયયુક્ત ) જીવેશને માટે પણ જન્મપર્યાય અને પ્રત્રા પર્યાંય અહિત આદિનું કારણ મને છે. અનામવાન્ જીવને માટે શિષ્યદિ રૂપ પરિવાર અને પૂગત આદિ રૂપ શ્રુત પણ અહિત, અશુભ, અકલ્યાણુ અદિત્તુ નિમિત્ત બને છે. કહ્યું પણુ जहा जह वहुस्सुओ " त्याहि छे" મનુષ્ય જેમ જેમ બહુશ્રુત થતા જાય છે, લેાકમાં માન્ય થતુ જાય છે, શિષ્ય સમુદાયથી યુક્ત થતેા જાય છે, તેમ તેમ વિદ્વાન્ત પ્રત્યેની શ્રદ્ધાથી વિહીન બનીને પ્રત્યેનીક ( વિપરીત) આચ ર વિચારવાળે બનતા જાય છે અને તેનાથી દૂર અને દૂર થતા જાય છે. આ કથત અનાત્મન્ જીવેાને અનુલક્ષીને કરવામાં આવ્યું છે, એ જ પ્રમાથે અનાત્મવાન્ જીવતૃ' અનશનાદિ રૂપ ૧૨ પ્રકારનું તપ પણ તેનુ અહિત આદિ કરવાનું નિમિત્ત બને છે, એજ પ્રમાણે અશન પ્રાપ્તિ આદિ રૂપ લાભ અને પૂજાસત્કાર ( વસ્ત્રાદિના દાન દ્વારા થતા સત્કાર અને વદના નમસ્કાર રૂપ પૂજા) પણ એવા જીવને માટે અહિત આદિનું નિમિત્ત ખને છે. Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुषा टीका स्था०६ सू०२४ षइविधायर्यादिनिरूपणम् ३३९ निष्कषाय जीवस्य हितादित्वेन जायन्ते । अमुमेवाभिप्राय मदर्शयितुमाह-'छ हाणा अत्तवओ हिताए ' इत्यादि । अस्यार्थः पूर्वमूत्रवैपरीत्येन मावनीय इति ॥सु०२३। तथा-- मूलम्--छबिहा जाइआरिया मणुस्सा पण्णत्ता, तं जहा.. अंबट्टा य १ कलंदा य २ वेदेहा ३ वेदिगाइ य ४। हरिया ५ चुंचुणा ६ चेव छप्पेया इन्भजाइया ॥१॥ छठिवहा कुलारिया मणुस्ता पण्णत्ता, तं जहा--उग्गा १ भोगा २ राइण्णा ३ इक्खागा ४ णाया ४ कोरव्वा ६॥ सू० २४ ॥ छाया--पविधा जात्यार्या मनुष्याः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-अम्बष्ठाश्च १ कालन्दाश्च २ वैदेहा ३ वैदिका इति च ४॥ हरिता ५ 'चुचुना ६ श्चैव, पडप्येता इभ्यजातयः ।। १ ॥ पविधाः कुलार्या मनुष्याः प्रज्ञसाः, तबथा-उग्राः १, भोगाः २, राजन्याः ३, ऐक्ष्वाकाः ४, ज्ञाताः ५, कोरव्याः ६॥० २४॥ सब स्थान हितादिके लिये होते हैं । इसी अभिप्रायको दिखानेके लिये सूत्रकारने "छट्ठाणा अत्तयओ हियाए" इत्यादि सूत्र कही है, इस सूत्रका अर्थ पूर्व सूत्रसे विपरीत रूपले सावितकर लेना चाहिये ।।०२३।। ___ "छविहा जाहारिया मणुस्सा पण्णत्ता" इत्यादि सूत्र २४ ॥ सूत्रार्थ-आर्य मनुष्य छह प्रकारके कहे गये हैं, जैसे-अम्बष्ट१ कलन्द २ वैदेह ३ वैदिक ४ हारित ५ एवं चुनचुना ६ कुलार्य मनुष्य ६ प्रकारके कहे गयेहैं जैसे-उन १भोग २ राजन्य३ ऐक्ष्याक ४ ज्ञात ५ और कौरव्य ६ પરંતુ જે જીવ આત્મવાન્ (કષાયેથી રહિત) હોય છે, તેને માટે તે પર્યાય, પરિવાર આદિ રૂપ એ જ ૬ સ્થાન હિત, શુભ, કલ્યાણ આદિનું मन छे. मे पात सूत्र “छटाणा अत्तवओ हियाए " सूत्रमा वा। પ્રકટ કરી છે. આ સૂત્રને અર્થ પૂર્વ સૂત્ર કરતાં વિપરીત ગ્રહણ ४२ न . ॥ सू. २३ ॥ तथा " छविहा जाइआरिया मणुस्सा पण्णत्ता " Uत्याह સૂવાથ–આર્ય મનુષ્યના નીચે પ્રમાણે છે પ્રકાર કહ્યા છે— (१) २४५०४, (२) ४सन्ह, (3) वेट्टेड, (४) ६४, (५) हरित मन (6) ચુંચુના. કુલાર્ય મનુષ્યના નીચે પ્રમાણે ૬ પ્રકાર કહ્યા છે–(૧) ઉગ્ર, (૨) लोग, (3) २०४न्य भक्ष्मा, (५) ज्ञात मने (6) औ२व्य. Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० स्थानालपत्रे टीका--' छबिहा' इत्यादि-- जात्यार्या:-लोकरूढया जात्यार्यत्वेन प्रसिद्धा मनुष्याः पड्विधाः प्रज्ञप्ता, तद्यथा-अम्बष्ठाश्चेत्यादि गाथा । एताः पडपि इभ्य नातयः-इममहन्तीति, इभ्याः ते तु जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदात् त्रिविधाः । तत्र-ये हस्तिपरिमितमणि-मुक्तापवाल-सुवर्ण-रजतादि द्रव्यराशिस्वामिनो सवन्ति ते जघन्याः । ये तु हस्तिमरिमित बज्र-मणि-माणिक्य-राशिस्वामिनो भवन्ति ते मध्यमाः । ये तु हस्तिपरिमित केवलवनराशिस्वामिनो भवन्ति ते उत्तमाः । तेपां जातयो बोध्याः । तथा-कुलार्या:-लोकढया कुलार्यत्वेन प्रसिद्वा मनुष्याः पविधाः प्रज्ञप्ताः, तथथा-उग्रा भोगा इत्यादि । तत्र-वे आदिनाथेन भगवता अपभेण आरक्षकतया व्यवस्थापितास्ते उग्राः १ ये तु गुरुरूपेग स्थापितास्ते भोगाः २, ये पुन टीकार्थ-लोकरूढि हाराजातिसे आर्यरूपमें प्रसिद्ध जो मनुष्य हैं, वे जात्यार्य हैं । ये जात्यार्य आदिके भेदसे ६ प्रकारके कहे गये हैं। ये छहों जात्यार्य इभ्य जातिके होते हैं। ये जघन्य मध्यम और उत्कृष्टके भेदसे तीन प्रकारके कहे गये हैं। इनमें जो हस्ति परिमित मणि, मुक्ता, प्रवाल, सुवर्ण, रजत आदि द्रव्यराशिके स्वामी होते हैं, वे जघन्य जात्याय हैं, जो हस्ति परिमित वज्र, मणि, माणिक्य आदि राशिके स्वामी होते हैं वे मध्यम जात्यार्य हैं, और जो हस्ति परिमित केवल वज्रराशिके स्वामी होते हैं वे उत्तम जात्यायें हैं । लोकरूढि द्वारा जो कुलार्य रूपसे प्रसिद्ध मनुष्यहैं वे कुलार्य भी उग्र भोग, आदि रूपसे ६ प्रकारके कहे गये हैं। इनमें भगवान आदिनाथके द्वारा जो आरक्षक (कोटवाल) रूपसे व्यवस्थापित किये गये वे उग्र हैं, जो गुरुरूपसे व्यव ટીકાઈ-લોકરુઢિ દ્વારા જેઓ જાતિની અપેક્ષાએ આર્ય ગણાય છે, તે મનુષ્યને જાત્યાયે કહે છે. તેને અમ્બઇ આદિ ૬ ભેદ બતાવ્યા છે. આ છએ જાત્યાયે ઈભ્ય જાતિના હોય છે. તેમને જઘન્ય, મધ્યમ અને ઉત્કૃષ્ટના ભેદથી ત્રણ પ્રકારના કહ્યા છે. જે આ હસ્તિ પરિમિત (હાથીના જેટલા વજનના) मणि, माती, प्रवास, सानु', यही मा द्र०य२.शिना स्वामी डाय छ, તેમને જઘન્ય જાત્યાય કહે છે. જેઓ હસ્તિપરિમિત વા, મણિ, માણેક, આદિ દ્રવ્યરાશિના સ્વામી હોય છે, તેમને મધ્યમ જાત્યાયં કહે છે. જે હસ્તિપરિમિત વજીના સ્વામી હોય છે, તેમને ઉત્તમ જાત્યાયે કહે છે. લેકરુઢિ દ્વારા જે મનુષ્ય કુલાર્થ રૂપે પ્રસિદ્ધ છે તેમને કુલાર્ય કહે છે. તે કુલાર્યના પણ ઉગ્ર આદિ રૂપ છ પ્રકાર કહ્યા છે– ભવાન આદિનાથ દ્વારા જેમને આરક્ષક (કેટવાલ) રૂપે નિયુક્ત કરવામાં આવ્યા હતા તેમને ઉગ્ર કહે છે અને જેમને ગુરુ રૂપે નિયુક્ત કર Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४१ सुधा टीका स्था०६ सू०२१ लोकस्थित्यादिनिरूपणम् यस्यभावेन स्वीकृतास्ते राजन्या बोध्याः ३। ऐक्ष्वाकाः-ऋषभवंशनाः । ज्ञाता भगवन्महावीरपूर्वजाः १। कौरव्या-जिनशान्तिनाथपूर्वजा.६, इति।।सू०२४॥ मूलम्--छविहा लोमट्टिई पण्णत्ता, तं जहा--आगासपइ. हिए वाए १, वायपइट्ठिए उदही २, उदहीपठिया पुढवी ३, पुढविपइट्रिया तसा थावरा पाणा ४, अजीवा जीवपइट्रिया ५, जीवाः करमपइट्रिया ६ ॥ सू० २५॥ छाया---पविधा लोकस्थितिः प्रज्ञप्ता, तद्यथा-आकाशप्रतिष्ठितो वातः १, वातमतिष्ठित उदधिः २, उदधिप्रतिष्ठिता पृथिवी ३, पृथिवी प्रतिष्ठिनास्त्रसाः स्थावराः प्राणाः ४, अजीवा जीवप्रतिष्ठिताः ५, जीवाः कर्मप्रतिष्ठिताः॥मू०२५॥ टीका--'छबिहा' इत्यादि-- लोकस्थितिः लोकस्य क्षेत्रलक्षणस्य स्थितिः व्यवस्था, सा पइविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-आकाशपतिष्ठितो वातः-तनुवातघन पातलक्षणः ।१। वातपति स्थापित किये गये-वे भोग हैं २ जो बयस्प (मित्र) भोक्से व्यवस्थापित किये गये स्वीकृत किये गये वे राजन्य हैं ऋषभके वंशके जो हैं, वे ऐक्ष्वाक हैं, अगवान महावीरके जो पूर्वज हैं वे ज्ञात हैं शान्तिनाथ भगवान के जो पूर्वज हैं वे कौरव्य हैं। स्व० २४ ॥ __ जातिले आर्यपन जो होता है, वह लोकस्थिति से होता है, इसलिये अब सूत्रकार लोकस्थितिकी प्ररूपणा करते हैं 'छविहा लोगहिई पण्णत्ता' इत्यादि सूत्र २५ ॥ टीकार्थ-लोक क्षेत्रको स्थिति व्यवस्थी छह प्रकारकी कही गई है, जैसे-आकाश प्रतिष्ठिन वात १ आकाश प्रतिष्ठित वातमें तनुवात और વામાં આવ્યા હતા તેમને ભેગ કહે છે. જેમને તેમના દ્વારા વયસ્ય (મિત્ર) ભાવે વ્યવસ્થાપિત (સ્વીકૃત) કરવામાં આવ્યા તેમને રાજન્ય કહે છે. ઋષ ભના વંશમાં જેમને જન્મ થયો હોય તેમને ઔદ્યાક કહે છે. ભગવાન મહાવીરના પૂર્વ જેને જ્ઞાત કહે છે અને શાતિનાથ ભગવાનના પૂર્વજોને औ२०५ (२५) ४ छ. ॥ सू. २४ ॥ લેકસ્થિતિને લીધે જાતિની અપેક્ષાએ આર્યવ પ્રાપ્ત થાય છે. તેથી હવે સૂત્રકાર લેક સ્થિતિની પ્રરૂપણ કરે છે – ___ "छविहां लोगदिई पण्णत्ता" त्याह ટીકાઈ–લેકક્ષેત્રની સ્થિતિ (વ્યવસ્થા) છ પ્રકારની કહી છે–(૧) આકાશ પ્રતિષિત વાત. તેમાં તનુવાત અને ઘનવાત એ બનને વાતને સમાવેશ થાય Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाङ्गसूत्रे ष्ठितः-तनुवातथनवातलक्षणे वाते व्यवरिथत उदधिः-बनोदधिः २। उदधिपतिष्ठिता-बनोदधौ व्यवस्थिता पृथिवी-(त्नप्रभादिका । यद्यपि ईपत्प्राग्भारा पृथिवी आकाशप्रतिष्ठिता, अन्याश्चापि विमानपर्वतादि पृथिव्य आकागादिप्रतिष्ठिता नतूदधिप्रतिष्ठिताः, एवं च “ उदधिप्रतिष्ठिता पृथिवी " इति न वक्तव्यं, रत्नप्रमादीनां बाहुल्यात् उदधिप्रतिष्ठितत्वेन पृथिवी उक्तेति बोध्यम् । ३ । तथा-पृथिवीप्रतिष्ठिताः सा स्थावरा प्राणा:-तत्र साः प्राणा: द्वीन्द्रियादयः पाणिनः पृथिवीप्रतिष्ठिताः पृथिव्यां व्यवस्थिताः । आकाशादिप्रतिष्ठितः पर्वतविमानादिः पृथिवीनामपि पृथिवीत्वात्तत्रप्रतिष्ठिताः सा जीवा अपि पृथिवीम तिष्ठिता एव बोध्याः । तद्गतदेवादित्रसजीवानामविवक्षा वा बोध्या । तथाधनवात ये दोनों वात गभित हैं। वात प्रतिष्ठित उदधि २, उदधि प्रतिष्ठित पृथिवी-वनोदधिमें प्रतिष्ठिन-व्यवस्थित रत्नप्रभा आदि पृथिवी यद्यपि ईपत्यारभारा पृथिवी आकाश प्रतिष्ठिन है, तथा और भी विमान पर्वत आदि रूप प्रधिवियां आकाश आदिमें प्रतिष्ठित हैं, उद्धिमें प्रतिष्ठिन नहीं हैं, फिर भी यहां "उदधि प्रतिष्टिता पृथिवी" ऐसा जो कहा गया है, वह रत्नप्रभा आदिकोंकी बहुलता लेकर कहा गया है, क्योंकि ये पृथिवियों तो उदधि प्रतिष्ठित हैं, ही ३ पृथिवी प्रतिष्ठित बस स्थावर जीव (हीन्द्रियादिक जीव पृथिवी पर प्रतिष्ठित व्यवस्थित) है। आकाश आदिमें प्रतिष्ठिन पर्यन विमान आदि रूप पृथिवियों में भी पृथिवीत्व सामान्य होने के कारण उन में प्रतिटित त्रस जीव भी पृथिवी प्रतिष्ठितही जानना चाहिये अथवा-विमान છે. (૨) વાત પ્રતિષ્ઠિત ઉદધિ-તનુવાત ઘનવાત રૂપ વ તને વ્યવસ્થિત ઉદધિ सरधनाधि (3) हघि प्रतिष्ठित पृथ्वी --बधिमा प्रतिष्ठित ( व्यव. સ્થિત ) રતનપ્રભા આદિ પૃથ્વી જે કે ઈ–ભારે પૃથ્વી આકાશપ્રતિષ્ઠિત છે અને વિમાન, પર્વત આદિ રૂપ બીજી પૃથ્વીઓ પણ આકાશ આદિમાં प्रतित (व्यवस्थित ) छ, धिमा प्रतिनिधी, ७i 4] मडी “धि પ્રતિષ્ઠિત પૃથ્વી ” આ પ્રકારનું જે કથન કરવામાં આવ્યું છે તે રત્નપ્રભા આદિ પ્રવીઓની બહુલતાને લીધે કરવામાં આવ્યું છે, કારણ કે તે પૃથ્વી તે ઉદધિ પ્રતિષ્ઠિત જ છે. (૪) પૃથ્વી પ્રતિષ્ઠિત ત્રસ સ્થાવર જીવ--કારણ કે હીન્દ્રિયદિક જો પૃથ્વી પર જ વ્યવસ્થિત હોય છે. આકાશ આદિમાં પ્રતિષ્ઠિત પર્વત, વિમાન આદિ રૂપ પૃથ્વીઓમાં પણ મૃત્વ સામાન્ય હોવાને કારણે તેમાં પ્રતિષ્ઠિત (રહેલા) ત્રસ જી પણ પૃથ્વી પ્રતિષ્ઠિત જ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा ठीका स्था०६ सू०२५ लोकस्थित्यादिनिरूपणम् ३४३ पृथिवी प्रतिष्ठिताः स्थावराः = वादरवनस्पत्यादयो जीवाः । सुक्ष्माः स्थावरास्तु सकललोकप्रतिष्ठिता इति स्थावरपदेनात्र बादरा एव गृह्यन्ते इति बोध्यम् । इति चतुर्थ स्थानम् । तथा - अजीवाः = औदारिकादि पुद्गला जीवप्रतिष्ठिता:= जीवेषु व्यवस्थिताः | अजीवानां जीवप्रतिष्ठितत्वमनियतं, जीवाऽप्रतिष्ठितत्वेनापि बहुतराणां तेषां तद्भावादिति पश्वमं स्थानम् । तथा - जीवाः कर्मप्रतिष्ठिताः - कर्मसु = ज्ञानावरणीयादिषु स्थिताः विज्ञेयाः । कर्मप्रतिष्ठितभिन्ना जीवास्तु प्रायो न सन्तीत्यपि बोध्यमिति पष्ठं स्थानम् ॥ सु० २५ ॥ , ' जीवाः कर्मप्रतिष्ठिताः -' इत्युक्तम् तेषां जीवानां गत्यादयो भवन्ति, गत्यादयश्च दिवेवेति दिशो गत्यादींश्च प्ररूपयति- " मूलम् -- छद्दिसाओ पण्णत्ताओ, तं जहा - पाईणा १, पडोणा २, दाहिणा ३, उईणा, ४, उड्डा ५, अहा ६। छहिं दिसाहिं जीवाणं गई पवत्त, तं जहा -पाईगाए जाव अहाए । १ । एवगत देवादि त्रस जीवों की अविवक्षा समझना चाहिये तथा पृथिवी में प्रतिष्ठित स्थावर ऐसा जो कहा गया है, सो इससे चादर वनस्पत्यादि जीवही ग्रहण करना चाहिये क्योंकि सूक्ष्म स्थावर तो सकल लोकमें प्रतिष्ठित हैं, अतः स्थावर पदसे यहां बादर स्थावरही गृहीत हुए हैं, ऐसा समझना चाहिये ४ जीव में प्रतिष्ठित अजीव औदारिक आदि पुद्गल ५ अजीब में प्रतिष्ठित जीव " ऐसा इसलिये नहीं कहा गया है, कि बहुत से अजीव जीव द्वारा अप्रतिष्ठित हुए भी देखे जाते हैं, और कर्म प्रतिष्ठित जीव ६ ज्ञानावरणीय आदि कर्मों में स्थित जीव ||म्र० २५/ સમજવા જોઇએ. અથવા વિમાનગત દેવાદિ ત્રસજીવે ની અવિવક્ષા સમજવી જોઈએ. એટલે કે તેમના પૃથ્વીપ્રતિષ્ઠિત સેામાં સમાવેશ થવા જોઈએ નહીં, પૃથ્વીપ્રતિષ્ઠિ સ્થાવર’ એવું જે કહેવામાં આવ્યુ છે તે કથન દ્વારા માદર વનસ્પતિ આદિ જીવે જ ગ્રહણ કરવા જોઈએ. કારણ કે સૂક્ષ્મ સ્થાવર તે સકલ લેકમાં રહેલા છે. તેથી સ્થાવર પદ દ્વારા અડી ખાદર સ્થાવરને જ ગ્રહણ કરવા જોઇએ. (૫) જીવમાં પ્રતિષ્ઠિત અજીવ— ઔદારિક આદિ પુદ્ગલ सही "कुत्रमां प्रतिष्ठित " मा प्रातुं न श्वामां मायु नथी. તેનું કારણ એ છે કે ઘણા અજીત્રા છત્ર દ્વારા અપ્રતિષ્ઠિત રૂપે પશુ લેવામાં આવે છે. (૬) ક`પ્રતિષ્ઠિત જીવ એટલે કે જ્ઞાનાવરણીય આદિ કર્મોમાં સ્થિત જીવ. !! સૂ. ૨૫ ॥ 6 Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाङ्गसुत्रे ३४४ माई २, बी ३, आहारे ४, बुड्ढी ५, निवुड्डी ६, विगुव्वणा ७, गइपरियाए ८, समुग्धाए ९, कालसंजोगे ९१०. दंसणामिग ११, णाणाभिगमे १२, जीवाभिगमे १३, अजवाभिगमे १३ | एवं पंचिदियतिरिकख जोणियाणवि मणुस्साणवि ॥सू० २६|| छाया - पड् दिशः मज्ञप्ताः, तद्यथा- प्राचीनार, प्रतीचीनार, दक्षिणा ३, उदी चीना ४, ५, अघ । पभिर्दिग्मिर्जीवानां गतिः प्रवर्तते, तद्यथाप्राचीनया यावत् अथः । एवम् आगतिः २ व्युत्क्रान्तिः ३, आदारः ४, वृद्धि: ५, निर्वृद्धिः, विक्रिया ७, गतिपर्यायः ८, समुद्घातः ९, कालसंयोगः १०, दर्शनाभिगमः १९, ज्ञानाभिगमः १२, जीवाभिगमः १३, अजीवाभिगमः १४ एवं पञ्चन्द्रियतिर्यग्योनिकानामपि मनुष्याणामपि ॥ ० २६ ॥ टीका' छडियाओ' इत्यादि- दिशोहि - पाचीना = पूर्वा, प्रतीचीना=पश्चिमा, दक्षिणा, उदीचीना = उत्तरा, ऊ, अवश्चेति पह बोध्याः । आग्नेयेशान वायव्यनैर्ऋतानां चतसृणां विदिशां तु विदित्वात् दिवेनाग्रहणात् पडेव दिश उक्ताः । अथवा जीवानां गतिव्युत्क्रा जीव कर्म प्रतिष्ठित है, ऐसा कहा सो इसी जीवके सम्बन्धको लेकर अब सूत्रकार जन जीवोंकी जो गति होती है, वह दिशाओं में ही होती है, इससे उनकी गतियोंका एवं दिशाओंकी प्ररूपणा करते हैं - 'छदिसाओ पण्णत्ताओ' इत्यादि सूत्र २६ ॥ टीकार्थ- दिशाएँ छह कही गई हैं, जैसे-प्राचीन (पूर्व) १ प्रतीचीन र दक्षिण ३ उदीचीन उत्तर४ उर्ध्व और अधः ६ आग्नेय, ऐशान वायव्य और नैर्ऋत्य ये चार विदिशाएँ हैं, अतः इनका ग्रहण विदिशा होनेके कारण नहीं આગલા સૂત્રમા એવુ' કહેવામાં આવ્યુ છે કે જીવ કમ પ્રતિષ્ઠિત છે. જીવાની ગતિ દિશાઓમાં જ થાય છે, તેથી હવે સૂત્રકાર તેમની ગતિએની તથા દિશાઓની પ્રરૂપણા કરે છે " छद्दिसाओ पण्णत्ताओ " त्याहि टीअर्थ - हिशाम ६ ही छे – (१) प्राचीन (पूर्व), (२) अतीथीन (पश्चिम), (3) हक्षिणु, (४) उट्टीथीन (उत्तर), (५) हिशा अने (६) अधोदिशा. ઇશાન, અગ્નિ, નૈઋત્ય અને વાયવ્ય, એ ચાર વિદિશાએ હાવાથી તેમને અહી ગ્રતુણુ કરવામાં આવી નથી, તે કારણે પૂર્વાદિ ૬ દિશાએ જ અહી” Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४५ सुधा टीका स्था०६ सू०२६ जीवानां दिशोगत्यादींश्च निरूपणम् न्त्यादयः षट्स्वेव दिक्षु भवन्तीति पडू दिशः मोक्ताः । यद्वा-पट्स्थानकानु. - रोधेन पडेव दिश उक्ताः । सम्पति गत्यादिकं प्ररूपयति-' छहिं दिसाहिं' इत्यादिना । जीवानाम् अनुश्रेणिगमनात् पूर्वादिभिः पड्भिदिग्भिः गति:उत्पत्तिस्थानगमनं प्रवर्तते भवति ॥ १ ॥ एवम्-जीपानाम् आगतिः उत्पत्तिस्थानागमनं षड्भिदिभिः प्रवर्तते । गतिरागतिश्चेति द्वयं प्रज्ञापकापेक्षया पूर्वादिदिशाश्रितं बोध्यम् ॥ ३ ॥ तथा-व्युत्क्रान्तिः-उत्पत्तिस्थानप्राप्तस्य जीवस्य उत्पत्तिः । साऽपि जुगतौ पःस्वेव दिक्षु भवति ॥ ३॥ तथा आहारोऽपि पड्हुआ इसलिये दिशाएँ ६ ही कही गई हैं । अथवा-जीवों की गति एवं व्युत्क्रान्ति आदि छह ही दिशाओं में होती है इसलिये छह ही दिशाएँ कही गई हैं। अथवा-बट स्थानक के अनुरोध से ही छह दिशाएँ कही गई हैं । अब गत्यादिककी प्ररूपणा सूत्रकार करते हैं-"छहिं दिसाहिं " इत्यादि जीवों की गति श्रेणिके अनुसार होती है इसलिये वे पूर्वादि छह दिशाओं से होकर ही अपने अधिष्ठित स्थान से उत्पत्ति स्थानके प्रति गमन करते हैं १ इसी प्रकार से जीवोंकी आगति उत्पत्तिस्थानके प्रति आगमन भी छह दिशाओं से ही होता है । तात्पर्य यही है कि गति और आगति ये दोनों ही जीवों की प्रज्ञापक स्थान की अपेक्षा से पूर्वादि दिशाओं के आश्रित होती हैं । तथा-व्युत्क्रान्ति-उत्पत्तिस्थानमें प्राप्त जीव की उत्पत्ति भी ऋजुगति के होने पर छह ही दिशा ओंमें होती है ३ तथा आहार भी छह ही दिशाओं से होता है। કહેવામાં આવી છે અથવા-જીવની ગતિ અને વ્યુત્કાન્તિ આદિ ૯ દિશાએમાં જ થાય છે, તે કારણે દિશાઓ છ જ કહેવામાં આવી છે અથવા છે સ્થાનકનો અધિકાર ચાલતું હોવાથી અહીં ૬ મુખ્ય દિશાઓનું જ કથન કરવામાં આવ્યું છે. હવે સૂત્રકાર ગતિ આદિની પ્રરૂપણ કરે છે – "छहि दिसाहि" त्याह જીવની ગતિ શ્રેણિ અનુસાર થાય છે, તેથી તેઓ પૂર્વાદ છ દિશાએમાં થઈને જ પિતાના અધિષિત સ્થાનમાંથી ઉત્પત્તિસ્થાન તરફ ગમન કરે છે. ૧ એ જ પ્રમાણે જીવોની આગતિ-ઉત્પત્તિસથાન તરફ આગમન પણ ૬ દિશાઓમાંથી જ થાય છે. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે જીવની ગતિ અને આગતિ આ બંને પ્રજ્ઞાપક સ્થાનની અપેક્ષાએ પૂર્વાદિ દિશાઓને આશ્રિત હોય છે ૨તથા વ્યુત્ક્રાન્તિ-ઉત્પત્તિસ્થાનને પ્રાપ્ત જીવની તે ઉત્પત્તિસ્થાનમાં ઉત્પત્તિ–પણ બાજુ ગતિના છએ દિશાઓમાં જ થાય છે. ૩૫ स्था०-४४ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ स्थानाने भिरेव दिग्भिर्भवति । यतो जीवाः पूर्वादि दिग्व्यवस्थितप्रदेशावगाहपुद्गलानेव स्पृशन्ति, स्पृष्टानेव चाहरन्तीति ॥ ४ ॥ तथा-वृद्धिः उपचयः पभिर्दिग्भिभवति ॥ ५॥ एवं पड्दिगाश्रितत्वं निवृद्धयादिवपि वोध्यम् । तत्र-निर्वृद्धि: शरीरस्य हानिः ॥६॥ विक्रिया शरीरस्य वैक्रियकरणम् ।। ७॥ गतिपर्याय गमनमात्र न तु परलोकगमनरूपः, तस्य गत्यागतिशब्दे ग्रहणात् ॥ ८॥ समुघाता-वेदनादिकः सप्तमकारः॥९॥ कालसंयोगः समयक्षेत्र आदित्यादिप्रकाशसम्बन्धलक्षणः । आदित्यादि मकागस्यैव कालनियामकतया कालत्वं बोध्यम् क्योंकि जीव पूर्वादि दिशाओं के व्यवस्थित प्रदेशों में अवगाढ हुए पुद्गलों का स्पर्श करते हैं और स्पृष्ट हुए उन्हीं पुद्गलों का आहार करते है।४। तथा-वृद्धि भी-उपचय भी छह दिशाओं से होती है ५ इसी प्रकार से निर्वृद्धि विकुर्वणा आदिकों में भी षटू दिगाश्रितता जाननी चाहिये । शरीर की हानि का नाम निद्धि है ६। शरीर को भिन्न २ रूप में परिणमाना इसका नाम विक्रिया है ७ गतिपर्याय-सामान्य गमन का नाम है ८। यहां गतिपर्याय से परलोक में जो जीवका गमन होता है वह गृहीत नहीं हुआ है क्योंकि उसका तो ग्रहण गति और आगति में हो चुका है । सूल शरीर को न छोड़कर आत्मा के कुछ प्रदेशों का शरीर से बाहर निकलना इसका नाम समुद्घातहै ९ और यह समुद्घात वेदना समुद्घात आदिके भेदसे ७ प्रकार का कहा गया है। समयक्षेत्रमें मनुष्यक्षेत्रमें-जो आदित्य आदि के प्रकाश का सम्बતથા આહાર પણ છએ દિશાઓમાંથી ગ્રહણ થાય છે, કારણ કે જીવ પૂર્વાદિ દિશાઓમાં રહેલા પ્રદેશમાં અવગાઢ થયેલાં પુલને સ્પર્શ કરે છે અને સ્કૃષ્ટ થયેલાં તે પુલોને જ આહાર કરે છે ૪ તથા વૃદ્ધિ (ઉપચય) પણ છએ દિશાઓમાંથી થાય છે. પા એ જ પ્રમાણે નિર્વેદ્ધિ, વિક્ર્વણ આદિ પણ છએ દિશાઓને આશ્રિત હોય છે, એમ સમજવું. શરીરની હાનિનું નામ નિદ્ધિ છે. ૬ શરીરને જુદા જુદા રૂપે પરિણુમાવવું તેનું નામ વિકિયા છે. ૫૭૫ ગતિપર્યાય-સામાન્ય ગતિનું નામ ગતિપર્યાય છે. અહીં “ગતિપર્યાય પદ પરલોકમાં જીવના ગમનનું વાચક નથી, કારણ કે તેનું તે ગતિ અને આગતિમાં ગ્રહણ થઈ ચુકયું છે. મૂળ શરીરને છેડયા વિના આત્માના કેટલાક પ્રદેશને બહાર કાઢવા તેનું નામ સમુદ્યાત છે. તે સમુદ્દઘાતના વેદને સમુદુઘાત આદિ સાત પ્રકાર કહ્યા છે. ૯ો સમયક્ષેત્રમાં-મનુષ્યક્ષેત્રમાં જે સૂર્ય આદિના પ્રકાશને સંબંધ છે, તે Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा का स्था०६ सू०२६ जीवानां दिशोगत्यादींश्च निरूपणम् ३४७ ॥ १० ॥ दर्शनाभिगमः-दर्शनम्-सामान्यग्राही बोधः, तच्चेह-गुणपत्ययावध्यादिप्रत्यक्षरूपम् , तेन अभिगमा वस्तुनः परिच्छेदः, तस्य अभिगमःमाप्तिर्वति ॥ ११ ॥ ज्ञानाभिगमः-ज्ञान-मत्यादि लक्षणं, तेन तस्य वा अभिगमः ॥१२॥ जीवाभिगमः-जीवानां प्राणिनाम् अभिगमो गुणप्रत्ययावध्यादिप्रत्यक्षतः॥ १३ ॥ अजीवाभिगमः-अजीवानां-पुद्गलास्तिकायादीनाम् अभिगमा परिच्छेदो गुणप्रत्ययावध्यादि प्रत्यक्षतः ॥१४॥ इति । एवम् अमुना प्रकारेण-यथा जीवानां पडू भिदिग्भिः गत्यादीनि भवन्ति तथैव-चतुर्विंशतिदण्डकेपु पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योन्ध है वह काल संयोग है यहां काल का नियामक होने से आदित्य आदि के प्रकाश को ही काल कह दिया गया है १० सामान्य को ग्रहण करनेवाला जो बोध है उसका नाम दर्शन है वह दर्शन यहां गुणप्रत्यय जो अवधि आदि प्रत्यक्ष हैं तद्रूप लिया गया है इस दर्शन से जो वस्तु का परिच्छेद है वह अथवा इसकी जो प्राप्ति है वह दर्शनाभिगम है ११ मत्यादि रूप ज्ञान ले जो अभिगम है वह अथवा मत्यादि रूप ज्ञान का जो अभिगम प्राप्ति है वह ज्ञानाभिगम है :१२ जीवों का जो गुण प्रत्यय अवधि आदि प्रत्यक्ष से परिच्छेद होता है वह जीवाभिगम है १३ पुद्गलास्तिकाय आदिकों का जो गुण प्रत्यय अवधि आदि प्रत्यक्ष से परिच्छेद ज्ञान होता है वह अजीवाभिगम है १४ इस तरह से जैसे जीवों की छह दिशाओं से ये गत्यादिक वस्तुएँ होती हैं उसी तरह से चौवीस दण्डकों में पञ्चेन्द्रिय तिर्थश्च योनिकों की छह दिशाओं કાળસંગ છે. આદિત્ય આદિ દ્વારા જ કાળનું નિયમન થતું હોવાથી અહીં આદિત્ય આદિના પ્રકાશને જ કાળરૂપે પ્રકટ કરવામાં આવેલ છે. ૧૦ સામાન્યને ગ્રહણ કરનાર જે બોધ છે, તેનું નામ દર્શન છે. તે દર્શનને અહીં ગુણપ્રત્યય અવધિ આદિ પ્રત્યક્ષ રૂપે ગ્રહણ કરવામાં આવેલ છે. તે દર્શન દ્વારા વસ્તુને જે પરિછેદ (બંધ) થાય છે તેને અથવા તેની જે પ્રાપ્તિ છે તેનું નામ દર્શનાભિગમ છે. ૧૧ મતિજ્ઞાન આદિ રૂપ જ્ઞાન વડે જે અભિગમ થાય છે તેને અથવા મતિજ્ઞાન આદિ રૂપ જ્ઞાનને જે અભિગમ (પ્રાપ્તિ) થાય છે તેને જ્ઞાનાભિગમ કહે છે. ૧૨ ગુણપ્રત્યય અવધિ આદિ પ્રત્યક્ષ વડે જીવોનો જે પરિચ્છેદ (બોધ) થાય છે તેનું નામ જીવાભિગમ છે_ ૧૩. પુદ્ગલાસ્તિકાય આદિકેને ગુણપ્રત્યય અવધિ આદિ પ્રત્યક્ષ વડે જે પરિચ્છેદ (બાધ-જ્ઞાન) થાય છે તેનું નામ અજીવાભિગમ છે. ૩ ૧૪ આ રીતે જેમ જીવોની ગતિ આદિ ઉપર્યુક્ત વસ્તુઓ છએ દિશામાં થાય છે, એ જ પ્રમાણે ચાવીસ દંડકના જીવમાંના પચેન્દ્રિય તિર્યંચનિની ગતિ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩૪૮ स्थानानसूत्रे निकानां पभिर्दिग्भिर्गत्यादीनि भवन्ति, मनुष्याणामपि पड्मिर्दिग्भिर्गत्यादीनि भवन्तीति । नारकादयो द्वाविंशतिदण्डकगता जीवास्तु पभिर्दिग्मिर्गत्यादिमन्तो न भवन्ति । तथाहि-नारकादीनां द्वाविंशतेनीवविशेपाणां तु नारकदेवेषु उत्पत्त्यभावात् ऊ धोदिशौ आश्रित्य गत्यागत्योरभावः । तथा-गुणप्रत्ययावधिलक्षणप्रत्यक्षरूपा दर्शनज्ञानजीवाजीवाभिगमा अपि तेपां न भवन्ति । भवप्रत्ययावधिपक्षेतु नारकज्योतिष्कास्तियंगवधयः, भवनपतिव्यन्तरा ऊर्धायधयः, वैमानिकास्त्वधोऽवधयः, शेपास्तु निरवधयो योध्याः ॥ इतिः ० २६ ॥ से गत्यादिक वस्तुएँ होती हैं मनुष्यों की भी छह दिशाओं से ये गत्यादिक वस्तुएँ होती हैं । परन्तु जो नारकादि २२ दण्डकगत जीव हैं वे छह दिशाओं से गत्यादिवाले नहीं होते हैं क्योंकि २२ जीव विशेष रूप नारक आदिकों का नारक देवों में उत्पत्ति का अभाव रहता है इसलिये ऊर्ध्वदिशा और अधो दिशा को आश्रित करके गति और आगति का अभाव है नारक मरकर द्वितीय भव में नारक और देव नहीं होता है और देव मरकर अनन्तर भव में द्विताय भव में देव एवं नारक नहीं होता है । तथा गुण प्रत्यय-तपस्यादि जन्य अव. धिज्ञान अवधिदर्शन जीवाभिगम और अजीवाभिगम ये सब भी उनके नहीं होते हैं परन्तु भवप्रत्यय अवधिपक्षमें तो नारक एक ज्योतिष्क तिर्यगवधिवाले होते हैं भवनपति और व्यन्तर ऊ अवधिवाले होते हैं। અધિક વસ્તુઓ છએ દિશામાંથી થાય છે. મનુષ્યની ગતિ આદિક વસ્તુઓ પણ એ દિશામાંથી થાય છે. પરંતુ નારક આદિ ૨૨ દંડકગત જીવો એ દિશાઓમાં ગતિ આદિવાળાં હોતા નથી, કારણ કે તે ૨૨ પ્રકારના જીવ. વિશેષ રૂપ નારક આદિકેને નારકે અને દેવોમાં ઉત્પત્તિનો અભાવ રહે છે. તે કારણે તે જીવમાં ઉર્વદિશા અને અદિશા તરફની ગતિ અને આગ તિને અભાવ રહે છે. નારક જીવ તેનું નરકગતિનું આયુષ્ય પૂરું કરીને ત્યાર પછીના ભવમાં નારક રૂપે કે દેવ રૂપે ઉત્પન્ન થતું નથી, અને દેવ પણ તેનું દેવકનું આયુષ્ય પૂરૂ કરીને પછી ભવમાં દેવ અથવા નારક રૂપે ઉત્પન્ન થતું નથી. તથા તેમનામાં ગુણપ્રત્યય (તપસ્યાદિ જન્ય) અવધિજ્ઞાન, અવધિદર્શન, જીવાભિગમ અને અછવાભિગમને સદ્ભાવ હોતો નથી. પરંતુ ભવપ્રત્યય અવધિની અપેક્ષાએ વિચાર કરવામાં આવે તો નારક અને જ્યોતિષ્ક તિર્થ અવધિવાળા હોય છે, ભવનપતિ અને વ્યન્તર ઉદર્વ અવધિવાળા Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुंधा टीका स्था०६ सू०२७ संयतमनुष्याणाम् आहारगृहणागृहणकारणम् ३४६ मतुष्याणामजीवाभिगमः प्रोक्त इति मनुष्यप्रस्तावात् सम्प्रति संयतमनुष्याणाम् आहारग्रहणाग्रहण कारणानि माह____ मूलम्-छहिं ठाणेहिं समणे णिग्गंथे आहारमाहरमाणे णाइकमइ, तं जहा--वेयणे वेयावच्चे २ ईरियटाए ३ य संजमहाए । तह पाणवत्तियाए । छठें पुण धम्मचिंताए ६॥ १॥ छहिं ठाणेहि समणे णिगंथे आहारं वोच्छिदमाणे णाइकमइ, तं जहा--आयके १ उवसग्गे २, तितिक्खणे बंभचेरगुत्तीए ३। पाणिदयातव ५ हेडं, सरीरवुन्छेयणटाए ६ ॥१॥ सू० २७ ॥ __छाया-पभिः स्थानः श्रमणो निर्ग्रन्थः आहारमाहरन् नातिकामति, तद्यथा-वेदनावैयावृत्त्ये २ ईर्यार्थाय ३ च संयमार्थाय ४] तथा प्राणवृत्तये ५ पष्ठं पुनर्धर्मचिन्तायै ६॥ १ ॥ पडूभिः स्थानः श्रमणो निर्ग्रन्थ आहारं व्युच्छिन्दन् नातिक्रामति, तद्यथा-आतङ्के १ उपसर्गे २ तितिक्षणे ब्रह्मचर्यगुप्तेः ३। माणिदया तपो ५ हेतोः शरीरव्युच्छेदनार्थाय ६ ॥१॥ मू० २७॥ टीका-'छहिं ठाणेहिं ' इत्यादि श्रमणो निम्रन्थः पभिः स्थानः कारणैः आहारम् आहरन्-भुञ्जानो नातिएवं वैमानिक देव अधो अवधिघाले होते हैं तथा इनसे बाकी बचे हुए जीव अवधिरहित होते हैं । स्व० २६ ॥ . मनुष्यों को अजीवाभिगम कहा गया है सो इसी मनुष्य के प्रस्ताव को लेकर अब सूत्रकार संयत मनुष्यों के आहार ग्रहण और आहार अग्रहण के जो कोरण हैं उनका कथन करते हैं__ 'छहिं ठाणेहिं समणे जिग्गंथे' इत्यादि सूत्र ॥ २७ ॥ टीकार्थ-छह कारणों से आहार को ग्रहण करने वाला श्रमण निर्ग्रन्थ હોય છે અને વૈમાનિક દેવે અધે અવધિવાળા હોય છે. બાકીના છે अवधि २डित डाय छे. ॥ सू. २६ ॥ | આગલા સૂત્રમાં જ મનુષ્યોને અછવાભિગમવાળા કહેવામાં આવ્યા છે. તેથી એ જ મનુષ્યના પ્રસ્તાવ સાથે સુસંગત એવા સંત મનુષ્યોના આહાર ગ્રહણ અને આહાર અગ્રહણના જે કારણે છે તેમનું સૂત્રકાર હવે નિરૂપણ ४२ छ “ छहिं ठाणेहि समणे णिग्गंथे " त्याह સૂત્રાર્થ–નીચે દર્શાવેલા છ કારણેથી આહાર ગ્રહણ કરનાર શ્રમણ નિગ્રંથ જિનાજ્ઞાનું ઉલ્લંઘન કરનારે ગણાતું નથી. Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानान्नस्त्र क्रामति=नोल्लङ्घयति जिनाज्ञाम् । तानि स्थानान्याह गाथया-तद्यथा-वेदनावैयावृत्त्ये-वेदनाक्षुदना, वैयावृत्त्यगुरुशुश्रूपा वेदना च वैयाकृत्यं चेति समाहारः, तस्मिन् , सुवेदनारूपे गुर्वा दिवैयारत्त्यरूपे च कारणद्वये सति आहारमा. हरन निर्ग्रन्थो जिनाा नातिक्रामति । १ । २ ॥ तथा- ईर्थाय-ई-गमन, तदर्थाय-तद्विशुद्धयर्थम् । चुभुक्षितो ह्यशक्तो भवति । न चाशक्त ईर्याविशुद्धिं कर्तुं शक्नोतीति भावः ॥ ३ ॥ च=पुनः संयमार्थाय-संयमा=पृथिवीकायादिभेदैः सप्तदश विधः, तस्य अर्थाय=तन्निमित्तम् ॥ ४ ॥ तथा-माणत्त ये प्राणाः उच्छ्वाजिनाज्ञाका उल्लङ्घन नहीं करता है वे छह कारण ऐसे हैं एक वेदना और दूसरा वैयावृत्य २ जर क्षुधा वेदना रूप कारण उपस्थित होता है तब श्रमण निर्ग्रन्थ उसकी उपशान्तिके निमित्त आहार ग्रहण करता है इस स्थिति में वह जिनाज्ञाका विराधक नहीं होताहै । इसी प्रकार गुरु की शुश्रूषा (सेवा) करने रूप वैयावृत्ति रूप कारण जब उपस्थित हो जाता है तब वह यदि आहार को ग्रहण करता है तब भी वह जिनाज्ञा का विराधक नहीं है इसी प्रकार जब ईर्यापथ की विशुद्धि होने रूप कारण उपस्थित हो जाता है तब भी यदि वह श्रमण निन्ध आहार ग्रहण करता है तो वह जिनाज्ञा का विराधक नहीं होता है क्योंकि जो वुभुः क्षित (भूखा) होता है वह अशक्त हो जाता है अशक्त से ईर्यापथ की विशुद्धि यथावत् हो नहीं सकती है अतः उस ईर्यापथ की विशुद्धि करने के लिये यदि वह आहार लेता है तो जिनाज्ञा का विराधक नहीं होता है इसी प्रकार यदि श्रमण निर्ग्रन्थ पृथिवीकायादिक की रक्षा करने रूप १७ प्रकार के संयम के निमित्त आहार ग्रहण करता है तो (૧) વેદના--જ્યારે સુધાવેદના રૂપ કારણ ઉપસ્થિત થાય છે ત્યારે તેના ઉપશમનને માટે આહાર ગ્રહણ કરતે સાધુ જિનાજ્ઞાને વિરાધક ગણાતું નથી. (૨) વૈયાવૃત્ય--ગુરુની શુશ્રુષા કરવા રૂપ કારણ જ્યારે ઉપસ્થિત થાય, ત્યારે જે તે આહાર ગ્રહણ કરે તે જિનાજ્ઞાને વિરાધક ગણાતો નથી. (૩) ઈર્યાપથની વિશુદ્ધિ રૂપ કારણ જ્યારે ઉપસ્થિત થાય ત્યારે પણ જે તે શ્રમણ નિબથ આહાર ગ્રહણ કરે તો તે પરિસ્થિતિમાં પણ તે જિનાજ્ઞાને વિરાધક ગણાતા નથી, કારણ કે જે સાધુ ભૂખ્યો હોય છે તે અશક્ત બની જવાને કારણે ઈર્યાપથની વિશુદ્ધિ યોગ્ય પ્રકારે જાળવી શકતું નથી. તેથી આ ઇર્યાપથની વિશુદ્ધિ કરવાને નિમિત્તે જે તે આહાર લે તો જિનાજ્ઞાનું ઉલ્લંઘનકર્તા ગણાતું નથી. Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०६ सू०२७ सयतमनुष्याणाम् आहारगृहणागृहणकारणम् ३५१ सादयः, तेषां वृत्तिः स्थितिस्तस्यै-प्राणधारणार्थमित्यर्थः ॥ ५ ॥ षष्ठं स्थान पुनः धर्मचिन्तायै धर्मचिन्तनाथ = सूत्रार्थानुचिन्तनादि लक्षण - शुभचित्तमणिधानार्थमिति ६। एभिः पभिः कारणैराहारमादरतां साधूनां जिनाज्ञाविराधना नास्तीति । तथा-श्रमणो निर्ग्रन्थः पभिः स्थानः आहारं व्युच्छिन्दन् परित्यजन जिनांज्ञां नातिक्रामति । तानि स्थानान्याह-तद्यथा-आतङ्के-ज्वरादौ । १ । जिनाज्ञा का विराधक नहीं होता है इसी प्रकार से यदि श्रमण निर्ग्रन्थ उच्छवास आदि रूप प्राणों की रक्षा के निमित्त आहार ग्रहण करता है तो वह जिनाज्ञा का विराधक नहीं होता है इसी प्रकारले यदि बह श्रमण निर्ग्रन्थ धर्मचिन्तन के निमित्त-सूत्रार्थ के घार २ विचार करने रूप शुभचित्त प्रणिधान के निमित्त यदि आहार ग्रहण करता है तो वह जिनाज्ञा का विरोधक नहीं होता है इस प्रकार के इन ६ कारणों को लेकर आहार को ग्रहण करने वाले साधुजनों में जिनाज्ञा की विराधकता नहीं आती है । इसी प्रकार से ६ कारणों को लेकर यदि श्रमण निर्ग्रन्थ आहार का परित्याग कर देता है तो भी उसमें जिनाज्ञा की विराधकता नहीं आती है-वे ६ कारण ये हैं-यदि श्रमण निन्ध ज्वरादि अवस्थावाला हो गया हो तो उस स्थिति में यदि वह आहार नहीं लेता है तो वह जिनाज्ञा का विराधक नहीं होता है १ यदि देव પૃથ્વીકાયાદિકની રક્ષા કરવા રૂપ ૧૭ પ્રકારના સંયમને નિમિત્તે આહ ૨ ગ્રહણ કરનાર શ્રમણ નિર્ગથ પણ જિનાજ્ઞાને વિરાધક ગણાતું નથી. (૫) ઉછુવાસ આદિ રૂપ પ્રાણની સ્થિતિ નિમિત્તે આહાર ગ્રહણ કરનાર શ્રમણ નિથ પણ જિનાજ્ઞાને વિરાધક થતું નથી. (૬) જે તે શ્રમણ નિર્ગથ ધર્મચિન્તનને નિમિત્ત-સૂત્રાર્થને વારંવાર વિચાર કરવા રૂપ શુભ ચિત્તપ્રણિધાનને નિમિત્તે-આહાર ગ્રહણ કરે તો પણ તે જિનાજ્ઞાને વિરાધક ગણાતું નથી. આ પ્રકારના આ ૬ કારણને લીધે આહાર ગ્રહણ કરનાર સાધુને જિનાજ્ઞાના વિરાધક ગણાતા નથી. એ જ પ્રમાણે નીચે દર્શાવેલાં છ કારણોને લીધે જે કઈ શ્રમણ નિથ આહારને પરિત્યાગ કરી નાખે તે તેને પણ જિનાજ્ઞાને વિરાધક ગણી शतनथी-- જો કેઈ શ્રમણ નિગ્રંથ જવર આદિથી પીડાતું હોય તે એવી પરિ સ્થતિમાં જે તે આહાર લેવે બંધ કરી દે તે તેને જિનાજ્ઞાન વિરાધક ગણાતું નથી. Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाङ्गसूत्रे ३५२ उपसर्गे = देवमनुष्यादिजनिते उपहवे । २ तथा ब्रह्मचर्यगुप्तेः तितिक्षणे अधिसहने च, आहारत्यागे हि ब्रह्मचर्यं सुरक्षितं मातीति बोध्यम् । ३ | तथा प्राणिदयातपोहेतोः - प्राणिदया = पृथिव्यादि जीवरक्षा, तपः = अनशनादिकं द्वादशविधम्, तयोर्हेतो:- प्राणिदयानिमित्तं तपोनिमित्तं चेत्यर्थः । ४ | ५ || तथा - शरीरव्यवच्छेदनार्थाय शरीरस्य व्यवच्छेदनं त्यागः - मक्तप्रत्याख्यानादिरूपः, तदर्थाय = तन्नि भित्तम् आहारं परित्यजन् जिनानाविराधको न भवतीति पष्ठं स्थानस् ||म्रु०२७|| मनुष्य आदि कृत उपसर्गे युक्त हो जाता है तो ऐसी स्थिति में आहार का परित्याग करने वाला श्रमण निर्ग्रन्थ जिनाज्ञा का विराधक नहीं होता है २ ब्रह्मचर्य की रक्षा करने के निमित्त यदि वह आहार का परित्याग कर देता है तो वह जिनाज्ञा का विराधक नहीं होता है क्योंकि कुछ समय के लिये किया गया आहार का परित्याग ब्रह्मचर्य का रक्षक माना गया है प्राणिदया पृथिव्यादिक जीवों की रक्षा के हेतु एवं अनशन आदि १२ प्रकार के तपों के आचरण के निमित्त यदि वह श्रमण निर्ग्रन्थ आहार का परित्याग कर देता है तो वह जिनाज्ञा का विराधक नहीं होता है इसी प्रकार से वह यदि भक्त प्रत्याख्पानादि (संथारा ) रूप विशिष्ट तपस्या के निमित्त आहार का परित्याग कर देता है तो वह जिनाज़ा का विराधक नहीं होता है इस प्रकार के इन ६ कारणों के निमित्त आहार का परित्याग करने वाला श्रमण निर्ग्रन्थ जिनाज्ञा का विराधक नहीं होता है ॥ हृ० २७ ॥ જો કેઇ શ્રમણ નિગ્રંથ પણ્ દેવ, મનુષ્ય આદિ કૃત ઉપસગે આવી પડે, તે એવી પરિસ્થિતિમાં જે તે આહારના પરિત્યાગ કરી નાખે તે તેને જિનાજ્ઞાનું ઉલ્લ ઘન કરનારા ગણી શકાય નહીં. બ્રહ્મચર્યંની રક્ષા નિમિત્તે આહારને પરિત્યાગ કરી નાખનારા શ્રમણુ પણ જિનાજ્ઞાતા વિરાધક ગણાતા નથી, કારણ કે અમુક સમય પન્તના ભાહારના ત્યાગ દ્વારા બ્રહ્મચર્ય વ્રતની રક્ષા થાય છે, એવું માનવામાં આવે છે. (४) प्राणिया - पृथ्वीय आहि लवोनी रक्षाना हेतुथी भने (4) અનશન આદિ ૧૨ પ્રકારના તપના આચરણને નિમિત્તે આહારને પરિત્યાગ કરનારા સાધુ પણ જિનાજ્ઞાને વિરાધક ગણાતા નથી. (૬) ભક્તપ્રત્યાખ્યાન (સથારા) આદિ રૂપ વિશિષ્ટ તપસ્યાને નિમિત્તે આહારને પરિત્યાગ કરનારે શ્રમણુ નિગ્રંથ પણ જિનાજ્ઞાના વિરાધક ગણાતા નથી. આ પ્રકારના છ કારણેાને નિમિત્તે પરિત્યાગ કરનાર સાધુ જિનાજ્ઞાના विराध मनतो नथी. ॥ सू. २७ ॥ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था० ६ सु० २८ उन्मादस्थाननिरूपणम् ३५३ अनन्तरमुत्रे श्रमणस्याहरिग्रहणाग्रहणकारणानि अभिहितानि, सम्मति श्रमणादयो ऽनुचितकारिण उन्मत्ता भवन्तीत्युन्मादस्थानान्याह - मूलम् -- छहिं ठाणेहिं आया उम्मायं पाउणेजा, तं जहा -- अरहंताणमवण्णं वयमाणे १, अरहंतपण्णत्तस्स धम्मस्स अवण्णं वयमाणे २, आयरियउवज्झायाणमवणं वयसाणे ३, चाउव्वन्नस्स संघस्स अवण्णं वयमाणे ४ जक्खावेसेण चैव ५, मोहणिज्जस्स चेद कम्मस्त उदयणं ६ ॥ सू० २८ ॥ छाया -- षभिः स्थानैरात्मा उन्मादं प्राप्नुयात्, तद्यथा - अर्हतामवर्णं वदन् १, अज्ञस्य धर्मस्य अवर्णं वदन् २, आचार्योपाध्यायानामण वदन् ३, चातुवर्ण्यस्य संघस्य अवर्णवदन ४, यक्षावेशेन चैत्र ५, मोहनीयस्य चैव कर्मण उदयेन ६ || सू० २८ ॥ टीका' छहिं ठाणेहिं ' इत्यादि -- आत्मा=जीवः षडभिः स्थानैः उन्मादम् = उन्मत्ततां प्राप्नुयात् । तान्येव स्थानान्याह - तद्यथा भई ताम् अवर्णम् = अश्लाघाम् - अस्पृहणीयतां निन्दां वा वदन् = ब्रुवाणः, उन्मादं प्राप्नुयात् १ एवम् - अर्हत्मज्ञस्य - धर्मस्य २, आचार्यो - इस प्रकार से इस ऊपर के सूत्र में श्रमणको आहार लेने और न लेने के कारणों को दिखाया अब सूत्रकार जिन कारणों से अनुचित्त कार्य करनेवाले श्रमणजन उन्मत्त ( पागल ) होते हैं उन उन्माद होने के कारणों का कथन करते हैं "छहिँ ठाणेहिं आया उम्मायं पाउणेज्जा" सूत्र २८ ॥ टीकार्थ-छह कारणों से आत्मा जीव उन्मादको - -उन्मत्तता को प्राप्त करता है वे छह कारण इस प्रकार से हैं - अहन्तों का अवर्णवाद करना १ अर्हन्त भगवन्तों की अश्लाघा -अस्पृहणीयता अथवा निंदा करनेवाला ઉપરના સૂત્રમાં શ્રમણેાને આહાર ગ્રહણ કરવાના તથા આહારના પરિત્યાગ કરવાના કારણેા બતાવવામા આવ્યાં હવે સૂત્રકાર એ વાત પ્રકટ કરે છે કે કયાં કયાં અનુચિત કાર્યાં કરનાર શ્રમણુ ગ્રંથ ઉન્મત્ત ( પાગલ ) मनी लय छे. " छहि ठाणेहि आया उम्मायं पाउणेज्जा " इत्यादि ટીકા-આત્મા (જીવ) નીચેના છ કારણેાને લીધે ઉન્માદને પ્રાપ્ત કરે છે, (૧) અર્જુન્ત ભગવાનેાને અવણુવાદ કરવાથી એટલે કે તેમની અલાબ્રા स्था०-४५ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ स्थानाङ्गसूत्रे पाध्यायानां ३, साधुसाध्वीश्रावकश्राविकारूपचतुर्विधसंघस्य ४ च अवर्णवदन् उन्मादं प्राप्नुयात् ४ | उन्मादव महामिथ्यात्वरूपः स च अर्हदादीनामवर्णबदतो भवत्येव । यद्वा-उन्मादो वातुलत्रं स च अदायवर्णव तृणां कृपिवशासनदेवताभावाद्भवत्येवेति बोध्यम् । इति स्थानचतुष्टयम् । तथा यक्षावेशेन= निमित्तान्तरमकुपित देवाधिष्ठिततया उन्मादं प्राप्नुयादिति पञ्चमं स्थानम् । जीव उन्मादको प्राप्त करता है ? ऐसा जीव उन्मत्त हुए की तरह माना जाता है इसी प्रकार से जो जीव अहत्प्रज्ञप्त अर्हन्त भगवन्त द्वारा कथित धर्मका श्रुत चारित्ररूप धर्मका अवर्णवाद करता है वह उन्मादको प्राप्त करता है २ आचार्य उपाध्याय का जो अवर्णवाद करता है वह उन्माद को प्राप्त करता है ३ साधु, साध्वी, श्रावक एवं श्राविका रूप चतुर्विध संघ का जो अवर्णवाद करता है वह उन्माद को प्राप्त करता है ४ उन्माद महामिध्यात्व रूप होता है अतः यह उन्हीं जीवों को होता है जो अर्हन्त आदिकों का अवर्णवाद करते हैं अथवा उन्माद शब्द का अर्थ वातुलता नी होता है चित्त की अस्थिरता रूप होता है - यह अर्हत् आदिकों के अवर्णवाद को कहने वाले जीवों को कुपित हुए शासनदेवों के प्रभाव से हो ही जाता है इस प्रकार के उन्माद होने के ये चार कारण हैं तथा पांचवा कारण यक्षावेश है-निमित्तान्तर से कुपित हुए देव से अधिष्ठित होने के कारण जीव उन्माद दशा અથવા નિંદા કરવાથી જીવ ઉન્માદને પ્રાપ્ત કરે છે. અથવા એવા જીવને ઉન્મત્ત वो ( यागस वे ) मानवामां आवे छे. (२) हे लव सडतो द्वारा પ્રરૂપિત શ્રુત ચારિત્રરૂપ ધર્માંના અવવાદ કરે છે તે પચ્ ઉન્માદને પ્રાપ્ત કરે છે. (૩) જે જીવ આચાય કે ઉપાધ્યાયના અવષ્ણુવાદ કરે છે તે પશુ ઉન્માદને પ્રાપ્ત કરે છે. (૪) સાધુ, સાધ્વી, શ્રાવક અને શ્રાવિકા રૂપ ચતુર્વિધ સંઘને અવર્ણવાદ કરનાર જીવ પણું ઉન્માદને પ્રાપ્ત કરે છે. ઉન્માદ મહા મિથ્યાત્વ રૂપ હાય છે, તેથી તેને સદ્ભાવ એવાં જીવામાં જ રહે છે કે જેએ અર્હત આદિના અવળુવાદ કરતા હોય છે. અથવા ઉન્માદ શબ્દને અર્થ ખકવાટ પણ થાય છે અને તે ચિત્તની અસ્થિરતા રૂપ હોય છે, અ′′ત આદિની નિંદા કરનાર જીવા પર શાસન દેવા કુપિત થઇને તેમની આ પ્રકારની દુર્દશા કરી નાખે છે. આ પ્રકારે ઉન્માદના ચાર કારણેાનું નિરૂપણુ કરીને હવે સૂત્રકાર પાંચમાં કારણનું કથન કરે છે-યક્ષાવેશ—કાઈ પણ કારણે કાપાયમાન થયેલા દેવથી અધિષ્ઠિત થવાને કારણે શરીરમાં દેવના પ્રવેશ 22 Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०६ सू० २९ विधप्रमादनिरूपणम् ३५५ तथा - मोहनीयस्य कर्मेण उदयेन - मिथ्यात्व वेदशोकादिरूपमोहनीय कर्मण उदयावलिकायां प्रवेशेन उन्मादं प्राप्नुयादिति पष्ठं स्थानम् ॥ २२८ ॥ यत्रोन्मादस्तत्र प्रमादोऽपि तिष्ठत्येवेति ममादस्य पद्विधत्वमाहमूलम् - छवि पमाए पण्णत्ते, तं जहा मजप्पमाए १, हिपमाए २, विसयप्पसाए ३, कसायंप्पनाए ४, जूयप्पमाए ५, पडिलेहणापसाए ६ ॥ सू० २९ ॥ छाया -- पविधः प्रमादः प्रज्ञप्तः, तद्यथा - मद्यममादो १ निद्राप्रमादो २ विषयप्रमादः ३ कषायप्रमादो ४ द्यूतप्रमादः ५ प्रतिलेखनाप्रमादः ६ || ०२९ ।। को प्राप्त कर लेता है यह धान तो प्रत्यक्ष ही है । तथा उन्माद होने का छठा कारण मोहनीय कर्म का उदय है जीव को जब विशिष्टावस्था में मिध्यात्व वेद शोक आदि के रूप में मोहनीय कर्म का उदय होता है तब जीव उन्माद की अवस्था को प्राप्त करता है इस प्रकार के ये ६ कारण जीव को उन्माद अवस्था की प्राप्ति कराते हैं यह प्रकट किया है | सू० २८॥ जहां उन्माद होता है वहां प्रमाद भी होता ही है इसलिये अब सूत्रकार प्रमाद की षट् प्रकारता का निरूपण करते हैं 'छवि पमाए पत्ते' इत्यादि सूत्र २९ ॥ टीकार्थ-प्रमाद ६ प्रकारका कहा गया है जैसे -मप्रसाद १ निद्रा प्रसाद २ विषय प्रमाद ३ कषाय प्रमाद ४ द्यूतप्रमाद ५ और प्रतिलेखन प्रमाद ६ થવાને કારણે જીત્ર ઉન્માદ દશાને પ્રાપ્ત કરે છે, આ વાતને તે ઘણા લેાકેાને પ્રત્યક્ષ અનુભવ થતા હાય છે. (૬) માહનીય કર્મીના ઉદયથી પણ જીવ ઉન્માદ દશા પ્રાપ્ત કરે છે. જીવને જ્યારે વિશિષ્ટાવસ્થામાં મિથ્યાત્વ, વેદ, શાક આદિ રૂપે માહનીય કર્મીના ઉદય થાય છે ત્યારે પણ જીવ ઉન્માદની અવસ્થાને પ્રાપ્ત કરે છે. આ પ્રકારના હું કારાને લીધે જીત્ર ઉન્માદની અવસ્થાને પ્રાપ્ત કરે છે, એમ સમજવું, 1 સ ૨૮ ॥ જ્યાં ઉન્માદ હાય છે ત્યાં પ્રમાદ પણ હાય છેજ. તેથી હવે સૂત્રકાર પ્રમાદના ૬ પ્રકારનું નિરૂપણ કરે છે "छन्दिहे पमाए पण्णत्ते " इत्याहिप्रभावना नीचे प्रभार ह्या प्रभार, (3) विषयप्रभाव, (४) पायसाह, - (1) मद्यप्रभाह, (२) निद्रा (4) धूतप्रभाह भने (१) अति Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाङ्गस्त्र टीका-'छबिहे ' इत्यादि प्रमादा-सदुपयोगाभावः, स च पडू विधः प्रज्ञप्तः तद्यथा-मद्यप्रमादः-मधमदजनकं सुरादिकं तदेव प्रमादकारकत्वात् प्रमादः । अथवा-मद्यपानजनितः प्रमादो मद्यममादः । उक्तं च " चित्तभ्रान्तिर्जायते मद्यपानाचित्ते भ्रान्ते पापचर्यामुपैति । __ पापं कृत्वा दुर्गतिं यान्ति मूढाः, तस्मान्मध नैव देयं न पेयम् ॥१॥इति।१। तथा-निद्राप्रमादः-निद्रारूपः प्रमादः निद्राजनितः प्रमादो वा । सदुपयोग के अभाव का नाम प्रमाद है यह प्रमाद मद्यप्रमाद __ आदि के भेद से ६ प्रकार का जो कहा गया है उसका तात्पर्य ऐसा है-मदजनक जो सुरा शराब आदिक हैं वे ही प्रमाद कारक होने से प्रमाद रूप कह दिये गये हैं अथवा मद्य के पान से जनित जो प्रमाद है वह भद्यप्रमादहै । कहा भी है-"चित्तभ्रान्तिर्जायते मद्यपानात्" इत्यादि । मद्यपान से जीवों के चित्त में भ्रान्ति असावधानता आ जाती है इस भ्रान्ति से जब चित्त भ्रान्त हो जाता है तो फिर उस में पाप ही पाप करने की विचार धारा उठने लगती है। वह पाप करके दुर्गति में जाता है। इसलिये मद्य न किसी को देना चाहिये और न उसे पीना ही चाहिये । ऐसा यह प्रथम स्थान है। द्वितीय स्थान निद्राप्रमाद रूप है निद्रा स्श्यं प्रमाद है अथवा निद्रा से उत्पन्न जो प्रलाद है वह निद्राप्रमाद है। कहा भी हैલેખના પ્રમાદ. સદુપયેગના અભાવનું નામ પ્રમાદ છે. તે પ્રમાદના મદ્યપ્રમાદ આદિ ૬ પ્રકાર કહ્યા છે. મદજનક જે સુરા (શરાબ) આદિ છે તેઓ પ્રમાદકારક હેવાથી તેમને પ્રમાદરૂપ કહેવામાં આવ્યા છે અથવા મદિરાપાન કરવાને લીધે જનિત જે પ્રમાદ છે તેનું નામ મદ્યપ્રમાદ છે. કહ્યું પણ છે કે – " चित्तभ्रान्ति र्जायते मद्यपानात" त्याल મદ્યપાન કરવાથી મદ્યપાન કરનાર જીના ચિત્તમાં બ્રાન્તિ-અસાવધાનતા આવી જાય છે. આ બ્રાતિ દ્વારા જ્યારે ચિત્ત બ્રાન્ત થઈ જાય છે, ત્યારે જીવને પાપ કૃત્ય કરવાના જ વિચારે આવવા લાગે છે, તેથી તે જીવ પાપ કર્યો કરીને દુર્ગતિમાં જાય છે. તે કારણે કેઈને મદિરા આપવી જોઈએ પણું નહીં અને પિતે પણ તેનું સેવન કરવું જોઈએ નહીં. આ પ્રકારનું આ पडेलु स्थान (१२) समg. હવે નિદ્રાપ્રમાદ રૂપ બીજા સ્થાનનું સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવે છે– Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था० ६ सू० २९ पडविधप्रमादनिरूपणम् ३५७. उक्तं च-" निद्राशीलो न श्रुतं नापि वित्तं, लन्धु शक्तो हीयतेचैव ताभ्याम् ( श्रुतवित्ताभ्याम् )। ज्ञान द्रव्याभावतो दुःखभागी, लोकद्वैतेस्यादतो निद्रयाऽलम्" ॥ १ ॥ इसि ॥२॥ तथा-विषयप्रमादः-विपयाः शब्दादयः, तद्रूपः प्रमादः, तजनितो वा प्रमादः । उक्तं च-- " विपयव्याकुलचित्तो, हितमहितं वा न वेत्ति जन्तुरयम् । तस्मादनुचितचारी, चरति चिरं दुःखकान्तारे" ॥१॥ इति ॥३॥ " निद्राशीलो न श्रुतं नापि वित्तं " इत्यादि निद्राशील प्राणी श्रुत की और वित्त द्रव्य की कमाई से वंचित रहता है इन श्रुत और वित्त के अभाव से वह सदा दुःखी का दुःखी ही बना रहता है इसलिये इस निद्रा को जीत कर जो अपने वश में कर लेते हैं वे धन्य हैं । शब्दादि विषय रूप जो प्रमाद है वह अथवा शब्दादि जनित जो प्रमोद है वह विषय प्रमाद है। कहीं भी है "विषय व्याकुल चित्तो" इत्यादि। जब यह प्राणी विषयों से व्याकुल हो जाता है तब अपने हित और अहित की पहिचान नहीं कर पाता है । ऐसे वह अनुचित्त कामों को करनेवाला जीव बहुत काल तक इस संसार रूपी गहनवन में परिभ्रमण करताहै। उससे वह ऐसे काम करते हुए कभी पार नहीं हो पाता। નિદ્રા પિતે જ પ્રમાદ રૂપ છે અથવા નિદ્રાજનિત જે પ્રમાદ છે તેનું નામ निद्रामा छ. ॐछु ५५ छ । “ निद्राशीलो न श्रुत नापि वितं " या નિદ્રાશીલ જીવ Bતની અને ધનની પ્રાપ્તિથી વંચિત રહે છે. અને શ્રત અને ધનના અભાવથી તે સદા દુઃખમાં જ સબડયા કરે છે. તેથી આ નિદ્રાને જીતી લેનાર અથવા તેને આધીન નહીં થનાર જીવ ધન્ય છે. હવે વિષયપ્રમાદનું સ્વરૂપ સમાવવામાં આવે છે–શબ્દાદિ વિષયરૂપ પ્રમાદ છે તેને વિષયપ્રમાદ કહે છે. અથવા શબ્દાદિ જનિત જે પ્રમાદ છે तर विषयमा ४ छे. ध्धु ५९ छे है “ विपयव्याकुलचित्तो" या જ્યારે જીવ વિષમાં લીન થઈ જાય છે ત્યારે તે પિતાનું હિત શેમાં છે અને અહિત શેમાં છે તે સમજી શકતા નથી. તેથી તે અનુચિત કાર્યો કર્યા કરે છે. તેને લીધે તે દીર્ઘકાળ સુધી આ સંસાર રૂપ ગહન વનમાં પરિભ્રમણ કર્યા કરે છે. અને તે આ સંસાર સાગરને પાર કરવાને કદી સમર્થ થતું નથી. Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानांतसूत्रे कपायममादः –कपायाः=क्रोधादयः, तद्रूपस्तज्जनितो वा प्रमादः । उक्तं च-" चित्तरत्नमसंक्लिष्टमान्तरं धनमुच्यते । यस्य तन्मुपितं दो (क्रोधादिरूपै) स्वस्य शिष्टा (अवशिष्टाः) विषतयः इति ॥ ४ ॥ ફેક્ટ " तथा - द्यूतप्रमादः - द्यूतं - प्रसिद्ध तद्रूपस्तज्जनितो वा प्रमादः । उक्तंचात्र- " द्यूतासक्तस्य सच्चित्तं धनं कामाः सुचेष्टितम् । नयन्त्येव परं शीर्ष, नामापि च विनश्यति ॥ १ ॥ इतिं ५ ॥ कपाय रूप प्रसाद कपाय प्रमाद है अथवा क्रोधादि कपायों से जन्य जो प्रमाद है वह कषाय प्रमाद है । कहा भी हैचित्तरत्नम संक्लिष्टं " इत्यादि । 46 कषायों से असंक्लिष्ट जो चित्त है वही एक आन्तर रत्न कहा गया है । जिसका यह चित्त रूपी रत्न कपाय रूप दोषों से चुरालिया गया है उसके पास दुनिया भर की विपत्तियां आती रहती हैं और उसे दुःखित किया करती हैं। द्यून जुवा खेलना रूप जो प्रयाद है वह द्यूतप्रमाद है अथवा द्यूत से जन्य जो प्रमाद है वह द्यूत प्रमाद है । कहा भी है- व्रतासक्तस्य सच्चित्तं " इत्यादि । द्यूतक्रीडा में आसक्त हुए प्राणी का चित्त, धन, काम शुभचेष्टायें હવે કષાય પ્રમાદનું સ્વરૂપ સ્પષ્ટ કરવામાં આવે છે—કષાય રૂપ જે પ્રમાદ છે તેનું નામ કષાય પ્રમાદ છે. અથવા ક્રોધાદિ કષાયાથી જનિત જે પ્રમાદ છે તેનું નામ કષાય પ્રમાદ છે. કહ્યુ પણ છે કૅ " चित्तरत्नम संक्लिष्ट " त्याहि કષાયેાથી અસલિષ્ટ ( રહિત ) જે ચિત્ત છે, તેને જ એક આન્તર રત્ન રૂપ કહ્યુ છે. જેનું તે ચિત્ત રૂપી રત્ન કષાય રૂપ દેપા દ્વારા ચારી લેવામાં અથવા ખૂંચવી લેવામાં આવ્યું છે એવા જીવની પાસે દુનિયાભરની વિપત્તિએ આવતી રહે છે અને તેને દુઃખિત કર્યાં કરે છે, પ હવે વ્રતપ્રમાદનું સ્વરૂપ પ્રકટ કરવામાં આવે છે. ઘૃત ( જુગાર ) રમવા भे પ્રમાદ છે તેનું નામ ધૃતપ્રમાદ છે. અથવા દ્યૂતથી જન્ય જે પ્રમાદ तेनु नाम प्रभा छे छे है : ८८ न्यूतासक्तस्य सच्चित्तं ” इत्यादि વ્રતક્રિયામાં આસક્ત થયેલા જીવનુ ચિત્ત, ધન, કામ-શુભચેષ્ટાએ અને Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टोका स्था० ६ सू० २९ पड्विधप्रमादनिरूपणम् ३५९ तथा-प्रतिलेखनाप्रमादः-मतिलेखना-प्रत्युपेक्षणा, सा च द्रव्यक्षेत्रकालभा वभेदाधर्विधा । तत्र द्रव्यप्रत्युपेक्षणा-वस्त्रपात्राघुपकरणानामुभयकालम् , यच्चक्षुषा निरीक्षण, तद्रूपा, उक्तञ्च-- "वत्थपत्ताइवत्थूणं, कालगनिरिक्खणे । पमायकरणा जीयो, पडिज्जा भवसायरे ॥ १॥" छाया--वस्त्रपात्रादिवस्तूनां, कालद्विकनिरीक्षणे । प्रमादकरणाजीवः पतेद् भवसागरे ॥ १॥ (१) । कायोत्सर्गनिपदनशयनस्थानस्य स्थण्डिलानां मार्गस्य विहारक्षेत्रस्य च या एवं शिर ये सब नष्ट हो जाते हैं, यहां तक कि उनका नाम भी संसार में लेना बुरा माना जाता है । छट्ठा प्रमाद प्रतिलेखना प्रमाद है प्रतिलेखना नाम पडिलेहणा का है यह द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के भेद से चार प्रकार की है दोनों समय वस्त्र पात्रादि उपकरणों की पडिलेहणा करना यह द्वन्ध प्रतिलेखना चक्षु से अच्छी तरह से देखने रूप होती है। कहा भी है "वत्थपत्ताइ वस्थूणं" इत्यादि। जो जीव दोनों काल वरून पात्रादि वस्तुओं के पडिहणा करने में प्रमादी होते हैं वे इस संसार में ही परिभ्रमण करते रहते हैं कायोत्सर्ग करने के स्थानका बैठने के स्थान का शयन करने के स्थान का स्थण्डिल जाने के रास्ते का और विहार क्षेत्र का जो अच्छी तरह બુદ્ધિ નષ્ટ થઈ જાય છે એટલું જ નહીં પણ સંસારમાં તેનું નામ લેવું એ પણ પાપ ગણાય છે. હવે પ્રતિલેખન પ્રમાદનું સ્વરૂપ પ્રકટ કરવામાં આવે છે–પ્રતિલેખના એટલે પડિલેહણ અથવા વસ્ત્રાદિની પલેવણ તે દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર, કાળ અને ભાવના ભેદથી ચાર પ્રકારની છે. અને સમય વસ્ત્ર, પાત્રાદિની પ્રતિલેખના (પલેવા) કરવી તેનું નામ દ્રવ્ય પ્રતિલેખના છે. તે દ્રવ્ય પ્રતિલેખના ચક્ષુ વડે સંભાળ પૂર્વક નિરીક્ષણ કરવા રૂપ હોય છે. કહ્યું પણ છે કેઃ "वत्थपत्ताइवत्थूणं" त्याह જે જીવ બને કાળ વખ, પાત્રાદિની પ્રતિલેખના કરવામાં પ્રમાદ કરે છે, તે આ સંસાર સાગરમાં પરિભ્રમણ કર્યા જ કરે છે. કાર્યોત્સર્ગ કરવાના સ્થાનનું, બેસવાના સ્થાનનું, શયન કરવાના સ્થાનનું, સ્થડિલ જવાના (ઠલે જવાના) રસ્તાનું અને વિહાર ક્ષેત્રનું જે સારી રીતે નિરીક્ષણ કરવું Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानात सूत्र कपायममादः–कपायाः=क्रोधादयः, तद्रूपस्तज्जनितो वा प्रमादः । उक्तं च- " चित्तरत्नम संक्लिष्टमान्तरं धनमुच्यते । यस्य तन्मुपितं दोपै (क्रोधादिरूपै ) स्तस्य शिष्टा (अवशिष्टाः ) विपयः इति ॥ ४ ॥ ३५८ तथा - द्यूतप्रमादः - द्यूतं - प्रसिद्ध, तद्रूपस्तज्जनितो वा प्रमादः । उक्तंचात्र - " द्यूतासक्तस्य सचित्तं धन कामाः सुचेष्टितम् । नयन्त्येव परं शीर्ष, नामापि च विनश्यति ॥ १ ॥ इति ५ ॥ कषाय रूप प्रमाद कपाय प्रमाद है अथवा क्रोधादि कंपायों से जन्य जो प्रमाद है वह कषाय प्रमाद है । कहा भी है " चित्तरत्नम संक्लिष्टं " इत्यादि । पायों से अक्लिष्ट जो चित्त है वही एक अन्तर रत्न कहा गया है । जिसका यह चित्त रूपी रत्न कपाय रूप दोषों से चुरालिया गया है उसके पास दुनिया भर की विपत्तियां आती रहती हैं और उसे दुःखित किया करती हैं । द्यून जुवा खेलना रूप जो प्रसाद है वह द्यूतप्रमाद है अथवा द्यूत से जन्य जो प्रसाद है वह द्यून प्रमाद है । कहा भी है- तासक्तस्य सच्चित्तं " इत्यादि । द्यूतक्रीडा में आसक्त हुए प्राणी का चित्त, धन, काम शुभचेष्टायें હવે કષાય પ્રમાદનું સ્વરૂપ સ્પષ્ટ કરવામાં આવે છે—કષાય રૂપ જે પ્રમાદ છે તેનું નામ કષાય પ્રમાદ છે. અથવા ક્રોધાદિ કષાયેાથી જનિત જે પ્રમાદ છે તેનું નામ કાય પ્રમાદ છે. કહ્યું પણ છે કે— " चित्तरत्नमसंक्लिष्टं " त्याहि કષાયેાથી અસલિષ્ટ ( રહિત ) જે ચિત્ત છે, તેને જ એક આન્તર રત્ન રૂપ કહ્યુ છે. જેનુ તે ચિત્ત રૂપી રત્ન કષાય રૂપ દોષા દ્વારા ચારી લેવામાં અથવા ખૂંચવી લેવામાં આવ્યુ છે એવા જીવની પાસે દુનિયાભરની વિપત્તિએ આવતી રહે છે અને તેને દુઃખિત કર્યાં કરે છે, રૂપ હવે વ્રતપ્રમાદનું સ્વરૂપ પ્રકટ કરવામાં આવે છે. દ્યૂત ( જુગાર ) રમવા જે પ્રમાદ છે તેનું નામ ધૃતપ્રમાદ છે. અથવા દ્યૂતથી જન્ય જે પ્રમાદ છે તેનું નામ ધૃતપ્રમાદ છે. કહ્યુ... પણુ છે કે : ८८ द्यूतासक्तस्य सच्चित्तं " इत्याहि વ્રતક્રિયામાં આસક્ત થયેલા જીવનું ચિત્ત, ધન, કામ-શુભચેષ્ટાઓ અને Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था० ६ सू० २९ षड्विधप्रमादनिरूपणम् ___ तथा-प्रतिलेखनाममादः-मतिलेखना-प्रत्युपेक्षणा, सा च द्रव्यक्षेत्रकालभा वभेदावर्विधा । तत्र द्रव्यप्रत्युपेक्षणा-वस्त्रपात्राघुपकरणानामुभयकालम् , यच्चक्षुपा निरीक्षणं, तद्रूपा, उक्तश्च-- " वत्थपत्ताइवत्थूणं, कालगनिरिक्खणे । पमायकरणा जीवो, पडिज्जा भवसायरे ॥ १॥" छाया--वस्त्रपात्रादिवस्तूनां, कालद्विकनिरीक्षणे । प्रमादकरणाजीव पतेद् भवसागरे ॥ १॥ (१) । कायोत्सर्गनिपदनशयनस्थानस्य स्थण्डिलानां मार्गस्य विहारक्षेत्रस्य च या एवं शिर ये सब नष्ट हो जाते हैं, यहां तक कि उनका नाम भी संसार में लेना बुरा माना जाता हैं। छटा प्रमाद प्रतिलेखना प्रमाद है प्रतिलेखना नाम पडिलेहणा का है यह द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के भेद से चार प्रकार की है दोनों समय वस्त्र पात्रादि उपकरणों की पडिलेहणा करना यह द्रव्य प्रतिलेखना चक्षु से अच्छी तरह से देखने रूप होती है। कहा भी है "वत्थपत्ताइ वस्थूण" इत्यादि। जो जीव दोनों काल वन पात्रादि वस्तुओं के पडिहणा करने में प्रमादी होते हैं वे इस संसार में ही परिभ्रमण करते रहते हैं कायोत्सर्ग करने के स्थानका घेठने के स्थान का शयन करने के स्थान का स्थण्डिल जाने के रास्ते का और बिहार क्षेत्र का जो अच्छी तरह બુદ્ધિ નષ્ટ થઈ જાય છે એટલું જ નહીં પણ સંસારમાં તેનું નામ લેવું એ પણ પાપ ગણાય છે. હવે પ્રતિલેખના પ્રમાદનું સ્વરૂપ પ્રકટ કરવામાં આવે છે–પ્રતિલેખના એટલે પડિલેહણ અથવા વસ્ત્રાદિની પલેવણું તે દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર, કાળ અને ભાવના ભેદથી ચાર પ્રકારની છે. અને સમય વસ્ત્ર, પાત્રાદિની પ્રતિલેખના (પલેવા) કરવી તેનું નામ દ્રવ્ય પ્રતિલેખના છે. તે દ્રવ્ય પ્રતિલેખના ચક્ષુ વડે સંભાળ પૂર્વક નિરીક્ષણ કરવા રૂપ હોય છે. કહ્યું પણ છે કેઃ " वत्थपत्ताइवत्थूणं" त्याहि જે જીવ બને કાળ વસ્ત્ર, પાત્રાદિની પ્રતિલેખના કરવામાં પ્રમાદ કરે છે, તે આ સંસાર સાગરમાં પરિભ્રમણ કર્યા જ કરે છે. કાર્યોત્સર્ગ કરવાના સ્થાનનું, બેસવાના સ્થાનનું, શયન કરવાના રથાનનું, સ્પંડિત જવાના (ઠલ્લે જવાના) રસ્તાનું અને વિહાર ક્ષેત્રનું જે સારી રીતે નિરીક્ષણ કરવું Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० स्थानाङ्गसूत्रे निरीक्षणा सा क्षेत्रप्रत्युपेक्षणा (२) । या च कालविशेषपर्यालोचना सा कालप्रत्युपेक्षणा (३) । या च पुनः धर्मजागरिकादिरूपा सा भावप्रत्युपेक्षणा (४)॥ उक्तं च-- " किं कयं किंवा सेस, किं करणिज्ज तवं च न करेमि ।। पुवावरत्तकाले, जागरओ भावपडिलेहा ॥ १ ॥ छाया--किं कृतं किंवा शेष किंकरणीयं तपश्च न करोमि ? । पूर्वापररात्रकाले जागरको भावप्रतिलेखा ॥ १ ।। इति । तत्र-प्रत्युपेक्षणायां यः प्रमादा शिथिलता जिनाज्ञातिक्रमो वा स प्रत्युपेक्षणाप्रमादः ।। ६ ॥ इनि । अनेन दशविधसामाचारीलक्षणेषु प्रमार्जनभिक्षाच. र्यादिषु इच्छाकारमिथ्याकारादिपु यः प्रमादः सोऽपि गृहीतः, प्रत्युपेक्षणायाः से निरीक्षण करना है वह क्षेत्र प्रत्युपेक्षणा (पडिलेहणा) है २ जो काल विशेष की विचारणा है वह काल प्रत्युपेक्षणा है ३ जो धर्म के निमित जागरण आदि रूप प्रस्युपेक्षणा (पडिलेहणा ) है वह भाव प्रत्युपेक्षणा (पडिलेहणा) है४ कहा भीहै-"किकय किंवा सेसं"इत्यादि। मैने अभी तक क्या किया है अघ और बाकी मुझे क्या करना है मैं तप नहीं करता है इस प्रकार की जो पूर्वापर-त्रकाल में विचारणा है वह भावप्रतिलेखा है । इल प्रत्युपेक्षगा में जो प्रमाद है शिथिलतो, अथवा जिनेन्द्र भगवान् की आज्ञा का अतिक्रम करना है वह प्रत्युपेक्षणा प्रमाद है ॥६॥ इस कथन से दश प्रकार की सामा. चारी रूप जो प्रमान भिक्षाचर्या आदि हैं एवं इच्छाकार मिथ्याकार आदिकों में जो प्रमाद है वह गृहीत हो गया है। क्योंकि प्रत्यु તેનું નામ ક્ષેત્ર પ્રત્યુપેક્ષણ (ક્ષેત્ર પડિલેહણા) છે. કાળવિશેષની જે વિચારણા છે તેનું નામ કાળ પ્રત્યુપેક્ષણ છે. ધર્મને નિમિત્તે જે જાગરણ આદિ રૂપ પ્રત્યુપેક્ષણ (પડિલેહશા) છે તેનું નામ ભાવ પ્રત્યુપેક્ષણ (પડિલેહણા) छ. ४ह्यु ५ छे : " किं कय किं वा सेस" त्यादि મેં હજી સુધી શું કર્યું અને હવે મારે શું કરવાનું બાકી છે ? હું તપ તે કરતો નથી, મારું થશે ? ” આ પ્રકારની પૂર્વાપર રાત્રિકાળમાં જે વિચારણા ચાલે છે તેનું નામ ભાવ પ્રતિ લેખના છે. આ પ્રત્યુપેક્ષણમાં જે પ્રમાદ છે-શિથિલતા છે, અથવા જિનેન્દ્ર ભગવાનની આજ્ઞાનું જે ઉલ્લંઘન થાય છે તેનું નામ જ પ્રયુક્ષિણ પ્રમાદ છે આ કથન દ્વારા દસ પ્રકારની સમાચારી રૂપ જે પ્રમાર્જન, ભિક્ષાચર્યા આદિ છે, તેમાં જે પ્રમાદ છે તે પ્રમાદ તથા ઈચ્છાકાર મિથ્યાકાર આદિ કે માં જે પ્રમાદ છે, તે ગૃહીત થઈ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०६ सू० ३० प्रमादविशिष्टा प्रत्युपेक्षणानिरूपणम् ३६१ सामाचारीत्वात् प्रमार्जनादीनां सामाचार्य न्तर्गतत्वेन प्रत्युपेक्षणाप्रमादेन प्रमार्ज नादिप्रमादस्यापि संग्रहणादिति ॥ मु० २९ ॥ अनन्तरसूत्रे प्रत्युपेक्षणाप्रमाद उक्तः, सम्प्रति प्रमादविशिष्टा तामेव प्रत्युपेक्षणामाह- मूलम् - छविहा पमायपडिलेहणा पण्णत्ता, तं जहा- आरभडा १ सम्मा २ वजेयवा य मोसली ३ तइया | पृष्फोडणा ४ चत्थी वखित्ता ५ वेइया ६ छट्ठी ॥ १ ॥ छव्विहा अप्पमाय पडिलेहणा पण्णत्ता, तं जहा - अणच्चावियं १ अवलियं २ अणानुबंध ३ अमोसलि ४ चेव । छप्पुरिसा नवखोढा ५ पाणीपाणविसोहणं ६ ॥ २ ॥ सू० ३० ॥ छाया - पदविधा प्रमादमतिलेखना प्रज्ञता, तद्यथा - आरभटा १ सम्मर्दा २ वर्जयितव्या च मोशली ३ तृतीया । प्रस्फोटना ४ चतुर्थी व्याक्षिप्ता ५ वेदिका ६ पष्ठी ॥ १ ॥ पविधा अप्रमादमतिलेखना प्रज्ञप्ता, तद्यथा - अनर्वितम् १ अवलिप्तम् २ अननुवन्धि ३ अमोशलि ४ चैत्र । पट्पुरिमा नवखोटाः ५ पाणौ प्राणविशोधनम् ६ ॥ २ ॥ सू० ३० ॥ टीका- 'छन्त्रिहा पमायपडिलेहणा ' इत्यादि -- प्रमादप्रतिलेखना - प्रमाद - सदुपयोगाभावः, तत्पूर्विका प्रतिलेखना पड़पेक्षणा सामाचारी रूप होती है इससे प्रमार्जना आदि ये सब सामाचारी के अन्तर्गत हो जाने के कारण प्रत्युपेक्षणा प्रसाद से प्रसार्जनादि प्रमाद का भी ग्रहण हो जाता है । सृ० २९ ॥ इस ऊपर के सूत्र में प्रत्युपेक्षणा (पडिलेहणा ) प्रमाद कहा सो अब सूत्रकार प्रमादविशिष्ट उसी प्रत्युपेक्षणा (पडिलेहणा ) का कथन करते हैं- "छव्विहा पमाय पडिलेहणा पण्णत्ता" इत्यादि सूत्र ३० ॥ ગયા છે, કારણ કે પ્રયુપેક્ષણા સમાચારી રૂપ હોય છે. પ્રમાજના આદિના સમાચારીમાં સમાવેશ થઇ જવાને કારણે પ્રત્યુપેક્ષા પ્રમાદમાં પ્રમાજનાદિ प्रभावना पशु समावेश यह नय हे ॥ सू. २८ ॥ આગલા સૂત્રમાં પ્રત્યુપેક્ષણા ( પડિલેહા ) પ્રમાદની પ્રરૂપણા કરવામાં આવી. હવે સૂત્રકાર પ્રમાદ વિશેષ રૂપ એ જ પ્રત્યુપેક્ષણા ( પડિલેહણા ) ના छार धन छे. " छव्त्रिहा पमायपडिलेहणा पण्णत्ता " छत्याहिस्था०-४६ Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानासो રૂપર विधा-पट्मकारा प्रज्ञप्ता । पविधत्व येवाह-तद्यथा-' आरभटे' त्यादि गाथया। तत्र-आरभटा-विपरीतकरणरूपा प्रत्युपेक्षणा, अथवा-त्वरितं सर्वम् आरभमाणस्य वा प्रत्युपेक्षणा सा, यद्वा-एकस्मिन् वस्त्रेऽर्धप्रत्युपेक्षिने एवं यदधरापरवस्त्रस्य ग्राणं सा, इयं वर्जयितव्या । १ । तथा-सम्मा -यत्र बस्त्रस्य मध्य मागे संकुचिता कोणा भवन्ति मा, अथवा यत्र प्रत्युपेक्षणीयोपधेरुपति समुपविश्य प्रत्यु. प्रसाद प्रतिलेखना ६ प्रकार की कही गई है-जैसे-आरभटा १ सम्म २ सोशली ३ प्रस्फोटना ४ व्याक्षिप्ता ५ और वेदिका यह पहिले प्रकट कर दिया है कि उपयोग का जो अभाव है। यह प्रमाद है इस प्रमाद पूर्वक जो प्रतिलेखना है वह प्रमाद प्रतिलेखना है यह प्रमाद प्रतिलेखना आरटा आदि के भेद से जो ६ प्रकार की कही गई है तो उसका भाव इस प्रकार से है जो प्रत्युपेक्षणा विपरीत रूप से की जाती है वह आरपटा प्रत्युपेक्षणा है अथवा समस्तकार्य को शीघ्र से करने वाले की जो प्रत्युपेक्षणा है वह अथवा एक वस्त्र को आधा प्रत्युपेक्षित कर लेने पर जो दूसरे वस्त्र को ग्रहण कर लेता है वह आरभटा प्रत्युपेक्षणा है ऐसी यह मत्युपेक्षणा वर्जनीय है तथा संमदी-जिस वस्त्र के मध्य भाग में संकुचित कोने होते हैं ऐसे वस्त्र की प्रत्युपेक्षणा संमी प्रत्युपेक्षणा है अथवा प्रत्युपेक्षणीय (अप्रतिलेखित) उपधि के ऊपर बैठकर जो प्रत्युपेक्षणा (पडिलेहणा) પ્રમાદ પ્રતિલેખના (પલેવ) છ પ્રકારની કહી છે. તે પ્રકારો નીચે प्रभारी छ-(१) माटा, (२) सम्मा , (3) भाशमी, (४) प्रोटना, (५) व्याक्षिता भने (९) वा . ઉપયોગને જે અભાવ છે તેનું નામ જ પ્રમાદ છે. તે પ્રમાદ પૂર્વકની જે પ્રતિલેખન થાય છે તેને પ્રમાદ પ્રતિલેખના કહે છે તેના આભટા પ્રતિલેખના આદિ ૬ ભેદ કહ્યા છે, તેનું હવે સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવે છે– આરટા પ્રતિલેખના–જે પ્રત્યુપેક્ષણ વિપરીત રૂપે કરવામાં આવે છે, તેને આરભટા પ્રત્યુપેક્ષણ કહે છે. અથવા ઘણું જ ઉતાવળથી જે પલેવા થાય છે તેને આરભટા પ્રયુપેક્ષણા કહે છે એક વસ્ત્રની પૂરેપૂરી પ્રતિલેખના કર્યા પહેલાં બીજા વસ્ત્રની પ્રતિલેખના શરૂ કરનારની પ્રતિલેખના આ પ્રકારની ગણાય છે. આ પ્રકારની પલેવણ વર્જનીય છે. સંમર્દી પ્રત્યુપેક્ષણ-જે વસ્ત્રના મધ્યભાગમાં સંકુચિત ખૂણા હોય છે તે વસ્ત્રની પ્રત્યુપેક્ષણાને સંમર્દી પ્રત્યુપેક્ષણ કહે છે. અથવા અપ્રતિલેખિત Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा ठोका स्था०६ सु०३० प्रमादविशिष्टा प्रतिलेखनानिरूपणम् उदर पेक्ष्यते सा सम्म । इयमपि वर्जयितव्या । एवमग्रेऽपि ' वर्जयितव्ये ' ति योजनीयम् ॥ २ ॥ तथा तृतीया प्रत्युपेक्षणा- मोशली, प्रत्युपेक्ष्यमाणं यद्व तस्य भागेन यत् तिर्यगूर्ध्वमधो वा संवहनं सा सोशली बोध्येति ॥ ३ ॥ तथाप्रस्फोटना - धूलिधूसरितवत्रस्येव यत्र प्रत्युपेक्षणीयचत्रस्य प्रकर्पेण धूननं सा चतुर्थी | ४ | तथा-व्याक्षिप्ता वस्त्रं प्रत्युपेक्ष्य नागदन्तादौ तस्य वस्रम्य व्याक्षेपण यत्रक्रियते सा । ५ ॥ तथा - वेदिका पष्ठी मृत्युपेक्षणा भवति । इयं हि ऊर्ध्ववेदिका १ अधोवेदिका २ तिर्यग्वेदिका ३ द्विधावेदिका ४ एकतोवेदिके ५ ति पञ्चमकी जाती है वह संमर्दा प्रत्युपेक्षणा है २ यह संमर्दा प्रत्युपेक्षणा भी वर्जनीय है । मोशली - प्रत्युपेक्षणीय ( प्रत्युपेक्षा करने योग्य) इधर उधर संघट्टा करते हुवे जो वस्त्र है उस वस्त्र के भाग से जो तिर्यग् उर्ध्व अथवा अधः संघट्टन है वह मोगली प्रत्युपेक्षणा है यह मोशली प्रत्युपेक्षणा भी वर्जनीय है। प्रस्फोटना - धूलि से सरित हुए व की तरह प्रत्युपेक्षणीय वस्त्र का जो जोर से झटकारना है वह प्रस्फोना प्रत्युपेक्षणा है यह प्रत्युपेक्षणा भी वर्जनीय है । वस्त्र की प्रत्युपेक्षा करके जो नागदन्त आदि पर खूंटी आदि के ऊपर उस वस्त्र का टांग देना जिस प्रत्युपेक्षणा में होता है ऐसी वह प्रत्युपेक्षणा व्याक्षिप्ता प्रत्युपेक्षणा है यह प्रत्युपेक्षणा भी वर्जनीय है। छट्ठी प्रत्युपेक्षणा वेदिका है यह वेदिका वेदिका १ अधोवेदिका २ तिर्यग्वेदका ३ द्विधावे. दिका ४ और एकतोवेदिका के भेद से ५ प्रकार की इनमें दोनों ઉપધિની ઉપર બેસીને જે પ્રત્યુપેક્ષવુા ( પલેણા ) કરાય છે તેનુ નામ સંમર્દા પ્રત્યુશૈક્ષણુા કહે છે. આ પ્રકારની પ્રત્યુપેક્ષણા પશુ વ′નીય છે મૈાશલી પ્રત્યુપેક્ષણા—પ્રત્યુપેક્ષણીય જે વસ્ત્ર છે, તે વસના ભાગ વડે તે તિગૂ, ઉર્ધ્વ અથવા અધ સ‘ઘટ્ટન છે, તેનુ નામ મેઘલી પ્રત્યુપેક્ષણા છે. તે મેાશલી પ્રત્યુપેક્ષણા પણ વજનીય છે. પ્રસ્ક્રાટના પ્રત્યુપેક્ષણા—ધૂળવાળા વઅને જેમ ઝાટકારવામાં (ખ ખેરવામાં) આવે છે તેમ પ્રત્યુપેક્ષણીય વસ્રને જોરથી જે ઝટકારવામાં આવે છે તેવુ નામ પ્રસ્ફોટના પ્રત્યુપેક્ષા છે. તે પ્રત્યુપેક્ષણા પણુ વજ્રનીય છે. વ્યાક્ષિક્ષા પ્રત્યુપેક્ષણા-વજ્રની પ્રત્યુપેક્ષણા કરીને વસ્ત્રને ખીંટી આદિ પર ટાંગી દેવાનુ કાર્ય જે પ્રત્યુપેક્ષણામાં થાય છે, તે પ્રત્યુપેક્ષણાને વ્યાક્ષિસા પ્રત્યુપેક્ષણા કહે છે તે પ્રકારની પ્રત્યુપેક્ષ]ા પશુ વજ્રનીય છે. વેદિકા પ્રત્યુપેક્ષણા—વેદિકા પ્રત્યુપેક્ષણાના નીચે પ્રમાણે પાંચ પ્રકાર थडे छे(१) ७६ वेाि, (२) अधोवे, (3) तिर्यग वेहि:, (४) दिवा येहि भने (५) सेतो हिम 1 Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ કુદર स्थानाङ्गसूत्रे कारा । तत्र जानुनोरुपरि हस्तौ निधाय यत्र प्रत्युपेक्षणं सा ऊर्ध्ववेदिका १ | यत्र तु जानुनोरधो हस्तौ निवेश्य प्रत्युपेक्षणं सा अधोवेदिका २ | यत्र पुनः agat: पार्श्वभागे हस्तौ निधाय प्रत्युपेक्षणं सा तिर्यग्वेदिका ३ यत्र तु जानुद्वयं वादोर्मध्ये कृत्वा प्रत्युपेक्षणं सा द्विधावेदिका । तथा यत्र एकं जानुवादोर्मध्ये कृत्वा प्रत्युपेक्षणं सा एकतोवेदिकेति ५ । एताः सर्वा अपि सदोपा अतो वर्ज्याः ॥ १ ॥ इत्थं ममादप्रतिलेखनायाः पङ्क्त्विमुक्त्वा सम्मति तद्विपरीतायाः अप्रमादप्रतिलेखनायाः पचिधत्वमाह - ' छन्त्रिहा अप्पमायपडिलेहणा' इत्यादि । अममादमतिलेखना- अप्रमादपूर्विका या प्रतिलेखना सा पद्विधा मज्ञप्ता, पविधत्वघुटनों के ऊपर हाथों को रखकर जो प्रत्युपेक्षणा की जाती है वह ऊर्ध्ववेदका है १ जो दोनों घुटनों के नीचे हाथों को रखकर प्रत्युपे - क्षणा की जाती है वह अधोवेदिका है २ जो दोनों घुटनो के पार्श्वभागों में हाथों को रखकर प्रत्युपेक्षणा की जाती है वह तिर्यग्वेदिका है ३ दोनों हाथों के बीच में दोनों घुटनों को करके जो प्रत्युपेक्षणा की जाती है वह द्विधावेदिका है ४ जो एक जानु को दोनों हाथों के मध्य में करके प्रत्युपेक्षणा वह एकतो वेदिका है ५ यहाँ तक की जब प्रत्युपेक्षणाएँ सदोष होती हैं अतः वे वर्जनीय कही गई हैं । इस प्रकार से प्रमाद प्रतिलेखना में षट् प्रकारता कह कर अब सूत्रकार उससे विपरीत जो अप्रमाद प्रतिलेखना है उसमें षद् विधता का कथन करते हैं - छविहा अप्पमायपडिलेहणा " इत्यादि - अप्रमाद पूर्वक जो प्रति અને ઘુટણેાની ઉપર હાથ રાખીને જે પ્રત્યુપેક્ષણા કરાય છે તેને ઉર્ધ્વ વેદિકા પ્રત્યુપેક્ષણા કહે છે. બન્ને ઘુંટણેાની નીચે હાથેાને રાખીને જે પ્રત્યુપેક્ષણા કરાય છે તેને અધેવેકિા પ્રત્યુપેક્ષા કહે છે. ખન્ને જાનુએ ( જા'ઘા) ની ખાજીએમાં હાથ રાખીને જે પ્રત્યુપેક્ષણા કરાય છે તેનું નામ તિયર્વૈદિકા પ્રત્યુપેક્ષા છે. ખન્ને હાથની વચ્ચે મને જાનુઆને રાખીને જે પ્રત્યુપેક્ષણા કરાય છે તેનું નામ દ્વિધાવેદિકા પ્રત્યુપેક્ષા છે. એક જાનુને ( જાંઘને ) બન્ને હાથની વચ્ચે રાખીને જે પ્રત્યુપેક્ષણા કરાય છે તેનું નામ એકતાવેદિકા પ્રત્યુપેક્ષણા છે. આ બધી પ્રત્યુપેક્ષણાએ સદૈષ હાવાને લીધે વજ્રનીય છે, આ પ્રમાણે પ્રમાદ પ્રતિલેખનાના છ પ્રકારનું નિરૂપણુ કરીને હવે સૂત્રકાર અપ્રમાદ પ્રતિલેખનાના છ પ્રકારનુ નિરૂપણ કરે છે, 'छव्विा अप्पमायपडिलेहणा " इत्यादि (( Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुंधा टीका स्था०६ सू०३० प्रमादविशिष्टा प्रतिलेखनानिरूपणम् ३६५ मेवाह - ' तद्यथा - अनर्तितम् ' इत्यादि गाथया । तत्र - अनर्तितम् - पत्र मन्युपेक्षणायां तत्कर्घा वस्त्रम् शरीरं वा न नर्च्यते तत् ॥ १॥ तथा अवलिप्तम् - यत्र प्रत्युपेक्षणे वस्त्र ं शरीरं च न वलितं = संकुचितं तत् ॥ २ ॥ तथा - अननुवन्धि - अनुबन्धः = सातत्यम्, तच्चेह प्रस्फोटनस्य ग्राह्यम्, न अनुबन्धः, अननुबन्धः सोऽस्ति यस्मि स्तत्, सातत्यप्रस्फोटना भावयुक्त प्रत्युपेक्षणमित्यर्थः ॥ ३ ॥ तया - अशिकिलेखना है वह अप्रमाद प्रतिलेखना है यह प्रतिलेखना भी ६ प्रकार की कही गयी है जैसे- अनर्मित १ अवलित २ अननुबन्धि ३ अमो. शलि ४ षट् पुरिमा नवखोट ५ और प्राणि प्राणविशोधन ६ जिस प्रत्युपेक्षणा में प्रत्युपेक्षणा करने वाले के द्वारा वस्त्र अथवा शरीर नचाया नहीं जाता है ऐसी वह अनर्तित अप्रमाद प्रतिलेखना है जिम प्रत्युपेक्षणा में वस्त्र और शरीर दोनों संकुचित नहीं किये जाते हैं ऐसी वह अवलित अप्रमाद प्रतिलेखना है जिस प्रत्युपेक्षणा में निरन्तर प्रस्फोटन का अभाव रहता है वह प्रत्युपेक्षणा अननुवन्धी प्रत्युपेक्षणा है यहां पर प्रस्फोटन का निरंतरपना ग्रहण हुआ है यह प्रस्फोटन का सानत्य रूप अनुबन्ध जिस में प्रत्युपेक्षण में नहीं होता है उसी प्रत्युपेक्षण को अनुवन्धी अप्रमाद प्रतिलेखना कहा गया है ३ पूर्वोक्त लक्षण અપ્રમાદપૂર્વક જે પ્રતિલેખના કરવામાં આવે છે તેનુ નામ અપ્રમાદ प्रतियोजना छे तेना नीचे प्रभा छ अारो छे - ( १ ) अनर्तित, (२) अवसित, (3) शाननुणन्धि, (४) अभोशसि, (4) षट् पुरिमा नव चोर भने (६) प्राणी प्रायुविशोधन. અનર્તિત અપ્રમાદ પ્રતિલેખના—જે પ્રત્યુપેક્ષણામાં પ્રત્યુશૈક્ષણા કરનાર યુક્તિ દ્વારા વસ્ત્ર અથવા શરીરને નચાવવામાં ( ડોલાવવામાં નથી તે પ્રત્યુપેક્ષણાને અનતિત અપ્રમાદ પ્રતિલેખના કહે છે. આવતું અવલિત અપ્રમાદ પ્રતિલેખના—જે પ્રત્યુપેક્ષણામા વજ્ર અને શીર, એ બન્નેને સંકુચિત કરવામાં આવતા નથી એવી પ્રતિàખનાને અવલિત અપ્રમાદ પ્રતિલેખના કહે છે. અનનુષધી પ્રત્યુપેક્ષણા—જે પ્રત્યુપેક્ષણામાં નિરન્તર પ્રસ્ફોટન ( ઝંટકારવાની ક્રિયા ) ને અભાવ રહે છે તે પ્રત્યુપેક્ષાને અનનુબન્ધી પ્રત્યુપેક્ષણા કહે છે. અહીં પ્રસ્ફેટનનુ· સાતત્ય ગ્રહણુ થયુ છે. તે પ્રસ્ફેટનના સાતત્ય રૂપ અનુબન્ધના જે પ્રત્યુપેક્ષણામાં અભાવ હોય છે તે પ્રત્યુપેક્ષણુાને અનનુખી અપ્રમાદ પ્રતિલેખના કડી છે. Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - स्थानासपने मौशली-पूर्वोक्तलक्षणा न विद्यते यत्र तत् ।। ४ ॥ तथा-पटू पुरिमा नत्र खोडाः कर्तव्याः । अयं भावः-वन पसायं तस्य संमुखभागम् ऊर्ध्वमध्याधश्चक्षुपा विलोक्य त्रयः पुरिमा:=प्रस्फोटाः कर्तव्याः, ततरतत् परावर्त्य तथैव चक्षुपा विलोक्य त्रयः पुरिमाः कर्तव्या इति पट पुरिमाः । तथा-नव खोटाः-कृतभागत्रयस्य प्रत्युपेक्ष्यमाणवस्त्रस्य प्रथमभागं वास्त्रयं जीवं यतनया प्रमार्य यतनया त्रयः प्रस्फोटाः कर्तव्याः, ततो मध्यमान्तिमभागयोरपि तथैव त्रयमयः प्रस्फोटाः कर्तव्या इति नव खोटाः । चक्षुपा निरीक्ष्य यत्मस्फोटनं तत् पुरिमइत्युच्यते, वाली सोशली जिस प्रत्युपेक्षणा में नहीं होती है ऐसी वह प्रत्युपेक्षणा अमोशलि अप्रमाद प्रतिलेखना है ४ बन्न को पलार कर उसके आगे के भागको ऊंचे मध्य और अधोभाग में आंखों से अच्छी तरह देखकर तीन पुरिमा प्रस्फोट करना चाहिये इसके बाद उसे फिर फेरकर उसी तरह से आँखों से देखकर तीन पुरिमा करना चाहिये इस प्रकार से ये ६ पुरिमा हैं तथा नौ खोड इस प्रकार से हैजिस वस्त्रकी प्रत्युपेक्षणा करनी है ऐसे पस्त्र को पहिले उसकी घरी को संभाल कर खोल लेना चाहिये और खोल कर मंसुस्व भाग की तीन बार यतना पूर्वक प्रमार्जना करनी चाहिये और प्रमार्जना करके फिर तीन प्रस्फोट करना चाहिये इसी प्रकार मध्य भाग और अन्तिम भाग में तीन बार यतना पूर्वक प्रमार्जनो करके ३-३ प्रस्फोट करना चाहिये इस प्रकार ले ये नौ खोट होते हैं चक्षु से देखकर जो प्रस्फोटन किया जाता है वह पुरिन कहलाता है और जो प्रमार्जना के અમેશતી અપમાદ પ્રતિલેખના–પૂર્વોક્ત લક્ષવાળી મશીન જે પ્રત્યપેક્ષણામાં સદૂભાવ હોતું નથી એવી પ્રત્યુપેક્ષણને અમેશલી અપ્રમાદ પ્રતિલેખના કહે છે. પર પુરિમા નવ બેટ અપ્રમાદ પ્રતિલેખના–આંખ વડે જોઈને જે प्रटन (3८४२पानी या ) ४२॥य छ, तेने 'पुरिभ' ४ छ. अमानना કર્યા બાદ જે પ્રસટન થાય છે તેને ખેટ કહે છે. આ પ્રકારનું પુરિમ અને ઓટ વચ્ચે અન્તર છે 'વઅને ઉકેલીને તેના આગલા ભાગનું ઉપર, વચ્ચે અને નીચેના ભાગમાં આંખે વડે બારીક નિરીક્ષણ કરીને ત્રણ પરિમા ત્રણ પ્રટન) કરવા જોઈએ. ત્યારબાદ તેને ફેરવી નાખીને ફરીથી એ જ પ્રમાણે આંખેથી બારીક નિરીક્ષણ કરીને ત્રણ પુરિમા કરવા જોઈએ. આ પ્રકારના ૬ પુરિમા સમજવા, નવ ખેટનું સ્વરૂપ આ પ્રકારનું છે–જે વમની Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नुषा टीका स्था.६ र ३० प्रमादविशिष्ट प्रतिलेग्ननानिरूपणम् ३६७ यत्तु प्रमार्जनानन्तरं प्रम्फोटनं तत् खोट इत्युच्यते, इति पुरिमखोटयो भेदो योध्य इति ॥ ५ ॥ तथा-पाणी-माणविगोधना-हस्तस्थितानां प्राणानां कुन्या. दिमाणिनां विशोधना=प्रमार्जना । ६ । इति पट् अप्रमादप्रतिलेखनाः ।। इति । विस्तरस्तु उत्तराध्ययनमूत्रस्य पड्विंशतितमेऽध्ययने मस्कृतायां प्रियदर्शिनी टीकायां विलोकनीयः ।। २ ।। ० ३० ॥ प्रमादाप्रमादप्रतिलेखना मोक्ता, सा च लेश्याविशेपादेव भवतीति सामा न्यतो विशेषश्च लेश्यास्वरूपं परूपयति ___ मूलम् छलेसाओ पपणत्ताओ, तं जहा-कण्हलेसा जाव सुक्कलेसा । पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं छलेसाओ पण्णत्ताओ, तंजहा-कण्हलेता जाव सुकलेला। एवं मणुस्सदेवाणवि ।सू०३१॥ बाद ही प्रस्फोटन होता है वह खोट कहलाता है इस तरह से पुरिम और खोट में अन्तर है इस प्रकार की जो प्रत्युपेक्षणा है वह पह पुरिमा और नौ खोट रूप अप्रमोद प्रत्युपेक्षणाई ५ एवं हस्त में रहा हुवा जो कुन्थु आदिक प्राणी है उनकी जो विशोधना है वह " प्राणिप्राणविशोधन" नाम की ६ वी अप्रमादप्रतिलेखना है इनका विस्तार यदि देखना हो तो मेरे द्वारा कृस उत्तराध्ययन सूत्र के २६ वें अध्ययन की प्रियदर्शिनी टीका देखनी चाहिये ।। सू० ३०॥ પ્રત્યપેક્ષણ (પલેવણું) કરવાની હોય તેને પહેલા તે સંભાળપૂર્વક ઉકેલવું જોઈએ. ત્યારબાદ સંમુખ ભાગની ત્રણ વાર યતનાપૂર્વક પ્રાર્થના કરવી જોઈએ, અને પ્રમાર્જના કરીને ફરી ત્રણ પ્રસ્ફોટન કરવા જોઈએ. એ જ પ્રમાણે મધ્યભાગમાં અને અન્તિમ ભાગમાં ત્રણ વાર યતનાપૂર્વક પ્રમાર્જના કરીને ત્રણ ત્રણ પ્રસ્ફટ કરવા જોઈએ. આ પ્રકારે કુલ નવ બેટ થાય છે. આ પ્રકારની જે પ્રત્યુપેક્ષણ છે તેને “વહુ પુરિમા અને ની ખોટ રૂ૫ અપ્રમા પ્રત્યુપેક્ષણ” કહે છે પ્રાણિ પ્રાણ વિશેષન અપ્રમાદ પ્રતિલેખના-કુન્થ (અંત) આદિક જીવની જે વિરોધના છે તેનું નામ “પ્રાણિ પ્રાણ વિશેધન અપ્રમાદ પ્રતિ. લેખના' છે. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્રના ૨૬ માં અધ્યયનની પ્રિયદર્શિની ટીકામાં આ અપ્રમાદ પ્રતિલેખનાનું વિસ્તૃત વિવેચન કરવામાં આવ્યું છે. તે જિજ્ઞાસુ પાઠકએ ત્યાંથી તે વાંચી લેવાની ભલામણ કરવામાં આવે છે. સૂ. ૩૦ છે Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ Free छाया - पड्लेश्याः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - कृष्णालेश्या यात्रत् शुक्ललेश्यो । पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां पड्लेश्याः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा कृष्णलेश्या यावत् शुक्ललेश्याः । एवं मनुष्यदेवानामपि ।। ० ३१ ॥ टीका - ' छ लेसाओ ' इत्यादि लिश्यते = लिप्यते प्राणी कर्मणा याभिस्ताः लेश्याः = कृष्णादि द्रव्यसाचिन्यादात्मनः परिणामविशेषाः, तदुक्तम्- "कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यात्, परिणामो य आत्मनः । स्फटिकस्येव तत्रायं, लेश्या शब्दः प्रवर्तते ॥ १ ॥ " इति । इस ऊपर के सूत्र में जो प्रमाद प्रतिलेखना और अप्रमाद प्रतिलेखना इन प्रकार से दो प्रतिलेखनाएँ कहीं गई है सो यह लेश्या विशेष से ही होती है इसलिये अब सूत्रकार सामान्य और विशेषरूप से लेश्या के स्वरूप की प्ररूपणा करते हैं "छलेमाओ पण्णत्ताओ" इत्यादि सूत्र ३१ ॥ टीकार्थ- जिनके द्वारा प्राणी कर्म से लिप्त होता है वे लेइयाएँ हैं ऐसी ये याएँ व प्रकार की होती हैं- कृष्णलेच्या यावत् शुक्ललेश्या पचेन्द्रिय तिर्यग्योनिकों में ६ लेइयाएँ होती हैं जैसे- कृष्णलेश्या यावत् शुक्ला इसी तरह का कथन मनुष्य एवं देवों को भी जानना चाहिये कृष्णादि द्रव्य की महायता से आत्मा के परिणाम विशेष रूप ये लेवाएँ होती हैं । मो ही कहा है " कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यात् " इत्यादि । जिस प्रकार से जपापुष्प लाल रंगके संसर्गसे स्फटिक मणिमें ઉપરના સૂત્રમાં પ્રમાદ પ્રતિલેખના અને અપ્રમાદ પ્રતિલેખનાનું મિરૂપણુ કરવામાં આવ્યું. વૈશ્યાવિશેષ પર તેના આધાર હાવાથી હવે સૂત્રકાર સામાન્ય અને વિશેષ રૂપે લેસ્યાઓના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરે છે. छ ठेसाओ पण्णत्तओ " इत्यादि ८८ ટીકા”—જેમના દ્વારા જીવ ક`થી લિપ્ત (આચ્છાદિત) થાય છે, તે લેસ્યાઓ छे. भेची बेश्याओोना नीचे प्रभा अहार छे - (१) सॄष्णुवेश्या, (२) नींद सेश्या, (3) अयोतसेश्या, (४) तेलेवेश्या, (५) पद्मलेश्या भने (१) शु४स લેશ્યા. એ જ પ્રકારનું કથન મનુષ્ય અને દેવાના વિષયમાં પણ સમજવું. કૃષ્ણાદિ દ્રવ્યની સહાયતાથી જન્ય આત્માના પરિણામ વિશેષ રૂપ આ લેસ્યાઓ होय छेउ या छे े : " कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यात् " त्यादि જે પ્રકારે જ પુષ્પના સ'સથી સ્ફટિકમાં (મણિમાં) તેના આકારનું પરિણમન થઇ જાય છે, એ જ પ્રમાણે કૃષ્ણાદિ દ્રવ્યના સસથી આત્મામાં એ જ જાતનું જે પરિણમન થાય છે, એ જ લૈશ્યા છે. પોંચેન્દ્રિય તિય ચેામાં અને મનુષ્યામાં ૬ લૈશ્યાઓના સદ્ભાવ હાર્ય Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०६ सू० ३२ देवसूत्रकथनम् ३६९ ताः पट् संख्यकाः प्रज्ञप्ताः । तद्यथा - कृष्णलेश्या यावत् शुक्ललेश्या । यात्रत्यदात्-नीललेया कापोतलेल्या तेजोलेश्या पद्मलेल्या च ग्राद्याः । तथा पञ्चे न्द्रियतिर्यग्योनिकानां मनुष्याणां च प्रत्येकं कृष्णादि पडलेश्याः । देवानां तु जात्यपेक्षया पड्लेश्या बोध्याः । लेश्या विषये विशेष जिज्ञासुमिरावश्यकमुत्रस्य मत्कृता मुनितोषिणी टोकाऽवलोकनीयेति ॥ सू० ३१ ॥ देवप्रस्तावात् सम्पति देव सूत्राणि प्राह- मूलम् - सक्क्स्स णं देविंदस्स देवरन्नो सोमस्स महारत्नो छ अग्ग महिलाओ पण्णत्ताओ । सक्कस्स णं देविंदस्स देवरन्नो जमस्स महारनो छ अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ ||सू०३२|| - शक्रस्य खलु देवेन्द्रस्य देवराजस्य सोमस्य महाराजस्य प अग्रमहिष्यः प्रज्ञप्ताः । शक्रस्य खलु देवेन्द्रस्य देवराजस्य यमस्य महाराजस्य पड अग्रमहिण्यः प्रज्ञप्ताः ॥ सू० ३२ ॥ छाया-- उसके आकार का परिणाम हो जाता है उसी प्रकार से कृष्णादि द्रव्य के संसर्ग से आत्मा में इसी जाति का जो परिणमन होता है वही लेश्या है । प सूत्र में यावत् पद से " नीललेश्या, कापोतलेल्या, तेजोलेश्या और पाया " इन लेश्याओं का ग्रहण हुआ है । पञ्चेन्द्रियतिर्यश्चों में और मनुष्यों में प्रत्येक को कृष्णादिक ६ लेश्याएँ होती हैं । परन्तु देवों को तो जाति की अपेक्षा से ६ लेश्याएँ होती है । लेश्या के विषय में विशेष जिज्ञासुओं को आवश्यक सूत्र की मुनिमोषिणी टीका जो कि मेरे द्वारा रची गई हैं देखनी चाहिये || मृ० ३१ ॥ -- देव प्रस्ताव को लेकर अब सूत्रकार देव सूत्रों का कथन करते हैंછે. પરન્તુ દેવેશમાં તે જાતિની અપેક્ષાએ ૬ લેશ્યાએ હોય છે એટલે કે અમુક દેવામાં અમુક લેશ્યાઓના અને ખીજા દેવા મા અમુક લેશ્યાઓના સાવ હાય છે. આવશ્યક સૂત્રની સુનિતાષિણી જે ટીકા મારા દ્વારા લખાઇ છે તેમાં લેશ્યાઓના સ્વરૂપનું વિસ્તૃત વિવેચન કરવામાં આવ્યુ છે. તે निज्ञासु पाठ तेवांची सेवु ॥ स्. ३१ ॥ દેવાની લેશ્યાઓને આગલા સૂત્રમાં ઉલ્લેખ થયે છે તે સબંધને અનુલક્ષીને હવે સૂત્રકાર દેવવિષયક સૂત્રનું કથન કરે છે स- ४७ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० स्थानासूत्रे टीका--' सकस्स णं ' इत्यादि - केन्द्राधीनयोः सोमयमयोः पट् प‍ अग्रमहिष्यो वोध्याः ॥ स्रु० ३२ ॥ लम्-ईसाणस्स णं देविंदस्स देवरण्णो मज्झिमपरिसाए देवा छ पलिओसाई ठिई पण्णता || सू० ३३ ॥ छाया - ईशानस्य खलु देवेन्द्रस्य देवराजस्य मध्यमपरिपदि देवानां पद् पल्योपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता || सु० ३३ ॥ टीका' ईसाणस्स ' इत्यादि - व्याख्या स्पष्टा ॥ मु० ३३ ॥ मूल्य-छ दिसिकुमार महत्तरियाओ पण्णत्ताओ, तं जहा -- रूवा १, ख्वंसा २, सुरूवा ३, रुववई ४, रूवर्कता ५, रूपक्षा ६। छ विज्जुकुमार महत्तरियाओ पण्णत्ताओ तं जहाआला १, सक्का २, सतेरा ३, सोयामणी ४, इंदा ५, घणविज्जुया ६ || सू० ३४ ॥ "कस्स णं देविंदस्य देवरन्नो सोमस्त" इत्याति सूत्र ३२ ॥ टीकार्थ- देवेन्द्र देवराज शक्रके सोम महाराज की ६ पट्टदेवियां कही गई हैं - इसी तरह देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल यस महाराज की ६ पदेवियां कही गई हैं । सृ० ३२ ॥ "ईसाणस्स णं देविंदस्स देवरण्णो" इत्यादि सूत्र ३३ ॥ टीकार्थ- देवेन्द्र देवराज ईशानकी मध्यम परिषदामें देवों की६ पत्योपम की स्थिति कही गई हैं || स्व० ३३ ॥ 66 करण देविंदर देवरन्नो सोमरस " इत्यादि ટીકા-દેવેન્દ્ર દેવરાજ શકના લેાકપાલ સેામ મહારાજને ૬ પટ્ટરાણીએ કહી છે. એ જ પ્રમાણે દેવેન્દ્ર દેવરાજ શક્રના લેાકપાલ યમ મહારાજને પણ ૬ પટ્ટરાણીએ કહી છે. ! સૂ૩૨ માં 66 ईमाणस्स णं देवि दत्स देवरण्णो " धत्याहि ટીકા-દેવેન્દ્ર દેવરાજ ઇશાનની મધ્યમ પરિષદના દેવેની ૬ પન્ચે પમની स्थिति उही छे । सू. ३३ ॥ Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुघा टीका स्था ६सू ३४ दिपकुमार्यादिनिरूपणम् ___ छाया--पड् दिक्कुमारीमहत्तरिकाः प्रज्ञप्ताः, तयथा-रूपा १ रूपांसा २, सुरूपा ३, रूपवती ४, रूपकान्ता ५, रूपप्रमा ६। पड विद्युत्कुमारी महत्तरिकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-आला १, शका २, शतेरा ३, सौदामनी ४, इन्द्रा ५, धनविद्युत् ६ ॥ सु० ३४ ॥ ____टीका--'छ दिसिकुमारी' इत्यादि-- दिक्कुमारी महत्तरिका:-दिक्कुमाय:-दिवकुमार भवनपतिदेव विशेष जातीयदेव्यः, ताश्च महत्तरिका प्रधानतमाश्च तास्ताथोक्ताः, ताच रूपा सुरूपादिभेदैः पदसंख्यका बोध्याः। तथा विद्युत्कुमारी महत्तरिका -विद्युत्कुमार भवनपति देव विशेषजातीय प्रधानतया देव्योऽपि 'आलाशका' दिभेदैः षट्संख्यका वोध्याः ॥ सू० ३४ ॥ मूलम्-धरणस्स जं नागकुमारिदस्त नागकुमारस्तो छ अग्गमहिसीओ पण्णताओ, तं जहा-आला १, सक्का २, सतेरा ___“छ दिसिकुमारि महत्तरियाओ" इत्यादि रहन्न ३४ ॥ टीकार्थ-दिक्कुमार जांति के जो भग्नपति विशेप, उनकी जाति की देवियां जो दिक्कुमारी महतरिकाएँ हैं वे ६ कही गई हैं उनके नाम इस प्रकार से हैं-रूपा १ रूपांशा २ सुरूपा ३ रूपवती ४ रूपशान्ता ५ और रूपप्रभा ६ इन्हे महत्तरिका प्रधानतम होने से कहा गया है। इसी प्रकार विद्युत्कुमार जाति के भग्नपति देव विशेष हैं उनकी जाति की जो विद्युत्कुमारी महत्तरिकाएँ हैं वे भी ६ ही कही गई है उनके नाम इस प्रकार से हैं-आला १ शका २ शतेरा ३ सौदामनी ४ इन्द्रा-५ और धनविद्युत् ६ ॥ सू० ३४ ॥ " छ दिसि कुमारि महत्तरियाओ" त्याहટીકાર્ચ-ભવનપતિ દેવના દસ પ્રકારો છે. તેમાં એક પ્રકાર દિકરીનો છે. તે દિકુમાર જાતિની ૬ દિકુમારી મહત્તરિકાઓ (મુખ્ય દેવીએ) ही छ. तमनां नाम नाय प्रमाणे छे-(१) ३५६, (२) ३५iशा, (3) सु३॥ (४) ३५५, (५) ३५४ान्ता भने (6) ३५प्रभा ते वीस। प्रधानतम-J७५ હોવાને કારણે તેમને મહત્તરિક કહી છે એ જ પ્રમાણે વિઘુકુમાર જાતિના ભવનપતિ દેવોની જાતિની જે વિવુ મારી મહત્તરિકાઓ છે, તે પણ છ જ કહી છે તેમના નામ નીચે પ્રમાણે छ-(१) मासा, (:) शl, (3) शतेश, (४) सोमानी, (५) ४न्द्रा भने (६) धनविधुत् ॥ २. ३४ ।। Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७५ __ स्थानाङ्गो ३, सोयामणी ४, इंदा ५, घणविज्जुया ६। भूयाणंदस्स णं नाग. कुमारिंदस्त नागकुमाररण्णो छ अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-रूवा १, रूवंसा २, सुरूवा ३, रूववई ४, रूवकंता , रूवप्पभा ६। जहा धरणस्स तहा सत्बेसि दाहिणिल्लाणं जाव घोसस्स । जहा भूयाणंदस्स तहा सव्वेसि उत्तरिल्लाणं जाव महाघोसस्त ॥ सू० ३५॥ छाया-धरणस्य खलु नागकुमारेन्द्रस्य नागकुमारराजस्य पड अग्रमहिप्यः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-आला १, शक्रा २, शतेरा ३, सौदामनी ४, इन्द्रा ५, घनविद्युत् ६। भूतानन्दस्य नागकुमारेन्द्रस्य नागकुमारराजस्य पड अग्रमहिण्यः प्रज्ञप्ताः, तद्यथारूपा १ रूपाँशा २, सुरूपा ३, रूपवती ४, रूपकान्ता ५, रूपप्रभा ६। यथा "धरणस्स ण नागकुमारिंदस्स नागकुमाररन्नो" इत्यादि सूत्र ३५॥ नागकुमारेन्द्र नागकुमारराज धरणका ६ अग्रमहिषियांकही गई हैं जैसे-आला १ शक्रा २ शतेरा ३ सौदामनी ४ इन्द्रा ५ और धनविघुत् ६ नागकुमारेन्द्र नागकुमारराजभूतानन्दकी छह अग्रसहिपियां कही गई हैं जैसे-रूपा १ रूपांशा २ सुरूगा ३ रूपयनी ४ रूपकान्ता ५ और रूपप्रभा ६ जिस प्रकार ले धरण की पट्टदेवियों के विषय में कहा गया है उसी प्रकार से समस्त दक्षिण दिशा के अधिपतियों का यावत घोष तक का कथन जानना चाहिये तथा जैसा कथन भूतानन्द की " घरणस्स णं नागकुमारिदस्स नागकुमाररन्नो" त्या નાગકુમારેદ્ર નાગકુમારરાય ધરણને ૬ અમહિષીઓ છે, તેમનાં નામ नीय प्रमाणे छ-(१) माता, (२) शzt, (3) शते।, (४) सौहामनी, (५) छन्द्रा भने (६) धनविद्युत् નાગકુમારેન્દ્ર નાગકુમારરાય ભૂતાનન્દને ૬ અગ્રમહિષીઓ છે તેમનાં नाम नाथे प्रभारी छ--(१) ३५ा, '(२) ३५॥शा, (3) सु३५, (४) ३५क्ती , (५) ३५४न्ता भने (६) ३५प्रमा. ઘોષ પર્યન્તના દક્ષિણ દિશાના સમરત અધિપતિઓની અગ્રમહિષીઓના વિષયમાં ધરણની અગ્રમહિષીઓના જેવું જ કથન સમજવું. મહાઘેષ પર્ય Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुंधा टीका स्था०६ सू० ३६ घरणेन्द्रीनां साम(निकसाहस्रीणां निरूपणम् ३७३ धरणस्य तथा सर्वेषां दाक्षिणात्यानां यावद् घोषस्य । यथा भूतानन्दस्य तथा सर्वेषाम् उत्तरीयाणां यावद् महाघोषस्य || सू० ३५ ॥ टीका -' धरणस्स णं ' इत्यादि - व्याख्या स्पष्ट || सू० ३५ ॥ मूलम् - धरणस्स णं णागकुमारिंदस्स नागकुमाररण्णो छ सामाणियसाहसीओ पण्णत्ताओ । एवं भूयाणंदस्सवि जाव महाघोलस्स ॥ सू० ३६ ॥ छाया - धरणस्य खलु नागकुमारेन्द्रस्य नागकुमारराजस्य पटू सामानिकमाहस्थः प्रज्ञप्ताः एवं भूतानन्दस्यापि यावर महाघोषस्य || सू० ३६ ॥ 6 टीका धरण ' इत्यादि । नवरम् - सामानिक साहरत्र्यः - ऋद्धिमत्त्वेन ये इन्द्रसमानतया चरन्ति ते देवाः सामानिकाः । तेपां साहस्थः इति ।। सू० ३६ ॥ - पट्टरानियों का किया गया है वैसा ही समस्त उत्तर दिशा के अविषतियों का यावत् महाघोष तक का कथन जानना चाहिये || सू० ३५ ॥ "वरणस्स णं णागकुमारिंदस्स" इत्यादि सूत्र ॥ ३६ ॥ टीकार्थ- नागकुमारेन्द्र नागकुमारराज धरणकी सामानिक देवोंकी संख्या ६ हजार कही गई है इसी प्रकार से भूतानन्द के यावत् महाघोष के सामानिक देवों की संख्या ६ हजार कही गई हैं। ऋद्धिवाले होने से जो इन्द्र के जैसे होते हैं वे सामानिक देव हैं ॥ सू० ३६ ॥ इस ऊपर के सूत्र में देवों के सम्बन्धमे कुछ थोड़ा सा कथन किया गया है । अब सूत्रकार भवमत्यय से ही विशिष्ट मतिवाले हुए उन ન્તના ઉત્તર દિશાના સમસ્ત અધિપતિઓની અગમહિષીએના વિષયમાં ભૂતાનન્નુની અગ્રમહિષીએના જેવુ' જ કથન ગ્રહેણુ કરવું. હા સૂ. ૩૫ ૫ <: धरण ण णागकुमारिदरस " त्याहि- ટીકા-નાગકુમારેન્દ્ર નાગકુમારરાજ ધરણના સામાનિક દેવાની સંખ્યા ૬૦૦૦ ની કહી છે. એ જ પ્રમાણે ભૂતાનન્તથી લઇને મહાઘેપ પર્યન્તના પ્રત્યેક ઈન્દ્રના સામાનિક ધ્રુવે ૬-૬ હજાર કહ્યા છે. સામાનિક ધ્રુવે ઋદ્ધિવાળા होवाने सीधे न्द्रना समान होय हे ॥ सु. ३६ ॥ ઉપરના સૂત્રેામાં દેવેના વિષયમાં ઘેાડુ કથન કરવામાં આવ્યું છે. આ દેવેશ ભાવપ્રત્યયથી જ ( દેવ ભવની પ્રાપ્તિ થવાને કારણે ) વિશિષ્ટ મતિવાળા Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ स्थाना अनन्तरमूत्रे देवसम्बन्धिकं किंचित् प्रोक्तम्, सम्पति भवप्रत्ययादेव विशि |ष्टमतिमतां तेषां मतिभेदानाह मूलम् - छविहा उग्गहसई पण्णत्ता, तं जहा - खिष्पमोगिes १, बहुमोगिoes २, बहुविमोगिहइ ३, धुवमोगिण्हइ ४, अणिस्सियोगिues ५, असंदिद्धयोगिण्हइ ६। छविहा ईहामई पण्णत्ता, तं जहा - खिप्पमीहइ १, बहुमीहइ २, जाव असंदिखमी ६। छविवहा अवायमई पण्णत्ता, तं जहाखिष्पमवेइ ९, जाव असंदिद्ध मत्रेइ ६ । छविवहा धारणा पण्णत्ता, तं जहा - बहुं धारेइ १, बहुविहं धारेइ २, पोराणं धारेइ३, दुद्धरं धारे ४, अणिस्सियं धारेइ ५, असंदिद्धं धारई ६ ॥ सू०३७॥ छाया-पविधा अवग्रहमतिः प्रज्ञप्ता तद्यथा- क्षिप्रसवगृह्णाति १, बहु अवगृह्णाति २, विगृह्णाति ३, ध्रुवमवगृह्णाति ४, अनिश्रितमवगृह्णाति ५, असदिग्धमगृह्णाति । पविधा ईहामतिः प्रज्ञप्ता, तद्यथा- क्षिममीते ९, वह ईहते २, यावत् - असन्दिग्धमीहते ६ | पद्विधा अवायमतिः प्रज्ञप्ता, तद्यथा- क्षिप्रमवैति १ यावत् असन्दिग्धमवैति ६ । पविधा धारणा मज्ञप्ता, तद्यथा - बहु धारयति ९, बहुविधं धारयति २, पुराणं धारयति ३, दुर्धरं धारयति ४, अनिश्रितं धारयति ५, असन्दिग्धं धारयति ६ ॥ सू० ३७ ॥ टीका- ' छव्विहा ' इत्यादि मननं मतिः आभिनियोधिकं ज्ञानं सा च अवग्रहाऽवायधारणाभेदात् चतुर्विधा । तत्र अवग्रहणम् - अवग्रहः = सामान्यार्थस्य अशेषविशेपनिरपेक्षस्य अनिदेवों की मतिके भेदोंका कथन करते हैं । "छव्हिा उग्गहमई पण्णत्ता" इत्यादि सूत्र ३७ ॥ टीकार्थ - अवग्रहमति६ प्रकार की कही गई है । सनन करनेका नाम मति है, यह मति अभिनिवोधिक ज्ञानरूप होती है । आभिनिवोधिक ज्ञानહાય છે. તેથી હવે તે દેવાની મતિના ભેદ્દેનું સૂત્રકાર નિરૂપણ કરે છે टीअर्थ - " छव्विहा उग्गहभई पण्णत्ता " त्याहि- અવગ્રહમતિ ૬ પ્રકારની કહી છે. મનન કરવુ તેનું નામ મતિ છે. તે મતિ આભિનિષેાધિક, જ્ઞાનરૂપ હોય છે. અભિનિષેાધિક જ્ઞાનરૂપ મતિના નીચે Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०६ सू. ३७ विशिटमतिमतां देवानां गतिमेदनरूपणम् - देश्यस्य रूपादेरेव प्रथमतो ग्रहणं परिच्छेदनम् १ | ईहनम् - ईहा = अवग्रहगृहीतसामान्यार्थस्य विशेषत आलोचनम् २ | तथा - अवग्रहाभ्यां सामान्यविशेषरूपेण गृहीतस्यार्थस्य यो निश्चयः सोऽवायः ३ । एभिरवग्रहेाऽवायैरधिगतस्यार्थस्य याsविच्युतिः सा धारणा ४| तदुक्तम् 4 सामन्नत्थावग्गहण मोग्गहो भेयमुग्गहण मिहेहा | तरसावगमोsवाओ, अविच्चुई धारणा तस्स ॥ १ ॥ " ३७५ छाया -- सामान्यार्थावग्रहणमवग्रहः, भेदोद्ग्रहणमिहेहा | तस्यावगमः अत्रायः अविच्युतिर्धारणा तस्य ॥१॥ इति । तत्र - अवग्रहादिषु चतुर्विधासु मतिपु मध्ये या अवग्रहरूपा मतिः अवग्रहमतिः । इयं च व्यञ्जनावग्रहमत्यर्थावग्रहमतिभेदाभ्यां द्विधा । तत्र - व्यञ्जनावग्रहमतिः - रूप मति अवग्रह १, ईहा २ अवायएवं धारणा के भेद से चार प्रकारको है । इनमें समस्त विशेषोंसे निरपेक्ष एवं अनिर्देश्य ऐसे सामान्य अर्थरूप रूपादि का ही जो प्रथमतः ग्रहण होता है वह अवग्रह है । अवग्रहसे जाने हुए पदार्थ का विशेष रूपसे आलोचन होता है वह ईहा है, अवग्रह एवं ईहा इन दोनों से सामान्य विशेष रूप से जाने गये पदार्थ का जो निश्चय है वह अवाय है ३ तथा अवग्रह ईहा और अवाय इनसे अधिगत अर्थ को जो अविस्मृति ( नहीं भूलना ) है वह धारणा है । कहा भी है " सामन्नत्थावग्गहणं " इत्यादि । इस तरह से अवग्रहादि रूप चार प्रकारकी सतिके नीचमें जो अवग्रह रूप मति है वह अवग्रहमति है । यह अवग्रह रूप सति व्यञ्जनावप्रभाये यार लेह पडे छे - ( १ ) अवथडे, (२) धडा, (3) अवाय भने (४) धारणा. સમસ્ત વિશેષાથી નિરપેક્ષ ષને અનિર્દેશ્ય એવા સામાન્ય અર્થ રૂપ રૂપાદિનું જે પહેલાં ગ્રહણ થાય છે તેનું નામ અવગ્રહ છે. અવગ્રહ વડે જાણેલા પટ્ટાનું જે વિશેષ રૂપે આલેચન થાય છે, તેનું નામ ઈહા છે અવ ગ્રહ અને ઇહા, આ બન્ને વડે સામાન્ય અને વિશેષ રૂપે જાણેલા પદ્યાના જે નિશ્ચય થાય છે, તેનુ' નામ અવાય છે અગ્રડ, ઈંહા અને અવાય, એ ત્રણે દ્વારા અધિગત અર્થાંની જે અવિસ્મૃતિ ( ભૂલવું નહીં તે ) છે, તેનું નામ धारा छे. ह्युं पयु : " सामन्नत्थावग्गण ” हत्याहि આ પ્રકારે મતિના ચાર ભેદમાં જે પહેલા ભેદ છે તેનુ' નામ અવગ્રહ મતિ છે. તે અવગ્રહ મતિના વ્યંજનાવગ્રહમતિ અને અર્થાવગ્રહુમતિ નામના બે ભેદ પડે છે. વ્યંજનાવગ્રહમતિનુ સ્વરૂપ આ પ્રકારનુ છે - Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ enter " व्यज्यते प्ररुटीक्रियतेऽनेनार्थः प्रदीपेनेव घट इति व्यञ्जनम् - चक्षुर्मनसोरमाध्यका रित्वात्तद्वर्जितं, श्रोत्रम्राणरसन स्पर्शन रूपं - चतुर्विधमुपकर णेन्द्रियं तेन स्व सम्बद्धस्यार्थस्य - शब्दादेरवग्रहणम् - अव्यक्तरूपः परिच्छेदो व्यञ्जनावग्रहः । अयं भावः - उपकरणेन्द्रियस्य शब्दादिपरिणतद्रव्यस्य च सम्बन्धे प्रथमसमपादारभ्य अर्थावमहात्मा या सुप्तमतमूच्छितादिपुरुषाणामित्र शब्दादि द्रव्यमात्रसम्बन्धविपया काचिदव्यक्ता ज्ञानमात्रा सा व्यञ्जनावग्रह इति । तद्रूपा मतिर्व्यञ्जनावग्रहमतिःग्रहमति एवं अर्थावग्रहमति के भेद से दो प्रकारकी है, इनमें व्यञ्ज नवग्रहमति इस प्रकार से है - जैसे दीपक के द्वारा पदार्थ व्यक्त किया जाता है । उसी प्रकार जिसके द्वारा पदार्थ व्यक्त किया जाता है वह नवग्रहमति है यह व्यञ्जनावग्रह रूप मति चक्षु और मनसे इस लिये नहीं होती है कि ये दोनों इन्द्रियां अप्राप्यकारी हैं । श्रोत्र, घाण, रसना और स्पर्शन ये जो चार उपकरणेन्द्रियां हैं इनसे होती है क्योंकि ये इन्द्रियां प्राप्यकारी है अतः इन इन्द्रियोंसे सम्बद्ध शब्दादि रूप अर्थ का जो अव्यक्त रूप बोध होता है, वह व्यञ्जनावग्रह है । भाव ऐसा है उपकरणेन्द्रिय का और शव्दादि रूप परिणत द्रव्यका सम्बन्ध होने पर प्रथम समय से लेकर अर्थावग्रह होने के पहिले तक जो सुप्त सत्त सृच्छित आदि पुरुषों के ज्ञान की तरह शब्दादि द्रव्य मात्रके सम्बन्धको विषय करनेवाली कोई अव्यक्त ज्ञान मात्रा है वह व्यञ्जनवग्रह मति है । જેમ દીપકના દ્વારા પદાર્થ વ્યક્ત કરાય છે તેનું નામ વ્યંજનાવગ્રહમતિ છે. ચક્ષુ અને મન વડે વ્યંજનાવગ્રહ થતા નથી, કારણ કે તે બન્ને ઇન્દ્રિયા અપ્રાપ્યકારી છે, વ્યંજનાવગ્રહ શ્રોત્ર, ઘ્રાણુ, રસના અને સ્પર્શેન્દ્રિય, આ ચાર ઇન્દ્રિયા વડે જ થાય છે, કારણ કે આ ચાર ઇન્દ્રિયા ઉપકરણેન્દ્રિયા છે અને તે ઇન્દ્રિચા પ્રાપ્યકારી છે. તેથી તે ચાર ઉપકરણેન્દ્રિયા સાથે સમૃદ્ધ શબ્દાદિ રૂપ અને જે અવ્યક્ત રૂપે એધ થાય છે, તેનું નામ વ્યંજનાવગ્રહ छे, या उथनने। लावार्थ नीचे प्रमाणे -- ઉપકરણેન્દ્રિયના અને શબ્દાદિ રૂપ પરિશુત દ્રવ્યના સંબંધ થતાં પ્રથમ સમયથી લઇને અર્થાવગ્રહ થવાના સમય સુધી, જે સુસ, ઉન્મત્ત, સૂચ્છિત આદિ પુરુષના જ્ઞાનની જેમ શબ્દાદિ દ્રવ્ય માત્રના સંબધને વિષય કરનારી કોઈ અયુક્ત જ્ઞાનમાત્રા હોય છે તેનું નામ વ્યંજનાવગ્રહ મતિ છે. Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधारीका स्था०६ सू०३9 विशिष्टमतिमतां देवानां मतिमेदनिरूपणम् . ३७७ अर्थावग्रहमतिः-अवग्रहणम् अवग्रहः-अर्थस्यायग्रहोऽर्थावग्रहः-अनिर्देशसामान्यमात्ररूपाद्यर्थस्य व्यक्तरूपः परिच्छेदः । तद्रूपा मतिः-अर्थावग्रहमतिरिति । तत्रार्थावग्रहमतिनिश्चयव्यवहाराभ्यां द्विधा । व्यजनावग्रहोत्तरमेकसामयिकी निश्चयार्थावग्रहमतिः । व्यवहारार्थावग्रहमतिस्तु अन्तर्मुहूर्तप्रमाणा। इयं यद्यपि अवायरूपा तथापि उत्तरकालमाविनोरी हावाययोः कारणत्वादवग्रहमतिरित्युपचयते । उक्तं च"सामन्नमेतग्गहणं, नेच्छइयो समयमोग्गहो पढमो । तत्तोऽणंतरमीहिय वत्थु विसेसस्स जोऽवाभो ॥१॥ सो पुण ईहावायावेकवाउ अवग्गहोत्ति उपयरियो । एस विसेसावेक्खं, सामन्नं गेहए जेण ॥ २ ॥ तत्तोऽणंतरमीहा, तत्तोऽवाओ य तव्विसेसस्स । इय सामन्नविसे सावेक्खा जावंतिमो भेओ ॥३॥ सव्वत्येहावाया, निच्छयो मोत्तुमाइ सामन्नं । संववहारत्थं पुण, सव्वत्थावग्गहोवाओ ॥ ४ ॥ अर्थावग्रह-यह क्या है इस प्रकारसे अनिर्देश्य सामान्य मात्र रूप अर्थ का जो व्यक्तरूपसे परिच्छेद (निर्णय ) होता है वह अर्थावग्रह है। इस अर्थावग्रह रूप जो मति है वह अर्थावग्रहमति है यह अर्थावग्रह रूपमति निश्चय और व्यवहारके भेदसे दो प्रकारकी है इनमें व्यजना. वग्रह के बाद एक समय तक जो मति है वह निश्चय अर्थावग्रहमति है और अन्तर मुहर्त प्रमाणवाली जो मति है वह व्यवहार अर्थावग्रह मति है यह मति यद्यपि अवायरूप होती है फिरभी उत्तरकाल भावी जो ईहा एवं अवाय है उनका कारण होने से इसे अवग्रह मति इस रूपसे उपचरित किया गया है । कहा भीहै-"सामन्नोत्तरगहण" इत्यादि। અર્થાવગ્રહ મતિ––“આ શું છે?” આ પ્રકારે અનિર્દેશ્ય સામાન્ય ભત્રરૂપ અને જે વ્યક્ત રૂપે પરિચ્છેદ (ધ) થાય છે, તેનું નામ અર્થાવગ્રહ છે. અર્થાવગ્રહ રૂપ જે મતિ છે તેને અર્થાવગ્રહ મતિ કહે છે. તે અર્થાવગ્રહ મતિ નિશ્ચય અને વ્યવહારના ભેદથી બે પ્રકારની છે. વ્યંજનાવગ્રહ થયા બાદ એક સમય સુધી જે મતિ હેય છે તેનું નામ નિશ્ચય અર્થાવગ્રહ મતિ છે. અને અત્તર મુહુર્તા પ્રમાણુળી જે મતિ છે તેનું નામ ગ્યવહાર અર્થાવગ્રહ મતિ છે. આ મતિ જે કે અવાય રૂપ હોય છે, છતાં પણ ઉત્તરકાળભાવી જે ઈહા અને અવાય છે તેમના કારણભૂત હોવાથી તેને અવગ્રહ મતિ આ રૂપે ઉપચરિત કરવામાં આવેલ છે. કહ્યું પણ છે કે स्था०-४८ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ स्थाना तरतमजोगाभावेऽवाउब्धिय धारणा तदंतम्मि । सव्वत्थवासणा पुण, भणिया कालंतर सइत्ति ॥ ५॥" छाया-सामान्यमात्रग्रहणं नैश्चयिका समयमवग्रहः प्रथमः । ततोऽनन्तरमी हितवस्तु विशेपस्य योऽवायः ॥१॥ स पुनरीहावा यापेक्षया अवग्रह इत्युपचरितः । एप विशेपापेक्ष, सामान्यं गृह्णाति येन ॥ २ ॥ ततोऽनन्तरमीहा, ततोऽवायश्च तद्विशेषस्य । इति सामान्यविशेषापेक्षा यावदन्तिमो भेदः ॥ ३ ॥ सर्वत्रेहाचायौं, निश्चयतो मुक्त्वा आदि सामान्यम् । मंव्यवहारार्थ पुनः, सर्वत्रावग्रहोऽवायः ॥ ४ ॥ तरतमयोगाभावेऽवाय एव धारणा तदन्ते । सर्वत्र वासना पुनर्भणिना कालान्तरस्मृतिरिति ॥५॥ इति । अयासामर्थः प्रकाश्यते-'सामन्नमेत्तग्गहणं ' इत्यादि यः सामान्यमानं गृह्णाति स एकसामायिको नैश्चयिकः प्रथमोऽवग्रहः । द्वितीयस्तु ततः पश्चात् ईहितास्तुविशेषग्रहणशीलोऽन्तर्मुहूर्तप्रमाणोऽवायरूपो व्यावहारिको बोध्यः ॥ १॥ अयं पुनरीहावायापेक्षयाऽवग्रहहन्युपर्यते, यतोऽयं विशेषापेक्षं सामान्य गृह्णाति ॥२॥ ततः पश्चात् अवग्रहगृहीतसामान्यार्थस्य इन गाथाओं का अर्थ इस प्रकार से है-जो सामान्य मात्रको ग्रहण करता है वह एक समय प्रमाणकालवाला जैश्वयिक प्रथम अवग्रह है। द्वितीय जो अपग्रह है यह इसके बाद ईहितवस्तु विशेष को ग्रहण करने के स्वभाववाला होता है, इसके काल का प्रमाण एक अन्तमुंहत का है और यह अवाय (निश्चय ) रूप होता है यही व्यावहारिक अवग्रह है इसे जो अवग्रह कहा गया है वह ईहा और अवाय की अपेक्षासे उपचार से कहा गया है, क्योंकि यह विशेषापेक्ष सामान्यको " सामन्नमेत्तग्गहणं " त्या-- આ ગાથાઓને અર્થ આ પ્રમાણે છે-જે સામાન્ય માત્રને ગ્રહણ કરે છે તે એક સમયના પ્રમાણુ કાળવાળો નૈૠયિક પ્રથમ ગવગ્રહ છે. બીજે જે અવગ્રહ છે તે ત્યાર બાદ ઈહિત વસ્તુવિશેષને ગ્રહણ કરવાના સ્વભાવવાળો હોય છે. તેના કાળનું પ્રમાણ એક અન્તર્મુહૂર્તનું છે અને તે અવાય (નિશ્ચય) રૂપ હોય છે, એ જ વ્યાવહારિક અવગ્રહ છે. તેને જે અવગ્રહ રૂપે પ્રકટ કરવામાં આવેલ છે તે ઈહ અને અવાયની અપેક્ષાએ ઔપચારિક રીતે કહેલ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०६ सू०३७ विशिष्टमतिमतां देवानाम् मतिमेदनिरूपणम् ३७२ विशेषत आलोचनरूपा ईहा भवति । ततोऽनन्तरम् अपहेहाभ्यां सामान्यधिशेषतया गृहीतार्थस्य निश्चयरूपोऽवायो भवति । इति इत्थं सामान्यविशेषापेक्षा यावत् धारणारूपोऽन्तिमो भेदो भवति तावद् बोध्या ॥३॥ आनि सामान्य मुक्त्वा निश्चयतः सर्वत्र ईहावायो भवतः । पुनः संव्यवहारार्थ सर्वत्र अग्रहरूपो. बायो वोध्यः ॥ ४॥ तरतमयोगाभावे नारतम्याभावेऽवाय एव तदन्ते अवग्रहग्रहण करता है इसके बाद अपग्रहले गृहीत हुए सामान्य अर्थको विशेष रूपसे जो आलोचना होती है वह ईहा है इसके बाद अवग्रह और ईहासे सामान्य विशेषरूपसे गृहीत हुए पदार्थ का अम्बाय होता है। यह अवाय निश्चयरूप होता है, बादमें सामान्य विशेषशी अपेक्षा जप तक रहती है तब तक धारणा रूप अन्निस भेद होता है। आदिमें सामान्य को छोडकर निश्चय से सर्वत्र ईहा और अवाय होते हैं, तात्पर्य यह है कि सामान्य में लो अवग्रह हाही बोध होता है और विशेषमें ईहा अपायरूप बोध होता है। व्यवहारावग्रह प्रति यद्यपि अवायरूप होती है परन्तु वह उत्तर काल भाची ईहा और अगाय का कारण होती है इसलिये वह अबाय अवग्रह कहा गया है तारतम्य के अभाव में अवाय ही होता है अर्थात् जहाँ पर अपग्रह के बाद ऐसा पोध होती है कि यह दक्षिा का रहने वाला है या उत्तरके रहनेवाला है तो इस शंका की निवृत्ति के लिये છે, કારણ કે તે વિશેષાપક્ષ સામાન્યને ગ્રહણ કરે છે. ત્યાર બાદ અંગ્રહ દ્વારા ગ્રહણ કરાયેલ સામાન્ય અર્થની વિશેષ રૂપે જે આલેચના થાય છે, તેનું નામ “ઈહા” છે. ત્યાર બાદ અવગડ અને ઈહા દ્વારા સામાન્ય વિશેષ રૂપે ગૃહીત થયેલા પદાર્થને “અવાય રૂ૫ બેધ થાય છે તે અવાય નિશ્ચય રૂપ હોય છે. ત્યાર બાદ સામાન્ય વિશેષની અપેક્ષા જ્યાં સુધી રહે છે, ત્યાં સુધી ધારણા રૂપ છેલ્લે ભેદ રહે છે શરૂ બાતમાં સામાન્યને છોડીને નિશ્ચય વડે સર્વત્ર ઈહા અને અવાયને સદૂભાવ હોય છે. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે સામાન્યમાં તે અવગડ રૂ૫ બોધ જ થાય છે અને વિશેષમાં ઈહા અવાય રૂપ બોધ થાય છે. વ્યવહારાર્થાવગ્રહમતિ જે કે અવાય રૂપ હોય છે, પરંતુ તે ઉત્તરકળભાવી ઈહા અને અન્યાય રૂ૫ બોધ થવામાં કારણભૂત હોય છે તેથી તેને અવાય અવગ્રહ કહેવામાં આવેલ છે. તારતમ્ય (નિશ્ચય) ના અભાવમાં અવાય રૂપ બેધન જ સદૂભાવ રહે છે. એટલે કે જ્યાં અવગ્રહ પછી એ બોધ થાય છે કે આ દક્ષિણત્ય છે કે ઔદિય છે. તે આ શંકાનું નિવારણ કરવાને માટે નિશ્ચય કરાવવા તરફ ઝુકત એવો જે બેધ Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० स्थाना हाभ्यां सामान्यरूपेण गृहीतस्यार्थस्य निश्चयरूपेण यत् ग्रहणं तस्य अन्ते = अवसाने सर्वत्र धारणा भवति । इयं पुनः कालान्तरस्मृतिरूपा वासना भणिता ॥५॥ इति गाथा पञ्चकार्थः । तत्र-व्यवहारार्थावग्रहमतिमाश्रित्य पविधत्वं व्याख्यायते - तद्यथा - सावग्रहमतिः पह्नविधा यथा - क्षिमम् अवगृह्णाति - तदावरणीयक्षयोपशमाधिक्यात् शीघ्रं चन्दनादि स्पर्श स्वेनात्मना जानाति १ बहु अवगृह्णाति बहु-अधिकं निश्चय की ओर झुकना हुआ ऐसा जो बोध होता है कि इसे दक्षिणी होना चाहिये तो ऐसे ज्ञान का नाम ईहा है परन्तु यह दक्षिणी ही है ऐसा जो अवाय रूप बोध होता है उसमें तारतम्य नहीं होता है उसमें तो निश्चय ही होता है । अन्त में अवग्रह और ईहा सेसामान्य रूपमें गृहीत हुए अर्थ का अवाघ द्वारा निश्चयरूप से ग्रहण किये जाने के बाद में - सर्वत्र धारणा होती है । यह धारणा उस पदार्थ को कालान्तर में विस्मरण नहीं होने देती है क्योंकि इस धारणा द्वारा आत्मामें ऐसा संस्कार उत्पन्न हो जाता है कि जिसकी वजह से वह आत्मा उस पदार्थको कालान्तर में भी याद रखता है ऐसा यह पांच गाथाओं का अर्थ है । - अब सूत्रकार व्यवहार्यावग्रहरूप मतिको लेकर पटविधताका व्याख्यान करते हैं जो इस प्रकार से है – कोई एक व्यवहार्थावग्रह रूपमति ऐसी होती है जो ज्ञानावरणीय कर्मके क्षयोपशमकी अधिकता से शीघ्र ही चन्दनादिके स्पर्शको जान लेती है । कोई एक मति ऐसी થાય છે કે તે દક્ષિણી જ હાવા જોઈએ, તે એવા જ્ઞાનનું નામ ઇહા છે, પરન્તુ આ દક્ષિણી જ હાવા જોઇએ એવા જે અવાય રૂપ મેધ થાય છે તેમાં તારતમ્ય (શ'કાના સહેજ પણ સદૂભાવ) હેતું નથી—તેમાં તે નિશ્ચય જ હાય છે. અન્તે અવગ્રહ અને ઇહા દ્વારા સામ ન્ય રૂપે ગૃહીત થયેàા અથ અવાય દ્વારા નિશ્ચય રૂપે ગ્રહણ થઈ ગયા બાદ સર્વત્ર ધારણા થાય છે. આ ધારણા ગૃહીત થયેલ પદ્માને ઘણા કાળના અન્તર માદ પણ વિસ્તૃત થવા દેતી નથી, કારણ કે તે ધારણા દ્વારા આત્મામાં એવા સસ્કાર ઉત્પન્ન થઈ જાય છે કે તે સસ્કારને કારણે આત્મા તે પદ્માને ઘણા કાળ વ્યતીત થઈ ગયા બાદ પણ યાદ રાખી શકે છે. આ પ્રકારના આ પાંચ ગાથાઓને મ થાય છે. હવે સૂત્રકાર વ્યવહારાર્થાવગ્રડું રૂપ મતિના છ ભેદોનુ. વિવેચન કરે છે--કાઇ એક વ્યહાર્થાવગ્રહ રૂપ મતિ એવી હેાય છે કે જે જ્ઞાનાવરણીય ક્રમના ક્ષયેાપશમની શીવ્રતાથી ચન્હનાદિના સ્પર્શીને જાણી લે છે. કોઈ એક Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुघाटीका स्था०६ सू०३७ विशिष्टमनिमतां देवानाम् मतिमेदनिरूपणम् ३४१वस्तु भिन्नभिन्न जातीयमेकैकं तत्तद्रूपेण अागृह्णाति-अवबुध्यते, यथा-पर्यावग्रहः। कश्चिज्जनश्चन्दनादिस्पर्शस्य बहुत्वे चन्दनस्पर्शोऽयं चीनांशुकस्पर्शोऽयं नवनीतस्पर्शोऽयमिति तत्तद्रूपेण तमवबुध्यते।।वहुविधमवगृह्णाति वहयो विधाः प्रकारा यस्य सबहुविधोऽर्थस्तम् अवगृह्णाति । यथा स एव चन्दनादिस्पर्शः एकैकः शीतस्निग्धमृदुकठिनत्वादिरूपेण यदाऽत्रबुध्यते तदा बहुविधं शीतत्वस्निग्धत्वमृदुत्वकठिनत्यादि गुणैभिन्नं स्पर्श भिन्नतवा कुर्वन् सोऽबोधः 'बहुविधम् अरगृहाति' इत्युच्यते ॥ ३ ॥ वम् अनाति-ध्रुां नित्यं निश्चचम् अर्थम् अवगृजाति-भिन्नतयाऽवबुध्यते, जनस्य यदा यदा तेन तेन चन्दनादिस्पर्शेन सम्बन्धी होती है जो भिन्न २ जातिकी एक एक वस्तुको उस उस रूपसे जान लेनी है जले स्पशावग्रह जानता है-चन्दनादि अनेक पदार्थो के धरे होने पर जैसे स्पर्शावग्रह से कोई मनुष्य यह चन्दन का स्पर्श है यह चिनांशुक का स्पर्शहै यह नवनीतका (मक्खन) स्पर्श है । इस प्रकार से तत्तद्रूपसे उस २ पदार्थले स्पशको जानताहै, इसी प्रकार से बहुका अपग्रह भी बहुत पदाथों को बहुत रूपसे जानता है २, बहुविधका तात्पर्य बहुत प्रकारसे है-जैसे वही चन्दनादि स्पर्शका अवग्रह जव शीत, स्निग्ध, मृदु, कठिनादि स्पर्श रूपसे भिन्न २ रूपमें स्पर्शको जानता है, तो इस प्रकारले जाननेवाला स्पशावग्रह बहुविधका अवग्रह कहा जाता है ३ " ध्रुवं अगृह्णाति " यहाँ ध्रुवका अभिमाय नित्य निश्चल अर्थसे है, ऐसे ध्रुव अर्थको जाननेवाला जो अवग्रह ज्ञान है, वह ध्रुवका अवग्रह ज्ञान है-ध्रुवावग्रह है, जब किसीमनुष्यका उल उल,चन्दनादिके મતિ એવી હોય છે કે જે ભિન્ન ભિન્ન જાતિની દરેક વસ્તુને તે તે રૂપે જાણી લે છે. જેમકે સ્પર્શાવગ્રહ જાણે છે એટલે કે ચન્દનાદિ અનેક વસ્તુઓ કોઈ જગ્યાએ મૂકેલી હોય અને કેઈ મનુષ્ય સ્પર્શાવગ્રહ દ્વારા એ જાણી લે છે કે આ ચન્દનને સ્પર્શે છે, આ ચીનાંશુકને સ્પર્શે છે, આ નવનીતને સ્પર્શ છે, આ રીતે તે તે રૂપે તે તે પદાર્થને સ્પર્શ વડે તે જાણી લે છે એ જ પ્રમાણે બને અવરહ પણ બહુ પદાર્થોને બહુ રૂપે જાણે છે. જેમકે એ જ ચંદનાદિ સ્પર્શને અવગ્રહ જે શીત, સ્નિગ્ધ, મૃદુ, કઠિનાદિ સ્પર્શ રૂપે જુદે જુદે રૂપે સ્પર્શને જાણે છે કે તે પ્રકારે જાણનારા સ્પર્શાવગ્રહને બહવિધન (ઘણા પ્રકારનો) અવગ્રહ કહેવામાં આવે છે. 'वं अवगृहाति " मही' ध्रुव से नित्य मने निवस अर्थ थाय છે. એવા ધ્રુવ અર્થને જાણનારૂ જે અવગ્રહજ્ઞાન છે તેને યુવનું અવગ્રહજ્ઞાન અથવા યુવાવગ્રહ કહે છે. જ્યારે કેઈ મનુષ્ય ચન્દનાદિને સ્પર્શ કરે છે ત્યારે તે Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ स्थानामसूत्र भवति, तदा तदा चन्दनस्पर्शोऽयं, नवनीतम्पर्शोऽयं, चीनांशुकस्पर्शोऽयमित्यादिकं तत्तद्रूपेण तत्तत्स्पर्शमवच्छिनत्ति ॥ ४ ॥ अनिश्रितमवगृह्णाति-निश्रितो हेतुप्रमितो, यथा केनचित् पूर्व चन्दनादि स्पर्शाः शीतमृदुस्निग्धत्वादिनाऽनुभूताः, कालान्तरे पुनस्तदुपस्थिती ' अयं चन्दनादिस्पर्शः शीतमृदुस्निग्धत्वादितः' इति शीतत्वादिना हेतुना प्रमितीयोऽर्थश्चन्दनादिस्पर्शरूपः स निश्रितोऽभिधीयते, तद्भिन्नोऽनिश्रितः, अर्थात्तादृशानुमावेन हेतुना विनैव तदा तं विपयं तज्ज्ञानं परिच्छिनत्ति तदाऽनिश्रितमहेतुकमर्थमवगृह्णातीति व्य पदिश्यते ॥ ५॥ असंदिग्धस्पर्शके साथ सम्बन्ध होता है, तो वह निश्चित रूप से यह जान लेता है, कि यह चन्दनका स्पर्श है, यह नवनीनका स्पर्श है, यह चीनांशुक का स्पर्श है, इत्यादि रूपसे वह उस उसके स्पर्शको जान लेना है, "अनिश्रितं अवगृह्णाति " हेतुले प्रमित वस्तुका नाम निश्रित है, जैसे-किसी पुरुषने पहिले चन्दनादिका स्पर्श क्षीतरूपसे या स्मृटु स्निग्ध रूपले अनुभून किया अब कालान्तरमें जब वही विषय उपस्थित होता है, तो वह शीत स्त्र आदि रूपसे यह जान लेना है, कि यह चन्दना. दिका स्पर्श है, इस तरह शीतत्वादि रूप हेतुसे प्रसित जो चन्दनादि स्पर्श रूप अर्थ है, वह निश्रित है । इस निश्रिनले जो भिन्न है, वह अनिश्रित है। अर्थात् ऐसे हेतुके विनाही जो ज्ञान विषयको जान लेता है, ऐसा वह ज्ञान अनिश्रित बिना हेतुके अर्थका अरग्रहण करनेवाला होने से अनिधिन अवग्रह माना जाता है ५ "असंदिग्धं अवનિશ્ચિત રૂપે તે એ વાત જાણે લે છે કે આ ચન્દનને સ્પર્શ છે, આ ચીનાશકનો સ્પર્શ છે, અને આ નવનીત (માખણ) ને સ્પર્શ છે, ઈત્યાદિ રૂપે તે તે માણસ તે પ્રત્યેકને સ્પશને જાણી લે છે. “ अनिश्रित अवगृति" तु 43 प्रमित परतुन नाम निश्रित छ. જેમકે કે પુરુષ પહેલાં ચન્દનાદિને સ્પર્શ શીત રૂપે અથવા મૃદુ-સ્નિગ્ધ રૂપે અનુભવ્યો હોય, ત્યાર બાદ અમુક કાળ વ્યતીત થઈ ગયા બાદ જ્યારે એ જ પદાર્થ ઉપસ્થિત થાય છે ત્યારે શીત, મૃદુ આદિ પ્રકારના તેના સ્પર્શ દ્વારા તે જાણી લે છે કે આ ચન્દનાદિનો સ્પર્શ છે. આ રીતે શીતત્વ આદિ ૩૫ હેતુ વડે અમિત જે ચન્દનાદિ સ્પર્શ રૂપ અર્થ છે, તેનું નામ નિશ્રિત છે. આ નિશ્રિતથી જે ભિન્ન હોય છે તેને અનિશ્રિત કહે છે. એટલે કે એવા હેતુના સદૂભાવ વિના જ જે જ્ઞાન વિષયને જાણી લે છે એવા જ્ઞાનને અનિશિત અવગ્રહ માનવામાં આવે છે, કારણ કે તે જ્ઞાન હેતુના સદૂભાવ વિનાજ અર્થનું અવગ્રહણ કરનારું હોય છે. ' Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधारीका स्था०६ सू०३७ विशिष्टमतिमतां देवानाम् मतिभेदनिरूपणम् ३८३ मवगृह्णाति-असंदिग्धं सकल संशयादिदोषरहितं, यथाचन्दनादिस्पर्शम् अवगृह्णद्ज्ञानं " चन्दनस्यैव, चीनांशुकस्यैव, नवनीतस्यैवाय स्पर्शः' इत्येवं रूपं यदा प्रवर्तते तदाऽसन्दिग्धमवगृहातीत्युच्यते ॥ ६॥ इति । एवम् ईहामतिरवायमतिश्चापि प्रत्येकं पड्विधा वोध्या। तथा-धारणामतिरपि पइविधा प्रज्ञप्ता, गृह्णाति " जिस समय समस्त संशयादि दोषोंसे रहित होकर ज्ञान चन्दनादिके स्पर्शको जानता है, कि यह चन्दनकाही या चीनांशुककाही या नवनीत (मक्खन)का ही यह स्पर्श है, अन्यका स्पर्श नहीं है, इस प्रकारसे निश्चित रूपसे स्पर्शको जाननेवाला ज्ञान असंदिग्धग्राही अवग्रह ज्ञान कहा गया है तो जिस प्रकारसे यह अवग्रह रूप ज्ञान ६ प्रकारका पूर्वोक्तरूपसे प्रकट किया गयाहै, उसी प्रकार से ईहाज्ञान और अवायज्ञान भी ६-६ प्रकारके कहे गये हैं। इसी प्रकारसे धारणोज्ञान भी ६ प्रकारका कहा गया है, तात्पर्य इस कथनका यही है, कि बहग्राही अव ग्रह वहग्राहिणी ईहा, बहुग्राही अयाय और बहुग्राहिणी धारणा १ बहु. विधग्राही अवग्रह बहुविधग्राहिणी ईहा बहुविधग्राही अवाय और बहुविधग्राहिणी धारणा २ ध्रुबग्राही अवग्रह ध्रुवग्राहिणी ईदा ध्रुवग्राही अपाय और ध्रुवग्राहिणी धारणा ३ क्षिप्रनाही अवग्रह क्षिपमाहिणी ईहा, क्षिप्रग्राही अचाघ और क्षिप्रग्राहिणी धारणा ४ अनिश्रिनग्राही अवग्रह अनिश्रित ग्राहिणी ईहा अनिश्रित ग्राही अवाय और अनिधितग्राहिणी धारणा ५ एवं असंदिग्धग्राही अवग्रह असंदिग्धग्राहिणी ईहा " असदिन्धं अवगृह्णाति " २ समये समस्त सशयाटिया हित न જ્ઞાન એવું જાણું લે છે કે આ ચન્દનને જ આશ છે, આ ચીનાં થકનો જ શ છે અને આ માખણને જ સ્પર્શ છે-અન્યને સ્પર્શ નથી, આ પ્રકારે નિશ્ચિત રૂપે સ્પર્શને જાણનારા જ્ઞાનને અસ દિગ્ધગ્રાહી અવગ્રહજ્ઞાન કહે છે.. જેમ આ અવગ્રહજ્ઞાનને પૂર્વોક્ત ૬ પ્રકારનું કહેવામાં આવ્યું છે, એ જ પ્રમાણે ઈહાજ્ઞાન અને અવાયજ્ઞાનને પણ છ-છ પ્રકારનું કહ્યું છે. એ જ પ્રમાણે ધારણજ્ઞાનને પણ છ પ્રકારનું કહ્યું છે. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે-- (૧) બહુગ્રાહી અવગ્રહ, બહુ ગ્રાહિ ઈહા, બહુગ્રાહી અવાય અને બહુ प्राडिए पार, (२) महुविध पाही सवड, महुविध साहिए UI, महुવિશ્વગ્રાહી અવાય અને બહુવિધ માહિણી ધારણા, (૩) યુવગ્રાહી અવગ્રહ, થવગ્રાહિણી ઈહા, કૃવગ્રાહી અવાય અને પૂવગ્રાહિણી ધારણા, ૪) ક્ષિપ્રથાહીં અવગ્રહ, ક્ષિપ્રત્રાહિણી ઈહા, ક્ષિપ્રગ્રાહી અવાય અને ક્ષિપ્રગ્રહિણી ધારણા, (૫) અનિશ્રિતગ્રાહી અવગ્રહ, અનિશ્ચિત ગ્રાહીણી ઈહા, અનિશ્ચિતશાહી અવાય અને અનિશ્રિત બ્રાહીણી ધારણા, (૬) અસદિગ્ધગ્રાહી અવગ્રહ, અસંદિગ્ધ Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानास्त्रे तद्यथा-बहुधारयति-बहु-भिन्न जातीयमने तत्तद्रूपेण धारति-निीतार्थस्या. विच्युतिवासनास्मृतिलक्षणां धारणां नयति ॥ १ ॥ बहुविध नानापकारं शीतस्वादिगुणेभिन्न भिन्नं स्पर्शादिकं धारयति ॥ २ ॥ पुराणाम् अतीतकालजातं वस्तु धारयति, यथा अनेन मुनिनाऽमुकस्मिन् वर्षे. मासि, पक्षे, प्रहरे, पले, असंदिग्धग्राही अवाय और असंदिग्धग्राहिणी धारणा ये सच भेद व्यवहार अर्थक विषयमें हए अवग्रह ईहा अवाय और धारणाके हैं । अर्थात् व्यवहार अर्थको बहुरूपसे बहुविध रूपसे क्षिप्र (जल्दी) रूपले ध्रुधरूपले अनिश्रितरूपसे और असंदिग्ध रूपसे अवग्रह ईहा आदि शान जानते हैं, क्योंकि वह व्यवहार रूप अर्थ बहुबहु विध आदिके भेद ले ६ प्रकार का होता है, अत: इसी प्रकारसे उसे अवग्रह आदि ज्ञान जानते हैं । ये सब खेद मतिज्ञान केही हैं। धारणामति इस प्रकारले भी ६ प्रकारकी है, जैसे-" बहु धारयति" इत्यादि-जो मति भिन्न २ जातीय अनेक पदार्थों को तत्तद्रूपसे धारण कराती है, निर्णीत अर्थको अविध्युति, वासना, स्मृतिरूप धारणामें ले जाती है, ऐसी वह मति बहु धारणामति है १. बहुविध धारणामति इस प्रकार है, नाना प्रकारके शीतत्वारि गुणोंसे भिन्न २ स्पर्शादिकको जो धारण कराती है, वह बहुविध धारणामति है २ अतीतकालमें हुई वस्तुको जो धारण कराती है, जैसे-इस मुनिने ગ્રાહિણી ઈડા, અસ દિગ્ધગ્રાહી અવાય અને અસ દિશ્વગ્રાહિણી, ધારણા, આ બધા વ્યવહાર અર્થના વિષયમાં અવગ્ર, ઈહા, અવાય અને ધારણાના ભેદ છે. એટલે કે વ્યવહાર અર્થને બહુ રૂપે ક્ષિપ્ત ( શીઘ્ર ) રૂપે, અવાય ધવ રૂપે, અનિશ્ચિત રૂપે અને અસંદિગ્ધ રૂપે અવગ્રહ, ઈહા, અવાય અને ધારણા રૂપ જ્ઞાન જાણે છે, કારણ કે તે વ્યવહાર રૂપ અર્ધ બહે, બહુ વિધ આદિના ભેદથી ૬ પ્રકારનો હોય છે, તેથી એ જ પ્રકારે તેને અવગ્રહ આદિ જ્ઞાન જાણે છે. આ બધાં મતિજ્ઞાનના ભેદે છે. - धारणा मतिना मा प्रारना ५y हो छ-- " वह धारययति" त्याह-(१) २ मति मिन मिन्न तन भने पार्थाने ते તે રૂપ ધારણ કરાવે છે, નિર્ણત અર્થને અવિસ્મૃતિ, વાસના અને સ્મૃતિ રૂપ ધારણામાં લઈ જાય છે, એવી તે મતિને બહુધારણા મતિ કહે છે. (૨) બહુવિધ ધારણામતિનું સ્વરૂપ આ પ્રકારનું છે--વિવિધ પ્રકારના શીતત્વ આદિ ગુણે વડે જુદા જુદા સ્પર્શાદિકને જે ધારણ કરાવે છે, તે બહુવિધ ધારણામતિ છે. (૩) ત્રીજા પ્રકારની ધારશુમતિ ભૂતકાળના અને ધારણ કરાવનારી છે, જેમકે આ મુનિએ અમુક વર્ષમાં, અમુક માસમાં, અમુક પક્ષમાં (શુકલ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०६सू ३० विशिष्टमतिमतां देवानाम् मतिमेदनिरूपणम् ३८५ विपले, क्षणे दीक्षा गृहीतेति साधारणजनविस्मरणयोग्यकालज्ञानं धारयतीति ष्टान्तः ॥ ३ ॥ दुर्धर - दुःखेन बुद्धेरतिपरिश्रमेण धार्यतेऽसौ दुर्धरः कठिनो भङ्गजालश्रेणि समारोहणादि विषयस्तं धारयति ॥ ४ ॥ अनिश्रितम् अहेतुकम् - औत्पत्तिक्या दिवुद्ध धारयति ॥ ५ ॥ असंदिग्ध = लकलसंशयरहितं धारयति || ६ || - इति । मिहुहुविधादीनां विपर्ययेणापि अग्रहादीनामेकैकस्य - पड् षड्भेदा भवन्तीति अविपर्ययविपर्ययाभ्यां अवग्रहेावायधारणातिषु प्रत्येकं अमुक वर्ष में अमुक मास में अमुक पक्षमें अमुक पहर में अमुक पलमें अमुक विपलमें एवं अनुक क्षण में दीक्षा ग्रहण की है, इस प्रकार से साधारणजनको विस्मय हो जाने योग्य कालज्ञानको यह धारणा धारण कराती है, ऐसी वह धारणा ३ तीसरे नंबर की धारणा है, जो बुद्धिके अति परिश्रम से धारण किया जाता है, वह दुर्बर है, ऐसा वह दुर्धर कठिन विषय - भङ्ग जाल या श्रेणि समारोहण आदि रूप होता है, ऐसे विवको जो धारण कराती है, वह दुर्वर धारणामति है : औत्पत्तिकी आदि बुद्धिसेही जो अनिश्रितको धारण कराती है, वह अनिश्चित धारणा है ५ एवं जो असंदिग्ध पदार्थको धारण कराती है, वह असंदिग्ध धारणा है ६ अक्षिका उल्टा क्षित्र बहुका उल्टा एक बहुविधका उल्टा एकविध अनिश्चितका उल्टा निश्रित ध्रुवका उल्टा अध्रुव और असंदिग्धका उल्टा सदिग्ध इस तरहसे ६ तरहका पदार्थ और होता પક્ષ કે કૃષણુ પક્ષમાં) અમુક તિથિએ, અમુક પ્રહરમાં, અમુક પળમાં, અમુક વિપળમાં અને અમુક ક્ષણે દીક્ષા ગ્રહણુ કરી હતી. ' આ પ્રકારે સામાન્ય માણુસને જેની વિસ્મૃતિ થઇ જાય એવા કાળજ્ઞાનને ધારણ કરાવનારી આ ધારણા છે. (૪) દુધČર ધારણામતિ—રે બુદ્ધિના અતિશય પરિશ્રમ વડે ધારણ કરી શકાય છે એવી ધારણાને દુર ધારણા કહે છે. એવા તે દુર (કઠિન) વિષય ભગજાળ ( અનેક ભાંગાઓના સમૂહ રૂપ નળ ) અથવા શ્રેણિ સમા રહણ આદિ રૂપ હાય છે. એવા કઠિન વિષયને જે ધારણ કરાવે છે તેને દુર ધારણામતિ કહે છે. (૫) અનિશ્રિત ધારણા-ઔષત્તિકી આદિ બુદ્ધિ વડેજ જે અનિશ્રિતને ધારણ કરાવે છે તે ધારણાને અનિશ્રિત ધારણા કહે छे. (१) यस हिग्ध धारया ने धारया असहिग्ध पदार्थने धारण उरावे, तेनुं नाम, अस द्विग्ध धारणा छे. अक्षित्र ( अशीघ्र ) थी उल्टो शब्द क्षित्र ( शीघ्र ) छे, महुथी उिटा અર્થના શબ્દ એક છે, બહુવિધથી ઉલ્ટા શબ્દ એકવિધ છે. અનિશ્રિતથી ઉલ્ટા શબ્દ નિશ્ચિત છે, ધ્રુવથી ઉલ્ટા શબ્દ ધ્રુવ છે, અને અસદિગ્ધથી ઉલ્ટા શબ્દ સદિગ્ધ છે. આ પ્રકારે ૬ પ્રકારના બીજા પદાર્થો પણ હાય છે, स्था--४९ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानासूत्रे ૨૮૬ मतिः द्वादशविधाः द्वादशविधा भवति । सर्वासां मतीनां भेदास्तु पत्रिंशदधिकानि त्रीणिशतानि वोध्याः । तथाहि श्रोत्रम्राणजिहा स्पर्शेन्द्रियग्राह्यत्वाद् व्यञ्जनाबग्रतुर्विधः । श्रोत्र-चक्षु श्रण-जिह्वा स्पर्श - नोइन्द्रियग्राह्यत्वात् अर्थावग्रहः पद्मिथः । एवमेत्र श्रोत्रादि पडिन्द्रियग्राह्यत्वात् ईहाऽपि पविधा, अवायोऽपि पविधः धारणाऽपि च पद्विधा । एव सर्वसंकलनयाऽष्टाविंशति है, सो जिस प्रकार से अक्षिप्त पदार्थके बहु पदार्थ बहुविध पदार्थके ध्रुव पदार्थके और अनिन्त्रित एव असंदिग्ध पदार्थके विषय में यह अवग्रह ईहा अवाप और धारणा रूप मतिज्ञान होता है, उसी प्रकार से वह मतिज्ञान अवग्रहादि रूपसे क्षिप पदार्थ में एक पदार्थ में बहु पदार्थ में अध्रुव पदार्थ में और सन्दिग्ध पदार्थमें भी होता है, इसलिये अवग्रहके विकत १२ प्रकार के पदार्थ हुए ईहाके विपत्रभूत १२ प्रकारके पदार्थ हुए अवाप विषन १२ प्रकारके पदार्थ हुए और धारणा के विषयभूत भी १२ प्रकारके पदार्थ हुए और अर्थके विषय में प्रकट पदार्थ के विषयमें हुए ये अवग्राहादिक ५ इन्द्रिय और मनसे होते हैं इस तरह अर्थ विषयक मतिज्ञान के २८८ भेद हो जाते हैं, एवं व्यञ्जन अप्रकट पदार्थ के विषय में केवल एक अवग्रह रूपही ज्ञान होता है, और यह अप्रकट रूप पदार्थ भी बहु आदि के भेद से १२ प्रकारका જેમ અક્ષિસ પદાર્થીના, હુ પદાર્થના, બહુવિધ પદ્મા'ના, ધ્રુવ પદાર્થના, અનિશ્રિત પઢાના અને અસદિગ્ધ પત્તાના વિષયમાં આ અવગ્રહ, ઇહા, અવાય અને ધારણા રૂપ મતિજ્ઞાન થાય છે, એ જ પ્રમાણે ક્ષિસ, એક પદા માં, બહુ પદાર્થાંમાં, અધ્રુવ પદાર્થાંમાં, નિશ્રત પઢામાં અને સદિગ્ધ પદાર્થમાં પશુ આ અવગ્રહ, ઇહા, અવાય અને ધારણા રૂપ મતિજ્ઞાનને સાવ રહે છે. તથા અગ્રેડના વિષય રૂપ ૧૨ પ્રકારના પદાથ થયા, ઇઢાના વિષય રૂપ ૧૨ પ્રકારના પદાથ થયા, અવાયના વિષયભૂત ૧૨ પ્રકારના પદાર્થ થયા અને ધારણાના વિષયભૂત પણ ૧૨ પ્રકારના પદાર્થ થયા. અને અના સંબધમાં પ્રકટ પદાર્થના વિષયમાં જે અવગ્રાદિ રૂપ જ્ઞાન થાય છે તે પાંચ ઇન્દ્રિયે! અને મનની સહાયતાથી થાય છે. આ પ્રકારે મતિજ્ઞાનના અથ વિષયક કુલ ૨૮૮ ભેક થાય છે. ગૃજન રૂપ જે અવગ્રહ છે તેના કુલ ૪૮ બેક થાય છે. ગૃજનના વિષયમાં અપ્રકટ પદ્યાર્થીના વિષયમાં કેવળ એક અવત્ર રૂપ જ જ્ઞાન થાય છે. તે અપ્રકટ રૂપ પદ્મા પણ પૂર્વોક્ત ખડ્ડ આદિના ભેદથી ૧૨ પ્રકારના હોય છે. ૧૨ પ્રકારના આ વ્યંજનૢ અવગ્રહે Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुघाटीका स्था ६ सू० ३८ तपमेदनिरूपणम् ३८७ संख्यका मतिभेदा अवन्ति । ते च द्वादशभिः सह सुगनाद मतिभेदाः पत्रिंशद. धिक शतत्रयसंख्यकाः भवन्तीति ॥ सू० ३७ ॥ : अनन्तरसूत्रे मतिरुत्ता, मतिभेदवन्त एत्र तपरिखनो भवन्तीति तपोभेदान निरूपयति मूलम्-छविहे बाहिरए तवे पण्णते, तं जहा-अणसणं १, ओमोयरिया २, भिक्खायरिया ३, रसपरिच्चाए ४, कायकिलेसो ५, पडिसंलीणया ६। छविहे असंतरिए तवे पण्णत्ते तं जहा-पायच्छित्तं १, विणओ २, वेशावच्चं ३, लम्शाओ ४, झाणं ५, विउलगो ७ ॥ सू० ३८॥ ___ छाया-पड्विधं वाह्य तपः प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-अनशनम् १, अवमोदरिका २, भिक्षाचर्या ३, रसपरित्यागः ४, कायक्लेशः ५, प्रतिसंलीनता ६। पड्विधम् आभ्यन्तरिकं तपः प्रज्ञप्तम् वप्रथा-प्रायश्चित्तं १, विनयो २, वैयारत्यं ३, स्वाध्यायः ४, ध्यानं ५, व्युत्सर्गः ६ ॥ सू० ३८ ॥ टीका- छबिहे वाहिरिए ' इत्यादि तपति-दहति ज्ञानावरणीयाधष्टविध कर्मेति तपः, तबाह्याभ्यन्तरभेदाद् द्विविधम् । तत्र-आसेव्यमानं यत्तपो लोकरपि तपस्त्वेन ज्ञायते, प्रायो वहिः होता है, इसलिये १२ प्रकार के इस व्यञ्जन पदार्थ के विषयमें होनेवाला अवग्रह चक्षु और मनसे नहीं होनेके कारण और शेष इन्द्रियोंसेही होनेके कारण ४८ प्रकारका होता है, २८८ और ४८ को परस्परमें मिला देने से ३६६ भेद मतिज्ञोनके हो जाते हैं, यही विषय टीकाकारने इस टीका द्वारा प्रकट किया गया है ।मु० ३७॥ इस प्रकारसे ऊपरके सूत्रमें मतिज्ञानका कथन किया है, मतिज्ञान के भेदाले तपस्वीजन होते हैं, अतः अब सूत्रकार तपके खेदका ચક્ષુ અને મન વડે થતો નથી પણ બાકીની ચાર ઈન્દ્રિયે વડે જ થાય છે. તેથી તેના ૧૨૪૪=૪૮ ભેદ થઈ જાય છે મતિજ્ઞાનના પૂર્વોક્ત ૨૮૮ ભેદેમાં આ ૪૮ ભેદે ઉમેરવાથી કુલ ૩૬૦ ભેદ થાય છે એ જ વિષયનું ટીકાકારે આ ટીકા દ્વારા અહીં સ્પષ્ટીકરણ કર્યું છે. સૂ ૩૭ છે સૂત્રકારે ઉપરના સૂત્રમાં મતિજ્ઞાનની પ્રરૂપણ કરી. મતિજ્ઞાનના ભેદવાળા તપસ્વીઓ હોય છે. તેથી હવે સૂત્રકાર તપના લેનું નિરૂપણ કરે છે. ' Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ curatel ३८८ शरीरस्य तापकतया शोषकतया वा यत् कर्माणि क्षपयति तद् वा तप इत्युच्यते । यत्तु तपोलोकैस्वपस्तया नाथिलक्ष्पते तनपो मोक्षप्राप्यन्तरङ्गसाधनः त्यात् आभ्यन्तरिकमित्युच्यते । तत्र वाह्यं तपः अनशनात्रमोदरिकादिभेदैः पविधं भवति । तत्र - अनशनम् = आहारत्यागः, तच्च - इत्वरयावत्कथिकभेदेन निरूपण करते हैं- "छबिहे बाहिरतवे पण्णत्ते" इत्यादि सूत्र ३८ ॥ टीकार्थ बाह्य तप६ प्रकारका कहा गया है। जैसे- अनशन १ अवमोदरिका २ भिक्षाचर्या ३ रसपरित्याग ४ कायक्लेश २ और प्रतिसंलीनता ६ इसी प्रकार से आभ्यन्तर तप सी ६ प्रकारका होता है, जैसे- प्रायश्चित्त विनय २ वैयावृत्य ३ स्वाध्याय ४ ध्यान ५ और व्युत्सर्ग ६ । जो ज्ञानावरणीय आदि ८ प्रकार के कर्मों को जला देना है, वह तप है, यह तप वाह्य और आभ्यन्तर तपके भेदसे दो प्रकारका है । जो तप बाहर में लोकों द्वारा तप रूप से किया जाता है, अथवा बाहर में शरीरका प्रायः तपाने घाला होने के कारण उसका शोषक होने के कारण जो कर्मों को क्षय करता है, वह चात्यनप है, तथा जो तब बाहर में लोकों द्वारा तप रूपले नहीं देखा जाता है, ऐसा वह तप मोक्ष प्रासिमें अन्तरङ्ग कारण होनेसे आभ्यन्तर तप है । इनमें बाप अनशन भवमोदरिका आदि भेदों से छह प्रकारका कहा गया है, इनमें चनुर्विष आहारका त्याग करना यह अनशन है, यह अनशन तप इत्वर एवं यावत्कथिक के भेद से टीअर्थ - " छवि वाहिरतवे पण्णत्ते " त्याहि माद्यतपना नीचे प्रमाणे प्रारछे - ( १ ) अनशन, (२). भवभोहरि, (3) लिक्षाथर्या, (४) रसपरित्याग, ( 4 ) डायझेश भने (६) प्रति સલીનતા. એ જ પ્રમાણે આભ્યન્તર તપના પણ ૯ પ્રકારે કહ્યા છે— (१) 'आयश्चित्त, (२) विनय, (3) वैयावृत्य, (४) स्वाध्याय, (५) ध्यान अने (६) व्युत्सर्ग. के ज्ञानावरणीय आहि मा प्रहारना उभेनि माजी ना छे, तेनुं નામ તપ છે. તે તપના બાહ્યતપ અને આભ્યન્તર તપ નામના બે ભેદ કહ્યા છે. જે તપને મહારથી જ લૈકા દ્વારા તપ રૂપે એળખવામાં આવે છે અથવા બાહ્ય શરીરને સામાન્યતઃ તપાવનારૂં અને કૃશ કરનારૂં હાય છે અને કર્મના ક્ષય કરનારૂ હોય છે. તે તપને ખાદ્યુતપ કહે છે જે તપને માહ્યષ્ટિએ-લેકા દ્વારા તપ રૂપે દેખવામાં આવતું નથી એવું આન્તરિક તપ કે જે મેક્ષપ્રાપ્તિમાં કારણભૂત અને છે તેને આભ્યન્તર તપ કહે છે તેમાં જે ખાદ્યુતપ છે તેના અનશન, અવમૌરિકા (अशोरि ) माहि६ लेई छे, अशन, पान आहि यारे प्रारना भाडेરના ત્યાગ કરવા તેનું નામ અનશન છે. તેના ઈવર અને યાવથિક નામના Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुभाटीका स्था०६ सू०३८ तपमेदनिरूपणम् ३८९ द्विविधम् । तत्र-इत्वरम्-इदं तीर्थमाश्रित्य चतुर्थीदि परमातान्त बोध्यम् ! याव स्कथिकं तु मरमावधि । इदं पुनः पादपोपगाने ङ्गितमरणभक्तपरिज्ञामेदात्रिविदम् ॥ १॥ तथा-अवमोदरिका-अपमम्-ऊनम् उदरंजठरम् अवमोदरं, तस्यकरणम्-अवमोदरिका, सा च द्रव्यतो भक्तपानविषया, उपलक्षणादुरकरणविषया च। भावतस्तु क्रोधादिपरित्यागः ॥२॥ भिक्षाचर्या-भिक्षार्थ चरणम् अटनं मिक्षाचर्या, निर्मराङ्गत्वात् अनशनवत् साऽपि तपः । अथवा-यद्यपि भिक्षाचर्या सामान्येनोक्ता तथापि विचित्राभिनयुक्तत्वेन वृत्तिसंक्षेपरूपा विशिष्टा साऽत्र ग्राह्या । यतोऽत्र वक्ष्यति- छबिहा गोवरचरिया' इति । इयं च न दो प्रकारका कहा गया है, इनमें इत्वर तप पष्ठ आदिकी तपस्थासे लेकर छह महिने की तपस्या तक होता है, और जो तए भरणावधि होता है, वह बावधिक होता है, पावत्यधिक तप पादपोपमान इंगित मरण एवं भक्तपरिक्षाके भेदले तीन प्रकारका होना है१ भूखते कम आहारका लेना यह अवमोद्रिका है। यह अवनोदरिका द्रव्यकी अपेक्षा भक्तपान विषयक और उपलक्षण उपकरण विषयक होनी है। तथा भावकी अपेक्षासे कोधादि पायो त्यागने रूप होती है। भिक्षाके निमित्त चर्या (भ्रमण) करना इमका नाम भिक्षाचर्या है। यह भिक्षाचर्या निर्जराका कारण होनेसे अनहानशी तरह तरूप कही गई है। अथवा-पद्यपि भिक्षावर्या सामान्य रूपसे यहां कही गई है, परन्तु यह विचित्र अभिग्रह युक्त होने के कारण वृत्ति संक्षेप रूप विशिष्ट भिक्षाબે ભેદ કહ્યા છે. એક ઉપવાસ, બે ઉપવાસ અને એ જ પ્રમાણે છ માસ પર્વતના ઉપવાસને ઇત્વર તપ કહે છે જે અનશન મરણકાળ પર્યત ચાલે છે તે અનશન ત ને યાવત્રુથિક તપ કહે છે યાવસ્કથિક તપના નીચે પ્રમાણે ३ मे छे--(१) ५६५मन, (२) गितमा मन (3) मतपरिज्ञा અમદરિકા–જેટલી ભૂખ હોય તેટલે આહાર ન લેતાં એ છે આહાર લેવો તેનું નામ અવમોદરિકા છે. દ્રવ્યની અપેક્ષાએ તે ભક્તપાન વિષયક અને ઉપલક્ષણની અપેક્ષાએ ઉપકરણ વિષયક હોય છે, તથા ભાવની અપેક્ષાએ ક્રોધાદિ કષાના ત્યાગરૂપ હોય છે. ભિક્ષાચર્યા–-ભિક્ષાપ્રાપ્તિ નિમિત્તે ચર્યા કરવી (ફરવું) તેનું નામ ભિક્ષાચર્યા છે. આ ભિક્ષાચર્યા નિર્જરામાં કારણભૂત બનતી હેવાથી તેને અનશનની જેમ તારૂપ કહી છે. અથવા–છે કે અહીં ભિક્ષાચર્યાનું સામાન્ય રૂપે કથન કરવામાં આવ્યું છે, પરંતુ તે વિવિધ અભિગ્રહ રૂપ હેવાને કારણે વૃત્તિક્ષેપ રૂપ વિશિષ્ટ ભિક્ષા અહીં ગ્રહણ Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९७ स्थानागसूत्रे ततोऽत्यन्तभिन्ना । भिक्षावायामभिग्रहास्तु-द्रव्यक्षेत्रकाल भावविषयत पा चतु. विधाः । तत्र द्रव्यतः 'अलेजकता दिकमेव द्रव्यं ग्रहीप्ये' इति । क्षेत्रतः ‘परमामगृहपश्चकादिलब्धं ग्रहीष्ये' इति । कालतः । पूर्वाह्नादौ । भावतः- मोनादिप्रवृत्ताद् ग्रहीण्ये ' इति ॥ ३ ॥ तथा-रसपरित्यागः-रसा=दुग्धघृतादयः तेषां परित्यागः ॥ ४ ॥ कायक्लेश:-कायस्य शरीरस्य कलेशः-वीरासनादिरूपः केशलुश्चनादिरूपश्च ॥ ५ ॥ तथा-प्रतिसंलीनता-शुप्तता ॥ इमं च-इन्द्रियकपाययोचर्या यहां गृहीत हुई है, क्योंकि यहां पर अागे सूत्रकार कहनेवाले हैं कि-"छबिहा गोयरचरिया " यह उससे अत्यन्त भिन्न नहीं है। भिक्षाचर्या में द्रव्य क्षेत्र काल और भावके अनुसार चार प्रकारके अभिग्रह होते हैं, इनमें द्रव्यके अनुसार ऐसा अभिग्रह होता है, कि मैं अलेपकृत आदि रूप द्रव्यही ग्रहण करूंगा। क्षेत्रकी अपेक्षा ऐसा अभिग्रह होता है, कि मैं पर ग्राम के पांच आदि घरोंसे जो मिलेगा वही ग्रहण करूंगा काल की अपेक्षा ऐसा अभिग्रह होता है, कि पूर्वाह्न आदि काल में जो प्रास होगा वही मैं लूगा एवं भावकी अपेक्षा ऐसा अभिग्रह होता है, कि जो मोनादि रखकर मुझे आहार दो पोरसीके पहले देगा उससे ही मैं आहार ग्रहण कालंगा ३ दुग्धघृत आदि रसोंका परित्याग करना यह रस परित्याग तप है, वीरासन आदिसे स्थिर होना एवं केशलुश्चन आदि करना यह सब सायक्लेश तप है, प्रतिसंलीनता नाम गुप्तनाका है, यह इन्द्रिय कषाय ४२वामा मापी छ. सूत्रा२ ७३ ५छीना सूत्र "छबिहा गोयरवरिया" ઈત્યાદિ ભિક્ષાચયના ભેદનું નિરૂપણ કરવાના છે. ભિક્ષાચર્યામાં દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર કાળ અને ભાવની અપેક્ષાએ ચાર પ્રકારના અભિગ્રહ થાય છે. દ્રવ્યની અપક્ષાએ એ અભિગ્રહ થાય છે કે હુ અપકૃત આદિ રૂપ દ્રવ્ય જ ગ્રહણ કરીશ. ક્ષેત્રની અપેક્ષાએ એવો અભિગ્રહ થાય છે કે હું ગામમાંથી પાંચ આદિ ઘરમાંથી જે આહાર પ્રાપ્ત થશે તે આહાર જ ગ્રહણ કરીશ. કાળની અપેક્ષાએ એ અભિપ્રહ કરવામાં આવે છે કે પૂર્વાણ આદિ કાળમાં જે ખાનપાન આદિ પ્રાપ્ત થશે તેને જ હું ગ્રહણ કરીશ. ભાવની અપેક્ષાએ એ અભિગ્રડ થાય છે કે જે વ્યક્તિ મૌનાદિ રાખીને મને આહાર વહોરાવશે તેના હાથે અપાયેલ આહાર જ હું ગ્રહણ કરીશ. દૂધ, ઘી આદિ રસેને પરિત્યાગ કરે તેનું નામ રસ પરિત્યાગ તપ છે. વીરાસન આદિ. આસને જ બેસવું, કેશલુંચન કરવું વગેરે તપને કાયકલેશ તપ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा डीका स्था० सू०३८ तपभेदनिरूपणम् ३९१ . गविषया विविक्तशयनासनविषयावेति ॥ ६ ॥ इति । तथा - आभ्यन्तरिकं तपोऽपि प्रायश्चित्तविनयादिभेदेन पइविधम् । तत्र - प्रायश्विचम् - अतीचारशोधनम् । तच्च आलोचनादि भेदेन दशविधं वोध्यम् ॥ १ ॥ विनयः - विनीयते = दुरीक्रियते कर्म येन सः, स च चक्ष्यमाण ज्ञानादि सप्तभेदरूपः । उक्तं च विनयस्वरूपम् - जम्हा वियर कम्मं, अडविहं चाउरंतमोक्खाए । 64 "" तुम्हा उ त्र्यंति चिऊ, विषयंति विलीणससारा ॥ १ ॥ छाया - यस्माद् विनयति कर्म अष्टविधं चातुरन्तमोक्षाय । तस्मात्तु वदन्ति विद्वांसो विनयमिति विलीनसंसाराः ( तीर्थकर गणधराः ) इति ॥ २ ॥ वैयावृत्त्यम् - व्यावृतस्य= गुर्वादि सेवारूपशु मव्यापारवतः कर्म वैयावृत्यम् गुव दीनामशनादिना शुश्रूपणम् । तदुक्तम्--- योग विषयवाली अथवा विविक्त शय्यासन विषयवाली होती है, ६ तथा आभ्यन्तर तप प्रायश्चित्त आदिके भेदले ६ प्रकारका कहा गया है, अतिचारोंका शोधन करना यह प्रायश्चित्त है, यह प्रायश्चित्त आलोचना आदि के भेदले १२ प्रकारका होता है ? जिससे कर्म " विनी यते " दूर कर दिये जाते हैं, वह विनय है यह विनय आगे कहे जानेवाले ज्ञानादिके भेद से ७ प्रकारका है। कहा भी है " जम्हा विषय कस्मं " इत्यादि । व्योवृतका - गुरु आदिकी सेवा रूप शुभ व्यापारबालेका जो कर्म है, वह वैयावृत्त्य है, अनशन आदि द्वारा गुरु आदि जनों की सुश्रूषा करना इसका नाम वैयावृत्य है । કહે છે. પ્રતિસ'લીનતા એટલે ગુપ્તતા. તે ઇન્દ્રિયા, કષાયેટ અને ચેાગરૂપ વિષ યવાળી હાય છે અથવા વિવિક્ત શય્યાસન વિષયવાળી હાય છે. આભ્યન્તર તપના પ્રાયશ્ચિત્ત આદિ ૬ ભેદો કહ્યા છે. અતિચારાની શુદ્ધિ કરવી તેનું નામ પ્રાયશ્ચિત્ત છે. તે પ્રાયશ્ચિત્તના આલેચના આદિ ૧૨ ' लेह उद्या छे, विनय-नेना द्वारा अमेनि " विनीयते " दूर पुरी नामवामां આવે છે, તેનું નામ વિનય છે, તે વિનયના જ્ઞાનાદિ જે સાત ભેદ છે તેનું સૂત્રકાર આગળ વર્ણન કરવાના છે. કહ્યું પણ છે કે : जम्दा विणयइ कम्मं " त्याहि "" ગુરુ આદિની સેવા કરવા રૂપ જે શુભ પ્રવૃત્તિ કરવામાં આવે છે તેનું નામ વૈયાવૃત્ય છે. અશનાદિ દ્વારા ગુરુ આદિની જે શુશ્રૂષા કરવામાં આવે Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९२ स्थानाङ्गसूत्रे “वैयावच्चं वावडभावो इव धम्म साठणनिमित्तम् । अण्णाइयाण चिणा, संपायणमेस भावत्यो ॥ १ ॥ छाया - वैयावृत्यं व्याहृतभावः इह धर्मसाधननिमित्तम् । अन्नादिकानां विधिना संपादन मेप भावार्थः ॥ १ ॥ इति । वैयावृत्यं तु आचार्यवैयावृत्त्यादिमेदाद् दशविधम् । तदुक्तम्-" आयरिय उवज्झाय, - थेरतवस्सि गिलाणसेहाणं । साहम्प्रियकुलगणसंघमंगयं तमिहकायव्यं ।। १ ।। " छाया - आचार्योपाध्याय स्थविरतपरिग्लानशैक्षाणाम् । साधर्मिक-कुल- गण सङ्घ संगतं तदिहकर्तव्यम् ॥ १ ॥ इति ॥ ३ ॥ स्वाध्याय:- मुटु आ=मयोदया अध्ययनं - स्वाध्यायः श्रुतधर्माराधनम् । सच-वाचनाच्छना परावर्त्तनानुप्रेक्षा धर्मकाभेदात् पञ्चविध बोध्य इति ॥ ४ ॥ ध्यानम् - ध्यातिर्ध्यानम् - एकमात्रावलम्बनेन परनासंपृक्तीपशिखाया कहा भी है- " वेयावच्चं वावडसावो " इत्यादि । इस गाथाका पूर्वोक्त रूपसेही अर्थ है, यह वैयावृत्य आचार्य वैद्या. वृत्यादिके भेद से १० प्रकारका है । कहा भी है " आयरिय उवज्झाय धेर" इत्यादि । आचार्य १ उपाध्याय २ स्थविर ३ तपस्वी ४ ग्लान ५ शैक्ष ६ साधर्मिक ७ कुल ८ गण ९ और संघ १० इनकी वैयावृत्ति करने के भेदसे वैयावृत्य १० प्रकारका होता है, श्रुतधर्म की आराधनाका नाम स्वाध्याय है, यह स्वाध्याय - चाचा १ प्रच्छना २ परावर्त्तना ३ अनुप्रेक्षा ४ और धर्मकथा ५ के भेदसे पांच प्रकारका है । परवके अभाव में जिस छेतेने वैयावृत्य छेउ छे वेयावच्च' बारडभावो " इत्यादि. આ ગાથાના અર્થ ઉપર કહ્યા અનુસાર જ છે, તે વૈયાવૃત્યના આચાય વૈયાનૃત્ય આદિ ૧૦ ભેદ કહ્યા છે. કહ્યું પણ છે કે : " आयरिय उवज्झाय थेर "" इत्याहि वैयावृत्यना १० लेह छे – (१) मायार्य, (२) उपाध्याय, (3) स्थविर, (४) तपस्वी, (५) ग्लान ( श्रीभार ), (६) शैक्ष ( नव हीक्षित ), (७) साधंभिंड, (८) मुझ, (ङ) गाय भने (१०) संध, आा हसेनी सेवाशुश्रूषा कुरवा રૂપ ૧૦ પ્રકારનું વૈયાવૃત્ય સમજવું. શ્રતધર્મની આરાધના રૂપ સ્વાધ્યાય હાય છે. તે સ્વાધ્યાયના વાચના, પ્રચ્છના, પરાવર્ત્તના, અનુપ્રેક્ષા અને ધમકથા નામના પાંચ ભેઃ કહ્યા છે. પવનને અભાવે જેમ દીપકની જવાલા ( ઝાળ) સ્થિર રહે છે, તેમ કેઇ એક Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०६ सू ३८ तपमेदनिरूपणम् इव चित्तस्य स्थिरीकरणम् । तच चतुर्थस्थान के चतुर्विधमुक्तम् । तत्र धर्म-शुक्ल. ध्यानद्वयमेव तपोरूपं बोध्यम् , नयोरेव निर्जराकारणत्वात् । तद्भिन्नम् आर्तरौद्रध्यानद्वयं तु वन्धकारणत्वान्न तपोरूपमिति ।। ५॥ तथा-व्युत्सर्गः-परित्यागः, स च द्रव्यभावभेदाभ्यं द्विविधः । तत्र-द्रव्यतोव्युत्सों गणशरीरोपध्याहारविपयः, भावतस्तु क्रोधादिविषयः ६ इति ।। सू० ३८ ॥ पूर्वोक्तेषु तपः स्वरूपेषु केचिद् विवादमध्यासन्ते, इति विवादस्वरूपमाह मूलम्-छबिहे विवाए पण्णत्ते, तं जहा-ओलकत्ता १ उस्तकइत्ता २, अणुलोमइत्ता ३, पडिलोमइत्ता ४, भइत्ता ५, भेलइत्ता ७ ।। सू० ३९ ॥ ___छाया-पविधी विवादः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-अवष्वक्य, उत्वष्क्य, अनुलोमयित्वा, प्रतिलोमयित्वा, भत्त्या, मिश्रपित्वा ।। स० ३९ ।। प्रकार दीपककी लौ स्थिर रहती है, उसी प्रकारसे किसी एकके आलम्बनसे चित्तका स्थिर करना यह ध्यान है, चौथे स्थानमें वह ध्यान चार प्रकारका कहां गया है, धर्म और शुक्ल ऐ ध्यानही तपोरूप होते हैं, क्योंकि हलदोनोंमही निरोके प्रति हेतुता है। इनसे भिन्न जो आतध्यान और रौद्रध्यान हैं ये कर्मके कारण होनेसे तपोरूप नहीं हैं । ५ परित्यागका नाम व्युत्सर्ग है, यह व्युत्सर्ग द्रव्य और भाषले दो प्रकारका है, इनमें गणका शरीरका उपधिका एवं आहारका जो परित्याग है, वह द्रव्य व्युत्सर्ग है, एवं क्रोधादि कपायोंका जो परित्याग है, वह भावव्युत्सर्ग है ।। तू० ३८ ॥ पूर्वोक्त इन तपके स्वरूपों में कितनेक जन विद्याद करते हैं, अतः વસ્તુના આલમ્બન વડે ચિત્તને સ્થિર કરવું તેનું નામ સ્થાન છે. ચોથા સ્થાનમાં આ ધ્યાનના ચાર પ્રકાર કહ્યા છે. ધર્મધ્યાન અને શુકલ ધ્યાનને જ તરૂપ સમજવા, કારણ કે તે બે ધ્યાને જ નિર્જરામાં કારણભૂત બને છે. આર્ના ધ્યાન અને રૌદ્રધ્યાન કર્મબન્ધનમાં કારણભૂત બનતા હોવાથી તેમને તરૂપ ગણી શકાય નહીં વ્યુત્સર્ગ–-પરિત્યાગનું નામ વ્યુત્સર્ગ છે. તે યુત્સર્ગ દ્રવ્ય અને ભાવની અપેક્ષાએ બે પ્રકારને કહ્યો છે ગણને શરીરને, ઉપધિને અને આહારને જે પરિત્યાગ છે, તે દ્રવ્ય વ્યુત્સર્ગ છે, અને ક્રોધાદિ કષાનો જે પરિત્યાગ છે, તે ભાવવ્યુત્સર્ગ છે. એ સૂ. ૩૮ स्था०-५० Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानागसत्रे ३९४ टीका--' छबिहे ' इत्यादि-- विवाद:-क्वचिदर्थे वि-विरुद्धयोः-अप्लम्मतयोर्यों वादा जल्पः स विवादः, उक्तं चास्य स्वरूपम् " लब्धिख्यात्यादिना तु स्याद्, दुःस्थितेनामहात्मना । ___ छलजातिप्रधानो या, स विवाद इति स्मृतः " इति । अयं च पइविधः प्रज्ञप्ताः । तद्यथा-विवादसपये प्रतिपक्षिणः प्रश्नस्योत्तरदानेऽसमर्थः केनाप्युपायेन अवष्वक्य अपमृत्य-दूरीभूय-अवसरलाभाय कालक्षेप अब सूत्रकार विवादके स्वरूपका कथन करते हैं__"छविहे विवाए पण्णत्ते” इत्यादि सूत्र २९ ॥ टीकार्थ-विवाद६ प्रकारका कहा गयाहै, जैसे-भोसक्कइत्ता आदि१ किसी अर्थ में निरुद्ध असंगत दो विषयोंको लेकर जल्प (बोलना) होता है, वह विवाद है, विवादका स्वरूप इस प्रकार से कहा गया है "लब्धिख्यात्यादिना तु" इत्यादि। लब्धि ख्याति आदिकी इच्छासे दुःस्थित किसी अमहात्मा द्वारा जो जय पराजयकी भावना लेकर छलजाति प्रधानतावाला जल्प है, वह विवाद है, यह विवाद वादी प्रतिवादीका होताहै, यह छह प्रकारका इस प्रकारसे है-विवादके समय प्रतिपक्षीके प्रश्नके उत्सर देनेमें असमर्थ बना हुआ यदि कोई वादी उससे दूर होकरके अवलर लाभके लिये कालक्षेप करके जो पुनः विवाद करना है, वह अवष्वक्य विवाद है, આગલા સૂત્રમાં તપના પ્રકારનું નિરૂપણ કર્યું તે તપના વિષયમાં કેટલાક લોકે વિવાદ કરતા હોય છે, તેથી હવે સૂત્રકાર વિવાદના સ્વરૂપનું नि३५९४ ४२ छ. “ बिहे विवाए पण्णत्ते" त्यादि વિવાદ ૬ પ્રકારને કહ્યું છે. જેમકે “ઓસઈત્તા ” આદિ ૬ પ્રકાર સમજવા. કેઈ વિષયને અનુલક્ષીને-વિરૂદ્ધ, અસંમત બે વિષયને અનુલક્ષીને કોઈ બે વ્યક્તિઓ વચ્ચે જે ચર્ચા ચાલે છે તેનું નામ વિવાદ છે. તેનું સ્વરૂપ मा ४२ ४j छ. “ लन्धिख्यात्यादिना तु " त्याह- લબ્ધિ ખ્યાતિ આદિની કામનાથી કઈ મહાત્મા દ્વારા જય પરાજયની ભાવના પૂર્વકની છળપ્રધાનતાવાળી જે ચર્ચા ચાલે છે તેનું નામ વિવાદ છે. વાદી પ્રતિવાદી વચ્ચે આ વિવાદ થાય છે. તેને નીચે પ્રમાણે ૬ પ્રકાર છે – (૧) વિવાદ વખતે પ્રતિપક્ષીના પ્રશ્નનો ઉત્તર આપવાને અસમર્થ બનેલ વાદી તે વખતે તે ત્યાંથી ખસી જાય છે, પણ અમુક કાળ જવા દઈને ફરી તેની સાથે જે વિવાદ કરે છે તેનું નામ “અવષ્યષ્કય વિવાદ” છે. (૨) મેકે Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुंघा टीका स्था. ६ सू ३९ विवादस्वरूपनिरूपणम् कृत्वा यो विवादः पुनः क्रियते स तथा ॥१॥ उत्प्वष्क्य लब्धावसरेण उत्सत्य: स्वयं गत्वा यो विवादो विधीयते स तथा ॥२॥ अनुलोमयित्वा-मध्यस्थ साम्ना, प्रतिपक्षिणं वा पूर्व तत्पक्षाभ्युपगमेन अनुकूलं कृत्वा यो विवादःस तथा ॥ ३ ॥ प्रतिलोमयित्वा-पूर्णसामर्थ्यत्रता पूर्व मध्यस्थं प्रतिपक्षिणं वा प्रतिकूल कृत्वा यो विवादः स तथा ॥ ४ ॥ भक्त्वा मध्यस्थम् आसेव्य यो विवादः सः तथा ॥५॥ तथा-मिश्रयित्वा-मध्यस्थं स्वपक्षे कृत्वा यो विवादः स तथा ॥६॥ इति ॥ सू० ३९॥ 'विवादासक्तचित्ताः क्षुद्रप्राणितया समुत्पद्यन्ते' इति क्षुद्रप्राणिस्वरूपं निरूपयति मूलम्-छविहा खुड्डा पाणा पण्णत्ता, तं जहा-वेदिया १, तेइंदिया २, चउरिंदिया ३, संमुच्छिमपंचिं दियतिरिक्खजोणिया ४, तेउकाइया ५, वाउकाइया ६ ॥ सू० ४० ।। अवसर पाकर पुनः जो स्वयं जा करके विवाद किया जाता है, ऐसा वह विवाद उत्वष्य है, मध्यस्थकों अथवा शान्तिले प्रतिपक्षीको पहिले उसके पक्षको स्वीकार कर अनुकूल करके जो विवाद किया जाता है, वह अनुलोमयित्वा विवाद है, पूर्ण सामयंसे युक्त हुए वादीके द्वारा पहिले मध्यस्थको अथवा प्रतिपक्षीको प्रतिकूल करके जो विवाद किया जाता है, वह प्रतिलोमयित्वा विवाद है, मध्यस्थकी अच्छी तरहसे सेवा करके जो विवाद किया जाता है, वह भक्त्वाविवादहै, तथा मध्यस्थको अपने पक्षमें करके जो विवाद किया जाताहै, वह मिश्रयित्वा विवादहै।सू०३९।। મળતાં ફરી જાતે જ જઈને જે વિવાદ કરવામાં આવે છે તે વિવાદને “ઉધ્વષ્કા વિવાદ કહે છે. (૩) મધ્યસ્થની અથવા પ્રતીપક્ષીની વાતને પહેલા સ્વીકાર કરી લઈને તેમને અનુકૂલ કરી લઈને જે વિવાદ કરવામાં આવે છે તેને “અનુલોમયિત્વા વિવાદ” કહે છે. (૪) પૂર્ણ સામર્થ્યથી યુક્ત એવા વાદી દ્વારા પહેલાં મધ્યસ્થને અથવા પ્રતિપક્ષીને પ્રતિકૂલ કરીને જે વિવાદ કરવામાં આવે છે તેનું નામ “પ્રતિમયિતા વિવાદ ” છે. (૫) મધ્યસ્થની સારી રીતે સેવા કરીને જે વિવાદ કરવામાં આવે છે તેનું નામ “ભકત્વા વિવાદ છે. “મધ્યસ્થને પિતાના પક્ષમાં કરી નાખીને જે વિવાદ કરવામાં આવે છે तेतुं नाम “ भियित्वा विवाह" छ. ॥ सू. 3८ ॥ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९६ स्थानागा ___छाया-पविधाः क्षुद्राः प्राणाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-द्वीन्द्रियाः १, त्रीन्द्रियाः २, चतुरिन्द्रियाः ३, सम्पूछिमपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः ४ तेजस्कायिकाः ५, वायुकायिकाः ६ ॥ सू० ४० ।। टीका-' छबिहाखुडा' इत्यादि क्षुद्राः प्राणाः क्षुद्रजीवाः, द्वीन्द्रियादिभेदैः पसंख्यका बोध्याः । एपां क्षुद्रत्वं च अनन्तरभवे सिद्धिगमनाभावाद् बोध्यम् । ____ अत्र सूक्ष्मत्रसाः तेजोवायुकायिका जीवा योध्याः। किंच-एतेषु देवाना मुत्पत्ति न भवतीति हेतोरपि द्वीन्द्रियादीनां क्षुद्रत्वं बोध्यम् । देवानां यत्रोत्पत्ति भवति यत्र च न भवति, तदुक्तमेकया गाथया विवादासक्त चित्तवाले प्राणी क्षुद्रप्राणी रूपसे उत्पन्न होते हैं, अतः अब सूत्रकार क्षुद्र प्राणियोंके स्वरूपका कथन करते हैं "छव्धिहा खुड्डा पाणा पण्णत्ता" इत्यादि सूत्र ४०॥ टीकार्थ-क्षुद्र प्राणी६ प्रकारके कहे गये हैं जैसे-हीन्द्रिय१ श्रीन्द्रिय२ चतु. रिन्द्रिय ३ संभूच्छिम पञ्चेन्द्रियतियश्च ४ तेजस्कायिक ५ और वायुकाधिक दीन्द्रियादिकोंके भेदोंसे जो क्षुद्र जीव ६ प्रकारके कहे गये हैं, सो इसका कारण यह है, कि ये सब अनन्तर भवमें सिद्धि में गमन नहीं करते हैं अतः सिद्धि में गमन करने के अभाव को लेकर इनसे क्षुद्र. ताका प्रतिपादन किया गया है। यहां तेजस्कायिक और वायुकायिक जीव त्रस जानना चाहिये किंच इनमें देवोंकी उत्पत्ति नहीं होती है, इस कारण भी द्वीन्द्रियादिकों में क्षुद्रता जाननी चाहिये देवोंकी जहां વિવાદાસક્ત ચિત્તવાળા જીવો મુદ્રજી રૂપે ઉત્પન્ન થાય છે. તેથી હવે સૂત્રકાર એવા મુદ્રજીના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરે છે. टी-“ छविहाँ खुड्डा पाणा पण्णत्ता" त्या:-- क्षुद्रवाना ६ २४ा छ--(१) दीन्द्रिय, (२) श्रीन्द्रिय, (3) यत. हिन्द्रिय, (४) स भूमि ५येन्द्रिय तिय थ, (५) ते४२४ाथि अन (6) वायुકાયિક, પ્રીયિાદિક ને ક્ષુદ્રજી ગણવાનું કારણ નીચે પ્રમાણે છે-- આ જ અનન્તર ભવમાં સિદ્ધગમન કરી શકતા નથી આ રીતે તે જીવોમાં અનન્તર ભવમાં સિદ્ધિગતિની પ્રાપ્તિનો અભાવ હોવાથી તેમનામાં અહીં ક્ષુદ્રતાનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે. અહીં તેજસ્કાયિક અને વાયુકાયિક અને સૂક્ષ્મ ત્રસ જાણવા જોઈએ. વળી દ્રન્દ્રિયાદિકમાં દેવોની ઉત્પત્તિ થતી નથી. તે કારણે પણ તે અને શુદ્ર ગણી શકાય છે. નીચેની ગાથામાં Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • सुधा टीका स्था०६ ०४० क्षुद्रप्राणिस्वरूपनिरूपणम् "1 पुढवी आउवणस्स, -गभगपज्जत संखजीवीसु । सग्गच्चुयाणवासो, सेसा पडिसेहिया ठाणा ॥ १ ॥ ” छाया - पृथिव्यन्वनस्पति गर्भजपर्याप्त संख्यजीविषु । स्वर्गच्युतानां वासः शेषाणि प्रतिपेधितानि स्थानानि ||१|| इति । संमूच्छिमपथेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां तु पञ्चेन्द्रियत्वेऽपि मनसोऽमावेनाविवेकितया निर्गुणत्वात् क्षुद्रत्वं बोध्यमिति ॥ ०४० ॥ ३९७ पविधाः क्षुद्राः प्राणिनः प्रोक्ताः तेषां विराधना यथा न भवेत्तथा साधुभिर्भिक्षाचर्या कर्तव्येति प्राप्तावसरां गोचरचर्यां पविधत्वेन निरूपयति मूलम् - छविवहा गोयरचरिया पण्णत्ता, तं जहा - पेडा १, अपेडा २, गोमुत्तिया ३, पतंगवीहिया ४, संबुकावट्टा ५, गंतुं पञ्चागया ६ ॥ सू० ४१ ॥ - उत्पत्ति होती है, और जहां नहीं होती है यह बात इस गाथा द्वारा व्यक्त की गई है - " पुढवी आउ वणस्स " इत्यादि । पृथिवीकायिक अपकायिकमें वनस्पतिकायिक में एवं गर्भज पर्याप्त संख्यात वर्षकी आयु वालोंमें स्वर्गले च्युत हुए जीवोंकी - देवों की उत्पत्ति होती है । समृनिर्यश्च पञ्चेन्द्रियों में जो देवोंकी उत्पत्ति होनेका निषेध किया गया है, सो उसका कारण ऐसा है, कि उनमें पंचेन्द्रियता होने पर भी सनका अभाव रहता है, अत इससे उनमें अविका कारण निर्गुणना होने से क्षुद्रता रहती है । इस तरह सूत्रनिर्दिष्ट क्षुद्र जीवों देवोंकी उत्पत्ति नहीं होती है ॥। ८० ४० ॥ એ વાત પ્રકટ કરવામાં આવી છે કે દેવાની ઉત્પત્તિ કયાં કયાં થાય છે અને यांयां थती नथी. " पुढवी आउ वणस्स " इत्यादि- પૃથ્વીકાયિકામાં, અસૂકાયિકામાં, વનસ્પતિકાયિકમાં, અને ગજ પર્યાપ્ત સખ્યાત વષૅના અયુવાળા જીવામાં દેવસેકમાથી સ્મ્રુત થયેલા જીવેાની ( देवानी ) उत्पत्ति थाय छे - अन्यत्र यती नथी संभूर्छिम तिर्यय पथेन्द्रि ચેામાં વૅની ઉત્પત્તિ થતી નથી, એવું જે કહેવામાં આવ્યુ છે તેનું કારણુ એ છે કે તેઓ પચેન્દ્રિય હાવા છતાં પણ તેમનામાં મનને અભાવ હોય છે. તેથી તે જીવેામાં અવિવેકતાને કારણે નિષ્ણુશ્રુતા હૈવાને લીધે ક્ષુદ્રતા હોય છે. આ રીતે સૂવનર્દિષ્ટ ક્ષુદ્રજીવે!મા દેવાની ઉત્પત્તિ થતી નથી, मेभ सभवु ॥ सू. ४० ॥ Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाङ्गी छाया-पविधा गोचरचर्या प्रश्नप्ता, तद्यथा-पेटा १, अर्धपेटा २, गोमूत्रिका ३, पतङ्गवीथिका ४, शम्बूकावर्ती ५, गत्वामत्यागता ६ ॥ मू० ४१ ॥ टीका-'छन्विहा गोयरचरिया' इत्यादि गोचरचर्या-गोश्चरणं गोचरः, तद्वद् या चर्या सा । अयं भावः-यथा गौः उच्चनीचतणानि सामान्यतश्चरति, तथैव रागद्वेपराहित्येन यः साधुरुच्चनीचमध्यम कुलेषु धर्मसाधननिमित्तभूतं देहं परिपालयितुं भिक्षार्थ चरति, तस्य तथाचरणं गोचरचर्येत्युच्यते । इयं-गोचरचर्या पेटाऽर्धेपेटादिभेदेन पइविधा वोध्या । तत्र ये ६ प्रकारके क्षुद्र प्राणी कहे लोजिस तरहसे इनकी विराधना न हो सके इस प्रकारसे भिक्षाचर्या लाधुको करनी चाहिएअतः इसी सम्बन्धको लेकर अब सूत्रकार ६ प्रकारकी भिक्षाचर्या प्रकट करते हैं____ "छविहा गोयरचरिया पण्णत्ता” इत्यादि सूत्र ४१ ॥ टोकार्थ-गोचरचर्या ६ प्रकारकी कही गईहै, जैसे-पेटा १ अर्धपेटा २ गोमूत्रिका ३ पतङ्गवीथिका ४ शम्बूकावर्ता ५ गत्वा प्रत्यायता ६ गौ के चरनेकी जली जो चर्या होती है, वह गोचरचर्या है, तात्पर्य ऐसा है, कि जैसे गाय सामान्य रूपसे ऊंचे नीचेके स्थानों के तृगोंको चरती है, उसी प्रकार जो साधु रागद्वेष रहित होकर ऊंच नीच कुलोंमें धर्म साधनके निमित्तभूत देहकी परिपालनाके लिये भिक्षा करता है, ऐसे उस साधुकी वह भिक्षाचर्या गोचरचर्या इस रूपसे कही गई है, गोचरचर्या जो पेटा१ अर्घपेटा आदिके भेदसे ६ प्रकारकी कही गईहै, सो इसका આગલા સૂત્રમાં છ પ્રકારના શુદવે નું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે. તેમની વિરાધના ન થાય એવી રીતે સાધુએ ભિલાચર્યા કરવી જોઈએ આ પ્રકારના સંબંધને અનુલક્ષીને હવે સૂત્રકાર ભિક્ષાચન ૬ પ્રકારનું કથન ४२ छ. "छबिहा गोयरचरिया पण्णता " त्याह-- -लक्षायर्या (गाय२ यर्या) ७ ५४१२नी डी जे-(1) पेटी, (२) अधःपेटा, (3) त्रिी, (४) ५11001, (५) शम्भूती अन (६) सत्ता પ્રત્યાયતા. ગાયની ચરવાની ક્રિયા જેવી જે ચર્યા હોય છે તેનું નામ ગોચરચર્ચા છે. એટલે કે ગાય જેમ ઊંચે અને નીચે આવેલાં સ્થળનું ઘાસ ચરે છે, એ જ પ્રમાણે જે સાધુ રાગદ્વેષથી રહિત થઈને ધર્મની સાધનામાં નિમિત્ત ૩૫ દેહના પિષણ નિમિત્તે ઊંચ, નીચ અને મધ્યમ કુળોમાં ગોચરીની પ્રાપ્તિ નિમિત્તે જે ચર્યા (ભ્રમણ) કરે છે તે ચર્યાને ભિક્ષાચર્યા કહે છે. તેના પેટા અર્ધપેટા આદિ ૬ પ્રકારનું હવે સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવે છે-- Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुभाटीका स्था०६ सू०४१ षविधगोयरचर्यानिरूपणम ३९९ पेटा-पेटिकामज्जूषा तद्वत् अभिग्रहविशेषवशात् साधुर्यस्यां भिक्षाचर्यायां ग्रामादौ पाटकस्य चतुर्भागं कृत्वा विहरति सा 'पेटा' इत्युच्यते । १ ॥ अर्ध पेटापेटावचतुर्भागं क्षेत्रं कृत्वा तदर्धभागे भिक्षार्थ चरणम् ॥२॥ गोमूत्रिका गोमूत्रिकेव गोमूत्रिका । गोमूत्रिकावद् पक्राकारेण वामदक्षिणतो भ्रमणम् ॥ ३ ॥ पतङ्गवीथिका-पतगोड्डयन सदृशी, तिडवदन्तरा बहुगृहाणि मुक्त्वा मुक्त्वा भ्रमणम् ॥४॥ शम्बूकावर्ता-शम्बूका शङ्ख, तद्वदाव? यस्यां सा तथा । सा द्विविधा-आभ्यन्तरशस्वकावर्ती वहिः शम्बूकावर्ता च । यस्यां मध्यभागादारभ्य बाह्यगृहं यावभाव ऐसाहै, कि पेटा पेटिका संजूवाकी तरह जिस भिक्षाचर्या में अभिग्रह विशेषके वश साघु ग्रामादिमें पाटकके (महोल्ला ) चार भाग करके भ्रमण करता है, ऐसी वह भिक्षाचर्या "पेटा" इल रूपसे कही गई है ११ पेटाकी तरह चार भोगवाला क्षेत्र करके उसके आधे भागमें जो साधु भिक्षाके निमित्त भ्रमण करता है, ऐसी वह भिक्षाचर्या अर्धपेटा इस रूपसे कही गई है, गोमूत्रिकाकी तरह वक्राकारले जिस भिक्षाचर्या में दायें ले पाये, वायें से दायें भ्रमण करना होता है, ऐली वह भिक्षाचर्या "गोमूनिका" इस रूपसे कही गई है, पतङ्ग पक्षीके उड़ने की तरह जिस भिक्षाचर्यामें वीच २ में घरोंको छोड २ कर भ्रमण करना होता है, ऐसी वह भिक्षाचर्या " पतधीथिका" इस रूपसे कही गई है, शम्वक शन की तरह जिल्ल भिक्षाचर्या में आवर्त होता है, ऐसी वह भिक्षाचर्या " शम्बूकावतो" इस रूपसे कही गई है, शम्बूफापर्ती आभ्यन्तर (1) पेट लक्षाया-- १४॥ (भभूपा) ना विभाग ॥ હોય છે તેમ પ્રામાદિના ચાર વિભાગ પાડી ને તેમાંથી કઈ પણ એક વિભાગમાં જ ભિક્ષાપ્રાપ્તિ માટે બ્રમણ કરવું તેનું નામ પેટા ભિક્ષાચર્યા છે. (૨) અર્ધપેટા ભિક્ષાચર્યા––પેટા રિક્ષાચર્યામાં ગ્રામદિના ચાર ભાગ પાડવામાં આવે છે તેમાંથી એક ભાગના અર્ધા ભાગ પ્રમાણ ક્ષેત્રમાં જ ભિક્ષાપ્રાપ્તિ માટે अमर ४२७ तनु नाम अधटर मिक्षाय छे. (3) गाभूत्रिी --२ भिक्षा. ચર્યામાં ગમૂત્રિકોની જેમ જમણી તરફથી ડાબી તરફ અને ડાબી તરફથી જમણી તરફ ભ્રમણ કરવું પડે છે, તે ભિક્ષાચયને ગોમૂત્રિકા ભિક્ષાચર્યા કહે छ. (४) पतगायि४1--2 लक्षायामा ५तजियानी रेभ. १२येन। परीने છેડીને છૂટા છવાયા ઘરમાં ભ્રમણ કરવામાં આવે છે તે ભીક્ષાચર્યાને પતંગવિથિકા ભિક્ષાચર્યા કહે છે (૫) શબૂવર્તા––શબૂક એટલે શંખ જે ભિક્ષાચર્યામાં શંખના જેવા આવર્તી હોય છે તે ભિક્ષાચર્યાને શખૂકાવર્તા Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाङ्गसूत्रे ४०० दने प्रथमा, वाह्यगृहादारस्य मध्य भागवर्त्तिगृहं यावद्भ्रमणे तु द्वितीया ॥ ५॥ तथा - गत्वा प्रत्यागता गत्वा प्रत्यागतं = प्रत्यागमनं यस्यां मिक्षाचर्यायां सा । अयं भावः - यस्यां भिक्षाचर्यार्या साघुरूपाश्रयान्निर्गतः प्रथममेकस्य गृहपी भिक्षां गृह क्षेत्रपर्यन्तं याति ततः प्रत्यावृत्तः पुनर्द्वितीयस्यां गृहपङ्कौ भिक्षां गृहन उपाश्रयमायाति सा तथा ॥ ० ४१ ॥ 3 अन्तरसूत्रे साधूनां विशिष्टाचर्या प्रोक्ता, सम्पति चर्यापस्तावादसाधुच शम्बूकावर्त्ता और बहिः शम्बूकान भेदसे दो प्रकारकी कही गई है, जिस भिक्षाची मध्य भाग से लेकर बाह्य घर तक भ्रमण करने में फिरने में आभ्यन्तर जम्बूकाल भिक्षाचर्या होती है, एवं बाह्य गृहसे लेकर सभ्य भागवत घर तक फिरने में द्वितीया शम्बूकात भिक्षा होती है ५ । जा करके प्रत्यागतन जिस भिक्षाचर्या में होता है, ऐसी वह भिक्षार्या गत्वा प्रत्यायाता ६ है, इसका तात्पर्य ऐसा है, कि जिल भिक्षा में साधु उपाय से निकलकर प्रथम एक गृह पति भिक्षा लेना है, वहांसे भिक्षा लेकर फिर वह क्षेत्र पर्यन्त तक आगे चला जाता है, इसके बाद फिर वह वहां से लौटता है और द्वितीय गृहपति भिक्षा के निमित्त प्रविष्ट होता है, वहांसे भिक्षा लेकर फिर वह उपा में आ जाता है, ऐसी वह भिक्षचर्या ६ नम्बरकी भिक्षाच ॥ सू०४१॥ इस ऊपरके सूत्र में साधुओं की विशिष्ट वर्षा कही अब सूत्रकार ભિક્ષાચર્યા કહે છે તેના બે ભેદ છે--(૧) આભ્યન્તર શમ્મૂકાવાં, અને (૨) મહિમૂકાવોં ગ્રામાદિના મધ્યભાગમાં આવેલા ઘરાથી શરૂ કરીને મહારના ભાગમાં આવેલા ઘર સુધી ભિક્ષાપ્રાપ્તિ માટે ભ્રમણુ કરવુ' તેનુ નામ આભ્યન્તર શમૂકાવત્તાઁ ભિક્ષાચર્યા છે. બહારના ભાગમાં આવેલા ઘરાથી શરૂ કરીને મધ્યભાગના ઘરે સુધી શિક્ષાપ્રાપ્તિ માટે ભ્રમણ કરવુ તેનું નામ ખહિ સ્થૂકાવત્તાઁ ભિક્ષાચર્યાં છે. (૬) ગત્મા પ્રત્યાયાતા—જે ભિક્ષાચર્યામાં ગમન કરીને પ્રત્યાગમન થાય છે, તે ભિક્ષાચર્યાને શાપ્રત્યાયાતા કહે છે. આ કથનના ભાવાથ નીચે પ્રમાણે છે—જે ભિક્ષાચર્યામાં સાધુ ઉપાશ્રયમાંથી ખઢાર નીકળીને પહેલા એક ગૃપ ક્તિમાંથી ભિક્ષા ગ્રહણ કરીને ક્ષેત્રપયન્ત સુધી આગળ ચાલ્યા જાય છે અને પછી ત્યાંથી પાછા ફરીને બીજી ગૃહપ'ક્તિમાં ભિક્ષાને નિમિત્તે પ્રવેશ કરે છે અને ત્યાંથી ભિક્ષા ગ્રહણ કરીને તે ઉપાશ્રયમાં આવી જાય છે. આ પ્રકારની ભિક્ષાચર્યાને ગાપ્રત્યાયાતા ભિક્ષાચર્ચા કહે છે. I! સૂ. ૪૧ ॥ ઉપરના સૂત્રમાં સાધુશ્માની વિશિષ્ટ ચટ્યનું વર્ણન કરવામાં આવ્યું. Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था० ६ सू० ४२ असाधुचर्याया' फलभोक्तृणां गतिनिरूपणम् ४०१ र्यायाः फलभोक्तारो यान् स्थानविशेपान प्राप्नुवन्ति तानाह___मूलम्-जंबुद्दीचे दीवे संदरस्स पवयस्ल य दाहिणेणं इभीसे रयणप्पभाए पुढवीए छ अवकंतमहानिरया पण्णत्ता, तं जहा-लोले, १, लोलुए २, उद्दले ३, निदड्डे ४, जरए ५, पज्जरए ६। चउत्थीए णं पंकप्पसाए पुढवीए छ अवकंता महानिरया पण्णत्ता, तं जहा-आरे १, बारे २, मारे ३, रोरे ४, रोरुए ५, खाडखडे ६ ॥ सू०४२ ॥ ___ छाया-जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य च दक्षिणे अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां पट् अपनान्तनिरयाः प्रज्ञप्ताः, नद्यथा-लोलो १, लोलुपः २, उदग्धः ३, निदग्धः ४, जरकः ५, प्रजरकः ६। चतुर्थ्यां खलु पङ्कप्रभायां पृथिव्यां पट्ट अपक्रान्ता महानिरयाः प्रजाताः, तद्यथा-आरः १, चारः २, भारः ३, रोरः ४, रोरुकः ५, खाडखडः ६॥ मु० ४२ ॥ टीका-'जंबुद्दीवे दीवे ' इत्यादि जम्बूद्वीपाख्य मध्यद्वीपान्तर्गतमन्दरपर्वतस्य दक्षिणे-दक्षिणतः अस्यां रत्नप्रभानामकपृथिव्याम् अपक्रान्तनिरयाः-अपक्रान्तासकल शुभभावेभ्योऽपगता अतिनिकृष्टा इत्यर्थः, ते च ते निरयाः नरकाः, अथवा-' अपक्रान्तनिरयाः' चर्याके परतावको लेकर असाधुचर्याक फलको भोगनेवाले जिन स्थान विशेषोंको प्राप्त करते हैं उन स्थानोंको कहते हैं____ "जम्बुद्दीदे दीवे मंदस्त पव्वयस्त' इत्यादि सूत्र ४२ ॥ टीकार्थ-जम्बूद्वीप नामके मध्यदीपके अन्तर्गत जो मन्दर (मेरु) पर्वतहै, उस पर्वतकी दक्षिण दिशामें इस रत्नप्रभा नामकी पृथिवीमें छह अपक्रान्त-सकल शुभ भावोंसे रहित-अतिनिकृष्ट ऐसे नरक कहे गये હવે સૂત્રકાર ચર્યાના વિષય સાથે સુસંગત એવા વિષયનું નિરૂપણ કરે છે. જે સાધુ સાધુર્યાના નિયમનું પાલન કરતું નથી–અસાધુચર્યાનું સેવન કરે છે. એવા સાધુને તેના ફલસ્વરૂપે કેવા સ્થાનમાં જન્મ લેવું પડે છે, તે હવે सूत्र४२ ५४८ ४२ छ “ जम्बूद्दीवे दीबे मंदरस्स पव्वयस्स" त्या: ટીકાથ–જબૂદીપ નામના મધ્ય દ્વીપમાં જે મન્દર પર્વત આવેલો છે તેની દક્ષિણ દિશામાં રત્નપ્રભા નામની પૃથ્વીમાં (પહેલી નરકમાં) ૬ અ૫ક્રાન્ત (સકળ શુભ ભાવથી રહિત, અતિનિકૃષ્ટ એવાં) નારકાવાસે આવેલાં છે અથવા स्था०-५१ Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૦૨ स्थानास्त्रे इतिच्छाया । तत्पक्षे-अपक्रान्ताः-अकमनीयाः अशोभनाश्च ते निरयाश्चेति विग्रहः । ते हि पट संख्यकाः प्रज्ञप्ताः । यद्यपि सर्वेऽपि नरका एवमेव, तथापि तेष्वप्येपां वक्ष्यमाणनिरयाणां प्राधान्येनैते एव 'अबकन्त' इति विशेषणविशिटतया प्रोक्ताः। तेऽपक्रान्तनिरया लोग लोलुपादयो मूलोक्ता विज्ञेयाः। एवं 'चउत्थीए ' ति-चतुर्या पङ्कप्रभायाम् आरबारादयः पड् अपक्रान्तनिरयाः प्रज्ञप्ताः, तेऽपि मूलोक्ताएव बोध्याः ॥ ० ४२ ॥ इत्थगसाधुचर्या फलभोक्तस्थानत्वेन अपक्रान्तनरकानुक्त्वा सम्पति साधुचर्याफलभोक्तस्थानविशेपानाह मूलम्~-बंसलोए णं कप्पे छ विमाणपत्थडा पण्णत्ता, तं जहा-अरए १, विरए २, णीरए ३ णिम्मले ४ वितिमिरे ४ विसुद्धे ६॥ सू० ४३ ॥ हैं। अथवा-"अवक्कंत"की संस्कृत छाया" अपकानत " ऐसी भी होती है, इस पक्षमें अकमनीय अशोभन-ऐसे छह नरकाचास कहे गये हैं। यपि समरत नरकाघास ऐसेही है, परन्तु उन सबमें से इन निरयोमही प्रधान रूपसे "अपक्रान्तला या अपक्रान्तता" इसीलिये इन्हें इस विशेषणसे विशिष्ट करके कहा गया है, उनके नाम इस प्रकारसे हैंलोल १ लोलुप २ उदग्ध ३ निर्दग्ध ४ जरक ५ और प्रजरक ६ इसी तरह चौधी पङ्कप्रभा पृथिवीमें ६ अपक्रान्त महानिरय (नरकापास) कहे गये हैं उनके नाम इस प्रकारसे है-आर १ वार २ सार ३ रोर ४ रोमक ५ और खाडखड ६ ।। ० ४२ ॥ " अबक्कत " म पनी सस्तृत छाया “ अपक्रान्त " ५ थाय छे. ते સંસ્કૃત છાયાની અપેક્ષાએ તે નરકાવાસોને અશભન અથવા અકમનીય વિશેષણ પણ લગાડી શકાય છે. જો કે બધાં નરકાવાસ એવાં જ છે, છતાં પણ આ ૬ નરકાવાસમાં ખાસ કરીને “અપકાન્તતા” અથવા “અયકાન્તતા” છે, તેથી તેમને આ વિશેષણ લગાડવામાં આવ્યું છે તે નરકાવાસેનાં નામ मा प्रभारी छ–() बास, (२) वायु५, (3) उदय, (४) नि , (५) જરક અને (૬) પ્રજરક. એ જ પ્રમાણે પંકપ્રભા નામની ચેથી નરકમાં પણ છ અ૫ક્રાન્ત મહાનિર (નરકવાસે) આવેલાં છે તેમનાં નામ આ પ્રમાણે छ- मा२, २ वार, 3 भा२, ४ २२२, ५ २।२४ अने ६ आम ॥ सू. ४२ ॥ Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था० ६ सू. ५३ साधुचर्या फलभोक्तस्वरूपनिरूपण ४६ छाया-ब्रह्मलोके खलु कल्पे पड् विमानप्रस्तटाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-अरजोः १ विरजाः २ नीरजाः ३ निर्मलो ४ वितिमिरो ५ विशुद्धः ६ ।। सः ४३ ॥ टीका-'बंभलोगे' इत्यादि व्याख्या स्पष्टा । नवरम्-ब्रह्मलोको हि पञ्चमो देवलोकः । तत्र तु षडेव प्रस्तटा भवनमध्यान्तरालभागाः सन्ति । यत्र देवलोके यावन्तः मस्तटाः सन्तिः, तदुक्तमेकया गाथया, तथाहि"तेरस वारस छ पंच चेव चत्तारि चउस कप्पेसु । गेवेज्जेम्छ तिय तिय, एगो य अणुत्तरेसु भवे ॥ १॥" छाया-त्रयोदश द्वादश षट् पञ्च चैव चत्वार चतुर्यु कल्पेषु । प्रैवेय फेपु त्रयस्त्रय एकश्च अनुत्तरेषु भवेत् ॥ १ ॥ इति । ये ऊपरके सूत्र में जो ६ अपक्रान्त निरयस्थान कहे गये हैं वे उन्हें प्राप्त होते हैं, जो असाधुचर्या करते हैं, क्योंकि ये असाधुचर्या फलको भोगनेवालोंके स्थान हैं। अब सूत्रकार साधुचर्याके फल को भोगनेवालोंके स्थान विशेषोंका कथन करते हैं___"बंभलोए णं कप्पे छ विमाणपत्थडा पण्णता" इत्यादि सत्र ४३॥ टीकार्थ-ब्रह्मलोक कल्पमें६ विमान प्रस्तर कहे गये, जैसे-अरजा, विरजा, नीरजा, निर्मल, बितिमिर, और । विशुद्ध ब्रह्मलोक यह ५ वां देवलोक है, भवनके मध्य में अन्तराल भाग होते हैं उनका नाम प्रस्तट है, जिस देवलोकमें जितने अन्तराल (बीचका खाली भाग) रूप प्रस्तट हैं, वे इस गाथा द्वारा कहे गये हैं-"तेरस बारस छपंच" इत्यादि । ઉપરના સૂત્રમાં ૬ અપકાન્ત નિયસ્થાને કહ્યાં, તેમની પ્રાપ્તિ અસાધુચર્યા કરનાર અને થાય છે, કારણ કે અસાધુચર્યાના ફલને ભેગવવાનાં એ સ્થાને છે. હવે સૂત્રકાર સાધુચર્યાના ફલને ભેગવવાનાં જે સ્થાને છે, તે સ્થાનનું ४थन ४२ छ. “बंभलोए णं कप्पे छ विमाणपत्थडा पण्णत्ता" त्याहि ટીકાથ–બ્રહ્મલોક કલ્પમાં નીચે પ્રમાણે વિમાન પ્રરતર આવેલાં છે– (१) A२०n, (२) २०n, (3) नी२०१, (४) निमा ', (५) वितिभिर मन (6) વિશુદ્ધ. બ્રહ્મલેક પાચમું દેવલોક છે ભવનની મધ્યમાં જે અન્તરાલ (વચ્ચેનો જે ખાલી ભાગ) હોય છે તેનું નામ પ્રસ્તટ છે. કયા દેવલેકમાં કેટલા અનત રાલ રૂપ પ્રસ્તટ હોય છે તે નીચેની ગાથામાં બતાવવામાં આવ્યું છે – "तेरस वारस छ पच" त्याह-- Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाशस्त्र ___ अयं भावः-प्रथमद्वितीययोस्त्रयोदशविमानप्रस्तटा भवन्ति । तृतीयचतुर्थयो दिश, पञ्चमे पट् , पण्ठे पञ्च, सप्तमे चत्वारः, अष्टमे चत्वारः, नवम दशमयोश्चत्वारः, एकादशद्वादशयोश्चत्वारः, नवानां ग्रैवेयकविमानानाम् अधोभागे त्रयो मध्यभागे त्रयः ऊर्ध्व भागे च त्रय इति नत्र, पञ्चसु अनुत्तरविमानेषु चेक इति सर्वविमानप्रस्तट संख्या द्विपष्टि (६२) प्रमाणा भवतीति ।। मृ० ४३॥ अनन्तरं विमानवक्तव्यता मोक्ता, तत्प्रस्तावान् सम्प्रति नक्षत्रवक्तव्यतामाह मूलम् - चंदस्त णं जोइसिंदस्ल जोइसरन्नो छ णखत्ता पुवंभागा समवेत्ता तीसइमुहत्ता पण्णत्ता, तं जहा-पुव्वाभदवया १, कात्तिया २ सहा ३ पुवाफग्गुणी ४ सूलो ५ पुठवा. साढा ६। चंदस्त णं जोइसिंदस्त जोइसरपणो छ णक्वत्ता णतंभागा अबड्डक्खेत्ता पन्नरसमुहत्ता पण्णता, तं जहा--सायमिसया१ भरणी २ अद्दा ३ अरसेसा ४ साई ५ जेटा हाचंदस्स णं प्रथम और द्वितीय देवलोकमें १३ विमान प्रस्तट है, चतुर्थ देवलोकमें १२ विमान प्रस्ता हैं, पंचम देवलोकने ६ विमान प्रस्नट है, छट्टे देवलोकमें पांच विमान प्रस्तट है, लातवे देवलोक में चार विमान प्रस्तट हैं, नौवे दशमें देवलोलमें चार विमान प्रस्तट हैं, ग्यारहवें चारहवें देवलोकमें चार विमान प्रस्तर हैं, नौ ग्रेवेशक विमानोंके अधोभागमें तीन मध्य भागमें तीन और उर्वभागमें ३ इस प्रकारसे ९ विमान प्रस्तट हैं । तथा पञ्च अनुत्तर विमानों में एक प्रस्तट है, इन सय विमान प्रस्तटोंकी संख्या ८६२ हैं। सू०४३ ॥ પહેલા અને બીજા દેવલેમાં ૧૩ વિમાન પ્રસ્તટ છે ત્રીજા અને ચોથા દેવલોકમાં ૧૨ વિમાન પ્રસ્તટ છે. પાંચમાં દેવલોકમાં છે, છઠ્ઠા દેવલોકમાં પાંચ સાતમાં દેવલોકમાં ૪ અને આઠમા દેવલેકમાં પણ ૪ વિમાન પ્રસ્તટ છે. નવમાં અને દસમાં દેવકમાં ચાર વિમાન પ્રસ્તટ છે અગિયારમાં અને બારમાં દેવલોકમાં પણ ચાર વિમાન પ્રસ્તટ છે. નવ વેયક વિમાનનાં અધોભાગમાં ૩, મધ્યભાગમાં ૩ અને ઉભાગમાં ૩ વિમાન પ્રસ્તટ છે. પાંચ અનુત્તર વિમાનમાં એક પ્રસ્ત છે. તે બધાં વિમાન પ્રસ્તોની સંખ્યા १२ छे. ॥ सू. ४३ ॥ Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधा टीको स्था० ६ सू० ४४ नक्षत्रस्वरूपनिरूपण __ ४०५ जोइसिंदस्स जोइसरनो छ नक्खत्ता उभयंभागा दिवड्डखेत्ता पणयालीससुहत्ता पण्णत्ता, तं जहा- मोहिणी १, पुणवत्र २ उत्तराफग्गुणी ३, विसाहा ४ उत्तरासाढा ५ उत्तरामदवया ॥सू०४४॥ ___छाया–चन्द्रस्य खलु ज्योतिपेन्द्रस्य ज्योतिपराजस्य षट् नक्षत्राणि पूर्वभागानि समक्षेत्राणि त्रिंशन्मुहूतानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-पूर्वाभाद्रपदा १, कृत्तिका २, मघा ३, पूर्वाफाल्गुनी ४, मूलम् ५, पूर्वापाढा ६। चन्द्रस्य खलु ज्योतिषन्द्रस्य ज्योतिपराजस्य पद नक्षत्राणि नक्तं भागानि अपार्द्धक्षेत्राणि पश्चदशमुहू नि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-शतभिषक १ भरणी २ आर्द्रा ३ आश्लेषा ४, स्वातिः ५, ज्येष्ठा ६। चन्द्रस्य खलु ज्योतिषेन्द्रस्य ज्योतिपराजस्य षट् नक्षत्राणि उभयभागानि द्रव्यपार्द्धक्षेत्राणि पश्चचत्वारिंशन्मुहूर्तानि मज्ञप्तानि, तद्यथा-रोहिणी १, पुनर्वस २, उत्तराफाल्गुनी३,विशाखा४, उत्तरापाहार, उत्तराभाद्रपदाद,०४४॥ टीका- चंदस्स' इत्यादि ज्योतिपेन्द्रस्य ज्योतिपदेवानां मध्ये ऐश्वर्ययुक्तस्य ज्योतिपराजस्य चन्द्रस्य खलु पट नक्षत्राणि पूर्वभागानि-पूर्वेण-पूर्वभागेण अग्रेण-अमाप्तेनैव चन्द्रेण इत्यर्थः, भज्यन्ते सेव्यन्ते-युज्यन्ते यानि तानि-अपाप्तेनैव चन्द्रेण भुज्यमानानि समक्षेत्राणि-समं-स्थूलन्यायमाश्रित्य त्रिंशन्मुहूर्त भोग्यत्वेन समानं क्षेत्रम् आकाशदेशलक्षण येषां तानि, अतएव-त्रिंश-मुहूर्तानि-त्रिंशत् मुहूर्ताश्चन्द्रभोगो येषां तानि तथोक्तानि प्रज्ञप्तानि । तद्यथा-पूर्वाभाद्रपदा, कृत्तिकेत्यादीनि । उक्तंचात्र___ अब सूत्रकार विमानके अन्तरालका बक्तव्यताका कथन करके नक्षत्र वक्तव्यताका कथन करते हैं "चंदस्त ण जोइसिंदस्त जोइलरन्नो" इत्यादि सूत्र ४४ ॥ टीकार्थ-ज्योतिजेन्द्र ज्योतिष देवोंके मध्य में ऐश्वर्ययुक्त ज्योतिषराज चन्द्र के ये ६ नक्षत्र पूर्वसेव्य हैं, अर्थात् अप्राप्त चन्द्र के द्वारा भुज्यमान हैं, और समक्षेत्रवाले हैं तथा तीस मुहूर्त्तवाले हैं । उनके नाम इस प्रकारसे हैं पूर्वभाद्रपदा १ कृत्तिका २ मघा ३ पूर्वाफाल्गुनी ४ मूल ५ और વિમાનની અન્તરાલની વક્તવ્યતાનું કથન કરીને હવે સૂત્રકાર નક્ષત્રોનું थन ४२ छे. “चदस्स णं जोइसिदस्स जोइसरन्नो" त्याह-- ટીકાર્થ–નિષેદ્ર (તિષ દેવામાં ઐશ્વર્ય સંપન્ન) તિષરાજ ચન્દ્રના આ ૬ નક્ષત્ર પૂર્વસેવ્ય છે એટલે કે અપ્રાસ ચન્દ્ર દ્વારા ભુજમાન છે, समक्षेत्रवाण छ भने ३० मुहूत वाण छ. (१) पूर्व भाद्रपा, (२) वृत्ति, Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ स्थानांगो ___ " पुन्या तिनि य मूलो, मह कित्तिय अग्गिमा जोगा"। छाया--पूर्वाणि त्रीणि च मूलं भघा कृत्तिका अग्रिमयोगानि । इति । तथा ज्योतिपेन्द्रस्य ज्योतिपराजस्य चन्द्रस्य खलु पद नक्षत्राणि नक्त भागानि-नक्तं रात्रौ भज्यन्ते सेव्यन्ते चन्द्रेण यानि तानि-चन्द्रस्य समयोगीनि, तथा-अपार्थक्षेत्राणि-अपाधसमक्षेत्रापेक्षयाऽध क्षेत्रम् आकाशदेशलक्षणं येषां तानि, अत एव-पञ्चदशमुहूर्तानि प्रज्ञप्तानि । तद्यथा-शवभिएगित्यादि । उक्तं च "अदाऽसेसा साई सयभि समभिई य जे समजोगा"। छाया-आऽश्लेपा स्वातिः शतभिषक् अभिनिच्च ज्येष्ठा समयोगानि " इति । तथा-ज्योतिषे द्रस्य ज्योतिपराजस्य चन्द्रस्य पट् नक्षत्राणि उभयभागानिउभयतः पूर्वतः पश्चाच भज्यन्ते-सेव्यन्ते चन्द्रेण यानि तानि-पूर्वापरतश्चन्द्रेण भुज्यमानानि, तथा-द्वयपाक्षे माणि-द्वितीयम् अपार्धे यत्र तद् द्वयपाधपूर्वापाढा ६ । कहा भी है-" पुव्वा तिन्निष मूलो ” इत्यादि । मूल मघा और कृत्तिका घे तीन और पूर्व के तीन नक्षत्र ये अग्रिम योगवाले हैं। तथा-ज्योतिपेन्द्र ज्योतिपराज चन्द्र के ये ६ नक्षत्र रात्रिमें चन्द्रमाके द्वारा सेव्य हैं, अपार्ध क्षेत्रवाले हैं, समक्षेत्रकी अपेक्षा आधा है, आकाशदेशरूप क्षेत्र जिन्होंका ऐसे हैं--एवं १५ मुहत्तवाले हैं। उनके नाम इस प्रकारसे हैं-शतभिपक १ भरणी २ आः ३ अश्लेपो ४ " अद्दाऽसेसा लाइ” इत्यादि। आर्द्रा, अश्लेषा, स्वाति, शतभिषक, अभिजि। और ज्येष्ठा ये नक्षत्र समयोगवाले हैं, ज्योतिषेन्द्र ज्योतिराज चन्द्र के नक्षत्र उसके द्वारा पूर्वसे और ऊपर से दोनों तरफसे सेव्य कहे गये हैं-द्वयपाद्ध क्षेत्र(3) भा, (४) पूर्व शुनी, (५) भूख भने (६) पूर्वाषाढा. ४यु पय छ ? " पुव्वा तिन्नि य मूलो" त्यादि-- મૂલ, મઘા અને કૃત્તિકા તથા પૂર્વના (આગલા) ત્રણ નક્ષત્ર અગ્રિમ ગવાળા છે. તથા આ ૬ નક્ષત્ર રાત્રે જ્યોતિન્દ્ર તિપરાજ ચન્દ્ર દ્વારા સેવ્ય છે, અપાઈ ક્ષેત્રવાળા છે, સમક્ષેત્રની અપેક્ષાએ અર્ધા આકાશ દેશરૂપ ક્ષેત્રવાળા છે અને ૧૫ મુહૂર્તવાળા છે. તેમના નામ આ પ્રમાણે છે-- (१) शतम५४, (२) १२, (3) भाद्र, (४) मषा , (५) स्वाती भने (6) न्या. ४धु ५ छे , " अदाऽसेसा साई" त्याहि-- આદ્ર, અશ્લેષા, સ્વાતી, શતભિષેક, અભિજિત અને જણા આ નક્ષત્ર સમયેગવાળા છે. નીચેનાં ૬ નક્ષત્રે તિન્દ્ર જ્યોતિષરાજ ચન્દ્ર દ્વારા પૂર્વ અને અપર (પશ્ચિમ), બને તરફથી સેવ્ય કહ્યા છે, દ્રયપાદ્ધ ક્ષેત્રવાળાં Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका० स्था० ६सू० ४४ नक्षनस्वरूपनिरूपण ४०७ सार्धे क क्षेत्रम् आकाशदेशलक्षणं पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्तप्रमाणं येषां तानि तथोक्तानि, अत एव-पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्त्तानि प्रज्ञप्तानि । तद्यथा-'रोहिणी पुनर्वम्'इत्यादि । उक्तं च " उत्तरतिन्नि विसाहा, पुणव्यसू रोहिणी उभयजोगा।" छाया-उत्तरात्रीणि विशाखा पुनर्वसू रोहिणी उभययोगानि-इति । एवं विधानि नक्षत्राणि यदा भवन्ति, तदा सुभिक्षं भवति, अन्यथा तु दुर्भिक्षम् । तदुक्तम् " उक्तक्रमेण नक्षत्रैर्युष्यमानस्तु चन्द्रमाः ।" सुभिक्षकृद् विपरीतं, युज्यमानोऽन्यथा भवेत् ॥ १॥ इति ॥ मू० ४४ ॥ अनन्तरसूत्रे चन्द्रेण भुज्यमानानि नक्षत्राणि स्थानपट्कत्वेनोक्तानि, चन्द्र वाले कहे गये हैं-साधं एक क्षेत्रवाले कहे गये हैं, अर्थात् डेढ क्षेत्रवाले और ४५ मुहत्तवाले कहे गये हैं। उनके नाम इस प्रकारसे हूँ-रोहिणी १ पुनर्वसु२ उत्तराफाल्गुनी ३ विशाखा ४ उसराषाढा ५ और उत्तराभाद्रपदा ६ । कहा भी है-" उत्तरतिन्नि विश्लाहा" इत्यादि । उत्तराके ३ तीन तथा विशाखा, पुनर्वसु एवं रोहिणी ये ६ नक्षत्र उभय योगवाले कहे गये हैं। इस प्रकारके नक्षत्र जप होते हैं, तब सुभिक्ष होता है नहीं होते हैं तब दुर्भिक्ष होता है-कहा भी है " उक्तक्रमेण नक्षत्रैः" इत्यादि । सू० ४४ ॥ इस ऊारके सूत्र में चन्द्रमाके द्वारा भुज्यमान नक्षत्र छह स्थानक रूपंसे कहे अथ सूत्रकार चन्द्र शब्दके प्रस्तावको लेकर चन्द्र शब्द घटित કહ્યા છે, દેટ ક્ષેત્રવાળા કહ્યા છે અને ૪પ મુહૂર્તવાળા કદાા છે. તેમના नाम मा प्रभारी छ--(१) लिमी, (२) नवसु, (3) उत्त। शुनी, (४) विशामा, (५) उत्तराषाढ मन (6) उत्त२ भाद्रपहा. यु ५ छ : " उत्तर तिन्नि विसाहा" त्याहि-- ઉત્તરના ત્રણ તથા વિશાખા, પુનર્વસુ અને હિણી આ ૬ નક્ષત્ર ઉભય યોગવાળા કહ્યાં છે. આ પ્રકારના નક્ષત્રો જ્યારે હોય છે ત્યારે સુભિક્ષે (સુકાળ) હોય છે, અને જ્યારે નથી હોતાં ત્યારે દુષ્કાળ પડે છે. કહ્યું પણ छ है: "उतक्रमेण नक्षत्रैः "त्याह- सू ४४ ॥ આગલા સૂત્રમાં ચન્દ્ર દ્વારા ભુજ્યમાન નક્ષત્રનું જ સ્થાનક રૂપે થન કરવામાં આવ્યું. હવે સૂત્રકાર જેના નામની સાથે ચન્દ્ર શબ્દ ઘટિત થયે છે Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ % D CD.0 स्थानाङ्गसूत्रे शब्दस्य प्रस्तुतत्वात् सम्पति तदघटिनाभिचन्द्रकुलकरमत्रमाह मूलम्--अभिचंदे णं कुलकरे छ घणुसयाई उई उच्चत्तेणं होत्था ॥ सू० ४५ ॥ छाया-अमिचन्द्रः खलु कुलकरः पइ धनुश्शतानि अर्ध्वमुच्चत्वेनाभवत् । ॥ स्नू० ४५ ॥ टीका--' अभिचदेणं' इत्यादि अमुण्यामवसर्पिण्या उत्पन्नः पञ्चदशकुलहरेणु दशमः, सप्तसु चतुर्थी वा अभिचन्द्रनामा कुलकर उच्चत्वेन पट्गतधनुः प्रमाणोऽभवदिति ॥ मु० ४५ ॥ अभिचन्द्र कुलकरवंशोत्पन्नलाद् भरतविषयकं मूत्रमाह मूलम्-~-भरहे णं राया चाउरंतचकवट्टी छ पुबलवसहस्लाई महाराया होत्था ॥ सू० ४६ ॥ छाया-भरतः खलु राजा चातुरन्तचक्रवर्ती पट् पूर्वशतसहस्राणि महाराजोऽभवत् ।। सू०४६॥ टीका-'भरहे गं' इत्यादि-~ चातुरन्त वक्रर्ती-चत्वारा समुद्रत्रयहिमवल्ल क्षगाना भवसानानि यस्याः अलिचन्द्र कुलकरके सम्पन्ध सून कहते है-- ___ "अभिचंदेणं कुलफारे धणु" इत्यादि चूष ४५ ॥ टीकार्थ-अभिचन्द्र कुलकर१५ कुलकरों से १० वां लकर जो इस अघसर्पिणी कालमें उत्पन्न हुआ है, वह अथवा सात कुलकरोंमें चौथा कुलकर ऊंचाइमें ६०० धनुषप्रमाण कहा गया है । १० ४५ ॥ __अभिचन्द्र कुलकरके वंशमै उत्पन्न होनेके कारण अब सूत्रकार भरतविषयक लग्न कहते हैं-- એવા અભિચન્દ્ર કુલકરના વિષયમાં સૂત્રનું કથન કરે છે. ___ " अभिच देण कुलकरे धणु" त्याहટીકાર્ચ–અભિચન્દ્ર કુલકરના શરીરની ઊંચાઈ ૬૦૦ ધનુષપ્રમાણ હતી. ૧૫ કુલકરમાંના દસમાં કુલકર અભિચન્દ્ર થઈ ગયા તેઓ આ અવસર્પિણીકાળમાં થઈ ગયા અથવા સાત કુલકરે માં ચેથા કુલકર અભિચન્દ્ર હતા. એ સૂ. ૪૫ - હવે સૂત્રકાર અભિચન્દ્ર કુલકરના વંશમાં ઉત્પન્ન થયેલા ભારતને વિષया सूत्र ४ छ. " भरणं राया चाउरत" त्याह Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घाटीका स्था० सू० ४६ नक्षत्रस्वरूपनिरूपणम् ૦૨ सां चतुरन्ता, तस्या अयं चातुरन्वः, स चासौ चक्रवत्तींचेति तथोक्तो भरतो राजा पट् पूर्व शतसहस्राणि षट् पूर्वलक्षाणि महाराजोऽभवदिति । चतुरशीविलक्षवपणि चतुरशीतिलक्षसंरूपया गुणितानि एकं पूर्व विज्ञेयमिति ॥ सू० ४६ ॥ अभिचन्द्रकुलोत्पन्नत्वात् पार्श्वस्य तत्साधर्म्यात् वासुपूज्यचन्द्रमभयोश्च संबन्धिकं किंचित् स्थानपट्कत्वेनाह - मूलम् - पासस्य णं अरहओ पुरिसादाणीयस्स छ सया वाईणं सदेवमणुयासुराए परिताए अपराजियाणं संपया होत्था । वासुपुजेणं अरहा छहिं पुरिसपएहिं सद्धिं सुंडे जाव पइए । चंदपणं अरहा छम्मासे छउमत्थे हुत्था || सू० ४७ ॥ छाया— पार्श्वस्य खलु अर्हतः पुरुषादानीयस्य पेट् शतानि वादिनां सदेव - मनुजासुरायां परिषदि अपराजितानां सम्पद् अभवत् । वासुपूज्यः खलु अर्हन् पत्रभिः पुरुषशतैः सार्द्ध मुण्डो यावत् मन्नजितः । चन्द्रमभः खलु अर्हन् पण्मासान् छद्मस्थोऽभवत् । सू० ४७ ॥ टीका - ' पानस्स णं ' इत्यादि - पुरुषदानीयस्य आदीयं ते उपादीयते यः स आदानीयः - उपादेयः - पुरुषाणाम् आदानीयः - पुरुषादानीयः पुरुषश्रेष्ठइत्यर्थः तस्य पार्श्वस्य अर्हतः खलु ' सदेव "भरहेणं राया चाउरंत" इत्यादि सूत्र ४६ ॥ टीकार्थ-चतुरन्त के तीन समुद्र और हिमवत् रूप अन्तवाली पृथिवीके चक्रवर्ती भरतराजा ६ लाख पूर्वतक महाराज पमें रहे हैं । ८४ लाख वर्षका १ पूर्वाङ्ग होता है, और ८४ लाख पूर्वाङ्गका एक पूर्व होता है । ० ४६ ॥ अभिचन्द्र के कुल में उत्पन्न होने के कारण पार्श्वनाथ भगवान् के सम्बन्ध और इसी साधर्म्यसे वासुपूज्य एवं चन्द्रप्रभुके सम्बन्ध में सूत्रकार कुछ कथन ६ स्थानकोंसे करते हैं ચાતુરન્ત ચક્રવર્તી ( ત્રણ સમુદ્ર અને હિમવત્ પતરૂપ ચાર અતવાળી પૃથ્વીના ચક્રવર્તી રાજા) ભરત રાજાએ ૬ લાખ પૂર્વ સુધી મદ્ભારાજાનું પર્વ ભાગળ્યુ હતુ ૮૪ લાખ વર્ષનું એક પૂર્વાંગ થાય છે અને ૮૪ લાખ धूंर्वागनु पूर्व थाय छे. ॥ सू. ४६ ॥ અભિચન્દ્રના કુળમાં ઉત્પન્ન થયેલા પાર્શ્વનાથ ભગવાનના સુખ ધમાં અને એ જ સાધન્ય હાવાને કારણે વાસુપૂજ્ય અને ચન્દ્રપ્રભુના વિષયમાં સૂત્રકાર ૬ સ્થાનકાને અનુરૂપ સૂત્ર કહે છે, स्था०-५२ Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानामस्त्र मनुजा मुरायार-देवः सहिता मनुजाः सदेवमनुनाः, ते च असुराश्च यस्यां सा तथा, तस्यां-देवमनुजासुरसहितायां परिपदि-मायाम् अपराजितानां पराजयममाप्त-- वतां वादिनांबादक णां पट् शतात्मिका सम्पदभूदिति । तथा-वासुपूज्योऽईन्खलु षट्शातसंख्यकः पुरुषैः सह मुण्डो भूत्वाऽगारात् अनगारिता प्रजित इति । तथा-चन्द्रप्रभोऽहंन खलु पष्मासाद यावत् छत्रस्थावस्थापामतिष्ठदिति ।मु० ४७। पूर्वमने 'छमस्था' इत्युक्तम्, छमस्थश्चेन्द्रियोपयोगवान् भवतीतीन्द्रियप्रत्यासत्या त्रीन्द्रियाश्रितं संयममसंयमं चाह , मूलम्-तेइंदिया जीवा णं असमारभमाणस छबिहे संजमे कजइ, तं जहा-घाणासयाओ सोक्खाओ अववरावेत्ता, भवइ. १, घाणमएणं दुक्खेणं असंजोएत्ता भवइ २। जिन्भामयाओ सोक्खाओ' अक्रोवेता भवइ ३, जिभामएणं दुक्खेंणं असंजोएत्ता सवइ । एवं चेव फासामयाओं वि॥६॥ तेइंदिया जीवा ण समारममाणरल छविहे. असं जमे कन्जद, तं. जहाघाणामयाओ सोक्खाओ ववरोवेत्ता भवइ १, घाणामएणं दुखणं संजोएत्ता भवइ २, जाच फासामएणं दुक्खेंणं संजोंएत्ता भवइ ३ ॥ सू० ४८॥ . " , "पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीयस्स" इत्यादि सूत्र ४७ ॥ ... पुरुपश्रेष्ठ पार्श्वनाथ अर्हन्तकी देवों मनुजों एवं असुरोंसे सहित परिषदामें अपराजित अन्य प्रतिवादियों द्वारा अजेयवादियों की सम्पत्ति रूप संख्या ६०० थी वासुपूज्य भामान ६०० पुरुषों के साथ सुंडित होकर अगारावस्था अनगारावस्थाई प्रत्रजित हुए थे। चन्द्रप्रभ भगवान् ६ महीना तक छमस्थावस्थामें रहे थे । सू० ४७ ॥ " पासस्स 0 अरहो पुरिसादागीयस्ख" याह। पुरुषश्रेष्ठ पावनाय मई तनी हेवी, मनुष्योगने, असुशथा, युत પરિષદમાં અન્ય પ્રતિવાદીઓ દ્વારા અજેય એવા વાદીઓ રૂપ શિષ્યસંપત્તિ, ૬૦૦ ની હતી. વાસુપૂજય ભગવાન ૬૦૦ પુરુષ સાથે મુંડિત થઈને ગૃહસ્થા વસ્થાને પરિત્યાગ કરીને અણગારાવસ્થામાં પ્રવૃજિત થયા હતા. ચન્દ્રપ્રભા भगवान, ६ भास सुधी ७२गवस्थामा या तi. - सू. ४७ ॥. ... Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • सुधा टीका स्था०६ ०४८ संयममसंयमस्वरूपनिरूपणम् . ...४११ छाया-त्रीन्द्रियान् जीवान् खलु असमारभमाणस्य पड्विधः संयमः क्रियते, तद्यथा-घ्राणमयात् सौख्यात् अव्यवरोपविता भवति १, घ्राणमयेन दुःखेन असंयोजयिता भवति २ । बिहामयात सौख्यात् अव्यवरोपयित्ता भवति ३, जिहा मयेन दुःखेन असंयोजयिता भाति । एवमेव स्पर्शमयादपि ६ । त्रीन्द्रियान् 'जीवा समारंभमाणस्य पबिधोऽसंयमः क्रियते, तद्यथा-घ्राणमयात् सौख्यात् व्यवरोपयिता भवति १, घ्राणमयेन दुःखेन संयोजयिता भवति २, यावत् स्पर्शमयेन दुःखेन संयोजयिता भवति ६ ॥ सू० ४८॥ ... टीका-'ते इंदिया' इत्यादि.. त्रीन्द्रियान-घाणजितास्पर्शरूपेन्द्रियत्रयवतो जीवाच् असमारभमाणस्यअविराधयतो जीवस्य पड्विधः संयम क्रियते भवति । तद्यथा-ध्राणमयात् सौख्यात्-ध्राणमयं यत् सौख्यं ततस्त्रीन्द्रियान् जीयान् - अव्यवरोपयिता-अपृथक्कारको भवति १, ततश्च नागमयेन दुःखेन-प्राणेन्द्रियसंबन्धि यद् दुःखं तेन तांस्त्रीन्द्रियजीवान् असंयोजयिता-असंयोजको भवति २। एवं जिलामयात् स्पर्शमयाच सौख्याद् अव्यपरोपयिता भवति, ततश्च जिह्वामयेन स्पर्शमयेन च दुःखेन असंयो ऊपरके सूत्रमें छमस्थ ऐसा कहा है, सो छमस्थ प्राणी इन्द्रियोपयोगवाला होता है, अतः अब सूत्रकोर इन्द्रिय प्रत्यासत्तिको लेकर त्रीन्द्रियको आश्रित करके संयम और असंयमका कथन करते हैं--- .. "तेइंदिया जीवाणं असमारभमाणस्त" इत्यादि सूत्र ४८॥ , टीकार्थ-जो घाण जिह्वा स्पर्शन इन तीन इन्द्रियोंवाले जीवोंकी विराधना नहीं करताहै, उसको६ प्रकारका संयम होताहै, जैसे-एक तो वह घ्राणमय सौख्य उनका अन्यपरोपयिता (नहीं मारनेवाला) होता है, १ दूसरे,प्राणमय दुःखस्ते वह उनका असंयोजित होताह २, अर्थात् घ्राण नालिकाका दुःख उत्तन्न नहीं करता है तीसरे जिहामयसौख्यसे अव्यपरोपिता (नाश करने वाला.) नहीं होता ઉપરના સૂત્રમાં “છઘસ્થ” પદને પગ થ છે. એ છવાસ્થ જીવ ઈન્દ્રિપયોગવાળે હોય છે. તેથી હવે સૂત્રકાર ત્રીન્દ્રિય ની રક્ષા અને વિરોધના રૂપ સંયમ અને અસયમનું કથન કરે છે. '' ..! -'" तेइदिया जीवाणं असमारंभमाण " या ટીકા–જે જીવ ઘણેન્દ્રિય, જિન્દ્રિય અને પશેન્દ્રિય આ ઘણું ઈન્દ્રિ ધાળા જીવોની હિંસા કરતું નથી, તેના દ્વારા પ્રકારના સંયમનું પાલન थाय. छ-(१) ततने (श्रीन्द्रिय ७वन) मान्द्रिय द्वारा प्रा यता सुनी नाश थ' नथी. (२) a तनी हुन्द्रियने ५ -पन्न ना। तो Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ કર स्थानानाने जयिता भवति ६। अत्र संयमासंयमवतोरभेदोपचारात् संयमी एव संयमत्वेनोक्त इति बोध्यम् । तथा-त्रोन्द्रियान् जीवान् विराधयतस्तु तत्तदिन्द्रियजनित सौख्यात व्यपरोपणरूपः, तत्तदिन्द्रियसम्बन्धिदुःख संयोजनरूपश्चेति पविधोऽसंयमो भवति । एतदेवाह सूत्रकारः । तेइंदिया जीवाणं समारभमाणस' इत्यादिना । अत्र-अव्यवरोपणसंयोजन चानास्त्रवरूपत्वात् संयमः, तद्भिन्न व्यपरोपणं संयोजनं चालवरूपत्वादसंयमो योध्य इति ।। सू० ४८ ॥ है ३ चौथे वह जिहामय दुःखसे असंयोजयिता है ४ अर्थात् जिह्वाको दुःख उत्पन्न नहीं करता है, इसी तरह से वह स्पर्शमय सुखसे अव्यप. रोपयिता होना है ५ और इसी तरह वह स्पर्शमय दुःखले असंयोज. यिता होता है ६ जो जीव तेइन्द्रिय जीवोंकी विराधना करता है, उसको ६ प्रकारका अलंयम होनाहै, क्योंकि-एक तो वह घ्राणमय सौख्यसेउसे व्यपरोपित (नाश ) करता है १ दूसरे प्राणमय दुःखसे उसे संयोजित करता है २ तीसरे, वह रसना इन्द्रियके सुख का जिह्वामय सौख्य से व्यवरोपित करता है ३ चौथे वह जिवामय दुखले उसे संयोजित करता है ४ पांचवें वह स्पशन इन्द्रियके सुखसे उसे वंचिन रहित करता है ५ और छठे स्पर्शन इन्द्रियके दुःखसे वह उसे संघोजित करता है ६ यहां पर संयम और असंथमवालेमें अभेदके उपचारसे संयमीही संयमरूपसे कहा गया है, यहां पर अव्यपरोपण और असंयोजन ये अनास्त्रवरूप होने से संयम નથી. (૩) તે તેને રસેનેન્દ્રિય દ્વારા પ્રાપ્ત થતાં સુખને નશકર્તા થતું નથી. (૪) તે તેની જિહુવાને દુઃખ ઉત્પન્ન કરનારે બનતે નથી (૫) તે તેની - સ્પર્શેન્દ્રિય દ્વારા તેને પ્રાપ્ત થતાં સુખને નાશક્ત થ નથી (૬) તે તેની સ્પર્શેન્દ્રિયને દુખ આપનારે બનતા નથી. જે જીવ ત્રીન્દ્રિય જીની વિરાધના કરે છે તેના દ્વારા ૬ પ્રકારને અસંયમ સેવાય છે–(૧) તે માણસ તેના ધ્રાણેનિદ્રયના સુખનો નાશકર્તા બને छ. (२) ते ते धान्द्रियन मन न मन छ (3) ते ना २सने. ન્દ્રિયના સુખને નાશક્ત બને છે. (૪) તે તેના રસનેન્દ્રિયના દુઃખને ઉત્પા४४ भने छ. (५) त तना २५0न्द्रियन सुमन नाशत मन छ. (6) त તેના સ્પર્શેન્દ્રિયના દુખને ઉત્પાદક બને છે. અહીં સંયમ અને સંયમવાળામાં અભેદના ઉપચ રની અપેક્ષાએ સંયમીને જ સંયમ રૂપે પ્રતિપાદિત કરવામાં આવ્યું છે. અહીં અગ્યારોપણ ( અલગ નહીં કરવાનું નામ અવ્યપરા પણ છે) અને અસંયોજન અનાચવ Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१३ सुधा टीका स्था०६ रू. ४१ मनुष्यक्षेत्रगतवस्तु निरूपणम् अनन्तर सूत्रे संयमोऽसंयमय स्थानपट्रकत्वेन निर्दिष्टः; संयमासंयमयोः प्ररूपणा च मनुष्यक्षेत्र एवं क्रियते इति तद्गवस्तूनि स्थानपट्कत्वेन प्ररूपयन् पञ्चपञ्चाशत्सूत्राणि प्राह - - मूलम् - जंबुद्दीवे दीवे छ अकम्मभूसीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - हेमवए १, रणत्रए २, हरिवासे ३, रम्मगवासे ४, देवकुरा ५, उत्तरकुरा ६ । १ । जंबुद्दीवे दीवे छवासा पण्णत्ता, तं जहा - भर हे १, एरखए २, हेमवर ३, हेरन्नवर ४, हरिवासे ५, रम्गवासे ६ । । २ । जंबुद्दीवे दीवे छ वासहरपन्या पण्णत्ता, तं जहा - चुल्लहिमवंते १; महाहिमवंते २ निसढे ३, नीलवते. ४ रुपी ५ सिहरी ६ | ३ | जंबूसंदरदाहिणे णं छ कूडा पण्णत्ता, तं जहा - चुल्लहिमवंतकूडे १, वेसमणकूडे २, महाहिमवंतकूडे ३, वेरुलियकूडे ४, निसढकूडे ५, रुयगकूडे ६ । ४ । जंबूमंदर उत्तरे णं छ कूडा पण्णत्ता, तं जहा - नीलवंतकूडे १, उवदंसणकूडे २, रुप्पिकूडे - ३, मणिकं चणकूडे ४, सिहरिकूडे ४, तिगिच्छकूडे ६ । ६। | ५ | जंबुद्दी ही छ महद्दहा पण्णत्ता, तं जहा - परम हे १, महाउसद २, तिगिच्छदहे ३, केसरि हे ४, महापोंडरीयद्दहे ४, पुंडरी ६ । ६ । तत्थ णं छ देवयाओ महिड्डियाओ जाव पल्लोमयाओ परिवसंति, तं जहा - सिरी १, हिरी २, धिई रूप हैं, और इनसे भिन्न जो व्यपरोपण और सयोजन हैं वे आस्रव रूप होने से असंघम रूप हैं । अव्यपरोपयिता " का तात्पर्य, जो अपृथककारक होता है " ऐसा है | सू० ४८ ॥ રૂપ હાવાથી સયમ રૂપ છે, હાવાથી અસંયમ રૂપ છે. नहीं हरनार " थाय छे ॥ અને વ્યપરાપણુ અને સચેંજન આસ્રત રૂપ અન્યયિતા' આ પદ્યના અર્થ “ અલગ सू. ४८ ॥ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'स्थानासूत्रे ४१४ ३, किती ४, बुद्धी ४, लच्छी ६ । ७ । जंबू मंदरदाहिणे णं छ महानईओ पण्णत्ताओ, तं जहा - गंगा १, सिंधू २, रोहिया ३, रोहितंसा ४, हरी ४, हरिकंता ६७ । जंबू मंदरउत्तरेणं छ महानइओ पण्णत्ताओ, तं जहा- नरकंता १, नारीकंता २, सुवन्नकूला ३, रुप्पकूला ४, रत्ता ४, रत्तवई ६ । ९। जंबू मंदरपुरस्थि मे णं सीयाए महानईए उभयकूले छ अंतरनईओ पंण्णताओ तं जहा - गाहावई १, दहावई २, पंकवई ३, तत्तजला ४, मत्तजला ४, उम्मत्तजला ६ । १० । जंबूमंदर पञ्च्चत्थिमेणं सीओदाए महानईए उभयकूले छ अंतरनईओ पण्णत्ताओ, तं जहा -- खोरोदा १, सीहसोया २, अंतोवाहिणी ३, उम्मिमालिणी ४, फेणमालिणी ५, गंभीरमालिणी ६ । ११ । धायई मंडदीवपुरस्थिमद्धे of छ अम्मभूमीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - हेमवए १, एवं जहा जंबुद्दीवे दीवे तहा' | नदी जाव अंतरणईओ । २२, जात्र पुत्रखवरदीवडपच्चत्थिम भाणि ॥५५॥ सू० ४९ ॥ छाया - जम्बूद्वीपे द्वीपे पट् अकर्मभूमयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा हैमवतं १, हैरण्य२, हरि ३, रम्पकवर्ष ४, देवकुरवः ५, उत्तरकुरवः ६ । १ । जम्बूद्वीपे इस ऊपरके सूत्र में संयम और असंयम ६ स्थानोंसे कहा गया है, संयम और असंयमी प्ररूपणा मनुष्य क्षेत्रही होती है, अतः अब सूत्रकार मनुष्यक्षेत्रगत वस्तुओंकी प्ररूपणा ६ स्थानोंसे करते हैं इस प्ररूपणा में चे ५५ सूत्र हैं -- " जम्बूद्दीवेण दीवे ॥ इत्यादि. આગલા સૂત્રમાં સંયમ અને અસયમનાં'↑ સ્થાનાની પ્રરૂ ણા કરવામાં આવી. સયમ અને અસયમની પ્રરૂપણા, મનુષ્ય ક્ષેત્રમાં જ થાય છે. તેથી હવે સુત્રકાર મનુષ્યક્ષેત્રમાં આવેલા સ્થળેની સ્થાનેાની અપેક્ષાએ પ્રરૂપશુા કરે છે. ૫૫ સૂત્રેા વડે આ પ્રરૂપણ કરવામાં આવી છે. Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुघा टीका स्था. ६ पृ. ४९ मनुष्यक्षेत्रगतवस्तुनिरूपणम् द्वीपे षडू. वर्षाणि प्राप्तानि तद्यथा-भरतम् १. ऐरव २ हैमवतं . ३ हैरण्यवतं ४, हरिवर्ष ५, रज्यकरई ६ १६। २। जम्बूद्वीपे द्वीपे -षड् वर्षधरपर्वताः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-क्षुद हिमवान् १. महाहिमवान् २, निषधो ३, नीलवान्, ४, रुक्मी ५, शिखरी ६.। ३। जम्यूमन्दरदक्षिणे खलु पढ्टाः प्रज्ञता, तद्यथा-क्षुद्रहिमवत्कूट. १, वैश्रवणकूटः २, महाहिमवत्कूटः ३, -वैडकूटः ४, निषत्रकूटः ५, रुचक कूटः-६ ।४। जम्बू मन्दरोत्तरे - रक्ल पट्कूटाः - प्रज्ञसाः; तद्यथा-नीलपत्कूटः १, उपदर्शन कूटः २, रुक्किमकूटः ३, मणिकाश्चनकूटः ४, शिखरि कूटः ५, तिगिच्छ कूटः ६ ५। जम्बूद्वीपे द्वीपे षड् महाहहाः. प्रज्ञप्ताः जम्बूद्वीप नामके द्वीपमें ६ अकर्मभूमियां कही गई हैं, उनके नाम इस प्रकारसे हैं-हैमवत.१ हैरण्यवत २ हरिवर्ष ३ रम्यकवर्ष ४ देव. कुरु ५ और उत्तरकुरू ६ (१) . - जम्बूद्वीप नामके द्वीपमें ६ वर्ष कहे गये हैं-जैसे-भरत १ ऐरवत २ हैमवत ३ हैरण्यवत ४ हरिवर्ष ५ और रम्यकपर्ष ६ (२). . जम्बूद्वीप नामके द्वीपमें छह वर्षधर पर्वत कहे गये हैं-जैसे क्षुद्रहिमवान १ महा हिमवान् २निषध३ नीलवान् ४ रुक्मी ५ और शिखरी ६ (३) . जम्बूद्वीपके मन्दर पर्वतकी दक्षिण दिशामें छह कूट कहे गये हैंजैसे-क्षुद्रहिमवत्क्रूट १ वैश्रवणकूट २ महाहिमवत्कूट ३ वैडूर्य कूट ४ निषधकूट ५ और रुचक कूट ६ (४) जम्बूद्वीपके मन्दर पर्वतको उत्तर दिशामें छह कूट कहे गयेहैं-जैसे" जम्बुद्दीवेणं दीवे" त्या- . .. - જબૂદ્વીપ નામના દ્વીપમાં ૨ અકર્મભૂમિએ કહી છે તેમનાં નામ नीय प्रभा छ---(१) डेभपत, (२) डै२७यवत, (3) विष%; (४) २भ्य: (५) ४१२ माने (5) आत्त२४२ ॥ १ ॥ .. । नमन द्वीपमा ६ वर्ष ४i छ--रत, (३) भरवत, (3) डेभपत, (४) १२९५५त, (५) २१ भने (६) २भ्य वर्ष in in જંબુદ્વીપ નામના કપમાં વર્ષધર પર્વતે આવેલા છે. તેમના નામ नीय प्रभारी छे--(१) क्षुद्रभिवान् (२) महाभियान:- () निषध, (४) नासवान् (५) २४भी, मन (६) शिमरी ॥ 3 ॥ . , . , . .. જંબુદ્વીપના મન્દર પર્વતની દક્ષિણ દિશામાં ૬ ફૂટ આવેલાં છે-- Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ D ४१६ स्थानास्त्रे तद्यथा-पग्रहदः १, महापमहदः २, तिगिच्छदः ३, केशरिहद: ४, महापुण्डरीक हुदः ५, पुण्डरीक इदः ६।६। तत्र खलु पड् देवाः महद्रिका यावत् पल्योपमस्थितिकाः परिचसन्ति, तद्यथा-श्रीः १, हीः २, धृतिः ३, कीर्तिः ४, बुद्धिः ५, लक्ष्मीः ६ । ७ । जम्बू मन्दरदक्षिणे खलु पडू महानद्यः प्रज्ञप्ता: तद्यथा-गङ्गा १, सिन्धुः २, रोहिता ३, रोहितांशा ४, हरिः ५, हरिकान्ता ६।८। जस्मन्दरोत्तरे खलु पड़ महानधः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-जरकान्ता १, नारीकान्ता २, सुवर्णकूला ३, रुकमकूला ४ रक्ता ५ रक्ताती ६ । ९ । जम्बूपन्दस्यनीलचस्कूट १ उपदर्शनकूट २ रुक्मिक्क्रूट ३ मणिकाश्चम क्रूट ४ शिखरिकूट ५ और तिगिच्छकूट ६ (५) ____ जम्बुद्वीप नाम के द्वीपमें छह महाहूद्र (द्रह) कहे गधे हैं-जैसे-पाहूदं १ महापन हूद २ तिगिच्छद ३ केशरिहद ४ महापुण्डरीक हद ५ और पुण्डरीक हद ६ (६) इनमें छह देवियांमहाऋद्धिवाली यावत् एक पल्योपसकी रिथतिवाली रहती हैं उनके नाम इस प्रकारसे हैं-श्री १ ही २ धृति ३कीर्ति ४ बुद्धि ५ एवं लक्षमी ६ (७) जम्बूद्वीपके मन्दर पर्वतकी दक्षिण दिशामें छह महानदियां कही गई है-जैसे-गङ्गा १ सिन्धु २ रोहिता ३ रोहितांशा ४ हरि ५ और हरिकान्ता ६ (८) जम्बूद्रीयके मन्दर पर्वत की उत्तरदिशामें छह महा(१) क्षुद्रभिपर,2, (२) वै ट, (3) भडभिवट, (४) वैडूय डूट, (५) નિષધકૂટ અને (૬) રુચકૂટ છે જ ! - જંબુદ્વીપના મન્દર પર્વતની ઉત્તર દિશામાં ૬ ફૂટ આવેલાં છે-- (१) नीa , (२) ७५४शन, (3) भि, (४) मणियन, (५) शिमरीट. अने () तिnि७५.. ॥ ५ ॥ જંબૂઢીપ નમના દ્વિીપમાં નીચે પ્રમાણે ૬ મહાહર આવેલાં છે(१) ५५७, (२) भ७।५/४, (3) 1ि , (४) शरी, (५) मी५री मने (६) शाडू. ६ ॥ ઉપર્યુક્ત હદમાં મહાદ્ધિ આદિથી સંપન્ન દેવીઓ રહે છે તેમનાં नाम (१) श्री, (२), (3) पनि, (४) हीति, (५) मुद्धि मन (6) सभा ॥७॥ જંબુદ્વીપના મન્દર પર્વતની દક્ષિણ દિશામાં ૬ મહાનદીઓ કહી છે– (१) , (२) सिंधु, (3) 811, (४) ।डितil, (५) | मने (६) ७२४-ता. ॥ ८ ॥ જબૂદ્વીપમાં મન્દર પર્વતની ઉત્તર દિશામાં નીચે પ્રમાણે ૬ મહા Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०६ सू० ४९ मनुष्यक्षेत्रगतवस्तुनिरूपणम् पौरस्त्ये खलु सीताया महानद्या उभयकूले पट अन्तरनयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथाग्राहावती १, हृदावती २, पङ्कपती ३, तप्तबला ४, मतजला ५, उन्मत्तजला ६ १० जम्बूमन्दरपाश्चात्ये खलु सीतोदाया महानद्या उभयकूले पट अन्तरनध: प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-क्षीरोदा १, सिंहस्रोता: २, अन्तर्वाहिनी ३, ऊर्मिमालिनी ४, फेनमालिनी ५, गम्भीरमालिनी ६ ।११। धातको खण्ड पौरस्त्याः खलु घट अकर्मभूमयः प्रज्ञप्ताः तद्यथा-हैमवतम् १, एवं यथा जस्बूद्वीपे द्वीपे तथा । नधो यावत् अन्तर नद्यः। २२, यावन् पुष्फरवरद्वीपार्द्ध पाश्चात्त्यार्ते भणितव्यम् ५५.४९ टीका-'जंबुद्दीवे दीवे ' इत्यादि जम्बूद्वीपस्था अर्मभूमयः पभिः स्थानरुक्ताः ॥१। एवमेव वर्षाणि २, वर्षधरपर्वताः ३, जम्बूमन्दरस्य दक्षिणदिग्वर्तिनः कूटाः ४, तस्यैव उत्तरदिग्वर्तिनः कूटाः ५, महादाः ६, तत्रस्था देवताः ७, जम्बूमन्दरस्य दक्षिणदिग्त्र नदियां कही गई हैं-जैसे-नरकान्ता १ नारीकान्ता २ सुवर्णकूला ३ रुक्मकूला ४ रक्ता ५ और रक्तवती ६ जम्बूद्वीपके मन्दर पर्वतकी पूर्व दिशामें सीता महानदीके दोनों तट पर छ अन्तर नदियां कही गई हैं-जैसे-ग्रहावती १ हदावती २ पड़पती ३ तप्तजला ४ मराजला ५ और उन्मत्तजला ६ (१०) जम्बूद्वीपके मन्दर पर्वतको पश्चिम दिशामें सीतोदामहानदीके दोनों तटपर छह ६ अन्तर नदियों कही गई हैं-जैसे-क्षीरोदा १ सिंहस्रोतारे अन्तर्वाहिनी३ अनिमालिनी फेनमालिनी और गम्भीरमालिनी६(११) धातकीखण्डके पौरस्त्यार्द्ध में (पूर्वाधिमें) ६ अकर्मभूतियां कही गई हैंजैसे-हैमवत १ हैरण्यवन २ हरिवर्ण ३ रम्यमवर्ष ४ देवकुरु ५ और नहीमा ४ी छ–(१) न२४-ता, (२) नारीtral, (3) सुवा , (४) भya, (५) २४ता मते (6) २४तवती ॥८॥ જબૂઢીપના મન્દર પર્વતની પૂર્વ દિશા માં સીતા મહાનદીના બને તટ ५२ छ मन्त२नहीसा ही छे--(१) अडापती, (२) हाती, (3) ५४वती, (४) तHiran, (५) भत्ता मने (6) उन्मत्तran. ॥ १० ॥ જબૂદ્વીપના મન્દર પર્વતની પશ્ચિમ દિશામાં સીદા મહાનદીના બને तट ५२ छ भनी । डी--(१) क्षीही. (२) सिंडसोता, (3) मन्त. वाहिनी, (6) अभिभासीनी, (५) ३नमालिनी मने (6) भीरमालिनी ११॥ धातडीमना पूभि छ ५४ भूमिमा ४ी छे--(१) डेभपत, (२) १२९यक्त, (3) हरिवषः, (४) २भ्य वर्ष, (५) ४२ मन (6) उत्तररु. स्था०-५३ Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ स्थानानने तिन्यो महानयः ८, तस्यैत्रोतरदिग्पतियो महानघः ९, जम्मन्दरपूर्वदिनतिन्याः सीताया महानद्या उपगकूवर्तिन्योऽन्तग्नयः १०, जम्बूमन्दर पश्चिमदिग्वर्तिन्यः सीतोदा महानद्या उपयलवत्तिन्योऽन्तरनधश्च पड्भिः पडभिः स्थानरुक्ताः ११॥ यथा जम्बूद्वीपेऽमयूम्यादयः प्रोक्तास्तथैव धातकी खण्ड छीपस्य पौररत्याई ११ पाचात्याढे च ११, पुष्करबरठ्ठीपार्द्धम्यापि पौरस्त्या? ११, पाश्चात्त्याः च ११ विज्ञयाः । एवं सर्वसंकलगया पञ्च पञ्चाशत् (५५) सूत्राणि जातानीति ॥ सु० ४९ ॥ अनन्तरोक्तक्षेत्राणि तु कालविशिष्टानि भवन्तीति कालविशेपानाह मूलम् छ उऊ पण्णता, तं जहा-पाउसे १, वरिलारत्ते २, सरए ३, हेमंते ४, वसंते ५, गिम्हे.६॥ १॥ छ ओमरता पण्णता, तं जहा-तइए पवे १, सत्तमे पचे २, एकारसने पव्वे ३, पारसमे पव्वे ४, एगणवीलइसे पच्चे , ५ तेवीसइमे पव्वे ६।२। छ अइरत्ता पण्णत्ता, तं जहा- चउत्थे पचे १, अट्ठमे पल्वे २, वालसमे पवे ३, सोलसमे पव्वे ४, वीसइमे पव्वे ५ चउवीसइले पत्रे ६ । ३॥ सू० ५० ॥ उत्तरकुरु । नदियां एवं यावद् अन्तर नदियाँ यह सय कथन यहां ऊपर सूत्र में जम्बूद्रीपके प्रकरण जैसा किया गयाहै, वैसा कर लेना चाहिये२२ इसी तरह का कथन पुष्करबर श्रीपाई के पाश्चात्याई में पश्चिमार्ध भी कर लेनाचाहिये थे ५५ स्त्र इस प्रकार से हुए हैं, कि जम्बूद्वीप सम्बन्धी ११ धातकीखण्ड दीपके पौरस्त्याई के ११ ग्यारह इस पाश्चात्याईके ११ ग्यारह पुष्कर वरद्वीपार्धक पौरस्त्याधके ११ और पाश्चात्यार्धके ११ इस प्रकार ये सब मिलकर ५५ हो जाते हैं ।। स्मृ० ४९ ।। ત્યારબાદ અન્તરનદીઓ સુધીના સૂત્રોનું કથન ઉપર મુજબ જ કરવું જોઈએ. આ રીતે ધાતકીખંડના પૂર્વાર્ધ વિષયક ૧૧ સૂત્રે જંબુદ્વિપના ૧૧ સૂત્રો જેવાં જ બનશે. એ જ પ્રમાણે ધાતકીખંડના પશ્ચિમાર્ધને પણ ૧૧ સૂત્ર બનશે. એ જ પ્રમાણે પુષ્કરવર કીપાઈના પૂર્વાર્ધના ૧૧ અને પશ્ચિમાર્થના ૧૧ સૂત્ર મળીને કુલ પપ સૂત્ર બની જાય છે ! સૂ. ૪ | Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०६ ० ५० कालविशेषनिरूपणम् ४१९ छाया - षड् ऋतवः मज्ञप्ताः, तद्यथा-माहृद् १ वर्षात्रः २, शरत् ३, हेमन्त ४, वसन्त ५, ग्रीष्म: ६ |१| पूड अत्रमरात्राः मज्ञप्ताः, तद्यथा - तृतीयें पर्वणि १, सप्तमे पर्वणि २, एकादशे पर्वणि २, पञ्चदशे पर्वणि ४, एकोनविंशतितपर्वणि ५ त्रयोविंशतितमे पर्वणि ६ । २ । पट् अतिरात्राः प्रज्ञप्ताः, तद्यथाचतुर्थे पर्वणि १, अष्टमे पर्वणि २, द्वादशे पर्वणि २, पोडशे पर्वणि ४, विशतिपर्वणि ५, चतुर्विशतितमे पर्वणि ६ | ३| || स्थू० ५० ॥ टीका--' छ उऊ ' इत्यादि -- ऋतुवः = मासद्वयप्रमाणात्मककालविशेषाः प्रावृड् वर्षांरात्रादिभेदेन पट्संख्यका बोध्याः । तत्र प्राद आपादत्रावणमासद्वयात्मिका । वर्षारात्रौ भाद्रपदामासद्वयममाणः । एवं शरद्धेमन्तवसन्तग्रीष्या अपि कार्तिकादिक्रमेण द्वि द्वि मासात्मका बोध्या: । लौकिकास्तु वर्षाशरद्धेमन्त शिशिरवसन्तग्रीष्माख्यान् श्रावणादिक्रमेण द्विद्वि मासात्मकान् पड् ऋनून् मन्यन्ते इति |१| तथा - अT “छ उऊ पण्णत्ता" इत्यादि सूत्र ५० ॥ टोकार्थ - दो महिनोंकी १-१ ऋतु होती है, ऐसी ऋतुएँ प्रावृट् वर्षारात्र आदिके भेद से छ प्रकार की है, जो इस प्रकार हैप्रावृट् १ वर्षारात्र २ शरत् ३ हेमन्त ४ वसन्त और ग्रीष्म ६ । इनमें आषाढ श्रावणकी प्रावृ ऋतु होती हैं, भाद्रपद आश्विन इन दो महीनोंकी वर्षारात्र होती है, कार्तिक अगहनकी शरद् ऋतु होती है, पूस माहकी हेमन्न एवं फाल्गुन चैत्रकी वसन्त ऋतु होती है, वैशाख ज्येष्ठ मासकी ग्रीष्म ऋतु होती है, इस तरह से ये ऋतुएँ दो दो मासकी होती हैं । लौकिक जन शरद- शिशिर हेमन्न वसन्त और ग्रीष्म वर्षा ये ऋतुएँ आसोज कार्तिक मास आदि दो दो मासके योग से टीडार्थ - " छ उऊ पण्णत्ता " त्याहि- ખમ્બે માસની દરેક ઋતુ થાય છે. એવી છ ઋતુએ નીચે પ્રમાણે છે. (१) आवृद्ध, (२) वर्षारात्र, ( 3 ) शरत् ( ४ ) हेमन्त, (4) वसन्त भने (१) श्रीष्म. અષાઢ અને શ્રાવણ માસમાં પ્ર વ્રૂટ્ ઋતુ આવે છે. ભાદરવા અને આસે - માસમાં વર્ષારાત્ર આવે છે કારતક અને માગશરમાં શરદ ઋતુ આવે છે, છે, પાષ અને મહામાં હેમન્ત ઋતુ આવે છે, ફાગણુ અને વશાખ અને જેઠમાં ગ્રીષ્મ ઋતુ આવે છે. આ પ્રત્યેક ઋતુ સમજવી છતાં લેકા આ પ્રકારની છ शरह, शिशिर, हेमन्त, वञ्चन्त गने ग्रीष्म. या ऋतुओ। मासो भने કાર્તિક માસ વિગેરે મમ્બે અને ચૈત્રમાં વસન્ત પ્રમાણે ખબ્બે માઘની ઋતુએ ગણે છે માસના ચાગથી થાય છે. વર્ષો Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० स्थानाचे मरात्रा:-अवमा हीना रात्रयः-अवसरात्रा:-दिनक्षयाः पठ संख्यकाः प्राप्ताः, तद्यथा-तृतीये पर्वणि ' इत्यादि । तदत्र पर्व " आसाढबहुलपक्खे, भदवए कत्तिए य पोसेय । फल्गुणवइसाहेसुय, नाथव्या आमरत्ताभो ॥१॥" (उत्तरा० अध्य० २६ गा० १५) छाया--आपाढबहुलपक्षे, कार्तिके च पौपे च । ___ फाल्गुन वैशाखयोथ, ज्ञातव्याः अवमरात्राः ॥१॥ इत्युत्तराध्ययनसूत्रवाक्यानुसारेण लौकिकग्रीमत्रातुमारभ्य घोध्यम् । एवं च तृतीये पर्वणि-आपाकृष्णपक्षे इत्यर्थः १। तथा-ससमे पर्वणि-भाद्रपदकृष्णपक्षे, एकादशे पर्वणि कार्तिक कृष्णपक्षे पञ्चदशे पर्वणि-पोपकृष्णपक्षे, होती हैं, ऐसा मानते हैं।।१॥ छह अवमरत्र अर्थात् न्यूनदिन कहे गये हैं-जैसे - तृतीय पर्वमें-आषाढ कृष्णपक्षने-' आलाढवहुलपक्खे" इत्यादि । इस उत्तराध्ययन सूत्रने वाक्यके अनुसार लौकिक ग्रीष्म ऋतुसे लेकर जानना चाहिये इस तरह यहां तृतीय पर्वका वाच्यार्थ होता है, आषाढ कृष्ण पक्ष इस आषाढ कृष्णपक्ष में प्रथम अधमरात्र होता है, अर्थात् इस पक्ष में १४ चौरह दिन होते हैं द्वितीय अवमरात्र ग्यारहवें पर्वमें कार्तिक कृष्ण पक्षमें चतुर्थ अवमरात्र पन्द्रहवें पर्व में-पौष कृष्णपक्षमें पंचम अवसरात्र १९ वे पर्वमें-फाल्गुन कृष्णपक्षमें और षष्टम अवसरात्र २३ वें पर्वमें-वैशाख कृष्णपक्ष में આવે છે એ જ પ્રમાણે બીજી રતુઓને પણ બબ્બે માસ અનુક્રમે સમજી લેવા. ૧ છે વર્ષમાં છ અવકમાત્ર થાય છે. અવમાત્ર એટલે દિનક્ષય. જેમકે– तृतीय पभा मेटले ४ अषाढ भासना पक्षमi. ४थु ५१ " आस.ट बहुलपक्खे" त्याहि. त्तराध्ययन सूत्रमा ४ा प्रमाणे ती श्री तथा લઈને વસન્ત ઋતુ પર્યન્તનું વર્ણન સમજવું. તૃતીય પર્વમાં એટલે કે અષાઢ માસના કૃષ્ણપક્ષમાં પહેલે દિનક્ષય થાય છે. સપ્તમ પર્વમાં એટલે કે ભાદરવા માસના કશુપક્ષમાં બીજે દીનક્ષય થાય છે. અગિયારમાં પર્વમાં એટલે કે કારતક માસના કૃષ્ણપક્ષમાં ત્રીજો દિનક્ષય થાય છે. પંદરમાં પર્વમાં એટલે કે પોષ માસના કૃષ્ણપક્ષમાં ચે દિનક્ષય થાય છે. ઓગણીસમાં પર્વમાં એટલે કે ફાગણ માસના કૃષ્ણપક્ષમાં પાંચમો દિનક્ષય થાય છે. ૨૩ માં પર્વમાં Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था. ६ . ५० कालविशेषनिरूपणम् ४२१ एकोनविंशतितमे पर्वणि= फाल्गुनकृष्णपक्षे, त्रयोविंशतितमे पर्वणि = वैशाखकृष्णपक्षे इति । एतेषु षट्सु अव परात्र सद्भावात् पट् अत्रमरात्रा भवन्तीति भावः ॥ २॥ तथा -- अतिरात्राः - अतिशया रात्रयः, अतिरात्राः - दिनहृद्धयः पविधाः प्रज्ञप्ताः । तत्र-आपाढशुक्लपक्षः - चतुर्थ पर्व १, भाद्रशुक्लपक्षः - अष्टमं पर्व २, कार्त्तिक शुक्लपक्षो द्वादशं पर्व ३, पौषशुक्लपक्षः पोडश पर्व ४, फाल्गुनशुक्लपक्षो विंशतितम पर्व ५, वैशाख शुक्लपक्षस्तु चतुर्विंशतितमं पर्चेति । ३०५०/ अनन्तरमूत्र कार्यरतु ज्ञानेनावगम्यते इवि ज्ञानमभिवातुं सूत्रद्वयमाह - मूलम् — आभिणिवोहियणाणस्ल णं छविहे अत्थोवहे पण्णत्ते, तं जहा -- सोइंदियत्थोवमाहे जाव नोईदियत्थोवग्ग हे ॥ सू० ५१ ॥ छाया -- अभिनिवोधिक ज्ञानस्य खलु षड्विधः अर्थावग्रहः प्रज्ञप्तः, 'तयथा-: श्रोगेन्द्रियार्थावग्रहो यावत् नो इन्द्रिर्थावग्रह | ० ५१ ॥ टीका--' आभिणिवोहियणागस्स ' इत्यादि -- आभिनिवोधिरुज्ञानस्य=मतिज्ञानस्य खलु अश्रीवयहः - अर्थस्य अवग्रहणम्, सफलरूपादिविशेष निरपेक्षाऽनिर्देश्यसामान्यमात्रार्थग्रहणरूपः अर्थावग्रहः होना है, इन छहमें अवसरात्र - दिनक्षय के सद्भावसे ये ६ अयमरात्र होते हैं ||२|| तथा-अतिरात्र-दिनवृद्धि - छह प्रकार के कहे गये हैं जैसेचतुर्थ पर्व - आषाढ शुक्लपक्ष १ भाद्र शुक्लपक्ष २ कार्तिक शुक्लपक्ष ३ पौषशुक्लपक्ष ४ फाल्गुन शुक्लपक्षः और वैशाख शुक्लपक्ष । सू०५० ।। इस ऊपर के सूत्र में कहा गया अर्थ ज्ञानसे जाना जाता है, इसलिये अब सूत्रकोर ज्ञानका कथन करनेके लिये दो सूत्र कहते हैंએટલે કે વૈશાખ માસના છઠ્ઠા પમાં છઠ્ઠો દિનક્ષય થાય છે. આ રીતે કુલ छ अवभरीत्र ( हिनक्षय ) थाय छे !! २ ॥ - - અતિરાત્રિ ( નિવૃદ્ધિ) છ પ્રકારની કહી છે—(૧) ચતુથ પર્વ એટલે हे अषाढ भासना शुद्ध पक्षमा, (२) लाहरवाना शुक्ल पक्षमा, (3) ४२તકના શુકલ પક્ષમાં, (૪) પે.ષના શુકલ પક્ષમાં, (પ) ફાગણના શુકલ પક્ષમાં मने वैशामना शुद्ध पक्षमां ॥ ३ ॥ ॥ सू. ५० ॥ ઉપરના સૂત્રમાં જે વિષયનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે, તે વિષય જ્ઞાન દ્વારા જાણી શકાય છે. તેથી હવે સૂત્રકાર એ સૂત્રેા વડે જ્ઞાનની પ્રરૂપણા Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ स्थामा प्रथम परिच्छेदनम् अर्थासह इनि निर्विकल्प ज्ञान दर्शनल्पमित्युच्यते । अयं च नैश्वयिक एक सामायिकः । यस्तु व्यावहारिक शब्दोऽयम्' इत्याद्युल्ले. खवान् स आन्तमौहरिक इति । स तु मनासहितेन्द्रिमाकजन्यत्वात् पड्विधः प्रज्ञाः तद्यथा-श्रोत्रेन्द्रियाविग्रहः-श्रोत्रेन्द्रियेण अर्थावग्रहः । एवं चसुरिन्द्रियोविग्रहादिषु बोध्यम् । इदमत्र बोधगम् -चक्षुर्म नसोस्तु अमाप्पकारित्वाद् व्यञ्ज "अभिणियोहिय नागस्ल" इत्यादि सूत्र ५१ ।। अभिनिदोधिक झालका-मतिज्ञानका अधीवग्रह समस्त रूपादि विशेषकी अपेक्षाले रहिन ऐसे अनिदेश्य सामगन्य मात्ररूप अर्थका जो ग्रहण करता है, वह अर्थावग्रह है, यह अर्थावग्रह प्रथम परिच्छेदन रूप होता है, प्रयास परिच्छेद निर्विकल्प ज्ञान रूप होना है। तथानिर्विकल्पक ज्ञान दर्शनरूप होता है । अर्यावग्रह नैश्चयिक और व्यावहारिक भेदसे दो प्रकारका कहा गया है, यहां जो अर्भावग्रह कहा गया है, वह जैश्चयिक अर्थावग्रह कहा गया है, इस नैश्चधिक अर्थावप्रहः । काल प्रमाण १ समयका होता है । व्यावहारिक जो अर्थावग्रह होता है-जैसे-यह शब्द है, ऐला जो अर्थका अवग्रह रूप ज्ञान होता है, वह व्यावहारिक अर्थावग्रह है-सो यह व्यावहारिक अर्थावग्रह एक अन्तर्मुहर्तकाल के प्रमाणवाला होता है, यह पांच इन्द्रियोंसे एवं मनसे उत्पन्न होता है, अतः इसे छह प्रकारका कहा गया है, जैसे-ओ। न्द्रिय जन्य अर्थावग्रह चक्षुइन्द्रियजन्य अर्थावग्रह इत्यादि यहाँ तात्पर्य ४२ छ. " आभिणियोहियणाणस" त्याह-- આભિનિબે ધિક જ્ઞાનને (મતિજ્ઞાનને ) અર્થાવગ્રહ (સમસ્ત રૂપદિ વિશેની અપેક્ષાથી રહિત એવા અનિદેશ્ય સામાન્ય માત્રરૂપ અર્થને જે ગ્રહણ કરવાનું થાય છે તેનું નામ અર્થાવગ્રહ છે) પ્રથમ પરિચ્છેદન રૂપ હોય છે. પ્રથમ પરિચછેદ નિર્વિકલ્પ જ્ઞાનરૂપ હોય છે. તથા નિર્વિકપ જ્ઞાન દર્શન રૂપ હોય છે અર્થાવગ્રહના બે ભેદ કહ્યા છે-(૧) નૈવિક અને (૨) વ્યાવહારિક. અહીં જે અર્થાવગ્રહ કહ્યો છે તે નૈૠયિક અર્થાવગ્રહ સમજે. આ નૈઋયિક અર્થાવગ્રહનું કાળપ્રમાણ એક સમયનું હોય છે. “આ શખદ છે” એવું જે અર્થના અવગ્રહ રૂપ જ્ઞાન હોય છે, તેનું નામ વ્યાવહારિક અર્થાવગ્રહ, છે. તે વ્યાવહારિક અર્થાવગ્રહનું કાળપ્રમાણ એક અન્તમું ડૂતનું હોય છે. તે પાંચ ઈન્દ્રિયો અને મનથી ઉત્પન્ન થાય છે. તેથી તેને નીચે પ્રમાણે છે પ્રકાર કહ્યા છે-શ્રોત્રેન્દ્રિય જન્ય અર્થાવગ્રહથી લઈને ઈન્દ્રિયજન્ય અર્થાવગ્રહ Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२३ सुधाठोका स्था० ० ५१ ज्ञानस्वरूपनिरूपणम् नवग्रहो न भवति, ततस्तयोरर्थावग्रह एवेति । पष्ठ भेदमाह - ' तो इंदियत्थुग्गहे' इति । नो इन्द्रियार्थावग्रहः - नो इन्द्रियेग = मात्र मनसा अवग्रहो द्रव्येन्द्रिय व्यापार निरपेक्षो घटायर्थ स्वरूपपरिभावनाभिमुखः प्रथममेकसामायिको रूपाधकारादि विशेषचिन्तारहितोऽ निर्देश्यसामान्यमात्र चिन्तात्मको बोधो नोइन्द्रियाranः । नोइन्द्रियं हि मनः, तच्च द्विधा - द्रव्यरूपं भावरूपं च । तत्र मनः पर्याप्त नामक मेदात् यन्मनः- प्रायोग्य वर्गणा दलिकानादाय मनस्त्वेन परिणमते ऐसा है, चक्षु और मन ये दोनों अप्राप्यकारी माने गये हैं इसलिये व्यञ्जनावग्रह अप्रकट पदार्थका अवग्रहरूप ज्ञान इन दोनों इन्द्रियोंसे नहीं होता है, इन दोनों इन्द्रियोंसे तो अर्थावग्रहही होता है, इस तरह पांच इन्द्रियोंसे जन्य अर्थावग्रह पांच प्रकारका हो जाता है, और जो मनसे जन्य अर्थका अवग्रह रूप ज्ञान होता है, वह नो इन्द्रियार्थावग्रह है, भाव मनसे द्रव्येन्द्रियके व्यापारकी अपेक्षा रखे विना घटादिरूप पदार्थ के स्वरूपको जानने के अभिमुख जो बोध होता है, वह नो इन्द्रि ग्रह है, यह तो इन्द्रियार्थावग्रह जब तक रूपादि अर्थके आकार आदिकी चिन्ता से रहित होता है, तब तक यह प्रथम एक समयका tara crane aaलाता है, क्योंकि यह अनिर्देश्य सामान्य मात्रका चिन्तनरूप होता है, नो इन्द्रिय नाम मनको है, यह मन - मन और भाव मनके भेद से दो प्रकारका कहा है । इनमें जो मन मनः पर्याप्त नामकर्मके उदयसे मनःप्रायोग्य वर्गणादलिकोको लेकर L પન્તના છ પ્રકાર અહીં સમજી લેવા. ચક્ષુ અને મન, આ બન્નેને અપ્રાચકારી માનવામાં આવ્યા છે, તેથી વ્યંજનાગ્રહ-અપ્રકટ પટ્ટાના અવગ્રહ રૂપ જ્ઞાન—તે બન્ને ઇન્દ્રિયા દ્વારા થતું નથી તે બન્ને ઇન્દ્રિયા વડે તે અર્થાવગ્રહ જ થાય છે આ રીતે પાચ ઇન્દ્રિયા વડે જન્ય અર્થાવગ્રહ પાંચ પ્રકારના ડાય છે અને જે મનથી જન્ય અના ગ્રહ રૂપ જ્ઞાન હોય છે. તેનુ' નામ 'नो इन्द्रियार्थाविशद्ध' हे मा भवतो ही अहार थे. भावभन वडे ચૈન્દ્રિયના વ્યાપારની અપેક્ષા રાખ્યા વિના ઘટાદ રૂપ પદાના સ્વરૂપને દર્શાવનારા જે ખેપ થાય છે તે નાઇન્દ્રિયાર્થાવગ્રડ છે. આ તાઇન્દ્રિયાર્થાવગ્રહ જ્યાં સુધી રૂપાદિ અર્શીના આકાર આદિની ચિન્તાથી રહિત હોય છે ત્યાં સુધી પ્રથમ એક સમયના નૈૠયિક અર્થાવગ્રહ કહેવાય છે, કારણ કે તે અનિર્દેશ્ય સામાન્ય માત્રના થિતન રૂપ હોય છે. મનને નેન્દ્રિય કહે છે. તે મનના દ્રવ્યમન અને ભાવમન નામના બે લેઇ કહ્યા છે. જે મનઃપાંતિ નામક ના Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाङ्गसूत्रे तद् द्रव्यरूपं सनः । तथा द्रव्यमनोऽष्टम्मेन जीवस्य यो मनपरिणामः स भाव मनः । तह भावमनो गृह्यते । तद्ग्रहणे हि द्रव्यमनसोऽपि ग्रहणं भवस्येव द्रव्यमनोविनाभावमनसोऽसंभवात् । भावमनोविनाऽपिच द्रव्यसनो भवति । ०५१ | ૨૪ तथा मूलम् - छविहे ओहिनाणे पण्णत्ते, तं जहा- आणुगामिए १ अणाशुगामिए २ वमाणए ३ हीयमाणए ४ पडिवाई ४ अपडिवाई ५ ॥ सू० ॥ ५२ ॥ 1 1 छाया - विधमधिज्ञानं प्रज्ञतम् तथया - आनुगामित्रम् १, अनानुगामिकं २ बर्द्धमानक ३ हीयमान ४ प्रतिपाति ५ अतिपति । ०५२॥ उन्हें लगरूपसे परिणमना है, वह द्रव्यमन है, तथा यमन के सहारे से जो जीवका मनन करनेरूप परिणमन होता है, वह भावमन है, यहां aaran इसी भाव मनसे अर्थका अवग्रहरूप ज्ञान होता है, अतः उसे नो इन्द्रियार्थान ग्रह कहा गया है, ऐसा जानना चाहिये भाव मनके ग्रहणसे द्रव्य मनका भी ग्रहण हो जाता है, क्योंकि भावअनेक व्यापार द्रव्यमनके बिना नहीं होता है, द्रव्यतन तो भावमनके चिना भी होता है । ० ५१ ॥ 7 तथा - "छविहे ओहिनाणे ते" इत्यादि सूत्र ५२ ॥ सूत्रार्थ - अवधिज्ञान ६ प्रकारका कहा गया है - जैसे - आनुगमिक १ अनानुगमिक २ वर्द्धमानक ३ हीयमानक ४ प्रतिपाति ५ और अप्रतिपाति ६ । ઉયથી મન: પ્રાગ્ય વ ણુાલિકેાને લઇને તેમને મનરૂપે પરિણુમાવે છે, તે દ્રવ્યમન છે. તથા દ્રવ્યમનની મદદથી જીવતી મનન કરવા રૂપ જે પ્રવૃત્તિ ચાલે છે તેને ભાત્રમત કઢે છે. ને ઇન્દ્રિય અર્થાવગ્રહમાં આ ભાવમન વડે જ અર્થના અવગ્રહ રૂપ જ્ઞાન થાય છે, તેથી તેને નાઇન્દ્રિયાર્થાવગઢ કહેવામાં આવ્યે છે, એમ સમજવું. ભાત્રમનના થડેણુ વડે દ્રવ્યમનનું પણ ગ્રહણ થઈ જાય છે, કારણ કે દ્રવ્યમન વિતા ભાવમનના વ્યાપાર ચાલી શકતા નથી. દ્રવ્યમન તેા ભાવમન વિના પગુ હાઈ શકે છે ! સૂ ૫૧ ॥ तथा - "छविहे ओहिनाणे पण्णत्ते " - त्यिाहि - ( स् . पर ) ----- सूत्रार्थ - अवधिज्ञानना नीचे असा प्रअर ४ह्या छे – (१) भानुगभिङ, (2) अनानुगभिङ (३) वृद्धभानऊ, (४) हीयमानऊ, (५) प्रतियाति भने (१) अप्रतिपाति. Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधाटीका स्था०६ सू०५२ अवधिज्ञानस्वरूपनिरूपणम् ય टीका-' छन्हेि ' इत्यादि - अवधिज्ञानम् - आत्मनोऽर्थ साक्षात्करण, व्यापारोऽवधिः । यद्वा-' अब ' शब्दोऽव्ययत्वेनाने कार्यकत्वादयः शब्दार्थकः । अव-अधो नीचप्रदेशे विस्तृतं वस्तु धीयते - परिच्छिद्यतेऽनेनेत्यवधिः - अधोविस्तृत विपयकज्ञानम् । अधिवासौ ज्ञानं वधिज्ञानम् । विप बहुत्वं स्त्रीकृत्यैवं व्युत्पत्तिरिति बोध्यम् । अन्यथा तिर्यगूर्ध्व वा विषयं परिच्छिन्दानस्याधिव्यपदेशो न स्यात् यद्वा-अवधिर्मयदारूपिष्वेव द्रव्येषु परिच्छेदकतया मत्तिरूया. तदुपलक्षिनं ज्ञानमधिज्ञानम् । यद्वा विना किसी इन्द्रकी सहायता से जो अवधिज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशम से रूपद्रव्यको स्पष्ट रूप से जाननेवाला ज्ञान होता है, वह अवधिज्ञान है | अवधिज्ञान के चलते आत्मा द्रव्यक्षेत्र का भावकी मर्यादा लेकर रूपी पदार्थो को जानता है, अथवा अब शब्द अवश्य है, यह अनेक अर्थका वाचक है, यहां इसका अर्थ अधः लिया गया है, अतः जिसके द्वारा नीचे प्रदेशमें विस्तृत वस्तु जानी जाती है, वह अवधि है " अवधीयते " इति अवधिः अवधिश्वासौ ज्ञानं च इति अवधिज्ञानम् " ऐसी जो यह यहां व्युत्पत्ति प्रदर्शित की गई है, वह विषयकी बहुलताको लेकर की गई है। नहीं तो फिर तिर्यग अथवा ऊर्ध्वगत वस्तुको जाननेवाला ज्ञान अवधिज्ञान नहीं कहलासकेगा अथवा अवधि नाम मर्यादाका है, इस ज्ञान में रूपी पदार्थों को ही जाननेकी अपेक्षा से है, अतः इस मर्यादासे उपलक्षित जो ज्ञान है, यह 66 અવિધજ્ઞાનાવરણ કર્યુંના ક્ષયાપશમથી, કોઇ પણ ઈન્દ્રિયની મદદ વિના રૂપી દ્રવ્યને સ્પષ્ટ રૂપે જાણનારુ જે જ્ઞાન છે તેને અવધિજ્ઞાન કહે છે અવધિજ્ઞાનના પ્રભાવથી આત્મા દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર, કાળ અને ભવની મર્યાદામાં રહીને ३थी पहार्थने लागी राडे छे अथवा " अब " आ यह अभ्यय छे भने ते અનેક પ્રકારના અર્થનું વાચક છે અહી' તેના અથ अधः " सेवाभां આન્યા છે. તેથી અવધિજ્ઞાનના અથ નીચે પ્રમાણે થાય છે—જેના દ્વારા નીચેના પ્રદેશમાં રહેલી વસ્તુને જાષી શકાય છે તેનું નામ અવિધજ્ઞાન છે, “ अवधीयते इति थवधिः अवधिश्वासौ ज्ञानं च इति अवधिज्ञानम् " આ પ્રકા રની જે અવિધજ્ઞાનની વ્યુપત્તિ પ્રકટ કરવામાં આવી છે તે વિષષની બહુત્તાને લીધે પ્રકટ કરવામાં આવી છે, નહી...તે તિગૂ અથવા ઉર્ધ્વગત વસ્તુને જાણનારા જ્ઞાનને અવિધજ્ઞાન કહી શકાત નહી' અથવા અવિધે એટલે મર્યાદા આ જ્ઞાન રૂપી પદાર્થોને જ જાણી શકે છે—મરૂપી પદાર્થાને જાણી શકતુ નથી. આ પ્રકારની મર્યાદાવાળું આ જ્ઞાન હાવાથી તેને અવિધજ્ઞાન કહે છે. स्था० - ५४ Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानास्त्रे " अवधिना=मर्यादया रूपि द्रव्याण्येव जानातीति व्यवस्थमा ज्ञानम् - अवधिज्ञानम् । यद्वा - अव = मर्यादया - एतावन् क्षेत्र use aafa द्रव्याणि एतावन्तं कालं पश्यतीत्यादि नियमित क्षेत्रादि लक्षणया धीयते - परिच्यते रूपि वस्तु अगेनेत्यवधिः, अधिवासौ ज्ञानं चेत्यवधिज्ञानम् । आत्मनोरूपि द्रव्य साक्षात्कार कारणमिन्द्रिय मनो निरपेक्षो ज्ञानविशेषोऽवधिज्ञानमिति । तत् पविपद् प्रकारकं प्रज्ञप्तम् । तद्यथा-आनुगामिकम् - अनुगमन शीलं यदवधिज्ञानं गच्छन्तमधिज्ञानिनं लोचनवदनुगच्छति तदिति । अनानुगामिकम् यद् गच्छन्तनवधिज्ञानिनं नानु गच्छति प्रतिवद्धपदीपवत् तदित्यर्थः २ | वर्द्धमानकम् - ते इति वर्द्धमानं, तदेव वर्द्धमानकम् उत्पत्तिकालतः समारभ्य मवर्द्धमानं चन्द्रवदित्यर्थः ३| अवधिज्ञान है, अथवा मर्यादासे द्रव्य क्षेत्रकाल एवं भावकी मर्यादासे जो ज्ञान रूपीही पदार्थों को जानता है, वह अवधिज्ञान है, यह अवधि - ज्ञान आनुगामिक आदिके भेदसे जो ६ प्रकारका कहा गया है, उसका तात्पर्यार्थ ऐसा है जो अवधिज्ञान जिस उत्पत्ति क्षेत्र में जीवको उत्पन्न हुआ हो उसके उस उत्पत्ति क्षेत्रको छोड़कर दूसरी जगह चले जाने पर भी नेत्र की तरह उस जीवके साथ जो चला जाना है, ऐसा वह अवधिज्ञान आनुगामिक है । जो अवधिज्ञान अपने उत्पत्तिके क्षेत्रको छोड़कर चले जानेवाले जीवके साथ नहीं जाता है, किन्तु शृङ्खलासे प्रतिक दीपकी तरह वहींका नहीं रहता है, ऐसा वह अवधिज्ञान अनानुगामिक है, जिस प्रकार शुक्ल पक्ष में चन्द्र प्रतिदिन बढता जाता है, उसी प्रकार जो अवधिज्ञान अपनी उत्पत्ति के समय से लेकर वढता ही जाता है, वह वर्द्धमानक अवधिज्ञान है ३ जिस प्रकार कृष्ण पक्षका અથવા દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર, કાળ અને ભાવની મર્યાદામાં રહીને જે જ્ઞાન રૂપી પુદાઅને જ નથી શકે છે તે જ્ઞાનને અવધિજ્ઞાન કહે છે. તેના આનુગામિક આદિ પ્રકાશનું હવે સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવે છે— ૪૨૬ જે અવધિજ્ઞાન ઉત્પત્તિક્ષેત્રમાથી (જે ક્ષેત્રમાં ઉત્પન્ન થયા હાય તે ક્ષેત્રમાંથી ) ખીજા ક્ષેત્રમાં ચાલ્યા જવા છતાં પણ લેચનની જેમ તે જીવની સાથે જ ચાલ્યુ' જાય છે તે અવિધ જ્ઞાનને આનુગામિક કહે છે. જે અવધિજ્ઞાન પેાતાનું ઉત્પત્તિક્ષેત્ર ડીને ચાલ્યા જતાં છત્રની સાથે જતું નથી, પરન્તુ સાંકળ વડે ખાંધેલા દ્વીપકની જેમ ત્યાંને ત્યાં જ રહે છે તે અધિ. જ્ઞાનને અનાનુગામિક કહે છે. જેમ શુકલપક્ષના ચન્દ્ર પ્રતિદિન વૃદ્ધિ પામતા રહે છે, એ જ પ્રમાણે જે અવિધજ્ઞાન પાતના ઉત્પત્તિ સમય બાદ વૃદ્ધિ જ પામતું રહે છે તે અવિધજ્ઞાનને વમાનક અવિધજ્ઞાન કહે છે. જેમ Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ર૭ सुधा का स्था०६ ५.५३ ज्ञानीनामवच ननिरूपणम् तथा हीयमानकम्-ही पते इति हीयमानं, तदेव हीयमानम् , उदयसमनन्तरमेव हीयमान कृष्ण पक्षचन्द्रवदित्यथैः ४। तधा-मनिपाति-प्रतिश्तनशीलम्, यत फुत्कारनष्टप्रदीपवत्-सर्वथा विनश्यति तदित्यर्थः ५। तथा-अप्रतिपाति-न प्रति. पाति अप्रतिपाति, केवलज्ञानात्पूर्व यन्न विनश्यति तदित्यर्थः ६ ॥ ० ५२ ॥ एवंविधज्ञानयतो हि यादृशानि वचनानि वक्तुं न कल्पन्ते तान्याह मूलम्-नो कप्पइ निगंथाण वा निग्गंथीण वा इमाई छ अवयणाई वइत्तए, तं जहा-अलिययणे १, हीलियश्यणे २, खिसियवयणे ३, फरुसवयणे ४, गारस्थियवयणे ४, विउत्सवियं वा पुणो उदीरित्तए ६ ॥ सू० ५३ ॥ ___ छाया--नो फल्यते निर्ग्रन्थानां वा निर्धन्योनां वा इमानि पट् अवचनानि वदितुम् , तद्यथा-अलीकवचनम् १, हीलिनवचनम् २, खिसितवचनं ३, परुप. वचनम् ४, अगारस्थितवचनम्, व्युपशमितंवा पुनरूदीरयितुम् ।।सू० ५३ ॥ चन्द्रमा प्रतिदिन घटताहो जाता है, उसी प्रकार जो अवधिज्ञान अपनी उत्पत्ति के बाद से ही घटने लगता है, वह हीयमान अवधिज्ञान है, जिस तरह कसे दीपक वुझ जाता है, उसी प्रकारसे जो अवधिज्ञान सर्वथा नष्ट हो जाता है, वह प्रतिपाति अवधिज्ञान है, तथा जो केवलज्ञानके पहिले नष्ट नहीं होता है, वह अप्रतिपाति अवधिज्ञान है ।। सू० ५२ ॥ इस प्रकारके ज्ञानीको जो बचन बोलने योग्य नहीं कहे गये हैं, सूत्रकार उन वचनोंका कथन करते हैंકૃષ્ણપક્ષના ચન્દ્રમાને ક્ષય થવા માંડે છે એ જ પ્રમાણે જે અવધિજ્ઞાન પિતાની ઉત્પત્તિ બાદ ઘટતુ જ રહે છે તે અવધિજ્ઞાનને હીયમાન અવધિ. જ્ઞાન કહે છે. જેમ ફૂંક મારવાથી દીરે હલવાઈ જાય છે એ જ પ્રમાણે જે અવધિજ્ઞાન બિલકુલ નષ્ટ થઈ જાય છે તે અવધિજ્ઞાનને પ્રતિપાતિ અને ધિજ્ઞાન કહે છે. જે અવધિજ્ઞાન કેવળજ્ઞાનની પ્રાપ્તિ પહેલાં નાશ પામતું નથી, તે અવધિજ્ઞાનને અપ્રતિપતિ અવધિજ્ઞાન કહે છે. તે સૂટ પર નાની માણસે કેવા વચને બોલવા જોઈએ નહીં, તે સૂત્રકાર હવે પ્રકટ ४२ छ- नो कप्पइ निग्गंथाण वा" त्याल-(सू ५३) Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानासत्रे टीका--'नो कप्पइ ' इत्यादि-- नो कल्पते निग्रन्थानां वा निग्रन्थीनां वा इमानि पटू अवचनानि नञः कुत्सितवचनत्याव कुत्सितानि वचनानि वदितुम् वक्तुम् । वक्ष्यमाणानि पट् कुत्सित वचनानि साधुभिः साध्वीभिर्वा न वक्तव्यानि । तद्यथा-अलीकवचनम् मृपावचनम्यथा निद्राणं कश्चित् साधु कोऽपि साधुः पृच्छति-' किं निद्रासि ?' उत्तरयति'नो निद्रामि' इति ॥१॥ तथा-हीलितवचनम्-जन्मकर्माद्युद्घाटनरूपम् , यथा- अरे दासीपुत्र' इत्यादि ।२। खिसितवचनम्-हस्तमुखादि विकारपूर्वकापमानजनकवचनोचारणं, यथा-' अरे जानामि जानामि तवाचरणम् ' इत्यादि ३॥षरुपवचनम्-कठोरवचन__ "नो कप्पइ निग्गंधाण वा" इत्यादि सूत्र ५३ ।। टीकार्थ-निर्ग्रन्थ साधुजनोंको अथवा निग्रन्थी साध्वीजनोंको ये छ अवचन कुत्सित वचन कहने योग्य नहीं कहे गये हैं, वे छह अवचन इस प्रका. रसे हैं-अलीक वचन १ मृषावचन जैसे-निद्रा लेते हुए किसी साधुसे कोई साधु पूछता है, कि क्या तुम निद्रा ले रहे हो ? तो उत्तरमें वह कहताहै, मैं निद्रा नहीं ले रहा हूं? १ तथा हीलिनवचन जन्मकर्म आदिको उद्धाटन करनेवाले वचन कुत्सितवचन जैसे २ओदाली पुत्र ! २ इत्यादिहस्तमुख आदि विकृत जिसमें हों ऐसे अपमानजनक बचन खिसित वचन हैं,३ जैसे मुख को बिगाड़ करके किसी ले ऐला कहना कि परे हठ में जानता हूं तेरे आचरणको इत्यादि कठोर वचन का नाम परुषवचन है,५ निय। (साधुमा) भने नियामारी ( सानीमाये) नी2 111"Jai शवयना (सित क्य) मोसा न नी-(१). , અલીક વચન (અસત્ય વચન) જેમ કે નિદ્રા લેતા કેઈસ ધુને કેઈ સાધુ પૂછે છે. “શું તમે નિદ્રા લઈ રહ્યા છે ? ” ત્યારે તે સધુ જવાબ આપે છે કે “હું નિદ્રા લઈ રહ્યો નથી.” આ પ્રકારનાં વચનોને અલીકવચન કહે છે. (૨) હીલિત વચન–જન્મ, કર્મ અ દિને ખૂલ્લા પાડનારા વચનને હીલિત क्यन ४ . २ " हासीपुत्र!" त्याल. (૩) ખિસિત વચન–હાથ, મુખ આદિ વિકૃત કરીને જે અપમાન જનક વચને બેલાય છે તેમને ખિલિત વચન કહે છે. જેમકે મુખ બગાડીને કેંઈને એમ કહેવામાં આવે કે “અહીંથી દૂર ખસ, તારા બધા ધંધા હું Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुंधा टीका स्था०६ रु। ५३ शानी नामवननिरूपणम् ४२९ यथा-' दुष्ट शैक्ष !' इत्यादि ।४। गारस्थितवचनम्-अगारस्थितानां गृहस्थानां यद् वचनं तत् । यथा-पुत्र ! मातुल ! भागिनेथ !' इत्यादि ॥५॥ तथा-व्युपशमितं वा कलहादिक पुनरुदीरयितुं न कर पते । अयं भावः-यत् अधिकरणं व्युपशान्तं तद् येन पुनरुदीरितं भवति तादृशं वचनं वक्तुं न कल्पते इति । उक्तं च-- __ " खामियबो समियाई, अहिगरणाई तु जे उदीरेंति । ते पावा नायचा, तेसिं चोरोषणा इणमो ॥१॥" छाया--क्षमिवयुपशमितानि अधिकरणानि तु ये उदीश्यन्ति । ते पापा ज्ञातव्याः तेषां चारोपणा इयम् ॥१॥ इति ॥६॥ मू० ५३॥ । अबवनेषु हि प्रायश्चित्तप्रस्तारो भवतीति प्रस्तारस्य पड विधत्वमाह-- मूलम्--छ कपाल पत्थारा पण्णत्ता,तं जहा-पाणाइवायरल वायं क्यमाणे १, सुसावायस्प्त वायं वयमाणे २, अदिनादा. णस्त वायं वयमागे ३, अविरइवायं वयमाणे ४, अपुरिसवायं वयमाणे ४, दातशयं वयमाणे ६, इच्चेए छ कप्पस्त पत्थरे पत्थरेत्ता सम्मं अपरिपूरमाणे तहाणपत्ते ॥ सू० ५४ ॥ जैसे हे दुष्ट शिष्य ! इत्यादि ४ गृहस्थजनोंके जैले-वचन अगारस्थित वचन हैं, जैसे-हे पुन ! हे मातुल ! हे भागिनेय ! इत्यादि तथा शान्त हुई लडाई जिन वचनों से पुनः उद्दीपित हो जाय ऐसी बाणी वचन ६ कहा भी है-" खामियको समियाई " इत्यादि। इस प्रकारके ये ६ अवचन साध्वी एवं साधुजनोंको बोलने के योग्य नहीं कहे गये हैं ।। स्तू० ५३ ॥ જાણું છું.” (૪) પરુષવચન-કઠોર વચનને પરુષ વચન કહે છે. જેમકે દુષ્ટ, બાયલા દૂર છે મારી સામેથી” (પ અગાઉસ્થિત વચન-ગૃહસ્થ જનોનાં જેવાં વચન. જેમ કે “બેટા ! હે મામા ! હે કાકા ! હે બનેવી છે ઇત્યાદિ (૬) શાંન્ત પડેલે ઝઘડે જે વચનેથી ફરી ચાલૂ થઈ જાય એવા क्यन पा मालन नडी. ४युं छ है- . "खामियवो खमियाइ? त्याl. . . , . , . આ છ પ્રકારનાં વચન કુત્સિત વચન રૂપ હોવાથી સાધુ સાધ્વીઓએ मेवा चयन म न नली. ॥ सू. -५३॥ - - Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानानसूत्रे छाया--पट् कल्पस्य प्रस्ताराः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - प्राणातिपातस्य वा वदन् १, मृषावादस्य वादन २, अदत्तादानस्य बाद वदन् ३, अविरतिवादं वदन् ४, अपुरुात्रा बदन ५ दासवाई वदन् ६, इत्येतान - पड् कल्पस्य मस्तारान् प्रस्तारविता सम्यगपरिपूरयन् तत्स्थानाः || लू० ५४ ॥ टीका--' छ कप्परस' इत्यादि ४३० कल्पस्य=साध्याचारस्य-साध्वाचारसम्बन्धिनो लघुगुरूपभूति - प्रदान रूपाः षट् संख्यकाः मस्ताराः=अतीचारकर्तरि व्यवस्थाप्यमानाः प्रायश्चित्तस्य रचना विशेषाः प्रतप्ताः कथिताः । प्रस्तराणां कल्पविशुद्धयर्थत्वात् कल्पसम्बन्धिता बोध्या । तानेचाह तथा प्राणातिपातस्य वा वार्ता वदन् कस्मिंश्चित् साधौ असत्यमेव प्राणातिपातदोषम् आरोपयन् साबुः प्रायश्चित्तरवारभाम् भवति । अत्र प्रस्तारो यथा भवनि तथोच्यते- गाथा - खुड्डो पेरिज्जतो, अकमादीसु मगसि धारेड़ | अहमविणं पेरिस्पं, न लभइ सो तारिसं छिदं ॥ १ ॥ अवचनोंसे प्रायश्चित्त लगता है, इसलिये अब सूत्रकार प्रायश्चित्त की षट् विधताका कथन करते हैं - '६ कप्पस्स पत्यारा पत्ता ' इत्यादि सूत्र ५४ ॥ टीकार्थ-कल्प के साधुके आचार के प्रचार-अतिचार करनेवाले पर प्रायश्चित्त के व्यवस्थाप्यमान रचना विशेष ६ प्रकारके कहे गये हैं, प्रस्तारोंमें कल्प सम्यन्विता कसकी विशुद्धिके लिये होनेके कारण से है, इनमें जो साधु किसी साधु पर असत्यही प्राणातिपात दोषका जब आरोपण करता है, तब वह प्रायश्चित्त प्रस्तारका पात्र होना है १ यहां प्रस्तार जैसा होता है, वैसा कहते हैं-" खुड्डो पेरिज्जतो " इत्यादि । અવચનામાં પ્રાયશ્ચિત્તના પ્રસ્તાર થાય છે તેથી હવે સૂત્રકાર પ્રસ્તારના १ अारो निश्या रे छे ६ कपस पत्यारा पण्णत्ता " त्याहि - ( सू 43 ) કહેપના——સાધુના ભાચરના-પ્રસ્તારના ૬ પ્રકાર કહ્યા છે અતિચારનું સેવન કરન ર માટે પ્રાયશ્ચિત્તની જે ખાસ વિધિ છે તેનુ નામ પ્રસ્તાર છે. પ્રસ્તારા કલ્પની વિશુદ્ધિને માટે હાવાથી કલ્પ સાથે તેના સબંધ છે. જ્યારે કાઈ સધુ ખીજા કોઈ સાધુ પર પ્રાણતિપાત દોષનુ' જૂઠું. મારાપણું કરે છે, ત્યારે તે દોષનું જૂઠું' અર્પણુ કરનાર સધુ પ્રાયશ્ચિત્ત પ્રસ્તારને પાત્ર અને छे सड्डी' ठेवा 'प्रायश्चित्त 'अस्तार होय छे ते आउट अरवामां आवे छे-खुड्डी पेरिज्जतो " त्याहि- << Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था० ६ सू ५४ अवचने षड्रविधप्रायश्चित्तनिरूपणम् छाया -- लुल्लः प्रेर्यमाणः, अतिक्रमादिषु मनसि धारयति । अहमपि - एवं प्रेरयिष्यामि, न लभते तादृशं छिद्रम् ॥ १॥ अयमर्थः -- भुल्लः- क्षुल्लकः पर्याय लघु मुनिः - अतिक्रमादिषु दुष्प्रेक्षितादिषु स्खलितेषु सत्सु प्रेर्यमाणः- शिक्षयन् मनसि धारयति - विचारयति - यद् अहमपि - एवं मत्प्रेरकं प्रेरयिष्यामि - शिक्षयिष्यामि, किन्तु सः - भुल्लकस्तस्य तादृशम् अतिक्रमादि रूपं छिद्रं न लभते ॥ १ ॥ उक्तं च-- अन्ने घाहए दद्दुरम्म दहुं चलणं कथं ओमो । उभिएस तु वत्ति विपि ते णत्थि | २|| छाया -- अन्येन घातिते दर्दुरे दृष्ट्वा चलन कृतम् अत्रमः । उद्रावित एपलया न वेति द्वितीयमपि ते नास्ति ॥२॥ ४३१ अयमर्थः--तस्य साधोछिद्रान्वेषणे तत्परः स क्षुल्लकीऽन्यदा तेन साधुना सह भिक्षाचर्यार्थं गतः । तत्र अन्येन केनापि घातिते दर्दुरे चरणं कृतं = न्यस्तपर्यायी अपेक्षा कोई लघु मुनि जब उससे अतिक्रम आदि दोष हो जाते हैं, और उस पर जब उसे शिक्षा दण्ड प्रायश्चित्त दिया जाता है, तब वह मनमें ऐसा विचार करता है, कि मैं भी इस शिक्षा देने - वालेको दण्डित कराऊंगा परन्तु वह क्षुल्लक उसके अतिक्रमादिरूप छिद्रको नहीं पाता है १ । " " अन्वेण धाइए बुदुम्मि इत्यादि । उस साधुके छिद्रान्वेषणमें तत्पर वह क्षुल्लक उस साधु के साथ किसी एक समय के लिये गया - रास्ते में किसी अन्य पुरुषके द्वारा मरा हुआ एक मेंढक पड़ा था, उस पर उस साधुका पग पड़ गया इस પર્યાયની અપેક્ષાએ નાના એવા કેાઈ સુનિ દ્વારા અતિક્રમ આદિ કાઈ દોષ થઈ ગયા હાય. તેની શુદ્ધિ નિમિત્તે જ્યારે તેને પ્રાયશ્ચિત્ત આપવામાં આવે ત્યારે તે મનમાં એવે વિચાર કરે છે કે હું પણ મને શિક્ષા કરનારને–( પ્રાયશ્ચિત્ત દેનારને ) શિક્ષા કરાવીશ એવે વિચાર કરીને તે તેના દોષો શૈય્યા કરે છે, પરન્તુ તે મુનિના અતિક્રમાદિ રૂપ કોઈ દોષ તેની નજરે પડતાં નથી. "अन्ने धाइए ददुरनि " ध्याहि-हवे मेवु भने छेते સાધુના દાષા શેાધતા તે ક્ષુલ્લક સાધુ તે સાધુની સાથે ભિક્ષાચર્યા માટે નીકળે છે. રસ્તામાં કોઈ પુરુષના પગ નીચે આવી જવાથી ફાઇ દેડકા મરેઢા પડયો Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ स्थानाचे चरणं तं साधुं दृष्ट्वा अवमः क्षुल्लकः साधु स्तं साधु बदति एप दर्दुरस्त्वया उद्राविता मारितः । एवं क्षुल्लकेनोक्ते स साधुर्वदति नेत्र मया मारितो दर्दर इति । एवं तस्य साधोत्र वः श्रुत्ला क्षुल्लको वदति-दर्तुम्हननेन तव प्राणातिपातविरमणरूप प्रथमं व्रतं विनष्टमेव । सम्पति मृपायापोन मृपावादविरमणरूपं द्वितीयमपि व्रतं ते-तब नास्ति ॥२॥ एवमुक्त्या स:--- गाथा---बच्चइ भगइ आलोयनिकाए पुन्छिए णिसिद्ध य । साहु गिहि मिलिय सव्रे पत्थारो जाप वयमाणो ।।३।। मासो लहुओ गुरु भो चउरो लहुगा य होति गुरागाय । छम्मासा लहु गुरुमा छेदो मूलं तर दुगं च ॥४॥ छाया--जति भगति आलोचय निकाचयति पृष्टे निषिद्वे च । साधवो गृहिणो मिलिताः सई प्रस्तारो यारद वान् ॥३॥ मामो लघुको गुरुकः चत्वारो लघु काश्च भवन्ति गुरुकाव । पण्मासा लघमो गुरुका छेदोपूलं तथा हिकं च ॥४॥ अवमर्थ--क्षुल्लको भिक्षाचर्यातो नित्य आचार्यसमीपे व्रजतिगन्छ. तीति क्षुल्लकस्य मासलघुपायश्चितम् । ततो भणति-यथा तेन द१रो मारित बातको देखकर वह क्षुल्लक साधु उस साधु से रूबने लगा यह मेंढक आपने मारा है, तब वह योगा-मैंने नहीं मारा है, इस प्रकारसे उस साधुके वचन सुनकर पुनः वह क्षुल्लक कहने लगा-स दर के मारनेसे आपका प्राणातिपात विरमगत न विनष्टही हो गया है, तथा मैंने इसे नहीं मारा है, इस प्रकार के कहने रूप सृषा भाषणले. मृषावाद विरमणरूप छित्तीय व्रत भी आपका खण्डिन हो गया है, इस प्रकारसे उससे कहकर बह-" बच्चर भणाइ आलोघ" इत्यादि ।। क्षुल्लक भिक्षाचर्यात निवृत्त हो करके आचार्य के निकट आया इस स्थिनिमें उस क्षुल्लकको लास लघु प्रायश्चित्त होता है, और आकर હતે. તે મરેલા દેડકા પર તે સાધુને પગ પડી જવાથી તે ભુલક સાધુ તે નિર્દોષ સાધુ પર એ આરોપ મૂકે છે કે “આ દેડકાને તમે મારી નાંખે છે. પેલા સાધુએ જવાબ આપે-“મેં માર્યો નથી.” ત્યારે તે ક્ષુલ્લક સાથ બોલી ઉઠયો. “આ દેડકાને મારી નાખવાથી તમારું પ્રાણાતિપાત વિર. भए त मत थयु छे. भने ‘में तेने मार्या नथी' मे मसत्य . पाथी तमा मृषावा (१२५१ ३५ मा प्र ति यु छे” “वच्चइ भणाइ आलाय " त्याह र प्रभावी ४ार क्षुदस साधुणे भास सधु પ્રાયશ્ચિત્ત લેવું પડે છે. જે તે સુકલક સાધુ આચાર્યની પાસે જઈને એમ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ খালি থাই দূo৭ষ্ট মন ঘভুগিজাস্থিনিকথা ই * इति । एवं भणतस्तस्य क्षुल्लकस्य मासगुरुः । ततः "क्षुल्लकारोपितदोपं.स साधुरप्याचार्यसमीपे समागतः । तमाचार्यः मोह-सम्यगालोचय-मयय, किं वया दर्दुरो, मारितः १ स साधुः कथयति-न · मया मारितः ।, एवं तेनः साधुनोक्ते दोषारोपणकर्तुः क्षुल्लकस्या ? 'चतुर्लघुमायश्चित्तं भवति । ततः क्षुल्लको निकाचपति पुनस्तमेव दोपं तस्मिन्नारोपयति, स- साधुः पुनरपि तदारोक्तिदोषी स्वकीयत्वेन न मनुते । ततः क्षुल्लकस्या" चतुर्गुरु । ततः क्षुल्लको वदति-यदि मम वचने न विश्वासस्तदा गत्वा गृहस्धान् - पृच्छतु । एवं क्षुल्लकेनोक्त पर्यायज्येष्ठाः साधवो गत्या गृहस्थान पृच्छन्तीति पृष्टे खुलकस्था जब वह ऐसा कहता है, कि उस लोधुने मेंढ़क मार दिया है, तब उस क्षुल्लकको मास गुरु प्रायश्चित्त होता है, इतने में जिस पर उस क्षुल्लकने दोषारोपण किया था वह साधु भी आचायेके पास आ जाता है, आचार्य उससे पूछते हैं-श्या तुमने मेंढक मारा है ? वह कहता है। गुरुदेव ! मैंने नहीं मारा है, इस प्रकार उस साधुके कहरे पर दोषारो. पणका क्षुल्लकको चतुर्थ लघु प्रायश्चित्त होता है, तब पुनरपि. क्षुल्लक उस साधु पर उसी दोषका आरोपण करता है, साधु कहता है- मैंने ऐसा नहीं किया है। तप उस क्षुल्लकको चतुर्थ शुरु प्रायश्चित्त होता है। क्षुल्लक कहता है यदि मेरी बात पर ओपको विश्वास न हो तो आपजा करके गृहस्थों से पूछ सकते हैं, तम पर्याय ज्येष्ठ साधु वहां जाकर गृहस्थों से पूछते हैं, इस प्रकार क्षुल्लकके कहने पर उसे षड्मास लघु કહે કે “આ સાધુએ દેડકોને મારી નાખે છે,” તે તે ક્ષુલ્લક સાધુને માસગુરુ પ્રાયશ્ચિત્ત લેવું પડે છે. હવે જયારે તે નિર્દોષ સાધુને તે આચાર્ય દ્વારા એ પ્રશ્ન કરવામાં આવે કે “શું. તમે દેડકાને મારી નાખે છે ? ત્યારે તે નિર્દોષ સાધુ એ જવાબ આપે છે કે, “હે ગુરુદેવ! મે તેને માર્યો નથી.” તે નિર્દોષ સાધુ દ્વારા આ પ્રમાણે જ્યારે કહેવામાં આવે ત્યારે તે મુલકને (દોષારોપણ કરનાર સાધુને)ચતુર્થ. લઘુ પ્રાયશ્ચિત્ત લાગે છે. તે નિર્દોષ સાધુ દ્વારા દેષને અસ્વીકાર થવા છતાં પણ તે, સુલક ફરી, પણ એ જ દેષનું તેના પર આરોપણ કરે છે અને નિર્દોષ સાધુ ફરી તે દેષને અસ્વીકાર કરે છે. ત્યારે તે ક્ષુલ્લકને ચતુર્થ ગુરુ પ્રાયશ્ચિત્ત લાગે છે. ત્યાર બાદ તે દેષારોપણ કરનાર સાધુ કહે છે કે જે તમને મારી વાત પર વિશ્વાસ ન બેસતે હોય તે આપ ત્યાં જઈને ગૃહસ્થને પૂછીને એ વાતની ખાતરી કરી શકે છે. ત્યારે કઈ પર્યાય, સાધુ ત્યાં જઈને ગૃહસ્થને આ બાબતે तभन ४३ छ. " स्यने पूछान पतरी ४. " मा प्रभारी ४उपाथी Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानानसूत्रे G लघु । पृष्टा गृहस्था निषेवन्ति नास्माभिर्दृष्टः स साधुर्ददुरं मारयमिति ल फस्य षड्गुरु। ततः पर्यापज्येष्ठाः आचार्यसमीपे समागत्य वदन्ति - नानेन साधुनादर्दुरो मारित इति तदाऽस्य क्षुल्लकस्य छेदः । ततः क्षुल्लको वदति गृहस्था असंयताः, ते तु प्रतिशब्दं असत्यं त्रते एवं ब्रुवतः क्षुल्लकस्य मूलं मायश्चित्तं भवति । ततो यदि क्षुल्लको वदति -गृहस्था यूथं च एकत्र मिलिता अहं पुनरेक इति, तहिं तस्य अवस्थां भवति । ततो यदि स वदति यूयं सर्वेऽपि प्रवचनस्य बाह्याः, ततस्तस्य पाराश्चिकं प्रायश्चित्तं भवति । एवमुत्तरोत्तरं वदतः क्षुल्लकस्य पाराञ्चिकं यावत् प्रायश्चित्तप्रस्तारो भवतीति | ३ | ४ || अत्रेदं बोध्यम्- क्षुल्लप्रायश्चित्त होता है। पूछने पर गृहस्थजन निषेध करते हैं कि हमने मेंढक मारते हुए उस साधुको नहीं देखा है, तय क्षुल्लकको षमास गुरु प्रायश्चित्त होता है, पर्याय ज्येष्ठ साधु आ करके आचार्य से कहते हैं कि इस साधुने मेंढक नहीं मारा है तब उस क्षुल्लकको षड्मास छेद प्रायश्चित्त लगता है, पुनः जब वह क्षुल्लक ऐसा कहता है-गृहस्थं असंपत होते हैं - वे तो शब्द शब्द पर असत्य बोलते हैं, इस प्रकार से कहनेवाले क्षुल्लकको मूल प्रायचित्त लगता है, तब यदि क्षुल्लक कहता. है, तुम सब गृहस्थ तो एक हो गये हो और मैं अकेला हूं तो फिर उस क्षुल्लकको अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त लगता है, और यदि वह उस समय ऐसा कहता है, कि तुम सबके सब ही प्रवचन से बाहर हो तब sent पाराञ्चित् प्रायश्चित्त लगता है, इस प्रकार उत्तरोत्तर करनेवाले' તે ક્ષુલ્લક છ માસિક લઘુ પ્રાયશ્ચિત્તને પાત્ર બને છે. જ્યારે તે પર્યાય જયેષ્ઠ સાધુને તે ગૃહસ્થા એવા જવાખ આપે છે કે “ અમે તે સાધુને દેડકાને મારતા જોચા નથી, ત્યારે તે ક્ષુલ્લક છ માસિક ગુરુ પ્રાયશ્ચિત્તને પાત્ર અને છે. જ્યારે પર્યાય જ્યેષ્ઠ સાધુ આચાર્યની પાસે જઈને કહે છે કે ગૃહસ્થાના કહેવાથી અમને ખાતરી થઈ ગઈ છે કે તે સાધુએ દેડકાને માર્યાં નથી, ત્યારે તે ક્ષુલ્લકને છ માસનુ છેઃ પ્રાયશ્ચિત્ત લાગે છે. ત્યાર ખાઇ જે ક્ષુલ્લક એમ કહે કે ગૃહસ્થા તે અસયત હાય છે, તે વાત વાતમાં જુઠું ખેલતા હાય છે, તે તે ક્ષુલ્લકને મૂલ પ્રાયશ્ચિત્ત લાગે છે. વળી ત્યાર બાદ પશુ જે ક્ષુદ્રંલક એમ કહે કે તમે બધાં ગૃહસ્થેા તા એક થઈ ગયા છે અને એકલા છું, તા તેને અનવસ્થાપ્ય પ્રાયશ્ચિત્ત લાગે છે. ત્યાર ખાદ જે તે ક્ષુલ્લક એમ કહે કે તમે સૌ પ્રવચનનુ* પાલન કરનારા નથી, તે તેને પારાં ચિક પ્રાયશ્ચિત્ત લાગે છે. આ રીતે ઉત્તરાત્તર અસત્ય દોષારોપણ કરનાર તે Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुंघा टोको स्था०६ सू०५४ अवचने षड्विधप्रायश्चित्तनिरूपणम् ४१५ कस्यायं प्रायश्चित्तप्रस्तारो मृपावाद विरमणव्रतभङ्गजनितो भवति । यदि तु तेन साधुना सत्यमेव दर्दुरश्चरणन्यासेन मारितः, ततः सोऽपलपति च, तदा तस्याप्येवमेव प्राणातिपातविरमणमृपावादविरमणवतद्वयमङ्गजनितप्रायश्चित्तपस्तारो भवतीति प्रथमः प्रस्तारः।१।। तथा--मृषावादस्य वाद वदन्-कस्मिंश्चित् साधौ असत्यमेव मृपावादविरमण व्रतमगजनितं दोषमारोपयन् साधुः प्रायश्चित्तपस्वारभाग भवति । २ । तथाअदत्तादानस्य वादं वदन-कस्मिश्चित्साधावसत्यमेव अदत्तादानविरमणवतभङ्गाजनितं दोषमारोपयन साधुः मायश्चित्तमस्तारभाग भवति । ३। अत्र द्वितीयतृतीयप्रायश्चित्तमस्तारावेवं बोध्यौ । तथाहिउस क्षुल्लकको पाराञ्चिक प्रायश्चित्त तक प्रायश्चित्त प्रस्तार होता है, यह प्रायश्चित्त प्रस्तार उसे मृषावाद विरमण व्रतके भङ्गले होता है, और यदि उस साधुने यथार्थ रूप में अपने पैरसे मेंढक मार दिया है, और फिर भी वह अपलाप करता है, तो उसे भी प्राणातिपात विरमणे एवं मृषावाद विरमण ये दोनों व्रतोंके भङ्ग हो जानेसे इसी प्रकारसे प्रायश्चित्त प्रस्तार होता है १ इसी प्रकार यदि कोई साधु किसी अन्य 'साधु पर व्यर्थ मेंही मृषावाद विरमण व्रत भङ्ग जनित दोषका आरो. पण करता है, तो वह साधु भी प्रायश्चित्त के प्रस्तारवाला होता है २ इसी प्रकारसे अदत्तादान के भङ्ग होने के झूठे दोषका आरोपण कोई साधु किसी साधु पर करता है, तो वह भी इसी तरहसे प्रायश्चित्तके प्रस्तार• घाला होता है, यहां द्वितीय और तृतीय प्रायश्चित्त प्रस्तोर जानना चाहिये સાધુને માટે પારાચિક પ્રાયશ્ચિત્ત પર્યન્તના પ્રાયશ્ચિત્ત પસ્તાર કહાં છે. મૃષા વાદ વિરમણ વ્રતનો ભંગ કરવાને કારણે તે આ પ્રકારના પ્રાયશ્ચિત્ત કરતા રને પાત્ર બને છે જે બીજા સાધુ (જેના પર દેકાની હત્યાને આપ મૂકવામાં આવ્યું છે તે સાધુ) દ્વારા ખરેખર દેડકાની હત્યા થઈ ગઈ છે અને તે જુઠું બેલતે હેાય, તે તેને પણ પ્રાણાતિપાત વિરમણ અને મૃષા વાદ વિરમણ, આ બન્ને પ્રકારના વ્રતને ભંગ થઇ જવાથી ઉપર્યુક્ત પ્રાય શ્ચિત્ત પ્રસ્તારને પાત્ર બનવું પડે છે (૧) એ જ પ્રમાણે જે કોઈ સાધુ બીજા કેઈ સાધુ પર મૃષાવાદ વિરમણ વ્રતનો ભંગ કરવાને બે આરોપ મૂકે, તે તે ખેટે આરોપ મૂકનાર સાધુ પણ પ્રાયશ્ચિત્ત પ્રસ્તારને પાત્ર બને છે. (૨) એ જ પ્રમાણે અદત્તાદાનને ભ ગ થઈ જવાને પેટે અરોપ કોઈ સાધુ પર મુકનાર સાધુ ૫ણું પ્રાયશ્ચિત્ત પ્રસ્તારને પાત્ર બને છે. હવે સૂત્રકાર બીજા અને ત્રીજા પ્રાયશ્ચિત્ત પ્રસ્તારનું સ્વરૂપ પ્રકટ કરે છે— Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '" AC Modiijumps FRSE (Lye + ncpgसूत्रे 1 गाथा - मोसम्म संखडीए मोयगगहणं अतदाणमि आरोवणपत्थरो तं चेत्र इमं तु नाणतं ॥१॥ छाया -- मृषावादे संखडया मोदकग्रहणमद्त्तादाने । आरोपणा प्रस्तारः स एव इदं तु नानात्वम् || १ || ।। अयमर्थः मृपावादे संखडयां संखडी विपयं. दोपारोपणं द्रष्टव्यम् अदत्ता- दाने तु मोदकग्रहण विषयं दोपारोपर्णः द्रष्टव्यम् । अभयत्रापि आरोपणाम'स्तारः - आरोपणायाः प्रायश्चित्तस्य मस्तारः स एव = पूर्वोक्त एव । परन्तु योननातं = वैशिष्ट्यमिदं बोध्यम् || १ || . . . ., GIFT A 5 तत्र मृषावादस्य वैशिष्टद्यमाश्रित्य प्राह- " sire gh 27529 1-... " 3 157877 1:5 गाथा - दीण कलुर्हि जाय, पडिसिद्धो बिसइ एसणं च हण" | जंपड मुहप्रियाणि य, जोगतिगिच्छानिमित्ताई ॥ २ ॥ छाया - दीनकरुणैर्याचते, प्रतिषिद्धो विशति एषणां च हन्ति । जल्पति मुखप्रियाणि च योगचिकित्सा निमित्तानि ॥ २ ॥ अयमर्थः भिक्षाचर्यार्थ विहरन्वौ द्वौ साधू कस्यचित् संखडी कर्तु है गतौ । : "मोसंमि संखडीए " इत्यादि । ...मृषावाद में संग्खडी (ज़िमणवार) विषयक दोषारोपण और अदत्तादान में , मोदकग्रहण विषयक दोषारोपण कहना चाहिये अर्थात मृपावाद में संखडी २. विषयक दोषारोपण करनेवाले आरोपण कर्ताको तथा अदत्तादानमें मोदक ग्रहण विषयक दोषारोपण करने वाले आरोपकर्ताको प्रायश्चित्त प्रस्तार का कथन पूर्वोक्त रूप से ही कर लेना चाहिये यही यात " दीपकलुणेहि" इत्यादि गाथा द्वारा प्रकट की गई है -- -Ch... -10---- " दीणकलुणेहि जाय " इत्यादि । इस गाथा का भावार्थ ऐसा है- भिक्षा के लिये भ्रमण करते हुए दो - "" मोसम खखडीए " इत्यादि - - क + 1; મૃર્ષાવાદમાં સ’ખડી -વિષયક દોષારાપણુ અને અદ્યત્તાદાનસાં મેકગ્રહેણુ વિષયક દોષારોપણનું કથન થવું જોઇએ. એટલે કે મૃષાવાદમાં 'સ'ખડી (સુખડી ) વિષયક દોષારાપણુ કરનારા આરાપણુકર્તાના પ્રાયશ્ચિત્ત પ્રસ્તારનું * અને અદત્તાદાનમાં માદક ગ્રહણુ વિષયક ઢોષારોપણ કરનાર આÀપણકર્તાના પ્રાયશ્ચિત્ત પ્રસ્તારનું કથન પૂર્વક્તિરૂપે જ થવુ જોઈ-એ.. એજ વાત નીચેની ગાથા દ્વારા પ્રકટ કરવામાં આવી છે-~~-~ "2 Love Jat " दीपक लुणेहि जायइ " इत्याह- " આ ગાયાના ભાવાર્થી નીચે પ્રમાણે છે—ભિક્ષાપ્રાપ્તિ માટે ભ્રમણ કરતા 1 TJ :: 7 Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेपाटीका स्था ६ ० ५४ अवचने विधप्रायश्चितनिरूपणम् .४३७ त्रापि : T . अन्यत्र गौ । ततः सम्प्राप्ते काले तयोर्यो ज्येष्ठः स मोक्तवान् सम्प्राप्तः काल, गच्छावः संखड़ी कर्त है। क्षुल्लको भाति-प्रतिपिद्धोऽहम्, अतो न तत्र गमिष्यामि । ततो भिक्षाचर्यातो, निवृत्तः क्षुल्लकः आचार्यायेदं निवेदयति, यथा-अयं साधुर्दी करुणैर्वचने यांचते, प्रतिषिद्धोऽपि गृह - प्रविशति, एषणां च हन्ति नाशयति । च पुनरयं मुखमियाणि योगचिकित्सा निमित्तानि जल्पति=त्रदतीति । अत्रापि पूर्ववदेव प्रायश्चित्तप्रस्तारो - बोध्यः । साधु किसी संखडीकर्ता ( जीम्मण करनेवाला) के घर पर गये उस समय वहां संखडी निष्पन्न नहीं होने से वे दोनों ब्रहांसे " दूसरी जगह चले गये, बादमें इनमें जो पर्याय ज्येष्ठ था वह समय : आने पर कहने लगा अब संखंडी निष्पन्न हो गई होगी चलो संखडीके घर पर चलें तब क्षुल्लकने - छोटे साधुने कहा. संखडीकर्त्ताने " देने से मना कर दिया है, अतः मैं तो वहां नहीं आऊंगा इसके बाद भिक्षासे निवृत्त हुआ वह क्षुल्लक वापिस आकर आचार्य से कहने लगा है गुरो ! यह साधु दीन करुणे वचनों से मांगता है, प्रतिषिद्ध होने पर भी घर में घुल जाता है, और एषणाका विनाश करता है, तथा मुखप्रिय वचन बोलकर मीठे २ वचन कहकर दाताको आहार 'देने के निमित्त रिक्षाता है, इस प्रकार कहनेवाले उस क्षुल्लक के ऊपर ● प्रायचित्त प्रस्तार पूर्वोक्त रूपसे कह लेना चाहिये । जैसे - भिक्षाचर्या से . એ સાધુએ કાઈ એક સુખડીઆને ત્યાં પહાંચ્યા, તેઓ જ્યારે ત્યાં પહેાંચ્યા 1. प्यारे, मीठाई तैयार थ न हती. बणी त्यां बहोरना भाववानी ते. आशुसे A . 1 મનાઇ પણ કરી, તેથી તેઓ ત્યાંથી ચાલતાં થયાં હવે ચાડા સમય બાદ પર્યાય જ્યેષ્ઠ સાધુએ લઘુર્યાયવાળા સાધુને કહ્યુ, “ હવે પેલા માજીસને + に त्यां भीठा तैयार, थ ग शे. यासो त्यां न्हाने भीड़ाई बडेोरी. आपी मे.” त्यारे क्षुस ( बंधु पृर्यायवाना, साधुये ) धु., "ते साधुसे आपले षडरिया भाववानी भनाई छरी छे, तेथी, हु, तो, त्यां नहीं खावु " त्यार બાદ તે બન્ને સાધુ ઉપાશ્રયમાં પાછા ફર્યા. તે ક્ષુલ્લક સાધુએ શુરુ પાસે शेवी वात श्री है “आा साधु हीन, अरुण वयतो मोतीने भिक्षा मागे छे. } ગૃહસ્થ દ્વારા નિષેધ કરાવા છતાં પણ તે તેના ઘરમાં દાખલ થઈ જાય छे. 4G -> અને એષણા દોષથી ષિત થયેલા આહાર ગ્રહણ કરે છે. તે મીઠાં વચને ઓલીને દાતાને ખુશ કરીને તેની પાસેથી આહાર ગ્રહણ કરે છે, "" આ - પ્રકારનું ખાટું દોષારોપણ કરનાર તે સાધુને પૂર્વોક્ત પ્રાયશ્ચિત્ત પ્રસ્તારને * - - T " Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाने ४३८ तथाहि-भिक्षाचर्यातो निवृत्तः क्षुल्लक आचार्यसमीपे बनतीति तस्य मासलघु । अयं दीनकरुणादि वचनैर्याचते-इत्यादि आचार्याय यदि निवेदयति तर्हि तस्य मास गुरु । एवं क्रमेग पूर्ववत् पाराञ्चिकं यावत् प्रायश्चित्तप्रस्तारो बोध्य इति । भत्र क्षुल्लकस्य मृपावादविरमणव्रत भङ्गनिमित्त एव प्रायश्चित्तप्रस्तारः । यदि रानिकः सत्यमेव क्षुल्लकारोपितातीचारयुक्तो भवति, तदा तस्य गृहस्थतिषेधानन्तरमपि ' न प्रतिपेयः कृतो गृहस्थेन ' इत्युक्त्या प्रयमं मृपावादविरमणव्रतनिवृत्त हुआ क्षुल्लक जय आचार्यके पास आता है, तब उसे मास लघु प्रायश्चित्त होता है, और जब वह आचार्यसे ऐसा कहता है, कि यह दीनकरुण वचनोंसे आहारकी याचना करता है, तब उसको मास गुरु प्रायश्चित्त होता है, इसी क्रमसे पूर्वकी तरह यावत् पाराश्चित प्रायः चित्त तक प्रायश्चित्त प्रस्तार समझ लेना चाहिये। क्षुल्लक तो जो प्रायश्चित्त प्रस्तारका कथन किया गया है, वह इसलिये किया गया है, कि उसने अपने मृषावाद विरमण वनका भङ्ग किया है, और यदि धह रात्निक साधु पर्याय ज्येष्ठ साधु जैसा-क्षुल्लकने कहा है, यदि उसी प्रकारकी परिस्थितिवाला है, तो उसको भी मृषावाद विरमण व्रतका भङ्ग होता है, क्योंकि वह गृहस्थके प्रतिषेध करनेके योद भी " उसने प्रतिषेध नहीं किया है " ऐसा कहता है, अतः वह अपने कथनसे उस गृहस्थके कथनका अपलाप करने के कारण झूठ बोलता પાત્ર કહ્યો છે. એટલે કે ભિક્ષાચર્યાથી નિવૃત્ત થઈને જ્યારે તે ક્ષુલ્લક સાધુ દોષારોપણ કરવા માટે ગુરુ પાસે આવે છે, ત્યારે તેને લઘુ માસ પ્રાયશ્ચિત્ત લાગે છે, જ્યારે તે ગુરુને કહે છે કે આ સાધુ દીન વચને બોલીને આહારની યાચના કરે છે, ત્યારે તેને મારા ગુરુ પ્રાયશ્ચિત્ત લાગે છે. અહી પૂર્વોક્ત પ્રેમથી પારાંચક પ્રાયશ્ચિત્ત પયતના પ્રાયશ્ચિત્ત પ્રસ્તારનું કથન થવું જોઈએ. મુલકને માટે આ પ્રકારનું પ્રાયશ્ચિત્ત પ્રસ્તાર બતાવવાનું કારણ એ છે કે તેણે મૃષાવાદ વિરમણ વ્રતનું ખંડન કર્યું છે. જે તે પર્યાય છે સાધુએ ભુલક સાધુના કહ્યા અનુસાર ભિક્ષાપ્રાપ્તિ કરી હોય તે તેના દ્વારા પણ મૃષાવાદ વિરમણ વ્રતને ભંગ કરાયો છે એમ કહી શકાય. કારણ કે ગ્રહ સિવ કર્યો હોવા છતાં પણ તે એવું કહે છે કે “ગૃહસ્થ નિષેધ કર્યો ન હતો. આ રીતે પિતાના આ કથન દ્વારા તે સાધુ તે ગૃહસ્થની વાતને છેટી રીતે રજુ કરે છે. તે કારણે તે સાધુ મૃષાવાદ વિરમણ તને Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा डोका स्था० सू०५४ अवसने बहुविधप्रायश्चित्तनिरूपणम् भङ्गो भवति । ततः स्वोक्त्यपलापने द्वितीयमपि तस्य मृषावादविरमणव्रतभङ्गो भवति । प्रायश्चित्तप्रस्तारस्तु पूर्ववदेवेति ॥ २ ॥ साम्प्रतमदत्तादानस्य वैशिष्ट्यमाश्रित्य प्राह गाथा - जा फुसइ भाणमेगो, विइओ अण्णत्थ लड्डुए ताव । लक्ष्ण णी इयरो, तद्दिस्स इमं कुणइ कोई ॥ १ ॥ छाया -- यावत् स्पृशति भाण्डमेको, द्वितीयोऽन्यत्र लड्डुकाँस्तावत् । लब्ध्वा (णी) गच्छति इतरः तद् दृष्ट्वा इदं करोति कीऽपि ॥ १ ॥ ४३९ अयमर्थ -- गुरुणा प्रेषितौ द्वौ साधू भिक्षाचर्यार्थं गतौ । तत्र एकेन भिक्षा लब्धा गृहीता च । स यावद् भाण्डं = पात्रं स्पृशति = भिक्षाधान्यां स्थापयति तावत् द्वितीयेन ज्येष्ठेन साधुना समीपस्थगृहे लड्डुका लब्धाः । तत्र इतरः कोऽपि स क्षुल्लक इत्यर्थः, तान् लड्डुकान् दृष्ट्वा इदं वक्ष्यमाणं करोति भिक्षाचतो निवृत्त्य इस तरह वह अपने मृषावाद विरमण व्रतका भङ्ग कर्त्ता हो जाता हैं, यहां प्रायवित्त प्रस्तार पूर्व की तरह से समझ लेना चाहिये ॥ २ ॥ अब सूत्रकार अदत्तादान की विशिष्टताको लेकर " जा फुसह " इत्यादि गाथा द्वारा प्रायश्चित्त प्रस्तारका कथन करते हैं 64 जा फुसह भाणमेगो " इत्यादि । इस गाथाका भावार्थ ऐसा है - गुरुने दो साधुओं को भिक्षाचर्या के लिये भेजा इनमें एकको भिक्षाका योग मिल गया सो उसने भिक्षा लेली और वह जब तक भिक्षाके पात्रको भिक्षाधानी में रखने लगा कि इतनेही में द्वितीय ज्येष्ठ साधुको वहींके किसी पास के घर में मोदक मिल गये तब उस क्षुल्लकने लड्डुओंको देखकर ऐसा विचार किया ભંગ કર્યો અને છે અહી. પશુ પ્રાયશ્ચિત્ત પ્રસ્તાર પૂર્વક્તિ પ્રકારના જ સમજવા । ૨ ।। हवे सूत्रार महत्ताहाननी विशिष्टतानी अपेक्षाओ " जा फुसइ " ઈત્યાદિ ગાથા દ્વારા પ્રાયશ્ચિત્ત પ્રસ્તારનું કથન કરે છે— 66 जा फुसइ भाणभेगो " धत्याहि આ ગાથાને ભાવાથ નીચે પ્રમાણે છે—ગુરુએ એ સાધુઓને ભિક્ષા. ચર્ચા માટે મેકલ્યા. તેમાંથી એકને ભિક્ષાના ચેાગ મળી ગયા. તેણે ભિક્ષા લઈ લીધી અને જેવા તે સક્ષાપાત્રને ઝોળીમાં મૂકવા જાય છે કે ખીઝે જયેષ્ઠ સાધુ પણ નજીકના કાઈ ઘરમાંથી લાડુ વહેારીને તેની પાસે આવી પહોંચ્યા. તે લઘુ પર્યાયવાળા સાધુએ એવા વિચાર કર્યો કે આ નિષ્ફ 66 Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7- 17? - .. Tre. ... "स्थानीय 'रात्निकेनाऽदत्ता मोदका गृहीता इति तस्यालोचनी 'श्रुत्वा तस्मै मायश्चित्त प्रयच्छन्तु ' इति वक्तुं गुरुसमीपे बनति । ततस्तस्य मसिलघु। भणति, तदा मासगुरु । एवमेव पूक्तिक्रमेण पाराश्चिकं यावत् मायश्चित्त 'प्रस्तारों 'योध्या। अत्र क्षुल्लकस्य प्रायश्चित्त प्रस्तारो मुंपादिविरमणवतभनियो भवति । यदि रत्नाधिकेन सत्यमेव अदत्ता लड्डुका, गृहीता निवनं गोपनं च क्रियते तदा तस्य अदत्तादानविरमणत्रत भङ्गजनितो मृपावादविरमणतभङ्ग जनितेश्च ,मायश्चित्तप्रस्तारो भवतीतिति ॥३॥ इति द्वितीयतृतीयप्रस्तारौ । कि इस रास्निकने विना दिये हुए. इन नोदनको लिया है, अतः गुरुको इसे इसका प्रायश्चित देना चाहिये.ऐसा विचार कर वह भिक्षा: वर्याले लिपट कर आचार्यले पास आया उस मातको, कहने के लिये इस तरहसे इसका गुरुके समीप आगसन मासलत्रु प्रायश्चित्तले योग्य होता है, और जब वह क्षुल्लक गुरुप्से उसकी बात का निवेदन कर देती है, तब उसका वह कथन भासगुरु प्रायश्चित्त से योग्य होता है, इसी तरहसे पाश्चि प्रायश्चित्त के प्रायश्चित्त प्रस्तार उद्भावित कर लेना चाहिये, यहां क्षुल्लक को जो 'प्रायश्चित्त प्रस्तार प्रकट किया गया है, वह उसके मृषावाद विरमण व्रतके भङ्ग हो जाने से किया गया है, यदि च रात्निकने पर्याय ज्येष्ठ दूसरे साधुने-वास्तव में अदत्त मोदकों का आदान किया है, और वह उस अपनी बात को यदि छिपाता है, तो उसे अपने अदत्तादान विरभण व्रतको भङ्ग होने के कारण और मृषावाद विरमण (ज्ये०४ पर्यायवाजा स.धुमे) आई Pथना, परभाथी ४ यारी दोघi ... माशते ते महत्ता वि२मा तन 1"ध्या छ,ता गुरुमे ते मा पिने भाटे प्रायश्चित्त न." मा भरना दियार शन ગુરુની પાસે આવનાર તે ક્ષુલ્લક સાધુ લઘુમાસ પ્રાયશ્ચિત્તને પાત્ર બને છે: જ્યારે સે કુલેક ગુરુને આ બધી વાત કર્યો છે ત્યારે તે (સુલક)' બેટા દેષનું તેના પર આર્પણ કરવાને કારણે ગુરુ માસ પ્રાયશ્ચિત્તને પત્ર બને છે. એ જ પ્રકારે પાચિક પ્રાયશ્ચિત્ત પર્યંત પૂર્વોક્ત પ્રાયશ્ચિત્ત પ્રસ્તારનું અહી પણ કથન થવું જોઈએ અંહી સુલકને માટે જે પ્રાય. શ્ચિત પસ્તાર પ્રિન્ટ કરવામાં આવ્યો છે તે તેને મૃષાવાઈ વિરમણ વ્રત ભંગ થઈ જવાને લીધે કરવામાં આવ્યું છે. પર્યાય શ્રેષ્ઠ બીજા સધુએ ખરેખર એ દોષનું સેને કર્યું હોય અને એ તને તે છુપાવેતે હિય તે તેને પણ પ્રાયશ્ચિત્ત પસ્તારને પાત્ર બનવું પડે છે, કારણ કે એમ કરવાથી .11 Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था० ६ सु० ५४ अवचने षविध वायश्चित्तनिरूपणम् ४४१ तथा - अविरतिवादम् - अविरति = अब्रह्मचर्य, तस्याः वादं वदन् कस्मिंश्चित् साध असत्यमेव मैथुनविरमणव्रतभङ्गजनितं दोपमारोपयन् साधुः मायश्चित्तभाग् भवति । प्रायश्चित्तप्रस्ताव वोध्यः । तथाहिगाथा - - राइणियवाइएणं, खलियनिलिय पेल्लएण उदरणं । देवउले मेहुण, आक्खाणं वा कुडेंगे वा ॥ १ ॥ छाया -- शत्निकवातिकेन स्खलित मिलितप्रेरणेन उदयेन । देवकुले मैथुने आख्यानं वा कुटके वा ॥ १ ॥ अयमर्थः कथित ल्लको रत्नाधिकेन मुहुर्मुहुः शिक्ष्यमाणो मनसि एवं चिन्तयति - यदयं रात्निकः उदयेन = पायोदयवशाद, रात्निकवातिकेन = ' रत्नाधिकोsह ' - मितिगरूपवातरोगेण पीडितोऽस्ति, अत एवायं स्खलितमिलित व्रतका भङ्ग होने के कारण प्रायश्रित प्रस्तारका पात्र होना पड़ता है । इस प्रकार से द्वितीय और तृतीय प्रस्तार हैं । तथा - " अविरतिवादं " इत्यादि- किसी साधुके ऊपर असत्य रूपसे ब्रह्मचर्य व्रत भङ्ग हो जानेरूप दोषका आरोपण करनेवाला कोई दूसरा साधु प्रायश्चित्त प्रस्तारका पात्र होता है, प्रायश्चित्त प्रस्तार प्रकार यहां ऐसा जानना चाहिये - " राइणियवाहएणं " इत्यादि । इस गाथा का भावार्थ ऐसा है - पर्याय ज्येष्ठ किसी रत्नाधिक साधुने किसी क्षुल्लक साधुको जब सीख दी तो वह मनमें ऐसा सोचने लगायह रत्नाधिक साधु कषायके उदयके वशसे कि "मैं रत्नाधिक हूं" इस अहंकाररूप वात रोग से पीडित हो रहा है, अतएव यह स्खलित मिलित તેના અદત્તાદાન વિરમણને પણુ ભગ થાય છે અને મૃષાવાદ વિરમણ વ્રતના પશુ ભ ́ગ થાય છે. આ પ્રકારનુ` ખીજા અને ત્રીજા પ્રાયશ્ચિત્ત પ્રસ્તારનુ' સ્વરૂપ છે. હવે ચાથા પ્રાયશ્ચિત્ત પ્રસ્તારનું સ્વરૂપ પ્રકટ કરવામાં આવે છે. अविरतिवादं " त्याहि 66 - કોઈ સાધુ પર અસત્ય રૂપે બ્રહ્મચર્ય વ્રતનેા ભગ કરવા રૂપ દોષનુ રેપણુ કરનાર સાધુ પણ પ્રાયશ્ચિત્ત પ્રસ્તારને પાત્ર મને છે. એ જ વાત " राइणिय बाइए " इत्यादि गाथा द्वारा स्पष्ट श्वासां भावी छे. मा ગાથાના અથ નીચે પ્રમાણે છે— કાઈ પર્યાય જ્યેષ્ઠ સાધુ કેાઇ લઘુ પર્યાયવાળા સાધુને હંમેશા સારી સારી શિખામણુ દેતા હતા. પરન્તુ તે ક્ષુલ્લક ( લઘુ પર્યાયવાળા ) સાધુના મનમાં એવું લાગતુ કે આ પર્યાય જ્યેષ્ઠ સાધુ કષાયના ઉદયને લીધે હુ' રત્નાધિક ( પર્યાય જયેષ્ઠ ) છું ” આ પ્રકારના ઘમડ રૂપ વાત રાગથી 66 कथा०-५६ Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाने प्रेरणेन स्खलितेन मिलितेन मेरणेन च मां तर्जयति । अयं भावः- अरे दुष्ट शिष्यक ! स्खलितोऽसि ' इल्पस्खलितमपि मां तर्जयति । तथा भिन्नमपि पदमु. चारयन्तं मां ' हा दुष्ट शैक्ष !-मिलितमुबारयति' इति तर्जयति । तथा साधु. भिवार्यमाणोऽपि मा हस्तेन प्रेरणापूर्वकं तर्जयतीति । एतत्सर्वमस्य रत्नाधिकस्य कपायोदयजनितमेवेति मन्ये । अत्र प्रतिकर्तुमप्यहं न पारथामि, यत एपा सामा और प्रेरणाले मुझे तजित कर रहा है, अरे दुष्ट शिष्य ! तुम अपने कर्तव्यले स्खलित चलायमान हो रहे हो यद्यपि मैं कर्त्तव्यसे चलाय'मान नहीं हो रहा हूं फिर भी मुझे चलायमान कह कर व्यर्थ में उपालम्भ करता रहता है, तथा मैं बोलते समय बहुतही सावधानी से एक २ शब्दको ठीक २ रूपले अम्मिलित कर ही वोलता हूं, फिर भी यह कहता है, हा दुष्ट शिषध ! तुन मिलिन करके पदका उच्चारण करते हो तथा अन्य और भी लाधुजन उले मेरे प्रति इस प्रकार के व्यवहार निषेध करते हैं, परन्तु यह तो मानता ही नहीं है, और हाथ उठा २ कर मुझे प्रेरणापूर्वक यह वाता रहता है, अतः मैं तो यही मानता हूं कि यह जो कुछ भी मेरे साथ इस प्रकारका व्यवहार करता है, वह सब कषायोदयके वशसे ही करता है, यद्यपि यह जैसा व्यवहार मेरे साथ करता है, वैसाही व्यवहार में भी इसके साथ कर सकता हूं, परन्तु मैं जो इन सब बातों को सहन कर रहा हूं उससे कुछ नहीं कहता हं उसका कारण ऐसी ही सामाचारी का होना है, अब मैं ऐसा करूंगा પિીડાઈ રહ્યો છે. તેથી તે ખલિત, મિલિત અને ઉપલભ યુક્ત શબ્દ દ્વારા જાણે કે મને આડક્તરી રીતે એવું કહી રહ્યો છે કે “હે દુષ્ટ શિષ્ય ! ત તારા કર્તવ્યમાર્ગમાંથી ચલાયમાન થઈ રહ્યો છે ” જે કે હું તો મારા કર્તવ્યમાંથી બિલકુલ ચલાયમાન થયો નથી, છતાં પણ તે મને વારંવાર ટકોર કરતો રહે છે અને ઠપક અને ધમકી આપતે રહે છે. બેલતી વખતે પણ હું ઘણી સાવધાનીથી પ્રત્યેક શબ્દને અસંમિલિત કરીને. સ્પષ્ટ રૂપે બેલું છું, છતાં પણ તે મને કહે છે કે હે દુષ્ટ શિષ્ય! તું મિલિત (અસ્પષ્ટ) શબ્દ બેલે છે. બીજા સાધુઓ પણ તેને મારી સાથે એવું વર્તન ન રાખવા સમજાવે છે પણ તેઓ તે માનતા જ નથી, અને હાથ ઊંચો કરી કરીને મને શિખામણે આપ્યા જ કરે છે, ટક ટક ર્યા કરે છે અને એ રીતે મને બેટી દબામણું કરે છે હું તે એમ જ માનું છું કે તેઓ કષાયના ઉદચને વશવત થઈને આ પ્રકારનું વર્તન મારી તરફ બતાવે છે. હું પણ ધારું તે તેમની સાથે એવું જ વર્તન બતાવી શકું છું. પરંતુ હું તે Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुंधा टीका स्था० ६ सू० ५४ अधबने पविधप्रायश्चित्तनिरूपणम् ४४३ चारी । अतो मया एतत्कृतं तर्जनादिकं सोढव्यमेव । परन्त्वहमेवं करिष्यामि यथाऽयं मत्तो लधुभवेत् । एवं क्षुल्लमविचारणानन्तरमन्यदा तो भिक्षाचौथे गतौ तृपितौ बुभुक्षितौ चेत्येवं चिन्तितवन्तौ-यदस्मिन् देवकुले व्यन्तरायतने कुटङ्के-लतामण्डपे वा किंचिद् भुक्त्वा पानीयं पास्यावः । इत्थं विचार्य तौ तत्र गत्वा सुखेन स्थितौ । तावत् स क्षुल्लकः स्वस्थितस्थानाभिमुखमागच्छन्ती कांचित आर्या ददर्श । स चिन्तितवान् 'सम्पति वैरनिर्यातनाय लब्धो मयाऽवसरः' इति चिन्तयित्वा स तं रत्नाधिकं प्राह-आयें ! करोतु भवान् लघ्वाहारं पिवतु पानीयं च, अहं तावत् संज्ञाभूमि गत्वा प्रत्यायामि, इत्युक्त्वा स रत्नाधिके, कि जिससे यह मुझे लघु-दीक्षापर्यायकी अपेक्षा लघु हो जाये इस तरहके क्षुल्लकके विचार के बाद वे दोनों क्षुल्लक और रानिक किली एक समय भिक्षाचर्या के लियेविचरण करते करले तृषित और बुभुक्षित बने हुए उन दोनोंने इस प्रकारले विचार किया चलो इस व्यन्तरायतन अथवा लनामण्डपमें बैठकर कुछ खाकर पानी पीले ऐसा सोच कर वे वहाँ. गये और बैठ गये इतने में उस क्षुल्लसने अपने बैठे हुए स्थान की ओर आती हुई एक किलो आर्या को देखा। देखकर उसने विचार किया “अब इस साधुसे बैर चुकाने का मुझे यह अच्छो अबसर हाथ लगा है" ऐसा विचार कर उसने रत्नाधिक साधु पर्याय ज्येष्ठले कहा-आर्य! आप लघु आहार कर लेने और पानी पी लेबे मैं तब तक संज्ञाभूमि विचार भूमिकी ओर जाकर वापिस आ जाता हूं, ऐसा कह कर वह સમાચારીના નિયમ પ્રમાણે ચાલનારે છું, તેથી આ બધું સહન કરી લઉં છું અને તેમને એક શબ્દ પણ કેહ નથી પરંતુ હવે હું એવું કરીશ - કે જેથી મારી લઘુ દીક્ષા પર્યાય હોવા છતાં પણ તેઓ મારા કરતાં લઘુ -ગણાય. આ પ્રમાણે તે લઘુ દીક્ષાપર્યા વાળા સાધુએ નિશ્ચય કર્યો. ત્યાર બાદ કઈ એક દિવસે તે ક્ષુલક અને તે સાનિક ભિક્ષાચર્યા માટે નીકળ્યા શિક્ષાચર્યા કરતાં કરતાં સુધા અને પિપાસાથી વ્યાકુળ બનેલા તે બન્નેએ વિચાર કર્યો કે ચાલે આ નરાયાનમાં–લતામંડપમાં જઈને આહાર પાણી કરી લઈએ. આ પ્રમાણે વિચાર કરીને તેઓ ત્યાં જઈને બેસી ગયા. એ વખતે તે ભુલકે કેઈ એક આર્યાને ( સાધ્વીજીને) તે બાજુએ આવતાં જોયાં. તેમને જોઈને તે ભુવકના મનમાં એ વિચાર આવ્યું કે “આજે આ સાધુનું વેર વાળવાને સુદર એક હાથ આવ્યો છે”— આ પ્રમાણે વિચાર કરીને તે સુલકે તે પર્યાય જ્યેષ્ઠ સાધુને કહ્યું કે આપ ડે આહાર કરી લે અને પાણી પી લે. ત્યાં સુધીમાં હું ઠલ્લે Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 ક स्थानासूत्रे मैथुनविषयकमसत्यं दोपमारोपयितुमना आचार्यसमीपे गत्वा वदतिगाथा - जेइज्जेण अकज्जं, सज्जं देवालए कयं अज्जं । उबजीविओ न भंते । मए तु संसकम्पोऽत्य || २ ॥ छावा - ज्येष्ठार्येण अकार्य, सद्यो देवालये कृतमद्य । 1 उपजीवितो न भदन्त ! मया तु संसृष्टकल्पोऽत्र ॥ २ ॥ अयमर्थ:-- हे भदन्त ! अध सद्यः - इदानीमेव देवालये = व्यन्तरायतने ज्ये ष्ठार्येण अकार्य = मैथुन सेवालक्षणम् अकृत्यं कृतम् = आचरितम् । अत्र मैथुन सेवनरूपे प्रस्तावे मया तु संसृष्टकल्पो न उपजीवितः मया तु तदकार्यं नाचरितमित्यः । इति । अत्रापि आचार्यसमीपगमने मासलघु । ' ज्येष्ठार्येण अकार्य कृत - ' मित्यादि कथने मासगुरु । एवं क्रमेण पाराश्चिकं यावत्प्रायश्चित्तप्रस्तारो बोध्यः । अत्रापि क्षुल्लकस्य मृपावाददिरमणत्रत भङ्गजनितः प्रायश्चित्तप्रस्तारः । रत्नाधिको यदि सत्यमेव तथाविधाकृत्यकारी भवति, तदपह्नवं च उस रत्नाविक साधुर्वे झूठा मैथुन विषयक दोषको आरोपित करने की इच्छासे वहां से चला आता है, और आचार्यके पास जाकर कहता है" जेष्ठज्जेण अफज्जं सज्जं " इत्यादि । व्यन्तरायतनमें हे भदन्त ! आज अभी ज्येष्ठ आर्यने मैथुन सेवनरूप अकार्य कार्यका सेवन किया है, मैंने इसे देख लिया है, अपने व्रतकी रक्षा करने के अभिप्राय से मैंने उस अकार्यका सेवन नहीं किया है, इस तरह आचार्य के समीप आने में उसे मास लघु प्रायश्चित्त लगता है, और ऐसा कहने पर मास गुरु प्रायश्चित्त लगता है, इसी क्रम से पूर्वोक्त कथन के अनुसार पाराञ्चित प्रायश्चित्त तक उस क्षुल्लकको प्रायश्चित्त प्रस्तारका पात्र जानना चाहिये तथा - જઇને આવી પહેાંચુ' છું. આ પ્રમાણે કહીને તે પર્યાય જ્યેષ્ઠ સાધુ પર બ્રહ્મચર્ય વ્રતના ભંગનેા આરાપ મૂકવાની ઇચ્છાથી તે ત્યાંથી ચાલી નીકળ્યે. मायार्यांनी पार्से भने तेही भाप्रमाणे - " जेट्ठज्जेण अकज्जं सज्जं " ઈત્યાદિ હે ભગવન્! આજે અત્યારે જ ન્યન્તરાયતનમાં (દેવાલયમાં ) જ્યેષ્ઠ સાધુએ મથુન સેવન રૂપ અકા' સેત્રને કર્યુ છે. મેં તેનુ તે દુષ્કૃત્ય જોઈ લીધું છે. મારા વ્રતની રક્ષા કરવા માટે મે તે દુષ્કૃત્યનું સેવન કર્યુ” નથી ” આ પ્રકારનું ખાટું દોષારોપણ કરવાની ઈચ્છાથી ત્યાં આવેલા તે લઘુ પર્યાય સાધુને માસ લઘુ પ્રાયશ્ચિત્ત લાગે છે. અને ગુરુની સમક્ષ આ પ્રકારે ખેાટી વાત કરવાથી તેને માસ ગુરુ પ્રાયશ્ચિત લાગે છે. પારાંચિત પ્રાયશ્ચિત્ત પર્યન્તના પ્રાયશ્ચિત્ત પ્રરતારને પાત્ર તે સાધુ કયારે અને Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुंघा टोका स्था० ६ ० १४ मवचने पङ्क्षिप्रायश्चित्तनिरूपणम् करोति, तदा तस्य स्तारो वोध्य इति चतुर्थः प्रस्तारः । मैथुनविरमणमृषावादविरमणत्रतद्वयभङ्गजनितः प्रायश्चित्तम तथा - अपुरुषवादं वदन् = कस्मिंश्चित्साधौ असत्यमेव नपुसकत्वमारोपयन् साधुः प्रायचित्तमस्तारभाग्भवति । प्रायश्चित्त प्रस्तारस्त्वेवं बोध्यः । तथाहिकश्चित् क्षुल्लक रत्नाधिकेन मुहुर्मुहुः शिक्ष्यमाणस्तच्छिद्रान्वेषणे तत्पर एकदा कदाचित् रत्नाधिकेन सह भिक्षार्थ गतस्ततएकाकी निवृत्त आचार्यमाह - भदन्त ! यदि वह रत्नाधिक वास्तविक रूपमें तथाविध अकृत्य का सेवन करनेवाला है, और उसे यह छिपाता है, तो ऐसी स्थिति में वह मैथुन विरमण व्रत भङ्ग होने से और मृषावाद विरमग व्रत भंग होने से जनित प्रायश्चित्त प्रस्नारका पात्र हो जाता है, ऐसा यह चतुर्थ प्रस्तार है, तथा" अपुरुषवादं वदन्" इत्यादि - किसी साधु पर असत्य रूपसेही नपुंसक होने का आरोप करनेवाला साधु प्रायचित्त प्रस्तारका पात्र होता है, प्रायश्चित्त प्रस्तार ऐसे जानना चाहिये-किसी क्षुल्लक साधुको किसी रत्नाधिक साधुने बार २ समझाया - सो समझाने के अभिप्रायको न समझकर वह क्षुल्लक उसके प्रति उल्टा अन्यथा विचारशाली हो गया और उसके छिद्रान्वेषण करने में वह तत्पर रहने लग गया एक दिन वह उसी रत्नाधिक साथ मिक्षाचर्या के लिये गया वहां से वह भिक्षाचर्चा करके अकेलाही लौट आया और आचार्य के पास आकर कहने છે તે વાત પૂર્વોક્ત કથનને આધારે સમજી લેવી. જો તે પર્યાય જ્યેષ્ઠ સાધુ દ્વારા ખરેખર તે પ્રકારના દુષ્કૃત્યનુ સેવન થઈ ગયું હોય અને તેને તે છુપાવતા હોય તેા તના દ્વારા મૈથુનવિરમણ વ્રતનેા તથા મૃષાવાદ વિરમણુ વ્રતના ભંગ થાય છે. તે કારણે તે સાધુ આ બન્ને વ્રતના લગને લીધે પૂર્વોક્ત પ્રાયશ્ચિત્ત પ્રસ્તારને પાત્ર અને છે. આ પ્રકારનુ` ચાથા પ્રાયશ્ચિત્ત પ્રસ્તારનુ સ્વરૂપ છે. હવે પાંચમાં પ્રાયશ્ચિત્ત પ્રસ્તારનુ સ્વરૂપ પ્રકટ કરવામાં भांवे छे–“ अपुरुषत्राद् वदन् " त्याहि - अर्ध साधु जीन अध साधु पर તે નપુંસક હેાવાના ખોટા આરાપ મૂકે તે આરોપ મૂકનાર તે સાધુ પ્રાયશ્ચિત્ત પ્રસ્તારને પાત્ર અને છે. આ વાતનું સ્પષ્ટીકરણ નીચે પ્રમાણે છે. કાઇ એક ગુરૂ દીક્ષાપર્યાય વાળા સાધુએ કાઈ એક લઘુ દિક્ષાપર્યાયવાળા સાધુને અમુક કાર્ય ન કરવા અને અમુક પ્રકારનું વર્તન રાખવા વારવાર સમ જાન્યેા. પરન્તુ પેાતાના કલ્યાણુને માટે તે એવુ કહે છે એમ માનવાને બદલે તેણે કંઇ અવળુ' જ ધારી લીધું, અને તેણે તેના દોષો શોધવા માંડવા એક દિવસ તે સાધુ તે પર્યાય જ્યેષ્ઠ સાધુ સાથે મિક્ષાચર્ચા માટે ગયે Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६, स्थानाङ्गसूत्रे अयं रत्नाधिको नपुंसकः । अत्र आचार्य क्षुल्लकयोः प्रश्नोत्तररूपं गायाद्वयमाहगाथा-तइउत्ति कहं जाणसि १, दिहा णियया से तेहि मे वुत्तो । वट्टइ तइओ तुझं पयावेउं मम वि संका ॥१॥ दीसह य पाडिख्वं, ठिय चंकमिय सरीरभासाहि । बहुसो अपुरिस वयणे, सवित्थरारोवणं कुज्जा ॥ २ ॥ __ छाया-तृतीय इति कथं जानासि ? दृष्टा निज का अस्य तैम उक्तम् । वर्तते तृतीयो युष्माकं पत्रानयितुं ममापि शङ्का । ॥१॥ दृश्यते च प्रतिरूपं स्थितचङ्गमितशरीरभाषाभिः । बहुशः अपुरुषवचने सविस्तरारोपणां कुर्यात् ।। २ ॥ अयमर्थः-'अयं रत्नाधिको नपुंसकः' इति ब्रुवाणं क्षुल्लकमाचार्यः पृच्छति'अयं तृतीयः-तृतीया प्रकृतिः-नपुंसकः' इति कथ जानासि ! एवमाचार्यण, पृष्टः क्षुल्लकः प्राह-मया अस्य-रत्नाधिकस्य निजकाः कुटुम्चिनः दृष्टाः । तैः मे= मम उक्तम् यत्-'तृतीयो-नपुंसको युष्माकं प्रवाजयितुं वर्तते कल्पते किम् ?' इति । ' किं भवन्तो नपुंसकमपि प्रत्राजयन्ति' इति रत्नाधिरुस्णस्य सांसारिकलगा हे भदन्त ! यह रत्नाधिक नपुंसक है। इस विषय में आचार्य और क्षुल्लकका प्रश्नोत्तर रूप संबाद इस प्रकारसे है " तहउत्ति कहं जाणासि ?" इत्यादि । "रत्नाधिक नपुंलक है " इस प्रकार से कहनेवाले क्षुल्लकले आचाधने पूछा यह " तृतीय प्रकृतिवाला है-नपुंसक है" यह तुमने कैसे जाना तय क्षुल्लकने आचार्य से कहा-महाराज | मैंने इसके कुटुम्बीजन देखे हैं, सो उन्होंने मुझसे पूछा-कि मया तुम नपुंसकको भी दीक्षित करते हो ? मैने कहा नपुंलकको दीक्षा लेनेका अधिकार ही હતું. ત્યાંથી પાછા ફરીને તેણે આચાર્ય પાસે જઈને આ પ્રમાણે કહ્યું-- " मावन् ! ! २नाधि (गुरु दीक्षा पर्यायवाणा साधु) नघुस છે આ વિષયને અનુલક્ષીને તે આચાર્ય અને સુલ્લકને સંવાદ નીચે प्रभारी समायो. " तइउत्ति कहं जाणासि " या- ' આચાર તે ક્ષુલ્લકને એ પ્રશ્ન કર્યો કે “તમે એ કેવી રીતે જાણું तीय प्रतिवाणी (नस) छ १ | | ક્ષુલ્લકને જવાબ–“હે ગુરુદેવ! મને તેમના કુટુંબીજને મળ્યા હતા, તેઓ મને પૂછતાં હતાં કે શું તમે નપુંસકને પણ દીક્ષા આપે છે ખરાં? મેં તેમને એ જવાબ આપે હતું કે નપુંસકને દીક્ષા લેવાને Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धा. टीका स्था०६ रु० ५४ भवचने षडविधमायश्चित्तनिरूपणम् ४४७ सम्बन्धिनो मां पृष्टवन्तः' इत्यर्थः । तथा-ममाप्यस्य विषये शङ्काऽस्ति, यत्अयं नपुंसकोऽस्ति । यतोऽस्य स्थितचक्रमितशरीरंभापाभिः-स्थित्या गत्या शरीरेण भाषया च प्रतिरूप नपुंसकानुरूमं सर्व दृश्यते, मोऽहं ब्रवीभि-यदयं नपुंसक इति । एवंप्रकारेण रत्नाधिकविपये बहुशः अपुरूपनचने-नपुंसककथने वर्तमानस्य साधोः सविरतरारोपण-मासलघुप्रारभ्य पाराश्चिकं यावत् प्रायश्चित्तस्य प्रस्तारं कुर्यादिति । अवापि क्षुल्लकस्य मृपावादजनित एव प्रायश्चित्त प्रस्तारः। रत्नाधिको यहि सत्यमेव तथा भवति तदा तस्य साधुसयाद बहिकारो भवतीति पञ्चमः प्रायश्चित्तमस्तारः । १। नहीं है, तब उन्होंने कहा जो वह तुम्हारे पाप्त रत्नाधिक है, वह नपुंसक है, तथा मुझे भी इसके विषय में शङ्का है, क्योंकि इसकी स्थितिसे गलिसे शरीरसे और भाषासे मुझे सब इसमें नपुंसकके अनुरूपही दिखलाई देता है, इसलिये मैं कहता हूं कि यह नपुंसक है, इस प्रका. रसे रत्नाधिकमें नपुंलक होने का आरोप करनेवाले उस क्षुल्लक साधुमें मास लघु प्रायश्चित्तसे लेकर पाराश्चिक प्रायश्चित्त तकके प्रायश्चित्त प्रस्तारोंकी पात्रता जाननी चाहिये यहां क्षुल्लक साधुमें जो प्रायश्चित्त प्रस्तार की पात्रता कही गई है, वह उसके मृषावाद विरमण व्रतके भंग हो जानेसे कही गई है, तथा वह रत्नाधिक सत्य रूपमें जैसा क्षुल्लक साधुने प्रकट किया है, वैसाही यदि नपुंसक है, तो उसे साधु संघसे पहिष्कृत कर देना चाहिये इस प्रकारसे यह पांचो प्रायश्चित्त प्रस्तारहैઅધિકાર જ અમારા શાસનમાં મળે નથી ત્યારે તેમણે મને કહ્યું હતું કે તમારી સાથે જે રત્નાધિક છે તે નપુંસક છે. વળી હે ગુરુદેવ તેની રીતભાત, ભાષા, હલનચલન, હાવભાવ વગેરે જોતાં મને પણ એવી શંકા થાય છે કે તે ખરેખર નપુંસક જ છે.” આ પ્રકારને ખેટે આરોપ તે સાધુ પર મુકનાર તે સાધુ (શુકલક) માસ લઘુ પ્રાયશ્ચિત્તથી લઈને પારાચિક પ્રાયશ્ચિત્ત પર્યાના પ્રાયશ્ચિત્તોને પાત્ર બને છે. અહીં ભુલકમાં જે પ્રાયશ્ચિત્ત પ્રસ્તારની પાત્રતા કહેવામાં આવી છે તે મૃષાવાદ વિરમણ વ્રતને તેના દ્વારા ભંગ થવાને કારણે કહી છે. અને તે રત્નાધિક ખરેખર નપુંસક જ હોય તે તેને સંઘમાંથી હાંકી કાઢ જોઈએ. આ પ્રકારને આ પાંચમે પ્રાયશ્ચિત્ત પ્રસ્તાર છે, Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ટ स्थानासूत्रे तथा - दासवादं वदन् - ' दासोऽयम् ' इति असन्यमेव कस्मिथित् साधौ दोपमारोपयन् साधुः प्रायश्चितस्तारभागमवति । अत्रेदं वोध्यम् - दुष्प्रेक्षितादिपु रत्नाधिकेन प्रेर्यमाणः क्षुल्लकः क्रोधमुपगतः कदाचिदाचार्यसमीपे समागत्य कथयति - भदन्त । अयं रत्नाधिको दासोऽस्ति । अत्राचार्यक्षुल्लकयोः प्रश्नोत्तररूपं गाथात्रयमाह गाथा - खरउत्ति कहूं जाणसि, देहाऽऽयारा कहें ति से हंदी | छिकोचणदुभंडो, णीयासी दारुणसभावो ॥ १ ॥ 46 छाथा--- -खरक इवि कथं जानासि, देहाकाराः कथयन्त्यस्य हन्त । क्षिप्रकोपनो दुर्भाण्डो, नीचासी दारुगस्वभावः ॥ १ ॥ अयमर्थः -- रत्नाधिकोऽयं दामोऽस्तीति झुल्केनोके प्राचार्यस्तं पृच्छतिदासवादं वदन्" इसी प्रकार से किसी साधुके ऊपर ऐसे असत्य दोपका आरोपण करना कि "यह साधु दास है" इस प्रकार से असत्य दोषका आरोपण करनेवाला साधु प्रायचित्त प्रस्तारका पात्र होता है, इस विषय में ऐसा समझना चाहिये, किसी रहनाधिकने किसी क साधुसे अच्छी तरह से देखभाल करके प्रवृत्ति करने की बात कही तब वह क्षुल्लक उस पर क्रोधाविष्ट हो गया और आचार्य के पास जाकर कहने लगा हे भदन्त ! यह रत्नाधिक दान है, इस विषय में दोनोंका आचार्य को प्रश्नोत्तर रूप संवाद इस प्रकार से है "खरउत्ति कहं जाणसि " इत्यादि । यह रत्नाधिक दास है, ऐला जन क्षुल्लकने कहा तब आचार्यने હવે છઠ્ઠા પ્રાયશ્ચિત્ત પ્રસ્તારનું સ્વરૂપ પ્રકટ કરવામાં આવે છે. " दासवादं वदन्" इत्यादि કાઈ સાધુ ખીજા કાઈ સાધુ ઉપર એવા ખાટા આરેપ મૂકે છે કે “ આ સાધુ દાસ છે. ” તે તે પ્રકારનું ખેટુ દેષારાપગુ કરનાર સાધુ પ્રાય. શ્ચિત્ત પ્રસ્તારને પાત્ર બને છે. આ વિષયમાં વધુ સ્પષ્ટીકરણ નીચે પ્રમાણે સમજવું. કાઈ એક ગુરુ દીક્ષા પર્યાયવાળા સાધુએ કઈ લઘુ દીક્ષા પર્યાયવાળા સાધુને જતનાપૂર્ણાંક પ્રવૃત્તિ કરવાની સલાહ આપી તેથી તેશે ક્રોધાવેશમાં આવી જઇને આચાર્યની પાસે જઇને આ પ્રમાણે કહ્યું—“ હે ભગવન્! આ રત્નાધિક દામ છે” આ વિષયમાં તે ક્ષુલ્લક અને આથાય' વચ્ચેનેાસવાદ हवे आपवामां आवे छे. " खरउत्ति कहूं जाणासि " इत्याहि જ્યારે તે ક્ષુલ્લકે તે પર્યાયજયેષ્ઠ સાધુ દાસ છે એવી વાત કરી ત્યારે આચાર્યે તેને પૂછ્યું “तभे देवी रीते लक्ष्युं हे ते भरड ( हास ) छे ? ” Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुभा का स्था०६ सू० ५४ अवचने षड्विधप्रायश्चित्तनिरूपणम् ४४९ खरका दासोऽयमस्तीति कथं जानासि ? तदा क्षुल्लकः कथयति-इन्तेति खेदे! हे भदन्त ! अस्य देहाकारास्तथा कथयन्ति । तथाचार्य सिमकोपना शीघ्रकोध. करणशीला, दुर्भाण्डः असंतपरिधानादिः, नीचासी-नीचतरे आमने उपवेशनशीलो दारुणस्वभावः करस्वभावश्चास्ति । अथ दासानां यथाऽऽकारा भवन्ति तानेवाहगाथा-देहेण वा विरुवो, खुज्जो वडभो य बाहिरप्पादो। फुडमेर से आयारा कहें ति जह एस खरउत्ति ॥ २ ॥ छाया:-देहेन वा विरूपः कुज्जो बडभश्च वाद्यपादः । स्फुटमेवास्य आकाराः कथयन्नि यथेष खरक इति ॥ २ ॥ __ अयमथे:-अयं देहेन वा-शरीरेणापि विरूप-विकृतरूपवानस्ति । वैरू. प्यमेवाह-अयं शरीरेण कुजो, बडमा चामनः, वाह्यपादा-दीर्घचरणश्चास्ति । एतादृशा आकारा ए पास्य स्फुटं कथयन्ति-यथा एष खरको दासोऽस्तीति । उससे पूछा-" यह खरक-दास है" इस बातको तुम कैसे जानते हो तब क्षुल्लकने उनसे कहा हे भदन्त ! मैं क्या कहूं इसके देहाकारही इस बात को कह रहे हैं तथा इसे जरा २ सो बातोंमें जल्दी क्रोध आ जाता है, उखाडे शरीरही यह धैठा रहता है, वस्त्र आदि ओढता नहीं है, नीचासी-नीचतर आसन पर यह बैठता है, और स्वभाव में यह क्रूर है । दालोंके जैसे आकार होते हैं वह उन्हें अब प्रकट करता हुआ कहता है-" देहेण वा विख्यो" इत्यादि । दात जैसा शीरसे विकृतरूपवाला होता है, वैसाही यह विरूप है, विकृक रूपवाला है-देखिये कि-यह शरीरले कुन्ज है, वामन है, बाह्यपादवाला है, लम्बे पगवाला है, इस तरह के ये शारीरिक आकार ત્યારે તે ક્ષુલ્લકે જવાબ આપ્યો--“તેના શરીરની આકૃતિ, વર્તન આદિ દાસના જેવો જ છે. તેને વાત વાતમાં ક્રોધ આવી જાય છે, તે ખૂલ્લે શરીરે જ બેસી રહે છે-શરીર પર કઈ વસ્ત્ર ઓઢત નથી, તે નીચતર આસને બેસે છે, અને તે સ્વભાવે ક્રૂર છે.” દાસના શરીરને આકાર કે હોય છે તેનું શાસ્ત્રોમાંથી પ્રમાણ આપીને તે ક્ષુલ્લક આચાર્યને કહે છે કે : __“ देहेण वा विरुवो" त्याहि-- દાસનું શરીર જેવું વિકૃત (બેડેળ) હોય છે, એવું જ વિકૃત શરીર આ રત્નાધિક સાધુનું છે–તેના શરીરે ખૂધ છે, તે વામન છે, તેના પગ લાંબા છે. આ પ્રકારની તેની શરીર રચના વડે જ એ વાત સિદ્ધ થઈ જાય છે કે स्था०-५७ Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० स्थानासत्रे तथा-एतस्य संवन्धिनोऽपि मामुक्तवन्तो-यदयं दासोऽस्तीति । एवं तेनोक्ते आचार्यः प्राहगाथा-केइ सुरूव दुरूबा, खुजा वडमा य वाहिरप्पाया। नहु ते परिभरिचया, वयणं च गारियं वोत्तुं ॥ ३ ॥ छाया-केपि सुख्णाः कुरूपाः कुज्जा बडभाश्च वाद्यपादाः। ___ न खलु ते परिभवितव्याः , वचनं च अनार्य वक्तुम् ॥ ३ ॥ अयमर्थः-इह नामकर्मोदयवैचित्र्यान् केचिन् नीचकुलोत्पन्ना अपि दासादयः सुरूपा भवन्ति । के चित् पुनः राजकुलोत्पन्ना अपि कुरूपा अर्थात् कुब्जा वामना बाह्यपादाश्च भवन्ति । अतस्ते न खलु-नैव परिभवितव्याः-तिरस्करणीया। न च तेषां विपयेऽनार्य वचनं वक्तुमुचितमिति । ३ । एबमाचार्येणोपदिष्टोऽपि क्षुल्लको रत्नाधिक विषये दासत्व मेवं साधयति । ही स्पष्ट रूप से यह प्रकट कर रहे हैं, कि यह खरक-पास है, तथा इसके जो सम्बन्धी जन हैं, उन्होंने भी सुजले यही कहा है कि यह दासहै, इस प्रकार जब क्षुल्लकने आचार्य से कहा तब वे कहने लगे-"केह सुरूव दुरूवा" इत्यादि। हे क्षुलुक संसारमें नामकर्म के उधकी विचित्रताको लेकर कितनेक नीच कुल उत्पन्न हुए दासादिजन सुरूवाले होते हैं, और कितनेक राजकुल में उत्पन्न हुए भी जन कुरूप अर्थात् कुन वामन एवं बाह्यपाद वाले होते हैं अतः ऐसे व्यक्ति न तिरस्कर गोय होते हैं, और न उनके प्रति अनार्य वचन का प्रयोग शोभनीय होता है इस प्रकारले आचार्य के द्वारा समझाया शधा भी वह क्षुल्लक તે દાસ છે. વળી તેમના જે સબંધીઓ છે તેમણે પણ મને કહ્યું છે કે તે દાસ છે” તે ભુલકની આ પ્રકારની દલીલ સાંભળીને તે આચાર્યું તેને કહ્યું ___“केइ सुरूव दुरूवा" त्याहि-- હે સુલક! સંસારમાં નામકર્મના ઉદયની વિચિત્રતાને લીધે નીચ કુળમાં ઉત્પન્ન થયેલા કેટલાક દાસાદિ જન પણ સૌંદર્ય સંપન્ન હોય છે અને રાજકુળ આદિ ઉત્તમ કુળમાં ઉત્પન્ન થયેલા કેટલાક લેકે કદરૂપાં (દૂધ આદિ વિકૃત શરીરવાળા, વામન રૂ૫, લાંબા પગવાળાં) પણ હોય છે. તેથી એવા લેકે તિરસ્કારને પાત્ર નથી અને એવા લોકો માટે આવા કઠેર વચને બલવા તે કઈ પણ રીતે ચગ્ય નથી ? આચાર્ય દ્વારા આ પ્રમાણે સમજાવવામાં આવ્યા છતાં પણ જે તે Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ gar टीका स्था०६ सू० ५४ अवचने षविध प्रत्यश्चिचनिरूपणम् ૩ अत्र पूर्ववदेव क्षुल्लकस्य मृपावादजनितो मासलध्यादि पाराचिकं यावत्प्रायश्चिस्वारो बोध्यः । यदि तु रत्नाधिकः सत्यमेव दासो भवति तदा स साधु स घाद वहिष्कृतो भवतीति षष्ठ प्रस्तारः । ६ । पूर्वोक्तमेवार्थ स्पष्टयितुमाह-' इच्वे ' इत्यादि । इत्येतान् कल्पस्य = साध्वाचारस्य पटू प्रस्तारान् = मासलध्वादि पारा चिकान्तान् प्रायश्चित्ताच नाविशेपान् प्रस्तारयिता - रत्नाधिके दोषारोपणकर्ता साधुः सम्यकन्याथातथ्येन अविपूरयन् - प्रमाणीकर्तुम् अशक्नुवन् स्वयं तत्स्थानप्राप्तः = मायश्चित्तवस्तारभांगू भवतीति ।। ० ५४ ॥ 66 जब अपनी हठको नहीं छोड़ना है, और रत्नाeिsh विषयमें अपने विचारोंमें परिवर्तन नही लाता है, प्रत्युत दास भावकीही उसमें पुष्टि करता है, तब क्षुल्लक पूर्व की तरहसे ही मुषायादजनित मास लघु आदि पाराश्चित्त तक प्रायश्चित्त प्रस्तारोको पात्र होता है, यदि वह रत्नाधिक क्षुल्लक के कथनानुसार यदि यथार्थ रूपमें दाल है, तो उलको साधु संस्थोसे बाहर कर देना चाहिये इस प्रकार यह छहा प्रस्तार है, ६ छप्पर पत्थारे पत्थरेता सम्म अपरिपूरेमाणे तहाणपत्ते " इस तरह इन साध्वाचार के षट् प्रस्तारोंको मास लघु आदिसे लेकर पाराश्चित तक प्रायश्चित रचना विशेनों को रत्नाभिक में दोवारोपण करनेवाला साधु यदि अपने द्वारा आरोपित दोष को उसमें प्रमाणित करने में असमर्थ है, तो वह दोषारोपण करनेवाला स्वयं प्रायश्चित्त प्रसारका पात्र होता है || सू० ५४ ॥ ક્ષુલ્લક પેાતાની હઠ છેાડતા નથી અને રત્નાધિક વિષેના પેાતાના વિચારમાં જો પરિવર્તન લાવતા નથી, ઊલ્ટા તે રત્નાધિકમાં દાસભાવની જ પુષ્ટિ કરતા રહે છે તેા તે આગળ કહ્યુ મુજપના મૃષાવાદ જનિત માસલથી લઈને પારાંચિત પ્રાયશ્ચિત્ત પર્યન્તના પ્રાયશ્ચિત્ત પ્રસ્તારને પાત્ર બને છે. જો તે રત્નાધિક ક્ષુલ્લકના કથન અનુસાર ખરેખર દાસ જ હાય, તે તેને સાધુએના ગચ્છમાંથી કાઢી મૂકવા જોઇએ. આ પ્રકારના આ છઠ્ઠો પ્રાયશ્ચિત્ત પ્રસ્તાર છે. इच्चे छप्पर पत्थरे पत्थरेत्ता सम्मं अपरिपूरेमाणे ताणवत्ते " કોઈ પણ રત્નાધિક પર દેષારોપણ કરનાર સાધુ જો પાતે મૂકેલા દોષે તે સાબિત કરવાને અસમર્થ નિવડે તે તે પેાતે માસલઘુ આદિથી લઇને પારાંચિત પન્તના ૬ પ્રાયશ્ચિત્ત પ્રસ્તારને પાત્ર બને છે. સાધ્વાચારના તે ૬ પ્રસ્તારનું આ સૂત્રમાં નિરૂપણુ કરવામાં આવ્યું છે. સાથે સાથે એવા ૬ મકારના દોષારોપણે પણ ઉપર પ્રકટ કરવામાં આવ્યા છે. ! સૂ. ૫૪ ૫ 66 Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानागसूत्रे पुनरपि कल्पविषयमेव सूत्रद्वयमाह मूलम्-छ कयास्स पलिमंथू पण्णत्ता, तं जहा-कोकुइए संजमस्त पलिमंथू १ मोहरिए सच्चवयणस्स पलिमंथू २, चक्खुलोलए इरियाबहियाए पलिमंथू३ तितिणिए एसणागोयरस्ल पलिमंथू ४ इच्छालोलिए मुत्तिमरगल पलिमंथू ५ भिजाणियाणकरणे मोखमग्गस्त पलिमंथू ६, सव्वत्थ भगवया अणियाणया पलत्था ॥ सू० ५५ ॥ छाया-पट कल्पस्य परिमन्यवः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-कौकुचिकः संयमस्य परिमन्थुः १, मौखरिकः सत्यवचनस्य परिमन्युः २, चक्षुर्लोलकः ऐपिथिक्याः परिमन्थुः ३, तिन्तिणिक एपगागोचरस्य परिमन्युः ४, इच्छालोभिको मुक्तिमार्गस्य परिमन्थुः ५, अभिध्यानिदानकरगो मोक्षमार्गस्य परिमन्थुः ६, सर्वत्र भगवता अनिदानता प्रशस्ता ॥ सू० ५५ ॥ टीका-छ कप्पस्स' इत्यादि । परिमन्थुः-द्रव्यमावभेदाद् द्विविधः । तत्र-द्रव्यपरिमन्यु देधिमन्थनसाधनो मन्थानदण्डः । भावपरिमन्थुस्तु-दधिसशस्य कल्पस्य मन्थने-विनाशने साध. नभूतो मन्थानसदृशः कौकुचिकादिः । तदुक्तम्-- पुनरपि सूत्रकार कल्प विषयक दो सूत्र कहते हैं "छ कप्पस्स पलिमंथू पणत्ता' इत्यादि सूत्र ५५ ॥ टीकार्थ-कल्पके परिभन्थू ६ कहे गये हैं, इनमें द्रव्य और भावके भेदसे परिमन्थू दो प्रकारका होता है, दधिको मन्यन करने का साधनभूत जो मन्थान-दण्ड रई होता है, वह द्रव्य परिमन्थू है, और दधिके सदृश સૂત્રકાર હવે કલ્પવિષયક બીજા બે સૂત્રનું કથન કરે છે– टी -“ छ कप्पस्स पलिमंथू पण्णत्ता" त्या જેના દ્વારા સાધુના આચાર નષ્ટ થાય છે એવી ચેષ્ટાનું નામ પરિમથન છે અને એવી ચેષ્ટા કરનારને ક૯પના (આચારના) પરિમલ્થ કહે છે પરિમન્યુના દ્રવ્ય અને ભાવના ભેદથી બે પ્રકાર પડે છે દહીંને વલવવા માટેનું જે રે હોય છે તે દ્રવ્ય પરિમળ્યું છે. દધિ સમાન ક૯૫ના મન્થનમાં વિનાશ કરવામાં) સાધનભૂત જે ભાવે છે (કૌકુચિકાદિ ભાવે Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा ठीका स्था०६ सु०५५ कल्पविषयनिरूपणम् ४५३ " दवम्मि मंथिए खलु, तेण मंथिज्जए जहा दहिए ।। दधितुल्लो खलु कप्पो मंथिज्जइ कुक्कुयाईहिं ॥ १॥" छाया--द्रव्ये मन्थिकः खलु, तेन मथ्यते यथा दधिकम् । दधितुल्यः खलु कल्पो यथ्यते कौकुचिकादिभिः ॥ १ ॥ इति । अत्र हि भावपरिमन्थव एव विवक्षिता इत्याह-'छ कप्पस्स' इत्यादि । कल्पस्य-साध्वाचारस्य पट् परिमन्यवः मन्थानभूताः प्राप्ताः । तद्यथा-कोकु. चिका-भाण्डवत् कुचेष्टाकारकः साधुः, अयं हि-स्थान-शरीरभाषाभेदात् त्रिविधः। तदुक्तम्-- "ठाण सरीरभासा तिविहो पुण कुक्कुई समासेणं । " कल्पके मन्धनमें विनाश करने में-लाधनभूत जोमन्थान-मधानीके जैसा कोकुचिकादि हैं वे परिमन्थू हैं। कहा भी हैं__“दबम्मि अधिए खलु " इत्यादि । जिस प्रकार मन्यान दण्डले दही नया जाता है, उसी प्रकार कौ. चिका आदिकोले दही तुल्प कल्प (साधुझा आचार) भी सथा जाता है, नष्ट किया जाता है, अतः यहाँ भाव परिमन्थूही विवक्षित हुए हैं, ये भाव परिमन्यु लामाचार रूप कल्पके विनाशक होते हैं-इनमें प्रथम परिमन्यु कौकुचिक है, भाण्डकी तरह जो कुचेष्टा करनेवाला साधु होता है, वह कौकुचिक शब्द से यहाँ प्रकट किया गया है, यह कौकुचिक स्थान शरीर और भाषाके भेदसे तीन प्रकारका होता है। कहा भी है-" ठाणं सरीरमासा" इत्यादि । સાધુના આચારને વિનાશ કરનારા છે,) તેમને ભાવ પરિમલ્થ કહે છે. खु ५४ छ " व्यभि मंथिए खलु " त्या: જેવી રીતે રેયા વડે દહીંનું મન્થન કરવામાં આવે છે, એ જ પ્રમાણે કોકુચિકા આદિ વડે દહીં સમાન ક૫ (સાધુના આચાર) નું પણ મન્થન કરાય છે. એટલે કે કકુચિકા આદિ વડે સાધુના આચારને ભંગ થાય છે. તેથી સૂત્રકારે અહીં ભાવ પરિમન્થની જ પ્રરૂપણ કરી છે તે ભાવ પર. મળ્યુઓ સાધુના આચાર રૂપ ક૯૫ના વિનાશક હોય છે. તેના નીચે પ્રમાણે ६ ४२ छ-(१) औयि:-माउन रवी येष्टा ४२॥२ साधुन मही કકુચિક પરિમલ્થ કહ્યો છે. તે કકુચિકના સ્થાન, શરીર અને ભાષાના ભેદથી ત્રણ પ્રકાર પડે છે. કહ્યું પણ છે કે: “ठाणं सरीरमासा" त्या Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ४५४ स्थानास्त्र छाया--स्थान शरीरमापा त्रिविधः पुनः कौकुचिकः समासेन इति । तत्र-पत्रवत् नर्तिकानद् या यो भ्राम्यति स स्थानतः कौचिकः । यस्तु करादिभिः पापाणादीन तिपति स शरीरतः कौकुचिकः । तदुक्तम्-- " करगोफणधणुयायाइएहिं उन्छुइड पत्थराईए । भगुहादाढिय पुय पमिइ कंपणं णवाइनं ॥ १ ॥ छाया-करगोरुगधनुःपादादिमै रुक्षिपति प्रस्तरान् । बृहनुपुतप्रभृतिकम्पनं नाटयवादित्वम् ।। १ ।। इति । तथा-यो हि 'सेष्टितमुखबादित्रादि करोति, तथा च जल्पति यथाऽन्यो हसति, स भाषातः कौकुचिकः । तदुक्तम्" छेलिभ मुल्याइत्तं, जंएइ य तहा जहा परो हाइ । कुगइ य सए बहुविहे वग्याडिय देसभासाओ ॥ १ ॥" ___ जो यन्त्रकी तरह अथवा नाचनेवाली की तरह इधर उधर भ्रमण करता है, वह स्थानकी अपेक्षा कौकुचिक है, जो हाथ आदिकोसे पत्थर आदियों को फेकता है, वह शरीरकी अपेक्षा कौकुचिक है, कहा भी है-" कर गोफणधYषाघाइएहिं " इत्यादि। जो हायसे गोफणसे धनुषसे और पग आदिकोंसे पत्थर फेंकना है, तथा भ, दाढी, पोंद इत्यादिकों को कंपाता है, विविध नाटयकी क्रीडाओंको जो करता है, वह शरीरकी अपेक्षा कौकुचिक है, तथाजो सेपिटत एवं अनेक प्रकारले सुखको बजाता है, तो इस प्रकारसे पोलता है, कि जिससे दूसरोंको हंसी आ जाती है, वह भाषाकी अपेक्षा कौकुचिक है । कहा भी है-"छेलिय मुहवाइ " इत्यादि । - જે સાધુ યંત્રની જેમ અથવા નાચનારીની જેમ આમ તેમ ભ્રમણ કર્યા કરે છે તેને સ્થાનની અપેક્ષાએ કીકુચિક કહે છે. જે હાથ આદિ વડે પત્થર આદિ ફેંકયા કરે છે તેને શરીરની અપેક્ષાએ કીકુચિક કહે છે. ४घु ५५ छ । “ करगोफणधणुपायाइएहि " त्याल હાથ વડે, ગોફણ વડે, અને પગ વગેરે વડે પત્થર ફેંકનાર તથા ભ્ર, દાઢી ઈત્યાદિને કંપાવનાર અને વિવિધ નાટયકીડાઓ કરનાર માણસને શરી રની અપેક્ષાએ કોકુચિક કહે છે જે માણસ મુખ વડે સીટી બજાવે છે, અને વિવિધ સૂરે કાઢે છે અને બીજા લોકોને હસવું આવી જાય એવી ભાષા બેલે છે તેને ભાષાની અપેક્ષાએ કૌકુચિક કહે છે. કહ્યું પણ છે કે "छेलिय मुहवाइत्तं " त्याल Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुंधा का स्था०६ सू० ५५ कल्पविषयनिरूपणम् ४५५ छाया-सेष्टितं मुखवादित्रं जल्पति च तथा यथा परो हसति । करोति च रुत बहुविधं वग्वाडी देशभाषाः ॥ १ ॥ इति 'छेलिअ ' इति चीत्कारवाचको देशीशब्दः । हास्यजनिका भापा 'बग्घाडी' इत्युच्यते । अयं त्रिविधोऽपि कौकुचिकः संयमस्य चारित्रस्य परिमन्थुः=विधातको भवतीति प्रथमः । १ । तथा-मौखरिका-मुखरोधाचालः, स एव मौखरिकः । यद्वा-मुखेन अरिं शत्रुम् आवहति=करोति यः स पृषोदरादित्वात् मौखरिका अविचार्यभापी। जो भिन्न ढंगले चीत्कार करता है, मुखको बाजाके रूपमें करके जो बजाता है, और बोलने के ढंगको जो इस प्रकारसे अपनाता है, कि जिससे दूसरे जनको हंसी आ जाती है-जो हास्योत्पादक भाषा बोलना है, जो अनेक प्रकारकी अवाजे करता है, ऐसा वह साधु भाषाकी अपेक्षा कौकुचिक है, इस गाथामें “ छेलिअ" यह शब्द चीत्कार ध्वनिका वाबक देशी शब्द है, तथा " बग्घाडी" यह शब्द हास्यजनक भाषाका वाचक है, यह तीनों प्रकारका कौकुचिक चरित्रका विघातक होता है, यह कल्पका प्रथम परिमन्थु है १ द्वितीय प्रकारका परिमन्थ मौखरिक है २ लुखर शब्दका अर्थ वाचाल है, मुखरही मौखरिक कहा जाता है, अथवा सुखेन-मुग्वसे-यद्रा तवा बोलने से-जो अपना " करोति " शत्रु बनाता है, यह मौखरिक है, विना विचारे जो बोलनेका स्वभाववाला होता है, अर्थात् जो मन में आया वही बोलनेवाला व्यक्ति જે સાધુ ભિન્ન રીતે ચીતકાર કરે છે, મુખને વાજાની જેમ વગાડે છે, હાસ્યોત્પાદક વાણી બેલે છે–એવા એવા ભાષાપ્રયોગો કરે છે કે શ્રોતાઓને હસવું આવી જાય છે, જે અનેક પ્રકારના સૂર કાઢે છે, તે સાધુને ભાષાની अपेक्षा हानि ४ . २ थामा “ छेलिअ" ५४ यात्रनुं वाय छ तथा " वग्वाडी" मा ५४ स्योत्पा४४ भाषानु पाय छे. म त्र પ્રકારના કૌકુચિકે ચરિત્રના વિઘાતક હોય છે. કલપના (આચારના) પ્રથમ પરિમન્થનું આ પ્રકારનું સ્વરૂપ છે પરિમલ્થને બીજો પ્રકાર મખરિક છે મુખર એટલે વાચાળ. એવા વાચાળ સાધુને સૌખરિક કહે છે જે માણસ વગર વિચાર્યો મનને ફાવે તેમ બેલનારે હોય છે તેને મૌખરિક કહે છે. અથવા મુખ વડે ગમે તેવું બોલીને २“अरिं करोति " न्य. पाताना दुश्मन मनावे छे तने भौग२ि४ ५३ थे. Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाजस्त्रे उक्तं च-" मुखरिस्स गोन्ननामं, आवहइ मुहेण भासंतो।" छाया-मौखरिकस्य गौणनाम आवहति (अरिं) मुखेन भापमाणः-इति । स चायं मौखरिकः सत्यवचनस्य-मृपावादविरमणवतस्य परिमन्थुभवति । मुखरस्य बहुभाषित्वात् भापणकाले मृपावादस्यास्ति संभवइति भावः । इति द्वितीयः ।। तथा-चक्षुलोलका-चक्षुपालोला=चञ्चलः, स एव, यद्वा-चक्षुलॊलं चञ्चलं यस्थ सः यो हि उद्यानादीन् पश्यन् प्रति सः । अयं च धर्मकथादीनामप्युपल. क्षणम् । तेन यो हि धर्मयां कुर्वन् व्रजति सोऽपि ग्राह्यः । तहतम्-"आलोयंतो वच्च, उज्जाणाइ कहेइ वा धम्म। परियट्टणाणुप्पेहण, ण पेह पंथं अणु उत्तो ॥ १॥" छाया--भालोकयन् व्रजति उद्यानादिकम् कथयति वा धर्मम् । परिवर्तनानुप्रेक्षणे न प्रेक्षते पन्यानम नुपयुक्तः ।। १ ।। इति । मौखरिक कहलाता है, कहा भी है-मुख रिस्त गोन्ननाम" इत्यादि। यह मौखरिक-सत्य वचनका मृषावादविरमगाव नका परिमन्यु होता है, क्योंकि बहुत बोलने के स्वभाववाला होने के कारण उसके भाषणकालमै मृपावाद सो सभापित होना है २ हनीय परिमन्यु चक्षुलोलक है, चक्षुसे जो चञ्चल होता है, वह अयबा-चक्षु जिलकी चंचल होनी है, वह चक्षुर्लोलक है, चलते समय जो इधर उधरकी चीजोको देखता २ चलता है, वह चक्षुलोलक कहा जाता है, धर्मकथा करते हुए चलने वालोंका भी यह उपलक्षण है, अतः धर्मकथा करते २ चलनेवाला भी चक्षुलोलक है । कहा भी है___" आलोयंतो बचह" हत्यादि। { पर छे " मुखरिस्स गोन्न नाम " त्या તે મૌખરિક મૃષાવાદ વિરમણ વ્રતને પરિમળ્યું ( વિરાધક ) હોય છે, કારણ કે તેની વાચાળતાને કારણે તે જે કઈ વ ત કરતે હોય તેમાં અસત્યતા (મૃષાવાદ) સંભવી શકે છે. હવે ત્રીજા પ્રકારના પરિમન્થ પ્રકટ કરવામાં આવે છે— - જે સાધુના નેત્ર ચંચલ ઠેય છે તેને ચક્ષુવક કહે છે. માર્ગમાં ચાલતી વખતે તે આસપાસની ચીજોને જોતાં જોતાં ચાલે છે, તેથી તેના દ્વારા ઈસમિતિની વિરાધના થાય છે. ચાલતાં ચાલતાં ધર્મકથા કરનાર સાધુને પણ ઉપલક્ષણની અપેક્ષાએ ચક્ષુઓંલક કહી શકાય છે. धु ५४ छ " आलोयतो वच्चा " त्या6ि-- Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टोका स्था० सू०५५ कल्पविषयनिरूपणम् ४५७ एवं विधो हि साधुः पथिक्या: - ईरणम् ईयो = गमनं, तस्याः पन्थाः - ईयापथः, तत्र भवा समितिः - ऐर्यापथिकी, तस्याः परिमन्युर्भवति । उक्तं च--- "छक्कायाणविराहण, संजम आयाए कंटगाईयो । 1 आवडणभाणओ लोगे उड्डाह परिहाणी ॥ १ ॥ " छाया - षट्कायार्ना विराधना संयमे आत्मनि कण्टकादयः । आपतनं भाण्डभेदः लोके उड्डाहः परिहानिय ॥ १ ॥ इति । चक्षुत्यादिना हिगमनकाले पकायविराधनादयो दोषा भवन्ति, ततथ ऐप की समिघातो भवतीति भावः । इति तृतीयः । ३ । तथा - तिन्तिणिकः -यो हि भिक्षाचर्यादिपु पर्याप्ताहाराचलाभेन खेदात् संजावक्रोधावेशेन नाभिधा भवति स ' तिन्निगिक: ' इत्युच्यते । अयं हि एषणा गोचअर्थात्- (- उद्यान आदिकों को देखते हुए जो चलता है, या धर्मकथा करते हुए जो चलता है, वह अनुपयुक्त होता है, अपने गमन मार्ग पर उपयोग रखनेवाला नहीं होता है, इस प्रकारका साधु ऐर्यापथिकी ईर्यापथ समितिका परिमन्यु होना है, इर्षा नाम गमनका है. इस गमनका जो मार्ग है, वह ईथ है, इस ईमें जो समिति होती है, वह ऐपथिकी है, चक्षुर्लोलक इस ऐपिथिकीका परिमन्धु विनाशक होता है - " छक्कायाण विराहण " इत्यादि । छकाकी विराधना होने से संयम विराधना होती है, और कंटक आदिसे आत्म विना धर्म की होती है, गिरना और पात्रोंका फूटना लोक उड्डाह अर्थात् निन्दा और हानि भी होती है, चतुर्थ परिमन्यु ઉદ્યાન આદિને જોતાં જોતાં ચાલનારા અથવા ધર્મ કયા કરતાં કરતાં ચાલનારા સાધુ અનુપયુક્ત હોય છે-એટલે કે પેાતાના ગમન મા પર ઉપયેાગપૂર્વક ચાલનારા હેતે નથી આ પ્રકારના સાધુ અોપથિકી મિતિના પરિમન્યુ ( વિનાશક) હાય છે.ઇર્ષ્યા એટલે ગમન તે ગમનના માને ઇર્ષ્યા કહે છે. ચક્ષુૉલક સાધુ આ ઇર્યાંપથ સમિતિનું સમ્યક્ રીતે પાલન કરી શકતા નથી તે કારણે તે અય્યપથિકી સમિતિના વિરાધક અને છે, કહ્યું પણ Z " छक्कायाण विराहाण " त्याहि- છકાચાની વિરાધના થવાથી સયમની વિરાધના થાય છે. અસાવધાની પૂર્ણાંક ચાલવાથી કાટા વાગે, પડી જવાય, પાત્ર આદિ ફ્રૂટ અને તે કારણે લેાકેામાં નિન્દા પણ થાય અને પેાતાને હાનિ થાય છે, સાથે સાથે ધમની પશુ વિરાધના થાય છે. स्था०-- ५८ Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानासत्रे (४५८ ‘रस्य-एपणा-उद्गमादिदोपरहितमरूपानगवेपणरूपा, तत्मधानो गोचर - तस्य 'परिमन्थु भाति । खेदयुक्तो हि क्रोधावेशेन अनेपणीयमपि गृहातीति भावः । इति चतुर्थः । ४ । तथा-इच्छाकोभिका-इच्छा स्पृहा, लोभः तृष्णा, तौ विद्यते यस्य सः-अभिलपितपदार्थ सकृष्णः-अधिकोपधिरित्यर्थः । स हि मुक्तिमार्गस्यमुक्तिनिर्लोभता, तद्रूपस्य मार्गस्य-परिमन्थुर्भवति । अधिकोपधि हि निष्परिग्रहत्वरूपं व्रतं न 'पालयितुं शक्नोतीति स तस्य विघातको भवतीति भावः । "तिन्तिणिक " है, उद्मादि दोप रहिन भक्तपान की गवेपणा रूप एषणा होती है, इस एपणा प्रधान जो गोचर-गोचरी भिक्षावर्या है, वह एपणा गोचर है, भिक्षाचर्या आदिमें पर्याप्त ओहार आदिके अलाभसे जो खेद खिन्न हो जाता है, एवं उद्भूत क्रोधके आवेशसे जो मनमें "आता है वही बकने लग जाता है, ऐमा पुरुष साधु-तिन्तिणिक कहलाता है, ऐसा खेदयुक्त साधु क्रोधके आवेशसे अनेषणीय भी आहारादिको ग्रहण कर लेता है, अतः वह एपणा गोचरका परिमन्यु होता कहा गया है ४ पांचवां परिमन्यु इच्छालोभिक है-इच्छा नाम स्पृहाको है, और लोभ नाम तृष्णाका है, रपृहा और तृष्णा जिसके हैं ऐसा अधिक उपधिवाला इच्छालोमि मुक्ति मार्गका परिमन्थु होता है, क्योंकि मुक्ति निमितारूप होती है, अधिक उपधिवाला निष्परिग्रहता रूप व्रतका पालन नहीं कर सकता है, अतः निलेमिनारूप मुक्तिके निष्परिग्रहला रूप मार्गका इञ्छा लोलिक अनुसरण नहीं कर सकता ऐसा वह मार्ग किसी प्रकार उसके हाथ नहीं आता है, क्योंकि वह - એથે પરિમળ્યુ “તિતિણિક ગણાય છે ઉદ્રમાદિ દેવ રહિત આહાર પાણીની ગષણ રૂપ એવા હોય છે તે એષણા પ્રધાન જે ગોચરી (ભિક્ષાચર્યા) છે તેને એવણું ગોચર કહે છે. શિક્ષાચર્યા આદિમાં પુરતાં આંડાર પાણીની પ્રાપ્તિ ન થવાથી જે સાધુ ખિન્ન થઈ જાય છે અને કોઈના આવેશમાં આવી જઈને મનમાં આવે તે બકવા માંડે છે, એવા સાધુને તિનિશ્ચિક (તિતાલિ) કહે છે. એવો સાધુ અનેવીય આહારાદિ પણ ગ્રહણ કરી લે છે તેથી એ સાધુ એષણ ગોચરને પરિમળ્યું (विराध) गणाय छे. પાંચમો પરિમન્યુ “ઈચ્છા લેબિક” ગણાય છે. પૃડા એટલે ઈચ્છા અને લેભ એટલે તૃષ્ણા. જે સાધુ માં વસ્ત્ર, પાત્ર આદિ ઉપધિની સ્પૃહા અને તૃષ્ણા અધિક હોય છે એવા સાધુને ઈચ્છાભિક કહે છે એ સાધુ મુક્તિમાને પરિમન્યુ (વિરાધક) હોય છે. કારણ કે મુક્તિ નિર્લોભતા રૂપ હોય છે. અધિક ઉપધિવાળે સાધુ પિતાને અપરિગ્રહ વ્રતનું પાલન ફરી Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०६ सु०५५ वल्पविषयनिरूपणम् इति पञ्चमः । ५ । तया-अभिव्यानिदानकरणः-अभिध्यया लोभेन यो निदानंचक्रवतीन्द्रादि पदप्राशये प्रार्थनां करोति स मोक्षमार्गस्य-सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्रतपोपस्य परिमन्थुर्भवति । अभिध्यावशानिदानकारको हि आतध्यानवान् भवति। ततश्च स मोक्षमार्गावलियो भवति । अत एवाय मोक्षमार्गस्य परिमन्थुरित्युच्यते । ' अभिध्या' इति विशेषणेन यः पुनरलोभो जन्ममरणादिनिवारिणों प्रार्थनां कुरुते, तस्यैवंविधं निदानं न मोक्षमार्गस्य परिमन्थुरिति म्रचितम् । नन वर्हि तीर्थ करत्वादि पदमाप्तिमार्थनं न चक्रवादिपदपायनवदुष्टम् , अतस्तीर्थकरत्वादिविषयकं निदान न मोक्षस्य परिमन्थुरिति चेत् , आह भूत्रकारः उसका विघातक होता है, छहा परिमन्यु अभिा निदान करनेवाला अभिध्या नाम लोभका है, लोभसे जो चक्रवर्ती आदि पद पानेकी खाहना करता है, ऐसा वह साधु आतव्यानवाला होता है, आतध्यानसे लाधु मुक्तिमार्गसे गिर जाता है, इसीलिये इसे मोक्षः मार्गका परिमन्यु कहा गया है । " अमिध्या" इस विशेषणले संत्रकारने यह प्रकट किया है, कि जो लोभ रहित होकर जन्म मरण आदिको नष्ट करने की आकांक्षा (बांछा) करता है, उसका इस प्रकारका निदान मोक्षमार्गका परिमन्थु-विनाशक नहीं होता है। शंका--तो तीर्थंकर आदि पदकी चाहना जो कि जन्म जरा मरणकी विनाश करनेवाली है, चक्रवर्ती आदि पदकी चाहनाकी तरह दुष्ट नहीं होती है, तो इसके लिये तीर्थकरत्व आदि विषयक निदान मोक्षका परिमन्थु नहीं होता होगा क्या? શકતું નથી. તે કારણે તે સાધુ નિર્લોભતા રૂપ મુક્તિમાર્ગ પ-આગળ વધી શિકતું નથી. તેથી એવા સાધુને મુક્તિમાર્ગને પરિમન્યુ (વિરાધકો કહ્યો છે. '' અભિધ્યાનિદાન કરનારને છઠ્ઠા પ્રારને પરિમન્યુ કો છે.અભિધ્યા એટલે લેભ. જે સાધુ લેભને વશ થઈને ચક્રવર્તી આદિ પદ પ્રાપ્ત કરવાની ઈચ્છા સેવે છે, તે સાધુ આર્તધ્યાનવાળો હોય છે. આર્તધ્યાનને લીધે સાધુ મુક્તિમાર્ગથી ખલિત થઈ જાય છે, તે કારણે તેને મોક્ષમાર્ગને પરિમળ્યું ४ो छ. " अभिध्या " मा विशेषना प्रयास द्वारा सूत्रा२ . पात घट કરે છે કે જે સાધુ ભરહિત બનીને જન્મમરણ આદિને અતિ લાવવાની આશા સેવે છે, તે સાધુની તે પ્રકારની આકાંક્ષા મેક્ષમાર્ગની વિનાશક બનતી નથી. છે, શક–જેવી રીતે ચક્રવર્તી આદિ પદની ચાહના મેક્ષમાર્ગની વિનાશક ગણાય છે, એવી જ રીતે જન્મ, જરા અને મરણને વિનાશ કરનાર તીર્થકર પદની ચાહના રૂપ નિદન શું ક્ષમાર્ગનું વિનાશક બનતું નથી ? - Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 ४६० सन्वत्थ ' इत्यादि । भगवता तीर्थकरेण सर्वत्र = सर्वस्मिन्नपि विषये अनिदानता = अपार्थमेव प्रशंसिता । अयं भावः - भगवता जिनेन न केवलं चक्रवर्त्यादिविपय एव अनिदानता श्लाघिता, अपि तु तीर्थकरत्वचरम देहत्वादि विषयेऽपि अनिदानतैव श्लाघितेति । उक्तं च " (" इह पर लोगनिमित्तं, अत्रि तित्थगरत्तचरमदेहत्ते | सन्वत्थेषु भगवया, अणियाणत्तं पसर्थ तु ॥ १ ॥ छाया - इहपरलोकनिमित्तम् अपि तीर्थ करत्यचरम देहत्वे । सर्वार्थेषु भगवता अनिदानत्वं प्रशस्तं तु ॥ १ ॥ इति ॥ ०५५ ॥ उत्तर--ऐसी बात नहीं है, इसी निमित्त सूत्रकारने " सव्वत्थ भगवा अनिपाणयो पत्था " ऐसा सूत्रपाठ कहा है, इस सूत्रपाठ द्वारा ऐसा समझाया गया है कि चक्रवर्ती पद आदि विषयक: अनिदानताही केवल प्रशंसनीय नहीं मानी गई है, अपितु तीर्थंकरत्व चरमhere आदि में भी अनिदानता प्रशंसनीय मानी गई है । कहा भी है-" इह पर लोगनिमित्तं " इत्यादि । seats सन्धी तथा परलोक सम्बन्धी अनिदानताही केवल प्रशंसनीय नहीं कही गई है, किन्तु सर्व अर्थों में सर्व यानोंमें भी अनिदानता प्रशंसनीय कही गई है, इस तरह तीर्थंकर चरमदेह आदिका निदान प्रशंसनीय नहीं कहा गया है | सू० ५५ ॥ उत्तर- " सव्वव्य भगवया अणियाणया पसत्या " मा सूत्रपाठ द्वारा સૂત્રકારે એ જ વાતનું સમાધાન કર્યું છે. તીર્થંકર પદ્મની આકક્ષા મેાક્ષમાની વિનાશક બનતી નથી. છતાં એ વાત પણ અહીં સ્પષ્ટ કરવામાં આવી છે કે “ ચક્રવર્તી ાદિ પદ વિષયક અનિદાનતાનેજ પ્રશ'સનીય માનવામાં આવેલ નથી, પરન્તુ તી કરવ ચરમ દૈહત્વ આદિ વિષયક અનિ દાનતાને પણ પ્રશ’સનીય માનવામાં આવેલ છે. કહ્યું પણ છે કે "L इहपरलो निमित्तं " त्याहि માત્ર આલે અને પરલેાક વિષયક અનિદાનતાને જ પશ'સનીય કહેલ નથી, પરન્તુ સમસ્ત અર્થમાં અને સમસ્ત ખાખનેામાં પણ અનિદાનતાને પ્રશ’સનીય કહી છે. આ રીત તીર્થંકર, ચરમદેહ આદિના નિદાનને પ્રશસનીય वामां भाव्यं नथी. ॥ सू. यथ ॥ Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भुषा टीका स्था०६ झू०५६ कल्पस्थितिनिरूपण तथा मूलम्- छबिहा कप्पट्टिई पण्णत्ता, तं जहा--सामाइयकप्पदिई १, छेदोक्हावणियकप्पट्टिई २, निविसमाणकप्पट्टिई ३, णिविठ्ठकप्पट्टिई १, जिणकप्पट्टिई ५, थविरकप्पट्टिई ६ ॥सू०५६॥ ___ छाया-पइविधा कल्पस्थितिः प्रज्ञप्ता, तद्यथा-सामायिककल्पस्थितिः १, छेदोपस्थापनीयकल्पस्थितिः२, निर्विशमानकल्पस्थितिः३, निविष्टकल्पस्थितिः४, जिनकल्पस्थितिः ५, स्थविरकल्पस्थितिः ६ ।। सू० ५६ ।। टीका-'छबिहा' इत्यादि- कल्पस्थिति:-कल्प: साध्वाचारः, तरप स्थितिः मर्यादा, सा पविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-सामायिककल्पस्थितिः-समानि-ज्ञानादीनि, तेषाम् आयो लाभः समायः, स एव सामापिकम् , तद्रूपः कल्पः-सामायिककल्पः । अयं कल्पो हि प्रथमचरमतीर्थकरतीर्थस्थितानां साधूनामल्पकालिका, तदनन्तरं छेदोपस्थापनी "छविहा कप्पट्टिई पण्णत्ता" इत्यादि सूत्र ५६ ॥ टीकार्थ-कल्पस्थिति ६ प्रकारकी कही गई है, जैसे-सामायिक कल्पस्थिति १ छेदोषस्थापनीय फलपस्थिति २ निर्विशमानकलपस्थिति ३ निविष्ट फल्पस्थिति ४ जिन कल्पस्थिति ५ और स्थविर कल्पस्थिति। साध्वाचारका नाम कल्प है, इस कल्पकी जो मर्यादा है, वह कल्पस्थिति है, यह कल्पस्थिति जो ६ प्रकारकी कही गई है, सो उसका तात्पर्य ऐसा है-जानादिकोंका जो लाभ है, वह समाय है, यह समा. यही सामायिक है, इस सामायिक रूप जो कम है, वह सामायिक कल्प है, यह कल्प प्रथम चरम तीर्थ करके तीर्थमें स्थित साधओंको “ छन्त्रिहा कप्पट्टिई पण्णता" त्याह ક૯પસ્થિતિ ૬ પ્રકારની કહી છે-(૧) સામાયિક કલપસ્થિતિ, (૨) છે. પસ્થાપનીય કલ્પસ્થિતિ, (૩) નિવિમાન ક૯પસ્થિતિ, (૪) નિવિષ્ટ કલ્પસ્થિતિ (५) लिन पस्थिति, मन (6) स्थवि२ ४६पस्थिति. સાધુના જે આચાર છે તેનું નામ કલ્પ છે. તે કપની જે મર્યાદા છે તેને કલ્પસ્થિતિ કહે છે. તે કહપસ્થિતિના ૬ પ્રકાર કહ્યા છે. (૧) સામાયિક કલ્પ-જ્ઞાનાદિકને જે લાભ છે, તેનું નામ જ સમાય છે. તે સમાય જ સામાયિક છે. તે સામાયિક રૂપ જે કહ્યું છે તેને સામાયિક કલ્પ કહે છે. પ્રથમ તબકર અને ચરમ તીર્થંકરના તીર્થના સાધુઓમાં Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानास्त्रे ४६२ यस्य विधीयमानत्वात् । मध्यमतीर्थकराणां तीर्थेषु महाविदेहेतु चसाधूनामयं कल्पो यावत्कथिकः, तेषां छेदोपस्थापनीयाभावात् । तस्य सामायिककल्पस्य स्थितिः - सामायिककल्परिथतिः । इयं पुननियमलक्षणाऽनियमलक्षणाभेदेन द्विविधा । तत्र-शल्यातरपिण्डपरिहारे, चातुर्यामपालने, पुरुपज्येष्ठत्वे, रत्नाधिकस्यावररात्निशन बन्दनकदाने च नियमलक्षणा । तपा-औदेशिकभक्ताद्यग्रहणे राजपिण्डाग्रहणे, अतिक्रमणकरणे, मासकल्पकरणे, पर्युषणकल्पकरणे चानियमलक्षणा । तदुक्तम्अल्प कालिक होता है, अर्थात् सात जघन्य दिन मध्यम चार महिनेकी और उत्कृष्ट छ महिने की स्थिति होनी है। क्योंकि उसके अनन्तर छेदोपस्थोपनीयका विधान होता है, मध्यम तीर्थंकरोंके तीथों में एवं महाविदेहोंमें साधुओंका यह कल्प यावत्कयिक कहा गया है, क्योंकि यहां छेदोपस्थापनीयका अभाव रहता है, इस सामायिक कल्पकी जो स्थिति है, वह सामायिक कल्पस्थिति है, यह नियम लक्षग और अनिघम लक्षणके भेदले दो प्रकार की होती है, इनमें शय्यातर पिण्ड के परिहारमें चातुर्यामके पालन करनेमें पुरुष ज्येष्ठता और रत्नाधिककी अवररानिक द्वारा बन्दना करने में यह नियमरूप है तथा-औदेशिक भक्त आदिके अग्रहण करने में राजपिण्डके अग्रहण करने में प्रतिक्रमण करने में मासकल्प करने में एवं पर्युषण कल्प करनेमें यह अनिघत रूपहै। આ કલ્પસ્થિતિ અલ્પકાલિક હોય છે. એટલે કે જઘન્ય સાત દિનની, મધ્યમની અપેક્ષાએ ચાર માસની અને ઉત્કૃષ્ટની અપેક્ષાએ છ માસની આ સ્થિતિ હોય છે, કારણ કે ત્યારબાદ છેદેપસ્થાપનીયતું વિધાન થાય છે. મધ્યમ તીર્થકરોના તીર્થમાં અને મહાવિદેહમાં સાધુઓનું આ કલ્પ યાત્મથિક કહ્યું છે, કારણ કે ત્યાં છેદેપસ્થાપનીય અભાવ રહે છે. આ સામાયિક કલ્પની જે સ્થિતિ છે તેનું નામ સામાયિક કલ્પસ્થિતિ છે. તેને નીચે પ્રમાણે બે ભેદ કહ્યા છે– (૧) નિયમ લક્ષણ અને (૨) અનિયમ લક્ષણ. શય્યાતરપિંડના પરિહારમાં (ત્યાગમાં), ચાતુર્યામના પાલનમાં, પુરુષ છતામાં અને રત્નાધિક (વધુ લાંબી દીક્ષા પર્યાયવાળા ) ને લઘુ દીક્ષા પર્યાયવાળા સાધુ દ્વારા વંદણા કરવામાં તે નિયમ રૂપ હોય છે. પરંતુ શિક આહારદિનું અગ્રહણ કરવામાં રાજપિંડના અગ્રણમાં, પ્રતિક્રમણ કરવામાં, માસકલ્પ કરવામાં અને પર્યુષણ કહ્યું કરવામાં તે અનિયત રૂપ છે. Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था० ६ ० ५६ कल्पस्थितिनिरूपणम् " सिज्जायरपिंडेय, चाउज्जामे य पुरिसजेट्ठे य । किकम्मरस य करणे, चत्तारि अवद्वियाकप्पा ॥ १ ॥ आलुक्कुद्देसिय, सपडिकमणे य रायपिंडेय । मासे पज्जोसवणा, छप्पेयणवडिया कप्पा ॥ २ ॥ छाया - शय्यातर पिण्डश्च ( शय्यातर पिण्डपरिहारः ) चातुर्यामश्च पुरुषज्येष्ठश्च । कृतिकर्मणश्च करणं, चत्वारः अवस्थिताः कल्पाः ॥ १ ॥ आचेलक्यम् औद्देशिकं समतिक्रमणश्च राजपिण्ड थ | मासः पर्युषणा पडप्येतेऽनवस्थिताः कल्पाः || २ || इति । अत्र आलक्यमित्युक्तम् । तच्च सचेलासचेलत्वेन द्विविध भवति । तत्रअसचेलत्वेनाचेलक्यं जिनानाम् । सचेलत्वेन आचेळक्यं तु जीर्णखण्डितवस्त्रधारिणां च भवति । अत एव निर्ग्रन्थाः सत्यप्यल्पजीर्णखण्डितवस्त्रेऽचेला उच्यन्ते । इति । इति प्रथमा कल्पस्थितिः | १ | तथा छेदोपस्थापनीय कलकहा भी है- " सिज्जायरपिंड़े य" इत्यादि । शय्यातर पिण्डका परिहार १ चातुर्याम २ पुरुष ज्येष्ठ ३ कृति - कर्मकरण (पर्याय ज्येष्ठको वंदना ) ४ ये अवस्थित कल्प हैं । अचे. लक्य औदेशिक २ प्रतिक्रमण ३ राजपिण्ड ४ मासकल्प ५ पर्युषणा कल्प ६ ये ६ अनवस्थित कल्प हैं । રેસક્ ܕ " आलय " ऐसा कहा गया है, सो यह सचेल और अचेलके भेद से दो प्रकारका होता है, इन अचेलताको लेकर आचेलक्य जिनों को होता है, तथा सचेलाको लेकर आवेलक्य जीर्ण खण्डिन व धारण करनेवालों को होता है, इसीलिये निर्ग्रन्थ अल्पजीर्ण वस्त्रादिके सद्भावमें भी अचेल कहलाते हैं । यह प्रथम कल्पस्थिति हैं । पूर्व पर्यायके छेद उप" चिज्जायरपि डेय " त्याहि શય્યાતરપિંડના પરિહાર, ચાતુર્યમ, પુરુષજ્યેષ્ઠ અને કૃતિકકરણુ ( પર્યાય જ્યેષ્ઠને વણુા ) આ ચાર અવસ્થિત ( નિયત ) કલ્પ છે. ચેલકય ઔદેશિક, પ્રતિકમણુ, રાજપિંડ, માસકલ્પ અને કલ્પ આ ૯ અનવસ્થિત ( अनियत ) उदय है. - “ साथै लक्ष्य ” मे अारनु ४धु छे– (१) समेत अले गयेत. અચેલતાની અપેક્ષાએ આચેલકયના (જનામાં સદ્ભાવ હાય છે, તથા સર્ચ. લતાની અપેક્ષાએ ચેલકયના સાત અણુશી વસ્ત્ર ધારણ કરનારમાં ડાય છે તે કારણે અલ્પ મૂલ્ય, જીૐ અને ખડિત વસ્ત્રાદિના સદ્ભાવ હોવા છતાં પણ નિત્ર ચેને અચેલ કહે છે. આ પ્રકારની પ્રથમ સ્થિતિ છે. Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ स्थानाशास्त्र स्थितिः-छेदेन पूर्वपर्यायस्य छेदनेन उपस्थापनीयम्-आरोपणीय छेदोपस्थापनीयं-व्यक्तितो महावतारोपणमित्यर्थः । इदं च प्रथमान्तिमतीर्थकरतीर्थयोरेव भवति । तद्रूपः कल्पः साध्वाचारस्तस्य स्थितिः । इति द्वितीया ।२। तथानिर्विशमानकल्पस्थितिः-निर्विगन्ति-परिहारविशुद्धितपोऽनुवन्ति ये ते निर्विशमानकाः पारिहारिका इत्यर्थः, तेपां कल्पः, तत्र स्थितिः । इयं तु ग्रीष्मशीतवर्षाकालेपु जघन्य मध्यमोत्कृष्टतपोयुक्ता भवति । तत्र जघन्यं तप एतेषु क्रमेण चतुर्थपष्ठाष्टमानि, मध्यमं पष्ठाष्टमदशमानि, उत्कृष्टम् अष्टमदशमद्वादनसे जो उपस्थापनीय आशेषणीय होता है वह छेदोपस्थापनीय है, यह छेनोपस्थापनीय पुनः स्पष्ट रूपसे महाव्रतके आरोषण करनेरूप होता है, यह छे दोपस्थापनीय प्रशन अन्तिम तीर्थ करोंके तीर्घा में ही होता है, हम दोषस्थापना रूप जो कल्प है, माधुका आचार है, उस आचारकी जो स्थिति है, वह छेदोपस्थापनीय कल्पस्थिति है २ परिहार विशुद्धि तपका जो पालन करते हैं वे निर्विशमानक हैं, इन्हें पारिहारिक भी कहा गया है; इनका जो कल्प है, वह निर्विशमान कल्प है, और इस कल्प में जो स्थिति है, वह निर्विशमान कल्प स्थिति है । यह स्थिति ग्रीष्ममें शीनमें एवं वर्षाकाल में जघन्य मध्यम और उत्कृष्ट तपसे युक्त होती है। इनमें जयन्य तप क्रमशः चतुर्य षष्ठ और अष्टनकी तपस्या रूप होताहै, मध्यमतप षष्ठ,अष्टम और दशमकी तपस्या रूप होता है,पारणा दिन आचामारल(आयविल)तपस्यालेही युक्त होता है, अर्थात् आमी (૨) દેપસ્થાપનીય કલપસ્થિતિ–પૂર્વ પર્યાયના છેદનથી જે ઉપસ્થાપનિય–આરોપણીય હોય છે, તેનું નામ છેદે પસ્થાપનીય છે. આ છેદેપસ્થાપનીય મહાવ્રતનું પુનઃ સ્પષ્ટ રૂપે આરોપણ કરવા રૂપ હોય છે. આ છેદે પસ્થાપનીયને સદભાવ પહેલા અને છેલલા તીર્થકરોના તીર્થોમાં હોય છે આ છે પસ્થાપના રૂપ જે કપ છે-જે સાધુનો આચાર છે, તે આચારની સ્થિતિનું નામ છેદેપસ્થાપનીય કદ સ્થિતિ છે. (૩) નિર્વિશમાન ક૯પસ્થિતિ–પરિહાર વિશુદ્ધિ તપનું જેઓ પાલન કરે છે તેમને નિર્વિશમાનક કહે છે. તેમને પારિહારિક પણ કહે છે. તેમને જે કલ્પ ( આચાર) છે તેનું નામ નિર્વિશમાન કલ્પ (આચાર) છે તે કલબમાં જે સ્થિતિ (મર્યાદા) હોય છે તેનું નામ નિર્વિશમાન કલ્પસ્થિતિ છે. તે સ્થિતિ શ્રીમ, ' શીત અને વર્ષાકાળમાં જાન્ય, મધ્યમ અને ઉત્કૃષ્ટ તપથી યુક્ત હોય છે. જઘન્ય તપ ક્રમશઃ એક ઉપવાસ, ઇટ અને અઠમની તપસ્યા રૂપ હોય છે. મધ્યમ તપ ક્રમશ: છઠ્ઠ, Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था० ६ ० ५६ कल्पस्थितिनिरूपणम् ४६५ शानि । पारण के चात्राचामाम्लमेव । तथा - असंसृष्टा १, संसृष्टा २, संसृष्टाSसंसृष्टा ३, अल्पलेपा ४, अवगृहीता ५, प्रगृहीता ६, उज्झितधर्मिका ७ इत्येताप्त पिण्डैणा आयो योरभिग्रहः, अवशिष्टासु पञ्चसु पुनरेकया भक्तग्रहणम्, एकया च पानकग्रहणम् । तदुक्तम् — 1 I 1 "पारणगे आयामं, पंचसु गहो दोस भिगो भिक्खा छाया - पारण के आचामारलं पञ्चसु ग्रहो द्वयोरभिग्रहों भिक्षायाम् । इति । इति तृतीया । ३ । तथा-निर्विष्ट कल्पस्थितिः - निर्विष्टाः = आसेवितविवक्षितचारित्राः - अनुपारिहारिका इत्यर्थः तेषां कल्पस्तस्य स्थितिः । अत्र - प्रति दिनमाचमाम्लं तपो भिक्षा तथैव । उक्तं च " से पारणा होता है, तथा असंसृष्टा १ संसृष्टार (लेपयुक्त) संसृष्टा संसृष्टा ३. अल्पपा ४ अगृहीता ५ प्रगृहीता ६ एवं उज्झितधर्मिक इन सात पिण्डेषणाओंसे आदिकी दो ऐषणाओंका अभिग्रह होता है, बाकीकी पांच एषणाओं में से एक एक एषणासे भक्त ग्रहण और पानक ग्रहण होता है, अर्थात् एक एषणासे भक्त ग्रहण और एक एषणासे पानकका ग्रहण होता है । कहा भी है-" पारणगे आयामं " इत्यादि । इस प्रकार से यह तृतीय कल्पस्थिति है, निर्विष्टकल्पस्थिति जिन्होंने विवक्षित चारित्रका अच्छी तरह से आसेवन किया है, ऐसे अनु पारिहारिकों के कल्पकी जो स्थिति है, वह निर्दिष्ट कल्पस्थिति है, यहाँ पर प्रतिदिन आचामाम्ल की (आयंबिल) तपस्या और भिक्षा भी उसी तरह से અક્રમ અને દશમ ( ચાર ઉપવાસ) ની તપસ્યા રૂપ હય,છે. ઉત્કૃષ્ટ પ ક્રમશઃ અટ્ટમ, દશમ અને દ્વાદશ (પાંચ ઉપવાસ) ની તપસ્યા રૂપ હાય छे. पारणाने हिवसे आयजीस ४२वामां आवे छे, तथा (१) अससृष्टा, (२) संसृष्टा, (3) ससृष्टास सृष्टा, (४) सहयोया, ( 4 ) अवगृहीता, (६) प्रगृहीता अने (७) उज्ञितधर्मिा, आ सात चिरैषणासभांथी पडेसी मे शेषाभोनो અભિગ્રહ થાય છે અને બાકીની પાંચ એષણુાઓમાંથી એક એક એષણાથી આહાર પ્રણ અને પાનક ગ્રહણુ થાય છે. એટલે કે એક એષણુાથી આહાર મહેણું થાય છે અને એક એષણાથી પાનકનું ગ્રહણ થાય છે. કહ્યું પણું છે हे " पारणगे आयाम " इत्यादि या अारनी निर्विशमान उपस्थिति है. (૪) નિવિષ્ટ કલ્પસ્થિતિ—જેમણે વિવક્ષિત ચારિત્રનું સમ્યક્ રીતે પાલન કર્યું" છે એવા અનુપારિહારિકાના કલ્પની જે સ્થિતિ છે, તેને નિર્વિષ્ટ કલ્પસ્થિતિ કહે છે. અહીં પણ પ્રતિનિ આય બિલની તપસ્યા અને ભિક્ષાચર્ચા स्था०-५९ t Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .... स्थान ! . . " कप्पष्टियावि पइदिणं, करेंति एमेव चायाम " छाया- कल्पस्थिता अपि प्रतिदिनं कुर्वन्ति एवमेव चाचामाम्लम्-इति । लद - अत्रेदं वोध्यम्-एते निर्विशमानका निर्विष्टाश्च परिहारविशुद्धिका उच्यन्ते । इह नवसंख्यको गणो भवति । तत्र चत्वारो ये परिहारं तपः कुर्वन्ति ते परिहारिका उच्यन्ते, चत्वारस्तु तद्वैयावृत्त्यारा अनुपारिहारिका उच्यन्ते । एकस्तु कल्पस्थितो वाचनाचार्यों गुरुकल्पो भवति । तत्र परिहारिकाः पड़ मासान् तपः कुर्वन्ति । तत एते निर्विष्टकायिका भवन्ति । ये च वैयावृत्त्यकरा. आसन्, ते तपः कुर्वन्ति, निर्विष्टकायिकास्तु तेषां वैयारत्यकरा भवन्ति । षण्मासांस्तपः कृत्वा तेऽपि निर्विष्टकायिका भवन्ति । ततः कल्पस्थितो वाचनाचार्यस्तपः पतिहोती है, कही भी है-" कप्पटिया वि पइदिणं करेतिएमेव चायाम" यहां इस प्रकारसे समझना चाहिये-ये, निर्विशमानक और निर्विष्ट परिहारविशुद्धिक कहे जाते हैं। यहां नौ संख्याका गण होता है, अर्थात् नौ साधुओंका समूह होता है, इनमें चार जो परिहार- तप करते हैं वे पारिहारिक कहलाते हैं, और चार जो इनकी वैयावृत्त्य फरनेवाले होते हैं वे अनुपारिहारिक कहलाते हैं, और एक कल्पस्थित वाचनाचार्य होता है, जो गुरुकल्प-गुरु जैसा होता है, इनमें पारिहारिक ६ महिने तक तप करते हैं, तब ये निर्विष्टकायिक हो जाते हैं, और जो इनकी वैयावृत्य करनेवाले थे, वे तप करने लगते हैं, तथा जो निर्विष्टकायिक बन चुके हैं, वे इनकी वैयावृत्त्य करनेवाले हो जाते हैं वे छह महिने तक तप करते हैं, और तप करके वे भी निर्विष्टकायिक ५५ ०५२ मतान्या मनुसा२४ थाय'. Bघु ५ छ , “ कप्पट्रिया वि पादिणं करेंति एमेव चायोम" मी मा प्रमाणे समन . मा સાધુઓને નિર્વિશમાનક અને નિર્વિષ્ટ પરિહાર વિશુદ્ધિક કહે છે. અહીં નવ સાધુઓને સમૂહ હોય છે. તેમાંથી જે ચાર સાધુઓ પરિહાર તપ કરે છે તેમને પારિવારિક કહેવાય ' છે, અને જે ચાર સાધુએ તેમનું વૈયાવૃત્ય કરે છે તેમને અનુપારિવારિક કહેવાય છે બાકીને એક સાધુ કલ્પસ્થિત વાચનાચાર્ય થાય છે. તે ગુરુકહ૫–ગુરુ જે હોય છે. તેમાં જે ચાર પારિવારિકેર હોય છે તેઓ છ માસ સુધી તપ કરે છે અને ત્યાર બાદ તેઓ નિર્વિષ્ટકાયિક થઈ જાય છે અને તેમનું વયાવૃત્ય કરનારા ચાર સાધુએ તપ કરવા લાગી જાય છે અને જેઓ નિર્વિષ્ટ. કાયિક બની ગયા છે તેઓ તેમનું વૈયાવૃત્ય કરવા મંડી જાય છે. છ માસ સુધી આ ક્રમ પણ ચાલ્યા કરે છે. ત્યાર બાદ તપ કરનારા તેં.ચાર સાધુઓ Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रधा टीका० स्था० ६सू० ५६ कल्पस्थितिनिरूपण ४६७ पद्यते, एको वाचनाचार्यों भवति, अन्ये व यावृत्त्यारा भवन्ति । ततः पण्मासांस्तपः कृत्वा- सोऽपि निर्विष्टकायिको भवति । इत्थमयंः परिहारविशुद्धिका कल्पोऽष्टादशमासिको भवति । उक्त च" - परिहारिय छम्मासे, सह अणुपरिहारियावि छम्मासे ।.. . . कप्पटिओ छम्मासे, एए अट्ठारसवि मासा ॥१॥" ' ' छाया-परिहारिकाः पण्मासात् तथा अनुपारिहारिका अपि पण्मासान् । । सकल्पस्थितः पण्मासान् एतेऽष्टादशापि मासाः॥१॥ इति । एते कीदृशा भवन्तीत्याह-- . " सव्वे चरित्तवंतो उ, दंसणे. परिनिट्ठिया। नवपुन्धिया जहन्नेण, उक्कोसा दसपुलिया ॥१॥... .. प : पंचविहे ववहारे, ( आगमादिक) कप्पम्मि दुविधम्मि य । । .. । दसविहे.य पच्छित्ते, सचे ते परिनिटिश ॥२॥" . . छाया--सर्व चारित्रदन्तस्तु दर्शने परिनिष्ठिताः। : नवपूर्विका जघन्येन, उत्कर्षाद् दशपूर्विकाः ॥ १॥ . - पञ्चविधे व्यवहारे, कल्पे द्विविधे च । ... दशविधे च प्रायश्चित्ते, सर्वे ते परिनिष्ठिताः ॥ २॥ इति चतुर्थी 11 हो जाते हैं। इस के बाद कल्पस्थित वाचनाचार्य तप करता है, उनमेंसे एक वाचनाचार्य होता है, और बाकी उसकी वैयावृत्त्य करनेवाले हो जाते हैं, वाचनाचार्य भी छ, माह तक तप करके निविष्टकायिक हो जाता है, इस तरह यह परिहार विशुद्धिक कल्प अठारह मासका होता है । कहा भी है-"परिहारिय छम्मासे " इत्यादि ।।.. इस-श्लोकका अर्थ पारिहारिक छह सासका होता है, अनुमारिहा. रिक छह मासको होता है, और कल्पस्थिति छह मास का होता है, इस तरह अठारह महिने परिहारविशुद्धि में लगते हैं, ये सब चारित्रवाले પણ નિર્વિષ્ટકાયિક થઈ જાય છે. ત્યાર બાદ કલ્પસ્થિત વાચનાચાર્ય છ માસ સુધી તપ કરે છે, બાકીનામાંથી એક વાચનાચાર્ય બને છે અને બાકીના સાંત તેમનું વૈયાવૃત્ય કરે છે. છ માસ પછી તે તપ કરનાર સાધુ પણ નિર્વિષ્ટકાયિક થઈ જાય છે. આ રીતે આ પરિહારવિશુદ્ધિક તપ અઢાર માસ अधी. या छे. ५५ छ " परिहारिय छम्मासे" त्याल. .. " એટલે કે પારિવારિકમાં છ માસ, અનુપારિવારિકમાં છ માસ અને ઉપસ્થિતિમાં છે માસ, એ રીતે પરિવાર વિશુદ્ધિમાં કુલ ૧૮ માસને સમય Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .४६८ __ ता-जिन कल्पस्थिति:-जिनाः गच्छनिर्गतयाधुविशेपाः तेषां कल्प स्थितिः । सा स्वेवं विज्ञेया-यो हि प्रथमसंहननसंपन्नो भवति स जिनकल्पमति पन्नो भवति, अयं च जघन्यतो नवमपूर्वस्य तृतीयमाचार वस्तु यावद् धारको भवति, उत्कृष्टतस्तु किचिन्यूनदशपूर्वार्णाम् । असौ पुनरेकाकी विहरति । दिव्याधुपसर्गरोगवेदनाश्च सहते । दशगुणयुक्तस्थण्डिले एव उच्चारादि परित्यजति । सर्वोप धिविशुद्धायां वसती वसति । तृतीयपौरुष्यां भिक्षाचर्या करोति । पिण्डेपणास्वाहोते हैं, दर्शनमें पूर्ण परिपक्व होते हैं । कमसे कम ये नौ पूर्वके और उत्कृष्ट से १० पूर्वके धारी होते हैं। पांच प्रकारके व्यवहारमें दो प्रकारके कल्पमें और दश प्रकार के प्रायश्चित्तमें ये पूर्ण निष्णात होते हैं। पांचवां जिनकपस्थिति गच्छनिर्गत साधुविशेष जिन होते हैं। इन जिलोंकी जो कल्पस्थिति है, वह इस प्रकारसे होती है, जो प्रथम संहननका धारी होती है, वह जिनकल्मप्रतिपन्न होता है, यह जघन्यसे नवम पूर्वकी तृतीय आचार वस्तु तकका धारक होता है, और उस्कृष्टसे किश्चित् काम दशावें पूर्वका धारी होता है, यह अकेलाही विचरता है, दिव्यं आदि उपप्तगों को एवं रोगजन्य वेदनाओंको सहन करता है, दश गुणोंसे युक्त स्थण्डिलमेंही उच्चार आदि परठता है। सर्वोपधिसे विशुद्ध वसति-उपाश्रयमें रहता है, तृतीय पौरुषीमें यह - વ્યતીત થાય છે. તે સાધુએ ચારિત્રસંપન્ન અને દર્શનમાં પૂર્ણ પરિપકવ હાર્યા છે. તેઓ ઓછામાં ઓછા નવ પૂર્વના ધારક અને વધારેમાં વધારે દસ પૂર્વના ધારક હોય છે તેઓ પાંચ પ્રકારના વ્યવહારના બે પ્રકારની કલ્પના અને દસ પ્રકારના પ્રાયશ્ચિતના પૂર્ણ રૂપે નિષ્ણાત હોય છે.' । (५) स्थिति-निर्गत साधुविशेष - 2. ते જિનેની ક૫રિથતિ આ પ્રકારની હોય છે– तमा प्रथम मनना पा२४ डाय छ, ६५प्रतिपन्न हार्य छ, તેઓ ઓછામાં એ છા નવમાં પૂર્વની ત્રીજી ,આચારવસ્તુઓ, પર્યત ધારક હોય છે અને અધિકમાં અધિક સહેજ ન્યૂન દસ પૂર્વના ધારક હોય છે? તેઓ એકલા જ વિચરે છે. તેઓ દિવ્ય આદિ ઉપસર્ગોને અને રોગજન્ય વેદનાઓને સહન કરે છે, દસ ગુણોથી યુક્ત સ્થ ડિલ (ઉચ્ચારાદિ પડવાનું સ્થાન વિશેષ) માં જ ઉચ્ચાર મળત્યાગ ) આદિ પઢે છે, અને સર્વોપધિની અપેક્ષાએ, વિશુદ્ધ વસતિમાં (ઉપાશ્રયમાં) રહે છે. તેઓ ત્રીજા પ્રહરમાં જ Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था० ६ सू. ५६ कल्पस्थितिनिरूपणम् ४६९ घयोरग्रहणं भवति । अवशिष्टामु ग्रहामु पञ्चसु पिण्डैपणासु द्वेयोोंगे सति तन्मध्यादेकनरस्या अभिग्रहधारी भवति । उक्तंच "गच्छम्मिय निम्मायाधीरा जाहेयगाहियपरमत्था । ___ अग्गहे जोग अभिग्गहे, उति जिण कप्पियचरित्तं ॥ १॥" ' गच्छे च निर्माताः धीरा यदा च गृहीतपरमार्थाः । अहे योगे अभिग्रहे उपयन्ति जिणफल्पिकचरित्रम् ॥ इति पञ्चमी । ५। तथा-स्थविर लपस्थिति:स्थविरागच्छ पतिबद्धा आचार्यादयः तेषां कल्पस्थितिः । उक्तं च-- - " संजमकरणुज्जोगा, निफायगा नाणदंसणचरित्ते । । -दीहाऊ वुडवासे, सही दोसेस विप्पका ॥१॥" " ' छाया- संयम करणायोगा निष्पादका ज्ञानदर्शनचारित्रेषु। : दीर्घायुषो वृद्धवासे, दोषैश्च विप्रमुक्ता वसतिः॥ १॥ भिक्षाचर्या करता है, सान पिण्डैषणाओंमेले आदिकी दो पिण्डैषणा ओंका नहीं ग्रहण करने वाला होता है इत्यादि । शाकीकी पांच एपणाओं में से दोका योग होने पर उनमें से किसी एक एषणासे भिक्षा-भक्तपानको लेनो है, कहा भी है-"गच्छम्मिय निम्माया" ५। इस प्रकारले यह पांचवीं कल्पस्थिति है, छट्ठी स्थविरकल्पस्थिति इस प्रकोरसे है-गच्छमें जो आचार्य आदि साधु रहते हैं वे स्थविर कहलाते हैं, इनके कल्पकी जो स्थिति है, वह स्थविरकल्पस्थिति है। कहा भी है-" संजमकरणुज्जोगा"इत्यादि। . इसका भाव ऐसा है कि स्थविर कल्पका क्रम इस प्रकारसे है, प्रथम श्रुत चारित्र रूप धनेका श्रवण उसने सम्यक्षको लोभ बाद में आलोचनापूर्वक प्रवज्याकी प्रतिपत्ति उससे ग्रहणशिक्षा एवं असिवनशिक्षा अधिकारका लाभ सूत्रके ग्रहण करनेरूप ग्रहणशिक्षा एवं ભિક્ષા કરે છે તેની પહેલી બે પિડેષણાના ગ્રહણ કરવાવાળા હોતા નથી છે અને બાકીની પાંચ એષણાએ મંથી બે પેગ થતાં તેમાંથી કોઈ એક એષણું વડે ભિક્ષા (આહાર પાણી) ગ્રહણ કરતા હોય છે કહ્યું પણ છે" गच्छम्मिय निम्माया इत्यादि । २॥ २k पायमा ४६५थतिनु १३५ छे. (६) स्थवि२४६पस्थिति मायायः मालिसाधु भा रहे है તેમને સ્થવિર કહે છે. તેમને કલ્પની જે સ્થિતિ છે તેને સ્થવિરકલ્પસ્થિતિ ४. छ. ४ ५५ छ , “ संजमकरणुज्जोगा" त्या આ ગાથામાં સ્થવિર કલ્પને આ પ્રકારને કેમ બતાળે છે પ્રથમ થતચારિત્ર રૂપ ધમનું શ્રવણ અને તેના દ્વારા સમ્યકત્વની પ્રાપ્તિ, ત્યાર બાદ " આલોચનાપૂર્વક પ્રજ્યાની પ્રતિપત્તિ અને તેના દ્વારા ગ્રહણશિક્ષા એને આસેવનશિક્ષાના અધિકારને લાભ, (સૂત્રને ગ્રહણ કરવા રૂપ ગ્રહણ Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थामानसूत्रे ४७० तथा च - " पव्वज्जा सिक्खापयमत्थग्गणं च अनियओ वासो । निष्कत्तीय विहारी, सामाचारी ठिई चैव ॥ १ ॥ : छाया -- मज्या शिक्षापदम् अर्धग्रहणं च अनियतो वासः । निष्पत्तिश्च विहारः सामाचारी स्थितिश्चैव ॥ १ ॥ इति । इति पष्ठी | ६ | जिनकल्पिक स्थविरकल्पिकरिथतिविषये विशेप जिज्ञासुभिरुत्तराध्ययनमुत्रस्य द्वितीयेऽध्ययने मत्कृतायां प्रियदर्शिनीटीकायामवलीप्रतिलेखनादि रूप 'आसेचन शिक्षा है, इसके बाद सूत्रोंका अर्थ ग्रहणं करना पश्चात् अनियतवास अनियतवासका तात्पर्य है, गुरुकी आज्ञासे ग्राम नगर एवं सन्निवेश आदिकों में अथवा देशान्तर में विचरण करना यह विचरण करनेकी योग्यतासंपन्न जो साधु होता है, उसीका विचरण होता है, फिर भी मह एकाकी बिहार नहीं कर सकता किन्तु अन्य साधुओंके साथही विहार करता है, स्थविरकल्पका आराधक साधु संनके पालन करने में विशेष उद्योगवाला होता है, ज्ञानदर्शन एवं चारित्रका पूर्ण रूपसे आराधक होता है, लम्बी आयुवाला होने से वह जंघाल कम हो जाने पर स्थिरवास अंगीकार कर लेता है, और इसी स्थिरवाल से वह उसी क्षेत्र में रहता हुआ भी दोनोंसे रहित वसति रहता है । तथा - " पव्वज्जा सिक्खावय " इत्यादि । 4 इसको अर्थ पूर्वोक्त रूप से ही है, जिन कल्पिक एवं स्थविरकल्पिक की स्थिति विषयमें विशेष जिज्ञासुओं को उत्तराध्ययन सूत्र की द्वितीय अध्ययनकी मेरी बनाई हुई प्रियदर्शिनी टीका देखनी चाहिये यहां जो इस શિક્ષા અને પ્રતિલેખના આ રૂપ આસેવન શિક્ષા હાય છે) ત્યારાદ સૂત્રાને અ ગ્રજી કરવામાં આવે છે. અને " ત્યાર બાદ અનિયતવાસ हुरे छे. ग्राम, नगर, सन्निवेश महिमां गुरुनी, गाज्ञाथी वियरधुं तेनुं નામ અનિયતવાસ છે. વિચરણું કરવાની યાગ્યતાવાળા સાધુને જ આ પ્રમાણે વિચરણ કરવાની આજ્ઞા મળે છે, છતાં તે સાધુ એકાકી વિહાર કરી શકત નથી ગુરુની આજ્ઞાથી અન્ય સાધુએ તેની સાથે વિહાર કરે છે. સ્થવિર કલ્પના આરાધક સાધુ સ યમના પાલનમાં વિશેષ પ્રયત્નશીલ હૈાય છે. જ્ઞાન દર્શીન અને ચારિત્રના પૂર્ણ રૂપે આરાધક હાય છે જો તેનું આયુષ્ય લાંબુ હાય અને તે ચાલવાને અશક્ત થઇ ગયા હૈાય તે કાઇ ક્ષેત્રમાં તે સ્થિર ત્રાસ અંગીકાર કરી લે છે. આ રીતે સ્થિરવાસમાં એક જ ક્ષેત્રમાં રહેવા છતાં પશુ તે સાધુ દેષાથી રહિત વસતિમાં જ રહે છે तथा - " पञ्चज्जा सिक्खावय " त्याहि આ ગાયાના ભાવાથ ઉપર કહ્યા પ્રમાણે જ છે. જિનકલ્પિક અને સ્થવિર કલ્પિકની સ્થિતિના વિષયમાં વિશેષ જાણવાની ઈચ્છાવાળા પાકાએ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્રના ખીજા અધ્યનનની મારી બનાવેલી પ્રિયદર્શિની ટીકા વાંચી લેવી. અહીં Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०६.सू. ५६ कल्पस्थितिनिरूपणम् .. ४७१ कनीयम् । अत्र योऽयं सामायिककल्पस्थितिरित्यादिक्रमेण पाठः ‘स युक्ततरएव । यतः पूर्व सामायिकमेवारोप्यते ततश्छेदोपस्थापनीयम् । गृहीतछेदोपस्थापनीया एव निर्विशमानका भवन्ति, ततश्च ते निर्विष्टकायिका भवन्ति । ततो जिनकल्पिकाः स्थविरकल्पिका वा भवन्तीति ।। सू० ५६ ॥ अनन्तरसूत्रे कल्पस्थितिरुक्ता, सा च भगवता महावीरेण निर्दिष्टेति तत्सम्बन्धिकं किमपि वक्तुमाह मूलम्-समणे भगवं महावीरे छटेणं भत्तेणं अपाणएणं मुंडे जाव पवइए । लमणस्त णं भगवओ सहावीरस्स छट्टेणं भत्तेणं अपाणएणं अणंते अणुत्तरे जाव समुप्पण्णे । समणे भगवं महावीरे छट्रेणं भत्तेणं अपाणएणं सिद्धे जाव सम्बदुक्ख‘प्पहीणे ॥ सू० ५७॥ प्रकारसे-सामायिककल्पस्थिति१ छेदोपस्थापनीयकल्पस्थिति२-इत्यादि क्रमसे पाठ रखा गयाहै, सो इस कारणसे रखा गयाहै, कि पहिले सामाविककाही आरोपण होता है, बाद में छेदोपस्थापनीयका आरोपण होता है, तथा गृहीतोपस्थापनावालेही निर्विशमानक होते हैं, इसके बाद वे निर्विष्टकायिक हो जाते हैं, बाद में वे जिनकल्पिक या स्थविरकल्पिक हो जाते हैं ॥ सू० ५६॥ इस ऊपरके सूत्र कल्पस्थिति जो कही गईहै, वह भगवान महावीरने प्रदर्शित की है, इसलिये अब सूत्रकार महावीरके सम्बन्धमें कुछ कहते हैंજે સામાયિકક૫રિચતિ, છેદે પસ્થાપનીય કલ્પસ્થિતિ, ઇત્યાદિ કમથી પાઠ રાખવામાં આવ્યું છે તેનું કારણ એ છે કે પહેલાં સામાયિકનું જ આરોપણ થાય છે, ત્યાર બાદ છે પાપનીનું આરોપણ થાય છે. તથા ગૃહીત છેદેપસ્થાપનાવાળા જ નિર્વિશમાનક થાય છે, ત્યાર બાદ જ તેઓ નિર્વિકાયિક થઈ જાય છે, અને ત્યાર બાદ તેઓ જિનકલ્પિક અથવા स्यविEि५६ 25 तय 2. ॥ सू. ५६ ॥ ' ઉપરના સૂત્રમાં કપસ્થિતિનું જે પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે તે મહાવીર પ્રભું દ્વારા કરવામાં આવ્યું છે, તેથી હવે સૂત્રકાર મહાવીર પ્રભુ विष थाई ४थन ४२ . " समणे भगवं महावीरे" त्याह Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाइयो - छाया-श्रमणो भगवान् महावीरः षष्ठेन भक्तेन मानकेन मुण्डो यावत प्रबजितः । श्रमणस्य खलु भगवतो महावीरस्य पष्ठेन भक्तेन अपानकेन अनन्तम् अनुत्तरं यावत् समुत्पन्नम् । श्रमणो भगवान महावीरः पप्ठेन भक्तेन अपानकेन सिद्धो यात्रत् सर्वदुःखमहीणः ।। मू० ५७ ॥ टीका--' समणे भगवं ' इत्यादि । व्याख्या स्पष्टा । नवरम्-अपानकेन-पानी यरहितेन । 'मुण्डो यावत्' इत्यत्र यावत्पदेन- भूत्वा आगारादनगारिताम् ' इत्यस्य संग्रहः । ' अनुत्तरं यावत् ' इत्यत्र यावत्पदेन-'निर्णाघातं निरावरणं कृत्स्नं प्रतिपूर्ण केवलवरज्ञानदर्शनम् ' इत्येषां संग्रहः । ' सिद्धो यावत् ' इत्यत्र यावत्पदेन-'बुद्धो मुक्तः परिनिई तः' इत्येषां संग्रहः ॥ सु० ५७ ॥ " समणे भगवं महावीरे " इत्यादि सूत्र ५७ ॥ टीकार्थ-श्रमण भगवान् महावोर अपानक पष्ठ भक्त ले मुण्डित होकर यावत् प्रत्रजित हुए । श्रमण भगवान महावीरको अपानक पष्ठ भक्त से अनन्त अनुत्तर यावत् केवलवर ज्ञान दर्शन उत्पन्न हुए। श्रमण भगवान महावीर अपानक पष्ठ भक्तसे सिद्ध यावत् सर्व दुःखोंसे रहित हुए । अयानक शब्दका अर्थ पानीरहित है " मुण्डो यावत् ।' यहां यावत्पदसे "भूत्वा अगारोदनगारिताम्" इस पाठका ग्रहण हुआ है “अनुत्तरं यावत् " यहां यावत्पद्से " निक्वातं निरावरणं कृत्स्नं प्रतिपूर्ण केवलवरज्ञान दर्शनं " इस पाठका संग्रह हुआ है, एवं "सिद्धो यावत् " यहाँक यावत्पदसे "बुद्धो मुक्तः परिनिर्वृतः" इस पाठका संग्रह हुआ है । सू० ५७ ॥ શ્રમ ભગવાન મહાવીર અપાનક પણ ભક્ત પૂર્વક (નિર્જળ છઠ્ઠની તપસ્યા કરીને) મુંડિત થઈને ગૃહસ્થાવાસના ત્યાગર્પક પ્રવૃજિત થયા હતા. શ્રમણ ભગવાન મહાવીરને અપાનક ષષ્ઠ ભક્તની તપસ્યા વડે અનંત, અનુ. ત્તર, નિર્વાઘાત, નિરાવરણ, કૃત્ન અને પ્રતિપૂર્ણ કેવલવરજ્ઞાનદશન ઉત્પન્ન થયા હતાં. અપાનક પછ ભક્તની તપસ્યા દ્વારા જ શ્રમણ ભગવાન મહાવીર સિદ્ધ, બુદ્ધ, મુક્ત પરિનિવૃત અને સમસ્ત દુખેથી રહિત થયા હતા. - જે ઉપવાસમાં પાણીને પણ ત્યાગ કરવામાં આવે છે તે ઉપવાસને અપાનક ઉપવાસ કહે છે. એવા બે દિવસના નિર્જળ ઉપવાસને અપાનક ષષ્ટ ભક્ત કહે છે. | સુ. પણ છે Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०६ २०५८ देवविषयकनिरूपणम् ४७३ भगवन्महावीरमरूपितधर्मानुयायिनस्तु देवत्वेनोत्पद्यन्त एवेति देव विषयक किंचिन्निरूपति मूलम्-सणंकुमारमाहिदेसु णं कप्पेसु विमाणा छ जोयणसयाई उडु उच्चत्तेणं पण्णत्ता । सणकुमारमाहिदेसुणं कप्पेसु देवाणं भवधारणिनगा सरीरगा उक्कोसेणं छ रयणीओ उड्ढे उच्चत्तेणं पण्णत्ता ॥ सू० ५८ ॥ ___ छाया--सनत्कुमारमाहेन्द्रयो. खलु कल्पयोः विमानानि षड् योजनशतानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन प्रज्ञप्तानि । सनत्कुमारमाहेन्द्रयोः खलु कल्पयोर्देवानां भवधारणीयकानि शरीरकाणि उत्कषण पड रत्नयः ऊधमुच्चत्वेन प्रज्ञतानि।मु०५८॥ टीका-' सणंकुमारसाहिदेसु ' इत्यादि-- व्याख्या स्पष्टा ॥ मू० ५८॥ उक्तरूपेषु च देवशरीरेखाहारपरिणामोऽस्तीत्याहारपरिणाम परिणामसंव न्धाद् विषपरिणामं च निरूपयति-- मूलम्--छबिहे भोयणपरिणामे पण्णत्ते, तं जहा--मणुन्ने १, रसिए २, पीणणिजे ३, बिहणिजे ४, दीवगिज्जे ५, दप्पणिज्जेद। ___ भगवान महावीर द्वारा प्ररूपित धर्मके जो अनुयायी होते हैं वे देवकी पर्यायसे उत्पन्न होते हैं अतः अव सूत्रकार देवोंके सम्बन्धमें कथन करते हैं "सणंकुभारमाहिंदेलु ण कप्पेसु" इत्यादि सूत्र ५८॥ सूत्रार्थ-सनत्कुमार और माहेन्द्र इन दो कल्पोंके विमान छसोछसो ६००६०० योजनके ऊंचे कहे गये हैं। सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्पके देवोंके भवधारणीय शरीर उस्कृष्ट से छ रत्निप्रमाण ऊचे कहे गये हैं ।।।मु०५८॥ ભગવાન મહાવીર દ્વારા પ્રરૂપિત ધર્મના જેઓ અનુયાયી હોય છે તેઓ દેવની પર્યાયે ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. તેથી હવે સૂત્રકાર દેવના વિષયમાં थाई ४न ४२ छ " सणकुमारमाहि देसु णं कप्पेसु" त्याह સૂત્રાર્થ–સનકુમાર ક૯૫માં અને મહેન્દ્રકલ્પમાં વિમાનની ઊંચાઈ છસો છો ૬૦૦-૬૦૦ જનની કહી છે આ બન્ને કલ્પના દેવોના ભવધારણીય શરીરની ઉત્કૃષ્ટ ઊંચાઈ છ રનિપ્રમાણુ કહી છે. એ સૂ. ૫૮ | स्था०-६० Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ स्थानानसूत्रे छबिहे विसपरिणामे पण्णते, तं जहा--डके १ भुत्ते २ निवइए ३ मंलाणुलारी ४ सोणियाणुसारी ५ अट्रिमिंजाणुसारी ६॥ सू० ५९ ॥ __छाया---पविधो भोजन परिणामः प्रजप्तः, तद्यथा-मनोज्ञो १ रसिकः २ प्रीणनीयो ३ बृहणीयो ४ दीपनीयो ५ दर्पणीयः ६। पड्विधो विपपरिणाम: प्रज्ञप्तः, तद्यथा-दष्टो १ भुको २ निपतितो ३ मांसानुसारी ४ शोणितानुमारी ५ अस्थिमज्जानुसारी ६॥ सू० ५९ ॥ . टीका--'छबिहे ' इत्यादि-- भोजनपरिणाम:-भोजनस्य आहारविशेपस्प परिणाम:=परिणतिः पविधः प्रक्षप्तः : तद्यया-मनोज्ञा-सुन्दरः शुभत्यान्मनोज्ञभो नन संबन्धाद् वा १, रसिका उक्त रूपवाले देवशरीरो आहार परिणाम होता है, अतः अय सूत्रकार आहार परिणामका और परिणाम के सम्बन्धसे विध परिणामका निरूपण करते हैं-"छबिहे भोयण परिणामे पण्णत्ते' इत्यादि सूत्र५९॥ टीकार्य-योजन परिणाम प्रकारका कहा गयाहै, जैसे-मनोज्ञ१ रसिक २ प्रीणनीय ३ वृहणीय ४ दीपनीय ५ और दर्पणीय ६ ' छ प्रकारका विषपरिमाण कहा गया है, जैसे-दष्ट १ भुक्त २ निपतित ३ मांसानुसारी ४ शोणितानुभारी ५ और अस्थिमज्जानुसारी ६ आहार विशेषका परिणाम परिणति परिणमन ६ प्रकारका जो कहा गया है, उसका तात्पर्य ऐसा है-जो आहार मनोज भोजनके सम्बन्धले शुभ होता है, उसका परिणाम भी-परिपाकभी सुन्दर होता ઉપરના સૂત્રમાં દેવાની વાત કરી. તે દેવશરીરમાં આહાર પરિણામને પણ સદભાવ હોય છે, તેથી હવે સૂત્રકાર આહાર પરિણામનું અને પરિણામના - सधंथी विप परिणाम नि३५ ४२ छ. "छबिहे भोयणपरिणामे पण्णत्ते" त्याह सात पशिशामना नीय प्रभारी २ हा छ-(१) मनोज्ञ, .(२) २सि४, (3) प्रीनीय, (४) एणीय, (५) पनीय मने (6) पीय विष परिणामना ५५ ६ २ ४ा छ-(१) १५, (२) सुस्त, (3) निपतित, (४) मांसानुमारी, (५) शणितानुसारी गने (6) अस्थि Homनुसारी , આહાર વિશેષની પરિણામ પરિણતિ અથવા આહારના પરિણમનના જે છ પ્રકારે કહ્યા છે તેનું સ્પષ્ટીકરણ નીચે પ્રમાણે છે– જે આહાર મનેન ભજનના સંબંધથી શુભ હોય છે તેનું પરિણમન (પરિપાક) પણ સુંદર હોય છે. જે આહાર રસયુક્ત ભજનવાળે હેય છે Y . Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०६ ०५९ आहार - विपपरिणाम निरूपणम् ४७५ 1 "रसयुक्तो रसयुक्तभोजनसंबन्धात् २, प्रीणनीयः - रसादिधातुसमताकारी ३, बृंहणीयः = धातूपचयकारी ४ दीपनीयः =अग्निवलजनका ५, दर्पणीयः -वलकर उत्साहका ६ | अथवा - परिणामः - पर्यायः स्वभाव धर्म इति यात् परिणाम परिणाम तोरभेदोपचारात् परिणामवद् भोजनमेवात्र मनोज्ञादिभेदभिनं वोध्यम् । मनोज्ञादिशब्दाच नपुंसकलिङ्गा बोध्या: । तत्र - मनोज्ञम् - अभिलपणीयं 'भोजनम् १, रसिक = माधुर्यादिरयुक्त भोजनम् २ | मीणनीयादीनामर्थः पूर्ववद् बोध्यः ६ इति । तथा विपपरिणामः विपस्य परिणामो दष्टादिभेदे पड़है, जो आहार रसयुक्त भोजनवाला होता है, उसका परिणाम भी रसयुक्त होता है २, जो आहार रसादि धातुओं में समताका करनेवाला होता है, उसका परिणाम भी ऐसाही होता है, अतः प्रीणनीय कहा गया है है, जो आहार धातुका उपचय- वृद्धि करनेवाला होता है, वह आहार परिणामकी अपेक्षा वृहणीय कहा गया हैं ४, जो आहार अग्निबलजनक होता है, वह दीपनीय कहा गया है ५, जो आहार बलकर अथवा उत्साहकर होता है, वह दर्पणीय कहा गया है ६ । अथवा - परिणाम शब्दका अर्थ पर्याय स्वभाव धर्म ऐसा भी होता है, 'इसलिये परिणाम और परिणामी में अभेद उपचारसे परिणाम शब्द द्वारा परिणामवाला भोजनही यहां मनोज्ञ आदि भेदसे ग्रहण हुआ है, ऐसा जानना चाहिये जब मनोज्ञादि शब्द भोजन के विशेषण रूपले कहे जायेंगे तब वे यहां नपुंसक लिङ्गवाले माने जायेंगे अतः जो भोजन अभिलषणीय होता है, वह मनोज्ञ है, जो भोजन माधुर्यादि 'તેના પરિપાક પણુ રસયુક્ત હાય છે જે આહાર રસાદિ ધાતુએમાં સમતા “કરનારા હાય છે તેનું પરિણામ પણ એવું જ હાય છે. તેથી એવા આહારને પ્રીણનીય કહ્યો છે જે આહાર ધાતુની વૃદ્ધિ કરનારા હોય છે એવા શ્રાહારને પરિણામની અપેક્ષાએ ઘૃહણીય કહ્યો છે જે આહાર અગ્નિખલ જતક ( ગરમી ઉત્પન્ન કરનાર) હાય છે તેને દીપનીય ડહ્યો છે. જે આહાર ખલ વર્ધક અથવા ઉત્સાહવર્ધક હોય છે તેને દપણીય કહ્યો છે અથવા પરિણામ’ પના અર્ધાં પર્યાય, સ્વભાવ અને ધર્મ પણ થાય છે. તેથી પરિણામ અને પરિણામીમાં અભેદના ઉપચ રની અપેક્ષાએ પરિણામ શબ્દ દ્વારા પરિણામવાળુ' ભાજન જ અહી મનેાણ આદિ ભેદો વડે ગ્રહણુ થયુ છે, એમ સમજવું જોઇએ. જો મનેજ્ઞ આદિ શબ્દને ભેજનના વિશેષણ રૂપે વાપરવામાં આવે તા અહીં નાન્યતર જાતિમાં તે પદાના પ્રયાગ કરવા પડશે. જેમકે-રે લેાજન અભિલષણીય ( મન ભાવતું) હોય છે તેને મને ભેાજન કહે છે, જે ભાજત Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाङ्गसूत्रे ઉદ્દ विधो भवति । अयं भावः-श्वादिना दप्टस्य जनस्य तदंष्ट्राश्रिाविषं पीडां जनयतीति तद्विपं दशनानन्तरपीडाकारित्वाद् दष्टमित्युच्यते, तद्धि जङ्गमं विषं भवति । १ । यत् पुनर्भुक्तं सत् पीडाकारि भाति तद् भुक्तम् । इदं च स्थावर विपम् । २। निपतितम्-यत् पुनरुपरि पतितं सत् पीडयति तन्निपतितमित्युच्यते । इदं च त्वग्वियं दृष्टिविषं चेति द्विविधं भवति । ३। मांसानुसारि-यद्विषं मांसान्तधातुं व्याप्नोति तत् ।। ४ । शोणितानुमारि-यद्विपं पुनः शोणितमनुरससे युक्त होता है, वह रलिक होता है, प्रीणनीय आदि शब्दोंका अर्थ पूर्ववत्ही है, विषका परिणाम दष्ट आदिके भेदसे ६ प्रकारका होता है, भाव इसका यह है कि-कुत्ते आदिके द्वारा काटे गये जनको उसकी दंष्ट्रामें रहा हुआ विप पीडा उत्पन्न करता है, इसलिये यह विष काटने के बाद पीडा करने वाला होने से दष्ट ऐसा कहा जाता है, यह विष जंगम विष कहलाता है, तथा जो वित्र खाने पर पीडो करने. वाला होता है, वह सुक्त विष कहलाता है, यह स्थावर विष होता है, जो विष शरीर पर पड़तेही पीडा जनक होता है, वह विष निपतित विष कहलाता ऐसा वह विष त्वविष और दृष्टिविषके भेदसे दो प्रकारका होता है, जो विप मांस तककी धातुको व्याप्त कर लेता है, वह विष मांसानुसारी विष कहलाता है, खूनको जो विष व्याप्त कर लेता है, वह शोणितानुसारी विष है ५ और जो विष अस्थि एवं માધુર્ય આદિ રસથી યુક્ત હેપ છે તેને રસિક અથવા રસાળ કહે છે. પ્રાણ નીય આદિ પદનો અર્થ પણ આગળ કહ્યા મુજબ સમજ. હવે વિષના જે છ પ્રકારના પરિણામ કહ્યા છે તેમનું સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવે છે– કૂતરા આદિ કરડે ત્યારે તેમની દાઢે માં રહેલું વિષ માણસના શરીરમાં પીડા ઉત્પન્ન કરે છે આ રીતે કરડયા બાદ આ વિષ પીડા ઉત્પન્ન કરનારું હોવાથી તેને દBવિષ કહે છે આ વિષને જંગમ વિષ પણ કહે છે. જે વિષ ખાવાથી પીડા ઉત્પન્ન કરનારું હોય છે તેને ભુક્તવિષ કહે છે. આ પ્રકારના વિષને સ્થાવર વિષ પણ કહે છે. જે વિષ શરીર પર પડવાથી શરીરમાં પીડા ઉત્પન્ન કરે છે તે વિષને નિપતિત વિષ કહે છે. તે વિષના વગૂવિષ અને દૃષ્ટિવિષ નામના બે ભેદ પડે છે જે વિષ માંસ પર્યન્તની ધાતુને વ્યાપ્ત કરી લે છે તે વિષને માંસાનુકારી વિષ કહે છે. જે વિષ રકતમાં વ્યાપી જાય છે તેને શેણિતાનુસારી વિષ કહે છે. જે વિષ અસિથ અને Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधाटीका स्था०६ सू०६० प्रश्नस्य पं विधत्वनिरूपणम् गच्छति तत् । ५ । तथा-अस्थिमज्जानुसारि-यद्विपम् अस्थिमज्जां चानुगच्छति तत् || ६ || विपस्य पहृविधत्वात्तत्परिणामोऽपि पवििध उक्तः ॥ मु० ५९ ॥ उपर्युक्तानामर्थानां निर्णयस्तु सातिशयाप्तसकाशात् प्रश्नपूर्वकमेव भवतीति प्रश्नस्य षड्विधत्वमाह- मूलम् -- छवि पट्टे पण्णत्ते, तं जहा -- संस्यपट्टे १, वुग्गहपट्टे २, अणुजोगी ३, अणुलोमे ४, तहणाणे ५, अतहणाणे ६ ॥ सू० ६० ॥ छाया --पड्रविधं पृष्टं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा - संशयपृष्टम् १, व्युद्ग्रहपृष्टम् २, अनुयोगि ३, अनुलोमम् ४, तथाज्ञानम् ५ अतथाज्ञानम् ६ ।। ० ६० । टीका - - ' छविहे ' इत्यादि पृष्टं=प्रश्नः षड्विधं प्रज्ञप्तम् तद्यथा-संशयपृष्टम् - कांस्मविद्विषये संशये सति यः प्रश्न विधीयते स संशयपृष्टमिति । यथा 16 जइ तवसा बोदाणं, संजम भगासवति ते कदं णु देवत्तं जंति जइ ?, सरागसंजमओ गुरुप्पाह १ ॥ -- ४७७ मज्जाको व्याप्त कर लेना है, वह अस्थिमज्जानुसारी विष है ६ इस तरहसे विषकी षट् प्रकारता में उसके परिणाममें भी षट् प्रकारता कही गई है || सू० ५९ ॥ उपर्युक्त अर्थो का निर्णय सातिशय आप्तसे प्रश्नपूर्वकही होता है, अतः अब सूत्रकार प्रश्न में षट् प्रकारता कहते हैं'छवि पट्टे पण ते ' इत्यादि सूत्र ६० ॥ टीकार्थ-प्रष्ट प्रश्न छ प्रकारका कहा गया है, जैसे- संशयपृष्ट १ व्युद्ग्रह पृष्ट २ अनुयोगी ३ अनुलोम ४ तथाहार ५ और अतथाज्ञान ३। किसी विषय में संशय होने पर जो प्रश्न किया जाता है, वह संशयपृष्ठ है । મજ્જામાં વ્યાપી જાય છે તેને અસ્થિ મજ્જાનુસારી વિષ કહે છે. આ પ્રકારે વિષની છ પ્રકારતાના કથન દ્વારા તેના પરિણામમાં પણ છ પ્રકારતાનુ` કથન थालय छे, म समन्वु ॥ सू. युद्ध ॥ સાતિશય આસને પ્રશ્ન પૂછવાથી જ ઉપયુક્ત અર્થાના નિર્ણય થઈ શકે છે તેથી હવે સૂત્રકાર પ્રશ્નના છ પ્રકારેનુ' નિરૂપણ કરે છે, "छप े पण ते " इत्यादि • टीअर्थ - प्रश्नना नीचे प्रभा छ प्रहार ह्या छे - ( १ ) सशयपृष्ट, (२) व्युहूश्रद्ध पृष्ट, (3) अनुयोगी, (४) अनुझेाभ, (4) तथाज्ञान, (६) तथाज्ञान (૧)કેાઈ પણ વિષયમાં શંકા થવાથી જે પ્રશ્ન પૂછવામાં આવે છે તેને Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४७८ स्थानाक्षस छाया–यदि तपसा व्यवदानं संयपतोऽनामा इति ते कथं नु । देवत्वं यान्ति यतयः ! सरागसंयमतो गुरुः प्राह ॥ १ ॥ ___अयं भावः--तपसा द्वादविधेन व्यवदानं कर्मणां छेदो भवति, तथासंयमतः अनायो भवति-इति ते-तब मतं कथं नु संगच्छते ? यतः तपस्विनो गृहीतसंयमा अपि यतयो देवत्वं यान्ति । एवं शिष्मा ने गुलः प्राह-ते हि सरागसंयमतो देवत्वं यान्तीति । इति प्रथमः प्रश्नः १। तथा व्युद्ग्रहपृष्टम्-व्युद्ग्रहेग-विपरीतग्रहेण-मिथ्याभिनिवेशेन परपक्षदूषणार्थ यः प्रश्नः क्रियते सः। यथा--" सामन्ना उ विसेसो, अन्नोऽनन्नो व होज्जइ अनी । सो नहिथ खपृर्फ पिच, गन्नो सामन्नमेव तयं ।। १॥" यथा-" जइ तबमा बोदाणं " इत्यादि । भाष इसका ऐसा है-धारह प्रकारके तपसे कर्मों का नाश होता है, और संयमले अनास्त्रय-आस्रबका अभाव होता है, ऐसा जो मत है, वह समीचीन कैसे माना जा सकता है ? कोकि गृहीत संयमवाले श्री तस्त्रिजन देव पर्यायको प्राप्त करते हैं, ऐसा यह शिष्यका प्रश्न है, इस पर गुरुदेव उससे कहते हैं-"ते हि सरागतंयमतो देवत्वं चान्ति" वे सरामसंयमले देव पर्यायको प्राप्त करले हैं, यह संशय प्रष्टहै, १। व्युद्ग्रहपृष्ट-विपरीत्त नहका नाम व्युद्ग्रह है, इसे शब्दान्तरसे 'मिथ्याभिनिवेश भी कहा गया है, इस मिथ्याभिनिवेशसे जो पर पक्षको दृषित करने के लिये प्रश्न किया जाता है, वह व्युग्रह पृष्ट हैयथा-" सामना उ विसेसो" इत्यादि । सशयपृष्ट ४७ छ. म " जइ तवसा चोदाणं " त्याह પ્રશ્ન–“બાર પ્રકારના તપથી કર્મોનો નાશ થાય છે અને સંયમ વડે અનાસ્ત્રવ (આસવને અભાવ) થાય છે, આ પ્રકારનો જે મત છે તેને ખરે કેવી રીતે માની શકાય ? કારણ કે ગૃહીત સંયમવાળા તપસ્વીઓ પણ દેવ પર્યાયને પ્રાપ્ત કરે છે.” શિષ્યને આ પ્રશ્ન સંયમપૃષ્ટ છે. | उत्तर-!' ते हि सरागसयमतो देवत्वं यान्ति " तसा संस॥ संयम વડે દેવપર્યાયને પ્રાપ્ત કરે છે. (૨)બુદુગ્રહ પૃષ્ટ–વિપરીત ગ્રહનું નામ વ્યુહ છે. તેને મિથ્યાભિનિવેશ પણ કહે છે. આ મિથ્યાભિનિવેશ પૂર્વક પર પક્ષને દૂષિત કરવાને માટે જે પ્રશ્ન પૂછવામાં આવે છે તેનું નામ બુદુગ્રહ પૃષ્ટ છે. भो " सामन्ना उ विसेसो" त्याल Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था. ६ ख ६० प्रश्नस्य पचिधत्व निरूपणम् छाया - सामान्याद् विशेपोऽन्योऽनन्यो वा भवति यदि अन्यः । स नास्ति खपुष्पमिव नान्यः सामान्यमेव सः ॥ १ ॥ इति । अयं भावः - सामान्याद् = धर्माद विशेषः = धर्मी अन्यो भवति अनन्यो वा ? यदि अन्यो भवति तदा स खपुष्पमित्र नास्ति । अथ अनन्यो भवति तदा स 'सामान्यमेव भवतीति । एवंरूपो व्युद्ग्रहमो भवतीति द्वितीयः प्रश्नः । २ । अनुयोगि-अनुयोगो=व्याख्यानं प्ररूपणेति यावत् स यत्रारित तत् । अनुयोगार्थं क्रियमाणः प्रश्न इत्यर्थः । यथा - सौधर्मकल्पिक देवानामुपपातविषये प्रश्न:'सोहम्मपदेवाणं भंते ! केवइयं कालं विरहिया उववारणं पण्णत्ता' इति । इति तृतीयः प्रश्नः ३ । अनुलोमम्-पराननुकूलयितुं यः प्रश्नः क्रियते सः । यथा 1 - व्याख्यान या प्ररूपणाका भाव ऐसा है - सामान्य से- धर्म से विशेष-धर्मी भिन्न है-या अभिन्न है ? यदि धर्म से धर्मो भिन्न है, तो वह आकाशपुष्पकी तरह नहीं है, और यदि वह उससे अभिन्न है, तो वह सामान्य-धर्म ही हो जावेगा विशेष धर्मी नहीं होगा ? व्युद्ग्रह प्रश्न ऐसा होता है २ अनुयोगी अनुयोग नाम हैं, यह जिसमें होती है, वह अनुयोगी है, अनुयोग के लिये किया गया प्रश्न अनुयोगी प्रश्न है जैसे सौधर्म कल्पिक देवोंसे उपपातके विषय में ऐसा प्रश्न किया गया है - " सोह ! केवइयं कालं विरहिया उबवाएणं पण्णत्ता हे भदन्त ! सौधर्मकल्प के देवोंका उपपात से विरह कितने कालका कहा गया है ३। अनुलोम-दूसरोंको अनुकूल करनेके लिये जो प्रश्न किया "" સામાન્ય ધર્મની અપેક્ષાએ વિશેષ-ધર્મી ભિન્ન છે કે અભિન્ન છે? જો ધમ કરતાં ધર્મી ભિન્ન હાય તા તે આકાશકુસુમ સમાન નથી જો તે તેનાથી અભિન્ન હૈાય તે તે સામાન્ય ધર્મ જ થઈ જશે-વિશેષ-ધર્માં થશે નહીં ” આ યુગૃહે પ્રશ્નનુ' દૃષ્ટાંત છે. " देवा प्रश्न (૩) અનુચેાગી પ્રશ્ન—વ્યાખ્યાન અથવા પ્રરૂપણાનું નામ અનુયાગ છે. તે જેમાં થાય છે તે અનુયાગી છે. અનુયાગને માટે પૂછાયેલા પ્રશ્નને અનુચેગી પ્રશ્ન કહે છે. જેમકે સૌધમ કલ્પના દેવાના ઉપપાતના વિષયમાં એવે प्रश्न पूछवासां भाव्यो छे " सोहम्मकप्पदेवाणं भंते । केवइयं कालं विरहिया उबवापणं पण्पात्ता ? ” हे लगवन् ! सौधर्म अपना देवाना उपयातना विर કેટલા કાળના કહ્યો છે ? ૩૭૨ - (૪)અનુલે!મ પ્રશ્ન—અન્યને અનુકૂળ કરવાને માટે જે પ્રશ્ન કરવામાં આવે हे ते प्रश्नने अनुसोस प्रश्न छे, प्रेम " कुशलं भवताम् " त्याहि, Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानावर 'कुशलं भरता'-मित्यादि,-इति चतुर्थः प्रश्नः ४। तथाज्ञानम्-यत्र विषये प्रश्नकर्तु रपि प्रष्टव्यस्येव ज्ञानं भवति स प्रश्नस्तथाज्ञानमित्युच्यते । एवंविधप्रश्न ज्ञानवान् गौतमादिवोध्यः । स च मनविषयीभूतार्थ जानम्नपि भगवन्तं पृच्छति, यथा-' केवइयं कालं संते ? चमरचंचा रायहाणी विरदिया उववाएणं' इत्यादि । इति पञ्चमः प्रश्न: ५। तथा-अनथाज्ञानम्-यत्र प्रश्नविपयीभूतेऽर्थे प्रश्न कर्तुः प्रष्टव्यस्पेव ज्ञानं न भवति, स प्रश्ना-अतथाज्ञानमित्युच्यते । यथा-राज्ञः प्रदेशिनो जीविपये केशिकुमारश्रमणं प्रति प्रश्नः । इति पष्ठः प्रश्नः६ ॥० ६०॥ जाता है, वह अनुलोम प्रश्न है, जैले-" कुशलं भवताम्" इत्यादि । तथाज्ञान-जिस प्रश्न के विषय में प्रश्नकर्ताको भी प्रष्टव्यविशेषको ज्ञान होना है। वह तथाज्ञान प्रश्न है, ऐसे प्रश्न ज्ञानवाले गौतमादि हुए हैं, क्योंकि जिन प्रश्नों को उन्होंने भगवान से पूछा है, वे स्वयं उस प्रश्नके अर्थको जानते थे, जैसे-" केवइयं काल भते ! चमरचंचा रायहाणी विरहिया उववाएणं " हे भदन्त ! चमरचश्चा राजधानी कितने काल तक उपपातसे विरहित रही ? इत्यादि ५। अतथाज्ञान-जहां प्रश्नकर्ताको प्रश्न विषयक ज्ञान जिससे प्रश्न पूछा गया है, उसकी तरह नहीं होता है, वह अतथाज्ञान प्रश्न है, जैसे-प्रदेशी राजाने जीव विषय में केशिकुमार श्रमण से प्रश्न किया है ६ ।। ग्लू०६० ॥ (૫) તથાજ્ઞાન પ્રશ્ન–જે પ્રશ્ન પૂછવામાં આવે તે પ્રશ્નના વિષયનું જ્ઞાન પ્રશ્નકર્તા પણ ધરાવતું હોય, તે તેના તે પ્રશ્નને તથાજ્ઞાન પ્રશ્ન કહે છે. જેમકે ગૌતમ સ્વામીએ મહાવીર પ્રભુને જે પ્રશ્નો પૂછયા હતા તે પ્રશ્નોના ઉત્તર તેઓ જાણતા હતા. છતાં અન્ય સાધુઓ અને લેકેને ધર્મતત્વનું જ્ઞાન થાય તે હેતુપૂર્વક તેઓ મહાવીર પ્રભુને એવા પ્રશ્નો પૂછતા હતા. " केवइयं कालं भंते ! चमरचंचा रायहाणी विरहिया उववाएणं १ . ભગવાન ! ચમચંચા રાજધાની કેટલા કાળ સુધી ઉપપાતથી વિરહિત ૨હી ?” ઈત્યાદિ. આ પ્રશ્નને ઉત્તર ગૌતમ સ્વામી તે જાણતા હતા, છતાં આ પ્રકારને પ્રશ્ન પૂછવામાં આવ્યું છે માટે તેને તથાજ્ઞાન પ્રશ્ન કહી શકાય. (૬)અતથાજ્ઞાન પ્રશ્ન-પ્રશ્નમાં પૂછવામાં આવેલા વિષયનું જ્ઞાન પ્રશ્નકર્તામાં ન હોય ત્યારે તેના પ્રશ્નને અતથાજ્ઞાન પ્રશ્ન કહે છે. પ્રદેશી રાજાએ જીવના વિષે કેશિ અણગારને જે પ્રશ્ન પૂછ્યો હતો તેને અતથાજ્ઞાન પ્રશ્ન ४ी शाय. ॥ सू. १० ॥ Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा ठीका स्था० ६ सू० ६० प्रश्नस्य षड् विधत्वनिरूपणम् ૪૮ર્ अनन्तरमुत्रे तथाज्ञानप्रश्न विषये 'कैवइयं कालं भंते । चमरच्चा रायहाणी विरहिया उववाणं ' इत्युक्तम्, अतस्तदुत्तरं दातु ' चमरचंचा ' इति, विरहाधिकारात् इन्द्रस्थानादिकं च निरूपयति- मूलम् - चमरचंचा रायहाणी उक्कोसेणं छम्मासा विरहिया 'उववाएणं । एगमेगेणं इंदाणे उक्कोसेणं छम्मासा विरहिए उववारणं । अहे सत्तमाएणं पुढवी उक्कोसेणं छम्मासां विरहिया उववारणं । सिद्धिगईणं उक्को सेणं छम्माला विरहिया उववाएणं ॥ सू० ६१ ॥ छाया - चमरचश्चा राजधानी उत्कर्षेण षण्मासान् विरहिता उपपातेन । एकमेकं खलु इन्द्रस्थानम् उत्कर्षेण पण्मासान् विरहितम् उपपातेन । अधःसप्तमी खलु पृथिवी उत्कर्षेण पण्मासान् विरहिता उपपातेन । सिद्धिगतिः खलु उत्कर्षेण षण्मासान् विरहिता उपगतेन ।। ० ६१ ॥ 66 इस ऊपरके सूत्र में तथाज्ञान " प्रश्नके विषय में " केवइयं कालं भंते ! चमरचंचा रायहाणी विरहिया उववाएणं " ऐसो जो कहा गया है, सो उसका उत्तर देनेके लिये “ चमरचञ्चा " का एवं विरहाधिकारको लेकर इन्द्रस्थान आदिका अब सूत्रकार कथन करते हैं 'मरचचा रायहाणी उक्को सेणं " इत्यादि सूत्र ६१ ॥ सूत्रार्थ - चमरचञ्चा राजधानी उत्कृष्टले छ मास तक उपपातसे शूनी रह सकती है, अर्थात् छ मास तक उपपातका विरह काल होता है, एक एक इन्द्रस्थान उत्कृष्टसे छ मास तक उपपात से शूना रह सकता है, अधः सप्तमी पृथिवी उत्कृष्ट छ माह तक उपपात से शूनी रह सकती है, अर्थात् छ मासका विरह होता है और सिद्धगति भी उत्कृष्टसे छ " આગલા સૂત્રમા એવા પ્રશ્ન પૂછવામાં આળ્યે છે કે “ ચમરચ’ચા રાજધાની કેટલા કાળ સુધી ઉપપાતથી શૂન્ય રહે છે ” તેને ઉત્તર આપતાં ચમરચાનું અને વિરહાધિકારને લઇને ઈન્દ્રસ્થાન આદિનું હવે સૂત્રકાર કથન अरे छे. “ चमरचंचा रायहाणी उक्कोसेणं " इत्यादि વધારે છ માસના ચમરચચા રાજધાની વધારેમાં વધારે છ માસ સુધી ઉપપાતથી રહિત રહી શકે છે એટલે કે ત્યાં ઉપપાતના વિરહકાળ વધારેમાં હાઈ શકે છે પ્રત્યેક ઈન્દ્રસ્થાન વધારેમાં વધારે છ માસ શૂન્ય રડી શકે છે, અને સિદ્ધગતિ પણ વધારેમાં વધારે ઉપપાતથી શૂન્ય રહી શકે છે. स्था० - ६१ સુધી ઉપપાતથી છ માસ સુધી Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ka स्थानासूत्रे टीका - ' चमरचंवा ' इत्यादि -- चमरचञ्चा - चमरस्य दाक्षिणात्यस्य अमुरनिकायस्वामिनः चश्चाऽभिधेया राजधानी चमरचञ्चाऽभिधीयने । जम्बूद्वीपस्थमन्दरपर्यतस्य दक्षिणे तिर्यगसंख्येयान् द्वीपसमुद्रान् अतिक्रम्य अरुगरद्वीपस्य वाद्याद् वेदिकान्तात् अरुणोदं समुद्र द्विचत्वारिंशद्योजन सहस्राण्यवगाद्य चमरस्य अमुरराजस्य तिगिच्छकूटनामा उत्पातपर्वतोऽस्ति । स हि उच्चत्वेन एर्विशत्यधिकसप्तदश शतयोजनममाणः । तस्य दक्षिणे अरुगोदे समुद्रे साविकानि पोटिशतानि योजनानि तिर्यगतिक्रम्याथो रत्नप्रभायाः पृथिव्याः चत्वारिंशत्सहस्रयोजनान्यवगाह्य जम्बूद्वीपप्रमाणा चमरचञ्चाभिधेया राजधानी व्यवस्थिता । सा चेयं चमरचञ्चा राजधानी उत्क पैण पण्मासान उपपातेन = देवोत्पच्या विरहिता भवति । चमरचञ्चायामुत्कर्पतः मास तक उपपातले शुनी रह सकती है । चमर यह दाक्षिणात्य अलुर निकाय ( दक्षिण दिशा) का स्वामी है, इसकी जो राजधानी है, वह चश्वा है, अतः चसरके योग से यह राजधानी चमरचचा कहलाती है, इस जम्मूदीप के मन्दरपर्वतकी दक्षिण दिशामें तिरछे असंख्यात दीप समुद्रों को पार करके अरुणवर छीपकी बाय वेदिकान्त से लेकर अरुणोद समुद्र में बयालीस हजार योजन आगे जाकर असुरराज चमरका तिगिच्छकूट नामका उत्पात पर्वत आता है। यह उत्पान पर्वत सत्र हलोइक्कीस १७२१ योजन ऊंचा है । इस पर्वतकी दक्षिण दिशामें अरुणोद समुद्र में कुछ अधिक छौ करोड योजन तिरछे जाकर नीचे रत्नप्रभा पृथिवीको चालीस हजार योजन पार करके जम्बूद्वीप के बराबर चमरचश्चा नामकी राजधानी है, यह चमरचश्चा ચમર દાક્ષિણુત્ય અસુરનિકાયના સ્વામી છે. તેની રાજધાનીનું નામ ચચા છે. ચમરના ચેાગથી તે રાજધાની ચમરચાને નામે ઓળખાય છે. આ જંબુદ્રીપના મન્દર પતની દક્ષિણુ દિશામાં તિરાં ( તિરકસ ) અસ’ખ્યાત દ્વીપસમુદ્રોને પાર કરીને, અરુધ્રુવર દ્વીપની ખાઘવેદિકાન્તથી લઇને અરુણેદ સમુદ્રમાં ખેતાલીસ હજાર ચેાજન આગળ જતાં અસુરરાજ ચમરના તિઝિકૂટ નામના ઉત્પાત પર્વત આવે છે. તે ઉત્પાત પર્યંત સત્તરસે એકવીસ૧૭૨૧ ચેાજન ઊંચા છે. આ પવતની દક્ષિણુ શિામાં અરુણેદ સમુદ્રમા છસેા કરાડ ચેાજન કરતાં પણ ચેડું વધારે તિરથ્રુ પાર કરીને, નીચે રત્નપ્રભા પૃથ્વીને ચાલીસ હજાર ચેાજત પાર કરીને જમૂદ્રીપના જેવડી જ ચમરચચા રાજધાની આવે છે, આ ચમરગચા રાજધાની વધારેમાં વધારે છ માસ સુધી દેવેાના ઉત્પાતથી ( ઉત્પત્તિથી ) રહિત રહે છે. એટલે કે ત્યાં છ માસ સુધી દેવાની Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८३ सुधा टोका स्या० ६ सू० ६१ इन्द्रस्थानादिनिरूपणम् पण्मासान देवानामुत्पत्तिविरहो भवतीति भावः । तथा-एकै कम् इन्द्रस्थानम्यत्र चमरादय इन्द्रास्तिष्ठन्ति, एतादृशं भवननगरविमानरूपं स्थानम् उत्कर्पण षण्मासान् यावत् उपपातेन इन्द्रापेक्षया विरहितं तिष्ठतीति । तथा-अधःसप्तमी,सप्तमी तु पश्चानुपूा रत्नमभाऽत्यभिधीयते इत्यध इति विशेषणम् , ततश्चाध:सप्तमीशब्देन तमस्तभा ग्राह्या । सा तु उत्कर्षेण पण्मासान् यावत् उपपातेन विरहिता भवति । तदुक्तम् -- उत्कर्षतः प्रथमादिसप्तनरकेषु ) "चउवीसई सुहत्ता १, सत्त अहोरत्त २ तह य पन्नरस ३। मासो ४ य दो ५ य चउरो ६, छम्मासा ७ विरहकालो उ॥ १॥" छाया--चतुर्विंशतिर्मुहूर्ताः १ सप्त अहोरात्रा २ स्तथा च पञ्चदश ३। - मासश्च ४ द्वौ च ५ चत्वारः ६ षण्मासा ७ विरहकालस्तु ॥१॥ इति । राजधानी उत्कृष्ट से छह माल तक देवोंकी उत्पत्तिले विरहगाली होती है, अर्थात् इस राजधानी में छ माल लक देवोंकी उत्पत्तिका विरह होता है, इसके बाद फिर कोई न कोई देश वहां अवश्प उत्पन्न हो जाता है, तथा-जहाँ चामरादिक इन्द्र रहते हैं, ऐसा जो भवन नगर एवं विमान रूप एक २ स्थान है, वह भी उत्कृष्टले छ माह तक उन इन्द्रोंकी उत्पत्तिले विरहयुक्त होता है, तथा-अघासप्तमी पृथिवी तमस्तमा पृथिवी भी छह मास तक नारकले उपपातले चिरहित होती है, यहां जो सप्तमी पृथियो के साथ अध: पद दिया है, उसका कारण ऐसा है, कि :पश्चानुपूर्वीसे रत्ननला पृथिवी ली लप्सली पृथिवी हो सकती है, अतः वह यहां गृहीत न हो इसके लिये "अघ: " पदका प्रयोग किया गया है। कहा भी है-" चउबीसई सुहत्ता' इत्यादि। ઉત્પત્તિને વિરહ (ભાવ) રહે છે, ત્યાર બાદ કેઈને કે ઈ દેવ ત્યા અવશ્ય ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. તથા જ્યાં ચમરાદિક ઈદ્રો રહે છે એવા ભવન, નગર અને વિમાન રૂપ પ્રત્યેક સ્થાન પણ વધારેમાં વધારે છ માસ સુધી ઈદ્રોની ઉત્પત્તિથી રહિત સંભવી શકે છે. તથા અધસપ્તમી પૃથ્વી (તમસ્તમાં નામની સાતમી નરક પૃથ્વી) પણ છ માસ સુધી નારકના ઉપપાતથી રહિત હોઈ શકે છે. અહીં સાતમી પૃથ્વીની સાથે “અધ' પર જવાનું કારણ એ છે કે પશ્ચાનુપૂરથી ગણવામાં આવે તે રત્નપ્રભા પૃથ્વીને પણ સાતમી પૃથકી કહી શકાય છે આ પ્રકારની ગેરસમજૂતિ નિવારવા માટે અહીં સાતમી પૃથ્વીની આગળ “અષ: પદ મૂક पामा मा०युं छे. ४यु ५४ छ ' " चउवीसईमुहुत्ता । त्याह Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४ स्थांनाङ्गो तथा-सिद्धिगतिः खलु उत्कग पण्मासान् उपपातेन-गमनेन विरहिता तिष्ठति । उपपात इह गमनमेव न तु जन्म । जन्मकारणानां सिद्धेवऽभावात् । उक्तं च-" एगममओ जहन्नं, उक्को सेणं हवंति छम्मासा । विरहो सिद्धिगईए, उबट्टणवज्जिया नियमा ॥ १ ॥" छाया-एकसमयो जघन्यम् उस्कण भवन्ति पण्मासाः। विरहः सिद्धिगतौ उद्वर्तनवजिता नियमात् ।। १ ।। इति । उदर्शनवर्जिता-निस्सरणरहिता सिद्धिगतिरिति ।। सू० ६१ ॥ प्रथम पृथिवीमें विरहकाल उपपातकी अपेक्षा उत्कृटसे २४ मुह. का है, द्वितीय पृथिवी में लात अहोरात्रका है तृतीय पृथिवीमें १५ दिन काहै, चौथी पृथियो १ मासका है, पंचमी पृथिवीमें २ मासका छट्ठी पृथिवीमें ४ मासका और सातवीं पृथिवीमें ६ मासका उत्कृष्ट से विरहकाल है, तथा-सिद्धिगतिमें उपपात से विरहकाल छह मासका उत्कृष्ट से हैं यहां उपपात शब्द का अर्थ गमन है, जन्म नहीं क्योंकि जन्मके कार. णोंका सिद्धों में अभाव हो जाता है। कहा भी है " एग समओ जहन्" इत्यादि । सिद्विगतिमें जघन्यसे गमन का अन्नर १ समयका होता है, और पस्कृष्ट से छह मास का होता है, फिर यहां से जीवका निकलना नहीं होता है ऐसा नियम है ।। सू० ६१ ।। | પહેલી પૃથ્વમાં વધારેમાં વધારે ૨૪ મુહૂત સુધી ઉપપાતને વિરહ રહે છે, બીજી પૃથ્વીમાં સાત દિનરાતને, ત્ર છ પૃથ્વીમાં ૧૫ દિનરાતને ચોથી પૃથ્વમાં એક માસને, પાંચમી પૃથ્વીમાં બે માસને, છઠ્ઠી પૃથ્વીમાં ચાર માસના અને સાતમી પૃથ્વીમાં છ માસને વધારેમાં વધારે ઉપપાતને વિરહકાળ કહ્યું છે. તથા સિદ્ધિ ગતિમાં ઉત્પાતને ઉત્કૃષ્ટ વિરહકાળ ૬ માસને કહ્યો છે. અહીં ઉપપાત શબ્દ ગમનના અર્થમાં વપરાય છે. જન્મના અર્થમાં વપરાયે નથી, કારણ કે જન્મનાં કારણેને સિદ્ધોમાં અભાવ થઈ तय छे. ४युं ५५ छे , " एग समो जहन्न " त्याह સિદ્ધિગતિમાં ગામનનું અન્તર ઓછામાં ઓછું એક સમયનું અને વધારેમાં વધારે છ માસનું હોય છે. ત્યાં ગયા બાદ જીવને ત્યાંથી બીજી કઈ ગતિમાં જવું પડતું નથી. સૂ. ૬૧ | Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधाटीका स्था०६ स्यू०६२ सभेदमायुबन्धनिरूपणम् ४८५ अनन्तरमुपपातविरह उक्तः । उपपातश्चायुबधे सति भवतीति सभेदमायुर्वन्धसूत्रमाह मूलम्--छबिहे आउयबंधे पण्णत्ते, तं जहा जाइणामणिहत्ताउए १, गणामणिहत्ताउए २, ठिइणामणिहत्ताउए ३, ओगाहणाणामणिहत्ताउए ४, पएलणामणिहत्ताउए ५, अणुभावणामणिहत्ताउए । नेरइयाणं छबिहे आउयबंधे पण्णत्ते, तं अहा--जाइणामणिहत्ताउए १ जाव अणुभावणामनिहत्ताउए ६। एवं जाव वेमाणियाणं । नेरक्या णियमा छम्मासावसेसाउया परभावियाउयं पगरेति। एवामेव असुरकुमारा वि जाव थणियकुमारा । असंखेज्जवासाउया सन्निपंचिंदियतिरिक्ख. जोणिया णियमा छम्मासावसेसाउया परभावियाउयं पगति । असंखेज्जवासाउया सन्निमनुस्सा नियमा जाब पगरेति । वाणमंतरा जोइलवासिया वेमाणिया जहा नेरझ्या ॥ सू० ६२ ॥ - छाया-पविध आयुर्वन्धः मज्ञप्तः, तद्यथा-नातिनामनिधत्तायुः १, गतिनामनिधत्तायुः २, स्थितिमामनिधत्तायुः ३, अवगाहनानामनिधत्तायुः ४, प्रदेशनामनिधनायुः २, अनुभावनामनिधत्तायुः ६ । नैरयिकाणां पविध इस परके सूत्र में उपपातका विरह कहा सो उपपोत आयुके बन्ध होने पर होता है, अतः अब सूत्रकार भेद सहित आयुर्वन्ध का कथन करते हैं-"छब्धिहे आउयवंधे पण्णत्ते " इत्यादि सून ६२ ॥ सूत्रार्थ-आयुषन्धछ प्रकार का कहा गयाहै । जैसे-जातिनामनिधत्तायु १ गतिनामनिधत्तायु २ स्थितिनामनिधत्तायु ३ अवगाहनानामनिधसायु प्रदेशनामनिधत्तायु ५ और अनुभावनामनिधत्तायु ६। ' ઉપરના સૂત્રમાં ઉપપાતના વિરહકાળની વાત કરી. ઉપપત આયને અન્ય પડવાથી થાય છે, તેથી હવે સૂત્રકાર આયુબન્ધનું અને તેના ભેદનું नि३५ ४२ छ. " छविहे आउयधे पण्णत्ते "त्या' સૂત્રર્થ આયુબના નીચે પ્રમાણે છ પ્રકાર કહ્યા છે–(૧) જાતિનામનિધત્તાયુ (२) शतिनामनियत्तायु, (3) स्थितिनामनिधत्तायु, (४) माडनानाम. नियत्तायु, (५) प्रशनामनियत्तायु, मन (6) मनुमापनामनिधतायु. Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थाना ४८६ आयुर्वन्धः प्रज्ञप्तः, तद्यथा - जातिनाम निघत्तायुः १ यावत् अनुभावनाम निधत्तायुः ६। एवं यावद् वैमानिकानाम्। नैरयिका नियमात् पण्णासावशेषायुष्काः परभाविकायुष्कं प्रकुर्वन्ति । एवमेव असुकुमारा अपि यावत्स्वनितकुमाराः । असंख्येय वर्षायुकाः संज्ञिपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः नियमात् पण्मासावशेपायुक्का परभ विकायुष्कं प्रकुर्वन्ति । असंख्येयवर्षायुष्काः संज्ञिमनुष्याः नियमात् यावत् प्रकुर्वन्ति । व्यन्तरा ज्योतिर्वासिका वैमानिका यथा नैरधिकाः ।। सू ६२ ॥ टीका - छवि' इत्यादि आयुर्वन्ध: - आयुषो बन्यो निषेक:- प्रतिसमयं बहुद्दीनहीनतरस्य कर्मद लिकस्यानुभवनार्थं रचनाविशेषः, स पविधः प्रज्ञप्तः, तपथा - जातिनामनिधत्तायुः - जाति: एकेन्द्रियादिः पञ्चविधा, मैन नाम=नामकर्मण उत्तरमकृतिविशेष अथवा नापरिणामः तेन सह नियतं निषिक्तम्-कर्मदकामनार्थं बहलाल्पतरक्रमेण व्यवस्थापितं यदायुस्तन् । उक्तं च 16 मोगा, परमार ठिईए बहुतरं दव्वं । से से विसेोणं, जाबुको संति सञ्चासि ॥१॥" आयुक्का जो अन्ध-निषेक-प्रति समय पहुद्दीन हीनतर- कर्मदलिक के अनु अबके लिये रचनाविशेत्र है, वह आयुर्धन्य है, वत् पन् जो छ प्रकारका कहा है, उसका भाव ऐसा है, एकेन्द्रिय जातिके इसे जाति पांच प्रकारकी है यह जातिही नाम है, नात्र कर्मका उत्तर प्रकृतियों का एक भेद है, अथन जीवके परिणामका नाम नाम है, इस जालिरूप नामके साथ जीवके परिणाम के साथ या जातिकर्मके साथ जो आयु निपित है कर्मलिकों के अनुभव के लिये बहु अल्प अल्पतर के क्रम व्यवस्थापित है, वह जातिनाम निघताय है। कहा भी है માયુના જે મધ~તિષેક પ્રતિસમય બહુ હીનહીનતર કલિકના અનુભવનને માટે જે રચનાવિશેષ છે, તેનું નામ આયુન્ય છે. તે અન્યના જે છ પ્રકાશ પાડવામાં આવ્યા છે તેમનું હવે સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવે છે. એકેન્દ્રિય આદિના ભેદથી જાતિ પાંચ પ્રકારની છે. તે જાતિ જ નામ છે જેવું એવા નામકર્મની ઉત્તર પ્રકૃતિયાના એક લેક છે. અથવા જીવના પરિણામને નામ કહે છે. આ જાતિરૂપ નામની સાથે, જીવના પરિણામની સાથે અથવા જાતિનામ કની સાથે જે આયુ નિષિક્ત છે—કલિકાના અનુભવનને માટે બહુ અલ્પ અને અલ્પતરના ક્રમે વ્યવસ્થાપિત છે, તેનું નામ જાતિનામનિધત્તાયુ છે, Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०६ सु० ६२ समेदमायुबन्धनिरूपणम् 1 छाया - मुक्त्वा स्वकामवाघां प्रथमायां स्थितौ बहुतरं द्रव्यम् । शेषासु विशेषहीनं यावदुत्कर्षमिति सर्वासाम् ॥ १॥ इति । इति प्रथम आयुर्वधः । तथा - गतिनामनिधत्तायुः - गतिः = नरकादिका चतुर्विधा, सेव नाम-नामकर्मण उत्तरप्रकृतिविशेषो नामो= जीव परिणामो वा तेन सह निघत्तं यदायुस्वदिति द्वितीयः । स्थिति नामनिधवायुः - स्थितिः - केनचिद विवक्षाविपयीभूतेन भावेन जीवेन आयुष्कर्मणा वा यत् स्थातव्यं सा स्थितिरित्युच्यते, सेव नाम = परिणामो धर्मः स्थितिपरिणाम:, तेन सह निवत्तं यदायुः = वलिकरूप तत् । ४८७ " सोसून संगमाहं " इत्यादि । अपनी रे अवाको छोड़कर प्रथम स्थिति में बहुतर द्रव्य देना बाकी की स्थितियों में विशेष २ हीन द्रव्य देना चाहिये यह क्रम समस्त कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति तकका जानना चाहिये इस प्रकार से यह प्रथम आयुबन्ध है गतिनामनिवत्तायु— नरकादिकके भेदसे चार प्रकारको गति होती है, यह गति भी नामकर्मकी उत्तर प्रकृतियोंमेंका एक भेद है, अथवा नामसे जीव परिणाम लिया गया है, सो इस गतिनाम कर्मके साथ अथवा गतिरूप जीव परिणाम के साथ जो आयु नि है, वह द्वितीय आयुबन्ध है, स्थितिनापनिषत्तायु – जीव जिस किसी विवक्षाभूत भाव से अथवा आयु कर्मसे स्थित रहता है वह स्थिति है, सो इस स्थितिरूप परिणामके साथ जो दलिकरूप आयु निघत्त है, वह ह्युं पशु छे " सोतॄण संगमवाहं " इत्यादि પેાતપાતાની અખાધાને છેડીને પ્રથમ સ્થિતિમાં મહુતર દ્રવ્ય દેવું જોઇએ, ખાકીની સ્થિતિમાં વિશેષ વિશેષ હીન દ્રવ્ય દેવું જોઇએ. આ ક્રમ સમસ્ત કર્મીની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ પન્ત જાણુવેા ોઇએ. પ્રથમ આયુમન્ધનું આ પ્રકારનું સ્વરૂપ છે. ગતિનામનિધત્તાયુ—નારક આદિના ભેદથી ચાર પ્રકારની ગતિ કહી છે. આ ગતિ પણ નામક ની ઉત્તર પ્રકૃતિના એક ભેદ રૂપ છે. અથવા નામ દ્વારા જીવપરિણામ લેવામાં આવ્યું છે. આ ગતિનામકની સાથે અથવા ગતિરૂપ જીવપરિણામની સાથે જે આયુ નિધત્ત છે તેનું નામ ગતિનામ નિધત્તાયુ છે, અને તે આયુષ્મન્યના ખીજા પ્રકાર રૂપ છે. સ્થિતિનામનિશ્વત્તાયુ—જીવ જે કૈાઇ વિક્ષાભૂત ભાવ રૂપે અથવા આચુકમ' રૂપે સ્થિત રહે છે, તેનું નામ સ્થિતિ છે. આ સ્થિતિ રૂપ રિણામની સાથે જે દલિક રૂપ આયુ નિયત્ત છે, તેને ત્રીજા પ્રકારના આયુમન્ધ Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ્રુડેટ स्थानास्त्रे यद्वाऽत्रमुत्रे जातिनामगतिनामावगाहनानामग्रहणात् जातिगत्यवगाहनानां प्रकृतिमात्रगुक्तम् । स्थिति प्रदेशानुभावनामग्रहणात्तु जातिगत्यवगाहनानामेत्र स्थितिप्रदेशानुभागा उक्काः । स्थित्यादयस्तु जात्यादिनाम सम्वन्धित्वान्नामकर्मरूपा एवेति नाम शब्दः सर्वत्र कर्मार्थो वोध्यः । इत्यं च स्थितिरूपं नाम, कर्मस्थिति नाम, तेन सह नितं तदात् स्थितिराम नित्रतायुरिति तृतीयः । अगाहना नाम -विधतायुः - आगाह ने जीत्रोस्तिति यस्पां सागाहना औदारिकादि शरीरं, तस्या नाम= रामकर्म - अवगाहना नाम - औरिकादि शरीर नामकर्मेत्यर्थः तेन सह तृतीय आयुबन्ध है, अथवा इस सूत्र में जातिनाम गतिनाम और अवगाहना नाम इनके ग्रहण से जाति, गति और अवगाहना इनको प्रकृतिवन्ध मात्र कहा गया है और स्थिति नाम प्रदेश नाम एवं अनुभाव नाम, इनके ग्रहण से जाति गति और अवगाहना इनकेही स्थितिबन्ध प्रदेशबन्ध अनुभाग कहे गये हैं। क्योंकि स्थिति आदि 'बन्ध जाति आदि नामके साथ सम्बन्धवाले होते हैं, इसलिये वे नामरूप अर्थात् कर्मरूपही होते हैं, अतः नाम शब्द सर्वत्र कर्म अर्थवाला जानना चाहिये इस तरह स्थितिरूप जो नाम है, कर्म है, वह स्थिति नाम है, इस स्थितिरूप कर्म के साथ जो आयु निवत्त होती है, वह स्थितिनामनित्ता है, इस प्रकारका यह तृतीय यन्त्र है, जीव जिसमें अवगाहित होता है, वह अवगाहना है, ऐसी अवगाहना औदारिकादि शरीररूप होती है, इसका जो नाम है, नानकर्म है, वह अवगाहना કહે છે અથવા આ સૂત્રમાં જાતિનામ, ગતિનામ અને અવગાહનાનામના અડણુ દ્વારા જાતિ, ગતિ અને અવગાહનાને પ્રકૃતિમન્ય જ માત્ર મહેણુ કરાયેા છે, અને સ્થિતિનામ, પ્રદેશનામ, અને અનુભાવનામના ગ્રહણુ દ્વારા नति, गति भने अत्रगार्डनाना स्थितिमन्ध, प्रदेशगन्ध, अने अनुलागઅન્ય કહેવામાં આવ્યા છે, કારણુ કે સ્થિતિ આદિ અન્ય જાતિ આઢિ નામની સાથે સખ'ધવાળા હોય છે, તેથી તેએ નામ રૂપ એટલે કે કમરૂપ જ હાય છે. તેથી નામ પદને સત્ર કમ અથવાળું જ સમજવું જોઈએ. આ રીતે स्थिति ३५ के नाम ( उ ) छे, ते स्थितिनाम छे આ સ્થિતિરૂપ કર્મની સ૨ે જે આયુ નિધત્ત હોય છે તેને સ્થિતિનામનિશ્વત્તાયુકહે છે. આ પ્રકારના આ ત્રીજો આયુષન્ય છે. અવગાહનાનામનિધત્તાયુ—જીવ જેમાં અવગાહિત ( રહેલે ) હોય છે, તે અવગાહના છે, એવી અવગાહના ઔદારિક આદિ શરીર રૂપ હોય છે, Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा-टीका स्था० ६ सू ६२ समेद.मायुर्वन्धनिरूपणम् निधत्तं यदायुस्तत् । इति चतुर्थः । प्रदेशनामनिधत्तायु:-प्रदेशानाम् आयुष्कर्मद्रव्याणां नाम-नथाविधः परिणामः प्रदेशानाम, यद्वा-प्रदेशरूपं नाम-कर्मविशेषः प्रदेशनाम, तेन सह निधत्तं यदायुस्तदिति पञ्चमः । तथा-अनुभावनामनिधत्तायु:-अनुमावः आयुर्द्रयाणामेव विपाका, तपो नाम परिणामःअनुभावनाम, यद्वा-अनुनावरूपं नाम-नामकर्म -अनुभावनाम, तेन सह निधत्तं यदायुस्तदिति पष्ठं आयुधः । ननु किमर्थ जाल्यादि नामकर्मणाऽऽयुर्विशिष्यते ? नाम है, यह अवगाहना नाम औदारिक आदि शरीर नामकर्म रूप होता है, इस औदारिक शीर नामकर्म के साथ निधत्त जो आयु है, वह अवगाहना नामनिधत्तायु है ४ प्रदेशनाम निधत्तायु-आयुषक कर्म द्रव्यरूप प्रदेशों का जो तथाविध परिणाम है, वह प्रदेश नाम है यहाप्रदेशरूप जो नामकर्म विशेष है, वह प्रदेशनाम है, इसके साथ जो आयु निधत्त है, वह प्रदेशनाम निधत्तायु है ५ अनुभावनाम निधत्तायु ६-आयु द्रव्यों काही जो विपाक है, उसका नाम अनुभाव है, इस. अनुभाव रूप जो नाम परिणाम है, वह अनुभावनाम है, यहा-अनु.. भावरूप नाम नामकर्म है, वह अनुनावनाम है, इस अनुभाव नामके साथ निधत्त जो आयु है वह अनुभावनाम निधत्तायु है, इस प्रकारसे यह छट्ठा आयुबन्ध है। __शंका-जात्यादि नाम कर्मद्वारा आयुको विशेपित क्यों किया गया है ? आयु के द्वाराही जात्यादि नामों को विशेपित करना चाहिये थो। તેનું જે નામ (નામ કર્મ ) છે તેનું નામ અવગાહના નામ છે. આ અવગાહના નામ ઔદ્યારિક આદિ શરીર નામકર્મ રૂપ હોય છે. આ ઔદ્યારિક શરીર નામકર્મની સાથે નિષત્ત જે આયુ છે તેને અવગાહના નામ નિધત્તાયુ કહે છે. પ્રદેશનામ નિવત્તાયુ–આયુષ્ક કમ દ્રવ્ય રૂપ પ્રદેશનું જે તથાવિધ પરિણામ છે તેને પ્રદેશનામ કહે છે. તેની સાથે જે આયુ નિધત્ત છે તેને પ્રદેશનામ નિધત્તાયુ કહે છે. અનુભાવ નામ નિધત્તાયુ–આયુ દ્રવ્યોને જ જે વિપાક છે તેનું નામ અનુભાવ છે આ અનુભાવ રૂપ જે નામ (કર્મ) પરિણામ છે તેને અનુભાવ નામ કહે છે અથવા અનુભાવ રૂપ જે કર્મ છે તેને અનુભાવ નામકર્મ કહે છે. તે અનુભાવ નામની સાથે નિધત્ત જે આપ્યું છે તેને અનુભાવ નામ નિધત્તાયુ કહે છે. આ પ્રકારનું છ આયુગન્ધનું સ્વરૂપ છે. શંકા–જાતિ આદિ નામકર્મ દ્વારા આયુને વિશેષિત શા માટે કરવામાં स्था०-६२ Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानांमध ४२० आयुवैव जात्यादिनामविशिष्यताम् ? इनिचेदाह - आयुषः प्राधान्यख्यापनार्थमेव जात्यादि नामकर्मणा तद् विशिष्यते । प्राधान्यं च तस्य नारकादि भवोपग्राहिस्वात् । न हि नारकावायुरुदया नावे तज्जातिनामकर्मणामुदयसंभवः । अत एवोक्तं व्याख्याप्रज्ञप्त्याम् — ( भग० श० ६ उ० ७ ) "नेरइणं भंते! नेरइए उपवाह ? अनेरइए नेरह उवज्जइ ? गोरमा [ नेर, नेरइए उत्रवज्जइ । नो अनेरइए नेरइएस उचचज्ज , छाया - नैरयिकः खलु भदन्त नैरयिकेपूपपणते ? अनैरथिको नैरयिकेषु उपपद्यते ? गौतम ! नैरयिको नैरयिकेपूपपद्यते, नो अनैरथिको नैरधि के पूपपयते इति अयं भावः - जीरो नरकायुः संवेदनमथमसमयं एत्र नारक इत्युच्यते । तत्सहचारिणां च पञ्चेन्द्रिय जात्यादि नामकर्मणामप्युदयो भक्तीति । इद्द आयु- आयुकी प्रधानता दिखानेके लिये प्रकट करनेके लियेही जात्यादि नामकर्म द्वारा उसे विशेषित किया गया है, क्योंकि नारकादि भग्राही होने से इसमें प्रधानता है, तारकादि आयुके उदयके अभीतज्जातिकर्मो का उदय नहीं होता है, यही बात व्याख्यापज्ञप्ति में इस प्रकार से कही गई है ( अम. श ६ उद्दे ८ ) उ० -- " " नेरइएणं संते ! नेरइएस उववज्जइ ? अनेरइए नेरइए व वज्जइ ? गोपमा ! नेरइए नेमइएस उचचज्जह नो अनेरहए नेरइएस ज्ववज्जद्द इसका भाव ऐसा है - जीव नरकायु संवेदन के प्रथम समयही नारक ऐसा कहने लगता है, क्योंकि उसके सहचारी जो पश्चકરવામા આવ્યું છે? આયુ દ્વારા જ જાતિ આઢિ નામમેનિ વિશેષિત કરવા જોઈતા હતા. 1 "" ઉત્તર—આયુની પ્રધાનતા પ્રકટ કરવાને માટે જ જાત્યાદિ નામકમ દ્વારા તેને વિશેષિત કરવામાં આવેલ છે, કારણ કે નારકાદિ ભવે.ગ્રાહી હાવાથી તેમાં પ્રધાનતા છે. નારકાદિ આયુતા ઉદયને અભાવ હાય તે તજાતિ ( તે જાતિ ) નામકર્મના ઉદય સંભવી શકઞા નથી. આ વાતનું ભગવતી સૂત્રના છઠ્ઠા શતકના આઠમાં ઉદ્દેશામાં આ પ્રમાણે, પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે.– " नेरइए णं भंवे ! नेरइएस उववज्जइ ? अनेरइए नेरइएस उववज्जइ १ गोयमा ! नेरइए नेरइए उत्रत्रज्जह नो अनेरइए नेरइएस उववज्जइ " આ કથનના ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે—જીવ નરકાસુ સવેદનના પ્રથમ સમયે જ નારક તરીકે એાળખાવા લાગે છે, કારણ કે તેના સહચારી જે Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा का स्था०६ खू२६२ समेहमायुर्वन्धनिरूपणम् ४९१ ... बन्धस्य पनिधमुपक्रम्य यदायुपः एविधत्वमुच्यते, तत् आयुपोगन्धाव्यतिरे काद् बद्धस्य चैवायुष आयुर्णपदेशविषयत्वादिति । इत्थं सामान्यतः पविध. मायुर्वन्धमभिधाय सम्प्रति तमेव नारकादिजीताश्रितत्वेन पाह-'नेरइयाणं' इत्यादि । नैरविकादि वैमानिकान्तानामेकमस्य आयुर्वन्धः पूर्वोक्तः पइविधी बोध्यः । तथा-नैरयिकाजीवाः नियम्गत् षण्मासावशेषायुष्का:-पण्मासा अबशेषा अवशिष्टा यस्मिस्ताशमायुर्या ते तथाभूताः सन्तः परमविकायुकपरभवसम्बन्धिकम् आयुः प्रकुर्वन्ति-बधनन्ति । एवमेव असुरकुमारादिस्तनितकु. मारान्ता भवनवासिनो देवा अपि दोध्याः । असंख्येयवर्षायुकाः संज्ञिपञ्चेन्द्रियन्द्रिय जात्यादि नामशर्म हैं, उनकामी उघ उस समय जीवको हो जाता है, आयुबन्धमें षट्विधनाका उपक्रम करके जो आयुमें पविधता कही है, वह आयुबन्धले अभिन्न होने के कारण कही गई है, क्योंकि बद्ध आयुमेंही आयुका व्यपदेश होता है, इस प्रकार सामान्यतः छ प्रकारके आयुबन्धका कथन करके अब उसी बन्धका कथन नोरकादि जीवोंका आश्रित करके सूत्रकार करते हैं " नेरयाणं छविहे आउय. बंधे० " इत्यादि । नैरयिकसे लेकर वैमानिक तरके एक २ जीवका आयबन्ध पूर्वोक्त रूपले छह प्रकारका होना है, तथा-नैरयिक जीव परि. श्रमसे जब उनकी आयु ६ छहमासकी शेष रह जाती है, तब परमवकी आयुका बे बन्ध करते हैं । इस तरह से आशुबन्धका यह कथन असुर कुमारसे लेकर स्तनितकुमारों तकमें जानना चाहिये तया असंख्यात वर्षकी आयुवाले संज्ञी पश्चेन्द्रि र तिर्यश्च भी नियमले जब उनकी आयु પંચેન્દ્રિય જાત્યાદિ નામકર્મ છે તેમને પણ તે સમયે જીવમાં ઉદય થઈ જાય છે. આયુબમાં ષટ્ વિધતા (છ પ્રકારતા) ને ઉપક્રમ કરીને અ.યુમાં જે ષ, વિધતા કહી છે તે આયુબન્ધથી અભિન્ન હોવાને કારણે કહી છે. કારણ કે બદ્ધ આયુમાં જ આયુને ચપદેશ થ ય છે આ પ્રકારે છ પ્રકારના આયુ બન્યનું સામાન્ય રૂપે કથન કરીને હવે સૂવકાર નારકાઢિ જીને આશ્રિત કરીને એ જ બન્ધનું કથન કરે છે. " नेरइयोणं छविहे आउयबंधे" त्यादि, નારથી લઈને વિમાનિક પર્યાના પ્રત્યેક જીવને આયુબ પૂક્તિ છ પ્રકાર હોય છે. જ્યારે નારક જીવનું છ માસનું આયુષ્ય બાકી રહે. ત્યારે તે નિયમથી જ પરભવને બન્ધ કરે છે આયુબન્ધનું આ પ્રકારનું કથન અસુરકુમારેથી લઈને સ્વનિતકુમારે સુધીના ઇવેને પણ લાગુ પડે છે. Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानानसूत्रे तिर्यग्योनिकाः पूर्वरदेव । असंख्येयवायुकाः संजिन ए भवन्तीति संज्ञिग्रहणमंत्र नियमार्थ बोध्यम् , न त्वमािनां व्यवच्छेदार्थम् , असंज्ञिनामसंख्येयवर्षायु'कत्वाभावादिति । एवमेव - युगलापेक्षया असंख्येयवर्षायुकाः संज्ञि मनुष्या व्यन्तरा ज्योनिष्का वैमानिका अपि बोध्या इति । उक्तं चात्र गाथाद्वयम्- " निरइरअसंखाऊ, तिरिनणुभा सेसए उ छम्मासे । इगविगला निरुपकप,-तिरिमणुया आउयतिभागे ॥ १ ॥ असेसा सोवकम-तिभाग नवभाग सत्तत्रीसइमे । वंधति परभवाउं, नियमभये सबजी या उ ॥ २॥" ___ छाया-निरयिसुरा असंख्यायुपस्तियग्मनुष्याः शेष के तु पण्मासे । एकविकलाः निरूपक्रमनिर्यग्मनुजाः आयुपखिभागे ॥ १ ॥ अवशेपाः सोपक्रमास्त्रिमागे नवभाने सप्तविंशतितमे । बध्नन्ति परभायुः निज कभये सर्वजीवास्तु, ।। २ ।। इति । छह माहकी बाकी रहती है, नप परगवकी आयुका बन्ध करते हैं । असंख्यात वर्षको आयुगाले संशोही जीव होते हैं इसलिये “संझिग्रहण" यह यहां नियमार्थ है, ऐशा जानना चाहिये असंज्ञियोंकी निवृत्तिके लिये नहीं क्योंकि असंज्ञियोंकी आयु असंख्यात वर्षकी नहीं होती है, इसी तरह युगलियों की अपेक्षासे असंख्यात वर्ष की आयुवाले संज्ञी मनुष्य व्यन्तर ज्योतिष्क और वैमानिक भी जानना चाहिये इस . विषय में दो गाथाएँ इस प्रकार कही गई हैं. "निरइसुर असंखाऊ" इत्यादि । અસંખ્ય ત વર્ષના આયુષ્યવાળા સંજ્ઞી પંચેન્દ્રિય તિર્યચે પણ જયારે તેમનું છ માસનું આયુષ્ય બાકી રહે છે ત્યારે પરભવના આયુને બધ કરે છે. सभी वानुमायुष्य १ २ सात वर्षानु.य छ तेथी “ संनिग्रहण " આ પદ અહીં નિયમ દર્શાવવા માટે વપરાયું છે અસંજ્ઞીઓની નિવૃત્તિને માટે આ પદ વપરાયું નથી, કારણ એ અસંસીઓનું આયુય અસંખ્યાત वर्षनु उातु नथी.. એ જ પ્રમાણે યુગલીઓ, અસંખ્યાત વર્ષના આયુવાળા સજ્ઞી મનુષ્ય વ્યન્તર, તિષ્ક, અને વૈમાનિકે વિષે પણ સમજવું. આ વિષયને અનુसाक्षी नीय प्रमाणे मे गाया। भापामा भावी छ : “ निरइसुरअसंखाऊ" ઇત્યાદિ. આ ગાથાઓને ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે – Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१३ सुधा टीका स्था०६ सू० ६२ समेदमायुच धनिरूपणम् ___ अयं भावः-नैरयिकाः सुरा असंख्यायुपस्तिर्यग्मनुष्याश्च आयुपः घमासे अवशिष्टे सति निजकार-अस्मिन् भवे परमविकायु' बध्नन्ति । एकेन्द्रियाः विकलेन्द्रियाः निरुपकमास्तिर्यश्वो मनुष्याश्च आयुपखि मागेतृतीये भानेऽवशिष्टे सति निजाभवे परभक्षिायुर्वधनन्ति । अबशेपा:-पूर्वोक्तेभ्योऽवशिष्टा: लोपक्रमा जीवास्तु आयुपम्हतीये माने नवमे भागे सप्तविंशतितमे भागे ना निजकमवे परभविझायुर्वघ्नन्ति । इत्थं सरे जीवा निजकभवे परमविकायुर्वनन्तीति । केचित्तु आमेवार्थमेवं वदन्ति, तथाहि-इह निर्यङ्मनुप्याः स्वकीयायुधस्तृतीयविभागेऽवशिष्टे सति परमविकायुदधु योग्या भवन्ति । देवा नारकास्तु स्वायुपः पण्मासेऽवशिष्टे सति तथा भवन्ति । तत्र तिर्यङ्मनुष्याः स्वायुपस्वतीयविभागेऽ इनका मान इस प्रकार से है-बैरयिक सुर और असंख्यात वर्षकी . आयुवाले तिर्यञ्च एवं मनुष्य अपने वर्तमान भकाही जग उनकी आयु ६ छह माहकी शेष रह जाती है, पर मत्रकी आयुका बन्ध करते हैं, तथा एकेन्द्रिय विकलेन्द्रिय निरुपक्रमायुवाले तिर्यश्च और मनुष्य ये सब अवशिष्ट आयुके वृत्तीय भाग- परभक्षी आयुका पन्ध करते हैं। तथा इनले जो अवशिष्ट जीव हैं-सोरक्रमायुयाले जीव हैं वे तो आयुके तृतीय भागमें नौधे भाग अथवा सत्ताईत भाग पर भवकी आयुका बन्ध करते हैं। किसनेक इस अर्थको इस प्रकारले कहते हैं कि तियञ्च एवं मनुष्य अपनी आयुके त्रिभागमें परसवकी आयुका बंध करनेके योग्य होते हैं, परन्तु देव और नारकी अपने आयुके ६ छह माह बाकी रहने पर परभवको आयुको बांधने के योग्य होते हैं, तिर्यञ्च और નારકે, દેવો અને અસંખ્યાત વર્ષના આયુષ્યવાળા તિર્થં ચ અને મનુષ્યના વર્તમાન ભવનુ છ માસનું આયુષ્ય બાકી રહે છે ત્યારે તેઓ પરભવના આયુને બન્ધ કરે છે. એકેન્દ્રિયે, વિકલેન્દ્રિય, નિરુપક્રમ આયુ, વાળા તિર્થ ચે અને મનુષ્ય, આ બધા જ અવશિષ્ટ (બાકી રહેલા) આયુના ત્રીજા ભાગમાં પરભવના આયુને બન્ધ કરે છે. તથા તે સિવાયના સેપક્રમાયુવાળા જે જીવો છે તેઓ આયુના ત્રીજા ભાગમાં, નવમાં ભાગમાં, અથવા સત્યાવીસમાં ભાગમાં પરભવના આયુને બન્ધ કરે છે. કેટલાક આ વિષયને અનુલક્ષીને એવું કહે છે કે તિય ચે અને મનુષ્ય પોતાના આયુ ના ત્રીજા ભાગમાં પરભવના આયુને બન્ધ કરે છે, પરંતુ દેવ અને નારના આયુષ્યના છ માસ જ્યારે બાકી રહે છે ત્યારે તેઓ પરભવના આયુને અન્ય કરતા હોય છે. જે તિર્યંચ અને મનુષ્ય પોતાના આયુના Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ स्थानान्स वशिष्टे यदि परमविकायुन वध्नन्ति, तदा पुनस्ते तृतीयत्रियागस्य तृतीयविनागेश वशिष्टे सति परभत्रिकायुर्वघ्नन्ति । एवं तावत् संक्षिप्तं त्वायुर्यात् सर्वजघन्योऽन्त. महत्तात्मक आयुर्वन्धकाल उत्तरकालश्च शेपस्तिष्ठति, इह तिर्यङ्मनुष्याः परमवि. कायुर्वघ्नन्ति । भय चासंक्षेपकाल उच्यते तदुत्तरं संक्षेपाभावात् । तथा-देवा. नैरविवाश्च स्वायुपः पणमासे शेषे सनि यदि परभविकायुन बघ्नन्ति, तदा ते स्वकीयायुपः पण्मासशेषं तावत् संक्षिपन्ति यावत्सर्व जघन्योऽन्तर्मुहूर्तात्मक आयुमनुष्य यदि अपनी आयु के त्रिभागमें भो पर भवकी आयु का धंध नहीं कर पाते हैं तो फिर वे उस अवशिष्ट त्रिभागके तृतीय भागमें परसबकी आयुका बंध करते हैं, इस तरहसे उनको आयु तब तक संक्षिप्त होती जावेगी जबतक उनकी आयुका काल अन्तर्मुहर्त काल में नियमसे उन्हें परभवकी आयुका बंध होता है। इस कालको असंक्षेप काल कहा गया है, क्योंकि इसके बाद आयुके संक्षेप होने का अभाव है, तथा-देव और नैरयिक अपनी आयुके ६माल शेष रहने पर भी यदि परभवकी आयु का पंच नहीं कर पाते हैं, तो वे अपनी आयुके षण्मासरूप शेषको इतना संक्षिप्त करते हैं, कि जब तक उसमें सर्व जघन्य अन्तमुहर्तात्मक आयुषन्ध काल बाकी बचा रहना है, इसमें वे नियमसे परभवक्री आयुक्ता बंध कर लेते हैं। तात्पर्य कहने का यह है, कि तिर्थश्च और मनुष्य अपनी आयुके विभागमेंही आयुका बंध करते हैं, तथा देव एवं नारकी तथा असंख्यात वर्ष वाले युगान्तिक मनुष्य अपनी વિભાગમાં પણ પરભવના આયુનો બન્ધ કરી લે નહીં તે તેઓ અવશિષ્ટ વિભાગના તૃતીય ભાગમાં પરભવના આયુને બધ કરી લે છે. આ પ્રકારે તેમના આયુષ્યને કાળ અન્તર્મુહૂર્ત પ્રમાણ બાકી રહી જાય ત્યાં સુધી તેમનું આયુષ્ય સંક્ષિપ્ત થતું જશે. આ બાકી રહેલા અન્તર્મુહૂર્ત પ્રમાણુ કાળમાં તે તે પરભવના આયુને અન્ય અવશ્ય કરે છે. આ કાળને અસંક્ષેપ કાળ કહ્યો છે, કારણ કે ત્યાર બાદ આયુને સક્ષેપ થવાને અભાવ રહે છે. તથા નારક અને દેવે જ્યારે તેમનું છ માસનું આયુષ્ય બાકી રહે ત્યારે પણ પરભવના આયુનો બન્ધ કરી ન લે, તે તેઓ પિતાના આયુના છ માસ રૂપ શેષકાળને એટલે સંક્ષિપ્ત કરી લે છે કે આખરે તેમાં ઓછામાં એ છે અન્તર્મહત પ્રમાણુ આયુબન્ધકાળ જ બાકી રહી જાય છે. ત્યારે તેઓ નિયમથી જ પરભવના આયુને બન્ધ કરી લે છે. આ કથનને ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે તિર્યંચ અને મનુષ્ય પોતાના આયુના ત્રિભાગમાં જ પરભવના આયુને બન્ધ કરે છે, તથા દે, નારકે અને અસંખ્યાત વર્ષના યુવાળા યુગ Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुंबा ठोका स्था. ६ . ६३ औयिकादिभावनिरूपणम् ४९५ र्बन्धकाल उत्तरकालथ शेपो भवति । अत्र परभविकायुर्देवा नैरविकाच वध्नन्तीत्ययमसंक्षेपकाल इति ॥ ह्न० ६२ ॥ - पूर्वसूत्रे आयुष्कर्मवन्ध उक्तः । आयुस्तु औदयिकभाव हेतु भवतीत्योदयिकभावं, तत्साच्छेषान् भावांश्च निरूपयितुमाह मूलम् - छविले भावे पण्णत्ते, तं जहा- ओदइए १, उवसमिए २, खइर ३, खओवसमिए ४, पारिणामिए ५, संनिवाइए ६ ॥ सू० ६३ ॥ छायाः - पड्विधो भावः प्रज्ञप्तः, तद्यथा - औदयिकः १, औपशमिक : २, क्षायिकः ३, क्षयोपशमिकः ४, पारिणामिक: ५, सामिपातिकः || सू० ६३ ॥ आयुके ६ छह धाम शेष रहने पर पर जबकी आयुका बंध करते हैं परन्तुयदि इतने पर भी पर सबकी आयुका उन्हें बंध न हो पावे तो नियम से आयुके अन्तर्मुहूर्त काल बाकी रहने पर वे उसमें परभवकी आयुका बन्ध कर लेते हैं | सू० ६२ ॥ इस ऊपरके सूत्रमें आयुष्क कर्मका बंध कहा आयुष्यकर्म औद्धिक भाव है, हेतु जिसका ऐसा होता है, इसलिये अब सूत्रकार औदयिक भावकी और औदयिक भावके साधर्म्य से शेष भावों की निरूपणा करते हैं "छबिहे भावे पण्णत्ते " इत्यादि सूत्र ६३ ॥ P भाव छह प्रकारके कहे गये हैं, जैसे- औद्धिक भाव १ औपशमिक भाव २ क्षायिक भाव ३ क्षायोपशमिक भाव ४ पारिणामिकभाव ५ और सन्निपातिक भाव ६ । લિકા તેમના આયુષ્યના છ માસ બાકી રહે ત્યારે પરભવના આયુના અન્ય કરે છે. પરન્તુ જો તે તે વખતે પરભવના આયુના અન્ય ન કરે, તા જ્યારે તેમનું અન્તર્મુહૂત પ્રમાણુ આયુ ખાકી રહે ત્યારે તે તેએ પરભવના આયુના અન્ય અવશ્ય ખાંધે જ છે. । સૂ. ૬૨ ॥ આગલા સૂત્રમાં આયુષ્કકમના અન્યનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું. ઔઇયિકભાવ આયુ±કમાં કારણભૂત અને છે, તેથી હવે સૂત્રકાર ઔદાયિક ભાવની અને ઔદિચક ભાવના સાધની અપેક્ષાએ માકીના ભાવેાની પ્રરૂપણા रें छे - " छविहे भावे पण्णत्ते " त्याहि ભાવપરિણામના નીચે પ્રમાણે ૬ પ્રકાર કહ્યા છે-(૧) ઔદિયેક ભાવ (२) श्रपशमिठ लाव, (3) क्षायिभाव, (४) क्षायोपशमिङ लाव, (५) પારિણામિક ભાવ અને (૬) સાન્નિપાતિક ભાવ્. 0 Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ स्थानाङ्गयो टोका-'छबिहे ' इत्यादि भावः-भवनं भावः पर्यायः-पविधः प्रज्ञप्तः, तब-औदायिकः, औपश. मिक इत्यादि । तत्र-मौदयिका-उदय उदयनिष्पन्न वेति द्विविधः । तत्र-उदय:अष्टानां ज्ञानावरणीयादि कर्मग कृतीनापुदयः-उपशान्तावस्यां परित्यज्य उदीरणावलिकामतिक्रम्य उदयावलिकायामात्मीयरूपेण विकासइत्यर्थः । औदायिक निष्पन्नस्तु कर्मोदयजनितो जीवस्य मनुष्यत्यादिपर्यायः ॥ १ ॥ तथा-औपशमिका, अयम् उपशमोपशमनिष्पन्न भेदेन द्विविधः । तत्र-उपशम'-उपशमश्रेणीगतस्य जीवस्य अष्टाविंशतिविधमोहनीयकर्मोदयाभावः । उपशमनिप्पनन्तु उपशा तक्रोधायुपमान्तकापायच्छास्थवीतरागान्तः । अयं तु मोहनीयकर्मण उदयाभाव इनमें जो भाव कद से निष्पन्न होता है, वह औदायिक भाव है, यह औरयिक भाव उद्यरूपले और उदय निवपन्न रूप से दो प्रकारहा है, इनमें जो आठ ज्ञानावरणीय आदि कर्म प्रकृतियोंका उदय है-उपशानावस्थाको छोडकर उदीरणावलिकाको अतिक्रमण कर उदया. बलिका में जो आत्मीयरूपरो विपाक है, वह उदय है, वह उदय रूप औदयिक भाव है, तथा कानोदय नन्द जो मनुख्याल आदि पर्याय हैं के उदयनिष्पन्न औदायिक भाव है औपरामिक भावनी उपशमरूप और उपशाम निष्पन्न रूपसे दो प्रकार का होना है, इनमें उपशम श्रेणी पर आरूढ हुए जीत्रके जो २८ प्रकृतिरूप लोहनीय कर्म के उदय का अभाव है, वह उपशमरूप औपशमिक मात्र, तथा उपशान्त कपाचरूप ११ग्यार वां जो छमस्थ वीतराग मात्र है, वह उपशम निप्पन औपशामिक भाव - જે ભાવ કર્મોદયથી નિષ્પન્ન થાય છે, તે ભાવને ઓધિક ભાવ કહે છે. તે ઓયિક ભાવના બે પ્રકાર છે–(૧) ઉદય રૂપ પ્રકાર, (૨) ઉદય નિષ્પન્ન પ્રકાર જ્ઞાનાવરણીય આદિ આઠ કર્મ પ્રકૃતિએને જે ઉદય છે. ઉપશાન્તા વસ્થા છેડીને ઉદીરણાવસ્થ નુ અતિક્રમણ કરીને ઉદયાવલિકામાં જે આત્મીય રૂપે વિપાક છે, તેનું નામ ઉદય છે અને તે ઉદય રૂપ દયિક ભાવ હોય છે. તથા કર્મોદય જન્ય જે મનુષ્યત્વ આદિ જે પર્યા છે, તેનું નામ ઉદય નિષ્પન્ન ઔદથિક ભાવ છે. પશમિક ભાવના પણ ઉપશમ રૂપ અને ઉપશમ નિષ્પન્ન રૂ૫ બે પ્રકાર હોય છે. ઉપરમ શ્રેણી પર આરૂઢ થયેલા જીવમાં જે ૨૮ પ્રકૃતિ રૂપ મેહનીય કર્મના ઉદયનો અભાવ છે, તે ઉપશમ રૂપ પથમિક ભાવ છે. તથા ઉપશાન્ત કષાય રૂપ ૧૧ મે જે છટ્વસ્થ વીતરાગભાવ છે, તે ઉપશમ Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधारीका स्था०६ सू० ६३ औदयिकादिभापनिरूपणम् ४२७ फलरूप आत्मपरिणामो वोध्य इति ॥ २॥ तथा-क्षायिकः, अयं क्षयः क्षयनिष्पम चेति द्विविधः । तत्र-क्षयः-ज्ञानावरणादिभेदानाम् अष्टानां कर्मप्रकृतीनां नाशः, कर्माभाव इत्यर्थः । क्षयनिष्पन्नस्तु-ज्ञानावरणाद्यष्टकमप्रकृत्यभावजनितः केवलज्ञानदर्शनचारित्रादिरूपो विचित्र प्रात्मपरिणाम इति ॥ ३ ॥ तथा-क्षयोपशमिकः, अयं-क्षयोपशमः क्षयोपशमनिष्पन्न चेति विविधः । तत्र-क्षयोपशम:-केवलज्ञानप्रतिवन्धकानां ज्ञानावरणदर्शनावरणमोहनीयान्तरायाणां चतुर्णा घातिकर्मणां क्षयो. पशमः । उदीर्णस्य क्षयोऽनुदीर्णस्य च विपाकमधिकृत्य उपशम:-क्षयोपशमो वोध्यः । ननु औपशमिकोऽप्येवमेव, ततः कोऽनयो भैदः ? इति चेदाह-औपशहै, यह मोहनीय कर्मके उद्याभाव फलरूप होता है, और ऐसा यह 'आत्माका परिणाम होना है। क्षापिकभाय-क्षयरूप और क्षयनिष्पन्न रूपसे दो प्रकारका होता है, ज्ञानावरणादि रूप आठ प्रकार के कर्मों का जो क्षय है, वह क्षयरूप क्षायिक भाव है, यह क्षय कर्मों के अभावरूप होता है, तथा ज्ञानावरणादि अष्ट प्रकार के कर्मों के क्षयसे जनित जो केवलज्ञान केवलदर्शन एवं चारित्र हैं वह क्षय निष्पन्न क्षायिक भाव है । क्षायोपशमिक भाव-यह क्षायोपशमरूप और क्षायोपशम निष्पन्न रूपसे दो प्रकारका होता है, इनमें केवलज्ञानको रोकनेवोले ज्ञानावरण दर्शनावरण मोहनीय और अन्तराय कर्मों का जो क्षयोपशम है, वह क्षायोपशमरूप क्षायोपशमिक भाव है, उदीर्णका क्षय और विपाककी अपेक्षा अनुदीर्णका उपशम यही क्षायोपशम कहलाता है। નિષ્પન્ન ઓપશમિક ભાવ છે તે મેહનીય કર્મના ઉદયાભાવ ફલરૂપ હોય છે અને એવું તે આત્માનું પરિણામ હોય છે. * ક્ષાયિકભાવ–ક્ષાયિકભાવના ક્ષયરૂપ અને ક્ષયનિષ્પન્ન રૂપ બે પ્રકાર પડે છે. જ્ઞાનાવરણદિ રૂપ આઠ પ્રકારના કર્મોને જે ક્ષય છે તે ક્ષયરૂપ ક્ષાયિક ભાવ હોય છે. આ ક્ષય કર્મોના અભાવ રૂપ હોય છે. તથા જ્ઞાનાવરણ આદિ આઠ પ્રકારના કર્મોનો ક્ષયથી જનિત જે કેવલજ્ઞાન, કેવલદર્શન અને ચારિત્ર છે, તેને ક્ષયનિષ્પન્ન ક્ષાથિકભાવ કહે છે. ક્ષાપથમિક ભાવ–તે ક્ષપશમ રૂપ અને પશમ નિષ્પન્ન રૂપ બે પ્રકારનું હોય છે. કેવળજ્ઞાનને રોકનારા જ્ઞાનાવરણ, દર્શનાવરણ, મોહનીય અને અન્તરાય, આ કમેને જે ક્ષયે પશમ થાય છે તેને ક્ષયપશમ રૂપ ક્ષાપશમિક ભાવ કહે છે ઉદીર્ણના ક્ષય અને વિપાકની અપેક્ષાએ અનુદીર્ણને જે ઉપશમ થાય છે તેનું નામ જ ક્ષપશમ છે. स्था०-६३ Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૮ स्थानान सूत्रे मिर्के उपशान्तस्य प्रदेशानुमत्रतोऽप्यवेदनं भवति, क्षयोपशमिके तु वेदनमित्ये 'वानयोर्भेद इति । क्षयोपशमो हि क्रियारूप एव वोभ्य इति । क्षयोपशम निष्पनस्तु आत्मन आभिनिधि ज्ञानादि लब्धिरूपः परिणाम इति ॥ ४ ॥ ' तथा = शंका- औपशमिकसाव भी ऐसाही होता है, फिर इन दोनों में क्या अन्तर है ? --- उत्तर- - औपशमिक भावमें उपशान्त हुए प्रदेशोंका :वेदन नहीं, " होता है, और क्षायोपशमिक भाव में उदितका वेदन होना है, तात्पर्य यह है कि औम भाव में कर्मों का सत्तारूप उपशम होता है, अतः उसमें नीरस किये हुये कर्मदलिकों का दबे हुए कर्मदलिकोंका वेदन नहीं होता है, परन्तु क्षायोपशमिक में देशघाति प्रकृतियोंका वेदन होता है, सर्व घानियोंमेंसे किननिक सर्वधातियों को उदयाभावी क्ष्य और कितने सर्वघातियों का सदवस्थारूप उपशम रहता है, इसे दृष्टान्तयों समझना चाहिये किसी सेठ के घर ९नव चोर चोरी करनेके · लिये चले इनमें से ४ चार तो आधे रास्ते तक आकर लौट गये और ५ पाँच सेठके मकान तक आकर बैठ गये इनमें से १एक चोर उठा और सेठ के मकान के भीतर घुस गया और चोरी करने लगा अब यहां यों समझ 'लेना चाहिये जो चोर चोरी कर रहा है, वह देशघानिया प्रकृतिका શકા—ઔપશમિક ભાવ પણ એવા જ હાય છે, તેા પછી તે બન્ને વચ્ચે શા તફાવત છે ? उत्तर-૨—ઔપામિક ભાવમાં ઉપશાન્ત થયેલા પ્રદેશાનુ વેદન થતું નથી અને ક્ષાચેાપશમિક ભાવમાં ઉદિતનું વેઇન થાય છે. આ કથનનુ તાત્પર્ય એ 'છે કે ઔપશમિક ભાવમાં મેનિા સત્તારૂપ ઉપશમ થાય છે, તેથી તેમાં નીરસ -કરાયેલા ક દલિકાનુ-નખાયેલા કČલિકાનુ વેદન થતું નથી. પરન્તુ ક્ષાયેાપશમિકમાં દેશઘાતિ પ્રકૃતિએનુ વેદન થાય છે અને સઘાતિ પ્રકૃતિ આમાંની કેટલીક સાતિ પ્રકૃતિઆના ઉદયભાવી ક્ષય અને કેટલીક સર્વે ઘાતિ પ્રકૃતિએને સદવસ્થારૂપ ઉપશમ રહે છે. આ વાતને એક દૃષ્ટાન્ત દ્વારા સમાવવામાં આવે છે— : નવ ચાર કાઇ શેઠને ત્યાં ચારી કરવા ઉપડયા. તેમાંથી ચાર ચાર તા મામાંથી પાછા ફરી ગયા. બાકીના પાંચ ચાર શેડના મકાન પાસે આવીને બેસી ગયા. તેમાંથી એક ચાર યેા. તેણે મકાનમાં દાખલ થઈને ચેરી Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुंधा टी स्था०६ सू० ६३ औयिकादिमावनिरूपणम् उदय है, ८ आठमें से जो चार साय आकर भी रास्तेमेंसे लौट गयेहैं, वे. सर्वघाति प्रकृतियों में से कितनेक प्रकृतियोंके उद्याभावी क्षयरूप है, क्योंकि उदयाभावी क्षय जो होता है, वह उदयमें आकर फल देनेरूप नहीं होता है, तथा चार और जो चोर हैं कि जो मकान के बाहरही बैठे हुए हैं, वे सदवस्था उपशम रूप हैं। इस समस्त कथनसे हम यही तात्पर्य निकालते हैं कि जिन भावोंके होने में कर्मका उपशम निमित्त होता है, वह औपशनिक भाव है, कर्मकी अवस्था विशेषका नाम उपशम है-जैसे कनकादि (निर्मली फल) द्रव्य के निमित्तले जलमैसे मल एक ओर हटकर बैठ जाता है, वैसे ही परिणाम विशेषके कारण विवक्षित कालके कर्मनिषकों को अन्तर होकर उस कर्मका उपशम हो जाता है, क्षायोपशमिक भाव कर्मके क्षायोपशमसे होना है, जैसेजलमें कुछ मलिनताके दब जाने पर और कुछ मलिनताके भने रहने पर उस जलमें मलकी क्षीणाक्षीणवृत्ति देखी जाती है, जिससे जल पूरा निर्मल न होकर समल (मेलवाला) बना रहता है, वैसेही आत्मासे लगे हए कर्मके क्षायोपशमके होने पर जो भाव प्रकट होता है, उसे क्षायोप . કરવા માંડી. આ દષ્ટાન્તને અહી આ પ્રમાણે ઘટાડી શકાય. જે ચેર ચેરી કરી રહ્યો છે તે દેશઘતિકા પ્રકૃતિના ઉદયરૂપ છે, જે ચાર ચાર રસ્તામંથી જ , પાછા ફરી ગયા છે તેઓ સર્વઘાતિ પ્રકૃતિઓમાંથી કેટલીક પ્રકૃતિના . ઉદયાભાવી ક્ષયરૂપ છે, કારણ કે ઉદયાભાવી જે ક્ષય છે તે ઉદયમાં આવવા - છતાં પણ ફલ આપવા રૂપ છે તે નથી. મકાનની બહાર બેસી રહેલા ચારસદવસ્થા ઉપશમ રૂપ છે આ સમસ્ત કથનને ભાવાર્થ એ છે કે જે ભવેની, ઉત્પત્તિમાં કર્મને ઉપશમ નિમિત રૂપ હેય તે ભાવને ઔપશમિક ભાવ કહે છે. કર્મની અવસ્થા વિશેષનું નામ ઉપશમ છે. જેમ કતક (નિર્મલી ફળ), ફટકડી આદિ દ્રવ્યના પ્રભાવથી પાણીમાં રહેલે મળ અલગ પડી જઈને નીચે બેસી જાય છે, એ જ પ્રમાણે પરિણામ વિશેષને કારણે વિવક્ષિત કાળના કર્મનિષેકનું અતર પડી જઈને તે કમને ઉપશમ થઈ જાય છે. લાપશનિક ભાવ કર્મના ક્ષયોપશમથી થાય છે, જેમ પાણીમાં રહેલી કેટલીક મલિનતા નીચે બેસી જવાથી અને કેટલીક મલિનતા તે પાણીમાં કાયમ રહેવાથી તે જલમાં મેલની ક્ષીણાક્ષીણતા જોવામાં આવે છે અને તેને કારણે તે પાણી પૂરેપૂરું નિર્મળ દેખાવાને બદલે મળવાનું (મેલ) જ દેખાય છે, એ જ પ્રમાણે આત્માને લાગેલાં કર્મોને ક્ષપશમ Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० स्थानाङ्गो परिणामिकः-परिणमनम् सर्वथाऽपरित्यक्तपूर्वावस्थस्य यद् रूपान्तरेण भवनं स परिणामः । तदुक्तम् " परिणामो ह्यर्थान्तरगमनं न च सर्वथा व्यवस्थानम् (स्थितिः) न च सर्वथा विनाशः परिणामस्तद्विदामिष्टः ।। १" इति । स एव पारिणामिकः । अयं च साधनादिभेदेन द्विविधः । तत्र सादिः परिणामो जीर्णघृतादीनाम् , तद्भावस्य सादित्वात् । अनादिपरिणामस्तु धर्मास्तिका. शसिक भाव कहते हैं । इस तरहसे इन दोनों में भेद है, क्षायोपशम क्रियारूप ही होता है, और क्षोयोपशम निष्पन्न रूप जो भाव है, वह आत्माका आभिनियोधिक ज्ञानादि लब्धिरूप परिणाम होता है। पारिणामिक भाव-जिसमें पूर्वावस्थाका सर्वथा परित्यागन होकर रूपान्तरसे जो परिगमन होता है, वह परिणाम है कहा भी है " परिणामोह्यर्थान्तर " इत्यादि । सर्वथा एकली स्थितिमें रहना यह परिणाम नहीं है, और न सर्वथा विनाश होना यह परिणाम है, किन्तु एक अवस्थासे दूसरी अवस्थामें आते रहना यही परिणाम है, यह परिणामही पारिणामिक है, यह पारिणामिक सादि और अनादि के भेदसे दो प्रकारका होता है, जीर्ण घृत आदिका जो परिणाम है, वह सादि परिणाम है, क्योंकि जीर्ण घृतादि होने रूप जो भाव है, अवस्था है, वह सादि है, तथाથવાથી જે ભાવ પ્રકટ થાય છે તેને ક્ષાપશર્મિક ભાવ કહે છે આ પ્રકારને તે બંને વચ્ચે ભેદ છે. થોપશમ કિયા રૂપ જ હોય છે. અને તે પશમ નિષ્પન્ન ભાવ છે તે આમાના આભિનિબોધિક જ્ઞાનાદિ લબ્ધિ રૂપ પરિણામ હોય છે. પારિમિક ભાવ—જેમાં પૂર્વાવસ્થાને સર્વથા પરિત્યાગ થયા વિના રૂપાન્તર રૂપ જે પરિણમન થાય છે તેનું નામ પણ પરિણામ છે. કહ્યું પણ छ': परिणामो यर्थान्तर "त्याहि સર્વથા એક સરખી સ્થિતિમાં રહેવું તેનું નામ પણ પરિણામ નથી, અને સર્વથા વિનાશ છે તે પણ પરિણામ નથી પરંતુ એક અવસ્થામાંથી બીજી અવસ્થામાં આવી જવું તેનું નામ જ પરિણામ છે. તે પરિણામ જ પરિણામ છે. તે પરિણામિકના સાદિ અને અનાદિ નામના બે ભેદ પડે છે. જીર્ણવ્રત આદિનું જે પરિણામ છે તે સાદિ પરિણામ છે, કારણ કે જીણુંઘતાદિ થવા રૂપ જે ભાવ-અવસ્થા છે તે સાદિ હોય છે. Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुँवा टीका स्था०६ सुग्६३ औदयिकादिनावनिरूपणं ५०१ यादीनाम्, तद्भात्रस्यानादित्वादिति ॥ ५ ॥ तथा-सान्निपातिकः - सन्भिपतनम् = औयिकादि पञ्चानां भावानां मिलनं सन्निपातः तेन निर्वृत्तः सान्निपातिकः । अयं च औदयिकादीनां पञ्चानां भावानां संभवासंभवापेक्षापरित्यागेन द्विक- त्रिकचतुष्क - पञ्चकसंयोगेन पत्रिंशविभङ्गरूपः । तत्र दश द्विकसंयोगे, दश त्रिकसंयोगे, पञ्च चतुष्कसंयोगे, एक पञ्चकसंयोगे, एवं षड्विंशतिभङ्गाः । एषु पि अनादि परिणाम रूप अवस्था धर्मास्तिकायादिकों में है क्योंकि धर्मास्तिकायादिरूप जो अवस्था है वह उनमें अनादि काल से है ५ । सान्निपातिक - औयिक आदि पांच भावोंका जो मिलन है, वह सन्निपात है, इस सन्निपान से जो निर्वृन होगे है, वह सन्निपातिक है, ये पांच भाव समस्त संसारी जीवों में एक साथ पाया जावे ऐसा भी नियम नहीं है, और अजीव में भी ये पांचो भाववाले पर्याय सम्भव नहीं है । समस्त मुक्त जीवों में क्षायिक और पारिणामिक ये दो भाव होते हैं । संसारी जीवों में कोई तोन भाववाला कोई चार भाववाला और पांच भाववाला होना है, पर दो भाववाला जीव नहीं होना है, इस तरह औधिक आदि पांच भावोंके संभव होने की अपेक्षा ओर किसी जीव में संभव नहीं होने की अपेक्षासे कि, त्रिक, चतुष्क एवं पञ्चकके संयोग से यह सान्निपातिक भाव २६ अंगरूप होता है, इनमें द्विक संयोगमें १० विक संयोगमें १० चतुष्क संयोगमें पांच और ધર્માસ્તિકાયાક્રિકામાં અનાદિ પિરણામ રૂપ ભાવ અવસ્થા હાય છે, કારણ કે ધર્માસ્તિકાયા રૂપ જે અવસ્થા છે તેને તેમનામાં અનાદિકાળથી સદ્ભાવ હાય છે, સાન્નિપાતિ, ભાવ—ૌયિક દિ પાંચ લાવાનું જે મિલન છે તેનું નામ સન્નિપાત છે. આ સન્નિપાતથી જે નિવૃત્ત થાય છે તે સાન્નિપતિક છે. આ પાચે ભાવેના સસારી જીવામાં એક સાથે સદ્ભાવ ઢાય છે, એવા કૈાઇ નિયમ નથી, અને અજીવામાં પણ આ પાંચે ભાવવાળી પર્યાય સ*ભ વિત હતી નથી સમસ્ત મુક્ત જીવામાં ક્ષાયિક અને પરિણામિક, એ હો ભાવ હૈાય છે. સંસારી જીવેામાં કોઈ જીવ ત્રણ ભાવવાળા, કાઈ ચાર ભાવવાળા અને કોઈ પાંચ ભાવવાળા હાય છે, પરન્તુ એ ભાવવાળે કાઇ જીવ હાતા નથી. આ રીતે ઔયિક આદિ પાંચ ભાવેને સ*ભન્ન હૈાવાની અપે ક્ષાએ અને કોઈ જીવમાં સંભવ નહીં હોવાની અપેક્ષાએ દ્વિક, ત્રિક, ચતુષ્ક અને પંચકના સયોગની અપેક્ષાએ આ સાન્નિપાતિક ભાવ ૨૬ ભગ રૂપ ( वि४८५ ३५ ) होय छे. तेमां द्वि सयोगथी १०, त्रिः सयोगथी १०, ચતુષ્ક સચાગથી પાંચ અને પાંચના સમૈગથી એક ભ`ગ ( વિકલ્પ ) અને Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ , स्थानागसूत्रे शतिविधेषु सान्निपातिकभेदेषु पञ्चदश अविरुद्धा भवन्ति । ते चेत्थम् - " उदय खोवसमिए, परिणामिक्केत गइचउक्के वि। खय जोगेण वि चउरो, तयभावे उबसमेणं पि ॥ १ ॥ उपसम सेढी एको केवलिणो वि य तहेव सिद्धस्ल । अविरुद्ध संनिवाइय, भेया एमेव पंचदस ॥ २ ॥ छाया-औदयिकः क्षयोपशमिकः पारिणामिकः एकैको गतिचतुष्केऽपि । क्षययोगेनापि चत्वारस्तभावे उपशमेनापि ॥ १ ॥ उपशमश्रेण्यामेकः केवलिनोऽपि च तथैव सिद्धस्य । अविरुद्ध सान्निपातिक भेदा एवमेव ॥ २ ॥ इति ॥ अयं भावः-ौदायिकक्ष पोपशमिकपारिणामिकेति त्रिकसंयोगनिष्पन्न: सान्निपातिको भावो गति चतुष्केऽपि नारकतियङ्नरामरलक्षणो गतिचतुष्टयेऽपि एकैको भवति । तत्र नारकगतिमाश्रित्य-औदयिको नारकत्व, क्षयोपशमिक इन्द्रियाणि, पारिणामिको जीवत्वमिनि एको भेदः । एवं तियनरामरानाश्रित्य त्रयो भेदाः । इति चत्वारो भेदाः । ४ । तथा-औदयिक-क्षयोपशमिक-सायिकपांच के संयोगमें १ भंग होता है, इन २६ प्रकार के सांनिपानिक भेदों में पन्द्रह भेद अविरुद्ध होते हैं वे इस प्रकार से है-- " उदय खोवसमिए” इत्यादि । इन दोनों गाथाओंका भाव ऐसा है-औयिक क्षायोरशमिक और पारिणामिक-इन तीन के संयोगले निष्पन्न सोनिपातिक भाष नारक, तिर्यच, मनुष्य और देव इन चार गलियों में एकर होताहै, जैले नरकगतिको आजीवत्व (जहांतक रहे) यह पारिणामिक भार है, यह एक भेद है, इसी तरह से तिर्यञ्च गतिमें मनुष्यगतिमें और देवमतिको आश्रित करके तीन भेद कह लेना चाहिये इस प्रकारसे चारों गतियोंमें एक २ गतिको अपेक्षा ये निक संयोग में ४ चार भेद होते हैं। तथा औदायिक છે આ ૨૬ પ્રકારના સાન્નિપાતિક ભેદમાં ૧૫ ભેઃ અવિરૂદ્ધ હોય છે. તે नीय प्रभाव छ, “ उदइय खओवसमिए " त्याल આ બને ગાથાઓને ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે–દયિક, ક્ષપશ-- મિક અને પરિણબિક, આ ત્રણ ભ વના સંગથી નિષ્પન્ન સાન્નિપાતિક ભાવ નારક, તિર્થચ, મનુષ્ય અને દેવ આ ચાર ગતિઓમાં એક એક હોય છે. જેમકે નરક ગતિમાં આજીવવ પારિણબિક ભાવ છે. આ એક ભેદ થ. એ જ પ્રમાણે તિર્યં ચ ગતિમાં, મનુષ્ય ગતિમાં અને દેવ ગતિમાં પણ એક એક ગતિની અપેક્ષાએ ત્રિક સંગમાં ચાર ભેદ થાય છે. તથા દયિક, Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था. ६५ ६३ औदयिकादिभावनिरूपणम् . ५०३ पारिणामिकेति चतुष्कलंयोगनिष्पन्नाश्चतुतिमाश्रित्य चत्वारः सान्निपातिक भेदाः। तथाहि-औदयिको नारकत्वं, क्षायोपमिकइन्द्रियाणि, क्षायिकः . सम्यक्त्वं, पारिणामिको जीवत्वमिति । एवं विर्यङ् नरामरेष्वपि वक्तव्यम् । क्षायि कसम्यग्दृष्टयो नारकादिष्वपि भवन्तीति बोध्यम् । एवं पूर्वोक्तभेदचतुष्टयमेलनेन जाता अष्ट भेदाः । ८। पुनरपि चतुष्कसंयोगिभेदानाह-' तयभावे' इत्यादि-तदभाव क्षायिकाभावे 'च' शब्दाच्छेपत्रयभावेन च ओपशमिकेन योगे अर्थात्-भौदायिकक्षायोपशमिकौपशमिक-पारिणामिकेति चतुष्कसंयोगे सति चतुर्गतिमाश्रित्य चत्वारो भेदा वोध्याः । तथाहि-औदथिको नारकत्वं, क्षायोपशमिक क्षावित और पारिणामिक इन चार भावोंके संघोगसे निष्पन्न चार सांनिपातिक भेड़ चार गलियोंको आधिन करके होते हैं जैसे-नारक पर्याय उनमें औधिक भाव हैं, इनियां क्षायोप शमिक भाव हैं, क्षायिक सम्यक्त्व क्षायिक भाव है, और जीवत्व पारिणामिक भाव है, इसी तरह का कथन तिर्यञ्च गतिमें मनुष्य गतिमें और देवमतिमें भी कह लेना चाहिये नारकादिकोंमें भी क्षायिक सम्प. ग्दृष्टि होते हैं । इस तरह पूर्वोत ४ चार भेद मिलाने से ८ आठ भेद होते हैं, पुन: इस तरहसे भी चतुष्क संयोगी भेद धनते हैं-जैसे क्षायिकके अभावमें समझलेना और शेषत्रयके सद्भाव औपशमिक के साथ योग करने पर अर्थात्-औदायिक, क्षायोपशमिक, औपशमिक और पारिणा मिक-इस प्रकारसे संयोग होने पर चार गतिको आश्रित करके चार भेद होते हैं-नारक पर्याय औदयिक भाव है, इन्द्रियां क्षायोपशमिक સાપશમિક, શાચિક અને પરિણામિક આ ચાર ભાવોના સંયોગથી નિપન્ન ચાર સાંનિપાતિક ભેદ ચાર ગતિઓને આશ્રિત કરીને થાય છે. જેમકે નારક પર્યાય, તેઓમાં ઔદયિક ભાવ છે, ઈન્દ્રિય ક્ષાયોપથમિક ભાવ છે, ક્ષાયિક સમ્યકત્વ ક્ષાવિકભાવ છે અને જીવવ પરિણામિક ભાવ છે. એ જ પ્રકારનું કથન તિર્થં ચ ગતિમાં, મનુષ્ય ગતિમાં અને દેવ ગતિમાં પણ સમજી લેવું જોઈએ. નારકાદિકમાં પણ ક્ષાયિક સમ્યગ્દષ્ટિ હોય છે. આ પ્રમાણેના ૪ ચાર ભેદો સાથે પૂર્વોક્ત ચાર ભેદે મેળવવાથી ૮ આઠ ભેદે થાય છે. વળી આ પ્રકારે પણ ચતુષ્ક સગી ભેદ બને છે-જેમકે ક્ષાયિકના અભાવમાં અને બાકીના ત્રણના સદૂભાવમાં પશયિકની સાથે ચેગ કરવાથી એટલે કે દયિક, ક્ષાપશમિક, ઔપથમિક, અને પરિણામિક આ પ્રકારે સચોગ થવાથી ચાર ગતિને આશ્રિત કરીને ચાર ભેદ થાય છે, નારફ પર્યાય ઔદયિક ભાવ છે, Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानानसूत्रे ५०४ क्षायोपशमिक इन्द्रियाणि औपशमिकः सम्यक्त्वं, पारिणामिको जीवत्वमिति प्रथमो भेदः । एवमेव तिर्यङ्गनरामरान् आश्रित्य भेदत्रयं बोध्यम् । इत्थं द्वादशसान्निपातिकभेदाः भवन्ति । तथा-उपशमश्रेण्यासेक एव पञ्चकसंयोगी सान्निपातिभेो भवति, तस्या मनुष्येष्वेव सत्त्वात् । स च क्षायिकसम्यग्दृटेर्मनुष्यस्थ उपगमश्रेणिप्रतिपन्नस्य भवति, तथाहि - औदयिको मनुष्यत्वं क्षायोपशमिक इन्द्रियाणि, औपशमिकचारित्रं, क्षायिकं सम्यक्त्वं, पारिणामिको जीवत्वमिति जातात्रयोदशभेदा | १३ | तथा केवलिन एक एव त्रिसंयोगी भेदः, तथाहिऔदयिको मानुपत्वं क्षायिकः सम्यक्त्वं, पारिणामिको जीनत्वमिति चतुर्दश | १४ | भाव है, तब औरशमि भाव है, और जीवन पारिणामिक भोव है, इस प्रकार से यह प्रथम भेद है । इसी प्रकारका कथन तिर्यञ्चगनिमें और निमें भी का लेना चाहिये। इस तरह से सान्नि पातिक भावके ये १२ बारह भेद हो तेहैं । तथा उपशन गोमें एकही पंचक संयोगी सान्निपातिक भेद होता है, उपशमश्रेणी मनुष्योंमेंही होती है, यह पंचक संयोगी सान्निपातिक भावक्षायिक सम्यग्दृष्टि मनुष्यको जो कि उपशम श्रेणी पर चढा हुआ होता है जैसे उसके मनुष्यत्व औयिक मात्र है, इन्द्रियां क्षायोपशमिक भाव है, चारित्र औपशमिक भाव है, सम्बत क्षायिक है, और जीनत्व पारिणामिक है, इस तरहले १३ तेरह भेद हो जाते हैं । तथा केवलि एकही त्रिक सयोगी भेद होता है, जैसे मानुषत्व और क्षायिक है, और जीवश्व 1 ઇન્દ્રિયે ક્ષાયેાપશમિક ભાવ છે, સમ્યકવ ઔષશમિક ભાવ છે અને જીવવ પારિણામિક ભાવ છે. આ પ્રકારના આ પ્રથમ લે છે. એ જ પ્રકારનું કથન તિયચ ગતિમાં, મનુષ્ય ગતિમાં અને દેવ ગતિમાં પણ કરવું જોઈએ. આ રીતે સાંતિપાતિક ભાવના આ ૧૨ ખાર ભેદ થઈ જાય છે. તા—ઉપશમ શ્રેણીમાં એક જ પોંચક સચૈાગી સાન્નિપાતિક ભેક થાય છે. મનુષ્યમાં જ ઉપશમ શ્રેણીને સદ્ભાવ હાય છે. આ પંચક સમૈગી સન્નિષાતિક ભાવ ઉપશમ શ્રેણી પર આરૂઢ થયેલા ક્ષાયિક સમ્યગ્દષ્ટિ મનુ યમાં જ સભવી શકે છે. જેમકે મનુષ્યત્વ તેના ઔયિક ભાવ છે, ઇન્દ્રિયા ક્ષાયેાપશમિક ભાવ છે, ચારિત્ર ઔપશમિક ભાવ છે, સમ્યફવ ક્ષાયિક ભાવ છે અને જીવ પારિણામિક ભાવ છે આ પ્રકારે અહીં સુધીમાં ૧૩`ભેદ ખતાવવામાં આવ્યા. તથા કેવલીમાં એક જ ત્રિકસ યાગી લેઇ સ’ભવી શકે છે. જેમકે કેવલીમાં માનુષત્વ ઔયિક ભાવ છે, સમ્યકત્વ ક્ષાયિકભાવ છે, અને Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०६ सू ६३ औयिका दिपावनिरूपणम् ५०५ T तथा - सिद्धस्याप्येक एव द्विक संयोगी भेदः तथाहि क्षायिकः सम्यक्त्वं पारिणामिको जीवत्वमिति पञ्चदश । इत्यमेते पञ्चदश भङ्गा भवन्ति । एते च पञ्चदश भङ्गा अविरुद्ध सान्निपातिकभेदा भवन्तीति । अपि च- त्रिपञ्चाशत् पञ्चानामपि भावानां भेदा भवन्ति । तथा हि- " उसमिए २ खइए त्रिय ९ खय उवसम १८ उदय २१ परिणमे य ३ | दो नव रसगं इवीसा तिन्नि भेएणं ॥ १ ॥ 3 a सम्म चरिते पढमे, दंसणे नाणे य दाणलाभेय । ९ 9 उपभोग भोग वीरिय, सम्मचरितेय तह बीए ॥ २ ॥ चनानागतियं दंसणतिय पंच दाणलद्वीओ | सम्पत्तं चारितं च संजमासजसे वइए || ३ || ४ ' चउगइ चउकसाया लिंगतियं लेस छक्क अन्नार्ण । मिच्छत्तमसिद्धत्तं असं मे तह उत्थे ॥ ४ ॥ पंचमम्मिय भावे जीव १ अभव्यत्त २ भव्यतामेव । पंचविभावाणं भैया एमेत्र तेवन्ना ॥ ५ ॥ छाया - भौपशमिकः २ क्षायिकोऽपिच ९ क्षायोपशमिक १८ औदयिकः २१ पारिणामिकश्च । ३ द्वौ नव अष्टादश एक विंशतिः त्रयथ भेदेन ॥ १ ॥ सम्यक्त्व चारित्रे प्रथमे दर्शनं ज्ञानं च दानं लाभश्च । उपभोग भोगो वीर्य सम्यक्त्वं चारित्रं च तथा द्वितीये ॥ २ ॥ पारिणामिक है, १३ में इन एक को मिलाने से १४ भेद हो जाते हैं । तथा - सिद्ध के भी एकही द्विरु संयोगी भेद होता है - जैसे - सम्यक्त्वरूप क्षायिकभाव और जीवत्वरूप परिणामिक भाव यहां तक ये १५ भेद होते हैं । ये १५ भङ्गं अविरुद्ध सांनिपातिक भेद होते हैं। अपि च જીવત પારિણામિક ભાવ છે. આગલા ૧૩ ક્ષેન્નેમાં આ એક લેક ઉમેરવાથી ૧૪ ક્ષેક થાય છે તથા સિદ્ધમાં પણ એક જ દ્વિકસચેાગી ભેદ બની શકે છે. જેમકે સમ્યકત્વ રૂપ ક્ષાયિક ભાવ, અને જીવત રૂપ પરિણામિક ભાવ. આગલા ૧૪ ક્ષેમાં અ એક ભેદ ઉમેરવાથી કુલ ૧૫ લે થઇ જાય છે આ ૧૫ ભાંગા રૂપ ભેદ્દેને અવિરૂદ્ધ સન્નિપાતિક ભેદી કહે છે. તથા પાંચે ભાવેાના ૫૩ ત્રેપન ભેદો હાય છે જેમકે-સમ્યકત્વ રૂપ ક્ષાયિક ભાવ, અને જીવત્વ રૂપપારિણામિક ભાવ અહીં સુધીમાં ૧૫ ભાંગાએ પ્રકટ કરવામાં આવ્યા છે. આ ૧૫ ભાંગાએ અવિરૂદ્ધ સાન્નિપાતિક ભે રૂપ હાય છે. જો કે પાંચે ભાવાના કુલ પરૂ ભેઢ થાય છે. જેમકે : स्था०-६४ Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६ स्थामाजयो चत्वारि ज्ञानानि अज्ञानत्रिकं दर्शनत्रिकं पञ्चदानलब्धयः। सम्यक्त्वं चरित्रं संयमासंयमस्तथा ॥ ३ ॥ चतम्रो गतयः चन्वारः कपायाः लिङ्गत्रिकं लेश्याषट्कम् अज्ञानम् । मिथ्यात्वमसिद्धत्वमसयमस्तथा चतुर्थे ।। ४ ॥ पश्चमके च भावे जीवत्वम् अभव्यत्वं भव्यता चैत्र । पश्चानामपि भावानाम् भेदा एवमे त्रिपश्चाशम् ॥५॥ इति । अयं भावः-औपशमिक क्षायिकः क्षायोपशमिक औदायिक पारिणामिकश्चेति पञ्च भावा भान्ति ! तेपु औषशमिकस्य सम्यतां चारित्रं चेति द्वौ भेदौ ११ क्षायिकस्य-दर्शनं ज्ञानं दानं लाभ उपभोगो भोगो वीर्य सम्यक्त चारित्रं चेति नत्र भेदाः २। क्षायोपशमिकम्य-चत्वारि ज्ञानानि, त्रीणि अज्ञानानि, त्रीणि दर्शपांचो भावोंके भेद ५३ होते हैं जैसे-" उपसमिए २ खइएवियए" इत्यादि । औपशनिक भाबके दो भेद हैं-एक औषनिक सम्पत्व और दूसरा औपरामिक चारित्र २ इनमें दर्शन मोहनीय कर्मके उपशमसे औपशमिक सम्यक्त्व होता है, और चारित्र मोहनीय कर्मके उपशमसे औपशामिक चारित्र होता है। क्षायिक भावके नौ भेद हैं, क्षायिकज्ञान केवलज्ञान १ क्षायिकदर्शन केबलदर्शन २ क्षायिकलाम ३क्षायिकदान ४ क्षायिक भोग५ क्षायिक उपभोग ६ क्षायिक वीर्य ७ क्षाधिक सम्यक्त्व ८ और क्षायिक चारित्र ९ क्षायोपशमिक मान १८ प्रकारका होता है-चार ज्ञान, मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यघज्ञान-तीन अज्ञान-मत्यज्ञान, श्रुता " उपसमिए २ खइए वियए" त्या પરામિક ભાવના બે ભેદ છે–(૧) ઔપથમિક સમ્યકત્વ અને (૨) ઔપથમિક ચારિત્ર. દર્શન મેહનીય કર્મના ઉપશમથી ઔપશમિક સમ્યકત્વ પ્રાપ્ત થાય છે અને ચારિત્ર મોહનીય કર્મના ઉપશમથી પથમિક ચારિત્ર ઉત્પન્ન થાય છે, सायिवना नाय प्रभा न हो छ-(१) क्षायि४ ज्ञान-१७ ज्ञान, (२) क्षायि: ६शन-34 शन, (3) क्षायि: all, (४) क्षायि: हान, (५) क्षायि: An (6) क्षायि 6 , (७) क्षायि: वीय, (८) क्षायि सभ्य४३ मने (6) क्षायि४ यात्रि 'ક્ષાપશર્મિક ભાવના નીચે પ્રમાણે ૧૮ પ્રકાર કહ્યા છે—મતિજ્ઞાન, કૃતજ્ઞાન, અવધિજ્ઞાન અને મન:પર્યવજ્ઞાન, આ ચાર જ્ઞાનરૂપ ચાર પ્રકાર Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भुघा टीका स्था०६ सू० ६३ औदयिकादिभावनिरूपणम् ५०७ 'नानि, पञ्च च दानलब्धयः, तथा-सम्यक्त्वं चारि संयमासंयमश्चेति अष्टादश भेदाः ३। औदायिकस्य-चतस्रो गतयः, चत्वारः कपायाः, त्रीणि लिङ्गगनि, षट् ज्ञान, विभङ्गज्ञान तीन दर्शन चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन पचि दानकी लब्धियां दानलब्धि, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य-सम्यक्त्व चारित्र और संयमासंयम इनमें मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण और मनापर्यय ज्ञानावरण के क्षयोपशम से मत्यादिक चार-ज्ञान उत्पन्न होते हैं । मति अज्ञानावरण, श्रुत अज्ञानावरण और -विभंगज्ञानावरण के क्षयोपशम से ३ तीन मत्यादिक अज्ञान होते हैं। चिक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण के क्षयोपशमसे चक्षुदर्शन आदि ३ तीन दर्शन होते हैं। पांच प्रकारके अन्तराय के-क्षयोपशम से दान, लोभ, मोग आदि पांच लब्धियां होती हैं, सम्यक्त्व प्रकृति के उदयसे क्षायोपशमिक लम्यक्त्व होता है, अनन्तानुबंधी आदि बारह प्रकारका कषाय के उदयाभावी क्षय और सदवस्थारूप उपशम से तथा चार संज्वलनमें से किसी एकके और नौ नो-कषाय के यथासंभव उदय होने पर क्षायोपशमिक सर्वविरतिरूप चारित्र प्रकट होता है तथा अनन्तानुबन्धी आदि आठ प्रकार की कषाय મિત્વજ્ઞાન, કૃતાજ્ઞાન, અને વિસંગજ્ઞાન રૂપ ત્રણ અજ્ઞાન ચક્ષુદર્શન, અચક્ષદર્શન, અને અવધિદર્શન રૂપ ત્રણ દર્શન, દાન, લાભ, ભેગ, ઉપગ અને વિર્ય, આ પાંચ લબ્ધિઓ. આ રીતે ૪ જ્ઞાન, ૩ અજ્ઞાન, ૩ દર્શન અને પાંચ લબ્ધિઓ મળીને ૧૫ પ્રકાર થયા. બાકીના ત્રણ પ્રકાર નીચે પ્રમાણે छ-(१) सभ्य४१, (२) यात्रि मन (3) सयमा यम. साहीत क्षायो५मि 'ભાવના કુલ ૧૮ પ્રકાર સમજવા. મતિજ્ઞાનાવરણ શ્રુતજ્ઞાનાવરણ, અવધિજ્ઞાનાવ‘રણ, અને મનપર્યયજ્ઞાનાવરણના ક્ષપશમથી મતિજ્ઞાન અદિ ચાર જ્ઞાન ઉત્પન્ન થાય છે. મતિ અજ્ઞાનાવરણ, મૃત અજ્ઞાનાવરણ અને વિભાગજ્ઞાનાવરણને ક્ષયપશમથી મત્યજ્ઞાન આદિ ત્રણ અજ્ઞાન ઉત્પન્ન થાય છે ચક્ષુદર્શનાવરણ, અચક્ષુદશનાવરણ, અને અવધિદર્શનાવરણના ક્ષયોપશમથી ચક્ષુદર્શન આદિ ત્રણ દર્શન ઉત્પન્ન થાય છે. પાંચ પ્રકારના અન્તર યના ક્ષયોપશમથી દાન, લાભ, ભેગ આદિ પાંચ લબ્ધિઓ પ્રાપ્ત થાય છે. સમ્યકત્વ પ્રકૃતિના ઉદયથી ક્ષાપશમિક સમ્યકત્વ પ્રાપ્ત થાય છે અનન્તનુ બધી આદિ ૧૨ પ્રકારના કષાયના ઉદયાભાવીક્ષય અને સદવસ્થારૂપ ઉપશમથી તથા ચાર સંજવલનમાથી કઈ એકને અને નવ નેકષાને યથાસંભવ ઉદય થવાથી ક્ષાપશમિક સર્વવિરતિ રૂપ ચારિત્ર પ્રકટ થાય છે. તથા અનન્તાનુબંધી આદિ ૮ પ્રકારના Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०८ स्थानासत्रे के उद्यअभावी क्षय और सदवस्थारूप उपशमसे एवं प्रत्याख्यानावरण एवं संज्वलन कपाघ के और नोकपाय के यथासंभव उदय होने पर क्षायोपशमिक संयमासंयम भाव प्रकट होता है, इस प्रकार से अठारह प्रकार का क्षायोपशमिकभाव हैं। शंका-संजिस्व सम्यग् मिथ्यात्व और योग भी क्षायोपशमिक भाव हैं, उनका यहां ग्रहण क्यों नहीं किया। उत्तर-संजीपना ज्ञान की अवस्थाविशेप है इसलिये उसे अलग से ग्रहण नहीं किया। सम्यग् मिथ्यात्व सम्यक्त्व का एक भेद है, इसलिये सम्यक्त्वके ग्रहण करने से ही सम्यक्त्व मिथ्यात्व का ग्रहण हो जाता है, योगका सम्बन्ध वीर्यलब्धिसे है इसलिये उसे भी अलग नहीं कहा। औदयिकभाव २१ इक्कीस प्रकार काहै-चारगति-नामकर्म के उदयसे नरक, तिर्यश्च, मनुब्ध और देव ये चार गनियां-चार कषाय मोहनीय के उदयसे क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषाय वेद नोकषाय के उदयसे स्त्री पुरुष और नपुंसक ये ३तीन वेद कषाय के उदयसे अनुः रंजित योगकी प्रवृत्ति रूप कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल કપાયાના ઉદયાભાવી ક્ષય અને સદવસ્થા રૂપ ઉપશમથી અને પ્રત્યાખ્યાનાવરણ અને સંજવલન કષાયને યથાસંભવ ઉદય થવાથી ક્ષાપશમિક સંયમ સંયમ ભાવ પ્રકટ થાય છે. આ પ્રમાણે ૧૮ પ્રકારના ક્ષાપશમિક ભાવ છે, શંકા–સંન્નિત્વ, સમ્યગૂ મિથ્યાત્વ અને રોગ પણ ક્ષાપશમિક ભાવ રૂપ જ છે. છતાં અહીં તેમને શા માટે ગ્રહણ કરવામાં આવ્યા નથી? ઉત્તર-સંન્નિત્વ જ્ઞાનની એક અવસ્થા વિશેષ રૂપ છે. તેથી અહીં તેને અલગ રૂપે ગ્રહણ કરવામાં આવેલ નથી સમ્યગ્રમિથ્યાત્વ સમ્યકત્વના એક ભેદ રૂપ હોવાથી સમ્યકત્વમાં જે તેને સમાવેશ થઈ જાય છે. ચેગને સંબંધ વિલબ્ધિ સાથે લેવાથી તેને અહીં અલગ રૂપે ગણાવવાની જરૂર રહેતી નથી. ઔદયિક ભાવના નીચે પ્રમાણે ૨૧ પ્રકાર છે–ચાર ગતિનામકમના ઉદયથી નરક તિર્થચ, મનુષ્ય અને દેવ આ ચાર ગતિએ રૂપ ચાર પ્રકાર કપાયમેહનીયના ઉદયથી ક્રોધ, માન, માયા અને લેમરૂપ ચાર કષાય, વેદ કપાઘના ઉદયથી સ્ત્રી, પુરુષ અને નપુસક રૂપ ત્રણ વેદ, કષાયના ઉદયથી અનુરજિત એગની પ્રવૃત્તિ રૂપ કૃષ્ણ, નીલ, કાપિત, પીત, પદ્ધ અને શુકલ, આ ૬ વેશ્યાઓ. આ રીતે ૧૭ પ્રકાર થયા. (૧૮) જ્ઞાનાવરણના ઉદયથી Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुघाटीका स्था०६ सू०६३ औदधिकादिभावनिरूपणम् ये ६ लेश्या हैं । ज्ञानावरण के उदद्य से हुआ अज्ञान मिथ्यात्व मोहनीय के उदय से हुआ अतत्व श्रद्धानरूप मिथ्यादर्शन किसी भी कर्म के उदय से हुआ असिद्धत्व और चारित्रमोहनीय के सर्वघाति सड़कों के उदयसे हुआ असंघम ये २१इक्कीस प्रकारके भाव औदायिक भावहैं । शंका-दर्शनावरण के उदय से अदर्शन भाव भी होता है, उसको यहां अलग से क्यों नहीं गिनाया ? उत्तर-मिथ्यादर्शन से ही अदर्शन भावका ग्रहण हो जाता है तथा निद्रा, निद्रा निद्रा आदि का भी इसी में अन्तर्भाव कर लेना चाहिये क्योंकि ये भी अदर्शन के भेद हैं। शंका-हास्य आदि के उदय से हास्य आदि औदधिक भाव भी होते हैं, अतः उन्हें तो अलग से गिनाना चाहिये ? . उत्तर-माना कि हास्य आदि स्वतन्त्र औदयिक भाव हैं-तब भी ' लिङ्ग के ग्रहण करने से इनका ग्रहण हो जाता है क्योंकि भाव लिङ्ग के सहचारी हैं। शंका--अघातिया कर्मों के उदय से भी जाति आदि औयिक भाव होते हैं सो उन्हें यहां अलग से क्यों नहीं गिनाया ? પ્રકટ થતું અજ્ઞાન, (૧૯) મિથ્યાત્વ મોહનીયના ઉદયથી પ્રકટ થયેલું અતત્વ શ્રદ્ધાનરૂપ મિથ્યાદર્શન, (૨૦) કેઈ પણ કર્મના ઉદયને લીધે જનિત અસિ. દ્ધત્વ અને (૨૧) ચરિત્ર મહનીયના સઘાતિ સ્પર્વેકેના ઉદયથી જનિત અસંયમ. આ ૨૧ પ્રકારના ઔદયિક ભાવ કહ્યા છે. શંકા-દર્શનાવરણના ઉદયથી અદર્શનભાવને પણ સદૂભાવ રહે છે. અહીં તેને અલગ રૂપે શા કારણે ગણવેલ નથી ? - મિથ્યાદર્શનને ગ્રહણ કરવાથી અદર્શનભાવ પણ ગ્રહણ થઈ જાય છે તથા નિદ્રા, નિદ્રાનિદ્રા, આદિને પણ તેમાં સમાવેશ કરી લેવું જોઈએ, કારણ કે તે પણ અદર્શનના ભેદે જ છે. શકા-મહાસ્ય આદિના ઉદયથી હાસ્ય આદિ ઔદયિક ભાવ પણ હોઈ શકે છે, તેથી તેમને અલગ રૂપે ગણાવવા જ જોઈએ ! ઉત્તર-માની લઈએ કે હાસ્ય આદિ સ્વતંત્રભાવ છે. તે પણ લિંગને ગ્રહણ કરવાથી તેમનું ઘડણ પણ થઈ જાય છે, કારણ કે તે ભાવે લિંગના સહચારી છે. શકા-અઘાતિયા કર્મોના ઉદયથી પણ જાતિ આદિ ઔદયિક ભાવ સંભવી શકે છે તે તેમને અહીં અવગ રૂપે શા માટે ગણાવ્યા નથી ? Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१० स्थानासु लेश्याः, अज्ञान मिथ्यात्वम् असिहत्वम् असंयमश्चेति चत्वार इत्येकविंशतिभेदाः ४। पारिणामिकस्य-जीवत्वम् अभव्यत्वं भव्यताचेति त्रयोभेदाः ५। इत्थं पञ्चानां भावानां सर्वे त्रिपञ्चाशद् भेदाः भवन्तीति ।। सू० ६३ ॥ उत्तर--अघातिया कर्मों के उदय से होने वाले जितने भा औद. यिक भाव हैं उन सबका गति उपलक्षण है । इसके ग्रहण करने से उन सबका ग्रहण हो जाता है इसलिये अघातिया कर्मों के उदय से होनेवाले जाति आदि अन्य भावों को अलग से नहीं गिनाया। शंका--उपशान्त कषाय क्षीण कषाय और सयोग केवली गुणस्थान में लेश्या का विधान तो किया है पर वहां कषाय का उदय नहीं पाया जाता अतः लेश्या मात्र को औदयिक मानना उचित नहीं है। उत्तर--पूर्वभाव प्रज्ञापन नय की अपेक्षा वहां औदयिक पने का उपचार किया जाता है इसलिये लेश्या मात्र को औयिक मानने में , कोई आपत्ति नहीं है। पारिणामिक भाव तीन हैं-जीवत्व, भव्यत्व औह अभव्यत्व । इनमें जीवत्व का अर्थ चैतव्य है, यह शक्ति आत्मा की स्वाभाविक है इसमें कर्म के उद्यादि की अपेक्षा नहीं पड़ती है इसलिये यह पारिणामिक है। यही बात सध्यत्व और अभव्यत्व के विषय में भी जाननी ન ઉત્તર–અઘાતિયા કર્મોના ઉદયથી જનિત જેટલા ઔદયિક ભાવે છે તે સૌનું ઉપલક્ષણ ગતિ છે. ગતિનું ગ્રહણ થવાથી તે સૌનું ગ્રહણ પણ થઈ જાય છે. તેથી અઘાતિયા કર્મોના ઉદયથી જનિત જાતિ આદિ ભાવને જુદા साव्या नथी. . । શંકા–ઉપશાન્ત કષાય, ક્ષીરુ કપાય અને સયોગ કેવલી ગુણસ્થાનમાં લેશ્યાનું વિઘાન તે કરવામાં આવું છે પરંતુ ત્યાં, કષાયને ઉદય જોવામાં આવતા નથી, તેથી લેણ્યા માત્રને ઔદથિક- માનવાનું ઉચિત લાગતું નથી. ઉત્તરપૂર્વભાવ પ્રજ્ઞાપન નયની અપેક્ષાએ ત્યાં ઔદયિકપણાને ઉપચાર કરવામાં આવે છે, તેથી લેણ્યા માત્રને દયિક માનવામાં કેઈ દોષ નથી. पारिष्यामि माप-त्राय छे-(१) त्व, (२) सव्यात मने (3) અભવ્યત્વ. જીવત્વને અર્ધ ચેતન્ય છે. આ શક્તિ આત્માની ભાવિક શક્તિ છે. તેમાં કર્મના ઉદયાદિની અપેક્ષા રહેતી નથી, તેથી જ તેને પરિણામિક ભાવ રૂપે પ્રકટ કરવામાં આવેલ છે. એ જ વાત ભવ્યત્વ અને અભવ્યત્વના Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुघा टीका स्था० ६ ० ६४ षविधप्रतिक्रमणनिरूपणम् ____ अनन्तरसूत्रे भावा अभिहिताः, तत्र च प्रशस्तेषु या अप्रवृत्तिः, अप्रशस्तेषु च या पत्तिः कृता, यच्च वा विपरीतश्रद्धानं विपरीतप्ररूपणं च कृतम्, तत्र साधवः प्रतिकाम्यन्तीति प्रतिक्रमणमाह• मूलम्-छविहे पडिकणे पण्णते, तं जहा-उच्चारपडिक्कमणे १, पासवणपडिकलणे २, इत्तरिए ३, आवकहिए ४, जं किंचि मिच्छा ५, लोमणतिए ६॥ सू० ६४ ॥ छाया-पडविधं प्रतिक्रमणं प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-उच्चारमतिक्रमणं १, प्रत्र वणपतिक्रमणम् २, इत्वरिकं ३, यावत्कथिकम् ४, यत्किंचिन्मिथ्या ५, स्वापनान्तिकम् ६॥ सू०६४ ॥ टीका-'छब्धिहे ' इत्यादि__ प्रतिक्रमणं-पिथ्यादुष्कृतकरणख्यम् मायश्चित्तस्य षड् भेदाः पूर्व पञ्चदश. सूत्रे प्रदर्शिताः, तद् यथा-मालोचनाहम्. प्रतिक्रमणाहम्, तदुभयाहम् ३, विवेचाहिये, जिस आत्मा में रत्नत्रय प्रकट होने की योग्यता है वह भव्य और जिसमें इस प्रकार की योग्यता नहीं है वह अभव्य है, इस प्रकार से ५३ भाव जीव के होते हैं ॥ ० ६३ ॥ इस ऊपर के स्चून में भाव कहे गये हैं। इनमें प्रशस्त भावों में जो अप्रवृत्ति है और अप्रशस्त मावों में जो प्रवृत्ति है अथवा-जो विपरीत श्रद्धान हो गया है या विपरीत प्ररूपणा हो गई है सो इस स्थिति में साधु प्रतिक्रमण करते हैं अतः इसी बात को लेकर अब सूत्रकार प्रतिक्रमण का कथन करते हैं "छबिहे पडिलमणे पण्णत्ते " इत्यादि सूत्र ६४ ॥ -मिथ्यादुष्कृत देने रूप प्रतिक्रमण नामका प्रायश्चित्तहै । प्रायश्चित्त વિષયમાં પણ સમજવી. જે આત્મામાં રત્નત્રય પ્રકટ થવાની યોગ્યતા હોય છે, તેને ભવ્યાત્મા કહે છે, જે આત્મામાં આ પ્રકારની ગ્યતા હોતી નથી તેને અભવ્યાત્મા કહે છે. આ પ્રમાણે જીવમાં ૫૩ ભાવ હોય છે. જે સૂ. ૬૩ આગલા સૂત્રમાં ભાવની પ્રરૂપણ કરવામાં આવી. પ્રશસ્ત ભામાં અપ્રવૃત્તિ થવાથી, અને અપ્રશસ્ત ભાવમાં પ્રવૃત્તિ થવાથી, અથવા વિપરીત તત્વમાં શ્રદ્ધા પ્રકટ થઈ જવાથી અથવા વિપરીત પ્રરૂપણ થઈ જવાથી તે દોષની નિવૃત્તિ માટે સાધુ પ્રતિકમણ કરે છે તેથી હવે સૂત્રકાર પ્રતિક્રમણનું नि३५४४ ४३ छ. "छबिहे पडिकमणे पण्णत्ते " माह Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ स्थामा झाईम् ४, व्युत्सर्हिम् ५, तपोऽई ६ चेति, एपां व्याख्या तत्रैव द्रष्टव्या। तेषु यद् द्वितीयं प्रतिक्रमणाई प्रायश्चित्तं तत् पविध प्रज्ञसम् , तद्यथा-उच्चारप्रति क्रमणम्-उच्चारोत्सर्ग कृत्वा यत् ऐर्यापथिकं प्रतिक्रमणं तत् ॥१॥ प्रस्रवणपतिक्रमणम्-मस्रवर्ण-मूत्रं, तदुत्सगं कृत्वा यत् ऐपियिक प्रतिक्रमणं तत्..२॥उक्तंच " उच्चार पासवर्ण, भूमीए वोसिरित्तु उवउत्तो। ओसरि ऊणं तत्तो, इरियावहियं पडिकमइ ॥१॥ चोसिरइ मत्तगे जइ, तो न पडिकमइ य मत्तगं जो उ । साहू परिहवेई, नियमेण पडिक्कमइ सो उ ॥२॥ छह प्रकार का होता है, प्रायश्चित्त के छह भेद पहले पन्द्रहवें सूत्र में कहे गये हैं वे इस प्रकार हैं--आलोचनाह १, प्रतिक्रमणाई २, तद्भया ३, विवेकाहं ४, व्युत्साह और तपोऽर्ह ६।। इनकी व्याख्या वहीं पन्द्रहवें सूत्र में कही गई है, यहां देख लेना चाहिये उन छह प्रकारके प्रायश्चितोंमें यह प्रतिक्रमण नामका प्रायश्चित्त दसरा है, यह छह प्रकारको होता है,जैी-उच्चार प्रतिक्रमण १ प्रस्रवण प्रतिक्रमण • इत्वरिक प्रतिक्रमण ३ यावत्काधिक प्रतिक्रमण ४ यत् किश्चित् मिथ्या प्रतिक्रमण ५ और स्वापनान्तिक प्रतिक्रमण ६ उच्चार प्रतिक्रमण वह है, जो बहिभूमिसे आकर ऐशपथिकी क्रियाकी जाती है, प्रस्रवण प्रतिक्रमण वह है, जो प्रत्रवण के बाद ऐपिथिको क्रियाकी जाती है । कहा भी है-" उच्चारं पासवणं" इत्यादि। - મિથ્યાદુકૃત દેવારૂપ પ્રતિક્રમણનું નામ પ્રાયશ્ચિત્ત છે. પ્રાયશ્ચિત્તના છ. ४१२ ५ छ-(१) मासायना, (२) प्रतिभावार, (3) तलया, (४) विवाह, (५) व्युत्सा, मने (6) तपाई. प्रायश्चित्तना मा छ प्राशन વિસ્તૃત નિરૂપણ ૧૫ માં સૂત્રમાં કરવામાં આવ્યું છે, તે ત્યાંથી વાંચી લેવું. પ્રાયશ્ચિત્તને પ્રતિક્રમણ નામને જે બીજે ભેદ છે, તેના નીચે પ્રમાણે छ ५४.२ ५ छ. (१) श्या२ प्रति ], (२) प्रसवY प्रतिभ], (3) R: प्रतिमा, (४) यापथि प्रतिम, (५) यिियत् मिथ्याप्रतिभए अने. (६) स्वायनान्ति प्रतिभा બહિમિમાંથી આવીને (હલે જઈને આવ્યા બાદ) એપથિકી ક્રિયા કરવામાં આવે છે તેનું નામ ઉચ્ચાર પ્રતિકમણ છે. પ્રસવણ (મૂત્ર ત્યાગ) બાદ જે પથિકી કરવામાં આવે છે તેનું નામ પ્રસ્ત્રવણ પ્રતિક્રમણ છે, धु ५१ छ : “ उच्चार पासवणं"त्य Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०६ सू० ६४ षड्विध प्रतिक्रमणनिरूपणम् छाया- उच्चारं मसरणं भूमौ व्युत्सृज्य उपयुक्तः । अवसृत्य तत ई-पथिकां प्रतिक्रामति ॥१॥ व्युत्सृजति मात्रके यदि ततो न प्रतिक्रामति च मात्र यस्तु । साधु. परिष्ठापयति नियमेन प्रतिक्रामति स तु ॥२॥ इति । इत्वरिकम्-स्वल्पकालिकं देवसिकरात्रिकादिरूपम् ॥ ३ ॥ यावत्कथिकम् यावज्जीविकं महाव्रतभक्तपरिज्ञादिरूपम् । प्रतिक्रयणत्वं चात्र विनिवृत्तिलक्षणावर्थयोगाद् बोध्यम् ।।४।। तथा यत्किंचिन्मिथ्या-खेलशिवाणाविधिनिसर्गाभोगानाभोगसहसाकाराधसंयम-स्वरूपं यत्किंचित् यत्किमपि मिथ्या असम्यकृतं तद्विषयं यत् मिथ्येदमित्येवं प्रतिपत्तिपूर्वकं मिथ्यादुष्कृतकरणं तद् यत्किचिन्मिथ्या प्रतिक्रमणमिति । उक्तं च-- __ "संजमनोगे अब्भुट्टियस्स जं किंचि वितहमायरियं । मिच्छा एयं तु पियाणिऊण मिच्छत्ति कायव्यं ॥१॥" देवसिक रात्रिकादि रूप जो स्वल्पकालिक प्रतिक्रमण है, वह इत्यरिक प्रतिक्रमण है, महाव्रत भक्त परिज्ञादि रूप जो यावज्जीविक प्रतिक्रमण है. वह यावत्कथिक प्रतिक्रमण है, प्रतिक्रमणता विनिवृत्ति रूप सार्थक योगसे यहां आती है, खेल शरीरका मैल शिवाण-नाकका मैल इनका अविधिपूर्वक छोडना आभोग अनाओग (जानते अजानते) सहसाकार आदि रूप जो असंयम है, इन सबका सेवन करना सो इस असंयमके हो जाने पर “ यह सब मेरा मिथ्या हो जावे" इस प्रकारसे जो मिथ्या दुष्कृति दिया जाता है, वह यत् किञ्चित् मिथ्या प्रतिक्रमण है। कहा भी है-"संजम जोगे अभुहियस्स" इत्यादि। દેવસિક, રાત્રિક આદિ રૂપ જે સ્વલ્પકાલિક પ્રતિક્રમણ છે તેને ઇવરિક પ્રતિક્રમણ કહે છે મહાવ્રત ભક્તપરિજ્ઞાદિ રૂપ જે યાજજીવિક પ્રતિક્રમણ છે, તેને યાવસ્કથિક પ્રતિક્રમણ કહે છે વિનિવૃત્તિ રૂપ સાર્થક રોગથી અહીં પ્રતિક્રમણતા આવે છે. ખેલ (शरीर भस) भने शिधा (नामाथी , नीsn! शीणे! पहा ) આદિને અવિધિપૂર્વક છોડવા રૂપ તથા આગ, અનાગ, સહસાકાર આદિ રૂપ જે અસંયમ છે, તેનું સેવન કરવાથી જે દોષ લાગે છે તેની નિવૃતિ નિમિત્તે “મારૂ એ કાર્ય મિથ્યા હે” આ પ્રકારે જે મિથ્યા દુષ્કૃતિ દેવામાં આવે છે તેનું નામ યત્કિંચિત્ મિથ્યાપ્રતિકમણ છે. કહ્યું પણ છે કે, “संजमजोगे अभुट्टियस्स" त्याहस्था०-१५ Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थामा छाया--संयमयोगे अभ्युत्थितस्य यत् किंचिद् वितथमाचरितम् । मिथ्या एतत्तु विज्ञाय मिथ्येति कर्तव्यम् ॥१॥ इति । तथा--" खेलं सिंघाणं वा, अपडिलेहायमज्जिउ तहय । वोसरिय पडिकाई, तं पिय मिच्छुकडं देइ ॥१॥" छाया--खेलं सिद्धाणं वा, अप्रतिलेख्याप्रमृज्य तथा च । व्युत्सृज्य प्रतिक्रास्यति, तस्यापि मिथ्यादुष्कृतं ददाति ॥१॥ इति।। ५॥ तथा--स्वापनान्तिकम्-स्नपनस्य-जयनक्रियया अन्तः अवसानं स्वपनान्तः, तत्र भवं पतिक्रमणं स्थापनान्तिकम् । सुप्तोत्थिताहि साधव ईयाँ प्रतिक्रामन्त्येवेति । अथवा- स्वाप्नान्तिकम्' इतिच्छाया । तत्र-स्वप्नोनिद्रावशविकल्या, वस्य अन्तो विभागः स्वप्नान्तः, तत्र भवं भतिक्रमण स्वाप्नान्तिकम् । स्वप्नविशेषेहिं साधकः प्रतिक्रामन्त्येव । तदुक्तम्-- __संयमयोगमें सावधान बने हुए जीवके द्वारा जो कुछभी असत्य सेवित हो जाता है, वह मेश निष्फल हो इसके लिये जो मिथ्या दुष्कृत दिया जाता है, वह यत् किञ्चित् मिथ्या प्रतिक्रमण है । तथा"खेलं सिंघाणं वा" इत्यादि । शयनक्रियाके अन्त में जो प्रतिक्रमण किया जाता है, वह स्थापनान्तिक प्रतिक्रमण है । लुप्तोस्थित साधुजन ईर्या प्रतिक्रमण करते ही हैं । अथवा-" सोमणंतिए "की संस्कृत छाया " स्वाप्नान्तिकम् " ऐसी भी होती है, निद्रावश जो विकल्प है, उसका नाम-स्वप्न है, इसका जो अन्त विभाग है, वह स्वप्नान्त है, इस स्वप्नान्तमें जो प्रतिक्रमण होता है, वह स्वायनान्तिक प्रतिक्रमण है, स्वप्नविशेषकी अवस्था साधुजन प्रतिक्रमण करतेही हैं। कहा भी સંયમ એગમાં સાવધાન રહેતા જીવ દ્વારા જે કંઈ પણ અસત્યનું સેવન થઈ જાય છે તે મિચ્યા -નિષ્ફલ હે, એવી ભાવનાપૂર્વક જે મિથ્યા સ્કૃત દેવામાં આવે છે તેને યત્કિંચિત્ મિથ્યાપ્રતિક્રમણ કહે છે. ४ ५४ छ : “ खेलं सिंघाणं वा" त्याह- સ્વાસાન્તિક પ્રતિક્રમણ–શયન ક્રિયાને અન્ને જે પ્રતિક્રમણ કરવામાં આવે છે તેને સ્વામાન્તિક પ્રતિક્રમણ કહે છે. ઊંઘ લઈને ઊઠતે સાધુ ઈર્યા प्रतिम त ४२४ छे. अथवा “ सोमणंतिए" मा पहनी सत छाया " स्वाप्नान्तिकम् " ५ थाय छे. निद्रान मधीन था ३५ २ वि६५ छे તેનું નામ સ્વ છે. તેને જે અન્તવિભાગ છે તેનું નામ સ્વમાન છે. આ રંવમાનને જે પ્રતિક્રમણ થાય છે તેને સ્વાસ્નાતિક પ્રતિક્રમણ કહે છે. સ્વસ વિશેષની અવસ્થામાં સાધુઓ પ્રતિકમણ કરે જ છે, Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्राटीका स्था०६ १३४ पं दूषिध प्रतिक्रमणनिरूपणम् " गमनागमण विहारे, सुतं वा सुमिणदंसणे राओ । नावा नइ संतारे, इरियावहिया पडिकमणं || १ ||” छाया -- गमनागमनविहारे सुप्तेवा स्वप्नदर्शने रात्रौं । नावा नदी सन्तारे पथिका प्रतिक्रमणस् ||१|| इति । प्रतिक्रमणसूत्रे ऽपि आउलमाउलाए, सोवणवत्तियाए " आकुलाकुलया स्वप्नमस्ययया, इत्यादिना स्वप्नविशेषे प्रतिक्रमणमुक्तम् । प्रतिक्रमणमत्र कायोत्सर्गरूपं तच्च स्वप्नकृतप्राणातिपातादितो विनिवृचिरूपम् अन्वर्थं बोध्यम् । इति ॥ सू० ६४ ॥ -- छाया -- अनन्तरं प्रतिक्रमणमुक्तम्, प्रतिक्रमणं चावश्यकमित्युच्यते । तद्य नक्षत्रोदयावनसरे कुर्वन्तीति नक्षत्राणि षट्स्थानत्वेनाह- "6 ५१५ "गमणा गमण विहारे" ईर्यापथिक प्रतिक्रमण साधु इतनी बातों में करते हैं गमनागमन में बिहार में सुप्तावस्था से प्रबुद्ध (जगनेपर) होने पर रात्रि में नाव से नदी पार करने पर अथवा बिना नावके नदी पार करने पर प्रतिक्रमण सूत्र में भी " आउलमाउलाए सोवणवत्तियाए" इत्यादि पाठ द्वारा स्वप्नविशेषमें प्रतिक्रमण करना कहा गया है, प्रतिक्रमण यहां कायोत्सर्गरूप है, और वह स्वप्नकून प्राणानिपात आदिसे विनिवृत्तिरूप है, इसलिये सार्थक है | सू० ६४ ॥ इस ऊपर के सूत्र में प्रतिक्रमण कहा यह प्रतिक्रमण आवश्यक रूप होता है, अतः यह नक्षत्र के उदय आदिके अवसर में किया जाता है, इसलिये सूत्रकार अब नक्षत्रों का कथन ६ स्थानकों से करते हैं 'धुं पशु छे ४ : गमणागमण विहारे " इत्यादि ઇર્યાથિક પ્રતિક્રમણ સાધુ આટલી મામામાં કરે છે~~ગમનાગમનમાં બિહારમાં, ઊધમાંથી જાગૃત થાય ત્યારે, રાત્રે નાવમાં બેસીને નદી પાર ક વામાં આવે ત્યારે અથવા નાવ વિના નદી પાર કરવામાં આવે ત્યારે, પ્રતિ ક્રમણ સૂત્રમાં પશુ " आउल माउलाए सोत्रणवत्तियाए" इत्यादि पाठ द्वारा સ્વસવિશેષમાં પ્રતિક્રમણ કરવાનું કહ્યું છે. અહીં પ્રતિક્રમણુ કાર્યાત્સગ રૂપ છે, અને તે સ્વપ્રકૃત પ્રાણાતિપાત આદિમાંથી વિનિવૃત્ત થવા રૂપ હોવાથી सार्थ छे. ॥ सू. ६४ ॥ L ઉપરના સૂત્રમાં પ્રતિક્રમણનું નિરૂપણ કર્યું. પ્રતિક્રમણુ આવશ્યક રૂપ ડાય છે, તેથી નક્ષત્રના ઉદય આદિના અવસરે તે કરવામાં આવે છે. તેથી હવે સૂક્ષકાર છ સ્થાનાની અપેક્ષાએ નક્ષત્રનું કથન કરે છે- Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाने ___ मूलम्—कत्तियाणक्खत्ते छत्तारे पण्णत्ते। असिलेसा णक्खत्ते छत्तारे पण्णत्ते ॥ सू० ६५ ॥ छाया-कृत्तिकानक्षत्रं पट्तारं प्रज्ञप्तम् । अलेपानक्षत्रं पट्तारं प्राप्तम् ॥सू० ६५॥ टीका-'कत्तिया णक्खत्ते ' इत्यादि व्याख्या स्पष्टा ॥ सू० ६५ ।। ' नक्षत्राणि चापि जीवरूपाण्येव । जीवानां नक्षत्ररूपता च कर्मपुद्गलचयादि सत्त्वे एव भवति चयादीनाह- मूलम्-जीवा णं छहाणणिवत्तिए पोग्गले पावकम्मत्ताए चिणिंसु वा चिति वा चिणिस्संति वा, तं जहा-पुढविकाइयनिबत्तिए जाव तप्तकाइयनिव्वत्तिए । एवं चिण उवचिणबंधउदीरवेय तह निजरा चेव । छप्यएसिया णं खंधा अणंता पण्णत्ता । छप्पएसोगाढा पोग्गला अणंता पण्णत्ता । छ समयटिइया पोग्गला अणता पण्णत्ता । छ गुणकालगा पोग्गला जाव छ गुणलुक्खा पोग्गला अणंता पण्णत्ता ।। सू० ६६ ॥ ॥छठं ठाणं समत्तं . छाया-जीवाः खलु पटूस्थाननिर्तितान् पुद्गलान् पापकर्म नया अधि: न्वन् वा, चिन्वन्ति वा, चेष्यन्ति वा, तद्यथा-पृथिवीकायिकनिर्वतितान् यावत् सकायिझनिर्वतितान् । एवं-चप उपचयोवन्ध उदीरो वेदस्तथा निर्जरा चव । पट्पदेशिकाः खलु पुद्गला अनन्ताः प्रज्ञप्ताः । पड् प्रदेशावगाढाः पुद्गला अनन्ताः पटूसमय स्थितिकाः पुद्गला अनन्ताः प्रज्ञप्ताः । पड्गुणकालकाः पुगला यावत् पड्गुणरूक्षाः पुद्गला अनन्ताः प्रज्ञप्ताः ॥ मू०६६ ॥ ॥ षष्ठं स्थानं समाप्तम् ॥ कत्तियाणक्खत्ते छत्तारे पण्णत्ते इत्यादि सूत्र ६५ ॥ कृत्तिका नक्षत्र छ तारावालो हैं आश्लेषा नक्षत्र छ तारावाला है।मू०६५। “ कत्तियाणक्खत्ते छत्तारे पण्णत्ते" त्याકૃતિકા નક્ષત્ર છ તારાવાળું છે, અશ્લેષા નક્ષત્ર પણ છે वाणु छ. ॥ सू. १५ ॥ - - - Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१७ - सुधा टीका स्था०६ सू०६६ चयादिस्वरूपनिरूपणम् टीका--'जीवा णं' इत्यादि-- अस्य व्याख्या पूर्ववद् बोध्या । नवरं तस्मिन् तस्मिन् स्थाने तत्तत्स्थानकत्वेनोक्तम् , अत्र तु पट्ट्थानकत्वेनेति ॥ सू० ६६ ॥ इति श्री विश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापक-प्रविशुद्धगधपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-बादिमानमर्दक - श्रीशाहूछत्रपति कोल्हापुरराजमदत्त 'जैनशास्त्राचार्य ' पदभूपित-कोल्हापुरराजगुरु बालबहावारी-जैनाचार्य - जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री -- घासीलालचतिविरचितायां ' स्थानाङ्गसूत्रस्य ' सुधाख्यायां ___ व्याख्यायां षष्ठं स्थानम् सम्पूर्णम् ॥६-३॥ नक्षत्र भी जीवरूपही हैं, जीबोंमें नक्षत्र रूपता कर्मपुद्गलचय आदिके होने परही होती है, अतः अब सत्रकार चय आदिका कथन करते हैं "जीवाणं छट्ठाणणिव्यत्तिए पोग्गले " इत्यादि सूत्र ६६ ॥ इस सूत्रकी भी व्याख्या स्पष्ट है, क्योंकि यह व्याख्या उस २ 'स्थानमें उस स्थानक रूपसे पहिलेकी जा चुकी है और अब यहां वह 'छह ६ स्थानक रूपसे कही गई है ॥ स्तू० ६६ ।। श्री जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर श्री घासीलालजी महाराज रचित .. "स्थानाङ्ग सूत्र" की सुधा नामकी व्याख्या छटा स्थान समाप्त ॥६॥ નક્ષેત્રે પણ જીવ રૂપ જ છે. કમપુલમાં ચય આદિ ને સદૂભાવ હાવાથી જ જીમાં નક્ષત્રરૂપતા સંભવી શકે છે, તેથી હવે સૂત્રકાર ચય આદિનું કથન કરે છે. - “जीवाणं छट्ठाणणिव्वत्तिए पोगले" त्या: આ સૂત્રની વ્યાખ્યા ૫ણ છે, કારણ કે પ્રત્યેક સ્થાનમાં તે તે સ્થાનક રૂપે આ વ્યાખ્યા આગળ આપવામાં આવી ચુકી છે, અને અહીં છ સ્થાનક રૂપે તેનું કથન કરવામાં આવ્યું છે. એ સૂ ૬૬ છે શ્રી જૈનાચાર્ય જૈનધર્મ દિવાકર શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ રચિત " स्थानां। सूत्र" नी सुधा नाभनी व्यायानु થીને સમાપ્ત ૬ ! Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 ॥ अथ सप्तम स्थानकम् ॥ , पष्ठं स्थानमुकं, सम्पति क्रमप्राप्तं सप्तममारभ्यते, अस्यतु पूर्वेण सहायमभिसम्बन्धः - पूर्वस्मिन् स्थाने पदार्थाः पद्स्थानकत्वेनोक्ताः अत्र तु त एत्र पदार्थाः सप्तस्थानकत्वेन मरूप्यन्ते इत्यनेन संबन्धेनायातस्यास्य स्थानस्येदमादिमं सूत्रम् - तथा - अनन्तरस्थानस्यान्तिमसूत्रेण सहास्य स्थानस्यादिमसूत्रस्यायमभिसंबन्धः-तत्र सूत्रे पुद्गलाः पर्यायतः प्रोक्ताः । अस्मिन् सूत्रेतु - पुद्गलविशेषाणां क्षयोपशमानन्तरं यो जीवकृतोऽनुष्ठानविशेषो भवति, तस्य सप्तविधत्वमुच्यते, इत्यनेन सम्बन्धेनायातमिदं सूत्रम् सातवां स्थानका प्रारंभ छठा स्थान कहा जा चुका है, अब क्रम प्राप्त सप्तम स्थान प्रारंभ होता है, इस स्थानका पूर्व स्थानके साथ ऐसा सम्बन्ध है - कि पूर्व स्थानमें पदार्थ ६ स्थानक रूपसे कहे गये हैं, और यहां वेही पदार्थ सत स्थानकरूपसे कहे जावेंगे. तथा अनन्तर स्थानके अन्तिम सूत्रके साथ इस स्थान के प्रथम सूत्रका सम्बन्ध ऐसा है, कि उस सूत्र में पुद्गल पर्यायी अपेक्षा से कहे गये हैं, परन्तु सूत्र में पुल विशेपोंका क्षयोपशमके अनन्तर जो जीव कृत अनुष्ठान विशेष होता है, उसमें सप्तविधता कही जावेगी इसी अभिप्राय से " संतविहे गणावकमणे " इत्यादि सूत्रपाठ कहा जाता है - 1. सातभा स्थानना भारं છઠ્ઠા સ્નાનનું નિરૂપણુ પૂરૂં થયુ. હવે સાતમા સ્થાનનું નિરૂપણું શરૂ રવામાં આવે છે. પૂર્વસ્થ ન સાથે સાતમાં સ્થાનના સંબંધ આ પ્રકારના છે. પૂર્વ સ્થાનમાં પદાથેાંનું સ્થાનક રૂપે નિરૂપણુ કરવામાં આવ્યું છે, હવે અહીં એજ પદાર્થોનું સાત સ્થાનક રૂપે નિરૂપણુ કરવામાં આવશે. આગલા સ્થાનના છેલ્લા સૂત્ર સાથે આ સ્થાનના પહેલા સૂત્રનેા સંબધ આ પ્રકારને છે – ત્યાં પર્યાયની અપેક્ષાએ પુદ્ગલે તુ કથન કરવામાં આવ્યુ છે, પરન્તુ આ સાતમાં સ્થાનના પહેલા સૂત્રમાં પુદ્ગલવિશેષાના ક્ષાશમ પૂર્વ જે જીવકૃત અનુષ્ઠાન વિશેષ' થાય છે, તેમાં સવિધતા પ્રકટ કરવામાં આવશે. તેથી જ मी " सत्तविहे गणावॠक्रमणे " त्याहि सूत्रपाद भूम्यो हो Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था० ७ सू० १ सप्तविध गणापक्रमनिरूपणम् मूलम् - सत्तविहे गणावकमणे पण्णते, तं जहा-सव्वधम्मा रोएमि १, ए गइया रोएमि एगइया णो रोएमि २, सव्वधम्मा वितिगिच्छामि ३, एगइया वितिगच्छामि एगइया नो वितिगच्छामि ४, सव्वधम्मा जुहुणामि ५, एगइया जुहुणामि एगइया णो जुहुणानि ६, इच्छामि गं अंते ! एगल्लीवहारपीडम उपसंपज्जित्ता ज विहरित्तए ॥ ७॥ सू० १॥ छाया-सप्तविधं गणापक्रमणं प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-सर्वधर्मान् रोचयामि १, एककान् रोचयामि एककान लो रोचयामि २, सर्वधर्मान् विचिकित्सामि ३, एककान विचिकित्सामि एककान नो विचिकित्सामि ४, सर्वधर्मान् जुहोमि ५. एककान् जुहोमि एककान् नो जुहोमि ६, इच्छामि खलु भदन्त ! एकलविहारप्रतिमाम् उपसंपद्य खलु विहन्तुम् ।। सू० १ ॥ टीका-'सत्तविहे गणावकमणे' इत्यादि गणापक्रमणम्-गणात् गच्छात् अपक्रमण-निर्गमनं सप्तविध-प्रयोजनभेदेन भिन्नत्वात् सप्त प्रकारकं प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-सर्वधर्मान्-सर्वे च ते धर्माश्चेति सर्व 'सत्तविहे गणावक्कमणे" इत्यादि सूत्र १ गणले अपकमण-निर्गमन-प्रयोजनके भेदसे सात प्रकारका कहा गया है, गण नाम गच्छका है, जैसे-अपने गणमें बहुश्रुतका अभाव जप सर्व धर्मों को रुचिका विषय बनानेवाला शिष्य-मुनि-देखता है, तो वह अपने गुरुसे ऐली आज्ञा मांगता है, कि हे भदन्त ! मैं अपने गणसे निकलता है, क्योंकि मैं समस्त धर्मका अभिलाषी सर्व च " सत्तविहे गणावक्कमणे " त्याह ગણમાંથી અપક્રમણ (નિર્ગમન) પ્રજનના ભેદને આધારે સાત પ્રકારનું કહ્યું છે. ગણ એટલે ગ૭. કઈ સાધુ નીચે દર્શાવવામાં આવેલા સાત કારણોને લીધે પિતાના ગણમાંથી નીકળી જઈને બીજા ગણમાં જઈ શકે છે–(૧) પિતાના ગણમાં બહુત અભાવ જ્યારે કેઈ મુનિમાં સર્વ ધર્મ પ્રત્યે રુચિ જાગે અને તેને એમ લાગે કે પોતાના ગણમાં બહુશ્રતને અભાવ છે, ત્યારે તે પિતાને ગુરુ પાસે એવી આજ્ઞા માગે છે કે “હે ભગવન્! સમસ્ત ધર્મને ધર્મના સમસ્ત તત્વને જાણવાની મારી અભિ Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२० स्थामा धर्माः-निर्जराहेतुभूना ' अपूर्वग्रहणविस्मृतमन्धानपूर्वाधीत परावर्तनरूपाः सूत्रार्थोभयविषयाः श्रुतभेदाः, क्षपणयावृत्त्यरूपाश्चारित्रभेदाः, तान् रोचयामि-रुचिविषयी करोमि-स्वीकर्तुमिच्छामीत्यर्थः । एते च स्वगणे प्राप्तुं न शक्यन्ते, बहुश्रुनाभावात् , परगणे तु प्राप्तुं शक्यन्ते, नत्र बहुश्रुतानां सद्भावात् । अतो हे भदन्त ! स्वगणादहमपक्रमामि इत्येवं गुरुं पृष्ट्वा यत्स्वगगादपक्रमणं तत् प्रथमं गणापक्रमणं वोध्यम् । ननु ' मर्वधर्मान् रोचपामि' इत्येतावन्मात्रोक्तौ ' गुरुपृच्छा गणादपक्रणम्' इति कथ गम्यते ? इति चेदाह-सप्तमे भेदे-'इच्छामि णं भंते !' इत्याद्युक्तम् , ते धर्माश्च इति सर्वधाः " इस व्युत्पत्तिके अनुसार अपूर्वका ग्रहण विस्मृनका सन्धान, और पूर्व में पठित विषयका परावर्तन इस प्रकारके जो स्त्रके, अर्थक एवं सूत्रार्थ दोनोंके भेद हैं, उन्हें तथा क्षपण एवं वैयावृत्त्य रूप जो चारित्रके भेद हैं, वे यहां सर्वधर्म शब्दसे गृहीत हुए हैं-तथा जिस दूसरे गणमें वह जाना चाहता है-वहां वह बहुश्रुतका सद्भाव जान करही जाना चाहता है, अतः वे समस्त धर्म उसे वहाँ प्राप्त हो सकते हैं, इस प्रकार गुरूसे पूछकर जो अपने गणसे-गच्छसे बाहर होता है, वह प्रथम गगापक्रमग जानना चाहिये शंका-" सर्व धर्मान् रोचपामि" सूत्र में ऐसाही पाठ कहा गया है-अतः यह बात यहां कैसे जानी जाती है-कि वह गुरुसे पूछकर લાષા છે. આપણું ગણુમાં બહુશ્રતને અભાવ હોવાથી મને આ ગણ છેડવાની રજા આપો. “सर्वे च वे धर्माध इति सर्वधर्माः" मा व्युत्पत्ति अनुसार अनु ગ્રહણ, વિમૃતનું સંધાન, પૂર્વ પતિ વિષયનું પરાવર્તન, આ પ્રકારના જે સૂત્રના, અર્થના અને સૂત્રાર્થના ભેદ છે તેમને તથા ક્ષપણ અને વૈયાવૃત્ય૩૫ જે ચારિત્રના ભેદ છે તેમને અહીં “સર્વધર્મ પદ દ્વારા ગ્રહણ કરવામાં આવેલ છે. તથા જે અન્ય ગણમાં તે જવા માગે છે ત્યાં બહુશ્રુતનો સભાવ છે એવું જાણીને જ તે ત્યાં જવા માગે છે, તેથી તે સમસ્ત ધર્મની તેને ત્યાં પ્રાપ્તિ થઈ શકવાને સંભવ છે આ પ્રકારના કારણને લીધે ગુરુની આજ્ઞા લઈને તે ગણમાંથી અપક્રમણ કરી શકે છે. ગણપક્રમણ માટે સમસ્ત ધર્મની પ્રાપ્તિ રૂપ આ પહેલું પ્રજન સમજવું. -" सर्वधर्मान् रोचयामि' मा सूत्रमा शुरुनी माज्ञा धन ગણપક્રમણ કરવાનું તે લખ્યું નથી, છતાં આપ શા કારણે એવું કહે છે Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा डीका स्था०० सू०१ सप्तविधगणापक्रम निरूपणम् ५२१. रात्र गुरुपृच्छापूर्वकमेत्र एकलविहारप्रतिमार्य गणादपक्रमणम् वक्ष्यते, तत्साधन यत्रापि गुरुपृच्छापूर्वकमेव गणादपक्रमणं वोध्यमिति । तथा - एककान काँश्चन धर्मान् श्रुतरूपान् चारित्ररूपान् वा स्वगणेऽनवस्थितान् रोचयामिरुचिविषयी करोमि एककान् काँश्चित श्रुतधर्मान् चारित्रधर्मान् वा स्वगणेऽवस्थितान् न रोचयामि, याँव धर्मान् रोचयामि ते धर्माः स्वगणे प्राप्तुं न शक्यन्ते तथाविधनाभावात् । इति द्वितीयम् । तथा-सर्वधर्मानगण से अपक्रमण ( गणकों छोड़ता है) करता है ? उत्तर- आगे सातवे भेद में " इच्छामि णं भंते!" ऐसा कहा - गया है, इससे वहां युक्त पृच्छापूर्वकही एकल, बिहार प्रतिमा के लिये गणसे अपक्रमण कहा जावेगा सो उसके साधर्म्य से यहां पर भी गुरु पृच्छापूर्वक ही गणसे निर्गमन (जाना) होता है ऐसा जानना चाहियेतथा - " एगइया रोएम एगइया णो रोएमि " २ - कितनेक श्रुतरूप अथवा चारित्ररूप धर्मो को मैं जो कि अपने गण में अवस्थित नहीं हैं, afant विषय बनाता हूं तथा कितनेक तरूप अथवा चारित्र रूप aat मैं जो कि अपने गणमें अवस्थित हैं, अपनी रुचिका विषय, नहीं बनाता हूं- इस तरह स्व गणमें अवस्थित धर्मों को मैं नहीं चाहता हूं, और जो धर्म स्वगण में अवस्थित नहीं हैं, उन्हें, मैं चाहता हूं-वे Farun aafare सामग्री के अभाव से प्राप्त नहीं हो सकते हैं अतः કે તે ગુરુની આજ્ઞા લઇને ગણુાપક્રમણ કરે છે ? 7 (c ઉત્તર—હવે પછી આવનારા સાતમાં ભેદમાં એવા સૂત્રપાઠ આવે છે " इच्छा मिणं भंते ! " त्यिाहि त्यां गुरुनी आज्ञा सहने ४ शुभांथी નીકળવાની શિષ્યની ઈચ્છા પ્રદર્શિત થઈ છે. તે પ્રત્યેાજન સાથેના સાધસ્યને લીધે માઁ પણ ગુરુની અનુજ્ઞાપૂર્વક જ ગણુમાંથી શિષ્યનું નિર્ગમન ગ્રહણથવુંજોઈએ. - श्री अ-" एगइया रोएम, एगइया णो रोपमि" सा श्रुत३५ અથવા ચારિત્રરૂપ ધર્મો કે જે આપણા ગણુમાં અવસ્થિત (વિદ્યમાન) નથી,તે મારી રુચિને અનુકૂળ લાગે છે, અને કેટલાક શ્રુતરૂપ અથવા ચારિત્રરૂપ ધર્મો કે જે આપણા ગણુમાં અવસ્થિત છે, તે મારી રુચિને અનુકૂળ લાગતાનથી. આ રીતે આપણા ગણુમાં અવસ્થિત ધર્મને હું ચાહતેા નથી અને જે ધર્માં આપણા ગણુમાં અવસ્થિત નથી તેને હું ચાહું છું. જે ધર્યું મને ગમે છે તેમની સ્વગણમાં પ્રાપ્તિ થવાનું શકય નથી, કારણ કે સ્વગચ્છુમાં તથ વિધ સામગ્રીના અભાવ છે. તે “ હે ગુરુદેવ ! જે આપ અનુજ્ઞા આપે તેા હું स्था०-६६ Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . .. : ... ५२. स्थानास श्रृंतभेदान् चारित्रभेदाच समस्तानपि धर्मान् विचिकित्सामि सन्दिहामि-संचयविषयी करोमि, तेपां सन्देहानां निराकरणं स्वगच्छे न संभवति, तथाविधबहुश्रुताभावात् , परगच्छे तु तथाविधसाधूनां सद्भावात् सन्देदनिराकरणं भवितु-. मर्हति । इति तृतीयम् । तथा--एककान् काँश्चन श्रुतधर्मान् चारित्रधर्मान् वा विचिः कित्सामि, एककान काँश्चन श्रुतधर्मान् चारित्रधर्मान् वा नो विचिकित्सामि । यद्विपयिणी मम विचिकित्सा वर्तते तदपनयने नास्ति कश्चित्समर्थः स्वगणे, । मैं आपसे आज्ञा प्राप्त कर इस गण से निकलना चाहता हूं यह गणसे पाहर होनेका दूसरा कारण है २ . "सव्वधम्मा वितिगिच्छामि " तथा मुझे समस्त धर्मों पर, श्रुतभेदों पर और चारित्र भेदों पर संशय है, सो उनके संदेहोंका निरा. करण होना स्वगच्छमें संभवित नहीं होता है, क्योंकि यहां पर तथाविध पहुश्रुत रूप सामग्रीका अभाव है, दूसरे गच्छमें तथाविध साधुओंके सद्भावसे सामग्रीका सद्भाव है अत: वहां पर उन संदेहोंका निराकरणसंभवित है-इसलिये मैं गच्छ से हे गुरो ! आपकी आज्ञा लेकर जाता हूं ऐसा यह तृतीय कारण है ३ । :- " एगइया वितिगिच्छामि, एगईया नो वितिगिच्छामि" ४ तथा किननेक श्रुत धर्मों के ऊपर अथवा-चारित्र धर्मों के ऊपर मुझे सन्देह है। और कितनेक श्रुन धर्मों के ऊपर' अथवा चारित्र धर्मों के ऊपर ગણમાંથી નીકળી જવા માગું છું. ” કઈ પણ સાધુ આ પ્રકારના કારણને લીધે પિતાના ગણુને ત્યાગ કરીને બીજા ગણમાં જઈ શકે છે. - - - .: श्री ४२६-".सव्वधम्मा 'वितिगिच्छामि" भने समस्त धर्मा ५२ શ્રત ભેદે પર અને ચારિત્ર ભેદે પર–સંશય ઉદ્ભવ્યો છે. તે સંશયનું સ્વગણમાં નિવારણ થઈ થઈ શકે તેમ નથી, કારણ કે આપણા ગણમાં તે સંશનું નિવારણ કરી શકે એવા બહુશ્રુત સાધુઓને અભાવ છે. અન્ય ગણ કે જ્યાં હું જવા માગું છું, ત્યાં મારા સંશોનું નિવારણ કરે એવા બહુશ્રુત સાધુઓને સદ્ભાવ છે. તેથી ત્યાં જવાથી મારા સંશોનું નિવારણું થઈ શકશે માટે હે ગુરુ મહારાજ ! મને આપણા ગણમાથી અન્ય ગણુમાં पानी मनुज्ञा घंटान ४२. . . . .:: . ... । यो २-" एगइया वितिगिच्छामि, एगइया नो वितिगिच्छामि" તથા કેટલાક મૃતધર્મો પ્રત્યે અથવા ચારિત્ર ધર્મો પ્રત્યે મારા મનમાં સહ, છે અને કેટલાક શ્રતધર્મો પ્રત્યે અથવા ચારિત્ર ધર્મો પ્રત્યે મારા મનમાં Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा का स्था०७ सू० १ सप्तविघगणापक्रमनिरूपणम् परगणे त्वस्ति तथाविधः इति चतुर्थम् । तथा-सर्वधर्मान्-श्रुनभेदाश्चारित्रभेदाश्च ये धर्मा मया ज्ञायन्ते, तान् सकलानति धर्मान् जुहोमि-अन्येभ्यो दातु मिच्छामि । न चास्ति स्वगणे कश्चित्तद्ग्रहण समर्थः, परगणे तु तथाविधोऽस्ति । इति पञ्चमम् । तथा-एककान् काँश्चिद् धर्मान् जुहोमि । यान् धर्मान् अन्येभ्यो दातु. सन्देह नहीं है, अतः जिस विषयके ऊपर मुझे विचिकित्सा है, उसे इटाने के लिये इस गणमें कोई समर्थ नहीं है, पर गणमें तो ऐसा समर्थ विधान है-अतः मैं आपसे आज्ञा चाहता हूँ कि मैं इस गगरसे बाहर चला जाऊं अतः इस प्रयोजन वश वह गणको छोडकर दूसरे गणमें चला जाता है, ऐसा यह अपने गणको छोड़ने का चतुर्थ कारण है । ." सव्व धम्मा जुहुणामि" ऐसा यह पांचवां कारण है-इसमें शिष्य ऐसा अपना अभिप्राय प्रकट करता है कि हे: भदन्त ! समस्त धर्मश्रुत धर्म और चारित्र धर्म-जिन्हें मैं जानता हूँ मैं उन समस्त धर्मों को दूसरोंके लिये देना चहता हूँ परन्तु अपने इस गणमें कोई ऐसा समर्थ नहीं है-जो उन धर्मों को ग्रहण कर सके हां परगणमें तो ऐसा समर्थ व्यक्ति है-इस प्रकारसे अपना प्रयोजन उससे कहकर और उनसे आज्ञा लेकर वह गणसे बाहर हो जाता है-यह गणसे बाहर होने का पांचवां कारण है ५। " - સંદેહ નથી. જે વિષય પ્રત્યે મારા મનમાં વિચિકિત્સા (આ ખરૂ કે પેલું ખર એ ગડમથલને વિચિકિત્સા કહે છે) છે, તેનું નિરાકરણ કરી શકવાને સમર્થ એવા વિદ્વાન સાધુની સ્વગણમાં ઉણપ છે, પણ પરગણમાં તે એવા વિદ્વાન સાધુઓ વિદ્યમાન છે કે જેઓ મારા તે સંદેહોને દૂર કરી શકે. કે ગુરુદેવ! આ કારણે હું આ ગણને છોડવા માટે આપની અનુજ્ઞા માગું છું. આ રીતે ધર્મવિષયક વિચિકિત્સા રૂપ કારણને વશ થઈને કઈ પણ સાધુ સ્વગણમાંથી નીકળી જઈ શકે છે, ... पायभुः ॥२--" सम्वधम्मा जुहणामि" शिष्य शुरु२ विनतिरे છે કે હે ગુરુ મહારાજ ! સમસ્ત ધર્મને અને ચારિદ્રને મેં જાણી લીધું છે. હવે હું તે ધર્મોનું કે યોગ્ય સાધુને પ્રદાન કરવા માગું છું, પરંતુ તે ધર્મોને મારી પાસેથી ગ્રહણ કરી શકે એ કઈ પણું સમર્થ સાધુ આપણા ગણમાં નથી. પરગણમાં તેને ગ્રહણ કરી શકે એવા સમર્થ સાધુઓની બેટ નથી, તે હે ગુરૂદેવ ! આપ મને સ્વગણ છોડવાની અનુજ્ઞ અપવાની મહે. બાની કરો. આ પ્રમાણે પ્રયજન પ્રકટ કરીને ગુરુની આજ્ઞા લઈને કોઈ પણ भा५- २ माथा ५२मा शं? छे. . .. । Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • ६२४ स्थानानसूत्रे मिच्छामि तदग्रहणाधिकारी स्वगणे कचिन्नास्ति, परगणेत्वस्ति । इति षष्ठम् । , तथा - हे भदन्त ! इच्छामि खलु अहम् एकलविहारप्रतिमाम् - एकवस्य = एकाकिनो -अच्छनिर्गतत्वाद जिनकल्पितया यो विहारो = विचरणं तस्य प्रतिमा - अभिप्रहः, - वायू उपसम्पद्य स्वीकृत्य विहर्तुम् । अतो भवदाज्ञामादाय गणादपक्रमितुमिच्छा मीति सप्तमं गणापक्रमणम् । 7 (6 एमइया जुहूणामि, एगइया नो जुहुणामि " मैं कितनेक धर्मो को 'दूसरोंके लिये देना चाहता है, और कितनेक धर्मो को मैं दूसरोंको नहीं देना चाहता हूँ, अतः जिन धर्मोंको में दूसरोंके लिये देना चाहता हूँ उन धर्मो को ग्रहण करनेके योग्य अपने गणमें मुझे कोई दिखाता नहीं है, परगण में तो ऐसा व्यक्ति है, अतः इस प्रयोजनके वशवर्ती "होकर छोडना चाहता हूँ इस प्रकार कहकर यह गणको छोड़ देता है, यह गणको छोडनेका छड्डा कारण है ६ । 'इच्छामि णं भंते । एगल्लविहारपडिमं उवसंपज्जित्ता णं विहरिश्तए " ऐसा यह सातवां कारण है- इसमें वह इस प्रकारका अपना 'प्रयोजन प्रकट करता है, कि हे भदन्त । मैं एकल विहार अभिग्रहको स्वीकार करके गच्छनिर्गत होने से जिनकल्प के समान विहार करना चाहता हूँ - इसलिये मैं आपसे आज्ञा लेकर इस गणसे निकलना चाहता हूँ - ऐसा यह गण से बाहर होने का सानवां कारण है ७ ॥ छठु २ -- " एगइयाजुहुणामि, एगइया नो जुहुणामि " शिष्य गुरुने 'કહે છે કે હું ગુરુદેવ ! કેટલાક ' ધર્મ ( ધર્મતત્ત્વનું જ્ઞાન ) અન્યનેે પ્રદાન કરવાની અને કેટલાક ધર્માં અન્યને પ્રદાન કરવાની મારી ઈચ્છા છે. જે ધર્મો હું અન્યને પ્રદાન કરવા માગુ' છું, તે ધર્માંને ગ્રહણ કરવાને ચેગ્ય વ્યક્તિ આપણા ગણુમાં મને કોઈ દેખાતી નથી, પરન્તુ પરગણુમાં એવી વ્યક્તિએ જરૂર મેાજૂદ છે. તે આ પ્રત્યેાજનને લીધે આપની આજ્ઞા લઈને હું આ ગણુ છેડવા માગુ' છું. આ પ્રકારે ગુરુની આજ્ઞા લઈને કાઈ પણ સાધુ પેાતાના ગણમાંથી નીકળી જઈ શકે છે, 66 सातभु ं ॥२ष्टु–“ इच्छामि णं भंते ! एगल्ल विहारपडिमं संपविजत्ताणं , विहरित्तए " शिष्य गुरु पासेथी गए होडवा भाटे या अभाये उहीने श्रीज्ञा માગે છે-“ હે ગુરુ મહારાજ ! હું એકલવિહાર અભિગ્રહને રવીકાર કરીને, ગચ્છમાંથી નીકળીને જિનકલ્પ સાધુની જેમ વિહાર કરવા માગું છું. તે હું ગુરુદેવ ! હું આ ગણુમાંથી નીકળી જવા માટે આપની અનુજ્ઞા માગું છું. ગણુમાંથી નીકળી જવાનું' આ સાંતનું કારણુ સમજછું. Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०७ ६०१ सप्तविधगणापक्रम निरूपणम् यद्वा-अत्र आयपदद्वयेन सम्यग्दर्शनार्थं गणापक्रमणमुक्तम् २ | तृतीयचतुर्थपदद्वयेन सम्यग्ज्ञानार्थम् । पञ्चमपष्ठपदद्वयेन च सम्यक् चारित्रार्थम् । ताहि सर्वधर्मान् रोचयामि = श्रद्दधामि अहमिति तेषां स्थिरीकरणार्थं गणादपक्रमामीति प्रथमम् | १| तथा - एककान् धर्मात् रोचयामि एककांस्तु न रोच. यामि इति श्रद्धानाविषयीभूतानां धर्माणां श्रद्धानार्थं गणादपक्रमामीति द्वितीयम् |२| इत्यनेन पदद्वयेन सर्वविषयं देशविषयं च सम्यग्दर्शनं श्रद्धातुं गणादपक्रमणमुक्तम् ॥२॥ यद्वा-यहां सूत्र में आदिके दो पदों द्वारा सम्यग्दर्शन के लिये गणसे अपक्रमण कहा गया है, तृतीय और चतुर्थ पद से सम्यग्ज्ञान के लिये गणसे अपक्रमण ( बाहर निकलना ) कहा गया है, पंचम छडे पद इसे सम्यक् चारित्रके लिये गग से अपक्रमण कहा गया है, जैसे- “ सर्व धर्मान् रोचयामि " मैं समस्त श्रुतचारित्र धर्मों पर श्रद्धा करता हूँ इसलिये उनकी स्थिरता के लिये मैं गणसे निकलता हूँ १ ऐसा यह प्रथम कारण है तथा जो धर्म मेरे श्रद्धानके विषयभूत नहीं हैं, उन्हें श्रद्धानका विषयभूत बनाने के लिये मैं इस गणसे निकलता हूँ ऐसा यह द्वितीय कारण है २ इसतरह इन दो पदोंसे सर्व विषयवाले अथवा देश विषयवाले सम्यग्दर्शन पर विश्वास करने के लिये गणसे अपक्रमण कहा गया है २ तथा - सर्व धर्म विषयक अथवा देश धर्म विषयक અથવા—આ સૂત્રમાં પહેલાં એ પ્રત્યેાજના દ્વારા એ વાત પ્રકટ કરવામાં આવી છે કે સમ્યગ્દનની પ્રાસીને માટે સાધુ પેાતાના ગણુમાંથી અપક્રમણ કરી શકે છે. ત્રીજા અને ચાથા પત્ર દ્વારા એ વાત સૂચિત ’થાય છે કે સમ્યગ્દર્શનની પ્રાપ્તિને માટે સાધુ પેાતાના ગણમાંથી નીકળી જઈ શકે છે પાંચમાં અને છઠ્ઠા પડ દ્વારા એ વાત સૂચિત થાય છે કે સમ્યક્ ચારિત્રને માટે સાધુ સ્વગણુમાંથી નિ’મન કરી શકે છે. 66 1 सर्वधर्मान् रोधयामि " या सूत्रा द्वारा शुभांथी नीजी भवानु' આ પ્રકારનું કારણ બતાવવામાં આવ્યુ છે મને સમસ્ત શ્રુતચારિત્ર રૂપ ધર્મો પર શ્રદ્ધા છે તેની સ્થિરતા ટકાવી રાખવા માટે હું ગણુમાંથી નીકળવા માગું છું ” जीनु र आ. प्रभा - " ? धर्मतत्वा प्रत्ये, भने श्रद्धा नथी તેમાં શ્રદ્ધા સ્થિર કરવાને માટે હું સ્વગણુમાંથી નીકળી જવા માગુ છું. આ છે કારણા દ્વારા સર્વ વિષયવાળા અથવા દેશ વિષયવાળા સમ્યગ્દર્શન ‘પર વિશ્વાસ સ્થિર કરવાને માટે સ્વગણુમાંથી નીકળી જવાની ઈચ્છા પ્રકઢ 111 I કરવામાં આવી છે. ܕܪ Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२६ स्थानानसूत्रे तथा - सर्वधर्मविषयक देश धर्मविषयक सन्देहविनिवृत्तिसमर्थ सम्य ज्ञानमधिगन्तुं गणापक्रमणमिति 'सर्वधर्मान् विचिकित्सामि | ३| एककान् विधिकित्सामि ||४|| इति तृतीय- चतुर्थपदद्वयेन सूचितम् । तथा धातूनामनेकार्यस्वात् 'जुहोमि' इत्यस्य आसेवे- इत्यर्थः । ततश्च - " सर्वधर्मान् जुहोमि (५) तथा - एककान् जुहोमि एककान् नो जुहोमि (६)" इति पञ्चमपष्ठपदद्वयेन सम्यक्चारित्रार्थं गगापक्रमणमिति सूचितम् ॥ सू० १ ॥ एवं श्रद्धाथैद्यर्थमन्यथा वा गणादपक्रान्तस्य कस्यचिद् विभङ्गज्ञानमुत्प धते इति तस्य भेदानाह - · मूलम् - सत्तविहे विभंगणाणे पण्णत्ते, तं जहा- एगदिसिलोगाभिगमे १, पंचदिसिलोगाभिगमे २, किरियावरणे जीवे ३, मुदग्गे जो ४, अमुदग्गे जीवे ५, रुवी जीवे ६, सव्वमिणं सन्देहको हटाने में समर्थ जो सम्यग्ज्ञान है, उसे प्राप्त करनेके लिये गणक तृतीय चतुर्थ पयसे सूचित किया गया है, तथाधातुओं के अनेक अर्थ होते हैं- इस कथन के अनुसार " जुहोमि " इस क्रियापदका अर्थ - " आसेवे " ऐसा होता है अतः इसके अनुसार - मैं समस्त धर्मों का अच्छी तरहसे सेवन करता हूँ ६ ट्ठे पदसे किन्हीं श्रतचारित्र धर्मो का मैं सेवन करता हूँ किन्हीं का सेवन नहीं करता हूँ - इस तरह के पांचवें और छठे पदद्वयसे वह सम्यक् चारित्रके लिये गणसे अपक्रमण ( गणको छोड़ता है) करता है ऐसा सूचित किया गया है ॥ सू० १ ॥ क 1 સર્વ ધર્મ વિષયક અથવા દેશધર્મ વિષયક સન્દેહને દૂર કરવાને સમ એવા સમ્યજ્ઞાનની પ્રાપ્તિને માટે સ્વગણુમાંની અપક્રમજી કરવાની વાત ત્રીજા અને ચેાથા પદ દ્વારા પ્રકટ કરવામાં આવી છે. धातुभोना भने अर्थ थाय छे."" जुहोमि " આ ક્રિયાપદના અથ " आसेवे " थाय छे, मां अक्षरे ते डियाना अर्थ सेवामां भावे તા પાંચમાં પના અથ આ પ્રમાણે, થશે--હું સમસ્ત ધર્મનુ સારી રીતે સેવન કરૂં છું, ” છઠ્ઠા પદના થ્યા પ્રમાણે અ થઈ શકે-“ હું કેટલાક શ્રુત ચારિત્ર ધાંનું સેવન કરૂ છું અને કેટલાક સેવન કરતા નથી. પાંચમાં અને છઠ્ઠા પઢ દ્વારા એ વાત સૂચિત થાય છે કે તે માટે અણુમાંથી નીકળી જવા માગે છે. ા સૂ. ૧ ૫ આ રીતે 12 સમ્યકૢ ચારિત્રને !. Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षा का स्था०७ २० २ सप्तविधविभन्नशाननिरूपणम् जीवे ७ तत्थ खल्लु इमे पढमे विभंगनाणे जया णं तहारुवस्स समणस्स वा माहणस्त वा विभंगणाणे. समुप्पज्जइ, से णं तेणं विभंगणाणेणं समुप्पन्नेणं पासइ-पाईणं वा पडीणं वा दाहिणं वा उदीणं वा उ8 वा जाव सोहम्मे कप्पे । तस्स णं एवं हवइ अत्थि णं मम अइसेसे णाणदंसणे समुप्पण्णे एगदिसि लोगाभिगमे । संतेगइया समणा वा माहणा वा एवमाहंसु-पंचदिसिं लोगाभिगमे । जे ते एवमाहंसु-मिच्छं ते एवमासु । पढमे विभंगणाणे॥१॥अहावरे दोच्चे विभंगनाणे, जया णं तहारूवस्स समणस्त वा माहणस्स वा विभंगणाणे समुप्पज्जा, सेणं तेणं विभंगणाणणं समुप्पन्नेणं पासइ पाईणं वा पडीणं वा दाहिणं वा उदीणं वा उर्दू वा जाव सोहम्मे कप्पे, तस्स णं एवं हवइ-अस्थिणं मम अइसेसे णाणदंसणे समुप्पन्ने पंचदिसिं लोगाभिगमे। संतेगइया समणा वा माहणा वा एवमाहंसु एगदिसि लोगाभिगमे । जे ते एवमासु मिच्छं ते एवमाहंसु । दोच्चे विभंगनाणे ॥ २॥अहावरे तच्चे विभंगनाणे-जया णं तहारूवस्त समणस्स वा माहणस्त वा विभंगनाणे समुप्पज्जइ, से णं तेणं विभंगनाणणं संसुप्पन्नेणं पासइ. पाणे अइवाएमाणे, मुसं वएमाणे. अदिन्नमादियमाणे, मेहणं पडिसेवमाणे, परिग्गहं परिगिण्हमाणे, राइभोयणं भुंजमाणे वा, पावं च णं कम्मं कीरमाणं णोपासइ, तस्स णमेवं हवइअस्थि.णं मम अइसेसे णाणदंसणे समुपन्ने, किरियावरणे जीवे, Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - - स्थानाजस्थे. संतेगड्या समणा वा साहणा वा एवमासु-नो किरियावरणे जीवे । जे ते एवमासु मिच्छं ते एवमासु । तच्चे विभंग., नाणे । ३। अहावरे चउत्थे विभंगनाणे-जयां णं तहारूवस्स समणस्त वा साहणस्त वा जाव समुप्पज्जइ, से णं तेणं विभंगनाणेणं समुप्पन्नणं' देवामेव पासई, बाहिरभंतरए पोग्गले परियाइत्ता पुढेगत्तं णाणत्तं फुसिया फुरेत्ता फुट्टित्ता विउछित्ता णं विउवित्ता णं चिट्टित्तए, तस्स णं एवं हवइअस्थि णं मम अइसेसे णाणदंसंणे समुप्पण्णे-मुयग्गे जीवे । संतेगइया समणा वा माहणा वा एवमाहंसु-अमुंयग्गे जीवे । जे ते एवंमासु मिच्छं ते एवमासु । चउत्थे विभंगमाणे ॥४॥ अहावरे पंचमे विभंगनाणे, जया णं तहारूवस्त समणस्त वा जावं समुप्पज्जइ, से णं तेणं विभंगणाणेणं समुप्पणेणं देवामेव पासइ, बाहिरभंतरए पोग्गले ‘अपरियाइत्तापुढेगत्तं णाणत्तं जाव विउवित्ता ण:२ चिहित्तए, तस्स:णं एवं हवइ-अत्थि जाव समुप्पन्ने अमुयग्गे जीवे । संतेगइया समणा वा माहणा वा एवमाहंसु-मुयग्गे जीवे । जे ते एवमाहंसु मिच्छं ते एवमासु । पंचमे विभंगनाणे ॥५॥ अहावरे छठे विभंगनाणे, जयाणं तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्त वा जाव समुप्पज्जइ । से ण ते ण विभंगनाणेणं समुप्पन्नणं देवामेव पासइ-वाहिरभंतरिए पोग्गले परियाइत्ता वा अपरियाः इत्ता वा पुढेगतं णाणचं फुसेत्ता जाव विउवित्ता णं २:घिहि Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुघाटीका स्था०७० २ सप्तविधविभङ्गज्ञाननिरूपणम् I 1 : - ए । तस्स णं एवं हवइ- अस्थि णं मम अइसेसे णाणदंसणे समुप्पण्णे रुवी जीवे । संतेगइया समणा वा माहणा वा एवमासु -- अरुवी जीवे । जे ते एवमाहंसु मिच्छं ते एवमाहंसु । छुट्टे विभंगनाणे ॥ ६ ॥ अहावरे सत्तमे विभंगनाणे जया णं. तहारूवस्त समणस्स वा माहणस्स वा विभंगनाणे समुप्पज्जइ, से णं तेषां विभंगनाणेणं समुत्पन्नेणं पासइ सुहुमेणं वाउकाएर्ण फुडं पोग्गलकार्य एयंतं वेयंतं चलंतं खब्भंत फंदत हंत उदीरेंतं तं तं भावं परिणमंतं । तस्स र्ण एवं हवइअस्थि मम अइसेसे णाणदंसणे समुप्पण्णे, सवभिणं जीवा संतेगइया समणा वा माहणा वा एवमाहंसु - जीवा चेव अजीवा चेव । जे ते एवमाहंसु मिच्छं ते एवमाहंसु, तस्स पं इमे 'चत्तारि जीवनिकाया णो सम्ममुत्रगया भवंति तं जहां - - पुढविकाइया, आऊ, तेऊ, वाउकाइया, इच्चएहिं चउहिं जीवfare मिच्छा दंडं पवत्तेइ । सत्तमे विभंगनाणे ॥सू० २ ॥ छाया--सप्तविधं विभङ्गज्ञानं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा - एकदिशि लोकाभिगमः १, पञ्चदिशि लोकाभिगमः २, क्रियाकरणो जीवः ३, मुदग्रो जीवः ४, अमुदग्रो जीव: ५, रूपी जीवः ६, सर्वमिदं जीवाः ७ । तत्र खलु इदं प्रथमं विभङ्गज्ञानम् यदा खेल तथारूपस्य श्रमणस्य वा माहनस्य वा विभङ्गज्ञानं समुत्पद्यते स खलु तेन विभज्ञानेन सम्पन्नेन पश्पति-प्राचीनां वा प्रतीचीनां वा दक्षिणां वा उदीचीनां वा ऊर्ध्वो वा यावत् सौधर्मं कल्पम् । तस्य खलु एवं भवति - अस्ति खलु मम अतिशेषं ज्ञानदर्शनं समुत्पन्नम् एकदिशि लोकाभिगमः । सन्ति एकके बा माहना वा एवमाहुः - पञ्चदिशि लोकाभिगमः । ये ते एवमाहुः, मिथ्या ते eaning: प्रथमं विभज्ञानम् । अथापरं द्वितीयं विभङ्गज्ञानम् - यदा खलु तथारूपस्य श्रमणस्य वा माहनस्य वा विभङ्गज्ञानं समुत्पद्यते, स खलु तेन विभङ्गस्था०-६० i 3 ५२९ Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थाना सुने # ✓ >> 1 , + ज्ञानेन समुत्पन्नेन पश्यति - प्राचीनां वा प्रतीचीनां का दक्षिण वा उदीचीनां वा वा या सौधर्म कल्पम् । तस्य खलु एवं भवति - अस्ति खलु मम अतिशेषं ज्ञानदर्शनं समुत्पन्न - पञ्चदिशि लोकाभिगमः । सन्ति एकके श्रमणा वा माना वा एवमाहुः - एकदिशि लोकाभिगमः । ये ते एवमाहुः मिथ्या ते एवमाहुः । द्वितीयं विभङ्गज्ञानम् । अथापरं तृतीयं विभङ्गज्ञानम् - पढ़ा खलु तथारूपस्प श्रमणस्य वा माहनस्य वा विभङ्गज्ञानं समुत्यद्यते स खलु तेन विभङ्गज्ञानेन समुत्पन्नेन पश्यति - प्राणानू अतिपातयमानान् मृषावदतः अदत्तमाददानान् मैथुनं प्रतिसेवमानानः परिग्रहं परिगृह्णतो, रात्रिभोजनं भुञ्जानान् वा, पापं खलु कर्म क्रियमाणं न पश्यति । तस्य खलु एवं भवति - अस्ति खलु मम अतिशेषं ज्ञानदर्शन समुत्पन्नम् - [- क्रियावरणो जीवः । सन्ति एकके श्रमणा वा माहना वा एवमाहु:-नो क्रियावरण जीवः । ये ते एवमाहुः, मिथ्या ते एवमाहुः । तृतीय विभङ्गज्ञानम् ३। अथापरं चतुर्थं विभङ्गज्ञानम् - यदा खलु तथारूपस्य - श्रमणस्य वा माहनस्य वा यावत् समुत्पद्यते स खलु तेन विभङ्गज्ञानेन समुत्पन्नेन देवानेव पश्यति वाह्याभ्यन्तरकान् पुद्गलान् पर्यादाय पृथक् एकत्वं नानात्वं वा स्फोरयित्वा स्फोटयित्वा विकुर्वित्वा खलु विकुर्वित्वा खलु स्थातुम् । तस्य खलु एवं भवति-अस्ति खलु मम अतिशेषं ज्ञानदर्शनं समुत्पन्नम् मुदग्रो जीवः । सन्ति एक श्रमणा वा माहना वा एवमाहुः - अमुदग्रो जीवः । ये एवमाहुः मिथ्या ते एवमाहुः । चतुर्थ विभङ्गज्ञानम् ४ । अथापरं पञ्चमं विभङ्गज्ञानम् यदा खलु तथारूपस्य श्रमणस्य वा यात्रत् समुत्पद्यते स खलु तेन विभङ्गज्ञानेन समुत्पन्नेन देवानेव पश्यति, बाह्याभ्यन्तरान् पुद्गलान्ं अपर्यादाय पृथक् एकत्वं नानात्वं यावद् विकुर्वित्वा खल २ स्थानुम् । तस्य खलु एवं नवति-अस्ति यावत् समुत्पन्नम् अमुदग्रो जीवः । सन्ति एक के श्रमणा वा माहना वा एवमाहुः मुदग्रो जीवः । ये ते एवमाहुः, मिथ्या ते एवमाहुः । पञ्चमं विभङ्गज्ञानम् ५। अथापरं पृष्ठ विभङ्गज्ञानम् - यदा खल्ल तथारूपस्य श्रमणस्य वा माहनस्य वा यावत् समुत्पद्यते, सॅ खलु तेन विभज्ञानेन समुत्पन्नेन देवानेव पश्यति वाह्याभ्यन्तरान् पुगळान् पर्यादाय वा अपर्यादाय वा पृथक् एकत्वं नानात्वं स्पृष्ठा यावत् विकुर्वित्वा खलु २ स्थातुम् । तस्य खलु एवं भवति-अस्ति मम अतिशेषं ज्ञानदर्शनं समुस्पन्नम्, रूपी जीवः । सन्ति एकके श्रमणा वा माना वां एवमाहुः - अरूपी जीवः । ये ते एवमाहुः, मिथ्या ते एवमाहुः । परं विभङ्गज्ञानम् ६। अथापरं सप्तम विभङ्गज्ञानम् - यदा खल तथारूपस्य भ्रमणस्य वा माहनस्य वा विभङ्गज्ञानं समुंपद्यते स खलतेनं विभङ्गज्ञानेन समुत्यन्नेन पश्यति सूक्ष्मेण वायुकायेन स्पृष्ट " A Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुघा टीका स्था०७ सू २ सप्तविधविमशाननिरूपणेम् पुद्गलकायम् एजमानं व्येजमानं चलन्तं क्षुभ्यन्तं स्पन्दमानं घट्टयन्तम् उदीरयन्तं तं तं भावं परिणमन्तम् । तस्य खलु एवं भवति-अस्ति खलु मम अतिशेष ज्ञानदर्शनं समुत्पन्नम्-सर्वमिदं जीराः । सन्ति एकके श्रमणा वा माहना वा एवमाहुः-जीवाश्चैत्र अजीवाश्चैत्र । ये ते एवमाहुः मिथ्या ते एवमाहुः । तस्य खलु इमे चत्वारो जीवनिकायाः नो सम्यगुपगता भवन्ति, तद्यथा-पृथिवीकायिका, आपः, तेजांसि, वायुकायिकाः । इत्येतैश्चतुर्भिर्जीवनिकायैः मिथ्यादण्डं प्रवर्तयति । सप्तमं विभङ्गज्ञानम् । सू० २ ॥ टीका-'सत्तविहे विभंगनाणे' इत्यादि विभङ्गज्ञानम्-वि-विरुद्धो वितथः-अन्यथा वा भङ्ग बस्तुभङ्गो वस्तुविकल्पो यस्मिंस्तद् विभङ्गम् , तच्च तज्ज्ञानं चेति विभङ्गज्ञानम्-मिथ्यात्वसहितोऽवधिरिस्यर्थः, तत् सप्तविध-सप्तप्रकारं प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-एकदिशि-एकस्यां दिशि-पूर्वादिकया कदाचिदेकया दिशा लोकाभिगमा लोकावयोधः । विभङ्गता चास्य शेष.. इस तरह श्रद्धा की स्थिरताके लिये यो और किसी कारणसे गच्छसे बाहर हुए किसी माधुको विभङ्गज्ञान उत्पन्न हो जाता है अतः अय सूत्रकार उसके भेदोंका कथन करते हैं " सत्तविहे विभंगनाणे पण्णत्ते " इत्यादि सूत्र २॥ टीकार्थ-विभंगज्ञान साप्त प्रकारका कहा गयाहै, वि-विरुद्ध वितथअन्यथा है, भङ्ग-वस्तुका भङ्ग-वस्तुको विकल्प जिसमें ऐसा वह विभंग विभंग रूप जो ज्ञान वह विभंग ज्ञान है-मिथ्यात्व सहित अवधि'ज्ञानका नाम विभंगज्ञान है, यह विभंग ज्ञान सात प्रकारका होता है, इनमें कोई एक विभङ्ग ज्ञान ऐसा होता है, जो किसी एक दिशासे આ પ્રકારે શ્રદ્ધાની સ્થિરતાને માટે અથવા બીજા કેઈ કારણને લીધે ગણમાંથી નીકળી જતા કેઈ સાધુને ક્યારેક વિર્ભાગજ્ઞાન ઉત્પન્ન થઈ જાય છે, તેથી હવે સૂત્રકાર વિર્ભાગજ્ઞાનના ભેદનું કથન કરે છે. " सतविहे विभंगनाणे :पण्णत्ते " या • sin- विज्ञान मात ४ानु ४ छ. 'वि' वि३ मा विप. રીત, અને “ભંગ” એટલે વસ્તુને વિકતા, જેમાં વસ્તુને વિપરીત વિકેપ હોય છે તેને વિભંગ કહે છે. એવા વિલંગ રૂપ જે જ્ઞાન છે તેને વિલંગજ્ઞાન કહે છે. અથવા મિથ્યાત્વયુક્ત અવધિજ્ઞાનને વિભળજ્ઞાન કહે છે. તેને નીચે પ્રમાણે સાત પ્રકાર કહ્યા છે– (૧) કેઈ એક વિર્ભાગજ્ઞાન એવું હોય છે કે જે લેકની કોઈ એક દિશામાં પૂર્વાદ એક જ દિશામાં રહેલા પદાર્થનો અભિગમ ( બે ) કરાવે Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જરૂર स्थामा दिक्षु लोकस्यानवयोधेन तस्य प्रतिबोधादिति प्रथमं विभङ्गज्ञानम् १। तथापञ्चदिशि पञ्चसु दिक्षु लोकाभिगमो भवति, कस्यांचिदेकस्यां लोकामिगमो न भवति । विभङ्गवा चात्रापि एकस्यां दिशि लोकावबोधप्रतिषेधनाद् बोध्या। इंति द्वितीयं विभङ्गज्ञानम् २। तथा-क्रियावरणः-क्रियेव आवरण ज्ञानादि स्वरूपाच्छादकं यस्य स तादृशो जीवो, न तु कर्मावरणो जीवः इत्यभ्युपगमपरं-विमङ्गज्ञानम् । एवंविधविभङ्गज्ञानवान् जीवैः क्रियमाणप्राणातिपातादिकं क्रियामात्रमेव पश्यति न तु तद्धेतुकर्म । कर्मणाम दर्शनेन अनभ्युपगमादत्र विभङ्गता इति तृतीयं विभङ्गज्ञानम् ३। पूर्वादि दिशासे लोकमा अभिगम घोध करता है, इसमें विभङ्गता शेष दिशाओंमें लोकके अनवघोबसे है, क्योंकि शेष दिशाओं में वह उसका प्रतिषेध करताहै, ऐसा यह प्रथम विभङ्ग ज्ञान है ? कोई एक विभङ्ग ज्ञान ऐसाहोताहै, कि जिससे पांच दिशाओं में लोकाभिगम(लोकका ज्ञान होता है, किसी एक दिशामें लोकाभिगम नहीं होता है, यहां पर भी विभअता एक दिशामें लोकके अववोधका प्रतिषेध होनेसे है, ऐसा यह द्वितीय विभङ्ग ज्ञान है २।। क्रियावरण-क्रियारूप आवरणवालाही जीव है, अर्थात् ज्ञानादि निज स्वरूपकी आच्छादक क्रियाही है-कर्मरूप आवरणवाला जीव नहीं है-कर्म रूप आवरण जीवके ज्ञानादि निजस्वरूपका आच्छादक नहीं है ऐसी मान्यता जिल विभङ्ग ज्ञान को है, ऐसा वह तृतीय विभङ्ग છે. બાકીની દિશાઓમાં રહેલા પદાર્થને બોધ તે કરાવી શકતું નથી, તે કારણે જ તેમાં વિસંગતા સમજવી. કારણ કે લેકની બાકીની દિશાઓમાં રહેલા પદાર્થોને અભિગમ (બોધ) થવાને અહીં પ્રતિષેધ (નિષેધ) કહ્યો છે. (૨) કોઈ એક વિર્ભાગજ્ઞાન એવું હોય છે કે જેના દ્વારા લેકની પાંચ દિશાઓમાં રહેલા પદાર્થોને બંધ થાય છે, પણ બાકીની એક દિશામાં રહેલા પદાર્થને અભિગમ (બે) તેના દ્વારા થતું નથી. અહીં પણ એક દિશામાં લિકના અવધના પ્રતિધને કારણે તે જ્ઞાનમાં વિભંગતા સમજવી જોઈએ. (3) ठिया१२- ३५ भापरवाणे छ. मे है જ્ઞાનાદિ નિજ સ્વરૂપની આચ્છાદક ક્રિયા જ છે. કર્મરૂપ આવરણવાળે જીવ નથી એટલે કે કમરૂપ આવરણ છવના જ્ઞાનાદિ નિજસ્વરૂપનું આચ્છાદક નથી, ” આ પ્રકારની માન્યતાવાળું જે વિર્ભાગજ્ઞાન છે તેને વિભાજ્ઞાનના ત્રિીજા ભેદ રૂપ સમજવું. આ પ્રકારના વિબંગાનવાળે જીવ છો દ્વારા Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुघाटीका स्था७ सू०२ सप्तविघविभङ्गमाननिरूपणम् ५३३ । तथा-मुदग्रो जीवः-बाह्याभ्यन्तररचितशरीरो जीव इत्यभ्युपगमपरं विभग ज्ञानम् । वाह्याभ्यन्तरपुद्गलानादाय वैक्रियं कुर्वतो भवनपत्यादीन् देवान् दृष्ट्वा एवं विभङ्गज्ञानमुत्पद्यते । इति चतुर्थं विभङ्गज्ञानम् । तया-अमुदग्रो जीवः-भवधारणीयापेक्षया वाह्याभ्यन्तरपुद्गलादानं विनैव रचितशरीरो जीव इत्यभ्युपगमपरं विभङ्गाहानम् । वाह्याभ्यन्तरपुद्गलान् अनादायैव वैक्रियकरणेन रचितशरीरान देवान् - दृष्ट्वा एवंविधं विभङ्गज्ञानमुत्पद्यते ज्ञान है । इस प्रकारके विभङ्ग ज्ञानवाला जीव जीवों द्वारा क्रियमाण प्राणातिपातादिक क्रियामात्रकोही जानताहै-देखताहै उसके हेतुभूत कर्मको नही देखताहै, यहां पर विभगता कर्मों के नहीं दिखनेके कारण उसकी अनभ्युपगमताले नहीं जाननेसे है)जो विभङ्गज्ञान ऐसा मानताहै, कि बाह्य और आभ्यन्तर पुदलोंसे रचित शरीरवालाही जीव है, विभङ्ग ज्ञानीको 'बाह्य ओभ्यन्तर पुदलोंको ग्रहण करके वैक्रियकी उत्तर वैक्रिय शरीरकी रचना करते हुए भवनपत्यादिक देवोंको देखकर ऐसा यह विभजन ज्ञोन उत्पन्न होता है । यह चौथे प्रकारका मुदग्रनामका विभङ्गज्ञान है। अमुदग्रोजीव अवधारणीय शरीरको अपेक्षासे पांचवें नम्बरवाला 'विभज्ञान ऐसा मान्यतावाला होता है, कि जीव बाह्य आभ्यन्तर "पदलोंको ग्रहण किये विनाही रचित शरीरवाला होता है, अर्थात्बाह्य एवं आभ्यन्तर पुद्गलोंको विना ग्रहण कियेही रचित शरीरवाला देवोंको देखकर इस प्रकारका यह विभङ्ग ज्ञान उत्पन्न होता है - રાતી પ્રાણાતિપાદિક ક્રિયા માત્રને જ જાણે છે–દેખે છે, પરંતુ તેના હેતભૂત કર્મને દેખતે નથી. અહીં કર્મોને નહીં દેખવાને કારણે તેની અનયુપગમતાને લીધે વિસંગતા સમજવી. * (૪) સુદ નામનું વિસંગજ્ઞાન–જે વિર્ભાગજ્ઞાન એવું માને છે કે બાહ્ય અને આભ્યન્તર પદ્ધથી ચિત શરીરવાળે જ જીવ છે, તે વિભળજ્ઞાનને ચોથા પ્રકારનું વિર્ભાગજ્ઞાન કહે છે ભવનપતિ આદિ દેવોને બાહ્ય અને આભ્યન્તર પુદ્ગલેને ગ્રહણ કરીને ઉત્તર વૈિકીય શરીરની રચના કરતા જઇને વિર્ભાગજ્ઞાનીમાં આ પ્રકારનું વિસંગજ્ઞાન ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. આ થિથા પ્રકારનું મુદા નામનું વિર્ભાગજ્ઞાન છે. , (૫) અસુદઢ વિભળજ્ઞાન–બાહા અને આભ્યન્તર પુકલેને ગ્રહણ કર્યા વિના જ રચિત શરીરવાળા દેને જોઈને એવું વિર્ભાગજ્ઞાન કેઈ જીવમાં ઉત્પન્ન થઈ જાય છે અને આભ્યન્તર પલેને ગ્રહણ કર્યા વિના જ રચિત 'શરીરવાળે થઈ જાય છે. ભવધારણીય શરીરની અપેક્ષાએ પાંચમા પ્રકારનું વિલ ગજ્ઞાન આ પ્રકારની માન્યતા ધરાવે છે. Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ५३४ स्थानास्त्रे इति पञ्चम विभङ्गज्ञानम् । ५ । तथा-रूपी जीव-क्रियशरीरवतो देवान् दृष्टा रूप्येव जीव इति यदभ्युपगच्छति तत् पष्ठं विभङ्गज्ञानम् ।६। तथा-सर्वमिदं जीवाः-बायुना चलन्तं पुद्गलकायं दृष्ट्वा 'इदं सर्व वस्तु जीवा एव, चनधर्मत्वात् ' इति निश्चयतो यदभ्युपगच्छति, तव सप्तमं विभाग ज्ञानग् ७ इति । इत्यं सामान्यतः सप्तविधं विभङ्गज्ञानमुद्दिश्य सम्प्रति तदेव विशेषतो विवरीतुमाह-'तत्य' इत्यादि । तत्र-तेषु सप्तसु विभङ्गज्ञानेषु मध्ये खलु इदं वक्ष्यमाणं प्रथमं विभङ्ग ज्ञानम्, तथाहि-यदा-स्मन् काले तथारूपस्य तथाविधस्य श्रमणस्य-निग्रंन्य मुनेर्वा, माहनस्य-मूलगुणधरस्य वा, विभङ्गज्ञानं समुत्पद्यते, स खलु विभङ्गज्ञानवान् श्रमणो माहनो वा समुत्पन्नेन तेन विभङ्गज्ञानेन प्राचीनांपूर्वादिशं, वा-अधवा"रूपीजीवः" वैक्रिय शरीरवाले देवों को देखकर रूपीही जीवहै ऐसा जो मानता है, वह छठे नम्बरका विभंग ज्ञान है। " सर्वमिदं जीवाः" वायुसे चलित पुद्गलकायको देखकर ये सब वस्तुएँ जीव स्वरूप है, क्योंकि ये सब चलन धर्मवाली है, ऐसी मान्यतावाला जो विभङ्ग ज्ञान होता है, वह सातवें प्रकारका विभंगज्ञान है । इस प्रकारसे सामान्यप्रकारके विभङ्गज्ञानका कथन करके अब सूत्रकार विशेषरूपसे इसका कथन करते हैं-" तत्थ" इत्यादि-जब इन सात प्रकार विभंगज्ञान तथाविध अघणके निग्रन्थ मुनिके अथवा-माहनके मूल गुण धारीके उत्पन्न होता है-तब वह विभा ज्ञानवाला श्रमण अथवा. माहन समु. (6) " रूपी जीवः " यि शरीरवाणा वान निधन “३४ी. છે,” આ પ્રકારની માન્યતા જે વિભાગજ્ઞાનવાળે છવ ધરાવે છે, તે જીવના વિર્ભાગજ્ઞાનને છઠ્ઠા પ્રકારનું વિસંગજ્ઞાન કહે છે. ' (७) “ सर्वमिदं जीवाः " वायुथी पायमान थतां नयन धने “સઘળી વસ્તુઓ જીવ રૂપ જ છે, કારણ કે તેઓ ચલન ધર્મવાળી છે, ” આ પ્રકારની માન્યતાવાળું જે વિર્ભાગજ્ઞાન છે તેને સાતમાં પ્રકારનું विलशान छ. આ પ્રકારે વિર્ભાગજ્ઞાનના સાત પ્રકારનું સામાન્ય કથન કરીને હવે सूत्रा२ तभनु विस्तृत नि३५ ४२ छे. " तत्थ " त्याह ઉપર દર્શાવેલા સાત પ્રકારના વિર્ભાગજ્ઞાનમાંથી પહેલા પ્રકારનું વિભાગજ્ઞાન ત્યારે કેઈ શ્રમણ નિગ્રંથને અથવા માહણને (મૂલ ગુણધારીને) ઉત્પન્ન થાય છે, ત્યારે તે વિર્ભાગજ્ઞાનવાળે તે શ્રમણ અથવા માહણ તેના તે Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था० ७ सु० २ सप्तविधविभङ्गाननिरूपणम् ५३५ " प्रतीचीनां पश्चिमां दिशं दक्षिणां वा दिशम् उदीचीनाम् = उत्तरां वा दिशम्, ऊर्ध्वो वा दिशं यावत्सौधर्म कल्पे पश्यति । अधोदिकं तु विभङ्गज्ञानिनां दृश्यत्वेन नोक्ता । सा तु अवधिज्ञानिनामपि दुरधिगमा भवति, विभङ्गज्ञानिनां तुं सुतरामेवेति त्रिस्थानके चतुर्थोद्देशे प्रपञ्चितं, तत एवं बोध्यमिति । ततस्तस्य = पूर्व दिगाद्यन्यतमदर्शिनो विभङ्गज्ञानिन एवं भत्रति एवंविधो विकल्पो जायते - यत् मम अतिशेषम् शेषाण्यविक्रान्तम्- अतिशेषं-अतिशयं ज्ञानदर्शनम् - ज्ञानं च दर्शनं चेति ज्ञानेन सहितं दर्शनं चेति समुत्पन्नम् । किमात्मकं ज्ञानदर्शनं समुत्पस्पन्न उस विभंग ज्ञानसे पूर्व दिशाको अथवा उत्तर दिशाको अथवा उर्ध्व दिशाको यावत् सोधर्मकल्पको देखता है, विभंग ज्ञानियोंकों अधोदिशाका अवलोकन नहीं कहा गया है, क्योंकि अवधिज्ञानियोंको भी उसका देखना जानना दुरभिगम रूप कहा गया है, अतः जब वह अवधिज्ञानियों द्वारा भी दुरधिगम है, तवं विभंग ज्ञानियोंके लिये तो दुरधिगम है ही यह बात अपने आपही सर्व जाती है, इस विष यको यदि अच्छी तरह से देखना हो तो यह हमने त्रिस्थानकके चतुर्थ उद्देशक में विस्तार के साथ विवेचित किया है, सो वहांसे देख लेना चाहिये अत जब वह विभंगज्ञानी पूर्व दिशा आदिमेंसे किसी एक दिशाका अवलोकन करता है तब उसका ऐसा विचार होता है - उसके मनमें ऐसा विकल्प उठता है कि मुझे अतिशय ज्ञान एवं दर्शन अथवा વિભગજ્ઞાનના પ્રભાવથી કાઇ પણ એક દિશામાં રહેલા લેાકગત પદાર્થોને જોઇ शठे छे. त्रिलगज्ञांनी' अधोदिशानुं वन मेरी शानो नथी, परन्तु पूर्व, પશ્ચિમ, ઉત્તર, દક્ષિણ અથવા ઉર્ધ્વ દિશાનું અવલેકિન કરી શકે છે ઉભું દિશામાં સૌધમ કલ્પ પર્યન્તના પદાર્થી તે જોઇ શકે છે. વિભગજ્ઞાનીએ અધેશિનું અવલાકન કરી શકતા નથી. અવધિજ્ઞાનીએને માટે પશુ દિશામાં દેખવાનું દુરાધિગમ રૂપ કહ્યું છે. જે અદિશાનું અવલેાકન અવિજ્ઞાનીએ માટે પશુ દુધિગમ રૂપ કહ્યું છે, તે વિભગજ્ઞાનીએ માટે દુરાધિગમ રૂપ હાય એમાં નવાઈ શી ! ત્રિસ્થાનકના ચેાથા ઉદ્દેશામાં આ વિષયનું વિસ્તારપૂર્વક નિરૂપણ કરવામાં व्यु छे, तो भिज्ञासु पाठ ते त्यांथी वांची सेव. પહેલા પ્રકારના વિભ’ગજ્ઞાનવાળા પુરુષ પૂર્વાતિ કાઇ પર્ણ એક દિશામાં રહેલા પદાર્થાને જ જાણી દેખી શકે છે. તેથી આ વિભ*ગજ્ઞાન પ્રકટ થતાં જ તેના મનમાં એવા વિચાર થાય છે એવા વિફલ્પ ઉઠે છે કે મને અતિશય Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ५३६ ... - स्थानानएक लम् ? इत्याह-एकदिशि लोकाभिगमः-एकस्यामेव दिशि लोकोपलम्भो नवन्यासु दिक्षु इति । सन्ति पुनरेके श्रमणा वा माहना वा, ये एंत्रमाहुः-पञ्चदिशि लोका: भिगमः-पञ्चसु दिक्षु लोकोपलम्भ इति । ये ते एवमाहुः, मिथ्याते,एवमाहुः, यत एकदिश्येव लोकोपलम्भ इति प्रथमं विभङ्गज्ञानमिति १। द्वितीयं विभङ्ग ज्ञानमपि विभङ्गज्ञानवद् व्याख्येयम् । नवरमत्र वा शब्दाः समुच्चयार्थकाः बोध्याः। प्रथमभङ्गे एकदिशि लोकाभिगमः, अत्र तु पञ्चदिशीति । इति द्वितीयम् २.। यदा ज्ञान सहित दर्शन उत्पन्न हो चुका है, इससे मुझे ऐसा जानना देखना होता है-मैं ऐसा जानता देखना हूं-कि एकही दिशामें लोकका उपलम्भ है, अन्य दिशाओं में नहीं है, अर्थात् लोक किसी एकही दिशामें है, सब दिशाओमें नहीं है, ऐसाही बतानेवाले ज्ञान दर्शन मुझे उत्पन्न हुए हैं, अतः मेरा यधी पूर्वोक्त विचार ठीक है, इस प्रकारकी मान्यता. वाला जो उसे ज्ञान उत्पन्न हुआ है, वह विभंग इसलिये कहा गया है, कि उसने शेष दिशाओं में लोकके होने का निषेध किया है, क्योंकि ऐसा तो नहीं कि लोक एकही दिशामें हो-अन्य दिशाओंमें नहीं हो तथा कितनेक श्रमण अथवा माहन ऐसे होते हैं जो ऐसा कहते हैं कि-पांच दिशाओंमेंही लोकका उपलब्धि है, यह विभंगज्ञान इसलिये है, कि यहाँ एक दिशामें लोकका- उपलम्भ (देखना) उसने निषिद्ध किया है। यही पान-" ये ते एवमाहुः -मिथ्या ते एवमाहुः" इस જ્ઞાન અને દર્શન–અથવા જ્ઞાનસહિત દર્શન ઉત્પન્ન થઈ ગયું છે. તેના પ્રભાવથી હું એવું જાણું અને દેખી શકું છું કે એક જ દિશામાં લોકનું અસ્તિત્વ છે, અન્ય દિશાઓમાં લેકનું અસ્તિત્વ જ નથી. આ વિસંગજ્ઞાનના પ્રભાવથી તે વિર્ભાગજ્ઞાનીમાં આ પ્રકારની માન્યતા ઘર કરે છે, તે કારણે બાકીની દિશાઓમાં લેકનું અસ્તિત્વ હોવાને જ તે નિષેધ કરે છે. તેની આ માન્યતા બેટી જ છે લેકનું અસ્તિત્વ તો બધી જ દિશામાં હોય છે. એક જ દિશામાં લોકનું અસ્તિત્વ સ્વીકારવાને કારણે તેના તે જ્ઞાનને વિર્ભાગજ્ઞાન કહે છે. - કેટલાક શ્રમણ અથવા માહમાં બીજા પ્રકારનું વિભળજ્ઞાન ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. તેઓ લેકની અંદર કેઈ પાંચ દિશાઓમાં રહેલા પદાર્થોને જાણી દેખી શકે છે, પરંતુ બાકીની એક દિશામાં રહેલો ચંદાર્થોને જોઈ શકતા નથી. તેથી તેઓ તે પાંચ દિશાઓમાં જ લેકનું અસ્તિત્વ માની લે છે. બાકીની એક દિશામાં લક્રના અસ્તિત્વને તેઓ સ્વીકારતા નથી, તેથી જ तमना ज्ञान विज्ञान ४ छ. स. वात सूत्रमारे "ये ते एवमाहुः Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धुषा टीका स्था०७ सू० २ सप्तविधविभगवाननिरूपणम् च तथाविधस्य श्रमगस्य वा माहनस्य वा तृतीयं विभङ्गज्ञानमुत्पद्यते, तदा से माणातिपातान् मृषापादान प्रदत्तादानानि, मैथुनसेवां, परिग्रहसंग्रहं, रात्रिभोजनं वा कुर्वतो जीवान् पश्यति, क्रियमाणं पापं कर्म च न पश्यति । ततः सं क्रिया: वरणो जीव इति प्रतिपद्यते, कर्मावरणो जीव इति न प्रतिपद्यते । इति तृतीयं. विभङ्गज्ञानम् ३ [ तथा यस्य तथाविधस्य श्रमणस्य वा माइनस्य वा चतुर्थ विभङ्गज्ञानमुत्पद्यते, ततः स तेन विभङ्गज्ञानेन देवान् पश्यति, कर्मभूतान् देवान् पश्यति ? इत्याह-वाहिरव्भतरए' इत्यादि । सूत्र पाठ द्वारा प्रकट की गई, जब तथाविध श्रमणको अथवा माहन को तृतीय विभंग ज्ञान उत्पन्न होता है, तब वह प्राणातिपातोंको-मृषावादोंको, अदत्तादानोंको, मैथुन सेवाको, परिग्रहके संग्रहको, और रात्रिभोजनको करते हुए जीवों को देखता है, क्रियमाण पाप कर्मको नहीं देखता है, इससे जीव कियोवरणवाला है, ऐसी उसकी मान्यता हो जाती है, कर्मरूप आवरणवाला जीव है-ऐसी उसकी मान्यता नहीं रहती है, ऐसा उसका ज्ञान विभंग इसलिये कहा गया है, कि यह जीवको जो कि वास्तविक रूपमें कर्मावरणवाला है, ऐसा न मानकर विपरीत रूप क्रियावरणवाला मानता है, ऐसा यह तृतीय विभंग ज्ञान है. तथा जिस तथाविध श्रमणको अथवा माहनको चतुर्थ विभंगज्ञान उत्पन्न होता है, उससे वह इस प्रकारसे देवों को देखता है-कि ये मिथ्या ते एवमाहु." या सूत्रा द्वारा प्र४८ ४२री छे. पांय हिशामials અસ્તિત્વ સ્વીકારવી તેમની આ માન્યતા પણ છેટી જ છે. * જે શ્રમણ અથવા માહણમાં ત્રીજા પ્રકારનું વિસંગજ્ઞાન ઉત્પન્ન થઈ જાય છે, તે પ્રાણાતિપાત, મૃષાવાદ, અદત્તાદાન, મૈથુન સેવન, પરિગ્રહ અને રાત્રિભોજન કરતાં જીને દેખે છે, પણ ક્રિયમાણ પાપકર્મને દેખતે નથી, તે કારણે તે વિર્ભાગજ્ઞાની એવું માનતે થાય છે કે જીવ કિયાવરણવાળે જ છે, તે જીવને કર્મરૂપ આવરણવાળો માનતું નથી. તેને આ જ્ઞાનને વિલંગજ્ઞાન કહેવાનું કારણ એ છે કે જીવ વાસ્તવિક રીતે તે કર્માવરણવાળો હોવા છતાં પણ તે તેને ક્રિયાવરણવાળો માને છે આ પ્રકારની વિપરીત માન્યતા 2 સાનને કારણે જ તેનામાં આવી હોય છે, તેથી જ તેના તે પ્રકારના નને વિસંગજ્ઞાન કહે છે ' ચોથા પ્રકારના વિર્ભાગજ્ઞાનનું વિવેચન–જે કઈ શ્રમણ અથવા માહઅને ચેથા પ્રકારનું વિસંગજ્ઞાન ઉત્પન્ન થાય છે, તે એવું માનતે થઈ જાય स्था०-६८ Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३. स्थाना - वाह्याभ्यन्तरान् वाह्या शरीरावगाहक्षेत्राद् वहिर्दूताश्वते आभ्यन्तरा शरीरावगाहक्षेत्रान्तरालपतिनश्च ते तथा, तान् पुद्गलान् चक्रियवर्गणारूपान् तद्भिन्नान् वा पर्यादाय वैक्रियसमुद्घातेन समन्ताद् गृहीत्वा, स्पृष्ट्वा तानेव पुद्गला स्पर्शविषयीकृत्य, स्फोरयित्वा स्पन्दयिन्वा, स्फोटयित्वा-विकसितीकृत्य पृथक्-देशकाल देन पृथक-क्वचित कदाचिदित्यर्थः, एकत्वम् एकरूपत्वं नानात्वं नानारूपत्वं विकुळ विकुळ उत्त स्वैक्रियतया किञ्चित्कालं स्थातुं प्रवृ तान् देवान् पश्यति । एवंविधान देवान् पश्यतस्तस्य एवंविधो विकल्पो जायते. यद्-सुदना साह्याभ्यन्तरपुद्गलरचितशरीरो जीव इति । इति चतुर्थं विभाज्ञानम् ४ । तथा यस्य तथाविधस्य श्रमणस्य माहनस्य वा पञ्चमं विभज्ञान देव वाह्य-शरीरावगाह क्षेत्र वहिर्भूत, एवं आन्धन्तर शरीरावगाह क्षेत्रके अन्तरालवी-बैक्रिय वर्गणारूप पुगलोंको अथवा तद्भिन्न पुगलोंको वैक्रिय समुद्घात द्वारा चारों ओरसे ग्रहण करके उन्होंने स्पर्श करके, उन्हें ही स्पन्दित करके उन्हें ही विकसित करके देशकालके अनुसार कदाचित् एक रूपसे कदाचित् नाना रूपसे विक्रिया करके उत्तर विक्रियाँमें कुछकाल तक स्थित रहते हैं, अतः इस प्रकार के देवोंको देखकर उसके मन में ऐसा विकल्प उत्पन्न हो जाता है, कि जीव थाय एवं आभ्यन्तर पुद्गलोंसे रचित शरीरवाला है, ऐसा यह ज्ञान विभंग इसलिये कहा गया है, कि इस ज्ञान में यह शरीर नामक्रम के द्वारा रचा गया है, इस बातको छोड़ दियागया है, ऐसा यह विभंग ज्ञान चतुर्थप्रकारका है, तथा-जिस तथाविध श्रमणको अथवा माहनको पांचा છે કે દેવ બાહ્ય અને આભ્યન્તર પુદ્ગલે વડે રચિત શરીરવાળો હોય છે. તેની આ પ્રકારની માન્યતાનું કારણ નીચે પ્રમાણે છે – છે તે ને બાહ્ય (શરીરવગાહ ક્ષેત્રની બહારના) અને આસ્થતિર (શરીરવગાહ ક્ષેત્રની અંદરના) વૈકિય વર્ગણારૂપ પુદ્ગલેને અથવા તેના કરતાં ભિન્ન પુદ્ગલેને વિકિય સમુદ્દઘાત વડે ચેમેરથી ગ્રહણ કરીને, તેમને સ્પર્શ કરીને, તેમને જ સ્પેન્દ્રિત કરીને, તેમને જે વિકસિત કરીને દેશકાળ અનસાર કયારેક એક રૂપે અને ક્યારેક વિવિધ રૂપે વિક્રિયા કરીને ઉત્તર વિક્રિયામાં અમુક કાળ સુધી રિત રહેતા જેવું છે. દેવને આ પ્રકારે ઉત્તર , વૈકીય શરીરની રચના કરતા જોઈને તેઓ એવું માની લે છે કે જીવ બાહ્ય અને આભ્યન્તર પુલોથી રચિત શરીરવાળો હોય છે. વાસ્તવિક રીતે જોઈએ? તે આ શરીર નામકર્મ દ્વારા રચાયું છે. તેથી ઉપર્યુંક્ત વિપરીત માન્યતા વળા તે જ્ઞાનને વિર્ભાગજ્ઞાન કહેવામાં આવ્યું છે Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था. ७ र २ सप्तविधविभङ्गज्ञाननिरूपणम् मुत्पद्यते । ततः स तेन विभङ्गज्ञानेन देवान् पश्यति, कीदृशान् देवान् पश्यति ? इत्याह-' वाहिरभंतरए' इत्यादि। । बाह्याभ्यन्तरान् । पुद्गलान् अपर्यादाय वैक्रियसमुद्घातापेक्षया अगृहीत्वा उत्पत्तिक्षेत्रस्थांस्तूत्पत्तिकाले गृहीत्वा, स्पृष्ट्वा उत्पत्तिक्षेत्रस्थान्-पुद्गलाच स्पर्शविषयीकृत्य, स्फोरयित्वा, स्फोटयित्वा पृथक्-क्वचिद् कदाचित् एकत्वम् एकरूपत्वम्-भवधारणीयशरीरस्य एकत्वम् एकदेशापेक्षया कण्ठाघवयवापेक्षया था, नाना-नानारूपत्वम् -अनेक देशापेक्षया हस्ताङ्गुलाद्यवयवापेक्षया वा विकुर्व्य विकुळ स्थातुं प्रवृत्तान् देवान् पश्यति । ततस्तस्य एवं विकल्पो जायते यत्अमुदग्रः अवाह्याभ्यन्तरपुद्गलरचितशरीरो जीवो न तु मुदग्रोजीव इति । इति पञ्चमं विभङ्गज्ञानम् । विभंग ज्ञान उत्पन्न होता है-तब वह उत्त विभंग ज्ञानसे इस प्रकार देवोंको देखता है, और उन्हें देखकर वह ऐसा विचार करता है कि ये देव बाह्य एवं आभ्यन्तर पुगलोंको वैक्रिय समुद्घोतकी अपेक्षा नहीं ग्रहण करके तथा उत्पत्ति क्षेत्र स्थित पुगलोंको तो उत्पत्तिकालमेंही ग्रहण करके, एवं उत्पत्ति क्षेत्र स्थित पुद्गलोंको स्पर्शेन्द्रियका विषयभूत करके उन्हें स्पन्दित करके क्वचित् एकरूपले-भवधारणीय शरीरकी अपेक्षासे अथवा कण्ठ आदि अबघवशी अपेक्षाले-एक रूप. चाली-अथवा-नाना रूपसे अनेक देवों की अपेक्षा या हस्त-अगुलि आदि अवयवोंकी अपेक्षासे अनेक रूपबाली-बार २ बिक्रिया करते हैं, और इसी विक्रियामें इस समय रहते हैं, अतः जीच अमुदन है પાંચમાં પ્રકારનું વિર્ભાગજ્ઞાન–જે શ્રમણ અથવા , માહણને પાચમાં પ્રકારનું વિર્ભાગજ્ઞાન ઉપન્ન થઈ જાય છે. તે એમ માનતે થઈ જાય છે કે જીવ અમુદ છે-એટલે કે જીવ બાહ્ય અને આભ્યન્તર પુદ્ગલે વડે રચિત શરીરવાળે નથી. તેની આ માન્યતાનું કારણ આ પ્રમાણે છે ' : તે તેના વિલંગણાનથી એવું દેખે છે કે દેવ બાહ્યા અને આભ્યન્તર પલેને વિક્રીય સંમુઘાતની અપેક્ષ એ ગ્રહણ ન કરીને તથા ઉત્પત્તિ ક્ષેત્રસ્થિત પુદ્ગલેને તે ઉત્પત્તિકાળમાં જ ગ્રહણ કરીને, અને ઉત્પત્તિ ક્ષેત્રસ્થિત પુલને પર્શેન્દ્રિના વિષયભૂત કરીને, તેમને સ્પેન્દ્રિત કરીને ક્યારેક એક રૂપે ભવ. ધારણીય શરીરની અપેક્ષાએ અથવા કંઠ આદિ અવયવની અપેક્ષાએ એક રૂપવાળી અથવા વિવિધ રૂપે-અનેક દેવેની અપેક્ષાએ અથવા હાથ, આંગળી આદિ અવયની અપેક્ષાએ અનેક રૂમવાળી વિડિયામાં તેઓ આ સમયે Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानास्त्रे ५५० तथा यस्य तथारूपस्य श्रमणस्य वा माहनस्य वा पप्ठं विभङ्गज्ञानमुत्पद्यते, स समुत्पन्नेन तेन ज्ञानेन पश्यति-बाह्याभ्यन्तरपुद्गलान् पर्यादाय-अपर्यादाय वा पूर्ववत् एकरूपत्वम् अनेकरूपत्वं वा विकुयं विकुव्यं स्थातुं प्रवृत्तान् देवान् । एवं विधदेवदर्शनेन स 'रूपी एकजीवः' इति प्रतिपद्यते । रूपभिन्नस्य कदा. चिदप्यदर्शनात् ' अरूपी जीवः' इति तु न प्रतिपयते इति पष्ठं विभङ्ग ज्ञानम् । तथा-यस्य तथारूपस्य श्रमणस्य माहनस्य वा सप्तमं विभङ्गज्ञानमुत्पद्यते, स समुत्पन्नेन तेन विभङ्गज्ञानेन पुद्गलकाय पश्यति, कीदृशं पुद्गलकार्य पश्यति ? बाह्याभ्यन्तर पुद्गलोंसे रचित शरीरवाला नहीं है, ऐसा यह पांचवां विभङ्ग ज्ञान है, तथा-जिप्स तथा रूपवाले श्रमणको अथवा माहनको छठा विभङ्ग ज्ञान उत्पन्न होता है, वह उस समय उस ज्ञानसे देवोंको इस प्रकारसे देखता है-कि वाह्य और आभ्यन्तर पुद्गलों को ग्रहण करके और नहीं ग्रहण करके ये देव एक रूपवाली अथवा अनेक रूपवाली विक्रिया पार २ करते हैं, और अब भी ये इसी प्रकारकी विक्रियामें स्थित हैं, अतः जीवरूपी है, ऐसा वह देवोंको उस विभंग ज्ञानसे देख. कर मानने लगता है, ऐसा यह छठा विभङ्ग ज्ञान है, इस ज्ञानमें विभनता इस लिये कही गई है, कि जीव मूल रूपमें रूपी नहीं है, अरूपी है, परन्तु ऐसा दर्शन उसे कभी होता नहीं है। तथा जित श्रमणको तथा माहनको सातवां विभङ्ग ज्ञान उत्पन्न होता है, वह उत्पन्न हुए • રહેલાં છે. તેથી જીવ અમુદ છે-બાહ્ય અને આભ્યન્તર પુ વડે રચિત - शरीरवाणा नथी. मा प्रानु मा पायभु विज्ञान छे. છઠ્ઠા પ્રકારનું વિર્ભાગજ્ઞાન-જે શ્રમણ અથવા માહણને છઠ્ઠા પ્રકારનું વિર્ભાગજ્ઞાન ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. તે પિતાના તે જ્ઞાનના પ્રભાવથી દેવને બાદ અને આભ્યન્તર પુદ્ગલેને ગ્રહણ કરીને અને ગ્રહણ કર્યા વિના એક રૂપવાળી અથવા અનેક રૂપવાળી વિક્રિયા કરતાં, અને તે કાળે પણ એ જ પ્રકારની વિકિયામાં સ્થિત રહેલા નિહાળે છે. તેથી તે હાલતમાં દેને (પિતાના વિર્ભાગજ્ઞાન) વડે જોઈને તે એવું માનતે થઈ જાય છે કે જીવ રૂપી જ છે. આ જ્ઞાનમાં વિભંગતા માનવાનું કારણ એ છે કે જીવ મૂળ રૂપે વાસ્તવિક રૂપે-નથી પણ અરૂપી જ છે. પરંતુ વિર્ભાગજ્ઞાનીને એવું દર્શન ही तु नथी. સાતમા પ્રકારનું વિભાજ્ઞાન–જે શ્રમણું અથવા માહણને સાતમાં પ્રકારનું વિસંગજ્ઞાન ઉત્પન્ન થઈ જાય છે તે તેના તે વિભળજ્ઞાન વડે તે Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०७ सु. २ सप्तविधविभङ्गशाननिरूपणम् इत्याह-' मुहुयेग वाउकाएणं' इत्यादि । सूक्ष्मेण-मन्देन, नतु सूक्ष्मनामको दयवत्तिना, तस्य वस्तु चालनासमर्थत्वात् , वायुकायेन स्पृष्टम् अतएव-एजमानकम्पमानं, व्येजमान-विशेषेण कम्पमानं, चलन्तम स्थानान्तर संक्रमन्तम, क्षुभ्यन्तम् अधो निमज्जन्तम् , स्पन्दमानम् ईषच्चलन्तं घट्टयन्तं वस्त्वन्तरं स्पृशन्तम्, उदीरयन्त वस्त्वन्तरं, प्रेश्यन्तं, तथा-तं तम्-निर्वक्तुमशक्यमनेकविधं भावं पर्यायं परिणमन्तं गच्छन्तं पश्यतीति । -- . ततः आत्मानमतिशयज्ञानसम्पन्न मन्यमानः स विभङ्गज्ञानी मन्यतेइदं प्रत्यक्षं सर्व पुद्गल नातं जीवाः-कम्पनादि लक्षणधर्मवत्त्वात् ।। ये तु श्रमणा माहनाः कम्पनादि-धर्म-विशिष्टमपि पुद्गलजातं जीवा अजीवाश्चेति प्राहुः, ते उस विभङ्ग ज्ञानसे पुद्गलकायको इस प्रकार से देखता है, कि मन्द वायुसे ( सूक्ष्म नामकर्मके उदयवर्ती सूक्ष्म वायुसे नहीं, क्योंकि सूक्ष्म नाम कमेदिय वशवी वायुद्धारा किसीमें भी कंपन उत्पन्न नहीं किया जाता है ) ये वस्तुएँ हलाई जाती हैं, विशेष रूपसे कंपाई जाती हैं, एक स्थानसे दूसरे स्थान पर पहुंचा दी जाती हैं, ऊपरसे नीचे गिरा दी जाती हैं एक वस्तुको दूसरी वस्तुके साथ मिला दिया जाता है, इत्यादि और. भी रूपसे कहने के लिये अशक्य स्थितिवाला जब वह पुदलकायको देखता है-तब वह अपने आपको अतिशय ज्ञानवाला मानता हुआ वह विभंग ज्ञानी ऐसा मानने लगता है, कि ये सब प्रत्यक्षभूत पुद्गलजात जीवस्वरूप हैं। . क्योंकि कम्पनादिरूप धर्मवाले ये सब पुद्गल जात हैं, जिन श्रमणोंने अथवा माहनोंने कम्पनादि धर्म विशिष्ट भी पुद्गल जातको जी પલકાયના વિષયમાં એવું જોવે છે કે મન્દવાયુ વડે (સૂમ નામકર્મના ઉદયવર્તી સૂમવાયુ વડે નહીં, કારણ કે સૂમ નામકર્મોદય વશવર્તી વાયુ દ્વારા કઈ પણ વસ્તુમાં કંપન ઉત્પન્ન કરાતું નથી ) આ વસ્તુઓ ઘેડી ડી કપાવવામાં આવે છે, વિશેષ રૂપે કંપાવવામાં આવે છે, એક સ્થળેથી બીજે સ્થળે લઈ જવામાં આવે છે, ઉપરથી નીચે પાડી નાખવામાં આવે છે, એક વસ્તુ સાથે બીજી વસ્તુને અથડાવવામાં આવે છે, ઈત્યાદિ બીજી પણ ઘણી સ્થિતિવાળા પુદ્ગલકાયને જોઈને, પિતાને અતિશય જ્ઞાની માનતે એ તે વિભાગજ્ઞાની એવું માનવા લાગે છે કે “આ બધાં પ્રત્યક્ષભૂત પુલે જીવ રૂપ છે, કારણ કે તે પુલેમાં કંપન દિ જીવના ધર્મોને સદૂભાવ છે, જે શ્રમણએ અથવા માહણેએ કપનાદિ ધર્મવાળાં પુલને પણ જીવરૂપ અને અજવરૂપ કહ્યાં છે, તેમણે એ બધું જ જ કહ્યું છે.” Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સર स्थानासूत्रे . मिथ्या प्राहुरिति स प्रतिपद्यते । तस्यैवंविधविभङ्गज्ञानिनः पृथिव्यप्तेजो वायुकायिकाश्चत्वारो जीवनिकायाः = जीवसमूहा न सम्यक् उपगता:= अचलनावस्थायां पृथिव्यादयो जीवत्वेन ज्ञाता भवन्ति । अयं भावः एवंविधविभङ्गज्ञानी चलनदोहदादिधर्मवतस्त्रसानेव दोहदादिधर्मवतो वनस्पतीनेव च जीवत्वेनाभ्युपगच्छति । पृथिव्यप्तेजोवायुकायिकांस्तु वायुचलनेन स्वतथलनेन च स त्रसत्वेनैव जानाति, स्थावरजीवत्वेन तु वान्न जानातीति । इति हेतो: अच पृथिव्यादिकायेषु जीवत्वानभ्युपगमाद् हेतोः स पृथिव्यादिषु चतुर्षु जीवनिकायेषु मिथ्यादण्डं - मिथ्यात्वपूर्वा दण्डो रूप से एवं अजीव रूपसे कहा है, उन्होंने वह सब झूठा - मिथ्या कहा है, ऐसा वह विभंग ज्ञानी विभंग ज्ञान के जोरसे मानता है, इस प्रका रके उस विभंगज्ञानीके पृथिवी, अप् तेज और वायुकायिक जो चार जीवनिकाय हैं वे ठीक नहीं माने गये हैं-अचलनावस्था में पृथिव्यादिक जीव रूपसे उसके द्वारा ज्ञात नहीं होते हैं, इसका भाव यह है - इंस प्रकारका विभंग ज्ञानी चलन दोहद आदि धर्मवाले सोकोही और दोहद आदि स धर्मवाले वनस्पतियोंकोही जीव रूपसे स्वीकार करता है, पृथिवी, अए, तेज और वायुकायिकों को तो वह वायुसे चलने आदि के कारण से और स्वतः चलने आदिके कारणसे त्रम रूपसेही जानता है, स्थावर जीवरूपसे उन्हें नहीं जानता है । इसलिये वह जब वे अचन धर्मवाले रहते हैं, तब वह उनमें जीवरूपता नहीं मानता है। इस 1 તેના તે વિભગજ્ઞાનના પ્રભાવથી તે નિભગજ્ઞાની આ પ્રકારની ખાટી માન્યતા ધરાવતા થઈ જાય છે. આ પ્રકારના ત્રિભ’ગજ્ઞાનવાળા તે શ્રમણુ અથવા માહણુ પૃથ્વીકાય, અકાય, તેજસ્કાય અને વાયુકાય, આ' ચાર જે જીવનિકાયા છે તેમને જીત્ર રૂપેજ માનતે નથી-અચલનાવસ્થામાં પૃથ્વીકાય આદિને તે જીવ રૂપે ‘સ્વીકારતા નથી. આ કથનના ભાવાથ નીચે પ્રમાણે છે આ પ્રકારના વિભ’ગજ્ઞાનવાળા તે શ્રમણ અથવા માહષ્ણુ, ચલન, દાહક આદિ ધમવાળા ત્રસેને જ અને દોહદ આદિ ત્રસ ધમવાળાં વનસ્પતિકાયિअनेक लव ३ये स्वीअरे छे, पृथ्वी, अ, तेत्र, 'अने वायुयाने तो તે વાયુથી કપવા આદિ કારણેાને લીધે અને સ્વતઃ ( આપમેળે ) ચાલવા આદિને કારણે ત્રસ રૂપે જ જાણે છે-સ્થાવર જીવ રૂપે તેમને માનતા નથી. તેથી જ્યારે તેઓ અચલન ધર્માંવાળાં રહે છે ત્યારે તે તે તેમને જીવરૂપ માનતા જ નથી. તે કારણે તે પૃથ્વીકાય આદિ ચાર જીવનિકાયાની મિથ્યાત્વ Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०७ सू० ३ सप्तविधजीवनिरूपणम् मिथ्यादण्डस्तं विभङ्गज्ञानवशात् हिंसां प्रवर्त्तयति पृथिव्यादि चतुर्जीवनिकायरूपानभिज्ञः संस्तान् हिनस्ति तेषां जीवत्वं चापलपति, इति सप्तमं विभङ्गज्ञानम् ७ ॥ ०२ ॥ 1 मिथ्यादण्डं प्रवर्त्तयतीत्युक्तम्, दण्डश्च जीवेषु भवतीति योनिसंग्रहतो जीवान् सप्तविधत्वेन प्ररूपयितुमाह - f मूलम् - सत्तविहे जोणिसंगहे पण्णत्ते, तं जहा - अंडया १ पोयया २, जराउया ३, रसया ४, संसेइमा ५ संमुच्छिमा ६, अभिया ७| अंडया सत्तगइया सत्तागड्या पण्णत्ता, तं जहाअंडर अंडएस उववज्जमाणे अंडएहिंतो वा पोयएहिंतो वा जाव उभिएहिंतो वा उववजेजा । से चैव णं से अंडए अंड यत्तं विप्पजहमाणे अंडयत्ताए वा पोययत्ताए वा जाव उभि यत्ताए वा गच्छेज्जा । पोयया सत्तगइया सत्तागइया । एवं वेव सत्तण्हं गई आगई भाणियवा जाव उग्भियति ॥ ०३॥ कारण पृथिवी आदि चार जीवनिकायोंके वह मिथ्यात्वपूर्वक दण्डको विभंग ज्ञानवश हिंसाको करता है, अर्थात् पृथिव्यादि चार जीव निका यके स्वरूपसे अनभिज्ञ हुआ वह उनकी हिंसा करता है, और उनमें जीवत्वका अपलाप (छिपाता है ) करता है, इस प्रकारका यह सातवां विभंगज्ञान है ७ || सू०२ ॥ पृथिवी आदि जीवके स्वरूपसे अनभिज्ञं हुआ जीव उनकी मिथ्यास्वपूर्वक हिंसा करता है, ऐसा कहा- सो यह मिथ्यादण्ड जीवों में होता है, इसलिये योनिके संग्रहसे अब सूत्रकार जीवों में सप्तविधताका प्रति ६४३ પૂર્વક હિંસા કરે છે. આ બધું તેના વિભ’ગજ્ઞાનને લીધે ખને છે. કહેવાનુ તાત્પર્ય એ છે કે પૃથ્વીકાય આદિ ચાર જૈનિકાયના વાસ્તવિક સ્વરૂપથી અનભિજ્ઞ એવે તે વિભગજ્ઞાની તેમની હિંસા કરે છે અને તેમનામાં જીવત્વના અપલાપ કરે છે એટલે કે તેમનામાં જીવ હોવાની વાતને જ માન્ય કરતા નથી. આ પ્રકારનું સાતમુ વિભ’ગજ્ઞાન છે. " સૂ. ૨૫ આગલા સૂત્રમાં એવુ કહેવામાં આવ્યુ છે કે “ પૃથ્વી આદિ જીવના સ્વરૂપથી અનભિજ્ઞ હોય એવા જીવ મિથ્યાત્વપૂર્વક તેમની હિંસા કરે છે. આ મિથ્યાડના સહુભાવ જીવામાં હોય છે. તે કારથે ચેાનિના નિરૂપણું .99 Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४४ स्थानागाने छाया-सप्तविधो योनिसंग्रहः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-अण्डजाः १ पोतजाः . २ जरायुजाः ३ रसजाः ४ संस्वेदिमाः ५ संमूछिमाः ६ उद्भिज्जाः ७ । अण्डजाः सप्तगतिकाः सप्तागतिकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-अण्डेपु अण्डजेषु, उत्पद्यमानः. अण्डजेभ्यो वा पोतजेभ्यो वा यावत् उद्भिज्जेभ्यो वा उत्पयेत । स एव खलु सः अण्डजः अण्डजत्वं विप्रनहत् अण्ड जतया वा पोतजतया वा यावत् उद्विज्जतया वा गच्छेत् । पोतजाः सप्तगतिकाः सप्तागतिकाः । एवमेव सप्तानां गत्यागती भणितव्ये यावत् उद्भिज्जा इति ॥ सू० ३॥ . टीका-' सत्तविहे जोणिसंगहे' इत्यादि। योनिसंग्रहः-योनिभिः उत्पत्तिस्थानविशेषैः संग्रहः-जीवानां समूहः, सप्तविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-अण्डजाः-अण्डे-पक्ष्यादि मादुर्भावककोषे जायन्ते उपप. धन्ते इत्यण्डजाः-पक्षिसदियः १, पोतना:-पोताएव जाताः पोतनाः-न जराखादिना वेष्टिताः पूर्णावयवा योनिनिर्गतमात्रा एव परिस्पन्दादिसामोपेताः पादन करते हैं-'सत्तविहे जोणिसंगहे पण्णत्ते' इत्यादि । सू० ३ । टीकार्थ-उत्पत्ति स्थानरूप योनि विशेषोंको लेकर जीवोंका समूह सात प्रकारका कहा गया है-जैसे-अण्डज १ पोतज २, जरायुज ३, रसज ४, संस्वेदिम ५, समूच्छिम६, और उद्भिद७, पक्षि आदि जिसमें उत्पन्न होते हैं, ऐसे कोषका नाम अण्डा है, इस अण्डे से जो पैदा होते हैं वे अण्डज हैं, ऐसे वे अण्डज पक्षी सर्प आदि हैं । १। . जो उत्पत्तिके समय जरायु आदिसे वेष्टिन नहीं होते हैं, पूर्ण अवय. ववाले होतेहै, और योनिसे निकलतेही परिस्पन्द (चलन) आदि सामर्थ्यદ્વારા સૂત્રકાર જેમાં સંસવિધતાનું હવે પ્રતિપાદન કરે છે. - " सत्तविहे जोणीसंगहे पण्णत्ते" त्याह ઉત્પત્તિ સ્થાનરૂપે નિવિશેની અપેક્ષાએ જીને સમૂહ સાત પ્રકારને કહ્યો છે. તે સાત પ્રકારે નીચે પ્રમાણે છે-(૧) અંડજો (૨) તિજ (3) ४२युर, (४) २४, (५) सस्वाभ, (6) भूमि मने (७) मिan (૧) પક્ષી આદિ જેમાં ઉત્પન્ન થાય છે એવા કષનું નામ ઇંડું છે. આ ઈંડામાંથી પેદા થતા જીવને અંડજ કહે છે. એવા પક્ષી, સપ આદિને અંડજ જ કહેવામાં આવે છે. . (૨) જે ઉત્પત્તિના સમયે જરાયુ આદિ વડે વેણિત હતાં નથી, પૂર્ણ અવયવાળાં હોય છે અને એનિમાંથી બહાર આવતાની સાથે જ પરિ પન્દન આદિ સામર્થ્યવાળ હોય છે, તેમને પિત જ કહે છે. અથવા અને Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधारीका स्था० सू० ३ सप्तविधजीवनिरूपणम् ५४५ पोतजाः, यद्वा-पोतो वस्त्रम्, तत्सम्मार्जिता इत्र जायन्ते गर्भवेष्टनचर्माऽनावृतत्वाद् ये.ते पोतजाः, यद्वा-पोता-गर्भवेष्टनचर्मरहितगर्भाशयात् जायन्ते इति पोतजाः कुलरशल्लकशश नकुलमृपिकचर्मचटिकावल्युलिकादयः २ । जरायुजाः-जरा.. मेति गच्छतीति जरायुः गर्भवेष्टनचर्म, तस्माज्जायन्ते ये ते तथा-नरमहिप- . गवादयः ३ । रसजा:-रसे मधे जायन्ते इति रसजाः-मयकीटाः, “ रसजो मयकीटः" इति हैमात् । यद्वा-रसेविकृतमधुरादौ जायन्ते इति रसनाः ४॥ संस्वे- . दिमा:-संस्वेददा-धर्माद् जायन्ते ये ते तथा, यूकालिक्षा-मत्कुणप्रमुखाः । वाले होते हैं-वे पोतज हैं, अथवा-पोत नाम वस्त्रका है, इस वनसे पोछे हुएकी नरह जो गर्भवेष्टन चर्मले अनावृत होने के कारण उत्पन्न होते हैं, वे पोनज हैं, अथवा-पोतसे-गर्भवेष्टन चर्मसे रहित गभी शयसे जो उत्पन्न होते हैं, वेपोतजहैं, ऐले वे पोतज कुंजर, शल्लक, शशखरगोश, नकुल, मूषिक, चमगादड़, और वल्गुलिका आदि जीव हैं ।२। गभवेष्टन चर्मका नाम जरायु है । इस जरायुसे जो जीव पैदा होते हैं, वे जरायुज हैं, ऐसे वे जरायुज जीव नर-मनुष्य, महिष एवं गाय आदि हैं। जो जीव रसमें उत्पन्न होते हैं, वे रसज हैं-ऐसे ये रसज मयकीट (कीडे) होते हैं । "रसजो मद्यकीटः" ऐसा हैमकोषमें कहा गया है। अथवा-विकृत मधुर (बिगडी मिठाई)आदि रसमें जीव उत्पन्न होते हैं वे रसज हैं।४। - जो जीव पसीने से उत्पन्न होते हैं, वे संस्वैदिम हैं जैसे-यूक, (ज) लीख एवं मत्कुण-खटमल वगैरह । ५। પિત કહે છે. તે વસ્ત્ર વડે લૂછવામાં આવ્યા હોય એવી રીતે-ગર્ભવેઇન ચર્મ વડે અનાવૃત (અનાચ્છદિત હેવ ને કારણે) ઉત્પન્ન થાય છે તેમને પિતજ કહે છે અથવા પિતમ થી ગર્ભવેઇન ચર્મરહિત ગર્ભાશયમાંથી જેઓ ઉત્પન્ન થાય છે તેમને પિતજ કહે છે. હાથી, સસલાં, નેળિયાં, મૂષક. આદિ પ્રાણીઓને આ પ્રકારમાં સમાવેશ થાય છે. (૩) ગર્ભવેઝન ચર્મને જરાયુ કહે છે. આ જરાયુમાંથી જે જે ઉત્પન્ન થાય છે તેને જરાયુજ કહે છે. એવા જરાયુજ જીવો મનુષ્ય, ગાય, ભે સ આદિ છે. (૪) જે છ રસમાં ઉત્પન્ન થાય છે તેમને રસજ કહે છે. મઘકીને मेवा २०४ व ४९ छे. “ रसजो मद्यकोटः " मा प्रार- ४थन २४ જે વિષે હૈમકોશમાં કરવામાં આવ્યું છે તેમને રસ જ કહે છે. स्था०-६९ Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • स्थानाङ्गो सम्मूच्छिमा:-सम्मूच्र्छन सम्मूर्छ:-गर्भाधानमन्तरेणैव स्वयं समुत्पत्तिः, यदासमन्ततो देहस्य मूर्छनम् अवयव संयोगः सम्पूर्छः, तेन निवृत्ताः सम्मच्छिमाः= मातापितृसंयोगं विनैव स्वयमुत्पन्नाः पिपीलिका मक्षिका-मत्कोटकादयः . ६॥ उद्भिज्जाः-उद्भियम्भूमि भित्या जायन्ते ये ते तथा-शलभादय इति । सम्पति एतेपामण्डजादीनां सप्तगतिकत्वं सप्तागतिकत्वं च निरूपयितुमाह-'अंडया सत्तगइया ' इत्यादि । अंडजाः पक्षिसादयः सप्तगतिका:-सप्तसु योनिपु गतिः सृत्वा गमनं येषां ते तथा-सप्तसु योनिपु गमनशीलाः सप्तागतिका:-सप्तभ्यो योनिभ्य आगतिः आगमनं येपां ते तथाभूताश्च प्राप्ताः, तद्यथा-अण्डजा गर्भाधानके विनाही जिनकी स्वयं उत्पत्ति हो जाती है, ऐसे जीव सम्मृच्छिम हैं । अथवा-सप तरफसे देहका जो मूर्छन-अवयव संयोग है वह सम्मूच्छ है, इस सम्मूर्छ से जो उत्पन्न होते हैं वे सम्मूच्छिम हैं मातापिताके संयोग हुए विनाही जो अपने आप उत्पन्न हो जाते हैंऐसे पिपीलिका, (चूंटी) मक्षिका, मकोडा आदि जीव सम्मूर्छिम हैं।६। __जो भूमिको भेद करके उत्पन्न होते हैं ऐसे शलभ आदि जीव या वनस्पति उद्भिज्ज हैं १७ ___ अब सूत्रकार :इन अण्डज आदिकों की सातगंतिकता और सात आगतिकताका निरूपण करनेके निमित्त "अंडया सत्त गया" इत्यादि रूपसे कथन करते हैं-इन सातमें जो अण्डज ई-पक्षी, सर्प आदि हैं वे मरकर इन सातोंमें उत्पन्न हो सकते हैं, (૫) જે જી પરસેવામાંથી ઉત્પન્ન થાય છે તેને સંદિમ કહે છે. જ, લીખ, માકડ વગેરે આ પ્રકારના છ છે. (૬) ગર્ભાધાન વિના જ જેમની આપોઆપ ઉત્પત્તિ થઈ જાય છે, એવાં જીને સંમૂછિંમ કહે છે. અથવા-બધી તરફથી દેહને જે મૂર્ચ્યુન (અવ સવ સગ) છે તેને સંમૂચ્છ કહે છે. આ સંમૂછે વડે જેઓ ઉત્પન્ન થાય છે તેમને સમૂર્ણિમ કહે છે. માતાપિતાના સંગ વિના જ જે જીવે પિતાની જાતે જ ઉત્પન્ન થઈ જાય છે એવા કીડી, મેકેડા, માખી આદિ જેને સમૂછિમ કહે છે. (૭) જે જીવે ભૂમિને ભેદીને ઉત્પન્ન થાય છે એવા શલભ આદિ જીને અથવા વનસ્પિતિને ઉદ્વિજ કહે છે. હવે સૂત્રકાર આ અંડજાદિકની સાત ગતિકતાનું અને સાત આગતિतानु नि३५९ ४२ छ. “ अंडया सत्त गइया" त्याह- . સર્પ, પક્ષી, આદિ જે અંડજ જીવે છે તેઓ મરીને અંડજ આદિ સાતમાં ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. એટલે કે અંડજ મરીને ફરીથી અંડજમાં Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुस टोका स्वा० ७ सू. ३ सप्तविधजीवनिरूपणम् ५४७ निवद्धाण्डजनामकर्मा अतएव अण्डजेषु उत्पद्यमानो जीवा अण्डजेम्यो वा. पोतजेभ्यो वा यावद् उद्भिज्जेभ्यो वा आगत्य उत्पद्येन-इति सप्तागतिकत्वमाश्रित्यो क्तम् । सम्प्रति सप्तगतिकत्वमाश्रित्याह-' से चेवणं', इत्यादि । स एव खल अण्डजः-योऽण्डजादेः कस्माञ्चिदपि योनिविशेषात् समागत्य अण्डजत्वेनोत्पन्नः स एव अण्डजो जीवः अण्डजत्वं विपजहद-परित्यजन अण्डजतया वा पोतजतया वा यावत् उद्भिज्जतया वा गच्छेदिति । एवमेव पोतना अपि सप्तगतिकाः सप्ताअर्थात् अण्डज मरकर पुनः अण्डज हो सकता है, अण्डज मरकर पोतज हो सकता है, अण्डज मरकर जरायुज हो सकता है, अण्डज मरकर रसज हो सकता है, अण्डज मरकर संस्वेदिम हो सकता है, अण्डज मरकर सम्मूच्छिम हो सकता है, और अण्डज मरकर उद्भिज्ज हो सकता है। इसी तरहसे वह सात इन जगहोंसे आकर इनमें उत्पन्न हो सकता है, अण्डज-निबद्ध अण्डज नामकर्मवाला जीव अण्डजोंमें उत्पन्न होता हुआ अण्डजोंसे अथवा पोतजोंसे धावत् उद्भिज्जोंले ओकर उत्पन्न होता है, इसी तरह वही अण्डज-जो अण्डज आदि किसी भी योनि विशेषसे आकर अण्डज रूपसे उत्पन्न होता है, ऐसा वह अण्डज जीव अंडजत्वरूप पर्यायको छोड़ता हुआ पुनः अण्डज रूपसे अथवा पोतज रूपसे यावत् उद्भिज्ज रूपसे जन्म धारण कर लेता है, ઉત્પન્ન થઈ શકે છે. અથવા અંડજ જીવે મરીને પિતજેમાં પણ ઉત્પન્ન થઈ શકે છે. અથવા અંડજ છ મરીને જરાયુજમાં પણ ઉત્પન્ન થઈ શકે છે. અથવા અંડજ જીવે મરીને રસજમાં પણ ઉત્પન્ન થઈ શકે છે, અથવા અંડજ જી મરીને સ ક્રિમમાં પણ ઉત્પન્ન થઈ શકે છે, અથવા અંડજ છે મરીને સંમૂછિમાં પણ ઉત્પન્ન થઈ શકે છે, અથવા અંડજ, છ મરીને ઉદ્ધિજજેમાં પણ ઉત્પન્ન થઈ શકે છે. એ જ પ્રમાણે ઉપર્યુક્ત સાતે પ્રકારના જીવ મરીને ઉપર્યુક્ત અંડજ આદિ સાતે પ્રકારના છ રૂપે ઉત્પન્ન થઈ શકે છે. भ-निमद्ध मन नाम वाणी 4 ममथी, मया पात. જેમાંથી, અથવા જરાયુજેમાંથી, અથવા રસમાંથી, અથવા સંદિરમાંથી અથવા સમૂરિઝમમાંથી, અથવા ઉદ્ધિજેમાંથી આવીને અંડમાં ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. એ જ પ્રમાણે એજ અંડજ કે જે અંડજ આદિ કોઈ પણ નિવિશેષમાંથી આવીને અંડજ રૂપે ઉત્પન્ન થયેલે છે, તે અંડજ જીવ અંડજ રૂપ પર્યાયને છેડીને ફરીથી અંડજ રૂપે અથવા પિતજ રૂપે, અથવા જરાયુજ રૂપે અથવા રસ જ રૂપે ... જન્મ ધારણ કરી લે છે. આ પ્રકા Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४८ स्थानास गतिका बोध्याः-4- एवमेव अनेन प्रकारेणैव सप्तानामपि अण्डज पोवजयोः संग्र 'डात् सप्तानामिति - अण्डजादि सप्तानामपीत्यर्थः, ततश्च जरायुजमारम्योद्भिज्जपर्यन्तानां पञ्चानामपि गत्यागती भणितव्ये इति भावः ॥ सू० ३ ॥ अनन्तरसूत्रे योनिसंग्रह उक्तः इति संग्रहप्रस्तावात् संग्रहस्थानसूत्रमाह now मूलम् - आयरियउवज्झायरस णं गणंसि सत्त संगहाणा पण्णत्ता, तं जहा - आयरियउवज्झाए गणंसि आणं वा धारणं वा सम्मं पउंजित्ता हवइ, एवं जहा पंचट्टाने जाव आयरियउवज्झाए गणंसि आपुच्छियचारी यात्रि हवइ, णो 'अणापुच्छियचारी यावि भवइ, आयरियउवज्झाए गणंसि अणुपाई अवगरणाई सम्भं उप्पाइत्ता हवइ, आयरिय उवज्झाए गणसि पुष्पन्नाई उबगरणाई सम्मं सारक्खेत्ता संगवित्ता भवइ, णो असम्मं सारक्खेत्ता संगवित्ता भवइ । आयरियउवज्झायस्स णं गणास सत्त असंगहाणा पण्णत्ता, तं जहा - आयरियउवज्जाए गणसि आणं वा धारणं वा नो सम्मं पउंजित्ता भवइ, एवं जाव उवगरणाणंनो सम्मं सारकखेत्ता संगोवेत्ताभवइ॥ सू० ४ ॥ इसी प्रकारकी गति आगनिका कथन पोतज जीवोंके सम्बन्धमें भी कर लेना चाहिये, अर्थात् पोतज जीव भी सात गतिवाले और सातही आगतिवाले होते हैं। इसी तरह जरायुजसे लेकर उद्भिज्ज तकके पांचों जीव भी सात गतिवाले और सात आगतिवाले होते हैं, ऐसा जानना चाहिये || सू० ३ ॥ રનું ગતિ અને આતિ વિષયક કથન પાતજ જીવેામાં પણ સમજી તેવું એઇએ. એટલે કે પેાતજ જીવ પણ 'સાત પ્રકારની ગતિવાળા અને સાત પ્રકારની આગતિવાળા હાય છે, એમ સમજવું. એ જ પ્રમાણે જરાયુજથી લઈને ઉદ્ધિનો પર્યં તેના પાંચે પ્રકારના જીવે પશુ સાત ગતિવાળા અને श्रर्ति' भागतिर्वाणा 'डर्थि 'छे! मे 'सर्भवु'- लेहये ॥ सू. ३ ॥ ४ Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०७ ० ४ संग्रहस्वरूपनिरूपणम् ५४१ छाया-- आचार्योपाध्यायस्य खलु गणे सप्त संग्रहस्थानानि मक्षप्तानि, aar - आचार्योपाध्यायो गणे आज्ञां वा धारणां वा सम्यक् प्रयोक्ता भवति, एवं यथा पञ्चमस्थाने यावत् आचार्योपाध्यायो गणे आपृच्छ्यचारी चापि भवति, नो अनापृच्छयचारी चापि भवति । आचार्योपाध्यायो गणे अनुत्पन्नानि उपकरणानि सम्यक् उत्पादयिता भवति । आचार्योपाध्यायो गणे पूर्वोत्पन्नानि उपकरणानि सम्यक संरक्षिता, संगोपिता भवति नो असम्यक संरक्षिता संगोपिता भवति । आचार्योपाध्यायस्य खलु गणे सप्त असंग्रहस्थानानि प्रज्ञप्तानि तद्यथाआचार्योपाध्यायो गणे आज्ञां वा धारणां वा नो सम्यक् प्रयोक्ता भवति, एवं यावत् उपकरणानां नो सम्यक् संरक्षिता संगोपिता भवति ॥ सु० ४ ॥ टीका--' आयरिय उवज्जायस्स ' इत्यादि - • आचार्योपाध्यायस्य- आचार्यथासौ उपाध्यायथेति कर्मधारयः, आचार्यश्व उपाध्यायश्चेति समाहारो वा, तस्य तथाभूतस्य - गणे= गच्छे संग्रहस्थानानिइस ऊपर के सूत्र में योनिका संग्रह कहा गया है, इस कारण संग्रहके प्रकरण से अब सूत्रकार संग्रह सूत्रका कथन करते हैं " आयरिय उवज्झायस्स णं गणसि सत्त संगहाणा पण्णत्ता इत्यादि । सूत्र ४ ॥ आचार्य एवं उपाध्यायके गणमें सात संग्रहस्थान कहे गये हैं । यहाँ आचार्योपाध्यायमें आचार्य रूप उपाध्याय अथवा आचार्य एवं उपाध्याय ऐसा अर्थ लिया गया है, आचार्यरूप उपाध्याय जब ऐसा लिया जाता है, तब तो वहां कर्मधारय समास हो जाता है, और जब आचार्य और उपाध्याय ऐसा अर्थ लिया जाता है, तब वहां समाहार द्वन्द्व समास हो जाता है, ज्ञानादिकों का अथवा शिष्योंका जो संचय ઉપરના સૂત્રમાં ચૈાનિના સંગ્રહનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યુ. આ સંગ્રહ પદ્મથી સૂચિત થતાં સંગ્રહસૂત્રનું હવે સૂત્રકાર થન કરે છે. " आयरिय उत्रज्झायस्त णं गणंसि सत्त संगहद्वाणा पण्णत्ता " त्याहि-આચાય અને ઉપાધ્યાયના ગણમાં સાત સ ગ્રહસ્થાન કહ્યાં છે. અહીં આચાર્યાંપચ્યાય પદના અર્થ આચાય રૂપ ઉપાધ્યાય અથવા આચાય અને ઉપાધ્યાય થાય છે. જો આ પદના અર્થ આચાય રૂપ લેવામાં આવે, તે અહીં કર્મધારય સમાસ મને છે. પણ જે આચાય અને ઉપાધ્યાય, આ અથ લેવામાં આવે, તેા સમાહાર દ્વન્દ્વ સમ'સ થાય છે. જ્ઞાન દકાના અથવા શિષ્યાના જે સચય છે તેને સગ્રહ કહે છે. તે સગ્રહના સાત સ્થાન નીચે પ્રમાણે છે 19 Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५० स्थानाङ्गले संग्रहा=ज्ञानादीनां शिष्याणां वा संचयः, तस्य स्थानानि सप्त प्राप्तानि, तयथाआचार्योपाध्यायो गणे आज्ञां= हे मुने ! भवतेदं विधेयम्' इति विधिरूपां, धारणां- नेदं विधेयम् ' इति निषेधरूपां वा सम्यक् यथौचित्येन प्रयोक्ता प्रवर्तको भवति ? । एवं करणे शिष्यसंग्रहो ज्ञानादिसंग्रहश्च भवति, अन्यथा गणध्वंस एव भवति । उक्तं च___ "जहि नस्थि सारणा वारणा पडिचोयणा य गच्छम्मि। सो उ अगच्छो गच्छो, मोत्तयो संजमत्थीहि " ॥१॥ छाया-यत्र नास्ति स्मारणा वारणा प्रतिनोदना च गच्छे । ___ स तु आच्छो गच्छो मोक्तव्यः संयमाथिभिः ॥ १॥ इति । ' अयं भावः-यत्र गच्छे स्मरणा-विस्मृते क्वचित कर्तव्ये ' भवतेदं न कृतम् इत्येवं रूपा, वारणा कस्मिंश्चिदकर्तव्ये प्रवृत्तस्य ' भवतेदं न कर्तव्यम्' इत्येवंहै, वह संग्रह है, इस संग्रहके सान स्थान इस प्रकार से हैं-जय आचार्य यो उपाध्याय अपने गण-गच्छ में-हे मुने । तुम्हें यह करना चाहिये इस प्रकारकी विधिरूप आज्ञाका अथवा हे मुने! तुम्हें यह नहीं करना चाहिये इस प्रकार की विधिल्प आज्ञाका यथोचित रूपले प्रयोक्ताप्रवर्तक होता है, तब वह शिष्य संग्रह करनेवाला और ज्ञानादिका संग्नह करनेवाला होता है, यदि वह अपने गणमें इस प्रकारकी आज्ञा और धारणाका प्रवर्तक नहीं होता है, तो उसके गणका विनाशही हो जाता है कहा भी है " जहि नस्थि सारणा" इत्यादि-- जिस गणमें स्मारणा-किसी कर्तव्यके भूल जाने पर आपने यह नहीं किया इस प्रकार की भूले हुए कर्तव्यको याद दिलानेवाली प्रणाली (१) र माया पोताना युभो अथित ३२ माज्ञाना. प्रयोता (પ્રવર્તક) હેય છે, તેઓ શિષ્યના સમૂદાયની વૃદ્ધિ કરવાનું અને જ્ઞાનાદિન સંગ્રેડ કરવાને સમર્થ બને છે. “ હે મુને ! તમારે આ પ્રમાણે કરવું જોઈએ, આ પ્રકારની વિધિ રૂપ આજ્ઞાના પ્રવર્તક અથવા “હે મુનિ ! તમારે આ પ્રમાણે ન કરવું જોઈએ, ” આ પ્રકારની ધારણાના પ્રવર્તક આચાર્ય પિતાના ગણમાં સાધુઓને સમુદાય વધારનારા અને જ્ઞાનની વૃદ્ધિ કરનારા હોય છે. પરંતુ જે આ ચાર્યે પિતાના ગચ્છમાં આ પ્રકારની આજ્ઞા અને ધારણાના પ્રવર્તક હોતા નથી, તેમના ગણને વિનાશ જ થાય છે. ५९ छ है "जहि नस्थि सारणा" स्याहજે ગણુમાં સ્મારણ-કઈ કર્તવ્ય બજાવવાનું ભૂલી જનાર શિષ્યને " मे मा ४थुनी -20 ४२०य मातुं तमे सूधी गया, " मा t. - Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारीका स्था. सू. ४ संग्रहस्वरूपनिरूपणम् रूपा निषेधना, प्रतिनोदना=असकृत्स्खलितादौ-' धिक् ते जन्म' इत्यादि निष्ठुरवाक्यैाढतरप्रेरणा च नास्ति स तु गच्छः अगच्छो भवति । अत एव संयमाथिमिः स गच्छो भोक्तव्या-परित्याज्य इति ॥१॥ एवं यथा पश्चमस्थाने-पञ्चमस्थानस्य प्रथमोशे उक्तं, तथैवात्रापि वक्तव्यं यावत्-( २-३-४ ) आचार्योपाध्यायो गणे आपृच्छथचारी चापि भवति, नो अनापृच्छयचारी चापि भवतीति । तत्र यावत्पदेन-त्रीणि स्थानानि पञ्चमस्थानोक्तानि संग्राह्याणीति तान्याह-आचार्योपाध्यायः खलु गणे यथारानिकधारणा-किसी अत्तव्यमें प्रवृत्त हुएको तुम्हें यह नहीं करना चाहिये" इस प्रकारसे निषेध करनेकी पद्धति, और प्रतिनोदना-बार २ गल्ती करने पर " तेरे जन्मको धिक्कार है" इत्यादि रूप निष्ठुर वाक्यों से प्रताड़ना नहीं है, ऐसा गच्छ अगच्छ हो जाता है, और संयप्रार्थी पुरुषों द्वारा, वह गच्छ परित्याज्य हो जाता है ।१। । ' इस तरहसे जैसा पंचम स्थानमें-पंचम स्थानकके प्रथम उद्देशकमें कथन किया गया है, वैसाही यहां पर भी कथन कर लेना चाहिये यावत् (२-३-४) आचार्योपाध्याय गणमें आपृच्छयचारी-पूंछकर याहर जानेके योग्य होता है, अनापृच्छयचारी होता है, यहां यावत् शब्दसे पंचम स्थानोक्त ३ स्थान प्रहण किये गये हैं। जो इस प्रकारसे हैंजो आचार्य उपाध्याय अपने गणमें पर्यायज्येष्ठ अनुसार कृतिकर्मका રની ભૂલાઈ ગયેલા કર્તવ્યને યાદ કરાવનારી પ્રણાલી, અને કેઈ અકર્તવમાં પ્રવૃત્ત થયેલાને “તમારે આવું કરવું જોઈએ નહીં” આ પ્રકારના નિષ રૂપ વારણ કરવાની પ્રણાલી, તથા પ્રતિનેદના-વારંવાર ભૂલ કરનારને “ધિકાર છે તને ” ઈત્યાદિ કઠોર (નિષ્ફર વાક્ય વડે તેને ઠપકો આપવાની પ્રણાલી નથી એવા ને વિનાશ થઈ જાય તે ગચ્છ ખરા અર્થમાં ગચ્છ કહેવાને યોગ્ય નહીં રહેવાને કારણે સંયમાર્થી ગુરુ દ્વારા પરિત્યાજથ मनी जय छे. । १। આ પ્રકારે જેવું પાંચમાં સ્થાનકના પહેલા ઉદ્દેશામાં કથન કરવામાં આવ્યું છે, એવું જ કથન અહીં પણ ગ્રહણ કરવું જોઈએ તે કથન અહી કયાં સુધી ગ્રહણ કરવાનું છે તે નીચે દર્શાવવામાં આવ્યું છે– " मायायपाध्याय गमा माछ्ययारी-पूछीन मडा२ गमन (पिडा२) કરનારા હોવા જોઈએ ” અહી સુધીના કથન દ્વારા ત્યાં ત્રણ સ્થાનેનું કથન થયું છે. પાંચમાં સ્થાનકમાં પ્રતિપાદિત તે ત્રણ સ્થાને નીચે પ્રમાણે છે Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - स्थानापने तया कृतिकर्म सम्यक् प्रयोक्ता भवति १, आचार्योपाध्यायो गणे यानि श्रुतपयवजातानि धारयति तानि काले काले सम्यक अनुभवाचयिता भवति २, आचा. योपाध्यायो गणे ग्लानशेक्षयात्त्यं सम्यक् अभ्युत्थाता भवति ३। अत्र-मलो. काथमस्थान संमेलनेन जातानि चत्वारि ४। अथ पञ्चममाह-आचायोपाध्यायो गणे आपृच्छचारी चापि भवति नो अनापृच्छयचारी चापि भवति । व्याख्या शुगमा। . नारम्-'गणे आपृच्छयचारी' इति तदुक्तम्, तत्र-गणशब्देन साधु-- . सङ्घो ग्राहस्तेन गणे-साधुसङ्घ इत्यर्थः, ततोऽत्र-आपच्छनं साधु सहस्य बोध्यम् । सम्यक प्रयोक्ता होता है, वह तथा जितने श्रुत पर्यवनात हैं-उन्हें धारण कानेबाला जो आचार्योपाध्याय उन्हें समय २ पर आने शिष्योंको सिखाना है, वह २ तथा जो आचार्योपाध्याय अपने गणमें ग्लान शैक्षको वैधावृत्ति सम्यक् प्रकार से करने करानेवाला होता है, वह शिप्य संग्रह और ज्ञानादिका संग्रह करनेवाला होता है, इस प्रकार के इन तीन स्थानोंको और मूलोक्त (मूल में कहे हुवे) प्रथम स्थानको मिलाकर ये ४ स्थान हो जाते हैं। तथा-" आचार्योपाध्यायो गणे आपृच्छय चारी" इत्यादि रूप यह पांचवां स्थान है, यहां पर जो " आपृच्छयचारी " ऐसा कहा है, सो यहां गण शब्द से साधु संघ प्राध्य है, अतः " साधुसंघले पूछना " ऐसा इसका अर्थ होता है, '. ' (૧) જે આચાર્ય અને ઉપાધ્યાય પિતના ગરામાં પર્યાય છતા અનુસાર કૃતિકર્મના ( પર્યાય જે સાધુઓને લઘુપર્યાયવાળા સાધુઓ દ્વારા વન્દના અદિતા) સમ્યક્ પ્રયોક્તા (પ્રવર્તક) હોય છે, તેઓ શિષ્યસંગ્રહ અને જ્ઞાનાદિને સંગ્રહ કરનારા હોય છે. (૨) જે આચાર્ય પોતાના શિષ્યને સમય સમય પર કૃતનું અધ્યયન, પુનરાવર્તન આદિ કરાવે છે, તે શિષ્ય ગ્રહ અને જ્ઞાનાદિને સંગ્રહ કરનાર હે ય છે (૩) જે આચાર્યોપાધ્યાય પિતાના ગણના પ્લાન (બિમાર), શેક્ષ (નવદીક્ષિત) આદિનું વૈયાવૃત્ય સારી રીતે કરતા કરાવતા હોય છે, તેઓ શિષ્યસંગ્રહ અને જ્ઞામાદિનો સંગ્રહ કરનાર હોય છે, આ ત્રજ્ઞ સ્થાન અને મૂલસૂત્રોક્ત એક સ્થાન મળીને ચાર સથાન અહીં સુધીમાં પ્રકટ કરવામાં આવ્યાં છે. હવે પાંચમું સ્થાન પ્રકટ કરવામાં मा.छे-" आचार्योपाध्यायो, गणे आपृच्छयचारी". त्याहि । मा सूत्रपाभ ' ' . ५६ साधुसना . अभी १५यु, -छ, " साधु सपने ५७,".प्रारना ना अर्थ, थाय छे. Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५३ सुधारीका स्था०७ १०४ संग्रहस्वरूपनिरूपणम् । अथ-पष्ठं संग्रहस्थानम्-आचार्योपाध्यायो गणे अनुत्पन्नानि अलब्धानि उपकरणानि वस्त्रपात्रादीनि सम्यक् एषणादि शुद्धया उत्पादयिता-उपार्जको भवतीति ६॥ सप्तमं तु-आचार्योपाध्यायो गणे पूर्वोत्पन्नानि पूर्वकालोत्पादितानि उपकरणानि-वस्त्रपात्रादीनि सम्पक संरक्षिता-प्रयत्नतो रक्षणकर्ता, संगोपिता वा. भवति, न तु असम्यक संरक्षिता संगोपिता भवतीति ७। एतद्वैपरीत्येव आचायोपाध्यायस्य सप्त असङ्मस्थानानि विज्ञेयानि । एतदेव रचयितुमाह "आयरिय उपज्झायस्त णं गणंसि सत्त असंगहट्ठाणा पण्णत्ता" इत्यादि। व्याख्याऽस्य संग्रहस्थानवैपरीत्येन वोध्येति ।। सू० ४ ॥ छठा स्थान इस प्रकारसे है-"आयरिय उवज्झाए गणंसि अणु.. प्पन्नोइं" इत्यादि-जो आचार्य उपाध्याय गणमें अलब्ध उपकरणोंकावस्त्र पात्रादिकोंका-एषणा शुद्धिसे उपार्जक होता है, वह आचार्य शिष्यका संग्राहक और ज्ञानादिका संग्राहक होता है। सातवां स्थान इस प्रकारसे हैं-" आयरियउवज्झाए " इत्यादिजो आचार्योपाध्याय पूर्वकालोत्पादित वस्त्र पात्रादि उपकरणोंका प्रयत्नपूर्वक रक्षण करता होता है, असम्यक् रूपसे उनका रक्षण करनेवाला नहीं होता है, ऐसा वह आचार्योपाध्याय शिष्यका संग्राहक और ज्ञानादिकोंका संग्राहक होता है, इन सातों संग्रह स्थानोंसे विपरीत जो स्थान हैं-वे सात असंग्रह स्थान हैं। यही बात "आयरिय उंच. जमायस्सणं गणसि सत्त असंग्गहट्ठाणो पण्णत्ता" इस सूत्रपाठ द्वारा प्रकट की गई है, यहांके पदोंकी व्याख्या संग्रहस्थान गत पदोंकी व्याख्यासे विपरीत होती है, ऐसा जानना चाहिये ॥ सूत्र ४ ॥ ७६ स्थान-“ आयरियउवज्झाए गणंसि अणुप्पन्नाई" त्याहि-२ આચાર્ય અલબ્ધ ઉપકરના (વસ્ત્ર પાત્રાદિકના) એષણા શુદ્ધિપૂર્વક ઉપાર્જક હોય છે, તેઓ શિષ્યને તથા જ્ઞાનાદિનો સંગ્રહ કરી શકે છે. - सातभु स्थान-"आयरिय उवज्झाए" त्याहि मायापाध्याय પૂર્વકાલત્પાદિત વસ્ત્ર, પત્રાદિ રૂપ ઉપકરણનું પ્રયત્નપૂર્વક રક્ષણ કરનારા હોય છે. તેઓ શિષ્યને અને જ્ઞાનાદિને સંગ્રહ કરી શકે છે સંગ્રહના આ સાત સ્થાન કરતાં જે વિપરીત પ્રકારના સ્થાને છે, તેમને અસંગ્રહના અથવા गाना विनाशनां स्थाना सभा नय..पात "आयरियउज्ज्ञा. यस्स णं गणंसि सत्त असंग्गहदाणा पण्णचा" या सूत्राट ४२वामा આવી છે. સંગ્રહના સ્થાને કરતાં અસંગ્રહનાં સ્થાને વિપરીત હોવાથી - સંગ્રહના સ્થાનના પદની વ્યાખ્યા કરતાં અસંગ્રહના સ્થાનનાં પદોની व्याच्या विपरीत सभरावी. ॥ सू. ४ ॥ स्था०-७० Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • स्थानापरले __ . अनन्तरसूत्रे ' आज्ञादिकं न सम्यक् प्रयोक्ता भवति-' इत्युक्तम् ।' आमा च पिण्डैपणादिविषयेति पिण्डैपणादीनि निरूपयति - . . - मूलम्-सत्त पिडेसणाओ पण्णत्ताओ। सत्तः पाणेस णाओ पण्णत्ताओ। सत्त उग्गहपडिमाओ पप्णत्ताओ। सत्तं संत्तिकया पणत्ता । लत्तमहज्झयगा पण्णता । सत्त सत्तमिया. णं भिश्वुपडिमा एकूणपण्णयाए राइंदिएहिं एगेण य छण्णउएणं भिक्खासएणं अहामुत्तं अहाकप्पं अहामग्गं अहातचं अहासम्मं काएणं फासिया पालिया सोहिया तीरिया किटिया आराहिया आणाए अणुपालियावि भवइ ॥ सू० ५॥ छाया-सप्त पिण्डेषणाः प्रज्ञप्ताः । सप्त पानपणाः प्रज्ञप्ताः । सप्त अवग्रहप्रतिमाः प्राप्ताः । सप्त सप्तककानि प्रज्ञप्तानि । सप्त महाध्ययनानि प्रज्ञप्तानि । सप्त सप्तमिका खलु भिक्षुपतिमा एकोनपञ्चाशतां रात्रिन्दिवैः एकेन च. पणावत्या भिक्षाशतेन यथासूत्रं यथाकल्पं यथामार्ग यथातत्त्व यथासाम्यं कायेनः स्पृष्टा पालिता शोधिता तीरिता कीर्तिता आराधिता आज्ञया अनुपालिताऽपि भवति ।। सू०५॥ "टीका-'सत्त पिंडेसाओ' इत्यादिपिण्डैपणा:-पिण्ड: भक्तम्, तस्य एषगाः प्रहगप्रकाराः सप्त प्रज्ञप्ताः । ताश्च इस ऊपरके सूत्र में अन्लमें " आज्ञादिकां वह सम्यक प्रयोक्ता नहीं होता है" ऐसा कहा गया है, लो आज्ञा 'पिण्डैषणादि विषय. घाली होती है-अतः अब सूत्रकार पिण्डैषणादिकका निरूपण करते हैं "सस पिंडेसणाओ पण्णताओ" इत्यादि । सूत्र ५॥. . टीकार्थ-पिण्डैषणा-पिण्ड-आहारको जो एपगा हैं-ग्रहण, करनेके प्रकार हैं-वे पिण्डेषणा है-घे सात प्रकार की कही गई हैं, जैसे-असं ઉપરના સૂત્રને અન્ને એવું લખાણ આવ્યું છે કે “તેઓ આસાદિકના અર્પક પ્રયોક્તા (પ્રવર્તક) હોતા નથી ” આજ્ઞા પિપૈષણાદિ વિષયવાળી છે, તેથી હવે સૂત્રકાર પિડેષણાદિકનું નિરૂપણ કરે છે. "सत्त पिंडेपणाओ पणत्ताओ" त्याह-", ટીકાર્થ-પિડેષણ એટલે પિડને (આહારને) ગ્રહણ કરવાના પ્રકાર, આહારને “હા, કરવાના પ્રકાર રૂપ પિંડેષણાના નીચે પ્રમાણે સાત પ્રકાર કહ્યાં છે, Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टोका स्या० ७ सू० ५ पिण्डैपणादिनिरूपणम् ... ५५५ असंसृष्टा १ संसृष्टा २ उध्धृता ३, अल्पलेपिका ४ अवगृहीता ५ प्रगृहीता ६ उशिवधर्मा ७ चेति । तंत्र-यत्र पिण्डैषणायां इस्तः पात्रं चेति · यमप्यसंसृष्टम् सा-असंसृष्टा अखरण्टितहस्तपात्रा भर्जितचणकादि ग्रहणरूपेत्यर्थः ।। सैसृष्टा-खरण्टितहस्तपात्रा-कुशरादि ग्रहणरूपेत्यर्थः ॥ २ ॥ उध्धृता-गृहस्थेन स्वार्थ स्थाल्यादौ मोजनजातमुद्धृतम् तदेवंविधं भोजनजातम् । संसृष्टहस्ततः असंसृष्टपात्रतः संसृष्टपात्रतः असंसृष्टहस्ततो वा गृङ्गवः । अस्याः संसृष्टाऽसंस.. सृष्ट १ संसृष्ट २ उद्धृन ३ अल्पलेपिका ४, अवगृहीत ५ प्रगृहीत ६, और उज्झितधर्मा ७, जिप्स पिण्डेषणामें हाथ और पात्र थे दोनों भी असंखष्ट होते हैं ऐसी वह पिण्डषणा असंपृष्टपिण्डेपणा है, ऐसी यह पिण्डेपणा भुजे हुए चनों आदिको ग्रहण करने रूप होती है क्योंकि ये न हाथमें चिपकते हैं, और न पात्र मेंही चिकते हैं । जिस पिण्डै षणामें हाथ और पात्र दोनों खरण्टित-संसक्त हो जाते है, ऐसी वह पिण्डैषणा संपृष्ट पिण्डषणा है, यह पिण्डैषणा कृशरादि-खीचडी आदिको ग्रहण करनेरूर होती है । उद्धृत-गृहस्थने अपने निमित्त जिस भाजनसे भोजनको स्थाली आदिले निकाल कर रख लिया हो' ऐसे भोजनको संसृष्ट हाथ से, असंसृष्ट पात्र अथवा संसृष्ट पात्रले असं. सृष्ट हाथ से लेनेवालेकी यह उद्धृन पिण्डैषणा होती है, इसका दूसरा नाम संसष्टोसंष्ट पिण्डैषणा भी है। स्वल्पलेप युक्त ऐसी जो पुराने (१) असष्ट, (२) संसू, (३) धत, (४) मप४िi, () अपडीत, (५) प्रगृहीत मन (6) S uी . २, पिषमा मने पात्र, मे मन्ने मस सुट ( २४या (पनाना) રહે છે, તે પ્રકારની પિડેષણને અસંસ્રણ પિકૅપણ કહે છે. પલાળેલા ચણ આદિને ગ્રહણ કરવા રૂપ આ પિંડેષણ હોય છે, કારણ કે તે હાથ સાથે પણ ચાટી જતાં નથી અને પત્ર સાથે પણ ચોંકી જતાં નથી. જે પિષણામાં હાથ અને પાત્ર, અને સંસક્ત-ખરડાયેલા થાય છે, તે પ્રકારની પિડેષણાને અસંયુષ્ટ, પિડેષણ કહે છે, તે પિડેષણ ખીચડી આદિને ગ્રહણ કરવા રૂપ હેય છે, કારણ કે તે વસ્તુ હાથ અને પાત્ર સાથે ચૂંટી જાય છે. , ઉદૂવૃત પિડેષણા-ગૃહસ્થ પિતાને નિમિત્તે જે ભેજને કઈ ભેજન ( પાત્ર) માંથી થાળી આદિમાં કાઢેલું હોય એવા ભેજનને સંસૂછ હાથ વડે અથવા અસંયુષ્ટ હાથ વડે અને અસ સુષ્ટ પાત્ર વડે અથવા સ સુષ્ટ પાત્ર ડે ગ્રહણ કરવા રૂપ જે પિંડેષણું છે તેને ઉદૂત પિડેષણ કહે છે. તેનું બીજું નામ સંસટાસસષ્ટા પિંડેષણ પણ છે. - Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टेत्यपि नाम ॥३॥ अल्पलेपिका-स्वल्पले पयुक्ता पुराणशालिमक्तग्रहणरूपा ॥ ४ ॥ अवगृहीता-भोजनफाले शराबोदिपु यद् भोजनजातमुपहृतं ततो गृहतः ॥ ५ ॥ प्रगृहीता-भोजनवेलायां दातुमभ्युध तेन हस्तादिना गृहीतं यद् भोजनजातं, भोक्तुं वा हस्तादिना गृहीतं, ततो गृह्णतः । ६। तथा-उज्झितधर्मा-यद् भोजनजातं नीरसतया परित्यागयोग्यमन्तमान्तलक्षणं यदन्ये द्विपदादयो नाभिलपत्ति, तद् गृह्णतः, ।। ७ ॥ इति । पानपणाऽपि एवमेव सप्तविधा विज्ञेया । शालीके चावलोंके भातको ग्रहण करनेरूप पिण्डैषणा है, वह अस्पपिका पिण्डैषणा है। भोजन कालमें शराव-सकोरा-आदिमें जो भोजन ओदि निकोल कर रखा गया हो उसे ग्रहण करनेवाछेकी यह अवगृहीता पिण्डेषणा होती है, भोजन के समय देनेको अभ्युद्यत हुए हाथ आदिसे जो भोजन गृहीत हुआ होता है, वह अथवा, खानेके लिये हाय आदिसे गृहीन हुआ जो भोजन है, उसे लेनेवालेकी यह प्रगृहीत पिण्डेषगा होती है। उझिन धर्मा-जो भोजन नीरस होनेसे परित्याग करने के योग्य होता है, ऐसे उस अन्त प्रान्तरूप भोजनको कि जिसे दूसरे द्विपद आदि भी नहीं चाहते हैं, ग्रहण करनेवालेकी यह उजिशन धर्ना पिण्डैषणा होनी है। पानेषणा भी इसी प्रकारसे सात प्रकारकी है, चतुर्थ पानैषणामें नानास्त्र है, अनेक प्रकारता है, [ અલપેલેવિક પિવૈષણવ૫ લેપયુક્ત એવા જૂની શાલીના (એક પ્રકારની ડાંગરના) ભાતને ગ્રહણ કરવા રૂપ જે પિડેષણ છે તેને અ૫પિકા पिया ४९ छे. અવગૃહીતા વિદ્વેષણ--જનકળે શકે આદિમાં જે ભેજના દિને કાઢી રાખવામાં આવેલ હોય તેને ગ્રહણ કરનારની વિડિષણાને ‘અવગ્રહના पिडा ४ छे. 'प्रीत पिष!-- Aने समये वाले भाट (AY ४२वाने भाटे) ઊંચા થયેલા હાથ આદિ વડે જે ભેજન ગ્રહણ કરવામાં આવે છે તેને, અથવા ખાવાને માટે હાથ આદિ વડે જે ભજન ગ્રહણ કરવામાં આવેલું હેય તેને ગ્રહણ કરનારની પિકૅપણાને પ્રગૃહીત પિડેષણ કહે છે. ઉઝિતપમ પિડેષણા--જે જન નીરસ હોવાને લીધે નાખી દેવાને ગ્ય હોય છે અને જે ભેજન ગ્રહ કરવાની બીજા કઈ પણ માણસને ઈચ્છા થતી નથી એવા અન્ત પ્રાન્ત રૂપ ભેજનને ગ્રહણ કરનાર સાધુની ‘પિડેષણને ઉંઝિતધર્મા પિંપણ કહે છે. પૌષણ પણ એ જ પ્રમાણે સાત Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीको स्था०७ ३० ५ पिण्डैषणादिनिरूपणम् ५५७ नवरं-चतुर्था पानपणायां नानात्वं अल्पछेषं तु तत्र अवस्रावणसौवीरकादि 'विज्ञेयमिति ७ अथ प्रतिमायाः सप्तविधत्वमाह-' उग्गहपडिमा' इत्यादि । अवप्रहप्रतिमाःअवद्यते पाश्रीयते इत्यवग्रहों वसतिः, तस्य-प्रतिमाः अभिग्रहाः सप्त प्रज्ञप्ताः । तंत्र-' अहमेवंविधमेव उपाश्रयं ग्रहीष्ये, नान्यद्विधम् ' इत्येवं पूर्वम् अभिगृह्य य उपाश्रयं गृह्णाति तस्य प्रथमा अवग्रहप्रतिमा ॥ १ ॥ तथा-" अहमेपां साधनां कृतेऽवग्रहं ग्रहीष्यामि, अन्यैश्च अवग्रहे गृहीते सति स्वयं वत्स्यामि' एवमभिग्रहवतो द्वितीया । इयं तु गच्छान्तर्गतानां सांभोगिकानाम् असांभोगिकानां चोयतअल्प लेपता तो वहां अवस्रावण-ओसामण-सौवीरक आदिरूप है, ऐसा जानना चाहिये ।। अब सूत्रकार प्रतिमाकी सप्तविधता कहते हैं-"उग्गहपडिमा" इत्यादि-अवग्रह प्रतिमा-" अवगृह्यते आधीयते इति अवग्रहः " इस व्यत्पतिके अनुसार साधुजन जिसे ठहरनेके लिये अपना आश्रयभ्रत पनाते हैं, वह अथग्रह है, ऐसा वह अवग्रह घसतिरूप होता है, इस अवग्रहकी जो प्रतिमा है-अभिग्रह है-वह अवग्रह प्रतिमा है, इनमें " मैं इस प्रकार केही उपाश्रयमें ठहरूंगा-और किसी प्रकारके उपाश्र यमें नहीं ठहरूंगा" इस प्रकारका पहिले अभिग्रह करके जो संकल्पित उपाश्रयः ठहरता है, उसको पहिली अवग्रह प्रतिमा होती है ।। પ્રકારની કહી છે. ચતુર્થ પાષણમાં અનેક પ્રકારના છે. અલ્પલેપતા તે ત્યાં ઓસામણ આદિ રૂપ સમજવી. - હવે સૂત્રકાર પ્રતિમાના સાત પ્રકારનું નિરૂપણ કરે છે - " उग्गहपडिमा " त्या:-- - " अवगृह्यते-आभीयते इति अवग्रहः " मा व्युत्पत्ति अनुसार साधु पाताने રહેવાને માટે જે સ્થાનને આશ્રય લે છે તેને અવગ્રહ કહે છે તે અવગ્રહ વસતિ ઉપાશ્રય રૂપ હોય છે આ અવગ્રહ વિષયક જે પ્રતિમા (અભિગ્રહ) છે તેને અવગ્રહ પ્રતિમા કહે છે. હવે તેના સાત પ્રકારે પ્રકટ કરવામાં આવે છે— , “ હું આ પ્રકારના ઉપાશ્રયમાં જ રહીશ–બીજા કેઈ પણ પ્રકારના ઉપાશ્રયમાં નહીં રહુ,” આ પ્રકારને અભિગ્રહ પહેલાં કરીને જે સ છે સંકલિપત ઉપાશ્રયમાં આશ્રય સ્વીકારે છે, તેના આ પ્રકારના અવગ્રહ અભિ भडने पडेसा प्रश्नी मश्र प्रतिभा ४९ छ. . . , Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५५४ स्थानागपुरी विहारिणां भवति, यतस्ते परस्परार्थ याचन्ते इति ॥ २॥ तथा-' अन्यार्थमव ग्रह याचिष्ये, अन्यावगृहीतायां च वसतौ न निवत्स्यामि ' इति तृतीया । इयमवग्रहप्रतिमा तु गच्छप्रतिबद्धा-प्रतिबद्धानां यथालन्दिकानां मध्ये गच्छपतिवद्धानां यथालन्दिकानां भवति । ते हि वाचनावशिष्टं सूत्रजातं. गुरोः सकाशादध्येतुमनसो गुरोरथै यसति याचन्ते इति ॥ ३ ॥ तथा-' अहमन्यार्थमवग्रहं न ग्रहीपयामि, अन्येनावगृहीतेऽत्रग्रहे तु स्थास्यामि' इति चतुर्थी । इयन्तु गच्छ: तथा-मैं " इन साधुओं के लिये अवग्रह ग्रहण करूंगा तथा अन्यों के द्वारा अवग्रह गृहीत होने पर मैं स्वयं भी उलमें रहूंगा" इस प्रकारके अभिग्रहवाले के द्वितीया अवग्रह प्रतिमा होती है, यह वित्तीय अभिग्रह प्रतिमा गच्छान्तर्गत सांभोगिकोंको और असांभोगिकोंके कि जो उद्यत विहारी होते हैं होती है, क्योंकि वे परस्परके लिये मांगते है २ अन्य के लिये में अवग्रह मांगूगा और अन्य के द्वारा अय. गृहीत वसति उपा अपमें मैं रहूंगा नहीं" ऐसी यह तृतीय अवग्रह प्रतिमा है, यह अवग्रह प्रतिमा गच्छ प्रतिबद्धों के अप्रतिबद्धोंके तथा यथालन्दिकों के मध्य में गच्छ प्रतिबद्ध यथालन्दिकोंके होती है। क्योंकि वे वाचनासे बाकी बचे हुए सूत्रको गुरुसे पढने की अभिलाषावाले होते हुए गुरुके लिये वसतिकी याचना करते है ।३। "मैं अन्यके लिये अवग्रह ग्रहण नहीं करूंगा परन्तु अन्यसे अवगृहीत अवग्रह होगा तो उसमें ठहर जाऊंगा" ऐसी यह चौथी "ई भी साधुमाने भाटे सवड (माश्रयस्थान) अ . तथा અન્યના દ્વારા અવગ્રહ ગૃહીત થયા પછી હું પણ તેમાં રહીશ” આ પ્રકારને અભિગ્રહ ધારણ કરીને સંકલિપત ઉપાશ્રયમાં આશ્રય સ્વીકારનાર સ ધુના આ અવગડ અભિગ્રહને બીજા પ્રકારની અવગ્રહ પ્રતિમા કહે છે. આ બીજા પ્રકારની અવગ્રહ પ્રતિમાને ઉદ્યત વિહારી ગચ્છાન્તર્ગત સાંભંગિકમાં અને અસાંગિકેમાં સદ્દભાવ હોય છે, કારણ કે તેઓ પરસ્પરને માટે માંગે છે. અન્યને માટે હું અવગ્રહ (આશ્રયસ્થાન) માગીશ અને અન્યના દારા અવગૃહીત (ઉપાશ્રયમાં) હું રહીશ” “આ પ્રકારની ત્રીજી અવગ્રહ પ્રતિમા છે. આ પ્રતિમાને સદૂભાવ ગચ્છપ્રતિબદ્ધમાં, અપ્રતિબદ્ધોમાં યથાહજિકેમાંના ગરછપ્રતિબદ્ધ યથાલન્ટિકમાં હોય છે, કારણ કે જે સૂત્રની વાચના બાકી રહી ગઈ હોય તે સૂત્ર.ને ગુરુ પાસેથી શીખવાની અભિલાષા4 तेरा शुरुने माटे पति (पाश्रय) नी- यायना ४२ . . Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा डीका स्था० ७ सू० ५ पिण्डेषणादिनिरूपणम् ५५१ L स्थितानामभ्युद्यतविहारिणां जिनकल्पिकत्वपातये परिकर्मकुर्वतां भवतीति ॥ ४ ॥ तथा - ' अहं स्वार्थमवग्रहं याचिष्ये, न चान्येषां द्वित्रिचतुः पञ्चाना मिति पञ्चमी । इयं तु जिनकल्पिकस्य बोध्येति ॥ ५ ॥ तथा - ' यदीयमवग्रहमहं ग्रहीष्यामि, तदीयमेव चेत् तृणादिसंस्तारकं भवेत् तदा तद् ग्रहीष्यामि । अन्यथा उत्कुटुको वा निषण्णो वा रात्रिं नेष्यामीति षष्ठी । इयमपि जिनकल्पि कादेरेवेति || ६ || तथा - सप्तम्यपि पष्ठीवदेव बोध्या । नवरं यथाऽऽस्तुतमेव शिलादिकं ग्रहीष्यामि नान्यदिति ॥ ७ ॥ इति सप्ताहमतिमा ७ ॥ अवग्रह प्रतिमा है । यह अवग्रह प्रतिमा है, यह अवग्रह प्रतिमा गच्छस्थित अभ्युक्त बिहारी साधुओंके कि जो जिन कल्पित्वकी प्राप्ति के लिये परिकर्म करते हैं होती है, तथा - मैं अपने लिये अवग्रहकी याचना करूंगा अन्ध-दो-तीन-चार और पांच के लिये अवग्रहकी याचना नहीं करूंगा ऐसी यह पांचवी अवग्रह प्रतिमा है, यह पांचवी प्रतिमा जिनafores होती हैं ऐसा जानना चाहिये मैं जिसका अवग्रह ग्रहण करूंगा उसीका यदि तृणोदि संस्नारक होगा तो उसे लूंगा- नहीं तो मैं कुटुक होकर या बैठकरही रात्रिको व्यतीत करूंगा ऐसी यह छठी प्रतिमा है, यह प्रतिमा भी जिनकुल्पिक आदिकेही होती है। तथा सप्तमी प्रतिमा भी छठी प्रतिमा के जैसीही होती है। सिर्फ इसमें यहीअन्तर है, कि इसमें वह प्रतिमाघारी साधु “ ययास्तृत शिलादिकही में ग्रहण करूगा " अन्यका नहीं ऐसा अभिग्रह करता है । इस प्रका- 1 “ અન્યને માટે :હુ અવગ્રહ ગ્રહેણુ કરીશું નહીં, પરંન્તુ અન્ય દ્વારા भवगृहीत संपथड, ( उपाश्रय ) इशे तो तेमां हुं रडीश, આ પ્રકારની ચેાથી અવગ્રહ પ્રતિમા હાય છે. ગચ્છસ્થિત ન્યુદ્ઘત વિહારી સાધુએ કે જે નકલ્પિકત્વની પ્રાપ્તિને માટે પરિકમ કરતા હાય છે, તે સાધુઓમાં આ પ્રકારની અવગ્રહ પ્રતિમાને સદ્ભાવ હોય છે. ܕܕ 2 66 હું મારે માટે અવગ્રહની યાચના કરીશ, અન્ય બે, ત્રણ, ચાર અને પાંચને માટે અવગ્રહની યાચના નહીં કરૂ ? આ પ્રકારની પાંચમી અવગ્રહું प्रतिभा छे, या भवग्रह प्रतिमानो नियमां सहूभाव होय छे ગૃહસ્થ પાસેથી મવગ્રહમાશ્રયસ્થાન ગ્રહૅણ કરીશ તેની પાસેથી જ ને તૃણુાર્દિ સસ્તારક મળશે તેા લઈશ, નહી” તે એઠાં બેઠાં જ રાત્રિ વ્યતીત કરીશ, આ પ્રકારની છઠ્ઠી અગ્રહું પ્રતિમા સમજવી, જિનકાલ્પિક આર્કિમાં આ પ્રતિમાના સદૂભાવ હોય છે. સાતમી પ્રતિમા પણ છઠ્ઠી પ્રતિમા જેવી જ છે, ફક્ત છઠ્ઠી કરતાં સાતમી પ્રતિમામાં આટલા જ તફાવત છે. સાતમી પ્રતિમા "" 1 Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - थानास्त्रे तथा-सप्तककाः-उद्देशवर्जितत्वेन एकसरतया एकका:-आचाराद्वितीयश्रुतस्कन्धस्थिता द्वितीयचूडारूपा अध्ययनविशेषाः, ते च समुदायतः सप्तेति कृत्वा सप्तकका उच्यन्ते, तेपामेकोऽपि सप्तैकक इति व्यपदिश्यते, तथैव संकेतितः' स्वात् । ते च सप्तककाः सप्तसंख्यकाः प्राप्ताः । तथाहि-प्रथमः स्थानसप्तकका १, द्वितीयो नैषेधिकी सप्तककः २, तृतीय उच्चारप्रस्रवणविधिसप्तककः ३, चतुर्थः शब्दसप्तकाः ४, पञ्चमो रूपसप्तै ककः ५, षष्ठः परक्रियासप्त। कका ६, सप्तमः-अन्योऽक्रियासप्तकका ७ इति । तथा-महाध्ययनानिमहान्ति-मूत्रकृतागस्य प्रथमश्रुतस्कन्धापेक्षया विशालानि च तानि अध्ययनानि% द्वितीयश्रुतस्कन्धस्य प्रकरणविशेषाश्चेति, तानि च-पुण्डरीकं १, क्रियास्थानम् रकी ये सात अवग्रह प्रतिमाएं हैं । तथा सप्तकक-आचाराङ्गके द्वितीय श्रुतस्कन्ध में स्थित द्वितीय चूडोल्प अध्ययन विशेष सप्तकक सात कहे गये हैं, ये समुदायसे सात होते हैं, ऐसा समझकर ही इन्हें सप्तकक कहा गया है, इसलिये इनमेंका जो एकभी एकक होगा यह भी सप्तकक ऐसा कहलावेगा । पहिला स्थान सप्तकक है १ दितीय नषेधिकी सप्तै कक है २ तृतीय उच्चार प्रस्त्रवण विधि सप्तका है ३, चतुर्थ शद सप्तकक है ४-पांचवा रूप सप्तै कक है ५. छठा परिनिया सप्तकक है ६ और सातवां अन्योन्य क्रिया सप्ताक है ७ तथा महो ध्ययन-सूत्रकृनाग के प्रथम श्रुतस्कन्धको अपेक्षासे द्वितीय श्रुतस्कन्धके जो प्रकरण विशेषरूप अध्ययन हैं वे महाध्ययन है-ये महाध्ययन भी सात है-इनमें प्रथम महाध्ययन पुण्डरीक है १ द्वितीय महाध्ययन धारी साधु " यथास्तृत शिलाहु अड' शश," मन्यना नही, એ અમિગ્રહ કરે છે. આ પ્રકારની સાત અવગ્રહ પ્રતિમાઓ હોય છે. તથા સક્કિ–આચારાંગના બીજા શ્રત સ્કન્દમાં સ્થિત દ્વિતીય ચૂડારૂપ અધ્યયન વિશેષ સાત કહ્યા છે તે સમુદાયની અપેક્ષાએ સાત હોય છે, એવું સમજીને જ તેમને સમકક કહ્યાં છે, અને તે કારણે તેમનામાંથી જે એક પણ એકક હશે તેને પણ સમકક કહેવામાં આવશે. (૧) પહેલું સ્થાન સમકક छ (२) मा नचिकी' सौ ४ छ. (3) श्री २-२ प्रसव विधि सप्त४४ . (४) याथु श६ सप्त४४ छ. (५) पायभु ३५ स४४ छे. (6) छ? પરિક્રિયા સમકક છે અને સાતમું : અન્ય ક્રિયા સૌકક છે. તથા મહાધ્યયન પણ સાત છે. સૂત્રકૃતાંગના પહેલા શ્રુતસ્કન્ધ કરતાં મોટા એવા બીજા શ્રુતસ્કન્ધના પ્રકરણ વિશેષરૂપ જે અધ્યયને છે તેમને મહાધ્યયન કહે છે. તે મહધ્યયન પણ નીચે પ્રમાણે સાત જ છે-તેમાં પહેલું Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधाटीका स्था०७ सू०.५ पिण्डैषणादिनिरूपणम् ..... _५६१ २, आहारपरिज्ञी ३, प्रत्याख्यानक्रियां ४, अनाचारश्रुतम् ५, आर्द्रकुमारीय ६, नालन्दीय चेति सप्तसंख्यकानि प्रज्ञप्तानि । तथा-सप्तसप्तमिका-सप्त सप्तसंख्यकानि सेप्उमानि दिनानि यस्यां सा-सप्तभिः दिनसप्तकैर्निष्पद्यमाना क्रियास्थान है २ तृतीय महाध्ययन आहार परिज्ञा है ३ चौथा महा ध्ययन प्रत्याख्यान क्रिया है ४. पांचवां महाध्ययन अनाचार श्रत है, छठा महाध्ययन आद्रकुमारका है ६ और सातवां महाध्ययन नाल दीय है, तथा-सात सप्ताहमें ४९ दिनरात में समाप्त होनेवाली भिक्षु प्रतिमा है, यह भिक्षु प्रतिमा ४९ दिनरात तक आराधित होती है, इसमें प्रथम सप्ताहमें एक दत्ति आहारकी एक दत्ति पानीकी ग्रहण. की जाती है, दितीय सप्ताहमें भक्तकी दो पानीकी दो दत्तियां प्रतिदिन ग्रहण की जाती हैं, तृतीय सप्ताहमें प्रतिदिन भक्तकी ३-और पानकी ३ दत्तियां ग्रहण की जाती हैं, चतुर्थ सप्ताहमें प्रतिदिन भक्तकी ४ दत्तियां और पानकी ४ दत्तियां ग्रहण की जाती हैं, पंचम सप्ताहमें प्रतिदिन भक्तकी ५ दत्तियां और पानको ५ दत्तियां ग्रहणं की जाती हैं, छठे सप्ताहमें भक्तकी ६ दत्तिपां और पानकी ६ दत्तियां प्रतिदिन ग्रहण की जाती हैं, और ७ वें सप्ताह में भक्त की ७ दत्तियां और पानकी મહાધ્યયન પંડરીક છે, બીજું મહ ધ્યયન ક્રિયા સ્થાન છે, ત્રીજુ મહાયન આહારપરિજ્ઞા છે, જેથુ મહાધ્યયન પ્રત્યાખ્યાન ક્રિયા છે, પાંચમું મહાધ્યયન અનાચારશ્રુત છે, છઠું મહાધ્યયન આદ્રકુમારનું છે અને સાતમું મહાધ્યયન नाहीय छे. , સંત સપ્તાહમાં–૪૯ દિનરાતમાં સમાપ્ત થનારી ભિક્ષુપ્રતિમા છે. ૪૯દિનરાત પર્યન્ત આ ભિક્ષુપ્રતિમાની આરાધના કરાય છે આ ભિપ્રતિમાની આરાધના કરનાર સાધુ પ્રથમ સપ્તાહમાં પ્રતિદિન એક દત્તિ આહારની અને એક દક્તિ પાણીની ગ્રહણ કરે છે. બીજા સપ્તાહમાં પ્રતિદિને બે દક્તિ આહારમી અને બે દક્તિ પાણીની વ્રહણ કરાય છે. ત્રીજા સપ્તાહમાં ત્રણ દેત્તિ આહારની અને ત્રણ દક્તિ પાણીની ગ્રહણ કરાય છે. ચોથા સપ્તાહમાં પ્રતિદિન ચાર દત્ત આહારની અને ચાર દત્તિ પાણીની ગ્રહણ કરાય છે. પાંચમાં સપ્તાહમાં પ્રતિદિન આહારની પાંચ દત્તિ અને પાણીની પાંચ દત્તિ ગ્રહણ કરાય છે. છઠ્ઠા સપ્તાહમાં પ્રતિદિન આહારની ૬ દંતિ અને પાણીની ૬ દત્તિ કહેણ કેરાધે છે સાતમા સપ્તાહમાં પ્રતિદિન આહારની સાત દત્તી અને स्था०-७१ Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२ ......... स्थानासो खलु भिक्षुपतिमा एकोनपञ्चाशता रात्रिन्दिवै अहोरात्रैः, एकेन् च पणवत्या मिक्षागतेन पण्णवत्यधिकशतसंख्यामि दैत्तिरूपाभिः मिक्षाभिः यथास्त्रम्-सूत्र निर्दिष्टविध्यनुसारं, यथाकल्पम्-कल्पं स्थविरादिकल्पमतिक्रम्य, कल्पानुसारमित्यर्थः, यथामार्गम्-ज्ञान-दर्शनचारित्रलक्षणमोक्षमार्गानतिक्रमेण क्षयोपशमभावानतिक्रमेण वा, यथातत्त्वं-तत्यानतिक्रमेण ' याथातथ्यम् ' इतिच्छाया पक्षेसत्यानुसार, यथासाम्यम्-समभापमनतिक्रम्य-सुष्टुप्रकारेण कर्मनिर्जरणभाव. नयेत्यर्थः, कायेन-शरीरेण न पुनरमिलाप पात्रेण स्पृष्टा-समुचितकाले सविधिग्र. हंणात् , पालिता-बारंवारमुपयोगेन. तत्परत्वात् , शोधिता-पारणकदिने गुर्वादि ७-दत्तियां ग्रहण की जाती हैं । इस प्रकार इन सब भक्तको दत्तियोंकी संख्या १९६ हो जाती हैं। इसी प्रकारसे पानककी दत्तियोंके सम्बन्धमें भी जानना चाहिये इस प्रकारसे प्रवर्द्धमान भक्तपान दत्तियोंसे यह भिक्षु प्रतिमा ४९ रातदिन में पूर्ण होती है " यथा सूत्रं यथा कल्पं" इत्यादि क्रिया विशेषणोरने सूत्रकारने यह प्रकट किया है, कि इस भिक्षा प्रतिमाको यथासूत्र में पालन करने की जैसी विधि प्रकट की गई है, उसी विधिके अनुसार बयाकल्प-स्थविर आदि कल्पके अनुसार, यथामार्ग-ज्ञान, दर्शन, एवं चारित्ररूप मुक्तिमार्गके अनुसार, अथवा अपने क्षयोपशम भावके अनुसार यथातत्त्व-तत्त्वंके अनुसार-अथवा याथा तथप-सत्य के अनुसार-और यथासाम्प-समनाभावके अनुसार जो भिक्षु शरीरसे-मनोरथसे नहीं-अभिलाषा मात्रसे नहीं स्पृष्ट करता है-समुचित कालमें विधिपूर्वक ग्रहण करता है, पालता हैપાણીની સાત દક્તિ ગ્રહણ કરાય છે. આ પ્રકારે રાત દિવસમાં આહારની કુલ ૧ દત્તિ થાય છે. એ જ પ્રમાણે પાની દત્તિ વિષે પણ સમજવું. આ પ્રકારે આહાર પાણીની દત્તિઓમાં પ્રત્યેક સપ્તાહમાં વધારો કરતાં કરતાં ૪૯ દિનરાત પર્યન્ત આ ભિક્ષુપ્રતિમાની આરાધના કરાય છે. " ! , “ यथासूत्रं यथाकल्पं" त्याह- . . . . . " ક્રિયાવિશેષણોના પ્રવેશ દ્વારા સૂત્રકારે એ વાત પ્રકટ કરી છે કેસૂત્રમાં ભિક્ષુપ્રતિમાના પાલનની જે પ્રકારની વિધિ બતાવવામાં આવી છે તે વિધિ પ્રમાણે, યથામાર્ગ-જ્ઞાન, દર્શન અને ચારિત્ર રૂપ મુક્તિમાર્ગ અનુસાર અથવા પિતાના ક્ષયે પશમભાવ અનુસાર, યથાતત્ર-તત્ર અનુસાર અથવા તથા તથ્ય (સત્યને અનુસાર ), યથાસામ્ય-સમતાભાવને અનુસરીને, આ પ્રકારે જે ભિક્ષુ શરીર વડે-મરથ વડે નહીં (અભિલાષા માત્ર વડે નહીં) સ્પષ્ટ કરે છે, સમુચિતકાળમાં વિધિપૂર્વક ગ્રહણ કરે છે, પાલન કરે છે, Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... सुंघा टीका स्था०७ ०५ पिण्डेषणादिनिरूपणम् ६६३ 'दत्तावशिष्ट भोजनात् अतीचारपङ्कक्षालनाद् वा, तीरिता पूर्णेऽपि तदवधौ स्व'ल्पकालावस्थानेन, कीर्तिता = पारणादिने 'अथमयं च अभिग्रहविशेषकृत आसीत् अस्यां प्रतिमायां स चाराधित एवाधुना पारितमतिमोऽह ' मिति गुरु- समक्षं कीर्तनात् एवं चमाराधिता = एभिः समस्तैः प्रकारैर्निष्ठा नीता, अत एव आज्ञया = जिनाज्ञया अनुपालिताऽपि भवतीति । अत्र - भक्तदत्तयः पण्णवत्यधिकैकशत (१९६ ) संख्यका उक्ताः । तद्ग्रहणप्रकारश्चैवम्, तथाहि प्रथमे सप्त प्रतिदिन मेकेका भिक्षादचिगृह्यते १ द्वितीयसप्तके तु प्रतिदिन दत्तिद्वयम् २ | एवम् उत्तरोत्तरं प्रतिसप्तमेकैकदाचिद्ध्या सप्तमे सप्तके प्रतिदिनं सप्त दत्तयो गृह्यन्ते । एवं पानकदत्तिविषयेऽपि बोध्यम् । इत्थं प्रवर्द्धमानभक्तपानदत्तिमिरियं भिक्षुपतिमा एकोनपञ्चाशता रात्रिन्दिवैः पूर्णा भवति । अत्र यद्यपि इसकी उपयोगपूर्वक बार २ आराधना करता है, शोधित करता है'पारणा के दिन गुर्वादि द्वारा प्रदत्त अवशिष्ट भोजन से अथवा अतिचार रूप कीचडके प्रक्षालनसे इसकी शुद्धि करता है, उसे तीरित करता है - जितनी अवधि उसके पालन करने की है, उस अवधि तक उसे पोलन कर समाप्त कर देता है - कीर्तित करता है - पारणाके दिन यह अभि ग्रह विशेष मैंने धारण किया था सो वह अब इस प्रतिमा में अच्छी तरहसे आराधित हो चुका है अतः मैं अब इस प्रतिमाका पूर्णरूप से आराधक बन चुका है, इस प्रकार से गुरु के समक्ष प्रकट करता है, इस प्रकार से पालित हुई, शोधित हुई, तीरित हुई, कीर्तित हुई, और आरा षित हुई, यह भिक्षु प्रतिमा सर्वज्ञ भगवान् की आज्ञा के अनुसार समस्त प्रकारोंसे पालित हुई मानी जाती है, यद्यपि यहां भक्त पानकी संकઉપયાગપૂર્ણાંક તેની વારવાર આરાધના કરે છે, શાષિત કરે છે-પારણાને દિવસે શુર્વાતિક દ્વારા પ્રશ્નત્ત અવશષ્ટ લેાજન વડે અથવા અતિચાર રૂપ કીચડના પ્રક્ષાલન દ્વારા તેની શુદ્ધિ કરે છે, તેને તીરિત કરે છે-તે પ્રતિમાની આરાધના કરવાની જેટલા સમયની અવિધ હાય છે, એટલા સમય સુધી તેનું પાલન કરીને તેને પૂછુ કરી નાખે છે, કીર્તિત કરે છે-“ પારણાને દિવસે મા પ્રકારના અભિગ્રઝ્ડ મે. ધારણ કર્યાં હતેા અને હવે આ પ્રતિમા મારા ' દ્વારા સસ્પેંગ્ રીતે આરાષિત થઇ ચુકી છે, તેથી હવે હું આ પ્રતિમાના પૂર્ણરૂપે આરાધક બની ચુકયેા છુ. આ પ્રમાણે ગુરુની સમક્ષ પ્રકટ કરે છે, આ પ્રમાણે પાલિત થયેલી, શેધિત થયેલી, કીર્તિત થયેલી અને આરા ધિત થયેલી ભિક્ષુપ્રતિમાને સર્વજ્ઞ ભગવાનની આજ્ઞા અનુસાર સમસ્ત પ્રકારે પાલિત થયેલી માનવામાં આવે છે. જો કે ભક્તપાનની કુલ કૅત્તિએની સખ્યા 1 1 2 67 ܐ Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानागासने भक्तस्य पानस्य सङ्कलिता दत्तयो द्विनवत्यधिकत्रिशत (३९२) संख्यका -भवन्ति, तथापि पानस्य दत्तिसंख्याया अविवक्षयाऽत्र पण्णवत्यधिकशत संख्यका दत्तयः मोक्ता इति ।। सू० ५ ।। -- सप्त सप्तमिकादिपतिमाश्च पृथिव्यामेव क्रियन्ते इति पृथ्वों प्रतिपाद-यितुमाह... मूलम् --अहेलोगे णं सत्त पुढवीओं पण्णत्ताओ। सत्त घणोदही पणत्ता। सत्त घणवाया सत्त तणुवाया पणत्ता । सत्त उवासंतरा पण्णत्ता । एएसु णं सत्तसु उवासंतरेसु सत्त तणुवाया पइटिया । एएसु णं सत्तसु तणुवाएसु सत्त घण• वाया पइटिया । एएसु णं सत्तसु घणवाएसु सत्त घणोदही पइट्ठिया । एएसु णं सत्तसु घणोदहीसु पिंडलगपिहलसंठाणसंठियाओ सत्त पुढत्रीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-पढमा जाव सत्तमा । एयालि णं सत्तण्ह, पुढवीणं सत्त णामधेजा पण्णत्ता .तं जहा-धम्मा १ वंसा २ सेला ३. अंजणा ४ रिहा ५ मघा ६ माघवई ७। पयासि णं सत्तण्हं पुढवीणं सत्त गोता पण्णत्ता तं जहा-रयणप्पभा १, सकरप्पभा २, वालुअप्पभा ३, पंकपभा ४, धूमप्पभा ५, तमा ६, तमतमा ७॥ सू०६॥ - छाया-अधोलोके खलु सप्त पृथिव्यः प्रज्ञप्ताः । सप्त धनोदधयः प्राप्ताः । सप्त धनवाताः सप्त तनुवाताः प्रज्ञप्ताः । सप्त अवकाशान्तराणि प्रज्ञप्तानि । एतेषु खलु सप्तसु अवकाशान्तरेषु सप्त तनुवाताः प्रतिष्ठिताः । एतेषु खलु सप्तसु तनुपातेषु सप्त धनवाताः प्रतिष्ठिताः । एतेषु खलु सप्तम धनवातेषु लित दत्तियां ३९२ होती हैं, परन्तु पानकी दत्तियों की संख्या यहाँ अविवक्षित होने के कारण १९६ दत्तियांही कही गई हैं ॥ मृ०५॥ અહીં ૩૯૨ થાય છે, પરંતુ પાનની (પાણીની) દક્તિની સંખ્યા અહીં અવિવક્ષિત હેવાથી કુલ દરિયા ૧૯૬૪ કહેવામાં આવી છે. જે સૂ. ૫ છે Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुंधा टीका स्था. ७ सू. ६ सप्तविधपृथ्वीस्वरूपनिरूपणम् सप्त घनोदधयः प्रतिष्ठिताः । एतेषु खलु सप्तमु घनोदधिषु पिण्डलक पृथुल संस्थानसंस्थिताः सप्त पृथिव्यः प्रक्षप्ताः, तद्यथा-प्रथमा यावत् सप्तमी.। एतासां खलु सप्तानां पृथिवीनां सप्त नामधेयानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा-घर्मा १ वंशा २, शैला ३, अञ्जना ४, रिष्टा ५, मघा ६, माधवती ७। एतासां खलु सप्तानां पृथिवीनां सप्त गोत्राणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-रत्नप्रभा १, शर्करामभा २, वालुकाममा ३, पङ्कषमा ४, धूमममा ५, तमा ६, तमस्तमा ७ ॥सू०६॥.. टीका-'अहोलोगे' इत्यादि-- ___ अधोलोके खलु सप्त पृथिव्यः सन्ति । ' अधोलोके ' इत्युक्तम् , तेनोर्ध्वलोकेऽपि पृथिवीसत्ता गभ्यते । तत्र च ' ईपत्माग्भोरा' नामैकैच पृथिवी योध्या। ननु प्रथमपृथिव्या उपरिभागस्थितानि नव शतानि योजनानि तिर्यग्लोके स्थितानि, कथं तर्हि अधोलोके सप्त पृथिव्य उकाः ?-इति चेत् , आह-देशोनापि पृथिवी पृथिव्येव भवति न तु पृथिवीतो भिन्ना । अत एव-अधोलोके सप्त सप्त ससमिका आदि प्रतिमाएं पृथिवी परही रहकर की जाती हैं-अतः अब सूत्रकार पृथिवीका प्रतिपादन करते हैं __ " अहेलोगेणं सत्त पुढवीओ पण्णत्ताओ" इत्यादि सू० ६॥ - टीकार्थ-अधोलोको सात पृथिवियां कही गई हैं, इस कथनसे ऊर्ध्वलोकमें भी पृथिवी की कही गई जानी जाती है, वहाँ " ईषत्पाउभारा" इस नामकी एकही पृथिवी है. __ शंका-प्रथम पृथिवीके उपरि भागमें स्थित नौसौ योजन तिर्य. ग्लोकमें स्थित हैं, तो फिर आपने अधोलोकमें सात पृथिवियां कैसे कहीं ? उत्तर-कुछ कम भी पृथिवी पृथिवीही होती है, यह प्रथिवी से भिन्न नहीं होती है, इसीलिये अधोलोकमें सात पृथिवियां कही गई - સસ સસમિકા આદિ પ્રતિમાઓની આરાધના પૃથ્વી પર રહીને જ કરવામાં આવે છે, તેથી હવે સૂત્રકાર પૃથ્વીનું પ્રતિપાદન કરે છે. "अहे लोगेणं पुढवीओं पण्णचाओ" त्याहટીકાઈ–અલકમાં સાત પૃથ્વીઓ આવેલી છે. આ કથન દ્વારા ઉર્વલેકમાં પણ પૃથ્વી હોવી જોઈએ એવું સૂચિત થાય છે. ઉર્વકમાં “ઈષપ્રામારા નામની એક જ પૃથ્વી છે.. શંકા–પહેલી પૃથ્વીનો ઉપરને ભાગ તિર્યંગ્લેકમાં ૯૦૦ જન સુધી વ્યાપ્ત હોવા છતાં પણ આપ શા કારણે એવું કહે છે કે “અલેકમાં ( सात पृथ्वीमा छ?" ઉત્તર-પૃથ્વીને અમુક ભાગ છે થવા છતાં પણ બાકીને ભાગ પૃથ્વી રૂપ જ ગણાય છે. પ્રથમ પૃથ્વીને જેટલે ભાગ અલકમાં છે તેટલે Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानासूत्रे पृथिव्य उक्ता इति न कश्चिद्दोष इति । एतासां वाल्यप्रमाणमेवं विज्ञेयम्, 'वयादि - प्रथमपृथिव्यावाल्यं अशीतिसहस्राधिकैकलक्षयोजनात्मकम् ?, द्वितीयायाः पृथिव्या द्वात्रिंशत्सहस्राधिकैकलक्षयोजनप्रमाणम् २, तृतीयस्याः पृथिव्याः अष्टाविंशतिसहखाधिकै फलक्षयोजनानि ३, चतुर्थ्याः विशतिसहस्राधिकलक्षयो'जनानि ४, पञ्चम्याः अष्टादश सहस्राधिकैकलक्षयोजनानि ५, पष्ठयाः षोडशसहस्राधिककलसयोजनानि ६, सप्तम्यास्तु पृथिव्या अष्टसहस्राधिकैकलक्षयोज नानि ७| तदुक्तम् — " पढमा असी सहस्सा १, बत्तीसा २ अट्टवीस ३ वीला ४ य । अट्ठार ५ सोल ६ अट्ठ ७ य, सहस्स लक्खोदरि कुज्जा ॥ १ ॥ " 'छाया' - मयमायाम् अशीवि, सहस्राणि, द्वात्रिंशत्, अष्टाविंशतिः विंशविश्व | अष्टादश षोडग अष्ट च सहस्त्राणि लक्षोपरि कुर्यात् ॥ १ ॥ इति । हैं । इस प्रकारके कथन में कोई दोष नहीं हैं । मम पृथिवीकी मोटाई १ लाख ८० हजार योजन की है, द्वितीय पृथिवीकी मोटाई १ लाख बत्तीस हजार योजनकी है, तीसरीकी मोटाई १ लाख २८ हजार योज~ नकी है, चौथीकी मोटाई १ लाख २० हजार योजनकी है, पांचचोंकी मोटाई १ लाख १८ हजार योजनकी है, छठीकी मोटाई १ लाख १६ हजार योजन की है, और सातवीं की मोटाई १ लाख आठ हजार योजनकी है, कहा भी है- " पदमा असीह सहस्सा " इत्यादि । १ लाख के ऊपर ८० हजार योजन करने से प्रथम पृथिवीकी मोटाई आ जाती है, इसी तरह से आगे भी जानना चाहिये । ભાગ પણ પૃથ્વી રૂપજ ગણી શકાય. તેથી અધેાલેાકમાં સાત પૃથ્વીએ છે, એમ કહેવામાં કાઇ દેષ નથી પહેલી પૃથ્વીના ( રત્નપ્રભા પૃથ્વીના ) વિસ્તાર ઊ'ડાઇની અપેક્ષાએ એક લાખ એ શી હજાર ચેાજનના છે. ખીજી પૃથ્વીના ( શકરાપ્રભાને ) વિસ્તાર ૧ લાખ ૩૨ હજાર ચેાજનના, ત્રીજીના ૧ લાખ ૨૮ હજાર ચેાજ નને, ચૂંથીનેા ૧ લાખ ૨૦ હજાર ચેાજતના, પાંચમીનેા ૧ લાખ ૧૮ હજાર ૨ાજનને, છઠ્ઠીને ૧ લાખ ૧૬ હજાર ચેાજનના અને સાતમીને ૧ લાખ ૮ હજાર ચેાજનના વિસ્તાર છે. કહ્યું પણ છે કે : "( पढमा असइ सहस्सा " त्याहि પહેલી પૃથ્વીના વિસ્તાર એક લાખ એંશી હજાર ચેાજનનેા છે ખીજી પૃથ્વીએના જે વિસ્તાર આ ગાથામાં બતાવવામાં આવ્યા છે તેમનું કથન ઉપર કહ્યા પ્રમાણે જ સમજવું. Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुभाटीका स्था०७ खू०६ सप्तविधपृथ्वीस्वरूपनिरूपणम ५६७ अधोलोकाधिकारात्तद्गतवस्तूनि प्रतिपादयितुमाह-' सत्त घणोदही' इत्यादि । व्याख्या स्पष्टा । नवरं-घनोदधीनां बाहल्यं विंशतिसहस्रयोजनानि, धनवातानां तनुवातानाम् अवकाशान्तराणाम्-पृथिवीद्वयान्तरालस्थितानामाकाशखण्डानां तु असंख्यातसहस्रयोजनानि । तदुक्तम्. "सव्वे वीससहस्सा, वाहल्लेणं घणोदही नेया। सेसाणं तु असखा, अहो अहो जाव सत्तमिया" ॥१॥ छाया-सर्वे विंशति सहस्राणि बाहल्येन घनोदधयो ज्ञेयाः। शेषाणां तु असंख्यानि अधोऽयो यावत् सप्तम्यास् ॥ १॥ इति । एताः सप्तापि पृथिव्यः पिण्डलकपृथुल संस्थान संस्थिताः पिण्डलक-पटलक-चङ्गेरीति भाषाप्रसिद्धं पुष्पभाजनमिति यावत् , तद्वत् पृथुलसंस्थानेन=पृथु___ अब सूत्रकार अंधोलोकके अधिकारको लेकर अधोलोकगत वस्तु. ओंका प्रतिपादन करने के निमित्त "सत्तघणोदही" इत्यादि रूपसे प्रतिपादन करते हैं सात धनोदधि हैं, इन धनोदधियोंकी मोटाई बराबर अर्थात् २०२० हजार योजनकी है, एवं जो सात घनवात तथा सात तनुवातवलय हैं, और अवकाशान्तर हैं-पृथिवीद्वपके अन्तरालमें स्थित आकाशखण्ड हैं-सो ये सब मोटाई में असंख्यात हजार योजनके हैं कहाँ भी है- "सव्वे वीससहस्सा" इत्यादि- - , इस गाथाका अर्थ पूर्वोक्त जैसाही है । ये सातों पृथिविर्या यद्यपि मोटाई में पहिली भूमिकी अपेक्षा दूसरी, दूसरीकी अपेक्षा तीसरी અલેકને અધિકાર ચાલી રહ્યો છે, તેથી હવે સૂત્રકાર અલાકાત वस्तुमा “ सत्त घणोदही" त्यादि सूत्र वारा प्रतिपादन ४२ छे. સાત ઘનોદધિઓ છે. તે સાતેને વિસ્તાર ૨૦–૨૦ હજાર જનનો કહ્યો છે. જે સાત ઘનવાત તથા જે સાત તનુવાતવલય છે અને જે સાત અવકાશાન્તર-બે પૃથ્વીની વચ્ચે આવેલા આકાશખડે છે, તેમના વિસ્તાર ५० मसभ्यात तर यासननी यो छ. ४थु ५६ छे “सव्वे वीससहस्सा" त्याहि. भ. यान। म ५२ ४ह्या प्रमाणे ४ सभा . જો કે ઊંડાણની અપેક્ષાએ પહેલી કરતાં બીજી ઓછી ઊંડાઈવાળી અને એ પ્રમાણે પછીની પ્રત્યેક પણ એક બીજી કરતાં ઓછી ઊંડાઈવાળી છે, Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ઉદ્દઢ स्थानास } लाकारेण संस्थिताः विज्ञेयाः । यद्वा-' छत्रातिच्छत्रं - संस्थान संस्थिताः ' इति पाठः, तत्र छत्रमतिक्रम्य छत्रे छत्रातिच्छत्रं तस्य संस्थानम् = आकारः - छत्रस्य अनागो महान् अतिनचचुरिति तेन संस्थिताः, अयं भात्रः - सप्तमीसप्तरज्जु विस्तृता, पष्ठी पत्ररज्जुप्रमितेत्येके करज्जुदान्या प्रथमा एकरज्जुपमाणेति । एतासां नामानि ' घर्मा वंशा शैला '- इत्यादीनि सप्त, तथा-गोत्राणि - इत्यादि रूपसे कम २ मोटाईवाली हैं- फिर विष्कंभ और आयामक्री अपेक्षा इनका विस्तार अधिक २ घढता गया है इसलिये ये पिण्डलक पृथुसंस्थान संस्थित कही गई हैं। पिंडलक नाम पटकका है, पटलकको भाषामें चङ्गेरी कहते हैं, यह पुष्पोंको रखनेका एक भाजन विशेष है । इस पटलका जैमा पृथुन आकार होता है, इसी तरहका इनका आकार है अथवा छत्राति छनके समान इनका संस्थान आकार उत्तरोत्तर पृथु विनीर्ण पृथुतर कहा गया है, छाला अघस्तन भाग महान होता है, और उपरि तनभाग लघु होता है, ऐसाही संस्थान इनका है, तात्पर्य ऐसा है - सप्तमी पृथिवी सात राजूकी विस्तारवाली है, छठी पृथिवी ६ राजू विस्तारवाली है, पांचवी पृथिवो ५ राजू विस्ता वाली है, चौथी पृथिवी ४ राजू विस्तारवाली है, तीसरी पृथिवी ३ राजू विस्तारवाली है, दूसरी पृथिवी २ राजू विस्तारवाली है, और पहिली पृथिवी १ राजू विस्तारवाली है । इनका नाम घर्मा, वंशा, शैली છતાં પશુ વિક‘ભ અને આયામ (લખાઈ અને પહેાળાઇ ) ની અપેક્ષાએ તેમના વિસ્તાર ઉત્તરાત્તર વધતા જ જાય છે. તેથી તેમને “ પિ’ડલક પૃથુ સંસ્થાન સ સ્થિત ” કહેવામાં આવી છે. પિ'ડલક એટલે પાલક, તેને હિન્દીમાં “ ચંગેરી ” કહે છે. કુલ ભરવા માટેની વાંસની બનાવેલી ફૂલછાબ માટે અહી આ શબ્દ વપરાયેા છે. તે પાલકને ( ફૂલછાખના ) જેવે પૃથુલ આકાર હાય છે, એ જ પ્રકારના આ પૃથ્વીઓના આકાર હોય છે. અથવા છત્રાતિછત્રના સમાન તેમનેા ઉત્તરેત્તર પૃથુ (વસ્તીણું') અને પૃથુતર કહ્યો છે. છત્રના અધસ્તન લાગવીંસ્તીશું અને ઉપરિતન ભાગ લઘુ હોય છે. એવું જ સસ્થાન ( આકાર ) તે પૃથ્વીએનું છે. તે કારણે સાતમી પૃથ્વીને વિસ્તાર સૌથી વધારે છે. સાતમી પૃથ્વીના વિસ્તાર સ ત રાજૂ પ્રમાણુ, છઠ્ઠી પૃથ્વીના વિસ્તાર છ રાજૂ પ્રમાણ, પાંચમીને વિસ્તાર પાંચ રાજૂપ્રમાણે, ચેાથીને ચાર રાજૂપ્રમાણુ, ત્રીજીનેા ત્રણ રાજૂપ્રમાણુ, ખીચ્છના બે રાજૂપ્રમાણ અને પહેલીના એક રાજૂપ્રમાણ વિસ્તાર છે. Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुपा टीका स्था०७ १०७ पादरवायुकायस्वरूपनिरूपणम् रत्नप्रभा शर्करप्रभा'-इत्यादीनि सप्त । ननु नामगोत्रयोः को भेवः ? इति घेत आह-अन्वर्थ गोत्रं, तद्भिन्नं तु नासेति ॥ सू०६॥ . १. अवकाशान्तराणि च सप्तेति पूर्वमुक्तम् , तेषु च वादरा वायवो वियन्ते इति तान् मरूपयितुमाह मूलम्--सत्तविहा बायरवाउकाइया पण्णत्ता, तं जहापाईणवाए १, पडीणवाए २, दाहिणवाए ३, उदीणवाए हैं, उवाए ५, अहोवाए ६, विदिसवाए ७ ॥ सू० ७॥ . · : छाया-सप्तविधाः बादरवायुकायिकाः प्राप्ताः, तद्यथा-ग्राचीनवातः १, प्रतीचीनवातः २, दक्षिणवातः ३, उदीचीनवातः ४, वातः ५ ,अधोवातः ६, विदिग्वातः ७ ॥ सू० ७॥ इत्यादि सात हैं । तथा-रत्नप्रभा शर्करा प्रभा इत्यादि सात गोत्र हैं। 'अन्वर्थ गोत्र होता है, और इससे भिन्न नाम होता है । सू०६। . अवकाशान्तर ७ जो कहे हैं, उनमें धादर वायुकाय होते हैं:-अतः सूत्रकार उनकी प्ररूपणा करते हैं " सत्तविहा बायरवाउकाइया पण्णत्ता" इत्यादि सू०७॥ . टीकार्थ-चादर वायुकायिक सात प्रकारके कहे गयेहैं, जैसे-प्राचीन वात (पूर्वका वायु) १ प्रतीचीन वात (पश्चिमका वायु ) २ दक्षिण वात ३, 'उदीचीन वात (उत्तरका वायु) ४, उर्व वात (ऊपरका वायु) ५, अधोपात (नीचेका वायु) ६, और विदिग्वात (विदिशाका वायु) ७, इसकी - તે પૃથ્વીનાં ઘર્મા, વંશા, શૈલા ઈત્યાદિ સાત નામ છે. તથા તેમના __ नमा, २४२२मा Uया सात गात्र छे. मात्र अन्य (म प्रभार) __ डाय छ भने तनाथ लिन्न नाम डाय छ. ॥ सू. ६॥ * જે સાત અવકાશાન્તરે કહ્યા છે, તેમાં બાદર વાયુકાયિકે રહેલાં હોય છે, તેથી હવે સૂત્રકાર તેમની પ્રરૂપણ કરે છે “सचविहा बायरवाउकाइया पण्णत्ता" त्यालટીકાર્થ–બાદર વાયુકાયિક સાત કહ્યાં છે તે નીચે પ્રમાણે છે–(૧) પ્રાચીનવાત ( पाय), (२) प्रतीयानात (पश्चिमी वायु), (3) क्षियपात, (४) • यीनपात (उत्तरन वायु), (५) Stand, ७५२ने वायु(6) मापात (नायना .पायु), (७) Gld (GMAIL वायु) l पानी व्याभ्या सुगम छे. स्था०-७२ Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .: स्थानासो टीका- सत्तविहां वायरखाउकाइया.' इत्यादि-- - व्याख्या सुगमा । नवरं-बादरेति विशेषगोपादानं सूक्ष्मनिवृत्यर्थम् । तेषी सर्वव्यापित्वात् । इति ।। सु० ७ ॥ - वायवश्च यद्यप्पदृश्यास्तथापि ते संस्थानसम्पन्ना भयसम्पन्नाथ भवन्तीति संस्थानानि भवानि च सूत्रद्वयेन प्ररूपयति- . . मूलम्-सत्त संठाणा पण्णत्ता, तं जहा-दीहे १ रहस्से २ वट्टे ३ तले ४ चउरंसे ५ पिहले ६ परिमंडले ७ ॥ सू० ८॥ छाया--सप्त संस्थानानि प्रज्ञप्तानि, तद्यया-दीर्घ १ हस्त्रं २ वृत्तं ३ व्यसं ४ चतुरसं-५ पृथुले ६ परिमण्डलम् ७॥ ०.८ ॥ .. " टीका-'सत्तसंठाणा' इत्यादि संस्थानानि दीर्घादीनि अन्यत्र व्याख्यातानीति तनोऽवसे यम् ।। सू० ८॥ व्याख्या सुगम है, वायुकायके बादर विशेषणसे पेक्ष्म वायुकायिक सर्वत्र व्यापक होता हैं। सूत्र ७॥ वायुकायिक यद्यपि अदृश्य है-तब भी वे संस्थानले एवं भयसे युक्त होते हैं, इसलिये अथ सूत्रकार संस्थान और भयका कथन दो रूपसे करते हैं-"सत्त संठाणा पणत्ता" इत्यादि सूत्र. ८॥ :: टीकार्थ-संस्थान सात कहे गये हैं जैसे-दीर्घ संस्थान एक ह्रस्व संस्थाने २ वृत्त संस्थान ३ व्यस्त्र संस्थान १, चतुरस्त्र संस्थान ५, पृथुल संस्थान और परिमण्डल संस्थान ७ इन दीर्घादिक संस्थानों का व्याख्यान अन्यत्र किया गया है-अनः वहींसे, इन्हें समझ लेना चाहिये ।सूत्र"" વાયોપિકની આગળ બાદર વિશેષણ લગાડીને સૂક્ષ્મ વાયુકાયકની નિવૃત્તિ ४२पामा भावीछे, २६ सूक्ष्म वायुयि त सत्र यापेक्षा छ.। सू.:७, જે કે વાયુકાયિક અદશ્ય છે, છતાં પણ તેઓ સંસ્થાન અને ભયથી યુક્ત હોય છે. તેથી હવે સૂત્રકાર બે સૂત્રે દ્વારા સંસ્થાન અને ભયનું नि३५ ४२ छ “ सत्त संठाणा पण्णत्ता" त्याल-' -यान (, 0४.२ ) सत प्रश्न l -(१).ही संस्थान, (२) १ सस्थान, (3) वृत्त संस्थान, (४) यस सस्थान, (५) यतुरस.सस्थान (E) Yथुन संस्थान, मन (७) परिभर संस्थान આ દીઘદિક સંસ્થાનેની વ્યાખ્યા આ ગ્રન્થના અન્ય સ્થાનકમાં આપવામાં આવી છે, તે ત્યાંથી જ સમજી લેવાની ભલામણ કરવામાં भावे छ. ॥ सू. ८ ॥ . . Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 सुंधा टीका स्था० ७ ९ सप्तविधभयस्थाननिरूपणम् सू० तथा मूलम् - सत्त भट्टाणा पण्णत्ता, तं जहा - इहलोगभए १, पर लोगभए २, आदाण भए ३, अकमहाभए ४, वेयणभय ५, मरणभए - ६, असिलोगभए ७ ॥ सू० ९ ॥ 2 छाया - सप्त भयस्थानांनि मंज्ञष्ठानि, तद्यथा - इहलोकभयं १, परलोकभयम् २, आदानभयम् ३, अकस्माद्भयम् ४, वेदनभयं ५ मरणभयम् ६) भश्लोकभयम् ७ ॥ मू० ९॥ टीका- ' सत्त भट्टाणा ' इत्यादि 1 भयस्थानानि - भयं = मोहनी पत्रकृतिसमुद्भूत आत्मपरिणामः, तस्य स्था नानि श्रयाः सप्त मज्ञप्तानि तद्यथा - इहलोकभयम् - इहलोकः = सजातीयो लोकः) तो यद्भयं तत्, -सजातीयस्य सजातीयाद् भयमित्यर्थः । यथा - मनुष्याणां मनुष्येभ्यः, तिरवां तिर्यग्भ्यः इत्यादि । १ । परलोकभयम् - विजातीयस्य विजा t ५७ 66 सप्तभयाणा पण्णत्ता " इत्यादि || सूत्र ९ ॥ टीकार्थ-भयस्थान७ कहे गये हैं, जैसे- इहलोक भयस्थान १, परलोक भयस्थान २ आदान भयस्थान ३ अकस्माइस्थान ४, आजीव भयस्थान ५, मरणभग्रस्थान ६ और अंश्लोक भस्थान ७ भय मोहनीय प्र तिके उदयसे उत्पन्न हुआ जो आत्मपरिणाम है, वह भय है, उस भयके सात आश्रय (भेद) कहे गये हैं। उनमें जो सजातीयको सजातीयसे भय होता है, वह इहलोक भय है, इहलोकसे यहां सजातीय लोक लिया गया है। जैसे - मनुष्यों को मनुष्यों ले भघ होता है, तिर्थ agat तिर्यञ्चसे भय होता है इत्यादि १ । 66 1 सत्त भयाणा पण्णत्ता " त्याहि- टीडार्थ -सात अारनां लयस्थाने उद्यां छे - ( 1 ) होउ लयस्थान, (२) १२. बोर्ड लयस्थान, ( 3 ) " आाान लयस्थान, (४) अस्मादयस्थान, (4) मालव अयस्थान, (६) भरणु लयस्थान अने (७) अंश्सा लयस्थान. ભ્રમેહનીય પ્રકૃતિના ઉદયથી ઉત્પન્ન થયેલુ જે આત્મપરિણામ છે तेनुं नाम भय छे. (१) धडियो लय - सन्नतीयने सन्ततीयनो ने लय लागे छे 'तेने 'ड बोलय छेउ' यह द्वारा ही 'समंतीय सोई' गृहीत शयेस छेभडे, मनुष्याने / मनुष्योनो लय हाय' ने तिर्ययाने તિય ચાના ભય હાય છે. ( f A Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૭૨ स्थानात्रे 1 तीयाद्भयम्, यथा- मनुष्यस्य तिर्यग्देवादिभ्यः |२| आदानभयम् - आदीयते = गृहाने यत्तदादानं धनादिकम् तद्धेतुकं यच्चौरादिसकाशाद्भयं तत् । ३ । अकस्माद्भयम् - अकस्मादेव बाह्यनिमित्तानपेक्षं गृहादिष्वेव स्थितस्य राज्यादौ यद् भयं वत् । ' वेणं - वेतन - आजीविका, आजीवभयम् - आजीवो - जीविका तस्माद वा भयं -' निर्धनोऽहं दुर्भिक्षादौ कथं प्राणान् धारयिष्यामि ' इति, ! कथं वा सम जीविकासुद्धा भविष्यतीति ५। मरणभयं प्रतीतम् ६। अश्लोकभयम् | अश्लोकः=अकीर्तिः, तस्य भयम् । इति ॥ ०९ ॥ परलोक भय - विजातीयसे विजातीयको जो भय होता है, वह परलोक भय है, जैसे- मनुष्यको तिर्यश्चसे या देव आदिसे भय होता है. २ | आदान भय - धनादिकके निमित्तको लेकर जो चोर आदिसे 'भ होता है, वह आदान भय है ३ । बाह्य निमित्तकी अपेक्षा विना घरआदिमेंही स्थित हुए प्राणीको जो रात्रि आदिमें भय होता है, वह अकस्माद्भय है ४ा आजीव भव - आजीव नामं जीविकाका है - इस जीवि कासे या इस जीविका के लिये जो भय होता है, वह आजीव भय है ५। जैसे - मैं निर्धन हूँ. दुर्भिक्ष आदिके समय में कैसे मैं प्राणोंको बचाऊंगा, अथवा - कैसे मेरी आजीविका सुदृढ होगी इत्यादि । मरण भय - मृत्युका जो भय है, वह मरण भय है ६, अश्लोक म अपयश है, इस अकीर्ति होनेका' जो भय है, वह अश्लोक 'भय है ७ ।' ० ९ ॥ (૨) પરલેાક ભય—વિજાતીયના વિજાતીયને જે ભય રહે છે તેને પરલેાક ભય કહે છે. જેમકે મનુષ્યાને તિય ચાના અથવા વાદિકાના ભય લાગે છે. (૩) આદાન ભય—પનાદિકના વિષયમાં જે ચારાદિકને ભય રહે છે तेने साधान लय हे छे. - - (૪) અકસ્માત્ક્રય—ખાદ્ય નિમિત્તોની અપેક્ષા વિના ગૃહાદિમાં રહેલા મનુષ્ય આદિ જીવેને રાત્રિ આદિમાં જે ભય લાગે છે તેને અકસ્મ દ્ભય કહે છે. (૫) આજીવ ભય—આજીવિકા અથવા નિર્વાહના સાધનનું નામ આજીવ છે. આ આજીવિકાના વિષયમાં જે ભય રહે છે તેને આજીવ ભય કહે છે. એમટૈ નિધન માજીસને એવા ભય રહે છે કે દુષ્કાળ આદિમાં મારી આજી વિકા કેવી રીતે ચલાવી શકીશ ! 11 (६) भरय भय- - मृत्युना लय छे तेने भर भय हे छे. (७) मला लय – अश्लेो भेटले आयडीर्ति, पोतांनी पडीति थषानी ભયને અશ્લેક ભય કહે છે ! સૂ. ૯ ! - Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुवा टीका स्था० ७ सू० १० छमस्थंज्ञाननिरूपणम् भययुक्ताश्च छद्मस्था एव, ते च यैज्ञयन्ते तान्याह - मूळ सत्तहिं ठाणेहिं छउमत्थं जाणेजा, तं जहा-पाणे अइवापत्ता भइ १, मुसं वइत्ता भवइ २, अदिन्नमादित्वा भवइ ३, सदफरिसर सरूवगंधे आसाएत्ता भवइ ४, पूयासक्कारमणुवहेत्ता भवइ ५, इमं सावजं ति पण्णवेत्ता पडि सेवेत्ता भवइ ६, णो जहावाई तहाकारी भवई ७ || सू० १० ॥ ५७३ छाया - सप्तभिः स्थानैः छनस्थं जानीयात्, तद्यथा - प्राणान् अतिपातयिता भवति १ मृषा वदिता भवति २, अदत्तमादाता भवति ३ शब्दस्पर्शरसरूपगन्धान् आस्वादयिता भवति ४, पूजासत्कारमनुबु दयिता भवति, इदं सावद्यमिति प्रज्ञाप्य प्रतिसेविता भवति ६, नो यथावादी तथाकारी भवति ७ ॥ सू० १० ॥ टीका--' सत्तर्हि ठाणेहिं ' इत्यादि -- सप्तभिः स्थानैः कारणैः छमस्थं जानीयात् - ' अयं उपस्थः ' - इत्यववुध्येत, तद्यथा - प्राणाम् = ए केन्द्रियादीन् अतिपातयिता = उपमर्दिता भवति । प्राणातिपावनादयं छवस्थ इत्यनुमीयते । एवमग्रेऽपि मृषावादादिभ्यश्छस्थोऽ इन भयों से युक्त छद्मस्थही होते हैं, ये छद्मस्थ जिन स्थानोंसे जाने जाते हैं- अब सूत्रकार उन स्थानोंका कथन करते हैं " सत्तर्हि ठाणेहिं छउमत्थं जाणेज्जा " इत्यादि सू० १० ॥ w - वाला टीकार्य - सात स्थानों से छद्मस्थ जाने जाते हैं, जैसे- जो प्राणोंकाएकेन्द्रियादिक जीवोंका अतिपातयिता नाश करने होता है, इससे यह अनुमान होता है कि यह छद्मस्थहैं, इसी तरहसे यह भी समझना चाहिये कि जो मृषावादका सेवन करता है, वह छद्मस्थ है, છદ્મસ્થ જીવે જ આ પ્રકારના ભયથી યુક્ત હાય છે. તેથી તે છદ્મસ્થાને જે સ્થાનેા ( લક્ષા ) વડે જાણી શકાય છે તે સ્થાનાનું હવે સૂત્રકાર रे छे. " सत्त हि ठाणेहि छउमत्थं जाणेज्जा " ४त्याहि--- नि३ टीअर्थ-नीयेनां सात स्थानों (सक्षये ।) वडे छद्मस्थाने मोजणी शभय छे. (૧) જે જી પ્રાણુાનું એકેન્દ્રિયાદિક જીવેાનું વ્યાપાદન કરનાર હાય છે, તેને પ્રસ્થ માની' શકાય છે-એવું અનુમાન કરી શકાય છે કે તે છદ્મસ્થ છે, (૨) મૃષાવાદનું સેવન કરનાર-અસત્ય ખાલનાર માજીસને જોઈને પણ એવું Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७४ थानासो नुमीयते ११ तथा-मृपावादिता-असत्यमापी भवति २। अदत्तम् आदाता भववि-अदत्तादानकारको भवति ३। शब्दस्पर्शरूपरसगन्धान्-शब्दादीन्- कामभोगान् आस्वादयिता-उपभोक्ता भवति । ४ । पूजासत्कारम्-पूजा-अभ्युत्थानादिना, सत्कार वस्त्रादिप्रदानं, द्वयोः समाहारः, तत् . अनुवृहयिता-परेण क्रियमाणं स्वस्य पूजासत्कारम् अनुमोदयिता भवति । पूजासत्कारसद्भावे हृष्टो भवतीत्यर्थः । ५ । इदम् आधाकर्मादिकं सावद्यम् सपापम् इति प्रज्ञाप्य-प्ररूप्य पुनस्वदेव प्रतिसेविता भवति । ६ । तया-नो यथावादी तथाकारी चापि भवति--सामान्यतः स यथा वदति न तथा करोतीत्यर्थः। ७ । इह यद्यपि पाणाऐसा अनुमानसे जाना जाता है, इसी प्रकारसे जो अदत्तका आदाता होता है, ३ शब्द, रूप, स्पर्श, रस, और गन्ध इनका आस्वादयिता उपभोक्ता होता है, पूना सत्कारकी परके द्वारा की गई अपनी पूजाकी अभ्युस्थान आदिकी-एवं सत्कारकी-वस्त्रादि देनेकी अनुमोदना करने घाला होता है, अर्थात् पूजा सत्कार के सद्भावमें जो हर्षित होता है, ये आधाकर्म आदि सावध है, ऐसी प्ररूपणा करके भी जो उनका सेवन करता है ६ तथा जो जैसा कहता है, वैसा नहीं करता है, ऐसा वह व्यक्ति छनस्थ है ऐसा अनुमानसे जाना जाता है, साधनसे साध्यके ज्ञानको अनुमान कहते हैं, ऐसा अनुमानसे जाना जाता है, साधनके ज्ञानको अनुमान कहते है, ऐसा अनुमानका लक्षण है, अत: "छमस्थ यह साध्य है, और प्राणातिपात आदि सब -हेतुरूप है।-- यही यद्यपि અનુમાન કરી શકાય છે કે તે છવાસ્થ છે. (૩) અદત્તને ગ્રહણ કરનારને પણ છઘર્થ માની શકાય છે. (3) શબ્દ, રૂપ, રસ, ગન્ધ અને સ્પર્શનું આસ્વાદન " (641) ४२नारने ५५ ५५५, मानी शय छे. (५) धूल सारनी અનુમોદના કરનારને અને પૂજા સંસ્કાર વડે- ખુશ થનાર વ્યક્તિને પણ છે કડે છે અન્યના દ્વારા અપુત્થાન આદિ દ્વારા જે સન્માન થાય છે તેનું નામ. પૂજા છે, અને વસ્ત્રાદિ પ્રદાન કરવા રૂપ સત્કાર હોય છે. (૬) “આધાકર્મ આદિ સાવદ્ય છે,” એવી પ્રરૂપણું કરવા છતાં પણ જે પોતે જ તેનું સેવન કરનાર હોય છે તેને પણ છદ્મસ્થ માની શકાય છે. (૭) જે કહે છે કંઈ અને કરે છે કંઈ, આ પ્રકારે જેની વાણું અને વર્તનમાં ભેદ હેાય છે, તે વ્યક્તિ પણ છત્ર હોવાનું અનુમાન કરી શકાય છે. સાધન દ્વારા સાધ્યનું જ્ઞાન થવું તેનું નામ અનુમાન છે અથવા સાધનના જ્ઞાનને અનુમાન કહે છે. આ પ્રકારનું અનુમાનનું લક્ષણ છે તેથી છવસ્થ આ સાધ્ય છે અને પ્રાણાતિપાત આદિ ઉપર્યુક્ત સાતે હેતુરૂપ માનવામાં આવેલ છે. અહીં જે કે પ્રાણા Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ K सुघाटीका स्था ७ ० ११ केवली यैः ज्ञायन्ते तन्निरूपणम् ५७५ तिपतिमृषावादादिरूपेण धर्मो निर्देष्टव्यस्तथापि धर्मधर्मिणोरभेदोपचाराद् धर्म एव निर्दिष्ट इति ॥ सू० १० ॥ " यैः स्थास्वज्ञायते तानि प्रोक्तानि । सम्प्रति यैः स्थानैः केवली ज्ञायते तानि · स्थानान्याह - " मूलम् - सत्तहिं ठाणेहिं केवली जाणेज्जा, तं जहा - णो १, जाव जहावाई तहाकारी यावि पाणे अइवाइसा भवइ भवइ ७ ॥ सू० १९ ॥ T छाया - संतमः स्थानैः केवलिनं जानीयात्, तद्यथा-नो प्राणान अति पातयिता भवति यावद् यथावादी भवति तथाकारी चापि भवति ॥ सू० ११ ॥ 'टीका' सच ठाणेहि ' इत्यादि - छमस्थ वैपरीत्येनेदं सूत्रं व्याख्येयम् ।। सू० ११ . r • प्राणातिपात, गावाद आदि रूप से धर्मका निर्देश करना चाहियेपरन्तु ऐसा न कर जो धर्मका ही निर्देश किया है, वह धर्म और धर्मो में अभेदका उपचार करके किया है । । सु० १० ।। जिन स्थानोंसे छद्मस्थ जाना जाता है- - उन स्थानोंको कहकर अब सूत्रकार जिन स्थानोंसे केवली जाना जाता है उन स्थानोंका कथन करते हैं " सत्तहि ठाणेहि केवली जाणेज्जा " इत्यादि सू० ११ ॥ टीकार्य - सात स्थानों से " ये केवली हैं " ऐसा जाना जाता है वे सात स्थान इस प्रकार से हैं जो प्राणों का अतिपातयिता नहीं होता है, यात जो जैसा कहता है, वैसा करता है - वह केवली है, ऐसा जाना जाता તિપાત, મૃષાવાદ આદિ રૂપે ધર્મોના નિર્દેશ કરવા જોઇએ, પરન્તુ એવું ન કરતાં જે ધર્મીના જ નિર્દેશ કરવામાં આવ્યેા છે, તે ધર્મ અને ધર્મીમાં અભેદ્યને ઉપચાર કરીને કરવામાં આવ્યે છે, એમ સમજવું! સૂ. ૧૦ જે સ્થાન વડે છદ્મસ્થોને જાણી શકાય છે, તે સ્થાનાનું કથન કરીને હવે સૂત્રકાર જે સ્થાનેા વડે કેવલીને જાણી શકાય છે તે સ્થાને નુ स्थान- ४२ छे, “ सत्तहि ठाणेहि केवली जाणेज्जा " त्याहि : સાત સ્થાના વડે એવું જાણી શકાય છે કે “ આ કેવલી છે ” તે સાત સ્થાના આ પ્રમાણે છે—(૧) જે વ્યક્તિ પ્રાણાતિપાત કરતી નથી તેને કેલી • - માની શકાય છે. – અહી ઉપરના સૂત્રમાં દર્શાવેલાં કારણે કરતાં વિપરીત 'रसमवाये. (७) ने उसे छे ते प्रभा४४रे छे, तेने वसी માની શકાય છે, આ પ્રમાણે સાતમાં સ્થાન સુધીના સ્થાનેા અહીં કહેણુ Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७६ स्थानासो केवलिनश्च गोत्रविशेषोत्पना एव भवन्तीति सप्त मूळगोत्राणि सभेदमाह मूलम्-लत्त सूलगोता पण्णत्ता, तं जहा-कासवा १, गोथमा २ वच्छा ३ कोच्छा ४ कोसिया ५ मंडवा ६ वासिट्रा ७. जे कासका ते सत्तविहा पण्णत्ता, तं जहा--ते कासवा १ ते संडेला २ ते गोल्ला ३ ते वाला ४ ते मुंजइणो ५ ते पचपेच्छइणो ६ ते वरिसकण्हा । ७। जे गोयमा ते सत्तविहा पएणत्ता, तं जहा- ते गोयमा १ ते गग्गा २ ते भारदाया ३ ते अंगिरसा ४ ते सकाराभा ५ ते भकाराभा ६ ते उदगत्ताभा ७। जे वच्छा ते सत्तविहा पण्णत्ता, तं जहा--ते वच्छा १ ते अगया २ ते मित्तिया ३ ते सामिलिणो ४ ते सेलयया ५ ते अट्रिसेणा ६ ते वीयकम्हा ७ जे कोच्छा ते सत्तविहा पपणचा, तं जहा--ते कोच्छा १ ते मोग्गलायणा २ ते पिंगलायणा ३ ते कोडीणा ४ ते मंडलिणो ४ ते हारिया ६ ते सोमया ७१ जे कोसिया ते सत्तविहा पण्णत्ता, तं जहा ते कोसिया १ ते कच्चायणा २, ते सालंकायणा ३ ते गोलिका-यणा ४, ते पक्खि कायणा ५, ते अग्गिच्चा ६, ते लोहिया। जे मंडवा ते सत्तविहा पण्णत्ता, तं जहा-ते मंडवा १, ते अस्ट्रिा २, ते संमुत्ता ३ ते तेला ४, ते एलावच्चा ४, ते कंडिल्ला ६ ते खारायणा ७ जे वासिहा ते सत्तविहा पण्णत्ता, तं जहा--ते वासिहा १, ते उंजायणा २, ते जारे कण्हा ३, ते वग्धविच्चा ४, ते कोडिन्ना ५ तेसण्णी । ते पारासरा ७॥सू०१२॥ है, छद्मस्थ सूत्रसे इस बत्रकी व्याख्या विपरीत कर लेनी चाहिये सू. ११ કરવા જોઈએ. છસ્થ સૂત્ર કસ્તાં અહીં વિપરીત સ્થાને કહેવા જોઈએ. ૧૧ Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुषा गेका स्था०७ २०१२ सप्तविधमूलगोत्रनिरूरणम् ५७७ छाया-सप्त मूलगोत्राणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-काश्यपाः १ गौतमाः २, वत्साः ३, कौत्साः ४ कौशिकाः ५ माण्डव्याः ६ वाशिष्ठाः ७। ये काश्यपास्ते सप्तविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-ते काश्यपाः १, ते शाण्डिल्याः २ ते गोल्याः ३, ते बालाः ४, ते मुजणाः ५ ते वर्षप्रेक्षकियः ६, ते वर्षकृष्णाः ७। ये गौतमास्ते सप्तविधाः प्रज्ञप्ताः तद्यथा ते गौतमाः १, ते गार्याः २, ते भारद्वाजाः ३, ते आङ्गिरसाः ४, ते शर्करामाः ५. ते भास्करामाः ६, ते उदगामाः ७१ ये वत्सास्ते सप्तविधाः प्रज्ञताः, तद्यथा-ते वत्साः १, ते आग्नेयाः २, ते मैत्रेयाः ३, ते स्वामिलिनः ४, ते शैलकजाः ५, ते अस्थिषेणाः ६, ते वीतकश्माः ७) ये कौत्सास्ते सतविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-ते कौत्सा. १, ते मौद्गल्यायनाः २, ते पिङ्गलायनाः ३, ते कोडीनाः ४, ते मण्डलिनः ते हारीताः ६, ते सोमकाः ७। ये कौशिफास्ते सप्तविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-ते कौशिकाः १, ते कात्यायनाः २, ते शालङ्कायना ३, ते गौलिकायनाः ४, ते पक्षिकायनाः ५, ते आग्नेयाः ६, ते लोहिताः ७ ये माण्डव्यास्ते सप्तविधाः, प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-ते माण्डव्याः ते आरिष्टाः २ ते सम्मुक्ताः ३, ते तैलाः ४, ते ऐलापत्याः ५, ते काण्डिल्याः ६, ते खारायणाः ७। ये वाशिष्ठास्ते सप्तविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-ते वाशिष्ठाः १, ते उचायनाः २, ते जारेकृष्णाः ३ ते व्याघ्रापत्याः ४, ते कौण्डिन्याः ५, ते संनिनः ६, ते पाराशराः ७॥ सू० १२ ॥ टीका-'सत्त मूलगोत्ता' इत्यादि व्याख्या सुगमा । नवरम्-मूलगोत्राणि-मूलम् आदि, आदित्वं चोत्तरापेक्षया, मूलभूतानि यानि गोत्राणि-गोत्रप्रवर्तकतथाविधैकपुरुपप्रभवसन्तानपर." सत्त मूलगोत्ता पण्णत्ता" इत्यादि ॥ सूत्र १२ ॥ टीकार्थ-सात मूल गोत्र कहे गये हैं-जैसे-काश्यप १ गौतम २ वत्स ३ कौत्स ४ कौशिक ५, माडव्य ६ और वाशिष्ठ ७ । जो काश्यप हैं-वे सात प्रकारके कहे गये हैं-जैसे-ते काश्यप १ ते शाण्डिल्य २ ते गौल्य ३ ते वाल ४ ते मुन्नतृण ५ ते पर्वप्रेक्षकी ६ और ते वर्षकृष्ण ७ इत्यादि रूपसे इस सूत्रकी व्याख्या सुगम है । मूल शब्दका अर्थ आदि " सत्त मूलगोता पण्णत्ता" त्यટીકાઈ–સાત મૂળગોત્ર કહ્યાં છે. તેમનાં નામ નીચે પ્રમાણે છે–(૧) કાશ્યપ, (२) गौतम, (3) परस, (४) अत्स, (५) शि, (६) भांडव्य मन (७) વાશિષ્ટ કાશ્યપના સાત પ્રકાર કહ્યા છે—(૧) તે કાશ્યપ. (૨) તે શાંડિલ્ય (३) ते गोत्य, (४) वास, (५) ते भुmy, (६) ते ५ प्रेक्षणी अने. (७) ते . स्था०-७३ Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७८ . स्थानाशास्त्र म्परास्तानि तथा । तानि च कानि ? इत्याह-'कासवा' इत्यादि । तत्र-काशे= तृणविशेपे भवः काश्पा-काशोत्पन्नो रसः, तं पिवतीति काश्यप-तदपत्यानि काश्यपाः । मुनिसुव्रतनेमिनायातिरिक्ता जिनाः, चक्रवादयश्च क्षत्रियाः सुप्रभगणधरादयश्च ब्राह्मगाः जम्बूस्वामिप्रभृतयश्च गृहपतयः काश्यपगोत्रीया बोध्याः । गोत्रगोत्रवतोरभेदादिह गोत्रचन्न एव गोवत्वेनोक्ताः । अन्यथा तु काश्यपमिति नपुंपकमे व वाच्यम् । एवमप्रेऽपि बोध्यम् । तथा-गौतमाः-गौत. है आदिताउन्सरकी अपेक्षाले आती है, गोत्र प्रवर्तक तथाविध एक पुरुषसे उत्पन्न हुई जो सन्तानकी परम्परा है, वह गोत्र है, इस तरह मूलभूत जो गोत्र हैं वे मूलगोत्र हैं। काश नाम तृग विशेषता है, इस काशमें जो होता है, वह काश्य है-अर्थात् काशका जो रस है वह काश्य है इस काशोत्पन्न रसको जो पीता है, वह काश्यप है, इस काश्यपके जो अपत्य हैं वे काश्यप हैं । लुनि सुधत, नेमिनाथले अतिरिक्त समस्त जिन चक्रवर्ती आदि क्षत्रिय, सप्तम गणधर आदि ब्राह्मग, और जम्बू स्वामी आदि गृहपति-वैश्य ये सब काश्यप गोत्रीय हए हैं। गोत्र घालोंके अभेद सम्बन्धसे यहां गोरवालेही. गोत्र रूपले कहे गये हैं। यदि ऐमा न कहा होता तो " काश्यपाः " न कहकर सत्रकार "काश्यपम् " ऐप्ता नपुंसकलिङ्गकाही निर्देश करते इमी तरहका कथन आगे મૂળ એટલે આદિ. આ આદિતા આદિપણુ આગળ ઉત્પન્ન થવાને કારણે - સમજવાની છે. ગોત્રપ્રવર્તક તથાવિધ એક પુરુષના વંશમાં ઉત્પન્ન થયેલી સંતાન પરંપરાને ગેત્ર કહે છે. આ પ્રકારે મૂળભૂત જે ગોત્ર છે તેમને મૂળગોત્ર કહે છે. એક પ્રકારના તૃણવિશેષને કાશ કહે છે. તે કાશના રસને કશ્ય કહે છે. આ કાશોત્પન્ન કાશ્ય રસનું પાન કરનારને કાશ્યપ કહે છે. આ કાશ્યપના જે સંતાને છે–વંશજો છે, તેમને કાશ્યપ કહે છે. મુનિસુવ્રતઅને નેમિનાથ સિવાયના જિનેશ્વર, ચક્રવતી આદિ ક્ષત્રિય, સપ્તમ ગણધર આદિ બ્રાહ્મણ અને જબૂસ્વામી અ દિ ગૃહપતિ-વૈશ્ય, આ બધા કાશ્યપ ગોત્રીય હતા. ગોત્ર અને ગોત્રવાળા વચ્ચે અભેદ માનીતે અહીં ગોત્રવાળાને ગોત્ર રૂપે પ્રકટ કરવામાં આવ્યા છે. જે એ પ્રકારે માનવાનું ન હોત તો "काश्यपाः " म पहना अयो। ४२पाने महसे सूत्रारे " काश्यपम् " मा નાન્યતર જાતિના જ પદને પ્રવેગ કર્યો હોત. એ જ પ્રકારનું કથન ગૌતમ આદિ વિષે પણ સમજવું. Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुंघा टीका स्था०७ सू०१२ सप्तविधमूलगोत्रनिरूपणम् ___५७१ मस्यापत्यानि, तत्र क्षत्रिया.-शुनिसुव्रतनेमिनाथौ जिनौ, रामलक्ष्मणर्जाः बलदेववासुदेवाः, ब्राह्मणाश्च-इन्द्रभूत्यादयस्त्रयो गणधरा वज्रस्वामी चैते गौतमगोत्रीयाः तथा-वत्सा:-वत्सस्यापत्यानि शय्याभवादयः । कौत्सा शिवथूत्यादयः-'कोच्छं सिवइंपिय ' इतिवचनात् । एवं कौशिका पडुलूकादयः । माण्डव्या मण्डोरपत्यानि । वाशिष्ठा-वशिष्ठस्यापत्यानि-पष्ठगणधरायसुह. स्त्यादयः। तत्र काश्यपादिषु सप्तसु मूलगोत्रेषु प्रत्येक गोत्रं सप्तविधम् । तत्रं ये काश्यपशब्दव्यपदेश्यत्वेन विवक्षितास्ते काश्यपा उच्यन्ते । ये तु काश्यप गोत्रोत्पन्नशाण्डिल्यादि पुरुषापत्यानि ते शाण्डिल्यादय उच्यन्ते । एवं गौतमादि विषयेऽपि बोध्यम् । । सू० १२ ॥ भी समझना चाहिये, गौतमके जो अपत्य-लन्तान हैं वे गौतम हैं। मुनिसवत एवं नेमिनाथ ये दो जिन राम लक्षमणको छोड़कर बलदेव और वासुदेव ये क्षत्रिय, इन्द्रभूति आदि तीन गणधर एवं वज्रस्वामी , ये व्राह्मण, गौतम गोत्रीय हैं। तथा-वत्सके अपत्य शय्यंभव आदि वत्स हैं। "कोच्छं सिवभूई पिय" इस वचन के अनुसार शिवभूति आदि कौत्स हैं। षटू उलूक आदि कौशिक हैं। सडकके अपत्य माण्डव्य हैं। छठे गणधर और आर्य सुहस्ती आदि वशिष्ठ के अपत्य होनेसे वाशिष्ठ हैं। इन सात मूल गोत्र में से प्रत्येक सूलगोत्र सात प्रकारका कहा गया है। जो" का. श्यप" इस शब्दसे विवक्षित होते हैं वे काश्यप कहलाते हैं और जो काश्यप गोत्रमें उत्पन्न शाण्डिल्य आदि कहलाते हैं। इसी तरह का कथनं गौतम आदिके विषय में भी जानना चाहिये। ॥ सूत्र १२॥ - ગૌતમના જે સંતાને છે તેમને ગૌતમ કહે છે મુનિસુવ્રત અને નેમિનાથ ભગવાન, રામલક્ષ્મણ સિવાયના બળદેવ અને વાસુદેવ વગેરે ક્ષત્રિય, ઇન્દ્રભૂતિ આદિ ત્રણ ગણધર અને વાસ્વામી વગેરે બ્રાહ્મણે, 'गौतम गोत्रीय ता. शयस माह पसना सताने.ने वत्सगोत्रीय ४३ छ. " कोच्छ सिव भूई पि य" मा ४थन अनुसार शिवभूति महिने औत्स मेत्रीय ४ छ. પં ઉલૂક આદિ કૌશિક ગોત્રીય હતા મડુકના સંતાનને માંડવ્ય કહે છે છઠ્ઠા ગણધર અને આર્ય સહસ્તી આદિ વશિષ્ઠના સંતાન હોવાથી તેમને વાશિષો કહે છે. આ સાત મૂલગેત્ર છે. પ્રત્યેક ગેત્રના સાત પ્રકારે પડે છે. જેઓ “કાશ્યપ” આ શબ્દથી વિવક્ષિત થાય છે, તેમને કાશ્યપે કહે છે, અને જેઓ કાશ્યપ ગેત્રમાં ઉત્પન્ન થયેલા શ ડિલ્યના સાનેને શાંડિલ્ય કહે છે 'मेर प्राप्तुं ४थन गोतम 6 व प सभ देवु: ॥ सू. १२ ॥ Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानहिस्से __अयं च मूलगोत्रशाखागोत्रविभागो नयविशेपमताद् भवतीति नयविभाग माह मूलम्-सत्त मूलनया पण्णता, तं जहा-नेगमे १, संगहे २, ववहारे ३ उज्जुसुत्ते ४ सद्दे ५ समभिरूढे ६ एवंभूए ७ ॥ सू० १३ ॥ छाया-सप्तमूलनयाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-नैगमः १ संग्रहो २ व्यवहारः ३ ऋजुम्मूत्रः ४ शब्दः ५ समभिरुडः ६ एवम्भूतः ७॥ सू० १३ ॥ टीका-' सत्त मूलनया ' इत्यादि अनेकधर्मकदम्बकोपेतस्य प्रमाणपतिपत्रस्य पदार्थस्य एकेन धर्मेण उन्नयनम् अवधारणात्मक नित्य एव अनित्य एप' इत्येवंविधं नयव्यपदेशमास्कन्दति यः सोऽध्यवसायविशेषो नयः स नयो द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिकभेदेन ___यह मूल गोत्र और शाखा गोत्रका विभाग नय विशेषण मतसे होता है, अतः अप सूत्रकार नय विभागका कथन करते हैं “सत्त मूलनया पण्णत्ता" इत्यादि ।। सूत्र १३ ॥ टीकार्थ-सात मूलनय कहे गये हैं, जैसे नैगम १ संग्रह २व्यवहार ३ ऋजु सूत्र ४, शब्द ५, समभिरूढ ६, और एवंभूत ७ । प्रमाणसे गृहीत हुई ऐसी अनेक धर्मात्मक वस्तुका किसी एक धर्म से लेकर निश्चय करनेवाला जो प्रमाताका विचार है-जैसे कि यह नित्य ही है, अनित्यही है-वह नय है, यह नय द्रव्याथिक और पर्या. यार्थिकके भेदसे दो प्रकारका होता है । पदार्थ द्रव्य पर्याय रूप है, एक और अनेक धर्मात्मक है, इसीका नाम अनेकान्त है, यह अनेकान्ता. આ મૂળગેત્ર અને શાખાગોત્રને વિભાગ જુદા જુદા નયે (મતિ) ને આધારે થાય છે. તેથી હવે સૂત્રકાર નયના પ્રકારનું કથન કરે છે " सत्त मूलनया पण्णत्ता" त्याहि___टी -भूजनय सात xai -~-(१) नेगम, (२) सड, (3) 04481२, (४) सूत्र, (५) २०४, (६) सममि३८ अ (७) मे भूत. પ્રમાણ દ્વારા ગૃહીત થયેલી એવી અનેક ધર્માત્મક વસ્તુને કેઈ એક ધર્મને આધારે નિશ્ચય કરનાર જે પ્રમાતાને વિચાર (મત) હેય છે તેને નય કહે છે જેમકે “આ નિત્ય જ છે, આ અનિત્ય જ” આ પ્રકારની માન્યતાનું નામ નય છે આ નયન દ્રવ્યાર્થિક નય અને પર્યાયાર્થિક નય નામના બે મુખ્ય ભેદ પડે છે. પદાર્થ દ્રવ્ય પર્યાય રૂ૫ છે, એક અને અનેક Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था० ७ सू० १३ सप्तविधमूलनयनिरूपणम् ५८१ , द्विविधः तत्र - द्रव्यार्थिकनयः- द्रव्यपर्यायरूपमेकानेकात्मकमनेकान्त प्रमाणपतिपन्नमर्थं विभज्य पर्यायार्थिकनय विषयस्य भेदस्योपसर्जनभावेनावस्थानमात्रमभ्यनुजानन् स्वविषयं द्रव्यभेदमेव व्यवहारयति, ' नयान्तरविषयसापेक्षः सन्नयः इयभिधानात् । यथा सुवर्णमानयेति । अत्र द्रव्यार्थिकनयाभिप्रायेण सुवर्णद्रव्या नयननोदनायां कटकं कुण्डलं केयूरं चोपनयन्नुपनेता कृती भवति, सुवर्णरूपेण स्मक पदार्थ प्रमाणका विषय है, नयका नहीं अनेक है-अन्त-धर्म जिसमें वह अनेकान्त है । द्रव्यार्थिक नय केवल द्रव्यकोही विषय करता है, और पर्यायार्थिक नयका जो विषय भेद है, उसे गौण करता है - उसका खण्डन नहीं करता है उसमें गज निमीलिका - उपेक्षा भाव धारण करता है, अर्थात् अपने विषयको मुख्य करता है, और पर्यायार्थिक नय विषयको गौण करता है, इस तरह दूसरे नयके विष यो गौण करके अपने विषयको मुख्य रूपसे - द्रव्य रूपसे जाननेवाला जो नय है, वह द्रव्यार्थिक नय है । " नयान्तरसापेक्षः सन्नयः " इस कथनसे यही समझाया गया है-अन्य नयके विषय की अपेक्षा रखता हुआ अपने विषय की पुष्टि करनेवाला जो नय है, वही सन्नय है, इससे विपरीत दुर्नय है, जैसे- किसीने कहा कि " सुवर्णमानय " सुवर्ण लाओ - यहाँ द्रव्यार्थिक नयके अभिप्राय से कटक, कुण्डल, केयूर, ધર્માત્મક છે, આ પ્રકારની માન્યતાને અનેકાન્તવાદ કહે છે. આ અનેકાન્તાત્મક પદાર્થ નયના વિષય નથી પણ પ્રમાણના વિષય છે. અનેક છે અન્ત (ધસ) જેમાં તેને અનેકાન્ત કહે છે. દ્રષ્યાર્થિક નય કેવળ દ્રવ્યના જ વિચાર કરે છે અને પર્યાયાર્થિક નયને જે વિષયલે છે તેને ગૌણુ કરે છે, તેનું ખંડન કરતા નથી, તેમાં ગનિમીલિકા ભાવ ( ઉપેક્ષા ભાવ ) ધારણુ કરે છે. એટલે કે પેાતાના ત્રિષયને પ્રાધાન્ય આપે છે અને પર્યાયાર્થિક નયના વિષયને ગૌણુ રૂપ આપી દે છે. આ પ્રકારે અન્ય નયના વિષયને ગૌણુ કરીને પેાતાના વિષયને મુખ્ય રૂપે, દ્રવ્ય રૂપે જાણનારા જે નય છે તેને द्रव्यर्थ नय डे छे. " नयान्तरसापेक्ष. सन्नयः " मा सूत्रपाठ द्वारा से વાત સમજાવવામાં આવી છે. અન્ય નયના વિષયની અપેક્ષા રાખતા થકા પેાતાના વિષયની પુષ્ટિ કરનારે જે નય છે તેને જ સન્નય ( સાચા અર્થમાં નય ) કહે છે. તેનાથી વિપરીત લક્ષણવાળા જે નય છે તેને દુય કહે छे. नेमठे हैं या प्रभा डे ! " सुवर्णमानय અહી' દ્રોથિંક નય અનુસાર કડાં, કુંડળ, હાર " 66 सुवर्य साथी " સેાનાની વસ્તુને ז આદિ Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८२ स्थ कटकादीनां भेदाभावात् । द्रव्यार्थिकयमुपसर्जनीकृत्य प्रवर्तमानं पर्यायार्थिकनयमवलम्व कुण्डलमानय इत्युक्ते न कटकादी प्रवर्तते, कटकादि पर्यायस्य ततो वात् । ततो द्रव्पार्थिकनयाभिशयेण सुवर्ण स्यादेकमेव पर्यायार्थिकनयाभिप्रायेण स्वाइने कसे व क्रमेणोभयन्याभिप्रायेण स्यादेकमनेकं च । द्रव्यार्थिकइनमें से किसी एकको या सबको लानेवाला व्यक्ति कृती होता है, क्योंकि उसकी दृष्टिमें सुवर्ण रूपले कटकादिकों में भेद नहीं हैं - द्रव्य सुवर्णकी दृष्टिसे वे सब सुवर्णरूप ही हैं, और जब द्रव्यार्थिक नको गौण कर दिया जाता है, और पर्यायार्थिक नयको प्रधान कर दिया जाता है, उस समय " कुण्डललाओ " ऐसा कहने पर श्रोता कटक (कड़ा) आदिके लाने में प्रवृत्ति नहीं करता है, क्योंकि कुण्डलसे कटक पर्याय भिन्न है, अतः प्रार्थिक नयके अभिप्रायले सुवर्ण किसी अपेक्षा एकही है, और पर्यायार्थिक नयके अभिप्रायसे वह किसी अपेक्षा अनेकही है, इस तरह द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक इन दोनों नयोंके अभिप्राय से यहां दो भंग हो जाते हैं- सुवर्णस्याद् एकमेव १ सुवर्णस्यादनेकमेव २ । दोनों नयोंके अभिप्राय से - कमसे दोनोंकी प्रधानता से वह सुवर्ण द्रव्य कथंचित् एकभी है, और अनेक भी है, इस प्रकारका यह तृतीय अंग है । द्रव्यार्थिक नय नैगम १ संग्रह २ સેાના રૂપ માનીને એ બધી વસ્તુઓને અથવા તેમાંથી કાઇ પણ એક જ વસ્તુને લવનાર માણુસ પશુ સેાનું જ લાવ્યે કહેવાય. કારણ કે તેની દષ્ટિએ તે સેનામાં અને સેાનાની વસ્તુ એમાં કાઇ ભેદ નથી-દ્રવ્યરૂપ સુત્ર ની ષ્ટિએ તા તે સઘળી વસ્તુએ સુવણુ રૂપ જ છે પરન્તુ જો દ્રŠર્થિક નયને ગૌણુ કરી નાખવામાં આવે અને પર્યાયર્થિક નથને પ્રાધાન્ય આપવામાં આવે तो “ झुंड। सावो ” આ પ્રમાણે કહેવામાં આવે ત્યારે શ્રોતા કડાં આફ્રિ લાવતા નથી પણ કુંડળ જ લાવે છે, કારણુ કુંડળ કરતાં કેટકપર્યાય ભિન્ન હાય છે. તેથી દ્રન્યાયિક નયની અપેક્ષાએ સુવર્ણ કાઇ પડુ ઘાટ રૂપે હૈવા છતાં વધુ એક જ છે-સુવરૂપ જ છે, અને પર્યાર્થક નય અનુસાર તે કડાં, કુંડળ, હાર અ દિ અનેક રૂપ છે. આ પ્રકારે દ્રવ્યર્થિક અને પર્યાયાકિ था मे नयोनी अपेक्षासे अड़ी मे लग जनी लय हे—(१) सुवर्णध्याद् एकमेव मने (२) सुवर्णादकमेव जन्ते नयोना अभिप्राय अनुसार 'जन्नेनी अधाનતાની અપેક્ષાએ તે સુત્રળુ દ્રવ્ય અમુક દૃષ્ટિએ એક પણ છે અને અમુક ષ્ટિએ અનેક પશુ છે,” આ પ્રકારના ત્રીજે ભગ ખને છે, ८८ Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टोका स्था० ७ सू० १३ सप्तविधमूलनयनिरूपणम ५८३ नयस्तु नैगमः सग्रहो व्यवहारश्वेति त्रिविधः । पर्यायार्थिकश्च ऋजुत्रः शब्दः समभिरूढः एवम्भूतचेति चतुर्विधः । अतएवात्र मूलनयशब्देनोच्यन्ते । मूलभूता नया मूलनयाः । मूलत्वं चैपां नैगमादीनां सप्तानामुत्तरनयापेक्षया बोध्यम् । उत्तरनयास्तु सप्तशतानि, के पांचिन्मते पञ्चशतानि । "" तदुक्तम् — एक्केको यसयविदो, सत्त नयसया हवंति एवं तु अन्नो वि य आएसो, पंचेव सया नयाणं तु ॥ १ ॥ छाया - एकैकश्च शतविधः सप्त नयशतानि भवन्ति एवं तु । अन्योऽपि च आदेशः पञ्चैव शतानि नयानां तु ॥ तथा - जावइया वयणपहा. वावइया चेव हुति नयवाया । जावइया नयवाया तावया चैव परसमया ॥ १ ॥ छाया - यावन्तो वचनपथाः तावन्तश्च भवन्ति नयवादाः । यात्रन्वो नयवादास्तावन्तश्चैव परसमयाः ॥ १ ॥ इति । "9 १ ॥ इति । और व्यवहार नयके भेदसे तीन प्रकारका है, एवं पर्यायार्थिक नय ऋजु सूत्र, शब्द, समभिरूढ और एवंभूतनयके अभिप्रायसे चार प्रकारका है, ये यहाँ सूलनय शब्द से कहे गये हैं । मूलभूत जो नय हैं, मूल न हैं, नैगमादि सातों नयों उत्तरनयोंकी अपेक्षासे मूल नयता जाननी चाहिये, उत्तर नय सातसौ हैं, किसी २ के मतानुसार उत्तर नय पांचसौ हैं कहा भी है " एक्केक्को सयविहो " इत्यादि । 1 . एक एक नयके सौ सौ (१००) भेद होते हैं, इस तरह सात नयोंके सात सौ भेद हो जाते हैं, कोईका ऐसा कहना है, कि नयोंके उत्तर भेद ५०० होते हैं । तथा द्रव्यार्थिङ नयना नीचे प्रभात्र अमर छे (१) नैगम नय (२) સંગ્રહ નય અને (૩) વ્યવહારનય. પયાથિંક નયના નીચે પ્રમાણે ચાર अार, छे – (१) ऋनु सूत्र, (२) शब्द, (3) समलि३ढ अने (४) शेव भूत नय, મૂળભૂત જે સાત નયેા છે તેમને સૂલનય કહે છે. નૈગમ આદિ સાતે નચામાં ઉત્તરનયાની અપેક્ષાએ મૂલનયતા ગ્રહણ કરવી જોઇએ. કેટલાકની માન્યતા અનુસાર .ઉત્તરનચેા ૭૦૦ છે અને કેટલાકની માન્યતા પ્રમાણે उत्तरनया ५०० छेउछु पशु छे : एक्केक्को य सयविहो " त्याहिપ્રત્યેક નયના ૧૦૦-૧૦૦ ભેદ પડે છે. આ રીતે સાત નયેાના ૭૦૦′′ ભેદા થઇ જાય છે. ત્યારે કેટલાક લેાકેાની માન્યતા પ્રમાણે નયાના ઉત્તસૈા ५०० हे. तथा जावया वयणपहा ' " इत्यादि cc Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८४ स्थानास्त्रे तत्र सप्तमु मूलनयेषु प्रथमो नैगमः । तस्य चेयं व्युत्पत्तिः-नैकर्मानमहासत्ता सामान्यविशेषविशेषज्ञानैमिमीते, मिनोति-परिच्छिनत्तीति नैकमः निरुक्तविधिना स एव नैगमः । तदुक्तम् "णेगाई माणाई, सामन्नोभयविसेसनाणाई । जं तेहिं मिणइ तो, णेगमो णो णेगमाणोति ॥ १॥". छाया-नैकानि मानानि सामान्योभयविशेषज्ञानानि । यत्तैमिनोति ततो नैगमो नेकमान इति । १॥ अयवा-निगमेषु अर्थवोघेषु कुशलो भत्रो वा नैगमः यद्वा-नके गमाः पन्यानो यस्य स नैकगमः, निरुक्तत्वेन स एव नैगमः । तदुक्तम् " लोगथनिवोहा वा, निगमा तेस्ल कुसलो भवोवाऽयं । अहवा ज णेगगमो, गपहा पोगमोतेणं ॥ १ ॥" " जावइया वयणपहा " इत्यादि । जितने वचनपथ हैं, उतनेही नयवाद हैं, और जितने नयवाद है, उतनेही पर समय हैं, इन सात मूल नयों में प्रथम नैगम नय है, इसकी व्युत्पत्ति इस प्रकारसे है "नैकैः मानः मिनोति इति नैकम:-नै कम एव नैगमः" जो नय महामत्ता सोमान्य, एवं विशेष इनके द्वारा पदार्थको जानता है, उस नयका नाम नैकम या नैगम है कहा भी है___“जोगाई माणाई" इत्यादि। ___ अपवा-अर्थयोधमें जो विवार कुशल होता है, वह अथवा अर्थ. योधमें जो विचार होता है, वह नैगम है, अथवा अर्थबोध करानेके जिसके अनेक मार्ग है वह नैकगम-नैगम है, कहा भी है જેટલા વચન પથ છે, એટલાં જ નયવાદ છે, અને જેટલા નથવાદ છે એટલા જ પર સમય (અન્ય મતે-અન્ય સંપ્રદાય) છે. સાત નામાં પહેલે નય ગામ છે. નૈગમની વ્યુત્પત્તિ આ પ્રમાણે થાય છે कैः मानैः मिनोति इति कमः-ौकम एव नैगमः " रे नय भई सता સામાન્ય અને વિશેષ દ્વારા પદાર્થને જાણે છે, તે નાનું નામ નકમ અથવા गम छे. ह्यु ५ छ है " णेगाई माणाई" त्याह અથવા–અર્થબંધમાં જે વિચાર કુશલ હોય છે તેને, અથવા અર્થબધમાં જે વિચાર થાય છે તેને નૈગમ કહે છે. અથવા અર્થબધ કરાવવાના જેના અનેક માર્ગ છે તે “નૈક ગમ” અથવા નગમ છે, Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . . सुधा टीका स्था० ७ सु० १३ सप्तविधमूलगायनिरूपणम् छाया-लोकार्थनिबोधा वा निगमास्तेषु कुशलो भवोवाऽयम् । अथवा यत् नैकगमो नैकपथो नैगमस्तेन ॥ १ ॥ इति । अयं नैगमः सर्वाविशुद्धो विशुद्राविशुद्धः सर्वविशुद्धश्चेति त्रिभेदः । तत्रप्रथमो-निर्विकल्पकमहासत्ताऽऽख्य केवलप्सामान्यवादी १। गोत्वादिसामान्यविशेषवादी द्वितीयः २। विशेषवादी तु तृतीयः ३॥ तत्र प्रथमो द्वयोधर्ययोः प्रधा. " लोगस्थनियोहा वा" इत्यादि । यह नैगम सर्वाविशुद्ध, विशुद्धाविशुद्ध और सर्व विशुद्धके भेदसे तीन प्रकारका है। इनमें निर्विकसक महासत्तारूप केवल सामान्यका कथन करने. वाला जो नय है, वह सर्वाविशुद्ध नैगम नघका प्रथम भेद है, गोत्व आदिरूप सामान्य विशेषता प्रतिपादन करनेवाला जो नय है, वह नैगम नयका विशुद्धाविशुद्ध द्वितीय भेद है, और केवल विशेषका कथन करनेवाला जो नय है, वह नैगम नयका सर्व विशुद्ध रूप तृतीय भेद है, नैगमनय के द्वितीय भेद में जो सामान्य विशेष विषय कहा गया है वह " सामान्य और विशेष" इस रूप से नहीं समझना चाहिये, किन्तु सामान्य रूप विशेष इस रूप से समझना चाहिये. क्योंकि सामान्य परसत्ता और अपरसत्ता के भेद से दो प्रकार का होता है, इनमें परसत्ता महा सामान्य रूप होती है और अपर सत्ता ४ प छ है : “ लोगत्थ नियोहा वा" त्या: नमन नये प्रभारी न्यु ले छे-(१) सर्वा विशुद्ध, (२) विशुद्धा विशुद्ध, मने (3) स विशुद्ध નિર્વિકલપ મહા સત્તારૂપ કેવળ સામાન્યનું જ કથન કરનાર જે નય છે તે સવિશુદ્ધ નામને નૈગમ નયને પહેલો ભેદ છે. ગોત્વ આદિ રૂપ સામાન્ય વિશેષનું પ્રતિપાદન કરનાર જે નય છે તે વિશુદ્ધાવિશુદ્ધ નામને સેગમ નયન બીજે ભેદ છે. કેવળવિશેષનું જ પ્રતિપાદન કરનાર જે નય છે, તેને સર્વવિશુદ્ધ નામને નૈમને ત્રીજો ભેદ કહે છે. નગમનાથના બીજા ભેદમાં જે “સામાન્ય વિશેષ” રૂપ શબ્દપ્રયોગ કરવામાં આવ્યું છે તેને સામાન્ય અને વિશેષ” આ રૂપે ગ્રહણ કરવાનો નથી, પરંતુ સામાન્ય રૂપ વિશેષ” આ પ્રકારને તેને અર્થ ગ્રહણ કરવાનું છે, કારણ કે પરસત્તા અને અપરસત્તાના ભેદથી સામાન્યના બે પ્રકાર પડે છે. તે બનેમાંથી પરસત્તા મહાસામાન્ય રૂપ હોય છે અને અપરસના સામાન્ય વિશેષ स्था-७४ Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८६ स्थानासूत्रे नोपसर्जन भावेन यक्षिणं सः, यथा - सच्चै न्यमात्मनीति । तथा द्वयोर्धर्मिणोः प्रधानोपसर्जनभावेन यद्विक्षणं स द्वितीयः, यथा - पर्यायवद् वस्तु द्रव्यमिति २ तथा - धर्मधर्मिणोः प्रधानोपमनभावेन यद् विवक्षणं स तृतीयः, यथा -क्षणमेकं सुवी विषयासक्तजीव इति । सामान्य विशेषरूप होती है, इन में दो धर्मो का प्रधान और उपसजैन भाव से - गौण रूप से जो विवक्षण है वह प्रथम नैगमनयका भेद है, जैसे- " सच्चैतन्यात्मनि " आत्मा में विशिष्ट चैतन्य है यहां चैतन्य का विशेषण सत् है अतः वह गौण है और चैतन्य धर्म मुख्य है, दो धर्मियों की प्रधान उपसर्जन भाव से जो विवक्षा है वह treat द्वितीय भेद है, जैसे-पर्यायवाली वस्तु द्रव्य है, यहाँ वस्तु और द्रव्य ये दो धर्मी हैं परन्तु पर्यापवद् वस्तु यह द्रव्य का विशेषण है, इसलिये यह गौण है और द्रव्य यह विशेष्य है इसलिये वह प्रधान है, धर्म और धर्मी का प्रधान उपसर्जन भाव से जो विचक्षण-कथनकरना है वह नैगमन का तृतीय भेद है, जैसे- " क्षणमेकं सुखी विषयासक्त जांच: " विषयासक्त जीव एक क्षण तक सुखी रहता है, यहाँ धर्म धर्मों की प्रधान उपसर्जन भावले विवक्षा हुई है, क्योंकि जय विषयासक्त जीव का विशेषण सुखी बनाया जाता है तब वह - રૂપ ક્રાય છે નૈગમનયના પ્રથમ લેઇમાં એ ધર્મનું પ્રધાન રૂપે અને ઉપસર્જન રૂપે, ગૌણુ રૂપે પ્રતિપાદન થાય છે. જેમકે “ सच्चैतन्यात्मनि ” " आत्ममां सद्विशिष्ट चैतन्य छे. " सही चैतन्यतु विशेषण सत् छे, તેથી સત્ ગૌણુરૂપ છે અને ચૈતન્ય ધર્મ પ્રધાનરૂપ છે. એ ધર્મીઓની જે પ્રધાનભાવે અને ઉપસર્જન ભાવે ગૌણુભાવે વિવક્ષા છે, તેને નૈગમનયના બીજા ભેદ રૂપ ગણવામાં આવે છે. જેમકે પર્યાયવાળી વસ્તુ દ્રવ્ય છે '' અહી' વસ્તુ અને દ્રવ્ય, આ એ ધર્મી છે. પરન્તુ પર્યાય. વાળી વસ્તુ ' આ પત્ર દ્રવ્યના વિશેષણ રૂપ છે, તેથી તે ગૌણુ છે અને દ્રવ્ય વિશેષ હાવાને કારણે તેને પ્રાધાન્ય અપાયું છે. 6 , નેગમ નયના ત્રીજા ભેદમાં ધર્મ અને ધર્મીનું પ્રધાન અને ઉપસર્જન लावे गौथु ३ये प्रतिपादन वामां आवे छे, भ} " अगमेकं सुखी विषयासक्तजीवः " " विषयासात व मे क्षयु सुखी राहे हे " अहीं धर्म અને ધર્મીની પ્રધાન અને ગૌણ રૂપે વિક્ષા થઈ છે. કારણ કે એ વિષયાસક્ત જીવના વિશેષણુ રૂપે સુખીને લેવામાં આવે તે તે વિશેષણ હાવાને Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था० ७ सू० १३ सप्तविवमूलनय निरूपणम् ५८७ नन्वेवं सामान्यविशेषाभ्युपगमपरत्वादयं नैगमनयः सम्पदृष्टिरेव साधुवत् ? इति चेत्, आइ - अयं नयो हि सामान्यविशेषवस्तूनि अत्यन्तभेदेनाभ्युपगच्छति, अतो नायं साधुवत् सम्यग्दृष्टिः । तदुक्तम् — 16 जं सामन्नविसेसे, परोप्परं वत्थओ य सो भिन्ने । मन्नइ भच्चतमओ, मिच्छादिट्ठी कणादोन्न ॥ १ ॥ दोहिवि नयेहि नीयं, सत्यमुलएण वहचि मिच्छत्तं । जं सविसय पहाणतणेण अन्नोन्ननिरवेक्खा || २ | " छाया - यत् सामान्यविशेषं परस्परं वस्तुनश्च तद् भिन्नम् । मन्यते अत्यन्तमतो मिध्यादृष्टिः कणाद इव ॥ १ ॥ द्वाभ्यां नयाभ्यां नीतं शास्त्रमुलकेन तथापि मिथ्यात्वम् । यत् स्वविषयप्रधानत्वेन अन्योन्यनिरपेक्षौ || २ || इति । विशेषण होने से गौण हो जाता है और विषयामक्त जीव रूप धर्मी मुख्य हो जाता है, और जब विषयासक्त जीव को सुखी का विशेषण बनाया जाता है तब वह गौण हो जाता है और सुखी प्रधान हो जाता है. शंका --- पदार्थ सामान्य विशेषात्मक है और सामान्य विशेष को जानने वाला नैगमनय है अतः यह नय साधु की तरह सम्यग्दृष्टिवाला ही है ? उत्तर—यह नय सामान्य विशेष रूप वस्तुओं को अत्यन्त भेद रूप से स्वीकार करता है, क्योंकि यह इन दोनों को परस्पर सापेक्ष नहीं मानता है, अतः यह सम्यग्दृष्टि साधु की तरह सम्यग्वाला नहीं है, कहा भी है- " जं सामन्नविले से " इत्यादि । કારણે ગૌણુ ખની જાય છે અને વિષયાસક્ત રૂપ ધર્મી મુખ્ય ખની જાય છે. પરન્તુ વિષયાસક્ત જીવને જ્યારે સુખીનું વિશેષણુ ખનાવવામાં આવે છે ત્યારે સુખી પ્રધાન બની જાય છે અને વિષયાસક્ત ગૌણુ બની જાય છે. શકા—પદાર્થી સામાન્ય વિશેષાત્મક છે અને સામાન્ય વિશેષને જાણુ નારા નૈગમનય છે, તેથી શું આ નય સાધુની જેમ સભ્યષ્ટિવાળે જ છે ? ઉત્તર—આ નય સામાન્ય વિશેષ ગ્રૂપ વસ્તુએને અત્યન્ત ભેટ રૂપે સ્વીકારે છે કારણ કે તે બન્નેને પરસ્પર સાપેક્ષ માનતા નથી, તેથી તે સભ્ય. *ર્દષ્ટિ સાધુની જેમ સમ્યગ્દષ્ટિવાળે! નથી, ह्युं पशु है “ जं सामन्नत्रि से से " धत्याहि--- Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प स्थामा : अयं भावः-नैगमनयो यत् सामान्यविशेष यत् परस्परम् अन्योऽन्यं तथा वस्तुनश्च अत्यन्तं भिन्न मन्यते, अतो नैगमनयः कणाद इव मिथ्यादृष्टिविज्ञेयः ॥ १ ॥ यद्यपि उलू केन-कणादेन द्वाम्यां द्रव्यार्थिऋपर्यायार्थिकाभ्यां नयाभ्यां शास्त्रं वैशेषिकदर्शनं नीतं प्रोक्तम् तथापि-तस्य मिथ्यात्वम् । यत्-यस्मात् कारणात् वैशेषिकदर्शने तो उभावपि नयो स्वविषयमधानत्वेन अन्योऽन्यनिरपेक्षौ। वैशेषिकशास्त्रपणेत्रा कगादेन तत्र द्रव्यगुणकर्म सामान्य विशेषसमवा. यात्मकस्य पदार्थपटकस्य नित्यकान्तस्य प्रतिपादनात् उभावपि नयौ परस्परनिरपेक्षतया स्थिती, अतः कणादस्य मिथ्याष्टित्वं वोध्यमिति भावः। इति प्रथमो नयः। तात्पर्य इन गाथाओं का ऐसा है कि-सामान्य और विशेष ये दोनों परस्पर में अत्यन्त भिन्न हैं और वस्तु से भी अत्यन्त भिन्न हैं ऐसी मान्यता इस नैगमननय की है, अतः यह नय कणाद की तरह मिथ्यादृष्टि वाला है-सम्बहष्टि वाला नहीं है, यद्यपि कणादने द्रव्योधिक और पर्यायाथिक नयों को लेकर वैशेषिक दर्शन का कथन किया है-फिर भी वह कथन सम्यक्-निर्दोष नहीं है क्योंकि-वैशेषिक दर्शन में ये दोनों नय अन्योन्य निरपेक्ष होकर अपने २ विषय का प्रतिपादन करते हैं वैशेषिक शास्त्र प्रणेना कणादने द्रव्य, गुण, कर्म सामान्य, विशेष, और समवाय में ६ पदार्थ नित्यैकान्त रूप से कहे हैं-इस लिये दोनों नय परस्पर निरपेक्ष रूप उनको मान्यता के अनुसार सावित हो जाते हैं, अतः कणाद में मिथ्यादृष्टिपन इस प्रकार के कथन से प्रमाणित हो जाता है, इस प्रकार का यह कथन प्रथमनय के सम्बन्ध में प्रकट किया अय संग्रह नयका स्वरूप कथन इस प्रकार से हैं આ ગાથાઓને ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે –સામાન્ય અને વિશેષ એ બને પરસ્પરથી અત્યન્ત ભિન્ન છે, અને વસ્તુની દષ્ટિએ પગ અત્યત ભિન્ન છે, આ પ્રકારની નિગમનની માન્યતા છે. તેથી આ નય (આ નયને માનના) કણાદની જેમ મિથ્યાષ્ટિવાળે છે-સમ્યગ્દષ્ટિવાળો નથી. જો કે કણકે દવ્યાર્થિક અને પર્યાયાર્થિક નયને આધારે વૈશેષિક દર્શનનું કથન કર્યું છે, પરંતુ તે કથન સમ્યફ (નિર્દોષ) નથી, કારણ કે વૈશેષિક દર્શનમાં આ અને નય પરસ્પર નિરપેક્ષ રહીને પિતપોતાના વિષયનું પ્રતિપાદન કરે છે. વૈશેષિક શાસ્ત્રના પ્રણેતા કણાદે દ્રવ્ય, ગુણ, કર્મ, સામાન્ય, વિશેષ અને સમવાયમાં પદાર્થ નિત્યકાન્ત રૂપે જ પ્રતિપાદિત કરેલ છે તેથી તેની માન્યતા પ્રમાણે તે બને નય પરસપર નિરપેક્ષ રૂપ સાબિત થઈ જાય છે. આ પ્રકારના કથન દ્વારા કદમાં મિથ્યાબ્દિતા સિદ્ધ થઈ જાય છે પ્રથમ નયના Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधाटीका स्था० ७ सू० १३ सप्तविधमूलनयनिरूपणम् ५८५ तथा - संग्रह: - संग्रहणं भेदानामिति संग्रहः, सगृह्णाति वा भेदान् संगृह्यन्ते वा भेदा येन स संग्रहः । तदुक्तम् 66 39 संहणं संगगिण्डद्, संगिज्झते व तेण जे भेया । तो संगहो - छाया - संग्रहणं संगृह्णाति संग्रयन्ते वा तेन ये भेदाः । ततः संग्रहः - इति । यद्वा - सामान्यमात्रम् अशेष विशेषरहितं सच्च्चद्रव्यत्वादिकं संगृह्णातीत्येवंशीलः, सम् = एकीभावेन पिण्डीभूततया विशेषराशिं गृह्णातीति वा संग्रहः । तदुक्तम् - " सामान्यमात्रग्राही परामर्शः संग्रहः " इति । अयमर्थः - स्वजाते दृष्टेष्टाभ्यामविरोधेन विशेषाणामेकतया यद् ग्रहणं स संग्रहः, इति । अत्रेदं बोध्यम् - सामान्यप्रतिपादनपरोऽयं नयः सामान्यमेव गृह्णाति न विशेषम् । अयं चवं विप्रतिपद्यते - विशेषाः सामान्यतोऽयन्तिरभूताः स्युरनर्थान्तरभूता वा ? यद्यर्थान्तरभूताः तर्हि भेदों का ग्रहण करना, अथवा जो भेदों को ग्रहण करता है, या जो भेदों को ग्रहण करता है अथवा भेद जिसके द्वारा गृहीत होते हैं वह संग्रह हैं - कहा भी है-- " संगहणं संगिण्हह " इत्यादि । 33 यद्वा अशेष विशेष रहित सत्व, द्रव्यत्वादि रूप सामान्य मात्र को जो ग्रहण करता है वह संग्रह है, अर्थात्-समरूप से - पिण्डीभूत रूप से - जो विशेष राशि को ग्रहण करता है - तदुक्तम् - " सामान्यमात्र ग्राही परामर्शः संग्रहः प्रत्यक्ष एवं अनुमान से जहाँ विरोध न आवे इस रूप से अपनी जाति के विशेषों का एक रूप से जो ग्रहण किया जाता है - वह संग्रह है, यह नय केवल सामान्य मात्र का कथन करता है- क्योंकि यह उसे ही ग्रहण करता है-विशेष को नहीं इस विषय વિષયમાં આ પ્રકારનું સ્પષ્ટીકરણ કરીને હવે સૂત્રકાર સૉંગ્રહનય નામના બીજા નયનાસ્વરૂપનુ' સ્પષ્ટીકરણ કરે છે~~ ભેદોને ગ્રહણ કરવા, અથવા જે ભેદેને ગ્રહણ કરવાનુ' થાય છે, અથવા જે ભેદાને ગ્રહણ કરે છે અથવા ભેદ જેના દ્વારા ગૃહીત થાય છે તે નયનું नाम सथडेनय छे, छे : " संग्रहणं सगिण्हइ " धत्यादि અથવા—અશેષ વિશેષ રહિત સત્ત્વ, દ્રષ્યાદિ રૂપ સામાન્ય માત્રને જે ગ્રહણ કરે છે તે સંગ્રહનય છે. એટલે કે સમરૂપે-પિંડીભૂત રૂપે-જે વિશેષ राशिने श्रद्धषु रे - " सामान्यमात्रग्राही परामर्शः संग्रहः " प्रत्यक्ष अनुमान દ્વારા જ્યાં વિરાધ ન આવે તે પ્રકારે પેાતાની જાતિના વિશેષાને જે એક રૂપે ગણુ કરવામાં આવે છે, તેનું નામ સગ્રહ છે. આ નય કેવળ સામાન્ય માત્રનું જ કથન કરે છે, કારણ કે તે તેને જ ગ્રહણુ કરે છે-વિશેષને ગ્રહણુ Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९० स्थानानक्षत्र न सन्ति ते, सामान्यादर्थान्तरत्वात् खपुष्पवत् । अथानान्तरभूताः, तहिं सामा. न्यमानं ते, तदव्यतिरिक्तत्वात् तत्स्वरूपवदिति । तदुक्तम् " सदिति भणियस्मि जहा सव्वत्थाणुप्पवत्तए वुद्धी । तो सव्यं तम्मत्तं, नत्थि तदत्यंतरं किंचि ॥ १ ॥ कुंभो भावाऽणन्नो, जइ तो भावो अहन्नहाऽभावो । एवं पडादयो वि हु, भावाऽन नंति तम्मत्तं ॥ २ ॥ छाया-सदिति भणिते यस्मात सर्वत्रानुप्रवर्तते बुद्धिः। ततः सर्व तन्मात्रं नास्ति तदर्थान्तरं किंचित ॥ १ ॥ कुंभो भावादनन्यो, यदि ततो भावोऽथान्यथा अभावः । एवं पटादयोऽपि खलु भावादनन्या इति तन्मात्रम् ॥ २॥ इति । अयमर्थः-'सत्' इति भणिते-उक्ते सति यस्मात् सर्वत्र-सर्वेषु पदार्थेषु वुद्धिः अनुप्रवर्तते, सर्वोऽपि पदार्थः सत्तात्वेनानुगतो भवतीति भावः । ततः= में इस नय का ऐसा कहना है-कि विशेष सामान्य से भिन्न हैं याअभिन्न है, यदि सामान्य से वे भिन्न होने के कारण स्वतंत्र सत्ता ही सिद्ध नहीं हो सकती है और यदि वे सामान्य से अभिन्न हैं-तो इस स्थिति में वे विशेष न कहलाकर सामान्य ही कहलावेगे-जैसे सामा. न्यका स्वरूप सामान्य से भिन्न होने के कारण सामान्य कहलाता है। कहा भी है-" सदिति मणिपम्मि" इत्यादि । जय " सत्" इस प्रकार कहा जाता है तब समस्त पदार्थों में सत्ता होने के कारण उनका "सत्" इस पद से ग्रहण हो जाता है કરતા નથી. આ વિષયને અનુલક્ષીને આ નયની એવી માન્યતા છે કે વિશેષ સામાન્ય કરતાં ભિન્ન છે, કે અભિન્ન છે તે પ્રશ્નને વિચાર કરવો જોઈએ. જે સામાન્ય કરતાં તે ભિન્ન હોય તે તેમની જે સ્વતંત્ર સત્તા હોવી જોઈએ, તે સિદ્ધ થવી જોઈએ, પરંતુ તેમની સ્વતંત્ર સત્તા (અરિતત્વ) તે સિદ્ધ થતી નથી, અને જે તેઓ સામાન્ય કરતાં અભિન્ન હોય, તે આ સ્થિતિમાં તેમને વિશેષ રૂપે ઓળખવાને બદલે સામાન્ય રૂપે જ ઓળખવા જોઈએ. જેવી રીતે સામાન્યનું સ્વરૂપ સામાન્ય કરતાં અમિન હેવાને કારણે તેમને સામાન્ય જ કહેવાય છે એ જ પ્રમાણે વિશેષને પણ સામાન્ય રૂપ જ માનવું नये. ४ ५ छ है " स्वदि ति भणियम्मि" त्या न्यारे " सत्" मा प्रहारे ४उपाभा मावे त्यारे समर्थ पहाभा સત્તા (અસ્તિત્વ) હેવાને કારણે તેમનું “સત્ ” આ પદ દ્વારા ગ્રહણ થઈ Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधाटीका स्था० ७ ० १३ सप्तविधमूलनयनिरूपणम् ५९१ तस्मात् कारणात् सर्व वस्तु तन्मात्र सत्तामात्रमस्ति । तत् अर्थान्तरम् सत्तापदार्थाद भिन्न किंचित किमपि नास्ति । सत्तारूपसेव सर्व वस्त्विति भावः ॥ १॥ अमुमेवार्थ स्पष्टप्रतिपत्तये पाह-'कुंभो ' इत्यादि । कुम्भो यदि भावादसत्त्वात् अनन्या-अभिन्नः, ततः स भाव एव । अन्यथा-कुम्भस्य भावत्वानगी. कारे तु तस्य अभाव एव स्यात् । एवं पटादयोऽपि पदार्थाः भावादनन्या इति सर्व वस्तु तम्मात्रंभावमात्रं विज्ञेयमिति । अयं संग्रहो द्विविधः परोऽपरश्चति । तत्र-अपविशेषेष्वौदासीन्यं भजमानः शुद्धद्रव्यं सन्मानमभिमन्यमानः परसंग्रहः, अतः समस्त वस्तुएँ सत्ता मात्र रूप है, इसलिये इस सत्ता से अतिरिक्त और कोई विशेष रूप-पदार्थ नहीं है, कुम्भ यदि सत्त्व रूप धर्म से भिन्न माना जावे तो वह सविशिष्ट न होने के कारण अभाव रूप ही हो जावेगा, और यदि वह सत्त्व रूप धर्म से अभिन्न माना जावे तो फिर उससे अभिन्न होने के कारण वह स्वयं सप हो जाता है, इसी प्रकार से पटादि के सम्बन्ध में भी समझ लेना चाहिये, अतः यह मानना ही पड़ता है कि "सत्" इस प्रकार के कहने पर समस्त पदार्थों में " यह सत् है यह सत् है" इस प्रकारका सत्तानुगत प्रत्यय होता है और वह समस्त पदार्थ सतात्मक है इस बात की पुष्टि कराता है, यह सत्ता सामान्य रूप संग्रह-दो प्रकार का है-एक पर संग्रह और दूसरा अपर संग्रह; इनमें जो-संग्रह अशेष विशेषों में उदासीन बनकर लत्मात्र शुद्ध द्रव्य को मानता है ग्रहण करता हैજાય છે, તેથી સમસ્ત વસ્તુઓ સત્તા માત્ર રૂપ છે, તે કારણે આ સત્તા વિનાને કંઈ પણ વિશેષ રૂપ પદાર્થ નથી. જે ઘડાને સત્વ રૂપ ધર્મથી રહિત માનવામાં આવે છે તે સદ્વિશિષ્ટ ( સ યુક્ત) નહીં હોવાને કારણે અભાવ રૂપ જ થઈ જશે. અને જે તેને સત્વ રૂપ ધર્મથી અભિન્ન (યુક્ત ) માનવામાં આવે છે તે તેનાથી અભિન્ન હોવાને કારણે સ્વયં સકૂપ થઈ જશે. એ જ પ્રમાણે પટાદિના વિષયમાં પણ સમજી લેવું. તેથી એ વાત भानवी पहेछ'सत्" मा आरे त समस्त यहाभा “मा સત્ છે, આ સત્ છે ” આ પ્રકારને સત્તાનુગત પ્રત્યય (અનુભવ ) થાય છે અને તે સમસ્ત પદાર્થ સત્તામક ( અસ્તિત્વ યુક્ત) છે એ વાતની પુષ્ટિ કરાવે છે. આ સત્તા સામાન્ય રૂપ સંગ્રહનયના નીચે પ્રમાણે બે પ્રકારે છે (१) ५२ सय भने (२) अ५२ सड. - જે સંગ્રહ અશેષ વિશેષમાં ઉદાસીન બનીને સત્માત્ર શુદ્ધ દ્રવ્યને માને छ, घडय ४२ छ, तेन ५२ सङनय छे. भ3-" सत्नी मविशेष. તાની અપેક્ષાએ આ વિશ્વ એક સત્તા રૂપ છે,” આ કથન તથા Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ यथा - विश्वमेकं सत् अविशेषादिति । तथा द्रव्यत्वादीन्यवान्तरसामान्यानि मन्वानस्तद्भेदेषु गननिमीलिकामवलम्बमानोऽपरसंग्रहः, यथा - धर्माधर्माकाश काल पुलजी द्रव्याणामैक्यं द्रव्यत्वाभेदादिति । इति द्वितीयो नयः २ । तथा-व्यवहारः-व्याहरणं, व्यवहरतीति वा व्यवहारः, व्यवह्नियते = अपलप्यते सामान्यमनेनेति वा व्यवहारः, विशेषान् वा आश्रित्य व्यवहारपरो नयो व्यवहारः । तदुक्तम् "वहरणं वरए, स तेण बवहीरए व सामन्नं । 59 वापरो यजओ, विसेसओ तेग बवहारो ॥ १ ॥ स्थानाङ्ग छाया - व्यवहरणं व्यवहरते स तेन व्यवहियते वा सामान्यम् । व्यवहारपरश्च यतो विशेषतस्तेन व्यवहारः ॥ १ ॥ इति । परसंग्रहनन है, जैसे- सन् की अविशेषता से यह विश्व एक सत्ता रूप है ऐसा कथन तथा-जो संग्रह-द्रव्यत्व आदि अवान्तर सामान्यों को मानना हुआ उनके भेदों में गजनिमीलिका - उपेक्षा भाव रखता है उन्हें गौण करता है वह अपर संग्रहनय है, जैसे- द्रव्यत्व रूप अवा तर सामान्य की अविशेषता से अभेद से धर्म, अधर्म, आकाश, काल पुल और जीव इन सब में एकता है ऐसा कथन करना. २ संग्रहनय के विषयभूत सामान्य में भेद का कथन करने वाला जो नय है वह अथवा सामान्य का अपलाप करनेवाला जो नय है वह व्यवहार नय है, अथवा विशेषों को लेकर वस्तु को व्यवहारपथ में लाने वाला जो नय है-वह व्यवहार नय है कहा भी है " ववहरणं ववहरए ' इत्यादि । - 39 આ જે સ'ગ્રહનય દ્રવ્યત્વ આદિ અવાન્તર સામાન્યાને માનતા થા તેમના ભેદમાં ગનિમીલિકાભાવ (ઉપેક્ષા ભાવ ) રાખે છે, તેમને ગૌણ માને છે, તે સગ્રનયને અપર સંગ્રહનય કહે છે. જેમકે—“ અભેદની અપેક્ષાએ ધમ, अधर्म, आाश, आज, युगल मनेत्र से धामां मेड़ता छे, પ્રકારનું કથન સંગ્રહનેયના વિષયભૂત સામાન્યમાં ભેકનુ કથન કરનારા જે નય છે તેને વ્યત્રહારનય કરે છે અથવા સામાન્યને અપલાપ કરનારા જે નય છે તેને ન્યત્રહારનય કહે છે અથવા વિશેષાના આધાર લઈને વસ્તુને વ્યવહારપથમાં લાવનારા જે નય છે તેને ગૃલ્હારનય કહે છે. पछे " वषहरणं ववद्दरए " त्याहि Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधाटोका स्था० ७ सू० १३ सप्तविरमूलनयनिरूपणम् सोऽयं व्यवहारः संग्रहेण गोचरीकृतान् सत्यादिरूपानर्थान् स्वीकृत्यैव-विशे-: षान् गृह्णाति । यथा-यत्सत् तद् द्रव्यं पर्यायो वा, इत्यादि । अयं भावःव्यवहारनयो हि विशेषप्रतिपादनपरः। ततश्व संग्रहनयेन 'सत्' इत्युक्ते व्यवन हारनयो विशेषानेव घटपटादीन् प्रतिपद्यते, तेपामेव व्यवहारप्रयोजकत्वात् , न तु तदतिरिक्तं सामान्यम् , तस्य व्यवहारायोग्यत्वादिति । तथा च-कि सामान्य विशेषेभ्यो भिन्नमभिन्नं वा स्यात् ? यदि भिन्न तर्हि विनापि विशेषानुपलभ्येत ?, . यह व्यवहार नय संग्रह नय के द्वारा विषयभूत किये गये लत्ता. दिरूप अर्थों को स्वीकार करके ही विशेषों को ग्रहण करता है. जैसे-जो सत् है वह द्रव्य है था पर्याय है ? इत्यादि-व्यवहार नय विशेष के प्रतिपादन करने में तत्पर होता है, अतः जब संग्रह नय यह सत् है ऐसा कहता है-तष व्यवहार नय उससे पूछता है-सत् कौन है-द्रव्य है या पर्याय ? द्रव्यत्व सामान्य या पर्याय सामान्य से व्यवहार चलता नहीं हैं-व्यवहार तो विशेष से चलता है, अतः व्यवहार चलाने के लिये घट पटादिरूप विशेष पदार्थ मानना चाहिये सामान्य तो व्यवहार के अयोग्य हैं । तथा-सामान्य विशेषों से भिन्न है या अभिन्न है ? यदि विशेषों से सामान्य भिन्न है ऐसा कहा जावे-तो विशेषों के विना भी सामान्य की उपलब्धि होनी चाहिये, परन्तु ऐसा होता नहीं है, यदि सामान्य विशेषों से अभिन्न है ऐसा આ વ્યવહારનય સંગ્રહનય દ્વારા વિષયભૂત કરવામાં આવેલા સત્તાદિ ૩૫ અને સ્વીકાર કરીને જ વિશેષને ગ્રહણ કરે છે. જેમકે આ નય એવી દલીલ કરે છે કે “જે સત્ છે તે દ્રવ્ય છે કે પર્યાય છે?” ઈત્યાદિ. - વ્યવહારનય વિશેનું પ્રતિપાદન કરવાને તત્પર રહે છે. તેથી જ્યારે સંગ્રહાય આ સત્ છે” એવું પ્રતિપાદન કરે છે, ત્યારે વ્યવહારનય (તે નયવાદી) એવી દલીલ કરે છે કે “સત કેણ છે-દ્રવ્ય સત્ છે કે પર્યાય सत् छे?" | દ્રવ્યત્વ સામાન્ય કે પર્યાય સામાન્ય વડે વ્યવહાર ચાલતું નથી, વ્યવહાર તો વિશેષ વડે ચાલે છે, તેથી વ્યવહાર ચલાવવાને માટે ઘટ, પાદિ રૂપ વિશેષ પદાર્થને માનવા જોઈએ, સામાન્ય તે વ્યવહારને યોગ્ય નથી. અયોગ્ય છે તથા બીજે એ પ્રશ્ન કરવામાં આવે છે કે-“ સામાન્ય વિશેષ કરતાં ભિન્ન છે કે અભિન્ન છે? જો એવું કહેવામાં આવે કે સામાન્ય વિશે કરતાં ભિન્ન છે, તે વિશે વિના પણ સામાન્યની ઉપલબ્ધિ (પ્રાપ્તિ) થવી स्था-७५ Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२४ . . . स्थानास्त्रे न चोपलभ्यते । अथामिन्नं तर्हि विशेषमानं तत् तदव्यतिरिक्तत्वात् तत्स्वरूपवदिति । तदुक्तम्-" उवलंभावहारा भावाओ .निधिसेसभावाओ । तं नत्थि खपुप्फपिव संति विसेसा सपञ्चक्ख ॥ १॥" छाया-उपलम्भव्यवहाराभावात् निर्विशेषभावात् । तनास्ति खपुष्पमित्र शन्ति विशेषाः स्वप्रत्यक्षम् ॥ १ ॥ इति । तथा लोकसंव्यवहारपरोऽयं व्यवहारनयः । लोकसंव्यवहारो हि माचुयेणैव भवति यथा-कस्यांचिद् वाटिकायां जम्बूपनमादीनां वृक्षाणां सद्भावेऽप्याकहा जाये तो वह विशेषों से अभिन्न होने के कारण वह सामान्य नहीं कहला सकता है-वह तो विशेष के स्वरूप की तरह विशेष ही कहलावेगा कहा भी है-" उबलं भन्यवहारामाचाओ" इत्यादि । विशेष रहित सामान्य की कहीं पर भी उपलब्धि नहीं होती है, तथा सामान्य से कोई भी व्यवहार सधता नहीं है, अत: सामान्य की स्वतंत्र रूप से ख पुष्प की तरह कोई सत्ता नहीं है, जो प्रत्यक्ष में दिखलाई पड़ता है वह सब विशेष है, यह नय जैसे भी लोक व्यवहार चल सकता है उसके अनुसार वस्तु का भेद प्रभेद् पूर्वक वस्तुको व्यवहार पथ में लाता है, इसी लिये यह नय लोक संव्यवहारपरक माना गया है, लोक का व्यवहार अधिकता के अनुसार चलता है, जैसे किसी वाटिका में जानुन, पनन आदि के वृक्षों के होने पर જોઈએ, પરંતુ એવું બનતું નથી જે એવું કહેવામાં આવે કે સામાન્ય વિશેષે કરતાં અભિન્ન છે, તો તે વિશેષથી અભિન્ન હોવાને કારણે તેને સામાન્ય કહી શકાય નહીં–તેને તો વિશેષના સ્વરૂપની જેમ વિશેષ જ કહેવાશે. ४ ५ छ , “ उवलंभब्यवहाराभावाओ" त्या વિશેષ રહિત સામાન્યની ઉપલબ્ધિ કઈ પણ જગ્યાએ સંભવી શકતી નથી તથા સામાન્ય વડે કેઈપણ વ્યવહાર સાધી શકાતો નથી, તેથી આકાશ પુષ્પની જેમ સામાન્યની સ્વતંત્ર રૂપે કઈ પણ સત્તા જ સંભવી શકતી નથી. જે પ્રત્યક્ષ દેખાય છે તે તો સઘળું વિશેષ રૂપ જ હોય છે. લોકેનો વ્યવહાર જેવી રીતે ચાલી શકે એવી જ રીતે આ નય વસ્તુનાં ભેદ પ્રભેદપૂર્વક વસ્તુને વ્યવહારપથમાં લાવે છે. તેથી જ આ નયને લોક સંવ્યવહાર પરક માનવામાં આવ્યું છે લેકવ્યવહાર અધિકતા અનુસાર ચાલે છે. જેમકે ફેઈ ઉપવનમાં જાબૂ, ફણસ વગેરેનાં વૃક્ષો થોડાં થોડાં હોય અને આંબા Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुंधाटोका स्था० ७ सू० १३ सप्तविधमूलनयनिरूपणम् ५९५ त्राणां बहुतरत्वेनावाटिकेति व्यवहारो भवति । यथा अमरादीनां पञ्चवर्णात्म कत्वेऽपि कृष्णवर्णस्य बहुतरत्वात्तेनैव तत्र व्यवहारो भवति । अत एवायं नयः बहुतरपक्षपाती, तदतिरिक्तांस्तु सतोऽपि मुञ्चति । तदुक्तम् 46 बहुतरओत्तिय तं चियं, गमेइ संते विसेसर सुयइ । संववहारपरतया, ववहारो लोगमिच्छंतो ॥ १ ॥ "" छाया - बहुतरक इति च तमेव गमयति सतोऽपि शेषकान् मुञ्चति ? संव्यवहारपरतया व्यवहारो लोकमिच्छन् || १ || इति तृतीयो नयः ३ । तथा—ऋजुमूत्रः–ऋजु=अतीतानागतकालपरित्यागाद् वर्त्तमानं वस्तु सूत्र - यति = गमयतीति ऋजुमुत्रः | अत्रेदं वोध्यम् - अतीतानागतकालिक वस्तूनां योsभी यदि उसमें आम्र के वृक्ष अधिक हैं तो वह वाटिका उन ओम्र वृक्षों की अधिकता को लेकर " आम्रवाटिका " इस रूप से व्यवहृत होने लगती है, तथा जैसे भ्रमर आदिकों में पांचों वर्णों का सद्भाव पाया जाता है, परन्तु कृष्ण वर्ण की इसमें प्रचुरता रहती है तो लोग 66 भ्रमर काला है" इस रूप से उसे व्यवहृत करते है, इसी प्रकार से यह व्यवहार नय भी बहुतर में पक्षपात वाला होता है, बहुतर से अतिरिक्तों को होने पर भी छोड़ देता है - कहा भी है 66 बहुतर ओत्तियतं चिय " इत्यादि । ऋजुसूत्रनय - अतीत और अनागत काल को छोड़कर जो केवल वर्तमान क्षणलिङ्गित वस्तु का प्रतिपादन करता है उसे कहता है - वह नय ऋजुनय है, अतीत अनागतकाल सम्बन्धी वस्तु की मान्यता ઘણાં જ હાય તે તે ઉપવનને ‘ આમ્રવાટિકા ' કહેવામાં આવે છે. અગ્ર વૃક્ષાની અધિકતાને કારણે આ પ્રકારના લાઇવહાર ચાલે છે. વળી ભ્રમર આઢિકામાં પાંચે વર્ણીના સદ્ભાવ હાવા છતાં તેમાં કૃષ્ણવણુની પ્રચુરતા હાવાને કારણે લેાકેા કહે છે કે ‘ ભ્રમરના રંગ કાળા છે ” આ પ્રકારે આ व्यवहार नय महुतरने! ( अधिउतरना ) पक्षपाती होय छे. महुतर सिवा થનાના સદ્ભાવ હાવા છતાં પણ આ નય તેમની ગણના કરતા નથી. छे " बहुतरओत्तिय त चिय" इत्यादि ऋतु सूत्रनय—या नय अतीत ( लूतअसिन ) भने अनागत (लविण्य) કાળની વસ્તુનું પ્રતિપાદન કરતા નથી, પરન્તુ માત્ર વર્તમાનકાલિન વસ્તુનું જ પ્રતિપાદન કરે છે. અતીત અને અનાગતકાળ સ ખ"ધી વસ્તુની જે માન્યતા Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સદ स्थानाङ्गसूत्रे - भ्युपगमः, स एव कौटिल्यं, तत्परिहारेण ऋजु = वर्तमानकालिकमेव वस्तु सूत्रयवीति-ऋजुमुत्रः । अथना - ऋजुश्रुतः' इतिपक्षे ऋजु तथाविधोपकारपरायणत्वात् शेषज्ञानोपेक्षया प्राधान्यात् अकुटिलं श्रुतं श्रुतज्ञानं यस्य सः । इति । अयं नयो हि वर्तमानकालिक वस्तु आत्मीयत्वेन मनुते । अतीतकालिकवस्तुनो विनष्टस्वात्, अनागतस्य चानुत्पन्नत्वात् दर्शनपथागोचरतयाऽऽकाशकुसुमवत् तदसत्ता मेनुते । तथा भिन्नलिङ्गैन्निवचनैश्चाभिधीयमानमप्येकं वस्तु मनुते । यथा जो है वह इस नय की दृष्टि से कुटिलता है, इस कुटिलता के परिहार से जो केवल वर्तमान कालिक ही वस्तु है - ऐसी जो प्ररूपणा करता है वही ऋजु सूत्रनय है, जिस क्षण में रसोईया रोटी पका रहा हो उसी क्षण में वह पाचक है- अन्य समय में जब कि वह इस क्रिया को नहीं करता हो तब वह इस नय की मान्यता के अनुसार पाचक नहीं है । अथवा " ऋजुनः " इस संस्कृत छाया पक्ष में जिस का ज्ञान - श्रुतज्ञान- तथाविध उपकार में परायण होने से शेष ज्ञानों की अपेक्षा प्रधानरूप से अकुटिल है वह ऋजुश्रुत है, यह नय वर्तमान कालिक ही वस्तु को आत्मीयरूप से मानता है, क्योंकि अतीत for and at farट हो जाने के कारण एवं अनागत वस्तु को अनुत्पन्न होने के कारण वह प्रत्यक्ष का विषय नही मानता है किन्तु आकाश कुलुम की तरह उसकी असत्ता ही मानता है, तथा - भिन्न છે, તે આ નયની દૃષ્ટિએ કુટિલતા છે આ કુટિલતાના પરિત્યાગપૂર્વક જે વત માનકાલિક વસ્તુની જ પ્રરૂપણા કરે છે તે નયને ઋજુ સૂત્રનય કહે છે. જેમકે રસાયે જે ક્ષણે રસેઇ મનાવતા હાય એ જ ક્ષણે તેને રસાયે કહી શકાય છે, અન્ય સમી જ્યારે તે રસેાઈ બનાવતા ન હોય ત્યારે તેને રસાયા કહી શકાય નહી, એવી આ નયની માન્યતા છે. જો ઋજુસૂત્રની સ ́સ્કૃત છાયા 'ऋजुश्रुतः ” લેવ માં આવે તે તે પદ્મને અથ આ પ્રમાણે થાય છે—— જેનું જ્ઞાન શ્રુતજ્ઞાન-તથાવિધ ઉપકારમાં પરાયણ હાવાથી ખાકીના જ્ઞાનાની અપેક્ષાએ પ્રધાનરૂપે અકુટિલ છે, તેનું નામ ઋજુશ્રત છે. આ નય વમાન. કાલિક વસ્તુને જ આત્મીય રૂપ માને છે, કારણ કે અતીતકાલિન વસ્તુને વિનષ્ટ થઈ જવાને કારણે અને ભવિષ્યકાલિન વસ્તુને તે અનુત્પન્ન હાવાને કારણે આ નય પ્રત્યક્ષનેા વિષય માનતા નથી, પણુ આકાશપુષ્પની જેમ તેની અસત્તા ( અવિદ્યમાનતા ) જ માને છે. તથા જુદા જુદા લિંગવાળા અને 1 Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधाटीका स्था० ७ सू० १३ सप्तविधमूलनयनिरूपणम् ५१७ तटः, तटी, तटम् इति । गुरुर्गुरव इति च । अयं लिङ्गभेदेन तदरूपस्य वस्तुनो वचनभेदेन गुरुरूपस्य च वस्तुनो नानालं न मनुते, किन्त्वेकमेव । तथा-नामस्थापनाद्रव्यभावभेदादिकं भिन्नं मनुते । नामादींश्चतुरोऽपि निक्षेपान् सामान्यतो मनुत इति भावः । तदुक्तम् - तन्हा निजगं संपयकालीणं लिंगवयणभिन्नं पि । नामाइयभेय विहियं, पडिवज्जइ वत्थुउज्जुओ ॥ १ ॥ " छाया - तस्मात् निजकं साम्प्रतकालीनं लिङ्गवचनभिन्नमपि । नामादिभेदविहितं प्रतिपद्यते वस्तु ऋजु सूत्रः ॥ १ ॥ इति ! इति चतुर्थी नयः ४ | " 66 लिङ्गवाले एवं भिन्न वचनवाले शब्दों का यह एक ही अर्थ मानता है जैसे पुल्लिङ्ग तट शब्द का जो अर्थ है वही अर्थ तटम् " इस नपुं. in लिङ्गवाले तट द का है, और वही अर्थ " तटी " इस स्त्री लिङ्ग बाले तंटी शब्द का है, तथा - गुरु इस एक वचनवाले गुरु शब्द का जो अर्थ है - वही द्विवचनवाले और बहुवचनवाले गुरु शब्द का अर्थ है, इस तरह यह ऋजु सूत्रनय लिङ्ग के भेद से और वचन के भेद से उनके वाच्यार्थ में भिन्नार्थता नहीं मानता है, किन्तु इनमें एकार्थता ही मानता है, तथा-नाम इन्द्र, स्थापना इन्द्र, द्रव्य इन्द्र और भाव इन्द्र इन सब में यह इन्द्रादिरूप उनके अर्थ को भिन्न २ मानता है - नामादिक चारों ही निक्षेत्रों को यह सामान्य रूप से मानता है कहा भी है - " तम्हा निजगं " इत्यादि અ જુદા જુદા વચનવાળા શબ્દોને આ નય એક જ અર્થ માને છે. જેમકે પુદ્ઘિમ “ તટ ” શબ્દના જે અર્થ થાય છે એજ નપુ ́સક લિંગના << तटम् ” ” શબ્દને પણ થાય છે અને સ્ત્રીલિંગના " ती " शहना शु એ જ અર્થ થાય છે. એક વચનવાળા ગુરુ પદને જે અર્થ થાય છે, એ જ અથ દ્વિવચન અને બહુવચનવાળા ગુરુ શબ્દને પણ થાય છે. આ પ્રકારે આ નય લિગના ભેદથી તથા વચનના ભેદથી તેમના વાગ્યામાં ભિન્નતાને સ્વીકારતા નથી, પરન્તુ તેમના વાગ્યામાં એકાતાના જ સ્વીકાર કરે છે, तथा-नाभ ईन्द्र, स्थापना इन्द्र, द्रव्य इन्द्र भने लाव इन्द्र, मे मधाभां ઈન્દ્રાદિ રૂપ તેમના અને શન્ન ભિન્ન માને છે-નામાકિ ચાર નિક્ષેપોને જ `નય સામન્ય રૂપે માને છે. કહ્યું પણ છે કે “ तहा निजगं" इत्यादि Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानासूत्रे " तथा — शब्दः - शपनम्, शपति अर्थ प्रकटीकरोति वाऽसौ शब्दः, शय्यते वस्त्वनेनेति वा शब्दः । तस्यार्थपरिग्रहात् अभेदोपचारात् नयोऽपि शब्द एवोच्यते, यथा— कृतकत्वादिलक्षण हेत्वर्थप्रतिपादकं पदं हेतुरेचोच्यते इति । तदुक्तम्- -" सपणं सवइ स तेणं, व सप्पए वत्थु जं तओ सदो । तस्सत्य परिग्गहओ, नओवि सद्दोत्ति हेतु ॥ १ ॥ छाया - शपन शपति स तेन वा शष्यते वस्तु यत्ततः शब्दः । तस्यार्थपरिग्रहतो नयोऽपि शब्द इति हेतुवि ॥ १ ॥ इति । अयं नयोहि — भावघटमेव घटत्वेन मनुते, तस्यैव जलाहरणोपयोगित्वात् । नामस्थापनाद्रव्यघटानां तु सतां न मनुते, जलाहरणकार्यानुपयोगित्वात् खपुध्ववत् । तथा-' तटस्तटी तटम् ' इत्यादि भिन्नलिङ्गान्, 'गुरुर्गुरवः' इत्यादि ५१८ इस गाथा का अर्थ पूर्वोक्त जैसा ही है, जो अर्थ को प्रकट करता है वह अथवा अर्थ जिसके द्वारा प्रकट किया जाता है वह शब्द है, यहां शब्द के अर्थ के परिग्रहसे एवं शब्द और अर्थ में अभेद के उपचार से नय को भी शब्द रूप ही कह दिया गया है, जैसे कृत व आदि रूप हेतु के अर्थ के प्रतिपादक पदको हेतु ही कह दिया जाता है । कहा भी है- " सवणं सबइ स तेणं " इत्यादि । यह नय भाव घट को ही घटरूप से मानता है, क्योंकि नाम घट, या स्थापना घट या द्रव्य घट जलाहरण आदि क्रिया में उपयोगी नहीं होते हैं, जलाहरण आदि क्रिया में उपयोगी तो केवल भोवघट ही होता है - अतः भावघट ही वास्तविक घट है ऐसी ही मान्यता इस આ ગાથાના અથ ઉપરના કથનમાં જ સ્પષ્ટ થઇ જાય છે. શબ્દનય—જે અર્થને પ્રકટ કરે છે તેને શબ્દ કહે છે. અથવા જેના જેના દ્વારા અથ પ્રકટ કરાય છે તેનું નામ શબ્દ છે. અહીં શબ્દના અર્થના પરિગ્રહ વડે અને શબ્દ તથા અમાં અમેના ઉપચારની અપેક્ષાએ નયને પશુ શબ્દ રૂપ જ કહી દેવામાં આવ્યે છે. જેમ કૃતકત્વ આદિ રૂપ હેતુના અર્થાંના પ્રતિપાદક ને હેતુ જ કહી દેવામાં આવે છે, તેમ નયને પણ અહીં શબ્દ રૂપ કહી દેવામાં આગૈા છે. કહ્યું પણ છે કે: " सवणं सवइ स तेण " त्याहि આ નય ભાવઘટને જ ઘટ રૂપ માને છે, કારણુ કે નામઘટ અથવા સ્થાપનાઘટ અથવા દ્રવ્યઘટ પાણી લાવવાની ક્રિયા આદિમાં ઉપચાગી થતા નથી. પાણી ભરી લાવવાની ક્રિયા આદિમાં તેા ભાવઘટ જ વાસ્તવિક ઘત છે, એવી આ નયની માન્યતા છે Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'सुधाटीका स्थto ७ सू० १३ सप्तविधमूलनयनिरूपणम् ५९९ भिनवचनां शब्दान् एकत्वेन न मनुते, लिङ्गवचनभेदादेव - स्त्रीपुरुषवत् कुटा , 1 इति स्वपर्यायवाचकशब्द वाच्य वृक्ष इत्यादिवत् । तथा-' घटः कुटः कुम्भः मेकमेवमनुते । तदुक्तम् 3 " तं चिय रिडत्तमयं पच्चुप्पन्नं विसेसियतरं सो । इच्छइ भावघडेचिय, जं न उ नामादओ तिनि ॥ १ ॥ " छाया - तदेव जुसूत्रमतं प्रत्युत्पन्नं विशेषिततरं सः । इच्छति भावघटमेत्र यत् न तु नामादींस्त्रीन् ॥ १ ॥ इति । इति पञ्चमो नयः ५| नय की है, तथा - " लटः तटी, तटम् " इन शब्दों का यह नय एक अर्थ है ऐसा नहीं मानता है, किन्तु एक ही लिङ्गवाले पर्यायवाची शब्दों का एक अर्थ है ऐसा मानता है, भिन्न लिङ्गघाले पर्याण्दाची शब्दों का अर्थ भिन्न २ है ऐसा मानता है, तथा एक लिङ्गवाले पर्यायबाची शब्द यदि भिन्न २ विभक्ति वाले हैं तो इनका भी अर्थ भिन्न २ है, किन्तु यदि वे समानवचन वाले हैं तो इनका अर्थ एक है ऐसा कथन इस नय का है, तात्पर्य इस कथन का ऐसा है कि भिन्न लिङ्गवाले, भिन्न वचन वाले जो शब्द है, उनका तो अर्थ भिन्न है, और जो शब्द समान लिङ्गवाले और समान बचनवाले है उनका अर्थ एक है, स्त्री पुरुष शब्दों में लिङ्ग भेद से भिन्नता है और " इन में वचन भेद से भिन्नता है, परन्तु घटः कुंभः, कुटः कुटा वृक्षः " "} इन में तथा—“ तट, तटी, तटम् " या त्रयु लुहा सुद्धा सिवाणा शहोना એક જ અથ થાય છે, એવુ' આ નય માનતા નથી, પરન્તુ આ નય એવુ' માને છે કે એક જ લિંગવાળા પર્યાયવાચી શબ્દાના એક જ અથ થાય છે, અને જુદાં જુદાં લિંગવાળા પર્યાયવાચી શબ્દોના જુદા જુદા અથ થાય છે.. વળી આ નય એવુ* માને છે કે એક જ લિ‘ગવાળા પર્યાયવાચી શબ્દો જે જુદી જુદી વિભક્તિવાળા હોય, તેા તેમના અથ જુદા જુદા થાય છે, પરન્તુ જે તેઓ સમાન વચનવળા હાય, તે તેમના અથ એક જ થાય છે. આ કથનના ભાવા નીચે પ્રમાણે છે— ં જુદા જુદા લિંગવાળા અને જુદા જુદા વચનવાળા જે શબ્દો છે તેમને અ તા જુદા જુદા જ થાય છે, પરન્તુ સમાન લિ`ગવાળા અને સમાન વચનવાળા શબ્દોના અર્થ સમાન જ થાય છે. “ સ્ત્રી અને " પુરુષ આ એ શબ્દોમાં લિંગભેદને કારણે ભિન્નતા છે, પરન્તુ ત્રણે પદે સમાન લિંગવાળા અને સમાન વચનવાળા હેાવાથી તેમના અર્થ માં ८" 27 घटः, कुंभः, कुटः આ Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ६०० . स्थानाकसूत्रे तथा-समभिरूढः-पर्यायशब्देषु निरुक्तिभेदेन भिन्नमर्थ सममिरोहति यः स समभिरूढः, नानार्थपु नानासंज्ञासमभिरोहणपरो नयविशेष इत्यर्थः । उक्तं च-" जं जं सन्नं भासइ, तं तं चिय समभिरोहए जम्हा। ___ सन्नंतरस्थ विमुहो, तो नओ समभिरूढोत्ति ॥ १॥" छाया-यां यां संज्ञां भापते तां तामेव समभिरोहति यस्मात् । संज्ञान्तरस्थ विमुखस्ततो नयः समभिरूढ इति ॥ १॥ इति । अयं नयो हि घटपटादिवत् घटकुटादीन् शब्दान् भिन्नप्रवृत्तिनिमित्तत्वात भिन्नार्थगोचरान् मन्यते । अयं भावः-' घट' शब्दस्य 'घट चेष्टायाम्' इति कोई भिन्नता नहीं है, क्योंकि ये लमान लिङ्गवाले और समान वचनवाले शब्द है । कहा भी है-"तं चिय रिउस्लुत्तमयं " इत्यादि इम प्रकार के स्वरूपवाला यह ५ वां नय है। जैसे कि समान लिङ्गवाले और समान वचन वाले शब्दों में एकता का प्रतिपादन शब्द नय करता है-ठीक इससे विपरीत कथन समभिरुढ नयका है इस नय का ऐसा कहना है कि निरुक्ति के भेद से समान लिङ्गवाले और समान वचनवाले शब्दों में भी भिन्नता है जितने शब्द है उतने ही उनके अर्थ हैं-ऐसा ही कथन इस नय का है, कहा भी है "जं जं सन्नं भासइ" इत्यादि यह नय घट पट आदि शब्दों की तरह घट कुट आदि शब्दों को भी मिन्न २ प्रवृत्ति के निमित्तवाले होने से लिन्न २ अर्थवाले मिन्नत नथी. " कुटाः भने वृक्षः " मा मे पाना ममा क्यानहन કારણે ભિન્નતા છે. કહ્યું પણ છે કે : " त चिय रिउ सुत्तमयं" ध्या:આ પ્રકારના સ્વરૂપવાળે આ પાંચમે નય છે. - સમાન લિંગ (જાતિ) વાળા અને સમાન વચનવાળા શબ્દોમાં એકતા (अमितता) ने प्रतिपान ४२ना। शनय छे. સમભિરુઢ નય–શબ્દનય કરતાં વિપરીત માન્યતાવાળે સમભિરુઢ નય આ નયની એવી માન્યતા છે કે નિરુક્તિના ભેદની અપેક્ષાએ સમાન લિંગવાળા અને સમાન વચનવાળા શબ્દોમાં પણ ભિન્નતા હોય છે-જેટલા શબ્દ છે એટલા જ તેમના અર્થ છે, એવું આ નય પ્રતિપાદન કરે છે. मधु ५१ छ “जज सन्न भासइ" त्याह આ નય, ઘટ, પટ આદિ શબ્દની જેમ ઘર, કુટ આદિ શબ્દને પણ જુદા જુદા અર્થવાળા માને છે, કારણ કે ઘર, કુટ આદિ શબ્દ જુદી જુદી Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुंधा टीका स्था०७ सु० १३ सप्तविधभूलनयनिरूपणम् ६०१ धातोनिष्पनत्वाद् विशिष्टचेष्टावत्वं प्रवृत्तिनिमित्तम् , 'कुट ' शब्दस्य ' कुट कौटिल्ये' इति धातोनिष्पन्नत्वात् कौटिल्य प्रवृत्तिनिमित्तम्, इति प्रवृत्तिनिमित्त भेदात 'घटोऽन्यः कुटोऽप्यन्य एव' इति समभिरूडनयो मन्यते इति । इति षष्ठो नयः ६। तथा—एवम्भूतः-यक्रियाविशिष्टोऽर्थः शब्देनोच्यते ता क्रियां कुर्वद् वस्त्वेवम्भूतम् उच्यते, तत्पतिपादको नयोऽप्येवम्भूतः । अयं भावः-घटतेमानता है, उसका कहना है कि घट और कुट इनका एक अर्थ नहीं होता है क्योंकि " घट" यह शब्द पदार्थ में तव ही व्यवहृत हो सकता है-कि जब वह घट अर्थ विशेष चेष्टावाला होता है अतः घर अर्थ में " घट शब्द " की प्रवृत्ति का निमित्त उसमें विशिष्ट चेष्टावत्ता है। तथा-घट अर्थ में कुट शब्द की प्रवृत्ति तर ही हो सकती है कि जब वह घट कुटिलना संपन्न होता है, चेष्टार्थेक घट धातु से घट शब्द बनता है और " कौटिल्यार्थक कुट धातु से कुट शब्द बनता है, इसलिये घर कुट शब्द की प्रवृत्ति के निमित्त में जय भेद है तो उनके अर्थो में भी भेद है, अतः घट शब्द का अर्थ भिन्न है और कुट शब्द का अर्थ भिन्न है, ६ तथा-जिस क्रिया से विशिष्ट वस्तु जिस शब्द के द्वारा कही जाती है उस क्रिया को करती हुई वस्तु एवंभून कहलाती है, इस वस्तु का प्रतिपादक जो नय है वह नय भी एवंभूत है, यह नय ऐसा कहता है कि जब घट स्त्री 'પ્રવૃત્તિના નિમિત્તવાળા હોય છે. આ નય એવું પ્રતિપાદન કરે છે કે “ઘટ કે અને “કુટ' આ બન્ને પદે એક જ અર્થના વાચક નથી, કારણ કે ઘટે નામના પદાર્થમાં ઘટ શબ્દને વ્યવહાર ત્યરે જ થઈ શકે છે કે જ્યારે તે ઘટ અર્થ વિશેષ ચેષ્ટાવાળો હોય છે. તેથી ઘટ અર્થમાં “ઘટ શબ્દ ” ની પ્રવૃત્તિનું નિમિત્તે તેમાં વિશિષ્ટ છાવત્તા છે. તથા ઘટ અર્થમાં કુટ શબ્દની પ્રવૃત્તિ ત્યારે જ હોઈ શકે છે કે જ્યારે તે ઘટ કુટિલતા સંપન્ન હોય છે. यष्टा पद धातुमाथी घट' शv४ मन छ भने हटिया 'कुटू' ધાતુમાંથી “કુટ” શબ્દ બને છે. આ રીતે ઘર અને કુટ શબ્દોની પ્રવૃત્તિના નિમિત્તમ ભેદ હેવાને કારણે તેમના અર્થોમાં પણ ભેદ છે. તે કારણે ઘટ શબ્દને અર્થ કુટ શબ્દના અર્થ કરતાં ભિન્ન થાય છે. એવભૂત નય–જે ક્રિયાથી યુક્ત વસ્તુનું જે શબ્દ દ્વારા કથન થાય છે, તે ક્રિયા કરતી વસ્તુને એવંભૂત કહેવાય છે. આ વસ્તુનું પ્રતિપાદન કરનારો જે નય છે તેને એવભૂત નય કહે છે. આ નય એવું કહે છે કે જ્યારે स्था०-७६ Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . . . . स्थानानसूने योपिन्मस्तकायाख्दः संश्चेष्टते इति घटः, इति योषिन्मस्तकारोहणपूर्वकं चेप्टायान इति घटशब्दार्थः । ततश्च यथा शब्दार्थस्तथाभूत एव पदार्थः सन् , अन्यथाभूतस्त्वसनित्ययं नयो मनुते ! एवं चायं नयो विशेषेण शब्दार्थपरो भवति । तदुक्तम्- " एवं जहसदत्थो, संतो भूभी तयऽन्नहाऽभूत्रो। - तेणेवं भूयनो, सद्दत्यपरो विसे सेणं ॥ १॥" छाया-एवं यथा शब्दार्थः सन् भूनः, ततोऽन्यथा अभूतः । तेन एवम्भूतनयः शब्दार्थपरो विशेपेण ॥ १ ॥ इति । इति सप्तमो नयः ७ - एते सप्तापि नयाः निरपेक्षा । प्रिथ्यानया भवन्ति, सापेक्षास्तु सन्नयाः। के मस्तक पर आरोहण रूप चेष्टा वाला होता है तभी वह घट शब्द का वाच्य होता है, अतः जैप्सा पट'का अर्थ है उसी अर्थवाली यदि वह वस्तु है-तो ही वह उस शब्द के द्वारा कही जा सकती है-उस शब्द का वह वाच्य हो सकती है-इसके विना नहीं हो सकती है, इस तरह से यह नय जिप्स शब्द का जिस क्रिया रूप अर्थ है उस क्रिया से परिणत समय में ही उस शब्द का अर्थ हो सकता है-अन्य समय में नहीं, कहा भी है— एवं जह सदस्यो" इत्यादि। इस प्रकार के स्वरूपवाला यह सातवां नय है ७ ये सातों ही नय. जय अपने विषय के कथन करने में निरपेक्ष होते हैं - अन्यनयों के विषयों का खण्डन करते हैं और अपने ही विषय का प्रतिपादन ઘટ (ઘડે) સ્ત્રીના મસ્તક પર આરોહણ રૂપ ચેષ્ટાવાળો હોય છે ત્યારે જ તે ઘટ શબ્દને વાચ્ય રૂપ હોઈ શકે છે. તેથી જે પદને અર્થ હોય, એવા જ અર્થવાળી જે તે વસ્તુ હોય, તે જ તેને એ શબ્દ દ્વારા કહી શકાય છે–તે શબ્દને તે વાચ્ય હોઈ શકે છે. તેના વિના તે શબ્દને તે વાચ્ય હોઈ શકતી નથી. આ પ્રકારે જે શબ્દને જે ક્રિયારૂપ અર્થ છે, તે કિયાથી પરિ પુત સમયમાં જ તે શબ્દનો અર્થ થઈ શકે છે, અન્ય સમયમાં થઈ શક્ત सथा. ४थु ५४ , " एवं जह सहत्थो" त्याह- . આ પ્રકારના સ્વરૂપવાળે આ સાતમે નય છે. આ સાતે ન જ્યારે પિતાના વિષયનું કથન કરવામાં નિરપેક્ષ હોય છે-અન્ય નાના વિષયનું ખંડન કરે છે અને પિતાના જ વિષયનું પ્રતિપાત, Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "सुधा टीका स्था० ७ सू० १३ सप्तविधसूलनय निरूपणम् '६०३ ननु प्रत्येकं नयो मिथ्या, तर्हि तेषां समूहोऽपि मिथ्यैव भवेत्, न हि गर्दभानां समूहोsवो भवति, ततश्च परस्परापेक्षा नयाः सन्नया भवन्तीति यदुक्तं तत्कथं संगच्छेत ? इति चेत्, आह अस्माकं मते नयानां मिथ्यात्वमेकान्तेन चाङ्गीक्रियते इति निरपेक्षतात्रस्थायां मिथ्याभूता अपि नयाः सापेक्षतावस्थायां सन्नया भवन्ति । तदुक्तम् - " मिथ्यासमूहो मिथ्याचेन्न मिथ्यैकान्तताऽस्ति नः । -निरपेक्षा नया मिथ्या, सापेक्षा अर्थसाधकाः " ॥ १ ॥ इति इति न कश्विद्दोष इति ॥ सू० १३ ॥ यथा शतसंख्यका असंख्यका वा नयाः सप्तस्वेव मूलनयेष्वन्तर्भवन्ति, तथैव वक्तृविशेषात् असंख्येयाः स्वरा अपि सप्तसु स्वरेष्वन्तर्भवन्तीति सप्त स्वरान प्ररूपयति मूलम् - सत्त सरा पण्णत्ता, तं जहां सज्जे १, रिस २, गंधारे ३, मज्झिमे ४ पंचमे ५ सरे । are ६ चैव णिसाए ७ सरा सत्त वियाहिया ॥ १ ॥ करते हैं - तब एकान्त प्रतिपादक होने से ये मिथ्या कहलाते हैं, अर्थात् सापेक्षवाद में ये नय सम्यक् हैं और निरपेक्षवाद में ये नय मिथ्या होते हैं। शंका- जब निरपेक्षता में मिथ्या ये नय कहे गये हैं - तो फिर सापेक्षावस्था में ये नय मिथ्या नय नहीं कहे जायेंगे ? उ०- घात तो ठीक है, पर हमारे मल में नयों को एकान्तरूप से मारूप नहीं कहा गया है, इस तरह वे निरपेक्षावस्था में मिथ्यारूप होने पर भी सापेक्षावस्था में सम्यक् रूप कहे गये हैं । कहा भी है" मिथ्या समूहो मिथ्या, चेत् " इत्यादि । सू० १३ કરે છે, ત્યારે એકાન્ત પ્રતિપાદક હાવાને કારણે મિથ્યા કહેવાય છે. એટલે સાપેક્ષવાદમાં તે ના સભ્ય ગણાય છે અને નિરપેક્ષવાદમાં તેમને મિથ્યા ગણવામાં આવે છે. શકા—જો નિરપેક્ષાવસ્થામાં આ નાના મિથ્યા કહેવામાં આવ્યા છે, તા સાપેક્ષાવસ્થામાં પણ આ નયને મિથ્યા શા માટે ન કહેવાય ? ઉત્તર—જૈન સિદ્ધાતાએ નયાને એકાન્ત રૂપે મિથ્યારૂપ કહ્યા નથી. આ કારણે નિરપેક્ષાવસ્થામાં મિથ્યારૂપ હાવા છતાં પણ સાપેક્ષાવસ્થામાં તેમને સમ્યક્ રૂપ જ કહ્યા છે કહ્યુ પણ છે કે : "" मिथ्या समूहो मिथ्याचेत् " त्याहि ॥ सू.१३ ॥ Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ toy स्थानासूत्रे एएस सतहं राणं सत्त सरद्वाणा पण्णत्ता तं जहा संज्जं तु अग्गजिए, उरेण रिसभं सरं । कंटुग्गएण गंधारं, मज्झजि भए मज्झिमं ॥ २ ॥ णासाए पंचमं ब्रूया दंतोद्वेण य वयं । 1 मुद्धाणेण य सायं, सरद्वाणा वियाहिया ॥ ३ ॥ सतसरा जीव निस्सिया पण्णत्ता, तं जहा सज्जे रवइ मऊरो, कुक्कुडो रिसहं सरं । हंसो दइ गंधारं, मज्झिमं तु गवेलगा ॥ ४ ॥ अह कुसुमसंभवे काले कोइला, पंचमं सरं । छटुं च सारसा कोंचा, णिसायं सत्तमं गया ॥ ५ ॥ तसरा अजीवनिस्सिया पण्णत्ता, तं जहा - सजं वइ मुइंगो, गोमुही रिसहं सरं । संखो दइ गंधार, मज्झिमं पुण झल्लरी ॥ ६ ॥ चउचलण पट्टाणा, गोहिया पंचमं सरं । आडंबरो रेवइयं, महाभेरी य सत्तमं ॥ ७ ॥ एसि णं सत्तसराणं सत्त सरलक्खणा पण्णत्ता, तं जहा -- सज्ञेण लभए वित्तिं कथं च ण विणस्स | गावो मित्ता य, पुत्ता य, णारीणं चेव बलहो ॥ ८ ॥ रिसभेण उ एस, सेणावच्चं धणाणि य । वत्थगंधमलंकारं इत्थीओ तयणाणि य ॥ ९ ॥ " Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था. ७ सू० १४ सप्तस्वरनिरूपणम् गंधारे गीयजुत्तिण्णा, वनवित्ती कलाहिया । भवंति कइणो पण्णा, जे अन्ने सत्थपारगा ॥ १० ॥ मज्झिमस्सरसंपन्ना, भवंति सुहजोविणो । खायई पीयई देई, मज्झिमं सरमस्सिओ ॥ ११ ॥ पंचमस्सरसंपन्ना, भवंति पुढवीवई । सूरा संगहकत्तारो, अणेगगणणायगा ॥ १२ ॥ धेवतस्सरसंपण्णा, भवंति कलहप्पिया। साउणिया वग्गुरिया, सोयरिया मच्छबंधाय ॥ १३ ॥ चंडाला मुठिया सेया, जे अन्ने पावकस्मिणो। । गोघातगा य जे चोरा, णिसायं सरभस्सिया ॥ १४ ॥ एएसि सत्तणं सराणं तओ गामा पण्णत्ता, तं जहा-सज्जगामे १ मज्झिमगामे २ गंधारगामे ३। सज्जगामस्स णं सत्त मुच्छ. जाओ पण्णत्ताओ, तं जहा- | 'भंगी १ कोरबीया २ हरी ३ य रयणी ४ य सारकंता ५ य । छठी य सारसी ६ णाम, सुद्धसज्जा य सत्तमा ॥ १५ ॥ मज्झिमंगामस्स णं सत्त मुच्छणाओं पण्णताओ, तं जहाउत्तरमंदा १ रयणी २, उत्तरा ४ उत्तरासमा ४ । समोकता ५ यं लोवीरा ६ अवभीरू ७ हवइ सत्तमा॥१६॥ गंधारगामस्तणं सत्त मुच्छणाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-- गंदी य खुड्डिया पूरिमा य च उत्थी य सुद्धगंधारा । उत्तरगंधारावि य, पंचमिया हवइ मूच्छा उ ॥ १७ ॥ Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ક્ स्थानास सुतरमायामा, सा छट्टी नियमत्तो उ णायचा | + अह उत्तरायता कोडिमा य सा सत्तमी मुच्छा ॥ १८ ॥ सत्त सराओ कओ, संभवंति गेयस्स का भवंति जोणी ? | इसमया उसासा कइ वा गेयस्स आगारा ? ॥ १९ ॥ सत्त सरा णाभीओ, भवंति गीयं च रुइयजोणीयं । कपादसमा ऊसासा, तिन्नि य गीयरस आगारा ॥ २० ॥ आइमिउ आरभंता, समूव्हंता य मज्झगारम्मि । असाणे तजवितो, तिन्नि य गेयस्स आगारा ॥ २१ ॥ छोसे अट्टगुणे तिन्निय वित्ताई दोय भणिईओ । जाणाहि सो नाहि, सुसिक्खिओ रंगमज्झम्मि ॥ २२ ॥ भीयं दुयँ रहस्i, गायंतो मा य गाहि उत्तालं । काकस्सरमणुमासं, च होंति गेयस्स छदोसा ॥ २३ ॥ पुनं १ रतं २ च अलंकियं ३ च वत्तं ४ तहा अनिग्घुट्ठ ५ । मधुरं ६ समं ८ सुललियं ८, अट्ट गुणा होंति गेयस्स ॥२४॥ उरकंठसिरपसत्थं च गिज्जई मउरिभिअपनद्धं । समतालपडुक्खेवं, सत्तसरसीहरं गीयं ॥ २५ ॥ निद्दोसं सारवंतं च, हेउजुत्तमलंकियं । 44 उवणीयं सोवयारं च मियं महुरमेव य ॥ २६ ॥ सममसमं चेव, सवत्थ विसमं च जं । सिन्नि वित्तप्पयाराई, चउत्थं नोवलब्भई ॥ २८ ॥ Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०७ सुधा का स्था० ७ सू० १४ सप्तस्वरनिरूपणम् सकया पागया चेव, दुहा भणिईओ आहिया । सरमंडलन्मि गिजंते, पसत्था इसिभासिया ॥ २८ ॥ केसी गायइ महुरं ?, केप्ली गायइ खरं च रुक्खं च । केसी गायइ चउर ?, केसि विलंबं ? दुतं केसी ॥२९॥ विस्सरं पुण केरिसी ? ॥ सामा गायइ महुरं, काली गायइ खरं च रुक्खं च। गोरी गायइ च उरं, काण विलंवं दुतं च अंधा ॥३०॥ विस्तरं पुण पिंगला ॥ तंतिसमं तालसमं, पादसमं लयसमं गहसमं च । नीससिऊ ससियसमं, संचारसमं सरा लत्त ॥ ३१ ॥ सत्त सरा य तओ गामा, मुच्छणा एगवीसई। ताणा एगूण पण्णासा, समत्तं सरमंडलं ॥ ३२ ॥ इइ सरमंडलं समत्तं ॥ सू० १४ ॥ छाया-सप्त स्वराः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-- षड्ज ऋषभो गान्धारो मध्यमः पञ्चमः स्वरः। धैवतश्चैव निषादः स्वराः सप्त व्याख्याताः॥१॥ एतेषां खलु सप्तानां स्वराणां सप्त स्वरस्थानानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा षड्जं तु अग्रजिह्वया, उरसा ऋषभं स्वरम् । कण्ठोद्गतेन गान्धारं, मध्यजिह्वया मध्यमम् ॥ २ ॥ नासया पञ्चमं ब्रूयाद् दन्तोष्ठेन च धैवतम् । मूर्ना च निषाद, स्वरस्थानानि व्याख्यावानि ॥३॥ सप्त स्वरा जीवनिश्रिताः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-- षड्जं रौति मयूरः, कुक्कुटः ऋपमं स्वरम् ।। इंसो नदति गान्धार, मध्यमं तु गवेलकाः ॥४॥ अथ कुसुमसंभवे काले, कोकिलाः पञ्चमं स्वरम् । पष्टुं च सारसाः क्रौञ्चाः, निषादं सप्तमं गताः ॥५॥ Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०८ स्थानीय सप्त स्वरा अजीवनिश्रिताः प्रज्ञप्ताः तद्यथा पड्ज रौति मृदङ्गो, गोमुखी ऋषभं स्वरम् । शद्धो नदति गन्धारं, मध्यमं पुनझल्लरी ॥६॥ चतुश्चरणप्रतिष्ठाना, गोधिका पञ्चम स्वरम् । आडम्बरो धैवतिकं, महाभेरी च सप्तमम् ॥ ७॥ एतेषां खलु सप्तस्वराणां समस्वरलक्षणानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा पड्जेन लभते वृत्ति, कृतं च न विनश्यति । गावो मित्राणि च पुत्राश्व, नारीणां चैव वल्लभः ॥८॥ अपमेण तु ऐश्वर्य, सैनापत्त्यं धनानि च ।। वस्त्रं गन्धमलङ्कारं स्त्रियः शयनानि च ॥९॥ गान्धारे गीतयुक्तिज्ञाः, वर्यवृत्तयः कलाधिकाः । भवन्ति कृतिनः माज्ञाः, ये अन्ये शास्त्रपारगाः ॥ १०॥ मध्यमस्वरसम्पन्नाः, भवन्ति सुखजीविनः । खादति पिवति ददाति, मध्यम स्वरमाश्रितः ॥ ११ ॥ पञ्चमस्वरसम्पन्ना भवन्ति पृथिवी पतयः। शूराः संग्रहकर्तारः, अनेकगणनायकाः ॥ १२ ॥ धैवतस्वरसम्पन्ना भवन्ति कलहप्रियाः । शकनिका वागुरिकाः शौकरिका मत्स्यवन्धाश्च ॥ १३ ॥ चाण्डाला मौष्टिकाः सेयाः, ये अन्ये पापकर्माणः । गोघातकाश्च ये चौराः, निपादं स्वरमाश्रिताः ॥ १४ ॥ एतेषां सप्तानां स्वराणां त्रयो ग्रामाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-पङजग्रामः मध्यमग्रामः गान्धारग्रामः पजग्रामस्य खलु ससमूच्छनाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा• भगी कौरवीया, हरिश्च रजनी च सारकान्ता च । पष्ठी च सारसी नाम, शुद्धपड्जा च सप्तमी ॥१५॥ मध्यमग्रामस्य खलु सप्त मूछनाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा उत्तरसन्दा रजनी, उत्तरा उत्तरासमा। समवक्रान्ता च सौवीरा अभीरुभवति सप्तमी ॥ १६॥ गान्धारग्रामस्य खलु सप्त मूछनाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा नन्दी च क्षुद्रिका पूरिमा च चतुर्थीव शुद्धगान्धारा। उत्तरगान्धारापि च, पञ्चमिका भवति मृच्छी तु ॥ १७ ॥ सुण्ठुतरायामा सा, पष्ठी नियमशस्तु ज्ञातव्या। अथ उत्तरायता कोटिमा च सा सप्तमी मृच्छी ॥ १८॥ Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधाडीका स्था०७ सू० १४ सप्तस्वर निरूपणम् 1 सप्त स्वराः कुतः सम्भवन्ति १, गेयस्य का भवन्ति योनयः ९ । कति समया उच्छ्वासाः ?, कति वा गेयस्य आकाराः १ ॥ १९ ॥ सप्तस्वरा नाभितो भवन्ति, गीतं च रुदितयोनिकम् | पादसमा उच्चासाः, त्रयश्च गीतस्य आकाराः ॥ २० ॥ आदिमृदुम् आरभमाणाः, समुद्वहन्तश्च मध्यकारे | अवसाने क्षपयःतः त्रयश्च गेयस्य आकाराः ॥ २१ ॥ पड् दोपान अष्ट गुगान् त्रीणि च वृत्तानि द्वे च भणिती । ज्ञास्यति स गास्यति, सुशिक्षितो रङ्गमध्ये ॥ २२ ॥ भीतं द्रुतं ह्रस्व गायन, मा न गाय उत्तालम् । काकस्वरमनुनासंच, भवन्ति गेयस्य षड् दोषाः ॥ २३ ॥ पूर्ण रक्तं च अलङ्कृतं च, व्यक्तं तथा अविघुष्टम् । मधुरं समं सुललितम् अष्टगुणा भवन्ति गेयस्य ॥ २४ ॥ उरः कण्ठ शिरः प्रशस्तं च गीयते मृदुरिभितपदवद्धम् । समतालमत्युत्क्षेप, सप्तस्वरसीभरं गीतम् ॥ २५ ॥ हेतुयुक्तमलङ्कृतम् 1 4 निर्दोषं सारवच्च, उपनीत सोपचारं च, मितं मधुरमेव च ॥ २६ ॥ सममर्द्धसमं चैत्र, सर्वत्रविषमं च यत् । यो वृत्त प्रकाराश्चतुर्थं नोपलभ्यते ॥ २७ ॥ संस्कृताः प्राकृताञ्चैव द्विविधा भणितय आख्याताः । स्वरमण्डले गीयन्ते, प्रशस्ता ऋषिभाषिताः ॥ २८ ॥ कीदृशी गायति मधुरं ? कीदृशी गायति खरं च रूक्षं च १ । hreat गायति चतुरं ?, कीदृशी विलम्बं ? द्रुतं कीदृशी १ ॥ २९ ॥ विस्वरंपुनः कीदृशी ? ॥ श्यामा गायति मधुरं, काली गायति खरं च रूक्षं च । गौरी गायति चतुरं, काणा विलम्बं द्रुत च अन्धाः || ३० विवरं पुनः पिङ्गला || तन्त्रीसमं तालसमं, पादसमं लयसमं ग्रहसमं च । निःश्वसितोच्छ्वसितसमं, संचारसमं स्वराः सप्त ॥ ३१ ॥ सप्तस्वराश्च त्रयो ग्रामा', मूर्च्छना एकविंशतिः । तानाश्र एकोनपञ्चाशत् समाप्तं स्वरमण्डलम् ॥ ३२ ॥ इति स्वरमण्डलं समाप्तम् ॥ सू० १४ ॥ 65olha Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - -- ६१० स्थानागसत्रे टीका-'सत्त सरा' इत्यादि-- 'स्वराः ध्वनिविशेपाः सप्त प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-'पड्ज' इत्यादि । तत्र-पड्जा-पड्भ्यो नासिकाकण्ठोरस्तालुजिहादन्तेभ्यः स्थानेभ्यो जातः स्वरः। तदुक्तम्-" नासां कण्ठमुरस्ताल, जिहां दन्तांश्च संश्रितः । पभिः संजायते यरमात् , तस्मात् पड्ज इति रमृतः ॥१॥ इति । तथा-ऋपभ:-ऋषभोपमः, तद्वद् यो वर्तते स ऋषभः । तदुक्तम् जिस प्रकार शत संख्यक नय अथवा असंख्यक नय सातों ही मूलनयों में अन्तर्भून हो जाते हैं उसी प्रकार से वक्ता विशेष की अपेक्षा से असंख्यात स्वर भी सातों स्वरों में ही अन्तर्भूत हो जाते हैं. यही प्रकट करने के लिये अब सूत्रकार सात स्वरों का कथन करतेहैं__“सत्त सरा पण्णत्तो"-इत्यादि ।-सूत्र १४ टीकार्थ-ध्वनि विशेष रूप स्वर सात कहे गये हैं-जैसे-षड्ज १ ऋषभ २ गान्धार ३ 'मध्यम ४, पंचम ५ धैवत ६ और निषाद ७॥ १ इन में जो षड्ज स्वर होता है-वह नालिका, कंठ, उर, तालु, जिहा और दन्त इन ६ स्थानों से उत्पन्न होता है, कहा भी है "नासां कंठ-मुरस्तालु" इत्यादि । । ऋषभ नाम बैल का है, इस बैल के स्वर के समान जो स्वर होता है वह ऋषभ स्वर है-कहा भी है- . જેવી રીતે શત સંખ્યક નય અથવા અસંખ્યક નયને ઉપર્યુક્ત સાત મળનમાં સમાવેશ થઈ જાય છે, એ જ પ્રમાણે વક્ત વિશેષની અપેક્ષાએ અસંખ્યાત સ્વરને પણ સાત સ્વરમાં જ સમાવેશ થઈ જાય છે. એ જ વાત પ્રકટ કરવા માટે સૂત્રકાર હવે સાત પ્રકારના સ્વરેનું નિરૂપણ કરે છે. " सच सरा पण्णत्ता" त्या:ટીકાઈ–વનિવિશેષ રૂપ સ્વરના સાત પ્રકાર કહ્યા છે-(૧) ઉજ્જ, (૨) રાષભ (3) गान्धार, (४) मध्यम, (५) ५यम, (९) धैवत मन (6) निषाह.. ષડજ સ્વર નાસિકા, કંઠ, ઉર, તાળવું, જીભ અને દાંત, આ ૬ સ્થાનમાંથી ઉત્પન્ન થાય છે. मधु ५ छे , “ नासां कंठमुरस्तालु" त्याल. બળદને ઋષભ કહે છે. તે શ્રેષભના સુર જેવો સ્વર હોય છે, તેને प:१२ ४७ छ. ४ङ्घ ५ छ " वायुः समुत्थितो नाभैः” त्यादि. Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -सुषी टीका स्था. ७ सु. १४ सप्तस्वर निरूपणम् Cl 66 वायुः समुत्थितो नाभेः कण्ठ शीर्षसमाप्तः । नर्दत्वृषभवद् यस्मात्तस्माद्वृपभ उच्यते ॥ १ ॥ इति । तथा - गान्धारः - गन्धप्रापकः स्वरविशेषः । तदुक्तम्वायुः समुत्थितो नाभे हृदि कण्ठे समाहतः । नानागन्धवहः पुण्यो, गान्धारस्तेन हेतुना " १ ॥ इति तथा -- मध्यमः - मध्ये कायस्य भवो मध्यमः । उक्तं च-वायुः समुत्थितो नामे रुरो हृदि समाहतः । नाभि प्राप्तो महानादो, मध्यमत्वं समश्नुते ॥ C 19 १ ॥ इति । r 66 वायुः समुत्थितो नाभेः " इत्यादि । T नाभिस्थान से उत्थान हुआ वायु जब कंठ एवं शीर्ष स्थान से टकराता है तब वह बैल की तरह आवाज करता है, इस कारण इसे ऋषभ कहा जाता है, गन्ध प्रापक जो स्वर विशेष होता है वह गन्धार कहा गया है, कहा भी है--" वायुः समुत्थितो " नाभेः इत्यादि । ६११ नाभि से उत्पन्न हुई वायु जब हृदय और कंठ में टकराती है, तब उस वायु में अनेक प्रकार की गन्ध होती है. इस कारण इस स्वर को गधा कहा गया है, जो स्वर शरीर के मध्य में उत्पन्न होता है, वह मध्यम स्वर कहा गया है, कहा भी है- वायु समुत्थितो नाभेः " इत्यादि । नाभि से उत्पन्न हुई वायु उरःस्थान और हृदय स्थानमें जब टकराती है तब वह नाभि स्थान को प्राप्त होकर बहुत बड़ी आवाज को નાભિ સ્થાનમાંથી ઉત્થિત થયેલા વાયુ જ્યારે કઠ અને શીસ્થાનની સાથે અથડાય છે, ત્યારે તે ખળદના જેવા અવાજ કરે છે, તે કારણે તે પ્રકારના સ્વરને ઋષભસ્વર કહે છે. ગન્ધપ્રાપક જે સ્વર હોય છે તેને ગાન્ધાર કહે છે કહ્યું પણ છે કે aig: ayfað at” ult. "" 15 નાભિમાંથી ઉત્પન્ન થયેલા વાયુ જ્યારે હ્રદય અને કઠ સાથે અથડાય છે; ત્યારે તે વાયુમાં અનેક પ્રકારની ગન્ધ હૈય છે. તે કારણે તે‘સ્વરને ગાધાર સ્વર કહે છે, Arc જે સ્વર શરીરની મધ્યમાથી ઉત્પન્ન થાય છે તેને મધ્યમસ્વર કહે છે કહ્યું પણ છે કે ૮ वायुः समुत्थितो नोभे " इत्याहि. નાભિમાંથી ઉત્પન્ન થયેલા વધુ જ્યારે ઉરસ્થાન અને હૃદયસ્થાન સાથે અથડાય છે, ત્યારે તે વાયુ નાભિસ્થાનને પ્રાપ્ત કરીને છેૢા જ માટે અવાજ 1 Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यद्वा- तद्वदेवोत्थितो वायुरूरः कण्ठसमाहतः । " स्थानांतसूत्रे 3-C नाभि प्राप्तो महानादो मध्यस्थस्तेन मध्यमः ॥ १ ॥ " इति । तथा - पञ्चमः - पञ्चानां =जादिस्वरानुसारेण पञ्चसंख्यकानां स्वरार्णा पूरणः स्वरः पञ्चमः । यद्वा-पञ्चयु - नाभ्यादिस्थानेपु मातीति पञ्चमः । तदुक्तम्" वायुः समुद्रतो नाभेरुरोहृत्कण्ठमूर्धसु । 66 विचरन् पञ्चमस्थान प्राप्त्या पञ्चम उच्यते ॥ १ ॥ " इति । तथा - धैवतः धावत्यूर्ध्वमिति निरुक्तिवशाद् धैवतः । उत्पन्न करती है, इस आवाज का नाम मध्यम स्वर है-अधवा" तद्वदेवो स्थितो वायुः " इत्यादि । षड्ज आदि स्वरों के अनुसार पांच स्वरों का जो पूरण करने वाला स्वर है वह पंचम स्वर है, अथवा नाभि आदि पांच स्थानों में जो स्वरं समाजाता है वह पंचम स्वर है - कहा भी है ---- "1 वायुः समुद्वतो नाभेः " इत्यादि । नाभि से उत्पन्न हुआ वायु जब उरः स्थान, हृदय स्थान, कण्ठस्थान, और मूत्र स्थान में विचरता हुआ पांचवें स्थान पर आ जाता है तब वह पंचम स्वर कहा गया है, जो स्वर ऊपर की ओर दौड़ता है - वह धैवत है, तथा जिसमें अन्य स्वर विश्राम पाते हैं वह निषाद स्वर है, धैवत स्वर के विषय में ऐसा कहा गया है- ઉત્પન્ન કરે છે. આ અવાજનું નામ મધ્યમસ્ત્રર છે. અથવા तद्वदेवोत्थितो वायुः " छत्यहि ८८ આદિ સ્વરેા પ્રમાણે પાંચ સ્વરને પૂરણ કરનારા જે સ્વર છે તેને પચમસ્વર કહે છે. અથવા નાભિ આદિ પાંચ સ્થાનામાં જે સ્વર સમા ષ જાય છે તેને પચમસ્વર કહે છે. કહ્યું પણ છે કે : "" ' वायुः समुद्गतो नाभेः " त्याहि, નાભિમાંથી ઉત્પન્ન થયેલા વાયુ જ્યારે સ્થાન, હૃદયસ્થાન, કડસ્થાન અને મૂર્ખાસ્થાનમાં વિચરતા વિચરતા પાંચમાં સ્થાન પર આવી જાય છે, ત્યારે તેને પચમ સ્વર કહે છે. જે સ્વર ઉપરની બાજુએ દોડે છે તેને ધૈવતસ્વર કહે છે. જે સ્વમાં અન્ય સ્વરા વિશ્રામ પામે છે, તે સ્વરને નિષાદ સ્વર કહે છે. શ્વેત વસ્ત્રરના વિષયમાં એવુ' કહ્યું છે કે : Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधाटीका स्था० सू० १४ सप्तस्वरनिरूपणम् उक्तं च- “ गत्वा नाभेरधोभागं, वस्ति प्राप्योर्ध्वगः पुनः धावन्नि च यो याति, कण्ठदेशं स धैवतः ॥ १ ॥ इति । 1 ६१३ "" तथा - निषाद : - निपीदन्ति स्वरा यस्मिन् स निषादः । उक्तं चनिषीदन्ति स्वरा यस्मिन् निषादस्तेन हेतुना । सर्वाचाभिभवत्येष निषादस्तेन हेतुना ॥ १ ॥ " इति । , तदेवं सप्त सप्तसंख्यकाः स्वराः = जीवाजीवाश्रया ध्वनिविशेषाः व्याख्याताः= तीर्थङ्करगणधरैः कथिता इति । न कार्य कारणाधीनं, जिह्वा च स्वरस्य कारणम्, सा तु द्वीन्द्रियादित्रसजीवानामसंख्येयत्वात् असंख्येया, ततश्च स्वराणामप्यसंख्येयत्वं वक्तव्यमिति सप्त44 गत्वा नाभेरो भागं " इत्यादि । नाभि अधोभाग पर पहुँच कर और फिर बस्ति पर आकर जो कदेश पर आता है वह वन है । निषाद स्वर के विषय में ऐसा कहा गया है -- " निषीदन्ति स्वरा यस्मिन्" इत्यादि । जिसमें अन्य स्वर ठहरते हैं-विश्राम पाते हैं - और जो अन्य स्वरों को पराभूत कर देता है-वह विषाद स्वर है । इस प्रकार के ये सात स्वर जीव और अजीव के आश्रय भून ध्वनि विशेष रूप होते हैं । ऐसा तीर्थकर एवं गणधरोंने कहा है । शंका--कारण के आधीन कार्य होता है इस नियम के अनुसार जिह्वा जब स्वर का कारण है तो फिर वे जिह्वाएँ दो इन्द्रिय आदि स जीवों में की असंख्यातता होने के कारण, असंख्यात होती है, अतः गत्वा नाभेरधोभागं " त्याहि. ८८ નાભિના-અધાભાગ પર પહોંચીને અને પછી ખસ્તિ પર આવીને જે વાયુ કંઠ પ્રદેશ પર આવીને જે સ્વર ઉત્પન્ન કરે છે તેને ધૈવતસ્વર કહે છે, નિષાદ સ્વરના વિષયમાં એવુ' કહ્યું છે કે : " निषीदन्ति स्वरा यस्मिन् " इत्यादि. જેમાં અન્ય સ્વરે વિશ્રામ પામે છે અને જે અન્ય સ્વરાને પણભૂત કરી નાખે છે, તે સ્ત્રરનુ નામ નિષાદ સ્ત્રર છે. આ પ્રકારના આ સાત સ્વર જીવા અને અછવામાં આશ્રયભૂત ધ્વનિવિશેષ રૂપ હાય છે શકા—કા કારણને આધીન હોય છે, આ નિયમ અનુસાર જિહવા જે સ્વરમાં કારણભૂત હાય તા દ્વીન્દ્રિય આદિ ત્રસ જીવા અસખ્યાત હોવાને કારણે જિહવાઓ પશુ અસખ્યાત જ હાવી જોઇએ. જો જિહવાએ અસ'. Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१४ स्वरयनं विरुध्यते ? इति चेद् आह विशेषतो यद्यप्यसंख्याताः स्त्ररास्तथापि ते सामान्यतः सप्तस्वान्तर्भवन्तीति-सप्तस्वरा उक्ताः, अथवा स्थूलस्वरान गीतं चाश्रित्य सप्त स्वरा उक्तां इति न कश्चिद्विरोधः । उक्तं चात्र " कज्जं करणायत्तं, जीहा य सरस्सा असंखेज्जा । सरसंखमसंखेज्जा, करणस्मा संखयत्ताओ ॥ १ ॥ स्थानासूत्रे " I 17 सतय सुत्तनिद्रा, कह न विरोहो ? तभी गुरू आह । सुत्ताणुवाई सब्वे, वायरगहणं च गेयं वा ॥ २ ॥ छाया - कार्यकारणायत्त जिल्हा च स्वरस्य सा असंख्येया । स्वरसंख्या असंख्येया कारणस्या संख्येयत्वात् ॥ १ ॥ सप्त च मूत्रनिबद्धाः, कथं न विरोधः ? ततो गुरुराह । सूत्रानुगतिनः सर्वे वादग्रहणं च गेयं वा ॥ २ ॥ इति । इत्थं स्त्ररान्नामतो निरूप्य सम्प्रति तत्स्यानान्याह -' एएसि णं सत्तण्हं सराणं ' इत्यादि । स्वरो में भी असंख्यातता होनी चाहिये, फिर यहां स्वरो में सात प्रकारता ही क्यों कही गई है ! उत्तर--शंका ठीक है, विशेष रूप से यद्यपि स्वर असंख्यात ही है-तब भी वे सामान्य रूप से सात ही जो कहे गये हैं सो उसका कारण यह है कि वे सब सात स्वरों में ही अन्तर्भूत हो जाते हैं । अथवास्थूल स्वरों को और गीतों को आश्रित करके स्वर साल कहे गये हैं । इस तरह इस कथन में कोई विरोध नहीं आता है । कहा भी है" कज्जं करणायन्तं " इत्यादि । इन दोनों गाधाओं का अर्थ शंका और उत्तर के अनुसार की ખ્યાત હાય તા સ્ત્રામાં પણ અસ ખ્યાતતા જ હાવી જોઇએ છતાં આપે અહીં સ્વરાના અસંખ્વાત પ્રકારો કહેવાને મલે સાત જ પ્રકાશ શા કારણે કહ્યા છે ? ઉત્તર—વિશેષ રૂપે તે સ્વરા અસખ્યાત જે છે, પરન્તુ સામાન્ય રૂપે તા સાત જ સ્વરે કહેવાનું કારણ એ છે કે તે બધાં સ્વદેશમાં સમાવેશ થઇ જાય છે અથવા સ્થૂલ સ્ત્રીને અને કરીને સ્વર સાત જ કહ્યા છે. તેથી આ પ્રકારના કથનમાં हाथ नथी, ह्युं पशु छे " कर्ज करणायेत्तं " त्याहि. સ્વરેના તે સાંત ગીતાને આશ્રિત કોઈ દોષને અ रावं Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका-स्था०७ सू०१४ सप्तस्वरनिरूपणम् एतेषां सप्तानां स्वराणां सप्त स्वरस्थानानि प्रज्ञप्तानि । नाभेरुत्थितोऽवि. कारी स्वर आभोगतोऽनाभोगतो वा जिहादि स्थान प्राप्य विशेषमासादयतीति स्वरस्थापकारकमिति तत् स्वरस्थानमुच्यते इति । तान्येव स्थानानि दर्शयतितयथा-षडजं स्वरम् अग्रजिह्वया-अग्रभूता जिह्वाअग्रजिहा तया-जिह्वाग्रभागेन यात् । षड्जस्वरस्य स्थानं जिह्वाग्रभाग इत्यर्थः । तथा-उरसा=वक्षःस्थलेन ऋषभस्वरं ब्रयात् । ऋषभस्वरस्य स्थानं वक्षस्थलं बोध्यम् । तथा-कण्ठोद्गतेनकण्ठात् उद्तम्-उन्नतिः-रवरनिष्पत्ति हेतुभूता क्रिया, तेन गान्धारस्वरं ब्रूयात् । गान्धारस्वरस्य स्थानं कण्ठो वोध्यम् । तथा मध्यजिवा-जिह्वाया मध्यो मध्यजिह्वा तथा-मध्यमं स्वरं ब्रूयात् । जिह्वाया मध्यभागो मध्यमस्वरस्य स्थान है। इस प्रकार से स्वरों के नामों का निरूपण करके अब सूत्रकार उन स्वरों के स्थानों का कथन करते हैं-नाभि ले उत्थित हुआ अधिकारी स्वर आभोग अथवा अनाभोग से जिहा आदि स्थान को प्राप्त होकर विशेषता को प्राप्त कर लेता है, इसलिये वह स्वर का उपकारक होता है-अतः उसे स्वर का स्थान कहा गया है, षड्ज स्वरको अग्रजिह्वा से बोलना चाहिये-अर्थात् स्वर का स्थान जिता का अग्रभाग है, इसलिये षड्ज स्वर को जिहां के अग्रभाग से बोलना चाहिये, गान्धार स्वरका स्थान कण्ठ है, इसलिये गान्धार स्वर को कण्ठ से बोलना चाहिये जिह्वा का मध्य भाग मध्यम स्वर का स्थान है इसलिये मध्यम स्वर को जिहा के मध्यभाग से बोलना चाहिये ॥ २ ॥ पंचम स्वर का આ બન્ને ગાથાઓને અર્થ ઉપર્યુક્ત શંકા અને ઉત્તરમાં પ્રકટ થઈ ગયે છે. આ પ્રમાણે સ્વરોનાં નામોનું નિરૂપણ કરીને હવે સૂત્રકાર તે સ્વરનાં સ્થાનેનું કથન કરે છે– નાભિમાંથી ઉસ્થિત થયેલ (ઉત્પન્ન થયેલે) અવિકારી સ્વર અભેગ અથવા અનાગ પૂર્વક જિહવા આદિ સ્થાનેએ પહેચીને વિશેષતાને પ્રાપ્ત કરી લે છે, તેથી તે સ્વરને ઉપકારક થાય છે. તેથી તેને સ્વરનું સ્થાન કહ્યું છે. ષડુજ સ્વરને જિહવાગ્રમાંથી બેલ જોઈએ. એટલે કે સ્વરનું સ્થાન જિહવાને અગ્રભાગ છે, તેથી ષડૂજ સ્વરને જીભના અગ્રભાગ વડે બોલ જોઈએ. ગન્ધારસ્વરનું સ્થાન કંઠ છે, તેથી ગન્ધાર સ્વરનું ઉચ્ચારણ કંઠમાંથી થવું જોઈએ. મધ્યમ સ્વરનું સ્થાન જીભને મધ્યભાગ છે, તેથી જીભના મધ્ય ભાગમાંથી મધ્યમ સ્વરનું ઉચ્ચારણ થવું જોઈએ. પંચમસ્વરનું સ્થાન નાસિકા છે તેથી નાસિકા વડે પંચમસ્વરનું ઉચ્ચારણ થવું જોઈએ. * Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१६ स्थानाङ्गसूत्रे बोध्यम् || २ || तथा-नासा - नासिकया पश्ञ्चमं स्वरं ब्रूयात् । पञ्चमस्वरस्य नासिका स्थानं बोध्यम् । तथा दन्तोष्ठेन दन्तोष्ठक्रियया धैवतं ब्रूयात् । धैवतस्वरस्य स्थानं दन्तोष्ठं बोध्यम् । तथा मूर्ध्ना = मूर्धस्थानेन निपादं स्वरं ब्रूयात् । निपादस्वरस्य स्थानं मृर्धा बोध्यम् । एतानि जिह्वाग्रभागादीनि सप्त स्वरस्थानानि भगवता व्याख्यातानि । - ननु पड्जस्वरोच्चारणे कण्ठादीन्यपि स्थानान्याश्रीयन्ते अग्रजिह्वाच स्वरान्तरेयाश्रीयते, तत्कथं पडजादिष्वेकैकस्य स्वरस्य अग्रजिह्वादिरूपमेकैकं स्थानमुक्तम् इति चेदाह - यद्यपि पादयः सर्वेऽपि स्वराः जिह्वाग्र पागादीनि सर्वा ण्यपि स्थानान्यपेक्षन्ते, तथापि त्रिशेपत एकैकस्वरो जिह्वाग्रभागादिष्वेकैकं स्थानमादायै व्यज्यते इति तत्तत्स्वरस्य ततस्स्थानमुक्तमिति ॥ ३ ॥ ܕ स्थान नासिका है, पंचम स्वर को नासिका से बोलना चाहिये, धैवतस्वर का स्थान दंतोष्ठ है, इसलिये धैवत स्वर को दंतोष्ठ से बोलना चाहिये, निपाद स्वर का स्थान, सूर्धा है, इसलिये निषाद स्वर को सू (मस्तक) से बोलना चाहिये || ३ || ये जिह्वाग्रभाग आदि सोत स्थान सात स्वरों के हैं - ऐसा भगवान् ने कहा है । शंका - षड्ज स्वर के उच्चारण करने में कण्ठ आदि स्थानों का श्री आश्रय किया जाता है. तथा अग्रजिद्दा रूप स्थान अन्य स्वरों में भी आश्रित होता है - तो फिर षड्ज आदि स्वरों में से एक स्वर का अग्रजहादि रूप स्थान कैसे कहा गया है ? उत्तर - यद्यपि षड्ज आदि समस्त भी स्वर जिह्वाग्र भाग आदि समस्त स्थानों की अपेक्षा करते हैं, तय भी विशेषरूप से एक एक ધૈવત સ્વરનું સ્થાન દતાઇ છે, તેથી ધૈવત સ્વરનું દતાછમાંથી ઉચ્ચા२] १२वु लेहये, निषाद स्वरनु स्थान भूर्धा (ताजवु ) छे, तेथी तेनुं ઉચ્ચારણ મૂર્ધામાંથી જ થવુ જોઈએ, સાત સ્વરાના ાિગ્રભાગ આદિ આ સાત સ્થાને તીથ કર ભગવાને એ જ કહ્યા छे. શકા-હૂંજ સ્વરના ઉચ્ચારણમાં ક' આદિ સ્થાનાને પણ આશ્રય લેવામાં આવે છે, તથા અગ્રજિહવા રૂપે સ્થાનને અન્ય સ્વરના ઉચ્ચારણમાં પણ આશ્રય લેવામાં આવે છે. છતાં પણુ ષજ આદિ સ્વાનુ જિંહેવાગ્ર આદિ એક એક સ્થાન જ શા માટે કહેવ માં આવ્યું છે ? ઉત્તર—જો કે જ આદિ સાતે સ્વા જિહવાગ્રભાગ અ દિ સમસ્ત " સ્થાનાની અપેક્ષા રાખે છે, છતાં પણ પ્રત્યેક સ્વર વિશેષ રૂપે તા જિહ્વામ Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उधारीका स्था०७ स. १४ सप्तस्वरनिरूपणम् इत्थं स्वरस्थानान्युक्त्वा सम्मति ' को जीवः कं स्वरं व्रते' इतिदर्शयति"संत्त सरा जीव निस्सिया' इत्यादिना — णिसायं सप्त भंगया' इत्यन्तेन । अर्थः स्पष्टः । नवरम्-गवेलकाः मेषाः । कुसुमसंभवे काले वसन्तसमये। . ___ अथ यस्माद् यस्माद् वाघाद यो यः स्वरो निर्गच्छति तदर्शयति-'सत्त सरा अंजीवनिस्सया' इत्यादिना 'महाभेरी य सत्तमं ' इत्यन्तेन । अर्थः स्पष्टः । नवरं-गोमुखी-'काहला' इति नामकवाविशेषः । चतुश्चरणप्रतिष्ठाना गोधिकाचतुर्मिश्चरणैः प्रतिष्ठानं भुवि यस्याः सा तथाभूता गोधिका-गोधैव गोधिकास्वर जिह्वानभाग आदि स्थानों में से एक एक स्थान को लेकर ही प्रकट होता है इसलिये प्रकट होने की अपेक्षा से उस उस स्वर का वह वह स्थान कहा गया है, इस प्रकार से स्वर स्थान प्रकट करके अब कौन जीव किस स्वर को बोलता है यह पात सूत्रकार प्रकट करते हैं-मयूर षड्ज स्वर को बोलना है, क्रुक्कूट-मुर्गा-ऋषभस्वर को पोलता है, हँस गान्धार स्वर को बोलताहै, मेष (धेटा)-मध्यम स्वर को बोलता है॥४॥ वसन्त के समय कोयल पंचमस्वर को बोलती है, सारस धैवत स्वर को बोलता है, और क्रौच सातवें निषाद स्वर को बोलता है ॥ ५॥ अब सूत्रकार जिस २ वाजों से जो २ स्वर निकलता है-उस २ बाजों का नाम प्रकर करते हैं-मृदङ्ग से षड्ज स्वर निकलता है. गोमुखी (काहला) से ऋषभ स्वर निकलता है, शंख से गान्धार स्वर निकलता है, झल्लरी ले मध्यम स्वर निकलता है॥६॥ ભાગ આદિ સ્થાનોમાંના કેઈ એક જ સ્થાનમાંથી જ પ્રકટ થાય છે તેથી પ્રકટ થવાની અપેક્ષાએ તે પ્રત્યેક સ્વરનું ઉપર બતાવ્યા અનુસારનું જ સ્થાન સમજવું જોઈએ આ પ્રમાણે સાતે સ્વરેનાં સ્થાન પ્રકટ કરીને હવે સૂત્રકાર એ વાત પ્રકટ કરે છે કે ક્યા કયા જી કયા કયા સ્વરનું ઉચ્ચારણ કરે છે– મોર ષડું જ સ્વરમાં બેલે છે. કૂકડે બાષભ સ્વરમાં બેલે છે. હિંસ ગાન્ધાર સ્વરે બેલે છે. ઘેટું મધ્યમ સ્વરે બેલે છે વસંતમાં કેયલ પંચમ સર્વરે બોલે છે સારસ વત સ્વરે બેલે અને કૌંચ પક્ષી નિષદ સ્વરે બોલે છે. ક્યા કયા વાજિંત્રમાંથી કયા કયા પ્રકારના સ્વરે નીકળે છે, તે હવે સૂત્રકાર પ્રકટ કરે છે– મૃદંગમાંથી જ સ્વર નીકળે છે. ગેમુખીમાંથી ઋષભ સ્વર નીકળે છે, શંખમાંથી ગાન્ધાર સ્વર નીકળે છે, ઝાલરમાંથી મધ્યમ સ્વર નીકળે છે, स्था०-७८ Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थामा चौवनद्धा दर्दरिकेत्यपरनाम्ना प्रसिद्धा । आडम्बरः पटहः। सप्तम-निपादम् । अत्रेदं वोध्यम्-यद्यपि मृदङ्गादिजनितेपु स्वरेषु नाभ्युरश्कण्ठाधुत्पद्यमानः वारूपो व्युत्पत्त्यर्थों न घटते, तथापि मृदङ्गादिवायेभ्यः पड्जादिस्वरसदृशस्वरा उत्पयन्ते, अत एव तेषां मृदङ्गाद्यजीवनिश्रितल्यमुक्तम् । . अथेतेपां सप्तस्वराणां लक्षणान्याह-' एएसि णं सत्त सराणं' इत्यादिना ‘णिसायं सर मस्सिया' इत्य-तेन सन्दर्भण । तथाहि-एतेषां सप्तानां स्वराणां सप्त स्वरलक्षगानि-तत्तत्फलमापकाणि स्वरतत्त्वानि प्रज्ञप्तानि कथितानि । तान्येव फलत आह-' तद्यथा-पड्जेन लभते वृत्तिम् ' इत्यादिभिः श्लोकः । तत्र पडजस्वरस्य फलमाह-पड्जेन स्वरेण जनो वृत्ति-जीविकां लभते । तथापड्जस्वरवतो जनस्य कृतं कमें विनष्टं न भवति, सफलमेव भवतीत्यर्थः। तस्यगावो मित्राणि पुत्राश्च भवन्ति । तथा स स्त्रीणां वल्लभा=प्रियश्च भवति ॥ ८॥ चमड़े से मढी हुई रिका से पंचमस्वर निकलता है, पटह से धैवत स्वर निकलता है और महाभेरी ले सप्तम निषाद स्वर निकलता है ॥ ७॥ यहां ऐसा समझना चाहिये कि यद्यपि मृदङ्गादि जनित स्वरों में नाभि, उरः आदि स्थानों से उत्पचमानता रूप व्युत्पत्तिलभ्य. अर्थ घटित नहीं होता है, फिर भी मृदङ्ग आदि वाघों से षड्ज आदि स्वरों के जैसे स्वर उत्पन्न होते हैं इसलिये इन्हें मृदङ्गादिरूप अजीवों से आश्रित कहा गया है । इस लात स्वरों के फल की अपेक्षा लक्षण इस प्रकार से कहे गये हैं-बहज स्वर से मनुष्य आजीविका को प्राप्त करता है, और षड्ज स्वरवाले मनुष्य का किया हुआ काम कभी भी नष्ट नहीं होता है, किन्तु सफल ही होता है, उसके घर पर अनेक ચામડાથી મઢેલી દરિકામાંથી પંચમ સ્વર નીકળે છે, પટહ (પડઘમ) માંથી. વિત સ્વર નીકળે છે અને મહાભેરીમાંથી નિષાદ સ્વર નીકળે છે. અહીં એવું સમજવું જોઈએ કે મૃદંગ આદિમાં નાભિ, ઉર આદિ સ્થાનોને સદૂભાવ હોતે નથી. તેથી મૃદંગાદિ જન્ય સ્વરમાં નાભિ, ઉર આદિ સ્થાનમાંથી ઉત્પદ્યમાનતા રૂપ વ્યુત્પત્તિ લભ્ય અર્થ ઘટિત થતો નથી. છતાં પણ મૃદંગ આદિ વાદ્યોમાંથી ૧૪ આદિ વન જેવાં સ્વરે ઉત્પન્ન થાય છે, તે કારણે તેમને મૃદંગાદિ રૂપ અ ને આશ્રિત કહેવામાં આવેલ છે. હવે સુત્રકાર આ સાતે સ્વરોના લક્ષણોનું ફળની અપેક્ષાએ નિરૂપણ કરે છે–ષજ સ્વર વડે મનુષ્ય પોતાની આજીવિકા પ્રાપ્ત કરે છે. જજ સ્વરવાળા મનુષ્ય વડે કરાતું કામ કદી નિષ્ફળ જતું નથી–તેના કામમાં સદા, Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीको स्था०७ २० १४ सप्तस्वरनिरूपणम् . . . ऋषभस्वरस्य फलमाह-ऋषभेण स्वरेण तु-ऐश्वर्यम, सैनापत्यं सेनापतित्व, धनानि, वस्त्रगन्धम् वस्त्राणि गन्धांश्च, अलङ्कार. स्त्रियः, शयनानि च लभते इति ॥९॥ गान्धाररवरस्य फलमाद-गान्धारे मान्धारस्वरे गीतयुक्तिज्ञा = गीतयोजनायां कुशलाः-गान्धारस्वरगानकार-इत्यर्थः, चर्यवृत्तयः-वर्या-श्रेठा वृत्तिर्येषां ते तथा-श्रेष्ठ जीविकावन्तः, कलाधिका:-कलाभिरधिका:-कलाक्षेषु प्रधानाश्च भवन्ति । तथा-कवयः काव्यकर्तारः, 'कृतिनः' इतिच्छायापक्षेकत्तव्यशीला:, भाज्ञाः सद्बोधाश्च भवन्ति । ये अन्ये-पूर्वोक्तभ्यो गीतयुक्तिज्ञा. दिभ्यो ये भिन्ना भवन्ति ते शास्त्रपारगाः-सकलशास्त्रनिष्णाता भवन्तीति ॥ १०॥ गायें होती है और उसके अनेक मित्र होते हैं। पुत्रों से भी उसका घर शूना नहीं रहता है, यह स्त्रियों का प्यारा है ॥ ८॥ ऋषभ स्वर वाला मनुष्य ऐश्वर्य को प्राप्त करता है, वस्त्रों को प्राप्त करता है, सुगंधित पदार्थों को प्राप्त करता है, अलङ्कारों को प्राप्त करना है, शयनों को सुन्दर २ पल्यङ्का आदि पदार्थों को-प्राप्त करता है, और वह सुन्दर २ स्त्रियों का वल्लभ (पति) भी होता है ॥९॥ गान्धार स्वर वाला मनुष्य गीतो की योजना करने में कुशल होता है, श्रेष्ठ आजीवि का वाला होता है । कलाओं के जानने वालों में प्रधान होता है। काव्य की रचना करने में कुशल मति वाला होता है-अथवा-कृति-कर्तव्यशील होता है। सद्बोध संपन्न होता है, तथा-जो गीत युक्तिज्ञ आदि से भिन्न होता है तो ऐसा वह गान्धार स्वर वाला व्यक्ति सकल शास्त्रों का पूर्ण ज्ञाता होता है। १० ॥ " मध्यम " इत्यादि-जो मनुष्य ‘સફળતા જ પ્રાપ્ત થાય છે તેને ઘેર અનેક ગાયે હોય છે, તેને અનેક મિત્ર હોય છે, તેનું ઘર કદી પણ પુત્રેથી રહિત હેતું નથી. આ સ્વરવાળો માણસ સ્ત્રીઓમાં પ્રિય થઈ પડે છે. ( 2ષભ સ્વરવાળો મનુષ્ય એિશ્વર્ય સંપન્ન હોય છે, તે સેનાપતિના પદની प्रालि ४२ छ, धन, वस्त्र, सुमपित ५४., मसरी, सुदर पर, २१ આદિ પદાર્થોની તેને પ્રાપ્તિ થાય છે, અને અનેક સુંદર સ્ત્રીઓને તે પુરુષ चीतानी मार्या ३३ 'प्रात ४२ छे. ગાન્ધાર સ્વરવાળો મનુષ્ય ગીતનું આયોજન કરવામાં નિપુણ હોય છે, તે શ્રેષ્ઠ આજીવિકા સંપન્ન હોય છે. કલાનિપુણ પુરુષમાં તે અગ્રસ્થાન પ્રાપ્ત કરે છે, તે કાવ્યની રચના કરવામાં નિપુણ હોય છે, કર્તવ્યશીલ હોય છે. સંબધ સંપન્ન હોય છે. તે સામાન્ય કવિ, ગાયક કલાકાર આદિ કરતાં પ્રતિભાવાળો હોય છે અને સકળ શાસ્ત્રોને પૂર્ણ જ્ઞાતા હોય છે. રામ Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ દૂર૦ स्थानासूत्रे = मध्यमस्वरस्य फलमाह तथा मध्यमस्वरसम्पन्नास्तु सुखवीविन: = मुखेन जीवितुं शीला भवन्ति । सृग्वजीवित्वमेव प्रकटयति- ' खायई' इत्यादिना । मध्यमस्वरमाश्रितो जनो हि खादति सुस्वादुं भोजनं भुङ्क्ते, पिचति दुग्धादिपानं करोति, ददाति = अन्यानपि भोजयति पाययति चेति ॥ १ ॥ पञ्चमस्वरस्य फलमाह – पञ्चमस्त्ररसम्पन्नास्तु पृथिवीपतयो भवन्ति, तथा शूराः संग्रहकर्त्तारः अनेक गणनायकाच भवन्तीति ॥ १२ ॥ धैवतस्त्ररस्य फलमाह - धैवतस्वरसम्पन्नास्तु कलहमियाः = क्लेशकारका भवन्ति । तथा शाकुनिकाः - शकुनेन श्ये॒नेंन चरन्ति =क्षिणां वधार्थं पर्यटन्ति, शकुनान् = पक्षिणो घ्नन्ति वा शकुनिकाः पक्षिघातका लुब्धकविशेषाः, वागुरिका:- वागुरा मृगवन्धनी, तथा चरन्तीति वागुरिक:- हरिणघातका लुब्धकविशेषाः, शौकरिकाः- शुकरेण शूकरवधार्थं चरन्ति, - शुकरान् ध्वन्ति वा शौकरिकाः - शूकरवातिनो लुब्धकविशेषाः, तथा - मस्स्यवन्धाः = मत्स्यघातिनश्च भवन्तीति ॥ १३ ॥ निपादस्वरस्य फलमाह - तथामध्यम स्वर से संपन्न होते हैं - वे सुख पूर्वक अपने जीवन को यापन करने के स्वभाव वाले होते हैं- जैसे- वे सुस्वादु भोजन करते हैं, दुग्धादि का पान करते है, दूसरों को भी अपने ही जैसा भोजन कराते हैं और अपने ही जैसा दुग्धादिका पान कराते हैं ॥ ११ ॥ पंचम स्वर से युक्त जो प्राणी होते हैं वे पृथ्वीपति होते हैं, शूरवीर होते हैं, संग्रह शील होते हैं, और अनेक गणों के नायक होते है। ॥ १२ ॥ जो मनुष्य धैवत स्वर वाले होते हैं वे कलहप्रिय होते हैं, शिकारी होते हैं, मृग की विशेष रूप से शिकार करने वाला होते हैं, शुकर की भी वे शिकार किया करते हैं, और मछलियो को भी मार २ कर खाते रहते हैं | || १३ || निषाद स्वरवाले जो मनुष्य - - સ્વરવાળા મનુષ્ય સુખપૂર્વક પેાતાના જીવનને બ્યતીત કરવાના સ્વભાવવાળા હાય છે. જેમકે તે સ્વાદિષ્ટ ભાજન કરાવનારા અને પેાતાના જેવાં જ દૂધ આદિ પદાર્થોનું પાન કરાવનારા હાય છે. જે માશુસ પંચમ સ્વરથી યુક્ત હાય છેતે પૃથ્વીપતિ બને છે, શૂરવી હાય છે, સગ્રહશીલ હાય છે અને અનેકગણાનેા નાયક હાય છે. જે માણુસા ધૈવત સ્વરવાળા ડાય છે તે કલહપ્રિય હોય છે, શિકાર કરવાના શાખન હોય છે. તેએ સૂત્રરના શિકાર પણ કરતા હાય છે અને માછલીઓને પણ મારી મારીને ખાનારા ડાય છે. Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था० ७ सू० १४ सप्तस्वरनिरूपणम् દા ये चाण्डाला:= चण्डकर्माणः, मौष्टिकाः - मुष्टिः प्रहरणं येषां ते तथा, मुष्टिभिः महरणशीला इत्यर्थः तथा - मश्लाः, सेयाः - अधमजातीया मनुष्याश्च सन्ति, एभ्योऽन्ये च ये पापकर्माणः पापकर्मपरायणाः सन्ति, तथा च-ये गोघातकाः सन्ति, ये च चौराः सन्ति, ते सर्वे विषादस्वरमाश्रिता विज्ञेयाः ॥ १४ ॥ इति । अथैतेषां स्वराणां ग्रामान्, एकैकग्रामस्य मूर्च्छाच प्राह - ' एएसि णं सत्ताहं सराणं तभी गामा पण्णचा ' इत्यादिना ' कोडिमा य सौ सत्तमी मुच्छा' होते हैं, वे चाण्डाल होते हैं - चण्ड कर्म करनेवाले होते है-मौष्टिकमुष्टि से प्रहार करने के स्वभाववाले होते हैं. सेय-अधम जाति के - होते हैं, तथा इनसे भी भिन्न जो पापकर्म करने में परायण होते हैं, गाय की हत्या करनेवाले होते हैं, और जो चोर - परधनहरण करनेवाले - होते हैं वे सब निषाद स्वरवाले होते हैं- ऐसा जानना चाहिये ॥ ॥ १४ ॥ ॥ - ** अब सूत्रकार इन स्वरों के ग्रामों का और एक २ स्वर की मूच्र्छना का कथन करते हैं - इन सात स्वरों के तीन ग्राम कहे गये हैं- जैसेषड्ज ग्राम १ मध्यम ग्राम २ और गान्धार ग्राम ३. इनमें षड्ज ग्राम की सात मूच्र्छनाएँ कही गई है - जैसे-मङ्गी १, कचौरिया २, हरि ३, रजनी ४, सारकान्ता ५, सारसी ६ और शुद्ध षड़ज ७ ॥ १५ ॥ मध्यम ग्राम की सात मूर्छनाएँ इस प्रकार से है - उत्तरमन्दा १ रजनी २ उत्तरा ३ उत्तरासमा ४, समवक्रान्ता ५ सौवीरा ६ और अभीरु ७ ॥ १६ ॥ નિષાદ સ્વરવાળા મનુષ્યેા ચાંડાલ હાય છે—ભયંકરમાં ભય`કર કૃત્ય કર नारा होय छे, भौष्टिक ( भुट्ठी वडे अडार ४२नाश ) होय छे, सेय ( अधम'तिना) होय छे, तेयो लत लतना पायाभ ४श्वासां पराया होय छे,ગૌહત્યા કરનારા હૈય છે, અને પારકાના ધનનું અપહેરણુ કરનારા ચાર હાય છે. હવે સૂત્રકાર આ સ્વરાના ગ્રામનું અને પ્રત્યેક સ્વરની સૂનાનુ निश्याथुरे छे , या सात स्वरोमा नाम नीचे प्रमाणे छे – (१) पंडून ग्राम, (2) मध्यम ग्राभ भने (3) जान्धार ग्राम. षडून ग्रामनी सात भूछना अडी छे – (१) भग, (२) भैरवीया, (3) हरि, (४) २०४ जी, (3) सारान्ता, (१) सारसी अने (७) शुद्ध षड्ल. મધ્યમ ગ્રામની સાત મૂર્ચ્છનાઓ નીચે પ્રમાણે છે—(૧) ઉત્તરમન્દા, (२). २०४नी, (3), उत्तरा, (४) उत्तरासभा, (4) सभवान्ता, (९) सौवीरा मने (७) अलीरु. Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थाना इत्यन्तेन सन्दर्भेण । व्याख्या स्पष्टां । अत्र पुराणमुनि व्याख्यातगाथाद्वयमेत्रमस्तिः तथाहि 66 सज्जा तिही गामो ससमूहो मुच्छणाण विन्नेओ । ता सत्त एकमेक्के, तो सत्तसराण इगवीसा ॥ १ ॥ अन्नन्न सरविसेसे, उपायंतस्स मुच्छणा भणिया । कत्ता व मुच्छिओ इत्र, कुणइ, सुच्छंत्र सोबत्ति ॥ २ ॥ छाया -- पड्जादिखिधा ग्रामः स समूहो मूर्च्छनानां विज्ञेयः । 17 ताः सप्त एकैकस्मिन् ततः सप्तस्वराणाम् एकविंशतिः ॥ १ ॥ अन्यान्यस्वरविशेषान् उत्पादयतो मूर्च्छना भणिताः । कर्त्ता वा मूर्च्छित इव करोति मूर्च्छन्निव स वेति ॥ २ ॥ अयं भावः - मूर्च्छनानां स समूह: मूच्र्छना समूहसहितः पडूजादिस्त्रिधा ग्रामो विज्ञेयः । एकैकस्मिन् ग्रामे तु सप्त सप्तमूच्र्छना भवन्ति । ततः सप्तस्वराणाम् अन्यान्यस्वरविशेषान् उत्पादयतो गायकस्य एकविंशति मूर्च्छना भणिताः । गान्धार ग्राम की सात मूर्च्छनाएँ कही गई है - जैसे- नन्दी १ क्षुद्रिका २ पूरिमा ३, शुद्ध गान्धारा ४ उत्तर गान्धारा ५ ॥ १७ ॥ सुष्टुतरायामा ६, और उत्तरायत्ता कोटिमा ७ ॥ १८ ॥ यहां पुराने मुनियो द्वारा व्याख्यात गाथा द्वय इस प्रकार से हैंजातिहा गामों " इत्यादि । 46 मूर्च्छनाओं का समूह सहित षड्जादि ग्राम तीन प्रकार का कहा गया हैं, एक २ ग्राम में सात २ सूर्च्छनाएँ होती हैं । इस तरह तीन ग्रामों की कुल मूर्च्छना २१ होती हैं अर्थात् सात स्वरों के अन्य २ स्वर विशेषों को उत्पन्न करनेवाले गायक के वे २१ मूर्च्छनाएँ होती शान्धार ग्राभनी सात भूर्च्छनाओ नीचे प्रमाणे छे - (१) नन्ही, (२) क्षुद्रा, (3) यूरिया, (४) शुद्ध गान्धारा, (4) उत्तर गान्धारा, (९) सुष्ठु तरायाभा भने (७) उत्तरायत्ता- टिमा. અહીં પ્રાચીન મુનિએ દ્વારા વ્યાખ્યાત એ ગાથાએ નીચે પ્રમાણે છે. "" सज्ज इ तिहा गामो " इत्यादि મૂર્ચ્છનાઓના સમૂહ સહિત પદિ ગ્રામ ણુ પ્રકારના કહ્યા છે. પ્રત્યેક ગ્રામમાં સાત સાત સૂનાએ હોય છે. આ રીતે ત્રણે ત્રામેાની કુલ મૂર્ચ્છના ૨૧ થાય છે. એટલે કે સાત સ્વરાના અન્ય અન્ય સ્વરવિશેષાને ઉત્પન્ન કરનારા ગાયકમાં આ ૨૧ મૂર્ચ્છનાઓને સદૂભાવ હાય છે તેમને Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०७ ० १४ सप्तस्वरनिरूपणमू यतः कर्ता मूछित इस ताः करोति, अतस्ता मूर्छ ना उच्यन्ते, मूर्च्छन्निव वा की ताः करोतीति हेतोस्ता मूर्च्छना उच्यन्ते इति । भङ्गीप्रभृतीनामेकविंशवि मूछनानां स्वरविशेषाः पूर्वगते स्वरमाभृते भणिताः । इदानीं ते तद्विनिर्गतेभ्यो भरतादिनिर्मित शास्त्रेभ्यो विज्ञेया इति ॥ १५, १६, १७, १८ ॥ - एते सप्त स्वराः कुतो भवन्ति ? इत्यादि प्रश्न चतुष्टयं तदुत्तरं च पोच्यते'सत्तसरा को हवंति' इत्यादिना ' तिन्नि विगीयस्स अगारा' इत्यन्तेन सन्दर्भेण । एते पड्जादि सप्तस्वराः कुतः संभवन्ति-कुतः उत्पद्यन्ते ? (१) तथागेयस्य गीतस्य का योनयो-जातयो भवन्ति ? (२), तथा-गेयस्य कतिममयाःकियत्काल प्रमाणा उच्चासा भवन्ति ? (३), तथा-गेयस्य कति वाकियन्तो चा आकारा-आकृतयो भवन्ति ? (४) ॥ १९ ॥ इति चत्वारः प्रश्नाः । उत्तरयति-षड्जादयः सप्त स्वरा नामितो भवन्ति=जायन्ते (१) । गीतं च रुदितयो. हैं क्योंकि जो कर्ता होता है वह भूच्छित की तरह होकर इन्हें करता है-इसलिये भूच्छेनाएँ कही गई हैं। भंगी आदि २१ मूर्च्छनाओं के, स्वर विशेष पूर्व गत स्वर प्राकृत में कहे गये हैं, इस समय स्वर विशेष उस स्वर प्रामृत से विनिर्गत भरतादि निर्मित ग्रन्थों से जान लेना चाहिये, ये सात स्वर कहां से उत्पन्न होते हैं ? गेय-गीत को क्या २ जातियां हैं ? गेय के कितने काल प्रमाणवाले उच्छाल होते है ? गेय की कितनी आकृतियां होती हैं ? ॥ १९ ॥ इन गर प्रश्नों का उत्तर देते हुए सूत्रकार कहते हैं-क-षड्ज आदि जो सात स्वर हैं वे नाभि से उत्पन्न होते हैं । इस गीत का योनि रोदन है, अर्थात् गीत रोदन મૂર્છાના કહેવાનું કારણ એ છે કે જે કર્તા હોય છે તે મૂછિતના જે થઈને તે મૂછના કરતા હોય છે. મંગી આદિ ૨૧ મૂનાઓના સ્વરવિશેનું પૂર્વગત સ્વરપ્રાભરમાં પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે. તે સ્વરપ્રાતને આધારે રચાયેલા ભરતાદિ નિમિત ગ્રન્થોમાંથી આ સ્વર વિશેના વિષયમાં વિશેષ માહિતી મેળવી લેવી. - હવે સત્રકાર નીચેના ચાર પ્રકને ને ઉત્તર આપે છે–(૧) તે સાત स्१२ ज्यांथी अत्पन्न थाय छे ? (२) गेयना (तना) या ज्या छ ? (૩) ગેયના કેટલા કાળપ્રમાણવાળા ઉછૂવાસ હોય છે ? (૪) ગેયની કેટલી मातिमा (मा ) डाय छ । Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '६२४ • स्थानाङ्गो निकं-रुदितं योनिः समानरूपतया जाति यस्य तत्तथाविधं भवति । गीत रोदनसमानं भवतीत्यर्थः । (२) उच्छ्वासाश्च पादसमा भवन्ति । यावता समयेन वृत्तस्य पादः समाप्यते तावत्समया गीते उच्श्वासा भवन्तीत्यर्थः (३)। तथा गीतस्य आकाराश्च त्रयो भवन्ति ।। २० ॥ तानेवाह-आदिमृदुम् आदौ-प्रारम्भ मृहुँ गीतध्वनिम् आरममाणाः, मध्यकारे मध्यभागे समुद्वहन्त: महती गीतध्वनि कुर्वन्तः, च-पुन अवसाने अन्ते क्षययन्तः-गीतध्वनि मन्द्रीकुर्वन्तश्र गायका गीतं गायन्ति । अतो गाने स्त्रर आदौ मृदुः, मध्ये तारः, अन्ते च मन्द्रो भवति । ततश्च मृदुतारमन्द्रध्वनि रूपा स्वयआकारा गीतस्य विज्ञेया (४) इति॥२१॥ . सम्पति गीतस्य हेयोपादेयादिक 'छदोसे' इत्यादिना प्रदर्शयन् , सूत्र समापयति 'समत्तं सरमंडलं' इत्यन्तेन ग्रन्थेन । तथाहि-गीतेहि पदोपाः, के समान होता है । जितने समय में १ वृत समाप्त होता है उतने ही समय प्रमाण गीत में उच्छ्वास होते हैं । ॥ २० ॥ तथा-गीत के आकार तीन होतेहै-आदि में मृदु मध्यमें महान और अन्त में मन्द अर्थात् जय गायक (गानेवाला) गीत गातेहैं तब वे प्रारम्भ में मृदु गीतध्वनि से उसे प्रारम्भ करते हैं, मध्य में जोर की गीतध्वनि करते हैं और अन्त में फिर उसे मन्द्र ध्वनिसे समाप्त करते हैं। इस तरह गान में आदि में स्वर मृद होता है, मध्यमें स्वर तार होता है, और अन्तमें मन्द्र होता है । ये मृदु तार और मन्द्र स्वरही तीन आकार गीतके हैं-ऐसा जानना चाहिये ।। २१ ॥ अब सूत्रकार गीतके हेय उपादेय आदिका कथन " छद्दोसे" ષડજ આદિ જે સાત સ્વરે છે, તેઓ નાભિમાંથી ઉત્પન્ન થાય છે. આ ગીત રદન (રુદન) ને જેવું છે ય છે. જેટલા સમયમાં ૧ વૃત્ત સમાપ્ત. થાય છે એટલા જ સમયપ્રમાણ ઉવાસે ગીતમાં થાય છે. ગીતના આકાર ત્રણ હોય છે-અ દિમાં (પ્રાર) મૃદુ, મધ્યમાં મહાનું અને અને મન્દ્ર આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે જ્યારે ગાયક ગીત ગાય છે ત્યારે મૃદુ ગીત દવનિ વડે તેને પ્રારંભ કરે છે, મધ્યમાં માટે ગીતધ્વનિ કરે છે અને અનન્ત તેને મવનિથી સમાપ્ત કરે છે. આ રીતે ગીતના પ્રારંભકાળે સ્વર મૃદુ હે ય છે, મધ્યમાં સ્વર તાર (મોટે) હેય છે અને ગીતને અને સ્વર મન્દ્ર હોય છે. આ રીતે અહીં ગીતના આ પ્રમાણે આકાર બતાવવામાં આવ્યા, छे--(१) भृढ, (२) तार भने (3) भन्द्र २५२. वे सूत्रा तना ध्य, उपाय, मनु ४थन ४२ छ--" छहोसे" Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०७ सू० १४ सप्तस्वरनिरूपणम् ६२५ अष्ट गुणाः, त्रीणि वृत्तानि, द्वे भणिती च भवन्नि । यो जन एतान् ययावद् ज्ञास्यति, स एव सुशिक्षितः सन् रङ्गमध्ये-नाटयशालार्या गास्यति ॥ २२ ॥ तानेवाह-भीयं ' इत्यादिना-हे गायक ! गीतं गार्यश्च त्वं-भीतम्भ यपूर्वकं मा गाय-गानं मा कुरु, द्रत-त्वरितं च मा गाय, इस्वम् अल्पस्वरेण च मा गाय, उत्तालम्-उद्गना औचित्पादूचंगतस्तालो यत्र तत्-उत्तालम्-अतितालम् इत्यादि गाथा द्वारा प्रकट करते हैं-गीतमें छह दोष, आठ गुण, तीन वृत्त एवं दो भणतिर्ण होती हैं। जो मनुष्य इनका यथावत् ज्ञाता होगा वही सुशिक्षित गायक नाटयशालामें सफल गायकसिद्ध होता है ॥२२॥ ___ गीतके ये छ दोष हैं-० भात-जो गायक गीतको भयसे युक्त हुआ गाता है, वह गीतका भीत दोष है, इसलिये हे गायक ! तुम गीतको गाते समय डरो मत निडर होकर गाओ । द्रुत २-गीतका जल्दी २ गाना यह द्रुत दोष है, इसलिये गाते समय गीतको जल्दी २ नहीं गाना चाहिये गानेकी जैली पद्धति है, उस पद्धतिके अनुसारही गाना चाहिये २, गीतको जिस स्वरले गाना योग्य हो-यदि उस स्वरसे वह नहीं गाया जाते और इस्व स्वर से गाया जाये तो वह उसका दोष है, इसलिये हे गायक! तुम गीतको हस्व स्वरसे मत गाओ गीतको उत्ताल से गाना-जहां जितनी मात्रा ताल देना हो-उतनी मात्रामें वहां ताल ઇત્યાદિ ગાથા દ્વારા આ વિષય અહીં પ્રકટ કરવામાં આવ્યું છે--ગીતમાં ૬ દેષ, આઠ ગુણ, ત્રણ વૃત્ત અને બે ભણિતિઓ હોય છે જે મનુષ્ય તેમને સંપૂર્ણ જ્ઞાતા હોય છે, એ મનુષ્ય જ સુશિક્ષિત ગાયક નાટયશાલામાં સફલ ગાયક સિદ્ધ થાય છે ગીતના છ દેષ નીચે પ્રમાણે કહા છે--(૧) ભીત––ગાયક ભયથી ચક્ત થઈને જે ગીત ગાય છે, તે ગીતને ભીતરે ષયુક્ત ગીત કહે છે, તેથી હૈ ગાયક! તમે ગીત ગાતી વખતે નિડર બનીને ગાઓ. દ્રત--ગીતને જલદી જલ્દી ગાઈ નાખવું, તેને કૂતદેષ કહે છે. તેથી ગીત બહુ જલદી જલદી ગાવું જોઈએ નહીં, પરંતુ તેના ગાવાની જે પદ્ધતિ હોય તે પદ્ધતિ અનુસાર ગાવું જોઈએ . (૩) ગીતને જે સ્વરમાં ગાવાનું હોય તે સ્વરમાં જ તે ગીત ગાયકે ગાવું જોઈએ એટલે કે ગીતને દીર્ઘ સ્વરમાં ગાવાનું હોય તેને બદલે હવ સ્વરમાં ગાવામાં આવે તે તે દોષ ગણાય છે. તેથી હે ગાયક ! તમે ગીતને હસ્વ સ્વરે ગાશે નહીં, પરંતુ તમે ગીતને ઉત્તરાલમાં ગાઓ –એટલે કે જ્યાં જેટલી માત્રામાં તાલ દેવાતે હોય स्था-१९ Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थाना अवस्थानताल चेत्यर्थः, तथा मा गाय । तालस्तु कांस्यादि शब्दो वोध्यः । तयाकाकस्वरम्-काकस्य स्वर इव स्वरो यस्मिस्तत् काक स्वरम् श्लक्ष्णाश्रव्यस्वरमित्यर्थः, तथा मा गाय । अनुनासम् सानुनासिकं च मा गाय । यत एते गीतादयः पट् . गेयस्य दोषा भवन्तीति ।। २३ ।। इत्थं दोपानुक्त्वा गुणानाह-'पुन्नं ' इत्यादिना । पूर्णम्-यत्र गीते सर्वाः स्वरकला गायकैः प्रदश्यन्ते तत्र 'पूर्ण'-नामा गुणो मवति १। रक्तम्-गायको गीतरागेण रक्ताम्माविनः सन् यद् गीतं गायति तत्र 'रक्त'-नामा गुणो भवति २। अलङ्कृतम्-यत्र गाने गायकोऽन्यान्यस्फुटदो-कमती-बढती-ताल मत दो-कमती-बढनी ताल देना यह गीतका दोष है, कांसी आदिका जो शब्द है, वह नाल हैं । काक स्वरसे गानाअर्थात् जिस गीतमें काक के स्वर जैसा स्वर होता है-वह गीत काक स्वर गीत है, गीत में काक स्वरका होना गीत का दोष है। इसलिये- हे गायक ! तुम लक्षण अश्राव्य स्वरसे गीत मन गाओ। गीतको सानुनासिक (नाकमें) होकर गाना यह दोष है, इसलिये हे गायक ! गीतको सानुनासिक मत गाओ। इस प्रकारले ये भीतादिक दोष, गीतके हैं ॥२३॥ अब गीतके जो गुण है-वे इस प्रकार से हैं-यही बात सत्रकार "पूर्ण रक्तं च " इत्यादि छारा प्रकट करते हैं-जिस गीतमें समस्त स्वर कलाएँ गायको द्वारा दिखलाई जाती है वह गीत “पूर्ण" गुणवाला होता है १, गीत रागके भावित होता हुआ गायक जिस गीतकों ત્યાં તેટલી માત્રામાં જ તાલ દે-વધુ ઓછી માત્રામાં તાલ દેવે તે ગીતને દોષ ગાય છે. કાંસી (મંજીરા) આદિના સૂરને તાલ કહે છે, (૪) ગીતને કાકવરે ગાવું જોઈએ નહીં. જે ગીતમાં કાગડાના જે અવાજ નીકળે છે તે ગીતને કાકસ્વર ગીત કહે છે. (૫) ગીતને શ્લવણ (અશ્રાવ્ય) સ્વરે ગાવું એ પણ એક ષ ગણાય છે. હે ગાયક ! તું અશ્રાવ્ય–અસ્પષ્ટ સ્વરે ગીત ગાઈશ મા. (૬) ગીતને સાનુનાસિક સ્વરે ગાવું તે પણ એક દેષ ગણાય છે, તેથી તે ગાયક ! તું સાનુનાસિક સ્વરે ગીત ગાઈશ મા. આ પ્રમાણે ગીતના ભીતાદિક ૬ દેશે સમજવા. के सूत्र १२ गीतना मा गु! म ४२ छ " पूर्ण रक्तं च" त्याल. (૧) જે ગીતમાં ગાય દ્વારા સમસ્ત સ્વરકલાઓ બતાવવામાં આવે छ त भगतने पू' गुवाणु ४ छ. (૨) ગીતરાગથી ભાવિત થયેલો ગાયક જે ગીત ગાય છે તે ગીતને '२४ नाभना Yथी मत old छे. Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था० ७ सू० १४ सप्तस्वरनिरूपणम् દઉં शुभस्वरविशेषैर्गीतमलङ्करोति तत्र ' अलङ्कृत '-नामको गुणः ३। व्यक्तम्यत्र गाने गायकोऽक्षरान् स्वरांश्च स्फुटतयोच्चारयति तत्र 'व्यक्त'-नामा गुणः १। अविघुष्टम्-विक्रोशनमिव यद् विस्तर भवति, तद् विघुष्टमुच्यते यत्र विधुष्टं न भवति तत्र ' अविघुष्ट , नामागुणो बोध्यः ५। मधुरस्त्ररम्-मधुमत्तकोकिलकलकाकलीवत् यत्र गाने गायकस्य मधुरः स्वरो भवति तत्र 'मधुर' नामा गुणः ६। समम्-तालवंशस्रादि समनुगतो यत्र स्वरो भवति तत्र 'सम' नामको गुगः ७) सुललितम्-स्वरघोलना प्रकारेण शुद्धातिशयेन, शब्दस्पर्शनेन श्रोत्रेन्द्रियस्य सुखोत्पादनाद्वा ललतीव यत् तत् सुललितम्-सुकुमारमित्यर्थः । अयं च गेयस्याष्टमो गुणः ८। एते पूर्णादि मुललितान्ता अष्ट गुणा गेयस्य भवन्ति । गाता है, वह गीत रक्त नामक गुण ले अलंकृत होता है २, गायक जिस गीतको स्फुट स्वर विशेपासे अलंकृत करता हुआ गाता है, वह गीत अलंकृत गुणसे युक्त कहा गया है ३, जिस गीत को गायक गाने वाला अक्षरोंको एवं स्वरोको स्फुट रूपसे उच्चारित करता हुओगाताहै, वह गीत व्यक्त गुणवाला होताहै, जो गीत चिल्लाने की जैसी आवाजसे विस्वर हुआ होकर गानेवालेके द्वारा गाया जाताहै,वह नीत विघुष्ट कहलाताहै-जो विघुष्ट नहीं होताहै, वह अविघुष्ट गुणवाला भीत होताहै, जिस गीतमें मधुमत्त कोकिल की कलकाकली की तरह गायकका मधुर स्वर होना है, वह गीत सम गुणवाला कहा गया है, जो गीत स्वर घोलनाके प्रकारसे एवं स्पर्शन द्वारा श्रोत्रेन्द्रियको सुखोत्पादनले, कीडा जैली करता है, वह गीत सुललित है-तुझुमार है, यह गीतका आठवां गुण है, ये आठ । . (3) गाय रे तन युट (२५८ ) २१२विशेष! 43 म त शन ગાય છે તે ગીતને “અલંકૃત ” ગુણથી યુકત ગીત માનવામાં આવે છે. (४) सक्ष। मने २१शना शुट (२५) स्याणपूर गाय गीत गाय छे, ते तर '' गुगवाणु ४९ छे. (૫) જે ગીત ગાયક દ્વારા ચિચિયારી જેવા અવાજે વિરવર થઈને ગવાય છે તે ગીતને વિધષ્ટ કહે છે (6)२ गत विधष्ट डातुं नथी तर भविष्ट गुणुवागु छे. (૭) જે ગીત મસ્ત કેયેલના જેવા ગાયકના મધુર સ્વર વડે ગવાતું હોય છે તે ગીતને સમગુણાળું કહે છે. ' - (૮) જે ગીતમાં ઘુ ટાઈ ઘુંટાઈને સ્વર આવતે હેય, અને શબ્દના સ્પર્શ દ્વારા શ્રોત્રેન્દ્રિયને સુખ પ્રાપ્ત થતું હોય, જાણે કે સૂર કેઈ કીડા ખેલી રહ્યો હોય એવું અનુભવ જે ગીતમાં થતું હોય છે તે ગીતને સુલલિત Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२८ स्थानाने एतद्विरहितं गीतं तु गीतमेव न भवति, तत्तु गीताभासं विज्ञेयम् ॥ २४ ॥ इतोऽन्येऽपि गीतगुणाः सन्ति, तान् प्रदर्शयितुमाह-' उरकंठ' इत्यादि । च-पुनः उरकण्ठ शिरः प्रशस्तम्-उरकण्ठशिरसा द्वन्द्वः, ततः प्रशस्तेन सह तृतीयातत्पुरुषः। एवं च-उरःप्रशस्तम् , कण्ठप्रशस्तम् , शिरःप्रशस्तमिति पदत्रयं लभ्यते । तत्र-उरसि यदा विशालः स्वरो भवति तदा-उम्प्रशस्तं विज्ञेयम् । यदा च कण्ठे स्वरोवर्तितोऽतिरफुटितश्च तदा कण्ठप्रशस्तम् । यदा च शिरसि प्राप्तः स्वरः स चेदानुनासिक्य रहितस्तदा शिरःप्रशस्तम् । यद्वा-उर:-कण्ठशिरस्तु कफरहितेपु सत्सु यत् प्रशस्तं गीतं भानि, तत् उरकण्ठशिरःप्रशस्तम् । तथा-मृदुकगुण गीतके होते हैं । इन गुणोंसे रहित जो गीत होता है, वह वास्तविक रूपले गीत नहीं कहा गया है ।। २४ ॥ इनसे भी अतिरिक्त और भी गीतके गुण हैं-जो “उरकंठ" इत्यादि गाथा द्वारा प्रकट किये गये हैं जो गीत उरः प्रशस्त होता है-जब उर स्थानमें स्वर विशाल होता है, तब वह गीत उर प्रशस्त कहा जाना है, कण्ठप्रशस्त जय कण्ठमें स्वरवर्तित होता हुआ अति स्फुट होता है, तब वह गीतकंठ प्रशस्त कहा जाता है, शिरःप्रशस्त-जय शिरमें प्राप्त स्वर अनुनासिकसे रहित होता है, तब वह गीत शिरःप्रशस्त कहा जाता है, अथवा-जय उरः कंठ, शिर ये एकरहित होते हैं, तब उस समय गाये हुए गीतसे जो प्रशस्तता होती है, तब वह गीत क्रमशः उरःप्रशस्त कण्ठप्रशस्त एवं शिरःप्रशस्त कहलाता है, ऐसा जानना चाहिये " मृदुकरिभित. અથવા સુકુમાર ગીત કહે છે. આ પ્રમાણે ગીતના આઠ ગુણ સમજવા. આ ગુણથી રહિત જે ગીત હોય છે તેને ખરી રીતે તો ગીતજ કહી શકાય ना. ॥ सिवाय पर गीतना भी मने शुधे। ४छ. " उरकंठ" ઈત્યાદિ ગાથાઓ દ્વારા તે ગુણેને પ્રકટ કરવામાં આવ્યા છે - ત્યારે ઉરસ્થાનમાં સ્વર વિશાળ હોય છે, ત્યારે તે ગીતને ઉરઃ પ્રશસ્ત કહે છે. જયારે કંઠમાંથી નીકળતે સ્વર અતિ સ્કુટ હોય છે, ત્યારે તે ગીતને કંઠપ્રશસ્ત કહે છે. જ્યારે શિરમાં પ્રાપ્ત સ્વર અનુનાસિકથી રહિત હોય છે, ત્યારે તે ગીતને શિરપ્રશસ્ત કહે છે. અથવા-જ્યારે ઉર, કંઠ અને શિર, આ અંગે એક રહિત હોય છે, તે સમયે ગવાતા ગીતમાં જે પ્રશસ્તતા હોય છે, તે પ્રશસ્તતાવાળા ગીતને અનુક્રમે ઉર પ્રશસ્ત, કંઠ પ્રશસ્ત અને શિર પ્રશસ્ત કહે છે. Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुंघ/टोका स्था० ७ सू० १४ सप्तस्वरनिरूपणम् ६२९ रिभितपदबद्धम्-मृदुना= कोमलेन स्वरेण यद्गीयते तद् मृदुकम्, यत्र अक्षरे पु घोलनया संचरन् स्वरो रङ्गतीव तद् घोलनाबद्दल रिभितम्, पदवद्धम् = पदैः = गेयपदैः वद्धम् = विशिष्टरचनया रचितम् पदत्रयस्य कर्मधारयः । तथा च समतालप्रत्युत्क्षेपम् - तालः = हस्तताल समुत्थः शब्दः प्रत्युत्क्षेपः मृदङ्गकांस्यादीनां गीतोपकारकाणां ध्वनि, नर्तकी पद प्रक्षेपलक्षणो वा, समौ तालप्रत्युत्क्षेपौ यत्र तत् । तथा - सप्तस्वरली मरम् - सप्तस्वराः सीभरन्ति = अक्षरादिभिः समा भवन्ति यत्र तत् । एवंविधय गीतं गीयते तदेव स्रुगीतं भवति । इत्थं च उरः कण्ठशिरोविशुद्धत्वादयोऽपि गीतगुणा बोध्याः ॥ सप्तस्वरसीभरम्' इत्युक्तम्, तत्र सप्तस्वराः अन्यत्र अमुना प्रकारेणोक्ताः, तथाहि " अक्खरसमं १ पदसमं २ तालसमं ३ लयसमं च गहसमं ५ । नीससिओससियसमं ६ संचार समं ७ सरा सत्त ॥ १ ॥ " पदम् " जो गाना कोमल स्वरसे गाया जाता है, वह मृदुक है, जहाँ अक्षरों में घोलनासे संचार करता हुआ स्वर खेलता जैसा प्रतीत होता है, वह घोलना बहुल गीत रिभित है, जो विशिष्ट रचनावाले गेय पदों से बद्ध होता है, वह गेय पदबद्ध है, जिस गेयमें हस्त तालसे समुत्थ शब्दरूप ताल एवं गीतोपकारक मृदङ्ग कांसी आदिकों को ध्वनिरूप प्रत्युत्क्षेप अथवा नर्तकी का पद प्रक्षेपरूप प्रत्युत्क्षेप समान होते हैं वह गेय समनाल प्रत्युत्क्षेप है, जिस गेयमें अक्षरादिकों के साथ सात स्वर सम होते हैं - वह गेय ससस्वर सीभर है । इस प्रकार से ये गीतके रः विशुद्ध आदि गुण होते हैं ||२५|| मृदुकरिभितपदषद्धम् ” ने गायन अभज सूरे गवाय हे तेने भृ કહે છે. જ્યારે અક્ષરા ઘુટાવાને કારણે સૂર જાણે કે ક્રીડા કરતા હાય એવું લાગે છે, તે ગીતને રિક્ષિત ગીત કહે છે. જે ગીત વિશિષ્ટ રચનાવાળા ગેય પદા વડે બહુ હાય છે તે ગીતને પદ્મમદ્ધ કહે છે. જે ગીતમાં હાથને તાલ [તપકારક મૂદ્દગ, કાંસી આદિના ધ્વતિ રૂપ પ્રત્યેક્ષેપ અથવા નર્તકીના પદપ્રક્ષેપ રૂપ પ્રત્યેક્ષેપ સમાન હાય છે, તે ગેયને સમતાલ પ્રત્યુત્શેપ કહે તે છે. જે ગેપમાં (ગીતમાં) અક્ષરાદિની સાથે સાત સ્વર સમ હોય છે, शेयने ' सप्तस्वरसीलर' हे छे. 66 આ પ્રકારના ગુણાવાળું જે ગીત ગવાય છે તેને જ સુમીત કહે છે, આ પ્રકારના ગીતના ઉરવિશુદ્ધિ આદિ ગુણા કહ્યા છે. Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाङ्गसूत्रे દ छाया - अक्षरसमं १ पदसमं २ तालसमं ३ लयसमहसमम् ५ । निःश्वसितोच्छ्वसितसमं संचारसमं स्वराः सप्त ॥ १ ॥ इति । 1 | २ || अयमर्थः - अक्षरसमम्-यत्र दीर्घेऽक्षरे दीर्घः स्वरः क्रियते, हरवे ह्रस्वः, प्लुते लुतः, सानुनासिके सानुनासिकः, तदक्षरसमम् ||१|| पदसमम् - यत् पदं = गीतपदं यत्र स्वरे आनुपाति भवति तत्तत्रैव यदा गीयते तदा पदसमं भवति तालसमम् - यस्परस्पराभिद्दतहस्ततालस्वरानुसारिणा स्वरेण गीयते तत्तालसमम् ।।३।। लयसमम् श्रङ्गदाद्यन्यतममयेनाङ्गुलीकोशेन समाइते तन्त्र्यादौ स्वस्वरप्रकारः स लयः, तमनुसरता स्वरेण यद् गीयते तद् लयसमम् ||४|| ग्रहसमम् - प्रथमतो वंशतन्त्र्यादिभिः स्वरो गृहीतः स ग्रहः, तत्समेन स्वरेण अन्यत्र सात स्वर इस मकार से भी कहे गये हैं- जैसे - " अक्खर -' समं १ पदसमं " इत्यादि । जिस में दीर्घ अक्षर पर दीर्घ स्वर. हस्व अक्षर पर इस्त्र स्वर, अक्षर पर प्लुत स्वर एवं सोनुनासिक अक्षर पर सानुनासिक स्वर किया जाता है, वह अक्षरसम स्वर है, जो गीतपद जिस स्वरमें अनुगति होता है-गाने योग्य होता है, वह पदसम होता है, जो परस्पर अभिहन हस्तालके स्वर के अनुसारी स्वरसे गाया जाता है, वह तालसम है, शृंग बने हुए या लकड़ीके बने हुए किसी एक अङ्गुली कोश तन्त्री आदिके बजाने पर जो स्वर निकलता है, वह लय है, उस लघको अनुसरण करनेवाले स्वरसे जो गेय गाया जाता है, वह लयलम है ४. जो स्वर पहिले वंश तंत्री आदिले मिला लिया અન્યત્ર સાત સ્વર આ પ્રમાણે પશુ કહ્યા છે— " अक्खरसमं पदसमं " त्याहि (૧) જે ગેયમાં દર્દી અક્ષર પરીઘ્ર સ્વર, હસ્ત્ર અક્ષર પર હઁસ્વ સ્વર, દ્યુત અક્ષર પર ખ્રુત સ્વર, અને સાનુનાસિક અક્ષર પર સાનુનાસિક સ્વર કરાય છે તે અક્ષર સમસ્વર ગીત કહેવાય છે. (૨) જે ગીતપઢ જે સ્વરમાં અનુપાતિ ય છે ગાવા ચેાગ્ય હાય છે તે સ્વરમાં ગવાય તે તેને પદસમ કહે છે. f (૩) જે ગીત પરસ્પર અસિહત હસ્તતાલના સ્ત્રરાનુસારી સૂરે ગાવામાં આવે છે, તે ગીતને તાલસમ કહે છે. (૪) શિંગડામાંથી બનેલી અથવા લાકડાના બનેલા કાઇ એક અંગુલી કેશ વડે તંત્રી આદિને વગાડવાથી જે સ્વર નીકળે છે તેને લય કહે છે. તે લયનું અનુસરણ કરનારા સ્વરથી જે ગીત ગવાય છે તેને લયસમ કહે છે," Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था० ७ खू० १४ सप्तस्वरनिरूपणम् यद् गीयते तद् ग्रहसमम् ॥५॥ निःश्वसितोसितसमम्-निःश्वसितोच्छसित. मानमनतिक्रमेण यद् गेवं तद् निःश्वसितोमितसमम् ॥६॥ संचारसमम्वंशतन्त्र्यादिष्वेव अङ्गुली संचारसमं यद् गीयते तत् संचारसमम् ।७॥ एवमेते सप्त स्वरा भवन्ति । अत्रेदं बोध्यम्-एकोऽपि गीतस्वरोऽक्षरपदादिभिः सप्तभिः स्थानः सह सपत्वं प्रतिपद्यमानः सप्तविधत्तं भजते, अतोऽध्यरसमादयः सप्तस्वरा भरन्तीति। अत्र तु सूत्रोपान्ते 'तन्तिमम तालसम' इति गाथया सप्तस्वरा उच्यन्ते इति बोध्यम् । तथा-गीते यः सूत्रवन्धः सोऽघटगुण एव कर्तव्य इति तानाइ- निदोसं' इत्यादि-निर्देषिम्=' अलियमुबघायजणयं.' जाता है-और बादमें फिर उसी स्वर जैले स्वरसे. जो गाना गाया जाना है, वह ग्रहसम है। निश्वास उच्छासके प्रमाणको उल्लंघन नहीं करके जो गेय गाया जाता है, वह नि:श्वसितोच्छ्वसितसमहै ६ । वातन्त्री आदिके ऊपरही अंशुलीको फेरने के साथ २ जो गाना गाया जाता है, वह संचारसम्म है ७ । इस प्रकारसे ये सात स्वर होते हैं। यहां यह समझना चाहिये-एक भी गीत स्वर अक्षर पद आदि सात स्थानोंके साथ समताको पाता हुआ सप्त प्रकारताको प्राप्त होता है, इसलिये अक्षसम आदि सात स्वर कहे गये हैं। यहां सूत्रके उपान्त में "तन्तिसमं तालसम" इस गाथा छारा तो सात स्वर कहे गये हैं। तथागीतमें जो सनयन्छ है, वह आठ गुणोंधालाही करने के योग्य हैवे आठ गुण “निहोसं" इत्यादि गाथा द्वारा इस प्रकार से प्रकट किये (૫) જે સ્વર પહેલાં વાંસની વાંસળી આદિ સાથે મેળવી લેવામાં આવે છે, અને ત્યાર બાદ તે સ્વર જેવા જ સ્વર વડે જે ગીત ગવાય છે, તેને હસમ ગીત કહે છે. (૬) નિઃશ્વાસ ઉચ્છવાસના પ્રમાણનું ઉલ્લંઘન કર્યા વિના જે ગીત ગવાય છે તેને “નિ સિતેચ્છવસિત સમ” કહે છે. (૭) વાંસળી આદિ વાદ્યો પર આંગળીનું સ ચરણ કરીને જે ગીત ગવાય છે તેને સંચરણસમ કહે છે. આ પ્રકારના આ સાત વર હોય છે. અહીં એવું સમજવું જોઈએ કે કઈ પણ ગીત સ્વર, અક્ષર, પદ આદિ સાત સ્થાનની સાથે સમતાને પામતું થયુ સસપ્રકારતા પ્રાપ્ત કરે છે. તેથી मक्षरसम मा सात प्रारना २१२। ४ा छे. मी सूत्रने पाते "तन्तिसमं तालसमं" माथा द्वारा सात २३२ ४ामा माव्या छ. તથા ગીતમાં જે સૂત્રળ હોય છે તે આઠ ગુણવાળો હોય છે. તે मा गुर। “निहोखं" त्याहि था द्वारा 21 प्रभा ट ४२पामां આગ્યા છે– Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ દરર स्थानाङ्गसूत्रे इत्यादि द्वात्रिंशदोपरहितम् १, सारवत्-विशिष्टयुक्तम् २, हेतुयुक्तम्-गीता. नामर्थबोधोऽनायासेन श्रोतृणां भवतिति हेतुमुपलक्ष्य यद् रचितं गीतं तत्, प्रसादगुणयुक्त मित्यर्थः ३, अलङ्कृतम्-उपमाद्यलङ्कारयुक्तम् ४, उपनीतम्= उपनयनिगमनयुक्तम्-उपसंहार - युक्तमित्यर्थः ५, सोपचारम्-क्लिष्टविरुद्धलज्जास्पदार्थावाचकं सानुप्रास वा गीतम् ६, मितम् -अतिवचनविस्तररहितसंक्षिप्ताक्षरमित्यर्थः ७, तथा-मधुरम्-माधुर्यगुणसमन्वितम् - सुश्राव्यशब्दार्थ. गये हैं-" अलियनुवघायजणयं" के अनुसार जो गीत ३२ दोषोंसे रहित होता है, वह निदेष गुग वाला गीन है, जो गीत विशिष्ट अर्थसे युत होना है, वह "सारवत्" गुणवाला गीन है, जो गीत इस अभि. प्रायले कि श्रोताओं को गीनका अर्थज्ञान सरलनासे हो जाय रचा जाता है, ऐसा वह प्रसाद गुणयुक्त गीत हे तुयुक्त गीत है, जो गीन उपमा आदि अलंकारोंसे युक्त होता है, वह अल कृत गीन है, जो गीत उप नय और निगमनसे युक्त होता है, वह उपनीत गीत है। उपनय और निगमनसे यहां उपसंहार अर्थ किया गया है। जो गीत क्लिष्ट __ अर्थका विरुद्ध अर्थका और लज्जास्पद अर्थका वाचक नहीं होता है, वह अयका अनुमास युक्त जो गीन होता है, वह सोपचार गीत हैजो गीत अनिवचनके विस्तारसे रहित है-अर्थात् संक्षिप्त अक्षरोंसे होता है, वह मित गीत है-जो गीत माधुर्य गुगले युक्त होता है, वह " अलियमुबघायजणयं " मा ४थन अनुसा२ रे जी1 ३२ हाथी રહિત હોય છે તેને નિર્દોષ ગુણવાળું ગીત કહે છે જે ગીત વિશિષ્ટ અર્થથી युत ड य छ तर " सारवत् ” सा२युत गुवाणु गी1 3 छे श्रोतायाने ગીતના અર્થનું જ્ઞાન સરળતાથી પ્રાપ્ત થઈ જાય, એવા હેતુપૂર્વક રચાયેલા પ્રસાદગુણયુક્ત ગીતને હેતુયુક્ત ગીત કહે છે જે ગીત ઉપમા આવિ અલંગ કારથી યુક્ત હોય છે તેને અલંકૃત ગીત કહે છે. જે ગીત ઉપનય અને નિગમનથી યુક્ત હોય છે તેને ઉપનીત ગીત કહે છે. ઉપનય અને નિગ. મનને અર્થ અહીં ઉપસંહાર લેવામાં આવ્યા છે. જે ગીત કિલષ્ટ અર્થને, વિરુદ્ધ અર્થનું અને લજજાસ્પદ અર્થનું વાચક હોતું નથી, તેને સોપચાર ગીત હે છે અથવા અનુપ્રાસયુક્ત જે ગીત હોય છે તેને પચા૨ ગીત કહે છે. ર ગીત અતિવચનથી (નકામા વિસ્તારથી) રહિત હોય છે એટલે કે સ ક્ષિપ્ત - અક્ષરવાળું જે ગીત હોય છે તેને મિતગીત કહે છે. જે ગીત માધુર્ય ગુણથી Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधाटीका स्था० ७ सू० १४ सप्तस्वरनिरूपणम् . मित्यर्थः ८, एतादृशं यद्वीतं तदेव गानयोग्यं भवति ।।२६।। अथ यदुक्तं 'त्रीणि वृत्तानीति तान्याह- सम० ' इत्यादि । यत्र वृत्ते चतुर्ध्वपि चरणेषु समान्यक्षराणि भवन्ति तद्वृत्तं समम् १, यत्र वृत्ते प्रथमतृतीययोद्वितीयचतुर्थयोश्च चरणयोः समान्याक्षराणि भान्ति तदर्धेसमम् २, तथा-यत्र वृत्ते सर्वत्र चतुर्दपि चरणेषु अक्षराणां वैषम्यं भवति तत्तं विषमम् । एते त्रय एवं वृत्तप्रकारा भवन्ति, चतुर्थ वृत्तं तु नोपलभ्यते॥२७॥ तथा-भणितया भाषा. संस्कृताः माक्रवाश्च द्विविधाःद्विप्रकारा एव आख्याता. 3काः । एताः ऋपिभाषिताः, अतएव प्रशस्ताः भाषा वोध्याः । अतएव एताः स्वरमण्डले पङ्जादि रूबर समूहे गीयन्ते ॥२८॥ अत्र गीत मधुर गुग युक्त है, एता जो गीत होता है वही गाने के योग्य होता है।॥ २६ ॥ जो ३ वृत्त कहे गये हैं वे इस प्रज्ञारसे हैं-जिस वृत्तमें चारों चरणों में-समान अक्षर होते हैं-ऐसा वह वृत्त समवृत्त कहा गया है, जिस वृत्तमें प्रथम और तृतीय चरणों में एवं हित्तीय और चतुर्थ चरणों में समान अक्षर होते हैं, वह अर्ध समवृत्त है, जिस वृत्तमें चारों चरणों में अक्षरोंको विषमता रहती है, वह वृत्त विषमवृत्त है, ये तीनही वृत्तके प्रकार होते हैं-चौथा वृत्त उपलब्ध नहीं होता है। ॥२७॥ भणिति दो प्रकारकी होती है-भणिति शब्दका अर्थ भाषा है, संस्कृत भाषा और प्राकृत भाषा ये दोनों भाषाएं ऋषियों द्वारा कही गई हैं-इसलिये थे भापाएँ प्रशस्त भाषाएँ हैं । इसलिये ये षड्ज आदि स्वरसमूहके बीच में गाई जाती हैं ।। २८॥ યુક્ત હોય છે તેને મધુરગીત કહે છે. આ આઠ ગુણોથી યુક્ત જે ગીત હોય छ, कसे वान ये.ज्य हाय छे. . હવે વૃત્તના ત્રણ પ્રકાર પ્રકટ કરવામાં આવે છે– (૧) સમવૃત્ત–જે વૃત્તમાં ચારે ચરણોમાં સમાન અક્ષરે હોય છે તે વૃત્તને સમવૃત્ત કહે છે. (૨) અર્ધસમવૃત્ત—જે વૃત્તમાં પહેલા અને ત્રીજા ચરણમાં અને બીજા અને ચેથા ચરણમાં સમાન અક્ષરો હોય છે તે વૃત્તને અર્ધસ પ્રવૃત્ત કહે છે (૩) વિષમવૃત્ત–જે વૃત્તના ચારે ચરણેમાં અક્ષરેની સંખ્યા વિષમ (અસમાન) હોય છે તે વૃત્તને વિષમવૃત્ત કહે છે. વૃત્તના આ પ્રમાણે ત્રણ પ્રકાર છે. ભણિતિ એટલે ભાષા. તે ભણિતિના બે પ્રકાર કહ્યા છે—(૧) સંસ્કૃત ભાષા, અને (૨) પ્રાકૃત ભાષા. આ બને ભાષાઓ ઋષિઓ દ્વારા કહેવામાં આવી હોવાને લીધે પ્રશસ્ત છે તે કારણે તેમને ષડૂજ આદિ સ્વર સમૂહોમાં स्था-८० Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानासूत्रे गीयमाना एकोनपञ्चाशदेव ताना भवन्ति । इत्थमिदं स्वरमण्डलं समाप्तम्= सम्पूर्णम् ॥३२॥ इति स्वरमण्डलं समाप्तम् ॥ १० १४ ॥ '' पाने हि कायक्लेशो भाति, स च लौकिकः कायक्लेशः, स पूर्वमूत्र मोक्तः, अधुना लोकोतरं कायक्लेशमाह1. मूलम्-सत्तविहे कायकिलेले पण्णत्ते, तं जहा-ठाणाइए १. उपकुडयासणिए २ पडिमठाई ३, वीरासणिए ४ णेसज्जिए ५, दंडाइए ६, लगंडसाई ७॥ सू० १५ ॥ ' छाया-सप्तविधः कायक्लेशः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-स्थानातिनः १, उत्कुटुकासनिकः २, प्रतिमास्थायो ३, वीरासनिकः ४, नैपधिका ५, दण्डायतिकः ६, लग एंडशायी ७ ॥ सू० १५ ॥ __ टीका-‘सत्तविहे ' इत्यादि , कायक्लेशः-कायस्य-शरीररय क्लेशः खेदः-वाचतपोविशेषः सप्तविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-रथानातिगः-स्थानकायोत्सर्गादिकमतिशयेन गच्छतीति स्थानावीणा अथवा तीन तन्त्रि कावाली वीणामें कण्ठसे भी गाई जाती ताने ४९ ही होती हैं ॥ ३२ ॥ । इस तरह से यह स्वरमण्डल समाप्त हुआ ।। सूत्र १४ ॥ गान में जो कायक्लेश होता है, वह लौकिक कायक्लेश होता है, • और यह लौकिक कायरलेश इस पूर्व के सूत्र में प्रकरही किया जा चुका है-अतः अब जो लोकोत्तर कायक्लेश है उसे सूत्रकार प्रकट करते हैं "सत्तविहे कायफिलेसे पाणत्ते" इत्यादि । सूत्र ॥ १५ ॥ टोकार्थ-बायतपो विशेवरूप जो कायक्लेशहै-वह सात प्रकारका कहा गया है, जैसे स्थानातिग १ कायोत्सर्ग आदिरूप स्थानको जो अच्छी ત્રણ તારવાળી વીણામાં ગવાતાં તાન ૪૯ જ અને કંઠથી ગવાતાં તાન પણ ૪છે આ પ્રકારે વરમંડળનું નિરૂપણ અહીં કરવામાં આવ્યું છે કે સૂ. ૧૪ - ગાયનમાં જે કાયકલેશ થાય છે તેને લૌકિક કાયકલેશ કહી શકાય. તે લૌકિક કાયકલેશનું નિરૂપણ આગલા સૂત્રમાં કરવામાં આવ્યું છે. હવે સ્વકાર કેત્તર કાયકલેશનું નિરૂપણ કરે છે. “सत्तविहे कायकिलेसे पण्णत्ते " त्यालટીકાર્થ–બાહ્ય તાપવિશેષ રૂપ જે કાયકલેશ છે તેના સ્થાનાતિગ આદિ સાત પ્રકારે કહ્યા છે. કાર્યોત્સર્ગ આદિ રૂપ સ્થાનની જે સમ્યફ રીતે આરાધના કરે છે તેમને Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुघाटीका स्था० ७ सू० १५ लोकोत्तरकायक्लेशनिरूपणम् ૬૭ तिगा - कायोत्सर्गकारीत्यर्थः । कायक्लेशे निर्देश्ये कायक्लेशवतो निर्देशो धर्मधर्मिणोरभेदोपचाराद् बोध्यः । एवमग्रेऽपि । ' स्थानातिद:' इतिच्छायापक्षेस्थानमति ददातीति विग्रदः । ' स्थानायतिकः ' इतिच्छाया पक्षे तु स्थानार्थम् आयतिः-आ-समन्ताद् यतिः यत्नो यस्य स तथा । अर्थस्तूभयत्र कायोत्सकारीत्येव ॥१॥ उत्कुटुका सनिकः - उत्कुटुका सनम् = पुतस्य भूमावलगनेन उपवेशनम्, तत् अस्त्यस्येति - उत्कुटुकासनिकः ||२|| प्रतिमास्थायी भिक्षुप्रतिमाकारी ||३|| वीरासनिकः - वीरासनम् = निरालम्बेऽपि सिंहासनोपविष्टवद् भून्यस्त तरहसे करता है-ऐसा कायोत्सर्गकारी स्थांनातिग है, यहाँ यद्यपि कायक्लेश निर्देश्य है, परन्तु कायक्लेशवालेका जो निर्देश्य किया गया है, वह धर्म और धर्मि अभेद उपचारसे किया गया है। इसी प्रकारका कथन आगे के सूत्रों में उत्कुटुकासनिक आदिकों में भी जानना चाहिये " ठाणाइए " की संस्कृत छाया जब स्थानातिगके बजाय स्थाना; तिद अथवा स्थानायति ऐसी होती है, तब वहां भी " कायोत्सर्ग कारी " ऐसाही अर्थ होता है " उत्कुडकासनिक " जिस बैठनेमें दोनों पुन जमीन पर नहीं लगते हैं, इस प्रकार से बैठना इसका नाम उकटुक यह उत्कुटुक जिसको होता है, यह उत्कुटुकासनिक है २ भिक्षु प्रतिमाका जो सेवन करनेवाला होता है, वह प्रतिमा स्थायी है, अर्थात् अभिग्रह में रहने वाला है आलम्बन के विना भी जो जमीन पर चरणोंको टेक कर बैठा जाता है, જે કાયલેશ સહન કરવા પડે છે તેને સ્થાનાતિગ કાયકલેશ કહે છે અહીં જો કે કાયકલેશને નિર્દેશ થયેલા છે છતાં પણ અહીં જે કાયકલેશવાળાના નિર્દેશ કરવામાં આવ્યે છે તે ધમ અને ધર્મીમાં અભેદ્યના ઉપચારની અપે ક્ષાએ કરવામાં આવ્યે છે. એ જ પ્રકારનું કથન ઉત્કટાસનિક આદિ પદોમાં પણ સમજવાનું છે, << "" ठाणा हुए આ પદની સ્`સ્કૃત છાયા ' स्थानातिग' ते महले ( સ્થાનાતિ ’અથવા “ સ્થાનાયતિક ” લેવામાં આવે તે પણ તેમને અથ "योत्सर्ग अरी " ४ थाय छे. " (२) उत्हुटुासनि४— ने आसनमां मन्ने चुत ( मुसा ) भीनने उडे નહીં એવી રીતે ઉભડક આસને બેસવામાં આવે છે તે આસનને ઉત્કટુક કહે છે. આ પ્રકારના આસને બેસનારના કાયકલેશને ઉત્કટ્ઠકાસનિક કાયકલેશ કહે છે. (૩) પ્રતિમાસ્થાયી—ભિક્ષુપ્રતિમાની આરાધના કરનારને પ્રતિમાસ્થાયી કહે છે. તેના કાયકલેશને પ્રતિમાસ્થાયી કાયકલેશ કહે છે. (૪) વીરાસનિક—— કોઈ પણ જાતના અવલ'ખત વિના, ચરાને ભૂમિ પર ટેકવીને જે આસને ر Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाङ्गो चरणं मुक्तनानुसमुपवेशनम् , तदस्त्यस्येति तथा ॥४॥ नैपधिका-निपया-प्रासन विशेषः, सा ममपादपुता १, गोनिपच्चा २, हस्तिशुण्डिका ३, पर्यङ्का ४, अर्धपर्यङ्का ५ । वेति पञ्चविधा, एतदर्थः पञ्चमस्थानस्य प्रथमोदो नवमसूत्रे द्रष्टव्यः । तया चश्चरति सः ॥ ५॥ दण्डायविका-पादानादि प्रलारणेन दण्डवत्याती ॥ ६॥ तथा-लगण्ड गायी-लगंडं चक्र काष्ठम्, तद्वच्छयनशीलः । अयं भावः-मस्तक पायर्यादिभागानां भूमिसम्बन्वेन पृष्ठस्य च तदसम्बन्धेन शयन शीलः ॥७॥ एने यद्यपि पूर्व पञ्चास्थानस्य प्रथमोगे व्याल्पातमायास्तथापि विने गानां सौकयार्थयत्रापि किंचिद् व्याख्यात इति ।। मू० १५ ॥ वह वीरासन है, इप्त वीरासन में बैठनेवालेका आकार कुसीके जैसी हो जाता है, यह आसन जिसको होताहै, वह वीरालनिक है, निषद्या नाम आसन विशेषका है, यह आमन विशेषरून निवद्या-समपाद पुता १' गोनियो २' हस्तिशुण्डिका '३' पर्या '४' और अर्ध पर्यटाके भेदसे ५१ पांच प्रकार की होती है, इनका अर्थ पंचम स्थान के प्रथम उद्देशमें नौवें मूत्र में देख लेना चाहिये. इस निजद्याले जो रहता है, वह नै अधिक है, दण्डायतिक-पादान आदिके पसारनेसे जो दण्डके समान हो जाना होता है यह दण्डायतिक है, लगण्डशायी-मस्तक और पापी आदि भागोंको भूमिमें लगाकर और पृष्ठ भागको भूमिमें नहीं लगाकर जो शयन करने के स्वभाववाला होता है, यह लगण्डशायी બેસવામાં આવે છે તે આસનનું નામ વીરાસન કહે છે. આ આસને બેસનારને આકાર ખુરશીના જેવો હેય છે. આ વીરાસનિકને જે કાયકલેશ થાય છે તેનું નામ વીરાસનિક કાયકલેશ છે. (૫) ધિક-નિવદ્યા એક આસન વિશેષનું નામ છે તેના નીચે प्रसाए पांय २ ४ा छ-(१) समपाता , (२) गानिपया, (3) स्तिઅંડિકા, (૪) પર્થક અને (૫) અર્ધપર્યક, આ પાંચે પ્રકારના આસન વિશેનું વર્ણન પાંચમાં સ્થાનના પહેલા ઉદ્દેશાના નવમાં સૂત્રમાં આપવામાં આવ્યું છે, તે ત્યાંથી વાંચી લેવું. આ નિપઘા રૂપ આસન વિશેષમાં બેસનારને વિવિક કહે છે. તે નેપકિને જે કાયકલેશ સહન કરે પડે છે તેને ૌધિક કાયકલેશ કહે છે. (૬) ડાયતિક–પાદાને ફેલાવવાથી જે દંડના જેવા આકારનું આસન થઈ જાય છે તે આસને બેસનારને દંડાથતિક કહે છે. તેને જે કાયકલેશ સહન કરવું પડે છે તેનું નામ દંડાથતિક કાયકલેશ છે. Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधाटीका स्था० ७ सू० १६ मनुष्यलोकवपधरपर्वतादिनिरूपणम् ६३९ पूर्वोक्तं कायक्लेशरूपं तपो मनुष्यलोके एव भवतीति मनुष्यलोकं, तत्र तान् वर्षधरपर्वतादी प्ररूपयति 7 मूलम् - जंबुद्दीवे दीवे सत्तवासा पण्णत्ता, तं जहा-भरहे १, एखए २, ए २, हेरन्नवर ४ हरिवासे ५, रम्मगवासे ६, महाविदेहे ७| जंबुद्दीवे दीवे सत्त वासहरपद्यया पण्णत्ता, तं जहा - चुल्ल हिमवंते १, महाहिमवंते २ निसढे ३, नीलवंते ४, रुप्पी ५, सिहरी ६ मंदरे ७| जंबुद्दीवे दीघे सत्त महानईओ पुरस्थाभिमुहाओ लवणसमुदं समप्पैति तं जहा - गंगा १ रोहिता २ हिरी ३ सीता ४ परकंता ५ सुवण्णकूला ६ रत्ता ७| जंबुद्दीवे द्दीने सत्त महानईओ पचत्थाभिमुहीओ लवणसमुहं समप्र्पति तं जहा - सिंधू १ रोहितंसा हरिकंता २३ सीतोदा नारीकंता ५४ रुपकूला ६ रत्तवई ७ ॥ १ ॥ धायइसंडदीवपुरत्थिमद्धे णं सत्तवासा पण्णचा, तं जहा - भरहे १ जाव महाविदेहे ७ | धायइसंडदीवपुरस्थिमद्धे णं सत्त वासहरहै, ये यद्यपि पहिले पंचम स्थान के प्रथम उद्देश में व्याख्यातप्राय हुए हैं - फिर भी यहां जो पुनः इन पर कुछ कुछ प्रकाश डाला गया है, वह शिष्धजनों को बोध होने के निमित्त डाला गया है | सूत्र १५ ॥ , (७) दाग उशायी—भस्त! भने भेडी सहि लागोने भूमि पर भा વીને અને પૃષ્ઠ ભાગના ભૂમિને સ્પર્શ ન થાય એવી રીતે શયન કરવાના જેના સ્વભાવ હાય છે, તેને લગડશાયી કહે છે તે લગડશાયીના કાયલેશને લગડશાયી કાયલેશ કહે છે. આ આસનેાનુ. પાંચમાં સ્થાનના પહેલા ઉદ્દેશામાં પ્રતિાદન થઇ ચૂકયુ છે, છતાં પણ હી તે આસને પર કરી જે પ્રકાશ પાડવામાં આવ્યા છે તે શિષ્યાને માધ આપવાને નિમિત્તે જ थाईवामां भाव्यी थे. ॥ सु. १५ ॥ Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४० स्थानागसूत्रे पचया पण्णता, तं जहा-चुल्लहिमवंते १, जान मंदरे । धायइसंडदीवपुरथिमद्धे णं खत्तमहानईओ पुरत्थाभिमुहीओ कालोयसमुदं समुप्पेंति, तं जहा-गंगा १ जाव रत्ता ७॥धायइसंडदीवपुरात्थानद्धे णं सत्त महानईओ पञ्चत्याभिमुहीओ लवणसमुई समप्यति, तं, जहा-सिंधू १ जाव रत्तवई ७॥ २ ॥ धायइसंडदीवपच्चथिमद्धे णं सत्त वासा एवं चेत्र, णवरंपुरस्थाभिमुहीओ लवणसमुहं लमप्पंति, एच्चस्थाभिमुहीओ कालोयं समुदं समऐति । सेसं तं चैव ॥ ३ ॥ पुक्खरवरदीडपुरस्थिमद्धे णं सत्त बासा तहेब, णवरं पुरस्थाभिमुहीओ पुक्खरोदं समुहं सषति पच्चत्थाभिमुहीमो कालोदं समुदं समप्पति । सेसं तं चेव ॥ ४॥ एवं पच्चस्थिमद्धे वि, णवरं पुरत्थाभिमुहीओ कालोदं ससुदं समस्येति । सवत्थ वासा वास. हरपचया णइओ य भाणियहा ॥ सू० १६॥ छाया--जम्बूद्वीपे द्वीपे सप्त वर्षाणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-भरतम् १, ऐरव: तम् २, हैमवतम् ३, हैरण्यवतम् ४, इरिवर्षम् ५, रम्पकवर्षम् ६, महाविदेहः - यह पूर्वक्ति कायक्लेशरूप तप मनुष्य लोकमें ही होता है, इसलिये अब स्वत्रकार मनुष्य लोककी और मनुष्यलोक गत वर्षधर पर्वत आदिकोंकी प्ररूपणा करते हैं--" जंबुदीवे दीवे सत्त वाला पण्णत्ता" सत्रार्थ-जम्बूद्वीप नामके छीपमें सात वर्ष क्षेत्र कहे गयेहैं-जैसे भरत क्षेत्र १, ऐस्वत क्षेत्र २, हैमवत क्षेत्र ३, हैरण्यवत क्षेत्र ४, हरिवर्प क्षेत्र ५, रख्यक આગલા સૂત્રમાં જે કાયાકલેશ રૂપ તવનું નિરૂપણ કર્યું તેને સદ્ભાવ સનરાકમાં જ હોય છે, તેથી હવે સૂત્રકાર મનુષ્યની અને મનુષ્યલોકના વર્ષધર પર્વતે આદિની પ્રરૂપણ કરે છે.' "जंदीवे दीवे सखवासा पण्णत्ता" त्यासूत्राय-मूद्वीप नामना द्वीपमा सात क्षेत्र ४ां छ-(१) मरतक्षेत्र, (२) रवतक्षेत्र, (3) भक्तक्षेत्र, (४) २७यक्तक्षेत्र, (५) शिवक्षेत्र, () Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधाटोका स्था० ७ ० १६ मनुष्यलोकवर्षधरपर्वतादिनिरूपणम् ६४१ ७। जम्बूद्वीपे द्वीपे सप्त वर्षधरपर्वता. प्राप्ताः, तद्यथा-क्षुद्रहिमवान् १, महाहिमवान् २, निषधः ३, नीलवान् ४, रुकमी ५, शिखरी ६. मन्दरः ७ जम्बू द्धीपे द्वीपे सप्त महानद्यः पूर्वाभिमुख्यो लवणसमुद्र समर्पयन्ति, तद्यथा-गङ्गा १, रोहिता २, हीः ३, सीता ४, नरकान्ता ५, सुवर्णकूला ६, रक्ता ७। जम्बुद्वीपे द्वीपे सप्त महानद्या, पश्चिमाभिमुख्यो लवणसमुद्रं समर्पयन्ति, तद्यथा-सिन्धुः १, वर्ष क्षेत्र ६, महाविदेह क्षेत्र ७, जम्बूद्वीपमें सात वर्ष घर पर्वत कहे गये हैं। जैसे-क्षुद्र हिमवान् १, महा हिसवान २, निषध ३, नीलवान '४, शिखरी ६, और मन्दर ७, जम्बूदीप नामके दीपमें सात महानदियां कही गई है जो पूर्वाभिमुखी होकर लवणसमुद्र में जाती हैं। जैसेसिन्धु १, रोहितांशा २, हरिका-ता ३, सीतोदा ४, नारीकान्ता ५, रुक्मकूला ६, और रक्ताबनी ७, पौरस्त्यार्द्ध धातकीखण्ड द्वीपमें सात वर्ष कहे गये हैं-जैसे-भरत याच महाविदेह पौरस्त्याई धोतकोखण्डे. द्वीपमें सात वर्षधर पर्वत कहे गये हैं-जैसे-क्षुद हिमवान १, महा हिमवान् २, निषध ३, नीलचात् ४, रुक्मी ५, शिखरी ६, पूर्व मन्दर ७, धातकी खण्ड द्वीपमें सात महानदियां पूर्वाभिमुखी होकर कालोदसमुद्र में जाती हैं-जैसे-गङ्गा १, रोहिता २, ही ३, सीता ४, नरकान्ता ५, सुवर्णकूला ६, रक्ता ७, पौरस्त्याई धातकीखण्डद्वीपमें सात महानदियां पश्चिमाभिमुखी होकर लवणलामुद्र में जाती हैं-जैसे-सिन्धु १, रोहितांशा २, રમ્યકર્ષક્ષેત્ર, અને (૭) મહાવિદેહક્ષેત્ર दी५मा सात वर्ष ५२ पता भावसा छ-(१) क्षुद्र भिवान् (२) माहिमवान (3) निषध, (४) नीवान (५) शिमरी, (6) भने भ४२ (७) જંબુદ્વીપમાં સાત મહાનદીઓ કહી છે, જે પૂર્વમાં વહીને લવણસમુद्रने भणे छ. तमना नाम सा प्रमाणे छे-(1) सिंधु, (२) शडितांशा, (3) डरिता , (४) सीता, (५) नारीral, (६) २भया भने (७) २४तावती ધાતકીખંડ દ્વીપના પૂર્વાર્ધમાં સાત વર્ષ ક્ષેત્ર કહ્યાં છે–ભરતથી લઈને મહાવિદેહ પર્યન્તના સાત ક્ષેત્રે અહીં ગ્રહણ કરવા. ધાતકીખડ દ્વિીપના धिमा सात वर्ष ५२ ५ मा छे-(१) क्षुद्र भिवान् (२) मडा भिवान (3) निषध, (४) नासपान (५) २४भी, (६) शिमरी मते (७) पू भन्४२. ધાતકીખંડ દ્વીપમાં સાત મહાનદીએ પૂર્વમાં વહીને કાલેદ સમુદ્રને न भणे . तमना नाम-(१) , (२) २॥हिता, (3)ी , (४) सीता (५) न२४न्ता, (६) सुवर्ण गने (७) २४ता पाता दीपन पूर्वाधना આ સાત મહાનદીઓ પશ્ચિમ તરફ વહીને લવણ સમુદ્રને જઈ મળે છે– स्था०-८१ Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानागसूत्रे रोहितांशा २, हरिकान्ता २, सीतोदा ४, नारीकान्ता ५, रुक्मकूला ६, रक्तावती ७ ॥१॥ धातकीखण्डद्वीपपौरस्त्याः खल्लु सप्त वर्षाणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथाभारतं १ यावद् महाविदेडः ७) धातकीखण्डद्वीपपौरस्त्याः सप्त वर्षधरपर्वताः • प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-शुदहिमवान् १ यावद् मन्दर ७) धातकीखण्डहीपपौरस्त्या? खलु सप्त महानद्यः पूर्वाभिमुख्यः कालोदसमुद्रं समर्पयन्ति, तद्यथा-गङ्गा १, यावद् रक्ता ७/ धातकीखण्डद्वीपपौरस्त्याः खलु सप्त महानद्यः पश्चिमाभिमुख्यः लवणसमुद्रं समर्पयन्ति, तद्यथा-सिन्धुः १, यावद् रक्तावती ७ धातकीखण्डद्वीपपाश्चात्याः खलु सप्त वर्षाणि एवमेव, नवरं पूर्वाभिमुख्यो ळवणसमुद्रं समर्पयन्ति, पश्चिमाभिमुख्यः कालोदं समुद्रं समर्पयन्ति । शेपं तदेव ॥३॥ पुष्करवरद्वीपाई. पौरस्त्याढ़े खलु सप्त वर्षाणि तथैव, नवरं पूर्वाभिमुख्यः पुष्करोदं समर्पयन्ति, हरिकान्ता ३, सीतोदा ४, नारीकान्ता ५, रुक्मकूला ६, रक्तावती ७, पाश्चात्याध धातकी खण्ड में सात वर्ष क्षेत्र-भरत क्षेत्र १, ऐश्वत क्षेत्र २, हैमवत क्षेत्र ३, हैरण्यवत क्षेत्र ४, हरि वर्ष क्षेत्र ५, रम्पकवर्षक्षेत्र ६, और महाविदेह क्षेत्र ७, कहे गये हैं-यहां जो पूर्वाभिमुखी सात नदियां हैं, वे लवण समुद्र में जातीहै, और जो पश्चिमाभिमुखी सात महानदियों हैं, वे कालोदसमुद्र में जाती है। बाफीका और सब कथन पूर्व जैसा ही जालना चाहिये पौरस्त्यार्थ पुष्करवरछीपार्धमें सात सात वर्ष पूर्वोक्त नामवाले ही कहे गये है, यहाँ जो पूर्वाभिमुखी नदियां हैं वे पुष्करोद. समुद्र में जाती हैं, और जो पश्चिमाभिनुस्खी नदिया ये कालोदसमुद्र में जाती है। बाकोका और सन कधन पूर्वोक्त जैसा ही है। इसी तरहका (१) सिंधु, (२) ।तिial, (3) Rsural, (४) सीना , (५) नारीal- (९) २मा मने (७) २४तावता. ધાતકીખંડ કપના પશ્ચિમાઈ માં નીચે પ્રમાણે સાત વર્ષ ક્ષેત્ર છે(१) मरतक्षेत्र, (२) मे२१त क्षेत्र, (3) मक्तक्षेत्र, (४) डै२५यक्तक्षेत्र, (५) (૯) રમ્યવર્ધક્ષેત્ર અને (૫) મહાવિદેહક્ષેત્ર. અહીં જે પૂર્વમાં વહેતી મહા નદીઓ કહી છે તે લવણરામુદ્રમાં જઈ મળે છે, અને પશ્ચિમ તરફ વહેતી સાત મહાનદી કાલેદ સમુદ્રમાં જઈ મળે છે. બાકીનું સમસ્ત કથન આગળના કથન પ્રમાણે સમજવું. પુષ્કરવરદ્વીપાધના પૂર્વ ભાગમાં સાત સાત વર્ષ ક્ષેત્રનાં નામે ઉપર પ્રમાણે જ સમજવા. અહીં જે મહાનદીઓ પૂર્વ તરફ વહે છે, તેઓ પુષ્કરેદ સમુદ્રમાં જઈ મળે છે અને જે મહાનદીઓ પશ્ચિમ તરફ વહે છે, તેઓ કાલેદ સમુદ્રમાં જઈ મળે છે. બાકીનું સમસ્ત કથન પૂર્વોક્ત કથન પ્રમાણે જ સમજી લેવું. એજ પ્રકારનું કથન તેના પશ્ચિમા Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०७ सू०१७ कुलकरादिनिरूपणम् पश्चिमाभिमुख्यः कालोदं समुद्रं समर्पयन्ति । शेषं तदेव ।।४॥ एवं पाश्चात्याःऽपि, नवरं पूर्वाभिमुख्यः कालोदं समुद्रं समर्पयन्ति, पश्चिमाभिमुख्यः पुष्करोदं समुद्र समर्पयन्ति । सर्वत्र वर्षाणि वर्षधरपर्वताः नद्यश्च भणितव्याः ॥ स० १६ ॥ टीका-'जंबुद्दीवे दीवे' इत्यादि। व्याख्या निगदसिद्धा । नवरं समर्पयन्ति, समुद्रे मिलन्तीत्यर्थः ।। स० १६ ॥ मनुष्यक्षेत्राधिकारात् सम्पति तत्सम्बन्धित्वेन अतीतायामुत्सपिण्याम् अस्यामबसपिण्यांच जाताना कुलकराणाम्, एतदवसर्पिणी समुत्पन्नकुलकरभार्याणाम्, आगमिष्यन्त्यामुत्सपिण्यां समुपत्स्यमानानां कुलकराणाम्, वृक्षाणां, नीतीनाम्, चक्रवर्ति सम्बन्धिनामेकेन्द्रियपश्चेन्द्रियरत्नान, दुषमासुपमालक्षणस्य च वक्तव्यतां चतुर्भिः सूत्रैराह मूलम्-जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे तीयाए उस्सप्पिणीए सत्त कुलगराहुत्था, तं जहा-सित्तदामे १ सुदामे २ य सुपासे ३ य सयंपो ४। विमलघोसे ५ सुघोसे ६ य, महाघोले ७ य सत्तमे ॥१॥ जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे इनीसे ओसप्पिणीए सत्त कुलगरा होत्था, तं जहा-पढमित्थविमलवाहण १ चखुभ २ जलमं ३ चउत्थमभिचंदे ४॥ तत्तो य पसेणई ५ पुण, मरुदेवे ६ चेवनाभी ७ य ॥ १॥ एएसिणं सत्तण्हं, . कुलगराणं सत्त मारियाओ हुत्था, तं. जहा-चंदजसा १ चंदकथन पाश्चात्या में भी जानना चाहिये. विशेषता यहां ऐसी हैं-कि जो यहां पूर्वाभिमुखी नदियां हैं, वे कालोदसमुद्र में जाती हैं, और जो पश्चिमामुखी नदियां हैं, वे पुष्करोदसमुद्र में जाती हैं। सर्वत्र वर्ष वर्षधर पर्वत, और नदियां कह लेना चाहिये "समर्पयन्ति" का अर्थ है समुद्र में मिलती हैं ॥ सू० १६ ।। વિષે પણ ગ્રહણ કરવું જોઈએ આ કથનમાં વિશેષતા એટલી જ છે કે અહીં પૂર્વ તરફ વહેતી નદીઓ કાલોદ સમુદ્રમા જઈ મળે છે અને પશ્ચિમ તરફ વહેતી નદીઓ પુષ્કરે સમુદ્રમાં જઈ મળે છે સર્વત્ર વર્ષ ક્ષેત્રો, વર્ષધર ५वत मने नही मार्नु ४थन नये. “ समर्पयन्ति " मा पहन। मथ " समुद्रने भगे छ," मेवा थाय छे. ॥ सू. १६ ॥ Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाङ्गसूत्रे कंता २ सुरूव ३ पडिरूष ४ चखुमंता ५ य । सिरिकंता ६ मरुदेवी ७, कुलगरइत्थीणनामाइं ॥ २ ॥ जंबुद्दीवे हीवे भारहे वासे आगमिस्साए उस्तप्पिणीए सत्त कुलगरा भविस्तंति, तं जहा-मियवाहण १ सुभोमे २ य सुप्पभे ३ य सयं. पभे ४॥ दत्ते ५ सुहमे ६ सुबंधू ७ य, आगमिस्लेश होस्सइ ॥ १॥ विमलवाहणे णं कुलगरे सत्रबिहा रुस्खा उवभोगत्ताए हवमागच्छिंसु, तं जहा-मन्तंगया १ य सिंगाय २ चित्तंगा ३ चेव हॉति चित्तरला ४। मणियंगा ५ य अणियणा ६ लत्तमगा कप्परुरखा ७ य ॥ १ ॥ सू० १७ ॥ छाया-जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे अतीतायां अरसपिण्यां सप्त कुलकराः अभवन, तद्यथा-मित्रदामा १, सुदामा २ च, सुपार्थश्च ३ रूपयम्प्रभः ४। विमलघोपः ५ सुघोपश्च मनुष्य क्षेत्रके अधिकारको लेकर अब रात्रकार मनुष्यक्षेत्र सम्बन्धी होने से अतीत उत्सर्पिणी में और इस अवसर्पिणीमें उत्पन्न हुए कुल. कसेकी, तथा इस अवसर्पिणी में उत्पन्न हुए कुलकरकी भार्याओंकी, तथा आगामी उत्सर्पिणीकालमें उत्पन्न होनेवाले कुलकरों की वृक्षोंकी, चक्रवर्ती सम्बन्धी नीतियोंकी, एकेन्द्रिय, एवं पंचेन्द्रिय रत्नोंकी, और दृषमा सुषमारूप काल की वक्तब्धता चार पत्रों द्वारा कहते हैं"जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे तीयाए उस्तप्पिणीए" इत्यादि सू० १७ ॥ सूत्रार्थ-जम्बूद्वीप नामके द्वीपमें भरतवर्षमें अतीत उत्सर्पिणीकालमें सात * મનુષ્યક્ષેત્રને અધિકાર ચાલી રહ્યો છે તેથી હવે સૂત્રકાર મનુષ્યક્ષેત્રમાં જેને સદભાવ છે એવા ભૂતકાલિન ઉત્સર્પિણમાં ઉત્પન્ન થયેલા અને આ અવસર્પિણમાં ઉત્પન્ન થયેલા કુલકરની તથા આ અવસર્પિણમાં ઉત્પન્ન થયેલી કુલકરની ભાર્થીઓની, તથા આગામી ઉત્સપિણુકાળમાં ઉત્પન્ન થનારા કુલ કરોની, વૃક્ષની, ચક્રવર્તી સંબધી નીતિઓની, એકેન્દ્રિય અને પંચેન્દ્રિય રત્નોની અને દુષમા સુષમાં રૂપ કાળની વક્તવ્યતાનું ચાર સૂત્રો દ્વારા નિરૂપણ ४रे छ." जवुद्दीवे दीवे भारहे वासे तीयाए उस्सग्पिणीए " त्याहસ્વાર્થ-જબૂઢીપ નામના દ્વીપના ભરતવર્ષમાં અતીત ઉત્સર્પિણીકાળમાં નીચે Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था० ७ सू० १७ कुलकरादिनिरूपणम् ६महाघोषश्च ७ सप्तम : १॥ जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे अस्यामवसपिण्याम् सप्त कुलकराः अभवन्न्, तद्यथा-प्रथमोऽत्र विमलवाहनः १ चक्षुष्मान् २ यशस्त्रान् ३, चतुर्थोऽभिचन्द्रः ४। ततश्च प्रसेनजित् ५ पुनमरुदेवश्चैव ६ नाभिश्च ७ ॥१॥ एतेषां खलु सप्तानां कुल कराणां सप्त भार्या अभवन्, तद्यथा-चन्द्रयशाः १, चन्द्रकान्ता २ सुरूपा ३, प्रतिरूपा ४ चक्षुःकान्ता ५ च । श्रीमान्ता ६ मरुदेवी ७ कुलकरस्त्रीणां नामानि ॥२॥ जम्बूद्धीपे द्वीपे भारते वर्षे आगमिष्यन्त्यामुत्सपिण्यां सप्त कुलकरा भविष्यन्ति, तद्यथा-मितवाहन. १ सुमोमश्च २ सुप्रभश्च ३ स्वयंप्रमः ४। दत्तः ५ सुक्ष्मः ६ मुबन्धुश्व ७'आगमिष्यति अविष्यति ॥१॥ विमलयाइने खलु कुलकरे सप्तविधा वृक्षा उपभोग्यतया हव्यमागच्छन् तद्यथा-मत्ताङ्गकाश्च १ कुलकर हुए हैं । जैसे-मित्रदाना १, सुदामा २, सुपावं ३, स्वयंप्रभ ४, विमलघोष ५, सुघोष ६, और सप्तम महाघोष ७।१।। ____ जम्बूद्वीपमें भरतवर्ष में इस अवसर्पिणीमें सात कुलकर हुए हैंजैसे-विमलवाहन १, चक्षुबमान २, यशस्वान् ३, अमिचन्द्र ४, प्रसेनजित ५, मरुदेव ६, और नाभि ७ इस सात कुलकरोंकी सात भार्याएँ हुई हैं-जिनके नाम इस प्रकार से हैं-चन्द्रयशा १, चन्द्रकान्ता २, सुरूपा ३, प्रतिरूपा ४, चक्षुकान्ता ५ श्रीकान्ता ६, एव मरुदेवी ७-२ जम्बूद्रोपमें भरतवर्षमें आगामी उत्सर्पिणी में सात कुलकर होंगेजिनके नाम इस प्रकार से हैं-मितवाहन १. सुभौम २, सुप्रभ ३, स्वयंप्रभ ४, दत्त ५, सूक्ष्म ६, और सुबन्धु ७, विमलवाहन कुलकरके होने पर सात प्रकार के वृक्ष उपभोग्य रूपसे काममें आये-जैसे-मत्ताङ्गक १, प्रमाणे सात दुसरे। 25 गया छ-(१) भित्रामा, (२) सुदामा, (3) सुपाश्व (४) २१य प्रस, (५) विसाष, (६) सुघोष मने (७) माघ।५. । १ । ' જબુદ્વીપના ભરતવર્ષમાં આ અવસર્પિણીકાળમાં સાત કુલકર થઈ गया छ तमना नाम मा प्रमाणे तi-(१) विभपान, (२) यशुमन, (3) यशान, (४) भनियन्द्र, (५) प्रसेनति (6) भरुव मन (७) नानि આ સાત કુલકરની સાત ભાર્થીઓનાં નામ આ પ્રમાણે હત–-(૧) ચદ્રયશા (२) यन्द्रान्ता, (3) सु३५।, (४) प्रति३५, (५) यक्षान्ता, (6) श्रीन्ता मन (७) भरवी. । २ । જ ખૂઢીપના ભરતવર્ષમાં આગામી ઉત્સપિકાળમાં આ સાત કુલકર थरी-(१) भितवाडन, (२) सुलोम, (3) सुप्रभ, (४) २१य प्रस, (५) इत्त (6) सूक्ष्म भने (७) सुमन्धु. વિમલવાડન કુલકરના સમયમાં સાત પ્રકારના વૃક્ષે લોકોને ઉપગ્ય રૂપે કામ આવ્યા. તે સાત પ્રકારનાં વૃક્ષનાં નામે આ પ્રમાણે સમજવા– Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૬૨ स्थानासूत्रे भृङ्गाश्व २ चित्राश्चैव ३ भवन्ति चित्ररसाः ४ | मन्यनाथ ५ अनग्नाथ ६ सप्तमकाः कक्षा ७ ।। १ । सू० १७ ॥ टीका-' जंबुद्दीवे दीवे इत्यादि 1 अतीतायामुसर्पिण्यांमध्यजम्बूद्वीपस्थ भारतवर्षे मित्रदामादयः सप्त कुलकराः = नीतिमर्यादाकराः अभवन् । वर्तमानायामवसर्पिण्यां जम्बूद्वीपस्थभारतवर्षे विमलवाहनादयः सप्तकुलकरा अभवन् । विमलवाहनादीनां कुलकराणां क्रमेण चन्द्रयशाः प्रभृतयः सप्त मार्या अभवन् । जम्बूद्वीपस्थभार ने वर्ष आगामिन्यामुत्समित्रानादयः सप्त कुरा भविष्यन्ति । तदाह- 'नियवाहणे सुभोमेय ' इत्यादिना | अर्थः स्पष्टः । नवरय्- ' आगनिस्सेग ' भागमिष्यति भविष्यति काले । तथा-लिवाहने प्रथम कुलकरे वर्तमाने सप्तप्रकारका वृक्षा उपभोग्य - तया = तात्कालिंकमनुष्याणां भोजनाद्युपभोगसंपादकतया इव्यमिति वाक्यालङ्कारे आगच्छन् = उदपयन्त तद्यथा - मत्ताङ्गकाः- मतं मदोन्हर्षेः, तत्कारणभूतः भृङ्ग २ चित्रा ३, चित्र ४, ५, अनग्न ६, और कल्पवृक्ष ७इसका ऐसा है कि अवीन उत्सर्पिणी में मध्य जम्बूद्वीप में स्थित भरतवर्ष में मित्राम आदि कुलकर नीतिमर्यादाके कर्ता हुए, जम्बूद्रीपत्र भरतवर्ष में वर्तमान अवसर्पिणीमें विमलवाहनादि ज्ञात कुलकर हुए विवाहनादिक कुलोंकी क्रमशः चन्द्रयश आदि सात भाषाएँ हुई हैं | जम्बूदीपस्थ भरतवर्ष में आगामी उत्सर्पिणी मित्रवाहनादिकसात कुलकर होंगे। प्रथम कुलकर विमलवाहनके रहने पर सात प्रकार के कल्पवृक्ष तात्कालिक मनुष्यों के भोजन आदि उपभोगके संपा दुक हुए सत्ताङ्गक हर्ष के कारणभूत पेय पदार्थ यहां मत्त शब्दसे गृहीत हुए हैं । अथवा-आनन्दजनक पेय वस्तु ही अवयव जिनका है, ऐसे (१) भत्तांग, (२) ऋण, (3) चित्रांग, (४) चित्ररस, (4) भएयांग, (६) અનગ્ન અને (૭) કલ્પવૃક્ષ આ સૂત્રેાને ભાવાથ નીચે પ્રમાણે છે નીતિમર્યાદાના સ્થાપનારને કુલકર કહે છે. અતીત ઉષિણીકાળમાં મધ્ય જ બુઢીપના ભરતવર્ષમાં મિત્રઢામ આદિ સાત કુલકશ થયા હતા. જબુદ્બીપના ભરત'માં વમાન અવસર્પિણીકાળમાં બિમલવાહન આદિ સાત લકરા થઈ ગયા છે. તે વિમલવાહન આદિ સાત કુલકરેાની સાત ભાર્યાં. એનાં નામ અનુક્રમે ચન્દ્રયશા વગેરે હતા જમૂદ્રીપમાં આવેલા ભરતવષ માં આગામી ઉત્સર્પિણીકાળમાં મિત્રવાહન આદિ સાત કુલકરા થશે વિમલવાડન કુલકરના કાળમા રહેતા લેાકેાને ભેાજના માટે ઉપયાગી એવાં સાત પ્રકારના કલ્પવૃક્ષેાની પ્રાપ્તિ થઇ, ઉપભાગને (१) सत्तांग-ज्ञानं न चेययह थे अहीं 'भत्त' यह वडे गृहीत થયા છે. અથવા આનંદદાયક પેય વસ્તુ જ જેમના અવયવ છે એવાં આન Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सुधा टीका स्वा० ७ सू० १७ कुलकरादिनिरूपणम् ૬૭ पेयपदार्थ इइ मत्तशब्देनोच्यते, तस्य अङ्गका = हेतुभूताः, अथवा मतं =शानन्दजनकं पेयवस्तु, तदेवाङ्गम् = अवयवो येषां ते तथा, आनन्दप्रदपेयपदार्थदायका'वृक्षा इत्यर्थः । भृङ्गाः भृारादिविविधपात्रदायका वृक्षविशेषा २ चित्राङ्गाः= विविधमाल्यसम्पादका वृक्षाः ३ चित्ररसाः - चित्रा : = मधुरादिभेदभिन्ना अनेक रूपा रसा येभ्यः समुपलभ्यन्ते तथाभूताः ४ । मण्यङ्गाः- मणीनाम् = मणिमयभूष णानाम् अङ्गभूताः = हेतुभूता मध्यङ्गाः, अथवा मणयोऽङ्गानि येषां ते तथा-मणि'मयभूषणदायकाः ५ | अनग्नाः = विविध वस्त्रदायकाः वृक्षाः । वस्त्रपदानेन जनानां नग्नपरिहरणात् अननेति संज्ञा बोध्या ६। तथा कल्पवृक्षाः उक्तव्यतिरिक्तानां सकलमनोरथानां पूरका सविशेषाः । एते सप्तापि कलरवृक्षा युगजनानामुपभोग'पूरकाः नामप्रथम कुलकरसमये प्रादुर्भूता इति विज्ञेयम् ॥ ० १७ ॥ आनन्ददायक पदार्थ देनेवाले जो वृक्ष हैं, वे माइक हैं । विविध Ahire भृङ्गर आदि पात्रोंके देनेवाले जो वृक्ष विशेष हैं, वे यहां भृङ्ग शब्द से लिये गये हैं । विविध माल्योंके सम्पादक जो वृक्ष विशेषहैं वे चित्राङ्ग शब्द से लिये गये हैं । मधुरादि भेदसे भिन्न अनेक रस जिनसे प्राप्त होते हैं वे यहां चित्र शब्दसे लिये गये हैं । मणिमय भूषणोंके जो कारण होते हैं के, अथवा मणिमय भूषणोंके देनेवाले जो होते हैं पे वृक्ष यहां मण्ङ्ग शब्द से लिये गये हैं । विविध वस्त्रोंके देनेवाले जो विविध वृक्ष हैं, वे अनग्न शब्द से लिये गये हैं । इनकी अनग्न ऐसी -संज्ञा इसलिये हुई है, कि ये वस्त्रोंके देनेसे मनुष्यों को दूर करते हैं । उक्त इन वृक्षोंसे भिन्न जो वृक्ष सकल मनोरथोंके पूरक होते हैं वे कल्पवृक्ष हैं। ये सात प्रकार के कल्पवृक्ष युग जनोंके उपभोगके દદાયક પદાર્થો ઉત્પન્ન કરનારા વૃક્ષાને મત્તાંગક કહે છે. (૨) ત્રિવિધ પ્રકા રના ભૃંગાર આદિ પાત્ર આપનારાં વૃક્ષાને ભૃવૃક્ષો કહે છે. (૩) વિધ માલાએ. જેમાંથી અને છે એવાં વૃક્ષોને ચિત્રાંગ વૃક્ષો કહે છે (૪) જે વૃક્ષો મધુરાદિ વિવિધ રસેના પ્રદાતા હૈાય છે તેમને ચિત્રરસ કહે છે. (૫) મિણું. મય ભૂષ@ામાં જે કારણભૂત હેાય છે તેમને, અથવા મણિમય ભૂષણા દેનારાં જે વૃક્ષો હાય છે તેમને અહીં મણ્યગ ” પદ વડે ગ્રહણ કરવામાં આન્યા છે (૬) વિવિધ વસ્ત્રો પ્રદાન કરનારા વૃક્ષેાને ગ્રહણ કરવામાં આવ્યા છે તેમને અનગ્ન કહેવાનુ કારણ એ છે કે તે મનુષ્યાને વસ્ત્રનું પ્રદાન કરીને તેમની નગ્નતાને ઢાંકવામાં મદદરૂપ બને છે. (७) ने वृक्षों सा मनोरथ पूर्ण पुरनारा होय छे. न्छित वस्तु आय નારાં હાય છે, તે વૃક્ષેાને કલ્પવૃક્ષો કહે છે. આ સાતે પ્રકારના કલ્પવૃક્ષે તે C ८ , અનગ્ન પદ દ્વારા Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाङ्गसूत्रे सत्यपि कुलकरेषु सत्यपराधे कस्यचिद् दण्डो भवति इति दण्डनीतिमाह - मूलम् — सत्तविहा दंडनीई पण्णत्ता, तं जहा - हकारे १, मक्कारे २, धिक्कारे ३, परिभासे ४, मंडलवंधे ५, चारए ६, छविच्छेए ७ ॥ सू० १८ ॥ छाया - सप्तविधा दण्डनीतिः मज्ञप्ता, तद्यथा-हकारी १, माकारो २, धिक्कारः ३ परिमापा ४, मण्डलबन्धः ५, चारकः ६ छविच्छेदः ७ ॥ म्रु० १८ ॥ टीका - सत्तविहा ' इत्यादि दण्डनीतिः - दण्डनम् - दण्ड : - अपराविनामनुशासनं, तत्र तस्य तद्रूपा वा नीतिः, दण्डनीतिः, मा सप्तविधा प्रज्ञता । तथथा - ठकारः - ' ढक् ' इत्यधिक्षेप :र्थः, पूरक होते है, सो ये सातोंही प्रकारके कल्पवृक्ष विमलवाहन नामके प्रथम कुलकरके समय उत्पन्न हुए कुकरों के मौजूद होने पर भी किसीसे अपराध हो जाता है, और उसका दण्ड दिया जाता है, अतः दण्ड नोति कहते हैं ॥ ० १७ ॥ 66 सत्तविहा दण्डनीई पण्णत्ता " इत्यादि ॥ ० १८ ॥ टीकार्थ- दण्डनीति सात प्रकारकी कही गई है। जैसे १ हक्कार, २ माकार, ३ धिक्कार, ४ परिभाषा, ५ मण्डलबन्ध, ६ चारक और छविच्छेद ७। अपराधियों को अनुशासित करना इसका नाम दण्ड है, दण्डकी, अथवा दण्डरूप जो नीति है, वह दण्डनीति है, यह दण्डनीति सात प्रकारकी जो पूर्वोक्त रूपसे कही गई है, सो उसका तात्पर्य ऐसा हैયુગના લેાકેાના ઉપભેગની સામગ્રી પૂરી પાડનારાં હતાં. આ સાતે પ્રકારના કલ્પવૃક્ષોની ઉત્પત્તિ વિમલવાહન નામના પહેલા કુલકરના સમયમાં થઈ હતી !! સૂ ૧૭ ॥ ૪૮ -- કુલકા મૌજૂદ ાય ત્યારે પણ કઈને કઈ થઈ જાય છે. અપરાધીને શિક્ષા કરવામાં આવે છે, नीतितुं स्थन पुरे छे." सत्तविहा दंडनीई पण्णत्ता उनीति ७ प्रहारनी उही छे – (१) " २, વ્યક્તિ દ્વારા અપરાધ તેથી હવે સૂત્રકાર ઈ त्याहि - ( सू १८ ) (२) आभ२, (३) धि२, (४) परिभाषा, (4) भडगन्ध, (६) या२४ भने (७) छवी. અપરાધીઓને શિક્ષા કરવી તેનું નામ દંડ છે. દંડમાં, દડની અથવા દડ રૂપ જે નીતિ છે, તેનું નામ દંડનીતિ છે. તે 'નીતિના હક્કાર આદ્દિ પૂર્વોક્ત સાત પ્રકાર કહ્યા છે. Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०७०१८ दण्डनीतिनिरूपणम् 1 • ६४९ तस्य करणं इकारः, अयं भावाथमद्वितीयकुलकरसमये कृतापराधस्य जनस्य दण्डो हकारमात्रमासीत् । तेनैवापराधको हृतसर्वस्वमित्र आत्मानं मन्यमानो नापरास्थाने पुनः वर्तते इति । १ । माकार:- माकरणं माकार:- ' माकुरु ' इति प्रतिषेधार्थकस्य वचनस्य उच्चारणम् । अयं दण्डस्तृतीयचतुर्थकुलकरकाले महत्य राधे वर्त्तते । सामान्यापरावे तु पूर्वोक्त एव दण्ड इति ॥ २ ॥ धिक्कार:धिगित्यधिक्षेपे, तस्य करण = कथनं धिक्कारः । पञ्चमषष्ठसप्तमकुलकरकाले महअधिक्षेप अर्थ में ह धातु है, इस हक्का करना सो हक्कार है, तात्पर्य यह है कि प्रथम द्वितीय कुलकरके समय जो मनुष्य अपराध करता था, उसके लिये हक्कार मात्र दण्ड था, इस दण्ड से ही वह अपने आपको सब कुछ हर लिया गया है, जिसका ऐसा मानता था और फिर वह अपराध नही करता था १ माकार २ " मा " ऐसा करना इसका नाम माकार है- मत करो इस प्रकार के प्रतिषेधक वचनका उच्चारण करना - सो माकार है, यह दण्ड चतुर्थ कुलकरके समय में बडे भारी अपराध के होने पर दिया जाता था सामान्य अपराध होने पर तो पूर्वोक्त हक्कार रूपही दण्ड दिया जाता था " धिम् " - यह शब्द अधिक्षेप अर्थमें आता है । धिक्कारका देना यह धिकार है, यह दण्ड पंचम और छठें तथा सातवें कुलकरके समय में बडे भारी अपराध हो जाने पर प्रचलितं (१) ३६४२ – " हक् ” ધાતુ અધિક્ષેપ અને વાચક છે આ હકૢ કરવા તેનું નામ હક્કાર છે. “ તમે આવું અનુચિત કાર્ય કર્યું !” આ પ્રકારે કહેવું તેનું નામ હક્ક રડે છે. પહેલ અને ખીજા કુલકરના સમયમાં અપ રાધીને હક્કાર દંડ જ દેવામાં આવતા હતા તે દંડને પાત્ર બનનાર વ્યક્તિને એવું લાગતું હતું કે જાણે તેનુ' સર્વસ્વ હરી લેવામાં આવ્યુ છે. આટલે જ દંડ સહન કરનાર વ્યક્તિ ફરી અપરાધ કરવાની હિ'મત કરતી નહી. न रे " (२) भाडा२–“भा ” मा यह निषेधाय छे. " या प्रारनुं दैत्य આ પ્રકારના પ્રતિષેધક વચનનું ઉચ્ચારણ કરવુ'તેનુ' નામ મકાર’ છે. ત્રીજા અને ચેાથા કુલકરના સમયમાં આ પ્રકારને દૃઢ પ્રચલિત હતા. ઘણા ભારે અપરાધ કરનારને જ આ દડને પાત્ર બનવું પડતું હતું. સામાન્ય અપરાધ કરનારને તે ત્યારે પણ હક્કર દંડ જ દેવામાં આવતા ના. CC (3) धिउ५२ – “ धिग्" सा धातु अधिक्षेपता अर्थभां वपराय छे. કાઇ અપરાધીને ધિકાર તને, આવુ* કામ કરતાં તને શરમ પણુ ન भावी १”, खा प्रभा] धिङ्गारवे। तेनु नाम धि४४२ ६ छे, पांथभां, छ स्था०-८२ Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५० स्थानासूत्रे त्यपराधे धिकारो दण्डः, मध्यमापराधे माकारो दण्डः, जयन्यापरावे तु हकारो दण्ड इति बोध्यम् । उक्तं च दृकारादिविषये - " " पढीयाणपमा, तयच उत्थान अभिनवा वीया । पंचम छस् य सत्तमस्स तइया. अभिणवा उ ॥ १ ॥ छाया - मथमद्वितीययोः मयमा तृतीयचतुर्थयोरभिनवा द्वितीय। । - पञ्चमपण्ययोश्च सप्तमस्य तृतीया अभिनवा तु ॥ १ ॥ इति ॥ ३ ॥ तथा - परिभाषा - परिभाषणं परिभाषा - अपराधिनं प्रति ' माकुरु । इत्येवं सकोपकथनम् || ४ || तथा - मण्डलबन्धः - मण्डलं निर्दिष्टं क्षेत्रं, तत्र वन्धः= ' नातः प्रदेशाद् गन्तव्य ' - मित्याज्ञाकरणम् । यद्वा- पुरुषा मण्डलरूपेण = समुदायरूपेण समुदिता मा भवन्तित्याज्ञा करणं मण्डलबन्धः ॥ ५ ॥ चारकःथा मध्यम अपराध में जो साकार रूप ही दण्ड था, एवं जघन्य अपराध मैं हक्कार रूप दण्ड था, हकार आदि के विषयमें ऐसा कहा गया है66 पदम बीघाण पढमा " इत्यादि । f J अपराधी प्रति ऐसा कुपित होकर कहना कि तुम अमुक काम मत करो मण्डल नाम क्षेत्रका है, निर्दिष्ट क्षेत्र में अपराधीको रोक कर रखना यह मण्डल बन्ध है - इस स्थान से तुम आगे नहीं जाना इस प्रकारकी आज्ञा करना सो यही मण्डल बन्ध है । अथवा पुरुष मण्डल रूप से समुदाय रूप से एकत्रित नहीं हो ऐसी आज्ञा करना सो यह भी मण्डल है | अपराधीको कारागारमें डाल देना सो चारक है, અને સાતમાં કુલકરના સમયમાં ઘણુા જ ભારે અપરાધ કરનારને આ પ્રકા રના દંડને પાત્ર ખતવુ પડતુ તે કુલકરાના સમયમાં મધ્યમ અપરાધ કરનરને માકાર રૂપ દડને પાત્ર ખનવુ પડતુ' અને સામ ન્ય અપરાધ કરનારને હકકાર રૂપ દંડને પાત્ર બનવુ` પડતુ. હમ્કાર આદિના વિષયમાં એવુ કહ્યું છે 2 - " पदम बीयाण पढमा " त्यहि. (४) " अपराधी प्रत्ये अपायमान थाने मेवु' 'हेवु' ! तु' मा भ्रमરનું કૃત્ય મા કર, ' ઇત્યાદિનું નામ પરિભાષા ક્રૂડ છે. (૫) મડલ એટલે ક્ષેત્ર અપરાધીને કોઇ નિર્દિષ્ટ ક્ષેત્રમાં જ શકી રાખશે! તેનું નામ મંડલમન્ધ છે. ‘* તમારે આ સ્થાન છેડીને જવુ' નહી– અમુક મર્યાદિત સ્થાનમાં જ તમારે રહેવુ' ' આ પ્રકારની આજ્ઞાનું નામ મડલબન્ધ છે. અથવા પુરુષ મડલરૂપે અથવા સમુદાય રૂપે એકત્રિત ન થવું, એવી આજ્ઞાનું નામ મડલ અન્ધ છે. (૬) સ્ત્રપરાધીને જેલમાં પૂરવે તેનુ નામ ચારક દ ્ છે. Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सुधा का स्था. ७ ६. १८ चक्रवर्तिन एकेन्द्रिपंवे न्द्रयात्मवर्णन ३५१ कारागारः ॥ ६॥ छविच्छेदः-करचरणनासा कोष्ठाद्यवयवकर्तनम् ॥ ७॥ परिभाषादयश्चतस्रो दण्डनीतयो भरतस्य काले समभवन् । तदुक्तम् "परिभापणा उ पढमा मंडल वधो पुण होइ बिइया। चारग छविछेदादि भरहस्य च उबिहा नीई ।। १ ।।" छाया--परिभापणा तु प्रथमा मण्डलवन्धः पुनर्भवति द्वितीया। - चारक छबिच्छेदादि भरतस्य चतुर्विधा नीतिः ॥ १ ॥ इति ॥मू०१८॥ मलमू-एगमेगस्त o रन्नो चाउरंतचकवहिस्सं सत्त एगिं. दियरयणा पण्णत्ता, तं जहा-चकरयणे १, छत्तरपणे २, चम्मरयणे ३, दंडरयणे ४, असिरयणे ५, मणिरयणे ६, काकाणरयणे ७। एगमेगस्त णं रन्नो चाउरंतचकवहिस्स सत्त पंचिं. दियरयणा पण्णता, तं जहा-सेणावइरयणे १, गाहावइरयणे २, वड्डइरयणे ३ पुरोहियरयणे ४, इत्थीरयणे ५, आसरयणे ६, हत्थिरयणे ७॥ सू० १९ ॥ छाया- एकस्य खलु राज्ञश्चातुरन्तचक्रवर्तिनः सप्त एकेन्द्रियरत्नानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-चक्ररत्नम् १, छत्ररत्नम् २, चर्मरत्नम् ३, दण्डरत्नम् ४, असि. एवं हाथ-पैर, नाक कान आदि अवयवोंका काट लेना सो यह छवि. च्छेद दण्ड है, ये परिभाषा आदि चार दण्डनीतियां भरतके काल में हई हैं कहा भी है" परिभास गाउ पढमा" इत्यादि । भरतकी मान्यतानुसार ये चार प्रकारकी नीतियां हैं-परिभाषणा मण्ड लपन्ध २ चारक ३ और छविच्छेद ॥ सूत्र १८ ।। " एगमेगस्त णं रन्नो चउरंतचक्क हिम्स" इत्यादि ॥ सूत्र १९ ॥ सूत्रार्थ-एक २ चातुरन्त वक्रवर्ती राजाके सात एकेन्द्रिय रत्न कहे गये (७) ५५२राधीन थ, ५१, जान, ना४ अपयवान छेही नामा તેનું નામ છવિ છેદ દડ છે. * પરિભાષા આદિ છેલ્લી ચાર દંડનીતિઓ ભરતના કાળમાં પ્રચલિત થઈ ती. अधुं पाए छ है-'परिभासणाउ पढमा" ભરતની માન્યતા પ્રમાણે આ ચાર પ્રકારની દંડનીતિઓ છે– (१) परिभाषा , (२) में मध, (3) या२४ गते (४) छवि ४, ॥ १८॥ " एगमेगस णं रन्नो घरंतचक्कवट्टिस्स" त्या-(सू. १८) સતાર્થ–પ્રત્યેક ચાતુરન્ત ચકવર્તી રાજા પાસે સાત એકેન્દ્રિય રત્ન હોય છે. તે Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानासूत्र रत्नम् ५, मणिरत्नम् ६, काकिणीरत्नम् ७। एकैकस्य रवलु राज्ञवातुरत्नचक्रवर्तिनः सप्त पञ्चेन्द्रियरत्नानि प्रज्ञप्तानि, तयथा-सेनापतिरत्नम् १, गाथापतिरत्नम् २, वर्द्ध किरत्नम् ३, पुरोहितरत्नम् ४, स्त्रीरत्नम् ५, अश्वरत्नम् ६ हस्तिरत्नम् ७ ।। मू० १९ ।। टीका---' एगमेगस्स णं इत्यादि एकैकस्य-चातुरन्तचक्रवर्तिनो राज्ञः सप्तसंख्यकानि एकेन्द्रियरत्नानि पृथिवीपरिणामरूपाणि रत्नानि प्रजातानि, तद्यथा-चक्ररत्नम्-इत्यादि । रत्नत्वं चेपां स्वस्वजातावुत्कृष्टत्वात् । तदुक्तम्-- रत्नं निगद्यते तच जातो जातौ यदुत्कृष्टम् ।" इति । एकेन्द्रियरत्नादीनां प्रमाणं त्वेरमुक्तं, तथाहि" च छ तं दंडो, तिनवि एयाई वामतुल्लाई। चम्म दुहत्थदीह, बत्तीसं अंतुलाई असी ॥ १ ॥ चउरंगुलो मणी पुग, तस्सद्ध चेत्र होइ वित्पिण्णो । चउरंगुलप्पमाणा, सूबन्नवरकागणी नेया॥२॥" छाया-चक्रं छत्रं दण्डः त्रीण्यप्येतानि व्यामतुल्यानि । चर्म द्विहस्त दीर्घ द्वात्रिंशदगुलानि असिः ॥ १ ॥ चतुरनुलो मणिः पुनस्तस्यार्द्धचैत्र मवति विस्तीर्णः । चतुरगुलप्रमाणा नुवर्णवरकाकिणी ज्ञेया ।। २ ॥ इति । हैं-जैसे-चक्ररत्न १, छत्ररत्न २, चर्मरत्न ३, दण्डात्न ४, असिरस्न ५, मणिरत्न ६, और काकिणी रत्न ७ ये सब पृथिवीके परिणाम रूप हैं, एवं इन्हें अपनी २ जातिमें उत्कृष्ट होने के कारण रत्न कहा गया है कहा भी है- रत्नं निगद्यते तत्" इत्यादि । एकेन्द्रिय रत्नादिकोंका प्रमाण ऐसा कहा गया है " चक्कं छत्तं दंडो" इत्यादि । सात मन्द्रिय रत्नानां नाम मा प्रमाणे छ-(१) २२८न, (२) छत्रन, (3) यमन, (४) २८न, (५) मसिन, (६) मायरत्न अने (७) neet. રતન. આ સાતે રને પૃથ્વીના પરિણામ રૂપ હેવાથી તથા પિત પિતાની જાતિમાં સર્વોત્તમ હોવાથી તેમને રત્ન રૂપ કહેવામાં આવેલ છે. કહ્યું પણ छ -" रत्न निगमते तत” त्याह सन्द्रिय रत्नाहानु प्रभाष्य नाय प्रमाणे -" चक्कं छत्तं दले" त्यादि Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भुघाटीका स्था०७ सू० २० दुप्पम खुषमपरिज्ञाननिरूपणम् व्यामतुल्यानि-निर्यम्बाहुद्वयप्रसारणपमाणानि चतुर्हस्तप्रमाणानीत्यर्थः । तथा प्रत्येकचातुरन्तचक्रवर्तिनो राज्ञः सेनापतिरत्नादीनि सप्त पञ्चेन्द्रियरत्नानि बोध्यानि । तत्र-सेनापतिः = सेनानायकः, गाथापतिः = कोष्ठागारनियुक्तः, वकिः रथकारः, पुरोहितः शान्तिकमा । एतेषु चतुर्दशसु रत्नेषु प्रत्येक यक्षप्तहस्राधिष्ठितं बोध्यमिति ॥ सू० १९॥ ___ मूलम् – सत्तहिं ठाणेहिं ओगाढं दस्तमं जाणेजा, तं जहा-अकाले परिसइ १, काले ण परिसइ २, असाहू पुति ३, साहू न पुजति ४, गुरुहिं जणो मिच्छ पडिवन्नो ५, मणो. दुहिया ६, वइदहिया ७। सत्तेहि ठाणेहि ओगाढं सुसमं जाणेजा, तं जहा अकाले न वरिसइ १, काले वरिसइ २ असाह ण पुजंति ३ साह पुजंति ४, गुरूहि जणो सम्म पडिवन्नो ५, मणोसुहिया ६ बई सुहिया ७ ॥ सू० २० ॥ चक्र, छत्र, एवं दण्ड ये तीन रत्न चार होय प्रमाणवाले हैं । तिर्यग फैलाये हुए जो दोनों हाथ है, उनका नाम व्याम है । चर्मरत्न दो हाथ प्रमाण लम्बा है। एवं ३२ अंगुल को तलवार है। चार अंगुलका मणिरत्न है। इसको चौड़ाई दो अंगुल की है । काकिणी रत्न भी चार अंगुलका ही है। सेनापति १-सेनानायक, गाथापति-कोष्ठागारका अधिकारी व कि-सारथी-रथकार, पुरोहित-शान्ति कर्मकर्ता स्त्रीरत्न ५, अश्वरस्न ६ हस्तिात्न सान ये सात रत्न पंचेन्द्रिय रत्न हैं । इन१४ रत्नों में से प्रत्येक रत्न एक एक हजार यक्षसे अधिष्ठित होतेहैं ॥सू.१९॥ ચક્ર છત્ર અને દંડ, આ ત્રણ રને ચાર હાથ પ્રમાણવાળા છે. તિયંગ ફેલાવેલા જે બને હાથ છે તેમનું નામ વ્યોમ છે. ચર્મરત્નની લંબાઈ બે હાથ પ્રમાણુ કહી છે, તલવાર (અસિરત્ન) લંબાઈ ૩૨ આંગળ પ્રમાણ છે. મણિરત્ન ચાર અંગુલ પ્રમાણે, અને કાકિણી રત્ન પણ ચાર અંગુલ પ્રમાણે માપનું હોય છે. ચતુરન્ત ચકતના સાત પંચેન્દ્રિય રને નીચે પ્રમાણે होय-१) सेनापति, (२) पति-3रने। यािरी, (3) सारथी२२५२, (४) पुरोहि', (५) स्त्री२ (६) मदन गने (७) स्वित्न. આ પ્રકારના કુલ ૧૪ રને ચવર્તી પાસે હોય છે. આ પ્રત્યેક રત્ન એક-એક હજાર યક્ષે વડે અધિષ્ઠિત હોય છે. સૂ ૧૯ Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६११ म्यानातसूत्रे छाया-सप्तभिः स्थानरकगाढा दुप्पमा जानीयात् , यथा-अकाले वर्षति १, काले न वपति २, असाधयः पूज्यन्तं ३, साधनो न पूज्यन्त ४, गुरपु जनो मिथ्यापतिपन्न: ५, मनोदुःखिताः ६, वाग्दुःखिताः । सप्तभिः स्थाने रवगाढां सूपमा जानीयात्, तयथा-अकाले न वर्षति १, काले वर्पति २, असाधवो न पूज्यन्ते ३, साधवः पूज्यन्ते ४, गुरुपु जनः सम्यक् प्रतिपन्नः ५,' मनःमुग्विता ६, वाक्सुखिताः ७ ॥ सू० २१ ।। टोका- 'सत्तर्हि ठाणेहि ' इत्यादि सप्तभिः स्थानः कारणैः दुष्पमा दुप्पमकाल अगाठाम् अवतीर्णाम् उत्कर्षावस्थां प्राप्तां जानीयात् , तयथा-अकाले वर्पतीत्यादि । मुगमम् । नवरम्गुरुपु-मातापितृधर्माचार्येषु जनो-लोको मिथ्या मिथ्याभाव-विनयभ्रशं पतिपन्ना प्राप्तः । मनोदुःखिता-मनसो मनमा वा दुःखिता-दुखितत्वं दुःखकारित्वं वा मानस दु खमित्यर्थः । वाग्दुःखिताम्बाचिकं दुःखमित्यर्थः । तथा-सप्तभिः ___ "सत्तहिं टाणेहिं ओगाढं" इत्यादि । सू० २० ॥ टीकार्थ-दुप्पमकाल इन सात स्थानोंसे उत्कर्षावस्थावाला होता है। जैसेअकालमें वर्षा होना १, कालमें वर्षा नहीं होना २, अमाधुओं की पूजा ही होना ३, साधुओं की पूजा नहीं होना ४, गुरुजनों में मिथ्या भाव रखना ५, मनका दुःखित रहना ६, एवं वाचिक दुःखका होना ७ सुषमा काल इन सात स्थानों से उत्कर्षावस्थावाला होता है-जैसेअकाल में वृष्टिका नहीं होना १ समय पर घृष्टिका होना २, असाधुओंकी पूजा-सत्कार नहीं होना ३, साधुजनों की पूजो-सत्कार होना ४, गुरुजनों पर सच्चा भाव होना ५, मनको दुःखित नहीं होता ६, एवं - "सत्तहँ ठाणेहि ओगाढ " त्या: ટીકાઈ-દુષમકાળ આ સાત સ્થ નોની અપેક્ષાએ ઉત્કર્ષાવસ્થાવાળો હોય છે(१) सारे ये य ाणे ( वर्षा ऋतुभ ) वर्षा यती नथी, (२) २५ वर्षा थाय छे. (३) मसाधुमानी पूत याय छ, (४) साधु मानी पूत थती.नया, ૫) ગુરુજનો પ્રત્યે મિશ્ય ભાવ વધતો જાય છે, (૬) મન સંતાપથી યુક્ત રહે છે અને (૭) વાચિક દુઃખને પણ સદ્ભાવ રહે છે. આ સુષમકાળ આ સાત સ્થાની અપેક્ષાએ ઉત્કર્ષાવસ્થાવાળો હોય છે(1) मे वृष्टिना समाप (२) 1ि समये वृष्टिना समाय. (3) पिसा દુઓના પૂજાસત્કારને અભાવ, () સાધુઓના પૂજાસત્કારને સદૂભાવ, (૫) ગુરુજને પ્રત્યે સાચા ભાવને સદ્ભાવ (૬) માનસિક દુઃખને અભાવ અને Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुभाटीका स्पा-७ २०२० दुप्पमसुषमपरिज्ञाननिरूपणम् स्थानः अवगाहां मुयमा जानीयात् , तद्यथा-अकाले न वर्पति इत्यादि सुगमम् । नवरं-सम्यक् सम्यग्भावं-विनयमिति यावत् ।। मू० २० ॥ दुष्पमा सुषमालक्षणं कालद्वयं सांसारिकजीवानां क्रमेण दुःखसुखप्रयो. जकं भवतीति सांसारिकनीवान् मरूपयितुमाह___मूलम्-लत्तविहा संसारसमावन्नगा जीवा पण्णत्ता, तं जहा- नेरइया १, तिरिक्खजोणिया २ तिरिक्खजोणिणीओ ३, मणुस्ता ४, मणुस्तीओ ५ देवा ६, देवीओ ७ ॥ सू० २१ ॥ __छाया--सप्तविधाः संसारसमापनका जीवाः प्रज्ञप्ताः, तथा नैरयिकाः १, तिर्यग्योनिकाः २, तिर्यग्योनिकाः ३, मनुष्याः ४, मनुष्यः ५, देवाः ६, देव्यः ७ ॥ सू० २१॥ टीका- 'सत्तविहा' इत्यादिवाचनिक दुःख नहीं होना ७ गुरुजनसे माता पिता एवं धर्माचार्य ये सय गृहीत हुए हैं। सू० २० ।। दुष्षमा सुषमा ये दोनों काल सांसारिक जीवोंको क्रमशः दुःख, सुखके प्रयोजक होते हैं-प्रतः अब सूत्रकार सांसारिक जीवों की प्ररूपणा करतेहैं "सत्त विहा संसार समावनगा जीवा पण् गत्ता" इत्यादि ॥म०२१।। टीकार्थ-संसार समापनक जीव-संसारी जीव-सात प्रकारके कहे गये हैं-जैसे-नैरयिक १, तिर्यग्योनिक २, तिर्यश्चस्त्रियां ३, मनुष्य ४, मनुष्यस्त्रियां ५, देव एवं देवियां ७. यहां तिर्यञ्च एवं मनुष्य तथा देवों में पुल्लिङ्ग, एवं स्त्रीलिंगके होने से द्विविधता होती है, और नैर(७) पाथि: हुमनी मार, २. सूत्रमा 'गुरु' ५४ माता, पिता, घायाय मानुि वाय है. ॥ सू० २० ॥ દુષમા અને સુષમાકાળ સાંસારિક જીને અનુક્રમે દુઃખ અને સુખને અનુભવ કરાવનારા હોય છે, તેથી હવે સૂત્રકાર સાંસારિક જીવની પ્રરૂપણ ४रे छ--"सत्तविहा संसारसमावन्नगा जीवा पण्णत्ता" त्या--(सू २१ ) ટીકાર્થ–સ માર અમાપન્નક જીવના (સ સારી જીવના) નીચે પ્રમાણે સાત પ્રકાર કહ્યા छे-(१) नरयि, (२) तिययानिन२, (3) तिय योनि श्रीसी, (४) भनुप्य, (५) मनुष्य जतिनी सीमा, (६) ४३॥ भने (७) वा। मनुष्य, तिय य અને દેવામાં નર અને નારી જાતિને સદ્ભાવ હોય છે, તે કારણે પ્રત્યેકમાં विविधता मताची छ. न.२३मा मात्र नघुसविता (नान्येतर ति) . Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाचे व्याख्या स्पष्टा । नवरम्-नैरयिकाणामेकविधत्वेन, तियङ्मनुष्यदेवानां प्रत्येकं पुत्री भेदेन द्वैविध्येन, सप्तविधत्त्वमिति ॥ र २१ ॥ संसारिणां संसरणं च आयुर्भदे सति भवतीति आयुर्भेदं प्ररूपयति- . __ मूलम्-सत्तविहे आउभेए पण्णत्ते, तं जहा-अज्झक्यसाणं १, निमित्तं २, आहारे ३ वेयणा ४, पराघाए ५। फासे ६ आणापाणू ७। सत्तविहं भिजए आऊ ७ ॥ सू० २२ ॥ छाया - सप्तविध आयुर्भेदः प्रज्ञप्तः, तद्यथा अध्यवसानम् १ निमित्तम् २ आहारो ३ वेदना ४ पराघात: ५। स्पर्शः ६ आनाणं ७ सप्तविधं भिद्य ते आयुः ॥ मू० २२॥ टीका-'सत्तविहे ' इत्यादि आयुर्भेदः-आयुषो जीवनस्य भेदा विनाशः सप्तविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा:अध्ववमानं रागस्नेहभयात्मक आत्मपरिणामः १, तथा-निमित्तम् दण्डकशायिकोंमें केवल नपुंसकलिङ्गता होनेसे एकविधताही होती है-इस प्रकारसे संसारी जीव सान प्रकारके होते कहे गये हैं। सूत्र २१ ॥ संसारी जीवोंका संसारमें परिभ्रमण आयुके होने पर ही होता है, अतः अप मूत्रकार आयुके भेदोंका निरूपण करते हैं "सत्तविहे आउभेए पगत्ते" इत्यादि सत्र २२॥ टोकार्थ-आयुका भेद सात प्रकारका कहा गया है-जैसे-अध्यवसान१, निमित्त २, आहार ३, वेदना,पराघात ५ स्पर्श ६और आनप्राण७ ___ आयुभेदसे यहां जोवनका विनाश कहा गयाहै, यह जो सात प्रकारका कहा गया है, सो उसका तात्पर्य ऐसा है-राग, स्नेह एवं भयरूप जो સંભવી શકે છે તેથી તેમને એક જ પ્રકાર પડે છે. આ પ્રકારે અહીં સંસારી જીના સાત પ્રકારે બતાવવામાં આવ્યા છે. જે સૂ ૨૧ છે આયુના સદુભાવમાં જ સ સારી જેનું સંસારમાં પરિભ્રમણ થાય છે. તેથી હવે સૂત્રકાર આયુનું (આયુના વિનાશનું) નિરૂપણ કરે છે-- 'सत्तविहे आउभेए पण्णत्ते" त्यादि--(सू २२) આયુના ભેદ સાત પ્રકારના કહ્યા છે. તે પ્રકારો નીચે પ્રમાણે છે(१) म सान, (२) निमित्त, (3) मा १२, (४) वेहना, (५) राधान, (6) २५०° मने (७) मानप्रा. 10-"मायुमेह" मा ५४ दास मायुने। विनाश" मी अर्थ सम. વાને છે. તે આયુવિનાશના સાત ભેદનું હવે સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવે છે, Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था० ७ ० २२ दुष्षमबमपरिज्ञाननिरूपणम् शस्त्रादीनि २। यद्यप्यनयोरायुर्वेदं प्रति कारणत्व, तथापि कारणे कार्योपचारादेव'मुक्तम् । आहारः=ममाणाधिकभोजनम् २, वेदना = ददयशूलादिका ४, परावतः गर्तपादिषु पतनम् ५, स्पर्शः = कृष्णसर्पादिदंशः ६ आनमाणम् - श्वासोच्छ्वासौश्वासोच्छ्वासनिरोध इत्यर्थ ७, इति सप्तविधं यथा भवति तथा आयुः जीवितं भियते निच्छिद्यते । अत्रेदं बोध्यम्, अयमायुर्भेदः सोपक्रमायुषामेव भवति न तु निरुपक्रमायुषाम् । ननु येन शतं संवत्सरानायुरूपनिवद्धं तस्य तदायुषोऽन्तराल आत्माका परिणाम है, वह अध्यवसान है, दण्डकशास्त्र आदि ये निमित्त हैं । यद्यपि इनमें आयुविनाशके प्रतिकारणता है, परन्तु इन्हें जो स्वय आयुर्वेदरूप कहा गया है, वह कारणमें कार्य के उपचार से कहा गया है, प्रमाणसे अधिक भोजन करना आहार है, हृदयशूल आदिका नाम वेदना है, गर्तकूप आदि में गिरना पराघात है, कृष्ण सर्प आदि · द्वारा काट लिया जाना स्पर्श है, तथा श्वासोच्छ्वासका निरोध होना इसका नाम आण प्राण है, इन सात प्रकार के कारणों से आयुका-जीवितका विनाश होता है। यहां इस प्रकार से समझना चाहिये - यह आयुर्वेद सोपक्रम आयु वालोंकोही होता है निरुपक्रम आयुवालोंको नहीं होता है । शंका - जिस जीवने १०० वरसकी आयुका बन्ध किया है, और उसकी आयु बीच हमें समाप्त हो जाती है, तो इससे कृत विनाश રાગ, સ્નેહ અને ભય રૂપ આત્માના પરિણામને અધ્યવસાન કહે છે s શાસ્ત્ર આદિને નિમિત્ત કહે છે. જો તે બન્ને અયુવિનાશમાં કારજીભૂત અને છે, છતાં પણ તેમને પાતને જ અહી જે આયુલેશ્વરૂપ કહેવામાં આવ્યાં છે તે કારણમાં કના ઉચ્ચારની અપેક્ષાએ કહેવામા આવેલ છે. પ્રમાણથી વધારે ખાવું તેનું નામ આહાર (આહર રૂપ કારણુ ) છે. વ્યંશુલ આદિનું નામ વેદના ( વેદના રૂપ કારણ ) છે. કૂવા કે ખાડામાં પડવું તેનું નામ " ६५७ राघात ( पराधात ३५ २५ ) छे, आणा नाग आहिनो दृश ( अ ) લાગવા તેનું નામ સ્પશ (સ્પર્શરૂપ કારણુ ) છે અને શ્વાસેાચ્છ્વાસના નિરાધ થવા તેનુ નામ આણુપ્રાણ (આણુપ્રાણુ રૂપ કારણુ ) છે. આ સાત પ્રકારના કારણેાને લીધે આયુને! ( જીવનના) અન્ત આવી જાય છે. અહી' એવુ સમજવું જોઈએ કે આ પ્રકારને આયુભેદ સેાપક્રમ આયુવાળાએમાં જ સ ભવી શકે છે. નિરુપકમમાયુવાળામાં આ પ્રકારના આયુલેટને સદ્ભાવ होता नथी, શકા—ધારા કે કેઈ જીવે ૧૦૦ વર્ષના આયુના અન્ય કર્યાં છે. જો તેનું આયુષ્ય વચ્ચે જ સમાપ્ત થઈ જાય, તે એ પ્રકારની માન્યતામાં કૃત स्था०-८३ Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ त्रयमात् कृतविनाशो, येन च कर्मणाऽऽयुर्विगमस्तस्यस्यापत्याकृतागमश्र भावोति कृतनाशा नागमप्रसक्त्या मोक्षेऽविश्वासवारित्रादात्रमवृत्तिश्च स्यात् ? उक्तं च " कम्मोक मिज्जह, अपत्तकालक्ष्मि जइ तभी पत्ता अकयागमकयनासा, मोक्वाणासासमो दोसा ॥ १ ॥ छाया-कर्म उपक्रम्यते अनाप्तकाले यदि ततः प्राप्ताः । स्थान ܕܕ अकृतागमकृतनाशात् मोक्षानाश्वासनो दोपाः ॥ इति । इति चेत्, आह— वर्षशतभोग्यमपि भक्तं भस्मकव्याविना समाक्रान्तस्य जनस्याल्पेनैव कालेन भुञ्जानस्य यथा न कृतनाशो न चाकृतागमो भवति, नामका दोष आता है, और अक्कूनके अभ्यागमका प्रसंग प्राप्त होता है, क्योंकि जो कर्म उसने नहीं किया है उससे उसकी 'आयुका चिमम हुआ है, इन दोनों दोषोंके सद्भावसे मोक्षमें अविश्वास और चोरित्र आदिमें अप्रवृत्ति जीवको हो जोगी । "कम्प्रोक्कमिज्ज" इत्यादि । इलगाया द्वारा यही समझाया गया है, कि यदि आयु अकालमें नष्ट हो जाती है, तो इस स्थिति में कृत प्रणाश और अकृताभ्यागम ये दोष उपस्थित होते हैं आदि । A उ०- सो वग्स तक भी खाया जा सके ऐसे भी भोजनको, जिसको मक व्याधि हो गई है। ऐसी व्यक्ति जब एकही चारमें उस भोजनको खा लेना है, तो वह उस भोजनको बहुत ही जल्दी पचा जाता है तो વિનાશ નામના દોષને પ્રસગ ઉપસ્થિત થાય છે અને અમૃતના અભ્યાગમના પ્રસ`ગ પ્રાપ્ત થાય છે, કારણ કે જે કમ તેશે કર્યુ નથી તેના દ્વારા તેની આયુના વિનાશ થયે છે. આ બન્ને પ્રકારના દોષાના સદૂભ વે કરીને જીવને માક્ષમાં અવિશ્વાસ ઉત્પન્ન થશે અને ચારિત્રાદિની આરાધનાની જીવની પ્રવૃત્તિ અધ પડી જશે. " कम्मोत्रक्कमिज्जइ " धत्याहि આ ગાથામાં એ જ વાત પ્રકટ કરવામાં આવી છે કે જો આયુના અકાળે નાશ થવાની વાત સ્વીકારવામાં આવે, તે કૃતપ્રાશ અને કૃતાकाम या होष उपस्थित थाय छे, " त्याहिઉત્તર-—જે માણસને ભસ્મક વ્યાધિ થયા હાય એવે માણસ અન્ય માણસ દ્વારા ૧૦૦ વર્ષમાં ખાઈ શકાય તેટલા ભાજનને પણુ એક જ વખતમાં ડ઼ાઈ ય છે, એટલુ જ નહી પણ એ ભેાજનને તે પચાવી પશુ શકે Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथा २२ दम उपमपरिज्ञाननिरूपणम् तथैवात्रापि न कृतनाशो न चाक्रतागनो भवतीति बोध्यम् । उक्तं च-" न हि दीहकालियस्सत्रि णासो तस्साणुभूडओ खिवं । बहुकालाहारस्स व दुयमग्गियरोगिणो भोगो ॥ १ ॥ सव्वं च परसतया, भुज्जइ कम्ममणुभागओ भइयं । तेगावस्साणु वे, केकयनासादओ तहस ? || २ || किंचिदकाले बिफलं, पाइज्जर पच्चए य कालेणं । तह कम्मं पाइज्जइ काले विपच्चए अन्न || ३ ॥ जहवा दीहा रज्जू उज्जइ काळेण पुंजिया खिप्पं । पडो उस पिंडीओ उ कालेणं ॥ ४ ॥ छाया --- नहि दीर्घकालिकस्यापि नाशस्तस्यानुभूतिनः क्षिप्रम् । बहुकालाहारस्येव व्रतमग्निरोगिणो भोगः ॥ १ ॥ सर्वं च प्रदेशतया भुज्यते कर्म अनुभागतो भक्तम् । नावश्यानुभवे के कृतनाशादयस्तस्य || २ || किंचिदकालेऽपि फलं पाच्यते पच्यते च कालेन | तथा कर्म पाच्यते कालेनापि पच्यते अन्यत् ॥ ३ ॥ यथा वा दीर्घा रज्जुः दह्यते कालेन पुञ्जिता क्षिप्रम् । विततः पटस्तु शुष्यति पिंण्डीभूतस्तु कालेन || ४ || इति ॥ मु० २२ ॥ जिस प्रकार इसे कृत प्रणाश और अकृताभ्यगम दोष प्रसक्त नहीं होते हैं, उसी प्रकार से यहां पर भी ये दोनों दोष प्रसक्त नहीं होते हैं- ऐसे जानना चाहिये । कहा भी है ६५२ " न हि दीहकालिपस्स " इत्यादि । तात्पर्य इन गाथाओं का यही है, कि दीर्घकालिक कर्मका भी शीघ्र नाश उसकी इकदम अनुभूति हो जानेसे हो जाता है - इसमें कोई आपत्ति जैसी बात नहीं है, क्योंकि जो भोजन बहुत कालमें पचानेके છે. તેા જે પ્રકારે તેને કૃતપ્રણાશ અને અકૃતાભ્યાગમ દોષનેા પ્રસ`ગ પ્રાપ્ત થતા નથી એજ પ્રમાણે અહી પણ તે બન્ને પ્રકારના દાષા લાગવાના પ્રસંગ પ્રાપ્ત થતા નથી કહ્યુ પણ છે કે " न हि दीइकालियरस " इत्यादि આ ગાથાઓને ભાવાથ નીચે પ્રમાણે છે~~દીર્ઘકાલિક મર્મીની પણ જલ્દી અનુભૂતિ થઈ જવાથી તેને શીઘ્ર નાશ થઇ જાય છે, આ વાતને સ્વીકારવામાં કોઈ પણ વાંધા રહેતા નથી. એ જ વાતને નીચેના દૃષ્ટાંતે Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाङ्गसुत्रे ६६० अयं चायुर्वेदः कथंचित् सर्वजीवानां भवतीति तान् सप्तविधत्वेनाहमूलम् - लत्तविहा सहजीवा पण्णत्ता, तं जहा पुढविकाइया १ आउकाइया २ तेउकाइया ३ वाउकाइया ४ वणस्सकाइया ५ तसकाइया ६ अकाइया ७| अहवा-सत्तविहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा - कण्हलेसा १ जाव सुक्कलेसा ६ अलेसा ७ ॥ सू० २३ ॥ योग्य होता है - वही भोजन भस्मक व्याधिवालेके द्वारा शीघ्रता से पचा लिया जाता है, जो फल वृक्षके ऊपर लगा रहने पर पकने में बहुत समय लेता है - वही फल पाकमें जब डाल दिया जाता है, तो बहुतही शीघ्र पक जाता है - यह बहुतही शीघ्र उसका पक जाना अकालमें पक जाना है, इसी तरह रस्सी बिखरी हुई पड़ी हो तो उसके जलने में देर लगती है, और वही रस्सी जय पिण्डित अवस्थामें जलाई जाती है तो बहुत ही जल्दी भस्म हो जाती है, इसी प्रकार पसारा हुआ वस्त्र जल्दी सूख जाना है, और घरी किया हुआ वस्त्र देर में मुग्वता है - इसी प्रकार से निमित्त मिलने पर हर एक कर्मका अकालमें भी विनाश हो जाता है, इसमें अकृताभ्यागम और कृन प्रणाश जैसे दोषों को आने की संभावना ही नहीं है || सूत्र० २२ ॥ દ્વારા સ્પષ્ટ કરવામાં આવે છે—જે ભેજન અન્ય માણુસ દ્વારા ઘણા લાંબા કાળે પચાવી શકાય એવું હાય છે એ જ ભેજનને ભસ્મક વ્યાધિવાળા જલ્દી ચાવી શકે છે. જે ફળ વૃક્ષની ઉપર જ લાગેલું રહે તેને પાકવાને માટે લાંબે સમય લાગે છે, પરન્તુ એ જ ફળને જ્યારે ઘાસ આદિમાં રાખી ફૂંકવામાં આવે છે ત્યારે તે જલ્દી પાકી જાય છે-આ પ્રકારે તેનુ જલ્દીથી પાકવું તેનું નામ જ ‘મકાલે પાકવું' છે એ જ પ્રમાણે વિખરાઈને પડેલા દારડાને મળી જતા વાર લાગે છે, પણ જો એ જ દોરડાનેા વીટા કરીને તેને મ ળત્રામા આવે તેા જલ્દી બળીને ભસ્મ થઈ જાય છે. એ જ પ્રમાણે એકવડું વસ્ત્ર જલ્દી સૂકાય છે પન્નુ ઘડી કરેલું વજ્ર સૂકાતાં વાર લાગે છે. એ જ પ્રમાણે જ્યારે નિમિત્ત મળે ત્યારે દરેક કર્મના અકાલે પણ વિંનારા t થઈ શકે છે. તે આ પ્રકારની માન્યતા સ્વીકારવામાં અકૃતાભ્યાગમ અને કૃતપ્રણાશ જેવા દોષોના પ્રસ`ગ પ્રાપ્ત થતે નથી !! સૂ. ૨૨ Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०७ सू० २३ सप्तविधायुभेदनिरूपणम् छाया-सप्तविधाः सर्वजीवाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-पृथिवीकायिकाः १, अकायिकाः २, तेजस्कायिकाः ३, वायुकायिकाः ४, वनस्पतिकायिकाः ५, सकायिकाः ६, अकायिकाः ७ अथवा-सप्तविधाः सर्वजीवाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथाकृष्णलेश्याः १ यावत् शुक्ललेश्याः ६ अलेश्याः ७ ॥ सू०२३ ॥ टीका-सत्तविहा' इत्यादि- व्याख्या सुगमा । नवरम्-सर्वजीवा:-सर्वे च ते जीवाश्चेति, संसारिणो मुक्ताश्चेत्यर्थः । अगायिका:-सिद्धा:-तेपां पड्विधकायव्यपदेयत्वाभावात् । अलेश्या:-सिद्धा अयोगिनो वेति ॥ सू० २३ । ___यह आयुभेद् कथंचित् समस्त जीवोंकी होता है इसलिये सूत्रकार अय जीवों में सप्तविधताका कथन करते हैं- "सत्तविहा सन्यजीवा पण्णत्ता" इत्यादि ।। सू० २३ ॥ टीकाथ-समस्त जीव सात प्रकारके कहे गये हैं-जैसे-पृथिवीका. यिक १, अप्कायिक २, तेजस्फायिक ३, वायुकायिक ४, वनस्पतिकायिक ५, त्रसकायिक ६, और अप्कायिक ७ अथवा-इस प्रकारसे भी जोव सात प्रकारके कहे गये हैं-कृष्णलेश्यावाले यावत् शुक्ल लेश्यावाले ६ और अलेग्यावाले ७ यहाँ "समस्त जीव" इस प्रकारके कथनले संसारी जीव और मुक्त जीव ये दोनों प्रकारके जीव गृहीत हो जाते हैं । अप्कायिकाले सिद्ध जीवों का ग्रहण हो जाता है-क्योंकि उनमें ६ प्रकारके कायका व्यपदेश नहीं होता है, इसी तरहसे अलेश्य पदसे इसका ग्रहण हो जाता है, अथवा अयोगियों का ग्रहण हो जाता है सू०२३ આ આયુર્ભેદ ક્યારેક સમસ્ત જમા હોય છે તેથી હવે સૂત્રકાર જીના સાત પ્રકારનું કથન કરે છે– ___" सत्तविहा सव्व जीवा पण्णता" याहि-(सू २३) ટીકાર્થ–સમસ્ત ના નીચે પ્રમાણે સાત પ્રકાર કહ્યા છે– (૧) પૃથ્વીકાયિક, (२) स , (३) यि, (४) वायुथिर, (५) वनस्पतिय(6) ત્રસકાયિક અને (૭) અકયિક અથવા જીના આ પ્રમાણે સ ત પ્રકાર ५५ हा छ-(1) वेश्यावाणा, (२) नीसवेश्यावा, (3) अपातवेश्या पा. (४) पातश्यात्राणा, (५) ५मलेश्यावा, (९) शुसवेश्यावाण! मन (७) मवेश्यावा અહીં “સમસ્ત જી ” આ પ્રકારના કથન દ્વારા સાંસારી છે અને મુક્ત જીવોને ગ્રહણ કરવામાં આવ્યા છે સિદ્ધ જીવોને અયિક કહે છે. કારણ કે તેમનામાં ૬ પ્રકારના શરીરના સદૂભાવ હેતે નથી “અલેશ્ય આ પદ વડે સિદ્ધ જીવોને અથવા અગીઓને (મન, વચન અને કાયાના योगथी २डित ने) हय ४२वामा मा०या छ. ॥ सू. २३ ॥ Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६२ स्थानासूत्रे पूर्वमुत्रे कृष्णलेश्यादिमन्तो जीवभेडा उक्ताः, तत्र च कृष्णलेश्णवान् मन्नारको ऽयुत्तय ते ब्रह्मदत्तवदिति ब्रह्मानस्वरूपमभिधातुमाह-- मूलम्---भदत्ते णं राया चाउरंतचकवट्टी सत्त धणुइं उर्दू उच्चत्तेणं सत्त य वासलयाई परमार्ड पालइत्ता कालमासे कालं किच्चा अहे सत्तमाए पुडवीए अप्पइहाणे णरए णेरइत्ताए उववन्ने । सू० २४ ॥ छाया--ब्रह्मदत्तः खलु राजा चातुरन्तचक्रवर्ती सप्त धनू पि अर्ध्वमुच्चस्वेन सप्त च वर्षशतानि परमायुः पालयित्वा कालमासे कालं कृत्वा अधः सप्तम्यां पृथिव्याम् अप्रतिष्ठाने नरके नैरथिकतया उपपन्नः ।। सू० २५ ॥ टोका-मदने णं' इत्यादि-- व्याख्या सुगमा । सू० २४ ॥ ___ ऊपरके मूत्रमें कृष्णलेश्या आदिवाले जीव भेद कहे गये हैं-इनमें जो जीव कृष्ण लेश्यावाला होता है, वह मरकर नारक भी हो जाता है-जैसे ब्रह्मदत्त हुभा है, अतः अब सूत्रकार इलीब्रह्मदत्तके सम्बन्धमें कथन करते हैं-" वभइत्तेग रायो चाउरत" इत्यादि ।। सूत्र २५ ।।। टीकार्थ-ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती ऊंचाईमें सात धनुषका था. ७०० सौ वर्षकी इसकी उत्कृष्ठ आयु थी, उतनी पूरी आयुको भोग कर यह काल मासमें मरण कर नीचे ससम पृथिवी में अप्रतिष्ठान नरकमें नैरपिककी पर्यायसे उत्पन्न हुआ है । मूत्र २४ ॥ આગલા સૂવમ કૃષ્ણાદિ વેશ્યાવાળા ની વાત કરવામાં આવી, કૃણ વેશ્યાવાળા છ મરીને નારકમાં પણ ઉન્ન થઈ જાય છે, જેમ કે બ્રહ્મદત્ત ચકવતની બાબતમાં એવું જ બન્યું હતુ. આ પ્રકારના પૂર્વસૂત્ર સાથેના સ બ ધને લીધે હવે સૂત્રકાર બ્રહ્મદત્તના વિષયમાં કથન કરે છે– __ “बमदत्तेण तया चाउरत" याहि-(सु. २५) ટીકા-બ્રહ્મદત્ત ચકવતીના શરીરની ઊંચાઈ સાત ધનુષપ્રયાણ હતી તેનું ઉgછ આયુષ્ય ૭૦૦ વર્ષનું હતું. તેટલા પૂરા આયુષ્યને ભેગવીને કાળને અવસર આવતા કાળધર્મ પામીન, તે નીચે સાતમી નરકમાં અપ્રતિષ્ઠાન નામના નરકાવાસમાં નારકની પર્યાયે ઉત્પન્ન થયો છે. જે સૂ. ૨૪ Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा का स्था०७ ० २५ मल्लीनाथवर्णनम् _____६३ . ब्रह्मदत्त उत्तमपुरुष इति उत्तमपुरुषाधिकारागुत्तमपुरुपविशेषस्थानीयल्लिवक्तव्यत्तामाह मूलम्--मल्ली पां अरहा अप्पसत्तमे मुंडे भविता अगाराओ अणगारियं पवइए, तं जहा--मल्ली विदेहरायवरकन्नमा १, पडिबुद्धा इक्खाखराया २, चंदच्छाए अंगराया ३, रुप्पीकुणालाहिवई ४, संखे कासीरायां ५, अदीणसतू कुरुराया ६, जियसत्तू पंत्रालराया ६ ॥ सू० २५॥ छाया-मल्ली खलु अर्हन् आत्मसप्तमो मुण्डो भूत्वा अगारादनगारिता अनिता, तद्यथा-मल्ली विदेहराजवरकन्यका १, प्रतिबुद्धिरिक्ष्वाकुराजः २, चन्द्रच्छायोगराजः ३, रुक्मी कुणालाधिपतिः ४, शवः काशीराजः ५, अदी. नशत्रुः कुरुराजः ६ जितशत्रुः पञ्चालराजः ७ ॥ सू० २५ ॥ टीका-'मल्ली गं' इत्यादि । व्याख्या सुगमा नवरम्-मल्लीनामा अहंन् स्खलु आत्मसप्तमा प्रात्मना सप्तमः सप्तसंख्यापूरणः मतिबुद्धिमभृतिभिः पभिः सह सप्तमः स्वयं मुण्डो-द्रव्यतो भावतच मुण्डितो भूत्वा अगारात अनगारितां पत्र जितः, तद्यथा-मल्ली विदेहरानवरकन्यका-इत्यादि । तत्र-विदेह ब्रह्मदत्त यह उत्तम पुरुष था-इस अभिप्रायको लेकर अब सूत्रकार उत्तम पुरुष विशेषके स्थानापन्न मल्लीकी वक्तव्यताका कथन करते हैं "मल्लीणं अरहा" इत्यादि ॥ सूत्र २५ ।। . टीकार्थ-मल्ली अर्हन्त प्रतिवुद्धि आदि ६ राजाओंके साथ स्वयं ससम होकर द्रव्यसे और भोवसे मुण्डित होकर अंगारसे अनगार अवस्थावाले बने हैं। मल्ली यह विदेह राजाकी उत्तम कन्या थी १ બ્રાદત્ત ચક્રવતી હોવાને કારણે ઉત્તમ પુરુષ રૂપ હતો. પૂર્વસૂત્રની સાથે ઉત્તમ પુરુષ વિશેષ રૂપ સમાનતાના સંબંધને લીધે હવે સૂત્રકાર મહિa (मल्सिना AS '1) नी १३५६५। ७२ छ__ "मल्लीणं अरहा" त्य -(सू २५) ટીકાર્થ–પ્રતિબુદ્ધિ આદિ ૬ રાજાઓની સાથે સાતમાં મલિ અર્હતે (મલ્લિ વિદેહ રાજાની કુંવરી હતી) દ્રવ્ય અને ભાવની અપેક્ષાએ મુંડિત થઈને આગારાવસ્થા (ગૃડસ્થાવસ્થા) ને ત્યાગ પૂર્વક અણગારાવથા અંગીકાર अरी ४ी. Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ष्ट __..: स्थानाने राजवरकन्यका-विदेहो मिथिलापरपर्याय: प्रसिद्धो जनपदः, तस्य यो राजा तस्य वरा श्रेष्ठ कन्यका-पुत्री एकोनविंशतितमो जिन इत्यर्थः १ । इक्ष्वाकुराजा= अयोध्याधिपतिः २। अन्गराजा-अङ्गो नाम देशः, यस्य चम्पा राजधान्यासीत्, तस्याधिपतिः ३। कुणालाधिपतिः-कुणालो नाम देश, यस्य राजधानी श्रावरती, तस्याधिपतिः ४। काशीराजः-काशीनाम देशः, यम्य राजधानी वाराणसी, तस्य राजा ५। कुरुराजा-कुरुनामा देशः, यस्य राजधानी हस्तिनापुरम् , तस्य राजा ६। पश्चालरानः-पश्चालो नाम देशः, यस्य राजधानी काम्पिल्यनगरमासीत् , तस्य राजा ७। प्रवज्यायां भगवत् आत्मसप्तमत्वं प्रतिबुद्धयादिप्रधानपुरुषमिथिला नामका जनपद विदेह कहलाता है, यद् १९ वें तीर्थंकर रूपसे हुई है, प्रतिवुद्धि ये अयोध्याके अधिपति थे। अङ्ग नामका देश था, इसकी राजधानी चम्पा थी, चन्द्रच्छाय इसी अङ्ग देशके अधिपति थे, कुणाल नामका भी देश था जिसकी राजधानी श्रावस्ती थी, रुक्मी इसी कुणालके अधिपति थे । काशी इस नामका देश था, जिसको राजधानी वाराणसी थी । शङ्ख इसी काशीके अधिपनि थे । कुरु नामका देश था जिसकी राजधानी हस्तिनापुर थी । अदीन शत्रु इसी कुरु देशके राजा थे । पाञ्चाल नामका देश था इसकी राजधानी काम्पिल्यनगर थी, जितशत्रु इसो पांचाल देश के राजा थे, यहां प्रव्रज्यामें जो मल्ली अहे. મલી વિદેહરાજની ઉત્તમ કન્યા હતી મિથિલા નામના જનપદને વિદેહ કહેતા હતા મલ્લીનાથ ૧૯ મા તીર્થ કર થઈ ગયા. તેમણે પ્રતિબુદ્ધિ આદિ ૬ રાજાઓની સાથે પ્રવજ્યા લીધી હતી પ્રતિબુદ્ધિ અયોધ્યાન અધિપતિ હતો. ચન્દ્રછાય નામનો રાજા અંગ દેશને અધિપતિ હતો. આ દેશની રાજધાની ચમ્પા નગરી હતી. સકર્મી-નામનો રાજા કુણાલ નામના જનપદા અધિપતિ હતો. તેની રાજધાની શ્રાવસ્તી હતી. શખનામનો રાજા કાશી નામના જનપદને અધિપતિ હતો. તેની રાજધાની વારાણસી હતી. અદીનશત્રુ-કુરુદેશના અધિપતિ હતા. તેની રાજધાની હસ્તિનાપુર હતી. | જિતશત્રુ-પાચાલ દેશને અધિપતિ હતા. તેની રાજધાની કોમ્પિત્ય नगर उतु. મલીએ પ્રતિબુદ્ધિ ચન્દ્રછાય રુમી, શખ, અદીનશત્રુ અને જિતશત્રુ, આ છે રાજાઓ સાથે પ્રવૃજ્યા ગ્રહણ કરી હતી. અહીં પ્રવ્રજ્યામાં Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । सुधा टीका स्था.७ १०२५ मल्लीनाथवर्णनम् ६६५ प्रव्रज्याग्रहणापेक्षया बोध्यम् । अन्यथा तु तदसंभवि, यतस्विभिः पुरुषशतैर्वा. ह्यपरिषदा त्रिभिश्च स्त्रीशतैरभ्यन्तरपरिषदा स भगवान् प्रजित इति ज्ञातासूत्रे मोक्तम् । उक्तं च समवायाङ्गे-" पासो मल्ली तिहिं तिहिं सएहि" इति । छाया-पार्थो मल्ली त्रिभित्रिभिः शतैः-इति । इदं तु पुरुषापेक्षया बोध्यम् । मल्लिचरितं तु ज्ञातासूत्रे विस्तरशः प्रोक्तम् । 'प्रबजितः ' इति पुंस्त्वेन निर्देशस्तु 'अईच्छब्दापेक्षया वोध्यः ।। सू० २५ ॥ न्तको आत्मसप्तता प्रकट की गई है, वह प्रतिबुद्ध आदि प्रधान पुरुषोंकी प्रव्रज्या ग्रहण की अपेक्षाले प्रकट की गई है, यदि ऐसी बात न मानी जावे तो बह पन नहीं सकती है क्योंकि वाह्य परिपदाके ३ सौ पुरुषोंके साथ एवं आभ्यन्तर परिषदा की ३ सो पुरुषोंके साथ एवं आभ्यन्तर परिषदा की ३ सौ स्त्रियोंके साथ मल्ली भगवान् प्रवजित हुए हैं, ऐसा ज्ञातामूत्र में कहा गया है । समवायाङ्गमें भी ऐसी ही कहा गया है- पासो मल्ली तिहिं २ सएहिं" पार्श्वनाथने एवं मल्लीने ३ सौ ३ सौके साथ भागवती दीक्षा धारण कीहै । यह तो पुरुषोंकी अपेक्षा कथन है, ज्ञाता सूत्र में मल्लिका चरित्र विस्तारसे कहागयाहै। "प्रव्रजित" ऐसा जो पुल्लिङ्ग निर्देश है, वह "अहंत्" शब्दकी अपेक्षासे किया गया है, ऐसा जानना चाहिये ॥ सूत्र २५ ॥ મહિલા અને અને બીજા ૬ રાજાઓ મળીને જે સપ્તક પ્રમેટ કરવામાં આવ્યું છે, તે પ્રતિબુદ્ધિ આદિ પ્રધાન ( ઉત્તમ) પુરુષની અપેક્ષાએ જ પ્રકટ કરવામાં આવ્યું છે, એમ સમજવું જે એ પ્રમાણે માનવામાં ન આવે તે જ્ઞાતાસૂત્ર અને સમવાયાંગસૂત્રના કથન કરતાં આ કથન વિરુદ્ધ પડે છે. જ્ઞાતાસૂત્રમાં એવું કહ્યું છે કે–“ બાહ્ય પરિષદાના ૩૦૦ પુરુષની સાથે, અભ્યન્તર પરિષદાના ૩૦૦ પુરુષની સાથે અને આભ્યન્તર પરિષદાની ૩૦૦ સ્ત્રીઓ સાથે મલ્લિ ભગવાને પ્રવજ્યા લીધી હતી ” समवायां। सूत्रमा ५ मे १ घुछ है-" पासो मल्लो विहिर सएहि " " पाश्वनाथ भगवान भने मल्सिनाथ भगवान ३००-३०० ५३ પિની સાથે પ્રવજયા લીધી હતી ” આ કથન તે માત્ર પુરૂષોની અપેક્ષાએ જ કરવામાં આવ્યું છે જ્ઞાતા સૂવમાં મલિના ચરિત્રનું સવિસ્તર વર્ણન ४२वामा मान्यूछे “प्रत्रजित " मा EिAn पाय४ २५४२ प्रयोग અહીં કરાવે છે, તે અહં તની અપેક્ષાએ કરાવે છે, એમ સમજવું. સૂ ૨પા स्था-८४ Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानासो ___एते च सम्यग्दर्शने सति प्रनिता इति सामान्यतो दर्शनं निरूपयितुमाह-- मूलम् -सन्तविहे दंसणे पण्णत्ते, तं जहा--सम्मईसणे १ मिच्छदसणे २ सम्मामिच्छदंसणे ३ चक्खुदंसणे ४ अचखुदं. सणे ५ ओहिदसणे ६ केवलदसणे ७ ॥ सू० २६ ।। छाया--सप्तरिधं दर्शनं पज्ञातं, तद्यथा-सम्यग्दर्शनं १ मिथ्यादर्शनं २, सम्यमिथ्यादर्शनं ३ चक्षुर्दनम् ४, अचक्षुर्दर्शनम् ५, अवधिदर्शनम् ६ केवल दर्शनम् ७ ॥ मू० २६ ॥ टीका-'सत्तविहे दंसणे' इत्यादि-- - दर्शनं-दृश्यन्ते-श्रद्रीयन्ते ज्ञायन्ते वा अर्थी अनेन अस्मात् अस्मिन् वेति दर्शन-तत् सप्तविधं प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-सम्पग्दर्शन सम्यक्त यम् , मिथ्यादर्शन 'मिथ्यात्वम् , सम्यमिथ्यादर्शनम्-मित्रम् । एतच्च त्रिविधमपि दर्शनं दर्शनमोह' ये सब जो प्रबजित हुए हैं-वे सम्यग्दर्शनके होने पर ही प्रवजित हुए हैं-अनः अथ सूत्रकार सामान्यरूपसे दर्शनको निरूपण करते हैं " सत्तविहे दंप्सणे पणगत्ते' इत्यादि ।। सूत्र २६ ॥ टीकार्थ-दर्शन सात प्रकारका गया है-श्रद्धाके विषय बनाये जाते हैं, या जाने जाते है, पदार्थ जिसके छारा या जिससे या जिसके होने पर वह दर्शन है-ऐसा वह दर्शन सोत प्रकारका कहा गया है-जैसेमम्यग्दर्शन १, मिथ्योदर्शन २ मम्यमिथ्यादर्शन ३, चक्षुर्दर्शन ४, अचक्षुर्दर्शन ५, अवधिदर्शन ६, और केवलदर्शन ७ इनमें-सम्यग्दशन मम्यक्त्व, मिथ्यादर्शन-मिथ्यात्व, और मम्पङ् मिथ्यादर्शन ઉપરના સૂત્રમાં મહિલા આદિ પ્રવજિત થયાની વાત કરી. તેમને સમ્યદર્શન થવાથી જ તેઓ પ્રજિત થયા હતા. પૂર્વસૂત્ર સાથે આ પ્રકારના સંબંધને લીધે હવે સૂત્રકાર દર્શનનું નિરૂપણ કરે છે-- "सत्तविहे सणे पण्णत्त" त्या--(सू २६) ટીક થે–દશનના સાત પ્રકાર કહ્યા છે જેના દ્વારા અથવા જેના સદૂભાવમાં પદાર્થને શ્રદ્ધાનો વિષય બનાવી શકાય છે, અથવા જાણી શકાય છે, તેનું નામ દર્શન છે તે દર્શનના નીચે પ્રમાણે ૭ પ્રકાર કહ્યા છે-- (१) सभ्यन, (२) मिथ्यान, (3) सभ्य भिथ्याशन, (४) यशन, (५) २५-शुशन, (6) अवधिशन मन (७) शन. सभ्यहीन (सम्य34), ल्याइशन (मिथ्यात्य), भने सभ्यમિથ્યાદર્શન ( મિશ્રદર્શન), આ ત્રણે દર્શન દર્શન મેહનીય કર્મના ભેદોના Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था ७ सू० २७ दर्शनस्वरूपनिरूपणम् .. ... १६३ नीयभेदानां क्षपक्षयोपशमोद येभ्यः समुत्ययो तथावियरुचिस्व मापंचेति । चक्षुर्दर्शनादिवतुष्टयं तु दर्शनावर गीयभेदवतुष्ट्रयस्य क्षयोपशमक्षयाभ्यां समुत्पद्यने सामान्यग्रहगं स्वमा चेति। अत्र श्रद्वान सामान्यग्रहण योर्दर्शन शब्दप्रतिपाद्यत्वाद् दर्शन सप्वविध मुक्तमिति बोध्यम् ।। सू० २६ ।। , अनन्तरं केवलदर्शनमुक्तं, तच्च छअस्थावस्थायां अनन्तरं भवतीति छद्मस्थ प्रतिबद्धं सूत्रमाह. मूलम् छ उमत्थवीयरागे णं मोहणिजवजाओ सत्त कम्मपयडीओ वेएइ, तं जहा--णाणावराणिज १ दसणावरणिनं ३, वेणियं -३ आउयं ४, नाम ४ गोयं ६-अंतराइयं ७ ॥सू०२७॥ छाया-उमरथवीतरागः खलु मोहनीयवर्जाः सप्त कर्मप्रकृतीवेदयति, तद्यथा-ज्ञानावरणीयं १, दर्शनावरणीयं २, वेदनीयम् ३, आयुः ४ नाम ५, गोत्रम् ६ अन्तरायिकम् ७ ।। मू० २७ ॥ मिश्र ये तीनों भी दर्शन दर्शनमोहनीय कर्मके भेदोंके क्षयसे क्षयोपशमसे और उदयसे उत्पन्न होते हैं । क्योंकि इनका स्वभाव तथाविध रुचि रूप होता है। तथा-चक्षुदर्शनादि चतुष्टय तो दर्शनावरणीय कर्मके जो चार भेद हैं; उनके क्षय और उपशमसे उत्पन्न होते हैं, इनका स्वभाव सामान्य रूपसे पदार्थों को ग्रहण करने का होता है। यहां पर श्रद्धान एवं सामान्य ग्रहण ये दोनों दर्शन शब्दके द्वारा कहेजाते हैं इसलिये दर्शन सात प्रकारका कहा गया है ऐसा जानना चाहिये ॥मू०२७।। आरके सूत्र में अन्तमें केवल दर्शन कहा गया है-सो वह छद्मस्था. वस्थाके जाने के बाद यहां होताहै, इसलिये सूत्रकार अव छद्मस्थावस्थासे લયથી, ક્ષયે પશમથી અને ઉદયથી ઉત્પન્ન થાય છે, કારણ કે તેમને સ્વભાવ તથાવિવ ( તે પ્રકારની) રૂચિ રૂપ હોય” છે. તથા ચક્ષુર્દશનાદિ બાકીના ચાર દર્શન તે દર્શનાવરણીય કર્મના જે ચાર ભેદ છે તેમના ક્ષય અને ઉપ શમથી ઉત્પન્ન થાય છે તેમને સ્વભાવ સામાન્ય રૂપે પદાર્થોને પ્રણ કરવાનો હોય છે અહીં “દશન” પર શ્રદ્ધા અને સામાન્ય ગ્રહણનું વાચક છે, તેથી દર્શન' સાત પ્રકારનું કહેવામાં આવ્યું છે, એમ સમજવું. છે સુરા આંગલા સૂત્રના અન્ત ભાગમાં કેવલદર્શનને ઉલ્લેખ થયો છે, છ. સ્થાવસ્થા દર થયા બાદ જ કેવલદર્શનની પ્રાપ્તિ થાય છે. તેથી હવે સૂત્રકાર છઘસ્થાવસ્થા સાથે સંબંધ ધરાવતા સૂત્રનું કથન કરે છે-- Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाङ्ग टीका-'छउमत्थवीयरागे' इत्यादि__छमस्थवीतरागः-छमानि ज्ञानावरणदर्शनावरणरूपे आवरणद्वये, अन्तराये च फर्मणि तिष्ठतीति छमस्थाअनुत्पन्न केवलज्ञानदर्शनः, वीतरागा-वितरागोदया-उपशान्तमोहत्वात् क्षीणमोहत्त्वाद् वा, स खलु मोहनीयवाः-मोहस्य क्षयी. दुषशमाद् वा मोहनीयकर्मप्रकृतिरहिताः सप्त कर्मप्रकृतीर्वेदयति अनुभवति, तद्यथा-ज्ञानावरणीयमित्यादि । सू० २७ ॥ सम्पति छमस्थ केवलिवक्तव्यचा प्रतिबद्धमेकं मूत्रमाह मूलम्-सत्त ठाणाई छउमत्थे सवभावेणं न पासइ, तं जहा-धम्मत्थिकायं १ अधम्मत्थिकायं २ आगासस्थिकायं ३, प्रतिबद्ध मृत्रका कथन करते हैं __ "छउमत्य वीयरागेणं" इत्यादि ।। सूत्र २७॥ ____टीकार्थ-ज्ञानावरण, दर्शनावरण रूप आवरण द्वयमें और अन्तराय कर्ममें जो रहता है, वह छद्मस्थ है, ऐसा छमस्थ अनुत्पन्न केवलज्ञान दर्शनवाला होनाहै, छद्मथ को जो वीतराग कहा गयाहै-वह वितरागो. दयवाला होनेसे कहा गया है-ऐसा यह छद्मस्थ वातरोग उपशान्त मोह होनेसे अथवा-क्षीण मोह होने से होताहै, यह छमस्थ वीतराग मोहनीय कर्मको प्रकृतियोंके क्षय हो जाने के अथवा उपशम हो जाने के कारण मोहनीय कर्मकी प्रकृतियों को छोड़कर सान कर्मों की प्रकृतियोंका वेदन करता है, वे सात कर्म कृतियां ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, आयु नाम गोत्र और अन्तराय हैं । स० २७ ॥ " छ उमत्य वीयरगेणं" त्यादि--(सू २७) ટીકાથ-જ્ઞાનાવરણ, અને દર્શનાવરણ રૂપ બે આવર જેની પર વ્યાપેલાં છે અને જેના અન્તરાય કમને ઉદય છે, એવા જીવને છવાસ્થ કહે છે. એ છસ્થ મનુષ્ય અનુત્પન્ન કેવળજ્ઞાન અને અનુત્પન્ન કેવળદર્શનવાળો હોય છે. અહીં છવાસ્થને જે વીતરાગ કહ્યો છે, તે વીતરાગોદયવાળો હોવાથી કહ્યો છે. ઉપશાત મેહ અને ક્ષીણમેહની અવસ્થાના સદૂભાવમાં જીવ છ-વીતરાગ બને છે. મેહનીયકર્મની પ્રકૃતિએને ક્ષય અથવા ઉપશમ થઈ જવાને કારણે તે છતા વીતરાગ મોહનીય કર્મની પ્રકૃતિને છોડીને સાત ની પ્રવૃતિઓનું વેદન કરે છે. તે સાત કર્મ પ્રકૃતિએ નીચે પ્રમાણે સથજી-- (१) ज्ञानापरलीय, (२) शनावरणीय, (३) वहनीय, (४) मायु, (५) नाम, (६) मात्र मन (७) अन्तराय. ॥ सू. २७ ॥ Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ था टीका स्था० ५। २१ छ मस्यतिबद्धव कल्यता निरूपणम् जीवं असरीरपडिबद्धं ४ परमाणुपोग्गलं ४, सदं ६ गंधं . एयाणि चेव उप्पन्नवरनाणदंसणघरे जाव जाणइ पासइ, तं जहा-धम्मस्थिकायं १ जाव गंधं ८ ॥ सू० २८ ।। ___ छाया-सप्त स्थानानि छद्मस्थः सर्वभावेन न जानाति न पश्यति. तद्यथा-धर्मा. स्तिकायम् १ अधर्मास्तिकायम् २ आकाशास्तिकायं ३ जीवमशरीरप्रतिवद्धम् ४ परमाणुपुद्गलम् ५ शब्द ६ गन्धम् ७ एतान्येव उत्पन्नवरज्ञानदर्शनधरः यावत् जानाति पश्यति, वधया-धर्मास्तिकायं यावद् गन्धम् ।। म्० २८ ।। टीका-'सत्त ठाणाई' इत्यादिअस्य व्याख्या पश्चमस्थानकस्य तृतीयोदेशे दशमसूत्रे द्रष्टव्या ।। सू० २८॥ धर्मास्तिकायादीनि सप्तस्थानानि उत्पन्नवरज्ञानदर्शनधरो जिनो जानाति, स च वर्तमाने तीर्थे भगान् महोवोरसामोति तत्स्वरूप प्रदर्श पति मूलम्-समणे भगवं महावीरे वघरोलभनारायसंघयणे समचउरंतसंठाणसंठिए सत्त रयणीओ उर्दू उच्चत्तेणं होत्था ॥ सू० २९ ॥ ' अब सूत्रकार छमस्थ और केवलिको बक्तव्यताले प्रतिबद्ध एक सूत्रका कथन करते हैं"सत्त ठाणाई छ उमत्ये सयभावेणं न जाणद इत्यादि ॥ स० २८॥ टीकार्थ-छद्मस्थ सान स्थानोंको सर्व भावसे न जानता है, और न देखना है, वे सात स्थान ये हैं, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, अशरीर प्रतिबद्ध जीव, परमाणु पुद्गल शब्द और गन्ध इन सात स्थानोंसे उत्पन्न होनेवाले को श्रेष्ठ ज्ञानवाले और श्रेष्ठ दर्शनवाले केवली भगवान् जानते हैं, और देखते हैं । इसकी व्याख्या पञ्चम स्थानके तृतीय उद्देशे में दशवें सूत्र में देख लेना चाहिये ।। मूत्र२८ ॥ - હવે સૂત્રકાર છદ્મસ્થ અને કેવલીની વક્તવ્યતા વાળા એક સૂત્રના કથના अरे छे-" सत्त ठाणाइ छ उमत्थे सव्व भावेणं न जाणह" इत्यादि (सू २६) ટીકાર્યું–છદ્મસ્થ નીચેના સાત સ્થાનને સર્વ ભાવે (પ્રત્યક્ષ રૂપે ) જાણ नथी भने हेमते। पाशु नथी-1) धातिय, (२) अघास्तिजाय, (3) આકાશાસ્તિકાય, (૪) અશરીર પ્રતિબદ્ધ જીવ, (૫) પરમાણુ પુત્વ, ૨) શદ અને (૭) ગધ. પરંતુ ઉત્પન્ન શ્રેષ્ઠ કેવળજ્ઞાન અને શ્રેષ્ઠ કેવળદર્શનવાળા કેવલી ભગવાન એ સાત સ્થાનને પ્રત્યક્ષ રૂપે જાણી શકે છે અને દેખી શકે છે. પાંચમા સ્થાનકના ત્રીજા ઉદ્દેશાના દસમાં સૂત્રમાં આ બધા પદની વ્યાખ્યા આપવામાં આવી છે, તે તે વ્યાખ્યા ત્યાંથી વાચી લેવી. પા. ૨૮ Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाकर्ष छाया - श्रमणो भगवान् महावीरो वज्रऋपमनाराचसंहननः समचतुरस्रसंस्थानसंस्थितः सम रत्नीरूर्ध्वमुच वेन अभवत् ।। सू० ३० ॥ टीका--' समणे भगवं ' इत्यादि ६, व्याख्या स्पष्टा ॥ ० २९ ।। अथ भगवत्मरूपिताः सह विकयाः रूपयति मूलम् - सत्त विकहाओ पण्णत्ताओ, तं जहा- इत्थीकहा १, भक्तकहा २, देसकहा ३, रायकहा ४, मिउकालुणिया ४, दंसणमेवणी ६, चरितभेयणी ८ ॥ सू० ३० ॥ : छाया -- सप्त विकथाः प्रज्ञाताः, तद्यथा स्त्रीकथा - १, भक्तकथा २, देशकथा ३, राजकथा ४, मृदुकारुणिकी ५) दर्शनभेदिनी ६, चारित्रभेदिनी ॥ ।। सू० ३० ।। धर्मास्तिकायादिक सात स्थानोंसे उत्पन्न श्रेष्ठ ज्ञान दर्शनधारी जिन जानते हैं, ऐसे वे जिन वर्तमान तोर्थमें भगवान् महावीर स्वामी है, इसलिये अब सूत्रकार भगवान् महावीर स्वामी स्वरूपको दिखलाते हैं। " समणे भगवं महावीरे " इत्यादि || सूत्र २९ ।। टीकार्थ - श्रमण भगवान् महावीर वज्रऋषभनाराच संहननवाले और सनचतुरस्र संस्थानवाले थे इनके शरीरकी ऊँचाई सात हाथ थी भगवान के द्वारा प्ररूपित सात विकथाओंका कथन अब सूत्रकार करते हैं- सत्त विकहाओ पण्णत्तोओ " इन्यादि ॥ मू० ३० । सृ०२९ 16 PRES ધર્માસ્તિકાય આદિ સાત સ્થાનાને, ઉત્પન્ન શ્રેષ્ઠ જ્ઞાન દશનધારી જિને श्वर भगवान लगी देणी शडे छे. सेवा द्विनेश्वर वर्तमान तीर्थमां महावीर.. પ્રભુ થઈ ગયા છે, તેથી હવે સૂત્રકાર મહુવીર સ્વામીના સ્વરૂપનું વર્ષોંન નીચેના' સૂત્રમાં કરે છે " समणे भगवं महावीरे " त्याहि- (सू. २७) 1 ટીકા શ્રેણુ લગવાન મહાવીર ઋષનારાય સહનનવાળા અને સેચચતુર, અમ્પાનવાળા હતા તેમના શરીરની ઊંચાઈ સાત હાથ પ્રમાણુ હતી !સ ૦૫ કુવે સૂત્રકાર ભગવાન દ્વારા પ્રરૂપિત સાત ત્રિકાનું કથન કરે છે. "" सत्त त्रिकाओ पण्णत्ताओ" त्याहि (सू 30 ) Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टाका स्था० ७ सू. ३० सप्त विकथानिरूपणम् टोका-'सत्त विकहाभो' इत्यादि विकथा-विरुद्धाः संयमवाधकत्वेन कथा:-बचनपद्धतयो विकथाः, ताः मप्त प्राप्ताः, तद्यथा-स्त्रीकथा-इत्यादि । तत्राघाश्वतत्रश्चतुर्थस्थानके व्याख्याताः, अपरास्तत्र व्याख्यायन्ते, तथाहि-मृदुकारुणिकी-मृद्वो श्रोतृहृद्ये मृदुभावजननाव सा चासौ कारुणिकीकरुणरसवती चेति, पुत्रादिमरणजनितदुःखार्तजनन्या. दीनां करुणरससंवलितमलापप्रधानेत्यर्थः, यथा--" हा पुत्त पुत्त ! हा वच्छ बन्छ ! मुक्काऽम्हि कहमणाहाऽहं ।। - एवं कलुणविलावा, जलंत जलणेऽज सा पडिया ॥ १ ।" . छाया--हा पुत्र पुत्र ! हा वत्स वत्स ! मुक्तास्मि कथमनाथाऽहम् ।। एवं करुणविलापा, ज्वलज्ज्वलनेऽद्य सा पतिता ।। १॥ इति । टीकार्थ-सात विकथाएँ कही गई हैं-जैसे-स्त्री कथा १, भक्त कथा २, देश कथा, ३, राज कथा ४, मृदुकारुणिकी ५, दर्शन भेदनी ६, और चारित्र भेदनी ७।। संयमकी बाधक होने के कारण विरुद्ध जो कथाएँ हैं-बोलने की पद्धति हैं-वे विकथा हैं, ये विकथाएँ सात कही गई हैं-जैसे स्त्री कथा आदि-इनमें आदिकी जो चार हैं-वे चतुर्थ स्थानकमें व्याख्यात हो चुकी हैं। बाकी विषयका व्याख्यान इस प्रकारसे हैं-जो कथाश्रोताके हृदय में मृदु भावको उत्पन्न कर देती है, और करुण रसवाली होती है, ऐसी वह कथा-विकथा है, ऐसी वह कथा पुत्रादिके मरणसे जनित दुग्वले पीडित हुए मातापिता आदि जनके करुण रससे मिली हुई प्रवालकी प्रधानतावाली होती है यथा1 ટીકાર્થ_વિકથાઓ સાત કહી છે. તે સાત પ્રકારે નીચે પ્રમાણે છે-(૧) સ્ત્રીકથા (२) 48था , (3) हेश था, (४) २२०४४था, (५) भृ॥२९ ४५, (१) દર્શન ભેદની કથા અને (૭) ચારિત્ર ભેદની કથા સયમની બાધક હોવાને કારણે વિરુદ્ધ જે કથાઓ છે– બલવાની પદ્ધતિ છે, તેમને વિકથા કહે છે એવી વિકથા સાત કહી છે. પહેલી ચાર વિકથાનું ચોથા સ્થ નકમાં વિવેચન કરવામાં આવ્યું છે, હવે બાકીની ત્રણ વિકથાઓનું સ્વરૂપ બતાવવામાં આવે છે-જે કથા શ્રોતાના હૃદયમાં મૃદુભાવ ઉત્પન્ન કરી નાખે છે અને કરુણ રસ માળી હોય છે તેને મૃદુકાણિકી વિકથા કહે છે પુત્રાદિકના મરણને કારણે જ નિત દુખથી પીડાતા માતાપિતા આદિ દ્વારા કરાતા કરુણ પ્રલાપથી પ્રધાનતાવાળી આ વિકથા હોય છે. જેમ કે Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानावर तथा-दर्शनभेदिनी-दर्शनं श्रद्धानं तद् भेत्तुं शीलं यस्याः सा,-कुतीर्थिकानां शानायनिशयमशंसनपरा कथा । यथा--सूक्ष्मयुक्ति शतोपेतं, सूक्ष्मवुद्धिकरं परम्। सूक्ष्मार्थदर्शिभिर्दष्ट, श्रोतव्यं वौद्धशासनम् ।। १ ।। इति । एवंविधकथया श्रोतॄणां बुद्धेऽनुरागः स्यात्तत्तश्च दर्शनभेदः स्यादिति । तथा" हा पुत्त ! पुत्त! हा वच्छ ! बच्छ !' इत्यादि। "हे पुत्र ! हे वत्स! तुम मुझको छोड़कर चले गये हो अथ मैं किसके सहारे रहगी जीऊंगी"-इस प्रकारकी यह मृत पुत्रवाली किसी अनाधिनी स्त्रीकी प्रलाप प्रधानतावाली एवं सुननेवालोंके हृदयमें करुण रसकों उत्पन्न करनेवाली रोदन क्रिया रूप उक्ति है, कुतीर्थिक जनोंके ज्ञानादिके अतिशयकी प्रशंसा करनेवाली जो कथा है, वह दर्शन भेदिनी विकथा है । यथा-" सूक्ष्म युक्तिशतोपेतं". इत्यादि। "बौद्धशासन-वुद्धसिद्धान्त-सैकड़ों सूक्ष्म युक्तियोंसे युक्त है, इसके अध्ययनसे बुद्धि में अद्भुत प्रखरता आ जाती है, जिनकी बुद्धि सूक्ष्म तत्त्वोंको अवगाहन करनेवाली है, उन्होंनेही इस सिद्धान्तको देखा हैरचा है-अत: ऐसे वुद्ध सिद्धान्तका श्रवण मनन अवश्य करना " हा पुत्त । पुत्त ! हा वच्छ ! वच्छ !” त्याह હે પુત્ર હે વત્સ! તુ મને છેડીને ચાલ્યા ગયે હવે હું તેને આધારે રહીશ ! હવે હું કેવી રીતે જીવી શકીશ ! ” આ પ્રકારના વિલાપની પ્રધાનતા વાળી અને સાંભળનાર છે હદયમાં પણ કરુણાભાવ ઉત્પન્ન કરનારી કરુણ રુદન સહિતની ઉક્તિને મૃદુકારુણિકી વિકથા કહે છે. જેનો પુત્ર મરણ પામ્યા છે એવી માતાની “હે પુત્ર” ઈત્યાદિ રૂપ જે દુખ જે દુખપૂર્ણ અને કરુણાભાવજનક વાણું હોય છે તેને મૃદુકાસણિકી વિકથા કહે છે. કુતીર્થિકાના જ્ઞાનાદિના અતિશયની પ્રશંસા કરનારી જે કથા છે તેને દર્શન ભેદિની કથા કહે છે. જેમ કે' “ सूक्ष्मयुक्तिशतोपेतं " ध्या “मोशासन (मुद्धमिद्विान्त) से। सू६५ युतिमाथी युक्त छ. તેને અભ્યાસ કરવાથી બુદ્ધિમાં અદ્દભુત પ્રખરતા આવી જાય છે. જેમની બુદ્ધિ તનું અવગાહન કરનારી છે તેમણે જ આ સિદ્ધાન્તની રચના કરી છે તેથી એવા બૌદ્ધ સિદ્ધાન્તનું શ્રવણ અને મનન અવશ્ય કરવું જોઈએ” આ પ્રકારની Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था० ७ सू० ३० सप्त विकथानिरूपणम् चारित्र मेदिनी - चारित्रं = क्रिया, तद् भेत्तुं शीला । यया-अस्मिन् काले महाव्रतानि न संभवन्ति यतः साधवः प्रमादिनोऽवीचारमचुराच जाताः न चोपलभ्यन्तेऽतिवारशोधकाः आचार्याः तेषामभावेऽतीचारकर्त्तृ साधूनां शुद्धे का कया ? easyना ज्ञानदर्शनास्यामेव तीर्थ प्रवर्त्तते इति ज्ञानदर्शनकर्त्तव्येत्येव यत्नो विधेय इति । उक्तं च 1 71 " " सोही य नत्थि नविदित करेंता नविय केइ दीसंति । तित्थं च नाणदंसण निज्जवगा चेव वोच्छिन्ना ॥ १ ॥ छाया -- शोधिच नास्ति नापि दातारः कर्त्तारो नापि च केचिद् दृश्यन्ते । तीर्थं च ज्ञानदर्शनाभ्यां निर्यापका ( नियामका) श्वत्र व्युच्छिन्नाः ॥ १ ॥ इति । चाहिये " इस प्रकार की कथासे श्रोताओंका अनुराग बुद्धमें हो सकता है, इससे दर्शनमें भेद शिथिलता आ जाती है, चरित्र नाम क्रियाका है, इस क्रिया रूप चारित्रको भेदन करने के स्वभाववाली जो कथा वह चारित्र मेदिनी कथा है, जैसे-इस कालमें महाव्रत नहीं हो सकते है- क्योंकि साधुजन प्रमादशील होते हैं, और अतिचार प्रचुर होते हैं. अतिचारोंकी शुद्धि करनेवाले आचार्यजन मिलते नहीं हैं, अतः इनके अभाव में अतिचार करनेवाले साधुजनों की शुद्धि कैसे हो सकती है ? नहीं हो सकती है, इसलिये इस काल में केवलज्ञान एवं दर्शन इनदोनोंसेही तीर्थ चलता है, अतः ज्ञानदर्शन रूप कर्तव्योंमेंही प्रयत्न विधेय है, चारित्रमें नहीं उक्तं च " सोही य नत्थि नविर्दित" इत्यादि । 1 2 કથાથી શ્રોતાઓમાં બુદ્ધ પ્રત્યે અનુરાગ ઉત્પન્ન થઇ શકે છે. તે ક રણે દનમા ભે–શિલતા આવી જાય છે. તેથી આ પ્રકારની કથાને દર્શન ભેદની વિકથા કહે છે. ચારિત્ર ભેદિની ત્રિકથા—ક્રિયાને ચારિત્ર કહે છે. આ ક્રિયા રૂપ ચારિત્રનું ભેદન કરવાના સ્વભાવવાળી જે કથા છે તેને ચારિત્ર લેઢિની વિથા કહે છે.. જેમ કે- આ જમાનામાં મહાવ્રતેાની આરાધના તા થઇ શકતી જ નથી, કારણ કે સાધુએ પ્રમાદી હૈય છે, અને તેમના અતિચારાની પશુ પ્રચુરતા હાય છે. તે અતિચારાની શુદ્ધિ કરાવનારા આચાર્યાં પણ મળતા નથી એવા આચાયનિ અભાવે અતિચારાનું સેવન કરનાર સાધુઓની શુદ્ધિ પણ કેવી રીતે થઈ શકે ? એટલે કે તેમના અતિચારાની શુદ્ધિ જ થઈ શકતી નથી તે કરણે આ જમાનામાં તા કેવળજ્ઞાન અને દશનવડે જ તીથ ચાલે છે તેથી જ્ઞાનદર્શીન રૂપ કબ્યામાં જ પ્રયત્ન કરવા ચેાગ્ય છે-ચારિત્રમાં નહીં” કહ્યુ પણ છે કે'ga af afafia" Skulle 66 स्था०-८५ Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानादः एवंविधकथया गृहीतचारित्रा अपि चारित्राद् वैमुख्यमाभजन्ते का कथा सर्दि चारित्रग्रहणोत्सुकानाम् ते तु सुतरामेव वैमुख्यमापद्यन्ते । अन एवंविधा कथा चारित्रभेदिनीत्युच्यत इति ।। सू० ३० ॥ विकथासु च वर्तमानान् साधून् आचार्या वारयन्ति, आचार्यश्च सातिशया भवन्तीति तेपामतिशयानाह - 7 मूलम् —'आयरियउवज्झायस्स णं गर्णलि सत्त अइसेसा पण्णत्ता, तं जहा - आयरियउवज्झाए अंतो उवस्सस्स पाए गिगिज्झिय णिगिज्झिय पकोडेमाणे वा पमजमाणे वा पाइ क्कमइ १, एवं जहा--पंचमट्टाणे जाव बाहिं उवस्स्स्स एग रायं वा दुरायं वा वसमाणे वा नाइक्कमइ ५, उवकरणाइसेसे ६ भत्तपाणाइसेसे ८ ॥ सू० ३१ ॥ ६७४ 1 छाया - आचार्योपाध्यायस्य खलु गणे सप्त अतिशेषाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथाआचार्योपाध्यायः अन्तरुपाश्रयस्य पादौ निगृद्य निगृह्य प्रस्फोटयन् वा प्रमार्जयन् वा नातिक्रामति १, एव यथा पञ्चमस्थाने यावत् वहिरुपाश्रयात् एकरात्रं वा द्विरात्रं वा सन् नातिक्रामति ५, उपकरणाति शेषः ६, भक्तपानाविशेषः ७ ।। सू० ३१ ॥ " चारित्र की शुद्धि करनेवालेऔर चोरिनकी शुद्धि करानेवाले ऐसे हमें कोई भी जन दिखते नहीं हैं अतः तीर्थज्ञान दर्शन से ही चल सकता है." इस प्रकारकी कथासे गृहीत चारित्रवाले भी जन चारित्रसे विमुख हो जाते हैं तो फिर जो चारित्र को ग्रहण करने के प्रति उत्कण्ठित हैं, उनको घातही क्या कहनी वे तो अपने आपही विमुग्व हो जाते हैं इसलिये इस प्रकारकी जो कथाहै. वह चारित्रको भेद करनेवाली है। सू३०| “ ચારિત્રની શુદ્ધિ કરનારી અને ચારિત્રની શુદ્ધિ કરાવનારી કોઇ પણ વ્યક્તિ અમને દેખાતી જ નથી, તેથી તીર્થ જ્ઞાનદર્શીન વડે જ ચાલે છે” આ પ્રકારની વાત સાંૠળીને ગૃહીત ચારિત્રવાળા માણુમ પણ ચારિત્રથી વિમુખ થઈ જાય છે, તે ચારિત્રગ્રહણુ કરવાની (પ્રત્રજ્યા અગીકાર કરવાની) ઉત્કંઠાવાળા માણુમની તે! વાત જ શી કરવી ! તે ચ રિત્રથ્રહળુ કરવાના વિચાર જ માંડી વળે, તેમાં કશુ નવાઇ પામવા જેવું નથી. તે કારણે આ પ્રકારની કથાને शास्त्रिने लेटनारी विश्व ही है | सू ३० ।। Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७५ सुधा का स्था०७ सू०३१ अतिशयनिरूपणम् टीका--' आयरिय उवज्झायस्स' इत्यादि- . आचार्योपाध्यायस्य-आचार्यः-केपांचिदर्थप्रदातृत्वात् , स एष उपाध्यायः केपांचित् सूत्रपदातृत्वात् , आचार्यश्चासौं उपाध्यायश्चेति आचार्योपाध्याय, यद्वा-प्राचार्योऽन्यः, उपाध्यायश्चान्यः, उमयोः समाहारे आचार्योपाध्याय, तम्य खलु गणे सप्त अतिशेपा =अतिशेषाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-आचार्योपाध्यायः उपाश्रयन्य-वसनेः अन्त:मध्ये निगृह्य निगृह्य-प्रस्फोटनेन उड्डीयमानैश्चरणरजोभित रन्ये मा निरन्निति हेतोत्रचनेन शिष्यं भूयो भूयो निवार्य पादौ प्रस्फोटयन्-' आभिग्रहिकेन ( अभिग्रहधारिणा) अन्येन वा' साधुना -सकीयरजोहरणादिना चरणयोः प्रस्फोटनं कारयन् वा, प्रमार्जयन्-यतनया शनै शनैः शोधयन् वानातिकामति जिनाज्ञामिति- प्रथम' १। तथा-आचार्योपाध्यायः अन्तराश्रयस्य इन विकथाओं में निरत साधुजनों को आचार्य रोकते हैं, क्योंकि वे आचार्य सातिशय होते हैं, अतः अब मूत्रकार उनके अतिशयोंका कथन करते हैं-"आयरियउवझायस्त णं गणसि" इत्यादि सूत्र ३२॥ , · टीकार्थ-किन्हीं २ साधुजनोंको अर्थ प्रदाता होनेसे आचार्यरूप उपाध्यायके-गगने-अथवा आचार्य एवं उपाध्याय के गणमें सात अनिशेष कहे गये हैं-जैसे-आचार्योपाध्याय “ उपाश्रयके मध्यमें पैरोंके झटकारने से उड़ी हुई चरण रज दूसरेके कार नहीं पड़े इस प्रकारसे शिष्यको चार २ मना करके स्वयं पैरोंको अभिप्रहिक-अभिग्रहधारीले या अन्य साधुजनसे अपने रजोहरण द्वारा यननापूर्वक प्रमार्जन करता આગલા સૂત્રમાં વિકથાઓનું વર્ણન કર્યું. આ વિકથાઓમા નિરત સાધુ એ ને આચાર્ય શકે છે, કારણ કે આચાર્ય સાતિશય હોય છે. તેથી હવે સૂત્ર કાર આચાર્યોના અતિશયનું કથન કરે છે. "आयरियउत्रज्झायस्स णं गणं सि" त्याह-(सू ३२) ટીકાર્યું–કેટલાક સાધુએના અર્થપ્રદાતા હોવાને કારણે આર્ચાય રૂપ ઉપાધ્યાયના ગણમાં અથવા આચાર્ય અને ઉપાધ્યાયના ગણના નીચે પ્રમાણે સાત અતિશે અતિશયે કહા છે ઉપાશ્રયની અંદર પગને ઝટકારવાથી (ઝાપટવાથી) ચરણરજ ઉ૫. યમાં બેઠેલા માણસે પર પડવાને સંભવ રહે છે. તે કારણે આચાર્ય શિષ્યોને એવી રીતે પગને ઝટકારવાની વારંવાર મના કરે છે પરંતુ આચાર્ય પિતે જ જે અગ્રિહિક-અભિચધારી પાસે અથવા અન્ય સાધુ પાસે પિતાના રજોહરણ વડે યતના પૂર્વક પિતાના પગની પ્રમાર્જન કરાવે, તે તેઓ જિજ્ઞાસાના વિરાધક ગણાતા નથી. Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૬૭૬ स्थान उच्चारप्रवणं विवेचयन् वा विशोधयन् नातिक्रामतीति द्वितीयः २। आचार्योंपाध्यायः प्रभुः-समर्थः स्वेच्छावान् भवति, अत इच्छा वैयावृत्य कुर्यात् इच्छा न कुर्यादिति तृतीय ३ | आचार्योपाध्यायः अन्तरुराश्रयस्य एकरात्रं वा द्विरात्रे चा एकाकी व नातिक्रामतीति चतुर्थः ४ | आचार्योपाध्यायो वहिरुपाश्रयादेकरात्र वा द्विरात्र वा वसन्नातिक्रामतीति पञ्चमः । एतेषां पञ्चानामपि व्याख्या पञ्चमे स्थाने द्वितीयोऽब्राविंशतितमे सूत्रे कृता तत एव गम्या । अत एवाह मूलकार:- ' एवं जहा पंचमट्ठाणे जाव वाहिं ' इत्यादि । तथा उपकरणातिशेषः= शेपसापेक्षया प्रधानोज्ज्वलवखाद्युपकरणवत्ता, उक्तं च- हुआ जिनाज्ञाका विराधक नहीं होता है १ तथा आचार्योपाध्याय उपा के भीतर उच्चारण करता हुआ जिनाज्ञाका विराधक नहीं होता है २, आचापाध्याय समर्थ होता है, अतः उसकी इच्छा होती है, तो वह अन्य साधुजनोंकी वैयावृत्ति करता है और यदि इच्छा नहीं होती है तो नहीं करता है, इस तरह की प्रवृत्तिसे वह जिनाज्ञाका 'विरावक नहीं होता है ३, आचार्योपाध्याय उपाश्रयके भीतर एक रान या दो रात अकेला यदि रहते हैं, तो वह जिनाज्ञाका विराधक नहीं होते हैं | आचापाध्यायं यदि उपाश्रय के बाहर एक रात तक या दो रात तक रहता है तो वह जिनाज्ञाका विराधक नहीं होता है ५' इन पांचों स्थानों की व्याख्या पांचवे स्थान में द्वितीय उद्देशक में २८ वे सूत्रों की जो चुकी है, अतः वहीं से देख लेना चाहिये इस-लिये सूत्रकारने ऐसा कहा है- " एवं जहा पंचमहागे जाव वाहि " (२) आयार्योपाध्याय उपाश्रयमा उभ्या प्रसव (भगभूत्रनेो निास ) કરે તેા તેમના દ્વારા જિનાજ્ઞાનું ઉલ્લંઘન થયું ગણાતું નથી. (૩) આચાર્યાં. પાધ્યાય સમથ હોય છે જો તેમની ઈચ્છા થાય તે તેઓ અન્ય સાધુ એનુ વૈયાવૃત્ય કરે છે, અને જે ઈચ્છા ન થાય તેા વૈયાવૃત્ય કરતા નથી. આ પ્રકારે વૈયાવૃત્ય કરવાથી કે ન કરવાથી તેએ જિનાજ્ઞાના વિરાર્ધક ગણાતા નથી, (૪) આચાયે પાધ્યાય જો એક એ રાત એકલા રહે, તા તે જિનાજ્ઞાના વિરાધક શ્થાતા નથી. (૫) કાઇ આચાયોપાધ્યાય એક એ-રાત્રિ પન્ત ઉપા શ્રયની ખઙાર રહે, તે તેએ જિનાજ્ઞાના વિરાધક ગણાતા નથી. આ પાચે સ્થાનાની વિસ્તૃત વ્યાખ્યા પાંચમાં સ્થાનકના બીજા ઉદ્દેશાના ૨૮ મા સૂત્રમાં આપવામાં આવી છે, ત્યાંથી વાંચી લેવી. તેથી જ સૂત્રકારે અહીં આ પ્રમાણે ४४ - " एवं जहा पंचमपणे जाव चाहि ' " Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - न सुंची टीका स्था७७ २०३१ अतिशय निरूपणम् "आयरिय गिलाणाणं, मइला मइला पुणो य धोवति ।। माहु गुरूण अवयो नावि गिलाणीय इयरेसिं ॥ १ ॥" छाया--आचार्यग्लानानां मलिनानि मलिनानि पुनरपि धान्यन्ते । मा खलु गुरूणामवर्णों नापि ग्लानि च इतरेपाम् ।। १ ।। इति ।। इति षष्ठः ६ तथा-भक्तपानातिशेषः-विशिष्ठतरभक्तपानोपभोगवत्ता। उक्ततं च--" कालभोयणो उ पयमा, परिहाणी जान कोद्रधुम्भज्जी। तत्थ मि तुप्पतरं, जत्य य जे अच्चियं दोसु ॥ १ ॥" छाया--कलमौदनस्तु पयसा परिहानि (परिहान्येत्यर्थः) यावत्कोद्रवोद्भाजी (कोद्रवान्ने) तत्रापि मृदु तुप्पतरं (धृतयुक्त) यत्र च यत् अचित्तं ( प्राप्तं ) द्वयोः (क्षेत्रकालयोः ) ॥ १॥ इति । आचार्योपाध्यायाय विशिष्ट तर मक्तपानदाने चैते गुणाः, तथाहि-- " सुत्तस्थायरीकरणं, विरओ गुरुपूय मेहबहुमाणो । दागवइ सुवुड्डी, बुद्धी वच्चद्धणं चेव ॥ १॥" छाया--स्वार्थस्थिरीकरणं विनयो गुरुपूजा शैक्षबहुमानः । दानपति श्रद्वारद्धि वुद्धिबलवर्द्धनं चैव ॥ १ ॥ इति ॥ सू० ३१ ॥ उपकरणातिशेष-शेष साधुजनोंकी अपेक्षाजो आचार्योपाध्यायमें प्रधान उज्ज्वल वस्त्रादिमत्ता होती है वह उपकरणातिशेष है उक्तं च "आयरियगिलाणाणं" इत्यादि। " भक्तपानानिशेष "-आचार्योपाध्यायका जो इतर साधुजनोंकी अपेक्षा विशिष्टनर भक्तानोपभोग वत्ता होती है, वह भक्तपानाति शेष है-उक्तं च-कल भोयणो उ पयसा' इत्यादि। आचार्योपाध्यायको विशिष्ट भक्तपान के देने में ये गुण हैं-जैसे __" सत्तत्यधिरीकरणं" इत्यादि । सूत्र ३१ ॥ (૬) ઉપકરણતિશેઢ-અન્ય સાધુઓ કરતાં આચાર્યોપાધ્યાય વધારે સારાં ઉજજવલ વસ્ત્રાદિને ઉપયોગ કરતા હોય, તે તેઓ જિનાજ્ઞાન વિરાધક ગણાતા मथा- ४ प है-"आयरिय गिलाणाण त्या" (૭) ભકત પાનાતિશેષ-અન્ય સાધુઓ કરતાં વિશિષ્ટ તર ભક્ત પાનને ઉપભંગ કરવાની પણ આચાર્યોપાધ્યાયને 2 હોય છે. તેમના આ અતિશેષને કારણે અન્ય સાધુઓ કરતાં વિશિષ્ટ પ્રકારના આકારપાનને ઉપભેગ કરનારા याय/५६44 र न परा५५ साता नथी ५ छे-“फल भोयणा ३ पयवा" या माया५.ध्यायने शिष्टत२ माहारा वाममा गुये। छे ." सत्तत्यधिरीकरण" त्याह--॥ सू ३१ ॥ Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ स्थानापों एते चाचार्यातिशयाः संयमोपकारायैव विधीयन्ते, न तु रागादिवशेनेति - संयमान, ततश्च संयमप्रतिपक्षानसंयमान , तद्देश्चिारम्भादीन् तत्पतिपक्षाननार- . म्भादींश्च प्ररूपयनि मूलम्-तत्तविहे संजमे पण्णत्ते, तं जहा--पुढविकाइय संजमे, जाव तसफाइयसंजमे ६ अजोत्रकायसंजमे ७ सत्तविहे अजमे प० गत्ते, तं जहा--पुढविकाइय असंजमे १ जाव तलकाइय असंजमे ६, अजीवकाय असंजमे ७ सत्तविहे आरंभे' पणत्ते, तं जहा--पुढविकाइय आरंभे १ जाव अजीवकाय आरंभे ७। एवमणारंभ यि ७१, एवं सारंभे वि ७ एवमसमारंभे वि ७, एवं समारंभे वि ७, एवमसमारंभे वि ७, जाव अजीवकाय असमारंभे ७॥ सू० ३२॥ छाया-सप्तविधः संयमः प्रज्ञप्तः, तयथा-पृथ्वी कायिकसंयमो १ यावत् त्रसकायिकसंयम ६, अनीवकायसंयमः ॥ सप्तविधोऽसंयमः प्रज्ञप्तः, तद्यथापृथ्वीकायिकासंयमो १ यावत् त्रप्तकायिकासंग्रमः ६, अजीवकायासंयमः । सप्तविध आरम्मः पजप्तः, तद्यथा-पृथ्वीकायिकारम्भो १ यावत् अजीकायारम्भः ७१ एवमनारम्भोऽपि ७, एवं संरम्भोऽपि ७, एवम संरम्भो पि ७, एवं समारम्भोऽपि ७, एवम समारम्भोऽपि ७, यावत् अजीबायाप्समारम्मः ७ ।। सू० ३२॥ टीका-' सत्तविहे ' इत्यादिसंयम स यमनसावधयोगात्सम्यगुपरमगं-निवृत्तिभरणं इति संयमः पृथिव्यादीनां संघट्टपरितापनोपद्रावणेभ्य उपरमो निवृत्ति इत्यर्थः स सप्तविधः प्रज्ञप्तः,तद्यथा-पृथ्वी ये आचार्यानिशय संयमके उपकारके लिये ही विहित हुए हैं, रागादिके वशसे नहीं-इसलिये अय सूत्रकार संयमोंका, संयमके प्रतिपक्षभून यमोंका उनके भेदरूप आरम्भादिकोंको एवं इनके प्रतिपक्षनून अनारम्लादिकों का प्ररूपण करते हैं -- . ઉપરના સુમા આચાર્યોના અતિશનુ નિરૂપણ કર્યું. ગાદિકની વૃદ્ધિ કરવાને નિમિત્તે તેમ તે અતિશયે વિહિત થયા નથી, પરન્તુ સંયમન ઉપ કારક હેવાને કારણે જ વિહિત થયેલા છે તેથી હવે મંત્રકાર સંયમનું, Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था० ७ सू ३२ सयमासंयमादिमेद निरूपणम् ६७९ कायिक संयमः पृथ्वीकायिकजीवानां संघट्टपरितापनोपद्रावणाकरणम् १। यावत्पदात्अकायिकः तेजस्कायिकः ३ वायुकायिकः ४ वनस्पतिकायिकः ५ सयमा ग्राह्याः । तथा - त्रप्तकायिकसंयमः- सकायिकानां द्वीन्द्रियादीनां संयमः ६। अजीवकायसंमयः-अजीवकायानां=चत्र पात्रादीनां अयतनया ग्रहणादुपभोगाच्च निवृत्तिरिति ७| अयन = पृथिव्यादीनां संघ परितापनोपद्रावणेभ्योऽनुपरमः सोऽपि पृथ्वीकायिकासंयमादिभेदेन सप्तविधो बोध्यः । तथा - आरम्भः = उपद्रावणं पृथ्वीकायासत्तविहे संजमें पपगत्ते " इत्यादि || सूत्र ३१ ॥ · टोकार्थ-सयम सात प्रकारका कहा गया है- सांवय योगसे होना इसका नाम संयम है, यह संयम पृथिव्यादिकों के संघट्टन, परितापन एवं उपद्रावण इनसे उपरम होने रूप होना है, यहां यावत्पदसे अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, और वनस्पत्तिकांयिक " इनके संयम गृहीन हुए हैं । इस प्रकार से ५ भेद एकेन्द्रिय जीवोंके संयमके हैं । तथा त्रस जीव सम्बन्धी संयमका एक भेद है, प्रकायिकमें दो इन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीव आ जाते हैं । 'संघमका ७ वां भेद है - अजीव काय संयम इस संयममें अजीव कार्य जो वस्त्र पात्रादिक हैं उनके यतनासे ग्रहण करने का और रखनेपूर्वक उपभोग करनेका है t 16 " असंयम - पृथिव्यादिक जीवोंका संघट्टन करना, परितापन करना एवं उपद्रवण करना इसका नाम असंयम है, यह असंयम भी पृथिवीસયમથી વિપરીત એવા અસયમનું, તેમના ભેદ રૂપ આરમ્ભાદિનું અને આરંભથી વિપરીત એવાં અનાર ભાર્દિકનું નિરૂપણ કરે છે“ सत्तविहे संजमे पण्णत्ते " त्याहि - ( सू ३२ ) સાવદ્યયેાગેથી નિવૃત થવુ' તેનુ' નામ સયમ છે તે સયમા નીચે પ્રમાણે सात अार छे-(१) पृथ्वी यिङ (२) अयूाथिङ, (3) 'वायुमाथिङ, (४) तेलસ્થાયિક અને (૫) વનસ્પતિકાયિકસ’યમ. અહી‘ પૃથ્વીકાયિક આદિના સંઘટન, પરિતાપન અને ઉપદ્રાવત્રુથી વિરમવા રૂપ આ સંયમ સમજવે એકેન્દ્રિય જીવાની અપેક્ષાએ સંયમના પાંચ ભેદ પડે છે . (૬)ત્રસકાયિક સયમ- દ્વીન્દ્રિયાથી લઈને પંચેન્દ્રિય પતના ત્રસકાયિક કહે છે, (૭) અજીવકાય સમવસ્ર પ્રાત્રાદિક જે વસ્તુએ છે તેને અજીકાય કહે છે તેમને યતના પૂર્વક ગ્રહણુ કરવી અને સૂકવી તથા યતના પૂર્ણાંક તેમને ઉપભેાગ કરવેા તેનુ નામ અજીવ કામ સયમ છે, + અસંયમ-પૃથ્વીકાય આદિ જીવેતુ' સઘટ્ટન કરવું', પરિતાપન કરવુ' અને ઉપદ્રવણુ કરવું તેનું નામ અસયમ છે, તે અસ’યમને પણ પૃથ્વીકાયક અસ Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । स्थानासूत्र १८० रम्भादिभेदेन सप्तविधः। एवमनारम्भोऽपि मप्तविधो वोध्यः । तथा-संरम्भ:हिमाविषयः सकल्प पृथ्वी कायिक संरम्भादिभेदेन सप्तविधः । एवमसंरम्भोऽपि साविधो वोध्यः। तया-समारम्भः परिताप -पृथ्वीकायिक समारम्भादिभेदेन सप्तविधः एवमपमारम्भोऽपि सप्तविधो बोध्यः । आरम्भादीनामुपद्रावणादिरूपा अर्था अन्यत्राप्युक्ताः, सथाहि-" आरंभो उद्दवमओ, परितावकरो भवे समारंभो । संकप्पो संरभो, सुद्ध नयाणं तु सव्वेसि ॥ १ ॥ छाया-आरम्भ उपद्रवतः परितापको भवेत् समारम्भः ।। संकल्पः संरम्भः शुद्रन यानां तु सर्वेषाम् ॥ १ ॥ इति । कायिक असंयम आदिके भेदसे सात प्रकारका होता है । इसी प्रकारसे आरम्भ भी पृथिवीकायारम्भ आदिके भेदसे सात प्रकारका होता है, इसी प्रकारसे अनारम्भ भी सात प्रकारका होता है, तथा हिंसा-विष. यक संकल्प रूप संरम्भ पृथिवीकायिक संरम्भ आदिके भेदसे सात प्रकारका होता है, इसी तरहसे असरम्भ भी सात प्रकारका होता है, तथा समारम्भ भी-चरिताप भी-पृथिवीकायिक समारम्भादिके भेदसे मात प्रकारका होता है, इसी तरहसे असमारम्भ भी सात प्रकारका होता है, आरम्भ आदिकोंके उपद्रावण आदि रूप अर्थ अन्यत्र भी कहे गये हैं, जो इस प्रकारसे हैं-- "आरम्भो उद्दवओ" इत्यादि। एकेन्द्रियादिक जीवोंका उपद्रवण करना यह आरम्भ है, उन्हें संतापयुक्त करना यह समारम्भ है, तथा उन्हें कष्ट आदि पहचाने का યમ આદિ સાત ભેદ કહ્યા છે. એ જ પ્રમાણે અનારંભના પણ પૃથ્વીકારિક અનારંભ આદિ સાત ભેદ પડે છે. તથા હિંસાવિષયક સંકલ્પરૂપ સંરંભના પણ પૃથ્વીકાયિક સંરંભ આદિ સાત ભેદ કહ્યા છે અસંરંભના પણ પૃથ્વીકાયિક અસંરંભ આદિ સાત ભેદ કહ્યા છે સમારંભન (પરિતાપ)ને પણ પૃથ્વીકાયિક સમારંભ આદિ સાત ભેદ કહ્યા છે એ જ પ્રમાણે અસમારંભના પણ પૃથ્વીકાલિક અસમારંભ આદિ સાત ભેદ કહ્યા છે, આરંભાદિકના ઉપદ્રાવણ આદિ રૂપ અથે અન્યત્ર પણ ५४८ ४२५ मा मास , २ नीय प्रमाणे छ- . "आरभो उहवओ" माहि એકેન્દ્રિયાદિક નું ઉપદ્રાવણું કરવું તેનું નામ - આરંભ છે. તેમને સંતાપપુક્ત કરવા તેનું નામ સમારભ છે, તથા તેમને કઈ અ દ પહોચાડવાને Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था-७ सू०३२ सयमासंयमादिमेदनिरूपणम् ८६८१ } ननु आरम्भादीनामुपद्रावणादयोऽर्या अभिहिताः अजीचेषु च तदसंभवात् अजीत्रकायारम्भादयोऽसंम्भविनः ततथ आरम्भादीनां यत् सप्तविधत्वमुक्तं तदसंगतम् ? इतिचेत्, आठ अनीनेषु वस्त्रपात्रादिषु समाधिना ये जीवास्तदपे क्षया आरम्भादय संभवति अथवा अपतनया ग्रहणे स्थापने च पात्रादीनां वायुकायोदीरणात् भयं जीवविरावना संभवति । जीवाच अनीवाश्रिता इति अजीवस्य प्राधान्यात् अनी कायारम्भाद्युक्तिर्न विरुध्यते इति आरम्भादीनां सप्तविधत्वं निरवद्यमेवेति ॥ सू० ३२ ॥ विचार करना यह संकल्प रूप संरम्भ है । शंका- आरम्भ आदिकों के जो ये उपद्रावण आदि रूप अर्थ प्रकट किये गये हैं-सो अजीवोंनें ये घटिन नही होते हैं - अतः अजीब कायारम्भ आदि वहां नहीं बन सकते हैं, इसलिये वहां नहींबन सकने के कारण आरम्भ आदिकों में जो सप्तविधता कही गई है, वह ठीक नहीं बैठती है ? उत्तर -- ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि अजीब जो वस्त्रपात्रादिक हैं, उनमें समाश्रित जो जीव हैं, सो उनकी अपेक्षासे आरम्भ आदिक होते हैं, अजीवात जीव होते हैं, इसलिये अजीव की प्रधानता लेकर अजीव कायारम्भ आदिका कथन विरुद्ध नहीं पड़ता है, इस तरह आरम्भ आदिकों में सप्त प्रकारताका प्रतिपादन निर्दोषही है, अथवा अघतनासे लेने में और रखने में वायुकाचादिककी अवश्य विराधना होती है ||०३२|| વિચાર કરવા રૂપ સપનુ' નામ સ ́ર ભ છે, શ’કા—આરંભ દિકાના જે ઉપદ્રાવણુ આદિ રૂપ અર્થ પ્રકટ કરવામાં આવ્યા છે, તેમને અજીવામાં ઘટાવી શકાતા નથી. તેથી અહીં અજીવકાય 'રભાદિ રૂપ પ્રકાર સભવી શકતા નથી. તે કારણે આરંભ આફ્રિકાના સાત પ્રકાર કહેવાને બદલે ૬ પ્રકાર જ ઠંડેવા જોઇએ. ઉત્તર–આ પ્રકારની શકા અસ્થાને છે, કારણ કે વસ્ત્રાદિક અજીવામાં અનેક જીવે આશ્રય લઈને રહેલા હોય જો વજ્રપાત્રાદિકને યતનાપૂર્વક તેમને ઉપભેગ કરવામાં ન આવે, તે તેમને અશ્રયે રહેલા જીવાતું ઉપમન આદિ થવાના સ’ભવ રહે છે. અજીત્રાશ્રિત જીવ હાય છે, તેથી અજીવની પ્રધા નતાને લીધે અજીવકાયારભ આદિનું કથન વિરુદ્ધ પડતું નથી. આ પ્રકારે આરભ આફ્રિકાના સાત પ્રકાર કહેવામાં કોઈ દેષ નથી અથવા અયતના પૂર્વીક વસ્ત્રા દિકને લેવા મૂકવાથી વાયુકાયિકાની અવશ્ય વિરાધના થાય છે. !! સૂ. ૩૨ ॥ स्था०-८६ Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ अनन्तरसूत्रे संयमादयो जीवविषयत्वेन उक्ता इति जीवविशेषस्य स्थिति मरूपयति___ मूलम्-अह भंते ! अयसिकुसुंभकोदवकंगुरालगकोदूसगसणसरिसवसूलबीयाणं एएसिणं धन्नाणं कोट्ठाउत्ताणं पल्लाउत्ताणं जाव पिहियाणं मुदियाणं लंछियाणं केवइयं कालं जोणी संथिइ १ गोयमा ! जहणेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं सत्त संवच्छराई, तेण परं जोणी पमिलायइ जाव जोणीवोच्छेए पण्णत्ते ॥ सू० ३३॥ ___ छाया-अथ भदन्त ! अतसीकुसुम्भकोद्रवकारालककोदूपकसणसर्पपमूलवीजानाम् एतेषां खलु धान्यानां कोष्ठागुप्तानां पल्यागुप्तानां यावत् पिहितानां मुद्रितानां लाब्छितानां कियन्तं कालं योनिः संन्तिप्ठते ? गौतम ! जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम् उत्कर्षेण सप्त संयत्सरान् , ततः परं योनिः प्रम्लायति यावद् योनिव्युच्छेदः प्रज्ञप्तः ।। सू० ३३ ॥ टीका-'अह भंते ' इत्यादि___ अयेति प्रश्ने, भदन्तेति भगवदामन्त्रणे हे भदन्त ! अतसीकुसुम्भकोद्रवङगु रालककोदूषकलणमपमूलवीजानाम्-तत्र असी= अलसी' इति भाषामसिद्धो धान्यविशेषः, कुसुम्मस्-सुम्माख्यधान्यविशेपः, कोद्रवा=' कोदो' इति भाषा इस ऊपर के स्वनमें संयम आदि के जीय विषयवाले कहे गये हैं, सो अप सूत्रकार जीव विशेषकी स्थितिकी प्ररूपणा करते हैं-- " अहं भंते ! अयरिखकुसुंभ" इत्यादि । सूत्र ३३॥ टीकार्थ-यहां " अथ" यह शब्द प्रश्नमें आया है, शिप्य प्रश्न करता है-हे भदन्त ! अतसी-अलसी, कुसुम्भ-इस नामका धान्य विशेष, कोद्रव-कोदों, क-गु-कांगणी, रालक-कागनीकाही एक भेद - આગલા સૂત્રમાં સંયમ આદિને જીવવિષયક કહેવામાં આવેલ છે. પૂર્વ કે સત્ર સાથેના આ પ્રકારના સંબંધને લઈને હવે સૂત્રકાર જીવવિશેષની સ્થિતિની ३५। ४२ छ-" अह भंचे। अयप्ति कुसुभ" त्याहि-(सू 33) सूत्रनी २३मातभा २ " अह" ५६ मायु ते मला पाय छे. मी શિષ્ય ગુરુને આ પ્રમાણે પ્રશ્ન પૂછે છે-હે ભગવદ્ ! અળસી કુસ્મ (એક प्रातुं धान्यविश५), ६२, ४in (मे तनुं धान्य), AR४ (sini Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , 1 सुधा टीका स्था०७ सु०३३ अतसीकुसुमादिधान्यानां यौनिकाल निरूपणम् ६८३, प्रसिद्धो धान्यविशेषः ' कगुः '=' कागणी ' इति भाषामसिद्धः, रालकः कगु भेदः, कोदूषकः = कोद्रवभेदः समः - प्रसिद्धः सर्पपः - प्रसिद्धः, मूळबीजानिमूलस्य = ' मूळा ' इति प्रसिद्धस्य बीजानि, एतेषामितरेतरयोगद्वन्द्वः, तेषां तथाभूतानाम्, एतेषां खलु धान्यानां कोष्ठागुप्तानाम् - कोष्ठे = ' कोठा ' इति प्रसिद्धे धान्याधारे आगुप्तानि = प्रक्षेपेण संरक्षितानि कोष्ठागुप्तानि तेषां तथोक्तानां, तथा पल्यागुतानाम् - पल्यं = वंशकटकादिकृतो धान्याधारपात्रविशेषः, तत्र आगुसानाम् यावत्पदेनमश्चागुप्तानाम्, मालागुप्तानाम् अवलिप्तानाम्, लिप्तानाम् - इति संग्रहः । तत्र - मञ्चागुप्तानाम् - मञ्चः = स्थूणानामुपरिस्थापितवंश फटका - दिमयो कोकप्रसिद्धः, तत्रागुप्तानाम्, मालागुप्तानाम्, माली - मालकः - गृहोपरितनभागः, तत्र आगुप्तानाम्, अवलिप्तानाम् = द्वारदेशं पिधाय गोमयादिनाऽवलिप्तानाम्, लिप्तानाम् = सर्वतः कुवलेपानाम् पिहितानाम् आच्छादितानाम् मुद्रितानाम् = मृत्तिकादिभिर्मुद्रितानां लाञ्छितानाट्र- रेखादिभिः कृतलान्छनानां कियन्तं कालं योनिः उत्पत्तिशक्तिः सन्तिष्ठते = भवति । इति शिष्यप्रश्नः । कोदूषक - कोर्दोका एक भेद - ' सण - सनसर्पप- सरसो और मूलाके जये जब कोष्ठागार में सुरक्षित रखे हुए हों - धान्यके आधारभूत कोठेसे बनाये हुए पिटारे में भरकर सुरक्षित रखे हुए हों, यावत्-मञ्चा गुप्त हों-खंभों के ऊपर स्थापित वंश कटक आदिले बनाये गये मञ्चों में भरकर रखे हुए हों, अवलिप्त हों-द्वारदेशको ढंककर गोमय आदिसे लीप पोतकर किसी कुठिया आदि में भरकर रखे हुए हों लिप्त हों चारों तरफ से लेप करके एक स्थान पर एकत्रित करके ढककर रखे हुए हों पिहित हों - सामान्य रूपसे ढंककर रखे गये हों, मुद्रित हों-मिट्टी आदिसे छाकर किसी पात्र विशेष में बन्द करके रखे हुए हों, एवं लेह ), इ ( अहराना ४ थे लेह), शत्रु, सरसत्र मने भूणानां ખીજાને કાઈ કાઠારમાં ભરી રાખવામાં આવેલ હાય, અથવા પલ્યાશુમ હાયવાંસની ચટ્ટાઇએમાથી અનાવેલા પટારામાં ભરીને સુરક્ષિત રાખવામાં આવેલ હાય, મ’ચાશુમ હાય-થાંભલાએને આધારે ઊભા કરેલા કેઈ ઊંચા માંચડા પર સંગ્રહ કરવામાં આવેલ હાય, અલિપ્ત હાય-કૈાઈ કાઠી આદિમાં ભરીને તેના ઢાંકણાને છાણુ, માટી આદિ વડે લીપીને બધ કરવામાં આવેલ હાયસામાન્ય રૂપે ઢાંકીને રાખેલ હાય, મુદ્રિત હાય, માટી આદિ વડે લીપી લઈને કોઈ પાત્ર વિશેષમાં બધ કરીને રાખેલ હાય, અને લાંછિત હાયલાખ આદિ વડે સીમહેાર કરીને કાઈ પણ પાત્ર વિશેષમાં ભરી રાખ્યો Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८४ स्थानागपत्र उत्तरयति-गौतम ! जघन्येन अन्तर्मुहर्तम् , उन्कर्पण सन्त संवत्सरान् योनिः सन्निष्ठते, ततः परं योनिः प्रम्लायतिवर्णादिना हीयते, यावत्पदेन-ततः परं योनि, विध्वंसते-विनाशाभिमुखी भवति, ततः पर बीजम् अबीजं भवति-उस्तमपि तद् नाफरम् उत्पादयति, इत्येपां संग्रहः, ततः परं योनिव्युच्छेदः जननशक्तिविनाशः प्रज्ञप्त इति ।। १० ३३ ॥ पुनरपि जीवविशेषाणां स्थिति प्ररूपयति. मूलम्-बायर आउकाइयाणां उक्कोसेण सत्त वाससहस्साई लिई पणत्ता । तच्चाएणं वालुयप्पमाए पुढबीए उक्कोलेण नेरइयाणं सत्त सागरोजमाइं ठिई पणता । चउत्थीए णं पंकलाञ्छित हो शीलमुहर करके कहीं भी भरकर रखे हुए हों तो इन सरकी किनने काल तक योनि-अङ्घरोत्पादक शक्ति रहती है ? उत्सर-हे गौतम ! इनकी योनि जघन्यले एक अन्तर्मुहर्त तक रहती है, और उस्कृष्ट से सात साल वर्ष रहती है । इसके बाद योनि म्लाज हो जाती है, वर्गादिस्से हीन हो जाती है-यावत् अङ्कुरोलादन शक्ति का विनाश हो जाता है, यहां यावदसे-ततः परं योनिः विध्वंसते " इसके बाद योनि विनाशके अभिमुग्व हो जाती है "ततः परं वीजं अपीजं भवति" धोये जाने पर भी वह बीज अङ्करको उत्पन्न नहीं करता है" इस पाठ का संग्रह हुआ है, अर्थात् कहे हुए अलसी आदि सात वर्षके बाद अचित्त हो जाते है । सू० ३३ ॥ હૈય, તે તે બીજોમાં કેટલા ક ળ સુધી બીજોપાદન શક્તિ રહે છે એટલે કે કેટલા વર્ષ સુધી તેમની નિને વિચ્છ થતો નથી ? * ઉત્તર-હે ગૌતમ ! ઓછામાં ઓછા એક અતિમુહૂર્ત સુધી અને વધારેમાં વધારે સાત વર્ષ સુધી તેમની નિ રહે છે, અર્થાત્ ઉત્પાદનશકિત બની રહે છે. ત્યાર બાદ તેમની નિ મ્યાન થઈ જાય છે, વર્ણાદિથી વિહીન થઈ Mय छ, ( यावत्) मन माम ते भी नी २५ रोपाइन रातिना विनाश થઈ જાય છે, અહીં “યાવત્ ” પત્ર દ્વારા નીચેને સૂવપાઠ ગ્રહણ કરવાને छ-"तत. पर योनिः विध्वंसते" त्या२ ॥ यानि विनाश थवा मा छे. " तब परं वीजं अबीजं भवति ' त्या२ मा पा4-14 मा त ५५ तभी અં ત્પાદન કરી શકતું નથી. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે ઉપર્યુક્ત અળસી અ દિ ધાન્યમાં વધારેમાં વધારે સાત વર્ષ સુધી અંકુરોત્પાદન શક્તિ રહે છે ત્યાર બાદ તે તેઓ અચિત્ત જ બની જાય છે કે સૂ ૩૩ છે Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०७ ०३४ वादराकायिकादीनां स्थितिकालनिरूपणम् ६४५ प्पभाए पुढवीए जहन्नेणं नेरइयाण सत्त सागरोक्माई ठिई पण्णत्ता ॥ सू० ३४ ॥ छाया-चादरापकायिकानाम् उत्कर्पण सात वर्षसहस्त्राणि स्थितिः प्रज्ञप्ता। तृती. यस्यां खलु वालुकाप्रभायां पृथिव्याम् उत्कर्षण नैरयिकाणां सप्त सागरोपमाणि स्थिति. प्रज्ञप्ता । चतुझं खलु पङ्कनभायां पृथिव्यां जघन्येन नैयिकाणां सप्त सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता । म० ३४ ॥ टीका-'वायर आउझाइयाणं' इत्यादि व्याख्या सुगमा । नवरम्-वादराणामप्कायिकानां जघन्येनान्तर्मुहूर्तम् । सूक्ष्माणां तु जघन्योत्कर्षेणान्तर्मुहूर्तम् । वालुकामभास्थितनैरयिकाणां जघन्येन त्रीणि सागरोपमाणि । पङ्कप्रभास्थितनैरयिकाणाम् उत्कर्षेण दश सागरोपमाणीति ।मु० ३४ ॥ __ अब सुत्रकार पुनः जीव विशेषों की स्थितिकी प्ररूपणा करते हैं" चायर आउकाइयाणं उनोसेण सत्तवाससहस्साई इत्यादि स्त्र० ३४ ॥ टीकार्य-चादर अकायिक जीवोकी उत्कृष्ट स्थिति हजार वर्षकी है। तीसरी वालुका प्रनामें उत्कृष्ट से नैरयिकों की सात सागरोपनकी स्थिति कही गई है, चौथी पङ्कप्रभा पृथिवी में जघन्य ले रयिकों की स्थिति सान सागरोपम की कही गई है। इसकी व्याख्या सुगम है, चादर अपकाधिक जीवोली जघन्य स्थिति अन्नहर्त की है, तथा सूक्ष्म अप्काधिक जीवों की उत्कृष्ट स्थिति और जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूत की है। वास्तुकाप्रमास्थित नैरयिक जीवों की जघन्य स्थिति तीन सागरोपान की है, एवं पङपभास्थित नैरयिकों की उत्कृष्ट स्थिति १० सागरोपम की है। सू० ३४॥ સૂત્રકાર હવેના સૂત્રમાં પણ કેટલાક જીવવિશેષની સ્થિતિ પ્રરૂપણ ४रे छे.-"बायर आउ काइयाणं उक्कोसेण सत्तवास सहरमाई " त्याहि-(सू ३४) બાદર અપ્રકાયિક જીવની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ સાત હજાર વર્ષની કહી છે. ત્રીજી વાલુકાપ્રભા નામની નરકપૃથ્વીના નારકની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ સાગરોપમની કહી છે. ચેથી પકપ્રભા નામની જઘન્ય સાત સાગરોપમની કહી છે. આ સૂત્રની વ્યાખ્યા સુગમ છે બાદર અપ્રકાયિક જીવે ની જઘન્ય સ્થિતિ અનર્મુહૂર્તની કહી છે. સૂમ અપૂકાયિક જીવની જઘન્ય સ્થિતિ અને ઉત્કૃષ્ટસ્થિતિ, અને અન્તર્મુહૂર્ત જ કહી છે. વાલુકાપ્રભાના નારકેની જઘન્ય સ્થિતિ ત્રણ સાગરોપમની કહી છે અને પંકપ્રભાના નારકોની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ ૧૦ સાગરોપમની કહી છે કે સૂ૩૪ Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाङ्गसूत्र ___ अनन्तरसूत्रे नारकाणां स्थितिरुक्ता, इति स्थितिशरीरादिभिस्तत्साधाद पभिः सूत्रैर्देववक्तव्यतामाह मूलम्-सकस्ल णं देविंदस्स देवरन्नो वरुणस्स महारत्नो सत्त अग्गामहिसीओ पण्णताओ । ईसाणस्त णं देविंदस्स देवरन्नो सोमस्ल महारन्नो सत्त अगमहिसीओ पण्णत्ताओ। ईसा. णस्त देविंदराम देवरलो जमस्त महारनो सत्त अग्गमहि. सोओ पण्णत्ताओ ॥ सू० ३५ ॥ छाया-शक्रस्य खलु देवेन्द्रस्य देवराजस्य वरुणस्य महाराजस्य सप्त अग्रमहिण्यः प्रज्ञताः । ईशानस्य खलु देवेन्द्रस्य देवराजस्य सोमस्य महाराजस्य सप्त अग्नमहिण्यः प्रज्ञप्ताः । ईशानस्य खलु देवेन्द्रस्य देवराजस्य यमस्य महाराजस्य सप्त अग्रमहिष्यः प्रज्ञप्ताः ॥ सू० ३५ ।। टीका-'सकस्स णं' इत्यादि देवेन्द्रस्य देशानां मध्ये ऐश्वर्यसम्पन्नस्य अत एव देवराजस्थ=देवानाम धिपस्य शक्रस्य-सौधर्म कलाधिपस्य दाक्षिणात्येन्द्रविशेपस्य आज्ञायां स्थितस्य ऊपर के सूत्र में नारकों की स्थिति कही गई है-सो अब सूत्रकार स्थिति और शरीर आदि के द्वारा नारकों के साधम्र्य को लेकर ६ सूत्रों से देववक्तव्यता का कथन करते हैं लक्कलणं देविदाल देवरन्नो' इत्यादि । ९० ३५ ।। स्त्रार्थ-देवेन्द्र देवराज शक के लोकपाल वरुण सदाराज की सात अग्रमहिषियां कही गई हैं, देवेन्द्र देवराज ईशान के लोकपाल सोम महाराज को सात अग्रमहिपियां कही गई हैं। देवेन्द्र देवराज ईशान के लोकपाल यम महाराज की सात अग्रमहिषियां कही गई हैं। ઉપરના સૂત્રમાં નારકોની સ્થિતિની પ્રરૂપણ કરવામાં આવી છે. હવે સ્થિતિ અને શરીર આદિ દ્વારા નારકેના સાધમ્યને લીધે છ સૂત્રે વડે દેવ વક્તવ્યતાનું સૂત્રકાર કથન કરે છે – 'सक्कस्मणं देविदास देवरणो" त्याहि-(सू ३५) સૂત્રાર્થ-દક્ષિશુનિકાયને ઈન્દ્ર છે. તે દેવેન્દ્ર દેવરાજ શકના લેકપાલ વરુણ મહારાજને સાત અગ્નમહિષીઓ છે. દેવન્દ્ર દેવરાજ ઈશાનના લેપાલ સેમ મહારાજને પણ સાત અગ્રમહિષીઓ છે. Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुषा टीका स्था०७ सू०३५ शक्रेशानयोरप्रमहिषी संख्या-स्थितिनिरूपणम् ६८७ वरुणस्य-पश्चिमदिक्पालस्य महाराजस्य=प्रचुरशोभाशालिनः सप्त अग्रमहिष्यो वोध्याः। तथा-देवेन्द्रस्य देवराजस्य ईशानस्य-ईशानकल्पाधिपस्य औदीच्येन्द्रविशेपस्य आज्ञायां स्थितस्य सोमस्य पूर्वदिक्पालस्य सप्ताअमहियो योध्याः। तथाईशानेन्द्राज्ञावर्तिनो यमस्य-दक्षिणदिक्पालस्य सप्ताग्रमहिन्यो बोध्याः ॥सू०३५ ॥ मूलम् -ईसाणस्ल णं देविंदस्स देवरलो अमितरपरिसाए देवाणं सत्त पालिओवमाई ठिई पण्णत्ता । सकल पं देविंदस्त देवरन्नो अगमाहितीणं देवीणं सत्त पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता । सोहम्मे कप्पे परिगहियाणं देवीणं उकोसेणं सत्त पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता ॥ सू० ३६ ॥ टीकार्थ-देवों के बीच में ऐश्वर्य सम्पन्न होने से देवेन्द्र एवं देवों के अधिपति होने से देवराज ऐसे सौधर्म कल्प के अधिपति दाक्षिणात्येन्द्र विशेष की आज्ञा में स्थित पश्चिम दिक्पाल वरुण हैं, ये प्रचुर शोभाशाली हैं अतः इन्हें महाराज कहा गया है, ईशानकल्प के अधिपति ईशान हैं ये उत्तर दिशा के इन्द्र हैं, इनकी आज्ञा में-सोम महाराज रहते हैं, ये पूर्व दिशा के अधिपति हैं । दक्षिण दिशा के अधिपति यमलोकपाल हैं, ये भी ईशानेन्द्र की आज्ञा में रहते हैं। इन सब लोकपालों की ७-७ अग्रामहिषियां कही गई हैं। सूत्र ३५ ॥ ટીકાઈ–દેવેન્દ્રદેવરાજ ઈશાનના લેકપાલ યમ મહારાજને પણ સાતઅમહિષીઓ છે. શક દક્ષિણનિકાયના રેને અધિપતિ હોવાથી તેને “દેવરાજ' તે દક્ષિણનિકાયના દેવોને અધિપતિ હોવાથી તેને “દેવરાજવિશેષણલગાડયું છે. વળી બધા દેવામાં તે વિશેષ એશ્વર્યસંપન્ન હોવાથી તેને “દેવેન્દ્ર” વિશેષણ લગાડ્યું છે. ઈશાન કલ્પને અધિપતિ ઈશાન છે. તે ઉત્તરનિકાયના हेवोनी मधिपति छ. तन हेवेन्द्र' भने 'हेव२१४' मा विशेष। લગાડવાનું કારણ પણ ઉપર પ્રમાણે જ સમજવું. દક્ષિણનિકાયના અધિપતિ શકની આજ્ઞામાં સ્થિત એ પશ્ચિમ દિશાને જે દિકપાલ છે તેનું નામ વરુણ છે તે અત્યંત શેભાશાલી હોવાથી તેને અહીં “વરુણ મહારાજ ” કહેવામાં આવેલ છે. દેવેન્દ્ર દેવરાજ ઈશાનના એક લોકપાલનું નામ મ મહારાજ છે. તેઓ પૂર્વ દિશાના અધિપતિ છે. તેમના બીજા લેકપાલનું નામ યમ મહારાજ છે. તેઓ દક્ષિણ દિશાના અધિપતિ છે આ વરુણ, સોમ અને યમ નામના લેપાલેને સ ત સાત અગ્રમહિષીઓ છે. તે સૂ૩પ ! Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६.८ स्थानाङ्गमुत्रे छाया-ईशानस्य खलु देवेन्द्रस्य देवरा नस्य आस्पन्तरपरिपदि देवानां सप्त पल्योपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता । शकस्य खलु देवेन्द्रस्य देवराजस्य अग्रमहिपीण देशीनां सप्त पल्योपमानि स्थितिः प्रज्ञाता । सौधर्मे कल्पे परिगृहीतानां देवीनाम् उत्कर्षण सप्त पल्योपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता ।। सू० ३६॥ टीका--'ईसाणला गं' इत्यादि पोख्या स्पष्टा । नवरं-परिगृहीतानां भार्यात्वेन स्वीकृतानामिति भावः ॥ सू० ३६ ॥ ___ मूलम्-सारस्सयमाइचाणं सत्त देवा सत्त देवसया पण्णत्ता। गहतोगतुसियाणं देवाणं पत्त देवा सत्त देवसहस्सा पण्णत्ता ॥ सू० ३७ ॥ छाया-सारस्वतादित्यानां सप्त देवाः सप्त देवगतानि प्रज्ञप्तानि । गर्द. तोगतपितानां देवानां सप्त देवाः सप्तदेवसहस्राणि प्रज्ञप्तानि ॥ सू० ३७ ॥ टोका-'सारस्सय ' इत्यादि सारस्ता आदित्याः गईतीयास्तुपिताश्च लोकान्तिका देवाः। तेषु सारस्व. तादित्यानां सात देवाः प्रधानाः, तदितरे च सप्त शतानि देवाः। गदेतोयतुपिताना मध्ये सप्त देवाः प्रधानाः, तदितरे च सप्तसहस्राणि ॥ सू० ३७॥ "ईसाणस्त णं देविंदस्त देवरन्नो' इत्यादि ॥ ग्लू० ३६॥ टीकार्य-देवेन्द्र देवराज ईशानकी आन्तर परिषदामें वर्तमान देवोंकी ७ पस्योपम की स्थिति कही गई है । देवेन्द्र देवराज शक्र की अग्रम हिपियों की स्थिति सात पल्यापम की कही गई है। सौधर्मकल्प में भार्या रूप से स्वीकृत हुई देवियों की स्थिति उत्कृष्ट से सात पल्योपम की कही गई है । ३६।। ___ " सारस्नयमाहच्चाणं सत्त देश " इत्यादि । स्मृ० ३७ ॥ टीकार्य-सारस्वत आदित्य, गर्दतोय, और तुषित ये लोकान्तिक देव। इन में सारस्वत और आदित्य इनके सात देव प्रधान हैं। और इन " इमाणस्स ण देवि दरस देवरण्णो ' त्या-(सू ३६) ટીકાઈ–દેવન્દ્ર દેવરાજ ઈશાનની આભ્યતર પરિષદના દેવેની સાત પલ્યોપમની સ્થિતિ કહી છે દેવેન્દ્ર દેવરાજ શકની અગ્રમહિષીઓની સ્થિતિ સાત પલ્યો પમની કહી છે સૌધર્મ કલ્પમાં ભાર્યા રૂપે સ્વીકૃત થયેલી દેવીઓની ઉતકૃષ્ટ સ્થિતિ સાત પઢ્યાયમની કહી છે કે સૂ ૩૬ છે __"सारम्सयमाच्चाणं सेत्त देवा" प्रत्याहि-(सू ३७) थ-सा२२वत, साहित्य, गाय, मने तुषित, मे सन्ति । छे. તેમાંથી સારસ્વત અને આદિત્ય દેવેમાં સાત દેવો પ્રધાન (મુખ્ય) Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था09 सू०३८ सनत्कुमारादि कल्पस्थितदेवस्थितिनिरूपणम् ६८९. मूलम्-सर्णकुमारे कपरे उक्कोलेणं देवाणं सत्त सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता । माहिंदे कप्पे उक्कोसेणं देवाणं सातिरेगाई सत्त सागरोवनाई ठिई पण्णत्ता । बंभलोगे कप्पे जहणणेणं देवाणं सत्त सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता ॥ सू९ ३८॥ छाया--सनत्कुमारे कल्पे उत्कर्पण देवानां सप्त सागरोपमाणि स्थितिः, प्रज्ञप्ता। माहेन्द्रे कल्पे उत्कर्षेण देवानां सातिरेकाणि सप्त सागरोपमाणि स्थिति प्रज्ञप्ता । ब्रह्मलोके कल्पे जघन्येन देवानां सप्त सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता ॥ सू० ३८ ॥ टीका-'सणंकुमारे कप्पे' इत्यादिव्याख्या सुगमा । सू० ३८ ॥ मूलम्-बंगलोयलंतएसु णं कप्पेसु विमाणा सत्त जोयणसयाइं उड्डे उच्चत्तेणं पण्णत्ता ॥ सू० ६९ ॥ से भिन्न और भी सात सौ देव हैं । इसी तरह गर्दतीय और तुषित इनके मध्य में सात देव प्रधान हैं और इनसे भिन्न सात हजार और भी देव हैं ॥ सूत्र ३७ ॥ ___ "सणंडमारे कप्पे उक्कोसे णं देवाणं " इत्यादि । सू० ३८॥ टीकार्थ-सनत्कुमार कल्पमें देवों की उत्कृष्ट स्थिति सात सागरोपमकी कही गई है। माहेन्द्र कल्म में देवों की उत्कृष्ट स्थिति सात सागर से कुछ अधिक कही गई है। ब्रह्मलोक कल्प में देवों की जघन्य स्थिति सात सागरोपम की कही गई है। सूत्र ३८ ॥ છે, અને તે સિવાયના બીજા ૭૦૦ સામાન્ય દે છે. એ જ પ્રમાણે ગઈ તેય અને તુષિત દેવમાં સાત દે મુખ્ય છે અને તિ સિવાયના સાત હજાર બીજા દે છે. તે સૂ ૩૮ છે " सणंकुमारे कप्पे उक्कीसेणं देवाणं " त्या-(सू ३७) ટીકાથ–સનકુમાર કદ માં દેની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ સાત સાગરોપમની કહી છે. મહેન્દ્ર કલ્પમાં દેવની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ સાત સાગરોપમ કરતાં થોડી વધારે કહી છે. બ્રક કપમ દેવોની જઘન્ય સ્થિતિ સાત સાગરોપમની કહી છે.સૂ ૩૮માં स्था०-८७ Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - - - T ' t Frm:TerarmTE BETTEST COtE- स्थानाङ्गले छाया-ब्रह्मलोकलान्तकयोः खलु कल्पयोर्विमानानि सप्त. योजनशतानि ऊर्ध्वमुञ्चत्वेन प्रज्ञप्तानि ॥ सु० ३९॥ - 'टीका--'मलोयलतपसु ' इत्यादि-- व्याख्या स्पष्टा-॥ मु०,३२० .. :___ म्लम्-भवणवासीणं देवाणं 'अवधारणिजा, सरीरमा उको सेणं सत्त रयणीओ उ उच्चत्तेणं पण्णता । एवं वाणमंतराणं एवं जोइसियाण । सोहम्भीसाणेसुण कप्पेसु देवाण भवधार: णिजगा सरीरंगा सत्त रयणीओ, उड्डे उच्चत्तेणं पण्णता सू१४०॥ छाया--भवनवासिनां देवानां भवधारणीयानि शरीरकाणि । उत्कर्षेण सप्त रत्नीः ऊर्ध्वमुच्चत्वेन प्रज्ञप्तानि । एवं व्यस्तराणाम्एक भवनवासिनाम्- सौधर्मेशानयोः खलु कल्पयोः देवानां भवधारणीयाणि शरीरकाणि सात रतीरूद्धमुच्चत्वेन प्राप्तानि ।। मु० ४० ।। - टीका--भवर्णवासी इत्यादि व्याख्या स्पष्टा ॥ सु० ४१ 15 मा वंभलोबलतएका कप्पेस।" इत्यादि । सूत्र ३९ . If जीवमलोक एवं लानकि करपो में स्थित विमानों की ऊँचाई सातासौ योजन की कही गई है । मुत्र ३९ । eEET ....." भवणवासीणं देवाणं भयधारिणीना" इत्यादि । मन्त्र ४० । टीकोर्थ-भवनवासी देवों के भवधारणीय शरीर उत्कृष्ट से सात हाथ उनि कहे गये हैं। इसी तरह से ध्यन्तरों के और ज्योतिष्क देवों के शारीस भी जानना चाहिये, सौधर्म और ईशान इन दो कल्पों में देवों केभित्री धारणीय शरीर उचाई में सात हाथ के कहे गये हैं। संत्रा " बभलोयलतएसु णं कप्पेसु त्या 3 सू. 5 s, Balrds पान HिIARE AVAT साता योजनामा छ -12 (3011020 - Epic is afts भवणवासीणं देवाण भवधारणिज्जा" त्याह-(सू॥ ४01. IST ટીકાર્થ—ભવનવાસીની યુધારી શરીરની ઉ ઊંચાઈન્સાસ હાથ अभा सीट से Rथत यस्तो याति देवानाgs ધારી શરીરની ચાઈ વિષે, પણ સમજવું સૌધર્મ અને ઈશાન કોનો રાતે ભવધરીય નીચાઈ સાહા પ્રમાણૂકહી છેes સુદ્ધા ess Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधागेका स्था०७ १०४१ नन्दीश्वरद्वीपान्तर्गतद्वीपनिरूपणम् .. ११ अनन्तरं देवानामधिकार" उक्तः । देवानामाशप्ताथ द्वीपसमुद्रा इति तान् प्ररूपयति-- ।. " :, . म्लम्--णंदिस्सरवरस्त णं दीवस्स अंतो लस दीवा पणत्ता तं जहा-जंबुद्दीवे दीवे १; धोयइसंडे दीवे '२, पोक्खरवरे ३, वरुणवरे ४, खीरवरे ५, घयवरे ६ खोयवरे । जदिस्सरवरस्स णं दीवस्स अंतो सत्त समुदा पण्णत्ता, तं जहा: लवणे ॥२१ १, कालोदे २, पुरखरोदे ३, वरुणोदे ४ खीरोदे ५, घओदै ६, खोओदे ७ ॥ सू०-४१ ॥ . . . . . . . . . . . . 1', छाया--नन्दीश्वरवरस्य खल्लु द्वीपस्यान्तः सप्त द्वीपाः' 'प्रज्ञप्ता, तद्यथा जम्बूद्वीपो द्वीपः १, धातकीपण्डो द्वीपः २, पुष्करवरः-३, वरुणवरः ४, क्षीर; वरः ५, घृतवरः ६, क्षोदवरः ७ नन्दीश्वरवरस्य खल्लु द्वीपस्य, अन्तः सप्त समुद्राः प्राप्ताः, तद्यथा-लवण. १, कालोदः २, पुष्करोदः ३, वरुणोदः क्षीरोदः ५, धृतोद: ६, क्षोदोदः,७ ॥ सू०,४१ ॥ टीका--' णंदिस्सरवरस्स' इत्यादि-- . . . . .. व्याख्या स्पष्टा ।।०४१॥ . . if '.. इस तरह से देवों की अधिकार कहकर अब सत्रकार देवों के आवासों का एवं दीपसमुद्रों का कथन करते है। L णंदिस्सरवरस्सणं दीवस्त अंतो सत्ता इत्यादि । 'सुत्र टिकार्थ-नन्दीश्वर द्वीप के भीतर सात डीप कहे गयेहैं, जैसे-जम्धीप नाम का द्वीप १, घातको घण्ड नाम काछीप:२. पुष्करबर द्वीप३ वरुणवर द्वीप.४ क्षीरयर द्वीप, ५ धृतवर द्वीप ६, एवं क्षोदवरहीप, नन्दीश्वर द्वीप के भीतर सात समुद्र 'कहे गये हैं-जैसे लवण समुद्र * * આ પ્રમાણે તેનું કેમ કરીને હવે સૂરકર દવેના આવાસનું भने द्वीपसमुद्रीन थान २ - ", , ।। णंदिस्सरवरस्स ण 'दीवरस अतो सत्त" त्याह-सू४१) . કે છીકાઈનરીશ્વર દ્વીપની અંદર નીશ પ્રમાણે સાત દ્વીપ કહ્યા છે–(૧) જંબદ્ધ मभिनवीय, (२) धातडीमा नाभना द्वीप, (४) १३२ द्वीप, (५) क्षा १२ वी५, (६) धृत१२ वी५ भने (७) १३२ दी५. Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . . स्थानास्त्र . एते द्वीपसमुद्रास्तु श्रेण्या व्यवस्थिता इति श्रेणिमाह-- म्लम् -सत्त सेढीओ पण्णत्ताओ, तं जहा--उज्जुआयया १, एगओ वंका २, दुहमओ वंका ३ एगो खहा ४ दुहओ खहा ५, चकवाला ६, अद्ध चकवाला ६। सू० ४२ ॥ छाया--सप्त श्रेणयः प्रज्ञप्नाः, तद्यथा-ऋज्वायता १, एकतो वक्रा २, द्विधातो वक्रा ३, एकतः खा ४ द्विधातः खा ५, चक्रवाला ६, अर्द्ध चक्रवाला ७॥ सू० ४२ ॥ - टीका--' सत्त सेढीओ' इत्यादि-- ' श्रेणयः-जीवपुद्गल संचाराश्रयाः आकाशप्रदेशपतयः सप्त प्रज्ञप्ता, तययाऋचायता-जुश्वासावायता चेति, यया जीवादय अर्धलोकादेरधोलोकादौ ऋजुन्या यान्ति सा आकाशप्रदेशपङ्क्तिः , यथा (--) इति स्थापना १। १ कालोद समुद्र २ पुष्करोद समुद्र ३ वरु गोद समुद्र ४ क्षीरोद समुद्र ५ऐनोद समुद्र एवं क्षोदोद समुद्र ७ अर्थात् इक्ष समुद्र जिसका जल इक्षु-(सेलडी) जैसा मधुर होता है । सब ४१ । ये द्वीप और समुद्र श्रेणि से व्यवस्थिन हैं-अतः अब सूत्रकार श्रेणिका कथन करते हैं "सत्त सेढीओ पण्णत्ताओ' इत्यादि । सूत्र ४२ । टाकार्थ-श्रेणियां सात कही गई हैं, जीव और पुद्गलों का मन आकाश के प्रदेशों की पङ्क्ति के अनुसार ही होता है, अतः जीव और पुद्गलों के संचार के आश्रय भूत जो आकाश के प्रदेशों की पङ्क्ति है वही श्रेणी है, वे श्रेणियां सात है--एक ऋग्वायता १, द्वितीया-एक तो નંદીશ્વર દ્વીપની અંદર નીચે પ્રમાણે સાત સમુદ્રો છે–(૧) લવણ સમુદ્ર, (२) सह समुद्र, (3) पुष्४२।४ समुद्र, (४) १रुप समुद्र, (५) क्षीराह समुद्र, (६) धृता समुद्र. ॥ सू ४१ ।। ઉપર્યુક્ત દ્વીપ અને સમુદ્રો શ્રેણિમાં વ્યવસ્થિત છે. તેથી હવે સૂત્રકાર श्रेणिनु ४थन ४२ छ-" सत्त सेढीओ पण्णताओ" त्याहि-(भू ४२) ટીકા–શ્રેણિઓ સાત કહી છે. જીવ અને પુનું ગમન આકાશના પ્રદેશોની પતિ અનુસાર જ થાય છે તેથી જીવ અને પુલોના સંચારના આશ્રયસ્થાન રૂપ જે આકાશના પ્રદેશની પંક્તિ છે, તેનું જ નામ શ્રેણિ છે, એવી શ્રેણિઓ સાત છે Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०७ ० ४१ नान्दीश्वरद्वीपन्तर्गतद्वोर्पानिरूपणम् ६९३ एकतो वक्रा - एकता = एकस्यां दिशि वक्रा=कुटिला, यथा जीवपुद्गला ऋऋजु गत्वा वक्रीभूय श्रेण्यन्तरेण यान्ति सा प्रदेशपक्तिरिति । आकारायम् - ( ( ) २| द्विधातो वा-द्वयो दिशोः कुटिला रेखा । इयं च ऊर्ध्वक्षेत्रादाग्नेयदिशोऽधः क्षेत्रे वायव्यदिशि गला य उघते तरय भवति, तथाहि - प्रथमसमये आग्नेय्यास्तिर्यग् नैर्ऋत्यां याति ततस्तिर्यगेव वायव्यां ततोऽधो वापश्यामेवेति । त्रिसम का २, तृतीया-विधानो बका ३, चतुर्थी - एकताः खा, पंचमी - द्विधानः खा, षष्ठी - चक्रवाला, और सप्तमी अर्द्धचक्रवाला, जिससे जीवादिक उर्ध्वलोक आदिसे अधोलोक आदिमें सरलता से आते हैं ऐसी वह आकाश प्रदेश पङ्क्ति ऋज्यता है, अर्थात् जो आकाश प्रदेश पक्ति सरल और लम्बी होती है वह ऋज्वायता है, इसका आकार () ऐसा है, जो आकाशप्रदेशपक्ति एकदिशा में कुटिल (बांकी) होती है वह प्रदेश पङ्क्ति एकतोपका है, इस गति से जीव पुद्गल सरलता से जाकर फिर वक्र होकर ण्यन्तर से जाते हैं, इसका आकार (1 ) इस प्रकार से है, २ जो आकाश प्रदेश पंक्ति दोनों दिशाओं में कुटिल होती है वह fast वक्रा यह गति जो उर्ध्व क्षेत्र रूप आग्नेय दिशा से अधो क्षेत्र रूप वायव्य दिशा में जाकर के उत्पन्न होता है उसको होती है, जीव प्रथम समय में आग्नेय (अग्निकोण) दिशा से तिरछा नैर्ऋत्य दिशा में जाता (१) ऋन्वायता, (२) भेनो वडा, (3) द्विघातो व अ, (४) नःमा, (4) द्विघात:या, (६) यहुवला. सने (७) अर्धयम्वाला જેનાથી જીવે વગેરે ઉશ્વ લેાક વિગેરેમાંથી અધેાલેક વિગેરેમાં સરલ૫ગ્રાથી આવે જાય છે, એવી તે આકાશપ્રદેશ પક્તિ ઋવાયતા છે. અર્થાત્ જે આકાશપ્રદેશ પ`ક્તિ સરલ અને લાંબી હાય છે તે ઋજવાયતા છે. તેના આકાર ( - ) या प्रमाना छे. જે આકાશપ્રદેશ પ`ક્તિ એક દિશામાં વાંકી હાય છે, તે પ્રદેશપ‘ક્તિ એકતાવકા છે. આ ગતિથી જીવ અને પુદૂગલ સરલપણાથી જઈ ને પાÈા व थने श्रेयान्तरथी नय छे, तेनेो भार ( - ) मा रीते छे. २ જે આકાશપ્રદેશ પ`ક્તિ મને દિશામાં વકતાવાળી હાય છે, તેને “ દ્વિધાતા વજ્રા ” કહે છે. ઉન્નક્ષેત્રરૂપ અગ્નિ દિશામાથી ક્ષેત્રરૂપ દિવ્ય દિશામાં જઇને ઉત્પન્ન થનારા જીવની ગતિ આ પ્રકારની હાય છે જીત્ર પ્રથમ સમયમાં અગ્નિકાણુમાથી તિરકસ ગતિ કરીને નૈઋત્ય કાણુમાં જાય છે, ત્યાર બાદ તિર Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रि 69 स्थाना यामध्ये वि भवतीति । आकारवायम् ( 2 ) इति । एकतः खी- एकस्यां दिशि अङ्कुशाकारा, यया जीवः पुद्गलो वा बस वाहया वासाचदेतां पविष्टः, तथैन गला पुनस्तद्वामा वदनुत्पद्यते सा एकतःखा । स्थापनाः चेयम्-(~.) इति १ | द्विद्यातःखा उभयस्यां दिशि अङ्कुशा कारा, प्रसनाडया पानी पनि गला अस्था एवं दक्षिणपार्श्वादौ यया उत्पन साहिधात खा, नाडीवहिर्भूतयोर्वामदक्षिणपार्श्वलक्षणयोर्द्वयोराकाशश्रेण्योः है, तिरा ही वाध्य दिशा में जाता है, बाद में नीचे वाहन्यदिशा में है, यह गति तीन बाली होती है, और यह बस नाड़ी के भीतर अथवा बाहर होती है । इसका आकार (2) इस प्रकार से है । जो गति एक दिशा में अदा के आधार जैसी होती है वह एकतः खा है, इस गति से जीव अथवा पुल श्रम नाडी के वामपाएँ आदि से उस बसनाड़ी में मंत्रिष्ट होता है और उसी + : 7 I 1 :-खा 375 जो गति उसके बाम पार्श्व आदि में उत्पन्न होती है ऐसी यह गति है, इसका स्थापना ( - ) हल प्रकार से है विधतः खा दोनों दिशाओं में अंकुश के आकार जैसी होती है वह द्विघात हैं । स नाड़ी के पार्श्व भाग से नाड़ी में भविष्य उसी से जाकर इसी के दक्षिण आदि में जिससे उत्पन्न होता है ऐसी वह गति द्वितः खा है। क्योंकि इस प्रकार की प्रदेशपंक्ति से बाड़ी के बाहर की बदक्षिण भाग व अकिरा अणियाँ) पृष्ट होती है। ६९४ जाकर ह छ। 'वार्य 'दिशा' लय, (यार, यह नीचे वय हिशालय छे मा गति ऋशु समयवाणी होय छे, मते यनाडीनी मांडके, डार वाय (छ મણુિના આકાર (Z) કૌસમાં ખતાવ્યા પ્રમાણે હોય છે, જે ગતિ એક દિશામાં अशनालेवारी ते मेतमा ४ छे आ गतिवडे છત્ર અથવા પુઠ્ય : ત્રસનાડીતા વામપાર્શ્વ આદિમાં થઇને તે વ્રુસ્રનાડીમાં પ્રવેશ કરે છે અને તેમાંથી જ જઇને તેના વામપાર્શ્વ આદિમાં, ઉત્પન્ન થાય છે. એવી ते,गतितुं नाभ ‘शेऽतः छे, तेनेो भार (.) डी सभां नवव्या प्रभाबे હાય છે. દ્વિષાત મા જે ગતિ બન્ને હિંશામાં કુશના આકાર જેવી હોય છે, તેને દ્વિઘાત,ખા” કહે છે જીવ અથવા પુદ્દલ સનાડીના વામપાર્શ્વમાંથી દખલ થઇને અને તેમાથી જ જઇને તેના દક્ષિગ્રુપર્યં આદિમાં જે ગંતિ વડે ઉત્પન્ન થઈ જાય છે તે ગતિનું નામ દ્વિધાન મા છે, કારણ કે આ પ્રકારની પ્રદેશ पंडित वडे 'माडींनी भंडारनी वाम' दक्षिण ( अमामा) भाग ३ श्रेशियो पृष्ट थर्य छे. तेनी - आहार ( क ) डी सभी णताच्या प्रेमाचे डायः छे. ( ܐ ܐ ܬ Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TITTr सुवा टोका स्था.७ खु८४३ चमरेन्द्रादीनामनीक तद्धिपतिदेवनिस पणम् ६९५ स्तयाः स्पृष्टत्वादिति स्थापना चे यम-2) इति । चक्रवाला वलयाकृतिः प्रदेशपङ्क्तिः । यथा मण्डन परिभ्रम्य परमाण्यादिसमुत्पद्यते सेत्यर्थः । आकार यिम् इति ६ अर्धचक्रयाला-चक्रवालाई रूपा स्थापना चेयम् (C) इति एकतोवक्राधास्तुःश्रेणयों लोकार्यन्तमदेवापेक्षया संभावनीयाइति। ५०-४-२।। सादेवसैन्यानि दर्पितत्वींचनावालाधचक्रावीलादिना, भ्रमणयुक्तानि भवन्तीति तानि प्रतिपादयितुमाह: : : ..मूलम् -अमरस्तणं असुरिंदस्स असुरकुमाररन्नो सत्त आणया सत्त अणियाहिबई पण्णता, तं जहां पायत्तीणीए १, पीढाणिए २, कुंजराणिए ३, महिसाणिए ४, रहाणिएं ५, नहार णिए ६, गवाणिएटा में पर्यिताणियाहिबई, एवं जहाँपंचमटाणे जीव किन्नरे रहोणियाहिबई । रितु गणवाणियाहिबई, गीधरई गंधवाणियाहिबई । बलिल्तीण वइरोमणिदस वोय परपणो सत्तारियां सत्त: अणीयाहिबई-पाणता, तं...जहापायत्ताणिए जाव रांधवाणियामदुपायताणीयाहिबई, इसकी स्थापना () इस प्रकार से है, जो प्रदेश क्ति वलय गोल के आकार जैसी होती है वह चक्राला श्रेणी है, जिस से मण्डलोप में परिभ्रमण करके परमाणु आदि उत्पन्न होता है ऐसी वह श्रेणी चक्र बाला श्रेणी है, इसकी स्थापना ) इस प्रकार से है। जो प्रदेश पंक्ति अर्द्ध चक्रवाल के जैसी होती है, वह अर्धचवाला है, इसका आकार (C) इस प्रकार में है। एकतोफा आदि अर्णिया लोक पर्यन्त प्रदेशों की अपेक्षा से संभावनीय है। स्व . TE F i FA पतयन! -ATी काय छ, तने Az44 श्रेलि કહે છે. અતિ વડે ગોળાકારમાં રજૂ કરીને પરમાણે આદિ ઉત્પન્ન થાય છે, એવી તે શ્રેણીને સવાલ શ્રેણી કહે છે. તેનો આકારમાં said .प्रदेश ५ याबाबमा २वा (अपनाया હોય છે તેને અવે ચકવાલણી કહે છે તેને આકાર (C) કૌસમાં બતાવ્યો પ્રમાણે હોય છે. એક વક્ર આદિ શ્રેણીઓ લેપમા અંશેની અપેક્ષાએ જ समानार .... ... .. " : 17 . Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९६ स्थानानसूत्रे जात्र किंपुरिसे रहाणियाहिवई महारिट्टे णहाणियाहिवई, गीयजसे गंधवाणियाहिवई | धरण णं नागकुमारिदस्स नागकुमाररणो सन अणिया सत्त अणियाहिवई पण्णत्ता, तं जहापायाणिए जाब गंध वाणिए । रुदसेणे पायत्ताणियाहिवई जाव आणंदे रहाणियाहिवई, नंदणे नट्टाणियाहिवई, तेतली गंधवाणियाहिवई । भूतानंदस्त सत्त अणिया सत्त अणियाहिवई पण्णत्ता, तं जहा - पायत्चाणिए जाव गंधव्वाणिए । दक्खे पायत्ताणियाहिवई जाव णंदुत्तरे रहाणियाहिबई, रतो णहाणिया हिवई, माणसे गंधवाणियाहिबई | एवं जाव घोसमहाघोसाणं जैयवं । सकस्स णं देविंदर देवरलो सत्त अणिया सत्त अणियाहिवई पण्णत्ता तं जहा -- पायत्ताणिए जाव गंधवाणिए । हरिणेगमेसी पायत्ताणियाहिवई जाव माढरे रहानिया हिवई, सेए णहाणियाहिवई, तुंबुरू गंधवाणियाहिवई । ईसाणस्स णं देविंदस्स देवरशो सत्त अणिया सत्त अणियाहिवई पण्णसा, तं जहा - पायत्ताणिए जाव गंधवाणि लहुपरक्कमे पायत्ताणियाहिवई जाव महासेए जहाणियाहिवई, रए गंधवाणियाहिवई, सेमं जहा पंचमट्ठाणे एवं जात्र अच्चुयस्स वि णेयां ॥ सू० ४३ ॥ छाया - चमरस्य खलु असुरेन्द्रस्य असुरकुमारराजस्य सप्त अनीकानि सप्त अनीकाधिपतयः प्रतप्ताः, तद्यथा- पादातानीकम् १, पीठानीकम् २, कुञ्जरानीकम् ३, महिपानीकम् ४, स्थानीकम् ५, नाटयानीकम् ६, गन्धर्वानीकम् ७| द्रुमः पादातानीकाधिपतिः, एवं यथा पश्चमस्थाने यावत् किम्भरी स्थानीकाधिपतिः, रिष्टो नापानीकाधिपतिः गीत रतिर्गन्धर्वानीकाधिपति । वळेः खलु वैरोचनेन्द्रस्य वैरोचनराजस्य सप्त अनीकानि सप्तानीकाधिपतयः प्रज्ञताः, तद्यथा - पादातानीकं " Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सुधा टीका स्था०७ सू०४३ चमरेन्द्रादीनामनीक-तदधिपतिदेवनिरूपणम् ६९७ . यावत् गन्धर्शनीकम् । महाद्रुमः पादातानीकाधिपति यावत् किम्पुरुषो रथानीकाधिपतिः, महारिष्टो नाटयानीकाधिपतिः, गीतयशाः गन्धर्वानीकाधिपतिः । धरणस्य खलु नागकृपारेन्द्रस्य नागकुमारराजस्य सप्त अनीकानि सप्त अनीकाधिपतयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-पादानानीकं यावद् गन्धर्वानीकम् । रुद्रसेनः पादातानीकाधिपतिवित् आनन्दो रानीकाधिपतिः, नन्दनो नाटयानीकाधिपतिः, तेतली गन्धर्वानीकाधिपतिः । भूतानन्दस्य सप्त अनीकानि सप्त अनीकाधिपतयः प्रज्ञशाः, तद्यथा-पादानानीकं यावद् गन्धर्षानीकम् । दक्षः पादातानीकाधिपतिः, यावत् नन्दोत्तरो रथानी काधिपतिः, रति नाटयानीकाधिपतिः, मानसो गन्धर्वानीकाधिपतिः । एवं यावद् घोपमहाघोपयोयोध्यम् । शकस्य खलु देवेन्द्रस्य देवराजस्य सप्त अनीकानि सप्त अनीकाधिपतयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-पादातानीक यावदू गन्धर्शनीकम् । हरिणगमैपो पादातानी फाधिपति वित् माठरो स्थानी काधिपतिः, श्वेतो नाटयानीकाधिपतिः, तुम्बुरु गन्धर्वानीकाधिपतिः । ईशानस्य खलु देवेन्द्रस्य देवराजस्य सप्त अनीकानि सप्त अनीकाधिपतयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-पादातानीकं यावद् गन्धर्वानीकम् । लघुपराक्रमः पादातानीकाधिपति विद् महाश्वेतो नाट्यानीकाधिपतिः, रती गन्धर्वानीकाधिपतिः, शेषं यथा पञ्चमस्थाने । एवं यावत अच्युतस्यापि नेतव्यम् ॥ सू०४३॥ टीका--' चमरस्स ण' इत्यादि-- चमरस्य-चपरा भिधानस्य खलु अशुरेन्द्रस्य असुरकुमार राजस्य दाक्षिणात्यभवनपतीन्द्रविशेषस्य सप्पसंख्यकानि अनीकानि सैन्यानि सप्त संख्यकाः अनीकाधिपतयः सेनानायकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-पादातानीकम्=पदातीनां समूहः दर्पित होने के कारण देवसैन्य चकवाल अर्थ चक्रवाल आदि से भ्रमण युक्त होता है, इसी बात को अथ सूत्रकार प्रतिपादन करते हैं " चमरस्सणं असुरिंदस्म असुरकुमाररन्नो" इत्यादि सू०४३॥ टीकार्य-असुरकुमारराज अलुरेन्द्र चमर के सात अलीक सैन्य-और सात ही अनीशाधिपति कहे गये हैं। जैसे-पादातानीक १ पीठानीक २ कुंजरानीक ३ महिपानीक ४ रथानीक ५, नाट्थानीक ६, एवं गन्ध દતિ (અડકારયુક્ત ) થાય ત્યારે દેવસખ્ય ચક્રવાલ, અર્ધચકવાલ આદિ રૂપે જમણયુક્ત થ ય છે. એજ વાતનું હવે સત્રકાર પ્રતિપાદન કરે છે . " पमरस्म णं असुरिंदस्स असुरकुमाररन्नो " त्यादि-(सू ४३) . ટીકાર્થ-અસુરેન્દ્ર અસુરકુમાર ૨ જ ચમરના સાત નીકે (ઔ) અને સાત सनाधिपति (सेनापति) . ते सात मनी (सेना) नीय Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाइसने पादातं, तद्रूपम् अनीकं सैन्यम्-पदातिसैन्यमित्यर्थः । पीठानीकम् अश्वसेन्यम् । कुञ्जरानीकं हस्तिमैन्यम् । महिमानीकम्-महिपमैन्यम् । स्थानीकम्= रथसैन्यम् । नाटयानीकम्-नर्तकसमूहः । गन्धनानीकं गन्धर्वसमहः । एषां सप्तानामनीकानां सप्ताधिपतयः । तेषां नामानि प्ररूपयितुमाह-' दुसे' इत्यादि । तत्र द्रुमः द्रुमनामको देवः पादातानीकाधिपतिः। पीठानीककुञ्जरानीकमहिपानीकानामधिपतीनां नामानि पञ्चमस्थानाद् विज्ञेयानि । अत एवाइ सत्रकार:-- 'एवं-जहा पंचमहाणे जाव' इति । तथादि-सौदामी पीठानीकाधिपतिः, कुन्थुः कुञ्जरानीकाधिपतिः, लोहिताक्षो महिषानीकाधिपतिः । तथा-किन्नरो रयानीवानीक ७, पैदल चलनेवाली सेना का नाम पदानानीक है, अश्वों पर यैठ कर चलनेवाली सेना का नाम पीठानीक है, हस्तियों पर बैठ कर चलने वाली सेना का नाम कुंजरानीकहै, अंसाओं की सेना-समुदायका नाम महिपानीक है, रथों पर बैठ कर चलने घाली सेना का नाम स्थानीक है, नर्तकों की सेना-समूह का नाम नाटयानीक है, गन्धर्वो की सेना का नाम गन्ध नीक है । इस सात प्रकार की सेना के जो अधिपति हैं-सेनापति है-उनके नाम इस प्रकार ले हैं-पादातानीकाधिपति-पैदल चलने वाली सेना का सेनापति म नाम को देव हैं, पीठानीक का, कुंजरानीक का, महिपानीक का, कौन २ अधिपति हैं-इस पात को जानने के लिये पंचमस्थान देखना चाहिये, इसी बात को सूचित करने के लिये " एवं जहा पंचमट्ठाणे जाव" ऐसा सूत्र पाठ सूत्रकारने लिखा है। पीठालीक का अधिपति सौदाही है, Qजरानीक प्रभारी छ-(१) पाहातानी, (२) पी3111st (3) ०४२सनी8, (४) महीपानी, (५) રથાનીક (6) નાટ્યાનીક અને ગન્ધવનીક પાયદળ સેનાને પાદાતાનીક કહે છે, ઘોડેસ્વાર થઈને જનારી સેનાનું નામ પીડાનીક છે. હાથીઓ પર આરોહણ કરીને લડવા જનારી સેનાનું નામ કુંજરાનીક છે પાડાઓની સેનાનું નામ મડીષાનીક છે. રથમાં બેસીને લડવા જનારી સેનાનું નામ રથાનીક છે. નર્તકોના સમૂહનું (સેના સમૂહનું) નામ નાટ્યાનીક છે ગંધર્વોની સેનાનું નામ ગન્ધર્વોનીક છે. આ સાતે સેનાઓના અધિપતિઓનાં નામ હવે પ્રકટ કરવામાં આવે છે–પાદાતાનીક ( પાયદળ ) સેનાને સેનાધિપતિ ક્રમ નામનો દેવ છે પીઠાનીકને કુંજરાનીકને, મહિષાનીકને, કોણ કોણ અધિપતિ છે? એ વાત જાણવા માટે પાંચમું સ્થાનક જેવું જોઈએ से वात ४ा भाटे सूत्रा३ " एवं जहा पंचमदाणे जाव" पीzt Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा ठीका स्था० ७ सु०४३ चमरेन्द्रादीनामनीक - तधिपतिदेव निरूपणम् ६१९ काधिपतिः । रिष्टो नाटयानी काधिपतिः । गीतरविर्गन्धर्शनीकाधिपतिरिति । तथा - बलेवैरोचनेन्द्रस्य वैरोचनराजस्य औदीच्य भवन्पतीन्द्र विशेषस्य सप्त अनीकानि सप्त अनीकाधिपतयः प्रज्ञप्ताः । तत्र - अनीकानि पूर्वोक्तान्येव । अनीकाधिपतयस्त्वेवं विज्ञेयाः, तथादि - महाद्रुमः पादातानीकाधिपतिः, महासौदामः पीठानीकाधिपतिः, मालङ्कारः कुञ्जरानीकाधिपतिः, महालोहिताक्षो महिपानीकाधिपतिः किंपुरुषो स्थानीकाधिपतिः, महारिष्टो नाटयानीकाधिपतिः, गीतयशाः गन्धर्वानीकाधिपतिरिति । अत्र पीठानीक कुञ्जरानीकमहिपानीकाधिपतीनां नामानि यावत्पदेन संगृहीतानि । एवमग्रेऽपि संग्राह्याणीति । तथा-धरणस्यै का अधिपति न्यु है महिषानीक का अधिपति लोहिताक्ष हैं रथानीक का अधिपति किन्नर हैं नाटयानीक का अधिपति रिष्ट है, बन्धनीक का अधिपति गीत रति है, वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज बलि - उत्तरदिशा के भवन पनियों के इन्द्र - के सात अनीक और सात ही अनीकाधिपति कहे गये हैं- इनमें अनीकों के नाम पूर्वोक्त जैसे ही हैं - परन्तु इनके जो अधिपति हैं - उनके नाम इस प्रकार से हैं-पादानीक का अधिपति यहां महानुम नाम का देव है, पीठानीक का अधिपति - महासौदाम है कुञ्जरानीक का अधिपति मालङ्कार है, महिषानीक का अधिपति महालोहिताक्ष है, स्थानीक का अधिपति किम्पुरुष है, यानीक का अधिपति महारिष्ट है, गन्धर्वानीक का अधिपति गीतयशस् है, यहाँ નીકથી લઈને રથાનીક પન્તની સેનાએના અધિપતિએના નામ પાંચમા સ્થાનકમાં આપવામાં આવ્યા છે. પીડાનીકને અધિપતિ સૌદામી, કુંજરાનીકના અધિપતિ કુન્થુ, મહિષાનીકના અખ્રિપતિ લેાહિતાક્ષ અને થાનીકના અધિપતિ કિન્નર છે. નાટ્યાનીકના અધિપતિ રિષ્ટ છે અને ગન્ધર્વોનીકના અધિપતિ गीतरति छे. વૈરાચનેન્દ્ર વૈરાચનરાજ ખલિ કે જે ઉત્તર ક્રિશાના ભવનપતિ દેવોના ઈન્દ્ર છે, તેને પણ સાત અનીક અને સાત અનીડાધિપતિએ છે તેના અનીકા ( સેન એ )નાં નામ તે ચમરની સેનાએનાં નામ જેવા જ સમજવા, પરન્તુ તેના અનીકાધિપતિઓના નામ નીચે પ્રમાણે સમજવા-પાદાતાનીકના અધિપતિ મહાકુમ નામના દેવ છે, પીડાનીકનેા અધિપતિ મહાસૌદામ છે, કુજરાનીકનેા અધિપતિ માલ'કાર છે, મùિષાનીકના અધિપતિ મહાલેાહિતાક્ષ છે, રથાનીકના અધિપતિ કિમ્પુરુષ છે, નાટ્યાનીકને અધિપતિ મારિષ્ટ છે અને ગન્ધાંનીકના અધિપતિ Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाङ्गसूत्रे ၆ဝ၈ नागकुमारेन्द्रस्य नागकुमारराजस्थ दाक्षिणात्य भवनपतीन्द्र विशेषस्य सप्त अनी - कानि पानीकाधितयश्च वोध्याः । तत्र रुद्रसेनः पादावानीकाधिपतिः अस्य क्वचिद् ' मद्रसेनः ' इत्यपि नाम, यशोधरः पीठानीकाविपतिः, सुदर्शनः कुञ्जरानीकाधिपतिः, नीलकण्ठो महिपानीकाधिपतिः, आनन्दो स्थानीकाधिपतिः, नन्दनो नादानीकाधिपतिः ऐतली गन्धर्वानीकाधिपतिरिति । तथा-भूतानन्दस्प औदीच्य मत्रपतीन्द्र विशेषस्य सप्तानीकानि सप्तानीकाधिपतयश्च बोध्याः । पर पीठानीक के कुञ्जरानीक के और महिपानीक के अधिपतियों के नाम पद से संग्रहीत हुए हैं। इसी प्रकार से आगे भी ग्रहण करलेना चाहिये-तथा-नागकुमारेन्द्र नागकुमार राज धरण के अनीक और अनीकाधिपति इस प्रकार से हैं- अनीक के नाम तो पूर्वोक्त जैसे ही हैं एवं इन के जो अधिपति हैं उनके नाम इस प्रकार से हैं 1 यहां जो पादातानीक हैं उसके अधिपति का नाम रुद्रसेन है, 'इसका कहीं २ पर भद्रसेन ऐसा भी नाम लिखा मिलता है । पीठानीक के अधिपति का नाम यशोवर है, कुञ्जरानीक के अधिपति का नाम सुदर्शन है । महिषानीक के अधिपति का नाम नीलकण्ठ है, स्वाती के अधिपति का काम आनन्द है, नादयानीक के अधिपति का नाम नन्दन है, एवं गन्धर्वानीक के अधिपति का नाम तेतली है, उत्तर दिशा के भवनपतियों के इन्द्र जो सूनानन्द हैं उनके भी सात ગીતયશસ છે અહી यावत् " पढ्थी थी 'नी, रानी भने भडिपानी ना અધિપતિએનાં નામ થ્રેડણુ કરાયા છે. તેમનાં નામે અહીં ઉપર આપી દેવાણાં આવ્યાં છે. નાગકુમારેન્દ્ર, નાગકુમારરાજ ધરણની સાત સેનાએ અતે તે સેનાએના સેનાપતિઓનાં નામ નીચે પ્રમાણે છે ધરણની સાત સેનાઓના નામ તેા ચમરની સેનાઓનાં નામ પ્રમાણે જ સમજવા હવે તે સાતે સેનાના સેનાધિપતિઓનાં નામ પ્રશ્નટ કરવામાં यावे તેની પાદ તાનીક ( પાયળ સેના )ના અધિપતિનુ નામ રુદ્રસેન છે, ( કાઇ કાઈ શાસ્ત્રોમાં તેનું નામ ભદ્રસેન પણ આપ્યુ છે) પીડાનીકને અધિપતિ યશેાધર છે, કુંજરાનીકના અધિપતિ સુદર્શન છે, મર્હિષાનીકને અધિપતિ નીલક છે. સ્થાનીકને અધિપતિ અનન્તુ છે, નાટ્યાનીકના અધિપતિ નન્દન છે. અને ગર્સ્થાનીકના અધિપતિ તેતલી છે ઉત્તર દિશાના અધિપતિ ભવનપતિના ભૂતાનન્દ નામના ઇન્દ્રને Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा ठीका स्था ७ सू० ४३ चमरेन्द्र दीनामनीक - तदधिपतिदेवनिरूपणम् ७०१. तत्र - दक्षः पादातानी हाधिपतिः, सुग्रीवः पीठानीकाधिपतिः, सुविक्रमः कुञ्जरा नीकाधिपति, श्वेतकण्ठो महिपानीकाधिपतिः, नन्दोत्तरो स्थानीकाधिपतिः, रति - acarathiधिपतिः, मानसो गन्धर्वानीकाधिपतिरिति । एवं=धरणभूतानन्दवद् यावद् घोषमहाघोषयोरपि सप्तानीकानि सप्तानीकाधिपतयश्च बोध्या: । अयं भावः - पथा धरणस्य तथा वेणुदेवहरिकान्ताग्निशिख पूर्ण जलकान्वामितगतिवेलघोषनामकानामष्टानां दाक्षिणात्यमत्रन पतीन्द्राणां यथा भूतानन्दस्य तथा वेणुद्दाल हरिसहाग्निमागत्रवशिष्ठ जलप मामितवाहनप्रभञ्जनमहाघोषनामका नामष्टानाम् औदीच्य गनपतीन्द्राणां च सप्तानीकाधिपतयश्च वोध्या इति । अनीक और सात अनीकाधिपति हैं- इनमें ७ अनीकों के नाम तो पूर्वोक्त जैसे ही हैं- परन्तु अनीकाधिपतियों के नाम इस प्रकार से हैं पादानानीक के अधिपति का नाम दक्ष है, पीठानीक के अधिपति का नाम सुग्रीव है, कुञ्जरानीक के अधिपति का नाम सुविक्रम है, महिषानी के अधिपति का नाम श्वेतकण्ठ है, रथानीक के अधिपति का नाम नन्दोत्तर है, नाट्यानीक के अधिपति का नाम रति है, एवं क के अधिपति का नाम मानस है । धरण और भूतानन्दकी तरह यावत् घोष और महाघोष इन्द्रके भी सात २ अनीक और सात २ अनीकाधिपति समझना चाहिये, तात्पर्य ऐसा है - धरण की तरह वेणुदेव के हरिकान्त के अग्निशिख के, पूर्ण जलकान्त के अमित - गति के लम्ब के, और घोष के इन आठ दाक्षिणात्य भवनपतिइन्द्रों के, तथा-भूतानन्द की तरह वेणुद्दालि के, हरिसह के, अग्निमाપણ સાત સેનાએ અને સાત સેનાધિપતિયેા છે તેની સેનાએનાં નામ ચમરની સેનાઓનાં નામ પ્રમાણે જ સમજત્રા, પણ સેનાધિપતિઓનાં નામ नीचे अमा समन्व દાતાનીકના અધિપતિ દક્ષ, પીઠાનીકના અધિપતિ સુગ્રીવ, કુંજરાનીકના અધિપતિ સુવિક્રમ, થાનીકના અધિપતિ નન્દોત્તર. મહિષાનીકના અધિપતિ શ્વેતક, નાટ્ય નીકના અધિપતિ રતિ અને ગન્ધર્વોનીકને ઋધિપતિ मानस छे, ધરણુ અને ભૂતાનન્દના જેવી જ ઘાષ અને મહાઘેષ પર્યંન્તના ઇન્દ્રોની સાત સેનાએ સમજવી અને તે સેનાએના સાત સેનાનીકે ( સેનાધિપતિએ ) सभनवा. आ ¥थननु' तात्पर्य मे छे -वेदेव, हरिान्त, अग्निशिम, पूयु જલકાન્ત, અમિતગતિ, વેલા અને ઘાષ, આ આઠે દક્ષિણાત્ય ભવનપતિ Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०२ स्थानाङ्गसूत्रे इत्यं भवनातीनां सप्तानी कानि सप्तानीकाधिपतींश्चोक्त्या सम्पति कल्पेन्द्राणामनीकानि अनीकाधिपतींश्च प्ररूपयति-' सकस्स' इत्यादि । शकस्य दाक्षिणा. त्येन्द्रविशेषस्य सप्तानीकानि सप्तानीकाधिपतयश्च वोध्याः । तत्र सप्तानीकानि पूर्ववदेव वोध्यानि । नवरं-महिपानीकस्थाने धृपभानीकं बोध्यम् । तेषामधिपतयचैते, तथाहि-हरिणैगमेपी पाहातानीकाधिपतिः, वायुः पीठानीकाधिपतिः, ऐरावतकुञ्जरानीकाधिपतिः, दामद्धिः सृप मानीकाधिपतिः, माठरो स्थानीकाधिपतिः, णव के, वशिष्ठ के, जलप्रम के, अमितवाहन के, प्रभञ्जन के एवं महायोष के इन आठ उत्तर दिशा के भवनपतियों के इन्द्रों के सात २ अनीक और सात २ अनीकोधिपनि जानना चाहिये, इस तरह भवनपतियों के साल अनीक और सात अनीकाधिपतियों का कथन करके अपस्सूपकार कल्पे-द्रों के साल अनीक और सात अनीकाधिपतियोंकी प्ररूपणा कहते हैं-"सक्स " इत्यादि दक्षिण दिशा के इन्द्र विशेष शक के सात अनोक और सात अनीशाधिपति कहे गये हैं-इनमें साल अनीकों के नाम तो पूर्वोक्त जैसे ही हैं परन्तु यहां महिषानीक नहीं है-किन्तु उसके स्थान पर वृषभानीक है, इस सान अनीकों के अधिपति इस प्रकार से हैं-पादा. तानीक का अधिपति हरिणगोपी है, पीठोनीक का अधिपति वायु है, कुञ्जरानीक का अधिपति ऐरावत है, वृषभानीक का अधिपति ઈન્દ્રોની સેનાએ અને સેનાધિપતિઓનાં નામ ધરણની સેનાએ અને સેના વિપતિઓનાં નામ પ્રમાણે જ સમજવા. हासि, रिस, अभिभाव, पशि४, म, मभितवान, मन પ્રભંજન અને મહાઘોષ, આ આઠ ઉત્તર દિશાના ભવનપતિઓને ઈદ્રોની સેનાઓ અને સેનાધિપતિઓનાં નામ પ્રમાણે સમજવા. આ પ્રકારે ભવનપતિઓના ઈન્દ્રોના સાત અનીકે અને અનીકાધિપતિઓનાં નામ પ્રકટ કરીને હવે સૂત્રકાર કોના સાત અનીક અને સાત અનીકાધિપતિઓનું કથન કરે છે. ', सक्करस" याह દક્ષિણ દિશાના શક્ક નામના ઈન્દ્રની પાસે સાત અનીકે (સેનાઓ) અને સાત અનીકાધિપતિઓ છે તેની સાન સેનાઓનાં નામ તે ચમરની સેના જેવાં જ છે, પરંતુ ચોથી સેનાનું મહિપાનીકને બદલે વૃષભાનીક સમજવું. તે સાત સેનાઓનાં નામ આ પ્રમાણે કહ્યાં છે–પદાતાનીકને અધિપતિ હરિણગમેપી દેવ છે, પીઠાનીકને અધિપતિ વાયુ છે, કુંજરાનીકનો અધિપતિ Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टोका स्था०७ ०४३ चमरेन्द्रादीनामनीक - तदधिपतिदेव निरूपणम् ७०३ श्वेतो नाटयानीकाधिपति', तुम्बुरुर्गन्धर्वानीकाधिपतिरिति । तथा-ईशानस्य औदीच्येन्द्र विशेषस्यापि सप्तानीकानि सप्तानीकाधिपतयश्च बोध्या । तत्र - लघुपराक्रमः पादातानीकाविपतिः महादायुः पीठानीकाविपतिः, पुष्पदन्तः कुञ्जरानीकाधिपति, महादामपिभानीकाधिपतिः, महामाठरो स्थानीकाधिपतिः महा श्वेतो नाटयानीकाधिपति, रवि र्गन्धर्वानीकाधिपतिरिति । एवमेवशच्युतपर्यन्तानां सर्वेर्पा कल्पेन्द्राणाम् अनीकानि अनीकाधिपतयश्च बोध्या: । तत्र - शक्रवत् सनकुमारब्रह्मशुक्राभिधेयानां दाक्षिणात्येन्द्राणाम्, ईशानवच माहेन्द्रलान्तकदाम है, स्थानीक का अधिपति माठर है, नाटयानीक का अधिपति श्वेत है, एवं गन्धर्वानीक का अधिपति तुम्बुरु है, तथा-उत्तर दिशा के इन्द्र विशेष ईशान के सात अनीक और सात ही अनीकाधिपति कहे गये है. इनमें पratarata का अधिपति लघुपराक्रम है, पीठानीक का अधिपति महावायु है, कुञ्जरानीक का अधिपति पुष्पदन्त है. वृषभानीक का अधिपति महादामर्द्धि है, स्थानीक का अधिपति महामाठर है, नानक का अधिपति महाश्वेन है एवं गन्धर्वानीक का अधिपति रति है, इसी तरह से अच्युत पर्यन्त के सब कल्पेन्द्रों के अनीक और अनीकाधिपति समझना चाहिये इनमें शक की तरह सनत्कुमार, ब्रह्म, शुक्र, इन दक्षिणात्येन्द्रों के एवं ईशान की तरह माहेन्द्र, लान्तक, ઐરાવત, વૃષભાનીકને અધિપતિ દામદ્ધિ, સ્થાનીકના અધિપતિ માઢર, નાટટ્યાનીકના અધિપતિ શ્વેત અને ગન્ધર્વોનીકના અધિપતિ તુચ્છુરુ છે. ઉત્તર દિશાના ઈશાન નામના ઇન્દ્રની પાસે પણ સાત સેનાએ અને સાત સેનાધિપતિ છે તેની સાત સેનાએનાં નામ શક્રની સાત સેનાએનાં નામ પ્રમાણે જ સમજવા, તે સેનાએના સેનાધિપતિએનાં નામ નીચે પ્રમાણે સમજવા પદ્માતાનીકના સેનાધિપતિ લઘુપરાક્રમ છે, પીઢાનીકના ( હ્રયદળના ) અધિપતિ મઢાવાયુ છે, તૃષભાનીકના અધિપતિ મહાદામદ્ધિ છે, કુજરાનીકના ( हस्तिनो) अधिपति पुष्पदन्त छे, स्थानी४नो अधिपति भडाभाहर छे, નાટ્યાનીકના અધિપતિ મહાશ્વેત છે અને ગન્ધર્યાંનીકના અધિપતિ રતિ છે. સનત્કુમાર, બ્રહ્મા, અને શુક્ર આ ત્રણ દાક્ષિણાત્ય ઇન્દ્રોની સાત સેનાએ અને સાત સેનાધિપતિઓનાં નામ શકની સાત સેનાએ અને સાત અનીષ્ઠાધિ પતિઓનાં નામ પ્રમાથે જ સમજવા Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०४ स्थानीय सहधारमाणताच्युताभिधेयानामौदीच्येन्द्राणाम् अनीकानि अनीकाधिपतयश्च वोध्याः । आमेवार्थ मूचयितुमाह-' एवं जार अच्चु यस्सवि नेयव्य ' इति । आनतारगौ देवलोको क्रमेण माण ताच्युतेन्द्राधीनौ, अत एव चत्वारो दाक्षिणात्येन्द्रा इति ।। सू० ४३ ॥ सम्पति चमरेन्द्राधीनपादातानीकाधिपत्यधीनपादान-श्रेणिसंख्याः प्रति श्रेणिस्यसैनिकसंख्याश्च प्ररूपयितुमाह मूलम्--चमरस्त णं असुरिंदस्त असुरकुमाररन्नो दुमस्स पावत्ताणियाहिवइस्स सत्त कच्छाओ पण्णत्ताओ, तं जहा.. पढमा कच्छा जाव सत्तमा कच्छा । चमरस्ल णं असुरिंदस्स असुरकुमाररन्नो दुमस्त पायत्ताणिशाहिवइस्स पढमाए कच्छाए च उमहिदेवसहस्सा पण्णत्ता । जावइया पढमा कच्छा तश्विगुगा दोच्चा कच्छा, तब्विगुणा तच्चा कच्छा, तब्बिगुणा चउत्थी कच्छा, तबिगुणा पंचमी कच्छा, तब्बिगुणा छट्ठी कच्छा तबिगुणा सत्तमी कच्छा । एवं बलिस्त बि, णवरं महदमो सट्रिदेवसाहस्सिओ, सेसं तं चेव । धरणस्त एवं चेव, सहस्रार, प्राणत, अच्युत, इन उत्तरदिशाके इन्द्रों के सात२ अनीक और सात २ अनीकाधिपसि लानना चाहिये, इसी बात को प्रकट करने के लिये सूत्रकारने " सेसं जहा पंचमाणे एवं जाध अच्चुधस्स वि नेयवं"ऐप्ता यह सूत्रपाठ कहा है, आनत और आरण ये दो देवलोक क्रमशः प्रागत और अच्युत इन्द्र के आधीन है, इसलिये दाक्षिणात्येन्द्र चार कहे गये हैं ।। १० ४३ ॥ . माहेन्द्र, alrds, सदस्ना२ प्रायत, मयुत मन मोहीयेन्द्रोनी स.त સેવાઓ અને સાત સેનાધિપતિઓનાં નામ ઈશાનેન્દ્રની સાત સેનાઓ અને सात सेनाधिपतिमान नाम प्रमाणे १ सम४३१. मे०४ पात सूत्रधारे “सेस जहा पंचमटाणे एव जाव अच्चुयरस वि नेयव्यं " मा सूत्र५ । प्र४८ ४री छ. આનત અને પ્રાણત, આ બે દેવલોક અનુક્રમે પ્રાકૃત અને અશ્રુત ઈન્દ્રોને આધીન છે તેથી જ દાક્ષિણાત્ય ઈન્દ્રો ચાર જ કહેવામાં આવ્યા છે. આ સુ કરૂ છે Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०७ सू०४४ चमरेन्द्रादीनां पादातानीकाधिपत्यादिवर्णनम् ७०५ णवरं अट्ठावीसं देवलहस्सा, सेसं चेव । जहा धरणस्स एवं जाव महाघोसस्स । नवरं पायत्ताणियाहिबई अन्ने ते पुठवभणिया । सकस्त णं देविंदस्स देवरन्नो हरिणेगमेसियस्त सत्त कच्छाओ पण्णताओ, तं जहा--पढमा कच्छा, एवं जहां चम: रस्ल तहा जाव अच्चुयस्त । णाणत्तं पायत्ताणियाहिवईणं, ते पुवभणिया देवपरीमाणमिमं-सकस्स चउरासीइं देवलहस्साई । ईसाणस्स अलीइं देवसहस्साई । देवा इमाए गाहाए अणुगं. तेवा-चउरासीइ असीइ, बावत्तरि सत्तरी व सटीया । पन्ना चंतालीसा, तीसा वीसा दससहस्सा ॥१॥ जाव अच्चुयस्स लहुपरकमस्ल दलदेवसहस्प्ता जाव जावइया छटा कच्छा तब्धिगुणा सत्तमा कच्छी ॥ सू० ४४ ॥ , छाया-चमरस्य खलु असुरेन्द्रस्य असुरकुमारराजस्य द्रुमस्य पादातानीकाधिपतेः सप्त कक्षाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-प्रथमा कक्षा यावत् सप्तमी कक्षा । चमरस्य खेलं असुरेन्द्रस्य असुरकुमारराजस्य द्रुमस्य पादातानीकाधिपतेः प्रथमायां कक्षायां चतुष्पष्टिदेवसहस्राणि प्रज्ञप्तानि । यावती प्रथमाकक्षा तद्विगुणा द्वितीया कक्षा, तद्विगुणां तृतीया कक्षा, तंद्विगुणा चतुर्थी कक्षा, तद्विगुणा पञ्चमी कक्षा, तद् द्विगुणा पंष्ठी कक्षा, तद्विगुणा सप्तमी कक्षा । एवं वळेरपि, नवरं महाद्रुमः पष्टि देवसाइलि कः, शेपं तदेव । धरणस्यैवमेव, नवरम्-अष्टाविशनिदेवसहस्त्राणि, शेपं तदेव । यया धरणस्य, एवं यौवन्महाघोषस्य । नवरं पादातानीकाधिपतयोऽन्ये ते पूर्वभणिताः । शक्रस्य खलु देवेन्द्रस्य देवराजस्य हरिगैगमैषिणः सप्त कक्षाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-प्रथमा कक्षा एव यथा चमरस्य तथा यावत् अच्युतस्य । नानात्वं पादातानीकाधिपतीना, ते पूर्वभणिता: देवपरिमाणमिदं शक्रस्य चतुरशीतिर्देवसहस्राणि । ईशानस्य अशोतिर्देवसहस्राणि । देवा अनया गाथयाऽनुगन्तव्याः...चतुरशीतिरशीतिता सप्ततिः सप्ततिश्च पष्ठिः । पञ्चाशत् चत्वारिंशत् त्रिंशत् विशतिः दश सहस्राणि ॥ १ ॥ यावत् अच्युतस्य लघुपराक्रमस्य दशदेवसहस्राणि यार्यत् यावती पष्ठी कक्षा तद्वद्विगुणा सप्तमीकक्षा ॥ सु० ४४ ॥ स्था०-८९ Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०६ स्थानानसूत्रे टीका ---' चमरस्त णं ' इत्यादि चमरनामकदाक्षिणात्य गवनपतीन्द्राधीनमनामकपादातानीकाधिपतेः सप्त कक्षाः = पदावि सेनापतयः प्रज्ञताः, तद्यथा - प्रथमा यावत्सप्तमी । तत्र प्रथमाया कक्षायां चतुष्पष्टिसहस्रसैनिकाः द्वितीयायां प्रथमकक्षातो द्विगुणा सैनिकसंख्या वोध्या । अर्थात् - द्वितीयायां कक्षायामष्टाविंशतिसहस्राधिकैकलक्षसंख्यकाः पदातयो बोध्याः । एवमग्रेऽपि पूर्वपूर्वापेक्षयाऽपरापरस्याः कक्षाया द्विगुणत्वं बोध्यम् । तत्र तृतीयकक्षायां पट्पञ्चाशत्सहस्राधिकद्विलक्षसंख्यकाः, चतुर्थ्यां द्वtarasaruकपञ्चलक्षसंख्यकाः, पञ्चम्यां चतुर्विंशतिसहस्राधिकदश अब सूत्रकार चमरेन्द्र आदि के अधीन जो पादातानीकाधिपति ( पैदल सैन्य के अधिपति ) हैं और पादातानीकाधिपति के अधीन जो पादातश्रेणि संख्या है एवं प्रति श्रेणिस्थ सैनिक संख्या है उसकी प्ररूपणा करते हैं-" चमरस्स णं असुरिंदरस असुरकुमाररत्रो - इत्यादि टीकार्थ-असुरेन्द्र अलुरकुमार राज चमर के अधीन जो द्रुमनामका पादातानीकाधिपति है, उसकी सात कक्षाएँ कही गयी हैं, पदाति सेना की पंक्ति का नाम कक्षा है । जैसे- प्रथमा-कक्षा - यावत् सप्तमी कक्षा इन में से प्रथम कक्षा में ६४ हजार सैनिक होते हैं, द्वितीय कक्षा में प्रथम कक्षा से दुने सैनिक होते हैं, अर्थात् १ लाख २८ हजार सैनिक द्वितीय कक्षा में होते हैं। इसी प्रकार से सातवीं कक्षा तक सैनिकों की द्विगुणता जाननी चाहिये, इस तरह तृतीय कक्षा में २ लाख ५६ हजार सैनिक होते हैं, चतुर्थ कक्षा में ५ लाख १२ हजार सैनिक होते है, पांचवीं कक्षा में १० लाख २४ हजार होते हैं, छठी कक्षा में २० ચમેરેન્દ્ર આદિના જે પદ્માતાનીકાધિપતિ (પાયદળના સેનાધિપતિ) છે, તેને અપ્રીત જે પદ્માત (પાયદળ) શ્રેષુિ સંખ્યાએ છે તેમનુ તથા પ્રત્યેક શ્રેણિસ્થ સૈનિકાની સખ્યાનું નિરૂપણુ હવે સૂત્રકાર નીચેના સૂત્ર દ્વારા કરે છે" घमरस्म णं सुरिंदर असुरकुमाररन्नो " त्याहि - ( सू. ४४ ) ટીકા અસુરેન્દ્ર અસુરકુમારરાજ ચમરના પદ્યાત નીકાધિપતિ કૈમની સેનાની સાત ४क्षाओ (श्रेश्रीगो) उसी के पहति सेनानी पंडितनेा उडे छे. ते सात કક્ષાએ નીચે પ્રમાણે કહી છે-પ્રથમાથી લઈ ને સપ્તમી પન્તની સાત કક્ષાએ અહી' સમજી લેવી. પ્રત્યેક ક્ષામાં સૈનિકાની સંખ્યા નીચે પ્રમાણે કહી છે. પહેલી કક્ષામાં ૬૪ Èજાર, બીજીમાં ૧ લાખ ૨૮ હજાર, ત્રીજીમાં ૨ લાખ પ્ હજાર, ચેાથીમાં પાંચ લાખ ખાર હાર્ પાંચમીમાં ૧૦ લાખ ૨૪ હજાર, Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = सुंधा ठोका स्था० ६०४४ चमरेन्द्रादीनां पादातानीकाधिपत्यादिवर्णनम् ७०७ लक्षसंख्यकाः, षष्ठ्याम् अष्टचत्वारिंशत्सहस्राधिकविंशतिलक्षसंख्यकाः, सप्तम्य पण्णवतिसहस्राधिकचत्वारिंशलक्षसंख्यका इति । एवं चमरेन्द्रवत् बलेरपि बलिनामकस्य औदीच्य भवनपतीन्द्रस्यापि विषये बोध्यम् । विशेषस्त्वम्-वलेः पादातानीकाधिपतिर्महामः स हि षष्टिदेव साहस्रिका महाद्रुमस्य प्रथमकक्षायां पष्टि सहस्रदेवाः सन्तीत्यर्थः । ' सेस तं चेत्र ' इति शेषं तदेव, अर्थात् द्वितीयादिषु षट्सु कक्षासु प्रत्येकत्र पूर्वपूर्वकक्षास्थ मेनिकापेक्षया उत्तरोत्तरकक्षायां द्विगुणी संख्या विज्ञेयेति । तथा धरणस्यापि एवमेत्र विज्ञेयम् - नवरं - तत्पादातानीकाधिपति भद्र सेनापरपर्याय रुद्रसेनः । तस्य प्रथम रुक्षायां तु अष्टाविंशतिसहस्राणि - लाख ४८ हजार सैनिक होते हैं और सातवीं कक्षा में ४० लाख ९६ हजार सैनिक होते हैं । चमरेन्द्र की तरह उत्तर दिशा के भवनपति के अधिपति बलि नामक इन्द्र के संबन्ध में भी जानना चाहिये, विशेषता यहां ऐसी है - इनके जो पादातानीक के अधिपति महादुम हैं वे ६० हजार देवों के अधिपति हैं, अर्थात् महानस की प्रथम कक्षा में ६० हजार देव हैं “ सेसं तं चेव " द्वितीय कक्षा से लेकर सातवीं कक्षा तक यहाँ पर भी सैनिक की संख्या द्विगुणित करते जाना चाहिये. इस तरह द्वितीय कक्षा में १ लाख २० हजार सैनिकहें तृतीय कक्षा में २ लाख ४० हजार सैनिक हैं, चतुर्थ कक्षा में ४ लाख ८० हजार सैनिक हैं, पांचवीं कक्षा में ९ लाख ६० हजार सैनिक हैं, छठी कक्षा में १९ लाख वीस हजार सैनिकहैं और ७ वीं कक्षा में ३८ लाख ४० हजार हैं । तथा धरण के भी इसी तरह से जानना चाहिये उसके पादाताછઠ્ઠીમાં ૨૦ લાખ ૪૮ હજાર અને સાતમીમાં ૪૦ લાખ ૯૬ હજાર સૈનિકા હાય છે, એમ સમજવું હવે ઉત્તર દિશાના ભવનપતિએના ખલિ નામના ઈન્દ્રના જે મહાકુમ નામના પદાતાનીકાયિપિતિ છે તેની સેનાની જે સાત કક્ષાએ છે તેમાંની પ્રત્યેક કક્ષામાં કેટલા સૈનિક છે તે પ્રકટ કરવામાં આવે છે-મહાદ્ગમની પહેલી ४क्षामा ६० डलर हेवे। ( सैनिअ ) छे. “ सेस तं चेत्र " सहीं यशु भागदी કક્ષા કરતાં પાછલી કક્ષામાં ખમણાં ખમણુાં સનિકા કહેવા જોઈ એ જેમ કે મીજીમાં ૧ લાખ ૨૦ હજાર, ત્રીજીમાં બે લાખ ૪૦ હજાર, ચેાથીમાં ૪ લાખ ૮૦ હજાર, પાંચમીમાં ૯ વાખ ૬૦ હજાર, છઠ્ઠામાં ૧૯ લાખ ૨૦ હજાર અને સાતમીમાં ૩૮ લાખ ૪૦ હજાર સૈનિક છે, એમ સમજવું જોઈએ, ધરણુના જે ભદ્રસેન નામના પાદાતાનીધિપતિ છે તેની પાયદળ સેનાની Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थान ७० < 31 देवाः । शेषं तदेव = पूर्ववदेव, अर्थात् पूर्वपूर्वकक्षापेक्षया उत्तरोत्तरकक्षायां सैनिकानां द्विगुणत्वं बोध्यमिति । यथा धरणस्प= दाक्षिणात्यधर णेन्द्राधीनरुद्रसेननामरुपादावानीकाधिपतेः सैनिकानां सप्त कक्षाः प्रतिकक्षस्थसैनिकसंख्यार्थ एवम् अमुना प्रकारेण यावन्महाघोषस्य यावत्पदसंगृहीतानां भूतानन्द- वेणु देव-येणुद्दालि - हरिकान्त - हरिपहा - ग्निशिखाग्निमाणत्र - पूर्ण वशिष्ठ जलकास्वजलप्रभा - मितगत्य मितवाहन-वेलम्ब-प्रमञ्जन- घोपाणां पोडशानां महाघोषस्य सर्वेषामपि दाक्षिणात्यौदीच्येन्द्राणां वोध्याः । एतदधीनपादातानीकाधिपतीनां नीक के अधिपति भद्रसेन है इनका दूसरा नाम रुद्रसेन भी है उसकी प्रथम कक्षा में २८ हजार देव हैं, यह धरण दक्षिणदिशा का अधिपति है, इसके पादातानीक का अधिपति ( पैदल सैन्य का अधिपंति ' भद्रसेन जिसका दूसरा नाम रुद्रसेन है इसकी भी सात कक्षाएँ हैं, प्रथम कक्षा में २८ हजार देव हैं, द्वितीय कक्षा में ५६ हजार देव हैं । तृतीय कक्षा में १ लाख १२ हजार देव हैं । इसी प्रकार से दि गुणता सातवीं कक्षा तक जाननी चाहिये, इसी तरह से यावत् महाघोष इन्द्रके भी समझना चाहिये, यहां यावत्पद से भूतानन्द, वेणुदेव वेणुद्दालि, हरिकान्त, हरिपद, अग्निशिख, अग्निमाण, पूर्ण, वशिष्ठ, जलंकान्त, जलप्रभ, अमितगति, अमितवाहन, वेलस्य, प्रभञ्जन, और घोष इन १६ इन्द्रों का ग्रहण हुआ है, इन में ८ दक्षिगार्धके पति और ८, उत्तरार्ध के अधिपति है - जैसे-असुर कुमारोंमें चनर औरवलि ये " - - પશુ સાત કક્ષાએ કહી છે. ભદ્રસેનનું બીજું નામ રુદ્રસેન છે ધણુ દક્ષિણ દિશાના ઇન્દ્ર છે. ભદ્રસેનના પાયદળની પહેલી કક્ષામાં ૨૮ હજાર દેવા છે, ખીજીમાં ૫૬ હજાર દેવે છે, ત્રીજીમાં ૧ લાખ ૨૮ હજાર દેવે છે એજ પ્રમાણે સાતમી કક્ષા સુધીની કક્ષાના સૈનિકોની સખ્યા કહેવી જોઈ એ પ્રત્યેક કક્ષામાં આગલી કક્ષા કરતાં ખમણુ સૈનિકે સમજવા એજ પ્રકારનું કથન મહાઘાષ પર્યન્તના ઈન્દ્રોના પાતાનીકાધિપતિએની સેનાએની કક્ષ વિષે પશુ સમજવું એટલે કે ભૂતાનન્દ, વેદેવ, વેણુદાલિ, હરિકાન્ત, हरिपडे, अनिशिण, अग्निमाणुत्र, पूर्णा, वृशिष्ठ, सान्त, बसयल અમિતગતિ, અમિતવાદ્ઘન, વેલમ્મ, પ્રભજન, ઘેષ અને મહાūાષ આ ૧૬ ઈન્દ્રોના પાદાતાનીકાધિપતિએની સેનાએની સાત સાત કક્ષાએ છે અને પ્રત્યેક કક્ષામાં આગલી કક્ષા કરતાં મમણા સૈનિકે છે એમ સમજવુ, ! Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था० सू.४४ चमरेन्द्रादीनों पादातानीकाधिपत्यादिवर्णनम् ७०९ सैनिककक्षाः, प्रथमकक्षायाम् अष्टाविंशतिसहस्रसैनिकाः द्वितीयादिपु पूर्वपूर्वापेक्षया द्विगुणा द्विगुणाश्च सैनिकसंख्याः पूर्ववद् विज्ञेया इति भावः । पादाता. नोकाधिपतयश्चैषां पृथक्पृथगेत्र, तेषां नामानि च पूर्व भणितानि । तत्र-भूतानन्दस्य पादातानीकाधिपतिदक्षः । एतनामका एव पादातानीकाधिपतयो वेणुदालिंक - हरिपहाग्निमाणाववशिष्ठजलमभामितवाहनप्रभञ्जनमहाघोषाणामौदीज्येन्द्राणां विज्ञेयाः। धरणस्य तु पादातानीकाधिपती रुद्रसेनः । एतन्नामान एवं पादातानीकाधिपतयो वेणुदेवहरिकान्ताग्निशिखपूर्णजलकान्तामितगति वेलम्बघोपाणां सर्वेषां दाक्षिणात्येन्द्राणां योध्या इति। .. अथ शक्रेन्द्राधीनपादातानीकाधिपति सप्तकक्षासु प्रतिकक्षास्तिसैनिकसंख्यां निर्देष्टुमाह- सकस्स गं' इत्यादि । देवेन्द्रस्य देवराजस्य शक्रस्याज्ञायां वर्तमानस्य हरिणैगमेपिणो देवस्य सप्त कक्षा: प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - प्रथमकक्षा, एवमेव क्रमेण चमरवत् द्वितीयादि सप्तम्यन्ताः कक्षा, तत्रस्थितसैनिकसंख्याश्च वक्तव्याः । चमरवद् वक्तव्यता तुदोइन्द्रहैं इनमें चमर दक्षिणार्धका अधिपतिहै और बलि उत्तराईका अधि. पतिहै, नागकुमारोंके इन्द्र धरण और भूतानन्दह, इनमें धरण दक्षिणार्धकाअधिपति है और यूनानन्द उत्तरार्धपति है । इसी प्रकारले अन्यत्र भी समझ लेना चाहिये इन सब के पादानानीकाधिपति की सात कक्षाओं में से प्रत्येक कक्षा में स्थित जो सैनिक हैं उनकी संख्या प्रकट करने के लिये "सरफरल णं" इत्यादि सूत्र पाठ कहते हैं-देवेन्द्र देवराज शक की आज्ञा में वर्तमान जो हरिणैगमेपी देव है उसकी सात कक्षाएं हैं-उनके नाम प्रथम कक्षा, द्वितीय कशा, तृतीय कक्षा इत्यादि हैं - जैसी कक्षाएं चमर की वक्तव्यता में प्रकट ઉપર જે ૧૬ ઇન્દ્રોની વાત કરી તેમાંથી ૮ દક્ષિણાધિપતિ છે અને ૮ ઉત્તરાધિપતિ છે. જેમ કે અસુરકુમારના ચમર અને બલિ નામના બે ઈન્દ્રો છે. તેથી ચમર દક્ષિણાધિપતિ છે અને બલિ ઉત્તરાર્ધાધિપતિ છે નાગકુમારોના ઈનાં નામ ધરણ અને ભૂતાનન્ટ છે તેમાંથી મરણ દક્ષિણાર્ધપતિ છે અને ભૂતાન ઉતરાર્ધાધિપતિ છે એજ પ્રમાણે આગળ પણ સમજી લેવું. આ સેળે ઈન્દ્રોના પદાતાનીકાધિપતિની જે સાત સાત કક્ષાઓ છે, તે પ્રત્યેક ४५i ente सैनिछे ते "सकरतण" त्याहि सूत्रा8 द्वा२। सूत्ररेट કર્યું છે દેવેન્દ્ર દેવરાજ શકને જે પાદાતાનીકાધિપતિ છે તેનું નામ હરિણે ગમેલી દેવ છે. તેની પાદાતાનીક ( પાયદળ) સેનાની સાત દક્ષાઓ છે. તે કક્ષાએના નામ પહેલી કક્ષા, બીજી કક્ષા, ત્રીજી કક્ષા, ઈત્યાદિ સમજવા ચમરની Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थांनासूत्रे " णाण ईशानायच्युतपर्यन्तानामपि बोध्या । अमुमेवार्थमाह-सूत्रकारः - ' एवं जंहा चमरस्स वहा जान अच्चुग्रस्त ' इति । एतेषां पादातानी काधिपतयस्तु भिन्ना एव ते च पूर्वं भणिताः तदुक्तं मूळे - ' णाणत्तं पायत्ताणियाहिवईणं ते पुन्त्रभणिया ' इति । एतेषां शकायच्युतान्तानां दशानामपीन्द्राणामाज्ञायां स्थितानां पादातानीकाधिपतीनां प्रथमकक्षायां सैनिकदेवपरिमाणमिदम्, तथाहि - शक्रेन्द्राधीनहरिगमैपि पादातानीकाधिपतेः प्रथमकक्षार्या चतुरशीति सहस्रसंख्यका देवाः, ईशानेन्द्राधीन लघु पराक्रम नामकपादातानीकाधिपतेः प्रथमकक्षायाम् अशीतिसहस्रसंख्यका देवाः, एवं तत्तदिन्द्राधीन तत्तत्पादातानीकाधिपतीनां प्रथमकक्षायां देवसंख्याऽनया गाथानुगन्तव्या, सा तु ' चउरासीई ' इत्यादि । तत्र - चतु· की गई है वैसी ही ये यहाँ जाननी चाहिये तथा इन में सैनिकों की संख्या भी वैसी ही जाननी चाहिये, यही बात सूत्रकार ने " एव जहा चमरस्त तहा जाव अच्चुयस्त इस सूत्रपाठ द्वारा प्रकट की है, परन्तु इनके पादातानीकाधिपति तो भिन्न २ नामवाले हैं, जैसा कि पहिले प्रकट किया जा चुका है - यही बात - " तं पापत्ताणियाहिवईणं ते पुत्रमणिया " इस मन्त्रपाठ द्वारा सूत्रकारने समझाई है, शक से लेकर अच्युत तक के १० हन्ट्रोंकी आज्ञा में वर्तमान पादतानीकाधिपनियों की प्रथम कक्षा में सैनिक देवों का परिमाण इस प्रकार से है -" सक्क्स्स चउरासीई 55 इत्यादि - शक्रेन्द्र के अधीन जो हरिणैगमैत्री पादातानीकाधिपति है उसकी प्रथम कक्षा में ८४ हजार देव हैं, ईशानेन्द्र के अधीन जो लघुपराक्रम नाम का વક્તવ્યતામાં જેવી કક્ષાએ પ્રકટ કરવામાં આવી છે એવી જ કક્ષાએ અહી પણ સમજવી જોઇએ. પ્રત્યેક કક્ષામાં સૈનિકાની સખ્યા પણ એ જ પ્રમાણે समभवी मे ४ वाते सूत्रभरे " एवं जहा चमरस्त तहा जाव अच्चुयस्स આ સૂત્રપાઠ દ્વારા પ્રકટ કરી છે. પરન્તુ તેમના પાદાતાનીકાધિપતિઓનાં નામ જુદાં જુદાં છે તે નામેા આગલા સૂત્રમાં પ્રકટ કરવામાં આવ્યા છે. એ જ वात सूत्ररे " णाणतं पायन्ताणियाहिवईणं ते पुव्वभणिया " આ સૂત્રપાઠ દ્વારા પ્રકટ કરી છે શકથી લઈને અચ્યુત પન્તના ૧૦ ઇન્દ્રોના પાદાતાનીअधिपतनी सेनानी प्रथम अक्षामा डेंटला सैनि । छे ते " बहस चउरासीइं ". ઇત્યાદિ સૂત્રપાઠ દ્વારા પ્રકટ કરવામાં આવ્યું છે. શના પાદાતાનીકાધિપતિ હિરણૈગમેષી દેવની સેનાની પ્રથમ કક્ષામાં ૮૪ હજાર દેવા ( સૈનિક દેવા ) છે, ઈશાનના લઘુપરાક્રમ નામના પાદાતાનીકાધિપતિની સેનાની પ્રથમ કક્ષામાં ૮૦ " هدف - - Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था०७ लू०५४ अमरेन्द्रादीनां पादातानीकाधिपत्यादिवर्णनम् ७११ रशीतिः सहसाणि, अशीतिः सहस्राणि चेति क्रमेण शकेशानयोर्योज्यम् । एवं द्वासप्तत्यादयोऽपि क्रमेण सनस्कमारादिषु योज्याः । सर्वत्र पूर्वपूर्वकक्षापेक्षयाऽपरापरस्यां कक्षायां सैनिकसंख्या द्विगुणा पोध्या। अमुमेवार्थ मनसि कृत्याह'जाव अच्चुयस्स बहुपरकमस्स दस देवसहस्सा जाव जावइया छट्ठा कच्छा तबिगुणा सत्तमा कच्छा।" इति ॥ सू० ४४॥ पूर्वोक्तं समस्तमपीदं वचनेन ज्ञायते इति वचनभेदानाह___मूलम्--सत्तविहे बघणविकप्पे पण्णत्ते, तं जहा--आलावे १, अणालावे २, उल्लावे ३, अणुल्लावे ४, संलावे ५, पलावे ६ विप्पलावे ८॥ सू० ४५॥ छाया-सप्तवियो वचनविकल्पः, प्रज्ञप्तः तद्यथा-आलापः १ अनालाप: २, उल्लापः ३, अतुल्लापः ४, संलापः ५, प्रलापः ७॥ सु० ४५ ॥ पादातानीकाधिपति है उसकी प्रथम कक्षा में ८० हजार देव हैं। इसी तरह से सनत्कुमार अच्युत तक अनीकाधिपतियों की प्रथम कक्षा में देवों का प्रमाण क्रमशः ७२,७०, ६०, ५०, ४०, ३०, २०, और १०, हजार जानना चाहिये, यह परिमाण शक्रेन्द्र से लेकर अच्युत तक के देवों के अनीकाधिपतियों की प्रथम कक्षा के देवों का है, द्वितीयादिकक्षा के देवों का परिमाण अपनी २ प्रथमादि कक्षा से दूना २ यावत् सातवीं कक्षा तक कर लेना चाहिये, ।। सत्र ४४ ॥ यह सव कथन वचन से ही समझाया जाता है-अतः अप सूत्रकार वचन के भेदों का कथन करते हैंહજાર દે છે, એ જ પ્રમાણે સનકુમારથી લઈને અશ્રુત પર્યન્તના ઈન્દ્રોની પાદાતાનીકાધિપતિની સેનાની પ્રથમ કક્ષામાં અનુક્રમે ૭૨, ૭૦, ૬૦, ૫૦, ૪૦, ૩૦, ૨૦ અને ૧૦ હજાર સૈનિકે છે. દરેકની બીજી કક્ષામાં પહેલી કક્ષા કરતાં બમણ સિનિક સંખ્યા સમજવી. એજ પ્રમાણે સાતમી કક્ષા સુધીની કક્ષાઓમાં આગલી કક્ષા કરતાં બમણી સંખ્યા સમજવી. બીજી કરતાં ત્રીજીમાં બમણું, ત્રીજી કરતાં ચોથીમાં બમણી, ચેથી કરતાં પાંચમીમાં બમણું, પાંચમી કરતાં છઠ્ઠીમાં બમણી અને છઠ્ઠી કરતાં સાતમી કક્ષામાં બમણ સૈનિકસંખ્યા સમજવી. | સૂ. ૪૪ છે આ બધું કથન વચન વડે જ સમજાવી શકાય છે, તેથી હવે સૂત્રકાર क्यनना सहानु नि३५६५ ४२ छ-" सत्तविहे वयणविकप्पे पण्णत्ते "त्याह Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थामा ७१२-- -- --- - ..... टीका-'सत्तविहे ' इत्यादि वचनविकल्पः-वचनम्-भाषणं, तस्य विकल्पो भेदः सप्तविधः प्रज्ञप्तः, तयथा-आलाए:-आईपदर्थत्वात् ईपलपनम्-अल्पभापगमित्यर्थः १। अनालापः, ननः कुत्सार्थत्वम् अल्पार्थत्वं च, ततश्च-अनालापा-कुत्सितभाषणमल्पभाषणं चेत्यर्थः २। उल्लापाकाक्वा वर्णनम् , तदुक्तम्-" काक्या वर्णनमुल्लापः" इति ३। अनुलापासुहुर्भापणम् , तदुक्तम्-'अनुलांपो मुदुर्भापा' इति ४। संलापःअन्योन्यभाषणम् , तदुक्तम्-" संलापो भापणं मिथः' इति ५। प्रलापोनर्यकभाषणम् , तदुक्तम्-" प्रलापोऽनर्थकं वचः" इति ६। स एव विविधोऽनेकप्रका. रकः सन् विप्रलाप इत्युच्यते इति ७॥ सु० ४५ ॥ "सत्तविहे वयविकप्पे पण्णत्ते-इत्यादि । सूत्र ।। ४५ ॥ टोकार्थ-सान प्रकारका वचन-विकल्प-खेद कहा गया है जैसे-आलाप १, अनालाप र उल्लाप ३, अतुल्लाप ४, संलाप ५, प्रलाप ६ और विलाप ७, इन में अल्प भाषण का नाम आलाप है, कुत्सितभाषण करना या अल्प भाषण करना यह अनालाप है। यहाँ मन कुत्सितं अर्थ में या अल्पार्थ में प्रयुक्त हुआहै । १काकुले वर्णन करना इसका नाम उल्लाप है। बार बार साषण करना इसका नाम २ अनुल्लापहै। परस्पर में भाषण करना इसका नाम ३ संलापहै, अनर्थक भाषण करना इसका नाम प्रलाप है, ४ प्रलाप ही जय अनेक प्रकार का होता है तय वह विप्रलाप कहलाता है। सूत्र ४५ ॥ पयनवि६५ ( क्यनन प्रा।) यात ४ा छ-(१) मासा, (२) मानालाय, (3) Galy, (४) मनुदसाप, (५) संसा५, (6) प्रा५ मन (७) વિલાપ અ૫ ભાષણને આલોપ કહે છે. કુત્સિત ભાષણ કરવું તેનું નામ અનાसा५ छ मही' अन् ' ५स सित सभा मया साथमा १५सयो छे. ___“काका वर्णनमुल्लापः” । पूर्व (४१४सूती पू) वयुन ४२वु તેનું નામ ઉ૯લાપ છે. " अनुलापो मुहुर्भाषाः " पावार या ६ तेनु नाम अनुसार छ. " संलापो भाषणं मिथः " ५२२५ानी साथे बातचीत ४२वी तेनु नाम सा५ छ. अनर्थ वात ४२वी तेनु नाम प्रसा५ छ-ह्यु ५५ छ. " प्रापो ऽनर्थभापणम्" प्रा५ । न्यारे गन प्रार। Bाय छे, त्यारे तेन नाम વિલાપ અથવા વિપ્રલાપ થઈ જાય છે. એ સૂત્ર ૪૫ છે १. काक्वा वर्णनमुल्लापः, २ अनुलापो मुहुर्भाषाः ३ संलापो भापण मिथः ४ प्रलापोऽनर्थ भाषणम्. Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुघाटीका स्था० ७ ० ४६ विन्यस्वरूपनिरूपणम् ७१३ पूर्वोक्तेषु वचनभेदेषु केचिद् वचनभेदाः विनयार्थमपि प्रयुज्यन्ते इति तद्भेदप्रदर्शनाय प्राह मूलम् - सन्तविहे विणए पण्णत्ते, तं जहा - पाणविणए १, दंसणविण २, चरितविणए ३, मणविणए ४, वइविणए थे, कायविणए ६ लोगावयारविणए ७| पसत्थमणविणए सत्तविहे पण्णत्ते, तं जहा - अपावए १ असावजे २, अकिरिए ३, froadसे ४ अणण्यकरे ५, अच्छविकरे ६, अभूताभिसंकमणे ७ | अप्पसत्थमणविणए सत्तविहे पण्णत्ते, तं जहा - पार्व १ सावजे २ सकिरिए ३ सउवकेसे ४ अण्हयकरे ५ छविकरे ६ भूताभिसंकमणे । पसत्थवइचिणए सत्तविहे पण्णत्ते, तं जहा - अपावर १ असावजे २ जाव अभूयाभिसंकमणे ७ अप्पसत्यवइविए सत्तविहे पण्णत्ते, तं जहा - पावए १ जाव भूयाभिसंकमणे ७ | पत्थकायविणए सत्तविहे पण्णत्ते, तं जहाआउत गमणं १, आउतं ठाणं २ आउत्तं निसीयणं ३ आउत्तं तुयहाणं ४ आउत्तं उल्लंघणं ५, आउत्तं पहुंघणं ६, आउत्तं सव्विदियजोगजुजणया ७ अप्पसत्थकायविणएं सत्तविहे पण्णत्ते, तं जहा - अणाउत्तं गमणं १ जाव अणाउत्तं सव्विदियजोगजुंजणया ७। लोगोवयारविणए सत्तविहे पण्णत्ते, तं जहा - अभासवत्तियं १, परच्छंदाणुवत्तियं २, कज्जहे ३ कयपडिकिड्या ४ अत्तगवेसणया ५, देसकालण्णुया ६, सव्वत्थे या पडिलोमया ७ ॥ सू० ४६ ॥ स्था - ९० Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ स्थानागसूत्रे छाया-सप्तविधी विनयः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-ज्ञानविनयः १, दर्शनविनयः २, चारित्रविनयः ३, मनोविनयः ४, वाग्विनयः ५, कायविनयः ६, लोकोपचारविनयः ७ा प्रशस्तमनोविनयः सप्तविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-अपापकः १, असावद्यः २, अक्रियः ३, निरुपक्लेशः ४, अनास्लवकरः ५, अक्षपिकरः ६, अभूताभिसंक्रमणः ७ अप्रशस्तमनोविनयः सप्तविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-पापकः १ सावधः २ सक्रियः ३ सोपक्लेशः ४, आस्रवकरः ५, क्षपिकरो ६, भूताभिसंक्रमणः ७। प्रशस्तवाग्विनयः सप्तविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-अपापकः १, असावधो २, यावत् अभूताभिसंक्रमणः ७) अप्रशस्तवाग्विनयः सप्तविधः प्रज्ञप्ता, तद्यथापापको १ यावद् भूताभिसंक्रमणः । प्रशस्तकायविनयः सप्तविधः प्रज्ञप्तः, तथा-आयुक्तं गमनम् १, आयुक्त स्थानम् २, आयुक्तं निपदनम् ३, आयुक्तं त्ववर्तनम् ४, आयुक्तम् उल्लङ्घनम् ५, आयुक्त प्रलङ्घनम् ६, आयुक्तं सर्वेन्द्रिययोगयोजनता ७) अप्रशस्तकायविनयः सप्तविधः प्रसप्तः, तद्यथा-अनायुक्तंगमनं १ यावत् अनायुक्तं सर्वेन्द्रिययोगयोजनता ॥ ७ ॥ लोकोपचारविनयः सप्तविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-अभ्यासवत्तित्वं १ परच्छन्दानुवर्तित्वं २, कार्य हेतु: ३, कृतप्रतिकृतिता ४, आत्मगवेपणता ५, देशकालज्ञता ६, सर्वार्थषु चापतिलोमता ७॥ सू० ४६॥ टीका-'सत्तविहे ' इत्यादि विनयः-विनीयते-दूरीफियते आत्मसंलग्नमप्टप्रकारकं कर्म येन स विनयः, स सप्तविधः प्राप्तः, तद्यथा-' ज्ञानविनय' इत्यादि । तत्र-ज्ञानविनयः-ज्ञानम् = प्रोक्त वचन भेदों में कितनेक वचन भेद बिनय के निमित्त भी प्रयोग में लाये जाते हैं इसलिये अब सूत्रकार विनय के भेद दिखाने के लिये सूत्र का कथन करते है-" सत्तविहे धिणए " इत्यादि ॥ टीकार्थ-विनय सात प्रकारका कहा गया, आत्माके सोय संलग्न आठ प्रकार का कर्म जिसके द्वारा दूर किया जाता है वह विनय है, यह આગલા સૂત્રમાં વચનના જેદે પ્રકટ કરવામાં આવ્યા તેમાંથી કેટલાક વચન દિન વિનયને નિમિત્તે પણ પ્રયોગ થતું હોય છે. તેથી હવે સત્રકાર विनयना नु ४थन रे छ-" सत्तविहे विणए" त्या -(सू ४६) વિનય સાત પ્રકારને કહ્યું છે. આત્માને વળગેલાં આઠ પ્રકારના કર્મોને જેના દ્વારા નાશ કરવામાં આવે છે, તેનું નામ વિનય છે તે વિનયના નીચે પ્રમાણે સાત પ્રકાર કહ્યા છે– Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१५ सुधाटोका स्था० ७ सू० ४६ विनयस्वरूपनिरूपणम् आभिनिवोधिकादिकं पश्यविधं, तदेव विनयः । यद्वा-ज्ञानस्य विनयो भक्तिवहुमानादिकरणं तदुक्तम् " भत्ती बहुमाणो तह, तदिद्वत्थाण सम्मभावणया ।। विहिगहणभासो वि य, एसो विणो जिणामिहिओ ॥ १॥" छाया-भक्तिबहुमानस्तथातद् दृष्टार्थानां सम्यग्भावनता। विधिग्रहणम् अभ्यासोऽपि च, एष विनयो जिनाभिहितः ॥ १ ॥ __ तथा-दर्शनविनय-दर्शनं सम्यक्त्वम् , तदेव विनयः, अथवा-दर्शनदर्शनिनोरभेदाद् दर्शनस्य-दर्शनगुणाधिकपुरुषस्य विनय:-शुश्रूषणाऽनाशातनारूपइति । तदुक्तम्विनय ज्ञानविनय, दर्शनविनय, चारिविनय, मनोविनय, वचन. विनय, काय विनय, और लोकोपचार विनय के भेद से सात प्रकारका कहा गया है, इनमें पांच प्रचार का जो ज्ञान हैं-आभिनियोधिक ज्ञान, (मंतिज्ञान)श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनापर्ययज्ञान और केवलज्ञान-सो ज्ञान विनय इन्ही रूप होता है-अथवा इन पांच प्रकार के ज्ञानों का जो विनय करना है-भक्ति बहुमान आदि करना है-वह ज्ञानविनय हैकहा भी है-" मत्ती तह बहुनाणे इत्यादि। दर्शन नाम सम्यक्त्व का है, इस सभ्यतय का होना ही सम्यक्त्व विनय अथवा दर्शन विनयहै, अथवा-दर्शन और दर्शनवाले में अभेद करने से दर्शन का-दर्शन गुगाधिक पुरुष का-विनय करना-शुश्रषणा (सेवा)करना, उनकी आशातना नहीं करना यह दर्शन विनयहै कहा भीहै (१) ज्ञानविनय, (२) ६शनविनय, (3) यात्रिविनय, (४) मनाविनय, (५) पाविनय, (6) यदिनय, मने (७) बा५या२विनय. જ્ઞાનવિનય પાંચ પ્રકારના જ્ઞાનરૂપ–એટલે કે આભિનિબંધિજ્ઞાન, શ્રતજ્ઞાન, અવધિજ્ઞાન, મન પર્યયજ્ઞાન અને કેવળજ્ઞાન રૂપ-હોય છે. અથવા આ પાંચ પ્રકારના જ્ઞાનનો વિષય કર-તેમના પ્રત્યે બહુમાન, ભક્તિભાવ આદિ રાખવા તેનું નામ જ્ઞાનવિનય છે. કહ્યું છે કે " भत्ती तह बहुमायो" त्याल. દર્શન એટલે સમ્યક્ત્વ. આ સમ્યક્ત્વને સદ્ભાવ હવે તેનું નામ જ સભ્યત્વ વિનય અથવા દર્શનવિનય છે અથવા દર્શન અને દશનવાળામાં અભેદ માનીને દર્શનગુણાધિક પુરુષને વિનય કરે–તેની શુશ્રુષા કરવી, તેની અશાતને ન કરવી તેનું નામ પણ દર્શનવિનય છે. કહ્યું પણ છે કે Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१६ 41 सुस्मृसणा अणासायणा य त्रिणओ उ दंसणे दुविहो । दंणगुणाहिए, कज्जड़ सणाविओ ॥ १ ॥ सकारव्हाणे, सम्माणासणअभिग्गहो तह य । आसणमणुष्याणं, किकम्मं अंजलिग्गहोय ॥ २ ॥ इतस्साऽणुगग्गमणं ठियस्स तह पज्जुवासणा भणिया । गच्छंताच्चयणं, एसो मणाविण || ३ || " छाया - मुश्रूषणा अनाशातना च विनयस्तु दर्शने द्विविधः । दर्शगुणाधिकेषु क्रियते शुश्रूषणाविनयः ॥ १ ॥ सत्कारोऽभ्युत्थानं सम्मानाऽऽसनाभिग्रहस्तथा च । आसनानुप्रदानं, कृतिकर्म अञ्जलिग्रहश्च ॥ २ ॥ अयतो- (आगच्छतो ) ऽनुगमनं, स्थितस्य तथा पर्युपासना मणिता । गच्छतोऽनुव्रजनम्, एप शुश्रूपगाविनयः ॥ ३ ॥ इति । अयं भावः -- दर्शनविषयो विनयः शुश्रवणाऽनाशातना भेदेनद्विविधः । द्विविधोऽप्येष नियो दर्शनगुणाधिकेषु क्रियते । तत्र शुश्रवणाविनयो दशविधः, दयाहि-सत्कारः=स्तत्रनवन्दनादिरूपः ९, अभ्युत्थानम् - विनययोग्ये दृष्टिपथमापतिते सहसा आसनं परित्यज्य कर्ध्वभवनम् २, सम्मान: त्रत्रपात्रादीनां समर्पणम् ३, आसनाभिग्रहः = तिष्ठत एवं गुरोरादरेणासनम् आनीय ' अत्रोप'सुसूमणा अणासोयणा " इत्यादि । 44 दर्शन विषयक विनय शुश्रवणा और अनाशातना (आशानना नहीं करना के भेद से दो प्रकार को कहा गया है - यह दोनों प्रकारका विनय दर्शन गुणाधिकों में किया जाता है । इनमें शुश्रूपणा विनय दश प्रकार का होता है जैसे- स्तवन चन्दना रूप सत्कार विनय १ विनय करने केयोग्य साधु के दिखने पर सामने आने पर आमन छोड़ खड़े हो जाने रूप अभ्युत्थान विनय २, वस्त्रपात्र आदि को का समर्पण करने रूप सम्मान विनय ३, जब गुरुजन बैठने लगे तब आदरपूर्वक उनके सुस्सूसणा अणासायणा " इत्याहि, દનવિષક વિનયના શુષણુ અને અનાશાતના નામના બે ભેદ કહ્યા છે. દશ નગુણુસ ́પન્ન પુરુષોના આ બન્ને-પ્રકારે વિનય કરવામા આવે છે. તેમાંથી શુશ્રૂષણા વિનયના દસ પ્રકાર કહ્યા છે.--(૧) સ્તવન વંદનારૂપ સત્કાર વિનય (૨) અભ્યુત્થાન વિનય કરવા ચેગ્ય સાધુને જોઈ ને અથવા તે સાધુ સમીપમા આવે ત્યારે આસન પરથી ઊભા થવા રૂપ વિનયતુ નામ અભ્યુત્થાન વિનય છે. (૩) સમ્માન વિનય-સાધુઓને વજ્રપાત્ર દિકનું સમર્પણુ કરવુ' તેનું નામ સમ્માન વનય स्थानाशस्त्रे " Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुघाटीका स्था० ७ सू० ४६ विनयस्वरूपनिरूपणस् ७६७ विशन्तु भवन्तः ' इति कथनम् ४, आसनातुप्रदानम् = आसनस्य स्थानात् स्थानान्तरं संचारणम् ५, कृतिकर्म द्वादशावर्त्तवन्दनम् ६, अञ्जलिमग्रहः = करसम्पुटीकरणम् ७, आगच्छतोऽनुवजनम् = आगच्छन्तं दर्शनाधिकं दष्ट्वा तत्संमुखे गमनम् ८, स्थितस्य पर्युपासना ९, गच्छतोऽनुत्रजन १० चेति दशविधः शुश्रूषणावि यः इति । अनुचितक्रियाविनिवृत्तिरूपोऽनाशातनाविनयस्तु पञ्चदशविधः, तथाहि " तित्थगर धम्म आयरियत्रायणे थेर कुलगणे संघे । " संभोगिय किरियाए, मइनाणाईण य तत्र ॥ १ ॥ छाया - तीर्थ कर धर्माचार्यवाचके स्थविरकुलगणे संघे । सांभोग क्रियायां मतिज्ञानादीनां च तथैव ॥ १ ॥ इति । अयं सात्रः- तीर्थ करविषयो विनयः १, तत्मरूपितधर्तविषयो विनयः २, लिये आसन बिछा देना और ऐसा कहना कि आप यहां विराजमान हो जावे ४, जय गुरुजन उठ कर चलने लगे तो उनके लिये आसन को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाना ५, द्वादश आवर्त्तक पूर्वक वन्दना करना ६, हाथों को जोड़ना ७ आते हुए, गुरुजनों के समक्ष जाना ८-अर्थात् आते हुए दर्शनाधिकको देख कर उनके संमुख जाना, दर्शनाधि के बैठ जाने पर उनकी पर्युपासना करना ९ एवं दर्शनाधिक के चलने पर उनके पीछे २ चलना १०, इस तरह से यह १० प्रकार का शुश्रूषणा विनय हैं अनुचित क्रिया से अलग रहने रूप जो अनाशातना विनय है वह १५ प्रकार का है - जैसे " तिथगरधम्म आयरिय " इत्यादि । કે ८८ तीर्थंकर का विनय १ तीर्थकर प्ररूपित धर्म का विनय २, છે. (૪) ગુરુજનને બેસવાને માટે માદરપૂર્વક આસન બિછાવીને તેમને કહેવું અપ અહી' ખિરાજો.' (૫) જ્યારે ગુરુજન ઊઠીને ચાલવા માંડે ત્યારે તેમને માટે એક સ્થાનેથી ખીજે સ્થાને આસન લઈ જવુ (૬) ખાર આવત્તક पूरे वहा अरवी, (७) भन्ने साथ लेडवा, (८) गुरुन्नने भावतां लेने તેમની સમક્ષ જવુ' એટલે કે દર્શન સપન્ન ગુરુને આવતાં જોઈને તેમની સામે જવું, (૯) દશનાધિક ( સમકિતથી મોટા ) એસી જાય ત્યારે તેમની પ. પાસના કે વી અને (૧૦) દર્શનાધિક જ્યારે ગમન કરે ત્યારે તેમની પાછળ પાછળ ચાલવુડ આ પ્રકારે શુશ્રૂષણા વિનય છે અનુચિત ક્રિયા કરવાથી દૂર રહેવા રૂપ અનાશાતના વનયના નીચે પ્રમાણે ૧૫ પ્રકારના કહ્યા છે "तिस्थ गरम आयरिय " त्याहि (१) तीर्थ रनो विनय, (२) तीर्थ ३२ प्र३षित धर्मनो विनय, (3) Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१८ स्थानाङ्गसूत्रे आचार्यविप पो विनयः ३, वाचकः=उपाध्यायः, तद्विपयो विनयः ४, स्थविर ५, कुल ६, गण ७, संघ ८, सांभोगिक ९, क्रिया १० विषयश्च विनयः, मतिज्ञा. नादि १५ पञ्चज्ञानविषयश्च विनय इति पञ्चदशविधोऽनाशातनाधिनयः । अत्रतीर्थकराणामनाशातनायां वर्तितव्यम् , तीर्थकरप्रज्ञप्तस्य धर्मस्यानाशातनायां वर्तितव्यम्-इत्येवंरूपेण अनाशातनाविनयस्य स्वरूपं विज्ञेयम् । तीर्थकरधर्मादि शब्दा अपगतार्थाः । नवरं-सांभोगिका समानसामाचारीकाः । क्रिया-आस्तिकता । एतेषामेव पञ्चदशानामा नाशातनावत् भक्तिबहुमानकरणम् १५, वर्णवाद करण १५, इति द्वयमपि अनाशातनारूपमेवेति अनाशातनाधिनयः पञ्चचत्वा. रिश द्वधो वोध्या, उक्तं च आचार्य का विनय ३ उपाध्याय का विनय ४, स्थधिर का विनय ५, अलक्त विनय ६ गण का विनय ७ संघ का विनय ८, सांयोगिक का विनय ९ क्रिया विनय १० मतिज्ञान आदि पांच ज्ञानका विनय १५, इस प्रकार से अनाशातना विनय १५ प्रकार का कहा तीर्थंकर की अना शातना में एवं तीर्थंकर प्रतिपादित धर्म की अनाशसमा में जीव को प्रवृत्त रहना चाहिये ऐसा विचार कर जो जीव तीर्थकर एवं तीर्थ कर कथित धर्म की अनाशातना करने में लीन रहता है वह तीथें कर अनाशानना विनय एवं तीर्थ कर प्रतिपादित धर्म अनाशानमा विनय है, इग्नी प्रकार से अन्यत्र भी समझना चाहिये, तीर्थ कर धर्म आदि शब्दों का अर्थ सुगम है । समान समाचारी वाले जो साधुजन होते हैं ये सांभोगिक साधु हैं। आस्तिकता का नाम क्रिया है । इन्ही प्रन्द्रहों का अनाशातना की तरह अक्ति बहुसान भक्तिरूप प्रशंसा बहुमान करना १५, वर्णवाद-१५ ये दोनों भी अनाशातना रूप होने मायाना निय, (४) उपाध्यायना विनय, (५) स्थविना विनय, (६) सना विनय, (७) ने विनय, (८) सधन विनय, (6) aana विनय, (१०) छिया विनय, (११ थी १५) भतिज्ञान माटे पांय ज्ञानना विनय. તીર્થકરની અશાતના ન કરવી જોઈએ, અને તીર્થંકર પ્રરૂપિત ધર્મની અશાતના પણ કરવી જોઇએ નહીં, આ પ્રકારને વિચાર કરીને જે જીવ તીર્થકરની અનાશાતનામાં અને તીર્થકરની પ્રતિપાદિત ધર્મની અનાશતનામાં પ્રવૃત્ત રહે છે, એવા જીવને તીર્થકર અનાશાતના વિનય સંપન્ન કહે છે. એ જ પ્રમાણે બાકીના ૧૩ પ્રકારે વિષે પણ સમજવું. તીર્થકર, ધર્મ આદિ શબ્દનો અર્થ સુગમ છે સમાન સમાચારીવાળા જે સાધુઓ હોય છે. તેમને સાગિક સાધુઓ કહે છે. આતિકતાનું નામ કિયા છે. આ પંદર પ્રકારની અનાશાતનાની જેમ ભક્તિબહુમાન, એટલે કે ભક્તિ રૂપ બહુમાન કરવું તે Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधाटीका स्था० ७ ० ४६ चिनयस्वरूपनिरूपणम् "" " कायन्यो पुण भत्ती - वहुमाणो तहय बनवाओ य । अरहंतगाइयाणं, केवलनाणावसाणाणं ॥ १ ॥ छाया -- कर्तव्यः पुनर्भक्ति - वहुमानस्तथा वर्णवादथ । अर्हदादिकानां केवलज्ञानावसानाननाम् || १ || इति ॥ २ ॥ भक्तिरूपो बहुमानः भक्तिवहुमानः । वर्गवाद: = प्रशंसा । तथा चारित्र विनयः - चारित्रं = चरणं - क्रिप, तदैव विनयः, तस्य वा विनयः = श्रद्धानादिरूपः । अयं भावः - सामायिकादिक्रियाणां श्रद्धानं, कायेन स्पर्शनं, भव्यप्राणिनां पुरतः प्ररूपणं चेति चारित्रविनय इति । तदुक्तम् सामाइया चरणस्स सदहणया १, तदेव कारणं । संफासणं २ पण ३ मह पुरओ भव्य सत्ताणं ॥ १ ॥ " छाया - सामायिकादिचरणस्य श्रद्धानं १, तथैव कायेन । ७१९ संस्पर्शनं २ प्ररूपणमथ पुरतो गव्यसन्चानाम् ॥ १ ॥ इति १ ३ ॥ से अनाज्ञातवानय पेंतालीस ४५ प्रकारका हो जाता है । कहा भी है66 काव्या पुण अती " इत्यादि । इसका अर्थ स्पष्ट है- भक्ति पूर्वक बहुमान-भक्ति बहुमान है प्रशंसा का नाम वर्णवाद है २ चारित्र विनय ३ – चारित्रक्रिया-रूप जो विनय हैं वह अथवा चारित्र का जो श्रद्धान आदि रूप विनय है वह चारित्र विनय है, तात्पर्य यह है - सामायिक आदि क्रियाओं का दान करना, काय के द्वारा उनका स्पर्शन करना, एवं भव्य प्राणियों के समक्ष उनका प्ररूपण करना यह चारित्र का ૧૫ પંદર પ્રકારનુ છે. તથા વધુ વાદ અર્થાત્ પ્રશંસા કરવી તે ૧૫ ૫૪ર એ બન્ને અનાશાતના રૂપ હોવાથી અનાશાતના વિના કુલ ૪૫ પ્રકાર થાય છે ह्यु पशुछे . " कायव्वा पुण भक्ती" त्याहि. આ ગાથાને અર્થ સ્પષ્ટ છે. પ્રશ'સા કરવી તેનુ' નાણુ વવાદ છે હવે ચારિત્ર વિનયનું સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવે છે. ચારિત્ર-ક્રિયા-રૂપ જે વિનય છે તેને અથવા ચરિત્ર પ્રત્યે શ્રદ્ધા આદિ રૂપ જે વિનય છે તેનું નામ ચારિત્રવિનય છે. એટલે કે સામાયિક આદિ ક્રિયાએ પ્રત્યે શ્રદ્ધા રાખવી, કાયા દ્વારા તેમની આરાધના કરવી, અને ભવ્ય જીવાની સમક્ષ તેનું પ્રતિપાદન કરવુ તેનુ નામ ચારિત્રનિય છે કહ્યું પણ છે કે८८ सामाइयाश्चरणस्स ” ઇત્યાદિ. આ ગાથાના અથ ઉપરના કથનમાં જ સ્પષ્ટ થઈ ગયા છે. Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२० स्थानागसूत्रे __ तथा-मनोविनय विनयापु कुशलस्य मनसः प्रवर्तनम् , अकुशलस्य च निवर्त्तनम् ४, एवं वाग्विनयः ५, कायविनयश्च ६ बोध्यः । तथा-लोकोपचारविनयः-लोकानाम् उपचारो व्यवहारस्तेन तद्रूपो वा विनय:-लोकव्यवहारहेतुको लोकव्यवहाररूपो वा विनय इत्यर्थः । इत्थं सप्तविधान विनयान् प्रदश्य सम्प्रति तद्घटकमनोवाकायविनयान् प्रशस्ताप्रशस्तभेदमधिकृत्य प्रत्येकं सप्तभेदत्वेन प्रहपयितुमाह- पसत्थमणोविणए ' इत्यादि । तथाहि-प्रशस्तमनोविनयः-प्रशस्त: कुशल. विचारणात्मको मनोविनयः सप्तविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-अपापका शुभचिन्तारूपः, अप्लावद्यः-सापद्यम्=अदतादानादिरूपं जुगुप्सितं कर्म, तन्नास्ति आश्रयणीयत्वेन विनय है, कहा भी है--" लामाइयाहचरणस्स" इत्यादि । इस गाथा का अथें पूर्वोक्त जैसा ही है । मनो विनय ४-विनय के योग्य साधुजनो में अच्छा मन रखनासुन्दर मात्त्विक विचार करना-और खोटे विचारों का परित्याग करना यह मनोविनय है. इमी प्रकार से बचनविनय और कापविनय सम. झना चाहिये, लोकोपचार विजय ७-लोकव्यवहार का हेतु रूप अथवा -लोकव्यवहार रूप जो विनय है वह लोकोपचार विनय है, __ अब सूत्रकार मन, वचन और काय के प्रशस्त और अप्रशस्त भेदों को लेकर उनमें लप्त प्रकारता का कथन करते हैं-" पसत्यमणो विण" इत्यादि-सुन्दर सद्विचारात्मा जो मनोबिलय है वह सात प्रकार का है-जैसे आपापक १ असोवद्य २, अक्रिय ३ निरूपक्लेश ४, अनावकर ५, अक्षपिकर ६ और अभूताभिसंक्रमण ७, इनमें से शुभ विचार रूप मानसिक विकल्प है वह अपापक मनोविनय है, अदनादानादि रूप जो जुगुप्सित कम है वह सायद्य है, यह सायय (४) मानविनय-विनयने योग्य साधुमे। प्रत्ये मनमा समाप रावा, સુંદર અને સાત્વિક વિચાર કરવા અને ખરાબ વિચારોને પરિત્યાગ કરે તેનું નામ મને વિનય છે. એજ પ્રમાણે વાવિનય વિષે પણ સમજવું. (૭) લેકવ્યવહારના હેતુરૂપ અથવા લેકવ્યવહાર રૂપ જે વિનય છે તેનું નામ લેકોપચારવિનય છે. હવે સૂત્રકાર મન, વચન અને કાયના પ્રશસ્ત અને અપ્રશરત ભેદના सात-सात प्राशनु ४थन ४२ छ-" पत्थमणोविणए ” छत्याहि સુદર વિચારાત્મક અથવા સદ્વિચારાત્મક જે મને વિનય છે તેના નીચે प्रभाये सात ४१२ ह्या छे-(१) २५५५ (२) असावध, मठिय, (४) नि२५४वेश, (५) मनासप४२, (६) पक्षपि४२ मने (७) अभूतालिस भए. Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __७२१ सुभाटीका स्था० ७ सू० ४६ विनयस्वरूपनिरूपणम् यस्य स तथा, चौर्यादिगहितकर्मालम्बनवनित इत्यर्थः २, अक्रियः-क्रिया कायिक्यादिरूपा सा नास्ति यस्य स तथा, साधुजनानहकायिक्यादिक्रियाव-- नित इत्यर्थः ३ निरुपक्लेशः-उपक्लिश्यते-विवाध्यते जनोऽनेनेति उपक्लेश शोकादिः, तेन निर्गतो निरुपक्लेशः, शोकादिक्लेशरहित इत्यर्थः । ४ । अना_ स्रवकरः-आस्रवणं-क्षरणम्-जीवरूपतडागे कर्मरूपजलस्यागमनं कर्मबन्धनमिति यावत् , तस्य कर:-आस्रवकरः, न तथा-अनास्रवकरः प्राणातिपाताधास्ववर्जित जिस मानसिक विचार धारा का आलम्बन नहीं होता है वह असा. वद्य मानसिक विनय है यह असावद्य मानसिक विनय चौर्यादि निदित कर्मों के आलम्बन से रहित होता है, जिप्त मानसिक विचार धारा 'का विषय कायिकी क्रिया आदि क्रियाएँ नहीं होती है वह अक्रिय मनो विनय है, यह अक्रियमनोविनय साधु जनके अयोग्य कायिकी क्रिया आदि क्रियाओं से वर्जित होता है, निरुपक्लेश मनोविनयमनुष्य जिस से विशेष रूप में बाधित होता है ऐसा वह शोकादि उपक्लेश है, इस उपक्लेश से जो रहित होता है वह निरुपक्लेश है, शोकादिक्लेश से रहित जो मानसिक विचार है वह निरुपक्लेश मनोविनय है, जो विचारधारा जीव रूप तडाग में कमरूप जल के आगमन के कारण होती है-कर्मबन्ध का निमित्त होती है-वह आस्रवकर है-ऐसे आस्रव की करनेवाली जो विचार धारी नहीं होती - -શુમવિચાર રૂપ જે માનસિક વિક૯પ છે, તેને અપાપક મનોવિનય કહે છે. અદત્તાદાન આદિ રૂપ જે જુગુસિત કર્મ છે, તેને સાવદ્ય ગણવામાં આવે છે. જે માનસિક વિચારધારામાં આ સાવદ્ય આધાર લેવામાં આવતું નથી, તે પ્રકારની વિચારધારાને અસાવદ્ય વિનય રૂપ માનવામાં આવે છે. આ અસાવદ્ય માનસિક વિનય ચોરી આદિ ગર્ણિત કર્મોના અવલંબનથી રહિત હોય છે. જે માનસિક વિચારધારાનો વિષય કાયિકી ક્રિયા આદિ ક્રિયાઓ હેતે નથી, તે મને વિનય સાધુજનોને માટે કહે છે. આ અકિય મને વિનય સાધુજનેને માટે અગ્ય એવી કાયિકી આદિ ક્રિયાઓથી વંર્જિત હોય છે, તે નિરુપકલેશમનોવિનય-જેના દ્વારા મનુષ્યનું ચિત્ત ડામાડોળ થઈ જાય છે એવાં શેકાદિને ઉપકલેશ કહે છે જેનું ચિત્ત આ પ્રકારના ઉપકલેશથી રહિત હોય છે તેને નિરુપકલેશ કહે છે. શોકાદિ કલેશથી રહિત જે માનસિક વિચાર છે તેનું નામ નિરુપલેશ મનેવિનય છે. જે વિચારધારા જીવ રૂપ તળાવમાં કર્મરૂપ જલના આગમનના કારણ રૂપ હોય છે. કર્મબન્ધના નિમિત્ત રૂપ હોય છે, તેને આવકર કહે છે. એ स्था०-९१ Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२२ स्थानावरे इत्यर्थः ॥५॥ अक्षपिकर:-क्षपिः स्वपरयोरावासः, तस्य करः-क्षपिकरः, न तथा अक्षपिकरः, स्वपराव्यथाजनक इत्यर्थः ॥ ६॥ तथा - अभूतसंक्रमण:-भूतानि-प्राणिनः संक्रम्यन्ते उपमर्दान्ते येन सः, भूतसंक्रमणे, न तथा-अभूतसंक्रमणः-भूतोपमर्दनवर्जित इत्यर्थः ॥ ७॥ इति तथा-अप्रशस्तमनोविनय = अकुशल चिन्तनरूपमनोविनयः सप्तविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-सावध इत्यादि । है वह अनास्त्रवकर है ऐली अनास्त्र व कर विचार धारा प्राणातिपात आदि रूप आस्त्रव से वर्जित होती है, अतः ऐसी अनास्रवकर विचार धारा अनास्रवकर मनोविनय है, स्व और पर को कष्ट पहुंचाने वाली जो विचारधारा है वह क्षपिकर विचारधारा है, ऐसी जो विचार धारा नहीं है वह अक्षपिकर मनोविनय है । अर्थात् ऐसी विचारधारा से शुन्य जो मन है वही अक्षपिकर मनोविनय है। अभूताभिसंकमण-जिस विचारधारा से प्राणियों का उपमर्दन किया जाता है ऐसी वह विचारधारा भूताभिसंक्रमण है, ' जिस विचारधारा में ऐसा भूताभिसंक्रमण नहीं होता है ऐसी वह विचारधारा अभूतसंक्रण रूप मनोविनय है ॥७॥ अप्रशस्त मनोविनय इस प्रकार से सात भेदों वाला है-जैसेपापक १, सावध २, सक्रिय ३, सोपक्लेश ४, आस्रवकर ५, क्षपिकर ६, और भूताभिसंक्रमण- ७, अप्रशस्तमनोविनय अकुशल चिन्तन આસવ કરનારી જે વિચારધારા હોતી નથી તે વિચારધારાને અનાવર કહે છે. એવી અનામ્રવકર વિચારધારા પ્રાણાતિપાત આદિ રૂપ આસવથી રહિત હોય છે. તેથી એવી અનાશ્રવકર વિચારધારાને અનાસકર મનોવિનય કહે છે. - સ્વ અને પરને કષ્ટ પહોંચાડનારી જે વિચારધારા છે તેને ક્ષપિકર વિચાર ધ રે કહે છે જે વિચારધારા એવી હતી નથી તેને અક્ષપિકર કહે છે. તેથી સ્વ અને પરને પીડા પહોંચાડવાથી રહિત એવી વિચારધારા છે તે અક્ષપિકર મને વિનયરૂપ છે અભૂતાભિસંક્રમણ–જે વિચારધારાવડે પ્રાણીઓનું ઉપમર્દન કરાય છે તે વિચારધારાને ભૂતાભિસંક્રમણ કહે છે. જે વિચારધારામાં એવું ભૂતાભિસંક્રમણ થત નથી, તે વિચારધારાને અભૂતાભિસંક્રમણ રૂપ મને વિનય કહે છે. પ્રશસ્ત મને વિનયન નીચે પ્રમાણે સાત ભેદ કહ્યા છે (१) पा५४, (२) सापध,'(3) सठिय, (४) सौ५४वेश, (५) साख१४२, (६) सपि४२ मने भूतानि भ. Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था० ७ सु. ४६ विनयस्वरूपनिरूपण ७२ई पूर्वोक्त एवार्थी नञर्थरहितत्वेनात्र योज्यः यथा 'अपापक ' इतिस्थाने 'पापक' इत्यादियोजना कर्त्तव्या एवं प्रशस्ता प्रशस्तभेदभिन्नो वाग्विनयोऽपि वोध्यः । तथा - प्रशस्त काय विनयः कुशलात्मककार्याविनयः सप्तविधः प्रज्ञतः, तथा आयुक्तंगमनम् - आयुक्तम् = सोपयोगं यथास्यात्तथा गमनम्, यद्वा - आयुक्तगमनमित्येकं पदं तेन आयुक्तस्य - उपयुक्तस्य = प्रतिसंलीनयोगस्य यद् गमनं तदित्यर्थः ॥ १ ॥ रूप होता है, यहां पापक आदि का पूर्वोक्त रूप से विपरीत रूप मेंविचार कर लेना चाहिये । यही बात यहां टीकाकारने " पूर्वोक्तएवार्थी - नञर्थरहितत्वेनात्र योज्यः " इस पंक्ति द्वारा प्रकट की है। इसी तरह से प्रशस्त अप्रशस्न भेद से वागू विनय ( वचन विनय ) भी सात प्रकार का है, जैसे- अपापक वाश्विनय, १ असावद्यवाग् विनय २, इत्यादि ३ इसी प्रकार से अप्रशस्त वाग्रचिनय भी पापकवागूविनय १ असावद्यवाग्विनय २ इत्यादि, इसी तरह से प्रशस्त काय विनय भी सात प्रकार का है - जैसेआयुक्त गमन रूप काय विनय ( उपयोगसहित चलना ) १ आयुक्त स्थान रूप काय विनय २, आयुक्त निपद रूप काय विनय ३, आयु. त्वग्वर्तन रूप कार्याविनय ४, आयुक्त उल्लंघन रूप कार्याविनय आयुक्त प्रलंघन रूप कार्याविनय ६ और आयुक्त सर्वेन्द्रिययोग योज અપ્રશસ્ત મનાવિનય અકુશલચિન્તન રૂપ હાય છે. અપાપક મનેવિનય આફ્રિ સાત પ્રકારના પ્રશસ્ત મનાવિનય કરતા આ સાત અપ્રશસ્ત મનેાવિનયનું વિપરીત સ્વરૂપ સમજવું, એજ વાત અહીં ટીકા भरे नीचेना सूत्रपाठ द्वारा अष्ट उरी छे-" पूर्वोक्त्तएवार्थे नञर्थरहितत्वेनात्र योग्यः " એજ પ્રમાણે વાગ્વિનયના પણુ અપ્રશસ્ત અને પ્રશસ્ત નામના બે ભેદ પડે છે, પ્રશસ્ત વાવિનયના નીચે પ્રમાણે સાત ભેદ પડે છે-(૧) અપાપક वाजूविनय, (२) असावद्य वाजूविनय, (3) सावध वाविनय से प्रभाते, પ્રશસ્ત મનેાવિનયના વાગ્વિનયના પશુ પાપક વાડ્વનય, સાવદ્ય વાગ્વિનય આદિ સાત ભેદ સમજવા. પ્રશસ્ત કાયવિનયના નીચે પ્રમાણે સાત પ્રકાર પડે છે (१) आयुक्त गमनश्य अयविनय ( उपयोग सहित यास ते ) (२), આયુક્ત સ્થાનરૂપ કાયવિનય, (૩) આયુક્ત નિષદરૂપ કાયવિનય, (૪) આયુક્ત ત્વવત્નરૂપ કાયવિનય, (૫) આયુક્ત ઉલ્લ ધનરૂપ કાયવિનય (૬) આયુક્ત असं धनश्यायविनय, भने, (७) आयुक्त सर्वेन्द्रिययोगयोन्नता, Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : . - स्थानाङ्गसूत्रे एवमग्रेऽपि, नवरं-स्थानम् अर्ध्वस्थानं कायोत्सर्गादि, निपदनम् उपवेशनम् , स्वरवर्तनम् पार्श्वपरिवर्तनं-शयनमित्यर्थः, उल्लङ्घनम् कद्दमादेः सकृदतिक्रमणम् , प्रलङ्घनन्तस्यैव पौनःपुन्येनातिक्रमणम्, मन्द्रिययोगयोजनता-सर्वाणिच जानीन्द्रियाणि चेति सर्वेन्द्रियाणि, तेषां योगा व्यापाराः, यद्वा-इन्द्रियाणां योगा: व्यापारा इन्द्रिययोगाः, सर्वेच ते इन्द्रिययोगाः सर्वेन्द्रिययोगाः, तेपां योजनताकरणम् पवेन्द्रियाणां शुभव्यापार इत्यर्थः । एवमप्रशस्त-कायविनय भेदा अपि अनायुक्तविशेषणवत्त या व्याख्येया इति । उक्तश्च प्रशस्तमनोवाकायविनयविषयेनता ७, इन में से उपयोगपूर्वक गमन करना यह आयुक्त गमनरूप कार्यविनय है, अथवा-" आयुक्तगमन " यह एक पद है, इसका अर्थ है। प्रतिसंलीनयोग वाले ( इन्द्रियों को गुप्त करनेवाले का जो गमन है वह आयुक्त गमन है, १ इसी तरह से आगे भी आयुक्त शब्द का अर्थ समझ लेना चाहिये, स्थान शब्द का अर्थ है कायोत्सर्ग आदि करना-निषदन शब्द का अर्थ है बैठना त्यगवर्नन शब्द का अर्थ है करवट बदलना-सोना, उल्लंघन शब्द का अर्थ है-कर्दम आदि का एक बार उल्लंघन करना, प्रलंघन-शब्द का अर्थ है-कर्दम आदि का पारंबार उल्लंन करना तथा समस्त इन्द्रियों को शुभन्यापार में लगाना, यह लगाना, यह सर्वेन्द्रिय योग योजनता है, अप्रशस्त कायविनयके भेद भी अनायुक्त विशेषण लगाकर इसी तरह से व्याख्यात कर लेना चाहिये, प्रशस्त मन, वचन, एवं काय के विनय के विषय में ऐसा कहा गया है-" भगवदकायविणओ" इत्यादि ઉપગપૂર્વક ગમન કરવું તેનું નામ આયુક્ત ગમન રૂપ કાયવિનય છે. अथवा " आयुक्तगमन ( 21 मे ५६ छे. तेन। म मा प्रभारी थाय छપ્રતિસલીન ગવાળાનું (ઇન્દ્રિયને ગુપ્ત કરનારનું) જે ગમન છે તેનું નામ આયુક્તગમન છે એજ પ્રમાણે બીજા ભેદોના અર્થ પણ સમજી લેવા. અહીં થાન પદ કાર્યોત્સર્ગનું વાચક છે, નિષદન એટલે બેસવું. “વર્તન” એટલે પડખું બદલવું અથવા સૂવું, “ઉ૯લંધન” એટલે કર્દમ આદિને એક વખત ઓળંગવે, “પ્રલંઘન ” એટલે કર્દમ આદિને વારંવાર એળગવા, “સન્દ્રિય યે ગ જનતા એટલે સમસ્ત ઇન્દ્રિયને શુભ વ્યાપારમાં પ્રવૃત્ત કરવી. ( અપ્રશસ્ત કાયમના પણ સાત ભેદ પડે છે. અહીં અનાયુક્ત વિશેષણ, લગાડીને અનાયુક્ત ગમનરૂપ કાયવિનય આદિ ઉપર્યુક્ત સાત ભેદે સમજવા. પ્રશસ્ત મન, વચન અને કાયના વિનય વિષે એવું કહ્યું છે કે Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घाटीका स्था० सू०४६ विनयस्वरूपनिरूपणम् "मणवकायविणओ, आयरियाईणसच्चकालम्मि | अकुसलाणनिरोदो, कुसलाणमुईरणं तहय || १ || " छाया - मनोवाक्कायविनय आचार्यादीनां सर्वकालमपि । अकुशलानां निरोधः कुशलानामुदीरणं तथा च ॥ १ ॥” इति । अयं भावः - आचार्यादीनां विषये सर्वदा अकुशलानां मनोवाक्कायानां निरोधः कुशलानां च उदीरणं प्रशस्तमनोवाक्कायविनया बोध्याः । अप्रशस्तमनोवाक्कायविनया इतोवैपरीत्येन भावनीया इति । इत्थं प्रशस्ता प्रशस्तभेदेन मनोवाक्कायविनयान सप्तभेदतयोपद सम्पति लोकोपचार विनयसप्तमे दत्वेनोपदर्शयति- लोगोवयारविणए ' इत्यादि । लोकोपचारविनयोऽपि सप्तविधो वोध्यः तथाहि - अभ्याशवर्त्तित्वम्-अभ्याशे आचार्यादीनां ७२५ तात्पर्य यह है कि आचार्य आदिकों के विषय में सर्वदा अकुशल मन वचन एवं कार्य का निरोध करना और कुशल मन, वचन कायका उदीरण करना - यह प्रशस्त सत्र वचन कायका विनय है, तथा अप्र शहन मन वचन का सम्बन्धी विनय इनसे विपरीत है, इस तरह प्रशस्त और अप्रशस्तके भेइसे मन वचन काय संबन्धी विनय के भेदों को दिखला कर अप सूत्रकार लोकोपचार विनय के सात भेदों को प्रदर्शित करते हैं-" लोकोत्रयारविणए " " इत्यादि लोकोपचार विनय के मात भेद इस प्रकार से हैं - अभ्यास वर्तित्व १, परच्छन्दानुवर्तित्व २, कार्य हेतु प्रतिकृतिता ४, आत्मगवेषणता ५, देशकालज्ञता ६, और सर्व अर्थों में सप्रयोजनों में अप्रतिलोमता ७, आचार्य आदि के पास में मणकाविणओ " त्याहि "( આ કથનના ભાવાર્થ આ પ્રમાણે છે-આચાય આદિના વિષયમાં સદા અકુશલ મન, વચન અને કાયના નિરૈધ કરવા અને કુશલ મન, વચન અને કાયનું ઉદીરણ કરવું, તે પ્રશસ્ત મન વચન અને કાયના વિનય છે, તથા અપ્રશસ્ત મન, વચન અને કાયના નય તેના રતાં વિપરીત સ્વરૂપવાળા હાય છે. આ રીતે મન, વચન અને કાયના પ્રશસ્ત ભેદ અને અશસ્ત ભેદોનું નિરૂપણ કરીને હવે સૂત્રકાર લેાકેાપચાર વિનયના સાત ભેદે પ્રકટ કરે છે " लोकोवयार विणए " छत्यहि લેાકેાપચાર વિનયના નીચે પ્રમાણે સાત ભેદ કહ્યા છે— (१) अभ्यास वर्तित्व, (२) २२छन्हानुवर्तित्व, (3) अर्थ हेतु, (४) कृतप्रतिकृतिता, (५) आत्म गवेषणता, (६) देशभद्वाज्ञता, भने (७) सर्वार्थभां અપ્રતિàામતા. શ્રુતાયન કરવાની અભિલાષાવાળા શિપનું આચાર્યાદિની ૫ સે જે રહેવાનું થાય છે તેનું નામ જ અભ્યાસવર્તિત્વ છે. આચાર્યાદિના અભિપ્ર,ય Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३६ स्थान = समीपे वर्त्तितुं शीलमस्येति अभ्याशवती = भाचार्यादिसमीपे निवसनशीला, तरुप भावस्तस्वम् श्रुताद्यध्ययनार्थिना आचार्यादीनां समीपे स्थातव्यमिति भावः | १| परच्छन्दानुवर्तित्वम् आचार्याद्यमिमायानुकूलत्वम् |२| कार्यहेतुः - कार्यं श्रुताध्ययनादिकं तद् हेतुः कारणं यस्मिन् सः । अयं भावः - अनेनाहं श्रुतमन्याषितः, अनोमपाऽस्मिन् विशेषतो विनययुक्तेन भाव्यमिति मनसि संधाय श्रुताध्यापयितरि यो विनयः स कार्य हेतुरिति | ३| कृतप्रतिकृतिता कृते = भक्तादि प्रदानेन सुश्रूषणेकृते सति सुप्रसन्ना गुरवः श्रुतपदानादिना प्रतिकृर्ति = प्रत्युपकारें करिष्यन्तीति गुरुषु भक्तादिपदानंरूपो यो विनयः स कृतप्रतिकृतितेति । ४ । आत्न गवेषणता - आत्मना - परप्रेरणामन्तरेण स्वयमेत्र साधुसमुदाये सुस्यदुःस्थजिसका रहने का स्वभाव है ऐसा वह शिष्य अभ्यासवर्ती है - श्रुताध्ययन के अभिलाषी शिष्य को आचार्यादि के पास में रहना - यही अभ्यासवर्त्तित्व है | आचार्य आदि के अभिप्रायानुसार अपनी वृत्ति करना यह परच्छन्दानुवर्त्तित्व है, इसने मुझे अत का अध्ययन कराया है, इसलिये मुझे इनके समीप बहुत ही विनय के साथ रहना चाहिये ऐसा मन में विचार करके जो अत अध्येता के पास विनय पूर्वक रहता है वह कार्य हेतु लोकोपचारविनय है, भक्त आदि लाकर के देने से सेवा युक्त किये गये ये गुरुजन मेरे ऊपर सुप्रसन्न हो जायेंगे तो वे मुझे अनप्रदान कर मेरा प्रत्युपकार कर देंगे इस अभिप्राय से गुरुजनों के विषय में भक्तादि प्रदान रूप जो विनय है वह कृनप्रतिकृति रूप लोकोपचार विनय है । विना प्रेरणा किये अपने आप ही साधु समुदाय में सुख एवं दुःख की गवेषणा करना यह आत्मगवेषणता रूप लोकोपचार विनय है, अथवा " आप्तगवेषणता " પ્રમાણે જ પેાતાની પ્રવૃત્તિ રાખવી તેનું નામ પરચ્છન્દાનુતિત્વ છે. “ તેમણે મને શ્રૃતનું અધ્યયન કરાવ્યુ છે, તેથી મારે તેમની પાસે ઘણા જ વિનયપૂર્વક રહેવું જોઇએ ” આ પ્રકારના મનમાં વિચાર કરીને જે શિષ્ય શ્રુતના અભ્યાસ કરાવનારની સાથે વિનયપૂર્ણાંક રહે છે, તે પ્રકારે રહેવા રૂપ કા હેતુ લેાકેાપચાર વિનય સમજવે. “ આહાર આદિ લાવી દેવા રૂપ સેવા કરવાથી ગુરુ મારા ઉપર સુપ્રસન્ન રહેશે અને મને શ્રુત પ્રદાન કરીને મારા ઉપર પ્રત્યુપકાર કરશે,” આ પ્રકારની ભાવનાથી ગુરુજનાને માટે આહારાદિ લાવી આપવા રૂપ જે વિનય છે તેને કૃતપ્રતિકૃતિતા રૂપ લેાકેાપચાર વિનય કહે છે. કાઈના દ્વારા પ્રેરિત કરાયા વિના-માપ મેળે જ સાધુ સમુદાયમાં સુખ અને દુઃખની ગવેષણા કરવી તેનું નામ. આત્મગદ્વેષણુતા રૂપ લેાકેાપચાર Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२७ सुधा टीका स्था ७ सू० ४६ विनयस्वरूपनिरूपणम् योर्यद गवेषणम् अन्वेषण तदेव । " आप्तगवेपणता" इतिच्छायापक्षे-प्राप्त स्वकीयो भूत्वा यत् साधु समुदाये मुस्थ दुःस्थयोः गवेपणं तदेव । " आर्तगवेपणता" इतिच्छायापक्षे तु-आर्त्तानां रोगादिपीडितानां कृते औपधादेर्यद् गवेषण तदेव ।५। देशकालज्ञता=अवसरोचितार्थे संपादनाभिज्ञता।६। तथा सर्वार्थेषु-गुर्वादीनां सफलप्रयोजनेषु अप्रतिलोमता=अविरुद्धता-अनुकूलतेति यावत् सू० ४६॥ अनन्तरं विनय उक्तः, विनयाच कर्मघातो भवति, कर्मघातश्च समुद्घाते विशिष्टतर इति समुद्धातपरूपणाय प्राह..मूलम्-सत्त समुरवाया पण्णत्ता, तं जहा-वेयणासमुग्घाए १, कलायसमुग्घाए २ मारणंतियसमुग्घाए ३, वेउव्वियसमुग्याए ४ तेजससमुग्घाए ५, आहारगसमुग्घाए ६ केवलिसमुग्याए । मणुस्साणं सत्त समुग्घाया पण्णत्ता, एवं चेव ॥सू०४७॥ इस छाया पक्ष में आप्त हो कर के-स्वकीय हो करके-ये अपने ही हैंइस प्रकार का विचार करके-जो साधु समुदाय में सुस्थ दुःस्थ की गवेषणा है वह आप्तगवेषणतो है, अथवा-" आते गवेषणता" इस पक्ष में ऐसा अर्थ होता है कि रोगादि से पीडित साधुजनों के लिये औषधादि की गवेषणा करना वह आत्तंगवेषणता है, देशकाल ज्ञता ६-अवसर के लायक जो अर्थ के संपादन की अभिज्ञता है वह देश कालज्ञता है। एवं गुरु आदिकों के समस्त प्रयोजनों में अनुकूल हो कर जो वर्तन है वह सर्वार्थों में अप्रतिलोमता है । सूत्र ४६ ॥ विनय अथवा-" आप्तगवेषणता" मा १२नी सकृत छाया मही सेवामा આવે, તે આ પદને આ પ્રમાણે અર્થ થાય છે-આપ્તજન તરીકે જ તેઓ મારા આસજન છે, આ પ્રકારને વિચાર કરીને સાધુ સમુદાયમાં સુસ્થ દુની ગવેષણ કરવી તેનું નામ આસગવેષણતા છે. અથવા તે પદની સંસ્કૃત છાયા "आर्तगवेषणता" वेवामा सावे, तो मही सव। मथ थाय छे ४-रेगा. દિથી પીડાતા સાધુઓને માટે ઔષધાદિની ગવેષતા છે. (6) शsadi-मसरने काय मथने ( पाने ) सपाहन ४२. વાની જે અભિજ્ઞતા છે, તેનું નામ દેશકાલજ્ઞતા છે. (૭) સમસ્ત પ્રજમાં ગુરુ આદિકેને અનુકૂવ થઈ જનારું જે વર્તન छ, ते नाम सर्थािमा मतिमता छ. ॥ सू. ४६ ॥ Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - ७२८ स्थामा . छाया-सप्त समुद्घ ताः प्रज्ञप्ताः, तबथा-वेदनासमुद्घातः १, कपाय-समुद्घातः २, मारणान्तिकसमुद्घात: ३, वैक्रियसमुद्घातः ४, तेजससमुद्. घातः ५, आहारकममुद्घातः ६, केवलिसमुद्घातः ७ । मनुष्याणां सप्त समुयाताः प्रज्ञप्ता एवमेव ॥ सू० ४७ ।। टोका-'सत्त समुग्घाया' इत्यादि सद्घाताः-यथास्वभावस्थितानामात्मप्र देशानां वेदनादिभिः सप्तमिः कारणैः समन्तादुरातनं-स्वभावादन्यभावेन परिणमनं समुद्घातः, अयं भावायदाऽऽत्मा वेदनादि समुद्घातगतो भवति तदा वेदनाद्यनुभवज्ञानपरिणत एव ऊपर के सूत्र में विनय के विषय में कहा गया है-इस विनय से कर्म का घात होता है, तथा-समुद्घात अवस्था में कर्मघात विशिष्टतर होता है-अतः अब सूत्रकार समुद्घात की प्ररूपणा करने के लिये४७ वा सूत्र कहते हैं-"सत्त समुग्धाचा पगत्ता" इत्यादि ।सूत्र४७॥ टीका-समुदधात सात कहे गयेह-जैसे-वेदना समुदघात१ कषाय समु. दातर, मारणान्तिक समुद्वात३. वैक्रिय समुद्घात ? तैजस समुद्घात ५, आहारक समुद्घात ६. केवलि समुद्घात७, मनुष्योंके सातही समु. द्धात कहे गये हैं। • यथा स्वभावस्थित आत्मप्रदेशों का वेदना आदि सात कारणों को लेकर जो स्वभाव से परिणमन होता है-वह समुंदघान है, तात्पर्य ऐसा है-जय आत्मा वेदनादि समुद्घात गत होता है ઉપરના સૂત્રમાં વિનયનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે. આ વિનય વડે. કમને ઘાત થાય છે, તથા સમુદ્રઘાતાવસ્થામાં કર્મઘાત વિશિષ્ટતર થાય છે. - તેથી હવે સૂત્રકાર સમુદ્દઘાતની પ્રરૂપણું કરે છે– ____“ सत्त समुग्धोया पण्णत्ता" त्याहि-(सू ४७) टी -मीय प्रमाणे सात समुधात ४६॥छे-(१) वहना समुद्धात, (१) ४पाय समुद्धात, (3) भारान्ति समुद्धात, (४) वैठिय समुद्धात, (५) तेस समुद्धात, (९) मा २४ समुद्धात मन (७) पतिसभुधात. યથા સ્વભાવસ્થિત આત્મપ્રદેશનું વેદના આદિ સાત કારણોને લીધે સ્વભાવમાંથી જે પરિણમન થાય છે તેનું નામ સમુદૂઘાત છે. આ કથનને ભાવાર્થ નીચે જ્યારે આત્મા વેદનાદિ સમુદુઘાતગત હોય છે, ત્યારે તે વેદનાદિ સમુદૂત ગત હોય છે. ત્યારે તે વેદના આદિના અનુભવરૂપ જ્ઞાનથી પરિત જ Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुपा टीका स्था०७ सू०४३ समुद्घातस्वरूपनिरूपणम् ७२९ भवति नान्यज्ञानपरिणतः आत्मपदेशैः सह संश्लिष्टानां कालान्तरानुभवयोग्यांनी बेदनीयादि कर्मप्रकृतीनामुदीरणयाऽऽकपणेन उदयावलिकायां प्रक्षेपेण निर्जरण मिति । समुद्घातशब्दस्य बहुत्वविक्षया समुद्घातः । ते वेदनादिभेदेन सप्तसंख्यकाः प्राप्ता, तानेताह-तद्यथा-वेदनासमुद्घान इत्यादि । तत्र-वेदना ' समुद्घातः-वेदनया कालान्तरानुभवनीयासातकर्माण्युदयावलिकायां प्रक्षिप्या. नुभवनेन समुद्घाता-पां कर्मणां निजेरणम् । अयं भावः-वेदनासमुद्घातगतआत्मा असातवेदनीयकर्म पुद्गलपस्शिातं करोति, तथाहि-वेदनापीडितो जीवः स्वमदेशान् अनन्नानन्त कमान्धवेष्टितान् गरीराद बहिरवि प्रक्षिपति, ता वह वेदना आदि के अनुभव रूप ज्ञान से परिणत ही होता है, अन्य ज्ञान से परिणत नहीं होना है, समुद्घान में रहा हुआ आत्मा. आत्मप्रदेशों के साथ संश्लिए वेदनीयादि कर्मप्रकृतियों को जो कि कालान्तर में अनुभव करने के योग्य होती हैं उदीरणाकरण द्वारा खींचकर उदयावलिका में प्रक्षिप्त करता है-इस से उनकी निर्जरा , होती है । समुद्घात शब्द में जो बहुवचन का प्रयोग किया गया है. वह समुद्घात की अनेकता को लेकर किया गया है । वेदना आदि के भेद से जो समुदघात ७ प्रकार के कहे गये हैं-सो उनका तात्पर्य ऐसा है-वेदना समुदघात-कालान्तर में भोगने योग्य जो असातवेदनीय कर्म पुद्गल हैं उन्हें वेदना से उद्यावलिका में खींचकर जो उनकी निर्जरा करना है वह वेदना समुद्घात है, समुद्घान शब्द का अर्थ निर्जरा करना है । आत्मा जब वेदना समुद्घात गत होता है-तब वह असात वेदनीय कर्म पुद्गलों की निर्जरा करता है । वेदना से पीडित હોય છે--અન્ય જ્ઞાનથી પરિણત હેત નથી. સમુદ્દઘાતમાં રહેલે આત્મા, આત્મપ્રદેશની સાથે સંલણ વેદની વેદનીય આદિ કર્મપ્રકૃતિઓ કે જેનું કાલાન્તરે વેદન કરવાનું હોય છે તેમને ઉદ્દીરણાકરણ દ્વારા ખેંચીને ઉદયાવલિકામાં પ્રક્ષિત કરે છે, તેને લીધે તેમની નિર્જ થાય છે. સમુદ્ઘ ત શબ્દમાં જે બહ વચનનો પ્રયોગ થયો છે તે સમઘાતની અને તેને કારણે થયે છે વેદના આદિના ભેદથી સમુદ્રવાતમાં જે સપ્તવિધતા પ્રકટ કરવામાં આવી છે. તેનું સ્પષ્ટીકરણ નીચે પ્રમાણે છે – વેદના સમઘાત—કાલાનરે ભેગવવાને જે અસાતવેદનીય કર્મઉદ્દગલે છે તેમને ઉદીરણાકરણ દ્વારા ઉઠયાવલિકામાં બે ચીને તેમની જે નિર્જ કરવામાં આવે છે, તેનું નામ વેદના સમુદુઘાત છે. સમુદ્દઘાત એટલે નિજા કરવી તે આત્મા જ્યારે વેદના સમુદ્દઘાતગત હોય છે, ત્યારે તે અસાતવેદનીય કર્મ પુદગલોની નિર્જરા કરે છે. વેદનાથી પીડિત એવો જીવ स्थार-९२ Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३० स्थानागसूत्रे तेश्व प्रदेशैवंद जठरादि रत्राणि कर्मस्कन्धाबपान्तरालानि चाऽऽपूर्य आयामतो विस्तरतश्च शरीरमात्रं क्षेत्रपभिव्या'यान्त' हूत यावातिष्ठने, तस्मिंश्चान्तर्मुहुर्ते पधूतासातावेदनीयकर्मपुद्गलपरिशातं करोतीति ॥१॥ कपायसमुद्घातःकपाय:-क्रोधादिभिहें तुभूतैः सायातः कपायसमुद्घात:-कपायाख्यचारित्रमोहनीयकर्माश्रयः समुद्घातविशेा इत्यर्थः । अयं भावः-तीव्ररुपायोदयाकुलो जीवः स्वप्रदेशान् बहिर्विक्षिपति, तैः प्रदेशैवंदनोदराहि रन्ध्राणि कर्णस्कन्धाधपाहुआ जीव अनन्तानन्त कर्मस्कन्धों से वेष्टित हुए आत्मप्रदेशों को शरीर से बाहर भी निकालता है-सो निकालकर उन प्रदेशों से बदन, . जठर, आदिके खाली स्थानोंको एवं कर्णस्कन्ध आदिके अपान्तरालों(छिद्रो) को भर देता है, भरकर यह आयाम-लंबाई और विस्तार की अपेक्षा शरीर मात्र क्षेत्र को व्याप्तकर अन्तमुहर्त तक वहीं पर रहता है इस अन्तर्मुहूर्त काल में वह बहुत ही अधिक वेदनीय कर्म पुद्गलोंकी निर्जरा कर देता है, १ कपाय सबुद्घात-क्रोधादिकषायों के वश होकर जो समुद्घात किया जाता है वह कषाय समुद्घात है, यह कषाय समु. दंघात कषाय नामक चारित्र मोहनीय कर्म के आश्रय वाला होता है। जब जीव के तीव्र कमाय के उदय से आकुलता आजाती है तय तीव्र कषाय के उदय से आकुल हुआ वह जीव अपने प्रदेशों को चाहर निकालता है, बाहर निकाले गये उन प्रदेशों से वह वदन, उदर आदि के छिद्रों को एवं कर्ण स्कन्ध आदि के अपोन्तरालों को भर देता અન્તાનઃ કર્મક્કાથી વી ટળાયેલા આત્મપ્રદેશને શરીરની બહાર પણ કાઢે છે અને શરીરની બહાર કાઢેલા તે આત્મપ્રદેશ વડે વદન, જઠર આદિના ખાલી સ્થાને અને કર્ણ સ્કન્ય આદિન અપાન્તરાલોને ભરી દે છે, અને એ પ્રમાણે ભરી દઈને તે આયામ (લંબાઈ) અને વિસ્તારની અપેક્ષાએ શરીર પ્રમાણુ ક્ષેત્રને વ્યાપ્ત કરીને અન્તર્મુહૂર્ત પ્રમાણુ કાળમાં તે ઘણી જ વધારે અસાતાદનીય પુદ્ગલની નિર્જરા કરી નાખે છે (૨) કપાય સમુદ્રઘાત–ક્રોધાદિ કાને વશ થઈને જે સમુદ્રઘાત કરવામાં આવે છે તેને કષાય સમુહૂઘાત કકે છે. તે કષાય સમુદુઘાત કષાય નામના ચારિત્ર મોહનીય કર્મના આશ્રયવાળ હોય છે જ્યારે તીવ્ર કષાયના ઉદયથી જીવમાં આકુળતા આવી જાય છે, ત્યારે તીવ્ર કષાયના ઉદયથી આકૂળ થયેલે જીવ પિતાના પ્રદેશને બહાર કાઢે છે. બહાર કાઢવામાં આવેલા તે પ્રદેશો વડે તે વદન, ઉદર આદિના છિદ્રોને અને કર્ણ કર્ધ આદિના અપાન્તરાલેને ભરી Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था० ७ सू० ४७ समुद्घातस्त्ररूपनिरूपणम् ७३१ -- * न्तरालानि चापूर्य आयामतो विस्तरतश्च देहमात्रक्षेत्रमभिव्याप्य तिष्ठति, तथाभूतच प्रभूतान् कपायकर्मपुद्गलान् परिशातयतीति | २|| मारणान्तिकसमुद्घातःमरणमेव प्राणिनामन्तकारित्वात् अन्तोमरणान्तः, तत्र भवो मारणान्तिकः, स सातवेति । अन्तर्मुहूर्त्तशेपायुष्ककर्माश्रय इत्यर्थः । अयं भावः - मार णान्तिकसमुद्घातगतो विक्षिप्तस्वदेशो जीनो वदनोदरादि न्त्राणि स्कन्धार्यपान्तराकानि चापूर्य विष्कम्भवाहल्याभ्यां स्वशरीर प्रमाणम्, आयामतः स्वशरीरातिरेकतो जघन्यतोऽङ्गुला संख्येयभागम्, उत्कर्षतोऽसंख्येयानि योजनान्येक दिशि क्षेत्रमभिव्याप्य तिष्ठति तथाभूतश्चायुष्कर्म पुत्रलान् शातयतीति' नाशहैं, भरकर वह आयाम और विस्तार की अपेक्षा देहमात्र क्षेत्र को व्याप्त कर अन्तर्मुहूर्त्त तक वहीं पर रहता है, वहां उतने समय तक रहकर वह बहुत अधिक कषाय कर्म पुद्गलों की निर्जरा कर देता है । २ मारणान्तिक समुद्घात --मरण के समय में जो समुद्घात होता है - वह मारणान्तिक समुद्यात है, यह समुद्घात जब अन्तर्मुहूर्त्त शेष आयु रहती है तब होता है, मारणान्तिक समुद्यात वाला जीव अपने आत्मप्रदेशों को शरीर से बाहर निकालता है, और उनसे वदनं, उदर आदि के रन्नों को ( छिद्रों को ) एवं स्कन्त्र आदि के अन्तरालों को भर देता है, भर कर फिर वह विष्कम्भ एवं बाहल्य सेचौड़ाई और मोटाई से अपने शरीर के प्रमाण एवं आयाम से - लंबाई से-अपने शरीर से अधिक कम से कम अंगुल के संख्यातवें भाग प्रमाण और अधिक से अधिक असंख्यात योजन प्रमाण क्षेत्र को દે છે. ત્યારખાદ તે આયામ અને વિસ્તારની અપેક્ષાએ દેહમાત્ર ક્ષેત્રને વ્યાસ કરી દઈને અન્તમુહૂત સુધી ત્યાંજ રહે છે ત્યાં એટલા સમય સુધી રહ્રીને તે ઘણાં જ અધિક કષાય કમ પુદ્ગલેાની નિરા કરી નાખે છે, મારણાન્તિક સમુદ્ધાત-મરણુને સમયે જે સમુદ્ધ ત થાય છે તેનું નામ મારણાન્તિક સમુદ્દાત છે જ્યારે અન્તર્મુહૂત પ્રમાણે આયુ ખાકી રહે છે, ત્યારે આ સમુદ્ધાત થાય છે. મારણ ન્તિક સમુદ્દાતવાળા જીવ પેાતાના આત્મ પ્રદેશાને શરીરમાંથી બહાર કાઢે છે અને બહાર કાઢવામ! આવેલા તે આત્મ પ્રદેશ વડે વદન, ઉદર આદિના છિદ્રોને અને સ્કન્ધાદિ અપાન્તરાલેને ભરી દે છે. ત્યાર બાદ તે વિષ્ઠ'ભ અને બાડૅલ્ય ( પહેાળાઈ અને જાડાઇ )ની અપેક્ષાએ પેાતાના શરીર પ્રમાણથી અધિક એછામાં એાછા આંગળના અસખ્યાત ભાગ પ્રમાણુ અને વધારેમાં વધારે અસખ્યાત ચેાજન પ્રમાણ ક્ષેત્રને એક દિશામાં Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ઉર এলার্ক .. यतीत्यर्थः।। ३।। वैक्रियसमुदघातः वैक्रिये प्रारभ्यमाणे समुद्घात:-वैक्रियलब्धिमतों वैक्रियोत्पादनायाऽऽत्मप्रदेशानां वहिनिष्काशनमित्यर्थः । अयं भावः-चैक्रियसमुद्घातगतः पुनर्जी वः स्वप्रदेशान् शरीराद् वहिनिष्काश्य शरीरविष्कम्भ वाहल्यमानमायामतः संख्येययोजनप्रमाणं दण्डं निसृजति, निसृज्य च यथा स्थूलान वैक्रियशरीरनामकर्मपुद्गलाच प्राग्वच्छाटयति इति । तदुक्तम्- . " वेउन्धियससुग्घाएणं समोङ्गइ, समोहणित्ता संखेज्जाई जोयणाई दंड निसिरइ, निसिरित्ता अहावायरे पुग्गले परिसाडेह।" छाया-क्रियसमुद्घानेन समबहन्ति, समवहत्य सख्येयानि योजनानि दण्डं निसृजति, निसृज्य प्राग्नद्धान् यथावादरान् पुद्गलान् परिशाटयति इति ॥४॥ - तैनासनुद्घात:-तेजसि विपये भवस्तेजसः, स चासो समुद्घातश्चेति, 'तेनोलेश्याविनिर्गमकालभावी तैनसशरीरनामकर्माश्रयः समुद्घातविशेष एक दिशा में व्याप्त कर एक अन्तर्मुहर्त तक वहाँ रहता है, इतने समय तक वहां रहा हुआ वह जीव आयुक कर्म पुद्गलोंकी निर्जरा कर देता है। क्रियलमुद्घात वैक्रिय लब्धिवाले का वैक्रिय-उत्पादन के लिये जो आत्मप्रदेशों का बाहर निकालना है वह वैक्रियलमुद्घात है-तात्पर्य यह-है-कि चैक्रियासमुद्रात गत जीव अपने आत्म प्रदेशों को शरीर से बाहर निकालकर शरीर के विष्कम्भ और बाहल्य प्रमाण एवं आयाम की अपेक्षा संख्यात योजल प्रमाण दण्डाकार रूप से पनाता है, बनाकर पहिले के वद्ध यथा बादर पुद्गलों की निर्जरा करता है-कहा भी है--" वे उब्धियसमुग्याएणं " इत्यादि। - तैजस समुद्घात--जो समुद्घात तेजोलेश्या के निकलने के समय में होता है और तैजस नामकर्म जिसका आश्रय है. ऐसा जो ધ્યાસ કરીને એક અન્તર્મુહૂત સુધી ત્યાં રહે છે. એટલા સમય સુધી ત્યાં રહેલે તે જીવ આયુષ્ય કર્મ પુદ્ગલેની નિરા કરી નાખે છે (४) यि सभुयात-वैठिय evealनु वैठिय-3-पानने भाट रे આત્મપ્રદેશોને બહાર કાઢવાનું થાય છે, તેનું નામ વૈદિયસમુદઘાત છે. આ કથનને ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે વિકિય સમુદ્દઘાત યુક્ત જીવ પોતાના આત્મપ્રદેશને શરીરની બહાર કાઢીને શરીરના વિષ્કભ (પહેળાઈ) અને બાહલ્ય (જાડ ઈ) પ્રમાણ અને આયામની (લંબાઈની) અપેક્ષાએ સંખ્યાત જન પ્રમણ દંડાકાર રૂપે બનાવે છે, અને “નાવીને પહેલાંના બદ્ધ એવાં યથા બાદર પુદ્ગલેની નિર્ભર કરે છે. કહ્યું पंछ-" वेउत्रियसमुग्धापणं " त्या Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुचा टीका स्था०७ सू०४७ समुद्घातस्वरूपनिरूपणम् इत्यर्थः । अयमाशयः-तेजोनिसर्गलब्धिमान् क्रुद्धः साध्वादिः सप्ताप्टौ पदानि गत्वा विष्कम्भवाहल्याभ्यां शरीरमानम् , आयामतस्तु संख्येययोजनप्रमाणं जीवपदेशदण्डं शरीराद् वहिः प्रक्षिप्य क्रोधविषयी कृतं मनुष्यादिकं निर्दहति, तत्र निर्दहने च स प्रभूतॉस्तैजसशरीरनामकर्मपुद्गलान् शाटयतीति ॥ ५ ॥ आहारकसमुद्घातः-माणिदया-ऋद्धिदर्शन-छनस्थोपग्रहणसं शयव्युच्छेदार्थ जिनपादमूले. गमनाय विशिष्टलब्धिवशाचतुर्दशपूर्वविदा यदाहियते-निर्वय॑ते तत् आहारकम् , समुद्घात विशेष है वह तैजस समुद्धात है तात्पर्य इसका ऐसाहैतेजो निसर्ग लब्धियाला साधु जब किसी कारण को लेकर क्रुद्ध हो जाता है, तो वह सात आठ पैर-डग-आगे जाकर विष्कम्भ और पाहल्य से शरीर प्रमाण एवं आयाम से संख्यात योजन प्रमाण अपने आत्मप्रदेशों को दण्डके आकार में शरीर से बाहर निकालना हैऔर फिर-जिसके ऊपर यह साधु क्रोधित हुआ है उसको वह दग्ध (भस्प ) कर देता है, इस तरह दग्ध करके वह उस क्रिया से बहुत अधिक तेजस शरीर नामकर्म के पुद्गलों की निर्जरा करता है. ५ आहारक समुद्घात--प्राणिया के निमित्त ऋद्धिदर्शन के निमित्त छद्मस्थोपग्रहण के निमित्त एवं संशयको दूर करने के निमित्त-जिन भगवान के समीप में जाने के निमित्त लिये लब्धिके वशसे चतुर्दश (૫) તેજસ સસઘાતજે સસઘાત તેજલેશ્યા નીકળવાનો સમય થાય છે અને જે સમુદ્રઘાત તેજસ સમુદ્રઘાત તૈજસ નામકર્મના આશ્રયવાળો હોય છે, તે સમુદ્રઘાતનું નામ તેજસ સમુદુઘાત છે. આ કથનને ભાવ થે નીચે પ્રમાણે છે-તેજે નિસર્ગ લબ્ધિવાળે સાધુ જયારે કોઈ કારણને લીધે કેધાયમાન થાય છે, ત્યારે તે સાત આઠ ડગલા આગળ જઈને વિષ્ક અને બાહલ્યની અપે. ક્ષાએ શરીર પ્રમાણ અને આયામની અપેક્ષાએ સ ખ્યત યોજન પ્રમાણ પિતાના આત્મપ્રદેશને દડના આકારે શરીરમાંથી બહાર કાઢે છે અને જેના ઉપર તે સાધુ કે ધાયમાન થયું હોય છે તેને બાળીને ભસ્મ કરી નાખે છે આ પ્રમાણે દિગ્ધ કરીને તે સાધુ તે ક્રિયા વડે ઘણાં જ અધિક તૈનેસ શરીરના નામકર્મના પુદ્ગલેની નિર્જરા કરે છે. (૬) આહાર સમુદઘાત-પ્રાણદયાને નિમિત્તે, ત્રાદ્ધિનું દર્શન કરાવવાને નિમિત્તે, છઘસ્થાપગ્રહણને નિમિત્તે અને સંશયના નિવારણને માટે અર્થાત્ જિનેશ્વરની સમીપે જવાને નિમિત્તે, વિશિષ્ટ લબ્ધિના પ્રભાવે કરીને ચૌદ પૂર્વ ધારીના દ્વારા જે શરીરનું નિર્માણ થાય છે, તે શરીરને આહા Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ स्थानाङ्गसूत्रे तस्मिन् प्रारभ्यमाणे समुद्घातः-आहार कसमुद्घातः । अयं भावः-आहारक. समुद्घातगतो मुनिर्जीवप्रदेशान् शरीरादेवहिनिष्काश्य शरीरविष्कम्भवाइल्य. मात्रमायामतश्च संख्येयानि योजनानि दण्डं निसृजति निसृज्य च यथा वादरानाहार कशरीरनामकर्मपुद्गलान् शाटयतीति ॥ ६॥ तथा-केवलिसमुद्घात:अन्तर्मुहूर्त्तमाविनि परमपदे केवलिनाऽवशिष्टानां वेदनीयायुर्नामगोत्रकर्मा शानां क्षपणाय यः समुद्घातः क्रियते स केवलिसमुद्घातः । एतेन समुद्घतेनः केवली अवशिष्टान् वेदनीयादि कर्मपुद्गलान शाटयतीति बोध्यम् ॥ ७॥ एषु सप्तविधपूर्व धारी के द्वारा जो बनाया जाता है वह आहारक है, इसके प्रारम्भ होने पर जो समुद्घान होता है वह आहारक समुदघात है। तात्पर्य यह है-आहारक समुद्घातगत मुनि जीवप्रदेशों को शरीर से बाहर निकाल कर उन्हें शरीर के विष्कम्भ एवं बाहल्य के बराबर दण्डाकार रूप से परिणमाता है, आयाम की अपेक्षा यह दण्डाकार रूप परिणमन संख्यान योजन प्रमाण का होना है। इस प्रकार से करके फिर वह यथावादर आहारक शरीर नाम कर्मके पुद्गलोंकी निर्जरा करताहै___ केवलि समुद्घात--अन्तर्मुहर्तमात्र काल-जिनका परम पद (मोक्ष) की प्राप्ति में बाकी रहा है ऐसे केवली के द्वारा अवशिष्ट वेदनीय, आयु, नाम, गोत्र, इन कर्मा शो को नाश करने के लिये जो समुदघात किया जाता है वह केवलि समुद्बात है-इस समुदघात द्वारा केवली अवशिष्ट वेदनीय आदि कर्मपुद्गलों की निर्जरा करता है ऐसा રક શરીર કહે છે. તેના પ્રાણ સને નિમિત્તે જે સમુદ્રઘાત થાય છે તેને આહારક સમુદ્ઘત કહે છે, આહારક સમુદ્રઘાતથી યુક્ત થયેલે મુનિ જીવપ્રદેશને શરીરમાંથી બહાર કાઢીને તેમને શરીરના વિખંભ અને બાહુલ્યની બરાબર દંડાકાર રૂપે પરિણાવે છે. આ યામની અપેક્ષા એ આ દંડાકારરૂપ પરિણમન સંખ્યાત જનપ્રમાણવાળું હોય છે. આ પ્રમાણે કરીને તે યથા બદર આહા રક શરીર નામકર્મના પુદ્ગલેની નિર્જરા કરે છે. કેવલિ સમઘાત–જેને મોક્ષની પ્રાપ્તિ થવાને માત્ર અન્તમુહૂર્ત પ્રમાણુ કાળ જ બાકી રહ્યો છે એવા કેવલી દ્વારા બાકીના વેદનીય, આયુ, નામ અને ગોત્ર, આ કર્મા શોને નાશ કરવાને માટે જે સમુદ્દઘાત કરવામાં આવે છે, તે સમદઘાતને કેવલિ સમુઘાત કહે છે. આ સમુદ્દઘાત વડે કેવલી બાકીનાં વેદનીય આદિ કર્મ પુદ્ગલેની નિર્જરા કરે છે, એમ સમજવું. Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुघाटीका स्था० ७ सू० ४८ निह्नवस्वरूपनिरूपणम् समुद्वातेषु पटू असंख्यात सामयिकाः, अन्त्य केवलिसमुद्घातस्त्वष्टसामयिक इति । एते सप्ताऽपि समुद्याताश्चतुर्विंशतिदण्डकेषु मनुष्याणामेव भवन्तीत्याह"मनुस्साणं सत्त" इत्यादि ॥ सृ० ४७ ॥ पूर्वोक्तं समुद्घातादिकं वस्तु जिनैरभिहितम्, जिनाभिहितवस्तुनोऽन्यथामरूपणे च प्रवचनवाह्यता समापतति, प्रवचनवाह्यानां मुख्याश्च निह्नना इति तद्व क्तव्यवामाह ७३५ मूलम् - समणस्स णं भगवओ महावीरस्स तित्यंसि सत्त पत्रयणनिण्हगा पण्णत्ता, तं जहा बहुरया १ जीवपएसिया २ अवत्तिया ३ सामुच्छेइया ४ दोकिरिया ५ तेरासिया ६ अवजिया ७। एएसि णं सत्तण्हं पत्रयणनिहगाणं सत्त धम्मायरिया पण्णत्ता, तं जहा - जमाली १, तसिगुत्ते २ आसाढे ३ आसमित्ते ४ गंगे ५ छउलुए ६ गोडामाहिले ७ । एएसि सत्ताहं पत्रयणनिहगाणं सच उत्पत्तिनगरा पण्णत्ता, तं जहा - सात्थी १ उसमपुरं २ सेयविया ३ मिहिल ४ सुलगातीरं ५। पुरिमंताल ६दसपुर ७ णिण्हग उप्पत्तिनगराई ॥ सू०४८॥ जानना चाहिये । इन सात समुद्घातों में से छह समुद्घात असंरुपात समय के होते हैं । और केवलि समुद्यात आठ समय का होता है । ये सातों ही समुद्यात चतुर्विंशति दण्डकों में से केवल मनुष्यों के ही होते हैं। इसी कारण "मनुस्सा णं सत्त" ऐसा कहा है | सुत्र ४७ ॥ समुद्घात आदि वस्तुएँ केवली जिन भगवान्‌ने कही हैं अतःजो जिनेन्द्र प्रतिपादित वस्तुओं की प्ररूपणा अन्यथा रूप से करते हैं वे प्रवचन से बाह्य हैं । इन प्रवचन से बाह्य रहे हुए मनुष्यों में मुख्य આ સાત સમુદ્દાતેમાંના પહેલા ૬ સમુદ્દાત અસખ્યાત સમયના હાય છે, પરન્તુ કેલિ સમુદ્ઘાત આઠ સમયના હાય છે. ૨૪ દંડકના જીવે - માંથી માત્ર મનુષ્ચામાં જ આ સાતે સાત સમુદ્ધાતાના સદ્ભાવ હોય છે. તેથી ४ सूत्ररे "मनुस्साणं सत्त" आ प्रहारनो सूत्रपाठ सहीं उह्यो छे ॥ ४७॥ આ સમુદ્લાત આદિ વસ્તુઓની કૈવલ ભગવાને પ્રરૂપણા કરી છે. જે મનુષ્ય જિનેન્દ્ર પ્રતિપાદિત વસ્તુઓની પ્રરૂપણા અન્યથા રૂપે કરે છે તે Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - स्थानासूरे छाया-श्रमणस्य खलु भगवतो महावीरस्य तीर्थे सप्त प्रवचननिवार प्राप्ताः, तद्यथा-बहुरताः १, जीवप्रदेशिकाः २, अबक्ताव्यिकाः ३, सामुन्छे. दिकाः ४, द्वेक्रियाः ५, रागिकाः ६ अवद्धिकाः ७ एतेषां खलु सप्तानां पवचननिहवानां सप्त धर्माचार्याः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-जमालिः १, तिष्यगुप्तः २, आघानः ३, अश्वमित्र: ४, गङ्गः ५, पडुलूकः ६, गोष्ठामाहिलः ७ एतेषां खल्लु सप्तानां प्रवचननिहतानां सप्तोत्पत्तिनगराणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-श्रावस्ती १ ऋपमपुरं २ श्वेविका ३ मिथिला ४ उल्लुकातीरम् ५। पुरिमताल ६ दशपुरं ७ नियोत्पत्तिनगराणि || स्मृ० ४८ ॥ टीका - समणस्म' इत्यादि मच वननिहयाः-प्रवचन-निनोक्तमागमं निह्नवते-अपलपन्ति विपरीततया प्ररू पन्ति येते यथा-आगमस्यापलापाः सप्त प्रज्ञप्ता: कथिताः, तद्यथा-बहु. रना:-रहपु समयेषु वस्तून्पत्तिनतु क्रियाध्यासिते एकस्मिन् समये इति सिद्धान्ते. रता-पता-बहुरताः, बडमिरेव समयैः कार्य निष्पद्यते नत्वेकेन समये नेति निहवजन है अतः अत्र सूत्रकार इनके विषय की वक्तव्यता का कथन करते हैं-" समणस्स णं भगवओ महावीरस्स-इत्यादि । खून ४८ ।। टीक्षार्थ-श्रमण भगवान महावीर के तीर्थ में साल प्रवचन निहव कहे धये हैं-जैसे-बहुरत १ जीव प्रदेशिक २ अवकाव्यिक ३ सामुच्छेदिक ४ है क्रिय ५, त्रैराशिक ६ और अबद्धिक ७, जिनोक्त आगम का जो अपलाप करते हैं-उसकी विपरीत रूपले प्ररूपणा करतेह-ऐसे वे अर्थात आगमापलापी जन निह्नव हैं, इनमें जो ऐसा मानते हैं कि यहुत समयों में ही कार्य निष्पन्न होता है एक समय में नहीं होता है इस तरह से कहने वाले जो जमालिमतानुसारी हैं-वे पहरत है । जीव का પ્રવચનથી બાલ્દા ગણાય છે એવાં પ્રવચનબાહા મનુષ્યમાં નિહાની પ્રરૂપણા ४३ छ-" समणास णं भगव ओ महावीरस्स" त्याह-(सू ४८) ટીકાર્ય-શ્રમણ ભગવાન મહાવીરના તીર્થમાં નીચે પ્રમાણે સાત પ્રવચન કહ્યા -(१) परत (२) पशि४, (3) अव्यति, (४) सामु४ि , (५) કિય, (૬) રાશિક અને (૭) બદ્ધિક, જિનેક્ત આગમન જેઓ અપલા૫ કરે છે તેની વિપરીત રૂપે પ્રપન્ન કરે છે, એવા અગમાપલાપી જીવોને નિ કહે છે. (૧) બહુરત નિવ—જેઓ એવું માને છે કે ઘણા સમયમાં કાર્ય નિષ્પન્ન થાય છે-એક સમયમાં કાર્ય નિષ્પન્ન થતું નથી, આ પ્રકારની માન્યતા ધરાવનારા જમાલિના અનુયાયીઓને બહુરત નિવ કહે છે, Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था० ७ सु० ४७ समुद्घातस्वरूपनिरूपणम् ७३७ वादिनो जमालिमतानुसारिणः ॥ १ ॥ जीवप्रदेशिकाः - जीवस्य प्रदेश: - चरमः प्रदेश जीवत्वेनास्ति येषां ते जीवमदेशिकाः, एकेनापि प्रदेशेन न्यूनो जीवो न भवति, अतो येनैकेन प्रदेशेन पूर्णः स जीवो भवति, स एवैकः प्रदेशो जीवोभवन् तीनि चरमपदेशो जीवत्वमरूपिण स्तिष्य गुप्ताचार्य मतानुसारिणः ॥ २ ॥ अव्य चिका:-' न शायतेऽत्र कः संयतः को वाsसंयतः इति-अव्यक्तम्-अस्फुटमेव विद्यते सर्वमभ्युपगमतो येषां ते तथा, संयतादिपरिज्ञाने सन्दिग्धबुद्धय आपाढ - - शिष्याः ॥ ३ ॥ समुच्छेदिकाः - उत्पच्यनन्तरं वस्तुनः सामस्त्येन प्रकर्षेण च छेद:-- समुच्छेदो - विनाश', तंबुवन्तीति सामुन्छेदिकाः । सर्व वस्तु क्षणिकमिति वादि चरम प्रदेश ही जीव है ऐसी जिनकी मान्यता है वे चरम प्रदेश को ' जीव मानने वाले जीवप्रवेशिक हैं । इनकी ऐसी मान्यता है कि एक भी प्रदेश से न्यून जीव जीव नहीं होता है, इसलिये जिस एक प्रदे शसे पूर्ण हुआ जीव जीव होता है, इस तरह चरमप्रदेश में जीवत्क की प्ररूपणा करने वाले तिष्य गुप्ताचार्य के मतानुयायी है । अव्यक्तिक - यहां यह कैसे जाना जासकता है कि यह सयत है और यह असंयत है, इसलिये यह सब अव्यक्त है, ऐसी संदिग्धशील मान्यता संयतादि के परिज्ञान में जिनकी हैं ने संदिग्धबुद्धिवाले आषाढाचार्य के मतानुयायी हैं । उत्पत्ति के अनन्तर ही वस्तु का विनाश सम्पूर्ण रूप से हो जाता है ऐसी जिनकी मान्यता है वे सामुच्छेदिक है अर्थात् (૨) જીવપ્રદેશિક નિદ્ભવ—જીવના ચરમપ્રદેશ જ જીવ છે, એવી જેમની માન્યતા છે એવા ચરમપ્રદેશને જ જીવ માનનારા લેાકેાને જીવપ્રદેશિક નિંદ્ભુત કહે છે. આ મતવાહીની એવી માન્યતા છે કે એક પણ પ્રદેશથી ન્યૂન જીવ જીવરૂપ દ્ગાતા નથી. તેથી એકે એક પ્રદેશેાથી પૂછુ હાય એવા જીવને જીવરૂપ કહી શકાય છે. આ પ્રકારે ચરણપ્રદેશમાં ચરમપ્રદેશમાં જીતત્વની પ્રરૂપણા કરનારા તિષ્યગુસાચાયના મતને અનુસરનારાઝ્માને જીવપ્રદેશિક નિદ્ભવ કહે છે, (3) सव्यक्ति – “सहीं से वात देवी रीते लगी शाय है मा સયત છે અને આ અસયત છે, તેથી આ બધુ અવ્યક્ત છે ” સયતાદિના પરિજ્ઞાનના વિષયમાં, આ પ્રકારની સદિગ્ધ માન્યતા જેએ ધરાવે છે તેમને અવ્યક્તિક કહે છે. આષાઢાચાયના મતને માનનારા લેકે આ પ્રકારની સદિગ્ધ મનેદશાવાળા છે. (૪) સામુશ્કેદિક—જે વસ્તુની ઉત્પત્તિ થાય છે, તેના સપૂણુ રૂપે વિનાશ પણ થાય છે, એટલે કે સમસ્ત વસ્તુઓ ક્ષણિક છે, આ પ્રકારની स्था०-९३ こ Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानात सूत्रे नोऽश्वमित्रानुपायिन इति || ४ || द्वै क्रियाः - एकस्मिन् समये क्रियाद्वयस्यानुभव भवतीतिवादिनो गङ्गाचार्यानुयायिनः ॥ ५ ॥ त्रैराशिका:- त्रयश्च ते राशयचेति त्रिराशयः = जीवाजीवरूपाः तान् अभ्युपगच्छन्ति ये ते त्रैराशिकाः, जीवाजीव नो जीति राशित्रयवादिनः पडलूकापरनाम करो हगुप्तमतानुसारिणः ।। ६ ।। तथा अद्धिकाः स्पृष्टं जीवन कर्म न स्कन्धवन्धनदमित्यवद्धं तदस्ति अभ्युपगम्यत्वेन येषां ते अद्विकाः स्पृष्टकर्मविपाकमरूपका गोष्ठामाहिमवानुसारिणइति ॥ ७ ॥ एषां प्रवचननिष्ठवानां धर्माचार्या जंमाळिप्रभृतयो यथासंख्यमुन्नेयाः । एषां सप्तानां मत्रचननिहानी = प्रत्रचनापलापकानामुसमस्त वस्तु क्षणिक हैं- ऐसा कहने वाले जो हैं वे अश्वमिवानुयायी हैं । द्वैकिय-- एक समय में क्रिया द्वय का अनुभव होता है ऐसा कहने वाले गङ्गाचार्य के अनुयायी है । त्रैराशिक -- जीव, अजीव, और नो जीव नो अजीब इस प्रकार से तीन राशियाँ हैं, इन तीन राशियों को जो मानते हैं वे त्रैराशिक हैं । ये त्रैराशिक षडुलूक कि जिसका दूसरा नाम रोहगुप्त है के मतने अनुयायी हैं । अवद्विरु-जीव से स्पृष्ट हुआ कर्म स्कन्ध की तरह यद्ध नहीं होता है ऐसी उनकी मान्यता है वे अयद्विक है। ये स्पृष्ट कर्म के विपाक के प्ररूपक होते हैं, और गोष्ठामाहिल के मत के अनुयायी होते हैं, इन प्रवचन निहवों के क्रमशः धर्माचार्य जमालि१, तिष्यगुप्त२, आषाढाचार्य २ अश्वमिश्र ४ ङ्गाचार्य ५, पडुलूक- रोहगुप्त गोष्ठामाहिल ७ हैं । માન્યતા ધરાવનારા અશ્વમિત્રના અનુયાયીઓને સમુચ્છે િનિષવ કહે છે, (५) दैठिय निद्वव-ये! समयमा मेडियानो अनुभव याय के, भा પ્રકારની માન્યતા ધરાવનારા ગંગાચાર્યના અનુયાયીઓને દ્વષ્ક્રિય નિ કહે છે. (६) त्रैराशिक - छ, अव भने नोव नाममा अारनी ત્રણ રાશિએ છે, એવુ* માનનારા ખર્ડુલૂસનું ખીજુ` નામ રાહગુપ્ત પણ આપવામાં આવ્યું છે. ७३८ અતિક— જીવ વડે પૃષ્ટ થયેલું કમ` કન્ધની જેમ અદ્ધ હાતુ નથી,” આ પ્રકારની જેમની માન્યતા છે તેમને અખદ્ધિક હે છે. તેએ સૃષ્ટ ક્રમના વિપાકના પ્રરૂપકા હોય છે. ગેાષ્ઠામાહિલના અનુયાયીએ આ પ્રકારના મત અરાવે છે. મા પ્રાતે પ્રવચન નિવાના ધર્માચાર્યાંનાં નામ અનુક્રમે આ પ્રમાણે ४- (१) ४भासि, (२) तिष्यगुप्त, ( 3 ) भाषादायार्य, (४) अश्वमित्र, (4) Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३२ सुधा टीका स्था09 सू०४९ सातासातस्वरूपनिरूपणम् त्पत्तिस्थानानि मेण श्रावस्त्यादीनि विज्ञेयानीति । एषां सप्त निधानां विषये विशेषजिज्ञासुभिरुत्तराध्ययनस्य तृतीयेऽध्ययने मत्कृतायां प्रियदर्शिन्या व्याख्यायां द्रष्टव्यमिति ॥ सू० ४८॥ एते निस्वाः संसारे पर्यटन्तः सातासातभोगिनो भविष्यन्तीति सातासातस्वरूपमाह म्सम्-सायावेयणिजस्स णं कम्मरस सत्तविहे अणुभावे पण्णचे, तं जहा-मणुन्ना सदा १, मणुन्ना रूवा २, जाव मणुन्ना फासा ५ मणोसुहया ६ वइसुहया ७॥ असायावेयणि. ज्जस्त णं कम्मल सत्तविहे अणुभाने पण्णत्ते, तं जहा-अमगुन्ना सदा १ जाव वइदुहया ७ ॥ सू० ४९ ॥ छाया-सातावेदनीयस्य खलु कर्मणः सप्तविधोऽजुभावः प्रज्ञप्तः, तद्यथामनोज्ञाः शब्दाः, मनोज्ञानि रूपाणि, यावत् मनोज्ञाः स्पर्शाः मनः सुखता वाक्मुइनकी नगरी का नाम इस प्रकार से है जलालि श्रावस्ती के, तिष्यगुप्त रिषभपुरके, आषाढाचार्य-श्वेताविकानगरी के, अश्वमित्र-मिथिलानगरी के, गणाचार्य-उलु कामीर नगरी के, पलुरु-रोहगुप्त-अंतरंजिका नगरीके गोष्ठामाहिल-दशपुर के निवासी हैं। इन सात निह्नवों के 'विषय में विशेष जिज्ञासुओं को उत्तराध्ययन के तृतीय अध्ययन पर जो मेरे द्वारा प्रियदर्शिनी टीका लिखी गईहै वह देखनी चाहिये।।स्चून ४८|| ये नितव चतुर्गतिक संसार में परिभ्रमण करते हुए सातासात को भोगने वाले होंगे-इसलिये अब सूत्रकार सातासात के स्वरूप जगायाः , (९) पडसू (शशुस ) मने (७) गोष्ठामाडिस. २१ घायायनी નગરીઓનાં નામ નીચે પ્રમાણે સમજવા – જમાલિ શ્ર વસ્તીમાં, તિષ્યગુપ્ત રિષભપુરમાં, આષાઢાચાર્ય શ્વેતામ્બિકા નગરીમાં, અશ્વમિત્ર મિથિલા નગરીમાં, ગંગાચાર્ય ઉલ્લકાતીર નગરીમાં, ષડુલક-રાહગુપ્ત અંતરંજકા નગરીમાં અને ગણામા હિલ દશપુર નગરમાં થઈ ગયા હતા. આ સાતે નિહ વિષે વધુ માહિતી મેળવવાની ઈચ્છાવાળા પાઠકએ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્રના ત્રીજા અધ્યયન પર મારા દ્વારા લખાયેલી પ્રિયદર્શિની ટીકા વાંચી જવી. | સૂ ૪૮ છે ઉપર્યુક્ત નિ ચતુર્ગતિક સંસારમાં પરિભ્રમણ કરતાં થકાસારાસાતને ભેગવશે, તે કારણે હવે સૂત્રકાર સાતાસાતના સ્વરૂપની પ્રરૂપણ કરે છે Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. स्थानामसूत्र खता । असातवेदनीयस्य खलु कर्मणः सप्तविधोऽनुभावः प्रज्ञप्तः, तपथाअमनोज्ञाः शब्दा यावद् वाग्दुःखता ।। सू० ४९ ।। टीका-'सायावेयणिज्जरस इत्यादि सातादनीयस्य–मुख कारणभूतस्य कर्मणः सप्तमकारकः अनुभाव-विपाक उदयो रस इति यावत् प्रज्ञप्तापरूपितः, तद्यया-मनोज्ञाः शब्दा इत्यादि । मनोज्ञत्वविशिष्टाः शब्दरूपरसगन्धरपर्शा इति पञ्च । मन मुखता-मनसः सुखरूपत्वं, वाक्मुखताचाचः सुग्वरूपत्वं चेति द्वौ, इति सप्त सातानुभावाः। 'सहया' इत्यस्य ‘शुभता' इतिच्छायापक्षे-मनसः शुभरूपत्वं वाचःशुभरूपस्वमिति । एतत्पक्षे सातानुभावकारणत्वात् सातानुभावस्वं बोध्यमिति । एतद्वपरीत्येन अप्लातावेदनीयकर्मयोऽपि सप्तप्रकारो विवरणीय इति ॥ सू० ४९॥ का कथन करते हैं-" लायायणिज्जस्त ण कम्लस्स-इत्यादि । सूत्र४९॥ टीकाथ-साना वेदनीय कर्म का अनुभाव साम प्रकार का कहागयाहैअर्धाम् सुख के कारण भूत कर्म का विषाक-उदयरम-सात प्रकार का कहा गया है, जैसे-मनोज शब्द पावत्-मनोज्ञ रूप, मनोज्ञ रस, मनोज्ञ गन्ध, और मनोज्ञ स्पश, एवं मनकी सुखरूपता और वचन को सुखरूपता " सुहया" की संस्कृतच्छाया "शुभता" ऐनी भी होती हैइस पक्ष में “ मन की शुभरूपता और पचन की शुरूपतो ऐसा अर्थ होता है । इस पक्ष में साता का अलुभाव का कारण होने से शुभता में सालानुभावना जाननी चाहिये, इमले विपरीत जो असा. तावेदनीय कर्म है उसका अनुभाय (कमो का फल भोगने की शक्ति) भी मात प्रकार की है, और वह सप्त प्रकारता पूर्वोक्त रूप से विपरीत रूप में कधित कर लेनी चाहिये । सू० ४९ ॥ "सायाचेयणिजस्म णं कम्मत्स" त्याहि-(सू - ४८) । ટીકાઈ–સાતાદનીય કર્મને અનુભાવ સાત પ્રકારનો કહ્યો છે. એટલે કે સુખના ४१२४भूत ४भनेविपा४-६५२स-सात मारन। यो थे-(१) भनाश शvt, (२) भना। ३५, (3) भनाज्ञ २स, (४) भना। आय, (५) मनोज २५, (6) मननी सुप३५ता भने (७) वयननी सुम३५ता. “ सुया "नी संस्कृत 'छ.या "शुभना" ५५५ थाय छे. सकृत छायानी अपेक्षा में छट्टो भने સાતમો પ્રકાર મનની શુભરૂપતા અને વચનની શુભરૂપતા થાય છે આ પ્રકારના અર્થની દષ્ટિએ સાતાના અનુભાવમાં કારણભૂત હોવાથી શુજાતામાં માતાનુભાવતા સમજવી. સાતાદનીય કામ કરતાં વિપરીત એવું જે અસાતા વેદનીય કર્મ છે તેનો અનુભવ (કર્મોનું ફળ ભોગવવાની શક્તિ) પણ સાત પ્રકારને સમજ-(૧) અમનોજ્ઞ શબ્દ, આદિ સાત પ્રકારે પૂર્વોક્ત પ્રકારો કરતાં વિપરીત રૂપે અહીં કહેવા જોઈએ છે સૂ ૪૯ છે Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था० ७ ० ५० ज्योतिष्क देव निरूपणम् १ अनन्तरं सातालातानुभावौ प्ररूपितौ । सातासातवन्तथ देवा इति तद्विशेपान् ज्योतिष्कान् प्ररूपयति - मूलम् - महाणक्खत्ते सत्ततारे पण्णत्ते । अभिईयावइया सत्त नत्रखत्ता पुग्दारिया पण्णत्ता, तं जहा - अभिई १ सवणो २ घणिट्टा ३ सयभितया ४ पुव्वासदवया ५ उत्तराभद्दवया ६ रेवई | अस्तिणियाइया पो सत्त णक्खत्ता दाहिणदारिया पपगता, तं जहा - अस्लिणी १ भरणी २ कित्तिया ३ रोहिणी ४ मिगसिरे ५ अद्दा ६ पुणन्वसू । पुरुसाइया णं सत्त णक्खत्ता अवरदारिया पण्णत्ता, तं जहा - पुस्सो १ असिलेसा २ मघा ३ पुत्राग्गुणी ४ उत्तराफग्गुणी ५ हत्थो ६ चित्ता ७। साइयाइया णं सत णक्खत्ता उत्तरदारिया पण्णत्ता, तं जहा - साई १ विसाहा २ अणुराहा ३ जेट्टा ४ मूलो ५ पुव्वासाठा ६ उत्तरासाठा ७ || सू० ५० ॥ छाया--मर्यानक्षत्रं सप्ततारं प्रज्ञप्तम् | अभिजिदादिकानि सप्त नक्षत्राणि पूर्वद्वारिकाणि प्रज्ञवानि, तद्यथा - अभिजित् १, श्रवणः २ धनिष्ठा ३ शतभिषक् साता और अहातावाले देव होते हैं, अतः अब सूत्रकार उन देवों के बीच में से ज्योनिष्क देशों की प्ररूपणा करते हैं- St महा णक्खन्ते सत्ततारे पण्णत्ते इत्यादि || सूत्र ५० ।। सूत्रार्थ - मघा नक्षत्र सान तारों वाला कहा गया है, अभिजित् आदि सात नक्षत्र पूर्व द्वारिक कहे गये हैं, वे अभिजित् आदि सात नक्षत्र इस प्रकार से हैं - अभिजित् १ श्रवण २ धनिष्ठा ३ शतभिषक ४ સાતા અને અસાતાવાળા દેવા હાય છે, તેથી હવે સૂત્રકાર તે દેવાના એક પ્રકાર રૂપ જે જ્યાતિષ્કદેવે છે, તેમની પ્રરૂપણા કરે છે— " माणक्खत्ते सत्तत्तारे पण्णत्ते ' धत्याहि - ( सू २०) સૂત્રા-મઘા નક્ષત્ર સાત તારાવાળું છે અભિજિત આદિ સાત નક્ષત્રને પૂર્વ द्वोरिङ ४ह्या छे. ते सात नक्षत्रानां नाम नीचे प्रमाणे छे- (१) अभिनित, (२) श्रवण, (3) धनिष्ठा, (४) शतभिषा, (५) पूर्व भाद्रपदा, (६) उत्तर भाद्रया, (७) रेवती. Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ઉઝર स्थानाङ्गो ४ पूर्वभादपा ५ उत्तरभाद्रपदा ६ रेवती ७) अश्विन्यादिकानि सप्त नक्षत्राणि दक्षिणद्वारिकाणि प्राप्तानि, तयथा-अश्विनी १ भरणी २ कृत्तिका ३ रोहिणी ४ मृगशिराः ५ आर्दा ६ पुनर्वच ७' पुष्यादिकानि खल्लु सप्त नक्षत्राणि अपरद्वारिकाणि प्राप्तानि, तद्यधा-पुष्यः १ अश्लेषा २ मघा ३ पूर्वाफाल्गुनी ४ उत्तरा फालानी ५ हस्तः ६ चित्रा ७) स्वात्यादिकानि खलु सप्त नक्षत्राणि उत्तरद्वारिकाणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-स्वातिः १ विशाखा २ अनुराधा ३ ज्येष्ठा १ मूसं ५ पूर्वापाढा ६ उत्तराषाढा ७॥ सू० ५० ॥ टीका--' महाणखत्ते' इत्यादि-- व्याख्या स्पष्टा । नवर-पूर्वद्वारिकाणि-पूर्व च तट्टारं पूर्वद्वार, तदस्ति येपा तानि तथोक्तानि । पूर्वस्यां दिशि येषु सत्सु गच्छतः शुभं भवतीति । एवं दक्षिणद्वारिकाणि अपरद्वारिकाणि-पश्चिमद्वारिकाणि च बोध्यानि । अन्न पञ्च पूर्वभाद्रपदा ५, उत्तर भाद्रपदा ६ और रेवती ७, अश्विनी आदि सात नक्षत्र दक्षिण द्वारिक कहे गये हैं, वे इस प्रकार से हैं-अश्विनी १ भरणी २ कृत्तिका ३ रोहिणी ४ मृगशिरा ५, आ६ और पुनर्वसु ७, पुष्यादिक लात नक्षत्र अपर (पश्चिम ) छारिक कहे गये-जैसेपुष्य १, आश्लेषा २ मघा ३ पूर्वाफाल्गुनी ४ उतराफाल्गुनी ५ हस्न ६ और चित्रा ७. स्वात्यादिक सात नक्षत्र उत्तर हारिक कहे गये हैंजैसे-स्वाति १, विशाखा २, अनुराधा ३, ज्येष्ठा ४ मूल ५ पूर्वापाडा ६.और उत्तराषाढा ७, पूर्व-पूर्व दिशा-रूप द्वार हैं जिनका वे पूर्वदा. रिक है । जब ये अभिजित् आदि सात नक्षत्र पूर्व दिशा में होते हैं तब उस समय में जाने वाले को लाभ की प्राप्ति होती है, इसी प्रकार नायना सात नक्षत्राने क्षि दा४ि ४६ छ– (१) मधिनी, (२) मा (3) त्तिा , (४) gol, (५) भृगशीष, (६) माद्री, मने (७) धुन सु. नायना सात नक्षत्राने पश्चिम २४ ह्या ,-(१) पुष्य, (२) येषा, (3) मधा, (४) पूर्वा गुनी, (५) उत्त। शगुनी, (6) सस्त गने (७) चित्रा. नया सात नक्षत्राने उत्तर र ४ा छ-(१) साति, (२) विशामा, (3) अनुराधा, (४) ज्येष्ठ , (५) भूत्र, (६) पूर्वाषाढा आने (७) उत्तराषाढा. પૂર્વ દિશા રૂપ જેમનું દ્વાર છે, એવાં નક્ષત્રને પૂર્વ દ્વારિક કહે છે જ્યારે આ અભિજિત આદિ સાત નક્ષત્ર પૂર્વ દિશામાં હોય છે, ત્યારે જનારને લાભની પ્રાપ્તિ થાય છે. એ જ પ્રમાણે દક્ષિણ દ્વારિક, પશ્ચિમ દ્વારિક અને ઉત્તર દ્વારિક નક્ષત્રોના વિષે પણ સમજવું Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा टीका स्था७ सू०५० ज्योतिष्कवनिरूपणम् मतानि सन्ति । तदुस्तम्--" तत्थ खलु इमाओ पंच पडिवत्तीभो पण्णत्ताओ। -तत्थेगे एवमाहस-कत्तियाइया सत्त णवत्ता पुन्मदारिया पण्णत्ता ११ एगे पुण एवमा-महादिया सत्त णक्खचा पुबदारिया पण्णत्ता २१ एगे 'पुण एवमाइंसु-धनिष्ठाइया सत्त णक्खत्ता पुब्बदारिया पण्णत्ता ३। एगे पुण एवमाहंस-अस्सिणाइया मच नक्खत्ता पुन्यदारिया पण्णत्ता ४। एगे पुण एक्माहंसुभरणीआइया सत्तणखता पुबदारिया पण्णत्ता ५। वयं पुण एवं वयामो-अभिइयाइयाणं सत्त णवत्ता पुन्यदारिया पण्णत्ता ६॥" ___छाया-तत्र खल्लु इमाः पञ्च प्रतिपत्तयः प्रज्ञप्ताः । तत्रैके पुनरेवमाहुःकृत्तिकादिकानि सप्त नक्षत्राणि पूर्वद्वारिकाणि प्रज्ञप्तानि १। एके पुनरेवमाहुःमयादिकानि सप्त नक्षत्राणि पूर्वद्वारिकाणि प्रज्ञप्तानि । एके पुनरेवमाहुः-धनिष्ठादिकानि सप्त नक्षत्राणि पूर्वद्वारिकाणि प्रज्ञप्तानि ३। एके पुनरेवमाहुः-अश्विन्यादीनि सप्त नक्षत्राणि पूर्वद्वारिकाणि प्रज्ञप्तानि ४। एके पुनरेवमाहु.-भरण्यादिकानि सप्त नक्षत्राणि पूर्वद्वारिकाणि प्राप्तानि ५। वयं पुनरेवे वदामः-अभिनिदादिकानि सम नक्षत्राणि पूर्वद्वारिकाणि प्रज्ञप्तानि ६ ॥ इति । से दक्षिण हारिक, अपर छारिक-पथिम द्वारिक-और उत्तर द्वारिक नक्षत्रों के सम्बन्ध भी जानना चाहिये यहाँ पांच मत हैं-कहा भी है "खलु इमामो पंच पजियसीओ पण्णत्ताओ" इत्यादि । कोई एक ऐसा कहते हैं-कृतिका आदि सात नक्षत्र पूर्ववारिक कहे गये है ? कोई एक ऐसा कहते हैं-मधा आदिक सात नक्षत्र पूर्व द्वारिक गये हैं २ कितनेक ऐसा कहते हैं-धनिष्ठा आदि सात नक्षत्र पूर्व दारिक है ३ कितनेक ऐसा कहते हैं-अश्विनी आदि सात नक्षत्र पूर्वछारिक है। कितने ऐसा जाहते है-भरणी आदि सात नक्षत्र पूर्वछारिक कहे गये हैं। परन्तु हम ऐसा कहते हैं कि अभिजित् आदि सात नक्षत्र पूर्वछारिक है, આ નક્ષત્રના વિષયમાં જુદા જુદા પાંચ મત પ્રચલિત છે. કશું પણ છે -" तत्थ खलु इमाधो पंच परिवत्तीओ पण्णत्ताओ" त्याहि मान्यता પ્રમાણે કૃત્તિકા આદિ સાત નક્ષત્રને પૂર્વદ્વારિક કહ્યા છે બીજી માન્યતા પ્રમાણે મઘા આદિ સાત નક્ષત્રોને પૂર્વદ્વારિક કહ્યા છે. ત્રીજી માન્યતા પ્રમાણે ધનિષ્ઠા આદિ સાત નક્ષત્રોને પૂર્વારિક કહ્યા છે એથી માન્યતા પ્રમાણે અશ્વિની આદિ સાત નક્ષત્રોને પૂર્વ દ્વારિક કહ્યા છે. પાંચમી માન્યતા પ્રમાણે ભરઠ્ઠી આદિ સાત નક્ષત્રેને પૂર્વદ્વારિક કહ્યા છે. Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ cea स्थानासूचे सर्वेष्वपि पक्षेषु पूर्वद्वारिकानक्षत्रानन्तरं सप्त सप्त कृत्वा दक्षिणवारिकादीनि नक्षत्राण्यपि बोध्यानि । अत्र तु पष्ठं मतमाश्रित्य मूत्रागि वोध्यानि । लोके तु प्रथममतमाश्रित्यैतदुच्यते, तथाहि"दहनाद्य (कृत्तिकाया मृक्ष (नक्षत्र) सप्तकसैन्यां (पूर्वरयां) तु मघादिकं च याम्या याम् (दक्षिणस्याम्) अपरस्यां (पाश्चिमायां) मैत्रादिक (अनुराधादिक) मथसौम्यां (उत्तरस्या) दिगि धानप्ठादि ॥१॥ भवति गमने नराणामभिमुखनुपसर्पतां शुभप्राप्तिः । अथ पूरिक्षमतामुदिष्टं मन्यनमुदीच्याम् (उत्तरस्याम् ॥ २ ॥ बनम्न मी पनि पूर्वद्वारिक नक्षोंके अनन्तर सात २ करके दक्षिण द्वारिक आदि नक्षत्र भी जानना चहिये । ग्रहां तो छठे मनको आश्रित करके ये सूत्र कहे गये हैं, लोकमें प्रथम सतो आश्रित करके ऐसा कहा जाता है-जैसे "दहनाच (कृत्तिकाय ) भृक्ष" इत्यादि। (दहनाद्यक्षसप्तकं) = कृत्तिकादि सास नक्षत्र (ऐन्यां) पूर्व दिशाके हैं, और नचादि सात नक्षत्र (चाम्पायां ) दक्षिण दिशाके हैं, (अपरस्या) पश्चिम दिशा (मैयादिकं ) अनुराधादि सात नक्षत्र हैं, तथा ( सौम्यां दिशि ) उत्तर दिशामें धनिष्ठादि सात नक्षत्र, इस प्रकार अभिजित् साहिल २८ नक्षत्राको कहकर आग्नेय कोणसे वाय. घकोण तक एक लकीर खींच देना उसी रेखाको परिघदण्ड कहते हैं। (नराणामभिमुखमुपसर्पता ) सामने वाले नक्षत्रों में जानेवाले मनुष्य की (गमने ) यात्रामें शुभ फल प्राप्ति होती है ॥ પરતુ અમે એવું કહીએ છીએ કે“અભિજિતુ આદિ સાત નક્ષત્ર પૂર્વારિક છે? બધા પ્રશ્નોની માન્યતા પ્રમાણે પૂર્વછારિક નક્ષત્ર પછી દક્ષિણદ્વારિક આદિ સાત સ ત નક્ષત્રોનું કથન પણ અહીં કરવું જોઈએ. હવે છઠા મતને આશ્રય લઈને નીચેનાં સૂત્રોનું કથન કરવામાં આવે છે– લેકમાં પ્રથમ મતને આધારે એવું કહેવામાં આવે છે કે– " दहनाद्य (कृत्तिकाद्य) मृक्ष" त्याह (नयक्ष AH) = कृति सात नक्षत्र (ऐन्यां) पूशना छ, भासित नत्र (याम्यायां ) दक्षिण शिना छ, अनुराधासात नक्षत्री (अपस्यां ) पास हशत छ भने प्रतिष्ठहि सात नक्षत्र (सोम्यां दिशि) ઉત્તર દિશાના આ પ્રમાણે અભિજિત્ આદિ ૨૮ નક્ષત્રોનું અહી કથન કરવામાં આવ્યું છે. હવે અગ્નિ ઠાથી શરૂ કરીને વાયવ્ય કેણુ સુધી જે એક રેખા हरयामा साव, तात माने ' परिघ' ' ४३ छे. (नराणामभिमुखमुपसर्पसां) Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४५ सुधा रोका स्था ७ खू०५० ज्योतिपकदेवनिरूपणम् पूर्वायामौदीच्या-मातीच्यां (पश्चिमायाँ) दक्षिणाभिधानायाम् । यास्यां (दाक्षिणस्यां) तु भवति मध्यमप्रपरस्यां (पश्चिमायां) यातुराशायाम्॥३॥ येऽतीत्य यान्ति प्रदाः परिघाख्यामनिलदहनदिग्रेखाम् । निपतन्ति तेऽचिदपि दुर्व्यसने निष्फलारम्भाः ॥ ४ ॥” इति ।मु०५१॥. अब मध्यम फलके प्रकार कहते हैं, (पूर्वमृक्षसप्तकं) पूर्व दिशामें, जो सात नक्षत्र कहे गये हैं वे नक्षत्र ( उदीच्यां मध्यमम् ) उत्तर दिशा... की यात्रामें अध्यम हैं । इसी प्रकार (पूर्वायामौदीच्या) उत्तर दिशावाले नक्षत्रों में पूर्व तरफ जाना मध्यम है। तथा दक्षिण दिशाबाले. नक्षत्र पश्चिम दिशाके लिए, और पश्चिम दिशाबाले. नक्षत्र दक्षिण दिशाके लिये मध्यन होने हैं ( येऽतीत्य यान्ति मूढा .. परिघाख्याम्अनिलदहनदिने खां ) जो सूर्ख वायव्यकोणसे आग्नेयकोण तक गई हुई . परिघ नामकी रेखाको लांघकर यात्रा करते हैं वे ( अधिरादपि) शीघ्र ही दुर्व्यसन ( कष्ट ) में पड़ते हैं और जिस कार्यके लिए जाते हैं उनको उस कार्यमें निष्फलता मिलती है । स्पष्टताके लिये टीका' में दियो हुआ चक्र देखिए'इसका सारांश संस्कृतश्लोक ऐसा है पूर्वादिषु चतुर्दिक्षु सप्तसतानलक्षतः । । वायव्याऽग्नेय दिक संस्थं परिघ नैव लहूधयेत् ।। सामना नक्षत्रामा २॥ मनुष्यानी (गमने ) यात्रामा शुभसनी प्राति थाय । छ. ७३ मध्यम इयाना । वाम मावे छे-(पूर्वमृक्षसप्तक )(१) पूर्वहमारे सात नक्षत्र ४i छ, तमा (उदीच्या मध्यमम् :) त्तर हशानी यात्रामा मध्यम छ । प्रमाणे (पूर्वायामौदीच्यां) (२) उत्तर. शिवाय, નક્ષત્રમાં પૂર્વ તરફનું ગમન મધ્યમ ફળદાયી છે (૩) દક્ષિણ દિશાનાં નક્ષત્ર પશ્ચિમ દિશા માટે અને પશ્ચિમ દિશાનાં નક્ષત્રો દક્ષિણ માટે મધ્યમ છે (જે ऽनीत्ययान्ति मूढा ....परिघाख्याम् -अनिलदहनदिओखां) २' भूम पायव्य કેણમાથી અગ્નિકોણ સુધી રેલી પરિઘ નામની રેખાને ઓળંગીને મુસાફરી ४२ छ, तग। (अचिरादपि ) तुरत 'भुश्दीमा मावी ५ छ त र કાર્યને માટે જતાં હોય છે તે કાર્યમાં નિષ્ફળતા જ પ્રાપ્ત કરે છે આ કથનની સ્પષ્ટતાને માટે સંસ્કૃત ટીકામાં આકૃતિ આંપવામાં આવી છે– ? આ આકૃતિને ભાવાર્થ બતાવતે સંસ્કૃત શ્લેક આ પ્રમાણે છે – " पूर्वादिपु चतुर्दिक्षु सप्तसप्तानलतिः । वायव्याग्नेय दिक् संस्थ परिघं नैवलधयेत् " स्था०-९४ Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४६ स्थानाङ्गसूत्रे देवाधिकारात्सम्पति देवनिवास भूतान् कूटान प्ररूपयति मूलम् ---जंबुद्दीवे दीवे सोमणसे वक्खारपब्धए सत्त कूडा पण्णत्ता, तं जहा-सिद्धे १ सोमणले २ तह बोद्धव्वे मंगलावईकूडे ३। देवकुरु-४ विमल ५ कंधण ६ विसिटकूडे ८ य बोद्धव्वे ॥१॥ जंबुद्दीवे दीवे गंधमायणे बक्खारपचए सत्तकूडा पण्णत्ता, तं जहा--सिद्धे य गंधमायण, बोद्धन्वे गंधिलावईकूडे । उत्तरकुरू फलिहे,लोहियक्ख आणंदणे घेव ।१॥सू०५१। ___ छाया-जम्बूद्वीपे द्वीपे सौमनसे वक्षस्कार पर्वते सप्त कूटानि प्रज्ञप्तानि, तघषा-सिद्धं सौमनसं तथा बोद्धव्यं मङ्गलावतीकूटम् । देवकुरु विमलं काञ्चनं विशिष्टकूटं च वोद्धव्यम् ॥ १ ॥ जम्बूद्वीपे द्वीपे गन्धमादने वक्षस्कारपर्वते सप्त कूटानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-सिद्धं च गन्धमादनं बोद्धव्यं गन्धिलावतीकूटम् । उत्तर गुरु स्फाटिकं लोहिताक्षम् आनन्दन चैत्र ॥ १ ॥ सू० ५१ ॥ टीका-'जंबुद्दीवे दीवे ' इत्यादिजम्बूद्वीपाभिधद्वीपस्थे देवकुरूणामपेक्षया पूर्व दिग्वर्तिनि सौमनसे गजदन्ता अर्थात् कृत्तिकादि सात सात नक्षत्र क्रमसे पूर्णादि चारो दिशाऑमें लिखकर आग्नेय कोणते वायव्य कोण तक रेखा खींच देनी उसे परिघदण्ड समझ कर अपने अपने भागवाले १४, १४ नक्षत्रोंमें उसी एसीभागमें फिरना दण्डको लांघकर कभीभीयाना नहीं करना सूत्र५०॥ देवाधिकारको लेकर अब सूत्रकार देव निवासभूत कूटोंकी प्रह पणा करते-जंमुहीये दीये सोमणसे बक्खारपम्वए-इत्यादि सू०५१॥ जम्बूद्वीप नामके दीपमें स्थित देवकुरूओं की अपेक्षा पूर्व दिग्वर्ती કૃતિકાદિ સાત સાત નક્ષત્ર અનુક્રમે ચારે દિશાઓમાં લખવા જોઈએ. ત્યારબાદ અનિકોણથી વાયવ્ય કેણુ સુધી એક રેખા દોરવી તે રેખાને પરિધદંડ સમજ. આ પરિઘદંડથી આકૃતિના બે ભાગ પડી જાય છે. તે દરેક - ભાગમાં ૧૪–૧૪ નક્ષત્ર છે. આ ૧૪ નક્ષત્રવાળા ભાગમાં ફરવામાં વાંધો નથી પણ પરિઘદંડને ઓળંગીને કદી પણ મુસાફરી કરવી નહી. છે સૂ. ૫૦ | 1 દેવાધિકારની પ્રરૂપણ ચાલી રહી છે, તેથી હવે સૂત્રકાર વનિવાસ–બૂત जोनी प्र३५या ४२ - 'जंबुरीवे हीवे सोमणसे वक्वारपव्वए" त्याहि-(२.५१) જબૂદ્વીપ નામને દ્વિપમાં આવેલા દેવકુઓની અપેક્ષાએ પૂર્વ દિશાના Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधा टीका स्था०७ सू०५१ देवनिवासभूतकूटनिरूपणम् कारे वक्षस्कारपर्व से सप्त कूगनि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-सिद्धं-सिद्धानां देवविशेषाणां निवासोपलक्षितं मेरु प्रत्यासन्नं कूटम् १। सौमनसं-सौमनसनामकतदधिष्ठात. देवभवनोपलक्षितं कूटम् २। मङ्गलावतीकूटम्-मालावती विजयनामकदेवाधिष्ठितं कुटम् ३। देवकुरु-देवकुरुनामक देवाधिष्ठितं कूटम् ४। विमलं प्रत्सा देवीनिवासोपरक्षितं कूटम् ५। काञ्चनंवत्समित्रादेवी निवासोपलक्षितं कूटम् ६। विशिष्टकूटम्-विशिष्टः द्वीपकुमाराणामुप्तरदिगिन्द्रः, तन्निवासोपलक्षितं कूटम् ७ इति । तथा-जम्बूद्वीपस्थे उत्तरकुरूणामपेक्षया पश्चिमदिशिस्थिते गन्धमादननासौमनस वनमें स्थित गजदन्ताकार वक्षस्कार पर्षन पर सात कूट कहे गये हैं। जैसे-सिद्ध कूट १ ।। __ यह कूट मेरु पर्वतके समीप है, और देवविशेषरूप सिद्धोंका निवास स्थान है। सौमनस कूट २-इस कूटका अधिष्ठाता सौमनस नामका देव है, और के इस पर भवन बने हुए हैं -इसी कारण इसका नाम सौमनस कूर है, मङ्गलावती कूट ३ यह कूट मालावती विजय नामक देवसे अधिष्ठित है-इस कारण इसका नाम मङ्गलावती कूट हुआ है। देवकुरु नामक देवसे अधिष्ठित जो कूट है वह देवकुरु कूट है ४ वस्तादेवी के निवाससे उपलक्षिन जो कूट है वह विमलकूट है ५ काञ्चन कूट-यह वत्समित्रा देवीके निवाससे युक्त है ६ द्वीप कुमारोंके उत्तर दिशाका जो इन्द्र है, उसका नाम विशिष्ट है इसके निवाससे उपलक्षित जो कूट है वह विशिष्ट कूट है ७।। तथा जम्बूद्वीप में स्थित जो देवकुरु है उन देवकुरुओंकी अपेक्षा पश्चिम दिशामें स्थित जो गन्धमादन पर्वत है उस पर्वत पर गजेदन्तके સૌમનસ વનમાં જે ગજદન્તાકાર વક્ષસ્કાર પર્વત છે, તે પર્વત પર સાત ફૂટ छे. तमना नाम-(१) सिद्धट-मी दूट भे२ पतनी पासे छे, मन हेर વિશેષ રૂપ સિદ્ધોનું નિવાસસ્થાન છે (૨) સૌમનસકૂટ-આ ફૂટને અધિષ્ઠાતા સૌમનસ નામને દેવ છે, અને આ કૂટ પર તેના ભવને છે (૩) મંગલાવતી ફૂટ-મંગલાવતી વિજય નામને દેવ આ ફૂટને અધિષ્ઠાતા હોવાથી, તેનું નામ મંગલાવતી કૂટ પડ્યું છે. (૪) દેવકુરુ ફૂટ-દેષકુરુ-દેવકુરુ નામના દેવથી અધિ. ષિત જે ફૂટ છે તેને દેવકુરુ ફૂટ કહે છે (૫) વત્સાદેવી જે કૂટમાં નિવાસ કરે છે, તે ફૂટનું નામ વિમલકૂટ છે (૬) વસ્તમિત્રા દેવી જયાં નિવાસ કરે છે તે કૂટને કાંચન કહે છે. (૭) દ્વીપકુમારને ઉત્તર દિશાને જે વિશિષ્ટ નામને ઈન્દ્ર છે તેનું નિવાસસ્થાન જે કૂટમાં છે, તે કૂટનું નામ વિશિષ્ટ કૂટ છે. " તથા જંબુદ્વીપમાં જે દેવકુરુ છે, તે દેવકુરુઓની પશ્ચિમ દિશામાં જે ગન્ધમાદન પર્વત છે, તે પર્વતની ઉપર જે ગરદનના આકારને એક વક્ષ Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ७४८ स्थानाशास्त्र मके गनदन्ताकारकवक्षस्कारपर्वते सप्त कूठानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-सिद्ध-सिद्ध“देवाधिष्ठिनं मेरु प्रत्यासन्न कूटम् १। गन्धमादनंान्धमादनदेवनिवासभूतं इटम् २। गन्धिलावतीक्टम्गन्धिलावतीविनयनामदेवाधिष्ठितं कूटम् । -उत्तरकुरु-उत्तरकुरुनामक देवाधिष्ठित कूटम् ४। 'स्फाटिकम् अधोलोकनिवाति भोगङ्करानामकदिक्कुमारी निवासयुक्तं कूटम् ५।, लोहिताक्षम् अधोलोकनिवासि भोगपतीनामक दिकुमारी निवासयुक्त कूटम् ६। आनन्दनम् आनन्दननामक देवाधिष्ठितं कुटम् ७। इति ॥ सू० ५१ ॥ . कूटस्थितपुष्करिणी जले द्वीन्द्रिया अपि भवन्तीति द्वीन्द्रियसूत्रमाह-- मूलम्--बेइंदियाणं सत्त जाइकुलकोडि जोणीपमुहसयसहस्सा पन्नता ॥ सू० ५२ ॥ आकारका एक वक्षस्कार पर्वत है उस पर्वत पर सात कूट कहे गये हैं-जैसे-सिद्ध कूट यह कूट मेरुके निकट है, और सिद्ध देवसे "अधि. तष्ठिन है गन्धमादक २-यह कूट गन्धमादन देवका निवासभूना है। • गन्धि लोवती क्रूट ३-यह कूट गन्धिलावती विजय नामके देवसे अधिष्ठिन है उत्तरकुह कूट ४. यह कूट उत्तर कुरु नामक देवसे अधि. 'ष्ठित है, स्फटिक क्रूट ५ अबोलोकमें रहनेवाली जो भोगङ्करा नामकी दिकुमारी है, उसके निवाससे युक्त यह कट है, लोहिताक्ष कूद ६ अधोलोकमें रहनेवाली जो भोगवती नामकी दिक्कुमारी है, उसके .निवाससे युक्त यह कूर है आनन्दा क्रूर ७ यह क्रूर आनन्दन नामके देवसे अधिष्ठित हैं ७ ।। सूत्र ५१ ।। સ્કાર પર્વત છે, તે પર્વત પર સાત ફૂટ કહ્યા છે તેમના નામ નીચે પ્રમાણે છે– (૧) સિદ્ધકૃટ-આ છૂટ મેરુની સમીપે છે અને મિદ્ર દેવ વડે અધિષ્ઠિત छ. (२) गन्धमादन-मादूटमा गन्धमादन हेपतुं निवास स्थान छे. (3) गन्धि લાવતી ફૂટ-આ ફૂટ ગલ્પિલાવતી વિજય નામના દેવ વડે અવિછિન છે. (૪) ઉત્તરકુરુ કૃટ આ કૃટ ઉત્તરકુર નામના દેવ વડે અધિછિત છે (૫) સ્ફટિક ફૂટ–અલેકમાં રહેનારી જે ભાગકરા નામની કિકુમારી છે, તેમનું નિવાસસ્થાન ફાટિક ફૂટ છે. (૬) લેહિતાક્ષ કુટ- અલકમાં રહેનારી ભગવતી નામની " દિકકુમારીના નિવાસથી આ ફૂટ યુક્ત છે, (૭) આનન્દ કુટ-આ છૂટ આનન્દ નામના દેવના નિવાસસ્થાનથી યુક્ત છે. | સૂ ૫૧ છે , Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • ८४९ + सुधा टीका स्था०७ सू०५३ द्वन्द्रियजीवनिरूपणम् छाया--द्वीन्द्रियाणां सप्त जातिकुलकोटि योनि प्रमुख शतसहस्राणि प्रज्ञ. तानि ॥ सु० ५२ ॥ टीका--' वेइदियाणं ' इत्यादि-- द्वीन्द्रियाणां जीवानां सप्त संख्यकानि जाति योनिप्रमुखकुलकोटिशतसह स्राणि-जातौ-द्वीन्द्रियजातो या योनिप्रमुखाः द्विलक्षसंख्यकद्वीन्द्रियोत्पत्तिस्थानद्वाररूपाः, कुल कोटयस्तासां शतसहस्राणि लक्षाणि प्रज्ञप्तानि-मरूपितानि । अयं भावः-द्वीन्द्रिय नातौ .या योनपा द्विलक्षसंख्यकानि उत्पत्तिस्थानानि तत्म. भया याः कुलकोटयस्ताः सप्तलक्षसंख्यका वोध्या इति । एकस्यामपि योनौ अनेककुलानि संभवन्ति, यथा-गोमयरूपायामेकस्यां योनौ विचित्राकाराः कृपा. -दय उत्पद्यन्ते । अतः सप्तलक्षसंख्यकाः कुलकोटयो भवन्तीति । 'जोणिपमुह ' इति विशेपणस्य परनिपातः प्राकृतत्वादिति ॥ स० ५२ ॥ द्वीन्द्रियाश्च कर्मपुद्गलचयादिसत्त्वे एव भवतीति चयादीनाह-- . मूलम्--जीवा णं सत्तहाणनिव्वत्तिए पोरगले पावकम्मत्ताए चिणिंसु वा चिणति वा चिणिस्संति वा, तं जहा--नेरइयनिवत्तिए जाव देवनिवत्तिए । एवं चिणजाव निजरा चेव । कूटस्थित पुष्करिणीके जलमें द्वीन्द्रिय भी होते हैं, अतः अब सूत्रकार दीन्द्रिय सूत्रका कथन करते हैंटीकार्थ- वेइंदियाणं सत्त जाइ कुलकोडि जोणी' इत्यादि । सूत्र५२ ॥ टीकार्थ-दो इन्द्रिय जीवोंकी जो दो लाख योनियां कही गई हैं, उनसे १ उत्पन्न हुई कुलकोटियां उनकी सात लाख कही गई हैं। क्योंकि एकही __ योनिमें अनेक कुल होते हैं । जैसे गोमयरूप(गोयर)एकही योनिमें उत्पत्ति स्थान में विचित्र ओकारवाले कृमि आदि उत्पन्न हो जाते हैं। इसलिये दो इन्द्रिय जीवोंकी योनियों में कुलकोटि सात लाख कही गई हैं।सूत्र ५२ “वेइंदियाणं सत्त जाइ कुल कोडिजोणी" त्याह-(सू ५२) • ટીકાથ-દ્વીન્દ્રિય જીવની જે બે લાખ ચોનીએ કહી છે, તેમાંથી ઉત્પન્ન થયેલી ' તેમની કુલ-કેટિઓ સાત લાખ કહી છે, કારણ કે એક જ નીમાં અનેક કુલ હોય છે જેમ કે ગે મય રૂપ એક જ યોનીમાં-ઉત્પત્તિ સ્થાનમાં-વિચિત્ર આકારવાળા કૃમિ આદિ ઉત્પન્ન થઈ જાય છે તેથી શ્રીન્દ્રિયની નીઓમાં 'કુવકેટિ સાત લાખ કહી છે. સૂ પર છે Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाङ्ग ७५० सत्तयएसिया खंधा अणंता पण्णत्ता । सत्तपएसोगाढा पोग्गला जाव सत्तगुणलुक्खा पोग्गला अणंता पण्णत्ता ॥ सू० ५३ ॥ . ॥ सत्तमं ठाणं समत्तं ॥ छाया--जीवाः खलु सप्तस्थाननिर्वतितान् पुद्गलान पापकर्मतया अचिन्वन् वा, चिन्वन्ति वा चेष्यन्ति वा, तद्यथा-नेरयिकनिर्वतितान् यावद् देवनिर्वतितान् । एवं चयो यावनिर्जरा चैत्र । सप्तपदेशिकाः स्कन्धाः-अनन्ताः प्रज्ञप्ताः सप्त प्रदेशावगाहाः पुद्गला यावत् सप्त गुण रूक्षाः पुद्गला अनन्ताः प्राप्ताः।। स०५.३ ।। जीव द्वीन्द्रियादिक पर्यायवाले कर्मपुद्गल चयादि होने पर ही होते हैं अतः अब सूत्रकार चयादिका "जीवाणं सत्तठाणं" इत्यादि सूत्र द्वारा कथन करते हैं- , . ___जीवोंने सान स्थानों से, निर्वतित पुद्गलोंका पापकर्म रूपसे चय किया है, चय करते हैं और चय करेगे-जैसे-नैरयिक रूप स्थानसे निर्वर्तित हुए यावत् देवस्थान से निर्मित हुए पुद्गलोंका उन्होंने पापकर्म रूपले चप किया है, वर्तमान में वे उनका उस रूपले चय करते हैं, और आगे भी वे उनका उस रूपसे चय करेंगे चयकी तरह यावत् निर्जराका भी त्रिकाल रूपसे कथन कर लेना चाहिये। सात प्रदेशोंवाले स्कन्ध अनन्त कहे गये हैं, सात प्रदेशोंमें अव. गाढ हुए पुद्गल यावत् सात स्थान इस प्रकारसे हैं કર્મ પુદગલને ચયાદિક થાય ત્યારે જ જીવ દીન્દ્રિયાદિક પર્યાયવાળા થાય छ तेथी के सूत्रा२ " जीवाणं सतःण" त्यादि सूत्र ६२। ययाहि तुं Yथन ४२ छ-" जीवाणं सत्तद्वाणं " त्यहि-सू ५3) : જીએ સાત સ્થાનમાંથી નિવર્તિત પુદ્ગલેને પાપકર્મ રૂપે ચય કર્યો છે, ચય કરે છે અને ચય કરશે જેમ કે નરયિક રૂપ સ્થાનમાંથી નિવર્તિત થયેલા પુદ્ગલેને તેમણે દેવસ્થાન પતિના સ્થાનમાં નિર્વતિત થયેલા પુદું ગલનો તેમણે ૫ ૫કમ રૂપે ભૂતકાળમાં ચય કર્યો છે. વર્તમાન કાળે તેઓ તેમને તે રૂપે ચય કરશે ચયની જેમ જ નિર્જરા પર્વતના વિષયોનું પણ ત્રણ કાળની અપેક્ષાઓ ઉપર પ્રમાણે જ કથન કરવું જોઈએ. • સાત પ્રદેશેવાળ રથ અનંત કહ્યા છે. સાત સ્થાનમાં અવગાહિત येai yो मन त छ. ते २थान नीय प्रमाणे छ- (१), ना२४, (२) Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 751 सुधा टीका स्था० 7 सू. 53 चयादिनिरूपणम् टीका--'जीवाणं ' इत्यादि-- व्याख्या पूर्ववद् बोध्या / नवरं-सप्तस्थाननिर्वतितान्-सप्तसु स्थानेषुनारक-तिर्यक-तिरश्ची-मनुष्य-मानुषी-देव-देवी रूपेषु मिथ्यात्वादिभिर्य निर्व. तिताः-सामान्येनोपार्जिता वक्ष्यमाणस्थानषट्कयोग्यीकृताः, तान् , यद्वासप्तमु पूर्वोक्तेषु स्थानेषु निवृत्तिये॒पां ते तथा तान सप्तस्थाननिवृत्तिकान् , इति / / सू० 53 // इति श्री-विश्वविख्यात-जगद्ववल्लभ-मसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषा-कलितललितकलापालापक प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-बादिमानमर्दक श्री शाहू छत्रपति - कोल्हापुरराजमदत्त-जैनशास्त्राचार्य-पदभूपित-कोल्हापुर राजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य - जैनधर्मदिवाकर-पूज्य श्री घासीलालवति-विरचितायां स्थानादसत्रस्य ___ सुधाख्यायां व्याख्यायां सप्तमं स्थानं सम्पूर्णम् // 7 // नारक 1, तिर्यश्च 2, तिरश्ची 3, मनुष्य 4, मानुषी 5, देव 6, एवं देवी 7, इन स्थानों में जीवोंने रहकर मिथ्यात्व आदि द्वारा जिन कर्म पुद्गलोंका सामान्य रूपसे उपार्जन किया है-वक्ष्यमाण स्थानषट्कके योग्य किया है-पदा-इन उक्त सात स्थानों में जिनकी निवृत्ति हुई है, ऐसे उन कर्मपुतलोंका जीवोंने पाप कर्म रूपसे त्रिकाल संपन्धी चयादि कियाहै / इस सूत्रकी व्याख्या पूर्व के समान जाननी चाहिये // 1053 // श्री जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजी महाराज कृत " स्थानाङ्ग सूत्र" की सुधा नामकी व्याख्या के सातवां स्थान समाप्त // 7 // तिय"य, (3) तिय"यणी, (4) मनुष्य (5) मनुष्य तिनी श्री, (6) દેવ અને (7) દેવી. આ સ્થાનમાં રહીને જીવેએ મિથ્યાત્વ આદિ દ્વારા જે કર્મ પુદ્ગલેનું સામાન્ય રીતે ઉપાર્જન કર્યું છે–ચય, ઉપચય આદિ નિર્જરા પર્યન્તના 6 સ્થાનને ચગ્ય કરેલ છે અથવા–ઉપયુક્ત સાત સ્થાનમાં જેમની નિવૃત્તિ થઈ છે એવાં તે કર્મ પુદ્ગલેને એ પાપકર્મ રૂપે ત્રિકાળ સંબંધી ચયાદિ કર્યો છે. આ સૂત્રની વ્યાખ્યા પૂર્વ સ્થાનમાં આપ્યા પ્રમાણે समावी. // सू. 53 // શ્રી જૈનાચાર્ય–જૈનધર્મ દિવાકર પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ કૃત સ્થાનાંગ સૂત્ર ની સુધા નામની વ્યાખ્યાનું સાતમું સ્થાન સમાસ | 9 |