Book Title: Smruti Tattvasya Part 01
Author(s): Raghunandan Bhattacharya
Publisher: Jivanand Vidyasagar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir । कोबातीर्थमंडन श्री महावीरस्वामिने नमः ।। ।। अनंतलब्धिनिधान श्री गौतमस्वामिने नमः ।। ।। गणधर भगवंत श्री सुधर्मास्वामिने नमः ।। ।। योगनिष्ठ आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।। । चारित्रचूडामणि आचार्य श्रीमद् कैलाससागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।। आचार्य श्री कैलाससागरसूरिज्ञानमंदिर पुनितप्रेरणा व आशीर्वाद राष्ट्रसंत श्रुतोद्धारक आचार्यदेव श्रीमत् पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. जैन मुद्रित ग्रंथ स्केनिंग प्रकल्प ग्रंथांक :१ जैन आराधना न कन्द्र महावीर कोबा. ॥ अमर्त तु विद्या श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र शहर शाखा आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर-श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर-३८२००७ (गुजरात) (079) 23276252, 23276204 फेक्स : 23276249 Websiet : www.kobatirth.org Email : Kendra@kobatirth.org आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर शहर शाखा आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर त्रण बंगला, टोलकनगर परिवार डाइनिंग हॉल की गली में पालडी, अहमदाबाद - ३८०००७ (079)26582355 - - - For Private And Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पण्डितकुलपतिः श्रीजीवानन्दविद्यासागर वि, ए। PANDIT JIVANANDA VIDYASAGARA B. A. SUPERINTENDENT FREE SAXSKRIT COLLEGE CALCUTTA. For Private And Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्मृतितत्त्वस्य प्रथमो भागः । 0000 तिथितत्त्वम् + श्राद्धतत्त्वम् + आह्निकतत्त्वम्+ प्रायश्चित्ततत्त्वम ज्योतिस्तत्त्वम् + मलमास तत्त्वम् + संस्कारतत्त्वम् ] महामहोपाध्याय श्रीरघुनन्दन भट्टाचार्य विरचितः । वि०, उपाधिधारिणा पण्डितकुलपतिया श्रीजीवानन्दविद्यासागरेण संस्कृतः प्रकाशितश्च । द्वितीय संस्करणम् । कलिकातानगयी " नारायण यन्त्रे" मुद्रितः । इ० १८८५ । For Private And Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अथ प्रतिपत् अथ द्वितीया श्रथ टतीया प्रथमभागस्य सूचीपत्रम् । प्रकरणम् तिथिस्वरूपनिरूपणम् विशेष तिथिकसन्देह निर्णयः अथ विघ्नपतितमृताद्दाविदितश्राद्धकाल: अथ जन्मतिथिक्कत्यं अथ चतुर्थी' अथ पञ्चमौ अथ षष्ठौ अथ सप्तमी अथ विधानसप्तमौ अथाष्टमो अथ जन्माष्टमी अथ व्रतकालव्यवस्था अथ पारणकाल: तदयं संक्षेपः www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अथ नवान्नवाड कालः अथ भीwgat अथ अशोकाष्टमी अथ नवमी अथ श्रीरामनवमी तदयं संचेपः अथ दशमौ श्रथ दुर्गोत्सव: श्रथ सप्तमौ पूजा तिथितत्त्वम् । ... ... ..h .... ... ... ... ... 60 0 LED For Private And Personal Use Only ⠀⠀⠀⠀⠀ ⠀⠀⠀⠀⠀ ⠀⠀⠀⠀⠀⠀⠀⠀⠀⠀ ::: ... पृष्ठार्या १ २ १५. २० २६ २६ ३० ३१ ३२ ३४ ३५ ३६ ४० ४१ ४७ ५१ ५४ ५७ ५८ ५८ * ८५८ ७६ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पृष्ठायां ८४ ८८ १०४ १०८ ११४ ११७ १२१ १२४ सूचीपत्रम् । प्रकरणम् अथ वैधहिंसाविचार: महानवमीपूजाकल्पः अथ कुण्डविधिः अथ एकादशी तदयं संक्षेपः अथ द्वादशी अथ त्रयोदशी अथ चतुर्दशी अथ शिवरात्रिव्रतं तदयं संक्षेपः शिवरात्रिव्रतप्रयोगः अथ मदनचतुर्दशी अथ पौर्णमासी अथ कोजागरकत्यं अथ चतुरङ्गं अथ रविसंक्रान्तिः सदयं संक्षेपः अथ ग्रहणं अमावास्याश्राद्धकाल: यथार्योदययोगः अथ युगाद्या १२६ १२६ 1 mA १३५ १३७ १४० १४४ १८७ १८८ श्राद्धतत्त्वम्। अथ श्राइदेशाः अथ श्राद्धदेवाः अथासनं अथ दर्भाः अथानुजा प्रय पिण्ड पिटयज्ञाति देश: ... अथ कुशासनं For Private And Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूचीपत्रम्। पृष्ठायां २०८ २१० २१५ مم و م २२० २२४ २२८ प्रकरणम् अथावाहनं अथाय अथ गन्धादिदानं अथ पुष्पं अथ धपाः अथ दीपा: अथाच्छादनं अथ यज्ञोपवीतानि अथ पात्रस्थानं अथ पात्राणि अथाग्नौकरणं अथ हुतशेषदानं अथ विहिताविहितद्रव्याणि अथ परिवेशनं अथानोत्सर्गानन्तर कल्यं अथाग्निदग्धादिनानविकरणं ... अथ पिण्डदानं अथ जौवत्यिटक श्राद्ध अध पाव गान्य प्रतिमासकर्तव्यत्व अथ मलमासे सपिण्ड नोत्तरथाद्धनिषेधः अथ प्रतिमासपावणाशक्तास्य कर्तव्यत्व अथ मघानयोदशी श्राद्ध अथ तीर्थ श्राद्ध अथाष्टकायाई अथ नवान्न थाई अथ पोणम सो द्धिम् अथ श्राइवेला अथामावास्या श्राद्धकालः अथ कोद्दिष्ट वादविचारः अयागौचान्त द्वितीयदिन पाय पाहात् पूर्ववत्यम् २३० २३१ २३३ २५० २५१ २५२ २५७ २५८ २५८ २६० २७३ २७८ ७ 6 For Private And Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पृष्ठायां सूचीपत्रम् । प्रकरणम् श्राद्यश्राद्धकाल: अथ सपिण्डौकरणम् अथ सांवत्सरिकथाद्दम् अथाभ्युदयिक श्राद्धम् आङ्गिकतत्त्वम्। अथ विण्म त्रोत्सर्गः अथ शोचम आचमनविधिः शिखाबन्धे विशेषः आचमने उदकग्रहणप्रकारयरिमाणम् अथ दन्तधावनम् अथ प्रातःस्मानमध्ये अथ प्रथम यामाई कत्यम् अथ हितोययामाईकल्यम् लिखनविधिः अथ टतीयमायाई कत्यम् अथ चतुर्थयामाईक्वत्यम् अथ तर्पणम् अथ सन्ध्योपासनम उपासनाविधिः अथ सवितुरुपस्थानम् अथ ब्रह्मयत्नः अथ देवपूजा अथ गणेश पूजनम् अथ पार्थिवशिवलिङ्गपूजाविधि: अथ धपः अथ दीप: अथ नवेद्यम् अथ पञ्चमवामाई कत्यम् वलिदानप्रकारः ॥ ० ० AWAFA WWW WWW U WAU AURAT AURA 16 6 Cccc WWWW moc 16 mo० ३८८. ३८५ ३८६ c. ccccc ४१४ ४१० ४२३ For Private And Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रथ गोग्रासदानम् अथ भोजनम् प्राणाहुतिमुद्रा अथ ऋतु गुगणाः श्रथ षड्रसगुणाः अथ धातुप्रकृतिः अथ धान्यादि गुणाः प्रकरगाम् अथातिथिभोजन नित्यश्राडे अथ शाकगुणा: अथ लवगागुगा: अथ फलगुणाः अध तोयगुणाः अथ चौगुणाः श्रथ दधिगुणाः श्रथ तक्रगुणा: अथ घृतगुणाः अथेच्वादिगुणाः www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ऋत्यम् अथ षष्ठयामाई कृत्यम् अथ रात्रि अथ शयनविधिः अथ दारोपगमनविधि: सूचीपत्रम् | प्रायश्चित्ततत्त्वम् । अथ प्रायश्चित्तलत्तणाम् श्रथ तन्त्रप्रसङ्गकौ अथ प्रसङ्गः श्रथाङ्गहोने काय्येऽपि फलं 3 *** For Private And Personal Use Only ... ... :: ... : श्रथ विजातीय प्रायश्चित्तात् विजातीयपापनाशः श्रय चान्द्रायणादी भोजनपरिसंख्या अथ गुरुप्रायश्चित्तेन लघुपापनाशः. अथ गङ्गामाहात्मा' : पृष्ठायां ४२५ ४२८ ४२८ ४३४ ४३६ ४३८ ४४० ४४० ४४१ ४४२ ४४३ ४४५ ४४६ 59 39 ४४७ " ४५८ ४६० 99 ४६१ ४६७ 27 ४७० ४७६ ४७८ ४८५ ४८६ ४८८ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूचीपत्रम् । प्रकरणम् श्रथात्र प्रयोगः गङ्गायाम् अस्थिप्रक्षेपः गोबधादी वालत्वादिना प्रायश्चित्तभेदः अथ प्रायश्चित्तोपदेशादि अथ चौराल्लाभविनिर्णयः अथ क्रयनिर्णयः अथ प्रायश्चित्त पूर्वाहकृत्यं अथ वाल्यादिभेदात् प्रायश्चित्तम् अथ धेनु मूल्यव्यवस्था अथ ज्ञानकृतादि निरूपणम् अथ विप्रादिस्वामिकगोवधप्रायश्चित्तम् अथैकहायनादि गोवधप्रायश्चित्तम अथ रोधादिनिमित्तक गोबधप्रायश्चित्तम् अथापालननिमित्त गोवधप्रायश्चित्तम् अथ गोवधापवाद: अथ निमित्तिनो नरबधापवादः अध चाण्डालाद्यन्नभचणप्रायश्वित्तम् अथान्त्यजस्त्रौगमनभोजनप्रायश्चित्तम् L** *** ... अथ राश्यादिनिर्णयः पलदण्डयोः प्रमागम् मूलचिकोणाशव्यवस्था अथ रविसंक्रान्तिगयनम् ... तदयं सक्षेपः श्रथ मीमांसादिभक्षणप्रायश्चित्तम् अथ भाय्र्यायां मातृत्वादिवदतः प्रायश्चित्तम् अथोपवतच्छदनप्रायश्चित्तम् अथ रेती मूत्रपुरीषभक्षणप्रायश्चित्तम् अयोच्छिष्टस्य चाण्डालादिस्पर्श प्रायश्चित्तम् अथ रजस्वलापः प्रायश्चित्तम् ज्योतिस्तत्त्वम् । ... For Private And Personal Use Only ... : पृष्ठायां ४८७ ५०३ ५१० ५११ ५१३ ५१४ ५१५ ५१६. ५१७ ५१८ ५१६ ५२६. ५२६ ५२८ ५३४ ५३८ "9 ५५१ ५५३ ५५३ ५५४ ५. ५५ ५५६ ५५६ ५५७ ५५८ ५६२ ५६४ ५६८ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra प्रकरणम् अथाष्टवर्ग: वारफलम् www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूचीपत्रम् | अथ ग्रहणम् अथ नाम्ना नक्षत्रज्ञानार्थं शतपदचक्रम् अथ चन्द्रताराद्यशुभप्रतौकारः अथ प्रकीर्णकम् अथ निर्घातः अथ केतुः अथाकालवृष्टिः श्रथ सर्वतोभद्रम् अथ बालादि चक्र अथ विवाह: खर्जरवेधः नाड़ौ नक्षत्र' अरिषडष्टकं अथ जन्मनक्षत्र फल अथ प्रत्यन्तर्दशाफलं अथ वर्षपताको अथ क्रमे लग्नदृष्टिफल 400 ::: अथ नववध्वा गमनं अथ प्रथम रजो योग: अथ गर्भाधानं अथ षोड वर्षीया गर्भिणौ चिन्ता अथ पुंसवन अथ पञ्चामृतं अथ सौमन्तोन्नयनं अथ जातभद्रादि अथ गण्ड योगः अथ पताकौवेधः अय जन्मराशिप ल ... ... : : : : : : For Private And Personal Use Only ⠀⠀ : : ... 8.4 ⠀⠀⠀⠀ *** ... : ... ... : ... ::: : ε पृष्ठायां ५७४ ५७ ५८३ ५८७ ५८८ ५८१ ५८३ 99 ५८४ ५८८ ६०३ ६०३ ६०८ ६१२ ६१३ ६१५ ६ १६ ६ १७ ६१८ ६१८ ६ १८ ६२० ६२३ ६२४ ६३० ६३१ ६ ३८ ६४० ६४२ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूचीपत्रम् । पृष्ठायां ६५२ ६५५ ६५८ Www AW our wur ६६२ प्रकरणम् अथ जातकर्म अथ षष्ठीपूजा अथ नामकरण अथ निष्क्रामणं अथानप्राशनं अथ नवान्नं अथ चड़ाकरणं अथ कर्णवेधः अथ विद्यारम्भः अथ उपनयनम् अथ समावर्त्तनम् अथ ग्रहादि अथ ग्रहप्रवेशः अथ पुष्करिण्यारम्भः अथ परोक्षा अथ लषिकर्म अथ लागलचक्रम् अध वोजोप्तिचक्रम् अथ वषचक्रम् अथ मुष्टि ग्रहगाम् अथ धान्य च्छेदनप्रकार: पथ वौजसञ्चयः अथ षष्टिसवत्सरगणना अथागतम् अथ यात्रा अथ छत्रचक्रम् अथ सिंहासनचक्रम् मलमासतत्त्वम्। अथ मासशक्यम् अथ कम्मविशेष मासविशेषादिः in ४- MMMMM 6 .mmscs ० ०5cccww. ६८२ ६८२ rur www Mr ७३४ ७३८ ७४१ For Private And Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra सूचीपत्रम् | प्रकरणम् अथ दर्शान्तमास शक्यत्वे साधकान्तराणि अथ चैवादिशब्दानां चान्द्रवाचिता श्रथ मलमासः श्रथ दौक्षाकाल: अथ दीक्षायां प्रतिप्रसवः अथ स्वौशूद्रयोः प्रणवयुद्मन्त्रनिषेधः श्रथ दौचितस्याशोंचे जपाद्यधिकारः थाशौचे विष्णु कीर्त्तनम श्रथाधिमासे विवाहादिनिषेधः पर्य्युदास विचार: अथ नवान्नम् अथ समयाशुचिः अथ रोगे दानादि www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अथ मुमुक्षुकत्यम् अथ महादानलक्षणम् अथ मलमास कत्तव्यव्रतम् अथ पितृपक्षमृतक्रिया अग्निस्थापनम् अथ वरणविधिः अथ ब्रह्मस्थापनम् अथ द्रव्यासादनम् ... 040 01519 17 : For Private And Personal Use Only *** ... ... : : श्र ... *** श्रथाश्वयुक् कृष्णपक्ष श्राद्धः श्रथामावस्या प्रथाधिमासे प्रत्याब्दिकादिविचारः अथ सपिण्ड नापकर्षविचार: अथ सन्यासनिषेधविचारः अथापुत्रस्य मृता न पार्वणम ... अथाधिमा मृतस्याधिमासे प्रत्याब्दिकं कर्त्तव्यम् संस्कार तत्त्वम् । : ... ÷ 04 2 ... : ११ ठय ७५४ ७५८ ७६८ ७८४ ७८५ ७८७ " " ७८८ ८०३ ८११ ८१७ ८३५ ८३६ ८४० ८४१ ८४१ ८४३ ८४८ ८५० ८५१ ८५४ ८५५ ८५५ ८५७ ८६१ ८६२ ८६४ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूचीपत्रम् । पृष्ठायां 2. . awaraurav ~ ८७३ ८७४ ८७९ प्रकरणम् अथ चरुविधानम् अथ भूमिजपादिविधानम् अथास्तरणम् अथ विंशतिकाष्ठिका प्रथाज्यसंस्कारः अथ सुवादिलक्षणम् अथ विरूपाक्षजपः अथ प्रकृतं कर्म अथ प्रायश्चित्तम् अथ यज्ञवास्तुकरणम् अथ पूर्णाहुतिः अथ वन्दनादि कर्म अथ विवाहः अथाहणम् अथ विवाहपरिपाटी अथ पाणिग्रहणम् अथ यानारोहणादि अथ गर्भाधानम् अथ पुंसवनम् अथ सीमन्तोनयनम् अथ शोष्यन्तौ होमः अथ जातकर्म अथ नामकरणम अथ निष्क्रामणम् অগ্রামন अथ चड़ाकरणम् अथोपनयनम् अथ समावर्तनम् अथ नवराहप्रवेश कर्म अथ ग्रहयतः ८८८ ८८५ ८०९ 6 6 6 ॥ ॥ ० ० ० Aman. GNm- AM ० ० ० A00 W occu ८१२ २१५ ८१८ ८२१ ८२२ ८२६ ८४३ For Private And Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीगणेशाय नमः। तिथितत्त्वम् । प्रणम्य सच्चिदानन्दं रामं कामदमौखरम् । तिथ्यादितत्त्व तत्प्रोत्यै वक्ति श्रीरघुनन्दनः ॥ तत्र तिथिस्वरूपमाह हेमाद्रिकालमाधवीययोः स्कान्दे प्रभासखण्डम् । “अमा षोड़शभागेन देवि प्रोक्ता महाकला। संस्थिता परमा माया देहिनां देहधारिणौ ॥ अमादिपौणमास्यन्ता या एव शशिनः कलाः। तिथयस्ता: समाख्याता: षोड़शैव वरानने” ॥ चन्द्रमण्डलस्य षोड़शभागेन परिमिता देहधारिणी प्राधारशक्तिरूपा अमानाम्नी महाकला प्रोक्ता क्षयोदयरहितत्वान्नित्या सक्सूत्रवत् सर्वानुस्यूता तदन्या: पञ्चदश कला: प्रतिपदादितिथिविशेषरूपा इति षोड़शैव कलास्तिथय इति। अत्र प्रथमकला क्रियारूपा प्रतिपत् एवं द्वितीयादिकला क्रियारूपा द्वितीयादिः सा च हद्धिरूपा चेत् शुक्ला हासरूपा चेत् कृष्णेति। तथा च षट्त्रिंशन्मतम्। तत्र पक्षावुभौ मासे शुक्लकृष्णो क्रमेण हि। चन्द्राधिकरः शुक्लः कृष्णचन्द्र क्षयात्मकः ॥ पक्षल्याद्यास्तु तिथयः क्रमात् पञ्चदश स्मता: । दर्शान्ताः कृष्णपक्षे ता: पूर्णिमान्ताश्च शुक्ल के" ॥ पक्षतिः प्रतिपत् एतत्सवं क्रियैव काल इति मतानुसारादुक्तं तदतिरिक्त कालवादिमते तु तत्तक्रियोएलक्षित: काल इति। यथा विष्णु पुराणे । “कालस्वरूपं रूपं तद्विषणोमवेय वर्तते" । विष्णुधर्मोत्तरे च । “अनादिनिधनः कालो रुद्रः सङ्ग. For Private And Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । पणः स्म तः। कलनात् सर्वभूतानां स कालः परिकीर्तितः” । काल नात् ल य करणात्। तथा च विष्णुपुराणम् । “थे समर्था जगत्यस्मिन् सृष्टिसंहारकारिणः । तेऽपि कालेन लौयन्ते कालो हि वलवत्तरः” ॥ न च “अष्टमांश चतुर्द श्या: क्षीणो भवति चन्द्रमा:। अमावास्याष्टमांश च ततः किल भवेदनुः” इति कात्ययानीयदर्शनाच्चतुर्दम्याः शेषयाम पञ्चदश्याः कलाया: क्षयारम्भादेवं दर्शान्तयामे आद्य का लाया उत्पत्तेविरोध इति वाचं तस्य दर्शथाहोपयुक्त पारिभाषिकक्षयोत्पत्तिपरत्वं न तु तहास्तवं स्मृतिज्योति:शास्त्रविरोधात् । तथाहि गोभिलः । "सूर्याचन्द्रमसोयः परः सन्निकर्षः साऽमावस्या” इति परः सन्निकर्षश्च उपयधोभावापन्नसम सूत्रपातन्यायेन राश्येकांशावच्छेदेन सहावस्यानरूप:। तथा च अमावास्याघटकतादृशसहावस्थानयुक्ताकमण्डलाञ्चन्द्रमण्डलस्य । “अर्कादिनि:मृत: प्राची यद् यात्वहरहः शशौ । भागै दशभिस्तत् स्यात्तिथिश्चान्द्रमसं दिनम्" । इति मूसिद्धान्तोक्लेन। "लिंगांशकम्त थाराशेर्भाग इत्यभिधीयते ॥ आदित्यादिप्रकष्टस्तु भागं द्वादशकं यदा। चन्द्रमाः स्यात्तदा राम तिथिरित्यभिधीयते" इति विष्णुधर्मोत्तरवचनाद्राशिहादशांशहादशांशभोगात्मक निर्गमरूपवियोगेन शुक्लायाः प्रतिपदादि तत्तिरुत्यत्तिरेवं “सूर्याचन्द्रमसोयः परो विप्रकर्षः सा पोण मासो” इति गोभिलोलोन पौर्णमासौघटकसप्तमराश्यवस्थानरूपपरमवियोगानन्तरमकमण्डल प्रवेशाय चन्द्रमण्डलस्य राशिहादशांशहादशांशमोगात्मक प्रवेशरूपसन्निकर्षण कृष्णायास्त तत्तिथे. श्चोत्पत्तिः। तत्र तिथिविशेषविहिते कर्मणि उभयदिने तिथिलाभे प्रश्नपूर्वक निर्णयमाह विष्णुधर्मोत्तरम्। “नक्षत्रं देवदेवेश For Private And Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । तिथिञ्चाईविनिर्गताम् । दृष्ट्वोपवासः कर्त्तव्यः कथं शङ्कर जानता " ॥ शङ्कर उवाच: । “सा तिथिस्तदहोरात्र यस्यामभ्युदितो रविः । तया कर्माणि कुर्वीत ह्रास हो म कारमाम् ॥ सातिथिस्तदहोरात्रं यस्यामस्तमितो रविः । तया कर्माणि कुर्वीत जामवृद्धौ न कारणम्” इति । " शुक्लपक्षे तिथिग्रह्या यस्यामभ्युदितो रविः । कृष्णपक्षे तिथिग्रा यस्यामस्तमितो रविः । अत्रामावास्यावत्तिथिवृद्धिचयाभ्यां न व्यवस्था । किन्तु रवेरुदयास्तमयतिथिसम्बन्धात् शुक्लकृष्णपचाभ्यां व्यवस्था । सा च युग्माद्यनाघ्राततिथिकर्मपरा सामान्य विशेषन्यायात् । युग्ममाह गृह्यपरिशिष्टं निगमच । “युग्माग्निकृतभूतानि षण्मुन्योर्वसुरन्ध्रयोः । रुद्रेण द्वादशीयुक्ता चतुर्हश्याथ पूर्णिमा || प्रतिपदाप्यमावास्या तिथ्योर्युग्म महाफलम् । एतास्तं महाघोरं हन्ति पुण्यं पुराकृतम्” ॥ द्वितीयाटतोययोश्चतुर्थीपञ्चम्योः षष्ठौ सप्तम्योरष्टमौनवम्योरेकादशौद्वादश्योश्चतुर्दशौपौर्णमास्योः प्रतिपदमावास्ययोर्युग्म मेलनं तत्तत्तिथिमात्रनिमित्त के कमणि महाफलम् । एतत् प्रयोजनन्तु तिथिविशेषविहिते कर्मणि तिथिखण्ड विशेष नि यमनम् । स्वतिथ्या कर्मानिर्वाहे सहायभावे नान्यतिथ्यनुप्रवेशादुपवासाद्याचरणञ्च । अतएव विष्णुधर्मोत्तरे । सा तिथिस्तदहोरात्रमित्यनेन खण्ड तिथेरहोराचत्वानुकीर्त्तनमहोरात्रसाध्योपवासादिकर्मार्हत्वार्थं तच्च तिथ्यन्तरसहाय भावं विना प्रायशो न सम्भवतौति । अतः प्रातःकाले तत्ततिथ्यलाभे तिथ्यन्तरेऽप्युपवाससङ्कल्पः । अहोरात्राभोजनरूपस्य तस्य प्रातरारम्भात्वात् । संवत्सर प्रदीपेऽपि "प्रातः सन्ध्यान्ततः कृत्वा सङ्कल्पं बुध आचरेत्” । इत्युक्तम् अत्रेदं वीज' कर्मस्तावदपूर्वजनकत्वेन विधेयत्वेन च प्राधान्यं तिष्यादेस्तु For Private And Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । गुणत्वेन क्वचिदुपलक्षणत्वं तदाह गर्ग:। “तिथि नक्षत्रवारादि साधनं पुण्यपापयोः। प्रधानगुणभावेन स्वातन्त्रण न ते चमाः । प्रधानस्य विधेयकर्मणो गुणभावेनाङ्गत्वेन तदुक्तं "कर्मासविहितं नैव बुद्धौ विपरिवर्तते शब्दात्त तदुपस्थानमु. पादेये गुणो भवेत्” । प्रमाणान्तरासविहितं कर्म बुद्धौ प्रथम न विषयोभवति प्राथमिकशब्दादेव तस्य कर्मण उपस्थितिरिति उपादेये खविधेये कर्मणि पूजादौ चन्द्रादिक्रियात्वेन तदवच्छिन्नकालत्वेन वा शुचि तत्कालीविनः कर्माधिकारात्तस्मिन् प्रमाणान्तरलभ्यत्वेनाविधेयत्वात् तिथ्यादिगुण इति। अतस्तत्तिथिं विनापि प्रातरेव सङ्कल्पः नतु तत्तिथ्यनुरोधादन्यत्रेति। एवञ्च मासपक्षतिथौनाञ्चेत्याद्यनुरोधेन प्रात:सङ्कल्पयेदित्यनुरोधेन च अन्यतिथिकर्मणोऽन्यतिथ्यारम्भेऽमुकतिथावारभ्यामुकं कर्म कर्त्तव्यमिति वक्तव्यम्। प्रारम्भ एव तत्तिथेरनुप्रवेशान दोषः। एतस्तं युग्मविपरीतं प्रतिपद हितीययोः तौयाचतुर्थोरित्याद्योर्मेलनं महाघोरं महापापजनकम् । अत्रापवादो वक्ष्यते अत: “पूर्वाह्नो वै देवानां मध्य दिनं मनुष्याणामपराह्नः पितृणाम् ।” इत्यादि श्रुत्याद्यनुरोधे. नोभयदिने कर्मयोग्यप्रशस्तकाले हितौयालामे तौयायुतैव द्वितीया ग्राह्या न प्रतिपद्युता टतीयापि द्वितीयायुतैव न चतुर्थीयुता एवमन्यत्र नत्वेकदिन एव कर्मयोग्यप्रशस्तकाललाभेऽपि युग्माद्यादरः। अतएव, “कर्मणो यस्य यः कालस्त कालव्यापिनौ तिथिः । तया कम्माणि कुर्वीत ह्रासहद्दी न कारणम्” ॥ इति वृदयाज्ञवल्को येन सन्देहनिरासात् सन्देहविषय एव युग्मादिवचनप्रवृत्तेः प्रधानस्य कर्मणो बोधकेन पूर्वाह्लादिशास्त्रेण गुणस्य तिथ्यादेनियामकस्य युग्मादिशास्त्रस्य जेतव्यत्वाच्च। व्यस्ततिथिनिन्दार्थवादोऽपि सन्देह. For Private And Personal Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५ तिथितत्त्वम् । विषयनिर्णयपर एव विधिशेषत्वात्तस्य । एवञ्च पूर्वदिने पूर्वाह्न युग्मसम्बन्धिपरतिथेरप्राप्तौ परदिने च तत्प्राप्तौ तत्तिथिविहितपूजादेः पूर्वाह्णानुरोधात् परदिनकर्त्तव्यत्व प्रतीयते । नतु युग्मानुरोधात् पूर्वदिने । अत्र च । “पञ्चमी सप्तमी चैव दशमौ च त्रयोदशी । प्रतिपन्रत्रमी चैव कर्त्तव्या साम्मुखो तिथिः ॥ इति पैठोनसिवचनस्य तु । “साम्म ुख्य नाम सायाज्ञव्यापिनो दृश्यते यदा" | इति स्कन्दपुराणेन सायाह्न व्यापिनी तिथेः साम्म ुख्य विधानेन पूजादावनवकाशादुपवासपरत्वम् । एवं “त्रिसन्ध्यव्यापिनौ यातु सैव पूज्या सदा तिथिः । न तत्र युग्मादरणमन्यत्र हरिवासरात्” ॥ इति पाराशरोयेण त्रिसन्ध्यव्यापित्वेन नियमाभिधानं तदपवादकमिति सायाज्ञव्यापित्वमपि मूहर्त्तन्यूनत्वेन ज्ञेयम् । " व्रतोपवासस्रानादो घटिकैका यदा भवेत् । सा तिथिः सकला नेया पित्रर्थे चापराह्निको” ॥ इति देवलवचनात् । नन्वहोरात्रसाध्योपवासादौ कुतो न रात्रियुग्मग्रहणं मैवं तत्रापि कर्मार्थं दिवा तदङ्गखानदेवतापूजादोनां कर्मणां कर्त्तव्यत्वाद्रात्रौ च तनिषेधात् दिवायुग्मस्यैव ग्रहणमिति तिथिविवेकः । अतएव जावालः । “अहः सु तिथयः पुण्याः कर्मानुष्ठानतो दिवा । नक्तादि व्रतयोगे तु रात्रियोगो विशिष्यते” ॥ दिवाकर्मानुष्ठाने कर्त्तव्ये अहः सु तिथयः पुण्याः तिथ्यन्तरसंयोगात् पुण्या श्रतः कर्मानुष्ठाने ता एव ब्राह्याः । अन्यथाहर्विहिते कर्मस्यविधानमनर्थकं स्यात् । नक्तादिव्रतयोगे - त्विति निशासाध्यकर्मोपलक्षणम् अत्र रात्रियोगो विशिच्यते रात्रौ तिथ्यन्तरसंयोगो विशिष्यत इत्यर्थः । वस्तुतस्तु पञ्चमौसप्तमौ चैव इत्यादिना विशेषतः सायाज्ञव्यापिनी तिथेग्रहणादुपवासेऽपि न रात्रियुग्मादरः अन्यथा तदभिधान मन 11 For Private And Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । र्थकं स्यात्। एतच्च जयन्ती शिवरात्रादिविशेषतरपरम्। यद्यपि “नानं दानं जपःश्राद्धमनन्तं राहुदर्शने। आसुरी रात्रिरन्यत्र तस्मात्तां परिवर्जयेत्” ॥ इति पर्यु दस्तेतर. कालोऽपि कर्मयोग्यस्तथापि, “पूर्वाह्नो वै देवानां मध्य दिनं मनुष्याणामपराह्नः पितृणाम्"। इति श्रुत्युक्त काललामे स एव नियामकः प्रशस्तत्वात्। अतएव “ययास्त सविता याति पितरस्तामुपासते। तिथिन्तेभ्योऽपराहो हि स्वयं दत्तः स्वयम्भुवा" ॥ इति यद्यपरिशिष्टौयेन अस्तगामिन्यास्तिथेः प्रायेणापराह्नसम्बन्धेनापराह्नो हेतुतया निर्दिष्टो नतु पर्युदस्ते तरकालः प्रशस्तकालालामे तु सामान्य कालमादाय युग्मादिना व्यवस्था क्वचित् विशेषवचनादेव रात्रियुग्मादरः यथा । "मध्याङ्गव्यापिनी ग्राह्या एकमक्ते सदा तिथिः । नतादिव्रतयोगे तु रात्रियोगी विशिष्यते” ॥ अत्र युग्मतर कृष्णपक्षप्रतिपदुभयपक्षदशमी त्रयोदशी कृष्ण चतुर्दशो हैधे तु प्रागुक्तशुक्लपक्षे तिथिाह्येत्यादिना वक्ष्यमाण प्रतिपत् सहितौया स्थादित्यादिवचनाद्दावस्था। तिथेः पूज्यकालापेक्षा विधेयकमण्येव निषिद्धे कर्मणि तु तत्तत्तिथिमानापेक्षा। न तत्र पूज्यकालमात्रापेक्षा। तदाह कालमाधवौये वृद्धगायः । “निमित्तं कालमादाय वृत्तिविधिनिषेधयोः। विधिः पूज्यतिथौ तत्र निषेधः कालमात्रके ॥ तिथीनां पूज्यता नाम कर्मानुष्ठानतो मता। निषेधस्तु निवृत्त्यात्मा कालमात्रमपेक्षते ॥" एतद्दचनदयं कलञ्जाधिकरण न्यायमल मिति विकृतमेकादशौतत्वे । कर्मानुष्ठानतः कर्मानुष्ठाने वृत्तिः पालनम्। गायवचनोतनिमित्तमित्यत्र विधिनिषेधयोरनुष्ठानाननुष्ठानरूपपालने कालस्य निमित्तत्वेन अभिधानात्। अतःकालं प्रवक्ष्यामि निमित्तं कर्मणामिह"। इति भविष्यपुगणाच। For Private And Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । आवश्यक पर्वादिक्रियमाणस्य नित्यनैमित्तिकत्वम् । व्यक्तमाह मार्कण्डेय पुराणम्। "नित्य नैमित्तिकं ज्ञेयं पर्ववाहादि पण्डितैः” इति एवञ्च पशौचान्तात् द्वितौयेऽहोत्यादिकस्य कालविशेषस्य निमित्तत्वेनोल्लेखः सङ्गच्छते । " मासपक्षतिथीनाञ्च निमित्तानाञ्च सर्वशः। उल्लेखनमकुर्वाणो न तस्य फलभाग्भवेत् । इति ब्रह्माण्ड भविष्यपुराणोक्तेः । निमित्तानामुत्पत्तिविधिसमभिव्याहृत नियतानां न तु प्राशस्त्वनोक्तानाम् अत्र चकारद्दयश्रुतेर्मासादीनां पृथक्निमितानाञ्चोल्लेखः । न तु मासपक्षतियौनां निमित्तौभूतानामेव । अत्र च वैदिकक्रियानिमित्तस्य कालविशेषस्य शुचितत्काल जोवित्वेनाधिकारिविशेषणौभूतस्यान्ते या सप्तमौ सा नाधिकरणे यो जटाभिः स भुङ्क्त इतिवत् कालस्य विशेषणत्वेन तृतौयाप्राप्तः किन्तु कालभावयोः सप्तमौत्यनेन तद्दाधिका पुनः सप्तमौ विधीयते शरदि पुष्पान्ति सप्तच्छदा इतिवत् । अतः कत्तृविशेषणौभूतस्यापि कालस्य वैदिकक्रियाया निमित्ततयोल्लेखः क्रियैव काल इति मतेतु सुतरां नाधिकरणता सूय्यादिक्रियाया कर्त्तव्यस्य कर्मणो अधिकरणतानुपपत्तेरिति पूर्वाहादेस्तु प्रशस्तत्वेन निमित्ततया नोल्लेख इति । युग्मादरस्तु दैवकृत्य एव न पिटकत्ये 1 तथा च व्यासनिगमौ "हितौयादिकयुग्मानां पूज्यता नियमादिषु । एकोद्दिष्टादिवादी कासयादिदेषणा" ॥ इति एकोद्दिष्टादिवादी एकोद्दिष्टादिश्रादनिमित्तभूत तिथिविशेषस्य वृद्यादौ प्रादावित्यत्रादिशब्दात् क्षयस्तम्भितत्वे ग्राह्ये तथा सति श्राद्धकालस्य सन्देहे ह्रासादिदेषणा ह्रासवृद्धादिविधायको नियामक इति यावत् । अत्र वृद्धिहासौ चन्द्रस्य ताभ्यां शुक्लकृष्णपचौ For Private And Personal Use Only - Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । लक्ष्येते। “शुक्ल पक्षे तिथि ह्या यस्यामभ्यदितो रविः। कृष्ण पक्षे तिथिया यस्यामस्तमितो रविः” । ..इति विष्णुधर्मोत्तरैकवाक्यत्वात्। तेन तिथिवैधे आपरालिकेतरपितकत्ये शुक्लकृष्णपक्षयो रवेरुदयास्ताभ्यां व्यवस्था। आपराहिके तु सपिण्डौ करणादौ हामहयादीत्यादिशब्दात् प्रागुल ययास्तमित्यादिना व्यवस्था। एतहिषय एव कालमाधवौयतं सुमन्तु वचनम्। “हाहन्तु व्यापिनी चेत् स्यायताहस्य तु या तिथिः। पूर्वस्यां निवपेत् पिण्डमित्याङ्गिरसभाषितम् ॥ तिथिविवेकेऽपि। पिटकत्ये च पूर्वाह्न मध्याह्नविहिते संशये विष्णुधर्मोत्तरवचनात् शुक्लपक्षकृष्णपक्षभेदेन व्यवस्था। एवञ्च प्रागुक्त विष्णुधर्मोत्तरवचने उपवासच कर्त्तव्यः कथमित्यत्रोपवासपदमपराह्नविहिततरपिढकत्यदेवकृत्योपलक्षकम् एतच्च प्रत्युत्तरवचने उपवासमित्यनभिधाय कर्ममावनिर्देशात् कमाणौति बहुवचननिर्देशाचावगम्यते। अपराह्नविहितन्तु ययास्त सविता यातीत्यस्य विषयो हेतुवबिगदखरसादित्य तम्। एतच्च उभयदिनापरा लाभे नेयम्। यत्र चोभयदिनेऽपि न तल्लाभस्तत्र दर्शतरतिथिषु । “अपराहे तु संप्राप्ते अभिजिद्रोहिणोदये। यदव दीयते जन्तोस्तदक्षयमुदाहृतम्" ॥ इति मत्स्यपुराणवचनादपरदिने गौणापराह्ने श्राद्धम्। अभिजिदएमघटिका रोहिणं नवमघटिका मुख्यापराह्नस्तु पञ्चधाविभक्तदिनचतुर्थांशो यथा “प्रातःकालो मूहत्ता स्त्री न सङ्गवस्तावदेव तु। मध्याइस्विमूहूर्तः स्यादपराह्नस्ततः परम् । सायाङ्गस्त्रिमुहतः स्यात् श्राद्ध तन न कारयेत् । राक्षसो नाम सा वेला गहिता सर्वकर्मसु” । मनु सपिण्डीकरणस्यापराहिकत्वे किं मानमितिचेदप For Private And Personal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । राहे तु पैटकमित्युमर्गवचनमेव मानम्। किञ्च । यद्यप्यदतकः पूषा पैष्टमत्ति सदा चरुम्। अग्नौन्द्रखरसामान्या. सालोऽत्र विधीयते । ति छन्दोगपरिशिष्टे यथा बहनामनुरोधात्तण्ड लचर्ने कानुरोधात् पैष्टचसः 'विरुद्धधर्मसमवाये भूयसां स्यात् सधर्मकत्वम्' इति जैमिनिसूत्राञ्च तहदनापि बहुदेवताकपार्वणानुरोधादेकोद्दिष्ट कालवाध इति। एवं संवसरमधिकृत्य । “सपिण्डौकरणं तस्मिन् काले राजेन्द्र तच्छणु। एकोद्दिष्टविधानेन कार्य तदपि पार्थिव । इति विष्णुपुराणीयमेकोद्दिष्टांश तदितिकर्तव्यतापरं नतु तत्काल परं तथाच परिशिष्ट प्रकाशकृतम्। “श्राद्धयमुपक्रम्य कुर्वीत सहपिण्डनम्। तयोः पार्वणवत् पूर्वमेकोद्दिष्टमथापरम्" ॥ इति शङ्खवचनान्तरं यत्र च प्रथमषण्मासाभ्यन्तरे मलमासपातेऽपि षष्ठमासिकपूर्वतिथिरेव प्रथमषाण्मासिकस्य काल: एकाहन्यू नषण्मासे तस्य विधानात् । हितोयस्य तु त्रयोदशमासिकपूर्वतिथिः एकाहन्यूनसंवत्सरे विधानात् यथा छन्दोगपरिशिष्टम्। “एकाहेन तु षण्मासा यदा स्थरपि वा त्रिभिः । न्यूना: संवत्सरचैव स्यातां पाण्मासिके तदा" ॥ संवत्सरच बयोदशभिरपि मासैभवति। तथाच श्रुतिः। हादशमासाः संवत्सरः कचित्रयोदशमासा: संवत्सरः इति। अत्र कालमाधवीयकृतेन। “पाण्मासिकाब्दिके श्राद्धे स्यातां पूर्वेधुरव ते। मासिकानि खकौये तु दिवसे हादशेऽपि च” ॥ इति पैठौनसिवच नै कवाक्यत्वात्। एकान्य नपदेन मृततिथिपूर्वतिथेग्रहणम्। एतच पूर्वमृततिथिं विहाय अपरमृतिथिमादाय मासवर्षगण नया सिद्धम्। एतेन पूर्वमृततिथिमादाय मासवर्षगणनया मृततिथेः पूर्वतिथिं विहाय तत् पूर्वदिने मैथिलानां यत् पाण्मासिकद्दयकरणं तद्धेयमेव । अत्र For Private And Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । स्यातां पाण्मासिके तदा इत्यत्र । “हादशप्रतिमास्यानि प्राद्य पाण्मासिके तथा । सपिण्डोकरगाञ्चैव इत्येतत् श्राद्वषोड़शम्"। इति छन्दोगपरिशिष्टौयगणनायामपि पाण्मासिके इत्युपादानात् प्रथमहितौयषाण्मासिकत्वेनैवोल्लेखः नतु न्यू नषाण्मा. मिकत्वेन न्यून सांवत्सरिकलेनैति। एवञ्च हितौयषाण्मासिकस्य पैठोनसिना यदाब्दिकत्वमुक्त तच्च । “प्राब्दिके कृच्छ्रपादः स्यादेकाहः पुनराब्दिके”। इति शङ्खोक्त प्रायश्चित्तविशेषज्ञापनार्थ तत्परदिनकर्तव्यप्रेतबाइस्य पुनराब्दिकत्वार्थञ्च अतएव “पूर्वेधुराब्दिकं श्राद्द परेयुः पुनराब्दिकम्”। इति शङ्खवचनान्तरम् एतेन हितोयाब्दीय प्राप्तपिटत्वसम्प्रदानकथाद्वान्नभोजनेऽपि शूलपाण्यतप्रायश्चित्त हेयमिति। नन्वेवं परत्र सप्तमे मामि क्रियमाणस्य कथं पाण्मा. मिकत्वमितिचेत् भातम्। उत्तरषण्मासे मलमासपातेऽपि तथात्वस्यावश्यकत्वात् । अथ यत्राप कष्ट सपिण्डनं कृतं तत्र पश्चात् वृधपस्थितौ का गतिरितिचेत् यथा अपकृष्ट सपिण्डनजन्यापूर्व पूर्णसंवत्सर काल प्राप्य पितृत्वप्रापकम् । “कते सपिण्डीकरण नरः संवत्सरात्परम् । प्रेतदेहं परित्यज्य भोगदेहं प्रपद्यते” ॥ इति विष्णुधर्मोत्तरीयात्तथा वृद्यारम्भकाले ऽपि कल्पाते। “अर्वाक संवत्सरावद्धो पूर्णसंवत्सरेऽपि वा। ये सपिण्डो कता: प्रेता न तेषान्तु पृथक् क्रिया” ॥ इति शातातपौय पूर्ण संवत्सरबारम्भ काल योस्तु ल्यत्वाभिधानात् यत्र तु “यदहा वृद्धिरापद्येत" इति गोभिल मूत्रेण अपकर्षों विधीयते तत्र “प्रागावर्तनादतःकाल विद्यात्” इति गोभि न सूत्रान्तरेण चडादिरूप दे मियान्तर्विधानात् मपिण्डोकरणस्य अपराहे विधानात्तयोरवाधायासन्न पूर्वदिने अप . कर्षः । एवञ्च शुद्धित ललिखित स्यमन्त कोपाख्यानबद्दविं For Private And Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । ११ निश्चित्य कृतं सपिण्डनं तदानीं विघ्नन वृद्धाभावेऽपि वृद्या. रम्भकालान्तरं पूर्णसंवत्सरं वा प्राप्य तदेव पिटत्वप्रापकमिति न सपिण्डनान्तरम्। अत्र “श्वः कर्त्तास्मीति निश्चित्य दाता विप्राविमन्वयेत्”। इतिवनिश्चित्येति उत्कटकोटिकसम्भाव. मोपलक्षणं भविष्य निमित्तस्य कर्मणः प्रत्य हाहत्वात्। एवञ्च वृद्धिथाई यदर्थं कृतं तत्कम चेत् विघ्नात् तहिने न क्रियते सदा दिनान्तरे तत् कम्मणि क्रियमाणे तदङ्गले न पुनधिश्राई कर्तव्यमेव । “प्रधानस्याक्रिया यत्र साङ्गं तत् क्रियते पुनः । तदङ्गस्याक्रियायान्तु नावृत्तिनं च तत् क्रिया” ॥ इति छन्दोगपरिशिष्टेन साङ्गकरणाभिधानात् हेमाद्रिकृतम्। “पूर्ण संवत्सरे श्राद्ध षोड़शं परिकीर्तितम्। तेनैव च सपिण्डत्व तेनैवाब्दिकमिष्यते” ॥ अत्र पूर्णसंवत्सरक्रियमाणशावाद यथोभयनिर्वाहस्तथापकष्ट श्राहादप्युभयनिर्वाहान्न पूर्णसंवत्सरे पाब्दिकान्तरम् । एवञ्च पञ्चदशश्राद्ध कृतेऽप्युन्नेयम् । गोभिलेन पूर्णसंवत्सरे सपिण्डीकर गामभिधाय “अत ऊई संवत्सरे संवत्सरे प्रेतायान्न दद्याद् यस्मिन्नहनि प्रेतः स्यात्" इति सूत्रेणाद्याब्दादूच सांवत्सरिकविधानाच्च । यानितु "मुख्यं श्राद्ध मासि मासि अपर्याप्तावतं प्रति । हादशाहेन वा कुर्य्यादेकाहे हादशाथवा” ॥ इति मरौचिवचनेन एकाहकर्तव्यतया हादशमासिकश्राद्वान्युक्तानि तानि शूद्रेणापि आद्यमासिकदिन एव कार्याणि नत्वाद्यमासिक कत्वा तत् परदिन एकादभमासिकानोति ज्ञेयम्। एवञ्च तेषामपकर्षे तन्मध्य तदन्तकाल कर्तव्यतया पाण्मासिक हय. सपिण्डीकरणापकर्षः सियतौति सुधौभिर्भाव्यम्। __ सपिण्डीकरणेति कर्त्तव्यतायां ब्रह्मपुराणम्। “चतुर्यवाध्य पात्रम्य एकं वामेन पाणिना। एहौत्वा दक्षिणे नैव For Private And Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२ तिथितत्त्वम् । पाणिना च तिलोदकम् ॥ मम्मायित्वा पृथिवीं ये समाना इति स्मरन्। प्रेतविप्रस्य हस्ते तु चतुर्भागं जलं क्षिपेत् ॥ ततः पितामहादिभ्यस्तन्मन्वैश्च पृथक् पृथक् । ये समाना इति हाभ्यां तन्जलन्तु समर्पयेत् । अध्यन्तेनैव विधिना प्रेतपानाच पूर्ववत् । तेभ्यश्चार्य निवेद्यैव पश्चाच्च स्वयमाचरेत् ॥ एक प्रेतपान वामनानन्तरं दक्षिणेन च गृहीत्वेति सम्बन्धः । ये समाना इति मन्त्रदयं पठन् प्रेतपानस्थमुत्सृष्टजलं कुशरेखात्रयेण चतुर्दा विभज्य भागमेकं प्रेतब्राह्मण हस्ते क्षिपेत् दद्यात् उत्सृष्टजलपिण्डयोः संविभागे मन्त्रस्य करणत्वं व्यक्तमाह शातातपः। “निरूप्य चतुरः पिण्डान् पिण्डदः प्रतिनामतः। ये समाना इति हाभ्यामाद्यन्तु विभजेत् विधा। एष एव विधिः पूर्वमयं पात्रचतुष्टये" ॥ इति ततस्तदनन्तरं तमन्नैः पितामहादिभेदेन विराहत्तर्यादिव्या इति मन्त्रैश्चका. रात् पितामहाद्युत्सृष्टवाक्यैश्च तदुत्सृज्य ये समाना इति द्याभ्यां मन्त्राभ्यामध्ये तब्बलं प्रेतपात्रस्थजलन्तेनैव विधिना प्रत्ये केन पूर्ववञ्चतुर्भागरूपं प्रेतपानात् समर्पयेत् पितामहादिपात्रेषु मिश्रयेत्। तेभ्यः पितामहादिभ्यस्त्रिभ्यस्तमिश्रितपुष्यतिलोदकरूपमध्ये निवेद्य तत्तत् ब्राह्मणहस्ते प्रक्षिप्य पश्चादाचामेदित्यर्थः। तेन प्रेतब्राह्मणहस्त उत्सृष्टदत्तस्यैवाय जलस्य तदवशिष्टजलस्य भागवयं पितामहाद्युमष्टाय जलेषु मिश्रीकत्तव्यमिति प्रतीयते। अतएव दत्तस्यैव प्रेतपिण्डस्य मिश्रीभाव इति श्राइविवेकः । एवञ्च “चत्वारि पात्राणि सतिल. गन्धोदकानि नौणि पितृणामेकं प्रतस्य प्रेतपात्र पिटपावे. वासिञ्चति" ये समाना इत्यादि गोभिलसूत्रे पाठक्रमदर्शनात् सर्वत्र छन्दोगानां सपिण्डीकरणे प्रतकर्मकरणं पिढकर्मपू. वैकं किन्वय दानमात्रे पाठक्रमाच्छाब्दक्रमस्य बलवत्वात् For Private And Personal Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । ब्रह्मपुराणे प्रेताय दानानन्तरं ततः पितामहादिभ्य इति शाब्दक्रमस्यावाधेनाध्य पात्रेषु गन्धपुष्पदानपर्यन्तं पिटपूर्वकता उत्सगे तु प्रेतपूर्वकता। यथाचमने “अक्षिणी नासिके कौ" इति गोभिलसूत्रस्थपाठक्रममुना “अङ्गुष्ठेन प्रदेशिन्या घ्राणं पश्चादनन्तरम्। अङ्गष्ठानामिकाभ्याञ्च चक्षुः थोवे पुनः पुनः” " इति दक्षोक्त शाब्दक्रमो ग्यत इति अतएव छन्दोगपरिशिष्टेन सूत्रक्रमान्यथात्व स्पष्टीकृतं यथा “त्रिः प्राश्यापो दिसन्मुज्य मुखमतान्युपस्पृशेत्। आस्यनासाक्षिकर्णांश्च नाभिवक्ष: शिरोऽशकात्” ॥ एतेनानुसष्टजलेन अनुत्सृष्टजल समन्वयोत्तरोत्सर्ग: पिटदयितायामुक्तो निरस्तः । ब्रह्मपुराणे ये समाना इति स्मरणानन्तरं जलप्रक्षेपमात्राभिधानेन पूर्वमुत्सर्गप्रतीते: एवं संस्रवजलसमन्वयस्तु मैथिलोक्तोऽपि न युक्तः प्रागुक्त वचनेषु समन्वयोत्तराय॑निवेदनोलः स्वयमाचमेदित्येव पाठः कल्पतरौ तथा दर्शनात् प्राचमनं कुर्य्यादिति वाचस्पतिमिश्रव्याख्यानाञ्च । आचमेदिति इखश्छान्दमः आचरेदिति तु लेखकप्रमादपाठः अत्र च शेषमनमनुजाप्य सर्वमन्नमेकत्रोइत्य उच्छिष्टसमौपे दर्भेषु मधुमध्विति अक्षनमो मदन्तेति जपित्वा वी स्त्रीन् पिण्डान् दद्यात्" इति गोभिलसूत्रेण "सर्वस्मात् प्रकतादन्नात् पिण्डान् मधतिलान्वितान् द्रव्यशेषेणा" इत्यनेन च श्राद्रव्यशेषद्रव्येणैव पार्वणे पिण्डविधानात् तहिकतावपि सपिण्डीकरणे तन्नियमात् यद्यपि शेषाभावे पिण्ड निवृत्तिरायाति तथापि यथोक्तवस्त्वसम्पत्ती ग्राह्यं तदनुकारि यत्। “यवानामिव गोधमा बोहोणामिव शालयः” । इति छन्दोगपरिशिष्टात् “मुख्याला प्रतिनिधिः शास्त्रार्थः" इति न्यायाञ्च मध्वाद्यभावे गुड़ादिग्रहणवत् । द्रव्यान्तरेणापि पिण्डदानं शेषद्रव्यनियमस्तु तत्सम्भवे द्रव्यान्तरत्यागाय अन्यथा तदङ्गाभावे कम्मवैगुण्यं स्यात् “सहपिण्डक्रियायाम्" इति मनतः पिण्ड स्य प्रेतपिण्डेन सहमित्रोकरणं योति सपिण्डीकरणसमाख्यासिद्धार्थ सुतरां तत्र तथाचरणं प्रतिपत्तिरूपकमाङ्ग एव प्रतिपाद्याभावे तत्रिवृत्तिः “पशुयागे लोहितं निरस्यति शबिरस्यति" इत्यादावता। अतएव For Private And Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । "यज्ञवास्तुरूपप्रतिपत्तियागेऽपि यज्ञो यस्मिन् वसतीति" यज्ञवास्तु समाख्यानुरोधेनास्तुतकुशविरहेऽपि कुशान्तरप्रतिनिधिर्भट्टनारायण !भिलभाष्ये उत्तः । “प्राकस्विष्टिक्कत आवाप इति गोभिलसूत्रस्य व्याख्यानेऽपि पाउप्यत इत्यावापः प्रधानहोमः स तु स्विष्टिकहोमात् प्राक् न पश्चादित्यर्थः” एवञ्च "मुख्यहोम व कृते यदि चम्नष्टो दुष्टो वा भवति तदान्यः पाच्यः मुख्य कृते चेन्नष्टदुष्टो तदाज्येनैव विष्टि जडोम” इति सरला भाष्ये एतेन शेषना पिण्डनिवृत्तिगिति वाचस्पतिमित्रोक्तं हेयम् । अत्र भविष्यपुगणं गन्धोदकातिलयुक्तं कुर्यात् पावचतुष्टयम्। अध्यार्थ पिपात्रेय प्रेतपात्र प्रमेचयेत् ॥ ये समाना इति हाम्यामेतत् ज्ञेयं सपिण्ड नम्। नित्येन तुल्यं शेष स्यादेकोद्दिष्ट स्त्रिया पपि” ॥ नित्ये नेति नित्यपदमवावश्यकपरम। तेन सपिण्डौ करणस्योभयात्मकत्वात्। शेषमङ्गजातं पावणांश पार्वणतुल्यमे कोद्दिष्टांश एकोहिष्टन तुल्यं बोध्यम् एकोद्दिष्ट. मिति एकोद्दिष्टं तदीग्राहिल्लात् सपिण्डौकर गाञ्चेत्य भयपरम्। "एतत् सपिण्डीकरणमको हिष्ट स्त्रिया अपि” इति याजवल्कावचनैकवाक्यत्वात् तेन श्राद्धेषु मध्ये एतत् श्राद्धद्दयमेव स्त्रिया कर्तव्यं नत्वाभ्यदय कथाद्वादि अत्र च स्त्रिया इति कतरिक्तन्य इति कर्तरि षष्ठीति कर्तवनियमः। वृद्धिश्राद्धादौ स्त्रीणां भोजनदर्शनान्न भोक्तत्व निययः। अत्र घ मातुःपत्या सह सपिण्डने श्वशुगर्यश्वशुरयोः पिण्डौ कुशेराच्छाद्यौ । तथा च गाय: । “पतिनैकेन कर्तव्यं सपिण्डोकरथं स्त्रियाः। मा गता हि मृतैकत्वं कुशैरन्तयन् पितुन् । श्वशरस्थाग्रतो यस्माच्छिर: प्रच्छादन क्रिया। पुवैदर्भेगा सा काया मातुरभ्युदयार्थिभिः ॥ अन्तरयन्तीत्यर्थेऽन्तरयन्निति लिङ्ग व्यत्ययेन पुंस्त्वमिति हलायुधः। परवचनं गोभिलथादसूत्रभाष्य कतापि लिखितम् अतएव प्रव्रजिते पतिते वा पितरि मृतेऽपि न पितामहादिभिः सह मातुः सपिण्डीकरणं किन्तु पितामह्यादिभिरेव “स्वेन भर्ती सहैवास्या: सपिण्डोकरणं स्त्रियाः। एकत्वं सा गता यस्माचरुमन्चाहुतिव्रतैः । तस्मिन् सति सुताः कुर्य्यः पितामह्या सहैव तु” इति अत्र For Private And Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । तस्मिन् सतीति श्राद्धानह भ रुपलक्षणम्। अतएव "तस्याचैव तु जीवन्त्यां तस्याः श्ववति निश्चयः इति लघुहारौतेन श्व शूजौवने तस्या: खत्युक्तं न तु खशुरेणेति क्वचिदप्युतम् एवं पितामयादिभिर्मातुः सपिण्डौकरणे सामगेन "ये चात्र त्वामनु यांश्च त्वमनु तस्मते स्वधा' इति मन्त्रो न पाठ्यः मन्त्रलिङ्गविरोधादतत्रवाभ्यदयिके मारपक्षे श्रीदत्तादिभिर्मन्त्रान्तरं लिखितं न ये चात्र त्वति वस्तुतस्तु आभ्य दयिके छन्दोगानां मारपक्ष एव नास्तीत्य क्तम् । एवञ्च “अध्यार्थं पिटपात्रेषु प्रेतपान प्रमेचयेत्। एतत् सपिण्डीकरणमेकोद्दिष्ट स्त्रिया अपि" इति याज्ञवल्कोन पावणे कोहिष्टविक्कतोभूतपुंसपिगडनातिदेशात्तहिकतीभूत श्वश्रादिभिः सह स्त्री सपिगड नेऽपि ये समाना इति मन्त्रदयस्य पार्वणोक्त ये चात्र वामिति मन्त्राणां लिङ्गार्थासमवेतत्वऽपि प्रत्यर्थसमवेतार्थत्वात् पाठः। एवञ्च “मातामहानामप्येवं श्राद्धं कुर्य्यादिचक्षणः । मन्त्रोहेण यथा न्यायं शेषाणां मन्त्र वर्जितम्” ॥ इत्यनेन शेषाणां यन्मन्चवर्जनमुक्तां तत् “शुद्धन्तां पितरः शुद्धन्तां पितामहाः”। इत्यादि प्रकृत्यूहयोग्यमन्त्र वर्जनपरं न तु निरोहयोग्यमन्त्रवर्जनपरम् । सर्वाभावे स्त्रियः कुर्युरित्यादिमार्कण्डेयपुराणीयञ्चैतदानुगुण्येन व्याख्यातं शुद्वितत्त्वे श्राद्धतत्त्व च। , पथ विनवतितमृताहाविदितथाद्धकालः । लघुहारीतः । “श्राइविघ्न समुत्पन्ने मृताहाविदित तथा । एकादश्यां प्रकुवीत कृष्ण पक्षे विशेषतः” ॥ अत्र मृताहाज्ञाने यत् श्राई तहिन करणयोग्य मासिकं सांवत्सरिकञ्च तदेव श्राइविघ्नमित्यत्राप्यन्वेति उपस्थितत्वात् न तु अमावास्यादिविहितम् एवञ्चेत् कथं मृताहेतरक्रियमाणानाम् आद्यपाण्मासिकदयथाहानां ग्रहणमिति चेत्तदादितदन्तन्यायात्। “यथाक्रमेण पुढेगा कार्या प्रेतक्रिया सदा। पतितापतितावापि एकोद्दिष्टविधानतः" ॥ इति जावालवचनात् । “व्युत्क्रमात् प्रेतश्राद्दानि यो नरो धर्ममोहितः। ददाति नरकं याति पिटभिः सह शाश्वतम्" ॥ इति देवलवचनाच्च । अन्यथा तेषामकरणे For Private And Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । तदन्तर्भूतश्राद्धानामकरणप्रसङ्गात्। एवञ्च पतितप्रेतबाई यदि कृष्णकादश्यां न कृतं तदा परशाहकाले कर्तव्य न तु पतितश्राद्धगौणैकादशौकालानुरोधेन परथाइमुख्यकालवाधः। एतन्यायमूलं हेमाद्रित देवल वचनम् । “एको. द्दिष्टे तु सम्प्राप्ते यदि विघ्नः प्रजायते। मासेऽन्यस्मिंस्तिथी तस्मिंस्तदा दद्यात् प्रयत्नतः” ॥ मत्र मृताहश्राद्धस्य विघ्नऽपि देयत्वावधारणात् ऋष्यशृङ्गवचने देयमिति विशेषणं सार्थकं तद्यथा-"देये पितृणां श्राद्धे तु अशौचं जायते यदि। तदशोचे व्यतीते तु तेषां श्राद्ध विधीयते॥ शुचौभूतेन दातव्यं या तिथि: प्रतिपद्यते। सा तिथिस्तस्य कर्त्तव्या न त्वन्या वै कदाचन ॥ देये विघ्नेऽप्यवश्यं देये अत्र कृष्ण कादशी प्रतीक्षणोया नवेत्यनाशुचीभूतनेत्यादि दातव्यमित्यत्र शयनीयवत् थाई दातुमहत्यस्मिन् काल इति कृत्य युटोऽन्यत्रापि चेत्यनेनार्हतावित्यधिकृत्य कि च कृत्या इत्यनेन चाहणाधिकरणे कृत्य प्रत्ययः। अन्यथा पृववचनपराईन पोनरुत्यापत्तेः । ततश्च दातव्यं बाइपूज्य काल मध्याह्नादिकं प्राप्य या तिथिः शुचौभूतेन प्राप्यते सा तिथिस्तस्य श्राइस्य कर्तव्या करणाऱ्या न त्वन्या कृष्ण कादशी अशौचविघ्न प्रतीक्षणीया। ततः शुचौभूताध्यवहितदिवसीयश्राइप्रशस्तकाल प्राप्ततिथिखण्डनियमादप्रशस्तकालेऽपि त. त्तिथिखण्ड एव श्राद्धं न शुक्लपक्षीय तहितीयखण्डे अनुपस्थितेः। एवञ्चाशौचान्ते सङ्गवाभ्यन्तरसमाप्य तिथो न श्राई किन्तु मध्याहादिप्राप्ततिथी श्राई प्रशस्त काल त्वात्। यथा खण्डतिथौ प्रशस्तकाललाभे तत्काल एव कर्म न तु युग्मादिना सामान्य काल लाभ इति। मध्यापि कुतपस्य पूर्वोतरभागयोरेकोद्दिष्टारम्भकान्तत्वेन तत्प्राप्तिरादरपोया यथा कालमाधवौयतो व्यासः। “कुतपप्रथमे भागे एकोद्दिष्टसुपक्रमेत् । पावर्तनसमीपे वा तत्रैव नियतात्मवान् ॥ श्रावतनं पश्चिमदिगवस्थित छायायाः पूर्वदिग्गमनारम्भकालः तत्समीपे कुतपशेषदण्ड । गौतमोऽपि “प्रारभ्य कुतये श्राई कुादारोहिणं बुधः। विधिजो विधिमास्थाय रोहिणन्तु For Private And Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । न लायेत् ॥ एतहचनं भुजबलभौमे भोजदेवेन तम्। वौधायन: “यो यस्य विहितः कालः कर्मणस्तदुपक्रमे। तिथि भिमता सा तु कार्या नोपक्रमोज्मिता" ॥ अतएव मदनपारिजाते लोकाक्षि: "गणितात् जायते कालो यत्र तिष्ठन्ति देवताः। वरमेकाहुतिः काले नाकाले लक्षकोटयः” ॥ अथैवं षोड़शश्राद्धानां यथाक्रमस्यावश्यकवे भ्रान्त्या एकस्याप्य करणे तदादिश्राद्धानां पुन: करणप्रसङ्गः “प्रवृत्तमन्यथा कुयाट् यदि मोहात् कथञ्चन। यतस्तदन्यथा भूतं तत एव समापयेत्” इति छन्दोगपरिशिष्टादिति चेत्र क्रमरूपाङ्गानुरोधेन हि प्रधानोभूतवाद्धान्तराणामावृत्तेरयुक्तात्वात् किन्तु यत् पतितं तदेव कर्त्तव्यं तुल्य कक्षाणां षोड़शवाधानामेकतामिद्धौ षोड़शानामपूर्वाणामनुदये प्रधानापूसिद्धेदर्शापूर्ववत्। न चाङ्गासिद्धावपि समानमेतदिति वाच्य तेषां कथं स्यादित्याकाहायां पूर्वमुत्प ल्यमानतया प्रधानविषयोत्पत्तिवाक्यविषयत्वाभावात्। अतएव सर्वशत्यधिकरणेऽङ्गामिद्धावपि नित्ये कचित् प्रधानसिद्धिरिति सिद्धान्तः प्रधान कतरासिद्धौ तु प्रधानापूर्वसिद्धिः सर्वतन्त्र विरुद्द व अतएव छन्दोगपरिशिष्टम्। “समाप्ते यदि जानीयाम्मयैतद्यथा कृतम्। तावदेव पुनः कुयानावत्तिः सर्वकर्मण: ॥ प्रधानस्याक्रिया यत्र साङ्गतक्रियतं पुनः। तदङ्गस्याक्रियायान्तु नाहत्तिन च तक्रिया” इति नाहत्तिन साङ्गप्रधानावृत्तिः । न चेति न च सावन्मात्रस्याङ्गन्स्य करणं किन्तु तद्दगुण्यसमाधानार्थं विष्णु स्मरणमाह योगियाज्ञवल्करः। “अज्ञानाद् यदि वा मोहात् प्रच्यवेताध्वरेषु यत् । स्मरणादेव तहिष्णोः संपूर्ण स्यादिति श्रुति:" ॥ एवञ्च - प्रवृत्तमिति प्रागुक्तवचनं प्रयोगमध्य एव सुकरत्वेन बोध्यम्। न च सपिण्डनानन्तरं पतितमासिककरणे पुन: सपिण्डीकरणप्रसङ्गः। “सपिराहोकरणे वृत्ते पृथक्त्वं नोपपद्यते। पृथक्को तु कृते पश्चात् पुनः कार्या सपिण्डता" इति लघुहारोतवचनादिति वाच्यम् । तहचनस्य प्राप्तपिटलोकप्रेतस्य शास्त्रोल्लङ्घनपूर्वक मासिकादिकरणपरत्वात्। तथा च “प्रेतानामिह सर्वेषां ये सोच For Private And Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८ तिथितत्त्वम् । नियोजिताः। कृतार्थास्ते हि संवृत्ताः सपिण्डीकरणे कृते॥ प्रेतत्वाचेह निस्तीर्णाः प्राप्ताः पिटगणन्तु ते। यः सपिण्डौकृतं प्रेतं पृथक् पिण्ड नियोजयेत्। विधिनस्तेन भवति पिटहा चोपजायते”। इति शातातपवचने पिटत्वप्रास्यनन्तरं पृथक्करणं निषिदम्। अत्र तु षोडशश्राद्धासम्पत्त्या तदसिद्धौ पृथकरणेऽपि न दोषः छन्दोगपरिशिष्टवचनाञ्च तद्यथा “सपिण्डीकरणादूई न दद्यात् प्रतिमासिकम् । एको. द्दिष्टविधानेन दद्यादित्याह शौनकः ॥ न दद्यात् प्रतिमासिकमेकोद्दिष्ट विधानेनेति सम्बन्धात् दद्यादित्याह शौनक इत्यनेनै कोद्दिष्टस्यैवापकष्टसपिण्डीकरणादूई विकल्पोदर्शितः। स चाप्राप्तप्रेतभावविषय इति श्राद्धविवेकोतवत् भ्रमपतितमासिकविषयोऽपोति। प्रागुक्त लघुहारीतवचने विशेषत इत्यमावस्यापेक्षया तस्या अपि विघ्न विधानात् । यथा हेमाद्रिधतं षट्त्रिंशन्मतं "मासिके चाब्दिके त्वणि संप्राप्ते मृतस्तके। वदन्ति शुद्धौ तत्कायं दर्श चापि विचक्षणैः" ॥ राजमार्तण्ड “श्राइविघ्ने समुत्पन्ने अन्तरामृतसूतके। एकादश्यां प्रकुर्वीत कृष्णपक्षे विशेषतः ॥ श्राद्धविघ्ने समुत्य ने मृतस्याविदिते दिने। अमावास्यां प्रकुर्वोत वदन्त्ये के मनौषिण:"॥ पत्र मृतसूतकोपादानादृष्यशृङ्गवचनेऽशौचपदमेतत्परम् । यत्त्वन्तरामृतसूतकेऽपि एकदश्यां श्राद्धविधानं तन्न त्वन्या वै कदाचन इति ऋष्यशृङ्गवचनविरोधादशोचान्तदिने मलमासादिरूपविघ्नान्तरेण तदकरणे बोध्यम् । अतएव श्राद्धविवेके अपाटवाद्यशौचाभ्यामपि पतितमेकोद्दिष्टमेकादश्यामशौचान्ते च मलमासे न कर्तव्य किन्तु मलमासाव्याप्त कष्ण कादश्यामेवेत्युक्तम्। यत्तु “जातकमणि यत्थाई नव श्राद्धं तथैव च । प्रतिसंवत्सरं श्राद्धं मलमामेऽपि तत्स्मतम् । प्रतिसंवत्सरं बादमशौचात् पतितञ्च यत् ॥ मलमासेऽपि कर्त्तव्यमिति भांगुरिभाषितम्” ॥ इति ज्योतिर्वचनहयं तत्र पूर्ववचनशेषाई स्य "असंक्रान्तेऽपि कर्त्तव्यमाब्दिकं प्रथम हिजैः" इति लघुहारीतवचनैकवाक्यतया अन्त्याधिमासविषयकत्वात् “मलमास मृतानाञ्च श्राई यत्प्रतिवत्सरम् । मल For Private And Personal Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । मासेऽपि कर्तव्य नान्येषान्तु कदाचन" इति कालमाधवीयधृतपैठौनसिवचनैकवाक्यतया मलमासमतविषयकत्वाच्च न दोषः परवचनेनापि तदुभयथावस्याशौचपतितस्य मलमासाभ्यन्तरे कर्तव्यतोता न तु तद्भिवस्यानुपस्थितस्य राजमातण्डन एकादश्यां कर्त्तव्यतोतः। प्रचेताः “अविज्ञात मृते अमावास्यायां श्रवणदिवसे वा” इत्यनामावास्यायामपि मृताहाविदितथाविधानेनैकादश्यां प्रकुर्वीत कृष्ण पक्षे विशेषत इत्यमावस्यापेक्षयैवोपपत्तौ विशेषत इति श्रवणात् मैथिलोत शुक्ल कादश्यां तत्करणं न युक्तं एकादशीमात्रे प्रकुर्वीत कृष्ण पचे विशेषतः कुर्वीतेति वाक्यभेदापत्तेः। अस्मन्मते तु कृष्णपक्षे एकादश्याममावास्यापेक्षया विशेषतः कुर्वीतेत्येकं वाक्यं श्रवण दिवस इति मरणस्येति शेषः मृतशब्दोऽत्र मृताइपरोऽनिश्चित मृतस्योई देहिकाभावादिति श्राइविवेकः । मृताहनौत्येव सूत्र पाठो मैथिलपाश्चात्यदाक्षिणात्यानाम्। प्रनामावास्यायामिति गमनमाससम्बन्धिन्यां "प्रवासवासरे नेयं तन्मासेन्दुक्षयेऽथवा"। इति स्मरणादिति मिताक्षरा । एतच्च मृतदिनमासयोरझाने वक्ष्यमाणवृहस्पतिवचनात्। मृतमासे ज्ञाते मरणदिनाज्ञाने तु तदीयामावास्यायाम्। तथा च हेमाद्रिकालादर्शनिर्णयामृत नव्यवईमानतानि वचनानि । “वृहस्पतिः। न ज्ञायते मृताहश्चेत् प्रोषिते संस्थिते सति । मासश्चेत् प्रतिविज्ञातस्तद्दस्यान्मताहनि*॥ मृताहनौत्यत्र यत् कर्तव्यमिति शेषः प्रोषित इत्यज्ञान कारणोपलक्षणं मासाज्ञाने तिथिज्ञाने तु स एव “यदिमासो न विज्ञातो विज्ञातं दिनमेव हि। तदा मार्गशिरे मासि मावे वा तहिनं भवेत् ॥ कालादर्श निर्णयामृतयोर्मार्गशिर इत्यत्र आषाढ़क इति पाठः । भविष्यपुराणम् । “दिनमेव तु जानाति मासं नैव तु यो नरः । मार्गशौर्षे तथा भाद्रे माघे वा तद्दिनं भवेत् ॥ एषु मृताहावधारणताबिध्यान्मासविशेषो ग्राह्यः। मृतदिनमासयोरज्ञाने तु वृहस्पतिः “दिनमासौ न विज्ञातौ मरणस्य यदा पुनः । प्रस्थान दिनमासौ तु ग्राह्यो पूर्वोक्तया दिशा" पूर्वोक्तया दिशेति यथा मरण दिनमासनाने तद्ग्रहणं तयोरेकतरानाने For Private And Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । यथा व्यवस्थापितं तथानापौति तेन प्रस्थान दिनमासज्ञाने सद्ग्रहणं प्रस्थानमासमात्रज्ञाने तदौयामावास्या ग्राह्या। प्रस्थानतिथिमात्रज्ञाने तु मार्गशीर्षादौ तत्तत्तिथिोति । सन्देहेतु प्राह यमः। “गतस्य न भवेत् वार्ता यावत् हादशवार्षिको। प्रेतावधारण तस्य कर्त्तव्य सुतवान्धवैः । यन्मामि यदहर्यातस्तन्मासि तदहाकिया। दिनानाने कुइस्तस्य आषाढस्याथवा कुहः” । एवञ्च मरण प्रस्थानदिनमासाजाने श्रवणदिवसस्य विषयः। प्रभासखण्ड म्। “मृतस्याहो न जानाति मामं वापि कथञ्चन। तेन कायममावस्यां श्राद्ध माघेऽथ मागके" कथञ्चनेति मरणप्रस्थान दिनमाम श्रवणादि रूपेण के नाप्यज्ञाने। अतएव एषां मततिथ्यादीनां अजामेऽपि यस्यान्तिथौ मृतिः श्रूयते तस्यामेव तत्तिथेरपि विस्मरणे तन्मासैकादश्याममावास्यायां वा एकोद्दिष्ट तथा श्रवणमासस्यापि विस्मरण न कायमे कोद्दिष्ट प्रमाणाभावादिति वाचस्पतिमि थोक्तं हेयं श्रवगादिनविम्मरगो तमासोय कादश्यमावास्ययोग्रहणं यदुक्तं तदपि प्रमागशून्यम् । इत्थञ्च सर्वत्र लन्मासौयक्षो कादश्यभाव एव अमावास्या याच्या श्राद्धविन इति वचनात्। अन्यथा तद्दचनस्थ स्मृताहाविदित इत्यस्य विषयामुपपत्तेः। तस्याश्च प्राधाच तद्दचने विशेषत इत्यभि. धानात् । ननु अशौचे तु व्यतीते वै इति शवणादशौचान्त इति प्रयोग वक्तव्यमिति श्राद्धचिन्तामणिः । मैवं यथा मृतानि तु कर्तव्यमित्यादिना मृताहादेनिमित्तवेऽपि तत्तत्तिथिविशेषस्यैव उल्लेखः न तु मृताहत्वेनैव उल्लेखः यथा वा तत्र थाई विघ्नपतिते एकादश्यादिविधानात् एकादश्यादिरूपेणैव उल्लेखः । तथा तत्रापि शुचौभूतेन दातव्यमित्यादिना श्राद्धप्रशस्तकाल प्राप्ततिथिविशेषस्यैव उल्लेखः । न तु अशौचान्तस्यैव उल्लेखः । अथ जन्मतिथिकृत्यम्। तच्च मलमामे न कर्त्तव्यं चान्द्र. मासोयत्वेन सावकाशत्वात् । न च तस्य सौरमामीयत्वं तथात्वे तन्मासे तत्तियः कदाचिदप्राप्तौ तह ततात्यलोपापत्तेः नचेयापत्तिः प्रतिसंवत्सरं तदिधानात् यथा ब्रह्म पुराणं गर्ग For Private And Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । "सर्वेश्च जन्मदिवसे सातैमंगलपाणिभिः। गुरुदेवाग्निविप्राश्च पूजनीयाः प्रयत्नतः ॥ खनक्षत्रच पितरौ तथा देव: प्रापतिः प्रतिसंवत्सरश्चैव कर्त्तव्यश्च महोत्सवः” | सातैस्तिलस्वातैः प्रजापति ब्रह्मा । तथा च तत्तिथिमधिकृत्य “तिलोहर्ती तिलनायौ तिल होमो तिलप्रदः तिलभुक् तिलवापौ च षट्तिलौ नावसौदति” । मङ्गलपाणिभिः अभिप्रेतार्थसिद्धिर्मङ्गलं तहेतुतया गोरोचनादिकर्माप मङ्गलं तेन गुग्मुल्वादिपाणिभिरित्यर्थः । तथाच कल्यचिन्तामणौ “गुडदुग्धतिलानद्याजन्मग्रन्येश्च बन्धनम्। गुम्ग लुमिम्बसिद्धार्थ दूर्वागोरोचनायुतम् । संपूज्य भानुविघ्नेशौ महर्षि प्रार्थयेदिदम्। चिरजीवी यथा त्वं भो भविष्यामि तथा मुने!। रूपवान् वित्तवांश्चैव श्रियायुक्तश्च सर्वदा । माकण्डेय! महाभाग !सप्तकल्पान्तजीवन ! भायुरिष्टार्थ सिद्धार्थमस्माकं वरदो भव" ॥ वनक्षत्रमिति खনয়ন স্বৱিন্তান জন্মালীননন নাম तथा दर्शनात् वक्ष्यमाणब्रह्मपुराणोक्तप्रणवादिनमोऽन्तेन नाम्न व पूजाविधानाच्च तदजाने वनक्षत्राय नम इत्युल्लेखम् । पूजायामानन्तरं पाद्यमाह मत्स्यपुराणम् “अध्यपाद्यादिकन्तन मधुपर्क प्रयोजयेत्”। पाद्यानन्तरमय माह नरसिंहपुराणम्। “पाद्यं चैव तौयया चतुर्थ्याध्य प्रदापयेत् । टतोयया पुरुषसूक्तोयटतौयया ऋचा उभय क्रमदर्शनादिच्छाविकल्पः इति श्रीदत्तः श्रीपतिव्यवहारनिर्णये “नवाम्बरधरो भूत्वा पूजयेच चिरायुषम् । तथा “हिभुज जटिलं सौम्यं सुहव चिरजौविनम्। मार्कण्डेयं नरो भक्त्या पूजयेत् प्रयतस्तथा ॥ ततो दीर्घायुषं व्यासं रामं द्रौणिं कृपं बलिम्। प्रहादच हनमन्तं विभौषणमथाचयेत्” ॥ रामोऽत्र परशुराम: चिरजौविसाहचर्यात् द्रौणिरश्वत्थामा। तथा “खनक्षत्रं जन्मतिथिं प्राप्य सम्पजयेबरः । षष्ठौच्च दधिभतेन वर्षे वर्षे पुनः पुनः। योगियाज्ञवल्करः । “ध्यायेबारायणं नित्यं नानादिषु च कर्मसु तहिष्णोरितिमन्त्रेण सायादम पुनः पुनः। गायत्री वैष्णवोह्येषा विष्णोः संस्मरणाय वे ॥ ध्यायेत् स्मरेत् । स च मन्त्रः। “तहिष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति For Private And Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२ तिथितत्त्वम् । सूरयः दिवीव चक्षुराततम् । वामनपुराणम् । “सर्वमङ्गलमङ्गल्यं वरेण्य ं वरदं शुभम् । नारायणं नमस्कृत्य सर्वकर्माणि कारयेत्” ॥ संकल्पाकरणे निन्दामाय भविष्यपुराणम् । " संकल्पेन विना राजन् यत्किञ्चित् कुरुते नरः । फलञ्चाल्पाल्पकं तस्य धर्मस्वार्द्धचयो भवेत्" ॥ ब्रह्मपुराणं “प्रणवादिसमायुक्त नमस्कारान्तकौर्त्तितम् । “ख नाम सर्वसत्वानां मन्त्र इत्यभिधीयते । अनेनैव विधानेन गन्धपुष्प निवेदयेत् ॥ एकैकस्य प्रकुर्वीत यथोद्दिष्टं क्रमेण तु । गन्धपुष्पमात्र पञ्चोपचाराद्यसम्भवे । यथा “ मन्त्राच्छतगुणं प्रोक्तं भक्त्या लक्षगुणोत्तरम् । भक्तिमन्त्रसमेतन्तु कोटिकोटिगुणोत्तरम् ॥ सर्वत्र कर्मोपदेशकं दचिणादिभिरर्चयेत् । तथोपदेष्टारमपि पूजयेच्च ततो गुरुम् ॥ न पूज्यते गुरुर्यत्र नरैस्तत्राफला क्रिया” इति मत्सापुराणवचनात् । ततः कर्मानन्तरं तिलहोमस्तु पूजित देवतानामभिः काय्य: “एकैकां देवतां राम ! समुद्दिश्य यथाविधि । चतुर्थ्यन्तेन धर्मज्ञ ! नाम्ना च प्रणवादिना । होमद्रव्यमथेकैकं शतसख्यन्तु होमयेत्” इति विष्णुधर्मोत्तरदर्शनात् एवं होमे खाहान्तता च मन्त्रस्य । " स्वाहावसाने जुहूयात् ध्यायन् वै मन्त्रदेवताम् ॥ इति स्मृतेः अशक्तौ तु देवीपुराणम् । “होमो ग्रहादिपूजायां शलमष्टोत्तरं भवेत् । अष्टाविंशतिरष्टौ वा यथाशक्ति विधोयते” ॥ स्कान्दे । " खण्डनं नखकेशानां मैथुनाध्वानमेव च । आमिषं कलहं हिंसां वर्षast विवर्जयेत्" ॥ श्रध्वानम् अध्वगमनं कलह मित्यत्र सङ्गरमिति क्वचित् पाठः । सङ्गरं युद्धम् । वर्षौ जन्म दिने वृद्धमनुः । “मृते जन्मनि संक्रान्तौ श्राद्ध जन्मदिने तथा । अस्पृश्यस्पर्शने चैव न स्नायादुष्णवारिणा ॥ जन्मनि । पुत्रजन्मनि ज्योतिषे । "नात्वा जम्म दिने स्त्रियं परिहरन् प्राप्नोत्यभौष्टां श्रियम् । मत्स्यान्मोचयतो द्विजाय ददतोऽप्यायुश्विरं वईते ” । शक्तून् खादति यस्तु तस्य रिपवो नाशं प्रयान्ति ध्रुवं भुङ्क्ते यस्तु निरामिषं स हि भवेत् जन्मान्तरे पण्डितः । दौपिकायां "जन्मसंयुक्ता यदि जन्ममासे यस्य ध्रुवं जन्मतिथिर्भवेच्च 1 For Private And Personal Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । २३ भवन्ति तहसरमेव यावबेरुज्यसम्मानमुखानि तस्य ॥ कतान्तकुजयोरे यस्य जन्मदिनं भवेत्। पवृक्षयोगसम्प्राप्ती विघ्नस्तस्य पदेपदे” ॥ कृतान्त कुजयोः निमङ्गलयोः । “तस्य सर्वोषधौनानं ग्रहविप्रसुराचनम्। ग्रहानुद्दिश्य होमो वा ग्रहाणां प्रौतिमिच्छता ॥ सोगरयो दिने मुक्ता देयानृक्षे तु काञ्चनम्। मुरामांसी बचा कुष्ठं शेलेयं रजनौद्दयम् ॥ शठौचम्पकमुस्तञ्च सौषधिगणः स्मृतः ॥ सोराययो: शनिभौमयोः। रजनोहयं हरिद्रादारुहरिने एषां पत्रादौनामपि ग्रहणं कषायावयवग्रहगा माह मत्स्यपुराणम् “एषां पत्राणि साराणि मूलानि कुसुमानि च। एवमादौनि चान्यानि कषायाख्योगग्णः स्मृतः” । तत्र क्रमः। तिलोहर्तनं तिलयुक्तमलेन स्नानं नववस्त्र परिधानं गुग्ग लुनिवखेतसर्षपदूर्वागोरोचनात्मक जन्मग्रन्यि दक्षिणपाणी बनीयात्। गुरुदेवाग्निविप्राः पूजनीया: वनक्षवमपि पूजनीयम् । अत्र च हस्ता खातोश्रवणा अलोवे मृगशिरो नपुंसि स्यात्। पुसि पुनर्वसपुथो मूलं वस्त्री स्त्रियः शेषा इत्यनेन लिङ्गनिर्णयः । जन्मनक्षत्रादीनां गोपनमाह विष्णुधर्मोत्तरे। “गोपयेज्जन्मनक्षत्रं धनसारं एहे मलम्। प्रभोरप्यवमानञ्च तस्य दुश्चरितञ्च यत्" ॥ धनसारं धन श्रेष्ठं मलं छिद्रम्। पितरौ प्रजापतिः सूर्यो गणगतिर्मार्कण्ड यश्च पूजनीयः । “सतिलं गुड़संयुक्तमनल्यमितं पयः । मार्कण्डे यवरं लब्धा पिवाम्यायुष्यहेतवे" इति गुड़तिल दुग्धपानमन्त्रः । तत: प्रार्थनामन्यौ। "चिरजीवी यथा त्वं भो भविष्यामि तथा मुने। रूपवान् वित्तवांश्चैव श्रियायुक्तश्च सर्वदा ॥ मार्कण्ड य महाभाग सप्तकल्पान्त जीवन। आयुरिष्टार्थसिद्धार्थमस्माकं वरदो भव" ॥ ततो व्यासपरशुरामाश्वत्थामकृपालप्रह्लादहनमविभौषणा: पूजनीयाः । षष्ठयपि। “बैलोक्ये यानि भूतानि स्थावराणि चराणि च । ब्रह्मविष्णु शिवैः साई रक्षां कुर्वन्तु तानि में" ॥ इति मत्स्यपुराणोयं रक्षार्थ पठेत् । पिमाटपादग्रहणक्रमस्तु विष्णुपुराणादुन्नेयः यथा “कृष्णोऽपि वसुदेवस्य पादौ जग्राह सत्वरः। देवक्याश्च महावाहुर्बलदेवस हायवान्” । एवञ्च For Private And Personal Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४ तिथितत्त्वम् । " सहस्रन्तु पितुर्माता गौरवेणातिरिच्यते" इति मनुवचने सहस्रं पितृनपेक्ष्य यहौरवमुक्तं तत्पोषणरचार्थम् अतएव मनुः । " मृते भर्त्तरि पुत्रस्तु वाच्यो मातुररक्षिता" । वाच्यो गर्हणीयः अत्र वैदिकेतरमन्त्रपाठे शूद्रादेय्यधिकारः वेदमन्त्रवर्ज शूद्रस्य इति छन्दोगाहिकाचारचिन्तामणिष्टतस्मृतौ वैदेति विशेषणात् । एवञ्च पुराणमधिकृत्य " अध्येतव्यं न चान्येन ब्राह्मणं क्षत्रियं विना । श्रोतव्यमिह शटेग नाध्येतव्यं कदाचन" इति भविष्यपुराणवचनं पुराणमन्त्रेतरपरम् । पञ्चयज्ञस्नानश्राईषु पौराणिकमन्त्रेोऽपि निषिद्धः । शूद्रमधिकृत्य " नमस्कारेण मन्त्रेण पञ्चयज्ञान हापयेत्” इति याज्ञवल्कयेन "ब्रह्मक्षत्रविशामेव मन्त्रवत् स्रानमिष्यते । तृष्णो मेव हि शूद्रस्य सनमस्कारकं सतम” इति योगियाज्ञवल्क्येन श्रामधिकृत्य " अयमेव विधिः प्रोक्तः शूद्राणां मन्त्रवर्जितः । श्रमन्त्रस्य तु शूद्रस्य विप्रो मन्त्रेण गृह्यते” इति वराहपुराणेन च नमस्कारेणेति तृष्णोमिति मन्त्रवर्जित इति चाभिधानादेतत्परं वैदिकपरच शूद्राधिकारे गोतमवचनम् "अनुमतोऽस्य नमस्कारो मन्त्र” इति अनुपनीतस्यापि शूद्रसमत्व ेन श्राद्धातिरिक्त वेदपाठनिषेधमाह मनुः । " नाभिव्याहारयेदब्रह्मस्वधानिनयनादृते । शूद्रेण हि समस्तावत् यावद्देदे न जायते” ॥ स्त्रीणामपि वैदिकमन्त्रनिषेधमाह नृसिंहतापनौयम् । "सावित्रीं प्रणवं यजुर्लक्ष्मों स्त्रीशूद्रयोर्नेच्छन्ति सावित्रीं प्रणवं यजर्लक्ष्मों स्त्रीशूद्रो यदि जानौयात् समृतोऽधो गच्छति इति नेच्छन्तौति पर्यन्त पराशरभाष्येऽपि लिखितम् । जन्मतिथेः प्रागुक्त ब्रह्मपुराणोयत्वात् पौर्णमास्यन्तमासादारः । गृह्यपरिशिष्टम् । “उपाकर्म तथोत सर्गः प्रसवोऽष्टकादयः । मानवृडौ पराः कार्य्या वर्जयित्वा तु पैटकम् " ॥ श्रचाष्टका साहचर्या जन्माष्टम्यां तथा दर्शनाच प्रसवाड़ो जन्मदिनं द्वादशमासाः संवत्सरः क्वचित्तयोदशमासाः संवत्सर इति श्रुत्या वर्षे मासवृद्धिरूपा मानवृद्धिरुक्ता सैवात्र ग्राह्या न तु सौरे मासि तिथिद्दयलाभान्मानवृद्धिर्जीमूतवाहनोक्ता ग्राह्या तिथिद्दयलाभस्य मानवृद्धित्व प्रमाणाभावात् । For Private And Personal Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । २५ मानवृद्धावित्यत्र मासहसाविति हेमाद्रिणा धृतम्। पैटकं सपिण्डोकरणं मलमासमतस्य प्रत्याब्दिकञ्च तयोर्मलमासे विधानात्। ज्योतिः पराशरोऽपि। “उपाकर्म तथोत्सर्ग: प्रसवाहोऽष्टकादयः। मासवृद्धौ परा: कार्य्या वर्जयित्वा तु पैटकम्"। ___ जन्मतिथेरुभयदिनलाभे तु देवीपुराणम्। “युगाद्या वर्षवृद्धिश्च सप्तमी पार्वतीप्रिया। रवेरुदयमौक्ष्यन्ते न तन तिथियुग्मता ॥ घम्रहये जन्मतिथिर्यदि स्यात् पूज्या तदा जनाभसंयुतैव। असङ्गताभेन दिनहयेऽपि पूज्या परा या भवती यत्नात् ॥ भ नक्षत्रं परवचनं द्राजमार्तण्डेऽपि पूर्वाह तिथि नक्षत्रलाभ एवेदं लक्ष्यते। “नक्षत्रे खण्डिते येन प्राप्तः कालस्तु कर्मणः । नक्षत्रकर्माण्यत्रैव तिथिकर्म तथैव च" इति वृहस्पतिवचनात्। खण्डिते खण्ड हययुक्तो येन नक्षत्रखण्डेन विहित कालः प्राप्तः नक्षत्रधे तु वौधायनमार्कण्डेयौ। *तन्नक्षत्रमहोरात्रं यस्मिन्नस्त गतो रविः । यस्मिन्नति सविता तनक्षत्र दिनं स्मृतम्” पूर्वाईमहोरात्रसाध्योपवासनक्त कभतेषु। तत्रैवोपवसेदृक्षे यन्निशौथादधो भवेत् । “उपवासे यदृक्षं स्यात् तद्धि नक्त कभक्तयोः” इति स्कन्दपुराणात् निशौथादध इत्यनेन अईरावपूर्वकालत्वेन सूर्यास्तमयकालस्थापि लाभात्। “उपोषितव्य नक्षत्र येनास्त याति भास्करः। यत्र वा युज्यते राम ! निशीथे शशिना सह" इति विष्णुधर्मोत्तराञ्च उपवासवन्नतव्रतादौनामहोरात्रसाध्यता अहोरात्र-साध्यभोजनद्दयस्यैकतर परित्यागसहितकालविशेषनियामकत्वात्। यस्मिनुदेतौति तु दिवसकतव्यस्नानदानादाविति बोध्यं पिटकार्योऽपि शुक्ल कृष्णपक्षाभ्यां व्यवस्थामाह वौधायनः। “सा तिथिस्तच नक्षत्र यस्मिन्बभ्यदितो रविः । वईमानस्य पक्षस्य होने वस्तमयं प्रति” ॥ होने चन्द्रस्य होनत्वात् कृष्णपक्षे वईनानस्य चन्द्रस्य वईमानत्वेन शुलपक्षस्य कालमाधवीयोऽप्येवं भोजराजः “यो जन्ममासे शुरकर्म यात्रा कर्णस्य वेधं कुरुते च मोहात्। ननं स रोगं धनपुत्रनाशं प्राप्नोति मूढ़ो बधबन्धनानि। जातं दिनं दूषयते For Private And Personal Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । वशिष्ठश्चाष्टौ च गर्गों यवनो दशाहम्। जन्माख्यमासं किल भागुरिश्च चड़े विवाहे क्षरकणवेधे" ॥ एतहिषयभेदस्तु राजमार्तण्ड “उक्तानि प्रतिषिद्धानि पुन: सम्भावितानि च । सापेक्षनिरपेक्षाणि श्रुतिवाक्यानि कोविदैः” ॥ सापेक्षनिरपेक्षाणि समर्थासमर्थविषयकाणि। चुरेति तुरकर्म राजमार्तण्डे । “देवकार्ये पिटाई रवेशपरिक्षये। क्षुरकर्म न कुर्वीत जन्ममासेऽथ जन्मभे" ॥ एवञ्च चड़ इति चड़ाकरणे अधिकदोषाय नायास्तु जन्ममासे विवाहमाह श्रीपतिव्यवहारसमुच्चये। “स्नानं दानं तपोविद्या सर्वमङ्गल्य वद्धनम् । उहाहश्च कुमारीणां जन्ममासे प्रशस्यते” ॥ एवं “जन्मोदये जन्मसु तारकासु मासेऽथ वा जन्मनि जन्मभे वा। व्रतेन विप्रो न बहुश्रुतोऽपि विद्याविशेषैः प्रथितः पृथिव्याम्” इति व्यासवचनेन जन्मासे उपनयनविधानात्तदङ्ग शिखवपनेऽपि न दोषः । उदये लग्ने भे राशौ न बहुश्रुतोऽपि वल्पविद्योऽपि । अत्र जन्ममासलत्या कृत्ये सौरादरो यात्रादिमाहचात् व्यवहारोऽपि तथा। प्रतिमासे जन्मनक्षत्र कत्यमार विष्णुधर्मोतरम्। “जन्म नक्षत्रगे सोम शिरः स्नानेन यत्नतः। पूजा सोमस्य कर्तव्या नक्षत्रस्य तथात्मनः ॥ श्राद्ध कुर्य्यात् प्रयत्नेन वहिब्राह्मणपूजने। वाहनायुधरत्नाढ्य पूजनौयं प्रयत्नतः । सुराणामचनं कार्य केशवस्य विशेषतः” ॥ अथ प्रतिपत् । सा च कृष्णा हितौयायुता ग्राह्या “प्रतिपत् सहितोया स्यात्” इत्यापस्तम्बीयात् । न चैतस्य शुक्लापरत्व प्रतिपदाप्यमावस्येति शलापरेण सङ्कोचात्। ततश्च शुक्लामावास्यायुता ग्राह्या त्रिसन्ध्यव्यापित्वे तु सर्वत्र न युग्मादरः” तथा च पराशरः “त्रिसन्ध्यव्यापिनी या तु सैव पूज्या सदा तिथि: । न तत्र युग्मादरममन्यत्र हरिवासरात्” । कृष्णाप्युपवासे द्वितीयायुता न ग्राह्या। तथा च वृहद्दशिष्ठः । "द्वितीया पञ्चमी वेषाद्दशमो च त्रयोदशी। चतुर्दशौचोपवासे हन्यः पूर्वोत्तर तिथो” हितौयावेधाद्योगात् प्रतिपत् हतीये हन्तीत्यर्थः । एवमन्यत्र अत्रोपवासपरण विशेषविधिनापस्तम्बौय सामान्यस्य सङ्कोचात्। कर्मादी नवग्रह पूजा For Private And Personal Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । t माह मत्स्यपुराणम् । "नवभ्रमखं कृत्वा ततः कर्म समारभेत् । अन्यथा फलदं पुंसां न काम्यं जायते क्वचित्" ॥ वामनपुराणे । कार्त्तिक शुक्लपचमधिकय बलिं प्रति भगवद्दाक्य " वौरप्रतिपदानाम तव भावी महोत्सवः । श्रत्रत्वां नरशार्दुल ! हृष्टाः पुष्टाः स्वलंकृताः ॥ पुष्पदोपप्रदानेन पूजयिष्यन्ति मानवाः” । तत्र मन्त्रः । " बलिराज ! नमस्तुभ्यं विरोचनसुत ! प्रभो ! भवि बेन्द्रसूराराते! पूजेयं प्रतिग्टह्यताम् ॥ प्रतिपदा प्रतिपत्तिध्या अव प्रतिपदि । ब्रह्मपुराणे बलिराजेति मन्त्रस्य पूर्वम् । “मन्त्रेणानेन राजेन्द्र ! समन्त्री सपुरोहितः” इत्य पश्चादपि । “ एवं पूजां नृपः कृत्वा रात्रौ जागरणं ततः” इत्युक्तमिति पुन - ब्रह्मपुराणे । “शङ्करश्च पुरा दूतं ससर्ज सुमनोहरम् । कार्त्तिके शुक्लपक्षे तु प्रथमेऽहनि भूपते ! ॥ जितश्च शङ्करस्तत्र जयं लेभे च पार्वतौ । अतोऽर्थाच्छङ्करो दुःखौ गौरो नित्यं सुखोषिता ॥ तस्माद्यतं प्रकर्त्तव्यं प्रभात तत्र मानवैः । तस्मिन् द्यते जयो यस्य तस्य संवत्सरः शुभः ॥ पराजेयो विरुद्धस्तु लब्धनाशकरो भवेत्” ॥ द्यूतचाप्राणिभिः क्रोड़नं यथा मनुः । “ अप्राणिभिर्यत् क्रियते तल्लो के द्यूतमुच्यते । तत्तिथिमधिकृत्य भविष्योत्तरें । “यो यो यादृशभावेन तिष्ठत्यस्यां युधिष्ठिर ! | हर्षदैन्यादिना तेन तस्य वर्षं प्रयाति हि ॥ तथा " महापुण्यातिथिरियं वलिराज्यविवर्द्धिनी । स्वानं दानं शतगुणं कात्तिकेऽस्यां तिथौ भवेत्” ॥ भविष्य "रोहिण्या प्रतिपद्युक्ता मार्गे मासि सितेतरा । गङ्गायां यदि लभ्येत सूर्य्यग्रहशतैः समा ॥ कल्पतरौ । बामनपुराणं “नन्दासु नाभ्यङ्गमुपाचरेच चौरञ्च रिक्तासु जयासु मासं पूर्णासु योषित् परिवर्जनीया भद्रास सर्वाणि समाचरेच्च" । नन्दादिक्रममा ज्योतिषे । नन्दा भद्रा जया रिक्ता पूर्णा च प्रतिपदः क्रमात् । प्रतिपदादिपञ्चदशतिथिषु कुष्माण्डादिपञ्चदशद्रव्यभक्षणे क्रमेच दोषमाह स्मृतिः । " कुभाण्डे चार्थहानिः स्याद्द्हत्यां न स्मरेरिम् । बहुशत्रुः पटोले स्याइनहानिस्तु मूलके ॥ कलङ्की जायते विल्वे तिव्यग्योनिश्च निम्बके । ताले शरीरना [1: स्यात् नारिकेले च सूर्खता । तुम्बी गोमांसतुल्या स्यात् * For Private And Personal Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । २८ कलखी गोबधात्मिका ॥ शिम्बौ पापकरौ प्रोक्ता पूतिका ब्रह्मघातिका । वार्त्ताको सुतहानिः स्यात् चिररोगौ च माषके ॥ महापापकरं मांसं प्रतिपदादिषु वर्जयेत्" ॥ अत्र सप्तम्यामेव तालनिषेधादन्यत्रैतद्भक्षणं प्राप्तमतः " तालं श्वेताञ्च वार्ताकीं न खादेद्वैष्णवो नरः" । इत्यनेन तालमपि श्वेतं निषिद्ध साहचर्येण नपुंसकलिङ्गेन श्वेतानुषङ्गात् । एवं प्रलावं वर्त्तुलाकारां वार्त्ताको कुन्दसन्निभां इति यदपि “कुसुम्भं नालिकाशाकं वृन्ताकं पौतिकं तथा । भक्षयन् पतितस्तु स्यादपि वेदान्तगो दिजः" इत्यशनसा सामान्यतोऽभिहितं तत्र नालिका श्वेत कलम्बौति कल्पतरुः । " पूतिका च दादश्यामधिकदोषाय शूद्रविषयिका वा वार्त्ताकौ वत्तुलेति समुद्रकरभाष्यम् अत्रेदमस्वरसवोजं वर्तुलाकारामित्यस्यानुषङ्गकल्पनम् । व्याधितस्योषधक्रियायामपवादमाह सुमन्तुः । " लशुनपलाण्डु ग्टज्ञ्जनकुम्भौश्राव सूतिकान्नाभोज्यान्नमधुमांसमूत्ररेतोऽमेध्याभक्ष्यभक्षणे गायचाष्टसहस्रेण मूर्ध्नि सम्पातानवनयेदुपवासश्च एतान्येव व्याधितस्य भिषक् क्रयायामप्रतिसिद्धानि भवन्ति यानि चान्यान्येवं प्रकाराणि तेष्वप्यदोषः” इति कुम्भीपाना इति ख्याता सम्पातानुदकविन्दून् शिरसि पातयेदिति प्रायश्चित्तविवेकः । प्रायश्चित्तं वचभान्तरैकवाक्यतया यथायोग्यमूहनीयं कल्पतरौ " नाभ्यङ्गमर्के न च भूमिपुत्र चौरच शुक्रेऽथ कुजे च मांसम् । वृधे च योषां न समाचरेच शेषेषु सर्वाणि सदेव कुर्य्यात् । चित्रा स्वहस्ता श्रवणासु तलं चौरं विशाखा प्रतिपत्सु वर्ज्यम् । मूले मृगे भाद्रपदासु मांसं योषिन्मघात्तिकसोत्तरासु ” ॥ स्वं धनिष्ठा मृगे मृगशिरसि मघाकृत्तिकाभ्यां सहोत्तरास्तासु तृतौया समास: छान्दसः । स्मतिः । " घृतच्च सार्षपं तैलं यत्तैलं पुष्पवासितम् । अदृष्ट पक्कतैलञ्च नानाभ्यङ्गे च नित्यशः " प्रचेताः “ तैलाभ्यङ्गनिषेधे तु तिलतैलं निषिध्यते” । वारे प्रतिप्रसवमाह स्मृतिः । रवौ पुष्पं गुरौ दूर्वा भूमिं भूमिजवासरे। भार्गवे गोमयं दद्यात् तैलदोषोपशान्तये । " दद्यात्तैल इति शेषः” " ! For Private And Personal Use Only - Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । २८ " | अथ द्वितीया " सा च कृष्णा पूर्वयुता ग्राह्या प्रतिपत् सहितीया स्याद् द्वितीया प्रतिपत् युता" इत्यापस्तम्बवचनात् । तवोक्तयुक्तेः प्रतिपत् कृष्णा तत्साहचर्य्यात् द्वितीयापि तयेति शुक्ला तु परयुता ग्राह्या युग्मात् एवं वच्यमाण उपवासविधाय कयोः विरुद्धवचनयोः व्यवस्थोन्नेया यथा नारदः । “द्वितीयैकादशी षष्ठौ तथा चैवाष्टमीतिथिः । वेधादधस्तान्युस्तः उपवासे तिथौस्त्विमा: ” ॥ श्रत्र द्वितीयाद्यास्तृतौयादियुतः नोपोया इत्यर्थः विष्णुरहस्यम् "एकादश्यष्टमी षष्ठौ द्वितीया च चतुर्दशौ । त्रयोदश्याप्यमावास्या उपोष्याः स्युः परान्विताः " तस्मात् पूर्ववचनं कृष्णपक्षविषयं परवचनं शुक्लपचविषय मनोरथद्वितीयायान्तु दिवा वासुदेवार्चनं रात्रौ चन्द्रोदयेऽर्घ्य दानं नक्त भोजनादिकम् । यथा विष्णुधर्मोत्तरे । 'देवमभ्यश पुष्पश्च धूपदीपानुलेपनैः । उगच्छतश्च बालेन्दोर्दद्यादयं समाहितः । नक्तं भुञ्जीत च नरो यावत्तिष्ठति चन्द्रमाः अस्तं गते न भुञ्जीत व्रतभङ्गभयान्नरः ॥ श्रस्तं गते चन्द्रे विष्णु पुराणे । “दिवारात्री व्रतं यच्च एवमेव तिथौं स्मृतम् । तस्यामुभययोगिन्यासाश्वरेत्तद् व्रतं व्रतौ” ॥ एवमेव तिथौ दिवा रात्रिसम्बन्धितिथौ । स्मतं मुनिभिः श्रतएव तस्यामित्यादि । स्कन्दपुराणे “आषाढस्य सिते पक्षे द्वितीया पुष्यसंयुता । तस्यां रथे समारोप्य रामं मां भद्रया मह । यात्रोत्सवं प्रवृत्त्याथ प्रोयेच्च द्विजान् बहन्” ॥ तथा “ऋचाभावे तिथी कार्या सदा सा प्रीतये मम" । लिङ्गपुराणे " कार्त्तिके तु द्वितीयायां शुक्तायां वाटपूजनं । या न कुर्य्यादिनश्यन्ति भ्रातरः सप्तजन्मनि” तस्या इति शेषः । महाभारते " कार्त्तिके शुक्लपक्षस्य द्वितीयायां युधि - ष्ठिर ! | यमो यमुनया पूर्वं भोजितः खग्टहे स्वयम् ॥ तस्यां निजग्टहे पार्थ! न भोक्तव्यमतो बुधैः । यत्नेन भगिनी उस्तादोक्तव्यं पुष्टिवर्द्धनम् ॥ दानानि च प्रदेयानि भगिनीभ्यो विशेषतः” । तथा “यमञ्च चित्रगुप्तञ्च यमदूतांथ पूजयेत् । अध्ययात्र प्रदातव्यो यमाय महजद्दयेः ॥ सहजइयैर्भगिनीभ्रातृभिः । अव्यं मन्त्रः । " एह्येहि मार्त्तण्डज ! पाशहस्त ! यमान्तकालोक - धरामरेश ! | वाढद्दितीयाक्कृत देवपूजां गृहाण चाय भगव For Private And Personal Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । नमस्ते” ॥ प्रणाममन्त्रस्तु"धर्मराज ! नमस्तुभ्यं नमस्ते यमुनाग्रज!। पाहि मां किङ्करैः साई सूर्यपुत्र ! नमोऽस्तु ते ॥ यमुनाञ्च संपूज्य नमस्कात्। “यमस्वसनमस्तेऽस्तु यमुने ! लोकपूजिते !। वरदा भव मे नित्यं सूर्यपुचि ! नमोऽस्तु ते” ॥ अनं दत्वा पठेत् भ्रातस्तवानुजाताहं भुङ्ग, भक्तमिदं शुभम् । प्रीतये यमराजस्य यमुनाया विशेषतः” । ज्येष्ठाचेत्तदा अग्रजाताहमिति वदेत् । अत्र भोक्तव्यं पुष्टिवईनमिति विधिसमभिव्याहृतफलश्रुत्या भोजननियमस्य प्राधान्यात्तस्य मुख्य कालोऽष्टधा विभक्तदिनपञ्चमांगो ग्राह्यः। यथा दक्षः। “पञ्चमे च तथा भागे संविभागो यथाहंतः। पिटदेवमनुष्याणां कौटानाञ्चोपदिश्यते ॥ संविभागं ततः कृत्वा ग्राहस्थः शेषभुग भवेत् । इतिहासपुराणायैः षष्ठञ्च सप्तमं नयेत्” ॥ संविभागो विभज्यान प्रतिपादनं देवोऽत्र वैश्वदेवकर्मसम्बन्धी पञ्चमांशालामे तु। “न भुजौतोड़तस्नेहं नातिसौहित्यमाचरेत्। नातिप्रगे नातिसायम्” ॥ इति मनतापर्युदस्तसूर्योदयास्तेतरकालोऽपि ग्राह्यः । सौहित्यं टप्तिः । अत्र भोजनस्य रागप्राप्तत्वेऽपि तत्कालस्य “मुनिभिदिरशनं प्रोतां विप्राणां मर्त्यवासिनां नित्यम् । अहनि च तथा तमखिन्यां साईप्रहरयामान्तः"॥ इति कात्यायनौवेन नियमितत्वाद्भोजन कालस्य वैधत्वेन शास्त्रीयत्वात् न सामान्यशास्त्रप्राप्तुरपजीविपर्युदासासङ्गतिः। अत्रानध्ययनं मान्तानां प्रेतपक्षोत्तरहितौयायां तनिषेधात् तथा च राजमार्तण्डे । “प्रेको चैचा द्वितीयास्ता: प्रेतपक्ष गते तु या। या तु कोजागरे याते चैत्रबावल्या: परेऽपि च ॥ चातुर्मास्ये समाप्ते च द्वितीया या भवेत्तिथिः । परास्वेतास्वनध्यायः पुराणैः परिकीर्तितः” ॥ ज्योतिषे । तथा “यमद्वितीयायां यात्रायां मरणं भवेत् ॥ अथ तौया। सा च चतुर्थीयुता रम्भाव्रतेतरदैवकर्मस ग्राह्या। "रम्भाख्यां वर्जयित्वा तु टतीयां मुनिसत्तम ! । अन्येषु सर्वकार्येषु गणयुक्ता प्रशस्यते" ॥ इति ब्रह्मवैवर्त्तात् गणोगणपतिस्तत्तिथिश्चतुर्थी ततश्च युग्मवाक्यं रम्भाव्रतमानपरं भविष्योत्तरे। “भद्रे ! कुरु प्रयत्नेन रम्भाख्यं व्रतमुत्तमम् । For Private And Personal Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । ज्येष्ठ-शुक्ल-टतीयायां माता नियमतत्परा:” ॥ रम्भया कृतमिति रम्भाव्रतं स्मति: “वैशाखे मासि राजेन्द्र ! शुक्लपक्षे टतो. यिका। अक्षया सा तिथिः प्रोक्ता कृत्तिकारोहिणीयुता ॥ तस्यां दानादिकं पुण्यमक्षयं समुदाहृतम्” ॥ भविष्थे। “या शुक्ला कुरुशाल ! वैशाखे मासि वै तिथिः । टतौया साऽक्षया लोके गौर्वाणैर भिवन्दिता ॥ योऽस्यां ददाति करकान् वारिवाजसमन्वितान्। स याति पुरुषो वौर ! लोकान् वै हेममालिन:” ॥ करकान् कुम्भान् वाजमन्नं हेममालिनः सूर्यस्य । ब्रह्मपुराणे। “यः पश्यति टतीयायां कृष्णं चन्दनरूषितम् । वैशाखस्य सिते पक्षे स यात्यच्च तमन्दिरम्” ॥ रूषितं चर्चितं स्कन्दपुराणम्। “वैशाखस्य सिते पक्षे तौयाऽक्षयसंज्ञिता। तत्र मां लेपयेद्गन्धलेपनरतिशोभितम्" ॥ ब्रह्मपुराणम् । “वैशाख शुक्लपक्षे तु सौयायां जनार्दनः । यवानुत्पादयामास युगञ्चारब्धवान् छतम् ॥ ब्रह्मलोकालिपथगां पृथिव्यामवतारयत्। तस्यां कार्यो यवैहोमो यवैविष्णु समचयेत् ॥ यवान् दद्यात् हिजातिभ्यः प्रयत: प्राशयेट्यवान्। पूजयेत् शङ्कर गङ्गां कैलाशञ्च हिमालयम् ॥ भगौरथञ्च नृपति सागराणां सुखावहम्। स्नानं दानं तपः श्राई जपहोमादिकञ्च यत् ॥ श्रद्धया क्रियते तत्र तदानन्याय कल्प्यते” ॥ अनानन्त्य श्रुतेः पूर्ववचने नक्षत्रयोग: फलातिशयार्थः । ___ अथ चतुर्थी। मा च पञ्चमोयुता ग्राह्या युग्मात् 'एका. दश्यष्टमी षष्ठी अमावास्या चतुर्थिका। उपोष्याः परसंयुक्ताः परा: पूर्वेण संयुताः' इत्यग्नि पुराणाञ्च भविष्थे। “अमा वै सोमवारण रविवारेण सप्तमौ। चतुर्थी भौमवारण अक्षयादपि चाक्षया"। यत्त “चतुर्थीसंयुता कार्या दृतीया च चतुर्थिका। तीयया युता नैव पञ्चम्या कारयेत् क्वचित्" इति ब्रह्मवैवर्त्तवचनं पञ्चमीयुतानिषेधकं तहिनायकद्रतपरमिति गुरुचरणा: । दृतीयायुतानिषेधकत्वे क्वचिदिल्य नुपपत्ते: सर्ववेव पञ्चमीयुताया ग्रहणात्। सारखत्यादिप्रदोषमाह स्मृति: "त्रयोदण्याश्चतुर्थ्याश्च सप्तम्या दादशौतिथेः । प्रदोऽध्ययनं धौमान् न कुर्वीत यथाक्रमम्। सारख तो गाणपतः सौरश्व For Private And Personal Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । वैष्णवस्तथा ॥ प्रदोषशब्दोऽत्र प्रथमप्रहर इति हेमाद्रिः । रात्रिपर इति निर्णयामृतवद् भोजदेवः “शुक्ल पक्ष चतुर्थ्यान्तु सिंह चन्द्रस्य दर्शनम्। मिथ्याभिशापं कुरुते न पश्येत्तत्र तं ततः" चतुर्थ्यां दर्शननिषेधात्तत्रोदितस्य चन्द्रस्य पञ्चम्यां दर्शने तु न दोषः। अतः । “पञ्चाननगते मानी पक्षयोरुभयोरपि। चतुर्थ्यामुदितश्चन्द्रो नेक्षितव्यः कदाचन" ॥ चतुर्थी नेक्षितव्य इति मुनिभिरुदित उक्त इत्यर्थः । अथवा चतुर्थ्यामित्यस्य प्रधानक्रियान्वयाभ्यहितत्वादीक्षितव्य इत्यनेनान्वयो न तु उदित इत्यनेन तथा च "अव्यक्त प्रधानगामि” इति सूत्रे अव्यक्तस्य शब्दस्य प्रधानेन सह सम्बन्ध इति भट्टनारायण व्याख्यानम् इति उदितस्त्वोदितव्यावृत्तिपरः सरूपाख्यानपरो वा। "ब्राह्मणो तु शुनादष्टा जम्ब कोष्ट्रेग वा गवा। उदितं सोमनक्षत्न दृष्ट्वा सद्यः शुचिर्भवेत्” इति पराशरोतोदित इतिवत् नन्वेकपदस्य कथमने कातेति चेन्न यावन्तोऽर्थास्तावन्ति पदानौति तथा चोक्तम् । “यावतामेव धातूनां लिङ्ग रूढिगतं भवेत् । अर्थश्चैवाभिधेयस्तु तावद्भिगण विग्रहः” ॥ लिङ्गं सामथ्र्य रूढ़ि गतं प्रसिद्ध न त्वप्रसिद्ध हनहिंतागत्योरित्यादौ गमनादिकम् अभिधेयो वाच्यः तावद्भिर्धातुभिर्गुणविग्रहो गुणैर्गगानाभिविग्रहो ग्रहणं यत्रार्थे स तथा एतेन धातुसमसंख्यार्थत्वं पदस्य ब्रह्मपुराणे सिंहााधिकारी नारायणोऽभिशप्तस्तु निशाकरमरोचिषु। स्थितश्च तुर्थ्यामद्यापि मनुष्याय पतेच सः॥ अतश्चतुयां चन्द्रन्तु प्रमादादोक्ष्य मानवः। पठेद्दावेयिकावाक्यं प्रामखो वाय्युदन खः” ॥ अभिशप्तः वरौवादविषयोभूतः सोऽभिशापः। धायिकावाक्य विष्णु पुराणे। 'सिंहः प्रसेनमवधीत् सिंहो जाम्बवता इतः । सुकुमारक ! मा रोदोस्तव ह्येष स्यमन्तकः” ॥ अनेन मन्त्रेणाभिमन्त्रितं जलं पेयम् आचारात् स्यमन्तकोपाख्यानञ्च श्रोतव्यम्। माघे शक्लचतुष्यां गोरौ पूज्या वक्ष्यमागावचनात्। अथ पञ्चमो। सा च चतुर्थीयुता ग्राह्या युग्मात् “पञ्चमी च प्रकर्तच्या चतुर्थीसहिता विभो' ! इति ब्रह्मपुराणाच्च । “अत्र पञ्चमौ तु प्रकर्तव्या षष्ठयायुक्ता तु नारद" ! इति ब्रह्मवैवर्त For Private And Personal Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । ३२ वचनं तच्छुक्लापरं शुक्लपचे तिथिर्ग्राह्येत्येकवाक्यत्वात् इति केचित्तच्चिन्त्यम् " चतुर्थीसंयुता काय्या पञ्चमी परया न तु । दैवे कर्मणि पैत्रे च शुक्लपक्षे तथासिते" इति कालमाधवीयधृतहारौतवचनात् । यद्यपि पैत्रे तन्निषेधो निरर्थकः युग्मवचनस्य देवक्कत्यमात्रपरत्वात् तथापि यथा आपराह्निके पित्र खतएव परविद्या न ग्राह्या तथा दैवेऽपौति विवक्षया देवपित्त्रयोः सहोपन्यासः” । ब्रह्मवैवर्त्तवचनन्तु स्कन्दोपवासविषयकमिति माधवाचाय्र्यः । अत्र पञ्चम्यामुपवासः षष्ठयां स्कन्दोपासनाय षष्ठीसमेता कर्त्तव्या सप्तमौ नाष्टमीयुता । पतङ्गोपासनायेह षष्ठयामाहुरुपोषणम् ॥ इति भविष्यपुराणोक्तवत् । पतङ्गः सूर्यः । तथा च वशिष्ठ: "कृष्णाष्टमी स्कन्दषष्ठी शिवरात्रि चतुर्दशौ । एताः पूर्वयुताः कार्य्यास्तियन्ते पारणं भवेत्” ॥ वस्तुतस्तु पञ्चमौ परया न त्विति वचनान्तरैकवाक्यतया षष्ठाऽयुतेति पाठः । स्कन्दषष्ठौ वच्यते देवीपुराणे । “सुप्ते जनार्दन कृष्ण पञ्चम्यां भवनाङ्गने । पूजयेन्मनसादेवीं सहीविटपसंस्थिताम् । पद्मनाभे गते शय्यां देवैः सर्वैरनन्तरम् । पञ्चम्यामसिते पते समुत्तिष्ठति पद्मगौ” ॥ मनसादेवीं विषहरों सुहौ सिज वृक्षः । देवैरिति सहार्थे तृतीया । “देवीं संपूज्य नत्वा च न सर्पभयमाप्नुयात् । पञ्चम्यां पूजयेन्नागाननन्ताद्यान्महोरगान् । चौरं सर्पिस्तु नैवेद्य देयं सर्पविषापहम् " । मनसाध्यानं यथा पद्मपुराणम् "देवौमम्बामहोनां शशधरवदनां चारुकान्तिं वदान्याम् । हंसारूढामुदारामरुणितवसनां सर्वदां सर्वदैव । स्मरास्यां मण्डिताङ्गीं कणकमणि गणैर्नागर ने कैर्वन्देऽहं साष्टनागामुरुकुचयुगलां भोगिनीं कामरूपाम् । पुराणान्तरे । “अनन्तो वासुकिः पद्मो महापद्मोऽथ तक्षकः । कुलौर : कर्कटः शङ्खो ह्यष्टौ नागा प्रकीर्त्तिताः ॥ शेषः पद्मो महापद्मः कुलिकः शङ्खपालकः । वासुकिस्तचकश्चैव कालियो मणिभद्रकः ॥ ऐरावतो धृतराष्ट्र: कर्कोटकधनञ्जयौ" । गारुडेऽपि तत्रैव "अनन्तं वासुकिं शङ्खं पद्मं कम्बलमेव च । तथा कर्कोटकं नागं ष्टतराष्ट्रञ्च शङ्गकम् ॥ कालियं तक्षकञ्चापि पिङ्गलं मणिभद्रकम् । यजे For Private And Personal Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३४ तिथितत्त्वम् । तानसितानागान् दष्टमुक्तो दिवं ब्रजेत् ॥ अन च “योऽसौ चानन्तरूपेण ब्रह्माण्डौं सचराचरम्। पुष्यवधारयेन्द्रनि तस्मै नित्यं नमो नमः” ॥ इत्यनेन प्रगावपूर्वण मल्यपुराणोक्तनानन्तं पूजयेत् । रत्नाकरे "पिचुमर्दस्य पत्राणि स्थापयेद्भवनीदरे । स्वयञ्चापि तदनीयात् ब्राह्मणांचापि भोजयेत्” ॥ पिचुमर्दस्य निम्बस्य भविष्योत्तर माघशुक्लपक्षमधिकृत्य “चतुर्थी वरदा नाम तस्यां गौरो सुपूजिता । मौभाग्यमतुलं कुर्यात् पञ्चम्यां श्रोरपि श्रियम्” ॥ संवत्सर प्रदौपे “पञ्चम्यां पूजयेलक्ष्मी पुष्यधपानवारिभिः । मस्याधारं लेखनौच्च पूजयेत्र लिखेत्ततः ॥ माधे मासि मिते पक्षे पञ्चमी या श्रियः प्रिया। तस्याः पूर्वाह्न एवंह कार्य: सारस्वतोत्सवः” ॥ सारस्वत इत्युपादानात् श्रियः सरस्वत्याः तथा च व्याडिः । “लक्ष्मीसरस्वती धौविबगसम्पविभूतिशोभासु । उपकरणवेशरचनाविधासु च श्रोरिति प्रथिता। तथा चोक्तं गां दद्यादित्यादौ नानाशब्दस्थापि प्रसिद्धार्थतेव व्यवहार: विपरीतार्थ ग्राहकवाक्य विशेषसत्त्वे तु अप्रसिद्धार्थत्वेन च व्यवतियते। सर्वदा नानार्थानां व्यवहारस्तु श्लेषकाव्यादाविति। "तरुणशकलमिन्दोविनती शुभकान्तिः कुचभरनमिताङ्गो सन्निसन्नासिताले । निजकरकमलोद्यल्लेखनौ पुस्तकश्रीः सकलविभवसिधै पातु वाग्देवता नः ॥ इति शारदोक्तं ध्यायेत् पाद्यादिभिः पूजयित्वा “भद्रकाल्यै नमो नित्य सरस्वत्यै नमो नमः। वेदवेदान्तवेदाङ्गविद्यास्थानेभ्य एव च स्वाहा” इति ब्रह्मपुराणौयेन त्रिः पूजयेत् । मत्स्य सूक्ते । “बन्धुजौवञ्च द्रोणञ्च सरस्वत्यै न दापयेत्” । सरस्वती संपूज्य “यथा न देवी भगवान् ब्रह्मा लोकपितामहः। त्वां परित्यज्य सन्तिठेत्तथा भव वरप्रद्रा ॥ वेदाः शास्त्राणि सर्वाग्मि नृत्य गीतादिकञ्च यत्। न विहीनं त्वया देवि ! तथा मे सन्तु सिद्धयः ॥ लक्ष्मोमधाधरापुष्टिगौरीतुष्टिः प्रभावृति: । एताभिः पाहि तनुभिरष्टाभिमां सरखतौ" इति मत्यपुराणोयैः प्रार्थयेत्।। अथ षष्ठी। सा तु सप्तमोयुता ग्राह्या युग्मात् गजमार्तण्डे "जैठे मासि सिते पक्षे षष्ठी चारण्यसंजिता। व्यजनक करा For Private And Personal Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । स्तस्या मटन्ति विपिने स्त्रियः ॥ तां विन्ध्यवासिनी वन्दे षष्ठीमाराधयन्ति च । कन्दमूलफलाहारा लभन्ते सन्ततिं शुभाम् ।। कन्दं सूरणादिमूलं तदितरत् भविष्ये “येयं मार्गशिर मासि षष्ठी भरतसत्तम ! । पुण्या पापहरा धन्या शिवा शान्ता गुहा प्रिया ॥ देवीपुराणे चैत्र मधिलत्य “षष्ठयां स्कन्दस्य कर्तव्या पूजा सर्वोपचारिका। इहैव सुखसौभाग्यमन्ते विष्णुपदं व्रजेत् ” ॥ इयमेव स्कन्दषष्ठो पञ्चमी युतैवोपोथा। "लणाष्टमी स्कन्दषष्ठौ शिवरात्रि चतुर्दशी। एताः पूर्वयुता: कार्यास्तिथ्यन्ते पारणं भवेत् ॥ इति ब्रह्मवैवर्तवचनात् विष्णुधर्मोत्तरे "अष्टमौञ्च तथा षष्ठी नवमौञ्च चतुर्दशौम्। शिरोऽभ्यङ्गं न कुर्वीत पर्वसन्धी तथैव च ॥ अथ सप्तमी। सा च षष्टीयता ग्राह्या युग्मात् पैठिनसिवचनाञ्च यथा “पञ्चमो सप्तमी चैव दशमौ च त्रयोदशी। प्रतिपनवमौ चैव कर्त्तव्या साम्म खौ तिथि:” ॥ साम्म ख्यमुक्त स्कान्दे “माम्म ख्यं नाम सायाङ्गव्यापिनी दृश्यते यदा'। अतएव परदिने त्रिसन्ध्य कालाव्यापित्वे षष्ठोयुक्तपञ्चम्यामुपवासमाह भविष्यपुराणं “षष्ठीसमेता कर्तव्या सप्तमो नाष्टमी यता। पतङ्गोपासनायेह षष्ठयामाहुरुपोषणम्” ॥ यथा उपोषणे तथा कर्मान्तरे तथा “षष्ठयायुता सप्तमौ च कर्तव्या सर्वदा तिथिः। षष्ठौ च सप्तमी यत्र तत्र सन्निहितो हरिः"॥ इति स्कन्दपुराणात् तथा “शुक्लपक्षस्य पञ्चम्यां सूर्यवागे यदा भवेत् । सप्तमौ विजया नाम तत्र दत्तं महाफलम्” ॥ भविष्ये "मालितण्डुल प्रस्थस्य कुादनं सुसंस्कृतम् । सूर्याय चरुकं दत्वा सप्तम्याञ्च विशेषतः ॥ यावन्तस्तण्डलास्तस्मिनैवेद्यपरिसंख्यया। तावहर्षसहस्राणि सूर्यलोके महीयते" ॥ गोपथब्राह्मणं "हाविंशत् पलिकं प्रस्थमुक्तं स्वयमथर्वणा" । ज्योतिष पलन्तु लोकिकानैः साष्टत्तिहिमाषकम्। तोलकत्रितयं जेयं ज्योतिज्ञैः स्मृतिसम्मतम्” ॥ तेन चतुरत्तिकाधिकमाषषञ्चाधिकषड़धिकशततोलकमिता: प्रस्थतण्डु ला इति एव तत् न्यूनाधिकयोः फलतारतम्यं बोध्यम्। एवं देवतान्तरेऽपि तत्तलोकहितवफलेन कल्पयितुं युक्तम् अतएव शिवे. For Private And Personal Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । ऽप्येवं वक्ष्यते। वराहपुराणे “अथापरं महाराज ! व्रतमारोग्य. संजितम्। कथयामि परं पुण्यं सर्वपापप्रणाशनम् ॥ तस्यैव माघमासस्य सप्तम्यां समुपोषितम्। पूजयेद्भास्करं देवं विष्णुरूपं सनातनम् ॥ श्रादित्य ! भास्कर ! रवे ! भानो ! सूर्य ! दिवाकर !। प्रभाकरति संपूज्यो देवः सर्वेश्वरो रविः ॥ षष्ठयाञ्चैककताहारः सप्तम्यां समुपोषितः । अष्टम्याञ्चैव भुजौत एष एव विधिः स्म तः ॥ अनेन वत्सरं पूर्ण विधिना योऽचयेद्रविम्। तस्यारोग्यं धनं धान्य मिह जन्मनि जायते ॥ परत्र च शुभ स्थानं यहत्वा न निवर्तते ॥ सप्तम्यां समुपोषित इति पादिकर्मणि तः। तेन सप्तम्यां समुपवस्तुमारब्धवानित्यर्थः । ततश्च प्रातः सप्तम्यामेव उपवाससङ्कल्पः । रविश्व विष्णुरूपतया पूजाकाले ध्येयः अभिलापे तु तत्तिथावित्य वा आरभ्येति ऐहिकागेग्यधनधान्यपारलौकिकशुभस्थानलाभकामः। संत्रसरं यावदारोग्यव्रतमिति विशेषः । ततः प्रभृति सप्तम्यामुपवासं कुर्वन् । “आदित्य ! भास्कर! रखें ! भानो! सूर्य ! दिवाकर! नमस्तुभ्यं" इति मन्वेण पूजयेत् । अत्र षष्ठयादिषु तत्तत् कर्मविधानात् षष्ठौसमतेत्यस्य न विषयः कालिकापुराणे भक्त प्रति सूर्यवाक्यम। “प्रदृष्ट्वा मां न भुञ्जोत विण्मत्रं नैव दर्शयेत्” । तथा “मदर्चा धृतनिर्माल्यं शरीरे न तु धारयेत्"। अर्चा प्रतिमा। अथ विधानसप्तमौ कल्यचिन्तामणी "अर्काग्रं शुचिगोमयं सुमरिचं तोयं फलञ्चाश्ते मूलं नक्तमुपोषणञ्च विधिवत् रुत्वैकभक्तं नरः । क्षीरं वायशनं हताशन मिति प्रोक्तान्यमूनि क्रमात् । कृत्वा द्वादशसप्तमी दिनकृतः प्राप्नोत्यभौष्टं फलम् ॥ अत्राचार्काग्रादौतरभोजननिवृत्तिरवसीयते तपस्त्वात् तथा च मत्स्यपुराणं “तपोभिः प्राप्यतेऽभीष्टं नासाध्यं हि तपस्यतः । दुर्भगत्वं वृथा लोको वहते सति साधने" ॥ तपसः लोशस्वभावत्वं तत्रैवोक्तम् “उमेति चपला पुत्रि न क्षमं तावक वपुः। सोढ़ ल शस्वभावस्य तपसः सौम्यदर्शने" ॥ व्यक्तमुक्त यथा “अर्कपत्राङ्करमात्रमन्तरौक्षरहौतकं कपिलाविड़यवमानं मञ्जुलं मरौचं जलम्। कदलीफलमध्यन्तु कणामात्र For Private And Personal Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । मपतकम्। कुशमूलं यवमान स्वछायादिगुणे क्षणे ॥ भक्ष्य मितौदनं नक्तं शुद्धोपवसनं तथा। एकभक्तं मयूराण्डप्रमाणं भोजनं मतम् ॥ अई प्रमृतिमात्रन्तु कपिलादुग्धभक्षणम् । खात्वा संपूज्य मार्तण्ड प्राम खो वायुमाशयेत् ॥ तं खल्प पौषमासे माघादब्दं समाचरेत्। ब्राह्मणान् भोजयेत्या गुड़क्षीरनिरामिषैः । विप्राय दक्षिणा देया विभवस्थानुरूपतः । अष्टम्यां पारणं कुर्यात् कटलरहितेन च ॥ मुहमाषतिलादौनि वृतञ्चैव विवर्जयेत्। एकसिद्धं भक्ष्य मुक्तमकतन्त्रानुसारतः ॥ एतहतस्य माघादिमासविशेषविहितकर्मत्वेन मलमासेतरकत्र्तव्यमाह। वशिष्ठलिङ्गपुराणम् । “प्रारब्धेतु व्रते पश्चात् सम्प्राप्ते त्वधिमासके। पूर्वमानेन तं त्यक्त्वा कार्य द्वादशमासिकम्" ॥ पूर्वमानेन मलिम्लुच शून्यवत्सरमानेन तं मलमासं हादशमासिकं हादशमासेषु एव कार्य न मलमास इत्यर्थः यत्त “मासे मलिम्लचेऽप्येवं यजद्द वीं सशङ्कगम्। किन्तु नोद्यापन कार्यमित्याह भगवान् शिवः” ॥ इति विष्णुरहरबवचनं तन्मासविशेषानङ्कितमासमात्र कर्तव्यामावास्यादिवतकर्तव्यता परम् उद्यापनं प्रतिष्ठा एवमारम्भोऽपि निषिद्धः गायः। “अस्तंगते गुरौ शुक्र वाले हवे मलिलचे। उपायनमुपारम्भं व्रतानां नैव कारयेत्” ॥ उपाय नं प्रतिष्ठा उपारम्भमारम्भम् एतच कालाशुद्धिमानपरं तत्तन्मात्रविधिकल्पने गौरवात् भविष्थे “भाद्रे मासि सिते पक्षे सप्तम्यां निययेन या। नात्वा शिवं लेयित्वा मण्डले च सहाम्बिकम्। पूजयेच्च तदा तस्यां दुष्यापं नैव विद्यते” ॥ इदं कुक्क टीव्रतत्वेन ख्यातं भविष्थे "सूर्य ग्रहणतुल्या हि शुक्लमाघस्य सप्तमौ । अरुणोदयवेलायां तस्यां स्वानं महाफलम् ॥ माधे मासि सिते पक्षे सप्तमौ कोटिभास्करा। दद्यात् स्नानाय दानाभ्यामायुरारोग्यसम्पदः ॥ अरुणोदयवेलायां शुक्ला माघस्य सप्तमौ । गङ्गायां यदि लभ्येत सूर्य ग्रहशतैः समा' ॥ कोटिभास्करा कोटिसप्तमौतुल्या सूर्य ग्रहणफलं नानजं सन्निहिते बुद्धिरन्तरङ्गा” इति न्यायात्। तेन बहुशत सूर्यग्रहगा कालौनगङ्गामानजन्यफलसमफलप्राप्तिः फलमत्र जेयम् अत्र बहुतर For Private And Personal Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । शतसूर्यग्रहाणां प्रत्येकाधिकरणतासंसर्गेणान्वयात् कालानां स्नानानां तत्फलानामपि बहुशतत्वं लभ्यते अतो नाप्रसिद्धिः पूर्णसप्तम्यां पूर्वापरतोयंत्रारुणोदयकाले सप्तमौ तत्र पूर्वदिने तत्काले स्नानम्। “चतस्रो घटिका प्रातररुणोदय उच्यते। यतीनां स्नानकालोऽयं गङ्गाम्भः सदृशः स्मृतः ॥ त्रियामां रजनों प्राहुस्त्यत्वाद्यन्तचतुष्टयम्। नाडौनां तदुभे सध्ये दिवसाद्यन्तसं जित” ॥ इति कालमाधवीयकृत ब्रह्मवैवती येन पूर्वस्य तत्कालस्य पूर्णतिथिसम्बन्धि दिनकर्त्तव्य कर्माङ्गत्वेन इतरस्य चेतराङ्गत्वे नाभिधानात् अतएव दक्षेण तत्कालमारभ्याङ्गिक कृत्यमभिहितम् अवारुणोदयकाले मुहान्य नतिथिलाभ एव स्नानं “व्रतोपवासस्नानादौ घटिकैका यदा भवेत् । उदये सा तिथिह्या थाहादावस्तगामिनी” इति विष्णुधर्मोत्तरात् अत्न धटिका मुहूर्त श्राद्धयोग्य कालानुगेधादिति वक्ष्यते ब्रह्मवैववर्तवचने घटिका दण्ड रूपा परवचने नाडौनामाद्यन्त चतुष्टयमित्ये कवाक्यत्वात् ये तु सूर्योदयात् प्रागपि प्रातःस्नानविधानात् तत्रैव माघसप्तम्याख्यगुगाफलविधि - वादित्याहुः तच्चिन्त्य “प्रकरणान्यत्वे प्रयोजनान्यत्वम्” इति जैमिनिसूत्रेण प्रकरणभेदे गुणविष्यसिद्धः अतएव कल्पतरू. रत्नाकरयोः । “य इच्छेदिपुलान् भोगान् चन्द्रसूर्य ग्रहोपमान्। प्रातःस्नायौ भवेन्नित्यं दो मासौ माघफाल्गुनो” इति विष्णुस्मृती नित्यस्नानप्रकरणात् प्रकरणान्तरान्मानात् प्रकरणान्त. राधिकरण न्यायेन काम्यस्नानान्तरमिदमप्युक्तं न तु गुणफल. विधि: किन्तु कास्य करणे प्रसङ्गानित्यसिद्धिरिति अत्र माघभासनिमित्तकमाघसप्तमीनिमित्तककाम्यस्नानयोः प्रातर्विधानात् नैमित्तकत्वेन प्रायश्चित्तवत् सक्दनुष्ठानम् । “प्रधानस्याक्रिया यत्र साङ्गं तत् क्रियते पुनः । तदङ्गस्याक्रियायान्तु नावृत्तिन च तत्क्रिया" ॥ इति कात्यायनवचनात् “न स्नानमाचरेद् भुत्वा नातुरो न महानिधि । न वासोभिः सहाजन नाविज्ञाते जलाशये" ॥ इति मनुवचनेकदाजनमाननिषेधाच्च “धर्म विन्नाचरेत् स्नानमाहिकञ्च पुनः पुनः" । इति मनुवच नाच अतएव नान्दो मुख प्रकरणशेषे प्रधानानामपि काग्यानां For Private And Personal Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । ३८ तत्तद्दे शकालविहितानां तन्त्रेणैव सिद्धिरिति श्राइचिन्तामणिः निष्कामविष्णुप्रौतिकामयोः सुतरां सक्कदनुष्ठानं "गुणतारतम्यात् फलतारतम्यम्” इति न्यायेन फलं बोध्यम्। तत्तु इक्षु नौरगुडादिमाधुर्य्यभेदवविर्देष्टुमशक्यं “पक्षान्तरेऽपि कन्यास्थे रवी शाई प्रशस्यते। कन्यागते पञ्चमे तु विशेषेणैव कारयेत्” ॥ इति हेमाद्रिस्तादित्यपुराणोक्तवत् एतहचनप्रागड़ कार्तिकमलमासाब्दविषयं “देशकालाथमक्षेत्रदाटद्रव्यमनो गुणाः । सुकशस्यापि दानस्य फलातिशयहेतवः” ॥ इति ब्रह्मपुराणोक्तवञ्च तीर्थभेदे त्वेकदापि नानास्नानम्। “विषुवहिवसे प्राप्ते पञ्चतीर्थीविधानतः” इति ब्रह्मपुगणादिवचनात् तीर्थभेदे तन्त्रप्रमभयोरसम्भवाच्च। अतएव गङ्गावाक्यावलौतीर्थचिन्तामण्योः। यत्तु प्रयागे वाह मानक्रोडोकतेऽपि माघसप्तमौस्नानादावसाधारण सङ्कल्पेन पुनस्तथैव प्रात:स्नानाचरणं तदयुक्तं तदा सतत् स्नानस्यैव विहितत्वात्। अन्यथा तत् बाहफलकामनायां तदानन्त्यापत्तेरित्यक्तम् । स्नाने परिपाटीमाह कृत्य कल्पलतायां विष्णुः “सप्त वदरपत्राणि सप्तार्कपत्राणि च शिरसि निधाय" “यद्यत् जन्मकृतं पापं मया सप्तसु जन्मस्। तन्मे रोगञ्च शोकञ्च माकरौ हन्तु सप्तमी” ॥ इत्युचार्य सायादिति शेषः। रोक छिद्रं तिथि कत्यस्य पौर्णमास्यन्तमासाङ्गकत्वान्माकरोति पदं मकराारब्धचान्द्रमासौय तिथिकृत्यपरम्। “तिथिकृत्ये च कृष्णादिं व्रते शुक्लादिमेव च । विवाहादौ च सौरादिं मासं कृत्ये विनिर्दिशेत्" ॥ इति ब्रह्मपुराणान्मन्वन्तरादित्वेन तथा युक्तत्वाञ्च यथा मत्स्यपुराणे । “यस्मान्मन्वन्तरादौ च रथमापुदिवाकराः। माघमासस्य सप्तम्यां तस्मात् सा रथसप्तमौ । अरुणोदयवेलायां तस्यां स्नानं महाफलम्” ॥ अतएव नारसिंह रथ्याख्यायामित्युक्तं यथा “महानवम्यां हादश्या भरण्यामपि चैव हि। तथाक्षयटतौयायां शिष्यानाध्यापयेद् बुधः । माघमासे तु सप्तम्यां रथ्याख्यायाञ्च वर्जयेत्” ॥ हादश्यां शयनोत्थान हादश्यां भरण्यां शक्रध्वजपातभरण्यामिति कल्पतरुः अत्र महानवम्यादिसाहचयाच्च न्त्रत्व प्रतीयते अतएव चतुर्दश मन्वन्तरादिगणने कापि For Private And Personal Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४० तिथितत्त्वम् । न राश्यल्लेखः। यथा भविष्यमत्स्ययोः । “प्रश्खयुक् शुक्ल नवमी हादशी कात्तिको तथा । टतौया चैत्रमासस्य तथा भाद्रपदस्य च ॥ फाल्गुनस्याप्यमावस्या पौषस्यैकादशौ तथा। आषाढ़स्यापि दशमी तथा माघस्य सप्तमौ ॥ श्रावणस्याष्टमी कृष्णा तथाषाढस्य पूर्णिमा। कार्तिको फाल्गुनी चैत्रौ ज्येष्ठौ पञ्च. दशी सिता। मन्वन्तरादयस्त्वता दत्तस्याक्षयकारिकाः” । अत्र अमावस्याष्टमीव्यतिरित्ताः शुक्लाः पुनः पुनस्तथा पदोपा. दानात् । उपक्रमोपसंहारयोः शुक्लत्वकौत्तनाच पत्र कामधेनौ हतीया चैव माघस्येति कल्पतरौ तु तौया चैत्रमासस्येति लिखितम् अत्र पाठहैधे श्रीपतिरत्नमालायाम् । अश्वयुजि शक्लनवमौहादश्यर्जे मधौ हतीया च इति पाठाञ्चैत्ररतीयैव ग्राह्या। श्रीदत्तोऽप्येवम् । माघसप्तम्याश्चान्द्रत्वं सोरागमेऽपि "अर्कपत्रैः सवदरैक्षित सचन्दनैः। अष्टाङ्गविधिना चाय दद्यादादित्य तुष्टये ॥ माघेऽथ फाल्गुने वापि भवे? माघसप्तमो। माकरोति च यत् प्रोक्त तत्प्रायो हत्तिदर्शनात् ॥ अष्टाङ्गविधिना योऽय भानोद्धि निवेदयेत्। ताम्रपात्राय॑दानेन पुण्यं दशगुणं स्मृतम्” ॥ इति विष्णपुराणोयेन आदित्यपुराणे "ऋक्षराशिविशेषेण यत् कर्म विहितवरैः । दैवं वाप्यथवा पैवं तदन्यत्रापि दृश्यते" अय॑मन्वस्तु “जननी सर्वभूतानां सप्तमी सप्तमप्तिके। सप्तव्याहृतिके देवि ! नमस्ते रविमण्डले" ॥ प्रणाममन्त्रस्तु “सप्त सप्तिवहप्रौत सप्तलोकप्रदौपन। सप्तम्यां हि नमस्तुभ्यं नमोऽनन्ताय वेधसे । सप्तिरखः । अथाष्टमौ। सा च शुक्ला नवमौयुता ग्राह्या युग्मात् । कृष्णा च सप्तमोयुता यथा निगमः "कृष्णपक्षेष्टमौ चैव कृष्णपक्षे चतुर्दशी। पूर्वाव?व कर्तव्या परविद्या न कुत्रचित् ॥ उपवासादि कार्येषु एष धर्मः सनातनः”। भविष्यपुराणे। "चतुर्दश्यां तथाष्टम्यां पक्षयोः शुक्लकष्णयोः। योऽब्दमेकं न भुञ्जौत शिवाचनपरो नरः ॥ यत् पुण्यमक्षयं प्रोक्तं सततं सत्रयाजिनाम्। तत् पुण्यं सकलं तस्य शिवलोकञ्च गच्छति ॥ ततः सततसत्रयाज्यक्षयपुण्यसमपुण्य प्राप्तिः शिवलोकगतिय For Private And Personal Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । ४१ फलम् | फाल्गुनशुक्लाष्टमौ चतुर्दश्योरारभ्य वर्षं यावत् प्रत्यष्टमी प्रति चतुर्दश्युपवासव्रतम् । कालिकापुराणे । " येषा ललितका न्याख्या देवी मङ्गलचण्डिका । वरदाभयहस्ता च हिजा गौरदेहिका ॥ रक्तपद्मासनस्था च मुकुटकुण्डल - मण्डिता । रक्तकोषेयवस्त्रा तु स्मितवक्ता शुभानना ॥ नवयौवनसम्पन्ना चार्वङ्गौ ललितप्रभा । उमया भाषितं मन्त्रं यत्पूर्वं त्वेकमक्षरम् ॥ मन्त्रमस्यास्तु तज्ज्ञेयं तेन देवीं प्रपूजयेत्” । एकमचरं शक्तिवीजरूपम् " तथाष्टम्यां नवम्याञ्च पूजा काव्या विदये । पटेषु प्रतिमायां वा घटे मङ्गल चण्डिकाम् ॥ यः पूजयेोमवारे शुभैर्दूर्वाक्षतैः शिवाम् । सततं साधक : | सोऽपि काममिष्टमवाप्नुयात्” ॥ ज्योतिषे । “ शनैश्वरस्य वारेण वारेणाङ्गारकस्य च । कृष्णाष्टमी चतुर्दश्यौ पुण्यात् पुण्यतरे स्मृते” ॥ तथा “सोमवारेऽप्यमावास्या आदित्या हेतु सप्तमौ । चतुर्थ्यङ्गावारे तु अष्टमीच वृहस्पती ॥ अत्र यत् क्रियते पापमथवा धर्मसञ्चयः । षष्टिजन्ममहस्राणि प्रतिजन्म तदक्षयम्” ॥ प्रणम्य जगतामौणं वसुदेवसुतं हरिम् । तज्जम - तिथितत्त्वानि वक्ति श्रीरघुनन्दनः ॥ अथ जन्माष्टमी । ब्रह्मपुराणे । " श्रथ भाद्रपदे मामि कृष्णाष्टम्यां कलौ युगे । श्रष्टाविंशतिमे जातः कृष्णोऽसौ देवकीसुतः । अष्टाविंशतिमे सार्वाणक मन्वन्तर प्रथमयुमापेक्षयेति शेषः ॥ विष्णुपुराणे महामायां प्रति भगवद्दाक्यम् । “प्राहृट्काले च नभसि कृष्णाष्टम्यामहं निशि । उत्पत्स्यामि नवम्याञ्च प्रसूतिं त्वमवाप्स्यसि " ॥ इत्यादिषु भाद्रपदनभः पदयोर्न विरुद्धार्थता तत्कालस्यैकश्रुतिमूलतया गौणचान्द्रेण भाद्रता मुख्यचान्द्रेण श्रावणर्तति । अभिलापस्तु गौण चान्द्रेणैव तदर्थमेव भाद्रपदप्रयोगात् अन्यथा तदभिधानमनर्थकं स्यात् तिथिकृत्ये च कृष्णादिमिति वचतात्। यत्तु वशिष्ठसंहितायाम् । एकस्मिन् वचने श्रावणनभस्योपादानं तत् सौराभिप्रायेण । यथा "श्रावणे वा नभस्ये वा रोहिणी सहिताष्टमी । यदा कृष्णे नरैर्लब्धा सा जयन्तौति कौर्त्तिता" ॥ कृष्ण कृष्णपचे अत्र वच्यमाणवचनान्मध्यरात्रप्राप्तावेव जयन्तीत्वं न रोहिण्य For Private And Personal Use Only - Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४२ तिथितत्त्वम् । म्योर्योगमात्रे यथा “सिंहा रोडियोयुक्ता नराः कृष्णाष्टमी यदि । रात्रापूर्वापरगा जयन्तौ कलयापि च " ॥ इति वराहसंहिता । एतेन द्वादशमासेषु कृष्णाष्टमौष्वपि रोहिणौयोगपुरस्कारेण जयन्तौव्रतमिति द्वैतनिर्णयोक्तं निरस्तं उक्तवचनविरोधात् । " सूर्याचन्द्रमसोर्यः परः सन्निकर्षः सामावास्या । इति गोभिलसूत्रेण ज्योतिःशास्त्रगणनया च चन्द्रसूययोरमावस्यायामेकराश्यवस्थाननियमेन द्वादशसु मासेष्वष्टम्यां रोहिणी योगस्य सर्वथैवा सम्भवाच्च । भविष्योत्तरे । " श्रावणे वहले पक्षे कृष्णजन्माष्टमीव्रतम् । न करोति नरो यस्तु स भवेत् क्रूरराचसः ॥ वर्षे वर्षेषु तु या नारौ कृष्णजन्माष्टमीव्रतम् । न करोति महाक्रूर व्याली भवति कानने” ॥ भविष्य । “सप्तमोसाईयामञ्चेद्रोहियों वा न संस्पृशेत् । व्रतं संकल्पयेतत्र न च रात्रौ कदाचन ॥ तत्र सप्तम्यां तद्दिने तस्या एव प्रातर्लाभात्तदानीं संकल्पमाह वृहस्पतिः । " प्रातः सन्ध्यां ततः कृत्वा संकल्प बुध श्राचरेत् । प्रातःसंकल्पयेद्दिद्दानुपवासव्रतादिकम् " ॥ ब्रह्मवैवत्तः । " मन्वादिदिवसे प्राप्ते यत्फलं स्नानपूजनैः । फलं भाद्रपदेऽष्टम्यां भवेत् कोटिगुणं द्विज !” ॥ तथा "अस्यां तिथौ वारिमात्र य: पितॄणां प्रयच्छति श्राद्धं कृतं तेन शताब्दं नात्र संशयः " ॥ पूजा च मध्यरात्रे | “कृष्णाष्टम्यान्तु रोहिण्यामर्द्धरात्रेऽर्द्धनं हरेः” । इति गारुड़ाइक्ष्यमाणवचनजाताञ्च । अन्यदाप्युक्ता भविष्य । “त्रिकाले यूजयेद्देवं दिवारात्रौ विशेषतः । श्ररात्रावपि तथा पुष्प - नानाविधेरपि " ॥ अत्र भविष्यपुराण भविष्योत्तराभ्यां संक्षिप्य पूजाविधिरभिधोयते । “पार्थ! तहिवसे प्राप्ते दन्तधावनपूर्वकम् । उपवासस्य नियमं गृहीयाद्भक्तिभावतः ॥ वासुदेवं समुद्दिश्य सर्वपापप्रशान्तये । उपवासं करिष्यामि कृष्णाष्टस्यां नभस्यहम ॥ अद्य कृष्णाष्टमीं देवीं नभश्चन्द्रसरोहिणौम । श्रर्थयित्वोपवासेन भोच्ये ऽहमपरेऽहनि ॥ एनसो मोक्षकामोऽस्मि यहोविन्द त्रियोनिजम् । तन्मे मुञ्चतु मां त्राहि पतितं शोकसागरे ॥ श्रजन्ममरणं यावद्यन्मया दुष्कृतं कृतम् । तत् प्रणाशय गोविन्द ! प्रसौद पुरुषोत्तम !” ॥ एतन्मन्त्रचतुष्टयं गया ॥ For Private And Personal Use Only ◄ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । संवत्सरप्रदीपतं तथा "एकेनैवोपवासेन कृतेन कुरुनन्दन !। सप्तजन्म कृतात् पापान्मुच्यते नात्र संशयः ॥ ग्राहमुपक्रम्य तथा "तन्मध्ये प्रतिमा स्थाप्या काञ्चनादिविनिर्मिता। प्रतप्तकाञ्चनाभासा देवको सुतपस्विनी॥ माच्चापि बालकं सुप्तं प्रसूता नौरदच्छविम्। वसुदेवोऽपि तत्रैव खङ्गचर्मधरः स्थितः॥ यशोदा चापि तत्रैव प्रसूतवरकन्यका। वलभदस्तथा नन्दो दक्षो गर्गश्चतुर्मुखः ॥ एवं प्रपूजयेद्भक्त्या गन्धपुष्पाक्षतैः फलैः” । तथा "स्थण्डिले स्थापयेद्देवों सचन्द्रां रोहिणी तथा। देवकी वसुदेवञ्च यशोदा नन्दमेव च ॥ चण्डिकां वलदेवं संपूज्य पापैः प्रमुच्यते । अर्द्धरात्रे वसोर्धारां पातयेद्गुड़सर्पिषा । ततो वापनं षष्ठों नामादेः करणं मम। कर्त्तव्यं तत्क्षणादात्री प्रभाते नवमौदिने। यथा मम तथा कार्यो भगवत्या महोत्सवः ॥ ब्राह्मणान् भोजयेद्भक्त्या तेभ्यो दद्याच्च दक्षिणाम् । सुवर्ण काञ्चनं गाश्च वासांसि कुसुमानि च ॥ यद्यदिष्टतम लोके कृष्णो मे प्रोयतामिति। यं देवं देवकी देवी वसुदेवादजीजनत् ॥ भौमस्य ब्राह्मणो गुप्त्यै तस्मै ब्रह्मात्मने नमः । सुब्रह्म वासुदेवाय गोब्राह्मणहिताय च ॥ शान्तिरस्तु शिवजास्तु इल्युत्वा तान् विसर्जयेत्। एवं यः कुरुते देव्या देवक्या: सुमहोत्सवम् ॥ वर्षे वर्षे भगवतो मद्भक्तो धर्मनन्दन !॥ नरो वा यदि वा नारौ यथोक्त फलमाप्नुयात्। पुत्रसन्तानमारोग्यं धनधान्यति मद्ग्रहम्" ॥ तथा “मम्पर्केणापि यः कुर्यात् कश्चिजन्माष्टमीव्रतम्। विष्णु लोकमवाप्नोति सोऽपि नास्त्यत्र संशयः ॥ जयंत्यामुपवासश्च महापातकनाशकः । मः कार्यो महाभक्त्या पूजनौयश्च के शवः ॥ तुध्यर्थं देवको. सूनोजयन्तौसंज्ञक व्रतम्। कर्तव्यं चिन्तमानेन भत्त्या भक्तजनैरिह ॥ अकुर्वन् निरयं याति यावदिन्द्राश्चतुर्दश” । वापनं नाडीच्छेदनम्। सुवर्णमत्राशौतिरत्तिकापरिमितं हेम काञ्चनं ततो न्यूनं काञ्चनमित्यत्र मेदिनौमिति क्वचित् पाठः। भौमस्य पृथिवीमम्बन्धिनः कृष्णो मे प्रौयता मित्यत्वा दद्यादित्यनेनान्वयः। तान् ब्राह्मणान् भक्तजनैरिति तैः सहे. त्यर्थः अतएव विष्णुपुराणम् । “सहत सन्निकर्षो हि क्षणाई. For Private And Personal Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । मपि शस्यते”। अत्र पूजोपवासयोः प्रधानत्वेनाकाङ्गाविरहादनन्वये अन्यतरस्य गुणत्वमवश्य वाच्यम् एवञ्च पूजैवाङ्गम् उपवासस्तु प्रधानं उपवासस्य नियमित्यु पक्रमे श्रवणात्तत्रैव विध्यन्वयात् । अङ्गस्य प्रधानविधिविधेयत्वेन पूजाया विध्यन्तरानपेक्षणात् अतएवोपसंहारेऽपि जयन्त्यामित्यादिना उपवासमभिधाय पूजनीयश्चेत्यभिहितम्। न चैवं पूजने फलानुपपत्तिः “यस्य पर्णमयौजुइभवति न स पापश्लोक शृणोति" इत्यादौ गुणेऽपि फलश्रवणात्। अतएव ब्रह्मवैवर्तः नृया विना व्रतेनापि मतानां वित्तवर्जिनाम् । ते नैवोपवासेन प्रोतो भवति माधवः ॥ भक्त्या विनोपचारंण रात्री जागरणेन च । फलं यच्छति दैत्यारिजयन्तौव्रतसम्भवम् ॥ वित्तशाठ्यमकुर्वाण: सम्यक् फलमवाप्नुयात् । कुर्वाणो वित्तशाठ्यन्तु लभतेऽसदृशं फलम्” ॥ विना व्रतेन पूजाद्यङ्ग विना । एवञ्च करणे फलश्रुतेरकरण प्राशुन्ना श्रावणे बहुले पक्षे इत्यादिना दोष श्रुतेश्चास्य काम्यत्व नित्यत्वव। ननु काम्य त्वमनित्यत्वं असति कामे परित्यक्तं शक्यत्वात् तथा सत्ये क स्य कर्मणो नित्यत्व काम्यत्वाभ्यां हरू प्याङ्गोकार नित्यानित्यसंयोगविरोध: मैवं संयोगपृयक्त्व न्यायात्। स च न्यायो यथा खादिरे पशुवधाति खादिरं वौर्य कामस्य यपं कुर्वी तति श्रयते। अत्र संशयः किं कास्य स्यैव खादिरता नित्येऽपि स्यात् उत नेति प्रत्न फलार्यत्वेनानियतया नित्यप्रयोगाङ्गता न युक्ता यत्तु नित्येऽपि वादिरत्व श्रवणं तत्काम्य स्यैव पशुबन्धनाय यपाश्रयज्ञापनार्थम् अतो न नित्ये खादिरतति प्राप्त राधान्ताय चतुर्थाध्याय सूत्रम् एकस्य च उभयत्वे संयोगमृथक्त्वमिति अत्र संयोगः सम्बन्धमात्रम्। एकस्य वादिरस्य क्रत्वर्थपुरुषार्थत्वरूपोभयात्मकत्वे वाक्यहये क्रतुशेषत्व फलशेषत्व लक्षणसंयोगभेदावगमात् न नित्यानित्यसंयोगविरोधः । न च आश्रयज्ञापनार्थ नित्यवाक्यं सबिधानादेवाश्रय न्ताभादत उभयार्था खादिरत ति। "एवं दना जुहोति दनेन्द्रिय कामस्य” इत्यादावुभयार्थतैव दधित्वस्य हेधाश्रवणात् । गरुड़भविष्योत्तरवचनानि राजमार्तण्ड कृत्य चिन्तामणि धृतानि For Private And Personal Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । ४५ यथा "तमेवोपवसेत् कालं गत्रौ कुर्याच जागरम्। एकाग्रेणैव भावेन विष्णोर्नामानुकौतयन् ॥ अनघ वामनं शौरि वैकुण्ठ पुरुषोत्तमम्। वासुदेवं हृषीकेशं माधवं मधुसूदनम् ॥ वराई पुण्डरीकाक्ष नृसिहं दैत्यभूदनम्। दामोदर पद्मनाभं केशवं गरुड़ध्वजम् ॥ गोविन्दमयुतं कृष्णमनन्तमपराजितम्। अधोक्षज जगन्नाथ सर्गस्थित्यन्तकारिणम । अनादि निधनं विष्णं त्रिलोकेश त्रिविक्रमम् । नारायणं चतु हु शङ्खचक्रगदाधरम् ॥ पीताम्बरधरं नित्यं वनमालाविभूषितम्। श्रीवत्सार जगत्सेतुं श्रीकृष्णं श्रीधरं हरिम् ॥ प्रपद्येऽहं सदा देवं सर्वकामप्रसिद्धये । एवं पठित्वा बरदं कृष्णं वन्देत भक्तितः ॥ प्रणमामि सदा देवं वासुदेवं जगत्पतिम् । नामान्येतानि संकोत्यं गत्यर्थं प्रार्थयेनरः॥ त्राहि मां सर्वलोकेश ! हरे ! संसारसागरात्। त्राहि मां सर्वपापघ्न ! दुःखशोकार्णवात् प्रभो !॥ सर्वलोकेश्वर ! बाहि पतितं मां भवार्णवे। दैवकीनन्दन ! श्रोश ! हरे ! संसारसागरात् ॥ त्राहि मां सर्वदुःखन्न ! रोगशोकार्णवात् हरे!। दुर्गतां स्त्रीयसे विष्णो ! ये स्मरन्ति सतत् सतत् ॥ सोऽहं देवातिदुत्तस्त्राहि मां शोकमागरात्। पुष्कराक्ष ! निमग्नोऽहं मायाविज्ञानसागरे ॥ त्राहि मां देवदेवेश ! त्वत्तो नान्योऽस्ति रक्षिता" । ततश्योपवास पूर्वदिन नियमं विधाय तहिने प्रातःस्नानादिकं विधाय "सूर्यः सामोयमःकालःसम्ध्ये भूतान्यहाक्षयाः। पवनो दिक्पतिर्भूमिराकाशं खचराऽमरा: ॥ ब्राञ शासनमास्थाय कल्यध्वामह सन्निधिम्" इति पठित्वा "तहिष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः । दिवोव चक्षुराततम्” ॥ इति मन्वेण नारायणं संस्म त्य तत्सदित्युच्चार्य उदङमुखो दर्भवयफलपुष्पतिल जलादिपूर्ण यथा लाभोपपन्नं वा पात्रं गृहीत्वा श्रीकृष्णजन्माष्टमौव्रतम् प्रोत्यादिना संकल्पयेत् यापवासदिने प्रातःसप्तमौ तदा सप्तम्यां तिथावारभ्येति वक्तव्यं “धर्माय धर्मखराय धर्मपतये धर्मसम्भवाय गोविन्दाय नमो नमः”। इत्युच्चार्य प्रागुक्तवासुदेव समुद्दिश्यति मन्त्र चतुष्टयं पठेत्। अईराने तु प्रगणवादि नमोऽन्तैस्तत्तन्नामभिर्वासुदेव देवकी वसुदेव यशोदानन्द For Private And Personal Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । रोहिणौचण्डि का बलदेवान् पूजयेत् । दक्षगर्गचतुर्मुखानपि तथा संवत्सर प्रदौपे भविष्योत्तरीयम्। वलभद्रस्तथा नन्दो दक्षोगर्गश्चतुर्मुखः । पूजनीयस्त्रथा भक्त्या गन्धपुष्याक्षतर्जले" ॥ ततश्च "माञ्चापि बालकं सुप्तं पयझे स्तनपायिनम् । श्रीवत्मवक्ष.पूर्णाङ्ग नौलोत्पलदलच्छविम्” ॥ इति भविष्योत्तरौयध्यानं कृत्वा गरुडपुराणोक्त मन्त्रैः विशेषे इतरत्र प्रगावादि नमोऽन्तेन श्रीकृष्ण नाम्ना पूजनम्। अध्ये तु। “यज्ञाय यज्ञेश्वराय यज्ञपतये यज्ञसम्भवाय गोविन्दाय नमो नमः” । इति साने तु “योगाय योगेश्वराय योगपतये योगमम्भवाय गोविन्दाय नमो नमः” इति एवं नैवेद्य एवं विश्वायेत्यादि ततिलाभ्यां होमे धर्मायेत्यादि स्वाहान्तेन शयने विखायेत्यादि ततो देव क्यादि पूजा का- “पादावमुञ्चयन्तौ श्रोदेवक्याश्चरणान्तिके। निषमा पङ्कजे पूज्या नमो देव्यै श्रियै” इति संवत्सर प्रदीपकृतवचनात् श्रीपूजापि ततो गुड़तेर्वसोर्धारां नाडीच्छेदनं षष्ठीपूजन' नामकरणादिकञ्च कुर्यात् । “पूजयेयुईि जाः सर्वे स्त्रोशूद्रागाममन्त्र कम् । चन्द्रो दये शशाङ्काय दद्यादयं हरि स्मरन्” ॥ तबिधिश्च “शङ्ख तोयं समादाय सपुष्प कुशचन्दनम्। जानुभ्यां धरणों गत्वा चन्द्रायाऱ्या निवेदयेत्” ॥ अध्य मन्त्रः "क्षीरोदार्णवसंभूत ! अत्रिनेत्र समुद्भव !। ग्टहाणाध्य शशाझेदं रोहिण्या सहितो मम ॥ सोमाय सोमेश्वराय सोमपतये सोमसम्भवाय गोविन्दाय नमो नमः”। प्रगाममन्त्रो यथा “ज्योत्स्नाया: पतये तुभ्यं जोतिषां पतये नमः । नमस्ते रोहिणौकान्त ! सुधावास! नमोऽस्तु ते ॥ नभोमण्डलदीपाय शिरोरत्नाय धर्जटेः। कलाभिर्वईमानाय नमश्चन्द्राय चारवे" ॥ ततश्चानचं वामनमित्यादिना “प्रणमामि सदा देवं वासुदेवं जगत्पतिम्' इत्यन्तेन नामकौर्तन प्रणामौ त्राहि मामित्यादिना त्वत्तो नान्योऽस्ति रक्षितत्यन्तेन “यहाल्ये यच्च कोमारे वाईके यच्च यौवने। तत्पुण्यं वृद्धिमाप्नोतु पापं हर इलायुध !” इति शिवरहस्योयेन प्रार्थनं कुर्यात् “ततः स्तोत्रैः स्तुतिं कृत्वा वासुदेवं जनादनम्। गोतवादिननृत्यैश्च शेष कालं यथा सुग्वम्” नये. For Private And Personal Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । ४७ दिति शेषः । परदिने प्रातर्भगवन्तं यथाविधि संपूज्य दुर्गायाश्च महोत्सव: कार्य: ततो ब्राह्मणान् भोजयेत् तेभ्यो दक्षिणाञ्च स्वर्णादि यत्किञ्चिदिष्टतमं कृष्णो मे प्रीयतामित्यु त्वा दद्यात् तत: यं देवमित्यादि शान्तिरस्तु शिवञ्चास्तु इति मन्वं पठित्वा ब्राह्मणान् विमर्जयेत् तत: पारणं कुर्यात् तन्मन्त्रः । “सर्वाय सर्वेश्वराय सर्वपतये सर्वसम्भवाय गोविन्दाय नमो नमः" । पारणानन्तरं समापनमन्वं भूताय इत्यादिकं पठेत् । अथ व्रतकालव्यवस्था। तत्र ईराने रोहिगीकृष्णाष्टम्योलाभे जन्माष्टमौव्रताय स एव काल: तस्य मुख्यत्वेनाभिधानात्। तथा च वशिष्ठः “अष्टमौरोहिणीयुक्ता निशाई दृश्यते यदि। मुख्यः कालः स विज्ञ यस्तत्र जातो हरिः स्वयम्" ॥ भविष्यपुराणविष्ण वर्मोत्तरयोः । “अईगो तु रोहिण्यां यदा कृष्णाष्टमी भवेत्। तस्यामभ्यर्चनं सोरहन्ति पापं त्रिजन्मजम् ॥ सोपवासो हरेः पूजां कृत्वा तत्र न सोदति”। अयमेव जय त्याख्यो योगः। तथा च वराहसहितायां "सिंहा रोहिणीयुक्ता नराः कृष्णाष्टमौ यदि । गाईपूर्वापरगा जयन्ती कलयापि च” इति विष्णुधर्मोत्तरादिपुराणयोः। “रोहिणी सहिता कृष्णा मासि भाद्रपदेऽष्टमी। सप्तम्यामई रात्राध: कलयापि यदा भवेत् । तत्र जातो जगन्नाथः कौस्तुभी हरिरोखरः। तमेवोपक्सेत् कालं तत्र कुर्याच्च जागरम्” ॥ इत्थञ्च “अविद्यायाञ्च सायां जातो देवकीनन्दनः । इति सप्तम्यवेधे जन्म श्रवणं कल्प. भेदादविरुई सप्तम्यामईरानाध इत्यत्र अईराबादधश्चोई मिति भविष्यपुराण-वायुपुराणयोः पाठः। स्कान्दे "जयं पुण्यञ्च कुरुते जयन्तीमिति तां विदुः। रोहिणो सहिता कृष्णा मासे च श्रावणेऽष्टमी॥ अईराबादधश्चोई कल यापि यदा भवेत् । जयन्तौ नाम सा प्रोक्ता सर्वपापप्रणाशिनी” । अन्यत्रापि "अईराबादधशोई मेकाईघटिकान्विता। रोहिणी चाष्टमी ग्राह्या उपवासव्रतादिषु" ॥ एकघटिकान्विंता अईघटिकाविता वेत्यर्थः । अतेन यदा सूर्योदये स्वल्पाऽप्यष्टमौ रोहिणी. युता वनन्तरं पूर्णा नवमी सोमवारण बुधवारेण वा युता For Private And Personal Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । स्यात्तदा सर्वांपवादिका सैवोपोथा इति। यदाह ब्रह्मवैवर्तः "उदये चाष्टमौ किञ्चित्रवमौ सकला यदि । भवेत्तु वुधसंयुक्ता प्राजापत्यसंयुता ॥ अपि वर्षयतेनापि लभ्यते वा न वा विभो!" । पद्मपुराणेऽपि "प्रेतयोनिगतानान्तु प्रेतत्वं नाशितन्तु तैः। यैः कृता श्रावणे मासि अष्टमी रोहिणीयुता। किं पुनर्बुधवारण सोमेनापि विशेषतः ॥ किं पुनर्नवमौयुक्ता कुलकोट्यास्तु मुक्तिदा" इति निरस्तं गुणफलानुरोधेन जयन्त्याख्यमुख्यकालवाधायोगात्। स्कान्दे “न करोति यदा विष्णोजयन्तीसंज्ञकं व्रतम्। यमस्य वशमापत्रः सहते नारकों व्यथाम्" ॥ भविष्थे “तुध्यर्थं देवकीसूनोजयन्तीसंज्ञकं व्रतम् । कर्तव्यं चिन्तमानेन भक्त्या भक्तजनैरिह। अकुर्वनिरयं याति यावदिन्द्राश्चतुर्दश" । इति जयन्तौलङ्घने प्रत्यवायश्रुतेश्च । वुधसोमलवाने प्रत्यवायाश्रवणात् गुणफलत्वमेव महार्णवेऽपि वुधसोमवारयोगो गुणफलायेत्युक्तम्। हेमाद्रिरपि यदा तु यदिवस एव रोहिण्यष्टमौयोगस्तदा तत्रैव वुधवारादियोगः फलातिशयः । अन्ये त्वेवमाहुः। यदा पूर्वदिनाईरात्र रोहिणौयुताष्टमी नोत्तरा तथाविधा सा चेद्दधे सोमे च भवति तदोत्तरैवोपोष्या न पूर्वा उद ये चाष्टमी किञ्चिदिति वचनात्तन। यद्यप्यरात्रे तु रोहिण्यामित्यादिवाक्यं वुधसोमवारयुक्ताष्टमीव्यतिरिक्तविषयत्व न सावकाशम् । वुधसोमवाक्य च हितौयदिवस एव रोहिणौयोग सावकाशं तथापि वुधसोमवाक्यस्थ सङ्कोचे कर्म कालव्यापितिथिसम्भवादईरानवाक्यस्य सङ्कोचे तहाधप्रसङ्गात्। तथा च वुधसोमवाक्यस्यैव सङ्कोचो नाईरानवाक्यस्येत्यन्तनाह। माधवाचार्योऽप्येवम् । किन्वयं योगो वधसोमवार प्रातः किञ्चिदष्टमी अनन्तरं तहिने नवमौक्षय उभयतिथ्योरेव रोहिणौ स्यात् तदैव भवति। ब्रह्मवैवत्त "उदये चाष्टमौ किञ्चिन्नवमौ सकला यदि” इत्यत्र सकलेति विशेष्याभिधानात् अतएव अपि वर्षशतेनापौत्युपपद्यते अस्य ग्राह्यता च जयन्त्यलाभ एव प्रागुक्तयुक्त: ननु वुधसोमवारवदष्टम्यां रोहिणीयोगो गुणफलमस्तु मैवं तिथिधे रोहिण्यानियामकत्वेनाभिधानात्। तथा हि स्मृति: "प्राजापत्यर्च For Private And Personal Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्वम् । ४५ संयुका कृष्णा नभसि चाष्टमौ। मुहर्तमपि लभ्येत सैवोपोथा महाफला" ॥ वशिष्ठः “वासरे वा निशायां वा यदा युक्ता तु रोहिणौ। विशेषेण नमो मासि सैवोपोथा सदा तिथि: ॥ अनयोरेवकारश्रुतेः। “एकादशौशताद्राजन्नधिक रोहिणीव्रतम्। ततो हि दुर्लभं मत्वा तस्यां यत्नं समाचरेत् । इति ब्रह्माण्ड पुराणे रोहिणौव्रतमिति श्रवणाच्च बुधादिवाक्य न्तु न नियामकं प्रमाणाभावात् प्रत्युत फलश्रुतेर्गुणफलवोधत्वमिति। एवञ्च तिथिविशेषनियन्त्रितापवादविधावेवकारश्रुतेः षष्टिदण्डात्मिकामप्यष्टमी रोहिणीरहितां परिव्यज्य रोहिणीसहिता स्वल्पाप्यष्टमौ उपोष्था यदा तु परदिनेऽपि रोहिणीरहिता तदा पूर्वैवोपोथा। "षष्टिदण्डात्मिकायाश्च तिथेनिष्क मणे परे। अकर्मण्यं तिथिमलं विद्यादेकादशीं विना" इत्यनपोदित सामान्यविषयत्वात् वक्ष्यमाणवचनजाताच्च । यदा तूभयदिने जयन्तीयोगस्तदा परेशुरूपवास: सङ्कल्पकालमारभ्य तिथिव्याप्तिसम्भवात् अतएव वौधायन: “यो यस्य विहितः कालः कर्मणस्त दुपक्रमे। तिथिर्याभिमता सा तु काया नोपक्रमोज्मिता" ॥ सङ्कल्पकाल: प्रातरेव प्रातःसङ्कल्प येहिहानित्यादि वराहपुराणात् “प्रात:सध्या ततः कृत्वा सङ्कल्पं वध पाचरेत्” इति संवत्सरप्रदीपवचनात् “उदये तूपवासस्य नक्तस्यास्तमये तिथिः । मध्याइव्यापिनी ग्राह्या एकभक्ते सदा तिथिः” इति वौधायनवचनेनोपवासे उदयगामि तिथेविधानात् नक्षत्रस्यास्तनिशौधसम्बधेन बलवत्त्वात् तिथेस्त्रिसन्ध्यव्यापित्वाच। तथा च भविष्य पुराणविष्णुधर्मोत्तरयोः “उपोषितव्यं नक्षत्र येनास्तं याति भास्करः। यत्र वा युज्यते राम निशीथे शशिना सह" ॥ निशोथेऽईरात्रे। पराशरः । “त्रिसन्ध्यव्यापिनी या तु सैव पूज्या सदा तिथिः । न तत्र युग्मादरणमन्यत्र हरिवासरात्” । किं पुनर्नवमौयुक्ता इति लिखिष्यमाणवचनाञ्च । एतद्विषय एव ब्रह्मवैवर्तवचनं “वर्जनीया प्रयत्नेन सप्तमौ सहिताष्टमी। सा सांपि न कर्त्तव्या सप्तमी सहिताष्टमौ। अविद्यायान्त सओयां जातो देवकीनन्दनः" । यत्त विष्णुधर्मोत्तरे “जयन्ती For Private And Personal Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् शिवरात्रिच काय्यै भद्रजयान्विते । कृत्वोपवासं तिथ्यन्ते तदा कुर्य्याश्च पारणम्” ॥ गरुड़ पुराण विष्णुधर्मोत्तरयोः “जयन्त्यां पूर्व विद्यायामुपवासं समाचरेत् । तिथ्यन्ते वोत्सवान्ते वा व्रतौ कुर्वीत पारणम्” ॥ तत्पूर्वदिनमात्र जयन्तीलाभे विद्या प्रतिप्रसवाय बोध्यम् । यदा तु विना जयन्तौयोगमुभयदिने रोहिणौयुताष्टमो लभ्यते तदापि परेद्युरुपवासः । तथा च कालमाधवौये स्कन्दपुराणब्रह्मवैवर्त्तयोः । सप्तमौ सहिताष्टम्यां भूत्वा ऋक्षं द्विजोत्तम । प्राजापत्यं द्वितीयेऽह्नि मुहर्त्ता भवेद्यदि । तदाष्टयामिकं ज्ञेयं प्रोकं व्यासादिभिः पुरा । मुहर्त्तनापि संयुक्ता सा सम्पूर्णाष्टमी मता । किं पुननवमौयुक्ता कुलकोट्यास्तु मुक्तिदा” मुहर्त्तार्द्धमम्याष्ट्या मिक सम्पूर्णदिनं तत्काय्र्यकारित्वात् । पद्मपुराणे “ पूर्वविद्दाष्टमौ या तु उदये नवमी दिने । मुहर्त्तेनापि संयुक्ता सा सम्पर्णाटमौ भवेत् । कला काष्ठा मुहर्त्तापि यदा कृष्णाष्टमी तिथिः । नवम्यां सैव ग्राह्या स्वात् सप्तमौ संयुता न हि । संयुता रोहिण्येति शेषः । रोहिणोरहितायान्तु तथाविधायां पूर्वदिन एवोपवासस्य वच्यमाणत्वात् । यत्तु सप्तमौ रात्रिशेषे रोहिणीसहिताष्टमी परदिने च रोहिणी नास्तव्यापिनौ तदा पूर्वेद्युरुपवासो वलवन्त्रचत्रसम्बन्धादित्युक्तं तच्चिन्त्यं सामान्यस्य प्रागुक्तब्रह्मवैवर्त्तस्कन्दपुराणविशेषवचनैरप्रयोजकीकृतत्वात् । एवञ्च " व्रतोपवासनानादौ घटिकेका यदा भवेत् । सा तिथिः सकला ज्ञेया पित्रर्थे चापराह्निकौ” इति देवलवचनस्याप्यत्र न विषयः कलाकाष्ठादिविशेषवचनात् । न च सप्तमौसहिताष्टम्यामित्युपक्रमात् एवं सप्तमौ सहिता न होत्युपादानाच्च ब्रह्मवैवर्त्तवचनाद्यविषयत्वे पूर्णाखण्ड योजयन्तीं विना रोहिणीयोगे परदिने कथमुपवास इति वाच्यं किं पुनर्नवमीयुक्ता कुलकोय्यास्तु मुक्तिदा इत्यनेन नवमोयोगस्य तत्रापि हेतुत्वेन कौत्त नात्तस्यात्रापि सत्त्वात् । तिथिद्वैधे उपवासनियामकस्य नक्षत्रस्योभयदिनलाभे प्रागुक्तेनोपोषितव्यमित्यादि भविष्यपुराणविष्णुधर्मोत्तरीयेण परदिन नियमितत्वाश्च । तिथिविवेके बलवन्नक्षत्र सम्बन्धस्य ५० For Private And Personal Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । प्येवम् एवञ्च नचनासम्बन्ध अष्टम्यां पूर्णायां नास्ति विप्रतिपत्तिः त्रिसन्ध्यव्यापित्वात्। खण्डायान्तु निशौथसम्बन्धिन्यामुपवासः। तथा च माधवाचार्यकृत परशरवचनम् । "दिवा वा यदि वा रात्रौ नास्ति चेद्रोहिणीक ला। रात्रियुक्तां प्रकुर्वीत विशेषणेन्दुसंयुताम्"। नारदीयसंहितायामपि "ज्योष्ण जन्मचिहानि कुर्य्याजागरणन्तु यः। ईरात्रयुताटम्यां सोऽखमेधफलं लभेत् ॥ अत्र अईरात्रश्रुतेविशेषेणेन्दुसयुतामित्यवापि तथा। एवञ्च पूर्वेपुरवाष्टम्यां निशौथयोगे सदैवोपवास:। "कृष्णाष्टमौ स्कन्दषष्ठी शिवरात्रि चतुर्दशौ। एताः पूर्वयुता: कार्यास्तिथ्यन्ते पारणं भवेत्" इति वशिष्ठ ब्रह्मवैवर्तपैठौनस्य तस्याप्येष एव विषयः । कृष्णाष्टमी कृष्णजन्माष्टमी स्कन्दषष्ठयादि साहचर्यात् तिष्यन्त पारणविधानाच । अत्रैव विषये तिथेरस्तगामित्वे विष्णुपुराणम्। “अलाभे रोहिणीभस्य कार्याष्टम्यस्तगामिनी। तत्रोपवासं कत्लेव तिथ्यन्त पारणं मतम् ॥ एतादृग्वचनं भविष्थेऽपि किन्तु तत्रोपवास: कत्तव्य इति तौयचरणे पाठः । न चैतहचनयोः पूर्वेधरेव निशीथप्राप्तो परधरस्तगामित्वमात्रेऽपि विषय इति वा विशेषेणेन्दुसंयुतामित्वस्थाईरात्रयुताष्टम्यामित्यस्य च वाधापत्तेः तिथ्यन्त पारणं भवेदित्यनुवादापत्तश्च । विसन्यव्यापिनौत्यस्य कर्मोपक्रमकालौन तिथिनियामकस्य च तिथिमामान्यविषयकस्य विशेषणेन्दुसंयुतामित्यनेन अर्द्धरावखुताष्टम्यामित्यनेन च जन्माष्टमौमात्रविषयकेण वाधितत्वात्। एवञ्च परदिनमान उभयदिने वा निशोथसम्बन्धे उभयदिने वा तदसम्बन्धे परेशुरेवोपवास: सकल्पकालानुरोधात्तिथेस्त्रि. सध्यव्यापित्वाच। "विना ऋक्षेण कर्तव्या नवमीसंयुताष्टमी" इत्यादि पुराणाच्च। माधवाचार्यप्रभृतयोऽप्य वम् । । पथ पारणकालः । पारणकालच भविष विष्णु रहस्य ब्रह्मवैवर्त । “अष्टम्यामथ रोहिण्यां न कुर्यात् पारणं कचित्। हन्यात् पुरा छतं कर्म उपवासार्जितं फलम् । तिथिरष्टगुणं हन्ति नक्षत्रञ्च चतुर्गुणम्। तस्मात् प्रयत्नतः कुर्यातिथिभान्त च पारणम्” । अत्र उभयवियोगे पारण For Private And Personal Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir પૂર तिथितत्त्वम् । 1 मुक्तम् । यदा च साईप्रहर निशाभ्यन्तरे एकस्य वियोगस्तदैकतरवियोगेऽपि पारणम् । तथा च नारदौये " तिथिनक्षत्रसंयोगे उपवासो यदा भवेत् । पारयन्तु न कर्त्तव्यं यावन्नैकस्य संक्षयः । सांयोगिके व्रते प्राप्ते यद्येकोऽपि वियुज्यते । तत्रैव पारणं कुर्य्यादेवं वेदविदो विदुः ॥ यद्य कस्यापि साईप्रहरनिशाभ्यन्तरे न वियोगस्तदा तयोरवियोगेऽपि प्रातदत्तवान्तळे पारणं “तिथ्यन्ते चोत्सवान्तो वा व्रतौ कुर्वीत पारणम्" इत्युक्तवचनात् । निर्णयामृते तु प्रतिकुर्वीत पारणमिति पाठः । न च भोजनस्य रागप्राप्तत्वेन विधित्वासम्भवात् तिथिनक्षत्रयोर्वियोगं विना न पारणं कुर्य्यादित्य कार्य इति वाच्यम् । “उपवासेषु सर्वेषु पूर्वाह्न पारणं भवेत् । अन्यथा तु फलस्याई धर्ममेवोपसर्पति" इति देवलवचने पारणनिय मात् । किञ्च यदि पारणमङ्गं न स्यात्तदा प्रतिनिधिविधानं नोपपद्येत । तथा च कात्यायनः " सन्ध्यादिकं भवेन्नित्य पारणन्तु निमित्ततः । श्रह्निस्तु पारयित्वा तु नैत्तिकान्त भुजि क्रिया" इति । अतएव हेमाद्रिप्रभृतिष्टतवचनं "तिथाक्षयोदाभेदो नचचस्यान्त एव वा । अर्धरात्रेऽथवा कुर्य्यात् पारयत्व परेऽहनि ॥ यदा रात्रेः साईप्रहरमतिक्रम्य तिथिनक्षत्रयोविच्छेदः अथवा केवलस्य नक्षत्रस्यान्तस्तदाऽपरेऽहनि उपवासपरदिने पारणं कुय्यात् नक्षत्रस्येत्ये कतरोपलक्षणम् । हेमाद्रिस्तु यदा परदिनेऽर्धरात्रादुपरिभान्तस्तिष्यन्तो वा भवति तदा अर्द्धरात्रे पारण कुय्यात् इत्याह । तन्न, वर्जयित्वा महानिशामिति वच्यमाणवचनविरोधात् श्ररात्रादुपरिभान्तस्तिथ्यन्तो वा भवतीत्यर्थं प्रमाणं नास्ति किन्त्वईरात्र एव तदधिकरणं सन्निधानात् तु कारेणाईरात्र व्यवद्यि उपवासदिनात् परदिने पारणं विधीयते । जौमूतवाहनस्तु न हि तिथिभान्ते च पारणमिति पारणकर्त्तव्यतापरं येन तदन्त एव विधिः । किन्तु नक्षत्र तिथौ च वर्त्तमाने न कुय्यादिति तात्पर्यं तत्रैव दोषश्रुतेः रागप्राप्तभोजनानुवा देन निथिनक्षत्रेतरकाले पारणं कुर्य्यादिति वा विधिः । स च राविशेषे भोजनेऽप्यविरुद्धः तृतीय एवाइनि पारणं । For Private And Personal Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । भविथति ग्रहणेऽपरेऽहनौतिवनियमाभावादित्याह। तन, पारणविधेनियमरूपतयोक्तत्वात् रात्रिशेष भोजनस्याविहितत्वात्। तथा च ब्रह्मवैवर्त "वि यामां रजनी प्राहुस्यत्वाद्यन्तचतुष्टयम्। नाड़ीनां तदुभे सन्ध्ये दिवसाद्यन्तसंजिते" ॥ एतद्दचनबलात् महानिशा परकालस्य नाड़ोचतुष्टयस्य परदिनादित्वेन तदानों पूर्वदिवसीय भोजनानुपपत्तेः तहिनकृत्यलोपापत्तेव । अतएव "मुक्ते शशिनि भुञ्जीत यदि न स्यान्महानिशा" इत्युक्तम्। कात्यायनोऽपि “मुनिभिदिरशनं प्रोक्तं विप्राणां मर्त्यवासिनां नित्यम्। प्रहनि च तथा तमखिन्यां साईप्रहर यामान्तः ॥ इत्यनेन रात्री साईप्रहराभ्यन्तर एव भोजनं न तु तत्परत प्राह ग्रहणवदपरेऽहनि पारणेऽपि दत्तवचनाञ्च केचित् तु तिथ्यक्षयोरितिवचने अपरे. ऽहनि उपवासतौयदिवसे पारणं कुर्यात् । यथा वचनबलात् पारणे औत्सर्गिक पूर्वाह्नपरित्यागेऽपि न व्रतवैगुण्य तथानाप्योत्सर्गिक हितोय दिनपरित्यागेऽपि न तथात्वमिति । यत्पुनरुभयसत्वे रावावेव तत्रैव दिवसे पारणविधायकं तिथ्यक्षयोरिति वचनं तदसत् अपरेऽहनीत्यत्रापर इत्यस्य वैयर्थ्यापत्तेः। यथा श्रुतार्थपरतयैवोपपत्रस्य वचनस्य तिथिनक्षत्रसत्त्वे पारणनिषेधकानां वचनानां वाधने सामर्थ्याभावादित्याहुः। तब श्रौत्सर्गिक हितोयदिन परित्यागे प्रमाणमेव नास्ति तिथ्यक्षयोरिति वचनञ्जेदस्य तद्रूपार्थत्वे प्रमाणं नास्ति। न च अपर इत्यस्य वैयपित्त्या तथात्वमिति वाच्यं तथात्व नि:सन्देहाथ न पहनीत्येवं ब्रूयात्। वस्तुतस्तु पारणन्त्वपरेऽहनौत्यनेन अवश्यवक्तव्योपोषित तिथ्य क्षयोर्भेद इत्यत्रोपस्थितोपवासस्य परदिन इत्येव प्रतीयते न तु हितोयदिवसस्य परदिने अतएव “अद्य कृष्णाष्टमों देवीं नमचन्द्रसरोहिणीम्। प्रचयित्वोपवासेन भोक्ष्यऽहमपरेऽहनि” इति मन्त्रलिङ्गमपि सङ्गच्छते। किच्चात्रैव वचने नक्षत्रस्थान्त इत्यत्र भोजनाहंकाले एकतरवियोगेऽन्यस्य अर्द्धराववियोगेऽपरेऽहनोत्यस्य सांयोगिक इत्यादि वचनैकवाक्यतया उपवासहितौयदिवसपरत्वस्यावश्यवक्तव्यत्वे न अईराव For Private And Personal Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५४ तिथितत्त्वम् । उभय वियोगेऽपि तथैव युक्तात्वात्। अन्यथा सांयोगिक इत्यस्य निर्विषयतापत्तेः । एवञ्च "सायमाद्यन्तयोरोः सायं प्रातच मध्यमे। उपवासफलं प्रेसोर्वज्यं भताचतुष्टयम्" इति महाभारतौयौत्सर्गिक द्वितीय दिनपारणस्याप्यवाधः। एतविषय एवोत्सवान्ते पारणमाह "तिथ्यन्ते वोत्सवान्ते वा व्रती कुर्वीत पारणम्" इति। न च अत्र तिथ्यन्ते तारकान्ते वेति पाठ इति वाच्य पूर्वपाठस्य हेमाद्रिनिर्णयामृत माधवाचार्यतत्वात् व्याख्यातत्वाच्च एतद्विषये ब्रह्मवैवर्तः। “सर्वेष्वे. वोपवासेषु दिवा पारणमियते। अन्यथा फल हानिः स्यादृते धारण पारणम् ॥ धारणं नियमग्रहणं ततवारहोत नाव्रतस्य रात्रिपारणनिषेधः। गरुड़ पुराणेऽपि “अन्यतिथ्यागमोरात्रौ तामसस्तेजसो दिवा। तामसे पारणं कुर्व स्तामसी गतिमाप्नुयात्” । न च यदि प्रथम निशायामेकतरवियोगस्तदापि ब्रह्मवैवर्तादि वचनाद्दिवा पारणमनन्तभट्ट माधवाचार्योक्तं युक्त मिति वाच्य “न रात्री पारणं कुयादृते वै रोहिगोव्रतात्। निशायां पारणं कुर्यात् वयित्वा महानिशां" इति संवत्सरप्रदीपकृतस्य न रात्री पारणं कुर्य्याहते वै रोहिणीव्रतात्। अत्र निश्यपि तत् कार्य वयित्वा महानिशां" इति ब्रह्माण्डोक्तस्य च निर्विषयतापत्तेः । स्त्रोणां यवानादि भोजनमप्याह ब्रह्मपुराणं "तत: प्रविश्य च गृह यवान्नं भुञ्जते च ताः । युक्त मिक्षविकारैश्च मध्वाज्यमरिचैः सह। तदयं संक्षेपः। यत्रकदिन जयन्तीलाभस्तत्रैवोपवासः । उभयदिने चेत्तदा परदिने। जयन्त्यलाभे च रोहिणीयुत्ताष्टम्याम्। उभयदिने रोहिणीयुक्ताष्टमौलाभे परदिने। रोहिण्यलाभे तु निशौथसम्बन्धिन्यामष्टम्याम्। उभयदिने निशोथसम्बन्धे तदसम्बन्धे वा परदिन इति। उपवास परदिने तिथिनक्षत्रयोरवसाने पारणम्। यदा तु महानिशायाः पूर्वमेक तरस्थावसान मन्यतरस्य महानिशायां तदनन्तरं वा तदेकतरावसाने पारणम् । यदा महानिशायामुभयस्थितिस्तदोत्सवान्ते प्रातःपारणमिति। इति वन्यपटोय श्रीरघुनन्दनभट्टाचार्यविरचितं श्रीकृष्णजन्माष्टमौतत्त्व समाप्तम्। For Private And Personal Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । अथ दुर्वाष्टमी। शुक्लापि पूर्वविद्या प्राधा। "श्रावणी दौर्गनवमी दूर्वा चैव हुताशनौ। पूर्वविद्वैव कर्त्तव्या शिवराविर्वलेर्दिनम् ॥ इति वृहस्पतिवचनात्। बलेर्दिनं द्युतप्रतिपत् हुताशनी रम्भारतीया भविष्योत्तरे “पक्षे भाद्रपदस्यैव शक्लाष्टम्यां युधिष्ठिर। दूर्वाष्टमी व्रतं पुण्य यः करोतोह मानवः ॥ न तस्य क्षयमाप्नोति सन्तानं साप्तपौरुषम् । नन्दते बईते नित्य यथा दूर्वा तथा कुलम् ॥ भीमपराक्रमे कार्तिकशक्लपक्षमधिकृत्य “गोष्ठाष्टम्यां गवां पूजां गोग्रास गोप्रदक्षिणम्। गवानुगमनं कुर्यात् सर्वपापविमुक्तये । पाग्रहायण्या अ. तिसृषु कृष्णाष्टमौषु श्राहानि नित्यानि यथा गोभिल: “प्रष्ट कायोडुमाग्रहायण्यास्तमित्राष्टमी" इति ब्रह्मपुराणे “पित्रादानाय मूले स्युरष्टकास्तिस्र एव च । कृष्णपक्षे वरिष्ठा हि पूर्वा चैत्रौ विभाव्यते ॥ प्राजापत्याहितीया स्यात् टतोया वैखदेवको। आद्यापूपैः सदा कार्य्या मांमैरन्या भवेत्तथा। शाकैः कार्य्या हतौया स्यादेष ट्रव्य गतोविधिः” ॥ मूले प्रधानस्थाने अमावास्यायां अमावास्या हि श्राहस्य प्रधान कालस्त हदिति यावत्। ऐन्द्रौसाग्नेरिन्द्रदेवताकयागसम्बन्धात्। एवं प्राजापत्या वैखदेवको च मांसैः पशोः । तथाच गोभिल: “यावाल्पतरसम्भारः स्यादयि पशुनैव कुर्यात्" इति या वेति निपातसमुदायो यद्यर्थे पशुरिति छाग एव “छागोऽनादेशे पशुः" इति गोतमात् न च “तैष्था ऊईमष्टम्यां गौः” गोभिलसूत्रेण गवोपदेशात् कथमनुपदिष्टत्वमिति वाच्यं तदसम्भवे पशुरित्यनेन यः पशुरुपदिष्टस्तस्य विशेषतोऽनुपदिष्टत्वात् तैषी पौषो। वस्तुतस्तु हरिवंश मृगोऽपि विहितः यथा “इक्ष्वाकुस्तु विकुक्षि वै अष्टकायामथादिशत्। मांसमानय थाहाय मृगं हत्वा महाबल" इति। स्त्रियाबधाभावमाह स एव अवध्याञ्च स्त्रियं प्राहु स्तियंग्योनिगतेष्वपि ॥ एतदई ब्रह्मपुराणेऽपि भारण्यानामगस्त्यप्रोधितत्व वक्ष्यते पखभावे स्थालोपाकेन यथा गोभिल: “अपि वा स्थानौपाकं कुर्वीत" इति तहिधानन्तु "स्थालौपाकं पशस्थाने कुर्याद यद्यानुकल्पितम् । For Private And Personal Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir * तिथितत्त्वम् । पयेत्त सवत्सायास्तरुण्या गोः पयस्यनु” । इति छन्दोगपरिशिष्टोक्तं ग्राह्यम् । अन्विति श्रदनचरोः पश्चात् श्रतएव शातातपः “ नवोदके नवान्ने च ग्टहप्रच्छादने सदा । पितरः स्पृहयन्त्यन्नमष्टकासु मघासु च ॥ तस्माद्दद्यात् सदोद्युक्तो विद्दत्स ब्राह्मणेषु च” ॥ तस्मादन प्रधानं पूपादिकं तूपकरणत्वेन शक्तानामावश्यक मुभयत्र सदेति श्रवणात् । तथाच "नित्य सदा यावदायुर्न कदाचिदतिक्रमेत् । उपेत्यातिक्रमे दोषश्रुतेरत्यागदर्शनात् । फलाश्रुतेर्वीप्सया च तन्नित्यमिति कौत्तितम् ॥ नवोदके वर्षोपक्रमे आर्द्रागते वाविति यावत् । "पार्द्रादितो विशाखान्त र विचारेण वर्षति” इति नव्यवईमानष्टतात् । “प्रावृट्काले समायाते रौद्रऋक्षगते रवौ । नाड़ीवेधसमायोगे जलयोगं वदाम्यहम् ॥ इति रुद्रयामलाच्च । रौद्रमार्द्रानिवोदकश्राद्धस्य सावकाशत्वात् त्रयोदश्यादिकनिषेधमाह दौपिकायाम् । “त्रयोदशीं जन्मदिनञ्च नन्दां जन्मक्षतारां सितवासरञ्च । त्यक्का हरौज्येन्दुकरान्त्यमैत्र ध्रुवेषु च श्राविधानमिष्टम्” ॥ सितवासरं शुक्रवारम् ऋक्षं राशिः इर्यादय: श्रवणपुष्य मृगशिरो उस्तारवत्यनुराधा उत्तरत्रितयरोहिण्यः । कृष्णपचे चेनवोदकश्र । हकालस्तदोभयोः वाइयोस्तन्वात् सिद्धि: । 1 | ज्योतिषे “रजोयुक् क्ष्माम्बुवाचौ च रौद्राद्यपदगे रवौ तस्यां पाठो वीजवापो नाहिभौर्दुग्धपानतः ॥ मृगशिरसि निवृत्ते रौद्रपादेऽम्बुवाची ऋतुमति खलु पृथ्वी वर्जयेत्तौस्यहानि । यदि वपति कृषाण: क्षेत्रमासाद्य वोजं न भवति फलभागौ शस्यचाण्डालपाकः " । रजोयुक्च्मा ऋतुमतो पृथ्वौ । मत्स्यसूत्रे " धरण्यामृतुमत्याञ्च भूमिकम्प तथैव च । अन्तरागमने चैव विद्यां नैव पठेदुधः” ॥ ज्योतिषे " यस्मिन् वारं सहस्रांशर्यत्काले मिथुनञ्चरेत् । अम्बुवाची भवेन्नित्यं पुनस्तत् कालवारयोः” । इदन्तु प्रायिकं सावकाश श्राद्धमधिकृत्य महाभारते " नक्षचे न च कुर्वीत यस्मिन् जातो भवेन्नरः । न प्रोष्ठपदयोः काय्यं तथाग्नेये च भारत । दारुणेषु च सर्वेषु प्रत्यरौ च विवर्जयेत् । ज्योतिषे यानि प्रोक्तानि तानि सर्वाणि For Private And Personal Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५० तिथितत्त्वम् । वर्जयेत् ॥ प्रौष्ठपदा पूर्वभाद्रपदा हिनक्षत्रत्वाविवचनम् प्रा. म्नेयं कृत्तिका दारुणमुक्त ज्योतिषे। "दारुणचोरग रौद्रमैन्द्रं नैऋतमेव च"। उरगम श्लेषा रौद्रमार्दा ऐन्द्र ज्येष्ठा नैऋतं मूला। विष्णुधर्मोत्तरे च “नक्षत्राणि तथैवात्र दारुणोग्राणि वर्जयेत्” । तत्रोग्रनक्षत्राणि पूर्वात्रयमघाभरण्यः । नवान्न थाहकालश्च ज्योतिष। “सूर्या चैव विशाखगे सातिथी पापे विजन्मान्विते नन्दामन्द महौजकाव्यदिवसे पोषे मधो कार्तिक । भेषग्राहिशिवेषु विष्णुभयने कृष्णे शशिन्यष्टमे श्राद्ध भोजनकं नवाबविहितं पुत्रार्थनाशप्रदम् । “ज्येष्ठाशेषाईगे सूर्ये सगनंत्रा निशात्मके। नवान्नेर्भोजनं थाई जन्म चन्द्र तिथो न च ॥ सूर्ये चैव विशाखमे मार्गशोषस्य विंशति दण्डाधिकप्रथमदिनत्रयावस्थित समातिथी त्रयोदश्यां पापे पञ्चमतारानये। उग्रनक्षत्र पूर्वात्रय मघाभरण्यः अहिरश्लेषा शिव आर्द्रा । भोजराज: “ब्रह्मा विष्णु वृहस्पती शशधरो मार्तण्ड पोष्णादितो मैत्रे चित्रविशाखवायु धनभे मूलाखि वङ्गो तथा। शके वारुण ऋक्षके शुभदिन बाई नवं शस्थते । नन्दाभार्गव भूमिजेषु न भवेत् श्राई नवाबाद्भवम्” ॥ ब्रह्मादयः रोहिणी श्रवणापुष्यमृगशिरोहस्ता रेवती पुनवखनुराधा चित्रा विशाखा स्वाति धनिष्ठा मूलाखिनी कृत्तिका ज्येष्ठा शतभिषा । नवाबवाई मूला कृत्तिका ज्येष्ठा विधानात्तच्छेषभक्षण प्राप्तेः "अश्लेषा कृत्तिका ज्येष्ठा मूलाजपदकेषु च । भृगुभोमदिन रिक्त तिथौ नाद्यान्नवोदन" इति थाइशेषामोजिमात्रपरम् । पजपदं पूर्वभाद्रपदा। चन्द्रताराद्यशुद्धो प्रतौकारमाह देवलः। “कर्म कुर्यात् फलावास्यै चन्द्रादि शोभन वुधः। सुस्थकाले विदं सवें नातः कालमपेक्षते ॥ चन्द्र च शङ्ख लवणञ्च तारे तिथावभने सिततण्डुलांच। धान्यच दद्यात् करणक्षवारे योगे तिलान् हेममणिञ्च लग्ने" ॥ तारे जन्मविपत् पापकटे। ऋक्षमविहितनक्षवम्। राजमात्तण्डे तागभेदालवणपरिमाणमाह “एकत्रि पच्च सप्त बिजाय दद्यात् पलानि लवणस्य क्रमशा जन्म विपत् प्रत्यरिमरणाख्य ताराम। पलन्तु लोकिकर्मानः For Private And Personal Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५८ तिथितत्वम् । साष्टरत्तिहिमाषकम्। तोलकत्रितयं ज्ञेयं ज्योतिः स्मृतिसम्मतम्” वामनपुराणञ्च "विष्टयो व्यतिपातश्च येऽन्ये दुर्नीतिसम्भवाः। ते नाम स्मरणाहिष्णो शं यान्ति महात्मनः" ॥ विष्णुधर्मोत्तरे "सर्वाशुभानां परिमोक्षकारि संपूजनं देववरस्य विष्णोः” इति ब्रह्मपुराणे “प्राश्नीयाधिसंयुक्तं नवं विप्राभिमन्वितम्”। अभिमन्त्रितं मन्त्रानादेशे गायत्रीति वचनात् गायनाति । स्मृतिः “टहौत्वा ब्राह्मणानुजां सदधि प्राशये. अवम्"। प्रथ भोपाष्टमी। भविष्योत्तरे "शुक्लाष्टम्यान्तु माघस्य दद्याझौमाय यो जलम्। संवत्सरकतं पापं तत्क्षणादेव नश्यति" ॥ धवलतास्मृतिः। “अष्टम्यान्तु सिते पक्षे भौमाय सतिलोदकम्। प्रवच विधिवहा : सर्वे वर्णा हिजातयः" !॥ सर्वे वर्णा इत्यपादानात् ब्राह्मणशूद्रयोरप्यधिकारः। हिजातय इति सम्बोधनम्। "ब्राह्मणस्त्वन्यवर्णानां यः करत्यौङ्घ देहिकम् । तदर्णत्वमसौ याति इहलोके परत्र च" इति मरीचिबचनन्तु भौष्मकत्येतरपरम् । तथा च स्मृति: "ब्राह्मणाद्यास्तु ये वर्णा दा भीष्माय नो जलम् । संवत्सरवतं तेषां पुण्यं नश्यति सत्तम" !। असवर्णजलदाननिषेधस्तु प्रकरणादपि भावादि विषय इति योदत्तः। अत्र तर्पणमन्त्रः "वैयाघ्रपद्यगोत्राय सांकति प्रवराय च। पपुत्राय ददाम्येतत् सलिलं भौमवर्मणे” इति "भौषमः शान्तनवो वौरः सत्यवादी जितेन्द्रियः। पाभिरशिवरामोतु पुत्रपौत्रोचिता क्रियां" इत्याशंसा मन्त्रः । पुत्रपोत्रोचितामित्यभिधानात् पिढकर्मरीत्या ब्राह्मण: पिटतर्पणानन्तरं क्षत्रियादिकस्तु तत्पूर्व तर्पयेत् इति संवारप्रदौपादयः । अत्र वौज वर्णज्येष्ठम्।। . अथ पशोकाष्टमौ। स्कान्द “मौन मधौ शुक्लपक्षे प्रशोकाख्यां तथाष्टमौम्। पिवेदशोककलिका: मायालौहित्यवा रिरीण" ॥ प्रशाकाख्य त्य पादानात्तिथिमावेऽपि तत्यानं फलन्तु मन्त्र लिङ्गात् शोकरहितत्वमवगन्तव्य लौहित्यवारिणि ब्रह्मपुत्वाख्य नदजले। पुनर्वसुयोगे तु फलाधि क्यमाह लिङ्गगरुडपुराणयोः। “अशोककलिकाश्चाष्टी For Private And Personal Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । ५८ ये पिवन्ति पुनर्वसौ। चैवे मासि सिताष्टम्यां न ते शोकमवाप्नुयुः” ॥ पानमन्त्रस्तु । “वामशोक हराभौष्टमधुमाससमुद्भव। पिवामि शोकसन्तप्तो मामशोकं सदा कुरु" । स्त्रौशूद्रकर्त्तकपानेऽपि प्रागुक्तयुक्तोः स्वयं मन्वः पठनीयः । स्त्रीपक्षे उहोऽपि नास्ति विकृतमेकादशौतत्त्व। अशोकपानन्तु पञ्चमाईप्रहरव्यापिन्यामष्टम्यां माहितीयोक्तवत् । “पुनर्वसौ वृष लग्ने चैत्रे मासि सिताष्टमौम्। सौहित्यविरजे बायात् सर्वपापैः प्रमुच्यते॥ पृथिव्यां यानि तीर्थानि सरितः सामरादयः। सर्व लौहित्यमायान्ति चैत्रे मासि सिताष्टमीम् । ब्रह्मपुत्र महाभाग शान्तनोः कुलनन्दन। प्रमोघागर्भसंभूत पापं लौहित्य मे हर" इति स्नानमन्त्रः ॥ कालिकापुरासे “चैत्रे मासि सिताष्टम्यां यो नरो नियतन्द्रियः । मायालोहित्यतोयेषु स याति ब्रह्मणः पदम् ॥ चैत्रन्तु सकल मास शुचिः प्रयतमानसः। लौहित्ययोये यः सायात् स कैवल्यमवाप्रयात् । लोहितासरसो जातो लौहित्याख्यस्ततोऽभवत् । स्रोतोमा विष्णु: “पुनर्वसु बुधोपेतां चैत्रे मासि सिताष्टमौम्। स्रोतःसु विधिवत् सात्वा वाजपेय फलं लभेत् ॥ अथ नवमी। साचाष्टमीयुता ग्राह्या युग्मात् भविष्थे “मासैश्चतुर्भियत्पुण्य विधिना पूज्य चण्डिकाम्। तत् फलं लभते वौर ! नवम्यां कात्तिकस्य च" ॥ तथा “नवम्यां नववर्षाणि राजन् पिष्टाशनो भवेत्। तस्य तुष्टा भवेगोरौ सर्व. कामप्रदा शुभा* ॥ अद्य त्यादि नवम्यां तिथावारभ्य नववर्षाणि यावत् प्रति शुक्ल नवम्यां पिष्टेतर भोजन निवृत्ति व्रतमिति सङ्कल्प विशेषः। सर्वकामप्रदा गौरौतोषः फल भविष्थे "माधे मासि तु या शुक्ला नवमौ लोकपूजिता । महानन्देति सा प्रोक्ता सदानन्दकरी नृणाम् ॥ नानं दान तपोहोमोदेवार्चनमुपोषणम्। सर्व तदक्षयं याति यदस्यां क्रियते नरैः ॥ अथ श्रीरामनवमी। पगस्य संहितायाम् । चैत्रे मासि नवम्यान्तु जातो रामः स्वयं हरिः। पुनर्वस्तृतसंयुता सा तिथिः सर्वकामदा। पुनर्वखुष संयोगः खल्योऽपि यदि For Private And Personal Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । लभ्यते । चैत्रशक्ल नवम्यान्तु सा तिथिः सर्वकामदा ॥ श्रीरामनवमौ प्रोक्ता कोटिसूर्य ग्रहाधिका। तस्मिन् दिने महापुण्ये राममुद्दिश्य भक्तित: ॥ यत्किश्चित् क्रियते कर्म तनवक्षयकारकम्। उपोषणं जागरणं पितृनुद्दिश्य तपंणम् ॥ तस्मिन् दिने तु कर्त्तव्यं ब्रह्मप्राप्तिमभोप्सुभिः”। चैत्रपदं चान्द्रपरम्। "मेषं पूषणि संप्राप्ते लग्न च कर्कटाये। प्राविरासौत् सकलया कौशल्यायां परः पुमान्” ॥ पत्र मेषस्थ सूर्ये चान्द्र चैत्रस्यैव सम्भवात्तिथिक्कत्यत्वाच्च। तथा 'तस्मिन् दिने महापुण्ये राममुद्दिश्य भक्तितः । जपेदेकान्त पासौनो यावत् स्याद्दशमी दिनम् ॥ तेनैव स्यात् पुरश्चया दशम्यां भोजयेद्विजान्। भक्ष्यभोज्यबहुविधैर्भत्या दद्याच्च दक्षिणाम् ॥ कृतकृत्यो भवेत्तेन सद्यो रामः प्रसौदति”। तथा “चैत्र शुक्ला तु नवमौ पुनर्वसु युता यदि। सैव मध्याह्नयोगेन महापुण्यतमा भवेत्॥ नवमी चाष्टमी विद्या त्याज्या विष्णु परायणैः । उपोषणं नमम्यान्तु दशम्यामेव पारणम्" ॥ एतवचनद्वयं कालमाधवौयेऽपि किन्तु महापुण्य त्यत्र महाफलेति पाठः । शुद्धेति श्रवणात् सर्वत्र शुद्धाया मृक्षादगे न विद्यायामिति प्रतएवाष्टमौविहा नवमौ सनक्षत्रापि नोपोथेति माधवाचार्यः । सैव तादृश्येव न तु विद्धा। यदा तु परदिने एकादश्यां दशमी पारणयोग्या तदा दशमी युक्ता नवम्युपोथा वैषणवैर्विष्णुपरायणैरिति श्रवणात् अवैष्णवैस्तु अष्टमौवि व ग्राह्या यदा तु पूर्वदिने अष्टमौविद्धा नवमौ परत्न दशमौ युता नवमौ एकादशी दिने च दशमो न पारणयोग्या तदा नक्षत्रयोगायोगेऽप्यष्टमौविद्यैव ग्राधा परदिने दशम्यामेव पारणमिति नियमात् । तथा च रामार्चनचन्द्रिकायां दशम्यादिषु वृद्धिश्चेत् त्याज्या विद्धव वैष्णवैः। 'तदन्येषान्तु सर्वेषां व्रतं तत्रैव निश्चितम्। दशम्यामेव शब्देन दशमी नैव लयेत् ॥ निश्चित्यैवं विचारेण नवमौव्रतमाचरेत्' इति कारिकाभ्यामगस्त्य संहिताव्याख्यानम्। वस्तुतस्तु दशमौपारणसत्वे सर्वैरवाष्टमी विद्धा नोपाथा विष्णु परायणैरिति तु विष्णु परायणत्वेन भवितव्यमित्युपदेश परं न तु कर्तविशेषणम्। अगस्त्य नावैष्ण For Private And Personal Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्वम् । वस्य विद्धोपवासानुपदेशात् । कर्तभेदे विधिहय कल्पनापत्तेश्व अतएव माधवाचार्येण सामान्यत एव विद्या निषिद्धा। __ अगस्त्यसंहितायामस्य नित्यत्वमाह "प्राप्ते श्रीरामनवमी दिने मर्को विमूढधौः। उपोषणं न कुरुते कुम्भौपाकेषु पच्यते ॥ यस्तु रामनवम्यान्तु भुङते मोहाहिमूढधौः। कुम्भौपाकेषु घोरेषु पयते नात्र संशयः” । अत्र मर्त्य इत्युपादानात् नरमावस्याधिकारः। एवञ्च “कुर्याद्रामनवम्यां य उपोषणमतन्द्रितः। मातुर्गर्भमवाप्नोति नैव रामो भवेत् स्वयम् ॥ तस्मात् सर्वात्मना सर्वे क्लत्वैवं नवमौव्रतम्। मुच्यन्ते पातकैः सर्वैर्यान्ति ब्रह्म मनातनम्” ॥ इति फल कीर्तन प्रागुक्तसंयोगपृथक्त्वन्यायात् सिद्धम् । अगस्त्यसंहितायां "शालग्रामशिलायाञ्च तुल मोदलकल्पिता। पूजा श्रीरामचन्द्रस्य कोटि कोटिगुणाधिका" ॥ तत्रानुष्ठानमगत्यसंहितात: संक्षिप्य लिख्यते। कृतप्रातःस्नानादि: “उपोष्थ नवमोन्वद्य यामेष्वष्टसु राघव ! । तेन प्रोतो भव त्वं भो ! संसाराचाहि मां हरे” ! ॥ इति निवेद्य। “कोमलाङ्ग विशालाक्ष मिन्द्र नौलसमप्रभम् । दक्षिणांशे दशरथं पुत्रावेष्टनतत्परम् ॥ पृष्ठतो लक्ष्मणं देवं सच्छत्रं कनकप्रभं पार्श्व भरतशत्रुघ्नौ तालवन्तकरावभौ। *अग्रे व्यग्रं हनमन्तं रामानुग्रहकाशिणम्” ॥ एवं ध्यात्वा श्रीरामं पूजयेत् । स्नानमन्वस्तु “इन्द्रोऽग्निश्च यमश्चैव नैऋ तो वरुणोऽनिलः । कुवेर ईशो ब्रह्माऽहिर्दिकपाला: नापयन्तु ते ॥ अहिरनन्तः कोशल्यां पूजयेत् । मन्त्रस्तु “रामस्य जननौ चासि राममयमिदं जगत् । अतस्त्वां पूजयिष्यामि लोकमात नमोऽस्तु ते" ॥ तथा "नमो दशरथायेति पूजयेत् पितरं ततः। ततो ऽनुज्ञाप्य देवेशं परिवारान् समचयेत्। पूर्वषट्कोण कोग.घु हृदयादीनि च क्रमात्" ॥ हृदयादौ नि यथा रां हृदयाय नमः - शिरसे स्वाहा रू शिखायै वषट् रे कवचाय हुरौं नेत्राभ्यां वोषट् रः अस्त्रायफट इति। तथा "हनमन्तं ससुगौवं भरत सविभौषणम्। लक्ष्मणाङ्गदशवघ्नं जाम्बवन्तं दलादिषु ॥ धूम्म अन्त विजयं सुराष्ट्र राष्ट्रवईनम् अकोपं धम्रपालाख्य समन्वं दलमध्यतः । दलाने लोकपालांश्च तद For Private And Personal Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६२ तिथितत्त्वम् । स्त्राणि तदग्रतः ॥ लोकपाला इन्द्रादयो दश तदस्त्राणि वज्रशक्ति दण्ड खङ्गपाश अङ्कुशगदा शूल चक्र पद्मानि । मध्या जम्म भावयेत् । "उच्चस्थे ग्रहपञ्चके सुरगुरौ सेन्दो नवस्यातिथो लग्ने कर्कटके पुनर्वसुदिने मेष गते पूषणि । निर्दग्धुं निखिलाः पलाशसमिधो मध्यादयोध्यारणेराविभूत मभूदपूर्वविभव यत्किचिदेकं महः " ॥ पलाशा राक्षसाः "मत्वैव' वादयेाद्यानध्यं दद्याज्जगत्पतेः । फलपुष्पाम्बु सम्पूर्ण टोला शङ्खमुत्तमम् । अशोकरत्न कुसुमेयुक्तच तुलसीदलैः” ॥ मन्त्रस्तु " दशाननवधार्थाय धर्मसंस्थापनाय च । दानवानां विनाशाय दैत्यानां निधनाय च ॥ परित्राणाय साधूनां रामो जातः स्वयं हरिः । ग्टहाणा घ्यं मया दत्तं भ्रातृभिः सहितो मम ॥ पुष्पाञ्जलिं पुनर्दत्त्वा यामयामेष्वतन्द्रितः । पूजयेद्दिधिवद्भक्त्या दिवारात्र नयेदुधः” ॥ " तदयं संक्षेपः । शुद्धायां नक्षत्रयुक्तायां विवादाभावः विडायान्तु एकादशोदिने दशमौपारणयोग्या न चेत् तदा नक्षत्रयोगायोगेऽपि अष्टमीविद्यायां पारणयोग्या चेत् तदा अष्टमौ fasi व्यक्ता परेऽहनि उपवासः । " अथ दशमौ । सा च शुक्ला एकादश्या कृष्णा तु नवम्यायुता ग्राह्या । यथा अङ्गिराः “ सम्पूर्ण दशमौ कार्य्या पूर्वया परयाथवा । युक्ता न दूषिता यस्मादिति सा सर्वतोमुखौ " ॥ यथा सम्पूर्ण दोषरहिता तथा विद्यापति विकल्पे व्यवस्थापयति विष्णुधर्मोत्तरौयं “ शुक्लपचे तिथिर्ब्राह्या यस्यामभ्युदितो रविः । कृष्णपक्षे तिथिर्ग्राह्या यस्यामस्तमितो रविः । ब्रह्मपुराणब्रह्मवैवर्त्तयोः । “ज्येष्ठस्य शुक्लदशमी संवत्सर मुखौ स्मृता । तस्यां स्नानं प्रकुर्वीत दानञ्चैव विशेषतः ॥ यां काञ्चित् सरितं प्राप्य दद्याह भैस्तिलोदकम् । मुच्यते दशभिः पापैः सुमहापातकोपमैः ॥ पत्र केवलदशम्यां नदीमात्रे दर्भकरणकतिलतर्पणाङ्गकनानाद्दशविधपापचयः फलम् एवं दानादपि वस्तुतस्तु वच्यमाणर्भाविष्य जाह्नवी पदश्रवणात् हेतुमन्निगदस्वरसाच्च । ब्रह्मवैवर्त्तेऽपि सरित्पदं जाह्नवीपरम् अन्यथा नानाविधिः स्यात् । यां काञ्चिदिति तु जाह्नवी For Private And Personal Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । साधकम् अन्यथा कुल्यानानेऽपि दशविधपापचयः स्यात् मन्त्रलिट्टे जाह्नवौपदश्रवणाश्च । गङ्गामधिकृत्य ब्राह्मत्र "शुक्लपक्षस्य दशमी ज्येष्ठ मासि द्विजोत्तम । हरते दश पापानि तस्माद्दशहरा स्मृता ॥ अव केवलदशम्यां दशविधपापचयः फलम् । भविष्य “ज्येष्ठ शुक्ल दशग्यान्तु हस्तयोगेन जाह्नवी । हरतं दशपापानि तस्माद्दशहरोच्यते” ॥ दशपापानौति दश जन्मकृतपापानौति विशेषणौयमाह पराशरभाष्ये यमः । " ज्येष्ठ मासि सिते पचे दशम्यां हस्तयोगतः । दशजन्माऽघडा गङ्गा दशपापहरा स्मृता ॥ अत्र दशजन्म कृतदशविधपापचयः फलम् । wa " प्राप्ते कर्मणि नानेको विधातु शक्यते गुणः । अप्राप्ते तु विधीयन्ते बहवोऽप्येकयवतः” इति न्यायेन हस्तानचत्र गङ्गारूपगुणद्दयविशिष्ट दशमी विधेमनि तल्लाभस्तत्र स्नानम् उभयदिने तु तज्ञामे परदिन एव अत्रापि पूर्वदिने वच्यमाणकुजवारलाभे तचापि खानं वारस्योभयवालाभात् । ततख पूर्वदिने तथाविधानं कृत्वा परदिने केवल दशम्यामपि दशविधपापचयकामेन स्नातव्यम् । भङ्गः " ज्येष्ठे मासि चितिसुतदिने शुक्लपचे दशम्यां हस्ते शैलरिममदियं जाह्नवौ मत्यलोकम् । पापान्यस्यां हरति च तिथौ सा दशेत्याहुरार्य्याः पुण्यं दद्यादपि शतगुणं वाजिमेधायुतस्य " ॥ भौम हस्तायुक्त दशम्यां गङ्गास्नानाद्दशविधपापक्षय शतगुण वाजिमेधायुतजन्य पुण्य समपुष्यं फलम् । राजमार्त्तण्डे वाल्मीकिः । " श्रदत्तानामुपादानं हिंसा चैवाविधानतः । परदारोपसेवा च कायिकं त्रिविधं स्मृतम् ॥ पारुष्यमनृतचैव पैशुन्यञ्चापि सर्वशः 1 असम्बन्धप्रलापश्च वाङ्मयं स्याच्चतुर्विधम् ॥ परद्रव्येष्वभिध्यानं मनसानिष्टचिन्तनम् । वितथाभिनिवेशश्च विविधं कर्म मानसम् ॥ एतानि दश पापानि प्रथमं यान्तु जाह्नवि ! । स्नातस्य मम ते देवि ! नले विष्णुपदोद्भवे ॥ विष्णुपाद व्य सम्भूते गहे त्रिपथगामिनि । धर्मद्रवौति विख्यातं पापं मे हर जाह्नवि !” ॥ अत्र मन्त्रलिन पूर्व काण्येतानि सामान्यस्रानमन्त्रान्ते मज्जनस्यादौ पाव्यानि “ श्रागन्तु कानामन्तेऽभिनिवेशः” इति न्यायात् a For Private And Personal Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૪ तिथितत्त्वम् । “ मन्त्रान्ते कर्मसत्रिपातः” इति न्यायात् " मन्त्रान्त े कर्मादौनि सन्निपातयेत्" इत्यापस्तम्बौयाच्च । हिंसापैशुन्यादिभेदमाह कामधेनो देवलः । " कायक्लेशं मनोदुःखं बधं वा प्राणिनां पुनः । यः प्रवर्त्तयति द्वेषात् सा हिंसेति समासतः । यज्ञार्थं ब्रह्मबध्याः प्रशस्ता मृगपक्षिणः । भृत्यानाञ्चैव वृत्त्यर्थमगस्त्यो ह्याचरत् पुरा" ॥ तथा " परुषवचनमपवादः पैशुन्यमनृतं हयालापो निष्ठरवचनमिति वाङ्मयानि षट् । परेषां देश जाति कुल विद्याशिल्परूप वृत्ताचार परिच्छद शरोर कर्मजौविनां प्रत्यक्षदोषवचनं परुषम् ॥ यच्चान्यत् क्रोधसन्तापत्राससंजननं वचः । परुषं तच्च विज्ञ ेयं यच्चान्यच्च तथाविधम् ॥ चचम त्रिति लुप्ताचं चण्डालं ब्राह्मणेति च । प्रशंसानिन्दनं द्वेषात् परुषान्न विशिष्यते” ॥ तेषामेव परुषवचनानां परोक्ष मुद्राहरणमपवादः । गुरुनृपतिबन्धुभ्राटमित्रमकाशे अर्थोपघातार्थं दोषोपाख्यान पैशुन्यम् । अनृतं द्विविधम सत्यमसंवादश्चेति । “देश राष्ट्रप्रसङ्गाच्च परार्थे परिकल्पनात् । नर्महासप्रसङ्गाच्च भाषणं व्यर्थभाषणम् ॥ गुह्याड्रामेध्यमज्ञानां वचनं निष्ठुरं विदुः । यदन्यदा' वचो नौचं खोपुंसो मिथुनाश्रयम् ॥ इत्येवं षट्विकल्पस्य दुष्टवाक्यस्य भाषणात् । इह वा मुत्र वा क्रूरमनर्थं प्रतिपद्यते ॥ प्रशंसाभिन्दन प्रशंसया निन्दनम् अत्र चतुर्विध षड़विधयारविरोधः । समचत्वा समचत्वभेदानादरणेन पारुष्यापवादयोरेक्यात् निष्ठरस्य परुषान्तर्भावाच्च । श्रसम्बन्धप्रलापव्यर्थ भाषणयोः पर्यायत्वात् नार्थान्तरत्वम् । अभिध्यानमपहरणार्थमिति शेषः । वितथे असत्यभूते वस्तुनि अभिनिवेशः पुनः सङ्कल्पः । स्मृतितवे महादेवीं सृष्टिस्थित्यन्तकारिणौम् । नत्वा वदति तत्पूजाकालं श्रोग्घुनन्दनः । a श्रथ दुर्गोत्सवः । मार्कण्डेय पुराणे “ शरत्काले महापूजा क्रियते या च वार्षिकौ " इति यथा “मृतानि तु कर्त्तव्यं प्रतिमासन्तु वत्सरम् । प्रतिसंवत्सरञ्चैव श्राद्यमेकादशेऽहनि ” इति याज्ञवल्कावचने श्राद्धस्य प्रति संवत्सर कर्त्तव्यत्व श्रुत: यथा वा "प्रति संवत्सरमा ग्रहायणेष्टिं कुर्य्यात्" इति प्रति · For Private And Personal Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । संवत्सरकर्तव्यत्व श्रुते: सांवत्सरिक विशेषणं प्रतीयते तथानापौति वार्षिकौति श्रवणात् "प्रति संवत्सरं कुर्यात् स्थापनञ्च विसर्जनम्” इत्यत्र प्रतिसंवत्सर श्रुतेः प्रागुक्त शरत्काल इति श्रुतेश्च वर्षशरदोनिमित्तत्वेन वार्षिकशरत्कालौनेति दुर्गापूजाया विशेषणं प्रतीयते। ततश्च वार्षिकशरत्कालौनदुर्गापूजा एकवचनान्तनिर्देशात्तत्तत्कल्पोक्त नानादिनसाध्याप्येकैव प्रतीयते। “शाग्दोया महापूजा चतुःकर्ममयौ शुभा। तां तिथि नयमामाद्य कुर्यात्या विधानतः” इति लिङ्गपुराणोये चतुः कर्ममयौत्यनेन चतुरवयव कात्वेन अभिधानात् नपन पूजन बलिदान होमरूपा वक्ष्यमाणयुक्तश्च । सा च प्रतिवर्षकर्तव्या दुर्गाया इल्य पक्रम्य “विशगैरे चरेचैव लग्ने केन्द्रगते रवी। वर्षे वर्षे विधातव्य स्थापनञ्च विसर्जनम्” इति देवीपुराणवचने वौप्माश्रुतेः अत्र दिशौरे कन्यायां चरे तुलायां केन्द्रगते लग्नगते रवौ अन्यदिशगैगदेः पूर्वाह्न ऽसम्भवात् “संवत्सरव्यतीते तु पुनरागमनाय च” इति मन्त्रलिङ्गाच्च। सा पूजा नित्या वौसाश्रुतेः प्रकरण प्रत्यवाय श्रुतेश्च। यथा शारदीया महापूजामधिकृत्य कालिकापुराणं “यो मोहादथवालस्याद्देवों दुर्गा महोत्मवे। न पूजयति दम्भाहा द्वेषाद्दाप्यथ भैरव ॥ क्रद्धा भगवतौ तस्य कामानिष्टानिहन्ति वै”। विधिसमभिव्याहुत फलश्रुतेः काम्या च। यथा तत्रैव "कत्वैवं परमामापुनि तिं त्रिदिवौकसः । एवम न्यैरपि सदा देया: कार्य प्रपूजनम् । विभूति मतुला लञ्च चतुर्वर्गप्रदायिकाम्” । पूजये दित्यधिकृत्य भविष्योत्तरेऽपि “भवानौतुष्टये पार्थ संवसर सुखाय च । भूतप्रेत पिशाचानां नाशार्थञ्चोत्सवाय च” ।। देवौपुराणं "तुष्टायां नृपदुर्गायां निमिषान यत् फलम् । न तहक्त महेशोऽपि शक्तो वर्षशतैरपि” ॥ एवञ्चातुल विभूत्यादिमिलित वा भवानीप्रौतिर्वा तत्तत् कल्पोक्त वा फलं निर्देश्यमिति। एवञ्च तत्तत्कल्प करणे तत्तिथि पूजायां द्रव्यदानादिषु यत्तदन्तर्गत फल तत्तत्वाद्धौय द्रव्यदानवदानुषङ्गिकम् अतो न तत्र काम्या भिलापापेक्षा बलिघाते तु "ततो देवी समुद्दिश्य काममुद्दिश्यचात्मनः । इति कालिकान For Private And Personal Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । पुराणे उहिश्येत्यभिधानात् काम्यामिलाप इति। ततश्च संयोगपृथक्त्व न्यायादुभयरूपेयम्। ततश्च काम्यतया पूजने ते प्रसङ्गानित्य पूजासिद्धिः। एवं बलिहोमाद्यङ्गेऽपि। ___ एवं कर्मकुर्वतां यत्तादृशं फलं न दृश्यते तत् कलिखभा. वात्। तथा च विष्णुपुराणं "यदा यदा सतां हानिर्वेदमार्गानुसारिणाम्। तदा तदा कले हिरनुमेया विचक्षणः ॥ प्रारम्भाश्वावसीदन्ति यदा धर्मभृतां नृणाम्। तदानुमेयं प्राधान्य कलेमैत्रेय पण्डितैः” ॥ मत्स्यपुराणञ्च "यवाधर्मसतुष्यादः स्याइमः पादविग्रहः। कामिनस्तममाछवा जायन्ते यत्र मानवाः ॥ अहङ्कार होताच प्रक्षोणस्नेहबान्धवाः । विप्राः शूट्रसमाचाराः सन्ति सर्वे कलौ युगे” ॥ प्रत्र फलजनकापूर्वेक्याकर्मणोऽप्यैक्यं अन्यथा सङ्कल्पावाहनविसर्जनदक्षि. णादिभेदः स्यात्। ततश्च खो यियक्षगा अधिवासदिनेऽङ्गाधिकाराय तहौजीभूतकाम्यप्रधानाधिकार सम्पादक कुशतिलजल त्यागसहितः काम्याभिलापपूर्वक प्रधानसङ्कल्पः कार्यः। इति हैतनिर्णयोत वदनापि काम्यत्वेन नित्यत्वेन वा करणे व्रतत्वात्तत्तत् कल्पारम्भदिने बोधनादिप्रागेव सङ्कल्पो न तु दिनान्तरे। शरत्काले महापूजा इत्यत्र एकवचन श्रुतरेक प्रयोगसाध्यत्वे नैक कर्मतापन क्रियाकलापजन्यस्य वाक्यार्थीभूतनियोगस्यै क्याहर्शवत् न तु प्रत्येक तत्तत्कर्मणां संकल्पः कलिकापूर्वजनकत्वादैन्द्रदध्यादिहोमवत्। अतएव जिकनधनञ्जय संग्रहयोः। “प्रारभ्य तस्यां दशमौञ्च यावत् प्रपूजयेत् पर्वतराजपुत्वों" इत्यतम्। अतएव "कन्यामस्थे रवी शक्र शुक्ला मारभ्य नन्दिकाम्" इत्यपक्रम्य "महानवम्यां पूजेयं सर्वकामप्रदायिनी" इत्यन्तेन देवौपुगणी येन अपि षष्ठीत: प्रभृति नवमीपर्यन्त पूजेयमित्येकत्वेनोक्तम्। तेन पञ्चम्यामेकभक्त ततः षष्ठयां प्रात: संकल्प इति रत्नाकरः। न च नन्दिकाप्रतिपदिति दुर्गाभक्तितरङ्गियुक्त युक्तमिति वाच्य महानवमीमनिष्ट षष्ठोपरित्यागे प्रमाणाभावात् प्रतिपदुतावपि प्रतिपदादि क्रमेली कवसिद्धेः प्रकृतार्थ निर्वाहाच्च । एवश्वानेकाहसाध्यत्वेन तिथ्युल्लेखानन्तरमारभ्य दशमों यावत् For Private And Personal Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । प्रत्यहमिति वार्षिक शरत्कालौन दुर्गामहापूजनमिति च यथास्थानं वाक्ये प्रयोज्य अन्यथा संकल्प कालौन तिथेरन्यदिनेऽसम्भवात्तदन्वयानुपपत्तेरिति सुधौभिर्भाव्यम् । ___ एवञ्च तत्र व वक्ष्यमाणतत्तहचनात् कृष्णनवम्यादि प्रतिपदादि षष्ठयादि सप्तम्यादि महाष्टम्यादि केवल महा. ष्टमी केवल महानवमौ पूजारूपा: कल्पा उन्नयाः । तदनन्तरमशौचमपि न प्रतिबन्धकम्। व्रतयज्ञ विवाहेषु श्राद्ध होमेऽर्चने जपे। प्रारब्धे सूतकं न स्यादनारब्ध तु सूत कम् । प्रारम्भो वरणं यज्ञे संकल्पो व्रतजापयोः। नान्दोगाई विवाहादौ श्राद्ध पाकपरिष्किया निमन्त्रणन्तु वा श्राधे प्रारम्भः स्यादिति श्रुतिः” इति राघवभतविष्णु वचनात् पाक परिष्क्रियेति साग्नेदर्शश्राद्धविषयं तत्र तस्य तदुद्धरणस्य असाधारणाङ्गत्वात्। संकल्प उक्तो हारोतेन यथा “मनसा संकल्पयति वाचाभिलपति कर्मणा चोपपादयति" इति भविष्यपुराणेन च “सङ्कल्पेन विना गजन् यत्किञ्चित् कुरुते नरः। फलञ्चाल्पाल्पकं तस्य धर्मस्याईक्षयो भवेत्" ॥ ब्रह्मपुराणेनापि “प्राशास्य च शुभ कार्यमुद्दिश्य च मनोगतम्” । इत्य गस्त्यपूजने उक्तं मनोगतं शुभं फलम् आशास्य मनसा सङ्कल्पा उद्दिश्य वाचा अभिलप्य कार्य कर्मणा उपपाद्यम् । भविष्य “शुक्तिशङ्खाश्महस्तैश्च कांस्यरूप्यादिभिस्तथा। सङ्कल्पो नैव कर्तव्यो मृण्मयेन कदाचन ॥ गृहीत्वोडुम्बरं पात्र वारिपूर्ण गुणान्वितम्। दर्भत्रयं साग्रमूलं फलपुष्यतिलान्वितम् ॥ जलाशयारामकूप सङ्कल्प पूर्वदिन खः । साधारणे चोत्तरास्य ऐशान्यां निक्षिपेज्जलम् ॥ अत्र केवन्त हस्तनिषेधस्तु पात्रान्तरसद्भावविषयशलादिसाहचर्यादेकहस्तपरो वा। “यहोत्वोडम्बरं पात्र वारिपूर्णमुदइ खः। उपवासन्तु ग्रहोयाद यहा वार्येव धारयेत्” ॥ इति वराहपुराणदर्शनादिति। अस्य व्रतत्वञ्च शारदीयपूजामुपक्रम्य "महाव्रतं महापुण्यं शङ्कराद्यैरनुष्ठितम्। कर्तव्य सुरराजेन्द्र देवौभक्तिसमन्वितैः” ॥ इति देवीपुराणवचनात् । “व्रती प्रपूजयेद्देवीं सप्तम्यादिदिनत्रये" इति भविष्यपुराणाच्च। दुर्गापूजाया व्रतत्व व्यक्तं श्रौभागवते For Private And Personal Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६८ तिथितत्त्वम् । "चेरुर्हविष्य ं भुञ्जानाः कात्यायन्यर्चनव्रतम्” । स्कान्दभविष्यपुराणयो: “शारदौ चण्डिकापूजा त्रिविधा परिगीयते । सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां शृणु ॥ सात्त्विकौ जपयज्ञाद्यैर्नैवेद्यैश्च निरामिषैः 1 माहात्मा भगवत्याश्च पुराणादिषु कीर्त्तितम | पाठस्तस्य जपः प्रोक्तः पठेद्द वौमनाः प्रिये । राजसो बलिदानेन नैवेद्यः सामिषैस्तथा ॥ सुरामांसाद्युपहारैर्जपयज्ञैर्विना तु या । विना मन्त्रेस्ताममौ स्यात् किरातानाञ्च सम्मत।” ॥ शरत्कालीन दुर्गापूजाधिकारे भवि ष्योत्तरौयं “ ब्राह्मयैः चत्रियैर्वैश्यः शूद्रैरन्यैश्व सेवकैः । एवं नानाम्लेच्छगणैः पूज्यते सर्वदस्युभिः " ॥ देवीपुराणं “स्वयं वाप्यन्यतो वापि पूजयेत् पूजयेत वा” । पूजयेतेत्यात्मनेपदातुनिजन्तता अत्र स्वयं करणासामर्थ्ये अन्यद्वारा तथाच दक्षः “स्वयं होमे फलं यत्तु तदन्येन न जायते । ऋत्विक् पुत्रो गुरुर्भ्राता भागिनेयोऽथ विट्पतिः । एभिरेव हुतं यत्तु तडुतं स्वयमेव हि ॥ विपतिर्जामाता एवञ्च ऋत्विगादौतरत्र फलन्यूनता । हयशौर्षपञ्चरात्र " अर्थकस्य तपोयोगाद चनस्यातिशायनात् । श्रभिरूप्याच्च विम्बानां देवः सान्निध्यमृच्छति ॥ विम्बानां प्रतिमानाम् । अत्राशोचादिशङ्कया बोधनदनात् पूर्वं शुचि तत्काल जीवित्व रूपाधिकाराभावेऽपि यहरणादिकं क्रियते तत् काले तस्य नारदोक्त स्वयं प्रवर्त्तनवत् प्रवर्त्तनाय न तु तदानीं प्रतिनिधौयते । अथवा "निक्षिप्याग्निं स्वदारेषु परिकल्पयत्विजं तथा । प्रवसेत् कार्य्यवान् विप्रो हथैव न चिरं कचित् " ॥ इति छन्दोगपरिशिष्टोक्तवदत्रापि प्रतिनिधौयते एवञ्च वरणं विनापि यदि क्वचित् स्वयं प्रवर्त्तते तथापि तत्कर्मसिद्धिदक्षिणा च तस्मै शुचिकाले दातव्येति । तथाच विवाद कल्पतरुत्नाकरशान्तिदौपिकासु नारद: "ऋत्विक् च त्रिविधो दृष्ट: पूर्वजुष्टः स्वयं कृतः । यदृच्छया च यः कुर्य्यादार्त्विज्यं प्रौतिपूर्वकम्” ॥ यदृच्छया स्वेच्छया एतत् प्रपञ्चितं शुद्धितत्त्व | अतएव शङ्खलिखितौ “राजां पुरोहितोऽमात्यः शुद्धिस्तस्य तदाश्रया” नृपतौनामात्मप्रतिनिधीभूतः पुरोहितस्तेन नृपतेरशांचे पुरोहितस्याशौचाभावात् नृपतेः शान्तिक । For Private And Personal Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । पौष्टिकं पुरोहितेन स्वौयशुद्या कर्त्तव्यमिति हारलताप्रभृतयः । पूजादिकन्तु शुचिकाले तदर्थोपकल्पितद्रव्येण कर्त्तव्यं यथा यमः “पूर्वमङ्कल्पितार्थे वा तस्मिन्नाशौचमिष्यते” । कृत्यचिन्तामणौ ।" "विवाहोत्सवयज्ञ षु अन्तरामृतसूतके । पूर्वसङ्कल्पितं द्रव्यं दौयमानं न दुष्यति ॥ स्वयं प्रवर्त्तमानाहत्विगादेरनुज्ञया प्रवर्त्तनात् फलाधिकयम् । तथा कूपुराणम् " ऋत्विकपुत्रोऽथवा पत्नी शिष्यो वापि सहोदरः । प्राप्यानुज्ञां विशेषेण जुहुयादा यथाविधि” ॥ पुत्रं विशेषयति श्रुतिः “ अन्यैः शतक्रताडोमादेकः पुत्रकृतो वरः । पुत्रैः शतक्रताडोमादेको ह्यात्मकतो वरः ॥ संवत्सरप्रदौपे “माहात्मं भगवत्याश्च पुराणादिषु कीर्त्तितम् । पठेच मृगयाहापि सर्वकामसमृद्धये" ॥ सर्वकामसमृद्धये तत्त भिलषित सिद्धये । यत्र यद्यपि देवीमाहात्मापाठस्य “ सकृत्कृते कृतः शास्त्रार्थः” इति न्यायात् सक्कत्करणादेव तत्तत् फलसिद्धिर्जायते तथापि तत्फलबाहुल्याय पुनः पुनः पाठः वेदादौ तथादर्शनात् तथाच ब्रह्मवधप्रायश्चित्ते मनुः " पठेद्दा नियताहारस्त्रिर्वै वेदस्य संहिताम । प्रायश्चित्तेऽवशिष्टेऽपि त्रिः पठेदवमर्षणम्" इति सरखतौस्तवेऽपि " पक्षद्वयेऽपि यो भक्त्या वयोदश्येकविंशतिम् । श्रविच्छेद पठेडोमान ध्यात्वा देवीं सरखतोम्” ॥ नन्दिकेश्वर पुराणोंयेन्द्रा चौस्तवेऽपि " शतमावर्त्तयेद्यस्तु मुच्यते व्याधिबन्धनात्" इति जैमिनिरपि "फलस्य कर्मनिष्पत्तिस्तेषां लोकवत् परिमागतः फलविशेषः स्यात्” इति यथा लौकिक कर्षणादोनां बाहुल्येन फलाधिका तथा वैदिकपाठादौनामपीत्यर्थः । “सङ्कल्पिते स्तोत्रपाठे संख्यां कृत्वा पठेत् सुधीः” । इति वाराष्ट्रतन्त्राच्च इन्द्राचीस्तव सरखतीस्तववत् चण्डीपाठस्यावृत्तो फलभूमादिव्यक्तम् । वाराहोतन्त्रे “ चण्डीपाठफलं देवि ! मृगाव गदतो मम । एकावृत्त्यादिपाठानां यथावत् कथयामि ते ॥ सङ्कल्पापूर्व सम्पूज्य न्यस्याङ्गेषु मनून् सक्कत् । पाठादलिप्रदानाच्च सिद्धिमाप्नोति मानवः ॥ उपसर्गोपशान्त्यर्थं त्रिरावृत्तं पठेन्नरः । गृहोपशान्त्यै कर्त्तव्यं पञ्चावृत्तं वरानने ! ॥ महाभये समुत्पन्ने " For Private And Personal Use Only ६८ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्वम् । सप्तावृत्त समुबयेत् । नवावृत्तावेच्छान्तिर्वाजपेयफलं भवेत् । गजवश्यायभूत्यै च रुद्रावृत्तमुदीरयेत्। अर्कावृत्तात् काम्यसिहिरिहानिश्च जायते ॥ मन्वायत्त्या रिपुर्वश्यस्तथा स्त्रीवग्यतामियात्। सोख्य पञ्चदशावृत्त्या श्रियमाप्नोति मानवः ॥ कलावृत्त्या पुत्रपौत्रधनधान्यागमं विदुः। राज्ञो भौतिविमो. क्षाय रिपोरुच्चाटनाय च ॥ कुर्यात् सप्तदशावज्ञ तथाटादशकं प्रिये !। महाव्रणविमोक्षाय विंशावृत्तं पठेत् सुधीः । पञ्चविंशावत्तनात्त भवेहन्धविमोक्षणम्। सटे समनुप्राप्त दुश्चिकिमामये तथा ॥ जातिध्वंसे कुलोच्छ दे पायुषो नाशमागते। वग्विदो व्याधितो धननाश तथा क्षये। तथैव विविधोत्यात तथा चैवातिपातके। कुर्याद यत्नात् शतावृत्त तत: सम्पद्यते शुभम् ॥ श्रियोतिः असाहत्या राज्यविस्तथापरा। मनमा चिन्तितं देवि! सिग्दष्टोत्तराच्छतात् ॥ शताश्वमेधयज्ञानां फलमानोति सुव्रते। सहस्रावर्तनालक्ष्मीरावृणोति स्वयं स्थिरा॥ भुत्वा मनोरथान् कामान् नगे मोक्षमवाप्नुयात्। यथाखमेधःक्रतुराट् देवानाच यथा हरिः ॥ स्तवानामपि सर्वेषां तथा सप्तशती स्तवः। अथवा बहनोक्तन किमतेन वरानने !। चण्ड्याः शतावृत्तपाठात् सर्वाः सिद्यन्ति सिद्धयः” ॥ पठन श्रवगावत् पाठन धावणेऽपि कार्ये "प्रयोजयिता अनुमन्ता कर्ता चेति सर्वे स्वर्गनरक फन भोक्तारो यो भूय प्रारभते तस्मिन् फले विशेषः” इत्यापम्बेनापि प्रवृत्तप्रावतकल क्षगाप्रयोजकस्यापि फलश्रुतः । प्रव पाठयिथे वाव यिष्ये इति प्रयोगः। एवं भारतादावपि पत्राविशेषात् सर्वेषामेवाधिकारः हिजानां पाठश्रवणयोः शूद्रस्य श्रवणेऽधिकारः । प्रत्र काम्यत्वेऽपि स्मात्तकत्वेन प्रतिनिधिसम्भवात् यथायथं पठिष्यामि श्रोम्यामि इति सङ्कल्या तैः प्रतिनिधीयते । तथाच अधिकरणमालाकमाधवाचार्यकृतपराशरभाष्ये शाताशपः । “श्रोतं कर्म स्वयं कुर्य्यादन्योऽपि स्मार्तमाचरेत्। अशक्ती श्रौतमप्यन्यः कुर्यादाचारमन्ततः” ॥ एतद्वचनं काम्यापि प्रतिनिधिविधायकं नित्यनैमित्तिकमानपरत्वे तु श्रौतस्मातं. भेदेनोपादानं अर्थ स्यात्तयोरविशेषादेव प्रतिनिधिलाभात् । For Private And Personal Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 09 तिथितत्त्वम् । अन्तत उपक्रमात् परतः। “काम्ये प्रतिनिधिर्नास्ति नित्यनैमित्तिके हि सः। काम्येषपक्रमादुई केचिदिच्छन्ति सत्तमाः"॥ इत्ये कवाक्यत्वात् ततश्च स्मात काम्यं प्रतिनिधिमाप्यारम्यते न तु श्रोतमिति स्थितम् ।। माहात्मयादिपाठे तु नारायणाय नमः नराय नमः नरोत्तमाय नमः देव्यै सरस्वत्यै नमः व्यासाय नमः इति नत्वा पाठ्य नारायणं नमस्कृत्य नरञ्चैव नरोतमम्। देवी सरस्वतीचैव ततो जयमुदीरयेत्” इति विधेः भागवतोयसूतोत्तो उदीरयेदित्यस्य खयं तथोदौरयन्त्र न्यान् पोराणिकानुपशिक्षयतौति श्रीधरस्वामिव्याख्यानमनुशासनविरुद्धञ्चैवेत्यत्र व्यासमिति भागवते पाठात् । चकारण व्यासो लब्धः भागवते तु मरस्वतीवेत्यत्र सरखती व्यासमिति साक्षालिखितम् । जयपदार्थ माह ब्रह्मचारिकाण्डे भविष्यपुराणम् “अष्टादशपुगणानि रामस्थ चरितं तथा। विष्णुधर्मादिशास्त्राणि शिवधर्माश्च भारत ॥ काष्ण च पञ्चमो वेदा यम्महाभारतं स्मतम् ॥ काणं कृष्णद्वैपायन प्रग्नोतं “सौराक्ष धर्मा राजेन्द्र ! मानवोक्ता महीपते। जयेति नाम एतेषां प्रवदन्ति मनौषिणः ॥ जयत्यनेन संसारमिति जयस्तत्तद्ग्रन्थः। एवञ्चार्थानबलोकनादाचाराहादावेषः शोकः पठ्यते। मत्स्य सूक्त वाराहौतन्ने च। “जया च प्रणवचादौ सोत वा संहितां पठेत् । अन्त च प्रणवं दद्यादित्य वाचादिपूरुषः ॥ सर्वत्र पाठे विन्न योऽन्यथा विफलं भवेत्। शुद्ध नानन्यचित्तेन पठितव्यं प्रयत्नतः ॥ न कार्यासतमनसा कायं स्तोत्रस्य वाचनम्। प्राधार स्थापयित्वा च पुस्तकं प्रजपेत् सुधीः ॥ हस्तसंस्थापनादेव यस्मादल्पफलं लभेत्। स्वयञ्च लिखितं यच्च कतिना लिखितं न यत् । अब्राह्मणेन लिखितं तश्चापि विफलं भवेत्। ऋषिकन्दादिकं न्यस्य पठेत् स्तोत्नं विचक्षणः ॥ स्तोत्रे न दृश्यते यत्र प्रणवन्यासमाचरेत् । संकपिते स्तोत्रपाठे संख्यां कृत्वा पठेत् सुधौः ॥ अध्यायं प्राप्य विरमेन तु मध्ये वादाचन । कते विराम मध्ये तु अध्यायादि प्रठेबरः॥ For Private And Personal Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ৩২ तिथितत्त्वम् । ततश्च मार्कण्डेय पुराणौयदेवीमाहात्मा पाठस्यादौ ऋषिछन्दादिकं पठेत् तद्यथा प्रथमचरितस्य " ब्रह्मऋषिर्महाकालो देवता गायत्रौ छन्दो नन्दाशक्तो रक्तदन्तिकावोजमग्नितत्त्व' महाकालौपौत्यर्थं जपे विनियोगः” । मध्यमचरितस्य । "विष्णु ऋषिर्महालक्ष्मौर्देवता अनुष्टुप छन्दः शाकम्भरीशक्तिदुर्गावीजं सूर्यस्तत्त्व' महालक्ष्मौप्रौत्यर्थं जपे विनियोगः” । उत्तरचरितस्य " रुद्रऋषिः सरखतौदेवता उष्णिक छन्दोभौमाशक्तिभ्रमरोवोजं वायुस्तत्त्व' सरखतोप्रौत्यर्थं जपे विनियोगः " नैयतकालिक कल्पतरौ भविष्यपुराणम् " इतिहासपुराणानि भक्त्या विशांपते । मुच्यते सर्वपापेभ्यो ब्रह्महत्यादिभि विभो ॥ ब्राह्मणं वाचकं विद्यान्नान्यवर्णजमादरात्। श्रुत्वान्यवर्णजाद्राजन् वाचकान्नरकं व्रजेत्” ॥ तथा “देवाचमग्रतः कृत्वा ब्राह्मणानां विशेषतः । ग्रन्थिञ्च शिथिलं कुर्य्याद्दाचक: कुरुनन्दन ॥ पुनर्वनीत तत्सूत्रं न मुक्ता धारयेत् क्वचित् । हिरण्यं रजतं गाश्च तथा कांस्योपदोहनाः ॥ दत्त्वा तु वाच - कायेह तस्याप्नोति तत्फलम” । कांस्योपदोहना: कांस्य क्रोड़ा: " वाचकः पूजितो येन प्रसन्नास्तस्य देवताः” । तथा "ज्ञात्वा पर्वसमाप्तिञ्च पूजयेत् वाचकं बुधः । श्रात्मानमपि विक्रय य इच्छेत् सफलं कृतम्” । तथा "विस्पष्टमद्रुतं शान्तं स्पष्टाक्षरपदं तथा । कलस्वरसमायुक्त रसभावसमन्वितम् ॥ वुध्यमानः सदा शुद्धो ग्रन्थार्थं कृत्स्रशो नृप । ब्राह्मणादिषु सर्वेषु ग्रन्थार्थं चार्पयेनृप ॥ य एवं वाचयेदब्रह्मन् स विप्रो व्यास उच्यते” । तथा "सप्तखरसमायुक्त कालेकाले विशांपते । प्रदर्शयनुसान् सर्वान् वाचयेद्वाचको नृप” ॥ देवौपुराणे "दूषे मास्यसिते पक्षे कन्याराशिगते रवौ । नवम्यां बोधयेद्द वीं क्रौड़ाकोतुकमङ्गलैः ॥ ज्येष्ठानक्षत्रयुक्तायां षष्ठयां विल्वाभिमन्त्रणम् । सप्तम्यां मूलयुक्तायां पत्रिकायाः प्रवेशनम् । पूर्वाषाढ़ायुताष्टम्यां पूजा होमाद्युपोषणम् ॥ उत्तरेण नवम्यान्तु वलिभिः पूजयेच्छिवाम् । श्रवणेन दशग्यान्तु प्रणिपत्य विसर्जयेत्” ॥ अत्र नवम्यादिकल्प उक्तः । तथा " यावडूर्वायुबाकाशं जलं वह्नि शशिग्रहाः । तावच्च चण्डिका पूजा भवि For Private And Personal Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । व्यति सदा भुवि ॥ प्रादृट्काले विशेषेण चाखिने घष्टमीषु च। महाशब्दो नवम्यान्तु लोके ख्यातिं गमिष्यति” ॥ अनेन महाष्टमी - महानवमीकल्पावुक्तौ । सङ्कल्पोऽपि तद्रूपेण । चव कन्याराशिगते वावित्यस्याभिधानं फलाधिक्यार्थं प्रायिकाभिप्रायं वा न तु नियमार्थम् । तथात्वे सौराखिने प्रतिवर्षं कृष्ण नवममारभ्य शुक्लदशमीं यावत् प्रजाक्रमस्यानुपपत्तेः । अत्र कृष्णादित्वादिषु इत्यपि गौण श्रखिनपरम् । श्रतएव कालकौमुद्यादिष्टतं “कर्किण्यके हरौ सुप्ते शक्रध्वजक्रियाविने । तुलायां बोधयेद्देवीं वृश्चिके तु जनार्दनम् ॥ इति बोधयेदिति षष्ठप्रामिति शेषः । अत्रापि नवमौबोधनं कन्यायामेव तथैव सम्भवात् तेन सिंहार्के कन्यार्क तुलार्के - ऽप्याश्विनत्वेन वाक्यरचना महाष्टमी महानवम्योरपि मासपतोल्लेख: वः । मासपचतिथौनामिति वचनात् श्रमावास्यापौर्णमास्योः पचोल्लेखवत् एतेन वारुण्यादिवत् महाष्टम्यादावपि विशिष्ट विधित्वान मासाद्युल्लेख इति निरस्तम् । a शारदा सा समाख्याता " अत्र कालिकापुराणे नवम्यां बोधनमष्टादशभुजायाः षष्ठयां बोधनं दशभुजायाः विशेष्याभिधानात्तथैवेति वदन्ति तत्र कालिकापुराण एव कामाख्यापञ्चमूर्त्तिप्रकरणे “ शरत्काले पुरा यस्मात् नवम्यां बोधिता सुरैः । पौठे लोके च नामतः” ॥ इत्युपक्रम्य " रूपमस्याः पुरा प्रोक्तं सिंहस्थं दशबाहुभिः ” । तथा "रूपत्व ेवं दशभुजं पूर्वोक्तन्तु विचिन्तयेत्” । इति तथा " पञ्चाननं कासरञ्च दैत्यमग्रे प्रपूजयेत्” । इत्यनेन सिंहमहिषयुक्ताया दशभुजाया अपि नवम्यां बोधनमुक्तम् । अतएव तत्रैव " उग्रचण्डेति या मूर्त्ति - भद्रकाली त्वहं पुनः । यया मूर्त्या त्वां हनिष्ये सा दुर्गेति प्रकीर्त्तिता ॥ एतासु मूर्त्तिषु सदा पादलग्नो नृणां सदा । पूज्यो भविष्यमि त्वं वै देवानामपि रक्षसाम्” ॥ इत्यनेन कात्यायन्या दुर्गायाः पादलग्नत्वेन महिषासुरस्य पूज्यत्वं पूर्वमुक्तम् । श्रतण्वाष्टादशभुजायाः पादलग्गत्वं महिषासुरस्य न सम्भवतौति तस्माद्दशभुजाया नवन्यां षष्ठयां वा बोधनमिति । For Private And Personal Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७४ तिथितत्त्वम् । अत्र शरत्कालबोधनौयत्वेन शारदापदव्युत्पत्तेस्तत्पदं तालव्यादिसारं ददातौति व्यत्पत्तिस्तु काल्पनिको। __ एवं प्रतिवर्षकर्तव्यत्वादार्दादि नक्षत्रालाभेऽपि पूजा कार्या नक्षत्रयोगस्तु फलातिशयाय तथा च लिङ्गपुराणं "मूलाभावेऽपि सप्तम्यां केवलायां प्रवेशयेत्। तथा तिथ्यन्तरेष्वेव मृक्षेषु तु फलोच्चयः" । देवल: "तिथिनक्षत्रयोर्योग इयोरेवानुपालनम्। योगाभावे तिथि ह्या देव्या: पूजनकर्मणि" । कृष्ण नवम्यामार्दीयोगोविधौ मन्ते च श्रयते तथा च लिङ्गपुराणम्। “कन्यायां कृष्ण पक्षे तु पूजयित्वाद्रभे दिवा। नवम्यां बोधयेद्देवों महाविभविस्तरैः”। चतुर्थचरणे गौतवादिननिस्वनैः इति कालिकापुराणे पाठः। “इषे मास्य. सिते पक्षे नवम्यामाभ्योगतः। श्रौढचे बोधयामि त्वां यावत् पूजां करोम्यहम्। ऐं रावणस्य बधार्थाय रामस्यानुग्रहाय च। अकाले ब्रह्मणा बोधो देव्यास्त्वयि कृतः पुरा" इति मन्त्रलिङ्गच । अकाल इति तु रात्रित्वेन दक्षिणायगास्य ।। तथा च श्रुतिः। “तपस्तपस्यो शिशिगवतुः। मधुश्च माधवश्च वासन्तिकावतुः। शुक्रश्च शुचिश्च ग्रेमातुः। अथैतदुत्तरायणं देवानां दिनं नभाश्च नभस्यश्च वाषिकातुः इषश्च ऊर्जश्च शारदावतुः। सहाश्च सहस्यश्च हैमन्तिकातुः । अथेतद्दक्षिणायणं देवानां रात्रिः" इति एवञ्च “रानावेव महामाया ब्रह्मगा बोधिता पुरा । तथैव च नराः कुर्य: प्रतिसंवत्सरं नृप” इति अम्याप्येतहिषयम् । अतएव लिङ्गपुराणे दिवेत्यक्तम् । एवञ्च कालिकापुराणेऽपि बोधने रात्रावितिपदं देवता रात्रिपरम्। ततश्च पूर्वाह्न नवम्यामा नक्षवयुक्तायां बोधनं पूर्वाह्न तरकाले पार्टालाभे नवम्यामाद्रभे दिवेत्यत्र दिवापदात्तत्रापि बोधनम् अन्यथा दिवापदं व्यर्थ स्यादिति। ज्येतिषार्णवे व्यक्तमुक्त वराहेण “कन्यादिमौनपर्यन्तं यत्र संप्राप्यते शिवः । तत्र बोधः प्रकर्तव्यो देव्याराज्ञा शुभप्रदः”। शिव आर्द्रा एवञ्चोभयदिने पूर्वाह्न नवमीलाभे परना लाभे परत्र बोधनं न युग्मात् पूर्वत्र युग्मवाधक पूर्वाह्नस्य बाधकनक्षत्रानुरोधा दिवानक्षत्रालामे तु पूर्वाह एव For Private And Personal Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । नमम्याम् उभयत्र पूर्वाह्न लाभे तु पूर्वदिन एव युग्मात् अत्र केवल नवम्यां बोधनविधेर्नक्षत्रस्यापि गुणफलत्वाच। "माधे वा फाल्गुने वापि भवेद माघसप्तमौ। माकरौति च यत् प्रोक्तं तत् प्रायो हत्तिदर्शनात्” इति सौरागमान्माकरोति च वत् आयोग इत्यस्य प्रायिकत्वेनाभिधानं प्रतीयते । ततश्चारहितबोधने मन्त्रान्तरानुपदेशात्तद्युक्तमन्त्रः प्रणवयुक्तत्वेन प्रयुज्यते। “यबानञ्चातिरिक्तञ्च यच्छिद्रं यदयनियम्। यदमेध्यमशुद्धञ्च यातयामञ्च यद्भवेत् । तदोङ्कारप्रयुक्तेन सर्वसाविकलं भवेत्” । इति योगियाज्ञवल्कावचनात् । षष्ठोबोधनेऽप्येवं नवम्यां बोधनासामर्थ्य तु षष्ठयां सायं बोधनं यथा भविष्ये “षष्ठयां विल्वतरौ बोधं सायं सध्यासु कारयेत्” सन्ध्योक्ता वराहमिहिरेण। “अस्तिमयात् सन्ध्या व्यक्तीभूता न तारका यावत्" । षष्ठयां बोधने तु प्रागुक्त “ऐ रावणस्य बधार्थाय” इति “अहमप्याखिने षष्ठयां सायाझे बोधयाम्यत:" इति च पठेत्। अत्र बोधनामन्त्रणयोः पृथक्त्वं तत्प्रकाशकमन्त्रभेदात् अत्र बोधनमन्त्रावुक्तावेव आमन्त्रणमन्त्री तु "मेरुमन्दरकैलासहिमवच्छिखरे गिरी"। इत्यादि प्रागुक्त देवीपुराणे नवमौषष्ठयोर्बोधनामन्त्रणयोः पृथक्त्वाभिधानाच। ततश्च षष्ठयामुभयकरणेऽपि पत्रौप्रवेश पूर्वदिने सायं षष्ठौलामे एकदैवोभयकरणम्। यदा तु पूर्वदिने सायं षष्ठोलाभ: न परदिने सायं षष्ठीलाभः तदा पूर्वेधुर्बोधनं परदिने सायमामम्वणम्। यदा तु उभयदिने सायं षष्ठालाभस्तदा परदिने पूर्वाह षष्ठयां बोधनं “बोधयेहिल्वशाखायां षष्ठयां देवों फलेषु च। सप्तम्यां विल्वशाखां तामाहृत्य प्रतिपूजयेत् ॥ पुन: पूजां तथाष्टम्यां विशेषेण समाचरेत् । जागरञ्च स्वयं कालिदानं महानिशि ॥ प्रभूतवलिदानञ्च नवम्यां विधिवञ्चरेत्। ध्यायेद्दशभुजां देवी दुर्गामन्त्रेण पूजयेत्॥ विसजनं दशम्यान्तु कुर्य्यादै शावरोत्सवैः। धूलिकर्दमविक्षेपः कोड़ाकोतुकमङ्गलैः भगलिङ्गाभिधानश्च भगलिङ्गप्रगौतकैः” ॥ इति कालिकापुराणात्। शवरो म्लेच्छः शाखां विशेषयति For Private And Personal Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । लिङ्गपुराणम् । “युग्माभिन्नाञ्च विल्वस्य फलाभ्यां शाखिका तथा। तथाच मृण्मयों देवों स्नात्वा पूज्य प्रवेशयेत् ॥ एतानि षष्ठयादिकल्पविधायकानि। षष्ठयां बोधने तु नक्षवानुपदेशान्न तदादरः। ज्येष्ठादरस्तु आमन्त्रण एव तत्रापि विशेषो वक्ष्यते। आमन्त्रणन्तु षष्ठों विना सायमेव । "यज्ञौया देवताः सर्वाः श्वः कार्ये यज्ञ कर्मणि। सायमावाहयेहिहानान्यत्रेति निमित्तकात् ॥ श्खो भाविनि जगमित्र प्रवेशे विन्ध्यवासिनी। विल्वपादपमभ्येति पूजार्थ सायमम्बिका" ॥ इति हयशौर्षपञ्चरात्रौयदेवीकाण्डात्। “ज्येष्ठावाप्यथवा षष्ठी सायं कालेन चेद्भवेत्। सायमेव तथापि स्यात् विल्वशाखाभिमन्वणम् ॥ पूर्वी षष्ठी सनक्षत्रां सायं प्राप्तामपि त्यजेत् । यदा तु पत्रिका पूजा न पराभविष्यति । सविसष्टञ्च यत्पूर्व पत्रिका दिवसस्य तु। तहिने वरणं कृत्वा परे शाखां प्रवेशयेत् ॥ इति स्मृति सागरत मत्स्यसूक्ताच्च ब्रह्माण्ड नन्दिकेश्वरपुराणयोः “पत्रौप्रवेशात् पूर्वद्यः साया विन्ध्यवासिनीम्। चण्डोमामन्त्र येहिहान् नात्र षष्ठी पुरकिया"॥ बिन्ध्यवासिनौमित्यत्र विल्ववासिनौमिति भविष्यपुराणे पाठः पठन्ति च । “सायं षष्ठयान्तु कर्त्तव्यं पार्वत्या अधिवासनम्। षष्ठाभावेऽपि कर्त्तव्यं सप्तम्यामपि मानद" ॥ इति। ये त्वेतानि वचनान्यनालोच्य पत्रौप्रवेशाव्यवहितपूर्वदिन एव षष्ठयामेव विल्वाभिमन्त्रणं अवते तेषां पूर्णषष्ठानन्तरं षष्ठोलाभे धटिकान्यन षष्ठीलाभे वा तत्परदिने घटिका तदधिक सप्तमौलाभे वा तदनुपपत्तेः पूर्वदिवसौयायाः षष्ठयाव्यवहितत्वात् परदिवसोयायाः कर्मानईत्वादिति। अथ सप्तमीपूजा। तत्र सप्तम्यां मूलयुक्तायां केवलायां वा पूर्वाह्ने पत्रौप्रवेशः । उभयत्र सप्तमीला परत्र । “युगाद्या वर्षदिश्च सप्तमौ पार्वतीप्रिया। रवेरुदयमौक्षन्ते न तत्र तिथियुग्मता" ॥ इति देवीपुराणात्। ज्योतिषे “पूर्वाहे नवपत्रिका शुभकरौ सर्वार्थसिद्धिप्रदा प्रारोग्यं धनदा करोति विजयं चण्डो प्रवेश शभा। मध्याह्न जनपौड़नक्षयकरी संग्रामघोरावहा सायाहू बधबन्धनादिकलहं सर्पचतं सर्वदा। For Private And Personal Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् | सप्तम्यामस्तगायां यदि विशति गृहं पत्रिका श्रीफलाढ्या राज्ञः सप्ताङ्गराज्यं जनसुखमखिलं हन्ति मूलानुरोधात् ॥ तस्मात् सूर्य्योदयस्थां नरपतिशुभदां सप्तमीं प्राप्य देवीम् । भूपालो वेशयेत्तां सकलजनहितां राचसीं विहाय " ॥ राक्षसर्चं मूला "पत्रोप्रवेशनं रात्रो विसर्ग वा करोति यः । तस्य राज्यविनाशः स्याद्राजा च विकलो भवेत् " ॥ देव्या ग्टहं दक्षिणायनेऽपि कर्त्तव्यं कल्पतरुष्टतदेवीपुराणे प्रतिष्ठाविधानेन तद्विधानात् । तथाच “महिषासुरहन्नाथ प्रतिष्ठादक्षिणायने” । तत्रैव " यस्य देवस्य यः कालः प्रतिष्ठाध्वजरोपणे । गर्त्तापूर शिलान्यासे शुभदस्तस्य पूजितः " ॥ यस्य देवस्य प्रतिष्ठाध्वजरोपणे यः कालः शुभदस्तस्य गर्त्तापूरशिलान्यासे गृहारम्भ' सकाल: पूजित इत्यर्थः । तस्य प्रवेशेऽपि सकालः । “ज्येष्ठादितिथ्यां संयुक्तं गृहारम्भोदितञ्च यत् । तत्सर्व योजयेद्देश्मप्रवेशे देवचिन्तक "ः ॥ इति ज्योतिर्वचनात् अदिति: पुनर्वसुः । Q. पत्रिका तु " कदली दाड़िमी धान्यं हरिद्रा मानकं कचुः । विल्वोऽशोको जयन्तौ च विज्ञेया नवपत्रिका " ॥ विल्वयुग्ममुपक्रम्य गवाततन्त्रे । " वायव्यस्थं राचसस्थं न गृह्णीयात् कदाचन" । व्याहृतिभिरावाहनमाह मत्यपुराणं "विनायकं तथा दुगां वायुमाकाशमेव च । श्रावाहयेद्याहृतिभि स्तथैवाश्वि कुमारकौ ॥ तस्मिन्नावाहयेद्देवान् पूर्ववत् पुष्पतण्डलैः” ॥ तस्मिन् मण्डलादों । प्राणप्रतिष्ठा विधिमाह कालिकापुराणे “प्रतिमायाः कपोली at स्पृष्ट्वा दचिणपाणिना । प्राणप्रतिष्ठां कुर्वीत तस्यां देवस्य वा हरेः ॥ श्रक्वतायां प्रतिष्ठायां प्राणानां प्रतिमासु च । यथा पूर्व तथा भावः खर्णादोनां न विष्णुता ॥ अन्येषामपि देवानां प्रतिमाखपि पार्थिव । प्राणप्रतिष्टा कर्त्तव्या तस्यां देवत्वसिद्धये ॥ वासुदेवस्य वोजेन तद्विष्णोरित्यनेन च । तथैवाङ्गाङ्गिमन्त्राभ्यां प्रतिष्ठामाच रेडरेः ॥ तथैव हृदयेऽङ्गुष्ठ दत्त्वा शश्वच्च मन्त्रवित् । एभिर्मन्त्रैः प्रतिष्ठान्तु हृदयेऽपि समाचरेत् ॥ अस्मै प्राणाः प्रतिष्ठन्तु अस्मै प्राणाः चरन्तु च । For Private And Personal Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम्। अस्मै देवत्वसंख्यायैः स्वाहेति यजुरीरयन् ॥ अनिमन्वैरणामन्त्रैर्वैदिकैरित्वनेन च। प्राणप्रतिष्ठां सर्वत्र प्रतिमासु समाचरेत्" ॥ तथा भावः स्वर्णादिमात्रम्। अङ्गमन्वैरङ्गन्यासमन्त्रैः अङ्गिमन्त्रैमलमन्वैदिकः “मनोज्योतिर्जुषतामाज्यस्य वृहस्पतियंजमिमम्। तनो त्वरिष्ट यन्नं समिमं दधातु विश्वे देवा स इह मादयन्तामोम्प्रतिष्ठ" ॥ इति मन्त्रैः एवञ्च दुर्गायाः प्राणप्रतिष्ठायां कपोलो कृत्वा मूलमन्त्र षडङ्गमन्त्रच्च पठेत् । हृदयेऽष्ठ दत्त्वा अस्य इत्यत्र अस्म इत्यूहं कृत्वा तदादिकं पठेत्। तथा “लिङ्गस्थां पूजयेहवीं मण्डलस्थां तथैव च। पुस्तकस्थां महादेवीं पावके प्रतिमासु च । चित्रे च विशिखे खड़े जलस्थाञ्चापि पूजयेत्” ॥ अत्र जलसेकाद्ययोग्ये मानं खङ्गादावाह कालिकापुराणम्। “सद्यः स्निग्धे मृण्मये वा सर्पि: सिन्दूरजे तथा। श्रीचन्दनप्रतिष्ठे वा लेपजे प्रतिमा तनौ। अन्तिक स्थापिते खरे मापयेहपणेऽथवा" ॥ इति खङ्गे प्रतिविम्बयोग्य लौहनिर्मिते । पूजामधिकृत्य वौधायन: "प्रतिमास्थानेष्वपस्वग्नौ भावाहनविसर्जनवर्जम्” इति प्रतिमास्थानेषु स्थिरतरप्रतिष्ठितेषु इत्यर्थः। जमदग्निः “देवताप्रतिमां दृष्ट्वा यतिं दृष्ट्वाम्यद. ण्डिनम् । नमस्कारं न कुर्याद्य: प्रायश्चित्तौयते नरः” ॥ प्राय. चित्तौसन् ईयते । कान्तिकापुराणम् । “दिग्विभागे तु कोवेरी दिक् शिवाप्रौतिदायिनौ। तस्मात्तनमुख प्रासौन: पूजयेचण्डि कां सदा ॥ कौवेरौ उत्तरादिक तन्मुख उत्तरामुखः । त्रिपुरासारसमुच्चये। “स्नात्वा यथाविधिविधौतकगननाङ्घिराचम्य सम्यगमलाम्बरयज्ञसूत्रः। प्रागाननो धनददिग्वदनोऽथ वापि बद्धासनो गणपतिञ्च गुरुच्च नत्वा" इति वाक्यात् प्रागाननोऽपि देवीप्रतिमोपक्रम्य मत्स्यपुराणम्। “सिन्दूरं लामचणञ्च तासां शिरसि पातयेत्। स्मृति: "मधुमुस्तं कृतं गन्धो गुग्गुल्वगुरुशैलजम् ॥ सरलं सिसिद्धार्थो दशाङ्गो धूप इथते" ॥ दमाङ्गो दशघटितः शैलजं स्वनामख्यातं सिद्धार्थः खेतसर्षपः। "तुरुष्क अन्यिकर्पूरनागरागुरुकुङ्कुमैः । मुरामांसोसितामिथ धूपं दद्यान्मधुप्लुतम् ॥ तुरुष्क सितकं For Private And Personal Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । ७८ ग्रन्थिः गांठीयानीति ख्याता सिता, शर्करा नागरः शुण्ठी । भविष्ये “ वलिहोने तु दुर्भिक्षं गन्ध होने त्वभाग्यताम् । धूपहोने तथोद्वेगं वस्त्रहौने धनक्षयम् ॥ प्राप्नुयादिति शेषः । कालिकापुराणे “लाङ्गलं क्रमुकं दत्त्वा रुचकं करमर्दकम् । सौभाग्यमतुलं प्राप्य देवोलोके महीयते । परमानं पिष्टकञ्च यावकं कषरन्तथा ॥ मोदकं पृथुकादोनि कन्दुपक्कानि चोत्सृजेत् । हविः शाल्योदनं दिव्यमाज्ययुक्तं सशर्करम् ॥ निवेदयेन्महादेव्यै सर्वाणि व्यञ्जनानि च । चौरादौन्यथ गव्यानि महिषादीनि सर्वशः ॥ लाङ्गलं नारिकेलं क्रमुकं गुवाकफलं रुचकं वीजपूरकं करमर्दकं पानौयामलकं कन्दुपक्कं जलोपसेकं विना केवलपात्रे यद्दह्निना पक भ्रष्टतण्डुलादि । "कन्दपक्कानि तैलेन पायसं दधिशक्तवः । द्विजैरेतानि भोज्यानि शूद्र गेहकृतान्यपि ॥ इति कूर्मपुराणदर्शनात् शूद्रकर्त्तृककन्दुपक्कादीनि देयानि शूद्रेतरक्तान्यपि । "गोकुले कन्दुशालायां तैलयन्त्रेत्तुयन्त्रयोः । श्रमी मांस्यानि शौचानि स्त्रीषु वालतुरेषु च " इति शातातपवचने अमीमांस्यानि शौचाशौचभागितया न विचारणीयानि इति भवदेवरत्नाकरव्याख्यानदर्शनाच्च । एवञ्च गङ्गावाक्यावल्यां चैवर्णिकेन सिद्धानेन नैवेद्यं देयं शूद्रेण द्विजशुश्रूषारतेन च । तदुक्तं वराहपुराणे 'त्रिषु वर्णेषु कर्त्तव्यं पाकभोजनमेव च । शुश्रूषामभिपन्नानां शूद्राणाञ्च वरानने ! ” ॥ एतच्चातुर्वर्ण्य पाककरणं कलौतरपरम् । "ब्राह्मणादिषु शूद्रस्य पक्कतादिक्रियापि च" इत्यभिधाय । " एतानि लोकगुप्त्ययं कलेरादौ महात्मभिः । निवर्त्तितानि काय्र्याणि व्यवस्थापूर्वकं बुधैः ॥ समयश्चापि साधनां प्रमाणं वेदवद्भवेत्” ॥ इत्यधिकरणमालाक्कन्माधवाचार्य्यष्टतादित्यपुराणवचनात् । ततश्च शूद्रकर्त्तृकवृषोत्सर्गादौ ब्राह्मणकर्त्तकचरुवत् ब्राह्मणद्दारा पक्कावनैवेद्यादि शूद्रोऽपि दातुमर्हति । एवञ्च "आमं शूद्रस्य पक्कानं पक्कमुच्छिष्टमुच्यते” इति स्वयं पाकविषयं योगिनौतन्त्रे । “शिवागारे भन्नकञ्च सूर्य्यगारे च शङ्खकम् । दुर्गागारे वंशिवायं मधुरौञ्च न वादयेत्” ॥ झलकं कांस्यनिर्मित करतालम् । मत्स्यपुराणं " गौतवादिव For Private And Personal Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । निर्घोषं देवस्याग्रे च कारयेत्। विरिञ्चेश्च रहे ढका घण्टा लक्ष्मी राहे त्यजेत् ॥ घण्टा भवेदशक्तस्य सर्ववाद्यमयौ यतः । विल्वपत्रञ्च माध्यञ्च तमालामलकोटलम्। कलारं तुलसौ चैव पद्मञ्च मुनिपुष्पकम् । एतत् पय्य षितं न स्याद्यञ्चान्यत् कलिकात्म कम्" ॥ माध्यं कुन्दं मुनिपुष्पं वकपुष्पम्। पुण्यबुया परकीयधर्मकार्य वेतनमग्टह्णन् तत्कायं कुर्वन् फलमाप्नोति। “अभिरूपेण सम्पन्नान् घट्टयित्वा विना भृतिम् । धर्मकार्यमिति ज्ञात्वा न रहाति कथञ्चन ॥ योऽसौ सुवर्णकारश्च दरिद्रोऽप्यथ सत्त्ववान् । न मूल्य मादादेश्यात: सभार्य ऋद्धिसंयुतः। सप्तहोपपतिर्जातः सूर्यायुतममप्रभः” ॥ इति मत्स्यपुराण लीलावतीवेश्याया लवणाचलदाने हेमतरुघटकस्य तथाविधफलदर्शनात्। कालिकाएगणे “महिषन्तु ददद्देव्यै भैरव्यै भैरवाय च । अनेनैव तु मन्लेग तं वलिं परिपूजयेत् ॥ यथावाहं भवान् दृष्टि यथा वहसि बिड काम्। तथा मम रिपून हिंस शुभं वह तुलापक" ॥ वाहोऽसः। लुलापको महिषः। “यमस्य वाहनस्वहि वररूपधराव्यय। अायुवित्तं यशो देहि कासराय नमोऽस्तु ते" ॥ कामरो महिषः । “प्रभूतवन्निदाने तु हो वा स्त्रीन् वाग्रतः कृतान्। पूजयेत् प्राङ्मुखान् कृत्वा सांस्तन्वेण साधकः" || बलिदानप्रकारं तत्रैव। भगवानुवाच। “नापयित्वा बलिं तत्र पुष्पचन्दनवन्दनैः। पूजयेत् माधको देवी मूलगन्नैर्मुहुर्मुहुः ॥ उत्तराभिमुखो भूत्वा बलिं पूर्वमुखं लथा। निरौक्ष्य साधकः पश्चादिम मन्त्रमुदीरयेत् ॥ नरत्वं बलिरुपण मम भाग्यादुपस्थितः । प्रणमामि ततः सर्वरूपिणं बलिरूपिणम् ॥ चण्डिकाप्रौतिदानेन दातुरापहिनाशन । चामुण्डाबलिरूपाय बले तुभ्यं नमोऽस्तु ते ॥ यज्ञार्थ पशव: सृष्टाः स्वयमेव स्वयम्भुवा। अतस्त्वां घातयाम्पद्य तस्मादयन्ने बधोऽबधः ॥ ऐं ह्रीं श्रौमिति मन्त्रेण तं दलि मत्स्वरूपिणं चिन्तयिन्ता न्यसेत् पुष्प मूड़ि तस्य तु भैरव । ततो देवी समुद्दिश्य काममुद्दिश्य चात्मनः। अभिषिच्य वलिं पश्चात् करवालन्तु पूजयेत् ॥ रसना त्वं चण्डिकायाः मुरलोक प्रसाधकः। ह्रीं For Private And Personal Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । श्री खड़ेति मन्त्रेण ध्यात्वा खन प्रपूजयेत् ॥ मत्स्वरूपिणं शिवस्वरूपिग्यम् अभिषिच घाताभिलापजलेनेति शेषः । ध्यानं तवैव । “कृष्णं पिनाकपाणिच कालगविखरूपिणम् । उग्रं रक्तास्यनयनं रक्तमाल्यानुलेपनम् ॥ रक्ताम्बरधरक्षेव पाशहस्त कुटम्बिनम्। पिवमानञ्च रुधिरं भुञानं क्रव्य. संहतिम् ॥ असिर्विशषण: खास्तीक्षाधारी दुरासदः । श्रीगर्भो विजयश्चैव धर्मपाल ! नमोऽस्तु ते॥ इत्यष्टी तव नामानि स्वयमुक्तानि वेधसा। नक्षत्रं कृत्तिका तुभ्यं गुरुदेवो महेश्वरः ॥ हिरण्यञ्च शरीरन्ते धाता देवो जनाईनः । पिता पितामहव त्वं मां पालय सर्वदा॥ नौलजीमूतसङ्काशस्तीक्ष्णदंष्ट्रः कपोदरः। भावशुद्धोऽमर्षणच अतितेज. स्तथैव च । इयं येन धृता क्षोणी इतश्च महिषासुरः । तौणधाराय शुद्धाय ती खगाय ते नमः॥ पूजयित्वा तत: खङ्गम् प्रां ह्रीं फडिति मन्त्रकैः। गृहीत्वा विमलं खङ्ग छेदयेहलिमुत्तमम् ॥ ऐह्रीं श्रीं कौशिक रुधिरेणाप्यायताम्" इति “स्थाने नियोजयेद्रतं शिरथ सप्रदीपकम् । एवं दत्त्वा वलिं पूर्ण फलं प्राणोति साधकः ॥ होनन्तु स्यादौनताया निष्फलं स्याहिपर्ययात्। अन्येषां महिषादौनां वलौनामथ पूजनात्॥ कायोमेध्यत्वमानोति रक्तं हाति वै शिवा। अन्येभ्याऽपि च देवेभ्यो यदा यदयत् प्रदीयते ॥ तदश्चितं प्रदद्यात्तु पूजिताय सुराय वै। वलिदाने तु दुर्गायाः सर्ववायं विधिः स्म तः ॥ तथा “छेदयेत्तेन खङ्गन वलिं पूर्वमुख न्तु तम्। अथवोत्तरवनन्तं स्वयं पूर्व. मुखस्तथा ॥ अत्र सर्वचायं विधि: स्म त इत्यतिदेशावरेत्यत्र छागादिरूयः । मन्टे घातयामोति श्रुतेः ॥ “पशुघातय कर्तव्यो गवलाजवधस्तथा" इति विधेश्च देव्यै घातयिथे इति प्रयोगः कार्य: अत्र वककहननेऽपि धातिप्रयोगवादी उन्यवेति पाठात्। एवञ्च पश्चापि रुधिर शौर्षवलिदानमुपपद्यते एतत्प्रकारकवलिदानादेव “महिषन्तु ददहेव्यै" इत्युपपद्यते। वक्ष्यमाण भविष्यपुराणेऽपि बधानन्तरं मांसादिदानमुताम्। अतएव दुर्गाभवितर For Private And Personal Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । गौकृत्य महार्णवष्टतेन देवीपुराणेन पशुघातवलिदानयोः पृथक् फलमभिहितम् । यथा “देवीं ध्यात्वा पूजयित्वा रात्रेऽष्टमीषु च । घातयन्ति पशून् भक्त्या ते भवन्ति महाबलाः ॥ वलिं ये च प्रयच्छन्ति सर्वभूतविनाशनम् । तेषान्तु तुष्यते देवौ यावत् कल्पन्तु शाङ्करम्” । सर्वभूतानि विषादीनि विनाश्यन्ते यस्मिन् वलौ चर्मणि दौपिनं हन्तौतिवत् । छागादौ पशुपदप्रयोगमाह यज्ञपार्श्वः । "उष्ट्रो वा यदि वा मेषम्छागो वा यदि वा हयः । पशुस्थाने. नियुक्तानां पशुशब्दों विधीयते” ॥ कालिकापुराणे “ शोणितं मन्त्रपूतञ्च शौर्षं पौयूषमुच्यते । तस्माच्च पूजने दद्याद्दले: शीर्षच्च शोणितम् ॥ सफलैस्तोयसंयुक्तः शर्करामधुसंयुतैः । अभ्युच्य रुधिरं दद्यात् कामवोजेन भैरव ॥ ततो बलौनां रुधिरं तोयसैन्धवसत्फलैः । मधुभिः पुष्पगन्धैश्व अधिवास् प्रयत्नतः " ॥ इत्यादि वचनात् मधुसैन्धवयुतं कृत्वा दद्यात् । तथा “ पूजासु नाम मांसानि दद्याई साधकः क्वचित् । ऋते तु लोहितं शौर्षममृतं तत्तु जायते” ॥ अत्र बहुपशुधातेऽपि मन्त्र एकवचनान्त एव प्रयोज्यो न बहुवचनोह्यः नरं पञ्चत्वमागतमित्यत्र नाखां लिङ्गोहाभाववत् । अतएव बहुपत्नौकयजमानप्रयोगेऽपि पत्नों सनोति मन्त्र एकवचनान्त एवेत्युक्तमिति श्रीदत्तोपाध्यायेन दृष्टान्तीकृतम् । . . हं प्रकृत्य "नमकता पूर्वत्वात्” इति कात्यायनसूत्रेणोप्रतिषेधात् विकृतावेषोहो “अपूर्वोत्प्रेक्षणम् ऊह” इति लक्षणात् । न वा मन्त्रस्य वाधः वैभक्तिकार्थापेक्षया प्राथमिकत्वेन वलवतः प्रातिपदिकार्थस्य समवेतार्थत्वेन विनियोज्यत्वात् । अत्र पशुघातपूर्वक रक्तशीर्षयोर्वलित्वम् । पशुवातपूर्वक रुधिरशौर्षदानानन्तरं " एवं दत्त्वा वलिं पूर्ण फलं प्राप्नोति साधकः” इत्युक्तेः "नानापाशुकमज्जमांसरुधिरैः कृत्वा नवम्यां वलिम्” इति राजमार्त्तण्डाच्च । एवञ्च प्रकृतौ नररूपबहुपौ बहुवचनोहाभावात् छागादो विकतोभूतेऽपि न बहुवचनोहः किन्तु एकवचनमात्रम् एवं प्रति निधिपुत्रादिना क्रियमाणे कर्मणि । तथा मम रिपून् हिंस For Private And Personal Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । શ્ ' शुभं वह लुलापक" इत्याद्युक्त फलं यजमान एव अन्वेति "यां वै काञ्चन यज्ञऋत्विज आशिषमाशासते यजमानस्यैव तामाशासते इति होवाच" इति श्रुतेः । " ऋत्विग्वादे नियुशश्च समौ संपरिकीर्त्तितौ । यज्ञ खाम्याप्नुयात् पुण्यं हानिं वादेऽथवा जयम्” इति वृहस्पतिवचनाच्च एवञ्च "आयान्तु नः पितरः" इति वदत्राप्यन्हः एवं वाक्य तु काल्पनिके यजमाननामोल्लेख इति भविष्ये " अजानां महिषाणाञ्च मेषाणांच तथावधात् । प्रीणयेद्विधिवद्दूग मांसशोणित तर्पणैः ॥ दुर्गाया दर्शनं पुण्य दर्शनादभिवन्दनम् ॥ वन्दनात् स्पर्शनं श्रेष्ठ स्पर्शनादभिपूजनम् । पूजनात् स्वपनं श्रेष्ठ खपनात्तपंगां मतं तर्पणान्मां सदानन्तु महिषाजनिपातनम् ॥ महिषोऽजो वा निपात्यते यस्मिन वलौ चर्मणि होपिनं हन्ति इति वत् तथा मांसम् श्रमं शौषं तदितरत् पक्कम् उक्तः वचनात् । तथा " स्वमेकमेकं वरदा तृप्ता भवति चण्डिका । रुधिरेणोरणस्येह तर्पिता विधिवत्रप । अजस्य दशवर्षाणि रुधिरेण सुतर्पिता । महिषेण शतं वौर तृप्ता भवति चण्डिका ॥ सहस्रं तृप्तिमाप्नोति खदेहरुधिरेण च । तर्पिता विधिवद्द ग भित्त्वा बाहरु जङ्घकम् ॥ नारेण शिरमा वौर पूजिता विधिवनृप । तृप्ता भवेद्भशं दुर्गा वर्षाणां लक्षमेव तु ॥ स्वमेकं संवत्सरं " स्वमेको वत्सरो ग्रव्यो मासः” इति श्रुतेः उरणस्य मेषस्य तथा " प्रदाने कृष्णसारस्य मन्त्रोऽयं परिकल्पितः । कृष्णसार ब्रह्ममूर्ते ब्रह्मतेजो विवईन ॥ चतुर्वेदमय प्राज्ञ प्रज्ञां देहि यशो मह: । तथा "वैष्णवोतन्त्र कल्पोक्तक्रमः सर्वत्र सर्वदा । साधकैर्वलिदाने तु ग्राह्यः सर्वसुरस्य तु ॥ एवञ्च चामुण्डेत्यत्र षष्ठिकेत्यूह्यः ततश्च अभिमतस्तत् तत् फलकामो दुर्गाप्रीतिकामो वा पशुघातं कुय्यात् ततोऽमुकस्य दशवर्षाव - च्छित्र देवी प्रीतिकामनया एष रुधिर बलिर्नम इत्यत्सजेत् । ततः शिरसि ज्वलद्दशां दत्त्वाऽमुकस्य श्रीदुर्गाया दर्शनाभिवन्दन स्पर्शनाभिपूजनस्वपनतर्पणजनित पूर्व पूर्व पुण्याधिक पुण्यप्राप्तिकामनया एष स प्रदौपछागशौर्षवलिर्नम इति उत्सृजेत । " बलिदानप्रदानार्थं नमस्कारो यतः कृतः” इति " For Private And Personal Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्वम् । छन्दोगपरिशिष्टात् प्रदीयतेऽनेनेति प्रदानं मन्त्रः। कालिकापुराणे । “महामाये जगन्मात: सर्वकामप्रदायिनि । ददानि देहरुधिरं प्रसौद वरदा भव ॥ इत्य का मूलमन्त्रेण नतिपूर्व विचक्षणः । खगावरुधिरं दद्यान्मानवः सिद्धसबिमः" ॥ तथा "स्त्रियं न दद्यात्तु बलिं दत्त्वा नरकमाप्नुयात्। न च त्रैमासिक न्यूनं पशु दद्याच्छिवा बलिम् ॥ न च त्र पक्षिकन्यूनं प्रदद्यादै पतचिणम्। काणव्यङ्गादिदुष्टं वै न पशुन पत. चिणम् ॥ छिवलाङ्गलकर्णादिं भग्नशृङ्गादिकं तथा। कुषाण्ड मिक्षुदण्डञ्च मद्यमासव एव च ॥ एते बलिसमा: प्रोक्तास्तृप्तो छागसमाः स्मताः। चन्द्रहासेन कट्टारेश्छेदनं मुख्यमिथते । इस्तेन च्छेदयेदयस्तु साधकः प्रोक्षितं पशुम्। पक्षिणं वापि राजेन्द्र ब्रह्महत्यामवाप्नुयात् ॥ . मल्यसूक्तो “छेदयेतोक्षणखङ्गन प्रहारेण सहुधः”। याज्ञावल्कादीपकलिकायां ब्रह्मपुराणं "नराखमेधौ मद्यञ्च कलौ वा हिजातिभिः" निषेधं स्पष्टयत्यशनाः। “मद्यमपेयमदेयमनिर्ग्राह्यम्" इति । अनिधिमस्त्री कार्यमिति कल्पतरुः। कालिकापुराणेऽपि "खगावरुधिरं दत्त्वा प्रात्महत्यामवाप्नुयात्। मद्य दत्त्वा ब्राह्मणस्तु ब्राण्यादेव होयते ॥ न कृष्णसारमितरे बलिन्तु क्षत्रियादयः। ददतः कृष्णसारञ्च ब्रह्महत्यामवाप्नुयुः” । अतो मद्यप्रतिनिधि दानमध्ययुक्तम् । अथ वैधहिंसाविचारः। "मा हिंस्थात् मर्वाभूतानि" इत्यत्र सर्वशब्दस्य व्यापकार्थपरतया एतहिधिमनुल्लङ्घय । "वायव्यं खेतमालभेत”। इत्यादि विधेविषयाप्राप्तरगत्या वैधातिरिक्त विषयत्वं सर्वाः सर्वाणि छन्दसिवेत्यनेन तत् पद' सिद्धम्। यदपि नानादर्शनटोकावद्भिर्वाचस्पतिमिश्वः तत्त्वकौमुद्याम् अभिहितं न च "मा हिंस्यात् सर्वा भूतानि" इति सामान्यशास्त्रं विशेषशास्त्रेण “अग्नौषोमौयं पशमालभेत' इत्यनेन वाध्येत इति वाच्य विरोधाभावात् विरोधेहि बलो. यसा दुर्वलं वाध्यते। न च अस्ति विरोधः भिन्नविषयत्वात्। तथा हि मा हिंस्यादिति निषेधेन हिंसाया अनर्थ हेतुभावो जाप्यते न पुनरवत्वर्थत्वमपि । न च अनर्थ हेतुत्व ऋतूपका. For Private And Personal Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । email: कश्चिदस्ति विरोधः । हिंसा हि पुरुषस्य दोषमावक्ष्यति क्रतोयापकरिष्यतौत्यन्तेन तदपि सांख्यनये । मौमांसकमते तु विशेध एव तथा हि गुरुनये न खलु सर्वभूतहिंसाभावविषयकं काय्र्यम् इति निषेधविध्यर्थस्य वाधं विना अग्नीपामौयपखालम्भनविषयक कार्यमिति भावविध्यर्थं उपपद्यते । भट्टनये तु अङ्गे यथा तथास्तु | न च मुख्य पशुयागे पुरुषार्थ पशुहिंमनस्यार्थ साधनत्वमनर्थसाधनत्वञ्चोपपयते विरोधात् । वस्तुतस्तु श्रङ्गेऽपि विरोधोऽस्येव कुतो विधेरेष स्वभावो यः स्वविषयस्य साक्षात् परम्परया वा पुरुवार्थसाधनत्वमवगमयति अन्यथाऽङ्गानां प्रधानोपकारकत्व - मपि नाङ्गीक्रियेत । अर्धसाधनत्वं बलवदनिष्टाननुबन्धौष्टमाधनत्वं श्रनर्थसाधनत्वं बलवदनिष्टसाधनत्वं न चानयोरेकत्र समावेश इति । अतएवोक्तं " तस्माद्यते बधोऽवधः" इति । ननु एवं " श्येने नाभिचरन् यजेत्" इत्यत्र श्येनस्य शत्रुबधरूपेष्टसाधनत्वमवगतम् “अभिचारो मूलकर्स च" इति मनुना उपपातकगणमध्ये पाठादनिष्टसाधनत्वमवगतम् । तदे तत् कथमुपपद्यतामिति चन्मैवं " आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन्" इत्येकवाक्यतया आततायिस्थले नत्वं अनाततायिस्थले तु उपपातकत्वेन बलवदनिष्टसाधनत्वमित्यविरोध इति गुरुचरणा श्रप्येवम् । देवीपुराणे “पूर्वाषाढ़ायुताष्टम्यां” इत्यत्र पूर्वाषाढ़ायास्पष्टाभिधानात् । " कन्या संस्थे रवावीषे शुकाष्टम्यां प्रपूजयेत् । सोपवासो निशार्थे तु महाविभवविस्तरैः ॥ पूजां समारभेदे व्या नक्षत्रे वाकणेऽपि वा । पशुवातः प्रकर्त्तव्यो गवलाजबधस्तथा ॥" इति पुनर्देवीपुरागुणवचनं वारुणपदेन वरुणदेवतं जलं पुनरण्प्रत्ययेन तहवतपूर्वाषाढोच्यते । न तु दत्तहरिनाथविद्यावाचस्पतिमि 'श्रीला शतभिषा तदष्टम्यां तस्या श्रलाभात् तथात्वे तदनन्तरपौर्णमास्यां गोभिलोक्त सूर्याचन्द्रमसोः सप्तमराश्यबस्थानरूप नियममापतेः । तथा च गोभिलः । “सूर्याचन्द्रमसोय : " परो विप्रकर्षः सा पौर्णमासो” इति । कत्यरत्नाकरे तु "नचे वारुणेऽपि वा" इत्यत्र पुनर्देवीपुराणे " रचर्त्ते वारिभेऽपि वा दृष्टमाध 「 " For Private And Personal Use Only ま Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८६ तिथितत्त्वम् । इति पाठ: व्याख्यातञ्च रचर्चे मूलानक्षत्रे वारिभे पूर्वाषाढ़ानक्षत्रे इति सोपवासः प्रारब्धोपवासः । उक्तवचनेऽष्टम्यां पशुघातश्रुते: “अष्टम्यां रुधिरैमांसैर्महामांसैः सुगन्धिभिः । पूजयेद्दहुजातीयैर्बलिभिर्भोजमः शिवाम् ॥ इति कालिकापुराणाच्च ! " अष्टम्यां बलिदानेन पुत्रनाशो भवेत् ध्रुवम्” इति देवीपुराणौयम् । सन्धिपूजाबलिदानपरम् । तत्पूजाया उभयतिथिकर्त्तव्यत्वेन तद्दलिदानस्य नवम्यां सावकाशत्वात् । 66 तत्पूजा विधायकन्तु कालिकापुराणवचनान्तरम् । "अष्टमौनवमौसन्धौ टतौया खलु कथ्यते । तत्र पूज्या त्वहं पुत्र योगिनोगणसंयुता” ॥ ज्योतिषे " अष्टम्यां सन्धियोगे सकलपरिजनैः पूजयेत् सत्वभावैः” कामरूपौयनिबन्धे स्मृतिसागरे च । “अष्टम्याः शेषदण्डश्व नवम्याः पूर्व एव च । अव या क्रियते पूजा विज्ञ या सा महाफला” ॥ मत्स्य सूक्तेऽपि "अष्टमौनवसौयोगो रात्रिभागे विशिष्यते । श्रर्द्धरात्रं दशगुणं सन्ध्यायां त्रिगुणं भवेत् " ॥ श्रखिनाधिकारे । “ श्रष्टमौनवमोयुक्ता नवमो चाष्टमौयुता । श्रर्द्धनारीश्वरप्राया उमामाहेश्वरौ तिथिः” ॥ इति विष्णुधर्मोत्तरौयमप्येतद्दिषयं न तु महानवमीपूजापरम् । तस्या अष्टम्युपवासपर दिनविधानेन सप्तमौवद्युग्मानादरात् ॥ तथा विष्णुधर्मोत्तरे । “भद्रकाली पटे कृत्वा तत्र संपूयेद्विज । आश्विन शुक्लपक्षस्य चाष्टम्यां प्रयतस्ततः” ॥ इत्याद्यभिधाय । “उपोषितो द्वितीयेऽह्नि पूजयेत् पुनरेव ताम्” । तत्र तदर्थ कल्पितगृहे । पट इति पूजाधारोपलक्षणम् । कृत्यतत्त्वार्णवे राजमार्त्तण्डः । " मूलेन प्रतिपूजयेद्भगवतीं चण्डों प्रचण्डाकृतिञ्चाष्टम्यामुपवास संयतधिया भक्त्या समाराध्य च । नानापाशुक मज्जमांसरुधिरैः कृत्वा नवम्यां बलि नक्षत्रं श्रवणं तिथिञ्च दशमीं संप्राप्य संप्रेषयेत्” ॥ धियेत्यत्व तयेति कात्यायनीयः पाठः । दुर्गाभक्तितरङ्गियाम् । “मूलं प्राप्य प्रथमचरणेऽभ्यर्चनं चण्डि कायाः सत्वाष्टम्यामशनरहित त्यक्तनिद्रश्व पूजाम् । काले पशुबलिविधिः स्नानदानं नवम्यां निर्मात्यञ्च श्रवणदशमीं ह्यात्मकर्चेषु जह्यात् " ॥ नन्दिकेश्वर पुराणे । "भग प्रात: For Private And Personal Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । वत्याः प्रवेशादिविसर्गान्ताश्च याः क्रियाः । तिथावुदयगामिन्यां सर्वास्ताः कारयेहधः” ॥ तथा चक्रनारायण्यां क्रियायोगोपसंवादे च । “शरत्काले महापूजा क्रियते या च वार्षिको । सा कार्योदयगामिन्यां न तत्र तिथियुग्मता" ॥ एतद्दचनं दुर्गाभक्तिप्रकाशे पुराणौयमिति कृत्वा लिखितम्। अनोदयकालौनघटिकामावतिथ्यादौ सम्यक् पूजनासामर्थ्य कालिकापुराणम् । “सम्यक्कल्पोदितां पूजां यदि कत्तुं न शक्यते । उपचारांस्तथा दातुं पञ्चैतान् वितरेत्तदा ॥ गन्धपुष्पञ्च धपञ्च दोपं नेवेद्यमेव च। अभावे पुष्यतोयाभ्यां तदभावे तु भक्तितः। संक्षेपपूजा कथिता तथा वस्त्रादिकं पुनः” । नवम्यां बलेरावश्यकत्वात् बलिर्दातव्यः। दाक्षिणात्यकालनिर्णयतभविष्योत्तरीयम् ॥ अष्टमौनवमौ पूजा दिनभेदाय प्रातःप्रातरिति वोप्साश्रुतेः। यथा “प्रातरावाहये। वीं प्रातरेव प्रवेशयत् । प्रातःप्रातच संपूज्य प्रातरेव विसर्जयेत्” ॥ एतानि सप्तम्यादिकल्प विधायकानि। अत्र प्रातःपदं पूर्वाल परम् । *पूवाहे नवपत्रिका शुभकरौ” इत्यादि प्रागुक्त कवाक्यत्वात् प्रतएव व्यासः । “वेदार्थो यः स्वयं ज्ञातस्तत्राज्ञानं भवेद् यदि । ऋषिभिनिश्चिते तत्र का शङ्का स्थान्मनीषिणाम् ॥ तिथिवृद्धिक्षयादेव क्वचिन्न तथा यथा भविष्ये । “व्रतौ प्रपूजयेह वीं सप्तम्यादिदिनत्रये। हास्यां चतुरहोभिर्वा ह्रासद्धिवशात्तिथेः” । न चास्य अष्टाहे विसृजेच्छकं तदईन तु पार्वतीम्। न्यनाधिकं न कर्त्तव्यं राज्ञो राष्ट्रधनक्षयात्” ॥ इति लिङ्गपुराणो येन विरोध इति वाच्यम्। पूर्ववचने पूजयेदित्यु त त्वात् पूजानुरोधेन न्यूनाधिकदिनावस्थितिप्रतिपादनात् परवचनस्य तु विसृजेदित्यु तत्वात् विसर्जन एव वाहपूजने कृतेऽपि नवमीयुत दशम्यां श्रवणानुरोधेन न्यूनत्वप्रसतो यत्र वा नवमौष्टिदण्डात्मिका तत्परदिने च नवमौ तत्परदिने एकादश्यां दशमौ तत्रोदयानुरोधादधिकत्वासतौ च निषेधकत्वात् न तु सप्तम्याः षष्टिदण्डात्मिकायाः परदिने वृद्धावपि पूर्वदिने निषेधकत्वम्। “आदित्योदय वेलाया आरभ्य षष्टि नाड़िकाः । तिथिस्तु साहि शुद्धा स्यात् सार्वतिथ्यो ह्ययं विधिः” ॥ इति For Private And Personal Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । काल माधवीयतनारदीयात् । सा हि शुद्धा सेव शुद्धा नान्चेत्यर्थः । “अकाण्यं तिथिमलम्" इत्य कलास। अतएव नक्षत्रानुरोधाऽपि नास्ति तस्य गुणफल वन प्रधानानुयायित्वात्। ततश्च सप्तमीपूजाइनाहाष्टम्यादिकल्यपि षष्टिदण्डात्मिकायामेव न तु पर्गदवसीय खगडतिथौ किन्तु पूर्वोक्तसन्ध्यनुरोधानिशादाविव खण्डतिथावपि सन्धिपूजेति। एवञ्च यस्मिन् दिने महाष्टमीपूजा तस्मिन् दिन एव उपवासः। न तु सन्धिपूजादिने अष्टमौलेनोपवासविधः पूर्वमुक्तत्वात् अत्रैव पुत्रवतो ग्रहस्थस्य निषेधः यथा कालिकापुगणम् । “उपवासं महाष्टम्यां पुत्रवान समाचरेत्” । अथेदं पूजाडोपवासातिरिक्त परम् अन्वथा प्रधान स्यानिर्वाहापत्तेः इति केचित् तच्चिन्त्य “यथा तथैव पूतात्मा व्रतो देवों प्रपूजयेत्” इत्यत्तरार्द्धन पुत्रवत एव उपवामतर हविष्यादिना पूतात्मनः पूजाविधानात् । तथा च मस्त्य मुक्त । “अथवाखयुज शुक्लपक्षमासाद्य नन्दिकाम्। समारभ्य ततो दुर्गा इविष्याशौ जितेन्द्रियः ॥ इति नन्दिकां षष्ठी जितेन्द्रियो निवृत्तमैथनादिः । अत्र पुत्रवत: पूजाङ्गमहाष्टमौनिमित्तकोयवासनिषेधान्नाष्टमीमात्र निमित्त कोपवासनिषेधः इति संवत्सराद्याचरणमपि साधु मंगते। एवञ्च पूर्णाष्टम्यामष्टमीपूजा तत् परदिने अष्टमौनवम्योः सन्धिपूजा तत्परदिने महानवमीपूजा प्रागुत नन्दिकेश्वरपुरा गाायु तादयगामितिथ्यनुगेधात् तत्परदिन दशम्यां विसर्जनं पूजानुरोधेनाधिक दिनलाभात्। महानवमौ पूजाकल्पमाह भविष्यपुराणम्। “लब्धाभिषेका वग्दा शुक्ल चाश्वयुजस्य च। तस्मात्मा तत्रसंपूज्या नवम्याचण्डि का बधैः” ॥ केवलाष्टमी केवलनवमौकल्पावाह कालिका पुरागाम् । “यस्त्व कस्यामथाष्टम्यां नवम्यां वाष्ट साधकः । पूजयेदरदा देवी सर्वकामफलप्रदाम् ॥ इति सर्वत्र घटि काव्यापिनो तिथियाया। व्रतोपवामनानादो घटिकैका यदा भवेत्। तामेव तिथिमाश्रित्य कुर्यात् कर्माण्य तन्द्रितः" इति व्यासालनयम श्रुतेः। एवञ्च For Private And Personal Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । धटिकोनदशम्यामपराजितापूजानईत्वात् तत् पजनं पूर्वदिने । अतएव तत्परमविदम्। “आखिने शुक्लपक्षस्य दशम्यां पूजयेत् तथा। एकादश्यां न कुर्वीत पूजनचापराजितम् ॥ इति शिवरहस्योक्तौ कादशौयुक्तादशमीनिषेधकवचनम्। ततश्च तत् पूर्वकस्य देवौविसर्जनमपि तदैव तदन्तापकर्ष न्यायात् वाचस्पतिमियोऽप्येवम् । अत्र घटिकापदं मुहुर्तपरम् । “घटिकैकात्वमावास्याप्रतिपत्सु नचेत् तदा। सर्वं तदासुरं दानं दैवे कर्मणि चोदितं मुहुर्तमप्यमावास्या प्रतिपत्सु यदा भवेत्। तहानमुत्तमं दैवं शेषं पूर्व हि पूर्ववत्। इति राजमार्तण्डकृतजावालवचनयोर्घटिकामुहुर्तयोरेकार्थत्वात् शेषं तिथ्यन्तरं पूर्व पूर्वोक्तं घटिकान्यू नं पूर्ववदासुरं घटिकाधिकखोत्तमम् । एवञ्च यदा हि तिथिक्षयवशात् षष्ठीयुक्त सप्तम्यां पत्रौ प्रवेशनं नवमौयुक्तदशम्यां विसर्जनं तदा चरलग्नाप्राप्तौ पूर्वाह नवपत्रिकेत्यादिभिर्विशेषतो विहितस्य दैवकर्मत्वेन अत्यता स्व च पूर्वाह्नस्थावाधाय वृश्चिक एव चरनवांशे तदुभयं कार्यम् । “चरलग्ने चरांशे वा देव्या नियतमानसः। प्रतिसंवत्सरं कुर्यात् खापनञ्च विसर्जनम्" ॥ इति देवीपुराणात्। “राजो विनाशमिच्छेत्तु स्थिरलग्ने शिवाचिता इति निन्दा तु चरांशतरपरा चरलग्नसम्भवपरा वा। अनाशक्त्याधनुरादौ कार्य प्रागुक्तेन पत्नी प्रवेशनमित्यनेन रात्रिपयंदाभातदितरत्वेन तथापि प्राप्तेः। “मध्याह्न जन पौड़न क्षयकरौ” इति निन्दापि रात्रौतरत्वेन रोहिणपूर्वकुतपप्रभृतिषु पापराहकवाइसत्वेऽपि रौहिणन्तु न लड्वयेदितिवदप्राशस्त्यपरा। अष्टम्युपवासफलच देवीपुराणम्। “एकादशी कोटिसहमतुल्या कृष्णाष्टमीपर्वतराजपुत्रयाः। ततोऽपि शुक्लागुणिता शतेन पराशरव्यासवशिष्ठमुख्यैः” ॥ कालमाधवौये निगमः। “एक्लपक्षेऽष्टमौ चैव शुक्लपक्षे चतुर्दशी। पूर्वबिद्धा न कर्तव्या कर्तव्या परसंयुता ॥ उपवासादिकार्येषु एष धर्मः सनातनः । स्कान्दे “अष्टमी नवमौमिश्रा कर्त्तव्या भूतिमिच्छता"। पत्र भूतिमिति श्रवणात् पुनादेस्तदन्तःपातात् For Private And Personal Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८० तिथितत्वम् । पुत्रादिकामनयाम्यपवासस्य व्यवहारः। मविथे "शक्लपचे तथाष्टम्यामुपवासपरायणः। मालतीकरवौरेण विल्वपत्रैश्च पूजयेत् । दुर्गेति नाम जप्तव्यं पुरतोऽष्टशतं नृप!। सर्वमङ्गलनामेति जप्तव्यं किल भारत" !॥ ननु अष्टम्यपवासे मांसन पारणविधानात् पिटमरणादावपि तत् प्रसज्येत। तथा देवौपुराणम्। “अष्टमी समुपोथैव नवम्बामपरेऽहनि । मत्यमांसोपहारेण दद्यान्नैवेद्यमुत्तमम् ॥ तेनैव विधिनाबन्तु खयं भुञ्जौत नान्यथा ॥ स्त्रियास्तु "ये लिह वै पुरुषाः पुरुषमेधेन यजन्ते याच स्त्रियो नृपशून् खादन्ति तांच ताच ते पशव इह निहता यमसदने यातयन्तो रक्षागणा: मैनिका इव स्वधितिनावदायामृक् पिबन्ति” इति श्रोभागवतपञ्चमस्कन्धगद्येन पशुमांसभक्षणनिन्दया न तेन पारणं किन्तु मत् स्पेन सैनिकाः प्राणिबधनियुक्ता स्वधितिना परशुना। तेषां पशूनां ग्राम्यारण्यभेदमाह पेठोनसिः । “ग्राम्यारण्याचतुर्दशगौरविरजोऽश्खोऽखतरो गर्दभी मनुष्याश्चेति सप्तग्राम्या: पशवः । महिषवानर ऋक्ष सरीसृपकरुपृषत् मगाश्चेति सप्तारण्या:" । अश्वायां गदभेन जातोऽखतरः । एवञ्च मनुष्यस्यापि पशुत्वादध्ययने गुरुशिष्ययोरन्तरागमने प्यहोरात्रमनध्यायः। "पशुमण्ड कनकुलवाहिमार्जार मूषिकैः। तऽन्तरत्व हो. रात्र शक्रपाते तथोच्छ्रये" इति याज्ञवल्कयौयात् तथा अनध्यायः । उच्छये शक्रध्वजस्यैव अनुजया तु न दोष: "नाग्निब्राह्मगायोरन्तराव्यपेयात् न गुरुशिष्ययोरनुज्ञया तु व्यपेयात्" इति मदनपारिजातकृतवशिष्ठवचनात् । __उच्यते। “विधिरत्यन्तमप्राप्तौ नियमः पाक्षिके सति । तत्र चान्यत्र च प्राप्तौ परिसंख्येति गौयते" ॥ पाक्षिके रागतः पक्षत: प्राप्ती रागाभावात् पचतोऽप्राप्तावेव तत्र प्राप्त्यर्थे नियमविधिः। न तु वैधनिषेधेन प्राप्तेऽपि। प्रायश्चित्तविवेककता मते तु "मस्यांस्तु कामतो जग्धा सोपवासस्वाह वसेत्” इति याज्ञवल्कवाद्युक्तप्रायश्चित्तश्रवणेन कामतो मांसभवणस्य निषिद्धस्य "प्राणात्यये तथा श्राद्दे प्रोचितं हिजकाम्यया । देवान् पितृन् समभ्यर्थ खादन् मांसं न दोषभाक् For Private And Personal Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । इति तेनैव प्रतिप्रसूतस्य रविवारादौ निषेध इति सुतरामष्ट. न्युपवासपारणेऽपि रविवारादौ मांसनिषेधः। एवं मांसाशनत्यागकृतनियमेन नियोगादिष्वपि मांसं वर्जनौयमाह प्रायश्चित्तविवेके यमः । “भक्षयेत् प्रोक्षितं मांसं सतत् ब्राह्मणकाम्यया। देवे नियुक्तः श्राद्धे वा नियमे तु विवर्जयेत्” । पूर्वोतवचनस्य मत्स्यमांसोपहारेण नैवेद्य दत्त्वैव भोजनं कार्य नतु अदत्त्वे त्यर्थः अन्यथा मूलभूतश्रुतौ वाक्भेदः स्यात् नैवेद्यावशिष्टमांसादेरावृत्त्यापत्तेश्चेति। प्रोक्षितं यज्ञार्थ मन्त्रैः संस्कृतम् पारण्यानामिदानौन्तनप्रोक्षणाद्यपेक्षा नास्तौति । यथा महाभारते। “भारण्याः सर्वदेवत्या: प्रोक्षिताः सर्वशो मृगाः। अगस्त्येन पुरा राजन् मृगया येन पूज्यते” ॥ अत्र प्रमाणान्तराप्राप्तत्वेन “पशुना यजेत" इत्यत्वै कल्ववबिधेयविशेषणत्वेन अरण्यादेः पुस्त्वविवक्षितम् अतएव हरिवंशेऽपि "अवध्याञ्च स्त्रियं प्राहु स्तियंग्योनिगतेष्वपि । ततश्च हरिण्यादीनामप्रोक्षितत्वेनाभक्ष्यत्वम् । यत्तु ब्रह्मपुराणे । “पशोस्तु मार्य माणस्य न मांसं ग्राहयेत् क्वचित् । पृष्ठमांसं गर्भशय्यां शुष्कमांसमथापि वा” इति गर्मशय्या निषेधनं तत्सारस्वत्या मेध्यायागे बोधं ततस्तु "नियुक्तस्तु यथा न्यायं यो मांस नात्ति मानवः। स प्रेत्य पशुतां याति सम्भवाने कविंशतिम्” ॥ इति मनुवचनं तत्कालौनानिषिद्धमांसभुग्विषयम्। प्रेत्येत्यव्ययं परलोके इत्यर्थः । तथा च अमर: “प्रेत्यामुत्र भवान्तरे" इति । तथा च महाभारते। "रोगातॊऽभ्यर्थितो वापि यो मांसंनात्यलोल पः। फलं प्राप्नोत्ययत्नेन सोऽखमेधशतस्य च ॥ मांमत्यागोपदेशेऽपि तत् फलमाह नन्दिकेश्वरपुराणे । “यश्चोघदेशं कुरुते परस्य तु महात्मनः। मांसस्य वर्जनफलं सो मांसादफलं लभेत्” । अतो रविवारादौ मत्स्यमांसाशनं विनापि अष्टम्युपवासपारणसिद्धिः । स्फयाश्लिष्टेज्यायामावाहनं विनेव । ररिवार आमिषनिषेधो भविष्थे। “आमिषं रक्तशाकञ्च यो भुत च रवेदिने। सप्तजन्म भवेत् कुष्ठौ दरिद्रश्योपजायते ॥ तस्मात् सर्वप्रयत्नेन एकभक्तं रवेर्दिन। कुर्य्यावक्त हविष्थं वा रोगयुक्तोऽन्यथा भवेत् ॥ स्मतिः। “माष For Private And Personal Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८२ तिथितत्त्वम्। मामिषमांसच मसूरं निम्बमादकम्। भचयेद् यो रवैर्वार सप्तजन्मन्य पुत्रकः” ॥ स्फयाश्लिष्टेज्याधिकरणञ्च। स्फास्य खगाकारकाष्ठस्य भक्तानेषनिमित्त के ज्यायामिष्टित्वेन प्रकतिवहिकतिरित्यतिदेशेन दर्शात्मकप्रकतिधर्माणां प्राप्तौ पूर्वदिनप्रातःकालोनं हवनौय देवतावाहनमपि प्राप्तं तच्च तदानीं न विधीयते नैमित्तिके निमित्तनिश्चयवतोऽधिकारितया प्रक्षते खोभावि भक्ताश्लेषरूपनिमित्तसंशयेन प्रधानानधिकारिणोऽङ्गानधिकारात् तदुत्तरदिने च निमित्तनिश्चये तदधिकारसिद्धावपि नावाहनानुष्ठानम् आवाहनस्य पूर्वदिनप्रातःकालनैहत्यादितोच्याया आवाहनं विन दानुष्ठानमिति। अथ तत्र पूर्वदिनप्रातःकाल शत्यादस्तु तथा प्रकते तु यद्यपि तथात्वाभावात्तवैषम्यं तमाग यथा तदङ्गवैगुण्यात्र कर्मवैगुण्यं तथात्रापि वचनान्त । अधिनसमाजनपुरुषस्य तदङ्गवैगुण्यान्न तदङ्गिवैगुण्यमित्यवैषम्यम् । अधिकरणञ्च विषयो विशयश्चैव पूर्वपक्षस्तथोत्तरम् । निर्णयश्चेति पञ्चाङ्ग शास्त्रेऽधिकरणं म्मतम्"। विषयो विचारा वाक्यम्। विशयोऽस्यायमर्थो नवेति संशयः। पूर्वपक्षः प्रक. तार्थविरोधितर्कोपन्यासः । उत्तरं सिद्धान्तानुकूल तर्कोपन्यासः । निर्णयः महावाक्यार्थतात्पर्य निश्चयः। एवं क्रमेण विवेचनमताधिक्रियते इत्यधिकरणमिति। कालिकापुराणे "कन्यासंस्थे रवा वौषे या शुक्ला तिथिरष्टमी। तस्यां रात्री पूजितव्या महाविभवविस्तरैः ॥ नवम्यां वलिदानन्तु कर्तव्यं वै यथाविधि। जपं होमच विधिवत् कुर्यात् तत्र विभूतये । अत्र नवम्यां होम श्रुतेः “पूर्वाषाढायुताष्टम्यां पूजाहोमाधुपोषणम्" इति श्रुतेश्चोभयत्रैकतरस्मिन् वा होमः। अत्र होमे विहिते तदङ्गवात् पूर्णपात्रादिका पृथगदक्षिणा षत्रिंशदुपचारान्तर्गतदारे दक्षिणादानवत्। तथा च मत्स्यपुराणं "देवे दत्त्वा तु दानानि देवे दत्त्वा च दक्षिणाम्। तत् सर्व ब्राह्मणे दद्यादन्यथा निष्फलं भवेत्” ॥ दत्वावित्यत्र देया. नौति वाराहोलले पाठः श्रतएव ब्रह्मपुराणे विष्णस्यापनीय For Private And Personal Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । ६ पूजने स्पष्टमुक्त यथा । “सुरान् संपूजयेद्भक्त्या सुमनोभिश्व कुङ्गमैः । दापेधूपश्च नैवेद्यः पायसेन च भूरिणा । मात्रयात्रप्रदानेच होमः पुण्यः सदक्षिणैः" | ३ पूजाजपहोममन्त्रस्तु देवीपुराणे "पूजयेत्तिल हो मैस्तु दधिक्षौर घृतादिभिः” । कुबाईयास्तु मन्त्रेण इत्यभिधाय “ जयन्ती मङ्गलाकाली भद्रकाली कपालिनी । दुर्गा शिवा क्षमा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु ते ॥ अनेनैव तु मन्त्रेण जपहोमो तु कारयेत्” एवं “पुरचरणकार्येषु विल्वपत्रैर्युतेस्तिलैः । साचतेः सघृतैर्वापि शिवामुद्दिश्य भक्तितः । जुहु - यादनलं वृद्ध संस्कृत कामवृइये” इति कालिकापुराणात् अत्रापि विल्वपत्र घृतोपयोगितति अत्र दुर्गाभक्तितरङ्गिण्यां स्वधा पूजानन्तरं वाडा पूजालिखनात् खादान्तपाठ निर्णय इति तन्न मल्यनूक विरोधात् । तथा च " पञ्चोपचारैर्विधिवज्जयन्त्याद्यास्ततः परम् । जयन्ता मङ्गला काली भद्रकाली कपालिना । दुर्गा क्षमा शिवा धात्री पूजनीयाः प्रयत्नतः । दक्षपार्श्व' ततादेव्याः स्वाहाई व स्वधान्तथा । इति । न च अत्रापि तथा क्रमः । तथात्वं पञ्चमाक्षरस्य लघुत्वानुपपत्तेः । दुर्गामाहात्मान्तर्गतार्गलायां तथा पाठ दर्शनात् प्राचौन ग्रन्थे तथा दशनाच्च । पूजायां हौमिति चतुरक्षरमप्याह कालिकापुराणम्। "चतुरक्षर मन्त्रण पाद्यादौनथ षोड़श | वितरेदुपचारांश्च पूर्वप्रोक्तांस्तु भैरव" । तदनन्तरं प्रणवादिनमोन्त देवता नामोच्चारणमाहाग्निपुराणम्। “तल्लिङ्गैः पूजयेन्मन्त्रः सर्वदेवान् समाहितः । ध्यात्वा प्रणवपूर्वन्तु तत्रामा सुसमाहितः । नमस्कारंण पुष्यादिं विन्यसेत्तु पृथक् पृथक् ” ॥ अत्र च " तत्राष्टम्यां भद्रकाली दक्षयज्ञविनाशिनौ । आविर्भता महाघोग योगिनौ कोटिभिः सह । अतोऽव पूजनीया सा तस्मिन्नहनि मानवैः ॥ इति ब्रह्मपुराणात् "दक्षयज्ञविनाशिन्य महाघोरायै योगिनी कोटिपरिवृतायै भद्रकाल्यै हां दुर्गायै नमः” । इत्यनेनापि पूजां प्रचरति । पूजायां विशेषस्तु दुर्गा पूजा तत्त्वो ऽनुसन्धेयः । हामाढावङ्गल मानादिग्रहणं छन्दोगपरिशिष्टम् । For Private And Personal Use Only - Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८४ तिथितत्त्वम् । "मानक्रियायामुक्ताया मनुक्ते मानकर्त्तरि। मानदयज मानः स्याहिदुषामेष निर्णयः” ॥ यजमानासन्निधाने तु साधारणाङ्गलिमानग्रहणम्। यथा कपिलपञ्चरात्रम्। “अष्टभिस्तैर्भवेत ज्येष्ठं मध्यमं सप्तभिर्यवैः। कन्यसंषडभिरुद्दिष्ट मङ्गलं मुनिसत्तम" ॥ तैः प्र–स्यमानयवैः कन्यसं कनिष्ठम् । मानन्तु पान “षड्यवा: पार्श्वसम्मिताः” इति कात्यायनवचनात्। कालिकापुराणम्। “यवानां तण्डलैरेक मङ्गलं चाष्टभिर्भवेत्। अदौर्घ योजितै हस्तश्चतुर्विंशतिरङ्गलैः ।। होमे ब्रह्मवरणं प्रथमतः । ज्योतिष्टोमे ब्रह्मोहाटहोत्र. ध्वायत्यादि दर्शनेनान्यत्राप्याकाझ्या दृष्टकल्पनाया न्याय्यत्वात्। सुगति सोपान प्रभृतयोऽप्येवम्। तत्तु यजमानकर्तकम्। “दानवाचनान्वारम्भणवरणाव्रतप्रमाणेषु यज' मानं प्रतौयात्” इति कात्यायनोत: ब्रह्मस्थापनन्तु होटकर्तकमेव “अग्निमुपसमाधाय दक्षिणतो ब्रह्मासनमास्तौर्य" इति कात्यायनेनैककर्तत्वाभिधानात्। तत्र छन्दोगानां ब्रह्मस्थापन प्रकारमाह गोभिलः । “अग्रेणाग्नि परिक्रम्य दक्षिणतोऽग्न: प्रागग्रान् कुशानास्तौर्य तेषां पुरस्तात् प्रत्यम वस्ति ठन् सव्य पाने रङ्गठेनोपकनिठया चाङ्गल्या ब्रह्मासनात् णमभिसंग्राह्य दक्षिणापरमष्टमं देश निरस्यति निरस्तः परावसुः” इति “अप उपस्पश्याथ ब्रह्मासने उपविश त्यावसोः सदने सौदामि” इति “अग्न्यभिमुखो वाग्यतः प्राञ्जलिरास्ते आकर्मणः पर्यवसानात् । भाषित यज्ञ संसिद्धि नायज्ञीयां वाचं वदेत् यद्ययज्ञीयां वाचं वदेवैष्णवोमचं यजर्वा जपेत् अपि वा नमो विष्णवे" इति ब्रूयात। “यद्यवोभयं चिकौर्षद्धोत्रं ब्रह्मत्वञ्च” इति तेन कल्पन "छत्र वोत्तरासङ्ग सोदकं कमण्डलु दर्भवटं वा ब्रह्मासने निधाय तेनैव प्रत्यावृत्त्यान्यच्चेष्टेत" इति। अग्रेण पूर्वया दिशा प्रदक्षिणेनाग्नि गत्वा अग्नेर्दक्षिणस्यां दिशि प्रागग्रान् कुशानास्तौान्यच्चे टेतेति व्यवहिते न सम्बन्धः न तु निरस्थतीत्यनेन ब्रह्मेति कर्त्तनिर्देशात्। न च ब्रह्म त्यस्य आसनेन सम्बन्ध ः उपवेशनात् पूर्व तत् सम्बन्धाभावात्। ततय For Private And Personal Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । ८५ दर्भास्तरणान्तं याजमानिकं कर्म। ब्रह्मा तु तेषां पुरस्तादास्तुत कुशानां पूर्वदिग्भागे तिष्ठन् अनुपविष्ट एव सव्यस्य वामस्य उपकनिष्ठया अनामिकया आसनादयजमानास्ततं कुशपत्र ग्टहीत्वा दक्षिणापरं दक्षिण पश्चिममष्टमदेशम् उभयदिगष्टमभागं नैऋतकोणमिति यावत् निरस्तः परावसु रित्यनेन क्षिपतौति। अप उपस्पश्य दक्षिणपागिना जलं स्पष्ट्वाऽथानन्तरम् आसने ब्रह्मा ब्रह्मत्वेन उपकल्पित उपविशति। श्रावसोः सदने सौदामोति मन्णेति एव मेव भट्टनारायण प्रभृति व्याख्यानात् । एतेन तेषां पुरस्तादित्यादि पावसोः सदने सौदेत्यन्तं याजमानिकं कम यजमानकर्तकं सौदामौति प्रतिवचनं ब्रह्म कर्तकमिति भवदेव भट्टकल्पनमेव सोदेति सूत्रानुपात्तत्वात्। भाषेत यज्ञसंसिद्धिम् इति होलान्यथा क्रियमाणे कर्मणि तमिप्रथमेतदेवं कुरुएतत् तत्वैतत् कुवित्यादि भाषेत तत्राप्ययज्ञोयाम् अमंस्कृतां यदि गिरं वदेत्तदा वैष्णवोऋक् इदं विष्णु रिति यजविष्णोरराटमसौत्यादि नमो विष्णवे इत्यादि प्रकार त्रितयान्यतमप्रकारं प्रायश्चित्तमिति। अत्र ऋगादि लक्षणमाह जैमिनिः। “तेषामृक् यत्रार्थ. वशेन पादव्यवस्थितिः” इति। तेषां मन्त्राणां मध्ये यत्रार्थवशेन एकान्वयित्वेनानुष्टुवादि पादस्थितिः सा ऋक्। यजराह स एव । “शेषे वा यजुः शब्द” इति शेषे ऋक् साम भिन्ने मन्त्रजाते ततश्च यन्मन्त्र जातं प्रश्लिष्य पठितं गानादि विच्छेदरहितं तदयजुरिति। सामाप्याह स एव "गौतेष सामाख्या” इति गौयमानेषु मन्वेषु सामसंज्ञेत्यर्थः । या वेति अशक्ती उत्तरासङ्गम् उत्तरौयं दर्भवटुःकुशब्राह्मणः । ___ अथ कुण्डविधिः । तत्र मत्स्यपुराणम्। “प्रागुदकप्लवनां भूमि कारयेदयत्नतो नमः” । प्रागुदकप्लवनां पूर्वनीचां उत्तरनौचां वा। तत्र वशिष्ठपञ्चरात्र विज्ञानललितायाञ्च “सर्वाधिकारिक कुण्डं चतुरसन्तु सर्वदम्”। चतुरस्रं चतुकोणम्। भविष्योत्तरे। सहस्रेत्वथ होतव्ये कुर्यात् कुण्ड करात्मकम्। दिहस्तमयुते तच लक्षहोमे चतुष्करम्” ॥ विह. For Private And Personal Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । स्तादिके मानमाह जामलः। “पूर्व पूर्वस्य कुण्ड स्य कोणसूत्रेण निर्मितम् । उत्तरोत्तरकुण्डानां मानन्तत्य रिकोतितम्” ॥ पूर्व पूर्वस्य हस्त हिहस्तादिमितस्य कोणसूत्रेण ईशान कोणाविति कोगदत्त सूत्र गा निर्मित परिमित यन्मानम् उत्तरोत्तर कुगडानां तदेव पारिभाषिक हिहस्तादि मानौं न तु प्रकत हस्तगुण्यादिमितम् । तथात्वे वहस्तादि मितस्य चतुर्हस्तादि परिमाणापत्तेः । कृषक परिमागवत् । वशिष्ठपञ्चरात्रे। “यावान् कुगाड़ स्य विस्तारः खननन्तावदियते । हस्तके मेखलास्तिस्रो वेदाग्नि नवनाङ्गना: ॥ कुण्डे विहस्ते ता ज्ञेया रसवेद गुणाङ्गला: । चतहस्त तु कुण्डे ता वसुतर्क युगाङ्गलाः”। मेखला ब्रह्मचारिमख लावत् । कुण्डवेष्टिता मृद्घटिता स्ताश्च खातदेशाबाह्य। एकाङ्गल रूप कण्ठ परित्यज्य उच्छायेग विस्तारं गा इत्यादि क्रमेगा वेदाद्यङ्गलाः एतहिपरीतास्तन्वान्तगेका व्यवहारविरुद्धाः । वेदाचत्वारः अग्नय स्त्रयः। नयने हे। रमा: षटगगास्त्रयः । वसुतर्क युगानि अष्टषट् चत्वारि । कानोत्तरे । “ख्याताहाह्येऽङ्गलः कण्ठः सर्वकुण्ड प्वयं विधः”। पिङ्गलामते तु । "खातादेकाङ्गलं त्यत्वा मेख नाना विधिर्भवेत्” । एककुण्डस्य पश्चिम दिक्कतयतामाह महादाननिण ये। “भुक्तो मुक्ती तथा पुष्टो जीर्णोद्धार तथैव च। सदा होमे तथा शान्ताधेकं वारुणदिग्गतम्”। शाग्दातिल के "होतुग्ग्रे योनिरासा. मुपय॑श्वत्थपत्नवत्। मष्टान नेक हस्तानां कुण्डानां योनिरौग्तिा। षटचतुई बङ्गलायाम विस्तारोन्नतिशालिनी। एकाङ्गलन्तु योन्य ग्रं कुर्य्यादोषदधोमुखम् । एकैकाङ्गलितो. योनिं कुण्डेष्वन्येष वई येत्। यवहयक्रमेणैव योन्य ग्रमपि वईयेत्। स्थलादारभ्य नालं स्यात् योन्यामध्ये मगन्ध कम्”। आसां मेखलानाम् । अश्वस्य पत्रवदित्यनेन चतुरङ्गुल विस्तृतभूलादयथोक क्रमेणैवाङ्गल्यन्तः संकुचित विस्तारा। जामले "नालमखनयोमध्ये परिधेः स्थापनाय च। गन्ध कुर्यात् तथा विहान् हितोय मेखला परि" ॥ पुरशरणचन्द्रि कायान्तु एतद्दचनात् पूर्व “स्थतादारभ्य नालं स्यादयोनिमूलस्त्र For Private And Personal Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । धारणे" ॥ इत्यई लिखितं परिधोंस्तहिन्यासांचाह छन्दोगपरिशिष्टम्। बाहुमात्राः परिधयः ऋजवः सत्वचोऽव्रणाः त्रयोभवन्त्यशोणाग्रा एतेषान्तु चतुहि शम्। प्रागग्रावभितः पश्चादुदगग्रमथापरम् । न्यसेत् परिधिमन्यश्चेदुदगग्रः सपूवत:" ॥ अव्रणाश्छिद्ररहिता: अभितः अग्नेः पाव इये दक्षिपत: उत्तरतश्च पथात् पश्चिमे उदगग्रमुत्तराग्रं त्रैलोक्यसारे। “कुम्भहयसमायुक्ता अवस्थदलवन्त्रता। अङ्गुष्ठमेखलायुक्ता मध्ये त्वाज्यस्थितियथा" ॥ कुम्भहयसमायुक्ता गज कुम्माकारमूलदेशयुक्ता। नता नना। अङ्गाष्ठमेखलायुक्ता अङ्गठमितमृहटितमेखलावेष्टनयुक्ता। तथात्वे . इस्तगलिताज्यस्थित्या कुण्डे तत्पातो भवतीत्यर्थः। अतएव स्वायम्भुवे। “अङ्गुष्ठमानौष्ठकण्ठा का-खत्थदलाकृतिः”। अङ्गुष्ठमानौष्ठ कण्ठ यस्या योनेः सा तथा श्रोष्ठोऽत्रान इयशोषपञ्चरात्रे "कल्पयेदन्तर नाभिं कुण्ड स्याम्बुजसन्निभम्। मुट्यरत्नेकहा नां नाभिरुत्सेधविस्तुता ॥ नेत्रवेदाङ्गलोपेता कुण्डेष्वन्येषु वर्द्धयेत्। यवहय क्रमगोव नाभिं पृथगुदारधीः ॥ नाभिक्षेत्र विधा भित्त्वा मध्ये कुर्वीत कर्णिकाम् । वहिरंशयेनाष्टी पत्राणि परिकल्पयेत्”॥ खादिरादि सुवाभावे तु राघवभतसंहितायाम् । “पलाशपत्रे निश्छिद्रे रुचिरे सुक न वो स्मृती। विदध्याहाखस्थ पत्रे संक्षिप्ते हामकमणि"॥ तत्र कुण्ड दोषानाह विश्वकर्मा। “खाताधिके भवेद्रोगौ खातहौने धनक्षयः । वक्रकुण्डे तु सन्तापो मरणं छिन्नमेखले । मेखलारहिते शोको ह्यधिके वित्तसंक्षयः। भाऱ्यांविनाशकं कुण्ड प्रोक्तं योन्या विना कृतम् । अपत्यध्वंसनं प्रोक्तं कुण्ड यत् कण्ठवर्जितम्” । . अतएव वशिष्ठसंहितायां “तस्मात् सम्यक् परोक्ष्यैवं कतव्यं शुभवेदिकम् । हस्तमात्रं स्थण्डिलं वा संक्षिप्त होमकर्मणि" ॥ क्रियासारेऽपि। “कुण्ड मेवंविधं न स्यात् स्थगिडलं वा समाश्रयेत्” ॥ शारदातिल केऽपि नित्यनैमित्तिकं काम्यं स्थण्डिले वा समाचरेत् । इस्तमावन्तु तत्कात् चतुरस्र समन्ततः” ॥ महाकपिल पञ्चरात्रे। “संख्यानुतो शतं साष्टं सहस्र वा जपादिषु” । For Private And Personal Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । होमे स्वाहान्ततामाह यज्ञपाखः। “पादाय दक्षिणे पाणौ सवत्तिमधुरं हवि: । प्रान खो वह्निजायान्ते जुहुयावा. अपाणिना" ॥ त्रिमधुरं वृतमधुशर्करात्मकम्। विष्णधर्मोत्तरे। “दूर्वा होमः परः प्रोतस्तेन स्वर्ग महीयते। तस्माद्दशगुणं पुण्यम् इक्षुभिः प्राप्नयात् कृते। तस्माद्दशगुणं शस्य /हिभिबिगुणं भवेत् ॥ यवैश्वतुर्गुणं प्रोक्तं तिलैर्दशगुणं स्मृतम्। विल्वैर्दशगुणं प्रोक्तं कृतेनाष्टगुणं ततः” ॥ इत्यनेन कृतस्य सर्वोत्कृष्टत्वं दर्शितम्। वडिजाया स्वाहा। "मन्त्रेणो. कारपूतेन वाहान्तेन विचक्षणः। स्वाहावसाने जहुयात् ध्यायन् वै मन्त्रदेवताम्" ॥ इति स्मृतेः । स्वाहान्तमन्चे स्वाहान्तरं निषेधयति मन्वतन्त्र प्रकाश: । “नमोऽन्तेन नमो दद्यात् खाहान्ते विठमेव च। पूजायामाहुतौ चापि सर्वनायं विधि: शिवे" !॥ अन्तशब्दोऽत्रावमानार्थः हिठः स्वाहा ठकारेगा लिपिमाम्याहिन्दुरुचते तस्य हित्वं तेन विसर्गः स च शक्तिरूपः तेन विठ शब्देनाग्निशक्तिः स्वाहोतोति गघवभट्टः तथा च हिठः स्वाहानल प्रियेति वर्गाभिधानम् । अत्र तु स्वाहाशब्दः स्खौयद्रव्यत्यागार्थकः। यथा “उपरिष्ट होमा: स्वाहाकारप्रदाना जुहोतयः”। इति हरिशर्मतं स्वाहाकारण स्वाहेति पदेन प्रदानं त्यामो यासु तास्तथा अतएक खाहाकारस्य प्रदानार्थकत्वाइविस्त्यागस्याम्नायसिइत्वेनैव कृतार्थत्वात् हितोयस्यां मानमनर्थकं स्यात् इति भट्टभाष्यम्। प्रदानार्थकत्वन्तु तत्रैव यत्र मन्त्र स्थ नाम्नि चतुयन्तता अतो जयन्तीत्यादौ नमः खाहयोर्यथायथं पुनर्देयतेतिन्युजपाणिनेति शाख्यन्तरौयम् । ___ “उत्तानेनैव हस्तेन अङ्गाष्ठाग्रेण पौड़ितम्। संहताङ्गलिपाणिस्तु वागयतो जुहुयाइविः ॥” इति महादाननिर्णयकृतगोभिलवचनात् एतहचनं परिशिष्टीयमिति माधवाचार्यः । भविष्येऽपि “आहुतिस्तु तादौनां स वेणाधोमुखेन तु । हुनेत्तिलाज्याहुतिस्तु दैवेनोत्तानपाणिना” ॥ स वस्तुपञ्चाङ्गला स्त्यत्वा शङ्खमुद्रया धार्यः। “पञ्चाङ्गुलान् वहित्यका For Private And Personal Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । धारयेत् शङ्खमुद्रया" । इति वाचस्पतिमिश्रकृतमहादाननिर्णयधृतवचनात् । अग्नेर्नामानि गोभिलपुत्रकृतग्टह्य संग्रहे । " लौकिके पावको ह्यग्निः प्रथमः परिकल्पितः । श्रग्निस्तु मारुतोनाम गर्भाधाने विधीयते ॥ पुंसवने चन्द्रनामा शृङ्गाकर्मणि शोभनः । सौमन्ते मङ्गलो नाम प्रगलभो जातकर्माणि ॥ नाम्नि स्यात् पार्थिवो ह्यग्निः प्राशने च शुचिस्तथा । सत्यनामाथ चूड़ायां व्रतादेशे समुद्भवः ॥ गोदाने सूर्य्यनामा च केशान्ते ह्यग्निरुच्यते । वैश्वानरो विसर्गे तु विवाहे योजकस्तथा" || गोदाने गोदानाख्यसंस्कारे । " चतुर्थ्यान्तु शिखौनाम धृतिरग्निस्तथापरं" । अपरे धृतिहोमादौ । “प्रायश्चित्ते विधुश्चैव पाकयज्ञ तु साहसः” । प्रायश्चित्तात्मक महाव्याहृति होमादौ । पाकयज्ञ पाकाङ्गकवृषोत्सर्गग्टह प्रतिष्ठा होमादौ । “ लक्षहोमे च वह्निः स्यात् कोटिहोमे हुताशनः । पूर्णाहुत्यां मृड़ोनाम शान्ति के वरदः सदा । पौष्टिके वलदचैव क्रोधोऽग्निवाभिचारके । कोष्ठे तु जठरो नाम क्रव्यादोमृतभक्षणे । “आहूय चैव होतव्य यत्र यो विहितोऽनलः” ॥ तथा "शुभं पावन्तु कांस्यं स्वात्तेनाग्निं प्रौषयेदुधः । तस्याभावे शरावेन नवेनाभिमुखञ्च तत् । विशेषनामाज्ञाने गुणविष्णुष्टता स्मृतिः " सर्वतः पाणिपादान्तः सर्वतोऽचिशिरोमुखः । विश्वरूपो महानग्निः प्रणीतः सर्वकर्मसु " अग्निप्रणयनानन्तरं सर्वत इत्यस्य पाठो युज्यते प्रणीत इति मन्त्रलिङ्गात् । अन्यथा स्थापनानन्तरमेतदभिधानं व्यर्थं स्यात् । गुणविष्णुना श्रुतिरिति कृत्वा सर्वतः पाणिपादान्त इति लिखि तम् । एवञ्च दुर्गापूजनस्य पौष्टिककर्मत्वात् । तदङ्गहोमे बलदनामाग्निरिति । ध्यानमादित्यपुराणे । “पिङ्गभुः श्मश्रु केशान्तः पौताङ्गो नठरोऽरुणः। छागस्थः साचसूत्रोऽग्निः सप्तार्चि: शक्तिधाकः " ॥ यत्तु प्रकृतकर्मवैगुण्य प्रशमनाय शाट्यायन होमाभिधानं भवदेव भट्टसम्मतं तन्त्र प्रामाणिकं तस्मादपि महाप्रामाणिकैर्भट्टनारायणचरणैर्गोभिलभाष्य तदप्रमाणीकृत For Private And Personal Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । वात्। छन्दोगपरिशिष्टेऽपि प्रायश्चित्तार्थ प्रकारत्रयमानमुक्ती यथा “यव व्याहृतिभि:म: प्रायश्चित्तात्मको भवेत्। चतस्रस्तत्र विज्ञेया रनौपाणिग्रहणे यथा.! अपि वा ज्ञातमित्येषा प्राजापत्यापि वा हुतिः। होतव्या निर्विकल्पोऽयं प्रायश्चित्तविधिः स्मृतः” ॥ निर्विकल्प इत्यनेन कल्पान्तरनिषेधाह्रोभिलौयकर्मणि शाट्यायनहोमो न युक्तः। किन्तु व्यस्त महाव्याहृतिभिवतभिः प्रायश्चित्त होमा युक्तः । विशारदप्रभृतयोऽप्येवम्। शायायन होमस्य समूलत्वेऽपि शाख्यन्तरौयत्वम् । अग्नेः शुभलक्षणमाह वायुपुराणम् । “अर्चिष्मान् पिण्डितशिखः सर्पिः काञ्चनसबिभः। स्निग्धः प्रदक्षिणश्चैव वतिः स्यात् कार्यसिद्धये” ॥ ब्रह्मपुराणे। "क्षुत्तट क्रोधवरायुक्तो हौनमन्वं जुहोति यः। अप्रवृद्धे सधमेवा सोऽन्धः स्यादन्यजन्मनि। अल्पे रक्षे सस्फुलिङ्गे वामावर्त्त भयानके। पार्द्रकाष्ठश्च सम्पन्ने फुल्कारवति पावके । कृष्णार्चिषि सुदुर्गन्धे तथा लिहति मेदिनौम्। पाहुतिं जुहुयायश्च तस्य नाशो भवेत् ध्रुवम् ॥ आपस्तम्बः। “नाप्रोक्षितमिन्धनमग्नावादध्यात्" इति । पूजामाह मार्कण्डेयपुराणम् । “संपूजयेत्ततो वहिं दद्याचैवाहुति क्रमात्। कर्कमतसंवादिनी स्मृतिः। “आदो तु देवतोहेशं तैत्तिरीय कठशाखिनोः। काखमाध्यन्दिनानाञ्च पश्चादुल्लेखयेत् सुरान् ॥ अन्येषां नास्त्येव देवतोद्देशः । स्मृत्यर्थसारमदनपारिजातयोः । “सन्निधौ यजमानः स्यादुद्दे शत्यागकारकः । असविधौ तु पनी स्यादुद्दे शत्यागकारिका। असविधौ तु पत्नगाः स्यादध्वयंस्तदनुज्ञया। उन्मादे प्रसवे चार्ती कुर्वीतानुजया विना"। अध्वर्यजुर्वेदिहोमकर्ता। पूर्णाहुतिस्तु स्थाय सर्वैर्दातव्या यथा अग्निपुराणम् । "मूनन्दिवमन्त्रण संस्रवेण च धारया। दद्यादुस्थाय पूर्णा वै नोपविश्य कदाचन ॥ पराई भविष्थेऽपि । मूद्धानन्दि. वेति यजर्वेदिनां मन्त्रः। सामगानान्तु पूर्णहोममित्यादि। शान्तिदीपिकायां वशिष्ठः । “दद्यात्याद्यादिकं वङ्गेतनाम्ब विना बुधः। पयसा शीतलौकुर्यात् ऐशान्यां भस्म चाहरेत् ॥ ऐशान्यामाहरेनस्म चावाथ व वेण वा। वन्दनां For Private And Personal Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । १०१ कारयेत्तेन शिरः कण्ठांसकेषु च ॥ कश्यपस्येति मन्त्रेण यथानुक्रमयोगतः । ततः शान्तिं प्रकुर्वीत अवधारणवाचनम् । दक्षिणा च प्रदातव्या ग्रहादीनां विसर्जनम्" ॥ शान्तिर्वामदेव्यमानादिः । " पर्व्वक्षणञ्च सर्वत्र कर्त्तव्यमदितेन्विति अन्ते च वामदेव्यस्य गानमित्यथवा विधा" इति छन्दोगपरिशिष्टात् गानं कुर्य्यात् ऋचविधेति वा पाठः । अवधारणमच्छिद्रावधारणं दक्षिणानन्तरं कर्त्तव्यं न तु पाठक्रमादरः । “वृथा विप्रवचो यस्तु गृह्णाति मनुजः शुभे ! | दत्त्वा दक्षिणां वापि स याति नरकं ध्रुवम्” इति नारदीयात् श्रतएव भवदेव भट्टे नापि वामदेव्यगानानन्तरं दक्षिणोक्ता तथा वशिष्ठेन दक्षिणानन्तरं विसर्जनाभिधानेन श्राद्धऽपि तथादर्शनेन श्रनिर्दिष्टकानाङ्गस्य प्रधानकालकर्त्तव्यत्वेन च शारद्याः पूजाया नवम्यामेव दक्षिणा देया । व्यक्त' मत्य सूक्ते “नवम्यां पूर्ववत् पूजा कत्र्तत्र्या भूतिमिच्छता । दक्षिणां वस्त्रयुग्मञ्च आचार्य्याय निवेदयेत्” ॥ न तु देवोविसर्जनानन्तरं दक्षिणेति दुर्गाभक्तितरङ्गिण्युक्तं युक्तम् । “ उतरेगा नवम्यान्तु बलिभिः पूजयेत् शिवाम् । श्रवणेन दशस्थान्तु प्रणिपत्य विसजयेत्" इत्यनेन " आर्द्रायां बोधयेद्देवीं मूलेनैव प्रवेशयेत् । पूर्वोत्तराभ्यां संपूज्य श्रवणेन विसर्जयेत्" इत्यत्र का निर्देशेन च नवम्युत्तराषाढ्योः पूजान्तता प्रतीतेः । " श्रखिने मामि शुक्ल तु कर्त्तव्यं नवरात्रिकम् । प्रतिपदातिक्रमेणैव यावच्च नवमौ भवेत् । विगत्रं वापि कर्त्तव्यं सप्तम्यादि यथाक्रमम् ॥ इति कृत्यकल्पलताष्टतभविष्योत्तरवचने पूजनस्य नवम्यन्तता प्रतीतेश्च । कर्मान्त छन्दोगपरिशिष्टेन दक्षिणाभिधानाच्च । यथा "ब्राह्म दक्षिणा देया यत्र या परिकीर्त्तिता । कर्मान्तऽनुच्यमानायां पूर्णपात्रादिका भवेत्” ॥ ब्राह्मणे इति कर्मकारयित्र पलक्षणम्। श्रत्र नवरात्रिकमित्योत्सर्गिकं तिथिवृद्धिज्ञासाभ्यामधिकन्यनतासम्भवात् अतएव प्रतिपदादि तत्तत्तिथिषु कृत्यमाह भविष्ये “केश संस्कारद्रव्याणि प्रदद्यात् प्रतिपहिने | पट्टडोरं द्वितीयायां केशसंयम हेतवे ॥ दर्पपञ्च टतौयायां सिन्दूगलक्तकन्तथा । मधुपर्कञ्चतुर्ष्याञ्च 1 For Private And Personal Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०२ तिथितत्त्वम् । तिलकं नेत्रमण्डनम् ॥ पञ्चम्यामङ्गरागांश्च शक्त्यालङ्करणानि च। षड्यां विल्वतरौ बोधं सायं सन्ध्यासु कारयेत् ॥ सप्तम्यां प्रातरानीय गृहमध्ये प्रपूजयेत् । उपोषणमथाष्टम्यामष्टशक्तेः प्रपूजनम् ॥ नवस्यामुग्रच ण्डायास्तद्ददेवार्चनं दिवा । पूजा च बलिदानञ्च तन्मातुः प्रपूजयेत् ॥ कुमारी पूजनीया च भूषणीया च भूषणैः । संपूज्य प्रेषणं कुर्य्यात् दशम्यां शावरीसवैः ॥ अनेन विधिना यस्तु देवीं प्रौण्यते नरः । स्कन्दवत् पालयेत् तन्तु देवौ सर्वापद स्थितम् ॥ पुत्रदारधनद्दनां संख्या तस्य न विद्यते । भुक्त ह विपुलान् भोगान् प्रेत्य देवीगणो भवेत्" ॥ अत्र कल्पे प्रतिपदि कलमस्थापनं यजमानखानार्थं दुर्गाभक्तितरङ्गिण्यां यदुक्तं तन्त्र युक्तम् । तस्य देवीपूजानङ्गत्वेन तव तद्दिधानस्यायुक्तत्वात् । मत्स्यपुराणे ग्रहयाग एव तस्योत्वाच । यद्यपि " अग्निब्रह्मा भवानी च गजवक्त्रोमहोरगः । स्कन्दोभानुमत्रगणो दिकपालाश्च नवग्रहाः ॥ एषां घंटे तु प्रत्येकं पूजयित्वा यथाविधि । मूत्तिं पवित्रमेकैकं दद्यादेव समाहितः ॥ इति कालिकापुराणौवेन प्रतियदि ब्रह्मपूजनमात्रमुक्तम् । तन्न युक्तं ब्रह्मपूजन वदग्न्यादिपूजनस्यापि तद्दचनोक्तत्वेन तदभिधानस्यापि युक्तत्वात् किन्तु तद्दचनं सामान्यतः पूजान्तरविधायकतया बोध्यम् । मत्स्ये । "अर्थ होनो दहे द्राष्ट्रं मन्त्र हो नस्तथ त्विजम् । श्रात्मानं दक्षिणाहोनो नास्ति यज्ञसमो रिपुः” ॥ श्रर्थो द्रव्यम् । । T a tatararकाले निर्मञ्छनविधिमाह पूजारत्नाकरे देवीपुराणम् । “भक्त्या पिष्टप्रदीपाद्यैश्वताश्वत्यादिपल्लवैः । श्रोष - धौभिश्च मेध्याभिः सर्ववीजैयवादिभिः । नवम्यां पर्वकाले तु यात्राकाले विशेषतः । यः कुर्य्यात् श्रद्धया वौर देव्या नौराजनं नरः । शङ्खभेय्र्यादिनिनदैर्जयशब्देश्य पुष्कलैः । यावतो दिवसान् वौर देव्या नौराजनं कृतम् । तावत् कल्पसह - स्राणि दुर्गालोके महीयते । यस्तु कुर्य्यात् प्रदीपेन सूर्यलोके सहयतं " ॥ पर्वकाले उत्सवकाले । देव्या इति स्त्रोत्वमविवचितम्। विष्णादि प्रतिमायां तथाचारात् । योगाधिकारे हरेः स्तुतिमाह मत्स्यपुराणम् । “प्रीयतां For Private And Personal Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । १०३ पुण्डरीकाक्षः सर्वयज्ञेवरो हरिः। तस्मि स्तुष्ट जगत्तुष्ट प्रीणिते प्रोणितं जगत् ॥ कृत्य महार्णवत भविष्यशिवरहस्ययोः। “दशम्यां दीयते यत्र बलिदानन्तु मानवैः । तद्राष्ट्र नाशमायाति मरकोपद्रवैः स्फटम्” ॥ अनोतविरुद्धवचनानि भोजदेवजीमूतवाहन हलायुधरत्नाकर दुर्गाभक्तितरङ्गिणी वाचस्पतिमिश्र स्मतिसागररायमुकुट कृत्य महार्णव प्रभृतिभि: अनादृतानि। विजयादशमीमधिकृत्य । “दशमीं यः समुल्लङ्घय प्रस्थान कुरुते नृपः। तस्य संवत्सरं राज्ञो न क्वापि विजयो भवेत् ॥ अशक्तौ खङ्गादियात्रामाइ राजमार्तण्डः। “कार्यवशात् स्वयमगमे भूभत्तुः केचिदाहुराचार्याः। छत्रायुधाद्यमिष्टं वैजयिक निर्गमे कुर्यात्” । ज्येतिषे। “अस्तं गते तु मित्ने यया दिशा लखनं नृपोयान्तं पश्येत्तया प्रयातस्य क्षिप्रमरातिर्वशमुपैति” ॥ मित्रे सूर्यो। तथा "कृत्वा नौराजनं राजा बलद्वैयथावलम्। शोभनं खञ्जनं पश्येत् जलगोगोष्ठसन्निधौ ॥ नौल ग्रोव शुभग्रोव सर्वकामफलप्रद । पृथिव्यामवतीर्णोऽसि खञ्जरोट नमोऽस्तु ते ॥ वसन्तगजे “दृष्टोदितेऽगस्त्यमुनी सुदेशे सुचेष्टितं खञ्जनको विदध्यात्” । इत्युपक्रम्य “त्वं योगयुक्तो मुनिपुत्रकस्त्वमदृश्यतामेषि शिवोहमेन। संदृश्यसे प्राकृषि निगतायां त्वं खञ्जनाश्चर्यमयो नमस्ते”। एतद्वचनात् यदा शिरसि शिखोजमस्तदा खञ्जनो न दृश्यते अगस्त्योदयानन्तरं शिखाविगमात् पुनश्यते दर्शनफलं “अलेष गोष गजवाजिमहोरगेषु। राज्यप्रदः कुशलदः शुचि शाहलेष। भस्मास्थिकेशनखलोमतुषेषु दृष्टो दुःखं ददाति बहुशः खलु खञ्जरौटः” ॥ वर्षकत्ये "वित्तं ब्रह्मपि कार्यसिद्विरतुला शके हुताशे भयं याम्यामग्निभयं सुरहिषि कलिर्लाभः समुद्रालये वायव्यां वरवस्त्रगन्धसलिलं दिव्याङ्गना चोत्तरे। ऐशान्यां मरणं ध्रवं निगदितं दिग्लक्षणं खञ्जने। ज्येष्ठोरते क्षुतेऽप्येवमूचुः केचिच्च कोविदाः”। क्षुते तु मदनपारिजातहतम्। “जोवेति चवतो ब्रूयात् For Private And Personal Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०४. तिथितत्त्वम् । जोवेत्युक्तस्त्वया सह। अशुभं खञ्जनं दृष्ट्वा देवब्राह्मणपूजनम् । दानं कुर्वीत कुर्य्याच्च स्नानं सर्वोषधौजलैः। क्षुतोत् पतन जम्भासु जो वोत्तिष्ठाङ्गलिध्वनिः। शत्रोरपि च कर्तव्यमन्यथा ब्रह्म हा भवेत्। इति वन्द्यघटीय हरिहरभट्टाचार्यात्मज) श्रीरघुनन्दनभट्टाचार्यविरचितदुर्गापूजातत्त्वं समाप्तम् । अथ एकादशी। सा च परयुता ग्राह्या युग्मात् । आग्नेये "एहस्थो ब्रह्मचारी च आहिताग्निस्तथैव च। एकादश्यां न भुञ्जोत पक्षयोरुभयोरपि” ॥ कृष्णायां पुत्रवतो एहस्थस्य निषेधमाह ब्रह्मपुराणम्। “प्रादित्येऽहनि संक्रान्यामसितैकादशौ दिने। व्यतीपाते कृते श्राचे पुत्रौ नोपवसेत् ग्रहो" अस्यैव शयनवोधनमध्ये प्रति प्रसवमाह ब्रह्मवैवर्तः। “शयनी बोधनौमध्ये या कृष्ण कादशौ भवेत्। सैवोपोष्या रहस्थेन नान्या कृष्णा कदाचन" ॥ वैष्णवस्य तु यावत् कृष्णायामुपबासमाह नारदः। “नित्य भक्तिसमायुक्त नरैविष्णु परायणैः । पक्षेपक्षे च कर्तव्यमे कादश्यामुपोषणम्। सपुत्रश्च समायव खजनैतिसंयुतः। एकादश्यामुपवसेत् पक्षयोरुभयोरपि” ॥ __ तत्त्वसागरे। “यथा शुक्ला तथा कृष्णा यथा कृष्णा तथे. तरा। तुल्येति मन्यते यस्तु सवै वैष्णव उच्यते” इति वैधावलक्षणमप्य ताम्। वैधोपवासे भोजन चतुष्टयनिवृत्तिमाह महाभारतम्। “सायमाद्यन्तयोरङ्गोः सायं प्रातच मध्यमे । उपवास फलं प्रेप्सोवज्यं भक्त चतुष्टयम्" ॥ पुत्रवतो ब्रह्मपुराणोत रविवाराापवासविविधस्तु तन्मात्र निमित्त कोपवासपरः। “तनिमित्तोपदासस्य निषेधोऽयमुदाहृतः । नानुषङ्गकतो ग्राह्यो यतो नित्यमुपोषणम्” ॥ इति जैमिनिवचनात् । "भृगुभानुदिनोपेता य संशान्ति संयुता। एकादशौ सदोपोष्या पुत्रपौत्र विवडिलो" इति विष्णुधर्मोत्तराच। तत्रिमित्तोपवासमाह संवतः। “अमावास्या हादशौ च संक्रान्तिव विशेषतः। एता:प्रशस्तास्तिथयो भानुवारस्तथैव च ॥ प्रत्र नानं जपो होमो देवतानाञ्च पूजनम्। उपवासस्तथादानमे कैकं पावनं स्म तम्” ॥ पिटवासरादौ तु वराहपुराणविष्णु For Private And Personal Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । १०५ धर्मोत्तरकात्यायनाः। “उपवासो यदा नित्यः श्राद्ध नैमित्तिकं भवेत्। उपवासं तदा कुर्यादाघ्राय पिटसेवितम् ॥ रविवारे कसंक्रान्त्यामकादश्यां सितेतरे। पारणञ्चोपवासञ्च न कुर्यात् पुत्रवान् राहो” इति पारणनिषेधो रविवार संक्रान्तिमात्र प्राप्तोपवासनिषेधवत् रविमंक्रान्तिमात्र प्राप्तपारणपरः। तयोरव पावणा न्तु “सप्तवारानुपोथैव सप्तधा संयतेन्द्रियः। सप्तजन्म शतं पापं तत्क्षणादेव नश्यति” ॥ इति । संवत्सर प्रदोपहर्तन। “नित्यं दयोरयनयोनित्य विषवतोहयोः। चन्द्राकयोग्रहणयोव्यतीपातषु सर्वम्॥ अहोरात्रीषितः स्नानं दानं श्राद्ध तथा जपम्। यः करोति प्रसन्नात्मा तस्य स्यादक्षयञ्च तत्” ॥ इति ब्रह्मपुराण वचनाभ्याञ्च । शनिवारोपवाससंक्रान्तिपूर्वदिनोपवासविधानेन प्राप्तमिति । विधवायास्तु सर्वथा नित्यत्वमाह कात्यायनः। “विधवा या भवेन्नारौ भुञ्जीते कादशो दिने। तस्यास्तु सुकतं नश्येत् भ्रूणहत्या दिने दिन" ॥ स्मृतिः। अष्टाब्दादधिकोमोह्यपूर्णाशौतिवत्सरः। भुक्त यो मानवो मोहात् एकादश्यां स पापकत्"॥ एकादशी व्रतं नित्य तदाह ब्रह्मवैवर्तः । “इति विज्ञाय कुर्वीतावश्यमेकादशी व्रतम्। विशेष नियमाशतोऽहोरात्र भुक्तिवर्जितः” ॥ भविष्थे "नित्यमेतत् व्रतं नाम कर्तव्यं साववणिकम्। सर्वाश्रमाणां सामान्यं सर्वधर्मेष्वनुत्तमम् ॥ एकादश्यां न भुञ्जीत पक्ष योरुभयोरपि"। प्रेचेता: “पूर्णाप्येकादशौ त्याज्या हितयं वईते यदि। हादश्यां पारणालामे पूर्णैव परिरह्यते”। एकादश्याः पूर्णत्व विशेषयति सौरधर्मः। “आदित्योदयवेलाया: प्रान इतहयान्विता। सैकादशौ तु संपूर्णा बिद्धान्या परिकीर्तिता” ॥ द्वितयमेकादशौ हादशौ च वईते परदिनगामिनौ। हादश्यां पारणाया अलामे पूर्णापरिग्रहे अधिकारिभेदमाह स्कान्दे । “संपूर्ण कादशौ यत्र प्रभाते पुनरेव सा। तत्रोत्तरां यतिः कुर्यात् पूर्वामुपवसेत् रहो” । कौवें । “एकादशो प्रवृद्धा चेत् शुक्ल कणे विशेषतः। उत्तरान्तु यतिः कुर्यात् पूर्वामुपवसेत् रहो”। गारुड़े “पुन: For Private And Personal Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्वम् । प्रभात समये घटिकैका यदा भवेत् । तत्रोपवासो विहितो वनस्थस्य यतेस्तथा। विधवायाश्च तत्रैव परतो हादशौ नचेत् ॥ प्रहादा एकादश्येव प्रकर्षण बहा न हादशौत्यर्थः। तत्रैवोत्तरामेव । यत्र तु पूर्वदिने दशमौबिद्धा परदिने हादशी मिश्रा तत्र सर्वैरेव परदिने हादशौलामे तदलाभेऽपि परोपोष्या। "एका. दशौ हादशौ-मिश्रा परतोऽपिन वर्द्धते। एहिभिर्यतिभिश्चैव सैवोपोथा सदा तिथि:” ॥ इति स्म तेः । अपि भिन्नक्रमेन वईते द्वादशोत्यर्थः । एतत् हिस्पशि स्त्रिस्पशि च सम्भवत्यविशेषात् । अव त्रयोदश्यां पारणफलमाह । “एकादशौ हादशौ च राविशेषे त्रयोदयौ। तत्र क्रतुशतं पुण्यं त्रयोदश्यान्तु पार. णम्" । यत्तु “हादश हादशौहन्ति त्रयोदश्यान्तु पारणम्” इति तदुपवास परदिने “हाटखोलामे तां विहाय पारणं बोध्यम् । तथाह ब्रह्मपुराणम्। “एकादश्यामुपोष्थैव हादश्यां पारणं स्म तम् । त्रयोदश्यां न कुर्यात्त हादश हादशौचयात् ॥ कालविवेक संवत्सर प्रदीप प्रभृतिषु कूर्मपुराणाम्। “एकादशौमुपवसेत् हादशौमथवा पुनः। विमियां वा प्रकुर्वीत न दशम्या युतां कचित् ॥ कुर्यादलामे संयुतां नालाभेऽपि प्रवेशिनौम्। उपोष्था हादशौ तत्र त्रयोदश्यान्तु पारणम् ॥ उदयात् प्राक्दशम्यास्तु शेष: संयोग इष्यते। उपरिष्टात् प्रवेशस्तु तस्मात्ता परिवर्जयेत्” ॥ हादश्यां कलाईमात्रमप्ये कादश्या अनिर्गमे यदि दशमौ नोदयं स्पशति उदयात् प्रागरुणोदयकाल एवावतिष्ठते तदा संयुक्तोच्यते सैवोपोष्या। अत्रैव विषये “एकादशौ दशाविद्या परतोऽपि न वईते। ग्रहिभिर्यतिभिश्चैव सैवोपोष्या सदा तिथिः” ॥ इति भविथपुराणोयादिवचनानि दशमोविदाकर्तव्यताबोध कानि बोध्यानि। अत्र हादश्यामेकादश्यलाभ एव अरुणोदयविद्यायाः कत व्यतोपदेशात् हादश्यामेकादशौलाभे तादृग्विन्धां न कुर्यात् इत्यर्थतोऽवगतेस्तत्र परेकादश्युपोष्था इत्यवगम्यते । एतहिषये “षष्टिदण्डात्मिकायाश्च तिथेनिष्क मणे परे। अकर्मण्यं तिथिमलं विद्यादेकादशीं विना” ॥ इति संगच्छते। ..तथा कालमाधवौये गारुड़म्। “प्रादित्योदयवेलायामा For Private And Personal Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । रभ्य षष्टिनाडिकाः। सोणे कादशीनाम त्याज्या कर्मफलेमुभिः” ॥ अत्रापि त्रयोदश्यां हादशौ लाभ एव परोपोष्याइत्यवधेयम्। नोचेत् तत्र पूर्वामुपोष्ण परदिने हादश्याद्यपादं समुत्तोयं पारणं कुर्यात् “विद्धाप्येकादशी ग्राह्या परतो हादशौ नचेत्” इति “मुहत्तं हादशौ न स्यात् त्रयोदश्यां यदा मुने। उपोष्था दशमौविता सर्वैरकादशी तदा” ॥ इति “त्रयोदश्यां यदा न स्यात् हादशौ घटिकाइयम् । दशम्य का. दशौविवा सैवोपोथा सदा तिथिः ॥ इति मत्स्य कूर्म नारदीयपचनेभ्यः अत्र मुहर्त घटिकेति पारगयोग्यकालोपलक्षणम् । “कलाड़ी हादशी दृष्ट्वा निशीथादूई मेवहि। प्रामध्याह्ना: क्रिया: सर्वाः कर्त्तव्याः शम्भु शासनात्” ॥ इति श्रीधरस्वामिधृतवचनात् । अथोदयानन्तरवर्तिनी दशमी योकादशों स्पशति तदा मा प्रवेशिनौ पदवाया। तां विहाय द्वादशोमवोपवसेत् । तदिदमुक्त नालामेऽपि प्रवेशिनौमिति। अलाभेऽपि परदिने एकादश्य लाभेऽपि। अतएव कखः । “उदयोपरिविद्धा तु दशम्य कादशौ यदि। दानवेभ्यः प्रौणनार्थ दत्तवान् पाकशासन:” ॥ स्कान्दे “दशम्यै कादशीविड्वा गान्धारौ तामुपोषिता। तस्याः पुत्रशतं नष्टं तस्मात् तां परिवजयेत् । ये कारयन्ति कुर्वन्ति दशम्यै कादशी युताम्। आलोक्य तन्मुखं ब्रह्मन् सूर्यदर्शनमाचरेत् ॥ अथारुणोदयविद्धा षष्टिदण्डै कादशी पूर्णैकादश्योर्व्यवस्थाया मविशेषः इति चेत्र "हादश्यां पारणालाभे पूर्णव परिग्राह्यते ॥ इत्यविशेषात् अत्र वैष्णवेनापि पूर्णोपोथा इति । अरुणोदयविद्धातु हादशमां पारणस्यालाभेऽपि वैष्णवै!पोष्या किन्तु खण्डै कादशुपोथेति। "दशमोशेष संयुक्तो यदि स्यादरुणोदयः। नैवोपोष्यं वैष्णवेन तहिनैकादशीव्रतम् ॥ इति गारुड़े वैषणवेनेत्यभिधानात्। तत्रापि कृष्णपक्षे अरुणोदय विद्वैवोपोष्या शुक्लपक्षे तु न तथेति विशेषः। “एकादशी दशावितां वईमाने विवर्जयेत्। पक्षे हानौ स्थिते सोमे लङ्घयेद्दशमीयुताम्" ॥ इति कालविवेकअत्य महावत For Private And Personal Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०८ तिथितत्त्वम्। भविष्यपुराणैकवाक्यत्वात्। अरुणोदय कालमाह स्कन्दपुराणम् । “उदयात् प्राक्चतस्रस्तु नाड़िका अरुणोदयः । तत्र स्नानं प्रशस्तं स्यात्तद्धि पुण्यतमं स्म तम्” ॥ नाडिका दण्डः । तदयं संक्षेपः । ग्टहस्थादौनामुभयपक्षे एकादश्यामुपवासाधिकारः। कृष्णपक्ष कादश्यां पुत्रवतो एहस्थस्य नाधिकारः । हरिशयनाभ्यन्तरे तस्याप्यधिकारः। वैष्णवपुत्रवग्रहस्थ स्य सर्व कृष्णायामप्यधिकारः । शुक्रवार रविवारादावप्ये कादश्यामुपवासफलाधिक्यम्। विधावायास्तु सर्वत्राधिकारः। अत्र अष्टाब्दादधिकापूर्णाशौति वर्षमानवो नित्याधिकारी एकादशीव्रतं नित्यं पारणदिने हादशौलाभे सर्वएव पूर्णामेकादशी त्यत्वा खण्डामुपवमेत् । तद लाभे टही पूर्वी तदन्यः परां विधवापि। यदा तु पूर्वदिने दशम्यायुतैकादशौ तदोत्तगमपोष्या हादश्यां पारणं कुर्यात् । परदिने हादश्यनिर्गमे तु त्रयोदश्यामपि यदा तु सूर्योदयानन्तरं दशमौयुतैकादशो परदिने न निःसरति तदा तां विहाय द्वादशनामुपवसेत् । यदा तु सूर्योदयपूर्वकालौन दशमौविकादशौ परदिने न निःसरति तदा तामपवसेत् । यदा तु तथाविधा सती परदिने निःसरति तत्परदिने च हादशौ तदा तां विहाय खण्डामुपोष्ण हादश्यां पारयेत् यदा तु उभयदिने तद्विधैकादशी तत्परदिने च न हादशौ तदा षष्टिदण्डात्मिकां विद्यामुपोष्य परदिने हादशवाद्यपादमुत्तीर्य पारयेत् वैष्णवस्तु तत्रापि शक्लपक्षे तु परामुपोष्ण त्रयोदशयां पारयेत्। एकादशुपवास: सूतकादावपि कार्यः। भविष्योत्तर पद्मपुराणयोः । "एकादशयां न भुञ्जीत पक्षयोरुभयोरपि। सूतके मृतके वापि अन्यस्मिन् वाप्यशौचके। सर्वथा न परित्याज्या इच्छता श्रियमात्मनः”। स्त्रियास्तु पुलस्त्यः। “एकादशयां न भुञ्जीत नारी दृष्टे रजस्यपि” ॥ अशक्तं प्रति नारदीयम्। "अनुकल्पो नृणां प्रोक्तः क्षोणानां वरवर्णिनि !"। वायुपुराणे "उपवास निषेधे तु किञ्चित् भक्ष्यं प्रकल्पयेत् । न दुष्येदुपवासेन उपवासफलं लभेत् ॥ For Private And Personal Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । १०६ उपवासनिषेधासामर्थयोर्भक्ष्य प्रकारामाह नारदीये। *मूलं फलं पयस्तोयमुपभोग्यं भवेत् शुभम्। नत्वेवं भोजनं कैश्चित एकादशयां प्रकौर्तितम् ॥ एवमित्यनुकल्पातिरिक्तम् । पद्मपुराणे “नक्तं हविष्थानमनोदनं वा फलं तिलाक्षौरमथाम्वचाज्यम् । यत्पञ्चगव्यं यदिवाथ वायुः प्रशस्तमत्रोत्तरमुत्तरञ्च" ॥ फलाहागदावपि तुलसौरहितत्वे दोषमाह गरुड़घुराणम् । “तुलसी विना या क्रियते न पूजा स्नानं न तट्यतुलसी विनाकृतम्। भुक्तं न तट्यत्तुलसौविवर्जितं पौतं न तद् यत्तुलसौविवर्जितम् ॥ अत्र श्रीभगवहाक्यम् । “मच्छयने मदुस्थाने मत्याचपरिवर्तने । फलमूलजलाहारी हृदि शल्यं ममापयेत् ॥ ... हविष्यानमाह स्मतिः। हैमन्तिकं मिताखिन्नं धान्यं मुहा यवास्तिलाः। कलाया कङ्गनीवारा वास्तूकं हिलमोचिका। षष्टिका कालशाकञ्च मूलकं के मुकेतरत्। लवणे सैन्धवसामुद्र गव्ये च दधिमर्पिषो। पयोऽनुइतसारच पनसामहरोतको। तिन्तिडोजौरक व नागरञ्च पिप्पलौ कदलौ लबलौ धात्री फलान्यगुडमैक्षवम् । अतैलपक्कं मुनयो हविष्यान्न विदुबंधाः” ॥ अत्रास्विन्नमित्य पादानादन्यत्र खिन्न धान्यतण्डले न दोषः। हैमन्ति कमित्यभिधायागस्त्य संहितायाम्। नारिकेलफलञ्चैव कदली लवलोन्तथा। अानमामल कञ्चैव पनसञ्च हरोतकौम्। ब्रतान्तरप्रशस्तञ्च इविष्यं मन्बते बुधाः। • शक्तौ तु मनुः ग्यपरिशिष्टच “प्रभुः प्रथम कल्पस्य योऽनुकल्ये प्रवत्तते। न साम्यगयिकं तस्य दुर्मतविदाले फलम्” ॥ इति। अनुकल्येऽपि विषापासनं पारणञ्च कतै यम्। “एकभक्तेन नतोन तथैवायाचितेन च । उपवासेन दानेन नैवाहादशिको भवेत्” ॥ इति मार्क दण्डेयवचनात् दानेन ब्रह्म व वर्मोक्तन। यथा “उपवासाम्मार्थ श्चेदेकं विप्रन्तु भोजयेत् । तावदनानि वा दद्याद यद्भक्तदिगुणं भवेत्। मदनमम्मितां देवों जपेद्दा प्राण संयमान् । कुर्यात् द्वादशसंख्य कान यथा शक्ति व्रते नरः” ॥ देवों गायनम् । मात्स्ये। “दशम्यां नियताहारो मांसमैध नजितः। एका. For Private And Personal Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११० तिथिसत्त्वम् । दश्यां न भुञ्जीत पक्षयोरुभयोरपि"॥ मूरिसन्तोषे “कांस्वं मांसं मसूरञ्च चनक कोरदूषणम्। शाकं मधुपगमञ्च त्यजेदुपवसन् स्त्रियम्” ॥ चनकं छोलेतिख्यातं अनोपवसबिति तहिने भोजनासम्भवात् सामीप्यात् पूर्वापरयाग्रहणम् । स्मृतिः। “शाकं मांसं मसूरञ्च पुनर्भोजनमैथुन। द्यूतमत्यम्वपानञ्च दशम्यां वैष्णवस्त्यजेत् ॥ स्मृतिः। “प्रात:सन्ध्यां ततः कृत्वा सङ्कल्पं बुध पाचरेत् । वाराहे "ग्टहीत्वौडम्बरं पात्रं वारिपूर्णमुदम खः। उपवासन्तु एहौयात् यहा वार्येव धारयेत्। एकादश्यां निराहारो भूत्वा चैवापरेऽहनि । भोक्ष्येऽहं पुण्डरीकाक्ष ! शरणं मे भवाच्युत !" ॥ यद्देति ताम्रपानाभावे जलमात्रं गृहौत्वा सङ्कल्पयेदित्यर्थः। कालजाधवीयकृतस्कान्दे "उपवासन्तु सङ्कल्पा मन्त्रपूतं जलं पिवेत् ॥ मन्त्रमाह कात्यायन: । "अष्टाक्षरेण मन्त्रेण विर्जपेनाभिमन्वितम्। उपवासफलं प्रेमः पिवेत् पात्रगतं जलम्"। प्राचमनवनात्र दूषणम् । तत: प्रार्थयेत्। “इदं व्रतं मया देव ! एहोतं पुरतस्तव । निर्विघ्नां सिविमाप्नोतु त्वत्प्रसादालनार्दन !" ॥ ब्रह्मपुराणम्। "एकादश्यामुभे पक्षे निराहारः समाहितः। संपूज्य विधिवहिष्णं श्रद्धया सुसमाहितः। याति विष्णोः परं स्थानं नरो नास्त्यत्र संशयः” ॥ नृसिंहपुराणम्। "उपवासो नरयेष्ठ ! एका. दश्यां विधीयते। नरसिंहं समयंच्य सर्वपापैः प्रमुच्यते" ॥ ... हादशीमधिकृत्य कात्यायनः । “प्रात: स्नात्वा हरिं पूज्य उपवासं समर्पयेत् । अज्ञानतिमिरान्धस्य व्रतेनानेन केशव ! ॥ प्रसौद अमुखो नाथ ! ज्ञानदृष्टिप्रदो भव । मन्वं जपित्वा हरये निवेद्योपोषणम् व्रतौ। हादश्यां पारणं कुर्यात् वर्जयित्वाशुपादकीम् ॥ उपोदकी पूतिकाशाकम्। हादशौलङ्घने दोषमाह नारदीयम्। “महाहानिकरी होषा हादशी लडिता नृणाम् । कृष्ण! कृष्ण ! कृपालुस्त्वमगतीनां गतिर्भव । संसारावमग्नानां प्रसौद मधुसूदन!" ॥ इत्यनेनापि निवेदयेत् इति। विष्णुधर्मोत्तरे "हादश्याः प्रथमः पादो हरिवासरसंज्ञकः । तमतिक्रम्य कुर्वीत पारणं विष्णुतत्परः ॥ For Private And Personal Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । १११ स्मृति: “कलाई द्वादशीं दृष्ट्वा निशोथादूई मेव हि । श्रामध्यानाः क्रियाः सर्वाः कर्त्तव्याः शम्भुशासनात् ॥ निशोथादुई साईप्रइरत्रयोपरि । अत्रासामर्थ्ये कात्यायनः । " सन्ध्यादिकं भवेन्नित्यं पारणन्तु निमित्ततः । श्रह्निस्तु पारयित्वा तु नैत्यिकान्ते भुजिक्रियाः ॥ ब्रह्माण्डपुराणम् । “ कांस्यं मांसं सुरां चौद्रं लोभं वितथभाषणम् । व्यायामश्च व्यवायञ्च दिवा स्वप्नं तथाजनम् । शिलापिष्टं मसूरांव द्वादशैतानि वैष्णवः । द्वादश्यां वर्जयेन्नित्यं सर्वपापैः प्रमुच्यते” ॥ वामनपुराणे । “एकादश्यां जगत्स्वामि शयनं परिकल्पयेत् । शेषाहि भोगपर्यङ्कं कृत्वा संपूज्य केशवम् ॥ अनुज्ञां ब्राह्मणेभ्यय द्वादश्यां प्रयतः शुचिः । लब्धा पौताबरधरं देवं निद्रां समानयेत्” । अनुज्ञां लब्धा इति श्रन्वयः । एकादशोसमये दिवाशयनं परिकल्पयेत् रात्रौ द्वादशौक्षणे निद्रेति । व्यक्तं वराहे । “ आषाढ़ शुक्लद्वादश्यां पौर्णमास्यामथापि ar | 'चातुर्मास्यव्रतारम्भ कुर्य्यात् कर्कटसंक्रमे ॥ श्रभावे तु तुलार्केऽपि मन्त्रेण नियमं व्रतौ । कार्त्तिके शुक्लदादश्यां विधिवत्तत् समापयेत् ॥ चतुर्धापि हि तचौर्णं चातुर्मास्यं व्रतं नरः । कार्त्तिक्यां शुक्लपक्षे तु द्वादश्यां तत्समापयेत्” ॥ मास्य । " चतुरो वार्षिकान् मासान् देवस्योत्थापनावधि | मधुखरो भवेन्नित्यं नरो गुडविवर्जनात् ॥ तैलस्य वर्जनादेव सुन्दराङ्गः प्रजायते । कटुतैलपरित्यागात् शत्रुनाशः प्रजायते । लभते सन्ततिं दौर्घा स्थालौपाकमभक्षयन् ॥ सदा मुनिः सदा योगौ मधुमांसस्य वर्जनात् । निराधिर्नीरुगोजखौ विष्णुभक्तच जायते ॥ एकान्तरोपवासेन विष्णुलोक - मवाप्नुयात् । धारणान्रखलोम्नाञ्च गङ्गास्रानं दिने दिने ताम्बल वर्जनाद्धोगी रक्तकण्ठश्च जायते ॥ घृतत्यागात् सुलावण्यं सर्व स्रिग्धं वपुर्भवेत् । फलत्यागात्तु मतिमान् बहुपुत्रश्च जायते" ॥ " नमो नारायणायेति जवानशनजं फलम् । पादाभिवन्दनाद्दिष्णोर्लभे गोदानजं फलम् । एवमादिव्रतैः पार्थ! तुष्टिमायाति केशवः" ॥ सनत्कुमारः " इदं व्रतं मया 1 For Private And Personal Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११२ तिथितम् । देव ! गृहीतम् पुरतस्तव । निर्विघ्नां सिद्धिमाप्रीतु प्रसन्ने त्वयि केशव ! | गृहोतेऽस्मिन् व्रते देव ! यद्यपूर्णे त्वहं म्रिये । तन्मे भवतु संपूर्ण त्वत्प्रसादाज्जनार्दन ! " ॥ समाप्तौ च" इदं व्रतं मया देव ! कृतं प्रौत्यै तव प्रभो ! । न्यनं संपूर्णतां यातु त्वत्प्रसा दाज्जनार्दन ! | अत्रैव यतिमधिकृत्य काठकग्टह्यम् "एकरावं वसेत् ग्रामे नगरे पञ्चरात्रकम् । वर्षाभ्योऽन्यत्र वर्षासु मासांच चतुरो वसेत्” ॥ एतदशक्तविषयम् । " ऊर्द्ध वार्षिकाभ्यां मासाभ्यां नैकस्थानवासौ” ॥ इति शङ्खोक्तः । मास्य । " शेते विष्णुः सदाषाढ़े भाद्रे च परिवर्त्तते । कार्त्तिके परिबुध्येत शुक्लपक्षे हरेर्दिने” । भविष्यनारदौययोः । "मैत्राद्यपादे खपितोह विष्णु वैष्णव्यमध्ये परिवर्त्तते च । पौष्णावसाने च सुरारिहन्ता प्रबध्यते मासचतुष्टयेन” ॥ मैत्रमनुराधा । वैष्णव्यं श्रवणा पोष्ण रेवतौ । भविष्य । " निशि स्वापो दिवोत्थानं सन्ध्यायां परिवर्तनम् । अन्यत्र पादयोगेऽपि द्वादश्यामेव कारयेत् ॥ अन्यत्र स्वापादिवितिरात्रप्रादौतरकाले दशमौ प्रतिपदोष । “किन्त मैवाद्यपादेन दशम्यंशेन यो दिवा । पोष्णशेषेण किन्तेन प्रतिपद्यथ यो निशि ॥ दशम्यंशेन दशम्या श्रंशो यत्र पादे तेन यः पादो दिवाप्राप्तस्तेन वा किम् । अत्र दशमी प्रतिपदोवर्जनात् तदितरेकादशप्रादि पञ्चतिथिषु मैत्रादिनचत्र पादविशेषलाभेऽपि द्वादशीं विनापि शयनादिरिति प्रतीयते । वचनान्तरं "रेवत्यन्तो यदा रात्रौ द्वादशप्रा च समायुतः तदा विबुध्यते विष्णु दिनान्ते प्राप्य रेवतोम्” ॥ दिनान्ते विधाविभक्तदिनटतोयभागे दिवोत्थानमित्यनुरोधात् । विष्णुधर्मोत्तरे | "विष्णुर्दिवा न खपिति न च रात्रौ प्रबुध्यते । द्वादशप्रामृत संयोगे पादयोगो न कारणम । अप्राप्ते द्वादशीमृचे उत्थानशयने हरेः । पादयोगेन कर्त्तव्ये नाहोरात्र विचिन्तयेत्" ॥ वराहपुराणम्। "दादशां सन्धिसमये नक्षत्राणामसम्भवे । श्रभाकासितपक्षेषु शयनावर्त्तनादिकम् ॥ आभाकानां आषाढभाद्र कार्त्तिकानाम् । ततश्च द्वादश्यां निशादौ नक्षत्रमात्त्रयोगात् दादश्यामृचाभावे तिष्यन्तरे For Private And Personal Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । ११३ मिशाद्यनादरेण पादविशेषयोगात् तदभावे द्वादश्यां सन्ध्यायामेव शयनादिकं बोधनन्तु हादश्यां रात्रौ रेवत्यन्तपादयोगे दिनढतौयभाग इति विशेषः। शयने मन्चमाह वराहपुराणम्। “नमो नारायणेत्यु त्वा इमं मन्त्रमुदीरयेत् । मेघान्यपि मेघश्यामं पागतं मिद्यमानं महौमिमां निद्रां भगवान् गृह्णातु लोकनाथ वर्षाविसं पश्यतु मेघद्वन्दम्। ज्ञात्वा च पश्यैव च देवनाथ मामाचवारि वैकुण्ठस्य तु पश्यनाथ । ततथ “सुप्ते त्वयि जगन्नाथ जगत्सुतं भवेदिदम्। विबुद्धे त्वयि बुध्येत जगत् सर्व चराचरम्” ॥ इत्यनेन पूजयेत्। पाख परिवर्तन तु। “वासुदेव ! जगन्नाय ! प्राप्तेयं द्वादशौ तव ।। पार्श्वग परिवर्तस्व सुग्वं स्वपिहि माधव !” ॥ इति पठेत् । “त्वयि सप्त जगन्नाथे जगतसप्तं भवेदिदम्। विबुद्दे त्वयि वुध्येत जगन्सवं चराचरम्” ॥ इत्यनेन पूजयेत् । नैयतकालिक कल्पतरौ बरम पाणं कार्तिक शुक्ल पक्षमधिलत्य । "उपवास: प्रकर्तव्य एकादश्यां प्रजागरः। हादश्यां वासुदेवश्च पूजितव्यः प्रयलतः”। उस्थानमन्त्रस्तु “महेन्द्र रुदैरभिनयमानो भवानृपिववन्दित बन्द नोयः। प्राप्ता तवेयं किल कौमुदाख्या जास्टष्व जाटव च लोकनाथ! ॥ मेघा गता निर्मलपूर्णचन्द्रः शारय पुष्पाणि च लोकनाथ !। अहं ददानीति च पुण्य हे तोजीम्सब जाटव च लोकनाथ !” ॥ तत:"उत्तिष्ठोत्तिष्ठ गोविन्द त्यज निन्द्रां जगत्पते ! । त्वया चोत्यौयमानेन उस्थितं भुवनत्रयम्” ॥ इति पठित्वा पूजयेत्।। मल्यपुराणे भीमं प्रति भगवद्वाक्यं “यद्यष्टम्यां चतुर्दश्यां हादश्यामय भारत !। अन्येपि दिनदेषु न शक्तस्त्वमुपोषितुम् ॥ ततः पुण्यामिमां भौमतिथिं पापप्रणाशिनौम् । उपोष्य विधिनानन गच्छेविष्णोः परं पदम्”। भौमतिथि भौमतिथिल्वेन ख्यातामकादशौम्। विस्तारस्व कादशीतत्वेऽनुसन्धेयः। विपणुधर्म "मृगशीर्ष शशधरे माधे मासि प्रजापते। एकादश्यां सिते पक्षे सोपवासो जितेन्द्रियः। द्वादश्यां षट्तिनाचार कृत्वा पापात् प्रमुच्यते। तिलनायौ तिलोहर्ती तिल होमो तिलोद को। तिलस्य दाता भोक्ता च पतिलो For Private And Personal Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११४ तिथितत्त्वम् । नावसौदति । सक्कत्तु षट्तिलो भूत्वा सर्वपापैः प्रमुच्यते । शिर्षस्राणि स्वर्गलोके महीयते ॥ अथ द्वादशौ । साच एकादशौयुता ग्राह्या युग्मात् नारदौये। “वैशाख शुक्लपक्षे त द्वादशौ वैष्णवो तिथिः । तस्यां तु शौतल तोयेन खापयेत् केशवं शुचिः ॥ इयं पिपोतक द्वादशो अत्र " षष्ठीसमेता कर्त्तव्या सप्तमी नाष्टमोयुता । पतङ्गोपासनायेह षष्ठप्रामाहरु पोषणम् । एकादश्यां प्रकुर्वन्ति उपवासं मनीषिणः । उपासनाय दादश्यां विष्णोर्यद्वदियं तथा " ॥ इति भविष्य पुराणेन एकादश्युपवासानन्तरं द्वादश्यां विष्णूपासनाया उक्तत्वादवापि तथा व्यवहरन्तौति नाव युग्मादरः । द्वादशौ येतूपवासानन्तर्य्यं विनापि पूजेति । इयं पूर्ववचनोक्तषष्ठीयुता सप्तमौवत् श्राषाढ़वादश्यादिषु शयनादिकं प्रागुक्तवचनात् । भविष्योत्तरे | "दादशौ श्रवणोपेता सर्वपापहरा तिथिः । बुधवारसमा युक्ता ततः शतगुणा भवेत् । तामुपोष्य समाप्नोति द्वादश द्वादशौफलम्” । उभयदिने तल्लाभे तु एकादशी युता ग्राह्या । " द्वादशौ च प्रकर्त्तव्या एकादश्यायता विभो ! | सदा कार्य्या च विद्दद्भिर्वष्णुभक्तैश्च मानवैः " ॥ इति स्कान्दात् । यदात्वेकादशामेव श्रवणा तदा तामुपवसेत् । तथा च नारदः । "या: काश्चित्तिथयः प्रोक्ताः पुण्या नक्षत्रयोगतः । ताखेव तद्दतं कुर्य्यात् श्रवणद्वादशीं विना ॥ भविष्योत्तरे । "एकादशौ यदा तु स्यात् श्रवणेन समन्विता । विजया सा तदा प्रोक्ता भक्तानां विजयप्रदा । तिथिनक्षत्रसंयोगे उपवासो यदा भवेत् । तावदेव न भोक्तव्यं यावन्नेकस्य संक्षयः । विशेषेण महोपाल श्रवणं वर्द्धते यदि । तिथिक्षयेण भोक्तव्यं द्वादशीं नैव लङ्घयेत्” । तिथिक्षयेण एकादशौचयेण भोक्तव्यं द्वादशां पारयेदित्यर्थः । अत्र हेतु: द्वादशौमित्यादिः । यदात्वेकादशापवासदिने श्रवणं नास्ति परदिने द्वादशां तत् तदोपवासइयमाह ब्रह्मवैवर्त्तः । दशौमुपोष्यैव द्वादशीं समुपोषयेत् । नचात्र लोपः स्यादुभयोर्देवता हरिः” ॥ अत्र च "असमाप्ते व्रते पूर्वे For Private And Personal Use Only * एका विधि Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । ११५ नैव कुर्यात् व्रतान्तरम" ॥ इति स्म तेः पारणस्याकरणेन पूर्वोपवासासमाप्तावपवासान्तरारम्भे विधिलोपो न भवेदि. त्यर्थः। हेतुमार उभयोरित्यादिः । उभयोपवासासामर्थ्य तु श्रवणहादशेवोपोथा तथा च स्मतिः। “वरमेकादशी भुत्वा हादशी समुपोषयेत्। पूर्वोपवासजं पुण्यं सर्व प्राप्नोत्यसंशयः” । तथा “उपोष्ण हादशों पुण्यां विष्णुऋक्षेण संयुताम्। एकादशुद्भवं पुण्यं नरः प्राप्नोत्य संशयः ॥ हादशप्रपवासः काम्यः । तथाह मार्कण्डः। “हादशनामुपवासेन सिद्धात्मा नृप ! सर्वशः । चक्रवत्तित्वमतुलं संप्रामोत्यतुलां श्रियम् । अत्र कालिकापुराणात् शक्रोस्थान विधिलिख्यते । “अथातः शृण राजेन्द्र ! शक्रोस्थानध्वजोत्सवम् । यत्कृत्वा नृपतिर्याति नो कदाचित्पराभम्। अर्जुनोऽप्यश्वकर्णश्च प्रियकोधव एव च । औडम्बरश्च पञ्चैते के त्वर्थे सत्तमाः स्मृताः। अन्ये च देवदार्वाद्या: शालाद्यास्तरवस्तथा। तञ्च वृक्षं तुदेद्रात्रौ स्पष्ट्वा मन्त्रमिमं पठेत्” ॥ तुदेत् च्छेदयेत्। “यानि वृक्षे तु भूतानि तेभ्यः स्वस्ति नमोऽस्तु वः । उपहारं रहौत्वेमं क्रियतां वासवध्वजः ॥ पार्थिवस्त्वां वरयते स्वस्ति तेऽस्तु नगोत्तम ! । ध्वजार्थं देवराजस्य पूजेयं प्रतिगृह्यताम् ॥ ततोऽपरे ऽङ्गि तं च्छित्वा मूलमष्टाङ्गलं पुनः । जले क्षिपेत्तदग्रस्य च्छित्वैवं चतुरङ्गलम्। ततो नौवा पुरहारं केतुं निर्माय तत्र वै। शुक्लाष्टम्यां भाद्रपदे केतुं वेदिं प्रवेशयेत् । हाविंशद्धस्तमानस्तु अधमः केतुरुच्यते । हात्रिंशत्तु ततोज्यायान् हाचत्वारिंशदेव तु । कुमार्य: पञ्च कर्त्तव्याः शक्रस्य नृपसत्तम !। शालमय्यस्तु ताः सर्वास्त्व पराः शक्रमाटकाः। केतोः पादप्रमाणेन कार्याः शक्रकुमारिकाः। माटकाई प्रमाणात्त यन्त्र हस्तद्दयं तथा। एवं कृत्वा कुमारीश्च माटकां केतुमेव च। एकादश्यां सिते पक्षे यष्टौनामधिवासनम् । अधिवास्य ततो यष्टिं गश्वहारादिमन्चकैः। हादश्यां मण्डलं कृत्वा वासवं विस्तृतात्मकम् । अच्युतं पूजयित्वादौ शक्रं पश्चात् प्रपूजयेत् । शक्रस्य प्रतिमा कुर्यात् कानकों दारवीं तथा" ॥ कानकी कनकमयीं “अन्यतेजसभूतां वा सर्वाभावे तु मृण्मयौम्। तां मण्डलस्य मध्ये For Private And Personal Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । ११६ ततः शुभे मुहर्त्ते तु केतुमुत्थापये तु पूजयित्वा विशेषतः ॥ नृपः । वज्रहस्त ! सुरारिघ्न ! बहुनेत्र ! पुरन्दर ! | तेमार्थं सर्वलोकानां पूजेयं प्रतिग्टह्यताम् । एह्येहि सर्वामरसिद्धसङ्घ रभिष्टुतो वज्रधरामरेश ! | समुत्थितस्त्वं श्रवणाद्यपादे गृहाण ! पूजां भगवन् नमस्ते । इति मन्त्रेण तन्त्रेण नानानैवेद्यवन्दनैः । घटेषु दश दिक्पालान् ग्रहांथ परिपूजयेत । साध्यादीन् सकलान् देवान् मातृः सर्वास्त्वनुक्रमात् । ततः शुभ मुहर्ते तु ज्ञानिवर्द्धक संयुतः । केतूपत्थानभूमिन्तु यज्ञवेद्यास्तु पश्चिमे । विप्रैः पुरोहितैः साईं गच्छेद्राजा सुमङ्गलैः । ग्ज्जुभिः पञ्चभिर्वद्वं यन्त्र श्लिष्टं समाटकम् | क्रमारोभिच संयुक्त दिक्पालानाञ्च पट्टकैः । यथावर्णैर्यथा देशैर्योजितैर्वस्त्रवेष्टितैः । युतं तं किङ्किणीजालैर्वृहद् घण्टौघचामरैः । चित्रमाल्याम्बरैश्वापि चतुर्भिरपि तोरणैः । उत्थापयेन्महा केतुं राजा मात्यैः शनैः शनैः । प्रतिमां तां नयेन्झल केतोः शक्रं विचिन्तयन् । यजेत् पूर्ववत्तत्र शचीं मातन्निमेव च । जयन्तं तनयं तस्य वज्रमैरावतं तथा । ग्रहांश्चाप्यथ दिकपालान् सर्वाश्च गणदेवताः । पूजितानाञ्च देवानां शश्वद्धोमं समाचरेत् । होमान्ते तु बलिं दद्यात् वासवाय महात्मने । तिलं घृतं चाचतञ्च पुष्पं दूवां तथैव च । एतैस्तु जहुयादेतान् स्खैः खैर्मन्त्रैर्नरोत्तमः । ततो होमावसाने तु ब्राह्मणानपि भोजयेत् । एवं प्रपूजयेन्नित्यं सप्तरात्रं दिने दिने । वातारमिति मन्त्रोऽयं वासवस्य परः प्रियः । एवं कृत्वा दिवाभागे शक्रोत्थापनमादितः । श्रवणयुतायाञ्च दादश्यां पार्थिवः स्वयम् । अन्तपादे भरण्यास्तु निशि शक्रं विसर्जयेत् । सुप्तेष सर्वलोकेषु यथा राजा न पश्यति । साई सुरासुरगणैः पुरन्दर ! शतक्रतोः । । उपहारं गृहीत्वेमं महेन्द्रध्वज ! गम्यताम् । उत्पाते सप्तरात्राणि तथोपप्लवदर्शने । व्यतीत्य शनिभौमौ च अन्यऽपि विसर्जयेत् । यस्मिंस्तस्मिन् दिने चैव सूतकान्ते विसर्जयेत् । तथा रक्षेन्नुपः केतुं न पतच्छकुनिर्यथा । शनैः शनैः पातयेत्तं यथोत्थापनमादितः । विसृष्टं शक्र केतुं तं सालहारं तथा निशि । चिपेदनेन मन्त्रेन अगाधे सलिले नृपः । For Private And Personal Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । तिष्ठ केतो ! महाभाग ! यावत् संवत्सरं जले। भवाय सर्वलो. कानाम् अन्तरायविनाशक ! । उत्थापयेत्तर्य रवैः सर्वलोकस्य वै पुरः। एवं यः कुरुते पूजां वासवस्य महात्मनः। न तस राज्ये दुर्भिक्ष नंतयो नाप्यधर्म कत्” ॥ ईतयश्च । “अतिवृष्टिरनावृष्टिः शलभा मूषिका: खगाः । प्रत्यासत्राश्च राजानः षड़ते ईतयः स्मता:" ॥ भविष्यात्तरे “इन्द्रध्वजसमुत्यानं प्रमादान कृतं यदि। तदा हादशमे वर्षे कत्तव्यं नान्तरापुनः" । भैमीपर हादश्यां षटतिलाचरणं प्रागुक्तवचनात् । ... "फाल्गुन शुक्ल पक्षस्य पुष्यर्वे हादशौ यदि गोविन्दद्वादशी माम महापातकनाशिनौ” ॥ अत्र गङ्गायां पद्मपुराणीयो मन्त्रः । “महापातकसंज्ञानि यानि पापानि सन्ति में। गोविन्दद्दादशीं प्राप्य तानि मे हर जाहवि" !॥ . अथ त्रयोदशो। सा च शुक्ला हादशौयुता ग्राह्या। “त्रयोदशी प्रकर्तव्या हादशौसहिता विभो” ! ॥ इति ब्रह्मवैवर्तात् । कृष्णा तु परयुताः । “षष्ठाष्टमीत्वमावास्या कृष्णा चैव त्रयोदशौ। एता: पर युताः पूज्याः पराः पूर्वेण संयुताः” ॥ इति निगमवचनात् । पराः सप्तम्यादयः । एवञ्च पूर्ववचनं शक्लाविषयं सामान्य विशेष न्यायात् । .. प्रोष्ठ पद्यई कृष्णात्रयोदश्यां मघायुक्तायामनिषिद्ध यत् किञ्चिद्व्येण श्राद्धमावश्यकं शङ्खादिविधिवाक्ये नक्षत्रविशिष्ट तिथेः श्रुतेः । ततश्च केवल त्रयोदशी केवल मघाश्राद्धार्थ वादा अपि क्लतविशिष्ट विधिप्राप्त कर्मणो नित्यत्वबोधका न तु केवल विध्यन्तर कल्पनागौरवात्। तथा च शङ्खः “प्रौष्ठ पद्यामतीतायां मघायुक्तां त्रयोदशौम् । प्राप्य श्राइं हि कर्तव्यं मधुना पायसेन च” ॥ मनुः “यत्किञ्चित् मधुना मित्र प्रदद्यात्तु त्रयोदशौम् । तदप्यक्षयमेव स्यात् वर्षासु च मघा सु च" ॥ विष्णुधर्मोत्तरम् । “प्रौष्ठपद्यामतीतायां तथा कृष्णा वयोदशी। एतांस्तु श्राद्ध कालान् वै नित्यानाह प्रजापतिः ॥ शातातपः । “पितरः स्मृहयन्त्यनमष्टकासु मघासु च । तस्माद्दद्यात् सदोद्युतो विहसु ब्राह्मणेषु च”॥ अनावमाव श्रुतेः मनुवचने यत्किञ्चिदिति श्रुतेश्च । शोता पायसः फला For Private And Personal Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । तिशयार्थः। गुणविशेष फलविशेष: स्यादिति न्यायात् । व्यक्तं विष्णुधर्मोत्तरे। मघायुक्ता च तत्रापि शस्ता राज स्त्रयोदशौ। तत्राक्षयं भवेच्छाहं मधुना पायसेन च ॥ तत्राख युक्ष्ण पक्षे अत्र यत् श्राई तन्मधु योगेन पायस. योगेन वाक्षयं भवेत्। एवं मनुवचने यत्किश्चिन्मधुना मिश्र इत्यनेन मधुमात्रयुक्तत्वमुक्तम् । अतोऽत्र सुतरां शृंदस्याप्य. धिकारः। अत्र गजच्छाया योगे फलातिशयः। तथा च कत्यंचिन्तामणो स्मतिः। “कृष्णपक्षे त्रयोदशयां मघाखिन्दः करे रविः। येदा तदा गजच्छाया बाई पुण्यैरवाप्यते । करे हस्तानक्षत्रे कन्यादशमांशोपरिसपादत्रयोविंशांश इति यावत्। अविभक्तानामप्यत्र पृथक् थामावश्यकम्। यथा श्राइचिन्तामणी समतिः। “विभता अविभक्ता वा कुर्य: श्राइमदैविकम् । मधासु च तथान्यत्र नाधिकारः पृथग्विना" ॥ अदैविकं प्रत्याब्दिकैकोदिष्टं अन्यत्र कृष्णपक्षादौ नाधिकारः न नित्याधिकारः। “सपिण्डौकरणान्तानि यानि श्राद्धानि षोड़श। पृथक् नैव सुताः कुर्युः पृथगद्रव्या अपि क्वचित् इत्यत्रापिना समुच्चितानाम् अपृथगद्रव्याणां पुंसां सपिण्डौकरणान्तानौति विशेषणात् । तदुत्तराद्वानां पृथक्करण. मपि प्रतौयते। मघात्रयोदशीनिमित्तक श्राद्ध पुत्रवता पिण्डा न देया: "भौजङ्गी तिथिमामाद्य यावञ्चन्द्रार्कसङ्गमम् । तथापि महतौ पूजा कर्तव्या पिटदैवते। ऋक्षे पिण्डप्रदा. नन्तु ज्येष्ठ पुत्रौ 'विवजयेत् ॥ इति देवीपुराणात् भौजङ्गो पञ्चमो चन्द्रार्क सङ्गमम् अमावास्या पिढदैवते ऋक्षे मघायाम्। शातातपः। पिण्डनिर्वापरहितं यत्त श्राई विधौयते। स्वधा वाचनलोपोऽत्र विकिरस्तु न लुप्यते। अक्षय्यदक्षिणा स्वस्ति सौमनस्यं तथास्त्विति” ॥ स्कन्दपुराणे "वारुणेन समायुक्ता मधौ कृष्णा त्रयोदशौ । गङ्गायां यदि लभ्य त सूर्यग्रहशतैः समा” ॥ वारुणं शतभिषा। “शनिवारसमायुक्ता सा महावारुणी स्मृता । गङ्गायां यदि लभ्य त कोटिसूर्यग्रहैः समा। शुभयोग समायुक्ता शनी शतभिषा यदि। महामहेति विख्याता त्रिकोटि कुलमुछ For Private And Personal Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्वम् । ११९ रत् ॥ कुलं पुरुषमिति याज्ञवल्कादीपकलिका। तथा च मेदिन्यां “कुलं जनपदे गोवे सजातौयगणेऽपि च। भवने च तनौ लोवं कण्ट कार्योषधो कुलो" ॥ अत्र संज्ञाविधेः सार्थकत्वाय निमित्तत्वेन मासप क्षतिथ्युल्लेखानन्तरं महा. वारुणौ महामहावारुण्यावल्लेखनौये श्राद्धे पार्वणादि संज्ञोलखवत् पौर्णमास्यमावास्ययोः पक्षोल्लेखवच्च । “मासपक्षतिथौनाञ्च निमित्तानाञ्च सर्वशः। उल्लेखनमकुर्वाणो न तस्य फलभाग्भवेत् ॥ इति वचनात्। तेन चेत्ने मासि कृष्णपक्षे त्रयोदश्यां तिथौ महावारुण्यां महामहावारण्यां यथायथं प्रयोज्यम्। वारस्तु सूर्योदयादुदयान्तरं यावत् तथा च सूर्य सिद्धान्तः “सूतकादि परिच्छेदा दिनमासाब्दपास्तथा। मध्यम ग्रहभुक्तिश्च सावनेन प्रकीर्तिताः। उद. यादुदयाद्भानोभौम सावन वासरा:" ॥ दिनाधिपस्य रव्यादर्भाग्यं दिनं वाररूपं सावनगणनेनोक्तं भौमेति पित्रादिदिन व्यावृत्त्वर्थ कोम पामयोः “हो तिथ्यन्तावेकवारे यत्र स्यात् स दिनक्षयः” ॥ वशिष्ठः । “एकस्मिन् सावने त्वनि तिथौनां त्रितयं यदा। तदा दिनक्षयः प्रोक्तस्तत्र साहसिकं फलम्” ॥ इत्येतयोर्वचनयोरेकवाक्यतयापि तथावगम्यते । रेखापूर्वापरयोरित्यादिकन्तु ज्यातिःशास्त्रोक्तं कालहोगदिज्ञानार्थमिति। अत्र “संक्रान्तिषु व्यतीपाते ग्रहणे चन्द्रसूर्ययोः। पुष्थे मात्वा च गङ्गायां कुल कोटौः समुद्धरेत्” । इति ब्रह्माण्ड पुराणात् ग्रहणमात्र त्रिकोटि कुलोद्धरणविधानात् ततोऽधिकेष वारुण्यादिषरोत्तरगुरुषु महामहावारुण्यामपि यत् त्रिकोटि कुलोद्धरणमुक्तं तदुद्धरणगततारतम्येनाविरुद्धम्। “यं यं क्रतुमधोते च तस्य तस्याप्नुयात् फलम्” ॥ इति याज्ञवल्कयोक्ताध्ययनात् यथा तत्तयागकरणेऽधिक फलम् श्रतएव शिष्टानामादरोऽपि तथेति। न चान "सानं कुर्वन्ति था नार्यश्चन्द्रे शतभिषां गते। सप्तजन्म भवेयुस्ता दुर्भगा विधवा ध्रुवम् ॥ इति। "त्रयोदश्यां टतीयायां दशम्याञ्च विशेषतः। शूद्रविट क्षत्रियाः स्नानं नाचरेयुः कथञ्चन” इति प्रचेतोजावालवचनाभ्यां स्त्रीणां शूद्रादौनाञ्च माननिषेध For Private And Personal Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । इति वाच्यम् । “भोगाय क्रियते यत्त स्नानं यादृच्छिकं नरैः । तनिषिद्ध दशम्यादौ नित्यनैमित्तिके न तु” ॥ इति हेमाद्रिकृतवचनेन रागप्राप्त स्नान एव निषेधात् नक्षत्रेऽपि तथा कल्पनात्। अत्र त्रयोदश्यां पूर्णायां पूर्वाह्न तरकाले नक्षत्रादिसत्त्वे परदिने पूर्वाह्न तिथिनक्षत्रलामेऽपि पूर्वदिन एव स्नानम। तथा च कालमाधवौये नारदौयम्। “प्रादित्योदयवेलाया प्रारभ्य षष्टि नाडिकाः। तिथिस्तु सा हि शुद्धा स्यात् सार्वतिथ्योह्ययं विधिः ॥ अत्र पूर्वतिथेः शुद्धत्वाभिधानात् तत्परतिथेरशुद्धत्वाभिधानं प्रतौयते। गवावपि वारुण्यादिषु गङ्गायां स्नानम्। “दिवारानी च सन्ध्यायां गङ्गायाञ्च प्रसङ्गतः। नात्वाखमेधजं पुण्यं रहेऽप्य त तज्जलैः”। इति। ब्रह्माण्ड पराणे गन्धर्ववाक्यञ्च । “अहोरात्री प्राप्त वतो जलं ब्रह्मविटो जनाः। गहयन्ति जनान् सर्वान वनस्थान नृपतौनपि” ॥ अवार्जनं प्रति वचनम्। “समुद्र हिमवत् पावें नद्यामस्याच दुर्मते। गत्रावहनि मध्यायां कस्य गुप्तः परिग्रहः। अमम्बाधा देवनदी बर्गमम्पादिनौ शुभा। लथमिच्छसि तारोह नैष धर्मः सनातनः। अनिवायं ममत्वावं तव वाचा कथं वयम्। नस्पृशेम यथा कामं पुण्यं भागौरथौजलम् ॥” इति गविञ्चराधिकारमुपक्रम्यादि पार्वणि “सर्व एव शुभकालः सर्वोदेशस्तथा शुभः। सर्वोजनस्तथा पात्र स्नानादी जाह्नवौजले" ॥ इति भविष्यपुराणे च सामान्यतः प्रतिप्रसवात्। पात्रमधिकारी। ग्राहस्थरत्नाकरे देवलः। “महानिशा तु विज्ञेया मध्यमं प्रहरइयम्। तस्यां स्नानं न कर्त्तव्यं काम्यनैमित्तिकाते" ॥ अन महानिशायामपि काम्य नैमित्तिकं स्नानं प्रतीयते। - भविष्ये "चैत्र शुक्लत्रयोदश्यां दमनं मदनात्मकम्। वत्वा संपूज्य विधिवहीजयेाजनेन तु। तत्र सन्धुक्षित: काम: पुत्रपौत्र विवईनः । कामदेवस्त्रयोदशयां पूजनीयो यथाविधि । रतिप्रीतिसमायुक्तो ह्य शोकमणिभूषितः” ॥ दमनो दमनकवृक्षः सन्धक्षितः पूजितः । कामदेवध्यानन्तु “चापेषुधक कामदिवो रूपवान् विश्वमोहनः ॥ तन मन्त्रः । “पुष्पधन्वन् नमस्ते. For Private And Personal Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । १२१ उस्तु नमस्ते मौनकेतन" मुनोना लोकपालानां धैर्य च्यतिकृते नमः। माधवात्मजकन्दपं सम्बरारे रतिप्रिय ॥ नमस्तुभ्यं जिताशेषभुवनाय मनोभुवे। प्राधयो मम नश्यन्तु व्याधयश्च शरीरजाः ॥ सम्पद्यतामभौष्ट मे मम्पदः सन्तु मे स्थिगः । नमो माराय कामाय देवदेवस्य मूर्तये । ब्रह्मविष्णुशिवेन्द्रागां मनः क्षोभ कराय च। एवं यः कुरुते पूजामनङ्गस्य महात्मनः ॥ भवन्ति नापदस्तस्य तस्मिन्नब्दे कदाचन" ॥ अथ चतुर्दशी। सा च शुक्ला पूर्णिमायुता ग्राह्या युग्मात् कृष्णा पूर्वयुता। “कृष्णपनेऽष्टमौ चैव कृष्णपक्षे चतुर्दशी। पूर्वविदैव कर्तव्या परविद्धा न कुत्रचित् ॥ उपवासादिकार्येषु एष धर्म: सनातन:” ॥ इति निगमवचनात् । अपराव्यापित्वे तु शुक्ल चतुर्दश्यपि पूर्वविद्या ग्राह्या "चतुदशो तु कर्तव्या त्रयोदश्या युता विभो । मम भक्त महावाहो भवेदया चापराह्निको। दर्शविद्धा न कर्तव्या गकाविहा तथा मने" ॥ इति स्कन्दपुराणात्। मम भक्तरिति ईश्वरोतः शिवव्रतविषयम्। त्रयोदश्यां दिवातनमुइतचतुर्दश्यलामे त पद्मपुराणाम्। “एकादश्यष्टमौषष्ठी उभे पक्ष चतुर्दशी। अमावास्या टतोया च उपोथा: स्युः परान्विता:॥" एतदिषय एव “शिवाघोरा तथा प्रेता सावित्रौ च चतुर्दशौ। कुड़युक्त व कर्तव्या कुवामेव हि पारणम् ॥ इति वचनं यमः *दत्त्वा जलानलौन सप्त कृष्णपक्षे चतुर्दशौम्। धर्मराज समुद्दिश्य सर्वपापैः प्रमुच्यते" ॥ लिङ्गपुराणे “उपवासश्चतुर्दश्यां महापातकनाशकः”। पराशरः “मेषे वा वृषभे वापि सावित्री तां विनिर्दिशेत्” । तां चतुर्दशी “ज्येष्ठकष्णचतुर्दश्यां सावित्रीमचयन्ति याः। वटमुले सोपवासा न ता वैधव्य माप्नुयुः” । राजमार्तण्ड कल्यचि. न्तामण्योः । “ज्यैष्ठे मासि चतुर्दश्यां सावित्रीव्रतमुत्तमम् । अवैधव्याय कुर्वन्ति स्त्रियः श्रद्धासमन्विता:” ॥ व्रतमात्रे तु अनन्तरतौयाव्रतोतमाचरन्ति दृष्टपरिकल्पनान्यायात् तदुक्तं मत्स्यपुराणे “गर्भिणीसूतिकानक्तं कुमारी च रजस्वला। यदा शुद्धा तदान्येन कारयेत् क्रियते सदा" । उपवासातौ नक्तं For Private And Personal Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२२ तिथितत्त्वम् । भोजनं कुर्य्यात् "उपवासे त्वशक्तानां नक्त भोजनमिष्यते" इति तद्दृतवचनान्तरात् अशुद्ध चेत् पूजां कारयेत्। कायिकञ्चोपवासादिकं सदा शुद्धया अशडया च स्वयं क्रियते । एवं स्मृतिपारिभाषिकायां वर्द्धमानोपाध्यायाः । नारद: "दिवाभागे योदयां यदा चतुर्दशौ भवेत् । तत्र पूज्या महासाध्वी देवी सत्यवता सह" ॥ दिवाभागे दण्डद्दयमात्र सत्त्व ेऽपि अतएव प्रदोषे व्रतमाचरन्ति । पूर्वाह्न तद्विधत्वऽपि पराह्न त्रिसन्ध्यव्यापित्वे पराह एवं त्रिसन्ध्यव्यापिनौति वचनात् । यदा तु पूर्वपरयोर्न तथाविधा तदापि पराह एव यथा ज्योतिषे "चतुश्याममावास्या यदा भवति नारद! । उपोष्या पूजनीया सा चतुर्दश्यां विधानतः " ॥ सा सावित्री । ततश्चामावास्यायां सावित्री व्रतविधानं शिवाघोरेति वचनञ्च तत्परम् । पराशरः । " सावित्रमर्चयित्वातु फलाहारापरेऽहनि । ततश्चाविधवा नारी वित्तभोगान् लभेत सा” ॥ भविष्योत्तरे " भाद्रे मास्यसिते पक्षे अघोराख्या चतुर्दशी । तामुपोष्य नये याति शिवलोकमयत्नतः” ॥ भविष्ये “ अनन्त - व्रतमेतद्धि सर्वपापहरं शुभम् । सर्वकामप्रदं नृणां स्त्रीणाचैव युधिष्ठिर ! ॥ तथा शुक्लचतुर्दश्यां मासि भाद्रपदे भवेत् । तस्यानुष्ठानमात्रेण सर्वं पापं प्रणश्यति ॥ व्रतारम्भप्रतिष्ठयोवैज्यकालमा ज्योतिषे । “गुरोभृगोरस्तबाल्ये वाईक सिंडके गुरौ । वक्रिजीवाष्टविंशेऽह्नि गुर्वादित्यं दशाधिके ॥ पूर्वराशावनायातातिचारि गुरुवत्सरे । प्राग्राशिगन्तजीवस्य चातिचारे विपक्ष के ॥ कम्पाद्यद्भुतसप्ताहे नौचस्थेज्य मलिलुचे | भानुलङ्घितके मासि क्षये राहु युते गुरौ ॥ पौषादिचतुर्मासे चरणाङ्गितवर्षणे । एकेनाङ्का चैकदिने हितौयेन दिनत्रये ॥ ढतोयेन तु सप्ताहे माङ्गल्यानि शुभान्विताः । विद्यारम्भ कर्णवेधौ चूड़ोपनयनोद्वहान् ॥ तौर्थखानमनावृत्तं तथानादिसुरेक्षणम् । परौचा रामयज्ञांच पुरश्चरणदौक्षणे ॥ व्रतारम्भ प्रतिष्ठे च गृहारम्भप्रवेशने। प्रतिष्ठारम्भणे देवकूपा देवर्जयन्ति च ॥ द्वात्रिंशदिवसाचास्ते जौवस्य भार्गवस्य तु । दासप्ततिर्महत्यस्ते पादास्ते द्वादशक्रमात् ॥ चस्तात् For Private And Personal Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । १२३ प्राक् परयोः पचं गुरोर्वाकवालते । पक्षं वृद्धो महास्ते तु भृगुर्वालोदशाधिकः । पादास्ते तु दशाहानि हो बालो दिनत्रयम्” ॥ न च “ मध्या भोज्यवेलायां समुत्तीर्य सरित्तटे । ददर्श शोला सा स्त्रीणां समूहं रक्तवाससाम् । चतुर्दश्यामर्चयन्तं भक्त्या देवं पृथक् पृथक् ” ॥ इति भविष्योत्तरौयान्मध्याह्नव्यापिनो तिथिग्रह्मेति वाच्यं पूर्वाह्वो वै देवानामिति श्रुत्यादिभिः पूर्वाह्न देवकत्यविधानात् । विध्यसमभिव्याहृतार्थवादेन तद्दाधायोगात् । किन्तु तस्यैव गौणकालबोधकं तत् । कालमाधवौयोऽप्येवम् । भविष्येऽपि पूजाविधायको मध्याह्नो नोक्तः यथा “ कृत्वा दर्भमयानन्त वारिधान्यां निवेश्य च । पूजयेदन्धपुष्पाद्य नैवेद्येर्विविधैरपि ॥ चतुर्दशफलै मूलैर्जलजै: कुसुमैरपि । यवगोधूमशालीनां चूर्णेनैकतरस्य च ॥ कृत्वा पूपं द्वयं तस्मै दद्यादेकं घृतान्वितम् । स्वयमेकन्तु भुञ्जीत करे बड्वा सुडोरकम् ॥ चतुर्दशग्रन्थियुक्तं कुङ्कुमेन विलेपितम् । सुविन्यस्तं विष्णुनाम प्रतिग्रन्थिसमन्वितम् । चतुर्दशसूत्रमयं सूत्रं कार्पासमेव च ॥ पूजाडोर कबन्धनमन्त्रस्तु रत्नाकरे । “अनन्त संसारमहासमुद्रे मग्नान् समभ्युद्धर वासुदेव ! । अनन्तरूपिन् ! विनियोजयस्व अनन्तरूपाय नमो नमस्ते” ॥ इति मन्त्रमुक्त्वा * ऽनेन डोरकं बड्वा भोक्तव्यं सुस्थमानसैः" इत्यई भविष्योत्तरौयं कालकौमुद्यां लिखितमिति तथा " पापोऽहं पापकर्माहं पापात्मा पापसम्भवः । वाहि मां पुण्डरीकाक्ष ! सर्वपापहरो भव ॥ श्रद्य मे सफलं जन्म जीवितञ्च सुजीवितम् । यत्तवाङ्घ्रि युग जाग्रे मूर्द्धा मे भ्रमरायतं” ॥ इत्याभ्यां नमस्कुर्य्यात् । शृण्वन्ति । अनन्त कथामप्यव लेने- "कार्त्तिके कृष्णपक्षे तु चतुर्द्दश्यां दिनोदये । अवश्यमेव कर्त्तव्यं स्नानं नरकभौरुभिः ॥ अपामार्गपल्लवञ्च भ्रामयेच्छिरसोपरि । ततश्च तर्पणं कार्यं धर्मराजस्य नामभिः | नरकाय नरक नरकाय प्रदातव्यो दौपः संपूज्य देवता: " ॥ निवृत्तये । " अर्थोभिधेयोरेवस्तु प्रयोजननिवृत्तिषु" इति निवृत्तावपि ताद इत्यनेन चतुर्थीविधानात् । अपामार्ग For Private And Personal Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२४ तथितत्वम् । भ्रामण मन्त्रः शीतलोष्णसमायुक्त सकण्टकदलान्वित। हर पापमपामार्ग : भ्राम्यमाण: पुनः पुनः ॥ ततः प्रदोषसमये दौपान् दद्यात् प्रयत्नतः । ब्रह्मविष्ाशिवादौनां भवनेषु मठेषु च" ॥ भविष्ये “कार्तिके भोमवारे तु चित्रा कृष्ण चतुर्दशी। तस्यामाराधितः स्थाणुन येच्छिवपुरं ध्रुवम् ॥ यां काञ्चित् सरितं प्राप्य कृष्णपक्षे चतुर्दशौम्। यमुनायां विशेषेण नियतस्तर्पयेद् यमान् ॥ यमाय धर्मराजाय मृत्यवे चान्तकाय च । वैवस्वताय कालाय सर्वभूतक्षयाय च ॥ प्रोडम्बराय दनाय नौलाय परमेष्ठिने । वृकोदराय चित्राय चित्रगुप्ताय वै नमः । एकैकस्य तिलैर्मियां स्त्रों स्त्रोन् दद्याज्जलाअन्लोन्। संवसरकृतं पापं तत्क्षणादेव नश्यति” ॥ अनाचारात् चतुदंशशाकभक्षणञ्च कर्त्तव्यम् अत्र निर्णयामृतधृतं “मोल केमकवास्तकं सर्षपं कालञ्च निम्ब जयाम्। शालिचि हिलमोचिकाञ्च पटुकं शौलफ गुडुचों तथा ॥ भण्टाकों मुनिषण्व कं शिवदिने खादन्ति ये मानवाः। प्रेतत्वं न च यान्ति कात्तिकदिने कृष्णे च भूते तिथौ" ॥ जयां जयन्ती पटकं पटोलम् । भविष्थे “श्चिके शुक्लपक्षे तु या पाषाणचतुर्दशो। तस्यामाराधयेगोरों नक्तं पाषाणभोजने:” ॥ पाषाणाकारपिष्टभोजनैः। यमः "माधे मास्वसिते पक्षे रटन्त्याख्या चतुर्दशौ। तस्थामुदयवेलायां स्नातो नावेक्षते यमम् ॥ उदयवेलायामरुणोदयवेलायाम्। “अनर्काभ्यदिते काले माघ कृष्ण चतुदशौ। सतारव्योमकाले तु तत्र स्नानं महाफलम्। स्नात्वा सन्लयं तु यमान् सर्वपापैः प्रमुच्यते”। अत्र तिथिऋत्यत्वात् गौणचान्द्रादरः। अवारुणोदय काल एव स्नानं पूर्वोक्तचतुदशयमतपंणञ्च ॥ यत्त उदयवेलायां सूर्योदयवेलायां अनर्काभ्युदित इतौषदर्थे नजिति व्याख्यानं तत् समुद्र करभाष्यतसतारव्योमेत्युत्तरार्दानवलोकनेनेति । अथ शिवरात्रिव्रतम्। कालमाधवौये स्कान्दे नागरखण्डं "माघमासस्य शेषे या प्रथमे फाल्गुनस्य च। कृष्णा चतु. दशौ सा तु शिवरात्रिः प्रकीर्तिता"। अत्रै कस्यास्तिथेर्माघौयत्व फाल्गुनीयत्वे मुख्यगौणत्तिभ्याम् अविरुद्धे ततस्तु For Private And Personal Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । १२५ माध्यनन्तरा चतुर्दशौशिवरात्रिः पस्यामुपवास: प्रधानं न मानेन न वस्त्रेण न धुपेन न चाया। तुष्यामि न तथा पुष्ययथा तत्रोपवासतः । इति शारोतः। स्कान्दे “ततो रात्रौ प्रकर्त्तव्यं शिवप्रोणन तत्परैः। प्रहरे प्रहरी नान पूजा चैव विशेषतः ॥ अव वौसया प्रहरचतुष्टयसाध्य व्रतं प्रतीयते। मरसिंहाचार्यकृतेखरसंहितायाम्। “शैवो वा वैष्णवो वापि यो वा स्यादन्य पूजकः। सर्व पूजाफलं इन्ति शिवरात्रिवष्टिर्मुखः । संवत्सरप्रदोपे “दुग्धेन प्रथमे नानं दना चैव हितौयके। बतौये च तथाज्येन चतुर्थे मधुना तथा" ईशानसंहितायां “माधे कृष्ण चतुर्दश्यां रविवारो यदा भवेत् । भौगो वापि भवेद्देवि ! कत्र्तव्यं व्रतमुत्तमम् ॥ शिवयोगस्य योगेन तद्भवेदुत्तमोत्तमम्। शिवरात्रिव्रतं नाम सर्वपापप्रणाशनम्। प्राचाण्डालमनुष्याणां भुक्तिमुक्तिप्रदायकम्" ॥ नागरखण्डे। "उपवासप्रभावेण बलादपि च जागरात्। शिवरात्रेस्तथा तस्य लिङ्गस्यापि प्रपूजया। अक्षयान् लभते लोकान् शिवसायुज्यमान यात् ॥” पाद्म *वर्षे वर्षे महादेवि ! नगे नारी पतिव्रता। शिवरात्रौ महादेवं कामं भक्त्या प्रयूजयेत" ॥ ईशानसंहितायाम्। “एवमेव व्रतं कुर्यात् प्रतिसंवत्सरं व्रती। हादशाब्दिकमेतद्धि चतुर्विशाब्दिकं तथा ॥ सर्वान् कामानवाप्नोति प्रेत्य चेह च मानवः” हेमाद्रिश्ता स्मृतिः। “प्रदोषव्यापिनी ग्राह्या शिवरात्रि चतुर्दशौ” ॥ प्रदोषमाह वत्सः । “प्रदोषोऽस्तमयाटूई घटिकाहयमिष्यते"। उई मनन्तरम्। वायुपुराणे। “वयोदश्यस्तगे सूर्ये चतसृष्वपि नाडिषु । भूतविद्धातु या तत्र शिवरात्रि व्रतच्चरेत् ॥ ईशानसंहितायाम्। “माधे कृष्णचतुर्दश्यामादिदेवो महानिशि। शिवलितयोङ्गत: कोटिसूर्यसमप्रभः ॥ तत्कालव्यापिनौ ग्राह्या शिवरात्रिव्रते तिथिः । अईराबादधश्चोङ्घ युक्ता यत्र चतुर्दशौ । व्याप्ता सा दृश्यते यस्यां तस्यां कुर्य्यात् व्रतं नरः” ॥ अत्र "महानिशा हे घटिके रात्रेमध्यमयामयोः ॥ इति देवलोका महानिशा पाया। घटिका एकदण्डः । एवञ्च यहिने प्रदोषनिशौधोभयव्यापिनी For Private And Personal Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२६ तिथितत्त्वम्। चतुर्दशी तहिने व्रतम् उभयव्यात्यनुरोधात् । कालमाध. वीयोऽप्येवम् । एतेन परदिने उभयव्यापित्वेऽपि पूर्वदिवसीयरात्रि हितौययामप्रमृतिचतुर्दशौसत्त्व बहुप्रहरव्यापित्वेन पूर्वदिन एव व्रतमिति निरस्तम्। यदा तु पूर्वेधुनिशोथमात्रव्याप्तिः परेयुः प्रदोषमात्र व्याप्तिस्तदा पूर्वेद्यव्रतं प्रधानकालव्याप्त्यनुरोधात्। “पूर्वारपरेधुर्वा महानिशि चतुर्दशी। व्याप्ता सा दृश्यते यस्यां तस्यां कुर्यात् व्रतं नरः" ॥ इति ईशानसंहितावचनाच्च । एतहिषयएव भविष्यपुराणम् “अईरात्रात् पुरस्तात्तु जयायोगो भवेद् यदि। पूर्वविडैव कर्त्तव्या शिवरात्रिः शिवप्रियैः” ॥ विष्णुधर्मोत्तरे "जयन्तौ शिवरात्रिश्च कार्ये भद्रजयान्विते । कत्लोपवासं तिथ्यन्ते तदा कुयाच्च पारणम्” ॥ तिथ्यन्ते पारणं जयन्तीमात्रपरम् अत्र चतुर्दश्यामेव तत् । “ब्रह्माण्डोदरमध्ये तु यानि तीर्थानि सन्ति वै। पूजितानि भवन्तीह भूतायां पारणे कृते" ॥ इति स्कान्दात्। “दिनमानप्रमाणेन या तु रात्रौ चतुर्दशौ । शिवरात्रिस्तु सा जेया चतुर्दश्यान्तु पारणम्" ॥ इति गौतमौयाच्च। यदा तु पूर्वदिनेन निशौथव्याप्तिः परदिने प्रदोषमात्र व्यापिनी तदा परा ग्राह्या प्रदोषव्यापिनौति प्रागुतात्वात् तिथेस्त्रिसन्ध्यव्यापित्वाच्च। एतद्दिषय एव लिङ्गपुराणं "शिवरात्रिव्रते भूतां कामविहां विवर्जयेत् । एके नैवोपवासेन ब्रह्महत्यां व्यपोहति" अत्रामावस्थायामेव पारणम् । “शिवाघोरा तथा प्रेता सावित्रौ च चतुर्दशी। कुयुक्तव कर्तव्या कुह्वामेव हि पारणम्” ॥ इति वचनात्।। - तदयं संक्षेपः। यहिने प्रदोषनिशोथोभयव्यापिनी चतुदशौ तहिने व्रतम्। यदा तु पूर्वेद्य निशौथव्यापिनी परेशु : प्रदोषमात्रव्यापिनो तदा पूर्वेद्य व्रतम् । यदा तु न पूर्वेद्य निशौथव्याप्तिः परदिने प्रदोषव्याप्तिः परदिने प्रदोषव्यापिनी तदा परदिने। पारणन्तु परदिने चतुर्दशौलाभे चतुर्दश्यां तदलाभे अमावास्यायाम् । तत्र प्रयोगः। प्रातरुदन खः तत्सदित्यचार्य सूर्य: सोम इति पठित्वा जलादीन्यादाय सङ्कल्पयेत् “मन्त्रेणानेन For Private And Personal Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । सोयात्रियमं भक्तिमानरः। शिवरात्रिव्रतं ह्येतत्करिष्येऽहं महाफलम् । निर्विघ्नमस्तु मे चात्र त्वत्प्रसादान्जगत्पते !” ॥इति शिवरहस्यात् शिवरात्रि इत्यादिना नियम्य “चतुर्दश्यां निराहारो भूत्वा शम्भो ! ऽपरेऽहनि। भोक्ष्येहं भुक्तिमुक्त्यर्थं शरणं मे भवेवर" ॥ इति गरुडपुराणोयं पठेत् । रात्री प्रथमप्रहरे प्रतिष्ठिते लिङ्गेऽप्रतिष्ठिते वा प्रतिष्ठां विधाय पूजां कुर्यात् । हौं अस्त्राय फडिति पादघातत्रयेण विघ्नानिःसायं तेनैव तालत्रयेण करछोटिकया च दशदिग्बन्धनं कृत्वा भूतशुद्धि विधाय हां हृदयाय नम इत्यादिना षड़ङ्गानि न्यस्य हौमिति मन्त्रेण प्राणायामं विधाय पूजयेत् । पार्थिवलिङ्गे चेत्तदा वश्यमाण पूजाविधिना पूजयेत्। तत्रायं विशेषः। हौं ईशानाय नम इति प्रथमप्रहरे दुग्धे न नापयित्वा पुनर्जलेन नापयित्वा। "शिवरात्रिव्रतं देव पूजाजपपरायणः। करोमि विधिवद्दत्त रहाणाध्य महेश्वर!"॥ इत्यनेनाध्य दत्त्वा गन्धादिभिः संपूज्य मूलमन्त्र जपित्वा प्रणम्य गौतनृत्यादिभिस्तं प्रहरं नयेत्। “तड्यानं तज्जपः स्नानं तत्कथाश्रवणादिकम् । उपवासकती ह्येते गुणाः प्रोक्ता मनीषिभिः” ॥ इति देवीपुराणे सामान्यतः श्रवणात् अत्रापि तथा। हितोयप्रहरे तु विशेषः । हौं अघोराय नम इति दना स्नानम्। अध्यमन्त्रस्तु “नमः शिवाय शान्ताय सर्वपापहराय च । शिवरात्रौ टदाम्यर्थ्य प्रमोद उमया सह ॥ तौयप्रहरे तु हौं वामदेवाय नम इति घृतेन स्नानम्। अर्घ्य मन्त्रस्तु “दुःखदारिद्र. शोकेन दग्धोऽहं पार्वतोखर !! शिवरात्री ददाम्ययं मुमाकान्त ! रहाण मे"॥ चतुर्थ प्रहरे तु हौं सद्योजाताय नम इति मधुना नानम्। अयं मन्त्रस्तु "मया कृतान्यनेकानि पापानि हर शङ्कर ! । शिवरात्री ददाम्ययं उमाकान्त ! यहाण मे"॥ ततो नमः शिवाय इति मूलमन्त्र जपित्वा प्रभातेऽविघ्नेन इत्यादि वक्ष्यमाणमन्त्रान् पठेत्। तथाच गरुडपुराणं “मूलमन्च ततो जया प्रभाते तत्समापयेत् । प्रविघ्न न व्रतं देव ! त्वत्प्रसादात् समर्पितम् ॥ क्षमस्व जगतां नाथ! वैलोक्याधिपते! हर !। यम्मयाद्य कृतं पुण्यं तद्रुद्रस्य निवेदितम् ॥ वत्प्रसादान्मया For Private And Personal Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२८ तिथितत्त्वम् । देव ! व्रतमद्य समर्पितम् । प्रसवोभव मे श्रीमन् ! मदभूर्ति प्रतिपद्यताम् ॥ तदालोकनमात्रेण पवित्रोऽस्मि न संशयः । परदिने ब्राह्मणान् भोजयित्वा चतुई शौलाभे तत्र तदलाभे त्वमावास्यायां पारणं कुर्य्यात् । तत्र मन्त्रः “संसारक्त शदग्धस्य व्रतेनानेन शङ्कर ! | प्रसौद समुखो नाथ ! ज्ञानदृष्टि प्रदो भव" ॥ अत्र पार्थिव शिवलिङ्गपूजाविधिः । तत्र शिववाक्यं स्कान्दे "विप्रस्य तु सदैवाहं शुचे रम्य शुचे रपि । ग्टतन् बलिं प्रहृच्यामि प्रियाणामिव दर्शनात्” ॥ बलिं पूजाम् । तथा "शूद्रः कर्माणि यो नित्यं खोयानि कुरुते प्रिये ! तस्याहमची गृहामि चन्द्रखण्ड विभूषिते !” तथा “नमोन्तेन शिवे नैव स्त्रीणां पूजा विधीयते” ॥ एवकारेण प्रणवनिवृत्तिः । एवं शूद्रस्यापि तथा नृसिंहतापनीये । " सावित्रीं प्रणवं यजुर्लक्ष्मीं स्वौशूद्रयोर्नेच्छन्ति । सावित्रीं प्रणवं यजुर्लक्ष्मों स्त्रौशूद्रो यदि जानीयात् स मृतोऽधो गच्छति ॥ इति नेच्छन्ति पर्यन्त पराशर - भाष्य ऽपि लिखितम् । गोविन्दभदृष्टतम् । “वाहा प्रणवसंयुक्त शूद्रे मन्त्रं ददद्दिजः । शूद्रो निरयमाप्नोति ब्राह्मण: शूद्रतामियात् ॥ गौतमः । "रावावुदङ्म ुखः कुय्याद्देवकार्य्यं सदैव हि । शिवानं सदाप्येवं शुचिः कुर्य्यादुदन खः” । सदा दिवारात्रौ । अत्र हेतुमाह रुद्रजामले । “न प्राचौमव्रतः शम्भोनदीचीं शक्तिसंस्थिताम् । न प्रतौचों यतः पृष्ठमतोदचं समाश्रयेत्” ॥ यजमानः शम्भोः प्राचौमवस्थितये न समाश्रयेत् । शम्भोर्जगत् संहारकस्याग्रतः सांमुख्यात् पचवक्त्रपचे प्रधानं वक्त' प्राच्यवस्थितं एकवक्त्रपचे सुतरां तथा । तद्रूपमाह आदित्यपुराणं " सौम्य मौलौन्दुभृत्ताचं एकवक्त्र चतुर्भुजं शूलपङ्कजहस्तञ्च वरदाभयपाणिकम् । श्रायताचं सुराराध्य सर्वाभरणभूषितम् ॥ शिवरूपं गृहे कुर्य्यात् प्रासादे वाप्यनिन्दितम्” । अत्राग्रे पूजानिषेधात् “देवाग्रे स्वस्य चाप्यग्रे प्राचौ प्रोक्ता गुरुक्रमैः" इत्यस्य न विषयः । किन्वभिधानादिप्रसिद्धा प्राचौ ग्राह्मा एतदनुसाराद्दच्यमाण पूर्वाद्याग्नेय्यान्ता पूजा । अतएव तन्वान्तरम् । "यत्रैव भानुस्तु वियत्युदेति प्राचीति तां वेदविदो वदन्ति । तथा पुरः पूजकपूज्ययोष ॥ For Private And Personal Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । १२८ सदागमज्ञाः प्रवदन्ति तान्तु” । एवञ्च देवतान्तरपूजा पूर्वाह प्रातखेन सायं पश्चिमाभिमुखेन रात्रावुद खेन कार्य्या | प्रापविमोहास्यथ प्रातः सायं निशासु च इति वचनात् इति वाचस्पतिमिश्राः | मैवं पूजारता करोक्त भविष्यपुराणौयसप्ताक्षर सूर्य मन्त्र प्रस्ताव एव प्रागादिदिनियमाभिधानात् । व्यवहारोऽपि अत्र न तथेति लिङ्गपुराणे । “विना भस्मत्रिधुण्डुरेण विना रुद्राक्षमालया । पूजितोऽपि महादेवो न स्यात्तस्य फलप्रदः ॥ तस्मान्मृदापि कर्त्तव्यं ललाटेऽपि त्रिपुण्टकः । संवत्सरदोपे “त्रिपुरस्य बधे काले रुद्रस्याक्ष्णोऽपतं स्तु ये । गोविन्दवस्ते तु रुद्राक्षाऽभवन् भुवि ॥ यद्यप्येकादिचतुर्दशमुख रुद्राक्षेषु मन्त्रफल विशेषाः सन्ति तथापि सुलभत्वात् पञ्चवक्त्रस्य फलमन्त्रावभिधीयते । यथा स्कान्दे “पञ्चवक्तः स्वयं रुद्रः कालाग्निर्नाम नामतः । अगम्यागमनाञ्चैव अभक्ष्यस्य च भक्षणात् । मुच्यतं सर्वपापेभ्यः पञ्चवक्त्रस्य धारगात् ॥ हं नम इति प्रत्येक मष्टोत्तरशतं अम्बा शिवाम्भसा प्रक्षाल्य धारणीयं "विनामन्त्रेण यो धत्ते रुद्राक्षं भुवि मानवः । स याति नरकं घोरं यावदिन्द्राश्चतुर्दशः " ॥ नन्दिपुराणे । " आयुष्मान् बलवान् श्रीमान् पुत्रवान् धनवान् सुखौ । बरमिष्टं लभेल्लिङ्गं पार्थिवं यः समर्च्चयेत् । तस्मात्तु पार्थिवं लिङ्ग ज्ञेयं सर्वार्थसाधकम् ॥" भविष्ये । " मृङ्गागो शक पिण्डं ताम्बकांस्यमयं तथा । कृत्वा लिङ्गं सकृत् पूज्य वसेत् कल्पायतं दिवि । वाक्षं वित्तप्रदं लिङ्ग स्फाटिकं सर्वकामदम् । नर्मदा गिरिजं श्रेष्ठमन्यदपि हिलिङ्गवत् । कृत्वा पूजय राजेन्द्र ! लक्ष्माते चेप्सितं फलम्” ॥ लिङ्गवत् लिङ्गाकारम् । कालकोमुद्याम् । “श्रचादल्पपरोमाणं न लिङ्गं कुत्रचिन्नरः । कुर्वी - ताङ्गष्ठतो हखं न कदाचित् समाचरेत्” ॥ अतोऽशौतिरत्तिका तथाचामरः । “गुञ्जाः पञ्चाद्यमाषकः तेषोड़शाक्षः कर्षोस्त्रौ ” इति । अङ्गुष्ठतः तद्दृहत्पर्वग्रन्थितः । “ अङ्गुष्ठाङ्गुलि मानन्तु यत्र यत्रोपदिश्यते । तत्र तत्र बृहत् पर्वग्रन्थिभिर्मिनुयात् सदा " ॥ इति छन्दोगपरिशिष्टात् । शिवधर्मे । “सहस्रमर्चयेल्लिङ्गं निरयं स न गच्छति । रुद्रलोकमवाप्नोति भुक्का For Private And Personal Use Only J Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३० तिथितत्त्वम् । भोगाननुत्तमान् ” ॥ तथा “बालुकानि च लिङ्गानि पार्थि वानि च कारयेत् । सहस्रपूजनात् सोऽपि लभते वाञ्छितं फलम् ॥ ततश्चामुकतिथावारभ्यामुकलाभकामः सहस्रमितपार्थिव शिवलिङ्ग पूजनमिति च यथास्थाने वाक्यं देयमिति । ब्रह्मपुराणे । " यावत्र दौयते चाय भास्कराय निवेदितम् । तावन्न पूजयेद्दिष्णुं शङ्करं वा महेश्वरौम्” ॥ राघवभट्टष्टतम् । “सर्वत्रैव प्रशस्तोऽन: शिवसृय्यच्च नं विना ॥ प्रज्ञः शङ्खः । अग्निपुराणे” तल्लिङ्गेः पूजयेन्मन्त्रैः सर्वदेवान् पृथक् पृथक् । ध्यात्वा प्रणवपूर्वन्तु तत्रान्ना सुसमाहितः । नमस्कारेण मन्त्रेण पुष्पाणि विन्यसेत् पृथक् ॥ देवीपुराणे । “मृदारणसंघट्ट प्रतिष्ठाह्वानमेव च। स्रपनं पूजनञ्चैव विसर्जनमतः परम् ॥ हरो महेश्वरचैव शूलपाणिः पिनाकष्टक् । पशुपति: शिवश्चैव महादेव इति क्रमात् ॥ अत्र पूर्वोक्त सप्तकर्माणि परवचनोक्त सप्तनामभिः क्रियानुरूपविभक्तिमद्भियथायथं कार्याणि । श्रदृष्टार्थयोरर्थक्रमासम्भवेन पाठक्रमादेवावाहनात् प्राक् प्रतिष्ठा श्राडे कुशासनदानवत् । तत्रानुठानं हराय नम इति मृदाहरणं महेश्वराय नम इति संघटनं शूलपाणे इ सुप्रतिष्ठितो भवेति प्रतिष्ठा । ध्यायेत्रित्यं महेशमित्यादिना ध्यात्वा पिनाकष्टक् इहा गच्छेत्यावाहनं पशुपतये नम इति स्वपनम् एतत्याद्यं नमः शिवाय नमः एवमर्ध्यादिना पूजयेत् । विसर्जनात् पूर्वं भविष्यपुराणोक्तं स्वभावसिद्ध प्राच्चैशान्यादिदिक्षु वामावर्त्तेन पूजनम् । यथा सर्वायचितिमूर्तये नमः भवाय जलमूर्त्तये नमः रुद्राय अग्निमूर्तये नमः । उग्राय वायु मूर्त्तये नमः भौमाय आकाशमूर्तये नमः पशुपतये यजमान मूर्त्तये नमः महादेवाय सोममूर्त्तये नमः ईशानाय सूर्यमूर्त्तये नमः । “मूत्तयोऽष्टौ शिवस्यैताः पूर्वादिक्रमयोगतः । श्राग्नेय्यन्ताः प्रपूज्यास्ता वेद्यां लिङ्गे शिवं यजेत् ॥ ततो महादेव क्षमस्व इति संहारमुद्रया विसर्जयेत् । नन्दिपुराणे । “गोभूहिरण्यवस्त्रादिवलि पुष्पनिवेदने । ज्ञेयो नमः शिवायेति मन्त्रः सर्वार्थसाधक: I सर्वमन्त्राधिकखायमोङ्कारायः षडक्षरः । तमत्र जापौ तत्कर्म For Private And Personal Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्वम् । १३१ अतस्तहतमानसः। निष्कामः पुरुषो राजन् ! स रुद्रपदमअते ॥ भविश्थे पश्चाक्षरमुपक्रम्य । “अपवित्रः पवित्रीवा सर्वावस्थां गतोऽपि वा। महापातकयुक्तो वा मन्त्रस्यास्य नपे यथा। अधिकारी भवेत् सर्व इति देवोऽब्रवीशिवः ॥ इति तथेत्यर्थः । पूर्वोक्त यथा पदानुरोधात् तेन यथाधिकारी भवेत् तथा अनवौदित्यर्थः। तथा "सर्वेषामेव पात्राणां परं पात्रं महेश्वरः। पतन्तं वायते यस्मादतौव नरकार्णवात्। शिवमुद्दिश्य यहत्तं सर्वकारण कारणम्। तदनन्त फलं दातुर्भवतौह किम तम्। दवा नैवेद्य वस्त्रादि नाददौत कदाचन । त्यक्तव्यं शिव मुद्दिश्य तदा दानेन तत्फलम"॥ पादाने ग्रहणे। शिवधर्मे । तस्मात् पुष्पैः फलैः पत्रस्तोयैरपि च यत् फलम् । तदनन्त फलं ज्ञेयं भक्तिरेवान कारणम्” ॥ भविष्थे “लिङ्गानुलेपनं कार्य दिव्यगन्धैः सुगधिभिः। वर्ष कोटिशतं दिव्यं शिवलोके महीयते" ॥ शिवधर्म। "तस्मात् पुष्प प्रदानेन लिङ्गेषु प्रतिमासु च। अशौतिवर्षकोटौनां दुर्गतिं न नरो व्रजेत् ॥ स्कान्दे। “शुष्काण्यपि च पत्राणि श्रीवृक्षस्य सदैवहि"। दातव्यानोति शेषः । भविष्थे । “धुस्तरकैश्च यो लिङ्गं मलत् पूजयते नरः। स गो लक्षफलं प्राप्य शिवलोके महीयते। विल्वपत्रैरखण्डेश्व योलिङ्ग पूजयेत् सत्। सर्वपापैर्विनिर्मुक्तः शिवलोके महीयते ॥ तथा "सर्वकाम प्रदं विल्व दारिद्रस्य प्रणाशनम् । विल्वपत्रात् परं नास्ति येन तुष्यति शङ्करः"। तथा "केशकोटापविद्धानि निशिपर्युषितानि च। स्वयं पतित पुष्पाणित्यजेदुपहतान्यपि" ॥ तथा। “देवदारुसमेतञ्च सर्जरीवासकुन्दुरुम्। श्रीफलं चाज्यमिश्चन्तु दत्त्वाप्नोति परां गतिम् । सज: शालरस: श्रीवासः सरलद्रवः। कुन्दुरुः शैलेयम् । "एभ्यः सौगन्धिकं धपं षट् सहस्रगुणोत्तरम् । अगुरु शतसाहस्रं दिगुणञ्चासितागुरुम् । गुग्गु ले तमंयुक्त साक्षात् ग्टह्णाति शङ्करः” ॥ तथा "तैलेनापि हि योदद्याताभावेन मानवः। तेन दीपप्रदानेन शिववद्राजते भुवि” ॥ नन्दिकेखरे। “अथ भक्त्या शिवं पूज्य नैवेद्यमुपकल्पयेत् । यद् For Private And Personal Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३२ तिथितत्त्वम् । यदेवात्मनः श्रेयस्तत्तदीशाय कल्पयेत्। शालितण्डल प्रस्थय कुर्य्यादन्नं सुसंस्कृतम्। शिवाय तं चरुं दद्याच्चतुर्दश्यां विशेषतः”। प्रस्थमानं प्रागुक्तम्। शिवमर्वस्त्रे स्कान्दम्। “एकमात्रफलं पक्कं यः शम्भोविनिवेदयेत्। वर्षाणामयुतं भोगे: क्रीड़ते स शिवेपुर। एकं मोचाफलं पक्कं य: शिवाय निवेदयेत्। वर्षलक्ष तथा भोगैः शिवलोके महीयते" ॥ शिवपुराण । “नैवेद्यं कृतसंयुक्त मधुपर्क निवेदयेत्। अग्निष्टोजस्थ यज्ञस्य फलमाप्नोति मानवः” ॥ मोचाफल कदलीफलम्। शिवसर्वखे स्कान्दम् परिपक्कं सुसंमृष्टाज्यासक्तं सुसंस्कृतम् । शिवाय मांस दत्त्वातु शृणु यत् फलमाप्नुयात्। अशेषफलदानेन यत्फलं परिकौर्तितम् । तत्फलं प्राप्नयानित्यं सर्वे मांसनिवेदनात्" । शिवधर्मे। “लिङ्गवेदो भवेद्दे वीलिङ्ग माक्षात् महेश्वरः । तयोः संपूजनात् स्यातां देवौदेवश्व पूजितो" ॥ देवीपुराणे। *सव्यं व्रजेत्ततोऽसव्य प्रणालं नैव लायेत्। एकीभूतमनारुद्रे यः कुर्यात् त्रि: प्रदक्षिणम् ॥ छिन्नस्तेन भवग्रन्थिन तस्य पुनरुद्भवः'। भविष्थे। “जानुभ्यां चैव पाणिभ्यां शिरमा च विचक्षणः । कृत्वा प्रणामं देवेशे सर्वान् कामानवाप्नुयात् । लिङ्गपुराणे। “गन्धपुष्प नमस्कारैः मुख वाद्यैव सर्वशः। यो मामयते तव तदा तुष्याम्यहं सदा ॥ महाभारते । "सर्वलक्षणहीनोऽपि युक्तो वा सर्वपातकैः। सर्वं तरति तत् पापं भावयन् शिवमात्मना" ॥ राघवभट्टकृतम्। “अधोमुखे वामहस्त ऊहास्य दक्षहस्तकम्। क्षिप्ताङ्गल्लौरङ्गलौमिः संग्टह्य परिवर्तयेत्। प्रोक्ता संहार मुद्रेय मर्पणे तु प्रशस्यते” । अर्पणे आत्मनौति शेषः। स्कान्दे "निर्माल्यं यो हि मद्भत्या शिरसा धारयिष्यति। पशुचिभित्रमादो नरः पापसमन्वितः ॥ नरके पच्यते घोरे तिर्यग्योनो च जायते। ब्रह्महापि शुचिर्भूत्वा निर्माल्य यस्तु धारयेत् । तस्य पाप महच्छौघ्रं नायिष्ये महाव्रते"। शुचिः सानादिनेति शेषः । एवञ्च "स्पृष्ट्वा रुद्रस्य निमाल्यं सवासा भानु तः शुचिः'। इति कालिकापुराणौयमशचिविषयम् । अनुपनोतविषय इति श्री. द्वत्तः। बढ्च रद्यपरिशिष्टम्। "अग्राह्य शिवनैवेद्य For Private And Personal Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । १३३ पत्र पुष्पं फलं जलम् ॥ शालग्राम शिलास्पर्शात् सर्वं याति पवित्रताम्। भोजदेवधृतम् । “चैत्रे कृष्ण चतुर्दश्यामङ्गारकदिमं भवेत् । पिशाचत्वं पुनर्न स्वागङ्गायां स्वानभोजनात्” । कालिकापुराणम्। “यो यह वानरतः स तत्रैवेद्यभचकः । समानं त्वन्यनैवेद्यं भक्षयेदन्यदैवतः । केवलं सोरशेवेतु वैष्णवो. मैव भचयेत्” ॥ राजमार्त्तण्डे । “धवलितकल से न्यस्तरतपताका हौभवने । चैत्रासितभूतदिने पापरुजं दूरतो धत्ते " ॥ चैत्रे कृष्ण चतुर्दश्यां कठिन्यादिभिः शुक्कोक्कते घटे रक्तपताका युक्तां ब्रहौशाखां विधाय गृहोपरि स्थापयेत् । अथ मदनचतुर्दशौ । स्कन्दपुराण मौरागमयोः । " मधुमासे तु संप्राप्ते शुक्लपचे चतुर्दशौ । प्रोक्ता मदनभनौति सिदा तु महोत्सवे ॥ पूजयिष्यन्ति ये मस्तदङ्गभवपल्लवैः । तं यान्ति परमं स्थानं मदनस्य प्रभावतः ॥ चैते मामि चतुर्दश्यां मदनस्य महोत्सवः । जुगुप्सितोक्तिभिस्तत्र गौतवाद्यादिभिर्नृणाम् ॥ भगवांस्तुष्यते कामः पुत्रपौत्रविबर्डनः ।।। न मानयन्ति ये पर्वमादनं मानवाधमाः तेषां पुण्यफलं दत्तं मया ते चैत्रमासिकम् ॥ देवल: "चैत्र शुक्तचतुर्दश्यां यः स्वायात् शिवसन्निधौ । पिशाचत्वं न तस्य स्वाद्गङ्गायान्तु विशेषतः ॥” " अथ पौर्णमास 1 सा चतुर्दशोयुता ग्रायुग्नात् । ग्रमः । " पचान्ते श्रोतसि स्वायात् तेन नायाति मत्पुरम् ” ॥ विष्णुः । " दृश्यते सहितौ यस्यां दिवि चन्द्र पौर्णमासौतु महतो ज्ञेया संवत्सरे तु सा । तस्यां नानीपवासा भ्यामक्षयं परिकीर्त्तितम् सहितौ माससंज्ञा निमित्तकृतिकादिनचवगतौ महाकार्त्तिक्यादिदर्शनात् । तथा च राजमार्त्तण्डः । “माससंच यदा ऋचे चन्द्रः संपूर्णमण्डलः । गुरुणा यति संयोगं सातिथिर्मतो खाता । स्कान्दमात्ययोः । " पौर्णमासीषु चैताषु मामचसहितासु च । एतासु खानदा नाभ्यां फलं दशगुणं स्मृतम्” ॥ वैशाखीमुपक्रम्य यमः । “गौरान् वा यदि वा कृष्णान् तिलान् चौद्रेण संयुतान् । प्रौयतां धर्मबाजेति पितॄन् देवांश्च तर्पयेत् ॥ यावज्जीवमतं पापं तत्क्षण । १२ For Private And Personal Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३४ तिथितत्त्वम् । देव नश्यति। अब्दायुतञ्च तिष्ठेत्त वर्गलोके न संशयः । ब्रह्मपुराणे। "महाज्येष्ठयान्तु यः पश्येत् पुरुषः पुरुषोत्तमम्। विष्णुलोकमवाप्नोति मोक्ष गङ्गाम्बमन्जनात् ॥ ऐन्द्र गुरुः शशौचैव प्राजापत्ये रविस्तथा। पूर्णिमा गुरुवारेण महाज्येष्ठो प्रकीर्तिता" ५ ऐन्द्र ज्येष्ठायाम्। प्राजापत्ये रोहिण्याम् । विना गुरुवारेणापि। “ऐन्द्र गुरुः शशौचैव प्रजापत्ये रविस्तथा। पूर्णिमाज्येष्ठमासस्य महाज्येष्ठौ प्रकौर्त्तिता" ॥ अनुराधास्थगुरावपि । “ऐन्द्र मैत्रे यदा जोवस्तत्यञ्च दशके रविः । पूर्णिमा शक्रचन्द्रेण महाज्येष्ठौ प्रकीर्तिता" ॥ अनुराधास्थचन्द्रेऽपि व्याघ्रभूतिः। “ऐन्द्रः वथवा मैत्रे गुरुचन्द्रौ यदास्थितौ। पूर्णिमा ज्य टमासस्य महाज्यैष्ठौ प्रकीर्तिता" । राजमार्तण्डः। “ज्य ठे संवत्सरेचैव ज्येष्ठमासस्य पूर्णिमा। ज्येष्ठाभेन समायुक्ता महाज्य ठौ प्रकौति ता" ॥ ज्येष्ठसंवत्मरच "ज्येष्ठामूलोपगे जौवे वर्ष स्याच्छकदैवतम्” ॥ इति विष्णुधर्मोत्तरोतो ग्राह्यः। न तु संवत्सरादि पञ्चकान्तर्गत वर्षविशेषः ज्य ष्ठ इति वर्षविशेषणस्य वैयपित्तेः । संवत्सरे यदि स्यादितिपाठ: काल्पनिक: प्रपञ्चस्तु मलमासतत्त्वेऽनुसन्धेयः । विष्णुधर्मोत्तरे ब्रह्म पुराणम्। “मामि ज्य ष्ठे तु संप्राप्ते नक्षत्रे शक्रदैवते। पौर्णमास्यां तदा मानं सर्वकामं हरईिजाः॥ तस्मिन् काले तु ये माः पश्यन्ति पुरुषोत्तमम्। वलभद्रं सुभद्राञ्च ते यान्ति पदमव्ययम्" ॥ स्कन्दपुराणम्। “ज्य ष्ठयामहञ्चावतोर्णस्तत् पुण्यं जन्मवासरम् । तस्यां मे सपनं कुर्यात् महामानविधानतः । ज्योष्ठयां प्रातस्त ने काले ब्रह्मणा सहितञ्च माम्। रामं सुभद्रां संम्राज्य मम लोकमवाप्नुयात् ॥ विष्णुधर्मोत्तरे। “पोर्णमासी तथा माघौ श्राबणौ च नरोत्तम। प्रौष्ठपद्यामतौयायां तथा कृष्ण त्रयोदशौ। एतांस्तु पाइकालान् वै नित्या नाह प्रजापति:" ॥ अत्र पूर्वदिने सङ्गवलाभे रोहिणलाभे वा परदिने सङ्गवालाभे पूर्वदिने श्राहम्। "शक्लपक्षस्य पूर्वाह्न थाई कुर्यात् विचक्षणः। कृष्णपक्षापराझे तु रोहिणन्तु न लखबेत्” इति। वायुपुराणात उभय दिने त तमामे त परदिन । For Private And Personal Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । शलपक्षे तिथिोति वचनात् एवमक्षय तृतीयादावपि । पाषाढ़ कार्तिकमाघपौर्णमासौषु दानमावश्यकम्। तथाचायोध्याकार भरतशपथे। "पाषाढ़ौ कार्तिको माघी तिथयः पुण्यसम्भवाः । अप्रदानवतोयान्तु यस्यार्योनुमतो गतः ॥ प्रदानवतो दानरहितस्य एतास्तिथयोयान्तु प्रायः! श्रीरामचन्द्रोगतोयस्यानुगत इत्यर्थः । उत्तरवाक्य यच्छब्दात न तच्छब्दापेक्षा। प्रथ कोजागर कत्यम्। कल्पतरौ ब्रह्मपुराणम् “आश्वयुन्या पौर्णमास्यां निकुम्भो बालुकावात्। प्रायाति संनया भाई कत्ला युद्ध सुदारुणम् ॥ तस्मात्तत्र नरैर्मार्गाः खगेहस्य समोपतः। शोधितव्याः प्रयत्नेन भूषितव्याश मण्डनैः । पुष्याध्य फलमूलानसर्षपप्रकरैस्तथा। वेश्मानि भूषितव्यानि मानावर्णविशेषत: । सुसातैरनुलिप्तश्च नरैर्भाव्यं सवान्धवैः । दिवा तत्र न भोक्तव्य मनुष्यैश्च विवेकिभिः॥ स्त्रीबालमुखवृद्धश्च भोलव्य पूजितैः सुरैः” ॥ पूजितैः सुरैरिति विशेषणे तौया तेन पूजितमरित्यर्थः “पूज्याश्च सफलैः पुष्प स्तथा हारोड भित्तयः । हारोपान्ते सुदीप्तस्तु संपूज्यो हव्यवाहनः ॥ यवाक्षततोपेतैस्ता लैश्च सुतर्पितः। संपूजितव्यः पूर्णेन्दुः पयसा पायसेन च ॥ स्कन्दः समायस्कन्दश्च तथा नन्दौ खरो मुनिः। गोमद्भिः सुरभिः पूज्या छागवद्भिहुताशनः ॥ उरववद्भिवरुणो गजव द्भिविनायकः । पूज्यः साखैध रेवन्तो यथा विभवविस्तरैः ॥ ततः पूज्योनिकुम्भोऽपि समांसैस्तिलतण्डुलैः । सगन्धिभितोपेतैः कषराख्यैश्च भूरिभिः ॥ ब्राह्मणान् भोजयित्वा तु भोक्तव्यं मांसवर्जितम्। वडिपार्श्व गर्नेया दृष्ट्या कौड़ाः पृथग्विधाः” ॥ ततश्च हारोड भित्ति हव्यवाहन पूर्णेन्दु सभार्यरुद्र स्कन्द नन्दीश्वरमुनयः सर्वैः पूज्याः । हारोड भित्ति शब्दोऽत्र बहुवचनान्तः नन्दौखरो मुनिरकः । गोमता सुरभिः छागवता हुताशनः मेषवता वरुणः हस्तिमता विनायकः । अखवता रेवन्तः सर्वैरेव निकुम्भः पूज्यः महार्णवे लिङ्गपुराणम् । “पाखिने पौर्णमास्यान्तु चरज्जागरणं निशि । कौमुदी सा समाख्याता कार्या लोक विभूतये॥ कौमुद्यां पूजयेन्न: For Private And Personal Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३६ तिथित स्वम्। मोमिन्द्र मरावते स्थितम्। सुगन्धिनिशिसहेशोऽनोगरणं चरैत्" ॥ तथा "निशौथे वरदा लक्ष्मीः कोजागर्तीति भाषिगौ। तस्मै वित्तं प्रयच्छामि अः कौड़ा करोति यः । नारिके लैचिपिटकैः पितृन् देवान् समचे येत्। बन्धश्च प्रौणयेतेन स्वयं तदशनो भवेत् ॥ पत्र निशौति निशोथ इति चाभिधानात् गत्रिकृमिदम् । ततच “प्रदोषव्यापिनी ग्राह्या तिथिनकवते मदा। प्रदी. षोऽस्तम्यादुई घटिकाहमियते" । इति वत्सवचनात् । यहिन प्रदोषनिशोथोभय व्यापनौ पौर्णमासौ तहिन कोजागरक्कत्यम्। उभयव्यात्यनुगेधात्। यदा तु पूर्वदिने निशोथव्याप्तिः परदिने प्रदोषव्याप्तिस्तदा परेदाम्तत्वत्यम् । प्रधान पूजाकालव्याप्यनुरोधात्। यदा तु पूर्वदिने निशोथव्याप्तिः पदिने न प्रदोषव्याप्तिस्तदा सुतरां पूर्वेास्तत्वात्यम् । “अहः सु तिथयः पुस्या: कर्मानुष्ठानतो दिवा। नतादिवतयोगे तु रात्रियोगो विशिष्यते ॥ इति वचनात् । विवजयेदित्यनुत्तो मत्स्य सूक्ते । “महालक्ष्मयास्तु तुलसी झिण्टिकां काञ्चनन्त था" लक्ष्मीध्यानमादित्य पुराणे। “पाथाक्ष मालिकाम्भोजशृणिभिर्याम्यमोम्ययोः । पनामनस्थां ध्यायेच्च श्रियं त्रैलोक्यमातरम् । गौरवणां सरूपाञ्च सर्वालङ्कारभूषिताम्। रौक्स पद्मव्यग्रकरां वरदां दक्षिणेन तु” ॥ पाशति दक्षिणे पायाच मालाभ्यां वाम पद्माङ्कुशाभ्यां भूषितां वामकर हेमपद्मं दक्षिणकरे वरं दधतौमित्यर्थः । ततः पाद्याभिः संपूज्य “नमस्ते सर्वदेवानां वरदासि हरिप्रिये। या गतिस्त्वत् प्रपन्नानां सा मे भूयात्त्वदर्चनात् ॥ विश्वरूपस्य भाासि पद्म पद्मालये शभे। सर्वतः पाहि मां देवि! महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते ॥ इत्यनेन नत्वा पूजयेत्। इन्द्रध्यानमादित्यपुगणे। "चतुदन्त गजारूढ़ो वज्रपाणिः पुरन्दरः। शचीपतिश्च ध्यातव्यो नानाभरणभूषितः" ॥ पाद्यादिभिः संपूज्य। “विचित्ररावतस्थाय भास्वत् कुलिश पागये। पौलोम्यालिङ्गिताङ्गाय सहस्राक्षाय ते नम:” । इत्यनेन पुष्यालित्रयं दत्त्वा प्रणमेत्। ततः कुवेरः पूज्य इति रुद्रधरः। तं पाद्यादिभिः संपूज्य “धन For Private And Personal Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्वम् । दाय नमस्तुभ्यं निधिपद्माधिपाय च। भवन्तु त्वत् प्रसादान्मे धनधान्यादिसम्यदः ॥ इति पुष्पान्नलिनयं दत्त्वा प्रणमेत् । पत्र सर्वेषां प्रदोषे पूजेति रुद्रधरः। न च निकुम्भपर्यन्तानां पूर्वाह एव पूजनं निरपवादमिति वाय दिवा तत्र न भोक्ताव्यम् इत्युपक्रम्य पूज्याश्च सफलैः परित्यादिना विशिष्य पूजामभिधाय भोक्तव्यमित्यभिधानाद्रानावेव पूजाभोजनेऽवमम्यते। अतएवाशक्तानामेव भोताव्यं पूजितैः सुरैः इत्यभिधानेन विशिष्य दिवापूजनभोजने विहिते। योगिनौतन्त्र । "विरिञ्जेस्तु रहे टक्कां घण्टां लक्ष्मौरहे त्यजेत्। सर्ववाद्यमयों घण्टा वाद्याभावे प्रवादयेत् ॥ लक्ष्मौवाक्य "प्रकीर्णभाण्डामनवेक्ष्य कारिणी सदा च भत्तः प्रतिकूलवादिनीम्। परस्य वेश्माभिरता मलज्जामिव विधां स्त्रों परिवजयामि । मार्कण्डेयः। "शिरः सपुष्प चरणौ सुपूजितौ वराङ्गनासेवनमल्पभोजनम्। अनग्नशायित्वमपर्वमैथुनं चिरप्रनष्टां श्रियमानयन्ति षट् ॥ मानुषास्थि रहे यत्र अहोरात्रन्तु तिष्ठति । तत्रालक्ष्मि तवावासस्तथान्येषान्तु रक्षसाम्। सूर्पदानादिकं यत्र पदाकर्ष तथासनम् ॥ हरिवंशे । “यत्र होः श्रीः स्थिता तत्र यत्र श्रौस्तत्र सन्नतिः। सबतिींस्तथा श्रोश नित्यं कृष्ण महात्मनि" ॥ मत्स्यपुराणम् । “स्थिरोपायो हि पुरुषः स्थिरौरेव जायते। रक्षितुं नैव शक्नोति चपलचपलां श्रियम् ॥ अवश्य सुयोगवतां श्रौरपारा भवेत् सदा। ब्रह्मप्रोत्साहिता देवा ममन्थुः पुनरम्बुधिम्” ॥ कृत्यकौमुद्याम् । "नारिकेलोदकं पौत्वा अर्जागरणं निशि। तस्मै वित्तं प्रयच्छमि को जागर्ति महीतले" ॥ अथ चतुरङ्गम्। अक्षक्रीड़ायां व्यासयुधिष्ठिरसंवादः प्रचरति। युधिष्ठिर उवाच। “अष्टकोष्ठयाञ्च या क्रौड़ा तां में ब्रूहि तपोधन। प्रकर्षेणैव मे नाथ चतूराजी यथा भवेत" ॥ व्यास उवाच । “अष्टौ कोष्ठान् समालिख्य प्रदक्षिण क्रमेण तु । अरुणं पूर्वतः कत्ला दक्षिणे हरितं बलम् ॥ पार्थ ! पश्चिमत: पौतमुत्तरे श्यामलं बलम् । राजो वामे गजं कुर्यात् तस्मादख ततस्तरिम् ॥ कुयात् कौन्तेय पुरतो युद्धे पत्तिचतु For Private And Personal Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तधितषम् । ष्टयम् । कोणे नौकाहितीयेऽख बतौये च गजोवसेत् ॥ तुरीये च वसेद्राजा वटिकाः पुरतः स्थिताः । पञ्चकेन वटौगजा चतुकणैव कुन्नरः । विकेणैव चलत्यवः पार्थ नौकाइयेन तु। कोष्ठमेकं विल वयाथ सर्वतो याति भूपति: ॥ अग्र एव वटौयाति बलं हन्त्यग्रकोणगम्। यथेष्ट कुचरो याति चतुर्दिक्षु महीपते। तिर्यक्तुरङ्गमो याति वियित्वा त्रिकोष्ठ कम् । कोण कोष्ठहयं लङ्घन ब्रजेनौका युधिष्ठिर। सिंहासनं चतूराजी नृपाकष्टञ्च षटपदम् ॥ काककाष्ठं वृहद्रोका मौका कष्ट प्रकारकम्। घाताघाते वटोनौका बलं इन्ति युधिष्ठिर ॥ राजा गजोइयश्चापि त्यवाघातं निहन्ति च । अत्यन्तं स्वबलं रक्षेत् खराज बलमुत्तमम् ॥ अल्पस्य रक्षया पार्थ हन्तव्य बलमुत्त. मम् ॥ नौकायाश्चत्वारि पदानि अवस्याष्टौ पदानि इत्याधिक्य मश्वस्य। “मतङ्गजस्य गगा राजा कौड़ति निर्मरम् । तस्मात् सर्वबलं दत्त्वा रक्ष कौन्तेय कुञ्जरम् ॥ सिंहासनं चतुराजो यदवस्थानतो भवेत्। सर्वसैन्य गजैर्वापि रक्षितव्यो महीपतिः ॥ अन्यद्राजपदं गजा यदा यातो युधिष्ठिर । तदा सिंहासनं तस्य भण्यते नृपसत्तम ॥ राजा च नृपति हवा कुयात् सिंहासनं यदा। हिगुणं वाहयेत् पण्यमन्यथैकगुणं भवेत्” । द्विगुणं पण्य टातयत्वेन प्रापयेत्। “मित्र सिंहासनं पार्थ यदारोहति भूपतिः । तदा मिंहासनं नाम सर्व नयति तबलम् ॥ यदा सिंहासनं कत्तुं गजा षष्ठपदाश्रितः। तदाघातेऽपि हन्तव्यो बलेनापि सुरक्षितः ॥ विद्यमाने नृपे यश्च स्व कोये च नृपत्रयम्। प्राणोति तु यदा तस्य चतूराजौ तदा भवेत् ॥ नृपेणैव नृपं हत्वा चतूगजो यदा भवेत् । हिगुणं वाहयेत् पण्य मन्यथै कगुणं भवेत् ॥ स्वपदस्थं यदा राजा राजानं इन्ति पार्थिव। चतुरङ्गे तदा भूप वाहयेच्च चतुर्गुणम् ॥ यदा सिंहासने काले चतूराजी समुस्थिता । चतूराजी भवत्येव न तु सिंहासनं नृप” ॥ अत्रेदं वौज उभयथा मधेऽपि परसिंहासनाधिकारात् पर राजबधे शौय्याधिक्यनिष्कण्ट कल्वदर्शनात् क्रोडायामपि तथा कल्प्यते। “राजदयं यदा हस्ते प्रात्मनो राशि संस्थिते । परेण संतश्चैको बलेनाप्य For Private And Personal Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्वम् । १३८ पहार्यते ॥ राजदयं यदा हस्ते न स्यादन्यकर परः। तदा राजा हि राजानं घातऽपि तं हनिष्यति ॥ नृपाकटो यदा राजा गमिष्यति युधिष्ठिर। घाताघातेऽपि इन्तव्यो राजा सत्र न रक्षकः ॥ कोणं राजपदं त्यक्त्वा वटिकान्तं यदा व्रजेत् । वटौ च षट्पदं नाम तदा कोष्ठवलं नयेत् ॥ यदा तस्य भवेत् पार्थ चतूराजौ च षट्पदम् । तदापि च चतूराजी भवत्येव न संशयः ॥ पदातेः षट्पदे विडे राजा वा हस्तिना तथा। षट्पदं न भवेत्तस्य अवश्यं शृणु पार्थिव ॥ सप्तमे कोष्ठ के यत् स्याइटिका दशमेन वै। तदान्योन्यच्च इन्तव्यं सुखाय दुर्वलं वलम् ॥ विवटोकस्य कौन्तेय पुरुषस्य कदाचन। षट्पदं न भवत्येव इति गोतमभाषितम्। नौकैका वटिका यस्य विद्यते खेलने यदि। गाढ़ावटौति विख्याता पदं तस्य न दुष्थति" ॥ पदं राज पदं कोणपदच्च। “हस्ते रडेबलं नास्ति काक काष्ठं तदा भवेत। वदन्ति राक्षसा: सर्वे तस्य नस्तो जयाजयो । प्रोस्थिते पञ्चमे राति मृते वयाच षट्पदे। प्रशौचं स्यात्तदा इन्ति चलित्वा चालितं बलम् । हिरावृत्त्यागते तस्मात् हन्यात् परबलं जयो। पार्थ सिंहासने काले काककाष्ठं यदा भवेत्॥ सिंहासनं भवत्येव काककाष्ठं न भण्यते। उपरिष्टञ्च यत् स्थानं तस्योपरि चतुष्टये। नौकाचतुष्टयं यत्र क्रियते तस्य नौकया। नौकाचतुष्टयं तस्य हहबोकेति भण्य ते। न कुर्य्यादेकदा राजन् गजस्या. भिमुखं गजम् ॥ यदि कुर्वीत धर्मानः पापग्रस्तो भविष्यति। स्थानाभावे यदा पार्थ इस्तिसंमुखम् ॥ करिष्यति तदा राजन् इति गोतमभाषितम् । प्राप्ते गजइये राजन् हन्तव्योवामतो गजः” ॥ इति चतुरङ्गकौड़नम्।। वैष्णवामृते स्कन्दपुराणम् । “पौष्यान्तु समतीतायां यावत् भवति पूर्णिमा । माघमासस्य देवेन्द्र पूजा विष्णो विधीवते। इति पौर्णमास्य न्तमाघमुपक्रम्य "पितृणां देवतानाञ्च खून कं नैव दापयेत् । दत्त्वा नरकमाप्नोति भुञ्जीत ब्राह्मणो याद । ब्राह्मणो मूलकं भुक्ता चरेञ्चान्द्रायणं व्रतम् । अन्यथा नरकं याति चवविटशूद्र एव च। वरं भूनामभच्य न्तु पिवेहा For Private And Personal Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४० तिथितत्त्वम् । गहितञ्च यत्। वजनौयं प्रयत्नेन मूलकं मदिरा. समम् ॥ ___ फाल्गुनपौर्णमास्यां दोलयात्रामाह कत्यचिन्तामणी ब्रह्मपुराणम् । “नरो दोलागतं दृष्ट्वा गोविन्द पुरुषोत्तमम् । फाल्गुन्यां संयतो भूत्वा गोविन्दस्य पुरं व्रजेत् ॥ स्कन्दपुरागीय पुरुषोत्तममाहात्मो जनत्रिंशाध्याये। “फालगुन्यां कौड़नं कु-होलायां मम भूमि प” ॥ विष्णुपुराणे। “चतु. दश्यष्टमोचैव अमावस्याथ पूर्णिमा पर्वाण्येतानि राजेन्द्र रविसंक्रान्तिरेव च। स्त्रोतल मांससम्भोगी पर्वस्खेतेषु वै पुमान्। विगमनभोजनं नाम प्रयाति नरकं मृतः ॥ अथ रविसंक्रान्तिः। भविष्यमात्स्यज्योतिषष। “मृगकर्कट संक्रान्तौ हेतूदक् दक्षिणायणे। विषवती तुलामषे गोलमध्ये तथापरा:” । मृगो मकरः गोलोराशिचक्रम् । "धनुर्मिथुनकन्यासु मौने च षडशीतयः। वृष वृश्चिक सिंहष कुम्भे विष्णु पदौ समता" देवी पुगणम्। "यावहिंशकला. भुक्ता तत्पुण्य चोत्तरायणे। निरंशे भास्करे दृष्टे दिनान्तं दक्षिणायने ॥ अईराने त्वसंपूर्ण दिवापुण्यमनागतम। आईरात्रे व्यतीते तु विज्ञेयं चापरेऽहनि ॥ संपूर्णचाईराने च उदयेस्तामयेऽपि वा। मानाई भास्करे पुण्यमपूर्णे शर्वरोदले । संपूर्ण तूभयोर्जेयमतिरेके परेऽहनि। षडशौतिमुखेतीते वृत्ते च विषुवदये ॥ भविष्यत्ययने पुण्यमतीते चोत्तरायणे । पादौ पुण्य विजानीयात् यद्यभिन्ना तिथिर्भवेत् ॥ विंशकला विंशतितमौ कला संक्रान्तिक्षणाव यावत् भवति तावत् पुण्यम्। निरंशेऽशकशून्ये संक्रान्तिकाले हि भास्करोऽशकरहितो भवति तस्मिन् दृष्टे दिवेति यावत् दिनच्च दिनकरकरसंस्कृता स्त्रिंशबाडिका इति ज्योतिर्विदः । तदन्तं तत् समाप्तिं यावत् तावत् पुण्यम् । तथा च वृहहशिष्ठः "त्रिंशत् कर्कटे नाड्योमकरे विंशतिः स्मृताः ॥ नाड़ी दण्डः । "उत्पलादिपलं षष्ट्या विपलात्तु पलं नयेत्। पलात् षष्ट्या नयेबाड़ों तत् षड्यातु वेर्दिनम् ॥ इति सिद्धान्तसन्दर्भात्। ततश्व देवीपुराण वृहदशिष्ठयोरेकवाक्यतया कलानाद्योः पायता। For Private And Personal Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । १४१ राविसंक्रमगत्वा अईगत्विति अरूंपूर्णे कलान्य नार्थगये। “कलान्यूनाई रात तु यदि संक्रमण भवेत्। तदहः पुखमिच्छन्ति गाग्य गालवगोतमा: । इति कत्यांचन्तामग्नि वर्षकत्यकृतगगद च नात् । कालको मुद्याश्च । गालवेत्यत्र हागैत इति पाठः। ततश्च कलान्य नाईवाभ्यन्तरी हादश खेव मंक्रान्तिष अनागतं नागतं संक्रमणेन यत्र दिवा तदेव पुण्यं पुण्यमनकं तत्त पूर्वदिनं तदैव संक्रान्तेरनागतत्वमभवात् सेन संक्रमणकालादगिव दिवा पगई नानादिकं कर्तव्य. मित्ययः। अईगो व्यतीते कलाधिकाईगत्रे व्यतीत । पूर्णेऽईराव रात्रिमध्य कानयोः। कलान्य नागविति वचनानन्तरं भुजवल भौमे “बईगत्रे कलाधिक्य यदा संक्र. मते रविः। तदोत्तरदिनं ग्राह्यं स्नानदानजपादिषु। आईरावे तु संपूर्णे यदा संक्रमते रविः । प्राहुर्दिन दयं पुण्यं त्यका मकरकर्कटो” इति वचनाभ्यां तथा प्रतीतेः। कालविवेके काल कोमुद्याञ्च शातात पजाबालो “पूर्ण चेदईगो तु विसंक्रमां भवेत् । प्राहुर्दिनदयं पुण्यं त्यत्वा मकर कर्कटो" । एतयोयवस्थामाह कालमाधवौये भविष्योत्तरम्। “मिथुनात् ककिसंक्रान्तियदि स्यादेशमालिनः। प्रदोष वा निशौथे वा कुर्य्यादहनि पूर्वतः ॥ कार्मुकच्च परित्यज्य झषं संक्रमते रविः। प्रभाते वाई रात्र वा स्नानं कुर्यात् परेऽहनि* ॥ ततश्च गत्रिमध्यदण्ड हयात्मकाई रात्रसंक्रान्तावदयेऽस्तमयेऽपि वेत्य ननोदयोपक्रममस्तमयान्त मानाई पुण्यम् । एवञ्चोभयदिने पुण्यकाले पूर्वदिनाकरण एव परदिने “खःकार्यमद्य कर्तव्यं पूर्वा चापराह्निकम्। न हि प्रतीक्षते मृत्युः कृतमस्य नवा कृतम् ॥ इति लिङ्गपुराणात् मोक्षधर्माच्च। तत्रापि दक्षिपायने पूर्वदिनाई मामिति विशेषः । उत्तरायणे परदिनाई मात्रमिति विशेषः । मानाई मिति भास्करे भास्कगेपलक्षिते काले दिवेति यावत् तस्मिन् संक्रमणेऽपि मानाई पुण्यम् एतच्च विषुवषडशौति विषयम्। अयन कालयोः पूर्वमुक्तत्वात् विष्णु पद्याश्चोभयतः षोडश कलानां पञ्चदशनाडिकानां वा पुण्यत्वस्य घातातपादिवचनेन वक्ष्यमाणत्वात्। तेन दिवा For Private And Personal Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४२ तिथितत्त्वम् । संक्रमण एवायनादित्वेन पुण्यकाले विशेषः। रात्रिसंक्रमणे तु अई रात्रौय मकरकर्कट संक्रमणव्यतिरिक्त सर्वेषां तुल्यतेति । अपूर्णे शवरौदले कलान्यूनाई रात्रे इत्यत्रापि मानाईमित्वनुषज्यते। दिवापुमिति यत्प्रागुक्त पत्र तदेव मानाईवेन विशेषितमित्यपुनरुक्तिः। एवमुदयास्तमये यन्मानाई - मुक्त तत् किमेकदिने दिनयोर्वेति तत्राह संपूर्णेतूभयोरिति उभयोः पूर्वा परदिनयोर्मानाई पुण्यं तेन पूर्वदिनस्यास्तमयपर्यन्त परदिनस्य 'उदयमारभ्य मानाई पुण्यमित्यर्थः । अतिरेके अईराचात् परतः संक्रमणे परेऽहनि मानाई पुण्यमित्यनुष ज्यते । मानाईन्तु प्रहरदयम् “अईराबादधस्तस्मिन् मध्याहस्योपरिक्रिया। जडं संक्रमणे भानोरुदयात् प्रहरइयम्। पूर्णाई रात्रसंक्रान्तौ हे दिना तु पुण्यदे" । इति संवत्सरप्रदीप गङ्गावाक्याबलोत वशिष्ठमोरधर्मवचनै कवाक्यत्वात् "ग्रईराबादधश्चैव दिनाई स्योपरिक्रिया। ऊर्द्ध संक्रमणे भानोरुदयात् प्रहरहयम्” ॥ इति भोजराज कल्यचिन्ता. मणिहतैकवाक्यत्वाच्च । अधः पूर्वम् अड्डे परत: क्रिया नानादिका। एवञ्च गर्गवचनस्थ तदहरिति यामदयपरम् अन्यथा मूलभूत अत्यन्तरकल्पनापत्तेः। एवञ्च षड़शौतिमुखे तोते इत्याटि दिवा संक्रमणविषयम्। तेन दिवा षड़शौति संक्रमणे भूते भविषन्मानाई पुण्यम् एवं विषुवहयेऽपि। दिवोतरायणेऽपि भविष्यबिंशतिदण्डानां पुण्यत्वम् अनोत्तरायणस्य पृथगभिधानात् अयन इति पदं दक्षिणायनपर गोवलौवद्द. न्यायात् तेन दिवा दक्षिणायने भविथति भूतत्रिशद्दण्डानां पुण्यत्वम् एवच्च षड़शोत्यादिष्वप्यवकाशमलभमानम् “अर्वाक् षोडश विज्ञेया नाड़ाः पश्चाञ्च षोड़श काल: पुण्योऽक संक्रान्तर्वि हद्भिः परिकौतित:" ॥ इति शातातपोयम् । "प्रतीतानागतोभोगोनाडाः पञ्चदश स्मृताः। इति देवीपुराणौयञ्च वचनं दिवा विष्णु पदौविषयम्। अतएव जाबालि वृशिष्ठो “पुण्यायां विष्ण पद्याञ्च प्राक् पश्चादपि षोड़श” ॥ अईगो विशेषमाह बादावित्यादि भईराचसक्रान्तावादी पूर्वदिन एव मानाई यद्यभिवा संक्रान्ति काले पूर्वदिने च For Private And Personal Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । १४३ एकव तिथिर्भवेत् तेन मध्यरात्रे संक्रमणे यदुमय दिनमामाई पुण्यमुक्त तनितिथिविषयम्। अौते पुनरईराचे पूर्वेणाझा तिथ्यभेदेऽपि परस्यैव पूर्वाई' पुण्यमिति तात्य ार्थः। एवञ्च रात्रिसंक्रान्तो दिन एव पूण्यत्वाभिधानात् । "राहुदर्शनमंक्रान्ति विवाहात्ययवृद्धिषु। सानदानादिक कुय्यनिशि काम्यव्रतेषु च ॥ इति देवलेन दिन संक्रमणस्य राविप्रविष्ट पुण्य कालांशे संक्रान्तिनिमित्तेन स्नानदानादि विधीयते इति। यत्तु “मन्दा मन्दाकिनौवांक्षी घोराचैव महोदरौ। राक्षसौ मिश्रिता प्रोक्ता संक्रान्तिः सप्तधा नृप। मन्दा ध्रवेषु विज्ञेया मृदौ मन्दाकिनी तथा ॥ क्षिप्रे ध्वांक्षी विजानौयादुग्रेघोरा प्रकीर्तिता। चरैर्महोदरौ जया करैऋक्षव राक्षसौ। मिश्रिता चैव विज्ञ या मिश्रितक्षय संक्रम" ॥ इत्येत्यैर्दादशस्खेव संक्रान्तिष ध्रवादि नक्षत्रयोगा. मन्दादिरूपतया सप्तधा भिन्नासु। “त्रिचतुः पञ्चसप्ताष्ट नव हादश एव च। क्रमेण घटिका तास्तत् पुण्य पारमार्थिकम्” ॥ इति देवीपुराण एव त्रिचतुरादिघटिकानां पुण्यत्व. मुत्रम् तद्दिवारानमोस्तत्तकालोपदेशादवकाशमलभमानं सध्यादयसंक्रान्ति विषय मिति समयप्रकाशः। ध्रुवादिगणस्तु दौपिकायाम् “उग्रः पूर्व मधान्तका ध्रुवगण स्त्रीण्य त्तराणि वभूतादित्य हारत्रयं चरगणः पुथाखि हस्तालधुः । चित्रामित्रमृगान्त्यमं मृदुगणस्तौक्षणोहि स्ट्रेन्द्रयुक् मिश्रोऽग्निः स विशाखभः शुभफलाः सर्वेखकत्ये गणा:"॥ अन्तको भरणी स्वभू रोहिणी वातादित्य हरिवयं खातौपुनर्वसु श्रवणा धनिष्ठा शतभिषा मित्र मृगान्त्यभम् अनुराधा मृगोशिरोरेवत्यः। अहिरुद्रे न्द्रयुक् अश्लेषा पार्दा ज्येष्ठा मूला: अग्निः कृत्तिका। कल्पतरुस्तु क्रमेण यथासंख्येन एता घटिकास्तत् पुण्यं तस्य संक्रमणस्य पुण्यहेतुत्वात् पुण्यं पारमार्थिक मुख्यं “तुटेः सहस्र भागोयः स कालो रविसंक्रमः" ॥ इत्युक्तासूक्ष्म संक्रमकालौनानुष्ठानजन्य समपुण्य हेतव इत्याह । चुटिस्तु "लघुक्षर चतुर्भाग स्तुरिरित्यभिधीयते। चुटिहयं नवः प्रोतो निमेषन्तु लवदयम् ॥ इति स्म त्यु का पतदेव For Private And Personal Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४४ तिथितत्त्वम् । " यथा मतं युक्तम् अतएव देवलेन " या याः सन्निहिता नाडा स्ता स्ताः पुण्यतमाः स्मृताः ॥ इत्युक्तम् । एवञ्चैता घटिका पुण्यतमाः मानार्द्धादिकन्तु पुण्यमाचमिति तखान्मन्देत्यादि पान्मन्देत्यादि न सन्ख्यासंक्रान्तिविषयकमिति सन्ध्यासक्रान्तिविषयत्वं पारमार्थिकमित्यनुपपत्तेः पुष्यमित्यनेनैव सिद्धेः । पारमार्थिकमित्यव कल्पतरु व्याख्यानवलोकनाद्रविसंक्रम इति पाठकल्पनं कल्पनमेव समयप्रकाशकृतापि तथा पठितत्वात् । नौमूतवाहनोऽपि कालविवेके "पह्निमंक्रमणे पुण्य महः कृत्स्नं प्रकीर्त्ति तम् । रात्रौ संक्रमणे भानोदिनाई खानदानयोः " ॥ इति वृहद्दशिष्ठादिवचन पर्यालोचनया दिवासंक्रान्ती दिनमात्र पुण्य पुण्यतरास्तु विशेष विहितानाट्य इत्याह । श्रतएव तत जावालिवृहस्पतिशातातपवचनमपि संगच्छते । "वत्तमाने तुला मेषे नाड्य स्तभयतोदशः " । कालमाधवोयेऽपि प्रत्यभिधाय प्राशस्त्यतारतम्यमुक्तम् । एवञ्च दिवासंक्रान्तौ कृत्स्र दिनं पुण्य षडशीतिमुखेऽतीते इति वचनं पुण्यतर परम् । ननु देवीपुराणे दिवारात्रयोः संक्रणे विशिष्य कालाभिधानात् सन्ख्यासंक्रान्तेः कः काल इति चेत् "विशन्तं कथित महोगवन्तु यन्मया* ॥ इति विष्णुपुराणेन सन्ध्ययोः पृथगनुपादानात् दिवारात्रि सम्बन्धित्वान्महर्त्तार्द्धन तयोरन्तर्भावः । तथा च दक्षः "अहोरात्रस्य यः सन्धिः सूय्र्यनचववर्जितः । सा तु सन्ध्या समाख्याता मुनिभिस्तत्त्वदर्शिभिः” ॥ योगियाज्ञवल्काः । "ast च सततं दिनरात्रयोर्यथाक्रमम् । सन्ध्यामुर्त्तमाख्याता सहषौ समास्मता” H वराह: " अर्थास्तमयात् सन्ध्या व्यक्तौभूता न तारका यावत् । तेज: परिहानिरुषा भानोरर्थोदयं यावत्" | अतएव केनापि मुनिना नानादेशौय संग्रकारेण च सन्ध्यासंक्रान्तित्वेन विशेषो नाभिहितः । · For Private And Personal Use Only · } तदयं संचेपः । दिनसंक्रमणे कृत्स' दिनं पुण्य ं षडशीति मुखे इत्यायुक्तं पुण्यतरं मन्दा मन्दाकिनीत्यादि रूपेण विचतुरादि घटिकाः पुचप्रतमाः । दिनहत्तोत्तरायणादिवि हित विप्रति दण्डादीनां रात्रिप्रविष्टभागस्यापि प्रपात्वं Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । १४५ रात्रि संक्रमणे तु कस्यान्यून प्रथमार्धगते तद्दिवसीय शेषयाम - इयं पुष्यम् । कालाद्दयात्मक मध्यरात्रगते तद्दिवसीय तिथेरभेदे तविसौय शेषयामद्दयं पुण्यं भेदे तु तद्दिवसीय शेषयामध्यं परादवसौयाद्ययामद्दयञ्च पुण्यम् उभयदिने पुण्यकालेऽपि पूर्वदिनाकरण एव परदिने तद्दिहितं कार्यम् । तिथिभेदाभेदयोर्दचिणायने तद्दिवसौय शेषयामद्दयम् उत्तरायणे तु परदिवसीयाद्य यामद्दयं पुण्यमिति मध्यरात्रीयकलोत्तरशेष ईराव संक्रमणमात्रे तु परदिनाद्य यामद्दयं पुण्यमिति सन्ध्यासंक्रमणे तु दिनदण्डे दिनस्य रात्रिदण्ड रावेर्व्यवस्थितिः । ब्रह्मपुराणे । “ शुक्लपचे तु सप्तम्यां यदा संक्रमते रविः । महाजया तदा प्रोक्ता सप्तमी भास्करप्रिया ॥ स्नानं दानं तपो होमः पिवदेवाभिपूजनम् । सर्वं कोटिगुणं प्रोक्तं तपनेन महौजसा ।" व " मासपचतिथौनाञ्च निमित्ताञ्च सर्वशः" इत्यनेन प्राप्त तिष्य लेखे तद्विशेषणत्वेन महाजयेत्युलेख्य ं संज्ञा विधेरेतदेव प्रयोजनं यत्तया निर्देश इत्युक्तत्वात् एवच्च संक्रान्तिविशेषस्य निमित्तत्वेन प्राप्तौ विषुवाद्युल्लेखो ऽपि । स्कान्दे “ एकान्ततो मया प्रोक्ताः कालाः संक्रान्तिसंज्ञकाः । नैतेषु विद्यतेऽनिष्टं यतश्चाचयसंज्ञिताः ॥ श्रश्रद्दयापि यद्दत्तं कुपात्रेभ्योऽपि मानवैः । प्रकालेऽपि हि तत्सर्वं सत्यमचयतां व्रजेत्” ॥ मात्स्य । " अयने कोटिगुणितं लक्षं विष्णुपदौषु च । षड़शौति सहस्रन्तु षड़शौत्या मुदाहृतम् । शतमिन्दुच्चये पुण्यं सहस्रन्तु दिनचये । विषुवे शतसाहस्र माकामावेष्वनन्तकम् " ॥ श्रकानावैषु श्राषाढ़ो कात्तिकौ माघी वैशाख पूर्णिमासु । देवौपुराणे । “रविसंक्रमणे पुण्य े न स्नायादयस्तु मानवः । सप्तजन्मस्वसौ रोगो निर्धनोपजायते” ॥ दौपिकायाम् । " नाड़ीनचव दिवसे रविभौम शनैश्वराः । संक्रान्तिं यस्य कुर्वन्ति तस्य क्क़ शोऽभि जायते ॥ गोमूत्र सर्षपैः खानं सर्वोषधिजलेन च । विशुद्द काञ्चनं दद्यान्नाड़ौदोषोपशान्तये ॥ नाड़ीनक्षत्राणिचाद्य दश षोड़शाष्टादश वयोविंशति पञ्चविंशतयः । रत्नमालायाम् । १२ For Private And Personal Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १४६ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् 2 “तारावलादिन्दुरथेन्दुवौर्य्याद्दिवाकरः संक्रममाण उक्तः । ग्रहाय सर्वे सवितुर्वलेन महौसुताद्याः क्रमशः प्रशस्ताः ॥ संप्रदीपे “धुस्रवोजसलिलैः स्रायात् संक्रान्तिशान्तये । तथा सर्वोषधीभिव विष्णुमन्त्रांश्च संजपेत् ॥ यदहि मेषसंक्रान्ति स्तुलासंक्रमणं निशि । तदा प्रजा विवर्द्धन्ते धनधान्यसमृद्धिभिः । कुजाक शनिवारेण महासंक्रमणं यदा । तदा भवेत् प्रजानाशो दुर्भिर्चादिभ्यं महत् ॥ ब्रह्मवैवर्ते । “अप्राप्ते भास्करे कन्यां शेषभूतैस्त्रिभिर्दिनैः । अर्घ्यं दद्युरस्त्याय गौड़ देशनिवासिनः " ॥ भौमपराक्रमे । "यस्तु भाद्रपदस्यान्ते उदिते कलसोद्भवे । अर्घ्यं दद्यादग स्थाय सर्वान् कामान् लभेत सः ॥ नारसिंहे । “शङ्ख तोयं विनिःक्षिप्य सितपुष्पाक्षतैर्युतम् । मन्त्रेणानेन वै दद्यादचि याशा मुखस्थितः ॥ काशपुष्पप्रतीकाश ! अग्निमारुत सम्भव ! | मित्रावरुणयोः पुत्र ! कुम्भयोने! नमोऽस्तु ते ॥ प्रार्थन मन्त्रस्तु । "आता पिचितो येन वातापिश्च महासुरः । समुद्रः शोषितो येन स मेऽगस्त्यः प्रसीदतु " ॥ गन्धादिकन्तु अगस्त्याय नम इति दातव्यं विशेषानुपदेशेन सामान्यतः प्राप्तत्वात् । दक्षिणाशामुखस्थित इति गन्धादावपि । प्रयोगाङ्ग कर्त्तृधर्मत्वादिति रत्नाकरः । नारदीयं " न मात्स्य भक्षयेन्मांसं न कोर्मं नान्यदेवहि । चण्डालो जायते राजन् ! कार्त्तिके मांसभक्षणात् ॥ महाभारते । "कौमुदन्तु विशेषेण शुक्लपक्षं नराधिप ! | वजयेत् सर्वमांसानि धर्मोद्यत्र विधीयते” ॥ कौमुदं कार्त्ति कम् । कार्त्तिकमधिकृत्य ब्रह्मपुराणम् "एकादश्यादिषु तथा तासु पञ्चसु रात्रिषु । दिने दिने च स्नातव्य शौतलासु नदीषु च । बर्जितव्या तथा हिंसा मांसभक्षणमेव च ॥ ततख मांसभक्षणनिषेधे कार्त्तिक मास तच्छुक्लपच तदेकादश्यादिपञ्च दिनानि शाशक्तभेदात् पापतारतम्याद्वा निषिधानि । ब्रह्माण्डे “दामोदराय नभसि तुलायां लोलया सह । प्रदीपन्ते प्रयच्छामि नमोऽनन्ताय वेधसे" || लोलया लक्ष्म " इति मन्त्रेण यो दद्यात् प्रदीपं सर्पिरादिना । आकाशे मण्ड्पे वापि सचाच्चयफलं लभेत् ॥ विष्णु वेश्मनि यो दद्यात् For Private And Personal Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । १४७ कार्त्तिके मासि दौपकम् । अग्निष्टोम सहस्रस्य फलं प्राप्नोति मानव:" ॥ नारदोये । "निष्पावानाजमाषाश्च सुप्ते देवे जनार्दने । यो भक्षयति राजेन्द्र ! चाण्डालादधिको हिसः ॥ कार्त्तिके तु विशेषेण राजमाषांश्च वर्जयेत् । निष्पावान्मुनिमाईल ! यावदाहृतनारको । कदम्बानि पटोलानि वृन्ताक - सहितानि च । न त्यजेत् कार्त्तिके मासि यावदाहतनारकौ ॥ एतानि भचयेद्यस्तु सुप्त देवे जनाईने । शतजन्मार्जितं पुण्यं दहते नात्र संशयः " ॥ निष्यावः शिम्बोसहगो दक्षिणापथे प्रसिद्द इति कल्पतरुः । कदम्बादौनि फलानि नपुंसक निर्देशात् कदम्बानीत्यत्र कलम्बानौति केचित् पठन्ति कलम्बौत्वेन प्रसिद्धानौति व्याचचते च आहतभारको श्राइतानि क्ष्मादिपर्यन्तानि प्रलयावधौति यावत् तावत्कालं नारकौत्यर्थः । श्राहत इत्यत्र भकारस्य हकार छान्दसः । काशीखण्ड । "ऊर्जे यवान्नमश्नीयादेकान्नमथवा पुनः । वृन्ताकं शूरणञ्चैव शूकशिम्बौञ्च वर्जयेत् । कात्तिके वर्जयेत् तैलं कार्त्तिके वर्जयेन्मधु । कार्त्तिके वर्जये कांस्य कार्त्तिके मासि सचितम् ॥ ऊर्जे कार्त्तिके । शूरण मोलं सन्धितमासवादि । गारुड़े । " गवामयुतदानेन यत्फलं लभते खग ! | तुलसीपत्र केकेन तत्फलं कार्त्तिके स्मृतम्” ॥ भोमनाथष्टतम् । “विहाय सर्वपुष्पाणि मुनिपुष्पेण केशवम् । कार्त्तिक योऽयेत्या वाजिमेधफलं लभेत् ॥ पद्मपुराणम् । “ तुलाम करमेषेषु प्रातः स्नानं विधोयते । हविष्यं ब्रह्मचर्यव महापातकनाशनम्” ॥ पितामहः । " कार्त्तिकस्य तु यत् नानं माघे मासि विशेषतः । कृच्छ्रादि नियमानाञ्च चान्द्रमानप्रमाणतः ॥ प्राभ्यां कात्तिकादिस्राने सौरचान्द्रयोर्विकल्पेनानुष्ठानम् । मदनपारिजातष्टतविष्णुवचनम् । “दर्श वा वा पौर्णमासीं वा प्रारभ्य स्नानमाचरेत् । पुण्यान्यहानि विंशत्तु मकरस्थे दिवाकरे” ॥ दर्श पौर्णमासौमिति पूर्वदिनमङ्कल्प परमिति नारायणोपाध्यायाः । वैष्णवामृते तु भविष्यपुराणवचनम् । " गवामईप्रसूतानां लक्षं दत्त्वा तु यत् फलम । तत्फलम् लभते राजन् ! मेषे स्नात्वातु जाह्नवीम् ॥ कार्त्तिके For Private And Personal Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४८ तिथितत्त्वम्। मन्त्रस्तु “कार्तिकेऽहं करिष्यामि प्रातःस्रानं मनाई न !। प्रीत्यर्थं तब देवेश ! दामोदर ! मया सह । मया लक्ष्मया। राजमार्तण्ड। “य इच्छहिपुलान् भोगान् चन्द्रसूर्य ग्रहोपमान्। कार्तिके सकले मासि प्रात:नायो भवेत् सदा ॥ पाझे। “स्वर्गलोके चिरं वासो येषां मनसि वर्चते। यत्र कापि जले तैस्तु नातव्यं मृग भास्करे" ॥ सगो मृगास्वत्वेन मकरस्तत्स्थे भास्करे। “प्रायुरारोग्यसम्पत्ती रूपे सुभगतागुणे। येषां मनोरथास्ते तु न त्याज्य माघमजनम् । दारि पापदौर्भाग्यपङ्गप्रक्षालनाय वै। माघमानाबचान्योऽस्ति उपायो नरसत्तम !॥ मकरस्थे रवौ यो नि खात्यनुदिते रवौ। कथं पापैः प्रमुच्येत कथं स त्रिदिवं व्रजेत् ॥ अकामो वा सकामो वा यत्र कापि वहिर्जले"। इह चामुत्र दुःखानि माघमायो न पश्यति ॥ यत्तु “माघे मासि रटनस्थापः किञ्चिदभ्युदिते रवी। ब्रह्मघ्नमपि चाहालं कं पतन्तं पुनी महे" ॥ इति पद्मपुराणे किश्चिदम्युदिते रवावित्युक्तं तत्प्रात:मानकालोतरावधिरूपपरम्। प्रागुप्ता स्तमयात् सध्येति वचनात् । अतएव “यो माघमास्युषसि सूर्य कराभिताम् स्नानं समाचरति चारुनदीप्रवाहे। उदृत्य सप्तपुरुषान् पिटमाटवंश्यान् स्वर्ग प्रयात्यमरदेहधरो नरोऽसौ" ॥ इत्यत्र उषसौत्यभिधाय सूर्य कराभि ताम्र इत्युक्तं सूर्योदयात् प्रागपि तत्करसम्भवात् न तु सूर्याभिताम्र इत्युक्तम् । गारड़े। “गङ्ग येऽत्रावगाहन्त माधे मासि नराधिप!। चतुर्युगसहस्रं ते न पतन्ति सुरालयात्। दिनदिने सहसन्तु सवर्णानां विशाम्पते।। तेन दत्तं हि गङ्गायां यो माघे नाति मानवः । विधिमाह पाझे। “माघमासमिमं पुण्यं साम्यहं देव ! माधव ! तीर्थस्यास्य जले नित्यं प्रसौद भगवन् हरे !। दुःख दारिद्रनाशाय श्रीविष्णोस्तोषणाय च ॥ प्रातःस्नानं करोम्यद्य माधे पापप्रणाशनम्। मकरस्थे रवी साधे गोविन्दाच्य तमाधव !! स्नानेनानेन मे देव ! यथोक्त फलदो भव। एतम्मन्नं समुच्चार्य सायान्मौनं समाश्रितः ॥ वासुदेवं हरिं कृष्णं बौधरञ्च स्मरेततः । दिवाकर ! जगन्नाथ ! प्रभाकर ! नमोऽस्तु ते। परिपूर्ण For Private And Personal Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । कुरुष्वेदं माघस्नानं महाव्रतम् ॥ चान्द्र खाने तु मकराकपृष्टकाले मकरस्थे रवाविति मन्त्रन्तु न पाठः श्रसमवेतार्थ त्वात् प्रारब्ध कार्त्तिकादि खाने तु व्याध्यादिना सामर्थ्याभावे पुत्रादि प्रतिनिधिना कारयितव्य नानुकल्पविधिना नित्यस्नान एव feधानादिति विद्याकरः । स्कन्दपुराणम्। संप्राप्ते मकरादित्ये पुण्य पुण्य प्रदे सदा । कर्त्तव्यो नियमः कश्चित् व्रतरूपौ नरोत्तमैः” ॥ षट्विंशन्मत निगमौ । “संक्रान्त्यां पञ्चदश्याच्च दादश्यां श्राद्धवासरे । वस्त्रं न पौड़येत् तत्र न च चारेण योजयेत्। संक्रान्त्याञ्च त्रयोदश्यां पचान्ते नवमीदिने । सप्तम्यां रविवारे च स्नान मामलकैस्त्यजेत् ” ॥ शातातपः । " रविवारेऽर्क संक्रान्त्यां षष्ठयां वै सप्तमौतिथौ । भारोग्य कामस्तु नरो निम्बपत्रं न भक्षयेत्” ॥ " कृत्यचिन्तामणौ गुणिसर्वखे च । “ चैत्रे मासि च संपूज्यो घण्टाकर्णो घटात्मकः । श्रारोग्याय स्रुद्दमूलं संक्रान्त्यां तत्र कारयेत्” ॥ पूजामन्त्रः । " घण्टाकर्ण ! महावीर ! सर्वव्याधिविनाशन !। विस्फोटक भये प्राप्ते रक्ष रक्ष महावल ! " ॥ शिवपुराणे । “घण्टाकर्णो गयः श्रीमान् शिवस्यातीव वल्लभः ॥ कृत्यचिन्तामणो “मसूरं निम्बपत्रञ्च योऽत्ति मेषगते रवौ । अपि शेषान्वितस्तस्य तक्षकः किं करिष्यति” ॥ संवत्सर प्रदीपे तूत्तरार्द्ध " मेषस्थे च विधौ तस्य नास्त्यब्दं विषजं भयम् इति स्मृतिः । “मेषादौ शक्तवो देया वारिपूर्णा च गगरौ” ॥ वारिदाने मन्त्रः । " एष धर्मघटोदत्तो ब्रह्मविष्णुशिवात्मकः । श्रस्यप्रदानात् सफला मम सन्तु मनोरथाः । वैशाखे यो घटं पूर्ण सभोज्य वै द्विजन्मने । ददात्यभुक्ता राजेन्द्र ! स याति परमां गतिम् ॥ पूर्ण जलेनेति शेषः । महार्णवे । “यो ददाति हि मेषादौ शक्तूनाम्बुघटान्वितान् । पितृनुद्दिश्य विप्रेभ्यः सर्वपापैः प्रमुच्यते । विप्रेभ्यः पादुके छत्रं पितृभ्यो विषुवे शुभं” ॥ पितृभ्यः पितृनुद्दिश्य इत्यर्थः । श्रत्र विषुवस्य पुण्यविशेषजनक - त्वेन विवचितत्वात् मेषादाविति विषुवसंक्रान्ति पुण्य कालपरम् । अन्यथा कालद्दयकल्पनापत्तेः । कर्मोपदेशिन्यां व्यासः । 'संक्रान्त्यां पक्षयोरन्ते द्वादश्यां श्राद्धवासरे । सायं सन्ध्यां न 44 For Private And Personal Use Only १४८. Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५० तथितत्त्वम् । कुर्वीत कृते च पिटहा भवेत् ॥ देवीपुराण। अतीताना. गतो भोगो नाड्य: पञ्चदश स्मृताः। सान्निध्यन्तु भवेत् तत्र ग्रहाणां संक्रमे रवेः। पुण्य पाप विभागेन फलं देवो प्रय. च्छति ॥ भोगः पुण्यपापजननयोग्य कालः पुण्यपापविवेचने विश्वामित्रः। “यमार्याः क्रियमाणं हि संक्रान्त्यागमवे. दिभिः। सधर्मोयं विगर्हन्ति तमधर्म प्रचक्षते ॥ भागमवेदिभिः क्रियमाणमिति सम्बन्धः। तान्त्रिकास्तु। “विहित क्रियया साध्योधर्म: पंसोगुणो मतः। प्रतिषिद्धक्रियासाध्यः सगुणो धर्म उच्यते” ॥ अवैकस्मिन्नेव काले पुण्यपापफलदानदर्शनात् । संक्रमण पुण्य काल एव स्नानादिवत्तैलादित्यागः । एवमेव गुरुचरणाः एकादशी प्रकरणोक्त संक्रान्त्य पवासस्य व्रतस्वेन भावरूपत्वाद्भावघटितवाहोभयथापि तत्र पूज्य विधेवे. त्तिरित्यनेन पुण्य काल युक्ताहोरात्र कत्र्तव्यता अष्टम्यपवासवत् । एकादशोतत्त्व एतद्द हुधा विमृष्टम् एवञ्च रात्रिप्रागई संक्रान्ती दिवा शेषाई मात्रस्य तत्पुण्य कालत्वाद्रात्रिमुहर्ताई सायं सन्ध्योपासनं कार्यमेव । ब्रह्मपुराण । “नित्यं योग्यनयोनित्यं विषवतोईयोः। चन्द्रायोग्रहगयोव्यतीपातष पर्वसु । अहोरात्रोषितः स्नानं थाई दानं तथा जपम् । यः करोति प्रसन्नात्मा तस्य स्याद क्षयञ्च तत्” ॥ अहोरात्रोषितः पूर्वदिने कृतीपवासः एतत परमेव “भगवे व्यतीत तु संक्रान्तिर द हर्भवेत् । पूर्वे व्रतादिकं कुर्यात् पराः नानदानयोः” इति भौमपराक्रमीयम्। स्नानदानयोरित्यत्र सप्तमौनिर्देशात् परदिवसीय सानदाननिमित्तकं पूर्वदिन उपवास संयम रूपं व्रतादिकं कुर्यादित्यर्थः । अथ ग्रहणम् । ज्योतिषे “भत्रिपादान्तरे राहो: केतोर्वा संस्थितो रविः। चतुष्पादान्त चन्द्रस्त दा संभाव्यते ग्रहः” ॥ भत्रिपादान्तरे नक्षत्रस्य नक्षत्रयोवा त्रिपादाभ्यन्तरे । “यस्मिनक्षे रविस्तस्माच्चतुर्दशगत: शशी। पूतिमा प्रतिपत्मन्धी राहुणा ग्रस्यते शशो” ॥ एतदपि पूर्ववचनानुसारेगा तच्चतु. पादाभ्यन्तरे सति ज्ञेयं तस्मात्तमारभ्य तत् परतो वा इत्यर्थः । "कण पक्षे दृतीयायां मास यदि जायते । ततस्त्रयोदशे For Private And Personal Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । १५१ सूर्ये राहुणा ग्रस्यते रवि:" ॥ मास कार्तिकादौ कृत्तिकादि एतदपि भत्रिपादान्तरे सति जयं राहोः पादभोगच मास. हयेन। “रविभोमनवांशेतु निरभ्र ग्रासमादिशेत्। बुधमोरिनवांशे तु मलिनं क्षुद्रवर्षमाम् ॥ गुरो रंशकमासाद्य सवलाहकः। शशिशुक्रनवांशेतु प्रावटकाले महज लम् ॥ अन्यत्राव्यक्तभूती तो दृश्येते छादिताम्बरो" ॥ अन्यत्र वर्षतरकाले तो चन्द्राको। कत्यचिन्तामणो वराहः । “खेते क्षेमसुभिक्षं ब्राह्मण पौड़ाञ्च निर्दिशेद्राही। अग्निभयमनलवर्स पौड़ा च हुताशवृत्तीनाम् ॥ हरित रोगानुतापः शस्थानामौ. तिभिश्च विध्वंसः । कपिले शीघ्रगत्वम्लेच्छध्वंसोऽथ दुर्भिक्षम् । अरुणकिरणानुरूपे दुभिर्वं वृष्टयो विहगपौड़ा धमाभे क्षेमसुभिक्षमादिशेन्मन्दष्टि कापोतारुण कपिले श्यामाभे च तुझ्यं विनिर्दिशेत्। कापोतः शूट्रागाां व्याधिकरः कृष्णवर्णश्च विमलकमलपोताभो वैश्यध्वंसो भवेत्। मुभिक्षाय सार्चिष्यग्निभयं गैरिकरूपे च युद्धानि दूर्वाकाण्डश्याम हारिने चापि निर्दिशेन्मरकम्। प्रशनिभयसंप्रदायौ पाटलिकुमुमोपमोराहुः” ॥ राजमातण्डे । “सप्ताष्टजन्मशेषेषु चतुर्थे दशमे तथा। नवमे च तथा चन्द्र न कुर्यादाहुदर्शनम् ॥ श्रीपति. व्यवहारनिगा ये वशिष्ठः । “जन्मभे जन्मराशी च षष्ठाष्टम गते तयोः । चतुर्थे द्वादशे चन्द्रे न कुर्यादाहुदर्शनम् ॥ ग्रासदर्शनमात्रेण चार्थहानिमहद्भयम्। जायते नात्र सन्देहस्तस्मात्तत्परिवर्जयेत्” ॥ जन्मनक्षत्रापेक्षया षष्ठे अर्थात् सप्तमतारायां निधनेऽपि चेत्येकवाक्यत्वात् जन्मराश्यपेक्षया अष्टमे चन्द्र अत्राप्य पलक्षणञ्चेत्तदा नवमे चन्द्रेऽङ्ग इत्येकवाक्यत्वात् वराहसंहितायाम्। “जन्म मप्ताष्टरिफासदशमस्थ निशाकरे । दृष्टोऽरिष्ट प्रदो गहुजन्मर्ने निधनेऽपि च* ॥ रिपफ हादशराशिः। प्रङ्को नवमः। निधनं सप्तमतारा तथा “वैनाशिक ऋक्षे दृष्टं ग्रहणं सुधांशुभास्करयोः। जनयति रोगं बहुधा ल शं वित्तक्षयं चाशु । जन्माष्टजायान्त्य खधर्मसंस्थे निशाकरे जन्म मु तारकासु। दृष्ट्वा तमश्चन्द्रमसं प्रयत्नादभ्यर्चा दद्यात् कनकं हिनाय” ॥ उपक्रमे सुधांशुभास्करयो रिति दर्शनात् For Private And Personal Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५२ तिथितत्त्वम् । जाया स्नानदाना चन्द्रमसमिति सूर्यस्याप्यपलक्षणम् । वैनाशिकऋचे वयोविंशतिनक्षत्रे इति केचित् । वस्तुतस्तु वैनाशिकपदं निध नतारापरम्। निधनेऽपि चेत्येकवाक्यत्वात् वैनाशिकपदस्य गर्मेण विपत्करादिसाहचर्य्यात् त्रयोविंशतिनक्षत्रस्य प्रत्यरिपदप्राप्तत्वादपि सप्तमतारायां पठितत्वाच्च । यथा “विपत्करप्रत्यरिसंगौतेषु वैनाशिकक्षेषु कृतं हि कर्म । सर्व नृणां निष्फ लमेव तस्मात् कृतेऽपि तत्रास्ति शुभं न किञ्चित्” ॥ न्त्यखधर्मा मप्तमद्दादशदशमनवमराशयः । ननु ज्योतिः शास्त्राद्युक्त निषेधो हिंसायाहच्छिक परोस्तु न तु वैधपर: मैवं " गहदर्शन संक्रान्ति विवाहात्ययवृद्धिषु । टिकं कुर्युर्निश काम्यत्रतेषु च । इति देवन्न वचने दर्शनपदश्रवणाद्दर्शने सति खानादेर्महाभ्यदय हेतुत्वाद्दर्शनमपि विधेयम । तथा च संवत्सर प्रदीपे मार्कण्डेयः । 66 'एकरात्रसुपोष्यैव राह दृष्ट्राक्षयं नरः । पुण्यमाप्नोति कृत्वा च दानं श्राद्धं विधानतः ॥ ततश्च तस्यैव प्रकृतत्वेनोपस्थितस्य वैधदर्शनस्य पर्युदासी नतु रागप्राप्तदर्शनस्य निषेधोऽप्रकृतत्वनानुपस्थितेः । एवञ्च पदार्थान्तर साकाङ्क्ष विशेष विधिमपहाय तदितरत्र सामान्य मन्वेतौति सर्वच पदाहवनीयादौ सामान्यस्य विशेषेत रपरत्वे वीजम् । यथा अहरहर्दद्यात् दोचितो न ददातीति प्रतिषेधात् दीक्षितेतरपरं न रागप्राप्तनिषेधकम् । तदक्तं "विधैव ज्ञायते कर्त्ता विशेषेण प्रतिक्रियम् । योग्यत्वं प्रतिषिडत्व विशेषेण पदान्वयैः " ॥ मानः पठतोति श्रुत्वा तद्योग्यो विद्वान् दौचितो न ददातौति प्रतिषेधाहोचितेतरपरः " स्वर्गकामोऽग्निष्टोमेन यजेत” इत्यव विशेषणात् स्वर्गकामः कर्त्तति तेन सप्तमचन्द्रादोत्तरी राहु दृष्ट्वा स्नायादिति लभ्यते । एवं वैधदर्शनपर्युदासेऽपि निन्दाप्रायश्चित्तयोः श्रवणाद्रागप्राप्तदर्शनस्य प्रसज्यप्रतिषेधः ऋत्वभिगमननियमे पर्वणः पर्य्यदस्तत्वेऽपि तत्र रागप्राप्तगमनस्य प्रसज्य प्रतिषेधवदिति प्रपञ्चितं मलमासतत्त्व | अतएव भोजराजः ! “ पौषे चेत्रे कृष्णपक्षे नवान्नं नाचरेद्दधः । भवेजन्मान्तरे रोगौ पितॄणां नोपतिष्ठर्त” ॥ अत्र निन्दाश्रवणात् यज For Private And Personal Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । १५३ T प्रसज्यता नोपतिष्ठत इति श्रवणात् पर्युदामतेति । देवलवचने निशौति पर्युदस्त समयमात्रपरमन्दथा साया विवा हादि राष्ट्रदर्शन मंक्रान्त्यादिनिमित्त खानादि च न स्यात् । अतएव " ग्रहणोद्दाह संक्रान्ति यात्रादौ प्रसवेषु च । दानं नैमित्तिकं शेषं रात्रावपि दिव" इति दानदपंगत ह वशिष्ठवचने रात्रावपौत्यपिना प्रतिषिद्ध कालान्तरं समुचोमते । छन्दोगपरिशिष्टम् । "यव्ययं श्रावणादि सर्वा नद्यो रजस्वलाः । तासु स्नानं न कुर्वीत वर्जयित्वा समुद्रगाः । उपाकर्मणि चोक्स प्रेतस्राने तथैव च । चन्द्रसूर्यग्रहे चैव रजो दोषो न विद्यते । स्वर्धुन्धन्भः समानि स्युः सर्वाण्यभांसि भूतले । कूपस्थान्यपि सोमार्कग्रहये नात्र संशयः " ॥ यब्यो - मासः । 1 नदौलचणमाह । “ धनुः सहस्राण्यष्टौ च गतिर्यासां न विद्यते । न ता नदोशब्दवहा गर्त्तास्ताः परिकीर्त्तिताः” । स्वर्धुनोगङ्गा यासामपाम् । धनुः प्रमाणमाह विष्णुधर्मोत्तरीय प्रथमकाण्डम् । “द्वादशाङ्गुलिकः शङ्खस्तद्द्द्दयन्तु शयः स्मृतः तश्चतुष्कं धनुः प्रोक्तं क्रोशोधनुः सहस्रिकः ॥ भयो हस्तः । श्रत्र विशेषो मदम पारिजाते निगमः । न दुष्येत्तोरवासिनामिति । अत्रैव व्याघ्रपादः । " श्रभावे कूपवापौनाम् अन्येनापि समुड़ते । रजोदुष्टेऽपि पर्यास ग्रामभोगो न दुष्यति” ॥ अन्येन कुम्भादिना । अतएव इन्दोग परिशिष्टतापितास्त्रित्यधिकरणेन निर्दिष्टम् । देवलः । 'गङ्गा च यमुनाचैव मचजाता सरस्वती । रजसा नाभिभूयन्ते ये चान्ये नदसंखका:" कुरुक्षेत्रे या सरखतौ सा प्रजाता । " शोणसिन्धु हिरवाख्यकोकलौहित्यघर्धरः । शतद्रुश्च नदाः सप्त पावनाः ब्रह्मणः सुताः ॥ ग्रहणे कूपस्थप्रशंसया ग्रहणप्राक्कालोनीहृतव्यावृत्तिः । व्याघ्रः । “ आदित्य किरणैः पूतं पुनः पूतच्च वह्निना । व्याध्यातुरः स्वायात् ग्रहणेऽप्युष्ण वारिणा ॥ एवम्भूतं नन्द यतोऽत उष्णवारिणापि स्नायादित्यर्थः । व्यासः । “ सर्व भूमिसमं दानं सर्वे व्याससमा द्विजाः । सर्वं गङ्गासमं तोयं ग्रहणे नात्र संशयः " ॥ तथा 'इन्दोर्लचगुणं प्रोक्ता रवेर्दशगु For Private And Personal Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५४ तिथितत्त्वम् । णञ्च तत् । गङ्गातीरे तु संप्राप्ते इन्दोः कोटोरवेर्दश" । संयोग तथा च ऋष्य. C. पृथक्त्वन्यायात् अत्र श्राद्धं नित्यं काम्यञ्च । शृङ्ग शातातपौ । " सर्वखेनापि कर्त्तव्यं श्राद्ध वे राहुदर्शने । अकुर्वाणस्तु तच्छ्राद्ध' यते गौरिव सौदति । चन्द्रसूर्यग्रहे यस्तु श्राह विधिवदाचरेत् । तेनैव सकला पृथ्वी दत्ता विप्रस्य बै करे” ॥ अनामवादमाह प्रचेताः । " आपद्यनग्नौ तौर्थे च चन्द्रसूर्यग्रहे तथा । श्रमबाई हिनेः काय्यं शूद्रेण तु सदैवहि " ॥ वशिष्ठः “ शस्यं चेत्रगतं प्रोक्त' सतुषं धान्यमुच्यते । श्रमं वितुषमित्युक्त स्वित्रमन्त्रमुदाहृतम् ॥ योगिनोतन्ते । निरग्ने रामबाई तु अभ्रं न चालयेत् कचित् । हौ तु चालयेदवं संक्रमे ग्रहणेषु च ॥ ग्रहणनिमित्तश्राद्धादि मलमासेऽपि कार्य " नित्य नैमित्तिके कुर्य्यात् प्रयतः सन् मलिम्लुचे । तौर्थ स्नानं गजच्छायां प्र ेत श्राद्ध तथैव च ॥ इति बृहस्पतिवचनात् । श्राविवेकेऽप्येवम् । "चन्द्रसूर्यग्रहे नानं श्राद्धदानजपादिकं कार्य्यापि मलमासेऽपि नित्यनैमित्तिकं तथा ॥ इति कालमाधवीयष्टतवचनाच्च । अपिना अन्येऽपि कालदोषाः समुञ्चिताः । सारसंग्रहे "सत्तीथेऽर्कविधुप्रासे तन्तु दामन पर्वगोः । मन्वदौचां प्रकुर्वाणो मासचादौन शोधयेत्” ॥ तन्तु पर्व परमेश्वरोपवौतदानतिथि: श्रावणौ दामन पर्व मदनभश्वनतिथिश्चैत्रशुक्ल चतुर्दशौ । रामाचनचन्द्रिकायां "चन्द्रसूर्यग्रहे तौर्थे सिद्धक्षेत्र शिवालये । मन्त्र मात्र प्रकथनमुपदेशः स उच्यते” ॥ गारुड़े । " सूर्य्यग्रहः सूर्य्यवार सोमे सीमग्रहो भवेत् चूड़ामणिरयम् योगस्तत्रानन्तफलं स्मृतम् । अन्यस्मात् ग्रहणात् कोटिगुणमत्र फलं लभेत् ” ॥ देवीपुराणे । “यस्य राशौ ग्रहाः पञ्चाथवा सप्त सुराधिप । । ग्रहणं चन्द्रसूर्यस्य ग्रहैर्वाष्टमसंस्थितैः ॥ बलिदानं प्रकर्त्तव्यं मातृणां पूजन हितम् । सूर्यस्याभ्यर्च्चनं कार्य्यं शिवस्याशुभनाशनम् ॥ न च देवल दर्शनेत्यत्र राहुर्दश्यतेऽनेनेति व्युत्पत्त्या राहुदर्शनं ग्रहणं न तु तस्य दर्शनमिति वाच्च "चन्द्रे बा यदि वा सूर्य दृष्टे राहों महाग्रहे । श्रचयं कथितं पुण्य तत्राप्यर्क विशेषतः " ॥ इतिमार्कण्डेय वचने राहौ दृष्ट इत्य For Private And Personal Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्वम् । भिधानात् राहु दृष्ट्वाऽक्षयं नर इत्युक्तात्वात् यावद्दर्शनगोचर इति वचनाच तच्च दर्शनं चाक्षुषजानं न ज्ञानमात्रं चन्द्रसूर्योपरागस्य स्नानादौ संक्रान्तिवत् ज्ञातस्य व निमित्तत्वात ज्ञाने प्राप्ते राहुदर्शन इति वचने चन्द्रसूर्योपरागे च यावद्दशनगोचर इति जावाल वचने च दर्शनपदाच्चाक्षषज्ञानविषयः स्यैव निमित्तता विधीयते तत्रैव दृशमुख्यत्वात्। तथा च संवत्सरप्रदीपे। “चक्षुषा दर्शनं राहोर्यत्तद्ग्रहण मुच्यते । तत्र कर्माणि कुर्वीत गणनामात्रतो न तु” ॥ ग्रहणं ग्रहणनिमितक कर्मप्रयोजकं राहदर्शनमप्याख्यातोपस्थापित नानादि कर्तुः सान्निध्यात्तनिष्ठमेव लाघवात। अन्यथा “सौमन्तोअयने चैव पत्रादिमखदर्शने। नान्दौमुखं पिगणं पूजयेत् प्रयतो सही" ॥ इति विष्णु पुराणेऽपि वपुत्रस्यान्यकर्तक मुख. दर्शने जातेऽपि थाई प्रसज्येत। पूर्वनिखित मार्कण्डेयवचने दृष्ट्वेति वा अवणाच्च हेमाद्रिस्तु यावद्दर्शनगीचरस्तावत् पुण्यकालो यदास्त गतः। न दृश्यते तदा न पुण्य कालः । तथा च ग्रस्तास्तमिते वशिष्ठः पूर्वमेव मानार्थ तिष्ठति नोद्ध। देव. लोऽपि “यथा स्वानञ्च दानञ्च सूर्यस्य ग्रहणे दिवा। मोमस्यापि तथा रात्रौ स्नानं दानं विधीयते ॥ निगमोऽपि "सूर्यग्रहो यदा गत्री दिवा चन्द्र ग्रहो भवेत्। तत्र स्नानं न कुर्वीत दद्यात् दानं न कुत्रचित् ॥ इत्याह माधवाचार्योऽपि ग्रस्ता: स्तमयपर्यन्तं दर्शनयोग्यत्वात्तावान् पुण्य कालो भवतीत्याह । एतेनान्यकर्तक दर्शने प्रस्तास्तानन्तरञ्च यत् स्नानादिकमभि हितं नागयगोपाध्यायेन त यमिति । ___ एवञ्च ग्रस्तास्ते ग्रस्तोदये च पुरश्चरणं न सम्भवति स्पर्शा: हिमुक्तिपर्यन्तमित्यभिधानात्। यथा पुरश्चरणचन्द्रिकादिषु । "अथवान्य प्रकारेण पुरश्चरणमिष्यते। ग्रहणेऽस्य चेन्दो - शुचिः पूर्वमुपोषितः। नद्यां समुद्रगामिन्यां नाभिमानजले स्थितः। यहा पुण्योट के सात्वा शुचिः पूर्वमुपोषित:। ग्रहगादि विमोक्षान्तं जपेन्मन्नं समाहितः। अनन्तरं दशांशन क्रमाद्धोमादिकञ्चरेत्। तदन्ते महती पूजां कुर्यात् ब्राह्मण: तर्पणम्। ततो मत्वप्रसिद्धार्थ गुरु संपूज्य तोषयेत्। एवञ्च For Private And Personal Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ९५६ तिथितत्त्वम् । " मन्त्रसिद्धिः स्याद्देवता च प्रसौदति । अथवान्य प्रकारोऽयं पौरचारणिको विधिः । चन्द्र सूर्योपरागे च स्नात्वा प्रयतमानसः । स्पर्शादि मोक्षपर्यन्त जपेन्मन्त्रं समाहितः । जपात् दशांशतो होमं तथा होमात्र तर्पणम् । एवं कृत्वा तु मन्त्रस्य जायते सिद्धिरुत्तमा” | गोपालमन्त्र तर्पणे तु होमसम संख्यत्वं यथा । “इह गोपाल मन्त्राणां तर्पणं होमसंख्यया । समं ज्ञेयन्तु सर्वेषामित्यागमविदो विदुः ॥ पुरस्क्रियाचय्यां याम् । “होमाथको जपं कुर्य्यर्होम संख्या चतुर्गुणम्। षड्गुणं चाष्टगुणितं यथासंख्यं द्विजातयः ॥ तेषां स्त्रोणान्तु विज्ञेयस्तेषामेव समोजपः । यं वर्णमाश्रितः शूद्रस्तन्नपस्तस्य कौर्त्तितः ॥ तथा " मूलमन्त्रं समुच्चार्थं तदन्ते देवताभिधाम् । द्वितीयान्तामहं पश्चात्तर्पयामि नमोऽन्तकः । तर्पणस्य दशांशेन मार्जनं कथितं किल । तचैवं देवतारूपं ध्यात्वात्मानं प्रपूज्य च । नमोऽन्तं मन्त्रमुच्चार्य तदन्ते देवताभिधाम् । द्वितीयान्तामहं पश्चादभिषिञ्चाम्यनेन तु । तोयैरञ्जलिना शुद्ध रभिषिचेत् स्वमूईनि । मार्जनस्य दशांग्न ब्राह्मणानपि भोजयेत् । विप्राराधनमात्रेण व्यङ्गं साङ्ग भवेदयतः । जपो - चापूर्वको होमस्तर्पणं चाभिषेचनम्। भूदेवपूजनं पञ्च प्रका त्रैश्च पुरस्क्रिया” ॥ तत्र प्रयोगः । खात्वाचम्य तत्सादित्यचार्थ पद्येत्यादि राहुग्रस्ते निशाकरे अमुकगोत्रः श्रोषसुक देवशर्मा अमुकदेवताया अमुकमन्त्रसिद्धिकामो ग्रासाद्विमुक्तिपय्यन्तं तज्जपमहं करिष्ये इत्यभिलाय तावत्कालं जपेत् । ततः प्रातः पूजयेत् । ततो जपदशांगहोमं कुर्य्यात् तदसम्भवे राहुग्रस्त निशाकरकालीनामुकमन्त्र जपदशहोम समसंख्या चतुर्गुण जपमह रिये इति सङ्कल्पा जपं कृत्वा समर्पय राहूग्रस्त निशाकर कालोनामुकमन्त्र जपदशांशहोम तद्दशांश तर्पणमहङ्करिष्य इति सङ्कल्पा मन्त्र मुबार्थ्यामुक देवतामहं तर्पयामि नमः इत्यनेन तर्पयेत् । गोपाल मन्त्रे तु होमदशांश इत्यत्र होमसमसंख्येति निर्देश्यं ततस्तु राहूग्रस्त निशाकर का लौनामुक मन्त्रजपदशांगहोम तहशांग तर्पण तहमांशाभिषेक महं For Private And Personal Use Only " Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । १५७ करिष्ये इति सङ्कल्पात्मानं देवतारूपं ध्यात्वा नमोऽन्तं मन्त्रमुच्चार्य्यामुकमहमभिषिचामोत्यनेन स्वमूर्धन्यन्ञ्जलिनाभिषिश्वेत् । गोपालमन्त्रे तु होमदशांशेत्यत्र होमसम संख्येति निर्देश्यम् । ततो महतीं पूजां विधाय तदभिषेक दशांशब्राह्मणभोजनमहं कारयिष्ये इति सङ्कल्पा ब्राह्मणन् भोजयेत् । गुरु संपूज्य दक्षिणया तोषयेत् । सूर्य्यग्रहणे तु राहुग्रस्ते दिवाकर इति विशेषः । ग्रहणदर्शने स्नानमावश्यकम् । तथा वृशिष्ठः । "संक्रमे ग्रहणे चैव न स्नायाद्यस्तु मानवः । सप्तजन्म कुष्ठौ स्यात् दुःखभागो च सर्वदा ॥ अत्राशौचेऽपि साङ्गस्नानं कर्त्तव्यं न श्राद्धादि । तथा च संवत्सर प्रदीपगङ्गावाक्यावल्योः स्मृतिः । "स्तके मृतके चैव न दोषो राहुदर्शने । स्नानमात्रन्तु कर्त्तव्यं दानश्राद्धविवर्जितम् " ॥ भविष्ये " चन्द्र सूर्यग्रहे चैव मृतानां पिण्डुकर्मणि महातीर्थे तु संप्राप्ते चतदोषो न विद्यते ॥ महातीर्थ गङ्गादो संप्राप्त तत्तत् क्षेत्रवासादिना सम्यक् प्राप्ते न तु प्रथम प्राप्तिमात्र संशब्दानर्थक्यापत्तेः । पराशरवचने तौर्थपरस्य तत्तनिमित्तक कर्मणि जनन मरणाशौचाभावोक्त्या सुतरां चतेऽपि तथा कल्पनाया युक्तत्वाच्च । यथा "दोचितेष्वभिषिक्तेषु व्रततौर्थपरेषु च । तपोदानप्रसक्तेषु नाशौचं मृतस्तके" । दौचितेष्विति यजमानानां सोमयागाङ्ग दोक्षणौयेष्टौ कृतायां दौचितत्वं भवति तेन दौक्षणोयेष्टात्तरं कालं यजमानस्य यत् कर्त्तव्य विहितं तत्राशौचं नास्ति अभिषिक्तेषु प्राप्तराजत्वाभिषेकचत्रियेषु शेष विहित व्यवहारदर्शनादि कर्मण्य शौचं नास्ति । व्रतपरो व्रतानुष्ठानप्रसक्तः तौर्थपरस्तत्तत् क्षेत्रवासादिना तत्रिमित्तक कर्मानुष्ठानप्रसक्तः । एवं तपोदानप्रसक्तेष्वपि नाशौचं गर्गः । " यस्मिं त्रिजन्मनक्षत्र ग्रस्येते शशिभास्करौ । तज्जातानां भवेत् पौड़ा ये नराः शान्तिवर्जिताः” । दोपिकायां "ग्रहण ग्रहपरिपीडित नाडीनक्षत्र दोषशमनाय सह शतपुष्पः स्रायात् फलिनो फल चन्दनोशौरैः " ॥ शतपुष्पा शलुफा फलिनौ प्रियङ्गुः फलं जातौफलं नाड़ी नक्षत्राणि च आद्यदग्रम षोड़शाष्टादश त्रयोविंश पञ्चविंशानि । ज्योतिषे १४ For Private And Personal Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५८ तिथितत्त्वम् । - " ताम्रपत्र' तिले पूर्ण पूर्ण वा गष्य सर्पिषा । भास्कर ग्रहणे दद्यावाड़ौदोषोपपौड़ितः । घृतकुम्भीपरिनिहितं शङ्ख नवनौतपूरितं दद्यान्नाद्यादि दोषशान्ये द्विजाय दोषाकर ग्रहणे । राशी यच विधुन्तुदेन तरणिश्चन्द्रोऽथवा ग्रस्यते । तस्माद्वेदहुताश शङ्कररसाः कल्याणदा राशयः । मध्यस्थारविशायकाङ्कदशमाः सामान्यभोगप्रदा युग्मग्लौ तुरगाष्टमाः खलु नृणां यच्छन्ति नेष्ट फलम् " ॥ वेदहुताश शङ्कर र साश्चतुस्त्य - कादशषट् रविशायकाङ्क दशमा: द्वादश पञ्चनवमदशमाः युग्मग्लौ तुरगाष्टमात्रक सप्तमाष्टमाः । कत्यचिन्तामणौ । "अविकृत सलिलपातैः सप्ताहान्तः सुभिचमादेश्यम् । यश्चाशुभं ग्रहणजं तत् सर्वं नाशमुपयाति" ॥ श्रविकृतेति करकादिरहितेत्यर्थः। यत्त ग्रहणे भोजन विधिनिषेधौ दृष्टोपरागविषयावेव नपुंमात्रविषयौ मानाभावात् । मुक्तिं दृष्ट्वेत्यादिना तस्यैव प्रकृतत्वाचेत्याहुः । तत्र मनोरमम् । “चन्द्रस्व यदि वा भानोर्यस्मिन्नहनि भार्गव । ग्रहणन्तु भवेत् तत्र तत्पूर्वा भोजनक्रियाम् । नाचरेत् सग्रहे चैव तथैवास्त सुपागते । यावत् स्यानोदयस्तस्य नानौयात्तावदेव तु । मुक्ति दृष्ट्वा तु भुञ्जीत स्नानं कृत्वापरेऽहनि ” इति विष्णुधर्मोत्तरवचनेन सामान्यतो निषेधात् तथैवेतिसग्रहत्वेनैवेत्यर्थः । चन्द्रसूर्यग्रहे भुक्का प्राजापत्येन शुध्यति । तस्मिन्नेव दिने भुक्ता विरावाच्छ चिरिष्यते" इति देवलवचनेन सामान्यतः प्रायश्चित्तविधानाञ्च । तस्मिन्नेव दिने तहिवसौय निषिद्य कालाभ्यन्तरे । " श्रादित्येऽहनि संक्रान्तौ चन्द्रसूर्यग्रहे तथा । पारणञ्चीपवासञ्च न कुर्य्यात् पुत्रवान् गृहो” ॥ इति निषेधात् पुत्रियो गृहस्थस्यापि ग्रस्तास्तेऽपि नोपवास: किन्तु ग्रहणानन्तरं पूर्व वा निर्दोषकाले तेन किञ्चित् भक्ष्यमिति संवत्सर प्रदीपः । ग्रहण पूर्व भोजन निषेधे विशेषमाह वृडगौतमः । “सूर्यग्रहे तु नाश्रयात् पूर्वं यामचतुष्टयम् । चन्द्रग्रहे तु यामां स्त्रोन् वालवृद्धातुरैर्विना ॥ चन्द्रस्य ग्रस्तोदये विशेषमाह वृहदशिष्ठः । " ग्रस्तोदिये विधोः पूर्वं नाइर्भोजनमाचरेत्” ॥ वालवृद्धातुरविषये वाचस्पतिमिश्रष्टतं मार्कण्डेयवचनम् । "सायाहे For Private And Personal Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । १५६ ग्रहणं चेस्यादपराहन भोजनम्। अपराह्न मध्याह्ने मध्याहे चेबसावे । सङ्गवे ग्रहणं चेत्स्यात् न पूर्वं भोजनक्रिया ॥ अवानध्यायोऽपि न दृष्टापरागमानविषयः। “वाई न कोर्तयेद ब्रह्म गोराहोच सूतके ॥ इति मनुवचने सामान्यतो निषेधात् एष वानध्यायो प्रस्तास्तविषय इति मिताचरा । भवामिष्टाधिक्यमपि। “प्रस्तावदितास्तमिती शारदधान्यावनौषरक्षयदौ सर्वग्रस्तौ दुर्मि क्षमरकदौ पापसंदृष्टो" ॥ इति वचनात्। अन्यतत्वहोरात्रमनध्यायो याज्ञवल्कात् यथा "सध्यागजित निर्धात भूकम्पोल्कानिपातने। समाप्य वेदं युनिशमारण्य कमौत्य च ॥ पञ्चदश्यां चतुर्दश्यामष्टम्यां राहुसूतके। ऋतुसन्धिषु भुत्वा वा प्राधिकं प्रतिग्राह्य च ॥ युनिशमोरावम। पुष्पलिहिचश्वरीको छुरङ्गिवह्नावपांपित्तमिति विश्वप्रकाशात्। ननु तदहोरात्रस्य पञ्चदशोप्रतिपत्घटितत्वात् अनध्यायप्राप्तौ राहुस्तके इत्यनेन पुनरनध्यायाभिधानेऽनुवादापत्तिरिति चेव चैत्रश्रावणमार्गशीर्षाणामादि प्रतिपदो नित्या इति ब्रह्मचारि काण्डत हारोतवचने एतासामनध्याये नित्यत्वाभिधानादन्यासां काम्यत्वात् पादिप्रतिपदः शलप्रतिपदः । “साच यौधिष्ठिरौ सेना गाङ्गेय शरताड़िता। प्रतिपत्पाठमौलानां विद्य व तनुतां गता" ॥ इति व्यास वचनमपि तावन्मानपरं गाङ्गेयो भौमः। एवञ्च ऋतुसन्धिष्विति ऋतुसंवत्सराभिप्रायेण ततव राहुसूतक इत्यपि नित्यत्वाय अतएव गोतमोक्ताकालिकानध्यायोऽपि सङ्गच्छते। यथा प्राकालि. कानिर्धात भूकम्पराहुदर्शनोल्काइत्याकालिका इति निमित्तकालमारभ्य परार्यावत् स एव कालस्तव भवा एते चोत् कटमिर्धातादिविषया मनुनोल्कायां तथा विधानात् यथा "विद्युत्स्तनितवर्षेषु महोल्कानां च संप्लवे। प्राकालिकमनध्यायमेतेषु मनुरब्रवीत् ॥ महोल्कानां संप्लवे इतस्ततोऽनेक महोल्कानां मविपाते अङ्गादिषु प्रतिप्रसवमाह मनुः । "वेदोपकरणे चैव स्वाध्याये चैव नित्यके। नानुरोधोऽस्त्यनध्याये होममन्त्रेषु चैवहि" ॥ पराशरभाष्य कूर्मपुराणच्च। “अन. For Private And Personal Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । ध्यायस्तु नाङ्गेषु नेतिहासपुराणयोः। न धर्मशास्त्रेष्वन्येष पर्वस्वेतानि वर्जयेत्" ॥ अङ्गान्याह शिक्षापद्यम् । “छन्दः पादो तु वेदस्य हस्तौ कल्पोऽथ कथ्यते । ज्योतिषामयनं नेत्र निरुक्त श्रोत्रमुच्यते ॥ शिक्षा घ्राणन्तु वेदस्य मुखं व्याकरणं स्मतम् । तस्मात् साङ्गमधीत्यैव ब्रह्मलोके महीयते' ॥ कल्योनाना शाखागतलिङ्गादिकल्पित: प्रत्यक्ष वेदमूलकः स्वसंज्ञाभिरनुष्ठानप्रतिपादको ग्रन्थ इति कल्पतरुः। ज्योतिषामयनं ज्योतिःशास्त्रं निरुक्तं वैदिक शब्दनिर्वचन ग्रन्थः। पर्वस्वित्यनेन संक्रान्तिपरिग्रहेऽहयन विषुवयोरेव परिग्रहः। तथा च नारदः। “अयने विषुवे चैव शयने बोधने हरेः। अध्यायस्तु न कर्तव्यो मन्वादिषु युगादिष” ॥ सन्ध्यागर्जने तु शास्त्र मात्रचिन्तानिन्दा माह कृत्यचिन्तामणोदुर्वासाः । सख्यायां गजिते मेघे शास्त्रचिन्तां करोति यः। चत्वारि तस्व नश्यन्ति आयुविद्या यशोवलम् । प्रादुष्क तेष्वग्निषु तु विद्युत्स्तनित निखने । सज्योतिः स्यादनध्याय इत्याह भगवान् मनुः इति मनु वचनं वर्षाविषयम्। अग्निषु तु आवसथ्यादिषु प्राटुष्क तेषु होमा) प्रज्वलितेषु प्रातःसायं सन्ध्यायामित्यर्थः । तस्यां विद्युत् स्तनितनिस्वने सति सौरनाक्षत्रान्य तर ज्योतिषा सह वर्त्ततं यः काल: सदिनमात्र वा रात्रि मात्रमित्यर्थः । अष्टम्यादिषु विशेषमाह हेमाद्रि धृतापस्तम्बः। उदयेऽस्त मये वापि सुचतंत्रयगामि यत् । तद्दिनं तदहोरात्रमनध्यायविधौ विदुः” ॥ केचिदाहुः क्वचिद्देशे यावत्त दिननाड़िकाः। तावदेव त्वनध्यायो न तन्मि दिनान्तरे। तहिनं तां तिथिं प्राप्य त्यर्थः । दिनान्तरे तिथ्यन्तरे तत्र पूर्ववचनमुत्तरमौमांसाध्यायिभि: परिरहोतं परवचनन्तु अन्य ग्रन्थ परं यत्त निर्णयामृततं "प्रतिपल्लेशमात्रेण कलामात्रे गा चाष्टमौ। दिनं दूषयते सर्वे सुरा गव्यघटं यथा” ॥ इति । तत् दूषयत इत्यभिधानात् पूर्ववर्तितामात्रेग्य सर्वदिनदूषणाय । यच्चापरमुक्त ग्रस्तास्तमयपक्षे तहिने उपवास एव "मुक्ति दृष्ट्वा तु भुञ्जौत स्नानं कृत्वापरेऽहनि” ॥ इत्यादेः पूर्व दिनभोजनव्यावर्तक तयैव सार्थकत्वादिति तदपि न सुन्दरम् । परऽहनि दृष्ट्वैव साल्वा भुञ्जीत रोगादिना तहिने For Private And Personal Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । १६१ तदकरणे तत्परदिने भोजने तु न दर्शनाद्यपेचेत्येतावतैव परेऽहनि इत्यादेः सार्थकत्वात् । एवञ्च "अर्धरावे व्यतीते तु यदा चन्द्रग्रहो भवेत् । सायन्तत्र न भुलौत न तु प्रातरभोजनम् ॥ इति नारदौय वचनस्याप्यसङ्कोचः स्यादत एवं नारायणोपाध्यायेन "न खानमाचरे का " इत्यादि मनुवचनमप्येतदितरविषयमिति प्रस्तास्तमिते चन्द्रे प्रातर्भोजनस्याभ्यनुज्ञानादिति चाभिहितम् । एष च दर्शननियमोन रागप्राप्तदर्शन एव मेघादिना तु प्रदर्शने तु उदयकालमाकलय्यैव भुञ्जीत । "मेघमालादिदोषेण यदि मुक्तिर्न दृश्यते । आकलय्य तु तं कालं भुञ्चौत स्नानपूर्वकम् ॥ इति कृत्यतत्त्वार्णवष्टतवचनात् । नचेदमग्रस्तास्तमिति विषयं तावन्मात्रविषयत्वे प्रमाषाभावात् । प्रत्युत ग्रस्तास्त विषय एवेदं सार्थकमन्धव दर्शनापेक्षायां प्रमाणाभावात् तव मुक्ते शशिनि भुञ्जीत इत्येतावमावमुक्तम् । यत्त " सूतके मृतके चैव सूतकं राहदर्शने । तावत्स्यादशुचिर्विप्रो यावन्मुक्तिर्न दृश्यते ॥ इति वचनं तदपि सुत्यवधारणपरम् । तथा च ब्रह्मपुराणम् । “यदेवास्तं गतचन्द्रो राहोराननगोचरः । श्राकलय्य तु तं कालं क्रिया कार्या विचचणैः” ॥ अतएवान्धेनापि उदयकालमा कलय्य भुज्यत इति । तथा च संवत्सरप्रदोषे । “ग्रस्ते चास्त' गते त्विन्दौ ज्ञात्वा मुक्त्यवधारणम् । स्नात्वा पाकादिकं कार्य्यं भुञ्जतेन्द्रदये पुनः” ॥ कालमाधवौये भृगुः “ ग्रस्त विवास्तमनन्तु रवोन्दू प्राप्तो यदि । तयोः परेद्युरुदये स्नात्वाभ्यवहरेखरः ॥ अनयोरुदयमात्रापेचोक्ता तस्मान्मक्तिं दृष्ट्वेति दर्श नापेक्षा निर्विरोधविषय एवेति अशौचातिदेशे तु राहुदर्शनस्य निमित्तता । सूतक इति प्रागुक्तवचने षट्त्रिंशन्मतवचने च दर्शनश्रुतेः । तद्यथा “ सर्वेषामेव वर्णानां सूतकं राहुदर्शने । स्नात्वा कर्माणि कुर्वीत मृतमन्त्रं विवर्जयेत्” ॥ अतएव स्मृतिः । “प्रेतखाडे यदुच्छिष्टं ग्रह पर्युषितञ्च यत् । दम्पत्योर्भुक्तशेषञ्च न भुलीत कदाचन" ॥ उच्छिष्ट पाकपावेऽवशिष्टम् । ग्रहे उपरागे पर्य्युषितं स्थितं दम्पत्योराश्रमस्वामिनोर्भाजनानन्तरं पाकस्थाल्यामवशिष्टमिति श्राचि For Private And Personal Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् तामणिः। यत्तु देवल वचनम् "एकोद्दिष्टस्य शेषन्तु ब्रायः णेभ्यः समुत्सृजेत्। पश्चात् स्वयञ्च भुञ्जीत पुनर्मङ्गल भोजनम्" ॥ तस्य एकोद्दिष्टस्य शेषं ब्राह्मणेभ्यः समुत्सृजेत् नत्वक्षयेत् पश्चात् स्वयं पुनमङ्गल भोजनं पाकान्तरलतान भुनौत इत्यर्थः तस्यानाचरणात् शाख्य न्तर विषयम्। ग्रहणादर्शिनापि मुक्तौ नातव्यं मुक्तिमात्रस्यैव जननाशौचनिमितत्वात् यथा ब्रह्मा गड़ पुराणम् । “ग्रहणे शावमाशोचं विमुक्ती सौतक स्मतम् । तयोः सम्पत्तिमानेगा उपस्पृश्य क्रियाक्रमः” । उपस्पृश्य स्नात्वा। संवत्सर प्रदौपे मुक्तौ नात्वा पठितव्यम् । "उत्तिष्ठ गम्यतां राहो ! त्यज्यतां चन्द्रसङ्गमः । कर्मचाण्डालयोगोत्थं कुरु पापक्षयं मम ॥ इति । सूर्यग्रहणे तु सूर्यमङ्गम इति विशेषः। अर्कोऽप्याचारवशाहातव्य इति। न च “नेक्षे. तोद्यन्त मादित्यं नास्तं यान्तं कदाचन । नोपपृष्टं न वारिस्थं न मध्य नभमोगतम् ॥ इति मनुवचनेन वैधदर्शन निषेधोऽस्तु जन्म सप्ताष्टेत्यादि निषेधवदिति वाच्यं तत्रोद्यदादित्यादिदशनस्य रागप्राप्तस्य साहचा दाहुदर्शन स्यापि तथाभूतस्य निषेधः । अतएव "चन्द्रे वा यदि वा सूर्या दृष्टे राहो महाग्रहे। अक्षयं कथितं पुखं तबाऽप्य विशेषत:” ॥ इति मार्क ण्डेयवचनं वैधदर्शन परम्। एवञ्च “तैले जले तथावस्त्र मादर्श च मलान्विते। न पश्येन्न तथा पश्येदुघरक्त दिवाकरम्” ॥ इति विष्णुधर्मोत्तगैयपि वैधेतरनिषेधकम् । ईक्षितेत्यनुवृत्ती याज्ञवल्करः। नाशुवो राहुतारका इत्यत्राशुचेः पयंदासाच्छु.चेर्दशनमनुज्ञातम्। अत्राशुचिर्मनपुरोषो. मर्गाद्य शौचवान् न तु जननाद्यशोचवान् तत्र दत्तवचनात् । भोजराजः । “एकरात्र परित्यज्य कुर्यात् पाणिग्रहं ग्रह। प्रयाण सप्तरात्रन्तु त्रिरात्रं व्रतबन्धने” ॥ व्रतबन्धने उपनयने। ' प्रथामावास्या। सा च प्रतिपट्युता ग्राच्या युग्मात् । वराहपुराणे चाण्डाल शपथे। “षष्ठाष्टम्यप्यमावास्या उभे पक्षे चतुर्दैगौ। अनातानां गतिं यास्य यद्यहं नागमे पुनः” । अतोऽत्र बानमावश्यकम् अतोऽत्र जीवत्यिटकेगापि सातभ्यम् । “अमासानं गयात्रा दचिणामुखभोजनम्। न For Private And Personal Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । १६३ ataforemः कुर्य्यात कृते च पिटहा भवेत् ॥ इति वचनं रागप्राप्तवाननिषेधकम् । वयोदशीप्रकरणोक्त "भोगाय क्रियते यत्तु स्नानं यादृच्चिकम् नरेः । इति वचनाच्च । पैठीनसिः । "न पर्वसु तैलं चौरं मांसमभ्य पेयानामावास्यायां हरितमपि विन्द्यात्" इति । पुष्ये तु जन्मनक्षत्रे व्यतौपाते च छतौ । अमायाच नदौनानं पुनात्यासप्तमं कुलम् ॥ अत्र दहत्या जन्म दुष्कर्तमिति ज्योतिषे पाठः । व्यासः " श्रमावस्यां भवेद्दारो यदि भूमिसुतस्य च । गोसहस्रफलं दद्यात् स्नानमात्रेण जाह्नवी ॥ सिनोवालो कुइर्वापि यदि सोमदिने भवेत् । गोसहस्रफलं दद्यात् स्नानं यमोनिना कृतम्” ॥ सिनीवाली चतुर्दशो युक्तामावास्या व्यस्तापि प्रशस्ता एवमन्यवापि वारविशिष्टविधौ न युग्मादरः निरवकाशत्वे न संशयायोगात् । एतच्च मौनमरुणीदयमारभ्य स्नानपय्र्यन्तं न तु स्नान कालमात्रे । तत्र “उच्चारे मैथुने चैव प्रस्रावे दन्तधावने । स्राने भोजनकाले च षट्सु मौनं समाचरेत्" ॥ इति स्कान्देन तस्य तस्य सामान्यतः प्राप्तत्वात् उच्चारे पुरोषोत्सर्गे । स्मृतिः । " करतोयाजलं प्राप्य यदि सोमयुताकुहः । अरुगोदयवेलायां सूर्यग्रहशतैः समा" ॥ "करतो सदा मोरे सरित श्रेष्ठे सुविश्रुते । पौण्डान् प्लावयसे नित्यं पापं डर करोद्भवे”॥ पौण्ड्रान् देश विशेषान् । मरौचिः । " मासे नभस्यमावास्या तस्यां दर्भचयो मतः । श्रयातयामास्त दर्भा विनियोज्याः पुनः पुनः " ॥ अत्र “दर्भाः कृष्णाजिनं मन्त्रा ब्राह्मणा हविरग्नयः । श्रयातयामान्येतानि नियोज्यानि पुन: पुन: । इति गृह्यपरिशिष्टवचनेनैव सिद्धौ श्रावणामावान्याया उपादानं “ वार्षिकांश्चतुरो मासान्नाहरेत् कुशमृत्तिकाः । आददीत त्वभावेऽपि सद्यो यस्योपयोजनम्" इति संवत्सर प्रदीपघृत शिवरहस्योयस्यापवादकमिति । विद्याकर धृतम् । “संग्रहाद्वत्सरं यावत् शुद्धिः स्यादिवर्हिषाम् । ततः परं न गृहीयात् जपादौ यज्ञकर्मणि” ॥ संवत्सर प्रदीपे "अमावास्यान्तु कन्चार्के तीर्थप्राप्सो तथा नृप । कृत्वा श्राई विधानेन दद्यात् षोड़श पिण्डकम् ॥ वायुपुराणौय तत् स्नान मन्त्रः । For Private And Personal Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६४ तिथितत्त्वम् । प्रयोगो यथा । ऊनविंशति दास्यमानपिण्डस्थानानि यथा दक्षिणं भागचतुष्टयेन कृतानि तव दक्षिणाग्रान् कुशानास्तौर्य " मत कुले मृता ये च गतिर्येषां न विद्यते । आवाहयिष्ये तान् सर्वान् दर्भपृष्ठ तिलोदकैः ॥ मातामहकुले ये च गतिर्येषां न विद्यते । श्रावाहयिष्ये तान् सर्वान् दर्भपृष्ठ तिलोदकैः ॥ बन्धुवर्गकुले ये च गतिर्येषां न विद्यते । श्रावाइयिष्ये तान् सर्वान् दर्भपृष्ठ तिलोदकैः ॥ इत्येतैस्तिलोदकैरावाह्य ब्रह्मस्तम्भपय्र्यन्तं देवर्षिपितृमानवाः । तृप्यन्तु पितरः सर्वे मातृमातामहादयः । भतौतकुलकोटौनां सप्तदौपनिवासिनाम् ॥ चाब्रह्मभुवनाल्लोकादिदमस्तु तिलो दकम् ॥ इत्येताभ्यां तिलोदकाच्चलीन् दद्यात् ततो मूलादितः पितृतीर्थेन पिण्डान् दद्यात् तत्र क्रमः । “ अस्मत्कुले मृता ये च गतिर्येषां न विद्यते । तेषासुद्धरणार्थाय इमं पिण्डं ददाम्यहम् ॥ मातामहकुले ये च गतिर्येषां न विद्यते । तेषामुद्धरणार्थाय इमं पिण्डं ददाम्यहम् ॥ बन्धुवर्गकुले ये च गतिर्येषां न विद्यते । तेषामुहरणार्थाय इमं पिण्डं ददाम्यहम् ॥ प्रजातदन्ता ये केचित् ये च गर्भे प्रपोडिताः । तेषामुहरणार्थाय इमं पिण्डं ददाम्यहम् ॥ अग्निदग्धाच ये केचिन्नाग्निदग्धास्तथा परे। विद्युञ्चौरहता ये च तेभ्यः पिण्ड़ ददाम्यहम् ॥ दावदाहे मृता ये च सिंहव्याघ्रताश्च ये । दंष्ट्रिभिः शृङ्गिभिर्वापि तेभ्यः पिण्डं ददाम्यहम् ॥ उदन्धनमृता ये च विषशस्त्र हताश्च ये । श्रात्मोपघातिनो ये च तेभ्यः पिण्ड' ददाम्यहम् ॥ अरण्ये वर्त्मनि वने चधया टपया हताः । भूतप्रेतपिशाचाश्च तेभ्यः पिण्डं ददाम्यहम् ॥ वने जले । " रोरवे चान्धतामिस्र कालसूत्रे च ये स्थिताः । तेषामुरणार्थाय इमं पिण्डं ददाम्यहम् ॥ अनेक यातना - संस्थाः प्रेतलोके च ये गताः । तेषामुद्धरणार्थाय इमं पिण्ड ददाम्यहम् ॥ अनेक यातनासंस्था ये नौता यमकिरेः । तेषामुरणार्थाय इमं पिण्डं ददाम्यहम् ॥ नरकेषु समस्तेषु यातनासु च ये स्थिताः । तेषामुद्दरणार्थाय इमं पिण्ड ददाम्यहम् ॥ पशुयोनिगता ये च पचिकौट सरीसृपाः । For Private And Personal Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । अयवा हक्षयोनिस्था स्तेभ्यः पिण्ड ददाम्यहम् ॥ जात्वन्तर सहस्रष चमन्तः स्खेन कर्मणा। मानुष्य टुर्लभं येषां तेभ्यः पिण्ड ददाम्यहम् ॥ दिव्यान्तरीक्ष भूमिष्ठा: पितरो बान्धवादयः। मृता असंस्कृताये च तेभ्यः पिण्ड ददाम्यहम् ॥ ये केचित् प्रेतरूपेण वर्तन्ते पितरो मम। ते सर्वे टप्तिमायान्तु पिण्ड दानेन सर्वदा ॥ ये बान्धवा बाधवा वा येऽन्च जन्मनि बान्धवाः। तेषां पिण्डो मया दत्तोऽक्षय्य प्रतिष्ठताम् ॥ घिटवंशे मृताये च मालवंशे च ये स्थिताः । गुरुख गुरबन्ध नां ये चान्ये बान्धवामृताः। ये मे कुले लुप्तपिण्डा: पुवदारांववजिताः। क्रियालोपगता ये च जात्यन्धाः पङ्गवस्तथा । विरूपा पाउगर्भाश्च ज्ञाताज्ञाताः कुले मम । तेषां पिण्डो मया दत्तोऽक्षय्यमुपतिष्ठताम् ॥ अव्रह्मगा ये पिटवंश जाता मातुस्तथा व शमवा मदोवाः । कुलहये वे मम दासभूतामृत्यास्तथैवाथितमेवकाच ॥ मित्राणि सख्यः पशवश्च वृक्षा दृष्टाह्य दृष्टाय कतोपकाराः। जन्मान्तरे ये मम दासभूतास्तेभ्यः स्वधा पिण्ड महं ददानि” ॥ अत्रोनविंशति पिण्ड षोड़शपिण्ड कं पारिभाषिकं पञ्चाम्नवत् । प्रौष्ठपद्य मश्वयुक्ऋष्णपक्षस्य प्रतिपदादिपञ्चदशक षष्ठयादि दशक एकादश्यादिपञ्चक बयोदश्यादित्रिक तिथिरूप कल्पचतुष्टयान्य तमेषु प्रतितिथिषु बाई कत्तव्य पूर्व पूर्व कल्पे फलभूयस्त्व तथा च ब्रह्मपुराणम्। “अश्वयुक कष्ण पक्षे तु श्राद्धं कुर्यात् दिने दिने। त्रिभागहीनं पक्षं वा त्रिभागं त्वमेव वा"॥ अई मेववेति अई कुटिवेत्य योगव्यवच्छ दपरं अर्द्ध तरन्य ना. व्यवच्छेदपरं वा उभयथापिऽई स्यावश्यकत्व तत्र विभागस्यैवाचत्वे सम्मवति न तु पक्षस्य तथाल्वे विभागकरणे अई मवेति नियमानुपपत्तेः । अश्व युगखिनो तयुक्त पोर्णमासी सम्बन्धालक्ष. या मासेऽप्यश्वयुक्पटप्रयोगः । ततश्च निमन्त्रणादौ पाखिने मासि कृष्ण पक्षे इत्येव स्वारमिकः प्रयोगः कर्तव्यः खारसिकवाक्ये दिने दिने तिथौ तिथौ। “तिथिनेके दिवसश्चान्द्रमाने प्रकीर्तितः”। इति विष्णुधर्मोत्तरौयानुसारेण गोणचान्द्राखिनस्यापि चान्द्रत्वेनाव दिनस्यापि तथैव युक्त त्वात् विष्णु For Private And Personal Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिधित खम् । धर्मोत्तरे। “उत्तरादयनात् बाहे श्रेष्ठ स्याइक्षिणायनम् । चातुर्मास्यञ्च तत्रापि प्रसुप्त केशवे हितम् । प्रौष्ठपया परः पक्षस्तत्रापि च विशेषतः। पञ्चम्यचच तत्रापि दशा म्यूई मतोप्यति। मघायुक्ता तु तत्रापि शस्ता राजं स्त्रयोदशौ ॥ वृहद्राजमार्तण्ड । मत्यपुराणम्। “कन्यां गते सवितरि दिनानि दशपञ्च च। पार्वणेन विधानेन बाई तत्र विधीयते । कार्णाजिनिभविष्योत्तरीययोः। “नभस्य यापरे पक्षे बाईकयात् दिने दिने। नैव नन्दादि वज्य स्थात् नैव वा चतुर्दशौ” ॥ नभस्यस्येति मुख्यचान्द्रेण भादस्य। पत्र प्रागुक्त देवीपुराणामधात्रयोदश्यां पुत्रवता पिण्डरहित श्राइन कते नैवाश्व युक्कल्पवादस्य निर्वाहो न त्वङ्गभूत पिण्डानुरोधेन बाहान्तरं कर्त्तव्यम् । “प्रधानस्याक्रिया यत्र साङ्गं तत् क्रियते पुनः। तदङ्गस्या क्रियायान्तु नाहत्तिनं च तत् क्रिया" ॥ इति छन्दोगपरिशिष्टात् । एवं प्रेतपचादिमतस्य पार्वणविधिना सांवसरिक श्राई कृते मातामहादि श्राहाय न पुनः पार्वणारम्भः। “पितरो यत्र पूज्यन्ते तत्र मातामहा ध्रुवम्"। इति वृहस्पतिवचनेन मातामहानामप्येवं बाई कुयाविचक्षणः ॥ इत्यनेन च पितुः बाहाधौनप्रवृत्तेः। एवमविभक्तसापत्न भावोरेकेन पावणे कतेऽपरण मातामहश्राहाय पुन: पावणं न करणीयम्। अतएव इत निर्णयेऽपि साग्निकौरसेन पितुः क्षयाहे पिवादि. त्रिकस्म श्राद्दे कृते तत्र मातामहथाहाय न पार्वणारम्भः वाजि. नवत्तस्याप्रयोजकत्वादियुक्ताम् । स्मृतिः। “तीर्थे तिथिविशेषे च गङ्गायां प्रेतपक्षके। निषिद्ध ऽपि दिने कुर्यात्तर्पणं तिलमिश्रितम्" ॥ गङ्गाद्यतिरिक्त तिलतपणस्य निषेधमा “पित्रोः श्राधे रवौ शक्र संक्रान्त्यां निशिसध्ययोः । सप्तम्यां वर्षौ च न कुर्य्यात्तिलतर्पणम्" ॥ प्रपच्चस्तु मलमासतत्त्वेऽनुसन्ध यः। भविष्थे। “येयं दोपान्विता राजन् ! ख्याता पञ्चदशौ भुवि । तस्यां दद्याबचेहत्तं पितृणां वै महालये" ॥ महालये कन्यागतापरपो नचेहत्तं मलमासादिना अमावास्यायामपि। मलमासे श्राहा For Private And Personal Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । भावमाह कौथमिः । “संवत्सरातिरको वै मासो यः स्यावयोदशः। तस्त्रियोदशे श्राइं न कुर्य्यादिन्टुमंक्षये" ॥ संवसार प्रदोपे। “एकराशिस्थिते सूर्ये यदि दर्शहयं भवेत् । दर्शवाहं सदादौ स्यात् न परव मस्लिम्बचे॥ यत्तु “जातकमणि यच्छाई दर्शयाई तथैव च। मलमामेऽपि तत्कायं व्यासस्य वचनं यथा" इति व्यासवचनं तत्पिण्ड पिटयजाख्यबाइपरमिति मलमासतत्त्व विकृतम् । प्रमावास्या ग्राहकालमाह छन्दोगपरिशिष्टम् । “पिण्डान्वाहार्यकं बाई होणे राजनि शस्यते। वासरस्य हतीयांश नातिसन्ध्यासमोपत:" ॥ पिगडान्बाहार्यकमिति। "ततः प्रभृति पितरः पिण्डसंज्ञान्तु लेभिरे ॥ इति मत्स्य पुराणात् पिण्डानां पितृणां प्रवाहार्य श्राई मासैकटप्तिमनकं यत्तथा तथा च मनुः । "पिण्डानां मासिकं श्राहमन्वाहार्य विटु. qधा:” ॥ राजनि चन्द्रे। शस्यत इत्यनेन क्वचिच्चन्द्रक्षयाभावेऽप्यमावास्या श्राई सूचितं एता दृगव्यत्पत्तेः। साग्निनिरग्निसाधारणत्वाइल्यमाण कात्यायनोतरीत्या क्षोणा स्तम्भितावईमाणाभेदः साधारणः। यत्तु "पियनन्तु निर्वत्यं विप्रश्चन्द्र क्षयेऽग्निमान्। पिण्डान्वाहार्यकं थाई कुन्मिासानुमासिकम् ॥ इति मनुवचनं तत्साग्निः पिण्ड. पिटयन निवयं मासानुमासिकं प्रतिमासिकं बाई कुर्वीतेति क्रमविधायकम् प्रवानुशब्दस्य वौसार्थकत्वं तथा च "लक्षणवौसे त्यम्भूतेष्वभिर्भागपरिप्रतो। अनुरेषु सहार्थे च होने उपश्च कथ्यते" चन्द्र क्षयेऽमावास्यायां न तु कात्यायनोक क्षये तथाले बईमानादो प्रतिमासानुपपत्तेः । एवमेव साइवि. वेकः । अतएव तत्रैवामावास्याव्यतिरित कृष्णपक्षविहित पार्वगाहे ययास्तमिति वचनाहावस्थेत्यक्तं तत्र साग्निकर्तव्यत्वा. विशेषितामावास्याव्यतिरैकाभिधानात् क्षीणादिभेदेन व्यवस्था साग्निनिरग्नि साधारणौत्यवगम्यते । एवञ्चामावास्यायां मृताह. नमित्तकौरस क्षेत्रज पुत्र कर्तव्य पावणेन चौयमाणादिना न विस्था किन्तु ययास्तमित्यनेन। एतहितं मलमासतत्त्वे । त्तुि दशम मुहर्तकस्य मत्यपुरायोलापरालिकलेऽपि श्रा For Private And Personal Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । तस्य त्यागः। पिण्ड पिटयज्ञार्थएवेति वासर हतीयांभाभिधानं साग्नि कपरमेवेति परिशिष्ट प्रकाशोक्तं तत्र युक्त "पूर्वाह्नो वै देवा नां मध्यं दिनं मनुष्याणाम् अपराह्नः पितृणाम् ॥ इति श्रुत्या तन्मुइतस्य मनुष्यकङ्गित्वेन बोधनादेव श्राद्ध परित्यागः। एतत् श्रुतिमूलकमेव वासरस्य टतीयांश इत्य त वासरस्य तौयांश त्रिधाविभक्तस्य दिनस्य तौयभागे नातिसध्यासमोपत इति सध्यासमोपैकमुहर्त आपद्यपि वर्जनौय इत्यर्थः । तेन “प्रात:कालो मुहत्ता स्त्रीन् सवस्तावदेवतु। मध्याह्नस्त्रिमुहूर्तः स्यादपरालस्ततः परम् ॥ सायात स्त्रिमुहर्तः स्याच्छाई तत्र न कारयेत् । राक्षमी नाम मा वेला गर्दिता सर्वकर्मसु ॥ इति मत्स्य पुराणे निषिद्ध. मुहर्तवये आपदि मुहर्तहयमभ्यनुज्ञातम् अतिशब्दस्वरसौत् । "निमुहूर्त्तापि पूर्वादशं च वद्धचैः” ॥ इति हारौत वचनाच तेन पूर्वदिने मुहर्तत्रयमात्र लाभे परदिने वासरतीयांशालाभे पूर्वदिन एव श्राद्धम् एतेन नातिसध्यासमोपत इत्यनेन राक्षसो वेलामा निषिध्यत इति मैथिलमतमपास्त सर्वकर्मसु नानदानादिष्वपि अनापदौत्यर्थ इति यादविवेकः । तेनाशतो तस्यामपि तत्करणम् अतएव पराशर: "दिवाकरकरैः पूतं दिवा स्वामं प्रशस्यते । अप्रशस्त निशि स्नानं राहो रन्यत्र दर्शनात् ॥ दशंदेधे कुत्र श्राइमित्याह छन्दोगपरिशिष्टे कात्यायनः । "यदा चतुर्दशी या तुरीयमनुपूरयेत् । अमावास्या क्षौयमाणा तदैव थाइमिष्यते” ॥ चतुर्दशौयाम चतुईयो मम्बन्धि दिनयाममिति तद्दिनस्यामावास्यासम्बन्ध ऽपि चतुर्दशौ नि? - शोऽधिकेन व्यपदेशा भवन्तोति न्यायात्। तेन यदा अमावास्याचतुर्दशोसम्बन्धि दिनस्य चतुथ प्रहरं कृत्व किञ्चिानंवा अनुपूर येत्। अत्रानुपूरयेदित्यभिधानात् तुरौययाम स्य पादान दण्ड हयान्यून प्रथम मुहूर्तस्य बहुकाल त्वं प्रतीयते । एतेन प्रहर नयाभ्यन्तरे किञ्चिदधिक प्रहरनये वा चतुर्दशी प्रतोयते। ततश्चोभयवासरीय शौयांशसम्बन्धि पञ्चधा विभ. बापराह्न सुइ त यो मुहान्य न द लाभे देधं नवे कदिनमात्रे For Private And Personal Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । १६८ तल्लाभे । तत्र पूर्वोर्तेन वासरस्य तृतीयांश इत्यनेनैव द्वैधानुदयात् । अतो यद्दिने वासर तृतीयांशे तादृश दर्शलाभस्तचैव श्राम् । मुहर्त्तेन तिथेस्तु कर्मानर्हत्वा देधावसरः । तथा च भविष्ये “ व्रतोपवासनियमे घटिकेका यदा भवेत् । सातिथिः सकलाज्ञेया पित्रर्थे चापराह्निको ॥” इति । अत्र च प्रागुक्त जावालिवचनोक्ता मुहर्त्तात्मिका घटिका ग्राह्या योग्यत्वात् नत्वेकदण्डात्मिका वच्यमाणरोहिणादिग्रहणे तथा दृष्टत्वाच्च । ततच पूर्वोक्तद्वैधे तद्दिवसीय चतुर्दश्यपेक्षया परदिन अमावास्या चीयमाणा न्यून कालव्यापिनौ न तु पूर्वापर दिवसीय यावञ्चतुर्दश्यपेचयाऽनुपस्थितः । एवं स्तम्भितावई - मानयोरपि तदैव पूर्वदर्श एव श्राम् । खोक्तचन्द्रश्चयानुरोधात् । यदा त्रिंशद्दण्डात्मकदिवसे चतुर्दश्यधिक चतुर्थयाम पूरणे मुख्यापराह्नीय किञ्चिन्नान मुहूर्त्त लाभस्तदापि तदैवेत्यनॅन चन्द्रचयानुरोधात् पूर्वदिने श्राद्धं नतु मुख्यापराह्नीयमुहतलाभेऽपि परदिने पत्र चन्द्रक्षयश्चतुर्दश्यष्टमयामात् प्रभृति श्रमावास्या सप्तमयामपय्र्यन्तमिति वच्यते । तदैवेत्येवका रश्रवणात्तिथिद्वैधे खण्ड विशेषो नियम्यते कर्मणि खण्डान्तरव्युदासाय । एवञ्च यत्र पूर्वापरदिने वासर तृतीयांशीयमुख्यापराह्न मुहर्त्तेन दर्शलाभस्तत्रापि पूर्वदिन एव श्राद्धं वासरतृतीयांश चन्द्रक्षयाति शब्दस्वरसात् । विमुहर्त्तापौत्यनुरोधाञ्च । यत्र तु पूर्वदिने विमुहर्त्तमात्रव्यापिन्यमावास्या - परदिने तृतीयांशमुहर्त्तव्यापिनो सतो चौयमाणा तत्र पर दिने चन्द्रचत्रयाभावेऽपि मुख्यापराह्नलाभात् श्राद्धम् अन्यथा " यदा चतुर्दशौयामं तुरौयमनुपूरयेत्” ॥ इति विशेषाभिधानं व्यर्थं स्यात् । अथं यत्र पूर्वा श्राद्धं तत्र " यदस्त्वव चन्द्रमा न दृश्येत ताममावस्यां कुर्वीत ॥ इति गोभिलविरोधः तथाविध चतुर्दशीयुक्तामावास्यायाः सिनोवालोवेन प्रातश्चन्द्रदर्शनात्। तत्राह स एव । " यदुक्तं यदहस्त्व े व दर्शनं नैति चन्द्रमाः । ततच्चयापेक्षया ज्ञेयं क्षौणे राजनि चेत्यपि ॥ यदहस्त्वव चन्द्रमा न दृश्यत ताममावास्यां कुर्वीत " । इति यत् गोभिलसूत्रं तच्चन्द्रचयाभिप्रायिक म् १५ For Private And Personal Use Only - Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्वम् । अन्यथा गोभिलीय सादृश सूत्रान्तरेण सह पौनरुत्यापत्ते: तस्मात् प्रथमसूत्रं कुइपरं तच बईमानापने नियतं क्षोणास्तभितयोस्तु यथायोग्यमनुसरणीयम्। एवञ्च यदहस्त्वे व चन्द्रमा न दृश्येत ताममावास्यां कुर्वीत ॥ इति श्रुतिरेतत् समानार्थकं श्रुत्यन्तरं वा तदपि बईमानादि परं न तु कात्या. यन वचनात्तत्र क्षयलक्षणा कल्पतरु प्रभृतिभिरुक्ता युक्ता “श्रुतिस्मृतिविरोधे तु श्रुतिरेव गरीयसी" ॥ इति विरोधात् । क्षौण इति कात्यायनेन मया यत् क्षौणे राजनीत्युक्तं तदपि क्षयाभिप्रायकम्। “प्रथैवं दृश्यमानेऽप्येकदा ॥ इति यहो. भिलस्य सूत्रान्तरं तहाथ यदपस्त्ववेत्यादि हितोयसूत्र प्राप्ततिथेः सिनौवालौत्वेनैव चन्द्रदर्शन प्राप्ते रित्यत आह स एव । “यञ्चोक्त दृश्यमानेऽपि तच्चतुर्दश्यपेक्षया। एमावास्यां प्रती. क्षेत तदन्ते वापि निर्वपेत् ॥ दृश्यमानेऽप्येकदेति यदुक्तं तच्च तुर्दश्यां श्राद्धाय पूर्वसूत्रममावास्यापदोपादानाञ्चन्द्रक्षये मांत अमावास्याविषयम्। इदं पुनरित्यम्भूतचतुर्दशीविषयमिति शाहविवेकः। तस्किममावास्यावश्चतुर्दशौत्यवाह प्रमावास्यां प्रतीक्षेते त उभय तिथिप्राप्तो पाहायामावास्या प्रतीक्षणीया यत्र पूर्वेदिने दिवासाई मुहर्तमात्रेमावास्या परदिन च साईदशम मुहर्त्तमात्रे लवचोभयदिने श्राड योग्यामावास्या न प्राप्यते तत्र तदन्ते चतुर्दश्यन्ते निर्वपेत् दद्यात्। अत्रैवविषये साग्निनिरम्योर्विशेषमाह कालमाधवोये जावालिः। “अपगहृदयाव्यापौ यदि दर्शस्तिथिक्षये । भाहिताग्नेः सिनीवाली निरन्यादेः कुइमता" ॥ पादिशब्दादनुपनौतशूद्रयोहणम् । क्षयमाह कात्यायनः। “अष्टमेऽशे चतुई श्याः क्षीणोभवति चन्द्रमाः। अमावास्याष्टमांश च ततःकिल भवेदणु: ॥ चतुर्दश्यष्टमे यामे चन्द्रमाः नौणः चतुर्थ भागोनकलावशिष्टो. भवति। “पवेन्दुराध प्रहरेऽवतिष्ठते" ॥ इत्यादिवरसात् । अमावास्याष्टमे यामे चाणुर्भवति पुनरुत्पद्यते किलेत्यागमवार्तायां तेनामावास्यायाः सप्तमे यामे कत्सूक्षय इत्यवगम्यते । ततश्चान्त्य कलावयवनाशोत्पत्तिरेव क्षयः सा च सूक्ष्म तायां विनाशेऽप्यस्तौति थाहविवेकः । उत्पत्तिराधक्षणसम्बन्धः तेन For Private And Personal Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितखम्। विनायस्थानन्तत्वेऽपि नातिव्याप्तिः। प्रत्रविशेषमाह स एव । “पाग्रहायण्यमावास्या तथा ज्येष्ठस्य या भवेत् । विशेषमाभ्यां वते चन्द्रचारविदोजना: ॥ प्राध्यामिति स्यफ्लोपे पञ्चमौ। में प्राप्येत्यर्थः चन्द्रचारविदो ज्योतिर्विदः । प्रत्र पौर्णमास्यन्तमास पति परिशिष्ट प्रकाशः। पत्र बीजं ब्रह्मपुराणौयतिथिकृत्यम्। तथा च प्राथमधिकृत्य ब्रह्मपुराणम्। पयोमूलफलैः शाकैः कृष्णपक्षे च सर्वदा ॥ पत्र कृष्णपक्षे चतुर्दशीयतिरिवायां यस्यां कस्याञ्चितिथौ साहविधानादमावास्वापि लभ्यत इति कोविशेष इत्ववाह स एव । “प्रवेन्दुराये प्रहरेऽवतिष्ठते चतुर्थभागोमकवावशिष्टः। तदन्त एव क्षयमेति कत्नमेवं ज्योतिषक्रविदो वदन्ति । अत्र मासहयेऽ ऽमावास्यायां चतुर्थभागोनकलावशिष्टः चतुर्थभागोना या कला तयावशिष्टः कलाभागबयमात्रः सवाद्ये प्रहरीऽवतिष्ठते। अर्थात् चतुर्दश्यष्टमयामे क्षयारम्भ इति तदन्त एव अमावस्यान्सयाम एव क्षयं कत्ममेति। अन्यत्रामावास्यासप्तमयाम रति विशेषः । तेन मार्गशीर्ष ज्य ठयोरुभयदिने चन्द्रक्षयलामे यद्यपि यदा चतुर्दशौयाममिति वचनात् पूर्वदिन एव श्रा प्राणोति तथापि सहचनं चन्द्रक्षयानुरोधमूलमिति कत्रक्षयानुरोधात् क्षोणायामपि परवापराह लाभे याहम् अन्यचैतहिशेषाभिधानं व्यर्थ स्यात्। अत्रापि विशेषान्तरमाह स एव । “यस्मिनब्द हादशैकश्च ययस्तस्मिंस्टतौयया परिदृश्यो नोपजायेत” यष्योमासः तौययामात्रया चतुर्थभागोनकलया परिदृश्यचन्द्रो न भवति किन्तु तदधिक न्युनकलयेति। सेन मलमासयुताब्दे पन्धमासवदनयोरपि चतुर्दश्यन्तयामादिदशंसप्तमयामपर्यन्तं चय इति । मलमासयुताब्दस्तु एकस्मामलमासादब्दहयानन्तराब्द स्तुतौ येऽब्दे मलमासस्यावश्यम्भावादिति। चन्द्रक्षयानुरुह क्षीणपक्षमुपसंहरति स एव । “एवं चार चन्द्रमसो विदित्वा क्षीणे तस्मिनपरा च दद्यात्"। एवं चारं गतिविशेषम्। स्तम्भितायां व्यवस्थामाह स एव । “सम्मिश्रया चतुर्दश्या अमावास्या भवेत् क्वचित्। खुर्वितां तां विदुः केचिदुपध्व For Private And Personal Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । १७२ मिति चापरे" ॥ क्षोणायाः पूर्वमुक्तत्वात बईमानायाश्च वच्य माणत्वादस्य वचनस्य स्तम्भितापरत्वम् । खर्वितां नौचाम् । पितृलोकप्रापणा नहीं केचित् यजुर्वेदिनः अपरे ऋग्वेदिनः तामेव उपेध्वमुपगच्छत श्राद्धायेति शेषः उपेध्वमित्यत्र गताध्वा मिति पाठे गतः प्राप्तः पितृलोकप्रापणाय श्रध्वाऽनयेति गताध्वा प्रशस्तेत्यर्थः । तस्माच्छन्दोगा उभयानुरोधादिच्छात उभयादरं कुर्वन्ति इति कात्यायनखरसः । व्यक्तमाह लघुहारीत: “त्रिमुहर्त्तापि कर्त्तव्या पूर्वादर्शा च वह चैः । कुहुरध्वर्युभिः कार्य्या यथेष्ट सामगौतिभिः " ॥ a faमुत्युपादानात् स्तम्भितायाः पूर्वदिने त्रिमुहर्त्तमाच लाभेऽपि वहथानां श्राद मुख्यापराह्न लाभादपि परदिने सामगानां तत्राव्यनियमः एतादृग्विषय एव उभयत्रापराह्नालाभेऽपौयं व्यवस्थेति श्राविवेकः । मुख्यापराह्नस्य एकदिन मात्र लामेऽप्युभय दिनालाभात । ८ वर्धमानायां व्यवस्थामाह कात्यायनः । " वर्द्धमानाममावास्यां लक्षयेदपरेऽहनि । यामां स्त्रोनधिकान वापि पिटयज्ञस्ततो भवेत्” ॥ यामां स्त्रीनिति पूर्वदिवसीय यामत्रयन्यून चतुर्दश्यपेचया अथैवं वासर तृतीयांशानुरोधेन श्राथविधानात् कथममावास्याश्राड पर्युदस्तरात्रप्रादौतरकालपरि ग्रहः सत्यम् । तिथिद्वैधे चौणादिभेदेन खण्ड विशेषपरिग्र हाय वासर तृतीयांशापेक्षा अन्यथोभयदिने वासर तृतीयांशाप्राप्तौ श्राद्धलोपापत्तेः प्रागुक्त निरग्न्यादेः कुर्मतेत्यस्य निर्विषयतापत्तेख अतः पर्य्यदस्तेतरकालस्यापि परिग्रहः यदा तु पूर्वापरखण्डयोरन्यतरस्यैव परिग्रहस्तदा यथा योग्यं तत्रैव सायाह्न मुहर्त्तद्दय पर्युदस्तेतरकाल कुतपादि मुहर्त्तपञ्चक रौहिणादि मुहर्त्तचतुष्टय वासर तृतीयांशौयापराह्न मुहर्त्तदयकाला यथाक्रममापत् सामान्य प्रशस्त प्रशस्ततर प्रशसतमत्वेन ज्ञेयाः एवमखण्ड तिथावपि नातिसन्ध्यासमौपत इति पूर्वोक्तत्वात्। " सायाह्न खिमुहर्त्तः स्याच्छ्राद्ध ं तत्र न कारयेत्” इति मत्स्यपुराणात् " रात्रौ श्राद्धं न कुर्वीत राक्षसोकीर्त्तिता हि सा । सन्ध्ययोरुभयोश्चेत्र सूर्ये चैवाचिरोदित" For Private And Personal Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । १७३ पति मनुवचनाभ्याम् "ऊई मुहर्तात् कुतपात् यन्मुहर्त चतुष्टयम्। मुहर्तपञ्चकं वापि स्वधाभवनमिष्यते” इति मत्स्यपुराणात् मुहर्तपञ्चक मित्यत्र कुतपादिति ल्यप्लोपे पञ्चमी कुतपमारभ्येत्यर्थः। ततस्तेनैव “अपराह्न तु संप्राप्ते अभिजिद्रौहिणोदये। यदव दीयते जन्तोस्तदक्षयमुदाहृतम् ॥ इत्यताम्। “पूर्वाह्नो वै देवानां मध्यं दिनं मनुष्याणाम् अपराह्नः पितृणाम् ॥ इति श्रुतेः। वासरस्य टतीयांश इति कात्यायनवचनं सायाङ्ग स्त्रिमुइतः स्याच्छाई तत्र न कारयेदित्येषामकवाक्यत्वाहासरतीयांशीयापराह्न मुहर्सहयस्य लाभ इति । अत्र “दर्शश्राद्धन्तु यत् प्रोक्त पार्वणं तत् प्रकीर्तितम्। अपराह्नः पितृणान्तु तत्र दानं प्रशस्यते" ॥ इति शाततपौय वचने प्रशस्यत इत्यभिधानात्"मासि मास्यपरपक्षस्यापराह्नः श्रेयान्" । इत्यापस्तम्बवचने श्रेयानित्यभिधानाच्च प्रशस्त्यतारतम्यं कल्पाते न तु मुख्य कल्पानुकल्पत्वमिति। अपरपक्षस्य कृष्णपक्षमात्रस्य तथा च श्रुति: पूर्वः पक्षो देवानामपरःपक्ष: पितृणाम्” इति एवज्ञामावास्या न निमित्तान्तरं किन्तु कृष्णपक्षनिमित्तकबाइस्य प्रशस्त कालपरा अतएव शतोस्तारतम्येन बहन् कल्पानाह गोतमः। “अथ श्राद्धममावास्यायां पितभ्यो दद्यात् पञ्चमी प्रति वापरपक्षस्य यथा श्राद्ध सर्वस्मिन् वा द्रव्य देशब्राह्मण सन्निधो वा कालनियमः शक्तिात इति” ॥ योऽयममावास्यादि कालनियमः स शक्तस्य सद्रव्यस्यारोगिणोबोदव्य इति श्राइविवेकः । अतएवामावास्यायामति प्राशस्त्यमाह निगमः । "अपरपक्षे यदहः सम्पद्यते अमावास्यायान्तु विशेषण" । तथा च मनुः । कृष्णपक्षे दशम्यादौ वर्जयित्वा चतुर्दशीम् । श्राद्ध प्रशस्तास्तिथयो यथैता न तथेतरा:” ॥ अत्र चतुदशौ वर्जनं तदन्ते वापि निर्वपदित्युक्त विषयेतरविषयमन्यथा तद्दचनं व्यर्थ स्यात् नचेदं शस्त्रहत पिटमात्रविषयं तस्य प्रकरणभेदादनुपस्थिते: अमावास्याया: प्रतीक्षायाः असम्भवे चतुर्दशी विधानाच्च। यत्तु “कायं श्राइममावास्यां मासिमास्युड़ पक्षये"। इति मार्कण्डेयपुराणेऽभिहितं तन्मासि मासि यत् काय बाई तच्चन्द्र क्षयेऽमावास्यां प्राप्यातिप्रशस्तं For Private And Personal Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७४ तिथितत्त्वम् । गोतमादि वचनैकमूलत्वाञ्चन्द्रक्षयाभावेऽपि बईमानादी श्राइविधानेनामावास्याया अलाभेऽपि चतुर्दश्यन्तयाम श्राद्ध विधानेन च विशिष्टविध्यनुपपत्तेश्च । यत्तु "अमावास्याष्टका कृष्णपक्षपञ्चदशौसु च। इत्यभिधाय “एतच्चानुपनी तोऽपि कुर्यात् सर्वेषु पर्व सु। श्राद्धं साधारणं नाम सर्वकामफलप्रदम् ॥ भायाविरहितोऽप्येतत् प्रवासस्थोऽपि नित्यशः । शूद्रोऽप्यमन्त्रवत् कुर्य्यादनेन विधिना बुधः" ॥ इति मत्स्य पुगणम्। तत्र अनुपनौतोऽपौत्यपि शब्देनोपनौतः समुच्चीयते । तत्रानुपनौतस्य जात मात्राहिताग्नेरुपनौतस्य च माग्नेः सम्भवात्तयोः। “न दर्शन विना श्राहमाहिताग्नेहि जन्मन:” इति मनुना कृष्णपक्षीय श्राइस्यामावास्यायां विधानात्तदेकवाक्यतया मत्स्य पुराण नित्यश इत्यने नामावास्याया यन्त्रित्यत्वाभिधानं तत्साग्निपरं कृष्णपक्षस्य यनित्यत्वाभिधानं तत्साग्निभिन्नस्य योग्यत्वात् एवमन्यानि वचनानि व्याख्ये. यानि। अत्र च वसुरुद्रादित्याकारेण पितृपितामहानां ध्यातव्यत्वं श्राद्धविवेकोक्तं व्यक्तमा “वसुरुद्रादित्यरूपान् थाहार्थे तर्पयेत् पितृन्। नामगोत्रे समुच्चार्य तिलस्तीर्थेषु संयतः” ॥ इति स्म त्यर्थसारमदनपारिजातकृत वचनमिति वस्त्रादौनां ध्यानमादित्य पुराणे "प्रसन्नवदनाः सौम्या वरदाः शक्तिपाणयः । पद्मासनस्था हिभुजा वसवोऽष्टौ प्रकीर्तिताः ॥ करे विशूलिनो वामे दक्षिणे चाक्षमालिनः। एकादश प्रकतव्या रुद्रास्ताक्षेन्दुमोलयः ॥ पद्मासन स्था बिभुजाः पद्मगर्भाङ्गकान्तयः। करादिस्कन्धपयन्सनाल पङ्गजधारिणः । इन्द्राद्या द्वादशादित्यास्तेजोमण्डलमध्यगाः”। पत्र पित. दयिताप्रयोगान्यनाधिकान्येतानि। “निधामाथ दर्भचयमासनेषु समाहितः। प्रेष्यानुप्रष्यसंयुक्त विधानं प्रतिपादयेत्” ॥ इति वचनात् “ब्रह्मणानामसंपत्तौ कृत्वा दर्भमयान् हिजान्। श्राद्धं कृत्वा विधानेन पश्चादिषु दापयेत् ॥ इति श्राइसूत्रभाष्यकर समुद्र करकृत वचनाच्च यस्य प्रषणस्य प्रत्युत्तरमवाधितं तद्युक्त कर्मणो विधानात् दर्भवटु रूप दर्भचयमादाय कर्मकरणे निमन्त्रितोऽस्मि हप्ताः स्म इति प्रत्यु For Private And Personal Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथि तत्त्वम् । तराभावानिमन्त्रणप्तिप्रशाभावः। कुरुष्वेत्यादि प्रत्युत्तरा. णान्तु अन्ये नापि सम्भवादनुज्ञादीनां कर्तव्यतैव। अनोत्सर्गानन्तरं भोजनात् पूर्व भोजन कालेऽपि मधुधातेति पाठस्तथा च याज्ञवल्करः। “सव्याहृतिकां गायत्री मधुवाता इति पचम्। जघा यथासुखं वाच्यं भुञ्जौरं स्तेपि वागयताः ॥ अनमिष्टं हविष्यञ्च दद्यादक्रोधनोऽत्वरः। प्राट श्व पवित्राणि जया पूर्वजपं तथा" ॥ पूर्वजपमित्यनेन तत्प्राप्तेः अत्र च भोजनात् पूर्व मधुमध्विति जपानन्तरम् अन्न होनमित्यादिकं पाठ्यम् “अनहोनं क्रियाहीनं विधिहौनच्च यद्भवेत्। तत् सर्वमछिद्रमस्वित्यु का यत्नेन भोजयेत् ॥ इति यमवचनात् । एवञ्च “यश्चैनं श्रावयेत् श्राचे ब्राह्मणान् पादमन्ततः। अक्षय्यमनपानन्तत् पितुस्तस्योपतिष्ठते ॥ इत्यादि पर्वणि श्राचे भारतीय श्लोक पादादि श्रावणोक्त: संक्षेपेण भारतवंशयनिरूपकत्वेन दुर्योधनो मन्मयो युधिष्ठिरो धर्ममय इति श्लोकहयं पठनीयम् अपहृतगुरुगवौमांसकृत श्राइमहत्वप्रकाशक पिढगाथात्व न सप्तव्याधा इति च पठनीयम् । अत्र मध्वसम्पत्तौ। “तं न लभ्यते यत्र शुष्कक्षौरश्च होमयेत्। चौरस्य च दधि ज्ञेयं मधुनश्च गुड़ो भवेत् ॥ इति मत्स्य सूक्त वचनेन “मधु यत्र न विद्यत तत्र जीर्णगुड़ो भवेत्"। इत्यायुर्वेदीयेनापि प्रतिनिहिह गुड़े प्यविकृत एव मधवातादि मन्त्रः पठनीयः। “तैलं प्रतिनिधि कुर्यात् यज्ञार्थे याज्ञिको यदि। प्रक्लत्यैव तदा होता ब्रूयाद्पृतवतौमिति । इति यज्ञपा वचनदर्शनात् "शब्दविप्रतिपत्तिः”। इति श्रोतकात्यायनसूत्राच्च। प्रतिनिहित. द्रव्ये श्रुतशब्दः प्रयोज्यः श्रुतद्रव्यबुद्या प्रतिनिध्युपादानाच्छब्दान्तरप्रयोगे द्रव्यान्तरबुद्धिप्रसङ्गात्। एवं हस्तादावग्नी करणेऽप्यग्नो करिष्य इति । वैदिकप्रयोगमावे प्रणवादित्वमाह योगियाज्ञवल्करः । "यन्य नञ्चातिरिक्तच्च यच्छिद्र यदयजियम्। यदमेध्यमशुइञ्च यातयामञ्च यद्भवेत्। तदोङ्कारप्रयुक्त न सर्वञ्चाविकलं भवेत् ॥ तस्य पूर्वपाठमाह भगवहौतायाम्। तस्मादो: For Private And Personal Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम्। मित्युदाहृत्य यज्ञदानतपः क्रियाः। प्रवर्तन्ते विधानोक्ताः सततं ब्रह्मवादिनाम्" ॥ तथोदाहृतं ब्रह्मपुराणे । “तानग्नौ करिष्य इति प्रणत: प्रार्थयेहिजान्। कुरुष्वेति स तैरुत्तो दक्षिणाग्नि समाह्वयेत् ॥ पत्र प्रश्ने तदनुपदेशात् उपदेशेऽधिकगुणत्व प्रतीयते। इति प्रश्नेऽपि प्रणवादित्व युक्तम् अतएव पिटदयिताकत्यप्रदौपादिषु तथा लिखितम् । एवञ्च सर्वत्र वैधप्रश्नोत्तरादौ प्रणवादित्वे फलाधिक्य मेव तथा अग्निदग्धेत्यनविकरणानन्तरं हस्तहयप्रक्षालनाचमन हरिस्मरणं कत्वा गायत्री मधवातादिवयं मधुवयञ्च जपेत्। तथा च ब्रह्मपुराणम्। तत: प्रक्षाल्य हस्तौ च पाचम्य च हरिं सारेत्। प्रेतभागं विसृज्याथ प्रायश्चित्तोपशान्तये ॥ सव्याहृतिं सप्रणवां गायत्रौञ्च ततो जपेत् । पाठेन्मधुमतीः पुण्यास्तथा च मधुमध्विति" ॥ प्रायश्चित्तोपशान्तये प्रायश्चित्तसाध्या या उपशान्तिस्तत् सिद्धये। गायत्रौजपविधिमाह योगियाज्ञवल्काः। "प्रगावं पूर्वमुच्चार्य भूर्मुवः स्वस्ततः परम् । गायत्रौप्रणवश्चान्ते जपेह्येवमुदाहृता" ॥ अत्रान्तेऽपि प्रणवश्रुतेः “तिठे दोदयनात् पूर्वी मध्यमामपि शक्तितः। प्रासौ. तोड़ हमाञ्चान्त्यां सन्ध्या पूर्वत्रिक जपन्” ॥ इति छन्दोगपर. शिष्टोक्त पूर्वत्रिक प्रणवव्याहृतिसावित्रीरूपमिति तत्प्रकाशकव्याख्यानञ्च प्रणवत्व न इयोरेक्यादविरुद्धमिति श्राद्वाद्यवसाने पिण्डाथ कुशास्तरणात् पश्चात् अवनेजनात् प्राक् देवताभ्य इति त्रि: पठनीयम्। “उपवेश्य जपेद्धीमान् गायत्री तदनुजया। मन्वं वक्ष्याम्यहं तस्मादमृतं ब्रह्मनिम्मितम् ॥ देवताभ्यः पिटभ्यश्च महायोगिभ्य एव च। नमः स्वधायै खाहायै नित्य मेव भवन्विति ॥ आद्यावसाने श्राइस्य विरावृत्त्या जपेत् सदा। पिण्ड निवपणे चैव जपेदेतत् समाहितः ॥ पाठ्यमानमिमं श्रुत्वा श्राद्धकाल उपस्थिते। पितरः क्षिप्र. मायान्ति राक्षसाः प्रद्रवन्ति च ॥ इति ब्रह्मपुरागात् । ___ गोत्रपदमेवोच्चार्यम्। “गोत्र स्वरान्तं सर्वत्र गोत्रस्याक्षय्य कर्मणि। गोवस्तु तर्पणे प्रोक्तः कर्ता एवं न मुह्यति” । इति गोभिलेन विशेषतोऽभिधानात्। एवं “सर्वत्रैव पित: For Private And Personal Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । १७७ प्रोक्त पिता तर्पणकमणि। पितुरक्षय्यकाले तु अक्षयां प्तिमिच्छता" ॥ इति गोभिलवचनान्तगत् पितरित्य व वव्यं ससम्बन्धिकशब्दानां पदिन्यायेन स्वसम्बन्धिपरत्वाच्च नत्वस्मत् पितरिति अन्यथा एतदस्मदनमित्याद्यभिन्लापापत्ते: एवं यजर्वेदिनां पिण्डशब्दो नपुंसकलिङ्गेन प्रयुज्यते यथा वनिता पिण्ड दद्यादमावेतत्ते इति श्राइविवेककृतपिण्डपितयनीयकात्यायनवचने पिण्ड विशेषणत्वे नैतदिति नपुंसकनिर्देशात् “भाषेतैतच वै पिण्ड यज्ञदत्तस्य पूरकम्" । इति ऋष्यशृङ्गवचनेऽपि तथा दर्शनाच पिण्डान दत्त्वा कर सम्माज्य प्रक्षाल्याचम्य हरिं स्मरेदित्याह ब्रह्मपुराणम्। “ततो दर्भेष विधिवत् सम्माज्यं च कर ततः। प्रक्षाल्य च जलेनाथ विराचम्य हरिं स्मरेत् ॥ यद्यपि करमम्माजनादौनि पितपक्षे उक्तानि तथापि पितपावण एव "मातामहानामप्येवं देव पूर्व श्राद्धं कुर्वीत"। इति गोभिलसूत्रेण पिढपक्षधम्मातिदे. शेन एकोद्दिष्टादि श्राद्धेऽपि अावाहनादि निषेधानुपपत्त्या पार्वणधमातिदेशात् सर्वत्र तानि प्राप्तानि किन्तु पार्वणे षट्पिण्डदानानन्तरं सामगेतराभ्युदयिकादौ नवपिण्डदानानन्सरच तन्त्रेणैतानि कार्याणि लाघवात् आग्नेयादिवयेषु प्रयाजादि तन्त्रतावत् तत्रापि पिटपक्षास्तुतदर्भेषु करसम्माजनं लेपभागिनो वृद्धप्रपितामहादों स्त्रोनुद्दिश्य कर्तव्यं “न्यप्य पिण्डां स्ततस्तां स्त्रोन प्रयतो विधिपूर्वकम्। तेषु दर्भेषु तं हस्त प्रमृज्याल्लेपभागिनाम् ॥ लेपभाजचतुर्थाद्याः पित्राद्या: पिण्डभागिनः। पिण्डदः सप्तमस्तषां सापिण्ड साप्तपौरषम् ॥ इति यथास्थानस्थमनुवचनाभ्यां सहैकवाक्यत्वात् इति तदपि दर्भाणां मूले “दक्षिणाग्रेषु दर्भेषु पुष्पधूप समन्वितम्। स्वपित्रे प्रथमं पिण्ड दद्याच्छिष्टसन्निधौ ॥ पितामहाय चैवाथ तत्पित्रे च ततः परम् । दर्भमूले लेपभुजस्तपंयेल्लेपघर्षणैः । पिण्डै मर्मातामहांस्त हत् गन्धमाल्यादिसंयुतैः । प्रौणयित्वा हिजाग्राणां दद्यादाचमनं ततः” ॥ इति विष्णुपुराणात्। नचैतत् पाठकमान्मातामहपिण्डदानात् प्राकलेपघर्षणमिति वाच्य “सर्वेषु मधुमध्वित्यक्ष ब्रमो मदन्तेति For Private And Personal Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७८ तिथितस्वम् after at स्त्रीन् पिण्डान् दद्यादवनिव्य" इति गोभिलस्व “दभेषु वीं स्वौन् पिण्डान् भवनिन्य दद्यात्” इति कात्यायनटच त्रीं स्त्रोमिति वौसा दर्शनात् पपिण्डदानमध्ये पिण्डदानेति कर्त्तव्यताव्यतिरितानां निवृत्तिः प्रतीयते प्रतएव पितृदयिता श्राद्धकल्पतरुप्रभृतिभिः षपिण्डदानानन्तरमेव करघर्षणं लिखितम् । विष्णुपुराणन्तु दर्भमूल विधायकं न तु क्रमविधायकम् अन्यथा प्रत्यवनेजनदानादे: प्रागपि तदुक्तब्राह्मणाचमनापत्तेः । पुष्पधूपसमन्वितं पिण्डदानं शाखि भेदपरमिति । अतो मतामहपचे न करमार्जनमिति एकोद्दिष्टे तु लेपभुजामसम्भवेऽपि निरुद्देश्य ककरमार्जनप्रचालनाथमनहरिस्मरणानि कार्य्याणि साधारणप्रवृत्तप्रागुक्त ब्रह्म पुराणात् । अत्र श्राचिन्तामणिः । विःपिवेहोचितं तोयमित्यादिना तावदाचमनं विहितं तदव विरावर्त्तते भाचारप्रदीपोstraमिति तत्र “विराचामेदपः पूर्वं हिः प्रमृज्यात्ततोमुखम्" । इति मनुवचने उदगग्नेरुत्क्रम्य “प्रश्चास्य पाचौ पादौ चोपविश्व विराचामेत् । ह्निः परिमृजत पाणि पादावभ्यच्य शिरोऽभ्युचयेदिन्द्रियाण्यद्भिः संस्पृशे दक्षिणो नासिके कर्णौ ॥ इति गोभिलसूत्र च त्रिः पिवेदित्यचैव विराचामेदित्यवाभिधानादवापि तथैव युक्तत्वात् मनौ गोभिलेऽपि तथार्थत्व े पूर्वापराङ्गाभिधानं व्यर्थं स्यात् तस्मात् ब्रह्मपुराणेऽपि चिराचामेत् त्रिः पिवेदित्यर्थः । श्रोदत्तोऽप्येवम् । पिण्डपूजानन्तरं वसन्तायेत्यस्य पाठः । तथाच ब्रह्मपुराणं "पूजयित्वा तु पिण्ड स्थान् पितृ व प्रणमेतून् । वसन्ताय नमस्तुभ्यं प्रौमाय च नमोनमः || वर्षाभ्यश्च शरत् संज्ञ ऋतवे च नमः सदा । हेमन्ताय नमस्तुभ्यं नमस्ते शिशिराय च ॥ माससंवत्सरेभ्यश्च दिवसेभ्यो नमो नमः ॥ इति ब्राह्मणनिमन्त्रणपचे यमः । " प्रार्थयेत्तु प्रदोषान्ते भुक्तानं शयितान् द्विजान् । सर्वायासविनिर्मुक्तः कामक्रोधविवर्जितैः । भवितव्यं भवविश्वोभूते श्राद्धकर्मणि ॥ ते तं तथेत्यविघ्न ेन याति चेद्रअनो सुखम् " ॥ प्रार्थयेत् निमन्त्रणपूर्वकं नियममर्थयेत् । For Private And Personal Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । १७८ 1 तत्रियममाह सर्वायासेत्यादि । ते ब्राह्मणास्तं निमन्त्रयितारं तथेत्यूचुरिति शेषः । पत्रक ब्राह्मणनिमन्त्रण पक्षेऽपि प्रकृताबूडाभावात्र बहुवचनस्थाने एकवचनौहः नवावाधः वैभक्तिकार्थापेक्षया प्राथमिकत्वेन बलवतः प्रातिपादिकार्थस्य समवेतार्थत्वेन नियोज्यत्वात् किन्त्वविकृत एव मन्त्रः पाव्यः । मत्स्यपुराणे । “त्व मयात्र निमन्त्रित इत्युपक्रम्य बहुवचनान्त मन्त्रपाठाच्च तदुतथा " दक्षिणं जानु अलभ्य त्व मयात्र निमन्त्रितः । एवं निमन्त्रा नियमान् श्रावयेत् पैटकान् बुधः" ॥ तत्रियममाह "अक्रोधनैः शौचपरैः सततं ब्रह्मचारिभिः । भवितव्यं भवद्भिश्च मया च श्राद्धकर्माणि ॥ प्रकृतावेवं प्राप्तत्वात् एकोद्दिष्टेऽपि मोहः । एवं देवताभ्यः पितृभ्यखेत्यन एवं पाठ्यः पितृपदस्यान्निखात्तादिपरत्वात् aa परदिननिमन्त्रणे सर्वायासेत्यस्य न पाठः खः पदानन्वयात् किन्त्वक्रोधनैरित्यस्य पाठः । स्मृतिः । " प्रातःकाले पिटवाडे षष्ठयाञ्च बादशोषु च । सुरास्नानसमं तैलं पितरं नरकं नयेत्” । पुष्पवासितादौ प्रतिप्रसवमाह स्मृतिः । " घृतच सार्षपं तैलं यत्तैलं पुष्प वासितम्। प्रदुष्ट पतैलञ्च नानाभ्यङ्गे च नित्यशः " ॥ fuar कणि दक्षिणामुखेन पादौ प्रचालनौयौ । “प्रथमं प्राङ्म ुखः स्थित्वा पादौ प्रचालयेच्छनैः । उदङ्म ुखो वा दैवत्ये पैढके दक्षिणामुखः” ॥ इति देवलवचनात् । राघवभट्टष्टतं वास्तुशास्त्रद्यमवचनम्। " श्रहाधिकरणे यत्र नार्चितोवास्तुदेवतः । तत्र शून्य' भवेत् सर्वं रक्षोविघ्नादिभिर्हितम् । तस्माद्दास्त्वर्त्तनं कार्य्यं सम्यक् सम्पदमोस भिः” ॥ अन्नपाके सपिण्डाधिकारमा कल्पतरौ देवलः । " तथैवामन्त्रितो दाता प्रातः स्नातः सहाम्बरः । श्रारभेत नवैः पात्र रन्वारम्भं सबान्धवः " ॥ श्राचिन्तामणावप्येवम् । तथैवामन्त्रित इति पाठे सर्वायासविनिर्मुक्तत्वादिभिर्निमन्त्रित इत्यर्थः । महाम्बर इति द्वितीयवस्त्रप्राप्त्यर्थम् एकवस्त्रस्य नग्नत्वप्रतिषेधेन प्राप्त - स्वात् एतेन कुशरज्यादिवस्त्रप्रतिनिधिर्नात्र भवतीति सूचि तम् । एवमेव खाने ब्रह्मदत्तभाष्यकल्पतरवः । ब्रह्मपुराणे । । For Private And Personal Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८० तिथितत्त्वम् । "परकीय गृहे यस्तु खान् पितृ स्तर्पयेन्नड़ः । तमिस्खामिनस्तस्य हरन्ति पितरा बलात्। श्रग्रभागं ततस्तेभ्यो दद्यान्मूल्यञ्च जौवताम्” ॥ गृह इति भूमिमात्रपरं तद्भ स्वामि पिटहरणस्य हेतुत्वेनाभिधानात् मूल्यदानाग्रदानयोः प्रत्येकं हरनिवर्त्तकत्वेन वैकल्पिकत्व ततश्च श्राड विघातनिवत्तंकत्वेन तदङ्गत्वात् पितरौत्या भूस्वामिपितृभ्यः प्रथमतो देयम् । श्रतः पार्वणादौ प्राचौनावौतित्वादिना नान्दीमुखे उपवौतित्वादिनेति । अव पितृपदस्य प्राप्तपितृलोकमात्रपरत्वे प्रेतानां हरणासम्भवात् । सुतरां स्वधेति निर्देश्यम् । प्रमौतमात्रपरत्वेऽपि " न वधाच्च प्रयुब्जौत प्रेतपिण्डे दशाहिके" । इति ऋष्यशृङ्गवचने दशाचिकत्व श्रवणादन्यत्र स्वधा प्रयोगादत्रापि तथा । श्रसवर्णोई देहिक निषेधस्य भ्रात्रादिप्रकरणौयत्वादन्यभूमात्रे अग्रदानमिति भौष्मतर्पणेऽप्य ुक्त श्रीदत्तीऽप्येवम् । लिङ्गपुराणे “ शालग्रामशिलाये तु तच्छा क्रियते नृभिः । तस्य ब्रह्मान्तिकं स्थानं तृप्ताश्च पितरा दिवि ॥ विष्णुपुराणे "चित्तञ्च वित्तञ्च नृणां विशुद्ध शस्तच कालः कथितो विधिश्व | पाव यथांत परमा च भक्तियां प्रयच्छन्त्यभिवाञ्छितानि” ॥ ब्रह्मपुराणे । “यस्त्वासन्नमतिक्रम्य ब्राह्मणं पतिता । दूरस्थं भोजयेन्मूढ़ो गुणाढंग नरक व्रजेत् ॥ तस्मान्नातिक्रमेत् प्राज्ञी ब्राह्मणान् प्रातिवेशिकान् । सम्बन्धिनः तथा सर्वान् दीक्षित्र विट्पति तथा ॥ भागिनेय विशेषेण तथा बन्धून् ग्टहाधिपान् । नातिक्रामन्नरश्चैतान् सुमूर्खानपि गोपते। श्रतिक्रम्य महारौद्र रोरव नरकं व्रजेत्” ॥ ब्राह्म मोऽवाल्पविद्यः । मूर्खब्राह्मणातिक्रमे दोषभावस्य व्यास - दिभिर्नास्ति मूर्ख व्यतिक्रम इत्यनेनाभिधानात् । विपातजमाता सुमूर्खानिति सम्बन्धि दोहित्रादि विशेषणांमति कल्पतरुरत्नाकरो । मत्स्यसूक्त े : "शस्ताः समूला दर्भाच गुच्छेन चाधिककं फलम्” इति अग्नी करणहोमे मत्स्यपुरा णम् । “अग्न्यभावे तु विप्रस्य पाणावेत्र जलेऽपि वा । यत्त श्रादान्न परिवेशनन्तु दक्षिणपाणिमात्रेणैव अङ्गानभिधानादिति मे[थलोक्त ं तन्न "एकन पाणिना दत्तं शूद्रदत्त' न भचयेत्” । For Private And Personal Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । १८१ इत्यादि पुराणोयेनैकपाणिदत्तभक्षण निषेधेन तन्मात्रपरि वेशनस्यापि निषिडत्वात् व्यक्तं मत्स्यपुराणौयपितृकल्पे "उभाभ्यामपि हस्ताभ्यामाहृत्य परिवेशयेत्” । पाणिभ्यामपि पात्रान्तरितं कृत्वा देयम् । “हस्तदत्ताश्च ये स्नेहा लवणं व्यञ्जनानि च। दातारं नोपतिष्ठन्ते भोक्ता भुक्त च किल्विषम् ॥ तस्मादन्तरितं देयं पर्णेनाथ तृणेन वा । प्रदद्यान्न तु हस्त ेन नायसेन कदाचन" ॥ इति वशिष्ठेन सामान्यतो विधानात् पितृभक्तितरङ्गिण्यामप्येवम् । वृहस्पतिः " यद्य ेकं भोजयेत् श्राड स्वल्पत्वात् प्रक्कृतस्य च । स्तोकं स्तोकं समुद्धृत्य तेभ्योधनं निवेदयेत्” ॥ प्रकृतं श्राद्दोचितं द्रव्य स्तोकं स्तोकं पात्रे समुद्दत्य एकस्मिन्नेव पित्रादिभ्यो विभज्यान निवेदयेत् संकल्पयेदित्यर्थः । वृष कृष्णभूजा तेनैव वैधकम्माचरणं तथा च हरिवंशे शत्र प्रति सुरभिवाक्यम् । “कर्षकान् पुङ्गवैर्वायैर्मेध्येन हविषा - सुगन् । श्रियं शकृत् प्रवृत्तेन तर्पयिष्यामहे वयम्” ॥ अत्र पुङ्गवैग्त्युिपादानात् तेन च स्त्रो गवौवाहनस्यावैधत्वेन तज्जातद्रव्यस्यावैधत्वं प्रतौयते । श्राहयपाननिषेधे पैठीनसिः । "सौमकाय सपाषाणपात्राणि होनपात्राणि भग्नपात्राणि चेति” । हारीतः । " डौनपात्रन्तु तत् प्रोक्तं न्यूनमष्टाङ्गलात्तु यत्” । स्मृतिसारसागरे स्मृतिः । " नारिकेलजलं कांस्ये ताम्रपा स्थितं मधु । गव्यञ्च ताम्रपात्रस्थं मद्यतुल्यं घृतं विना ॥ ताम्रपाष्टतं मांसं यश्च गव्यं घृतेतरत् । श्रामिषन्त गवां मासं दधिमद्यं पयोरजः ॥ द्रव्यान्तरयुतं मांसं पयसा संयुतं दधि । पयोऽनुद्धृतसारच ताम्रपात्रो न दुष्यति” ॥ एतत् पराधीनुसाराच्छारदातिलकोक्तम् । "ततश्च संस्कृते वह्नौ गोक्षौरेण चरु पचेत् । अस्त्रेण चालिते पात्र नवे ताम्रमयादिके” ॥ अस्त्रेण अस्त्रमन्त्रेण । डशातातपः । पात्र तु मृण्मये यस्तु श्राड भोजयते पितॄन् । स वै दाता पुरोधाव भोक्ता च नरकं व्रजेत् ॥ गुणांश्च सूपशाकाद्यान् पयोदधि घृतं मधु । विन्यसेत् प्रयतः सम्यक् भूमावेव समाहितः " ॥ भूमौ न तु पावान्तरोपरि तत्तत् पात्राणि । मार्कण्डय - १६ For Private And Personal Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८२ तिथितत्त्वम्। पुराणम्। “अभक्ष्यं यत् स्वरूपेण निषिद्ध स्नातकेषु च । वर्जनौयं प्रयत्नेन तव्यं श्राद्धकर्मणि" ॥ विष्णुः। “कुष्माण्डालाववार्ताको ग्राम्यमाहिषदुग्ध कम्। पालकीं राजिकां या हिःखिनञ्च विवर्जयेत्” ॥ हिः खिन्नञ्च तदेव यत् सूपकार शास्त्रोक्तापेक्षितपाकनिष्यत्त्यनन्तरं शैत्यादिनिवृत्तये पुनः पाकान्तरमुक्तं नत्वपाकानन्तरतच्छास्त्रोक्तसम्भारणरूप. पाकान्तरसिद्ध व्यञ्जनादि अतीतार्थक्त निर्देशात् अतएव भृष्टानन्तरं गुड़ादिपक्कं मोदकादिकं शिष्टैर्दीयते भुज्यते च अन्यथा हिः संस्कृतस्य तस्य भोज्यत्व न स्यात् “पर्युषितं पुनः सिद्धमभोज्यमन्यत्र हिरण्योदकस्पर्शात्" इति ममन्त ते शातातपोऽपि। “गोकुले कन्दुशालायां तैलयन्वेक्षुयन्त्रयोः । अमीमांस्यानि शौचानि स्त्रीषु बालातुरेषु च ॥ वालोऽत्र पञ्चवर्षाभ्यन्तरवयस्कः अमौमांस्यानि शौचाशीचभागितया न विचारणौयानौति भवदेवभट्टरत्नाकरादयः । अतएव कूर्मपुराणम् । "कन्दुपक्कानि तैलेन पायसं दधि शतावः । हिजैरेतानि भोज्यानि शूद्रगेहकतान्य पि” ॥ कन्दुपक्कं जलोपसेकं विना केवल पावे यत् वङ्गिना पकं भृष्टतण्डु लादि। यमोऽपि । “अपूपाच करम्भाश्च धाना वटकशक्तवः। शाकं मांसमपूपच सूपं वषरमेव च ॥ यवागु पायसञ्चैव यच्चान्यत् स्नेहसम्भवम् । सर्व पर्युषितं भक्ष्य सूतञ्च परिवर्जयेत्” ॥ वृतपक्कापक्कतया पूपापूपवैविध्य सूक्तं यन्मधुरं कालवशादम्बतां गमिति प्रायश्चित्तविवेकः। करम्भो दधिशतवः । मनु: “दधिभक्ष्यञ्च सूतषु सर्वञ्च दधिसम्भम्” । भक्ष्यमिति शेषः । देवलः। “ये चान विखदेवार्थ विप्राः पूर्व निमन्विताः । प्राम,खान्यासनान्येषां हिद पहितानि च ॥ दक्षिणामुखयुक्तानि पितृणामासनानि च। दक्षिणाक दर्भाणि प्रोक्षितानि तिलोदकैः ॥ ब्रह्मपुराण। “पृथक् पृथक् चासनेषु तिलतैलेन दोपकाः। अविच्छिनास्तथा देयास्ते तु रक्षन्ति वैदिजान्” ॥ प्रासनेषु तत्सविधानेषु अविच्छिन्ना बादकालावधिस्थायिनः । विष्णुपुराणे पिण्डानुपक्रम्य “पूजयित्वा हिजाग्रयाणां दद्यादाचमनं ततः। पैत्र भ्यः प्रथमं भक्त्या For Private And Personal Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । १८३ तन्मनस्को नराधिप । सुखधेत्याशिषा युक्तां दद्याच्छक्त्या च दक्षिणाम् । विजाग्रप्राणां विश्वदेवादि पचत्रय श्राभोक्तृगाम्” ॥ पैत्रेभ्यः प्रथमं भक्त्या तेषां ब्राह्मणानां मध्ये पिटब्राह्मणेभ्यः प्रथमम् आचमनं दक्षिणाञ्च दद्यात् ततश्च दक्षि पाया दैवादित्वाभावः प्रतीयते । न च मातामहापेक्षया पिकमात्र एव प्राथम्यस्य प्रागुक्तत्वादनुवादापत्तेः सु स्वधेति शाख्यन्तरोयम् इदानीन्तनौया दक्षिणापि शाख्यन्तरीया । यजुः सामविदोस्तु न्यजोत्तानानन्तरम् । तथा च कात्यायनगोभिलौ । “उत्तानं पात्र कृत्वा यथाशक्ति दक्षिणां दद्यात् ” इति । मत्स्यपुराणे । " दत्त्वा पिण्डान् पितृभ्यस्तु रजतं दक्षिणां दद्यात् । स्वस्तौत्युक्ते द्विजैस्तैस्तु सुरान् हेम्ना प्रतपयेत् वाजेवाजे इति जपन् कुशाग्रेण विसर्जयेत्। रतिशक्तिः स्त्रियः कान्ता भोज्य भोजनशक्तिता ॥ दानशक्तिः सविभवारूपमारोग्य सम्पदः । श्राद्धपुष्पमिदं प्रोक्तं फलं ब्रह्मसमागगः " ॥ पुष्पं तद्ददल्पं फलं तद्दत् महत् । बृहस्पतिः । वन्दिभ्यश्चैवमर्थिभ्योऽप्यस्वार्थिभ्योऽन्नमर्थितः । यदि तत्र न दद्याच विफलं शक्तितो भवेत्” ॥ वन्दिनो वौर्यस्तोतारः । अर्थितः सन् यदि एभ्योऽन्नं शक्तितो न दद्यात् तदा श्राड. निष्फलं भवेदित्यर्थः । तत्र श्राद्धोत्तरकाले आशौर्ग्रहणञ्च “ ततः स्वधावाचनिकं विश्व देवेषु चोदकम्। दत्त्वाशिषः प्रगृहीयात् विजेभ्यः प्राप्त खः पृथक्” इति मत्स्यपुराणवचनस्य "दक्षिण दिशमाकांचन याचेतमान् वरान् पितृन्” इति मनुवचनस्य च सामञ्जस्यादुपवौती प्रान खो दक्षिणां दिशं मनसा पश्यन् कुय्यादिति वाचस्पति मिश्राः तन्न “ पिण्डपितृयज्ञवदुपचारः पित्रे” इति गोभिलसूत्रेण वैश्वदेव कमातिरिक्त दक्षिणामुखत्वप्रतीतेः । दक्षिणां दिशमाकांक्षनिति मनुवचनस्य तथार्थत्वे प्रमाणाभावाच्च । श्रतएव दचिणां दिशमाकांचन् वौक्ष्यमाण इति टीकाकारैर्व्याख्यातम् । मनुना च आकांक्षत्रित्यनन्तरं " दातारो नोऽभिवर्द्धन्ताम् अनञ्चैवेत्य दौरयन् । प्रभ्युदौरयन्" इत्येव पठितं न तु " अघोराः पितरः सन्तु ” इति । मत्स्यपुराणवचनेऽपि अक्षय्योदकदानानन्तरं दत्त्वेति न For Private And Personal Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८४ तिथितत्त्वम् । पठितं किन्तु “ ततः स्वधा वाचनिकं विश्वेदेवेषु चोदकम् ” इत्यनन्तरं दत्त्वाशोरित्यर्द्ध' पठित्वा " अघोराः पितरः सन्तु सन्वित्य ुक्तः पुनर्द्विजैर्गोत्र तथा वर्द्धतां नस्तथेत्युक्तः स तैः पुनः । दातारो नाऽभिवर्द्धन्तामन्नञ्चैवेत्य दौरयेत्” इति पठितं ततश्च शाखिविशेषे एतादृशक्रम कर्माणि प्राङ्म ुखत्वं नतु गोभिलाद्य क्तकणि अतएव पितृदयितादावाथौ: प्रार्थने प्राङ्मुखत्वं नाभिहितम् । ु ू कुशाग्रेण विसर्जनमाह मत्स्यपुराणं "वाजे वाजे इति जपन् कुशाग्रेण विसर्जयेत्” । तच श्रावोत्तरकाले देवलः । “निर्वृत्ते पितृमेधेतु दौपं प्रच्छाद्य पाणिना । चाचम्य पाणी प्रचात्य ज्ञातीन् शेषेण भोजयेत् ॥ ततो ज्ञातिषु भुक्तेषु खान् भृत्यानपि भोजयेत् । पश्चात् स्वयञ्च पत्नी च श्रावशेषमुदाहरेत्” ॥ निवृत्ते वामदेव्यगानान्ते प्रच्छाद्याच्छाद्येति पारिजातगणेखरौ । न तु निर्वापणम् । दीपनिर्वापणात् पुंसः कुष्माण्डछेदनात् स्त्रियाः । अचिरेणैव कालेन वंशनाशो भवेत् ध्रुवम्” ॥ इति नव्यवर्द्धमानष्टतात् । “दीपनिर्वाणकोऽन्धः स्यात्” इति वचनाञ्च । उदाहरेत् अभ्यवहरेत् । एष च रागप्राप्तत्वान्न विधिः किन्तु श्राद्धाङ्गत्वेन नियमविधिः । तथा च श्रावशेषमुपक्रम्यापस्तम्बः । " सर्वस्मात् ग्रासावराईमश्रीयात्” इति ग्रासावराई ग्रास एव अवराई निकृष्ट कोटिर्यस्य तत्तथा । अनियमत्वे सर्वस्मादिति श्राद्धशेषविशेषणं व्यर्थं स्यात् । व्यक्त शिवरहस्ये । " श्राद्धं कृत्वा तु यः शेषं नान्नमश्नाति मन्दधीः । लोभान्मोडाइयाद्दापि तस्य तदिफलं भवेत्” ॥ लोभाद्द्रव्यान्तरस्येति शेषः । अत्र लोभादित्यभिधानात् वैधोपवासादो न नियमः । एवञ्च "यत्किञ्चित् पच्यते गेहे भक्ष्यं भोज्यमथापिवा । प्रनिवेद्य न भुच्चोत पिण्डमूले कथञ्चन” ॥ इति शङ्खोक्तं न शेषेतर भोजनव्यावर्त्तकं किन्तु यत्किञ्चित् इति श्राद्धार्थत्वेन विशेषणौयम् अन्यथा श्राद्धप्रतिषिङ द्रव्याणां भच्यत्वं न स्यात् तेन श्रावार्थपक्कं तत्र अदत्त्वा न भोक्तव्यमिति तस्यार्थः । शातातपः । श्राद्धं कृत्वा पराई भुञ्जते ये व जिह्वलाः । For Private And Personal Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । १८५ पतन्ति नरके घोरे लुप्त पिण्डोदकक्रिया : " ॥ जिह्वला लोलुपाः । विष्णुपुराणम्। " वर्ज्यानि कुर्वता श्राद्ध कोपोऽध्वगमनं त्वरा भोक्तुरन्यत्र राजेन्द्र ! वयमेतत्र शस्यते ॥ राजमाण्डे "पुनर्भोजनमध्वानं द्यूताध्ययन मैथुनम् । दानं प्रतिग्रहं सन्ध्यां या कत्वाष्ट वर्जयेत्” । नव्यवर्द्धमानष्टता स्खतिः । " पुनर्भोजन मध्वानं द्यताध्ययनमैथुनम् । दानं सन्ध्यां पुनः स्नानं श्राद्ध कत्वाष्ट वर्जयेत्" । अध्वानमध्वगमनं क्रोशात् परं न काय्र्यम् । “अध्वगमनमाक्रोशपूरणम्” इति हातवचनात् । मैथुनम् ऋतुकालौनमपि तथा च श्राडा - नन्तरं शङ्खलिखितौ । ऋतुखार्ता तदहोरावं परिहरेत्" इति । दानं याचितावाद्यतिरिक्तपरम् । वन्दिभ्यश्चेति . प्रागुक्तत्वात् । . ज्योतिषे “तुला राशिगते भानौ श्रमावास्यां नराधिप ! | स्नात्वा देवान् पितृन् भक्त्या संपूज्याय प्रणम्य च ॥ कृत्वा तु पार्वणश्राद्ध दधिचौरगुड़ादिभिः । ततोऽपराह्नसमये घोषयेनगरे नृपः ॥ लक्ष्मो: सम्पूज्यतां लोका उल्काभिश्चापि वेष्यताम् " " दर्शधे प्रदोषव्यात्या निर्णय: । “ तुलासंस्थे ॥ rint प्रदोषे भूतदर्शयोः । उल्का हस्ता नराः कुर्युः पितृणां मार्गदर्शनम् * ॥ इति व्योतिषात् । उभयतः प्रदोष प्राप्तौ परदिन एव युग्मात् । " दण्डे को रजनोयोगो दर्शस्य स्यात् परेऽहनि । तदा विहाय पूर्वेद्युः परेऽह्नि सुखरात्रिका” ॥ इति ज्योतिर्वचनाच । उभयत्र प्रदोषाप्राप्तावपि उल्कादानं परदिने पूर्वोक्तपार्वणानुरोधात् । "भूताहे ये प्रकुर्वन्ति उल्काग्रहमचेतसः । निराशाः पितरो यान्ति शापं दत्त्वा सुदारुणम्" । इति ज्योतिर्वचनाच्च । अत्रैव लक्ष्मी: पूर्वाहे रात्रौ पूज्या "अमावास्या यहा रात्रौ दिवाभागे चतुर्दशौ । पूजनीया तदा लक्ष्मीर्विज्ञेया सुखरात्रिका " ॥ इति ज्योतिर्वचनात् उल्का ग्रहणादि पिटक्कत्यत्वात् प्राचीनावीतिमा दक्षिणामुखेन कर्त्तव्यम् । तथा च मनुः "प्राचीनावीतिना सम्यगपसव्यमतन्द्रिणा पित्रप्रमानिधनात् कार्य्यं विधिवद्दर्भपाणिना । इति तत्र ग्रहणमन्त्रः । “शस्त्राशस्वद्दतानाच्च भूतानां भूतदर्शयोः । For Private And Personal Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । उज्ज्वल ज्योतिषा देह दहेय व्योमवतिना" ॥ दानमन्त्रश्च । “अग्निदग्धाश्च ये जौवा येऽप्यदग्धा: कुले मम। उज्ज्वलज्योतिषा दग्धास्ते यान्तु परमां गतिम् ॥ इति विसर्जनमन्त्रः । "यमलोकं परित्यज्य भागता ये महालये। उज्ज्वलज्योतिषा वम प्रपश्यन्तो व्रजन्तु ते ॥ इति ब्रह्मपुराणम् । “अमावास्यां यदा देवाः कार्तिके मासि केशवात्। अभयं प्राप्य सुप्ताश्च क्षीरोदार्णवसानुषु ॥ लक्ष्मीर्दैत्यभयान्मुक्ता सुखं सुप्ताम्बुजो दरे। चतुर्युगसहस्रान्त ब्रह्मा स्वपिति पङ्कजे ॥ अतोऽत्र विधिवत् कायऱ्या मनुष्यैः सुखमुप्तिका। दिवा तत्र न भोक्तव्यमृते बालातुराज्जनात् ॥ प्रदोषसमये लक्ष्मों पूजयित्वा यथाक्रमम्। दौपवृक्षास्तथा कार्य्या भक्त्या देवगृहेष्वपि ॥ चतुपथश्मशानेषु नदीपर्वतसानुषु। वृक्षमूलेषु गोष्ठेषु चत्वरेषु गृहेषु च। वस्त्रैः पुष्पैः शोभितव्याः क्रयविक्रयभूमयः ॥ दीपमालापरिक्षिप्ते प्रदोषे तदनन्तरम्। ब्राह्मणान् भोजयित्वादी विभज्य च वुभुक्षितान्॥ अलङ्कतेन भोक्ताव्यं नववस्त्रोपशोभिना। स्निग्ध मुग्धर्विदग्धश्च वान्धवैभं तकः सह" ॥ मुग्धैः सुन्दरैः। मुग्धःसुन्दग्मूढ़योरिति विश्वः।। पत्र लक्ष्मीपूजायां पुष्पदानकाले। “नमस्ते सर्वदेवानां वरदासि हरि प्रिये। या गतिस्त्वत् प्रपत्रानां सा मे भूयात् त्वदचनात्” ॥ लक्ष्म नम इत्यनेन वारत्वयं पूजयेत् । “सुखरात्रयां प्रदोषे तु कुवेरं पूजयन्ति ये। इति रुद्रधरतात् कुवेरमपि पूजयन्ति। धनदाय नमस्तुभ्यं निधिपद्माधिपाय च” ॥ भवन्तु त्वत् प्रसादाम धनधान्यादिसम्पदः । इति पठित्वा कुवेराय नम इति त्रिः पूजयेत्। तती देव. राहादिषु दौपान् दद्यात्। तत्र मन्त्रः। “अग्निज्योतौरविज्योतिश्चन्द्रज्योतिस्तथैव च। उत्तमः सर्वज्योतीनां दीपोऽयं प्रतियताम्" ॥ ततो ब्राह्मणान् बन्धूंच भोजयित्वा स्वयं भुत्ता सुखं सुखा प्रत्यषे भविष्योतं कर्म कुर्यात् । यथा "सुखरात्रे रुषः काले प्रदीपोज्ज्वलितालये। बन्धुबन्ध नवधंश्च वाचा कुशलयार्चयेत् ॥ प्रदीपवन्दनं कार्य लक्ष्मीमङ्गलहेतवे । गोरोचनाक्षतञ्चैव दद्यादङ्गेषु सर्वतः ॥ लक्ष्मी For Private And Personal Use Only Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिथितत्त्वम् । १५७ पूजामन्त्रः। “विश्वरूपस्य भाऱ्यांसि पद्म पद्मालये शुभे । महालक्ष्मि ! नमस्तुभ्यं सुखरात्रि कुरुष्व मे ॥ वर्षाकाले महाघोरे यन्मया दुष्क तं कृतम् । सुखरात्रिप्रभातेऽद्य तन्मे लक्ष्मीव्येपोहतु॥ या रात्रिः सर्वभूतानां या च देवेष्ववस्थिता । संवत्सरप्रिया या च सा ममास्तु सुमङ्गला ॥ माता व सर्वभूतानां देवानां सृष्टिसम्भवा। आख्याता भूतले देवि ! सुखराति नमोऽस्तु ते ॥ लक्ष्मेर नम इति त्रिः पूजयेत्। अथ अर्योदययोगः। स च रविवारव्यतीपातश्रवणनक्षत्रैयुक्ता चेत् पौषमाघयोरमावास्या स्यात्तदा भवति। यथा पाश्चात्यनिर्णयामृते। “प्रमाकपात श्रवणैर्युता चेत् पौषमाघयोः। अोदय: स विज्ञ यः कोटिसूर्यग्रहै: समः ॥ पत्र सूर्यपर्वशताधिक इति कत्यचिन्तामणौ पाठः । तथा “दिवैव योग: शस्तोऽयं न तु रात्रौ कदाचन । स्कन्दपुराणे। “अझैदये तु संप्राप्ते सर्व गङ्गासमं जलम् । शुद्धात्मानो हिजाः सर्वे भवेयुर्ब्रह्मसम्मिताः। यत्किञ्चित् क्रियते दानं तहानं सेतुसन्निभम्”। विष्णुशिवस्नान प्रशस्तकालोऽपि वृहबारदीयम् । "प्रोदये च पुण्यार्के हस्तार्के रोहिणौबुधे” इति।। अथ युगाद्याः। तासु च “युगाद्या वर्षद्धिश्च सप्तमी पार्वतीप्रिया। रवेरुदयमोक्षन्ते न तत्र तिथियुग्मता" । इत्यनेन व्यवस्था। ब्रह्मपुराणे। “वैशाखे शुक्लपक्षे तु तौयायां कृतं युगम्। कार्तिक शुक्लपक्षे तु नेताऽथ नवमेऽहनि ॥ अथ भाद्रपदे कृष्ण त्रयोदश्यान्तु हापरम्। माघे च पौर्णमास्यां वै घोरं कलियुगं स्मृतम्। युगारम्भास्तु तिथयो युगाद्यास्तेन विश्रुता:” ॥ पत्र वैशाखादयः पोर्णमास्यन्ता एव। ब्रह्मपुराणे । तथैव तिथिकृत्याभिधानात्। मुख्यवाचित्वे कार्तिके नवमेऽहनौत्यनेनैव सिद्धौ शुक्लपक्ष इति व्यर्थं स्यात् तेन भाद्रकृष्णत्रयोदशौ अखयुक् कृष्णपक्षौ येति मैथिलोक्तं निरस्तम्। पासा प्रशंसामाह विष्णुपुराणं “वैशाखमासस्य तु या तौया नवम्यसौ कार्तिक शुक्लपक्षे। नभस्य मासस्य तमिस्रपक्षे त्रयोदशो पञ्चदशौ च माघे ॥ एता युगाद्याः कथिताः पुराणे For Private And Personal Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८८ तिथितत्त्वम् । " रनन्त पुण्यास्तिथयश्वतस्रः । उपप्लवे चन्द्रमसो रवेश्च विश्वष्टकास्वप्ययनदये च ॥ उपप्नवे ग्रहणे "पानीयमप्यत्र तिलेविमिश्र दद्यात् पितृभ्यः प्रयतो मनुष्यः । श्राद्ध कृतं तेन समाः सहस्रं रहस्यमेतत् पितरो वदन्ति ॥ स्नानमधिकृत्य भविष्ये । “संवत्सरफलं तत्र नवम्यां कार्त्तिके तथा । मन्वादी च युगादौ च मासत्रयफलं लभेत् " ॥ विरुद्ध गुरुवाक्यस्य यदत्र भाषितं मया । तत्क्षन्तव्यं बुधैरेव स्मृतितत्त्वबुभुया " ॥ स्मृतितत्त्व प्रसादाद् यद्दिरुद्द बहुभाषितम् । गुणलेशानुरागेण तच्छोध्य धर्मादर्शिभिः । इति वन्द्यटय श्री हरिहर भट्टाचाय्यात्मज - श्रीरघुनन्दन भट्टाचार्यविरचिते स्मृतितत्त्व तिथितत्त्व समाप्तम् । For Private And Personal Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 'श्रावतत्त्वम् । प्रणम्य सच्चिदानन्दं कृष्ण वेदान्तविस्तृतम् । पार्श्वगादि श्राहतत्त्व' वक्ति श्रीरघुनन्दनः । अथ पार्वणश्राद्धम् । तत्रं गोभिल: । “ श्रथ श्राइममावास्यायां पितृभ्यो दद्यात् पञ्चमौ प्रभृति वाऽपरपचस्य यदहरुपद्यते तदब्रह्मणानामन्त्रा पूर्वेद्य ुर्वा अनिन्द्य नोपामन्वितो नातिक्रामेदामन्वितो वा नान्यदनं प्रतिग्टलीयादिति" । यत्यो " श्रान्वष्टकां स्थालीपाकेन” एतेन पिण्डपितृयज्ञो व्याख्यात: “श्रमावास्यायां तच्छ्राहमितरदन्वाहार्थं मासौनम्” इति सूत्र गोभिलेनान्वष्टक्यस्थालीपाकधातिदेशेन श्रमावास्यायां पिण्डपितृयज्ञ मभिधाय तच्छ्राद्दमित्यनेन तस्य श्राद्दत्वमुक्ता इतरदन्वाहार्य्यमित्यनेन तस्यामेव श्राद्धान्तरमुक्त मासीनमित्यनेन तयोर्मासि मासि कर्त्तव्यत्वमुक्तं "मासिमासिवोशनम्” इति श्रुतेः नत्वन्वाहार्य श्रावस्य तह इति कर्त्तव्यताविधानमुक्तम् इदानीं गोभिलेन ग्रन्थान्तरंऽथेत्यादिना तदभिधीयते । अथ शब्दः स्नानविधानानन्तर्यार्थः स्नानविधानमुक्का एतत् सूत्राभिधानात् अथवा साग्नेगृोक्त पिण्डपितृयज्ञानन्तय्र्यार्थः तथा च मनुः पितृयज्ञन्तु निर्वर्त्य विप्रश्चन्द्रचयेऽग्निमान । पिण्डान्वाहाय्र्यकं श्राद्धं कुर्य्यान्मासानुमासिकम् ॥ चन्द्रनये अमावास्यायां मासानुमासिकं प्रतिमासिकम्। मङ्गलार्थ व यथा श्रुतिः । “प्रणवश्चाथ शब्दश्व द्वावेतौ ब्रह्मणः पुरा । कण्ठ भित्त्वा विनिर्यातौ तेन माङ्गलिकावुभौ " ॥ श्राहमि त्यभिधाय कर्माणो नामधेयं “ श्रद्धान्वितः श्राद्धं कुर्वीत ” इति गोभिलस्त्त्रात् "संस्कृतं व्यञ्जनाय्यञ्च पयोदधिष्टतान्वितम् । श्रया दोयते यस्मात् श्राद्धं तेन निगद्यते” ॥ इति पुलस्त - वचनाच्च । श्रद्धा शास्त्रार्थे दृढ़प्रत्ययः । “प्रत्ययोधर्माकार्येषु तथा श्रत्युदाहृता । नास्ति श्रद्दधानस्य धर्मकृत्ये प्रयो For Private And Personal Use Only ॐ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८० थाहतत्त्वम् । जनम् ॥ इति देवलवचनात्। एवञ्च श्रद्धयाऽन्नादेयंहानं तच्छाइमिति वैदिकप्रयोगाधौनयौगिकम्। तथाचापस्तम्बः । "अर्थतन्मनुः श्राद्दशब्द कर्म प्रोवाच” इति । थाइशब्दं श्राद्धनामकं कर्म एवं पावणादीनामपि वैदिकप्रयोगाधौनयौगिकत्वं पिटभ्य इति यजमानस्य पित्रादिविकमातामहादित्रिकपरम्। “असावेतत्ते यजमानस्य पित्रे असावेतत्ते यज. मानस्य पितामहाय असावेतत्ते यजमानस्य प्रपितामहाय" इति श्रुतेः। “पितरो यत्र पूज्यन्ते तत्र मातामहा ध्रुवम् । अविशेषेण कर्तव्यं विशेषावरकं व्रजेत् ॥ इति वृदयाज्ञवल्कावचनाच्च। मातामहा इति तदादित्रिकपरम् इत्यादिबहुवचनान्ता गणस्य संसूचका इत्युक्तः । व्यतमाह गोभिलः । "पितृभ्यः पितामहेभ्यः प्रपितामहेभ्यः मातामहेभ्यः प्रमाता. महेभ्यः वृद्धप्रमातामहेभ्यः स्वधोच्यतां" इति पत्र प्रागुता श्रुती यजमानस्य इति श्रुतेः पित्रादिपदं स्वजनकादिपरम्। न तु “वसुरुद्रादितिसुताः पितरः श्राइदेवता:” इति याज्ञवल्काबचनाइवादिपरम एतचनन्तु तदाकारत्वेन भावनापरमिति श्राइविवेकप्रभृतयः। व्यक्तं स्मृत्यर्थसारमदनपारिजातयोः । *वसुरुद्रादित्यरूपान् श्राद्धार्थे तर्पयेत् पितृन्। नामगोत्र समुच्चार्य तिलस्तीर्थेषु संयत” इति वस्वादौनां ध्यानमादित्य पुराणे । प्रसन्नवदनाः सौम्या वरदाः शक्तिपाणयः । पद्मासनस्था हिभुजा वसवोऽष्टौ प्रकीर्तिताः ॥ करे त्रिशूलिनो काय. दक्षिणे चाक्षमालिनः। एकादश प्रकर्तव्या रुद्रा स्वाक्षेन्दुमौलयः ॥ पद्मासनस्था बिभुजा पद्मगर्भाङ्गकान्तयः । करादि. स्कन्धपर्यन्त नालपङ्कजधारिण: ॥ इन्द्राद्या हादशादित्या. स्तेजोमण्डलमध्यगा:” । उक्तश्रुत्यादिषु पित्रादौनां प्रत्येक निर्देशात् अत्र पितरो देवता इत्यापस्तम्बसूत्रे देवता इति बहुवचननिर्देशात् न योषिड्मा इत्यादिवचनाञ्च पित्रादौनां प्रत्येकेन पत्नौनिरपेक्षेण च देवतात्वं पिटभ्य इत्यत्र तु बहुवचनात् साहित्यप्रतीतिरभिधानक्रियापेक्षया गर्गाभीज्यन्तामितिवत् न तु दद्यादित्यनेनोतप्रधानक्रियापेक्षया स्मृत्यपेक्षया श्रुते बलवत्त्वस्य जावालेनोतत्वात्। तथाच जावाल: For Private And Personal Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अाइतत्त्वम् । १८१ "श्रुतिस्माविरोधे तु श्रुतिरेव गरीयसी । अविरोधे सदा कार्य स्मात्तं वैदिकवत् सदा ॥ इति अपरपक्षस्य कृष्णपक्षस्य 'तथाच शुक्ल प्रतिपदादिमासमधिकृत्य श्रुतिः। “पूर्वः पक्षो देवानामपर: पक्षः पितृणाम्” इति । यद हरिति चतुर्दशौताकृष्णपक्षीयां यां काञ्चितिथिं प्राप्य शौचादिद्रव्यसम्पदुप. पद्यते तस्मिन् श्राद्ध कुर्यात । चतुर्दशीवर्जनमाह मरीचिः । “विषशस्त्रश्वापदा हि तिर्यग्ब्राह्मणघातिनाम्। चतुर्दश्यां क्रिया कार्या अन्येषान्तु विगहिता” ॥ विषादिसाहचर्यात् ब्राह्मणघातौति ब्राह्मणकतघातोऽस्यास्तौति बोध्यम्। प्रत्न यदमावास्यापञ्चमीप्रभूति तत्पूर्वकष्णप्रतिपदादितिथ्यपादानं. तत्प्रतिपदाद्यपेक्षया परपरकालस्य थाई निरग्नेः प्राशस्त्यजापनार्थ तथाच निगमः। “अपरपक्षे यदहः सम्पद्यते अमावास्यायान्तु विशेषेण” इति। अन्यतिथावपि श्रादमाह गोतमः । “तथा सर्वस्मिन् दिने द्रयदेशसन्निधौ कालनियमः शक्तितः” इति योऽयम् अमावास्यादिकालनियमः सव्यस्य शक्तस्य अरोगिणो बोद्धव्य इति श्राइविवेकः । चतुर्दशौवर्जनमाह मनुः । “कृष्णपक्षे दशम्यादौ वर्जयित्वा चतुर्दशीम् । श्राद्दे प्रशस्तास्तिथयो यथैता न तथेतरा" इति। यत्त अमावास्याष्टका कृष्णपक्षपञ्चदशीषु च" इत्यभिधाय । “एतचानुपनौतोऽपि कुयात् सर्वेषु पर्वम्। श्राद्ध साधारणं नाम सर्वकामफलप्रदम् ॥ भार्याविरहितोऽप्येतत् प्रवासस्थोऽपि नित्यशः । शूद्रोऽप्यमन्त्रवत् कुर्यादनेन विधिना बुध" इति मत्स्यपुराण कृष्णपक्षको नामावास्याया नित्यश इत्यनेन नित्यत्वाभिधानं तदनुपनौतस्य । “जाते कुमारेऽरणिं मथित्वा तम्मिन्नायुष्य होमान् जुहोति तस्मिन् चड़ाकरणोपनयनव्रतादेशगोदानक्रियास्तस्मिन्नेवेनमुद्दाहयेयुः” इति वैजवपापोक्त जाताग्नेः “अपिशब्दसमुच्चितोपनौतस्य च साग्नेः कर्तव्यत्वपरं तयोरमावास्यातिरित कृष्णपक्षनिमित्तकपार्वणनिषेधात्। तथाच मनुः “न दर्शन विना श्रादमाहित ताग्नेदिजन्मन" इति अन्यथा वाक्यभेदापत्तेः ।। अनामावास्याकर्तव्यपर्वकर्तव्ययोः पार्वणवमाह भविष्य For Private And Personal Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १९२ श्राद्दतत्त्वम् । पुराणम्। “अमावास्यां यक्रियते तत्पार्वणमुदाहृतम् । क्रियते वा पर्वणि यत् तत्पावणमिति स्मृति:" ॥ अत्र यदि त्यादैरुभयनाभिधानेन पिकल्पार्थ वाशब्देन च पार्वणस्य लक्षणहितयमुक्त पर्वणि यक्रियते इत्यनेनामावास्यायाः पर्वत्वात्तच्छाइस्य वैदिकप्रयोगाधौनयौगिकत्वेन पार्वणत्यप्राप्ती अमावास्यायां यत् पृथगुपादानं तदमावास्याश्राद्धस्य रूढित्वार्थ तेन पार्वणेन विधानेन इत्यादौ यौगिकनानावयवशत्यपेक्षया एकस्या एव समुदायश तलघुत्वात् अमावास्या पावणधम्मातिदेशो लभ्यते न तु पूपादिद्रव्याष्टकादिपावणधर्ममातिटेशः । अतोऽमावास्यायामष्टम्यादिपर्वणि च तन्निमित्तक-श्राद्धे पार्वणश्राद्धम् अन्यत्र पार्वणविधिना श्राद्धमित्यभिलाप विशेषः । ब्राह्मणानामन्त्रप्रति ब्राह्मणानामन्वा निमन्वा श्राद्धं कुर्यात् पूर्वार्वा पूर्वदिने वा निमन्त्रणं नत्वामन्त्रणं यत्र प्रत्याख्याने प्रत्यवायस्तनिमन्त्रणं यत्र प्रत्याख्याने कामचारस्तदामन्त्रणमिति पाणिनिसूत्रभाष्ये भेदेनोपादानात् अतएव निमन्त्रगातिक्रमनिषेधमाह। “अनिन्द्य नीयामन्त्रितो नातिक्रामदिति” नात्र पूर्वापरदिननिमन्त्रणे इच्छाविकल्पः किन्तु पूर्वदिनासामर्थं परदिने तथाच देवलः। “ख: कस्मिोति निश्चित्य दाता विप्रानिमन्त्रयेत् । निरामिषं सकङ्गत्वा सर्व सुप्तजने रहे। असम्भवे परेार्वा ब्राह्मणांस्तान्त्रिमन्वयेत् ॥ अत्र निश्चित्येति पदानिशये निरामिषसतत् भोजनस्याङ्गत्वं यद्यपि निश्चयोऽत्र श्वोभावि कम्मणि प्रत्य हसम्भवादशक्यस्तथापि शास्त्रप्रतिपादित खः कर्तव्यत्वज्ञानमात्रविवक्षितः । अतो यत्र तादृक् ज्ञानं नास्ति तत्र तदङ्गरहिते नापि श्राई कर्तव्यम् । वराहपुराणम् । “वस्त्रशौचादिकर्त्तव्यं श्वः कर्तास्मोति जानता। स्थानोपलेपनञ्चैव कला विप्राविमन्वयेत्। दन्तकाष्ठञ्च विसृजेत् ब्रह्मचारी शुचिर्भवेत् ॥ विसृजेत् शाडौयब्राह्मणेभ्यो दद्यादिति श्राद्धचिन्तामणिः। एतच्च पार्वणप्रकृतिकत्वात् सर्वश्राद्धेऽप्यायाति प्राभ्युदयिके तु श्राददिन एव निमन्त्रणं प्रातरामन्त्रितान् विप्रानिति छन्दोगपरिशिष्टात्। श्राइदिने योषित् प्रसङ्गोतरस्य निमन्त्रणमाह For Private And Personal Use Only Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८३ श्राइतत्त्वम् । मार्कण्डेयपुराणम्। "निमन्वयेच पूर्वद्युः पूर्वोक्तान् हिजसत्तमान् । अप्राप्तौ तहिने वापि हित्वा योषित् प्रसङ्गिनम्" ॥ अत्र प्रशब्दात् क्रियानिष्पत्तिरूपमैथुनकर्तुनिषेधः नतु स्मरगादिरूपमैथुन कर्तृनिषेधः। मैथुनं चाष्टविधं तथाच दक्षः । "स्मरणं कौत्तनं केलिः प्रेक्षणं गुप्तभाषणम्। सङ्कल्पोऽध्यवसायश्च क्रियानिष्पत्तिरेव च ॥ श्राइदिने श्राइकर्ता दन्तकाष्ठमखादित्वा हादशजलगण्डषेण मुखं परिशोध्य प्रातःस्नात्वा धौतवस्त्रे विमयात् । "श्राद्दे जन्मदिने चैव विवाहे जौणसम्भवे। व्रते चैवोपवासे च वर्जयेत् दन्तधावनम् ॥ इति विष्णुपुराणात् । “अलामे दन्तकाष्ठस्य प्रतिषिद्धदिने तथा। अपां हादशगण्डषैर्मुखशुद्धिविधीयते । तथैवामन्त्रितो दाता प्रातःस्नातः सहाम्बरः” ॥ इति देवल वचनात् । तथैवामन्वितो तथैव पूर्वोक्तप्रकारेण आमन्त्रितो येन स तथा देवकत्य मुदखुखेन पिटक्कत्यं दक्षिपामुखेन कर्तव्यमाह शातातपः। "उदन खस्तु देवानां पित गां दक्षिणामुखः । प्रदद्यात् पार्वणवारे देवपूर्व विधानत:" ॥ द्विजसत्तमाभावे भविष्यपुराणम्। “यस्वा. सन्नतिक्रम्य ब्राह्मणं पतिताहते। दूरस्थं मोजयेम्म ढ़ो गुणाढ्यौं नरकं व्रजेत् ॥ तस्मानातिक्रमत् प्राज्ञो ब्राह्मणान् प्रातिवेशिकान्। सम्बन्धिनस्तथा सर्वान् दौहित्र विट्पति तथा । भागिनेयं विशेषेण तथा बन्धून् ग्रहाधिपान् ॥ नातिक्रमेवरश्चैतान् सुमूर्खानपि गोपते। अतिक्रम्य महारौद्रं गैरवं नरकं व्रजेत् ॥ ब्राह्मणोऽत्राल्पविद्यः मूर्ख ब्राह्मणातिक्रमे दोषाभावस्य व्यासादिभिर्नास्ति मूर्ख व्यतिक्रम इत्यनेन अभिधानात् । विट्पतिर्जामाता ग्रहाधिपान् ग्राहस्थान् मुमूििनति सम्बन्धिदौहित्रादि विशेषणमिति। दानकल्पतरु For Private And Personal Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८४ श्रातत्त्वम् । रत्नाकरौ । यमः प्रार्थयेत प्रदोषान्ते भुक्वान्नं शयितान् द्विजान् । सर्वायासविनिर्मुक्तः कामक्रोधविवर्जितः ॥ भवितव्यं भवद्भिश्च श्वोभूते श्राद्धकर्मणि । ते तं तथेत्यविघ्न न याति चेद्रजनो सुखम्”॥ प्रार्थयेत निमन्त्रणपूर्वकं नियमं श्रावयेत् । तनियममाह सर्वायासेति ते ब्राह्मणास्तं निमन्त्रयितारं तथेत्यूचुरिति शेषः । श्रवैकब्राह्मणनिमन्त्रणपचेऽपि प्रक्कृतावूद्दाभावान्न बहुवचनस्थाने एकवचनोहः नवावाधः वैभक्तिकार्यापेक्षया प्राथमिकत्वेन बलवतः प्रातिपादिकार्थस्य समवेतत्वेन नियोज्यत्वात् किन्तु श्रविकृत एव मन्त्रः पाठ्यः मत्स्यपुराणेऽपि त्वं मयात्र निमन्त्रित इत्य ुपक्रम्य बहुवचनान्त मन्त्रपाठाच्च तद्यथा । " दक्षिणं जानु चालम्य त्वं मयात्र निमन्त्रितः । एवं निमन्त्रा नियमान् श्रावयेत् पैटकान् बुधः " ॥ तन्नियममाच "अक्रोधनैः शौचपरेः सततं ब्रह्मचारिभिः । भवितव्यं भवविश्व मयात्र श्राद्धकर्मणि” ॥ प्रकृतावेवं प्राप्तत्वात् एकोद्दिष्टे अपि नोहः । एवं देवताभ्यः पितृभ्यश्व इत्यप्यना पाठ्यं पितृपदस्याग्निस्वात्तादिपरत्वात् अत्र परर्गदने निमन्त्रणे सर्वायासेत्यस्य न पाठः खः पदानन्वयात् किन्त्वक्रोधनैरित्यस्य पाठ: अत्र निमन्त्रित इत्यस्यातौतमात्र प्रकाशकत्वात् श्राद्ध: कर्त्तुं त्वां निमन्त्रये इति लड़न्त एव प्रयोगो युक्तः श्रतएव विकृताकोद्दिष्टप्रयोगे विप्र त्वामहं निमन्त्रय इति वराहपुराणे लड़न्त एव प्रयोग उक्त इति तत्त्वम् । ब्राह्मणसम्पत्तौ कुशमयब्राह्मणे श्राद्धमुक्तं श्राविवेके । "निधायाथ दर्भचयमासनेषु समाहितः । प्रेषानुप्रैषसंयुक्तं विधानं प्रतिपादयेत्” ॥ इति तद्धृतवचनात् "ब्राह्मणानामसम्पत्तौ कृत्वा दर्भमयान् द्विजान् । श्राद्धं कृत्वा विधानेन पञ्चाद्दिप्रेषु दापयेत्” ॥ इति श्रासुत्रभाष्यकार समुद्रकर For Private And Personal Use Only . Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बादतत्त्वम् । १८५ धृतवचनाञ्च । दर्मवटुल क्षगामाह रत्नाकर एल्यसंग्रहः । “ऊईके शो भवेत् ब्रह्मा लम्बकेशस्तु विष्टरः। दक्षिणावर्तको ब्रह्मा वामवर्तस्तु विष्टरः” ॥ इति यादृक् ब्रह्मा तादृक् क्रमेण ब्राह्मण इति भाव्यम् । शान्तिदीपिकायाञ्च आपस्तम्बः । “सप्तभिनव भिर्वापि साईहितयवेष्टितम्। प्रणवेनैव मन्त्रेण हिजः कुर्यात् कुहिजम्” इति नवभिरित्यर्थः पञ्चभिरिति कर्मोपदेशिन्यां पाठः दर्भसंख्या विशेषाभिधानं छन्दोगेतरपरम् । “यन्जवास्तुनि मुध्याञ्च स्तम्बे दर्भवटी तथा। दर्भसंख्या न विहिता विष्टगस्तरणेष्वपि । इति छन्दोगपरिशिष्टात् ब्राह्मणप्रतिनिधित्वेन गोभिलरो कमण्डलु दर्भ वटं वा निधायेति दृष्ट प्रागुक्तवचनप्राप्तञ्च दर्भवटुरूप दर्भचयमादाय कर्मकरणे यस्य प्रेषस्य प्रश्नस्यानुप्रषं प्रत्युत्तरमवाधितं तद्युक्त कर्मणोऽभिधानात् निमन्त्रि तोऽस्मि टप्तास्मः इति प्रत्यु. तराभावात् निमन्त्रणप्तिप्रनाभावः। न च दर्भब्राह्मण पक्षे होवैवावसोः सदने सौदामौत्यविकृतमेव वक्तव्यमिति भट्टभाष्यदर्शनादवापि निमन्वितोऽस्मौत्य नेन वक्तव्यमिति वाचं “यावा उभयञ्चिकोर्षेत् होटत्वं ब्रह्मत्वं च तेनैव कल्पेन छत्रमुत्तरासङ्गमुदक कमण्डलु दर्भवटुं वा ब्रह्मासने निधाय" इति गोभिलसूत्रण होतुब्रह्म कर्मकर्तत्वेन विधानात् तत्र सौदामोत्यस्य प्रतिनिधित्वारोपवेशनेन समवेतार्थत्वात् एतेनैवेत्येवकारेण सौदेत्यस्य कल्पनाया प्रयुक्तत्वाच्च अत्र तु निमत्रितोऽस्मोत्यस्य सर्वथैवासमवेतार्थत्वेनायुक्ताव कुरुष्वेत्यादि प्रत्युत्तराणान्त्वन्येनापि सम्भवादनुज्ञादीनां कर्तव्यता एव । एवञ्च दर्मवटी श्रावस्य करणेऽपि "अविच्छिन्ने कथम्भावे यत् प्रधानस्य पठ्यते । अविज्ञातफलं कम्म तस्य प्रकरणागता" ॥ इति न्यायेन श्राद्धाङ्गत्वात् कर्त्तसंस्कारकत्वाच्च निमन्त्रणा भावेऽपि सन्निरामिषभोजनमैथु नवर्जनयोः कर्त्तव्यतेति। For Private And Personal Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८६ श्राड तत्त्वम् । उपवेशनमाह गोभिलः। "नातान् शुचौनाचान्तान् प्रान,खान् उपवेश्य दैवे युग्मान यथाशक्ति अयुग्मान् पिवेत्र एकैकस्योदम खान् हो दैवे नौन् पैत्रे एकैकमुभयत्र वा। मातामहानामप्येवं तन्वं वा वैश्वदैविकम् । देवपूर्वं श्राद्धं कुर्वीत" इति स्नातानवगाहितान् न तु मन्त्रस्नातान् । शुचौन् सूतकादिरहितान् एवं प्रयतत्वादियुक्तानां ब्राह्मणानां टर्भासने स्वागतप्रश्नपाद्यादिना पास नस्पर्श हस्तग्रहणपूर्वकम् उपवेशनानि कार्याणि एवं प्रयतोऽपराहे शुचिःशुलवासा दर्भेषुतिष्ठन् एवं स्वागतमिति ब्रूयात् “पाद्यायाचमनीयोदकानि दत्त्वा ब्राह्मणानुपसंग्टह्य उपवेशयेदासनमालम्य" इति शङ्खलिखितवचनात् । स्वयमपि सूतकादिरहितः स्नातः कतदेवपूजान्तनित्य कत्यः । अत्र श्राइदिने अङ्गेषु तैलं न ग्राह्यम्। तथा च स्मृतिः। “प्रातःस्नाने पिटवारे षष्ठयाच हादशीषु च । सुरामानसमं तैलं पितरं नरकं नयेत्॥ वृतञ्च सार्षपं तैलं यत्तैलं पुष्पवासितम्। अदुष्ट पक्कतैलञ्च तैलाभ्यने च नित्यशः” ॥ ततश्च प्रथमं प्रान खः स्थित्वा पादौ प्रक्षालयेच्छनैः। उदम खो वा देवत्ये पैट के दक्षिणामुखः” इति देवलवचनात् दक्षिणामुखः सन् कृतपादशौचस्तत्रापि वामपादादिक्रमः । यथा गोभिल: “सव्यं पादमवने निजे" इति वामयादं प्रक्षालयति “दक्षिणं पादमवने निजे" इति दक्षिणं पादं प्रक्षालयति इति। कात्यायनोऽपि "सव्यं प्रक्षाल्य दक्षिण प्रक्षालयतौति” तेन यजुर्वेदिनामपि प्रथमं वामपादप्रक्षालनं एवं शूट्रस्यापि ततो दक्षिण पाणी पवित्र वामे बहुतर कुशान् धारयेत् “मध्यः सोपग्रहः कार्यो दक्षिणः सपवित्र कः” इति छन्दोगपरिशिष्टात् ततः प्रामुख उद खो वा कृताचमन्तः For Private And Personal Use Only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्राद्धतश्वम् । १.३० " शुचि देशं विविक्तञ्च गोमयेनोपलेपयेत् । दक्षिणा प्लवनचैव प्रयत्नेनोपपादयेत् ॥ इति मनक्त गोमयोपलिप्तदेशे उपविशेत्" आसीन ऊङ्घः प्रहो वा नियमो यत्र नेदृशः । तदासौनेन कर्त्तव्यं न प्रह्वेन न तिष्ठता" इत्यादि छन्दोगपरिशिष्टात् श्रासोन उपविष्ट ऊर्द्धा दण्डवत् स्थितः प्रह्वोऽवनत पूर्वकायः । जानुपातं विशेषयति वशिष्ठः । दक्षिणं पातयेज्जानु देवानुपचरन् सदा । पातयेदितरज्जानु पितॄन् परिचरन्नपि इतरद्दामम् । अथ श्रादेशाः । यमः । " रूक्षं कमियुतं क्त्रि सङ्घी कनिष्टगन्धिकम् । देशं त्वनिष्टशब्दञ्च वर्जयेत् श्राद्धकर्मणि" रूक्षं धूलियुतं क्लिन्नं पङ्गिलम् अनिष्टगन्धिकम् असुरभिगन्धम् अनिष्टशब्द प्रतिकूलशब्दम् । विष्णुः । " न म्लेच्छविषये श्राद्धं कुर्य्यानेच्छ ेत्तु तं तथा । चातुर्वर्ण्य व्यवस्थानं यस्मिन् देशे न विद्यते । तं म्लेच्छ देशं जानीयादाय्यावर्त्तमतः परम् ॥ शङ्खलिखितो “ नेष्टकारचिते पितृन् सन्तर्पयेत्” इति ब्रह्मपुराणं “पृथक् पृथक् चासनेषु तिलतैलेन दौपकाः । अविच्छिन्नास्तथा देयास्ते तु रचन्ति वै द्विजान् ” ॥ आसनेषु तत्सन्निधानेषु अविच्छिन्नाः प्रच्छादनावध्यवस्थायिनः । रक्षन्ति श्राद्धमितिशेषः । दिजा इति सम्बोधनम् । ततो वास्तुपुरुषाय नम इति वास्त्वञ्च कुय्यात् । " श्राद्धाधिकरणे यत्र नाचितो वास्तुदेवतः । तत्र शून्यं भवेत् सर्वं रक्षोविघ्नादिभिर्हितम् ॥ तस्माद्दास्त्वच्च' नं कार्य्यं सम्यक् सम्पदमौप्तभिः” इति राघव - भट्टष्टत- वास्तुशास्त्र - क्वद्यम वचनात् । योगियाज्ञवल्काः । “ध्यायेनारायणं नित्यं स्नानादिषु च कर्मसु । प्रायश्चित्त्यपि सर्वस्माहष्कृतान्मुच्यते पुमान् ॥ प्रमादात् कुर्वतां की प्रच्यवेताध्वरेषु यत् । स्मरणादेव तद्विष्णोः सम्पूर्ण स्यादिति For Private And Personal Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८८ श्राद्धतत्त्वम् । श्रुतिः ॥ तद्विष्णोरिति मन्त्रेण मज्जेदप्स, पुनः पुनः । गायत्री वैष्णवो ह्येषा विष्णोः संस्मरणाय वै” ॥ ततश्च श्रायादौ " तहिष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः दिवीव चक्षुरात तम् । इत्यनेन विष्णु स्मरेत् । अग्निपुराणम्। " श्रर्चयित्वा जगन्नाथं शुभं कमी समाचरेत् । दत्त्वा देवदेवाय योजयेत् । उपयुञ्जयेत् कर्माणि तच्छ षाण्युपयुञ्जयेत्” ॥ लिङ्गपुराणे “ शालग्राम शिलाग्रे तु यच्छ्राद्ध क्रियते नृभिः । तस्य ब्रह्मान्तिकं स्थानं तृप्ताश्च पितरो दिवि ॥ ततश्च शाल- ग्रामे विष्णु' संपूज्य वाडीयाग्रं दद्यात् । ब्रह्मपुराणे । “परकौय ग्टहे यस्तु स्वान् पितृन् तर्पयेलड़ः । तद्भूमिखामिनस्तस्य हरन्ति पितरो बलात् । अग्रभागं ततस्तेभ्यो दद्यात् मूल्यञ्च जौवताम् ॥ गृह इति भूमात्रपरम् । यज्ञ स्वामिपिटहरणस्य हेतुत्वेनाभिधानानात् मूल्यदानाग्रदानयोः प्रत्येक चरणनिवर्त्तकत्वेन वैकल्पिकत्वं स्मृतिशास्त्रे विकल्पस्तु श्राकाङ्गापूरणे सति” इति भविष्यपुराणात् । ततश्च श्राद्धविघातनिवर्त्तकत्वेन तदङ्गत्वात् पिटरीत्या भूखामि पितृभ्यः प्रथमती देयम् । ततः पार्वपादौ प्राचौनावौतित्वादिना नान्दौमुखे उपवीतित्वादिना इति । अत्र पितृपदस्य प्राप्तपितृलोकमाचपरत्व प्रेतानां हरणासम्भवात् सुतरां स्वधेति निर्देश्यं “ खधाकारा परित्यागौ सर्वेषु पितृक सु” । इति श्राद्धकाण्डे विष्णुवचनात् प्रमौतमात्र परत्वे तु " न खधाञ्च प्रयुञ्जीत प्रेतपिण्डे दशाहिके” इति ऋष्यशृङ्गवचने दशाहिकग्रहणादन्यत्र स्वधाप्रयोगादत्रापि तथा । श्रसवर्णोई देहिकनिषेषस्य भ्रात्रादि प्रकरणीयत्वादन्यभूमात्रेऽग्रदानमिति भौषतर्पणे उक्तम् । श्रीदत्तोऽप्येवम् । एतच्च खभूमावस्वामिकायाञ्च भूमौ न दद्यात् अखामिका ८. For Private And Personal Use Only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्राइतत्वम् । १९८ भ्याह यमः। “पटव्यः पर्वता: पुण्या मद्यस्तीर्थानि यानि च। सर्वाण्य खामिकान्याइन हि तेषु परिग्रहः ॥ पुण्या इति विशेषणादटव्यो नैमिषाद्याः पर्वता हिमालयाद्या नद्योगङ्गाद्यास्तीर्थानि पुरुषोत्तमादिक्षेत्राणि वाराणस्याद्यायतमानि च। स्वाम्यभावे हेतुमाह न हितैष्विति। परिग्रहो यथेष्टदानविक्रयणादिविनियोगलक्षणः । देवल: “श्रावस्य पूजितो देशो गया गङ्गा सरस्वती। कुरुक्षेत्र प्रयागश्च नैमिषं पुष्कराणि च ॥ नदीतटेषु तीर्थेषु शैलेषु पुलिनेषु च। विवित्तोष च तुष्यन्ति दत्तेनेह पितामहा:" ॥ विविक्तं विजनं ततश्च तथाविधान् ब्राह्मणान् स्वागतादिना पूजयित्वोपवेशयेत्। श्राद्धार्थ यहेद्या प्रवेशयितव्य तदुत्तरदिशा निसारयितव्यं तद्दक्षिण दिशा "उत्तरेणाहरवेद्यां दक्षिणेन विसर्जयेत्” इति वायुपुराणात् । वैदिरत्र दक्षिणाप्लवनदेशः । याज्ञवल्काः । अपराह्ने समभ्यञ्चा खागतेनागतांस्तु तान्। पवित्रपाणिराचान्तानासनेषुपवेशयेत्” । उभयत्रेति देवपक्षे पिटपक्षे चेत्यर्थः । एवं माता. महपक्षेऽपि पृथक् वैश्वदेवब्राह्मणं मातामहब्राह्मणञ्च तन्त्रं वा वैश्वदैविकमिति एवं पिपक्ष मातामहपक्षार्थमेकं वैश्वदेवब्राह्मणोपवेशनम् एवं ब्राह्मणानामसम्पत्ती पक्षत्रयासनेषु दर्भवटुवयोपवेशनम्। - अथ श्राइदेवाः । तत्र श्राइभेदे देवताभेदमाह वृहस्पतिः । "इष्टिश्राद्धे क्रतुदक्ष: सत्योनान्दोमुखे वसुः। नैमित्तिके कालकामौ काम्य च धरिलोचनौ ॥ पुरूरवा माद्रवाश्च पावणे समुदाहृतौ ॥ इष्टिश्राद्धे इच्छाशाई नैमित्तिके एकोद्दिष्टे । "एकोद्दिष्टञ्च यच्छाई तन्नैमित्तिकमुच्यते। तदप्यदैवं कर्त्तव्यमयुग्मानाशयेहिजान्” ॥ इति भविष्यपुराणात्। एवञ्च For Private And Personal Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०० श्राद्धतत्त्वम्। एकोद्दिष्टे विश्वदेवकरणाकरणयोः शाखिभेदेन व्यवस्था। तत्र सामगयजुविदोह्यानुसारात् विश्वदेवरहितत्वं साग्ने ग्वेदि. नोविखदेवसहितत्वं तद्ग्रह्यपरिशिष्टोक्तत्वात् यथा “यस्मिन्नवे पुराणे वा विश्व देवा न लेभिरे। प्रारं तद्भवैच्छाई वृषलं मन्त्र वर्जितम् ॥ इति । “काम्यं कामाय तु हितं काम्यमभिप्रेता थसिद्धये । पार्वणेन विधानेन तदप्यक्तं खगाधिप" इति भविष्य पुराणोतं काम्यश्राद्धे कामाय इत्यनेनैवाभिप्रतार्थलाभे अभिप्रेतार्थसिद्धय इति यत् पुनरुपादानं तत् स्वगतपुवादिफलोद्देश्यकत्वेन तिथ्यादि श्राद्धानामेवात्र काम्यत्वार्थम् अत:संक्रान्त्यादिः श्राहादस्य भेदः । एवञ्च संक्रान्त्यादिश्राद्ध पिटहप्तेः प्राधान्य पुत्रादेः फलस्यानुषङ्गिकत्व तिथ्यादिश्राद्धे तु पुत्रादेः फलस्य प्राधान्यं पिटप्रानुषङ्गिकफलत्वमिति देवविशेषवाचकस्य अपि पुरूरवस ऊकारमध्यता पितुदयिता-बालकाण्ड-कल्पतरुमैथिलग्रन्थप्राचीनथादविवेकेषु तथा लिखनात् रायमुकुटप्रभृतिभिरेव पुरोरूयन्त इति स्वकपोलरचित व्युत्पत्त्या ओकारयुक्तः पाठः कृतः। स तु राजविशेषवाचकः । . अथासनम्। तत्र विशेषमाह देवलः। “ये चात्र विश्व देवार्थ विप्राः पूर्व निमन्त्रिताः। प्राङ्मुखान्यासनान्येषां विदर्भोपहितानि च ॥ दक्षिणामुखयुक्तानि पितृणामासनानि च। दक्षिणायैकदर्भाणि प्रोक्षितानि तिलोदकैः” ॥ प्रान. खत्व दक्षिणामुखत्वञ्चाग्रभागापेक्षया ज्ञेयम् एषां विखदेवब्राह्मणानां पितृणां पिटब्राह्मणानामेतञ्चासनं ब्राह्मणोपवेशनाथं नतु विश्वदेवार्थ पित्राद्यर्थवा तथा च यमः। “ततः सिद्धमिति प्रोच कल्पिते. प्रासने तथा। पासवमिति तान् ब्रूयादासनं संस्मृशन्नपि” इत्यत्र कल्पितासनस्य ब्राह्मणोपवेशन एवोपयोगावगतेविखदेव पित्राद्यर्थासनन्तु कुशवयात्मकमेव For Private And Personal Use Only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्राइतत्त्वम् । पाणिप्रचालनं दत्त्वा विष्टरार्थं कुशानपि " श्रावाहयेदनुज्ञातो विश्वे देवा स इत्यचा । तथा हिगुणांस्तु कुशान् दत्त्वा उशन्तस्त्वेत्युचा पितॄन्” इति याज्ञवल्कयोक्तेः प्रचाल्यतेऽनेन इति प्रचालनं जलं तेन तृष्णों ब्राह्मणपाणौ जलं दत्त्वा विष्टरार्थमासनार्थमिति दोपकलिका । कुशान् ऋजून् दद्यात् हिगुणानित्युक्तः । अथ दर्भाः । ब्रह्मपुराणे "सपिज्जलाश्च हरिता: पुष्टाः स्रिग्धाः समाहिताः । गोकर्णमात्राश्च कुशा: सक्कच्छित्रা: समूलका: ॥ पिटतोर्थेन देयाः स्युदूर्वाश्यामाक एव च । काशाः कुशा वत्वजाश्च तथाम्धे तौक्षारोमशाः ॥ मौजाच शालाश्चैव षड्दर्भाः परिकीर्त्तिताः ॥ तौक्ष्णरोमशा इति वल्वजानां विशेषणं तेन तेषामलाभ "शूकटाशरशीयुतवल्वज उलपशुण्ठवर्जं सर्वटणानोति” गोभिलेन तद्दातिरिक्तवल्वजानां निषेधो बोद्धव्यः । सपिञ्जलाः साग्राः स्निग्धा अकर्कशः पुष्टा न सूक्ष्माः समाहिता निर्दोषा शाइला इति मौञ्जस्य विशेषणं शूकानि फलपुष्पमज्ञ्जय्र्यस्ता येषां तृणानां सन्ति तानि शकटणानौति भट्टनारायणचरणा: गोकणमात्रा विस्तृताङ्गुष्ठानामिका परिमिताः । विष्णुः । “कुशस्थाने काशं दूवीं वा दद्यादिति” कृतमुष्टिहस्तपरिमिताः कुशाः प्रस्तरणार्थाः तथा च वायुपुराणम् । “रनिप्रमाणाः शस्ता वै पितृतीर्थेन संस्कृताः। उपम्यले तथा लूनाः प्रस्तारार्थे कुशोत्तराः ॥ वर्ज्य कुशानाह हारीतः “चितौ दर्भाः पथिदर्भा ये दर्भा यज्ञभूमिषु । स्तरणासनपिण्डेषु षड्दर्भान् परिवर्जयेत् ॥ पिण्डार्थं ये स्तुता दर्भा यैः कृतं पितृतर्पणम् । मूत्रोच्छिष्टप्रलेपे तु त्यागस्तेषां विधीयते” ॥ छन्दोगपरिशिष्टम् । “धृतेः कृते च विण्मूत्रे त्यागस्तेषां विधीयते । "" For Private And Personal Use Only २०१ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घाइतत्वम् । नौवीमध्ये च ये दर्मा ब्रह्मसूत्रे च ये धृताः ॥ पवित्रां स्तान् विजानीयादयथा कायस्तथा कुशाः। प्राचम्य प्रयतो नित्यं पवित्रण हिजोत्तमः। नोच्छिष्टन्तु भवेत्तत्र भुक्तशेषं विवर्जयेत्” ॥ इति वचनानुरोधात् पवित्रदानमेव सम्यक् । अथानुन्जा । पूर्वदिननिमन्त्रणे तदहनिमन्त्रणे वा श्राइदिने निमन्त्रणानन्तरमनुज्ञाग्रहणमाह आपस्तम्बः । “पूर्वेधुनिवेदन वेदनं परेाद्वितीयं रतौयमामन्त्रणमिति" निवेदनं खो मया श्रा कर्त्तव्यं तत्र भवन्तो निमन्त्रणौया इत्येवं रूपं निवेदनम् । हितोयं त्वामहं निमन्वये इत्यनेन निमन्त्रणम्। लयि बाहमहं करिष्ये इति तोयमनुजाग्रहणरूपं तत्र दर्भवटपक्षे निवेदननिमन्त्रणयोरभावः किन्वनुज्ञायां त्वयोति स्थाने दर्भमयब्राह्मणे इति वक्तव्य साक्षात् ब्राह्मणपक्षे हितोयहतीयमिति बोधनापेक्ष्य ब्रह्मपुराणम्। "उपवेश्य जपेद्धीमान् गायत्रीं तदनुज्ञया। मन्वं वक्ष्यामहं तस्मादमृतं ब्रह्मनिर्मिीतम् ॥ देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च । नमः स्वधायै स्वाहायै नित्यमेव भवन्विति ॥ श्राद्यावसाने श्राइस्य निरावृत्त्या जपेत् सदा। पिण्डनिवपणे चैव जपेदेतत् समाहितः ॥ पाठ्यमानमिमं श्रुत्वा श्राद्धकाल उपस्थिते । पितरःक्षिप्रमायान्ति राक्षसाः प्रट्रवन्ति च" ॥ उपवेश्य ब्राह्मणानुपवैश्य तदनुजया तस्य श्रावस्यानुज्ञया ततश्च कुरुवेति प्रतिवचने लब्धे श्राद्धाङ्गत्वेन गायत्रीजपादिकं कुर्य्यादित्यर्थः। तथा च ब्रह्माण्ड पुराणम्। “श्राई करिष्य इत्येवं पृच्छोहिप्रान् समाहितः। कुरुष्वेति स तैरुक्तः कुादर्भासनं तथा” ॥ विप्रान् निमन्वितब्राह्मणान् तदसम्भवे ब्राह्मणान्तरानपि कुरुष्वेति प्रत्य त्तरस्य उभयत्र सम्भवात्। अतएव पिटदयितायां श्राद्धानुज्ञानन्तरं गायत्रीजप उक्तः न च गायत्री For Private And Personal Use Only Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बादतत्त्वम् । २०३ अपार्थमनुज्ञाग्रहणानन्तरं वचनान्तरसिद्ध-श्राद्धानुज्ञापरत्वसम्भवे अन्यपरत्व कल्प नानुपपत्तेः पत्र देवताभ्य इति मन्त्र वेदिभेदेन मैथिलानां यत् पाठकल्पनं तत् कल्पनमेव। ब्रह्म पुराणे एकधैव लिखितत्वात्। ततश्च स्वधायै खाहायै नित्यमेव भवन्विति इति सर्ववेदिनां बहुसम्मतः पाठः । अत्र अनुज्ञायाः सङ्कल्प कार्यकारित्वेन तत्तन्मासाद्युल्लेखमाचरन्ति । प्रत्र ब्रह्मपुराणे तत्तन्मासे कृष्णपक्षकत्यमभिधाय शुक्लपक्षकत्याभिधानेन कृष्ण पक्षनिमित्तकपार्वण श्राशस्यापि ब्रह्मपुराणीयलात् पौर्णमास्यन्तमासेनोल्लेखः। तद्यथा “पयोमूल फलैः शाकः कृष्ण पक्षे च सर्वदा। पराधीनः प्रवासौ च निर्धनो वापि मानवः । मनसा भावशुद्धेन श्राद्धे दद्यात्तिलोदकम्” ॥ एवमश्वयुक कष्टपक्षाष्टका मघात्रयोदशीषु च यत्र राश्युल्लेख: श्रयते तत्र सौरेण एतदुभयसाधकासत्वे तु दर्शान्तेन वैशाखादिनोल्लेखः। श्राद्धे गोवाद्युल्लेखमाहतुःपारस्करप्रचेतसो। “गोत्रसम्बन्धनामानि पितृणां परिकल्पयन्”। गोसिलोऽपि। “गोत्र स्वरान्तं सर्वत्र गोत्रस्याक्षय्य कर्मणि। गोत्रस्तु तर्पणे प्रोक्तः कर्ता एवं न मुह्यति ॥ सर्वत्रैव पित: प्रोक्तं पिता तर्पण कम्मगि । पितुरक्षय्य काले तु अक्षयां तिमिच्छता ॥ शमादिके कार्ये शम्मा तर्पणकम्मणि । शर्मणोऽक्षय्य काले तु पितृणां दत्तमक्षयम्" ॥ शम्मनित्यनेन गोत्रसम्बन्ध-नामानि इत्यनेन एकवाक्यतया शम्मान्त नाम प्रतीयते । तथा च विष्णु पुराणम्। "ततश्च नाम कुर्वीत पितैव दशमेऽहनि। देवपूर्व नराख्य हि शर्मवादिसंयुतम्” ॥ देवपूर्व देवात् पूर्व नराख्यं नर नास तञ्च विशिष्टं शर्मयुतं एतच विप्रपरम्। “शर्मा देवश्व विप्रस्य वर्मा नाता च भूभुजः। भूतिगुप्तश्च वैश्य स्य दासः शूद्रस्य कारयेत्” ॥ इति यमवचनात् अत्र चकारेण देव For Private And Personal Use Only Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्राइतत्त्वम् । शर्मणोः समुच्चयः । तत्रापि शर्मवाद्यन्ततामाह शातातपः। “शान्त ब्राह्मणस्य स्याहन्तिं क्षत्रियस्य च । धनान्तञ्चैव वैश्यस्य दासान्त चान्त्यजन्मनः” अत्र धनान्तमिति श्रुतेः प्रागुतवचने भूतिपदश्रुतेश्च भूतिपदधनपदयोर्वैकल्पिकत्वम्। एवं शमन्नित्यनेन शर्मान्त नाम्ना विशेष्यस्य विशेषणवात पितरिति विशेषणवत् गोत्रस्य विशेषणस्यापि सम्बधन्तत्वं खरान्तमित्यनेन भयन्तरेणाभिहितम् । एवं सम्बुद्धान्तत्वादियुक्तं गोत्रपदम्। कर्ता उच्चारयिता न मुह्यतीत्यनेन श्राद्वादी गोत्रपदमेवोच्चायं न तु पिटदयिताकल्पतरुथाइविवेकोक्तं गोत्रपयाय कपि सगोत्रपदम्। एवं पितरित्यादिश्रुतेः सम्बन्धिशब्दानां पदिन्यायेन स्वसम्बन्धिपरत्वात् लोकिकेऽपि तथैवाभिधानात् पितरित्यादिवक्तव्य नत्वस्मत् पितरित्यादि अन्यथा अनोत्सर्गादावपि एतदस्मदवमित्यभिलापापत्तेः । एवमेव श्रीदत्तप्रभृतयः । मिथोऽपि कृत्यप्रदीपेऽप्येवमिति । पित्रादौनां नामाज्ञाने तु आखलायनसूत्रं "नामान्यविहां सस्तत् पिटपितामह-प्रपितामहा इति" अन पित्रादीनां नामाज्ञाने गोत्रसम्बन्धान्तरं देवदत्तपितरित्यादि प्रयोज्यम् भस्मदित्यनभिधाय तदित्यनेन नामाविहत् कर्तनामपरामत्।ि अतएव श्राइविवेके नामाजाने अमुकपिटपितामहप्रपितामहा इति कृत्वा दद्यादित्युताम्। एवञ्च शमन्त्रादिके कार्यमित्याद्यवाधायामुकपिटदेवशमवियादिकं प्रयोक्तव्यम्। न च नामघटकलेन शर्मेति पृथङ्न वक्तव्यमिति वाच्यं शान्तं ब्राह्मणस्य स्यादित्यादौ शादर्नामभिन्नत्वे नोपपदखेन च प्रतीतेः। अतएव सम्बन्धवाचकादस्य भेदः। एवं पितामहादौ मातामहादावयहनीयम्। अभिलापप्रकारमाह ब्रह्मपुराणम्। “एतहो ह्यानमित्य बा For Private And Personal Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वाइतश्वम् । विश्वां देवांश्च संयजेत् । पितृभ्यश्च ततो दद्यादवमामन्त्रणेन तु ॥ अमुकामुक गोत्रे तत्तुभ्यमत्रं स्वधा नमः” ॥ एतद्द इति बहुवचनान्तोपादानेन सम्बोध्या विश्वे देवा अपि तथा प्रतौयन्ते तथा विश्वान् देवान् प्रति बृहस्पतिना च तत्तत् श्राद्धे ऋतु दचादिसंज्ञकद्दितयद्दितयोक्तत्वात् तत्तत् सार्थकत्वाय सर्वस्यप्सरस इति वत् पुरूरवो माद्रवसौ विश्व े देवा एतद्दोऽत्रं नमः" इति द्विवचनबहुवचनाभ्यां वाक्यरचना पितृदयितादौ -लिखिता गरुड़पुराणेऽप्येतादृशौ वाक्यरचना । इच्छाश्राह क्रतुदचादि नामान्युक्वा वृहस्पतिना तदज्ञाने पागच्छन्वित्यादि मन्त्रपाठ उक्तः यथा “ उत्पत्तिं नामचैतेषां न विदुर्ये द्विजातयः । श्रयमुच्चारणीयस्तैः श्लोकः श्रद्धासम न्वितैः ॥ श्रागच्छन्तु महाभागा विश्वे देवा वरप्रदाः । ये यत्र विहिता या साधवाना भवन्तु ते ॥ इति ततञ्च नामजाने सुतरां तस्यैवोच्चारणं प्रतीयते । अतएव २०५ । देवे नम इत्यनेन त्यागमाह विष्णुः । " नमो विश्व भ्यो देवेभ्य इत्यवमादौ प्राप्त खयोर्निवेदयेदिति” अत्र नम इत्यनेन विश्व भ्यो देवेभ्यो दद्यादित्यन्वयः । ततो देवपचकर्मानन्तरं पित्वादित्रिकं मातामहादि त्रिकञ्च सम्बुद्धान्तगोत्रसम्बन्धनाम्ना एतत्तुभ्यमत्र' स्वधेति सर्वशाखि गोचरपौराणिकत्व ेन सम्बोधनेन नामान्तमुच्चार्य तत्तच्छाखोक्तप्रकारेण वाक्यरचना । अत्र "ये ऽचय्योदकेचैव पिण्डदानेऽवने जने । तन्त्रस्य विनिवृत्तिः स्वात् स्वधावचन एव च ॥ इति छन्दोगपरिशिष्टवचनादसति वाधके लाघवमेव तन्त्रतान्याये युक्तिरित्युक्तत्वाच्च अर्ध्यादेfरतरत्र " एतद्दः पितरो वासस्विति जल्पन् पृथक् पृथक् । अमुकामुकगोवैतत्तुभ्यं वासः पठेत्ततः । दद्यात् क्रमेण वासांसि श्वेतवस्वभवा दशा: " ॥ इति ब्रह्मपुराणवचने वासो १८ For Private And Personal Use Only Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०६ थाहतत्वम् । दानमन्त्रयोः पृथक्त्वाभिधानात् तदितरत्र च कुशासनगन्धाशबोत्सर्गदक्षिणादाने तन्त्रेणैव वाक्यरचना अतएव तुभ्यमिति पदेन प्रकृतवाचिनां निरपेक्षाणामेव पित्रादौनांसम्बोधनपदेन अपनीतानां तन्वेणोहेश्यत्वसम्भवात् तन्त्रेणेव खधा पदसम्बन्ध इति श्रादविवेकः । अत्र तु प्रकृतत्यनेन सविधानात् प्रपितामहमात्रस्य तुभ्यमित्यनेन नोपस्थितिः किन्तु सर्वनामत्वात् पिनादित्रिकाणां निरपेक्षाणामित्यनेन साहित्यासत्वन बहुवचनेनानुल्लेखातुभ्यमित्येक-वचनेनैवोल्लेख इति। एवच रायोका एतत्त इत्यादौ ते इत्यस्य तुभ्यं पदस्थानीयत्वेन तथात्वमिति। एष ते पिण्ड इत्यनन्तरं मन्वे “थे चात्र त्वामनुजांच त्वमनु तस्मै ते इति ते पदस्य गोभिलेन पुनरुपादानात् सामगेन थाइवाक्ये उभयं प्रयुज्यते तत्र प्रथमं ते इति तवे. त्यथै एवञ्च वाचानुज्ञानन्तरं गायत्रीजप उता: ते विशेषयति योगियाज्ञवल्करः । “प्रणवं पूर्वमुच्चार्य भूर्भुवः स्वस्ततः परम्गायत्रीप्रणवचाते जपे ह्येष उदाहृतः । तदनन्तरं देवताभ्य इति त्रिः पठेत् । ततः पुण्डरीकाक्षं स्मरेत् । “शङ्खचक्रधरं विष्णुविभुज पीतवाससम् । प्रारम्भे कर्मणां विप्रः पुण्डरीक स्मरेतरिम् ॥ इति वाक्यात् पुण्डरीकं पुण्डरीकाक्षम्। स्मरण फलं गारड़े। “अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा। यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं सवायाभ्यन्तरः शुचिः" ॥ - चाचौयद्रव्यप्रोक्षणमाह वायुपुराण। “नाप्रोक्षितं स्पृशेत् किञ्चित् पैने देवेऽथ वा पुनः ॥ स्पृशेत् दद्यात् उपघातशङ्कायां मुज्जलप्रोक्षणं तत्रैव "खा चैव हन्ति श्राहानि दर्शनादेव भवशः। श्वविटशूकरसंस्पृष्टं दीर्घरोगिभिरेव च ॥ पतितः मलिनैश्चैव न स्पष्टव्यं कथञ्चन। अनं पश्येयुरेते यत्तन्त्र स्थावव्यकव्ययोः॥ उत्स्रष्टव्य प्रदानार्थं संस्कारस्वापदि मतः । For Private And Personal Use Only Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बारतत्त्वम् । हविषा संस्कृतानान्तु पूर्वमेव हि मार्जनम् ॥ मृत्म्रा युक्ताभिरशिच प्रोक्षणन्तु विधीयते” ॥ प्रदानार्थ श्राहार्थं उत् स्रष्टव्यं तदर्थं न नियोज्यमिति कल्पतरः । देवल: "चण्डालेन शुनावापि दृष्ट इविरयत्रियम्। विडालादिभिरुच्छिष्ट दुष्टमन विवर्जयेत् अन्यत्र हिरण्योदकस्पर्शादिति” तदनन्तर रक्षार्थमुकदपानमेकदेशे स्थापयेत् इति पिटदयिता। तथा च मनुः। “रक्षणाय तु यहत्तमुदकं श्राद्ध कर्मणि। तावदवन्ति पितरो यावत्तिष्ठति सोदकम्" इति दत्तं स्थापित प्रारकर्मणि बाई कर्तव्ये मोदकं पानमिति शेषः । . पथ पिण्डपिष्टयज्ञातिदेशः । तत्र गोभिल: "पिण्डपियनवदुपचारः पित्रे इति" पिनो पित्रादिषाटपुरुषिककले पिण्ड पिवयजवत् स्वरयोक्त पिण्डपिटयनरीत्या प्राचौनावौतित्व दक्षिणामुखत्वं पातितवामजानुत्व सतिलत्व दिगुणभुग्नकुपवयत्व ये चानवेति मन्त्रोच्चारणरूपतया उपचरणं कायमित्यर्थः । पत्र "अक्षयोदकदानन्तु प्रय दानवदियते। षष्ठेयव नित्य तत् कुन्नि चतु. कदाचन" इति छन्दोगपरिशिष्टवचनेन षष्ठया एवेत्यनेन गोत्रसम्बन्ध नाम्नां षष्ठान्तता प्रतीतौ न चतुर्थे त्यनेन तत्र चतुर्थी निषेधानुपपत्त्या पिण्ड षिव्यवदित्यतिदेशप्राप्त ये चात्रत्वेति मन्वस्थ तस्मै ते इत्यस्य निषेधेन्वयानुपपत्त्वा तद्युक्त मन्त्र निषेधोऽपि सङ्गच्छते। “एकोहिष्टस्य पिण्डे तु अनुशब्दो न युज्यते" त्यति पावलायनराधपरिशिष्टानुशन्दनिषेधादनुयुक्त मन्त्र. निषेधवत् एतेन कुमासनानोमयोः ये चावत्वेत्यादिमन्त्रा स्यालिखनं मैथिलानां हेयम्। अथ कुशासनम्। तत्र गोभिलः । “यित्रो हिगुणांस्तु दर्मान् पवित्रपारिषदद्यादासोन: सर्वत्र प्रश्रेषु पङ्क्तिमूईन्य For Private And Personal Use Only Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०८ तवम् । a तथा च पृच्छति सर्वान् वा सववासमेषु दर्भानास्तोय्र्य्येति” पिवेत्र पित्रर्थदाने तत्त्रादौ जलगण्ड षप्रक्षेपः । ततो द्विगुणभुम्नकुंधपत्र त्रयं पितॄणाम् श्रासनार्थं दद्यात् एतच्च पादौ विश्ले देवपचे कृत्वा पितृपक्षे कर्त्तव्यं तथा च याज्ञवल्काः । " पाणिप्रचालनं दत्त्वा विष्टरार्थं कुशानपि । श्रावाहयेदनुज्ञातो विश्वे देवास इत्यृचा ॥ द्विगुणांस्तु कुशान् दत्त्वा उषन्तस्त्वेत्यूचा पितॄन् ॥ प्रक्षाल्यतेऽनेनेति प्रचालनं जलं तेन तूष्ण ब्राह्मणपाणी जल दत्त्वा विष्टरार्थम् आसनार्थमिति दोषकलिका कुशान् ऋजून् दद्यात् व्यक्तमाह श्राश्वलायनः । “अप: प्रदाय दर्भान् द्विगुणभुग्नानासनं प्रदाय" इति श्रासनमित्यनेन उपवेशनीयत्वप्रतीतेर्हस्ते तददानं प्रतीयते । कार्णाजिनि: “दर्भश्चैवासने दद्यात् न तु पाणौ कदाचन । पितृदेवमनुष्याणाम् एवं तृप्तिर्हि भवतो* ॥ अत्र पितृदेवमनुष्योपादानात् पार्वणादिश्राद विश्वेषां देवानां नित्यश्राडे सनकादि मनुष्याणामपि कुशासनदानं प्रतोयते । अत्र दैविकत्वेन कुशानां ऋजत्वमिति विशेषः । देवपितृविप्रयोः दक्षिणवामयोः कुशासनस्थापनमाह बाडसूत्रभाष्यधृतवचनम् । "पितृणामासनं दद्याद्दामपार्श्वे कुशान् सुधौः । दक्षिणेचैव देवानां सर्वत्र श्राद्धकसु” ॥ सर्वत्र दैवे पित्रे चं पवित्रपाणिः पवित्रयुक्त दक्षिणकरः पासोन उपविष्टस्तथा च छन्दोगपरिशिष्टम् । "सव्यः सोपग्रहः काय्यों दक्षिणः संपवित्रकः" इति "आसोन ऊई : प्रहो वा नियमो यक नेदृशः । तदासीनेन कर्त्तव्य न प्रम न तिष्ठत ॥ इति सव्यो वामकरः उपग्रहो बहुलकुशः श्रासौन उपविष्टः ऊर्हो दण्डवत् स्थितः प्रह्नः अवनतपूर्वकायः सबभेत्यनेन देवका चितृकार्य्यं च पवित्रपाणित्वमासीनत्वञ्च प्रवेषु श्राद्ध करिबे I For Private And Personal Use Only Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्राद्धतत्त्वम् । २०८ पितृनावाहयिष्ये इत्यादि प्रश्श्रेषु भासनेषु ब्राह्मणोपविष्टदर्भयुक्तासनेषु दर्भानास्तोयं विश्वे देवाद्यर्थोत्सृष्टदर्भानास्तौर्य वश्वमाणमावाहनं कुर्य्यादित्यर्थः। यत्तु अनिरुद्धभट्टेन पादयोरधः कुशासनदानमुक्तं तत्र प्रमाणं न विद्म इति पतिसूईन्यं पितृब्राह्मणं पृच्छेदिति ऋज्वन्यत्। अथ आवाहनम् । तत्र गोभिल: “यवानादाय प्रणवं कला विश्वान्देवानावाइयिथे इति पृच्छेत् आवाहयेत्यनुन्नातः विखे देवाः प्रागत शृणुताम इमं हवम् एदं वहिनिषौदत" प्रत्यावाघ यवान् विकिरेत्। "विश्वे देवाः शृणुतेमं हवं ये मेऽन्तरौक्षे उपद्यविष्टयेऽग्नि जिक्षा उतवो यजत्रा आसद्यास्मिन् वर्हिषि मादयध्वं पोषधयः समवदन्त सोमेन सह रान्ना यस्म कणोति ब्राह्मणस्तं राजन् पारयामसि” इति अत्र समवदन्तेति वकारयुक्ताः पाठः वदस्थैर्ये इत्यस्मात् धातोरिति गुषविष्णुलिखनात् व्यक्तमपरम् । अत्रावाहनानन्तरं कृत्यप्रदौपे यविकरणे यवोऽसोति मन्त्रलिखनं प्रमाणशून्यं पित, दयिता श्राद्ध कल्पादिषु तूष्णीमित्यभिधानात् । अत्र देवता. वाहने गृह्यादधिकं विप्राङ्गष्ठ ग्रहणमाह ब्रह्मपुराणम्"देवानाबारयिष्येऽहं प्राहुरावाहयख च। विप्राङ्गुष्ठं रहौत्वा तु विखान् देवान् समाह्वयेत्” । आवाहयखेति शाख्यन्तरौयं गोभिलकात्यायनाभ्यामावाहयेत्यभिधानात् । गोभिल: "पित्रातिलानादाय प्रणवं कृत्वा पितनावाहयिष्ये इति पृच्छति पावाहयेत्यनुजात: एत पितरः सौम्यासो गम्भोरेभिः पथिभिः पूर्विणेभिर्दतास्मभ्य द्रविणेऽह भद्र रयिञ्चन: सर्ववोरं नियच्छत । उशन्तस्त्वानिधौमाशन्तः समिधीमहि उशनुशत भावह पितॄन् हविषे अत्तवे। इत्युचावाय "पायान्तु नः पितरः सौम्यासोऽग्निखात्ताः पथिभिर्देवयानः अमिन् यन्न खधया For Private And Personal Use Only Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २१० श्राथतत्त्वम् । मदन्तोऽब्रुवन्तु ते अवन्त्वस्मान्" इति जपित्वा अपहतेसि तिलान् विकौर्य्य इति पूर्विणेभिरिति पूर्वैः कृतमित्यर्थे इनयो चेति इन्प्रत्यय इति गुणविष्णुव्याख्यानादिनस्य तहितत्वेन पूर्वशब्दस्याकार लोपात् तत्पदं सिद्धम् अत्र मूलभूतगोभिलग्रन्थे तद्भाष्यये पितृदयितायाश्ञ्च एतपितर इत्यनन्तरम् उशन्तस्त्वति लिखितेन मैथिलानामेतत् विपरीतलिखनं हेयम् आवाहनात् ब्राह्मणाचमनपर्यन्तं कर्ता विप्रैश्च विहितेतरशब्दोच्चारणं न काय्र्यम् । आवाहनात् वाग्यत चा उप'अर्शनादामन्त्रिता चैवं" इति कात्यायनवचनात् । अथ अर्घ्यं तत्र गोभिलः । "अप उपस्पृश्य यज्ञिय वृचचमसेषु पवित्रान्तर्हितेषु एकैकस्मिन् अप प्रसिञ्चति शत्रोदेवौति” अप उपस्पृश्य जलं स्पृष्ट्वा श्रत्र पिटमन्त्रोच्चारणं वीजं तथा छन्दोगपरिशिष्टे कात्यायनः । “विश्रामन्नानुहर आत्मालम्भेह्यवेक्षणे । अधोवायुसमुत्सर्गे प्रहासेनऽनृतभाषणे ॥ माजीरमूषिकस्पर्शे श्राकुष्टे क्रोधसम्भवे । निमित्तेषु च सर्वेषु कर्म कुर्वन्त्रपः स्पृशेत्” ॥ पित्रामन्नानुहरणे यज्ञादौ विहिते आत्मालम्भ हृदयस्पर्शे प्रवेक्षणे तस्यैव अधोवायुसमु सर्गे नोर्होद्वारे प्रहासे महति हास्ये न तु स्मिते प्राक्रुष्ट परुष" भाषणे क्रोधसम्भवे क्रोधोत्पत्तौ भाषणं विनाऽपि मनसा एषु निमित्तेषु सर्वत्र कर्मकरणकाले जलं स्पृशेत् नत्वाचामेत् । याज्ञवल्कयोsपि " रौद्रपित्तासुरान् मन्त्रान् तथा वैराभिचारिकान् । व्याहृत्यालभ्य चात्मानमपः स्पृष्ट्वान्यदाचरेत्” ॥ चमसास्तु "तच्छाखाश्चमसादोर्घाः प्रादेशाचतुरङ्गुलाः । तथैव उत्सेधतो ज्ञेयाश्चतुरस्रास्तु इत्यपि ॥ तच्छाखा यज्ञियवृक्ष-शाखाचतुरङ्गुलाः चतुरङ्गुल- विस्तृता तथैव चतुरङ्गुलपरिमाणा: उत्सेधतः ऊर्द्धतः । अत्र अर्ध्या पावस्थापनं For Private And Personal Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बाहतत्त्वम् । कुशोपरीत्याह वैजवापरायं "प्राचीनावौति प्रात्राण्यप् पूर्णानि सदर्भाणि सतिलानि दक्षिणाग्रेषु कुशेषु निधाय" इति पवित्रान्तहितेषु मध्यार्पित पवित्रेषु एकैकस्मिन्निति बोसा देवपात्रेऽपि जलादिप्रक्षेपार्था । तथा च याज्ञवल्काः “यवैरन्ववकौाथ भाजने सपवित्रके। शबोदेव्यापयः शिवा यवोऽसौति यवां स्तथा। या दिव्या इति मन्त्रेण हस्तेचयं निवेदयेत् ॥ गोभिलः। “एकैकसिमबेव तिलानावपति तिलोऽसि सोमदैवत्यो गोमवो देवनिर्मितः। प्रत्नमतिः पृक्तः स्वधया पितृन् लोकान् प्रोणाहि नः स्वाहा" इति सौवर्णराजतौडम्बरखाजमणिमयानां पात्राणामन्यतमेषु अप्रसिद्धपनपुटेषु वा यानि वा विद्यन्ते एकै कस्मिन्नेकैकेन ददाति सपवित्रेषु इस्तेषु “या दिव्या प्रापः पयसा सम्बभूवुर्या अन्त. रौधा उत्पार्थवी- हिरण्यवर्णा यजिया स्तान प्रापः शिवाः मध्योनाः सुहवा भवन्तु" इति पाठवा असावेतत्तेयं मिति प्रत्र एकैकस्मिन्निति पूर्वसूत्रप्रकतत्वादेव प्रत्येकपात्रलाभ पुनर्य देकैकस्मिनिति नियमाभिधानं तन्मन्चे पितृनिति बहुवचनदर्शनादावाहनादिमन्त्रपाठवत् सवन्मन्त्रपाठःस्यादिति तविषेधार्थं किन्तु प्रत्येकमेव तिलप्रक्षेपमन्त्रः बहुवचनन्तु "एतहः पितरो वासः” इति वत्प्रयोगसाधुत्वेनोपपन्नम्। अत्र तिलानावपतौत्यविशेषित गोभिल-दर्शनात् देवपक्षेऽपि तिलप्रक्षेपः। तथा च विखे देवा स प्रागत इत्यावाद्य विकरणमपि तिलानामिति कर्कोपाध्यायमतं यत् तत्र युक्तम्। पावाहयेत्यनुन्नातो विखे देवा स इत्यचा। यवैरनुविकौाथ भाजने सपवित्रके। शबोदेव्यापयः क्षिता यवोऽसौति यवांस्तथा" इति याज्ञवल्काविरोधात्। यवतिलप्रक्षेपानन्तरं गन्धपुष्यप्रक्षेपणमाह ब्रह्मपुराणम्। “अाः For Private And Personal Use Only Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २१२ वाहतत्वम् । पुष्यैव गन्धैव ताः प्रपूज्याः स्वशास्त्रत:" अर्ध्या आप इति शेष: खशास्त्रातः पादौयगन्धपुष्यप्रतिपादकात्। शाट्यायनोऽपि *गन्धपुष्पोरल सत्य या दिव्येति पठन् सृजेत्। सृजेत् उत्सृजेत् ततो देवब्राह्मणहस्ते प्रागग्रमर्यपाबौय पवित्र जलातरच प्रक्षिप्य पितुर्बाधणहस्ते दक्षिणायमध्य पात्रौय पवित्र जलान्तरञ्च प्रक्षिप्य वामहस्तेऽयं पात्र धृत्वा या दिव्येति पठित्वा वाकोन विप्रकरस्थपवित्रसहितमय जलमुत्सृजेत् दद्यात्। तथा च वायुपुराणम् । “ततो वामहस्तेन महोत्वा चमसानक्रमात्। पिटतीर्थेन तत्तोयं दक्षिणेन च पाणिमा। दत्तदर्भोद के हस्ते विप्रेभ्यश्च पृथक् पृथक् ॥ जल प्रक्षेपानन्तरं या दिव्येति पाठात् पूर्व पुष्पान्तरेण शिरःप्रभृतिसर्वगात्रपूज नमाह समुद्रकरतगोतमः । “शिरस: पादतश्चैव सम्यगन्यायेत्ततः । पूर्ववत् पृथगेकैकमेकैकेनाचयेत् क्रमात् ॥ औडुम्बरं तानपाव खाऊं गण्डो शरोऽस्थिनिर्मितं पात्र मणिमयानि स्फाटिकादौनि यानि वेति अप्रतिषिद्धानि कदलोवृक्षवगादौनि पत्र चमसादीनां वैकल्पिकत्वात् अन्यतमेष्विति शब्दाकजातौयेनैव सर्वाण्यय पात्राणि प्रसाविति सम्बोधनान्तनामोपलक्षणम् । “असाविति नाम रहातौति" कात्यायनदर्शनात् यद्यऽप्यसाविति असम्बधि प्रथमान्तोऽपि सम्भवति तथापि ते ति युमत् पदप्रयोगात् सम्बुद्धान्तता प्रतीयते। प्रतएव छन्दोगपरिशिष्टं “गोत्रनामभिरामन्या पितृनध्य प्रदापयेत्” ॥ प्रयोगविधायकगोभिलसूचे एतत्तेऽध्य मित्यभिधानात् तद्ग्योऽप्यध्य मयं मित्यभिधानाच सामगानां सर्वत्राभिलापे नपुंसकलिङ्गेनैव प्रयोगः अभिलापेतरत्न एकोऽयं इति गोभिलेन पुंस्त्वेन निर्दिष्टः अन्येषां सर्वत्र पुलिङ्गेनैव प्रयोगः तत्रापि पायााभ्यां यदिति For Private And Personal Use Only Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आइतत्वम् । २१३ पाणिनिसूत्रेण यदेयहिधानं तत्सामगप्रयोग एवान्यत्र नियंकार एवार्थशब्दः। प्रागुता वै जवायग्टह्यवचनेऽध्य पात्रखापनौयकुशानां दक्षिणाग्रत्वदर्शनात् तत्पानोपरि पवित्रखापनेऽपि तहट्या पशुप्रोक्षणवत् तथैवं व्यवहारात् पासनासरणीय कुशेषु तथादर्शनेन दक्षिणाग्रत्वव्यवहारात् ब्राह्मणहेर्स पवित्रदानेऽपि तथा प्रतीयते प्रतएव गोभिलीय श्राइकल्पभाष्यकन्महा यशसाढुण्ड पद्धतौ गार्गीयपद्धतौ च पविबाणां दक्षिणायव लिखितमिति नव्यवईमानपशुपत्यपि पालरायमुकुटपद्धतिष्वपि तथा लिखितम् अतएव वशिष्ठोतो विधिः शत्नोद्रष्टव्योऽत्र निरामिशः” इति छन्दोमपरिशिष्टेन वृद्धिश्राद्धे पार्वणधर्मातिदेशेऽपि अध्ये "ज्येष्ठोत्तरकरान् युग्मान् कराग्राग्रपवित्रकान् कृत्वाध्य सम्प्रदातव्यं नैकैकस्यात्र दौयते" इत्यनेन पवित्राणामुत्तराग्रत्वं विधीयते प्रत्येक हस्तऽयं दानं निषिध्यते च अतः पावणे दक्षिणाग्रत्वं एकैकहस्तदानत्व प्रतीयते। गोभिलः। “प्रथमे पात्रे संसवान् समवनौयपात्र न्युज कुर्यात् पिटभ्यः स्थानमसि" इति प्रथमें पात्रे पिटपात्रे संत्रवान् पितामहादिपञ्चायपावस्थशेष जलानि समवनौय पशुप्रोक्षगावत् क्रमेण स्थापयित्वा तत्पात्रस्य प्रपितामहपात्रेणाच्छादनमाह शौनकः । “प्रपितामहपात्रेण पिधाय प्रतिष्ठापयति" इति याज्ञवल्कोन अंपि नत्यावस्याधस्थत्वाभिधानात् पात्रान्तरेण पिधानमाचितं तथा च याज्ञवल्करः। दत्ताध्य संसवां स्तेषां पात्र कला विधानतः। फ्टिभ्यः स्थानमसौति न्युन पात्र कोत्यधः” ॥ विधानतो यथापूर्व स्थापितं तत्क्रमेण तेन प्रपितामहपात्रेणाधः कृतं पिटपात्र जङ्घ मुखावस्थितं न्य न करोति मतु केवलं पिळपान न्युन करोति तदेवपान पानान्तरेयायः For Private And Personal Use Only Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २१४ श्रातत्त्वम् । करोति "पैढकं प्रथमं पात्र तस्मिन् पैतामहं न्यसेत् । प्रपितामहं तथान्यस्य नोहरेत् न च चालयेत्” इति यमवचनादिति मैथिलोत युक्त याज्ञवल्कयवचने करोतीत्यनुषङ्गापतेर्वाक्यभेदापत्तेश्च शौनकोक्त पिधानानन्तरं न्युजौकरणानुपपत्तेथ यमवचनेऽपि पितृपात्रस्य याज्ञवल्कोयाधस्थत्वाय शौनकौय प्रपितामहपात्रमात्र पिधानवैकल्पिकं पितामहप्रपितामहपात्रद्दयपिधानभुक्वा वचनान्तरान्य लोक्कतस्य तत्पावस्यावरणादिनिषेष उक्तः तथा सब "पितृपा निधायाथ न्युजमुत्तरतोन्यसेत्” इति मत्स्यपुराणवचने न्यसेदित्यत्राख्यातोपस्थापितकर्त्तर्वामपार्श्वे कर्त्तव्यः " तस्मादयस्य दक्षिणतो लक्ष्म भवति तं पुण्य लक्ष्मोकमित्याचचते उत्तरत: स्त्रिया: " इति उत्तरायणा हि स्त्रौति शतपथश्रुते: “उत्तरे चास्य सौवर्ण्यं लक्ष्मपार्श्वे भविष्यति” इति महाभारतवचनाच उत्तरशब्दस्य वामवचनता सिहा पिटकर्मणि प्राच्यादिश उत्तरादिकत्वाच्च तथा च रायमुकुटष्टतं पिचामिष्टमुपक्रम्य “ ब्राह्मणं या दक्षिणा सा प्राची या पूर्वा सोत्तरा" इति । एवञ्च भोक्तृब्राह्मणानामपि सोत्तरादिगेवेति कल्पतरूक्त्या सहैकवाक्यतापि सिद्धा इति । एवं कर्त्तुर्दक्षिणामुखस्य वामपार्श्वमुत्तरादिग्भवति इति ततश्च कल्पतरु श्राद्धविवेकाभ्याम् एकस्थानं भया द्वितयेनाभिहितं स च न्यासोदर्भ स्तम्बोपरीत्यनिरुद्धभट्टः । अत्र गोभिलसूत्रे पिढपात्रे इत्यभिधानात् संस्रावानिति बहुवचनाच मन्त्रे पितृभ्य इति पितृत्वेन प्राहतास्तव तिष्ठन्ति पितरः शौनकोऽब्रवीदित्याश्वलायन गृह्यपरिशिष्टवचने पितृत्वेन षड़पस्थितेरावाहनवत् षट्पुरुषानुहिश्य सक्कदेव न्युनीकरणं न तु मातामहादोनां मैथिलोक्त पृथक् करणमिति । For Private And Personal Use Only Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वाचतत्वम् । अथ गन्धादिदानम्। तत्र गोभिलः । “गन्धपुष्पधपदौपाच्छादनानां सम्प्रदानमिति"। सत्र गन्धादिपञ्चानां इन्दनिर्देशालाघवाञ्च मिलितानां तन्त्रेणैकोत्सर्ग: निवेदनन्तु प्रत्येकशः तथा च शाट्यायनः एष ते गन्ध एतत्ते पुष्प एष ते धप एष ते दीप एतत्ते पाच्छादनम् इति पत्र बहुषु यथेषु सम्पन्नो यव इप्ति जात्यापिकवचनं तहहन्धादौनां प्रत्येक बहुत्वेऽप्येकवचनान्तत्वेन निर्देशः । इदं वः पुष्पमित्यु त्वा पुष्पाणि च निवेदयेत्। प्रमुकामुकगोवैतत्तुभ्यमन वधा नमः" इति ब्रह्मपुराणादिष्वेकजातौयानेकद्रव्येऽपि एकवचनान्तप्रयोगात् प्रतएव नवमाध्यायेऽपि "सूर्यस्य चक्षुर्गमयतात्" इति मन्त्रे सूर्यस्य चक्षुबहुवेऽप्येकवचनान्तपदनिर्देशात् संगनिद्रव्याणामबतीयतेजमा प्रयोगे एकवचनान्तप्रयोग इति विचारितम् । अतएव आभ्यदयिके पात्रयाऽनोसर्गवाक्य एतत्तेऽवम् इति सर्वैः पद्धतिक्वद्भिलिखितम् एवञ्च पितृ. दत्तगन्धादौनां ब्राणाय निवेदने शाट्यायनीत निवेदनवाक्ये ते इत्ये कत्वेन निर्दिष्टम् एकब्राह्मणपक्षे ब्रह्मपुराणे व इति बहुवचनेम निर्दिष्ट तदनकब्राह्मणपक्षे एकस्मिनपि गुरुत्वविवक्षया व इत्याविरोध: तत्र गन्धः। विष्णुः “चन्दनकुटुमा कर्पूरागुरुपद्मकाष्ठान्यमुलेपनार्थे । . अथ पुष्यम्। ब्रह्मपुराणे। "शुक्लाः सुमनसः श्रेष्ठाः तथा पद्मोत्पलानि च। गन्धरूपोपपवानि यानि चान्यानि वत्स्रशः' निषेधमाह "जवादिकुसुम भाण्डौरूपिका सकुरु. एटका। पुष्पाणि वर्जनौयानि वाधकर्मणि नित्यशः” । जवादीत्यादि शब्दा देवं विधं रतकुसुम रूपिका अर्कपुष्प कुरुण्टक: पौता झिण्टो "उग्रगधान्यगन्धौनि चैत्यक्षोअवानि च। पुष्पाणि वर्जनीयानि रक्तवर्णानि यानि च ॥ For Private And Personal Use Only Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २१६ श्रातत्त्वम् । श्राद्धे जात्यः प्रशस्ताः स्युर्मल्लिका कुन्दयूथिकाः” ॥ दद्यादित्य - पक्रस्याह । “केतकीं करवौरश्च वकुलं चम्पकं तथा । जातौदर्शनमात्रेण निराशाः पितरो गताः " ॥ जातौति रक्तजातिविषयम् । अथ धपाः । " ब्राह्मे चन्दनागुरुणौ चोभे तथैवोशौरपद्मकं तुरुष्कं गुग्ग ुलुञ्चैव घृताक्तं युगपद्दहेत्” । उभौरं वीरणमूलं तुरुष्क सिह्नकम् । अथ दौपाः । तन शङ्खः । "घृतेन दोपो दातव्यस्तिलतैलेन वा पुनः । धूपार्थं गुग्ग ुलुं दद्यात घृतयुक्त मधुभुतम्” । । अथाच्छादनम् 1 वायुपुराणे । " श्राच्छादनन्तु यो दद्यादाहतं श्राद्धकर्माणि । श्रायुः प्रकाममैश्वर्य्यं रूपञ्च लभते शुभम्” ॥ श्रहतमत्रपारिभाषिकमेव “दूषद्दौतं नवं श्वेतं हृदयं यत्र धारितम् । पाहतं तद्विजानीयात् सर्वकर्मसु पावनम्” ॥ ब्रह्मपुराणम् । अनङ्गलग्न यहस्त्रं विभवे तदु युगं शुभम् । वस्त्राभावे क्रिया नास्ति यज्ञदानतपांसि च ॥ तस्माहस्वाणि देयानि श्राद्धकाले विशेषतः " ॥ अतो वस्त्रदानस्यावश्यकत्वं तद्दिनाक्रियाभावश्रुतेः । अथ यज्ञोपवीतानि । वायुपुराणे । “यज्ञोपवीतं यो दद्यात् श्राद्धकाले तु धर्मवित् । पावनं सर्वविप्राणां ब्रह्मदानस्य तत्फलम्” ॥ अतोऽस्य काम्यत्व' ब्रह्मपुराणे । “ख तचन्दनकर्पूरकुङ्कुमानि शुभानि च । विलेपनार्थं दद्यात्तु यच्चान्यत् पितृवल्लभम् " ॥ रजतादिजीवतां वा यदभिलषितमासीत् श्रद्धाप्रतिषिद्धं तद्देयमिति । वायुपुराणं “लोके श्रेष्ठतमं सर्वमात्मनश्चापि यत् प्रियम् । सर्वं पितॄणां दातव्यं तदेवाच्चयमिच्छता " ॥ गन्धाद्यभावे प्रतिनिधिमाह पैठीनसिः । " काण्ड 1 For Private And Personal Use Only Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २१७ श्रावतत्त्वम् । मूलपत्रपुष्यफलप्ररोहरसगन्धानां सादृश्येन प्रतिनिधिं कुर्यात् सर्वालाभे यवः प्रतिनिधिर्भवतीति" काण्ड नालं प्ररोहोऽङ्करः सर्वालाभे यव इति कल्पतरुः। अवयव इति नारायणोपाध्यायाः । तथा च वस्त्रयुग्माभावे खण्डवस्त्रं देयमिति । अथ पात्रस्थानम्। ततो मण्डलं कृत्वा ताम्रादिपात्रं पातयेत् तत्र भृगुः भस्मना वारिणावापि कारयेन्मण्डलं ततः ॥ मण्डलं चतुष्कोणम् अत्र दैवे ऐशानौमारभ्य देवत्वात् दक्षिसावर्तन प्रागग्रान्तरेखया वायवौमारभ्य उदगग्रान्तरेखया वा मण्डलं कारयेत् । प्रागुदगग्रेति कात्यायनदर्शनात पिता तु नैऋतिमारभ्य पिटवाहामावर्तेन दक्षिणाग्रान्तरेखया मण्डलं विन्यस्य पात्रे दक्षिणाग्रा” इति च कात्यायनसूत्रात् नव्यवईमानोऽप्येवम्। मण्डलाकरणे दोषमाह स्मृतिः। “अनञ्च मण्डलैहीनं राक्षसभुज्यते बलात्” । अथ पावाणि। तत्र हारोतः। “काञ्चनेन तु पात्रेण राजतोडुम्बरेण वा। दत्तमक्षयतां याति खङ्ग नायकतेन च"। औडुम्बरेण ताम्रण । खड्न गण्ड कशिरोऽस्थिनिर्मितेन पार्यकतेन व वर्णिकलतेन अन्यदपि पात्रमभिमतमिति कल्पतरुः । एवं कदलीत्वगादौन्यपि ब्रह्मपुराण "सौवर्णरौप्यताम्राश्म स्फाटिक्य शङ्खशुक्तयः। भिन्नान्यपि नियोज्यानि पात्राणि पिढकर्मणि" ॥ कल्पतरौ। “राजतं रजतात वा पितृणां पावमुच्यते। रजतस्य तथा दानं दर्शनं नाम शस्यते" ॥ दैवे तु तविषिष्टम् । “अथार्य पिण्डभोज्येषु पितृणां राजतं मतम् । अमङ्गल्यन्तु रजतं देवकार्येषु वर्जयेत् ॥ इति वायुपुराणात्। याज्ञवल्काः । “हुतशेषं प्रदद्यात्तु भोजनेषु समाहितः। यथा लाभोपपन्नेषु रौप्येषु च विशेषतः" ॥ शातातपः। “पान तु मृण्मये यस्तु श्राद्धे For Private And Personal Use Only Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २१८ श्रादतत्त्वम् । भोजयते पितृन्। तत्र दाता पुरोधाश्च भोता च नरक बजेत्” ॥ श्राद्दौयपात्रनिषेधे पैठोनसिः “सौसकायसपाषाणपात्राणि हौनपानाणि भग्नपात्राणि चेति" न का-- योति शेषः अत्र पाषाणस्य निषिडल्लात् ब्रह्मपुराणे विहित. ताच विहितनिषिद्धत्वमिति ततच पावान्तराभावे तदुपादेयतेति होनपानलक्षणमाह हारौत: “हीनपात्रन्तु तत्प्रोक्त न्यूनमष्टाङ्गलात्तु यत्। तत्र प्रतिप्रसवमाह ब्रह्मपुराणम् । “रूप्यपात्रेण पाद्यादि तस्मात् सूक्ष्मेण कारयेत्" तस्मात् अष्टाङ्गलात्। . अथाग्नौकरणम् । तत्र गोभिलः। “उद्धृतताक्रम पृच्छति अग्नौ करिष्यामि करुष्वेत्यनुन्नातः पिण्डपिटय सबन्धुत्वाचेति” ॥ उदृत्य श्राइस्योपकरणातातमत्रम् उद्धृत्य तातमित्यभिधानात् व्यञ्जनादिवर्ज प्रतीयते तथा च विष्णु पुराणम्। “जुहुयायञ्जनक्षारवर्जमन ततोऽनले । अत्र अग्नौ करिष्यामोति निर्देशात् गोभिलग्यो अग्नौ करिथामौत्यामन्त्रणं होयत इति सूत्रे अग्नौ करिथामौति श्रुतेः अग्नी करिष्यामि इति छन्दोगानां प्रश्नवाक्यं होष्यतः हवनं करिथत: पुरुषस्थान्येषान्त तानग्नौ करिष्य इति "प्रणतः प्रार्थयेत हिजान कुरुष्वेति च तैकतो दक्षिणाग्नि समाह्वयेत्" इति कल्पतरकृतब्रह्मपुराणवचनात् अग्नौ करिष्ये इति प्रश्नवाक्यम् अत्र कुरुष्वेति श्रुतेर्वैदिकप्रश्नोत्तरयोः प्रणवादित्वं प्रतीयते एवञ्च मुन्यन्तरवाक्ये प्रणवासत्त्वेऽपि प्रणवादित्व कल्पाते अग्नौ करिष्ये इति मन्त्रेण पृच्छतौति कर्कभाष्यकता: ऽस्य मन्त्रत्वाभिधानात् सुतरां तथा अतएव पिटदयितादि. ष्वपि सर्वत्र प्रणवादित्वेनोल्लेखः। पिण्डपियनवदित्यतिदेशेन वाहा सोमाय पिढमते स्वाहा अग्नये कव्यवाहनाय For Private And Personal Use Only Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रावतत्त्वम् । इति पिण्डपियनौग्रहोममन्त्री श्राद्ध प्रतीयते एवं पिण्डपियज्ञातिदेशात् हिस्तष्णौमिति बोध्यम्। अत्र वाहेत्यनेन हुत्वा सोमायेत्यादि पाठमाह छन्दोगपरिशिष्टं "खाहा कुर्यात्र मन्त्रान्ते न चैवं जहुयाइविः । स्वाहाकारेण हुत्वाग्नी पश्चान्मन्त्रं समापयेत् ॥ अत्र सामगेनाग्नीकरण होम. मन्त्रान्ते वाहा न प्रयोज्या वाहां विना होमश्च न कर्तव्य इति प्रतिषेधमुक्का स्वाहाकारणेत्यादि तेन करणप्रकारमाह "स्वाहाकारण हुत्वा सोमायेति वदेत् । अत्र होम प्रत सह प्राचीनावीतिमा अत्यमिति गृह्यसूत्रान्तरेऽग्नीकरणहोमानन्तरं प्राचौनावौतित्वाभिधानात् तत् पूर्वमुपवौतित्वप्राचीनावौतित्वयोरकतरनियमाभावः सूचितः प्रतएव तद्ध्यक्तं छन्दोगपरिशिष्टेन सहेतुकवचनहयेन व्यक्तौकतम् । यथा “अग्नौकरणहोमश्च कर्तव्य उपवौतिना। प्राड्नु खेनैव देवेभ्यो नहोतौति श्रुति: श्रुतेः ॥ अपसव्येन वा कार्यो दक्षिणाभिमुखेन तु। निरूप्य हविरन्यमा अन्यौ न हि इयते" ॥ इत्यग्न्य धरणसत्त्वेऽभिहितं तदसत्त्वे मत्स्यपुराणम् । “अग्न्यभावे तु विप्रस्त्र पाणावेव जलेऽपि वा” ॥ इति हस्तजलयोरप्यग्नौकरियामौनि वक्तव्यम्। “तैलं प्रतिनिधिं कुर्यात् यत्रार्थे यान्त्रिको यदि। प्रकृत्यैव तदा होता ब्रूयाद हतपतौमिति" यजपाखवचनदर्शनात् “शब्देविप्रतिपत्तिः" इति श्रोतकात्यायनसूत्राञ्च ततश्च प्रतिनिहितद्रव्ये श्रुतशब्द एव प्रयोज्यः श्रुतद्रव्यबुद्या प्रतिनिध्युपादानात् शब्दान्तरप्रयोगे द्रव्यान्तरबुद्धिप्रसङ्गाश्च एवं प्रतिनिहितगुड़ादावपि विप्रपाणावग्नौकरणपक्षे तत्पात्रे हुतशेषं न दद्यात् तथा च छन्दोगपरिशिष्टम्। “पित्रेय यः पङ्क्ति मूर्धन्यस्तस्य पाणावनग्निमान्। हुत्वा मन्त्रवदन्येषां तूणों पात्रेषु निक्षिपेत् ॥ For Private And Personal Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२० यातत्त्वम् । अन्येषामिति ग्रहणात् तत्पात्रे हुतशेषं न देयमिति श्राह विवेकः । अथ हुतशेषदानम् । तत्र गोभिलः । “हुतशेषं दत्त्वा पात्रमालभ्य जपति पृथिवी ते पात्रं द्यौः पिधानं ब्राह्मणस्य मुखेऽमृतेऽमृतं जुहोमि स्वाहा " । इत्यत्र पात्रमात्रश्रुतेर्विश्वदेवपात्र ेऽपि हुतशेषदानं प्रतीयते । यत्तु यमवचनं श्रग्नौ - करणशेषन्तु पित्रे तु प्रतिपादयेत् । प्रतिपाद्य पितॄणान्तु न दद्याद्देव देविके” इति तत् पित्रेत्विति तु रप्यर्थो न तु नियमार्थः अतएवोत्तरार्धेन पितृदानानन्तरं विश्वदेवदानं निषिध्यते न तु विश्वदेवदानानन्तरं पितृदानं निषिध्यते समुद्रकरष्टतस्मृतावपि । “अनाहिताग्नेविप्रस्य यदग्नीकरणं हुतम् । विश्वदेवाय दातव्यं पश्चात् पित्र निवेदयेत्” इति । हृतशेषं पात्रेषु दत्त्वा पिण्डार्थमवशेषमाह यमः । “हुतो - च्छिष्ट ब्राह्मणेभ्यः प्रदाय पिण्डार्थमवशेषयेदिति” हारौतोऽपि “अग्नौकरणशेषन्तु पिण्डार्थमवशेषयेदिति” । एवञ्च हुतशेषमात्रप्रतिपादानात् गोभिलेन हुतशेषं दत्त्व त्यत्र तथाभिधानात् पारस्करेण च हुतशेषं दत्त्वा पात्रमालभ्य जपति पृथिवी ते इत्यनेन तथैवाभिधानाञ्च मन्त्रे चामृतमित्यनेन “अमृतं विघषो यज्ञशेष भोजन शेषयोः” इत्यमरसिंहोक्तात् यज्ञशेषमात्रप्रतीतेः तत् प्रक्षेपानन्तरमेव छन्दोगयजुर्विदोः पावालम्भनं तदनन्तरमन्त्रादिपरिवेशनम् एवमेव अनिरुद्द मह प्रभृतयः । यत्तु “हुतशेसं प्रदद्यात्तु भाजनेषु समाहितः । यथा लाभोपपन्नेषु रौप्येषु तु विशेषतः ॥ दत्त्वान्न पृथिवी - पात्रमिति पात्राभिमन्त्रणम् । कृत्वेदं विष्णुरित्यने द्विजाङ्गुष्ठ निवेशयेत्” ॥ इति याज्ञवल्कयवचनेन हुतशेषमन्त्रान्तरच दत्त्वा पात्रालम्भनमुक्त तच्छाख्यन्तरौयं मन्त्रलिङ्गविरोधात् For Private And Personal Use Only Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रादतत्त्वम् । २२१ श्रुत्यन्तरकल्पनापत्तेश्च हुतशेषं दत्त्वा पात्राभिमन्त्रणं कला अब प्रदद्यादिति योजना कार्या एवेतानादिदानानन्तरं पात्रालम्भनं मैथिलोक्तं निरस्तम्। अतएव पश्चादेवान्नादिपरिवेशनमाह मार्कण्डेयपुराणम् । “हुतावशेषं दद्याच्च भाजनेषु हिजन्मनाम्। भाजनालम्भनं कृत्वा दत्त्वा चान्नं यथाविधि ॥ यथा सुखं जुषड्व भी इति वाच्यमनिष्ठ रम्" इति। पात्रालम्भनं दैवेऽनुत्तानहस्ताभ्यां पित्रे उत्तानपाणिभ्यां कार्यम् । “दैवेऽनुत्तानपाणिभ्यामुत्तानाभ्याञ्च पैटके" इति यमपचनात्। गोभिलः । “वैषणव्यर्चा यजुषा वाऽङ्गाष्ठमन्त्रे निधायापहता” इति तिलान् विकौर्य उष्णमन्त्र दद्यादिति वैष्णवौ ऋक् इदं विष्णुरित्यादि पूर्वोक्त याज्ञवल्कावचनात् । यजुषा कृष्ण कव्यमित्यादिना “पृथिवी ते पात्रमित्यनममृतं चिन्तयेत् पठन् । कृष्ण कव्यमिदं रक्ष मदीयमिति कौर्तयेत्। एकैकस्वाथ विप्रस्य रहौत्वाङ्गुष्ठमादरात्" इति ब्रह्मपुराणात् कव्यमिति पिटपक्षे हव्यमिति देवपक्षे जहनौयं व्यक्तं ऋग्वेदौयग्रन्थे "विष्णो हव्यञ्च कव्यञ्च ब्रूयाद्रक्षेति वैक्रमात् । मत याज्ञवल्कोयब्रह्मपुराणयोः ऋग्यजुषोः प्रत्ये कमन्त्रोत: गोभिल मूत्र वा शब्दो विकल्पार्थः समुच्चयार्थत्वे निःसन्देहार्थं इन्दादिकमेव निर्दिशेत् एवमेव अनिरुद्धभट्टप्रभृतयः। एतेन मैथिलोक्त समुच्चयार्थो हेयः । ___ परिभाषमाह जैमिनिः। "तेषामृक् यथार्थवशेन पादव्यवस्थितिः” इति तेषां मन्त्राणां मध्ये यनार्थवशेन एकान्वयत्वेनानुष्टबादि पादस्थितिः सा ऋक् यजुः परिभाषामपि स एवाह “शेषे यजः शब्द" इति शेषे ऋक्सामभिन्ने मन्त्रजाते सामपरिभाषामाह स एव “गौतिषु सामाख्या” इति गौतिषु For Private And Personal Use Only Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२२ श्राइतत्त्वम् । गौयमानेषु मन्त्रेषु सामसंजेत्यर्थः । ततश्च यन्मन्त्रजातं प्रनिष्टपठितं गानपादविच्छेदरहितं तदयजुरिति एवञ्च यजुष्ट्वात् छन्दो नास्ति इति यत् प्रमाणिकैरुक्तं तदेवैतादृमन्त्रपरं न तु यजुर्वेदोक्तमन्त्रमानपरं ततश्च भोक्तब्राह्मणाङ्गष्ठ रहौत्वेदं विष्णुरिति कृष्ण कव्यमित्यन्यतरं पठित्वा इदं हविरित्युक्त्वा अन्ने निवेशयेत् “इदं हविरित्येवमङ्गष्ठम अविधां ब्राह्मणेभ्यो दद्यात्” इति पैठौनसिवचनात् अङ्गुष्ठ निवेश्येति शेषः अन्न विधां अन्नप्रकारमिति कल्पतः। एषु वचनेषु अन्वेऽङ्गठनिवेशनमात्रशुसेजलादावङ्गाष्ठनिवेशनं हेयम्। अत्र “निरङ्ग ठञ्च यच्छाई वहिर्जानु च यत्कृतम्। वहिर्जानु च यमुक्त सर्व भवति चासुरम्” ॥ इति यमवचन निरङ्गष्ट श्राद्धे निन्दाश्रुतेर्ब्राह्मणाभावेऽपि तत् प्रतिनिधित्वेन बाइकर्ताङ्गुष्ठ निवे. शयेत् अतएव गोभिलेन सामान्यतोऽङ्गाठ निधायेत्युक्तम् । ततोऽपहतेति मन्वेण तिलान् विकिरेत्। प्रतापहता इति मन्त्रपाठस्तु पिटपक्ष एव रक्षोघ्नत्वात्। देवानान्तु खतोरक्षोन्नत्वात् न तत्रापहता इति मन्त्रापेक्षा अतएव पिटपक्षीयत्वादेव तिलविकरणमुक्तं न तु यवविकरणमिति एवमेव ककभाष्यम् । गुणविष्णु नाप्ययं मन्त्रस्तिलविकरणार्थवेन व्याख्यातस्ततश्चानिरुद्धभट्टेन यत् देवपक्षेऽपि समन्त्र कयवविकरणमुक्तं तत् गोभिल सूत्रानुपात्तत्वात् हेयम्। ततोऽन्ने मधु तदभावे गुई वा प्रतिनिधिं दत्त्वा गायत्री मधुवातैति मन्त्रत्रयं मधुमधुमनित्यनेनान्नमभिमन्वा प्रोक्ष्य वामहस्तेन अन्नपात्रं कृत्वा ब्राह्मणे जलगण्डषं दत्त्वा सोपकरणमन्त्र प्रागुक्तगोत्रसम्बन्धाद्युल्लेखेन दद्यात्। “मधुमध्विति यस्तव निर्जपोऽशितुमिच्छताम् । गायनानन्तरं गोत्रमधुमन्त्र विवजितः” इति छन्दोगपरिशिष्टवचने पावणे भोक्तमिच्छतां For Private And Personal Use Only Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२३ श्राद्धतत्त्वम् । ब्राह्म गानां श्राव्यत्वेन मधुमध्विति त्रिजपो मधुवातेति मन्त्रसहितो गायत्रौजपानन्तरं क्रियते सोऽवाभ्युदयिकाई मधुवातेति मन्त्रवर्जित इति श्राइविवेकवद्याख्यानात् । “गायत्री त्रिसकदापि जपेयाहृतिपूर्विकाम्। मधुवाता इति वाचं मध्वित्येतत् त्रिकं जपेत् ॥ इति मिताक्षरातपारस्करवचनात। देवपूर्व पिटभ्योऽन्न माज्यपूतं मधुम्लतम्। मन्त्रितं पृथिवीत्येवं मधुवाते त्यचं जगौ” इति ब्रह्मपुराणात्। “अन्न मधुमयं कृत्वा मधुवाताभिमन्वितम्" इति यमवचनात् । "अद्भिग्भ्यक्ष्य दद्याटालभ्य" इति हारौतवचनात्। पालभ्य स्पृष्ट्वा “अतो मधुरतातन्तु मोष्णमन्न तिलान्वितम् । गृहीत्वा दक्षिणेनैव प्रगावेनैव तत् पुनः ॥ एतहोहनमित्य वा विश्वान् देवांश्च मंयजेत्। पिटभ्यश्च ततो दद्यादद्रमामन्त्रणेन तु। अमुकामुकगोवैतत्तुभ्यमन्त्र स्वधा नम:” ॥ इति ब्रह्मपुराणवचनाच । अत्र "सोष्णभागा हि पितरः” इति श्रुतिदर्शनात् । सोणमित्य तम् अतएव मनुः । “यावदुष्णं भवत्यन्नं यावदश्नन्ति वागयताः । तावदश्नन्ति पितरो यावत्रोक्ता हविगुणा:” ॥ अत्र वागयतत्वाभिधानेनैव श्राद्धभोक्तृणां हविर्गुणानभिधाने सिद्ध यावन्त्रोक्ता हविर्गुणा इति पुनर्वचनम् इङ्गितादिना गुगा प्रतिपादननिषेधार्थम् । अत्र पृथु कादौनामुष्णत्वं नापेक्षितम्। आपस्तम्बे न पर्युषितस्यापि प्रतिप्रसूतत्वात् । तथा च प्रतिषिडसुपक्रम्य आपस्तम्बः । “कृतान्न पर्युषितं पृथुकतण्डुलकरम्भशत लाजपिष्टकक्षौरविकारौषधिवर्जम्” इति दैवे तिलान्वितमिति शाख्यन्तरोयम्। एषु वचनेषु मधुम्लतं मधमयं मधुरतात मिति श्रुत्या मध्वित्येतत् त्रिकं जपेत् इति पारस्करवचनाच मधुमध्वितित्रिजप इत्यस्य मधुव्यसम्बन्धिमध्विति निजप इति व्याख्येयं न तु मधुमध्वि त्यस्य निर्जपः For Private And Personal Use Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२४. श्राद्धतत्त्वम् । मधुवाताभिमन्त्रितमिति । मधुवातेति ऋक्येणाभिम• न्वितम् । तिसृणामासामृचां युगनडवाहितयैव सर्वत्र प्रयोगदर्शनान् । अभिमन्त्रणमाभिमुख्येन मन्त्रपाठः । तच्च अभिमन्त्रणीयं स्पर्शं विनैव वृषमभिमन्त्रयेदिति वदिति नवौनवर्द्धमानः । एतेन वाचस्पतिमिश्रोक्तमन्नस्पर्शपूर्वकमभिमन्त्रणं हेयम् । तेनैव वृषोत्सर्गे स्पर्शं विनैव वृषाभिमन्त्रमित्युक्तम् । " अथ विहिताविहितद्रव्याणि । वायुपुराणे । “कृष्णाभाषास्तिला श्चैव श्रेष्ठाः स्युर्यवशालयः” । शालिहैमन्तिकं धान्यं तत् प्रभवतण्डलादि । अथ वृष कष्टप्रभवधान्येन वैधकीकरणं तथा च हरिवंशे शक्रं प्रति सुरभिवाक्यम् । “कर्षकान् पुङ्गवैर्वा होर्मेध्येन हविषासुरान् । श्रियं शक्तत् प्रवृत्तेन तर्पयिष्यामहे वयम्” ॥ वायुपुराणं "विल्वामलमदोकापनसाम्रातदाड़िमम् । भव्यं पाणियताचोड़ खर्जरात्रफलानि च । कशेरुकोविदारश्च तालकन्दं तथा विषम् ॥ मृद्दोका द्राक्षा भव्यं कामरङ्ग पाणिवतं करमर्दकम् प्राचोड़ जम्बौराकारफलम् आचोड़ काश्मीरादौ प्रसिद्धम् । कोविदार: श्वेतकाञ्चनसदृश इति श्राद्धविवेकः । तालकन्द तालमूलौति प्रसिद्धम् विषं मृणालम् । मनुः । “तिले चियवैर्माषैरह्निर्मूलफलेन वा । दत्तेन मासं प्रौयन्ते विधिवत् पितरो नृणाम” ॥ ब्रौहिः शरत्पक्कधान्यम् । याज्ञवल्काः । " हवि - ध्यानेन वै मासं पायसेन च वत्सरम् । मात्स्यहारिणकौरवशाकुनिच्छागपार्षतैः ॥ ऐणरौरववारा हशशैमांसैयथाक्रमम् । मासवृद्याभिटप्यन्ति दत्तेनेह पितामहाः " ॥ हविष्यान्नेन शालिब्रोह्यनेन मात्स्येति मत्स्यादिमांसैः उरभ्रोमेषः शकुनिविहितलावकादिः पृषतश्चित्रमृगः एणः कृष्णमृगः रुरुहुशृङ्गी For Private And Personal Use Only Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्राथतत्त्वम् । २२५ मृगः चत्रियव्रतोपयुक्तमृगचर्मा इति दीपकलिका । चत्र "यक्षरक्षः पिशाचानं मद्यं मांसं सुरासवम् । तदुब्राह्मणेन मात्तव्यं देवानामश्रताहविः” इति मनुवचनेन मद्यादि साह चय्यान्मांसम् श्रममांसमिति भट्टटोकाक्कद्विव्याख्यातं तदृष्ट्वा हे आममांसं न देयमिति वदन्ति । तत्र “मुन्यवानि पयः सोमो मांसं यच्चानुपस्कृतम् । अचारलवणञ्चैव प्रकृत्या हविरुच्यते" इति मनुवचनविरोधात् । श्रवानुपस्कृतमित्यनेन पाकोपस्काररहितमांसमित्युक्तं तदपि हविः । न चानुपस्कृतमविज्ञतं पूतिगन्धादिरहितमिति कुल्लूकभट्टव्याख्यानं युक्त शब्दानभिधेयत्वादिति । गौड़दाक्षिणात्वाभ्यां तथा व्यवक्रियते मुन्यन्नानि नौवारादीनि वशिष्ठः " अन्न' पर्य्युषितं भावदुष्टं सहृल्लेखं पुनः सिद्धमास मृजोषपक्क काममन्तर्दध्ना घृतेन वारिघारितमुपभुञ्जौतेति” श्रामन्तण्डलादि पर्युषितादि ऋजोष पक्कान्तमन्त्र निषिद्धमपि कामं दध्ना घृतेन वाभिघारितमुपभुञ्जीतेत्यनेन भोज्यान्तरासम्भवे एवं भुञ्जतेति नैयतकालिक कल्पतरुणा व्याख्यातं तत्त्रामं तण्डुलादि इति व्याख्यातं तद्दौजञ्च । “ शस्य क्षेत्रगतं प्राहुः सतुषं धान्यसुच्यते । श्रमं वितुषमित्युक्त खिन्नमन्नमुदाहृतम्” ॥ इति वशिष्ठ-वचनेन स्विन्नाखित्रतण्ड लयोयथा संख्यमत्रत्वेन आमत्वेन च परिभाषितत्वात् पूर्वसूत्र ऽपि अन्नामपदाभ्यातथैव प्रतीयते नत्वामपदेनार्द्रकादि प्रतीयत इति । ततश्च "अपाद्यनग्नो तीर्थे च चन्द्रसूर्यग्रहे तथा । श्रामश्राद्धं द्विनैः कार्य्यं शूद्रेण तु सदैव हि” इति प्रचेतोवचनात् तण्ड ुलादेस्तदानीमभ्यक्ष्यत्वऽपि पश्चात् पाकेन मच्यत्ववदाममांसस्य तदानौमभक्ष्यत्वऽपि पश्चात् पाकेन भक्ष्यत्वात् श्राचे देयत्व प्रतौयते । अतएव मनुनैव श्राद्धप्रकरणे “मुन्यन्नानि पयः For Private And Personal Use Only Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२६ घाइतत्त्वम् । सोमो मांसं यच्चानुपस्कृतम्। पक्षारलवणञ्चैव प्रत्या इविरुच्यते” इति अनुपस्कृतम् इत्यनेन पाकोपस्कारहितं यत् मांसं तदपि हविरित्युक्तं न चानुपस्कृतमविकृतं पूतिगन्धा. दिरहितमिति कुल्लू कभव्याख्यानं युक्त शब्दानभिधेयत्वादिति गौड़दाक्षिणाभ्यां तथा व्यवलियते । सुन्यन्नानि नौवारादौनि इत्यञ्च तत् ब्राह्मणेन नात्तव्यम् इत्यामतादशायाम् । हारौतः । “कालशाकच्च वास्त कं मूलक कृष्णनालिकाम् । बेत्राङ्करं कलायञ्च पटोल सर्षपं तथा ॥ सूर्यावर्त सुनिषस्म शाकान्याहुनौषिणः” ॥ सूर्यावर्त सुल्टिया इति ख्यात सुनिषणं सुषुणौति प्रसिद्ध वायुपुराणे। “वैकसतं नारिकेलं शृङ्गाटकपरूषकम् । पिप्पलौमरिचञ्चैव पटोलं वृहतोफलम् ॥ एवमादीनि चान्यानि स्वादूनि मधुराणि च ॥ अन्यानि अनिषिवानि। "नागरञ्चात्र वैदेयं दौर्घमूलकमेव च। नागरमाकं “कटफलं किङ्किणी द्राक्षालकुचं मोचमेव च। कट्फलं गाम्भारिफलं किसिणी अम्बरमा द्राक्षा इति रुद्रधरः जलजम्बुरिति हलायुधः । लकुचं डहुफलं मोचं कदलीफलम् । आदित्य पुराणे। "मधुकं रामठञ्चैव कर्पूरं मरिचं गुड़म् । श्राइकर्मणि शस्तानि सैन्धवं त्रपुषन्तथा ॥ रामठं हिङ्ग । वपुषं सुखाशिका। शङ्खः “पिप्पली मरिचञ्चैव तथा वै पिण्डमूलकम्। कतकं लवणं सर्वं वंशाग्रञ्च विवर्जयेत्” ॥ कृतकं लवणं क्षारमृत्तिकादिभिः कृत्रिमं लवणम् अतएव मनुनापि हविष्याने अक्षारलवणं विहितम्। अत्र हिङ्गमरिच शुण्ठौपिप्पलौनां स्वरूपेणादेयता द्रव्यान्तरसंस्कारकत्वेन देयता पूर्ववचनसिद्धा। विष्णुः “कुष्माण्डालावुवातीको ग्राम्यमाहिषदुग्धकम्। पालकों राजिकां श्राद्धे हिःखिनञ्च विवर्जयेत्” ॥ हिःखिनञ्च तदेव यत् सूपकारशास्त्रोक्तापेक्षित For Private And Personal Use Only Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वाहतत्त्वम् । 22७ अन्यथा पाकनिष्यस्यनन्तरं शैत्यादिनिवृत्तये पुनः पाकान्तरमुक्तं नत्वईपाकानन्तरं तच्छास्त्रोक्त सम्भारणरूपपाकान्तरसिद्ध व्यञ्ज नादि श्रतीतार्थे निर्देशात् । अतएव तिलादिभृष्टानन्तरं मोदकं गुडादिपक्कमोदकादि शिष्टेदयते भुज्यते च । द्दिः संस्कृतस्य भोज्यत्व ं न स्यात् । " पर्युषितं पुनः सिद्धमभोज्य • मन्यत्र हिरण्योदकस्पर्शादिति” सुमन्तक्तः । यमः । "यश्च भुक्का पुनर्भुङ्क्ते यत्तु तैलाभिघारितम् । रजखलाभिर्यदृष्ट तद्वै रचांसि गच्छति ॥ तैलाभिघारितमिति घृतसम्भवे तदसम्भवे तैलपक्कमित्यापस्तम्बेन तैलेन पाकविधानात् । “तिलैः श्राद्ध ं पुष्टिकामः कुर्य्यात् पूपैः ऋद्धिकामो घृतगुड़तैलपक्कै स्तेजस्कामः सौभाग्यारोग्यकामो वा परमान्नकृष दधिमांसयवागूभिः सर्वकामः” इति हारीतेन फलकथनाच्च । एवञ्चैतेषां काम्याभिलापं विनापि पितृटप्यतिशयसम्पादकत्वेन फलविशेषजनकत्वम् । शातातपः । "गोकुले कन्दुमालायां तैलयन्तेक्षुयन्त्रयोः । श्रमौमांस्यानि शौचानि स्त्रीषु बालातुरेषु च” ॥ बालः पञ्चवर्षाभ्यन्तरवयस्कः । अमौमांस्यानि शौचाशौचभागितया न विचारणौयानीति भवदेव भट्टरत्नाकरादयः । अतएव कूपुराणम्। “कन्दुपक्कानि तैलेन पायसं दधिशक्तवः । द्विजैरेतानि भोज्यानि शूद्रगेडक्कतान्यपि ॥ कन्दुपक्कं जलोपसेकं विना केबलपात्रेण यत् वह्निना पक्क भ्रष्टतण्ड लादि । पायसं पाकसंस्कृतं दुग्धं परमानपरत्व पुंलिङ्ग निर्देशापत्तेः । " परमान्नन्तु पायस: " इत्यमरात् । वयुपुराणे । " शर्कराचीरसंयुक्ताः पृथुका नित्यमध्याः । भक्तन् लाजान् तथा पूपान् कुष्माण्डान् व्यञ्जनैः सह । सर्पिः स्निग्धानि सर्वाणि दध्ना सत्कृत्य भोजयेत् । श्रादष्वेतानि यो दद्यात् पितरः प्रीणयन्ति तम् ॥ अत्रानपाके । For Private And Personal Use Only Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२८ घाइतत्त्वम् । सपिण्डाधिकारमाह देवलः। "तथैवामन्त्रितो दाता प्रातः सातः सहाम्बरः। प्रारमेत नबैः पारवारम्भ सबान्धवः॥ तथैवान्वित: सर्वायासविनिर्मुक्तरित्यादिभिर्निमन्त्रितो येन। सहाम्बर इति द्वितीय वस्त्रप्रतिपत्त्यर्थम् एकवस्त्रस्य नग्नत्वप्रतिषेधेन प्राप्तत्वात् एतेन कुशरज्वादिर्वस्त्रप्रतिनिधिन भवतौति सूचितम् । एवमेव माने ब्रह्मदत्तभाष्यकल्पतरुप्रभृतयः । बाइपाकार्थतण्ड लस्य सतत् प्रक्षालनमाह गोभिल: । "त्रिफलोकतांस्तण्डु लान् विर्देवेभ्यः प्रक्षालयेत् हिर्मनुष्येभ्यः सकत पिटभ्यः" इति। प्रामथाई योगिनौतन्त्रम्। "निरग्नेरामशाहे तु अनं मक्षालयेत् क्वचित्। वृद्धौ तु क्षालयेदन्न' संक्रामे ग्रहणेषु च॥ मार्कण्डेयपुराणम्। “यत् सर्वाय च नोत्सृष्ट यचाभोज्यनिपानजम्। तहज्य सलिलन्तात सदैव पिटकर्मणि" ॥ "स्मृतिः । पादेन घटमुत्थाप्य भाजने पूरयेनलम् । तज्जलं मदिरातुल्वं भाण्डस्थं सुरया समम् ॥ मदिरा सुरेतररूपा सुरा पैष्टौ। वराहपुराणे। "प्रकृताग्रयणञ्चैव धान्यजातं द्विजोत्तम। राजमाषाननंश्चैव मसूरांश्च विवर्जयेत् ॥ अकृताग्रयणमकतनवशस्येष्टिबाई यथा योग्यं साग्निनिरग्नि परम् । ब्रह्मपुराणे। "हिः खिन परिदग्धश्च तथैवाग्रा बलेहितम्। शर्करा कोटपाषाणैः केशर्यञ्चाप्यपटुतम् ॥ पिण्याकं मथितञ्चैव तथातिलवणञ्च यत् । सिद्धाः कृताच ये भक्ता: प्रत्यक्षलवणोकताः। वाग्भावदृष्टाश्च तथा दुष्टैचो. पहता स्तथा ॥ बाससा चावधतानि वानि श्राद्धकर्मणि"॥ अग्रावलेहितं श्राद्दार्थोपकल्पितं सदुपभुक्ताग्रभागं मिद्धाः कता: सिद्धेषत्तरकालं प्रत्यक्षलवणप्रक्षेपकता: विष्णुपुराणे। "पलावं ग्टननञ्चैव पलाण्ड पिण्डमुलकम्। गान्धारक For Private And Personal Use Only Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बादतत्त्वम् । २२८ करम्माणि सवणान्यौषधानि च ॥ भारताचैव निर्याताः प्रत्यक्षलवणानि च। वान्येतानि वै श्राद्धे यच वाचा न शस्यते ॥ नताहृतमनुत्सृष्ट प्यते न च यत्र गौः। दुर्ग: धिफेणिलञ्चाम्ब थायोग्यं न पार्थिव ॥ क्षौरमेकश फानां यदौष्ट्रमाविकमेव च। मार्गञ्च माहिषञ्चैव वर्जयेत् श्राइकर्मणि" इति निषेधवचनानि। अथ परिवेशनम्। मनुः । “पाणिभ्यां तूघसंसह्य खय. मत्स्य वदितम् । विप्रान्तिके पितृध्यायन् शनकैरूपनिक्षि. पेत् ॥ अवस्येति षष्ठौ रतीयाथै वहितं पूरितं पात्रमिति शेषः। उपनिक्षिपेत् परिवेशनार्थं सौपे धारयेत् तथा च पाकस्थाल्या प्राकष्य प्रथमं भोजनपात्रे न देयं किन्तु स्थाल्यादिकं पाणिभ्यां पात्रसमीपे भूमौ संस्थाप्य पश्चादुभाभ्यां पाणिभ्यां पानान्तरिताभ्यां श्राद्ध परिवेशनं कुयात् । “उमाभ्यामपि पाणिभ्यामादृत्य परिवेशयेत्” इति मत्स्यपुराणात् । यत्तु । श्राद्धे परिवेशनञ्च दक्षिणपाणिमात्रेणैवाङ्गानभिधानादिति मैथिलोक्त तन्न। “एकेन पाणिना दत्तं शूद्रदत्तं न भक्षयेत्" इत्यादि पुराणो येनैकपाणिदत्त शूद्रदत्त भक्षणनिषेधेन तन्मात्रपरिवेशनस्यापि निषिद्धत्वात्। पाणिभ्यामपि पानान्तरितं कला देयम् । “हस्तदत्ताच ये नेहा लवणं व्यञ्जनानि च। दातारं नोपतिष्ठन्ते भोक्ता भुङ्क्त तु किल्विषम् ॥ तस्मादन्तरितं देयं पणेनाथ ढणेन वा। प्रदद्यात् न तु हस्तेन नायसेन कदाचन" ॥ इति वशिष्ठेन सामान्यतोऽभिधानात् पिटभक्तितरङ्गिण्यामप्य वम्। मनुः । “गुणांव सूपशाकाद्यान् पयोदधितं मधु । विन्यसेत् यत्नतः सम्यक् भूमावेव समाहितः ॥ भक्ष्यं भोज्यञ्च विविधं मूलानि च फलानि च। हृद्यानि चैव मांसानि पानानि सुरभौणि For Private And Personal Use Only Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्राद्धतत्त्वम् । च॥ उपनौय तु सत्सर्वं शनकैः सुसमाहितः। आमिषं पानपात्रञ्च भोक्तर्दक्षिणतो न्यसेत् ॥ परिवेशयेच्च प्रयतो गुणान् सर्वान् प्रचोदयन्” ॥ गुणान् उपकरणानि। भूमावेव न तु व्यञ्जनादि पानादनपात्रोपरि निक्षिपेत् पात्रान्तरासत्त्वे भोजनपात्रेऽपि। अथानोत्सर्गानन्तरकत्यम्। तत्र गोभिलः । “सकत् सकदपो दत्त्वा गायत्री मधुवाताञ्च पठित्वा अश्त्स जपेत् व्याहृतिपूर्विका सावित्री सप्रणवामिति ॥ एतच्च ब्राह्मणहस्ते सतत् सज्जलम् इच्छातो जुषध्वमित्युत्वा भवन्त: प्राशयन्विति मन्त्रेणापोशानाथं दद्यात् “दत्वा जुषध्वमिच्छातो वाचमेतदनिठुरम्” इति विष्णुपुराणात्। "दत्त्वापोशानमासोन: सावित्री त्रिजपेदथ। मधुवाता इति अचं मध्वित्यन्तेन भोजयेत्” इति समुद्र करतेन तेभ्यो दद्यादापोशानं भवन्त: प्राशयन्विति ब्रह्मपुराणोयेन चैकवाक्यत्वात्। ततो गायत्री मधुवातेति चञ्च जपित्वाऽनहीनमिति पठेत्। तथा च यमः। “अन्नहोनं क्रियाहौनं विधिहौनञ्च यद्भवेत् । तत्सर्वमच्छिद्रमस्त्वित्य क्वा यत्नेन भोजयेत् ॥ ततो भुञ्जाने ब्राह्मणेषु सप्रणवां सव्याहृतिकां गायत्री जपेत् एतदनन्तरं मधुवातेति ऋक्त्रयं मधुमधमध्विति च जपेत् तथा च याइवल्काः। “सव्याहृतिकां गायत्रों मधुवाता इति वाचं जया यथासुखं वाच्यं भुजौरं स्तेऽपि वागयताः। अनमिष्ट इविष्यञ्च दद्यादकोधनोत्वरः। प्राप्तेस्तु पवित्राणि जया पूर्वजयन्तथा ॥ अन्नमिष्टमित्यनेन उत्सर्गानन्तरमपि पिटदृश्यर्थमन्त्रान्तरादिकं देयम्। पवित्राणौत्यनेन विष्णुपुरान णाद्युक्तानि सूचितानि। अत्र रक्षीनमन्त्रपाठमाह विष्णुपुराणम्। “यज्ञेश्वरो व्यसमस्तकव्य भोलान्ययात्मा हरित For Private And Personal Use Only Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वाहतत्त्वम् । श्वरोऽत्र । तत् सन्निधानादपयान्तु सद्यो रक्षांस्यशेषाण्य सुराश्च सर्वे” ॥ याज्ञवल्काः । " श्लोकत्रयमपि ह्यस्माद यः श्रा श्रावयिष्यति। पितॄणां तस्य तृप्तिः स्यादच्या नात्र संशयः ॥ श्रस्मान्मदीयग्रन्यात् । एवञ्च "यश्चैनं श्रावयेत् या ब्राह्मणान् पादमन्ततः । अक्षय्यमन्नपानं वै पितृभ्यपतिष्ठते इत्यादिपर्वणि श्राई महाभारतीयश्लोकपादादिश्रवणोक्तेः संक्षेपेण भारतवंशद्दयनिरूपत्वेन दुर्योधनो मन्युमय इति युधिष्ठिरो धर्मामय इति श्लोकइयम् । अपहृत गुरुगवीमांसकृतश्रादमहत्व प्रकाश कपिष्टगाथात्वेन सप्तव्याधा इति च पठ्यते । कल्पतरौ मत्स्यपुराणम् । "ब्रह्मविष्णुरुद्राणां स्तोत्राणि विविधानि च । विप्राणामात्मनचैव तत् सर्वं समुदीरयेत् ॥ विप्राणामात्मनखेत । श्राव्यत्वेन इति शेषः । एवञ्चात्मनः श्राव्यत्वेन रक्षोघ्नत्वेन पितृप्तिकारकस्बेन च दर्भब्राह्मणपचेऽपि जपः काय्यैः । तथा रक्षोप्रत्वेन पितृ तृप्तार्थत्वेन च पितृकार्यत्वात् प्राचीनावीतिना जपः काय्यैः । प्राचीनावीति पितृणामिति श्रुते: “प्राचीनावातिना सम्यगपसव्यमतन्त्रिणा पत्रमानिधनात् कार्य्यं विधिवद्दर्भपाणिना इति मनूक्तः । भट्टभाष्येऽप्येवम् । पिटदयितायामप्येवम् । । अथाग्निदग्धादिनान्त्रविकरणम् । मोभिलः । "तृप्ति अग्निदग्धाच ये जौवा येऽप्य २२९ For Private And Personal Use Only १ जाला सतिलमन्त्रं प्रविको दग्धाः कुले मम । भूमौ दत्तेन तृप्यन्तु तृप्ता यान्तु पराङ्गतिमिति ॥ तृप्ति ब्राह्मणानामिति शेषः । तज्ज्ञानप्रकारमाह स्मृतिः । दोयमानं न गृह्णन्ति अन्रञ्च बहु विद्यते । ज्ञात्वा तृप्तिं तदा देयो दर्भेषु विकिरश्च यः " ॥ श्रनं विशेघयति ब्रह्मपुराणम् । “उच्छिष्टे सतिलान् दर्भान् दक्षिणा - Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir थाइतत्वम् । ग्राबिधापयेत्। यद्यनिवेदितं किञ्चित् पिटभ्यश्चाथ तत्र च॥ तस्मात्तस्माच्च भागन्तु गृहीत्वा चमसे शुभे। दत्त्वा मृताभिधानान्तु विप्रेभ्यश सकृत् सत्” ॥ उच्छिष्टे तत् समोपे उच्छिष्टाग्रत इति वक्ष्यमाणात्। प्रविको-ग्निदग्धाश्चेति मन्त्राभ्यां सकुश भूमेरभ्युक्षणमाह विष्णुः । “भुक्तवत्सु च विप्रेषु भूमि सकुशामभ्युच्याब्रविकरणमुच्छिष्टाग्रत इति”। अत्र पराङ्गतिमित्यनन्तरं सूत्रस्थेतिकारेण येषां न माता न पिता इति मन्त्रान्तरमुक्तमित्यादि बहुवचनान्ता गणस्य संसूचका इत्य तोः। तथा च मक्यपुराणम् । "सार्ववणि कमन्नाद्यं सबौयाप्लाव्य वारिणा। समुत्सृजेत् भुक्तावतामग्रतो किरन् भुवि ॥ अग्निदग्धाच ये जीवा येऽप्यदग्धाः कुले मम। भूमौ दत्तेन टप्यन्तु गुप्ता यान्तु परां गतिम् । येषां न माता न पिता न बन्धु वानमिहिन तधानमस्ति । तत् तृप्त येऽन्न भुवि दत्तमेतत् प्रयान्तु लोकाय सुखाय तहत् । असंस्कृतप्रमौतानां योगिनां कुलयोषिताम् ॥ उच्छिष्टं भागधेयं स्यात् दर्भेषु विकिरथ यः" ॥ सार्ववर्णिकं सर्वप्रकारं सन्द्रीय मिश्रयित्वा ततश्च मन्त्राभ्यां तदुक्त फलमुद्दिश्य कुशोपरि दद्यात्। एतदेवासंस्कृतेत्यादिनोपसंहृतम्। ततो इस्तौ प्रक्ष्याल्याचम्य हरिं स्मरेत्। “ततः प्रक्षाल्य इस्ती च तथाचम्य हरिं स्मरेत् । प्रेतभागं विसृज्वाथ प्रायश्चित्तोपशान्तये ॥ इति ब्रह्मपुराणात् गोभिलः। सकत् सक्कदपो दत्त्वा पुनर्मधुवातां मधु च विर्जछा तृप्ताःस्थ इति पृच्छति तृप्ता:स्म इत्य ते शेषमन्त्रमनुज्ञाप्योति” अत्र सक्वत् सवदिति श्रुतेः। प्रतिपक्षे प्रत्यापोशानजलं दद्यात्। "दत्त्वा मृतापिधानन्तु विप्रेभ्यश्च सवत् सकत्” इति ब्रह्मपुराणात् एतच प्रत्या पोशानजलपानं इस्तं प्रक्षास्य न कर्तव्यम्। तथा च For Private And Personal Use Only Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रावतश्वम् । २३२ शातातपः । " हस्तं प्रचात्य यचापः पिवेहुक्का द्विजाधमः । तदत्रम सुरेभुक्तं निराशाः पितरो गताः ॥ इत्थञ्च मत्स्य भुवानस्य हस्तप्रक्षालनानन्तरमेवापोशानस्य वैधत्वात्तेन हस्तं प्रचात्य निरामिषमत्रादिकं भुक्तापोशानं कर्त्तव्य व्यक्तोक्तमतदाहकत्त्व | गोभिलेन मन्त्ररहितजलदानाभिधानात् दर्भब्राह्मणेऽपि जलदानाचारः । पुनर्मधुवातेत्यत्र पुनरित्यभिधानं पुनर्गायत्रानन्तरमधुवाता प्रतिपत्त्यर्थं तथा च ब्रह्मपुराणम्। “सव्याहृतिं सप्रणवां गायवोच्च ततो जपेत् । पाठेन्मधुमतोः पुण्यास्तथा च मधुमध्विति ॥ प्रत्यापोशानात् परतः । कात्यायनोऽपि तृप्ति ज्ञात्वा अनं प्रकीर्य सकृत् सकृदपोदत्वा पूर्ववत् गायत्रीं जपित्वा मधुमतीमधुमधुमध्विति च जपेत् । तृप्ताःस्थ इति पृच्छति शेषमन्नमनुज्ञाप्येति तृप्तिं ज्ञात्वा सर्वेषां तृप्तिमनुमाय तृप्ताःस्थ इति बहुवचननिर्देशात् । सकृदभिधानं तृप्ताः स्म इति तेषामपि सकृत् प्रतिवचनम्। एतच्च कुशब्राह्मणे नास्ति अयोग्यत्वात् अनुज्ञाप्य शेषमन' क्व देयमिति ब्राह्मणेभ्यो निवेद्य दृष्टेभ्यो दीयतामिति प्रत्युत्तरं गृह्णीयादिति शेषः । तथा च ब्रह्मपुराणम्। "सतानाच पुनः शेषं व देयञ्चानमित्यपि । इटेभ्यो दौयतामेतदिति सम्प्रवदन्ति ते ॥ अथ पिण्डदानम् । तत्र गोभिलः । " सर्वमत्रमेकचो नृत्य उच्छिष्टसमीपे दर्भेषु मधुमधुमधु इत्यचत्रमीमदन्तेति च जपित्वा त्रीं स्वौन् पिण्डान् दद्यादवने निज्येति” | अत्रेतिकर्त्तव्यता पिण्डपितृयज्जवदुपचार इति पिवेति पूर्वोक्तसूत्रपातिदिष्टा प्रत्येतव्या । तत्र देशमाह देवलः । “पुरस्वादुपविश्वषां पिण्डावापं निवेदयेत् । ततस्तैरभ्यनुज्ञातो दक्षिणां दिशमेत्य सः ॥ उपलिप्ते शुचौ देशे स्थानं कुर्वीत For Private And Personal Use Only Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यादतत्त्वम् । सैकतम् । मण्डलं चतुरस्र वा दक्षिणाव नतं महत् । पवित्रपाणिव जपेन्मन्त्रं रक्षोत्रमुत्तमम्। निहन्मि सर्वं यदमेध्यवद्भवेहताच सर्वेऽसुरदानवा मया ॥ रक्षांसि यक्षाः सपिशाच. सङ्घा हता मया यातुधानाश्च सर्वे"॥ इति दक्षिणादिक् श्राद्धकर्व पेक्षयेति कल्पतरुः गोभिल सूत्रेऽपि उच्छिष्ट समीप इत्युताम् अतएव ब्रह्मपुराणोक्त दिगन्तभिधानं शाख्यन्तरीयम् । अत्र मण्डलमुपक्रम्याभिहितेन “निहन्मि सर्वमित्यादिर्यस्मिन् देशे च पठ्यते । एष मन्त्रस्तु तं देशं गक्षसा वजयन्ति हि" इति ब्रह्मपुराणे निहन्मौत्यनेन मण्डल करणं प्रतीयते । अनि गद्यभट्टप्रभृतिभिरपि तथा लिखितम्। पिण्ड पिटयज्ञातिदेशेन तत्प्रकृतिभूतान्वष्टका पिण्डोक्तरेखां मण्डलमध्ये कुर्यात् । सव्येन पाणिना दर्मपिञ्जलिं गृहीत्वा रेखामुलिखेत् । अपहतेति अन्वष्टकायां गोभिल्लगृह्यात्। अत्र वामेन दर्भपिञ्जल्याग्रहणमात्रं रेखान्तु वामान्वारब्धेन दक्षिणइस्तेन कुर्य्यात्। “सव्येन पाणिनेत्येवं यदवासकदीरितम् । परिग्रहणमात्रन्तु सव्यस्यादिशति ध्रुवम् ॥ पिचल्याद्यभिसंग्राह्य दक्षिणेनेतरात् करात्। अन्वारभ्य च सत्येन कुर्यादुल्लेखनादिकम्” इति छन्दोगपरिशिष्टात्। अत्र दर्भपिञ्जल्य वनेजनार्थोदकपात्रवासः सूत्रादिग्रहणे यत् सव्येनेति वारं वारं गोभिलरह्योक्तं तत्र सव्यस्योपदेशो दर्भपिञ्जल्यादिग्रहणार्थः। उल्लेखनादिकन्तु वामकराक्षिणकरण दर्भपिचल्यादिकं नौत्वा वामान्वारब्ध दक्षिणेन रेखादिकं कुर्यादियर्थः। पिञ्जलीपवित्रम्। “अनन्तर्गर्भिणं साय कोशं हिदलमेव च । प्रादेशमात्र विज्ञेयं पवित्र यत्र कुत्रचित् । एतदेत हि पिञ्जल्यालक्षणं समुदाहृतम्” इति छन्दोगपरिशिष्टात्। अत्र ग्राह्य रेखाकरणे अपहता इत्यत्र इति कार For Private And Personal Use Only Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir थाहतत्त्वम्। गाद्यर्थ के नापाता इति समुदायमन्त्री निहन्मोत्यादि समुदायमन्त्रोऽप्युक्तः। निहन्मि सर्वमित्य त्वा। “अनेन मन्त्रेण सुसंयतात्मा वेदौञ्च सवीं सकदुल्लिखेच्च । शिवाञ्च वृद्धि ध्र वमिच्छमानः क्षिपेत् द्विजातिदिशमुत्तराञ्च” । इति वायुपुराणैकवाक्यत्वात् निहन्मोत्यादिमन्त्रदयं ब्रह्मपुराणेऽपि किन्तु द्विजातिरित्यादौ कुशांस्त एव दक्षिणायानिति पाठे विशेषः। ततश्च वायुपुराणात् तत्पवित्रमुत्तरस्यां दिशि क्षिपेत्। ब्रह्मपुराणपाठातु रेखोपरि दक्षिणाग्रान् कुशाना. स्तरदित्यर्थः। अतएव अनिरुदभन यन्त्रिहन्मोत्यनेन रेखाकरणमुक्तं तद शुद्ध एवञ्चैक दर्भेण तन्मध्यमुल्लिख्याभ्यक्ष्य तं त्यजेदिति देवलवचनम्। म त्योत्तराभ्यां पाणिभ्यां कुर्थादुल्लिखनादिकम्” इति यमवचनञ्च गोभिन्न ग्राह्य तत्परिशिष्टविरोधाच्छाख्यन्तरीयम् । ततश्चोत गोभिल सूत्रे दर्भेषु पिण्डदानाभिधानादेखोपरि दर्भानास्तीयं प्रागुक्त ब्रह्मपुराणवचनेन देवताभ्य इति त्रि: पठेत् पिण्डान् दद्यादवनेनिज्ये त्याने नावने जने पिण्डदानकरणमुक्तं तत्प्रकारन्तु अन्वष्टकोक्तो ग्राह्यः। तथा च गोभिलगृह्यम् । “अत्र पितृनावाहयति एत पितरः सौम्याम इति तथा अथोदकपात्र गृहीत्वा अपसल विपूर्वस्यां की दर्भेषु निनयेत् पितुर्नाम गृहीत्वा असाववनेनिच ये चानत्वामित्यादि अप उपस्पृश्य एवमेवेतरयोस्तथाऽपसल विदर्भेष निदध्यात् पितुर्नाम यहोवाऽसावेव ते पिण्डो ये चावत्वामनु यांश्च त्वमनु तस्मै ते खधेति मन्वे ए अप उपस्पृश्य एवमेवेतरयोस्तथा निधाय जपति प्रत्र पितरो मादयध्वं यथा भागमावृषायध्वमिति अपप-हत्य पुरोच्छासादभिपयावर्त्तमानो जपेत् अमोमदन्त पितरो यथा भागमाषायिषत इति अथाञ्जलिकते For Private And Personal Use Only Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रावतत्त्वम् । अपति नमो वः पितरः पितरो नमो वः इति ग्रहानवेक्षते ग्रहानः पितरो दत्तेति पिण्डानवेक्षते सदो वः पितरो देश इति सव्येनैव पाणिना सूत्रतन्तु गृहीत्वा अपसलविपूर्वस्या कवी पिण्डे निदध्यात् पितुर्नाम गृहीत्वा असावेतत्ते वासो ये चात्र त्वामनुयांश्च त्वमनु तस्मै ते स्वधेति। अप उपस्पृश्य एवमेवेतरयोः सव्येनैव पाणिना उदकपात्र गृहीत्वा अपसलवि पिण्डानामुपरि सिञ्चेत्। अज्ज वहन्तौरमृतं तं पयः कोलालं परिश्रुतं स्वधास्तु तर्पयत मे पितृन्। मध्यमं पिण्ड पत्नीलत्रकामानौयादाधत्त पितरो गर्भम् इति अप्सु पिण्डानासादयेत् प्रणोते वा अम्नौ ब्राह्मणान् भोजयेहा गवे वा दद्यादिति”। एषामर्थः यद्यप्यन्वष्टकायां पितृनिति पित्रा. दिनिकमत्र परं तथाऽप्यत्र त्रों स्त्रोन् पिण्डान् दद्यात् इत्यनेन षट्पुरुष पिण्डदानानुरोधेन पितृनिति षट्पुरुषपरं पूर्वोक्तावाहनानन्तरं तिल-विकरण श्रुतेरवाप्यावाहनानन्तरं तिलविकरणम् उदकपात्र तिलयुक्त "प्रागग्रेष्वथ दर्भेष प्राद्यमामन्त्रा पूर्ववत् । अप: क्षिपेन्मलदेशेऽवने निवेति निस्तिलाः द्वितीयञ्च तीयञ्च मध्यदेशाग्रदेशयोः” ॥ इत्याभ्य. दयिकप्रकरणीय छन्दोगपरिशिष्टवचनेन प्राभ्युदयिके निस्तिलत्वाभिधानेनान्यत्र सतिलत्वप्रतीतेः पुष्पयुक्तत्वञ्च । सपुष्य जलमादाय तेषां पृष्ठे पृथक पृथक् । अप्रदक्षिणं नेनिज्याहोने नामानुमन्वितम्" इति ब्रह्मपुराणवचनात् अपसलवि पिटतीर्थेन प्रदेशिन्यङ्गुष्ठयोरन्तरा अपसलवि अपसव्य वा तेन पिटभ्योनिदधातौति भभाष्यतरह्यान्तरात् अपसव्यशब्देन पिटतीर्थमुच्यते अस्मादेववचनात् तथा च मनुः "प्राचौनावौतिना सम्यगपसव्यमतन्त्रिणा" इत्यादि कामित्यन्वष्टकापरं तत्र तु मण्डलोपरि प्रसाविति,सम्बोधनविभक्त्या For Private And Personal Use Only Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्राव तत्त्वम् । २३७ सर्वत्र नामनिर्देश इति भट्टभाष्यम् अतएव प्रागुक्त छन्दोगपरिशिष्टे प्राद्यमामन्त्रपूर्ववदित्युक्तम् श्राद्य पितरं पूर्ववत् गोत्रनामभिरामन्त्रा पितृनर्घ्यं प्रदापयेदिति वत् पितुरवनेजनं मूलदेशे पितामह प्रपितामहयोस्तु अवनेजनं मध्यदेशाग्रदेशयोः । “द्वितीयञ्च तृतौयञ्च मध्यदेशाग्रदेशयोः” इति छन्दोगपरिशिष्टात् । मातामहादीनामप्येवम् । "मातामह प्रभृतीं स्तु एतेषामेव वामतः" इति इन्दोगपरिशिष्टात् । एतेषां पितॄणां वामत इत्याभ्युदयिक परम्। अन्यत्र तु दक्षिणतः कर्तुर्वामोपचारत्वात् । अतएव पार्वणे प्रागुक्तब्रह्मपुराणेऽप्रदक्षिणं नेनिज्यादित्युक्तम् । तेन सतिलपुष्योदकपात्रं वामहस्ता हक्षिणहस्तेन वामान्वारब्ध ेन गृहीत्वा "अमुक गोत्र पितरमुक देवशन्नवनेनिच्व येचात्र त्वामनु यांश्च त्वमनु तस्मै ते खधा" इति पितृतीर्थेनावनेजयेत् । अपउपस्पृश्य जलं स्पृष्ट्वा एवं पूर्वोक्तरीत्या पितामहाय प्रपितामहाय पिण्डदानसूत्र जलस्पर्शन सूत्रञ्च पूर्ववत् व्याख्येयम् । अत्र च गृह्यानुक्त श्राद्ध सूत्रोक्तं सर्वमग्नौकरणशेष श्राद्धशेषञ्च तथाच छन्दोगपरिशिष्टम् । “ यावदनमुपादाय हविषोऽर्भकमर्भकम् । चरुणा सह सन्रीय पिण्डदानमुपक्रमेत्” । श्रावार्थ विषोऽनादेः सकाशात् यावत् भच्यमोदनव्यञ्जनादि ततोऽल्पाल्प' गृहीत्वा अग्नीकरण चरुशेषेण सह मिश्रीकृत्य पिण्डदानमारमेदित्यर्थः । एकस्मिन् पात्रेऽव मध्वादि द्रव्येण मिश्रयेत् । "मध्वाज्यतिलसंयुक्त सर्वव्यच्चनसंयुतम् । उष्णमादाय पिण्डन्तु कृत्वा विल्वफलोपमम् । दद्यात् पितामहादिभ्यो दर्भमूलात् यथाक्रमम्” इति ब्रह्मपुराणवचनात् अत्र पितामहपद पितृपरं वचनान्तरैकवाक्यत्वात् । अत्र पिण्डमात्रस्य विल्वफलोपमत्वश्रुतेः छन्दोगपरिशिष्टे च पित्रादौन् For Private And Personal Use Only Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २३८ श्रादतत्वम् । मातामहादौनुपक्रम्य अवनेजनवत् पिण्डान् कृत्वा विल्व. प्रमाणकानिति श्रुतेश्च सामगयजुर्वेदिनोविल्वप्रमाणकत्वम् । “पृथनातामहानाञ्च केचिदिच्छन्ति सत्तमाः। नोन् पिण्डानानुपूर्वेण साङ्गुष्ठ मुष्टिबन्धनान्” इति वायुपुराणीय शाख्य. न्तरोयम् । तत: षट् पिण्डान्मधु कृताभ्यां सेचयेत्। 'अभ्यज्य मधुसर्पिा तान् वपेत् कुशसञ्चय" इति देवलवचनात् । वपेविर्वपदुत्सृजेदिति यावत् तान् पिण्डान् ततोमधुमध्विति सूत्रोतन मधुसम्बन्धि मधु प्रकाशक सब्रियोग शिष्ट प्राप्त मधुवातेति ऋक्वयं मधुमधुमधु च जपित्वा पितुर्नाम रटहोत्वा सरह्योक्तविधिना पिण्ड दद्यात्। एवमेव प्रत्येक जलस्पर्श पूर्वकं पितामहादिपञ्चभ्यस्तत्तदवनेजनस्थाने पिण्डान् दद्यात् । “मूलमध्याग्रदेशेषु ईषत् शतांश्च निर्वपत्" इति छन्दोगपरिशिष्टात् ईषत् शलान् पिण्डानित्यर्थः । ___ततो दर्भेषु कर समाज्यं प्रक्षाल्याचम्य हरि स्मृत्वा पुनरखनेनिज्य अत्र पितर इति जपदित्या ब्रह्मपुराणम् । “ततो दर्भेषु विधिवत् सम्माज्यं च करन्ततः। प्रक्षाल्य च जलेनाथ बिराचम्य हरि स्मरेत्। वेभ्यः संसवपात्रेभ्यो जलेनैवावनेजनम्। दत्त्वान पितरश्चेति पठेच्चोदङ्मुखस्थितः। चिन्नयंश्च पितृ स्तुष्टान् सर्वान् भास्वरमूर्तिकान्। प्रमोमदन्त पितरस्त्विति पश्यन् धिया पठेत्”। पश्यन् प्राग्दत्तान् पिण्डानिति शेषः। यद्यपि करमार्जनादौनि पिढपक्ष उक्तानि तथापि पिटपार्वण एव "मातामहानामप्येव देवपूर्व श्राई कुर्वीतेति' गोभिलसूत्रेण पिळयक्षधर्माविदेशादेकोद्दिष्टादि श्राद्धेऽपि आवाहनादि निषेधानुपपत्त्या पार्वणधर्मातिदेशात् सर्वत्र तानि कार्याणि एवञ्च पार्वणे षट् पिण्डदानानन्तरं सामगेतराभ्युदयकादौ नवपिण्डदानानन्तरच For Private And Personal Use Only Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वाहतत्वम् । २३४ तन्त्रेणैव तानि कुर्यात् लाघवात प्राग्नेयादित्रितयेषु प्रयाजादि तन्वतावत् किन्तु पिटपक्षास्त तदर्भेषु करमार्जन लेपमागिनो बुद्द प्रपितामहादी स्त्रोनुद्दिश्य कर्तव्यम् । "न्युप्य पिण्डां स्ततस्तांस्तु प्रयतो विधिपूर्वकम् । तेषु दर्भेषु तं इस्तं नि मृज्याल्लेपभागिनाम्" इति । “लेपभाजश्चतुर्थाद्याः पित्राद्याः पिण्डभागिनः । पिण्डदः सप्तमस्तेषां सापिण्डंग साप्तपौरुषम् ॥ इति स्थानहयस्थ मनुवचनाभ्यां सहैकवाक्यत्वात् । तदपि दर्भाणां मूले। “दक्षिणाग्रेषु दर्भेषु पुष्य. धपसमन्वितम्। स्वपित्रे प्रथम पिण्डं दद्यादृच्छिष्टसन्निधौ। पितामहाय चैवाथ तत्पिचे च ततः परम्। दर्भमूले लेपभुजस्तर्पयेल्लेपघर्षणैः। पिण्डैर्मातामहां स्तहत्गन्धमाल्यादि. संयुतैः। प्रोणयित्वा हिजाग्राणां दद्यादाचमनन्ततः” । इति विष्णुपुराणात् नचैतत् पाठक्रमान्मातामहपिण्डदानात् पूर्व लेपघर्षणमिति वाच्यम्। “दर्भषु मधुमध्विय क्षत्रमी मदन्तेति जपित्वा बों स्त्रीन् पिण्डान् दद्यादवनेनिज्येति" मोभिल सूत्रे “दर्भषु त्रीं स्त्रोन् पिण्डानवनेनिज्य दद्यात्" इति कात्यायन गृह्ये च वीं स्त्रौनिति वौसादर्शनात् षट पिण्डदानमध्ये पिण्डदानेति कर्तव्यता व्यतिरिक्तानां निवृत्तिः प्रतीयते। अतएव पिटदयिता श्राद्ध कल्पतरुप्रभृतिषु षट पिण्डदानानन्तरमेव करघर्ष गा लिखितम् । विष्णु पुराण दर्भमूल विधायक न तु मातामहादिपिण्ड दानपूर्वक कर. घर्षणक्रमविधायकम् अन्यथा प्रत्यवनेजनदानादेः प्रागपि तदुक्त ब्राह्मणाचमनापत्तेः। पुष्पधूप समन्वितपिण्डदान शाखिभेदपरमिति। अतो मातामहपक्षे न करमार्जनम् । एकोद्दिष्टे तु लेषभुजामसम्भवेऽपि निरुद्देश्य करमार्जनाचमन हरिस्मरणानि कार्याणि साधारण प्रवृत्त प्रागुक्त ब्रह्मपुराशन For Private And Personal Use Only Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बापतत्त्वम्। वचनात् । विराचम्येति पत्र श्राद्धचिन्तामणिः त्रिः पिवे. दित्यदिना विहितमाचमनं तदत्र विरावर्तते पाचार प्रदोपोऽप्ये वमिति तन्त्र "विराचामेदपः पूर्व दिः प्रमृज्यात्ततोमुखम्" इति मनुवचनेन सह विराचामेट्विः परिमृजौतेति गोभिलैकवाक्यत्वात् किन्तु सक्कदेव । तेभ्यः संस्रवपावेभ्यः पूर्वदत्ताधनेननसंस्रवपात्रेभ्यः। एतच्च छन्दोगेतर परम्। छन्दोगानान्तु पिण्ड पानप्रक्षालनेन पूर्ववदवनेनयेत्। यथा छन्दोगपरिशिष्टम् । “तत् पात्रक्षालनेनाथ पुनरप्यवनेजयेत्" पत्राप्यवनेजयेदिति श्रुतेहितीयावनेजनेति प्रवनेनिवेति वक्तव्यं न तु प्रत्यवनेनिक्ष्वे ति ब्रह्मपुराणे अवनेजन दत्त्वान पितरश्चेति क्रमदर्शनात् गोभिल गुह्येपि निधाय जपतौत्यत्र निधायेत्यनेन पुनरवनेजनानन्तरम् अत्र पितर इत्यस्य जपो बोध्यः । तन्नपानन्तर कर्तव्यमाह रो अपपर्यावृत्येति प्रत्रापत्यनेनाप्रादक्षिण्यावर्तेन पावत्य गत्वा उदगन्तं दक्षिणान्तं वा तथा च छन्दोगपरिशिष्ट “वाममाबर्तन केचिदुदगन्त प्रचक्षते। सव्यं गोतम शाण्डि ल्यो शाण्डिल्यायन एव च। गोभिल यो वामावर्तन यामनमुक्तं तदुत्तरादिक पर्यन्त केचिद्वदन्ति गोतमादयः सव्यं दक्षिणम् अत्रापि उदगन्तमिति वदक्षिणाभिमुखान्तमित्याहुः। यद्यप्यत्र विकल्प उत्तास्तथापि बहुवादिसम्मतत्वात् प्रागुक्तत्वाच उद्ङ्मुखीभूय प्रशाशक्ति खास विकृत्य तेनैव पथा परावर्त्तमान: पितृन् भाखरमूर्तिकान् परितुष्टान् ध्यायन् विकृतप्राणत्वेन व्यक्तजपस्वाशक्तत्वादुपांशरूपेण अमौमदन्त इति जवा खास त्यजेत् । एतहात्तीकृत छन्दोगपरिशिष्ठेन "प्रावृत्तप्राणानायम्य पितृन ध्यायन् यथाईतः। जप स्तेनैव चाहत्य ततः For Private And Personal Use Only Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वाहतत्वम् । २४१ प्राणान् विमोचयेत् । अनलिकत इति कृताञ्जलि रित्यर्थः । "सहान् पत्नी ग्रहावः पत्रो" इति प्यान्तरात् ग्रहाब इति मन्त्रेण पत्रों पश्येदित्यर्थः । पिण्डान् दत्तपिण्डान् । पूर्वस्यां कॉम् इत्यन्वष्टकापरम् । पिण्डोपरि सूत्रदाने मन्त्रवाक्यपूर्वकतामाह ब्रह्मपुराणम्। “एतहः पितरो वास इति जल्पन् पृथक् पृथक्। प्रमुकामुकगोवैतत्तुभ्यं वासः पठेत्ततः । दद्यात् क्रमेण वासांसि खेतवस्त्रभवा दशा:" ॥ तेन वामइस्त्रोतसूत्रतन्तु दक्षिणहस्तेन गृहीत्वा वामान्वारब्ध न एतहः पितरो वास इति पठित्वा गोत्राभिलापपूर्वकमुसज्य पिण्डे दद्यात्। वासोदानानन्तरं पिण्डपूजादिकमाह ब्रह्मपुराणम् । “पूजयित्वा तु पिण्डस्थान् पितृच प्रणमेदृतून्। वसन्ताय नमस्तुम्य प्रोमाय च नमो नमः ॥ वर्षाभ्यश्च शरसंतऋतवे च नम: सदा। हेमन्ताय नमस्तुभ्य नमस्ते शिशिराय च । मासमंवत्सरेभ्यश्च दिवसेभ्यो नमो नमः ॥ इति एवञ्च पिण्डपूजानन्तरं वसन्तायेत्यादिपाठदर्शनादनिरुद्धभट्टोक्ताम् अत्र पितर इति पाठानन्तरं वसन्तायेत्यभिधानं प्रमाणशून्यम् । न च “आचम्योदक परावृत्य त्रिरायम्य शनैरसून् । षड्तूंच नमस्कुर्यात् पितृनेव च मन्त्रवत् ॥ इति मनुवचनं प्रमाणम् दम रखो भूत्वा यथाशक्ति प्राणायामत्रयं कृत्वा वसन्तायेत्या. दिना पड़तून् नमस्कादिति कुलकमद्देन तद्याख्यातहति वायम् उदक पराहत्य मन्त्रवदित्यनेन याजुर्वेदिक “नमो वः पितरो रसाय नमो वः पितरः योषाय नमो वः पितरो जौवाय नमो वः पितरः स्वधायै नमो वः पितरो घोराय नमो वः पितरो मन्यवे" इति मन्त्रस्थरसशोषजौवखधाघोरमन्युशब्दाभिधेयान् वसन्त-ग्रीष्म-वर्षा-धरमन्तशिशिररूपान् For Private And Personal Use Only Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४२ श्रातत्त्वम् । ब्राह्मणसर्वस्वे इलायुधेन व्याख्यातान् षडृतून् पितृरूपानेव नमस्कुर्य्यादित्येकस्मिन्नेवान्वये मनुवचनस्य सामगेतर परत्वात् । गोभिलग्गृह्ये अत्र पितरो श्रमीमदन्तेति मन्त्रयोर्मध्ये ऋतुनमस्कारस्याश्रुतत्वात् तत्परिशिष्टेऽपि प्रागुक्तवासमावर्त्तनमिति श्रहत्य प्राणानायस्येति वचनाभ्यामप्यावर्त्तनं विशेष उक्तः न तु वसन्तायेत्यस्य पाठ इति ततञ्च छन्दोगानां कापि ऋतुनमस्कारस्यानुपदेशात् पिण्डपूजानन्तर स्थान नियतस्य पौराणिकस्य वसन्तायेत्यस्य पाठो मैथिलायुक्तो ग्राह्यः । अस्मत् क्रमपक्षेऽपि तहिरुद्दक्रमानभिधानात् मनुवचनस्यावि रोधाच्च । 1 पूजने तूष्णीं गन्धादिनिक्षेपमा इन्दोगपरिशिष्ट' "गन्धादि निक्षिपेत्तूष्णीं तत श्राचामयेत् द्विजान्” । अत्राचमनं पित्रादिब्राह्मणानां प्रथमतः पश्चाद्वैख देवब्राह्मणानां कारयितव्यम् । तथाच विष्णुधर्मोत्तरे । “वैश्वदेवोपरिष्टानां चरमं हस्तधावनम् । विसर्ज्जनञ्च निर्दिष्ट तेषु रक्षा यतः स्मृता ॥ अत्र हस्तधावनम् प्राचमनम् उदङ्म खेष्वाचमनं दत्त्वा प्रामखेषु दद्यादिति देवलवचनैकवाक्यत्वात् । एतच्च न कुशमयब्राह्मणपचे श्वयोग्यत्वात् श्रत्र ब्रह्मपुराणेन पिण्डस्थपितृपूजानन्तरं वसन्तायेति पाठ उक्तः छन्दोगपरिशिष्टेन तु पिण्डस्थ पिटपूजानन्तरं ब्राह्मणायाचमनदानमुक्तं यद्यप्यनयोः पौर्वापथ्यं साचात् केनापि नोक्तं तथापि प्राचान्तेषूदकपुष्पा चतासय्योदकञ्च दद्यात्” इति गोभिलकात्यायन सूत्रोक्ताचमनामन्तरजलादिदानाव्यवधानाय वसन्तायेत्यादिपाठानन्तरमाच मनं प्रतौयते । भनोदकादिदाने विशेषमा छन्दोगपरिशिष्टम् "अथाग्रभूमिमा सिञ्च ेत् सुसु प्रोक्षितिमस्त्विति । शिवा चापः सन्त्विति च युग्मानेवोदकेन च ॥ सौमनस्यमस्त्विति For Private And Personal Use Only Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वाहतत्त्वम् । व पुष्पदानमनन्तरम् । अञ्चतञ्चारिष्टवास्त्वित्यश्च्चतान्यपि दापयेत् ॥ अचय्योदकदानन्तु अर्घ्यदानवदिष्यते । षष्ठेव नित्यं तत् कुर्य्यात्र चतुर्ष्या कदाचन" ॥ अग्रभूमिं ब्राह्मणस्य तत श्राचामयेत् विनान् इत्यनेनोपस्थितत्वात् एतच्च भूमिसेचनं सकदेव कर्त्तव्य शिवा श्राप इत्यादिना जलादिदानन्तु देवपूर्वं ब्राह्मणेषु कर्त्तव्य ब्राह्मणसम्बन्धिप्राप्तानां कर्मणां 'वैखदेव पूर्वं कर्त्तव्यत्वाभिधानात् । तथाच देवलः " यत्र यत् क्रियते कर्म पैढके ब्राह्मणान् प्रति । तत्सर्वं तत्र कर्त्तव्यं वैख देवत्य पूर्व कम्” ॥ युग्मानेवेत्याभ्युदयिके अन्यत्र ब्राह्मणमात्रमा सिञ्चेदिति अक्षता यवाः । “अक्षतास्तु यवाः प्रोक्ता भृष्टाधाना भवन्ति ते ॥ इति भट्टभाष्यष्टतवचनात् । अर्थवदित्यतिदेश अभ्युदयिके ज्येष्ठोत्तर करत्व प्रात्यर्थो न तु तन्त्रता निवृत्त्यर्थः । " अर्घ्यंऽचय्योदके चैव पिण्डदानेऽवनेजने । तन्त्रस्य विभिवृत्तिः स्यात् स्वधावाचन एव च ॥ इति वचनात् । एवञ्च षष्ठैवेत्यनेन " गोत्रनामभिरामन्त्रय पितृन प्रदापयेत्" इत्यनेन गौवादी प्राप्तायाः सम्बुद्धेर्नान्दीमुखेभ्यश्चाच्चय्यमिदमस्त्विति संजपन् इति ब्रह्मपुराणोक्तशाख्यन्तरीयचतुर्थ्याश्च परास्तता । एतच्च " गोत्रं खरान्तं सर्वत्र गोत्रस्वाचय्यकर्मणि” इत्यादि प्रागुक्त गोभिलवचनत्रये चाचय्यकर्माणि गोत्रस्येति पितुरिति शष इत्यभिधानात् व्यक्त ततश्च न चतुर्ष्या कदाचनेति पिण्डपितृयज्ञवदुपचार इत्यति देशेन प्राप्तस्य " ये चात्रत्वामनुयांय त्वमनु तस्मै स्वधा" इति चतुर्थीयुक्तस्य मन्त्रस्य निषेधः । गोभिलः । “ अघोराः पितरः सन्तु सन्त्वित्युक्त मोब नो वर्द्धतां वर्द्धतामित्युक्ते खधानिनयनौयान् दर्भान् सपवित्रानास्तोय्र्य स्वधां वाचयिष्ये इति पृच्छति वाच्यतामित्यनुज्ञातः पितृभ्यः स्वधोच्यतां पितामहेभ्यः For Private And Personal Use Only २४३ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir थाहतत्वम् । प्रपितामहेभ्यो मातामहेभ्यः प्रमातामहेभ्यो वृक्षप्रमातामहे भ्यच खधोच्यताम् इति “अस्तु खधेत्युक्त स्वधानिनयनौयान् वारिधारां दद्यात् अज्ज वहन्तीरित्यपो निषिञ्चतौति । न च सव्येनाघोराः पितरः सन्विति दक्षिणां दिशं मनसाकाइन् पूर्वाभिमुखः पठेदिति कृत्य प्रदीपः। “दत्त्वाशौः प्रतिटलौयात् द्विजेभ्यः प्राम खो बुधः । अघोरा: पितरः सन्तु सन्वित्यक्तः स तैः पुनः" ॥ इति मत्यपुराणवचनेन “दक्षिणां दिशमाकान् याचेतेमान् वरान् पितृन्" इत्यादि मनुवचनैकवाक्यत्वं तत्र प्रमाणमिति वाच्यम् । “पिण्हपिटयज्ञवदुपचार: इति गोभिलसूत्रेन वैखदेवकमातिरिक्त दक्षिणामुखत्वप्रतीतेः। “दक्षिणां दिशमाकान्" इति मनुवचनस्य तथार्थत्वे प्रमाणाभावाच्च। अतएव दक्षिणां दिशमाकाइनिति वौक्ष्यमाण इति टोकाकाराख्यातम्। मनुना आकाङ्क्षन् इत्यनन्तरं दातार इति पठितं न तु अघोराः पितरः सन्विति। मत्स्यपुराणेऽपि अक्षय्योदकदानानन्तरं दत्त्वेति न पठितम्। किन्तु “ततः खथा वाचनिकं वैश्वदेवेषु चोदकम्" इत्यनन्तरं दत्त्वाशीरित्यई पठित्वा “अघोराः पितरः सन्तु सन्वित्युक्तः पुनहि जैः । गोत्रो वईतामस्तु तथेत्युक्तः स तैः पुनः । दातारो नोऽभिवईन्तामन वेत्युदौरयेत् ॥ इत्ये व पठितं ततः शाखिविशेषे तादृक् क्रमकर्मणि प्राश खत्वं न तु गोभिलाद्युक्त कर्मणि । प्रतएव पिटदयितादावाशौः प्रार्थने प्राम खत्वं नाभिहितम्। खधानिनयनौयान् खधावाचनमात्रार्थान् न तु कृतप्रयोजनान्तरान् । ततश्च नारायणोपाध्यायशूलपाणिप्रभृतिभिर्यदय सम्बन्धि पवित्रमावास्तरणमुक्त तत् प्रमाणशून्यम्। कुशान्तरास्तरणरहितत्वेन मूत्रविरुद्धञ्च अन्यथा पिण्डरेखापि अध्य सम्बन्धिपवित्रेण कथं न स्यादिति । For Private And Personal Use Only Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रावतत्त्वम् । २४५ प्रतएव भट्टनारायणानिनवभकुल्लकमकर्कहरिशप्रभृतिभिमैथिलैश्च सपवित्रकुशान्तरास्तरणमुक्त नत्वय सम्बन्धि पवित्रमानास्तरणमिति । स्वधानिनयने खधावाचने कत इति शेष इति एतच्च प्रागुक्तसव्येन पाणिना उदकपात्रं गृहीत्वेति एखोतवारिधारादानस्य स्वधावाचनानन्तरत्वविधायकं लाघ. वात् न तु वारिधागदानानन्तरविधायकं गौरवात् एतातो. छतं छन्दोगपरिशिष्टे। "प्रार्थनामु प्रतिप्रोक्त सर्वाखेव हिजोतमैः। पवित्रान्तहितान् पिण्डान् मिच्दुत्तानपात्रकृत्” । इति भट्टनारायणचरणैरपि सव्येनैव पाणिनोदकपात्रं गृही. खेति सूत्रस्य व्याख्याने एतच चरिषेचनमाचम्य ब्राह्मणेष्वाधान्तोदकेषु अग्रभूमिमासिञ्चेत् सुसुप्रोक्षितमस्त्वित्येवं स्वधावाचनं कृत्वोत्तानं पिटपात्र छत्वा पवित्राणि च पिण्डानामुपरि दत्त्वा कुर्यात् तथाच प्रार्थनासु प्रतिप्रोक्तो इति व्याख्यानं कृत्वा मैथिलैरप्येवं लिखितम्। एवञ्च वासोदानानन्तरं यथा श्रुतमोभिलरह्यदर्शनात् पिटदयितायां यत् परिषेचनमुक्त तद्देयम् । एवं छन्दोगपरिशिष्टेन अस्तु स्वधेत्यनन्तरकर्तव्यत्वाभिधानात् तदनन्तरं गृह्योक्त पत्र भक्षणार्थ पिण्डदानं न तु खधावाचनस्य प्राक् तथा सति पितामहपिण्डे खधावाचनं न स्यादिति बोध्य तत्र विशेषयतः शङ्कलिखिती "पनो वा मध्यमं पिण्डमशीयादातवमातेति" यमः “पत्नी वा मध्यमं पिण् ततः प्रानौत वागयता"। मत्स्यपुराखे *पत्नीन्तु मध्यमं पिण्डमाशयेदिनयान्विताम् । माधत्त पितरो गर्भ मत्तः सन्तानवईनम् ॥ एषमन्त्रः पौराणिकत्वात् साधारणः । अवोत्तानपात्रकदिति यथाश्रुतदर्शनात् परिषेचनकर्तविशेषणतया भट्ट न यद्याख्यातं तदोभिल बाइसूत्रादर्शनात् तथाच प्रागुक्तापरिषेचनसूत्रानन्तरं गोभिलः । “उत्तानं पावं For Private And Personal Use Only Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बादतखम् । कृत्वा यथाशक्ति दक्षिणान्दद्यादिति एवमेवानिसमप्रम तिभिलिखितम्। दक्षिणायां पिटपूर्वकतामा विष्णुपुराणम्। पितृन् मातामहानुपक्रम्य "पिण्डैर्मातामहांस्तहहन्धमाल्यादिसंयुतैः । पूजयित्वा हिजाग्राणां दद्यादाचमनन्ततः ॥ पिटभ्यः प्रथम भक्त्या तन्मनस्को नरेश्वर । सुखधेवाशिषा युक्तां दद्याच्छत्तया च दक्षिणाम् ॥ हिजाग्राणां विखदेवपिनमातामहपक्षत्रयश्राइभोक्तनां ब्राह्मणानां मध्ये पिळभ्यः पिपक्षब्राह्मणेभ्यः प्रथममाचमनं दक्षिणाञ्च दद्यात् प्रतएव वैखदेवोपरिष्टानां चरमं हस्तधावनम् इत्युतम् । तथा “ब्राह्मणे दक्षिणा देया यत्र या परिकीर्तिता। कमान्तेऽनुच्यमानायां पूर्णपानादिका भवेत् ॥ इति छन्दोगपरिशिष्टवचनेन दक्षिणादानस्य कमीन्तताविधानात् शाहमुपक्रम्य “दैवाद्यन्तं तदोहेत पित्रादान्तं न तद्भवेत्। पित्राद्यन्तन्वौहमान: क्षिप्र नश्यति सान्वयः" । इति मत्यपुराणेऽपि श्राइकर्मणोप्यन्तकम्मत्वेन प्राप्तस्य दक्षिणादानस्य दैवान्ततानुरोधेन पित्रादित्वमुक्त श्राइविवे. कोऽप्येवं सुखधेति शाख्यन्तरीयम्। अत्र दक्षिणाया नाचमनाव्यवहितोत्तरत्व किन्तु आचमनानन्तरं न्यूजोत्तानान्तं कर्म विधाय कर्त्तव्यत्वप्रागुतोत्तानपान करवेत्यादि गोभिलसूत्रात्। एतेन दक्षिणाया देवपूर्वकत्वं मैथिलो हेयम् । प्राशी:प्रार्थनामाह गोभिलः। “विखेदेवाः प्रौयन्तामिति दैवे वाचयित्वा दातारो नोऽभिवईन्तां वेदः सन्ततिरेव च । श्रद्धाचनोमाव्यगमबहुदेयञ्च नोऽस्विति। अनञ्च नोबहुभवेदतिथींच लभेमहि याचितारच नः सन्तु माच याचिस्म कञ्चन। अब प्रबईतां नित्य दाता शतं जीवतु येभ्यः सङ्कल्पिता दिजा स्तेषामक्षया एप्तिरस्तु एताः सत्या पाशिषः For Private And Personal Use Only Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारतखम्। सन्विति वाजे वाजे वत वाजिनो नो धनेषु विप्रा अमृता ऋतज्ञा प्रस्य मध्वः पिवत मादयध हप्ता यात पथिभिर्देव यानैः इत्येतया विमृज्य "पामावायस्य प्रसवो जगम्यादेमे यावा पृथिवी विश्वरूपे प्रामागन्तु पितरा मातरा युवमामा मोमोऽमृतत्वाय गम्यात्” इत्येतयानुव्रज्य प्रदक्षिणीकृत्याभिवाद्य वामदेव्यं गौत्वा प्रविशतौति देवे देवपक्षेऽर्थात् उदम खः विश्व देवा: प्रौयन्तामिति वाचयित्वा प्रौवन्तामिति प्रतिचनं गृहौत्वा दातार इत्यादिना एता: सत्या आशिषः सन्वित्यन्तेन आशिषः प्रार्थयेत्। वेदश्चाध्ययनाध्यापन-तदर्थावबोध रूपतद. र्थानुष्ठान छिमेतु । इति याज्ञवल्कयौयदीपकलिकायां व्याख्यामाहेद इत्येव पाठो न तु वेदा इति ततः सन्विति प्रतिवचनादाशिषः प्रतिगृह्य देवताभ्य इत्यस्यान्ते पठनीयत्वेन विसर्जनात् पूर्व निःपठेत् पिटदयितायामप्येवं ततो वाजे वाज इत्यनेन कुशाग्रेण विसर्जयेत् । “ततस्तानग्रतः कृत्वा प्रतिरयोदपापिकां वाजे वाज इति जपन् कुशाग्रेण विसर्जयेत् । वहि: प्रदक्षिणौकत्य पादानष्टावनुव्रजेत् ॥ इति मत्स्यपुराणात् एतच विसर्जनं ब्राह्मणस्थ पितॄणां मन्त्रलिङ्गात्। येषामावाहनन्सेषामेव विसर्जनस्य युक्तत्वाच्च। अतएवामावत्यनेन प्रदक्षिणी करगाभिवादनमपि ब्राह्मणस्थ पितृणामिति एतेनापात्रकथा विसर्जनाद्यभावो मित्राद्युतो हेयः। तत प्रामावत्यनेनानुव्रज्य प्रदक्षिणी-कत्याभिवादयेत् । दर्भमयब्राह्मणमादाय बाई थाहौयद्रव्य ब्राह्मणाय प्रतिपादयेत्। तदभावेऽग्नौ जले वा क्षिपेत्। “योकं भोजयेत् श्राद्दे दैवं तत्र कथम्भवेत्। स्तोकं स्तोकं समुद्ध,त्य सर्वस्य प्रकृतस्य च ॥ देवतायतने कत्वा तत: श्राई प्रवर्तयेत्। तदन्न प्रक्षिपदग्नी दयाहा ब्रह्मचारिणे ॥ इति वशिष्ठोकः "ब्राह्मणस्य च For Private And Personal Use Only Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४९ वाहतत्त्वम् । यहेयं सान्वयस्य न चास्ति सः। सकुल्ये तस्य निनयेत् तदभावेऽस्य बन्धुषु ॥ यदा तु न सकुल्यः स्यान्न च सम्बन्धि धान्धवाः। यद्यात् सजातिशिष्येभ्यस्तंदभावेऽमु निक्षिपेत् ॥ इति दानकाण्ड कल्पतरुतनारदवचनेन ब्राह्मणदेयस्य ब्राह्मणाभावे जलप्रक्षेपोक्तत्वाच्च वामदेव्यं गौत्वा गानाशक्तौ कयान इत्यानि त्रिः पठेत्। तत: कर्ममात्र प्राप्ताच्छिद्रावधारणं कुर्यात्। तथा च शातातपपराशरौ। “आच्छिद्रमिति यहाक्य वदन्ति चितिदेवताः। प्रणम्य शिरसा ग्राह्यमग्निष्टोमफलैः समम् ॥ क्षितिदेवता विप्राः। अग्निष्टोमफलैः सममिति स्तुतिः। विष्णुः । यद्ब्राह्मणास्तुष्टतमा वदन्ति तद्देवताः कर्मभिराचरन्ति । तुष्टेषु तुष्टाः सततं भवन्ति प्रत्यक्षदेवेषु परोक्षदेवा:” ॥ ततः साङ्गतार्थं विष्णुं स्मरेत् । "प्रमादात् कुर्वतां कर्म प्रचवेताध्वरेषु यत्। सारणादेव तहिष्णोः सम्पर्ण स्यादि श्रुतिः ॥ तहिष्णोरिति मन्त्रेण मज्जेदम पुनः पुनः। गायत्रो वैष्णवी ह्येषा विष्णोः संस्मरणाय वै॥ तदनन्तरं दक्षिणपाणिना दोपप्रच्छादनमाह देवलः । "निवृत्ते पिटमेधे तु दीपं प्रच्छाद्य पाणिना। प्राचम्य पायो प्रक्षाल्य ज्ञातीन् शेषेण भोजयेत्” ॥ पाणीप्रक्षाल्याचम्य इत्यन्वयः। “ततो ज्ञातिषु भुक्तेषु स्वान् भृत्यानपि भोजयेत् । पश्चात् खयञ्च पत्नौ च श्राइशेषमुदाहरेत् ॥ निवृत्ते वामदेव्यगानान्ते प्रच्छाद्य आच्छाद्येति पारिजातकल्पतरौ। न निर्वापयेत् दर्शनात् “दौपनिर्वापणात् पुंसः कुमाण्डच्छेदनात् स्त्रियाः। अचिरेणैव कालेन वंशनाशो भवेत् ध्रुवम् ॥ इति नव्यवईमादतात्। "दीपनिर्वापकोऽन्धः स्यात्” इति मनुवचनाच उदाहरेत् अभ्यवहरेत् एष रागप्राप्तवान विधिः For Private And Personal Use Only Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रावतत्त्वम् । किन्तु नियमः। तथा च श्रावशेषमुपक्रम्यापस्तम्बः। सव. स्मादग्रासावराईमनीयादिति” ग्रासावराई ग्रास एव अवरों निष्टकोटिर्यस्य स तथा अनियमत्वे सर्वस्मादिनि श्रावशेषविशेषणं व्यर्थं स्यात् । व्य शिवरहस्ये। श्राई कृत्वा तु यः शेषं नाबमनाति मन्दधौः। लोभामोहाड्याहापि तस्य तनिष्फलं भवेत् ॥ लोभात् द्रव्यान्तरस्योति शेषः। पत्र लोभादित्यभिधानाधोपवासादौ न नियमः । तत्र घ्राणमाहुः वराहपुराणविष्णुधर्मोत्तरकात्यायनाः । “उपवासो यदा नित्यः बाई नैमित्तिकं भवेत्। उपवासं तदा कुर्यादाघ्राय पिटसेवितम्” ॥ एवञ्च “यत्किञ्चित् पश्यते गेहे भक्ष्यं भोज्यमथापि वा। निवेद्य न भुनौत पिण्डमूले कश्यञ्चन" । इति शङ्खोक्त न तच्छ्राइशेषेतरभोजनव्यावर्तकम्। किन्तु यत् किञ्चिदिति श्राद्धार्थत्वेन विशेषणीयमन्यथा श्राद्दे प्रतिषिद्रव्याणां भच्यत्वं न स्यात् तेन श्राद्धार्थ पक्कं तत्र न दत्त्वा न भव्यमिति तस्यार्थः। मातातपः। “श्राई कृत्वा पर आई भुञ्जते ये च जिलाः। पतन्ति नरके धोरे लुप्तपिण्डोदकक्रियाः” ॥ जिह्वला लोलुपाः । विष्णुपुराणम् । “वानि कुर्वता पाई कापोऽध्वगमन त्वरा। भोरप्यत्र राजेन्द्र एव मेतत् न शस्यते” ॥ स्मृतिः। “युतच्च कलहच्च व सायं सन्ध्यां दिवा शयम्। वाइकत्ती च भोक्ता च पुनर्भुक्तच्च वर्जयेत्” ॥ राजमार्तण्डे "पुनर्भोजनमध्वानं यताध्ययनमैथुनम् । दान प्रतिग्रह सख्यां श्राइौं कृत्वाष्ट वजयेत्” । नव्यवईमानता स्मृतिः। “पुनर्भोजनमध्वान भाराध्ययनमैथुनन्। दान सम्यां पुनः मान बाई कत्लाष्ट वर्जयेत् ॥ अध्वान अध्वगमन क्रोशात् पर न कार्यम् 'अध्वगमनमाक्रोशपूरणमिति” सरौतवचनात् मैथुनम् ऋतुकालोनमपि For Private And Personal Use Only Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५. वाहतत्वम् । म कार्यम्। तथा च श्राद्यानन्तरं शङ्कलिखिती। "ऋतुघातां ददहोगत्र परिहरदिति” दान याचिताबाद्यतिरिक्तस्त्र "वन्दिभ्यश्चैव मर्थियोऽन्नार्थिभोऽनमर्थितः। यदि तत्र न दद्यात्तु विफलं शक्तितो भवेत्॥ वन्दिनो वीर्य स्तोतार: अथितः सन् यदि एभ्योऽनन दद्यात् तदा थाई विफलं भवेदित्यर्थः । भूताः पौराणिका: प्रोक्ताः मागधा वंशशंसकाः। वन्दिनस्त्वमलप्रजाः प्रस्तावसदृशोतयः” । इत्युक्तः । प्रत्यञ्च श्राद्धोत्तरदाननिषधात् श्राई वन्दिप्रभृतिभ्यो दानाकरणे निन्दाश्रवणाञ्च श्राहात् पूर्वं तदर्थं भोज्यादिकमुत्सृजेत्। वायुपुराणे। "प्रध्वनौनोभवेदसः पुनर्भोजौ च वायसः। होमकन्नेत्ररोगी स्यात् पाठादायुः प्रहीयते। दान निष्फलतामेति प्रतिग्राही दरिद्रताम्। कर्मकज्जायते दासो मैथुनौ शूकरो भवेत्" । कर्मात्र भारोहहनादिकम् । मत्मापुराणम्। "रतिशक्तिः स्त्रियः कान्ता भोज्यं भोजनशक्ति ता। दानशक्तिः सविभवा रूपमारोग्यसम्पदः। श्राद्धपुष्यमिदं प्रोक्त फल ब्रह्मसमागमः" ॥ पुष्प तहदल्प फल तहन्महत्। श्राद्धानन्तरं बलिवैखदेवावाह भविष्यपुराणम्। “कत्वा श्राद्ध महावाहो ब्राह्मणांच विसृज्य च। वैखदेवादिकं कर्म ततः कुठानराधिप” ॥ पार्वणानन्तरं नित्य श्राद्धे विकल्प उत्तो मार्कण्डेयपुराणे “नित्यक्रियां पितृणान्तु केचिदिच्छन्ति सत्तमाः। न पितृणां तथैवान्ये शेषं पूर्ववदाच रत्” ॥ न पितृणामित्यावश्यकत्वनिषेधपरमिति व्यवस्था नित्यवानमाणप्रयोगावाङ्गिकतत्वेऽनुसन्धेयाविति। अथ जोवत्यिकथादम्। पारस्करः । “पित्रादित्रिषु जीवा श्राई न कर्त्तव्यं अन षमा पुरुषाणां मध्ये यो यो जीवति तं विहाय पुरुषान्तरमादाय श्राद्ध कर्त्तव्यम् । मातामहादिविषु For Private And Personal Use Only Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २५१ बादतत्त्वम् । जोवत्स पित्रादिधिकमात्रवाई कर्तव्यम् । तथाच विष्णुः । "पितरि जीवति यः श्राह कुर्यात् पिता येषां कुर्यात् तेषां कुर्य्यात् पितरि पितामहे च जीवति पितामहो येषां कुयात् तेषां कुर्यात् पितरि पितामहे प्रपितामहे च जीवति नैव कुर्यात्। यस्य पिता प्रेत: स्यात् सपिने पिण्ड निधाय प्रपितामहात् परं हाभ्यां दद्यात्। यस्य पिता पितामह प्रेतौ स्यातां स तास्यां पिण्डौ दत्त्वा पितामहपितामहाय दद्यात् यस्य पितामहः प्रेतः स्यात् स तस्मै पिण्ई निधाय प्रपितामहात् परं हाभ्यां दद्यात्। यस्य पिता प्रपितामहब प्रेतौ स्यातां स पित्रे पिण्ड निधाय पितामहात् परं दाभ्यां दद्यात्। मातामहानामप्य वं श्राई कुर्यात् विचक्षणः” । इति विषु पिपितामहप्रपितामहेषु यस्य पिता प्रेत इति सावधारणोऽयं निर्देशः। तेन वयाणां मध्ये पितैव मृतो न तु पितामहपितामहौ। हाभ्यां वृद्धप्रपितामहातिवृद्धप्रपितामहाभ्यां पितामहपितामहायेति कर्तुंर्वद्धप्रपितामहायेत्यर्थः पितामहः प्रेत: स्यादिति साधारणो निर्देशः। अर्थात् पिट प्रपितामहो न मृतौ हाभ्यां वृहप्रपितामहातिबद्धप्रपितामहाभ्यां एतत् पक्षस्येदानों पावणे तथा नाचरणादाभ्युदयर कादौ तथा व्यवहारः पिता प्रपितामहश्च प्रेतावित्यनेन पितामहो जौवतीत्यवगम्यते। हाभ्यां प्रपितामहवप्रपितामहाभ्याम् एवं मातामहपक्षेपि विशेषस्तु पितरि मृते मातामहादित्रयाणामन्यतममरणेऽपि पार्वणाचारः । अथ पार्वणस्य प्रतिमासकर्तव्यत्वम्। अत्र मार्कण्डेयपुराशम्। कार्यं श्राइममावास्यां मासि मास्यड़पक्षये। यन्मासि मासि कार्यम्। पितृनुपक्रम्य "मासि मासि वोपनम्” इति श्रुतेः। एतच श्राई चन्द्रक्षये मावास्यां प्राप्यातिथस्तम् । For Private And Personal Use Only Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २५२ श्राद्धतत्त्वम् । अपरपक्षे “यदहः सम्पद्यतेऽमावास्यान्तु विशेषण" इति निगमवचनैकवाक्यत्वात् । प्रन्यतिधावपि श्राइमाह गोभिलः । "पथ श्राइममावास्यायां पिटभ्यो दद्यात् पञ्चमीप्रभृति वा परपक्षस्य यथा श्राई सर्वस्मिन् वा द्रव्यदेशब्राह्मणसन्निधौ वा कालनियमः शतित इति”। योऽयममावास्यादिकालनियमः सशक्तस्य सव्यस्यारोगिणो बोध्यव्य इति श्राइविवेकः । तत्र चतुर्दशीवर्जनमाह मनुः । “कृष्ण पक्षे दशम्यादौ वर्जयित्वा चतुर्दशौम्। बाड़े प्रशस्तास्तिथयो यथैता न तथेतराः” । यत्तु “प्रमावास्याष्टकाकृष्णपक्षपञ्चदशौषु च” इत्यभिधाय "एतच्चानुपनीतोऽपि कुयात् सर्वेषु पर्वसु । श्राई साधारणं नाम सर्वकामफलप्रदम्। भायाविरहितोऽप्य तत् प्रवासस्थोऽपि नित्यशः। शूद्रोऽप्यमन्त्रवत् कुर्यात् भनेन विधिना बुध" ॥ इति मत्स्यपुराणम्। तवानुपनौतोऽपौत्यपि शब्देनोपनीतः समुच्चीयते। तत्रानुपनौतस्य प्रजाताग्नेकपनौतस्य च माग्नेः सम्भवात्तयोः न दर्शन विना श्रादमाहिताग्नेहिजमनः" इति मनुवचनात कृष्णपक्षीय श्रावस्यामावास्यायामेव विधानात्तदेकवाक्यतया मत्स्यपुराणे नित्यश इत्यनेनामावास्यायायनित्यत्वाभिधानं तत् साग्निपरम्। कृष्णपक्षस्य नित्यत्वाभिधानन्तु साग्निभिवस्य योग्यत्वात् तत् प्रागेव व्याख्यातम् एवमन्यानि वचनानि व्याख्येयानि। अथ मलमासे सपिण्डनोत्तरश्राद्धनिषेधः । तत्र लघुहारीतः । “सपिण्डीकरणादूई यत् किञ्चित् श्रादिकं मवेत् । इष्टं वाप्यथवा पूर्त तन्त्र कुन्निलिम्लचे” । थाइमेव श्राहिक खार्थे ठक् इति श्राइविवेकः। इष्ट यागादिपूर्त खातादि । ज्योतिषे। “रविणा लवितो मासचान्द्रः ख्यातो मलिम्बचः । तत्र यद्विहितं कर्म उत्तरे मासि कारयेत" इति। चान्द्रः For Private And Personal Use Only Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रादतत्त्वम् । २५३ शुक्लप्रतिपदादिदर्शान्तः "चान्द्रः शक्लादिदन्तिः सावनस्त्रिशतादिनः। एकराशी रविर्यावत् कालं मासः सभास्करः ॥ इति वचनात् समासो रविणा लवितस्तत्र राश्यन्तरसंयोगाभावे नातिकान्तो मलिम्लचो भवति । तथा "असंक्रान्तमासो. ऽधिमासः स्फट: स्याहिसंक्रान्तमास: क्षयाख्यः कदाचित्" इति असंक्रान्तमासो मलमासः तत्र तस्य वैशाखादित्वेन यहिहितं कत्र्तमुचितं तत् प्रकृतवैशाखादौ कर्तव्यम् । अत्र सपिण्डीकरणान्तस्य कर्तव्यत्वमाह लघुहारौतः। “असंक्रान्तेऽपि कर्त्तव्यमादिकं प्रथमं हिजैः। तत्रैव मासिकं पूर्व सपिण्डीकरणन्तथा" ॥ प्राब्दिकं सपिण्डीकरणम्। तत्रैव प्रसंक्रान्त एव रवौ। सपिण्डीकरणात् पूर्व मासिकं कर्तव्यं तथाच सपिण्डीकरणमिति पञ्चम्यर्थे प्रथमा। पूर्वपदं सपिण्डनोत्तरपार्वणाख्यमासिकश्राद्धनिषेधार्थम् । यत्तु “जातकम्मणि यत् श्राद्ध दर्शाई तथैव च। मलमासेऽपि तत् काय व्यासस्य वचनन्तथा ॥ इति तत् पिण्डपिटयज्ञाख्यश्राद्धपरम्। “इन्द्राग्नी यत्र इयेते मासादिः स प्रकीर्तितः । अग्नीसोमो मती मध्ये समाप्तो पिटसोमको ॥ तमतिक्रम्य तु रविर्यदागच्छेत् कथञ्चन । आद्यी मलिम्लचो ज्ञेयो द्वितीयः प्रकृतः स्मृतः ॥ इति लघुहारोतवचनाभ्यामेकवाक्यत्वात् । तथापि शक्लप्रतिपदि इन्द्राम्नौयागः। कृष्णप्रतिपदि अग्नीसोमयागः। एतौ दर्शपौर्णमासान्तर्गतौ पिढविशिष्टसोमदेवताकोऽग्नौ करणहोमः पिण्डपियनाङ्गभूतो दर्श विहितः । मासादिसमाप्तिकीर्तनात् शतप्रतिपदादिदर्शान्तो मासशब्दार्थः तं पिण्डपिटयज्ञाख्यथाहयुक्त माप्तमतिक्रम्य रविर्यदा गच्छद्रान्वन्तरसंयोगमियात् तदाद्यो मलिम्बुचः। द्वितीयः प्रकृतः शुद्धः कमाई इति यावत्। ततश्च एकवाक्यत्वानु २२ For Private And Personal Use Only Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २५४ वाचतत्त्वम् । 1 रोधेन मलमासेऽपि लघुहारौतवचनबोधितपिण्ड पिटयज्ञाख्यश्रमात्त्रविधायकं व्यासवचनं नत्वन्वाहाय ख्यवाहविधायक तस्य प्रागुक्तेन वच्यमाणवचनाभ्याञ्च निषेधात् प्रपञ्चितमेतमलमास तत्त्व तथाच समयप्रकाशे कुथु मिः । “संवत्सरातिरेको वै मासो यः स्यात् त्रयोदश । तस्मिंस्त्रयोदशे श्राद्धं न कुर्य्यादिन्दुसंक्षये” ॥ संवत्सर प्रदीपे । “एकराशिस्थिते सूखें यदि दर्शइयं भवेत् । दर्शश्राद्ध' तदादौ स्यात् न परच मलिम्लुचे " ॥ अथ प्रतिमासपार्वणाशक्तस्य कर्त्तव्यत्वमाह मत्स्यपुरागम् । " अनेन विधिना श्राद्ध त्रिरन्दस्येह निर्वपेत् । कन्या - कुम्भषस्थे के कृष्णपक्षेषु सर्वदा " ॥ अत्र सौरेण वाक्यम् । राश्युल्लेखेन विहितत्वात् । श्राइत्रयाशक्तस्य कन्यास्थरवौ श्राद्धं कर्त्तव्यं तथाच भविष्यपुराणम्। " हंसे वर्षासु कन्यास्थे शाकेनापि ग्टहे वसन् । पञ्चम्या उत्तरे दद्यादुभयोवंशयोऋणम् ॥ सूर्य्यं कन्यास्थिते या यो न कुखाद् गृहाश्रमौ । कुतस्तस्य धनं पुत्राः पिवनिश्वास पौड़नात् ॥ हंसे सूय्यै । ऋणमिव ऋणं पितृमालकुलस्येदमवश्यं परिशोध्यमित्यर्थः । अत्राप्यशक्तौ तुलार्के । यथा ब्रह्मपुराणम् । " यावच्च कन्यातुलयोः क्रमादास्ते दिवाकरः । तावच्छ्राहस्य कालः स्यात् शून्यं प्रेतपुरं तदा ॥ यावच्च कन्यातुलयो रविरास्ते तावच्च क्रमाच्छ्राहस्य कालः कन्यास्थार्काकरणे तुलार्के कर्त्तव्यम् । अन्यथा रविस्थितिक्रमस्य प्राप्तत्वेमाबुवादापत्तेः । तुलार्के ऽप्यमावास्यायामतिप्राशस्त्यमाह भविष्यपुराणम् । "येयं दौयान्विता राजन् ख्याता पञ्चदशौ भुवि । तस्यां दयान 'चेहत्त ं पितृणां वै महालये ॥ पञ्चदशौ अमावास्या । श्रमा बास्यामधिकृत्य "दीपमालाच कर्त्तव्याः शक्त्या देवग्टहेषु च । रथ्यापण्यश्मशानेषु नदीपर्यंतसानुषु । इति ब्रह्मपुराश्रोतः For Private And Personal Use Only Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २५५ श्राह तत्त्वम् । जानास्थानदीपदानेन दौपान्विता ख्यातायेति विशेषणाश्च । अतएव “ एकोऽथवा दौपवरः प्रदेयः" इत्यादिनोक्त विष्णुसम्प्र दानकदौपदानविहिता पौर्णमासौ न ग्राह्या । प्रथाश्वयुक् कृष्णपचे ब्रह्मपुराणम् "अश्वयुक् कृष्णपक्षे तु श्राद्धं कुर्य्याद्दिने दिने । विभागहीनं पक्ष वा विभागन्त्वईमेव वा ॥ न सन्ति पितरश्चेति कृत्वा मनसि यो नरः । श्राद्धं न कुरुते तत्र तस्य रक्त ं पिबन्ति ते” ॥ अश्वयुक् कृष्णपचे प्रोष्ठपद्यूई कृष्णपचे पत्राखयुग विनीतयुक्त पौर्णमासो सम्बन्धाज्ञचवथा मासेऽप्यश्वयुक् पदप्रयोगः ततथ निर्मन्त्रबादी भाखिने मासि कृष्णे पत्ते इत्येव स्वारसिकप्रयोगः कर्त्तव्य इति । दिने दिने तिथौ तिथों "तिथिनेकेन दिवसान्द्रमाने प्रकीर्त्तितः" इति । विष्णुधर्मोत्तरानुसारेण मासस्य चान्द्रत्वेन दिनस्यापि तथैव युक्तत्वात् पत्र यदि सकृत्करणमात्रं विधेयं तदाखयुक् कृष्णपचे इत्येवं ब्रूयात् । ततय दिन इत्यभिधानेनाश्वयुक् कृष्णपचौयतिथेर्निमित्तत्व विनिगमनाविरहेण एकदिनपदेनैव प्रतितिथिनिमित्तत्वप्राप्तौ पुनर्दिनपदं कृष्णपक्षश्राधप्रतिषिद्धचतुर्दशग्रहणार्थं वीप्सया यावतिथिलाभात् । चतएव पायात्यनिर्णयामृतकालमाधवोययोः कार्ष्णाजिमिः । " नभस्यस्यापरे पते श्राद्धं कुर्य्यात् दिने दिने । नैव नन्दादिवर्ण्यं स्वात् नैव वर्धा चतुर्दशौ ” ॥ नभस्यस्य मुख्य चान्द्रेण भाद्रस्य विवेकेऽपि दिने दिने इति वीप्सापञ्चदशश्राचार्थेत्युक्तम् । विभागहीनं षष्ठप्रादित्रिमागमेकादश्या दिव्यक्त विष्णुधर्मोत्तरे । “उत्तरादयनात् श्राद्ध श्रेष्ठ स्याद्दक्षिणायनम् । चातुर्मास्यच तत्रापि प्रसुप्ते केशवे हितम् । प्रोष्ठपद्याः परः पचस्तत्रापि च विशेषतः । पञ्चम्युच्च तत्रापि दशम्यूई - मतोऽप्यति । मघायुक्ता च तत्रापि शस्ता राजंस्त्रयोदशी” ॥ For Private And Personal Use Only Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २५६ श्राद्धतत्त्वम् । श्रई विभागस्याई' त्रयोदश्यादि । न तु पचस्थाई अष्ट म्यादि । तथात्व विभागकर ऐनाईमेव वेति नियमानुपपत्तेः । उत्तरोत्तरलघुकालोपदेशात् सानिध्याच्च यत्तु " श्राषाढ़ा - पञ्चमे पते कन्यासंस्थे दिवाकरे । यो वै श्राद्ध' नरः कुर्य्यादेकमिपि वासरे। तस्य संवत्सरं यावत् तृप्ताः स्युः पितरो ध्रुवम् ॥ नमो वाथ नभस्यो वा मलमासो यदा भवेत् । सप्तमः पिढपचः स्यादन्यत्रैव तु पञ्चमः ॥ इति नागरखण्डे एक श्रावमुक्तम् । तत् कन्या स्थर विनिमित्तकश्राचपरं प्रागुक्तहंसे वर्षाखित्यादिवचनैकवाक्यत्वात् । नत्वश्वयुक् कृष्णपक्षीयश्रावस्य सविधायकम् अईमेव वेति नियमभङ्गापत्तेः । आषाढ़वा: पञ्चमे पक्ष इति न तत्र सक्कृच्छ्राहविधायकं किन्तु कन्यास्थास्यैव तत्सम्बन्धे वर्षटप्तिविधायकम् एवञ्च मलमास भाद्रकृष्णपक्षस्य पितृपक्षत्वाभावात्तत्र मृतस्य वर्षान्तरे तत् श्राहस्वाश्वयुक् कृष्ण पञ्चपातित्वेऽपि न पार्वणविधिना कर्त्तव्यत्वम् । श्रमावास्याप्रेतपक्षान्यतरमृतस्यैव " अमावास्यां यो यस्य प्रेतपचेऽथवा पुनः । सपिण्डीकरणादूड' तस्योक्तः पार्वणो विधिः” । इति शङ्खवचनेन पार्वणविधानात् । एवं प्रेतपचादिमृतस्य पार्वणविधिना सांवत्सरिकाद्दे कृते न मातामहादिश्राद्धाय पुन: पार्वणारम्भः । “पितरो यत्र पूज्यन्ते तत्र मातामहा ध्रुवम्” इति बृहस्पतिवचनेन " मातामहानामप्येवं श्राद्धं कुय्याद्विचक्षणः " ॥ इत्यनेन च पितृश्राद्धाधौनप्रवृत्तेः । एवमविभक्तसापत्नभ्भ्रात्त्रो रेकेन पार्वणे कृतेऽपरेण मातामह श्रादाय न पुनः घावणं करणीयम् । अतएव द्वैत निर्णयेऽपि साग्निकौरसेन पितुः चयाहे पित्रादित्रिकस्य श्राद्ध कृते तत्र मातामहानां श्रावाय न पार्वणारम्भः । वाजिनवत्तस्याप्रयोजकत्वादित्युक्तम् । एवमेव मघात्त्रयोदश्यां For Private And Personal Use Only Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्राइतत्वम् । २५७ पुत्रवता पिण्डरहितचाई कृते न पिण्डानुरोधादखयुक् कृष्णपक्षीयवादान्तरकरणीयम्। अङ्गभूतपिण्डानुरोधेन श्राद्धा. सरं न कायें "प्रधामस्याक्रिया यत्र साङ्गं तत् क्रियते पुनः । तदङ्गस्याक्रियायान्तु नात्तिनं च ततक्रिया" ॥ इति छन्दोगपरिशिष्टवचनात् तेनैव प्रधाननिर्वाहात्। अथ मघावयोदशौथाइम्। पत्र प्रौष्ठपाई कृष्णनयोदश्यां मघायुक्तायामनिषिद्रव्येण श्राइमावश्यकं शङ्खादिवचने नक्षत्रयुक्ततिधिश्रुतेः। ततश्च केवलवयोदशौकेवलमघा. बाहानुवादा अपि तप्तविशिष्टविधिप्राप्तकर्मणो नित्यत्वबोधका न तु केवलविध्यन्तरकल्पनं गौरवात्। तथाच शङ्खः । "प्रौष्ठपद्यामतीतायां मघायुक्तां त्रयोदशीम्। प्राप्य श्राई हि कर्तव्य मधुना पायसेन च", अस्य नित्यत्वमाह विष्णुधर्मोत्तरम्। “पौष्ठपद्यामतीतायां तथा कृष्णा त्रयोदशी। एतांस्तु वाइकालान् वै नित्यानाह प्रजापतिः ॥ शातातपः । "पितर सहयन्त्यवमष्टकासु मघासु च। तस्मात् दद्यात् सदोदयुलो विहत्सु ब्राह्मणेषु च ॥ पत्र सदेति श्रुतेनित्यत्वं प्रतीयते । पत्रान्त्रमान श्रुतेः शवोक्त: पायसः फलातिशयार्थः । तथाच विषाधर्मोत्तरम् । “मघायुक्ता च तत्रापि शस्ता राजस्त्रयोदशी। तत्राक्षयं भवेत् श्रादं मधुना पायसेन च” ॥ एवञ्च शूद्रस्याप्यत्राधिकारः तव पुत्रवत: पिण्डनिषेधमाइ देवीपुराणम्। "भौजङ्गी तिथिमासाद्य यावञ्चन्द्राकसङ्गमः । सवापि महतो पूजा कर्तव्या पिटदैवते ॥ ऋक्षे पिण्डप्रदानन्त ज्येष्ठपुत्री विवर्जयेत् ॥ भौजङ्गों पञ्चमी चन्द्रार्कसङ्गमो. sमावास्या पिटदैवते ऋक्षे मघायां "मघायां पिण्डदानेन ज्येष्ठपुतो विनश्यति" इति वचनान्तरात् पिण्हानिषेधे विशेषमाह मातातपः। "पिण्डनिर्वापरहितं यत्त श्राई विधीयते । For Private And Personal Use Only Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २५८ वाहतत्वम्। खधावाचनलोपोऽत्र विकिरस्तु न लुप्यते। अक्षय्यदक्षिणा खस्ति सौमनस्यमधास्त्विति” । अत्राविभक्तानामपि पृथक श्राइमाह शादचिन्तामणौ सातिः। “विभक्ता अविभक्ता वा कुर्यः श्राइमदैविकम्। मघासु च तथान्यत्र नाधिकार: पृथग्विना" ॥ दैविकं प्रत्याब्दिकमेकोद्दिष्टम्। अन्यत्र कृष्ण पक्षश्राद्धादौ नाधिकारी न नित्याधिकारः। “सपिण्डौकरणान्तानि यानि श्राद्धानि षोड़शः। पृथङ् नैव सताः कुर्य्यः पृथगद्रव्या अपि क्वचित् ॥ इत्यत्रापिना समुचितस्थापृथगट्रव्यस्य पुंसः सपिण्डीकरणान्तानोति विशेषणात्तदुत्तरथा द्वानां फलातिशयाथले न पृथक्त्वमपि प्रतीयते। पत्र मज. छायायोगः फलातिशयार्थः। “नमस्य स्थापरे पक्षे मघाखिन्दुः करे रविः। यदा तदा गजच्छाया श्राद्ध पुण्यैरवाप्यते । इति स्मृते: करे इस्तानक्षत्रे कन्यादशमांशोपरि सपादत्रयोविंशतिदिनं यावत् अत्र दशदिवसे मघायुक्तत्रयोदशीसा परदिवसे मघासत्त्वेऽपि न कुञ्जरच्छायायोगः "योगो मघात्रयोदश्यां कुञ्जरच्छायसंजितः। भवेन्मधासंस्थे च शशिन्य करे स्थिते” इत्यत्र मघापदहयवैयापत्तेमघात्रयोदशीनिमित्तकश्राद्ध एव कुञ्जरच्छायस्य गुणफलत्वविधानात्। एते न पूर्वदिने मघात्रयोदशौथाई कृत्वा परदिने कुञ्जरच्छाये श्राई कार्यमिति मिश्रोतां हेयम्। अत्र कुञ्जरछायगजच्छाययोः पर्यायत्वात् मलमासे गजच्छायाप्रतिप्रसूतथाइस्य विषयत्वमिति मतं चिन्य वस्तुतोऽसम्भवान्न तथात्वमिति ध्येयम्। अथ तीर्थवादम्। अत्र शुचेः प्राप्तात्तरविहितप्रथमदिन एव श्राई तेन पूर्वदिने राचसौवेलादावागमनेऽपि परदिने श्राद्धमविरुद्धम्। तथाच हलायुधः । “गत्वैव तीर्थ कर्त्तव्यं For Private And Personal Use Only Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्राह तत्त्वम् । २५८ श्राद्धं तत् प्राप्तिहेतुकम् । पूर्वाह्णेऽप्यथवा प्रातर्देशे स्वात् पूर्वदक्षिणे” ॥ तत्तत्प्राप्तैत्रवमिति कर्त्तव्यवचनेन तीर्थप्राप्तिनिमित्तक श्राद्धाभिधानेनोक्तस्याबाधात् । श्रतस्तौर्थ प्राप्तिनिमित्तकश्राद्ध एव तत्रिवृत्तेरिति तत्त्वम् । गङ्गावाक्यावल्याम् । “संवत्सरं द्विमासोनं पुनस्तौर्थं व्रजेद यदि । मुण्डनञ्चोपवासञ्च ततो यत्नेन कारयेत्” ॥ एतेन दशमासाभ्यन्तरे पुनर्गमने मुण्डनोपवासौ न काय्याविति सूचितम् । अथाष्टका श्राम् । वायुपुराणम् । “पित्रादानाय मूले स्रष्टकास्तिस्र एव च । कृष्णपचे वरिष्ठा डि पूर्वा चैन्द्रौ विभाव्यते ॥ प्राजापत्या द्वितीया स्यात् तृतीया वैश्वदेविको । श्राद्या पूपैः सदा काय्या मांसैरन्या भवेत्तथा ॥ शाकैः कार्य्या हृतौया स्यादेष द्रव्यगतो विधिः" ॥ मूले प्रधानस्थाने श्रमावस्या हि श्राद्धस्य प्रधानकालः तद्वदिति यावत् । ऐन्द्रौ साग्नेः इन्द्रदेवताकयागसम्बन्धात् । एवं प्रजापत्या वैश्वदेविको च मांसैः पशोः । तथाच गोभिलः । " यद्युवाल्पतरसम्भारः स्यादिति पशुनैव कुर्य्यादिति” यद्युवेति निपातसमुदायो यद्यप्यर्थं पशुरपि काम एव "छागोऽनादेशे पशुः” इति गोतमात् । न च " तैष्या ऊर्द्धमष्टम्यां गौः” इति गोभिलसूत्रेण गवोपदेशात् कथमनुपदिष्टत्त्वमिति वाच्यं तदसम्भवे पशुरित्यनेन यः पशुरुपदिष्टः तस्य विशेषतोऽनुपदिष्टत्वात् वस्तुतो हरिवंशे मृगोऽपि विहितः । " च्या कुस्तु विकुक्षिं वै भ्रष्टकायामथादिशत् । मांसमानय श्रादाय मृगं हत्वा महावल " ॥ इत्यादिना मृगमांसबोधनात् । पश्वंभावे स्थालीपाकेन यथा गोभिलः । अपि वा स्थालीपाकं कुर्वीतेति” एतद्दिधानन्तु " स्थालीपाकं पशुस्थाने कुर्य्यात् यद्यानुकल्पि कम् । श्रपयेत्तं सवत्सायास्तरुण्या गोः परस्यनु" इति । " For Private And Personal Use Only Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६० बातत्वम् । छन्दोगपरिशिष्टौयं प्राधम्। अन्विति प्रोदनचरोः पश्चात् प्रतएव "पितरः स्पृहयन्त्यवमटकासु मधासु च। तस्माद्यात् सदोदयुक्तो विद्वत्सु ब्राह्मणेषु च ॥ इति शातातपेनोक्तम् । तस्मादन्नं प्रधानं पूजादिकन्तपकरणत्वेन शक्तानामावश्यक सदेति श्रवणात् । अथ मवाबादम्। शासातप: "नवोदके नवावेच गृहप्रच्छादने तथा। पितरः स्पृश्यन्त्यनमष्टकासु मधासु ध" ॥ नवोदके वर्षोपक्रमे। पार्दास्थरवाविति यावत् “पार्दीदितो विशाखान्त रविचारेण वर्षति" इति ज्योतिर्वचनात् रविचारेण रविगत्या। "प्राइटकाले समायाते रौद्र ऋक्षगते रवौ। नाडौवेधसमायोगे जलयोगं वदाम्यहम् ॥ इति रुद्रयामलाञ्च । रौद्रमाः । नवान्ने नवाबागमे पत्र नक्षत्रग्रहपौड़ासु दुष्ट स्वप्नावलोकने। इच्छाश्राद्धानि कुर्वीत नवशस्यागमे तथा” ॥ इति विष्णुपुराणाहक्ष्यमाणबहुतरवचनेषु मवानश्रुतेर्नवान्नागमत्वेनैव निमित्तत्व लाघवात्। “अमावास्यास्तिस्रोऽष्टका माघौप्रौष्ठ पार्द्ध कृष्ण त्रयोदशी व्रीहियवपाको व एतांस्तु श्राडकालान् वै नित्यानाह प्रजापतिः। श्राहमेतेवकुर्वाणो नरकं प्रतिपद्यते" ॥ इति विष्णुवचनं नवान्नागम. श्राइस्यैव व्रीहियवोभयप्राप्तिविषयकत्वेन विधायकं ग्रैमादिधान्यव्युदासाय शालिधान्यस्य तु प्राप्तिः। शरहसन्तयोः केचिनवयन्न प्रचक्षते । धान्यपाकवशादन्ये श्यामाको वनिनः स्मृतः ॥ इति छन्दोगपरिशिष्टे व्रौद्यप्राप्त्या नवशस्येष्टी शालिविधानाद् यजतुल्य न्यायात् श्राडेति तथा कल्पनात् । “चिके शक्लपक्षे तु नवानं शस्यते बुधैः । अपर क्रियमाणं हि धनु. येव कृतं भवेत् ॥ धनुषि यत् कृतं बाई मृगनेवासु रात्रिषु । पितरस्तन ग्रह्णन्ति नवाबामिषकाणिः ॥ इति वराह For Private And Personal Use Only Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रातत्त्वम् । २६१ वनो वानप्रस्थः । वचनाच्च । श्यामाको व्रौहिविशेषः । अपरे कृष्णपक्षे धनुषि धनुःस्थार्के । “पोषे चैत्र कृष्णयचे नवान ं नाचरेद् बुधः । भवेज्जन्मान्तरे रोगी पितॄणां नोपतिष्ठते ॥ इति भोजराजवचनैकवाक्यत्वात् । एवञ्च सौरपोषवत् चैत्रोऽपि सौर एवं साहचय्यात् । अत्र धनुमनपर्य्युदासात् यवश्राद्धमुख्य कालपर्यन्तं माघफाल्गुनवेशाखेष्वपि नवान्नश्राह कार्य " एवमागामियागौय मुख्यकालादधस्तनः । स्वकालादुत्तरो गौण: काल: पूर्वस्य कर्मणः । यद्वागामिक्रिया मुख्य कालस्याप्यन्तरालवत् । गौणकालत्वमिच्छन्ति केचित् प्राक्तन कर्मणि” ॥ हरिहरपsतौ तथा दर्शनात् श्रधस्तनः पूर्वतनः वृक्षवच्छास्त्रे व्यवहारः । अन्तरालवत् मध्यकालस्येव । वस्तुतस्तु उत्तरक्रिया मुख्यकालं विना उत्तरक्रियाकरणपूर्वकाल एव पूर्वक्रिया कर्त्तव्या 1 " संस्कारा श्रतिपत्येरन् स्वकालांश्चेत् कथञ्चन । हुत्वेतदेव कुर्वीत येतूपनयनादधः ॥ इति इन्दोगपरिशिष्टात् संस्कारपात तथा व्यवहारात् अतएव श्राविवेकेऽपि धनुषः पर्य्युदासामाघादाविति सामान्यत उक्तम् । एवं यवश्रामपि हरिशयनात् पूर्वं कर्त्तव्यम् । “नवानं नैव नन्दायां न च सुप्ते जनार्द्दने । न कृष्णपचे धनुषि तुलायां नैव कारयेत्” ॥ इति ज्योतिर्वचनात् न च सुप्त जनाईन इति आश्विन शुक्लपक्षेतरपरम् । श्रखिनाधिकारे “ शुक्लपक्षे नवं धान्यं पक्कं ज्ञात्वा सुशोभनम् । गच्छेत् क्षेत्रो विधानेन गौतवाद्यपुरःसरः” ॥ इत्यभिधाय “तेन देवान् पितृश्वेव तर्पयेदचयेत्तथा” इति ब्रह्मपुराणात् मृगोनेताप्रापकीयासां रात्रौणामिति व्युत्पत्त्या नक्षत्रात्रेतुरित्यनेनात् विधानात् तत्पदं सिद्धम्। ततख मृगशिरः पूर्वाईन हचिकशेषे रात्रप्रारम्भात् चत्वारिंशद्दण्डा For Private And Personal Use Only Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ९६२ श्रावतत्त्वम् । धिकावशिष्टषड्रावयो मृगनेवा इति । तथोक्त ज्योमिषे । " ज्येष्ठाशेषाईगे सूर्य्ये मृगनेवानिशात्मके । नवान्त्रैर्भोजनं श्राद्ध जन्मचन्द्रे तिथौ न च " ॥ पत्र जन्मतिथिनिषेधात् तथा जन्मचतारं सितवासरमिति जन्मक्षं निषेधाञ्च "नन्दायां भार्गवदिने त्रयोदश्यां विजन्मनि" इत्यन विजन्मपदं जम्म तिथिनचवत्रिकपरं परवचने विजन्मान्वित इत्यत्रापि तथा । " सूखे चैष विशाखगे स्मरतिथौ पापे विजमान्विते । नन्दामन्दमहोजकाष्यदिवसे पौषे मधौ कार्त्तिके ॥ भेषुग्राहि शिवेषु विष्णुशयने कृष्णे शशिन्यष्टमे । श्राद्ध भोजनक नवानविहितं पुत्रार्थनांशप्रदम् ॥ सूख चैव विशाखगे मार्गभौर्षस्य विंशतिदण्डाधिक प्रथमदिनश्यावस्थिते सूर्ये । खारतिथी त्रयोदश्यां पाषे पञ्चमतारावये नन्दा प्रतिपत् षष्ठौ एकादशौ मन्दः शनिः महोजो मङ्गलः काव्यः शक्रः उग्रगणः पूर्वात्रयमघा भरण्यः परिशेषा शिव भाद्र । भोजराजः । "ब्रह्मा विष्णुवृहस्पती शशधरो मार्त्तण्डपौष्यादितौ । मैत्रे चित्रबिशाखवायुधनभे मूलाविवह्नौ तथा ॥ शक्रे वारुण ऋचके शुभदिने याचं नवं शस्यते । मन्दा भार्गव भूमिजेषु म भवेत् श्राद्धं नवान्रोद्भवम्” ॥ ब्रह्मादयः रोहिणी श्रवण पुष्य मृगशिरो हस्त रेवती पुनर्वसु अनुराधा चित्रा विशाखा खातौ धनिष्ठा मूलाविनो कृत्तिका ज्येष्ठा शतभिषाः । नवात्रया मूला कृत्तिका ज्येष्ठा विधानात्तच्छेषभक्षण प्राप्ते “ अश्लेषा कृत्तिका ज्येष्ठा मूला अपदकेषु च । भृगु भौमदिनै रिक्ततिथौ नाद्यावदनम् ॥ इति श्राद्धशेषाभोजमात्रपरम् पदं पूर्वभाद्रपदाः । " चन्द्रताराद्यण्डौ प्रतौकारमाह देवलः । " की कुय्यात् फलावा चन्द्रादिशोभने बुधः । सुस्थकालेत्विदं नवें नार्त्तः For Private And Personal Use Only Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बादतत्त्वम् । कालमपेक्षते ॥ चन्द्रे च शङ्ख लवणच तारे तिधावभद्रे सिततण्डलांश्च । धान्यञ्च दद्यात् करणक्षवार योगे तिलान् हेममणिञ्च लग्ने" ॥ ऋक्षमविहितमक्षन' राजमार्तण्डे ताराभेदात् लवणपरिमाणमाह “एकत्रिपञ्चसप्तविजाय दद्यात् पलानि लवणस्यं । क्रमशो जनानि विपदि प्रत्यरिमरणाख्या नारकासु ॥ पलन्तु लौकिकर्मानैः साष्टरत्तिहिमासकम् । तोलकत्रितयं ज्ञेयं ज्योतिः स्मृतिसम्मतम् ॥ वामन पुरा. रणञ्च विष्ठयोव्यतिपाताच येऽन्येदुर्नीतिसम्भवाः। ते नाम स्मरणाविष्णोर्नाशं यान्ति महात्मन:” ॥ विष्णुधर्मोत्तरे। *सर्वाशुभानां परिमोक्षकारि संपूजनं देववरस्य विष्णोः” इति। ब्रह्मपुराणे। "प्राश्नीयात् दधिसंयुक्तं नवं विप्राभिमन्त्रितम्"। अभिमन्वितं “मन्त्रदेनाशे गायत्री" इति वच. नाहायचा इति। स्मृतिः । गृहीत्वा ब्राहाणानुजां सदधि प्राशयेनवम्। पत्र बौद्धभावे शालिना नतनाभावे पुरातनेन अपि प्राचादिकमाइ भट्टभाष्ये मुनिः। “महमेघौ व्रीहियवाभ्यां शरवसन्तयोयनेत्। श्यामाकैर्वनी वर्षासु आपत्कल्के अन्येन पुरातनैति" एहमेधौति मधुमेधाहिंसयोः मध. सङ्गमे चित्यत्र चकारेण पूर्वगणस्थ मेधासियोरनुत्तेः तेन मेसिार्थः तेन टहनिमित्तेन जाताया: “पञ्चसूना एहस्थस्य खुल्लौपेषल्युपस्करः। कण्डनी चोदकुम्भव बध्यते याच वाइयन्"। इति मनताया: पञ्चसूनारूपहिंसाया: कारौग्रहमेधोग्रस्थ वृत्यर्थः। सूदयन्ति प्राणेवियोजयन्तीति सूना प्राणिवधखानानि दुल्लीपाकस्थानं पेषणीदृशदुपलादिः उपस्करः ग्रहसम्मार्जन्यादि कण्ड नौ मूषलोदूखलादि याच एताः सूना बाहयन् व स्व कार्य योजयन् बध्यते पापनसम्बध्यते इत्यर्थः । नाचिन्तामणावस्येवम्। प्रेतमातापिटकस्य पुरातनधान्यात For Private And Personal Use Only Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६४ थाहतत्वम् । लाभे नवेनैव वैखदेवं कृत्वा नवञ्च ब्राह्मणेभ्यो दत्त्वा ब्राह्मणानुन्नां यहोवा भोजनादिकं कर्त्तव्यमाह रेणुकाचार्यनव्यवई. मानधृता स्मृतिः । “दत्त्वैवं ब्राह्मणेभ्यश्च हुत्वा वा वैश्वदेविकम् । अन्योनवान्नमश्नौयादिति बौधायनोऽब्रवीत् ॥ अन्यः श्राद्धकरणासमर्थः श्राद्यानधिकारौ च अतएव विधवया नवमेको द्दिष्टे दीयते भुज्यते चेति। . अथ पौर्णमासीत्राधम् । “विष्णुधर्मोत्तरे पौर्णमासी तया माघौ श्रावणौ च नरोत्तम । प्रौष्ठपद्यामतीतायां तथा कृष्णा बयोदशौ ॥ एतांस्तु भाइ कालान् वै नित्यानाह प्रजापतिः"। प्रौष्ठ पार्द्ध कृष्णा त्रयोदशौ मघायुक्तव पूर्वोक्तवचनात् । अन्यथा विध्यन्तरकल्पनायत्तः । अथ श्राइवेला। ब्रह्मपुराणम् । “पूर्वा माटकं श्राद्धमपराले तु पैटकम्। एकोद्दिष्ट न्तु मध्याहे प्रातहदिनिमितकम् ॥ मारकमबष्ट काथाद्धं यथा शङ्खः। "पिनादिवि. कपत्नौषु भोज्यामातुः प्रति द्विजाः । स्त्रीणामेव तु तद् यस्यामाटाइमिहोचते" ॥ एतच्चान्वष्टकाबाई साग्निमात्रेण कर्तव्यं तथा च विष्णुः । अन्वष्ट काष्वष्टकावदग्नौ हुत्वा मात्र पितामो प्रपितामो पूर्ववत् ब्राह्मणान् भोजयित्वेति” । अत्र होमत्वादेवाग्निप्राप्तेरग्निग्रहणं तनियमार्थम् । न चाग्नौ करणहोमे विप्रपाण्यादेविधानादवापि तथेति वाथं प्रकृती. भूतबाइविध्युक्तस्याधारान्तरस्य विकृतीभूतश्राद्दे विशेषविहि. ताधारण वाधात् शरमयवर्हिषा कुशमयवहिर्वाधवत् । न वा लौकिकाग्नौ होमः। “न पैत्रजियो होमो लौकिकाग्नौ विधीयते' इति मनुवचनेन निषेधात्। श्राइचिन्तामणावस्वम्। "अपराहे तु पैलकम्इति अन्वष्टका शुक्लपक्ष: विहितपार्वणेतरपार्वणसपिण्डीकरणपरम्। पलपक्षस्य पूर्वा For Private And Personal Use Only Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रावतत्त्वम् । २६५ । श्राद्धं कुर्य्याद्विचक्षणः । कृष्णपक्षापराह्णे तु रौहिणन्तु न लङ्घयेत्” ॥ इति वायुपुराणात् । श्रत्र शुक्लपक्षस्येति श्रङ्गाङ्गि भावबोधकषष्ठीनिर्देशात् शुक्लपक्षत्वमात्रेण यद्दिहितं माघपौर्णमास्यादिपार्वणश्राद्धं तदेव पूर्वाह्णे कर्त्तव्यम् । श्रतएव कृष्णपचत्वेन विहिताविहितपार्वणयोरविशेषेणापराह्न कर्त्तव्य: त्वात् । कृष्णपचे षष्ठोनिर्देशो न कृतः । अतो मृताहविहितपार्वणसपिण्डीकरणायोः शुक्लपचकृष्णपक्षयोरविशेषेणैवापराह्न कर्त्तव्यता । अत्र पूर्वाह्नपदं सङ्गवपरम् । " प्रातःकालो मुहतांस्त्रीन् सङ्गवस्तावदेव तु । मध्याह्नस्त्रिमुहर्त्तः स्यादपराह्णस्ततः परम् ॥ सायाह्नः स्त्रिमुहत्तेः स्याच्छ्राद्धं तत्र न कारयेत् । राक्षसौ नाम सा वेला गर्हिता सर्वकर्मसु ॥ इति मत्स्यपुराणवचने मध्याह्नापेक्षया परकालस्यापराह्नत्ववत् तत् पूर्वकालस्यैव सङ्गवापरनाम्नः पूर्वाह्नत्वप्रतीतेः अतएव ब्रह्मपुराणेन मत्स्य विष्णुपुराणोक्तप्रातः कालादिभेदेन वृयादिश्रावमुक्तम् अत्रापि सङ्गवमनभिधाय यत् पूर्वाह्न इत्युक्तं तत् सङ्गवपरम् अत्र पूर्वाह्न श्राद्धमभिधाय रोहिणन्तु न लङ्घयेदित्यभिधानेन पूर्वाह्रश्राद्धस्य सङ्गवात् परो रोहिणपर्यन्तगौण पूर्वाह्न काल: प्रतीयते । तेन रौहिणः पूर्वाहृश्राहस्य गौणकालत्वेनोत्तरावधिः अपराह्न श्राह्नस्य पूर्वावधिरित्यवगम्यते । ततश्च पूर्वदिने सङ्गवात् परं रौहिणपय्र्यन्तं तिथेर्लाभे परदिने मुहर्त्तत्रयमात्रे तत्तिथिलाभे पूर्वदिने श्राद्धं रोहिणान्तरूपगौणपूर्वाह्लाभात् न परदिने तथात्वाभावात् ! उभयदिने सङ्गवलाभे परदिने शुक्लपचे तिथिर्ब्राह्मेति वचनात् । रोहिणन्तु दिवसस्य नवममुहूर्त्तस्तस्य ज्योतिषोक्तरोहिणीदेवतत्वात् रौहिणत्वमिति । एवञ्च "ऊई मुहर्त्तात् कुतपात् यन्मुहर्त्तचतुष्टयम् । मुहर्त्त पञ्चकं वापि स्वधाभवन मिष्यते” ॥ इति मत्स्यपुराणे आप २३ For Private And Personal Use Only • Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६६ थाहतत्वम् । राहिकवाडे “अहो मुहर्ता विख्याता दशपञ्च च सर्वदा। तत्राष्टमो मुहर्तों यः स काल: कुलपः स्मृतः” ॥ इनि तहचनान्तरोक्त कुतवस्य पञ्चमत्वेनाभिधानं तद्रौहिणादपि गोणापराह्न कालपरम्। न च ऊर्द्ध मुहर्तात् कुतपान्मुहलपञ्चकमिति बयोदशमुहर्तात्मकं नारायणोपाध्यायोक्तं युक्तमिति वाच्यम्। “अपराहे तु संप्राप्ते अभिजिद्रोहिणोदये। यदन दीयते जन्तीस्तदक्षयमुदाहृतम् ॥ इति मत्स्यपुराणविरोधात तस्मान्मुहर्तपञ्चकमित्वव कुतपादिति ल्यवलोफे पञ्चमी तेन कुतपमारभ्येत्यर्थः । अपराहे तु संप्राप्त इत्यत्र अभिजि. द्रोहिणोदये अष्टमनवममुहर्तयोरुदयाचलसम्बन्धे यौणापराहकालरूपे यहीयते तदक्षयमित्यर्थः एतत् प्रशंसनं “रात्री बाव न कुर्वोत राक्षसी कौतिता हिसा। सध्ययोरुभयो. चैव सूर्ये चैवाचिरोहिते पनि मनापर्युदस्ते तरकालापेक्षया न तु मुख्यापराहापेक्षया मुहर्तचतुष्टयं मुहर्तपक्षक अत्यन बाशब्देनानयोhणकालवाभिधानात् । ततश्च रानादिपय्युदस्तरकाल कुतपादिमुहर्तपञ्चकरोहिणादि-मुहतंचतुष्टय-दशमादमुहर्तवयरूपकालचतुष्टयमापराविकचाई विहितप्रशस्त-प्रशस्त तर-प्रशस्ततमत्वेन बोध्यम् । अक्षयादिफलश्रुतेः । एवमन्यस्मिन् पूर्वाह्वादिविहिते श्राद्ध यथायथं बोध्यम् । अत्र चतिथिविशेषविहितबाहानामुभयदिवसीयमुख्य काले तत्ततिथिलाभे आपरालिकवादस्य पूर्वतिथौ कर्तव्यता “ययास्त सविता याति पितरस्तामुपासते। तिथिन्तेभ्योऽपराहो हि खयं दत्तः स्वयम्भवा" ॥ इति गृह्यपरिशिष्ट्रवचने अपराहो दत्त इति हेतुन्निगदेनास्तगामितिथित्व न पितृणामुपास्यवाभिधानात् । उभयदिनमुख्यकालालामे तु परदिने गौणापराहलामात् तत्रैव श्राद्ध आपरालिकेतराई तूमयदिने For Private And Personal Use Only Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रावसत्त्वम् । प्रात्यप्राप्त्योः शलपक्षकष्णपक्षभेदेन व्यवस्था। “शुक्लपक्षे तिथिर्णाधा यस्यामधुदितो रविः। कृष्णपक्षे तिथिर्गाद्या यस्वामस्तमितो रविः”। इति विष्णुधर्मोत्तरात्। “हितीधादिकयुग्मानां पूज्यता नियमादिषु । एकोद्दिष्टादिवयादी जासहधादिचोदना" ॥ इति व्यासनिगमवचनाच नियमादिषु व्रतादिदैवक्त्येषु एकोद्दिष्टादिद्यादौ एकोद्दिष्टादित्राहनिमित्तीभूततिधिविशेषस्य वृद्यादौ वृद्यादावित्यादिशब्दात् क्षवस्तम्भितत्वे ग्राह्य तथात्वं च श्राद्धकरणस्य सन्देहे पूर्वी. कानुसारेण ह्रासब्रह्मादिचोदनाहासादिविधायको नियामक इति यावत् अत्र हासहद्धी चन्द्रस्य ताभ्यां शतकृष्णपक्षी लक्ष्येते शुक्लपचे तिथिोत्यादि पूर्ववचनैकवाक्यत्वात् प्रादिशब्दन ययास्तमित्युक्त सूर्यास्तसम्बन्धितिथिरिति। एवञ्च “हाहन्तु व्यापिनी चेत् स्यान्मृताहस्य तु या तिथिः । पूर्वस्यां निर्वपेत् पिण्ड मित्याङ्गिरसभाषितम् इति। सुमन्तुवचने मृततिथेरुभयदिने ग्राहकालव्यापित्वं पक्षभेदमनात्य यत् पूर्वदिने श्राविधानं तन्मताहविहितपावणमपिण्डीकरणो. भयत्राइपरं ययास्तमित्येकवाक्यत्वात् नवेकोहिष्टविषयम् । एकोद्दिष्टादिद्यादावित्यु सवचनविरोधात् “एकोद्दिष्टन्तु मध्याः " इति प्रागुतवचनविरोधाश्च । मध्यात विशेषमा कालमाधवौये व्यासः। “कुतपप्रथमभागे एकोद्दिष्टमुपक्रमत्। पावर्तनसमौपे वा तत्रैव नियतात्मवान् ॥ पावर्तनं पश्चिमदिगवस्थितच्छायाया: पूर्वदिग्ममनारभकालः तमोपे कुतपशेषदण्डे गीतमः । “भारभ्य कुतप बाई कुर्यादारोहिणं बुधः । विधितो विधिमास्थाय रौहिणन्तु न लङ्घयेत्” इति ॥ एतद्वचनद्वयं भुजबलभीमे भोजदेवेन धृतम्। वेन पूर्वदिवसीय कुतपरौहिणयोस्तत्त For Private And Personal Use Only Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६८ वाहतत्त्वम् । तिथेाभे परत कुतपमालाभे शक्लपक्षेऽपि पूर्वदिने एकोद्दिष्टम् उमयप्रात्यनुरोधात्। पूर्वदिने कुतपालाभे परत तलाभे कृष्णपक्षेऽपि परदिन एव समाप्तिकालादारम्मकालस्य बल. वत्त्वात् । तथाच बौधायनः। “यो यस्य विहितः कालः कर्मणस्तदुपक्रमे। तिथिर्याभिमता सा तु कार्यानोपक्रमो. जिमता ॥ अतएव मदनपारिजाते लोकाक्षिः। "गणि. ताज्ज्ञायते कालो यत्न तिष्ठन्ति देवताः। वरमेकाहुतिः काले नाकाले लक्षकोटयः” । उभयत्र कुतपमानालाभे शक्लपक्षेऽषि पूर्वदिने समाप्तिकालानुरोधात् पूर्वदिने रौहिणालाभे परत्र सप्तममुहर्तलामे कृष्णपक्षेऽपि परदिने मध्याहानुरोधात्। ग्रहणादौ रानावपि सानाहादिकमाह देवलः । “राहुदर्शनसंक्रान्तिविवाहात्ययवृद्विषु । सानदानादिकं कुर्युनिशिकाम्यव्रतेषु च” ॥ आदिशब्दः थाहादिपरः "स्नानं दानं तपः श्राश्रमनन्तं राहुदर्शने। पासुरी राविरन्यत्र तस्मात्तां परिवर्जयेत् ॥ इति यमवचने तथा समभिव्याहारात्। __ अथामावास्याचाहकालः । तत्र छन्दोगपरिशिष्टम् पिण्डावाहार्यकं श्राई क्षौणे राजनि शस्यते । वासरस्य रतीयांश नातिसध्यासमोपतः" ॥ पिण्डान्बाहार्यकमिति "ततः प्रभृति पितरः पिण्डसंज्ञान्तु लेभिरे" इति मत्यपुराणात् पिण्डानां पितृणाम् अन्वाहायं मासैकढप्तिजनकं यत्तथा। तथाच मनुः। "पिण्डानां मासिकं बाइमन्वाहार्य विदुर्बुधाः । राजनि चन्द्र शस्यत इत्यनेन कचिञ्चन्द्रक्षयाभावेऽपि श्राई सूचितम् एतादृग् व्युत्पत्तेः साग्निनिरग्निसाधारणत्वन वक्ष्यमाणकात्यायनोकरीत्या सोणा स्तम्भिता वईमानाभेदः साधारणः वासरस्य रतीयांश विधाविभक्तास्य दिनस्य रतौयभागेनातिसन्ध्यासमोपत प्रति सध्यासमोपमुहर्त प्रापद्यपि वर्ज For Private And Personal Use Only Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir याइतत्वम् । मौय इत्यर्थः । तेन राक्षसौवेलायामपि मुहत्तहयमनुज्ञातम् प्रतिशब्दस्वरसात् अतएव हारीतः “त्रिमुहर्तापि कर्तव्या पूर्वा दर्शा च बह चैः” इति तेन पूर्वदिने मुहूर्त्तत्रयमावलाभे परदिने वासरतीयांशालाभे पूर्वदिन एव श्राहम्। दर्श हैधे कुत्र बाई तनाह छन्दोगपरिशिष्टे कात्यायनः । “यदा चतुर्दशौयामं तुरीयमनुपूरयेत् । अमावास्या क्षीयमाणा तदैव श्राइमिष्यते ॥ चतुर्दशौयाममिति चतुर्दशौसम्बन्धिदिनयामं तहिनस्यामावास्यासम्बन्धेऽपि चतुदशीनिर्देशोऽधिकेन व्यपदेशा भवन्तौति न्यायात् तेन चतुर्दशौसम्बन्धिदिनस्य चतुर्थप्रहरं कृत्स्नं किञ्चिन्य नं वा अमावास्यानुपूरयेत् व्याप्नोति प्रहरत्रयव्यापिनोकिञ्चिदधिकप्रहरत्रयव्यापिनी वा चतुर्दशीत्ववगम्यते। ततश्चोभयवासगैयतीयांशसम्बन्धिपञ्चधा विभलापराह्रोयैकादशहादशमुहर्तयोः “व्रतोपवासनियमे घटिकैका यदा भवेत्। सा तिथिः सकला या पित्रर्थे चापरालिको" ॥ इति भविथपुराणात् मुहर्त्तान्यनदर्शलाभे वैधं नत्वेकदिनमात्रे सल्लाभे। पत्र वासरस्य रतीयांश इत्यनेनैव इंधानुदयात् एवं वैधे पूर्वदिनचतुर्दश्यपेक्षया परदिने प्रमावास्था क्षोयमाणा न्यून कालव्यापिनी न तु पूर्वापरदिवसीययावञ्चतुर्दश्यपेक्षयाऽनुपस्थितेः। एवं स्तम्भिता वर्द्धमानयो. रपि तदैव पूर्वदिन एव पत्र चन्द्रक्षयश्चतुर्दश्यष्टमयामात् प्रभृत्यमावास्यासप्तमयामपर्यन्तमिति वक्ष्यते । ततश्चन्द्रक्षयानुरोधात् पूर्वदिने बाई तदैवेत्येवकारेण तिथिधे खण्डविशेषो नियम्यते कर्मणि खण्डान्तरव्युदासाय एवञ्च यत्र पूर्वापरदिने वासरतीयांशीयमुख्यापराह्ने मुहर्ती न दर्शलाभस्तत्रापि पूर्वदिने श्राद्धं वासरटतीयांशचन्द्रक्षयातिशब्दस्वरसात् त्रिमुहपौत्यनुरोधाच्च । यत्र तु पूर्वदिने त्रिमुहर्तमानव्यापिन्यमा For Private And Personal Use Only Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २.७० श्रातखम् । वास्या परदिने च वासरतृतीयांश मुहर्त्तव्यापिनो सतौ चौयमाणा तत्र परदिने चन्द्रक्ष्याभावेऽपि मुख्यापराहृलाभात् श्राद्धम् अन्यथा “यटा चतुर्दशौयामं तुरौयमनुपूरयेत्” इति विशेषाभिधानं व्यर्थं स्यात् अथ यत्र पूर्वाहे श्राइं तत्र "यद हस्त्वेव चन्द्रमा न दृश्येत ताममावास्यां कुर्वीत" इति गोभिलविरोधः । तथाविधचतुर्दशौयुक्तामावास्यायाः सिनो - बालीत्वेन प्रातञ्चन्द्रदर्शनात् । तत्राह स एव “ यदुक्त यदहस्त्वदेव दर्शनं नैति चन्द्रमाः । तत्त्यापेक्षया ज्ञेयं चौणे राजनि चेत्यपि । यदहस्त्व व चन्द्रमा न दृश्येत ताममावास्यां कुर्वीत " इति यगोभिलसूत्र तच्चन्द्रक्षयाभिप्रायकम् अन्यथा गोभिलोय तामसूत्रान्तरेण सह पौनरुक्त्यापत्तेः तस्मात् प्रथमसूत्र कुहपरं तच्च वर्द्धमानापचे नियतं क्षौणास्तम्भि तयोस्तु यथायोग्य मनुसरणीयम् एवच्च " यदस्वव चन्द्रमा न दृश्यत ताममावास्यां कुर्वीत” इति श्रुतिरेतत् समानार्थकं त्यन्तरं वा तदपि वर्द्धमानादिपरं न तु कात्यायनवचनात्तत्र क्षयलक्षणा कल्पतरुप्रभृतिभिरुक्ता युक्ता । “ श्रुतिस्मृतिविरोधे तु श्रुतिरेव गरौयसौ” इति विरोधात् । चौग इति कात्यायनेन मया यत् क्षौणे राजनीत्युक्त ं तदपि चन्द्रचयाभिप्रायम् “अथैवं दृश्यमानेऽप्येकदा " इति गोभिल सूत्रान्तरं व्यर्थं यदहस्त्वेवेत्यादिद्दितीयसूत्रप्राप्ततिथेः सिनौवालौत्वेनैव चन्द्रदर्शनप्राप्तिरित्यत आह स एव "यञ्चोक्तं दृश्यमानेऽपि तच्चतुर्दश्यपेक्षया । श्रमावास्यां प्रतीच्येत तदन्ते वापि निर्वपेत् ॥ दृश्यमानेऽध्येकदेति यदुक्तं तच्चतुर्दश्यां श्रादाय पूर्वसूत्रममावास्यापदोपादानाञ्चन्द्रक्षये सत्यमावास्याविषयम् । इदं पुनरित्यम्भूतचतुर्दशौविषयमिति श्राविवेकः तत् किममावास्या - वत् चतुर्दशीत्यत आह । श्रमावास्यां प्रतौच्यतेति उभय For Private And Personal Use Only Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्राह तत्त्वम् । २०१ तिथिप्राप्तौ श्राद्धायामावास्या प्रतीक्षणौया यत्र पूर्वदिने दिवा साईमुहूर्त्तमाचेऽमावास्या परदिने च साईदशम मुहर्त्तमात्र अमावास्या अत्र चोभयदिने श्राद्धयोग्यामावास्या न प्राप्यते तत्र चतुर्दश्यान्ते निर्वपेत् दद्यात् अत्रैव विषये साग्निनिरग्न्योविशेषमाह कालमाधवौये जावालिः । " अपराहृदयाव्यापी यदि दर्शस्तिथितये । आहिताग्नेः सिनौवाली निरग्न्यादेः कुहर्मता” | आदिपदादनुपनौतशूद्रयोर्ग्रहणम् । चयकालमाह कात्यायनः । " अष्टमेऽशे चतुर्दश्याः चोणो भवति चन्द्रमाः । श्रमावास्याष्टमांशे च ततः किल भवेदणुः " ॥ चतुदेश्यष्टमे यामे चन्द्रमाः क्षीणश्चतुर्थभागोन कलावशिष्टो भवति अत्रेन्टुराद्ये प्रहरेऽवतिष्ठते इत्यादिखरसात् अमावास्यष्टमे यामे चाणुर्भवति पुनरुत्पद्यते किलेल्यागमवार्त्तायां तेनामावास्या सप्तमया मे कृत्स्नक्षय इत्यवगम्यते ततश्चान्त्यकलावयवनाशोत्पत्तिरेव चयः सा च सूक्ष्मतायां विनाशेऽप्यस्तीति श्राद्धविवेकः । उत्पत्तिराद्यच सम्बन्धः तेन विनाशस्थानन्तत्वेपि नातिव्याप्तिः । अत्र विशेषमाह स एव " आग्रहा यण्यमावास्या तथा ज्यैष्ठस्य या भवेत् । विशेषमाभ्यां ब्रुवते चन्द्रचारविदो जनाः” । श्रभ्यामिति व्यव्लोपे पञ्चमौ इमे प्राप्येत्यर्थः । चन्द्रचारविदो ज्योतिर्विदः । अत्र पौर्णमास्य न्तमास इति परिशिष्टप्रकाशः । अत्र बोज ब्रह्मपुराणौयतिथिकृत्यत्वं तथा च श्राद्धमधिकृत्य ब्रह्मपुराणम् । “पयोमूलफलैः शाके : कृष्णपक्षे च सर्वदा । तत्र कृष्णपक्षे चतुदशौव्यतिरिक्तायां यस्यां कस्याचित्तियों श्रावविधानादमावास्यापि लभ्यत इत्यत्र को विशेष इत्यत्राह स एव "अत्रेन्दुराधे प्रहरेऽवतिष्ठते चतुर्थभागोनकलावशिष्टः । तदन्त एव चयमेति कृत्स्नमेव ज्योतिश्चक्रविदो वदन्ति” ॥ अत्र मास - For Private And Personal Use Only Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 2७ श्रादतत्त्वम् । ये चतुर्थभागोन कलावशिष्टः चतुर्थभागोना या कला तथाषष्टिः कलाभागत्त्रयमात्रः सम्राद्यप्रहरे इन्दुवतिष्ठते अर्थाचतुर्द्दश्यष्टमयामे न क्षयारम्भ इति तदन्त एवामावास्यान्तयाम एव कृत्स्नं चयमेति अन्यत्रामावास्या सप्तमयाम इति विशेष: तेन मार्गशीर्ष ज्येष्ठयोरुभयदिने चन्द्र क्षयलाभे यद्यपि यदा चतुर्दशीयाममिति वचनात् पूर्वदिन एव प्राप्नोति तथापि तद्वचनं चन्द्रचयानुरोधमूलमिति कत्वचयानुरोधात् क्षोणायामपि परत्वापराहलाभे श्राइं अन्यथैतविशेषाभिधान व्यर्थ स्यात् । तत्रापि विशेषान्तरमाह स एव " यस्मिन्दे द्वादशैकश्च यव्यस्तस्मिन् तृतीयया परिदृश्योनोपजायेत" ॥ यव्यो मासः । तृतौयया मात्रया चतुर्थभागोन कलया परिदृश्यचन्द्रो न भवति किन्तु तदधिक न्यूनकलयेति तेन मलमाससंयुताब्दे अन्यमासवदनयोरपि चतुर्दश्यन्तयामादिदर्शसप्तमयामपर्य्यन्तं चय इति मलमासयुताब्दस्तु एकस्मान्मलमासादब्दद्दयानन्तर तृतीयाब्दे मलमासस्यावश्यम्भावादिति चन्द्रक्षयानुरुडम् । क्षौणापचमुपसंहरति स एव " एवं चार चन्द्रमसो विदित्वा क्षौणे तस्मिन्नपराह्णे च दद्यात्" । एवं चार' गतिविशेषम् । स्तम्भितायां विशेषमाह स एव " संमिश्रा या चतुद्दश्या अमावास्या भवेत् क्वचित् । खर्वितां तां विदुः केचिदुपेध्वमिति चापरे" ॥ क्षोणायाः पूर्वमुक्तत्वाद्दईमानायाश्च वक्ष्यमाणत्वादस्य स्तम्भितापरत्वम् । खवितां नीचां पितृलोकप्रापणानहम्। केचित् यजुर्वेदिनः अपरे ऋग्व दिन: तामेवोपेध्वम् उपगच्छत श्राधायेतिशेषः । उपेध्वमित्यत्र गताध्वमिति पाठे गतः प्राप्तः पितृलोकप्रापणायैव अध्वा अनयेति गताध्वां प्रशस्तामित्यर्थः तस्मात् छन्दोगा उभयानुरोधादिच्छात उभयादर' कुर्वन्तौति कात्यायनखरसः । व्यक्त For Private And Personal Use Only Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाहतत्वम् २७३ माइ लघुडारोत: 'त्रिमुहतापि कर्तव्या पूर्वा दर्शा च वढचैः) कुहरध्वर्युभिः कार्या यथेष्टं सामगोतिभिः । अत्र त्रिमुह त्यपादानात् स्तम्भितायो पूर्वदिने त्रिमुहर्तमावलामेऽपि वहचानां श्राद्धं न मुख्यापराहनाभादपि परदिने। सामगानां तत्राप्य नियतः एतादृग्विषय एवीभयत्रापराहालाभऽपौयं व्यवस्थेति बाधिवेकः । मुख्यापराह्नस्यै कदिनलामेऽप्युभयदिनालामात् वईमानायो व्यवस्थामाह स एव । “वर्षमानाममावास्यां लक्षयेदपरेऽहनि । यामां स्त्रीनधिक्षान् वापि पिटयज्ञस्ततो भवेत् ॥ यामा स्त्रौनिति पूर्वदिवसीययामनयन्यूनचतुर्दश्यपेक्षया प्रथैवं वासरहतीयांशानुरोधेन श्राइविधानात् कथममावास्याबारे पयंदस्त तरकालपरिग्रहः सत्यं तिथिवैधे क्षौपादिभेदेन खण्डविशेषपरिग्रहाय वासरतीयांशापेक्षा अन्यथोभय दिने वासरटरीयांशाप्राप्तौ श्राइलोपापत्त: प्रागुक्तनिरग्न्यादेः कुछ. मंतेत्यस्य निर्विषयतापत्तेश्च प्रतः पय॑दस्तरकालस्यापि परिग्रहः। यदा तु पूर्वापरखण्डयोरन्यतरस्यैव परिग्रहः तदा यथायोग्यं सत्रैव सायाङ्गमुहर्तहयपदस्तेतरकाल कुतपादिमुहर्तपञ्चकरौहिणादि-मुहर्तचतुष्टयवासरतीयांशौयापगलमुहर्तहय कालपञ्चको यथाक्रममापसामान्य प्रशस्त प्रशस्त तर. प्रशस्ततमत्वेन ज्ञेयः । एतविस्तारस्तु तिथितत्त्वे । मलमासपर्युदासविचारौ तु मलमासतवंऽप्यनुसन्धेयाविति। प्रथैकोद्दिष्टवाइविचारः। तत्र गोभिलः। “प्रथैकोद्दिष्टमेकं पवित्रमेकोऽध्य एकः पिण्डो नावाहनं नाग्नौ करणं नाव विश्वेदेवाः। स्वदितमिति बप्तिपत्रः मुखदिमिति प्रत्युत्तरम्। उपतिष्ठतामित्यक्षय्य स्थाने अमिरम्यतामिति विसर्गोऽभिरतोऽस्मोति प्रतिवचनमेतत्प्रेतबाइमिति” ॥ अथेत्याने For Private And Personal Use Only Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रादतत्त्वम् । नै कोद्दिष्टस्य पार्वणानन्ताभिधानं तयोः प्रतिवितित्व सूचयति। अतएवैकोहिष्टे पार्वणधर्मप्राप्त्यावाहनादिप्राप्ती नावाहनमित्यादिनिषेध उपपद्यते अन्यथा प्रात्यभावान्निषेधोऽनुपपन्नः स्यात् एतत् प्रेतश्राइमित्युपसंहारात् एकं प्रेतमुहिश्य यहीयते श्राद्धं तदेकोद्दिष्टमिति वैदिकप्रयोगाधोनयौगिकम् अतएव प्रतिसांवत्सरिकस्य नैकोहिष्टत्व किन्ले कोहिष्टविधिकत्वम् अंबाध्य क्याविदलरूपसङ्केतितपवित्रकाप्राप्तौ एक पवित्रमिति पुनरभिधानसार्थकवाय तदवयवैकदलपरम् । पान्योत्पवनप्रकरणे “तत एव धर्हिषः प्रादेशमा पवित्र कुरुते" इति गोभिलसूत्र पवित्रपदस्थ दलपरत्ववत्। न च तत्रापि साङ्केतितहिदल पवित्र हयपरं प्रादेशमाने इति विशेषणबैयर्थ्यात् "अनन्तगर्भिणं साग्रं कौशं हिंदलमेव च। प्रादेशमान विजेयं पवित्र यत्र कुत्रचित्” इति सङ्केतादेव तजामात् दल. लक्षणा तु “पवित्रो वैष्णवाविति विष्णोमनसापूर्तस्थः" इति मन्त्रयोईिवचनोपपत्तये। एवञ्च छन्दोगपरिशिष्टेन यहिशिष्टहिदले पवित्रपट सङ्केत्य भाज्यस्योत्यवनाथ यत्तदप्ये. तावदेव द्विदले त्यनेन प्रागुक्त गोभिलसूत्रोतकदलपवित्रयोरकपवित्राभिधानं तत् देवस्त्वा सवितोत्पुनावच्छिद्रेण पवित्रेण" इत्यादिमन्वस्थ पवित्रेण इत्यादोकवचनोपपत्तये। अब नावाहनं नाग्नीकरणमिति निषेधयोः पौर्वापयादग्नीकरणपूर्वकालोनं प्रधानसम्बन्धि श्रादसूत्रोद्दिष्ट थाहावाहनमेव निषिध्यते नत्वप्रधान-सम्बन्धि पिट-यनवदित्यतिदेशप्राप्त पिण्डार्थावानमिति एतेन पिण्डावाहननिषेधो मैथिलोलो हेयः। अवाग्नीकरणानषेधेन हुतशेषस्यालामे हुतशेषं दत्त्वा पात्रमालभ्य जपति प्रथिवौत्यादि स्वाहा इत्यन्त सूचोलपावालम्भनस्यापि वाधः प्रानन्तयाभावात् अमृतमिति मन्वलिङ्ग For Private And Personal Use Only Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir साइतत्त्वम् । ३७५ विरोधाच्च। स्वदितमिति तिप्रश्न इति बप्ता:स्थ इति हप्तिप्रश्ने स्वदितमिति प्रश्नः। कुशमय ब्राह्मणपक्षे तु प्रतिवचनानु. पपत्त्या प्रश्नस्थापि निहत्तिः अक्षय्यशब्दस्थाने उपतिष्ठतामिति प्रयोगः अत्रीपतिष्ठतामित्यनेनानादिकमित्यस्यान्वये अस्वित्य. स्यान्वयानुपपत्त्या तस्याप्यप्रयोगः। अतएव पिटदयितायामन्नादिकमुपतिष्ठतामिति लिखितम् । ततश्च “प्रेतायाक्षय्य. मस्तु” इति। ब्रह्मपुराणौयं "ततो वदेत् पुनर्धीमानक्षय्यमुपतिष्ठताम्" इति मार्कण्डेयपुराणौयच गोभिलविरुदलात् शाख्यन्तरीयम्। पभिरम्यतामिति वाजे वाजे इति स्थान भिरम्यतामित्यनेन विसर्जनमिनि एतेन "प्रेतबाधेषु सर्वेषु न खधा नाभिरम्यताम्। वस्त्यस्तु विसृजे देवं सत् प्रगावबर्जितम्” ॥ इत्याखलायनश्यपरिशिष्टात् एकोहिष्ट प्रणवबर्जितखस्त्वित्यनेन यविसर्जनं तत्प्रेतयाविषयम् अभिरम्यता. मिति तु सांवत्सरिकविषयमिति कल्पतरुश्रीदत्तवाचस्पतिमिश्राद्युक्त निरस्तम्। वहचानाभव पार्वणेऽभिरम्यतामिति विसर्जनस्य प्राप्तत्वादेकोद्दिष्टेऽपि तथा त्वात् सर्वशाखिसाधारणनिषेधानुपपत्तेश्च । एतदिति पूर्वोचोति कर्तव्यताकश्रावमित्यर्थः। प्रेतबाधं प्रेतब्य पाच न तु पार्वण विशतित्वेन प्राप्तपिटलोकरूपपितुः श्राहम् प्रकृतसपिण्डीकरणस्य तथाविधपिटत्वाभावात् प्रतएवैतन्यायमूलकमेवाखलायनगृह्यप. रिशिष्टेऽपि “पिलशब्द न युजीत प्रिटहा चोपजायते" इत्यु तम् अतएव विष्णुना "प्रेतस्य नाम गोत्राभ्यां दत्ताक्षय्योदकेषु । इत्यत्र प्रेतनामगोत्राभ्यामित्यनेन प्रेतस्येत्यु न तु सम्बन्धिन इत्युक्त ततस मन्बे प्राप्तपिटलोकोपाधिक एक पिटपदस्थाने प्रेतपदोहो न तु अग्निखात्तायुपाधिके एव. मभिलापवाक्येऽपि सम्बन्धित्वेन नोल्लेखः किन्तु प्रेतत्वेन For Private And Personal Use Only Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्राद्धतत्वम् । पसम्बन्धिनोऽपि मठब्राह्मणादेरपि प्रेतवाडाधिकारित्वात् । पतएव शातातपेनापि “प्रेतान्तनामगोवाभ्यमुत्सृजेदुपतिष्ठ. बाम्" इत्युक्तम् पत्र प्रेतस्यान्तः प्रेतान्तो न तु सम्बन्धिवाचकस्यान्तः न वा मैथिलोतो बहुब्रोहिस्तस्य तत्पुरुषापेक्षया जघन्यत्वात् प्रेतपदस्य सम्बन्धिस्थानीयखेन तत्पुरुषस्यैव युक्तात्वाच। ततश्च प्रेतान्त नाम च गोत्रञ्च इति इन्दः अतएव तर्पणे विष्णुः प्रपश्च सर्वे शवस्पर्शिनो गत्वा पिटपदस्थाने प्रेतपदोहेन हितोयान्तं तर्पयेयुः पित्तशब्दोच्चारणे पिता भवति" इति एतेषां वचनानां न्यायमूलकत्वात् सांवत्सरिकखाद्धे एकोद्दिष्टविकतीभूतेऽपि प्राप्तपिवलोकोपाधिकपिटपदवन्मन्बेऽभिन्लापे च सम्बन्धिबोधकपिटनेनैवोल्लेखः । एवञ्च देवताभ्यः पिटभ्यो त्यत्र न प्रेतपदोहः पिपदस्य दिव्यपिटपरत्वात एवं नैकवचनोहोपि तथा मधुधौरस्तु नः पितेत्यस्य द्यौः स्वर्गः पिता पितेव सर्वस्याधिगम्यत्वात् मध्वस्तु मधुमयो भवविति भाग्थव्याख्याने। द्यौरिति पितेति पदयोः सामा. नाधिकरण्य प्रतीयले अत्र च द्युत्वपिटत्वयोर्भदेऽपि सामा. नाधिकरण्येनाभेदावगमात् दिवः पिळसाधर्म्यप्राप्तिरिति पिटप्रदं पिटतुल्यपरं न तु जनकपरं प्राप्तपितृलोकपरं वेति तेन पत्र मन्त्रे पितेत्येव वक्तव्यं न तु प्रेतपदोह: न वा पितृशब्द न युनीतेत्यनेन निषेधः एवमामावेति मन्त्रे पितरेत्यत्र नोहः यदाहं श्राई करोमि तदा मातरपितरावागच्छतामित्यनुवजन क्रियमाणे श्राइफलस्य प्रार्थनौयत्वात् एवं वृद्धियाईऽव्येतेषु नान्दौमुखविशेषणं न देयमेवेति भन्यत्र सर्वत्रोत्सर्गवाक्ये मन्त्रे च पितृपदप्रयोगनिषेधात् प्रेतपदोहः कार्यः । अकोद्दिष्टे गोभिलानुक्त निषेधोऽभिधीयते। यथा विष्णुः । *एकवमन्त्रानहेतैकोद्दिष्टे” इति एकवत् एकवचनवदयाथ For Private And Personal Use Only Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २७७ शादतत्त्वम् । स्यात्तथोहेत अपूर्वोत्प्रेक्षणमूह इत्युक्तेन पूर्वाप्राप्तैकवचनान्तरत्वकल्पने बहुवचनान्तामन्चानविकतान् कुर्यात् एकस्मिन् पितरि बहुवचनस्यासमवेतार्थत्वात् प्रतावर्थप्रकाशनाख्यदृष्टप्रयोजनकस्य मन्त्रस्य विकृती बहुवचनस्थाने एकवचनोहः कर्तव्य इति न्यायमूलमिदं वचनम्। यथा पविवेस्थो वैष्णव्यावित्यत्र पवित्रासि वैषणवौति न चात्र पवित्रमसि वैष्णव्य इति पिदयितोक्तं युक्त पवित्रेस्थो वैष्णव्याविति मन्त्रस्य है पवित्रे युवां विष्णुदेवताके स्थः भवथः स्त्रीलिङ्गत्व छान्दसमिति सायनाचार्यव्याख्याने गुणविष्णुनापि तथा व्याख्याने सम्बधन्तता प्रतीतेः एवं विष्णोर्मनसा पूर्तस्थ इत्यवापि पूतमसौति। अत्र पितरो मादयध्वं यथा भागमावृषायध्वम्" इति मन्त्रे पत्र प्रेत मादयस्व यथा भागमाषायस्खेत्यूह्यम् । प्रार्थनार्थकटतौयलकारौयमध्यमपुरुषबहुवचनस्थाने तदेकवचनस्यैव ऊहत्वात् न तु भूतार्थ कचतुर्थल कारौयमावृषायथा इत्यनिरुद्धमट्टोक्तो युक्तः पतएव श्रीदत्वादिभिरपि मादयखेत्यताम् भमौमदन्त पितर इत्यत्रामीमदत् प्रेतेति वृषायिषतेत्यत्र वृषायिष्टेति एतपितर इत्यादि पिण्डावाहनमन्ले एहि प्रेतेति सौम्यास इत्यत्र सौम्येति दत्तास्मभ्यमित्यत्र देवस्मभ्यमिति नियच्छतेत्यत्र नियच्छति नमोव इत्यादि मन्वेषु पितर इति स्थानचतुष्टये प्रेतत्यू ह्यम् । एवं व इत्यत्र ते इति पाशीः प्रार्थने येभ्य इत्यत्र यस्मै इति तेषामित्यत्र तस्ये त्यह्यम्। एतहः पितर इत्यत्र तु प्रेता इति विकृतावहोनतु बहुवचनस्य "एतहः पितरो वास इति जल्पने पृथक् पृथक्” इति ब्रह्मपुराणेन प्रकतावेव पार्वणे पित्रादिषु प्रत्येकमेतहः पितर इति बहुवचनान्तमन्त्रप्रयोगात् अत्रानर्थक्येन तहिकतावेकोद्दिष्टेऽप्यसमवेतार्थ बहुवचनस्यैव युक्त वात् ततश्च प्रकृती समवेतार्थ २४ For Private And Personal Use Only Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७८ वाहतत्वम् । स्यैव विकतावूहः सांवत्सरिकेत्वेकवचनस्यैवोहो न तु पि. पदस्य तत्र प्राप्तपिटलोकत्वेन तस्यैव युक्तात्वात्। स्मतिः । "प्रेतश्राद्धे यदुच्छिष्ट ग्रहे पर्युषितञ्च यत्। दम्पत्यो ता. शेषञ्च न भुञ्जौत कदाचन ॥ उच्छिष्ट' पाकपात्रेऽवशिष्य ग्रहे उपरागे पर्युषित स्थित दम्पत्योराश्रमवामिनोभॊजनानन्तरं पाकस्थाल्यामवशिष्टमिति श्राइचिन्तामणिः। यत्तु देवलवचनम् “एकोद्दिष्टस्य शेषन्तु ब्राह्मणेभ्यः समुत्सृजेत् । पश्चात् स्वयञ्च भुजीत पुनर्मङ्गलभोजनम्" इति तस्यै कोद्दिष्टशेष ब्राह्मणेभ्यः समुत्सृजत् नत्ववशेषयेत् पुनर्मङ्गलभोजन पाकान्तरकतान भुञ्जौतेत्यन्वयः। अथाशौचान्तद्वितीयदिन आद्य शाहात् पूर्वक्त्यमाइ देवलः । 'अघाहः सु निवृत्तेषु सुनाताः कृतमङ्गलाः । प्राशुथादिप्रमुयन्ते ब्राह्मणान् स्वस्तिवाच्य च” मङ्गल खचाखोताशाक्युदक गोहिरण्यादिस्पर्शः जलादिस्पर्शमाह मनुः । विप्रःशुद्धेयदपः स्पृष्ट्वा क्षत्रियो वाहनायुधम्। वैश्यः प्रतोदं रश्मोन वा यष्टिं शूद्रः कतक्रियः। अशौचकालोत्तरं कृतम्रान इति मिताक्षरा प्रवाघाहः सु निहत्तेष्वित्यनेन एकादशाहादेरशीचान्त द्वितीयाहत्व सूचितम्। सुनाता इत्यादिना विप्रः शुद्देवदपः स्पृष्ट्वेत्यादिना च यथाशक्तिसमुच्चय विकल्पास्यां तत्तत्करणेन वैदिककमाईतेति। प्राद्यश्राद्धकालमाह याज्ञवल्काः । "मृताहनि तु कर्त्तव्यं प्रतिमासन्तु वत्मरम्। प्रति संवत्सरञ्चैवमाद्यमेकादशेऽहनि"। एकादशेऽहनौति स्वस्वा शौचान्तद्वितीयदिनोपलक्षणम् । "क्षत्रादिः सूतकान्ते तु भोजयेदयुजो द्विजान्” इति मन्मा. पुराणैकवाक्यत्वात्। प्राद्य षोडशचाद्धानामादिभूतम् । तथा च छन्दोगपरिशिष्टम्। भाइमम्निमतः कुर्यात् दाहा For Private And Personal Use Only Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आइतवम् । २७८ देकादशेऽहनि। ध्रुवाणि तु प्रकुर्वीत प्रमौताहनि सर्वदा । हादशप्रतिमास्यानि प्राय पाण्मासिके तथा। सपिण्डौकरपञ्चैव इत्येतत् श्राइषोड़शम् । एकाहेन तु षण्मासा यदा स्युरपि वा निभिः। न्यूनाः संवत्सराश्चैव स्यातां पाण्मासिके तदा" ॥ अग्निमतः श्रोताग्निमतो दाहादेकादशेऽहनि बाई कर्तव्यं तस्य दाहावधिदशाहाशौचित्वात् । अन्येषान्तु मरणावधि। तथाच शङ्खः । “मरणादेव कर्त्तव्यं संयोगो यस्य नाग्निना। दाहादूई मशीचं स्याद् यस्य वैतानिको विधिः ॥ वैतानिकः श्रौतो होमः तस्मादग्निपदं श्रौताग्निपरम् । ततश्च केवलम्माग्निमतो निरग्नेश मरणादेवाशौचम्। ध्रवाणि एतानि षोड़शवाहानि नित्यानि सर्वदा मृतधनालाभेऽपि प्रमौताहनि मृततिथौ। आद्यश्राइषाण्मासिकाइहयेतरपाहाणि कार्याणि । पायथावस्यै कादशाहे विधानात् पाण्मा. सिकयोस्तु कालान्तरविधानात् अत्राशौचान्तहितौयदिवसौयात्राइप्यादिभवत्वसमाख्यानुरोधेन तदुत्तरकर्त्तव्यमासिकतिधर्मतिथित्वानुपपत्या तत् सजातीयत्वमेव प्रतीयते। तेन प्रथममृतिथिं विहायान्यमृततिथिमादाय मासिकादिसिद्धिरिति। एवञ्च एकाहेन तु षण्मासान्यना इत्यनेन मृततिथि पूर्वतिथिः प्रतीयते। एवं विभिरित्यत्रापि तथा संवत्मरस्याप्येकाहादिन्यूने पत्र संवसरकर्त्तव्यस्थापि पाण्मासिकत्वं हितौयषण्मासभवत्वाबानुपपनम् । संवत्सराभिधानन्वादिमध्याधिमासयुक्ताप्रथमाब्दस्य हादशमासा: संवत्सरः क्वचित् बयोदशमासाः संवत्सर इति अत्यनुसारण त्रयोदशमासघटितत्वात् त्रयोदशमास एव हितौयषाण्मासिककरणाय काल: सप्तममासकर्त्तव्यस्य पाण्मासिकत्व “षष्ट्या तु दिवसैर्मासः कथितो वादरायणैः” इत्यनेनाविरुद्धम् । ननु षोडशश्राद्धगणने For Private And Personal Use Only Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८० थाहतत्त्वम् । हादशमासिकत्वमुक्तं कथं मलमासयुताब्दे त्रयोदशमासिकत्वमिति चेन्न “संवत्सरस्य मध्ये तु यदि स्यादधिमासकः। तदा त्रयोदशवाई कार्य तदधिकं भवेब” ॥ इति सत्यव्रतवच. नेन हादशमासिकादधिकं त्रयोदशमासिकं बाइमित्योः । एतहचनं न्यायमूलकम् एवं मृताहनि प्रतिमासं श्राई कुयात् “मृताहनि तु कर्त्तव्यं प्रतिमासन्तु वत्सरम्” इति वचनहयेन पूवोक्त श्रुतिप्राप्तत्रयोदशमासात्मकं संवत्सरं व्याप्य मृततिथेर्मततिथिं यावच्चान्द्र इत्युक्त तत् प्रतिमासकर्तव्यमासिकानुरोधेन तत्पक्षोय तत्तत्तिथिषु बाई बोधयता इति अर्थापत्त्या वैशाखादिमृतस्यान्त्यमासिकं तमासौय तत्पक्षीय तत्तत्तिथिषु कर्तव्यमिति बोधनात् मध्येऽधिमासपाते हादशे मासि मृतमासौयतिथ्यप्राप्त्या वर्षान्तविहितस्य मासिकस्य सपिण्डनस्य चाप्राप्तः। एवमाद्याधिमासेऽपि अतएवाद्याब्देअधिमासपातेऽपि लघुहारीतेन हादशमासे यहादशमासिकमित्युक्लं तदन्त्याधिमासविषयम्। अव हादशमासे मृतमासौय तत्तत्तिथिप्राप्तेः। यथा लघुहारौत: "प्रत्यब्द हादशे मासि कार्यो पिण्डक्रिया हिजैः । क्वचित्रयोदशेऽपि स्यादाद्यं मुत्वा तु वत्सरम् ॥ चक्रवत् परिवर्तेत सूर्यः कालवशाद यतः । अत: सांवत्सरं श्राई कर्त्तव्यं मासचिह्नितम् ॥ मासचिजन्तु कर्तव्यं पौषमाघाद्यमेव हि। यतस्तत्र विधानेन मास: स परिकीर्तितः॥ असंक्रान्तेऽपि कर्त्तव्यमाब्दिकं प्रथमं विजः । तथैव मासिकं पूर्व सपिण्डीकरणन्तथा । गर्भ वाईषिकत्ये च मृतानां पिण्ड कर्मम् । सपिण्डोकरणे चैव नाधिमासं विदुर्बुधाः ॥ सपिण्डीकरणादूच यत् किञ्चित् श्रादिकं भवेत् । इष्टं वाप्यथवा पूर्त तन्न कुन्निलिम्बुचे" ॥ पिण्डक्रिया सांवत्सरिकथाई कचिन्मलमासयुताब्दे चायवार्षिकन्तु न For Private And Personal Use Only Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आपतत्त्वम्। २८१ अयोदशे मासि किन्तु हादशे मासौत्यर्थः । ननु "यस्मिनाशिगते भानो विपत्ति यान्ति मानवाः। तेषां तवैव कर्तव्या पिण्डदानोदकक्रिया" ॥ इति सत्यव्रतेन सौरमासविशेषचिड़ितमताई थाई विहितम्। ततश्च त्रयोदशे मासि तत्करणे मृताह एव थाई न कृतं स्यादित्याह चक्रवदिति राशिचक्ने चक्रवत् परिधमन् सूर्यो गतेमन्दत्वामन्दत्वाभ्यां कदाचिदेकराशिभोगसमाप्तावपि मृततिथिं न स्मृति तिथिइयं वा एकराशौ स्पृशति यदा न स्पृथति तदा श्राइलोपः स्थात् यदा चोभयं स्मुथति तदा संशयः स्यादत: सौरमासचिह्नितं श्राई न कर्त्तव्य किन्तु मुख्यचान्द्रमासचिह्नितं कर्त्तव्यम् । तथाच लघुहारोतः। “इन्द्राग्नी यत्र हयेते मासादिः स प्रकीर्तितः। अग्नीषोमो स्मृती मध्ये समाप्तौ पिटसोमको ॥ तमतिक्रम्य तु यदा रविर्गच्छेत् कदाचन । आद्यो मलिम्लुचो ज्ञेयो दितीयः प्रातः स्मृतः ॥ तस्मिंश्च प्रकते मासि कुर्यात् श्राच यथाविधि। तथैवाभ्युदयं कार्य नित्यमेकं हि सर्वदा ॥ शुक्ल प्रतिपदौन्द्राग्नियागः कृष्णप्रतिपद्यग्नीषोमयागः। अमावास्यायां पिटसोमयागः। एतेषां प्रमाणं मलमासतत्त्वेऽनुसन्धेयम्। अनादिमध्यसमाप्तिकोत्तनात् शुक्ल प्रतिपदादिदर्शान्त एव मासपदस्य शक्तिः प्रतीयते । ततश्च तथाविधं मासमभिधाय चक्रवदित्यभिधानेन सौरे दोषं प्रदश्यं दर्शान्त एव मासि सांवत्सरिकं कार्यमित्य तं तत्रैकस्यास्तिहित्वलोपयोरभावात्। तत्र दर्शान्तस्यानकत्वात् कुत्र श्राइमित्यनध्यवसाये मासविशेषचिह्नितमाह पौषमाघाद्यमिति स पौषादिः कीदृक् तस्य चान्द्रे वा कथं शक्तिरित्यत आह यतस्तत्र विधानेनेति विधानेन श्रुत्यादिना। तथाच श्रुतिः “सा वैशाखस्यामावास्या या रोहिण्या सम्ब For Private And Personal Use Only Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८२ श्रादतत्वम् । ध्यते” इति पत्र वृषराशिभोग्यरोपिणीनक्षत्रयुतामावास्या वैशाखस्येति प्रतिपादयन्तौ श्रुतिः चान्द्र एव शक्ति बोधयति सौरे वैशाखे तदसम्भवात् तथाहि मूर्याचन्द्रमसोयः परः सनिकर्षः सामावास्या" इति गोभिलाञ्चन्द्राकयोस्कराश्यवस्थानममावास्येति वृहस्थरवावेव रोहिणीयुक्त वैशाखस्यामावास्यासम्भवात् सत्यचिन्तामणौ व्यासः। “मौनादिस्थो रविवैषामारम्भप्रथमक्षणे। भवेत्तेऽब्दे चान्द्रमासाश्चैवाद्याः हादशस्मृताः ॥ येषां शक्लप्रतिपदादिदन्तिानाम् पारम्भप्रथमक्षणे आद्यकतिरूपस्यारम्भस्याद्यसमये मौनमेषादिस्थो रविभवेत् अब्दे वर्षे त एव शुक्लप्रतिपदादिदर्शान्ताश्चान्द्रमासाचैत्रवैशाखाद्यसंन्नकाः हादशमासाः स्मृताः हादशेति न पुनमलमासेऽपि संज्ञान्तरं किन्तु हिचैत्रादिरिति। तथाच ज्योतिषे “मिथुनस्थो यदा भानुरमावास्याइयं स्व शेत् । हिरापाढ़ः स विज्ञेयो विष्णुः स्वपिति कर्कटे” ॥ वयोदशा अपि हादशसंज्ञका इति व्यासेनौपदेशिको शुक्लादिमासे चैत्रादेः शक्तिरभिहितेति । अतएव श्राइविवेके मौनादिस्थरविप्रारब्धशुक्ल प्रतिपदादिदन्तिक्षेत्रादिरिति। एवञ्च "असंक्रान्तमासो. ऽधिमासः स्फुटः स्यात् हिसंक्रान्तमासः क्षयाख्यः कदाचित् । क्षयःकार्तिकादिवये नान्यदा स्यात्तदा वर्षमध्येऽधिमासहयं स्यात्” इति ज्योतिःशास्त्रोक्तक्षयमासे व्यासोतलक्षणसङ्गतिमलमासतत्त्वेऽनुसन्धेया। असंक्रान्त इति असंक्रान्ते मलमासे प्राब्दिकं प्रथकं सपिण्डौकरणं सपिण्डौकरणमिति पञ्चम्यर्थे प्रथमा। सपिण्डीकरणात् पूर्व मासिकं प्रेतस्य कार्य न तु सपिण्डीकरणात् परं प्राप्तपिटलोकस्य प्रतिमासविहितं पार्वणं कर्तव्यं गर्भे गर्भवत्ये पुंसवनादौ वाईषिकत्ये वैश्यस्य गोभिलायुक्त पिण्ड कर्मप्रेतपिण्डदानं पुनः सपिण्डीकरणग्रहणं For Private And Personal Use Only Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाहतत्त्वम् । २८३ मलमासेऽपि मपिण्डीकरणापकर्षार्थ वाडमेव श्राद्धिक स्वार्थ ठक् यत् किञ्चिदित्यनेन पावणादिसकलाइनिषेधः । सामान्यतो निषेधेऽपि मघात्राहादेः प्रतिप्रसवमाह माधवाचार्य तो व्यासः । “जातकमान्त्यकमाणि नवाई तथैव च । मधात्रयोदशौथाई साधान्यपि च षोड़श चन्द्रसूर्यग्रहे सानं थाई दानं तथा जपः। कार्याणि मलमासेऽपि नित्यनैमित्तिकं तथा” इति। जातकमान्त्यकम्माणि जातकम्मानप्राशननाम करणानि मुख्यकालकर्तव्यानि । अन्यथा “नामा. नप्राशनं चौड़ विवाहं मौजिबन्धनम्। निष्क मं जात. कमापि काम्यं वृषविसर्जनम् ॥ अस्त गते गुरौ शुक्र बाले वृद्ध मलिम्लचे। उपायनमुपारम्भं व्रतानां नैव कारयेत्” । इति गर्गवचनविरोध: स्यात् अतएव "नामाबजातकर्माणि यथाकालं समाचरेत्। अतिपाते तु कुर्वीत प्रशस्त मासि पुण्यदे" ॥ इति गर्गवचनान्तरं सङ्गच्छते। वृषोत्सर्गे काम्येति विशेषणात् “प्रशौचान्तहितीयेऽनि यस्य नोत्मज्यते वृषः । पिशाचत्वं ध्रवं तस्य दत्तैः श्राद्धशतैरपि ॥ इति मैथिलतवचनबोधिताशौचान्तात् हितोयदिनविहितबषोत्सर्गः कार्य इत्यर्थः । इष्टमग्निहोत्रादि पूर्त खातादि। तथाच जातूकर्णः “वापौकूपतड़ागादिदेवतायतनानि च। अन्नप्रदानमारामा: पूर्तमित्यभिधीयते ॥ अग्निहोत्रं तपः सत्यं वेदानां चानुपालनम्। आतिथ्यं वैखदेवश्च इष्टमित्यभिधीयते ॥ नित्यमेकं हि सर्वदेति नित्यमेक केवलं नित्यम् अहरहः क्रियमाणं श्राईन नित्यनैमित्तिकं पार्वणवाहादि अतएव नित्यस्य नित्यनैमित्तिकस्य च भेदमाह मार्कण्डेयपुराणम्। “नित्य नैमित्तिकञ्चैव नित्यनैमित्तिकं तथा। ग्राहस्थस्य च यत्कर्म तबिधामय पुत्रक ॥ पञ्चयज्ञाश्रितं नित्यं यदेतत् कथितं For Private And Personal Use Only Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८४ वाहतत्त्वम् । हिज। नैमित्तिकं तथाप्यन्यत् पुत्रजन्म क्रियादिकम् । नित्यमैमित्तिकं ज्ञेयं पर्वाचादिपण्डितैः ॥ सर्वदा मलमासे प्रकृतमासेऽपि। श्राद्यथा ति कर्त्तव्यतायां वराहपुराणम्। “पासनं चोपकल्पेत मन्त्रेण विधिपूर्वकम्”। मन्त्रस्तु “अत्रासने देवराजाभ्यनुज्ञातो विधाम्यतां हिजवयानुग्रहाय प्रसादये त्वासनं गपूतं ज्ञानाग्निपूर्तन करेण विप्र” इति तथा “प्रावरणार्थञ्च तेच्छन ब्राह्मणाय प्रदीयते। पश्चादुपानही दद्यात् पादस्पर्शकरे शुभे ॥ सन्तप्तबालुकां भूमिमसिकण्टाकितां तथा। सन्तारयति दुर्माणि प्रेतं दददुपानही॥ तिलोपचारं कृत्वा तु विप्रस्य नियतात्मनः । नामगोत्रमुदाहृत्य प्रेताय तदनन्तरम् ॥ शीघ्रमावाहयेद्भमि दवर्भहस्तोऽथ भूतले" ॥ तच्छत्रप्रेताय दत्तच्छत्र प्रदीयते उत्तराप्रतिपत्तिः क्रियते। प्रेतमित्यस्य तु दददित्यभिसम्बन्धात् सम्प्रदानत्वेऽपि सन्तारयतौति सम्बधेन कतैव। “अपादानं सम्प्रदानं तथाधिकरणं पुनः । करणं कर्म कर्ता च इयोर्योगे परं भवेत्” इत्युक्तेः। भूमौति पृथिव्याः सम्बोधनम्। मन्वस्तु “इहलोकं परित्यज्य गतोऽसि परमां गतिम्” इति प्रयच्च स्त्री थाऽविकत एव पठनीयः एवमावाहिते गन्धपुष्पादौनि समर्पयेत्। गन्धमन्त्रस्तु। “सर्व: सुगन्धः” इति। पुष्यमन्त्रस्तु। "श्रियादेव्या” इति । धूपमन्त्रस्तु। वनस्पतिरस इत्यादि इदच्च गन्धादिसमर्पणं प्रेताय गन्धादिदानानन्तरं ब्राह्मणे कार्य लघुहारोतः। “सपिण्डौकरणं यावत् प्रेताचानि षोड़श। पक्वान्नेनैव कार्याणि सामिषेण हिजातिभि: । वृहस्पतिः। “वस्त्रालङ्कारशय्याचं पितुर्यहाहनायुधम्। गन्धपुष्य ः समभ्यर्थ श्राइभीक निवेदयेत् । भोजनञ्चाने कविधि कारयेाजनानि च” । जाबालिः । For Private And Personal Use Only Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - यादतत्त्वम् । २८१ "पियनन्तु निवर्त्य मासिके श्राद्ध एव तु। श्राद्ध प्रतिरुची चैव मातापित्रोम ताइनि। असपिण्डोकतं प्रेतमेकोद्दिष्टेन तर्पयेत् ॥ पियन पितर्पणं निवत्वं क्रियमाणे श्राई हरहः क्रियमाण इत्यर्थः । तेनाम्बुघटबारे मृताहविहित मासिके तथा विशिष्टतीर्थद्रव्यादिप्राप्तौ प्रेतबादकरणे छायां मातापित्रोम तानि च असपिण्डोक्त प्रेतमेकोद्दिष्टेन तर्पयेत्। षोड़शवाहानां यत् पतित कृष्ण कादश्यां तत् कर्तव्यम् । तथा च महारोत: “श्राद्धविघ्न समुत्पन्ने मृताहाऽविदिते तथा। एकादश्यां प्रकुर्वीत कृष्णपक्षे विशेषतः”। विशेषत इत्यमावास्या पेक्षया तथा अपि विघ्नादौ विधानात्। यथा हेमाद्रिकृत षट्त्रिंशन्मत “मासिके चाब्दिके त्वनि संग्राप्त मृतसूतके । वदन्ति शुद्धी तत् कार्य दर्श चापि विचक्षणैः” । राजमार्तण्डे । “श्राइविघ्ने समुत्पन्ने अन्तरामृतसूतके । एकादश्यां प्रकुर्वीत कृष्णपक्षे विशेषतः। श्राद्धविघ्ने समुत्पन्ने मृतस्याविदिते तथा। अमावास्यां प्रकुर्वीत वदन्त्य के मनोषिणः। अत्र मृतसूतकोपादानात् ऋष्यशृङ्गवचनेऽशौचपदमेतत् परम् । यत्त्वन्तरामृतसूतकेऽप्येकादश्यां श्राद्धविधानं तत् “देये पिटणां श्राद्धे तु अशौचं जायते यदि। तदशौचव्यतीते तु तेषां श्राई विधीयते। शुचौभूतेन दातव्यं या तिथिः प्रतिपद्यते। सा तिथिस्तस्य कर्त्तव्या नत्वन्यावै अदाचन" ॥ इति ऋष्यशृङ्गवचनविरोधात् अशौचान्तदिने मलमासादिरूप विघ्नान्तरेण तदकरणे वोध्यम् । अतएव थाइविवेके अपाटवाद्य शौचाभ्यामपि पतितमेकोद्दिष्टमकादश्यामशौचान्ते च मलमासे न कर्तव्य किन्तु मलमासाव्याप्त कृष्णकादश्यामवेत्युक्तम् । यत्तु “जातकम्मणि यच्छ्राद्धं नव For Private And Personal Use Only Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्राईतत्त्वम् । श्राई तथैव च। प्रातसंवत्सर श्राई मलमासे पि तत् स्मृतम् । प्रति संवत्सर श्राहमशौचात् पतितन्तु यत् मलमासेऽपि तत् कार्यमिति भागुरिभाषितम्” इति ज्योतिवचनद्वयं तत्र पूर्ववचनशेषाईस्य "असंक्रान्तेऽपि कर्तव्यमाब्दिक प्रथमं हिजैः” इति लघुहारौत वचनैकवाक्यतयान्याधिमासविषयत्वात् । "मलमासमतानान्तु श्राई यत् प्रतिवमरम्। मलमासेऽपि कर्तव्यं नान्येषान्तु कदाचन” इति कालमाधवौयवत पैठौनसिवचनस्य मलमासमृतविषयत्वाञ्च परवचनेऽपि तदुभय पाहस्वाशौचपतितस्य मलमासाम्यरे कर्तव्यतोक्ता न तु तद्भिवस्य अनुपस्थितस्य तस्य च राजमार्तण्डे नैकादश्यां कर्तव्यतोतः मृताहाविदितेऽपि 'अविज्ञातमृते अमावास्यायां श्रवण दिवसे वा” इति प्रचेतोवचनोक्तामावास्यापेक्षया विशेषत इत्यनेन कोकादश्या: प्राधान्य प्रतीयते मृतशब्दोऽत्र मृताहपरः अनिधितमरणस्यौई देहिकाभावादिति श्राइविवेकः मृताहनौत्येव सूत्रे पाठो मैथिलपाश्चात्यदाक्षिणात्यानाम् अत्रामावास्यायामिति गमनमाससम्बन्धिन्यां "प्रवासवासरे जेयं तम्मा सेन्दुक्षयेथव” इति स्मरणादिति मिताक्षरा एतच्च मृतदिनमासयोरज्ञाने वक्ष्यमाण वृहस्पतिवचनात्। मृतमासे जाते मरणदिनाजाने तु तदीयामावास्यायां तथा च हेमाद्रिकालादर्शनिर्णयामृत नव्यवईमानतानि वचनानि। वृहस्पति: “न ज्ञायते मृताहश्चेत् प्रोषिते संस्थिते सति। मासश्वेत् प्रतिविज्ञातस्तद्द” स्यान्मृताहनि। मृताहनौत्यत्र यत् कर्तव्यमिति शेषः। प्रोषित इत्यनानकारणोपलक्षणम् । मासाज्ञाने तिथि ज्ञाने तु स एव “यदि मासो न विज्ञातो विज्ञात दिनमेव च। तदामार्गशिरे मासि माघे वा तहिनं भवेत्। कालादर्शनिर्णयामृतयोर्मार्गशिर इत्यत्राषाढ़क For Private And Personal Use Only Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८७ वाहतत्त्वम् । रति पाठः। भविष्यपुराणम् । “दिन मेव तु जानाति मासं नैव तु यो नरः। मार्गशीर्षे तथा भाटे माघे वा तद्दिन' भवेत्। एषु मृताहावधारणसान्निध्यान्मामविशेषो ग्राह्यः । मृतदिनमासयोरज्ञाने तु वृहस्पतिः। “दिनमासी न विज्ञाती मरणस्य यदा पुनः। प्रस्थानदिनमासौ तु ग्राह्यो पूर्वोक्तया दिशा" ॥ पूर्वोताया दिशेति यथा मरण दिनमासज्ञाने तत् ग्रहणम्। तयोरेकतराज्ञाने यथाव्यवस्थापित तथानापौ ति तेन प्रस्थान दिनमासज्ञाने तत् ग्रहणम्। प्रस्थानमासमात्र. जाने तदीयामावास्या पाया प्रस्थानतिथिमात्रज्ञाने तु मार्गशौषादी तत्तत्तिथिोिति। सन्देहेवाह यमः। “गतस्य न भवेहार्ता यावत्हादशवार्षिको। प्रेतावधारणन्तस्य कर्तव्यं मुतवान्धवैः। यन्मासि यदर्यातस्तन्मासि तदहः क्रिया। दिनाज्ञाने कुलस्तस्य भाषाढस्याथवा कुहः ॥ एवञ्च मरणप्रस्थानदिनमासाजाने श्रवणदिवसस्य विषयः। प्रभासखण्ड "मृतस्याहो न जानाति मास वापि कथञ्चन। तेन कार्यममावास्यां पाई माघेऽपि मार्गके" ॥ कथञ्चनेति मरणप्रस्थानदिनमासत्वरूपेण श्रवणदिनत्वरूपेण च केनाप्यज्ञाने यच्च सर्वत्र तत्तन्मासौय कृष्ण कादश्यभाव एब अमावास्या पाह्या श्राद्धविघ्न इति वचनात्। अन्यथा तहचनस्थमृताहाविदित इत्यस्य विषयानुपपत्तेः। तस्याहामावास्यापेक्षया प्राधान्यं तहचने विशेष इत्यभिधानात् । __ पतितकादशाहादिश्राद्धानां कृष्ण कादश्य करणे श्राद्धान्तरदिने कर्त्तव्यतामाह हेमाद्रिततो देवलः। “एकोद्दिष्टे तु सम्प्राप्ते यदि विघ्नः प्रजायते। मासेऽन्यस्मिस्तिथौ तस्मिंस्तदा दद्यात् प्रयत्नतः। इत्थच लघुहारोतवचने मृताहाविदित इत्यादिना यन्मासिकसांवत्सरिक त्रासमेकादम्यां विहितम For Private And Personal Use Only Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ३८८ श्राह तत्त्वम् । उपस्थितत्वाद्दिनेऽपि तस्यैव श्राहस्य एकादश्यां कर्त्तव्यत्वं प्रतीयते नत्वमावास्याश्रादादेरनुपस्थितत्वात् । एवञ्च ऋष्यशृङ्गवचने देये पितॄणां श्रहेऽशौचमित्यत्र देव इत्यनेन यस्य श्राद्धस्य विघ्न ऽप्यवश्यन्देयत्व मुक्त तस्यैवाशौचान्ते कर्त्तव्यता नत्वमावास्याश्राद्धादेः । तत्राशौचोत्तरश्राद्धप्रशस्त कालप्राप्त यथा तिथावेव श्राद्धमाह शुचौभूतेन दातव्यमित्यादिना । हि दातव्यमित्यत्र शयनौयवत् श्राद्धं दातुमर्हत्यस्मिन् काल इति कृत्ययुटो ऽन्यत्रापति अहतावित्यधिकृत्य शकि च कृत्या इत्याभ्यां स्वाभ्यामही धिकरणे कृत्यप्रत्ययः । अन्यथा पूर्व - वचनपरार्द्धन पौनरुक्त्यापत्तेः । ततश्च दातव्यं श्राडपूज्य कालं मध्याह्नादिकं प्राप्य या तिथिः शुचौभूतेन प्राप्यते सा तिथिस्तस्य श्रास्य कत्तव्या करणार्दा नत्वन्या कृष्णैकादशी अशीचरूपविघ्न प्रतोक्षणीया । ततश्च शुचौभूताव्यवहितदिवसीय श्रद्धप्रशस्त कालप्राप्ततिथिखण्ड नियमादप्रशस्तकालेऽपि तत्ततिथिखण्ड एव श्राद्ध न तु शुक्लपचेऽपि तत् द्वितीयखण्डेऽनुपस्थितेः । एवञ्चाशौचान्ते सङ्गवाभ्यन्तरसमाप्य तिथौ श्राइ मैथिलोक्तं न युक्तम् किन्तु तदुत्तरप्रशस्तकालप्राप्ततिथावेव ' नन्वशौचे तु व्यतीते वै इति वचनादशौचान्त इति प्रयोक्तर मिति श्राद्धचिन्तामणिः । मैवं यथा मृतानि तु कर्त्तव्यमित्यादिना मृताहादेर्निमित्तत्वेऽपि तत्तिथिविशेषत्वे नैवोलेखः । यथा वा तत्र विघ्न एकादश्यादिविधानादेकादश्यादिरूपेणैव निमित्तत्वात्तथैवोल्लेखः । तथावापि तदशौचे व्यतौ तेत्वित्यादिनाऽशौचान्तविहिते श्राद्धं शचौभूतेन दातव्यमित्यादिना श्राह प्रशस्तकाले प्राप्ततिथिविशेषस्यैव निमित्तवात्तथैवोल्लेखो नत्वशौचान्तत्वेन व्यवहारोऽपि तथा । 7 अथ सपिण्डीकरणम् । तत्र गोभिलः । “पूर्ण संवत्सरे www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir O For Private And Personal Use Only Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्राथतत्त्वम् । षण्मासे विपचे यदहर्वा वृडिरापद्येत तदहचत्वादकपावाणि सतिलगन्धपुष्पोदकानि पूरयित्वा त्रीणि पितृणामेक प्रेतस्य प्रेतपात्र पिटपात्रेष्वासिञ्चति । ये समानाः समनसः पितरो यमराज्ये तेषां लोकः स्वधा नमो यज्ञो देवेषु कल्पताम् । ये समाना: समनसो जीवाजीवेषु मामकाः तेषां श्रयि कल्पतामस्मिन् लोके शतं समाः” । इति एतेनैव पिण्डो व्याख्यात इति । पूर्णे संवत्सरे इति मुख्यकल्पः । तदशक्तौ नवमो मास: संवत्सरान्ते विसर्जन' " नवममास्यमित्येके” इति पैठोनसिवचनात् । तदशक्तौ षष्ठो मासः । aartreat त्रिपक्षः तत्राप्यशक्तौ श्रशौचापगमे प्रथममासस्य द्वादभिर्दिनैई दशमासिकानि श्राद्धानि निर्वर्त्य वयोदशाह: सपिण्डीकरणकालः शूद्रस्य द्वादशाहो न तु त्रयोदशाह एव मासिकार्थवत् द्वादशाहश्राद्धं कृत्वा त्रयोदशेऽह्नि वा तत् कुर्य्यात् मन्त्रवज्यं हि शूद्राणां द्वादशेऽनौति विष्णुवचनात् । मासिकादिति मासिकार्थो मासि मासि क्रियमाणवादप्रयोजन प्रेताप्यायनादि तत् युक्तं द्वादशाह क्रियमाणवादमित्यर्थः । यत्र त्वेकादशमासाभ्यन्तरेऽधिमासपातस्तत्र त्रयोदशसु दिनेषु त्रयोदशमासिकानि कृत्वा चतुर्दशेऽह्नि सपिण्डन' कार्य्यमिति "संवत्सराभ्यन्तरे यद्यधिमासो भवति तदा मासिका दिनमेकं वईयेत्” इति विष्णुवाक्यात् शूद्रस्य त्रयोदशदिनेषु त्रयोदशमासिकानि त्रयोदशेऽह्नि सपिण्डनं दृष्टपरिकल्पनान्यायात् । एवच श्रवद्दिमात्र न दिनवृष्टिरिति मिश्रोक्त' हेयम् । तद्धृतविष्णुले दिनमेकं वईयेदिति श्रुतेः । श्रादाधिक्यमाह सत्यव्रतः “संवत्सरस्य मध्ये तु यदि स्यादधिमासकः । तदा त्रयोदशे श्राद्ध कार्य्यन्तदधिक ं भवेत् । तत्राप्यशक्ती प्रथममासस्यैकाच एव द्वादश २५. १८६ For Private And Personal Use Only Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घाइतत्वम्। मासिकसहितसपिण्डीकरणकालः। “मुख्यं शाह मासि मासि अपर्याप्तातु प्रति। हादशाहेन वा कुर्यादेकाहे बादशाथवा" ॥ इति मरीचिवचनात्। अपर्याप्तौ अशक्ती ऋतुर्मासहयम्। अत्र कल्प षष्ठमासिकदिने पञ्चममासिक कत्वा प्रथमपाण्मासिक कृत्वा षष्ठमासिक कार्य तदााकर्षन्यायात्। न तु तत् पूर्व पाण्मासिक व्युत्क्रमापत्तेन च पञ्चममासिकमपि पूर्वदिने मृततिथ्यभावात् एवमेव वाचस्पतिमिथः अपकर्षनिमित्तमाह व्याघ्रः “प्रानन्त्यात् कुलधर्माणां पुंसां चैवायुषः क्षयात्। अस्थितेश्च शरीरस्य हादशाह: प्रशस्यते ॥ एतच्च हादशाहपदं शावाशौचान्तरतौयदिन. मात्रपरमिति प्राचीनमैथिला: अजहत् स्वार्थ लक्षणया स्वजात्यताशौचान्तटतौयदिनमानोपलक्षकमिति आइप्रदीपवाहचिन्तामणी। तहयमप्ययुक्तं “हादशाहेन वा कुर्यात्" इति मरौचवचने “हादशाह श्राई कत्वा त्रयोदशेऽति वा कुर्यात्" इति विष्णुवचनाभ्यामेकवाक्यतया हादशाह इत्यस्य हादशा दिनपरत्वात् कुलधर्माणामिति कुलधर्मः ज्योतिरागमादि. सिद्धानन्तरभाविनाशपरचक्रभयोत्पन्नम्लेच्छदेशगमनादिभिनिमित्तैरशौचापगमे हादशदिनानि षोड़शवाडापकर्षकाल इति शूलपाण्यपाध्यायव्याख्यानात् मरीचिनैव एकाहे हादशाथवैति सामान्यत एव एकाहविधानाच्च। अतएव एकाहा. पेक्षया प्राशस्त्याभिधानमपि सङ्गच्छते अतएव प्रथममासस्य एकाह एव हादशमासिकसहितसपिण्डीकरणकाल इति श्राद्ध विवेकः । अत्र यानि एकाह कर्त्तव्यतया हादशमासिकवाडान्युक्तानि तानि शूद्रेणापि आद्यमासिकदिन एव कार्याणि । नवाद्यमासिकं कृत्वा तत्परदिने एकादशमासिकानौति नेयम्। एवञ्च तेषामपकर्षे तन्मध्यतदन्तकालकतन्यतया षण्मा For Private And Personal Use Only Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्राहतत्त्वम् । २८१ सिकइयसपिण्डीकरणापकर्षः सिप्रतीति सुधीभिर्भाव्यम् । यदहर्वा वृडिरिति वृष्टिराशास्यमानं पुंसवनादि । आपयेत श्रासन्ना भवति तद्दिनेऽपि सपिण्डीकरणम् । तथाहि “ प्रागावर्त्तनादह्नः कालं विद्यात्” इति गोभिलग्टह्यसूत्रेण पुंसवनादिरूपवृद्धेर्यामद्दयाभ्यन्तरे विधानात् सपिण्डीकरणस्य थापराह्न विधानात्तयोः कालयोरवाधाय वृद्धिपूर्वदिने अपकर्षः । ननु सपिण्डीकरणस्यापराह्निकत्वे किं प्रमाणमिति - चेत् “अपराह्णे तु पैटकम्" इत्युत्सर्गवचनम् । किञ्च यद्यप्यदन्तकः पूषापैष्टमत्ति सदाचरुम् । अग्नौन्द्रेश्वर सामान्या 'तण्डुलोऽव विधीयते ॥ इति छन्दोगपरिशिष्टवचने यथा बहूनामनुरोधात्तण्डुलचरुनै कानुरोधात् पैष्टचरुः । “विरुद्धधसमवाये भूयंसां स्यात् साधकत्वम्” इति जैमिनिसूत्रात् तद्ददत्रापि बहुदेवताकपार्वणानुरोधादेकोद्दिष्ट कालबाध इति । एवच संवत्सरमधिक्कत्य " सपिण्डीकरणन्तस्मिन् काले राजेन्द्र तत् शृणु । एकोद्दिष्टविधानेन काय्र्यन्तदपि पार्थिव " ॥ इति विष्णुपुराणो मे कोद्दिष्टांशे तदिति कर्त्तव्यतापरं न तु तत्कालपरम् । तथाच परिशिष्टप्रकाश घृतम् । श्रायमुपक्रम्य कुर्वीत सहपिण्डताम् । तयोः पार्वणवत् पूर्वमेकोद्दिष्टमथापरम्" इति ॥ एवञ्च शुद्धितत्वलिखितस्यमन्तकोपाख्यानवत् वृद्धि निश्चित्य कृतं सपिण्डीकरणं तदानीं विघ्न ेन वृड्डाभावेSपि प्रारम्भकालान्तरं पूर्णसंवत्सरं प्राप्य पितृत्वप्रापकमिति न सपिण्डनान्तरम् । अत्र " खः कर्त्तास्मीति निश्चित्य दाता विप्रानिमन्त्रयेत्" । इतिवनिश्चित्येति उत्कटकोटिकसभावनोपलचणं भविष्यत्रिमित्तस्य कर्माणः प्रत्यूहाईत्वात् । एवञ्च वृश्रिा यदर्थं कृतं तत्कर्म चेत् विघ्नात्तहिने न क्रियते तदा दिनान्तरे तत् कर्माणि क्रियमाणे तदङ्गत्वात् पुनर्बुद्धि For Private And Personal Use Only Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८२ श्राइतत्त्वम् । श्राई कर्तव्यमेव । “प्रधानस्याक्रिया यत्र साङ्गं तत् क्रियते पुनः। तदङ्गस्याक्रियायान्तु नातिन च तक्रिया" । इति छन्दोगपरिशिष्टेन साङ्गकरणाभिधानात्। हेमाद्रिकृतं "पूर्णे संवत्सरे श्राई षोड़शं परिकीर्तितम्। तेनैव च सपिण्डत्वं तेनैवाब्दिकमिष्यते” ॥ अत्र पूर्णसंवत्सरक्रियमाणशाहादयथो भयनिर्वाहः। तथापकष्टसपिण्ड नादप्युभयनिर्वाहान पूर्णसंवत्सरे प्राब्दिकान्तरं कार्यम् । एवञ्च पञ्चदशनाचे कृतेऽप्युनेयम्। उदकपात्राणोति अार्थमुदकयुक्त पात्राणि । अत्र बौणि पितृणामेकं प्रेतस्येति पाठक्रमदर्शनात् सर्वत्र छन्दोगानां यजुर्वेदिनाच्च गुयानुरोधात् सपिण्डौकरणे प्रेतकर्म करणं पिटकर्मपूर्वकं “तयोः पार्वणवत् पूर्वमकोहिष्टमथापरम्” इति पूर्वलिखितवचने शाब्दक्रमदर्शनात् देवकत्य-पिकत्वयोर्मध्ये प्रेतकत्येन व्यवधानस्यायुक्तत्वाञ्च एतेन “अथ सपिण्डौकरणं संवत्सरमेकं पिण्डमुद्दिश्य संवत्मरान्से चत्वार्य्यदकपात्राणि प्रयुनक्ति तत्वैकं प्रेतस्य बौणि इतरेभ्यः” इत्याश्वलायनदर्शनात् सर्वशाखिना सपिण्डौकरणे प्रेतादित्वं मैथिलोक्तं निरस्तम् एतद्दचनस्य तच्छाखिमानपरत्वात् किन्वर्घ्यदानपात्रे पाठक्रमाच्छाब्दक्रमस्य बलवत्वात् ब्रह्मपुराणे प्रेताय दानानन्तरं "ततः पितामहादिभ्यः” इति शाब्दक्रमस्यावाधायाय पाने गन्धपुष्पदानपर्यन्तं पिटपूर्वकता उत्सर्गे तु प्रेतपूर्वकतेनि तथा ब्रह्मपुराणं चतुर्थ्यश्चाध्य पात्रेभ्य एकं वामन पाणिना। ग्टहीत्वा दक्षिणेनैव पाणिना च तिलोदकम् ॥ सम्माजयित्वा पृथिवीं ये समाना इति सारन् । प्रेतविप्रस्य हस्ते तु चतुर्भाग जलं क्षिपेत् ॥ ततः पितामहादिभ्यस्तन्मन्वैश्च पृथक् पृथक् । ये समाना इति हाभ्यां तज्जलन्तु समर्पयेत् ॥ अध्यन्तेनैव विधिना प्रेतपात्राच पूर्ववत्। तेभ्यचार्य निवेद्यैव पचाच For Private And Personal Use Only Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रातत्त्वम् | ૩ स्वयमाचमेत्” ॥ एकं प्रेतपात्र वामेन अनन्तरं दक्षिणेन गृहौत्वेति सम्बन्धः । ये समाना इति मन्त्रद्दयं पठन् प्रेतपात्रस्थम् उत्सृष्टजलं कुमरेखात्रयेण चतुर्धा विभज्य भागमेकं प्रेतपावस्थं नलं चिपेत् दद्यात् उत्सृष्टजल पिण्ड योर्विभागे मन्त्रस्य करणत्वं व्यक्तमाह शातातपः “निरुप्य चतुरः पिण्डान् पिण्डदः प्रतिनामतः । ये समाना इति द्वाभ्यामाद्यन्तु विभजेत्तिधा । एष एव विधि: पूर्वमर्घ्य पाचचतुष्टये ॥ ततः तदनन्तरं तन्मन्त्रैः पितामहादिभेदेन विरा वृत्तैर्या दिव्या इति मन्त्रैश्चकारात् पितामहाद्युत्सर्गवाक्यै रयमुत्सृज्य ये समाना इति द्वाभ्यां मन्त्राभ्यामर्थ्यं पुष्पोदकं तज्जलं प्रेतपात्रस्थजलं तेनैव विधिना प्रत्येकं पूर्ववत् चतुर्भागरूपं प्रेतपात्त्रात् समर्पयेत् तेभ्यः पितामहादिभ्यस्त्रिभ्यस्तस्मिमिश्रितपुष्प तिलोदकरूपमर्घ्यं निवेद्य तद्ब्राह्मणहस्ते प्रक्षिप्य पचादाचामेदित्यर्थः तेन प्रेतब्राह्मणहस्ते उत्सृज्य दत्तस्यैवाय' जलस्य तदवशिष्टजलस्य भागत्रयं पितामहादुत्सृष्टार्थ्यांजलेषु मिश्रीकत्तव्यमिति प्रतीयते । अतएव दत्तस्यैव प्रेतपिण्डस्य मिश्रीभाव इति श्राद्धविवेकः । यच्च न च " अत्र दैवं भोजयेत् प्रागेवं दैवेऽय मन्त्राद्यञ्च दत्त्वा गन्धमाल्यैः पात्रमर्चयित्वा तशेषं पितृभ्यः पात्रेषु दद्यात्” इत्याश्वलायनवचने पितृपra दैवं न मिश्र येदिति कल्पतरु व्याख्यानानुरोधेन मैथिलोक्त सर्वशाखिनान्तथाचरणं तन्त्र युक्तम् श्रश्वलायनेन काण्डानुशयस्योक्तात् वहुचानामेव तथा युक्तत्वात् न सामगयजुर्वेदिनोः तयोः पदार्थानुशयस्योक्तत्वात् श्रतएव श्राद्धसूत्र समत्रये मन्त्रदर्शनात्तत्रैव मन्त्रान्वयः पितृदयितादावुक्तः । वस्तुतस्तु पौराणिकत्वात् देवताभ्य इत्यस्य पाठवत साधारणस्मृतिकारशातातपोक्तत्वाच्च विभागेऽपि मन्त्रान्वयो युक्तः अतएव मैथिलैरपि तथा लिखितमिति । For Private And Personal Use Only Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६४ वाचत खम्। एवञ्च पार्वणे प्रागुतावचनेन शेषट्रव्येण पिण्ड विधानात् तहिकतावपि सपिण्डीकरणे तबियमात् । यद्यपि शेषाभावेऽपि पिण्ड निवृत्तिरायाति तथापि यथोक्तवस्त्वसंप्राप्तौ ग्राह्यन्तदनुकारि यत्। यवानामिव गोधमा बोहोणामिव शालयः”। इति छन्दोगपरिशिष्टवचनात् मुख्याभावेषि प्रतिनिधिः शास्त्रार्थ इति न्यायाञ्च मध्वाद्यभावे गुड़ादिग्रहणवत् द्रव्यान्तरेणापि पिण्डदानं शेषद्रव्यनियमस्तु तत् सम्प्रवे द्रव्यान्तरत्यागाय। अन्यथा तदङ्गाभावे कर्मवैगुण्यं स्यात् "सहपिण्ड क्रियायाम्" इति मनतः पिण्डस्य प्रतपिण्डेन सह मिश्रीकरणं योति सपिण्डौकरणसमाख्यासिहाथै सुतरान्तत्र तथाचरणं प्रतिपत्तिरूपकङ्गि एव प्रतिपाद्याभावे तन्निहत्तिः। पशुयागे लोहितं निरस्यति सवनिरस्यति इत्यादावता अतएव यज्ञवास्तुरूपप्रतिपत्तियागेऽपि यज्ञो यत्र वसति इति यज्ञवास्तु समाख्यानुरोधेनास्त तकुशविनाशेऽपि कुशान्तरप्रतिनिधिर्भट्टनारायणैर्गोभिलभाथे उक्त: "प्राविष्टिकत आवापः” इति गोभिलसूत्रस्य व्याख्यानेऽपि प्राउप्यते इत्यावापः प्रधानहोमः स तु विष्टिकद्धीमात् प्राक् न पश्चादित्यर्थः । एवञ्च मुख्यहोमत्वकते यदि चरुनष्टो दुष्टो वा भवति तदान्यः पाच्या मुख्ये कते चेन्नाशदुष्टौ तदाज्य नैव विष्टिकहोम इति सरला। एतेन शेषनाशे पिण्डनिवृत्तिरिति वाचस्पतिमिश्रोत हेयम् एतेनाय दानविधानेन पिण्डमिश्रम प्रकारो व्याख्यात उक्तः। तथाच ब्रह्मपुराणम् । “अथ तेनैव विधिना दर्भमूलेऽवनेजनम्। पितुर्दत्त्वा तु पिण्डन्तु दद्यात् भक्त्या तु पूर्ववत् ॥ दत्त्वा पिण्डान् पिढभ्यस्तु पश्चात् प्रेताय पार्खतः। तन्तु पिण्ड विधा कृत्वा प्रानुपूर्व्याथ सन्ततम्। निदध्यात् विषु पिण्ड् षु एवं संसर्जने विधिः” । पिटभ्यः पिपितामहादिभ्यः For Private And Personal Use Only Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वाहतत्त्वम् । २८९ पिण्डान् दत्वा प्रेताय पार्श्वतः पूर्वदेशे पिण्डं दद्यादित्यर्थः । तं प्रेताय दत्तपिण्डम् चानुपूर्व्या पितामहादिक्रमेण संसर्जने प्रेतपिण्ड मिश्रणे । भविष्यपुराणम्। "गन्धोदक तिलैर्युक्त कुर्य्यात् पात्रचतुष्टयम् । अर्ध्यार्थं पितृपात्रेषु प्रेतपात्र प्रसेचयेत्। ये समाना इति द्वाभ्यामेतज्ज्ञेय' सपिण्डनम् । नित्येन तुल्यं शेषं स्यादेकोद्दिष्ट स्त्रिया अपि । नित्येनावश्यकेन ततख पार्वणांशे पार्वणेन एकोद्दिष्टांशे एकोद्दिष्टे न ततश्च शेषमङ्गजात तुल्यम् एकोद्दिष्टमिति एकोद्दिष्टं तद्धर्मग्राहित्वात् सपिण्डीकरणश्चेत्युभय परम् । " एतत् सपिण्डीकरणमेकोद्दिष्टं स्त्रिया अपि” इति याज्ञवल्कावचनैकवाक्यत्वात् । तेन श्राद्धेषु मध्ये एतच्छ्राद्धद्दयं स्त्रियाः कर्त्तव्यं नत्वाभ्युदयिकश्राहादि । अत्र च वा कर्त्तरिकृत्य इति कर्त्तरि षष्ठौति कर्त्तृत्व नियमः । वृद्धिश्राद्धादौ स्त्रीणां भोजनदर्शनात्र भोक्तृत्वनियमः । " पितरि पूर्व मृते तद्दर्षाभ्यन्तरे पितामहे प्रपितामहे मृते यथा कर्त्तव्यं तथाच इन्दोगपरिशिष्टे कात्यायन: "पितुः सपि - तां कृत्वा कुर्यान्मासानुमासिकम् । असंस्कृतेन संस्काय पूर्वी पौचप्रपौचकैः । पितरन्तव संस्कृर्य्यादिति कात्यायनो ऽब्रवीत् । पापिष्ठमपि शुद्धेन शुद्ध पापक्कतापि वा पितामहेन पित्तर कुर्य्यादिति विनिश्चयः । पितुः सपिण्डतां कृत्वा प्रतीभूतयोरपि पितामहप्रपितामहयोः सत्त्व े प्रतिमासविहित पार्वणं पितृवच प्रपितामहातिहप्रपितामहानां कर्त्तव्यं नतु तयोः सपिण्डीकरणापेक्षा काय्या ननु सपिण्डनेनासंस्कृताभ्यां सह पिण्डः कथं सपिण्डनांख्य संस्कारस्तस्मात्तदर्थं तयोः सपिण्डीकरणमपकर्षणौयं पितुरेव वा सपिण्डनमुत्कर्षणीयमित्यत श्राह । असंस्कृताविति । उत्कर्षापकर्षो For Private And Personal Use Only Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २५६ घाइतत्त्वम् । न कार्यावित्यनेन वचनेनोक्ता कथमसंस्कृतेन सह संस्कार इत्यवाह पापिष्ठमपौति पापिष्ठमवत सपिण्डीकरणं शुद्धन कृतसपिण्डौकरणेन पितामहेन पापकता प्रकृत सपिण्डोकरणेनापि शुद्धं कुर्यादिति शास्त्र निश्चयः। अतोवचनबला. ददोष इति तात्ययम् अत्र तु प्रेतीभूतपितामहेन पितुः सपिण्ड ने पितामहस्यैकोद्दिष्टमेव । “अमपिण्डीकत प्रेतमेको. द्दिष्टेन तर्पयेत्” इति प्रागुतजावालवचनात् एवमन्यत्रापि योध्य वृद्धप्रपितामहस्य प्रेतवे तेन सह म कार्यमिति तात्पर्यम्। अत्र मातुः सपिण्डने खशराय॑श्वशुरयोः पिण्डौ कुशैराच्छाद्यौ। तथा च गायः पतिनैकेन कर्तव्य सपिण्डीकरणं स्त्रियाः। सा गता हि मृतैकत्वं कुशैरन्तरयन् पितृन् । श्वशुरस्याग्रतो यस्माच्छिरः प्रच्छादनक्रिया। पुत्रैर्दर्भण सा कार्या मातुरभ्युदयार्थिभिः। अन्तरयन्तीत्यर्थे अन्तरयन्विति लिङ्ग व्यत्ययेन पुंस्त्वमिति हलायुधः। परवचन गोभिलाहसूत्रभाष्थकतापि लिखितम्। अतएव प्रव्रजिते पतिते वा पितरि मृतेऽपि न पितामहादिभिर्मातुःसपिण्डीकरणं किन्तु पितामधादिभिरेव । "खेन भर्ना सहैवास्याः सपिण्डीकरणं स्त्रियाः। एकत्वं सा गता यस्माञ्चरुमन्वाहुतिव्रतैः । तस्मिन् मति सूताः कुर्यः पितामह्या सहैव तु” ॥ इत्यत्र तस्मिन सतीतिशाद्वानहर्बुपलक्षणम्। अतएव "तस्याञ्चैव जीवन्त्यां तस्या: खौति निश्चयः" इति लघुहारोते न श्वश्रूजीवने तस्याः श्व श्रोक्तं न तु श्वशुरेणेति कचिदप्युक्ताम्। एवं पितामह्यादिभिर्मातुः सपिण्डीकरणेऽपि सामगेन “ये चात्र वामनु यांश्च तमनु तस्मै ते स्वधा” इति मन्त्रो न पाठ्यः मन्त्रलिङ्गविरोधात् अतएव आभ्युदयिके मारपक्षे श्रीदत्तादिभिर्मन्त्रान्तर For Private And Personal Use Only Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रातत्त्वम् । २८७ लिखित' न तु ये चात्रत्वामिति वस्तुतस्तु प्राभ्युदयिके छन्दोगानां मातृपक्ष एव नास्तौति वच्यते । एवञ्च " अर्थं fueपात्रेषु प्रतपात्र' प्रसेचयेत् । ये समाना इति द्वाभ्यां शेषः पूर्ववदाचरेत् । एतत् सपिण्डीकरणमेकोद्दिष्टं स्त्रिया अपि इति याज्ञवल्कन पार्वणैकोद्दिष्ट विकृतौभूत पुंसपिण्डनातिदेशात् तद्दिकृतीभूतस्त्रौ सपिण्डनेऽपि ये समाना इति मन्त्रयस्य पार्वणोक्तये चात्रत्वामिति मन्त्रस्य च लिङ्गार्थसमवेतत्वेऽपि प्रकृत्यर्थस्य समबेतार्थत्वात् पाठः” । ततश्च " मातामहानामप्येवं श्राद्ध कुर्य्याद्दिचक्षणः । मन्त्रो हेन यथान्यायं शेषाणां मन्त्रवर्जितम्" इत्यनेन यच्छेषाणां मन्त्रवर्जन मित्युक्त तत् “शुद्धन्तां पितामहाः” इत्यादि प्रकृत्यूह योग्य मन्त्रवर्जनपरमिति प्रागुक्तं मार्कण्डेयपुराणम् । “सर्वाभावे स्त्रियः कुर्य्य: स्वभर्तृणाममन्त्रकम् । तदभावे च नृपतिः कारयेत् खकुटुम्ब वत् । स्त्रीणामप्येव मेवैतदेकोद्दिष्टमुदाहृतम् । मृताहनि यथान्यायं नृणां यद्ददिहोदितम्” । स्त्रियोऽत्र असवर्णोढ़ा परिणतावेति श्राइविवेकः । सवर्णोढ़ाया: पुत्रपौत्रप्रपौचावभाव एव विधानात् । यथा शङ्खः । “ पितुः पुत्रेण कर्त्तव्याः पिण्डदानोदकक्रियाः । तदभावे तु पत्नी स्वात्तदभावे सहोदरः” । स्त्रौणामिति तु सम्प्रदानपरम् । स्वौकर्त्तृकत्वस्य पूर्वाई एवोक्तत्वात् । एवमेवामन्त्रकमित्यर्थ इति श्राविवेकः । श्रत्र स्त्रियां इत्यस्यासवर्णोढ़ा अपरिपोताचरत्वव्याख्यानात् स्त्रौणां मन्त्रनिषेधोऽपि तत् सम्प्रदानकाह वावगम्यते । न तु स्त्रीसम्प्रदानकमात्रे | कल्पतरौ तु स्त्रीणामप्येवमिति यादृशेन सम्बन्धेन पितृव्यत्वादिना पुरुषामेकादशाहादिवाख तादृशेनैव सम्बन्धेन स्त्रीणामेतत् कर्त्तव्यमिति । एतद्दद्याख्याने स्त्रोसम्प्रदानका सुतरां For Private And Personal Use Only Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८८ थाहतत्वम् । मन्त्राः पाठ्याः। याज्ञवल्क्येनापि समन्त्रकमेकोद्दिष्ट सपिण्डौकरणोता एतत् सपिण्डीकरणमेकोद्दिष्ट स्त्रिया अपो. त्यनेन स्त्रिया अपि तथैवोत्तम । “मातुः सपिण्डीकरणं पितामह्यासहोदितम्। यथोतो नैव कल्पन पुत्रिकाया न चेत् सुतः” इति छन्दोपपंरिशिष्टेनापि यथोक्तो नैव कल्पन इत्यनेन मन्त्रादिकं सर्वमसिदिष्ट व्यवहारोऽपि तथेति। अमन्त्रक स्त्रोकर्तकमन्त्रपाठरहितम् “अमन्वा हि स्त्रियो मता" इति वौधायनेन सामान्यतोऽभिधानात्। न तु ब्राह्मणकर्तकमन्त्रपाठरहितपरम्। तथा च वराहपुराणम्। “अयमेव विधिः प्रोतः शूद्राणां मन्ववर्जितः। अमन्त्रस्य तु शूद्रस्य विप्रो मन्त्रेण गृह्यते” ॥ अनामन्त्रस्येति विशेषणस्य यावद मन्त्रव्यास्यर्थत्वेन परिभाषारूपत्वात्र प्रतावमात्रस्य विषयः । न वा शूद्रकर्तृकश्वाइमात्रविषय: किन्तु स्त्रीकर्तृकश्राइमप्यस्थ विषयः। व्यक्तं ब्राह्म। "स्त्रोभिवावरवणच बाई विप्रानुशासनात् । मन्त्रवहिधिपूर्वन्तु वह्निपाकविवर्जितम्” । विप्रानु. शासनात् विप्रपाठनात्। मन्त्रवमन्त्र युक्तम् । वह्निपाकविव. जितमित्यसवर्णस्त्रोककथाइपरम्। पतिककबाहेऽपि पत्नयाः पाकाधिकारदर्शनात् तथाच छन्दोगपरिशिष्टं "शाकच्च फाल्गुनाष्टम्यां स्वयं पत्नपथवा पचेत्"। पनौत्वञ्च सवर्णोढ़ायाः ज्येष्ठा पत्नौति वचनात्। ज्येष्ठामाइ मनुः। “यदि खास पराश्चैव विन्देरन् योषितो हिजाः। तासां वर्णक्रमेणैव ज्येष्ठ पूजा च वेश्म च” ॥ कुवेरोयाध्यायधृतम्। “असंस्कृतप्रमो. तानां पिता न श्राहमाचरेत्। यदि नहेन कुर्वोत सपिण्डोकरणं विना" ॥ प्रसंस्कृतप्रमोतानाम् अनुपनौतमृतानाम् । लघुहारोत: “पुत्रेणैव तु कर्त्तव्यं सपिण्डौकरणं स्त्रियाः । पुरुषस्य पुनस्त्वन्ये भाटपुत्रादयोऽपि ये" ॥ आदिशब्दमाधा. For Private And Personal Use Only Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आइतत्वम् । રટ माह स एव। भ्राता वा भ्राटपुत्रो वा सपिण्डः शिष्य एव बा। सहपिण्ड क्रियां कृत्वा कुर्यादभ्युदयन्ततः ॥ भ्राता वा इति वाशब्दात् मात्रपेक्षया प्रधानत्वेन पूर्वाधिकारिणां दौहित्रान्तानां समुच्चयः। अतएव सपिण्डत्वेनैव भ्रातत्पुत्रयोरधिकारसिद्धौ पृथगुपादानं प्राधान्यज्ञापनार्थम्। "महागुरौ प्रेतीभूते वृद्धिकर्म न युज्यते” इति शूलपाणिलिखितवचनेन "प्रमौतौ पितरौ यस्य देहस्तस्याशुचिर्मवेत् । मापि दैवं न वा पैवं यावत् पूर्णा न वत्सरः ॥ इति देवीपुराणवचनेन च प्रेतीभूतमातापिटकस्य संस्कर्तुः प्रेतौभूतमातापितकस्य संस्कार्यस्य प्रतीभूतमातापिटकाया अनदाया: कन्यायाच वैदिककर्मकर्तृत्वकर्मत्वानहत्वेन तत् परीहाराय “यदहर्वा वृदिरापद्येत” इत्यनेन पूर्वदिने सपिण्डनं कत्वा पित्रादिः परदिने अभ्य दयं नामकरणादिकं कुर्य्यात् । जढ़ायास्तु “पतिरेको गुरुः स्त्रीणाम्" इति वचनोक्त कपदेन पत्युरेव महागुरुत्वाभिधानात् तत् प्रतत्वमावे तस्याः कर्मानधिकारः। एवञ्च पिहमानोर्महागुरुत्वव्यावृत्तेस्तयोमरणे कढ़ाया न कर्माधिकारः । प्रचाभ्युदयसपिण्डनयोरानन्तर्यमात्र या प्रत्ययार्थः न त्वेककर्तकत्वमपि। अन्यथा सपिण्डनाधिकारिण्याः पत्नयाः सत्त्वे अभ्युदयादिकारिणो भ्रातः मपिण्डनाधिकारापत्तः। यथा “नानिष्ट्वा तु पितॄन् श्राद्धैः कर्मवैदिकमारभेत्” इति शातातपवचने पिटकर्तकदिन श्राद्वानन्तरमेव पुत्रेण विवाहः क्रियते। न तु पुत्रेण श्राहा. न्तरं क्रियते। पत्र पुरुषस्य पुनस्त्वन्ये इत्यनेन पुत्रवत् शिथान्तरस्य सपिण्ड़ने सामान्यतोऽधिकारः प्रतिपादनात् अभ्युदयं विनापि पुरुषस्य सपिण्डनं प्रतीयते। “सहपिण्ड क्रियां काला कुर्यादभ्युदयं ततः”। इति सपिण्डीकरणात् पूर्वमन्यु For Private And Personal Use Only Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०० वाचतत्त्वम् । दयाभावार्थं नत्वभ्युदयसत्त्व एव सपिण्डीकरणार्थमिति । यत्त " यानि पञ्चदशाद्यानि अपुत्रस्येतराण्यपि । एकस्यैव तु दातव्यमपुत्रायाच योषितः ॥ इति छन्दोग परिशिष्टयं सपि ण्डौकरणेतरपञ्चदशश्राह विधायकं तच्छिष्यपय्र्यन्ताभावे पुरुषस्य बोध्यम् इतराणि एकोद्दिष्टविधानेनैव यानि प्राप्तानि प्रत्याब्दिकवाद्दानि तान्येव दातव्यं दातव्यानीत्यर्थः । अपुत्रायाश्चेति चकारोऽनुक्तसमुच्चायकं पतिरहिताया इति समुचिनोति । " श्रपुत्रायां मृतायान्तु पतिः कुय्यात् सपिण्डताम्” इति पैठौनसिवचनैकवाक्यत्वात् । अत्र कन्दोगपरिशिष्टपुत्रायाः पञ्चदशश्रावविधानात् "सपिण्डीकरणन्तासां पुत्राभावे न विद्यते" इति मार्कण्डेयपुराणाञ्च बालकपुत्रसत्त्वे सपिण्डीकरणम अन्येनापि कर्त्तव्यमिति प्रतौयते । एवं पतिः कुर्य्यादित्यत्रापि पतिसत्त्वमात्र विवश्चितम् । तेन पतितप्रव्रजितपतिसत्त्वऽपि ऊढ़या दुहिता सपिण्डनं कार्यम् अत्र "सर्वासामेकपत्नीनामेका चेत् पुत्रिणौभवेत् । सर्वास्तास्तेन पुत्रण प्राह पुत्रवतीमनुः” इति मनुवचने सपत्नीपुत्रस्य पुत्रत्वातिदेशात् तत्सत्त्वऽपि स्त्रीणां सपिण्डनं मैथिलेश तन्त्र प्रागुक्तलघुहारीतवचने पुत्रेणैवेत्येवकारेणातिदिष्टपुत्रनिषेधात् अतएव तदुत्तराई वाटपुत्रोपादानं संगच्छते । अन्यथा भ्रातृपुत्रसत्त्व " यद्येकजाता बहवो भ्रातरः स्युः सहोदराः । एकस्यापि सूते आते सर्वे ते पुत्रियो मताः ॥ इति वृहस्पतिवचनेन पुत्रत्वातिदेशात् भ्रातृपुत्रस्य पुत्रत्वादिदेशेनैव पितृव्ययाधिकारप्राप्ते araपुत्रदानं व्यर्थं स्यात् पुत्रत्वादिदेशफलन्तु तत्सव पुत्रान्तराकरणं पुन्नामनरकत्राणञ्च । 1 लघुहारीतः । " सपिण्डीकरणान्तानि यानि श्राद्धानि ब्रोड़श । पृथव सुताः कुर्युः पृथग् द्रव्या अपि क्वचित् ॥ For Private And Personal Use Only Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यादतत्त्वम् । प्रेतसंस्कारकम्माणि यानि बाहानि षोड़श। यथाकालन्तु कार्याणि नान्यथा मुच्यते ततः ॥ पृथग्व्या अपि विभक्तधना अपि पथक् न कुर्युः सुतरामपृथग्धनाः पृथक् न कुर्यु: किन्वपृथक् कुर्युः अत्र विशेषयति मरीचिः। "मृते पितरि पुत्रेण क्रिया कार्या विधानतः । बहवः स्युर्यदा पुत्राः पितुरेकनवासिनः ॥ सर्वेषान्तु मतं कृत्वा ज्येष्ठेनैव तु यत् कृतम् । द्रव्येण चाविभक्ती न सर्वैरेव कृतं भवेत् ॥ पुत्रेणेत्यविशेषात् सर्वेषामधिकार प्राप्ते ज्येष्ठस्य साक्षात् कर्तव्यतामाह बहव इति। ज्येष्ठेनापि सर्वेषां भ्रातृणामकरणेनैव करणं भवतु इति मतं जानं कवा विभक्तात्वे द्रव्यसंश्लेषेण च कृतं कर्म सर्वैरेव कतमेव भवेत्। तदानीं द्रव्यासंश्लेषेण च तस्मात् द्रव्यं प्राप्तव्यमिति कृत्वा कर्तव्यम् । यदि तेन तन्न परिशुध्यते तदा स ऋणी भवति प्रत्यवायो च भवतीति। न तु तेन श्राद्धा. तरं कर्तव्यमिति बाइविवेकोक्तं युक्तम् । पृथङ् नैव सुताः कुर्युरित्यनेन पृथक्करणस्य पर्युदस्तत्वेनानधिकारात् । यथाकालमिति प्रशौचान्तहितौयदिनहादशमासमततिथि एका. इन्यूनषण्मासहितयसंवत्सरेषु। न च विधानसामर्थ्यादेव तत्तत्कालप्राप्तेरनर्थकमिदमिति वाचम्। तत्तत् कालानां हादशाहाद्यपचया प्राधान्यबोधनार्थत्वात्। अत्र "पानन्त्यात् कुलधम्मायां पुंसाधवायुषः क्षयात्। अस्थितेश्च शरीरस्य बादशाहः प्रशस्यते ॥ इति व्याघ्रवचनोक्तप्रशस्यत इत्यनेन कुलाचारज्योतिःशास्त्रादि-घातझटिति-मरणराष्ट्रोपलवादिम्लेछदेशादिगमनानुसारादेव सपिण्डीकरणापकर्षे हादशाहा. पेचया प्रागुतनवममासादिगौणकालपरिग्रहः अथवा यथा. कालमित्यादेयंदहर्वा हिरापद्यतैत्यनेनावश्यकनामकरणादिवृार्थमेवापकों नत्वनावश्यकष्टपूर्ताद्यर्थापकर्षः कार्य इति For Private And Personal Use Only Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३०२ श्रातत्त्वम् । तात्पर्यम् । अतएव लघुहारीतेन “तथैव काम्यं यत् क वत्सरान् प्रथमाहते” । इत्यनेन काम्यस्यापकर्षनिमित्तता नास्तीत्युक्तम् । यदि त्वावश्यकदृद्धिनिमित्तेनापकर्षः कृतस्तदा दृष्टपूर्वादि काम्यं वत्सराभ्यन्तरेऽपि कर्त्तव्यमिति श्राद्धविवेकोऽप्येवं यद्यपि गोभिलसूत्रादौ सपिण्डीकरणस्यैवाप कर्षः प्रागुक्तस्तथापि सपिण्डीकरणापकर्षे तत् पूर्वकर्त्तव्यश्रानामपि तदादितदन्तन्यायादपकर्षः । “सपिण्डीकर - यान्ता तु ज्ञेया प्रतक्रिया बुधैः” इति शातातपवचने प्रेतक्रियायाः सपिण्डीकरणान्तत्वं प्रतीयते । अत्र वृद्धिनिमित्त' विना सपिण्डनापकर्षे कृते पूर्ण संवत्सरकालं प्राप्य प्रेतत्वपरौहारमा विष्णुधर्मोत्तरम् । “ कृते सपिण्डीकरणे नरः संवरात् परम् । प्रतदेहं परित्यज्य भोगदेहं प्रपद्यते ॥ वृद्धिनिमित्तकसपिण्डीकरणापकर्षे कृते तत्क्षपादेव प्रेतत्वपरीहारः तदर्थ एवापकर्षात् एवञ्चान्यनिमित्तापकर्ष वृद्धिकाल प्राप्य तत्वपरौहार: तत्कालस्य पूर्णसंवत्सरकालतुख्यत्वात् । “श्रर्वाक् संवत्सरात् वृडौ पूर्णे संवत्सरेऽपि वा । ये सपिण्डोकृताः प्रेता न तेषान्तु पृथक् क्रिया” इति शातातपवचनात् । अथ सांवत्सरिका' तब । गोभिलः । " श्रत ऊङ्घ संवत्सरे संवत्सरे प्रेतायान्नं दद्यात् यस्मिन्नहनि प्रेतः स्वादिति” । श्रत ऊई सपिण्डीकरणान्त श्रावनिमित्तादाद्य संवत्सरादूर्द्ध संवत्सरे संवत्सरे प्रतिवर्ष यस्मिन्नहनि सृतस्तस्मिन्नहनि मृताय दद्यात् । व्याघ्रः । " प्रतिसंवत्सरचैवमेकोद्दिष्ट मृतानि” । एतेन सपिण्डीकरणापकर्षे श्राद्यसंवत्सरेऽपि मृताहे माहान्तरं कर्त्तव्यमिति मैथिलोत हेयम् । व्यक्तमाह हेमाद्रिष्टतवचनम् । “पूर्णे संवत्सरे श्राद षोड़शं परिकीर्त्तितम् । तेनैव च सपिण्डत्वं तेनैवाव्दिकमिष्यते” ॥ चत्र पूर्ण संवत्सर क्रियमाण ་ For Private And Personal Use Only Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३०३ वाहतत्त्वम् । श्राद्धादयथोभयनिर्वाहस्तथा पक्कष्टसपिण्डोक र पत्राचादप्युभयनिर्वाही न पूर्णसंवत्सरे प्राब्दिकान्तरम् । एवं पञ्चदशश्राचेऽभ्युत्रेयम् । मत्स्यपुराणम् । “ततः प्रभृतिसंक्रान्तावुपरागादिपर्वसु । त्रिपिण्डमाचरेत् श्राजमेकोद्दिष्टं मृतानि” ॥ ततः प्रेतत्वपरीहारात् त्रिपिण्ड त्रैपुरुषं निरुपपदमृताहशब्दः सृतसम्बन्धिमासपचतिथिविशेषपरः । उपपदात्तु कचितिथिविशेषमात्रपरः । यथा मृताहे प्रतिमासं कुर्य्यादित्यादौ । 1 शङ्खः । “सपिण्डीकरणादूर्द्ध यत्र यत्र प्रदीयते । तत्र तत्र वयं कुर्य्यात् वर्जयित्वा मृताहनि ॥ श्रमावास्यां चयो यस्य प्रेतपचेऽथवा पुनः । सपिण्डीकरणादूर्द्ध तस्योक्तः पार्वणो विधि : " ॥ त्रयं सम्प्रदानानां वयं कुर्य्यात् चिभ्यो दद्यादित्यर्थः । मृताहपर्युदस्तत्रिदैवतत्वस्य प्रतिप्रसवमाह अमावस्यामिति प्रेतपचोऽत्र पिढपचः श्रश्वयुक् कृष्णपच इति यावत् न तु कृष्णपचमात्र कृष्णपक्ष सामान्यपरत्वेऽमावास्यापदवैयर्थ्यापत्तेः पितृपक्षं विशेषयति हेमाद्रिमाधवाचार्य्यष्टतं नागरखण्डम् | " नमो वाथ नभस्यो वा मलमासो यदा भवेत् । सप्तमः पिटपचः स्वादन्यत्रैव तु पञ्चमः ॥ wa श्रावण भाद्रयोरन्यतरस्य मलमासत्वे आषाढ़ापेचया सप्तमपचस्य पितृपचत्वात् । अत्र मृतस्यैव प्रेतपचनृतत्वं न तु मलमासभाद्र कृष्णपचमृतस्य । ततश्च तत्र मृतस्य वर्षान्तरेऽश्वयुक् कृष्णपक्षेऽपि तच्छ्राद्दकरणे म पार्वणं किन्त्व कोद्दिष्टमिति । अत्र पार्वणो विधि: पार्वबेति कर्त्तव्यता कै कोहिष्टविधिरिति नव्यवर्द्धमानप्रभृतयः । तन्न पूर्ववचनोक्तत्रे पुरुषिकस्य मृताहे पर्य्युदस्तस्य पार्वणो विधिरित्यनेन प्रतिप्रसवात् तस्मात् सदैकोहिष्ट वैपुरुषिकं न तु षाट्पौरुषिकं “कर्षसमन्वितं मुक्ता तथाद्य श्राइषोड़शम् । प्रत्याष्ट्रिकच्च शेषेषु पिण्डाः स्युः षड़िति स्थितिः ॥ इति For Private And Personal Use Only Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३०४ वाहतत्वम् । छन्दोग परिशिष्टवचनेन प्रत्याब्दिक व्यतिरेकेण षट्संख्यामियमात् एवममावास्यादिमरणनिमित्तेन मातुरपि प्रत्यादिकं पार्वणविधिनैव " अपुत्रा ये मृताः केचित् स्त्रियो वा पुरुषाच ये । तेषामपि च देयं स्यादेकोद्दिष्टं न पार्वणम्” ॥ इति आपस्तम्बवचने श्रपुत्रा इति विशेषणोपादानात् सपुत्राणां पार्वणाभ्यनुज्ञानात् । एतच मात्रादिवितयदैवतं कार्यम् । मात्र पितामह प्रपितामही च पूर्वबत् ब्राह्मणान् भोजयित्वा इत्यन्वष्टकायां तथा दर्शनात् श्रवसानदिननिमित्तत्वेन पार्वणविधिना छन्दोगैरपि माचादित्रिकाणां श्राद्धं कर्त्तव्यं न योषिताः पृथग्दद्यादवसान दिनाहते” । इति छन्दोगपरिशिष्टवचने विशेषतः प्रतिप्रसवात्। एवं सपिण्डीकरोऽपि । एतच मृताहपार्वणं मातापित्रोस्वि । तथाच हेमाद्रिष्टतकात्यायनवचनं “ सपिण्डीकरणादूर्द्ध पिबोरेव हि पार्वणम्। पिढव्यभ्रातृमातृणामेकोद्दिष्टं सदैव तु ॥ माटपदं सपनीमा परम् । सपनीमानित्यत्र मातृपदस्य राजदन्तादित्वात् परनिपात: सतच वाक्ये मातृसपत्नोति न प्रयोज्य किन्तु सपनीमात मातरित्यादिकम् । एवं साग्निकौरसचेत्रजाभ्यां मृताहे पार्वणं कर्त्तव्यम् । “श्रौरसक्षेत्रजौ पुत्रौ विधिना पार्वसेन तु । प्रत्यब्दमितरे कुर्य्यर कोद्दिष्ट सुता दश ॥ इति जावालवचनस्य "यत्न यत्र प्रदातव्यं सपिण्डीकरणात् परम् । पार्वणेन विधानेन देयमग्निमता सदा" इति मत्यपुराणवचनस्य चैकवाक्यत्वात् । उशना च । “प्रत्यब्द दर्शवच्छ्राइं साग्निः कुर्वीत वै द्विजः । एकोद्दिष्टं सदा कुर्य्याविरग्निः श्राद्धदः सुतः ॥ चत्र प्रागुक्तयुक्त्या प्रेतास्य एकोद्दिष्टत्वाभिधानात् सांवत्सरिका यदेकोद्दिष्टपदमुक्तं तत् प्रेतश्रादधग्राहित्वार्थम् । ततख योग्यत्वादेकार्ष्यादिलाभः न तु यथा प्रेतश्राडो पिढशब्दस्याने For Private And Personal Use Only Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वाइतस्त्वम् । प्रेततदोह तथानापति वाचं सांवत्सरिक प्रेतवाभावात्तथा. विधानानुपपत्तेः। एवं प्रतिसांवत्सरिकलाई सम्बन्धार्थकपदं भाशोः प्रार्थनं शेषभोजनच कर्तव्यम्। ___ रजखलायां विशेषयति गोतमः । “अपुत्रा तु यदा माया सम्प्राप्ते भर्तुराब्दिके। रजस्वला भवेत् सा तु कुर्यात्तत् पञ्चमे दिने"। कुर्य्याच्छाहमिति शेषः। यत्तु श्रावचिन्तामणौ । एकोहिष्टं वैवर्णिकेन सिहाब्रेन कर्तव्यम्। "एकोद्दिष्टन्तु कर्तव्यं पाकेनैव सदा स्वयम्। प्रभाव पाकपात्राणां तदहः समुपोषणम् ॥ इति लघुहारीतवचनात् पाकपावाभावः पाकसामग्राभावोपलक्षकं तदापि नामश्राईकिन्तपोषणमेक बाइस्थानीयमित्यर्थः। वयमित्यभिधानादपाटवादिनापि नान्यद्वारा कारयितव्यम् अतएव उपवासेनैव थाइस्थानौयेन तदकरणप्रायश्चित्तेन वा कृतकृत्यतया श्राद्धविघ्न इत्यादिवचनादपि नैकादश्यामनुष्ठानमिति तन। पिप्रजातत्वेनैकादश्यां तदनुष्ठानस्य युक्तात्वात् । अन्यथा षोड़शवाहाधिकारिणः कदाचित्तथात्वे “यस्यैतानि न दीयन्ते प्रेतवादानि षोड़श । पिशाचत्वं ध्रुवं तस्य दत्तैः श्रादशतैरपि” ॥ इति यमवचनेन षोड़शवाहाभावे प्रेतत्वपरीहारो न स्यात् तस्माटुपवासो न श्राद्धार्थः किन्तु तदानीन्तनाकरणप्रायश्चित्तार्थः यथा खकालाकृतसंस्कार प्रायश्चित्त कला कालान्तरे तत् करणं तथात्रापि तहिने उपवासं कृत्वा एकादश्यां श्राई कर्तव्यमिति। एकोद्दिष्ट' नान्यद्वारा कार्यमित्यत्रापि गोवजेतरत्वेन विशेषणीयं "न कदाचित् सगोत्राय बाई कार्यमगोत्रजैः इति प्रेतबाई ब्र पुराणात्। अत्र हि नागोवजस्य साक्षात् कर्तृवं निषिहाते सगोत्रायेत्यसम्बन्धापत्तेः तस्मादगोत्रजैारभूतैः सगोत्राय थाइ न कार्यमित्यर्थः। तथाच पर्युदासपक्षे गोबजहारा For Private And Personal Use Only Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०६ वाचतत्त्वम् । कारयितव्यमिर्ति सुव्यक्तमेव प्रसन्यपचे तु भगोवजविशेषयखरसात् गोवजलाभः । प्रेतबाधमग्राहित्वात् सांवत्सरिकअपि तथेति श्राविवेकः । कल्पतरुरत्नाकरयोस्तु स्वगोवायेति पठितं खमात्मोयं गोत्रं यस्य स खगोवः विद्यमानगोत्र इत्यर्थः । यस्मै श्राद्धं कर्त्तव्यं तस्य खगोवजे विद्यमानेऽन्यगोवजेन संघातान्तर्गतेन राज्ञा श्राइं न कारयितव्यमिति व्याख्यातञ्च । एतन्मतेऽप्यदुद्धिवादी नाम सगोवत्वेऽपि न निषेधः । वस्तुतस्तु तत् पाठेऽपि कर्मधारयापेक्षया बहुव्रीहेर्जघन्यत्वात् खमात्मोयञ्च तत् गोत्रश्चेति त अन्यगोवजद्वारा बाई न काय्र्यमित्यर्थः । अतो लघुहारीतवचने स्वयं पदं खगोaपरम् । अन्यथा ब्रह्मपुराणोक्तागोवनपदस्वगोत्रपरम् वैयर्थ्यापत्तेः । एवञ्च भविष्यपुराणप्रभासखण्डयोः । मृताहनि पितुर्यस्तु न कुयात् श्राहमादरात्। " मातुश्चैव वरारोहे वक्तशन्ते मृतानि । नाहन्तस्व महादेवि पूजां गृहामि नोहरिः” ॥ मरीचिः । " पतिताज्ञानिनो मूर्खास्त्रियोऽथ ब्रह्मचारिणः । मृता हंसमतिक्रम्य चाण्डालेष्वभिजायते” । इत्याभ्यां कालमाधवीयधृताभ्यां वचनाभ्यां सांवत्सरिक श्राहस्य म्हताह कर्त्तव्यत्वे नावश्यकत्वात् भविष्यन्मृता हे स्वयं कर्त्तव्यत्वसम्भावनारहितेन मृताहात् पूर्वकालेऽपि प्रतिनिधौयते । " प्रचिप्याग्निं स्वदारेषु परिकल्पयत्र्त्विजं तथा। प्रवसेत् काय्र्यवान् विप्रो हथैव न चिरं क्वचित् ॥ इति छन्दोग परिशिष्टोक्तसायं प्रातर्होमप्रतिनिधिवत् । एवं सति प्रतिनिध्यकरण एक एकादश्यां क्रियते । न च पाकस्याङ्गत्वेन प्रधानतिथिकत्तव्यतानियम इति वाच्यम् । " व्रतोपवासनियमे घटिकैका यदा भवेत् । सा तिथिः सकला शेया पिबर्थे चापराह्निको" इति वचनेन मुहर्तमात्रलाभेऽपि कर्त्तव्यतोपदेशात् तदानीं For Private And Personal Use Only Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वाचतत्वम् । पाके तदसम्भवात्। एवमुदीच्याङ्गशेषभोजनेऽपि न तबियम इति। पथाभ्युदयिकशाहम् । तत्र गोभिलः । “प्रथाभ्युदयिके बाई युग्मानाशयेत्। प्रदक्षिणमुपचार: ऋजवो दर्भाः यस्तिलार्थः सम्पनमिति हृप्तिप्रश्नः दधिवदराक्षतमित्राः पिण्डा नान्दोमुखाः पितरः प्रीयन्तामिति दैवे वाचयित्वा नान्दौमुखेभ्यः पिलभ्यः पितामहेभ्यः प्रपितामहेभ्यो मातामहेभ्यः प्रमातामहेभ्यो वृहप्रमातामहेभ्यश्च प्रौयन्तां न वधाच प्रयुनौत" इति। प्राभ्युदयिक अभ्युदयनिमित्तके अभ्युदय इटलाभः विवाहादिः। तदर्थ श्राई प्राभ्युदयिकम्। सस भूतभविष्यभेदेन हिविधं तत्र भूतं पुत्रजन्मादि भविष्यत् विवाहादि एवञ्च श्राइविवेकादी श्रादभेदगणने वृदिशादत्वेन कमाङ्गत्वेन च यदुभयत्वमुक्त तदुभयमेवाभ्यदायकत्वेनोपपन्न तेनाभिलापे पाभ्युदयिकश्राइमिति प्रयोज्यम् पत्र यवैस्तिसार्थ इत्यनेन पार्वणवाहप्राप्ततिलस्थाने यवविधानादाभ्युदयिकस्यापि पार्वणप्रकतिकत्वं प्रतीयते। अन्यथा तिलार्थ इत्युपादानं व्यर्थं स्यात् । ततश्च पार्वणप्रक्रतिकत्वेन पित्रेयुग्मब्राझणप्राप्तो तबिरासाय पिटपक्षे ब्राह्मणयुग्मत्वोपदेशः देवे युग्मत्वस्य पार्वणप्राप्तवान तदर्थोपदेशः “अपसव्यं ततः कृत्वा पितृणामप्रदक्षिणम्"। इति याज्ञवल्कावचनेन देवकमा. नन्तरं पिटकर्मकरणे प्राप्तवामोपचारनिरासाय प्रदक्षिणमुपचारस्तेन देवपिळकर्मकरणाय दक्षिणावर्तेन मन्तव्यं हिगुरुभुम्नवनिरासाय ऋजवो दर्भा इति ऋजुत्वोपदेशः बताः स्थ इत्यनेन हप्तिप्रश्न सम्पन्नमिति प्रष्टव्य योग्यत्वात् सुसम्पन्न मिति प्रोक्त वक्ष्यमाण छन्दोगपरिशिष्टवचनाञ्च सुसम्पमित्युतरम् एतद्दभमयबामसपोऽप्यवाधितत्वादाच्यम्। दधिवद For Private And Personal Use Only Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३०८ वाहतत्वम् । राचतमिश्रा इत्यनेन दध्यादिमिश्रण मावश्यकम् पचतो यवः " अक्षताश्च यवाः प्रोक्ता भृष्टाधाना भवन्ति ते” इति भट्टनारायषष्टतात् अतएव वच्यमाणइन्दोगपरिशिष्टवचनेऽचतमनका संयोज्ययव कर्क खुदधिभिरिति निःसन्दिग्धत्वमुक्तम् । स्वधावाचन प्रश्ननिवृत्तये नान्दौमुखाः पितरः प्रियन्तामित्युपदेशः na स्वधां वाचयिष्ये इति पितृपक्ष एव प्रश्नः अतएव तत्रिवृत्तये देव इति देवपचे नान्दोमुखाः पितरः प्रौयन्तामिति प्रश्नः । उत्तरच प्रौयन्तामिति ततः पितृपक्षे स्वधावाचनस्थानीयत्वेन वृद्धप्रमातामहेभ्यश्चेति चकारनिर्देशेन च स्वधो'यतामितिवत् प्रत्येकमेव प्रौयन्तामिति पृच्छेत् । प्रत्युत्तरच्च अस्तु स्वधेतिवत् तन्त्रेणैव प्रौयन्तामिति पत्र नान्दोमुखाः पितर इत्यादि नान्दोमुखेभ्यः पितृम्यः इति निर्देशेन च नान्दोमुखं पितृगणमिति विष्णुपुराणेन च मातामहेभ्यव तथा नान्दौमुखेभ्य एव चेति ब्रह्मपुराणे च नान्दोमुखपदश्रुतेस्तद्दिशेषणविशिष्टस्यैवाभ्युदयिके देवतात्वं ततश्चात्रापि प्रौयन्तामितिवान्दोमुखेभ्यः पितामहेभ्य इत्यादिवाच्यं न तु नान्दीमुखविशेषणशून्यं पितामहेभ्यः प्रौयन्तामित्यादि पिटदयितोक्त युक्तं नान्दौमुखेभ्यः पितृभ्यः प्रीयन्तामित्यत्रान्वितस्य नान्दौमुखेभ्य इत्यस्य पितामहेभ्य इत्यादावनन्वयित्वेन प्रागुतयुक्त्या प्राप्तस्य नान्दोमुखविशेषणस्य पितामहेभ्य इत्यादावप्राप्तेः । एतेनात्र मैथिलोक्तं तन्त्रता विधानमपि निरस्तम् । पावयवत् स्वधाप्राप्तः तन्निरासाय न स्वधां प्रयुज्जौतेति पत्र विशेषादभिलापे मन्त्रे च स्वधापदनिवृत्तिः । अभिलापे नम इति ब्रूयात् । " अमुकामुक गोत्रैतत्तुभ्यमन्नं स्वधा नमः” । इति ब्रह्मपुराणे या स्वधा नमः पदयोस्त्याग बोधकत्वेन विकल्पादवाभ्युदयिके स्वधानिषेधान्रम एवान्वेति । पितृन For Private And Personal Use Only Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वाहतत्त्वम्। प्यत्र देववदित्यनेनापि पावणोक्त विश्वदेवपक्षीय नम एवं प्रतीयते । न तु मैथिलोक्तं स्वाहेति बाहे तथा प्रयोगे प्रमाशाभावात्। एवमाखलायनगृह्ये यवोऽसौति मन्त्रे तु पुध्या इति श्रुतेमन्त्रमात्रे स्वधापदस्थाने पुष्टिपदप्रयोगः । अतएवं "वधयेति पदस्थाने पुध्याशब्दं वदेदिह। पितृनितिपदात् पूर्व बदेवान्दोमुखानिति” इति वचकारिका प्रदर्शनात् छन्दोगपरिशिष्टं कात्यायन: "कर्मादिषु तु सर्वेषु मातरः सगणाधिपाः। पूजनौयाः प्रयत्नेन पूजिताः पूजयन्ति ताः । प्रतिमासु च शनासु लिखिता वा पटादिषु। अपि वा क्षतपुज्ञेषु नैवेदोश्च पृथग्विधैः ॥ कुद्यलम्नां वसोर्धारा सप्तवारान् कृतेन तु। कारयेत् पञ्चवारान् वा नातिनीचां नचोच्छ्रिताम् । पायुमानिति शान्त्यर्थं नशा तत्र समाहितः। षड़भ्यः पिलभ्यस्तदनुवाददानमुपक्रमेत् ॥ वशिष्ठोतविधिः कस्नो द्रष्टव्योव निरामिषः। प्रतःपरं प्रवक्ष्यामि विशेष इह यो भवेत् ॥ प्रातरामन्त्रितान् विप्रान् युग्मानुभयतस्तथा। उपवेश्व कुशान्दद्यात् ऋजुनैव हि पाणिना ॥ तथा "निपाती न हि सव्यस्य जानुनो विद्यते क्वचित् । सदा परिचरबत्या पितृनप्यत्र देववत् ॥ पिटम्य इति दत्तेषु उपवेश्य कुशेषु तान् । गोत्रनामभिराम न्वा पितृन प्रदापयेत् ॥ मात्रापसव्यकरणं न पित्र तोमिष्यते। पात्राणां पूरणादौनि देवेनैव तु कारवेत्॥ ज्येष्ठोत्तरकरान् युग्मान् कराग्रामपवित्रकान् । कृत्वार्य सम्प्रदातव्यं नैकैकस्यात्र दीयते । मधुमध्विति यस्तत्र निर्जपोऽशितुमिच्छताम् । गायनानन्तरं सोऽत्र मधुमन्वविवर्जितः ॥ न चानत्सु जपेदन कदाचित् पिटसंति. ताम् । अन्य एव जपः कार्यः सोमसामादिकः शुभः ॥ यस्तत्र प्रकारोऽवस्य तिलवदयववत्तथा। उच्छिष्टसविधी सोऽत्र For Private And Personal Use Only Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३१० श्राहतत्त्वम् । तृप्तेषु विपरीतकः ॥ सम्पन्नमिति तृप्ताःस्थः प्रश्नस्थाने विधौ - यते । सुसम्पन्नमिति प्रोक्ते शेषमत्रं निवेदयेत् ॥ प्रागग्रेष्वथ दर्भेषु श्राद्यमामन्त्रा पूर्ववत् । अपःक्षिपेन्मलदेशेऽवनेनिव ेति निस्तिलाः ॥ द्वितीयञ्च तृतौयच्च मध्यदेशाग्रदेशयोः । मातामह प्रभृतींस्तु एतेषामेव वामतः ॥ सर्वस्मादत्रमुद्धृत्य व्यञ्जनरुपसिच्य च । संयोज्य यवकर्कन्धुदधिभिः प्राङ्म ुखस्थितः ॥ अवने जनवत् पिण्डान् दत्त्वा विश्वप्रमाणकान् । तत्पात्रक्षालनेनाथ पुनरप्यवनेजयेत् ॥ उत्तरोत्तरदानेन पिण्डामामुत्तरोत्तरम् । भवेदधश्चाचरणादधोधः श्राद्धकर्मसु ॥ तस्मात् श्राद्धेषु सर्वेषु वृद्धिमत्खितरेषु च । मूलमध्याग्रदेशेषु ईषत् शक्तांश्च निर्वपेत् ॥ गन्धादोब्रिः क्षिपेत् तूष्णीं तत श्राचामयेत् द्विजान् । अन्यत्राप्येष एव स्यात् यवादिरहितो विधि: ॥ दक्षिणाप्लवने देशे दक्षिणाभिमुखस्य तु । दक्षिणाग्रेषु दर्भेषु एषोऽन्यत्र विधिः स्मृतः ॥ अथाग्रभूमिमासि चेत् सुसुप्रोक्षितमस्त्विति । शिवा आपः सन्त्विति च युग्मानेवोदकेन च ॥ सौम्यनस्यमस्त्विति च पुष्पदानमनन्तरम् । अक्षतवारिष्टञ्चास्त्वित्य चतानपि दापयेत् ॥ अक्षय्योदकदानन्तु अर्घ्यदानवदिष्यते । षष्ठैव नित्यं तत् कुर्य्यात्र चतुर्ष्या कदाचन ॥ प्रार्थनासु प्रति प्रोक्ते सर्वास्वेव द्विजोत्तमैः । पवित्रान्तर्हितान् पिण्डान् सिञ्चेदुत्तानपात्रकृत् ॥ युग्मामेव स्वस्तिवाच्चानङ्गुष्ठग्रहणं सदा । कृत्वा धूय्र्यस्य विप्रस्य प्रणम्यानुव्रजेत्ततः ॥ कर्मादिषु वैदिककर्मादिषु । “नानिष्टा तु पितृन् श्रा: कम्मी वैदिकमारमेत्” इति शातातपवचनात् । एतच्च न वैदिककमा श्राद्ध विधायकं किन्तु प्रमाणान्तरेण प्राप्तस्य श्राभ्युदयिकस्य पूर्वकर्त्तव्यत्वमात्र विधायकं लाघवात् । कर्मादिषु तु इत्येकवाक्यत्वाच्च रागप्राप्तमव त्वेन लौकिके तु नवग्टह 2 For Private And Personal Use Only Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३११ बादतत्त्वम् । प्रवेश यत् आई तत्प्रवेशे नववेश्मन इत्यनेन वक्ष्यते। तत्र नवराहप्रवेशस्य निमित्तस्य क्रियावन क्षणिकस्यापि तनि. वयवत एवाधिकारात् संक्रान्तिवत् भूतभविष्यत्वेन हिधैव निमित्तत्वात् भूते भविष्यति वा गृहप्रवेशे नान्दोमुखश्राद्धा. चरणमिति। अत्र हडिवावस्य निरवकाशत्वाब त्रयोदश्यादि निषेधः । मातरो गौर्य्यादयः । तथाच बढचरहपरिशिष्टम् । "गौरौपद्माशचौमेधा सावित्री विजया जया। देवसेना स्वधा खाहा मातरी लोकमातरः। शान्तिपुष्टि,तिस्तुष्टिरात्मदेवतया सह । पादौ विनायकः पूज्यो यन्ते च कुलदेवताः । ताचाभिधाय भविथे। “पूज्याचित्रेऽथवा कार्या वरदाभय. पाणयः । मातर इति सर्वासां विशेषणम् अतएव एतत् पायं गौर्यै मात्रे नम इति प्रयोगः एता मातरो लोकमातरो भेयाः । प्रतएवैतयोबहुत्वेन निर्देशः । पूजयन्ति अभ्युदयदानेन प्रौणयन्तीत्यर्थः । शवासु शक्लासु रजतस्फटिकादिमयोषु लिखिता चित्रिता प्रादिशब्दात् भित्त्वादिषु अक्षतपुओषु यवपु षु पृथग्विधैर्नानाप्रकारैर्वसोवेदिराजस्य । वसोर्धारामिति बमो. र्धाराधिपातेनेत्यादिदर्शनात् अलुक्समासेनैव प्रयोगः कर्तव्यः। पायुधमाणि पायुष हितानि आयुषे मे पवस्खेत्यादीनि शान्त्यथमभ्युदयस्थानिधनित्यर्थं षड्भ्य इति छन्दोगानाम् । "माटश्राइन्तु पूर्व स्यात् पितृणां तदनन्तरम् । ततो मातामहानाञ्च वृद्धौ घाइत्रयं भवेत्" इति शातातयोतामाटाव्युदासार्थम् अतएव तत्रैव छन्दोयपरिशिष्टे षस्थामेव पिण्डेति कर्त्तव्यता वक्ष्यते गोभिलसूत्रेऽपि पिनादिबद्धप्रमातामहान्तानामुल्लेखःकत: न मानादौनां "न योषिद्भाः पृथग्दद्यादवसानदिनाहते। स्वभर्तृपिण्डमावाभ्यस्तृप्तिरासां यतः स्मृता” इति छन्दोगपरिशिष्टेन वृद्धयादौ योषित्वाई छन्दोगानां पर्युदस्तञ्च । न चाव For Private And Personal Use Only Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाहतत्वम् । मानदिनेतरन योषियोऽपृथग्दद्यात् यत: खमपिण्डांशेभ्य उभयोद्देश्य कदत्तेभ्य एव योषितां प्तिः पुरुषाणां योषिजीवनादौ पृथपिण्डादपि प्तिमत्त्वात् योषित्यदमपि सार्थकमिति वाच्यं तथालेऽवमानदिनाहत इति व्यर्थं स्यात् तथाहि परिप्राप्त योषितां श्राद्देऽपृथक्त्वं विधीयते। किं वाऽपृथक्वाइवैशिष्ट्य विधीयते नायः अमावास्यादौ योषिहानाप्राप्तौ कथं वदनद्यापृथक्त्वमावविधानं न चामावास्यायां पिलभ्यो दद्या. दित्यत्र "प्रेते पिटत्वमापने सपिण्डीकरणादनु" इति विष्णुपुराणोयेऽपि योषितामपि पित्वात् बाहप्राप्तिरिति वाच्य पिटभ्यो दद्यादित्यत्र पिपदं न प्राप्त पिटलोकमानपरं किन्तु पिपितामहप्रपितामहमानपरं असावेतत्ते इति यजमानस्य पिवे असावेतत्ते इति यजमानस्य पितामहाय पसा. वेतत्ते इति यजमानस्य प्रपितामहाय इति श्रुत्याहोकवाक्य वात् “बयाणामुदकं कायं विषु पिण्डः प्रवर्तते । चतुर्थः सम्प्रदातेषां पत्रमो नोपपद्यते" इत्यत्र बयाणामित्यनेन पिa पितामहप्रपितामहानां पनौनिरपेक्षाणां तर्पणवहेवतात्वावगमाच्च। मातामहादिलाभस्तु “पितरो यत्र पूज्यन्ते तब माहामहा ध्र वम् । भविशेषेण कर्त्तव्यं विशेषावरकं व्रजेत्" इति वृदयाज्ञवल्कावचनात् मातामहा इति तदादिविकपरम्। इत्यादि बहुवचनान्ता गणस्य संसूचका इत्युक्तोः। बाइति कर्तव्यतायां मालामहादिविकोपादानाञ्च । नान्यः । तथाहि अवसानदिनात इति व्यर्थं स्यात् अवसानदिने तु "ध्र वाणि तु प्रकुर्वीत प्रमीताहनि सर्वदा” पति छन्दोगपरिपिष्टौयेन स्त्रीपुंसयोः साधारणत्वेन चाहप्राप्तया "स्त्रीणामप्येवमेवैतदेकोहिष्टमुदाहृतम्। मृताइनि यथान्यायं नृणां यहदिहो. दितम् ॥ इति मार्कण्डेयपुराणोयेन विशेषतः बाबमास्या For Private And Personal Use Only Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्राथतत्त्वम् । च विशिष्ट विधित्वानुपपत्तेः । न चैवं परशाखिकाविरोधिसर्वकानुष्ठानप्रसक्तिरिति वाच्यम् अविरोधि चेति चकारेण नाकाङ्क्षितस्यैव लाभात् श्रतएवानाकाङ्क्षिते गृह्यपरिशिष्टं "बह्वल्पं वा स्वग्टयोक्तं यस्य कर्म प्रकीर्त्तितम् । तस्य तावति शास्त्रार्थे कृते सर्वः कृतो भवेत्” इति । तस्मादवसानदिनाहृत इति वाक्यस्य सार्थकत्वाय पृथक् पदमत्त्रानुवादः । न च वैपरीत्यं तथात्वे वाक्यानुवादः स्यात् । अव्ययपदानुवादे तु विभक्तर्नानुवादकतेत । एवमेव ईशानन्यायाचाय्याः । तस्मात् श्रहं सपिण्डकं कुय्यात् खसूत्रोक्तविधानतः । अन्वष्टकासु ast च गयायाञ्च चयानि । मातुः श्राद्धं पृथक् कुयादन्यत्र पतिना सह । वृद्धिश्राडे तु मात्रादि गयायां पिटपूर्वकम्” इति तीर्थचिन्तामणिष्टत वायुपुराणोयेन वृड्ान्वष्टकावसानदिनगयानिमित्तकश्राद्ध करणेषु छन्दोगेतरोऽवसान दिनेतरत्र यादी योषिताः पृथक् श्रादायानं दद्यात् अवसानदिने तु छन्दोगात् छन्दोगोभयो योषियो दद्यादित्यर्थात् सिद्धम् । ततश्च वृडयादौ छन्दोगो योषितां कथं तृप्तिरित्याकाङ्क्षामुत्थाप्य उत्तरार्द्धनान्वय इति एतदर्थमेव स्वसूत्रोक्तविधानत इत्युक्तम् । सूत्रेति स्वगृह्यशास्त्रपरम् । अन्यत्वामावास्यादौ पतिना सह श्राद्धं भोग्यं कुय्यादित्येवार्थः । असावेतत्त इति यजमानस्य पित्र इति प्रागुक्तश्रुत्या श्राई पत्नीनिरपेक्षणपित्रादित्रिकबोधिकया " सपिण्डीकरणादूई यत् पितृभ्यः प्रदीयते । सर्वेष्वंशहरा माता इति धर्मेषु निश्चयः” इति स्मृत्या भर्तृदत्तांशभागित्वबोधिकया चैकवाक्यत्वात् एतेन षड्भ्य इति जौवनमा 1 कविषयमिति हलायुधोक्त ं निरस्तम् । जौवन्द्मारकेण इन्दो - गेतरेण पितामच्चादोनां श्राद्ध क्रियते । " जौवन्तमतिदद्याद्दा प्रेतायनोद के द्विज” । इति छन्दोगपरिशिष्टात् । जीवन्त T २७ ३१३ For Private And Personal Use Only Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३१४ श्राइतत्त्वम् । मित्यत्र निर्मित्तविशेषणत्वेन पुंस्त्वमविवचितम् अतएव लघुहारीतेनाप्युक्तं सपिण्डीकरणे "स्खेन भर्वा सहैवास्या: सपि - ण्डौकरणं स्त्रियाः । एकत्वं सा गता यस्माज्ञ्चरुमन्त्राहुतिव्रतैः । तस्मिन् सति सुताः कुर्य्युः पितामह्या सहैव तु । तस्यां चैव तु जीवन्त्यां तस्याः श्वश्रुति निश्चयः" इति । तदनु आयुष्यजपानन्तरं श्राद्धदानं श्राद्धीयद्रव्यदानं वशिष्ठक् इति वशिठेन इन्दोगग्टह्यपरिशिष्टे पावणे यो विधिरुक्तः सोऽत्रामिषव्यदामेन बोध्यः । यत्तु मधुमांसाभ्यञ्जनेति याज्ञवल्कवादी ब्रह्मचारिणो निषेधे सन्नियोगशिष्टत्वान्मांसनिषेधे मधुनिषेध इत्युक्तं निरामिषश्राद्धशेषघटितपिण्डानां पिण्डांस्तु दधिमध्वक्तानित्यादिना तदुक्तरूपविशेषणमात्रविधानान्नात्र फलचमन्यायेन श्रा मधुप्राप्तिरिति द्वैतनिर्णयोक्तञ्च तदयुक्त "शाल्यनं दधिमध्वक्तं वदराणि यवांस्तथा । मिश्रक्कत्य च चत्वारि पिण्डान् श्रौफलसन्निभान् ” । इति ब्रह्मपुराणवचनेन पिण्डघटकान्रस्य दधिमध्वक्तत्वेन च पिण्डस्य सर्वस्मात् प्रक्कतादनात् उद्धृत्य इत्यनेन श्रादशेषद्रव्य कर्त्तव्यतया फलचमसन्यायेन वा ष्वपि मधुप्राप्तः । एवमेव श्रातप्रदोपे वर्द्धमानोपाध्यायाः । तत्र्यायश्च राजन्यवैश्य कर्त्तके ज्योतिष्टोमे फलचमसमस्मै भच्यं ददातीति श्रुत्या ऋत्विग्भच्यत्वेन फलचमसविधानात् ऋत्विग्भक्ष्यस्य च यज्ञशेषद्रव्यत्व ेन तत्सि यज्ञेऽपि फलचमसलाभ: फलचमसश्च दविमिश्रितवत्वक्चूर्णमिति । श्रतएव मधुजपोऽत्रोत्सर्गानन्तरं मधुवाता इत्यादि जपश्चाभ्युदधिके मधुसत्त्व मधुद्रव्यप्रकाशकत्वात् दृष्टार्थकः अन्यथा दृष्टार्थकता स्यात् । व्यक्तमाह गोभिलभाष्ये यशोधरष्धृतवचनम् । " कृत्वा नान्दीमुखश्राद्धं दधिमध्वाज्यद्रव्यकम् । अनञ्च प्राथयेदन्नपत इत्यभिमन्त्रितम्” । गोभिला नुक्तस्यान्नप्राशनस्यास्य For Private And Personal Use Only Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३१५ श्रादतत्त्वम् । नेनाभ्युदयिकथावत्वं प्रतीयते। प्रातरामन्त्रितानिति पूर्व दिननिमन्त्रणनिरासाथै युग्मानिति प्रयुग्मव्यावृत्त्यर्थम् उभयतः पिपक्षे मातामहपक्षे च दैवपक्षे युग्मत्वस्य पार्वणे प्राप्तत्वात् तथा पार्वणवदुदङ्मुखीकृत्य ब्राह्मणानुपवेश्य वश्यमाणप्रकारेण कुशान् दद्यात् । कर्तुस्तु पावणवत्र दक्षिणाभिमुखत्वं किन्तु प्रानु खत्व पिण्डदाने तथादर्शनात् । एवञ्चाभ्युदयि के युग्मा ब्राह्मणा: समूला दर्भाः “प्राम खेभ्य उदप खो दद्यात् उदनु खेभ्यः प्रामु खो वा” इत्याखलायनवचनेऽपि हितीयकल्पाभिधान छन्दोगपिटपक्षपरम्। न चैतहेवपक्षपिपक्षोभयसाधारणच्छन्दोगपरमस्तु अधिशेषादिति वाच्यम् प्राभ्युदयिके छन्दोगानामपि देवपक्षस्य पार्वणतुल्यत्वात् “ये चान विश्वेदेवार्थ पूर्व विप्रा निमन्विताः। प्राङ्मुखान्यासनान्येषां हिद पहितानि च” इति देवलोक्तसर्वशाखिगोचरसामान्यविधीनां सङ्कोचे हेवभावात्। किञ्च यथा पावणे छन्दोगतरेषां ब्राह्मणयुग्मत्वप्रान खत्वयोः कत्तुंरुदङ्मुखत्वस्य च दैवे प्राप्तत्वेन विध्यभावात् पितृपक्ष एव ब्राह्मणयुग्मत्व प्रामु खत्वं कर्तुंरुदम, खत्वं विधेयम्। तथा छन्दोगानामपि साहचर्यात् पार्वणप्राप्तब्राह्मणोदन, खत्वमनद्य पितृपक्ष एव कर्तुः प्रामु खत्वमावविधेयत्वम् । एतेन छन्दोगानां दैवब्राह्मणोदन खत्वं मैथिलमतं निरस्तम् । अन्यथा पार्वणेनैव ब्राह्मणोदन खत्वस्य प्राप्तत्वे पितृब्राह्मणस्य च प्राप्तत्व विध्यनुवादापत्तेः। किन्वत वसुसत्ययोर्देवतात्वं पितृपक्षवत् मधुमन्त्रवर्जनश्चेति पार्षणाविशेषः। ऋजुना देवतीर्थेन न तु पिततीर्थेन सव्यस्य वामस्य देववत् दक्षिणजानुपातेन प्रागनकुश इययुक्तासनेन च। पूर्वम् ऋजुहस्तेन कुशदानमुक्त तत्सम्प्रदानप्रकारच पितृभ्य इतौति इतौत्यनेन गोत्रनामभिरामन्वाति For Private And Personal Use Only Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir थाहतत्त्वम्। प्र–स्यमानप्रकारेण पितृभ्यो दत्तेषु कुशेषु तान् ब्राह्मगानुपवेश्य गोत्रनामभिः पितृन् सम्बोध्याय प्रदापयेदित्यर्थः। अपसव्यं प्राचौनावौतित्वं नात्र किन्तपवौतित्वं पितृतीर्थ तर्जन्यपृष्ठयोमध्यरूपं नात्र किन्वङ्गल्यग्ररूपं देवतीर्थम्। पात्राणामध्य पात्रादौनाम् श्रादिशब्दात् प्रासनादिदानं दैवेन तौथे. नेति शेषः । ज्येष्ठोत्तरकरान् ज्येष्ठस्य पक्ति श्रेष्ठस्य उत्तर उपरिकरो येषां तत्तथा। कराग्राग्रपवित्रकानिति कराग्रेऽग्रपवित्रकं पवित्राग्र येषां ते तथा। नैकैकस्य नैकैकपिनादिसम्बन्धिब्राह्मणस्य न तु यथा पार्वणे एकस्य पितृब्राहाणस्य हस्ते तथाऽपरस्य पितामहब्राह्मणस्य हस्ते तथाऽपरस्य प्रपितामहब्राह्मणस्य हस्ते दीयते तथात्रेति । एतेन पितब्राह्म. णयोर्हस्तोपरि उत्तराग्र पवित्रं दत्त्वाऽर्योत्सर्गान्तमुक्ता एक. मेव पितामहादीनां पञ्चानामेकैकशः हयोईयोब्राह्मणयोर्दद्या. दिति पितृदयितोक्तं निरस्तम्। एवं कराग्रामपवित्रकत्वमाभ्युदयिके विशेषः इत्यायाति तथा चैतदैपरौत्यं पार्वणे स्यादिति चेन्नैव मिलितहस्ते पवित्रदानमभिधाय नैकैकस्यान दीयते इति यत् पुनरभिधत्ते तेन ज्ञापयति इदमेवान विधीयते कराग्रामपवित्र कलमनद्य इति कृत्यप्रदीपोक्तमधि निरस्तम् । नैकैकस्यात्र दोयत इत्यभिधानं विना पित्रादित्रयब्राह्मणानां मिलितहस्तोपरि दानानुपपत्त्या नैकैकस्याच दौयत इत्यस्य पुनरभिधानानुपपत्तेः। न च ज्येष्ठोत्तरकरत्व नैव मिलितहस्तलाभः ज्येष्ठोत्तरकरत्वस्य च पित्रादि प्रत्येकब्राह्मणहया. पेक्षयापि सम्भवेन तथात्वानुपपत्तेः। कराग्राग्रपवित्रकलस्यापि पार्वणे केनाप्यनुकत्वेनाभ्युदयिकेऽनुवादानुपपत्तेश्च । तस्मात् ज्येष्ठोत्तरकराग्रामपवित्रकत्वस्य पित्रादिचयमिलितब्राह्मणहस्तोपरि दानस्य च विशेषादाभ्य दयिक एव विधान For Private And Personal Use Only Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir थाहतत्त्वम् । ३१७ पावणेत्वासनादिदर्भवत् पयंदानेऽपि पवित्रदानस्य दक्षिणाग्रत्व प्रतीयते। मधुमध्विति यस्तत्रेति पावणे भोक्नुमिच्छता ब्राह्मणानां श्राव्यत्वेन मधुव्यप्रकाशकमध्विति विजयो मधुवातेति मन्त्रसहितो गायत्रीजपानन्तरं क्रियते सोऽत्र मधु वातेति मन्त्रवर्जित: कार्यः । एतेन भोजनादिकालवये मधुमन्वपाठो न निषिद्धः मधुमन्त्र पाठनिषेधाच मधुनो नि. त्ति स्तोत्यवगम्यते। अन्यथा प्रधाननिवृत्तौ गुणनिहत्तेरप्यर्थसिद्धत्वात् विधातुमयोग्यत्वात्। न च गुणनिवृत्त्या प्रधाननिवृत्तिः गुणलोपे न मुख्यस्येति न्यायविरोधात् मधुमविति जपाभ्यनुज्ञानञ्च न स्यादिति श्रावविवेकः। पितृसंहिताया. मिति पितृमहत्त्वप्रकाशकमन्त्रमावोपलक्षणार्थम् । यस्तत्रेति सत्र पार्वणे तृप्तेषु ब्राह्मणेषु अवस्य प्रकारोऽन्नस्य विकरणं तिलवत्तिलयुक्त यथा स्यात्तथोक्तम् अत्र तु यवयुक्त यथा स्यात्तथा विपरीतक: अतृप्तेषु ब्राह्मणेषु कार्यः। कल्पतरुस्तु विरोतको देवतीर्थादिदानेनेत्याहतदयुक्तम् । “पात्राणां पूरणादीनि देवेनैव हि कारयेत्” इत्यनेन प्राप्तत्वेनानुवादकतापत्तेः । पार्वणे तृप्तास्थ इति यः प्रश्नस्तत्स्थाने सम्पन्नमिति वाच्यं प्रश्नानन्तरं सुसम्पन्नमिति ब्राह्मणैः प्रोक्त शेषमन्नं क देयमिति पुच्छेत् । इष्टेभ्यो दौयतामिति प्रतिवचनम्। “स तानाह पुनः क देयञ्चाबमित्यपि। इष्टेभ्यो दीयतामेतत् इति सम्पपदन्ति से” ॥ इति ब्रह्मपुराणात्। पाद्यं पितरं पूर्ववत् गोवसम्बन्धनामभिरामन्त्रा हितौयं पितामहंततौयं प्रपितामह मध्यदेशाग्रदेशयोर्दर्भस्येति शेष: एतेषां पिण्डस्थाने आवाहितानां पित्रादीनां वामतो दक्षिणस्यां दिशि एवञ्चेत् कत्तुंदक्षिणोपचारो भवति एतेन कत्यप्रदौपे दक्षिणस्थितप्रागग्रकुशमूलमध्याग्रेषु मानादिम्यो मध्यस्थितप्रागनकुशमूलमध्या; For Private And Personal Use Only Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३१८ श्राद्धतत्त्वम् । ग्रेषु पित्रादिभ्यस्तदुत्तरस्थितप्रागग्र कुश मूलमध्याग्रेषु मातामहादिभ्यः प्राङ्म ुखेनावनेजनादिदातव्यमित्युक्त' निरस्तं मातृ पक्षस्य पूर्वं दूषितत्वात् आवाहितपित्रादीनां वामदेशे मातामहादौनामन्वा जलदानानुपपत्तेश्च कर्तुर्दक्षिणोपचारानुपपत्तेश्च कर्कन्धुवंदरं तत्पात्रचालनेन पिण्डपात्रचालनेन अवने जयेदिति श्रुतेरवने निव ति ब्रूयात् । उत्तरोत्तरदानेन पिण्डानां मूलादिक्रमेणोपर्युपरिदानेन दाताऽप्युत्तरोत्तर ऊर्द्धाङ्ख गतिर्भ-वति अधश्चारणादग्रादिक्रमेणाधोऽध आचरणादधोगतिर्भवति इतरेषु पार्वणादिषु ईषत् शक्तान् अल्पलग्नान् तूष्णौमिति गन्धादिदानवाक्यनिषेधः । श्राचामयेत् लेपघर्षण प्रक्षालनादिकं कारयेत् । अन्यत्र पार्वणादौ यवादीत्यादिपदेन देवतार्थो - पवीति परिग्रहः । दक्षिणा प्लवने दक्षिणदिक्निम्न न त्वाभ्यदयिकवत् प्राचौनिम्न दक्षिणाभिमुखस्य कर्तृत्व न तु प्रामखस्य दक्षिणाग्रेषु न प्रागग्रेषु एष विधिः पिण्डदानविधिः । अथ प्रकृतब्राह्मणचमनानन्तरं ब्रह्मणाग्रभूमिं सुसुप्रोक्षितमस्त्विति प्रोक्षयेत् । शिवा आप इत्यादिना युग्मानेव नैकैकम् उदकेन हस्ते सिञ्चेत् । सौमनस्यमस्त्वित्यनेन हस्ते पुष्पदानं कुय्यात् । अनन्तरमचतञ्चारिष्टञ्चास्त्वित्यादिना यवान्दद्यात् दापयेदिति प्रयोजक निर्देशस्तु परोपदेशपचे अन्यदारापि पार्वणवदृद्धिश्राद्धं कर्त्तव्यम् इत्युपदेशाय वा श्रर्घ्यदानवदिति ज्येष्ठोत्तरकरत्वातिदेशार्थं न तु तन्त्रतानिवृत्तिरतिदिश्यते । "अक्षय्योदके चैव पिण्डदानेऽवनेजने । तन्त्रस्य विनिवृत्तिः स्यात् स्वधा वाचन एव च ॥ इत्यनेन विधानात् । षष्ठैव नित्यमिति गोत्रनामान्ते सम्बन्धिस्थाने षष्ठीं विधत्ते न चतुर्ष्या कदाचन इति तो ते खधेति मन्त्रस्थाने चतुर्थी - निषेधकमित्यपुनरुक्तिः तेन ये चात्र त्वेति मन्त्रो न पाठ्यः For Private And Personal Use Only Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रावसत्त्वम्। उत्तराईमिदं प्रावण विषयकमपि। प्रार्थनासु सुसुप्रोक्षितमस्वित्यादिषु प्रतिप्रोतोऽस्तु सन्वित्यादिना प्रतिवचने कृते। पवित्रान्तर्हितान् सिञ्जेदुत्तानपात्रवदिति पवित्राच्छादितान् अज्ज वहन्तीत्यनेन सिञ्चत्। अनन्तरं न्युनोकतपानमुत्तानं कत्वा युग्मानेवेत्यादिना वक्ष्यमाणं कुर्यात्। धर्यस्य पतिमूईन्यस्य अनङ्गुष्ठं पाणिं ग्टहौत्वा प्रणम्यानुव्रजेत्। अत्र च दक्षिणा द्राक्षामलकादि। तथा च ब्रह्मपुराणम्। “द्राक्षामलकमूलानि यवांचाथ निवेदयेत्। तान्येव दक्षिणार्थस्तु दद्याविप्रेष सर्वदा ॥ मूलमाः कादि। निवेदयेत् भोजनाय दद्यात् तानि द्राक्षामलकमूलानि। सम्भवे समुच्चयो. ऽसम्भवे प्रत्येकमपि दक्षिणा। आभ्य दयिकं नित्य काम्यञ्च दर्श पौर्णमामवत्। देवीपुराणम् । “अष्टकामाध्यभ्य दयास्तीर्थपानोपपत्तयः । पितृणामतिरेकोऽयं मासिकानात् ध्रुव: स्मृतः ॥ मासिकान्बादमावस्याश्राद्धादतिरेकोऽष्टकादिवालगणो ध्र व आवश्यकः। विष्णुः “प्रादित्यसंक्रमण विषुवयं विशेषणायनवयं व्यतीपातो जन्ममिभ्यु दयः । एतांस्तु श्राइकालान् वै काम्यानाह प्रजापतिः। श्राइमेतेषु यहत्तं सदानन्याय कल्पते । एतच्च संयोगपृथक्त्वन्यायादविरुद्धम् । स च न्यायस्तिथितत्वऽनुसन्धेयः । छन्दोगपरिशिष्टम् । "असक्कट यानि कम्माणि क्रियेरन् कर्मकारिणा। प्रतिप्रयोगं नैव स्थर्मातरः श्राश्वमेव च ॥ आधाने होमयोश्चैव वैश्वदेवे तथैव च। बलिकमणि दर्श च पौर्णमासे तथैव च ॥ नवयज्ञे च यजज्ञा वदन्त्येवं मनौषिणः। एकमेव भवेत् श्राइमेतेषु न पृथक् पृथक् ॥ नाष्टकासु भवेत् श्राई न श्राद्ध श्राद्धमिष्यते। न शोष्यन्तो जातकम्मप्रोषितागतकर्मसु ॥ विवाहादिः कांगणा य उत्तो गर्भाधानं शुश्रुम यस्य चान्ते । For Private And Personal Use Only Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३२० । - वाहतत्त्वम् । विवाहादावेकमेवा कुर्य्यात् श्राद्धं नादी कर्माणः कणः स्यात् । तथा गणथः क्रियमाणेषु मातृभ्यः पूजनं सक्कत् ॥ सकृदेव भवेत् श्राहमादौ न पृथगादिषु । यत्र यत्र भवेत् श्राद्धं तत्र तत्रैव मातरः " ॥ यानि कर्माणि कवी पुनः प्रतिदिनं प्रतिमासं प्रतिवत्सरं क्रियन्ते वैश्खदेववलिक दर्शपौर्णमासश्रावण्यग्रहायण्यादीनि तेषु प्रथमप्रयोग एव श्राद्धं मातृपूजा च न द्वितीयादिप्रयोगेष्वपि । श्राधाने अग्न्याधाने होमयोः सायं प्रातर्होमयोः नवयज्ञथाग्रहायणेष्टिः एतेषु प्रधानादिषु प्रतिप्रयोगं प्रतिकर्मापि श्राद्धं न कार्य्यं किन्त्वा धानादौ कृते सर्वेष्वेव कृतं स्यात् तेनाम्यत्र श्रावण्यादौ प्रतिकर्मैव श्राद्धमित्युक्त सर्वाण्येवान्वाहाय्र्यवन्तीति गोभिलग्गृह्य सर्वाणि वक्ष्यमाणानि कर्माणि अन्वाहाय्र्यवन्ति अनाहाय्र्यमाभ्य दयिकवाड दक्षिणा च तदुभययुक्तानि कार्याणोत्युक्तः तथा च गृह्यान्तरं "यच्छ्राइ कर्मणामादौ या चान्ते दक्षिणा भवेत । श्रमावास्यां द्वितौयं तदन्वाहार्य्यं प्रचचते । तत्र कर्मविशेषे अभ्युदयिकश्राद्ध' निषेधयति नाष्टकास्खिति भ्रष्ट कासु अष्टका होमेषु । श्राह गृह्येोक्तान्वष्टकादिश्राड पिण्डपितृयज्ञश्राई च शोष्यन्तौ होमः स च शोष्यन्तीं शूलायन्तौमासनप्रसवां ज्ञात्वा होमः सुप्रसवे इत्यस्माडातोरिति भट्टभाष्वदन्त्यादिः । अथ जातकर्मणि श्रावनिषेधात् तत्र तहिधायकं वचनं शाख्यन्तरीयम् । किन्तु पुत्रजन्मनिमित्तकं पुत्रमुखदर्शनार्थञ्च श्राद्धं कर्त्तव्यम् । यथा मार्कण्डेयपुराणे । “नैमित्तिकमथो वक्ष्ये श्राद्धमभ्य ुदयार्थकम् । पुत्रजन्मनि तत्कार्य्यं जातकर्मसमं बुधैः” । श्रत्र जातकर्म समकालविधानादच्छिन्ननाड्यां कर्त्तव्यं तथा च विष्णुधर्मोत्तरम् । "अच्छिन्ननाड्यां कर्त्तव्यं श्राद्ध वै पुत्र For Private And Personal Use Only Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्राद्धतत्त्वम् । ३२१ , " जन्मनि । अशौचापगमे कार्यमथवापि नराधिप ! " ॥ न चास्य पूर्वपचोत्तरभावेन व्यवस्था हारलतोक्त्ता युक्ता पूर्वार्धर्वयर्थ्यापत्तः जातकर्म समकाल विधानविरोधाच्च तस्मादिकल्प एव भक्ताशक्तभेदेनोक्तः तावत्कालं स्तन्यादाने पुत्रनाशप्रसङ्गात् साङ्गं वृद्धिश्राद्ध कत्तं न शक्यते चेदङ्गविकलमेव भविष्यतीति श्राविवेकः । अतएव नव्यवईमानष्टतभविष्यपुराणं "पिण्डनिर्वापणं कुर्य्यान्न वा कुर्य्याद्विचक्षणः । वृद्धिश्राड कुलाचारात् देशकालाद्यपेक्षया । अग्नौकरणमर्घ्य ञ्चावाहनञ्चावनेजनम् । पिण्डश्राद्ध प्रकुर्वीत पिण्ड होने विवर्जयेत्” । कृत्यप्रदोपेऽपि । " देशकालाद्यनुरोधेन यदि पिण्डरहितमाभ्य दयिकं क्रियते तदाग्नोकरणमयं दानावाहनाउने जनाद्युत्तरतन्त्रं निवर्त्तत" इति पुत्र मुखदर्शननिमित्तश्राचञ्च वच्यते । प्रवासादागतस्य पितुः पुत्र मुद्दाभित्राणरूपे प्रोषितागतकर्मणि गोभिलोक्तश्राइं न कार्य विवाहादिति समसनौयचरुहोमग्टहप्रवेशनयानारोहणचतुष्पथामन्त्रणाचभङ्गसमाधानार्थ होमचतुर्थी होमानामादिशब्दन ग्रहणम् एषु विवाहादिगर्भाधानान्तकर्मखेकमेव श्राद्ध कत्तव्यं न प्रतिकर्मादो एकेनैव कृतेन श्रारेण सर्वाखेव तानि श्राद्धवन्तौति अन्तशब्दाऽत्र गणस्यावयवार्थः दशान्तः पट इतिवत् समौपार्थत्वं उपलक्षणं स्यात् ततश्च विशेषणोपलक्षणसन्देहे विशेषणत्व ेन ग्रहणं कार्य्यान्वितत्वात् एतच्च छन्दागपरम् अतएव भवदेवभट्टे नापि गर्भाधानं आभ्युदयिक न लिखितम् अन्य वेदिभिस्तु “निषेककाले सोमे च सौमन्तीनयने तथा । ज्ञयं पुंसवनं चैव श्राद्धं कर्माङ्गमेव च" इति भविष्यपुराणे निषेककाले गर्भार्थशक्राधानदिन श्राद्धं कर्मामित्यनेन विहितमाभ्यु दयिकं कर्त्तव्यमिति तेषां श्राद्धानन्तरनिषेकविधानात् श्राद्ध नियुक्त इत्यादि विष्णुपुराणोक्त निन्दा For Private And Personal Use Only Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३२२ पाहतत्त्वम् । एतदितरवाहपरा गणशः समुदायेन एकस्मिन् दिने क्रिया माणेषु कर्मसु यथा यजनौयेऽहनि नवयज्ञवास्तुयज्ञगोयज्ञाख. राजेषु सर्वोह शेनैकमेव मातपूजनमेकमेव च श्राई सन्नियोगशिष्टत्वात् वसोर्धारादानमा युष्थमन्त्रजपश्च न तु कर्म संख्यानुसारण एतवचनं लाघवन्यायमूलम् अतएवाग्नेयादीनां षणामप्युद्दे शेनाङ्गत्वातन्त्रेण प्रयाजादिकमित्ये कादशाध्याये सिशान्तितं यत्र यति ननु कर्मादौ षड्भ्यः पितृभ्य इत्यनेन थाई विहितं कर्मादिषु च सर्वेष्वित्यनेन मातृपूजा विहिता इति । पुनरुतिन वैदिककर्मादौ मातपूजा पूर्वमुक्ता भनेन पुत्रजन्मादो वैदिक कर्मादित्वाभावेऽपि श्राद्धनिमित्तत्वादेव विधीयते। यहा यत्र यत्र श्राई भवेत्तत्र तत्रैव मातर इति वचमार्थः तेनाष्ट कादो वृदियाइनिषेधे मातृपूजानिषेधः । . अत्र विवाहान्तसंस्काराङ्गनान्दोमुखश्राद्धे पितुरधिकारमाह छन्दोग परिशिष्टम्। "खपितृभ्यः पिता दद्यात् सुतसंस्कारकर्मसु। पिण्डानोहहनात्तेषां तदभावेऽपि तत्क्रमात्”। सुतसंस्कारकर्मसु सुतसंस्कारजनककर्मसु । सुत. संस्कार ग्रहणात् पुत्र विवाहान्तरे पित्रा नाभ्य दयिक कार्यम् आद्यन संस्कारसिद्धी द्वितीयादेस्तदजनकत्वात् तथा चाखलायनग्रह्यपरिशिष्टं “सोमन्तीबयनं प्रथमे गर्भ सोमन्तानयनसंस्कारो गार्भपात्रसंस्कारः” इति अतिरिति गर्भपात्रयोरयं गाभपात्रः गर्भस्योदरस्थस्य पात्रस्य तदाधारस्य स्त्रिया इति कल्पतरुः हारौतोऽपि “सकत्तु कृतसंस्काराः सौमन्तेन कुलस्त्रियः। यं यं गर्भ प्रसूयन्त स गर्भ: संस्कृतो भवेत् । अत्र मकत्संस्कृतपाचजातानां सर्वेषां संस्काराभिधानेन प्रत्येककृतजातकर्मादिकसंस्काराणां सुतरां संस्कृतत्वं “सलत्कृते कृत: शास्त्रार्थः” इति न्यायात् पिण्डानिति थाइपरम् । For Private And Personal Use Only Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वाहतत्त्वम् । ३२३ "कन्यापुत्र विवाहेषु प्रवेशे नववेश्मनः । नामकर्मणि बालानां चूड़ाकर्मादिके तथा । सौमन्तोन्रयने चैव पुत्रादिमुखदर्शने । मान्दोमुखं पितृगणं पूजयेत् प्रयतो गृहौ” इति विष्णुपुरापौयैकवाक्यत्वात् तदैकवाक्यतयैकशेषात् सुतपदं कन्यापुत्र परम्। चा उद्दहनादित्यत्राभिविधावाङ् तस्याभावेऽपि संस्का क्रमवाधकस्य पितुरभावे पुनरन्यः संस्काय्र्यः सपिण्डादिति तत्क्रमादिति " चित्रं कर्म यथा अनैकैरङ्गैरुन्मौल्यते शनैः । ब्राह्मण्यमपि तद्दत् स्यात् संस्कारे विधिपूर्वकैः" इत्यङ्गिरसोल - फलभागितया तस्य प्रधानस्य संस्काय्र्यस्य क्रमात्तेषां पितॄणां दद्यात् ततश्च संस्काय्यविचादित्रय मातामहादित्रयेभ्यः श्राव कुर्य्यात् न च संस्कार्य्यपितरमादाय तेषां पितुः सम्प्रदानभूतानाम् । तत्क्रमादित्यनेन पितुः प्रवेशात् तत्प्रपितामहेतरपञ्चानामिति नारायणोपाध्यायमतं युक्तमिति वाच्य पित्रनुप्रवेशेन संस्काय्यपितृपितामहप्रपितामहानां श्रादे तन्मातामहपतस्यैव " पितरो यत्र पूज्यन्ते तत्र मातामहा ध्रुवम्" इत्यनेन युक्तत्वात् । न वा तेषां संस्कर्त्तृपितृणां संस्काय पितुः पितृगणमातामहानां वा ग्रहणं तत्क्रमादित्यनुपपत्तेस्तथा हि श्राद्य संस्कर्त्तुरनुपात्तत्वेन तच्छब्दादनुपस्थितेः द्वितीये तेषामित्यनेनैव प्रक्रान्तत्वेन तथाविधानां प्रात्या तत्क्रमादित्यस्यानुवादकतापत्तेः अतएव कत्यचिन्तामणिष्टता स्मृतिः । " अष्टौ संस्कारकर्माणि गर्भाधानमिव स्वयम् । पिता कुर्य्यात्तदन्यो वा तदभावेऽपि तत्क्रमात् । तत्क्रमात् पितृक्रमात् तेनान्यवेदिना क्रियमाणे पितृशास्त्रोक्तमेव कर्म कर्त्तव्यं तस्याभावे त्विति मैथिलपाठे प्रक्रान्तव्यवच्छेदक तु शब्देन द्वितीयपक्षस्य सुतरां वाधितत्वमिति ततस्तेषामिति निर्विशेषितपितमात्रपरामर्श कमिति एवं For Private And Personal Use Only Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३२४ वाहतत्त्वम् । I भ्रात्रापि संस्काय्येदेवदत्तपितुरित्यादि प्रयोज्यम् । निर्णयामृते मत्स्यपुराणम् " अन्नप्राशे च सौमन्ते पुत्रोत्पत्तिनिमित्तके । पुंसवने निषेके च नववेश्मप्रवेशने । देवलजजलादीनां प्रतिष्ठायां विशेषतः । तीर्थयात्रावृषोत्सर्गे वृडिया प्रकोर्त्तितम् । हलायुधष्टतकूर्मपुराणे । “ तौर्थयात्रासमारम्भे तौर्थात् प्रत्यागमेऽपि च । वृद्धिश्राद्धं प्रकुर्वीत बहुसर्पिः समन्वितम्" । तीर्थयात्रायां विशेषमाह ब्रह्मपुराणम् । “यो यः कश्चित्तोर्थ - यात्रान्तु गच्छ ेत् सुसंयतः स च पूर्वं ग्टहे खे । कृतोपवासः शुचिरप्रमत्तः सम्पूजयेत् भक्तिनम्रो गणेशम् । देवान् पितृन् ब्राह्मणांश्चैव साधून् धौमान् प्रीणयन् वित्तशक्त्या प्रयत्नात् । प्रत्यागतश्चापि पुनस्तथैव देवान् पितृन् ब्राह्मणान् पूजयेच्च । एवं कुर्वतस्तस्य तौर्घाद्यदुक्तं फलं तत् स्यान्नात्र सन्देह एव" । एवं सुसंयतः पूर्वदिने कृतैकभक्तादिनियमस्तदुत्तर दिने कृतोपवासस्तदुत्तरदिने गणेशं ग्रहानिष्टदेवताच्च संपूज्य वृद्धिवाद कृत्वा ब्राह्मणान् भोजयेत् ततः शुभलग्ने यात्रां कुय्यादिति तीर्थयात्रान्तु गच्छेदित्युपक्रम्य उपवासदिमं मुण्डनमपि । " प्रयागे तौर्थयात्रायां पितृमातृवियोगतः । कचानां पवनं कुर्य्यात् वृथा न विकचो भवेत्” । इति विष्णुपुराणात् प्रवेशेऽपि श्रकरणे तीर्थयात्रायामिति वक्तव्यं “गच्छन् देशान्तरं यस्तु श्राद्ध ं कुर्य्यात्तु सर्पिषा । यात्रार्थमिति तत् प्रोक्तं प्रवेशे च न संशयः” इति भविष्यपुराणादिति गङ्गावाक्यावलौ । वस्तुतस्तु तौर्थप्रत्यागमनोत्तरस्वग्टहप्रवेश इत्येव वक्तव्यं यात्राप्रत्यागमनोत्तरखग्टहप्रवेशयोर्भेदात् तौर्थप्रत्यागमनोत्तरलाभस्तु प्रत्यागतखापीति प्रागुक्तः ततः प्रवेशे चेति चकारेण श्राद्यमात्रं सूचितं न तु तस्य यात्रार्थत्वमपीति देवीपुराणे । अकालेप्यथ वा काले तौर्थश्राद्ध तथा नरैः । प्राप्ते For Private And Personal Use Only Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वाहतत्त्वम्। ३२५ रेव सदा कार्य कर्तव्य पितर्पणम्। पिण्डदानन्तु तच्छस्तं पिटणाचातिदुर्लभम् । विलम्बो नैव कर्तव्यो नैव विघ्न समाचरेत्। श्राई तत्र च कर्त्तव्यमावाहनवर्जितम् । अन काल इति न रावयादिपर्युदस्तप्रतिप्रसवस्तथा तहाधापत्तेः किन्तु पर्युदस्त तर अप्रशस्तकालपरम् । “तत्सादृश्यमभावश तदन्यत्वं तदल्पता। अप्राशस्त्य विरोधश्च नजर्थाः षट प्रकीर्तिताः । इत्यनुशासन ग्रन्थानुरोधात् काल इति प्रशस्तापरावादिकालपरं तत्र शुचेः प्राप्तात्तरविहितप्रथमदिन एव बाई तेन पूर्वदिने राक्षसौवेलादावागमनेऽपि परदिने वाइंन विरुद्धम्। तथा च हलायुधकृतम्। गत्वैव तीर्थ कर्तव्यं श्राह तत्प्राप्तिहेतुकम्। पूर्वाह्नेऽप्यथवा प्रातर्देशः स्यात् पूर्वदक्षिणे"। पूर्वाह्न सङ्गवे पूर्वदक्षिणेऽग्निकोणे पिण्डदानमिति श्राद्धासम्भवे केवलपिण्डदानमिति न पौनकताम्। पिण्ड प्रतिपत्तिमाह मत्यपुराणं "पिण्डांस्तु गोऽजविप्रेभ्यो दद्यादम्नौ जलेऽपि वा। तीर्थाई सदा पिण्डान् चिपेत्तीर्थे विचक्षणः" । गङ्गावाक्यावल्याम्। “संवत्सरं हिमा. सोनं पुनस्तौथ व्रजेद्यदि। मुण्ड नञ्चोपवासञ्च ततो यत्नेन कारयेत्। अत्र हिमासोनमित्यनेन दशमासात् पूर्व मुण्ड. नोपवासो न कार्याविति सूचितम्। अन्त्येष्टिप्रमाणं दानप्रमाणञ्च शुद्धितत्त्वेऽभिहितं वानुसन्धे यम्। इति वन्द्यघटोय. औरघुनन्दनभट्टाचार्यविरचितं श्राहप्रमाणतत्त्व समाप्तम् । For Private And Personal Use Only Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आङ्गिकतत्त्वम् । नमो गणेशाय। प्रणम्य सच्चिदानन्दं भुक्तिमुक्तिप्रदायकम् । আফ্লিা বানানি বন্ধি নীলন: अथ प्रातःकत्यम्। तत्र दयः। *प्रातरुत्थाय कर्तव्यं यत् हिजेन दिने दिने। तत्सर्व संप्रवक्ष्यामि हिजानां हितकारकम् । दिवसयाद्यभाग तु कृत्यं तस्योपदिश्यते। हितोये च तीये च चतुर्थे पञ्चमे तधा। षष्ठे च सप्तमे चैव अष्टमे च पृथक् पृथक् ॥ तत्र दिनपदं ब्राझामुहर्तादिप्रदोषान्तकालपरम् । “त्रियामां रजनी प्राहुम्त्यवाद्यन्तचतुष्टयम्। नाडौनां तदुभ सन्ध्ये दिवसायन्तसंहिते ॥ इति ब्रह्मवैवर्तवचनैकवाक्यत्वात् नाडौदण्डः । प्राप्रामुहकित्यमाह वामनपुराणम्। ब्राह्म मुहत्ते बुध्येत स्मरेदेववरामृषौन्। प्रद्धा मुरारिस्त्रिपुरान्तकारी भानुः शशौ भूमिस्तो बुधश्च । गुरुस शुक्र: शनिराहु केतू कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम् । प्राधामुहर्तमाह पितामहः। रात्रेश्व पश्चिमे यामे मुच्छों ब्रह्मा उच्यते"। पश्चिमे यामे शेषाईग्रहरे भवदेवीयनिर्णयामृत सुमन्तुः । “रात्रेच पश्चिमे यामे मुहर्तो यस्ततीयकः। स ब्राह्मा इति विख्यातो विहितः संप्रवोधने” ॥ शेषाईग्रहरे ब्राह्मयो मुहर्त इति मदनपारिजातात्। तत्र सूर्योदयात् प्रागई प्रहर हो मुहत्तौ तत्र प्राद्यो ब्राह्माः हितोयो रौद्रः। तत्र: "प्रातः शिरसि शुक्लाले हिनेव हिभुजं गुरुम् । प्रसन्नवदनं शान्तं स्मरेत्तन्नामपूर्वकम् ॥ नमोऽस्तु गुरवे तस्मा इष्टदेवस्वरूपिणे । यस्य वाक्यामृतं इन्ति विषं संसारसंज्ञकम्” ॥ इति पठेत् For Private And Personal Use Only Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir আনিল। ३२७ "पहं देवो न चान्योऽस्मि ब्रद्धवाहं न शोकमाक् । सञ्चिदानन्दरूपोऽई नित्यमुलाखभाववान् ॥ इति भावयेत्। "लोकेशचैतन्यमयाधिदेव श्रीकान्त विष्णो भवदाजयैव। प्रात:समुत्थाय तव प्रियार्थ संसारयावामनुवर्तयिथे॥ जानामि धर्म न च मे प्रवृत्तिर्जानाम्यधर्म न च मे निकृत्तिः। त्वया धोकेश हदि स्थितेन यथा नियुत्तोऽस्मि तथा करोमि ॥ विष्णुपुराणम्। “प्रबुद्धचिन्तयेत् धर्ममर्थञ्चास्याविरोधिनम् । पपोड़या तयोः काम्बमुभयोरपि चिन्तयेत्। धर्मलक्षणन्तु भविथे। “धर्मः श्रेयः समुद्दिष्ट शेयोऽभ्युदयसाधनम् ॥ अतएव जैमिनिः । *चोदनालक्षणोऽर्थोधर्मः इति तेन वेदैक. प्रतिपाद्योऽर्योधर्मः कोऽर्थो योऽभ्युदयायेति भाथम्। ततव प्रियदत्तायै भुवे नमः। इति प्रथिवीं नमस्कृत्य दक्षिणं चरणं न्यत्। छन्दोगपरिशिष्टम्। “श्रोत्रियं सुभगामग्निगावेवाग्निचितन्तथा। प्रातरुत्थाय यः पश्येदापाः स विमुच्यते ॥ पापिष्ठं दुर्भगां मयं नग्नमुबकत्तनासिकम्। प्रातरुत्थाय यः पश्येत्तकलेरुपलक्षणम् ॥ प्रतएव व्यासः । धनिनः श्रोत्रियो राजा नदी वैद्यस्तु पञ्चमः । पञ्च यत्र न विद्यन्ते तत्र वासं न धारयेत् ॥ महाभारते । “कर्कोटकस्य नागस्य दमयन्त्या नसन च। ऋतुपर्णस्य राजर्षेः कीर्तनं कलिनाशनम् ॥ भास्य । “कार्तवीर्यार्जुनो नाम राजाबाहुसहस्रभूत्। योऽस्य संकीर्तयेबाम कल्यमुत्याय मानवः। न तस्य वित्तनाशः स्वावच लभते पुन: ॥ कल्यं प्रातः । अथ विरामवोसर्गः। विष्णुधर्मोत्तरे। “निद्रां जयाद् रही राम नित्यमेवारुणोदये। वेगोत्सर्ग ततः कत्ला दन्तधावन पूर्वकम्। मानं समाचरेत् प्रातः सर्वकल्मषनाशनम् ॥ अरुणोदयकालमाह स्कन्दपुराणम् । “उदयात् प्राक् चतमस्तु For Private And Personal Use Only Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३२८ ... आङ्गिकतत्त्वम् । वाडिका अरुणोदयः। तत्र स्नानं प्रशस्त स्यात्तद्धि पुण्यतमं स्मृतम् । नाडिका दण्डः। नाडौषध्या दिवानिमित्युक्तः । विष्णुधर्मोत्तरे। "वेगरोध न कर्तव्यमन्यत्र क्रोधवेगतः" । बेगरोधं न कर्त्तव्यमिति तु कां दिशं गन्तव्यमितिवत भावाख्यातेतरत्वात् साधुत्वम्। अायुर्वेदीयेऽपि । न वेगितो. ऽन्यसिद्धिः स्यात् नाजित्वा साध्यमामयम्। अङ्गिराः । "उत्थाय पथिमे रात्रस्तत पाचम्य चोदकम्। अन्तर्धाय ढणेभूमि शिरः प्राहत्य वाससा। वाचं नियम्य यत्नेन ठौवनोच्छासर्जितः। कुर्याभूतपुरौषे तु शुचौ देशे समाहितः । विष्णुपुराणम्। ततः कल्य समुत्थाय कुयामैत्र नरेश्वर। नै त्यामिषुविक्षेपमतोत्याभ्यधिकं भुवः । तिष्ठेन्नातिचिरंतस्मिनैव किञ्चिदुदौरयेत्”। कल्यमुषः कालम् । मैत्र मित्रदेवताकंपायुसम्बन्धात् पुरोषोत्मगनैऋत्यामुत्थानदेशमारभ्य उत्था. येत्यनेनोपस्थितेः । इषुविक्षेपमतौत्य इधुविक्षेपयोग्यदेशाहहिः। तद्देशपरिमाणमाह पितामहः। “मध्यमेन तु चापन प्रक्षिपेत्तु शरत्रयम्। इस्तानान्तु शते साई लक्ष्य कृत्वा विचक्षणः” । आपस्तम्बः । “मूत्रपुरीष कुर्यात् दक्षिणां दिशं दक्षिणापरां वेति”। दक्षिणापरा नैऋतिः। मनुः । "मूत्रोच्चारसमुत्सगं दिवा कुर्यादुदङ्मुखः । दक्षिणाभिमुखो रात्रौ सध्ययोश्च यथा दिवा"। उच्चारः पुरोषः। यत्तु यमवचनं "प्रत्यङ्मुखश्च पूर्वाह्ने अपराहे च प्राङ्मुखः । उदङ्मुखस्तु मध्याह्ने निशायां दक्षिणामुखः”। इति उदङ्मुखेन सहेच्छाविकल्पा) सूर्याभिमुखनिरासार्थञ्च न तु नियमार्थ देवलवचनविरोधात्। तथाच “सदैवोदङ्मुखः प्रातः साया) दक्षिणामुखः। विगम व पाचरेबित्यं सन्ध्यायां परिवर्जयेत्" इत्यत्न प्रातः सायाङ्गशब्दौ दिवाराविपरी। पूर्वोक्लम नुवच For Private And Personal Use Only Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आङ्गिकतत्त्वम् । ३२९ नैकवाक्यत्वात्। सध्यायां परिवर्जयेदिति तु पीड़ितेतर. परम् । यमः। “कत्वा यज्ञोपवीतन्तु पृष्ठतः कण्ठलम्बितम् । विरम वे च यही कुर्यात् यहा कर्णे समाहितः । पृष्ठतः पृष्ठ। कण्ठलम्बितं निवौतम्। अत्र संवीतं निवौतम् । *संबोतं मानुषे कत्ये” इति तैत्तिरीयश्रुतेः। मानुषे सनकादिक्कत्ये "पृष्ठलम्बितं निवीतं वा" इति वौधायनवचनाच । तथाच हारवत् कत्वा पृष्ठसम्बितं स्कन्धे इत्यर्थः पत्र व्यवस्थामाह सांख्यायनः। *योकवस्त्रो यत्रोपवीतं कणे कला अवगुण्ठितः" इति कर्णे दक्षिणकर्णे। "पवित्र दक्षिणे वर्षे कृत्वा विस्म बमाचरेत्”। इति स्मृती तथा दर्शनात् । पबगुण्ठितः कतशिरोऽवगुण्ठनः । मनुः । “छायायामन्धकारे वा रानावहनि वा हिजाः। यथासुखमुखः कुर्यात् प्राणवाध. भयेषु च”। महाभारते। "प्रत्यादित्य प्रतिजलं प्रतिगाच प्रतिहिजम्। मेहन्ति ये च पथिषु ते भवन्ति गतायुषः'। प्रतिः मांमुख्ये। मनुः । “न मूवं पथि कुर्वीत न भस्मनि म गोव्रजे। न फालकृष्टे न जले न चित्यां न च पर्वते । न जीर्णदेवायतने न वल्मौके कदाचन। न ससत्वेषु गर्तेषु न गच्छन्त्रापि संस्थितः। न नदीतीरमासाद्य न च पर्वतमस्तके। वायग्निविप्रानादित्यमपः पश्यंस्तथैव च । न कदाचन कुर्वीत विण्म वस्त्र विसर्जनम्" । ससत्वेषु प्राणिमत्सु। संस्थितः उपस्थितः। पर्वतमस्तकनिषेधोऽधिकदोषाय। वशिष्ठः । "आहारनिर्हारविहारयोगा: सुसम्भूता धर्मविदा तु कार्याः । वाग्बुद्धिकार्याणि तपस्तथैव धनावुषो गुप्ततमे तु कार्ये । निर्हारो मूबपुरौषोत्सर्गः। विहारः स्त्रीसम्भोगः। योगः समाधिः । वाग्गुप्तिरशभालापत्यागः । बुद्धिगुप्तिरनिष्टचिन्तात्यागः । हारीतः। "पाहारन्तु रहः कुर्यात् निरिञ्चैव For Private And Personal Use Only Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir .३३० आङ्गिकतत्त्वम्। सर्वदा। गुप्ताभ्यां नमापेत: स्यात् प्रकाशे होयते तया"। विष्णुपुराणम् । “सोमाग्न्यर्काम्बुवायनां पूज्यानाञ्च न संमुखे। कुर्यात् ठौवनविस्म बसमुत्सर्गञ्च पण्डितः। आपस्तम्बः । *न च सोपानको मूत्रपुरौषे कुर्यादिति”। वृहन्मनुः । “करगृहीतयात्रेण कृत्वा मूत्रपुरौषके। मूत्रतुल्यन्तु पानीयं पौत्वा चान्द्रायणञ्चरत्"। भरद्वाजः। “अथ विवथ विराम – लोष्ट्रकाठणादिना । उदस्तवासा उत्तिष्ठेदृढ़ विकृतमहनः । उद' स्तवासाः कटिदेशाटुत्क्षिप्तवस्त्रः । अथ शौचम्। देवलः। “धर्मविक्षिणं हस्तमधःशौचे न योजयेत्। तथैव वामहस्तेन नाभेकर्द्ध न शोधयेत् । प्रतिस्थितिरेषा स्यात् कारणादुभक्रिया” ॥ कारणाद्रीगादेः। ब्रह्माण्डपुराणम् । “उड़तोदकमादाय मृत्तिकाञ्चैव वाग्यतः। उदम,खो दिवा कुर्यात् रात्रौ चेद्दक्षिणामुखः ॥ सुनिनि मृदं दद्यात् मृदन्ते त्वप एव च। दातव्यमुदकं तावद् यावत् स्यात् मृत्तिकाक्षयः” ॥ कुर्यात् शौचमिति शेषः। सुनिनिते भरहाजोत लोष्ट्रादिप्रसृष्टे गुदे। उदकपात्राभावे करेण जलाशयादुदकग्रहणमाह प्रादित्यपुराणम् । *अरनिमात्रं जलं त्यक्त्वा कुर्यात् शौचमनुते । पचाच शोधयेत्तीर्थमन्यथा न शुचिर्भवेत्” । तस्मिन् देशे शौचं कर्तव्य यस्मादरनिमात्र व्यवहितं जलं तत्स्थलमेव तौथं जलसमोपवात्। विष्णु पुराणम्। “वल्मीकमूषिकोत्खातां मृदमन्तजलान्तधा। शौचावशिष्टां गेहाञ्च नादद्यात् लेपसम्भवाम् । अन्तःप्रायवपनाञ्च हलोत्खातां सकई माम्” ॥ मनुदक्षो। "एका लिङ्गे गुदे तिस्रो दश वामकर तथा। उभयोः सप्त दातव्या मृदः शुद्धिममौसता"। उभयोः करयोः। विष्णुपुराणम्। “एका लिङ्गे गुदे तिस्रो दश वामकरे तथा। हनः For Private And Personal Use Only Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाङ्गिकतत्त्वम् । ३३१ हये च सप्तान्या मृदः शौचोपपादिका:” ॥ यमः। “लिने वेका गुदे तिम्रो वामहस्ते चतुई श। तत: पुनरुभाभ्याञ्च दातव्याः सप्त मृत्तिका:" ॥ पैठौनसिः। "मृत्तिका संग्टह्य एका लिङ्गेपाने पञ्च एकस्मिन् हस्ते दश उभयोः सप्त इत्यादि। एतासां संख्यानां दक्षायुक्ताधिक्यं गन्धाद्यनुवृत्तिमनुरुध्य व्यवस्थेयम्। वामहस्त दशदानानन्तरं तत्पृष्ठे षड़दानमाह हारोतः। “दशमध्ये च षट्पृष्ठे इति । शङ्खदक्षौ “तिम्रस्तु मृत्तिका देयाः कृत्वा नखविशोधनम्। तिस्रस्तु पादयोदया: शुद्धिकामेन नित्यशः ॥ नखशोधनं वृणादिना नखान्तमलशोधनं तिस इति हस्तयोरिति शेषः। पादप्रक्षालनं कांस्ये न कर्तव्यमित्याह विष्णुधर्मोत्तरम्। “दमैन मार्जयेत् पादौ न च कांस्य प्रधावयेत्”। दक्षः । “लिङ्गे तब समाख्याता त्रिपर्वी पूर्यते यया। अईप्रमृतिमात्रा तु प्रथमा मृत्तिका स्मता ॥ द्वितीया च हतीया च तदाऽही प्रकीर्तिता" । यदा तु उक्त प्रमाणया मृदा गन्धलेपक्षयो न भवति तदा अधिकयापि कर्त्तव्यम्। *गन्धलेपक्षयकरं शौचं कुर्यादतन्त्रित:"। इति याज्ञवल्काात्। गुदादन्यत्र परिमाणमाह यमः । “मृत्तिका तु समुद्दिष्टा त्रिपर्वी पूर्यते यया" । त्रिपर्वी तर्जनौ मध्यमानामिकानामग्रत्रयं मूत्रमात्रे तु स्मतिः । “एका - लिङ्गे मृदं दद्यात् वामहस्ते तु मृत्त्रयम् । उभयोहस्तयोई च मूत्रशौच प्रकीर्तितम्"। ब्रह्मपुराणे । “पादयोः एहोला च सुप्रचालित पाणिमान् । हिराचम्य ततः शुद्धः स्मृत्वा विषाणु सनातनम्”, पादयो एकैका इद मूत्रोत्सर्गे पुरोषोत्सर्ग तिमृणां विधानात् । दक्षः। “यथोदित दिवा शौचम् आई रात्रौ विधीयते । पातुरे तु तदई स्यात्तदई तु पथि स्मृतम् ॥ यथोक्त करणाशक्तावेवेदं न तु निशादि पुरस्कारेणैव वाकय स्या For Private And Personal Use Only Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३३२ पाङ्गिकतत्त्वम् । दृष्टार्थतापत्तेः। आपस्तम्बः । “पथि पादस्तु विजेय प्रातः कुर्यादयथाबलम्"। एतयोविरोध पार्तानार्ताभ्यां परिहरपौयः। दक्षबौधायनौ। "देश काल तथात्मान' द्रव्यं द्रव्य प्रयोजनम् । उपपत्तिमवस्थाच ज्ञात्वा शौचं प्रकल्पयेत् ॥ ब्रह्मपुराणे । “न यावदुपनौयेत हिजः शूद्रस्तथाङ्गना । गन्धलेपक्षयकर शौच तेषां विधीयते ॥ प्रमाणं शौचसंख्या वा न शिष्टरुपदिश्यते। यावत् शहि स मन्येत तावत् शौच समाचरेत् । न्यनाधिक न कर्तव्य शौच शुद्धिमभौमता। प्रायश्चित्तं प्रसज्येत विहितातिक्रमे कते। शौचाचारविहीनस्य समस्ता निष्कता: क्रियाः" ॥ गन्धलेपक्षये सत्यधिकं न कर्त्तव्यं याज्ञवल्काविरोधात्। गन्धलेपाक्षयेत्वधिकसंख्ययापि याज्ञवल्कावच नमनुपनौतादि पर वा। व्याघ्रपादः । “शौचन्तु विविध प्रोक्तं वाह्यमाभ्यन्तरन्तथा। मजलाम्यां स्मृत वाह्य भावशुद्धिस्तथान्तरम्। गङ्गातोयेन कृत्स्नेन मृद्भारैश्च नगोपमैः। पामृत्योः स्नातकश्चैव भावदुष्टो न शुद्घति” । स्मृतिः। “धावन्तञ्च प्रमत्तञ्च मूत्रोच्चारकतन्तथा। भुजानमाचमनाहश्च नास्तिक नाभिवादयेत्। जन्मप्रभृति यत्किञ्चित् चेतसा धर्ममाचरेत्। सर्व तनिष्कलं याति एकहस्ताभिवादनात्"। ऋष्यशृङ्गः। “यस्मिन् स्थाने कृत शौचौं वारिणा तहिशोधयेत्। न शुद्विस्तु भवेत्तस्य मृत्तिका यो न शोधयेत्'। शौचानन्तरं हारीतः। 'गोमयेन मृदा वा कमण्डलु प्रमृज्य पूर्ववदुपस्पृश्य पादित्यं सोममग्निं वा वौक्षेत इति” अत्र मार्जनानन्तरंक्षालनमन्यत्र तथा दर्श. नात्। आचमनानन्तर सूर्यादिदर्शन यथा सम्भवम् । पाचमनविधिः । दक्षः। “प्रक्षाल्य पाणीपादौ च त्रिः पिवेदम्बुवौक्षितम् । संकृत्याङ्गुष्ठमूलेन विप्रमज्यात्ततो मुखम् । For Private And Personal Use Only Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३३३ पाहिकतत्वम् । संहत्य तिभिः पूर्वमास्यमेवमुपस्पृशेत्। अङ्गुष्ठेन प्रदेशिन्या घ्राणं पश्चादनन्तरम्। अङ्गुष्ठानामिकाभ्याञ्च चक्षुःश्रोत्रे पुनः पुनः । नाभिः कनिष्ठाङ्गष्ठेन हृदयन्तु तलेन वै। सर्वाभिस्तु शिरः पश्चात् बाहू चाग्रेण संस्पृशेत्"। पादप्रक्षालनं विशेष यति देवलः । “प्रथमं प्राङ्मुखः स्थित्वा पादौ प्रक्षालयेच्छनैः। उदङ्मुखो वा दैवत्ये पैटके दक्षिणामुखः'। शनैः रत्वरः। देवपेटकेतराबापस्तम्बः । “प्रत्यक् पादावसे चनमिति”। प्रत्यपश्चिमाभिमुखः। क्रममाह गोभिलः । "सव्यं पादमवनेनिजे" इति सव्य पादं प्रक्षालयति । “दक्षिणं पादमवननिजे" इति दक्षिणं पाद प्रक्षालयति। अहणीये तथादर्शनात् सर्वत्र तथा कल्पाते। पारस्करः । “सव्यं प्रक्षाल्य दक्षिणं प्रक्षालयतौति" सव्य प्रथमं प्रक्षालयतौति सूत्रेण प्राक्सव्यपादप्रक्षालने सिद्धे सव्य प्रक्षाल्य दक्षिणं प्रक्षालयतौत्यत्र सव्यग्रहणं सामान्यायं तेनान्यस्मिन्नपि पादप्रक्षालने सव्यस्येव प्राथम्यम् अन्यार्थ पूर्ववचनमिति दर्शनात् । ब्राह्मणखेद दक्षिणं प्रथममिति सूत्र तस्य पादौ यदि ब्राह्मणः प्रक्षालयति तदा दक्षिणं दातव्यप्रथममिति मन्तव्यं न सव्यं यथा प्रक्षालयतीत्वनुवृत्तावाखलायनः। “दक्षिणमने ब्राह्मणाय प्रयच्छेत् सव्य शूद्रायेति” स्वयं प्रक्षालने सव्यस्यैव प्राथम्य. मिति हरिशमा। एवञ्च दक्षिय पादप्रक्षालनानन्तरं वामपादप्रक्षालनं वाचस्पसिमिश्राद्युक्तं हेयमिति। आचमने पाणिपादप्रक्षालनं मूवाद्युत्सर्गे यथा वृडपराशरः । “कत्वाथ शौचं प्रक्षास्य पादौ हस्तौ च मृज्जलैः । निवदशिख प्रासौनो विज प्राचमनचरेत्। तत्वोपवीतं सव्येऽशे वाङ्मनः कायसंयतः" । आपस्तम्बः । “इत्येवमद्भिराजानु प्रक्षाल्य चरणौ पृथक् । इस्तौ चामनिवधाम्यां पश्चादासोत संयतः” ॥ आजानु आमनिबन्धा For Private And Personal Use Only Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पातिकतत्त्वम् । भ्यामित्यवध्युपादानं तत्पर्यन्ताशचित्वयायामध्वश्रमापनोद. नायातिशयशोचाय वा प्रतएवोक्तम् "प्रजाप्रकर्षात् फलप्रकर्षः इति। शिखाबन्धे विशेषमा ब्रह्मपुराणम्। “गायत्रया तु शिखां बहा नैऋत्यां ब्रह्मरन्धतः । जुटिकाञ्च ततो बड्डा ततः कर्म समारभेत्”। शूद्रस्य शिखाबन्धे मन्वस्तु। "ब्रह्मवाणीसह साणि शिववाणौशतानि च। विष्णो मसालेण शिखाबन्धं करोम्यहम् ॥ गच्छन्तु सकला देवा ब्रह्मविशुमहेश्वराः । तिष्ठत्व वाचला लमोः शिखामुक्तं करोम्यहम् ॥ पिवेदित्यबान्तर्जानु इत्याह याज्ञवल्करः। "अन्तर्जानुशुचौ देशे उपविष्ट उदङ्मुखः । प्राग् वा ब्राह्मण तीर्थेन हिजो नित्यमुप. स्पयेत् ॥ अन्तर्जानु जानुनोर्मध्ये इस्ती कवेति शेषः । तथाच हारीतः। “पन्तोररत्नौकखा विरपोहाहीच पिबे. दिति । पत्रारोहस्तौ हाी हगता इत्यर्थः। वाशब्दादीशाभिमुखव। “ईशानाभिमुखो भूत्वाऽपः स्पृशेत्तु यथाविधि" । इति मरोयुक्तः। ब्राण तीर्थेनाष्ठमूलेन । "कनिष्ठप्रदेशिन्याष्ठमूलान्य करस्य च। प्रजापतिपिळ. ब्रह्मदेवतीर्थान्यनुक्रमात् ॥ करस्य दक्षिणस्य । तथाच माकण्डेयपुराणम्। "प्रष्ठोत्तरतो रेखा या पाणेर्दक्षिणस्य च । एतत् ब्राह्ममिति ख्यातं तीर्थमाचमनाय वै" ॥ हिजो न शूद्रादिरिति मिताक्षरा। पतएव "स्त्रियास्त्रैदभिक तौथ शूद्रजातस्तथैव च । सकदाचमनाच्छुदिरेतयोरेव चोभयोः" । ब्रागावरीधे मनुः । “कायवैदशिकाभ्याच्च न पित्रेण कदाचन" । यानवस्काः। “अद्विस्तु प्रकृतिस्थाभिहीनाभिः फेनबुड्दैः। हत्कण्ठतालुगाभिश्च यथासंख्यं हिजातयः । शुरन् स्खौ च शुद्रच सक्त् स्पष्टाभिरन्ततः" ॥ अन्तत पोष्ठप्रान्ते For Private And Personal Use Only Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पातिकतखम् । ३५ उत्तरोत्तरमपकर्षात् । पतएव स्पष्टाभिरित्युक्तं न तु भति. सामिरित्युतम्। "स्त्रीशूद्रौ बाथ नित्यानमः क्षालनाच करीठयोः । इति ब्रह्मपुराणाच । पाचमनार्थे पाणिपादप्रक्षासनमेव इत्ये के इति स्त्रीशूद्राधिकारी गोतमोतिय। पाचमनाईजलाभावे इत्याचाराध्यायात् दक्षिणश्रवणस्पर्शः। मनुः । "हाभिः पूयते विप्रः कण्ठगाभिस्तु भूमिपः। वैश्योऽभिः प्राशिताभिश्च शूद्रः स्पृष्टाभिरन्ततः ॥ प्रत्र वैश्यावधिप्राशनमुक्ताम्। अनुपनौतानान्तु स्त्रीशूद्रवदाचमनम्। “न यावटुपनीयेत हिजः शूद्रस्तथाङ्गना। गन्धलेपक्षयकरं शौचं सेषां विधीयते ॥ इति शौचे प्रागुप्तादर्शनात्। मिताक्षरादयोऽप्येवम् । अम्ब विशेषयति वौधायनः । पादप्रक्षालनात् शेषेण नाचामेत् यद्याचामेत् भूमौ सावयित्वा प्राचामेदिति” । उशना । “कांस्यायसेन पात्रेण वपुसौसकपित्सलैः । प्राचान्तः शतकत्वोऽपि न कदाचिच्छुचिर्भवेत् ॥ प्राचमनजलनिषेधे शलिखितौ। “न शूद्राशुचेकपाण्यावर्जितेनेति । अत्राशचिपदम् प्राचमनकर्तृभिन्नपर शूद्रसाइचात् एकपाणिपदमपि कर्तपाणिभिन्नपरम् । तेन स्वीयवामपाण्यावर्जिते न दोषः तदाह वौधायनः। “भूत्रपुरीषे कुर्वन् दक्षिणहस्तेम जलपात्र ग्रहाति सव्येनाचमनीयमिति” राति जलमिति शेषः। प्राचामेदित्यनुवृत्तौ देवलः । “शिखां बढा वसित्वा हे निर्निक्त वाससौ शुभे। तूष्णीं भूत्वा समादाय नोहच्छत्र विलोकयन् ॥ एकवस्त्रा: प्राचौनावौतिनः" इत्यादिपारस्करदशनात्। अत्र प्रेतस्नानतर्पणादी एकवस्त्रत्वं विहितं तत्र च तदङ्गत्वात्। एकवासा एवाचमनं कुर्यात् । प्रचेताः । “अनु. गणाभिरफेनाभिः पूताभिवाश्य चक्षुषा। हताभिर्विशब्दाभि. स्विश्चतुर्वाभिराचमेत् ॥ चतुर्वेति भावापेक्षया विकल्पः For Private And Personal Use Only Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाक्षिकतत्त्वम् । न च भूयत्त्वार्थ कल्पनागौरवापत्तेः । वौक्षणानुष्णयोर्भट्टभाष्यमाधवाचार्यकतपराशरभाष्ययोरपवादमाह यमः। “रात्रा. ववौक्षितेनापि शुद्धिकता मनीषिभिः। उदकेनातुराणाच तथोषणेनोष्णपायिनाम्” ॥ प्राचादित्यनुवृत्तौ वशिष्ठः। “प्रद. रादपि यागोस्तर्प गाय स्युः न वर्णरसदुष्टायाश्च स्युरशुभागमाः” । इति प्रदरः खयं विदीर्णभूभागः अशुभदेशादागताः । यन्मिन् देशे वर्णाभिदुष्टमेव तोयं तत्र तदपि ग्राह्यं तथाच मरीचि: । “येषु स्थानेषु यत् शौचं धमाचारच यादृशः । तत्र तनावमन्येत धर्मस्तत्रैव तादृशः। “येषु स्थानेषु ये देवा येषु स्थानेषु ये द्विजाः। येषु स्थानेष यत्तीयं या च यत्र व मृत्तिका"। आचमने उदकग्रहणप्रकारपरिमाणवाह भरद्वाजः । "अयातं पर्वणां कृत्वा गोकर्णावतिमत्करम्। संहताङ्गलिना तोयं रहौत्वा पाणिना हिजः ॥ मुबाङ्गाष्ठ कनिष्ठाभ्यां शेषेपाचमनं चरेत्। मासमन्ननमावास्तु संग्राह्य त्रिपिबेदपः” ॥ पाणिना दक्षिणेन त्रि:पिबद्दक्षिणेन इत्यादिपुराणोक्त: । मार्कः ण्डेयः । “सपवित्रण हस्तेन कुर्यादाचमनक्रियाम् । नोच्छिष्टं तत् पवित्रन्तु भुत्तोच्छिष्टन्तु वर्जयेत्” ॥ मदनपारिजाते हारोतः। “ग्रन्थिर्यस्य पवित्रस्य न ते नाचमनञ्चरेत् । अन्य नाग्रन्थिरिति समुद्र करोऽपि । आचमनानुवृत्तौ देवलः । "न गच्छन् न शयानय न क्रमन् न परान् स्पृशन्। न हसन् नैव संजल्पन् नात्मानञ्चैव बौक्षयन्" । क्रमन् कम्पमान इति रत्नाकरः। आत्मानम् आत्मस्थानं हृदयं वौक्षयन् इति स्वार्थे णिच् । नेत्यनुवृत्तौ। "केशानीवीमधःकायं संस्मृशन् धरणीमपि। यदि स्पृशति चैतानि भूयः प्रचालयेत् करम्”। अधः कायं नाभेरधःप्रदेशम्। करं For Private And Personal Use Only Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाकितवम् । दचिणम् श्राचमनानुहत्तौ गोभिलः । “नान्तरीयैकदेशेन कल्पयित्वोत्तरौयकम्” इति । चन्तरीयमधः परिधानं तदेकदेशेन उत्तरीयं कृत्वा । मरौचिः । " न वहिर्जानुस्त्वरयनासनस्थो न चोत्थितः । न पादुकास्यो नाचित्तः शुचिः प्रयतमानसः ॥ उपस्पृश्य द्विजो नित्यं शुद्धः पूतो भवेन्नरः । भुक्कासनस्थोऽप्याचामेत् नान्यकाले कदाचन" ॥ जलस्थलोभयकर्मानुष्ठानार्थं जलस्थलेकचरणेनाचमनं कर्त्तव्यमित्याह पैठौ - नसिः । “अन्तरुद के प्राचान्तोऽन्तरेव पूतो वह्निरुदके आचान्तो वहिरेव शो भवति तस्मादन्तरेकं वहिरेकं पादं कृत्वा पाचामेत् सर्वत्र शवो भवति” इति जानोड्डू जलेषूत्तिष्ठवाचामेत्। “नानोरूर्द्ध जले तिष्ठत्राचान्तः शुचितामियात् । अधस्तात् शतक्कत्वोऽपि समाचान्तो न शुह्यति" इति विष्णुक्तः । वातः । “आर्द्रवासा जले कुर्य्यात् तर्पणाचमन ं जपम् । शुष्कवासा स्थले कुर्य्यात् तर्पणाचमनं जपम्” ॥ कात्यायनः । “खानमाचमन' होम' भोजन देवतार्चनम्। प्रौढ़पादो न कुर्वीत स्वाध्याय पितृतर्पणम् । श्रासनारूढ़ पादस्तु जानुनोस्योस्तथा । कृतावशक्थिको यस्तु प्रौढ़पादः स उच्यते ॥ आसनारूढ़पादः आसनारूढपादतलः । जानुनोर्जयोः छतावशक्थिके वस्त्रादिना कृतपृष्ठजानुजङ्गाबन्धः । तुद्दयेन भेदप्रतीतेः । अत्र च "अनेक हाहो दारुशिले भूमिसमे इष्टका संकीर्णीभूता” इति बौधायनवचनात् । तथाविध पादोऽपि कुर्य्यात् । व्यासः । “शिरः प्रावृत्य कण्ठं वा मुक्तकच्छशिखोऽपि वा । प्रकृत्वा पादयोः शौचं चाचान्तोऽप्यशुचिर्भवेत् ॥ अप: पाणिनखाग्रेषु पाचामेद यस्तु वै दिजः । सुरापानेन तत्तुल्यमित्येवमृषिरब्रवीत् ॥ संहत्येति मुखं संहत्य अलोमकोष्ठस्पर्शो यथा न भवतौति तात्पर्य्यम् । तथा च वशिष्ठः । For Private And Personal Use Only ३३० - Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाङ्गिकतत्वम् । "पाचान्तः पुनराचामेत् वासो विपरिधाय च। श्रोष्ठौ संस्पृश्य च तथा यत्र स्यातामलोमको" ॥ एवञ्च प्रागुता हारीत वचने पोष्ठयोर्मार्जनमुक्त तत् सलोमकयोरेवेति। एतदनन्तरं वामहस्तं पादौ शिरथ दक्षिणेन पाणिमा जलेनाभ्युक्षयेत् । तथा च कामधेनावापस्तम्बः। “निराचमेत् हगताभिरद्भिस्त्रिरोष्ठौ परिमृजेत्। छिरित्येके दक्षिणेन पाणिना सव्यं प्रोक्ष्य पादौ शिरश्च ॥ गोभिलः । "विराचामेत् हिः प्रमजीत पादावम्युच्य शिरोऽभ्युक्षयेत् इन्द्रियाण्यद्भिः स्पृशेत् । अक्षिणी मासिक कर्णाविति'। इन्द्रियाणि इन्द्रियायतनानि इन्द्रियाणाममूर्त्तत्वात्। तिभिरिति तर्जनौमध्यमानामिकाभिः तर्जन्यनामामध्याभिमुख पूर्व स्पृशेदिति ब्रह्मचारिकाण्डकृतभविश्यात्। “घ्राणं नासापुटहय तर्जन्यङ्गुष्ठयोगेन स्पृशेनासापुटवयम्" इति शङ्खात्। एवं पुनः पुनरिति चक्षःयोजहयाभिप्रायेण श्रीदत्तोऽप्येव्यम् । तेन दक्षिणं स्पृष्ठा वाम स्पृशेत्। व्यक्तं कामधेनावाचारचिन्तामणावापस्तम्बः । *चक्षुषो मासिके कौँ सतत् सक्दुपस्पृशेत् । घिरित्येके हिरिति शाख्यन्तरोयम् अत्र गोभिलौयापस्तम्बौयपाठक्रमो न ग्राह्यः ततक्रमस्य "श्रुत्यर्थपठन्स्थानमुख्यप्रवर्तिकाः" इति जैमिनिसूत्रात्। घ्राणं पश्चादनन्तरमिति दक्षीतशब्दक्रमेण बलवता वाधात्। अतएव दक्षेखैव प्रतिनातम् । “उक्त कर्मः क्रमो नोक्तः न कालस्वत एव हि। हिजानान्तु हितार्थाय दक्षस्तु खयमब्रवीत् ॥ अतश्छन्दोगपरिशिष्टेन गोभिलास्पष्ट क्रमः स्पष्टोक्तः। यथा “निःप्राश्यापो हिन्मज्य मुखमेता. न्युपस्पृशेत्। आस्थनासाक्षिकर्णाच नाभिवक्ष: शिरोऽशकान्” ॥ अव नासाक्षीत्युक्त सर्वचाङ्गुष्ठयोगेन करणमा प्रेठोनसिः। “अग्निरगुष्ठस्तस्मात्तेनैव सर्वाणि स्थानानि For Private And Personal Use Only Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३३० पाक्षिकतत्त्वम् । स्मृशेत्। नाभिसर्यानन्तरं जलस्पर्शमाह व्यासः। ततः स्पथबाभिदेश पुनरपश्च संस्पृशेत् । इन्द्रियस्पर्शानन्तर भविथे। “यङ्गमावुदक वीर समुत्सृजति मानवः । वासुकिप्रमुखान् नागान् तेन प्रोणाति मानवः" ॥ पैठोनसिः । "स्पृष्ट्वा ब्राणान् यथासंख्यं पादौ प्रोक्ष्य ततः शुचिः। सव्ये पाणी ततः शेषा प्रपो विनिमयेदिति" ॥ घ्राणान् इन्द्रियाणौति रत्नाकरः शेषा पाचमनावशिष्टाः इति मदनपारिजातः। एतत् परमेव "अन्ततः प्रत्युपस्पृश्य सचिः" इति गोभिलसूत्नम्। अक्ष्यादिस्पर्शसहित पाचमन कवा उदक स्पृष्ट्वा शचिरिति सरलाः । प्रसत उपस्पर्शनात् पाणिना उदकस्पर्श अत्वा शुचिर्भवतीति भभाष्यम्। अतएवोपस्पर्शमभिधाय ततो जलशेष वामहस्ते त्यजेदिति पिढदयिता। एतेन विजातीनामपि हिरा. चमने पोष्ठजलस्पर्शमात्र शास्त्रार्थः “प्रत्युपस्पृश्यान्ततः शुचिभवति" इति गोभिलरह्यादिति छन्दोगाहिक निरस्तम्। हृदय स्पृशंस्व वमेवाचामत्। इति तदनन्तरसूत्रेण हृदयस्मृगजलनियमात्। “उच्छिष्टोऽत्रैवातोऽन्यथाभवत' इति सूत्रा. न्तरेण हड्तत्वाभावे उच्छिष्टाभिधानात्। एतदनन्तरमेवाथ प्रत्य पस्पर्शनमित्यादिना हिराचमनादिविधानाच्च । वायुपुराणे। "निष्ठौवने तथाभ्यङ्ग तथा पादावसेचने। उच्छिष्टस्य च संभाषात् अशुच्युपहतस्य च ॥ सन्देहेषु च सर्वेषु शिखां मुक्का तथैव च । विना यज्ञोपवीतेन नित्यमेवमुपस्पृशेत् । उष्ट्रवायससंपर्थे दर्शने चान्यवासिनाम्" ॥ प्रागर्दै कत इति शेषः । सन्देहेषु प्रप्रायत्यस्येति। शिखां मुक्का पनन्तर बड्डा यज्ञो. पवौतेन विना स्थित्वा पुनः परिधाय चाचामेदित्यर्थः। हारीतः। "स्त्रीशूद्रोच्छिष्टसंभाषणे मूत्रपुरोषोत्सर्गदर्शने देवमभिगन्तु काम पाचामेदिति”। देवलः । “उच्छिष्ट मानव स्पृष्ट्वा For Private And Personal Use Only Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३४० पातिकतत्त्वम् । भोज्यं चापि तथाविधम् । तथैव हस्ती पादौ च प्रक्षास्याचम्य शुश्चति । तथाविधमुच्छिष्टम्। याज्ञवल्काः। “मात्वा पौत्वा क्षुते सुप्ते भुक्त्वा रथोपसर्पणे। प्राधान्तः पुनरावामित् वासोविपरिधाय च"॥ ब्रह्मपुराणं "होमे भोजनकाले च सध्ययोरुभयोरपि। आचान्तः पुनराचामेत् अन्यत्रापि सकत सकत्। हिराचम्य तत: शुद्धः स्मृत्वा विष्णुं सनातनम् ॥ स्मृतिः । "क्षुते निष्ठौविते मुप्ते परिधानेऽनुपातने । कर्मस्थ एषु नाचामहक्षिणं अवणं स्मृशेत् ॥ सांख्यायनः। मादित्या वसयोरुद्रा वायुरग्निव धर्मराट् । विप्रस्थ दक्षिणे कणे नित्यं तिष्ठन्ति देवताः ॥ अव हेतुमाह पराशरः। “प्रभासादौनि तीर्थानि गङ्गाद्याः सरितस्तथा। विप्रस्य दक्षिणे कर्णे वसन्ति मनुरब्रवीत् ॥मार्कण्डेयपुराणम्। “कुादाचमनस्पर्श गोपृष्ठस्थार्कदर्शनम्। कुर्वीतालभनचापि दक्षिणप्रवणस्य च ॥ यथा विमवतो ह्येतत् पूर्वाभावे ततः परम् । न पूर्वस्मिन् विद्यमाने उत्तर'प्राप्तिरिष्यते ॥ पुरापसारवावुपुराणयोः। *यः कर्म कुरुते 'मोहादनाचम्यैव नास्तिकः। भवन्ति हिवृथा तस्य क्रिया: सर्वा न संशयः ॥ __अथ दन्तधावनम्। वृशतातषः। "मुखे पर्युषिते नित्य भवत्यप्रयतो नरः। तस्मात् सर्वप्रयत्नेन भक्षयेहन्तधावनम् ॥ गन्धालङ्कारवस्त्राणि पुष्पमाल्यानुलेपनम् । “उपवासेन दुष्यन्ति दन्तधावनमजनम्। पादाभ्यङ्ग शिरोऽभ्यङ्ग ताम्बूलञ्चानुलेपनम् ॥ सर्वव्रतेषु वर्णानि पर्युषितमुखस्याप्रयतत्वे हेतुमाह पृथिवीं प्रति यज्ञवराहः । “मनुषः किल्पिषौभद्रे कफपित्तसमन्वितः । पूयशोणितसम्पर्णो दुर्गन्धं मुखमस्य तत् ॥ तत्पर्युषितम् । दन्तधावनमित्वनेन भोधकस्य काष्ठादेर्दन्तमात्रसम्बन्धात् भक्षयेदिति गौणप्रयोगः । पूर्वापर. For Private And Personal Use Only Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कितत्त्वम् । ३४१ हिराचमनरूप भोजनधी प्राप्त्यर्थः । अत्र दन्तधावनस्य शोधकत्वप्रतीतेः प्राधान्यम् । अतएव " ततः स्नानं प्रकुर्वीत दन्तधावनपूर्वकम्" इति दचोक्तमानन्तय्र्यमात्रपरम् श्रारम्भपीया या दृष्टेपणमासप्राक् कर्त्तव्यत्ववत् न त्वङ्गाङ्गिभावार्थमिति वातातपस्य पूर्ववचनं विधायकं परवचनस्य निषेधकम् । तथा च । उपवासेन हेतुनेति दानसागरप्रायश्चित्तविवेकौ । उपवासे चेति पाठे कालविवेके चकारादनुक्तादिष्वपि व्याख्यासम् । एतेन न दुष्येतेति मैथिलो हेयम् । व्यक्तमाह विष्णुः । " श्रहे जन्मदिने चैव विवाहे जोर्यसम्भवे । व्रते चैवोपवासे च वर्जयेद्दन्तधावनम् ॥ इति । " दन्तधावनमद्यात् 1 प्राङ्म ुख उदङ्मुखो वेति” । गोतमः । " दन्तश्लिष्टे दन्तवदन्यत्र जिह्वाभिमर्षणात् प्राक् च्युतेरित्येके” । च्युतेरास्राववद्दिद्यात् निगिरनेव तत् शुचिरिति निह्नाभिमर्षणायोग्यं दन्तलग्नम् waterनकं न भवतीत्यर्थः । एतच्चानुपलभ्यमानरसविषयम् । " दन्तवहन्त लग्नेषु रसवर्जने” इति शङ्खवचनात् । जिह्नाभिमर्षणेऽप्यशक्योरणे न दोषः । “भोजने दन्तलग्ने च निर्हत्याचमनञ्चरेत्। दन्त लग्न म संहार्यं लेपं मन्येत दन्तवत् ॥ न तत्र बहुशो यत्न कुर्य्यादुद्धरणे पुनः ॥ भवेदशौचमत्यन्तं तृणवेधात् व्रणे कृते” ॥ इति देवलवचनात् । च्युतेरित्यमुपलभ्यमानरसविषयम् । श्रस्रावो लाला । तदन्निगिरनित्यर्थः । अतएव शोषितं यथा न भवति तृणादिना दन्तलग्ननिःसारणाचरणं छन्दोग परिशिष्टम् । " नारदाद्युक्तवर्त्तेिय - मष्टाङ्गुलमपाटितम् । स त्वचं दन्तकाष्ठ स्यात्तदग्रेण प्रधावयेत् ॥ उत्थाय नेत्रे प्रक्षाल्य शुचिर्भूत्वा समाहितः । परिजप्य तु मन्त्रेण भचयेद्दन्तधावनम् ॥ आयुर्बलं यशोवर्थः प्रजाः पशुवसूनि च । ब्रह्ममन्त्राच्च मेधाच्च त्वनो धेहि वनस्पते” ॥ For Private And Personal Use Only Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३४३ . पाक्षिकतत्त्वम् । शुचिर्भूत्वा हिराचमनेनेति शेषः। नरसिंहपुराणम् । "दन्तकाष्ठस्य वक्ष्यामि समासेन प्रशस्त ताम्। सर्वे कण्टकिनः पुण्याः क्षौरिणश्च यशस्विनः" ॥ पराई भारदस्यापि स्थौल्य. माह विष्णुः। “कनिष्ठाग्रसमस्थौल्यं सकूच हादशाङ्गलम् । प्रातर्भूत्वा च यतवाक् भक्षयेद्दन्तधावनम् ॥ प्रक्षाल्य भूत्वा तज्जह्यात् शुचौ देश समाहितः"॥ सकूच दलिताग्रम् । द्वादशाङ्गुलन्तु छन्दोगतरेषाम्। प्रातः प्रातःकाले भुत्ला भोजनपरकाले च भक्षयेदित्यर्थः मार्कण्डेयपुराणम् । “प्रक्षाल्य भक्षयेत् पूर्व प्रक्षाल्यैव तु तत् त्यजेत् । अत्र विहितकाष्ठाव्याह नृसिंहपुराणम्। “खदिरश्च कदम्बश्च करजश्व तथा वटः। तिन्तिडी वेणुपृष्ठच आम्बनिखौ तथैव च ॥ अपामार्गश्च विल्वस अथोड़म्बरस्तथा। एते प्रशस्ता: कथिता दन्तधावनकर्मसु ॥ महाभारते। "तिनं कषायं कटकं सुगन्धिकण्टकान्वितम्। चौरिणो वृक्षगुल्मानां भक्षयेद्दन्तधावनम्। भक्षयेत् शास्त्रदृष्टानि पर्वखपि च वर्जयेत्” । प्राण्याह विष्णुपुराणम्। “चतुर्दश्यष्टमौ चैव अमावास्याथ. पूर्णिमा। पर्वाण्येतानि राजेन्द्र रविसंक्रान्तिरेव च ॥ स्त्रीतैलमाषसम्भोगी पर्वस्वेतेषु वै पुमान् । विगम भोजनं नाम प्रयाति नरकं मृतः ॥ नरसिंहपुराणे "प्रतिपद्दर्शषष्ठीषु नवम्याञ्चैव सत्तमाः। दन्तानां काष्ठसंयोगाहहत्यासप्तमं कुलम् ॥ अलाभे दन्तकाष्ठानां प्रतिषिद्धदिने तथा। अपां हादशगण्डषैर्मुखशुद्धिर्विधीयते” ॥ गण्डषस्य दन्तधावनतुल्यवेऽपि न तन मन्त्रान्वयः बौहिकार्यकारिणि यवे ब्रीहि मवस्येव इति प्रकृतावेव श्रुतत्वात् मन्वलिङ्गविरोधाचति नव्यवईमानः । तत्र ततकात्याय नसूत्रविरोधात् । तच्च सूत्वं "शब्देविप्रतिपत्तिरिति”। प्रतिनिधिद्रव्ये श्रुतशब्दः For Private And Personal Use Only Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आक्षिकतत्त्वम्। प्रयोज्यः। श्रुतद्रव्या बुध्धा प्रतिनिध्युपादानात् । शब्दान्तर. प्रयोगे द्रव्यान्तरबुद्धिप्रसङ्गात्। अतएव "सोमप्रतिनिधित्वेन पूतिकासु रहौतासु सोमं पिवते" इति अविकत एव मन्त्रः पठ्यते। अतएव जलेऽप्यग्नोकरणहोमे अग्नौ करिथे इति प्रयुज्यते। किन्तु यत्र प्रतिपदादौ दन्तकाष्ठनिषेधस्तत्र प्रतिनिध्यभावान्मन्त्रपाठः। एवञ्च गौण्याशब्दप्रयोगान्मन्त्रलिङ्गविरोधोऽपि नास्ति। शातातप: "प्रतिपद्दर्शषष्ठीषु नवम्यां दन्तधावनम् । पौरन्यन काठेश्च जिह्वोल्लेखः सदैव हि । क्रियाकौमुद्यां वशिष्ठः “गुवाकतालहितालास्तथा ताड़ी च केतको। खरनारिकेलौ च सप्तैते णराजकाः । तृणराजशिरापर्यः कुर्य्याहन्तधावनम् । तावद्भवति चण्डालो यावहां नैव पश्यति”। पराशरभाचे वृदयाज्ञवल्करः। “इष्टकालोष्ट्रपाषाणैरितगङ्गलिभिस्तथा । त्यत्वा अनामिकाङ्गष्ठी वर्जयेहन्तधावनम्” ॥ अनामिकाङ्गठौ त्यत्वा इतराङ्गलिभिदन्तधावनं वर्जयेदित्यर्थः। तेनाशक्ती अनामिकाङ्गुष्ठाभ्यां दन्तान् घर्षयेत् । प्राचारचन्द्रिकाप्येवम् । पद्मपुराणे । “टणाङ्गारकपालाश्मवालुकायसचम्मभिः। दन्तधावनकर्त्तारो भवन्ति पुरुषाधमा:”। प्रचेताः । “मध्याङ्गस्नानकाले च यः कुयादृन्तधावनम् । निराशास्तस्य गच्छन्ति देवाः पिटगणैः सह । स्मतिः । “वमन्तं जम्भमाणञ्च कुर्वन्तं दन्तधावनम् । अभ्यक्तशिरसञ्चेव नान्तं नैवाभिवादयेत्”। हारीतः। “शुचिं देवा हि रक्षन्ति पितरः शुचिमन्वयुः। शुचेविभ्यति रक्षांमि ते चान्ये दुष्टचारिणः”। तथा "म्रानं दानं तपस्त्यागो मन्त्रकी विधिक्रियाः। मङ्गलाचारनियमाः शौचभ्रष्टस्य निष्फलाः”। दक्षः। “शौचन्तु हिविधं प्रोक्तं वाह्यमाभ्यन्तरं तथा। मज्जा लाभ्यां स्मृतं वाचं भावबिस्तथान्तरम्। यावच रात्रिवासो. For Private And Personal Use Only Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३४४ पातिकतत्त्वम् । ऽस्ति तावदप्रयतो नरः। तस्माद्यनेन तत्त्याज्यमादौ शहिमभौमता"। इति शिष्टमहोतवचनात् रानिवासस्त्याज्यम् । क्रियाकौमुद्याम् । “जलौकागूढ़पादश्च क्रमिगण्डुपदादिकम् । कामाहस्तेन संस्पृश्य नित्यकर्माणि संत्यजेत्”। कालिकापुराण। “गुरुमाक्षिप्य विप्रञ्च प्रत्यैव च पाणिना। न सत्यानि न कर्माणि रेतःपाते तथैव च ॥ अनुपाते समुत्यने तुरकर्मणि मैथुने। धूमोहारे तथा वान्ते नित्यकर्माणि संत्यजेत् ॥ पत्र पुष्पञ्च ताम्बूलं न मैषधोपकल्पितम् । कपादिपिप्पत्यन्तञ्च फलं भुक्वापि नाचरेत् ॥ जलस्यापि नरश्रेष्ठ भोजनापजाहते। नित्य क्रिया निवर्तेत काम्यनैमित्तिकैः सह॥ __ अथ प्रातःस्नानसन्ध्ये। ब्रह्मपुराणे । “प्रातःस्नानं ततः कला संक्षेपेण यथोदितम्। सध्याचापि तथा कुर्यादिति कात्यायनोऽब्रवीत् ॥ यथाइनि तथा प्रातर्नित्यं स्नायादनातुरः । दन्तान् प्रक्षाल्य नद्यादौ गेहे चेत्तदमन्ववत्" ॥ दन्तान् प्रक्षाल्य प्रातरनातुरः नायादित्यर्थः। तत्कालमा विष्णुः । "प्रातःस्नायौ अरुणकिरणग्रस्तां प्राचौमवलोक्य नायात्” इति समुद्र करतभारते। “मृत्तिकातिलकं कुर्य्यात् नात्वा हुत्वा च भस्मना। दृष्टदोषविघाता) चाण्डालाद्यस्य दर्शने । ब्रह्मपुराणे। “कर्मादौ तिलकं कुर्याद्रूपं तहैष्णवं परम् । गोप्रदानं तपोहोमः स्वाध्यायः पितृतर्पणम्। भस्मीभवति तसर्व ऊई पुण्डविना कृतम् ॥ उशना । “भभावे तूद केनापि पुण्ड्रौ दैवतमचयेत्” । ब्रह्माण्ड । “अङ्गुष्ठ; पुष्टिदः प्रोतो मध्यमायुष्करी भवेत्। अनामिकाथदा नित्यं मुक्तिदा च प्रदेशिनौ" ॥ व्यासः। “जागवीतौरसम्भूतां मृदं मूर्दा विभर्ति यः। विभर्ति रूपं सोऽकस्य तमोनाशाय केवलम् ॥ For Private And Personal Use Only Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाक्षिकतत्त्वम् । ३४५ गोपीचन्दनफलमाह मातातपः । “गोमतीतौरसम्भूतां गोपीदेहसमुहवाम् । मृदं मूी वहेद्यस्तु सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ ब्र पुराणे । “जईपुण्ड मृदा कुर्यात् त्रिपुण्ड भाना सदा। तिलकं वै हिजः कुर्य्यात् चन्दनेन यदृच्छया ॥ जईपुर हिनः कुर्य्यात् क्षत्रियस्य त्रिपुण्ड कम्। अईचन्द्रन्तु वैश्यस्य वर्तुलं शूद्रजातिषु ॥ ततः सन्ध्यां कुर्य्यात्। आतुराणान्तु "प्रशिरस्क भवेत् सानं नानाशकौ तु कर्मिणाम्। पाण वाससा वापि मार्जनं दैषिकं विदुः ॥ इति जावालवचनाछिरो विज्ञाय गावप्रक्षालनं तदशनी सर्वगावमार्जनम् पाद्रण वाससा कुर्यात्। तदनन्तरं सख्यां कुर्यात्। एतत्परमेव "प्रातःसन्ध्यां ततः कुर्यात् दन्तधावनपूर्वकम्" इति याज्ञवल्कावचनम्। अथ प्रथमयामाईकत्यम् । दक्षः। “सन्ध्याकर्मावसाने तु खयं शेमो विधीयते। देवकार्य ततः कला गुरुमालवीक्षणम् । दिवसस्याद्यभागे तु सर्वमेतत् समाचरेत् ॥ होमस्तु साग्नेः। विष्णुपुराणम् । “पाचान्तस्तु ततः कुर्यात् पुमान् केशप्रसाधनम्। तथा “आदर्शाजनमानस्थदूर्वाद्यालमनानि च। स्वमात्मानं कृते पश्येत् यदीच्छे चिरजीवि. ताम्" । पात्मानं देहम् । मानल्यान्याह नारदः। "लोकेऽस्मिन् मङ्गलान्यष्टौ ब्राह्मणो गौहुताशनः। हिरण्यं सर्पिरादित्य पापो राजा तथाष्टमः” ॥ यमः। “यतीनां दर्शनञ्चैव स्पर्शनं भाषणं तथा। कुर्वाण: पूयते नित्यं तस्मात् पश्येत नित्यशः” । ब्रह्मपुराणे। “प्रचण्डपवनाघाते मेघेषु स्तनितेषु च । त्रिपठेज्जैमिनौयन्तु प्रान खो वाप्युदनु खः। तस्य माभूत् मयं घोरं वैद्युतं योऽवसौदति” ॥ कालिकापुराणम्। “यः शिवाविरुतं श्रुत्वा शिवदूती शुभप्रदाम्। प्रथमेत् साधको भूत्वा For Private And Personal Use Only Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४६ पातिकतत्वम् । तस्य कामा: करे स्थिता:" ॥ प्रयोगसारे। "विभौतकाका. रन नुहोच्छायां न चापयेत् । स्तम्भदौपमनुष्याणामन्येषां प्राणिनां तथा" । विष्णुपुराणम् । “विहिष्टपतितीमत्त बहुवैरातिकूटकैः । बन्धकौवन्धकौम क्षुद्रकान्तकैः सह ॥ तथातिव्ययशौलेश्च परिवादरतैः शठः। बुधो मैत्रीं न कुर्वीत नैकं पन्यानमाश्रयेत् ॥ नासंवृतमुखो जम्भेत् हासकासो विवनयेत्। नोचैर्हसेन् प्रशब्दच न मुञ्चेत् पवनं बुधः ॥ नासमअसशोलेस्तु सहासौत कदाचन । सदृत्तसविकर्षा शिक्षणाईमपि अस्थते ॥ नखान वादयेत् छिन्द्यात् न वणं न महीं लिखेत् । न श्मश्रु भक्षयेत्रोष्ठं न मृगौयात् विचक्षणः” । एकपाणिना चक्षुःस्पर्श निषेधमाह वृहस्पतिः। “चक्षःपरि. हिताकासो न स्मशेदेकपाणिना"। . अथ द्वितीययामाईक्कत्यम्। दक्षः। “हितीये च तथा भागे वेदाभ्यासो विधीयते । वेदाभ्यासो शिविप्राणां परमन्तप उच्यते ॥ ब्रह्मयज्ञपरं जेयः षडङ्गसहितच यः। वेदस्खौकरणं पूर्व विधारोऽभ्यसनं जपः। तहानञ्चैव शिथेभ्यो वेदभ्यासो हि पञ्चधा" ॥ अन्याध्यय नमध्याहतुः शङ्खलिखितौ । “न वेदमनधीत्यान्यां विद्यामधौयौतान्यत्र वेदाङ्गस्मृतिभ्यः" । अङ्गानि च "शिक्षाकल्पोव्याकरणं छन्दोज्योतिषमेव च । निरुक्तञ्चेति चाङ्गानि वेदानां गणितानि षट् ॥ स्मृतिस्तु धर्मसंहिता" इत्यमरः। गागड़े "धन प्रयोगे च तथा कार्य विद्यागमेषु च । आहारे व्यवहारे च त्यक्त लज्जः सदा भवेत् ॥ याज्ञवल्करः "वेदार्थानधिगच्छेत्तु शास्त्राणि विविधानि च। तत्फलमाह यमः। “दानेन तपसा यजैरुपवासै व्रतैस्तथा। न तां गतिमवाप्नोति विद्यया यामवाप्नुयात् ॥ कूर्मपुराणम्। "स्वाध्यायस्य वयोभेदा वाचिकोपांशुमानसाः”। विद्यादानप्रकारमाह। For Private And Personal Use Only Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आङ्गिकतत्वम् । शिवधर्म "संस्कृत: प्रार्वाक्यर्यः शिष्थमनुरूपतः। देशमायाधुपायैश्च बोधयेत् स गुरुः अतः" । पादिर्घन्यकरणादिः । गारड़े। "वेदार्थ धर्मशास्त्राणि यज्ञशास्त्राणि चैव हि। मूल्येन लेखयित्वा यो दद्यादिति स वैदिकः ॥ इतिहासपुराणानि लिखित्वा यः प्रयच्छति । ब्रह्मदानसमं पुखं प्राप्नोति हिगुणोकतम् । तथाच वृहस्पतिः। "पाण्मासिके. ऽपि समये भ्रान्ति: संजायते नृणाम्। धावाक्षराणि सृष्टानि पत्रारूढ़ान्यतः पुरा॥ उपदेष्टानुमन्ता च लोके तुल्यफली मतौ। एकलव्येनानुपमदेष्टापि द्रोणाचार्यो गुरुः कृतः ॥ पती अन्यकत्तः सुतरां गुरुत्वं यथा महाभारतम्। “परण्यमनुसंप्राप्य कृत्वा द्रोणं महीमयम्। तस्मिनाचार्यत्ति पर• मामास्थितस्तदा । इष्वस्त्रे योगमातस्थे परं निश्चयमागतः” । __ लिखनविधिमा नन्दिपुराणम्। "शुभे नक्षवदिवसे शुभे बापि दिनग्रहे। लेखयेत् पूज्य देवेशान् रुद्रब्रह्माजनार्दनान् । पूर्वदिग्वदनो भूत्वा लिपित्रो लेखकोत्तमः । निरोधो हस्त वाहोच मसौपवविधारणे” ॥ मत्यपुगणच । "शौर्षापेतान् सुसम्पूर्णान् समवेणिगतान् समान्। पक्षरान् लेखयेद्यस्तु लेखकः परमः स्मृतः ॥ अधौतस्यार्थिभ्यो दानमावश्यकम् । यथा श्रुतिः। “यो वाधीत्य विद्याश्च न प्रयच्छत् स कार्या भवेत् श्रेयसो हारमावणुयादिति” नन्दिपुराणे । "प्रशस्तशब्द संयोगे कुर्यादिति विरामण" विरामणं तहिनपाठसमाप्तिम् । "समाप्ते वाचकाभौष्टं कुर्यादेव विचक्षणः। सुश्रुतं सुव्रतं भूदस्तु व्याख्यात्तु नित्यदा॥ लोकः प्रवर्ततां धर्म राजा चास्तु सदा जयौ। धर्मवान् धनसम्पनी गुरुवास्तु निरामयः ॥ इति प्रोच यथायात मन्तव्यश्च विभावितैः। शिष्टैः परस्पर भास्त्रं चिन्तनौयं विषक्षणैः ॥ कथा वस्तुप्रसङ्गेन नानाव्याख्या. For Private And Personal Use Only Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाहिकतत्त्वम् । नभाषणः। युतिभिव स्मरेमाख्यां चि हैवापि स्वयं कतैः । एवं दिने दिने व्याख्यां शृणुयाबियतो नरः" ॥ विष्णुपुराणं "पुरध्यापिता ये च ते पतन्ति खभोजने। यो गुरु पूजयेबित्यं तस्य विद्या प्रसौदति। तत्प्रसादेन यस्मा स प्राप्नोति सर्वसम्पदः" ॥ लघुहारौत: "एकमप्यक्षरं यस्तु गुरुः शिष्थे निवेदयेत् । पृथिव्यां नास्ति तद्रव्यं यहत्वा सोऽनृणो भवेत्। नन्दिपुराणम्। “यस श्रुत्वान्यत: शास्त्रं संस्कारं प्राप्य वै शुभम्। अन्यस्य जनयेत् कौति गुरोः स बना भवेत् ॥ विस्परेच तथा मौब्यात् योऽपि शास्त्रमनुत्तमम् । स याति नरकं घोरमक्षयं भीमदर्शनम् ॥ ब्रह्म यस्त्वननुज्ञातमधीयानादवानयात् । स ब्रह्मस्तेयसंयुक्तो नरकं प्रतिपद्यते" ॥ विष्णुः। "यश्च विद्यां समासाद्य तया जौवेव तस्य परलोके फलप्रदा भवति यश्च विद्यया परेषां यशो गन्तौति"। देवन्त: । "इष्टं दत्तमधीतं यत् विनश्यत्यनुकीर्तनात्। नाघानुशोचनाभ्याच भन्मतेजो विभिद्यते। तस्मादात्मकृतं पुण्यं वृथा न परिकौतयेत् ॥ अनुकीर्तनं कथनं नाघा प्रशंसा पनुशोचनं धनव्ययेन पश्चात्तापः । भग्नतेज: फलजनकशक्तिहीनम् । वृथा रक्षा प्रयोजनं विना। वैष्णवामृते भविष्यपुराणम् । “उपाध्यायस्य यो वृत्तिं दत्त्वा ध्यापयति हिजान्। किन दत्तं भवेत्तेन धर्मकामार्थमिच्छता"। भारोतः। “समितपुष्यकुशादौनि ब्राह्मण: स्वयमाहरेत्"। शूद्रानौतेः क्रयक्रोतः कर्म कुर्वन् पतत्यधः”। शूद्रानौतैरिति विशेषनिषेधात् अन्यब्राह्मणैश्चानयनमनिषिहम् । क्रये प्रतिप्रसूते ब्रह्मपुराणं "पुष्पधपैच नैवेद्यौरक्रयक्रियाहतैः”। बौरायः स्वयाबा. शून्येन क्रयः । चथ बतौययामाईक्कत्यम्। "तृतीये च तथा भागे पोथ For Private And Personal Use Only Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पारिकतत्वम् । ३४४ वार्थसाधनम्। माता पिता गुरुर्भार्या प्रजा दौना: समा. श्रिताः । अभ्यागतोऽतिथिचाम्निः पोथवर्ग उदाहृतः। भरणं पोथवर्गस्य प्रशस्तं स्वर्गसाधनम्। नरकं पौड़ने चास्य तस्मायोन तान् भरेत् ॥ गागड़े। “म जीवति वरचैको बहुभियोपजीव्यते। जीवन्तो मृतकाश्चान्ये पुरुषाः स्वीदरम्भरा:" ॥ योपजीव्यत इत्यार्षः पुनः सन्धिः। मनुव्यासहस्पतयः । "हौ च मातापितरौ साध्वी भार्या सुतः शिशः। अध्य. कार्यशतं कृत्वा भर्तव्या मनुखवीत्। अध्यापनशाध्ययनं यननं याजनन्तथा। दानं प्रतिग्रहवैव षटकर्माण्वग्रजन्मनः । षमान्तु कर्मणां मध्ये बोणि कर्माणि जीविका। याजनाध्यापने चैव विशुद्धाच प्रतिग्रहः ॥ गोतमः "कषिगोरक्षवाणिज्येऽस्वयं कृते कुषौदचेति” कुषौदस्य पृथग्ग्रहणं स्वयं तस्याभ्यनुनानार्थ कुषौदं कृतिकर्म प्रदेशान्तरेऽभिधानादिति कल्पतरः। वृहस्पतिः। “कुषौदवषिवाणिज्यं प्रकुर्वीताखयं कृतम्। भापत्काले स्वयं कुर्वन् मैनसा युज्यते विजः । लब्ध लाभ: पितॄन देवान् ब्राह्मणांचव भोनयेत्। ते वप्तास्तस्य तं दोषं शमयन्ति न संशयः । वणिक् कुषौदी दद्यात्तु वस्त्र. गोकाशनादिकम् । ऋषीवलोऽनपानानि यानशय्यासनानि च। पण्येभ्यो विंधकं दत्वा पशुवर्णादिकं शतम्। वणिक कुषौद्यदोषः स्यात् ब्राहाणानाच पूजनात्। राज्ञे दत्त्वा तु षड्भागं देवतानाच विंशकम्। त्रिंशद्भागञ्च विप्राणां कृषि कृत्वा न दोषभाक् । हारोत: "प्रष्टागवं धर्महलं षड़गवं जीवितार्थिनाम् । चतुर्गवं नृशंसानां हिगवं ब्रह्मघातिनाम् ॥ मनुः। "प्रशौतिभागं ग्रहीयात् मासाहार्डषिक: शतात्। हिकं शतं वा रहौयात् सतां धर्ममनुस्मरन्। हिकं शतच रहानो न भवत्यर्थकिखिषौ शतकार्षापणेऽभौतिभागं ३० For Private And Personal Use Only Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आङ्गिकतत्त्वम्। विंशतिः पणाः। हिकं पुराणहयम्। एवंविधनियममति क्रम्य अनापदि खयमन्यद्वारा वा यः खाच्छन्द्य न व्यवारति तस्यैव प्रायश्चित्तम्। प्रापदि तु स्वयं करणे नियमातिक्रमे च न दोष इति प्रायश्चित्तविवेकः। याज्ञवल्काः । “उपेयादौखरचैव योगक्षेमार्थसिद्धये । ईखरमतिशयगुणयुक्तमन्यं वा श्रीमन्तमकुसितम्” ॥ पलब्धस्य प्रापणं योगः लब्धस्य रक्षणं क्षेमः । वयोवुधार्थवावेशबुताभिजनकर्मणाम् । पाचरेत् सदृशीं वृत्तिमजिह्मामशठान्तथा ॥ बाल: पांशक्रौड़ा युवा. सग्गन्धादिसेवनं वृद्धो धर्मार्थसाधनं बुद्धिमान् मौमांसादिश्रवणम् अर्थवान् वसुदानं वाग्मौ दूत्यं सुवेशो राजसन्निधिं श्रुतेन व्याकरणादिना अर्थवेत्ता वेदार्थनिरूपणं विशुद्ध कुलजन्मवान् तथाविधकुलोहाहनम्। यागवान् पशुहिंसनम्। एवं वयःप्रभृतीनासुचितानां चेष्टामाचरेत् । अजिह्यामकुटिलाम् प्रशठां मिथ्याविषयहिताम् । भगवहोतायां "मुक्तसङ्गोऽनवादी धृत्यु त्साहसमन्वितः। सिवासियोनिर्विकारः कर्त्ता सात्तिक उच्यते । मुक्तसङ्गस्त्यत फलाभिनिवेशः। अतएवोक्ताम् । “मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोन्त्वकर्मणि । तेन बन्धहेतुफलं विना कर्मकर्तव्यमिति तात्पर्यम्। अनहंवादौ गवरहितः निर्विकारी हर्षविषादशून्यः । “वाग्मो कर्मफलप्रेम लुब्धो हिंसात्मकोऽशुचिः । हर्षशोकान्बित: कर्ता राजसः परिकीर्तितः । अयुक्तः प्राकृतस्तब्धः शठी नैऋतिकोऽलसः। विषादी दौर्घसूत्रौ च कर्ता तामस उच्यते ॥ अयुक्तोऽनवहितः। प्राकृती विवेकशून्यः । शठः शक्तिगूहनकारी। नैतिकः परापमानौ। अलस: अनुद्यमशीलः। विषादौ शोकशीलः । यदहा वायं तन्मासेनापि न सम्पादयति स दीर्घसूत्रौ। अनन For Private And Personal Use Only Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३५१ पातिकतत्त्वम्। एव लिङ्गपुरणं "खः कार्य मद्यकर्तव्यं पूर्वाह्य वापराविकम् । न हि प्रतीक्षते मृत्यः कतमस्य न वा कतम" ॥ इति "लामे न हर्षयेद्यस्तु न व्यथेदपमानतः । असमूढस्तु यो नित्यं स राजवसतिं व्रजेत् ॥ पग्लानो बलवान् शूरछायेवानुगतः सदा । सत्यवादो मृदुर्दान्तः स राजवसतिं वसेत्' । नयमा नरसिंहपुराणे “अनुक्तेनापि सुहृदा वक्तव्यं जानता हितम् । न्याय्यञ्च प्राप्तकालच्च पराभवनिच्छता ॥ वलव्यं सर्वथा सद्भिरप्रियश्चापि यचितम्। पानृण्यमेतत् स्नेहस्य सद्भिरेव कृतं पुरा॥ यत् स्यात्तापकर पवादारब्ध कार्यमा दृशम्। प्रारमेन्द्रव तहिहान् एष बुद्धिमतां नयः ॥ कुमित्र सौदं नास्ति कुभायायां कुतो रतिः। कुतः पिण्डं कुपु. वेषु नास्ति सत्य कुराजनि ॥ कुसौहृदे न विश्वासः कुदेश न प्रजौव्यते। कुराजनि भयं नित्य कुपुत्रे सर्वदा भयम् ॥ अपकारिणि विश्वम्भ यः करोति नराधमः। अनाथो दुर्बलो यह चिरं स तु जीवति ॥ न विखसेदविश्वस्ते विखस्तनाति. विश्वसेत् । विश्वस्ताद्भयमुत्पन्न मूलान्यपि निवन्तति ॥ राजसेविषु विश्वासं गर्भसङ्कारितेषु च। यः करोति नरो मूढो न चिरं स तु जीवति ॥ शव शेषं ऋणाच्छेषं शेषमग्नेश्च भूमिप । पुनर्बत सम्भय तस्माच्छेषं न शेषयेत् ॥ अद्रोहं समयं कृत्वा मुनीनामग्रतो हरिः। जघान नमुचिं पश्चादपां फेनेन पार्थिव । कत्वा सम्बन्ध कच्चापि विश्वसेच्छत्रणा न हि। पुलोमानं अघानाजी जामाता सन् शतक्रतुः ॥ न चासने निवस्तव्यं सवैरे वड़िते रिपौ। पातयेत्तु स मूलं हि नदीतीर इव द्रुमम्" । गारड़े। “यो ध्रुवागि परित्यज्य अध्रुवाणि च सेवते। ध्रुवाणि तस्य नश्यन्ति अध्रुवं नष्टमेव च ॥ विष्णुमुराणे "अल्पहानिस्तु षोढ़व्या वैरिणागमं त्यजेत् । उपा For Private And Personal Use Only Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३५२ आङ्गिकतत्त्वम् । यतः समारब्धाः सर्वे सिद्घन्धुपक्रमाः ॥ धीमान् श्रीमान् समायुक्तः भास्तिको विनयान्वितः। विद्याभिजनबहानां याति शोकाननुत्तमान् ॥ . भागवते कलिं प्रति परीक्षितवाक्यं “वां वर्तमानं नरदेवदेहेष्वनुप्रहत्तोऽयमधर्मा पूगः। लोभोऽनृतं चौर्यमनार्यमंहो जेष्ठा च माया कलहम दम्भः ॥ अनार्या दौर्जन्यम् अंहः स्वधर्मात्यागः। जेष्ठाऽलमौः समयाऽग्रजत्वात्। माया कपटः। "अभ्यर्थितस्तथा सबै स्थानानि करयेऽदिशत् । चूतं पानं स्त्रियः शूना यवाधर्माश्चतुर्विधः ॥ पुनश्च याचमानाय जातरूपमदात् प्रभुः। ततोऽनृतं मदं कामं राजा वैरञ्च पञ्चमम्। अथैतानि न सेवेत वुभूषुः पुरुषः क्वचित्” । अभ्यर्थितस्तनिरहौतेन कलिना स्थानलाभाय प्रार्थित: जातरूपं स्वर्णम्। प्रथेति प्रत इत्यर्थः वुभूषुः अर्द्ध भवितुमिच्छु: याज्ञवल्करः “शूद्रस्य हिजवषा तया जीवन् वणिम् भवेत् । शिल्पैर्वा विविधैर्जीवेत् हिनातिहितमाचरन्” ॥ वणिग्भवे. दित्यनेन वैश्यवृत्त्यभिधानात्। शिल्पैरिति वष्यादिजीवनोपायरिति बोध्यम्। हारौत: "बालानां दमनञ्चैव वाहन न शस्यते। पुंस्त्वोपघातनं नैव वाहानां कारयेत्ततः। वृह युग्ये न युनौत जौण व्याधितमेव च। न षण्ड वाहयेगाञ्च न गां भारेण पौड़येत्”॥ गां स्त्रोगवौमिति नव्यवईमानः । मार्कण्डेयपुराणं "पादेन तस्य पारक्य कुर्यात् सञ्चयमात्मवान्। अन चामभरणं नित्यनैमित्तिकम्तथा ॥ पादस्यास्मिथस्य मूलभूतं विवईयेत्। एवमारभतः पुंसश्चार्थः साफल्यमृच्छति ॥ येन यस्यार्थो भुज्यते तेन तस्य पारितोषिक कर्म कर्त्तव्यं तथाच युधिष्ठिरं प्रति भौमवाक्यम् “अर्थस्य पुरुषो दासी दासस्वर्थो न कस्यचित्। इति सत्य महाराज For Private And Personal Use Only Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाकितवम् । ३५३* 1 arisर्थेन कौरवेः " ॥ मनुः । " शतेनापोह शूद्रेण न कार्य्यो धनसञ्चयः । शूद्रो हि धनमासाद्य ब्राह्मणानेव बाघते ॥ स्मृतिः । “विक्रौणन् मद्यमांसानि भचस्य च भक्षणम् । कुर्वन्रगम्यागमनं शूद्रः पतति तत्क्षणात् ॥ कपिलाचौरपानेन ब्राणणोगमनेन च । वेदाक्षरविचारेण शूद्रचाण्डालतां व्रजेत्” ॥ प्रभश्य गोमांसादि । अगम्या भगिन्यादयः । इति माधवाचार्खः । कालिकापुराणं “विक्रयं सर्ववस्तूनां कुर्वन् शूद्रो न दोषभाक् । मधु च सुरां लाचां त्यक्ता मांसञ्च पञ्चमम्” ॥ मनुः “सद्यः पतति लौईन लाचया लवणेन च । वग्रहेण शूद्रोभवति ब्राह्मणः चौरविक्रयात् ॥ अशक्तौ भेषजस्यार्थे यज्ञहेतोस्तथैव च । यद्यवश्यन्तु विक्रेयातिला धान्येन तत्समाः " ॥ मनुः " जौवितात्ययमापन्नो योऽत्रमति यतस्ततः । आकाशमिव पतेन न स पापेन लिप्यते” ॥ सं ब्राह्मणः । नारदः “ परेण निहितं लब्धा राजन्युपहरेब्रिधिम्। राजगामौ निधिः सर्वः सर्वेषां ब्राह्मणाहते || ब्राह्मणेोऽपि निधिं लब्धा क्षिप्रं राज्ञे निवेदयेत् । तेन दत्तन्तु भुञ्जीत स्तेनः स्यादनिवेदयन् " ॥ नारद: "धनमूला: क्रिया: सर्वा यत्नस्तस्यार्जने मतः । रक्षणं वर्द्धनं भोग इति तत्र विधिक्रमात् ॥ अत्यन्तापदि मनुः " अवृत्तिकर्षितः सोदन् इमं धर्मं समाचरेत् । सर्वतः प्रतिगृहीयात् ब्राह्मणस्त्वनयं गतः ॥ नाध्यापनाद्याजनाद्दा गर्हिताद्वा प्रतिग्रहात् । दोषो भवति विप्राणां ज्वलनाम्ब ुसमाहिते” ॥ ज्वलनाम्बुसमाः अग्निजलतुल्या इति कुल्लूकभट्टः । “अशक्नुवंस्तु शुश्रूषां शूद्रः कर्त्तुं दिजन्मनाम् ॥ पुत्रदारात्ययं प्राप्ती जौवेत् कारुककर्मभिः ॥ यैः कर्मभिः प्रचरितैः शुश्रष्यन्ते द्विजातयः । तानि कारुककर्माथि For Private And Personal Use Only Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३५४ पाडिकतखम् । शिल्पानि विविधानि च ॥ विद्या शिल्प भूति: सेवा गोरक्ष विपणिः कृषिः। तिर्भवं कुषौदञ्च दश जौवन हेतवः ॥ विद्या गारुडादिः । शिल्य चित्रादितिवेतनं विपणिः विक्रयस्थानं तेन वाणिज्य लक्षयति। धृतिः सन्तोषः तस्मिन् मति खल्येनापि जीवनम् । “कुषौदं हचिजीविका" इत्यमरः । वृहस्पतिः। "बहवो वर्तनोपाया ऋषिभिः परिकीर्तिताः । सर्वेषामपि चैतेषां कुषोदमधिकं विदुः॥ अनाहध्या राजभयमूषिकारुपनवैः। ऋष्यादिके भवेधानिः सा कुषौदे न विद्यते ॥ याज्ञवल्क्यः "ईशिक्षि: प्रतिमासन्तु कारिका। इच्छाकता कामयिता कायिका कायकर्मणा" । छामलेयः। "शकट: शाकिनी गावो जालमस्पन्दनं वनम् । अनपं पर्वतो राजा दुर्भिक्षे नव वृत्तयः ॥ शकटो धान्यादि. वहनहारेणापजीव्यः । “पत्रं पुष्पं फलं कन्दं नालं संस्खेदजं तथा। शाकं घडविधमुद्दिष्टं गुरु विद्यायधोत्तरम्” ॥ इति বন্ধীমাহীনা মাৰূিলী বিন্ধা মান্ধাত্মাহুল नालं मत्स्याद्याहरणेन । अस्पन्दनं खस्थानादत्याग: ऋणादि. लाभेन व्ययाधिक्यनिवृत्त्याचरणं फलपुष्पाद्याहरणेन । अनपं बहदको देशः समृणालमालकाद्याहरणेन। पर्वतो गैरिकमृदाद्याहरणेन। .. अथ चतुर्थयामाईकत्यम् । दक्षः। “चतुर्थे च तथा भाग नानाथ मृदमाहरेत्। तिलपुष्पकुशादौनि मानच्चाकतिमे जले" ॥ कुर्यादिति शेषः । तथाच "अनात्वा चाप्यहुत्वा च भुतोऽदत्त्वा च यो नरः। देवादीनामृणो भूत्वा नरक प्रतिपद्यते" ॥ अथ मानं दक्षः “अस्त्रात्वा नाचरेत् कर्म जपहोमादि किञ्चन । नानास्वेदसमाकोण: शयनादुत्थितः पुमान्॥ अत्यन्तमलिमः कायो नवच्छिद्रसमन्वितः। स्रवत्येव दिवा For Private And Personal Use Only Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राक्षिकतत्त्वम् । ३५५ रात्रौ प्रातःवान विशोधनम् ॥ प्रातःस्नानं प्रशंसन्ति दृष्टादृष्टफलं हि तत्। सर्वमहति पूतात्मा प्रातःस्नायौ जपादिकम् । पत्रानाद्यदि वा मोहात् रातो दुश्चरितं कृतम् । प्रात:मानेन तत्सर्वे शोधयन्ति हिजातयः" ॥ दृष्टं मलापकर्षादि प्रदृष्टं प्रत्यवायपरौहारादि। प्रात: सूर्योदयात् प्राक्कालः। “प्रात:सायरुणकिरणग्रस्तां प्राचौमवलोक्य सायात्" इति विणकोः । प्रातःनाने मध्यासानधर्मातिदेशमाह कात्यायनः । “यथापनि तथा प्रातनित्वं मायादनातुरः । दन्तान् प्रक्षाल्य नद्यादौ गेहे चेत्तदमन्त्रवत् ॥ यथा तथेति कर्तव्यतया मा च "पाचरेदूषसि सानं तर्पयेव मानुषान्" । इति जावास्युः । वैदिके कर्मणि वामहस्ते बहुतरकुशान् दक्षिणेन पवित्र धारयेत्। तथा छन्दोगपरिशिष्ट "इस्खाः प्रचरणौयाः स्यः कुशा दौर्धाच वहिषः। दर्भाः पवित्रमित्युक्तमतःसन्यादिकर्मसु । सव्यः सोपग्रहः कार्यो दक्षिणः सपवित्रकः" । प्रचरणौया: पार्वणपञ्चयज्ञादिकर्मानुष्ठानाः । वहिषः यत्राद्यास्तरणार्थाः। यतस्तत्तत् कर्मासु कुशविशेषा उताः । पतः सन्ध्यादिकर्मसु अवस्थाविशेषशून्याः कुणाः पवित्र सोपग्रहः बहुतरकुशयुक्तः सपवित्रको विशिष्ट हिदलयुक्तः विशेषमाह स एव "अनन्तर्मिणं सान कौशं द्विदलमेव च। प्रादेशमा विजेयं पवित्र यत्र कुवचित् ॥ अनन्तर्गर्भिणम् अन्तर्गर्भ शून्यम्। तथा च शौनकः। “अनन्तस्तरुणी यौ तु कुशी प्रादेशसम्मिती। धनखच्छदिनौसागौ तौ पवित्राभिधायको"। एतदभावे कुशपत्रचतुष्टयं वयं वा समुद्र करतवचनात् । तदयथा "चतुर्भिदर्भपवैश्च विभिहीभ्यामथापि वा। पवित्र कारयेन्नित्यं प्रशस्त सर्वकर्मसु"॥ विद्याकरवाजपेयिकृतं *पवित्रन्तु द्विजः कुर्यात् कुचपत्रध्येन वा । पत्नत्रयेण वा कार्य For Private And Personal Use Only Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३५६ पाकितत्त्वम् । नेकपत्रेण कुत्रचित् ॥ एतद्दर्शनात् दर्भाः पवित्रमित्यचैवमपि व्याख्येयम् । “मार्कण्डेयः सर्वकालं तिलैः स्नानं पुण्यं व्यासो-saaौन्मुनिः । श्रीकामः सर्वदा स्रानं कुर्वीतामलकैर्नरः 1 सप्तम नवमौचैव पर्वकालच वर्जयेत् ॥ विष्णुधर्मोत्तरे । " त्वराक्रोधौ तथा वज्र्ज्य देवकर्मणि पण्डितैः । इक्षुरापः पयश्चैव ताम्बलं फलमौषधम् । भचयित्वा तु कर्त्तव्याः स्नानदानादिका: क्रिया: " ॥ भविष्योत्तरे " जातुस्तु वरुणस्तेजो तोऽग्निः श्रियं हरेत् । भुवानस्य यमख्वायुस्तस्मात्रव्याहरेत् त्रिषु" ॥ स्रातुः स्नानं कुर्वतः । अशुचेरवगाहनानन्तरं स्वानमाह योगियाज्ञवल्काः । " तूष्णीमेवावगाहेत यदा स्यादशुचिर्नरः । श्राचम्य तु ततः पश्चात् स्नानं विधिवदाचरेत्” || वामनपुराणम् " नाभिमात्रजले गत्वा कृत्वा केशान् द्विधा दिजः । निरुध्य कर्णौ नासाच्च त्रित्वो मज्जनं ततः” ॥ तत्रैव हृदयाज्ञवल्काः । " स्रोतसां संमुखो मज्जेत् यत्रापः प्रवहन्ति वै । स्थावरेषु गृहे चैव सूर्य्यसम्मुख अप्नवेत्” ॥ हारीतः । " नातुरो न भुक्का न जीर्णवासा न बहुवासा न नग्नो नाश्नन् नावशक्थिको नालहृतो नाजख नाज्ञाते जले नाकुले माशुचौ न प्रभूतजले न नाभेरल्पजले न चत्वरे नोपद्वारे न सन्ध्यायां न निशायां स्नायादिति" । चत्वरे काकादिवलिस्थले इति श्रीदत्तः । उपहारे द्वारसमोपे । अत्रैकेन मुनिना नग्नबहुवाससोर्निषेधबिधानात् स्नाने दिवासस एवाधिकारः प्रतीयते । एकवस्त्रखाने दोषमाह समुद्रकरष्टतभविष्ये गोतमः । " एकवस्त्रेष यत् स्नानं शूच्या विद्वेन चैव हि । स्रातस्तु न भवेत् शुद्धः श्रिया च परिहीयते" ॥ श्रतएव "खानं तर्पणपय्र्यन्तं कुय्यादेकेन वाससा " । इति यदि समूलं तदा प्रेततर्पण परमिति । । " For Private And Personal Use Only Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाक्तित्वम् । ३५७ अवैकवा जातय इत्यादिना एकवस्त्रत्व विधानात् एकेन एकजातोयेन इति वाचस्पतिमित्र: येन वाससा स्नानं कृतं जलस्थस्य तेनैव तर्पणम् इति कत्यतत्त्वार्णवः । न च "मानमायान्तु दातव्या मृदस्तिस्रो विशुद्धये। जलमध्ये तु यः कचित् हिजाति नदुर्बलः ॥ निष्यौड़यति तहस्त्रं नानं तस्य वृथा भवेत्" ॥ इति वशिष्ठवचने खानशाव्यामिति तहस्त्रमिति एकवचननिर्देशेन च मानेऽप्येकवस्त्रत्वमिति वायम्। पत्र विशुपय इत्यभिधानेनाधोतवस्त्रस्यैव मृचयेण प्रक्षालनं न तूत्तरीयस्य एतदर्थमेकवचनम् पतएव मृत्चयेणाधरौयवस्त्रं प्रक्षाल्य इत्याहिकचिन्तामणिः। वशिष्ठवचनैकावाक्यतया "नातो नाङ्गानि निर्मज्यात् नानशाब्बा न पाणिना' । इति विष्णुपुराणोयेनाधरौयवस्त्रेणेव गावमार्जनं निषिध्यते। एतेन निष्यौद्य मानवस्त्रमिति कात्यायनवचने एकत्वमविक्षितमिति निरस्तम्। अतएव सर्वत्रैकत्व निर्देशः। शिष्टानाम् आचारोऽपि तथा इति नाजसमिति पुन:पुन: माननिषेधः रागप्राप्तम्रानविषयो दृष्टार्थकत्वात् । एवञ्चैकस्मिन् दिने नानातीर्थादि निमित्तप्राप्तस्रानावृत्तिभवत्येव वैधत्वात् । प्रत्रापि तन्त्रप्रसङ्गयोः सत्त्वे सकदेवेति । पहनानप्रधानकालमाह दक्ष: "चतुर्थे च तथा भागे सानार्थं मृदमाहरेत्। तिलपुष्पकुशादौनि मानचाकतिमे बले'। विष्णुः “कुशाभावे कुशस्थान काशं दूर्वा वा दद्यादिति विद्याधरधृतं "तर्जनौरूप्यसंयुक्ता हेमयुक्ता त्वनामिका। सैव युक्ता तु दर्भेगा कार्या विप्रेण सर्वदा" ॥ मत्स्यसूतो "शस्ता: समूला दर्भाच गुच्छेन चाधिकं फलम् । सव्यः सोपग्रहः कार्यो दक्षिणः सपवित्रकः" इति रोगिणवामहालादिस्पर्शोऽपि न दोषायेत्याह रत्नाकर वृहस्पति: "तीय For Private And Personal Use Only Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाक्षिकतत्वम् । विवाहे यावायां संग्रामे देशविप्लवे। नगरप्रामदाहे च स्पृष्टा स्मृष्टि न दृष्यति ॥ प्रापद्यपि च कष्टायां रुग्मये पौडने सदा। मातापित्रोगरोश्चैव निदेशे वर्तनात्तथा ॥ स्पृष्टास्पृष्टोत्यव्ययम्। क्रियाव्यतिहार तथेति न दृश्थतीत्यर्थः। गारड़े *सर्वतीर्थाभिषेकाहि पवित्र विदुषां वचः। धर्मश्रवणवेलायां विप्रो व्यासमतः स्थितः” । तथाविधातुरं प्रति जावाल: “प्रशिरस्क भवेत् सानं मानाशतौ तु कर्मिणाम्। पाद्रेण वाससा वापि दैहिक मार्जनं सातम्" ॥ कर्मिणां "शिरः मातस्तु कुर्वीत देवं पैत्रामथापि वा" इति मार्कण्डेयपुरा गोतकर्मचिकोर्षणां मार्जनमिह प्रोब्छनं योगियाज्ञवल्काः “असामर्थ्याच्छगैरस्य काल शत्याद्यपेक्षया। मन्त्रनानादितः, सप्त केचिदिच्छन्ति सूरयः ॥ मान्तं भौमं तथाग्नेयं वायव्यं दिव्यमेव च । वारुणं मानमञ्चैव सप्त स्नानं प्रकोर्तितम् ॥ पापो. हिष्ठति वे मान्वं मृदालम्भन्तु पार्थिवम् । भाग्न यं भाना सानं वायव्यं गोरज: सातम ॥ यत्त सातपवर्षेण स्नानं तहिव्यमुच्यते । वारुणचावगाह्यञ्च मानसं विष्णुचिन्तनम् ॥ समस्तं सानमुद्दिष्टं मन्दसान क्रमेण तु। कालदोषादसामर्थ्यात् सर्वे तस्य फलं स्मृतम् ॥ प्रापोहिष्ठेति पापोहिष्ठादि ऋचयमत्र विवक्षितम्। एवञ्च “कालदोषादसामर्थ्यात् न शक्नोति यदम्भसि । तदा ज्ञात्वा तु ऋषिभिर्मन्बटष्टन्तु मार्जनम् ॥ शब पापस्तु द्रुपदा आपोहिष्ठाघमर्षणम् । पभिश्चतुर्मिङ्मावै. मन्त्रस्नानमुदाहृतम्। इति योगियाज्ञवल्कोयं यन्मन्वनानान्तरं तत् प्राधान्यख्यापनाय अतएव पिटदायतायां सध्यात: पूर्व तल्लिखितम् । मृदालम्भस्तु गङ्गामृत्तिकातिलकरूपः । भस्मना संस्कृतभस्मना पूति छन्दोगाङ्गिकः । प्रवगाय मन्त्राद्यङ्गशून्यावगाहनमात्र विचितम् अतो मुख्या For Private And Personal Use Only Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir રૂટ पाशिवतत्त्वम् । बगाहनरूपम्रानानुकल्पत्वमप्युक्तम्। कालदोषोऽतिध्यादिः असामयं शरीरापाटवहेतः अल्पवेन सम्पर्ण वारुणवानविधिकालायोग्यत्व वेति। एतन्मलकं गेहे चेत्तदमन्वदिति छन्दोगपरिशिष्टौयं प्रागुताम् अन्यथा मूलभूतश्रुत्यन्तरकल्पनापत्तेः सामर्थ्ये तूइतजलेनापि समन्त्रकमानमाह पराशरमाथे ब्यास: "शौतास्त्वपो निषेव्योष्णा मन्त्रसम्भावसंस्कृताः। गेहेऽपि शस्यते नानं तदीनमफलं स्मृतम् ॥ पद्मपुराणं "नैल्यं भावशद्भिश्च विना सानं न जायते। तस्मान्मनोविशाथं मानमादौ विधीयते ॥ अनुमतैर्वा जलैः स्नानं सदाचरेत् । तीर्थं प्रकल्पयेविहान् मूलमन्त्रेण मन्त्रवित् ॥ नमो नारायणायेति मूलमन्त्र उदाहृतः । दर्भपाणिस्तु विधिना प्राचान्त: प्रयतः शुचिः ॥ चतु हस्तसमायुक्त चतुरस्रं समन्ततः । प्रकल्पावायेहा एभिमन्वैर्विचक्षणः ॥ विष्णोः पादप्रसूतासि वैष्णवी विष्णुपूजिता। पाहिनस्व नसस्तस्मादाजन्ममरणान्तिकात् ॥ तिसः कोठ्योऽईकोटौ च तीर्थानां वायुरखवीत् ॥ दिवि भुव्यन्तरौ च तानि ते सन्ति जाइवि !। नन्दिनौत्येव ते नाम देवेषु नलिनौति च ॥ बन्दा पृथ्वी च सुभगा विश्वकाया शिवा शिता। विद्याधरौ सुप्रसवा तथा लोकप्रसादिनौ॥ क्षमा च जाह्नवी चैव शान्ता शान्ति प्रदायिनी। एतानि पुण्यनामानि बानकाले प्रकोर्तयेत् ॥ भवेत् संबिहिता तत्र गङ्गा विपथगामिनौ। सप्तवाराभिजप्तेन करसंपु. टयोजितम् ॥ मूर्डि, दद्याज्जलं भूयस्त्रिवतः पञ्चसप्त वा। मानं कुर्यान्मदा तहदामन्त्रा च विचक्षणः ॥ अश्व क्रान्ते रथकान्ते विष्णुकान्ते वसुन्धरे ! । मृत्ति के हर मे पापं यन्मया -ष्क तं कृतम् ॥ उडतासि वराहेण कृष्णेन शतबाहुना। प्रारुन्छ मम गात्राणि सर्व पापं प्रमोचय । नमस्ते सर्वभूतानां For Private And Personal Use Only Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३६० पाङ्गिकतत्त्वम् । प्रभवारिणि सुव्रते !" ॥ नमो नारायणायेति अष्टाक्षररूपमूल मन्त्रेण चतुरस्र चतुष्कोणरूपं समन्तत: सर्वदिक्ष चतुर्हस्तं जलं प्रतिदिक्षु इस्तमात्रेण व्यवच्छिद्य तौथ प्रल्पयेत् । वितते नद्यादिजले सानस्थानं परिच्छिन्द्यात् । तत्र विष्णोःपादेत्यादि शान्तिप्रदायिनौत्यन्तेन मन्त्रेण गङ्गामावास्येत्। सप्तवाराभिजप्तेनेति सप्तवाराभिजप्तेन नमो नारामणायेति मन्त्रेणाभिमन्त्राति शेषः। एकवचननिर्देशात् तस्य मूलमन्नत्वोत्या च प्रत्रापि विनियोगोऽवगम्यते ततस सप्तवारपठितनारायणमन्त्रेण अलमभिमन्चा करयुगेन विवारादिमूर्वि क्षिपेत। ततचाखक्रान्त इति मन्त्राभ्यां तहदिति जप्ताभ्याम् । “मृत्तिका: सप्त न ग्राह्या वल्मोके मूषिकोत्करे। पन्तले श्मशाने च वृक्षमूले सुरालये। परनानावशिष्टे च श्रेय: कामैः सदा नरैः” ॥ इति दक्षप्रतिषितरां मृदमाममा तया मृदा शिरःप्रभृत्यालभ्यानुतरह तैर्वा जलैः शिरःप्रत्यक्षालनमा वगाहनरूपप्रधानं वारणम्रानं समाचरीदिति पूर्वोक्तनान्वयः । मृदग्रहणमन्वे प्रभवारिणौति प्रभवमुत्यप्तिमत्तुं प्रापयितुं शौलमस्यास्तसम्बोधनमिदम्। अवगाहनन्तु चक्षुः कर्णनासिकामङ्गलोभिराच्छाद्य कुर्यात्। “अङ्गुलौभिः पिधायैव श्रोतङ्नासिकामुखम्। निमन्त प्रतिस्रोतस्त्रि:पठेदधमर्षणम्” ॥ इति समुद्रकरधृतात् । अत्रानु ते वारवयमेवावगाहनं प्रागुतावामनपुराणात्। एष विधिः पौराणिकबात् सर्वशाखिसाधारणः । वेदमन्वरहितत्वात् अनधौत वेदानामपि सर्वथा प्रादरणीयः । मत्स्यपुराणम् । “नद्यां प्रत्येकशः नाने भवेत्गोदानजं फन्नम्। गोप्रदानव दशभिरतासां पुण्य न्तु सङ्गमे ॥ वशिष्ठः। “योऽनेन विधिना नाति यत्र तत्राम्भसि हिजः। स तौर्थफलमाप्नोति तीर्थे तु हिगुणं For Private And Personal Use Only Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राक्रिकतत्त्वम् । : । फलम्” । अनेन तीर्थावाहनादिना । अतो गङ्गायामप्यावाइन कुर्वन्ति शिष्टाः । अत्र च माघसप्तम्यादिनिमित्तकतौर्थविशेषनिमित्तकमन्त्रपाठस्तु मृदालम्भनानन्तर' कार्यः श्रागन्तुकानामन्तेऽभिनिवेश इति न्यायात् । एवं गङ्गायां विशेषमन्त्रानन्तरमेव दशहरादिमन्त्राः पाठ्याः । तत्र गङ्गायां विशेषमन्त्रौ विद्याकरष्टतौ । “विष्णुपाद्याय सम्भूते ग विपथगामिनि । धद्रवौतिविख्याते पाप मे हर जाइवि श्रहया भक्तिसम्पत्रे श्रीमातर्देवि जाह्नवि । श्रमृतेनाम्बुना देवि भागौरथि पुनौहि माम्” । स्मृति: “फालुने शुक्लपचस्य पुष्य द्वादशौ यदि । गोविन्दद्वादशो नाम महापातकनाशिनी” | अत्र गङ्गायां पद्मपुराणौयो मन्त्रः । " महापातकसंज्ञानि यानि पापानि सन्ति मे । गोविन्दद्दादशीं प्राप्य तानि मे हर जाइवि” | गङ्गासागरसङ्गमे मन्त्रः "त्व देव सरितां नाथ त्वं देवि सरितांवरे । उभयोः सङ्गमे खात्वा मुच्चामि दुरितानि वै ॥ लौहित्य स्नाने तु मन्त्रः । " ब्रह्मपुत्र महाभाग शान्तनोः कुलनन्दन । अमोघागर्भसम्भूत पापं लौहित्य मे हर " ॥ करतोयास्नान मन्त्रः । " करतोये सदा नौर सरितश्रेष्ठे सुविश्रुते । पौण्ड्रान् प्लावयसे नित्यं पापं हर करो - द्भवे ॥ विष्णुः । “स्नातः शिरो नावधुनेत् नाङ्गेभ्यस्तोयसुधरेत् । न तैलं वा संस्पृशेत् नाप्रेोचितं पूर्वष्टतं वासो विभृयात् स्नात एव सोष्णीषो धोते वाससौ विभृयात न म्लेच्छान्त्यजपतितैः सह संभाषणं कुर्य्यादिति” नाङ्रेभ्यस्तोयसुखरेदिति स्नानमाटोपाणिभ्यां पूरणीयम् । “स्नातो नाङ्गानि निर्मृज्यात् स्नानशाया न पाणिना" इति विष्णुवचनात् । अत्र वासोऽन्तरधारणात् प्राकृततैलस्पर्श निषेधः प्रतीयते । "शिरः स्नातस्तु तैलेन नाङ्गं किञ्चिदुपस्पृशेत्” इति मनुवचनमेतत्परम् । ततः पादाभ्यङ्गाचरणं सङ्गच्छते । ३१ For Private And Personal Use Only २५१ - Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६२ श्राक्रिकतत्त्वम् । | - यदुक्तम् आयुर्वेदीये "अभ्यङ्गमाचरेत्रित्यं स जराश्रमवा तहा । शिरः श्रवणपादेषु तं विशेषेण शौलयेत् ॥ वर्ज्योऽभ्यङ्गः कफग्रस्तः कृतसंशुद्धा जौर्णिभिः । तिलतैलं हितं वाले शिरोऽभ्यङ्गावगाहने ॥ बस्तिस्नेहानुपानेषु नासाकर्णाचिपूरणे । सार्षपं कटुतीक्ष्णोष्ण' कफशुक्रानिलापहम् ॥ लघुपित्त यकृत् कोष्ठ कुष्ठाश्रु व्रणतीव्रनुत् । तैलं कुसुम्भजं चोष्ण त्वग्दोष कफपित्तनुत् ॥ तैलमेरण्डजं रम्यं गुरुष्णमधुरं रसम् । सुतीक्ष्ण' पिच्छिलं बल्य' रक्तैरण्डोद्भवं भृशम् ॥ कफपित्तानिलहरं रेचनं' कटुदीपनम् । इद्दस्ति पार्श्वजानूरुत्रिक पृष्ठा स्थिशूलिनाम् । हितं वातामय श्वांसग्रन्थि ब्रघ्नविकारिणाम् ॥ विष्णुपुरा म् "चतुद्दश्यष्टमी चैव त्वमावास्याथ पूर्णिमा | पर्वाण्येतानि राजेन्द्र ! रविसंक्रान्तिरेव च ॥ स्त्रौ तैलमांससम्भोगो पर्वखेतेषु वै पुमान् । विण्म ूत्रभोजनं नाम प्रयाति नरकं मृतः” ॥ विष्णुधर्मोत्तरे | "अष्टमोच्च तथा षष्ठीं नवमौञ्च चतुदशौम् । शिरोऽभ्यङ्गं न कुर्वीत पर्वसन्धौं तथैव च ॥ गारुड़े । “ सन्तापः कीर्त्तिरल्पायुर्धनं निधनमेव च । श्रारोग्यं सर्वकामाप्तिरभ्यङ्गे भास्करादिषु ॥ उपोषितस्य व्रतिनः कृत्त'केशस्य नापितैः । तावत् श्रस्तिष्ठति प्रोता यावत्तैलं न संस्पृशेत्” ॥ कल्पतरौ " नाभ्यङ्गमर्के न च भूमिपुत्रे चौरच शुक्रेऽथ कुजेऽथ मांसम् । बुधेऽथ योषित् परिवर्जनीया शेषेषु सर्वाणि सदैव कुर्य्यात् ॥ चित्राखिहस्ताश्रवणेषु तैलं चौरं विशाखप्रतिपत्सु वर्ज्यम् । मूले मघा भाद्रपदासु मां योषिमघाकृत्तिकसोत्तरासु " ॥ मघाकृत्तिकाम्यां महोत्तरास्तासु तृतीयासमासः कान्दसः । ज्योतिषे । “सोमे कौर्त्तिः प्रसरतितरां रौहिणेये हिरण्य' देवाचार्य्यं रविसुतदिने वर्षते दीर्घमायुः । तैलस्नानात्तनयमरणं दृश्यते सूर्य्यवारे भौमे For Private And Personal Use Only Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आङ्गिकतत्त्वम् । मृत्युमवति नियतं भार्गवे वित्तनाशः ॥ रवी पुष्प गुरौ दुर्वी भूमिं भूमिजवासरे। शुक्रे च गोमयं दद्यात्तैलदोषोपशान्तये" । दद्यात्तैले इति शेषः। तैलपदं यौगिकमिति कल्पतरुप्रभतयः। विष्णुधर्मोत्तरे। “तैले जले तथा वक्त्रमादर्श च मलान्विते। न पश्येन तथा पश्येदुपरुक्तं दिवाकरम् ॥ उष्णौषधारणं शिरोजलापनयनाय। तेन तदनन्सरं न धार्यम्। तथा महाभारतम् "पाप्लुतः साधिवासेन जालेन च सुगविना । राजहंसनिभं प्राप्य उष्णोषं शिथिलार्पितम्" ॥ जलक्षयनिमित्तं वै वेष्टयामास मूईमि। शिथिलार्पितमगादवतम्। सत्यतपाः। “प्रागग्रमुदगग्रं वा धौतं वस्त्र प्रसारयेत्। पश्चिमाग्रं दक्षिणाग्रं पुनः प्रक्षालनात् शुचिः ॥ अत्राग्रं दशा वृक्षवत् । प्रचेताः "स्वयं धौतेन कर्त्तव्या क्रिया धा विपथिता । न च राजकधौतेन नाधौतेन भवेत् कचित् ॥ पुत्रमित्रकलत्रेण खन्नातिबान्धवेन च । दासवर्गेण यहोतं तत्पवित्रमिति स्थिति:" ॥ भृगुः विकक्षोऽनुत्तरीय नम्नश्वावस्त्र एव च। श्रौतं स्मात्तं तथा कर्म न नग्नचिन्तयेदपि ॥ विकक्ष: परिधानासंवृतकच्छः। तथाच योगियाज्ञवल्करः “परिधानाहिः कक्षानिबद्धा ह्यासुरी भवेत्” । स्मृति: “वामे पृष्ठे तथा माभी कक्षत्रयमुदाहृतम्। एभिः कक्षः परौधत्ते यो विप्रः स शुचिः स्मृतः” ॥ बौधायन: नाभी धृतञ्च यहस्त्रमाच्छादयति जानुनौ। अन्तरीयं प्रशस्त तद. छिनमुभयोस्तयोः” ॥ प्रचेता: “दशानाभौ प्रयोजयेत् । स्मतिः न स्यात् कर्मणि कचुकौति" उत्तरीयधारणं चोपवोतवत्। “यथा यज्ञोपवीत धार्यते च हिजोत्तमैः । तथा सन्धार्यते यत्नादुत्तराच्छादनं शुभम्" इति स्मृतेः। अत्र हिजोत्तमैर्यथा सव्यापसव्यत्वादिना उपवीतं धार्यते यथा उत्तरा For Private And Personal Use Only Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पातिकतत्वम् । च्छादनमपि हिजोत्तमैरिति प्रदर्शकमात्र प्रागुत भृगुवचनेन सर्वेषां विवस्त्रता प्रतीयते । भारते "न स्यतेन न दग्धेन पारक्येण विशेषतः। मूषिकोत्कीर्णजीर्णन कर्म कुर्य्यादिचक्षणः" ॥ नारसिंहे "न रक्तमुल्वनं वासो न नौलञ्च प्रशस्यते । मलाक्तञ्च दशाहीनं वर्जयेदम्बरं बुधः” ॥ उल्वनम् उत्कटरक्तविशेषम् । प्राचाररत्ने उशना "दशाहोनेन वस्त्रेण कुर्यात् कर्माण्यभावतः"। विष्णुधर्मोत्तरे “वस्त्रं नान्यतं धार्य न रक्तं मलिनं तथा। जौणं वापदशञ्चैव खेतं धायें प्रयत्नतः। उपानहं नान्यतं ब्रह्मसूत्रञ्च धारयेत्। न जौर्णमलवहासो भवेच्च विभवे सति ॥ योगियाज्ञवल्करः। "मात्वैवं वाससौ धौते अक्लिन्ने परिधाय च । प्रक्षाल्योरू मृदद्भिश्च हस्तौ प्रक्षा. लयेत्ततः ॥ प्रभावे धौतवस्त्राणां शौणचौमाविकानि च । कुतपो योगपट्ट वा हिर्वासा येन वा भवेत् ॥ अधोतेन च वस्त्रण नित्यनैमित्तिकों क्रियाम्। कुर्वन् फलं न चाप्नोति दत्तं भवति निष्फलम् ॥ येन वेति उपवीतेन तत् प्रतिनिधिभूतेन कुशरज्वादिना वा। तथाच स्मतिः। “यज्ञोपवौते हे धायें श्रौतस्मार्तेषु कर्मसु । हतोय चोत्तरीयाई वस्त्रालाभे तु दिश्यते" । कुतपो नेपाल कम्बलः। “निष्पौड़यति यः पूर्व स्नानवस्वन्तु तर्पणात्। निराशास्तस्व गच्छन्ति देवाः पिलगणैः सह ॥ पराशरभाथे जावालिः। “स्नानं कत्वावासास्तु विस्म न कुरुते यदि। प्राणायामवयं कत्वा पुनः स्नानेन शुद्धति" ॥ जावालिः । “माईमेकञ्च वसनं परिदध्यात् कथञ्चन"। हारीतः। “पार्द्रञ्च सप्तवाताहतमपि शुधमिति” । मदनपरिजाते पारस्करः। “एकञ्चेहासो भवति तस्य उत्तरार्द्धन प्रच्छादयतीति"। याज्ञयल्काः। “ब्रह्मक्षत्रविशामेव मन्त्रवत् स्नानमिष्यते। तूष्णीमेव हि शूद्रस्य For Private And Personal Use Only Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाक्षिकतत्वम् । सनमस्कारकं मतम् । प्रगम्यागमनात् स्तेयात् पापिभ्यश्च प्रतिग्रहात्। रहस्याचरितात् पापात् मुच्यते स्नानमाचरन् । प्रकर्तुमसमर्थश्चेत् जुहोति यजति क्रियाः। स्नानध्यानजपैनिरामानं शोधयेद बधः" ॥ तूष्णीममन्त्रकं सनमस्कारकम् । तूष्णोमित्यनेन वेदमन्ववर्ज शूद्रस्य इति स्म तिवाक्य कवाक्यतया शूद्रस्य वेदमन्त्र मात्र निषेध इति वाचस्पतिमित्राः छन्दोगाडिकोऽप्येवम्। वस्तुतस्तु सनमस्कारकमित्यनेन म्नानस्यैव नमस्कारवत्त्व प्रतीयते। न त्वनुपस्थिततौर्थनमस्कारवत्त्वम् । तृष्णोमवेत्येवकारेण पौराणिकादेरपि निषेधः । एवञ्च "मा-- रतिः शुचिर्भत्यभर्ती बाइक्रियापरः। नमस्कारेण मन्त्रेण पञ्चयज्ञान हापयेत् ॥ इति याज्ञवल्काविशेषोपदिष्टनमस्कारेतरत्र शूद्रस्य पौराणिकमन्त्रपाठ: प्रतीयते। अगम्येत्यादिना पापक्षयः प्रतीयते। ब्रह्मपुराणम्। “नद्यां प्रत्येकशः स्नाने भवेत् गोदानजं फलम्। गोप्रदानश्च दशभिस्तासां पुण्यन्तु सङ्गमे" ॥ देवन्तः। “न नदौषु नदी ब्रूयात् पर्वतेषु च पर्वतम्। नान्यत् प्रशंसेत्तत्रस्थ स्तोर्थेष्वायतनेषु च ॥ नदी न नदौत्वेन ब्रूयात् किन्तु गङ्गादिविशेषनामत्वेन ब्रूयात् । तोर्यादौ स्थित्वा तीर्थान्तरं न प्रशंसेत । विष्णुधर्मोत्तरे “प्रकारणं नदीपारं बाहुभ्यां न तरेत्तथा। न प्रशंसेनदौतोये नदी. मन्यां कथञ्चन ॥ न गिरी पर्वतं राम न राज्ञः पुरतो नृपम् । असन्तर्प्य पितृन् देवान् नदौपारन्तु न व्रजेत्"। मनुः “न स्नानमाचरेद भुक्वा नातुरो न महानिशि। न वासोभिः सहाजन नाविज्ञाते जलाशये" ॥ न स्नानमाचर त्वति रागप्राप्तस्नाननिषेधः नित्यस्याप्राप्तत्वात् नैमित्तिकनिषेधवक्तमशक्यत्वात् "नैमित्तिकानि काम्यानि निपतन्ति यथायथा । तथा तथैव कार्याणि न कालन्त विधीयते” ॥ इति दक्षोक्तः । For Private And Personal Use Only Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -३६६ पाक्षिकतत्वम् । पातुरः स्नानसम्बईकरोगवान् । प्रतएव विष्णुधर्मोत्तरं “नोपक्षितव्यो व्याधिः स्वात् रिपुरल्योऽपि भार्गव। महानिशा तु विज्ञेया मध्यमं प्रहरहयम्। तस्यां स्नानं न कर्त्तव्यं काम्यनैमित्तिकादृते”। इति देवलवचनात् । अत्र न वासोभिः सहेत्यनेन बहुवासो निषेधात् स्नाने हिवासस्व प्रतीयते। अजस्र पुनः पुनः। तेन वारुण्यादिसंक्रान्त्यादिनिमित्तभेदप्राप्तमेकदा नानास्नानं निषिध्यते । किन्तु तन्त्रेण प्रसङ्गेन चैकं स्नानम् । तथा च निगमः “नावर्तयेत् पुनः कर्म तर्पणादिकमन्वहम् । काम्यनैमित्तिके हित्वा एकं टेकत्र वासरे ॥ विषुवहिवसे प्राप्त पञ्चतीर्थों विधानतः। स्नात्वा सङ्कर्षणं कृष्णं दृष्ट्वा भद्राच भो विजाः । नर: समस्तयज्ञानां फलं प्राप्नोति दुर्लभम्” इति ब्रह्मपुराणोत मार्कण्डेयदे प्रद्युम्नसरोवरे समुद्ररूपादितौथभेदादौ तन्त्रप्रसङ्घयोरभावात् पुनः पुनरेकदिनेऽपि नाना• स्नानमिति “व्यपोह्य चाष्टम भागमुदयाद् यत्र कुत्रचित् । तिथ्योर्युग्मेऽम्ययुग्म वा सक्कदाह्निकमाचरेत् ॥ अविज्ञाते सुगमतया निन्दितकर्ततया च। बौधायन: "सवन्तोष्वनिरुद्धासु वयोवर्णा हिजातयः। प्रातमत्थाय कुर्वीरन् देवर्षिपिटतर्पणम् ॥ निरुद्धासु न कुरिन्द्र शभाक् सेतुकद्भवेत् । तस्मात् परकतान् सेतून् कूपांश्च परिवर्जयेत् ॥ उद्द,त्य वा बौन् पिण्डान् कुर्यादापत्सु नो सदा। निरुद्धासु च मृतपिण्डान् कूपातु नोन् घटांस्तथा ॥ निरुद्धासु सेतुभिनिरुद्धप्रवाहासु। अत्र परकतान् इत्यनेन उत्सृष्ट कूपादेरपि तथात्वात्तवाघि घटपिण्डोद्धारः। अतएव मनुनापि निपानकक्षुरित्यभिहितम्। न तु निषानखामिनः इति। यथा “परकीयनिपानेषु स्नाया.व कदाचन । निपान कर्तुः स्नात्वा हि दुष्कतांशन लिप्यते” ॥ निपातं जलाधारमात्रं तथा च For Private And Personal Use Only Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाकितत्वम् । ३-३७ याज्ञवल्का: “पच पिण्डाननुडत्य न स्नायात् परवारिणि” योगियाज्ञवल्काः । “ अनुड, त्य तु यः स्नायात् परकीय जलाशये । वृथा तस्य भवेत् स्नानं कर्तुः पापेन लिप्यते ॥ स्नानं दानं तपो ध्यानं पितृदेवार्चनं तथा । पावनानि मनुष्याणां दुष्क तस्येह कर्माणः ॥ शङ्खः " नृणां पापकृतां तीर्थे भवेत्पापस्य संक्षयः । यथोक्तफलदं तीर्थं भवेत् शुद्धात्मनां नृणाम् ॥ इन्दोगपरिशिष्टं "यव्ययं श्रावणादिसर्वा नद्यो रजखलाः । तासु स्नानं न कुर्वीत वर्जयित्वा समुद्रगाः ॥ नदोलक्षणं तत्रैव " धनुः सहस्राण्यष्टौ च गतिर्यासां न विद्यते। न ता नदौशब्दवहा गर्त्तास्ताः परिकीर्त्तिताः ॥ उपाकर्माणि चोल्लगे प्रेतस्नाने तथैव च । चन्द्रसूर्यग्रहे चैव रजो दोषो न विद्यते ॥ यव्योमासः “ यव्यामासाः स्वमेकः संवत्सरः” इति शतपथश्रुतेः । अत्र तासु स्नानमात्रस्य निषेधात् प्रागपि रजखला इति हेतुवनिगदात् स्नानानईत्वमेव विवचितं न त्वाचमनाद्यनईतापि । सम्प्रदायोऽप्येवमिति रत्नाकरः मलिम्लुचतत्त्वे विद्वतहेतु गदस्यापि एषोऽर्थः : स्फुट इति । अत्र विशेषो मदनपारिजाते निगम: “न दुष्येत्तोरवासिनाम्” इति तत्रैव व्याघ्रपादः । " श्रभावे कूपवापौनामन्येनापि समुद्धृते । रजो दुष्टेऽपि पयसि ग्रामभोगो न दुष्यति” ॥ अन्येन कुम्भादिना अतएव इन्दोगपरिशिष्टे ताखिति निर्देशः । धनु: परिमाणञ्च हस्तचतुष्टयं तथा च विष्णुधर्मोत्तरे "दादशाङ्गुलिकः शङ्कस्तद्वयञ्च शयः स्मृतः । तञ्चतुष्क ं धनुः प्रोक्तं क्रोशो धनुः सहस्रिकः” ॥ शयोहस्तः उपाकर्म्मोत्सर्गकर्मणौ वैदिककर्त्तव्ये छन्दोगपरिशिष्टोक्ते । "अन्त्यैरपि कृते कूपे सेतौ वाम्यादिके तथा । तत्र स्नात्वा च पौत्वा च प्रायश्चित्तं समाचरेत्” ॥ तथा "प्रभूते विद्यमाने तु उदके सुम For Private And Personal Use Only Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पातिकतत्वम्। मोहरे। भात्योदके हिजः स्नायात्रदीचोत्सृज्य कृत्रिम । इति बहुभितम्। ब्रह्मपुराणे "नित्यं नैमित्तिकं काम्य विविधं स्नानमिष्यते। तपणन्तु भवेत्तस्य अङ्गत्वेन व्यवस्थितम् ॥ नित्यमहरहः क्रियमाणं “यथाहनि तथा प्रातर्नित्यं स्नायादनातुरः" इति छन्दोगपरिशिष्टोक्तं प्रातमध्यानसम्बन्धि नैमित्तिकं सूर्यग्रहणादावावश्यकं कायं न तु चाण्डालादिस्पर्शनिमित्तकम्। “श्मश्रु कम्माश्रुपातच मैथन छदनं तथा। अस्पृश्य स्पर्शनं कृत्वा स्नायाहा जलक्रिया:" ॥ इति ब्रह्मपुराणे तणनिषेधात् काम्यं वर्गादिफलकं तीर्थादिस्नानं तर्पणस्याङ्गत्वात् येन कल्पेन स्नानं तर्पणं तेन कल्पेन । किन्तु "यन्नाम्ना तं स्वशाखायां परोतामविरोधि च। विहद्भिस्तदनुष्ठेयमग्निहोत्रादिकमवत्” ॥ छन्दोगपरिशिष्टोक्त चकारेणाकाइतमविरोधिपरोक्तमधिकमपि बोध्यम् एवञ्च यद्यपि स्नानाङ्गं तर्पणं तत्प्रयोगान्तर्भवितु मईति तथापि तस्य सध्यानुष्ठानसत्वे सख्योत्तरत्वं वाचनिकं चन्द्रसूर्य ग्रहादौ च सध्यानुष्ठानाभावात् स्नानप्रयोगान्तर्गतमेव। प्रातःस्नानस्थापि यथाहनोत्यनेनाहः स्नानधम्मातिदेशात् तदङ्गतर्पणस्थापि सध्योत्तरता किञ्च गहमेधीय प्रयोगमध्ये अग्निहोत्र. काल भागते तत्पदार्थक्रमानुरोधेन यथाऽग्निहोत्रानुष्ठान तथा स्नानानन्तरं सन्ध्याकाले भागते तर्पणमकत्वैव सध्यानुष्ठानं युक्तमिति विद्याकरः एवञ्च स्नानाङ्गतर्पणादेव पञ्च. यज्ञान्तर्गतत्वेन प्रधानतर्पणस्यापि प्रसङ्गात् सिद्धिः तदाह मनु: “यदेव तर्पयत्यद्भिः पितृन् स्नात्वा हिजोत्तमः। तेनैव सर्वमानोति पिटयनक्रिया फलम् ॥ यत्र तु रोगादिना नानं न कृतं तत्रापि गात्रमार्जनादिना शौचमुत्याद्य पिट. यन्त्रसिद्धये तर्पयेत् । तदाह शातातपः "तपणन्तु शुचिः For Private And Personal Use Only Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाङ्गिकतत्त्वम्। कुर्यात् प्रत्यहं सातको हिजः। देवेभ्यश्च ऋषिभ्यश्च पिढभ्यश्च यथाक्रमम् ॥ अवारः पदं रियामामित्यादिना प्रागुशाकालपरम्। प्रतएव मनुना स्मात्वा इत्यविशेषादुताम् । तस्मादरुणोदयतर्पणादपि पिटयनतर्पणसिद्धिः। महाभारतेऽप्युक्तम् "सुखोषितास्तां रजनी प्रात: सर्वे कृतालिकाः । विविशुस्तां सभां दिव्यां किरैरुपशोभिताम्" ॥ इति अत्राप्रव्याख्येयकमानुरोधेन प्रधानकालादन्यत्रापि कालान्तरे कर्मानुष्ठानमिति। प्रधानतर्पणस्य स्नानाङ्गतर्पणप्रकृतिकत्वात् सध्यानुष्ठानान्तरत्वं यथा ज्योतिष्टोमस्य इष्टुात्तरकालत्वं विकृतिसोमेऽप्यतिदेशात प्राप्तमिति। एवम् “अग्निराचरेत् कर मध्याह्नात् प्राविशेषतः। इति वशिष्ठवचनात् महाभारतवचनाच प्रातरपि मध्याह्नकम्मानुष्ठानम् एवं "दिवोदितानि कमाणि वकालेनाकतानि चेत्। शर्वाः प्रथमे यामे तानि कुर्यादतन्द्रित:" ॥ इति नारदीयात् परकालेऽपि कर्त्तव्यम्। एवं मानाङ्गपिण्डोचारादपि तर्पणाङ्गपिण्डोहारसिद्धिः प्रसङ्गात्। यत्र तु स्नानं विना वाप्यादौ तपणं क्रियते तत्रैव तन्मात्रपिण्डोडारः। तथा च शङ्खलि. खितौ। “वापि कूपतड़ागोदपाने षु सप्त पञ्च सौन्। वा पिण्डानुछ त्य देवान् पितृच तर्पयेत्” ॥ उदपानपदं वापौकूपतड़ागेतरस्वल्पजलाधारपरं तत्प्रमाणन्तु जलाशयोमर्मतत्त्वे. ऽनुसन्धेयम्। “पुष्थे वा जन्मनक्षत्रे व्यतीपाते च वैती। प्रमावास्यां नदौस्नानं दहत्याजन्मदुषकतम् ॥ अमावास्याम् अमावासौशब्दस्य रूपम्। स्कन्दपुराणं "नदी तडागसम्भूतं वापोकूपङ्गदोद्भवम् । गङ्गोदकं भवेत् सर्वं शङ्खनैव समुह तम्" । एतदर्शनात् शङ्खाभिषेकं करोति। अस्पृश्य स्पर्शनादौ तज्जलं स्पृशति। वराहपुराणं "दक्षिणावर्तशङ्ख च पावऽप्यौडम्बर For Private And Personal Use Only Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३७० भाकितवम् । स्थितम् । उदकं यः प्रतीच्छेत शिरसा इष्टमानसः । जन्मकृतं पापं तत्क्षणादेव नभ्यति” ॥ चौड़म्बरे ताम्रपात्रे । मरौचि: "क्षेत्रस्थमुह तं वापि शौतमुष्णमथापि वा । गाङ्ग ययः पुनात्याशु पापमामरणान्तिकम् ” ॥ “श्रच्छन्नपद्मपत्त्रेण सर्वरत्नोदकेन च । स्रोतसा वै नरः स्नात्वा सर्वपापैः प्रमुच्यते” ॥ विष्णुधर्मोत्तरे । “ तथा दवदकस्नानं सर्वपापप्रणाशनम् । गोमूत्रेण च यत् स्नानं सर्वाध विनिसूदनम् ॥ तथा पुष्पोदकस्नानं भवेदारोग्यकारकम् । केवलैर्वा तिलैः स्नानमथवा गौरसर्षपैः ॥ स्नानं प्रियङ्गणा प्रोक्तं तथा सौभाग्यवर्द्धनम् । श्रायुष्यञ्च यशस्यञ्च धर्म्यं मेधाविवर्द्धनम् । स्नानं पवित्रमाङ्गल्यं तथा काञ्चनवारिणा " ॥ शङ्खः " स्नातस्य वहितोयेन तथाच परवारिणा । कायशुद्धि विजानौयात् न तु स्नानफलं लभेत् ॥ स्नानफलं वैधम् आयु वेदयन्तु भवत्येव । " उष्णाम्बु माधः कायस्य परिषेको बलावहः । तेनैव चोत्तमाङ्गस्य बलनुत् केशचक्षुषोः ” ॥ इति यमः । " नित्य नैमित्तिकञ्चैव क्रियाङ्गमलकर्षणम् । तौर्थाभावे च कर्त्तव्यमुष्णोदकपरोदकैः” ॥ विष्णुपुराणं " स्नानाट्री धरणीव दूरतः परिवर्जयेत्” । विष्णुधर्मोत्तरे । “ चण्डालैः पतितैमच्छर्भाषणं वाप्युदक्यया । न कार्य कामतः कृत्वा कोर्सयेत् केशवं विभुम् ॥ जले स्थित्वा कर्म कुर्वन् जलेन तिलक चरेत् । अन्यथा भस्मना मृद्भिः कुर्य्यात् काष्ठेन वा पुनः ॥ इति कर्म्माङ्गतिलकं सामगेन कर्त्तव्यम् इति केचित् । अथ तर्पणम् । तद्विविधं प्रधानमङ्गञ्च । तत्राद्यमा शातातपः । “तपणन्तु शुचिः कुय्यात् प्रत्यहं स्नातको हिजः । देवेभ्यश्च ऋषिभ्यश्च पितृभ्यश्च यथाक्रमम्” ॥ विधवामधिकृत्य का शौखण्डम् । “ तर्पणं प्रत्यहं कार्य्यं भर्त्तुः कुमतिलोदकैः । For Private And Personal Use Only Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आङ्गिकतत्त्वम् । ३७१ तपितुस्तत्पितथापि नामगोत्रादिपूर्वकम्” ॥ हितोयन्तु ब्रह्माण्डपुराणोयम्। “नित्य नैमित्तिकं काम्य विविधं स्नानमिष्यते। तर्पणन्तु भवेत्तस्य अङ्गत्वेन व्यवस्थितम्" ॥ तर्पणाकरणे दोषमाह योगियाज्ञवल्काः । “नास्तिक्यभावाद् यश्चापि न तर्पयति वै सुतः। पिबन्ति देहरुधिरं पितरो वै जला. र्थिनः" ॥ तर्पणमधिकृत्य ब्रह्मपुराणम्। तस्मात् सदैव कर्त्तव्यमकुर्वन् महतैनसा। युज्यते ब्राह्मणः कुर्वन् विश्वमेतदितिं हि ॥ शङ्खलिखितौ। “नेष्टकाचिते स्थाने पितृ स्तर्पयेत्”। मार्कण्डेयपुराणम्। “यच्च सर्वाय नोत्सृष्टं यच्चाभोज्यनिपानजम्। तहज्य सलिलं तात सदैव पिळकमणि" ॥ विष्णुः "स्नातचावासा देवपितृतर्पणमम्भःस्थ एव कुयात्। परिवर्तितवासाश्चेत्तीर्थमुत्तीर्य”। प्रनापि तीर्थे विशेषमाह मत्स्यपुराण । “तिलोदकाञ्जलियो जलस्थैस्तौर्थवासिभिः । सदा न हस्तेनैकेन रहे श्राई समिष्यते” । अत्र जलस्थैरित्यनेन स्थलस्थानामपि जलस्थत्व नियम्यते । ततश्च "अन्तरुदक प्राचान्तोऽन्तरेव पूतो भवति। वहिरुदके श्राचान्तो वहिरेव पूतो भवति तस्मादन्तरेकं वहिरेकञ्च पादं कृत्वा प्राचामेत्। सर्वत्र शुद्धो भवति इति पैठौनसिवचनात् । जलस्यै कचरणकताचमनेनोभयकमाहत्वात् तर्पणकाले तीर्थे जलैकचरणेन भवितव्यम् अन्यत्र त्वनियमः । तद्रूपाणां जले तर्पणमनिषिद्धमिति । स्थलस्थतपणे आग्नेयपुराणं "प्रागग्रेषु सुरांस्तु प्येन्मनुष्यांचव मध्यतः । पितृश्च दक्षिणाग्रेषु दद्यादिति जलानलौन्” ॥ अशुचिदेशे तु विष्णुः। यत्रा शुचिस्थलं व्यासादुदके देवतापितृन्। तर्पयेत्तु यथा काममम सर्व प्रतिष्ठितम्" ॥ वृहस्पतिः। "ब्रह्मयज्ञप्रसिद्धार्थ विद्याञ्चाध्यात्मिकी जपेत् । जनाथ प्रणवं वापि ततस्तर्पण For Private And Personal Use Only Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३७२ पाकितत्त्वम् । माचरेत्' ॥ एतच्च तर्पणं ब्रह्मयज्ञानन्तरं छन्दोगेतर परम् । तेषान्तु वैश्रवणाय चोपजाय इत्यन्तसूर्योपस्थानानन्तरं गोभिलेन तर्पणाभिधानात् । " श्राप्नवने तु सम्प्राप्ते तर्पणं तदनन्तरम् । "गायत्रौञ्च जपेत् पश्चात् स्वाध्यायश्चैव शक्तितः । अाप्लवने तु सम्प्राप्ते गायत्री जपतः पुरा । तर्पणं कुर्वतः पश्चात् स्नानमेव वृथा भवेत् " ॥ इति गोभिलौयवचनाभ्याच दक्ष: “प्रादेशमात्रमुद्धृत्य सलिलं प्राङ्मुखः सुरान् । उदमनुष्यांस्तृप्येत पितृन् दक्षिणतस्तथा ॥ प्रग्रेस्तु तर्पयेद्देवान् मनुष्यान् कुशमध्यतः । पितृस्तु कुशमूलाग्रे विधिः कौशो यथाक्रमम्” ॥ एवञ्च गोशृङ्गमात्रमुहृत्य जलमध्ये जलं चिपेत् । इति यमवचन स्थगोशृङ्गपदं प्रादेशमात्रपरम् । उडतोदके तु हारीतः । " पात्राद्दा जलमादाय शुचौ पात्रान्तरे चिपेत् । जलपूर्णेऽथवा ग न स्थाने तु विवर्हिषि । अत्र यहि यदुप क्रम्य श्रुतं तच्च येन समं समभिव्याहृतं तदेव तत्रैवाङ्गं नान्यदिति बोध्यं तदङ्गम् इतरत् समभिव्याहारप्रकरणाभ्यामिति गोतमसूत्रात् तेन पद्मपुराणोयत्राने तदुक्तमेव तर्पणम् । तदुयथा “ब्रह्माणं तर्पयेत् पूर्वं विष्णुं रुद्रं प्रजापतिम् । देवा यक्षास्तथा नागा गन्धर्वाप्सरसोऽसुराः ॥ क्रूराः सर्पाः सुपर्णाच तरवो जम्भगाः खगाः । विद्याधरा जलधरास्तथैवाकाशगामिनः ॥ निराहाराय ये जोवाः पापे धर्मे रताच ये। तेषामाप्यायनायैतद्दीयते सलिलं मया ॥ एतेनैकाञ्जलिरिति सर्वेषां मतम् । "कृतोपवीतौ देवेभ्यो निवौसौ च भवेत्ततः । मनुष्यांस्तर्पयेत्या ऋषिपुत्रानृषींस्तथा ॥ सनकश्च सनन्दय तृतीयश्च सनातनः । कपिलचा सुरिश्चैव वोढः पञ्चशिखस्तथा ॥ सर्वे ते टप्तिमायान्तु महत्तेनाम्बुना सदा । मरीचिमत्राङ्गिरसौ सुलख्य पुलहं क्रतुम् ॥ प्रचेतसं वशिष्ठञ्च भृगुं नारदमेव च । 1 For Private And Personal Use Only Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चाह्निकतत्त्वम् । ३७३ देवान् सर्वानृषीन् सर्वांस्तर्पयेदचतोदकैः ॥ अपसव्य ं तत: कृत्वा सव्य' जानु च भूतले । अग्निस्वात्तांस्तथा सौम्यान् हविषन्तस्तथोषम पान् ॥ सुकालिनो वर्हिषद श्राज्यपांस्तर्पयेत्ततः । तर्पयेञ्च पितृन् भक्त्या सतिलोदकचन्दनैः ॥ दर्भपाणिस्तु विधिना हस्ताभ्यां तर्पयेत्ततः ॥ अत्र केचित् पिटधर्मातिदेशात् दिव्यपितृणामपि अलित्रयदानम् । तदसत् " कव्यवालं नलं सौम्यं यममर्य्यमाणन्तथा । अग्निखात्ताः सोमपाश्च वर्हिषदः सकृत् सकृत् ” ॥ इति छन्दोगपरिशिष्टेन विशिष्टैकाच लिविधानात् । “ पित्रादौनामगोत्रे च तथा । मातामहानपि । सन्तर्प्य भक्त्या विधिवदिमं मन्त्रमुदौरयेत् ॥ ये बान्धवा बान्धवा वा येऽन्यजन्मनि बान्धवाः । ते तृप्तिमखिलां यान्तु ये चास्मत्तोयकाङ्क्षिणः” ॥ अत्र ब्रह्मादिचतुर्षु तर्पणप्रयोगाकाङ्गायां गोभिलयाज्ञवल्कयोक्त प्रयोगविधिः । स च " अन्वारन्ध ेन सव्येन पाणिना दक्षिणेन तु । तृम्यतामिति वक्तव्यं नाम्ना तु प्रणवादिना ॥ अन्वारब्धन पश्चाल्लग्नेन अस्मादेव वचनात् तर्पणाभिलापे प्रणवादित्वं तृप्यतामिति च लभ्यते । ततश्च ब्रह्मा तृप्यतामिति प्रयोगः । देवा इत्यादि मयेत्यन्तेन मन्त्रलिङ्गादेकाञ्जलिः । तथा सनक इत्यादि सदा इत्यन्तेनैकाञ्जलिः एवं पुनरपि । “एकैकमञ्जलिं देवा द्दौ द्दौ तु सनकादयः । श्रर्हन्ति पितरस्त्रीं स्त्रौन् स्त्रियस्त्व के कम लिम्” इति व्यासगोभिलसूत्रवचनात् । न तु हो द्वाविति वौसाश्रुतेः सनकादिप्रत्येक एवं डायलिरिति वाच्यं प्रत्येकपक्षे हो दो समुदायपचे टत्यनुरोधेन तथैव युक्तत्वात् । श्रत्राञ्जलिपदं प्रागुक्तान्वारव्य नेति श्रवणात्तथाविधहस्तइयपरम् । तद्वैकल्पिकालिपरं वा । देवादिपचे पितृपक्षे तु तो युतावज्ञ्जलिः पुमानित्येतत्परं पद्म ३२ For Private And Personal Use Only Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाहिकतत्त्वम् । पुराणोयतर्पणपक्षे तु पिढपक्ष एव हस्ताभ्यामिति श्रुतेस्तर वाञ्जलिः । अन्यत्र नाञ्जलिरित्यवगम्यते। आचारमाधवौये प्रचेता: “माटमुख्यास्तु यास्तिसस्तासां दद्याचिरञ्जलौन्” । इति पराशरमाथे सनकादिदिव्यमनुष्याणां तपणादिकं सामगेन प्रामु खेन तदितरेणोदन खेन कर्तव्यं तथाच परि. शिष्टकृतं सामवेदीयषत्रिंशद्ब्राह्मणं "मनुष्याणामेषा दिक याच प्रतीचौति । तथाच ज्योतिष्टोमे अयते । “प्राची देवा अभ्यअन्त दक्षिणां पितरः प्रतीची मनुष्थाः उदीचौमसुराः अपरेषामुदौचों मनुथा: । यत्तु "तजप्योऽन्तर्जानुरुदअखः । दिव्येन तीर्थन देवानुदकेन नर्पयेत्” इति शङ्खलिखितमुत्र देवतर्पणे। उदम, खत्व विधायक तच्छ्रुतिविरोधात् शाख्यन्तरौयम् अशक्तविषयकम्। उदकेनेति श्रवणात् यवादिरिति फलाधिक्याथै व्यवहारोऽपि तथा । यत्तु "निवौती हन्तकारण मनुष्थांस्तर्पयेदय। कुशस्य मध्यदेशेन तृतीर्थेन उदब्रुखः ॥ लघुविष्णतं इन्तप्रयोगेन जलदानमुक्तं तत् सनकादिप्रत्येकतपणे यथा “सनकस्तुप्यतां तस्सै. तदुदकं इन्त" इत्यादौ न तु पद्मपुराणीयमिलिततर्पणे दत्ते. नाम्ब ना अनेन दत्तस्य पुनस्त्यागासम्भवात्। नृतीर्थन कनिष्ठाङ्गुलिमूलेन "प्राजापत्येन तीर्थेन मनुषांस्तर्पयेत् पृथक्” इति विष्णु पुराणोयकवाक्यत्वात् । मरौच्चादि ऋषितर्पणन्तु अगुल्यग्रेण "प्रत्यग्रमार्ष" इति यमवदनात् एव. चार्ष देवतीर्थयोरङ्गल्य ग्ररूपैकदेशत्वसाधर्मेण मरौच्चादितपणे तु दिगाद्याकाङ्क्षायां देववदिति। पतएव योगियाज्ञवल्का. वचने सनकानित्यव मनुष्यानिति विशेषणं दत्तम् । ब्रह्माद्यानित्यत्र देवानिति विशेषणं दत्तमिति व्यवहारोऽपि तथा । मरौचिः “सौवर्णेन तु पात्रेण ताम्ररूप्यमयेन वा। औडुम्बरेए For Private And Personal Use Only Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राकितश्वम् । ३७५ खङ्गेन पितृषां दत्तमचयम् ॥ विना रूप्यसुवर्णेन विना ताम्रमयेन वा । विना तिलेश्च दर्भेव पितॄणां नोपतिष्ठते” । एतच्च समग्राभावे बोध्यं न तु एकस्याभावे बोध्यं शङ्कः । "सौवर्णेन तु पात्रेण राजतेनौडुम्बरेण च । खङ्गपात्रेण शङ्कुना चाप्युदकं पितृतीर्थं स्पृशन्दद्यात् " ॥ मङ्गुः सुवर्णकौल ङ्कः । "चचतोदकैर्यवाद्भिस्तर्पयेहवान् सतिलाभिः पितृस्तथा” | इति छन्दोगपरिशिष्टेनापि पिष्टपचे तिलोदकमात्रविधानात् । पद्मपुराणे चन्दनविधानं फलाधिक्यार्थम् । अपसव्यं प्राचौनापौतित्वम् । उपयोतित्वं प्राचीनावीतित्वञ्चाह गोभिलः । "दक्षिणं वाहमुहृत्य शिरोऽवधाय सव्येऽशे प्रतिष्ठापयति दक्षिणं कचमवलम्बनं भवति एवं यज्ञोपवीतो भवति । सव्यं बाहुमुद्धृत्य शिरोऽवधाय दक्षिणे प्रतिष्ठापयति सव्यकक्षमवलम्बनं भवति एवं प्राचीनावीतो भवति" इति प्रतिष्ठापयति यज्ञोपवीतमिति शेषः । तथाचामर सिंहोऽपि । “उपवीतं यज्ञसूत्र प्रोड ते दक्षिणे करे । प्राचौनावोतमन्यस्मिनिवोतं कण्ठलम्बितम्” इति । " सावित्री ग्रन्थिसंयुक्त उपवीतं तवाच्युत' इति ब्रह्मपुराणोय पूजादर्शनात्। गायत्रीमन्त्रेण उपवीतं कर्त्तव्यमिति प्रतोयते । लौकिकास्तु सावित्री ग्रन्थिरिति वदन्ति प्रवरसंख्यया वेष्टितग्रन्थिरिति लौकिकव्यव हारः । विद्याकरधृतं "यथा यज्ञोपवीतम्" इत्यादिवाक्यात् उत्तरीयमपि यज्ञोपवीतवत् सव्यापसव्यत्वादिना धाय्र्यं विद्वतं ટ્ । तत्त्व । पित्रादौत्यादिना मातामहादित्रयपरिग्रहः । तथाच विष्णुपुराणे "त्रिरपः प्रीणनार्थाय देवानामपवर्जयेत् । ऋषीणाञ्च यथान्यायं सकञ्चापि प्रजापतेः । पितृणां प्रौषनार्थाय चिरपः पृथिवीपते । पितामहेभ्यश्व तथा प्रौणयेत् प्रपितामहान् ॥ मातामहाय तत् पित्रे ततृपित्रे च समा For Private And Personal Use Only Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आहिकतत्त्वम् । हितः। दद्यात् पित्रण तौर्थेन काम्यञ्चान्यत् मृणुष्व मे ॥ स्मृतिसारे कृतम्। “वामहस्ते तिलान् दत्त्वा जलमध्ये तु तर्पयेत्। सानशाव्यञ्चले पात्रे रोमकूपे न कुत्रचित्" । जलतर्पणे रोमरहितप्रदेश वामवाही वस्वाच्छादिते तिलान् संस्थाप्य मुद्रारहितदक्षिणहस्ततर्जन्यङ्गुष्ठयोरन्यतरेण तिलान् ग्रहीत्वा वामहस्ततलेन स्थापयित्वा तर्पयेदिति मदनपारिजातः। अतएव मरीचिः। "मुक्तहस्तञ्च दातव्यं न मुद्रां दर्शयेत् कचित्। वामहस्ते तिला प्राधा मुक्तहस्तञ्च दक्षिणम् ॥ मुताइव प्रसारितहस्तं यथा स्यात्। एवं मुद्रा प्रदेशिन्यष्ठयोगे सन्दंशरूपः । "मुक्तहस्तञ्च दक्षिणम्” इति दक्षिणहस्तं तिलरहितं कुर्यात् इति नैयतकालौन कल्पतरः । तथाच नारदीये "अङ्गुष्ठानामिकाभ्यान्तु दक्षिणस्येतरात तरात्। तिलान् यहोवा पात्र स्थान् ध्यात्वा संतर्पयेत् पितृन्” ॥ देवतः । “रोमसंस्थान् तिलान् कृत्वा यस्तु संतयेत् पितृन् । पितरस्तर्पितास्तेन रुधिरेण मलेन च" ॥ वृष्टिजलसम्पर्के तर्पणनिषेधमाह वायुपुराणम् । “मेधे वर्षति यः कुर्यात् तर्पणं ज्ञानदुर्बलः । पितॄणां नरके घोरे गतिस्तस्य भवेद् ध्रुवम् ॥ तथा “शूद्रोदकैन कुर्वीत तथा मेघादि निःसृतैः”। इति दर्शनादिति कौमुदी। योगियाज्ञवल्क्यः । "याद्ध तश्चेत्तु तिलान् संमिश्रयेज्जले। अतोऽन्यथा तु सव्येन तिला ग्राह्या विचक्षणः" ॥ पत्र शेषाई मदनपारिजात लिखितम् "अन्यथा वामहस्तेन ततस्तर्पणमाचरेदिति” । वायुपुराणम्। "तिलदर्भस्तु संयुक्त अदया यत् प्रतीयते। तत्सर्वममृतं भूत्वा पितृणामुपतिष्ठते" । स्मृतिः । “रविशुक्र दिने चैव हादश्यां श्राद्धवासरे। सप्तम्यां जन्मदिवसे न कुर्य्यात्तिलतर्पणम्” मत्स्यपुराणे "संक्रान्त्यां निशि सप्तम्यां रविशुक For Private And Personal Use Only Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पातिकतत्त्वम् । दिने तथा। पाहे जन्मदिने चैव न कुयात्तिलतर्पणम्"। श्राद्ध प्रमावास्यातिरिक्षात्रा "नौलषण्डविमोक्षण अमा. वास्यां तिलोदकैः। वर्षासु दीपदानेन पितॄणामणूनो भवेत्। अमावास्यान्तु ये माः प्रयच्छन्ति तिलोदकम् । पत्रमौडुम्बर प्राप्य मधुमिकं तपोधनाः। कृतं भवति तत् श्राई रहस्यञ्च सदा भवेत् । विशेषतच जाहव्यां सर्वदा तर्पयेत् पितृन् । न कालनियमस्तत्र क्रियते सर्वकर्मसु”। वौधायनः। “न जीवत् पिटकः कणैस्तिलैस्तर्पणमाचरेत्। सप्तम्यां रविवार च जन्मदिवसेषु च। स्मृतिः। “निषिइदिनमासाद्य यः कुर्य्यात्तिलतर्पणम्। रुधिरं तद्भवेत्तीयं दाता च नरक व्रजेत्” ॥ प्रतिप्रसवमा स्मृतिः । “अयने विषुवे चैव संक्रान्त्यां ग्रहणेषु च। उपाकर्मणि चोत्सर्गे युगादौ मृतवासरे। सूर्यशुकादिवारऽपि न दोषस्तिलतर्पणे। तीर्थे तिथिविशेषे च कार्य प्रेते च सर्वदा। स्कन्दपुराणम्। “तीर्थमात्रे तु कर्तव्यं तर्पणं मतिलोदकैः । योऽन्यथा तर्पयेमढ़ः स विष्ठायां भवेत् कमिः । विशेषतस्तु जाङ्गव्यां सर्वदा तर्पयेत् पितृन्” । एतत्त निषिदिनतर्पणविधायकम्। "तोर्थे तिथिविशेषे च गङ्गायां प्रेतपक्षके। निषिद्धेऽपि दिने कुर्यातर्पणं तिलमिश्थितम्" ॥ इति मदनपारिजात विद्याकरवाजपेयितमरीचिवचनात्। तिलाभावे पिटतीर्थे प्रतिनिधिना तर्पणं "तिलानामप्यभावे तु सुवर्णरजतान्वितम्। तदभावे निषिञ्चेनु दर्भस्तोयैनचान्यथा" । इति याज्ञवल्कयात् । सुवर्णरजतान्वित सुवर्णरजतस्पृष्टम् । अतएव “सुलभ सकल पुण्यं यज्ञदानादिज फलम्। गङ्गातोयैश्च सतिलैर्दुलभ पिटतर्पणम्” ॥ इति भविष्यपुराणे गङ्गातोयस्य दुर्लभवमुक्तं न च तदभावात्त For Private And Personal Use Only Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३७८ आङ्गिकतत्त्वम्। पंणाभावः शातातपः “पितृणां पिटतीर्थेन जलं सिञ्चद यथाविधि। दक्षिणेनाथ गृहीयात् पिटतीर्थे समोपतः । गोभिलः। “गोत्र खरान्तसर्वत्र :गोत्रस्याक्षय्यकर्मणि । गोवस्तु तर्पणे प्रोतः कर्ता एवं न मुह्यति। सर्वत्रैव पितः प्रोक्तः पिता तर्पणकर्मणि। पितुरक्षय्यकाले तु अक्षयां ढप्तिभिच्छता। शर्मनादिके कार्य शर्मा तर्पणकर्मणि । शर्मयोऽक्षय्यकाले तु पितृणां दत्तमक्षयम्"। कार्णाजिनिः । *नाभिमान जले स्थित्वा चिन्तयेदूईमानसः। प्रागच्छन्तु मे पितर इम रहन्वपोऽञ्जलिम्” ॥ योगियाज्ञवल्काः । "नामगोत्रस्वधाकारस्ताः स्यग्नुपूर्वशः। तेन अमुकगोत्रः पिता अमुकदेवशर्मा टप्यतामेतत्तिलोदक तस्मै स्वधेति प्रयोगः सिध्यति। एवञ्च मातामहादो। एष चासम्बुदिप्रयोगो वाजसनेयौतरपरः। तेषान्तु सम्बुद्दान्ततामाह ब्राह्मणसर्वखे जातूकर्णः । “प्रमौतपिटकन्तष न्तस्त्वे त्यावाह्य नामगोत्रमुदाहृत्य यावता पिटकायं मसावेतत्ते उदकमिति पितृन् पितामहान् प्रपितामहान्। एकैकस्मै त्रीस्त्रीन् दद्यात्” ॥ अत्र चासाविति नाम राहातीति कात्यायनोक्तस्य नाम्नस्ते इति युष्मत्प्रयोगात् सम्बुधन्तता प्रतीयते। तस्य सम्बु हामानात्मवाचित्वात्। असम्बुद्धिप्रथमान्तत्वेऽनन्वयापत्तेः । ततचामुकगोत्र पितरमुकदेवशमं स्तप्यस्वैतत्ते तिलोदक खधेति प्रयोगः सिध्यति। एवं मातामहान्तानामपि । ततो मात्रादौनां षणां तर्पणानि। हादशानां मध्ये यो जीवति तविहाय वृद्धप्रपितामहादीन् ग्रहौवा पूरयेत् । एवं प्रव्रज. तिते पतिते च। ततो विमाटज्येष्ठचाटपितव्यमातुलादी स्तर्पयेत्। शङ्खः । “बान्धवानां कृत्वा मुहृदां तर्पयेत् ॥ सुहृदो मित्रादयः। मित्रायाप्यसवर्णाय जल न देयम् । For Private And Personal Use Only Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पातिकतत्वम् । ३७४ "सवणेभ्यो जल देय नान्यवर्णेभ्य एव च । इति याज्ञवल्कीयात् । भौमायासवर्णायापि भोपाष्टम्यां तर्पणं कायं "ब्राह्मगाद्यास्तु ये वर्णा ददुर्भीष्माय नो जलम् । संवत्सरकत तेषां पुण्य नश्यति सत्तम"। इत्यादिवचनात् । मन्त्रस्तु "वैयाघ्रपद्यगोत्राय इत्यादि ब्राह्मणेनैतत् पिटतर्पणानन्तर कार्यम् अन्येन पिटतर्पणात् पूर्वम् । अत्र वीज वर्णज्यैष्ठमिति इला. युधः। अपसव्येन दक्षिणामुखेन सतिलोदकेन सतत् कर्तव्यम्। ततः कृताञ्जलिः। भौष्मः शान्तनवो वौर इत्यादि पठेत्। ततो ये बान्धवा बान्धवा वा इत्यादिना एकाञ्जलिदयः। योगियाज्ञवल्क्यः । "निष्पौड़यति य: पूर्व मानवस्त्र तर्पणात्। निराशाः पितरस्तस्य यान्ति देवाः सहर्षिभिः । तथावप्रकरवत्तस्य अपसव्य न पौडितम्"। अन्नप्रकारवत् बाहोच्छिष्टसमौपानप्रकरवत् तस्याधोवस्त्रस्य "नानशाट्यान्तु दातव्या मृदस्तिस्रो विशुद्धये” ॥ इति वशिष्ठवचने अधोवस्त्रस्य दुष्टस्यैव शुद्धये मृद्दान प्रतीयते। योगियाज्ञवल्क्यः । “वस्त्रनिष्पीड़ित तोय सातस्योच्छिष्टभागिनः। भागधेयं श्रुतिः प्राह तस्मानिष्पौड़येत् स्थले"। अत्र मन्त्रमाह गोभिलः । “ये चास्माकं कुले जाता अपुत्रा गोविणो मृताः । ते तृप्यन्तु मया दत्तं वस्त्र निष्पौड़नोदकम्”। अशक्तौ शङ्खः । “प्राब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं जगत्तप्यविति क्रमात् । अञ्जलित्रयं दद्यात्” एतत् संक्षेपतर्पण पराशरः। "नात्वा निवस्य वासोऽन्यत् जङ्घ प्रक्षालयेन्मृदा। अपवित्रोकतैते तु कौपीनच्युतवारिणा” ॥ याज्ञवल्क्यः "नात्वैवं वाससौ धौते पक्लिने परिधाय च। प्रक्षाल्योरूमृदद्भिश्च हस्तौ प्रक्षालयेत्तदा। रत्नाकरे "प्राचम्य तीर्थं नत्वा च सोपानको गृह व्रजेत् । अथ सन्ध्योपासनम्। तत्र छन्दोगपरिशिष्टम् । “प्रत For Private And Personal Use Only Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राङ्गिकतत्त्वम् । जङ्घ प्रवक्ष्यामि सन्ध्योपासनिक विधिम्। पनहः कर्मण विप्रः सन्ध्याहौनो यतः स्मृतः । अतः प्रातःस्नानानन्तरम् । तथा "एतत् सन्ध्यावयं प्रोक्तं ब्राह्मण्य यदधिष्ठितम्। यस्य नास्त्यादरस्तत्र न स ब्राह्मण उच्यते" ॥ शातातपः। "अब्राह्मणास्तु षट् प्रोक्ता ऋषिणा तत्त्ववादिना। गद्यो राजभूतस्तेषां द्वितीयः क्रयविक्रयो। तौयो बहुयाज्यः स्याश्चतुर्थीग्रामयाजकः। पञ्चमस्तु भूतस्तेषां ग्रामस्य नगरस्य च । अनागतान्तु यः पूर्वा सादिस्याञ्चैव पश्चिमाम्। नोपासौत हिजः सध्या सषष्ठोऽब्राह्मणः स्मृतः" ॥ राजभृतो राजसेवकः। ग्रामादे तो भरणीयः। ग्रामलक्षणमाह मार्कण्डेयपुराणं "तथा शूद्रजनप्रायाः सुसमृद्धवषौबलाः । क्षेत्रोपयोगभूमध्ये वसतिमसंञिका" ॥ अत्र सध्यात्रयस्य नित्यत्वाभिधानात् “सर्वकालमुपस्थान सन्ध्यायाः पार्थिवेष्यते। अन्यत्र सूतकाशौचविचमात्तरभो. तित: ॥ इति विष्णुपुराणोये सध्याया इत्येकवचनान्तपाठो धर्मकोषोतो युक्तः । एवमेव नव्यवईमानः । सर्वकाल प्रातर्मध्यागमायंरूपकालवये। अन्यथा तदुपादान व्यर्थं स्यात् विधमश्चित्तविक्षेपः । तेन क्षतादावपि सन्ध्यामाचरन्ति अतएव याज्ञवल्क्यः "सर्वावस्थोऽपि यो विप्रः सन्ध्योपासनतत्परः” । ब्राह्मण्याच्च न होयते अन्यजन्मगतोऽपि सन् । सर्वावस्थो नित्यं सेवकादिकर्मरतोऽपि। यथोचितशीचेऽप्यशक्तोऽपोति रना. करः। अन्धाद्यवस्थापन्नोऽपौति युक्त सध्यानयसाधारणलक्षणमाह योगियाज्ञवल्काः । “बयाणाञ्चैव देवानां ब्रह्मादीनां समागमः। सन्धिः सर्वसुराणाञ्च तेन सध्या प्रकीर्तिता" ॥ सध्याइयकालस्तु अहोरात्र सम्बन्धिमुहर्त्तात्मकः। तथा च दक्षः। “अहोरात्रस्य यः सन्धिः सूर्यनक्षत्रवर्जितः । सा च For Private And Personal Use Only Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कितत्त्वम् । ३८१ सन्ध्या समाख्याता सुनिभिस्तत्त्ववादिभिः” । सूर्य्यनक्षत्रवर्जितः । प्रस्तमितार्थोदित सूर्य मण्डलप्रकृष्टतेजो नचत्रवर्जितः । । तथा च वराहः " अर्थास्तमयात् सन्ध्या व्यक्तौभूता न तारका यावत् । तेजः परिहानिरुषाभानोरहृदयं यावत् ॥ अत्र प्राद्यन्तता उक्ता परिमाणमाह दक्षः । " रात्रन्तकाले नायौ द्वे सन्ध्यादिः काल उच्यते । दर्शनाद्रविरेखायास्तदन्तो मुनिभिः स्मृतः ॥ नाड़ीदण्डः । योगियाज्ञवल्का: "हासast च सततं दिनरात्रयोर्यथाक्रमम् । सन्ध्या मुहर्त्तमाख्याता हासही समा स्मृता ॥ अनोपासनाया अपि सन्ध्यात्वमाह व्यास " उपास्ते सन्धिवेलायां निशाया दिवसस्य च । तामेव सन्ध्यां तस्मात् प्रवदन्ति मनीषिणः” ॥ उपास्ते यद्दच्यमाणप्राणायामादिक्रिययेति यावत् । तत्काले उपास्यापि देवता सन्ख्या तथा च याज्ञवल्काः । “सन्धौ सन्ध्यामुपासीत नास्तगे नोहते रवौ" ॥ उपासनोपक्रममाह संवर्त्तः " प्रातः सन्ध्यां समचतामुपासीत यथाविधि । सादित्यां पश्चिमां सन्ध्यां अर्द्धास्तमितभास्कराम्” ॥ सनचत्रामित्यनेन तद्युक्तकाले उपक्रम्य प्रातः सन्ध्यामुपासोत [ एवमेवार्थास्तमितभास्कराधां पश्चिमां सादित्यामित्यनेन तदयुक्तकाले उपक्रम्य उपा सौतेत्यर्थः । मध्याह्नसन्ध्याया अष्टममुहर्त्तं कालमाह स्मृति: " पूर्वापर तथा सन्ध्ये सनचवे प्रकीर्त्तिते । समसूर्खेऽपि मध्याहे मुहर्त्ते सप्तमोपरि” ॥ संख्यायनगृह्य “अरण्य समित्पाणिः सन्ध्यामुपास्ते नित्यं वाग्यत उत्तरापराभिमुखीऽन्वष्टमदिममानचत्रदर्शनात् प्रतिक्रान्तायां महाव्याहृति: सावित्रीं स्वस्त्ययनादिजना एवं प्रातः प्रामुखः तिष्ठन् श्रमण्डलदर्शनादिति” । उत्तरापराभिमुखो वायुकोणाभिमुखः कोणं वियोति अन्वष्टममिशमिति । उभयदिगष्टमभाग । For Private And Personal Use Only Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३‍ चकितत्त्वम् । मिति यावत् । तत्र मन्त्रस्योङ्कारादित्वमाह याज्ञवल्क्यः । “ यन्नञ्चातिरिक्तञ्च यच्छिद्र यदयज्ञियम् । यदमेध्यमशद्दव यातयामञ्च यद्भवेत् । तदोङ्कारेण पूर्वेण मन्त्रेणा विकल भवेत्” ॥ व्यासः “ गायत्री नाम पूर्वाह्न सावित्री मध्यमे दिने । सरस्वतौ च साया सैव सन्ख्या विषु स्मृता ॥ प्रतिग्रहाप्रदोषाञ्च पातकादुपपातकात्। गायत्री प्रोच्यते तस्मात् गायन्तं त्रायते यतः ॥ सवितृद्योतनात् सैव सावित्रौ परि कोर्त्तिता" ॥ जगतः प्रसवित्रत्वात् वाग्रूपत्वात् सरखतौ तैत्तिरीय ब्राह्मणं “उद्यन्तमस्तं यान्तम् पादित्यमभिध्यायन् कुर्वन् ब्राह्मणो विद्वान् सकलं भद्रमश्रुते” । असावादित्यो ब्रह्मा इति ब्रह्मैव सन् ब्रह्माभ्येति य एवं वेदेत्ययमर्थः । वच्य - माणप्रकारेण प्राणायामादिकं कुर्वन् यथोक्तनामरूपोपेतम् सन्ध्याशब्दस्य वाच्यमादित्यं ब्रह्मेति ध्यायन् ऐहिकमा सुत्रिकञ्च सकलं भद्रमनुते । य एवमुक्तध्यानेन शहान्तःकरणो ब्रह्म साक्षात् कुरुते स पूर्वमपि ब्रह्मैव सन् प्रज्ञावान् चिरजोवित्व प्राप्तो यथोक्तज्ञानेनाज्ञानोपशमे ब्रह्मैव प्राप्नोति इति पराशरभाष्ये माधवाचार्यः । अतएव व्यासः “न भित्रां प्रतिपद्येत गायत्रों ब्रह्मणा सह । सोऽहमस्मीत्युपासीत विधिना येन केनचित् " ॥ गायत्रीस्य भर्गपदप्रतिपाद्य ईश्वरः । श्रहं जौवरूपोऽस्मि भवामीति प्रजहत्स्वार्थ लक्ष णया नौवेश्वरयोरहङ्कारप्रतिफलितत्वोपाधिरहितेन चिद्रूपेori घटाकाशगृहाकाशयोरुपाधिरित्यवगमादैक्यमिव भावयन् उपासीत योगियाज्ञवल्क्योऽपि " या सध्या सा तु गायत्रौ द्विधा भूत्वा प्रतिष्ठिता । सन्ध्या उपासिता येन विष्णुस्त ेन उपासितः " ॥ उपासनायाः फलमाह स एव । " गवां सर्पिः शरौरस्थं न करोत्यङ्गपोषणम् । निःसृतं कर्मसंयुक्त पुन '' For Private And Personal Use Only Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३८३ पाहिकतत्वम् । तासां तदौषधत् ॥ एवं स हि शरीरस्थः सर्पिर्वत परमेश्वरः । विमा चीपासनादेव न करोति हितं नृषु ॥ प्रणव व्याहृतिभ्याञ्च गायत्रधा त्रितयेन च । उपास्य परमं ब्रह्म पात्मा यत्र प्रतिष्ठितः” ॥ त्रितयेन प्रणवादित्रितयेन ब्रह्मप्रतिपादकेन उच्चारितेन तदर्थावगमेन उपास्य प्रसादनीयं तदाह स एव "वाच्यः स ईखरः प्रोक्तो वाचकः प्रणवः स्म सः। वाचकेऽपि च विज्ञाते वाच्य एव प्रसौदति ॥ भूर्भुव स्वस्तथा पूर्व स्वयमेव स्वयम्भवा। व्याहता ज्ञानदेहेन तस्मात् व्याहृतयः स्मृताः" ॥ ज्ञानदेहेन तत्वज्ञानस्य चिद्रूपेखरस्य देहेन शरीररूपेण व्याहृता उता। तेन तहाच्योऽपोखरः। कूर्मपुराणम् । "प्रधानं पुरुषः कालो ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः। सत्त्वं रजःतम. स्तिनः क्रमायाहतयः स्म ता:" ॥ एतद्रूपेणापि भावनीयः । गायवार्थमाह योगियाज्ञवल्क्यः । “देवस्य सवितुर्वर्बो भगमन्तर्गतं विभुम् । ब्रह्मवादिन एवाहुवरेण्यञ्चास्य धीमहि । चिन्तयामो वयं भर्ग धियो यो न प्रचोदयात्। धमार्थकाममोक्षेषु बुधिवृत्तीः पुन: पुनः॥ बुई चादेयिता यस्तु चिदात्मा पुरुषो विराट्। वरेण्यं वरणीयच जन्मसंसारभौरुभिः ॥ प्रादित्यान्तर्गतं यच्च भर्गाख्यं तम्मुमुक्षुभिः। जन्ममृत्युविना शाय दुःखस्य बितयस्य च ॥ ध्यानेन पुरुषो यश्च द्रष्टव्यः सूर्यमण्डले। मन्वार्थमपि चैवायं ज्ञापयत्येवमेव हि ॥ तेन गायनमा प्रयमर्थः। देवस्य सवितुर्भगखरूपान्तर्यामि ब्रह्मा वरेण्यं वरणीयं जन्ममृत्युभौमिः तहिनाशाय उपासनौयं धीमहि प्रागुतोन मोऽहमस्मोत्यमेन चिन्तयामः। यो भर्गः सर्वान्तर्यामौखरो नोऽस्माकं सर्वेषां संसारिणां धियो बुद्धोः प्रचोदयात् धम्मार्थकाममोक्षेषु प्रेरयति तथा च भगवहीतायां "ईश्वरः सर्वभूतानां हद्देशेऽर्जुन तिष्ठति। नामयन् सर्व For Private And Personal Use Only Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३८४ आङ्गिकतत्वम् । भूतानि यन्वारूढानि मायया ॥ ईश्वरोऽन्तर्यामी हुद्देश अन्तःकरणे भ्रामयन् तत्तत् कर्मसु प्रेरयन् यन्वारूढानि दारुयन्वतुल्यशरोरारूढानि भूतानि प्राणिनो जीवानौति यावत् । मायया प्रघटनघटनपटौयस्या निजशक्त्या तथा चाखतरुणां मन्त्रः। “एको देवः सर्वभूतेषु गूढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा। कम्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः साक्षातः केवलो निर्गुणश्च ॥ भारते। "यथा दारमयौ योषिव्रत्यते कुहकेच्छया । एवमौखरतन्त्रोऽयं ईहते सुखदुःखयोः” । मदनपारिजात संवतः। “नत्वा तु पुण्डरीकाक्षमुपात्ताधप्रशान्तये। ब्रह्मवर्चसकामार्थं प्रातः सन्ध्यामुपास्महे ॥ इत्य कत्वाथ सङ्कल्प कुशानादाय पाणिना। नद्यां समुत्थतोयैस्तु राहे वामकर स्थितैः” ॥ भृगुः । “धाराच्यतेन तोयेन सन्ध्योपास्तिविगाहता। नद्यां तीर्थे हदे वापि भाजने मृण्मयेऽपि बा॥ पौड़म्बरे च सौवणे राजते दारसम्भवे। प्रथवा वामहस्तेन सध्योणस्ति समाचरेत्” ॥ वामहस्ते जलं कृत्वा इत्यादिमा निषेधस्तु पावान्तरसद्भावविषयः । ___ उपासनाविधिः । कूर्मपुराणे । “प्राक्कुलेषु ततः स्थित्वा दर्भेषु सुसमाहिताः। प्राणायामवयं कृत्वा ये सन्ध्यां समुपासते। प्राणानायम्य संप्रोक्ष्य वचेनाब्दैवतेन च ॥ प्राक्कुलेषु प्रागग्रेषु वृचनाब्दैवतेन पापाशिष्ठा इत्यादिना विकेन। वृहस्पतिः । “बड्वासन नियम्यासून् स्मृत्वा ऋष्यादिक तथा। मंनिमौलितदृङ्मौनौ प्रणायाम समाचरेत् ॥ छन्दोगपरि. शिष्ट "भूगद्यास्तिस्स एवैता महाव्याहृतयोऽव्ययाः। महजनस्तपः सत्वं गायत्री च शिरस्तथा। पापोज्योती रसो मृतं ब्रह्मभूर्भुवः खरिति। शिरः प्रतीकं प्रणवमन्ते च शिरस. स्तथा। एता एतां महानिन तथैभिर्दशाभः सह। निर्जप For Private And Personal Use Only Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाहिकतत्त्वम्। ३८५ दायतप्राण: प्राणायामः स उच्यते। अव्यया अव्ययफलदा मोक्षदा इत्यर्थः । शिरोमन् छन्दोहब्रह्मपद नेच्छन्ति । तत्र षोड़. शाचरक देव्या गायत्रवास्तु शिरः स्मृतम्"। इति योगियाजवल्क्यविरोधात्। प्राद्यन्तयोरोङ्कारमादाय षोड़श संख्यापूरणम्। छन्दोवृद्धिरार्षवेन सुघटा प्रतीक भूरादिप्रतिभागम्। एता: सप्तव्याहृतीः एतां गायत्रीम् अनेन शिरसा एभिर्दशभिः प्रणवै: सह निरुद्ध प्राणः त्रिजपेदेवं प्राणायामः । व्यासः। “पादान रोधमुत्सर्ग वायोस्त्रिस्त्रिः समभ्यसेत् । ब्रह्माणं केशवं शम्भु ध्यायेहे वाननुक्रमात्”। पूर्ववचने विजपमावाभिधानात् अत्र विरिति वीसा सध्यावयापेक्षया "ब्रह्माणं केशव शम्भं ध्यायन् मुच्येत बन्धनात्" इति वृहस्पति धृतविष्णुधर्मोत्तरवचनात्। ध्यान काम्यमित्याह। योगियाज्ञवल्क्यः । “भूर्भुवः स्वमहर्जनस्तपः सत्यं तथैव च । प्रत्योकारसमायुक्तस्तथा तत्सवितुः पदम्। पापोज्योतौति रित्येतच्छिरः पचासु योजयेत्। विरावर्तनयोगात्तु प्राणायामस्तु शब्दितः। पूरक: कुम्भको रेयः प्राणायामस्त्रिलक्षणः । नासिकागत उच्छासो ध्यातुः पूरक उच्यते। कुम्भको निश्शलवासो मुथमानस्तु रेचकः”। मोचन विशेषयति विष्णुपुराणम्। "नासंवृतमुखो जम्भेत् हासकाशौ तु वर्जयेत् । नोचैईसेत् प्रशब्दच न मुञ्चत् पवन बुधः” । अत्र ऋष्यादिज्ञानफलमाइ स एव। “प्रा छन्दश्च देवत्वं विनियोगस्तथैव च। वेदितव्यं प्रयत्नेन ब्राह्मणेन विशेषतः। अविदित्वा तु यः कुर्यात् याजनाध्यापन जपम् । होममन्तजलादीनि तस्य चाल्पफल भवेत्”। विशेषतो विशेषफलाय। अन्तर्जलादोनि जलमध्यक्रियमाणानि अघमर्षणजपादौनि होममन्यच्च यत् किञ्चिदिति पाठान्तरम् । For Private And Personal Use Only Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir আনিলে। सन्ध्योपासनप्रकारमाह योगियाज्ञवल्क्यः । “प्रणवोव्याती: सप्त गायत्री सशिरास्तथा । आपोहिष्ठा ऋचस्तिस्रः सूताञ्चैवाऽघमर्षणम्। प्रादित्यरक्षणार्थन्तु प्रातःसायं दिने दिने। सृष्टं स्वयम्भुवा पूर्व ब्रह्मणस्तन्मुखं स्मृतम् । ब्रह्मण देवस्य ऋष्यादिकमाह संवतः। “प्रणवस्य ब्रह्मऋषिर्देवोऽग्निस्तस्य कथ्यते। गायत्री च भवेत् छन्दो नियोगः सर्व कर्मसु। विमानस्तु प्रयोक्तव्यः प्रारम्भे सर्वकर्मसु” । विमानः प्रणव: "व्याहतौनाच सर्वासामार्षञ्चैव प्रजापतिः । गायत्रुष्णिगनुष्टुप् वृहतौ विष्टुवेव च। पङ्क्तिश्च जगतो चैव छन्दांस्येतानि सप्त वै। अग्निर्वायुस्तथा सूर्यो वृहस्पतिरपांपतिः। इन्द्रश्च विश्वेदेवाच देवता: समुदाहृताः । प्राणस्थायमने वैव विनियोग उदाहृतः । गायनया ऋष्यादिकमाह। "विश्वामित्रऋषिश्छन्दो गायत्री सवितेष्यते। जपहोमोपनयने विनियोगो विधीयते" । प्राणायामानन्तराचमने बौधायनः। “सूयंच मामन्युश्च इति प्रात: पवित्रपाणिना इति”। भरद्वाजः । “सायमग्निश्च मेत्युत्ता प्रातः सूर्ये त्यप: पिवेत् । प्रापः पुनन्तु मध्या) ततचाचमनचरेत्” ॥ तत इत्यत्र एभिरिति शौनकपाठः । मैत्रायनीय यद्यपरिशिष्टम् । “प्रात: मूर्यश्च मेत्यु वा सायमग्निश्च मेति च। आपः पुनन्तु मध्याह्ने कुयादाचमन ततः। ततः प्राणायामानन्तरं तदाह योगियाज्ञवल्क्यः । "प्राणस्यायमन कृत्वा आचामेत् प्रयतोऽपि सन्। अन्तर खिद्यते यस्मात्तस्मादाचमन स्मृतम्”। मार्जनमाह छन्दोगपरिशिष्टम्। “शिरसो मार्जनौं कुर्यात् कुशैः सोदकविन्दुभिः । प्रणवो भूर्भुव: खच सावित्री च बतौयिका। अब्दैवत्यं वचः चैव चतुर्थमिति मार्जनम्। ओङ्कारो भूरादि व्याहृतित्रय, For Private And Personal Use Only Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाङ्गिकतत्त्वम् । ३८७ टतोया च गायत्रौ चतुर्थमापोष्ठेिति ऋक्त्रयम् इतौदं मार्जन मार्जनक्रियाकरणमित्यर्थः। रामायणम्। "ऋगन्ते मार्जनौं कुर्यात् पादान्ते वा समाहितः। आपोहिष्ठे त्यूचा कार्य मार्जनन्तु कुशोदकैः। प्रतिप्रणवसं युक्तं क्षिपेन्मूर्डि पदे पदे। वचस्यान्तेऽथवा कुर्यादृषौशां मतमौदृशम् । पापो. हिष्ठेति सूतस्य सिन्धुहोपऋषिः स्मृतः । आपो वै देवता छन्दो गायत्रो मार्जन स्मृतम् ॥ छन्दोगपरिशिष्टम्। “करेणोइत्य सलिल घ्राणमासज्य तच च। अपेदनायतासुर्वा त्रि: सकहाघमर्षणम् ॥ हस्तन जलमुत्य तत्र घ्राणमर्पयित्वा प्राणनिरोधं विना वाशब्दाविरुद्धप्राणी वा सचिर्वा ऋतञ्च सत्यमित्यादि मन्वं जपेत् । मार्जनानन्तर ब्राझेऽपि "जलपूर्ण तथा इस्त नासिकाग्रे समर्पयेत्। ऋतञ्चेति पठित्वा तु तन्नलन्तु क्षितौ क्षिपेत् ॥ योगियाज्ञवल्क्यः । “पुरा कल्पे समुत्पना मन्त्राः कर्मार्थमेव च। अनेनेदन्तु कर्तव्यं विनियोगः स उन्नते" ॥ इति सामान्यतोऽभिधायापि 'अघमर्षणसूक्तस्य ऋषिः स्यादघमर्षणः। अनुष्टुप् च भवेत् छन्दो भाववृत्तस्तु दैवतम्। अखमेधावभृय के विनियोगः प्रकीर्तितः ॥ इत्यनेनाघमर्षणसूतस्य अश्वमेधावभृथके कर्मणि विशेषतोऽभिधानात् कर्मान्तरदृष्टार्थ तथैवाभिधान न तु तत्तत् कमणि विनियोगार्थम्। अतएव तेनैव तदुक्ताम्। “सर्वपाधापनोदार्थ स्मतिकारैरुदाहृतम्। हत्वा लोकानपीमा स्त्री स्त्रिः पठेदघमर्षणम्"। इत्यनेन सर्वपापापनोदाय पाठाय विहितम् । न तु तत्तत् पाठे विनियोग इति एवं सर्वत्र सुधौभिर्भाव्य भाववृत्त इति भावः सृष्टिस्तत्र वृत्त: प्रहत्तो ब्रह्मा इत्यर्थः । छन्दोगपरिशिष्टम् । “उत्थायाकं प्रतिप्रोहेत् त्रिकेणाञ्जलिमम्भसः। उञ्चित्रमग्हयेनाथ चोपतिष्ठेदनन्तरम्” ॥ उत्थितो For Private And Personal Use Only Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३८८ भाकितत्त्वम् । " भूत्वा प्रणवव्याहृतिसावित्रात्मकेण त्रिकेण सूय्याभिमुख जलाञ्जलिं क्षिपेत् । अनन्तरमुदुत्यं चित्र देवानामिति ऋक्त्रयेण चोपस्थानं कुर्य्यात् उचितमृग्हयेनेति पाठो भोजराजाद्यनुमतः । एकाञ्जलिर्वच्यमाण गोभिलोक्तवानल्योर्व्यवस्थामाह व्यासः । " कराभ्यान्तोयमादाय गायच्या चाभिमन्त्रितम् । श्रादित्याभिमुखस्तिष्ठन् विरुङ्घः सन्ध्ययोः क्षिपेत् । मध्याह्ने तु सक्कदेवं चेपणौयं द्विजातिभिः ॥ श्रवाभिमन्त्रितमित्युक्तेर्वारत्रयं मन्त्रपाठः । प्रधानादृत्तौ गुणावृत्तिन्यायेनापि मन्त्रावृत्तिरेवमेव समुद्रकरभाष्यम् प्रज्जलितेपे कारणमाह काश्यपः । “त्रिंशत्कोच्यो महावौखाः मन्देह नाम राचसाः । कृष्णातिदारुणा घोराः सूयमिच्छन्ति खादितुम् ॥ ततो देवगणाः सर्वे ऋषयश्च तपोधनाः । उपासतेऽत्र ये सन्ध्यां प्रचिपन्युदकाञ्जलिम् ॥ दान्ते तेन ते देखा बच्चोभूतेन वारिणा । एतस्मात् कारणात् विप्राः सन्ध्यां नित्यमुपासते " ॥ उपस्थाने विशेषमाद्द छन्दोग परिशिष्टम् । " तदसंयुक्त पाणिर्वा एकपादपादपि । कुर्य्यात् कृताञ्जलिर्वापि ऊर्द्ध बाहरथापि वा” ॥ तदुपस्थानं भूम्य लग्न गुल्फभागो भूमिष्ठे कचरणो भूमिलग्नाईचरणो वा कुर्य्यात्तत्र कृताञ्जलिः । ऊर्द्धबाहुर्वा भवेत् प्रादगतविकल्पे प्रयासबाहुल्यात् फलबाहुल्यं तत्रैवोक्तम् । "यत्र स्यात् क्वच्छभूयस्त्वं श्रेयसोऽपि मनोषिणः । भूयस्त्वं ब्रुवते तत्र कच्छ्रात् श्रेयो ह्यवाप्यते ॥ हस्तगतविकल्पे हारीतः । “सायं प्रातरुपस्थानं कुर्य्यात् प्रवल्लिरानतः । ऊर्द्ध बास्तु मध्याह्ने तथा सूर्यस्य दर्शनात् ॥ तेन प्रातः सायं कृतावलिः । मध्याह्ने ऊर्द्ध बाहुरित्यर्थः । ऋष्यादिकमाह व्यासः । “उदुत्यं जातवेदेति ऋषिः प्रस्कन उच्चते । इन्दोगायकामेवास्य सूर्यो दैवतमेव च ॥ अग्निष्टोम उपस्थाने विनियोगः प्रकीर्त्तितः । For Private And Personal Use Only · Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आह्निकतत्त्वम् । ३८६ · चित्र देवेति हि ऋच ऋषि: कौस उदाहृतः । त्रिष्टुप्छन्दो दैवतञ्च सूर्योऽस्याः परिकीर्त्तितः । अग्निष्टोम उपस्थाने विनियोगस्तथैव च " ॥ श्रत्र विनियोगइयम् अग्निष्टोमे सूखे - पस्थाने चेति प्रतीयते । अथ सवितुरुपस्थानम् । नमो ब्रह्मणे इत्याद्युपजाय चेत्येव मन्त्रेणोपस्थानमुक्का गोभिलेनाग्निस्तृप्यत्वित्यादिना तर्पणमभिधाय ततः प्रत्युपस्थान गायवाष्टशतादीनि जता इति सूत्रान्तरेण गायत्री जपरूपोपस्थानमुक्त ततश्च छन्दोगाना - मुपजाय चेत्यन्तमुपस्थान ततश्च तर्पणाधिकारे तर्पणं विधाय गायत्रजप कुयात् । ब्राह्मणसर्वस्खे शङ्खयाज्ञवल्कयौ । “प्रणवो भूर्भुव: स्वच अङ्गानि हृदयादयः । त्रिरावृत्य ततः पञ्चादाष छन्दश्च दैवतम् । विनियोगस्तथा रूप ध्यातव्यं क्रमशस्तु 'वै" भूर्भुव: स्व इत्यचरपञ्चकं हृदय शिरः शिखा सर्वगावकर दयेषु प्रत्येक ं न्यसेत् । एवमपरं वारद्वयमिति गायवना ऋष्यादिकमाह योगियाज्ञवल्क्यः । “विश्वामित्र ऋषिश्छन्दो गायत्री सविता तथा । देवता विनियोगश्च गायत्राा जप उच्यते” ॥ ततश्चावाहनं तत्र सामगानां पितृदयितोक्तमन्त्रः । " श्रायाहि इत्यादि यजुर्वेदिनान्तु योगियाज्ञवल्काः । “ श्रावाद्य यजुपानेन तेजोऽसौति विधानतः " । व्यासः " तेजोऽसौति च मन्त्रेण गायत्रौमावाहयेत्ततः । उपस्थाय तुरीयेण नमस्कृत्य जपेत्तु ताम् । तुरौयेण गायत्रासोत्यादि परो रजस इत्यन्तेन तथा च वौधायनः “उपतिष्ठेद्दा एतां देवीं तुरौयेण तथाप्युदाहरन्ति गायत्रास्येकपदी पिदौ त्रिपदी चतुष्पद्यपदसि न हि पद्यसे नमस्ते सुरोयाय दर्शिताय पदाय परो रजसे" इत्यखिलां जपतौति तत तदुपस्थानं कृत्वा गायत्रीं जपित्वा विसर्जयेत् । तथाच योगियाज्ञवल्क्यः । " तामावाह्य जपित्वा च नमस्कृत्य For Private And Personal Use Only Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३८० चाह्निकतत्त्वम् । I विसर्जयेत्” ॥ तव तेनैवोक्तमन्त्रों यथा “उत्तरे शिखरे देवि भूम्यां पर्वतवासिनि । ब्राह्मणैः समनुज्ञाता गच्छ देवि यथासुखम् " ॥ तत आवाहनानन्तरं ध्यानं महाप्रयोग सारे पिटदयितोक्तसमानम् । यथा “ कुमारौमृग्वेदयुतां ब्रह्मरूपां विचिन्तयेत् । हंसा स्थितां कुशहस्तां सूर्यमण्डल संस्थिताम् ॥ मध्याह्नो विष्णुरूपाञ्च तायस्यां पौतवासौसम् । युवतीञ्च युजुर्वेदां सूर्यमण्डल संस्थिताम् ॥ सायाहे शिवरूपाञ्च वृडां वृषभवाहिनीम् । सूर्यमण्डलमध्यस्थां सामवेदसमायुताम् ॥ स्मृति: "गायत्रो ब्रह्मरूपा तु सावित्री विष्णुरूपिणौ । सरखती रुद्ररूपा उपास्या रूपभेदतः" || योगियाज्ञवल्क्यः । " पूर्वा सन्ध्या च गायत्री सावित्रौ मध्यमा स्मृता । या भवेत् पश्चिमा सन्ध्या विज्ञेया सा सरखती" #1 2 करविन्यासाय स्मृतिः । “कुत्वोत्तानो करो प्रातःसायच्चाधोमुखौ करौ । मध्ये तिर्यक् करो प्रोक्तौ जप एवमुदाहृतः ॥ मध्ये समकराभ्यान्विति शौनकपाठः । शङ्खः । “तिस्रोऽङ्गुल्यस्त्रिपर्वाणो मध्यमा चैकपर्विका । अनामा मध्यमारभ्य जप एवमुदाहृतः " ॥ मदनपारिजातेऽपि । “मध्यमाया इयं पर्व जपकाले तु वर्जयेत् । एनं मेरु विजानीयाह षितं ब्रह्मणा स्वयम् ॥ अङ्गुष्ठाग्रेण यज्जप्त यज्जप्त मेरुलङ्घितम् । असंस्यातञ्च यज्जप्त तत्सर्वं निष्फलं भवेत् " ॥ श्रङ्गुष्ठाग्रस्य निषेधात् पर्वणा जपः । गोभिलः । " कदाचिदपि नो विद्वान् गायत्रीमुदके जपेत् । गायवाग्निमुखौ प्रोक्ता तस्मादुत्याय तां जपेत् ॥ यज्जले शुष्कवस्त्रेण स्थले चैवार्द्रवाससा । जप'होमो तथा दानं तत्सर्वं निष्फलं भवेत् ॥ गृहेषु तत्समं जयं गोष्ठ शतगुणं स्मृतम् । नद्यां शतसहस्रन्तु अनन्तं शिवसविधौ ॥ दशभिर्जन्मजनितं शतेन च पुराकृतम् । त्रियुगन्तु For Private And Personal Use Only Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आङ्गिकतत्त्वम् । ३८९ सहस्रेण गायत्रो इन्ति दुष्कतम् ॥ सहस्रपरमां देवीं शतमध्यां दशा वराम्। गायत्रौन्तु जपैहितो न स पापेन लिप्यते" । नरसिंहपुराणे। "त्रिविधी जपयजः स्यात् तस्य भेदं निबोधत। वाचिकच उपांशुश्च मानसश्च विधा मतः ॥ त्रयाणां जपयज्ञानां श्रेयान् स्यादुत्तरोत्तरः। यत्रोचनौचस्वरितैः स्पष्टशब्दवदक्षरैः । मन्त्रमुच्चारयेद्यतां जपयज्ञः सवाचिकः । शनैरुच्चारयेन्मन्त्रमौषदोष्ठौ प्रचालयन् ॥ किञ्चित् शब्द स्वयं विद्यादुपांशुः स जपः मतः। ध्येया यदक्षरण्या वर्णावण पदात्पदम्। शब्दार्थमानसाभ्यासः स उक्तो मानसो जपः" । तेन स्वगदिमुव्यक्तवर्णोच्चारणवान् वाचनिकः। वयं ग्रहणयोग्य किञ्चित् शब्दवान् उपांशुः। जिह्वौष्ठचालनमन्तरेण वर्णार्थसन्धानात्मको मानसः । वाचिकोऽपि उच्चै पनिषेधमाह शङ्खः । “नोच्च जयं बुधः कुर्यात् सावित्रवास्तु विशेषतः। योगियाज्ञवल्क्यः । "न चंक्रमन् न विहसन् न पार्शमवलोकयन्। नोपाश्रितो न जल्पंश्च न प्रावृतशिरस्तथा ॥ न पदा पादमाक्रम्य न वै वहिः करौ म तौ। नैवं विधं जपं कुर्यात् न च संथावयेत् अपम् ॥ उत्तिष्ठन् वीक्ष्यमाणोऽर्कमासौन: प्रामु खो जपेत् । प्राक् कुशेष्ववमासौनो वसानो वाससौ शुभे ॥ यदि स्यात् क्लिन्नवासा वै गायत्रौमुदके जपत्। अन्यथा तु शुचौ भूम्यां कुशोपरि समाहितः" ॥ व्यासः। "जपकाले न भाषेत व्रतहोमादिकेषु च। एतेष्वेवावशतस्य यद्यागच्छेहिजोत्तमः । अभिवाद्य ततो विप्रयोगक्षेमञ्च कौतयेत् ॥ योगियाज्ञवल्करः । “यदि वाग्यामलोप: स्याज्जपादिषु कदाचन। व्याहरवैष्णवं मन्वं स्मरेहा विष्णुमव्ययम् ॥ गोतमः । "क्रोधं मोहं तुतं निद्रां निष्ठौवनविजम्भितम् । दर्शनं For Private And Personal Use Only Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आङ्गिकतत्त्वम् । वनितानाञ्च वर्जयेज्जपकर्मणि। प्राचामेत् सम्भवे चैषां स्मरेबिष्णु सुरार्चितम् ॥ बौधायनः । “नामेरधश्च संस्पर्श कर्मयुक्तो विवर्जयेत् । छन्दोगपरिशिष्टम् । "तिष्ठेदोदयनात् पूर्वी मध्यमामपि शक्तितः। आसौतोडगमाच्चान्त्यां सध्यां पूर्वत्रिक जपन् ॥ एतत् सन्ध्यावयं प्रोक्तं ब्राह्मण्यं यदधिष्ठितम्। यस्य नास्त्यादरस्तत्र न स ब्राह्मण उच्यते” ॥ पूर्वी प्राप्य सन्ध्यां सप्रणवव्याहृति सावित्रीरूपं त्रिकं जपन् पा उ. दयात् सूर्योदयपर्यन्तं तिष्ठेदुस्थितो भवेदित्यर्थः। एवं मध्यमामपि सन्ध्यां यथाशक्ति त्रिकं जपंस्तिष्ठेत् । पश्चिमान्तु आ उडङ्गमात् नक्षत्रदर्शनपर्यन्तं जपत्रासोत उपविष्टः स्यात्। शङ्खः । “कुशवृष्थामासौनः कुशोत्तरायां वा पवित्रपाणिरुदन खः सूर्य्याभिमुखो वाक्षमालामादाय देवतां ध्यायन् जपं कुर्य्यादिति”। अत्र च । “प्रणवं पूर्वमुच्चार्य भूर्भुवः वस्ततः परम्। गायत्री प्रणवश्वान्ते जपे ह्येवमुदाहृता" ॥ इति योगियाज्ञवल्कोन जपे गायत्रया प्राद्यन्तप्रणवदयाभिधानात् प्रागुक्तत्रिकेऽपि प्रणवहयं बोध्यं किन्तु प्रणवत्वेनैक्यादविरुद्धम्। परवचनेन सध्याविधानमुपसंहृतम्। निन्दया तनित्यत्वाभिधानञ्च। प्राणायामादिगायत्रौजपान्तं सन्ध्योपासनमाह गोभिलः । "तथातः सन्ध्योपासनविधिं व्याख्यास्यामः। सुप्रक्षालितपाणिपादवदन: उपविश्योपस्पृश्य प्रागग्रेषु दर्भेष प्राङ्मुख उदङ्मुखो वा बद्दशिखो यज्ञोपवीतौ ततः भूर्भुवः स्वमहजनस्तपः सत्यमिति सप्तव्याहृतमः प्रतिप्रणवाद्या गायनयापोज्योतिरसोऽमृतं ब्रह्मभूर्भुवः स्वरोम् इति शिरो दश प्रणवसंयुक्तस्विरभ्यस्त पूरक कुम्भकरेचकाख्य प्राणायाम एवं बौन् कृत्वा सप्त वा षोड़शवाचामेत्। ततो माजनं प्रणवव्याहृति For Private And Personal Use Only Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पातिकतत्त्वम् । ३९३ भिस्तिसभिरथ गायवया पापोहिष्ठा इति तिसृभिः ऋद्धिरथोदकं ते छत्वा तब नासिकामाधायायतासुरनायतासर्वा सतत् निर्वा जपेत् ऋतञ्च सत्यञ्चेति विरुदकाजलिमादित्यं क्षिपेत्। सावित्रधा उपस्थानम् उदुत्यं चित्रमिति पथ ध्यायन् युवमावर्तयेदोम् पूर्वी गायत्रीमष्टकत्वः एकादशशत्वः हादशकत्वः पञ्चदशकत्वः शतकत्वः · सहरकत्वश्चेति अष्टकत्व: प्रयुक्ता पृथिवीमभिजयति एकादशकत्वोऽन्तरौक्षं हादशवत्वो दिवं पञ्चदशकवः सवदिशः शतकत्वः सर्वान् कामान् सहस. कलो यत्किञ्चित् तमर्वमेव जयतीति। अथ य इमां सन्ध्यां नोपास्ते नाचष्टे न स जयति ये तूपासते ते श्रोत्रिया भवन्तौति । ततश्च तथाविधं जपित्वा। “महेशवदनोत्पत्रा विष्णोहदयसम्भवा। ब्रह्मणा समनुज्ञाता गच्छ देवि यथेछया" इति पिटदयितोक्न सामगो विसृजेत्। यजुर्विच "उत्तरे शिखरे देवि भूम्यां पर्वतवासिनि। ब्राह्मणैः समनुजाता गच्छ देवि यथासुखम्" इति योगियाज्ञयल्कयोकेन विसृजेत्। सन्ध्योपासना विसर्जनपर्यन्ता सर्ववेदिसिहा पिटदयितामान्तु छन्दोगानाम् आदित्यशुक्राभ्यां नमः इत्यन्तेन उदकाञ्जलिं दद्यात् । तदनन्तरं जातवेदसे शुनवाम इति मन्त्रेणात्मरक्षणम् ऋतं सत्यमित्यनेन रुद्रोपस्थानबानिकहभट्टनाधिकमुक्त सामगेन कार्यम् । “रक्षन्ते वारिणामानमित्युपतिष्ठेत । ततो रुद्रमर्वाग् वा वैदिकानपात्" इति छन्दोगपरिशिष्टवचनहयं तव प्रमाणं वदन्ति। जातबेदसे शुनवाम इति मन्त्रजपेम पथि वस्त्ययनमाह विष्णुधर्मोत्तरे। “जातवेदस इत्येतज्जपेत् वस्त्ययन: पथि। भयैर्विमुचते सर्वैः स्वस्तिमान् प्राप्नुयाद रहम् ॥ चित्रमिति उदुयमित्येनयोः प्रयोगान्तरावाह तवैव। "व्युष्टायाश्च तथा रानमां For Private And Personal Use Only Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३८४ आह्निकतत्त्वम् । प्रातदुःस्वप्नदर्शने। चित्रमित्युपतिष्ठेत विसन्ध्यं भास्करन्तथा ॥ समित्याणिनरो नित्वं प्राप्नुयाच्च धनायुषो। उदित्युद्यन्तमादित्य मुपतिष्ठेहिने दिने । क्षिपेजलाञ्जलीन् सप्त मनीदुःखविनाशने" ॥ व्युष्टायां गतायां तदनन्तरं ब्रह्मवरुणविष्णु रुद्रेभ्यः प्रत्येकम् अञ्जलीन् दद्यात् इत्यपि पिदयिता। समति: "एतदष्टाक्षरं मन्त्र जपनारायणं स्मरेत् । सन्ध्यावसाने सततं सर्वपापैः प्रमुच्यते” ॥ नारसिंहे। “अध्यं दद्यात्त सूर्याय त्रिकालेषु यथाक्रमात् । अशक्त एककालेऽपि मध्या पि विशेषतः ॥ सन्ध्यां कृत्वा तु दत्त्वायं ततः पश्येदिवाकरम्। सन्ध्यानन्तरमयं दानं ब्रह्मयज्ञतर्पणयोरकरणे तयोः करणे तु सामगानां ब्रह्मयज्ञानन्तरम् । अन्येषां तर्पणानन्तरं तथाच ब्रह्मयज्ञानन्तरम् । नरसिंहपुराणम् । “ततो. ऽध्य भानवे दद्यात्तिलपुष्यसमन्वितम्। उत्थाप्या मूई पर्यन्तमवेक्ष्य भास्करन्तथा” इति तर्पणानन्तरं विष्णुपुराणम् । "आचम्य च ततो दद्यात् सूर्याय सलिलाञ्जलिम्। नमो विवखते ब्रह्मन् भाखते विष्णुतेजसे ॥ जगत् सवित्रे शुचये सवित्रे कमंदायिने। आदित्याय नमस्तुभ्यं प्रसौद मम भास्कर ॥ दिवाकर नमस्तेऽस्तु प्रभाकर नमोऽस्तु ते। ततो गृहार्चनं कुर्यादभौष्टसुरपूजनम् ॥ जलाभिषेकपुष्पाणां धूपा. दौनां निवेदनैः” ॥ पद्मपुराणे “सम्पूज्य प्रणमेत् सूर्यं समाहितमनास्ततः । नमस्ते विष्णुरूपाय नमस्त ब्रह्मरूपिणे॥ सहस्ररश्मये नित्य नमस्त दिव्यचक्षुषे। नमस्ते रुद्रवपुषे नमस्त भक्तवत्सल ॥ पद्मनाभ नमस्तेऽस्तु कुण्ड लाङ्गदभूषण। नमस्ते सर्वलोकेश सुप्तानामपि बुझते ॥ सुक्कतं दुष्कृतं वापि सवं पश्यसि सर्वदा । सर्वदेव नमस्तेऽस्तु प्रसौद मम भास्कर॥ दिवाकर नमस्तऽस्तु विभाकर नमोऽस्तु ते। एवं हिजो नम For Private And Personal Use Only Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पातिकतत्त्वम् । ३८५ स्कृत्य त्रिः क्त्वा च प्रदक्षिणम् ॥ द्विजं गां काञ्चनं स्पृष्ट्वा ततो विष्णु ग्रहं व्रजेत्” ॥ समुद्रकरभाष्यादौ व्यासः। “सूर्याय नमः प्रात:सायञ्चैवाग्नये नमः अनग्निब्रह्मचारी च प्रदद्या. दुदकाञ्जलिम्"। अथ ब्रह्मयज्ञः। तत्र याज्ञवल्क्यः । “वेदाथर्व पुराणानि सेतिहासानि शक्तितः । जपयज्ञार्थसिद्धयर्थं विद्याजाध्यात्मिकी जपेत्” ॥ वृहस्पतिः । “जबाथ प्रणावं वापि ततस्तर्पणमाचरेत्” । ब्रह्मपुराणम् । सन्ध्योपासनानन्तरम्। “कत्वा प्रदक्षिणं सूर्य नमस्कृत्योपविश्य च। स्वाध्यायं प्राङ्मुखः कृत्वा तर्पये वतामृषौन ॥ ब्रह्मयज्ञानन्तरं तर्पणं सामगेतरपरम् । "अतएव कुर्वीत देवता पूजां जपयज्ञादनन्तरम्” इति हारीतवचनं सामगस्य मध्याह्नपूजापरम् । जपयज्ञो ब्रह्मयजः। श्रुतिः । "दक्षिण उत्तरौ पाणिपादौ कृत्वा सपवित्रपाणि: त्वमिति प्रतिपोत इति च बौनेव प्रयुङ्क्तो भूर्भुवः स्वरिति च अथ सावित्रीमिति। गोतमापस्तम्बौ। एकामचमेकं वा यजरेकं वा सामाभिव्यारेदिति”। एतदनुसारेणानिरुद्धभट्टन प्रणवव्याहृतिगायत्रौपाठानन्तरं चतुर्वेदादिमन्त्रचतुष्टयं लिखितमिति । वृहस्पति कात्यायनौ। “सचार्वाक् तर्पणात् कार्य: पश्चाहा प्रातराहुतेः। वैश्वदेवावसाने वा नान्यत्रेति निमित्त कादिति” ॥ स ब्रह्मयज्ञः पश्चाहा प्रातराहुतिरित्य स्थाध्यापन ब्रह्मयज इति खोते नैकवाक्यता तथाच दक्षः। “हितीये च तथा भागे वेदाभ्यासो विधीयते। वेदखौकरषं पूर्व विचारो. ऽभ्यसनं जपः। तहानञ्चैव शिष्येभ्यो वेदाभ्यासो हि पञ्चधा"। इति वैश्वदेवावसाने वा वामदेव्यगानरूपी सामगानां ब्रह्म सनः । निमित्तकादिति स्वकालरूपत्रितयान्यकालेन कार्यः । "अथ सतवामा उदकान्तं कला प्रयतः शुचौ देश विधीः For Private And Personal Use Only Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३६६ पाङ्गिकतत्त्वम् । यते" ॥ इत्यापस्तम्बेन सामान्यतः स्थल एव ब्रह्मयज्ञविधा. नात् सामगेतरैरपि तर्पणानन्तरं वेदाभ्यासरूपो ब्रह्मयज्ञः कार्य इत्यर्थः। योगियाज्ञवल्क्यः । “दर्भेषु दर्भपाणिः स्यात् प्रान खस्तु कृताञ्जलिः। खाध्यायञ्च यथाशक्ति ब्रह्मयज्ञार्थमाचरेत् ॥ अथ देवपूजा। कालिकापुराणे । “सलिले यदि कुर्वीत देवतानां प्रपूजनम् । तत्राप्यासन पासौनो नोस्थितस्तु सदाचरेत् ॥ नरसिंहपुराणे । “ततो रहार्बनं कुर्यादभीष्टसुरपूजनम् । जलाभिषेकपुष्पाणां धूपादेश्च निवेदनः ॥ ग्रहाचनं गृहसंस्कार इति केचित्। प्रादिपदेन गन्धदौपनेवेद्यग्रहणम् । नरसिंहपुराणे । “नरसिंह रहे नित्यं यः सम्माजनमाचरेत्। सर्वपापविनिमुतो विष्णु लोके महीयते॥ गीमयेन सदा तोयैर्यः कुर्यादुपलेपनम्। चान्द्रायणफलं प्राध्य विष्णुलोके महीयते ॥ विष्णुः । “मातः सुप्रक्षालितपाणिपादः शुचिबन्धशिखो दर्भ पाणिराचान्तः प्रामख उद. म खो वा उपविष्टो ध्यानी देवतां पूजयेदिति"। हारौतः । "मार्जनाच नलिकनभोजनानि देवेन तीर्थेन” कुयादिति शेषः। “देवाच नपरो विप्रो वित्तार्थी वत्सरत्रयम्। दत्त देवलको नाम हव्यकव्येषु गर्हितः" ॥ लिङ्गपुराणम् । कामा. सक्तोऽपि लुब्धोऽपि शालग्रामशिलाच नम्। भक्त्या वा यदि वाऽभक्त्या कृत्वा मुक्तिमवाप्नुयात् ॥ रत्नाकर। "स्निग्धा तु श्रौकरौ नित्यं रूक्षा दारिद्रदायिनी। कृष्णा भोगकरौ नित्यं स्थला एकान्त दायदा। कपिला दहते पापं ब्रह्मचर्येण पूजिता" ॥ दायदा धनदा तथा व्यात्तानना भग्ना विषमा वक्रचक्रिका। नैकचक्रं न भग्नारं चक्रलं मुखकालिमम् । नृसिंहरूपिणचक्रं नाच येत सदा रहो” । लिङ्गपुराणे For Private And Personal Use Only Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाङ्गिकतत्त्वम् । शिववाक्यं "शालग्रामशिलायां यो मूल्यमुघाटयेबरः। स च क्रेता चानुमन्ता विक्रेता च परीक्षकः ॥ सर्वे ते निरयं यान्ति यावदाहतसंप्लवम् । अत: संवर्जयेत् पुत्र चक्रस्य क्रयविक्रयम् ॥ रहेऽपि प्रतिमाधारणमाह संवत्सरप्रदौपे स्मृतिः। "केश वार्था रहे यस्य न निष्ठति महीयते। तस्यानं नैव भोत्ताव्यममध्य ण समं सातम्" ॥ पर्चा प्रतिमा। पद्मपुराणम् । "शालग्रामशिलारूपो यत्र तिष्ठति केशवः। तत्र देवासुरा यक्षा भुवनानि चतुर्दश” ततब सर्वदेवपूजनं शालग्रामे कत्तव्यन पतएव ब्रह्मपुराणे श्रीशङ्करः। “प्रपाद्यं मम नैवेद्य पन पुष्य फलं जलम्। शालग्रामशिलालग्नं सर्वं याति पवित्रताम् ॥ लग्नं सम्बाहम् । शालग्रामशिलायां शिवपूजानैवेद्याद्यदुष्टमिति प्रामाणिकाः। तथा "गङ्गा गोदावरी रेवा नद्यो मुक्तिप्रदास्तु याः। निवसन्तौह तीर्थाद्याः शालग्रामशिलाजले" ॥ पूजा रवाकरे भविष्यपुराणम्। “वरं देहपरित्यागो वरं नरकसम्भवः । न चैवापूज्य भुनौत देवं पद्मसमुद्भवम् ॥ सदा पूजयते यस्तु देवं भक्त्या पितामहम्। मनुष्थचर्मणा बहः स वेधा नात्र संशयः ॥ स्मृतिः। “गन्धं पुष्य तथा धूपं दौयं नैवेद्य पञ्चमम्। प्रतिमादिषु पूजायामवश्यं कल्पये बुधः । जले तु पुष्पमात्रेण जलैर्वा प्रतिपूजयेत् ॥ तुरप्यर्थे भिवक्रमे पुष्पेणापौत्यर्थः। विष्णुः। "पाप पायतनं यस्मात्तस्मात्तास सदा हरिः" । प्रतएव बौधायनः । "प्रतिमा. स्थानेष्वाखम्नावावाहनविसर्जनवर्जमिति"। शातातपोऽपि । "प्राय देवा मनुथाणां दिवि देवा मनीषिणाम्। काष्ठलोष्टेषु मूर्खाणां युक्तस्यात्मनि देवता” इति पात्मनौति योगिनो वाघोपचारनिरासेन अन्तर्यागकर्तव्यतापरमिति देवलः । "अबेन सुमनोभिच गन्धपुष्पैः प्रदौपकैः। रहस्यः पूजये. For Private And Personal Use Only Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३८८ आकितत्वम् । 1 1 त्रित्यं स्वग्टहे गृहदेवताः " ॥ मरीचिः । “विधाय देवतापूजा प्रातर्होमादनन्तरम्" । तत्र पूर्वाले देवतार्चनं मुख्यं "पूर्वाह्न एव कुर्वीत देवतानाञ्च पूजनम्" इति मनुवचने एवकारस्मरणात् । मध्याह्नेऽपि कूर्मपुराणे । " पौरुषेण तु सूक्रेन ततो विष्णुं समर्चयेत् । वैश्वदेवं ततः कुर्य्यात् वलिकर्म ततः परम् ॥ अपसर्पन्तु ते भूता ये भूता भूमिपालकाः । भूतानामविरोधेन पूजा कर्म करोम्यहम् ॥ अनेन स्थण्डि ब्लात् भूतानपसाखाथ साधकः । ततो दिग्बन्धनं मत्वा दिग्भ्यस्तानपसर्पयेत्" ॥ ततो मध्याह्नस्नानानन्तरम् भावमेधिके “स्थ एडले पद्मकं कृत्वा अष्टपणें कर्णिकम् । अष्टाचरविधानेनाप्यथवा द्वादशाचरैः ॥ वैदिकैरथवा मन्त्रैर्नाम युर्न वा पुनः । स्थापितं मां ततस्तस्मिन् अर्चयौत विचक्षणः ॥ देवताप्रतिमां दृष्ट्वा यतिश्चैव विदखिनम् । नमस्कारं न कुर्य्याद्य उपवासेन शुध्यति ॥ वहवारदौये | "नमेधः शूद्रसंस्पृष्टं लिङ्ग वा हरिमेव वा । स सर्वयातना भोगौ याव दाहृतम् ॥ स्त्रोद्यामनुपनीतानां शूद्राणाञ्च जनेश्वर । स्पर्शने नाधिकारोऽस्ति विष्णौ वा शङ्करेऽपि वा ॥ दाहृतसंप्लवं भूतसंप्लवपय्र्यन्तं प्रलयपर्यन्तमिति यावत् । भकारस्य इकारन्छ।न्दसः । योगियाज्ञवल्क्यः । नात्वा प्रणवपूर्वन्तु देवतान्तु समाहितः । नमस्कारेण पुष्पाणि विन्यसेत्तु `पृथक् पृथक् ॥ प्रणवादिसमायुक्तं नमस्कारान्त कौर्त्तितम् । खनाम सर्वदेवानां मन्त्र इत्यभिधीयते ॥ अनेनैव विधानेन गन्धपुष्पे निवेदयेत्” ॥ कालिकापुराणे । "शिवं भास्करमग्निञ्च केशवं कौशिकौन्तथा । मानसेनार्चयन् याति देवलोकादयोगतिम् ॥ मनसापौत्यर्थः । अतएव गोतमः । यदा समर्थस्तदा मनसा समग्रमा चारमनुपालयेत्” । पद्म याव For Private And Personal Use Only Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पात्रिकन त्वम् । पुराणम्। "पादिवं गणनाया देवी रुद्रं यथाक्रमम् । नारायणं विश्वास्थमन्ते च कुलदेवताम् ॥ यः सूर्य पूजये. चित्वं तपना नियतेन्द्रियः। भक्तिभावसमायुक्तः स गच्छेत् परमां गतिम् ॥ तन्मना सूर्यपरायणः नियतेन्द्रियः विषयाप्रसझेन्द्रियः । भक्तिरूपास्वत्वेन बोधः भाष: अहा। परमां गतिं मोक्षम्। मत्यपुराणे। प्रारोग्यं भास्करादिच्छ । इन मिच्छेडुताशनात् । चानच्च शङ्करादिच्छेन्मुक्तिमिच्छे. जनार्दनात् ॥ एषु फलेषु एषां शौघदाटत्वं न तु फलान्तरदासत्वव्यात्तिः तत्तहाकाविरोधात्। तथा च देवीपुराबम । “श्रोमेधाज्ञानवात्सल्यमात्मयोगामहीपते। धर्माधकाममोक्षाणां भाजनो विष्णुपूजकः ॥ सर्वान् कामानवाप्नोति सम्पूज्य विष्णु वल्लभाम्। विघ्नं न जायते तस्य यजेद यस्तु विनायकम् ॥ अहोतागममन्वस्य पौराणिको विषणुपूजा। विनधर्मोत्तरम्। “प्रकामः सात्तिको लोके यत्किञ्चिहिनिबेदयेत् । तेनैव स्थानमानोति यव गत्वा न शोचते ॥ भविथे। *वर पाणपरित्यागः शिरसो वापि कर्तनम्। पनभ्य न भुजीत भगवन्तं त्रिलोचनम्" ॥ अन्यत्रापि भगवन्तमधोक्षजमित्यहेत मत्यपुराणे भगवन्तमित्यत्र केशवं कौशिकी शिवमिति पठितम्। देवपूनायां सर्वेषामधिकारमाह। विष्णु पुराणम् । “क्षमा शौचं दमः सत्यं दानमिन्द्रियनिग्रहः। पहिंसा गुरुशश्रषा तौर्थानुशरणं दया ॥ पावं लोभशून्यत्व देवब्राधणपूजनम् । अनभ्यसूया च तथा धर्मः सामान्य: उच्यते ॥ महाभारते । “कान्तः कर्मणां सिद्धि यजन्ते इह देवताः। क्षिम हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा” ॥ कर्मणां सिद्धिमाका. तो देवानां पूजनं कुर्युरित्यर्थः । कम्मविभक्तिसमभिव्या: For Private And Personal Use Only Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४०० आङ्गिकतत्त्वम्। हाराद् यजन्त इत्या यजे: पूजापरत्वनियमः। “गवाङ्गिक देवपूजा वेदाभ्यास: सरित् प्लवः। नाशयत्याश पापानि महापातकजान्यपि" ॥ दानधर्मे विष्णु प्रति नारदवाक्यम् । "प्रकृत्वा देवकार्याणि न कुर्वीतात्मसक्रियाम्। सन्तुष्टाव क्षमायुक्ता भवेयुरविकत्थना: ॥ अविकत्यना आत्मश्लाघा. रहिताः। देवीपुराणे। *वस्खलिविहीनन्तु न पात्रं कारयेत् कचित्"। स्मृतिः। "षिताः पशवो बहाः कन्यका च रजस्खला। देवता च सनिर्माल्या इन्ति पुण्यं पुरातनम् ॥ गोतमः। “रात्रावुदङ्मुखः कुर्याद्देवकायं सदैव हि। शिवार्चनं सदाप्येवं शुचिः कुर्यादुदङ्मुखः ॥ यत्तु “परा रोपितवृक्षेभ्यः पुष्पाण्यानीय योऽर्च येत्। पविज्ञाप्य च तस्यैव तस्य तविष्फलं भवेत् ॥ तत् हिजेतरपरम् । “हिजस्तणैधःपुष्पाणि सर्वतः स्ववदाहरेत् । इति याज्ञवल्क्यात्। “देवतार्थन्तु कुसुममस्तेयं मनुरज्वोत्" इति वचनाच । गोऽम्यर्थहणमेधांसि यज्ञार्थे बौरहनस्यतौनां पुष्पाणि ववदाददौत फलानि च परिहंहितानाम्" इति गोतमवचनाच विशेषो जेयः। एवम् "उग्रगन्धोन्यगन्धौनि कुसुमानि न दापयेत् । पन्यायतनजातानि कण्ट कौनि तथैव च"॥ इति विष्णुधर्मोत्तरोत अन्यायतनजातानीत्यपि विजेतरपरम् । “ढणं वा यदि वा काष्ठं पुष्पं वा यदि वा फलम् । प्रयच्छतो हि रानो हस्तच्छेदनमहति ॥ इति स्मृतेः। "देवोपरिधृतं मस्तकोपरितम् अधोवस्त्रधृतम् अन्तर्जलक्षालितपुष्य दुष्टम्" इति। हरिभनिनामके ग्रन्थ पभिवाद्याभिवादककरस्थञ्च पुष्य प्रोक्षणात् कर्मण्यमिति कश्चित् । अतएव तयोरभिवादननिषेधमाह बौधायनः । “समिहायुंदकुम्भपुष्पान हस्तो नाभिवादयेत् यच्चाप्येवं युक्तमिति । एवं युक्त समिदादि For Private And Personal Use Only Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पातिकतत्त्वम् । घुतम्। लघुहारोतः। "जपयनस्थलस्थञ्च समित्पुष्पकुशान् तिलान् । दन्तकाष्ठञ्च भैत्यञ्च वहन्तं नाभिवादयेत् ॥ अभिवादयेदित्यनुवृत्तौ शङ्खलिखितौ। “न पुष्याक्षतपाणि शुचिर्न जपन्न दैवपिटकायं कुर्वनिति” । अक्षता यवाः। “अक्षतास्तु यवाः प्रोक्ता भ्रष्टाधाना भवन्ति ते” इति भट्टनारायणकृतात् । अतएवामरः। धानाचष्टयवेस्त्रियः। आगमने तु वशिष्ठः । "जपकाले न भाषेत होम पूजादिकेषु च । एतेषु चैव शतषु यद्यागच्छेहिजोत्तमः ॥ अभिवाद्य ततो विप्र योगक्षेमन्तु कोर्तयेत् ॥ अत्र हिजोत्तमपदं निषादस्थपतिवत् कर्मधाग्यसमासस्यैव युक्तवाद पतितत्रैवर्णिकपरमिति विद्याकरः । वस्तुतस्तु विप्रमिति श्रवणात् तन्मात्रपरमिति । "याचितं निष्फलं पुष्पं क्रयक्रौतञ्च निष्फलम्”। इति वदन्ति तथा। “न पुष्पच्छेदनं कुर्यात् देवार्थ वामहस्ततः । न दद्यात्तानि देवेभ्यः संस्थाप्य वामहस्ततः” ॥ स्मृतिः। “पत्रत्रयान्विता दूर्वा प्रशस्ता चाय कर्मणि" । शारदायाम् । "मलिनं भूमिसंस्पृष्टं कृमिकेशादिदूषितम्। अङ्गस्पृष्टं समाघातं त्यजेत् पर्युषितं बुधः" ॥ हारीतशातातपो। “समित्पुष्पकुशादीनि ब्राह्ममाः स्वयमाहरेत्। शूद्रानौतः क्रयको तैः कर्म कुर्वन् पतत्यध:” ॥ क्रये प्रतिप्रसूते ब्रह्मपुराणम् । "पुष्पर्धपैश्च नैवेद्यैः बौरक्रक्रियाहृतैः' ॥ वोरक्रयः वौरवद्याजाशून्येन विक्रेतुरुपन्य स्तमूलेन क्रयः तद्रूपा या क्रिया तयाहृतः। लघुहारोतः। 'सानं कृत्वा तु ये केचित् पुष्पं गृहन्ति वै विजाः। देवतास्तन्न ग्रह्णन्ति भस्मीभवति काष्ठ. वत्” ॥ एतत्तु हितोयनानाभिप्रायमिति रत्नाकरः। व्यवं मत्स्य सूक्त। “सात्वा मध्याह्नसमये न छिन्द्यात् कुसुमं नरः । तत्पुष्पस्यार्चनाद्देवि निरये परिपच्यते” । ज्ञानमालायाम् । For Private And Personal Use Only Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४०२ चकितस्त्वम् | "पुष्पं वा यदि वा पत्र' फलं नेष्टमधोमुखम् । पुष्पाञ्जलि विधिं हित्वा यथोत्पन्नं तथार्पणम्” । एवञ्च पद्मपुराणे "प्रादित्य गणनाथञ्च इत्यादि यथाक्रममित्यनेन शब्दक्रमाभिधानात् । सूर्य्यं गणेशं दुर्गा शिवं विष्णुं सम्पूज्य ब्राह्मणमन्यांश्च पूजयेत् । गृहौतागमन्वस्य तु तत्तत् पूजनादेव पौराणिक पूजन सिद्धि: । तदनन्तःपातिनस्तु पृथक् पूजनम् । तत्त्र सर्वेषां शक्तितारतम्येन वच्यमाणषोडशोपचारादिकं कुर्य्यात् । अशक्तौ जलेनापि । तब प्रथमतः सूर्यपूजा सम्पन्य प्रथमं सूर्य्यमपरान् यः प्रपूजयेत् । न तत्र तत् कृतं पापं संप्रतौच्छन्ति देवताः । इति ब्रह्मपुराणात् । प्रागुक्तपद्मपुराणवचनाच । यत्तु भविष्यपुराणे । “देवतादौ यदा मोहात् गणेशो न च पूज्यते । तदा पूजाफलं इन्ति विघ्नराजो गणाधिपः ॥ इत्यनेन गणेशपूजनम् श्रादावुक्तं तत् सूर्यपूजातिरिक्त ज्ञेयम् । "आदित्य' गणनाथच्च देवीं रुद्रं यथाक्रमम् । नारायणं विशुचाख्यमन्ते च कुलदेवता: " ॥ इति पद्मपुराणैकवाक्यत्वात् । "आदौ विनायकः पूज्योऽन्ते च कुलदेवता: " ॥ इति बह्वृच गृह्यपरिशिष्टोक्तं गौय्यादिपूजनपरमिति कल्पतरुप्रभृतिभि रपि सूर्यपूजनस्यादित्वमुक्तम् । भूतशुद्दिप्रकार माह भविष्यपुराणे । “गत्वाथायतनं शुहमर्क शुद्धतनुर्यजेत् । पूरकं कुम्भकं कृत्वा रेचकञ्च समाहितः ॥ कृत्वोङ्कारेण दोषांस्तु हन्यात् कायादिसम्भवान्” । श्रादिपदेन वाङ्मनसोरुपादानम् । वायव्याग्नेय माहेन्द्रवारुणौभिर्यथाक्रमम् । किल्विषं धारणाभिच हन्यात् शुद्धार्थमात्मनः । शोषणे दहने स्तम्भे प्लावने च यथाक्रमम् । वायुग्नोन्द्रजलाख्याभिर्धारणाभिः कृते सति ॥ ध्यायेद्दिशमात्मानं प्रणवेनार्कवत् स्थितम् । देहं तेनैव सञ्चिन्त्य पञ्चभूतमयं For Private And Personal Use Only Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir A છું॰ર્ पाकितत्त्वम् । परम् ॥ तेनैव प्रणवेन । सञ्चिन्त्य संघव्य । “ स्थूलं सूक्ष्म' तथाङ्गानि स्वस्थानेषु प्रकल्प्य च । इत्यादौन्यभिधाय । "श्रावाहनादिकमणि रक्षाश्च प्रणवेन तु" । चादिपदेन संस्थापन सविधापनसविरोधनानि बोध्यानि । “यावदु यागा वसानन्तु सान्निध्य परिकल्पयेत् । दत्त्वा पाद्यादिकं पूजां शक्त्या चात्र निवेदयेत् ॥ जना च विधिवत्रत्वा ततो देव विसर्जयेत् । एष कर्मक्रमः प्रोक्तः सर्वेषां यजनक्रमे” ॥ श्रत्र विसर्जयेदित्यन्तेन यथोक्तामर्कपूजाम् अभिधाय एष कक्रम इत्यनेन सर्वेषां देवानां पूजने भाकाङ्क्षितभूतादिकमति दिश्यते । न तु तन्मात्रोपयुक्ताङ्गन्यासादिकम् एवञ्च “प्राक् पश्चिमोहास्यश्च प्रातः सायं निशासु च" इत्यनेन सायं पश्चिमाभिमुखपूजनं नान्यदेवपूजायाम् अन्वेति किन्तु सप्ताक्षर सूर्यमन्त्रविषय एव शिष्टाचारोऽपि तथा । तत्र पञ्चोपचाराः तत्र गन्धा भविष्ये “चन्दनागुरुकर्पूरकुङ्कुमोशौरपद्मकैः । अनुलिप्तो नरैर्भक्त्या ददाति मानसेप्सितम् ॥ पद्मकं पद्म अनुलिप्तः सूर्यः प्रकरणात् । तथा "मुकुलैर्नाचियेत् भानुमपा न निवेदयेत् । अलाभे न तु पुष्याणां पत्त्राण्यपि निवेदयेत्” ॥ तथा “मल्लिका मालती चैव दूर्वा शोकातिमुक्तकः । पाटला करवोरच जया पावन्तिरेव च ॥ कुटजस्तगरश्चैव कर्णिकार: कुरुण्टकः । चम्पको वकुलो कुन्दो वानो वर्वरमल्लिका ॥ अशोकं तिलकं लोध्रस्तथा चैवाटरूषकः । शतपत्राणि चान्यानि वकाञ्च विशेषतः ॥ अगस्त्यं किंशुकं तद्दत् पूजार्या भास्क रस्य तु । विल्वपत्र' शमीपत्र पत्र' भृङ्गरजस्य च ॥ तुलसौ कालतुलसौ तथा रक्तञ्च चन्दनम् | गोपतिं वक्तकं वापि यथेष्ट ं विनिवेदयेत् ॥ यावन्ति देहरूपाणि तत् प्रसूतिकुलेषु वै। तावदु युगसहस्राणि सूर्यलोके महीयते" || गोवृषं वृष For Private And Personal Use Only Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४.४ आङ्गिकतत्वम् । श्रेष्ठ वृहत् महत् परिमाणं वक्षमिति प्रशंसायां करत रत्नाकरः । ... अथ गणेशपूजनम् । तत्र तुलसौ व्यतिरेकेण । “न तुलस्या विनायकम्” इति वचनात् । तत्रावाहनविशेषमाह। वायुपुराणम् । “विनायक तथा दुगां वायुमाकाशमेव च । पावा. इयेयाहृतिभिस्तथैवाविकुमारको" ॥ ततो दुर्गापूजनम् । भविष्यपुराणम् । “चन्दनेन विलिप्याची अग्निष्टोमफलं लभेत् । विलिप्य कृष्णागुरुणा वाजपेयफलं लभेत् ॥ भविश्थे। “मल्लिकामुत्पलं रम्य शमौपुन्नागचम्पकम् । अशोककर्णिकारञ्च द्रोणपुष्प विशेषतः ॥ करवीरशमीपुष्प कुङ्कम नागकेशरम्। यः प्रयच्छति पुण्यार्थ पुष्पाण्येतानि भारत ॥ चण्डिकायै नरश्रेष्ठ भक्ति श्रद्धासमन्वितः। स कामानखिलान् प्राप्य चण्ड़ि कानुचरी भवेत्” ॥ देवीपुराणम्। “मञ्जरोभिः कुधानाञ्च विल्वपत्रैश्च शोभितैः। उक्तानुक्तस्तथा सर्वजलजैः स्थलसम्भवैः" ॥ ब्रह्मपुगणे “वलिं कृत्वा च सूर्याय सर्वान् कामानवाप्नुयात्। क्षौरेण तर्पणं कृत्वा मनस्तापैः प्रमुच्यते ॥ दना तु तर्पणं कृत्वा कार्यसिद्धिर्भवेन्नृणाम्। पत्नैः पुष्पैर्यथालाभं सौषधिमय: शुभम् ॥ मुकुलैर्नार्चयेद्देवान् अपक्कं न निवेदयेत् । फलं कथितबिच कालापक्वमपि त्यजेत् ॥ भविष्य "सर्वेषामेव धपानां दुर्गाया गुग्गुलुः प्रियः। मृतयुक्तो विशेषेण सततं प्रौतिवर्द्धनः । माहिषाख्यौं घृताक्तन्तु टत्त्वा विल्वमथापि वा। वाजपेयफलं प्राप्य दुर्गालोके महीयते ॥ विल्वेऽपि तयोगः। “सक्रष्णागुरुध पेन पिता सर्वमङ्गला। शोधयेत् पापकलितं यथाग्निरिव काञ्चनम् ॥ सकृष्णागुरुधूपेन कृष्णागुरुसहितकृतमहिषाख्यगुग्ग लुविल्वान्यतमधूपेन। तथा "तप्रदीपदानेन चण्डि कां पूजयेन्नरः। सोऽखमेध फलं For Private And Personal Use Only Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४०५ पाहिकतत्त्वम्। प्राप्य वर्गलोके महीयते॥ तैखदीपप्रदानेन पूजयित्वा तु चण्डिकाम्। वाजपेय फलं प्राप्य मोदते सह विवरैः" n तैलं तिलभवम्। भविष्ये । “पानञ्च नारिकेला खरं वौजपूरकम्। यः प्रयच्छति दुर्गायैः स गच्छति परं पदम् ॥ तत: शिवपूजनं भविष्ये। “चन्दनाचागुरौ जेयं पुण्यमष्टपुर्ण नृप। कृष्णागुरौ विशेषेण हिगुणं फलमादिशेत् ॥ तथा "पर्कपुष्पसामेभ्यः करवीरं विशिष्यते । करवौरसहस्रेभ्यो विल्वपत्र विशिष्यते । तथा च "करवौरसमा जेया जातीवकुलपाटलाः । खेतमन्दारकुसुमं सितपय तसमम् । नागचम्पकपुवागौ धुस्तरकुममाः स्मृताः सथा। “केतकी चातिमुक्ताव कुन्दी यथौ मदनिका। शिरीषसर्जबन्धूककुसुमानि विवर्जयेत् ॥ मुकुलैर्चियेहे वमपक्कं न निवेदयेत् । फलं कथितविच यत्न पक्कमपि त्यजेत् ॥ अलाभेन तु पुष्याणां पाण्यपि निवेदयेत्। विस्वपवैरखण्डैश्च यो लिङ्गं पूजयेत् सकत्। सर्वपापविनिर्मुसः शिवलोके महीयते ॥ तथा "कनकानि कदम्बानि रात्री देयानि शङ्करे। दिवा शेषाणि पुष्पाणि दिवारानौ तु मलिका* ॥ शिवपुराणे। “गुग्ग लं छतसंयुक्वं यः शिवाय निवेदयेत्। रुद्रलोकमवाप्रोति गाणपत्यश्च विन्दति” ॥ भविष्ये। "दधित्थं तसंयुक्वं दत्त्वा विस्वमथापि वा। पम्निष्टोमस्य यन्त्रस्य फलमानोति मानवः । दधियं कपित्य विल्वं विषफलम् । “तदीपप्रदानेन शिवाय अतयोजनम्। विमानं लभते दिव्य सूर्यकोटिसमप्रभम" । शिवपुराणे। "वृतेन तिलतैलेन तथा चैवौषधौरसैः। दोपं प्रवास्य देवेश भक्त्या सहतिमाप्नुयात् ॥ पोषध्यः सर्षपायाः । “गुडखण्डतानाच भक्ष्याणाञ्च निवेदने । कृतेन पाचिता. नाच तेषां शतगुणं फलम् ॥ मातुलुङ्गफलाबानि सुपकानि For Private And Personal Use Only Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाङ्गिकतत्त्वम् । निवेदयेत् । शिवाय तत् फलं तस्य यस्याणां निवेदने । गन्धधपनमस्कारैर्मुखवादच सर्वतः। यो मामयते तत्र तस्व तुष्याम्यहं सदा ॥ प्रथ पार्थिवशिवलिङ्गपूजाविधिः। ब्रह्मपुराणम्। "हरो महेश्वरक्षेव शूलपाणि: पिनाकधुक् । पशुपति: शिवथैव महादेव इति क्रमात् ॥ मृत्तिकाग्रहणे चैव घटने च प्रतिष्ठने। पावाहने च सपने पूजने च विसर्जने । इरादौनि च नामानि महादेवान्तानि कोर्तयेत् ॥ भविष्थे। सर्वाय क्षितिमूर्तये नमः भवाय मलमूर्तये नमः रुद्रायाग्निमूर्तये नमः उग्राय वायुमूर्तये नमः भौमायाकाशमूर्तये नमः पशुपतये यजनमानमूर्तये नमः। महादेवाय सोममूर्तये नमः ईशानाय सूर्यमूर्तये नमः। मूर्तयोऽष्टौ शिवस्यैताः पूर्वादिक्रमयो. गतः। प्राग्नेय्यन्ताः प्रपूज्यास्तु वेद्यां लिने शिवं यजेत्" । शिवमिति नमः शिवायेति मन्त्रेण लिने शिवं पूजयेत्। ततो वामावर्तेन मूर्तीरष्टौ पूजयेदिति वाक्यार्थः। अत्राने पूजानिषेधात् “देवाग्रे खस्य चाग्रे प्राची प्रोतागुरुक्रमैः । इत्या. गमोनस्थ विषयो न किन्वभिधानप्रसिद्धप्राचौ ग्राया। एत. दनुसारादेव पूर्वाद्याग्नेय्यन्ताः पूज्याः। सहेतुकनिषेधस्तु रुद्रयामले। “न प्राचौमग्रत: शम्भो!दौची शक्तिसंस्थिताम् । न प्रतीची यतः पृष्ठमतो दक्षं समाश्रयेत् ॥ यजमान: शम्भो. जंगत् संहारकर्तः प्राची न समाश्रयेत् । संहारकर्तुः सांसुख्यनिषेधात्। पत्र पञ्चवकपक्षे प्रधानं वक्त्र प्रायवस्थितम् एकवक्तपक्षे सुतरां तथा। तद्रूपमाहादित्यपुराणम् । “सौम्यं मौलोन्दुभृत् नावं एकवत चतुर्भुजम्। शूलपाइजहस्तच वरदाभयपाणिकम् ॥ पायताक्षं सुराराध्यं सर्वाभरणभूषितम्। शिवरूपं ग्टहे कुर्यात् प्रासादे वाप्यनिन्दितम् ॥ भविथे। For Private And Personal Use Only Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अंकितत्त्वम् । "यः कृत्वा पार्थिवं लिङ्गं पर्चयेत् शुभवेदिकम् । इहैव धनवान् श्रौमानन्ते रुद्रोऽभिजायते” ॥ शिवध । "वालुकानि चलिङ्गानि पार्थिवानि च कारयेत्। सहस्रपूजनात् सोऽपि लभते बाञ्छितं फलम्” ॥ ततो विष्णुपूजा श्राचारचिन्तामणौ । षोडशोपचाराः । “आसनं स्वागतं पाद्यमय माच. मनौयकम् । मधुपर्कमाचनमानवसनाभरणानि च ॥ गन्धपुष्पे धूपदौपौ नैवेद्य वन्दनन्तथा ॥ कालिकापुराणे । " श्रासनं प्रथमं दद्यात् पौष्प दारवमेव वा । प्रपञ्चसारे । "व्यं पाद्याचमनक मधुपर्काचमनान्यपि । गन्धादयो नैवयान्ता उपचारा दश क्रमात् ॥ गन्धादयो नैवेद्यान्ता पूजा पञ्चोपचारिका" | मधुपर्केत्यत्र स्नानौयमिति कृत्वा व्यव हरन्ति । कालिकापुराणे । “पाद्यार्थमुदकं पाद्यं केवलं तोयमेव तत् । तत्तैजसेन पात्रेण शकेनाथ प्रदापयेत् ॥ कुशपुष्पातैर्वापि सिद्धार्थैश्चन्दनैस्तथा । तोयैर्गन्धैर्यथालब्धेर घ्य दद्यात्तु सिद्धये । अमृतौकरणं कुर्य्यात् सलिलं धेनुमुद्रया " ॥ तथा " एवमेव त्वयं पावेऽष्टधा मन्त्र जपेत् सुधीः। तत्तोयैः संचयेत् शीघ्रं गन्धपुष्पादिकं तथा ॥ न दद्याङ्गास्करायाय शङ्खतोयैर्विचक्षणः । उदकं दौयते यस्तु प्रसन्नं फेनवर्जितम् ॥ श्राचमनाय देवेभ्यस्तदाचमनमुच्यते । यथा तथा सुगन्धैर्वा प्रसन्नेः फेनवर्जितैः ॥ तत्सेजसेन पाचेण धनापि प्रदापयेत् । स्वर्णरबोदके खाने कर्पूराद्यधिवासितम् । तेजसे: कांस्यपाaff वेदयेत्" । स्कान्दे । " दक्षिणावर्त्तशङ्खस्य तोयेन योऽर्चयेद्दरिम् । सप्तजन्मकतं पापं तत्क्षणादेव नश्यति ॥ वराहपुराणे । “संस्मृतः कौर्त्तितो वापि दृष्टः स्पृष्टोऽपि वा प्रिये । पुनाति भगवद्भक्तयण्डालोऽपि यदृच्छया । एतज् ज्ञात्वा तु विद्दङ्गिः पूजनोयो जनार्दनः । वेदोक्त विश्विना For Private And Personal Use Only 508 Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पातिकतत्त्वम् । भद्रे पागमोतन वा सुधौः ॥ भद्र इति पृथिव्याः सम्बोधन तथा "यावत् सर्वेषु भूतेषु सद्भावो नोपजायते। तावदेवसुपासोत वामन: कायकर्मभिः" ॥ प्रवाङ्गिरसौ। “सर्वपापप्रसक्ती हि ध्यायेनिमिषमच्यतम्। पुनस्तपखौ भवति पङलिपावनपावनः" ॥ विष्णु पुराणे । “गत्वा गत्वा निवर्तन्ते चन्द्रसूर्यादयो ग्रहाः। अद्यापि न निवर्तन्ते हादशाक्षरचिन्तकाः" ॥ हादशाक्षरस्तु। नमो भगवते वासुदेवाय । नारसिंहे। “योऽष्टाक्षरेण देवेशं नरसिंहमनामयम्। गन्धपुष्पादिभिनित्यं पचयेदर्चितं नरः॥ गन्धपुष्पादिमकलमने. नैव निवेदयेत् ॥ नमो नारायणायेत्यनेन। “अष्टाक्षरस्य मन्त्रस्य ऋषिर्नारायणः खयम् । छन्दश्च देवी गायत्री परमात्मा च देवता ॥ ध्यात्वा प्रणवपूर्वन्तु तवामा सुसमाहितः । नमस्कारण पुष्पाणि विन्यसेत्तु पृथक् पृथक् ॥ कालिका. पुराणे। “यहोयते देवताभ्यो गन्धपुष्पादिकं तथा। अयं. पावस्थितैस्तोयैरभिषिश समुत्सृजेत् ॥ नैवेद्यं दक्षिणे वामे पुरतोऽपि न पृष्ठतः। दीपं दक्षिणतो दद्यात् पुरतो वा न वामतः ॥ वामतस्तु तथा धूपमये वा न तु दक्षिणे । निवेदयेत् पुरोभागे गन्धपुष्पञ्च भूषणम्॥ यद्यपि देव्या इत्युपक्रम्य नेवेद्यादौ दिनियम उक्तस्तथाऽप्यकाङ्ग्या सर्वत्रान्वेति । दौपं तथा स्थापयेत् यथा छायां नाश्रयेत। “विभौतकाकारतस्नु हौ छायां न चाश्रयेत्। स्तम्मदीपमनुष्याणां अन्येषां प्राणिनां तथा" इति प्रयोगसागरात्। शारदायाम्। तत्र तत्र जलं दद्यादुपचारान्तरान्तरे। एतज्ज खदानमुपचारद्रव्य दानाय। तथाह कालिकापुराणम्। “यदेव दोयते पद्म मण्डलस्य तदुत्सृजेत्। वाक्पुष्पतोयैः कुसम विना यच्छादकं भवेत् । पद्मस्व तहहिर्देश हारादो विनिवेदयेत्” । For Private And Personal Use Only Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पातिकतत्त्वम् । 866 छार्दकमिति पमस्थावरकं कुसुमं विना यदन्यत्तत् पद्मस्य वहिर्दद्यादित्यर्थः । “प्रतिमादिषु यद योग्य मात्रे दातुञ्च तत्तनौ। दद्यादयोग्यं पुरतो नैवेद्य भोजनादिकम् ॥ नरसिंहपुराणे। "नाने वस्त्रे च नैवेद्य दद्यादाचमनीयकम्"। गन्धादयस्तु "सुगन्ध सुमनी धूपदीपनैवेद्यवन्दनम्" इत्यत्रोताः। अशक्तानां गन्धपुष्पमात्रमाह ब्रह्मपुराणम्। “प्रणवादिसमायुक्तं नम. स्कारान्त कौर्तितम्। स्वनाम सर्वसत्वानां मन्त्र इत्यभिधीयते ॥ अनेनैव विधानेन गन्धपुष्ये निवेदयेत्। एकैकस्य प्रकुर्वोत यथोद्दिष्ट क्रमेण तु ॥ भाग्नेये केवलपुष्प णापि पुष्यमुपक्रम्य “ध्यात्वा प्रणवपूर्वन्तु तन्नाम्ना सुसमाहितः। नमस्कारण मन्त्रेण विन्यसेत्तु पृथक् पृथक् ॥ ध्यावेत्यत्र स्नात्वेति तन्नाना इत्यत्र दैवतमिति योगियाज्ञवल्का पाठः। नरसिंहपुराणे । नरकस्थान् प्रति यमवाक्यम् । “अलामे चान्यद्रव्याणामुदकेनापि पूजितः। यो ददाति स्वकं स्थानं स त्वया किं न पूजितः" । राघवभकृतम्। “सर्वोपचारवस्त नामलामे भावनैव हि। निर्मलेनोदके नाथ पूर्णतेत्याह नारदः ॥ प्रणवादिनमोऽन्तस्य नाम्नो मन्चत्वाभिधानान्मन्त्रादौ पाद्याद्यभिधान न मन्त्रमध्ये पाद्यायं योरादित्वे विकल्पः। “पाद्यञ्चैव तौयया चतुर्थार्य प्रदापयेत्”। इति नरसिंहपुराणात् अयं पाद्यादिकन्तवेति मत्स्यपुराणात् बतौयया पुरुषसूतोंयया ऋचा। “पागच्छ नरसिंहति प्रावाद्याक्षतपुष्यकैः । एतावतापि राजेन्द्र सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ अक्षतपुष्पकैस्तण्ड. लादिपुष्पकैः । “दत्त्वासनमथायं च पाद्यमाचमनीयकम्। देवदेवस्य विधिना सर्वपापैः प्रमुच्यते । नापितो येन भक्त्या च नरसिंहो नराधिप। सर्वपापविनिर्मुक्तो विष्णुलोकं स गच्छति ॥ कालिकापुराणे। "कार्पासं सर्वतो भद्र दद्यात् ३५ For Private And Personal Use Only Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४१० पाक्षिकतत्वम् । सर्वेभ्य एव तु। नैकान्तरां दद्यात्तु वासुदेवाय चेलकम् । तथा “तत्पूर्व पूजयित्वैव मन्त्रैर्देवाय चोत्सृजेत। निर्देश मलिनं जोणं छिवं गात्रावलिङ्गितम् ॥ परकीयं चाखुदंष्ट्र सूचौवि तथोषितम्। उप्तके विधूतञ्च श्लेषमूत्रादिदूषितम् ॥ उप्तकेश केशेन सह वापितम्। “वर्ज येत् स्वोपयोगेन यज्ञादावुपयोजने। पताकाध्वजवस्त्रादौ स्यूतं वस्त्रं नियोजयेत् ॥ अवेयकादिसंशत सौवर्ण राजनञ्च वा। निवेदयेत्तु देवेभ्यो नान्यत्तैजससम्भवम् । प्राबारः पानपात्रच गण्डको एहमेव वा* ॥ गण्डक पाभरणविशेष: “पर्यादियदन्यच्च सर्वं तदुपभूषणम्”। आग्नेये। “चन्दनागुरुकपूरकुङ्कुमोशौरपद्मकैः। अनुलिप्तो हरिभवा वरान् भोमान् प्रयच्छति ॥ कालेयकं तुरुष्कञ्च रक्तचन्दनमेव च। तृणां भवन्ति दत्तानि पुण्यानि पुरुषोत्तमे ॥ कालिकापुराणे। "गधो मलयजो यस्तु देवे पिच स स्वतः। तत्पको वा रसो वापि चर्चा वा विष्णुतुष्टिदः ॥ तत्रैव “चन्दनागुरुदग्धा तु मद्यते दाहजो रसः । प्रशस्तगन्धयुक्तानां गन्धवर्णानि यानि तु” ॥ विष्णुधर्मोत्तरे। “चन्दनागुरुकर्पूरमृगमदन्तथैव च । जातोफलं तथा दत्त्वा अनुलेपनकारणात् ॥ अतोऽन्यं नैव दातव्यं किञ्चिदेवानुलेपनम्। अनुलिप्तं जगवार्थ तालबन्तेन वोजयेत् ॥ वायुलोकमवाप्रोति पुरुषस्तेन कर्मणा। चामरैः वर्वीजयेद् यस्तु देवदेवं जनाईनम् ॥ तिलप्रस्थप्रदानस्य फलं प्राप्नोत्यसंशयम् ॥ राघवभट्टतम्। “शङ्गपावस्थितं गन्ध मन्त्रैर्दद्यात् कनिष्ठया। कनिष्ठाङ्गुष्ठसंयुक्ता गन्धमुद्रा प्रको. तिता" । नरसिंहे। “अपर्युषितनिश्छिद्रैः प्रोक्षितैजन्तु. वर्जितैः। खोयारावोद्भवैर्वापि पुष्पैः संपूजयेरिम्" ॥ भक्त्या संपूजयेरिमिति स्थानान्तरे चतुर्थचरणे पाठः । देवौपुराणे । For Private And Personal Use Only Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पातिकतत्त्वम् । "खयं पतित पुष्पाणि त्यजेदुपहतान्य पि"। नारसिंहे। "मलिकामालती जाती केसक्यायोकचम्पकैः। पुवागनागधकुलः परत्यलजातिभिः॥ तुलसौ करवौरेच पलाशावन्ति कुभिः । एतैरन्यैव कुसुमैः प्रशस्तैरच्युतं नरः ॥ दत्त्वा दश सुवर्णस्य प्रत्येकं फलमानयात्" । नागो नागकेशरः । योगिनीतन्चे। "विल्वपत्रञ्च माध्यच्च तमालामलकोदलम्। कतारं तुलसी चेष पद्मञ्च मुनिपुष्पकम्। एतत्पर्युषितं न स्यात् यच्चान्यत् कलिकात्मकम् ॥ नारसिंहे । “शमीपत्रसहस्रेभ्यो विखपत्र विशिष्यते। विस्वपत्रसहस्र भ्यो धकपुष्पं विशियसे" ॥ राघवभट्टतम् । “कलिकाभिस्तथा नित्यं विना चम्यकपनकैः। शुष्क नै पूजयेहिष्णु पत्रः पुष्पैः फलैरपि । विष्णुधर्मोत्तरम्। “रक्तानि यानि धर्मज्ञ चैत्यवृक्षोद्भवानि च। श्मशानजातानि यानि यानि चाकालजानि च । तथा "कौटजं शाल्मलीपुष्पं शिरीषञ्च जनार्दने। निवेदितं भयं घोरं निस्तत्वच प्रयच्छति ॥ बन्धुजीवकपुष्पाणि रतान्यपि व दापयेत् । अनुतारतकुसुमदानाहौर्भाग्यमाप्नुयात् ॥ पाम्नेये। *पनान्यम्बुसमुस्थानि रक्तानीले तथोत्पले। सिंहोत्यसञ्च कृष्णस्य दयितानि सदा मृप" ॥ भविष्थे। “पद्मानि सितरक्तानि कुसुमान्युत्यलानि च। एषां पर्युषिताशङ्का कार्या पञ्चदिनोडतः । तुलस्वगत्यविल्वानां नास्ति पर्युषितात्मता"। वामनपुराणम्। “विस्वपन शमीपत्र भृङ्गाराजस्य पत्रकम् । तुलसी कृष्णतुलसी सद्यस्तुष्टिकरं हरे:” ॥ यत्तु "सुरभौणि सथान्यानि वर्जयित्वा तु केतकौम्"। इति वामनपुराणोये केतकौवर्जनं तबरसिंहेतरपरम्। वामनपुराणे। “पारिभद्र पाटला च वकुलं गिरिशायिनी। तिलकं जम्बुवनजं पौतकं समरन्वपि। एतान्याह प्रशस्तानि कुसुमान्यच्युताचंने" । For Private And Personal Use Only Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पातिकतत्वम् । गिरिशायिनी खेतापराजिता। जम्बुवनजं खेतजवाकुसुमम्। विष्णुधर्मोत्तरे। "रक्ताशोकस्य कुसुममतसौकुसुमन्तथा। चम्पकस्य तु देयानि तथा भूचम्पकस्य च ॥ अतसौ शनः । नारदीयसप्तसहस्र । "मालतौ वकुलाशोकशेफाली मक्षमल्लिका। अम्बानतगराङ्गोठमल्लिकामधुपिण्डिका ॥ यूथिकाष्ठापदं कुन्द कदम्ब मधुपिङ्गलम्। पाटला चम्पकं कृष्ण लवङ्गमतिमुक्तकम् ॥ केतकं कुरुवकं विस्वं कारं वासकं हिज। पञ्चविंशतिपुष्पाणि लक्ष्मौतुल्यप्रियाणि मे ॥ स्कान्दे। "न धात्री सफला यत्र न विष्णोस्तुलसौवनम्। तं म्लेच्छदेशसदृशं यत्र नायान्ति वैष्णवाः ॥ य व मापरा मा यत्र हादशौ कबरः। तुलसी मालती धात्रौ तब विष्णुः श्रिया सह ॥ टूर्वा दहति पायानि धात्री हरति पातकम् । हरीतकी हरेद्रोगं तुलसी हरते वयम् ॥ तुलसीं प्राप्य यो नित्यं न करोति ममार्चनम्। तस्याहं प्रतिर हामि न पूजां दशवार्षिकम् ॥ अतएव "यहाति तुलसी शुष्कापि पर्युषितां इरिः। तथा "वज्यं पर्युषितं तोयं वज्यं पर्युषितं दलम् । न वज्यं जाह्नवौतोयं न वय तुलसौदलम् ॥ तुलसीपत्रमादाय य: करोति ममाचं नम्। न पुनर्योनिमानोति मुक्ति भागौ भवेहि सः ॥ तथा “समचरिदलयुक्त तुलमौसम्भवैः क्षिती। कुर्वन्ति पूजनं विष्णोस्तै कतार्थाः कलौ युगे ॥ माने ध्याने तथा दाने प्राशने केशवार्चने। तुलसौ दहते पापं कीर्तने रोपणे कलौ॥ तुलस्यमृतनामासि सदा त्वं केशवप्रिये। केशवाथै चिनोमि त्वां वरदा भव शोभने ॥ त्वदनसम्भवैर्देवं पूजयामि यथा हरिम्। तथा कुरु पवित्राङ्गि कती मलविलाशिनि ॥ मन्त्रेणानेन यः कुर्यात् गृहीत्वा तुलसीदलम्। पूजनं वासुदेवस्य लक्षकोटिफलं लभेत् ॥ For Private And Personal Use Only Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४१३ पातिकतत्त्वम् । राघवभवतम्। “सद्यः पर्युषिता वापि निम्माल्या नैव दुथति। तथान्यैन हरेस्तुष्टिस्तुलस्या तुष्यते यथा" ॥ गरुड़पुराणे। “गवामयुतदानेन यत्फलं लभते खग। तुलसीपत्रकैकेन तत्फलं कार्तिके स्मृतम्” ॥ तथा "तुलसी विना यत् क्रियते न पूजा स्नानं न तद् यत् तुलसी विना कृतम् । भुक्तं न तद् यत् तुलसी विवर्जितं पोतं न तद् यत् तुलसौ विवर्जितम्" ॥ अन्यत्रापि "तुलसौदलसंमिथं यत्तीयं शिरसा वहेत्। सर्वतीर्थाभिषेकस्य तेन प्राप्तं फलं ध्रुवम्” ॥ वैष्णवामृते व्यासः । “जललिबा भवेद यावत्तुलसौमूलमृत्तिका। तावत् प्रौणाति विश्वात्मा भगवान् पिढभिः सह ॥ संक्रान्त्यां पक्षयोरन्ते हादश्यां निशि सध्ययोः। छिन्दन्ति तुलसी ये तु ते छिन्दन्ति हरे: शिरः" ॥ विष्णुधर्मोत्तरे। “पुष्पाभावे च देयानि पत्राणि च जनार्दने। पत्राभावे जलं देयं तेन पुण्यमवाप्यते" ॥ ज्ञानमालायाम् । “नाक्षतैरर्चयेहिष्णु न तुलस्या विनायकम्। न दूर्वयार्चयेदुगी नोन्मत्तकेर्दिवाकरम् ॥ अथ धपः। वामनपुराणम्। “कहिकाख्यं कनं दारसितकं सागुरु सितम्। शङ्खो जातीफलं श्रीशे धपानि स्युः प्रियाणि वै” ॥ रुहिका मांसोकनो महिषाख्य गुग्ग लुः सितं कपूरं सितेति पाठे सिता शर्करा। शङ्खो नखौ। थोशे विष्णौ । कालिकापुराणे । “पुष्पं धूपञ्च गन्धञ्च उपचारांस्तथापरान्। जिघ्रबिवेद्य देवेभ्यो नरो नरकमाप्नुयात्। न भूमौ वितरेडपं नासने न घटे तथा । यथा तथाधारगतं त्वा तं विनिवेदयेत्” ॥ विषणुधर्मोत्तरे । “धपदः सर्वमाप्नोति धपदः सर्वमनुते”। अथ दोपः। विष्णुः। “न वृतं तिलतैलं विना किञ्चिहोपार्थ इति" विष्णुधर्मोत्तरे। “यावदक्षिनिमेषाणि दोपो For Private And Personal Use Only Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४१४ कितत्त्वम् । देवालये ज्वलेत् । तावद्दर्षसहस्राणि स्वर्गलोके महीयते ॥ तथा " यः कुर्य्यात्तेन कर्माणि स्यादसौ पुष्पितेक्षणः” । तेन देवदत्तप्रदोपेन | कालिकापुराणे । “लभ्यते यस्य तापस्तु दौपस्य चतुरङ्गलात् । न स दौप इति ख्यातो व्योमवह्निस्तु स स्मृतः ॥ नेत्राह्लादकरः स्वर्थि: क्रूरतापविवर्जितः । सुशिखः शब्दरहितो निर्धूमो नातिस्वकः ॥ सर्वंसहा वसुमतो सहते न त्विदं हयम् । अकाय्र्यपादघातञ्च दौपतापं तथैव च ॥ तथा "दोपहर्त्ता भवेदन्धः काणो निर्वापको भवेत्” ॥ अथ नैवेद्यम् । नारसिंहे । "मोचकं पनसं जम्बु तथान्यलवलीफलम् । प्राचीनामलकं श्रेष्ठं मधुकोडुम्बरन्तथा ॥ यत्नपक्कमपि ग्राह्यं कदलीफलमुत्तमम् ॥ मोचकं कदलकम् । प्राचीनामलकं करमर्दकम् । वराहपुराणे "अपर्युषित पक्कानि दातव्यानि प्रयत्नतः । खण्डाज्यादिकृतं पक्कं नैव पषितं भवेत्” ॥ वामनपुराणम्। "हविषा संस्कृता ये च यवगोधूमशालयः । तिलमुहादयो माषा व्रोहयव प्रिया हरेः ॥ विष्णुः । " नाभक्ष्यं नैवेद्यार्थे मत्तेष्वजामहिषोचोरं वर्जयेत् । पञ्चनखमत्स्यवराहमांसानि चेति” । भक्ष्यम् इति यद्दर्णस्य यदभक्ष्यं स्वरूपतो लशुनादि तत् तेन न देयम् । न तु रात्रादौ दध्यादि । पञ्चनखश्च शशातिरिक्तः । " मार्ग मांस तथा छागं शाशं मासन्तथैव च । एतानि हि प्रियाणि स्युः प्रयोज्यानि वसुन्धरे ॥ इति वराहपुराणे भगवद्वाक्यात् । तथा “ माहिषश्चाविकं मांसमयाज्ञिकमुदाहृतम् । माहिषं वर्जयेन्मांसं क्षौरं दधि घृतन्तथा ॥ देवलः । " चाण्डालेन शुना वापि दृष्ट हविरयज्ञियम् । विडालादिभिरुच्छिष्टं दुष्टमत्रं विवर्जयेत् ॥ अन्यत्र हिरण्योदकस्पर्शादिति । श्रौभागवते " यद्यदिष्टतमं लोके यश्चापि प्रियमात्मनः । तत्त For Private And Personal Use Only Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चकितत्त्वम् । ४१५ निवेदयेन्मह्यं तदानन्त्याय कल्पते” ॥ मह्यं वासुदेवाय " नमो नारायणायेति मन्त्रः सर्वार्थसाधकः । भक्तानां जपतां तात खर्गमोक्षप्रदायकः ॥ विद्याकरष्टतम्। "सहस्र' वा शतं वापि दश वानुदिनं जपेत् । कुय्यादष्टाधिकं तेषामिति जप्ये विधिः स्मृतः” ॥ श्रगमे । " गुह्यातिगुह्यगोता व गृहाणास्मत्कृतं जपम् । सिद्धिर्भवतु मे देव त्वत्प्रसादात् त्वयि स्थिते ॥ मन्त्रो श्लोकं पठित्वा त दक्षहस्तेन विष्णवे । मूलानुनार्घ्यतोयेन दक्षहस्ते निवेदयेत्" ॥ धनुर्मन्त्रः । तन्त्रान्तरे । "विक्षेपादथ वालस्याज्जपहोमार्श्वनान्तरा । उतिठति तथा न्यासं षड़ङ्गं विन्यसेत्ततः ॥ पञ्चरात्रे " अपवित्रकरो नग्नः शिरसि प्रावृतोऽपि वा । प्रलपन् प्रजपेत् यावत्तावन्निष्फलमुच्यते” ॥ विष्णुपुराणे । “ सर्वदेवेषु यत् पुण्य ं सर्वतौर्थेषु यत् फलम् । तत्फलं समवाप्नोति स्तुत्वा देवं जना - र्दनम् ” ॥ स्मृतिः । तथा “भ्रान्त्वा चातुष्पार्थं श्रीकृष्णं यो नमेन्नरः । अष्टाङ्गप्रणिपातेन तस्य मुक्तिः करे स्थिता ॥ स्कान्दे । “अर्घ्यं कृत्वा तु शङ्खेन यः करोति प्रदक्षिणम् । प्रदक्षिणौकता तेन सप्तदीपा वसुन्धरा । " ॥ वामनपुराणे । “त्रि:प्रदक्षिणच यः कुर्य्यात् साष्टाङ्गकप्रणामकम् । दशाश्वमेधस्य फलं प्राप्नुयाचात्र संशयः " ॥ नृसिंहपुराणे " उरसा शिरसा दृष्ट्या वचसा मनसा तथा । पद्मयां कराभ्यां जानुभ्यां प्रणामोऽष्टाङ्ग इष्यते” ॥ विष्णुधर्मे । “जानुभ्यां चैव पाणिभ्यां शिरसा च विचचणः। कृत्वा प्रणामं देवेशे सर्वान् कामानवाप्नुयात् ॥ कैर्धृताञ्जलिभिर्नेमुः” । इति भागवतोयात् । शिरोऽञ्जलियोगोऽपि नमस्कारः । श्रीभागवते "नानातन्त्रविधानेन कला वपि तथा शृणु । ध्येयं सदा परिभवन्नमभौष्टदोऽहं तौर्थास्पदं शिवविरिचिनुतं शरण्यम् । भृत्याहिं प्रणतपाल For Private And Personal Use Only Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाङ्गिकतत्त्वम् । भवाब्धिपोतं वन्दे महापुरुष ते चरणारविन्दम्। त्यत्वा मुटु स्त्यजसुरमितराज्यलक्ष्मों धर्मिष्ठ पार्यवचसा यदगादरण्यम् । मायामृगं दयितयेसितमन्वधावन्दे महापुरुष ते चरणारविन्दम् । एवं युगानुवृत्तिभ्यां भगवान् युगत्तिभिः । मनुजैरौद्यते राजन श्रेयसामौखरी हरिः॥ स्तुत्वा प्रसौद भगबनिति वन्देत दण्डवत्” ॥ तथा “शिरो मत्यादयोः कृत्वा बाहुभ्याञ्च परस्परम्। प्रपन्नं पाहि मामौश भौतं मृत्युमहार्णवात्” इति भगवहाक्यम् । ब्रह्मपुराणे। “यत्किञ्चित् क्रियते देव मया मुक्तदुष्कृतम्। तत्सर्वं त्वयि संन्यस्त त्वत्प्रयुक्तः करोम्यहम्” इत्यनेन सर्व समर्पयेत् श्रीभागवते । *मन्वहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं जनार्दन । यत् पूजितं मया देव परिपूर्ण तदस्तु मे ॥ कालिकापुराणे। “यदक्षरं परिभ्रष्टं मात्राहीनञ्च यद्भवेत्। क्षन्तुमर्हसि मे देवि कस्य न स्खलितं मनः” ॥ पुरश्चरणचन्द्रिकायाम्। “सुषुम्ना वर्मना पुष्पमाघ्रायोहासयेत् सुधीः । निर्माल्यं मस्तके धार्य सर्वाङ्गेष्वनुलेपनम् ॥ नैवेद्यच्चोपयुञ्जौत दत्त्वा तत् भक्तिशालिने" ॥ भक्तिशालिने विष्वक्सेनाय। षष्ठस्कन्धेऽपि “उद्दास्य देवं खे धानि तन्निवेदितमग्रतः। अद्यादात्मविशुद्दाथं सर्वकामसमृद्धये" ॥ स्खे धाम्नि स्वीयहृदये। उहास्य संस्थाप्य तथाच कालिकापुराणे। "ध्यायंस्तु मन्त्रेणानेन तत्रस्थं स्थापयेत् हृदि। तिष्ठ देवि परे स्थाने स्वस्थानं परमेश्वरि । यत्र ब्रह्मादयः सव सुरास्तिष्ठन्ति मे हृदि" भविष्ये। “निर्माल्यं नोपभोक्तव्यं रुद्रस्य तपनस्य च । उपयुज्य च तन्मोहाबरके पच्यते ध्वम्” ॥ निर्माल्यमाने तु "उदके तरूमूले वा निर्माल्यं तस्य संत्यजेत्” । कालिकापुराणे। “यो यह वार्चनरतः स तन्नै वेद्य भक्षकः” ब्रह्मपुराणे "अम्ब रोषनवं वस्त्र फलमन्यद्रसा. For Private And Personal Use Only Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आह्निकतत्त्वम् । ४१७ दिकम् । कृत्वा कृष्णोपभोग्यन्तु सदा सेव्यं हि वैष्णवैः " ॥ तककर्त्तरि का श्रवणात् स्वदत्तनैवेद्यभचणेऽप्यधिकार उक्तः "केवलं सौरशेवे तु वैष्णवो नैव भचयेत्" । विष्णुयामले । “पौवा पादोदकं देवि नैवेद्यं स्वयमुद्धरेत् । त्यजेत् पादोदकं यस्तु नैवेद्यं वा त्यजेच्च यः ॥ षष्टिवर्षसहस्राणि रौरवे नरके पचेत्” ॥ उद्धरेत् अभ्यवहरेत् स्कन्दयामले । “उद्दास्य देव स्खे धानि तत्रिवेदितमात्मनः । भक्षयेत् पापशुार्थं सर्वदा साधकः प्रिये ॥ अथच शिवधर्मोत्तरे भक्ष्यविषये । "अथ भक्त्या शिव पूज्य नैवेद्यमुपकल्पयेत् । तदनं स्वयमश्रीयात् तत् सर्वं विनिवेदयेत्” ॥ कालिकापुराणे । श्रतिभक्तविषये । " फलं पुष्पञ्च ताम्ब लमन्नपानादिकञ्च यत् । श्रदत्त्वा तन्महादेव्यै न भोक्तव्यं कदाचन ॥ एतेन तत् पठन्ति "अन्यदेवस्य नैवेद्यं भुक्का चान्द्रायणञ्चरेत्” ॥ इति तदेकान्तवैष्णवपरमिति भूषणः । यत्तु "शूद्राद' याजकानञ्च नैवेद्यञ्चापि वर्जयेत्” इति लेङ्कवचनम् । तनैवेद्यत्वेनोपकल्पितानिवेदितपरं लोभादिना भोजननिषेधकं वा यथोक्त शाम्बे "नोपभुक्त्वा च नैवेद्यं प्रयाति प्रेतयोनिषु” । विसर्जनात् पूर्वं विष्णुनैवेद्योपादाननिषेधार्थं वा । “अर्वाक् विसर्जनात द्रव्यं सर्वं नैवेद्यमुच्यते । विसर्जिते जगन्नाथे निर्माल्य भवति क्षणात् " ॥ इति गारुड़पुराणौयसंज्ञाकरणस्यैतत्प्रयोजकत्वात् विसर्जिते पूजने समापिते इति भूषणः । पुरश्चरणचन्द्रिकाषष्ठस्कन्दकालिकापुराणेभ्यश्च पूजानन्तरं शङ्खपूजामाह तन्त्रप्रकाशः । “पूजयेद्गन्धपुष्पाद्यैः शङ्ख बे देववद् बुधः" । नारसिंहे । “ततःप्रभृति निर्माल्यं मा लड्डय महामते । नरसिंहस्य देवस्य तथान्येषां दिवौकसाम् ॥ अह न्यहनि यो मर्त्यो गौताध्यायन्तु संपठेत् । द्वात्रिंशपदराधेश्च For Private And Personal Use Only Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४१६ भाकितत्त्वम् । अहन्यहनि मुच्यते " ॥ ते चापराधा वराहपुराणानिष्क, प्य लिख्यन्ते । भगवद्भक्तानां चत्रियसिद्धान्नभोजनम् ॥ १ ॥ अनिfreeदिने दन्तधावनमकृत्वा विष्णोरुपसर्पणम् ॥ २ ॥ मैथुनं कृत्वाऽस्नात्वा विष्णोरुपसर्पणम् ॥ ३ ॥ मृतं नरं स्पृष्ट्वाऽस्रात्वा विष्णु कीकरणम् ॥ ४ ॥ रजस्वलां स्पृष्ट्वा विष्णुग्टहप्रवेशनम् ॥ ५ ॥ मानवं शव' स्पष्ट्वाऽखात्वा विष्णु सविधाववस्था मम् ॥ ६ ॥ विष्णुं स्पृशतः पायुवायुप्रयोगः ॥ ७ ॥ विष्णोः कर्म कुर्वतः पुरोषत्यागः ॥ ८ ॥ विष्णुशास्त्रममाहत्य शास्त्राउतरप्रशंसा ॥ ८ ॥ अतिमलिनं वासः परिधाय विष्णु काश्चरगम् ॥१०॥ अविधानेनाचम्य विष्णोरुपसर्पणम् ॥११॥ विष्णुरपराधं कृत्वा विष्णोरुपसर्पणम् ॥ १२ ॥ क्रूहस्य विष्णुस्पर्शमम् ॥ १३ ॥ निषिद्धपुष्पेण विष्णुर्वनम् ॥ १४ ॥ रक्तं वासः परिधाय विष्णोरुपसर्पणम् ॥ १५ ॥ अन्धकारे दोपेन विना विष्णो स्पर्शनम् ॥ १६ ॥ कृष्णवस्त्र परिधाय विष्णोः कर्माचरणम् ॥ १७ ॥ वायसोहृतघासः परिधाय विष्णोः कर्माच रणम् ॥ १८ ॥ विष्णवे कुक्क रोच्छिष्टदानम् ॥ १८ ॥ वराहमांसं भुक्त्वा विष्णोरुपसर्पणम् ॥ २० ॥ हंसजानपादसरारिमांसं भुक्त्वा विष्णोरुपसर्पणम् ॥ २१ ॥ दीपं स्पृष्ट्वा हस्तमप्रजात्य विष्णो स्पर्शनं कर्मकरणं वा ॥ २२ ॥ श्मशानं गत्वाविष्णू पसर्पणम् ॥२३॥ पिन्याकं भुक्का विष्णोरुपसर्पणम् ॥ २४ ॥ विष्णवे वराहमांस निवेदनम् ॥ २५ ॥ मद्यमादाय पौवा वा स्पृष्ट्वा विष्णुग्टहप्रवेशनम् ॥ २६ ॥ परकीयेनाशुचिना वस्त्रेण परिहितेन विष्णुकर्माचरणम् ॥ २७ ॥ विष्णवे नवान्नमप्रदाय तो जनम् ॥ २८ ॥ गन्धपुष्पे अप्रदाय धूपदीपदानम् ॥ २८ ॥ उपानहावारुह्य विष्णुस्थानप्रवेशनम् ॥ ३० ॥ भेरीशब्देन विना विष्णु प्रवोधनम् । ३१ ॥ अजीर्णे सति विष्णुस्पर्शनम् ॥ ३२ ॥ For Private And Personal Use Only Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाङ्गिकतखम् । एतदुपलक्षणम् । यथा नारसिंहपुराणम्। “अपराधसहस्राणि अपराधशतानि च। पझेनैकेन देवेशः क्षमते हेलयार्चित: ॥ अथ पञ्चमयामाईकत्यम् । तत्र वैश्वदेवादिकमाइ दक्षः । "पञ्चमे च ततो भागे संविभागो यथाईतः। देवपिटमनुव्याणां कोटानाचोपदिश्यते ॥ संविभागं ततः कृत्वा एहस्थः शेषभुग भवेत् ॥ पञ्चमे भागेऽषधाविभक्तादिनस्य संविभागो विभज्यान प्रतिपादनम्। एष मुख्यः कल्पः देवो वैश्वदेवसम्बन्धी। तथाच देवपूजानन्तरं वैखदेवमाह नृसिंहपुराणम् । “पौरुषेण तु सूक्तेन तत्र विष्णुं समन्चयेत्। वैश्वदेवं ततः कुयात् बलिकर्म ततः परम् ॥ नानं दानं जपः थाइमनन्तं राहुदर्शने। पासुरौ रात्रिन्यत्र तस्मात्ता परिवर्जयेत् ॥ इति शातातपोये दिवावैधकत्यस्य पर्य्यदस्तरात्रौतरकालो गौण उक्तः। अतएव “सायं प्रातःखदेवः कर्तव्यो बलिकर्म च। अनतापि सततमन्यथा किल्विषोभवेत् ॥ सायं प्रातरिति दिवाराविपरम् पनत्रता प्रतिथ्याद्यनुरोधेन पाकसम्भव एव सायमिति बोध्यम् । विष्णुपुराणे "पुन: पाकमुपादाय सायमप्यवनीपते। वैश्वदेवनिमित्त वै पनगा साई वलिं हरेत् ॥ इत्यत्र पुनः पाकमुपादाय इत्यभिधानात्। तेन खौयभोजनसम्भवे पाकं विनापि तदसम्भवे पाकसत्त्व एव रात्रौ वैखदेववलिकर्मणौ दिवा तु सर्वथैव इति। एवमेव औदत्तोपाध्यायाः। यत्तु मदनपारिजाते। धर्मविनाचरेत् मानमाङ्गिकन्तु पुनः पुनः। तर्पणं ब्रह्मयाच बैश्वदेवं न चाचरेत्” । इति तहिवा पुनःकरणं रात्री पुनः करणञ्च निषेध यति। पार्वणवाहादिकरणे तदनन्तरं वैश्वदेवविधिमाह मविथपुराणम्। “कत्वा श्राद्य महाबाहो ब्राह्मणांश्च विसृज्य च। वैखदेवादिकं कर्म ततः कविराधिपः ॥ इति शब्द For Private And Personal Use Only Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir আঙ্গিন क्रमेण क्रमान्तरं बाध्यते इति न तेन व्यवहार इति पविणादिपूर्वकरणे निन्दामप्याह गोतमः। "पिटवाघमकत्वा तु वैश्वदेवं करोति यः । अततं तद्भवेदन्नं पितॄणां नोपतिष्ठते । खयमशक्तो अत्रिः। “पुत्रो नाताऽथवा ऋत्विक् शिष्यव. सौयमातुलाः। पत्नौ थोत्रिययाज्याश्च दृष्टाश्च बलिकर्मणि" ॥ दृष्ट्वाः प्रतिनिधित्वेनेति शेषः। हवनौयमाह छन्दोगपरिशिष्टम्। “इविष्थेषु यवामुख्यास्तदनुव्रोहयः स्मृताः। माषकोद्रवगौरादौन सर्वाभावेऽपि वर्जयेत्” ॥ गौरः खेतसर्षपः । आदिशब्दाचौनकचनकमसूरकुलत्थोद्दालनिषेधः। तथाह शङ्खः । "कोद्रवचौनचनकमसूरकुलत्योहालवर्ण्यम्” ॥ प्राप. स्तम्बः। “यहमेधिनो यदशनौयं तस्य होमावलयश्च स्वखपुष्टिसंयुक्ता" इति पुष्टिः कर्मफलम् प्रशतावाहतुः शङ्खलिखिती। अहरहः पञ्चयजाबिर्वपेत् प्रामूलपवोदकशाकेभ्यः”। इति व्यासः । “जुहुयात् सर्पिषा युक्त तेलक्षारविवर्जितम्। दध्यक्त पयसातवा तदभावेऽम्बु नापि च” ॥ तयोरारम्भे वृदिशाह कत्तव्यं वैश्वदेवार्थं कृते थावे बलि. कर्मणि न पृथक् श्राई कर्तव्यम् । “प्राधानहोमयोश्चैव वैवदेवे तथैव च। बलिकर्मणि दर्श च पौर्णमासे तथैव च ॥ नवयन च यज्ञज्ञा वदन्त्येवं मनौषिणः। एकमेव भवेत् श्राइमेतेषु न पृथक् पृथक् ॥ इति छन्दोगपरिशिष्टवचनात् पितुरशौचान्तहितीदिने तदारम्भे तु न वृद्धिशाहम् । “न तत्पूर्व यतः प्रोक्तः सपिण्डनांवधिः क्वचित्। वृद्धियाहस्य लोप: स्यात् पक्षयोरुभयोरपि ॥ इति छन्दागपरिशिष्टात् । उभयोवैश्वदेवानन्याधानयोः। एवञ्च पूर्वारब्धवैश्वदेवबलिकर्मणोमहागुरुनिपातेऽपि सुतरां कर्तव्यतेति। महादाननिर्णये गोभिल: *उत्तानेन तु हस्तेन ह्यङ्गुष्ठाग्रेण पौड़ितम्। For Private And Personal Use Only Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाकितत्त्वम् । ४२१ संहताङ्गुलिपाणिस्तु वाग्यतो जुहुयाइविः” । एतद्दचनं परिशिष्टस्त्रेति पराशरमदनप्रारिजातयोः । वायुपुराणम्। "दानं प्रतिग्रहो होमो भोजनं बलिरेव च । साङ्गुष्ठेन सदा काव्यमसुरेभ्योऽन्यथा भवेत्” ॥ परिमाणमाह व्यासः । " ब्रार्द्रामलकमानेन कुय्याडो महविर्बलोन् । प्राणाहुतिबलिचैव मृदं मात्रविशोधनोम्” || बोधायनः । " भोजनं हवनं दानमुपचारः प्रतिग्रहः । वहिर्लानु न कार्याणि तहदाचमनञ्चरेत्” ॥ व्यासः । " खते वैश्वदेवे तु भिक्षुके गृहमागते । उडत्य वैश्वदेवाच' भिक्षां दत्त्वा विसर्जयेत् ॥ ब्रह्मचारी यतिखेव विद्यार्थी गुरुपोषकः । अध्वगः चीणवृत्तिय बड़ेते भिक्षुकाः स्मृताः” । तत्र “स्वशाखाविधिना हुत्वा तच्छेषेण बलिं हरेत्” इति कात्यायनोक्तम् । “वैश्वदेवन्तु कुर्वीत विहोनन्तु स्वशाखया" । इति व्यासोक्तञ्च साग्निपरम् । निरग्निकर्त्तृकशाकलहोमबलिविशेषाभ्यां सामान्यविशेषन्यायसङ्कोचात् । तथा इन्दोगपरिशिष्टम् । "पग्न्यादिर्गोतमेनोक्ती होमः शाकल एव च । अनाहिताग्नेरेवैष युज्यते बलिभिः सह ॥ अग्नवाग्निधनन्तरिर्विश्वदेवाः प्रजापतिः स्वष्टिकहोमाः” इति गोतमोक्तो होमः स च दिग्देवताभ्यो यथा स्वमित्यादि तदुक्तबलिभि: सहितो यय शाकलहोमो देवकृतस्यैनस इत्याद्यष्टात्यात्मकसामवेदपठितः स चाग्निपुरायाद्यक्तभूतादिवलिसहितोऽनाहिताग्नेरेवेत्यर्थः । शाकलपदव्युत्पत्तिमाह भावलायनः । "भ्रष्टावष्टौ शकलान्याहवनीये अनुहरेयुर्देवकृतस्यैनसः" इति ज्योतिष्टोमोययूपकाष्ठशकलाष्टकेन देवकृतस्येत्यादिमन्त्रेष होमविधानात् । यत्तु पितृदयितायामेकस्मिन् प्रयोगे गीतमोक्ताग्न्यादिहोम देवकृतस्येत्या दिशाकल होमो समुचितौ सिखिताविति तश्चिन्त्यम् । शाकल एवेति एवकारेण पूर्व कल्प २६ For Private And Personal Use Only Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४२२ आहिकतत्त्वम्। समुञ्चयमिरासात्। एष इति सर्वनाम्नः सवनिरपेक्ष्य कल्पक हयावाचित्वात् । साहित्यवाचिहिवचनान्तौ तावेव इत्यनुतः। अग्निपुराणादिभिः केवलशाकलहोमविधानाच। ततश शाकल एव चेति चकारस्य विकल्पार्थकत्वमिति। मनुः । “अन्न व्यातिभिर्दुत्वा यथा मन्त्रैश्च शाकलैः। भूतेभ्यश्च बलिं दत्त्वा ततोऽश्रीयादनम्निमान्” ॥ अत्रानग्निक पति पाठः प्रणवपरित शिष्टे । प्राचारमाधवीयमदनपारिजातयोरनग्निकस्य विशेष माह वशिष्ठः। "अमग्निकस्तु यो विप्रो ह्यावं व्याहृतिभिः खयम्। हुत्वा शाकलहोमैस शिष्टाडूतबलिं हरेत्" | शिष्टा. छुतशिष्टात् तथाच याज्ञवल्काः “देवेभ्यश्च हुतादनात् शेष भूतबलिं हरेत्। शेषनाश वन्यदादाय कर्त्तव्यमेव भट्ट भाष्यम्। पराशरभाथे हारीतः। “वास्तुपालभूतेभ्यो बलिरहणं भूतयज्ञः” इति गोतमकल्पे अम्नाविति “लौकिके वैदिके वापि हुतोच्छिष्टे जले छितौ। वैखदेवञ्च कुर्वीत पञ्चमूना. पनुत्तये ॥ इति शातातपोलजलक्षित्याधारतानिवृत्त्यर्थः । ततश्चाग्न्यभावे तु जलक्षित्याधारता शाकलकल्येऽवतिष्ठते । जलचित्योः संस्कारोऽपि नास्तीति श्रीदत्तप्रभृतयः। ततश्च बहुवादिसम्मत: सामान्या धारकशाकलकल्पोऽनाभिधीयते । थाकलकल्पेऽप्यन्ते विष्टिकहोमः। भूतेभ्यश्चेति चकारादादौ देवबलि: अन्ते च पिढबलिः। "यमाय तूष्णोमेकाच्च तथा विष्टिकदम्नये" ॥ तथाच स्कन्दपुराणे काशौखण्डम् । “भूरा. द्याव्यातौस्तिस्रः स्वाहान्ताः प्रणवादिकाः। भूर्भुवः स्वः स्वाहेति च विप्रो दद्यात्तथाहुतिम् ॥ तथा देवकतस्याद्या जुहुयादष्ट पाहुतौः। विश्वेभ्यश्चापि देवेभ्यो भूमौ दद्यात्तथा बलिम् ॥ सर्वेभ्यश्चापि भूतेभ्यो नमो दद्यात्तदुत्तरे। दक्षिणे. ऽपि पिलभ्यश्च प्राचीनावौतिको ददेत् ॥ निजनीदकाबेन For Private And Personal Use Only Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पातिकतत्वम् । ४२३ ऐशान्यां यक्ष्मणेऽर्पयेत् ॥ जुहुयात्त षड़ाहुतौरिति पाठवेत्तदा शाखिभेदाहावस्थितः । षड़ाहुतिपचस्तु ब्राह्मणसर्वखे हलायुधलिखितः। एवं यमाहुतिरपि विष्टिकत शोभनाभि. लषितकारी एवमेव भट्टभाथ प्रयोग तु "पग्नये विष्टिकते खाहा" इति गोभिलादौ तथा दर्शनात् श्रुतावपि प्रथमतो. ऽग्नेनिर्देशात्। “यथा देवा अग्निं त्रिष्टिकतमब्रुवन् हव्यं नो वहेति सोऽव्रतोत् किं मे ततः स्यादिति यत् कामयसे इत्यनुवन् सोऽब्रवीत् सर्वष्टिषु केवला सौविष्टकतीति तथेति सोऽववींषि इति सौविष्टकृती" पाहुतिरिति शेषः। ... वलिदानप्रकारमा छन्दोगपरिशिष्टम्। “प्रमुथै नम इत्येवं वलिदानं विधीयते। वलिदानप्रकारार्थ नमस्कारः कतो यतः ॥ स्वाहाकारवषट्कारनमस्कारादिवौकसाम् । खधाकारः पितृणाच हन्तकारो नृणां मतः। स्वधाकारण मिनयेत् पित्रावलिमतः सदा ॥ वलौना पूर्वापरयोः सेकमाह गोभिलः । “सर्वेषामुभयोरद्धिः परिषेकः” इति। परि. पाटोमाह वलिदानानन्तरं मार्कण्डेयपुराणम्। ततस्तोयमुपादाय तेषामाचमनाय च । स्थानेषु निक्षिपेत् प्रातः नाना तूद्दिश्य देवताः । पिटवल्यवानामभ्युक्षणानन्तरं दानमाह मोभिलः । “तथैतहनिशेषमभिषिच्यापसलविदक्षिणस्यां निमयेत् लत् पिलभ्यो भवति । यमावल्यनन्तरं काम्यवलिमाह विष्णुपुराणम्। ततोऽन्यदबमादाय भूमिभागे शुचौ पुनः । दद्यादशेषभूतेभ्यः खेच्छया तत् समाहितः" ॥ देवामनुष्याः पशवो वयांसि सिद्धाः सयक्षोरगदैत्यसङ्घाः। प्रेताः पिशाचास्तरवः समस्ता ये चावमिच्छन्ति मया प्रदत्तम् । पिपीलिकाः कौटपतङ्गकाद्या बुभुक्षिताः कर्मनिबन्धवहाः। प्रयान्तु ते प्तिमिदं मयानं तेभ्यो विसृष्टं सुखिनो भवन्तु। येषां न For Private And Personal Use Only Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाङ्गिकतत्त्वम् । माता न पिता न बन्धु वासिनि तथानमस्ति। तत्तप्तयेऽख भुवि दत्तमेतत् प्रयान्तु तृप्ति मुदिता भवन्तु। भूतानि सर्वाणि तथावमेतदहच विष्णन यतोऽन्यदस्ति। तस्मादई भूतनिकायभूतमन्नं प्रयच्छामि भवाय तेषाम्। चतुर्दशी भूतगणो य एष यत्र स्थिता येऽखिलभूतसङ्गाः। दृत्यर्थमनं हि मया विसृष्टं तेषामिदन्ते मुदिता भवन्तु। “इत्युच्चार्य नरो दद्यादव बहासमन्वितः। खचाण्डालविहङ्गानां भुवि दद्यात्ततो नरः। ये चान्ये पतिताः केचिदपानाः पापरोगिणः ॥ हन्दात् पर: सहाशब्देन सह समासः एवमाद्यशब्देन गणत्वञ्चामौषां सजातीयानां बहुवचनाहिजातोयानां सङ्कायशब्दाभ्यामवगम्यते। विसृष्टं दत्तम् आदिकर्मणि क प्रत्ययात्। अत: प्रयच्छामि इत्यु पयुज्यते। वस्तुतस्तु साध्याभिधायित्वेनाख्यातिकपदस्थ प्राधान्यातहिशेषणीभूतस्य वद. न्तस्य गौणत्वात् कृत्प्रत्ययोक्तकालस्याविवक्षया न तनातौताथैता एतदर्थमेव धातुसम्बन्धेन प्रत्यया इति सूत्रम्। इतिना पञ्चानुकर्षादवमित्येकवचननिर्देशात् भवन्विलन्तेनैक एव वलिः। विहङ्गपदं वायसपरम् अपात्रपदं पायरोगिपरम्। “शनाञ्च पतितानाच स्वपचा पापरोगिणाम्। वायसानां कमौणाञ्च शनकैनिक्षिपद भुवि" ॥ इति मनुवचनैकवाक्यत्वात् वायसवलिदानमन्वे तु कामधेनुपिटदयिता इलायुधबचारधर्माकोषहरिहरपञ्चतिरनाकराचार्यदर्शाचारप्रदीपानिकोबार नव्यवईमानतसौम्या इति लिखनात् याम्या इति पाठः काल्पनिकः काकानां यमप्रभुत्वदर्शनात् मन्चे तथा कल्पनायां मानाभावात्। एवञ्च मनत पाठक्रममुखवा “ऐन्द्रवरुणवायव्याः सौम्या वै नै तस्तथा। वायसाः प्रतिग्रहन्तु भूमौ पिण्डं मयार्पितम् ॥ खानी हो यावशवनौ For Private And Personal Use Only Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आक्रिकतत्त्वम् । ४२५ वैवखतकुलोद्भवौ । ताभ्यां पिण्डं प्रयच्छामि स्यातामेतावहिंसकौ ॥ दत्त्वानेन विधानेन शाब्दक्रम इहाद्रियते । शूद्रस्याप्यत्राधिकारः । " दानं दद्याच्च शूद्रोऽपि पाकयज्ञेयं नेत च" इति विष्णुपुराणात् । “भाय्यारतिः शुचिर्भूत्यभर्त्ता - श्राक्रियापरः । नमस्कारेण मन्त्रेण पश्ञ्चयज्ञात्र हापयेत्" ॥ इति याज्ञवल्क्याश्च । पञ्चयज्ञाधिकारस्य स्फुटमवगमादिति । अत्र नमस्कारेण मन्त्रेणेत्यभिधानात् श्रापचयमेषु वैदिकेतरमन्त्रपाठो नास्तीति प्राक् प्रतिपादितम् । किन्तु अमन्त्रस्य तु शूद्रस्य विप्रो मन्त्रेण ग्टह्यते ॥ इति वचनात् ब्राह्मणेन मन्त्राः पठनीयाः । ब्राह्मणाभावे मन्त्रार्थं भावयन् नमस्कारमुञ्चरन् स्वयं कुय्यात् । वलिदानन्तु आद्यन्तनमस्कारयुक्ततत्तत् प्रतिपादकपदेनेति । वलिवैश्वदेवावशिष्टानां भोष्यतामाह भगवहोता। "यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वपातकैः । भुञ्जते ते त्वघ' पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् ॥ वैश्वदेवादियज्ञावशिष्टं येऽश्नन्ति ते पञ्चसूनाकृतैः सर्वैः पापैर्मुच्यन्ते । ये श्रात्मभोजनार्थमेव पचन्ति न तु वैश्वदेवार्थं ते पापात्मानोऽघमेव भुञ्जते । अथातिथिभोजननित्यश्रा । तत्र वलिदानानन्तरं विष्णु पुराणम् । “ततो गोदोहमात्र वै कालं तिष्ठेत् गृहाङ्गये । अतिथिग्रहणार्थाय तदूर्द्ध वा यथेच्छया " ॥ गोदोहकालच मुहर्त्ताष्टमभागः । " पाचम्य च ततः कुर्य्यात् प्रानो हारावलोकनम् । मुहर्त्तास्याष्टमं भागमुद्दोच्यो ह्यतिथिर्भवेत्” ॥ इति मार्कण्डेय पुराणैकवाक्यत्वात् । शातातपः । “प्रियो वा यदि वा द्वेष्यो मूर्खः पण्डित एव वा । सम्प्राप्ते वैश्वदेवान्ते सोऽतिथिः स्वर्गसंक्रमः” ॥ विष्णुपुराणं “स्वाध्याय गोत्रचरणमपृवापि तथा कुलम् । हिरण्यगर्भबुद्धा तं मन्येताभ्यागतं ही For Private And Personal Use Only Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . पाकितत्त्वम् । इति। गोत्र वंशप्रवर्तकमहर्षिरूपम् । चरणं शाला स्मृतिः। “देशं नाम कुलं विद्या पृष्ट्वा योऽन प्रयच्छति। न स तत् फलमानोति दत्त्वा स्वर्ग न गच्छति ॥ मनुः । "न भोजनार्थं खे विप्रः कुलगोत्रे निवेदयेत्। भोजनार्थे हि ते शंसन् वान्तायौत्युच्यते बुधैः” ॥ इति । मार्कण्डेयपुराणम् । "भोजनं हन्तकारं वा अन भिक्षामथापि का। प्रदत्त्वा नैव भोक्ताव्यं यथा विभवमात्मनः ॥ प्रासप्रदानाशिक्षा स्यात् अन ग्रासचतुष्टयम्। अन चतुर्गुणं प्राहुहन्तकारं हिजोसमाः ॥ यासः पलमानमिति नव्यवईमानः। तदानीमतिथ्यलामे तु नित्यत्राधानन्तरं तबोजनमा विष्णुपुराणम्। "पित्रर्थ चापरं विप्रमेकमप्याशयेनप। तद्देश्य विदिताचारसम्भतिं पाञ्चयज्ञिकम् ॥ अवाग्रत समुहत्य हन्तकारोपकल्पितम् । निवापभूतं भूपाल श्रोत्रियायोपकल्पयेत्” । इन्तकारोपकल्पितं हन्तपदेनोत्सृष्टं निवापभूतम् इति पितदानं निवाप: स्यादित्यभिधानात् प्रकते पिटदानासम्भवात् पिटदानसदृशमित्यर्थः। सादृश्यञ्च श्राद्दति कर्त्तव्यतायोगेन स्वधा प्राचीनावौतयोस्तु हन्तकारनिवौतिभ्यां विशेषविहि ताभ्यां प्रागुतज्योतिष्टोमीयश्रुत्या सामागानां प्रत्यङ्ग खत्वस्थ. तरेषामुदन खत्वस्य विधानात् दक्षिणामुखत्वस्यापि निवृत्तिः । निरुपपदस्य नामातिदेशस्वीकारे वैयर्थप्रसङ्गात्। एतदपि बाई न सहकप्रयोगेण कार्यम्। "नित्यवादमदैवं स्यान्मनुष्यैः सह गीयते। तेन देववाहस्थलीयं मनुष्य शाई किन्विदं प्रधानं तेन जौवत् पिटकेण मनुष्यवादमावं कार्य मनुष्याच सनकादयः। तर्पणादौ तथा निर्णयात्। तच्चाा वाहनादिशून्यं तथाच मत्स्यपुराणं "नित्य तावत् प्रवक्ष्यामि पावाहनवर्जितम्। अदैवं तद्विजानीयात् पावणं पवंस For Private And Personal Use Only Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाहियातत्वम् । अतम् ॥ पर्खादिनिषेधानुपपत्त्या पार्वणधर्मातिदेशः । पप्रमस्तु इति निषेधानुपपत्त्या दोक्षणीयादिषु दर्शपौर्णमासातिदेशवत् इति श्राइविवेकः। प्राचारमाधवीयकृतं पार्वणं सहि कोतितमिति चतुर्थचरणे पाठादपि व्यतास्तत्रैवार्थः । लिखितमातूकौँ। “नित्यवाई प्रवक्ष्यामि पिण्डहोमविवजितम्" इति। होमवाधे हुतशेषाङ्गबाधात् पात्रालम्भनबाध इति श्राइविवेकादयः। तथाच व्यासवचनेन अग्नीकरणादिकं प्रत्युक्तं तद्यथा "पावाहनखधाकारपिण्डाम्नीकरणादिकम्। ब्रह्मचयादिनियमं विखान् देवांस्तथैव च ॥ नित्यवाहे त्यजेदेतान् भोज्यमन्त्र प्रकल्पयेत्। दत्त्वा च दक्षिणां शतया नमस्कारैविसर्जयेत् । एकमण्याशयेनित्य घसामप्यन्वहं गृहौ” ॥ इति स्वधाकारः स्वधावाचनं तथाच शातातपः । "पिण्ड निर्वापरहितं यत्त श्राई विधीयते। स्वधावाचनलोपोऽत्र विकिरस्तु न लुप्यते ॥ अक्षय्यदक्षिणा खस्ति सौमनस्य तथास्त्विति ॥ एवं "नित्यवादमदैवं स्यादय पिण्डविवर्जितम्। दक्षिणारहितं ह्येतत् दाभोक्तवतोजितम् ॥ इति काशीखण्डवचनं दक्षिणानिषेधकम् । अशक्तविषयमिति। पार्वणानन्तरं नित्याचे विकल्प उक्तः । मार्कण्डेयपुराणे। “नित्यक्रियां पितृणान्तु केचिदिच्छन्ति सत्तमाः । न पितृणां तथैवान्ये शेष पूर्ववदाचरेत् ॥ एवं नित्य वादमभिधाय विष्णुपुराणम्। "दद्याच भिक्षावितयं परिव्राट ब्रह्मचारिणाम्। खेच्छया तु नरो दद्यात् विभवे सत्यवारितम् । इत्येतेऽतिथयः प्रोक्ताः सम्प्राप्ता भिक्षुकाश्च ये। चतुरः पूजयेनेतान् नृयन्नत् प्रमुच्यते ॥ चकारः पूर्वाक्तातिथिभोजनेन समुच्चयार्थः । सन्यासिभिक्षादाने तु “यतिहस्ते जलं दद्यात् भैक्षं दद्यात् पुनर्जलम्। तदर्भक्ष्य मेरुणा तुत्वं For Private And Personal Use Only Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४२८ श्रहितत्त्वम् । तज्जलं सागरोपमम्” ॥ विष्णुधर्मोत्तरे । “चाण्डाली वा पापो वा शत्रुर्वा पितृघातकः । देशकालात्ययगतो भरणौयो - मतो मम” ॥ इति विष्णुपुराणम् "व्याधितस्यान्रहीनस्य कुटुम्बात् प्रच्युतस्य च । चध्वानं वा प्रपत्रस्य भिक्षाचय्या विधीयते ॥ भव भिचाद्यदाने भोजननिषेधात् मनुष्ययज्ञस्य नित्यत्वाच्च श्रतिथिप्राप्तेरनित्यत्वात् यत्र सिधये ब्राह्मणमात्राय भिचादिदानमावश्यकम् । अतएव बौधायनः । " अहरहब्रह्मणेभ्योऽनं दद्यात् बामूलफलाकेभ्यो अथैवं मनुष्ययज्ञ समाप्नोति” । विष्णुः । भिक्षुकाभावे चाय गोभ्यो दद्यात् अग्नौ वा चिपेत्” इति । विष्णु पुराणम् । " यत्फलं सोमयागेन प्राप्नोति धमवान् द्विजः । सम्यक् पञ्चमहाय दरिद्रस्तदवाप्नुयात् " ॥ प्रकरणे प्रत्यवायमाह व्यासः । “पञ्चयज्ञांच यो मोहान करोति गृहाश्रमी । तस्य मायं न च परलोको भवति धर्मतः " ॥ देवपितृमनुष्यभूतर्षि पूजामभिधाय गोतमः । नित्यं स्वाध्यायं पितृतर्पणञ्च यथोत्साहमन्यदिति" तर्पणब्रह्मयज्ञयोः पूर्वमुक्तयोरपि नित्यमित्यादिना पुनरभिधानं यज्ञ-त्वयानुष्ठानाशक्तावङ्ग-वैकल्येनाप्यनयोरवश्यानुष्ठेयत्वमिति कल्पतरुप्रभृतयः । श्राचाशक्ती केवलान्रोत्सर्गः काय्र्यः तत्राप्य शक्तो द्रव्याभावे वा किञ्चिदनं पावे दत्त्वा षट् पितृनुद्दिश्य इदमन' पितृम्यः स्वधेति दत्त्वाऽपरमत्र पात्र कृत्वा इदमनं मनुष्येभ्यो हन्त इत्युत्सृज्य दद्यात् । I अथ गोग्रासदानम् । ब्रह्मपुराणम् । " सौरभेय्यः सर्वहिताः पवित्राः पुण्यराशयः । प्रतिग्टह्यन्तु मे ग्रासं गावस्त्रे - लोक्यमातरः ॥ दद्यादनेन मन्त्रेण गवां ग्रासं सदैव हि ॥ अत्र सदैव होत्युक्तेर्नित्याधिकारः । महाभारते । " घासमुष्टिं परगवे सा दद्यात्तु यः सदा । चत्वा स्वयमाहारं स्वर्ग For Private And Personal Use Only Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाकितत्त्वम् । लोकं स गच्छति ॥ चत्र फलश्रवणात् काम्याधिकारोऽपोत्याचारदर्शनादयः । wa गोर्टिनभच्यदाने फलातिशयः मन्त्रच उक्तो भविष्ये । "तृणोदकेन संयुक्त यः प्रदद्यावाह्निकम् । कपिलाशतदानस्य फलं विन्देव संशयः ॥ पचभूते शिवे पुण्ये पवित्र सूर्य्यसम्भवे । प्रतौच्छेदं मया दत्तं सौरभेय नमोऽस्तु ते ॥ गवा अहि यमुच्यते तत् गवाहि ४२८ कम् । a अथ भोजनम् । विष्णुपुराणम्। “स केवलमघ' भुङ्क्ते यो भुत त्वतिथिं विना । अघ स केवलं भुङ्क्ते यः पचत्यात्मकारणात्। इन्द्रियप्रौतिजननं वृथा पाकं विवर्जयेत् ॥ तथा " खवासिनो दुःखिगर्भिणौ दृडवालकान् भोजयेत् संस्कृतान प्रथमं चरमं ग्टहौ। अभुक्तवत्सु चैतेषु भुष्नन् भुङ्क्तोऽतिदुष्क्कतम् । मृतश्च नरकं गत्वा श्लेष्मभुग् जायते नरः । अश्वात्वा शोमलं भुङ्क्ते प्रजपौ पूयशोणितम् । अहत्वा च कमिं भुङ्क्ते दत्त्वा विषभोजनम्। संस्कृतावभुमूत्रं बालादिप्रथमं सकृत् ॥ भुव्वतश्च यथा पुंसः पापबन्धो न जायते । इह चारोग्यमतुलं बलवदिस्तथा नृप” ॥ तथा " प्रशस्त रत्नपाणिस्तु भुनौत प्रयतो गृहौ । पत्र' प्रशस्त पध्यक्ष प्रोचितं प्रोक्षणोदकैः । न कुसिताद्धतं नैव जुगुप्सावदसंस्कृतम्” ॥ रत्नान्याह गरुड़पुराणम् । "तेषु रथो विषव्यालव्याधिन्नान्यघडानि च । प्रादुर्भवन्ति रत्नानि तथैव विगुणानि च ॥ वच्च सुता मययः पद्मरागाः समरकताः प्रोक्ताः । अपि चेन्द्रमोलमण्यो वैदूखाः पुष्परागाः ॥ कर्केतन कुछ विल्वो दधिराक्षसमन्वितम् । तथा स्फटिकं विद्रुममणिख यत्नादुद्दिष्ट संग्रहे तज्ज्ञेः ॥ विष्णुपुराणे “मन्त्राभिमन्त्रितं शस्तं न च पर्युषितं नृप । फलमांसभ्यः शुष्कशाकादिकात्तथा ॥ तद्वद्दादरिकेभ्यश्च गुड़ अन्यत्र For Private And Personal Use Only Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४३० श्रह्नितत्त्वम् । पक्केभ्य एव च । भुञ्जीतोड तसाराणि न कदाचिन्नरेश्वर ॥ नाशेषं पुरुषोऽश्रीयादन्यत्र जगतौपते । मध्वन्नदधिसर्पिभ्यः भक्तुभ्यश्च विवेकवान् ॥ श्रीयात्तन्मना भूत्वा पूर्वन्तु मधुरं रसम् । लवणाम्लौ तथा मध्ये कटुतिक्तादिकांस्तथा ॥ प्राग्द्रवं पुरुषोऽवन् वै मध्ये च कठिनाशनः । पुनरन्ते द्रवाशौ तु बलारोग्येण मुष्वति ॥ अनिन्द भचयेदित्यं वाग्यतोऽब्रमकुलयन् । पञ्चग्रासान् महामौनं प्राणाद्याध्ययनाय तत् ॥ मन्त्राभिमन्त्रितमिति मन्त्रानादेशे गायत्रौति वचनात् गायवाभिमन्त्रितम् । गारुड़े “शाकं सूपच्च भूयिष्ठम् अत्यन्नच विवर्जयेत् ॥ न चैकरससेवायां प्रसज्येत कदाचन" ॥ छन्दोगपरिशिष्टम् । “मुनिभिर्हिरशनमुक्त विप्राणां मर्त्यवासिनां नित्यम् । अहनि च तथा तमखिन्यां साईप्रहरयामान्तः " ॥ अहनि अचिरोदितास्तमितसुर्खेत र दिनमात्रे तत्राप्यायुर्वेदीये विशेषः । " याममध्ये न भोक्तव्यं त्रियामन्तु न लङ्घयेत् ॥ याममध्ये रसस्तिष्ठे वियामे तु रसचयः ॥ प्रागुक्तदचवचनात् तत्रापि पञ्चमयामार्दो मुख्यकालः । महामौनं हुङ्कारादिरहितम् । तथा चात्रि: "मौनव्रतं महाकष्टं हुङ्कारेणैव नश्यति । तथा सति महान् दोषस्तस्मात्तु नियतखरेत्” ॥ प्राणादिपदेन वच्यमाणप्राणापान समानोदानव्यानानां क्रमेण तेषां ग्रहणम् । एष क्रमः पौराणिकत्वात् सर्वसाधारणः । विष्णु: । "न तृतीयमथाश्रौयादापद्यपि कदाचन ॥ इति भगवहीतासु । "आयुः सत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धनाः । रम्याः स्निग्धाः स्थिरा हया श्राहाराः साविकप्रियाः ॥ कटुन लवणात्युष्णतीक्ष्णरूक्षविदाहिनः । आहारा राजसस्येष्टा दुःखशोकामयप्रदाः ॥ यातयामं गतरसं पूतिपर्युषितञ्च यत् । उच्छिष्टमपि चामेध्य भोजनं तामसप्रियम्” ॥ महाभारते । For Private And Personal Use Only Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४३१ पातिकतत्वम् । "इन्दुव्रतसहस्रस्तु यश्चरेत् काययोधनम्। पिवेद यथापि गङ्गामस्तस्य साम्यं न यात्यसो ॥ गङ्गामधिकृत्य मस्यपुरा. यम्। "प्रवगाध च पौत्वा च पुनात्यासप्तमं कुलम्"। देवीपुराणम्। “ये चैव मृत्तिकास्तस्मात्तीर्थादाहृत्य भुनते। ते सर्वपापविनिर्मुक्ताः प्रभवन्ति गतामया:" ॥ मनुः। “आयुष्यं प्रा.खो भुत यशस्य दक्षिणामुखः । श्रियः प्रत्यञ्च खो भुङ्क्ते ऋतं भुतो झुद खः" ॥ नियमेवेवम्। अनियमे तु नोदन खः । हारीतः । “नोदन,खोऽनीयात्" इति निष्कामस्य तु प्रान खेनैव यथा देवल: "प्राच खोऽन्नानि भुचौत शुचिपौठमधिष्ठितः। विशुचवदनप्रौतो भुनौत न विदिन,खः” ॥ जीवन्माकस्य दक्षिणामुख त्वनिषेधमाह आपस्तम्बः । “दक्षिणामुखो न भुञ्जीत एवंविधभोजनमना. युथ मातुरुपदिशति"। केचित्तु । “कुहनानं गयात्रा' तिलस्तर्पणमेव च। न जौवत् पिटकः कुर्य्याक्षिणामुखभोजनम् ॥ इत्याचाररबाकरतानौवत् पिढकस्यापि निषेध इत्याहुः । व्यासः । “पञ्चाो भोजनं कुर्यात् प्राव खो मौनमास्थितः । इस्तौ पादौ तथैवास्यमेषु पञ्चा,ता मता ॥ व्यासः। "अप्येकपया नाशीयात् संवृतः वजनैरपि । को हि जानाति किं कस्य प्रच्छन्न पातकं महत् ॥ भस्मास्तम्बजनहारमार्गः पतिश्च भेदयेत्” । जलादिना पनि मैदाकरणे तु शङ्खः । “एकपतयुपविष्टानां विप्राणां सह भोजने। यदोकोऽपि त्यजेत् पानं शेषमन्न विवर्जयेत् ॥ मोहात् भुञ्जौत यः पत्यामुच्छिष्टसहभोजनम्। प्राजापत्यं चरविप्रः क्षत्रः सान्तपनन्तथा ॥ सान्तपनं घहसाध्यमौकपुराणं देयम्। एतजनानकतः सवदिति प्रायश्चित्तविवेकः। एतत् समानार्थमित्यभिधाय गोभिन्नः। “भुञ्जानेषु तु विप्रेषु यस्तु पात्र For Private And Personal Use Only Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४३२ पाकिसतम्। परित्यजेत् । भोजने विघ्नकर्तासो ब्रमहापि तो यते" ॥ पापस्तम्बः। दिवा पुनर्न भुनौतान्यव फलमूलेभ्यः । मनुः । “नातिप्रगे नातिसायं न सायं प्रातराशितः। पतिप्रगेडचिरोहितसूर्य प्रतिसायं सूर्यास्तमितसमय एव प्रातराशितः दिनभोजनेनातिप्तः न सायं न रात्रौ भुनौतेत्यर्थः। पापस्तम्बः। “यस्तु भोजनशालायां भोक्त काम उपस्पृशेत्। पासनस्थो न चान्यत्र म विप्रः पतिदूषकः ॥ भोजनशालायां भोलकामः सन् पासनखो वान्यत्र स्थितो वा न चोपस्शेत् ॥ वौधायनः। “उपलिप्ते समे स्थाने शची सधासमान्विते । चतुरस्र त्रिकोण वर्तुलाईचन्द्रकम् । कर्त्तव्यमानुपूर्वेण ब्राह्मणादिषु मण्डलम् । इति। "प्रकृत्वा मण्डलं ये तु भुनतेऽधमयोनयः। तेषान्तु यक्षरक्षांसि हरयवानि तहलात् ॥ पापस्तम्बः। “भिन्नकांस्ये तु यो विप्रो यदि भुत तु कामतः । उपवासन चेकेन पञ्चगव्येन शहाति” ॥ तथा शूद्रादिभोजनेनापरिष्क तपावे. ऽपि हहमनुः । “ताम्रपावे न भुजौत भिवकांस्ये मलाविले। पलाशपद्मपत्रेषु सही भुनन्दवं चरेत् ॥ नव्यवईमान ताग्निपुराणम्। “अर्कपत्रे तथा पृष्ठे पायसे तात्रभाजने। करे कटके चैव भुला चान्द्रायणचरेत् ॥ पृष्ठे कलिपत्रादिपृष्ठे। पैठौनसिः। "ताबरजतसवर्णाश्मशक्तिस्फटिकानां भिबमभिन्नम्" इति न दोषः। पत्र पाषाणपात्रं भोजने विहितम्। "तेजमानां मणिनाच सर्वस्याश्ममयस्य च । भस्मनाद्भिर्मदा चैव शरिता मनीषिभिः ॥ इति मनुना पाषाणपावस्य शुधिविधानाच। प्रचेताः "ताम्ब लाभ्यन्नने चेव कांस्यपावे च भोजनम्। यतिश्च ब्रह्मचारीच विधवा च विवर्जयेत् ॥ अविः "पासने पादमारोप्य यो भुतो For Private And Personal Use Only Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाङ्गिकतत्वम् । ४३३ ब्राधणः कचित् । मुखेन चानमत्रा ति तुल्यं गोमांसभक्षणैः ॥ मुखेन स्तोत्तोलनं विना। गवादिवदित्यर्थः । श्रावमेधिके "आर्द्रपादस्तु भुञ्जौत प्राङ्मुखश्वासने शुचौ । पादाभ्यां धरणीं स्पृष्ट्वा पादेनैकेन वा पुनः" ॥ बौधायनः। “भोजनं हवनं दानमुपहारः परिग्रहः। वहिर्जानु न कार्याणि तहदाचमनं स्मृतम् ॥ हारीतः । “मार्जनार्चवलिकर्मभोजनानि दैवतीर्थेन कुर्यात् । पराशरभाश्थे वृद्धमनुः । "न पिबन्न च भुनौत हिजः सव्येन पाणिना। नैकहस्तेन च जलं शूदेणावर्जितं पिबेत् ॥ मार्कण्डेयपुराणम् । “पादप्रसारणं कृत्वा न च वेष्टितमस्तक:"। मनुः “पूजयेदशनं नित्य चाद्याञ्चैवमकुमयन्। दृष्ट्वा हृष्येत् प्रसौदेच प्रणमेच्चैव सर्वदा ॥ अन्नं दृष्ट्वा प्रणम्यादी प्राञ्जलिः प्रार्थयेत्ततः । अस्माकं नित्यमस्त्व तदिति भक्त्याथ वन्दयेत् ॥ विष्णुपुराणे । “नागः कूर्म करो देवदत्तो धनत्रयः। वहिस्था वायवः पञ्च तेषां भूमौ प्रदीयते । प्रदत्त्वा वाधवायुभ्यः प्राणादिभ्यो न होमयेत् ॥ इति शिष्टपठितवचनानागादिभ्यो वलिदानमिति प्राचौनाचारः। तत्रान्न देवेभ्यो दत्त्व व भोक्तव्यं तथा च मगवहौतापि। “इष्टान् भीगान् हि वो देवा दास्यन्ते यन्नभाविता: । तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्तस्तेन एव सः” ॥ यः संवद्धिता वो युष्मभ्य भोगाननादौन दृष्ट्यादिहारा दास्यन्ति पतो देवदत्तान् प्रवादीन् तेभ्योऽदत्त्वा यो भुङ्क्त स चौर एव। स्मृति: "निवेद्य प्राशनात् पूर्व देवपादोदकाहुतिः । होतव्या जठरे वह्नो खेन पाणितलेन तु” ॥ तेन पाटीदकेमापोशानं कृत्वा प्राणाहुतिर्नैवेद्य न कार्या। खदत्तनैवेद्यभक्षणन्तु पश्चादुपपादयिष्यते। ब्रह्मपुराणे। “आपोशानच्च गृहौयात सर्वतीर्थमयच्च यत्। अमृतोपस्तरणमसौति वि. For Private And Personal Use Only Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४३४ पातिकतखन् एणोरबमयस्य च ॥ प्रत्र चास्तरणार्थन्तु प्राश्यते. योऽहद सक्तत्। अमृतोपस्तरणमसि स्वाहेति स च उदरेत्” इति । मन्यापद्धती लिखितवचनं प्रमाणयन्तोऽसोत्येतदनन्तरं खाहा. कारं कुर्वन्ति। ब्रह्मपुराणे। “हस्तेन लवयेन्नानं नोदकेन कदाचन। दम्भाद्यो लमयेद भुऑस्तेनानं निहतं भवेत् ॥ इतञ्चाबमभक्ष्यत्वं तस्य याति दुरात्मनः । प्राणेभ्यस्त्वथ पञ्चभ्यः खाहा प्रणवसंयुताः ॥ पञ्चाहुतौस्तु जुहुयात् प्रलयाग्निनिभेषु च ॥ .. प्राणाहुतिमुद्रामाह शौनकः । “तर्जनीमध्यमाङ्गलम्ना प्राणाहुतिर्भवेत्। मध्यमानामिकाङ्गुष्ठेरपाने जुहुयात्ततः ॥ कनिष्ठानामिकाङ्गाने च जहुयाचविः। तर्जनौन्तु वहि. ष्क त्वा उदाने जुहुयात्ततः ॥ समाने सर्वहस्तेन समुदायाहुतिर्भवेत् ॥ स्मात्यर्थसारे। “प्राणाहुतौ कृताभावे पश्चाइौत नो वृतम्" । देवलः । “न भुजौत घृतं नित्यं गृहस्थो भोजनहयम्। पवित्रमय जह्वश्च सर्पिराहुरघापहम् ॥ काशीखण्डं "दर्भपाणिस्तु यो भडते तस्य दोषो न वाधते । केशकौटादिसम्भतस्ततोऽनीयात् सदर्भकः ॥ यावदेवानमश्रीयान्नक्रयात्तद्गुणागुणात्। अतो मौनेन यो भुङ्क्त स भुङ्क्त केवलामृतम्” ॥ मनुः । “स्वाध्यायभोजने चैव दक्षिणं पाणिमुद्धरेत्”। उदरेवस्त्राहिःकुयादित्यर्थः । वौधायनः । "प्राचम्य संवृते देशे उपविश्यान्न संगृह्य सर्वाङ्गलौभिरशब्द. मनोयात्”। संग्टह्य अन्नपात्र सम्यक् स्पृष्ट्वेत्यर्थः। काशीखण्डम्। “प्रदद्याझ्वः पतये भुवनपतये तथा। भूतानां पतये वाहेत्युक्त्वा भूमौ वलित्रयम् ॥ आपोशानं विधानन कत्वानीयात् सुधौईिजः ॥ इति श्रवणादुभयं कर्त्तव्यम् । ब्रह्मपुराणं "तेजोऽसीति जपं स्त्वन्न प्रणमेदसतञ्च यत्। For Private And Personal Use Only Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पातिकतत्त्वम् । ४३५ पापोशानच्च ग्रहीयात् सर्वतीर्थमयञ्च यत्। अमृतोपस्तरणमसौति विष्णोरबमयस्य च ॥ अन्नमयस्य विष्णोर्यदास्तरणमिति विशेषः । ततश्च। तेजोऽसौतिनमस्कृत्य भुनौतेत्यर्थः । भविष्योत्तरे । “मातस्तु वरुणस्तेजो जुह्वतोऽग्निः श्रियं हरेत्। भुञानस्य यमस्त्वायुस्तस्मान व्याहरेचिषु ॥ मौने विशेषमाह। प्रापस्तम्बः । तत्र मौनमुक्तम् । “वविद्यमुनिभिरन्यैराथमिभिर्बहुश्रुतैर्दन्तैर्दन्तान् सन्धायान्तर्मुख एव यावद यावदर्थ भाषेत न मन्त्र लोपो भवतीति विज्ञायते इति” मन्त्रलोपो मौनव्रतलोपः। ब्रह्मपुराणे “यस्तु पाणितले भुत यस्तु हुङ्कारसंयुतः । प्रस्ताङ्गलिभियंस्तु तस्य गोमांसवद्भवेत् ॥ करेण च पिबेत्तोयं यावन्मांसं न भक्षयेत्। मांसलिप्तकरे तोयं तुल्य गोमांसभक्षणम्" ॥ पत्र मांसलिप्तकरेण जलपाननिषेधात् मांसलिप्तकरं प्रक्षाल्यैवापोशनं कत्र्तव्यं प्रत्यापोशाने तु हस्तप्रक्षालननिषेधात् मांसलिप्तकरं प्रक्षाल्य पुनरबलिप्तकरेण प्रत्यापोशानं कर्त्तव्यम् । षट्त्रिंशन्मतम्। “पिवतो यत् पतेत्तीयं भाजने मुखनिःसृतम्। अभक्ष्य तद्भवेदन भुक्ता चान्द्रायणञ्चरेत्। वामपाखें स्थिते तोये यो भुङ्क्त ज्ञानदुर्बलः। प्रासे ग्रासे मलं भुक्ता पानीयं रुधिरं पिबेत्। विद्यमाने तु हस्त तु ब्राह्मणो ज्ञानदुर्बलः ॥ तोयं पिबति वक्त्रण वाऽसौ जायेत नान्यथा। उद्धृत्व वामहस्तेन यत्तीयं पिबति हिजः । सुरापानेन तुल्यं स्वात् मनुराह प्रजापतिः" । वामहस्तेन केवलवामहस्तेन । प्रतएव “पौतशेषन्तु यतोयं तत् पिबेत्र हिजोत्तमः। इति “पौतशेषं पिबेनैव" इति ब्रह्मपुराणात प्रविशेषात् सर्व निषिदम्। ब्रह्मपुराणे। तिलकल्क जलं क्षीर दधि चौद्र तानि च। न त्यजेदई जग्धानि शर्त शाक कदाचन ॥ महाभारते। "पानीयं पायसं सर्पि For Private And Personal Use Only Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४३६ माह्निकतम् । दधिचीरघृतान्यपि । निरश्यं शेषमेतेषां न प्रदेयन्तु कस्वचित् " ॥ एतन्त्र त्याज्यम् अशक्तौ कस्यचित्र देयमित्यर्थः । निरयं निःशेषमशनो यमित्यर्थः । तथा " अनं प्रशस्तं पथ्यञ्च प्रोक्षितं प्रोक्षणोदकैः " । इति प्रागुक्तविष्णुपुराणाद्यतेतर भक्षणदोषमाह मनुः “बालस्यादवदोषाच्च मृत्युर्विप्रान् जिघांसति” । अत्रदोषस्त्रिविधः दृष्टद्दारकः प्रदृष्टद्दारकः दृष्टादृष्टहारकः । दृष्टद्दारक आयुर्वेदोक्तः । श्रदृष्टहारकः स्मृत्युक्तः । उभयोरुतस्तु वालवत्सा-विवस दुग्धादिदोषो दृष्टादृष्टद्दारकः । अतएव मनुनैवोक्तम् । “स्वाध्याये चैव युक्तः स्यात् नित्यमात्महितेषु च । इति युक्तः उद्युक्तः । हारीतः । “पृथक् पानं पुनर्दानमामिषं पायसानि च । दन्तच्छेदनमुष्णञ्च सप्त शक्तषु वर्जयेत्” ॥ आयुर्वेदोक्तद्रव्य गुणा यथा । "व्याधिमिन्द्रियदौर्बल्यं मरणचाधिगच्छति । विरुद्धरसवौय्याणि भुवानो नात्मवान् नरः ॥ शुष्क मांसं स्त्रियो वृद्धा वालार्कस्तरुणं दधि । प्रभाते मैथुनं निद्रा सद्यः प्राणहराणि षट् ” ॥ तरुणं नूतनं बालो विवस्त्रान् दधि नूतनश्चेत्युक्तेः । “रसौ विरुद्द स्वाम्लो कटुनौरस पाकतः । अम्लतिक्तौ कषायामौ रस वौय्यविपाकतः ॥ रक्षेद विषान्नित्यं तत् परोक्षोचते यथा । स्त्रियन्ते मक्षिकाः स्पर्शादन्नं पर्युषितोपमम्” ॥ अथ ऋतु गुणाः । “मासैर्हि संख्यै र्मार्गाद्यैः क्रमात् षड़तवः स्मृताः । हेमन्ते कुपिताद्वायोः खाद्दम्ललवणानुसान् ॥ गोधूमपिष्टमांसेच्क्षुचौरोत्यविकृतिर्भजेत् । नवमन्त्र रसान् तैलं शौचे तप्तोदकं नरः ॥ शक्त्यार्ककिरणान् खेदं पादत्राणञ्च सर्वदा । उष्णस्वभावेर्लघुभिः प्रावृतः शयनं भजेत् ॥ श्रयमेव विधि: कार्यः शिशिरेऽपि विशेषतः । वसन्ते कुपित: श्लेष्मा लग्निमान्य करोत्यतः ॥ तीक्ष्ण वमननस्यादि कवलग्रहमज्ञ्जनम् । For Private And Personal Use Only Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राक्षिकतत्त्वम् । ध्यायामोहसनं धर्म योचे तप्तोदकं भजेत् ॥ पुराणयवगोधमक्षौद्रजाङ्गलमांसभुक् । गुरूणस्निग्धमधुरं दिवाखमञ्च वर्जयेत् ॥ खादुशोतं द्रव स्निग्धमनुपानं सशर्करम् । घृतं पयः सशाल्यन भजन ग्रीष्मे म मौदति ॥ मध्याह्ने गौतले स्वप्यात् निशि वातहिमाश्रिते । लवणाम्ल कटष्णानि व्यायामञ्चार वर्जयेत् ॥ वर्षास्वग्निवले होने कुप्यन्ते पवनादयः। अग्नेः संवईकं द्रव्यं जौणधान्य रसान् लघु ॥ जाङ्गलं पिशितं मुहान दिव्यं कोपं जलं शुचि। वृक्षाबलमणं स्नेहं सशुष्क क्षौद्रमेव च ॥ नदीजलौदनन्वाहःस्वप्नायासातपांस्त्यजेत् । शरदि कुपिते पित्ते विरकं रक्तमोक्षणम् ॥ स्वादुतितकषावेक्षुशालिमुद्रसरोजलम्। तुषारक्षारसौहित्यदधितैलरसातपान् ॥ अन्नतोक्षणदिवास्वप्न प्राचौवातान् विवर्जयेत् । नित्यं सर्वरसास्वादः खखाधिक्य मृतातौ॥ ऋतूनां शेषसप्ताहे सेवितव्यः पराक्रमः। तच नित्य प्रयुञ्जीत स्वास्थ्य येन प्रवर्त्तते ॥ अजातानां विकाराणामनुत्पत्तिकरञ्च यत् । व्यायामादपतर्पणादभिभवाङ्गात् क्षयाजागरात् ॥ बेगानाञ्च विधारणादतिशुचः शैत्यादतित्रासतः । रुक्षक्षोभकषायतिक्त कटुकैरेभिः प्रकोपं व्रजेहायुरिधरागमे परिणते चान्नेऽपराऽपि च ॥ कटम्बोष्णविदाहितीक्षण लवणक्रोधोपवासातपस्त्रीसम्पर्कतिलातसौदधिसुरामूक्तारनालादिभिः। भुङ्क्ते जौर्यति भोजने च शरदि प्रौष्मे सति प्राणिनाम्। मध्याहे च तथाईरान. समये पित्तप्रकोपं ब्रजेत्। गुरुमधुररसातिस्निग्धदुग्धेक्षुभक्ष. द्रवदधिदिननिद्रासूपसर्पिः प्रपूरैः । तुहिनपतनकाले श्लेष्मणः संप्रकोपः। प्रभवति दिवसादो भुक्तमाने वसन्ते। आध्वानस्तम्भरौक्ष्यं स्फुटन विमथनक्षोभकम्पप्रभेदाः। कण्ठध्वंसावसादौ श्रमविलपननंशशूलप्रभेदाः । पारुष्यं कर्णनादो विषय For Private And Personal Use Only Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ४३८ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कितत्त्वम् । निष्पन्दोषहनानि ग्लपनमशयनं परिणतिभ्रंशदृष्टिप्रमेो ताडनं पोड़नञ्च । नामोनामौ विषादभ्रमपरिषदनं जृम्भणं रोमहर्षो विचेपोत्क्षेपशोषग्रहणशुषिरता वेष्टनं वेदनञ्च । वर्ण: श्यामोऽरुणो वा वड़पि च महतो श्रपरिश्लेषशङ्का । विद्यात् कर्माण्यमूनि प्रकुपितमरुतः स्यात् कषायो रसश्च । विस्फोट नकधूमका: प्रलपनं स्वेदश्रुतिर्मर्च्छनम् । दोर्गम्यं दरणं मदोऽभिसरणं पाकोऽरतिस्तृड्वमौ । उष्मा दृतितमः प्रवेशदहन कटुम्लतिक्तारसा वर्ण: पाण्डुविवर्जितः कथितता कर्माणि पित्तस्य वै । दृप्तिस्तन्द्रा गुरुतास्तैमित्यं कठिनता मलाधिक्यं स्नेहापत्त्युपलेपा: शैत्यं कण्डुः प्रसेकश्विर कर्त्तृत्व शोथो निद्राधिक्यं रसौ कटुस्वादू वर्ण: श्वेतो अलसता कर्माणि कफस्य जानीयात् । द्विदोषलिङ्गः संसर्गः सत्रिपातस्त्रिलिङ्गकः । पक्कामयकटौस स्थिश्रवाक्षिस्पर्श ने न्द्रियम् स्थानं वा तस्य तत्रापि पक्काधानं विशेषतः । नाभिरोमाशयः खेदा नासिका रुधिरं रसः ॥ दृक्स्पर्शनञ्च पित्तस्य स्थानं नाभिविशेषतः । रूपालोचनकं दृक्स्थं पक्कामाशयमध्यगम् ॥ पचत्यत्र विभजते रसकिटावतोऽनलः । उरः कण्ठशिरः केशः पर्वाख्यामाशयो रसः । मेदो घ्राणञ्च जिह्वा च कफस्थानमूरः परम् ॥ स्वस्थानस्थो वलौ दोषः प्राक् तं स्वखौषधिर्जयेत। उष्मणोऽल्पबलत्वेन धातुमान्द्यमपाचितम् ॥ दुष्टमामाशयगतं रसमामं प्रचचते । आमेन तेन संस्पृष्ट्वा दोषो दृष्ट्याच दूषिताः ॥ सामा इत्युपदिश्यन्ते ये च रोगास्तदुद्भवाः । रूक्षः शोतो लघुः श्रक्ष्णचलोऽथ विषमोऽनिलः ॥ सखेह मुष्णस्तीक्षण पित्तमम् द्रवं कटु । गुरुः शौतमृदुखिग्धमधुर स्यै व्यक्कृत् कफः ॥ विपरीत गुणैर्द्रव्यैः सर्वदोषः प्रशाम्यति । क्रियायास्तु गुणालाभे क्रियामन्यां प्रयोजयेत् ॥ पूर्वस्यां शान्तरोगार्थं न I 1 For Private And Personal Use Only Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४३८ आङ्गिकतत्त्वम् । क्रियासङ्करोहितः। गुणालाभेऽपि कर्त्तव्या विश्वामान्तरिता किया। अभ्यस्यमानाः क्रमशः प्रयोगा जयन्ति रोगान् वलिनः स्थिरांच" । । पथ षड्रसगुणाः। मधुरः प्रौणनो वल्यो वृंहणोऽनिलपित्ता। रसायनी गुरुः स्निग्धश्चक्षुष्यः शीतलच सः ॥ पायुःकद व्रणहा रुच्यः कण्ठोदावर्तनाशकः । अम्लो रुचिकरी हृद्यः प्रोणनो वङ्गिवईनः ॥ वातहा रसनोहेगी स्निग्धोष्णो रतामांसदः। कटनस्तर्पण: पत्ता लघुव्यापि कटश्च यः ॥ लवणः लोदनस्तीक्ष्णः पाचनीदीपनी रसः । निग्धो रुचिकरः स्वन्दी दृष्टिशलकरोऽगुरुः ॥ कटुर्जिह्वास्य नासाक्षि रेचनो रुचिराङ्गकत्। उष्णस्तौक्षणा लघुः कण्डक्कमिशक्लकफापहः । लघुः शोषौ पङ्तिकरः श्लेमा कर्षणकः पटुः। तित: पित्तकफच्छेदी विषकुष्ठज्वरापहः ॥ दीपनः पाचनो रुक्षः कण्डः कमिहरो लघुः । कषायः शोषकस्तम्भो व्रणग्लानातिनाशनः ॥ कफशोणितपित्तनो रुक्षः शीतो लघुस्त था। शीतलः पित्तहा बल्यः कफवातहरो गुरुः॥ उष्णं पित्तकरो वीर्यो वातश्नेमहगे लघुः। शीतं वीर्येण यद्रव्यं मधुर रसपाकयोः । तयोरम्नं कदुषणञ्च यच्चोष्ण कटुक तयोः। कटुतितकषायाणां विपाक: प्रायसः कटुः। अम्लोष्णं पच्यते स्वादु मधुर लवणं तथा। कटुर्विपाके शुक्रनो वइविडूवातलो लघुः । स्वादुगुरुः सृष्टमलो विपाक कफशकलः। पाकेऽम्नः सृष्टविण्मतपित्तकच्छुक्रकलघुः" ॥ गारड़े। “कटुतितकषायाश्च कोपयक्ति समौरणम्। कष्टम्ललवणाः पित्तं स्वाहम्बलवणाः कफम् । अतएव विपर्यस्ताः समायैषां प्रयोजिताः। चक्षुष्यो मधुरोजेयो रसो धातुविबईनः। स्थौल्यालस्यविषधच कटद्दीपनपाचनः। तथा। For Private And Personal Use Only Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४४० पातिकतखम् । धातुप्रतिमाह। “कषो रक्षोऽल्प केशवलञ्चित्तोऽनव स्थितः। बहुवाक्यो मतः स्वप्न वातप्रकृतिको नरः । अकालपन्तितो गौरः प्रस्खेदी कोपनो बुधः । स्वप्ने दौप्तिमतः प्रेक्षौ पित्तप्रकतिरुच्यते । स्थिरचित्तः सुधष्ट्वाङ्गः स्वपल: स्निग्धमूईजः । स्वप्ने जलाशयालोको श्लेष्म प्रकृतिको नरः । संमित्रलक्षण या वित्रिदोषात्मजा नराः। दोषान्यतरसद्भावेऽप्यधि. कात् प्रकृतिः स्मृता। पानाहारादयो यस्य विरुद्धाः प्रकृते. रपि। मुखित्वायोपकल्पान्ते तत्साम्यमिति कथ्यते। मन्दस्तीक्ष्णोऽतिविषम: समवेति चतुर्विधः । कफपित्तानिलाधिक्यात् तत्साम्याज्जठराऽनलः। समस्य पालन कार्य विषमे वातनिग्रहः। तीक्ष्ण पित्तप्रतीकारी मन्दे श्लेष्मविशोधनम्। प्रभवः सर्वरोगाणाम् अजीर्णञ्चाग्निनाशनम्। दिवा स्वप्न प्रकुर्वीत सर्वाजौर्ण प्रणाशनम् । __अथ धान्यादिगुणाः । “शालयो मधुरा: शीता लघुपाका बलप्रदाः। पित्तनाल्यानिलकरा: स्निग्धा बद्धाल्पवर्चसः । मधुरच्चाम्सपाकञ्च वार्षिक पित्तक्क गुरु । धान्यं शरदग्रीष्मभवं रुक्षञ्च पित्तकद् गुरु । श्यामाकः शोषणो रुक्षो वातल: श्लेष्मपित्तहा। तथा च कॉनौवाराः कोरदूषाः प्रकीर्तिताः" । गारुड़े। “हणाः सामिषा भक्षाः पैष्टिका गुरवः स्मृताः । तैलकताच दृष्टिनास्तीय खिन्नाश्च दुर्जराः। पायसः कफकत्तुल्यः कशरो वातनाशनः । अत्युषणा मण्ड काः पथ्याः शीतला गुरवो मताः। मुगः कषायो मधुरः कफपित्तामजिलघुः। ग्राही शौतः पटः पाके चक्षुष्यो नातिवातलः । मासो बहुमलो वृष्यः स्निग्धोष्णो मधुरो गुरुः । वातनुत्पित्तलो बल्यो मेदमांसकफप्रदः'। गारुड़े। “मसूरो मधुरः शोतः संग्राही कफपित्तनुत् । वर्तुला वातला रक्तपित्तन्ना भिन्नवर्चसः । For Private And Personal Use Only Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रह्निकतत्त्वम् । ४४१ तिलः कषायो मधुरस्तिक्तः पित्तहरो गुरुः । बल्यो मेधाग्निदद्रुघ्नो ग्राहो के श्येोऽनिलापहः । विग्धो बस्योऽल्पमूत्रोष्णो व्रणलेपचितश्च सः । समाधुर्य्यात् तथोष्णाश्च खेहाञ्चानिलनाशनः । कषाय भावान्माधुर्य्यात्तिकत्वाश्चापि पित्तहा । औष्णात् कषायभावाश्च तिक्तत्वाश्च कफे हितः । शूकधान्यं शोधान्य लघु संवत्सरोषितम्” । अथ शाकमुणाः । "पटोलं कफपित्तासृक् ज्वरदुष्टव्रणापहम्। विसर्पणजलव्याधि विदोषाणां विनाशनम् ॥ पटोलपत्र' पित्तघ्न नाड़ी तस्य कफापहा । फलं तस्य त्रिदोषन मूल ं तस्य विरेचकम् ॥ वास्तूकः शक्रलो हृद्यो दोषनुत्पाकतो लघुः । सचारः क्वमिहा मेध्यो रुच्योऽग्निबलवर्द्दनः ॥ वयःसंस्थापनौ ब्राह्मो मेधायुः स्मृतिवर्धिनी । निम्बः पित्तकफच्छर्दिव्रणहृल्लासकुष्ठनुत् ॥ मूलक गुरुविष्टम्भितौ क्षणमामत्रिदोषकत् । तदेव घृतपक्कश्चेत् पित्तनुत् कफवातनुत् ॥ नालौशाकच्च पित्तघ्न' तिक्त मधुरशीतलम् । पिच्छिल गुरुविष्टम्भिकफवातप्रकोपनम् ॥ तच्छुष्कपणें जलयुक् पित्तश्लेष्मकफापहम् । पालङ्गौ कफपित्तघ्नौ रक्षा वातविवर्जिनौ ॥ तण्डुलौयमसृपित्तविषनुत् स्वादुपाकतः । कलायशाकं रूक्षन्तु पित्तश्लेष्मतरं गुरु ॥ कफपित्तहरौ ब्राह्मौ मेधा खरकरी मता । हिलमोचौ सदा तिक्ता कुष्ठघ्नो कफपित्तजित् ॥ पञ्चा ङ्गुलः सरस्सौक्ष्ण आमवातापही लघुः ॥ शाकेषु सर्वे निवसन्ति रोगारोगो हि देहस्य विनाशहेतुः । तस्माद बुधैः शाकविवर्जनञ्च कार्य तथाम्नेषु स एव दोषाः ॥ खिन्न निष्पौड़ितरसं स्नेहाक्तञ्च प्रशस्यते । सर्वं शाकमचाक्षुष्य मनाङ्गेयममैथु 1 शाकमच्चाक्षुष्यमजाङ्केयममैथुनम् । ऋते पटोलवास्तूककाकमाची पुनर्णवाः ॥ वार्त्ताकुरेषा गुणसप्तयुक्ता वह्निप्रदा मारुतनाशिनी च । शक्रप्रदा शोषित For Private And Personal Use Only · Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४४२ चाह्निकतत्त्वम् । वर्द्धिनौ च हृल्लासकाशारुचिनाशिनो च ॥ सा बाला कफपित्तना पक्का सूक्ष्मा च पित्तला । सदा फला विदोषत्रो रक्तपित्तप्रसादिनौ ॥ कुष्माण्डकं पित्तहरं बालं मेध्यं कफा - पहम्। पक्कं लघुष्णं सचारं दौपनं वस्तिशोधनम् ॥ सर्वदोषहरं हृद्यं पथ्यं चेतो विकारिणाम् । कुष्माण्डनालिका गुर्वी शर्करा कफरोगनुत् ॥ सचारा मधुरा रुच्या रुक्षा वातकफापहा । अलावुः शीतला गुर्वी मधुरा 'पित्तनाशिनी ॥ घातश्लेष्मक कक्षा दुर्जरा मलभेदिनी । पलावु नालिका गुर्वी शर्करा कफरोगनुत् ॥ कारवेल्लः स कर्कटो रोचनः कफपित्तनुत् । झिङ्गाकं कफपित्तघ्न गुरुविष्टम्भि वातलम् ॥ वपुषं मूत्रलं रुचं बालं पित्तहरं स्मृतम् । शूरणो दौपनो रुच्यः कफघ्नो विषदो लघुः ॥ विशेषादर्शसां पथ्यो भूकन्दस्त्वतिदोषलः । मानकं स्वादु पित्तच गुरुशोधहरं कटु ॥ कच्ची सदा कटुः सामवातकृत् गुरुपित्तला । कदल्या बलकुन्मलं वातपित्तहरं गुरु ॥ कुमुदोत्पलपद्मानां कन्दा मारुतनाशनाः । कषायाः पित्तशमना विपाके मधुरा इमे ॥ मांसं वातहरं वृष्यं वृंहणं बलवर्धनम् । प्रौणनं गुरुहृद्यञ्च मधुरं रसपाकयोः ॥ मत्स्यास्तु वृंहणाः सर्वे गुरवः शुक्रवर्द्धनाः । बल्या स्निग्धोष्णमधुराः कफपित्तकरा मताः ॥ श्रध्वव्यवायकायामदीप्ताग्नौनाञ्च पूजिताः । वातोद्भवा न वाधन्ते रोगा मत्स्याथिनः सदा । क्षुद्रमत्स्यास्तु लघवो ग्राहिणो ग्रहणौहिताः ॥ अथ लवणगुणाः । " सैन्धवं दौपनं हृद्यं चाक्षुष्यं रोचनं लघु । निग्धं वृष्यं त्रिदोषन मधुरं लवणोत्तम् ॥ सामुद्र मधुरं पाके नात्युष्णमवदाहि च । भेदनं स्रिग्धमोषच्च शूलघ्न नातिपित्तलम् ॥ लोकप्रचारिलवणं पाचनं दीपनं परम् । कफवातक्कमिहरं मेहनं पित्तकोपनम् ॥ पांशुजं तिक्तमुष्णञ्च For Private And Personal Use Only Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाकितत्त्वम् । श्लेष्म पित्तकफापहम् ॥ हिङ्गुतीच्या कटुरसं शूलाजोर्णविबन्धनुत् । लघष्णं पाचनं स्रिग्धं दौपनं कफवातजित् ॥ जोरकं रुचिकृत् हृष्यं गन्धाढ्यं कफवातजित् । पाके तु कटुतीक्ष्णोष्णं लघु पित्ताग्निवर्धनम् ॥ धन्याकं मधुरं हृद्यं रोचनं चक्षुषोहितम् । कषायतिक्तकटुकं खादुशोतसुगन्धि च । काशच्छर्दिवृषा मोहनाशनं वह्निदौपनम् ॥ कफानिलहरं स्वर्यं विरुद्दानाह शूलनुत् । श्रार्द्रकं रोचनं हृद्यं कटूष्णं वृष्यमेव च ॥ कफा - निलहरं स्वयं विद्वानाह शूलनुत् । शठौ तु कफवातन्नौ सस्नेहा लघुदोपनौ ॥ विपाके मधुरा दृष्या कटुका दौपनोपरा । हरिद्रा कफपित्तघ्नो कण्डदुष्टव्रणापहा । पाण्डु शोधापचित् नौहत्वग्दोषविषमेहनुत् । पिप्पली मधुरा दृष्या कटुका atuatur | विाष्णा मारुतश्लेष्म काशश्वासांश्च नाश्रयेत् । भेदनं पिप्पलीमूलं दीपनं कृमिनाशनम् ॥ चविका गजपिप्पल्यौ पिप्पलीगुणवत् स्मृता । मरौचं लघु तोक्ष्णोष्णं रुचं रोचनदौनम् ॥ रसे पाके च कटुकं कफघ्न पित्तकोपनम् । स्वर्य्यं शुक्रहरं काशपोनसश्लेष्मवातजित् ॥ यमानौ कोष्ठशूलघ्नो हृद्या पित्ताग्निकारिणौ । रोचनौ कफवातन्नौ पाचनो कमिनाशिनी ॥ किञ्चिद्दीनगुणा तस्या यमानो क्षेत्रसम्भवा । सर्षपः श्लेष्म पित्तघ्नः सुतीक्ष्णो रक्तपित्तकृत् ॥ रसे पाके कटुग्धिकृमिकुष्ठापहा मतः । गुडुच्युष्णग्राहिबल्या विदोषघ्नौ रसायनो ॥ दौपनी ज्वरटट्छर्दिकामला वातरक्तनुत् । वासकः काशवै स्वरक्तपित्तकफापहः ॥ " ४४३ अथ फलगुणाः । " दाड़िमं हृद्यमम्लोष्णं वातघ्न ग्राहिदोपनम् । वृष्यं कषायमधुरं कफपित्तविरोधि च ॥ कर्कन्धुकोलवदरमस्त्रं वातकफापहम्। पक्कं पित्तानिलहरं स्निग्धास्तु मधुरं रम्। तच्छुष्क कफवातन्न' न च पित्ते विरुद्यति ॥ For Private And Personal Use Only Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४४४ आङ्गिकतत्त्वम्। शुष्कचूर्णन्तु बटर्दिकफघ्न दौपनं लघु। पुराणं बटप्रशमनं श्रमन्नं वदिौपनम् ॥ अाम्म्र वालं रक्तपित्तकरं मध्यन्तु पित्तलम् । पक्क वर्णकरं गच्यं मांसशुक्रवलप्रदम् ॥ पित्तविरोधिवातघ्नं हृद्यं गुर्वग्निदीपनम्। आम्रपेषो कषायोष्णा भेदिनी कफपित्तजित् ॥ कण्टाफलं सुमधुरं कषायं निग्धशोतलम् । दुर्जरं पित्तशमनं श्लेष्मशक्रविवईनम् ॥ कदलं मधुरं हृद्य कषायं नातियौतलम्। रक्तपित्तहरं गच्च वृष्थं श्लेष्मकरं गुरु। मातुलङ्गफलं हृधमन्वं नष्टाम्निदौपनम् । काशवासारुचिहरं कृष्णाघ्नं कण्ठशोधनम् ॥ जम्बौरं मधुरं किञ्चित् अत्यन्नं पित्तकद गुरु। दुर्गन्धिदुर्जरं वडिकफवातविवईनम् ॥ हृष्णाशूलकफोतले शच्छर्दिवासनिवारणम् । तिन्तिड़ोफलकं वालं वातनुत् कफपित्तवत् ॥ पक्कं तत्दीपनं रुक्ष नात्युषणं कफवातनुत् । पानातं तर्पणं रम्यं मधुरं हहणं गुरु ॥ मेहलं श्लेष्मलं शीतं स्निग्धं विष्टभि जौर्यति। विस्वं बालकषायोष्णं पाचनं वदिौपनम् ॥ संग्राहि तितकटकं तीक्ष्ण वातकफापहम् । पक्वं सुगन्धिमधुर दुर्जरं पाहि दोषलम् ॥ फलेषु परिपकोषु षड्गुणं समुदाहृतम् । विल्वादन्यत्र विज्ञेयं विल्वादामं गुणोत्तरम् ॥ कफवातामशूलनी ग्राहिणो विवपेषिको। नारिकेलं गुरुस्निग्ध पित्तनं खादुशोतलम् ॥ बलमांसप्रदं हृद्य वंहणं वस्तिशोधनम् । विशेषतः कोमलनारिकेलं निहन्ति पित्तज्वरपित्तदोषान् । हटवर्दिदाहामयमाशु हन्यात् सपित्तरक्तप्रभवान् विकारान्॥ नारिकेलोदकं पक्कं गुरुविष्टम्भि पिच्छलम्। वातघ्नौ लवणैः पथ्या पित्तनो तसंयुता ॥ नागरेण कर्फ हन्ति सर्वरोगान् गुड़ान्वितान्। शिवा पञ्चरसायुष्या चक्षुष्या लवलोसमा ॥ मेध्योष्णा दौपनी दोषशोथकुष्ठव्रणापड़ा। तहदानौविशेषण अष्था शीतैरवौर्यतः ॥ For Private And Personal Use Only Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चकितत्त्वम् । ४४५ 1 अथ तोयगुणाः । “ श्रनेनापि विना जन्तुः प्राणान् धारयते चिरम् । तोयाभावे पिपासान्तः क्षणात् प्राणैर्विमुच्यते ॥ अजीर्णे भेषजं वारि जोर्णे वारि बलप्रदम् । प्रायुराहारकाले च भुक्तानोपरि नो निशि ॥ तोयं सप्तगुणं प्रोक्त ं स्वच्छं लघु च शीतलम् । सुगन्धिसंसृष्टरसं हृद्यं तृष्णा प्रणाशनम् ॥ पिच्छिलं कमिसंक्लिन्नं पर्णशैवालकर्दमैः । विवर्णं विरसं सान्द्र दुर्गन्ध न हितं जलम् ॥ शोताम्बुमदमूर्च्छन पित्तवर्दिज्वरापहम्। श्रमभ्रमोष्णदा हटट् मदात्ययविषापहम् ॥ उष्णोदकं सदा पथ्यं काशश्वासज्वरार्त्तिम् । कफवातामदोषन्न पित्तलं वस्तिशोधनम् ॥ किनत्ति लेष्मसंघात मारुतच्चापकर्षति । चनौणं नरयत्याशु पौतमुष्णोदकं निशि ॥ कथ्यमानन्तु यत्तोयं निष्फेनं निर्मलं लघु । भवत्यर्द्धावशिष्टन्तु तदुष्णोदकमिष्यते ॥ तत्पादहीनं वातघ्नमर्द्ध होनन्तु पित्तनुत् । कफघ्न पादशेषस्यं पानीयं लघुदोपनम् ॥ धारापातेन विष्टम्भि दुर्जरं पवनापहम् । शृतं शौतं विदोषघ्न वाष्पान्तर्भाविशीतलम् ॥ दिवा तन्तु यत्तोयं रात्रौ तद्ग ुरुतां व्रजेत् । मूर्च्छा पित्तोष्णदाहेषु विषे रक्ते मदात्तये ॥ श्रमक्कमपरौतेषु भ्रमके वमथौ तथा । ऊडगे रक्तपित्ते च शौतमम्भः प्रशस्यते ॥ पार्श्वशूले प्रतिश्याये वातरोगे गलग्रहे । श्रध्वाने स्तिमिते कोष्ठ सद्यः शुद्धे नवज्वरे ॥ हिक्कायां स्नेहपित्ते च शौताम्बु परिवर्जयेत् । अरोचके प्रतिश्याये प्रमेहे प्रयथौ चये ॥ मन्दाग्नावुदरे कोष्ठे ज्वरे नेत्रामये तथा । व्रणे च मधुमेहे च पानीयमम्लमाचरेत् ॥ नारिकेलोदकं वृष्यं स्वादु श्रौतं हिमं गुरु । कृष्णा पित्तानिल हर दौपनं वस्तिशोधनम् ॥ विशेषादग्निवर्णस्य नारिकेलस्य यन्नलम् । तत्पित्तप्रभवान् रोगान् सर्वानेवापकर्षति ॥ बालस्य नारिकेलस्य जलं प्रायो विरेचनम्। नारिकेलाम्ब तरुणं ३८ For Private And Personal Use Only Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४४६ पातिकतत्वम् । तृष्णानं पिसनाशनम् ॥ नारिकेलजलं जीर्ण विष्टम्भि गुरु पिच्छिलम् ॥ अथ चौरगुणाः। “चौरं स्वादुरसं स्निग्धमौजस्यं धातु. वईनम्। वातपित्तहरं वृष्यं श्लेष्मलं गुरु शौतलम् ॥ गोक्षौर जीवनं वल्यं रक्तपित्तानिलापहम्। प्रायुष्थं पुंस्त्वकत् पथ्यं हृद्यं मेध्यं रसायनम् ॥ माहिषं निग्धमत्वथं मधुरं शीतलं गुरु। निद्राकराभिवष्यञ्च स्वादु वद्धिविनाशनम् ॥ शृतोष्ण कफवातघ्नं तं मौतन्तु पित्तनुत्। पाममामकरं प्रोकं कवोणमस्तं पयः ॥ शर्कराक्षौद्रसर्पिभियुक्तं वृष्यं बलप्रदम् । नष्टुग्ध वातहरं दुर्जरं रुक्षमेव च ॥ चौरसन्तानिका खिग्धा वृथा पित्तानिलापहा। वज्यं सलवणं क्षौरं यच्च विथितं भवेत् ॥ विवत्माबालवमानां पयो दोषलमोरितम्" ॥ .. अथ दधिगुणाः । “गव्यं दधि तु वासघ्न माङ्गल्यं शुचिरोचनम् । सिग्ध विपाके मधुरं दीपनं बलवईनम् ॥ माहिथं दध्यतिस्निग्ध रक्तपित्तप्रसाधनम्। विपाके मधुरं वृष्य कफद्धिकरं गुरु ॥ दधि यत् स्वादु तन्मेदः कफाभिन्दिकारणम् । दध्यम्नमतियद्रक्तदूषणं कफपित्तनुत् ॥ विदाहिमृष्टविण्मत्रं मन्दं जातं त्रिदोषकत्। पौनासे चातिसार च शोतके विषमज्वर ॥ अरुचौ मूत्र कच्छच काय च दधि शस्यते। शरदग्रोष्मवसन्तेषु प्रायशो दधि गर्हितम् ॥ हेमन्ते शिशिरे चैव वर्षासु दधि शस्यते। रतपित्तविकारेषु कफो. स्थेषु न तद्धितम् ॥ न नक्तं दधि भुजौत न चाम्यवृतशर्करम् । यथा तथा शृतात् चोरात् जातं तत्र गुणोत्तरम्। वातपित्त हरं वृष्य धात्वग्निबलवईनम् ॥ अथ तक्रगुणाः। “तकं लघु कषायाम्नं दीपनं कफवातजित्। शोथोदरारुचिप्लौहरोगातॊ ग्रहणी गदः ॥ मूवग्रह For Private And Personal Use Only Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाङ्गिकतत्वम् । ४४७ तव्यापि ज्वरपार्खा मयान् जयेत्। ससारं निर्जलं घोलं तक पादजलान्वितम् । पर्बोदकमुदखित् स्यात् मथितं जलवर्जितम्। पौनसखासकाशादौ सिद्धमेव तदिष्यते ॥ घोलं पित्तानिलहरं तक दोषत्रयापदम्। उदवित् श्रेष्मलञ्चैव मथितं कफपित्तनुत् ॥ सक्रमामं कर्फ कोष्ठे हन्ति कण्ठगदानपि। न तु तक कफे दद्यात् नोष्मकाले न दुर्बले ॥ नो मूत्रिमदाहेषु न रोगे रक्तपैत्तिके। शीतकालेऽग्निमान्ये च कर्णोत्थेष्वामयेषु च ॥ मार्गावरोधे दुष्टे च वायौ तक प्रशस्यते। वातेऽम्नं सैन्धवोपेतं पित्त वाटु सशर्करम् । पिबे. तक कफे चापि क्षारविकटुसंयुतम् ॥ अथ एतगुणाः । “एतं सहस्रवीयं स्यात् बुद्धिवीर्यसहस्रकत्। सर्वस्नेहोत्तरं शोतं मधुरं रसपाकयोः ॥ वातपित्तरमोन्मादशोथाल मौज्वरापहम् । स्मृतिबुद्धाग्निशुक्रोजः कफभदोविवईनम् ॥ गव्यं कृतं कृतश्रेष्ठं चाक्षुष्यं बलवईनम् । विपाके मधुरं भौतं वातपित्तविषापहम् ॥ माहिषञ्च तं खादु मधुरं शौतलं गुरु । वातपित्तप्रशमनं कफवत् रक्तपित्तनुत् ॥ - अधेवादिगुणाः । “इक्षवो रक्तपित्तना वख्या वृथाः कफप्रदाः। विपाके मधुराः स्निग्धा गुरषो मूत्रलाः पराः ॥ गुड़ो वृष्यो गुरुः स्निग्धो वातघ्नो मूत्रशोधनः । नाप्तिपित्तकरी मेदः कफबिलप्रदः ॥ गुड़: पुराणोऽधिगुणो वातहा सूक् प्रसाधनः। पित्तनो मधुरः स्निग्धो वल्यः पथ्यो विशेषतः ॥ खण्डं वृष्यतमं वृष्यं चाक्षुथं हहणं महत् । वातपित्तहरं शोतं स्निग्ध हृद्यं सुखप्रदम् ॥ शर्करा ज्वरपित्तामुक् मूर्छा कर्दितषापहा ॥ मधु स्वादु रसं शीतं व्रणशोधनरोचनम् । कषा. याम्लरसं बल्यं रूक्षं दीपनरोचनम् ॥ कषायाम्बरसं तैलं लक्षणमुष्णं व्यवायि च। पित्तलं बहुविण्म वन च श्लेष्माभि For Private And Personal Use Only Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आङ्गिकतत्त्वम् । वईनम् ॥ वातघ्ने षत्तमं बल्यं रक्ष मेधाग्निवईनम्। छिन. भित्रच्युतोऽपिष्टकथितक्षतपिच्छिले ॥ भग्नस्फुटितविद्याग्निदग्धविश्लिष्टदारिते। तथा विहितनिर्भग्ने मृगव्याड़ादिभिः क्षते ॥ सैकाभ्यङ्गावगाहेषु तिलतैलं प्रशस्यते । वर्जयेत् पयसा खिन मत्स्यमांसमनपजम् ॥ वल्लोफलमकुष्मागहमर्जन्य फलादृते । मांसं मूलकसंसिद्ध ते मधु समांसके ॥ मत्स्यानि क्षुरिकारेण क्षौद्रमुष्णेन वारिणा। पुनरुणोकवचान घृतं कांस्ये दशाहिकम् ॥ दना तक्रेण पयसा तालस्यापि फलेन च। विरोधात्रैव भुनौत मतिमान् कदलीफलम् ॥ श्रुतिः "विरुद्धाशनजान् रोगान् प्रतिहन्ति विरेचनम्। वमनं शयनं वापि पूर्व वाहितभोजनम् ॥ शाम्येताल्पतया वापि दीप्ताग्नेस्तरुणस्य च। स्निग्धव्यायामबलिनां विरुद्ध वितथं भवेत् ॥ अदृष्टहारदोषास्तु जायन्ते पापिनामिह" ॥ आलस्यादनदोषादित्यनन्तरं मनुरप्याह। “लशनं रच्चनचैव पलाण्डं करकाणि च। अभक्ष्याणि हिजातोनाममेध्यप्रभवाणि च ॥ करकं छत्राकः अमेध्यप्रभवाणि विष्ठादिजातानि। "वृधा कषरसं यावपयसा पूपमेव च। अनुपातमांसानि देवान्नानि इवींषि च” ॥ वृधति देवतायनुद्देशेन आत्मा) यत् पच्यते। क्लषरमाह छन्दोगपरिशिष्टम् । “तिल तण्डु स्वसंपक्कः कषरः सोऽभिधीयते”। संयावो इतक्षौरगुड़गोधमादिचर्णसिद्धः । अनुपालतमांसानि। मन्त्रावतसंस्कृतमांसानि देवानानि यानि देवतानैवेद्यार्थमन्त्रानि तानि। हवींषि पुरोडासादौनि प्राक् होमात्। “पनिर्दशाया गोःक्षौरमौष्टमैकशफन्तथा। प्राविकं सन्धिनौ क्षौरं विवसायाच गोःपयः॥ प्रारण्यानाञ्च सर्वेषां मृगाणां महिषों विना। स्त्रौदौरञ्चैव वानि सक सूतानि चैव हि ॥ दधिभक्ष्यञ्च शुक्तेषु सर्वच दधिसम्भवम् । For Private And Personal Use Only Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पातिकतत्वम् । ४४४ थानि चैवाभिसूयन्ते पुष्पमूलफलैः शुभैः ॥ भनिर्दशायाः प्रसवानन्तरमनिर्गतदशाहाया: गोरिति छागमहिषोपलक्षम्। तथाच यमः। “पनिर्दशायागोःचौरमा माहिषमेव च ॥ एकशफमवाद्येकखुरसम्बन्धित्वात् सन्धिनी या ऋतुमती वृषमिच्छन्ति तस्याः सम्बन्धि। विवसायाश्च वत्सग्रहणादेव मोर्लाभे गोग्रहणं गोरेव न त्वजामहिष्योः। मृगाणामिति महिषप्रतिप्रसवात् पशुमात्रपरम्। शुक्तानि स्वभावतो मधुररसानि कालवशात् अम्लतां गतानि दधिसम्भवं तक्रादि । अभिसूयन्ते सन्धौयन्ते। शुभैर्मोहादिविकाराजनकैः । तथाच वृहस्पतिः। “कन्दमूलफलैः पुष्पः शस्तैः शक्तरसन्तु यत् । अविकारि भवेन्मेध्यमभक्ष्य हिकारतत् ॥ मनुः । “मत्यादः सर्वमांसादः तस्मान्मत्स्यान् विवज येत्। पाठौनरोहितावाद्यौ नियुक्ती हव्यकव्ययोः ॥ राजोवाः सिंहतुण्डाश्च सशल्फांश्चैव सर्वशः। सामान्यतः प्रवच्यामि विधि भक्षणवर्जने ॥ प्रोनित भक्षयेन्मासं ब्राह्मणानान्तु काम्यया। यथाविधिनियुक्तक्ष प्राणानामेव चात्यये ॥ प्राणस्थानमिदं सर्व प्रजापतिरकल्पयत् । जङ्गमं स्थावरचैव सर्व प्राणस्य भोजनम् ॥ क्रौत्वा स्वयं वाप्युत्पाद्य परोपकतमेव वा। देवान् पित चाचयित्वा खादन् मांसं न दुष्यति ॥ नाद्यादविधिना मांसं विधिज्ञो नापदि द्विजः । नियुक्तश्च यथा न्यायं यो मांसं नात्तिमानवः । स प्रेत्य पशुतां याति सम्भवानेकविंशतिम् ॥ प्रोक्षितं मन्चकातप्रोक्षणाख्यसंस्कारयुतं यज्ञहतपशुमांसविशिष्ट यनाङ्गत्वेन तदभक्ष्यम्। तथाच तत्रैवोक्तम् । “मन्वैस्तु संस्कृतानद्यात् शाश्वतं विधिना स्थितः ॥ इति आरखानां प्रोक्षितस्वमगस्त्येन तम्। तथाच महाभारते। “भारण्याः सर्वदैवत्याः प्रोचिताः सर्वशो मृगाः। अगस्त्य न पुरा राजन् मृगया येन For Private And Personal Use Only Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४५० आङ्गिकतत्त्वम् । पूज्यते ॥ ब्राह्मणकाम्ययात्वेकवारं यथाविधि नियुक्तः श्राहा. दाविति शेषः। तथाच यमः। “भक्षयेत् प्रोधितं मांसं सकृत् ब्राह्मणकाम्यया। दैवे नियुक्तः श्राई वा नियमे तु विवर्जयेत्” ॥ नियमे शास्त्रान्तरनिषिद्धतत्कालमांसभक्षणे । अतएव नियुक्तस्त्विति मनुवचनं तत्कालौनानिषिद्धमांसाभुगविषयमिति प्रायश्चित्तविवेकः । प्रेत्य परलोके। याज्ञवल्काः । "वसेत् स नरके घोरे दिनानि पशुरोमभिः। सम्मितानि दुराचारो यो हन्यविधिना पशून ॥ सर्वान् कामानवाप्नोति इयमेधफलं तथा। रहेऽपि निवसन् विप्रो मुनिमांसस्य वर्जनात् ॥ मनुः । *वर्षे वर्षेऽखमेधेन यो यजेत शतं समाः। मांसानि न तु खादेटु यस्तयोः पुण्यफलं समम् ॥ नारदोये । “न मत्स्य भक्षयेन्मासं न कौम्यं नान्यदेव हि। चण्डालो जायते राजन् कार्तिके मांसभक्षणात्" ॥ महाभारते। “कौमुदन्तु विशेषण शुक्लपक्षं नराधिप। वर्जयेत् सर्वमांसानि धर्मस्तत्र विधीयते ॥ कौमुदं कार्तिकम् । कार्तिकमधिकृत्य ब्रह्मपुराणे । “कार्तिकमासतत् शुक्लपचतदेकादश्यादिपञ्चदिनानि शताशतभेदात् पापतारतम्याहा निषिद्धानि"। भविष्थे। “प्रामिषं रत शाकञ्च यो भुङ्क्त च रवैर्दिने। सप्तजन्म भवेत् कुष्ठौ दरिद्रश्चोपजायते ॥ विष्णुपुराणे । “चतुर्दश्यष्टमी चैव अमावास्याथ पूर्णिमा। पर्वाण्येतानि राजेन्द्र रविसंक्रान्तिरेव च ॥ स्त्रौतेलमांससम्भोगो पर्वस्खेतेषु वै पुमान्। विएम नभोजनं नाम नरकं प्रतिपद्यते” ॥ अव यद्यपि संक्रान्तिपदेन पुण्य कालो लक्ष्यते तथापि। “अष्टम्यां पक्षयोरन्ते रविसंक्रान्तिवासरे। पक्षोपान्ते स्त्रियं तैलं मौनञ्च परिवर्जयेत् ॥ इति ब्रह्मपुराणात् वासरपदग्रहणात् पुण्य कालोपलचितदिन एव For Private And Personal Use Only Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४५१ पातिकतत्त्वम् । निषेधः । विष्णुपुराणवचनमपि तत्पुण्यकालीपलक्षिततहिनपरम्। अन्यथा वासरपदवैयपित्तेः। राजमार्तण्डे भोजराजधृतम्। “अईराबादधवेत् स्यात् तस्मिन्बेवाहनि क्रिया । जल संक्रमणे भानोरपरऽहनि तत् क्रिया" ॥ इति वचनात् सञ्चारक्षणावच्छिन्नपूर्वापरदिनाई पुण्य कालोपलक्षित-दिनपरमपोति। स्त्रियास्तु पशुमांसभक्षणनिषेधमाह श्रीभागवते गद्यम्। “ये विह वै पुरुषाः पुरुषमेधेन जयन्ते याच स्त्रियो नृपशून् खादन्ति तांस ताच ते पशव इह निहता यमसदने यातयन्तो रक्षो गणाः शैनिका इव स्वधितिनाऽवदायासक् पिबन्ति” इति स्वधितिना कुठारेण अवदाय खण्डयित्वा मनुः। “मत्त क्रुडातुराणाञ्च न भुञ्जौत कदाचन । केशकौटावपन्नञ्च पदा स्पृष्टच कामतः ॥ भ्रूणनावेक्षितञ्चैव संस्पृष्टचाप्युद क्यया। पतत्रिणावलौढच शना संस्पृष्टमेव च ॥ गवा चानमुपध्रातं स्पृष्टानञ्च विशेषतः । गणान्नं गणिकावञ्च विदुषा च जुगुप्सितम् ॥ शूक्त पर्युषितं चैक शूद्रोच्छिष्टन्तथैव च । स्तेन गायनयोश्चैव तक्ष्णो वर्वार्द्ध षिकस्य च ॥ चिकित्सकस्य मृगयोः करस्योच्छिष्टभोजिनः। उग्रानं सूतिकानञ्च पर्या चान्तमनिर्दशम् ॥ अनर्चितं वृथामांसमवीरायाश्च योषितः । हिषदन्न नगर्यब पतितानमवक्षुतम् ॥ पिशुनावृतिनोश्वान क्रतुविक्रयिणस्तथा। मृष्यन्ति ये चोपपतिं स्वौनितानाच सर्वशः ॥ अनिर्दशश्च प्रेतान्नं अतुष्टिकरमेव च। राजान्न तेज पादत्ते शूद्रानं ब्रह्मवर्चसम्॥ प्रायुःसुवर्णकारान्न यशश्वविकर्तिनः । विष्ठा वाईषिकस्यानं शस्त्रविक्रयिणो मलम् ॥ भुवा चान्यतमस्याबममत्या क्षपणं हम। मत्या भुत्ता चरेत् कच्छ रेतो विगमूत्रमेव च ॥ नाद्यात् शूदस्य पक्वान्नं विहानवाधिनो दिजः । आददौताममेवास्मादत्तावकरात्रि For Private And Personal Use Only Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४५२ पाङ्गिकतत्त्वम् । कम्” ॥ केशकौटावपञ्च केश कौटसंसर्गदुष्टम्। कामत इति इच्छातः। भ्रूणनावेक्षित पसितष्टम्। उदक्यया रजख. लया। पतत्रिणावलौढ़ काकादिना भक्षितं घुष्टानं के के भोक्तार इत्युक्त्वा सत्रादौ यहीयते तदव पर्युषितं रानान्तरितं तत्त मेहात भत्यमाह मनुः । “यत्किञ्चित् स्नेहसंयुक्त भश्यभोज्यमगर्हितम्। तत्पर्युषितमप्यावं हवि: शेषञ्च यनक्षेत्' ॥ विशेषमाह स एव । “चिरसंस्थितमप्याद्यं सने हा. तमपि हिजैः। यवगोधमजं सर्व पयसाच्चैव विक्रिया' ॥ उच्छिष्टं भुक्तावशिष्टं मृगयोाधस्य वाईषिकस्य “समय मूल्यमादाय महायं यः प्रयच्छति । सूतिकानं सूतिकाभोजनमुद्दिश्य यत् क्रियते तत् कुलजैरपि न भोक्तव्यं पयाचान्तम् एकपक्तिस्थे भुज्यमाने यदि कश्चिदाचमनं करोति तदनम्। अनिदशं जननाशौचान्न अनर्चितमवजया दत्तं वृथामांसं देवपित्रुद्दे शेन यन्त्र कृतम्। प्रवीरायाः पतिपुत्रविहीनया योषितः इत्युपदानात् स्त्रौत्वमात्रेणेवासम्बन्धिन्यानिषेधो न तु पितामह्यादिसम्बन्धिन्या अपि प्रायश्चित्तविवेकोऽप्येवम् । नगयन नगराधिपान नगराधिपतेश्चैवेति ब्रह्मपुराणात्। अवक्षुतम् उपरिकतक्षुतम्। अनिर्दशञ्च प्रेतान्नं मृता शौचनम् पादत्ते नाशयति दोषाभिधानाद्भक्षणनिषेधः कल्पाते ब्रह्मवर्चसम् अध्ययनादिनिमित्ततेजः अमत्या अज्ञानेन वाहं क्षपणम् उपवास:। कच्छ्रप्राजापत्यवतम् । अश्रादिनः शाहपञ्चयज्ञशून्यस्य प्रवृत्ती अर्थान्तराभावे ऐकरात्रिकम् एकरात्रिनिर्वाहोचितम् प्राममन्न दत्तमपि भोजनकाले तद् रहावस्थितं शूट्रान्नम्। तथा चाङ्गिराः। “शूद्वेश्मनि विप्रेण क्षौरं वा यदि वा दधि। निवृत्तेन न भोक्तव्य शूद्रात्र तदपि स्मृतम्" ॥ निवृत्तेन शूद्राबानिवृत्तेन अपिशब्दात् For Private And Personal Use Only Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाक्षिकतत्वम्। ४५३ साक्षात् ततण्डुलादिखग्रहागते। पुनरनिराः। “यथा यातस्ततो याप: शादियान्ति नदीं गताः । शूद्राहिप्रहेष्वनं प्रविष्टन्तु सदा शुचि" ॥ प्रविष्टेऽपि स्वीकारापेक्षामाह पराशरः। “तावद्भवति शूद्रान यावन स्पृशति हिजः। द्विजातिकरसंस्पृष्टं सर्व तहविरुचते” ॥ स्पृशति ग्रह्णातीति कल्पतरुः । तञ्च संप्रोच्य ग्राह्यमा विष्णुपुराणम्। “संप्रोक्षयित्वा सतौयात् शूद्रात्र गहमागतम्”। तच पात्रान्तरेण ग्राह्यमाहाङ्गिराः । "खपात्रे यच्च विन्यस्त दुग्ध यच्छति नित्यशः । पावान्तरगतं प्राचं दुग्ध वराह पागतम् ॥ एतेषु खप्रह आगतस्यैव शुद्धल्वं तदहगतस्य शूद्राबदोषभागित्व प्रती. यते। वृहबारदीये। “य: शूट्रेण समाहतो भोजनं कुरुते हिजः। सुरापोति स विज्ञ यः सर्वधर्मवहिष्कतः ॥ यः शूटेपाभ्यनुज्ञातः कुर्यादा भोजनं द्विजः। सुरापोति स विज्ञ यः सर्वधर्मवहिष्कृतः ॥ यः शूद्रेणाचित लिङ्ग विणं वापि नमेन्बरः। स सर्वयातनाभोगी यावदाहतसंशवम् ॥ योषिद्भिः पूजित लिङ्ग विष्णुं वापि नमेत्तु यः। स कोटि कुल संयुक्त प्राकल्प रौरवे वसेत्” ॥ स्मृतिः। “कुष्माण्डे चार्थहानिः स्थात् वृहत्यां न स्मरेडरिम्। बहुशत्रुः पटोले स्यात् धन हानिस्तु मूल के ॥ कलङ्को जायते विल्वे तिय्यंग्योनिश्च निम्बके । ताले शरीरनाश: स्याबारिकेले च मूर्खता । तुम्बौ गोमांसतुल्या स्यात् कलम्बौ गोवधात्मिका। शिम्बो पापकरौ प्रोता पूतिका ब्रह्मघातिका॥ वार्ताको सुतहानि: स्थाञ्चिररोगौ च माषके। महापापकर मांस प्रतिपदादिषु वर्जयेत् ॥ तत्र सप्तम्यामेव तालनिषेधादन्यत्र भक्षण प्राप्तम् । अत: "ताल खेताच वार्ताकी न खाटेवैष्णवो नरः" । इत्यनेन तालमपि श्वेत निषि साहचर्येण खेतानुसङ्गात्। एवम् For Private And Personal Use Only Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४५४ आह्निकतत्त्वम् । "अलावं वर्तुलाकारां वात्तीकों कुन्दसत्रिभाम् ॥ इति यदवि "कुसुम्भ नालिकाशाक वृन्ताक पूतिकान्तथा । भक्षयन् पतितस्तु स्यादपि वेदान्तमो द्विजः ॥ इत्युशनसा सामान्यतोऽभिहि तम् । तत्र नालिका खेतकलखो। पूतिका हादयामधिकदोषाय शूद्रविषयिका वा इति कल्पतरुः । शङ्खः "वाग्दुष्ट' भावदुष्टष्ठ भाजने भावदूषिते । भुक्तान्नं ब्राह्मणः पश्चात् त्रिरात्रञ्च व्रतौ भवेत् ॥ एतदभ्यासे । व्रतौ यावकेन । मनुः । “वोणि देवाः पवित्राणि ब्राह्मणानामकल्पयन् । श्रट्टष्टमद्भिर्निर्निक्तं यच्च वाचा प्रशस्यते” | अदृष्टमुपघातशङ्काभिरज्ञातम् । “अज्ञातच मदा शुचि" इति याज्ञवल्को कवाक्यत्वात्। वाचेति उपसंघातशङ्कायां पवित्रं भवत्विति ब्राह्मणैर्वाचा यत् प्रशस्यते इति दौपकलिका कुल्लूकभट्टौ । शातातपः । " गोकुले कन्दुशालायां तैलयन्त्रेक्षुयन्त्वयोः । श्रमौ मांस्यानि शोचानि स्त्रौषु बाला तुरेषु च ॥ श्रमौ मांस्यानि शौचाशौचभागितया न विचाय्याणि कन्दुशालायां लाजाद्यर्थं धान्यादिभर्जनशालायां बौधायनः । “अदुष्टासन्तताधारा वातोडूताय रेणवः । आकराः शुचयः सर्वे वर्जयित्वा सुराकरम्" ॥ परार्द्धमत्रिसुनरपि । यमः । " अजा गावो महिष्यश्च ब्राह्मणौ च प्रसूतिका । दशरावण शुध्यन्ति भूमिष्ठञ्च नवोदकम् ॥ ब्रह्मपुराणम् । "नवखातजलं गावा महिषश्वागयोनयः । शान्ति दिवसेंरेव दशभिर्नात्र संशयः” ॥ स्मृतिः । “ काले नवोदकं शुङ्घ न पातव्यन्तु तत्त्रग्रहम् । अकाले तु दशाहं स्यात् पौत्वा नाद्यादहर्निशम् ” ॥ काले वर्षाकाले । शङ्खः । " स्थानमाचमनं दानं देवतापितृतर्पणम् । शूद्रोदकैर्न कुर्वीत तथा मेघादिनिःसृतैः” ॥ पानादौतरस्पर्धादी हरिवंशः । " प्रभोममम्भा विसृजन्ति मेघाः पूतं पवित्र पवनैः सुगन्धि" । शङ्क For Private And Personal Use Only Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रकितत्त्वम् । ४५५ लिखितौ । "भाकरद्रव्याणि प्रोक्षितानि शचीनि इति यमः । “श्राममांसं घृतं चौद्रं स्नेहाच फलसम्भवाः । म्लेच्छभाण्डस्थिता दुष्या निष्क्रान्ताः शुचयः स्मृताः ॥ विष्णुधर्मोतरे । "मुखवर्जञ्च गौः शुद्धा मार्जारः क्रमणे शुचिः । पुष्पाणाञ्च फलानाञ्च प्रोक्षणात् शब्धिरिष्यते" ॥ अत्रिः । " मक्षिका: मन्तता धारा भूमिस्तोयं हुताशनः । मार्जारचापि दव च मारुतश्च सदा शुचिः ॥ चाण्डालेन शुना वापि दृष्टं हवि रयज्ञियम् । विडालादिभिरुच्छिष्टं दुष्टमत्र ं विवर्जयेत् ॥ अन्यत्र हिरण्योदकस्पर्शात्” इति शातातष: " तापनं घृततैलानां प्लावनं गोरसस्य च । तन्मात्रमुद्धृतं शुद्द ेत् कठिनन्तु यो दधि ॥ श्रविलीनं तथा सर्पिर्विलोनं पयेन तु ॥ मनुः । “द्रव्याणाञ्चैव सर्वेषां शुद्धिरुत्पवनं स्मृतम्” । उत्पवनं वस्त्रान्तरितनिर्वापणेन केशकोटाद्यपनयनम् । शातातप: । “क्लौवाभिशप्तपतितैः सूतिकोदकानास्तिकैः । दृष्टं वा स्याद यदन्नन्तु तस्य निष्कृतिरुच्यते ॥ प्रभ्युच्य किञ्चिदुद्द त्य भुजौताप्यविशङ्कितः” ॥ शुचिरित्यनुवृत्तौ विष्णुः । " गुड़ानामिक्षुविकाराणां प्रभूतानां वायुग्निदानेन सर्वलवणानाच " इति ब्रह्मपुराणम् । " चाण्डालपतिता मेध्यैः कुनखैः कुष्टिना तथा । ब्रह्मघ्न सूतिकोदक्या कौलेयक कुटुम्बिभिः ॥ दृष्टं वा केशकौटात मृङ्गस्मकनकाम्ब ुभिः । शुद्धमद्यात् सहृल्लेखं प्रभूतं घुष्टमेव च " ॥ कौलेयकः श्वा कुटुम्बौ प्राणिविशेषः । सहल्लेख विचिकित्सितमन्न घुष्टं पर्युषितम् । तथा ब्रह्मपुराणम् । " विचिकित्सा तु हृदये यमिव प्रजायते । सहलेखन्तु विज्ञेयं पुरीषन्तु स्वभावतः " ॥ मत्स्यसूक्ते । "अनिवेद्य न भोक्तव्यं मत्स्यं मांसञ्च यद्भवेत् । श्रनं विष्ठा पयो मूत्र यद्दिष्णोरनिवेदितम् ॥ अनेन स्वयं भोज्यमन्त्रादिदेयमित्युक्तं For Private And Personal Use Only Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाङ्गिकतत्त्वम् । "नाभक्ष्यं नैवेद्यार्थे भक्षेष्वजामहिषोधोरं विवर्जयेत् पञ्चनख. मत्स्यवराहमांसानि चेति” विष्णुवचने तु पनेवंविधं निषिदमित्यविरोधः । अतएवायोध्याकाण्डे श्रीरामवाक्यम् । “यदनः पुरुषो नन तदवास्तस्य देवताः” इति । खदत्तस्यापि भक्षणमाह श्रीभागवते । “निवेदितं महताय दद्याडुलौत वा खयम्” । फलमण्याह “उहास्य देवं स्खे धानि तनिवेदितमग्रतः ॥ अद्यादात्मविशयर्थं सर्वकामसमृहये" ॥ उहास्यानीय खे धानि हृदये । “वयोपयुक्तासगन्धवासोऽलङ्कारचर्चिता। उच्छिष्टभोजिनोदासास्तव मायां जये महि। हदिरूपं मुखे नाम नैवेद्यमुदरे हरेः। पादोदकञ्च निर्माल्यं मस्तके यस्य सोऽच्युतः ॥ ब्रह्मपुराणम्। "अम्बरोषनवं वस्त्र फलमन्त्र रसादिकम् । कृत्वा कृष्णोपभोग्यन्तु सदा सेव्यं हि वैष्णवैः ॥ अम्बरौषहरेलग्नं नौरं पुष्पं विलेपनम् । भक्त्या न धत्ते शिरसि चाण्डालादधिको हि सः" ॥ नारसिंह। पादोदकफलमा । “गङ्गाप्रयागगयनैमिषपुष्कराणि पुण्यानि আনি স্কু লালয়ানালি। জ্বালন নীঘদলিলানি বৃনলি पापात् पादोदकं भगवतस्तु पुनाति सद्यः" ॥ पद्मपुराणे । "ये पिबन्ति नरा नित्यं शालग्रामशिलोदकम् । प्रक्षालयन्त्य सन्दिग्ध ब्रह्माइत्यादिपातकम् ॥ शालग्रामशिलातोयमपौत्वा यस्तु मस्तके । प्रक्षेपणं प्रकुर्वीत ब्रह्महा स निगद्यते” ॥ बच. रायपरिशिष्टम् । “पवित्रं विष्णुनैवेद्य सुरसिझर्षिभिः स्मृतम्। अन्यदेवस्य नैवेद्य भुत्ता चान्द्रायणचरेत् ॥ अग्राह्य शिवनैवेद्य पत्रपुष्प फल जलम् । शालग्रामशिलास्वर्थात् सर्व याति पवित्रताम् ॥ यो यद्देवार्चनरतः स तत्रैवेद्यभुग्भवेत् । केवल सौरशैवे तु वैष्णवो नैव भक्षयेत् ॥ समान चान्यनैवेद्य भक्षयेदन्यदैवतः ॥ भविष्थे । "निर्माल्य नैव भोक्तव्य, For Private And Personal Use Only Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाङ्गिकतत्त्वम् । ४५७ रुद्रस्य तपनस्य च। उपयुज्य च संमोहात् नरके पच्यते ध्रुवम् ॥ अतएव पुरश्चरणचन्द्रिकायाम्। “सुषुम्ना वर्मना पुष्पमाघ्रायोदामयेत् सुधीः ॥ निर्माल्य मस्तके धायें सर्वाड्रेष्वनुलेपनम् । नैवेद्यञ्चोपभुनौत दत्त्वा तद्भक्तिशालिने" ॥ विखसेनप्रभृतये। नन्दिकेश्वरपुराणम्। “दत्त्वा नैवेद्य. पुष्पाणि नाददीत कदाचन। त्यक्तव्यं शिवमुद्दिश्य तदा दानेन तत्फलम्" इति शिवदत्त विशेषः। "ब्रह्मचारि• गृहस्थैश्च वनस्थयतिभिः सह। भोक्तव्यं विष्णुनैवेद्य नाव कार्या विचारणा" ॥ एवञ्च तत् “हन्तकारञ्च नैवेद्य भुक्त्वा रुच्छ यतिश्चरेत् ॥ इति विष्णुनैवेद्येतरपरम्। तथाच । "अनुत् सृष्टेन सृष्टान्न ग्रासाई ग्रासमेव वा। विष्णोनिवेदितान्न यो नित्य भुङ्क्ते स मुक्तिभाक" ॥ स्त्रोत्सृष्टजलाशयजलोपयोगेऽपि न दोषः तथा हि। “प्रदद्यात् सर्वभूतेभ्यो जलपूर्ण जलाशयम्"। इति मत्स्यपुराणे जलाशयोत्सर्गस्य सर्वभूतेभ्य इत्यनेन प्रप्रकष्टचेतनोद्देश्यकत्वादुद्देश्यगतस्वामित्वाजननान दानत्वं किन्तु जल स्वखत्वे दूरीकरणेन नद्यादिवत् साधारणौकतम् अतएव “सामान्य' सर्वभूतेभ्यो मयोत्सृष्टमिद जलम्। रमन्तु सर्वभूतानि मानपानावगाहनैः” । इति मन्त्रलिङ्गेनोपादान विना कस्यापि न स्वत्वमिति । तत्साधारणजलस्य गोतमोक्तेन स्वामित्व श्रुतेः तदुतस्रष्टुरपि तथात्वे पुनः स्वामित्वात्तदुपयोगः । यथा गोतमः। "खामो ऋकथक्रयविभागपरिग्रहाधिगमेषु। ब्राह्मणस्यात्विज्यलब्ध क्षत्रियस्य विजितं निर्विष्टं वैश्यशूद्रयोः” ॥ इति परिग्रहोऽनन्यपूर्वस्य जलटणकाष्ठादेः खौकार इति मिताक्षरा। वृत्त्यधिकारी व्यक्तमाहापस्तम्बः। दायाद्य शिलोञ्छो चान्यच्चापरिग्रहीतम्" इति। अपरिग्टहौतमनन्यखोकतमखामिक For Private And Personal Use Only Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाजिकतत्त्वम् मित्यर्थः । निर्विष्टं वेतनलब्ध निर्देशो भृतिभोगयोरित्यमरोता पैठौनसिः "लवणं व्यञ्जनञ्चैव कृतं तैलं तथैव च । लेह्य पेयञ्च विधिवत् इस्तदत्तं न भक्षयेत् ॥ प्राश्वमेधिके । "उदक्यामपि चाण्डालं खानं कुक टमेव च । भुञ्जानो यदि पश्येत तदनञ्च परित्यजेत् ॥ वौधायनः। “भुजानेषु च विप्रेषु यस्तु पात्रं परित्यजेत्। भोजने विघ्नकर्ता च ब्रह्महा च तथोयते ॥ अन्यत्र गमनेन पात्र त्यजेदित्यर्थः । कूर्मपुराणे । “यो भुङ्क्ते वेष्टितशिरा यच भुतो विदिनु खः । सोपानत कश्च यो भुतो सर्व विद्यात्तदासुरम् ॥ इति ब्रह्मपुराणे। "कुर्यात् क्षौरान्तमाहारं न च पश्चात् पिबेदधि"। अधि अधिकम् । “हस्त प्रक्षाल्य गण्डषं यः पिबेत् पापमोहितः। सदैवञ्चैव पैत्रञ्च प्रात्मानञ्चावसादयेत् ॥ अर्द्ध पौत्वा च गण्डपम् अर्द्ध त्याज्यं महीतले। रसातलगताबागांस्तेन प्रोणाति नित्यशः" ॥ वृद्धव्यासः । “ततस्तृप्तः सबमतापिधानमसौति" अपः प्राश्य तस्माद्देशामनागवसृत्य विधिवदाचामेदिति । देवलः । “भुक्त्वाचामेद यथोक्न विधानेन समाहितः। शोधयंश्च मृदा इस्ती मृदभिर्धर्षणैरपि ॥ भोजने दन्तलग्नानि निहत्याचमनं चरेत् । दन्तलग्नमसंहाय लेपं मन्येत दन्तवत् ॥ न तत्र बहुशो यत्नं कुर्यादुद्धरणे पुनः। भवेदशौचमत्यन्तं टणवेधात् व्रणे मते" ॥ बौधायनः। “पुनराचम्य दक्षिणे पादाङ्गठे पाणिना विसावति । अष्ठमात्रः पुरुषो ह्यङ्गुष्ठञ्च समाश्रितः। ईश: सर्वस्य जगतः प्रभुः प्रौणातु विश्वक् ॥ विसावयति जलमिति शेषः । ब्रह्मपुराणम्। “आचान्तो. ऽप्यचिस्तावद्यावत्यानमनुइ तम्। उड़ त्याप्यशचिस्तावद्याबद्रोच्छिष्टमार्जनम् ॥ भुत्तोच्छिष्टं समादाय सर्वस्मात् किञ्चिदा. समनः । उच्छिष्टभागधेयेभ्यः सोदकं निर्वपेडुवि" ॥ तत्र मन्तः । For Private And Personal Use Only Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आङ्गिकतत्त्वम् । "गैरवे पुण्यनिलये पनादनिवासिनाम्। प्राणिनां सर्व. भूतानामक्षय्यमुपतिष्ठताम्" ॥ इत्यनेन शेषजलं त्यजेत। विष्णुपुराणम् । “भुक्ता सम्यगथाचम्य प्रामुखोदमुखोऽपि वा। यथावत् पुनराचामत् पाणौ प्रक्षाल्य मूलतः ॥ सुस्थः प्रशान्तचित्तस्तु कतासनपरिग्रहः। अभीष्टदेवतानाच कुर्वीत स्मरणं नरः ॥ अग्निराम्यायतां धातुं पार्थिवं पवनेरितः । दत्तावकाशो नभसा जरयत्वस्तु मे सुखम् ॥ अन्नं बलाय में भूमेरपामग्न्यनिलस्य । भवत्येतत् परिणतो मयास्वव्याहृतं सुखम् ॥ प्राणापानसमानानामुदानव्यानयोस्तथा । अत्र तुष्टिकरञ्चास्तु मयास्त्वव्याहृतं सुखम् ॥ अमत्यवहिवड़वा. नलच भुक्तं मयान जरयत्वशेषम्। सुखं ममैतत् परिणाम सम्भवं यच्छनरोगं मम चास्तु देहे" ॥ विष्णुः। “यथा समस्तेन्द्रिय देहि देहे प्रधानभूतो भगवान् यथैकः। सत्येन तेनाबविशेषमेतदारोग्यदं मे परिणाममेतु ॥ वीर्यवत्ता यथैवान्न परिणाममवैति ति। सत्येन तेन मद्भुतं जौर्यत्वमिदं तथा ॥ इत्यञ्चार्य स्वहस्तेन परिमृज्य तथोदरम्। अनायासप्रदायोनि कुयात् कर्मायतन्द्रित:" ॥ मार्कण्डेयः । “भूयोऽप्याचम्य कर्त्तव्यं ततस्ताम्ब लभक्षणम् । वशिष्ठः । “सुपूगश्च सुपर्णञ्च सुचर्णेन समन्वितम्। प्रदत्त्वा हिजदेवेभ्यस्ताम्ब लं वर्जयेद् बुधः । पर्णमूले भवेद्याधिः पर्णाग्रे पापसम्भवः । जौर्ण पर्ण हरेदायुः गिरा बुद्धिप्रणाशिनी” ॥ पथ षष्ठयामाईक्वत्यम् । “इतिहासपुराणाद्यैः षष्ठसप्तमको मयेत्। अष्टमे लोकयात्रा तु वहिः सध्या ततः परम् ॥ विष्णुपुराणम् । “सच्छास्त्रादिविनोदेन सन्मार्गादविरोधिना। दिन नयेत्ततः सध्यासुपतिष्ठेत् समाहितः । सन्ध्योपासनन्तु पूर्ववदेव । विशेषस्तु अग्निश्च मामन्युश्चेति मन्त्रणाचमनं For Private And Personal Use Only Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४६० पाक्रिकतत्वम् । सायमग्निश्चेति वौधायनीयपरिशिष्टदर्शनात्। गायत्रीजपख उपविश्य प्रत्यङ्ग खेन वायुकोणसम्बन्धिदिगष्टमभागमुखेन वा कर्तव्यः । “जपनामौत सावित्री प्रत्यगातारकोदयात्" इति याज्ञवल्कीयात् । पन्वष्टममिति सांख्यायनात्। अथ रात्रिकत्यम्। स्मृतिः । “पूर्वाह्नविहितं कर्म न कृतं यत प्रमादतः। रावस्तु प्रहरं यावत् कर्त्तव्यं तदयथोक्तावत् । दिवोदितानि कर्माणि प्रमादादकतानि च ॥ शर्वाः प्रथमे यामे तानि कुर्यादतन्द्रितः ॥ इति रवाकरः । यात्रवरकराहिरसौ। "उपास्य पविमां सन्ध्यां हुत्वाग्नीस्तानुपास्य च । भृत्वैः परिवतो भूत्वा नातिहप्तोऽथ संविधत्" ॥ अग्नौ होमोपासनं साग्निपरम्। उपास्न चेति चकारो वैश्वदेवादिकं समुच्चिनोति। संविशेत् वपेत्। तथाच विशुपुराणम्। "पुन: पाकमुपादाय सायमप्यवनीपते। वैखदेवनिमित्तं वै पत्नया साई वलिं हरेत्॥ पतिथिवागतं तव स्वशतवा पूजयेद बुधः । दिवाऽतिधौ तु विमुख गते यत् पातकं भवेत् ॥ तदेवाष्टगुणं विद्यात् सूर्योढ़े विमुखे गते ॥ सूर्योढ़े सूखें प्रस्तं गते सूर्येण प्रापिते । तथा। "तपादादिशौचस्तु भुक्ता सायं ततो रही। गच्छेत् शय्यामस्फुटितामपि दारुमयों नृप" ॥ निशि भोजनं साईप्रहराभ्यन्तरे प्रागुताम् । अथ शयनविधिः । सति सूर्ये शय्या च न पातनौया सा च सूर्योदयात् पूर्वमुत्तोलनौया। तथा च भूतिः । “भास्क राष्टशय्यानि नित्याग्नि सलिलानि च। सूर्यावलोकिदीपानि लक्ष्ममा वेश्मानि भाजनम् ॥ श्रासनं वसनं शय्या जायापत्यं कमण्डलुः। प्रात्मनः शुचिरेतानि न परेषां कदाचन" । न कदाचन इत्यनुमति विना अन्यथाऽतिथ्यानुपपत्तेः । व्यासः । "शुचौ देशे विविक्त तु गोमयेनोपलिप्तके। प्रागुदझवने For Private And Personal Use Only Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पातिकतत्वम् । चैव संविधत्तु सदा बुधः ॥ माङ्गल्यं पूर्णकुम्भश्च शिरःस्थाने निधापयेत् । वैदिकैर्गारमन्चै रक्षां कृत्वा खपेत्तत: ॥ गर्गः। *खरहे प्राक्शिराः शेते आयुष्ये दक्षिणा शिराः। प्रत्यक्थिराः प्रघासे तु न कदाचिदुदशिराः” ॥ मार्कण्डेयपुराणे। “प्राधिराः शयने विद्यात् धनमायुश्च दक्षिणे। पश्चिमे प्रबलां चिन्तां हानि मृत्यं तथोत्तरे" ॥ तथा नमस्कृत्याव्ययं विष्णुं समाधिस्थः खपेविशि”। मार्कण्डेयः । “शून्यालये श्मशाने च एकहक्षे चतुष्यथे। महादेवरहे चापि शर्करा लोष्ट्रपांशुषु ॥ धान्यगोविप्रदेवानां गुरूणाच तथोपरि। न चापि भग्नशयने नाशुचौ नाशुचिः स्वयम्। नावासा न नग्नश्च नोत्तरापरमस्तकः । नाकाशे सर्वशून्ये च न च चैत्यद्रुमे तथा" ॥ न स्वपेदित्यर्थः । __ अथ दागेपगमनविधिः। याज्ञवल्काः। षोड़शत्तुंनिशा स्त्रीणां तासु युग्मासु संविशेत् । ब्रह्मचार्येव पर्वण्याद्याश्चतसश्च वर्जयेत् ॥ स्त्रीणां षोड़शनिशा ऋतुः गर्भाधानयोग्यकालः । तथोक्तविधिना गच्छन् ब्रह्मचार्येव भवति तत्र व्रतादौ गच्छन् ब्रह्मचर्य स्खलनदोषो नास्तीति मिताक्षरा। पर्वाणि चोक्तानि। हारीतः। “चतुर्थेऽहनि नातायां युग्मासु च गर्भाधानम्। तदुपेत ब्रह्मगर्भ दधातौति” अत्र चतुर्थ्या रात्रौ यगर्भाधानमुक्त तद्रजोनिवृत्ती बोहव्यम्। “रजस्यु परते साध्वी नानेन स्त्री रजस्वला" इति मनुवचनैकवाक्यत्वात् । साध्वो गर्भाधानादिविहितकर्मयोग्येत्यर्थः। प्राद्याश्चतस्रो वर्जयेदिति तु रजोनिवृत्तीतरपरम्। चतुर्थी रात्री जातस्याप्रशस्तत्वमाहापस्तम्बः। "चतुर्थीप्रभृत्युत्तरोत्तराप्रजानिःश्रेयसार्थम्" इति मिताक्षरा मदनपारिजातयोः। नानानन्तरं पुनरपि रजोदर्शने विशेषमा हारीतः। “रजखला यदि For Private And Personal Use Only Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४६२ आक्रिकतत्त्वम् । स्रात्वा पुनरेवं रजखला । यष्यादमदिनादर्वागशचित्य न विद्यते । एकोनविंशतेरर्वाक् एकाचं स्यात्ततोग्रहम् । विंशषः त्युत्तरेषु त्रिरात्त्रमश्शुचिर्भवेत् ॥ श्रष्टादशदिनादर्वाक् सप्तदशदिनाभ्यन्तरे इत्यर्थः । एवमुत्तरत्रापि । वशिष्ठ: । "त्रिरात्रं रंजखला अशुचिर्भवति सा नाप्रात् नाभ्यच्चात् नासु स्वायात् अधः शयीत न दिवा स्वप्यात् न रज्जुं प्रमृजेत् नाग्निं स्पृशेत् न दन्तान् चालयेत् न मांसमश्रीयात् न महाविरौक्षेत न सेत् न किञ्चिदाचरेत् नाच्जलिना जल ं पिबेत् न लोहितायसैन म खर्वेण वेति । म रज्जुं प्रसृजेत् न रज्जुं कुर्य्यादित्यर्थः । न खर्वेण वामपाणिना लोहितायसेन ताम्रपात्रेण । श्रनृतावपि कामुकौगमनमाह विष्णुपुराणम् । " मृतो नरकमभ्येति होयेतात्रापि चायुषः । परदाररतिः पुंसामुभयत्रापि भौतिदा । इति मत्वा खदारेषु ऋतुमत्सु बुधो व्रजेत् । यथोतदोष होनेषु सकामेष्वनृतावपि । प्रौढगर्भामपि अत्यन्तकामामुपेयात् । तदाह वशिष्ठः । " श्रद्य श्वो वा विजनिष्यमानाः पतिभिः सह शयन्ते इति स्त्रीणामिन्द्रदत्तोवर इति” । विजनिष्यमानाः प्रसवित्राः शयन्ते शेरते । लटोरूप छान्दसम् । पैठीनसिः । " त्वाष्ट्रं विश्वरूप जघान वच्चेणेन्द्रः तं देवा ब्रह्मनित्यवदन् स स्त्रियः उपाग्टहीत वरं दास्यामीति ततोऽस्याः तृतीयं ब्रह्महत्यायाः प्रपद्यन्त एवं भूमिर्वनस्पतयचैकम् श्रासां मघवा तुष्टः प्रायच्छत वरं भूमेः स्थिरत्व' वृक्षाणां छिवप्ररोहणं स्त्रीणां सर्वकालेषु सम्भव:" इति सम्भवः सम्भोगः । दुष्टकालमाह "ज्येष्ठामूलामघाश्लेषा रेवती कृत्तिकाखिनौ । उत्तरा वितयं त्यक्ता पर्ववर्जं व्रजेदृतौ” ॥ एवञ्च “ऋतौ नोपैति यो भाखामनृतौ यश्च मच्छति । तुल्यमाहुस्तमोर्दोषमयोनौ यच गच्छति । इति बौधायनौयमनृती For Private And Personal Use Only Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रकितत्त्वम् । दोषाभिधानम् प्रकामविषयम् । " पर्वण्यनारोग्यमनृतावपि गच्छन् पत्नौत्रिरात्रमुपवसेत्” । वृद्दशातातपः । "स्त्रीणां संप्रेक्षणात् पर्थात् ताभिः संकधनादपि । ब्रह्मचर्यं विपद्येत न दारेष्वृतुसङ्गमात्” ॥ संप्रेक्षणादित्यत्र संशब्दः कामार्थः । श्राद्धानन्तरन्तु निषेधमाहतुः शङ्खलिखितौ । "ऋतुस्नातां तदहोरात्र परिहरेत् । नातुरो न दिवा मैथुन व्रजेत् । क्लोवा अल्पवय्याच दिवा प्रसूयन्ते । अल्पायुषच्च तस्मादेत हिवर्जयेत् । प्रजाकामः पितॄणां नोहरेत् तन्तु विच्छिन्द्यात् प्रयतेताच्छेदाय ये नाप्रतिष्ठो भवति । तस्मात् प्रतिष्ठाकाम: प्रजया तिष्ठति ॥ नोशब्दो निषेधः । तन्तु सन्तानम् अच्छेदाय अविच्छेदाय सन्तानस्य येम यस्मात् तन्तुच्छेदात् प्रतिष्ठञ्च प्रजानुत्पत्त्या अप्राप्तनिष्ठः सन् पतति तस्मात्तदुत्पत्त्यर्थं यतितव्यमिति कल्पतरुः । एवञ्च श्रादिने यदभिगमन प्रागुक्तयाज्ञवख्कावचनादुक्त' मिताचरायां तदेयम् । वशिष्ठः "शूद्राचेन तु भुक्न मैथुन योऽधिगच्छति । यस्वा तस्य ते पुत्रा अवय: शूद्रवद्दिजाः । ऋतुस्रातां च यो भाय्य सन्निधौ नाधिगच्छति । स गच्छेन्नरक घोर ब्रह्महेति तथोच्यते ॥ सद्विधावित्यभिधानादसन्निहितस्य गमनाभावे न दोषः । पुत्तोत्यत्तिपय्र्यन्तम् ऋत्वभिगमन नियममाह विष्णुपुराणम्। "ऋतुकालाभिगामी स्वात् यावत् पुत्रो न जायते । ऋणापकर्षपार्थं हि पुत्रस्योत्पादन प्रति" ॥ यतितव्यमिति शेषः । आपस्तम्बः । " ऋतौ तु गर्भशङ्कित्वात् स्नान' मैथुनिनः स्मृतम् । अनृतौ तु सदा कार्यं शौचं मूत्रपुरीषवत् ॥ इति " दावेतावशुचौ स्यातां दम्पतौ शयनं गतौ । शयनादुत्थिता नारी शुचिः स्यादशुचिः पुमान् ॥ मैथुनशुद्धेः पूर्वं मलमूत्रोत्सर्गं न कुय्यात् । " तैलाभ्यङ्गे तथा वान्ते श्मश्रुकर्मणि मैथुने ॥ • For Private And Personal Use Only ર Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४६४ पाङ्गिकतत्त्वम् । मूवोच्चारं यदा कुर्यात् अहोरात्रेण शुधाति" इति यमवच. नात्। पुत्रानुत्पत्तौ पारस्करः। “सा यदि गर्भ नादधीत निदिग्धिकायाः सिंह्याः खेतपुष्पाया: उपोष्ण पुष्येण मूलमु. इत्य चतुर्थेऽहनि नातायां निशायामुदकेन पिडा दक्षिणस्यां नासिकायामासिञ्चतौति। इयमौषधौत्रायमाणा सहमाना सरखतौ। पस्या अहं पुनः पितुरिव नाम जमयत्यभित इति” सा परिणीता ऋतुकाले कताभिगमना यदि गर्भ न धारयति तदा उपोष्य पुष्ये नक्षत्रे श्वेतकण्टकारिकाया मूलमुत्थाप्य चतुर्थेऽहनि ऋतुस्नातायां सत्यां रावावुदकेन पिश्चा दक्षिणनासापुटे पतिरियमोषधौत्रायमाणा" इति मन्त्रेण सिञ्चति। "नस्यं दधाति दक्षिणहस्तानामिकाङ्गष्ठाभ्यां गृहीत्वा प्राशिरः संविष्टाया इति" गोभिलस्मरणात् । आयुर्वेदीयेऽपि। “पिप्पल्या शृङ्गवेरञ्च मरिचं नागकेशरम् । प्राज्येन सह भुञ्जौत अपि बन्ध्या प्रसूयते। याज्ञवल्काः । "एवं गच्छन् स्त्रियं क्षामां मघां मूलञ्च वर्जयेत्। सदोपवी. तिना भाव्यं सदा बद्दशिखेन च। विशिखो व्युपवीतश्च यत् करोति न तत् कृतम्"। अत्र पूर्वाई नापि नित्यता उत्तराईनापि कर्माङ्गता वोधिता अन्यथा उपवीताभावदशायां कृतं साङ्गमेव न स्यात्। पुरुषश्च प्रत्यवायो भवेत्। अत्र वदन्ति करोति कृतवान् कृतमित्य कृतत्वातिदेशः । पिटक्कत्यादी उपवौतित्वाभावात् कथं न प्रत्यवायः न च बाधकामावे सतीति पूरणीयम्। सदा पदसङ्कोचापत्तेः। न च पदाहवनीय इति वाच्य सत्युपवीते यज्ञसूत्रान्तरमादाय प्राचौनावौतिखोपपत्तेः। अतएव व्यपवौत इत्यनेन पिटक्कत्यादावण्युपपीतोपयोग उक्तः तथा चात्र समुच्चय एवेति उच्यते "यज्ञोपवीतिनिर्वत्वं ततः पय्य क्षणादिकम्”। इत्यत्र ततो यज्ञोपवीती For Private And Personal Use Only Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . पाङ्गिकतत्त्वम् । ४६५ व्याख्यानात् तथाग्नौकर गहोमोऽपसव्येन वा कार्य इत्यत्र वाकारेण समुच्चयानुपपत्तेः ततश्च व्युपवीतपदं यत्रसूत्रमावपरं सदोपवीतिनत्यत्रापि यज्ञसूत्रधारणवतेत्यर्थः । न च मुख्याधारणेऽपि तत् स्यात्। धारणे विहिते इति विशेषणात्। न च मुध्यादिधारणं कुत्रापि कर्मणि विहितं न चैवं कर्माङ्गवेन सूत्राथत्वेन कर्माचरणकाले प्राचीनावौतित्वेनापि स्थित्यापत्तिः। उपनयनकाले यजसूचविन्यासस्य प्राथमिकत्वात् पौर्मिकत्वेन बाधक विमा तदत्यागात् । “शस्त पन्दो सवत् पुत्र साक्षवं जनयेत् पुमान्"। सकदेकवारम् पत्र सम्यगाधानहेतुतया उत्तानकरचरणामेव कुर्वीत नातिर्यक् पाहितकरचरणां स्त्रियम् ऋत्वभिगमनानन्तरं दक्षिणपायेण स्वापयेत् । पुरुयायिते तु गर्भानुत्पत्तिरिति शेषः । दक्षः । 'प्रदोषपश्चिमी यामौ वेदाभ्यासेन वै नयेत्। यामहयं शयानस्तु ब्रह्मभूयाय कल्पात" ॥ इति ब्रह्मपुराणे। "इत्येतदखिलं प्रोतमहोरावाश्रितं मया। ब्राह्मणानां कृत्यमेतदपवर्गफलप्रदम् ॥ नास्तिक्यादथबालस्यात् ब्राह्मणो न करोति यः । स याति नरकं घोरं पशुयोनौ च जायते ॥ इति श्रीहरिपरभट्टाचार्यात्मज-औरघुनन्दनभट्टाचार्य-विरचितमाहिकाचारतवं सम्पर्णमिति। For Private And Personal Use Only Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रायश्चित्ततत्त्वम् । नमो गणेशाय। प्रणम्य सच्चिदानन्द सृष्टिस्थित्यन्तकारिणम् । प्रायश्चित्तस्य तत्त्वानि वक्ति औरघुनन्दनः ॥ "प्रायश्चित्तस्य लक्ष्मान तथा तन्त्रप्रसङ्गको। कर्ससंस्कार काङ्गानां प्रतिकर्मनिवर्तनम् ॥ गोग्रासभक्षणाच्छुष्तिस्तद. भावादशुद्धता। प्रायश्चित्तं भवेत्रित्वं काम्यं नैमित्तिकन्तथा । काम्यादण्यङ्गहानो स्यात् कियांस्तत्र फलोदयः। अहया लक्षणं पुण्यम ज्ञानादपि सम्भवेत् ॥ प्रायश्चित्तादिजातौयात्तादृक् पापविनाशनम् । गोधूमावयवे यव्यावयवस्तत्र साधकम् ॥ लाघवं गौरवं वौक्ष्य सकदात्तितस्तथा। दानव्रतादिमन्त्रेण पापमारस्य नाश्यता ॥ चान्द्रायणादौ ग्रासानां परिसंख्याव्यवस्थितिः। प्रायश्चित्ते गुरौ भूते लघुपापस्य संक्षयः ॥ गङ्गामाहात्माविस्तारो रानावपि च तत् क्रिया। बालादिना कृते पापे प्रायश्चित्तस्य होनता ॥ प्रायश्चित्ते तु वक्तव्येऽनुग्रहइयमेव हि। प्रायश्चित्तोपदेशादिचौराल्लाभविनिर्णयः । क्रयस्य निर्णयश्चैव तद्धाने: कालनिर्णयः। प्रायश्चित्तस्य पूर्वाहकत्यं बाल्यभिदा तथा ॥ धेनुमूल्यव्यवस्था च ज्ञानक्रतनिरूपणम् । विप्रादिस्वामिभेदेन गोबधव्रतनिर्णयः ॥ एकवर्षादिभेदेन रोधादेच निमित्ततः। अपालननिमित्तेन गीबधव्रतनिर्णयः ॥ अपवादो गोवधस्य नरस्य च बधे तथा। चाण्डालपतितादौनामोदनादेव भक्षणे ॥ प्रायश्चित्तविधिस्तव कृतघ्रस्य निरूपणम् । यवनादेस्तथोत्पत्तिस्तहास्यादौ व्रतन्तथा ॥ For Private And Personal Use Only Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रायश्चित्ततत्त्वम् । ४६७ अन्य जादेः स्त्रियाः सङ्गे भोजने च प्रतिग्रहे । चण्डालस्पृष्टतोयादी गोमांसादौ च भक्षिते ॥ भार्य्यायां मातृवचने उपवौतस्य भेदने । निबध्यन्तेऽत्र संक्षेपात् सतां मुदमभीप्सता । प्रायश्चित्तविवेकादावन्यज्ज्ञेयं विचक्षणैः” ॥ अथ प्रायश्चित्तलक्षणम् । तत्र हारीतः । " प्रयतत्वाद्दीपचितमशुभं नाशयतीति” प्रायश्चित्तमिति यत्तपःप्रभृतिकं कर्म उपचितं सञ्चितमशुभं पापं नाशयतीति कृततत्तत्कर्मभिः कर्त्तुः प्रयतत्वात् वा शुद्धत्वादेव तत् प्रायश्चित्तं तथाच । पुनहरीतः । " यथा क्षारोपवेदचण्ड निर्योदनप्रक्षालनादिभिसांसि शान्ति एवं तपोदानयतैः पापकृतः शुद्धिमुपयान्ति " | शुद्धिं पापचयम् । यथा महाभारते । " अद्भिर्गात्रान् मलमिव तमो ह्यग्निभयाद् यथा । दानेन तपसा चैव सर्वपापमपोहति ॥ तेन पापचयमात्त्रसाधनत्वेन विधिबोधितं की प्रायचित्तम् । मात्रार्थलाभस्तु प्रयतत्वाहेत्येवकारार्थकबाशब्दात् । तथाच विश्वः । " वास्याद्दिकल्पोपमयोरेवार्थे च समुच्चये" । एवञ्च "अश्वमेधेन शान्ति महापातकिनस्त्विमे” । इति विष्णुक्तास्याश्वमेधस्यापि प्रायश्चित्तत्वम् । पापचयस्वर्मोभयसाधकस्य तु तस्यापि न प्रायश्चित्तत्वम् । प्रायश्चित्तस्य स्वध्वंसादिजनकत्वेऽपि तदंशे विधिबोधितत्वा भावानासम्भवः । अथ तन्त्रप्रसङ्गकौ । तत्त्रानेकमुद्दिश्य सकृत् प्रवृत्तिस्तन्वता । यथा दर्शपौर्णमासयोराग्नेयादौनाम् । यथाग्नेयाष्टाकपालोऽमावास्यायां पौर्णमास्याच्चाच्युतो भवति उपांशुयाजमन्तरा यजति ताम्यामग्नौषो मौयमेकादशकपालं पौर्णमासे प्रायच्छत् ऐन्द्रं दध्यमावास्यायामेन्द्र पयो श्रमावास्यायामिति कस्वरूपज्ञापकरूपोत्पत्तिश्रुत्युक्तानां षषां प्रधानयागानां For Private And Personal Use Only Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रायश्चित्ततत्वम् । मध्ये आग्नेयाष्टाकपालैन्द्रदधिपयो यागानां त्रयाणाम् प्राग्नेयाष्टाकपालोपांशु-याजाग्नीषोमोयैकादश-कपाल-यागानां बयाणां सतत् सतदनुष्ठितेन प्रयाजाद्यतेन उपकारः सिध्यति । प्रयाजादयश्व समिधो यजति तननपातं यजति इड़ो यजति वहिर्यजति खाहाकारं यजति इत्येवंरूपाः पञ्च। तथा नानाब्रह्मवधसत्त्वे सर्वोह शेन सवत् प्रायश्चित्ते कृते सर्वब्रह्मबधजन्यपापनाशः । यथा बधानुहत्तौ भविष्थे। "ब्राह्मणस्य ब्राह्मणयोर्ब्राह्मणानाच पुत्रक। प्रायचित्तस्य चैकत्व जातिमाचित्य लक्ष्यते ॥ क्षामवत्यादिना यहत् कर्मणा पृतनापते। देवदोषादकरणे जाते. दोषकदम्बके ॥ होमेनैकेन दोषाणां सर्वेषां क्षयमादिशेत् ॥ एवञ्च एकप्रायश्चित्तेनानेकदोषक्षयाय क्षामवतौष्टिः सर्वत्र दृष्टान्तः । तन्त्रताया हेतुश्च अदृष्टाथकैजातीयकर्मणः कालदेशकादीनां प्रयोगानुबन्धवैधहेतुभूतानामभेदे उद्देश्यविशेषामा इति। एवञ्च "मातोऽधिकारौ भवति दैवे पैत्रे च कर्मणि"। इति विष्णताम् । "असावा नाचरेत् कर्म जपहोमादिकिञ्चन। इति दक्षोतञ्च। क्रियाङ्गनानं कर्तसंस्कारहारैव तदिनकर्तव्याशेषकमार्थमेकमेव न तु प्रतिकर्म कर्तव्यं तच्चारणोदयनानादपि सिहाति। "सर्वमहति पूतात्मा प्रात:सायौ जपादिकम्"। इति दक्षीतः। “अम्रातस्य क्रियाः सर्वा भवन्तौड यतोऽफलाः। प्रात: समाचरेत् खानमतो नित्यमतन्द्रितः"। इति विष्णुधर्मोत्तराच्च। “अमातस्तु पुमाना: जप्यादिहवनादिषु। प्रातःस्नानं तदर्थन्तु नित्यमानमुदावृतम्" ॥ इति शववचनाच्च। प्रातरित्यरुणोदयकालपरम्। “प्रातःस्राय्यगणकिरणग्रस्तां प्राचौमवलोक्य स्वायात्" इति विष्णुवाक्यै कवाक्यत्वात्। "सूर्योदयं विना नैव सानदानादिकाः क्रिया: For Private And Personal Use Only Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रायश्चित्ततत्वम् । ४६८ इति तु अहानानप्रधानकालपरम्। "दिवाकरकरैः पूतं दिवानानं प्रशस्यते । इति पराशरण प्रशस्यते इत्येकवाक्यवात् एवञ्च “प्रदोषे टिकायुग्म प्रभाते घटिकाइयम्। दिनवत् सर्वकर्माणि कारयेव विचारयेत्” इति हलायुधकृतवचनम् गौणकालपरम्। घटिकाऽत्र दण्डहयम्। "वियामां रजनी प्राहुस्त्यवाद्यन्तचतुष्टयम्। नाडीमां तदुभे सन्ध्ये दिवसाधन्तसंजिते"। इत्येकवाक्यत्वात् तथा चामरः । वियामा क्षणदा क्षपा इति यहा सूर्योदयपदं सूर्यकरस्पर्शपरम् । विष्णुपुराण एव अनुदितसूर्य कर्मानधिकारमुक्त्वा अंशस्पर्श कर्माधिकारविधानात्। यथा "सत्कायोग्यो न जनीनवापः शुद्धिकरणम्। यस्मिन्ननुदिते तस्मै नमो देवाय भावते । स्मृष्टो यदंशुभिर्लोकः क्रियायोग्योऽभिजायते । पतिव्रता कारणाय तस्मै शुद्धात्मने नमः ॥ सूर्योदयात् प्रागपि प्रकाशेन तत्करस्य विद्यमानत्वात्। एवञ्च "उपस्पृश्य हिजोनित्यं शुद्धः पूतो भवेबरः ॥ इति मरौद्युक्ताचमनेन कर्तुः संस्काराभिधानात्। शुद्धः प्रक्षालितपाणिपाद इत्यर्थः। “यज्ञोपवौतिना प्राचान्तोदकेन कृत्यम्"। इति गोभिलोक्तं "क्रियां यः कुरुते मोहादनाचम्यैव नास्तिकः । भवन्ति हि वृथा तस्य क्रियाः सर्वा न संशयः ॥ इति वायुपुराणोताच। कर्माङ्गाचमनं प्रयतेन प्रतिकर्म न कर्त्तव्यम् अतएव पाठकामस्यैव प्रयतस्याचमनं विशेष्य। मन्ववाङ्गिरो वृहस्पतय पाहुः । यथा "मुघा क्षुत्वा च भुक्ता च निष्ठीव्योतानृतं वचः। पौत्वापोऽध्ये स्यमानश्च आचामेत् प्रयतोऽपि सन्" ॥ भक्त कामस्याप्याहापस्तम्बः। “भोक्ष्यमाणः प्रयतोऽपि हिराचमत्"। इति तञ्च हिजस्य ब्राह्मण तीर्थेन। तथा याज्ञवल्क्यः । “प्रागब्राण तीर्थेन हिजो नित्यमुपस्पृशेत् । प्राक्प्राङ्मुख उप ४० For Private And Personal Use Only Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४७० प्रायश्चित्ततत्वम्। स्पशेत् आचामेत् हिजो न स्त्रौशूद्राविति मिताक्षरा। स्त्रौशूद्रा योस्तु दैवेन तीर्थेन। यथा नारदः "स्त्रियास्वैदशिकं तीर्थ शूद्रजातेस्तथैव च। सक्कदाचमनाच्छुधिरेतयोरेव चोभयोः । एवञ्च साधारणाङ्गमा प्रधान देश कालान्वयानियम इत्युताम् । यत्तु अङ्गानां प्रयोगविध्यै क्ये हि तन्वतेत्युक्तम् । तत्कर्तुसंस्कारकाङ्कभिन्नानामेव यथा श्रादभेदेादौनामिति । अथ प्रसङ्गः। अन्योद्देशेन प्रहत्तावन्यस्यापि सिदिः प्रसङ्गः । यथा पखर्थमनुष्ठितेन प्रयाजादिना पशतन्त्रमध्यपातिनः पुरोडाशस्यापि उपकारः सिद्यति। यथा वा तप्ते पयसि दध्यानयति। सा वैखदेव्यामिक्षा भवति वाजिभ्यो वाजिनमित्यवामिक्षार्थ प्रवृत्ती अनुद्दिश्य वाजिनस्यापि सिद्धिः। अतएव कचिदपचारे आमिक्षा पुरुषं प्रयोजयति न तु वाजिनम् । तस्य प्रसङ्गसिञ्चत्वादित्युक्तम् । श्रामिक्षा धनीभूतं पयः । तथाच भट्टवार्तिकम्। “पय एव घनीभूतमामिक्षेत्यभिधी. यते”। तदवशिष्टं नलं वाजिनम्। यथा वा काम्ययागनिष्यत्त्यर्थमनुष्ठितैराग्नेयादिभिनित्य यागसिद्धिरिति मिताक्षरोताम्। यथा वा दण्डनिपातप्रायश्चित्तेनैव गुरुणा तन्नान्त. गैयकावगोरणप्रायश्चित्तमपि सम्पद्यत इति प्रायश्चित्तविवे. कोतम्। तथा ब्राह्मणबधोद्देशेन हादशवार्षिके मृते क्षत्रिय बधनिमित्तकत्रै वार्षिक प्रायश्चित्तस्य सिद्धिः। एवञ्च तन्त्रप्रस. योरनावृत्तेनैव कर्मणा नानादृष्टफलसिद्धी लाघवमेव हेतुः । नत्ववगोरणक्षत्रियबधप्रायश्चित्तयोः कथं प्रसङ्गेन सिद्धिः सङ्कल्पादेरभावात् तयोः सङ्कल्पादिः कुत इति चेत् प्रायश्चित्तत्वात् तथालेऽपि कथं सङ्कल्प इति चेत् काम्यत्वात्। काम्यत्वमाह जावालः । “काम्यानां वफलार्थच दोषघातार्थमेव च । अतः काम्यं नैमित्ति कञ्च प्रायश्चित्तमिति स्थितिः ॥ सहजतचन्द्र For Private And Personal Use Only Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रायश्चित्ततत्त्वम् । ४७१ लोकावाप्तादिफसकलेन काम्यानां चान्द्रायणादीनां कचित् ख फला) कचिद्दोषघातार्थ कर्तव्यत्वं तत्र खफला) स्वं चान्द्रायणादिकं फलं येषां पापानां तानि तथा तदर्थं तनि मित्तं पापनिमित्तमिति यावत्। पापज्ञानवतएव चान्द्रा यणाद्याचरणात् । तत्फलत्वम् अतो नैमित्तिकलं दोषघातार्थम् अत: काम्यत्वम् प्रासत्तिक्रमणान्वयः। अतः पापक्षयकामनावदधिकारिकर्तव्यत्वेन पापनिश्चयवदधिकारिकर्तव्यत्वेन च काम्यत्व नैमित्तिकत्वञ्चेति योरेवावगम्यमानत्वात् जातेष्टिवदधिकारयोः सम्बलनम् इति एवञ्च काम्यस्य सर्वशत्यधिकरणे सर्वाङ्गोपेतस्यैव फलवत्वाभिधानात् तस्यापि प्रसङ्गविषयत्वेन काम्ये हि काम्याभिलापसहितकुशतिलजलत्यागरूपः सङ्कल्पः शास्त्रार्थ इति प्रक्रमाधिकरणोतेन । “प्रत्येक नियतं कालमात्मनो व्रतमादिशेत् । प्रायश्चित्तमुपासौनो वाग्यतस्त्रिसवनं स्पृशेत् ॥ इति शङ्खलिखितवचने प्रत्येक नियसं कालमिति तत्तत्वतकालसंख्याम् पात्मनो व्रतम् प्रामसम्बन्धित्वेन प्रात्मकर्तत्वेन इति यावत् । तेनामुकव्रतमहं करिथे इति चादिशेदुल्लेखं कुर्यात् इत्यनेन च प्राप्तस्य सङ्कल्पस्य वाधः। एवं तदन्ते दक्षिणाया: शुद्धयर्थं श्राइस्य च बाधः। तदभिहितं भविष्थे । "क्रियते शुद्धय यत्तु ब्राह्मणानाञ्च भोजनम् । शुद्यर्थमिति तत् प्रोक्तं वैनतेयमनौषिभिः" । यत्त शुद्धये इति प्रायश्चित्तादौ तदाह जावालः । “प्रारम्भे सर्वकच्छाणां समाप्तौ च विशेषतः। श्राई कुयात् व्रतस्यान्त गोहिरण्यानदक्षिणम्" इति। वाचस्पतिमिश्र पाह। तन्त्र समाप्तावित्यस्य व्याख्यातत्वात् व्रतस्यान्ते इत्यस्य पुनरुतात्वापत्तेच। श्राद्धविवेककारास्तु प्रारम्भ इत्यानन्तरम् "प्राज्येनैव हि शालाग्नौ जुहुयात् व्याहृतौः पृथक् । इत्यईमधिकं For Private And Personal Use Only Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४७२ प्रायश्चित्ततत्वम् । लिखितवन्तः। प्रायश्चित्तानन्तरं पापक्षयार्थं श्राई कर्तव्यमिति व्याख्यातवन्तश्चेति। शालाग्नावित्य पादानात् साम्नेरेव होमः । व्रतस्यान्त इति प्रायश्चित्तमावस्योपलक्षणम्। भविष्ये शुद्धये इति सामान्यतोऽभिधानात् । अन्यथा त्रैमासिकव्रताद्युतादक्षिणाविशेषस्तदनुकल्पधेनुदानादौ प्रायश्चित्तविवेकायु. तोऽपि न स्यात्। “वृषभैकादशा गाय दद्यात् सुरचितव्रतः" इत्यभिधानात् । एवञ्च शुविहेतुपावणाई जीवपितृकेणापि कर्तव्यं संस्काराङ्गविवाहवत्। नौवे पितरि वै पुत्रः बाहकालं विवर्जयेत् । येषां वापि पिता कुर्यात् तेषामेके प्रचक्षते ॥ इति हारोतवचनोत्तरान प्रधानसाङ्गतार्थ बाहविधानात्। एवं प्रायश्चित्तोत्तरकर्तव्यपापक्षयज्ञापकगोग्रास. स्यापि वाधः। यथा चरितव्रतविधौ याज्ञवल्क्यः। “घटेऽपवर्जिते जातिमध्यस्थो यवसं गवाम् । प्रदद्यात प्रथमं गोभिः सत्कृतस्य हि सक्रिया" ॥ अपवर्जिते प्रक्षिप्ते। "प्रायश्चित्ते तु चरिते पूर्णकुम्भमपां नवम्। तेनैव साई प्रास्येचुः सात्वा पुण्यजलाशये" ॥ इति मनतोः। तेन ज्ञातिना प्रास्ये युः क्षिपेयुः कृतप्रायश्चित्ता इति शेषः। गवां सत्कारश्च तहत्ततृणभक्षणमेव । यदि तु गावस्तहत्तयवसं न गृह्नौयुस्तदा पुनः प्रायश्चित्तमनुतिष्ठेत्। यथा शारीतः। “खशिरसा यवसमादाय गोभ्यो दद्यात् यदि ता: प्रमुदिता गृहीयुरथैनं प्रावर्तयेयुरिति । एनं कृतप्रायश्चित्तम् इतरथा नेत्यभिप्रेतमिति मिताक्षरा। एवञ्च हारौतयाज्ञवल्क्यवचनकवाक्यतया वक्ष्यमाणमनुवचनहयमपि सामान्यप्रायश्चित्तोत्तरकर्त्तव्यतापरम् । न तु प्रकरणादसत्प्रतिग्रहमानपरं ततश्चासत्प्रतिग्रहमानपरतया यत् कुल्लू कभट्टव्याख्यानं तत् प्रदर्शनमात्रपरम् । एवं घटापवर्जनमपि न पतितमात्रविषयम्। यथा मनुः । For Private And Personal Use Only Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रायश्चित्ततत्वम् । ४७३ *उपवासक तन्तु गोव्रजात् पुनरागतम्। प्रणतं परिअच्छेयुः साम्यं सौम्येच्छसौति किम्। सत्यमुका तु विप्रेषु विकिरेत् यवसं गवाम्। गोभिः प्रवर्तिते तौथै कुर्युस्तस्य परिग्रहम् ॥ सत्यमिति नाहमेतत् पापं करिष्यामोति। तीर्थे गोभिस्तृणभक्षणेन पवित्रोकते देशे। उच्यते । प्रायश्चितस्य नित्यत्वेनाङ्गवैकल्येऽपि फलसिद्धिः । तथाच प्रायश्चित्तस्य नैमित्तिकत्व निमित्तत्वञ्च मिताक्षराकदाह। नैमित्तिकोऽयं प्रायश्चित्ताधिकारः। अव चार्थवादावगतपापक्षयेऽपि जातेष्टिन्यायेन साध्यतया खौक्रियते। न च दुरितपरिजिहो - खानुष्ठीयते एतावता काम्याधिकारमात्रयङ्का न काया। यस्मात्। “चरितव्यमतो नित्यं प्रायश्चित्तं विशुद्धये। निन्द्यैव लक्षणयुक्ता जायन्ते निष्कतैनसः” ॥ इति मनुवचनेऽकरणे दोषश्चवणेनावश्यकतावगमात्। तथाच याज्ञवल्क्यः । “प्रायवित्तमकुर्वाणा: पापेषु निरता नराः। अपश्चात्तापिन: कष्टाबरकान् यान्ति दारुणान् । प्रायश्चित्तमकुर्वाणा दुःसहावरकान् प्राप्नुवन्ति इत्यन्तेन। वस्तुतस्तु पूर्वोत्तमनुवचने नित्यमिति अवणात् नित्यत्वम् अतएव सर्वैरेव निबन्धुभिः थाहविशेषस्य नित्यत्वे एतांस्तु श्राहकालान् वै नित्यानाह प्रजापतिरित्युताम् । तथाचोक "नित्य सदा यावदायुन कदाचिदतिक्रमेत्। उपेत्यातिक्रमे दोषश्रुतेरत्यागदर्शनात् । फलाश्रुतेर्वीसया च तबित्यमिति कौर्तितम्। तस्मात् कर्त्तव्यमेवेह प्रायश्चित्तं विशद्धये ॥ इति शवलिखितवाक्ये एवकारेण नियमादवश्य करणं प्रतीयते। पवश्य करण्याकरणाबिवृत्तिः तदतिक्रमे तु “विहितस्वाननुष्ठानानिन्दितख च सेव. नात्। प्रनिग्रहाचेन्द्रियाणां नरः पतनमृच्छति" ॥ इति यात्रवल्क्यवचने प्रत्यवायश्रुतेः । नित्यत्वम् अङ्गिरमापि। For Private And Personal Use Only Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४०४ प्रायवित्ततत्त्वम् । "कते नि:संशये पापे न भुझौतानुपस्थितः। भुजानो वईयेत् पापमसत्व पर्षदिब्रुवन् ॥ इत्यनेन पापवतो भुञ्जानस्य प्रायश्चित्तार्थमनुपस्थितस्य पापवृद्धिदर्शनात् प्रायश्चित्तस्य नित्यत्वमभिहितम्। यथा स्मृतिसागरे देवसः। “काला. तिरेके द्विगुणं प्रायश्चित्तं समाचरेत्। हिगुणं राजदण्डच्च दत्त्वा शुधिमवाप्नुयात् ॥ कालातिरके संवत्मारातिरेके। "संवत्सराभिशप्तस्य दुष्टस्य हिगुणो दमः । इति मनुवचने संवसरात् परतो हिगुणदण्डदर्शनेन दण्डवत् प्रायश्चित्तानि भवन्तौति न्यायेन एकत्र निर्णीतः शास्त्रार्थो बाधकमन्तरेणान्यत्रापि तथा इति न्यायाञ्च। आकाश्तित्वेन प्रायश्चित्तेऽपि तथैव युक्तत्वात्। अधिकन्यनकाले तु तदनुसागदेव व्यकस्थेति। अतएव यथा "क्षारोपवेदचण्ड निर्णोदनप्रक्षालनादिभिर्वासांसि शुद्धान्ति एवं तपो दानयजः पापकृतः शुद्धिमुपयान्ति भायमाना इव धातवोऽग्नौ दोषेभ्यस्तस्मात् वित्रभात् स्नेहात् लोभात् भयात् प्रमादाहा अशुभं कृत्वा सद्यः शौचमारमेत्” इति हारौतेन सद्यः करणमुक्तम्। अनापि व्यवहारचिन्तामणी विशेषः । “नाष्टम्यां न चतुर्दश्यां प्रायश्चित्तपरीक्षणे। न परीक्षा विवाहश्च शनिभौमदिने तथा" । एवञ्च प्रायश्चित्तस्य नित्यत्वे जावालोक्त काम्यत्वं कथं सङ्गच्छते। काम्यत्वं हि अनित्यत्वम् प्रसति कामे परित्यक्त शक्यत्वात्। तथा सत्येकस्य कम्मणो नित्यत्वकाम्यत्वाभ्यां हैरूग्याङ्गीकारे नित्यानित्यसंयोगविरोधः । मैवं संयोगपृथकत्वन्यायात् स च न्यायश्चतुर्थाध्याये उक्तः यथा "खादिरे पशु बध्नाति खादिरं वौय्यकामस्य यूपं कुर्वीत” इति श्रूयते अन संशयः काम्यस्यैव खादिरता नित्येऽपि स्यात् उत नेति। तत्र फलार्थत्वेनानित्यतया खादिरताया नित्यप्रयोगाङ्गता न For Private And Personal Use Only Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रायश्चित्ततत्त्वम् । ४७५ युक्ता। यच्च नित्येऽपि खादिरवश्रवणं तत्काम्यस्यैव पशुबन्धनाय यपाश्रयज्ञापनार्थमती न नित्ये खादिरतेति प्राप्तेराद्धान्ताय चतु र्थाध्यायमूत्रम्। एकस्योभयत्वे संयोगपृथक्त्वमिति । तत्र संयोगः सम्बन्धमात्रम्। एकस्य खादिरस्य कवर्थव पुरुषार्थत्व रूपोभयात्मकत्वे वाक्यहयेन च क्रतुशेषत्व फलशेषत्व लक्षणसंयोगभेदावगमात् न नित्यानित्यसंयोगविरोधः। न चायज्ञा. नार्थं नित्यवाक्यम् । सविधानादेवायलाभात् अत उभयार्था खादिरतेति। एवं “दना जुहोति दनेन्द्रियकामस्य” इत्यादावभयार्थतैव दधित्वस्य हेधाश्रवणात्। तस्मात् प्रायश्चित्तं नित्यं नैमित्तिकं काम्यञ्चेत्यतो यत्र प्रसङ्गसम्भावना तत्र नित्यत्वात् काम्याभिलापदक्षिणाद्यङ्ग विनाऽपि प्रधाननिष्यत्त्या फलनिष्पत्तिः । अतएव "क्षयं केचिदुपात्तस्य दुरितस्य प्रचक्षते। अनुत्पित्तं तथा चान्ये प्रत्यवायस्य मन्वते ॥ नित्यक्रियां तथा चान्ये धनुसङ्गफलां श्रुतिम्” ॥ इति जावालभविष्यपुराणाभ्यां सङ्कल्यादिकं विनाऽपि सन्ध्यादिवत् नित्यकर्मणा कृतेनैव पापक्षय उक्त इति। नित्यक्रियां नित्या क्रिया यस्याः श्रुते: तां प्राप्येति शेषः। फलमिति पाठे तु छान्दसत्वम्। केवलावगोरणादौ प्रकारान्तरकृतप्रधाननिष्य. त्तिरूप-वाधकाभावेन काम्यत्वात् काम्याभिलापादिरपि क्रियते। वस्तुतस्तु काम्ये नित्ये वा वैदिकमात्रे यथा कथञ्चित् प्रधाननिष्पत्तौ नाङ्गानुष्ठानार्थे प्रधानाहत्तिः। तथाच छन्दोगपरिशिष्टम् । “प्रधानस्याक्रिया यत्र साङ्गं तत् क्रियते पुनः । तदङ्गस्याक्रियायान्तु नावृत्तिनं च तक्रिया” ॥ अतएव नान्दोमुखशाप्रकरणशेष प्रधानानामपि काम्यानां तत्तद्देशकालविहितानां तन्लेणैव सिद्धिरिति श्राइचिन्तामणिः । अथैवं मुमुक्षोनित्यकरणात् कथं न काम्यफलसिद्धिरिति चेन्न । For Private And Personal Use Only Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४६ प्रायश्चित्ततत्त्वम् । " सम्यक् संसाधनं कमी कर्त्तव्यमधिकारिणा । निष्कामेच सदा पार्थ काम्यं कामान्वितेन च ॥ इति भविष्यपुराणेन स्वर्गादिकाम्ये कामनावतएवाधिकारात् अतएव काम्यो नैमित्तिको वार्थो नित्यमर्थं विकृत्याभिनिविशते न नित्य इत्युक्तम् । द्वादशाध्याये सम्यक् संसाधनं प्रथमकल्पादिना - करणं यस्य तत्तथा। अधिकारिणार्थिना विदुषा समर्थेन । निष्कामेणेति नित्यपरं मुमुक्षुपरच्च । प्रतएव मार्कण्डेयपुराऽपि फलार्थिनं प्रति तत्तत्फलदातृत्व' तदनर्थिनं मुमुचं प्रति मुक्तिदातृत्वं पितॄणामा रुचिः । “पितृनमस्ये दिवि ये च मूर्त्ताः स्वधा भुजः काम्यफलाभिसन्धौ । प्रदानशक्ताः सकलेप्सितानां विमुक्तिदा येऽनभिसंहितेषु" ॥ एवं देवतानामपि फलदातृत्वमधिकारिभेदेनेति । थाङ्गहोने काम्येsपि फलम् । ननु काम्ये श्रङ्गाभावे फलसिद्धौ साङ्गाहि वैदिककर्म्मणः फलावश्यम्भावनियम इत्यस्य सर्वशक्त्यधिकरणोक्तस्य का गतिरिति चेत् समग्रफलविषयतया गृहाण तथाच कल्पतरौ योगियाज्ञवल्कयः । " श्रद्धाविधि - समायुक्त कर्म यत् क्रियते नृभिः । सुविशुद्धेन भावेन तदानन्त्याय कल्पते ॥ श्रहा शास्त्रार्थे दृढ़प्रत्ययः । “प्रत्ययो धर्मकार्येषु तथा श्राद्धेत्युदाहृता । नास्ति श्रधानस्य धर्मकृत्ये प्रयोजनम्" ॥ इति देवलवचनात् । चत्राङ्गप्रकर्षेण फलप्रकर्ष उक्तः । अङ्गाप्रकर्षे तु न फलाभावः । किन्तु फलाल्पत्वमाह योगियाज्ञबल्काः । “भाषं छन्दव देवत्य' विनियोगस्तथैव च । वेदितव्यं प्रयत्नेन ब्राह्मणेन विशेषतः ” ॥ मन्त्राणामित्यनुषज्यते । मन्त्राणामित्यनुषज्यते । विशेषतो विशेषफलाय । " अविदित्वा तु यः कुय्यात् याजनाध्यापन जपम् । होममन्तर्जलादीनि तस्य चाल्पफलं भवेत् ॥ अन्तर्जलादीनि For Private And Personal Use Only Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४७७ प्रायश्चित्ततत्त्वम् । जलमध्यक्रियमाणानि प्रघमर्षणजपादौनि। होममन्यच्च यत्किञ्चिदिति कचित्पाठः। प्रतएव प्रतिनिधावङ्गहानेरावश्यकत्वेऽपि काम्यायामपि देवप्रतिष्ठायां विहितद्रव्याभावे प्रतिनिधिमाह कल्पतरौ भविष्यपुराणम्। “कापन परितालच सर्वाभावे विनिक्षिपेत्। दद्याहोजौषधिस्थाने सहदेवा यवानपि ॥ सहदेवा मेदिन्यता यथा “सहदेवा बला दण्डोत्पलयोः शारिवौषधौ। सहदेवौ तु साक्ष्यां सहदेवी तु पाण्डवो"। प्रायश्चित्तविवेकेऽपि पापवत पुण्येऽपि प्रज्ञानात् जाने बैगुण्यमाहापस्तम्बः । “यः प्रमत्तो हन्ति प्राप्नोति दोषफल सङ्कल्पेन भूय एवमन्येष्वपि दोषवत्सु कर्मसु तथा पुण्य क्रियासु च"। यथा ब्रह्मबधादिषु पापस्य निषिहतयोपयुक्तब्राह्मणादिज्ञाने हैगुण्यं तथा गङ्गास्नानादिषु पुण्यस्य विधेयतावच्छेदकगङ्गादिज्ञाने हैगुण्य ततश्च गङ्गादिनान विनापि पुण्यं भवत्येव किन्तु मङ्गादिज्ञानात् यथा म तथेति एवचाजानतः पुण्यकर्मणः स्वर्गादिकामनां विनापि तत्तत्फलसिन कामनाया अवश्यापेक्षा प्रतएव प्रासङ्गिको फलसिविरप्युपपन्ना अतएव विष्णु पुराणे। पाकाशवागपि “अनुवापि वचः किञ्चित् कृतं भवति कर्मणः” इति प्रासङ्गिकादितरत्र ज्ञानक्कतपुण्यकर्मणि तु स्वर्गादिकामनायाः सम्भवात् है गुण्यफलार्थं कामनाद्यपनन्ते धौमन्तः। व्यतं प्रतिष्ठाकाण्डे कल्पतरौ विष्णुसपणे भविष्यपुराणम्। “टुष्कृतं सुक्कत वापि ज्ञानतोऽज्ञानतोऽपि वा। तत्सर्वमात्मना साई मया तुभ्य निवेदितम् ॥ एवं ज्ञानाभावादभिलापादेः कः प्रसङः तथा च विष्णुपुराणम्। “भगवहिष्णोः पादाङ्गठविनिर्गतजलस्यैतम्माहात्मा यन्त्र केवलमभिसन्धिपूर्वकमानाद्युपयोगेषपकारकमनभिसंहितमप्यपेतप्राणस्यास्थिचर्मनायुकेशाद्युत्सष्टं शरीर. For Private And Personal Use Only Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४७८ प्रायश्चित्ततत्त्वम् । नमपि तदुपरि पतित सद्यः शरीरिणं स्वर्ग नयति" इति तथा शिवरात्रिव्रते दैववशसम्पन्न लुब्धदेहसंसर्गेण जल यौफलपत्र पातादिनापि श्रीमहादेवपादादीनां प्रौतिरित्यादि दर्शनाचा होनादपि प्रधानात् फलसिद्धिः। अतएव लोके पुण्यवुया अर्चाद्यङ्ग विनापि यथा कथञ्चित् दीयते इति व्यवहार: तथा च दानरत्नाकरे । "सर्वत्र गुणवहान खपाकादिष्वपि स्मृतम् । टेशे काले विधानेन पावे दत्तं विशेषतः ॥ गुणवत् फन्तवत् देश स्वभावतः कृष्णसारप्रचरणदेश अत्रापि स्वभूमी परभूमी तु तदनुमतायाम् । तथा च महाभारतम्। “नाननुज्ञातभूमिहि यज्ञस्य फलमत्ते" ॥ यज्ञस्येति वैदिक कर्मोपलक्षगम्। काले रानादौतरत्र विधानेन प्रामुखत्यादिना। पाने विद्यातपस्या युक्त । दत्तं दान विशेषत: समग्रफलाये. त्यर्थः। तथा च दृष्टान्ततया ज्ञानक्तपापस्य भवदेवभट्ट नापि शूद्रगतवस्त्रादिदानकामस्यैव धान्या ब्राह्मणगतवस्त्रादिदानखेऽपि म कामनाकृतब्राह्मणगतदानफलम् । अपि तु ब्राह्मणगतदानमात्रफलम् इत्यभिहितम्। एवञ्च दानादिकर्म मया कत्तव्यम् इति सम्यक्सङ्कल्पजनितेच्छापि धर्मकारणम् । *सम्यक्सङ्कल्पजः कामो धर्ममूनमिदं स्मृतम् ॥ इति याजवल्कावचनात्। तथा "धर्माय पुनरारम्भः सङ्कल्पोऽपि न निष्फलः” इति तट्टोकायां यत्तु योगियाज्ञवल्कवचनम् । "विधिहौन भवेद्दष्ट कृतम श्रद्धया तु यत्। तहरन्त्य मुरास्तस्य मूढस्य दुष्कतात्मनः” इति तत् पूर्वोक्त श्रद्धाविधिसमायुक्तमित्यस्य प्रशंसार्थम्। यथा व्यस्ततिथेनिन्दा युग्मतिथेः प्रशंसा अन्यथा वाक्यभेदः स्यात् पूर्वोक्तापस्त ववचनविरोधश्च स्यात् । अथ विजातीयप्रायश्चित्तात् विजातीयपापनाशः । तथा For Private And Personal Use Only Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रायश्चिततत्वम् । ४७ च प्रायश्चित्तविवेके दण्डनिपातप्रायश्चित्तेनैव गुरुणा तबान्तरी. यकस्यावगोरणस्य प्रायश्चित्तमपि सम्पद्यते इत्यु ताम्। ननु दगड निपातप्रायश्चित्तात् तदनन्तःपातिनोऽवगोरणप्रायश्चित्तस्य कथं सिद्धिः । तथा हि मनुः । “अवयं चरेत् कच्छमतिकच्छ निपातने" ॥ अवगूर्य ब्राह्मणताड़नाथ दण्ड मुद्यम्य शतयातनाजनक यत् पापमुत्पादित तत्पापक्षयकामः कच्छं प्राजापत्यव्रत चरेत् । तदुक्त शंयधिकरणे। शंयोः प्रजापतेः प्रार्थनया देवैाह्मणावगोरण फलत्वेन शतयातनाभिहिता। तथा च श्रुतिः। “शंयुः प्रजापतिः प्रजाविनेता प्रजाहितेरतश्च देवानां हविर्वहनाशिषोऽयाचत देवास्त्ववगोरणेशतयातनास्त्वित्याशिषो ददत" इति शास्त्रदीपिकादौ दर्शपौर्णमासप्रकरणे "देवा वै शंयुवाहस्पत्यम् अब्रुवन् हव्यं नोवहेति किं मे प्रजाया इति ते ब्रुवन् यो ब्राह्मणायावगुरत्तं शतेन यातयेद् यो निहन्यातं सहस्रेण यो लोहितमकरोत् यावतः पांशून् व्यक्ति तावतः परिवत्सरान् स स्वर्गात् प्रयवेत् तस्मात् ब्राह्मणानावगुरेत् न हन्यात् न लोहित कुर्यात् इति । इतिहासात्मकं ब्राह्मणञ्च। अत्र संशयः। ब्राह्मणावगोरणादिनिषेधोऽयं दार्थः पुरुषार्थो वेति। अत्र पूर्वपक्षः । प्रकरणात् दार्थोऽयं दर्शऽवगोरणादिक न कार्यमित्यर्थः । तदुक्त फलाभावात् क्रतोसापि प्रकतत्वात् तदर्थता इति अत्र राहान्ताय जैमिनिसूत्रम्। शंयौ सर्वपरोदानादिति। शंयो शंयुपदयुक्तप्रागुक्त ब्राह्मणसंज्ञकवेदेवगोरणाद्यभावो न दर्शया गाङ्गं कुतः सर्वपरौदानात् प्रकरणात् वाक्यस्य बलवत्त्वेन सर्वस्मिन् कालेऽवगोरणादीनां खण्डनात् तदुतम्। “लप्तत्वात्तु फलस्यायं पुरुषार्थो न तु क्रतोः इति ॥ ननु कथमाशु विनाशिनोऽवगोरणस्य कालान्तरभाविशतयातनाहेतुत्वम् इति For Private And Personal Use Only Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४८. प्रायश्चित्ततत्त्वम्। चेन्न हेतुहेतमतोलिङिति पाणिनिसूत्रानुशिष्टलिङावगोरणशतयातनयोहंतुहेतुमद्भावोऽवगम्यते। आशुविनाशिनस्तदनुपपत्त्या तहारीभूतदुरितापूर्वकल्पनात् । एवं पञ्चम्या टतो. यया विशेषणेन च साधनत्व प्रतीयते। यथा याज्ञवल्करः । "विहितस्याननुष्ठानाबिन्दितस्य च सेवनात्। भनिग्रहाचे. न्द्रियाणां नरः पतनमृच्छति" ॥ मनुः। “शरीरजैः कर्मः दोषैर्याति स्थावरतां नरः। वाचिकः पक्षिमृगतां मानसैर. स्वजातिताम् । यमः। सुरापो ब्रह्महा गोनः सुवर्णस्तेयकन्नरः। पतितैः संप्रयुक्तश्च कतन्नो गुरुतल्पगः । एते पतन्ति सर्वेषु नरकेष्वनुपूर्वशः" ॥ प्रौते सुरापादयः पतन्तीति सुरा. पादौनां पतनकर्तृत्वावगतः। कर्तृत्वञ्च साधनवविशेषः । अतः सुरापानादिविशिष्टस्य पतनसम्बन्धे विशेषणस्य सुरापानादेः पतनसाधमलमवगम्यते। तत्र चिरध्वस्तं फलायालं न कर्मातिशयं विना" इति न्यायेनावगोरणादापाररूपं पापं शतयातनादः कारणं कल्पाते । अत्र यद्यपि पापस्य कार्यानन्वितत्वात् तत् सत्तायामप्रामाण्य प्रतिभाति। यदाह जैमिनिः । "पान्नायस्य क्रियार्थत्वात् पानर्थक्य मतदर्थानामिति”मानायस्य वेदस्य क्रियार्थत्वात् कार्यप्रतिपादकत्वात् प्रामाण्यमिति शेषः। एतदर्थानां कार्य प्रतिपादकानाम् पानर्थक्यम् पप्रमाण्यमिति तथापि “विधिनात्वेकवाक्यत्वात् स्तुत्यर्थेन विधीनां स्युस्तहदभूतार्थानां क्रियार्थेन सह आम्नायादिति” आभ्यां जैमिनिसिद्धान्तसूत्राभ्यां कचिहिधिशक्तिरेवावसौदन्तीत्यादिभिरुत्तभ्यते। इति विध्ये कवाक्यत्वात् क्वचिद्भतार्थानां सिद्वार्थानां क्रियार्थत्वेन सहेकवाक्यत्वाच्च प्रामाण्यमुक्त तथा प्रतापि "क्षारोपखेदचण्ड निर्णोदनक्षालनादिभिर्वासांसि शुध्यन्ति । एवं तपोदानयन्त्रैः पापकृतः शुद्धिमुपयन्ति भायमाना इव For Private And Personal Use Only Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रायश्चित्ततत्त्वम्। ४८१ धातवोऽग्नौ दोषभ्यस्तस्मात् विश्वमम्भात् नेहात् लोभाया. दशभं कत्वा सद्यः शौचमारभेदिति- हारीतादिप्रायश्चित्त. विधिवाक्यसमभिव्याहारात् पापस्य सत्त्वे प्रामाण्यम् इति याज्ञवल्क्यः । “विप्रदण्डोद्यमे कच्छमतिकच्छ निपातने"। कल्पतरुमिताक्षरयोर्गोतमः । “अथात: कच्छ्रान् व्याख्यास्यामो हविथान् प्रातराशान् भुक्ता तिस्रो रात्रौनयेदथापरं वाहं नवं भुनौत प्रतःपरं बाई न कञ्चन याचेत प्रथापरं वाहमुपवसेत्" इति। अयमेव मनुना प्राापत्यत्वेन परिभाषितो यथा। "वाहं प्रातस्त्यहं सायं त्राहमद्यादयाचितम्। वाहं परन्तु नानोयात प्राजापत्यं चरन् हिजः ॥ ग्राससंख्या पराशरेणोता। "सायं हाविंशतिसाः प्रातः षड्विंशतिः स्मृताः । अयाचिते चतुर्विशः परचानशनं स्मृतम् ॥ __ प्रतिक्कच्छ्रमा मनुः। “एकैकं ग्रासमनीयात् बाहाणि बौणि पूर्ववत्। बायोपवसेदन्त्यमतिकच्छचरन् हिजः" । बाआणि बौणि नवाहानि पूर्ववत् प्रातःसायमयाचितैः प्राजापत्यवत्। एवनातिकमध्ये कथं लच्छसिद्धिः। न होकग्रासमध्ये हाविंशतिग्रासा: सम्भवन्ति सत्यं नियमपक्षे एवं दोषो भवतु परिसंख्यापक्षे तु नैष दोषः। एकग्रासातिरिक्त भोजनाभावे हाविंशतिप्रासाद्यतिरितभोजनाभावः सियति । एवञ्चेत् भवतु दण्ड निपातप्रायश्चित्तादवगोरणप्रायश्चित्तसिद्धिः। किन्तु प्रचारिणो गुरुदारगमनप्रायश्चित्तेनैव गुरुणा लघुवकोर्णप्रायश्चित्तं कृतं भवेदिति प्रायश्चित्तविवेककदुक्त कथं सङ्गच्छते। तथा हि याज्ञवल्क्यः । "प्राचार्यपत्नी स्वस्तां गच्छंस्तु गुरुतल्पगः। छित्वा लिङ्गं बधस्तस्य सकामायास्तु योषितः” ॥ तथा "प्रवकौर्णी भबेहत्वा ब्रह्मचारी तु योषितम् । गर्दभं पशमालभ्य नैऋतं स विशुद्यति" ॥ पत्र मरणेन कथं For Private And Personal Use Only Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४८२ प्रायश्चित्ततत्त्वम् । योगसिद्धिरिति चेन्न मरणवैकल्पिकचतुर्विशतिवार्षिकव्रतप्रतिनिधिधेनुदाने एतद्यागप्रतिनिधिधेनुदानसम्भवात् गुरुप्रायश्चित्तेनैव लघुपापनाशस्य वक्ष्यमाणत्वाच। अथ यत्र विहितयवादौनामवघातादिना नाशे यवादिसाध्यत्वं पुरोडाशस्य म स्यादतोऽवयवपर्यन्तः शास्त्रार्थः। एतच्च यवानामपचारे प्रतिनिधीभूतगोधमादिगतयवाद्यवयवेषु प्रत्यभिज्ञानसम्भवात् प्रतिनिधिन्यायावसर इति । अथ गोधमादिगताः कथं यवाद्यवयवा: न खल्वन्यनान्यावयवाः सम्भवन्ति । उच्यते । अवयवाः खलु केचन यवादिमात्राणां केचन गोधममात्राणां केचन उभयवर्गाणां निष्पादकाः । तत्रोभयनिष्पादकानामुभयत्र सम्भवात् गोधमादिगता अपि यवाद्यवयवा यवाद्यवयवत्वेन प्रत्यभिज्ञायन्ते व्यवनियन्ते च । किन्तु यवादिमात्रारम्भकाणामसम्मवान् तदितरमात्रारम्भकाणाञ्च सम्भवात् न यागादौनां पूर्णनिष्पत्ति: प्रतो मुख्यालाभ एव प्रतिनिधिरिति अतएव जीभूतवाहनप्रभृतिभिरक्त यथा मुगापचार माष. प्रतिनिधौ मुहानां माषाणाञ्च यज्ञसम्बन्धेऽयजिया वै माषा इति माषा निषिताः माषगतमुहावयवोपादानेऽपि माषायां यज्ञसम्बन्धो नास्तीति वक्तं न शक्यते माषामिश्रितानामेव यज्ञसम्बन्धप्रतीतेरित्यन्तेन तत्र माषामिश्रितानामिति माघमात्रारम्भकावयवामिश्रितानामित्यर्थः अन्यथा मुझेऽप्युभवारम्भकावयवत्वे माषारम्भकस्यापि तत्र सत्त्वात् यागे तद्ग्रहणमनुपपन्न स्यात्। अतएवोक्त यत्र यत्र सौसादृश्यं तत्र तत्रावयवानां भूयस्त्व न त्यागायोगात् । सुसदृशा एव रह्यन्ते तस्यासम्भवे तु यत्किञ्चिदवयवसत्वेनापौति। परिशिष्टप्रकाशेऽपि। यत्र विहितद्रव्यावयवा एव प्रत्यभिज्ञायन्ते यथा गवये गवावयवास्तत्र हि प्रतिनिधिन्याय इत्युक्ताम् । For Private And Personal Use Only Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रायवित्ततत्त्वम् । ४८३ एवञ्च व्रताचरणधेनुदानयोः प्रतिनिधिन्यायासम्भवात् कथं प्रतिनिधित्वम् इति चेन्न वचनाद्भविष्यति यथा मनुः । " ख्यापनेनानुतापेन तपसाध्ययनेन च पापकृत् मुच्यते पापात् तथा दानेन चापदि ॥ श्रापदौत्यनेन अध्ययनतपसोर्दानं प्रतिनिधिरित्यर्थः । मरण्यागादीनामपि तपस्त्वं यैयैव्रतेरपोहेतेत्युक्वा मरणादौनामपि मनुनोक्तत्वात् । "उमेति चपला पुत्र न चमं तावकं वपुः । सोढुं क्लेशस्वभावस्य तपसः सौम्यदर्शने* ॥ इति मत्यपुराणोक्तवेधक्त शजनकस्वभावत्वाच्च । उमेति चपलात्वमिति शेषः । अतएव शातातपः । “देवतार्थे पितृणाच्च ब्राह्मणार्थे च नित्यशः । स्वं चिन्वतां स्ववृत्तेषु योनः क्ल ेशः स नस्तपः ॥ स्वं धनं चिन्वतां सञ्चयं कुर्वतां स्ववृत्तेषु प्रतिग्रहादिषु इति कल्पतरुः । अत्र विशेषदानमाह संवत्तं: । “ हिरण्यदानं गोदानं भूमिदानं तथैव च । नाशयन्त्याशु पापानि महापातकजान्यपि ॥ यमः । “तिलं ददाति य: प्रातस्तिलान् स्पृशति खादति । तिलैः स्नातस्तिलेर्जुद्वत् सर्वं तरति दुष्कृतम्” ॥ अग्निपुराणम् । ब्रह्महत्याक्कतं पापमन्नदानात् प्रणश्यति । अन्नदः पापकर्त्तापि पूतः स्वर्गे महीयते ॥ हिंसात्मके तु दानस्य प्राधान्यं तपसः प्रतिनिधित्वमाह मनुः । " दानेन बधनिर्णेकं सर्पादीनामशक्नुवन् । एकैकशञ्चरेत् कृच्छ्र ं द्विजः पापापनुत्तये" ॥ बध - निर्णेकं बधात् शौचम् । वस्तुतस्तु पापचयसाधनत्वेनोज्ञानां कृच्छ्रचान्द्रायणादीनां यथा कथञ्चित् येन केनाप्यनुष्ठितेन यस्य कस्यापि पापस्य क्षयः । तथा च विश्वामित्रः । "कृच्छ्रचान्द्रायणादीनि शुद्वाभ्युदयकारणम् । प्रकाशे च रहस्ये च संशयेऽनुक्त के स्फुटे ॥ प्राजापत्यः शान्तपनः शिशुकृच्छ्रः पराककः । प्रतिक्कृच्छ्रः पर्णकृच्छ्रः सौम्यः कच्छ्रातिक्कृच्छ्रकः ॥ For Private And Personal Use Only Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir .४८४ प्रायवित्ततस्त्वम् । महाशान्तपनः शुत्र | तप्तकृच्छ्रस्तु पावनः । जलोपवासकच्छ्रस्तु ब्रह्मकूर्थस्तु शोधकः ॥ एते व्यस्ताः समस्ता वा प्रत्येकमेकशोऽपि वा । पातकादिषु सर्वेषु पातकेषु प्रयव्रतः । काय्र्याचान्द्रायणैर्युक्ताः केवला वा विशुद्धये ॥ शिशुचान्द्रायणं प्रोक्तं यतिचान्द्रायणन्तथा । यवमध्य तथा प्रोक्तं तथा पिपौलिकाक्कतिः ॥ उपवासस्त्रिरात्रन्तु मास: पक्षस्त दर्द्दकम् । षड़हद्दादशाहादिकार्यं शुचिफलार्थिना ॥ उपपातकयुक्तानामनादिष्टेषु चैव हि । प्रकाशे च रहस्ये च अभिसन्ध्याद्यपेक्षया ॥ जातिशक्तिगुणान् दृष्ट्वा सकृत् बुद्धिकतं तथा । अनुबन्धादिकं दृष्ट्वा सर्व कार्य्यं यथाक्रमम्” ॥ प्रकाशे बहुभिर्ज्ञाते पाप इति शेषः । रहस्ये बहुभिरज्ञाते संशये पापस्य अनुक्तके अतिपातकाद्यन्यतमत्वेन विशेषतोऽनुक्ते प्रकीर्णक इति यावत् । अस्फुटेऽव्यक्तेऽज्ञाते इति यावत् श्रादिपदविवरणं प्राजापत्य इत्यादि । सौम्यः सौम्यक्कृच्छ्रः व्यस्ता समस्ता अनेक इति यावत् प्रत्येकम् एकमेकं प्रति तत्तथा एकशो व्रतमिति शेषः षड़हादशाहादोत्यवादिशब्दोऽयमनुक्तप्रायवित्तपरिग्रहार्थः । अथैवं समस्ता इति निर्विषयं स्यात् न होकव मरणद्दादशवार्षिकादिसम्भव इति चेत्र कामतः शूद्रकर्त्तृकाग्निहोत्रादिगुणयुक्त ब्राह्मणबधे विषयसम्भवात् । " द्विगुणा चत्रियाणान्तु वैश्यानां त्रिगुणा मता । चतुर्गुणा तु शूद्राणां परिषदुक्ता महात्मना || परिषद्दतं प्रोक्तं शुद्धये पापकर्माणाम् । अधमानान्तु वर्षानामुत्कष्टहनने गुह। दोषो गुरुतरो शेयः चयादीनां न संशयः ॥ इति भविष्ये ब्राह्मणापेचया चतुगुणप्रायश्वितश्रुतेः । " समो द्विगुणसाहस्रमानन्त्यच यथाक्रमम्। दाने फलविशेषः स्यात् हिंसायां तद्ददेव हि ॥ इति दचवचनाश्च । पतो हादशवार्षिकव्रताद्यनन्तरमपि ' For Private And Personal Use Only Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रायवित्ततत्त्वम् । ન્ मरणसम्भवात् । व्रतन्तु द्वादशवार्षिकादतिरिक्तकालिकं न भवति यश्च यावज्जीवनव्रतं तदपि द्वादशवार्षिकद्वैगुण्येन संकलितम् अन्यथा तत्संसर्गियो जोवनकालानियतत्वेन प्रायवित्तकल्पनानध्यवसायापत्तेरेवमेव प्रायश्चित्तविवेकः । अभिसन्धेस्तारतम्यं मातृपोषण परदारत्वादिना । जातेस्तारतम्यं ब्राह्मणत्वादिना । शक्तिबलत्वादिना । गुणस्य विद्यत्वादिना । अनुबन्धः पौनःपुन्येनाभिनिवेशः । अथ चान्द्रायणादौ भोजनपरिसंख्या । भोजनस्य रागप्राप्तत्वात् नाप्राप्तप्रापको विधिः । स चाहरहः सन्ध्यामुपासौत इत्येवं रूपम् । नापि तद्भक्षणस्थानावश्यकत्वेन खायो - गव्यवच्छेदमात्रफलको नियमविधिः । स च तत्तत्तिथौ तत्तद्ग्रासान् भुञ्जतैवेत्येवं रूपः । तथा च " स्वरुच्या क्रियमाणे a aarati' क्रिया क्वचित् । चोद्यते नियमः सोऽत्र ऋताभिगमो यथा " ॥ तथात्वे पितृमरणादवपि भोजनं प्रसज्येत हविष्यात्रभोजनव्रतादावपि उपवासाभाव एव प्रपद्येत तद्भक्षणस्य समकालमेवान्यभक्षणेऽपि न दोषः स्यात् । तस्मादगत्या "तार्थस्य परित्यागादश्रुतार्थस्य कल्पनात् । प्राप्तस्व वाधादित्येवं परिसंख्या विदोषिका " ॥ इत्युक्तस्वार्थ हान्यर्था - न्तरकल्पनरागप्राप्तवाधरूपदोषत्रयदुष्टापि श्रन्ययोगव्यवच्छेदफलिका परिसंख्या एव युक्ता सा च सति भोजने तत्तत्तियों तत्तदुग्रासानेव भुञ्जीत नान्यदित्येवं रूपा तस्मात्तदतिरिक्तभोजनाभावपरत्वेन उपवासेऽपि दोषाभावः । तदुक्तं भट्टपादैः । " श्रन्याश्रयमाणा च यान्यार्थ प्रतिषेधिका । परिसंख्या तु सा ज्ञेया यथा प्रोक्षित भोजनम् ॥ अन्यथा प्राजापत्यव्रतेऽपि areमद्यादयाचितमिति । " पयाचितन्तु मध्याह्ने चतुर्विंशतिशहये” । इति ब्रह्मपुराणोक्तस्थायाचितस्यालाभे व्रतलोपा 1 For Private And Personal Use Only Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४८६ प्रायश्चित्ततत्त्वम् । पत्तिः स्यात्। चतुर्विंशतिरिति चतुभिरधिकार्विधतियंत्र तत्तथा अयाचितन्तु स्वकीयानुयोगेन पराहृतं दत्तं वस्तु । तथा च यतिधर्मे उशना। "भिक्षाशनमनुट्योगात् प्राक् केनाप्यनिमन्वितम्। अयाचितन्तु तझैच्य भोक्तव्यं मनुरब्रवीत् ॥ याज्ञवल्क्यः । “अयाचिताहृतं ग्रामपि दुष्कृतकर्मणः। अन्यत्र कुलटापण्डपतितेभ्यो हिषस्तथा ॥ एतेन तदानौमयाचितत्वेन गृहस्थितानामयाचित्वमिति निरस्तम्। प्राजापत्ये परिसंख्या व्यक्तमाल गोतमः। “प्रथापरं काहं न कञ्चन याचेत" इति। तथा प्रायश्चित्तविवेक कतिरप्यवादिजातप्राणिवधे मनक्ता हतप्राशनस्य प्रायश्चित्तरूपत्वात शवानुगमननिमित्त इव शरीरशुद्धिहेतुरूपत्वाभावादबान्तरनिति रवसीयते इति वदतिः सर्वप्रायश्चित्ते परिसंख्या दुर्गसिंहोऽपि অস্বামীলীয় ৰনি মালনস্থান মুয় ল স্বামিনি न तु नियमः। तथाले व्रतलोप: स्यात् । यथा मया नानं कर्तव्यमिति नियमे सत्यमानात् व्रतभङ्ग इत्याह अतएक कच्छ्रभूयस्त्वमप्यपद्यतेऽत्र विशेषयति वौधायनः। “अष्टो सान्यव्रतनानि आपो मूलं फलं पयः। इविना॑ह्मणकाम्या च गुरोर्वचन मौषधम् ॥ अतएव फलाहारादौ तथाचारः । अथ गुरुप्रायश्चित्तेन लघुपापनाशः। “पापे गुरुणि मुरूणि लघुनि च लधनि च। प्रायश्चित्तानि मैत्रेय जगुः स्वायम्भुवादयः” ॥ इति विष्णुपुराणात्। “एवं विषयभेदाहै व्यवस्थाप्यानि पुत्रक । प्रायश्चित्तानि सर्वाणि गुरूणि च लघनि च॥ अन्यथा हि महावाहो लघुनामुपदेशतः। गुरूणामुपदेशो हि निष्प्रयोजनतां व्रजेत्”.॥ इति भविष्यपुराणात् । "स्वल्पसाध्ये च दुःसाध्य श्रावयेत् सततं जने। यथा पाप न वर्त्तत प्रायश्चित्तभयादिह ॥ न निर्दिशेदल्पसाध्य प्राय. For Private And Personal Use Only Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रायश्चित्ततत्त्वम् । वित्तं नरे बुधः । तस्मिन् संक्रमते पापं कर्त्ता तु तद्दिमुचते ॥ इति गङ्गावाक्यावलोष्टतस्कन्दपुराणवचनात् । " यस्मिन् कर्मण्यस्य कंते मनसः स्यादलाघवम् । तस्मिंस्तावत्तपः कुर्य्यात् यावत्तुष्टिकरं भवेत्” ॥ इति मनुवचनाञ्च । अभ्यस्तानम्यस्वाभ्यां क्वच्छ्रचान्द्रायणादीनि इत्यादि विश्वामित्रवचनैः सर्वप्रायश्चित्तानां सर्वपापचय हेतुतोक्ता एवच्च पापविशेषे प्रायखित्तविशेषोपदेशो मुनौनां तत्तुल्यप्रायश्चित्तप्रदर्शनाय अन्यथा प्रायश्चित्तविशेष कल्पनायामनध्यवसायः स्यात् । अतएव विश्वामित्रेणापि । “कृच्छ्रांस्तु चतुरः कुर्य्यात् गोबधे बुडि पूर्व के” । इत्यादिविशेषवचनेन तदभिहितं तेन प्राजापत्यादिसाध्यपापक्षयस्य तदन्यूनक्लेशे प्रायश्चित्तान्तरसाध्यतापि अतएव । "प्राजापत्यव्रताशक्तो धेनुं दद्यात् पयस्विनौम् । इति प्राजापत्यव्रतानुकल्पत्वेन श्रुतं धेनुदानं तत्तुल्यत्वेन संकलय्य पापान्तरेऽपि कल्प्यते । अतएव बौधायनेन सामान्यत उक्तम् । “बहूनामेकधाणामेकस्यापि यदुच्यते । सर्वेषामेव तत् कुय्यादेकरूपा हि ते स्मृताः ॥ एवं पूर्वोक्तगर्दभपशुयाग साध्यपापनाशस्यापि तदधिकक्लेशेन मरणेन प्रसङ्गात् सिद्धिः । अतएव ब्रह्माबधपापचयार्थिनो गोसहस्रदानेन तदनधिकसर्वपापक्षयमाहाङ्गिराः । " गवां सहस्र ं विधिवत् पत्त्रेिभ्यः प्रतिपादयेत्। ब्रह्महा वै प्रमुच्येत सर्वपापेभ्य एव हि ॥ यमः । " गवाह्निकं देवपूजा वेदाभ्यासः सरित्प्लवः । नाशयन्त्याशु पापानि महापातकाजान्यपि” । गवाह्निकं गोर्दिनभक्ष्यम् अपि ना - सुतरामल्पपापनाशकतावगम्यते । तथा च छन्दोग परिशिष्टम् । "वेदाञ्छन्दांसि सर्वाणि ब्रह्मावाश्च दिवौकसः । जलार्थिनोऽपि पितरो मरीच्याद्यास्तथर्षयः । उपाकर्मणि घोसर्गे नानार्थं ब्रह्मवादिनः । यियासूननुग: हत्पापनाशकस्य For Private And Personal Use Only -४८० Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir gat प्रायश्चित्ततत्त्वम् । छन्ति संदृष्टा घशरीरिणः। समवायच यत्रैषां तवान्ये बहवो मला। न्यनं सर्वे क्षयं यान्ति किमुतकं नदौरजः'एषां वेदादौनां यत्र नदौजले समवायस्तव गुरुतरा एव ब्रह्महत्यादयो दोषाः कावान माश यान्ति किमुतैकं नदौरजः । प्रतएव अविज्ञात गर्भवधे पुरुषशङ्कया पुंबधप्रायश्चित्तमेवोतम्। गुरुणा पुंवधप्रायश्चित्तेन लघुन: स्त्रौवधपापक्षयस्य सम्भवात् । यथा वशिष्ठः “ब्राह्मणं इत्या भणहा भवति अविज्ञातच गर्भम अविज्ञाता हि गर्भाः पुमांसो भवन्ति तस्मात् पुंस्कत्या जुह्वतो" इति प्रायश्चित्तविवेकः महाभारते। “ययकार्यशत कृत्वा कृत गङ्गाभिषेचनम्। सर्व दहति गङ्गाम्भस्तलराशिमिवानल:" ॥ प्रथ गङ्गामाहात्माम्। भविष्ये। "गच्छस्तिष्ठन् वपन् ध्यायन् जाग्रद भुञ्जन् वसन् वदन् । यः स्मरेत् सतत गणां सच मुच्येत बन्धनात् ॥ तथा भवनानि विचित्राणि विचि. वाभरणा: स्त्रियः। आरोग्य वित्तसम्पत्तिर्गङ्गास्मरणजं फलम् । ब्रह्माण्डे । . “यैः पुण्यवाहिनी गङ्गा सकत्यावगाहिता । तेषां कुलानां लक्षन्तु भवात्तारयते शिवा”। दानधर्मे । “अन्धाः लौवा जड़ा व्यङ्गाः पतिता रोगिणोऽन्त्यजाः। गङ्गा संसेव्य पुरुषा देवगच्छन्ति तुल्यताम्" ॥ स्कान्दभविष्ययोः । "मानमात्रेण गङ्गायां पाप ब्रह्मवधादिकम्। दुराधर्ष कथं याति चिन्तयेद यो वदेदपि। तस्याहं प्रददे पाप कोटिब्रह्मबधोद्भवम्। स्तुतिवादमिम मत्वा कुम्भीपाके महीयते ॥ प्राकल्यं नरक भुक्त्वा ततो जायेत गर्दभः ॥ ब्रह्माण्डे । "ये गच्छन्ति खतो गङ्गां परांश्च प्रेरयन्ति ये। इह ते सर्वभोगानामन्ते ज्ञानस्य भाजनम् ॥ यजपाल परिशिष्टम् । "वित्तान्यजयितुं युक्तः प्रवासी ह्यग्निहोत्रिणः। वित्ते हि For Private And Personal Use Only Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रायश्चित्ततत्त्वम् । ४८ सम्भवेदिज्या तीर्थावर्थे न तु व्रजेत् ॥ स्वान्दमत्स्ययोः । *तीर्थयात्रादिक बत्नमकुर्वाणोऽपि मानवः। गङ्गातोयस्य माहात्मनात् सोऽप्यन्त्र फलभाग भवेत् ॥ यात्राकरणे तु भविष्यपुराणम्। “गङ्गास्नानसमायुक्तो विधिना स्वग्रहात्ततः । निर्गत्य मध्ये च नरः कुदेशे मियते यदि। गङ्गास्नानफर सोऽपि नियतात्मा लभेत् सदा ॥ समायुक्ताः समुद्युमः विधिना यथोक्तविधिना । तथाविधक्कतयात्र इलथ । तहिधि. माह ब्रह्मपुराणम्। “यो यः कश्चित्तीर्थयात्रान्तु गच्छेत् सुसंयत: सच पूर्व रहे खे। तोपवासः शुचिरप्रमत्तः संपूजयेद भक्तिनमो गणेशम्। देवान् पितृन् ब्राह्मणांश्चैव साधन धौमान् प्रौणयन् वित्तशक्त्या प्रयत्नात् । प्रत्यागतथापि पुनस्तथैव देवान् पितृन् ब्रामणान् पूजयेच्च । एवं प्रकुर्वतस्तस्य तीर्थाद् यदुक्त फलं तत् स्यावान सन्देह एव" ॥ सुसंयतः पूर्वदिने कतैकमनादिनियमः। तदुत्तरदिने कृतोपवासस्तदुत्तरदिने गणेश प्रहानिष्टदेवताश्च संपूज्य वृद्धिावं कला ब्राणान् भोजयेत्। ततः शुभलम्ने यावां कुर्यात् तीथयात्रान्तु गच्छेदित्युपक्रमादुपवासदिने मुण्डनमपि। "प्रयागे तीर्थयात्रायां पिसमावियोगतः। कचानां वपन कार्यन वृथा विकचो भवेत् ॥ इति विष्णुपुगणवचनात। प्रवेशेऽपि तीर्थयात्रायामिति वक्तव्यम्। “गच्छन् देशान्तर यत्तु थाई कुर्यात्त सर्पिषा। यात्रार्थामति तत् प्रोक्तं प्रवेशे च न संशयः”। इति भविष्यपुराणादिति गङ्गावाक्यावलो। वस्तु तस्तु तीर्थप्रत्यागमनोत्तरखरहप्रवेशे इत्येव वक्ता व्यम् । यावाप्रत्यागमनोत्तरखग्रहप्रवेशयोर्भेदात् प्रत्यागमनोत्तरलाभस्तु प्रत्यागतचापौति प्रागुतत्वात् व्यक्तमा हलायुधकृतं कुर्मपुराणवचनम्। “तीर्थयात्रासमारम्भे तीर्थात् प्रत्यागमऽपि For Private And Personal Use Only Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४८. प्रायश्चित्ततत्त्वम् । च। वृधियाई प्रकुर्वीत बहुसर्पिः समन्वितम् ॥ ततच प्रवेशे चेति चकारेण श्राधमात्र समुचितम्। न तु तस्य यावार्थत्वमपौति । एवं देवान् पितृनित्यभिधानात् तत् पूजनमेव पुन: कार्य न तूपवासादिकमपि अन्यथा देवानित्यादिक व्यथं स्यात्। मत्यपुराणम्। "तिलोदकाञ्जलिर्देयी जलस्र्थस्तीर्थवासिभिः। सदानहस्तेनैकेन रहे थाई समि. ष्यते ॥ पत्र जलस्यैरियनेन स्थलस्थानामपि जलस्थत्वं नियम्यते । तथा हि "पसरदके पाचाम्सो अन्तरव शुद्धो भवति। वहिरदके पाचान्तो वहिरव शुद्धी भवति। तस्मादम्तरेक वहिरकञ्च पादं कृत्वा पाचामेत् सर्वत्र शुद्धो भवति" इति पैठौनस्युक्तम नलैकचरणकताचमनेन उभयत्र कर्माहत्वात् । तर्पणकाले तीर्थे जलैकचरणत्व प्रतीयते। अन्यत्र त्वनियमः । तद्रूपाणां जले च तर्पणमविरुद्धमिति। गृह इति स्थलीप. लक्षणम्। देवीपुराणे। “प्रकालेऽप्यथवा काले तीर्थशाई तथा नरैः। प्राप्तैरेव सदा कार्य कर्तव्यं पितर्पणम् । पिण्डदान तत्र शस्तं पिटणाञ्चातिदुर्लभम् । विलम्बो नैव कर्तव्यो न च विघ्न समाचरेत्। श्राद्ध तत्र तु कर्तव्यमावाहनवर्जितम्। श्वध्वाशरध्रकाकाणां नैव दृष्टिहतञ्च यत्” । ध्वासो दण्ड काकः। अत्राकाल इति न रानवादाविति पय्युः दस्तप्रतिप्रसवः। तथात्वे तहाधापत्तेः। किन्तु पर्युदस्ते. तगप्रशस्तकालपरम्। “तत् सादृश्यमभावश्च तदन्यत्व तदल्पता। अप्राशस्य विरोधश्च नअर्थाः षट्प्रकीर्तिताः” । इत्यनुसारात। काल इति प्रशस्तापराह्लादिकालपरम् । अत्र शुचेः प्राप्तपत्तरविहितप्रथमदिन एव श्राई तेन पूर्वदिने राक्षसोवेलादावागमनेऽपि परदिने श्राद्धमविरुद्धम्। तथा च हलायुधकृतम्। “गत्वे व तौधे कर्तव्यं श्राई तत् प्राप्ति For Private And Personal Use Only Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रायश्चित्ततत्त्वम् । ४८१ I हेतुकम् । पूर्वा ऽप्यथवा प्रातदेशे स्यात् पूर्वदक्षिणे" || पूर्वाह्न सङ्गवे पूर्वदक्षिणे अम्मिको । पिण्डदानमिति श्राद्धासम्भवे केवलपिण्डदानमिति न पौनरुक्त्यम् । पिण्ड प्रतिपत्तिमाह मत्स्यपुराणम् । “पिण्डांस्तु गोऽजविप्रेभ्यो दद्यादग्नौ जलेऽपि वा । तीर्थश्राडे सदा पिण्डान् चिपेत्तीर्थे विचक्षणः” । महाभारते । “यो लुब्धः पिशुनः क्रूरो नास्तिको विषयात्मकः । सर्वतीर्थेष्वपि स्नातः पापो मलिन एव सः ॥ तथा "विषयेष्वतिसंरागो मानसोऽमल उच्यते । तेष्वेव हि विरागेऽस्य नैर्मल्यं समुदाहृतम् । पिण्डदान' तपः शौच तीर्थसेवाश्रुतन्तथा । सर्वाण्येतान्यतीर्थानि यदि भावो न निर्मलः” भाव: सात्विक राजसतामसान्धतममनोवृत्तिः स च निर्मल: सात्त्विक इत्यर्थः । एतानि तोयें कृतान्यपि श्रतीर्थान्यतोर्थकृतानि । यथा " प्रतिग्रहादपावृत्तः सन्तुष्टो येन केनचित् । # ङ्कारविमुक्तश्च स तोर्थफलमश्रुते ॥ तीर्थेन प्रतिग्टलीयात् पुण्येष्वायतनेष्वपि । निमित्तेषु च सर्वेषु श्रप्रमत्तो भवेन्नरः” ॥ निमित्तेषु संक्रान्त्यादिषु । तथा " खकार्ये पितृकार्येऽपि देवताभ्यर्चनेऽपि वा । निष्फलं तस्य तत्तीर्थं यावत्तद्दनम श्रुते” ॥ शङ्खः । " तोर्थं प्राप्यानुषङ्गेन स्रानं तौधें समाचरन्। नानजं फलमाप्नोति तीर्थयात्रा फलं न तु ॥ तथा " यस्य पादौ च हस्तौ च मनश्चैव सुसंयतम् । विद्या तपश्च कौर्त्तिश्च स तौर्थ - फलमश्रुते ॥ नृणां पापकृतां तीर्थे भवेत् पापस्य संक्षयः । यथोक्तफलदं तौर्थं भवेच्छुद्धात्मनां नृणाम् ॥ हस्तसंयमोऽत्र निन्दितप्रतिग्रहादिनिवृत्तिः । पादसंयमस्तु श्रगम्यदेशादिगमननिवृत्तिः । मनःसंयमः कामक्रोधादिनिवृत्तिः । विद्या तत्तत्तीर्थफलबोधकसच्छास्त्रवेदाद्यधिगमरूपा । तपः श्रमिप्रादिनिवृत्तिः । कौर्त्तिर्धर्मार्थतीर्थगमने धार्मिकत्वादिना प्र For Private And Personal Use Only Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४८२ प्रायश्चित्ततत्वम् । सिहिः। फलं सम्यगिति शेषः। एतच हस्तसंयमनादि. तीर्थयात्राएं महाभारते तीर्थयात्रामुपक्रम्याभिधानात्। तीर्थबानादि कर्काइच। शङ्खन यात्राप्रकरणमन्तरेणैव स तीर्थफलमते इति सामान्याभिधानात्। इति कल्पतरुः । पत. एव पैठौनसिः। षोड़शांशं स लभते यः परार्थेन गच्छति। पई तीर्थफलं तस्य यः प्रसङ्गेन गच्छति ॥ परार्थेन वेतनादिना प्रसङ्गेन उद्देश्यान्तरप्रसङ्गेन । ____ तथा प्रतिवति कत्या तीर्थवारिणि मब्जयेत् । मनयेत्तु यमुहिन्य पटभागं लभेत सः ॥ प्रतिकतिः प्रतिनिधिः । पत्र दर्भवटः । शान्तिदीपिकायाम्। “सप्तभिनंवभिर्वापि साईहितय वेष्टितम्। प्रणवेन च मन्त्रेण हिजः कुयात् कुशहिजम्” ॥ नवभिरित्यत्र पञ्चभिरिति कर्मोपदेशिन्यां पाठः । रखाकरे तु ग्रहपरिशिष्टम् । “जहुंकेशो भवेद ब्रमा लम्ब. केशस्तु विष्टरः । दक्षिणावर्सको ब्रह्मा वामावर्तस्तु विष्टरः" । केशोऽधायः। तमनने मन्त्रः । “कुशोऽसि कुशपोऽसि ब्रह्मणा निर्मित: पुरा। त्वयि नाते स च नातो यथार्थ ग्रन्थिबन्धनम्" ॥ स्वान्दे। "मापयेत् सिग्धमित्रादौन जातीस्तौथै नरोत्तमः। अन्यथापहरन्येते बलात्तीर्थभवं फलम् ॥ विष्णुः। "स्वयमुहिश्य कर्त्तव्यं स्वार्थ तीर्थ नरोत्तमैः । प्रकतॄणां हरन्त्येते तीर्थं पूर्वञ्च यत् शतम् ॥ नरोत्तमैः स्वयं स्वार्थमात्मीयार्थमुद्दिश्य तीर्थ कर्तव्यम् । एते प्रात्मीयाः मदनपारिजाते मार्कण्डेयपुराणम्। "मातरं पितरं जायां मातरं सुहदं गुरुम्। यमुद्दिश्य निमजेत अष्टभागं लभेत सः" । प्रविसंहितायामप्यतत्। निमज्जेत खयमिति :शेषः । मध्यपुराणे। "ऐश्वर्यलाभमाहात्माहच्छद यानेन यो नरः । निफल तस्य तत्तीर्थ तस्माद यानं विवर्जयेत् ॥ गङ्गावाक्या. For Private And Personal Use Only Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रायवित्ततत्त्वम् । ४८६ बल्याम् । “संवत्सरं हिमासोनं पुनस्तीर्थं व्रजेद्यदि । मुण्डन चोपवासञ्च ततो यत्नेन कारयेत्” ॥ एतेन दशममासाभ्यन्तरे पुनर्गमने मुण्डनोपवासौ न काय्याविति सूचितम् एवं तीर्थ प्राप्तिनिमित्तकश्राहमपि । श्राकाङ्गायास्तोल्यात् । तदुक्तं भट्टपादैः । " काकेभ्योरक्षतामन्त्रमिति वालोपदेशतः । उपघातप्रधानत्वात् किं खादिभ्यो न रच्यते” ॥ । । स्कान्दे । “मुण्डनञ्चोपवासञ्च सर्वतीर्थेष्वयं विधिः । वर्ज - यित्वा गयां गङ्गां विशालां विरजां तथा” ॥ यत्तु “ गङ्गायां भास्करक्षेत्रे मातापित्रोर्मृते गुरौ । प्राधाने सोमपाने च वपनं सप्तसु स्मृतम्” ॥ इति स्मृतिसमुच्चयलिखितवचनं भास्करक्षेत्र' प्रयामः । तत्र पूर्ववचनं सामान्यतो गङ्गायां निषेधकं परवचनन्तु प्रयागावच्छिन्न्रगङ्गायां विधायकमिति न विरोधः । सप्तमत्वन्तु गङ्गात्व भास्करक्षेत्रत्वभेदात् । अत्र सर्वतौ पुराणभारतादिप्रसिद्द देशविशेषतौर्थपरं शिष्टपरिग्रहात् प्रयागेऽकरणे दोषोऽपि । तथा च " गङ्गायां भास्करचेत्रे मुण्डनं यो न कारयेत् । स कोटिकुलसंयुक्त प्राकल्प रौरवे वसेत्” ॥ अत्र गङ्गाप्रयागयोवैशिष्ट्य स्फुटम् । प्रयागे स्वौणामप्रि मुण्डनं न तु वच्यमाणवचनाभ्यां केशानां हाङ्गुलच्छेदमात्रम् । “केशमूलान्युपाश्रित्य सर्वपापानि देहिनाम् । तिष्ठन्ति तीर्थनानेन तस्मात्तान्यत्र वापयेत्” ॥ इति वचनात् । अत्र कारयेत् वापयेत् इति श्रवणात् वपनं कारयिष्ये इति प्रयोगः । मुण्डने फलमपि तथा च प्रयागमधिकृत्य " केशानां यावती संख्या दिनानां जाह्नवौजले । तावद्दर्षसहस्राणि स्वर्गलोके महीयते ॥ यावन्तौ नखलोमानि वायुना प्रेरितानि वै । पतन्ति जावतोये नराणां पुण्यकर्मणाम् ॥ तावद्दर्षसहस्राणि स्वर्गलोके महीयते" ॥ सर्वतीर्थेष्वित्यत्र कमधारयः । ४२. For Private And Personal Use Only Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४28 प्रायचित्ततत्वम् । न च प्रयाममधिकृत्य ब्रजपुराणम्। “एवं कुरुष्व कौन्तेय सर्वतौर्धाभिषेपनम् । यावलोवकृतं पापं तत्क्षणादेव नखति । इत्यत्र सप्तम्यन्यपदार्थबहुव्रीहिदर्शनात्तदवापि तथेति बाथम्। लक्षणाप्रसङ्गात् ब्रह्मपुराणवचनेऽन्यथानुपपत्या सधा कल्पात बहुवचनानुपपत्तेश्च । न च ग्रहं संमाटीतिवदुहेश्वगतलेन बहुत्वसंख्याया पविवचितत्वमिति वावं प्रमाणासराप्राप्तवेनामोहेश्यत्वाभावात्। किन्तु पशना यजे. तेत्यत्र पखेकत्ववत् बहुत्वस्व विधेयत्वमिति गङ्गादिविशेषनिषेधातुपपत्तेश्च । न चायशिया वैमाषा पति वदत्वन्तनिषेधार्थमिति वाच्यम् । तत्र मौजवरभवतीत्युपदेशेऽपि प्रतिनिधिना माषप्राप्तेयुक्तो निषेधः। पत्र प्रयाग मुण्डनं कुयादित्युक्ते गयादौ प्रसत्यभावात् कुतो निषेधः। सर्वतीर्थपदस्थ तीर्थमानपरत्वे गयादौ प्रसत्या निषेधः सूपपयः । सामान्यशास्त्रप्राप्तुरपजीवित्वात् पर्युदास एव तस्वम्। न "गङ्गायां भास्करक्षेत्रे पित्रोच मरणं विना। वृथा छिनत्ति य: केशस्तिमाहुब्रह्मघातकम्" इति कालिकापुराणवाक्यादन्यत निषेध इति वायं पूर्वोक्ता तिसमुच्चयवचनेनास्योपलक्षणत्वात्। विष्णुनापि "प्रयागे तीर्थयात्रायां पिटमा. वियोगतः। कचानां वपनं कुर्यात् वृथा न विकचो भवेत इत्यत्र तीर्थयात्रायामित्यधिकमुक्तम् । तत: प्रयागेऽवश्यमुण्डनमन्यतीर्थेषु गयागङ्गाविशालाविरजेतरेषु मुण्डने उपवासवत् फलाधिक्यम् । कूर्मपुराणे। "गङ्गायां जानती मृत्वा मुक्तिमानोति मानवः । अज्ञानात् ब्रह्मलोकञ्च याति नास्त्यत्र मंशयः ॥ तथा गङ्गायाञ्च जले मोक्षो वाराणस्यां जले स्थले। अन्तरीक्षे च गङ्गायां गङ्गासागरसङ्गमे ॥ चकारात् स्थलेऽपि । स्मतिः । “शुक्लपक्षे दिवा भूमौ गङ्गायामुत्तरायणे। For Private And Personal Use Only Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रायवित्तसत्त्वम् । ४८५ धन्धा देहं विमुञ्चन्ति हृदयस्खे जनार्दने" ॥ पाग्नेये। “पो दके तु जाव्यां म्रियतेऽनशनेन यः। स याति न पुनर्जन्म ब्रह्मसायुज्यमेति च । पोदकं चरणाबाभिपर्यन्तम्। स्कान्दे। "गङ्गायां त्यजतः प्राणान् कथयामि वरानने। कर्णे तत् परमं ब्रह्म ददामि मामकं पदम् ॥ प्रागुक्तकूर्मपुराणवचनात् गङ्गाबनानेन मुक्तिः तदनाने ब्रह्मलोकगमनम्। इति ब्रह्माण्डे । "मानन्तु भक्त्या गायां कर्तुकामस्य गच्छतः। पदे पदेऽश्वमेधस्य फलं मख जायते ॥ ब्रह्माण्डाम्नेययोः। "दृष्टा तु परते पापं स्पृष्टा तु विदिवं नयेत्। प्रसङ्गेनापि या गा मोचदा त्ववमाहिता । अनेकजसम्भूतं पापं पुंसां प्रणश्यति । खानमावेण गङ्गायां सद्यः स्यात् पुण्यभाजनम्॥ पन्यखानकृतं पापं गङ्गातोरे विनश्यति । गङ्गातोरे कृतं पापं गङ्गानानात् विनश्यति” ॥ ब्रह्मपुराण । “षष्ठयादौ कृष्णपक्षे तु भूमौ सविहिता भवेत्। यावत् पुस्खममावास्यां दिनानि दश नित्यशः” । गङ्गेति शेषः । तेनावाधिकं फलमित्यर्थः । भविथे । “हादश्यां श्रवणर्वे तु प्रष्टम्यां पुष्थयोगतः। पार्दायाच चतुर्दश्यां गङ्गामानं सुदुर्लभम् ॥ तथा “कष्णाष्टम्यां सहस्रन्तु शतं स्थात् सर्वपर्वम्। अमावास्यां शतगुणं सहस्रन्तु दिनक्षये ॥ शतगुणं पवत्वन पूर्वमुक्तं शतशतगुणमयुतमित्यर्थः। पन्यथा पर्वत्वेन सतगुणप्राप्ते प्रमावास्यामिति वैययं स्यात् । तथा "संवकरफलं तस्य नवम्यां कार्तिके तथा। मन्वादौ च युगादौ च मासवयफलं लभेत् ॥ नैरन्तर्येण गङ्गायां मासं यः साति मानवः। स शक्रलोकेषु चिरंस्थित्वा कालं सगोवः ॥ ततो ब्रह्मपुर तिष्ठेत् कल्पकोटिशतायुतम् ॥ तथा "घण्मास खाति गायां नैरन्तर्येण यो नरः। सर्वपापविनिर्मुन्न: समस्वकुलसंयुतः ॥ समस्तभोगसंयुको विष्णुलोके महीयते । For Private And Personal Use Only Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४८६ प्रायश्चित्ततत्त्वम् । पराईद्वितयं यावत् नात्र कार्यया विचारणा ॥ षण्मासमेकन्त्व 1 परं सक्कदेवोत्तरायणे । एतदेव भवेत् पुण्यं विषुवे च तथैव च” ॥ ब्रह्माखे । संक्रान्तिषु व्यतीपाते ग्रहणे चन्द्रसूर्ययोः । पुष्ये स्नात्वा तु गङ्गायां कुलकोटौः समुद्धरेत्” ॥ व्यतौपातमाह वृहन्मनुः । " श्रवणाविधनिष्ठार्द्रा नागदैवतमस्तके | यामारविगरेण व्यतीपातः स उच्यते ॥ नागदैवतमश्लेषा | मस्तकं मृगशिरः । गङ्गामृतग्रन्ये भवि ष्यपुराणम् । “ चतुर्दश्यां यदा योगो व्यतीपातेन चार्दया । तदा पुण्यतमः कालो देवानामपि दुर्लभः ॥ तदा यः नाति गङ्गायां भक्त्या तत्फलमाप्नुयात् । यत्र यत्र विपक्षो हि गङ्गा मरणजन्तु सः ॥ व्यतौपातेन चन्द्रमा इति गङ्गावाक्यावल्युतपाठोऽनन्वितत्वाद्देयः । तथा " ग्रामनो जन्मनक्षत्रे जाह्नवी गाङ्गते दिने । नरः खात्वा तु नङ्गायां कुलकोटोः समुद्धरेत्॥ नक्षत्रद्वैधे मार्कण्डेयपुराणम् । “तत्रतत्रमहोरात्रं यस्मिन्रस्तं गतो रविः । यस्मिन्नुदेति सविता तनक्षत्र दिनं स्मृतम्” ॥ पूर्वामुपवासन कभक्तषु । “तत्रैवोपवसेदृते यनिशौचादधो भवेत् । उपवासे वट्टतं स्यात्तद्धि नक्तकभक्तयोः " ॥ इति स्कन्दपुराणात् । " उपोषितव्यं नचत्रं येनास्तं याति भास्करः । यत्र वा युज्यते राम निशोथे शशिना सह” ॥ इति विष्णुधर्मोत्तराञ्च । यस्मिन्नुदेतौति तु परिशेषात् खानादाविति । गङ्गामर्थ्यावतरणमाह श्रादित्यपुराणम्। "वैशाखे शुक्लपक्षे तु तृतीयायां जनार्दनः । यवानुत्पादयामास युगचारब्धवान् कृतम् ॥ ब्रह्मलोकात् त्रिपथगां पृथिव्यामवतारयत् । तस्यां कार्य्यो यवैर्होमो यवैर्विष्णुं समर्चयेत् ॥ यवान् दद्यात् द्विजातिभ्यः प्रयत: प्राशयेद यवान् । पूजयेच्छङ्करं गङ्गां कैलाशच हिमालयम् ॥ भगोरथञ्च नृपतिं सागराणां सुखावहम्” a For Private And Personal Use Only Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रायश्चित्ततत्वम् । ४८७ सागराणां सगरवंशभवानां "नानं दानं तपः बाई जपहोमादिक यत्। अझ्या क्रियते तत्र तदानन्याय कल्पाते" ॥ ब्राझे। “वैशाखे शशासप्तम्यां जाह्नवी बहुना पुरा। क्रोधात् पौता पुनस्यता कपरन्धात् सुदारुणात् ॥ तां यत्र पूजयेत् देवी गङ्गां गगनमेखलाम्" । शङ्खः । “वैशाखे शुक्लपक्षे तु बतीयायां तथैव च । गङ्गातोये नरः सात्वा मुच्यते सर्वकिविषैः ॥ नन्दानानफलमाइ भविष्ये। “सप्तजन्मसु यद्भुतं पतितावच तैः सह। संसर्गध क्तः पञ्च पातकानि महान्ति च॥ तथानिर्वचनीयानि पापानि आयतामियुः। रजखलायाः स्पृष्टावभोजनेनापि यद्भवेत्॥ सततासत्यभाषण वर्णस्य हरणेन च। मणेचापि च रनस्य सामान्यसकलस्य च ॥ वस्तुनवापि हरणैबंधैः सख्युदिजातयः । मित्रहिंसा विप्रहिंसा माहिंसादिभिव यत् ॥ जनितानि महान्तीह रौरवादौनि यानि च। सेवमवरतं विप्रास्ताड़नच निवारयेत् ॥ यमस्य किराणां वै पापमाजन्म तत् तम्। बाल्ययौवनवाईक्यदशा पापचयो भवेत् ॥ ब्रह्मपुरे वसेदृष्ट्वा इंसच परमन्ततः । धेननां कपिलानाच नक्षं दत्त्वा दिजन्मने ॥ चतुर्वेदाधीतकाय यत् फलं लभते नरः। श्रीमवारायणस्ये वसते दक्षिणे भुजे ॥ मर्त्यलोके ततो जन्म ततो गुणाश्रयो भवेत्। भुङ्क्ते सर्वसुख भोगं यशयानोति मानवः। नन्दानानेन गङ्गायां नाव कार्या विचारणा" ॥ प्रथान प्रयोगः। तसदोत्यादि। सप्तजन्मावच्छिनपतिताबभक्षणपतितसंसर्गकतपापपञ्चमहापातकानिर्वचनीयपापक्षयरजखला-स्पृष्टावभोजनसततासत्यभाषणस्वर्णमपिरबापहरणसामान्यसकलवस्त्वपहरणसखिवधमित्रहिंसा विप्रहिंसा माहिंसादिननितमहारौरवायनवरतयमकिङ्करताड़. For Private And Personal Use Only Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४८८ प्रायश्चित्ततत्त्वम् । ननिवारणाजन्मबाल्ययौवनवाई क्यदशा पापक्षयब्रह्मलोकाधि. करणकपरमहंसदर्शनपूर्वकवासाधौतचतुर्वेदब्राह्मणसम्पदानककपिलाधेनुलक्षदानजन्यफलश्रीमन्नारायणदक्षिणभुजवासतदुतरमत्यलोकोयजन्मगुणाश्रयत्वसर्वसुखभोगयश:-प्राप्तिकामो गङ्गायां नन्दायां स्नानमहं करिष्ये। गङ्गायां रजो योग प्रतिप्रसवमाह छन्दोगपरिशिष्टम् । “यव्ययं श्रावणादिसर्वा नद्यो रजखलाः। तासु स्नानं न कुर्वीत वर्जयित्वा समुद्रगा:' । यत्त "आदौ कर्कटके देवौ वाहं यावद्रजखला। चतुर्थेऽहनि संप्राप्ते शुद्धा भवति जागवो"॥ इति तद्रजो योगमात्र . बोधयति न तु स्नानादिनिषेधकम्। अतएव निगमः । "गङ्गा धर्माद्रबौ पुण्या यमुना च सरस्वती। अन्तर्गतरजो योगे सर्वाहः खेव निम्मला:” ॥ वाहिकरजो योगस्तु नीराजनाद्यर्थ इति शङ्खधर इति कत्यतत्त्वार्णवः । नारदौये। "किमष्टाङ्गेन योगेन किं तपोभिः किमध्वरैः। वास एव हि गङ्गायां ब्रह्मज्ञानस्य कारणम् ॥ यज्ञेयमैश्च नियमैर्दमैः सन्या. सतोऽपि वा। न तत् फलमवाप्नोति गङ्गां प्राप्य सरिराम् ॥ गङ्गामेवापरस्येह दिवसान यत् फलम् । न तत् फलं समर्थो न प्राप्तुं क्रतुशतैरपि ॥ दानधर्मब्रह्माण्डाग्नेयेषु । “जाह्नवीतीरसम्भूतां मृदं मूड़ा विभत्तिं यः। विभर्ति रूपं सोऽकस्य तमो. नाशाय केवलम्" ॥ गङ्गामधिकृत्य वागहे। "ब्रह्महा गुरुहा गोन्नः स्पृष्टो वा सर्वपातकैः। तस्यास्तोयैर्नरः स्पृष्टः सर्वपापैः प्रमुचते”। ब्रह्मपुराणे। प्रवाहमवधिं कृत्वा याबदस्तचतु. टयम्। अत्र नारायणः स्वामी नान्यः स्वामी कदाचन । अत्र न प्रतिरौयात् प्राणैः कण्ठगतैरपि” ॥ अन साधारणत्वेन सारदातिलोक्तहस्तो ग्राह्यः तथा च “चतुर्विंशत्यगुलाब्य इस्तं तन्त्रविदो विदुः । यवानामष्टभिः लतं मानाङ्गुलमुदीरितम् ॥ For Private And Personal Use Only Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रायश्चित्ततत्त्वम् । ४४ प्रमाणच पाईन । “षड़यवाः पार्श्वसम्मिताः" इति कात्यायनदर्शनात् । अनयोर्व्यवस्थामाह कपिलपञ्चरात्रम् । “अष्टभिस्तैर्भवे ज्येष्ठं मध्यम सप्तभियंवैः। कन्यसं षडू भिरुद्दिष्टमगुल मुनिसत्तम" ॥ कन्यसं कनिष्ठम्। यवानां तण्डुलानाह कालिकापुराणम्। “यवानां तण्डुलैरेकमङ्गलञ्चाष्टभिमवेत्। प्रदीर्घयोजितैहस्तश्चतुर्विंशतिभिरङ्गलैः” । दानधर्म। "भाद्रकृष्णचतुर्दश्यां यावदा क्रमते जलम् । तारगर्भ विजानीयात् तदूच तौरमुच्यते” ॥ ब्रह्मपुराणे। साईहस्तशतं यावत् गर्भतस्तौरमुच्यते ॥ गङ्गावाक्यावल्याम् । “गङ्गातौर कृतं यत्नात् कोटिकोटिगुणं भवेत् ॥ स्कान्दे। “यज्ञो दान तपो जाप्य श्राद्धञ्च सुरपूजनम्। गङ्गायान्तु कृत सर्वे कोटिकोटिगुणं भवेत् ॥ गङ्गायामिति तौरपरमिति गङ्गाबाक्यावलो। पाझे "तौरे प्रतिग्रहस्त्यज्यस्त्याज्यो धर्मस्य विक्रयः” ॥ स्कान्दे “तोराहव्यतिमावन्तु परितः क्षेत्रमुच्यते । अत्र दान तपो होमो गङ्गाया नात्र संशयः। अत्रस्थास्त्रिदिवं यान्ति ये मृतास्ते पुनर्भवाः" ॥ गत्यतिः क्रोशयुगम्। न श्मशान न चादेशी गङ्गायां परिकीच ते ॥ तीर्थचिन्ता. मणो ब्रह्मपुराणम्। “अत्र दूरे समीपे वा सदृशं योजनदयम् । गङ्गायां मरणेनेह नात्र कार्या विचारणा" ॥ भविष्थे। "सुलभ सकल पुण्य यन्नदानादिज फलम्। गङ्गातोयैथ सतिलैदलभ पिटतर्पणम्” ॥ अत्र निषिद्धेऽपि दिने तिलतर्पणम्। यथा स्मृतिः। "तीर्थे तिथिविशेषे तु गङ्गायां प्रेतपक्षके। निषिद्धेऽपि दिने कुर्यात् तर्पणं तिलमिश्रितम्” । निषिद्धदिनमाह तत्रैव । “रविशुक्रदिने चैव हादश्यां श्राइवासरे। सप्तम्यां जन्मदिवसे न कुयात्तिलतर्पणम्” ॥ मत्यपुराणञ्च "संक्रान्त्यां निधि सप्तम्यां रविशकदिने तथा। श्राद्ध For Private And Personal Use Only Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५०० प्रायश्चित्ततत्त्वम् । जन्मदिने चैव न कुय्यात्तिलतर्पणम् । श्रापदम् श्रमावाखा श्राद्धेतरपरम् | "नौलषण्ड विमोक्षेण श्रमावास्यां तिलोदकैः । वर्षासु दौपदानेन पितृणामनृणो भवेत् ॥ इति वचनात् तौथेतरप्रतिप्रसवमाह स्मृति: "अयने विषुवे चैव संक्रान्त्यां ग्रहणेषु च । उपाकर्माणि चोत्सर्गे युगादौ मृतवासरे । सूर्य्यशुक्रादिवारेऽपि न दोषस्तिलतर्पणे” इति । एवञ्च भविष्ये । सतिलगङ्गातोयस्य दुर्लभत्वाभिधानेन तौर्थे तिलाभावेऽपि प्रतिनिधिना तर्पणं सूचितम् । “तिलानामप्यभावे तु सुवर्णरजतान्वितम्। तदभावे प्रसिञ्चेत्तु दर्भेर्मन्त्रेण चाप्यथ” इति योगियाज्ञवल्क्येनाभिधानात् । सुवर्णरजतान्वितं सुवर्णरजतस्पृष्टजलम् अतएव महाभारते । “त्रिषु लोकेषु ये केचित् प्राणिनः सर्व एव ते । तर्प्यमाणाः परां तृप्ति यान्ति गङ्गाजलैः शुभैः " ॥ भविष्ये । "ये नरा दुःखिताः सम्यक् सर्वे ते सकुशैस्तिलैः । तर्पिता आइवोतोयैर्नरेण विधिना सकृत् । प्रयान्ति स्वर्गलोकन्तु नाव काय विचारणा " ॥ श्राभ्यां वचनाभ्यां तौर्थचिन्तामणौ केवल गङ्गाजलेन सतिलजलेन च वाक्यभेदो लिखितः । यत्तु “ तौर्थमात्रे तु कर्त्तव्यं सतिलेनैव तर्पणम् । योऽन्यथा तर्पयेन्मढ़: स विष्ठायां कमिर्भवेत्” ॥ इति स्कन्दपुराणौयतीर्थे तिलरहिततर्पणनिन्दा साऽपि सप्तम्यादिनिषिद्धतिलतर्पणस्य तौर्थे तिथिविशेषे चेत्यादिना प्राप्तप्रतिप्रसवपरा | सुवर्णादिप्रतिनिधिरहितपरा वा अन्यथा तिलाभावेऽपि प्रधानस्य बाधः । वचनप्राप्तप्रतिनिधेर्वाधव तौथे स्यात् ततश्च वचनान्तरप्राप्तप्रतिप्रसवेनैव उपपत्तौ बाधकल्पनाया अन्याय्यत्वात् । "नित्यं नैमित्तिकं काम्यं त्रिविधं स्नानमिष्यते । तर्पणन्तु भवेत्तस्य अङ्गत्वेन व्यवस्थितम्” ॥ इति जावालोक्त खानाङ्गतर्पणात् । यथा " तर्पयन्तु 1 For Private And Personal Use Only Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रायश्चित्ततत्त्वम् । अधिः कुर्यात् प्रत्यहं स्नातको हिजः" इति योगियाज्ञवल्कयो. तस्य पियवस्तु तर्पणमिति छन्दोगपरिशिष्टोक्तस्य च प्रधानतर्पणस्य सिदिस्त था गङ्गादि काम्यतपणं सियति कामनावत: प्रधाननिर्वाहस्य विशेषात्। एतेन गङ्गावाक्यावल्योक्त पृथक् तर्पणं निषिद्धम्। भावष्ये। “गयाबाई कृत तेन उत्सृष्टश्च वृषस्तथा। येन तहौचिसंसित तोरे श्राइमकारि च। गङ्गायाच गयायाञ्च पिण्डदान समं स्मृतम् । विशेषतः कलियुगे गङ्गापिण्ड: प्रशस्यते” ॥ ब्राह्म। “सर्वाणि येषां गाङ्गेयैस्तोयैः सत्यानि देहिनाम्। देह त्यत्का नरा: शैवे पदे तिष्ठन्ति सर्वदा ॥ तथा भक्त्या तज्जलपक्वाशौ तन्नलं सेवते तु यः । अनायासेन हि नरो मोक्षोपाय स विन्दति" । स्कान्दे “गङ्गातौर परित्यज्य येऽन्यतौर्थाभिलाषिणः। ब्रह्महत्याफलं तेषां सतत संशयात्मनाम्" ॥ स्मृति: “ष्टिविघ्नसहस्राणि गङ्गा रक्षन्ति सर्वदा। निवारयन्त्यभक्तांश्च पाप कर्मरतांस्तथा ॥ महाभारते। "प्रद्युम्ननगराद याम्ये सरस्वत्यास्तथोत्तरे। तहक्षिणप्रयागस्तु गङ्गातो यमुना गता। सात्वा तवाक्षयं पुण्य प्रयाग इव लक्ष्यते” ॥ दक्षिणप्रयाग उन्मतवेणी सप्तग्रामाख्यदक्षिणदेशे। तथा "गङ्गाद्वारे प्रयागे च गङ्गासागरसङ्गमे। सात्वैव ब्रह्मणो विष्णोः शिवस्य च पुरं व्रजेत्” । भविष्ये । “यत् पुण्य जायते पुंसां दर्शने परमात्मनः । तद्भवे. देव गङ्गाया दर्शनं भक्तिभावतः”। स्कान्दे। “गण्डपमात्रपानेन अश्वमेधफल लभेत्। स्वच्छन्दश्च पिबेटाप: तस्य मुक्तिः कर स्थिता। विभिः सारस्वत तोय सप्तभिस्त्वथ यामुनम् । नार्मदं दभिर्मासैर्गाङ्गं वर्षेण जौयति। वहादशभिर्याति शालग्रामशिलाजलम्। नाभ्यन्तर्गतलोयानां मृतानां क्वापि देहिनाम्। तत्तत्तीर्थफलावाप्तिात्र कार्या विचारणा। For Private And Personal Use Only Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir પૂર્ प्रायश्चित्ततत्त्वम् । क्षेत्रस्यमनृतं वापि शीतमुष्णमथापि वा । गाङ्गेयं हरते पापमाजन्ममरणान्तिकम्” ॥ भविष्ये । "अप्सु नारायणं देव खानकाले स्मरेत् सदा । साक्षात् ब्रह्मस्वरूपिण्यां गङ्गायाच विशेषतः । गङ्गायां मौषल खानं महापातकनाशनम् ” ॥ तस्यां खाने मन्त्रौ विद्याकर लिखितौ । “विष्णुपादाय सन्धते गङ्गे विपथगामिनि । धर्मद्रवोति विख्याते पाप मे हर जाह्नवि । श्रध्या भक्तिसम्पत्रे श्रीमातर्देवि जाडवि। अमृतेनाम्बना देवि भागौरथि पुनीहि मां ॥ पत्र " ब्रह्मचत्रविद्यामेव मन्त्रवत् स्नानमिष्यते । तूष्णोमेव हि शूद्रस्य सनमस्का रकं मतम् ॥ इति योगियाज्ञवल्क्योक्तस्याप्यवाधः । गङ्गासागरसङ्गमे मन्त्रः । " त्वं देव सरितां नाथ त्व' देवि सरितां 1 वरे । उभयोः सङ्गमे स्नात्वा मुच्चामि दुरितानि वै ॥ गाङ्गेये । “ पूजितायान्तु गङ्गायां पूजिताः सर्वदेवताः । तस्मात् सर्वप्रयत्नेन पूजयेदमरापगाम्” ॥ पूजाजपमन्त्राः भविष्ये । " गां गङ्गायै विश्वमुख्यै शिवामृतायै शान्तिप्रदायिन्ये नारायण्यै नमो नमः” ॥ इति तथा “गङ्गायै नारायण्यै शिवायै च नमो नमः । इति मन्त्रेण सततं शतमष्टोत्तरं जपेत्” ॥ तथा । " वासो हिरण्यरत्नानि पत्रपुष्पफलानि च । पत्रपानादिकचापि यस्य यद्भवति प्रियम् ॥ तत्तत्यैव गङ्गायै यः प्रयच्छति मानवः । तत्तत्सुखमनन्तं हि संप्राप्येह च जन्मनि ॥ प्रत्यमाप्नोति निर्वाणं परमं यविरञ्जनम् ॥ देवसम्प्रदानकदानेऽपि ब्राह्मणाय दक्षिणा देया । "तस्मात् सर्वात्मना पावे दद्यात् कनकदक्षिणाम्” इति नन्दिपुराणादिति गङ्गावाक्यावलौ | वस्तुतस्तु देवस्यापि पात्रत्वात् तस्यैव दक्षिणा देया । तथा च भविष्य | "सर्वेषामेव पात्राणां परं पात्र' महेश्वरः । पतन्तं त्रायते यस्मादतौव नरकार्णवात् ॥ महेश्वर इति For Private And Personal Use Only Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रायश्चित्ततत्त्वम् । प्रदकरतोरविशेषात् । तथा च नन्दिपुराणम्। “पात्रा. वाधामिका मुख्या विशाखाग्निोविणः। देवताय तथा मुख्या गोदानं घेतदुत्तमम् ॥ सान्तानिकादौत्युपक्रम्य । "एतेभ्योऽपि दिजातिभ्यो देयमवं सदक्षिणम् ॥ इति मनुवचने या दानं तम दक्षिणा देया दक्षिणेति दर्शनाच। व्यक्तं मत्स्यसूक्तो। "देवे दत्त्वा तु दानानि देवे दवाव दक्षिणाम्। तत् सर्व ब्राह्मणे दद्यादन्यथा निष्फलं भवेत् ॥ दत्वावियत देयानौति वाराहौतन् पाठः । भविष्थे। “सर्व. नखमयों गङ्गां परमामखरूपिणीम्। लोकापावनार्थाय गाङ्गतां प्रणमेव सदा॥ यथा गौरी तथा गङ्गा तस्माहौयान्तु पूजने । विधिर्योऽभिमतः सम्यक सोऽपि गङ्गाप्रपूजने । अतएव छागघातसमाचारः। गङ्गायां पस्सिप्रक्षेपः । प्रादिपुराणे। "भागौरयो यत्न यवाति तीर्थे कुलदये चापि यदा विपत्रः। तदा तदा तत्र तस्याथ भत्या भावेन चास्थौनि विनिक्षिपञ्च । वात्वा ततः पञ्चगव्येन सिक्का हिरमध्वाज्यतिलैश्च योज्य। ततश्च मृत्पिण्डपुटे निधाय पश्यन् दिशं प्रेतगणोपगूढाम् । नमोऽस्तु धर्माय वदन् प्रविश्य जलं स मे प्रौत इति क्षिपेच। उत्थाय भाखसमवेच्य सूर्य सदक्षिणां विप्रमुखाय दद्यात् ॥ एतदई तीर्थचिन्तामणो अन्यथा पठितम्। तद्यथा। माला तथो. तौर्य च भास्करच दृष्ट्वा प्रदद्यादथ दक्षिणान्तु” इति। “एवं कृते प्रेतपुरस्थितस्य खर्गे स्थिति: स्याच महेन्द्रतुल्या”। प्रेतगणोपगृढां दक्षिणां दिर्श नमोऽस्तु धर्मायेति गङ्गाजलप्रवेशमन्त्रः। स मे प्रीतो भवत्विति प्रस्थिनिक्षेपमन्त्रः । इत्यनिकाभट्टाः। अत्र विष्णुपुराणोये। गतप्राणाभिधानात् मृत. हौवास्थिगङ्गासम्बन्धे पुण्यजनकमिति तेन जीवतो दन्तादि For Private And Personal Use Only Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रायश्चित्ततखम् । स्थाप्यते पश्चात्तत्सम्बन्धाय इत्याचारः। तत्र क्रमः। नात्याचम्यापसव्यं कृत्वाऽस्थौनि पञ्चगव्येन सिक्का हिरण्यमध्वाज्यतिलैश्च संयोज्य मृत्तिकापुटे स्थापयित्वा दक्षिणइस्तेन तत्पुटकमादाय दक्षिणां दिशं पश्यन् नमोऽस्तु धर्मायेति वदन् जलं प्रविश्य स मे प्रौतो भवविति उक्का प्रक्षिपेत् । ततो मन्ननं कृत्वा उत्थाय सूर्यं दृष्ट्वा दक्षिणामुत्सजेत्। पादि. पुराणम् । “मातुःकुलं पिटकुलं वर्जयित्वा नराधमः । अस्थी. न्यन्यकुलोत्थस्य नौवा चान्द्रायणञ्चरेत् ॥ एतत्तु धनग्रहणादिना। "अस्थौनि मातापिटपूर्वजानां नयन्ति गङ्गामपि ये कदाचित्। सद्भावकस्यापि दयाभिभूतास्तेषान्तु तीर्थानि फलप्रदानि" इत्यादिपुराणे सद्भावकस्य भावशुद्धस्यान्यकुलजस्थापि कपातिशयात् धर्माबुड्यास्थिप्रक्षेपे फलाभिधानात् । कोय । “यावत्यस्थौनि गङ्गायां तिष्ठन्ति पुरुषस्य च । ताववर्षसहस्राणि खर्गलोके महीयते। यावदस्थि मनुष्यस्य गङ्गातोयेषु गच्छति” ॥ इति दानधर्म पूर्वान पाठात् कालस्यापि तावत्त्व प्रतीयते यमः। “दशाहाभ्यन्तरे यस्य गङ्गातोयेऽस्थि मज्जति। गङ्गायां मरणे यादृक् तादृक् फलमवाप्नुयात् ॥ मिताक्षरायां स्मृतिः। “आत्मनस्त्यागिनां नास्ति पतितानां तथा क्रिया। तेषामपि तथा गङ्गातोये संस्थापमं हितम् ॥ भविथे। “सर्वतीर्थमयों गङ्गां सर्वदेवमयों पराम”। तथा "सर्वानन्दप्रदायिन्यां गङ्गायाञ्च नरोत्तमः । अष्टाक्षरं जपेबित्यं मुक्तिस्तस्य करे स्थिता। नमो नारायणायेति प्रणवाद्यष्टवर्णकः" ॥ स्कान्दमात्स्ययोः । "क्रोधलोभकमृत्तीनां विप. रौतक्रियावताम् । कामिनाञ्च तथान्यत्र जपयज्ञादिनिष्फलम्॥ गङ्गायां यत् कृतं सर्वं सफलं नात्र संशयः। परं ब्रह्मस्वरूपिण्यां गङ्गायाञ्च खभावतः ॥ ब्रह्माण्डे। “सर्वभावा विशदो हि For Private And Personal Use Only Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रायवित्ततत्त्वम् । ५०५ गङ्गायां कुरुते तु यः । सम्पूर्णफलमाप्नोति हेलया तस्य कर्मणः ॥ पापानां पापइन्त्रो त्वं स्वर्गमीचाप्तिहेतुता । स्वभाव एव मङ्गायाः शैत्यं हिमवतो यथा" || भन्वव शङ्खः । “पत्रहधानः पापाला नास्तिको छिवसंशयः । हेतुनिष्ठव पचैते न सौर्थफलभागिनः " ॥ अविसंशयः फलोपायेतिकर्त्तव्यतासु निश्चयशून्यः । पुलस्त्यः । " कपटेनापि गङ्गायां स्नानदानादि की यत् । यो लाभख्यातिपूजार्थं कुर्य्यात् सोऽपि दिवं व्रजेत् ॥ चन्द्रसूर्यग्रहे चैव मृतानां पिण्डकर्मणि । महातीर्थे तु संप्राप्ते चतदोषो न विद्यते" ॥ अन्यत्र तु देवलः । " सव्रणः सूतको सूयो मत्तोन्मत्तरजखलाः । मृतबन्धुबन्धुख वनष्टौ वकालतः । इत्यनेन वच्चैतामाह अशुचित्वमध्याह । " दन्तलम्नमसंहार्थं लेप्यं मन्येत दन्तवत् । न तत्र बहुशः कुर्य्यात् यत्रमुहरणे पुनः ॥ भवेदशौचमत्यन्तं तृणबेधात् व्रणे कृते” ॥ रत्नाकरादयोऽम्येवम् । ब्रह्माण्डे । " गङ्गां पुण्यजलां प्राप्य चतुर्दश विवर्जयेत् । शौचमाचमनं केश निर्माल्यं मलघर्षणम् ॥ गावसंवाहनं क्रौड़ां प्रतिग्रहमथो रतिम् । अन्यतौर्यरतिश्चैव अन्यतीर्थप्रसंशनम् ॥ वस्त्रत्याग - माघातं सन्तारच विशेषतः " ॥ श्राचमनं मुखशोधनाचमनपरम् । “गन्धादौचिश्चिपेत्तूष्णीं तत श्राचमयेत् दिजान् ” । इति कात्यायनवचने । "भुक्ताचामेद्यथोक्तेन विधानेन समाfeतः । शोधयेन्मुख हस्तौ च मृदद्भिर्धर्षणैरपि इत्याचारमाधवौयष्टतदेवलवचने च तथा दर्शनात् । न तु कर्माङ्गाचमनादिपरम् । तदबाधेन चरितार्थत्वे तचाधा योगात् वस्त्रत्यागमिति जले खानसाटौत्यागपरम् । स्कान्दे । " नाभ्यङ्गितत्य प्रविशेत् गङ्गायां न मलार्दितः । न जल्पन मृषा वोचन वदवानृतं वचः । मृषा वोचवितस्ततो वच्यमाणः ॥ ब्राह्मे । "खायीत तेल t । ४ ३ For Private And Personal Use Only Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५०६ प्रायश्चित्ततत्त्वम् । वान् विप्रस्तटभूमिमुपेयिवान्" । तटे गात्रं प्रचात्य नायादित्यर्थः । योगियाज्ञवल्क्यः । “अग्राह्यास्त्वागता आायो नया: प्रथमवेगिकाः । प्रचोऽभितास्तु केनापि याच तौर्याद्दिनिःमृताः ॥ तौर्थादिनिःसृता इति गङ्गाप्रवाहाद्विच्छिन्नाः । प्रवाहमध्ये विच्छेदे त भन्तः सलिल प्रवाहित्वात्र दोषः । अन्यथा इदानीं गङ्गायाः सागरगामित्वानुपपत्तेः । “स्रवन्तोष्वनिरुद्धासु त्रयोवर्णा द्विजातयः । प्रातरुत्थाय कर्त्तव्यं देवर्षिपितृतर्षणम् ॥ निरुवासु न कुर्वीरनं शभाक् तत्र सेतुकृत् । तस्मात् परकतान् सेतून् कूपांश्च परिवर्जयेत् । उद्धृत्य त्रीन् पिण्डान् वा कुर्य्यादापत्सु नो सदा " ॥ इति बौधायनवचने निरुहाया अपि स्रवन्तीत्वश्रुतेः सुतरामेवान्तः सलिलवाहित्वम् । योगियाच H वल्क्यः । " तूष्णीमेवावगाहेत यदा स्वादशचिर्नरः । आचम्य प्रयतः पश्चात् स्नानं विधिवदाचरेत् ॥ शुचिरपि क्रियानाने नातोऽधिकारो भवति देवे पैत्रेय च कर्मणोत्युपपत्तये प्रानिमज्जति क्रियाङ्गस्नानस्य मज्जनरूपत्वात् तीर्था: वाहनाद्यपक्रम्य वशिष्ठः । "योऽनेन विधिना स्नाति यत्र तत्रान्भसि द्विजः । स तीर्थफलमाप्नोति तीर्थेषु द्विगुणं स्मृतम् " ब्यासः । “नाभेरूड हरेदायुरधोनाभेस्तपः चयः । नाभेः समजलं कृत्वा स्नानं तर्पणमाचरेत्" ॥ नाभिमात्र जले स्थित्वा इत्याद्युपक्रम्य ततस्त्रिराप्नुत्येत्यत्र । यद्यपि नाभिमात्र जले स्थित एव कर्म कर्त्तुं शक्नोति नोपविष्टस्तथापि । स्थित्वेत्युपादानाद्दहदक एव नियमः । स्वल्पोदके तूपविष्टोऽपि एवमङ्गानां बाधकं विना प्रधानसमदेशत्वनियमात् । सङ्घल्पादि तत्रैव । स्कान्दे । "वारुणेन समायुक्ता मधौ कृष्णा त्रयोदशौ । गङ्गायां यदि लभ्येत सूर्यग्रहशतैः समा" वारुणं शतभिषा । " ग्रनिवारसमायुक्ता सा महावारुण For Private And Personal Use Only Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रायश्चित्ततत्त्वम् । स्मृता। गङ्गायां यदि लभ्येत कोटिसूर्यग्रहै: समा। शुभयोगसमायुक्ता पनौ शतभिषा यदि। महामहेति विख्याता चिकोटिकुलमुद्धरेत्” । ब्रह्मपुराणम् । “महाज्यैष्ठयान्तु यः पश्येत् पुरुषः पुरुषोत्तमम् । विष्णुलोकमवाप्नोति मोक्षं गङ्गाम्बुमज्जनात् । ऐन्द्र गुरुः शशी चैव प्राजापत्ये रविस्तथा । पूर्णिमा गुरुवारेण महाज्यैष्ठी प्रकीर्तिता" । ऐन्द्रे ज्येष्ठायाम्। प्रजापत्ये रोहिण्याम् । विना गुरुवारणापि। “ऐन्द्रे गुरुः शशौ चैव प्राजापत्ये रविस्तथा। पूर्णिमा ज्येष्ठमासस्य महाज्येष्ठौ प्रकीर्तिता” ॥ अनुराधास्थ गुरावपि । “ऐन्द्र मैने यदा औवस्तत्पञ्चदशके रविः। पूर्णिमा शक्रचन्द्रेण महाज्येष्ठौ प्रकोर्तिता" ॥ अनुगधास्थ चन्द्रेऽपि व्याघ्रभूतिः। “ऐन्द्र वथवा मैने गुरुचन्द्रो यदा स्थितौ। पूर्णिमा ज्येष्ठमासस्य महाज्येष्ठौ प्रकीर्तिता ॥ राजमार्तण्डे । “ज्यैष्ठसंवत्सरे चैव ज्येष्ठमासस्य पूर्णिमा। ज्येष्ठाभेन समायुक्ता महाज्य ष्ठी प्रकीर्तिता" ॥ ज्येष्ठ संवत्सरः "ज्येष्ठामूलोपरी जोवे वर्ष स्यात् शक्रदैवतम् । इति विष्णुधर्मोत्तरोतो ग्राह्यः। न तु संवत्सरादिपञ्चकान्तर्गतो वर्षविशेषः। ज्येष्ठः इति विशेषणवैयापत्तेः। संवत्सरे यदि स्यादिति पाठस्तु काल्पनिकः । प्रपञ्चस्तु मलमासतत्त्वेऽनुसन्धेयः। वारुण्यादिषु पूर्णतिथी मध्याङ्गादिसमये नक्षत्र सत्त्वे परदिने पूर्वाह्नतिथिनक्षत्रलाभेऽपि पूर्वदिन एव मानम्। षष्टिदण्डात्मिकायाश्च तिथेनिष्क्रमणे परे। अकम्मण्यं तिथिमलं विद्यादेकादशी विना" ॥ इति स्मृतेः । न च "कम्मणो यस्य यः कालस्तत्कालव्यापिनो तिथिः। तया कर्माणि कुर्वीत ह्रासद्धौ न कारणम्" ॥ इति वृदयाज्ञवल्क्यवचनात् । “मैत्रं प्रसाधनं सानं दन्तधावनमञ्जनम्। पूर्वाह्न एव कुर्वीत देवतानाच For Private And Personal Use Only Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५०८ प्रायश्चित्ततत्त्वम्। पूजनम् ॥ इति मनुवचनाच। पूर्वदिन एव कमिति वायम् । "दिवाकरकरैः पूतं दिवाखानं प्रशस्यते। अप्रशस्त निशि मानं राहोरन्यत्र दर्शनात् ॥ इति पराशरवचने दिवामात्रस्य नानात्वात् मनुवचने मैत्रसाहचर्य्यात् सानपदं प्रातःस्नानपरम् एवमेव कुलकमाः । मैव पुरोषोत्सर्गः । मित्रदेवताक् पायुसम्बन्धात्। यत्तु वृहशिष्टः। “अरुग् विचारयेत् खाने मध्याहात् प्राग्विशेषतः । इति तत् पूर्वाह विहिततत्तत्तिप्यादिलामे बोध्यम् पत्र पगित्युपादानात् चण्डालादिपरिवर्थे म रोगिणः मानम्। स्पष्टमाइ रवाकरे वृहस्पतिः। “तीर्थे विवाहे यात्रायां संग्राम देशविजये। नगरग्रामदाहे च स्पृष्टास्पृष्टि न दुश्चति ॥ पापाप च कष्टायां रुग्मये पौड़िते तथा। मातापित्रोणुरोच्चैव निदेशे वर्तनातथा" ॥ स्पृष्टास्पृष्टि इत्यव्ययं क्रियाव्यतौर तथेति न टुथतीर्थः । प्रत्युत गङ्गायामुक्तरोत्तरकालप्राशस्त्यमा भविष्यपुराणम्। “प्रातःस्रानाशगुणं तुल्यं मध्यदिनं तथा। सायं. काले शतगुणमनन्तं शिवसन्निधौ" इति। "प्रातनिशि तथा सन्ध्या मध्याङ्गादिषु संस्मरन् । नारायलमवाप्नोति सद्यः पापक्षयं नरः" । इति विष्णुपुराणोशावत्। “न देशनियमस्तत्र न कालनियमस्तथा। नोच्छिष्टादौ निषेधोऽस्ति हरे. मिनि लुब्धक ॥ इति संवत्सरप्रदीपोतवत् राहुदर्शनवच रावावपि मनायां प्रतिप्रसवमा ब्रह्मपुराणम्। "दिवाराती च सध्यायां गङ्गायाष प्रसङ्गतः। स्नात्वाखमेधजं पुण्य रहे. ऽप्युहत्य तज्जलैः ॥ रात्रिचराधिकारमुपक्रम्यादिपर्वणि गा. धर्ववाक्यञ्च। “अतो रात्री प्राप्नवतो जलं ब्रह्मविदो जनाः । गहयन्ति जलान् सर्वान् वनस्थापतौनपि" ॥ भनार्जुनस्य प्रतिवचनम्। “समुद्रे हिमवत्माई नद्यामस्थाच दुभते । For Private And Personal Use Only Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रायश्चित्ततत्त्वम् । ५०६ रावावपि च गङ्गायां कास्य गुप्तः परिग्रहः। असंबाधा देवभदौ खर्गसंवादिनी शुभा। कमिच्छति तां रोईं नैष धर्मः सनातनः ॥ अनिर्वायंमसंवा तव वाचा कथं वयम् । न पशामो यथा कामं पुण्य भागीरथीजलम्" ॥ स्मृतिः। “न मन्त्रो न विधिश्चैव न मृदो न च गोमयम्। न कालनियमस्तन गङ्गां प्राप्य सरिहराम" ॥ भविथ। "सर्व एव शुभः काल: सर्वो देवस्तथा शुभः । सर्वोजनस्तथा पात्र खानादौ जाह्नवौजले"। रहस्थरत्नाकर देवलः। "महानिशा तु सा या मध्धमं प्रहरहयम् । तस्यां सानं न कुर्वीत काम्यनैमित्तिकाते" ॥ पतएव कल्पतकः। न नतं मायादिति वौधायमवचनं रागप्राप्तनानविषयम्। अनएव "नद्यः पुण्याः सदा सर्वा जागवी च विशेषतः । इति शङ्खवचनं तहतमपि सङ्गच्छते । कत्यतत्त्वार्णवेऽपि स्कन्दपुराणम् । "विशेषतस्तु जाहव्यां सर्वदा तर्पयेत् पितृन्। न कालनियमस्तव क्रियते सर्वकर्मसु । एवञ्च गङ्गामानस्य दिवारावि कर्तव्यत्वाविशेषात् तत्तबिमित्ततिथिविशेषस्थापि दिवाराविसम्बन्धित्वेनाविशेषः। कालमाधवौयेऽपि विशेषवचनाभावे सामान्यस्य खौकर्तव्यत्वादित्युक्तं तच्च "कायो यस्य यः कालः' इति प्रागुन्नात्वात्। “अहःसु तिथयः पुण्याः कम्मानुष्ठानतो दिवा। नतादिवतयोगे तु रात्रियोगो विशिव्यते" ॥ नावालोजस्य दिवाविहितकम्मानुष्ठाने अहसु तिथयः पुण्याः ननादिवतयोगे रानिविहितकर्मणि रात्रिसम्बधितिथयः पुण्या इत्युक्तलाञ्च। न च रात्रौ गङ्गायां तीर्थश्राई स्यात् इति वाच्यं तस्य तीर्थप्राप्तिमात्रनिमित्तकत्वात् न तु गङ्गात्वेन निमित्तकवमिति। एतेन वारुण्यादी महाफलजनकत्वात् रानावपि गङ्गामानं कर्तव्यमिति महाव्यामोह For Private And Personal Use Only Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५१० प्रायश्चित्ततत्वम् । एव तस्या राहुदर्शनादिप्रतिप्रसूतेतरसर्ववकमी त्वादिति निरस्तम्। सानेऽपि मुहर्त्तन्यूनतिथिनं प्राधा । यथा स्कन्दपुराणं "व्रतोपवासस्नानादौ घटिकैका यदा भवेत् । उदये सा तिथि द्या विपरीता तु पैटके" । पद्मपुराणे । ग्राह्या इत्यत्र भद्रेति पाठः विष्णुधर्मोत्तरे। थाहादावस्तगामिनौति चतुर्थचरणे पाठः। घटिकाव मुहर्तपरा पैटक इत्यनुरोधात्। भविथे भोजदेवकृतम्। "चैत्रकष्णचतुर्दश्यामङ्गारकदिनं भवेत्। पिशाचत्वं पुनन स्यात् गङ्गायां मानभोजनात्" ॥ भविथे। "माहरामा ये च मायां खन्ति च पठन्ति च। तेऽप्यसंख्येमहापापच्यन्ते नात्र संशयः” n: गोबधादौ बालवादिना प्रायश्चित्तभेदः। “कच्छ्रांस्तु चतुरः कर्थ्यात् गोबधे बुहिपूर्वके। प्रमत्या तु इयं कुर्यात् तदई बालकृष्धयोः ॥ स्त्रीशूद्रयोरेवमेतद्दधे चैव न संशयः" । अत्र शूद्रकर्तृकबधे अईश्रुतेः। “गोनवविहितः कल्पवान्द्रायणमथापि वा। अभ्यासे तु तयोर्भूयस्ततः शहिमवाप्नुयात् ॥ इत्यनेन उपपातकमात्रे गोवधधर्मातिदेशात्। तत्र शूद्रस्याईमन्येषां वर्णानां सम्पूर्णमिति। एवञ्च “शूद्राणाञ्च सधमाण: सर्वेऽपध्वंसजा: स्मृताः ॥ इति मनतोः प्रतिलोमजातानमप्यई यत्र एकस्याव्यक्तो लत्वं स्त्रीत्वञ्च तत्र यथा बालवादिना भई तथा स्त्रीत्वात्तदह पादमावमिति यावत् । यथा मिताक्षरायाम्। “अर्वाक हादशवर्षीयादशौतेलात मेव च। पईमेव भवेत् पुंसां तुरौयन्ता योषिताम्" ॥ न चैवं तस्याः शूद्रत्वात्तदई मिति वाच्यम्। अनुग्रहे पादमात्राबधेवतत्वात् । यथा हारीतः । “यथा वयो यथाकालं यथा प्राणच ब्राह्मणे । प्रायश्चित्तं प्रयोक्तव्यं ब्राह्मणैधर्मपाठकैः” ॥ क्यो बाल्यादि। कालो ग्रीष्मादिः। यथा प्रासमशतात्वादि। "तस्मात् कच्छ्र. For Private And Personal Use Only Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रायश्चित्ततत्वम्। ५११ मथाप्या पादं वापि विधानतः। ज्ञात्वा बलाबलं कालं प्रायश्चित्तं प्रकल्पयेत् ॥ पादं वेति पादमेवेत्यर्थः। “वा स्थाहिकल्पोपमयोरेवार्थे च समुच्चये। इति विश्वदर्शनात्। अतएव “पादं वैति ततो न्यनं प्रायश्चित्तं न कल्पयेत् इति प्रायश्चित्तविवेकः । शास्त्रीयं प्रायश्चित्तमुदाहृत्य पश्चादनुग्रह: कार्य: इत्याहाङ्गिराः। “कत्वा पूर्वमुदाहारं यथोक्त धर्मवर्तिभिः । पश्चात् कार्यानुसारेण शक्त्या कुर्वन्त्यनुग्रहम् ॥ अथ प्रायवित्तोपदेशादि। यमः। "एको हो वा त्यो वापि यद ब्रूयुर्धर्मपाठकाः। स धर्म इति विज्ञेयो नेतरेषां सहस्रशः ॥ अवधातातपः। “प्रबुद्धा धर्मशास्त्राणि प्रायवित्तं वदन्ति ये। प्रायश्चित्तौ भवेत् पूतस्तत्यापं तेषु गच्छति"। अतएव यमः । “वेदाः प्रमाण स्मृतयः प्रमाणं धमार्थसंयुक्तवचः प्रमाणम्। यस्य प्रमाणं न भवेत् प्रमाणं कस्तस्य कुयाहचनं प्रमाणम्" धर्मार्थसंयुक्तवच:मीमांसकसविबन्धवाक्यम्। यस्येत्यनन्तरीक्तं प्रमाण एवं यो न मन्येत इत्यर्थः । मनुरपि। "पा धर्मोपदेशश्च वेदशास्त्राविरोधिना। यस्तकेंणानुसन्धत्ते स धर्म वेद नेतरः” ॥ ऋषिजष्टत्वादा वेदं धर्मोपदेशं तम्मलं स्मृत्यादिकम्। यस्तदविरुछन तकण मौमांसादिना अनुसधत्ते विचारयति स धर्म वेद जानाति न तु मौमांसानभिन्नः । प्रतएव भट्टपादैरताम्। “धर्म प्रमीयमाणे हि वेदेन करणामना। इति कर्त्तव्यतामागं मौमांसा पूरयिष्यति ॥ इति मौमांसा वेदविचारः। सा च कर्मब्रह्ममेदात् जैमिनिवाद. रायणप्रणीता द्विविधा। अतएव वृहस्पतिः। “केवलं शास्त्रमाश्रित्य न कर्तव्यो विनिर्णयः। युक्ति हीनविचारे तु धर्महानिः प्रजायते । वशिष्ठोऽपि। “इतिहासपुराणाभ्यां वेदं समुपहहयेत्। विभेत्यल्पश्रुताद्देदो मामयं प्रहरिष्यति । For Private And Personal Use Only Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५१२ प्रायश्चित्ततत्त्वम् । श्रुतमर्थावबोधकव्याकरणमौमांसादिशास्त्राण्यष्टादश । यथा विष्णुपुराणम् । “अङ्गानि वेदाश्चत्वारो मौमांसान्यायविस्तरः । धर्मशास्त्रं पुराणच विद्या ह्येताश्चतुर्दशप्रायुर्वेदो धनुर्वेदो गान्धर्वश्चेति ते वयः। अर्थशास्त्रं चतुर्थञ्च विद्या ह्यष्टादशैव ता: ॥ चतुर्दशधर्मप्रमितिप्रधानानि चतस्रः पुनदृष्टप्रधानाः क्वचिदलौकिकमर्थप्रमाणयस्यो धर्मोऽपि प्रमाणम्। अङ्गानि पडित्यष्टादशप्रायश्चित्तं जानतामनुपदेशे दोषमाहाङ्गिराः । "पा मां मार्गमाणानां प्रायश्चित्तानि ये रिजाः। जानन्तो न प्रयच्छन्ति तेऽपि तहोषमागिनः ॥ प्रायश्चित्तोपदेशे पुखमाइ स एव । “यत् पुण्यमद्धृते विप्रे त्रियमाणे जलादिषु । तत् पुण्यं तारिते पापात् प्रायश्चित्तैस्तु मानवे" ॥ प्रची विना न वक्तव्यम् "अनर्चितैरनाहतैरस्पृष्टैश्चैव संमदि। प्रायश्चित्तं न वक्तव्यं जानद्भिरपि जल्पते ॥ इत्यङ्गिगे वचनात्। व्यब. हारचिन्तामणौ ज्योतिष च। “नाष्टम्यां न चतुर्दश्यां प्रायचित्तपरीक्षणे। न परीक्षा विवाहच शनिभौमदिनै तथा" ॥ विष्णुः। "ब्राह्मणादौनामशौचे यः सक्कदवमनाति तस्य तावदेवाशौच यावत्तेषाम् । अशौचापगमे प्रायश्चित्तं कुर्यादिति”। अशौचापगमे प्रायश्चित्तविधानादशौचादभ्यन्तरे प्रायश्चित्तानाम्। “नैमित्तिकानि काम्यानि निपतन्ति यथा यथा। तथा तथैव कार्याणि न कालस्तु विधीयते” ॥ इति दक्षवचनेनापि न प्रतिप्रसवः । प्रायश्चित्तोपदेशाय वस्त्रादिना ब्राह्मणस्तोषणीयः । यथा मिताक्षरायां पराशरः। “पाप प्रख्यापयेत् पापी धेनु दत्त्वा तथा वृषम् । एतच्चोपलक्षणम् । "प्रख्याप्य पापं वक्तभ्यः किञ्चिहत्त्वा व्रतं चरेत्” इति स्मृतेः । देवलवचने तोषयित्वा हिजोत्तमानिति। अत्र तोयित्वेति श्रवणात् प्रानतिकरत्वेन तद्ग्रहणान दोषः। पापिभ्यः For Private And Personal Use Only Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रायश्चित्ततत्त्वम् | प्रतिग्रह एव दोषश्रुतेः । प्रतिग्रहस्त्वदृष्टार्थ त्यक्तद्रव्यखोकार इति प्रायवित्तविवेकः । अतएव प्रायवित्तद्रव्यग्रहणे दोषं वदन्ति | क्षत्रियादिभ्यः प्रायवित्तोपदेशी ब्राह्मणमन्तर्धाय कर यः । यथाहाङ्गिराः "न्यायतो मार्गमाणस्य चत्रियादेः प्रणामिनः । अन्तरा ब्राह्मणं कृत्वा व्रतमेतत् समादिशेत् ॥ गोबधे तु स्वामिने गोमूल्यं दत्त्वा व्रतं करणीयम् । "त्रादौ गोपतये दत्त्वा गोमूल्यं साधुकल्पितम् ॥ इति ब्रह्मपुराणात् । न चैतदुग्रहणे दोषः । " गवां विक्रयकारी च गविलोमानि यानि च । तावद्दषसहस्राणि गवां गोष्ठे कमिर्भवेत्” इति यमवचनादिति वाच्यम् । तदुग्रहणस्य विक्रयत्वेन व्यवहाराभावात् । अवस्थितस्य गवादेर्मूल्यग्रहण एवं व्यवक्रियते प्रतिरूपका स्थानीयत्वाच्च न हि प्रतिरूपकग्रहण विक्रयः । तथा च पराशरः । " प्रमापणे प्राणभृतां प्रदद्यात् प्रतिरूपकम् । तस्यानुरूप मूल्यं वा दद्यादित्य व्रवीन्मनुः” ॥ प्रतिरूपकं तत्तुल्यप्राण्यन्तरम् । एवं चौरात् स्वामिनो वा क्रौतगवादिकं गोखामिने दत्त्वा तन्मयं ग्टहृतो न विक्रयः किन्तु उपाधि विना यत्र स्वेच्छया लाभाय वा विक्रीणीते तत्र तथेति । A ५१३ For Private And Personal Use Only · अथ चौराल्लाभविनिर्णयः । याज्ञवल्क्यः । “विक्रेतुर्दर्शमाच्छुद्दि: स्वामी द्रव्यं नृपोदमम्। क्रेता मूल्यमवाप्नोति तस्माद यस्तस्य विक्रयो” ॥ क्रेतुथोरत्वेनाभिशस्तत्वे सति विक्रेतुर्दर्शनाच्छुद्धिः । एतदप्रकाशक्रये । यथा बृहस्पतिः " प्रकाश वा क्रयं कुय्यात् मूल ं वापि समर्पयेत्” ॥ मूल विक्रेतारम् । यस्तस्यापहृतद्रव्यस्य विक्रयौ चौरस्तस्मात् खामौ नष्टधनः सन् "नाष्टिकश्चैव कुरुते तद्दन ज्ञातृभिः स्वकम् । श्रदत्तत्यक्तविक्रीत ं कृत्वा स्वं लभते धनौ” ॥ इत्युक्त रौत्या खं द्रव्यं नृपचापराधानुरूप दण्डं “ धान्य' दशेभ्यः Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५१४ प्रायश्चित्ततत्त्वम्। कुम्भेभ्यो हरतोऽप्यधिक बधः ॥ इति मनतादिदण्ड क्रेता च मूल्यमवाप्नोति। कुम्भपरिमाणमाह कात्यायनः । “दश द्रोणा भवेत् खारौ कुम्भोऽपि द्रोणविंशतिः”। द्रोण उक्तो मिताक्षरायाम् । “अष्टमुष्टिर्भवेत् कुञ्चिः कञ्चयोऽष्टौ तु पुष्कलम् पुष्कलानि च चत्वारि पाढ़कः परिकीर्तितः। चतुराढको भवेत् द्रोण इत्येतन्मानलक्षणम्" कल्पतरौ हादशप्रसूतिभिः कुडवस्तञ्चतुर्गणोत्तर प्रस्थाढ़ कद्रोणा इत्युक्तं कुड़वचतुर्गुणादटचत्वारिंशत् प्रमृतिभिः प्रस्थस्तचतुगुणा हिनवत्यधिकशतेन प्रसूतिभिराढ़कः। तच्चतुर्गुणादष्टषध्यधिकसप्तशतप्रमृतिभिद्रोणः । तद्दयगुणादशौत्यधिकषट्शत्यधिकसप्तसहस्रप्रसूतिभिः खारो द्रोणविंशतिगुणात् षध्यधिकत्रिशताधिक पञ्चदशसहस्रप्रमृतिभि: कुम्भः। तेन षट्प्रसूतिभिः कुञ्चिः। प्रस्थपुष्कलयोः पायता इति कुञ्चितण्डु लाश्च पुरुषाहारयोग्या इति गोपथब्राह्मणञ्च। “हाविंशत्पलिक प्रस्थ मुक्त स्वयमथर्वणा । पाढ़ कस्तु चतुःप्रस्थश्चतुर्भिर्दोण पादकैः। पलप्रमाणन्तु वक्ष्यते। प्रकाशक्रये तु स्वामिनो ग्रहणे नारदहस्पती। “वणिगवी थोपरिगत विज्ञातं राजपूरुषैः। अविज्ञाता श्रयात् कोत विक्रेता यदि वा मृतः। स्वामी दत्त्वाईमूल्यन्तु प्रग्यहोत ख कन्धनम्। अहं योरपहृत तत्र स्यात व्यवहारतः । अविनातक्रये दोषस्तथा चापरिपालनम् । एतहयं समाख्यातं द्रव्यहानिकर परम्” । अथ क्रयनिर्णयः। मूख्यं दास्यामोति कृत्वा ग्रहणापि क्रयसिद्धिः। तथा विवादचिन्तामणो कात्यायनः। “पण्य स्ट हौत्वा यो मूल्यमदत्त्व व दिशं व्रजेत्। ऋतुत्रयस्योपरि ष्टात्तद्धन वृद्धिमाप्नुयात" ॥ अतएव वृहस्पतिः। “एहक्षेत्रादिक क्रौत्वा तुल्य मूल्याक्षरान्वितम् । पत्र कारयते यत्त For Private And Personal Use Only Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रायश्चित्ततत्त्वम् । ऋयलेख्य तदुच्यते । क्रौतेऽपि समयविशेषाभ्यन्तरे पश्चातापादसिद्धिः। यथा मनुः । "कोला विक्रीय वा किञ्चित् यस्येहानुशयो भवेत्। सोऽन्तर्दशाहे तत् द्रव्यं दद्याच्चैवाददौत वा । एतत् याज्ञवल्क्यातरपरम् । यथा याज्ञवल्काः । "दशैकपञ्चसप्ताहमासत्राहाईमासिकम्। वौजायो वाह्यरत्नस्त्रोदोह्या पुंसां परीक्षणम् ॥ अत्र वृहस्पति: “अतोऽर्वाक् पण्यदोषस्तु यदि संजायते कचित्। विक्रेतुः प्रतिदेयन्तत् क्रेता मूल्यमवाप्नुयात्" । अतस्तत् द्रव्यपरीक्षणकालात् । कात्यायनः । “अविज्ञातन्तु यत् क्रौतं दुष्ट पश्चाहिभावितम् । क्रोतं तत् स्वामिने देयं पण्य कालेऽन्यथा न तु”। काले प्रागु परीक्षाकालाभ्यन्तरे। परोक्षे तु वृहस्पतिः। “परीक्षेत स्वयं पण्यमन्येषान्तु प्रदर्शयेत्। परीक्षितं बहुमतं गृहीत्वा न पुनस्त्यजेत् ॥ अत्र विशेषयति नारदः । “क्रौत्वा मूल्येन यो द्रव्यं दुष्कोतं मन्यते क्रयौ। विक्रेतुः प्रतिदेयन्तत् तस्मिन् बेवाहाविक्षतम्। वितीयेऽह्नि ददत् क्रेता मूल्यात् त्रिंशांश. माहरेत्। द्विगुणन्तु टतोयेऽति परतः क्रतुरेव तत् । श्राहरेत् दद्यात् विक्रेत्र इति शेषः। द्विगुणं त्रिशांशस्य इति याज्ञवल्काः। “राजदेवोपघातेन पण्यदोषे उपागते। हानिविक्रेतुरेवासौ याचितस्याप्रयच्छतः" ॥ नारदः। “उपहन्येत वा पण्य दह्येतापनियेत वा। विक्रेतु रेव सोऽनर्थो विक्रोयासंप्रयच्छतः। दीयमान न राति क्रौतं पण्वन्तु यः क्रयो। स एवास्य भवेत् दोषो विक्रेतुर्योऽप्रयच्छतः” ॥ अथ प्रायश्चित्तपूर्वाह कृत्यम्। शङ्खलिखितौ। "वाप्य केशान् नखान् पूर्व हतं प्राश्य बहिनिशि। प्रत्येकं नियतं कालमात्मनो व्रतमादिशेत्। प्रायश्चित्तमुपासौनो वागयत. स्विसवनं स्पृशेत्” ॥ एतप्रशंसामाइ मत्स्यपुराणं “यस्मात्तेजो For Private And Personal Use Only Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५१६ प्रायवित्ततत्त्वम् । । मयं ब्रह्म हते तच व्यवस्थितम् । तेजोऽमृतमयं दिव्य' महापातकनाशनम् ” ॥ वहिर्निशोतिपरेणान्वयः । "व्रतं निशामुखे ग्राह्यं वहिस्तारकदर्शनात्" इति लघुहारीतवचनैकवाकात्वात् प्रत्येकमित्यादि पूर्वं व्याध्यातम् । केशधारणेच्छायां feगुणव्रतादिमाह लघुहारीतः । " राजा वा राजपुत्रो वा ब्राह्मणो वा बहुश्रुतः । केशानां वपनं कृत्वा प्रायवित्तं समाचरेत् केशानां धारणार्थस्तु द्विगुणं व्रतमाचरेत्। दिगुणेऽपि व्रते चोर्णे हिगुणा दक्षिणा भवेत्" । विदद्दिप्रादीनान्तु महापातकादि दोष एव मुण्डनम्। "विद्दविप्रनृपस्त्रीणां नेष्यते केशवापनम् । ऋते महापातकिनो गांहन्तुखाव कौर्णिनः” ॥ इति मिताचराधृतवचनात् । हारीतेन प्रायवित्तपूर्वाहे मुण्डनविधानात् । धेनुदानादावपि तथा । स्त्रीणां विशेषमाह भवदेवतं " वपनं नैव नारोयां मानुव्रज्या जपादिकम् । न गोष्ठे शयनं तासां न चादध्याहवाजिनम् । सर्वान् केशान् समुहृत्य छेदयेदविद्दयम् । सर्वत्रैव हि नारीणां शिरसो मुण्डनं स्मृतम्” ॥ पराशरस्यैतदिति मिताचरा । सर्वत्र इति प्रागु महापातकादिपरं न तु प्रयागपर कीशमूलान्युपाश्रित्य इति वचनात् । अथ बाल्यादिभेदात् प्रायवित्तम् । तत्रोनषोडशवर्षीयस्यार्थम् । " अशौतिर्यस्य वर्षाणि वालो वापूजन षोड़श: । प्रायवित्तार्डमर्हति स्त्रियो रोगिण एव च इति विष्णुशातातपवचनात् । "पादो बाल्येषु दातव्यः सर्वपापेष्वयं विधिः " ॥ इति लघुहारीतवचमन्तु अनैकादशवर्षपञ्चवर्षाधिक बालविषयम् । यथाङ्गिराः "जनैकादशवर्षस्य पञ्चवर्षाधिकस्य च । चरेत् गुरुः सुहृदापि प्रायवित्त' विशुद्धये । ततो न्यूनतरस्यास्य नापराधो न पातकम् । न चास्य राजदण्डोऽपि प्रायश्चित्तं न For Private And Personal Use Only Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रायवित्ततत्त्वम् । ५१७ विद्यते” ॥ ब्रह्मपुराणे । " रोगो हहस्तु पोगण्ड : कुर्वन्त्यन्यैवतं सदा । दशमस्कन्धौयद्दादशाध्यायटोकायां श्रीधरखामि धृतवचनम् । पोगण्डमाह । “कौमारं पञ्चमाब्दान्तं पोगण्डं दावधि | कैशोरमापञ्चदशाद्यौवनन्तु ततः परम् ॥ दशमावधौत्यापञ्चदशादित्येकवाक्यत्वात् ऊनैकादशवर्षे त्यू नषोड़श इत्येतयोर्दशपञ्चदशपरतेति । दशवर्षाभ्यन्तरीयस्य बालस्य पादविधानात्रास्यानुग्रहान्तरमिति प्रागेवोक्तम् । " अथ धेनुमूल्यव्यवस्था । संवर्त्तः । " प्राजापत्यव्रताभक्तौ धेनुं दद्यात् पयस्विनौम् । धेनोरभावे दातव्यं तुल्यं मूल्यं न संशयः ॥ पयखिनोमिति विशेषणं दुग्धोपयोगाय सा च वत्सं विना न सम्भवति । अंतः सवत्साया एव दानं मुख्यं तदभावे यथोचितं तन्मूल्यं तदभावे पुराणत्रयम् । “द्वात्रिंशत्पणिका गावो वसः पौराणिको भवेत्” इति कात्यायनवचनान् । षट्त्रिंशन्मतमिति कृत्वा पठन्ति । " धेनुः पञ्चभिराज्यानां मध्यानां त्रिपुराणिको कार्षापणैकमूल्या हि दरिद्राणां प्रकीर्त्तिता" ॥ अव पुराणत्रयलभ्यं गोतमोक्त हिरण्यादिकमेव देयं तद्यथा । हिरण्यं गौर्वासोऽखो भूमिस्तिलाघृतमत्रमिति देयानि । एतान्येवानादेशे विकल्पेन क्रियेरत्रिति अन्यथा इदमनर्थकं स्यात् इति प्रायश्चित्तविवेकः न्यं हिरण्य' गौरित्यादिना गोर्विकल्पकत्वेन हिरण्यामुक्त न तु गोमूल्यत्वेन ततञ्च द्वात्रिंशत्पणिका इत्यादिवचनात् कार्षापणत्रयदानमेव युक्तम् । तत्र " तात्रिक: वार्षिकः पणः" इति याज्ञवल्क्यवचनेन " गुञ्जाः पञ्चाद्यमाषकः । ते षोड़शाचः कर्षोऽस्त्री पलं कर्षचतुष्टयम्" इत्यमरसिंहोक्तेन अशौतिरत्तिकापरिमिततास्त्रे पणशब्दः सङ्केतितः स च तावत्संख्यकवराटकैर्लभ्यत इति वराटकेष्वपि + ४४ For Private And Personal Use Only Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५१५ प्रायश्चित्ततत्त्वम्। तथा व्यवहारः। एतन्मलकं भविष्यमस्य तन्त्रयोवचनम्। "अशोभिवराटकैः पण इत्यभिधीयते। तैः षोड़शैः पुराणं स्थात् रजतं सप्तभिस्तु तैः' इति गोतमोक्तपरिगणनीयनियमस्तु अनादिष्टे प्राथमिककल्याय प्रादिष्टे तत्तद्रव्यप्राधान्य हिरण्यादेरानुकल्पिकत्वमिति विशेषः । अतएव यमेन सामान्यतो दानमुक्तं यथा। "शोषणेन शरीरस्य तपसाध्ययनेन च । पापकन्मुच्यते पापात् दानेन दमनेन च ॥ प्रतः कार्षापणवयनभ्यं रजतादि दौयते । यत्तु मिताक्षरायाम्। “गवामभावे निष्कः स्यात्तदई पाद एव च" इति स्मरणानिष्कादिकमुक्तं तच्छततमाद्यपेक्षया तत्रापि “चतुःसौवर्णिको निष्कः" इति मनक्तनिष्कस्य न ग्रहणम् अत्यन्तविसदृशमूल्यत्वात् साष्टशतसुवर्णनिष्कवत्। किन्तु दौनारनिष्कस्य ग्रहणं तथा चामरः । “साष्टे शते सुवर्णानां हेम्नुपरो भूषणे पले दौनाऽपि च निष्कोऽस्त्री" इति दोनार उक्तो विष्णुगुप्तेन। "दीनारो रोपकैरष्टाविंशत्या परिकीर्तितः। सुवर्णसप्ततितमो भागो रोपक उच्यते” ॥ सुवर्णस्व शौतिरत्तिकापरिमितं हेम । तथा च मनुः। “पञ्चकष्णलको माषस्ते सुवर्णस्तु षोड़श" इति अन काञ्चनं व्यक्तमाहामरसिंहः। "मुवर्णविस्तो हेम्रोऽक्षः" इति । एवञ्च सप्तमांशाधिक हेमरतिकारोपकः तदष्टाविंशत्या हात्रिशत्तिकापरिमितो दौनारो निष्कः । अथ ज्ञानकतादिनिरूपणम्। तत्र गोबधस्य बुद्धिपूर्वक सदा भवति यदि गां ज्ञात्वा एतां हन्मौति इच्छया हन्ति तदा कामनाहारैव ज्ञानस्य प्रवृत्त्यङ्गत्वात्तदभावे त्वबुद्धिपूर्वकत्वम्। अतएव प्रवृत्त्वज्ञानस्य कामनाव्यभिचाराभावादेव। “कच्छ्रांस्तु चतुरः कुर्यात् गोबधे बुद्धिपूर्वके । अमत्या च इयं कार्यम्” इति विश्वामित्रवचनेन ज्ञानाज्ञानाभ्यां For Private And Personal Use Only Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रायश्चित्ततत्त्वम् । ५१९ दैविध्यमुक्ताम् अन्यत्र कामाकामाभ्याम् इत्युक्तम् । यथा वृह स्पतिः। “कामाकामकृतं त्वेवं महापापं विधा मतम् । पुरुपापेक्षया चैव निष्कतिहि विधा स्मता" ॥ इत्यंञ्च गवयादिभ्रमेण यो गोबधस्तत्र गोबधस्य न ज्ञानकतत्वं गोत्वेनाज्ञानात् यदि गोत्वेन जानवप्यन्योद्देशक्षिप्तनाराचादिना यदि हन्ति तदापि न ज्ञानकतत्व तविषयकहननेच्छारूपहाराभावात् । षधनिरुतिरग्निपुराणे । "स्यात् प्राणवियोगफलकव्यापारी हननं स्मृतम्। रागाद्वेषात् प्रमादाहा खत: परत एव वा ॥ - अथ विप्रादिखामिकगोवधप्रायश्चित्तम् । तत्र मनुना *गोषु ब्राह्मणसंस्थाम” इत्यनेन दण्ड प्रकरणे ब्राह्मणस्वामिकवेन गोगुरुत्वमभिहितम् । नारदेन च । “देवब्राह्मणराजाच द्रव्यं विजेयमुत्तमम् । इत्युक्तम् अतस्तद्दधे गुरुप्रायश्चित्तं युक्तम् । तदाह मनुः । “उपपातकसंयुक्तो गोघ्नो मासं यवान् पिबेत् । कृतवापो वसेहोष्ठे चर्मणा तेन संवतः ॥ चतुर्थकालमनीयादक्षारलवणं मितम् । गोमूत्रेण चरेत् स्नानं हौ मासौ नियते. न्द्रियः ॥ दिवानुगच्छेत्तागास्तु तिष्ठन्नई रजः पिबेत् । शुक्रषित्वा नमस्कृत्वा रात्री वौरासनं वसेत्। तिष्ठन्तोष्वनुतिष्ठेत्तु व्रजन्तोष्वप्यनुव्रजेत्। आसौनासु तथासौनो नियतो वौतमत्सरः ॥ पातुरामभिशस्तां वा चौरव्याघ्रादिभिर्भयैः। पतितां पङ्कलग्नां वा सर्वप्राणैविमोचयेत् ॥ उष्ण वर्षति शौते वा मारुते वाति वा भृशम्। न कुर्वीतात्मनस्वाणं गोरकत्वा तु शक्तितः ॥ प्रात्मानो यदि वान्येषां ग्टहे क्षेत्रे खलेऽथ वा। भक्षयन्ती न कथयेत् पिबन्तं चैव वत्सकम् ॥ अनेन विधिना यस्तु गोनो गामनुगच्छति। स गोहत्याकृतं पापं विभिर्मासैव्यपोहति ॥ वृषमैकादशा गाश्च दद्यात् सुचरितव्रतः। प्रवियमाने सर्वस्वं वेदविभयो निवेदयेत्” ॥ उपपातकसंयुक्तो For Private And Personal Use Only Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५२. प्रायश्चित्ततत्वम् । गोनो न तु यागाद्यर्थ गोवधकापि अतएव सामान्यत उ हारौतेन "वृथा पशुधाते प्राजापत्यम्"। इति यागाद्यर्थोऽपि गोवधः कलौ निषिद्धः । “दीर्घकालं ब्रह्मचर्य धारणं च कमण्डलीः। गोत्रान्मासपिण्डाहा विवाहो गोवधस्तथा । नराखमेधौ मद्यश्च कलौ वज्यं द्विजातिभि":॥ इति हलायुधशूलपाणिग्रहस्थरत्नाकरकृतब्रह्मपुराणावचनात्। मद्ये निबेधं स्पष्टयत्युशना । "मद्यमपेयमदेयमनियमिति । एवञ्च दुर्गापूजादौ यमबदानमुक्तं तत्कलौतरपरम् । वातवाय: कृतसशिवपनो इतगवौचमचा कृतपरिधानोत्तरावगुण्ठनो मासत्रयं गोष्ठे वसेत्। तत्र प्रथममासं यवान् यवागूकतान् पिबेत्। अपरमासहये चतुर्थकालमनौयात्। पूर्वदिने उपोष परदिने रात्रौ भुञ्जोत। मुनिभिहिरशनं प्रोक्तमिति श्रवणात्। अक्षारलवणम् प्रकविमलवणं मितं स्वल्पम् । मासत्रयांनाह. दिवानुगच्छेत् इति । अनुः महार्थः । तिष्ठन्तौष्वित्यादिषु बौनां धर्मः कार्यः। स चात्मक्लेशकरः वौरासनं भित्त्याद्यनाथित्योपवेशनम् अभिशस्ताम् अतिक्रान्त भयभयनिमित्तैः सर्वप्राणैः सर्वसामर्थ्यः । विमोचयेत्तदपसारयेत्। अतएव विष्णुपुराणम्। “समं नयति यः क्रूहान् सर्वबन्धुरमत्सरः। भौताखासनकत् साधुः स्वर्गमस्याल्पक फलम्" ॥ गां न कथयेनिवारणाभिप्रायेण पिबन्तं स्तन्यमिति शेषः। सुचरितव्रतः सम्यक्चरितव्रतः। दक्षिणार्थ वृषभसहितदश गा दद्यात् तदभावे स्वल्पमपि सर्वस्व दक्षिणार्थ दद्यात्। धेनुसंकलनमा। वैमासिकवते. मासयवपानं प्राजापत्यद्दयतुल्यं यतो यमेन अख्यादिभने मासाईयवपानमुक्त तत्रैव गोभिलेन प्राजापत्यमुक्तम्। यथा भवदेवभवतयमवचनम्। “अस्थिभङ्गं गवां कृत्वा लालच्छेदनं तथा। For Private And Personal Use Only Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रायवित्ततत्त्वम् । ५२१ पाटने कर्णशृङ्गायां मासाईन्तु यवान् पिवेत्” ॥ स्मृतिसागरे गोभिलः । “कर्णलाङ्गलयो दमस्थिभङ्गं विधाय च । प्राजापत्यव्रतं कुर्य्यचत्वारो ब्राह्मणादयः " ॥ पत्र यत् शूद्रस्य द्दिजतुल्यप्रायश्चित्तमुक्त तदस्थिभङ्गादिमात्रपरं वैश्य तुल्यशूद्रमात्रपरं वा एवञ्च यत् प्रायश्चित्तविवेके मासयावकपानं कचित् द्वादशप्राजापत्यतुल्यमुक्तं तद् गोमूत्रमात्रसिद्दयावकपरं क्वचिच प्राजापत्यद्दयतुल्यं तत् सिद्धानन्तरप्रक्षिप्त-गोमूत्र परमित्यवि रोधः । मासहयचतुर्थ कालभोजने विंशदुपवासास्त्रिंशता नक्शोपवासाः । तथा च शूलपाणिमहामहोपाध्यायैस्त्रिंशश्च निरन्तरोपवासाः पञ्चदश प्राजापत्यतुल्याः । मासोपवास धेनु संकलने उक्ताः । अनेकान्तरितत्वादितिकर्तव्यतायोगाच्च । एकादशप्राजापत्यतुल्याः तत्र त्रिंशन्नक्तभोजनं चतुः प्राजापत्यतुल्यं मिलित्वा त्रैमासिकव्रतं सप्तदशप्राजापत्यतुल्यं तदभावे सप्तदशधेनवो देया इति बहुसम्मता व्यवस्था । भवदेवभट्टसमता तु द्वादशधेनव इति पूर्वोक्ता च दक्षिणा देया । तदशक्तौ एकपञ्चाशत् षट्विंशद्दा कार्षापणा देया । दक्षिणायान्तु वृषभमूल्य कार्षापणपञ्चकं गोदकमूल्य कार्षापणदशकमिति । पञ्चदशकार्षापणाः एतच्च ज्ञानत इति । अज्ञानतोऽर्द्धम् । ततो ब्राह्मणान् भोजयित्वा गौरेका दक्षिणा देया । " भुक्तवत्सु च विप्रेषु गां वै दद्याद्विचक्षणः । गवामभावे दातव्यं गोमूल्यञ्च न संशयः " ॥ इति संवर्त्तवचनात्तन्मत्यं कार्षापणमेकं वा दद्यात् एतच्च शस्त्रमुष्टिलोट्रल गुड़ विषाग्न्यादिभिः प्रायिक मृत्युफलकैईनने बोध्यम् । तथा वृहस्पतिः । " शस्त्रादिना तु गां हत्वा मानवं व्रतमाचरेत्” । स्त्रौशूद्रबालवृद्दानामर्द्दम् एकस्योभयपरत्वे पादः । एवञ्च ब्राह्मणादीनां सगुणत्वनिर्गुणत्वादिना कालदेशादितारतम्येन च लघु For Private And Personal Use Only A Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५२२ प्रायश्चित्ततत्त्वम् । गुरुप्रायश्चित्तान्तरं बोध्यम्। “समहिगुणसाहस्रमानन्त्वन यथा क्रमम्। दाने फलविशेषः स्यात् हिंसायां तहदेव हि। इति दक्षवचनात् । “सममब्राह्मणे दानं द्विगुणं ब्राह्मणब्रुवे। अधौते शतसाहसमनन्तं वेदपारगे" ॥ ब्राह्मणब्रुवश्वाङ्गिरसोक्तः यथा। "गर्भाधानादिसंस्कारैर्युक्तश्च नियमवतैः । नाध्यापयति नाधोते स ज यो ब्राह्मणब्रुवः” ॥ क्षत्रियसम्बन्धिन्या गोबंधे तु देवलः । “मोघ्नः षण्मासान तञ्चर्मणा परिवृतो गोग्रासाहारो गोव्रतो यवाशी गोभिरभिसञ्चरन् विप्रमुच्यत इति । गोग्रासाहारो गोग्रासाहर्ता कर्मण्यनिति साधुः। षण्मासयावकभक्षणं हादशप्राजापत्यतुल्य दक्षिणा च विशेषानुपदेशाद् यथाशक्ति देयेति। एतजज्ञानादज्ञानादई स्त्रीशूद्रबालवृद्धानामईम् एकस्योभयपरत्वे पादः । वैश्य सम्बन्धिन्या गोबंधे तु। शातातपः। “पञ्चगव्येन गोघाती मासकेन विशुद्धाति। गोमतोच जहियां गवां गोष्ठे च संवसेत्” ॥ पञ्चगव्यमाह शातातपः। “गोशकत दिगुणं मूत्र सर्पिविद्याच्चतुर्गुणम्। ज्ञौरमष्टगुणञ्चैव पञ्चगव्ये तथा दधि ॥ तथाष्टगुणम् । यमः । “आहृत्य प्रणवेनैव उत्थाप्य प्रणवेन च । प्रणवेन समालोय प्रणवेनैव तत् पिबेत् ॥ उत्ताप्य मिश्रौलत्य एतदैकल्पिकं द्रव्यपरिमाणानन्तरम् । मन्त्रान्तरञ्च ग्रन्थगौरवात्रोक्तम्। गोमतीविद्यामाह। प्रायश्चित्तकाण्डकल्पतरौ यमः। “गोमती कीर्तयिष्यामि सर्वपापप्रणाशिनौम्। तास्तु मे गदतो विप्राः शृणुध्वं सुसमाहिताः ॥ गाव: सुरभयो नित्य मावो गुग्ग लुगन्धिकाः। गावः प्रतिष्ठाभूतानां गाकः स्वस्त्ययनं महत्॥ अवमेव परं गावो देवानां इविरुत्तमम्। पावनं सर्वभूतानां क्षरन्ति च हवींषि च ।। For Private And Personal Use Only Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रायश्चित्ततत्त्वम् । ५२३ हविषा मन्त्रपूतेन तर्पयन्त्यमरान्दिवि। ऋषीणामग्निहोत्रेषु गावो होमप्रयोजिका: ॥ पावनं सर्वभूतानां गावः शरणमुत्तमम्। गावः पवित्र परमं गावो मङ्गलमुत्तमम् ॥ गाव: स्वर्गस्य सोपानं गावो धन्याः सनातनाः। नमो गोभ्यः श्रीमतौभ्यः सौरभयोभ्य एव च ॥ नमो ब्रह्मसुताभ्यश्च पवित्राभ्यो नमो नमः। ब्राह्मणाश्चैव गावच कुलमेकं विधाकतम् ॥ एकत्र मन्त्रास्तिष्ठन्ति हविरन्यत्र तिष्ठति ॥ मन्त्राज्ञाने मिताक्षरायां षट्त्रिंशतम्। "जपहीमादि यत्किञ्चित् कच्छ्रोक्तं सम्भवेन चेत्। सर्व व्याहृतिभिः कुर्यात् गायनया प्रणवेन च” ॥ गवां गोष्ठ इति श्रवणकुण्डलवत् तात्कालिकगोसत्त्वावबोधाय गोमतोजपसहितमासपञ्चगव्यपानं प्राजापत्यपञ्चकतुल्यम् एतदजानकते ज्ञानक्कते तु हैगुण्यम् । स्त्रौशूद्रवालवृद्धानामर्द्धम् एकस्योभयधर्मपरत्वे पादः। शूद्रसम्ब. धिन्या गोर्बधे तु विश्वामित्रः। “कृच्छ्रांस्तु चतुरः कुर्यात् गोवधे बधिपूर्वके। अमत्या च इयं कायं तदह बालबाहयोः । स्वोशूट्रयोरेवमेतदधे चैव न संशयः॥ कच्छ्रान् प्राजापत्यानि। तच्चतुष्टयाशक्तौ चतस्रो धेनवः। हादश कार्षापणा वा। एतज्ज्ञानकते अज्ञानलते प्राजापत्यवयं तदशक्ती हे धेनु षटकार्षापणा वा देयाः। स्त्रौशूद्रबालवृद्धानामईम् । एकस्योभयधर्मपरत्वे पादः। स्वामिकतविशेषस्तु प्रायश्चित्तविवेकानुसारादुक्तः। व्यवस्था तु तदुपदेशकं वस्त्रादिना परितोष्ण ग्राह्या। पत्रदाने तु शूट्रेशाज्ञानकृतशूद्रस्वामिकगवीबधजन्य पापक्षयाय प्राजापत्यव्रतं प्रायश्चित्तं करणीयम् । तदशता वेकधेनुदानं तदशती कार्षापणत्रयम्। दक्षिणा च यथाशक्ति दातव्या। एतत्सर्वं पूर्वदिने सशिखवपनं कारयित्वा वृतं प्राध्य उपोष्ण करणीयम् । प्रायश्चित्तानन्तरं पार्वणविधिना For Private And Personal Use Only Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५२४ प्रायवित्ततत्त्वम् । शार्थं श्राद्धं कर्त्तव्यम् । दशान्धूनब्राह्मणेभ्यो भोज्यादिकं देयम् । एतत्सवं गोस्वामिनं मूल्यादिना परितोष्य करणीयम् । अमुकस्य मतमेतदेवमन्यत्राप्यूहेन लेख्यम् । विशेषदचिणोक्तौ तु सैव लेख्या । केशरक्षणे तु प्रायन्ति द्वैगुण्यं दक्षिणा च हिगुणा । योषितां मुण्डने तु श्रृङ्गुलिद्दय परिमित सर्व के शाग्रच्छेदन कर गौयमिति लेख्यम् । प्रायश्चित्त करणे तु अमुकपापक्षय काम इदं काञ्चनमिति वाक्ये विशेषो बोध्यः । नारायणश्च स्मर्त्तव्यः । "प्रातर्निशि तथा सन्ध्या मध्याह्नादिषु संस्मरन् । नारायणभवाप्नोति सद्यः पापक्षयं नरः ॥ इति विष्णुपुराणे पापक्षयः । गर्भिण्यादौ तु विशेषमाह वृहस्पतिः “ गर्भिणीं कपिलां दोग्ध्रों होमधेनुञ्च सुव्रताम् । रोधादिना घातयित्वा द्विगुणं गोव्रतञ्चरेत् ॥ गर्भिणोबधे तु विशेषमाह वृडयमः । " गवां निपतने चैव गर्भनाशो यदा भवेत् । एकैकन्तु चरेत् कच्छ यथा पूर्वं तथा परम् ॥ कच्छ्रपदं व्रतपरम् । द्विगुणं गोव्रतमित्येकवाक्यत्वात् "पादमुत्यवमात्रे तु हौ पादौ गावसम्मिते । पादोन व्रतमाचष्टे हत्वा गर्भमचेतनम् । श्रङ्गप्रत्यङ्गसम्पन्ने गर्भे चेतः समन्विते । दिगुणं गोव्रत कुय्यात् प्रायश्चित्तं विशुद्धये " ॥ मध्यमवचनं भवदेवव्याख्यातम् । यथा लगुड़ाभिघातेन गौर्जीवति गर्भमात्रपातो भवति तदोत्पन्नगर्भमावपाते यथोक्तप्रायश्चित्तपादाचरणम् । गात्रावयवोत्पत्तौ प्रायवित्तपाददयं सकलगाचसम्पत्तौ चैतन्याभावे प्रायश्चित्तपादत्रयम् । अर्थाच्चैतन्ययुक्तगर्भघाते कृत्स्नमेव प्रायश्चित्तमूहनौयम् । मिताक्षरायान्तु । गर्भिणौबधे यदा गर्भोऽपि नित भवति तदा प्रतिनिमित्तं नैमित्तिकमावर्त्तत इति न्यायादविशेषेण द्विगुणव्रतप्राप्तौ षट्त्रिंशन्मते विशेष उक्तः । “पाद उत्पन्नमात्रे तु दो पादौ दृढ़तां गते । पादोन व्रतमुद्दिष्ट For Private And Personal Use Only Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रायश्चित्ततत्त्वम् । ५२५ इत्या गर्भमवेतनम्। पजप्रत्यासम्पने मर्ने चेतः समन्विते । हिगुणं गोवतं कुर्यादेषा गोनस्य निवतिः ॥ दोग्धों बहुक्षौसम्। वृहस्पतिः। "प्रतिहहामतिकशामतिवालाच गेगिणीम्। हत्वा पूर्वविधानेन चरेदई व्रत विजः । पूर्वावधानेन मन्वाद्युनत्रैमासिकादिना अतिवृष्ट्वा टणच्छेद नासमर्था अतिकशा कशत्वेन दोहनवाहनायोग्या अतिबामा वर्षपर्यन्तं बाला तदतिक्रान्ता द्विवर्षीया। तथा च वृहदतिराः। “वर्षमावा तु बाला स्यादतिबाला हिवार्षिको। पतः परन्तु सा गौः स्यात्तरुणो दन्तजन्मनि ॥ पतएव वक्ष्यते "हिपादस्तु बिहायने" इति संवतः । “व्यापबानां बहना बन्धने रोधनेऽपि वा। भिषमिथ्योपचारे च हिगुणं गोव्रतञ्चरेत् ॥ एकप्रयत्ने निष्पन्ने बहनां गवां बधे प्रायश्चित्तगौरवमुक्तं न तु तन्त्रता पापभेदाभावात् । एकप्रयत्नजन्यत्वेनैकमेव गुरुतरपापमिति प्रायश्चित्तमपि तथा । बहनामित्येकाधिकपरम् । तदविवक्षायामपि गोहयवधे प्रयत्नाभेदेऽपि विशेषवचनाभावात् प्रायश्चित्तहैगुण्य युक्तम्। अपिशब्दात् गृहदाहादिना क्रमकते तु प्रायश्चित्तात्तिः। यथोपपातकानुवृत्तौ यमः। “गोनवहिहित: कल्पश्चान्द्रायणमथापि वा। अभ्यासे तु तयोर्भूयस्तत:शुद्धिमवाप्नुयात्"। तयोर्गोवधतदन्योपपातकयोः प्रकृतिविकृतिरूपयोः संवतॊपस्तम्बो। “एकाचेबहुभिः क्वापि देवाद्यापादिता भवेत्। पाद पादञ्च इत्यायाश्चरयुस्ते पृथक् पृथक"। इत्याया यत्र यहिहित व्रतं तत्र तस्यैव पादं प्रत्येक कुयुः। एकाचेदित्युपलक्षणम् अतो बहुभिईयोबहनाञ्च हनने प्रतिपूरुषं पादहयं त्रयं वा कल्पनौयमिति मिताचरा। वस्तुतस्तु एकाधिकानामेकैकपुरुषस्यक प्रयत्नजन्य For Private And Personal Use Only Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५२६ प्रायश्चित्ततत्त्वम् । बधे व्यापनानां बहनामिति पूर्वोक्तवचनात् एक कपुरुषस्य हिपादं कृत्वा प्रायश्चित्तं प्रयत्नभेदे तु गोनवदित्यनेन तन्त्रताया प्रभावात् प्रत्येकं प्रतिपुरुष हिपादावृत्तिरिति। एतबाकामतो बधे द्रष्टव्यम् । देवादिति विशेषोपादानात् कामकृते तु बहनामपि प्रत्येकं कत्नदोषसम्बन्धात् पूर्णप्रायश्चित्तं युक्तम् सत्रियां फलमिव प्रतिपुरुषसतम्रव्यापारसमवायात् । "एक नतो बहनाच यथोक्ताहिगुणो दमः ॥ इति प्रत्येक दण्डहे गुण्यदर्शनाचेति मिताक्षरा। वस्तुतस्तु सर्वत्र पापे “स्थावकामकते यस्तु हिगुणं बुद्धिपूर्वके ॥ इत्यङ्गिरो वचनेमाज्ञानात् ज्ञाने हेगुण्यदर्शनादत्रापि ज्ञान हिपाद एव युक्ताः । सत्रे तु सप्तदशावरा ऋद्धिकामाः सत्रमुपासौरनिति श्रवणातथेति। एक प्रतामिति परवचनन्तु गोवधातिरिक्त विषयम् । गोबध एकाचेदित्युपदेशेन दण्डवत् प्रायश्चित्तानि भवन्तीत्यतिदेशानवसरात्। तदवसरले प्रत्येक पूर्ण प्रायश्चित्तहैगुण्यं स्यात् न पूर्ण प्रायश्चित्तमात्रम् प्रतएव प्रायश्चित्तविवेके एक घ्नतां बहनामिति मनुष्य बधे उक्तं बहुभिारत्यपादानात् हाभ्यां हनने तु प्रत्येकं सम्पर्णप्रायश्चित्तम् । ___ अथै कहायनादि गोवधप्रायश्चित्तम्। वृप्रचेताः । “एकवर्षे गवि हते कच्छ्रपादो विधीयते। अबुद्धिपूर्व पुंसः स्यात् हिपादस्तु हिहायने। विहायणे विपादः स्यात् प्राजापत्यमतः परम् ॥ इदमपि प्रायश्चित्तलाघवेन अबुद्धिपूर्वकाधमशूट्रस्खामि कबधविषयमिति प्रायश्चित्तविवेकः। तेन यत्खामिकबधे यत् प्रायश्चित्त तस्यैव तत्र पादादिकमूहनौयमत एवातिबालामित्यत्र तस्यैवोक्तम् अतःपरम् चतुर्हायणे इत्यर्थः बुद्धिपूर्वे एतदेव दिगुणमित्यर्थः । अथ रोधादिनिमित्तक गोबधप्रायश्चित्तम्। अङ्गिराः । For Private And Personal Use Only Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रायश्चित्ततत्त्वम् । ५२७ "बोधने बन्धने चापि योजने च गवां रुजः । उत्पाद्य मरणं वापि निमित्तौ यत्र लिप्यते । पादञ्चरेद्रोधबधे हौ पादौ बन्धने चरेत् । योजने पादहौनं स्याञ्चरेत् सर्वं निपातने । निमित्तौ लिप्यत इति यथा कथञ्चित् मरणनिमित्ततारतम्येन "यो भूय प्रारभते तस्मिन् फले विशेषः" इत्यापस्तम्बवचनात् पापविशेषेण लिप्यते तद्विशेषात् प्रायश्चित्तविशेषमाह पादचरेदित्यादि। रोधः चौणाया गोराहारप्रचारनिर्गमविरोधः : । बन्धनमयथाबन्धनमकालबन्धनञ्च । योजनं हलशकटादौ योजन तत्त्रातिवाहादिनेति शेषः । अत्रैव विषये च्यवनः । " प्राजापत्यद्वयं गोहत्या प्रायश्चित्त' रोधनवन्धनयोक्तृबधे पादasar नखानि लोमानि शिखावजे सशिखं वपनं विसवनं गवानुगमनं सहशयनं सुमहत्तृणानि रथ्यासु चारयेत् व्रतान्ते ब्राह्मणभोजनमिति” । रोधनबन्धनयोक्तृवध इत्यादेरयमर्थः रोधनिमित्तकबधे प्राजापत्यस्य पादः प्रायश्चित्तं नखच्छेदनमात्रम् । बन्धननिमित्तबधे प्राजापत्यस्य द्वौ पादौ नखानां लोम्नाञ्च छेदनम् । योक्तनिमित्ते च बधे प्राजापत्यपादत्रयं नखलोम शिखावर्ज केशच्छ दनञ्च । दण्डादिप्रहारबधे संपूर्ण प्राजापत्यम् । नखलोमकेश शिखाच्छे दनञ्च इति कल्पतरुः । एतद्विषय एव मिताक्षराष्ट्रतं संवर्त्तवचनम् इत्येकवाक्यत्वात् । तदुयथा । "पादेऽङ्गलोमवपनं द्विपादे श्मश्रुणोऽपि च । विपादे च । शिखावर्जं समिखन्तु निपातने” ॥ अत्र प्राजापत्यस्य पादादित्वे किं मानमिति चेत् । पराशरवचनम् । " रोधने तु चरेत् पाद बन्धने चाईमेव हि । योजने पादहोनं स्यात् प्राजापत्यं निपातने । कृच्छ्रमज्ञानताड़ने” इति वार्हस्पत्यात् । दण्डोऽव हस्तप्रमाणो ब्राह्मः । तदधिके तु द्विगुणप्रायवित्तविधानात् । यथाऽङ्गिराः । 'श्रङ्गष्ठमात्रः For Private And Personal Use Only 66 Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५२८ प्रायश्चित्ततत्वम् । स्थौल्येन बाहुमाव: प्रमाणतः। सादव सपलाशश्च दण्ड, इत्यभिधीयते। अस्मादूई प्रहारण यदि गां विनिपातयेत् । हिगुणन्तु भवेतन प्रायश्चित्तमिति स्थितिः ॥ सपलाशः सपनः। एतहचनविषय एव चवनोत प्राजापत्य हयमिति एतच्चाजानतः । यथा वृहस्पतिः । “पादश्चरेद्रोधबधे कच्छाई बन्धधातने। पतिवाहे च पादोम कच्छ्रमजानताड़ने" । अन्जानञ्च क्षीणायामक्षीणत्वनमः। क्षण्यन्नाने तु प्रायिका मरणं ज्ञात्वा प्रवर्तकरण चान्द्रायणपादादिकम् । यथा हारीतः । "नासाच्छेदनदाहेषु कर्णच्छेदनबन्धने। प्रतिदोहातिवाहाभ्यां कच्छं चान्द्रायणं चरेत् ॥ इवेति शेषः। तच्छृ व्रतं तेन चान्द्रायणव्रतमित्यर्थः । इति शूलपाणि महामहोपाध्यायाः। भवदेवभट्टैस्तु। निपातने कूपावटादिषु इति व्याख्यातं तदपि युक्तम् अन्यथा तत्र पातजनकभयादिदर्शकस्य प्रायशितस्यानध्यवसायापतेः। "शस्त्रादिना तु हत्वा मां मानवं प्रतमाचरेत्। रोधादिनात्वाङ्गिरसमापस्तम्बोक्लमेव चेति वृहस्पत्युक्तस्त्र प्रथमादि-पदान्मुष्टि-लोष्ट्रलगुडविषान्यादीनां प्रायिकमृत्यु फलानां ग्रहणं रोधादिनेति यथा कथञ्चिब्रिमित्त. मात्रस्य बन्धादेरिति शूलपाणिव्याख्यान्तराञ्च। तस्माबिपातनपरम् उभयपरम् एतञ्च रात्रौ रक्षणार्थं रोधबन्धनव्यतिरि. नविषयम् । “सायं सचमनार्थन्तु न दुष्थेद्रोधबन्धयोः” इति अङ्गिरो वचनात् । बन्धने मिताक्षारायां विशेषमाह व्यासः । "न नारिकेनं च शालतालैन चापि मौजैन च बन्धशृङ्खलैः । एतैस्तु गावो न हि बन्धनीया बड्वा तु तिष्ठेत् परशुगृहीत्वा । कुणैः काशैश्व बनौयात् स्थाने दोषविवर्जिते" ॥ अथापालननिमित्तगोबधप्रायश्चित्तम्। तत्र पराशरः । “भौतानिलहता चैव उन्धनमृतापि वा । शून्यागारापेक्षायां . For Private And Personal Use Only Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रायवित्ततत्त्वम् । ५२८ प्राजापत्य विनिर्देशेत् । प्रपातनात् प्रपश्येत्तु गौचरन्तो कथञ्चन । जलौघपल्लले मग्ना मागविद्युद्दताऽपि वा । श्वभ्रं वा पतिता कस्मात् खापदैर्वापि भचिता । प्राजापत्य ं चरेत् कृच्छ्र गोखामौ व्रतमुत्तमम् । सशिखं वपन कार्य्यं त्रिसन्ध्यमवगाहनम् । शृङ्गैर्वापि खुरेर्युक्त लाङ्गूलश्रवणादिभिः । आर्द्रमेव हि तच्चर्म परिधाय स गां व्रजेत् । तासां मध्ये वसेद्राaौ दिवा ताभिः समं व्रजेत् । ब्राह्मणस्य विशेषेण तथा राजन्यवैश्ययोः । प्रायश्चित्ते ततचोरों कुर्य्यात् ब्राह्मणभोजनम् ॥ 1 1 अनडुसहितां गाच्च दद्याद्विप्राय दक्षिणाम्" । अत्र गोस्वामीत्यभिधानात् उत्सृष्टवृषवसतरीषु स्वत्त्वाभावादपालननिमित्तकतद्दधे तदुत्स्रष्टुर्दोषो नास्ति इति प्रतीयते । तत्त्वत्त्वाभावे - नान्येषां सम्भाव्यमानमौपादानिकखत्वं निराकरोति कल्पतरुष्टतब्रह्मपुराणम्। "अथ वृत्ते वृषोत्सर्गे दाता वक्रोक्तिभिः पदैः । ब्राह्मणानाच यत् किञ्चित् मयोत्सृष्टन्तु निर्जने । तत् कश्चिदन्यो न नयेद्विभाज्यञ्च यथाक्रमम् । न वाह्य न च तत्चौर' पातव्य' केनचित् क्वचित्” ॥ वक्रोक्तिभि: काकूतिभिः स्वाम्यभावेनोत्सृष्टपशो: पालननियमाभावाचान्यादि भक्षणे मोच्यत्वमप्याह याज्ञवल्काः । “महोबोत्सृष्टपशवः सूतिकागन्तुकादयः । पाली येषाञ्च ते मोच्या दैवराजपरिप्लुताः” । महो चोऽनिर्वाय महाबलीवर्दः । उत्सृष्टपशवः देवतो शेन पित्रादिनिष्ठफलोद्देशेन चक्राद्यङ्गितास्त्यक्त पशवः । सूतिका पनि र्गतदशाहाः । श्रागन्तुका ग्रामान्तरादागताः । श्रादिशब्दात् उशनसोक्ताश्च यथा । "अदण्डया हस्तिनोऽश्वाच प्रजापाला हि ਰੇ स्मृताः । दण्डाः काण कुण्ठाश्च वृषभः कृतलक्षणः” ॥ कुण्ठः खस्नः। अत्र काणकुण्ठशब्दाभ्यामत्यन्ताक्षम उच्यते। वृषभः कृतलचणः । प्रागुक्तोत्सृष्टपशः एते सपाला विपाला वा सर्वथा ४५ For Private And Personal Use Only Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रायश्चित्ततत्वम् । मोयाः। तथा च मनुः। “अनिर्दशाहां गां सूतां वृषान् देवपशुंस्तथा। सपालान् वा विपालान् वा पदण्ड्यान् मनुखवौत्"। एतद्भिवानां येषाञ्च पालोऽस्ति तेऽपि मोच्याः। अर्थात्तत्र पालो दण्डनीयः। देवराजपरिप्लताः। गर्जादि. श्रवणात् सेनादिदर्शनाहा पलायिताः पशवो यदि क्षेत्रे चरन्ति तदा न दोष इत्यर्थः। पालकान्तरसत्त्वे तु मनुः। “दिवा वक्तव्यता पाले रात्रौ स्वामिनि तद्ग्रहे। योगक्षेमेऽन्यथा चेत्तु पालो वक्तव्यतामियात्। दिवा पशूनां पालहस्तन्यस्तानां योगक्षेमविषये दोषे जाते पालकस्य गहणीयता रात्री पुन: पालप्रत्यर्पितानां स्वामिनां दोषः। अन्यथा यदि रात्रावपि पालहस्तगता भवन्ति तदा दोषे उत्पन्ने पाल एव गहणीयतां प्राप्नोति इति कुल्ल कभट्टः । स्मृतिसागरसार वृहदङ्गिराः। “अनागतस्य चानेता प्रागतस्य च रक्षकः। रावा. वपि यदान्योऽस्ति तदा स्वामी न दोषभाक" ननु दण्डप्रकरणोतमनुवचन प्रायश्चित्ते कथमिति चेन्न दण्डवत् प्रायश्चितानि भवन्तौति श्रुतेः तथा व्यवहाराच। एवञ्च “यनापवर्तते युग्यं वैगुण्यात् प्राजकस्य च। तत्र स्वामी भवेहण्डयो हिंसायां द्विशतं दमः । इति मनुवचने यत्र सारधेरकौशलात् यानम न्यथा गच्छति तत्र हिंसायाममुशिक्षित सारथि नियोगात् स्वामी द्विशतं दण्डं दाप्यः सादिति कुल्ल कभट्टव्याख्यानदर्शनात् अयोग्यपालकसमर्पणे स्वामिनो दोषातस्यैव प्रायश्चित्तमुक्तम्। "यावत् शस्य घिनश्येत्तु क्षेत्री तावत् फलं लभेत्। पालस्ताद्योऽथ गोस्वामी पूर्वोक्तं दण्डमईति" याज्ञवल्कावचने गवादिदोषेण यावत् शस्य विनश्यति। ताव. देव पालकात् प्राप्तव्यं पालकाशलो पालकस्तायः पूर्वोक्तं दण्डादिकमहतौति दर्शनाच। गोवधप्रायश्चित्ते पालकद्वयाः For Private And Personal Use Only Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५३१ प्रायश्चित्ततत्त्वम् । सम्भवे खामिना द्रव्यं दत्त्वा प्रायश्चित्तं कारयितव्यं कर्तव्यं वा। म्लेच्छपालके स्वयं कर्तव्यम्। सशिखवपनमित्यत्र नैमित्तिकेन सशिखवपनेन सदा बदशिखेन तु इत्यस्य "गायनया तु शिखां बड्डा नैऋत्यां ब्रह्मरन्धतः । जुटिकान्तु ततो बडा ततः कर्म समाचरेत्”। इति ब्रह्मपुराणोक्तस्य च नित्यत्वस्य बाधो न दोषाय फलचमसेन सोमस्य बाधवत् गोदोहेन चमसस्य बाधवच्च । “सशिखं वपनं कार्यमानानात् ब्रह्मचारिणा" इति कात्यायनकतछन्दोगपरिशिष्टेऽप्येवम् । एतदेकश्रुतिमूलकत्वात् ततपारस्करौये। पर्याप्तशिरसमिति सूत्रेऽपि নইবাঘ: নক্সানা মিমি অভিনীমাবনীমমি मुण्डि तशिरसमिति व्याख्यातम्। न च एते लनशिखास्तस्य दशनैरचिरोहतैः। कुशा: काशा विराजन्ते वटवः सामगा इव”। इति विष्णुपुराणोयेन सामगा इति विशेषणानान्येषां लपशिखत्वमिति वाच्यं प्रागुतवचनात् सर्वेषां सशिखवपनप्राप्तेः विध्यन्तरकल्पनापत्तेच। णसामगयोरौपम्यन्तु हरिणमुखहेतुत्वेनाप्युक्तं तयोः सुखहेतुत्वञ्च भक्ष्यत्वेन गायकत्वेनेति शेषः । एवं प्राचीनावौतित्वादिना सदोपवौतिना भाव्यमित्यस्थापि बाध इति प्रसङ्गादुक्तम् । ब्राह्मणस्य विशेषेणेति ब्राह्मणगवानुगमनं मुख्यम् एतेनापालनलतगोबधे प्राजापत्यं करणीयमिति अत्रेति कर्त्तव्यतापि प्राजापत्यतुल्येति पण्डितसर्वस्खे हलायुधः। वृषभो गौश्व दक्षिणा ब्राह्मणभोजनं विशेषयति यजपार्खः । “गर्भाधानादिकत्येषु ब्राह्मणान् भोजयेद्दश" । प्राजापत्ययाशक्तौ धेनुइयं तदशक्ती षट्कार्षापणाः । एवञ्च वृषमूल्यं पञ्च कार्षापणाः। गोमूल्य कार्षापलैकः । शूलपाणिप्रभृतिभिस्तु इतिकर्तव्यतायां विशेषो नाहतः। एतच्च शूद्रस्वामिकेतरबधविषयम् । शूद्रखामिकस्यान्नानात् साक्षाबधे यत् For Private And Personal Use Only Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५३२ प्रायश्चित्ततत्त्वम् । किश्चिदक्षिणकक्कच्छ्रदयस्य निबन्धभिर्व्यवस्थापितत्वेनापालनकृतबधे तदधिकस्यायुक्तात्वात् वरं तत्तुल्यं कच्छ्रहयं युतामुत्पश्यामः। अतएव एतहिषय एव स्मृतिसागरसारे वृहदगिरा: । "अरक्षिते तु कूपादौ ते व्याघ्रादिभक्षिते । व्रताईमाचरेत् स्वामी रक्षिते नास्ति दूषणम्" ॥ व्रताई कामकतव्रताई नास्ति दूषणमिति यदि प्रमत्ता गौनिवारयन्तं पालमतिक्रम्य गर्तकान्तारादौ नियते तदा नेत्यर्थः। अन्यत्र सत्येव पालके सम्यक्पालनाभावेन खभादौ पाताहोमरणे प्रायश्चित्तमाह विष्णुः “पल्ललौघहकव्याघ्रश्वापदादिनिपातने। खमोहन्धनसर्पाद्यैर्मते पादोनमाचरेत् ॥ पालने तु कच्छ स्यात् शून्यागाराा पप्लवे" ॥ पादोनं प्राजापत्यमेव उत्तरवचने कच्छश्रवणात्। तथा “पादचाप्राप्तके देयो वत्से स्वामिन्यरक्षिते । अप्राप्तके अप्राप्तदम्यावस्थे विहारणपर्यन्ते इति यावत्। एवम्भूते वत्सेऽरक्षिते खभपातादिना मृते सति खामिना प्राजापत्यपादः करणीयः । अत्र पादमात्रप्रायश्चित्तत्वात् बालत्वादिना नानुग्रहः ततश्चाप्राप्तदम्यावस्थवरमा. पालननिमित्तकबधजन्यपापक्षयकाम इति प्रयोज्यम्। पत्र "विभृयावेच्छतः सर्वान् ज्येष्ठो भ्राता यथा पिता। माताशताः कनिष्ठो वा शक्त्यपेक्षा कुले स्थितिः ॥ इति नारदोक्तकहिरूपतया स्थितानामविभक्तानां संसृष्टानाचापालनाहोप्रणाशस्तकतमकतेन प्रायश्चित्तेन सर्वेषां पापनाश: “एकपाकेन वसतां पिलदेवहिजाचनम् । एकं भवेद्विभक्तानां तदेव स्यात् रहे रहे" ॥ इति वृहस्पतिवचनेन "भ्रातृणामविभक्तानामेको धर्मः प्रवर्तते। विभागे सति धर्मो हि भवेदेषां पृथक् पृथक् ॥ इति भारदवचनेन च एकत्रवासिनामिकतमकतवैदिककर्ममात्रेण सर्वेषां फलभागित्वात्। अन्य For Private And Personal Use Only Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५३३ प्रायश्चित्ततत्त्वम् । वैकतमतपक्षमहायस्वादृशानां सर्वेषां पञ्चसूनापापनाशो न स्वात् तदुक्तं मनुना। "प्रध्यापनं ब्रह्मयत्रः पिढयज्ञस्तु सर्पणम्। होमो देवो वलिभौंतो नृयन्नोऽतिथिपूजनम् ॥ पञ्चैतान् यो महायज्ञान हापयति शशितः। खग्रहेऽपि वसन्नित्यं सूनादोषैनं लिप्यते ॥ भूनादोषैः “पञ्चमूना गृहस्थस्य चुलो पेषण्युपस्करः। कण्डनो चोदकुम्भश्च बध्यते यास्तु वाहयन्” इति खोक्तः। सूना हिंसास्थानानि चुलो पाकखानं पेषणौ दृषदुपलादि। उपस्करः सम्माजन्यादि। कण्डनौ मुषलोदूखलादि। एताः सूनाः खखकार्ये प्रापयन् पापन युज्यते पुरुष इत्यर्थः । अन्यथा च दम्पत्योमध्यगं धनम् इत्यनेन तत्र गवि पत्नयाः स्वामित्वात्तस्या अपि प्रायश्चित्तान्तरं स्यात्। ननु "आम्नाये स्मतितन्त्रे च लोकाचार च सूरिभिः। सरौराई स्मृता जाया पुण्यापुण्यफले समा" इति वृहस्पतिवचनानायापत्योविभागो न विद्यते तथा पुण्यापुस्थफलेष्विखापस्तम्बवचनाच। एवम्भूतविषये भर्नुकतादेव प्रायश्चित्तात्तबाश इति चेद भ्रानादौनाम् अप्येकपाकेन वससामिति प्रागुक्तवचनहयात्तथेति तु साधारणधनदानेन प्रायचित्तं कृतं तत्र सुतरां सर्वेषां पापक्षयः। अतएव विवादकल्पतरूप्रभृतिषु वृहस्पतिः। “बहूनां सम्मतो यस्तु दद्यादेक धनं नरः। करणं कारयेहापि सर्वैरेव कृतं भवेत् ॥ तथा च "पापमेवाश्रयेदस्मान् हत्वैतानाततायिनः” इत्याद्युक्त पाप यायावमेधिक पर्वणि युधिष्ठिरं प्रति व्यासवाक्यम् । “अश्वमेधो हि राजेन्द्र पावनः सर्वपाप्मनाम्। तेनेट्वा वै विपाप्मा त्वं भविता नात्र संशयः" ॥ तत्रैव भगवहाक्यं “भौमसेनाजुनी चैव तथा माद्रवतीसतौ। इष्टवन्तो भविष्यन्ति त्वयौष्टवति पार्थिव ॥ उपसंहारेऽपि वैशम्पायनः । “गत्वा चावभृथे For Private And Personal Use Only Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५३४ प्रायश्चित्ततत्त्वम् । राजा विपामा भ्रातृभिः सह । सम्राज्यमानः शुशुभे महेन्द्रस्त्रिदशैरिव” ॥ प्रविभक्तानां पालकानामप्येकं प्रायवित्तं विभक्तानाच्च पादं पादम् एका चेदिति प्रागुक्तत्वात् महनां गवामपालने तु द्विगुणं प्रायश्चित्तं व्यापत्रानां बहनाम् इति प्रागुक्तत्वात्तत्रापि विभक्त बहु कर्त्तृके तु द्विपादं प्रत्येकं प्रायवित्तमिति । मोबधे लघुगुरुप्रायश्चित्तान्तराणि यथायोग्यं द्रव्यतत्स्वामिसगुणत्वात्यन्त निर्गुणत्व देश काल विशेष प्रयोजकादिभेदेन व्यवस्थेयानि । अथ गोवधापवादः । पराशरः । " धर्खेषु वहमानेषु दण्डेनाभिहतस्य च । काष्ठेन लेष्टुना वापि घाषाणेन तु ताड़ितः । मूर्च्छितः पतितश्चैव मृतो वा सद्य एव च ॥ एवं गतानां धूयाणां प्रवच्यामि यथाविधि । उत्थितस्तु पदं गच्छेत् पञ्च सप्त दशाथवा ॥ ग्रासं वा यदि गृह्णाति तोयं वा पिबति स्वयम् । पूर्वव्याधिविनष्टानां प्रायश्चित्तं न विद्यते” ॥ यदि व्याधिप्रयुक्तानां वृषाणां इलयोजनमात्रेण स्वल्पतर दण्डाघातेन वा मूच्या पतनं भवति अनन्तरं गमनग्रासादौ कृते मरणं भवति तदागमनग्रास ग्रहणतोय पानैस्तदानीन्तनमरणे हेत्वभावं निखित्य पूर्वव्याधिविनष्टत्व' ज्ञायते । यदि तु पूर्वव्याधिरहित एव प्रहारजनितव्याधिना ग्रासादि कृत्वापि म्रियते तदा प्रायश्चित्तमस्त्येव संवर्त्तः । "यन्त्रणे गोचिकित्सायां मूढगर्भविमोचने । यत्ने कृते विपत्तिः स्यात् प्रायश्चित्तं न विद्यते ॥ श्रौषधं स्नेहमाहारात् दद्याहो ब्राह्मणेषु च । प्राचिनां प्राणवृत्त्यर्थं प्रायश्चित्तं न विद्यते ॥ दाइच्छेदशिराभेदमयले रुपकुर्क ताम् । द्विजानां गोहितार्थं वा प्रायश्चित्तं न विद्यते ॥ मूढगर्भः अन्तर्मृतमर्भः । मुद्दवैच्चित्ते इत्यनेन तथार्थत्वात् । याज्ञवल्काः । "क्रियमाणोपकारे तु मृते विप्रेण पातकम् । विपाके गोतृषा For Private And Personal Use Only Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रायश्चित्ततत्त्वम् । ५३५ पाच भेषजाग्निक्रियासु च ॥ विशेषमाहाङ्गिराः । “शृङ्गभङ्गेऽस्थिभङ्गे च चर्मनिर्मोचनेऽपि वा । दशरात्रं चरेत् वज्र' सुस्था सा यदि गौर्भवेत् ॥ द्विजानां गवाञ्च हितार्थमित्यर्थः । अत्र प्राणरचार्थमाहारादिदानैर्मरणे दोषाभावस्य वाचनिकत्वात् मललग्नानुमरणेनात्मघातादि । एवं " गोपालको गवां गोष्ठे धूमं यस्तु न कारयेत् । मक्षिकालोमनरके मचिकाभिः स भच्यते " ॥ इति देवीपुराणानुसारादग्नि प्रज्वात्य तत्रैव स्थितस्य देवात्तदग्निना मरणे दोषाभावः । तत्रास्थितस्य तु पालननिमि त्तगोबधजन्यदोषः । मिताक्षरायां पराशरः । " कूपे खाते च धर्मार्थे गृहदाहे च ये मृताः । ग्रामदाहे तथा घोरे प्रायश्चित्तं न विद्यते " ॥ इदन्तु बन्धनरहितस्य पशोः कदाचित् दाहादिना मृतविषयम् । इतरत्रापस्तम्बोक्तम् । " कान्ता - रेष्वथवा दुर्गे गृहदाहवटादिषु । यदि तत्र विपत्तिः स्यात् पाद एको विधीयते ॥ इति ज्ञेयम् एतद्वचनं यमस्येति भवदेवभट्टः । चिकित्सायां पापाभावो यथावदुपचारो बोध्यः । न पुनः सन्निपाताभिभूतस्योदकपानादिना । अतएव मनुः । “चिकित्सायाञ्च सर्वेषां मिथ्याप्रचरतां दमः” । काश्यपोऽप्यव प्रायवित्तमाह । " दोग्ध्रौ दमनातिदोहान्त्रासापाशदामघ ण्टाभरणयोजनात् । तैलपानौषधविनियोगाद्यापन्नानां प्रायवित्तं ब्राह्मणेभ्यो विनिवेद्य सशिखवपनं कृत्वा प्राजापत्यकृच्छ्रमाचरेत्। · चौर्णान्ते गां दक्षिणां ब्राह्मणाय दद्यात् धेनुं तिलधेनुं वेति" । अत्र गोधेनुतिलधेनुदानानां शक्त्यपेक्षो विकल्पः । तिलधेनुमाह रत्नार्णवे वराहपुराणम् । “तिलधेनु प्रवक्ष्यामि सर्वपापप्रणाशिनीम् । यां दत्त्वा पापकर्मापि मुच्यते नरकावरः ॥ चतुर्भिः सैतिकाभिश्च प्रस्थ एकः प्रको चिंतः । ते षोड़श भवेडेनुश्चतुर्भिर्वस को भवेत् ॥ इन्तु दण्ड For Private And Personal Use Only Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रायश्चित्ततत्वम् । मया: पादा दन्ताः पुष्पमयास्तथा। नासागन्धमयौ तस्या जिह्वा गुड़मयौ तथा॥ पृष्ठे तानमयो सा स्याहण्टाभरणभूषिता। ईट्टयों कल्पयित्वा च वर्णशृङ्गों प्रकल्पयेत् ॥ कांस्योपदोहां रौप्यखुरां पूर्वधेनुविधानतः। तिलधेनुं ततो दत्त्वा द्वादश्यां नियतः शुचिः ॥ प्रात्मानं तारयेद दुर्गात् नारकात् कामभाग्भवेत्” ॥ सेतिका कुड़वः। स च हादर्शप्रसूतिपरिमितः। चतुर्भिरिति प्रस्वैरिति शेषः। कांस्योपदोहां कांस्यकोड़ाम्। एतच्च गोः शक्तिमानपेक्ष्यैव दमनादितो मरणे बोध्यम्। यत्तु व्यासेन “घण्टाभरणदोषेण विपत्तियदि गोर्भ: वेत्। कच्छाईमाचरेत्तत्र भूषणार्थं हि तत् कृतम् ॥ विरेक. वमनाभ्याञ्च संधाते योजने तथा। लता सङ्गुलपाशेन मृते पादोनमाचरेत्” ॥ इत्युक्तं तहोररण्यप्रवेशेन लतादिवचधण्टादिदोषमरणे ज्ञयम्। पुनर्व्यासः। “पौषधं लवणक्षेव मेहं पिण्याकमेव च। अतिरिक्त न दातव्यं काले खल्पञ्च दापयेत् ॥ अतिरिक्त विपनानां कृच्छ्रपादो विधीयते । औषधे तु न दोषोऽस्ति स्वेच्छया पिबते यदि॥ अन्यथा दोयमाने तु प्रायश्चित्त न संशयः ॥ अन्यथा इच्छां विनातिरिक्तौषधे । तेनानिच्छया स्वल्पदाने दोषाभावात्तथा व्यवहारः। भवदेवभहरिनाथोपाध्यायकृतं संवर्तवचनम्। “शृङ्गभङ्गेऽस्थिभने च कटिभङ्गे तथैव च। यदि जीवति षण्मासान् प्रायश्चित्त न विद्यते" ॥ अत्र षण्मासोत्तरमरणे तदोषोपशमनाय प्रायचित्तं नास्ति तदभ्यन्तरमरणे बधप्रायश्चित्तं भवति एवज शृङ्गभङ्गादिनिमित्तकपापे पृथक् प्रायश्चित्तं न कर्त्तव्यम् । बधप्रायश्चित्तेनैव गुरुणा प्रसङ्गात्तदपगमसिद्धेः। षण्मासोत्तरन्तु शृङ्गभङ्गादिनिमित्तकपूर्वोक्तं मासाईयवपानं प्राजापत्य वा कर्तव्यमिति । धर्मनिर्मोचनादिनिमित्तविहितप्रायश्चित्तम For Private And Personal Use Only Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रायश्चित्ततत्त्वम् । ५३७ वाऽजनादौ तदपवादमाहतुः पराशराङ्गिरसौ। "अन्यत्राङ्कनलक्ष्मभ्यां वाइनिर्मोचने कते। सायं संयमनार्थन्तु न दुथे. द्रोधबन्धयोः ॥ अनं विशूनादिकरणम्। लक्ष्म स्थिरचिङ्गकरणम्। वाहनिर्मोचनं वाहनादिना चर्मनिर्मोचनम्। संवतः। “देवद्रोण्यां विहारे च कूपेष्वायतनेषु च। एषु गोषु विपनासु प्रायश्चित्तं न विद्यते" ॥ देवद्रोणी स्वयम्भलिङ्गाद्यवस्थानगह्वरं विहारो गवां मैथुनम् पायतनं सोमानिबन्धस्थानम् । अत्र कूपायतन कर्तुरेव प्रायश्चित्ताभावो न तु गोखामिनः। सर्वत्रैवापालने तस्य दोषश्रुतेः। स्मृतिसागरसारे गोभिलः । "मुष्कमोषकरो विप्रो व्रत चान्द्रायणञ्चरेत् । प्रयोजकस्तु कुर्वीत व्रतस्याई विशुद्धये ॥ इलैर्वा शकटैर्वापि वास्येत् यो वृषं वयम् । प्राजापत्य हयं कुयाहिगुणं योषितां गवाम् । वृषभन्तु समुत्सृष्ट कपिलां वापि कामतः ॥ योजयित्वा हले कुर्यात् व्रतं चान्द्रायणहयम्। विक्रयैगी विनिमयदत्त्वा गोमांसखादके । व्रतं चान्द्रायणं कुर्यात् बधे साक्षाधौ भवेत् ॥ मुष्कमोषकरो वौजनाश करः। याजवल्कयोक्तदण्डविधौ मृत्युलिङ्गच्छेदयोस्तुल्यत्वाभिधानात् प्रायचित्तेऽपि तथेति स्वरसः। यथा क्षुद्रपशूनां दुःखादौनुपक्रम्य । “लिङ्गस्य छेदने मृत्यौ मध्यमो मूल्यमेव च । महापशूनामतेषु स्थानेषु हिगुणे दमः ॥ मध्यमो मध्यमसाहसो दण्डः । स तु चत्वारिंशदधिकपञ्चशतपण कस्तेनैवोक्तः । यथा “साशीतिपपासाहस्रो दण्ड उत्तमसाहसः। तदई मध्यमः प्रोक्तस्तदईमधमः स्मृतः ॥ मूल्यमिति पशुस्वामिने च मूल्यम् । महापशूनां गवाखादौनाम् एतेषु पूर्ववचनैतहचनोक्तेषु । गोमांसखाद के जवनादो। अत्र गवामपण्यत्वेन उपयातकत्वादपि चान्द्रायणं युक्तं तथाच गोतमः । “पशवश्व हिंसा संयोग For Private And Personal Use Only Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५३८ प्रायश्चित्ततत्त्वम् । इति । पस्यार्थः यत्र विक्रौताः सन्तः पशवो हिंस्यन्ते तत्र तेषामपण्यत्वमिति प्रायश्चित्तविवेकः। अपण्यानाञ्च विक्रय इति मनुनोपपातकगणने पठितम्। विष्णुना च "उपपातकिन स्त्वे ते कुर्युचान्द्रायणं नराः । इत्यनेन चान्द्रायणं विहितम्। तत्र पापस्य लनुत्वाच्चान्द्रायणपदं शिशुचान्द्रायणपरम्। तत्यादोनधेनुचतुष्टयेन संकलितं प्रायश्चित्तविवेकेन । एतहिषय एव “चान्द्रायणमकुर्वाणाः कुर्युः कच्छचतुष्टयम्" इति समूलत्वे बोध्यं बधे त्वज्ञानबधोक्त साईधेन्वष्टकम् एतदपि गुरुत्वात् ब्राह्मणखामिकविषय म्। ते नान्यत्र गोमांस. खादकसम्बन्धि-विक्रयादिमात्र त्वज्ञानकततत्तत्स्वामिकबधप्रायश्चित्ताई बधे सम्पर्णमिति। रहः कृतेषु प्रकीर्णोपपातकानुपातकमहापातकेषु गायत्रयाः शतसहस्रायुतलक्षजयः । तथा च मिताक्षरायाम। गायत्रीमधिकृत्य शहेनोक्ताम् । “शतं जप्ता तु सा देवी सर्वपापप्रणाशिनी। सहस्र जप्ता च तथा पातकेभ्यः प्रमोचिनौ ॥ दशसाहस्रजापेन सर्वकल्मषनाशिनी। लक्षं जप्ता तु सा देवी महापातकनाशिनौ” ॥ कल्पतरौ यमः। “मायत्रया: पादमई वा ऋचः सर्वमेव वा। ब्रह्म इत्या सुरापानं सुवर्णहरणन्तथा ॥ गुरुदाराभिगमनं पञ्चा. न्यत् पातकं महत्। सर्वमेतत् पुनात्याह स्वयं देवखतो यमः" । वौधायन: । पूर्वाभिर्व्यातिभिः सर्वपातकेष्वाचामेत् । तस्मादेवाचमनात् सर्वस्मात् पापात् प्रमु. यते" ॥ अपहारे तु जावालः। “अखगोभूमिकन्याश्च हृत्वा चान्द्रायणञ्चरेत्। तुद्रपशूनपहृत्य प्राजापत्यं समाचरेत्”॥ चान्द्रायणे धेन्वष्टकम्। प्राजापत्ये धेनुरेका । बालादौनामदादि। “अनाहिताग्नितास्तेय मृणानाञ्चानपक्रिया' ॥ इत्यनेन मनुना उपपातकगणने महापातकानुप For Private And Personal Use Only Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रायश्चित्ततत्त्वम्। ५३८ पातकास्तेयेतरखर्ण स्तेयस्य निर्देशादाबत्तौ प्रायश्चित्ताहतिः स्त्रौशूद्राणामाईच प्रागुतत्वात्। अध निमित्तिनो नरवधापवादः । मिताक्षरायाम्। प्राक्रोशादिजनितमन्युनात्मानं खजादिना प्रहत्य मरणादर्वाक् आक्रोशनादिका धनादिमा सन्तोषितो यदि जनसमक्षमुच्चैः श्रावयति। नावाक्रोशकस्यापराध इति तदा न दोषः । यथा विषतुः । *उहिण्य कुपितो इवा तोषितः श्रावयेत् पुनः। तस्मिन् मृते न दोषोऽस्ति इयोरच्छावणे कृते। इयोरिति बहनामुपलक्षणम्। उछावणम् उद्घोषः।। अथ चाण्डालाद्यवभक्षणप्रायवित्तम्। यद्यपि द्रवद्रव्यस्थ कण्ठदेशादधो नयनमात्र पानं तच्च:एकस्मिन्नेव प्रयोगे अनेक धैव भवति तथापि न तथाविधोऽभ्यासोऽपेचितः। यतः पिबति धावस्याभ्यासो अभ्यासः। एकफलोहे शेन प्रवृत्तজানালা বন্ধীজযা সাভানিলা অন্ধधात्वर्थत्वम्। यथा एकफलोद्देशेनैकप्रयत्नोपक्रमाणां स्थाली. मार्जनादौनाम् पोदनपरीक्षणपर्यन्तानां व्याणनिचयानाम् एकपचिधात्वर्थत्वम्। यथा वा प्रहारलक्षणानां भिन्नत्वेऽपि एकफलोद्देश्यकैकप्रयत्नोपक्रमत्वेन एकमेव इन्ति धात्वर्थत्वम् । अन्यथा पशयागे प्रतिप्रहारं प्रहतं रक्ष इत्येवमादिमन्यावत्तिप्रसङ्गात्। तेनावापि एकफलोद्देशेन एकप्रयत्नोपकमाणाम् अपि व्यवहाराणामेकस्मिन् प्रयोगे सकृत्यानत्वं नाभ्यासः। प्रयोगभेदे त्वभ्यास एवेति सिद्धमिति सुरापाने भवदेवभट्टोक्तवञ्चाण्डालाबभक्षणेऽपि सक्दभ्यासविचारः प्रयोगभेदादेवाशनभेदं व्यतमाह कात्यायनः। "मुनिभिहिरशनं प्रोक्तं विप्राणां मर्त्यवासिनां नित्यम् । अहनि च तमखिन्यां आईनहरयामान्तः । यद्यपि प्रमादौनां कण्ठादधो नयनमेव For Private And Personal Use Only Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रायश्चित्ततत्त्वम् । भक्षणं न तु निष्ठौवनाय शुण्यादेः कपोलधारणं तथाविधे प्रयोगाभावात्। तथापि पापविषये तथाविधानुबन्धेऽपि प्रायश्चित्तं ब्रह्मवधे तथा दर्शनात् यथा याज्ञवल्कर: “चरेतमहत्वापि घातार्थञ्चत् समागतः। अत्र हननप्रतिषेधेन तदङ्गभूताध्यवसायादेरपि प्रतिषिहत्वात् प्रायश्चित्तविधानं तथावापि भक्षणप्रतिषेधेन' तदभूताव्यभिचरिताबादिसंयो. गस्थापि प्रतिषिवत्वेन दोषस्य विद्यमानत्वात् भवत्येव प्रायसित्तं मिताक्षरायामप्येवम् । प्रतएवोगा "जिनच हि सुगं कश्चित् पिबतौत्यभिधीयते। यावत्र क्रियते वो गण्डषस्य प्रवेशनम्" इति। अत्र वक्के गरुषस्य प्रवेशनेन पानातिदेशवद्भक्षणोद्यमेऽपि भक्षणातिदेशः। ततश्च "विप्रदण्डोद्यमे कच्छन्विति कच्छ निपातने"। पति याज्ञवल्कादण्डोद्यमे दण्ड निपातप्रायश्चित्ताईवत् भक्षणोद्यमे कण्डादधोनयनसम्भाधनारहिते अड़े प्रायश्चित्तं जेयम्। विवेकातापि प्रागुक्त चरेवतमहत्वापौत्यत्र तथा च व्यवस्थापितम्। तत्र भक्षणप्रायश्चित्तमाहाङ्गिराः। “अत्यावसायिनामन्त्रमनीयाद यस्तु कामतः। स तु चान्द्रायणं कुर्यात् तप्तकच्छ्रमथापि वा। चण्डालः श्वपचः चत्ता सूतो वैदेहकस्तथा। मागधायो गवौ चैव सप्तैतेऽन्त्यावसायिनः'। अत्र कामत एव चान्द्रायणतातकच्छ्रयोविषमशिष्टलेन इच्छाविकल्पा सम्भवात् पथापि वेत्यनेन भवदेवमहोतसमुच्चया योगाच। कामतश्चान्द्रायण मकामतस्तप्तकच्छमिति व्यवस्थितो विकल्पः। चाण्डालाात्र माइ मनुः। "क्षत्रियाहिप्रकन्यायां सूतो भवति जातितः । वैश्यामागधवैदेहौ राजविप्राङ्गनासतौ। शूद्रादायोगवः क्षत्ता चण्डालचाधमो नृणाम्। वैश्यराजन्यविप्रासु जायन्ते वर्णशङ्कराः” । तथा "चतुर्जातस्तथोग्रान्तु खपाक इति कोयते । For Private And Personal Use Only Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५४१ प्रायश्चित्ततत्त्वम् । चत्रियाहिप्रकन्यायां कराचारविहारवान् ॥ क्षवशूद्र वपुर्जन्तु. रुग्रो नाम प्रजायते ॥ एतच्चान्द्रायणं सक्दोजने आपस्तम्बेन प्रमादत इत्यमिधानात्। यथा "चाण्डालावं यदा भुक्तं ब्राह्मणाटोः प्रमादतः। प्रायश्चित्तं कथं तब वर्णे वर्णे विधीयते ॥ चान्द्रायणं चरेसिपः क्षत्रः सान्तपनं चरेत् । षड्रावञ्च पिरानञ्च वर्णयोरनुपूर्वशः ॥ यद्यपि प्रमादोऽनवधानता इत्य. मरः। तथापि सा न गृह्यते अङ्गिरसा कामत एव चान्द्रा. यणविधानात् पतएव प्रमादतः सकदित्यर्थः । इति प्रायः चित्तविवेकः। चान्द्रायणायतो धन्वष्टकं देयम्। कापालि. कात्रभोजने तनारोगमने च जानाजानाभ्यां कच्छचान्द्रायण. हयविधानात् यथापस्तम्बः । “कापालिकाबभोक्तणां.तबारी. गामिनान्तथा । ज्ञानात् कच्छाब्दमुद्दिष्टमन्नानादैन्दवहयम् ॥ कच्छाब्दम् अब्दं व्याप्य कच्छ प्राजापत्यमित्यर्थः। प्रस्थ प्रायश्चित्तविवेके कैवादितुल्यत्वाभिधानात् । जानाजानाभ्यामष्टधाभ्यस्तभोजने इदं प्रायश्चित्तम् अभिगमे तु हिरभ्यस्ते ज्ञेयम्। “वाहं प्रातस्यहं सायं ब्राहमद्यादयाचितम् । वाह परन्तु नाश्नीयात् प्राजापत्यं चरन् हिजः ॥ इति मनुवचनात् प्राजापत्यस्य हादशाहसाध्यत्वेन मासे साई प्राजापत्यहयात् वर्षे त्रिंशत्प्राजापत्यानि। तदशक्ती विश नवः । “प्राजापत्यव्रताशक्ती धेनं दद्यात् पयखिनौम्। धेनोरमावे दातव्यं तुल्यं मूल्यं न संशयः ॥ इति संवर्तवचनात् धेनुमूल्यन्तु कार्षापणत्रयं प्रागव्यवस्थापितम्। "स्यात्त्वकामकते यत्तु हिगुणं बुद्धिपूर्वके" इत्यङ्गिरो वचनात्। ज्ञानात् यत् प्राय चित्तम् प्रज्ञाने तदप्राप्तेरवापि चान्द्रायणहये पञ्चदश धेनवः। अर्थादेकस्मिन्वष्टौ धेनवः। तन्मूल्येऽपि साईसप्तधेनुमूल्यं साईहाविंशतिः कार्षापणा देयाः। एवं "जलाग्न्य इन्धनभ्रष्टाः For Private And Personal Use Only Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५४३ प्रायश्चित्ततत्वम् । प्रव्रज्यानशनयुताः। विषप्रपतनप्रायशस्त्रघातयुताच ये। सर्वे ते प्रत्यवसिताः सर्वधर्मवहिष्कताः। चान्द्रायणेन शययुस्तप्तकच्छहयेन वा* ॥ इति यमवचनाचान्द्रायणाईतुल्यत्वाअनुक्ततप्तकच्छ पादोनधेनुचतुष्टयं तदशक्तौ सपादैकादश कार्षापणा देया इति। एतच क्षत्रियादौनां पादपादहान्या। एतच्चाभक्ष्यभक्षणप्रकरणे विष्णुः। “विप्रे तु सकलं देयं पादोनं क्षत्रिये मतम्। वैश्येऽई पादशेषन्तु शूटूजातिषु शस्यते ॥ एवज्ञापस्तरोतां पवियादीनां सान्तपनादि पापहिषयम् पापद्युक्तात्वेनापि प्रायश्चित्त हासदर्शनात् यथा घराशरः । “पापकाले तु विप्रेण भुक्तं शूद्र ग्रहे यदि। मनस्तापेन शत्तु द्रुपदां वा शतं जपेत् । अन्यत्र मनुना प्रायश्चित्ताधिक्यमुक्तम् । तद्यथा। "राजानं तेन पादत्ते शूद्रानं ब्रह्मवर्चसम्" इत्यभिधाय "भुत्वा चान्यतमस्याबममत्या क्षपणं वाहम् । मत्या भुत्ला चरेत् कच्छ रेतो विएमत्रमेव च ॥ सान्तपने धेनुहयं कामाकामाभ्यां सान्तपनप्राजापत्ययोविधानात् । यथा मनुः । “जातिभ्रंशकरं कर्म कृत्वान्यतममिच्छया। घरेत् सान्तपनं कृच्छ्र प्राजापत्यमनिच्छया" ॥ कच्छं व्रतम् । षडात्रे धेनुरेका । षडानप्राजापत्ययोस्तुल्यत्वाभिधानात् । यथा मत्तक्रुद्धातुराणामित्युत्वा मनुः । “भुत्वा चान्यतमस्थाबममत्या क्षपणं नाहम्। मत्या भुत्ता चरेत् कच्छ्र रेतो विण्म त्रमेव च" ॥ अज्ञानात् वाहमुपवासं विधाय ज्ञानात् हैगुण्येन षड़हप्राप्तौ प्राजापत्य विदधाति । एवं त्रिरात्रे चतुर्विंशतिः पणाः प्राजापत्यानुकल्पधेनुमूल्याईत्वात्। एवञ्च प्रायश्चित्ते शूद्रस्य विरात्रोपवासविधानात्। “वैश्याः शूद्राश्च ये मोहा. टुपवासं प्रकुवते । विरान पञ्च रात्र वा तेषां पुष्टिन विद्यते। इति प्रायश्चित्तेतरकाम्यपरम्। पुष्टिवतफलमिति रुधरः । For Private And Personal Use Only Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५४३ प्रायश्चित्ततत्त्वम् । मनुः चण्डालान्त्यस्त्रियो गत्वा भुजा च प्रतिराह्य च । पतत्यज्ञानतो विप्रो ज्ञानात् साम्यन्तु गच्छति ॥ अन्त्या म्लेच्छा नवनखपचादयः याज्ञवल्क्यदीपकलिकायामपि। अन्तभवा पन्त्याः यतोऽधमजातयो म सन्तीत्युक्त प्रतिगृह्य अदृष्टार्थस्यलद्रव्यं खौकत्य तद्र्व्यन्तु वैदिककर्मानहमपि यथा हारोतः। “पतितदुष्कृतिभ्यः प्रतिरहौतमखय॑मयज्ञियं न तेन पुण्याथैमानोति" मिताक्षरायां यमः “योऽदत्तादायिनोइस्तालिप्त ब्राह्मणी धनम् । याजनाध्यापनेनापि यथास्तेमस्तथैव सः ॥ प्रदत्तादायिनीरस्य पततौति प्रायश्चित्तेतरवैदिककर्मानाधिकारी सन् नरकमागौ भवति। यथा गोतम: “हिजातिकर्मम्यो हानिः पतनं परत्र चासिद्धिः तमेके नरकमिति” । हरिस्मरणादौ तु विशेषवचनादेवाधिकारः । तथा च नारदीयम्। “सम्यक् सन्ध्यामुपासीत त्रिकालं खानमाचरन्। अध्ययनाध्यापनादौनि वर्जयेत् संस्मरन् हरिम् ॥ एवञ्च “पञ्चैतानि महापातकानि कृत्वा ब्राह्मशः सद्भिर्नानु सम्भाष्यो नानुग्राघोऽभिशस्तः सर्वकर्मविवर्जित: पतिततमो भवति" इति देवलवचनेन महापातके पातित्याभिधानात् अत्रापि तथाविधानात् तदीयप्रायश्चित्तमगिरसोक्तं षड़ब्दप्राजापत्यं युक्तम्। यथा “घडू भिर्वः कच्चारौ ब्रह्महा तु विशुधति । वर्षे त्रिंशत्प्राजापत्यानि पूर्वमुक्तानि षभिवर्षः साशौतिशतं प्राजापत्यानि तदशक्तावयौत्युत्तरधेनुशतं देयम् तम्मूल्यं वा चत्वारिंशदधिकपञ्चशतकार्षापणा देया इति गुरुत्वादेतस्य भोजनप्रतिग्रहयोरज्ञानादष्टचत्वारिंशदभ्यासविषयता। यतः सकदज्ञानात्तप्तकच्छविधानेन तन्त्र पादोनधेनु चतुष्टयं तस्याष्टचत्वारिंशद्गुणेन साशीतिशतं धेनवो भवन्तौति तद्भोजनस्य निन्दितावादनं तथा इत्यनेन उपपातकगणे For Private And Personal Use Only Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५४४ प्रायश्चित्ततत्वम् । मनुना निर्दिष्टत्वात् तदभ्यासे प्रायश्चित्ताधिक्य "गोनवधिहितः कल्पश्चान्द्रायणमथापि वा। अभ्यासे तु तयोर्भूयस्ततः शहिमवाप्नुयात् ॥ इति यमवचनात् पतो न तन्त्रता। भोजनसाहचर्यात् प्रतिग्रहेऽपि तथा। अभिगमे तु सक्कदज्ञानादेव पातित्यमिति प्रायश्चित्तविवेकः। युक्तश्चायं चाण्डालान्त्य स्त्रीगमनस्यानुपातकत्वात् यथा मनुः । “गुरुतल्पव्रतं कुर्यात् रेतः सिक्का खयोनिषु। सख्युः पुवस्य च स्त्रीषु कुमारौष्वन्त्यजासु च ॥ विष्णुरपि। अन्यजागमनादौनुपक्रम्य । “मनुपातकिनस्व ते महापातकिनो यथा। प्रश्वमेधेन शान्ति तीर्थानुसरणेन वा ॥ अखमेधप्रायश्चित्तन्तु राज एव तत्र तस्यैवाधिकारात् तथा चापस्तम्बः। *राजा सार्वभौमोऽखमेधेन यजेत नाप्य सार्वभौम इति" मखमेधावस्थम्राने विप्र. स्याप्यधिकारः। तथा च कल्पतरुतं भविष्यपुराणम् । "यदा तु गुणवान् विप्रो इन्याहिप्रन्तु निर्गुणम्। पकामतस्तदा गच्छत् खानञ्चैवाखमेधिकम् ॥ ततपावभृथम्रानं क्षत्रियविषयमिति प्रायश्चित्तविवेकोक्तं हेयम्। स्त्रिया अपि तुल्य प्रायश्चित्तमाहाङ्गिराः। "व्रतं यच्चोदितं पुंसां पतितस्त्रौनिषेवणात्। तच्चापि कारयेत् मूढां पतिता सेवनात् स्त्रियम् ॥ ज्ञाने तु तत्तुल्यतया हिगुणव्रताचरणेऽपि न व्यवहार्यः। "प्रायश्चित्तरपैत्येनो यदज्ञानरुतं भवेत्। कामतोऽव्यवहार्यस्तु वचनादेव जायते ॥ इति याज्ञवल्क्यवचनात् । पापाभावे कथमव्यवहार्य इत्याह वचनादेवेति तथाचोत्तम्। किमिदं वचनं न कुर्यात् नास्ति वचनस्यातिभार इति । पापस्य हे शन्नो नरकोत्पादिका व्यवहारविरोधिका चेति । तवैकतरशक्तिविनाशे व्यवहारविरोधिका शक्तिरस्तौति भावः । तथा च मिताक्षरायामापस्तम्बः । "नास्यास्मिन् लोके For Private And Personal Use Only Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रायश्चित्ततत्त्वम् । ५४५ प्रत्याशक्ति विद्यते कल्मषन्तु निहन्यते” इति। अतएव पापासरेऽप्यव्यवहार्यत्वं याज्ञवल्क्योक्तम्। "शरणागतवालस्त्रीहिंसकान संवसेन्न तु। चोर्णव्रतानपि सदा कृतघ्नसहिता. निमान् ॥ अत्र च कामतो महापातकादिवहत्यापकर्तुरव्यवहार्यत्व दर्शनात् कामतो बहुगुणयुक्तशरणागतादिहन्त. पामव्यवहार्यत्वं न तु होनतरहन्तृणाम्। अन्यथा विषमशिष्टतापत्तिः स्वात् अतएव शत्रुस्त्रीणामवध्यत्वमाह मत्स्यपुराणम्। “यदि त्वमिच्छसे वैरं पुरुषेष्वपकारिषु। स्त्रियः किमपराध्यन्ते गृहपञ्जरकोकिला:॥ किं त्वया न श्रुतं लोके त्ववध्याः शत्रुयोषितः ॥ यद्यप्येवं तथापि स्त्रौहिंसकानिति हौनवर्णोपभुक्ताघातकेतरपरं “हौनवर्णोपभुक्ता या त्याज्या बध्यापि वा भवेत्। इति वृहस्पत्युक्तः "कामतः खियं हत्वा ब्राह्मणी वैश्यवञ्चरेत्। कामतो हिगुणं प्रोक्तं प्रदुष्टायां न किञ्चन ॥ इति व्यासोक्त: वैश्यवत् वैश्यहत्या व्रतवत् एतेन यद्यपि व्यभिचारिस्त्रीवधे अल्पोय एव प्रायश्चित्तम् । तथापि वाचनिकोऽयं व्यवहारप्रतिषेध इति मिताक्षरोत न युक्तिसहम् “केवलं शास्त्रमाश्रित्य न कर्त्तव्यो विनिर्णयः । युक्तिहीनविचारे तु धर्महानिः प्रजायते ॥ पाये गुरुणि गुरूणि खल्यान्यल्ये च तहिदः । प्रायश्चित्तानि मैत्रेय जगुः स्वायम्भवादयः" । इति वृहस्पतिवचनात्। एवञ्च हौनवर्णोपभुशायाः परित्यागविधानेनात्यन्तपातित्याज्ञानतस्तदुपभोक्तः पत्युरपि गुरुपापसंसर्गित्वेन सद्यः पातित्यम्। जानन्नित्युपक्रम्य "याजनं योनिसम्बन्ध स्वाध्यायं सहभोजनम्। कृत्वा सद्यः पतन्येते पतितेन न संशयः” ॥ इति देवल वचनात् अज्ञानतस्तु वारहयेन यत्तु पतितखस्त्रीगमनस्य लघुत्वं प्रायवित्तविवेककेद्भिरक्त तदत्याज्यापरम्। पतएव तैरव स्तेया For Private And Personal Use Only Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५४÷ प्रायश्चित्ततत्त्वम् । दिना पतितेत्युपक्रम्य उक्तम्। तवाज्ञानतो वत्सरेण पातित्यं "संवत्सरेण पतति पतितेन सहाचरन् । याजनाध्यापनाद यौनात् एकशय्यासनाशनात् ” ॥ इति हारौतवचनात् । जानतो वत्सरार्हेनेति। तदसंस्रष्टुस्तद्दोषाभाव एव " बान्धवोऽपि पृथग् भूत्वा तत् पापं नाप्नुयात् क्वचित्” इति देवलवचनात् याज्ञवल्कादोपकलिकायां कृतघ्न माह स्कन्दपुराणम् । “ब्रह्मघ्न च सुरापे च चौरे च गुरुतल्पगे । निष्कृतिर्विहिता सद्भिः कृतघ्न नास्ति निष्कृतिः । भर्तृपिण्डापहर्त्ता च पितृपिण्डापहारकः । तस्माद गृहीत्वा विद्याञ्च दचिणां न प्रयच्छति । पुवान् स्त्रियख यो हेष्टि यचैतान् घातयेनरः । कृतस्य दोष वदति सकामात्र करोति यः । न सारेच कृतं यस्तु श्राश्रमान् यस्तु दूषयेत् । सर्वा स्तानृषिभिः सार्द्धं कृतघ्न्ना न व्रवौन्मनुः” । तस्मात् पिवादिगुरोः कृतस्य सत्कर्माण इति शेषः । सकामात्र करोति कृतस्य कर्त्तृनिति शेष: येत्तु विष्णुवचनम् । "चाण्डालानं भुक्का त्रिरात्रमुपवसेत् सिद्धं भुक्का पराक:" इति तहलाझोजनविषयम् इति प्रायश्चित्तविवेकः । बलात् प्रवर्त्त - मानस्य विषयज्ञानमस्त्य व स्वारसिकत्वाभावान्न तथा कारित्वं किन्त्वज्ञानकृतपापात्तत्र युक्त पापाधिकयमित्याशयः । त्रिरावमामानविषय पर सिडमित्युक्तः । पराकमाह मनुः । “यतामनोऽप्रमत्तस्य द्वादशाहमभोजनम्। पराको नाम कृच्छ्रोऽयं सर्वपापापनोदनः । तेनावासाने सिद्धान्नप्रायवित्ततुरीयभागविधानात् श्रज्ञानादावपि तत्तुरीयकल्पनेति । पराके पञ्च धेनवः पराकस्य प्राजापत्यपञ्चकतुल्यत्वात् यवाङ्गिराः " षड़भिर्वषः कृच्छ्राचारौ ब्रह्महा तु विशुद्यति । मासि मासि पराकेण त्रिभिर्वर्षैर्व्यपोहति । अत्र षडभिर्वर्षैः साथौतिशतप्राजापत्यानि पूर्वमुक्तानि । तथा प्रतिभासि एकैकपरा के « For Private And Personal Use Only Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रायश्चित्ततत्त्वम् । ५४७ वर्षे हादशपराका: वर्षचये षट् त्रिंशत्पराकाः ततव षट्त्रिंशत्यराकाशोत्युत्तरप्राजापत्यशतयोः प्रत्येकं ब्रह्मवधपापक्षयककार्यकारित्वात् तुल्यत्वम् । षट्त्रिंशत् अशोत्युत्तरशतं पञ्चगुणं भवतीति। अत: प्राजापत्यपञ्चकतुल्यं पराक: । शुष्काने पक्काबाई प्रायश्चित्तं विष्णुधर्मोत्तरदर्शनात्। यथा “यस्तस्य भुत पक्कानं कच्छाई तस्य निर्दिशेत्। शुष्काबमोजिनः पादमित्याह भगवान्मनुः ॥ तस्याविज्ञातचाण्डालसहितैकवेश्मस्थसङ्करीकरणरूप मूलपापकर्तुतिौय-संसर्गिणः तथा चापस्तम्बः। “अन्यजातिरविज्ञातो निवसेद् यस्य वेश्मनि । सवै ज्ञात्वा तु कालेन कुर्यात्तव विशोधनम्। चान्द्रायणं पराको वा द्विजातीनां विशोधनम्। प्राजापत्यन्तु शूद्राणां तथा संसर्गदूषणे। येस्तव मुक्त पक्वान्न कच्छ तेषां विनिदिशेत्। तेषामपि च येभुक्त तेषामई विधीयते । तेषामपि च ये त कच्छपादो विधीयते”। अत्र हतीयसंसर्गिण एव प्रायश्चित्तदर्शनात् तुर्यसंसर्गजदोषो नास्ति। प्रायश्चित्तविवेकोऽप्येवम्। शङ्खः “शूद्रान ब्राह्मणो भुक्त्वा तथा रङ्गावतारिणः । चिकित्सकस्य करस्य तथा स्त्री मृगजीविनः। चाण्डालान्न भूमिपानमजजीविश्वजीविनाम् । शौण्डिकान सूतिकान भुक्त्वा मासं व्रती भवेत्” । अनाजजौविश्वजीविनामिति श्रवणात् “मार्जारकुक्कुटछागववराहविहङ्गमान्। पोषयनरकं याति तमेव द्विजसत्तम” इति विष्णुपुराणवचनमपि । जीविकार्थपोषणपरम् । तं रोमपूयवहं नरकम् । व्रती यावकेनेति प्रायश्चित्तविवेकः। मासयावकाहारे धेनुवयम् गोवधे उक्तम्। एतच्छद्रानादावभ्यासानुभ्यासाभ्यां यथासम्भवविषयम्। शौण्डिकान्नेत्वज्ञानतः सक्दोजने धेनुइयम्। यत्तु मनुवचनम्। ."खवतां शौकिण्डामाञ्च चेलनिणेजकस्य च । For Private And Personal Use Only Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५४८ प्रायश्चित्ततत्त्वम् । रजकस्य नृशंसस्य यस्य चोपपतिर्गृहे । भुक्का चान्यतमस्थानममत्या चपणं वाहम्” इति । त्रिरात्रोपवासविधायकं तदा मानविषयं लघुप्रायश्चित्तत्वात् तत् वृत्तिहीन द्दिजपरमिति प्रायश्चित्तविवेकः । चाण्डालावेन तु प्रायवित्तलाघवात् सकदज्ञानादापमुक्तोत्तारितादिविशिष्टविषयम् । तथा चोत्तारादपि पापचयमाह मनुः । "अभोज्यमचं नात्तव्यमात्मनः शुद्धिमिच्छता । अज्ञानाद भुक्तमुत्ताय्यं शोध्य वाप्याश शोधनैः” प्रमादाद्भुक्त वमितव्यम् । तदसम्भवे यथोक्तप्रायश्वित्तैः शोधनौयम् वमनपक्षेऽपि अल्पप्रायश्चित्तं भवत्येव विष्णुसूत्रे तथा दर्शनात् तद् यथा । " आमश्रादाने त्रिरात्रं पयसा वर्त्तेत ब्राह्मणः शूद्रोच्छिष्टाशने वसनं कृत्वा सप्तरात्रमुपवसेदिति" ॥ आमश्राद्ध गर्हितैर्यत् क्रियते पयसा चौरेण तत्राप्यायुर्वेदोक्त परिभाषा । " पयः सर्पिः प्रयोगेषु गव्यमेवाभिधीयते । विशेषो यत्र मोक्तः स्यादेष तव विधिः स्मृतः” । एवम् उच्छिष्टे यः पराक् उक्तोऽङ्गिरसा सोऽपि प्रागुक्तसक्कदापदादिविषये बोध्यः । विष्णुनापि अनुच्छिष्टे पराकोक्तः । तथा चाङ्गिराः । " चण्डालपतितादोनामुच्छिष्टान्नस्य भक्षणे । दिजः शुडेत् पराकेण शूद्रः कृच्छ्रेण शहाति” । यत्तु मिताचरायामापस्तम्बः । “अन्त्यानां भुक्तशेषन्तु भचयित्वा द्विजातयः । चान्द्र कच्छ तदन्तु ब्रह्मक्षafari विधिः” । चान्द्रं चान्द्रायणम् । कृच्छ तप्तकृच्छ्रम् एतञ्च ब्राह्मणस्य सकृदन्ज्ञानविषयं बलात्कारानुत्तारेऽप्यन्नेतरताम्बूलाद्युत्सृष्टपरश्च तत्राज्ञाने श्रापस्तम्बेन उच्छिष्टे चान्द्रायणविधानात् अङ्गिरसा अन्त्यावसायिनामित्यादि प्रागुक्तवचने सामान्यतस्तप्तकृच्छ विधानात् अनुच्छि - ष्टेऽपि तथात्वादेव सर्वत्रानुच्छिष्टादुच्छिष्ट द्वैगुण्यं बोध्यम् । प्रायश्चित्तविवेके संसर्गप्रकरणेऽप्येवं चत्रियविशोश्चापदि शेयम् । For Private And Personal Use Only Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रायश्चित्ततत्त्वम् । ५४८ पहिरो वचने पतितपदस्य सर्वधर्मवरिष्कृतवाचिन: प्रायश्चि गोरवेण चाण्डालजातिसारचर्येव च जवनादिम्लेच्छजातिवाचित्वं न तु ब्रह्महत्यादिपतितवाचित्वं तत्र सक्कच्छिष्टाशने खल्पप्रायश्चित्तत्वात्। अतएव ब्रह्महत्यादि उच्छिष्टाशने जानान्मासत्रयादेवसाम्यं प्रायश्चित्तविवेकवद्भिः संसर्गिप्रकरणे उलम्। पत्र तु ज्ञानेन हादशवारात्तथेति जवनादौनान्तु सर्वधर्मराहित्यमुक्तम् हरिवंशे। "सगरस्तां प्रतिज्ञाच गुरो. क्यं निशम्य च। धर्म जघान तेषां वै वेशान्यत्वं चकार ।। भई पकानां शिरसो मुण्डयित्वा व्यसर्जयत्। जवनानां शिरः सर्व काम्बोजानान्तथैव च। पारदा मुक्तकेशाच पड़वाः श्मश्रुधारिणः। निःसाध्यायवषट्काराः कृतास्तेन महात्मना। शका जवनकाम्बोजा: पारदाः पङ्गवास्तथा। कोलिसर्पाः समहिषा दर्वाचोला: सकेरलाः। वशिष्ठवचना. द्राजन् सगरेण महात्मना । शकानां शकदेशोद्भवानां चवि. याणाम् एवं जवनादौनामिति। पत्र जवनशब्दस्तद्देशोद्धव. वाचौ चवर्ग बतौयादिः। जवनो देशवेगिनोरिति विकाण्डशेषाभिदर्शनात्। तेषां म्लेच्छत्वमप्युक्तं विष्णु पुगणे। तथा कृतान् जवनादौनुपक्रम्य ते चात्मधर्मपरित्यागात् म्लेच्छत्वं ययुरिति। वौधायनः । “गोमांसवादको यश्च विरुद्ध बहुभाषते। सर्वाचारविहीनच म्लेच्छ इत्यभिधीयते"। अतएव चाण्डालेन सह म्लेच्छानां साम्यमाह देवन्तः। "दामोक्कतो. बलात् म्लेच्छ चाण्डालाद्यैव दस्युभिः। अशुभ कारितः कर्म गवादेः प्राणहिंसनम्। उच्छिष्टमार्जनश्चैव तथा तस्यैव भक्षणम् ॥ खरोष्ट्रविड़ वराहाणामामिषस्य च भक्ष गम् । तत् स्त्रोणाञ्च तथा सङ्गस्ताभिच सह भोजनम्॥ मासोषिते विजातौ च प्राजापत्य विशोधनम्। चान्द्रायणवाहिताग्नेः For Private And Personal Use Only Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५५० प्रायश्चित्ततत्त्वम् पराकस्त्वथ वा भवेत् ॥ चान्द्रायणं पराकं वा चरेत् संवत्सरो षितः । संवत्सरोषितः शूद्रो मासाई यावकं पिबेत् ॥ मार्स विप्रोषितः शूद्रः कृच्छ्रपादेन शुह्यति ॥ विप्रोषितो विशेघेण प्रकर्षण उषितः । " ऊर्द्ध संवत्सरात् कल्पं प्रायश्चित्तं 1 तु द्विजोत्तमः । संवत्सरैचतुर्भिश्च तद्भावं सोऽधिगच्छति । हासो न विद्यते तस्य प्रायश्चितैर्दुरात्मनः ॥ तदिह म्लेच्छचाण्डालाद्यैर्दस्युभिर्यदा नाहिताग्निर्द्विजातिरुच्छिष्टमार्जनोच्छिष्टभचणखरोष्ट्रविड्वराडमांसभक्षणम्लेच्छ स्वौसंसर्गत दोय स्त्रो सहभोजनादिकुसितं कर्म बलात् मासैकं कारितः तदा तेन प्राजापत्यम् । साग्निना तु चान्द्रायणं काय्र्य्यं क्षत्रियवैश्याभ्यां पराकव्रतम् अनग्निना ब्राह्मणेन त संवत्सरे कदास्य करणे चान्द्रायणं कार्यम् इत राभ्यां पराकः । शूद्रेण तु मासैककरणे कृच्छ्रपादं संवत्सरे कदास्यकरणे मासाईं यावकपानम् । संवत्सरादूर्द्ध वत्सरचतुष्टयं यावत् भागहारेण प्रायश्चित्तमूहनीयम्। तदूई तत्समत्वेन पतितत्वात् प्रायवित्ताभावात् मरणमिति यत् प्रायवित्तविवेकोक्तं तत् पापाधिक्यसम्भवेन प्रायश्चित्तलाघवात् अनुपनौताष्टवर्षाभ्यन्तर-बालविषयम् । " चतुर्थाद्दत्सरादूई मष्टमं यावदेव हि । शिशोर्व्रतं प्रकुर्वन्ति गुरुसम्बन्धिबान्धवा:" ॥ इति ब्रह्मपुराणौयमप्येतत्परमिति । अत्र जातमावस्याहिताग्नित्वसम्भवः तथा च जावालः । " जाते कुमारेऽरणिं मथित्वा तस्मित्रायुष्य होमान् जुहोति तस्मिंश्चूड़ाकरणोपनयनव्रतादेश गोदानक्रियास्तस्मिन्नेवैन मुद्दा हयेयुः सशालाग्निरिति । यत्तु कुमारवचनम् । "जातमात्रः शिशुस्तावत् यावदष्टौ समावयः । स हि गर्भः समो ज्ञेयो व्यक्तिमावप्रदर्शकः ॥ भक्ष्याभक्ष्य तथा पेये वाच्यावाच्च तथानृते । तस्मिन् काले न दोषः स्यात् स यावत्रोपनौयते” ॥ इति तदुक्तव्यति For Private And Personal Use Only Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रायश्चित्ततत्वन् । ५५९ रिहाल्पपापारम् । पटवर्षग्रहणम्। अनुपनौतस्यापि पर. स्ताहोषार्थम् उपनयनपदच पञ्चवर्षायुपनौतम वर्षकाष्टकेभ्यः प्रामपि दोषज्ञापनार्थ प्रायश्चित्तक्वेिकेऽपि "मुरापाननिषेधोऽयं जात्याश्रय इति स्थितिः । न पिबेद ब्राह्मणो मद्यं निषिद्धमपि चापरम्" इति कुमारवचनान्तरदर्शनात् पूर्ववचनं मो. तरपरम् इत्युक्तं तथा च वृहस्पतिः । “स्थात् कामाचारभक्षीति: महत: पातकादृते । ततश्च "पतितानन्तु यो भुतो सप्ताहमुदके वसेत्। पानीथपानतश्चापि कुशवारि पिबे. चाहम् ॥ इत्यङ्गिरो वचनमपि। शूद्राचं ब्राह्मणो भुक्के इति शङ्खवचनसमाविषयम्। प्रतएव सप्ताहोदकवासोऽपि धेनुइयेन सङ्कलितः प्रायश्चित्तविवेकवतेति। एवञ्च तत्तत्. पानीयपानेऽप्यन्नानादौ तत्तद्दोजनप्रायश्चित्तपादो बोध्यः । गायनादिरहिताऽग्रवाहहारकाऽन्यजपुरोहितादिरूपपतित. ब्राह्मणाबमरणपरं वा अङ्गिरो वचनं तेषां बधेऽत्यन्त लघुप्रायचित्तश्रुत्थाऽत्यन्ताल्पप्रायश्चित्तमवापि । तथा च कल्पतरी भविष्यपुराणम्। “यदात्यन्तगुणैींनो गायत्रया च विवर्जितः । निहतः कामतश्चैव तदा यत् स्यात् निवोध मे ॥ इन्ता यदासमर्थश्चेत् तवेदं परिकल्पयेत् । वशिष्ठेन यदाख्यातं ब्रह्महत्या व्यपोहनम् ॥ हादशरात्रमुपवसेदित्यर्थः। यत्त प्रायश्चित्त. विवेककाताप्यत्र "ब्रह्मा वत्सरं कच्छचरेत् पूर्णे तु वमरे। हिरण्यमणिगोवृषाबतिलभूमिसौषि ब्राह्मणेभ्यो दद्यात्" इति समन्तत प्रायश्चित्तमुक्तं तत् समर्थपरं भोजनवत्तदभि. गमनरूपसंसर्गेऽप्येवम्। अथान्यजस्त्रीगमनभोजनप्रायश्चित्तम् । तत्र संधतः । नटी शैलुषि कौञ्चैव रजकी वेणुजीविनीम् । गत्वा चान्द्रायणं कुयात् तथा धर्मोपजीविनौम्। कामतस्तु यदा गच्छ चरे For Private And Personal Use Only Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५५२ प्रायश्चित्ततत्त्वम् । জ্বালাঘৱষ”। ননালনায় প্রায়ই স্বল टकम। शैलुषिक: "वृत्त्यन्वेषौ नटानान्तु स तु शैलषिक: स्मृतः । इति ब्रह्मपुराणोक्तम् इति प्रायश्चित्तविवेकः। यत्त यमवचनं “रजकचर्मकारच नटो वाड एव च। कैवत्तमेदभिल्लाच सप्तैते चान्त्यजाः स्मृताः ॥ एतेषान्तु स्त्रियो गत्वा भुक्ता च प्रतिग्राह्य च। पतत्यज्ञानती विप्री ज्ञानात् साम्यन्तु गच्छति" ॥ इति पातित्याभिधायकम्। सव रजकादौनां प्रागुतमनुवचने शौण्डिकतुल्यत्वात्। शौण्डि के प्रागुतशङ्कपचनेन मासयावकपानव्रतविधानात् । तत्र प्राजापत्यहयसंचलनात्। बहनामकधर्माणामिति बौधायनवचनात्। एते. वपि तथाकल्पनात् प्रज्ञानतः सक्कडोजने प्राजापत्य हयं ततवाज्ञानात् यत् पातित्यमभिहितं तत् नवतिवारभोजने जयम्। पातित्याच्च हादशवार्षिकप्रायचित्ताहता जानतस्तु कृतेऽपि हिगुणप्रायश्चित्तेऽव्यवहार्यता अन्यथा तत संसर्गिणि प्रायचित्तव्यवस्था न स्यात् । प्रतिग्रहेऽप्य वम्। अभिगमने तु चतुर्विंशतिवारात्यातित्यमज्ञानात् मानातु साम्यमिति। चाण्डालस्पृष्टोदके त्वद्भिगः। “यस्तु चाण्डालसंस्पृष्टं पिबेतोयमकामतः । स तु सान्तपनं कच्छचरेत् शुद्यर्थमात्मनः" ॥ साम्तपनमाह याज्ञवल्क्यः । “कुशोदकच्च गोक्षौरं दधि मूत्रं शकत् घृतम्। प्राश्यापरवा पवसेत् कच्छ सान्तपनं चरन् ॥ एत. यहसाध्यं तदशलो षड़पवासटतौयभागात् पुराणो देयः । चाण्डालादि स्पृष्टान्नभक्षणेऽपि प्राजापत्यम्। “अमेध्यपतितचाण्डाल पुक्कशरजस्खलावधतकुनिष्ठि-कुनखिस्पष्टानि भुत्वा कच्छ माचरेत्” इति शलवचनात् एतत् सक्दज्ञानविषयम् । एव प्रायश्चित्तमधिकृत्य “बालस्याशतस्य वा सपिताऽनुध्याय मनसा सर्वकर्माणि कुर्वीत पितुरभाव सत्याचााः " इति For Private And Personal Use Only Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५५३ प्रायश्चित्ततत्त्वम् । पैठौनसिवचनात् । “रोगी वृद्धस्तु पोगण्डः कुर्वन्त्यन्यैवतं सदा” इति ब्रह्मपुराणाञ्चाशत्तौ प्रायश्चित्तमन्येन कार्यम् अनुध्याय तदीयं पापं मनसा सङ्कल्पात्यर्थः । तदयं संक्षेपः। चाण्डालाद्यन्नभक्षणोद्यमे कण्ठादधीनय. नसम्भावनारहितेऽई प्रायश्चित्तम् । चाण्डालाद्यन्नभक्षणे तप्तकच्छ्रमज्ञानात्तदशती पादोनधेनुचतुष्टयम्। सपादैकादश कार्षापणा वा देयाः। चान्द्रायणं ज्ञानात् तदशक्ती धेन्वष्टकं साईहाविंशति कार्षापणा वा देयाः । पराको बलात्कार तदशती पञ्च धेनवः । पञ्चटश कार्षापणा वा देयाः। सर्वत्रीच्छिष्ट तु व्रतहैगुण्यम् पापदज्ञानभुत्तोत्तारिते मासयावकव्रतम्। तदशती धेनुहयं षट् कार्षापणा वा देयाः। तत्रो. च्छिष्टाने पराक इति। अभ्यासभेदे त्वात्तिरूनीया। शुष्कान्ने सर्वनाई जलामात्रयोः सर्वत्र तुरीयांशः अज्ञानतः चाण्डालस्पष्टोदकपाने बहसाध्यं सान्तपनं तद गतौ कार्षापणे को देयः। अज्ञानतः चाण्डालस्पष्टान्नभक्षणे प्राजापत्य तदशक्ती धेनुरेका कार्षापणत्रयं वा देयम्। एतच्च ब्राह्मणस्य क्षत्रियादोनां तु पादपादहानिः स्त्रीबालवृद्धरोगिणामईम् । अथ गोमांसादिभक्षणप्रायश्चित्तम्। सुमन्तुः। “गोमांसभक्षणे प्राजापत्य चरेदिति” । इदमन्नानतः सकशोजनविषयम् एतत् प्रायश्चित्तान्ते पुनरुपनयनमाह विष्णुः । “ग्रामकुक्क टनरगोमांसभक्षणे च सर्वेष्वेव द्विजातीनां प्रायश्चित्तान्ते पुनः संस्कारं कुर्यादिति" प्राजापत्ये धेनुरेका कार्षापणत्रयं वा देयम्। चाण्डालानभक्षणप्रकरणे उपनयनं चान्द्रायणसममिति शूलपाणि महामहोपाध्यायसङ्कलनात् संस्काराशक्तो धेन्वष्टकं साईद्वाविंशतिकार्षापणा वा देयाः । शङ्खः । “गामवं कुञ्जरोष्ट्रौ च सर्व पञ्चनवन्तथा। क्रव्यादं कुक्कट ग्राम्यं ४० For Private And Personal Use Only Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५५४ प्रायवित्ततत्वम् । कुर्यात् संवत्सरं व्रतम्" । तथेति भुत्तो त्यर्थः । एतच चिर• कालाभ्यासे संवत्सरबते पञ्चदश धेनवः । पञ्चचत्वारिंशत् कार्षापणा वा देयाः। अभ्यासे तु प्राजापत्यमात्रान्तिः । तत्तुल्यव्रतान्तरं वा। संस्कारस्तु सक्कदेव । हारीतः। “मस्यकण्टकशम्बकशशक्तिकपर्दकान् । पौत्वा नवोदकञ्चैव पञ्चगव्येन शुधनति" ॥ भवोदकं नवखातजलं वर्षोदकच । तथा च ब्रह्मपुराणम्। “नवखातजलं गावो महिथश्छागयोनयः । शुद्यन्ति दिवसैरेव दशभिर्नात्र संशयः ॥ मिताधरायां स्मृतिः। “काले नवोदकं शुद्ध न पातव्यन्तु तत् वाहम् । प्रकाले तु दशाएं स्यात् पौत्वा नाद्यादहनिशम् ॥ काले वर्षाकाले। शङ्खः। "मानमाचमनं दानं देवता पित णम्। शूद्रोदकैन कुर्वीत तथा मेघाहिनि:सृतः ॥ पानादौतरस्पर्शादौ च हरिवंशः। “अभौममभो विसृजन्ति मेघाः यूतं पवित्र पवनैः सुगन्धिः" मावालः। "केशकोटावपञ्च स्त्रीभिः स्पृष्टं तथैव च। खोदक्या शूट्रसंस्पष्टं पञ्चगव्येन शुद्यति” । भुक्तति शेषः। अवपन' केशादिभिः सह पकम्। स्त्रो शूद्रा पञ्चगव्येन तन्मात्रपानेन व्रतरूपत्वात् तेन तत् पौखोपवसेत् । तदशक्ती अष्टौ पणा देयाः। __ अथ भायर्यायां मात्वादि वदतः प्रायश्चित्तम्। यथा स्मृतिसागर यमः । "क्रोधामोहाइदन् भायां मातरं भगिनौमपि । प्राजापत्यव्रतं कुर्यात् सर्ववर्णेष्वयं विधि" । व्यागानन्तरसंग्रहे मत्स्यतन्वं “क्रोधाद यदि त्यजेदायां वयःस्थाञ्च गुणाधिकाम्। ऋषिचान्द्रायणं कृत्वा पुन: संग्रहमादिशेत्” ॥ ऋषिचान्द्रायणमाह यमः । “स्त्री स्त्रीन पिण्डान् समश्नीयानियतात्मा दृढ़व्रतः। हरिष्यावस्य वै मासं भषिचान्द्रायणं स्मृतम्” ॥ ऋषि चान्द्रायणे पादोनधेनु: For Private And Personal Use Only Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रायवित्ततत्त्वम् । ५५.५ चतुष्टयम् । यामवल्कोनाम्यत्र दण्डविधानात् । प्रायवित्तं सूचितम् । यथा "अयुक्त शपथं कुर्वनयोग्यो योग्य कर्मकृत् । बृहत्क्षुद्रपशूनाञ्च पुंस्त्वस्य प्रतिरोधकृत् ॥ साधास्यस्यापलाप दासौगर्भविनाशकृत् । पितृपुत्र सुहृद् भ्राटदम्पत्याचाय्र्यशिष्यकाः ॥ एषामपतितानान्तु त्यागौ च शतदण्डभाक् ॥ अयुक्तं शपथं कुर्वत्रिति स्वभाय्यां प्रति यदि त्वां गच्छामि तदा मातरमेव गच्छामीत्ययुक्त शपथकर्त्तेति शूलपाणिमहामहो पाध्याया: । अथोपवीत दनप्रायश्चित्तं कामरूपौयनिवन्धे स्मृतिसागरे आपस्तम्बः । " ब्राह्मणेन यदा देवाच्छिन्नं यज्ञोपवी तकम् । मनस्तापेन शुद्धिः स्यादापस्तम्बोऽब्रवीन्मुनिः ॥ प्राणायामत्रयं कृत्वा निराहारः चिपेहिनम् " ॥ बृहन्मनुः । " उपवौतं ब्राह्मणस्य विनं शूद्रेण कामतः । श्रन्यदादाय मन्त्रेण पनुपवसेद्दिनम् ॥ धनादेशे गायत्रीमिति वचनात् । अनिर्दिष्टे शतमिति वचनाच्छ तावृत्तिगायत्रीजपं कृत्वा उपवसेत् ऋष्यशृङ्गः । “चाण्डालैः खपचैर्वापि किन्नं यज्ञोपवीतकम् । मुनिभिस्तु विनिर्दिष्टं महासान्तपनद्दयम् ॥ महासान्तपनमाह याज्ञवल्काः । “कुशोदकञ्च गोचौरं दधि मूत्र शक्कदुष्टतम् । प्राश्यापरेक्षा पवसेत् कुच्छ सान्तपनं चरन् ॥ पृथक् सान्तपनद्रव्यैः षड़ङः सोपवासकः । सप्ताहेनैव कच्छीऽयं महासान्तपनः स्मृतः” ॥ सप्ताह साध्य महासान्तपनो धेनुदयमान इति प्रायश्चित्तविवेकः । वृहस्पतिः । "शूद्रेण तु यदा fraguatतं दिजन्मनः । दण्डं विंशत् पणं दत्त्वा प्राजापत्येन शुडप्रति ॥ प्राजापत्य धेनुदानसमं तत्तल्यं कार्षापणत्रयम्। हारीतः । " चाण्डालपुक्कश म्लेच्छान्त्यजकापालिकस्तथा । त्रियज्ञोपवीतो यः सोऽतिक्कच्छप शुद्यति ॥ प्रतिकच्छ हे धेन ," a For Private And Personal Use Only Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५५६ प्रायश्चित्ततत्त्वम् । अथ रेतो मूत्रपुरोषभक्षणप्रायश्चित्तम्। वृहस्पतिः । अलेह्यानामपेयानामभक्ष्याणाञ्च भक्षणे। रेतोमूत्रपुरौषाणां शु। चान्द्रायणञ्चरेत्” । गोतमः। “अमत्या पाने पयो तमुदकं वायु प्रति नाहं पिबेत् सतप्तकच्छ्रः । ततः संस्कार: मूत्रपुरोषरतसां प्राशने चैवमिति" ॥ वायु तप्तदुग्धवाष्यम् अयं हादशाहसाध्यस्तप्त कच्छः। चान्द्रायगतप्त कच्छयोर्जानाजानाभ्यां व्यवस्था संस्कारस्तभयनव। चान्द्रायणे धेन्वष्टकं तप्तकच्छ धेनुचतुष्टयम्। उपनयनं चान्द्रायणसमम् । प्रायश्चित्तविवेककृतापि चाण्डालानभक्षणप्रायश्चित्ते तथा संकलनात्। उपनयने विशेषयति मनुः। “वपनं मेखला दण्डो भैच्याचार्या व्रतानि च। निवर्तेत हिजातीनां पुन: संस्कारकर्मणि" ॥ स्वाध्यायाद्यपेक्षा नास्तोत्याह यर्गः। “विप्रस्य क्षत्रियस्यापि मौजौ स्यादुत्तरायणे। दक्षिण च विशां कार्य नानध्याये न संक्रमे ॥ अनध्यायेऽपि कुर्वीत यस्य नैमित्तिक भवेत्" ॥ अपिना दक्षिणायन कृष्णपक्षयोः समुच्चयः। मलमासादिदोषोऽप्यत्र नास्ति प्रायश्चित्तरूपत्वेन प्रतिप्रसूतत्वात् । तथा च दक्षः। “नैमित्तिकानि काम्यानि निपतन्ति यथा यथा। तथा तथैव कार्याणि न कालस्तु विधीयते" ॥ संवतः । "विण्म वभक्षणे विप्रः प्राजापत्य समाचरेत्” ॥ एतबलात्कारविषय इति प्रायश्चित्तविवेकः । वस्तुतस्तु अज्ञानाइलात्कारे आधिक्यं प्राक् प्रतिपादितम् । अत्र उनैकादशवर्षीयबालविषयमिदम्। क्षत्रियादी पादपादहानिः । अथोच्छिष्टस्य चाण्डालादिस्पर्शप्रायश्चित्तम् । आपस्तम्बः । "भुत्तोच्छिष्टस्त्वनाचान्तश्चाण्डालैः खपचेन वा। प्रमादात् स्पर्शनं गच्छत् तत्र कु-हिशोधनम् ॥ गायनप्रष्टस हवन्तु द्रुपदां वा शतं जपेत्। विरात्रोपोषितो भूत्वा मव्येन For Private And Personal Use Only Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सायविचतत्वम् । ५५७ शाति ॥ भुक्तोच्छिष्टोऽन्त्यजेः स्पृष्टः प्राजापत्य' समाचरेत् । अष्टे स्मृतः पादः पाद मामाने तथा ॥ प्राजापत्य ज्ञाने पर्वोच्छिष्टो येनाद्यग्रासः पा निचिप्तः । न तु निमौर्पाः । दचः । पाने मैथुनसंसर्गे तथा मूत्रपुरीषयोः संस्पर्शं यदि गच्छेत्तु भवोद्रः सह ॥ दिनमेकं घरेलू पुरोषे तु दिनदयम् । दिनऩयं मैथुने स्यात् पाने स्याच चतुष्टयम्" ॥ काश्यपः । “श्वशूकरान्य चाण्डालमद्यभाण्डरजखलाः । यद्युच्छिष्टः सृशेशव कुच्छ सान्तपनं चरेत्” ॥ एतज्ज्ञानाभ्यासे सान्तपने धेनुदयम् । ब्रह्मपुराणे । "इच्छि ष्टेन तु शूद्रेण विप्रः स्पृष्टन्तु तादृशः । उपवासेल शुद्धिः स्यात् शुना संस्पृष्ट एव वा ॥ उच्छिष्टेन तु विप्रेण विप्रः स्पृष्टस्तु तादृशः । उभौ खानं प्रकुरुतं सद्य एव समाहितौ” ॥ अनुच्छिष्ट ब्राह्मणस्य नक्तमिति प्रायवित्तविवेकः । अथ रजस्वलास्पर्शप्रायवित्तम् । काश्यपः । " रजखला संस्पृष्टा ब्राह्मण्या ब्राह्मणौ यदि । एकरात्र निराहारा पञ्चगव्येन शुद्धति ॥ रजखला तु संस्पृष्टा राजन्या ब्राह्मणो तु या । त्रिरात्रेण विशुद्धि: स्यात् व्याघ्रस्य वचनं यथा ॥ रजखला तु संस्पृष्टा वैश्यया ब्राह्मणौ च या । पञ्चरात्रनिराहारा पञ्चगव्येन शुध्यति ॥ रजखला तु संस्पृष्टा शूद्रया ब्राह्मणो यदि । षड्रात्रेण विशुद्धात्तु ब्राह्मणौ कामचारतः । श्रकामतश्चरेदई ब्राह्मणौ सर्वजातिषु ॥ एतेन रजखलाया: ब्राह्मण्याः सवर्णरजस्वलास्पर्शे एकरात्रोपवासः पञ्चगव्यपानं कामतः । श्रकामतस्तदई नक्तव्रतं श्रसवर्ण रजस्वलास्पर्शे त्रिरात्रपञ्चरात्रषड्राaोपवासाः । श्रकामतस्तदम् । एतच्चतुर्धाहानन्तरं कर्त्तव्यम् । " चाण्डालेन श्वपाकेन संस्पृष्टा चेद्रजखला। अतिक्रम्य तान्यहानि प्रायश्चित्तं समाचरेत् ॥ For Private And Personal Use Only Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५५८ प्रायश्चित्ततत्त्वम् । 1 त्रिरात्रमुपवासः स्यात् पञ्चगव्येन शद्धति । तां निशां तु व्यक्तिक्रम्य खजात्यक्तन्तु कारयेत्" ॥ इति वचनान्तरदर्शनात् एतत् कामतः । अत्र दिनभेदोऽपि नास्ति । श्रज्ञाने वृहस्पतिः । " पतितान्त्यश्वपाकैस्तु संस्पृष्टा स्त्रौ रजखला । तान्यहानि व्यतिक्रम्य प्रायश्चित्तं समाचरेत् ॥ प्रथमेऽह्नि विराचन्तु द्वितीये ग्रहमाचरेत् । अहोरात्र तृतीयेऽह्नि चतुर्थे नक्तमाचरेत्” ॥ चतुर्थेऽह्नौति शुद्दिस्नानात् पूर्वं व्याघ्रः । " रजस्वला यदा स्पृष्टा श्वजम्बुकखरैः कश्चित् । निराहारा भवेत्तावत् यावत् खानेन शुद्यति ॥ चत्रापि बृहस्पत्य क्त दिनमेद. व्यवस्था । वृषशातातपः । " रजस्वले तु येनार्यावन्योऽन्यं स्पृशतो यदि । सवर्णे पञ्चगव्यन्तु ब्रह्मकूर्त्तमतः परम् ॥ पञ्चगव्यपानं व्रतरूपम् । तेनोक्वासः । ब्रह्मकूर्द्धमाह जावालः । "अहोरात्रोषितो भूत्वा पौर्णमास्यां विशेषतः । पञ्चगव्य पिबेत् प्रातर्ब्रह्मकूर्च्चविधिः स्मृतः” ॥ तदशक्तौ पुराणैकं दातव्यम् । उच्छिष्टशूद्रादिस्पर्शे बृहस्पतिः । " शुना चोच्छिष्टया शूद्रा संस्पृष्टा ग्रहमाचरेत् । अहोरात्र तृतौयेऽह्नि परतो नक्तमाचरेत्” ॥ परतश्चतुर्थदिने खायात् पूर्वमिति ज्ञेयम् । इति श्रीरघुनन्दन भट्टाचार्यविराचितप्रायश्चित्ततत्त्वं समाप्तम् । 1 For Private And Personal Use Only Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम्। नमो गणेशाय। प्रणम्य सच्चिदानन्दं भास्करं जगदीश्वरम् । ज्योति:शास्त्रस्य तत्त्वानि वक्ति श्रीरघुनन्दनः ॥ "राश्यादिनिर्णयस्तत्र चन्द्रादेव प्रतिक्रिया। प्रकोण सर्वतोभद्रं बालाघुपयमन्तथा ॥ गर्भाधानं सवः पुंसां सौमन्तो जातभद्रता। जातनाम कनिष्कामक्रियानाशनचूड़काः ॥ कर्ण वेधस्तथा विद्यारम्भोपनयनिर्णयः । गृहायं कृषिराङ्गत्यं यानं छत्रं नृपासनम् ॥ अथ राश्यादिनिर्णयः । “मेषवृषमिथुन कर्कटसिंहाः कन्यातुलाध वृश्चिकभम्। धनुरथ मकरः कुम्भो मौन इति च राशयः कथिताः" ॥ राशिकथनम्। “अखिन्या सह भरणी कत्तिकापादः कीर्तितो मेषः। वृषभः कृत्तिकाशेषं रोहिसर्वच मृगशिरसः ॥ मृगशिरसोऽई चार्दा पुनर्वसोस्त्रिपाद मिथुनम् । पादः पुनर्वसोरन्त्यः पुथोऽश्लेषा च कर्कटः । सिंहोऽथ मघा पूर्व फल्गुनौपाद उत्तरायाः। तच्छेषं इस्ताचित्राई कन्यकाख्यः तौलिनि चिताई खातीविशाखायाच पादत्रयं अलिनि विशाखापादस्तथानुराधान्विता ज्येष्ठा । मूलं पूर्वाषाढ़ा प्रथमवाप्युत्तरांशको धन्वी। मकरस्तत्परिशेषं श्रवणा चाई धनिष्ठायाः। कुम्भोऽथ धनिष्ठाई शतभिषापौर्वभाद्रपदत्रयम्। भाद्रपदायाः शेषस्तथोत्तरा रेवतो मौनः ॥ राशिनचनभेदकथनम्। “राशिनामानि च । For Private And Personal Use Only Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५६० ज्योतिस्तत्त्वम् । a अमृतं गृहनाम च । मेषादीनाञ्च पय्यायं लोकादेव विधिन्तयेत्” ॥ राशिपर्य्यायकथनम् । “क्रिय तावुरि- जिसम कुलोर-लेय- पाथेय-यक- कोर्पाख्याः । तौक्षिक पाकोकेरी हृद्रोगयान्त्यभं चेत्यम्” । “अरुणसित हरित- पाटल- पाण्डुविचित्रा: सितेतरपिषङ्गौ । पिङ्गल कर्बुरवस्तू मलिनारुचयो यथासंख्यम्” ॥ मेषादीनां वर्णभेदकथनम् । “मत्स्यौ घटौ नृमिथुनं सगदं सर्वोणं चापीनरोऽखजघनो मकरी मृगास्यः । तौलोसस्य दानवमा च कन्या शेषाः खनामसदृशाः स्वचराय सर्वे ॥ मेषादीनां विशेषनामकथनम् । अव जघनः अवाकारजघनो न त्वखारूढ़ जघनः । उत्तरव चतुचरणत्वकथनात् । राश्यधिष्ठाटदेवताकथनम् । “क्रूरोऽथ सौम्यः पुरुषोऽङ्गना च श्रजोऽथ युग्म विषमः समच । चरस्थिरात्मक नामधेया मेषादयोऽसौ क्रमशः प्रदिष्टाः ॥ " राशनां क्रूरसौम्यादिविवेकः । दैवतमनोहरे । " पुण्यच पुष्करश्चैव प्राधानाख्यस्तथैव च । श्रुत्या हत्या वृत्त्या भवन्त्येते नित्यं द्वादश राशयः ॥ पुष्यादिविवेकः । " मिथुनतुलाघटकन्या द्विपदाख्याश्चाप पूर्वभागश्च । मृगधनुराद्यन्ता वृषानसिंहाश्चतुश्चरणाः” ॥ द्विपदचतुष्पदकथनम्। " कर्कट - वृश्चिकमोना मकरान्त्याईच कौटसंज्ञाः स्युः वृश्चिक राशिमुनिभिः सरौसृपत्वेन निर्दिष्टः ॥ कोटसरौसृपकथनम् । "हिपदवशगाः सर्वे सिंहं विहाय चतुष्पदाः । सलिलनिलया भच्या वश्याः सरीसृपजातयः ॥ सुगतिवशे तिष्ठन्त्येते विहाय सरीसृपान् । अकथितगृहेषां वश्यं जनव्यवहारतः” । सरौसृप्रजातय इति बहुवचनात् कौटस्यापि परिग्रहः । राशौनां वश्यावश्यकथनम् । “ग्राम्यामिथुनतुला स्त्री चापालिघटा निशाषु वृषमेषौ । मकरादिमाई सिंहौ वन्यौ दिवसेऽजवृषभौ 1 For Private And Personal Use Only Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम् । ५६१ | च। जलजौ कर्कटमोनौ मकरान्त्याच्च शिवमते कुम्भः ॥ ग्राम्यारण्य जल जराशिकथनम् । "स्वास्तिमिगोविघटा मि थुन धनुः कर्किमृगमुख्याश्च समाः । वृश्चिककन्या मृगपतिवणिजो दीर्घाः समाख्याता: " ॥ राशौनां वदौर्घ कथनम् । "प्रागादिककुभां नाथा यथासंख्यं प्रदक्षिणम् । मेषाद्या राशयो ज्ञेयास्त्रिरावृत्तिपरिभ्रमात्" | दिगधिपकथनम्। "खजातयाऽनेक संख्याप्रस्तारे वामतो गतिः । हन्तिः पूतिश्व गुणनेयुतो तन्मात्रयोजनम् ॥ यावहन्तुञ्च शक्नोति तावद्गच्छति हारकः । लब्ध तत्संख्यकं प्राहुर्डीने तन्मात्त्रखण्डनम् ” ॥ अङ्कप्रस्तारकथनम् । “यदोदेति तदा लग्नं राशिः स्यादन्वहं क्रमात् । अयनांशाल्लग्नमानं तद्रूहमिति नोच्यते ॥ राढ़ौयश्रीनिवासोक्तं तन्मानं स्थूलतोऽत्र तु । रामोऽगवेदै ३ । ४७ । जलधिस्तु मैत्रै ४ | १७ | र्वाणोरसैः ५ | ६ | पञ्चखसागरेश्च ५४० वाणः कुवेदै ५ । ४१ । र्विषयोऽङ्कयुग्म : ५ । २८ । क्रमोत्क्रमाभेषतुलादिमानम् । ते दण्डास्तैः पलैर्लग्नं रविभुक्तांशका : क्रमात् । रात्रौ तत्सप्तमांशाः प्रविष्टा दिवसे तथा । लग्नं दण्डपलं विघ्नं तत्संख्यं क्रमतः पलम् । विपलञ्च रवेर्भाग्यमेवं कल्पनमस्तभे” | लग्नविवेकः । “अर्काङ्गला तु शूयग्रग्रा काष्ठो हाङ्गुलमूल्लिका । शङ्कसंज्ञा भवेचैव तच्छायां परिकल्पयेत् ॥ मध्याह्नहौनैरादित्ययुक्त छ । याङ्गलैईरेत् । षट्पूरितदिवादण्डं लब्ध' दण्डादिकं भवेत् ॥ पूर्वाह्नच्छाययातीतं पराह्नच्छाययैष्यकम् । शून्यैकरामवाणेभदिशो रुद्राः | ० | १ | ३ । ५ । ८ । १० । ११ । क्रमोत्क्रमैः । आषाढादिषु मासेषु छाया माध्याह्निको मता ॥ श्रयनांशजमासान्ते व्युत्क्रमेणादितो बुधैः । संख्योक्तान्यदिने भागहारे वृद्धौतरे तथा ” । प्रकारान्तरन्तु । "पञ्चाब्धि रामयुग्म कशून्ये कयुग्मवह्नयः । 1 For Private And Personal Use Only Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५६२ ज्योतिस्तत्त्वम् । चतुःपञ्चर्त्तवो ५ । ४ । ३ । २ । १ । ० । १ । २ । ३ । ४ । ५। ६ । माघातकायापादा दिनाईके । अयनांशजमासान्ते विपादगणनक्रमात् । दिने दिने भागद्दारो मध्यच्छायापदे मतः ॥ अङ्घ्रः षट्य ंशकोव्यङ्घ्रिरङ्गलेर्व्यङ्ग लिस्तथा । सद्यूनं द्दिशतं होनं मध्यपादेव षड्गुणैः । कायापादैश्च मध्योने षड्युतेर्द्विगुणेहरेत् । ग्राह्यमादिपदाईन्तु लब्धा दण्डा गर्तष्यकाः । प्राक्पश्चिमदिनाद्वात्तु शेषात् षष्टिगुणात् पलम् ॥ दिवादण्डादिज्ञानम् । “मृगसंक्रान्तिकः पूर्वं पखात्तारादिनान्तरे । एकवर्षे चतुःपञ्चपलमानक्रमेण तु । षट्षष्टिवत्सरानेकदिनं स्थादयनं रवेः । एवं चतुःपञ्चदिनमयनारम्भणं क्रमात् व्युत्क्रमेष च तद्दत् स्यादुदग्यानं रवे ध्रुवम् । कर्किसंक्रमणे तद्वदभितो दक्षिणायनम् । अयनांशक्रमेणैव विषुवारम्भणं तथा । रविसंक्रान्तितो मेषतुलयोरभितः पुनः । विषुवं मौनकन्या त्वेकाचन्द्रशकाब्दके । दिनमानाय मोनाई।म्म पाई पालिक शतम् । ततो वृषाई पर्य्यन्तमशीतिः पलभाजिनौ । मिथुनाई चतुस्त्रिंशत्पलानां वर्धते क्रमात् । कर्कटाईन्तु षट्विंशत् सिंहाईन्तु प्रशतकम् । कन्याईञ्च द्दिनवतिः क्रमात् तुव्यति वासरे । कन्यार्द्धाद्रजनौमान बोध्य पूर्वक्रमेण हि । दिने दिने भागद्वारामानं बोध्यं दिवानिशोः । एकमान दण्डषष्ट्या त्यक्वान्यमाननिर्णयः । षट्षष्टिवत्सरानेवं ततः स्यात् षोडशांशके । पुनस्तद्दत्सरांस्तद्दत् एवं सप्तदशादिके” ॥ दिनविमानम् । पलदण्डयोः प्रमाणन्तु । “दशगुर्वक्षरोच्चार: काल: प्राण: षड़ात्मकैः तैः पलं स्यात्ततः षष्ट्यादण्ड इत्यभिधीयते” । तेन च “माकान्ते पक्षस्यान्ते॒ पय्र्याकाशे देशे स्वाप्सोः कान्तं वक्त वृत्तं पूर्ण चन्द्रं मत्वा रात्रौ चेत् । क्षुत्कामः प्रारंश्चेतश्चेतो For Private And Personal Use Only Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम् । ५६३ राह करः प्राद्यात्तस्माहान्ने हाम्यस्यान्ते शय्यकान्ते कर्तव्या"। अस्यैकपाठात् पर अष्टिपाठाहण्डः । *सामर्थं तनुकत्यते समुदये वित्तं कुटुम्ब ततो विक्रान्ति सहज हतौयभवने योषध सश्चिन्तयेत्। बन्धु वाद्यसुखालयानपि ततोधीमन्च पुत्रांस्ततः षष्ठेऽथ क्षतविहिषौ मदारहे कामं स्त्रियं वर्म च । रन्धायुम॒तयोऽष्टमे गुरुतपोमा ग्यानि चित्तं ततो मानाज्ञास्पदकर्मणां दशममे कुत्ततश्चिन्तनम्। प्राप्तारावधचिन्तयेगवरहे ऋप्फेतु मन्विव्ययौ। सौम्यखामियुते क्षणैरुपचितिखेषां क्षतिस्त्वन्यथा ॥ रन्धं पापमिति भट्टोत्पतः। हादसभावविवेकः। “अरातिवणयोः पंछे त्वष्टमे मृत्युरन्धयोः । व्ययस्य द्वादशस्थाने वेपरीत्येन चिन्तनम् ॥ परात्यादिभा. वापवादः। अझैनेन्दसौराराः पापाः सौमास्तथा यरे पापयुनो बुधः पापो राहुकेतू च पापदौ। पापसौम्यविवेकः । दशमे च तीये च पादष्टिरुदाता। प्रदृष्टि नवमे पञ्चमे परिकीर्तिता। चतुर्थे त्वष्टमे चैव पादोना परिकीर्तिता। सप्तमे परिपूर्णा च फलमेवं प्रकल्पाते। तीयदशमावार्कि: पश्यन् पूर्णफलप्रदः। त्रिकोणगान् गुरुश्चैव चतुर्थाष्टमगान् कुजः। सुतमदननवान्त्ये पूर्णदृष्टिः सूरारीयुगलदशमराशी दृष्टिपादत्रयाईः। सहजरिपुचतुर्थेष्वष्टमे चादृष्टिः स्थितिभवनमुपान्त्यं नैव दृश्यं हि राहोः" । ग्रहाणां गहोय दृष्टिः । मेषो वृषो मृगः कन्याकर्किमौनतुलाधराः। भास्करादेर्भवन्त्युच्चा राशयः क्रमशस्विमे। रविषे षे चन्द्रो गुरुः कर्के बुधः स्त्रियां शनियुके मृगे भौमः शुक्रो मौने च तुङ्गिनः । विशागे दिशोरामा अष्टाविंशस्तिथिस्तथा। पञ्च वै सप्तविशाच विंशतिश्योच्च संकाः। स्त्रोचाञ्च सप्तमं नौचं प्राग्वझावैविनिर्दिशत्। उच्चान्तःसूत्रसंज्ञः स्यात् नौचान्तस्तु मुनी. For Private And Personal Use Only Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५६४ ज्योति ज्योतिस्तत्त्वम् । चकः। परिपूर्णवलः सूच्चे सुनौचे दुर्वलो ग्रहः। सूञ्चसुनौ. चयोरन्तर्भाग हारात् फलं तथा" | उच्चनौचकथनम् । “सिंहो वृषश्च मेषश्च कन्या धन्वौधटो घटः। अर्कादौनां त्रिकोणानि मूलानि राशयः क्रमात्”। मूलत्रिकोण कथनम्। रविभौमजीवभार्गवशनैश्वराणां त्रिकोणभागाः स्युः । नखरविदिक् तिथिनखराजेन्दोटिंगभां शकाः सूञ्चात् ॥ मूलत्रिकोणांशव्यवस्था । "उच्च नृयुष्मं घटभं त्रिकोणं कन्याग्रहं शुक्रशनी च मिचे। सूर्यः शशाको धरणीस्तव राहोरिपुर्विशतिक: परांशः । सिंहस्त्रिकोणं धनुरुञ्चसंज्ञं मोनो राहं शुक्रशनौविपक्षौ। सूर्यारचन्द्राः सुहृदः समानी जीवेन्दुजौ पशिखिनः परांशाः। बाहुकेत्वोच्चादिक्षेत्र होराथ ट्रेक्काणोनवांशोहादशांशकः। विशांशकश्च षड्वर्गास्वयादि प्रात्याफलप्रदाः" । इति षड्वर्गः । “कुजशुक्रबधेन्दकसौम्यशुक्रावनौभुवाम्। जौवार्किभामुजेज्याना क्षेत्राणि स्थुरजादयः। विषमःषु प्रथमा होराः स्युश्चण्ड रोचिषः द्वितीयाः शशिनो युक्षुव्यत्ययाद्गणयेत् सदा । स्वपञ्चनवमानां ये राशीनामधिपा ग्रहाः। ते ट्रेक्काणाधिपाराशौ ट्रेकाणास्त्रय एव हि। मेषकेशरिधनुषां मेषाद्याच नवांश का: । मृगकन्या वषाणाञ्च मृगाद्यास्तु नवांशकाः। तुलामिथुनकुम्भानां तुलाद्याः समुदाहृताः । कविश्चिकमौनानां कर्कटाद्या नवांशकाः। चराणां प्रथमे चांशे स्थिराणां पञ्चमे तथा। नवमे द्यात्म का नाञ्च वर्गोत्तम इति स्मृतः। खनवांशस्तु गशीनां वर्गोत्तम इति स्मतः सर्वेषां मेषपूर्वाणां स्व द्या द्वादशांशकाः। कुजार्किगुरुसौम्यानां भागा: शुक्रस्य च क्रमात्। पञ्चपञ्चाष्ट सप्तेषु ज्ञेयमोजःसु राशिषु। त्रिंशांशाव्यत्यया देते युग्मराशिषु कौर्तिताः। इति षड्वर्गकथनम्। “प्रजोगो. For Private And Personal Use Only Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir .. ज्योतिस्तत्वम् । पतियुग्मञ्च कधिन्विमृगास्तथा। निशासंज्ञाः स्मृताश्चैते शेषाशान्ये दिनात्मकाः। निशा संज्ञा विमिथुनाः स्मृताः पृष्ठोदयास्तथा। शेषाः शौर्षोदयाह्येते मौनशोभयकंज्ञकः । निशादि संज्ञाकथनम्। “षष्ठविदशलाभाच लग्नादुपचया: स्मृताः। पञ्चमं नवमं स्थानं त्रिकोणं केवलं स्मृतम् । उपचयत्रिकोणकथनम्। केन्द्रं चतुष्टयं कण्टका लग्नास्तदशचतुर्थानां संज्ञा"। केन्द्रपयाय तत् स्थानयोः कथनम् । पनफर हितौयाष्टपञ्चमैकादशं विदुः । तृतीयषष्ठनवममन्त्यञ्चापो किम विदुः" । पनफरापो क्लिम तत् स्थानकथनम् । “पातालं हिवुकच्चैव मुहदम्भश्चतुर्थकम्। वित्रिकोणच नवमं दुश्चिक्यं स्यात् टतीयकम्। धौ स्थानं पञ्चमं ज्ञेयं यामिन सप्तमं स्मृतम् । युनं धनं तथास्ताख्यं षट्कोणं रिपुमन्दिरम् । कर्मस्थानच्च दशमं खं मे शूरणमास्यदम् । छिद्राख्यमष्टमं स्थानं रिपफाख्यं हादश स्मृतम् । चतुर्थमष्टमञ्चैव चतुरस्र विदुर्बुधाः ॥ चतु दिपयायः। "हेलि: सूर्यचन्द्रमाः शौतरश्मिना विज्ञो बोधनश्चेन्दुपुत्रः। आरोवक्र: करडक्चावनेयः कालो मन्दः सूर्यपुत्रोऽसितश्च । जीवोऽङ्गिराः सुरगुरुवचसां पतौज्यौ शुक्रो भृगु गुसुत: सित पास्कृजिन्च। राहुस्तमो गुरुसुरश्च शिखौ च केतुः पयायमन्यमुपलभ्य वदेच लोकात्"। ग्रहसंज्ञाकथनम्। “रत्नश्यामो भास्करो गौर इन्दु त्युच्चाङ्गो रक्तगौरो महौजः । दूर्वाश्यामोजो गुरुौरंगानः श्यामः शुक्रो भास्करिः कृष्णदेहः”। ग्रहाणां वर्णकथनम् । “सूर्यः शुक्रः क्षमापुत्रः सैहिकेयः शनिः शशौ । सौम्यस्त्रिदशमन्त्री च प्राचादि दिगधोखराः। प्राच्या सौम्य सुराचायौँ याम्यां भास्करभूमिजी। प्रत्यक् सौरिरुदौयान्तु सितेन्द दिग्बलान्वितौ"। दिग्वलिकथनम्। “भौमार्कजीवाः पुरुषाः क्लोवौ सोमजभानुजौ। For Private And Personal Use Only Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५६६ ज्योतिस्तत्त्वम् । I ताल्पकचः । स्याख्यौ भार्गवचन्द्रौ द्वौ तत्पतित्वात्तथोच्यते” । पुंग्रहादिनिर्णमः । " चन्द्रार्कजौवाज्ज्ञसितो कुजाक यथाक्रमं सत्त्वरजस्तमांसि । कटुलवणतिक्तमिश्रितामधुराम्बो च कषायको - र्कतः " । गुणरसाधिपकथनम् । “ब्राह्मणे शुक्रवागोशौ चत्रिये भौमभास्करौ । चन्द्रो वैश्य बुधः शूद्रे पतिर्मन्दोऽन्त्यजे जने” । जात्यधिपकथनम् । " ऋग्वेदाधिपतिर्जीवो यजुर्वेदाधिपः सितः । सामवेदाधिपो भौमः शशिजोऽथर्ववेदराट्” । वेदाविपकथनम् । मधुपिङ्गलट्टक्चतुरस्रतनुः पित्तप्रक्षतिः सवितनुवृत्ततनुर्बडुवातकफप्रातः शशी मृदुवाक् शुभदृक् । भूमिजस्तरुणमूर्त्तिरुदारः पैत्तिकः सुचपलक्कशमध्यः । श्लिष्टवाक् सतत हास्यरुचिः पित्तमारुत कफ प्रक्कतिच । वृहत्तनुः पिङ्गलमूईजेक्षणो बृहस्पतिः श्रेष्ठमति: कफात्मकः । भृगुः सुखी कान्तवपुः सुलोचनः कफानिलात्मा सितवक्रमूईज: । मन्दोऽलसः कपिलहक कमदोर्घगात्रः स्थूलद्दिजः परुषलोमकचोऽनिलात्मा । ख्यादीनां क्रमेण स्वभावकथनं मित्राणि सूर्याच्छशिभौमजीवाः सूर्येन्दुजो सूर्यशशाङ्कजौवाः । श्रादित्यशुक्रौ रविचन्द्रमौमा बुधार्कजो चन्द्रजभार्गव च । एकैकविभक्त्यन्तैः सूर्ययादेः क्रमेण मित्रकथनम् । “सितासितौ चन्द्रमसो न कश्चित् बुधः शशौ सौम्य - सितौ खोन्दू | खोन्दुभौमा रवितस्त्वमित्रामित्रारिशेषस्तु समः प्रदिष्टः ॥ बुधः कुजेज्यास्फुजिदकं पुत्राः शुक्रार्कजौ भौमसुरेज्यमन्दाः। शनिः कुजेच्या सुरराजमन्त्रौरव्यादितोऽमो समसंज्ञिता स्यः ॥ एकैकविभक्त्यन्तैः शत्रु समकथनम् । "चतुर्थदशवित्तान्त्यविलाभस्याः परस्परम् । तत्काल मित्राण्युचस्यः कैश्चिदुक्तोऽन्यथा रिपुः ॥ तत्कालमिवादिविवेकः । हितसमरिपुसंज्ञा ये निसर्गे निरुक्ताः अधिचितहितमध्यास्तेऽपि For Private And Personal Use Only Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम् । ५६७ तत्कालमि: । रिपुमहदाख्या ये निसर्गोपदिष्टा अधिरिपुरिपुमध्याः शत्रुभिचिन्तनीयाः । प्रधिमित्रादिकथनम् । स्वोच्चे स्थिताः श्रेष्ठवला भवन्ति मूलत्रिकोणे खग्टहे च मध्याः । इष्टेचिता मित्राश्रिता वा वीर्य्यं कनीयः समुपावहन्ति | लग्नांशाधिपयोर्यादृक् बलं तादृक् तयोरपि । पतितत्प्रियबुध सौम्योच्च स्थैर्यु तवोचितो बलौ राशिः । “अल्पबलोऽन्ये मित्रैर्मध्यबलः सर्वायुतेक्षितस्त्ववलः । जौवज्ञपतिभिदृष्टोयुतो वातिबलो भवेत् ॥ मिश्र मिश्रवली यो राशि: पापैस्तु दुर्बलः । स्वोश्च त्रिकोणतिभस्वग्टहादिवर्गसंस्थाः ममे शशिसितौ विषमेऽवशेषाः । पुंस्त्रोनपुंसकखगाभमुखान्त्य मध्य संस्थाः शुभेक्षितयुतास्थिति बौय्यवन्तः ॥ ग्रहार्णा बलकथनम् । मार्कण्डेय पुराणम् । “द्रव्ये गोष्ठेषु भृत्येषु सुहृत्सु तनयेषु च । भार्य्यायाच्च ग्रहे दुष्टे भयं पुण्यवत नृणाम् ॥ चात्मन्धथाल्पपुण्यानां सर्वत्र वातिपापिनाम् । नं कुत्रापि पापानां नराणां जायते भयम् ॥ भविष्यपुराणम् । " अहिंसकस्य दान्तस्य धर्मार्जितधनस्य च । नित्यच नियमस्वस्य सदानुग्रहिकाग्रहाः " ॥ ज्योतिषे । " रविर्मासं निशानाथः सपाददिवसद्दयम् । पञ्चवयं भूमिपुत्रो बुधोऽष्टादम वासरान् ॥ वर्षमेकं सुराचार्यश्चाष्टाविंशदिनं भृगुः | शनिः साईइयं वर्षं स्वर्भानुः साईवत्सरम् ॥ एवं प्रमाणात् सकलाः स्वराशिं भुञ्जते ग्रहाः । वक्रशौघ्रगतिश्चेत् स्यात् भौमादिपचकेऽन्यथा ॥ केतू पल्पवभौममन्दगतयः षष्ठत्रिसंस्था शुभाः चन्द्रावपि ते च तौ च दशमौ चन्द्रः पुनः सप्तमः । जौवः सप्तनवपिमगतो युग्मषु सोमात्मजः शक्रः षड् दश सप्तवर्जमितरे सर्वेऽप्युपान्ते शुभाः” । गोधरशुद्धिः । राजमार्त्तण्डे । “वक्रातिचारोपगताग्रहेन्द्रा यत्र स्थितास्तस्य फलं प्रदद्युः । अनि For Private And Personal Use Only Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५६८ ज्योतिस्तत्वम् । ष्टमिष्टं नियतं नराणां भौमादयो यानविवाहजन्मसु ॥ गीची तु। “वक्रातिचारोपगमे ग्रहाणां कृत्स्नं फलं राशिगतं वदन्ति । शुभाशुमो जीवबुधौ न तस्मिंस्तयोस्तु पूर्व फलमादिशन्ति । ताराबलादिन्दुरधेन्दुवो-हिवाकरः संक्रममाण उक्तः । ग्रहास्तु सर्वे सवितुर्बलेन महौसुताद्याः शुभदा निरुताः । नाडौनक्षत्रदिवसे रविभौमशनैश्चराः। संक्रान्तिं यस्य कुर्वन्ति तस्व ल शोऽभिजायते। गोमूवसर्षपैः स्नानं सर्वोषधिजलेन च ॥ विशुद्ध काञ्चनं दद्यात् नाड़ौदोषोपशान्तये। मुरामांसौ वचाकुष्ठं शैलेयं रजनौदयम् ॥ शठौचम्पकमुस्तक सौंषधिगणः स्मृतः ॥ कषायाक्यक्ग्रहणे मत्यपुराणम्। “एषां पत्राणि साराणि मूलानि कुसुमानि च । एवमादौनि चान्यानि कषायाख्यो गणः स्मृतः" ॥ अनायुर्वेदोक्त परिभाषा । “अङ्गे - प्यनुक्ते विहितन्तु मूलं भागेऽप्यनुक्ते समता विधया। द्रव्येऽप्यनुक्त विहितन्तु तोयं कालेऽप्यनुक्तो दिवसस्य पूर्वम् ॥ धुस्तस्वौजसलिलैः सायात् संक्रान्ति शान्तये। तथा सर्वोषधौभिश्च विष्णुमन्त्रांश्च संजपेत् ॥ अथ रक्सिंक्रान्तिगणनम् । “नवाष्टशक होनेन शकाब्दाकेन घूरिताः। भूणचन्द्रावकाग्नि कुरामौ वेदयुग्मके। १।१५। ३१ । ३१ । २४ । प्रका अनुपलादेस्तु षध्या लब्धाइमिश्रिताः। दण्डात् खानी इयेषु च । ३० । ५७। पलाहित्वा ततः पुनः। सप्तावशिष्टा वासः स्य स्ततो दण्डादिकाः परे। मेषसंक्रमणे भानोः सिद्धान्तस्फुटसम्मताः। भुजौ पड़िषरामाग्नौ। २ । ५६ । ३३ । कालो जातिगंजावनो। ६ । २२ । १८। रामचन्द्रोऽग्नियुग्मञ्च ३। १ । २३ । तर्कोऽङ्गाष्टक् नवाशुगौ। ६ । २८ । ५८ । हावटक वेदवाणा २ । २८ । ५४ । अधिर्वाणशरी सुराः । ४ । ५५ । ३३ । षरसागवेदी शून्येन्दु । For Private And Personal Use Only Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम् । 폭스 । ६। ४८ । १० । एकं शैलभुवौ शराः १ । १७ । ५ । हौ षड़ग्नो तथाकाला । २ । ३६ । ६ । पब्योरामाः शरावनो । ४ । ३ । १५ । पञ्चाग्नीषु तथा रुद्रा ५ । ५३ । ११ । मेष संक्रमवारतः । या वृषादेस्तु वाराया संक्रमे रवेः । मृगकर्कट संक्रान्ती हे तूदगदक्षिणायने ॥ विषुवतो तुला मेषे गोमध्ये तथापराः । धनुर्मिथुमकन्यासु मौने च षड़शौतयः ॥ वृषवृश्चिककुभेषु सिंहे विष्णुपदी स्मृता । मूईि सप्तमुखे त्रौणि हृदये पञ्च विन्यसेत् ॥ वितयं हस्तपादेषु महाविषुवभक्रमात् । मस्तके भूपतेः सौख्य वदने पटुता शुभे ॥ हृदये च धनाध्यक्षोऽर्थ - प्राप्तिर्दक्षिणे करे । वामे करे महद्दुःखं सुखं पादे च दचिणे । 1 भ्रमणं वामपादे च कथितं विषुवत् फलम् ॥ षड्मूर्द्वि वदने पञ्चचत्वारि हृदये तथा । वितयं करपादेषु पयो विषुवभक्रमात् । मानं मूईि मुखे चैरं हृदये सुखसम्भवः । दोः पदोर्दचयोर्भोगस्त्रास्य वामयोः स्वभे” । जलविषुवफलम् । " शोषें पञ्चमुखे तौणि हस्तयोच वयं वयम् । हृदि पञ्च शौनाभौ गुदे च पादयो रसाः । उत्तरायणभाज्ज्ञेयं खनचत्रस्थितेः फलम् । शौर्षेऽथ लाभो वदने सुखानि दक्षे करेङ्गो हृदये च सौख्यम् । नाभौ शुभं वामकरे - गुभयं वामपदे प्रवासः” । उत्तरायणफलम् । “ शौर्ष aौणि सुखे aौणि हृदये पञ्च हस्तयोः । अष्टौ पाददयेऽप्यष्टौ दक्षिणायनभक्रमात् । शीर्षे मानं मुखे विद्या हृदये वित्तसच्चयः । प्रवास: स्यात् करे वामे भिक्षालाभश्च दक्षिणे । निष्फलं वामपादे च किचिल्लाभच दक्षिणे” । दक्षिणायनफलम् । "ऋचे संक्रमणं यत्र विष्णुपद्यां मुखे तु तत् । चत्वारि दक्षिणे बाहौ त्रीणि त्रौणि पदद्दये । चत्वारि वामबाहौ च हृदये पञ्च निर्दिशेत् । अक्ष्णोर्द्वयं दयं योज्य मूर्ध्नि दो चैकंक, For Private And Personal Use Only Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्वम्। गुदे। फलम्। रोगो भोगस्तथा यानं बन्धनं लाभ एवं च। ऐश्वयं राजपूजा च अपमृत्युरिति क्रमात्" । विष्णुपदोफलम्। “मुखे चैकं करे वेदाः पादयुग्मे हयं हयम्। क्रोड़े वाणस्तथा वेदा: करे सव्येतरेऽपि च । इयं वयं तथा नेत्रे मस्तके त्रितयं तथा। इयञ्चैव तथा गुह्य षड़शोत्यां खभे स्थिते। मुखे दुःखं करे लामः पादयोर्ममणं हृदि। कान्ता स्याइन्धनं वामे हस्ते स्यात् खौयभे नृणाम्। सम्मानं नेत्रयोचैव अपमानञ्च मस्तके। गुह्य चैव भवेन्मत्य: षड़शौतिफलश्रुतिः”। षड़शौतिफलम्। “शौर्षे चत्वारि राज्य जलधिरपि करे दक्षिणे चापि सौख्यं चैकं कण्ठ विभूतिं मदनशरमितं वक्षसि प्रौतिसंघम्। पादस्थाः षट् च पौड़ां पुनरपि जलधिर्वामहस्ते च मृत्यं नेत्रे त्रीणि प्रदाः सुखमथ निजभे बापतेः संक्रमात्"। गुरुसञ्चारफलम् । गौचरपौड़ायामपि राशिर्वलिभिः। शुभग्र हेर्दुष्टः। पौड़ा न करोति तथा पापैरेवं विपर्यासः”। गोचरापवादः। “दिनकररुधिगै प्रवेशकाले गुरुभृगुजौ भवनस्य मध्ययाती। रविसुतय शिनी विनिर्गमस्थौ शशितनयः फलदस्तु सर्वकालम्"। राशित्रिभागात् फलम् । “सप्तमोपचयाद्यस्थश्चन्द्रः सर्वत्र शोभन: । शुक्ल पक्षे हितोयस्तु पञ्चमो नवमस्तथा। सितशनिकुजजौवार्कास्त इन्दुनराणां व्ययसुखनवमस्थोऽपौष्टदाताथ तेषाम् । खसुतनिधनगश्चेत् मृत्युपुत्रार्थगोऽपि प्रचुरशुभफल: स्यात् वामवेधेन शुद्धः”। बामवेधत्वञ्च नजन्मेति एवमत्रेति वक्ष्यमाणवचनाभ्यामेकार्थत्वाबोध्यव्यम्। “उपचयकरयुक्तः सव्यगः शुक्लपक्षे शुभमभिलषमाणः सौम्यमध्यस्थितो वा। सखिवशिययुक्तः कारकर्वेऽपि चेन्दुर्जयधनसुखदाला तत् प्रह"न्यथातः" । ..सत्यम उत्तरायणचारौ। उपचय करस्य पश्चाइतौ वा प्रत For Private And Personal Use Only Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्वम् । ५७१ एवोताम्। भानां यथा सम्भवमुत्तरेण पञ्चाङ्गहाणां यदि वा शशाङ्गः । शुभप्रदानां शमदः प्रयाये याम्येन यातो न शुभः शशाखः। यो यस्य दशमहगः स तस्य कश्यो भवति नियमेन । वर्ततुङ्गमूलत्रिकोणगा: कण्टकेषु यावन्त आस्थिताः। जन्मकालवशगास्ते तु कारकाः कर्मगास्तु तेषां विशेषतः । मितपक्षादौ चन्द्रे शुभे शुभं पक्षमशुभमशुभे च । कृष्णे गोचरशुभदो न शुभः पक्षः शुभोऽतोऽन्यः । भीमपराक्रमे । “शुक्ल पक्षे प्रतिपदि चन्द्रे शिवे शिवं पक्षम्। कृष्णे प्रतिपदि ताराशुद्धौ शुभं विदुः पक्षम्"। वादरावणः। “शौतांशर्मिष्टमन्नं जनयति सततं जमराशी नराणां हर्षे दैत्येन्द्रमन्त्री दिवसकरकुजौ शत्रुपक्षस्य वृद्धिम् । हानि कुर्यादसूनां किरणपतिसुतो बन्धनं सोमपुत्रो नित्य निईतबुद्धि प्रवलरिघुबलं वित्तनाशच जौवः। भेद मित्रजने करोति दिनकृत क्ल शाश्रय चन्द्रमाः । सौरिवित्तविनाशमृच्छति सदा लाभं ददातौन्दुजः । हानि भूमिसुतः करोति महती भोगान् भृगोरात्मजा ज्ञानं दीपयति हतीयभवने जीवो नृणां नितिम् । हतौये तिष्ठन्तः खरकिरणभौमार्कतनया: स्थिरस्थानप्राप्तिं ददति भृगुसूनुश्च परमाम्। विनाशं शत्रणां जनयति शशी चन्द्रतनयः पर हृत्सन्ताप विदशपतिमन्त्री च कुरुते। ३ । मूह्मां शास्त्रविरो. धिकामपि धियं मूढां करोत्यङ्गिराः घोरा दुःखपरम्परां दिनकरः कुक्ष्यामयं चन्द्रमाः। सौम्यो रोगविनाशमिच्छति नृणां रोगक्षयं भार्गवो भौमः शनुभयं चतुर्थभवने सौरिश्च वित्तक्षयम्। ४ । दौर्भाग्यं शशलाञ्छनः क्षितिसुतचोहिग्नतां चेतसो दोषोत्पत्तिमनुत्तमां रविसुतः स्निग्धैवियोग रविः। दौर्भाग्य विदधाति चन्द्रतनयः प्राप्तिं परां भार्गवः कुर्य्यात् पञ्चमराशिगोचरगतो जोवो नृणां निहतिम् । ५। स्थिताः षष्ठे राशी, For Private And Personal Use Only Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५७२ ज्योतिस्तत्त्वम् । दिनकरमहोजाकतनया बधश्चन्द्रश्चैवं प्रचुरधनधान्यानि ददति। समृद्धि शत्रूणां मनसि च विषादं सुरगुरु गु शं कुर्यात् युवतिकतरच परमम् । ६ । स्त्रीलाम शशलाञ्छनीऽकतनयखोहिम्नतां चेतसो भौमश्चापि धनक्षयं मुरगुरुवस्त्रादिकाः सम्पदः। सोम्योगकरो भवेत् प्रकुपितो रोगाश्रयं भार्गव: सूर्यचापि करोत्यनिष्टमतुलं राशौ स्थित: सप्तमे । ७ । हुतवहभयमारश्चन्द्रजः सौख्यमुग्रं धनहरणमधार्किभार्गवश्वार्थलाभम्। मरणमथ पतङ्गस्थाननाशं सुरेज्यः सृजति निधनसंस्थो नेत्रगेगञ्च चन्द्रः । ८। धर्मस्थाने दिनकरसुतो नाशमर्थस्य कुया. द्रोगं सौग्यो धरणितनयोर्भागवश्वार्थलाभम्। वासं सोमो जनयति नृणां शोकविद्वेषमर्कः स्थानं मानं पशसुतयुतचापि जौव: प्रकामम्।। सौम्योऽन्तःशान्तिमुग्रां जनयति दशमः सूर्यसूनुः प्रकामा ख्याति भौमः समृद्धि पशुपतिमुकुटोदष्टपादः शशाङ्कः। प्राधान्यञ्चार्थलाभ दशशतकिरणः कमंगः कर्मसिद्धिं मित्राणां दैत्यपूज्यः क्षतिमपि कुरुते प्रौतिभेदच्च नौवः । १०। जीवावनेय रविसौरिसुरारिपूज्यश्चन्द्रश्च चन्द्रतनयश्च विधुन्तुदश्च । एकादशे च भवने सततं नराणां मौभा. ग्यमानधनधान्य करा भवन्ति । ११। जौव: सहस्रकिरणच शनैश्चरश्च वक्रश्च वक्रचरितश्च निशाकरच। कुर्युठियोगबध. बन्धमयं नराणां शुक्रन्दुजो धृतिकरौ रविसंख्यराशौ” । १२। रत्नकोषे। “स्थानं जन्मनि नाशयेहिनकरः कुयाहितीये भयं दुश्चिक्ये श्रियमातनोति हिवुके मानक्षयं यच्छति। दैन्यं पञ्चमगः करोति रिपुहा षष्ठेऽर्थहा सप्तमः । पौड़ामष्टमग: करोति नितरां कान्तिक्षयं धर्मगः। कमधिजनकस्तु कर्मणो वित्तलाभकदथायसंस्थितः । द्रव्यनाशजनितां महापदं यच्छति व्ययगतो दिवाकरः। । जन्मन्य दिशति हिम For Private And Personal Use Only Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम् । ५७३ गुर्वित्तमाशं द्वितौये दद्याद्द्रव्यं सहजभवने कुक्षिरोगं चतुर्थः । कार्य्यभ्रंशं तन॑यग्टहगो वित्तलाभच षष्ठो धूने द्रव्यं युवतिसहितं मृत्युसंस्थोऽपि मृत्युम् । नृपभयं कुरुते नवमः शशौ दशधामगतस्तु महत्सुखम् । विविधमायगतः कुरुते धन व्ययगतस्तु रुजं सधनञ्चयाम् । च " प्रथम गृह: चौणोसूनुः करोत्यरिजं भयम् । चपयति घनं वित्तम्याने तृतीयगतोऽर्थदः परिभयकरः पातालेऽसून् क्षिणोति च पञ्चमो रिपुग्टहगतो धत्ते वित्तं शतं मदनस्थितः । जनयति मरणस्थः शस्त्रधारा धराजो दिशति च नवमस्थः कार्य्यपौडामतौव । शुभमपि दशमस्यो लाभगो भूमिलाभं व्ययभवनगतोऽसौ व्याध्यनर्थार्थ नाशान्” । मं । " बुधप्रथमधामगो दिशति बन्धमर्थे धनं बधं रिपुभयान्वितं सहजगचतुर्थेऽर्थदः । अनिवृतिकरो भवेत् तनयगोरिंगः स्थानदः करोति मदन स्थितो बहुविधां शरीरापदम् । अष्टमे शशिसते धनलब्धिर्धऽतिaat aauौड़ाम् । कमीगो सुखमथायगतोऽर्थदो द्वादशे भवति वित्तविनाशः " । । “ भयं जन्मन्यार्यो जनयति बु धनस्थोऽर्थमतुलं वृतौयोऽङ्गे काशं दिशति च चतुर्थोऽर्थ - विषमम् । सुखं पुत्रस्थाता शुभमपि च कुय्यादरिग्टद्यूने भूभृत् पूजां धननिचयनाशञ्च निधने । धर्मगतो धनवृद्धिकरः स्वात् प्रोतिहगे दशमोऽमरपूज्यः । स्थानधनानि ददाति स चावे द्वादशमस्तनुमानसपौड़ाम्" । ह । “ जन्मन्यरिचयकरो भृगुजाऽदोऽर्थे दुखिकयगः सुखकरी धनदश्चतुर्थे स्यात् पुत्रमस्तनयगोऽरिमतोऽरिहा शोकप्रदो मदनमा निधनेऽर्थदाता । जनयति विविधाम्बराणि धर्मेग शुभकरो दशमस्थितस्तु शुक्रः । धननिचयकरस्तु लाभसंस्थो व्ययभवनेऽपि नागमं करोति” । शु। “वित्तभ्रंशं दिनकरतनयो जन्मराशिं For Private And Personal Use Only Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५७४ ज्यौतिस्तत्त्वम् । प्रपवश्चित्तल शं हितोयो रिपुहननकतं वित्तलाभं वतीयः। पाताले शत्रुहि भूतभवनगतः पुत्रहत्यार्थनाशं षष्ठस्थानेऽर्थलाभं जनयति मदने दोषसंघातमार्किः। शरौरपौड़ा निधनेऽथ धर्मे धनक्षयं कर्मणि दौमनस्यम्। उपान्तगो वित्तमनर्थमन्ते शनिर्ददातौत्यवदत् सुवित्तम् ॥ श। “जन्मान्त्यपञ्चवसुन्धचतुर्दिसप्तराशौ स्थितो यदि भवेदसुरः कदाचित् । अर्थक्षयं रिपुभयं बहुकार्य हानि रोगप्रवासमरणाग्निभयं करोति” ॥ रा। “एकादत्रिदशषष्ठगतो नराणां सम्मानभोगनृपमानमुखार्थदाता। प्राज्ञाकराय पुरुषाः प्रमदास नित्यं सौख्यादिकं दिशति पुण्यमयञ्च केतुः ॥ के। इति ग्रहाणां गोचरफलम्। अथाष्टवर्गः । “जन्मकालग्रहस्थित्या फलं वक्ष्ये शुभाशुभम् । वाहिनकृत् शुभदः क्षितिपक्षसमुद्रनगादिकपञ्चगतो १ । २ । ४ । ७।८।८।१०। ११ । ऽथ विभावरिभर्तुत्यङ्गदशेषगती।३। ६ । १० । ११ । ऽथ कुजाविव । १ । २।४ । ७ । ८।८।१० । ११ । दथ सोमसुताचियरानवादिषु यातः । ३.। ५। ६ । ८ । १० । ११ । १२ । देवगुरोविषयर्तुनवेशगती। ५। ६ । ८ । ११ । ऽथ सुरारिगुरोः समयाचलभास्करयातः । ६ । ७ । १२ । तौक्षणमरौचिसुतादपि भास्करवत् १।२।४। ७।८।८ । १० । ११ । अथ लग्नग्रहात् विकताङ्गदशादिषु यातः" । ३।४।६ । १० । ११ । १२ । रविरेखाः । ४८ । "चन्द्रः शुभोऽर्कात्त्रि कालाद्रिदन्तावलाशाशिवस्थ । ३ । ६।७। ८।१० । ११ । स्ततः खात्कुरामवंगाशाशिवस्थः । १ ।। ६ । ७ । १० । ११ । माजाक्षिवह्नौषु षङ्गोदिगौशेष्वथ। २ । ३ । ५। ६ । ८ । १० । ११ । जात्कुरामाब्धिवाणागदन्तावला. शाशिवस्थः । १ । ३।४।५।७।८। १० । ११ । जौवात् । ३। ४। पू For Private And Personal Use Only Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम् । ५७५ कुटग्वेदशैलेभकाष्ठाशिवस्थोऽथ । १।२।४ । ७।८।१०। ११। शुक्रात्रिवेदेषु शैलग्रहाशाशिवस्थः ।३। ४ । ५। ७।८ । १० । ११ । तीक्ष्णांशदेहोद्भवाद्रामवाण शम्भुस्थितो। ३।५। है । ११ । ऽथोदयाचव्यवाहतुकाष्ठाशिवस्थः । ३ । ६ । १० । ११। चन्द्ररेखाः । ४८ । “कुजोऽर्काच्छुभो वलिवाणतुदिक्शम्भुगो। ३। ५। ६ । १० । ११ । ऽथेन्दुतोरामकालेशग । ३ । ६ । ११ । स्ततः खात् कुट्टग्वे दसप्ताष्टदिक्शम्भुगः स्यात् । १। २। ४ । ७।८।१०।११। निशानाथपुवादगुणेष्वङ्गारुद्रोपयातः। ३ । ५। ६ । ११ । ततोजोवतः कालकाष्ठाशिवार्कोपयातो। ६ । १० । ११ । १२ । ऽथ देवारिपूज्यादनेहो गजेशा. कसंस्थः । ६।८।११। १२ । ततः सूर्यपुत्रात् कुवेदागनागग्रहाशाशिवस्थो।१।४।७।८।८।१०। ११ । ऽथ लग्नात् कुरामाङ्गदिक् शम्भुयातः । १।३।६।१०।११। कुज. रेखाः । ३८ । “जः शभोऽर्कत: शरतुंगो शिवार्कगो । ५। ६ । ८ । ११ । १२ । ऽथ चन्द्रतो द्विवेदकालनागदिनखरेषु गः । २। ४ । ६ । ८ । १० । ११ । भूमिजात् कुदृक्ततागनागगो दशेशगः । १ । २।४ । ७।८।८। १० । ११ । ततः स्वतः कुङ्गिपञ्चषववादिकेषु गः । १ । ३।५।६।।१०।११ । १२। वापतेरसाष्टशम्भुसूर्यगो। ६ । ८। ११ । १२ । ऽथ शुक्रत: कुवाहुवतिवेदपञ्चनागगो शिवेषु । १ । २ । ३ । ४ । ५। ८। । ११ । पङ्गुत: कुक्क्तागनागादिपञ्चकस्थितोऽथ। १।२।४।७।८।। १० । ११ । १२ । लग्नतः चितिहिवेदकालनागदिक् शिवेषु गः” । १ । २ । ४।६।८।१०। ११ । वुधरेखाः । ५५ । “सुरराजगुरुः शभदो रवितः कुयमानलवेदनगादिकपञ्चगतो।।।२।३।४।७।८।८।१०। ११ । ऽथ विधोशिराचलगो शिवगो। २।५।७।८।११ । For Private And Personal Use Only Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir * ज्योतिस्तत्त्वम् । वसुधातनयात् कुयमाब्धिनगाष्टदशेशगतो । १ । २ । ४ । ७ । ८ | १० | ११ | ऽथ वुधात् चितियुग्मकृतेषु रसग्रदिगिरिशोपग | १ | ३ | ४ | ५ | ६ | ८ | १० | ११ | स्तदनुखत एकयमानलवारिधिपर्वतनागदशेशगतो । १ । २ । ३ । ४ । ७ । 1 T १० | ११ | ऽथ सिताद्यमपञ्च रसग्रहदिशिवगो । २ । ५ । ६|| १० | ११ | रविनन्दनतो दहनेषु रसार्कगतः | ३ | ५ | ६ । १२ । स्त्वथ लग्नग्टहात् कुय माब्धिशरर्जुनगदिग्गिरिशोपगतः” | १ | २ | ४ | ५ | ६ | ७ | ६ | १० | ११ | गुरुरेखाः । ५६ | " भृगुः शुभो रवेर्गजेश सूर्य्यगो । ८ । ११ । १२ । ऽथ | | | चन्द्रतः चमादिपञ्चकाष्टगो शिवार्कगः । १ । २ । ३ । ४ । ५ । ८|| ११ | १२ | कुजा त्रिवेदकालगो शिवार्कगो । ३ । ४ । ६ | ८ | ११ | १२ | ऽथ वुधात्त्रिवाणकालरन्ध्ररुद्रसंस्थितः | ३ | ५ | ६ | ८ | ११ | गुरोः शराष्टरन्ध्र दिनहेशग | ५ | ८ | ६ | १० | ११ | स्तत: 'स्वतः कुपञ्च काष्टरन्ध्रदिक् शिवोपगः । १ । २ । ३ । ४ । ५ । ६ । १ । १० । ११ । शनेर्गुणाधिपञ्चनागगो दशेशगो । ३ । ४ । ५ | ८ | ६ | १० | ११ | ऽथ लग्नतः कुपञ्चकाष्टगो शिवस्थितः” । १ । ३ । ३ । ४ । ५ । ८ । ८ । ११ । शुक्ररेखाः । ५२ । “शुभः पङ्गरर्कात् क्ष्मायमाम्भोधिशैलाष्टदिक् शम्भुग । १ । २ । ४ । ७ | ८ | १० | ११ | इन्दुतो रामकालेशगतः | ३ | ६ | १९ | क्ष्मासुतादडिवायसुकाष्ठा शिवा कपगो । ३ । ५ । ६ । १० | ११ | १२ | ऽथ ज्ञतः कालदन्ताबलादिस्थितो | ६ | ८ || १० | ११ | १२ | जोवतो वाणकालेशमात्तंण्डयात | ५ | ६ | ११ | १२ | स्ततो दैत्य पूज्यादने : शिवापयातः । ६ । ११ । १२ । खतो वौतिहोत्रेषु कालेशयात | ३ | ५ | ६ | ११ | स्वतो लग्नतः क्ष्मागुणाम्भोधिषड्दिमहेश स्थितः” । १ । ३ । ४ । ६ । १०। ११ । शनि रेखाः | ३६ | । For Private And Personal Use Only · Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम् । "राहुः शुभोऽर्कानुजवडिवेदतुरन्धगो। २ । ३ । ४ । ६ ।। अथ चन्द्रात् कुरामवेदाङ्गग।१।३।४।६। स्तत: कुजाइङ्गिवाणाङ्गरन्धगतोऽथ ३ । ५। ६ । ८ । वुधाच्छशिपक्षवङ्गिवाणरधग । १।२।३ । ४ । ५। ८। स्ततो जौवाचव्यवाहवेदाङ्गरन्धुग । ३।४।६।८। स्ततः शुक्रात् पक्षवङ्गिवाणरन्धगत २ । ३ । ५। ८ । स्ततः सौरात् पक्षवाणतुंग । २।५। ६ । स्ततः स्वतः शशिवेदवाणरिपुरन्धगोऽथ । १ । ४ । ५। ६ । ८। लग्नाद्देदरन्धुदिग्रुद्रसूर्यगतः । ४ । । ।१०। ११ । १२ । गहुरेखाः । ३८ । “मृगेन्द्रविलासाभिधानदण्ड के न राहोरष्टवर्गः। सूर्यादेकहिचतुःसप्ताष्टदशैकादशेषु । १ । २। ४।७। ८।१० । ११ । सोमात्रिषड्दशैकादशेषु । ३ । ६ । १० ॥११॥ भौमात्विपञ्चषड़कादशेषु । ३ । ५। ६ । ११ । वुधात् षड़ष्टनवदशैकादशेषु । ६ । ८।८।१०।११। गुरोः पञ्चषड़े का. दशद्वादशेषु । ५। ६ । ११ । १२ । शुक्रात् षड़े कादशहादशेषु ६ । ११ । १२। शने स्त्रिपञ्चाष्ट दशैकादशेषु । ३।५।८। १०।११। लग्नादेकत्रिचतुःषड्दशै कादशेषु"। १।३ । ४ । ६ । १० । ११ । एवं लग्नरेखाः । ३७। "इति निगदितमिष्टं नेष्टमन्यविशेषादधिकफलवियाकं जन्मभात्तत्र दद्युः । उपचयगृहमित्रवोच्चगाः पुष्टमिष्टं त्वपचयगृहनौचारातिभे नेष्टसम्पत्। यावतो यावती रेखा ग्रहाणामष्टवर्ग के। तावतों हिगुणौकत्य अष्टाभिः परिशोधयेत् । अष्टोपरि भवेट्रेखा अष्टाभ्यन्तरविन्दवः। अष्टाभिस्तु समो यत्र तत्समं परिकीर्तितम्। रेखाग्रहाच्छुभे देया विन्दवचेतरत्र तु। रेखा विन्दु समानौ चेत् समस्तत्र निगद्यते। रेखाधिक्ये शुभं ज्ञेयं तहदिन्दोरथाशुभम् । श्रीरानन्दस्तथा श्रेयो भोगो राज्य भवेत्तथा। मलिनोऽथ विपञ्चैव हानिमत्यर्भवेत्तथा । धादि For Private And Personal Use Only Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५७८ ज्योतिस्तखम् । रेखा ह्यादिविन्होः फलान्येतान्यमुकमात्। रेखायां वन्तरी जेयः साईसप्तदिनं समे। अष्टवर्गदशायुः सात दिनं चतुर्ष बिन्दुषु। इत्यायुर्दायः। इत्यष्टवर्गः। नन्दौ। “अष्टवर्गशुभैः श्रीमान् कर्म कुर्य्यानभवरैः। गोचरस्थैस्तदप्राप्तौ तदप्राप्तौ च वेधगैः । व्रतारम्भे विवाहे च याबायां चुरकर्मणि । अविशुद्याष्टवर्गस्य समस्ता निष्कला: क्रियाः ॥ सततं दिशति मराणां राशौ मध्येष्टवर्गफलं निखिलम्। भावफलं प्रथमाई दृष्टिफलायईभुतोषु । त्यष्टवर्गावधनम्। __ "लाभविक्रमवशवृता स्थितः शोभनो निगदितो दिवाकरः । खेचरैः सुततपो जलावगैार्किभिर्यदि न विध्यते तदा। बनजन्मरिपुलामखचिगश्चन्द्रमाः शुभफलप्रदस्तदा। खात्मा जास्वतिबन्धुधर्मगैविध्यते न विवुधैर्यदि ग्रहः। विक्रमायरिपुगः कुजः शुभः स्वात्तदास्यमुतधर्मगैः खमैः। चित्र विद्ध इनसूनुरप्यसो किन्तु धर्मणिना न विध्यते। खाम्बुशवमुसिखायगः शुभो जस्तदा न खलु विध्यते यदा। आत्मज विनवकावनधनप्रान्त्यगैर्विविधुभिर्नभश्वरैः। स्वाध्यायधर्मतनयद्यनस्थितो नाकनायकपुरोहितः शुभः रिप्फरन्धखजलविगैर्यदा विध्यते गगनचारिभिर्न हि। पासुताष्टमतपो व्ययायगो । १ । २।३। ४ । ५।८।८।१२ । ११ । बिह प्रास्फजिदशोभन: स्मृतः नैधनास्ततनुकर्मधर्मधौलाभवैरिसहजस्थ खेचरैः । ८।२।१।१०।८।५ । ११ । ६ । ३ । एवमत्र खचराव्यधान्विता: सत्फलं न हि दिन्ति गोचरे । वामवैधविधिना त्वशोभना प्रध्यमौ शुभफलं दिशन्त्यलम् । मो विदन्ति खचरव्यधक्रमं ये ग्रह क्रमविदो हि गोचरे। ते मृषावचनभाषिणो जना यान्ति हास्यमपकीर्तिलाञ्छिताः ॥ सप्तानां ग्रहाणां दक्षिणवेधवा मवेधी "ऋतमधिगताः खेदा For Private And Personal Use Only Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम् । ५७८ राशिसम्विगतास्तथा । एचर्चादेः फलं दद्युर्वक्रे च विपरोताम् ॥ लम्बेशो यदि बक्रौ स्वात् पुंसः कार्येषु वक्रता । लग्नेशेऽस्तंगते मर्त्यो दुःखादिव्याधिसंयुतः ॥ सत्फलः सौम्यfatfare शुभप्रदपातशुभेचितव । तौ निष्फलौ हावपि खेचरेन्द्रौ य: शत्रणा खेन निरौचितञ्च ॥ सुमोचगेइस्तऽपि वा रिपोर्ट हे स्थिते ग्रहे । हथाफलं प्रकीर्त्तितं समस्तमेव सूरिभिः” ॥ वराहस्तु "सूर्याच्छन्द्रद्युतिषु च दलं प्रोन्झा शुक्रार्कपुत्रो" । दलं पई फलस्येति शेषः । "जन्मराशेः शुभः सूर्य्यस्त्रिषष्ठदशला भगः । दिपञ्चनवमोऽपोष्टस्त्रयोदशदिनात् परः ॥ रविशुषो गृहकरणं रविगुरुश व्रतोद्दाही । चौरं तारकशका शेष' चन्द्राश्रितं कर्म ॥ सदा सर्वेषु कार्येषु चित्तशुचिर्विशेषतः । सितेन्दुवुधजौवानां वारा: सर्वत्र शोभनाः । भानुभूसुतमन्दानां शुभकस केष्वपि । कुर्य्यान्मङ्गलपौष्टिकामि नृपतेर्याचाभिषेको तथा सेवा भेषजवत्रिकीकरणं चारोग्यकर्माणि च । विद्याज्ञानवस्त्रतानि हवनं शिल्पं रकं साहसं शिवालङ्करणे दिने दिनपतेर्लग्ने स्थिते वा रवौ । रक्तस्वावविषास्त्रकर्महुतभुक् कार्य्यं विवादं रणं कुर्य्याइन्छ विधिं सुदुष्टदमनं सेतुप्रभेदं तथा । वृचच्छेदनभेदनानि सृगयां चौर्यं तथा साहसं सेनान्यं कृषिकर्मधातुकरणं भौमस्य लग्नेऽह्नि वा । स्थाप्यं समाप्यं क्रतुदामकार्यं ग्टहे प्रवेशो नगरे पुरे वा । भौमोककाव्यं गजवाजिबन्धो दिने प्रसिध्यन्ति शनैश्वरस्य" ॥ वारफलम् । “कृतमुनियमशरमङ्गलरामर्त्तुषु भास्करादियामाह । प्रभवति हि वारवेला न शुभाशुभ कार्य करणाय " ॥ वारवेला । “कालस्य वेलारवितः शराचिकालानलागाम्बुधयो गजेन्दु । दिने निशायामृतुवेदनेवनगेषु रामाविधदन्तिनौ For Private And Personal Use Only Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५८० ज्योतिस्तत्त्वम्। च” ॥ कालवेला। "वेदा ४ नङ्गेषु ५ शैला ७ मुनि . नयन २ रमा ६ युग्म २ षट् ६ कामवाणा ५ वाण ५ शोनाक्षिरे वेदा ४ वसु ८ मुनि ७ हरदृक् ३ चाग्निवेद ४ यानि २ षष्ठाष्टकं दिनेशात् क्रमश इह दिने मन्त्रिचण्डेश्वरोक्तः पूर्ववाराईयामः कुलिक इह परो मध्यमश्चेति कालः” ॥ वारकालकुलिकवेलाकथनम्। विशेषतः कुलि कवेलाप्रयोजनन्तु "जपित्वासितगुनानां कुड़वं कुलिकोदये"। इत्यनेन नवदुर्गामन्त्राभिचारकर्मणि सारदायामुक्तम् । तट्टीकाकारराघवभट्टस्तु। “मन्वर्कदिग्वस्वृतुवेदपरकन्मुिहत्तैः कुलिका भवन्ति। दिवा निरेकैरथ यामिनौषु ते महिताः कर्मसु शोभनेष" निरेकैः पूर्वोक्तामन्यादिमुहत्तरकोरित्यर्थः। "यात्रायां मरण काले वैधव्यं पाणिपौड़ने। व्रते ब्रह्मवधः प्रोक्तः सर्व कर्म ततस्त्यजेत् ॥ शिशिरपूर्वमृतुत्रयमुत्तरं द्ययनमाहुरहश्च तदा मरम् । भवति दक्षिणमन्यऋतुत्यं निगदिता रजनौ मस्तान सा। सौम्यायने कम्न शुभं विधेयं यहितं तत् खलु दक्षिणे तु" सौम्यायनेन शुक्लः कष्णो याम्यायनेन सम उक्तः । फलतः कर्मतोऽपि पक्षयोर्गादिभिर्मुनिभिः । “नन्दा-भदा-जयारिक्ता-पूर्णा च नाम सदृशफला। न्यूनसमेष्टा: शुक्ल कृष्ण तिथयः प्रतीपास्ताः। सदैव दर्शे पिटकम्म मुक्त्वा नान्यविदध्यात् शुभमङ्गलानि। तिथिफलम् । "तिथ्यन्तहयमेको दिनवार: स्पृशति यत्र तद्भवस्यवादनम्। त्रिदिनस्पतिथित्रयस्पर्शनादतः ॥ अवमत्राहस्पौं। कोर्मे पाऽपि । “हो तिथ्यन्तावेकवारे पत्र स स्याहिनचयः” । वशिष्ठः। “एकस्मिन् सावने त्वति तिथीनां त्रितयं यदा । तदा दिनक्षयः प्रोकस्तत्र साहसिकं फलम् ॥ साहसिकं फलमिति माङ्गल्येतरवैदिककर्मपरम्। “अधिमासे दिनपाले For Private And Personal Use Only Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम् । ५८१ धनुषि रवौ भानुसहिते मासि । चक्रिषि सुप्ते कुय्यात्रो माङ्गल्यं विवाहच " ॥ इति भीमपराक्रमात् दिनपाते दिनचये । “वाहस्पृशं नाम यदेतदुक्तमव प्रयत्नः कतिभिर्विधेयः । विवाहयात्रा शुभपुष्टिकर्म सर्वं न कार्यं विदिनस्सृशे तु ॥ श्राद्याश्चतस्रः क्रियपूर्वकाणामेषां चतुर्णामपि पञ्चमौ स्यात् । पराः परेषां परतस्तथैषां सक्रूरराशेरशुभा तिथिः स्यात् ॥ मेषे चेत् पापग्रहस्तदा प्रतिपदुदुष्टा वृषे चेत् द्वितौया मिथुने तृतीया ककटे चतुर्थी चतुर्षु पञ्चमौ । एवं सिंहादौ षष्ठया दयः । " अश्विनौ भरणौ चैव कृत्तिका रोडियो तथा । मृगशौर्षस्तथा चार्द्रा पुनर्वसुकपुष्यकौ ॥ अश्लेषा च मघा पूर्वफल्गुन्युत्तरफल्गुनौ । हस्ता चित्रा तथा खाती विशाखा चानुराधिका ॥ ज्येष्ठा मूलं तथाषाढ़े पूर्वोत्तरपदादिके । श्रवणा च धनिष्ठा च शतभिषाद्यभाद्रिका । उत्तरादिभाद्रपदा रेवतो भानि च क्रमात् ॥ नचत्रकथनम् । “अश्वियमदहन कमलज शिशूलभृददिति जौवफणि पितरः । योऽन्यर्यमदिनकृत्तष्टृपवनशक्राग्निमित्राः । शक्रो निर्ऋतिस्तोयं विश्वविरिञ्च हरिर्वसुर्वरुणः ॥ अजपादो हि ब्रघ्नः पूषा चेतोखरा भानाम् ॥ विशाखायाः शक्राग्न्योर्मिलित देवतत्वम् अभिजितो भिन्नत्वेन अष्टाविंशतिता तच्च वच्यते । नक्षत्राधिप कथनम् । “ उग्रः पूर्वमधान्तका ध्रुवगण स्त्री स्युत्तराणि स्वभूर्वातादित्यहरित्रयं चरगणः पुष्याविहस्ता लघुः । चित्रा मित्रमृगान्त्यमं मृदुगणस्तीक्ष्णो हि रुद्रेन्द्रयुक् । मिश्रोऽग्निः सविशाखभः शुभकराः सर्वे स्वकृत्ये गणाः” ॥ गणकथनम् । “अश्लेष वह्नियमपित्राविभावयुक्त पूर्वात्त्रयं शतभिषा च नवाम्युडूनि । I For Private And Personal Use Only Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५८२ ज्योतिस्तत्त्वम् । एतान्यधोमुखगणानि शिवानि नित्यं विद्यार्थभूमिखननेषु अधोमुखनचत्रकथनम्। "रविः स्थिरः भूषितानि” ॥ शोतकरश्चरथ महोज उग्रः शशिजव मिश्रः । लघुः सुरज्यो भृगुजो मृदुख शनि तोक्षणः कथितो मुनीन्द्रः ॥ शशाङ्कतारयोः शुह्निर्विचाय सर्वकर्मसु । ग्रहाणामपि सर्वेषां तच्छु फलदाटता " ॥ श्रौपतिसमुच्चये । " ताराचन्द्रबले प्राप्ते दोषाचान्ये भवन्ति ये । ते सर्वे विलयं यान्ति सिंहं दृष्ट्वा गजा इव ॥ जन्मसम्पत् विपत्चेमः प्रत्यरिः साधको बधः । मित्र परम मित्रञ्च जन्मभाव पुनः पुनः ॥ सर्वमङ्ग काव्याणि त्रिषु जन्मेषु कारयेत् । विवादश्राह भैषज्ययात्रा चौरादि वर्जयेत् ॥ यानायां पथि बन्धनं कृषिविधी सर्वस्य नाशो भवेत् । भैषज्ये मरणं तथा सुनियतं दाहो गृहारम्भणे ॥ चौरे रोगसमागमो बहुविधः श्राद्धेऽर्थनाशस्तथा । वादे बुद्धिविनाशनं युधि भयं प्राप्नोत्ययं जन्मभे ॥ पापाख्या तु विविधा पञ्चचतुर्दश विंशतिस्त्रियुता । सिडिफला वृद्धिकरी विनाश . संज्ञा क्रमात् कथिता” | " 1 " जन्माद्य कर्म ततोऽपि दशमं सांघातिकं षोडशभम । समुदयमष्टादशभं विनाशसंज्ञ त्रयोविंशम् ॥ श्राद्यात्तु पञ्चविंशं मानसमेवं नरः षड़चः स्यात् नवनचत्रो नृपतिः स्वजातिदेशाभिषेक क्षैः” ॥ जात्यर्त्तस्तु । “पूर्वात्रयं सामलमग्रजानां राज्ञान्तु पौष्णेन सहोत्तराणि । सपौष्णामित्र पिट - दैवतञ्च प्रजापतेर्भञ्च कृषीवलानाम् | आदित्यहस्ता भिजिदविभानि तान्यन्त्यजातेः प्रभविष्णुतायाम्” ॥ देशभं देशनामर्द्धम | नाडोनक्षत्राणि । "ईहादेहार्थ हानिः स्याज्जमर्च उपतापिते। कर्म कर्मणां हानि: पौडामनसि मानसे ॥ मूर्त्तिद्रविणबन्धूनां चानिः सांघातिके तथा । संतप्ते For Private And Personal Use Only Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम् । ५८३ सामुदयिके मित्रभृत्यार्थ संचयः ॥ वैनाशिके विनाशः स्यात् देहद्रविणसम्पदाम् ॥ नाड़ोनचतफलम्। " जातिमे कुलनाशः स्याद्दन्धनश्चाभिषेकमे । देशमे देशभङ्गः स्यात् क्रूरेरेवं शुभैः शुभम् ॥ यस्मिन् राजाभिषिक्तो भवति तदाभिषेचनकभम् । अ इ उ ए कृत्तिका भी व विदु रोडियौत्यादिदेशभम् ॥ सर्वेषां पौड़ायां दिनमेवसुपोषितोऽनलं जुहुयात् सावित्रा चौरतरोः समिरिमर हिजानुरतः ॥ अथ ग्रहणम् । “भत्रिपादान्तरे राहोः केतोर्वा संस्थितो रविः । चतुष्पादान्तरे चन्द्रस्तदा सम्भाव्यते ग्रहः ॥ यस्मिन् ऋते रविस्तस्माच्चतुर्दशगतः शशौ । पूर्णिमा प्रतिपत्सधौ राहुणा ग्रस्यते शशो” ॥ तस्मात्तमारभ्य परतो वा । "कृष्णपचे तृतीयायां मासचं यदि जायते । ततस्त्रयोदशे सूखे राहुणा ग्रस्यते रविः " ॥ मासर्च वैशाखन्यैष्ठादौ विशाखा ज्येष्ठादि एतदपि भविपादान्तरे सति राष्ट्रोः पादभोगच मासद्वयेन । “रविभौमनवांशे च निरस्त्रं ग्रासमादिशेत् । दुधसौरिनवांशे च मलिनं क्षुद्रवर्षणम् ॥ गुरोरंशकमासाद्य दृश्यते सबलाहकः । शनिशुक्रनवांशे च प्राट् काले महजलम् ॥ अन्यत्राव्यक्तभूतौ तौ दृश्येते कादिताम्बरौ” ॥ तौ चन्द्रार्कौ । कृत्यचिन्तामणौ वराहः "खेते तेमसुभिक्षं ब्राह्मणपडाच निर्दिशेद्राहौ । अग्निभयमनलवर्णे पौड़ा हुताशवृत्तीनाम् ॥ हरित रोगोऽनुतापः शस्यानामौरितो ध्वंसः । कपिले शौघ्रणसत्त्वम्लेच्छध्वंसोऽथ दुर्भिचम् ॥ अरुणकरणानुरूपे दुर्भिक्षं दृष्टयो विहगपौड़ा च धूम्राभे तेमसुभिचमादिशेन्मन्ददृष्टिञ्च । कापोतारुणकपिले श्यामाभे च क्षुद्भयं विनिर्दिशेत् ॥ कापोतः शूद्राणां व्याधिकरः कृष्णवर्णश्च । "विमलकमलपीताभो भवेद्देश्यद्वेषौ सुभिचाय । साचिस्म For Private And Personal Use Only Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्वम् । त्यग्निभयं गैरिकरूपे च युद्धानि ॥ दूर्वाकाण्डश्याम हारिट्रेच विनिर्दिशेत मरकम् । अथनिभयसम्प्रदायो पाटलकुसुमोपमो राहुः ॥ राजमार्तण्डे। “सप्ताष्टजन्म शेषाङ्कचतुर्थ दशमे विधौ। विजन्मनि त्रिनिधने न कुयादाहुदर्शनम् ॥ दृष्ट स्तु जनयेनौति लशं रोगं धनक्षयम्। दैवात्तत्र विधं दृष्ट्वा दद्यात् खणं हिजातये" ॥ ग्रहणग्रहपरिपौड़ितनाडौनक्षत्र दोषोपशमनाय। “सह शतपुष्पैः मायात् फलिनौ फलचन्दनोशौरः । शतपुष्पा शोलुफा इति ख्याता फलिनी प्रियङ्गः फलं जातौफलम् उशौरम् वोरणमूलम् । “तामपावं तिल्लैः पूर्ण पूर्ण वा गव्यसर्पिषा। भास्करग्रहणे दद्यात् नाड़ी. दोषोपशान्तये ॥ छतकुम्मोपरिनिहितं शङ्ख नवनीतपूरितं दद्यात्। नाद्यादिदोषशान्त्यै बिजाय दोषाकरग्रहणे ॥ यस्य राशौ ग्रहाः पञ्चाथवा सप्त नराधिप। ग्रहणं चन्द्रमूर्यस्य ग्रहेवाष्टमसंस्थिते ॥ वलिदानं प्रकर्त्तव्यं मातृणां पूजनं हितम्। सूर्यस्याभ्यर्चनं कार्य शिवस्याशुभनाशनम् ॥ वराहसंहितायां "ग्रस्तावुदितास्तमिती शारदधान्यावनौखर. क्षयदौ। सर्वग्रस्तौ च दुर्मिक्षमरकदौ पापसंदृष्टो। मुक्त सप्ताहान्तः पांशुनिपातोऽर्थसंक्षयं कुरुते। नौहारो रोगभयं भूकम्पः प्रचुरनृपमृत्युम्। उल्कामन्निविनाशं नानावर्णाघनाशभयमतुलम्। स्तनितं गर्भविनाशं विद्युबृपदंष्ट्रिपरिपौड़ाम्। परिवेशोरुपौड़ा दिग्दाहो नृपभयञ्च साग्निभयम्। रुक्षो वायुः प्रवलचौरसमुत्थं भयं धत्ते। निर्धात: सुरचापो दण्डश्च शुद्भयं खपरचक्रम् । ग्रहयुद्धे टपयुद्ध केतुथ तथैव निर्दिष्टः। अविकृतसलिलनिपातैः सप्ताहान्तः मुभि क्ष्यमादेश्यम्। यचाशुभ ग्रहण तत् सर्व नाशमुपयाति । राशो यत्र विधुन्तुदेन तरणिश्चन्द्रोऽथवा अस्थते तस्माद्देदहुता For Private And Personal Use Only Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम् । ५८५ अशङ्कर रसा: कल्याणदा राशयः। मध्यस्था रविशायकाङ्क दशमाः सामान्यभोगप्रदा युग्माग्नौ तुरगाष्टमः खलुः नृणां यच्छन्ति नेष्टं फलम्। करग्रहे नाशितमन्वितञ्च भोक्तव्यमुत्पातनिपौड़ितञ्च। ऋक्ष तथोपग्रहदूषितञ्च विवर्जयेदुइहनादिकार्थे”। उपग्रहो. वक्ष्यते सर्वतो भद्रे। “विवाहे विधवात्वञ्च गमनेन निवर्तनम्। कषिश्च निष्फला ज्ञेया वापित न प्ररोहति। यत् किञ्चित् कुरुते कर्म तत् सर्वे निष्फलं भवेत। केचिदाहुग्रहस्तिष्ठेत् यस्मिन् पादे शुभप्रदः। सपादः पौद्यते शेषाः पादास्तु शुभलक्षणाः। शिवभुजगमित्रपिटवसुजलविश्वविरिञ्चिपङ्कजप्रभवाः । इन्द्राग्नीन्द्रनिशाचरवरुणार्यमयोनयश्चाङ्गि। ६ । ८ । १७।१०। २३ । २०।२१। • । ४ । १८ । १६ । १८ । २४ । १२ । ११। रुद्रोऽजोऽहिबधः पूषा श्वान्तकाग्निधातारः। इन्ददितिगुरुहरिरवित्वष्ट्रनिलाख्याः क्षणा रात्रौ । ६। २५ । २६ । २७ । १ । २ । ३ ॥ ४।५। ७ । ८ । २२ । १३ । १४ । १५। अङ्गः पञ्चदशांशोरात्रेश्चैवं मुहूर्त इति संज्ञा। नक्षत्रे यदिहितं तत् कार्य तन्मुहर्तेऽपि। वववालबकोलवतैतिलगरवणाः सविष्टयः सप्त। शकुनि चतुष्पन्नागाः किन्तु नश्च ध्रकागि करणानि। सक्लादितिथिशेषादात् पञ्चमे तत्तुरोयक। प्राद्यन्त हात् क्रमेय स्यरष्टावृत्त्या विवादयः। एकादश्याश्चतुयाच शेषाई शक्लपक्षके। अष्टमो पोसमास्योश्च पूर्वार्डे विष्टिरीरिता। कृष्णपक्षे तौयाया दशम्याश्च पराईतः। समस्याश चतुर्दश्या: पूर्वा. विष्टिसम्भवः । विहाय विषरोट्राणि विष्टिं सर्वत्र वर्ज. येत् । विष्टिशेष विदण्डे हि पुच्छे कार्य जयावहम्” । कर्मप्रकाश। “नाड्यस्तु पञ्चवदनं मलकस्तथै कावक्षो दर्शकसहिता नियतं चतस्रः । नाभिः कटिः षड़थ पुच्छलता च For Private And Personal Use Only Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम् । तिम्रो विष्टेध्रुवं निगदितोऽङ्ग विभाग एषः। मुखे कार्यवस्तिभवति मरणचाथ गलके धनग्लानिर्वचस्यथ कटितटे बुषिविलयः। कलि भौदेशे विजयमथ पुच्छे च जगदुःशरीर भद्रायाः पृथगिति फलं पूर्वमुनयः। मनुवमुमुनितिथि युगदशशिवगुण संख्यासु तिथिम । १४ । ८ । ७ । १५ । ४ । १० । ११।३ । पूर्वाग्ना। "प्रायाति विष्टिरेषा पृष्ठे शुभदा पुरस्त्व शुभदा"। पूर्वाग्नया पूर्वाग्नयादि दिङ्मुखो भवतीत्यर्थः । "एकेन होना हिगुणा तिधिस्तु सप्तावशिष्टं करणं वादि। पूर्वेपरेऽप्येवमयं विशेषो हिसंगुणा चन्द्रविवर्जिता च। किन्तु ध्रसं करणं प्रदिष्टमादेस्तिथेरादिदले सदैव। उपान्त्यशेष शकुनिस्तु द” पूर्व चतुष्पादपरे च नागः । करणकथनम् । "इन्द्र कमलजमित्राय॑मभूश्रियः सयमाववादेः। कलिषफणिमारता पतयः शकुन्यादेः" । ववाधिपकथनम् “पोष्टिकस्थिर शुभानि ववाख्ये बालवे विज हिताद्यपि कर्मकौलवे प्रमदमित्रविधानं तैतिले शुभगतात्रयकर्म। गरे च वीजा श्रयकर्षणानि वणिज्यपि स्थैर्यवणिकक्रिया च। न सिहमाप्नोति कतञ्च विट्यां विषाभिघातादिषु तत्र सिद्धिः । मन्त्रीषधानि शकुनो च सपौष्टिकानि गोवि प्रराज्यपिटकर्मचतु. प्पदे तु। सौभाग्यदारुणकति ध्रुवकर्मनागे किन्तुनमावि शुभपौष्टिकमङ्गलानि। विष्कुम्भः प्रोतिरायुमान् सौभाग्यः शोभनस्तथा। अतिगण्डः सुकर्मा च धृतिः शूलस्तथैव च । गण्डो वृध्रुिवश्चैव व्याघाती हर्षणस्तथा। वश्वास व्यतौपातो वरीयान् परिघः शिवः सिद्धः साध्यः शुभः शक्रो ब्रोन्द्रा वैतिस्तथा। परिघस्य त्यजेदई शुभकर्म ततः परम् । त्यजदौ पञ्च विष्कुम्भे सप्त शूले च नाड़िकाः। गण्डव्याघातयोः षट च नवहर्षण वज्रयोः वैधति व्यतिपातौ च समस्तौ परिवर्ज For Private And Personal Use Only Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम् । ५८० येत् । शेषा यथार्थनामानो योगाः काय्र्येषु शोभनाः । न सकलगुणसम्पल्लभ्यतेऽल्पैरहोभिर्बहुतरगुणयुक्तं योजयेन्मङ्गलेषु । प्रभवति हि न दोषो भूरिभावे गुणानां सलिललव इवाग्नेः संप्रदीप्तेन्धनस्य । गुणशतमपि दोषः कश्चिदेकोऽतिवृद्धः क्षपयति यदि नान्यस्तहिरोधौ गुणोऽस्ति । घटमिव परिपूर्ण पञ्चगव्येन सद्यो मलिनयति सुराया विन्दुरेकोऽपि सर्वम्” । अथ नाम्ना नक्षत्रज्ञानार्थं शतपदचक्रमाह । "चक्रं शतपदं वच्यं ऋक्षांशाक्षरसम्भवम् । नामादि वर्णतो ज्ञेया ऋक्ष राश्यंशकास्तथा । तिर्यगूईगता रेखा रुद्रसंख्या लिखेदुधः । जायते कोष्ठकानाञ्च शतैकं १०० नात्र संशयः । श्रव क ह ड़ा ऐशान्यां स ट प व ता हरिति चाग्नेय्यां न य भ जखा नैऋ त्यां ग स द चला वायव्याम् । पञ्च पञ्च क्रमेणैव विंशवर्णान् प्रयोजयेत् । पञ्चस्वरसमा योगे एकैकं पञ्चधा कुरु । अव• ' द्यास्त्रया ज्ञेयाः सन्ध्यक्षर युता स्तथा । सजातीयैकामा स्थाय पञ्चस्वरविनिर्णयः । ऋदलतोरप्यकारेण शेनसस्य परिग्रहः । कुर्य्यात् कुपभुदुस्थाने चोणि वौष्यक्षराणि च । कुछङका भवेत् स्तम्भ रौद्रे त्वोशानगोचरे । पुषण्ठा भवेत् स्तम्भ हस्ते चाग्नेय संज्ञके । भुधफ भवेत् स्तम्भे पूर्वाषाढ़े च नैऋते 1 दुथझङा भवेत् स्तम्भे वायव्ये भाद्र उत्तरे । एवं स्तम्भचतुष्कञ्च ज्ञातव्यं खरवेदिभिः । धिष्यानि कृत्तिकादौनि प्रत्येकं चतुरचरः । साभिजिन्त्यंशकास्तत्र शतकं द्वादशाधिकम्। यहचांशककोष्ठस्थः क्रूरः सौम्योऽपि वा ग्रहः । तत्रस्थो वेधयेत् सम्यक् पुंसो नामादिमाचरम् । सौम्यैर्विद्धं शुभं ज्ञेयमशुभ पापखेचरैः । मिश्रैमिश्र फलं तत्र निर्वेधेन शुभाशुभम् । यद्वाचं सर्वतोभद्रे ग्रहोपग्रहवेधतः । शुभाशुभफलं सर्वं तदिहापि विचिन्तयेत् । पञ्चखरा श्रइए चोकारास्तै योंगे धिष्टानि : For Private And Personal Use Only • Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५८८ ज्योतिखखम् । नक्षत्राणि। पत्र चतुभिवणैरेक नक्षत्रं यथा। पाए। ववियु । ४ । वेवोककि । ५ । कुघडछ । ६ । केकोहहि। ७। हुहेहोउ। ८ । डिडुडेडो । ८ । ममिमुमे । १० । मोटिटु । ११ । टेटोपपि । १२ । पुषणठ। १३ । पेपोररि। १४ । करे. रोत । १५ । तितुतेतो । १६ । ननिनुने । १७ । नोययियु । १८ । येयोभभि । १८ । भुधफढ । २० । भेभोजनि । २१ । जुजेजोख । । खि खुखे खो। २२ । गगिगुगे। २३ । गोशशिभु। २४ । शेषोददि । २५ । दुथऋज । २६ । देदोचचि । २७। चुचेचोल । १। लिलुलेलो। २। ऋलयुक्त प्रकारयुतोन ज्ञेयः। श्रखेन दौ? ज्ञेयः तालव्ययकारेण दन्त्य सकारो ज्ञेयः । इति शतपदचक्रम् । अथ चन्द्रताराद्यशुभप्रतीकारः। "कर्म कुर्यात् फलावाप्त चन्द्रादिशोभने बुधः। सुस्थकाले विदं सर्व नातः कालमपेक्षते ॥ चन्द्रे च शङ्ख लवणञ्च तारे तिथावभने सिततसडलांश्च । धान्यञ्च दद्यात करणवार योगे तिलान् हेम मणिञ्च लग्ने ॥ योगस्य हेम करणस्य च धान्यमिन्दोः शङ्खच तण्डलमणी तिथिवारयोश्च । तारावलाय लवणान्यथ गाञ्च राशेर्दद्यात् हिजाय कनकं शुचि नाडिकाया:" ॥ वामनपुराणे । “विष्टयो व्यतीपाताच येऽन्ये टुर्नीतिसम्भवाः। ते नाम स्मरणाहिष्णो शिं यान्ति महात्मनः ॥ लवणैर्युवतिप्रतिमामभिनवसूर्पोदरे समालिख्य । तारादोषोपशमनाय विजाय दद्याहिशुइये ॥ एक त्रिपञ्च सप्त विजाय दद्यात् पलानि लवणस्य। क्रमशो जन्मनि विपदि प्रत्यरिमरणाख्यताराम। पलन्तु लोकिकै. मानः साष्ट रत्तिहिमाषकम् ॥ तोलकत्रियतयं ज्ञ यं ज्योतिः स्मृतिसम्मतम् । विपत्तारे गुईं दद्यात् शाकं दद्याचिजन्मनि ॥ प्रत्यरो लवणं दद्यात् निधन तिल काञ्चनम् ॥ राजमार्तण्डे For Private And Personal Use Only Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम् । ग्रहदोषे द्रव्यधारणमाह । " दोषो न स्यादुग्रहाणामभिशिरकिरणे ताम्रमिन्दौ च श पृथ्वोपुत्रे प्रवालं शशधरतनये शातकुम्भं भुजेन । देवाचार्थे च मुक्तां मणिरसुरगुरौ सोसकं सूर्यसुनौ राही सारं गिरौयां कमलजतनये राजपट्टे विभर्तुः " । शातकुम्भं सुवर्णम् । राजपट्ट' कर्पूराणोति प्रसिद्धम् । गिरौयां सारं लौहं गिरिसारस्तु विज्ञेयो लौहे मलयपर्वते इति त्रिकाण्डशेषात् । "यद्यद्ग्रहस्य यद्द्रव्यं तत्तस्मिन् विषमे स्थिते । दद्यात् सत्कृत्य विप्रेभ्यः स्वयञ्च विभृयात् सदा ॥ बुद्धिप्रकाशे "त्रिशूली चौरिकामूलं गोजिह्वां वृहदारकम् । ब्रह्मयष्टीं सिंहपुच्छीं वाट्यालं चन्दनं मितम् ॥ अश्वगन्धं क्रमात् सूर्याtureोषोपशान्तये । ताम्रादीनामभावे तु स्वयञ्च दक्षिणे भुजे ॥ त्रिशूलो विल्वः गोजिह्वा अनन्तमूलं वृद्धदारकं वौरताड़क सिंहपुच्छौ रामवासकः । " खेतं वासः सिता धेनुः शङ्खो वा चौरपूरितः । देयो वा रजतश्चन्द्रश्चन्द्रदोषोपशान्तये ॥ सिद्धार्थ लोध्ररजनोदय मुस्तधान्यं लामज्जकं सफलिनो सवचा च मांसी । स्नानं कुरु ग्रहगण प्रशमाय नित्यं सर्वे रविप्रभृतयः सुमुखो भवन्ति ॥ लामज्जकं वौरणमूलम् । “संग्रामे सङ्कटे दुर्गेचौरव्याघ्रादिपौड़िते । कान्तारे प्राणसन्देहे विषवह्निजलेषु वा ॥ राजादिभ्यश्च संत्रा से ग्रहरोगादिपोड़िते । स्मृत्वा तं पुरुषं सर्वेरापदा विप्रमुच्यते ॥ तं नरसिंहम् । "देवब्राह्मणपूजनात् गुरुवचः सम्पादनात् प्रत्यहं साधूनामथ भाषगात् श्रुतिवचः श्रेयः कथाकीर्त्तनात् । होमादध्वरदर्शनात् शुचिमनोभावाज्ज पाहानतो नो कुर्वन्ति कदाचिदेव पुरुषस्यैवं ग्रहाः पोड़नम् ॥ गर्गः । “शतमिन्दुस्त्रयं भौमो द्वात्रिंशदभृगुनन्दनः । पञ्चपञ्चाशतो जौव: सोरिस्तु सप्तसप्ततिः ॥ तथार्को द्वादशं बुधः षोड़शं परिकीर्त्तितम् । हरन्ति र a • For Private And Personal Use Only ५८ Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम् । खचरा ददते च शुभग्रहाः " ॥ पञ्चाशतः पञ्चाशतदयमिति यावत् । अथ नवानां ग्रहाणां दानानि । "सूर्ये धेनुच्च ताम्रञ्च गोधूमं रक्तचन्दनम् । चन्द्रे चन्दनशङ्खौ च वस्त्रच तिलतण्डुलाम् ॥ कुजे वृषः प्रदातव्यो रक्तवस्त्रं गुड़ौदनम् । बुधे कर्पूरमुच इरिस्तं हिरण्यकम् ॥ पौतवस्त्रद्दयं जोवे हरिद्राकनकानि च । श्रश्वः शुक्र े सितो देयः शुक्लधान्यानि यानि च ॥ शनौ च सतिला देया कृष्णा गोलहमुत्तमम् | राधे च महिषौकागौ माषाच तिलसर्षपाः ॥ प्रजामेधी च दातव्य केतौ चावच मिश्रितम् । स्वर्णं गोविप्रपूजाभि: सर्वेषां शान्तिरुत्तमा" ॥ लग्न - तिष्यादोनां क्रमेण वलवत्त्व' यथा “तिथिदिनकर पक्षलग्नवीर्यं प्रति रयमाह पराशरः क्रमेण” । रयोवेगः । " तिथिरेकगुणा प्रोक्ता वारश्चैव चतुर्गुणः । ऋतं स्यात् घोड़शगुणं योगश्चैव शताधिकः ॥ सहस्रेणाधिकः सूय्यचन्द्रो लक्षगुणाधिकः । वर्जयित्वा बलं सर्वं तस्माञ्चन्द्रबलं बलम् ॥ मात्मा चन्दमाच मन: कर्मफलं प्रति । तस्माल्लग्नाच्छशाङ्काश्च नराणां फलमादिशेत्” ॥ ब्रह्मसिद्धान्ते । “ तिथि रेकगुणा प्रोक्ता नक्षत्रञ्च चतुर्गुणम् । करणं षड्गुणं प्रोक्तं वारश्वाष्टगुणः स्मृतः ॥ एवञ्चाशुभचन्द्रादौ प्रतौकारविधानात् प्रभवति हि न दोषो भूरिभावे गुणानामित्याद्यभिधानात् अष्टवगप्रकरणे कष्टाभीष्टे तुल्यसंख्ये फले चेत् स्यातां नाशफलयोस्तत्र वाच्यः ! "वाच्या पंक्तिर्योऽतिरिक्तस्तयोः स्यात् सर्वस्था मे कल्पनैवं प्रदिष्टा" इति वादरायणवचनात् पङ्क्तिः परपाकः । ये ग्रहारिष्टसूचका इत्यभिधानाञ्च राजमार्त्तण्डे । "चन्द्रात्रिधनगाः पापालग्नाहा निधनोपगाः । कर्त्तुश्च फलनाशः स्वाद्भग्नभाण्ड पयो यथा ॥ इन्द्रष्टमगान् पापान् वर्जयेोधनं For Private And Personal Use Only Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम् । ५८१ विज्ञम्मच चन्द्रच निधनसंस्थं सर्वारम्भप्रयोगेषु" इत्यादिज्योतिःशास्त्रोक्तनिषेधस्य न पर्य्युदासता ततोऽष्टमचन्द्रादौ तत् प्रतीकारकरजतदानादिपूर्वकं नवाच श्राहादिकरणे तनिष्पत्तिभवति न तु रात्रप्रादौ श्राद्धकरणे श्राधानिष्पत्तिरिव कमीनिष्पत्तिरिति । किन्तु यदि प्रतौकारपूर्वकं करोति न दोषजनकम् अन्यथा अनिष्टजनकमिति श्रतएव ग्रहाणां सूचकत्वेन पूर्वसहत्वात् पूर्वमपि प्रतीकाराय प्रायश्चित्तानुष्ठानमिति । तथोक्त भगवच्या रुक्मिण्या भविष्यविवाहे श्रीभागवते । “चक्रुः सामर्थ्यजुर्मन्त्रैर्वध्वा रक्षां दिजोत्तमाः । पुरोहितोऽथर्वविदे जुहाव ब्रहशान्तये ॥ हिरण्यरूप्यवासांसि तिलांख गुड़मिश्रितान् । प्रादाड नश्च विप्रेभ्यो राजा विधिविदां वरः " ॥ “शनिचक्र' मराकारं लिखित्वा सौरिभादितः । नाम ऋचं भवेद्यत्र फलं तत्र शुभाशुभम् ॥ एकं मुखे दचहस्ते चत्वारि षट् पदद्दये । हृदि पञ्च करे वामे चत्वारि मस्तके चयम् ॥ इयं नेत्रद्दये गुह्य इयं तन न्यसेदुधः । मुखे हानियो दचे भ्रमः पादे श्रियो हृदि ॥ बामे भौर्मस्तके राज्यं नेत्रे सौख्यं मृतिर्गुदे । ताम्राष्टादशे ऋते यदा विघ्नकरः शनिः ॥ तदा सौख्य ं वपुस्थन्तु हृत्शौषं नेचदचयोः । हृतौयैकादशे षष्ठे यदा सौख्यकरः शनिः ॥ तदा विघ्नः शरोरस्यो गुह्य वक्त्रेऽधिामयोः । यस्य पौड़ाकरः सौरिस्तस्य चक्रे फल विदम् । लिखित्वा कृष्णद्रव्येण तैलमध्ये क्षिपेशतः ॥ निचिप्य भूमिमध्यस्थं कृष्णपुष्पैः प्रपूजयेत् । तुष्टिं याति न सन्देहः पोड़ां त्यक्ता भनैश्वरः " ॥ अथ प्रकीर्णकम् । “गुरोर्युगोरस्तबाल्ये वाईके सिंहगे गुरौ । गुर्वादित्ये दशाहे तु वक्रे जौवाष्टविंशके ॥ पूर्वराशावनश्यताविचारिगुरुवत्सरे । प्राग्राशिगन्तृजौवस्य चातिचार For Private And Personal Use Only Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५८२ ज्योतिस्तखम् ।। विपक्ष ॥ कम्पाद्यद्भुतसप्ताहे नौचस्थज्ये मलिम्बुचे। भानुलडितके मासि क्षये राहुयुते गुरौ॥ पोषादिकचतुर्मासे चरणाङ्कितवर्षणे। एकेनाङ्गा चैकदिने हितोयेन दिनत्रये ॥ बतौये तु सप्ताहे मानल्यानि जिजीविषुः। विद्यारम्भकर्णवेधी चड़ोपनयनोहहान् ॥ तौर्थनानमनावृत्तं तथानादिसुरक्षणम्। परीक्षा रामयज्ञांच पुरश्चरणदीक्षण ॥ व्रतारम्भप्रतिष्ठे च रहारम्भप्रवेशने। प्रतिष्ठारम्भणे देवकूपादेः परिवर्जयेत् ।। हाविंशदिवसाशास्ते जीवस्य भार्गवस्य च । हासप्ततिमहत्यस्ते पादास्ते द्वादशक्रमात् ॥ अस्तात् प्राक् परयोः पक्षं गुरोर्वाईकबालते। पक्षं वृद्धो महास्ते तु भृगुर्वालो दशाहिकः ॥ पादास्ते तु दयाहानि हो बालो दिनत्रयम् ॥ अत्यन्ताशक्ती राजमार्तण्डे । “बाले हवे च सध्यांशे चतुःपञ्च निधासरान्। जौवे च भार्गवे चैव विवाहादिषु वर्जयेत् ॥ बालभृगौ परिणीता युवतिरसाध्वी भवेदवश्यम्। वृद्ध तस्मिन् बन्ध्या सन्ध्यास्ते मृत्युमभ्येति ॥ एकराशौ गतौ स्वातामेक विषयो यदि। गुर्वादित्यौ तदा त्यज्या यज्ञोहाहादिकाः क्रिया: ॥ गुर्वादित्ये दशाहे विति प्रागुक्त नक्षत्रभेदविषयम्। रविग्रहयोरंशकविशेषाभ्यन्तरस्थित्या प्रस्तत्वमाह सूर्यसिद्धान्तः । “एकादशामरेज्यस्य तिथिसंख्याकंजस्य च। प्रस्तांशा भूमिपुत्रस्य दशसप्ताधिकास्तथा ॥ चन्द्रो हादशभिः पश्चात् दृश्यः प्राग्यात्यदृश्यताम् । पश्चादस्तमयोऽष्टाभिरुदयः प्रामहत्तया ॥ प्रागस्ते तूदयः पश्चात् स्वल्पत्वात् दशभिर्भूगोः। एवं बुके हादभिश्चतुर्दशमिरंशकैः ॥ वक्रशीघ्रगतिश्चार्कात् करोत्यस्तमयोदयौ” ॥ क्वचित् प्रतिपच्छषेऽपि चन्द्रदर्शनम्। “अनभ्रायाच शरदि हेमन्तेऽप्यतुषारिणि। रवेः माईदशांशेऽपि दृश्यतामेति चन्द्रमाः” ॥ शतानन्दः। “माध्यां यदि मघा For Private And Personal Use Only Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्वम् । ५८३ माति सिंह गुरुरकारणम् । अत्रैव माण्डव्यः। "श्रुतिवैधजातकानप्राशनचड़ादिकः सर्वः। रविभवनस्खे जौवे कार्योवों विवाहस्तु" ॥ रविभवनथे सिंहस्थे विवाहे विशेषो वच्यते। भोजराजः। "एकरात्र परित्यज्य कुयात् पाणिग्रहं बहे। प्रयाणे सप्तरावन्तु निवारं व्रतबन्धने ॥ पनिष्टे विविधोत्पात सिंहिकासूनदर्शने। सप्तरानन कुर्वीत यात्रोहाहादिमङ्गलम् ॥ व्रतबन्धने उपनयने। भृगुः । “कम्ये राजनि सप्ताहो ब्राह्मणानां हस्तथा। शूद्रस्याईदिनं प्रोक्तं सर्वकार्येषु वै भृगुः ॥ गर्गः। “दिग्दाहे दिनमेकन्तु ग्रहे सप्तदिनानि च। भूकम्पे च समुद्भते वाहाणि परिवर्जयेत् ॥ उल्कापाते च त्रितयं धमे पञ्चदिनानि च। वजपाते दिनमेकं वर्जयेत् सर्वकर्मसु ॥ भोजराजः । “ग्रहे रविन्द्वोरवनिप्रकम्पे केतूहमोल्कापातनादिदोषे। व्रते दशाहानि वदन्ति तज्ञास्त्रयोदशाहानि वदन्ति केचित् ॥ ग्रहणकाले भूकम्योल्कापातकरकापासवचपातादिसमाहारे त्रयोदशाहमशुछम्। किश्चिदूनतलमाहारे दशाहम् एकैकोदये बाहमिति मिश्राः। काश्यपः। उल्कालक्षणम्। वृहच्छिखा च सूक्ष्माया रक्तनीलशिखोज्वला। पौरुषौ च प्रमाणेन उल्का नानाविधा मता" ॥ अथ निर्धातः। गर्गः। “यदान्तरीक्षे बलवान् मारतो महताहतः । पतत्यधः स निर्घातो जायते वायुसम्भवः ॥ अथ केतुः। “केतवश्च शिखावन्ति ज्योतींषि स्थिरतरारण्युत्यातरूपाणि"। दौपिकायां "गुर्वादित्ये गुरौ सिंहे नष्टे शुक्र मलिम्लचे ॥ याम्यायने इसे सुप्ते सर्वकर्माणि वर्जयेत् । प्रतिप्रसवे न्यूनाधिकादिविरोधे राजमार्तण्डः । “उक्तानि प्रतिषितानि पुनः सम्भावितानि च। सापेक्ष्यनिरपेक्षाणि मौमास्थानौहा कोविदैः ॥ For Private And Personal Use Only Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम् । अथाकालवृष्टिः। कत्यचिन्तामणौ। “मार्गामासाद प्रभृतिमुनयो व्यासवाल्मीकिगर्गाश्चैत्र यावत् प्रवर्षणविधी नेति कालं वदन्ति। नाड़ौजङ्घः सुरगुरुमुनिर्वक्ति वृष्टेरकाली मासावितौ न शुभफलदो पौषमाधौ न शेषा: ॥ स्मृतिसारे ज्योतिषम्। “एकराशिस्थितौ स्यातां यदि राहुबहस्पती। विवाहव्रतयज्ञादि तदा सर्वत्र वर्जयेत्” ॥ भीमपराक्रमे । “वापोकूपतड़ागादिनिषिद्ध सिंहगे गुरौ। मकरस्थे तु तत् कार्य: न दोषः काललोपजः ॥ कायं मकरगे जौवे विवाहायखिलं बुधै। न तु सिंहगते जौवे कुर्वाणे मृत्युमाप्नुयात् ।। मुहर्तामृते। "अतिबलवान हि चन्द्रोऽनिष्टफलः कृष्णपञ्चमोपरतः। प्रतिविषमगतापि तारा सितपक्षे नाशुभं कुरुते ॥ ग्रहेण बिडोऽप्य शुभान्वितोऽपि विरुहतारोऽपि विलोमगोऽपि। करोति पुंसां सकलार्थसिद्धि विहाय पाणिग्रहणं हि पुष्यः ॥ पुष्यः परकतं हन्ति न च पुष्पकतं परः। अपि हादशगे चन्द्रे पुष्थः सर्वार्थसाधकः॥ ध्रवममृतकरेऽष्टमेऽपि पुथो विहितमुपयाति सदैव कर्मसिद्धिम् ॥ वशिष्ठः । "क्षीणोऽपि यस्ये ह शुभक्रियासु रोविलग्ने मदनेऽथवा स्यात्। आसन्नमृत्यं तमुदौरयन्ति सन्तोऽथवा मृत्युग्रहं प्रपत्रः ॥ लग्नदोषाच ये केचित् ग्रहदोषास्तथापरे। ते सर्वे विलयं यान्ति लग्ने गुरुभृगू यदा" ॥ श्रीपतिव्यवहारनिर्णये। "विष्टावङ्गारके चैव व्यतीपाते शनैश्चरे। निधने जन्मनक्षत्रे मध्याह्नात् परतः शुभम् ॥ तथा “रेवती रविवारण हस्ता सोमेन संयुता। पुष्योऽप्यनिपुत्रेण रोहिणी बुधसंयुता ॥ खातौ च गुरुणायुक्ता शुक्रगोत्तरफल्गुनौ। मूलन्तु पङ्गमङ्गन सर्वकार्येषु शस्यते" ॥ भीमपराक्रमे । “अश्विनौ सह सूर्येण सौम मृगशिरास्तथा। अश्लेषा भौमवारण बुधे हस्तः प्रकी For Private And Personal Use Only Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम् । ver र्त्तितः ॥ अनुराधा गुरोर्वार विश्वदेवस्तु भार्गवे । वारुणं शनिसंयुक्तमानन्दोऽयं प्रकीर्त्तितः ॥ दीपिकायाम् । भूमिपुत्राकयोर निन्दामरुद्दारु पार्द्रान्त्य चित्राडिमूलाग्निभिः । भागवैणावयोरहि भद्रा भवेत् फल्गुयुग्माजयुग्मो डुसंयुता । सोमपुत्रस्य वारे जया स्यान्मृगोपेन्द्र गुर्विन्द्रयाम्याभिजिद्दाजिभिः । गोष्पतेरह्नि रिक्ता च युक्ता यदा विश्वशक्राग्नियुक् पित्रादित्यम्बुभिः | सूर्यसुतस्य दिने यदि पूर्णा ब्रह्मदिनाधिपतिद्रविणैः स्यात् योगवरास्त्रिभिरेव समेताः सर्वसमो हितसिडिनियुक्ताः । वामृतम् । “ध्रुवगुरुकरमूला पौष्णभान्यर्कवारे हरियुगविधियुग्मे फल्गुनौ भाद्रयुग्म दिवसकरतुरङ्गौ शर्वरीनाथवारे । गुरुयुगनलवातोपान्त्य पौष्णानि कौजे दहनविधिताख्या मैत्रभं सौम्यवारे । मरुददितिभपुष्याAai aaवारे भगयुग जयुगश्वोविष्णु मैत्रे सिताहे खसनकमलयोनौ सौरिवारेऽमृतानि” । अमृतम् । राजमार्त्तण्डे । “चन्द्रार्कयोर्भवेत् पूर्णा कुजे भद्रा गुरौ जया । बधमन्दौ च नन्दायां शक्रे रिक्तामृतातिथिः | आदित्यहस्ता गुरुपुष्ययुक्ता बुधानुराधा शनिगे हियौ च । सोमे च विष्णुः कुजरेवतौ च शुक्राखिनौ चामृतयोगवर्गाः । यदि विष्टिव्यतीपाती दिन वाष्यशुभ भवेत । हन्यतेऽतयोगेन भास्करेण तमो यथा" । कस्य मते वैधृत्यादियोगननेऽमृतयोगस्य न सामर्थ्यम्। तथा राजमार्त्तण्डः । “इन्त्यम्मृताख्यो योगः सर्वाण्यशुभानि हेलया नियतम् । न भवति पुनरिह शक्तो वैधृति विष्टिव्यतीपाते । वाराः क्रूरास्तिथिर्भद्रापादेकखण्डितञ्च भम्। एतत्त्रयसमायोगे त्रिपुष्करमुदाहृतम् । त्रिपुष्करे तु यत् किञ्चित् शुभ वा यदि वा शुभम् । जायते त्रिगुणं सर्वं प्राणोजातस्तु नारजः । लाभोहानिर्जयो For Private And Personal Use Only Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५८६ ज्योतिस्तत्त्वम् । वृद्धिः पुत्रजन्म तथैव च । नष्टं दतं मृतं वापि तत् सर्वं विगुपायते । सर्वदेशाविशेषेण फलं स्यात् शुभयोगजम्। अमृत सिहियोगच यद्येकस्मिन् दिने भवेत् । तहिनन्तु भवेद्दष्टं मधुसर्पिर्यथा विषम् । वराहः । " दुःखन्ननाशको वारी नच पापनाशकम् । तिथिरायुष्करो प्रोक्ता योगो बुद्धिविवर्द्धकः । चन्द्रः करोति सौभाग्यमंशकः । शुभदायकः करवाल्लभते लक्ष्मी यः शृणोति दिने दिने । प्रारूढी हिरदे रथे च तुरगे पाषाणकाष्ठादिके नौकायां तरणे उपान हि कथाशक्ते तथा क्रोधने । उच्छिष्ट दिनविशेष समये नक्षववारादिकं दैवना न पठेत् पठेद्यदि पुनः श्रोता श्रियं नाप्नुयात् । श्रार्त्विज्ये वर्ज्यमधिक्कत्य भविष्ये । “तिथिनचत्रयोगानां वाराणाञ्च तथा विभो । सूतको जौविकार्थच यच मूल्येन पाठयेत्" । प्रत एव यमः । नचत्रैर्जीव्यते यच सोऽन्धकारं प्रपद्यते । जोतिषे । "सर्वत्र कार्ये बुधशकजीवाः केन्द्रत्रिकोणोपगता: प्रशस्ताः । aalaलाभारि गताच पापास्तिथिर्विरिक्ता शुभदस्य चाहः” । शतानन्द रत्नमालायाम्। "न वारदोषाः प्रभवन्ति रात्रौ विशेषतो भौमशनैश्वराः । शुभपापग्रहक्षेत्र केवल फलद तथा । ग्रहयुक्तेचिते तु स्यात् फलं तदनुसारतः । तारापतिं विलग्न' वा दुरितग्रहमध्यगम् । विवाहादिषु कार्येषु त्यजेचिरजिजीविषुः । काय्यारम्भे विलग्नादष्टममिन्दु विवर्जयेत् । कर सपाप पापवर्गस्थ ं लग्नं चन्द्रञ्च वर्जयेत् । बलनिई। " रणा देव सर्वत्र फलनिश्चयः । निरंशं दिवसं विष्टि व्यतीपा तञ्च वैधृतिम् । केन्द्र वापि शुभैर्हीनं पापाहमपि वर्जयेत् 1 नन्दाद्याः सिद्धियोगा भृगुजबुध कुजा कौन्यवारे प्रशस्ताः सूर्ये भाशाग्निषड़ट्टगमुनिमित तिथयोऽर्कादिवारैः प्रदग्धाः” । राजमार्त्तण्डे । “मासारुद्रादिशो रामा षट्पचमुनयस्तथा । दान्ते ܬ For Private And Personal Use Only Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम् । ५८७ तिथयः सप्त व्यादि सप्तभिर्ग्रहैः । द्वादश्यर्कयुता भवेदशुभदा सोमेन चैकादशौ भौमे चापि युता तथैव दशमो नेष्टा तृतीया बुधे षष्ठो नेष्टफलप्रदा सुरगुरौ शक्रे द्वितौया तथा सर्वारम्भविनाशविनजननी सूर्य्यात्मी सप्तमौ । पापोऽर्काहे विशाखात्रययममुपस्याति चित्रा चतुष्कं तोयं विश्वाभिनिङ्ग त्वथ कुजदिवसे स्वत्त्रयं विश्वरुदौ माहे मूलाविशाखा यमधनतुरगान्यानिजेवेति पित्र रोहिण्यार्द्रायमेन्दूयतभमथ भृगोरपुष्यातयेन्दो सौराहे हस्त युग्माय्य मयम जनयुक्पौष्ण पुष्याधनानि घण्टोऽखण्डर्क्षयुक्त स्वग्टहपतिदिने सोम्यवारेय्यमापि” । सिदिग्धपापयमघण्ट योगा । "रव्यादि दिवसे युक्ता विशाखादिचतुश्चतुः । उत्पाटामृत्यवः काला अमृतानि यथाकमम्” । उत्पाटादियोगः । “ वाजिचित्रोत्तराषाढ़ा मूलपाशोज्यभान्तकाः । सूर्य्यादिवारसंयुक्ता योगाः करकचा: स्मृताः” । करकचा योगः । “ श्रादित्य भोमयोर्नन्दा भद्रा शुक्रशशाङ्कयोः । बुधे जया गुरौ रिक्ता भनौ पूर्णा च मृत्युदा । यमघण्टे त्यजेदष्टौ मृत्यौ द्वादशनाड़िका: । श्रन्येषां पापयोगानां मध्याह्नात् परतः शुभम् । यमघण्ट । दौनां वज्र्ज्य कालनिर्णयः । राजमार्त्तण्डे "द्वितौया मौनधनुषा चतुर्थी वृषकुम्भयोः । मेषककटयोः षष्ठो कन्यामिथुन केऽष्टमौ । दशमौ वृथिके सिंह द्वादशौ मकरे तुले । श्रद्या धनुःसु सफरौषु । परा द्वितौया एकान्तरे दिनकरे तिथयः प्रदग्धाः । कार्मुके तथा कुम्भे मेषे युग्मे हरौ घटे । एषु शुक्लाद्दितीयाद्या दग्धाः कृष्णा भषादिषु । राश्योश्चन्द्रस्य च रवेः स्थित्या वाच्यं फलं बुधैः । याः प्रोक्तास्तिथयो दग्धाः मेषादिषु च राशिषु शक्तास्ताविषमे राशौ समे कृष्णाः प्रकीर्त्तिताः । एभिर्जातो न जीवेत यदि शक्रसमो भवेत् । विवाहे विधवा नारी यात्रायां For Private And Personal Use Only Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५८८ ज्योतिस्तत्त्वम् । मरणं भवेत् । निष्फलं कृषिवाणिज्य विद्यारम्भ े च मूर्खता । गृहप्रवेशे भङ्गः स्याच्चूड़ायां मरणं ध्रुवम् । ऋणदाने फलं नास्ति व्रतदाने च निष्फले । शुभकर्माणि सर्वाणि नैव कुय्याद्दिचक्षणः” ॥ उक्त राशिषु चन्द्रस्थित्या दग्धायां व्यक्तत्वं यथा “षष्ठौ मेष कुलौरयोर्हिमकरे कन्यायुगे चाष्टमी सिंह वृश्चिकराशि च दशमी तौ लौ मृगे द्वादशौ चापे चाथ झषेदिका यदि वृषे कुम्भे चतुर्थी यदा दग्धाख्यास्तिथयो वदन्ति मुनयस्त्यज्या सदा कर्मसु । त्यज रविमनुराधे वैश्वदेवच्च सोमे शतभिषमपि भौमे चन्द्रजे चाविमौ च । मृगशिरमपि जौबे सर्पदेवञ्च शुक्र रविसृतमपि हस्ते वर्जनौयाच सप्त । प्रयोगेषु व सर्वेषु पूर्वयामं परित्यजेत् । प्रयोगास विनश्यन्ति चन्द्रशुद्धि f | ता इमे । करकचा मृत्यु योगाश्च दिनं दग्धं तथा परे । शुभे चन्द्रे प्रणश्यन्ति वृक्षा वज्राहता इब" । शुभचन्द्रेण करकचा शान्तिः । श्रीपतिः ये वै विरुद्धाः” ॥ “विरुद्धसंज्ञा स्तिथित्रारयोगा नक्षत्रवारप्रभवाय हनाङ्गवङ्गेषु खशेषु वर्धाः शेषेषु देशेषु न ते अथ सर्वतोभद्रम् । “अथातः संप्रवक्ष्यामि चक्र' त्रैलोक्यदौपनम्। विख्यात सर्वतोभद्र सद्यः प्रत्ययकारकम् । उगा दश विन्यस्य तिय्येग्रेखास्तथा दश । एकाशीतिपदं चक्र जायते नात्र संशयः । अकारादि स्वराः कोष्ठेष्वौशादौ विदिशि क्रमात् । प्रदक्षिणक्रमाजज्ञेया ज्योतिःशास्त्रविशा रदैः । कृत्तिकादीनि धिष्यानि पूर्वाशादि लिखेत्ततः । सप्त सप्त क्रमेणैव अष्टाविंशति संख्यया । अवकटड़ा: पूर्वस्यां मटपरताहरिति दक्षिणस्यां नयभजखा वारुण्यां गशदचलावोत्तरस्यां स्युः । वयस्त्रयो वृषाद्यास्तु पूर्वादि क्रमतो बुधैः । राशयो द्वादश स्थाप्या मेषान्ता दक्षमार्गतः । शेषेषु कोष्ठके For Private And Personal Use Only Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम् | Rea वेवं मन्दादि तिथिपञ्चकम् । वाराणां सप्तकं लेख्यं भौमायं ततिथिक्रमात् । इत्येष सर्वतोभद्र प्रस्तावः कथितो मया । यस्मिन्रक्षे स्थितः खेटस्ततो बेधत्रयं भवेत् । ब्रहदृष्टिवशेनात्र वामदक्षिणसंमुखे ॥ भुक्तं भोग्यं तथाक्रान्तं विषं क्रूरग्टहेण भम् । शुभाशुभेषु कार्येषु वर्जनौयं प्रयत्नतः ॥ वक्रगे दक्षिणादृष्टिर्वामादृष्टिश्च शौघ्रगे । संमुखी मध्यचारे च ज्ञेया भौमादिपञ्चके ॥ सूर्यमुक्ता ग्रहाः शीघ्रास्तथा चार्के द्वितीयगे । समास्तृतौयगे ज्ञेया मन्दा भानौ चतुर्थगे ॥ वक्रा स्युः पञ्च षष्ठेऽर्के त्वतिवक्रा नगाष्टगे । नवमे दशमे भानौ जायते सहजा गतिः ॥ वादशैकादशे सूर्य्यं लभन्ते शौघ्रतां पुनः ॥ रविस्थित्यंशकस्त्रिंशा बधेः संख्यात्र कल्पते । न तु राश्यन्तरस्पर्थात् द्वितौयादिनिरूपणम् ॥ राहुकेतू सदा वक्रौ शोघ्रगौ चन्द्रभास्करौ । गतेरेकस्वभावत्वादेषां दृष्टिवयं सदा ॥ क्रूरा वक्रा महाक्रूराः सौम्या वक्रा महाशुभाः । स्युः सहजस्वभावस्थाः सौम्या क्रराश्च शौघ्रगाः ॥ घङकाः षण्ठाचैव धफटाइभजास्तथा । एतत्विकं त्रिकं बिड बिद्ध: कपभदेः क्रमात् ॥ घङका रौद्रगे वेधे far गठाऽस्त ग्रहे । धफढा पूर्वाषाढ़ाया था भाद्र उत्तरे | at सौ खषौ चैव जयौ गनौ परस्परम् ॥ एकेन हि दयं शेयं शुभाशुभग्रह व्यधे । अवर्णादिखरद्दन्दे त्वेकवेधात् इयोव्यधः ॥ युग्मवर्णात्मके वेधे अनुखारविसर्गयोः” ॥ सकारादियुग्म - वर्णात्मकवेधवदनुखार-विसर्गयोरेक- वेधादुभयवेध इत्यर्थः । "कोणस्थ ऋच्चयोर्मध्ये अन्त्यादिपादगे ग्रहे । अकरादिचतुष्के तु वेधः पूर्णतिथौ तथा । एकादिकर वेधेन फलं पुंसां प्रजायते ॥ उद्देगश्च भयं हानिर्व्याधिर्मृत्युः क्रमेण च। ऋचे भ्रमोक्षरे हानि: स्वरे व्याधिर्भयं तिथौ ॥ रामौ विs महाविघ्नः पञ्च विडो न जौवति । एकवेधे भयं युद्ध For Private And Personal Use Only Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम् । युग्मवेधे धनक्षयः ॥ त्रिवेधे तु भवेद्धको मृत्युर्वेधे चतुर्ग्रह: । दृष्टिवये उदाहरणमाह "भरण्यकारहषभं नन्दां भद्रां तुलाञ्च भम् । विशाखां हरिभं बिध्ये ग्रह आग्नेयसंस्थितः ॥ उदा. हरणान्तरमाह "वं युग्ममौखरं कन्या रेफं खातौमुकारकम् । पश्खिनी रोहिणीस्थोऽभिजिनमेवं परेष्वपि ॥ यथा दृष्ट फला: क्ररास्तथा सौम्याः शुभप्रदाः। करयुक्तः पुनः सौम्यो जयः क्ररफलप्रदः ॥ अकवेधे मनस्तापो द्रव्यहानिश भूसुते । रोगपौड़ाकरः सौरी राहु केतू च विघ्नदौ॥ चन्द्रे मित्रफलं पुंसां रतिलाभश्च भार्गवे। बुधवेधे भवेत् प्रज्ञा जौवः सर्वशुभप्रदः ॥ वक्षत्रस्थे बलं पूर्ण पादोन मित्रगे ग्रहे। पई समग्टहे प्रोक्त पादं शत्रु ग्टहे स्थिते ॥ इदच मौम्य कराणां बलं स्थानवशात् समम्। एतदेव फलं बिधि सौम्यैः कविपर्ययात् ॥ स्थानवेधसमायोगात् यत् संख्यं जायतें बलम्। तत् संख्यं वेध्य. वस्तूनां फलं ज्ञेयं शुभाशुभम् ॥ दृष्टिहीने पुनर्वेधे न स्यात् किञ्चित् शुभाशुभम् । ग्रहाः सौम्यास्तथा क्रूरा: वक्रा: शीघ्रो. चनौचगाः ॥ स्थानञ्च वेध्यमित्येवं बलं ज्ञात्वा फलं वदेत् । वक्रग्रहे फलं विघ्न त्रिगुणं स्वोच्चसंस्थिते ॥ स्वभावजं फलं शौने नौचस्थोड्ड फलो ग्रहः। तिथिराश्यं शनक्षत्रं बिच करग्रहेण यत् ॥ सर्वेषु शुभकार्येषु वर्जयेत्तत् प्रयत्नतः । न नन्दति विवाहे च यात्रायां न निवर्तते ॥ रोगाहिमुच्यते रोगी वेधवेला कृतोद्यमः। रोगकाले भवेद्देधः करखेचरसम्भवः ॥ वक्रगत्या भवेन्मत्युः शौने चाप्यरुजान्वितः। वेधस्थाने रणे भङ्गो दुर्गे खनिः प्रजायते ॥ कविप्रवेशनं तत्र योधाघातश्च तत्र वै॥ कविश्चौरयोहा । “यत्र पूर्वादिकाष्ठायां वृषराश्यादिगो रविः । सादिगस्तमिता ज्ञया शेषास्तिस्रः सदोदिताः॥ ईशानस्थाः स्वराः प्राच्यां नया याम्यामथाग्निगाः । नैऋतस्थाश्च वारुखां For Private And Personal Use Only Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६०१ ज्योतिस्तखम्। वायव्यां सौम्यगा मताः । नक्षत्राणि स्वरा वर्णा राशयस्तिथयो दिशः। ते सर्वेऽस्तमिता जया यत्र भानुस्त्रिमासिकः ॥ नक्षत्रेऽस्ते रजा वर्णे हानि: शोकः स्वरेऽस्तगे। रायौ विघ्नस्तिथौ भौति: पञ्चास्ते मरणं भवेत्। यात्रा युद्ध विवादश्च हारं प्रासादहययोः। न कर्त्तव्यं शुभ चान्यदस्ताशाभिमुखं नरैः। अस्ताशायां स्थितं यस्य नाम्नः प्रथममक्षरम्। स प्रातः सर्वकार्येषु जेयो दैवहतो नरः। करौ कोठे तथा इन्हे चातुरङ्गमहावले। वाचास्त गता योधा यदीच्छेहिजयं रणे। नक्षत्रेऽभ्युदिते पुष्टिवणे लाभः खरे मुखम् । राशौ जयस्तिथौ तेजः पदाप्तिः पञ्चकोदये। प्रश्नकाले भवेद्वि यल्लग्न करखेचरैः । तद्दष्टं शोभन सोम्यैमिर्मित्रफलं भवेत्। ग्रहाविद्यन्तु यल्लग्नं फलं लग्नस्वभावतः । ज्ञातव्य. मौक्षिते केन्द्र भाषितं यच्चरादिकम्। शौर्षीदये सौम्य विलनवगै लग्नेऽपि वा सौम्ययुते शुभ स्यात्। अतोऽन्यथा हेतु तदन्यथावं मित्रं विमित्रैरधिकं बलाढ्य । केन्द्रोपगा नवम पञ्चमगाव सौम्याः केन्द्राष्टवर्जमशुभस्त्याय षष्ठसंस्थाः । सर्वार्थसाधनकरा: परिपृच्छतां स्य रेभिर्विपर्ययगतैस्तु विपर्यायः स्यात्। लग्नाधिनाथो यदि केन्द्रग: स्यात् तन्मित्रमेतस्य च केन्द्रग वा। व्ययष्टकेन्द्राण्यपहाय पापा अन्यत्र याता यदि तच्छुभं स्यात्। आद्योलग्नाधिपः कार्ये लग्ने कार्याधिपो यदि। हितीयो लग्नपो लग्ने कार्ये कायाधिपो यदि । लग्नप: कार्यपश्चापि लग्ने यदि बतौयकः । चतुर्थः कार्यपो स्यातां यदि लग्नपकार्यपौ। कार्यसिधिस्तदा जेया मित्रञ्चेदधिकं मतम् । एवं दृष्टिवशाज्ञयं फलं यहचतुष्टयम्। पूर्णनाडौस्थितो दूतो यत् पृच्छति शुभाशुभम्। तत् सर्वं सिद्धिमाप्नोति शून्ये शून्यं समीरणे। प्रादौ शून्यगत: पृच्छेत् पश्चात् पूर्णा विशेद For Private And Personal Use Only Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम् । यदि। तदा सर्वार्थसिद्धिः स्यात् वामे वामं न संशयः। खासप्रवेशकाले चेद्द तो जल्पति वान्छितम् । तस्यार्थः सिद्धिमाप्नोति निर्गमे नास्ति सुन्दरम्। अर्द्धवामाग्रतो दूतो ज्ञेयो वामपथस्थितः। पृष्ठे दक्षे तथाधस्ताहक्षबाही गतो मतः। यात्रादानविवाहेष वस्त्रालङ्कारभूषणे। शुभे कर्मणि सन्धी च प्रवेशे वामग: शुभः। कलहद्यतयुद्धेषु सानभोजनमथने । व्यवहारे भये भङ्गे दक्षमाडौ प्रशस्यते। करैरुभयतो बिद्धा यस्याक्षरतिथि स्वराः। राशिधिध्यश्च पञ्चापि तस्य मृत्युन संशयः। मण्डल नगर ग्रामो दुर्ग देवालय पुरम्। क्रूरैकमयतो वेधे विनश्यन्ति न संशयः। कत्तिकायां तथा पुणे रेवत्याञ्च पुनर्वसौ। विद्दे सति क्रमावेधो वर्णेषु ब्राह्मणादिष। तैलं भाण्डं रसो धान्यं गजाखादि चतुष्पदाः । सर्व महार्घतां याति यावत् क्रूरव्यधे स्थितम्। करवेधसमायोगे यस्योप. ग्रहसम्भवः । तस्य मृत्युनं सन्देहो रोगाहाथ रणादपि। सूर्यभात् पञ्चमं धिध्यं जेयं विद्युन्मुखाभिधम् । शून्यच्चाष्टमगं प्रोक्त सन्निपातं चतुर्दशम्। केतुमष्टादशं प्रोक्तमुल्का स्थादेकविंशतिः । हाविंशतितमं कम्यं त्रयोविंशञ्च वचकम् ॥ निर्धातञ्च चतुर्विंशमुक्ता अष्टावुपग्रहाः। प्रस्थाने विघ्नदाः प्रोक्ला: सर्वकार्येषु सर्वदा॥ जन्मभं कर्म प्राधानं विनाशं सामुदायिकम् । सांघातिकमिदं धिणा षटकं सार्वजनीनकम् ॥ जातिदेशाभिषेकैश्च नव धिष्णानि भूपतेः । वैधं ज्ञात्वा फलं ब्रूहि सौम्यैः करैः शुभाशुभम् ॥ जन्मभं जन्म नक्षत्र दशमं कर्मसंज्ञकम्। एकोनविंशमाधानं त्रयोविंशं विनाशकम् ॥ अष्टादशञ्च नक्षत्र सामुदायिकसंज्ञकम्। सांघातिकञ्च विज्ञ यं धिणं षोड़शमेव हि ॥ षनिभं राजजातञ्च जाति नाम्ना स्वजातिभम् । देशभं देशनाम राज्यभचाभिषेकमम॥ मृत्युः स्यान्नन्मने For Private And Personal Use Only Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम् । ૨૦૨ fer कर्ममे क्लेश एव च । प्रधानार्थे प्रवासः स्यात् विनाशे बन्धुविग्रहः ॥ सामुदायिकभेरिष्टं हानि सांघातिके तथा । जातिभे कुलनाशः स्यात् बन्धनञ्चाभिषेकभे ॥ देशचें देशभङ्गः स्यात् क्रूरैरेवं शुभैः शुभम् । उपग्रहसमायोगे मृत्युर्भवति नान्यथा ॥ भयं भङ्गश्च घातच मृत्युर्भङ्गयुता मृतिः । क्रूरैरका दिपचान्तैर्युधि वेधे फलं भवेत् ॥ तिथिं धिष्णं खरं राशि बलञ्चैव तु पञ्चमम् । यहिने वेधयेच्चन्द्रस्त हिने स्यात् शभाशुभम्” ॥ अथ बालादिचक्रम् | "ऋवर्णच वर्णश्च त्यक्क्षा कोष्ठेषु पञ्चसु । अकाराद्याः स्वरा लेख्या एकैकस्मिन् दिकं दिकम् ॥ कादिहान्तान् लिखेद्दर्णान् स्वराधो ङजणो झितान् । तिय्र्यक् पक्तिक्रमेणैव पञ्चत्रिंशत् प्रकोष्ठ के ॥ अकारादिक्रमात् न्यस्य नन्दादितिथिपञ्चकम् । अर्ककुजौ विधुक्षौ च गुरुः शक्रः शनिस्तथा ॥ वारा: कोष्ठेष्वथो लेख्या अखरे सप्तभानि घ। पच पच इकारादौ रेवत्यादिक्रमेण च ॥ प्रसुप्तो बोध्यते येन येनागच्छति शब्दितः । तस्य नाम्रस्त्वादिवर्णो यत्र तिष्ठेन्नरस्य च ॥ तस्माद्दालः कुमारश्च युवा वृद्धो मृतः क्रमात् । किञ्चिल्लाभकरी बालः कुमारस्त्वई लाभदः ॥ सर्वसिद्धि युवा धत्ते बढे हानिमृते क्षयः । यदि नाम्नि भवेद्दर्णः संयुक्ताचरलचणः प्रायस्तस्यादिमो वर्णः इत्युक्त ब्रह्मयामले ॥ तिथिवारर्श्वमेदेन प्रत्येकं बालकादिना । नामवर्णादितो ज्ञयं फलं पुंसां दिने दिने ॥ तिथ्यादिमेलनवशात् फलं ज्ञेयं शुभाशुभम् । यूनि चये शुभं पूर्णमशुभच मृतिचये । अन्यत्राप्येवमूह्य स्यात् शङ्करेण शुभाशुभम्” ॥ अथ विवाहः । “प्रसूत्याधानतः शुद्धिर्विषमेऽब्दे समे क्रमात् । विवाहे योषितां चन्द्रार्केज्यशुद्धि योषितोः ॥ सभर्त्तृक क्रिया For Private And Personal Use Only Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६०४. ज्योतियत्त्वम् । रम्भे भार्गोचरहितः। यात्रोहाई गर्भकत्ये खशुधाप्रोति तत्फलम् ॥ प्रारभ्य जन्मसमयात् युवतेविवाहमोजाब्दकेषु मुनयः शुभमादिन्ति। प्राधानतः प्रभृतित: समवारेषु प्रोक्तस्तयोर्न शुभदस्तु विलोमवर्षे ॥ अयुग्म दुर्भगा नारी युग्म च विधवा भवेत् । तस्माहर्भान्विते युग्मे विवाहे सा पतिव्रता ॥ मासत्रयादूच मयुग्मवर्षे युग्मऽपि मासत्रयमेव यावत् । विवाहशुद्धिं प्रवदन्ति सर्वे वात्स्यादयो ज्योतिषि जन्ममासात् ॥ युग्माब्दकेषु युवतेरपि जन्ममासात्। मासत्रयं विवहने परमब्दशद्धिं प्राहुः समस्तमुनयो विषमे तु वर्षे मासत्रयादुपरितः खलु जम्ममासात्"। राजमार्तण्डे । “माङ्गल्येषु विवाहेषु कन्यासंवरणेषु च। दश मासा: प्रशस्यन्ते चैत्रपौषविवर्जिताः। कन्यासंवरणे हस्तोदकविधौ दम्पत्योदिनवाष्टराशिरहिते दारानु कूले रवौ चन्द्रे चार्ककुजाकिंशुक्रवियुते मध्येऽथवा पापयोः। त्यत्वा च व्यतिपातवैधृतिदिनं विष्टिञ्च रिक्त तिथिं क्रूराहायणचैत्रपौषरहिते लग्नांशके मानुषे” । योगविशेषे दोषविशेषानाह रत्नमालायाम् । “कुलीच्छेदो व्यतीपाते परिघ खामिघातिनी। वैधृतौ विधवा नारी विषदाहोऽतिगण्डके। व्याघाते व्याधिसंघात: शोकार्ता हर्षणे तथा। शूले च व्रणशूलं स्यात् गण्डे रोगभयं तथा विषकुमेऽप्यहिदंशः स्यात् वजके मरणं भवेत्। एते वै दारुणा: सर्वे दश योगाः प्रकीर्तिताः। प्राखलायनः। "उदगयने पापूर्वमाणे पक्षे कन्यानक्षत्रे चौड़कर्मोपनयनगोदान विवाहा:" ॥ विवाहः सार्वकालिक इत्येके इति। “प्राषाढे धनधान्यभोगरहिता नष्टप्रजा श्रावणे वेश्या भाद्रपदे इषे च मरणं रोगान्विता कार्तिके। पौषे प्रेतवतौ वियोगबहुला चैत्र मदोन्मादिनौ अन्येष्वेव विवाहिता पतिरता नारी समुहा For Private And Personal Use Only Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्वम् । ६०५ भवेत् । रौ प्रसप्त न च दक्षिणायने तिथौ च रिक्त शशिनिचयं गते। राजग्रस्त तथा युद्धे पितृणां प्राणसंशये। पतिप्रौढ़ा च या कन्या नानुकूल प्रतीक्षते। पतिप्रौढ़ा च या कन्या कुलधर्मविरोधिनी अविशुद्यापि सा देया चन्ट्रलग्नवलेन तु। अयनस्योत्तरस्यादौ मकरं याति भास्करः । राशि कर्कटकं प्राप्य कुरुते दक्षिणायनम्" इति विष्णुपुराणोक्तस्य धूड़ादावयनस्थ परिग्रहः दिनमानादि वोधे तु सिद्धान्तादयनपरिप्रहः। सार्वकालिक इत्यस विषयमाह भुजबलभौमे । “ग्रहअहिमब्दहिं शुहिं मासायनतुंदिवसानाम्। प्रक्दिशवर्षेभ्यो मुनयः कथयन्ति कन्यकानाम्। एतत्परन्तु विशेयमङ्गिरो बचनं बधा। कालात्यये च कन्यायाः कालदोषो न विद्यते। मलमासादिकालानां विवाहाचे प्रयत्नतः। पुंसः प्रति सदा दोषात् सर्वदेव हि वय॑ता”। कत्यचिन्तामणी । *बापोकूपतड़ागयागगमनचौर प्रतिष्ठावतं विद्यामन्दिर कर्णवेधन महादान वनं सेवनम् । तीर्थम्रान विवाहदेवभवन मन्त्रादिदेवेक्षणं दूरेणैव जिजीविषुः परिहरेदस्तं यते भार्गवे"। बद्राजमार्त। “सर्वाणि शुभकर्माणि कु-दस्तं गते सिते। विवाहं मेखला बद्दयात्राञ्च परिवर्जयेत्”। यात्राचेति चकारो वचनान्तरोता प्रातिस्विकनिषिद्धकर्मान्तरं समुचिनोति। "बाले शुक्र हवे शुक्र नष्टे शक्र जौवे नष्टे । बाले जोवे बह जौवे सिंहादित्ये गुर्वादिये। तथा मलिम्बुचे मासि सुराचा ति चारगे। वापीकूपतड़ागादिक्रियाः प्रागुदितास्त्यजेत् । पतीचार गते जौवे व चैव वृहस्थती। कामिनी विधवा प्रोक्ता तस्मात्तौ परिवर्जयेत्। अतो चार गतो जीवः पूर्वभौं नैव गच्छति। समचारेऽपि कर्माणि नैव तचैव संस्थिते । देवलः। "बाले बड़े तथैवास्त कुरते For Private And Personal Use Only Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम् । दैत्यमन्त्रिणि। उहाहितायां कन्यायां दम्पत्योरेकनाशनम्। प्रागुगतः शिशरहस्त्रितव' सित: स्यात्। पश्चाद्दशाहमिति पञ्चदिनानि वृद्धः । प्राक्पक्षमेव कथितोऽत्र वशिष्ठगगै वस्तु पक्षमपि वृशिशुर्विवर्यः। अत्यन्ताशती राजमार्तण्डः "बाले वृद्धे च सध्यांशे चतुःपञ्च विवासरान्। जौवे च भार्गके चैव विवाहादिषु वर्जयेत्। वक्र चैवातिचारे विदशपतिगुरो दैवपूज्ये च सुप्ते गुर्वादित्येऽधिमासे दिवसकर रिपो वाक्पती चैत्रपोषे। विध्यां केतूहमे वा शरदि सुरगुरी सिंहसंस्थे मनोजे वर्षादाप्नोति चोढ़ा मुनियतमरणं देवकन्यापि भर्तुः । शुक्रमधिकृत्य राजमार्तण्डे "वाले च दुभंगा नारौ वृद्ध नष्टप्रजा भवेत्। नष्टे च मृत्युमाप्नोति सर्वमेतद् गुरावपि ॥ सिंहे गुरौ परिणौता पतिमात्मानमात्मजान् हन्ति । क्रमशस्त्रिषु पिनादिषु वशिष्ठगर्गादयः प्राहुः । गुरौ हरिस्थे न विवाहमाहुरौितगर्गप्रमुखा मुनीन्द्राः। यदा न माधौ मघसंयुता स्यात् तदा तु कन्योहहनं वदन्ति” ॥ अत्रैव माण्डव्यः । "मघा ऋक्षं परित्यज्य यदा सिंह गुरुर्भवेत्। तदाब्दे कन्यका चोढ़ा सुभगा सुप्रिया भवेत्” । हारीतः । “प्रतीचारं गते जौवे वृषे वृश्चिककुम्भयोः। यज्ञोहाहादिकं कुर्यात्तत्र कालो न लुप्यते" ॥ कृत्यचिन्तामणौ । “प्रतीचारं गते जौवे वृषे वृश्चिककुम्भयोः । तत्र चोहाहिता कन्या संप्रणौयात् कुलहयम्" ॥ सङ्केतकौमुद्यां भीमपराक्रमे “यदातिचारं सुरराजमन्त्री करोति गोमन्मथमीनसंस्थः । न याति चेद्यद्यपि पूर्वराशिं शुभाय पाणिग्रहणं वशिष्ठः ॥ अतीचारं गते जौके स्थिरराशौ च संस्थिते। तत्र न लुप्यते कालो वदत्येवं पराशरः॥ वाणकूपतड़ागादिनिषिद्ध सिंहगे गुरौ। मकरस्थे तु तत् कायं न दोषः काललोपजः”॥ यत्तु "कन्याधिक For Private And Personal Use Only Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम् । मेषेषु मिथुने च झष वृषे। प्रतीचारेऽपि कर्त्तव्यं विवाहादि वुधैः सदा" इत्येतदमूलं हैतनिर्णयेऽप्यक्ति दीपिकायां "त्रिकोणजाया धनलाभराशौ धक्रातिचारण गुरुः प्रयातः। यदा तदा प्राह शुभे विलग्ने हिताय पाणिग्रहणं वशिष्ठः" । देवीपुराणम् । "मकरस्थो यदा जीवो वर्जयेत् पञ्चमांशकम् । शेषेष्वपि च भागेषु विवाहः शोभनो मतः” ॥ भोजराजः । “यो जन्ममासे तुरकर्मयात्रा कर्णस्य वेधं कुरुते च मोहात्। नूनं स रोगं धनपुत्रनाशं प्राप्नोति मूढो बधबन्धनानि ॥ जातं दिनं दूषयते वशिष्ठश्चाष्टौ च गर्गो यवनो दशाहम्। जन्माख्यमासं किल भागुरिश्च चौड़े विवाहे चुरकर्णवेधे" ॥ श्रीपतिसमुच्चये "स्नानं दानं तपोहोमः सर्वमङ्गल्यवर्द्धनम्। उहाहश्च कुमारोणां जन्ममासे प्रशस्यते” ॥ कृत्यचिन्तामणो “जन्ममासे च पुत्राया धनाढ्या च धनोदये। जन्मभे जन्मराशी च कन्या हि ध्रुवसन्ततिः ॥ गर्गः। “ज्येष्ठे मासि तथा मार्ग क्षौरं परिणयं व्रतम्। ज्येष्ठ पुत्रदुहितोश्च यत्नतः परिवर्जयेत्” । अथ ज्येष्ठत्वमादिगर्भजातत्वं तथा च "जन्ममासि न च जन्मझे तथा नैव जन्मदिवसेऽपि कारयेत् । पाद्यगर्भभवपुत्रकन्ययोः । ज्येष्ठमासि न च जातु मङ्गलम्'। अत्र जन्ममासादौ पुत्रमावस्य निषेधः ज्येष्ठमासे तु ज्येष्ठ पुत्रस्येति विशेषः । “कत्तिकास्थं रवि त्यक्त्वा ज्य हे ज्य ठस्य कारयेत्। उत्सवेषु च सर्वेषु दिनानि दश वर्जयेत् ॥ रेवत्युत्तररोहिणौमृगशिरो मूलानुराधा-मघा-हस्ता-स्वातिषु। तौलिषष्ठमिथुनेषु द्यसु पाणिग्रहः। सप्ताष्टन्त्यवहिःशुभैरुडुपतावेकादशहिनिगे करैस्त्यायषड़ष्टगैर्न तु भृगौ षष्ठे कुजे चाष्टमे” ॥ ज्योतिर्विहितनक्षत्रादधिकं चित्राश्रवणा-धनिष्ठाखिनौनक्षत्रपारस्करणोक्तं यथा "कुमाया: पाणिं गृह्नौयाचिषत्तरादिषु उत्तरफल्गुन्यादि For Private And Personal Use Only Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम् । त्रयोत्तराषाढ़ाचित्रयोत्तरभाद्रपदादित्रयेषु नवसु नक्षत्रेष्टि त्यर्थः । भीमपराक्रमे "पूर्वानये विशाखायां शिवाये भचतु. टये। ऊढ़ा चामुभवेत् कन्या विधवातो विवर्जयेत् ॥ विष्णुभाये त्रिके चित्रे ज्येष्ठायां ज्वलने यमे। एभिर्विवाहिता कन्या भवत्येव सुदुःखिता" ॥ एवञ्च पारस्करोतां यजर्वेदिविषयमापहिषयं वा बोध्यम् । श्राद्ये मघा चतुर्भागे नैऋतस्याद्य एव च । रेवत्यन्तचतुर्भाग विवाहः प्राणनाशकः । कर्णमेधे विवाहे च व्रते पुंसवने तथा। प्राशने चाद्यचड़ायां बिमृक्षं विवर्जयेत्”॥ बिर्तन्तु “तिथि १५ अङ्ग ६ वेद ४ एक १ दश १० जनविंश १८ भ २७ एकादश ११ अष्टादश १८ विश २० संख्याः। इष्टोडुना सूर्ययुतोडुना च योगादमूचेशयोगभङ्गः । कर्मकालीननक्षत्रसूर्यभुज्यमाननक्षत्रयोर्मेलने यदि पञ्चदशाद्यन्यतमसंख्या भवति तदा न कर्मयोग्यमित्यर्थः । मप्रविंशाधिकत्वे सप्तविंशतिमपहाय शेषात् फलं अन्यधैक-- संख्यानुपपत्तेः । अपवादस्तु। “श्राद्यपादे स्थिते सूर्य तुरीयांशं प्रदुथति। द्वितीयस्थे रतौयन्तु विपरीतमतोऽन्यथा" ॥ व्यक्तमाह स्वरोदये। "प्राद्यांशेन चतुर्थाशं चतु. थांशन चादिमम् । द्वितीयेन तोयन्तु टतोयेन द्वितीयकम्। ___ अत्रैव खजूरवेधः। तथा च रत्नमाला। “एकामूर्द्धगतां बयोदश तथा तिर्यग्ग ताः स्थापयेत् । रेखाश्चक्रमिदं बुधेरभि. हितं खार्जुरिकं तत्र तु ॥ व्याघातादि तु मूनि भन्तु कथितं सौक्यरेखास्थयोः सूर्य-चन्द्रमसोमिथो निगदिता दृक्पात एकार्गलः ॥ व्याघातादौति व्याघातयोगसंख्याङ्कस्त्रयोदशाझम् । तथा च हस्तादौनि नक्षत्राणि देयानौत्यर्थः । दौपिकायां "कत्तिकादिचतुःसप्त रेखा राशौ परिभ्रमन् । For Private And Personal Use Only Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम् । ६०६ ग्रहश्वेदेकरेखास्थो वेधः सप्तशलाकजः॥ सप्त सप्त विलिखेत् प्ररेखिकास्तिर्यगूढ मथ कृत्तिकादिकम् । लेखयेदभिजिता समन्वितं चैकरेखगखगेन बिध्यते ॥ वैश्यस्य चतुर्थेऽ शे श्रवगादौ लिप्तिकाचतुष्क च। अभिजित् तत्स्थे खेचर विजेया रोहिणौ बिदा' ॥ लिप्तिका दण्डः। “यस्याः शशी सप्तशलाकभिन्नः पापैरपापैरथवा विवाहे। रतांशुकेनैव तु रोदमाना श्मशानभूमि प्रमदा प्रयाति” ॥ सप्तशलाकवेधः। अस्यापवादो यथा राजमार्तण्डे । “विषप्रदिग्धेन इतस्य पत्रिणा मृगस्य मांसं शुभदं क्षतादृते। यथा तथानाप्युडुपाद एव प्रदूषितोऽन्यधिपदं शुभावहम् ॥ ऊर्ल्ड रेखास्थिताः पञ्च तिर्यक् पञ्च तथैव च। हे हेच कोणयोरेखे साभिजित् वत्तिकादिकम् ॥ शम्भुकोणे द्वितीये तु लेखयेत् सर्वकर्माणि । रैभित्रमथो सौम्य नक्षत्र परिवर्जयेत् ॥ न वापाते च ये दोषा ये च सप्तशलाकके। ते सर्वे प्रभवन्त्यत्र नाना पञ्चशलाकके ॥ अथ चक्रानये कश्चित् पादवेध इहेष्यते" ॥ तदुक्तं रत्नमालायाम्। कैश्चित्तत्रापोथते पादवेध इति । इति पञ्चशलाकचक्रम्। रत्नमालायाम्। 'ऋक्षं हादशमुष्णश्मिरवनीसूनुस्त तौयं गुरुः षष्ठं चाष्टममर्कजस्तु पुरतो हन्ति स्फुट न त्वया। पश्चात् सप्तमिन्दुजस्तु नवमं राहुः सितः पञ्चमं हाविंशं परिपूर्णमूर्तिरुडुपः सन्तायै बेतरत् । नत्वापातोऽयम्। “पापात् सप्तमगः शशौ यदि भवेत् पापेन वा संयुतो यत्नात्त परि. वर्जयेत् मुनिमतो दोषो ह्ययं कथ्यते । यात्रायां विपदो रहे सुतबधः क्षौरेषु रागोड़वोऽप्युद्दाहे विधवा व्रते च मरणं शूलञ्च पुस्कम्मणि"। "रविमन्द कुजाक्रान्तं मृगाङ्कात् सप्तमं त्यजेत्। विवाह For Private And Personal Use Only Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६१० ज्योतिस्तत्वम्। यात्राचड़ासु एहकर्म प्रवेशने" ॥ यामित्रवेधः । “मूलत्रिकोणनिजमन्दिरगोऽथ पूर्णो मित्र सौम्य ग्रहगोऽथ तदौ. क्षितो वा। यामित्रवेधविहितानपहृत्य दोषान् दोषाकरः शुभमनेकविधं विधत्ते” ॥ भोजराजः। “त्रिषड्दशैकादशगो दिनेशः सुतार्थसौभा. ग्य शुभप्रदः स्यात्। वैधव्यदाताष्टमराशिसंस्थः शेषेषु रुग् दुःखशुचः करोति" ॥ रविशुद्धिः । “कन्यानक्षत्रशुद्धो स्याहिवाइ: शभक्तवृणाम्। पश्चात् भर्नुर्विशया तु यात्रा पुष्योमवादयः" ॥ विद्याधरौविलासे। “सामर्कः स्मृतो योनिर्योपिताममृतद्युतिः। प्रतः पुंयोषितोः शस्त बलमर्कशशाङ्कजम् ॥ गोचरशुद्धा विन्दु कन्याया यत्नतः शुभं वीक्ष्य। तौग्मकिरणञ्च पुंस: शेषैरबलैरपि विवाहः ॥ हितौयपुत्राङ्गगतः प्रभाकरः त्रयोदशाहात् परतः शुभप्रदः। न जन्मसप्तव्यय. रन्धगस्तथा करोति पुंसामपि तादृशं फलम् ॥ तथा त्रयोदशाहात् परतः। "त्रयोदशदिनान्यर्को दशषडधरणीसुतः । साई दिनञ्च शीतांशुर्मासमेकादशं तमः ॥ सोरिः पादाधिक वर्ष मासानष्टौ वृहस्पतिः। भवनाई भृगुः सौम्यो यावद्राश्यशुभा: फलम् ॥ . कष्टं व्रतादिके दान तथा शेषभागगाः । लग्ने तत् पञ्चमे तुर्य दशमे नवमे तथा॥ गुरु गुर्वा दोषघ्नो विवाहे वईते सुखम्" ॥ अयमेव सुतहिवुकयोगः । ___ गोधूलिं विविधां वदन्ति मुनयो नारी विवाहादिके हेमन्ते शिशिरे प्रयाति मृदुतां पिण्डौकत भास्करे। ग्रामऽद्धास्तमिते वसन्तसमये भानौ गते दृश्यतां सूर्ये चास्तमुपागते च नियतं प्राहट शरत्कालयोः। लग्न यदा नास्ति विशुद्धमन्यहोलिकां तत्र शुभां वदन्ति। लग्ने विशुद्धे सति वौर्ययुक्त गोधलिका नैव फलं विधत्ते॥ नास्मिन् ग्रहा न तिथयो For Private And Personal Use Only Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम् । न च विष्टिवारा ऋक्षाणि नैव जनयन्ति कदापि विघ्नम् । अव्याहतः सतमेव विवाहकाले यात्रासु चायमुदितो भृगुजे न योगः। मार्गे गोलियोगे प्रभवति विधवा माघमासे तथैव पुत्रायुधनयौवनेन सहिता कुम्भे स्थिते भास्करे । वैशाखे सुखदा प्रजाधनवती ज्यैष्ठे पतेर्मानदा प्राषाढ़े धनधान्यपुवबहुला पाणिग्रहे कन्यका"। विवाहपटले। “व्यूढ़ा धनुषि 'च कुलटा तत्पूर्वाः सतीत्यपरे जगुः । ज्योतिःसारसंग्रह "विवाहे तु दिवाभाग कन्या स्यात् पुत्रवर्जिता । विवाहानल. दग्धा सा नियतं खामिघातिनौ ॥ महाभारते। “रात्री दानं न शंसन्ति विना चाभयदक्षिणाम्। विद्यां कन्यां हिजश्रेष्ठा दौपमन प्रतिययम् ॥ व्यासः। "रितासु विधवा कन्या दर्शऽपि स्यात् विवाहिता। शनैश्चरदिने चैव यदा रिता तिथिर्भवेत्॥ तस्मिन् विवाहिता कन्या पतिसन्तानवहिता" ॥ स्मृति: "धर्मार्थकाममोक्षाणां दाराः संप्राप्तिहेतवः। परीक्षन्ते प्रयत्नेन पूर्वमेव करग्रहात् ॥ मनुः । "अव्यङ्गाङ्गों सौम्य नाम्नी हंसवारणगामिनीम्। तमुलोमकेशदशनां मृदङ्गौमुहहेत् स्त्रियम्” ॥ शातातपः "हंसखना मेघवणां मधुपिङ्गललोचनाम् । तादृशीं वरयेत् कन्यां रहस्थः मुखमेधते ॥ भविष्थे "प्रतिष्ठिततलाः सम्यक् रक्ताम्भोजसमविषः । तादृशावरणा धन्या योषितां भोगवईनाः ॥ प्रतिष्ठितो भूमौ लग्नः समस्तलोऽधोभागो येषां ते तथा ममुः। “नोहहेत् कपिलां कन्यां नाधिकाङ्गों न रोगिणीम् । नालोमिकां नातिलोनों न वाचाला न पिङ्गलाम् ॥ नक्षवृक्षनदी नानी नात्यपर्वतनामिकाम । न पक्ष्यहि प्रेथनानी न च भौषणनामिकाम्" ॥ प्रतिप्रसवमाह मल्यसूक्ते । "गङ्गा च यमुना चैव गोमती च सरस्वती। नदौखासा नाम हो For Private And Personal Use Only Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्वम् । मालतौ तुलसौ पपि॥ रेवती चाखिनीभेष रोहिणी शुभदा भवेत् ॥ अत्यचिन्तामणौ। “नेत्रे यस्याः केकरे पिङ्गले वा स्याटुःशौला श्यावलोलेक्षणा च । कूपो यस्था गण्डयोः सम्मित योनिः सन्दिग्धां बन्धकी तां वदन्ति" , नन्दिकेश्वरपुराणे । “श्यामा सुकेशौ तनुलोमराजो सुः सुशीला सुगतिः सुदन्ता। वेदो विमध्या यदि पङ्गजाक्षी कुलेन होनापि विवाहनोया। पृष्टा कुदन्ता यदि पिङ्गलाक्षी लोम्बा समा. कीर्णसमाङ्गयष्टिः॥ मध्ये पुष्टा यदि राजकन्या कुलेऽपि योग्या न विवाहनीया ॥ हारीतः। "तस्मात् कुलनक्षत्रविज्ञानोपपत्रां वरयेत्। नक्षत्रोपपन्ना नाडौनक्षत्रहीनाम् ॥ नाडौनक्षत्रमाह स्वरोदये। "अखिन्यादि लिखेचक्र सर्पाकारं विनाडिकम्। तत्र वेधवशात् जयं विवाहादिशुभाशुभम् ॥ त्रिनाडौवेधनक्षत्रमखि न्यार्दा युगोत्तराः । इस्तेन्द्र मूलवारुण्यः पूर्वभाद्रपदास्तथा ॥ याम्यः सौम्यो गुरुयोनिश्चिवामित्रजनाह्वयम्। धनिष्ठा चोत्तरा भद्रा मध्यनाड़ी व्यवस्थिता ॥. कृत्तिका रोहिणी सों मघा स्वाती विशाखके। उत्तरा श्रवणा पोष्णं पृष्ठनाड़ी व्यवस्थिता ॥ अश्वद्यादिनाड़ोवेधर्ते षष्ठं द्वितीय क्रमात्। याम्यादितुण्ड तुर्यञ्च कत्तिकादिहिषटककम् ॥ एवं निरौक्षयेद्देधं कन्यामन्चे सुरे गुरौ। पण्य श्रीस्वामिमित्रेषु देशे ग्राम पुरे रहे ॥ एक. नाडीस्थधिष्णानि यदि स्युर्वरकन्ययोः । तदा वेधं विजानौयात् गुर्वादिषु तथैव च ॥ प्रकटं यस्य जन्मीं तस्य जन्मदंतो व्यधः। प्रनष्टं जम्मभं यस्य तस्य नामर्शतो वदेत् ॥ इयोजन्मभयोर्वेधो यो ममयोस्तथा। नामजन्मयोर्वेधी न कर्त्तव्यं कदाचन ॥ एकनाडौस्थिता चेत् स्यात् भर्नाशाय चाङ्गना। तस्मानाडीव्यधो वौच्यो विवाहे शभमिच्छता। For Private And Personal Use Only Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ___ज्योतिस्तत्त्वम् । ६१३ प्राङ्नाद्या वेधतो भर्ता मध्यनाद्यो भयं तथा। पृष्ठनाडौव्यधे कन्या म्रियते नात्र संशयः ॥ एकनाडौस्थिता यत्र गुरुमन्वय देवता। तत्र देषं रुजं मृत्यु क्रमेण फलमादिशेत् ॥ प्रभुः पण्याङ्गनामित देशो ग्रामः पुरं एहम्। एकनाड़ी गता भव्या प्रभव्या वेधवर्जिताः" ॥ प्रतिप्रसवमा ज्योतिषे । "एकराण्यादियोगे तु नाडौदोषो न विद्यते'। स यथा *एकराशौ च दाम्पत्ये शुभं स्यात् समसप्तके। चतुर्थे दशमे चैव टतोय कादशे तथा" ॥ समग्रहणाविषमसप्तके दोषः। तथा च। "घोटके सप्तके मेषतुले युग्मयो तथा। सिंहघटौ सदा वज्यों मृति तनावहौच्छिवः” ॥ श्रीपतिव्यवहारनिण ये। “सुहदेकाधिपयोगे तारावले वश्यराशौ वा। अपि नाद्यादिवेधे भवति विवाहो हितार्थाय" ॥ राजमार्तण्डे । “न राजयोगे ग्रहवैरिता च न तारशुदिन गणत्रयं स्यात् न नाड़ौदोषो न च वर्णदुष्टिगर्गादयस्ते मुनयो वदन्ति । राजयोगस्तु एकराश्यादियोग एव तवैव नाद्यादिप्रतिप्रसवात् । श्रीपतिरत्नमालायाम् । “प्रश्खे भाजफणिहयं श्व वृषभृनषोन्दुरूमूषिकवाखुर्गौ: क्रमशस्ततोऽपि महिषो व्याघ्रः पुनः सोरभो"। व्याघ्रणो मृगकुक्करी कपिरथोरत्रहयं वानरः सिंहोऽखो मृमराट् पशुश्च करटोयोनिश भानामियम्। गोव्याघ्र गजसिंहमखमहिषं श्वणश्च वचरगं वरं वानरमेषकच्च सुमहत्तहहिडालोन्दुरुम्। लोकानां व्यवहार• तोऽन्यदपि च ज्ञात्वा प्रयत्नादिदं दम्पत्यो पत्ययोरपि सदा वज्यं शुभस्यार्थिभिः। मकरसमेतं मियनं कन्या कलसो मृगेन्द्रमोनो च। वृषभतुले पलिमेषो कर्कटधनुषो च मित्रविधी"। षटकाष्टकाविति शेषः । अरिषडाष्टकमाह। “मकरः करिकुलरिपुणा कन्या ५२ For Private And Personal Use Only Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६१४ ज्योतिस्तत्त्वम् । मेषेण सह ऋषस्तुलया। ककिंघटी वृषधनुषी हश्चिकमिथुने चारिविधौ ॥ यदि कन्याष्टमे भर्ता भर्तुः षष्ठे च कन्यका। षटकाष्टकं विजानीयात् वर्जितं त्रिदशैरपि ॥ पुंसो रहात् सुतराहे सुतहा च कन्या धर्मे स्थिता सुतवती पतिवल्लभा च । हिादशे धनरहे धनहा च कन्या रिप्फे स्थिता धनवती पतिवल्लभा च” ॥ षडष्ट कादौ तारानियममाह भौमपराक्रमः । “सौहृद्ये धुभयोईयोरपि तयोरैकाधिपत्येऽपि वा साराषट्सुमित्रमित्रज्वलनक्षेमार्थसम्पद यदि । षटकाटे नवपञ्चके व्ययधने योगे च पुंयोषितोः प्रोत्यायुः सुखबुद्धिपुष्टि जनकः कार्यों विवाहस्तदा"। गर्गः। “मरणं तारविरोधे प्रहरिपुभावे चिरेण । रोगादिनरनार्योः षटकाष्टके वैरमवश्यं भवेदाशु” ॥ व्यासः। "मैत्रादियोगेऽपि षड़ष्टकादौ ताराविपत् प्रत्यरिनैधनाख्याः। वा विवाहे पुरुषोडुतो हि प्रौति: परा जन्मसु तारकासु। नक्षत्रमेकं यदि भिन्नराशिन दम्पती तन सुख लभेताम् ॥ विभिन्नमृक्षं यदि चैकराशिस्तदा विवाहः सुतसौख्यदायो। एकशे च यदा कन्या राश्ये का च यदा भवेत्। धनपुत्रवती नारी साध्वी भर्तुप्रिया सदा ॥ षड़ष्टके गोमिथुनं प्रदेयं कांस्य सरूम्य नवपञ्चके तु। बिर्दादशाख्ये कनकावतान विप्रार्चनं हेम च नाड़िदोषे ॥ मरणं नाड़ौदोषे कलहः षटकाष्टके विप. त्तिर्वा। अनपत्यता त्रिकोणे हिादशे दारिद्रम् ॥ त्यचिन्तामणो। "हस्ता खातिश्रुतिमृगशिरः पुष्यमैत्रा. विभानि पौष्णादित्ये जगुरिह बुधा देवसंज्ञानि भानि । पूर्वास्तिस्रः शिवभभरणौ रोहिणी चोत्तराश्च प्राहुर्मायः मुडुगणं ननमेतं मुनीन्द्राः ॥ चित्राश्लेषा निति पिटभ वासवं वासवर्ण शकाग्न्योर्भ वरुणदहनः च रक्षो गणोऽयम्॥ For Private And Personal Use Only Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम् । फलमाह औषति: "खकुले चोत्तमा प्रौतिमध्यमा देवमानुषे । देवासुरे कनिष्ठा च मृत्युर्मानुषराक्षसें ॥ राक्षसी च यदा कन्या मानुषश्च वरो भवेत्। तदा मृत्युनं दूरस्थो निर्धनत्वमथापि वा" ॥ राजमारडे। “यदि स्याद्राक्षसो भर्ता कन्यका मानुषो भवेत्। विवाहे सुखमाप्नोति वैपरीत्य विवर्जयेत् ॥ युद्धजयार्णवे। "देवा जयन्ति युद्धन सर्वथा नात्र संशयः। रक्षा मानुषाणाञ्च संग्रामे निश्चया मृतिः ॥ ककिमौनालयो विप्राः क्षेत्राः सिंहतुला हयाः। वैश्या युग्माजकुम्भाख्या: शूद्रा वृषसगाना:॥ सर्वाः परिणयेहिप्रः क्षत्रियो नवभाग्भवेत्। पड़ाययो भवेद्देश्यस्तिस्रः शूद्र प्रकीर्तिताः । वर्णश्रेष्ठा च या नारी हीनवर्णव यः पुमान। महत्यपि कुले जाता नासौ भत्तरि रज्यते ॥ .. अथ नववध्वागमनम्। दीपिकायां "स्वौशयालि घटाजसंयुतरवी काले विश्छे भृगु संत्यज्य प्रतिलोमगं शुभदिने यात्रा प्रवेशोचिते। त्या रस्तु निरंशकं नववधूयात्राप्रवेशी पतिः कुर्यादेकपुरादिषु प्रतिभूगोर्ने च्छन्ति दोषं बुधाः । पैत्रागारे कुचकुसुमयोः सम्भवो वा यदि स्यात् कालः शुद्धो न भवति यदा संमुखो वापि शुक्रः। मेषे कुम्भेऽलिनि च भवेत् भास्करथेत्तथापि खामौ भट्रेऽहनि नववधं वेशयेमन्दिरं स्वम्। भतर्गोचरशोभने दिनपतौ नास्त गते भार्गवे सूर्ये कौटघटाजगे शुभदिने पचे च कृष्णेतरे। हित्वा च प्रतिलोमगौ बुधसितो जीवस्य शुद्धौ तथा चानौता गुणशालिनी नवबध नित्योत्सवा मोदते। एकग्राम चतुःशाले दुर्भिक्षे राष्ट्रविप्लवे । पतिना नौयमानाया: पुरः शुक्रो न दुथति" ॥ तथा "काश्य. पेषु वशिष्ठेषु भृग्वादित्यङ्गिरःसु च। भारद्वाजेषु वास्ये सु प्रतिशको न दोषभाक् ॥ For Private And Personal Use Only Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६१६ ज्योतिस्तत्त्वम् । श्रीपतिसंहितायां प्रचेताः । “पुष्यादित्यसमौरवादिति वसुस्वप्युत्तरा रेवती तारानायकरोहिणीषु शुभदो मेषालिकुम्भ रवौ वारेष्विज्यसितेन्दुवित्सु शुभदे तारे प्रशस्ते विधौ कन्यामन्मथ मौनतौलिमृगभे स्यादङ्गना द्यागमः” । नारायणापती "वृत्ते पाणिग्रहे गेडात् पितुः पतिग्टहं प्रति । पुनरा गमनं बध्वा स्वह्निरागमनं विदुः ॥ ज्योतिःसारसंग्रहे "विवाहमासि प्रथमं बध्वा नागमनं यदि । तदा सर्वमिदं चिन्त्यं युग्माद्यब्द विचक्षणैः ॥ कत्यचिन्तामणी । " श्रं हन्त्यटमे वर्षे श्वशुरच्च दशाब्दिके । संप्राप्ते द्वादशे वर्षे पतिं हन्ति हिरागमे ॥ मत्स्यसूक्ते "भुक्वा fपटगृहे कन्या भुङ्क्ते स्वामिगृहे यदि । दौर्भाग्यं जायते तस्याः शपन्ति कुलनायिका : " ४ 1 अथ प्रथमरजोयोगः । नारायणपद्दतौ । " श्रादित्ये विधवा नारी सोमे चैव पतिव्रता । वेश्या मङ्गलवारे च बुधे सौभाग्यमेव च ॥ वृहस्पतौ पतिः श्रीमान् शुक्रे चापत्यमेव च । शनौ बन्ध्यां विजानीयात् प्रथमे स्त्री रजखला ॥ पूर्वावये याम्यभुजङ्गरौद्रे वैधव्यमस्या विदधाति नूनम् । मधे सशोकायथभेऽदितोशे सा बन्धकौन्ट्रोनलभे दरिद्रा । पुष्पं दुष्टं निन्दिते भे यदि स्यात् शान्तिं कुर्य्यादङ्गनानाञ्च पूर्वम् ॥ तत्संयोगं बान्धवा वर्जयेयुर्यावद भूयो दृश्यते शस्तभे तत् । ज्येष्ठे स्याद्विधवा नारी प्राषाढ़े धनसंयुता । श्रावणे च मृतापत्या भाद्रे च बहुरोगिणौ ॥ श्राश्विने च मृतापत्या कार्त्तिके कुलनाशिनी । मार्गशीर्षे धर्मशीला पौषे च रतिविला ॥ माघे पतिव्रता नारौ फाल्गुने बहुपुत्रियौ । चैत्रे च मदनोन्मत्ता वैशाखे प्रियवादिनी” ॥ इति मासफलम् । " कृत्तिकादौनि ऋक्षाणि दिच्वष्टसु लिखेहुधः । चत्वारि दिक्षु ऋचाणि For Private And Personal Use Only Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्वम् । कोणेषु च वयं लिखेत् ॥ पूर्वादिक्रमतो लेख्यं फलं तेनैव निर्दिशेत्। स्त्री बन्ध्या सुभगा चैव विपुत्रा पुत्रिणौ तथा ॥ विधवा सर्वसम्पवा वेश्या चेति क्रमात् फलम्। प्राधे रजसि संभूते स्त्रीणामृक्षफलं भवेत् ॥ इति नक्षत्रफलम् । अथ गर्भाधामम्। “ज्येष्ठा मूला मघाश्लेषा रेवती कृत्तिकाखिनौ। उत्तरा त्रितयं त्यक्त्वा पर्ववर्ज बजेहतौ” । अर्वाण्याइ विष्णुपुराणम्। "चतुर्दश्यष्टमौ चैव अमावास्वाथ पूर्णिमा। पर्यायेतानि राजेन्द्र रविसंक्रान्तिरेव च ॥ शौनकः “पुनक्षत्राणि चैतानि तिष्यो हस्तः पुनवसुः। अभि. जित् प्रोष्ठ पञ्चैवानुराधाषाढवावयुक् ॥ हस्तो मूलं श्रवण: पुनर्वसुर्मगशिरस्तथा पुष्यश्च गर्भाधानादिकार्येषु पुनामायं गण: शुभदः। रोहिण्यन्त कचित्राहिविशाखा शतवर्जिते । भे पुंग्रहाहे स्त्री शुद्धा फलबन्धनमिष्यते ॥ पुष्पार्कचन्द्रशिवमूलपुनर्वसुः स्यादाषादयुग्महरिभाद्रपदद्दयच्च । एतानि पुंसि कथितानि शुभानि भानि चान्येषु गर्भपतनादिभयच्च भेषु । नन्दा भद्रा भवेत् पुंसि स्त्रीषु पूर्णा जया स्मृता। रिता नपुंसके वाहुस्तस्मात्तां परिवर्जयेत् । स्त्रीणामृतुर्भवति षोड़शवासराणि तवादितः परिहरेच निशाचतसः । युग्मासु रात्रिषु नराविषमासु नार्यः कुर्याविषेकमथ तास्वपि पर्ववर्जम्। मूल स्मृतिदुष्टत्वागर्भाधानेषु नेष्यते। तस्य पुंसवमादौ तु पंसंजवे प्रयोजनम्"। यथा याज्ञवल्क्यः । “एवं गच्छन् स्त्रियं चामां मघां मूलाच वर्जयेत्। शस्त इन्दौ सकत् पुत्रं लक्षण्वं जनयेत् पुमान्” ॥ क्षामाम् पाहारलाघवादिना क्षीणाम्। फलञ्च "युग्मास पुत्रा जायन्ते पित्र दो युग्मासु रात्रिषु। तस्माद युग्मासु पुत्रार्थी संविशेदात्तवे स्त्रियम् । पुमान् पंसोऽधिके शुक्र स्त्री भवत्यधिक स्त्रियाः" For Private And Personal Use Only Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६१८ ज्योतिस्तत्त्वम् । इति मनूक्तम् । एवञ्च " युग्मायामपि रात्रौ चेत् शोणितं प्रचुरं तदा । कन्या पुंवद्भवति शुक्राधिकवे पुमान् भवेत् ॥ कन्यैव युग्मरात्रौ च प्राधान्यं समवायिनः । निमित्तकारणात् कालाच्छुक्रशोणितयोर्यतः ॥ पौड़ा राशौ भौमदृष्टे शशाङ्के मासं मासं योषितामार्त्तवं स्यात् । वंशे शान्तं यच्च रक्त जवाभं तद्वर्गार्थं वेदनागन्धहीनम्” ॥ गर्भयोग्य ऋतुनिरूपणम् । "पापा संयुतमध्यगेषु दिनक्कत् लग्नचपा खामिषु तद्यनेषु शुभोमितेषु विकुजे छिद्रे विपापे सुखे । सद्युक्तेषु त्रिकोणकण्टक विषुष्वाय विषष्ठान्विते पापे युग्मनिशासु गण्डसमये पुंखितः सङ्गमः । मूलमघाश्विनौनामाद्य ज्येष्ठान्त्यसर्पाणाम् । अन्त्यं गण्डपदं त्यक्त्वा षोड़शाहे ऋतौ व्रजेत् । अशक्तौ तु भुजबलभौमे “अन्त्यं पौष्णेन्द्रसर्पाणामाद्यं पित्रखिमूलगम् । गण्डं दण्डवयं ख्यातं सर्वकार्येषु कल्पितम् । पुमान् विंशतिवर्षखेत् पूर्णषोडशवर्षया । स्त्रिया सङ्गच्छते गर्भाशये शुद्ध े रजस्यपि । श्रपत्यं जायते भद्रं तयोर्न्यूनेऽधमं स्मृतम् । मासेशैः सितकुजगुरु रविशनिसौम्य लग्न पशथौनैः कलुषः पौड़ा गर्भस्य पीड़ितैः पतनमन्यथा पुष्टिः " ॥ कालुष्यं मासेशेन पापग्रहयोगशत्रुग्टहास्थिति नौचग्टहयोग उपग्रहयोगादि । मासेशजन्मनक्षत्रे पापग्रहयोग: पौड़ा येषां जन्मक्षणि १६ । ३ । २० । २२ । ११ । ८ । २७ । २ । मासेशशान्त्यादौ कृते न गर्भपौड़ा । अथ प्रश्नात् पुत्रादिज्ञानम् । “विवाहलग्नं विषमक्षंसंस्थः सौरोऽपि पुंजन्मकरो विलग्नात् । त्यादिग्रहाणामत्रलोकय वौर्य वाच्यः प्रसूतौ पुरुषोऽङ्गना वा " । अथ षोडशवर्षीया गर्भिणौचिन्ता । “या सूता षोड़शे वर्षे तत्र वा घृतगर्मिका मृत्युस्तस्याः सपुत्रायाः पितुश्चापि व सम्मतः ॥ मांसौप्रियङ्गुरजनो गुग्गुलुवंशलोचना । तालिशेन For Private And Personal Use Only Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६१८ ज्योतिस्तत्त्वम् । तिलालाजा गर्भिगौनानमुत्तमम् ॥ गौरौं संपूज्य तत्पश्चात् संक्रमेच्छिवसन्निधौ। छागौ गर्मवती देया दैवज्ञायाथ गोयुगम् । कांस्यपानस्थितं चन्द्रं सितवस्त्राअसंयुतम्। वस्त्रैः कृष्ण च शत्पुष्पैश्चन्दनागुरुधपकैः । कलापमार्जयेबारों भोजयेद ब्राह्मणांस्तत: ॥ अथ पुंसवनम् । “कुर्यात् पुंसवनं सुयोगकरणे नन्दे सभद्रे तिथौ भाद्राषाढनुभश्वरेषु नृदिने वेधं विनेन्दौ शुभे। अक्षौण नवपञ्चकण्टकगते सौम्ये शुभे वृधिषु स्त्रीशुया घटयुग्मसूर्यगुरुभेषद्यत्सु मासत्रये ॥ नृदिने पुंग्रहवारी । वेधो दशयोगभङ्गः। वृद्धिरूपचयस्थानम् ।। अथ पञ्चामृतम्। "रेवत्यश्विपुनर्वसहयमरुन्मूलानुराधा. मघाहस्तासूत्तरफल्गुभेषु भृगुजे जौवार्कवार तथा। लग्नर्नेडुपशोभने च नियतं संत्यज्य रितां तिथिं न देयं मासि तु पञ्चमे सुकरणे पञ्चामृतं योषिताम्। दुग्धं सशर्करं चैव वृतं दधि तथा मधु । पञ्चामृतमिदं प्रोक्त विधेयं सर्वकम्मसु” ॥ ___अथ सौमन्तोनयनम् । “षष्ठे मासेऽष्टमेऽहौज्य कुजदिनकृतां नन्दभने तिथो च मैत्रे मूले मृगाङ्के करपिटपवने पौष्णविष्णुत्रियुग्मे । तिष्याश्ववादित्यरौद्रे युवतिहरिझर्ष वृश्चिके वापि लग्ने चन्द्रे तारेऽनुकूले शुभमपि नियतं स्याम्च सौमन्तकर्म"। त्रियुग्मे पूर्वोत्तरत्वेन युग्मरूपासु फल्गुन्याषाढ़भाद्रपदासु। “भृगाजरहिते लग्ने नवांशे पुंग्रहस्य च । केचिदन्ति सौमन्तं तथा रिक्त तरे तिथौ" ॥ शङ्खलिखितौ वस्त्रदानं नववध्वै। "मघाट केऽम्बु त्रितयेऽदितिहये पौष्णहये धाटयुगे गुरूदये। मासे च षष्ठेऽथ चतुष्टये स्त्रिया: शुद्धयाज्ञमन्दाह वहिधटौ शुभा" ॥ गर्भस्पन्दने सौमन्तोन्नयनं यावन्न वालप्रसव इति। भुजबले “श्रीफलञ्च करे दत्त्वा स्थित्वा For Private And Personal Use Only Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६२० ज्योतिस्तत्त्वम् । भद्रासने तथा । गृह्मोदितेन होमच शान्तिं चैवात्र कारयेत् ॥ ऊर्जासूत्रेण संग्रथ्य जोवं जातिञ्च विद्रुमम् । गुवाकं रजतं हेम दद्यात् स्तनतटान्तरे ॥ तत्प्रभृतिमदौतौरं देवखातोदकं त्यजेत् । सन्ध्याटनं तरोर्मूलं तथा देवग्टहं त्यजेत् ॥ बृह द्राजमार्त्तण्डे । " या नायः कृतसौमन्ता प्रसूते च कदाचन । निधाय तं बालं पुनः संस्कारमईति ॥ अतएव इन्दोग परिशिष्ट "संस्कारा श्रतिपत्येरन् स्वकालाचेत् कथञ्चन । हुत्वेतदेव कुर्वीत ये तूपनयनादधः” ॥ इति सामान्यत उक्तम् । देवन्त: “सक्कञ्च संस्कृता नारी सर्वगर्भेषु संस्कृता” । अथ जातभद्रादि । तत्र दन्तजन्मचिन्ता । " जातः सदन्तः पितृमातृहन्ता तातं विहन्यात् प्रथमे तु मासे | अम्ब द्वितीये सहजं तृतीये मासे चतुर्थे शुभकारकः स्यात् ॥ मिष्टान्नभोजौ सुभगः सुताख्य षष्ठे सुखौ पण्डितकल्पबुद्धिः । ततोsfधकः स्याद्दलवान् युनाख्य मासेऽष्टमे वित्तसुखैर्विनः । सुरप्रतापौ नवमे मृत्युच्च दशमे तथा ॥ एकादशे द्वादशे च सुखौ च सुभगो भवेत् । अष्टौ पुत्तलकान् कृत्वा सुगन्धेगंधस्तथा ॥ स्रोतःसु संक्रमे चापि स्नापयेत् शुक्लपुष्पकैः । स्नानं संक्रमणस्याधः शम्भोदर्शनमन्ततः ॥ होमं विप्रार्श्वनश्चैवमशुभे दन्तदर्शने ॥ प्रसवात् पूर्वं ग्टहसंस्कारमाह सांख्यायनगृह्यम् । "काकादन्या मेचकधातक्या वृहत्याः कोषातक्या: कालक्लोतकस्येति मूलानि पेषयित्वा उपलेपयेद्देशं यस्मिन् प्रजायते रचसा - मपइत्ये” इति । काकादनौ काकजरूप मेचकघातको काकमोचिका कोषातको घोषकः कालक्लौतका: यष्टिमधुकेति कल्पतरुः । अतएव हरिवंशे । " एष मानुष्यको यनो मानुषैरेव साध्यते । श्रयतां येन दैवं हि मद्दधैः प्रति For Private And Personal Use Only Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम् । ६२१ हन्यते । मन्त्र ग्रामः सुविहितैरौषधेश्चैव योजितैः। यत्नेन चानुकूलेन दैवमप्यनुलोम्बते । इत्यनुचरान् प्रति कंसवाक्यम् । "अस्ति गोदावरौतौर जम्भला नाम राक्षसो। तस्याः स्मरणमात्रेण विशल्या गर्भिगो भवेत् । पञ्चरेखा: समुग्लिख्य तिर्यगूई क्रमेण हि। पदानि षड़दशापाद्य त्वेकमाये मुनौ त्रयम्। नवमे सप्त दद्यात्तु बाणं पञ्चदशे तथा। द्वितीयेऽष्टावष्टमे षट दिशि हो षोड़शे श्रुतिम्। एकादिना समं देयम् इच्छाहाङ्ग त्रिकोणके। तदा हात्रिंशदादिः स्यात् चतुः कोष्ठेषु सर्वतः । दर्शनाहारणात्तासां शुभ स्यादेषु कम्मसु। हात्रिंशत् प्रसवे ना-चतुस्त्रिंशहमे नृणाम् । भूताविष्टषु पञ्चाशत् मृतापत्यासु वै शतम्। हासप्ततिस्तु सन्ध्यायां चतुःषष्टौरणानि। विष विंशो धान्यकोटेष्वष्टाविंशतिरेव च। चतुरष्टौ च बालानां रोदने परिकीर्तिता" भौमपराक्रमे “वाच्य शिशोर्जन्मपितुः অৰীঘ প্রজৰ অনিন হল। অভিনন্দমঘমী वा जातः परोक्षे पितरौति वाच्यम् । लग्नस्थिते वा दिननाथभूमो यामित्रसंस्थेऽप्यथवा महौजे। चन्द्रे च शुक्रन्दुञ्जमध्यगे वा विदेशसंस्थे पितरि प्रजातः। सुप्रसूतिभवेचन्द्र शुभग्रहयुतक्षिते। दुर्ग्रहेक्षितयुक्त च प्रमूतिर्दुःखदा भवेत्। हार वास्तुनि केन्द्रोपगात् ग्रहादमति वा विलम्नात् । दौपोऽर्कादुदयाइर्त्तिग्न्दुितः मेहनिर्देशः। लग्ने यादिरंशांशस्तदभिमुखं सूतिकारहहारम्। वासगृहोद्यानगत हार दिग्वलिग्रहाइलोपेतात्। हादश भागविभको वासगृहे व्यवस्थिते सहस्रांयौ। दोपश्चरस्थिरादिषु तथैव वाच्यः प्रमवकाले। लम्नस्य यस्तु वर्णा निर्दिष्टो वर्तिस्तेन निर्देश्या । यावान् भाग:क्षयमुपगतो दोपवर्तेच । तस्यास्तावद्धार्ग क्षयमुपगत लग्नराशेः प्रसूतिः। इन्दोर्भागवशादाशे र्दीप तैलस्य संस्थितिः । केचित् For Private And Personal Use Only Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम् । पूर्णादिभेदेन वदन्त्येवं मनीषिणः। मेषे चापमृगेन्द्रयोः किल शिशु: प्राची शिवा जायते गोकन्या मकरेषु दक्षिणशिरा जातो भवेनिश्चितम्। मौने वृश्चिककर्किणोर्यदि तदा कोवेरमूडा भवेत् कुम्भः धटयुग्मयोर्यदि तदा पासात्यमूडी नतः । युग्मायुग्मलग्नवशात् प्रसवस्य च कारिणौ। विधवा सधवा जे या कामात् खलु विचक्षणः" । वृहज्जातके । “मेषकुलौरतुलानि घटेः प्रागुत्तरतो गुरुसौम्य गृहेषु। पश्चिमतश्च वृषेण निवासो दक्षिणभागकरी मृगसिंहौ। वास्तुदेशे प्रागादिग्गृहप्रसवज्ञानम्। हौ हौ राशो मेषात् पूर्वादिषु संस्थितौ ग्रहविभागे। कोणेष हिशरीराणि लग्नस्थाने शिशोः शयनानि"। एहस्य प्रागादिदिग्विभागे बालस्य शय्या। लग्न नवांश कतुल्यतनुः स्यात् वीर्ययुतग्रह तुल्यतनुर्वा । चन्द्रमसे तु नवांशपवर्ण: कादिविलग्न विभलभगानः। लग्नादयोगशयः कादिषु शिरः प्रभृतिगात्रेषु परिकल्पा बेन तदधिपात्तद्दादिभेदात् तदङ्गानां तथा। यथाह सत्यः । दीर्घ पतिदीर्घ गृहस्थितोऽवयव. दोध कद्भवति। मित्रत्वे मित्रफलमेवमन्येष वाचम् । कहाश्रोत्र नसाकपोलहनवो वक्त्रञ्च होरादयस्त कण्ठांशकबाहुपावहृदयक्रोडानि नाभिस्ततः । वस्ति शिनगुदे ततश्च वृषणावरू तती जानुनौ। जङ्घाको एभयत वाममुदितै ट्रेकाणभागैस्त्रिधा। लग्नादयो राशयस्त्रिधा रोक्काणभागैस्तत्र प्रथमे शौर्षादयो भवन्ति ते लग्नादयः द्वितीये कण्ठादयः तौये वस्त्यादयः उदितैरुदय प्राप्तभुक्तरिति यावत्। तैह्रदशभिः राशिभिर्वामममिति शेषः । अर्थात् हितोयादिभिर्भागैर्दक्षिणं तेन लग्नात् हितोयो राशिदक्षिणं चक्षुः हादशश्च वाममित्यादि ज्ञेयम्। “तस्मिन् पापयुते व्रणं शुभयुते सौम्यं हि लक्ष्मादिशेत्। वर्धा शे स्थिरसंयुतेषु सहजः स्यादन्यथा गन्तुकः । For Private And Personal Use Only Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम् । १२३ मन्देष्वानिलजोऽग्निशस्त्रविषजो भौमे बुधे भूभवः सूर्ये काष्ठचतुष्पदेन हिमगौ शृङ्ग्यनजोन्यैः शुभः" । तस्मिन् देकाणे । देवाणस्थितग्रहफलनिर्णयः। “शौर्षमुखबाइहृदयोदराणि कटिवस्तिगुह्यसंज्ञकानि। जरजानकजङ्घ चरणाविति च राशयोऽजाद्याः। इति कालनरस्याले सदसद्ग्रहयोगतः । पुंसामपि तदङ्गेषु शुभाशुभफलं वदेत्। न लम्नमिन्दुञ्च गुरुनिरोचते न वा शशाङ्क्ष रविणा समायुतम्। सपापकोऽर्केण युतोऽथवा प्रशोपरेण जात प्रवदन्ति निश्चयात्। भग्नपाद संयोगात् हितोया हादयौ यदि। सप्तमी चार्कमन्दारे जायते जारजो ध्रुवम्। जारजयोगः। “गुरुक्षेत्रगते चन्द्र तयुक्त वामवेश्मनि। तट्रेकाणे नवांश वा जायते न परेण सः"। जारजयोगभङ्गः इति लग्ननिर्णयः ।। "यादृक् पश्यति सौम्यस्तत्तुल्यगुणं सुतं समाधत्ते। पित्तजननौसादृश्यं रवेः शशाङ्काच्च बलयोगात्। सत्वं रजस्तमी यत्तु त्रिंशांश रविस्तादृक्”। एतेऽन्तरात्मानः स्वां प्रकृति जन्तोः प्रयच्छन्ति सत्त्वादिग्रहात्रिशांशके रविस्थित्या सात्त्विन कादिज्ञानम्। विष्णुधर्मोत्तरे। "तामसा गजसाश्चैव सात्त्विकाश्च तथा स्मृताः। मनुष्था भृगुशार्दूल वातपित्तकफाधिकाः । . अथ गण्डयोगः। “अश्विनौमघमूलानां गण्डा आद्यास्त्रिनाडिकाः। अन्याः पौष्णोरगेन्द्राणां पञ्चैव यवना जगुः । मूलेन्द्रयोदिवागण्डो निशाच पिटमर्पयोः। सन्ध्याहये तथा जेये रेवतीतुरगक्षयोः। सन्ध्यारात्रि दिवाभागे गण्डयोगोद्भवः शिशुः । प्रात्मानौं मातरं तात विनिहन्ति यथाक्रमम् । सर्वेषां गण्ड जातानां परित्यागो विधीयते। तातेनादर्शन बापि यावत् पाण्मासिको भवेत्। कुङ्कुमं चन्दन कुष्ठ गोर For Private And Personal Use Only Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६२४ ज्योतिस्तत्त्वम् । चनमथापि वा। घृते नैवान्वितं कृत्वा चतुर्भिः कलसैर्बुधः । सहस्राक्षेण मन्त्रेण बालक नापयेत्ततः। पियुक्त दिवा. जात माटयुक्तञ्च रात्रिजम् । नापयेत् माटपिटभ्यां सध्ययोरुभयोरपि। कांस्यपात्र वृत्तः पूर्ण गण्डदोषोपशान्तये। दद्याछेनु हिरण्यच्च ग्रहांथापि प्रपूजयेत्। मूलायाः प्रथम पादे पितुर्वपुः प्रणश्यति। हितोये नियतां पौड़ा मातुः कुर्यात् पितुस्तथा। तीये धननाशाय चतुर्थे सर्वसम्पदः । व्यत्ययेन फलं ज्ञेयमश्लेषास्वपि पूर्ववत्। बल्योकमृत्तिका दद्यात् नद्याथ तटमृत्तिकाम् । गोविषाणमृदञ्चैव दन्तिमृदञ्च निक्षिपेत्। तीर्थाम्भः पञ्चगव्येन स्नानं मातुः पितुः शियोः । दिवा जाता तु या कन्या निशि जातस्तु यः पुमान् । नोभयोगण्डदोषोऽस्ति नाचलो हन्ति पर्वतम् । दिवागण्डे निशाजातो निशिगण्डेऽथवा दिवा। नोभयोगण्डदोषः स्यावाचली इन्ति पवतम्"॥ इति गण्डनिर्णयः। "मयरचलिकामूलमादित्य ग्रहणोद्दतम्बालस्य च गले बङ्घ समस्तग्रहदोषहृत् । मयरचलिका अपामार्गः। “शलोत्पल वचा कुष्ठ कृष्णलौहविधारणम्। सर्वोपद्रवतो बालं व डापि च रक्षति ॥ अकदुग्ध निशा शुण्ठो गोहतेन विलेपनम् । सर्वोपद्रवदाषेभ्यो बालं रक्षति सन्ततम् ॥ मागधिकासैन्धवसुरभिपित्तमधुमरिच. रचितमतिप्रकटम्। भूतहरमननमिदं दुईरग्रहदर्पविदारणम् ॥ सुरभिपित्तं गोपित्त मागधिका पिप्पलो। दारुहरिद्रां पुष्य नक्षरसन मर्दयित्वा रचिता ॥ अजनगुटिका ग्रहवृन्दवन्दिता भूतविद्रावगो प्लक्षरसेन कुष्माण्डरसैन । __ अथ पताकौवेधः। "तिर्यगूढगता रेखास्तिस्रो देयाः पताकया। युताः काया वेदविदा सर्वसङ्गतरेखया ॥ दक्षखोइतरेखातो वामं मेशाधराशयः। पञ्चाष्टयुग्मविशाश्व For Private And Personal Use Only Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम् । ६२५ षड्दन्द्राग्निसागराः ॥ कर्कटान्मोनपर्यन्तमङ्गा देया यथाक्रमम् । बालस्य जन्मकालीनग्रह लग्न मजादिषु ॥ विन्यस्य चिन्तयेत् प्राज्ञः शुभाशुभं यथाक्रमम् । शुभदण्डयो गवेधैर्लम्नाद्दालस्य शोभनम् । पापदण्ड योगवेधैराश्यङ्गा दृष्टिकालवत् । बलाधिके दिन मध्ये मासो होने च हायनम् । कर्कमनधनुर्थ्याच्च हरिः कौटघटेन च । स्त्रियास्तौलिमगाभ्याञ्च घटे मोनेन कन्यया । धनुषो मृगकर्किभ्यां मकरे धनुषा स्त्रिया । मौने कर्कितुलाभृद्भ्यां मौनस्त्रौधनुषात्मजे । तुलाकर्किमृगैईन्छ कौटकुम्भहषेषु च । सिंहद्वेध एतेषु वामदक्षिणसंमुखे। राहु के त्वर्कसौरारैः पापैर्विडो युतोऽशुभः । तदन्यैर्युतविस्तु लग्नराशिः शुभप्रदः । एकोनविंशतिः कर्के सिंहे सप्तदशैव तु । षट्त्रिंशदवलायाञ्च षड्विंशतिस्तुलाधरे । वृश्चिके सिंहवत् ज्ञेय मूनत्रिंशच्छ्रासने । षड्विंश मकरे शेयं कुम्भे सप्तदश स्मृता । नवयुग्मे तथा मौने मेषे षड्दशभिस्तथा । वृषभे च यथा सिंहे युग्मेऽङ्कहरलोचने । त्रितयाङ्कादियं संख्या दिनमासाब्दनिर्णये । एकाङ्कात् हिटहाङ्गादा कचित् दृष्टेश्च सम्भवः । वारेशादयामेषु रावातोः पञ्चषट् क्रमात् । अधिपाः स्युर्ग्रहास्तव यथाकहे भवन्ति हि । वरोज्येन्दुभृगुक्ष्माजशनिशरवयो निशि । रविशुक्रज्ञरात्रौ शनौच्य कुजभास्कराः । दिने तुह्याः परेष्वेवं तथा ऋचाश्चतुर्ग्रहाः । पापदण्डे भवेद्रिष्टिः शुभदण्ड शुभ भवेत् । शुभग्रहस्य दण्डे तु कम्मारम्भाच्छुभं भवेत् । श्ररम्भात् पापदण्ड तु कर्म निष्फलतां व्रजेत् । यस्याईयामस्त स्यैव प्राग्दण्डः समुदाहृतः । षट्षट् परौत्य दण्डाच त्रयो रात्रौ मतास्तथा । श्रादित्ये भृगुजो बुधोऽपि च शशौ सोमे शनोज्यौ कुमो भौमेऽर्कः सितसोमनौ च भिजे सोमः शनिर्वाक्पतिः । પૂર For Private And Personal Use Only . Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम् । जोवेऽङ्गाररवौ भृगु गुसुते सौमेन्दुमार्तण्डजाः । काले जीवन महौतिग्मकिरणा रात्रौ च दण्डाधिपाः। यामाहाधिपसंख्यातो हितोयस्तु तदईतः। तदद्धातु टतौय: स्यात्तदात्तु तुरीयकः । प्रशाभावे तु राहुः स्यात्तदको वसुसंख्यकः । भम्नाशस्य परित्यागाहिवादण्डाधिपा यथा। रविदनुजबुधग्लोचन्द्रसुरासुरज्ञा कुजरविदनुजज्ञाः ज्ञेन्दुसुरासुराश्च । गुरुशशिरविदैत्याः शुक्रभौमार्कदैत्याः शनिकुजरविदैत्या दण्ड पाद्यईयामे"। दनुजो राहुः। अईयामे। दिनाईप्रहरी। शुभः दण्डमाह। “शेषावकस्य दण्डौ सततशुभकरावादिशेषो तथेन्दोः शेषो दण्डः कुजस्याप्यथ गुरुयुधयोराद्यमाद्यं प्रशस्तम्। पादिर्दण्डस्तथैको भृगुकुलनृपतेः सर्वकार्ये हि शस्तः । दण्डाश्चत्वार एते क्वचिदपि समये नैव सौर: प्रशस्ताः। प्रतिदण्ड पलान्येषां ज्ञात्वा वायं क्वचिच्छुभम्। रवी च वेदा वसवः सुधांशी कुजे चराणां शशिजे तथाङ्काः। शनाहतुर्दिक च वृहस्पतौ स्याद्राही तुरङ्गा भृगुजे च रुद्राः। अशुभे दण्डसंयोगे सर्वत्र पुण्यवर्जिते। बालस्य मरणं शीघ्र यदि पापैः समन्वितम्। अशुभग्रह दण्डे तु सर्वत्र पापवर्जिते। बालस्थ कुशलं सर्व शुभैर्यदि समन्वितम् । अशुभो दण्डनाथी हि वेधश्वेत्तेन लभ्यते। मरणं तत्र वक्तव्यं बालस्य नान्यथा भवेत् । पापस्य दण्डमात्र तु तदद्योगवेधवर्जिते। बालस्य कुशलं तत्र शुभैयदि समन्वितम्"। इति पताकौवेधः । __"पापास्त्रिकोण केन्द्र सौम्याः षष्ठाष्टमव्ययमताः । सूर्यो. दये प्रसूतः सद्यः प्राणांस्त्वजति जन्तुः" । सूय॑रिष्टम् । “षष्ठे. ऽष्टमे च चन्द्रः सद्यो मरणाय पापसंदृष्टः । अष्टाभिच शुभैदृष्टो वर्षेमिथैस्तदर्डे न”। चन्द्ररिष्टम्। सुतमदननवान्त्यलग्नबन्वेष्वशुभयुतो मरणाय शोतरश्मिः। भृगुसूतथिपुत्रदेव For Private And Personal Use Only Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम् । ६२ पूज्यैर्यदि बलिभिर्न युतोऽवलोकितो वा । पापयुतचन्द्ररिष्टम् । “द्यूनचतुरस्रसंस्थे पापइयमध्यगे शशिनि जातः । विलयं प्रयाति नियतं देवैरपि रक्षितो बालः” । पापमध्यगचन्द्ररिष्टम् । “ क्षोणे शशिनि विलग्ने पापैः केन्द्रेषु मृत्युसंस्थैर्वा । भवति विपत्तिरवश्यं जवनाधिपतेर्म तचैतत् ” ॥ क्षौणचन्द्ररिष्टम् । " नाग ८ । गो । सिद्ध २४ । जातौ २२ । इषु५ । क्ष्मा १ । अब्धि ४ । वश्वि २३ । धृति १८ । नखाः २० । क्ष्माग्नि २१ । दिक १० | चेत्यजाद्यंशे तत्तुल्यान्देर्विधौ व्यसुः” । मेषादीनां त्रिंशांशविशेषस्थचन्द्ररिष्टम् । “भौम विलग्ने शुभदैरदृष्टः षष्ठेऽष्टमे वार्कसुतेन युक्तः । सद्यः शिशु इन्ति वदेन्मुनौन्द्रः स्मरे यमारौ न शुभे चितौ च । त्रिविधभौमरिष्टम् । " कर्कटधामनि सौम्यः षष्ठाष्टमराशिगोविलग्नचत् । चन्द्रेण दुष्टमूर्त्तिर्वर्षचतुष्टयेन मारयति ॥ बुधरिष्टम् । “वृष्टस्पतिभौमग्टहेऽष्टमस्थः सूर्येन्दु भौमार्कजदृष्टमूर्त्तिः । वषैस्त्रिभिर्भार्गवदृष्टिहौनो लोकान्तरं प्रापयति प्रसूतम् ॥ वृहस्पतिरिष्टम् । “रविशशिभवने शको द्वादशरिपुरन्द्रगोऽशुभैः सर्वैः । दृष्टः करोति मरणं षड् भिर्वर्षैः किमिह विचित्रम् ॥ शुक्ररिष्टम् । “ मारयति षोड़शाहात् शनैश्वरः पापवौचितो लग्ने । संयुक्तो मासेन वर्षाच्छुद्धस्तु मारयति ॥ विविधशनिरिष्टम् । “राहुचतुष्टयस्थो मरणाय वौचितो भवति पापैः । वर्षेर्वदन्ति दशभि: षोड़शभिः केचिदाचाय्याः ॥ घटसिंहवृश्चिकोदयकृतस्थितिजीवितं हरति राहुः । पापैर्नि - रौक्ष्यमाणः सप्तमितैर्निश्चितैर्वर्षेः " ॥ राहुरिष्टम् । “केतुर्य - मनृतेऽभ्युदितस्तस्मिन् प्रसूयते जन्तुः । रौद्र सर्पमुह वा प्राणैः संत्यजते चाशु” ॥ केतुरिष्टम् । लग्ने ये ट्रेकाणा निगड़ा हि विहङ्गमपाशधरसंज्ञाः । मरणाय सप्तवर्षे क्रूरयुतान् For Private And Personal Use Only Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्वम् । खपति दृष्टाः। रोकारिष्टम्। “मौनकर्कटयोरन्यौ हथिकस्याद्यमध्यमौ। सर्पाश्चत्वार एवैते दुकाणा निगडाच ते॥ तुलामध्यान्तसिंहाच कुम्भाद्याः पक्षिणः स्मृताः। षाद्यमकरायन्ता ट्रेकाणा: पाशधारिणः॥ लग्नाधिपजन्मपत्तो षष्ठाष्टमरिए. फगो प्रसवकाले। अस्तमितोमरणकरौ राशिमितैवदेहर्षेः । जन्मपतिर्जन्मराश्यधिपः लग्नाधिपजम्माधिपरिष्टम् । “सौम्याः षष्ठाष्टमगाः पापैर्वक्रोपगतेदृष्टाः। मासेन मृत्युदास्ते यदि न शुभैस्तत्र संदृष्टाः" ॥ सौम्यग्रहरिष्टम्। “एक: पापोऽष्टमगः शत्रुग्यही शनवौक्षितो वर्षात्। मारयति नरं प्रसूतं सुधारसो येन पौतोऽपि ॥ पापग्रहरिष्टम्। “होराया: सप्तमे सौरिहिवुकस्थश्च भास्करः। अस्मिन् योगे तु यो जात: सोऽल्पायुर्भवति प्रिये। वसुषष्ठगते नोवे समसप्तगते शनी। द्वादशस्थो यदा भानुवषमेक न जोति ॥ प्रतिपद्यत्तराषाढ़ा नवम्यामेव कत्तिका। पूर्वभाद्रपदष्टम्यामेकादश्याच रोहिणी। हादश्याच यदाश्लेषा त्रयोदश्यां यदा मधा। एभिर्जातो न जौवेत यदि शक्रसमो भवेत् ॥ इति शिरिष्टम् । __ “लग्नाचतुर्थग: पापो यदि स्थाइलवत्तरः। तदा माढवध कुर्यात्तत्केन्द्रे चापरो यदि ॥ केन्द्रनिकोषग: पापो मारहा सप्तवासरात् । सपापात् भागवात् पापो हिवुके मारनाशकत ।। चन्द्रमा यदि पापेन नयेणैवेह वौषितः । माननाशो भवेत्तस्य षष्ठः पापो भवेद् यदा" ॥ इति माटरिष्टम् । “कर्मस्थाने स्थिते सौम्ये रिपुस्थाने च चन्द्रमाः। कुजे च सप्तमस्थाने मियते पिटसंज्ञकः ॥ तमोहा यदि पापेन वयेणैव हि वौषितः। शुभैरयुतदृष्टश्च पितुरप्यन्तमादिशेत्" ॥ इति पिटरिष्टम्। “लग्नाचतुर्थो रविजोऽथ भौमः कर्मस्थिनो माटवियोगदुःखम्। ददाति शौत्र खलु सप्तमे च तातमा For Private And Personal Use Only Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्वम् । मृत्यं यदि लग्नसंस्थः ॥ दिवाकरेन्दोः स्मरगौ कुजार्कजी रोगप्रदौ पुंगवयोषितस्तदा। व्ययखगौ मृत्युकरी युतौ यदा सदेकदृष्टा मरणाय कल्पिती॥ यमवक्रो धुने चार्कात् पुंसो रोगप्रदौ स्त्रियाच चन्द्रात्। तन्मध्यगयोमत्युस्तदेकयुतदृष्टः योवापि ॥ इति माता पिटहायोगः । "एकोऽपि केन्द्रभवने नवपञ्चमे वा भाखमयुखविमलोकतदिहिभागः। नि:शेषदोषमपहृत्य शुभ प्रसूतं दीर्घायुषं विगतरोगभयं करोति ॥ सर्वरिष्टभङ्गः। "सौम्यग्रहरतिबलैर्विवलेच पापैर्लग्नच सौम्यभवनं शुभदृष्टिदृष्टम्। सर्वापदा विरहितो भवति प्रसूत: पूजाकरः खलु यथा दुरित ग्रहाणाम् ॥ चन्द्रः पूर्णतनुः सौम्यगतः स्थित: शुभस्यांश। प्रकरोति रिष्टमङ्गं विशेषत: शुक्रसंदृष्टः ॥ सौम्ययान्तरगतः संपूर्णस्निग्धमण्डल: शशभृत् निःशेषरिष्ट हन्ता भुजङ्गलोकस्य गरुड़ इव । खोच्चस्थः स्वगृहेऽपि वा स्वसहदां वर्गेऽपि सौम्येऽपि वा संपूर्ण: शुभवौक्षितः शशधरो वर्ग स्वकीयेऽपि वा। शत्रणामवलोकनेन रहितः पापैरयुक्त क्षितो रिष्टि इन्ति सुदुस्तरां दिनपतिः प्रालेयराशिं यथा ॥ शुक्रः पञ्चसहस्राणि बुधः पञ्चशतानि च। लक्षमेकन्तु दोषाणां इन्याच्चैवोदिते गुरुः ॥ सप्ताष्टषष्ठाः सौम्या हरन्ति शशिनः कष्टफलम् । पापैरमित्रचारा: कल्याणकृतं यथोन्मादम् ॥ पक्षे सिते भवति जम्म यदिक्षपायां कृष्णे तथाहनि शुभाशुभष्टमूर्तिः। तं चन्द्रमा रिपुविनाशगतोऽपि यत्नादापत्सु रक्षति पितेव शिशु न हन्ति । तुलाकोदण्डमौनस्थो लग्नस्थश्च शनियंदा ॥ सर्वरिष्टिं निरत्याशु शेषे जातो भवेहासः। राइस्त्रिषष्ठलाभ लग्नात् सौम्यनिरौक्षितः सद्यः नाशयति सर्वरिष्टि मारुत इव तूलसङ्घातम् । मजबषभकर्किलग्ने रक्षति राहुः समस्तरिष्टिभ्यः । For Private And Personal Use Only Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्वम्। पृथिवीपतिः प्रसन्नः कतापराधं यथा पुरुषम्। भौमपरा. क्रमे। “निधनारिगते चन्द्र लग्नांशं जायते यदि। अथ केन्द्रगते जौवे जीवेहर्षशतं नरः॥ कर्कटखो यदा जीवः सप्तमो भार्गवो यदि। बुधे च लग्नसंप्राप्ते शतं जौवति बालकः ॥ इति रिष्टमङ्गः । "वर्चस्थैश्च चतुष्टयेऽथ बलिभिः खोचस्थितैर्वा ग्रहै: शुक्राङ्गारकमन्दजीवशथिजैरतैर्यधानु मम्। मानव्यो रुचकः शशोऽथ कथितो इंसश्च भद्रस्तथा माहात्मयात् पुरुषाः कुलाधिकतया ख्यात्यादिमाजः सदा। विद्यावान् जनसुभगः सत्यरतो धार्मिकः सदा पुरुषः ॥ बान्धवसुहदुपकर्ता केन्द्रकोणे स्थिते जौवे। खोञ्चस्थितः शुभफलं प्रकरोति पूर्ण नौचक्षगस्तु विफलं रिपुमन्दिरोल्पम् ॥ पादं फलस्य हितभे खरहे तथाई यादवयं शुभखगः स्थितवांस्त्रिकोणे। नौचदंगः सकलमेव करोति दोषं ननच किश्चिदरिभे विफलं सुतुङ्गे। पादत्रयं हितग्रहे विहग: शुभोऽई खर्वे फलञ्च धरणं स्थितवांस्त्रिको" ॥ इति भावफलम्। “यव तत्र स्थिती भौमो गुरुणापि समायुतः। तत्रोचफलमानोति स्थादुचे त्रिगुणं फलम्” । राजयोगमाह। “नौचस्थिते जन्मनि यो ग्रहश्च तदाशिनाथोऽपि तदुचनाथः। यदा त्रिकोणे यदि केन्द्रवत्तौ भवेत्तदासो नृपचक्रवर्ती ॥ अन्ध दिगम्बरं मूर्ख परपिण्डोपजीविनम्। कुर्यातामतिनीचस्थी पुरुषं शिभास्करो। वक्रिणस्तु महावीयाः शुभा राज्यप्रदा ग्रहाः । पापा व्यसनदाः सर्वे कुर्वन्ति च वृथाटनम् ॥ अथ जन्मराशिफलम्। "मेष: सौख्यमुपैति गर्वमपि गौ नामतिर्मन्मथे क्रूरः कर्कटके तिर्वनचरे कन्या च मायाविनी। सत्य रौति तुलाप्यलो मलिनता चापस्तु पापाययो मौखय्यं मकरे घटे चतुरता मौने च धौरा मतिः For Private And Personal Use Only Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम् । ६११ क्रूरः खपेऽप्यपराधे बहुवैरानुबन्धकत्" । इष्टवियोगानिष्ट प्राप्तौ चित्तस्य यथा पूर्वमवस्थानम् । पस्थिरविभूतिमित्र चलमटनं सर्वलितनियममपि चरभे । तद्दिपरोतं चमान्वितं दीर्घसूत्रञ्च । दिशरीरे त्यागयुतं कृतज्ञमुसाहिनञ्च विविधचेष्टम् । ग्राम्यारण्यजलोद्भवराशिषु नातास्तथा शौलाः । दीर्घसुत्रश्च भवेत् सर्वकर्मसु पार्थिवः । दीर्घसूत्रस्य भूपतेः कर्म नष्टं भवेत् ध्रुवम् । रागे दर्पे च माने च द्रोहे पापे च च कर्म्मणि । अप्रिये चैव कर्त्तव्ये दीर्घसूत्र प्रशस्यते ॥ इति राशिफलम् । अथ जन्मनक्षत्रफलम् । “शतानलादित्यविशाखमैत्रशक्रोद्भवामि श्रगुणाः प्रदिष्टाः । शिवाजहस्ता हि भवाजघन्याः शेषोद्भवाः सत्पुरुषा भवन्ति ॥ कालात्मा दिनक्कत् मनस्तुहिनगुः सत्त्वं कुजोनोवजोजोवोज्ञानसुखे सितच मदनो दुःखे दिनेशात्मनः । राजानौ रविशीतगू चितिसुतो नेता कुमारो बुधः । सूरिर्दानवपूजितच सचिवौ प्रेष्यः सहस्रांशजः ॥ समुत्साहः शौर्यमिति मट्टोत्पल नेता सेनाध्यक्षः । "बलाबलात् ग्रहाणां स्यादात्मादौनां बलाबलम् । नृपाद्याः प्रबला कुर्य्यः स्वं रूपं शनिरन्यथा " ॥ सत्याचाय्यः । " षट् सूर्यस्य दशा ज्ञेयाः शशिनो दश पञ्च च । अष्टावङ्गारके प्रोक्ता बुधे सप्तदश स्मृता ॥ शनैश्वरं दश प्रोक्ता गुरोरेकोमविंशतिः । राहौ द्वादशवर्षाणि भृगोरप्येकविंशतिः । दिक्षु वयं वयं ज्ञेयं विदिक्षु च चतुष्टयम् । कृत्तिकादिप्रदातव्यं दिगम्बरमता दशा ॥ कृत्तिकादित्रये सूयः सोमो रौद्रचतुष्टये । मघादिवितये भौमो बुधो हस्तचतुष्टये ॥ अनुराधा त्रये सौरिर्गुरुः पूर्वचतुष्टये । धनिष्ठात्रितये राहुः शेषे शुक्रः प्रकीर्त्तितः ॥ सूर्योपप्लव For Private And Personal Use Only Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६३२ ज्योतिस्तत्त्वम् । भौमार्किदशातिकष्टदा नृणाम् । गुरुज्ञचन्द्रशक्राणां यथेप्सितफलप्रदा" ॥ वराहः " खमाकहो नशा काब्दात् प्रत्यब्दं पञ्च वासरान् । तिथींश्च चन्द्रशिखिनौ क्ष्मागुणौ च कृताश्विनौ दण्डपलविपलान्यनुपलानि च सावने । वर्धयित्वा ऋचशेषभोग्यात्तु गणनक्रमात् ” ॥ श्रन्तर्दशाज्ञानमाह । " स्वदशाभिदशां हत्वा नवभिर्भागमाहरेत् । लब्धा मासास्तु तच्छेषं पूरयित्वा तु विंशता ॥ श्रहत्वा दिनं लभ्यं तच्छषे षष्टिपूरिते । नवभिश्च हृते लब्धा ज्ञेया दण्डास्तदन्तरे ॥ रवेः षड्वर्षमध्ये तु वेदा ४ मासा रवेर्निनाः । चन्द्रस्य दश मासाथ दिक्दिनं पञ्च मासकाः ॥ कुजस्य ज्ञस्य रुद्रास्तु मासादिक्दिवसा शनेः । ऋतुमासाद्युविंशश्च गुरोर्वर्षाद्युविंशतिः ॥ राहोर्मासाष्टका ज्ञेया भृगोर्वर्षस्तु मासको एवं ग्रहाणामन्येषामूह्याश्चैवान्तरोदयः ॥ यद्ग्रहस्यान्तरे यस्तु यत् संख्यं कालमाप्तवान् । तत् संख्य ं स्वान्तरे तस्मै स दद्यादिति निश्चयः ॥ स्वान्तरग्रहणे खांशं खांशेन पूरयेत् सदा ॥ दशाफलन्तु । “उद्दिग्नचित्तपरिखेदितवित्तनाशक्लेशप्रवासगदपोड़ितपक्षघातैः । चोभितखजन बन्धुवियोग दुःखैर्भानोर्दशा भवति कष्टकरौ नराणाम्” । र । “सौख्य' विभर्हि वर वाहनयानरत्नकौर्त्तिप्रतापबलवौय्र्य शुभान्वितच्च । मिष्टान्नपानशयनासनभोजनानि चान्द्रौ ददाति धनकाञ्चनभूमिशङ्खम्” ॥ च। “ शस्त्राभिघातबधबन्धनरेन्द्र पौड़ा चिन्ताज्वरं विकलताञ्च गृहे करोति । चौराग्निदाह भयभङ्गविपत्ति रोगकीर्त्तिप्रतापधनहा च दशा कुजस्य " ॥ म । “दिव्याङ्गनावदनपङ्कजषट्पदत्व' लोलाविलासशयनासन भोजनञ्च । नानाप्रकारविभ वागमकोषष्टद्धिः क्षिप्रं भवेदुधदशासु हितार्थसिद्धिः” ॥ बु । " मिथ्यापवादबधबन्धनकाय्यै हानिमात्सय्यैयुक् प्रियसुखद्रविणै For Private And Personal Use Only Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम् । ६२३ विहीनः । मित्रेषु वैरमभिवाञ्छति वैरयुक्तः कष्टासु पापद दशासु शनैश्वरस्व" || श। " रम्यं गृहं विनयमचयमान वृद्धिं प्राप्नोति सौख्यधनधान्यविभूतियोगम् । धर्मार्थकामसुखभोगबहपयुक्त यावत् वृहस्पतिदशा पुरुषो हि तावत्” ॥ घृ । “बुह्याविहीनमतिनाशवियोगदुःखं नष्टार्थसिहिभयभङ्गविषार्त्तिरोगम् । सन्तापशोकपरदेशगतं करोति राम्रोर्दशा भवति जीवन संशयाय " ॥ रा। “मन्त्रप्रभावनिपुणः प्रमदाविलास: श्वेतातपत्रन्नृपपूजित देश लाभः । हस्त्यश्व लाभधनपूर्णमनोरथ: स्यात् शौक्रौदशा भवति निश्चलराजलक्ष्मी:” ॥ शु। रवेः स्थूलदशवर्षाणि । तस्यैवान्तर्दशा मासा : 8 । तत्फलम् । "उद्दिग्नचित्तपरिखेदितवित्तनाशक्त शप्रवासगदभीतिमहाभि घातान् । दुःखप्रवासबधबन्धभयानि चैव भानोर्दशा प्रकुरुते खलु राजपौड़ाम्” ॥ रर । सोमस्य मासाः १० | तत्फलम् । "मदसा खेच्छाहानिं धनचतिम् । कुरुते रजनीनाथो भागोरन्तर्दशां गतः ॥ रच | कुजस्य मासाः ५ । दिनानि १० । फलम् । " स्वर्णप्रवाल सौख्यानि रत्नानि कौतिमुत्तमाम् । ददाति भूसुतोऽभीष्ट भानोरन्तर्दशाङ्गतः ॥ रम बुधस्य मासाः १९ । दिनानि १० । “दु विचर्चिकाचैव बलदुष्टादिबाधकान् । चन्द्रजः कुरुते शोकं भानोरन्तर्दशां गतः ॥ वुर | शर्मासाः ६ दिनानि २० । फलम् । “सन्तापं वित्तनाशञ्च बन्धुनाशं पराजयम् । सौरिः करोति वैकल्यं भानोरन्तर्दशाङ्गतः ॥ रश । गुरोर्वर्षादि १ | ० | २० | “धर्मार्थकामसोख्यानि ददाति विबुधार्श्वितः | कुष्ठादिव्याधिहन्ता च भानोरन्तर्दशां गतः ॥ रन । राहोर्मासाः ८ । "अशुभाशुभवोद्वेगं व्याधिभौतिसुतक्षयान् । कुरुते सिंहिकासुनू रवेरन्तर्दशाङ्गतः” ॥ ररा । शुक्रस्य वर्षं १ । मासौ २ | " H 66. For Private And Personal Use Only - Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६३४ ज्योतिस्तत्त्वम् । “कोष्ठग्रौवाशिरोरोगज्वरान् शूलादिदारुणान्। शोकं करोति | "" भृगुजः सूर्यस्यान्तर्दशाङ्गतः " ॥ रशु एवं रवेर्वर्षाणि । ६ । | चन्द्रस्य स्थलदशवर्षाणि १५ । तस्यैवान्तर्दशावर्षे २ । मासः १ । फलम् । “कुर्य्याद्विभूतिवरवाहनमातपत्रचे मप्रतापबलवौर्यसमन्वितानि । मिष्टान्नपानशयनासनभोजनानि चान्द्रोदशा प्रचुरकाञ्चनभूमिदात्री” ॥ चच । कुजस्य वर्षं १ । मासाः ८ । दिनानि १० । फलम् । “पित्तशोणितपोड़ाञ्च चौराणाञ्च भयं तथा । मङ्गलः कुरुते नित्यं विधोरन्तर्तमाङ्गतः ॥ चम | बुधस्य वर्षे २ । मासाः ४ | दिनानि १० । "सर्वत्र द्रव्यलाभञ्च गजाश्वगोधनानि च । चन्द्रजः कुरुते सौख्य ं विधोरन्तर्दशां गतः" ॥ चबु । शनैर्वषं १ । मासाः ४ | दिनानि २० । " बन्धुक्ल ेशं नृपाङ्गौतिं व्यसनं शोकशङ्गुलम् । विनाशं कुरुते शौरिचन्द्रस्यान्तर्दशाङ्गतः ॥ चश । गुरोर्वर्षे २ | मासाः ७ । दिनानि २० । “दानसौख्यानि सम्भोगवस्त्रालङ्कारभूषणम् । कुरुते विबुधाचार्यो विधोरन्तर्दशाङ्गतः " ॥ चट्ट । राहोवर्ष १ । मासाः ८ । " वह्निशत्रुभयं दुःखं शोकं बन्धुधनश्चयम् । कुरुते राहुरत्यर्थं चन्द्रपाकदशाङ्गतः” ॥ चरा । शुक्रस्य वर्षे २। मासाः ११ । “सेव्यते वरनारीभिर्नरो लक्ष्मौः प्रवर्त्तते । मुक्ताडामणिप्राप्तिर्विधोरन्तर्गते सिते" ॥ चशु । रवेर्मासाः १० । "ऐश्वर्यं बहसौख्यञ्च व्याधिनाशमरिचयम् । नृपतेजो रविः कुय्यात् विधोः पाकदशाङ्गतः” । चर । एवं चन्द्रस्य वर्षाणि १५ कुजस्य स्थलवर्षाणि ८ । तस्यान्तर्दशा मासाः ७ दिनानि ३ । दण्डाः २० । “क्रूराभिघातबधबन्धभयानि धत्ते चिन्ताज्वरं विकलशून्यग्गृहाश्रमञ्च । चौराग्निभौतिधनहानि नरेन्द्र पौड़ा: कुर्य्यादिनाशनिधनञ्च दशा कुजस्य ॥ मम । बुधस्य १। मासाः ३ । दिनानि ३ । दण्डाः २० । “परमैश्वय्र्य वर्षं For Private And Personal Use Only Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम् । ६३५ मतुलं नानाविधसुखात्रयम् । करोति सोमपुत्रश्च क्षितिजान्तर्दशाङ्गतः” ॥ मबु । शनेर्मासाः ८। दिनानि २६ । दण्डाः ४० । "रिपुचौराग्निभौतिञ्च रोगमन्तरमन्तरम् । महाजनकतो हेषः कुजस्यान्तर्गते शनी" ॥ मश। गुरोवर्ष १ । मासा: ४। दिनानि २६ । दण्डा: ४०। "पुष्पधपानवस्त्राद्यैदेवब्राह्मण पूजनम् । नृपतुल्यत्वमाप्नोति कुजस्यान्तर्गते गुरौ” । मह। राहोर्मासा: १० । दिनानि २० । “कार्यार्थनाशं सर्वत्र बन्धचौरादिसाध्वसम्। कुरुते सिंहिकापुत्रो भौमस्यान्तर्दशां गतः" ॥ मरा। शुक्रस्य वर्षे १। मासाः ६ । दिनानि २० । "धनवद्धिसुखादींश्च नानावस्त्रं वरस्त्रियः। प्राप्नोति विपुला लक्ष्मी कुजस्यान्तर्गते भृयो” ॥ मशु । रवेर्मासाः ५ । दिनानि १०। "नानारत्नच सौख्यञ्च भूमिलाभमथापि वा। नृपपूजामवाप्नोति कुजस्यान्तर्गते रवौ” ॥ मर। सोमस्य वर्ष १ । मासाः १। दिनानि १० । “धनलाभं सुखं भोगं शरौरारोग्यमेव च। लोकानन्त्यमवाप्नोति क्षितिजान्तर्गते विधो" ॥ मच। एवं कुजस्य वर्षाणि ८। अथ बुधस्य स्थलदशा वर्षाणि १७ । तस्यान्तर्दशा वर्षे २। मासाः ८। दिनानि ३ । दण्डाः २० । फलम् । *दिव्याङ्गनावदनपङ्कजषट्पदत्वं लोलाविलासवरभोगसुखोदयञ्च। नानाप्रकारविभवागमकोषहििक्षप्रं एजेदबुधदशा विपुलाञ्च सिधिम् ॥ बुबु । शनवर्षे ११ मासाः ६ । दिनानि २६ । दण्डा: ४०। “वातश्लेष्मकता पौड़ा विरहो बन्धुभिः सह। विदेशगमनञ्चैव बधस्यान्तर्गते शनी" ॥ बुश । गुरोर्वर्षे २ । मासाः ११ । दिनानि २६ । दण्डा: ४.। “व्याधिशत्रुभयैस्त्यतो धनाढ्यो नृपवल्लभः । लभेद्भायां सुपुत्रञ्च बुधस्यान्तर्गते गुरौ” ॥ बह। राहोर्वषं १ मासाः १० । दिनानि २० । "बन्धुनाशं मनस्तापं देशत्यागन बन्धनम्। करोति बहु For Private And Personal Use Only Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६३६ ज्योतिस्तत्त्वम्। दुःखानि बुधस्थान्तर्गतं तमः" ॥ तमो राहुः । बुरा । शुक्रस्य वर्षाणि ३ । मासाः ३। दिनानि २० । “धनाढ्य बहुपुत्रश्च धर्महि धनागमम् । कुरुते दानवाचार्यो बुधपाकदशाङ्गत"। बुशु। रवेर्मासाः ११। दिनानि १० । “श्रिया परमयायुक्त गजवाजिधनान्वितम्। प्रभाकरः करोत्याशु बुधपाकदशाङ्गतः ॥ बुर । सोमस्य वर्षे २। मासाः ४ । दिनानि १० । "कण्टकादिप्रवेशच शृङ्गिभ्यो भयमेव च। निशाकरः करोत्याशु बुधपाकदशाङ्गतः ॥ बुच । कुजस्य वर्षे १ । मासा: ४ । दिनानि ३ । दण्डाः २.। "कफपित्तसमुद्भूतां शिरःपौड़ा भयावहाम्। मङ्गलः कुरुते शोकं बुधस्यान्तर्दशाङ्गत:" ॥ बम । एवं बुधस्य वर्षाणि १७ । अथ शनेः स्थूलदशा वर्षाणि १०। तस्यान्तर्दशा मासाः ११। दिनानि ३ । दण्डा: २० । "मिथ्याप्रवासबधबधानराश्रयत्व चौरादिभूपतिभुजङ्गमभौतिमुग्राम्। आशानिरासमथवार्जन कार्यहानिं पङ्गोर्दशा प्रकुरते नियतं नराणाम्" ॥ शश। गुगेवर्षे १ । मासाः ।। दिनानि । दण्डाः २०। "देवतानुरतं शान्तं नानाप्राप्ति करोति च। तुङ्गसौख्यसमायुक्त पनोरन्तर्गतो गुरुः ॥ शह। राहोवर्ष १ । मास: १ । दिनानि १० । "नृपाइयं ज्वरं घोरं दाखञ्च प्राणसंशयम्। धनक्षयच्च कुरुते शनेरन्तर्गतं तमः" । शरा । शुक्रस्य वर्ष १ । मासाः ११ । दिनानि १० । “मुहहन्धुधनैः पूर्णो भाया वित्तसमन्वितः। स्वर्णं सुखञ्च लभते सौरस्यान्तर्गते सिते" ॥ शशु। स्वर्मासाः ६। दिनानि २० । "परदाराभिगमनं करोति खरदौधितिः। जौवनस्य च सन्देह शनेरन्तर्दशाङ्गतः ॥ शर। सोमस्य वर्षे १। मासाः ४ । दिनानि २० । “स्त्रौनाशं कुतिरोगच्च कफपित्तगदं शशौ । बन्धुदेषञ्च कुरुते पनोरन्तर्दशाङ्गतः ॥ । कुजस्य मासाः। For Private And Personal Use Only Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तखम् । दिनानि २६ । दहाः ४० । फलं " देवं महारोग नाना दाणानि भूमिजः। धननाशच कुरुते भनेरन्तर्दशाङ्गतः । सम। बुधव वर्ष १ । मासाः ६ । दिनानि २६ । दण्डाः ४० । “प्रायुरारोग्यविजयं बहुवित्तानि सोमजः। करोति चादरं लोके शनेरसर्दशाङ्गतः ॥ अबु। एवं शनेवर्षाणि १०। गुरोः स्थलदशा वर्षाणि १८। तस्यैवान्तर्दशा वर्षाणि ३। मासा: ४। दिनानि ३ । दण्डाः १०। “राज्यास्पद तनवित्तविनाशभोगान् पसिसौख्यधनधान्यसमाश्रयञ्च । विद्याप्रसादवररत्नस्वार्थभोगसिद्धि दशा मुरगुरोः कुरुते श्रियः । वह। राहोवर्षे २। मासः १। दिनानि १० “बन्धुहेच मृषावादं स्थान निराश्रयम्। कलहं कारयेदाहुगुरोरन्तर्दशागत:" ॥ रा। शक्रस्य वर्षाणि ३ । मासाः दिनानि १०। “वालह बन्धुभिः साई वित्तनाशं धनचतिम्। सोवियोगध कुरुते नौवस्यान्सर्गतः सितः ॥ वृश । रवेष । दिनानि २० । “बहुमिव बहुधनं सौभाग्यं राजवनभम्। कुरुते भास्करः शान्तिं गुरोरन्तर्दशाङ्गतः ॥ वर। सोमस्य वर्षे २ । मासाः । दिनानि २० । “भोगाव्यो बहुभायंच रिपुरोगविवर्जितः। नृपतुल्यो भवेच्चैव गुरोरन्तदंशाङ्गत:" ॥ वृच । कुजस्य वर्ष१। मासाः ४ । दिनानि २६ । दण्डाः ४० । “तीक्ष्णरोषो रिपोहन्ता गजवद्धौमदर्शनः । सुखसौभाग्यसंयुक्तः कुजे चान्तर्गते गुरोः" ॥ बम। बुधस्य वर्षे २ । मासा: ११ । दिनानि २६ । दण्डाः ४० । "मुस्थो. ऽसुस्थः सुखौदुःखौ शत्रुधिः पुनः पुनः। देवार्चनपरी नित्यं जीवस्यान्तर्गते बुधे"। बु। शनवर्ष १। मामाः ८। दिनानि ३। दण्डाः २० । "वेश्याजनाश्रयात् सौख्य भवेहित्तविवर्जितः। लुप्तनौतिमना नित्य गुरोरन्तर्गते शनी” ॥ ५४ For Private And Personal Use Only Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६३८ ज्योतिस्तत्त्वम् । वृश। एवं गुरोर्वर्षाणि १८ । १९ । राहो स्थूलदशा वर्षाणि १२ | तस्यान्तर्दशा वर्ष १ । मासा : 8 | " भाग्यादिदूषणनिदानविवादबन्धशस्त्राभिघातभय हौनपराक्रमश्च । अप्राप्तसौख्यधनकाञ्चनहौनदेहो राहोर्दशा भवति जीवनसंशयाय " ॥ रोरा | शुक्रस्य वर्षे २ | मासाः ४ । फलम् । “शिरोरोगं कुदेहञ्च कुय्याद्भाय्याच चञ्चलाम् । बान्धवैः कलहो नित्य राहोरन्तर्गते भृगो” ॥ रा। रवेर्मासाः ८ । “शिरोरोगभयं घोरं मृत्युशोकञ्च दारुणम् । वृहदग्निभयं कुय्याद्रा होरन्तर्गतो रविः ॥ रार | सोमस्य वर्ष १ । मासाः ८ । "स्त्रीपुत्रकलहचैव वित्तनाशं मनःक्षतिम् । करोति क्ले शमत्यन्तं राहोरन्ततो विधु: " ॥ राच । कुजस्य मासाः १० | दिनानि २० । " विषशस्त्राग्निचौरेभ्यो नियतं दारुणं भयम् । पातस्यान्तर्गतः कुय्यावरस्य भूमिनन्दनः " ॥ राम । बुधस्य वर्ष १ । मासाः १० | दिनानि २० । “ज्वरक्षुदचिपौड़ाञ्च कलहं स्वजनैः सह । भृत्यापत्येषु विद्वेष कुर्य्यात् पातान्तरे बुधः " ॥ राबु । वर्ष १। मासः १ | दिनानि १० । “खोपुत्रैः कलहो नित्यं बान्धवैः सह वैरिता । भबेत्तु बहुधा दुःखं राहोरन्तर्गते शनौ” ॥ राश । गुरोर्वर्षे २ | मासः १ | दिनानि १० । “ व्याधिदुःखभयैस्त्यक्तो देवब्राह्मणपूजकः । कार्यसिद्धिर्भवेदिष्टा राहोरन्तर्गते गुरौ” ॥ राष्ट । एवं राम्रोर्वर्षाणि १२ । शुक्रस्य स्थन्तदशा वर्षाणि २१ । तस्यान्तर्दशा वर्षाणि ४ । मासः १ । फलम् । "मन्त्रप्रचाररुचिरप्रमदाविलाससम्मानदाननृपपूजनकोषलाभान् । हस्त्यश्वयान परिपूर्णमनोरथञ्च शौक्री दशा सृजति निश्चलराजलक्ष्योम्” ॥ शुशु । वर्ष १ । मासी २ । “देहस्तौव्रव्रणाकान्तस्तौनतापोऽधनान्त्रितः । त्यक्तः स्याद्रान्वैः सर्वैर्भार्गवान्तर्गते वो Co For Private And Personal Use Only - Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम् । शुर। सोमस्य वर्षे २ । मासाः ११। "सम्माननाशो रोगश्च कर्मनाशच नित्यशः । शुक्रस्यान्तर्गते चन्द्रे स्त्रौनाशी नियतं भवेत् ॥ शुच । कुजस्य वर्ष १। मासाः ६ । दिनानि २० ॥ "उत्साही धनधान्यान्यः कल्यश्च सुमनाः सुखो। भूमिलाभो भवेञ्चैव शुक्रस्यान्तर्गते कुजे" ॥ शम। बधस्य वर्षाणि ३ । मासाः३। दिनानि २० । “सर्वत्र लभते सौख्यं मानसञ्चयभूषणम्। भाया सुशोलतामेति भावान्तर्गते बुधे"। शुबु । शनेवर्ष १। मासा: ११ । दिनानि १० । “शत्रुक्षयमवाप्नोति मिवदिख जायते। चौराहित्तस्य लाभः स्याच्छकस्यान्तर्गते शनो" ॥ शुश । गुरोर्वर्षाणि ३ । मासा: ८ । दिनानि, १०। “राजपूजा सुखं प्रौति: कन्याजननमेव च। भार्गवाम्तर्गते जौवे चौराबष्टञ्च लभ्यते" ॥ शुद्ध । राहोवर्षे २ । मासाः ४। “बन्धनं बन्धुपुत्रादेबन्धुनाशो रिपोर्भयम्। शरीग्दैन्यमानोति राहावन्तगते भृगोः” ॥ शुरा। एवं शुक्रस्य वर्षाणि २१। इत्यन्तर्दशाफलम् । अथ प्रत्यन्तर्दशाफलम्। “ग्रहान्तरं दिनं कृत्वा षष्टिलब्ध ध्रुवं भवेत्। ध्रुवञ्च गणयेहीमान् रव्यादिक्रमतो यथा ॥ रवी च वेदा वसवः सुधांशी कुजे च बाणा नव चन्द्रपुत्र । शनी रमादिक् च वृहस्पती च राही तुरङ्गा भृगुजे च रुद्राः ॥ रवेरन्तरमध्ये तु वसवश्व रवेनिंजाः। चन्द्रस्य षोड़श प्रोता: कुजस्य च दश स्मृताः॥ बुधस्य वसुचन्द्रौ च हादशश्च शनेः क्रमात्। गुरोध विंशतिश्चैव राहोचतुर्दश स्मृताः ॥ एष एव विधिः प्रोक्तो भूगोहाविंशतिः क्रमात् । एवं दिनानि चान्येषां सात्वा प्रत्यन्तराणि च॥ यस्मिन् प्रत्यन्तरे यस्तु यत्संख्य दिनमाप्तवान्। तहिनस्य प्रमाणेन शुभाशुभ फलं वदेत् ॥ ध्रुवाणि ध्रुवाकाः वेदाङ्कः पूरयित्वा यत्संख्यं तत्सख्यदिनं स्वः प्रत्यन्तर्दशायाम् एवमन्येषां ग्रहायामित्यर्थः । For Private And Personal Use Only Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्वम् । अथ वर्षपताको। “रविचन्द्रः कुजः सौम्यः शनिर्जीवस्तमो भृगुः । इन्द्रेशाद्यष्टरेखासु मध्ये केतुरिमेऽब्दपाः ॥ कृत्तिकादिविरात्तिर्यथा केती मघा भवेत्। वनक्षत्राहर्षफलं जेयं केतोः पताकया ॥ रविणा धाम्यते देशान् सन्तापव्याधिपौड़ितः । कान्तारसङ्कटं शोकं करोति च भयान्वितम् ॥ । “चन्द्रे तुष्टिस्तथा पुष्टिः सुख सम्पत्तिरेव च । . भारोग्यं लभते नित्यं धनपुत्रसमन्वितम्" । च। “भौमे सदा कार्यहानिः क्रूरकर्मणि योजनम्। चर्मरोगो भवेत्तत सन्तापक्ष दिने दिने" ॥ म। "बधे बोधश्च कार्यच कन्यालाभो महासुखम् । राजसम्मानभाङित्यं धनलाभो दिने दिने" ॥ बु। "जोवे विद्या सुखं मानं लोक पूजाधनागमः। सर्वाङ्गाभरणं कण्हे स्वर्णहारविभूषणम्" ॥ । “शुक्रः पौरुषमाख्याति पुष्टिकर्मसुखानि च। मुक्तारनप्रवालच रानसम्मानमेवं च" । शु। “शनौरोगभयं शोकं बन्धनं भयमेव च। अर्थहानि कुवाक्यञ्च प्राणनाशं करोति च ॥ श । “रक्तस्रावो भवेदने राही हेषो जनस्य च । विदेशगममञ्चैव वहिवारिभयं तथा" ॥ रा। "राजकार्यभयं चौयं रहदाह बन्धनम् । केतोवर्षे भवेद् घातस्तेषामन्तर्दिनानि तु ॥ के । अथान्त वर्षगणः । "दिनत्रयं विंशदण्डान् स्वदशाभिः प्रपूरयेत्। वर्षेवरात् समारभ्य नाक्षत्रिकविधानतः ॥ रवनखा २० चन्द्रमसः खबाणा: ५० कुजेष्टयुग्मे २८ विदिषट् च पञ्चकं ५६ शने. गुंणाग्नौ ३३ गुरुतोऽग्निकालौ ६३ राहोः खवेदा ४० भृगुतः खशैलाः ७०”। राहोरित्येकदेशत्वात् केतुपरमपि तेन राहुकेवोविंशतिविंशतिः इति वर्षफलम् । “लग्ने द्विपापे पतितस्त्रिपापे सरोऽधमः। अात्महा स्याचतुष्यापे भवेदेके तु वाचता ॥ वर्गोत्तमगते चन्द्रे चतुरादिभिरौचिते। विलम्ने For Private And Personal Use Only Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्वम् । ६.४१ घा नृपजन्म भवति राज्यं नृपयोगे बलयुत दशायाम् ॥ कुलतुल्यः कुलश्रेष्ठो बन्धुमान्यो धनी सुखो। क्रमात् नृपसमो भूयात् अर्काद्यैः स्वस्टइस्थितैः" ॥ नृपादियोगः। “सूर्य्याहायगर्योशिईि तौयगैश्चन्द्रवजिशिः । उभयस्थितै ग्रहेन्द्र रुभयचरौणामतः कथिता" ॥ व्योश्यादियोगः । “रविवन हादशगैरनफाचन्द्रात् द्वितीय गैः सुनफा। उभयस्थितैर्दुरधुराकेमद्रुमसंजितोऽन्यः" ॥ अनफादियोगः । “मन्दट्टमस्थिरवचन: परिभूतपरिथमो भवेगोशौ। उद्घष्टवचाः स्मृतिमान् स्तब्धगति: सात्विको भवेद्देशौ ॥ सुभगो बहुभृत्यधनो बन्धूनामाश्रयो नृपतितुल्यः । नित्योत्साही दृष्टो भुति भोगानुभयचाम्" ॥ व्याश्यादि फलम् । “सच्छौलं विषयसखान्वित प्रभु ख्यातियुक्तमनफायां मुनफायां धौधनकोर्तियुक्तमात्माजितैश्वर्यञ्च बहुमृत्य कुटुम्बारम्भमुहिग्नचित्तमपि दौरधुरे । मृतकं दुःखिनमधनं जातं केमद्रुमे विद्यात्” ॥ अनफादि. फलम् । “एते न च यदा योगा: केन्द्रच ग्रहवर्जितं शशाक्य । केमद्रुमोऽतिकष्टः शशिनि समस्तग्रहादृष्ट लग्नादतीव वसमान् वसुमान् शशाशात् सौम्यग्रहै रुपचयोपगतैः समस्तैः द्वाभ्यां समोऽल्पवसुमांश्च तदूनतायाम् अन्येषु सत्स्वपि फलेष्विदमुत्कटेन लग्नचन्द्रोपचयस्थ शुभग्रहैवित्तज्ञानम्। अधमसमवरिछान्य केन्द्रादिसंस्थे शामिनि विनयवित्तनानधौनपुणानि । अहनि निशि च चन्द्रे स्वेऽधिमित्रांशके वा सुरगुरुसितदृष्टे वित्तवान् स्यात् सुखी च। सूर्य के न्द्रादिस्थानत्रयस्थ चन्द्रवशेन विनयादीनामधमादिनिर्णयः। प्रायः शुभाः समेता धनभोगयथोऽन्वितं भूपतियुष्टम् । पापाच दुःखतप्तं कुर्वन्त्यधनं वटुभग दौनम्” ॥ ग्रहयोगफलं “बुधगुरुभार्गवदृष्टो बिद्दान् दीर्घायुरर्थपरिपूर्णः। सुवचा: मुशरीरधरः सुतधनसौख्यान्वितः For Private And Personal Use Only Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्वम् । ख्यातः। रविशनिलोशितदृष्टो जाती मलिनोऽलसव रोगातः । निधनो विरूपदेहः प्रेथो मूढः खलोऽतिदीनच। नौवेक्षितः पण्डितशासमूर्तिर्वेदार्थशास्त्रागमपारदृष्टिः। दीर्घायुरत्यन्तशुचिः सुशौलो जातः सुपूर्ण भजते विभूतिम्॥ यं पश्यति भृगुतनयो लम्ने जन्मनि कटाक्षमावेण। सौरिः कुलाचलकुलियः कुलितकुलजोऽपि राजा स्यात् ॥ शान्तात्मा चिर. जौवी च सुशोलोऽपि बहुप्रजः । शोभनाजी महाप्रान्तश्चन्द्रदृष्टो भवेवरः ॥ धादियहसंदृष्ट प्रायेण शुभावहं भवति लग्नम्। एकेनापि शुभेन न च पापैरिथते सद्भिः ॥ लम्ने सर्वग्रहदृष्टे नृपतुल्योऽथवा भवेत्। शुभक्षेत्रे विदं वाच्य पापर्वे रिष्टवर्जितम् ॥ लग्ने पापग्रहे रोगो दुर्बलः शत्रुपौड़ितः। शुभेक्षिते तु तवैव भवेत् परबधरतः ॥ अथ क्रमेण लग्नदृष्टिफलम्। "स्त्रीजितो मृदुवाकाच स्थूलशेफाच शिल्पवित्। सच्छौलश्च मुरूपच दुःखौ सूर्यादि. वौक्षणात् ॥ सौम्यग्रहस्य वर्गे जातः सुखमाग्विनौतरुचिराङ्गः । धौधर्मख्यातियुतो विद्वान् दीर्घायुरतिसुभगः ॥ जातश्च पापवर्गे दुःखौ मलिनोऽलसश्च रोगातः। प्रेष्यः खलोऽतिदौनो मूर्ख स्तेनोऽर्थहौनश्च ॥ इति षड्वर्गफलम् । __ युद्धजयार्णवे। यस्मिन्ब्रक्षे स्थितो भानुस्तदादि बौणि मस्तके। मुखे त्रीणि तथा हे भे स्कन्धयोर्भुजयोरुभे ॥ हे हस्तयोः पञ्च हृदि नाभावकं तथा गुदे। तथा जानुयुगे हे हे पादयोजलधिं न्यसेत् ॥ चरणर्वेषु यो जातः सोऽल्पायुभवति प्रिये। जानुनोभमणाशतो गुह्ये स्यात् पारदारिकः ॥ नाभौ स्वल्पधनो देवि हृदये स्यान्महाधनः। पाण्योर्जातो भवेचौरो भुजयोर्दुःखभाजनम् ॥ स्कन्दयो गभोगी च मुखे धर्मरतो धनौ। मूवि राजा भवेहे वि बालानां जन्मतो For Private And Personal Use Only Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम् । ६४२ वदेत्” ॥ स्वरोदये । " मुखे शौर्षे शतं वर्षे नवतिः स्कन्दयोईयोः । पञ्चाशौति दि प्रोक्ता हस्तयोः सप्ततिः क्रमात् ॥ वाह्वोः षट्षष्टिवर्षाणि गुह्ये षट्षष्टिका क्रमात् । पञ्चाशत् जयोः पादे निर्धनश्चाल्पजीवन : " ॥ इति जातकचक्रम् । "चतुरादिभिरेकस्यैः प्रव्रज्यां स्वां ग्रहः करोति बलौ । बहुवौस्ता वहा प्रथमा वौय्याधिकस्यैव" । ग्रहैः प्रव्रज्यायोगो भवति तेषां मध्ये यो बलौ स स्वां प्रव्रज्यां करोतीत्यर्थः । प्रव्रज्यायोगः | " तापस बुद्धस्रावक रक्तपटाजविभिक्षुचरकायाम् । निर्ग्रन्थानाचार्कात् पराजितैः प्रच्युतिर्बलिभिः । रविस्तपखौ चन्द्रो बुद्धः सन्यासौत्यादि ज्ञेयम् । प्रव्रज्यानिर्णयः लग्ने सूर्य्योऽचिरोगी शशिनि बलयुतो रूपवान् वित्तयुक्तो भौमे व्यङ्गः सुवाग्मो शशधरतनये सर्वशास्त्रार्थवेत्ता । जीवे दाता पवित्रः सुकविरथ गते भार्गवे मण्डलेशः सौरौ कण्डूतिगावस्तमसि च नियत वञ्चितो धर्म होनः ॥ १ ॥ “वित्तेऽर्के चैव रोगी सततगदयुतो रात्रिनाथे धनाढ्यो भौमे नित्यं प्रवासौ कृषिसुतधनवान् सोमपुत्रे प्रधानः । जौवे लक्ष्मीप्रमोदौ विलसति भृगुजे दर्पितः श्रनिकेतः । सौरे दोनोऽतिनित्यं तमसि च नियतं चौरिका वित्तजीवौ ” । २ । " वातय्य के सधः स भवति नियतं भ्रातृहा रात्रिनाथे । हिंस्रो भौमेऽनुजानां सपदि बधकरो भूमिकावृत्तिजौवो । सौम्ये सत्यस्य हन्ता भवति सुरगुरौ कामदेवखरूपः । शुक्र राज्याधिकारी रविजदनुजयोहन्ता धनाढ्यः” । ३ । “अर्के बन्धौ सुदुःखौ खजनपरि वृतः शौतगौ जानुरोगी । भौमे कुग्रामवासी भवति शशिसुते भ्रापुत्रान्वितोऽपि । जौवे रत्नोपजीवौ त्रिदशरिपुगुरौ सर्वसौख्याधिकारी | सौरौ गेहे निवासी भवति शशिरिपौ मन्दकर्मा कुचेलः” ॥ ४ ॥ " पुत्रस्थेऽर्के नरोऽसौ प्रथमसुतद्दत: " For Private And Personal Use Only Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६४४ ज्योतिस्तत्त्वम् । सिंहराशौ सुपुत्रः । सोमे सर्वाधिकारी भवति धरणिजे पुत्रशोकाकुलोऽसौ । सौम्ये सुस्थः सुदेहः प्रचुरधनयुतो देवपूज्य: सुपुत्रः कन्यायुक्तो हि शुक्र रविजदनुजयोः पुत्रपौ चैर्विदौन : " || “षष्ठेऽर्के शत्रुशङ्कारिपुगणरहितः क्षोणचन्द्रे गतायुः । पूर्णे शत्रुच्च हन्यात् भवति धरणिजे हौनदेहोऽतिदोनः । सौम्ये शास्त्रार्थं - युक्तस्त्रिदशपतिगुरौ राज्यसौख्योपभोगौ । दैत्याचार्येऽतिरोगो रविजदनुजयोः पापभु नित्यदुःखो” । ६ । " नामके च जायापतिरतिविमुखौ शौतरश्मौ सुपुत्रः । सुस्थो भूयान्नरोऽसौ भवति धरणिजे होनभाय्र्यश्च ननम् । सौम्येऽसुग्धः सुदेहस्त्रिदशपतिगुरौ शास्त्रवेत्ता शतायुः । शुक्रे पुत्रप्रमोदी रविनदनुजयोहनभाय्र्यश्च होनः” । ७ । “मृत्यौ धार्के स्वमृत्युर्भवति च नियत' शौतरश्मौ गतायुः भूमेः पुत्र च रोगौ शशधरतनये शूलरोगी विका। जोवे तीर्थेषु मृत्युर्भवति भृगुसुते धार्मिकस्वर्थोऽसो, सौरौ शूलौ गतायुर्भवति विधुरिपौ वेदमुक्तो गतायुः” । ८ । “धर्मे चार्के नरोऽसौ विविधधनयुतः शौतमौ पुण्यकर्मा, लक्ष्मीवान् पुण्यचेता भवति धरणिजे देववित्तापहारौ । सौम्ये धर्मः सुशौलस्त्रिदशपतिगुरौ राजतुल्यः सुधर्मा, शुक्र तौर्थानुरागौ रविजदनुजयोः पापशीलः सुदुःखो” | ८ | " कर्मण्य के प्रताप प्रचुरधनयुतः श्लीपदी क्रोधदृष्टिः, सोमे मान्वितोऽसौ विविधधनयुतो भूमिजे बन्धुहौनः । नित्योलाहौ च सौम्ये प्रचुरधनयुतो देवपूज्योऽतिमानौ, दिव्य स्त्रीशोऽपि शुक्रे नृपतिसमधन: सौग्दैित्ये सुखौ च । १० । “आये चार्के नरोऽसौ पितृधनसहितः शौतगौ चारुशीलो, भौमे नित्य स रोगों शशधरतनये सर्वदा क्रोधयुक्तः । जीवे श्रीमान् प्रदाता करितुरगपतिर्भागवे शास्त्रविनश्च स्त्रीरत्नादियुक्तो रविदनुजयोः क्रूरकर्मा कुचेल: । ११ । “अर्के संस्थे व्ययेऽसौ पुर ܬ For Private And Personal Use Only Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम् । ६४५ धनरहितः सर्वभोगो सुदुःखौ । सोमे खेदान्वितोऽसौ भवति धरणिजे व्युतरतो विबुद्धिः । सौम्ये धर्मार्थकारी दिनकररहिते देवपूज्योऽतिमानो, शुक्र शास्त्रानुरागी रविजदनुजयोः क्रूरकर्मा कुचेलः” । १२ । इति लग्नादिस्थग्रहफलम् । वृह जातके । “ तौक्ष्यांशुः शशिना सम प्रकुरुते यत्राश्मकार न भौमेनाघरत बुधेन निपूर्ण सौभाग्य सौख्यान्वित क्रूर वाक्पतिनाऽन्यकाय्यनिरत' शुक्रेण वङ्गायुधैर्लब्धखं रविजेन धातुकुशलं भाण्डप्रकारेण वा । १ । " कूटस्त्या सवदन्त पण्यमधिवं मातुः सवक्रः शशोसङ्गः सुनृतवाक्यमर्थनिपुणं सौभाग्यको र्यान्वितम्। विक्रान्तं कुलमुख्यमस्थिरमतिं वित्तेश्वरं साङ्गिराः वस्त्राणां समितः क्रयादिकुशलं साकिं: पुनर्भूसुतम् । मूलादिस्नेहकूटे व्यवहरति बणिक् बाहुयोडा ससौम्ये पूर्यध्यक्षः सजौवे भवति नरपति: प्राप्तविद्यो हिजो वा । गोपो मज्ञोऽथ दचः परयुवतिरतो द्यूतकृत् सासुरेज्ये दुःखार्त्तो सत्यसन्धः सवितृतनये भूमिजे निन्दिता । सोम्ये रङ्गचरो वृहस्पतियुते गौतप्रियो नृत्यवित् वाग्मौ भूगणपः सितेन शशिना मायापटुर्लङ्गकः । सद्दियो धनदारवान् बहुगुणः शुक्रेण युक्ते गुरौ । ज्ञेयः स्तब्धकरोऽसितेन घटकज्जातोऽश्मकारोऽपि वा । श्रसितसितसमागमे ऽल्पचचर्युवतिसमाश्रय संप्रबहचित्तः । भवति च लिपिचित्रपुस्तकवेत्ता कथितफलैः पुरतोऽपरेऽपि कल्प्या : " । इति हिग्रहयोगफलम् | " नानागमग्रन्थविशेषवोध व्याख्यातनामा नृपपूजितश्च” । “साधुः धर्मा भवति लग्नस्थिते चन्द्रसते चिरायु: । तुङ्गिफलमाह “मुविक्रमः सत्यवचाः सुरूपः प्रियंवदो धर्मपरो नरेन्द्रः । सौम्ये तु तुङ्गोपगते विलग्ने विलक्षणः कान्तिधरो गरिष्ठः । रुचिरतर प्रमदाजन रक्तः शक्र े निर्मलविद्यायुक्तः । लग्नगते For Private And Personal Use Only Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६४६ ज्योतिस्तत्त्वम् । प्रचण्ड रूपः | रुचिराङ्गजमूर्त्तिः धर्मरतः पृथुमाहवृत्तिः । पुरुष: प्रलापौ प्रजाधिपः स्वल्पवचाः सहिष्णुः पित्तप्रधान: प्रणतप्रियश्च बुधे विलग्ने भवति प्रजातः । शुभं वर्गोत्तमे जन्म वेशिस्थाने च सद्ग्रहे । अशून्येषु च केन्द्रेषु कारकर्त्ते ग्रहेषु च" । सत्याचाय्र्यः वर्गोत्तमे कुले मुख्यकारक प्रागुक्तकार - कर्त्ते । " धर्माधिपः पश्यति धर्मभावं लग्नाधिपः पश्यति चेद्दिलग्न' मृत्युं यदा पश्यति मृत्युनाथस्तदा तु तोर्थे नियतं मृतिः स्यात् । षष्ठाष्टमकण्टकगोगुरुरुच्चे मौमसंलग्न वा । शेषैर्बलैर्जन्मनि मरणे वा मोक्षगतिमाहुः” । जन्ममरणकालयोर्मोक्ष निर्णयः । " श्रयो ग्रहा यदेकत्र राशिलग्न विवर्जिता । भुक्का च विविधान् भोगान् म्रियते जाह्नवौजले । सूर्य्यादिभि निधनगेहु तव सलिलायुधज्वरामयजः । हृट्क्षुत्कृतश्च मृत्युः परदेशादौ चरादिभे निधने निधनस्थ ग्रहबलेन निर्णया निर्णयः । यो बलवात्रिधनं पश्यति तचातुकोपजो मृत्युः । निधनयुगाधिकविंशदेक्काणेश व मृत्युवोजम्” । ग्रहधातवश्च । “स्नायूस्थ्यस्टक्त्वगथ शुक्रर से च मज्जा मन्दार्कचन्द्र बुधशुक्रसुरेज्यभौमा : " स्नायुवस्तिबन्धनम् । “रविः पित्तौ भभौ वातकफात्मा पैत्तिकः कुजः । वातपित्तकफौ ज्ञश्च कफौज्यो भृगुनन्दनः । कफवातात्मको ज्ञेयः शनिर्वातात्मकस्तथा । बलवदग्रह दर्शनादिभिर्निर्याणज्ञानम् । "पापद्रेकाणे दाही द्वाविंशे शुभद्रेकाणे क्ल ेदः । शेषो मिश्रक्काणे विष्ठान्त्यो व्याड़वर्गेषु ॥ अग्न्यादिनाशवपरिमाणज्ञानम् । "व्याड़ाः कुम्भालि मध्याद्याः कर्किमौनान्त्यसम्भवौ । सिंहाद्यन्त्यौ मृगाद्यच तुला मध्यान्त्यसम्भवौ” ॥ व्याडट्रेक्काणाः । "स्त्रीपुंमोर्जन्मफलं तुल्यं किन्त्वच चन्द्रलग्नस्थम् । तद्दलयोगाइपुराकृतिः सौभाग्य मस्तमये ॥ बाल्ये विधवा भौमे पतिसंत्यक्ता दिवा For Private And Personal Use Only Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्वम् । ६४७ करेऽस्तगे सौरे पापैदृष्टे कन्यैव नरां समुपयाति। क्रूरैरस्ते विधवा पुनभूः शुभाशुभै रौ॥ करेऽष्टमेऽपि विधवा सत्स्वर्थे सा स्वयं वियते। भोजे लग्नेन्दोः स्त्री दुःशीला शौलसंधुता युग्म ॥ शून्येऽवले कदयः पतिश्चरे हस्ते प्रवासी स्यात् ॥ इति स्त्रीणां शुभादि। भविष्थे। “यस्य पाणितले रेखा कमिष्ठामूलमुस्थिता । गतामूलं प्रदेशिन्या: सजीवेछरदांशतम् ॥ दक्षिणे तु कराङ्गुष्ठे यवो यस्य च विद्यते । सर्वविद्या प्रवक्ता च स भवेत्रात्र संशयः ॥ चिपिटा विरला शुष्का यस्याङ्गल्यो भवन्ति वै। स भवेद् दुःखितो नित्य बलहोनच वै गुहः॥ खेतैर्नखै विरक्षश्च पुरुषा दुःखभागिनः । कुशौला: कुनखा ज्ञेयाः कामभोगविवर्जिताः ॥ नखैस्तास्तथैवयं पुष्यितैः सुभगो भवेत्। चतुरस्रमुखौ धर्ता मण्डलास्या शठा भवेत् ॥ अप्रजा वाजिवक्त्रा च महावक्ता च दुर्भगा। अधना स्त्री कशग्रीवा दीर्घग्रौवा च बन्धको । खग्रोवा स्थिरापत्या स्थलग्रीवा च दुःखिता। स्पष्टं रेखावयं यस्याः ग्रोवायां चतुरङ्गलम् ॥ मणिकाञ्चनरत्नाढ्य सा दधाति विभूषणम्” ॥ अन्यत्र तु। “तातस्यैव सुत: प्रोक्तो मेलने मध्यरेखयोः। पृथक्त्वे जारजो जे यो लक्षणैरिति निश्चितम् ॥ कनिष्ठाङ्गलिमूले तु रेखयोद्दाहनिर्णयः । रेखाभिर्बहुभिः क्लेशं खल्याभिर्धनहीनता ॥ रक्ताभिः सुखमाप्नोति कृष्णाभिः प्रेष्यतां व्रजेत्। तर्जनौमूलगामिन्यां रेखायां छिद्रता यदि ॥ खापन्मूषिकमार्जारसर्पदष्टो भविष्यति ॥ विष्णुधर्मोत्तरे । "दृष्टिः प्रसन्ना मधुरा च वाणी मत्तेमतुल्या च गति प्रशस्ता । एकैककूपप्रभवाश्च रोमाः सतत्क्षुतं हास्यमनुत्तमञ्च । श्रान्सस्य यानमशनञ्च वुभुक्षितस्य पानं वृषा परिगतस्य भयेषु बला। एतानि यस्य पुरुषस्य भवन्ति काले तं धन्यमाहुरिह For Private And Personal Use Only Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६४८ ज्योतिस्तत्त्वम् । वै पुरुषं द्विजेन्द्राः ॥ पतिप्रिया पतिप्राचा या नारौ पतिदेवता । चलचणापि सा ज्ञेया सर्वलचणसंयुता ॥ संक्षेपतस्ते कथितं मयैतद् यल्लक्षणं चाद नितम्बिनौनाम् । प्रायो विरू पासु भवन्ति दोषा यत्राशतिस्तव गुणा वसन्ति ॥ इति देहलक्षणम् । अथ जातक । मनुः " प्राङ्नाभिवर्द्धनात् पुंसो जातकर्म विधीयते । मन्त्रवत्प्राशनञ्चास्य हिरण्यमधुसर्पिषाम्" # नाभिवर्धनात् नाभिसम्बधनाड़ी च्छेदनात् । वर्धनं छेदनेऽथ हेइत्यमरः । वैजवापः । "जन्मनोऽनन्तरं कार्यं जातवर्गी यथाविधि । दैवादतीतः कालखेत् प्रतोते सूतके भवेत् " ॥ एवञ्च " मृदु ध्रवचरक्षिप्रभेष्वेषामुदयेऽपि वा । गुरौ शुक्रेऽथवा केन्द्रे जातकर्म च नाम च ॥ इति ज्योतिः शास्त्रोक्तं दैवाकालोत्कर्षे वेदितव्यं धनुत्कर्षेऽपि नक्षत्रादि नियमो न नैमित्तिकस्य निमित्तान्तरभावित्वेन निरवकाशत्वात् । 66 अथ षष्टौपूजा । विष्णुधर्मोत्तरे । " सूतिकावासनिलया जमदा नाम देवताः । तासां यागनिमित्तार्थं शुद्धिर्जन्मनि कौर्त्तिता ॥ षष्ठेऽह्नि रावियागन्तु जन्मदानाच्च कारयेत् । रचणौया सदा षष्ठौ निशां तत्र विशेषतः । राम! जागरणं कार्य्यं जन्मदानां तथा बलिः ॥ रामेति सम्बोधनम् । तत्राशौचान्तरदोषोऽपि नास्ति । "अशौचे तु समुत्पत्रे पुत्रजन्म यदा भवेत् । कर्त्तुस्तात्कालिकी शुहिः पूर्वाशौचाद्दिशुध्यति ॥ इति प्रजापतिवचनात् । पुत्रजन्मेति श्रवणात् पितुरेवाशौचाभावः न तु मातुः कर्त्तुरिति पुंलिङ्गनिर्देशात्रु । कारये-दिति अन्यगोत्रजाभिप्रायेण । तत्रादौ विनायकादिसहितषोडशमातृकापूजनम् । तथा च कत्यचिन्तामणै । "कागजागरणं कार्य्यं खो धाय्यः समीपतः । श्रावाह्य पूजयेद्देवों For Private And Personal Use Only Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्वम् । गरोगं मातरं मिरिम्॥ देवी षष्ठी गिरिं मन्यानदण्डम् । मावनामान्या वाचनपरिशिष्टम्। “गौरी पद्मा शची मेधा सावित्री विजया जया। देवसेना खधा स्वाहा मातरो लोकमातरः॥ शान्तिः पुष्टि, तिस्तुष्टि रामदेवतया सह। भादौ विनायक: पूज्योऽन्ते च कुलदेवता" ॥ ताचाभिधाय भविष्थे “पूज्याचित्रेऽथवा कार्या वरदा भयपाणयः”। मातर इति सर्वासां विशेषणम् प्रतएव गोर्खे मात्रे नम इत्यादि. प्रयोगः। एता मातरो लोकमातरो नेवाः पतएव तयोबहुत्वेन निर्देशः। गणेशपूजायां प्रार्थनमन्बो यथा। सर्ववित्रहरो देव एकदन्तो गजाननः। षष्ठीमहर्चितः प्रोत्या शिश दौर्घायुषं कुरु ॥ पायाहि वरदे देवौ महापठौति विश्रुता। शक्तिरूपेण मे पुत्र रक्ष जागरवासरे" ॥ इति षष्ठया भावाइनम्। ततः षष्ठों पूजयेत्। “गोर्याः पुत्री यथा स्कन्दः सदा संरक्षितस्त्वया। तथा ममाप्ययं बालो रक्ष्यतां षष्ठि ते नमः ॥ इति नि:पूजयेदिति भोजराजः। “गणेशश्चैव नन्दा च पूतनामुखमण्डिका। विवानिका शकुनिका शुष्कनन्दां च जम्भिका। प्राचार्यका रेवती च पिलिपिज्जा ततः परम्। स्कन्दा च हादशैतेऽर्चा रक्षा) माठका ग्रहाः ॥ क्वचिन्तामणी स्तुतिः। “जय देवि जगन्मातर्जगदानन्द कारिणि। प्रसौद मम कल्याणि नमोऽस्तु षष्ठि देवि ते" ॥ वरप्रार्थनं "रूपं देहि यशो देहि भाग्यं भगवति देहि मे। पुत्रान् देहि धनं देहि सर्वान् कामांश्च देहि मे ॥ धावि त्वं कार्तिकेयस्य महाषष्ठीति विश्रुता। त्वत्प्रसादादविघ्नेन चिरं नौवतु बालकः ॥ देवतानामृषौणाच सर्वेषां हितकारिपि। समर्पितं रक्ष पुत्र महाषष्ठि नमोऽस्तु ते ॥ इत्यनेन बालं व्यजनस्थं त्वा समर्पयेत्। मन्यानदण्डं पूजयेत् । For Private And Personal Use Only Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्वम् । "मन्यानमन्दरोऽसि त्वं मधितः सागरन्वया। तथा ममापि पुत्रस्य मन्यविघ्न नमोऽस्तु ते ॥ ततः षट्कत्तिकाः पूजयेत्। ताश। “शिवा सम्भूतिनानी च कौतिः सन्ततिरेव च । अनसूया क्षमा चैव बड़े ताः कत्तिकाः स्मृताः ॥ मार्कण्डेयपुराणम्। "अग्न्यम्बपशशून्ये च निर्यपे सूतिकागृहे। प्रदीपशस्त्रमुषले भूतिसर्षपवर्जिते । अनुप्रविश्यया जातमपहत्यात्मसम्मवम्। क्षणप्रसविनौ बालं तवैवीत्सम्यते हिज ॥ सा जातहारिणौ नाम सुघोरा पिशिताशना। तस्मात् संरक्षणं कायं यत्नतः सूतिकारहे" ॥ यपो वहछागस्तम्भः पशछागः छागजागरणं कार्यमित्येकवाक्यत्वात्। पाने "पायसं सर्पिषा मित्रं हिजेभ्यो यः प्रयच्छति। रहं तस्य न रक्षांसि धर्षयन्ति कदाचन" । अथ नामकरणम्। श्रुतिः। “एकादशे हादशे वाहन पिता नाम कुय्यादिति। एकादथे इति मुख्यः कल्पः असमर्थस्य क्षेपायोगादिति न्यायात् पतएव भट्टभाष्थे श्रुतिः। “न ख: समुपासोत को हि समर्थस्य खो वेदेति” लिङ्गपुराणे। "खः कार्यमद्य कर्तव्य पूर्वाह चापराह्निकम् । न हि प्रतीक्षते मृत्युः क्वतमस्य न वा कृतम्" ॥ एतच्च परपरप्रशस्ततरतमकालोदितकर्मतरकमपरम् । गोभिलः। “जननाशराने व्युष्टे पतराचे संवत्सरे वा नामधेयकरणमिति" व्युष्टे गते। गर्गः। “प्रादौ घोषबदक्षरं यवरलामध्ये पुनः स्थापयेदन्ते दौविसर्जनौयरहितं नाम प्रयत्नात् कृतम्। ऋक्षे तिष्यकराखिसौम्यवसुभे चित्रा. नुराधोत्तरे पोणे चादितिरोहिणीषु शुभकत् पुंसां समरक्षरैः ॥ दौपिकाखरसात् स्वातौ शतभिषा श्रवणा चव ग्राह्या गोभिलसम्मतं पूर्वाई तेन नारायणजनार्दनादि नाम कुयात् । यत्त AA For Private And Personal Use Only Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम् । नामकरणम्। "कुलदेवता नक्षत्राभिसम्बन्धं पिता नाम कुर्यादन्यो वा कुलह इति कल्पतरुतशङ्खलिखितवचने नाभिवादनौयं नामधेयं कल्पयित्वा देवताश्रयं नक्षत्राश्रयं गोवाश्रयमप्येक इति गोभिलसूवेणोपनयनकाले च नक्षत्राभिसम्बन्धेन नामाभिधानं तत्शतपदचक्रानुसारात् वनक्षत्रपदानुसारात् भेयम्। पाश्चात्यानां तथैव व्यवहारः। यत्र तु न तथा कृतं तत्र नामाक्षरानुसारनक्षत्रादपि फलं ज्ञेयम् । प्रव कुलवृद्ध इति दर्शनात् संस्कारान्तरे तथैव व्यवहारः। मनुः । "स्त्रीणां मुखोद्यमकरं विस्पष्टार्थ मनोहरम्। माङ्गळ दोघंवर्णान्तमाशौर्वादाभिधानवत् ॥ गोभिलः। प्रयुग्मान्त स्त्रोणामिति। यथा यशोदा वमुदादि। नारायणपदतौ । "नामकरणं स्थिरलग्ने केन्द्र पञ्चनवमस्थिते सौम्ये। बवायषष्ठसमधिष्ठितपाप जीवशुक्रशशिसौम्यदिनेषु" । प्रसादप्राप्तनाम्नाय वम्। व्यासः। "न सायादुत्सवेऽतीते निर्वापि च मङ्गलम्। अनुव्रज्य मुहहन्धून् पूजयित्वेष्टदेवता: ॥ अथ निष्क्रामणम् । विष्णुधर्मोत्तरे। "चतुर्थे मासि कर्तव्य शिशोनिष्क्रमणं गृहात्"। दौपिकायाम् । “पार्दा धोमुखवर्जितानुपहते वृक्षेष्वरित तिथौ वारे भौमशनौतरे घटतुलाकन्यामृगेन्द्रोदये । सदृष्टेऽथ चतुर्थर्मासि यदि वा मासे बतौये विधावक्षोणे शुभदे शिशोरभिनवं निष्क्रामणं कारयेत्”। अधोमुखानि भानि च। "प्रश्लेषवडियमपिनाविशाखयुक्त पूर्वात्रयं शतभिषा च नवाप्युडूनि। एतान्यधोमुखगणानि शिवानि नित्य विद्यार्घ भूमिखननेषु च भूषितानि । चतुर्थ: मासौति ऋग्वेदियजुर्वेदिनोः। यथाह विष्णुः । “चतुर्थमास्यादित्यदर्शनमिति” । शौनकोऽपि। “चतुर्थे मासि पुस्थते शुक्ल निष्क्रमणं शिशोः"। पारस्करः। “चतुर्थे For Private And Personal Use Only Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६५२ ज्योतिस्तत्त्वम् । मासि निष्क्रमणिका सूर्यमुदोचयति तच्चतुरितोति” । मासे तृतीय इति तु छन्दोगानां गोभिलेन जननान्तरं वतौयशुक्लपचतृतीयायां चन्द्रदर्शनरूपनिष्क्रामण विधानात् यथा गोभिलः । जननाद् यस्तृतौयो ज्योत्स्वस्तत्तृतौयायामित्यादि । ज्यौत्स्रः शुक्लपचः । अत्रैव कत्यचिन्तामणिः । "तस्मात् स्वस्वविधानतोऽर्कशशिनोरर्घ्यं विशु दापयेत्" । 'मन्वय । "एहि सूर्य सहस्रांशी तेजोराशे जगत्पते । अनुकम्पय मां भक्तं गृहाणा' दिवाकरः ॥ चन्द्राय मन्त्रय । “चौरोदार्णवसम्भूत अत्रिनेत्रसमुङ्गव । गृहाणाय शशाङ्केद रोहिया सहितो मम ॥ अथावप्राशनम् । "ततोऽनपाशन' षष्ठे मासि काय्र्यं यथाविधि । अष्टमे वाथ कर्त्तव्य यद्देष्ट' मङ्गल कुले” ॥ षष्ठ इति मुख्यः कल्पः प्रागुक्तन्यायात् । कत्यचिन्तामणौ । “अवस्य प्राशन का मासि षष्टेऽष्टमे बुधैः । स्त्रीधान्तु पञ्चमे मासि सप्तमे प्रजगौ मुनिः ॥ द्वादशौ सप्तमौ नन्दा रिक्तासु पञ्चपर्वसु । बलमायुर्यशो हन्यात शिशूनामन्नभक्षणम्" ॥ भुजबलभीमे । " षष्ठे मासि निशाकरे शुभकर रिक्केतरे वा तिथौ सोम्यादित्यसितेन्दुजोव दिवसे पक्षे च कृष्णेतरे । प्राजेशा - दिति पोष्ण वैष्णव युगैर्हस्तादि षट्कोत्तरे राग्नेयाप्पतिसितप्रभैख नितरामन्रादि भच्यं शुभम् ॥ युगैर्गित प्राजेशा दो प्रत्येकं सम्बध्यते । तथावापि तिथ्यादिविद्दमृतं विवर्जयेत् ॥ वृषइन्द्रधनुर्मीनकन्या लग्नेऽवभक्षणाम् । त्रिकोणाष्टकयुकान्त्यग्रहा यद्दत्तथा फलम् ॥ दुष्टः शशधरो लग्नात् षष्ठाष्टस्थोऽत्रभक्षणे” 1 मार्कण्डेयः । " देवता पुरतस्तस्य पितुरङ्कगतस्य च । अलङ्कृतस्य दातव्यमत्र पात्रे च काञ्चने ॥ मध्वाज्यकनकोपेत प्राशयेत् पायसं ततः । कृतप्राशनमुल्लङ्गे मातु For Private And Personal Use Only Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम् । ६५३ र्षालन्तु तं न्यसेत् ॥ देवायतोऽथ विन्यस्य शिल्पभाण्डानि सर्वगः । शास्त्राणि चैव शस्त्राणि ततः पश्येत्तु लक्षणम् ॥ प्रथमं यत् स्पृशेद्दालः शिल्पभाण्डं स्वयं तथा । जौविका तस्य बालस्य तेनैव तु भविष्यति” ॥ अथ नवान्नम् । दौपिकायाम् । " त्रयोदशीं जन्मदिनञ्च नन्दां जन्मर्त्ततारां सितवासरञ्च । त्यक्ता हरौज्येन्दुकरान्त्यमैत्रवेषु च श्राविधानमिष्टम् ॥ भेषग्रा हि शिवान्येषु विभौमशनिवासरे । अन्नप्राशनवत् कुर्य्याश्रवान्रफलभोजनम् ॥ सूर्ये चैव विशाखगेारतिथौ पापे त्रिजग्मान्विते नन्दा मन्दमहौजकाव्यदिवसे पौषे मधौ कार्त्तिके । भेषूग्रा हि शिवेषु विष्णु शयने कृष्णे शशिन्यष्टमे श्राद्ध भोजनकं नवान्नविहितं पुत्रार्थमाशप्रदम् । ज्येष्ठाशेषाईगे सूर्ये मृगनेत्रानिशात्मके । नवान्त्रैर्भोजनं श्राद्धं जन्मचन्द्र तिथौ न च " ॥ ब्रह्मपुराणे । "प्राश्नीयादधिसंयुक्त नवं विप्राभिमन्त्रितम् ॥ अथ जन्मतिथिः । " जन्मर्त्तयुक्ता यदि जन्ममासे यस्य ध्रुवं जन्मतिथिर्भवेच्च । भवन्ति संवत्सरमेव तावत नैरुज्य सम्मानसुखानि तस्य । कृतान्तकुजयोर्वारि यस्य जन्मतिथिर्भवेत् ॥ अनृक्ष योगसंप्राप्तौ विघ्नस्तस्य पदे पदे । तस्य सर्वोषधिनानं ग्रहविप्रसुरार्चनम् ॥ सौरारयोदिने मुक्ता देयानृते तु काचनम् । जन्मन्यृक्षे यदि स्यातां वारौ भौमशनैश्वरौ । मास: सकलासो नाम मनो दुःखप्रदायकः " ॥ अथ चूड़ाकरणम् । मनुः । “चूड़ाकर्म दिजातीनां सर्वेषामेव धर्मतः । प्रथमेऽब्दे तृतौये वा कर्त्तव्यं स्मृतिचोदनात् ॥ मात्र प्रागुक्तन्यायात् प्रथमाब्दस्य प्राधान्यं किन्तु हृतौयाब्दस्य । तथा च " चड़ाकार्ये तृतीयाब्दः सर्वगृह्यादिसम्मतः तत्कालेऽशौच वृदश्च मुख्य इत्यवगम्यते " ॥ शङ्खः For Private And Personal Use Only Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६५४ ज्योतिस्तत्त्वम् । 1 लिखितौ । “टतोयवर्षे चूड़ाकरणं पञ्चमे वा” इति । ज्योतिषे । अयुग्माब्दे चूड़ाभौमशनैखरे । “बर्केन्दुकालशडौ च जन्ममासेन्दुभेतरे । रिक्शा दर्शाष्टमी षष्ठौ प्रतिपद्दर्जिते सिते ॥ दचोऽपि सामान्यतो दोषमाह । " षष्ठाष्टमी पञ्चदशौ उभे पते चतुः दशौ । अत्र सनिहितं पापं तैले मांसे भगे तुरे ॥ मेषसिंह तुला कर्कवृश्चिके तरलग्न के । श्रवणादित्रयस्वाती चित्रा पुष्याश्विचन्द्रमे । श्रादित्यरेवतौह स्ता ज्येष्ठामूले च चौड़कम् । पौष्णाखिपुष्धवसुवामवासुदेवब्रह्मार्कचन्द्रवरुणादितिचित्रमेषु । वारेषु सोमबुधवाक्पतिभार्गवाणां चौरं करोति कुशलं खलु मानवानाम्” इति वचनात् रोहिण्यामपि रड़ाकरणम् । अत्रापि तिथ्यादिविमृक्षं वर्जयेत् । "सूर्ये दक्षिणमार्गगामिनि हरौ सुप्ते निरंशे रवौ चौणे शौतरुचौ महोजयमयोर्वारे निशासन्ध्ययोः । भुक्तेऽभ्यक्ततनौ निषिद्धसमयेऽलङ्कारयुक्त शिशौ चौराद्रोगभयं वदन्ति यवना मृत्युं तथान्ये जगुः " ॥ राजमार्त्तण्डे । “मानं हरेत् चौरमिहायुषोऽर्कः शनैश्वरः पञ्चकुजस्तथाष्टौ । श्राचाय्ये भृग्विन्दु बुधाः क्रमेण दद्युर्दशैकादश सप्तपञ्च" ॥ जोवादिवारे चौरं प्रशस्तम् । भोजराजः । “उत्तरशिखिसन्निधाने च चूड़ाकरणं जगुः शुभं यवनाः । चैत्रे मासि दिवाकरवारे वर्त्मनि सवितरिदिवाकरवार विनिर्मोके तु" । गर्गः । " जन्म जन्ममासे च युग्ममासे च वत्सरे । न कुय्यात् प्रथमं चौरं विशेषा चैत्रपौषयोः ॥ ज्येष्ठपुत्र कन्ययोस्तु ज्येष्ठदशाहाभ्यन्तरे चूड़ा निषेधो विवाहप्रकरणे उक्तः । नित्यचौरे तु राजमार्त्तण्ड: । " न स्वानमावगमनोत्सुकभूषितानामभ्यक्तभुक्तरणकालनिरासनानाम् । सन्ध्या- निशा शनिकुजार्कदिनेषु रिक्त चौरं हितं प्रतिपदह्नि न चापि रिट्याम् ॥ प्राचीमुखः सौम्यमुखोऽपि भूत्वा कुर्य्यान्नरः क्षौरमनुत्कटस्खः । ० For Private And Personal Use Only Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम् । ६५५ उत्तरावितययाम्यराष्ट्रियौरौद्रसर्पपितृभेषु चाग्निभे । श्मश्रुकसकलं विवर्जयेत् प्रेतकार्य्यमपि बुद्दिमाचरः । प्रेतकार्य्यं पतितप्रेतसम्प्रदानकदासौ घटदानविषयकम् । अन्यथा वच्यमा व्यवचनविरोधः स्यात् " चन्द्रशुद्धिर्यदा नास्ति तारायाश्च विशेयतः । पचौरिभेऽपि कर्त्तव्यं चन्द्रचन्द्रज्योर्दिने ॥ मानं चौरे हन्ति गुरुः शुक्रं शक्रो धनं रविः । आयुरङ्गारको हन्ति सर्व हन्ति शनैश्वरः ॥ श्रीपतिरत्नमालायाम् । “ श्रज्ञया नरपतेर्द्विजन्मनां दारकर्ममृतस्तकेषु च । बन्धमोक्षमखदौच णेष्वपि चौरमिष्टमखिलेषु चोड़षु ॥ देवकार्य्यं पितृश्राडे रवेरंशपरिक्षये । तुरिकर्म न कुर्वीत जन्ममासे च जन्मभे ॥ वृद्धगार्ग्यः । " केशवमानर्तपुरं पाटलिपुत्रं पुरौमहिछत्राम् । दितिर्मादितिञ्च स्मरतां aौरविधौ भवति कल्याणम् ॥ अत्र क्रमो वराहपुराणे । "श्मश्रुकर्म कारयित्वा नखच्छेदमनन्तरम्” । अथ कर्णवेध: । माण्डव्य वृहद्राजमार्त्तण्ड कृत्य चिन्तामणिषु । “ यदापत्यदयं तिष्ठेत् सम्भवोऽप्यपरस्य च । षट्कणं तं विजानौयात् गर्हितञ्च त्रयस्य च ॥ इत्याशङ्क्य दयोर्मध्ये शुद्धिर्यस्याथ वत्सरे । कर्णवेधौ हितस्तस्य नात्र ज्ये ष्ठविचारणा ॥ षट्कर्णोत्पत्तिमाशङ्का भानोः शप्रा समेऽपि च । कर्णो वेध्यौ न दोषः स्यात् अन्यथा मरणं भवेत्” ॥ राजमार्त्तण्डे " न जन्ममासे न च चैत्रपौषे न युग्मवर्षे न हरौ प्रसुप्ते । रवौ च दुष्ट न च कृष्णपक्षे न जन्मभे कर्णविधिः प्रशस्तः " ॥ दौपिकायाम् । “नो जन्मेन्दुममास सूर्य्यर विजक्ष्माजा सुप्ताच्युते शस्त्रेऽर्क लघुयुग्मविष्णुमृदुभे खात्युत्तरादित्यभे । सौम्यैस्त्यायत्रिकोण कष्टकगतैः पापैस्त्रिलाभारिगैरोजोऽब्दे श्रुतिवेध इज्यसितभे लग्ने तु काले शुभे" || अत्रापि तिथ्यङ्गादिविद्दमृतं वर्जयेत् । गर्गः । : । " कर्णवेधव्रते कुयादुदमार्गस्थिते रवौ । दक्षिणामास्थिते भानौ नैव कुर्य्याद्दिचचणः” u For Private And Personal Use Only Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम् । अथ विद्यारम्भः । विष्णुधर्मोत्तरे। “संप्राप्ते पञ्चमे वर्षे अप्रसुप्ते जनार्दने। षष्ठी प्रतिपदचैव वर्जयित्वा तथाष्टमौम् । रितां पञ्चदशौञ्चैव सौरिभौमदिनं तथा। एवं सुनिश्चिते काले विद्यारम्भन्तु कारयेत् ॥ पूजयित्वा हरिं लक्ष्मों देवीचापि सरस्वतीम्। स्वविद्या सूत्रकारांश्च स्वाञ्च विद्यां विशेषतः” ॥ नमस्ते बहुरूपाय विष्णवे परमात्मने। वाहेत्यनेन हरि त्रिःपूजयेत्। “भद्रकाल्यै नमो नित्यं सरस्वत्यै नमो नमः । वेदवेदान्तवेदाङ्गविद्यास्थानेभ्य एव च" स्वाहेति ब्रह्मपुराणोयेन च नि:पूजयेत्। लिखनविधिमाह नन्दिपुराणम्। 'शुभे नक्षत्रदिवसे शुभे वारे दिनग्रहे। लेखयेत् पूज्य देवेशान् कब्रह्मजनार्दनान् । पूर्वदिग्वदनो भूत्वा लिपिज्ञो लेखकोत्तमः । निरोधो हस्तबाह्वोच मसौपत्रावधारणे" ॥ मत्स्यपुराणञ्च । “शौर्षोपतान् सुसम्पूर्णान् समणिगतान समान्। प्रक्षरान् विलिखेद यस्तु लेखकः स परः स्मृतः ॥ नाधौयौतेत्य नुवृत्तौ मनुः । “रुधिरे च सुते गात्रात् शस्त्रेण च परीक्षते”। रुधिरस्रवं विना शस्त्रेण चतमात्रेऽपि । दौपिकायाम्। “लघुचरशिवमूलाधोमुखत्वष्टपौष्णशशिषु च हरिवोधे शुक्रजोवाकवारे। उदितवति च जौवे केन्द्रकोणेषु सौम्यैरपठनदिनवर्ज पाठयेत् पञ्चमेऽब्द' ॥ मदनपारिजाते । "विद्यारम्भे गुरुः श्रेष्ठो मध्यमौ भृगुभास्करौ। मरणं शनिभौमाम्यामविद्या बुधसोमयोः" ॥ “विद्यारम्भः सुरगुरुमितन्नेष्वभौष्टार्थदायौ कर्तुंचायुश्विरमपि करोत्यंशुमान् मध्यमोऽत्र । नौहारांशौ भवति जड़ता पञ्चता भूमिपुत्र छायासूनावपि च मुनयः कौतयन्त्येव माद्याः ॥ रवेगुरो गोलग्ने तत् स्थेऽर्के. ऽपौन्दुवृद्धितः । गुर्वन्टूडुशुधौ च विद्यारम्भः प्रशस्थते' । वृहस्पतिः। “प्राम खो गुरुरासोनो वरुणाभिमुखं शिशुम् । For Private And Personal Use Only Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम् । ६५७ अध्यापयेच प्रथमं हिजाशीर्भिः प्रपूजितम् ॥ कूर्मपुराणम् । "स्वाध्यायस्य वयो भेदा वाचिकोपांशमानसाः” । शिवधर्मे । "संस्कृतैः प्राक्कतैर्वाक्यैर्यः शिष्यमनुरूपतः । देशभाषाद्युपायैच बोधयेत् स गुरुः स्मृतः " ॥ आदि ग्रन्यकरणादिः नन्दिपुराणम् । “प्रशस्त शब्दसंयोगे कुर्य्याद्यतिविरामणम्" । विरामणं तद्दिनपाठसमाप्तिम् । “समाप्ते वाचकाभौष्ट कुर्य्यादेव विचक्षणः । सुश्रुतं सुव्रतं भूयादस्तु व्याख्या तु नित्यदा । लोकः प्रवर्त्ततां धर्मे राजा चास्तु सदा जयौ । धर्मवान् धनसम्पत्र गुरुवास्तु निरामयः ॥ इति प्रोच्च यथायातं गन्तव्यच्च विभावितैः । शिष्टैः परस्परं शास्त्रं चिन्तनौयं विचक्षणैः ॥ कथावस्तुप्रसङ्गेन नानाव्याख्यानसम्भवैः । युक्तिभिश्व मरेख्यां चिचापि स्वयं कृतैः ॥ एवं दिने दिने व्याख्यां यात्रियतो नरः ॥ विष्णुपुराणम्। "पुर्व रध्यापिता ये च ते पतन्ति खभोजने" । सूत उवाच। " प्रागलभ्य होनस्य नरस्य विद्या शस्त्रं यथा कापुरुषस्य हस्ते । न तृप्तिमुत्पादयते शरौरे अन्धस्य दारा इव दर्शनीया: ॥ लिङ्गपुराणम्। "यो गुरु पूजयेनित्यं तस्य विद्या प्रसौदति । तत्प्रसादेन यस्मात् स प्राप्नुते सर्वसम्पदः ॥ दुर्वामा: । " सन्ध्यायां गर्जिते मेवे शास्त्रचिन्तां करोति यः । चत्वारि तस्य नश्यन्ति श्रायुविद्यायशो बलम्” ॥ अधोतस्यार्थिने दानमावश्यकम् । तथा च श्रुतिः । " योऽधीत्यार्थिभ्यो विद्यां न प्रयच्छत् स काय्र्या स्यात् श्रेयसो हारमाहणुयात् । इति । तद्दानच्च । अध्यापनेन व्याख्यया विलिख्यार्पणेन च सम्भवतीत्यसोधौमद्भिर्निर्वन्धः क्रियते । तथा च विष्णुपुराणम्। “प्राणिनामुपकाराय यदेवेह परत्र च । कर्मणा मनसा वाचा तदेव मतिमान् भजेत् ॥ वृहस्पतिरपि । “अज्ञानतिमिरोपेतान् " For Private And Personal Use Only Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६५८ ज्योतिस्तत्त्वम्। सन्देहपटनान्वितान् । निरामयान् यः कुरुते शास्त्रापानशलाकया ॥ इह कौतिं राजपूजां लभते सगति सः। पाण्मासिकेऽपि समये चान्तिः संजायते यतः ॥ धावाक्षराणि सृष्टानि पत्रारूढ़ान्यत: पुरा। उपदेष्टानुमन्ता च लोके तुल्यफलो स्म तौ” ॥ एवञ्च। एकलव्येनानुपदेष्टापि द्रोणाचार्यो गुरुः कृतः। अतो ग्रन्थकर्तुः सुतरां गुरुत्वम्। यथा महाभारते। "परण्यमनुसंप्राप्य कवा द्रोणं मोमयम्। तसिवाचार्यकृत्तिव परमामास्थितस्तदा ॥ इष्वस्ने योगमातस्थे परं निखयमागतः ॥ शहलिखितौ। “न वेदमनधौत्यान्यां विद्यामधोयोतान्यत्र वेदाङ्गस्मृतिभ्यः ॥ पङ्गानि च "शिक्षाकल्पो व्याकरण छन्दो ज्योतिषमेव च। निरुताश्चेत्यङ्गानि वेदानां गदितानि षट् ॥ स्मृतिस्तु धर्मसंहितेत्यमरः। शिष्यस्य गुरुषु ऋणित्वमाह लघुहारोतः। “एकमप्यक्षरं यस्तु गुरुः शिष्ये निवेदयेत्। पृथिव्यां नास्ति तव्य यहत्त्वा सोऽनृणी भवेत्" ॥ नन्दिपुराणे। “यश्च श्रुत्वान्यतः शास्त्र संस्कार प्राप्य वै दृढ़म्। अन्यस्य जनयेत् कौतिं गुरोः स ब्रह्मा भवेत् ॥ विस्मरन्च तथा मोब्यात् योऽपि शास्त्रमनुत्तमम्। स याति नरक घोरमक्षयं भीमदर्शनम्" ॥ अतएव ग्रहस्थादौनामपि पुनरध्ययनमाह आपस्तम्बः “यया विद्यया न विरोधेत पुनराचार्यमुपेत्य साधयेदिति ॥ विष्णुः। “यस विद्यामासाद्य तया जौवेत् न च सा तस्य परलोकफलप्रदा भवति यच विद्यया परषां यशो इन्तौति”। देवलः। “इष्ट दत्तमधोतं यहिनश्यत्यनुकौत्तैनात्। श्लाघानुशोचनाभ्याच भग्नतेजो विभिद्यते ॥ तस्मादात्मकृतं पुण्यं वृथा न परिकौतयेत् ॥ अनुकीर्तन कथनम्। श्लाघा प्रशंसा अनुशोचनं धनव्ययेन पचात्तापः ॥ भन्नतेजः फलजनकशक्तिहीन वृथा रक्षादि For Private And Personal Use Only Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्वम् । ६५९ प्रयोजन विना । वैष्णवामृते भविष्यपुराणम्। "उपाध्याय स्य यो वृत्तिं दत्त्वाध्यापयति हिजान्। किन दत्त भवेत्तेन धर्मकामार्थमिच्छता ॥ प्रथोपनयनम्। उपनयनकालय। “गर्भाष्टमेऽष्टमे वान्दे ब्राह्मणस्योपनायन रानामेकादशे सैके विशामेके यथा कुलम् । ब्रह्मवर्चसकामस्य कार्य विप्रस्य पञ्चमे ॥ सैके हादशे। तवागतो प्रायश्चित्तं कृत्वा तदुत्तरे कार्यम् । “राहोतकर्मणा येन समोपं नौयते गुरोः। बालो वेदाय तद्योग बालस्योपनयं विदुः॥ रतनावे तथा शस्त्रक्षते पाठनिषेधनात् । उपनयन तत्र स्यादिति मन्वादिसम्पतम्" । त्यचिन्तामणौ। *जन्मोदये जन्मसु तारकासु मासेऽथवा जन्मनि जन्ममे वा। ब्रतेन विप्रो न बहुश्रुतोऽपि विद्याविशेषैः प्रथित: पृथिव्याम् ॥ प्रस्तं गते दैत्यगुरौ गुरौ वा ऋक्षेऽपि वा पापयुतेऽप्यनुतो । व्रतोपनौतो दिवसे प्रणाशं प्रयाति देवैरपि रक्षितो यः ॥ उदये लग्ने ब्रतेन उपनयनेन । भुजबलभौमवत्यचिन्तामयोः "खातोशक्रधनावि मित्रकरमे पोणे ज्यचिवाहरिविन्दौ तोय. पती भगे दितिसुते भाद्रहये सागरे। केन्द्रस्थे भृगुजेऽङ्गिरः शशिसुते चन्द्रे च तारे शुभे कर्तव्यं व्रतकर्ममङ्गलतियो वारा: सिताकेज्यका:" ॥ तोयपतिः शतभिषा अदितिसुत उत्तर. फल्गुनी सागर पूर्वाषाढ़ा दौपिकायाम् । “जौवाकेंन्टूडुशको हरिशयन वहिर्भास्करे चोत्तरस्थे स्वाध्याये वेदवधिप इह शुभदे क्षौरिभे नादितौ च । शुक्राज्यक्षलग्न रविमदनतिथि प्रोमा षष्ठाष्टमेन्दु नो जौवास्ताविचारोऽसितगुरुदिने कालशुद्धौ व्रतं स्यात् ॥ रविमदनतिथिं सप्तमी त्रयोदशीम् । कत्यचिन्तामणौ। “माधे द्रविणशीलाढ्यः फाल्गुने च दृढ़व्रतः। चैत्रे भवति मेधावी वैशाचे कोविदो भवेत् ॥ ज्यो For Private And Personal Use Only Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्वम् । गहननौतित पाढ़े क्रतुभाजनः। शेषेवन्येषु राविः स्यानिषि निशि च व्रतम् । राजमार्तण्ड। “पुनर्वसौ तो विप्रः पुनः संस्कारमहति । हहगर्गः। "स्मृतिषसाननध्यायान् सप्तमी च वयोदशों पक्षयोर्माघमासस्य हितोयाम्"परिवर्जयेत् चैवशकतीया पाषाढशकदशमौ मन्वन्तरादित्वेन निषिहा वैशाख शुलतोया युगादित्वेन निषिहेति। षष्ठयामशुचिरभार्यो रिसासु बहुदोषभाक् । शुक्लपक्ष एव विहितः प्रागुताखलायनवनात्। सामगानां अजवारेऽप्युपनयनं श्रीपतिरनमालाकत्यचिन्तामणित वास्सवचनात् यथा। "शाखाधिपे वलिनि केन्द्रगतेऽयवासिं वारेऽस्य चोपनयन कथित हिजानाम्। नौचस्थितेऽरियागेऽथ पराजिते वा जौवे भृगावपनयनः स्मृतिकमहीनः । पस्य शाखाधिपस्य दौपिकायाम्। "ऋग्वेदाधिपतिर्जीवो यजुर्वेदाधिपः सितः । सामवेदाधिपो भौमः शशिनोऽयर्ववेदराट"। वेदाधिपकथनम्। “प्राधणे शुक्रवागीशी क्षविये भौमभास्करौ। चन्द्रो वैश्ये बुधः शूटे पतिमन्दोऽन्त्यजे जने"। वर्णाधिपकथनम्। पराजयलक्षण वक्ष्ये यावायाम् । प्रवापि विवाहवशयोगमवर्जनम्। विष्णुधर्मोत्तरे। “षोड़शान्दो हिविप्रस्थ राजन्यस्य विविंशतिः। विंशतिः स चतुर्थी च वैश्वस्य परिकीर्तिता। सावित्रौ नातिवर्तत पत कई निवतते” । अत्र षोडशवर्षस्य उपनयनाङ्गता प्रतीयते। “पतिता यस्य सावित्रौ दशवर्षाणि पञ्च च। ब्राह्मणस्य विशेषेण तथा राजन्य वेश्ययोः । प्रायश्चित्तं भवेदेषां प्रोवाच वदतां वरः । इति यमवचने तदनङ्गता प्रतीयते अनयोगर्भनअप्रभृतिमय नाभ्यामविरक्षार्थता तथा च माण्डव्यः । व्रतबन्धविवाहेच बारपरिकल्पनमाहुराचायाः। प्राधानपूर्वकमेके प्रसूति For Private And Personal Use Only Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्वखम्। पूर्व सदान्ये । यच बिलानुपक्रम्य पैठोमसिवचनं द्वादशघोड़ा विंशतिवेदतोता. पवनकासा भवन्ति इति हादशवर्षानुपरि ब्राह्मणादीनां महाव्याहृति होमप्रायश्चित्ताधम् । प्रोडशोपरि तु वाल होमादि गुरुप्रायश्चित्तार्थमिति इलाय. नयमम्। पथ समावर्तनम्। भौमभानुजयोरि नक्षत्रे च व्रतो. दिते। ताराचन्द्र विशुतौ च समावर्तनमिष्यते इति समावर्तनम् प्रधाग्निग्रहणम्। "डिग्रहं , कुजगुरुजदिनेशवारे माघादि षट् सु च मृदुध्रुवक्किम । कुनाममांशकविसम्म माह कालं लग्नस्थ चौतगुमितौ च विहाय कुर्यात्' । पग्निग्रहणशशिः। अथ सन्यासग्रहणम्। मौवाकेन्दुडुशी ध्रुवमृदुभगणे चोत्तरस्थे दिनेथे प्रव्रज्येशे सुवीर्ये स्थिरभवनक्लिनस्थितेऽज्यवारे। प्रव्रज्याख्येषु योगेष्वशभगगनगैवविहीनः सबौर्ये नौवे धर्मेऽम्बरे वा स्थिरभवननरांथोदये मोक्षदोचा। इति सन्यासकरणम्। “शुभग्रहा. कवारेषु मृदुक्षिप्रध्रवेष च। शुभराशिविलग्नेषु शुभं शान्तिकपौष्टिकम्” ॥ न्तिकादिधिः। ज्ञानग्रहणं रत्नमालायाम्। “थोतांशी बुधराशिस्थे शुभेषदयवर्तिषु । ज्ञानस्य ग्रहण कार्य हित्वा पापग्रहोदयम् ॥ राजमार्तण्ड । “वसु. पुनर्वसुपूर्वभुजङ्गमैः करनिशाकरशङ्करदैवतैश्च सह वाक्पतिभिः सह चित्रायां गुणगणार्जनमेभिरभौसितम्"। गुणार्जनविधिः। "ग्रामा नरं रमैर्मिकं बाणघ्नं ऋक्षहारितम्। शेषाङ्गो ग्रामराशिः स्यात् शुभाशुभकरं नृणाम् ॥ दोधप्रस्तारहस्तार त्रियुतं वह इन्। तच्छघाशन बोभ्या वास्तुजातिविचआणैः ॥ रनलमा नजातिलभेत् ध्रुवम् । ब्राह्मणः For Private And Personal Use Only Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तखम्। क्षत्रियो वैश्यः शूद्र नौचसंधकः ॥ अवनो नर्तको हाड़ी भवन्त्येते यथाक्रमम् । धननाशकरो विप्रः क्षत्रियो युद्धदायकः । धनहा च भवेदेश्यः शूद्रः पौड़ाकरः स्मृतः। नौचः सम्मानदाता च जवनो धनदायकः । नित्यानन्द करो नर्तों हाड़ी च सर्वलक्षण: ॥ अथ राहाहि। “सुनिषिता मन्दिरभूमिमादौ निखाय तोयावधि यनस्ताम्। कुयाहिशस्यामथवा नृमाणं खावायवा प्रनवशाहिधिनः। दूर्वा प्रवासातपुष्पाणिः शुचिः शुचिं दैवविदं समेत्व। पृच्छहिनौतो मधुरखरेण शस्यस्य तत्त्वं भवने तदोशः ॥ ततः प्रनादिमो वर्णः सन्धार्यो यत्नतोऽथवा । क्रमात् पुष्यापगादेव फलानां ब्राह्मणादितः ॥ प्रणवो धरणीधारिणो करौ च तदनन्तरम्। न भूत्यै नम इत्येष मन्त्रो वहिप्रियात्मकः ॥ वढिप्रिया स्वाहा। “मन्त्रेणानेन कठिनौमभिमन्त्रा विभाजयेत्। नवधा सदनक्षेत्रं तया पाहिले. खयेत् ॥ वकचत एडा: शपया नव चेत प्रश्नाक्षराणि जायन्ते । प्रागादिकोष्ठे नवके वास्ते शल्यमाख्याति ॥ प्रश्ने वकारः परतो नरास्थि व्रवौति शल्यं मरकप्रदायि। क्षोणौशदण्डोर. गहेतुमृत्युप्रदं वकारः स्वरशल्यमग्नौ॥ याम्यां चकार: लवगास्थिवेश्मप्रभोविनाशं प्रकरोति शल्यम् । रक्षीदिशि खास्थि. एहस्थितानां महदयं वक्ति सुनिश्चितं तः। ए: पाशिदिश्य. स्थिशिशोब्रवीति मृत्यु प्रवासाइ हमेव शल्यम् ॥ होवायुकोणे नररूपमस्थिदारिद्वामित्रक्षयज्ञविधत्ते। धनपदिशि शकारः प्राह विप्रास्थिवित्तक्षयकदथ पकारो वलि ऋक्षास्थिशम्भौ ॥ तदिह कुलविनाशं गोधनानाञ्च हानि वितरति ग्टहनाथस्यापि गुप्तस्य देवैः। यो मध्यभागे भसितं कपालं कालायसं चाह कुलक्षयाय ॥ यत्वादपास्यान्यांना प्रमाणं सर्वत्र तथ्य कथयामि For Private And Personal Use Only Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम् । शल्ये । इन्द्ररक्षो जलेशाने शल्यं साईकरे कटौ । वह्नान्तककुवेरेषु पुरुषे मध्यवातयोः " ॥ इति शल्योद्दारः । देवीपुराणम् । “पुरुषाधः स्थितं शल्यं न गृहे दोषढ़ भवेत् । प्रासादे दोषदं शल्यं भवेत् यावज्जलान्तकम् ॥ ग्टहारम्भेऽतिकण्डूतिः स्वाम्यते यदि जायते । शयं त्वपनयेत्तव प्रासादे भवनेऽपि वा ॥ वाटीव्यवस्था उस्तोऽप्यत्र कफीन्युपक्रममध्यमाङ्गुखप्रपय्र्यन्तः । मध्यमाङ्गलौ कुर्परयोर्मध्ये प्रामागिक: कर इत्यभियुक्त मरणादिति कल्पतरुरत्नाकरौ । भोमपराक्रमे भोजराज: "स्वामिस्तप्रमाणेन धर्मपत्नौकरेण वा । मापयेदर्भमावन्तु ग्टहकर्मणि कोविदः ॥ रूपाष्टके ८१ विभि इतो भवनस्य बन्धः कर्त्तुः स्वनृचमिड युग्मशरे कनिघ्न १५२ ॥ एकीकृतं रसनिशाकरयुग्म भक्तशेषं ततो भवति पिण्डपदं गृहस्य । गृहभूमिसमाहृतपिण्डपदं वसुलोचनरन्ध्रगजैर्गुचितम् । रविभूधरविंशत्योगहृतं भवनायव्ययस्थिति ऋक्षपदम् ” ॥ रूपाष्टकै काशौत्या विहिनतः पूरितः । भवनस्य बन्धी दोघं प्रस्तारमिलितहस्तः स्वमृक्षं तत्संख्यानं युग्म भरेकविघ्न दिपञ्चाशदुत्तरशतपूरितम् एकीकृतं पूर्वालेन मिलितं रसनिशाकरयुग्म २१६ । भक्तशेषं षोड़शाधिकद्विशतहृतावशिष्टं संख्यानं पिण्डपदसंज्ञ गृहस्य भवति तह हभूमिसमाहृतपिण्डपदं वसुलोचनरन्ध्र गजैः श्रष्टहिनवाष्टभिर्यथाक्रमं गुणितं पूरितं यथाक्रमं रविभूधर त्रिंशद्योगहृतं द्वादशसप्तत्रिंशत्सप्तविंशतिभिहृतं गृहस्य यथाक्रमम् श्रायव्ययस्थिति ऋक्षपदं भवतीत्यर्थः । " रुद्र हस्तमिते बन्धे भरण्या योगतो यथा । श्रायादयो भवन्त्येव वसुष तिथियुमिताः ॥ ८ । ६ । १५ | २ | अत्र यत्रतत्र' दीयते पश्चात्तदेवायातौति । यव तु शेषो नास्ति तत्र हारकाङ्गः शेष: “शेषाङ्कन फले बोध्ये " For Private And Personal Use Only Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्वम् । शेषाभावे तु हारकात्। अङ्गादेव फलं बोध्यमिति तन्त्रविदा मतम् ॥ इत्युक्तात्वात्। “व्ययाधिकं न कर्तव्य गृहमायाधिकं शुभम्। अष्टाविंशप्रेतभागा नरभागाच विंशतिः । मागा हादश गन्धर्वाश्चत्वारो देवतांशकाः। प्रेतभाग परित्यज्य नरभागे ग्रहं शुभम् ॥ सारसंग्रहे। “न कोणेषु ग्रहं कुर्यात् नाप्यन्तेनापि मध्यतः। कोणे च धनहानिः स्यादन्ते रिपुभयं भवेत् ॥ मध्ये च सर्वनाशः स्यात्तस्मादेहिवर्जयेत्। पूर्वप्नवो वृद्धिकरो धनदयोत्तरसवः ॥ दक्षिरतो मृत्युः धनहा पश्चिममवः । वास्तुनः प्रागादिनौचवफलम्। "प्रागादिस्थे सलिले सुतहानिः शिखिमयं रिपुभयञ्च । स्त्रोकल हः स्त्रौदोश्य नखं वित्तात्मजविवृद्धौ च ॥ भवनस्य वटः पूर्वे जातः स्वात् सर्वकामिकः। उड़म्बरस्तथा याम्ये वारुणे पिप्पल: शुभः ॥ लक्षश्चोत्तरतो धन्यो विपरीतो विपर्यये। जम्बौरपूगपनसामककेतकौमिर्जातीसरोजतगरपत्रमालिकाभि: ॥ यदारिखेलकदलौदलपाटलाभियुक्त तदाश्रमपदं चियमातनोति । शोभना दाडिमाशोकपुन्नागविवकेशराः ॥ रक्तपुष्यावं प्राज्ञः चौरिणा च पशोभयम्। कण्टक्यरिभयं कुर्यात् ग्रहभेदञ्च शाल्मलिः ॥ कत्तिकाद्यास्तु पूर्वादी सप्तसप्तोदिता: क्रमात्। यहिश्यं यस्य नक्षत्रं सत्र तस्स शुभं यहम् ॥ खनक्षत्रेण रहदिनिर्णयः। “वास्तु प्रमाणेन तु गावकेण वामन शेते खतु नित्वकालम्। विभिस्तु मासैः परिहत्य भूमौ तं वास्तुमागं प्रवदन्ति सिञ्चाः ॥ भद्रादिके वासवदिक्शिराः स्यात् मार्गादिकेषु विषु याम्यमूडी। प्रत्यशिरा: स्यात् खलु फाल्गुनादौ ज्येष्ठादिकौवेरशिगः सनागः। मूद्धि खाते भवेन्मृत्युः पृष्ठे स्यात् पुत्रमार्ययोः । जघनेऽर्थक्षयं विद्यात् सर्वसम्पत्तथोदर। एक नागोडुसंशुको हे द्दक्षिणपसिमे For Private And Personal Use Only Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम् । ॥ विशालं पूर्वतो हौनं कार्य्यं वा सौम्यवर्जितम् ॥ केचिद्दक्षिणभागे तु वदन्त्येकं गृहं बुधाः । ऐशान्यां देवशाला स्यात् प्राग्नेय्याश्च महासनम् | पायुष्करन्तु ने त्यां वायव्यां कोषमन्दिरम् " || मत्स्यपुराणे । “चैत्रे व्याधिमवाप्नोति यो गृहं कारयेवरः । वैशाखे धनरत्नानि ज्य ेष्ठे मृत्युस्तथैव च ॥ श्राषाढ़े धनरत्नानि पशुवर्जमवाप्नुयात् । श्रावणे काञ्चनं पुत्रान् हानिं भाद्रपदे तथा । पनौनाथ इषे मासि कार्त्तिके धनधान्यभाक्। मार्गशौर्षे तथा भक्त पौधे तस्करतो भयम् ॥ माघे चाग्निभयं विद्यात् फाल्गुने काञ्चनं सुतान्। शुक्लपचे भवेत् सौख्यं कृष्णे तस्करतो भयम्” ॥ विशेषयति भोजः । "कर्किकुम्भहरिनगते पूर्वपश्चिममुखानि गृहाणि । तौलिमेषष्टषवृश्चिकजातदक्षिणोत्तरमुखानि कुर्य्यात् ॥ अन्यथा यदि करोति दुर्मतिर्व्याधिशोकधनहानिमश्रुते । मौनचापमिथुनाङ्गनागते कारयेव गृहमेव भास्करं ॥ न प्रधानम्गृहारम्भ' कुखात् पौषे शुचावपि । यदि कुयात् सोऽचिरेण महतोमापदं व्रजेत् ॥ महाभारते । "निषिडेऽपि हि काले तु स्वानुकूले शुभे दिने । तृणवस्त्रम्टहारम्भे मासदोषो न विद्यते ॥ छेदनं संग्रहञ्चैव काष्ठादौनां न कारयेत् । श्रवणादौ बुधः षट्के न गच्छेद्दक्षिणां दिशम् ॥ अग्निपीड़ा भयं शोको राजपौड़ा धनञ्चयः । संग्रड़े तृणकाष्ठानां कृबे वखादिपञ्चके ॥ चोरिवृतोद्भवं दारु गृहेषु न निवेशयेत् । छताधिवासं विहगैर निलानलपीडितम् ॥ मजेर्विभग्नञ्च तथा विद्युविर्घात पौडितम् । चैत्रदेवालयोत्पत्रं वज्रभग्नं श्मशानजम् ॥ देवाद्यधिष्ठितं दारु नौपनिय्वविभीतकान् । कण्टकिनोऽसारतरून् वर्जयेत् गृहकर्म्मणि ॥ वटाश्वत्यौ च निर्गुण्डों कोविदारविभीतकौ । प्रचकं शाखालौचैव पलामञ्च विवर्जयेत् ॥ विस्तारात् द्विगुणोच्छ्रायं द्वारं कुर्य्या For Private And Personal Use Only Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६६६ ज्योतिस्तवम् । तथा गृहम्” ॥ गृहारम्भस्तु श्रवणादावप्याह राजमार्त्तण्डः । "श्रादित्येज्यमरोहिणौ-मृगशिरविवाधनिष्ठोत्तरापौष्णौ विष्णुशतायुराधपवनैः शुद्धेः सुतारान्वितैः । सौम्यानां दिवसेऽथ पापरहिते योगे विरिक्त तिथौ विष्टित्यक्त दिने वदन्ति मुनयी वेश्मादिकार्य्यं शुभम् । मात्स्ये । " चन्द्रादित्यबलं लब्धा लग्नं शुभनिरौचितम् । स्तम्भोच्छ्रायादिकर्त्तव्यमन्यत्र परि वर्जयेत् ॥ अश्विनौरोहिणीमूलमुत्तरवयमैन्दवम् । स्वातीहस्तानुराधा च गृहारम्भे प्रशस्यते ॥ वब्वव्याघातशूले च व्यतीपातेऽतिगण्ड के । विष्कुम्भगपरिघवर्जं योगेषु कारयेत् ॥ चादित्यभौमवर्ज्यास्तु सर्वे वाराः शुभावहाः । प्रसादेऽप्येवमेव स्यात् कूपवापौषु चैव हि ॥ कल्पतरौ देवीपुराणम् । “यस्य देवस्य यः कालः प्रतिष्ठाध्वजरोप थे । गत्वा पूरशिलान्यासे शुभदस्तस्य पूजित: ” ॥ यस्य देवस्य प्रतिष्ठा ध्वजरोपणे यः कालः शुभदस्तस्य गर्त्तापूर शिलान्यासे स कालः पूजित इत्यर्थः । मात्स्ये । " चैवेऽथ फाल्गुने वापि ज्येष्ठे वा माधवेऽपि वा । माघे वा सर्वदेवानां प्रतिष्ठा शुभदा भवेत् ॥ प्रतिष्ठा समुच्चये ज्येष्ठाषाढ़ कयोर्वापि इत्युक्तराषाढ़े दक्षिणायनेऽपि दुर्गाप्रतिष्ठामाह देवौपुराणम् । “ महिषासुरहन्वाय प्रतिष्ठा दक्षिणायने” । यत्तु कत्यचिन्तामणौ । “गृहेषु यो विधिः प्रोक्तो विनिवेश प्रवेशयोः स एव विदुषा कार्यो देवतायतनेष्वपि ॥ एतत्तु मासव्यतिरिक्तशुभचन्द्रादिविषयम् अन्यथा प्रागुक्तविरोधापत्तेः । ज्योतिषे । “ उग्रं विशाखामदितिञ्च शक्रं भुजङ्गमग्निञ्च विहाय गेहम् । ग्राम्य स्वलग्नस्थिरमन्दिरेषु कुय्याच्छुभैर्युक्तनिरौक्षेतेषु ॥ नवग्रहा भवेयुव यदि केन्द्र त्रिकोणगाः । दोषस्तदा क्षयं याति तमः सूर्योदये यथा ॥ राजमार्त्तण्डे । “पूर्णिमातोऽष्टमीं यावत् पूर्वास्य I For Private And Personal Use Only Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्वम् । वजयेद् ग्रहम्। उत्तरास्यं न कुर्वीत नवम्यादिचतुर्दशीम् । अमावास्याटमोमध्ये पशिमास्यं विवर्जयेत् । नवमौतय याम्याग्यं यावच्छुक्ल चतुर्दशौम् ॥ दौपिकायाम् । “गणेशं गन्धपुष्पादोर्लोकपालानथ ग्रहान्। पूजयेत् क्षेत्रपालांस करभूतांश्च बाह्यतः । ब्रह्माणं वास्तुपुरुषं तहस्थाश्च देवता:' । ताश्च शिखिप्रभृतयो यथा। "शिखि चैवाथ पर्जन्यो जयन्तः कुलिशायुधः। सूर्यः सत्यो भृगुश्चैव भाकाशो वायुरेव च ॥ पूषा च वितथश्चैव ग्राहक्षतयमावुभौ। मन्धर्वो भृगुराजश्व भगः पिढगणस्तथा ॥ दौवारिकोऽथ सुग्रीवः पुष्पदन्तो जलाधिपः। असुरः शेषपापौ च रोगो हि मुख्य एव च ॥ भल्लाट: सोमसपणे च अदिति दितिस्तथा। आपश्चैवाथ सावित्री जयो रुद्रस्तथैव च ॥ अर्यमा सविता चैव विवखा विबुधाधिपः। मित्रोऽथ राजयक्ष्मा च तथा पृथ्वौधरः क्रमात् ॥ प्रापवत्सस्तथा ब्रह्मवास्तुदेहगतास्त्विम। चरको च विदारी च पूतना पापराक्षसो। स्कन्दार्यमा जम्भकाच पिलिपिच्चस्तथाष्टमः । एतान् मत्स्यपुराणोलान् गृहारम्भे प्रपूजयेत् ॥ महाकांपल पञ्चरात्र “जलाधारगृहाथञ्च यजहास्तु विशेषतः। ब्रह्मादितिपर्यन्ताः पञ्चायचय संयुताः ॥ सर्वेषां किल वास्तूनां नायकाः परिकीर्तिताः । अपूज्य हितान् सर्वान् प्रासादादीह कारयेत् । अनिष्पत्तिविनाश: स्यादुभयोधर्मधर्मिणोः” ॥ तत्तहेवताभेदेन वलिमन्त्रोभयविशेषानुक्का। "खगपातालमर्येषु ये देवा वास्तुसम्भवाः। टन्तिम वलिं दृशं तुष्टायान्तु खमालयम् ॥ मातरौ भूतवेतालो ये चान्ये वलिकाविणः । विष्णोः पारिषदा ये च तेऽपि ग्रन्तिम वलिम् ॥ पिलभ्यः क्षेत्रपालेभ्यो वलिं दत्त्वा प्रकामतः । प्रभावादुक्तमार्गस्य कुशपुष्पादिभिर्यजेत् ॥ पाकुञ्चितकर For Private And Personal Use Only Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६६८ ज्योतिस्तत्त्वम् । वास्तुमुत्तानम सुराकृतिम् । स्मरेत् पूजासु कुयादिनिवेशे त्वधराननम्” ॥ देवीपुराणे । “मध्यभागे ततः कुय्यात् वासु देवस्य पूजनम् । श्रियश्च पूजनं कुर्य्याद्दासुदेवगणस्य च । गन्धायं पुष्यनैवेद्यधपाद्यैः सुरसत्तम । ततः संपूजयेतस्मिन् सर्वलोकधरां महीम् ॥ सुरूपां प्रमदारूपां दिव्याभरणभूषिताम् । ध्यात्वा तामर्चयेद्देवीं परितुष्टां स्मिताननाम् ॥ ततः प्रणम्य विज्ञाप्य तन्मयत्वेन चिन्तयेत्” ॥ तथा । " एवं प्रपूजिता देवाः शान्तिपुष्टिप्रदा नृणाम् । प्रपूजिता विनिघ्नन्ति गृहारम्भेषु कारकम् ॥ गृहादेः शिल्परूपत्वात् विश्वकर्मापि पूज्यते । शिल्पाचार्य्याय देवाय नमस्ते विश्वकर्मणे । स्वाहा ब्रह्मपुराणौयमन्त्रेणेति मतं मम" || ज्योतिषे । “तहस्तायतमात्रगर्त्तमतुलं कर्त्तर्विशुद्ध दिने खात्वा शाहलगोमयैः शुचितरं कृत्वा म्बुपू सुरान् । संपूज्यामलपुष्प कैर्जलघटं कृत्वास्त्रशाखायुतं दद्यादर्घ्य मनेन विप्रवचसा मन्त्रेण वास्तोष्पतेः ॥ वास्तोष्पते त्वमुत्तिष्ठ संसारस्थितिकारक । गृहाणार्घ्यं मया दत्तं गृहारम्भ करोम्यहम् ॥ मम सर्वहितार्थाय विष्णुलोकाय वै नमः । गर्ते तस्मिन् सलिलभरिते निश्चलं वारिभर्तुः स्थैर्यं प्रकुर्य्याज्जनयति हितं दक्षिणावर्त्त योगात् । वामावर्त्ती भवति विपदे स्वामिनाथच्च कुय्यात् भूमिच्छेदाद व्रजति लघुतां वित्तनाशं लभेद्दा” ॥ देवौपुराणे । “ततो गत् खनेन्मध्ये हस्तमात्र प्रमाणतः । चतुरङ्गुलमात्त्र ं तदधः खन्यात् सुसंमितम्। आचार्य्यः प्राङ्म ुखो भूत्वा ध्यायेद्देवं चतुर्मुखम् । अर्घ्यं दद्यात् सुरश्रेष्ठ कुम्भतोयेन मन्त्रवित् । तस्मिन् शुक्लानि पुष्पाणि प्रक्षिपेदोमितिस्मरन् । तदागत्तं परौचेत दविभक्तान्वित क्षिपेत् । ईशाने सूत्रपातः स्यादाग्नेय्यां स्तम्भरोपयाम् । द्वार नवमभागे तु कार्य वामात् प्रदक्षिणम्” । For Private And Personal Use Only Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम् | ६६८ द्वारस्य विशेषमाह “तृतीयतुय्ययोः प्राच्यां यास्ये तुयें च पश्चिमे । तुपञ्चमयोः पश्च विचतुर्थेषु चोत्तरे । वामात् प्रदचिणमिति गृहाभ्यन्तरे स्थित्वा ऐशान्यादिक्रमेण कार्यमित्यर्थः । तंत्र प्रयोगः । कृतस्नानादिः शुभे लग्ने वास्तुदक्षिणभागे चतुरङ्गुलखात हस्तमात्रगर्तें बहुतरनूतनगागोमयोपलिप्तजलपूरिते शालग्रामे वा गणेशादौन् प्रणवादि नमोऽन्तेन ख ख नाम्ना पूजयेत् । गणेशाय इन्द्राय वये यमाय ऋताय वरुणाय कुबेराय ईशानाय ब्रह्मणे श्रनन्ताय सूयाय सोमाय मङ्गलाय बुधाय दृहस्पतये शक्राय शनैश्वराय राहवे केतुभ्यः क्षेत्रपालेभ्यः क्रूरभूतेभ्यः ब्रह्मणे वास्तुपुरुषाय शिखिने पर्जन्याय जयन्ताय इन्द्राय सुख्याय सत्याय भृशाय आकाशाय वायवे विष्णवे पूष्णे वितथाय गृहक्षताय यमाय गन्धर्वाय भृङ्गराजाय मृगाव पितृभ्यः दौवारिकाय सुग्रीवाय पुष्पदन्ताय 1 गाय असुराय शेषाय पापाय रोगाय अध्ये मुख्याय भल्लाटाय सोमाय सर्पाय चदित्यै दिये पापाय सावित्रे जयाय रुद्राय न सवित्रे विवखते इन्द्राय मित्राय राजयक्ष्मणे पृथ्वोधराय श्रापवत्साय ब्रह्मणे चरको विद्यार्थी पूतनाये पापराक्षस्यै स्कन्दाय अय्यम्न जन्भकाय पिलिपिज्ञाय वासुदेवाय । नमस्ते बहुरूपाय विष्णवे परमात्मने खाडा इत्यनेन पूजयेत् । श्रिये वासुदेवगणाय पृथिव्यै । ८१ । पृथिव्यर्घ्य मन्त्रस्तु । “हिरण्यगर्भे वसुधे शेषस्योपरिशायिनि । वसाम्यहं तव पृष्ठ महाणाय धरित्रि मे ॥ ततः प्रणम्य प्रार्थयेत् " शुभेच शोभने देवि ! चतुरस्र महौतले । शुभदे शुभगे देवि ! गृहे काश्यपि रम्यताम् ॥ अव्यङ्गे चाचते पूर्णे मुनेश्चाङ्गिरसः सुते । तुभ्य कता मया पूजा समृद्दि गृहिणः कुरु । वसुन्धरे वरारोहे स्थान में दौयतां शुभे ॥ त्वत्प्रसादान्महादेवि ! काव्य For Private And Personal Use Only Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम् । मे सिध्यतां द्रुतम्। अग्निभ्योऽप्यथ सर्पेभ्यो ये चान्ये तलमा. श्रिताः । तेभ्यो वलिं प्रयच्छामि पुण्यमोदनमुत्तमम् । भूतानि राक्षसा वापि येऽत्र तिष्ठन्ति केचन ॥ ते गृहन्तु वलिं सर्वे वास्तुग्रहाम्यहं पुन: । इति मन्त्राभ्यां माषभसलिं दद्यात् । तत: “प्रणमेहण्डवमौ मन्त्रेणानेन भक्षितः। भूतानि यानौर वसन्ति तानि वलिं रहौत्वा विधिनोपपादितम् । अन्यत्र वासं परिकल्पयन्तु क्षयन्तु तानौर नमोऽस्तु तेभ्यः। ततस्तस्मिन् गर्ने दधिदूर्वापुष्यफलामपनवमुखेमाम्बपूर्णघटेन एषोऽयं : वास्तोष्पतये नम इत्यध्यं दद्यात्। "शिल्पाचार्याय देवाय नमस्ते विश्वकर्मणे"। स्वाहेत्युचार्य विश्वकर्मणे नम इति पूजयेत् । तत: “वास्तुदेवगणा: सर्वे पूजामादाय यानि कात्। इष्टकर्मप्रसिद्यर्थं पुनरागमनाय च । क्षमध्वमिति विसर्जयेत्। ततस्तदयं जलपूरितगर्ने प्रणवेन शक्तपुष्यं शिक्षा शुभाशुभं पश्येत् निसलं चेत् कर्तुः स्वयं जनयति दक्षिणाव ति हितं वामावर्तात् विपदं नाशं भूमिच्छेदाहित्तनाशं लघुतां वा ततस्तव दधिदूर्वादिकं दत्वा मृत्तिकया गर्त पूरयेत्। ततः सूत्रपाताय ईशानादि प्रदक्षिणाचतुर: कोलकान् “विशन्तु ते तले नागा लोकपालाच कामगाः। एहे त्वस्मिंच तिष्ठन्तु प्रायुर्वन्न करा: सदा" इति मन्त्रेण चतुष्कोणेषु दृढ़ गेपयेत्। तत ईशानादिक्रमेण सूत्रेण तं वेष्टयेत्। तत भाग्नेय्यां गर्ने गन्धपुष्याशलतं स्तम्भ रोपयेत्। तत्र मन्त्रः। “यथाचलोगिरिमरुहिमवांश्च यथाचलः । शुभप्रद रहस्तम्भ तथात्वमचलो भव" ॥ अथ सहप्रवेशः। "स्थाप्यं समाप्य कतुयूपकाष्ट ग्रहप्रवेशो गजवानि बन्धः। ग्राम प्रवेशो नगरी पुरे वा दिने प्रशस्तानि शनैश्चरस्य ॥ ज्येष्ठादितिभ्यां संयुक्त ग्रहारम्भोदि. For Private And Personal Use Only Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम् । तच यत् । ‘सत्सवं योजयेद्देश्मप्रवेशे देवचिन्तकः” ॥ विष्णु धर्मोत्तरे। *गोपुच्छविन्यस्तकरः प्रविशेञ्च गृहं ग्रहो। अनुलिप्तः सुखौसम्बोसपत्नौकस्तथैव च ॥ त्वाग्रतो हिजवगनथ पूर्णकुम्भ दध्यक्षताम्बदलपुष्यफलोपशोभम्। दत्त्वा हिरण्यवसनानि तदा हिजेभ्यो माङ्गल्यशान्तिनिलयं मिलयं विशेचा महाभारते “पारावतमयराव शुका वै सारिकास्तथा। गहस्थेन सदा पोथा पात्मनः श्रेय इच्छता ॥ मत्स्यपुराणम् । *गोगजाखाविशालासु तत् पूरोषस्य निर्गमम्। पस्तं गते न कर्तव्यं देवदेवे दिवाकरे" । प्रमुपक्रम्य गोभिलः। “वर्जयेत् पूर्वतोऽश्वत्थमक्षं दक्षिणतस्तथा। न्यग्रोधमपराह शादुत्त. राचाप्युड़म्बरम् ॥ प्रखत्थोऽग्निभयं कुर्यात् प्रक्षो ब्रूयात् प्रमायुकान्। न्यग्रोधी राजसं पौड़ा कुच्यामयमुडुम्बरा:' । पक्षः पकटौ प्रमायुकान् प्रकष्टपित्तानमायुः पित्तमित्यमरः । इति यहारमप्रवेशो। - "ब्रह्मानुराधवमुतिस्थविशाखहस्तचित्रोत्तराग्निपवनादितिरेवतौषु । जन्म िजौवबुधशुक्रदिनोत्सवादी धायें नवं वसनमौखरदेवतुष्टौ। नववस्त्रपरोधानम् ॥ पुण्यार्कादितिपिवामित्रशहित्तध्रुवत्वष्टषु मुनादन्तसुवर्णविद्रुममणीन् दध्याहिबुझे हरौ। पुष्टेज्ये समये शुभे ध्रुवसुराचार्यादितौ. शेऽना नो रवं विभूयात् प्रवालकमणीन् शन हिता खामिने"। इति ग्वधारणम् । पूर्व स्त्रीपुंसामान्येन विधाय पात् स्त्रिया विशेषनिषेधः। “मूलेन्दुपूर्वावययाम्यपिना. सर्वाग्निश क्रानिलशूलिनच। खङ्गादिसन्धारणमेषु कुर्यात् तिथौ विलग्ने च शुभे शुभाहे" इति खङ्गादिधारणम् । “मैत्रे. न्टुपौष्ण-पिटभादितिवाजिचित्रा-हस्तोत्तरात्रयहरौज्यविधा. भानि। एतेष्वभौष्टमयनासनपादुकादि-सम्भोगकार्यमुदितं For Private And Personal Use Only Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६७२ ज्योतिस्तत्वम् । मुनिभिः शुभाई। श्रीपतिसंहितायाम्। "इस्तादिति प्रमगुरूत्तरेषु पोष्णाशिमूलेन्दुभचिनभेष। वारेन्दुजौवेष. मिसेन्दुजानां शय्यासनादौनि हितप्रदानि । चिन्तामणौ हारोतः। "हरिकरमरुदनुराधाविधाटपौषणादितिहयोत्तरमे भोजनविधिशय्यासनभोगारम्भो हितार्थाय" इत्यलङ्कारादिधारणम् । "पुथा मैत्रकरोत्तरस्ववरुणब्रह्माम्बु पिवेन्दुभैः शस्तेऽके राभवारयोमतिथिषु करे खवीर्येषु च। पुणेन्दो जलाचिगे दशमी शके शुभांयोदये प्रारम्भः सलिनालयस्य शुभदो जोवेन्दुपुत्रोदये। वारुणमूलविशाखसौम्यध्रुवहस्तपोष्णपुष्येषु। तरगुल्मलतादीनामारोपणं प्रशस्तम" ॥ वृक्षादिरोपणम् । अथ पुष्करिण्यारम्भः। मत्यपुराणे। "प्राप्य पक्षं शुभं शुलमतोते चोत्तरायणे। प्राषाढ़े हे तथा मूलमुत्तरा वयमेव च। ज्येष्ठाश्रवणरोहिण्यः पूर्वभाद्रपदे तथा। हस्ताविनी रेवती च पुष्यो मृगशिरस्तथा ॥ अनुराधा तथा खातौ प्रतिछादिषु शस्यते ॥ अतौते प्राप्ते गत्यर्थस्य प्राप्त्यर्थत्वात् । भविष्थे । “प्रतिपञ्च हिताया च दृतीया पञ्चमी तथा। दशमी त्रयोदशी चैव पौर्णमासी च कौर्तिता॥ मोमो वृहस्पतिश्चैव शुक्रब तथा बधः। एते सौम्यग्रहा: प्रोता: प्रतिष्ठायागकर्मणि" ॥ व्यवहारसमुच्चये । “प्रतिष्ठा मर्वदेवानां केशवस्य विशेषतः। उत्तरायणमापने शुक्लपक्षे शुभे दिन ॥ कृष्णपणे च पञ्चम्यामष्टम्याञ्चैव शस्यते। हादश्येकादशोराका शके कृष्णे च पञ्चमौ ॥ अष्टमो च विशेषेण प्रतिष्ठायां हरः शुभाः । ध्रुव लघु मृदुवर्गे वारुणे विष्णुदैवे मरददितिर्धानष्ठे शोमने वासरे च। त्रिदशमदनजन्मेकादशे शौतरश्मौ विबुधकृतिउभौष्टा नाडिनक्षत्रहीने" ॥ देवताघटमम्। प्राजेशवासव. For Private And Personal Use Only Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्वम् । ૨૨ करादितिभाखिनौषु पौणामरेज्यशशिभेष तथोत्तरासु । कर्तुः शुभे शशिनि केन्द्रगते च जौवे कार्या हरे शुभतिथौ विधिवत् प्रमिष्ठा। पुथाखिशभमदैवतवासवेष पौणानिलेशमघरोहिणीमूलहस्ते पोषणानुराधहरिभेष पुनर्वसौ च कार्याभिषेकतरभूतपतिप्रतिष्ठा” ॥ महेशादिप्रतिष्ठा। ध्रुवमृदुनक्षत्रगणे रवि शभवारेषु मुलिथी दीक्षा। स्थिरलग्ने शुभे चन्द्रे कोणे शुभे गुरो धर्मे । दौक्षाकरणम् । भुजवले। "युगादावयने पुण्ये कर्तव्यं विषुवइये। चन्द्रसूर्यग्रहे वापि दिने पुरोऽथ पर्व या तिथिर्यस्य देवस्य तस्यां वा तस्य दोषणे। राधागमविशेषण प्रतिष्ठा मुलिदायिनी ॥ पन्नपुराणे । *प्रतिपहनदस्योक्ता पवित्रारोहणे तिथिः। श्रिया देव्या हितीया च तिथौनामुत्तमा मता ॥ बतीया त्वथवान्या च चतुर्थी तत्सतस्य च । पञ्चमी सोमराजस्य षष्ठी प्रोक्ता गुहस्य च॥ सप्तमौ भास्करस्योक्ता दुर्गायाश्चाष्टमी तिथिः। मातृणां नवमौ प्रोता दशमी वासुकेस्तथा । एकादशी ऋषौलान हादशौ चक्रपाणिनः ॥ चक्रपाणिन इति पणव्यवहार इत्यस्मात् । “योदशी त्वनङ्गस्य शिवस्य च चतुर्दशौ। मम चापि मुनिश्रेष्ठ पौर्णमासौ तिथि: स्मता ॥ इति देवप्रतिष्ठा। "जमहरिधटलम्ने देवराट्युग्विशाखाविनयनविधियाम्यइन्हसान्यभेषु सुकरणतिथियोगे शुक्रजौवाकवारे तरणिघटनमिष्ट चन्द्र ताराविशुधौ”। नौकाघटनं “शुभाहे विष्णुयुग्मेन्दुभगमैत्राखिपाणिषु। चालनं घटनस्थानात् नाव: शुभतिथौन्दुषु ॥ निष्पन्न नौकाचलनम्। “अखिकरेज्य सुधासुधानिधिपूर्वामिवधनाच्युतभे शुभलग्ने। तारकयोगतिथौन्दुविशुद्धौ नौगमनं शुभदं शुभवारे" ॥ नौयात्रा। हारीतः । "जन्माधाने निधनमे प्रत्यरौ च विपत्करे। यदि व्याधिः 14 For Private And Personal Use Only Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६७४ ज्योतिस्तत्त्वम् । समुत्पत्रः क्लेशाय मरणाय वा ॥ यदा ताराः शुभाः पुंसां नक्षत्रस्याशुभ फलम् । तत्र नात्यन्तिकं ज्ञेयमेवमन्यव पण्डितैः ॥ तद्यत्र चन्द्रमास्तस्य गोचरे चाशुभप्रदः । तदा नूनं भवेन्मृत्यु: सुधासम्पोतदेहिनः ॥ शिखिगुणरसेन्द्रियानलशशिविषयगुणतुपञ्चमपचाः नल शिविषयगुणते पञ्चमपताः । विषयैकचन्द्रयुग्मार्ण वाग्निरुद्रानिलदहनाः । भूतयतपक्षवसवो हौ त्रिंशच्छततारकामानम्" । तदनुसारेण फलकथनम् । "आर्द्रा श्लेषा स्वाती पूर्वा ज्येष्ठासु च यस्य रोगजका स्यात् । धन्वन्तरियापि चिकित्सितस्य तस्यासवो न स्युः” कौशिकः । “कृत्तिकासु यंदा व्याधियां संप्रतिपादितः । नवरात्र भवेत् घोड़ा fara' रोहिणौषु च ॥ मृगशौर्षे पञ्चरात्रमाद्रयां मुच्यतेऽसुभिः । पुनर्वसौ तथा पुष्ये सप्तरात्र' विधीयते ॥ नवरात्र' तथाश्लेषे मासमेकं मघासु च । द्दौ मासौ पूर्व फल्गुन्यामुत्तरासु त्रिपञ्चकम् ॥ हस्ते च सप्तमे मोर्चाचित्रायामईमासकम् । मासद्वयं तथा स्वात्यां विशाखे दिनविंशतिः ॥ मैत्रे चैव दशाहानि ज्येष्ठायामई मासकम् । मूले न जायते मोच: पूर्वाषाढ़ त्रिपञ्चकम् ॥ उत्तरे विंशतिर्ज्ञेया दौ मासौ श्रवणे तथा । धनिष्ठायामर्द्धमासं वारुण्याच्च दशाहकम् ॥ न च भाद्रपदे मोच उत्तरासु विपञ्चकम् । रेवत्यां दिनविं शत्या चाहोरात्र' तथाखिनौ ॥ प्राणैर्विमुच्यते नित्यं भरख्यां नात्र संशयः । कौशिकेन समादिष्टा नक्षत्रव्याधिसम्भवाः ॥ नक्षत्र प्रतिकर्त्तव्यं नक्षत्र पथजानता । चौरवृक्षस्य समिधो जुहुयादश्विदैवते ॥ तिलमचतान् यास्ये घृतमेवाग्निदेवते । प्राजापत्ये जुहुयात्तु ग्राम्य वीज करञ्जकम् ॥ सौम्ये गव्य' पयो रौद्रे सर्पिर्मधुसमन्वितम् । अदितिर्देवता यस्य घृतानास्तिल, तण्डुलाः ॥ प्रायसं सर्पिषा चैव ददत्यधिदेवते । वास्यो For Private And Personal Use Only Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम् । अधिश्च पत्रच सपिः सर्वाधिदैवते ॥ पितरो देवता यस्य तातास्तिलतण्डुलाः। प्रचता नाज्ययुक्ताश्च भगे सर्पिस्तयोत्तरे। सावित्रे दधिहोमो त्वते चित्रोदनं हविः। यवा: खात्याच होतव्याश्चन्द्राग्निभे तु पायसम्॥ मैत्रे सर्पिस्तु जहुयातदेव चेन्द्रदैवते। यथोपपनमन्त्रञ्च जुहुयान ते तथा । अब्दैवते शालिवौज वैश्वदेवे तु रूषकम् । रक्तानां तण्डुलानाच होतव्यं विष्णुदेवने ॥ न्यग्रोधोडुम्बरावस्थसमिधो वसुदवते। वारणे वारिजातानां पुष्पाणां होम इष्यते ॥ प्रजैकपादे होतव्यं प्राजापत्ये न ततसमम्। अहि बने तु नक्षत्रे पिष्टकाब प्रशस्यते ॥ पौणे फलान्यखण्डानि हुनेदष्टोत्तरं शतम्। सावित्रया हुतमेतत्तु ब्राह्मणाभिहितं पुरा ॥ ज्ञावा चैव तु होतव्यं सद्यो ज्वरहरं परम् ॥ भौमपराक्रमे । “कत्ति कायां पिष्टकछागमुखे दध्युदकच देयम्। रोहिण्यां पिष्टकगोमुख शाकम् ॥ मृगशिरसि पिष्टकमृगमुखे माषो देयः । पार्दायां पिष्टकगोमुखे रनम्। पुनर्वसौ पिष्टकवराहमुखे पटोलम्। पुष्थे पिष्ट कछागमुखे पायसम्। पश्लेषायां पिष्टकवराहमुखे इतम्। मघायां पिष्टकवानरमुखे तिलाः । पूर्वफल्गुन्यां पिष्टकनरमुख मुगतिलपूपिकाः। उत्तरफल्गुन्यां यिष्टकवलोवर्दमुखे शाकम्। हस्तायां पिष्ट कमहिषमुखे पुष्करमूलम् । चित्रायां पिष्टकव्याघ्रमुख तगरपुष्पम् । खात्यां पिष्टकमार्जारमुख तिताः। विशाखायां पिष्टकव्याघ्रमुख गुड़मतम्। अनुराधायां पिष्टकम्गमुखे कुलस्थम् । ज्येष्ठायां पिष्टकमूषिकमुखे धन्याकम्। मूले पिष्टकमार्जारमुखे तिलम् । पूर्वाषाढ़ायां पिष्टककुम्भौरमुखे वचा। उत्तराषाढ़ायां पिष्ट कषमुखे शाकभक्तम् । श्रवणायां पिष्टकमहिषौमुखे रक्तम् । धनिष्ठायां पिष्ट कमरमुख शाकभतम्। शतभिषायां पिष्टक For Private And Personal Use Only Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 40 දී ज्योतिस्तत्त्वम् । I वानरमुखे पिप्पली । पूर्वभाद्रपदायां पिष्टक नरमुखे सिंततण्डुलाः। उत्तरभाद्रपदायामध्येवम् । रेवत्यां पिष्टकनरमुखे गुड़भक्तम्” । अश्विनौ भरण्योरप्येवम् । एवं नक्षत्र दोहदे कते ज्वरो नश्यति । एतद्दिधानन्तु प्रथमं गन्धपुष्पधूपदौपनैवेद्यः सदोपमायताकैः प्रपूज्य काय्र्यम् । “उरगशतभिषा द्रव्य ष्ठयाम्यfaपूर्वाखपि च रविजभौमे चार्कवारेण योगे । यदि भवति चतुर्थी द्वादशौ भूतषष्ठी निगदित इह अन्तोर्नाशकालः प्रविष्टः ॥ चरराशौ विलग्गस्खे हिदेहार्डे च पश्चिमे । रोगस्य प्रथमः प्रश्ने विपय विपर्य्ययः ॥ शुभग्रहाः सौम्यनिरोचिताच विशग्नसंप्ताष्टमपञ्चमस्थाः । विषदशा येषु निशाकरः स्वात् शुभं वदेद्रोगनिपौड़ितानाम् ॥ पापचैषु प्रश्न लग्ने पापसंयुतवोचिते । तथैव चाष्टमस्थाने रोगियां मरणं भवेत्” ॥ मरणसूचक योगइयम् । “मन्दः पापसमेतो लग्माश्रवमः शुभैरयुतदृष्टः । रोगार्त्तः परदेशे चाष्टमगो मृत्युकर एव ॥ परदेशस्थस्य रोगज्ञानं मृत्युज्ञानञ्च । “मूलमघार्द्राश्लेषा भरणी विशाखाग्निदैवतेषु नरः । गरुड़प्रियोऽपि दष्टो न प्राणिति दन्दशूकेन ॥ पालामनालेपनलावणैस्तु दैवविषं समुत्सारयति ॥ दष्टस्य गारुडीमूलं यदि घृष्टमश्यामलं भवति । गारुड़ी पुनर्नवा । “अर्क टावल्कलमसृणं वर्णमतिभिशिरसलिलसंयुक्तम् । पौतमहिकनकगोनाह बारिविषाणां विद्रावयम् ॥ श्रीषसलिलमसृणवर्त्तितका कलिकामूलपान लेपनेन । अपसरति मण्डलिविषं मारुतविकतमिव घनवृन्दम्” ॥ घोषसलिलं काञ्जिकं काकलीमूलं गुष्तामूलम् । “लज्जालुकामूलं नौलो मूलमातपतण्डुलजलेन । मण्डलविषमतिविषममपि पौतं निवारयति ॥ यः पिबति पुष्यदिवसे जलपिष्टं सितं पुनर्नवा - मूलम् । पार्श्वनापि न खलु विचरति तस्याहि सिको For Private And Personal Use Only Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्वम् । वर्षम् ॥ खातातपौयकम्मविपाके। "महापातक चिङ्गं सप्तजन्मसजायते। उपपातकर्ज पञ्च त्रीणि पापसमुद्भवम् ॥ दुष्कार्मजा नृणां गंगा यान्ति चैव प्रामात् शमम्। नपैः सुराचनहोमेनिस्तेषां शमो भवेत् ॥ पूर्वजन्मकृतं पापं नरकस्य परिक्षये। बाधते व्याधिरूपेण तस्य कच्छादिभिः शमः। कुष्ठ राजयमा च प्रमहो ग्रहणौ तथा। मूत्रकृच्छ्राश्मरीकाया प्रतीसारभगन्दरी। दुष्टवणं गण्डमाला पक्षाघातोऽविनाशनम्। इत्येवमादयो रोगा महापापोवाः स्मृताः । जसोदरयत्नौरशूलरोगवणानि च । खासाजीर्णज्वरच्छादचममोगलग्रहाः ॥ रसावंदविसर्पाद्या उपपापोडवा गदाः । दण्डावतान कवित्र वपुः कम्पविचर्चिकाः ॥ वल्मीकपुण्डरोकाद्या रोगाः पापसमुद्भवाः । अखं पाद्या नृणां रोगा प्रतिपापोवा मताः॥ अन्ये च बहवो रोगा जायन्ते रोगसाराः। उच्यन्तेऽय निदानानि प्रायश्चित्तानि च क्रमात् ॥ महापाप तु सर्व स्याप्तदन्तपपातके। दद्यात् पापे तु षष्ठांशं कल्पा श्वाधिबलाबलम् ॥ लक्षमुच्चावचं पुष्प प्रदद्याहे वताचने। दद्याट्विजसहस्राय मिष्टानं हिजभोजने ॥ गोदाने वत्मयुला गौः सुशीला च पयखिनौ ॥ गोदानमधिकृत्यादिपुराणे। “अरोगश्चैव जायेत तेजस्खौ च भवेबरः ॥ मनुः । "पोषधान्यगदो विद्या दैवी च विविधा स्थितिः। तपसैव प्रसिध्यन्ति तपस्तेषां हि साधनम् ॥ अगदोनैरुज्यम्। शातातपः। “यथा निदानं दोषोत्थः कर्मजो हेतुभिविना। महारमोऽल्पके हेतावन्तिमो दोषकर्मजः ॥ सारावल्याम् । पथ्याशिनां भोलवतां नराणां सइत्तिभाजां विजितेन्द्रियाणाम् । एवं विधानामिदमायुरन चिन्त्यं सदा वृद्धमुनिप्रवादः” । व्यकमा याज्ञवल्क्यः । “वाधारस्नेहयोगाद यथा दीपस्य For Private And Personal Use Only Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६७८ ज्योतिस्तत्त्वम् । संस्थितिः । विक्रियापि च दृष्टेवमकाले प्राणसंशयः ॥ यथा चाविकलवर्थ्यादिसत्त्वे प्रचण्डवातादिना दोपनाथस्तथा सत्यष्यायुषि चाशुभकर्मवशात् नौदुर्गवत्लं युद्धापथ्यसेवित्वादिना प्राणनाथ इति । प्रायुर्वेदे । “यथाशास्त्रच निर्णीतो यथा व्याधिचिकित्सितः । न शमं याति यो व्याधिः स ज्ञेयः कमजो बुधैः” ॥ तचिकित्सायां भारतीय भट्टाचार्यः । “दानेदयादिभिरपि हिनदेवता गोगुर्वर्चनाप्रणतिभिश्च नपेस्त पोभिः । इत्युक्त पुण्यनिचयैरुपचीयमानाः प्राक् पापना यदि रुजः प्रथमं प्रयान्ति” ॥ श्रतएव हेमाद्रिधृत दानखण्ड तत्तद्रोगे तत्तद्दानाभिधानपूर्वकं भगवद्दाक्यम् । “सुवर्णदानं सर्वेषां रोगाणां शमकारणम् । तस्मात् सर्वप्रयत्न ेन कर्त्तव्यं कमलोद्भव” ॥ कर्मदोषोभयजव्याधौ च । "दानादिभिः कर्मभिरोषधीभिः कर्मक्षये दोषपरिक्षये च । सिद्धयन्ति ये यत्नवतां कथञ्चित्तत्कर्मदोषप्रभवा गदास्तु ॥ श्रतएवोक्तम् । "प्रायवित्तमकृत्वा तु कर्म कुयान किञ्चन । अनिस्तीर्णमध यस्माद्दिगुणं परिपच्यते ॥ केवलदोषजे तु । “खहेतु दुष्टेरनिलादिदोषैरुपप्लुतैः खेषु परिश्वलद्भिः । भवन्ति ये प्राणभृतां विकारास्ते दोषजा भेषजशुद्धिसाध्या : " ॥ वृहस्पतिः । "अज्ञातौषधमन्त्रस्तु यच व्याधेरतत्त्ववित् । रोगिभ्योऽर्थं समादत्ते सदण्डप्रखौरवह्निषक् ॥ नन्दिपुराणे । "अप्येकं नोरुजं कृत्वा जन्तु' यादृशतादृशम् । पायुर्वेदप्रभावेण किन दत्तं भवेद्भुवि” ॥ किन दत्तं भवेदिति सर्वदानफलं लभते इत्यर्थः । लिङ्गपुराणम् । " श्रायुष्ये कर्मणि चौथे लोकोऽयं दूयते मया । घोषधानि च मन्त्राय न होमो न पुनर्जपः । वायन्ते मृत्युनोपेतं जरया वापि मानवम् " ॥ इति कालवाक्यम् । हरिवंशेऽपि । “दैवं पुरुषकारेण न शक्यमति For Private And Personal Use Only Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्वम् । वर्तितम्" इति। "न ग्रहन्ति न शृण्वन्ति न पश्यन्ति गता. युषः। दीपनिर्वाणगन्ध सुहहाक्यमरुन्धतीम् ॥ विष्णुधर्मोत्तरे। "हरि गोविनचन्द्रार्क सुराग्नौन प्रतिपूज्य च । शृण्वन् मन्वमिमं पुण्यं विहान् भेषजमारमेत् ॥ ब्रह्मदक्षाविरुदेन्द्राभूचन्द्रामिलानलाः। ऋषयचौषधिग्रामा भूतसंघाच पान्तु ते॥ रसायनमिवर्षीणां देवानाममृतं यथा। वधवोत्तमनागानां भैषज्यमिदमस्तु ते ॥ स्वयं भक्षणे तु ते इत्यत्र मे इति वदेत् । प्रविशेषेण भक्षणेऽपि पठेत् । “घडोदये गुरुबुधेन्दुसितेषु तेषां वारे रवेश्च सुविधौ मुतिथौ सुयोगे भेषग्रपनगविशाखशिवतरेषु जन्मनविष्टिरहितेष्वगदः शुभाय"। औषधकरणम् "चित्रायुगे विधियुगे मिवयुगे लघुषु वारुणविष्णौ। वस्तिविरेचनवेधा: शुभदिनतिथिचन्द्रलग्नेषु ॥ वस्तिचर्मपुट: विरेचन विरेकः । वेधी व्रणादिवेधः। “पौष्णाखिनौ द्रविणशक्रसमौन्द्रपुण्याहस्तादितोन्दुहरिमूल हुताश. मित्रैः। चित्रान्वितै गुबधेन्दुरवौज्यवारे भैषज्यपानमचिरादपहन्ति रोगान् ॥ उत्तरात्रयेऽपि बहुल मृगेति वचनात् । रत्नमालायाम् । घनशत्रनिधन व्ययशुद्धौ सदग्रहेषु नितरां बल. वत्स । प्रायुषश्च हितकारिणि योग कीर्तितानियतमौषधसेवा। यूनादिषु पादयोगे क्षणशून्येष प्रायुष्मानित्यादिनित्ययोगे। भौमपराक्रमे। "भैषज्यपाने गुरु सोमशुक्राः शुभं विलग्नं दिवसो रवेव। तिथावरिने करणे च शस्ते योगे च लग्न द्विशरीरसङ्गे ॥ तत्रैव “रोहिणी चानुगधा च शस्तमौषधभक्षणे” इति वचनाद्रोहिण्यामपि। “व्यादित्येषु चरेषु शदिनकृत्पुष्योग्रचन्द्रेषु च। कराहव्यतिपातविष्टिदिवसेष्विन्दावशस्ते तथा । केन्द्रस्थेष्वशुभेष्वकामतिथिषु नानं गदो मुक्तितः। शस्तं तत्र न शोभनाविधिभुजङ्गर्येन्दु सदासराः” ॥ रोगिनानम् । “सेवा For Private And Personal Use Only Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir $50 ज्योतिस्तत्त्वम् । 66 चक्रे सप्तशीर्षे सप्तपृष्ठे तथोदरे । पादयोः सप्त ऋचाणि साभिजिन्ति न्यसेदुधः ॥ स्वामिभाग त्यभं गण्य भृत्यभात् स्वामिमं ततः । निष्फलं पादपृष्ठस्थे सफलं मस्तकोदरे ॥ सेवा चक्रम् । “ध्रुवलघुमृदुवर्गे वासवे विष्णुदेवे विकुजरविजवारे केन्द्रकोणेषु सत्स । हितनुवृषभपञ्चास्योदये चन्द्रश सुतिधिकरणयोगे दर्शनं भूमिपानाम्” ॥ राजदर्शनम् । मढ्यपुराणे । “राज्ञस्तु दक्षिणे पार्श्वे वामे सोपविशेत्तथा । पुरस्तात्तु तथा पश्चात् प्रसनन्तु विगर्हितम् ॥ स्वयं तथा न कुर्वीत स्वगुणाख्यापन' पुनः । स्वगुणाख्यापने चैव परमेव प्रयोजयेत् । परार्थमस्य वक्तव्यं सुस्थ चेतसि भार्गव । स्वार्थं सुर्वक्तव्यं न स्वयन्तु कदाचन" ॥ अस्य राज्ञः । 'अज्ञाप्यमाने चान्यस्मिन् समुत्थाय त्वरान्वितः । अहं किं करवा गौति वाच्यो राजा विजानता । नातिवक्ता न निर्वक्ता न च मात्मरिकस्तथा ॥ श्रात्मसम्भावितचैव न भवेच्च कथञ्चन । आराधनासु सर्वासु भृत्यवश्च विचेष्टिते । कथासु दोषं क्षिपति वाक्यभङ्गं करोति च । विरक्तलक्षणं ह्य ेतदनुरक्तस्य लक्षणम् । दृष्ट्वा प्रसवो भवति वाक्य गृह्णाति चादरात्। कुशलादिपरिप्रश्रौ संप्रापयति चासमम् । इति रक्तस्य कर्त्तव्या सेवा रविकुलोद्भव । यदप्यल्पतर ं कर्म तदप्येकेन दुष्करम् ॥ पुरुषेणासहायेन किन्तु राज्यं महत्पदम् । कामं क्रोधं मदं मानं लोभ हर्षं तथैव च । जेतव्यमरिषड्वर्गं सत्वर पृथिवोचिता । न राज्ञा मृदुना भाव्यं मृदुहिं परिभूयते । न भाख दारुणेनापि तीच्णादुद्दिजते जनः । पदोर्घसूत्रश्च भवेत् सर्वकर्मसु पार्थिवः । दौर्घसूत्रस्य नृपतेः कर्म नष्टं भवेत् स्वयम् । रोगे दर्पे च मान्ये च द्रोहे पापे च कर्मणि । अप्रिये चैव कर्त्तव्ये दीर्घ सूत्रः प्रशस्यते । भृत्यैः सह महीपालः परोहा 1 For Private And Personal Use Only Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम् । सच्च वर्जयेत्। मृत्याः परिभवन्तौह नृपं हर्षणसत्कथम्। पौरुषं दैवसम्पत्त्या काले फाति पार्थिव । अयमेतन्मनुष्यस्य पिण्डितं स्यात् फलावहम्। कषेष्टिसमायोगात् दृश्यन्ते फलसिहयः। तास्तु काले प्रदृश्यन्त नैवाकाले कथञ्चम" ॥ महाभारते । “लामेन हर्षयेद यस्तु न व्यथेद यो विमानितः । पसंमूढच यो नित्यं स राजवमति वसेत् । बलवान् शूर अग्लानश्छायेवानुगतः सदा। सत्यवादी मृदुर्दान्तः स राजवसतिं वसेत् । नयमा हरिवंशे नारदः। “अनुतो वापि सुहदा वक्तव्यं जानता हितम्। न्याय्यञ्च प्राप्तकालञ्च परा. भवमजामता। वायं सर्वदा सगिरप्रियवापि यहितम् । पानृख्यमेतत् खेहस्य सगिरेवादृतं पुरा। यस्योत्तापकरं पश्चात् पारध कार्यमोदृशम्। पारभेनैव तहिहान् स च बुद्धिमतां नयः। कुमिते सौहदं नास्ति कुभायर्यायां कुतो रतिः । कुतः पिड कुपुत्र तु नास्ति सत्यं कुराजनि। कुसौहदे क विश्वासः कुदेशे न प्रजौव्यते । कुराननि भयं नित्यं कुपुत्रे सर्वदा भयम्। अपकारिणि विश्वब्ध यः करोति नराधमः। अनायो दुर्बलो यस्तु न चिरं स तु जीवति। न विखसेद वश्वस्ते विश्वस्ते नातिविखसेत्। विश्वासाद्भयमुत्पन्नमूनान्यपि निवन्तति । राज विषु विश्वास गर्भसङ्करितेषु च। यः करोति नरो मूढो न चिरं स तु जीवति। शत्रशेषणाच्छेषं शेषमग्नेश्च भूमिप । पुनर्वहन्ति संभूय ततः शेषन शेषयेत् । प्रद्रोहं समयं कृत्वा मुनौमामग्रतो हरिः । जघान् नमुचिं पश्चादपां फेर्नेन पार्थिव । कत्वा सम्बन्धकं चापि विखसेच्छवणा न हि। पुलोमानं जधानादौ जामातापि शतक्रतुः । न चासत्रे निवस्तव्यं सवैरे वहिते रिपौ। पातयेत्त समूलं हि नदौकूलमिव द्रुमम्" । विष्णुपुराणे। "पल्प हानिस्तु सोढव्या वैरणार्थागमं त्यजेत् । For Private And Personal Use Only Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६८२ ज्योतिस्तत्त्वम् | ज्योतिषे । उपायतः समारब्धा सर्वे सिध्यन्त्युपक्रमाः " ॥ "बन्धकं तदनुमन्दलोचनं मध्यलोचनमतः सुलोचनम् । रोष्टिपोप्रभृतिभं चतुर्विधं ननमत्र गणयेत् पुनः पुनः । लाभोऽन्धके निकट एव हतस्य चौरैर्द्रव्यस्य लब्धिरिह के करके प्रयत्नात् । द्रव्यश्रुतिर्भवति मध्यमलोचनार्थे न प्राप्तिरुत्तम विलोचन में कदाचित् । मत्स्यपुराणे । “कार्त्तवीर्यार्जुनो नाम राजा बाहुसहस्रभृत् । येन सागरपय्र्यन्ता धनुषा निर्जिता मही । यस्तस्य कौर्त्तयेन्नाम कव्यमुत्थाय नित्यशः । न तस्य वित्तनाशः स्यान्नष्टञ्च लभते पुनः ॥ कल्यं प्रातः । अथ परौचा । " नो शुक्रान्तेऽष्टमेऽकें गुरुसहितरवौ जन्ममासेऽष्टमेन्दौ विष्टौ मासे मलाख्ये कुजश निदिवसे जन्मतारासु चाथ । नाड़ीनचत्र होने गुरु रविरजनौनाथ तागविशुद्ध प्रातः काय्या परीक्षा तिनुचरगृहांशोदये शस्तलग्न | अष्टम्याच चतुर्दश्यां प्रायश्चित्तपरीक्षणे । न परीक्षा विवाहच शनिभौमदिने भवेत् । प्रायश्चित्तं अनुराधा स्वधनिष्ठा पुष्या हस्तावयं तथा । ज्येष्ठावारुण पौष्णे च नाट्यारम्भे शुभोगणः” । नाट्यारम्भः । अथ कृषिकर्म । तत्र कूचक्रम् । “प्रामुखी भगवान्देवः कुरूप व्यवस्थितः । श्राक्रम्य भारतं वर्षे नव भेदं यथाक्रमम् । मध्यप्रागग्नि याम्यादि कृत्तिकादित्रयत्रयैः क्रूर बेधयुतैस्तैस्तु पौड्यन्ते तन्निवासिनः । पूर्वापरं भवेधीवेधश्चोत्तरदक्षिणे। ईशानरक्षसोर्वेधो वेध आग्नेय मारुते । तारावयान्वित तत्र सौरिं यत्नेन चिन्तयेत् । नाभिशौर्षचतुष्पादकक्षपुच्छे च संस्थितम् । अतिवृष्टिरनावृष्टिः शब्वभा मूषिकाः खगाः । स्वचक्र परचक्रञ्च सप्तैते सम्भवन्ति च । एवं देशग्टहग्राम क्षेत्रनामक्षतो वदेत्” ॥ तथा च "यत्र यत्र For Private And Personal Use Only Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्त खम् । च नक्षत्रे दिव्यपार्थिवनामसाः। दृश्यन्ते सुमहोत्पाताः खां दिशं तव पौड़येत् । सौरिबलाधिको दुष्टः स्वल्पवीर्यः शुभावहः। एकदा पौड़येद यत्र भानुजः कूर्मपञ्चके। तत्र स्थाने महाविघ्नो जायते नात्र संशयः। दृष्टम्याने गते चन्द्रे कर्तव्यं शान्तिपौष्टिकम्"। कूर्माणस्थदेशानाह। “मध्ये सारखता मत्स्याः शूरसेना: समाथुराः। पञ्चालशालमाण्डव्यकुरुक्षेत्रगजाह्वयाः। मरुनैमिषविन्धाद्रिपाण्डाघोषा: सयामुनाः । काश्ययोध्या प्रयाग गया वैदेहकादयः। प्राच्या मागधशोणी च वारेन्द्रौगौड़रादकाः । वर्षमानतमो लिप्त प्राग्ज्योतिषोदया. द्रयः। प्राग्नेय्यामवनोपवनपुरकोशताः। कलिङ्गौदान्धकिष्किन्या-विदर्भशवरादयः । दक्षिणेऽवन्ति-माहेन्द्रमलया ऋष्यमूककाः। चित्रकूटमहारण्यकाञ्चौसिंहलकोनाः। कावेरौ ताम्रपर्णी च लङ्कात्रिकूटकादयः। नैऋते द्रविड़ानतंमहाराष्ट्राश्च रैवतः। जवन: पल्लवः सिन्धुः पारसौकादयो मताः। पश्चिमे हेयास्तादिम्लेच्छवासशकादयः । वायव्ये गुज्जराटश्च नाटजालन्धरादयः । उत्तरे चौननेपालइनकैकेयमन्दराः। गान्धारहिमवत्क्रौञ्चगन्धमादनमालवाः । कैलाशमद्रकाश्मीरम्लेच्छदेशाः खशादयः । ईशाने स्वर्णभौमच गङ्गा. हारच टङ्कनः । काश्मौरब्रह्मपुरककिरातादरदादयः ॥ इति कूर्मचक्रम् । देवतः । "सिन्धुसौवीरसौराष्ट्रास्तथा प्रत्यन्त. वासिनः। प्रणवङ्गकलिङ्गोवान् गत्वा संस्कारमईनि” ॥ तीर्थयात्राव्यतिरेकेणेति द्रष्टव्यमिति मिताक्षरा। व्यासः। "उषरा बहुना भूमिः पन्थानस्तस्कराहताः। सर्वे वाणिजिकाचैव भविष्यन्ति कलौ युगे॥ शस्यानिष्पत्तिरफला तरुणा वृद्धि शौलिनः। भविष्यत्यफलो हर्षः क्रोधश्च सफलो नृणाम् । पुरुषाल्यं बलौकं तद्युगान्तस्य लक्षणम् ॥ तव ग्रामादिषु For Private And Personal Use Only Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तखम्। खनामफलम्। ज्योतिष । “पवर्गऽष्टाविषुः के च पदये वेदाष्टवर्गके। एक ते सप्त पे वर्गे ये हयं शे च वह्नयः ॥ इत्यमष्टसु वर्गेषु याः संख्याः कथिताः क्रमात् । मानिवर्गात् खराश्चैव प्रत्येक तां प्रकल्पयेत्॥ एकीकृत्याष्टभि तो शेषसंख्या ध्वजादयः। ध्वजो धन सिंहः वा वृषभो रामभो गजः ॥ ध्वाश्यक्रमतो जेयः फलं तत्र बलक्रमात् । ध्वाखखधमवृषभा गजः सिंहो ध्वजः खरः ॥ यथोत्तरबला एते ज्ञातव्या वरपारगैः। प्रभो योधे पुरे देश मिबनारो रहेषु च॥ बलात् प्रायो भवेल्लाभो न लामो बलवर्जितात् । अगरुड़: क मार्जारस सिंहष्ट शुनौसुतः ॥ त भुजङ्गः प पाखुः स्यात् य वर्ग भः श मेषकः । नामादिवर्णतो जेया प्रष्टौ वर्गाः क्रमादमौ॥ यहगंभक्ष्यो यः प्रोक्तस्तस्मात्तस्य भवेत् क्षयः । ग्रामवर्गस्य ये भक्ष्यास्त्यज्यास्तधामवासिनः॥ एवं दुर्गे रणे त्यज्या न कर्तव्या गड़ाधिपाः । प्रवाष्टकं ज्ञेयं प्रागादाष्टदिशा क्रमात् । स्ववर्गात् पञ्चमे स्थाने खण्डिर्भङ्गश्च जायते” । व्यासः। "धनिनः श्रोत्रियो राजा नदी वैद्यश्च पञ्चमः। पञ्च यत्र न विद्यन्ते तत्र न दिवसं वसेत् ॥ मत्यपुराणे । “फालअष्टे : देशे सर्ववौजानि रोपयेत् । विपञ्चसप्तरावेण यत्र रोहन्ति तान्यपि । ज्येष्ठामध्याकमिष्ठाभूवर्जनौयेतरा मता ॥ अथ लागलचक्रं स्वरोदये। "लाङ्गलं. दण्डिका यूपं योक्त्रदयसमन्वितम्। दण्डिकादिलिखेगानि दिनेशाकान्त. भादितः ॥ दण्डिका इलयपानां हिहिस्थाने विकं विकम् । योक्लयोश्च त्रिकञ्चैव मध्ये पञ्चाग्रके हयम् ॥ दण्डस्थे च गवां हानिर्यपस्थे स्वामिनो भयम्। लक्ष्मी गलयोनादौ क्षेत्रारम्भदिनक्षके" ॥ इति लागलचक्रम्। अथ वौजोतिचक्रम्। “सूर्यभादुरगः स्थाप्यस्विनाघेका. For Private And Personal Use Only Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम् । ६८५ न्तरक्रमात् । मुखे त्रौणि गले त्रौणि भानि द्वादश तूदरे ॥ पुच्छे चतुर्वहिः पञ्च दिनभाच्च फलं वदेत् । वदने चोचकं विद्यात् गलकेऽङ्गारकस्तथा ॥ उदरे धान्यवृद्धिः स्यात् पुच्छ धान्यच्चयो भवेत् । इति रोगभयं राज्ये चक्रे वौजोप्तिसम्भवे ॥ सूर्यभात् सूर्यभुज्यमानमचत्त्रात् । त्रिनाये कान्तरक्रमादिति यद्यश्विन्यां रविस्तदा तामारभ्य गणयेत् । त्रिनाडीषु अश्विनीभरणौकृत्तिका दत्त्वा रोहिणी वहिः काय्र्या मृगशिरस आर्द्रा पुनर्वसु नाड़ीषु दवा पुष्यो वहिः कार्यः एवं क्रमेणान्या लेख्याः । चोचकं शस्यशून्यताम् । इतयः । " अतिवृष्टिरनादृष्टिः शलभा मूषिकाः खगाः । प्रत्यासन्नाच्च राजानः बड़ेते ईतयः स्मृताः ॥ इति वौजोप्तिचक्रम् । अथ वृषचक्रम् । “वृषचक्रं वृषाकारं सर्वावयवसंयुतम् । लिखित्वा विन्यसेङ्कानि वृषनामर्त्तपूर्वकम् ॥ मुखाक्षिकर्णशोषेषु शृङ्ग स्कन्धे किं द्दिकम् ॥ चौणि पृष्ठे दयं पुच्छेऽष्टौ पादे तूदरे त्रिकम् । इलप्रवाहवोजोप्तिप्रारम्भा दिदिनर्त्तकम् ॥ यदङ्गेषु स्थितं तस्माद्दक्ष्ये सर्वं शुभाशुभम् । आस्ये हानिः सुखं नेत्रे कर्णे भिक्षाटनं तथा ॥ शौर्षे धृतिस्तथा शृङ्गे सौख्यं स्कन्धे च मङ्गलम् । पृष्ठे कष्टं शुभं पुच्छे भ्रमः पादे सुखं हृदि । चन्द्रयोगादिदं प्रोक्तं वृषचक्रफलं बुधैः ॥ इति वृषचक्रम् । दौपिकायाम् । “पूर्वाग्नियाम्यफणिपित्रशिवान्यभेषु रिक्शाष्टमोविगतचन्द्रतिथिं विहाय । हाङ्गानिगोसमुदाये विकुजार्किवारे शस्तेन्दुयोग करणेषु इलप्रवाहः । इलप्रवाहवडोजवपनस्य विधिः स्मृतः । चित्रायाञ्च शुभे केन्द्रे स्थिर खमनुजोदये" ॥ भीमपराक्रमे । “वामे कृष्णं वलीवद्द दक्षिणे लोहितं न्यसेत् । उत्तराभिमुखो भूत्वा कर्षकः कृषिमारभेत् ॥ ५८ For Private And Personal Use Only Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६८६ ज्योतिस्तत्त्वम् । हले तु योजिते यत्र क्षेत्रे ग्रासं करोति गौः। तत्र स्याहिगुणं शस्यमवश्यं गर्गभाषितम्” ॥ सत्यचिन्तामणौ वलभद्रः । "सुखदः प्रतिपञ्चैव हितौया कार्यसाधिनी। आरोग्यदा तौया च चतुर्थी कौटक्कत् सदा ॥ पञ्चमौ श्रीपदा नूनं षष्ठौ च कलहप्रिया। सप्तमौ स्थानदा भोग्या वृषं हन्ति तथाष्टमी। नवमौ शस्यनाशाय दशमो भूतिदा सदा। एकादशी तथा कुर्याधनं धान्यं मनोरथम्। बादशौ प्राणसन्देहा सर्वसिद्धा त्रयोदशी। चतुर्दशौ पति हन्ति पञ्चदश्येव निष्फला । अमावास्याष्टमी षष्ठी रिक्ता च परिवर्जयेत् । सौरिभौमदिने चैव कृष्थारम्भे धनक्षयः । प्राजेश विष्णु तिष्थेषु पिटकरोत्तरेषु च अखिनौ वातपौष्णेषु मूलादितौन्दुभे तथा। वारे भानुजशुक्रे च जौवे शीतकरे तथा। लग्ने स्त्रोगीमोनयुग्मे कष्थारम्भं शुभं विदुः । ऐशान्यां पुष्यनैवेद्यैः क्षेत्रपालञ्च पूजयेत्। सालङ्कारो इलधरः सम्भिश्च पूजितं इलम् । दध्याज्यमधुभिः श्रेष्ठं फालाग्रञ्च प्रलेपितम् । कर्ष प्रावतयेत् प्राज्ञो नतनेन हलेन च। इस्ताखितिष्थचन्द्रेषु ब्रह्मेन्द्रविष्णुवारुणे। वायव्येन्द्राग्निभे चैव रोहिण्यामुत्तरासु च । वारे जौवज्ञशुक्रे च सोमे दिन करे तथा। युग्मे युवति गो मौने शस्त स्याहौजवपनम् ॥ राजमार्तण्डे । “प्राजेशश्रवणोत्तरादिति मघा मार्तण्डतिष्थाखिनी पौष्णानुष्णमरौचयः शतभिषा स्वातिविशाखा तथा । जौवार्केन्दुसितेन्दुनन्दनदिने वारे स्थिरस्योदये शस्यानां वपने भवन्ति लवने शस्त तिथौ रोपणे”। देवलः। “गुरुसोमसूर्य शुक्राः क्षेस्या: सम्पत्करा: शुभाः। बुधार्किभूमिपुत्राश्च न भवन्ति फलप्रदाः । इन्ति मेषः पशून् सर्वान् स्वभावेनाथ हश्चिकः। कर्कटे न भवेत् सौख्यं तुलायां न प्ररोहलि। केशरी शस्त्रघातौ स्यात् पाथिबोपद्छ', For Private And Personal Use Only Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम् । ६८७ धनुः ॥ मकरे चैव कुम्भ च भयमेव विनिर्दिशेत् । गोस्त्रीमन्मथ मौनेषु शस्यं सम्पद्यते महत् ॥ प्रशस्ते चन्द्रतारे च शुचिः शक्त ेन वाससा । स्नात्वा गन्धैश्च पुष्पैश्च पूजयित्वा विधानतः ॥ पृथ्वीञ्च ग्रहसंयुक्तां पूजयित्वा प्रजापतिम् । अग्नि प्रदक्षिणीकृत्य दौयते भूरिदक्षिणा ॥ कृष्णौ वृषौ नियोक्तव्यो नवनीतैर्धृतेन वा । मुखपाखं तयोर्लिप्यात् फालाग्रं कनकैः स्पृशेत् ॥ उत्तराभिमुखो भूत्वा चौरेणाय प्रदापयेत् । ततः शुभकरः श्रीमान् कृषिकर्म समाचरेत् ॥ वर्जयेद्भग्नशृङ्गञ्च क्षुरभग्नञ्च वर्जयेत् । विकलं छिन्नलाङ्गलं कपिलं वृषभं तथा ॥ हलप्रवाहनं कार्य्यं नौरुग्भिः कृषिकर्मकैः । हलादिभिर्हः क्षेमं कुदैर्न शुभ वदेत् ॥ वृषभा यदि मुह्यन्ति तस्य विघ्नप्रदा भवेत्” ॥ कृषिरिति शेषः " तस्मात् सर्वप्रयब्रेन निर्विघ्न कारयेत् सदा । एका जयकरौ रेखा टतौया चार्थदायिका ॥ पञ्चमी या भवेद्रेखा बहुशस्यफला हि सा । श्रत ऊई न कर्त्तव्यं महादोषस्ततो भवेत् ॥ संपूज्याग्निं हिजं देवं कुय्याडल प्रवर्त्तनम् । हेमनिष्टष्टफालाग्र किन्नरेखां न कारयेत् ॥ स्मर्त्तव्या वसवश्वेन्द्रः पृथूरामः सचन्द्रमाः । पराशरो बलभद्रः सर्वविघ्नोपशान्तये ॥ इले प्रवाद्यमाने तु कू उत्पद्यते यदि । गृहिणी म्रियते तस्य ततोऽग्नेश्व भयं भवेत् ॥ लाङ्गलं भिद्यते चापि प्रभुस्तत्र विनश्यति । ईशाभङ्गो यदा कर्त्तुः संशयो जीवितस्य च ॥ सुतनाशी युगाभङ्गे समौने म्रियते सुतः ॥ समौने योक्तबन्धनकाष्ठदये । "योक्तच्छेदे तु व्यासङ्गः शस्यहानिश्च जायते । हले प्रवाह्यमाने तु गौरेकः प्रपतेद् यदि ॥ प्रपतेन्मुक्तमात्रस्तु बन्धनं स प्रपद्यते । ज्वरातिसाररोगेण कृषिभङ्गं विनिर्दिशेत् ॥ प्रवाहमुक्कमात्रस्तु ततो गौः प्रपतेत् यदि । वत्सालीढेन नर्दन्ति For Private And Personal Use Only Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम् । ततो शस्य चतुर्गुणम् ॥ हेमवारिविलिप्तस्य वौजस्योन्नयतः शुचिः। इन्द्रं चित्ते निधायाथ स्वयं मुष्टित्रयं वपेत् ॥ कृत्वा चान्योन्यप्रोत्साहं नर्तको दृष्टमानसः । प्रानखः कालसं गृह्य इमं मन्त्रमुदीरयेत् ॥ त्वं वै वसुन्धरे सौते बहुपुष्प फलप्रदे। नमस्ते मे शुभं नित्यं कृषि मेधां शुभे कुरु ॥ रोहन्तु सर्वशस्यानि काले देव प्रवर्षतु। कर्षकास्तु भवन्त्यग्रा धान्येन च धनेन च स्वाहा” ॥ कृत्यरत्नाकरे ब्रह्मपुराणम् । “चैत्रे च कृष्णपञ्चम्यां काश्मौरा च रजस्खला। नित्यं भवति तस्मात्तां कत्वा शैलमयों स्त्रियम् ॥ अभ्यङ्गवस्त्रनैवेद्यः पूजयेच्च दिनत्रयम् । पुष्पालङ्कारधूपैश्च गोरसं वर्जयन्ति च” ॥ काश्मौरा पृथ्वो। “अष्टम्याञ्च तत: स्नाप्य ताभिरेव रहे रहे। सुनाताभिः प्रहृष्टाभिर्जीवपत्नोभिरेव च ॥ अनन्तरं हिजः स्नाप्य सौषधियुतै लैः । गन्धै:जैस्तथा रत्नैः फलैः सिद्धार्थ कस्तथा ॥ नापयित्वा च तां देवीं गन्धैर्माल्यैश्च पूजयेत् । तांबवेदितशिष्टन्तु प्राशितव्य रहे राहे ॥ अतःपरं नाता गर्भ गृह्णाति ऋतुम। दनौ” ॥ तथा "ब्रह्मा विष्श्व रुद्रश्च काश्यपः सुरभीरहे। इन्द्र प्रचेता: पजन्यः शेषश्चन्द्रार्कवयः ॥ वलदेवे इलं भूमिहषभं रामलक्ष्मणौ। रक्षोनी जानको सौता युगं गगनमेव च ॥ सौता लागलपद्दतिः। युगं युगकाष्ठम् । "एते हाविंशतिः प्रोक्ता प्रजानां पतयः शुभाः। गोमङ्गले तु संपूज्याः कथारम्भे महोत्सवे॥ अयै : पुष्पेश्व धूपश्च माल्यै रत्नैः पृथक् पृथक् । इलेन बाइयेमिं स्वयं म्रात: स्त्रलङ्कतः ॥ तथा। “उप्ता वौजन्तु तत्रैव भोक्तव्यं बान्धवै: सह ॥ वौजवपनं प्राजापत्यतीर्थेन यथा हारीतः। “कनिष्ठायाः पश्चात् प्राजापत्यमावपनं होमतर्पणे प्राजापत्येन कुर्यात्” इति । राजमार्तण्डे। “नित्य दश हले लक्ष्मीनित्य पञ्च हले For Private And Personal Use Only Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम् । ६८ | धनम्। नित्यश्च विहले भक्त नित्यमेकहले ऋणम् ॥ होमतर्पणे लाज होमसनकादितर्पणे पराशरः । "वैशाखे वपनं श्रेष्ठं मध्यमं रोहिणी रवौ । अतः परस्मिन्रधमं न जातु श्रावणे शुभम् । ज्योतिषे । “पूर्वभाद्रपदा मूलं रोहिण्युत्तरफल्गुनौ । विशाखा शतभिषा वाथ धान्यानां रोपणे वरा ॥ सदोप्ता रजनीं नोलीं पुत्रवित्तैर्वियुज्यते । स्वयं जाते पुनस्ते हे पालयन्नैव दुष्यति ॥ पारामे गृहमध्ये वा मोहात् सर्षपमावपन् । पराभवं रिपुर्याति ससाधनधनचयम् ॥ निशा नौलो पलाशच विश्वा वेतापराजिता । कोविदारय सर्वत्र सर्वं निघ्नन्ति मङ्गलम् ॥ निशा हरिद्रा कोविदारको रक्तकाञ्चनः । “ हेमाम्भसा वृक्षवीजं नातो मन्त्रेण रोपयेत् । वसुधेति सुशीतेति पुण्यदेति धवेति च ॥ नमस्ते शुभगे नित्यं द्रुमोऽयं वर्द्धतामिति । श्ररिष्टाशोकपुन्नागवकुलाम्म्रप्रियङ्गवः ॥ माङ्गल्याः पूर्वमारामं रोपणौया गृहेषु च । अश्वत्थमेकं पिचुमर्दमेकं हो चम्पकौ चौण्यथ केशराणि ॥ तालाष्टकं श्रौफलसप्तकञ्च पञ्चाम्ररोपौ नरकं न पश्येत्” ॥ दानरत्नाकरे देवौपुराणम् । “ ये च पापा दुराचाराः श्रतरुच्छेदकारिणः । तेऽप्यवौच्चादिनर के पच्यन्ते ब्रह्मणो दिनम् ॥ मृतास्ते जौव्यमानास्तु ब्रह्मनकोर्त्तिता भुवि । तस्मिन् देशे भयं नित्य राजानो न चिरायुषः । न च नन्दत्ययं लोके यत्र श्रीफल - भेदिनः ॥ श्रतरुर्विल्वः । " लिखित्वालक्त केनापि मन्त्र शस्येषु बन्धयेत् । न व्याधिकोटहिंस्राणां भयं तत्र भवेत् क्वचित् ॥ सिद्धिः प्रचलतरङ्गतरलित मृदुतरसमोरण वनोद्देशे श्रीमद्रामभद्रपादाः कुशलिनः समुद्रतटे नानाशतसहसवानराणां मध्ये खरनखरपञ्चोईलाङ्गूलं पवनसुतं वायुवेगं परचक्रप्रमथनं श्रौमहनूमन्तमाज्ञापयन्ति अमुकस्याखण्ड क्षेत्रे वाता । For Private And Personal Use Only Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६८० ज्योतिस्तत्त्वम् । भोऽम्भोगान्धौरुतौपाण्डर मुण्डोधूलो शृङ्गारतल्पाक्षराताफड़िङ्गा एलावानरा गरुड़ा इमडुकमहिषादिरोगम् । खण्डयतक्षणमपि विलम्ब माचरतः विलम्बं कारयत तदा युष्मान् शतखण्ड कारयामीति । त्रां घ्रीं ह्रीं श्रीरामाय नमः ॥ इति शस्येषु बन्धयेत् । अथ मुष्टिग्रहणम् । दौपिकायाम् " याम्याजपादाहिधनानलतीयशक्रचित्र तरेषु कुजार्कजवारवर्जम् । शस्तेन्दुयोग करणेषु तिथौ विरिक्त धान्यच्छिदिः स्थिरनरख मृगोदयेषु ” ॥ वलभद्रः । “रेवतौहस्तमूलेषु श्रवणे नागयाम्ययोः । पिटदेवे तथा सौम्ये धान्यच्छेदं मृगोदये” ॥ अथ धान्यच्छेदनप्रकारः । “सपत्त्रौ मासमुहौ च यवधान्ये सकाण्डके । विन्द्यात्तिलञ्च निष्पत्त्रमेतत् पाराशरं मतम् ” ॥ पराशरः । " न मुष्टिग्रहणं कुर्य्यात् कदा चिवटपौषयोः । ईशाने लवनं कुय्यात् साईमुष्टियं शुचिः ॥ पौष्णे पुष्ये शुभा हे वा पूजयित्वेष्टदेवताम् । शस्यविघ्नप्रशान्त्यर्थं क्षेत्र वा हव्यभोजनम् ” ॥ वौधायनः । " रथाश्वगजाधान्यानां गवां चैव रजः शुभम् । अथाशस्तं समूहिन्या: खाजाविखरवायसाम्" | समूहिनौ संमार्जनो | कत्यचिन्तामणौ मेधिरोपणम् । "वटच सप्तपर्णश्च गम्भारी शाल्मलो तथा । श्रडुम्बरी तथा धात्री या चान्या क्षौरधारिणौ ॥ स्त्रौनाम्नो कर्षकेर्नित्य' मेधिः काय्या फलप्रदा" | अथ वौजसञ्चयः । "हस्ता चित्रादितिस्वाती रेवत्यां श्रवणये । स्थिरे लग्ने गुरौ शुक्रे वौजं धार्य्यं ज्ञवासरे ॥ माघे वा फाल्गुने वापि सर्ववौजानि संग्रहेत् । शोषयेत्तापयेद्रौद्रे रात्रौ चोपनिधापयेत् ॥ ततश्च पुटिकां बड्ढा शोषयेच्च पुनः पुनः । स्थापयेच्च प्रयत्नेन यथा भूमिञ्च न सृशैत् ॥ दौपा For Private And Personal Use Only Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम् । ग्निना च संस्पष्टं दृष्ट्या चोपहतश्च यत्। वर्जनौयं तथा वीज यत् स्यात् कौटसमन्वितम् ॥ याम्याग्निरुद्राहि विशाखपूर्वामाहेन्द्रपित्तरभैः शुभाहे। धान्यादिसंस्थापनमेषु शस्त मृगस्थिरयङ्गरहोदयेषु ॥ सौम्यादितिमघा ज्येष्ठा अत्तरेषु च कारयेत्। मौने लग्ने शुभे चन्द्र निर्धनरवर्जिते ॥ क्षेप्तव्यं कोष्ठ के धान्यं गर्गो वदति सर्वदा। धनदाय सर्वलोकहिताय देहि मे धान्यं स्वाहा । नम ईहायै ईहादेवी सर्वलोकविवहिनौ कामरूपिणि धान्यं देहि स्वाहा। लेखयित्वा इमं मन्त्रं धान्यागारे विनिक्षिपेत् ॥ पुराणसर्वस्खे। “मन्वं लिखित्वा पत्रे च मध्ये धान्यस्य धारयेत् । पत्रच धान्यराशेस्तु मूषिकादिनिवृत्तये ॥ दक्षिणदिन खगमनं स्यादभिनवासु नारौषु। व्ययमपि शस्यफन्तानां न बधो बुधवासरे कुयात् । त्रिपुत्तर रेवत्यां धनिष्ठा वारुणेषु च । एतेषु षट्स विज्ञेयं धान्यनिष्क्रमणं बुधैः ॥ श्रवणानयं विशाखा ध्रुवपौष्णपुनर्वसूनि पुष्यश्च । अखिन्यथ ज्येष्ठा धनधान्यविवर्डि नो कथिता ॥ धान्यादिस्थापनम्। “कुम्भमासेऽपि सर्वेषां मन्दिराणामुप. क्रमम्। महर्षयः प्रशंसन्ति धान्यागारं विहाय च ॥ अत्र प्रयोगः। पौर्णमास्यन्तचैत्रौतष्णपञ्चम्यां पृथ्वी रजखला तां दिनत्रयमेकस्मिन् पर्वताकार उच्चप्रदेश सधवाः स्त्रियः प्रपूजयेयुरष्टम्यां तां नापयित्वा ताः पूजये युः। ततः शुभदिने वौजवपनदिने वा सर्वौषधिगन्धवौजरत्नफलश्खेतसर्षपैः पृथ्वों स्नापयित्वा गन्धादिभिः पूजयेत्। नैवेद्यशेषञ्च पश्चाभोक्तव्यम् । अथ हलप्रवाहदिने वौजवपनदिने च कृतस्नानादिराचान्तो गतं क्षेत्र कृत्वा जलेनापूर्य तत्र प्रजापति सूर्यादिनवग्रहान् पृथ्वोच्च पूजयेत् । “हिरण्यगर्भ वसुधे शेषस्यीपरिशायिनि । वसा म्यहं तव पृष्ठे ग्रहाणाय धात्रि मे" ॥ इति मन्त्रण For Private And Personal Use Only Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६५२ ज्योतिस्तत्त्वम् । क्षौरेणाय दद्यात् । ऐशान्यां पुष्पनेवेद्यः प्रणवादिनमोऽन्तेन ब्रह्मणे नमः नमस्ते बहुरूपाय विष्णवे परमात्मने स्वाहा इत्यनेन त्रि:पूजयेत। रुद्राय कश्यपाय सरस्वत्यै इन्द्राय तदय मन्त्रस्तु। "शक्रः सुरपतिः श्रेष्ठो वज्रहस्तो महाबलः । शतयज्ञाधिपो देव तुभ्यमिन्द्राय वै नमः" ॥ प्रचेतसे पर्जन्याय शेषाय चन्द्राय अर्काय वह्नये वलदेवाय हलाय भूमये वृषभाय रामाय लक्ष्मणाय जानक्यै सौतायै स्वर्गाय गगनाय इति हाविं शतिं पूजयेत् क्षेत्रपालमग्नि हिजच पूजयेत्। अग्निं प्रदक्षिणीकृत्य ब्राह्मणाय दक्षिणां दद्यात्। प्रामपल्लवीदनदधौनि गर्ने निक्षिप्य मृत्तिकाभिः पूरयेत् कष्टौ वृषौ नवनीतै तेन वा मुखपार्खयोनिक्षिपेत्। हलप्रवाहकान् गन्धादिना भूयित्वा हलं माल्यादिभिः पूजयित्वा दधिकृतमधुभिः फालान प्रलिप्य हेना फालान घर्षयित्वा कर्षयेत् वखिन्द्रपृथुरामेन्दु पराशरवलभद्रान् स्मरेत्। एका तिस्रः पञ्च रेखा इलेन काया: भग्नशृङ्गखुरलाङ्गन्ना: कपिलाश्च वृषा न योक्तव्या इलप्रवाहकाच समर्थाः कर्त्तव्याः इलानि नवानि दृढानि कतानि वृषभयुद्धादिक न शुभदं वृषभाणां नर्दनन चतुगुंण शस्यं मूत्रपुरोषोत्सर्गे तथा। वौजवपने विदमधिकं सुवर्णजलसंयुक्त वौजमुष्टिवयम् इन्द्रं ध्यायन् स्वयं प्राजापत्येन तीर्थेन वपेत् उभयवैव प्राङ्मुखः जलपूर्ण कलसं गृहीत्वा "वं वै वसुन्धरे सौते बहुपुष्यफलप्रदे। नमस्ते मे शुभ नित्यं कृषि मेधां शुभे कुरु ॥ रोहन्तु सर्वशस्यानि काले देवः प्रवर्षतु। कर्षकास्तु भवन्त्वना धान्येन च धनेन च स्वाहेति प्रार्थयेत्। अथ षष्टिसंवत्सरगणना। "शकेन्द्र कालः पृथगाकति २२ । प्रः शशाशनन्दाग्नि युगैः ४२८१ समेतः । शरादिवबिन्दु For Private And Personal Use Only Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८३ ज्योतिस्तत्त्वम् । १८७५। हत: सलब्धः षट्यावशिष्टाः प्रभवादयोऽब्दाः । वर्षवर्जन्तु यच्छेषं सूर्योः संपूर्य स्खोर्मिभिः । ६० । हृत व्युत्क्रमतः खाग्नितेऽशे मासकादयः” ॥ अस्यार्थः । शाकेन्द्रकाल: शक राजाब्दकाल: पृथक् प्राकृतिघ्नः २२ । हाविंशत्या परितः शशाङ्कनन्दाश्वियुगैरेकनवत्यधिकशतहयाधिकचतुःसहस्रः समेतोऽङ्कः शराद्रिवविन्दुहृतः पञ्चसप्तत्यधिकाष्टादशशतैर्यावत् संख्यं हतं शक्नोति तावता इतः कर्त्तव्यः सलब्धः पूर्वशकाब्दः शरेत्यादिना लब्धसंख्यया युतः कार्यः षध्याप्तशेषे पश्चादेषोऽङ्कः पूर्ववत् षट्याहतलब्धस्यावशिष्टे प्रभवादयः एकावशेष प्रभव:द्याद्यवशिष्टे विभवादिः वर्षवर्नन्तु यच्छषं वर्षातिरिक्तं शरादिवखिन्दुहृतावशिष्ट तत् सूर्येर्दादशभिः संपूर्य्य खोर्मिभिः षध्याहृत व्यत्क्रमत इत्यनेन षष्टिहृतावशिष्टाः अङ्का दण्डाः पष्टिहतलब्धांश खाग्निहृते त्रिंशता हृतेऽवशिष्टा अंशका. लब्बा मासाः स्यांगत। प्रभवादि वर्षाण्युपक्रम्य “पाद्या तु विंशतिब्राझो हितौया वैष्णवौ स्मृता। बतौया रुद्रदैवत्या श्रेष्ठा मध्याधमा भवेत्” ॥ भविष्यपुराणे भैरव उवाच । “षष्ट्यब्दं कथयाम्यत्र करा: सौम्याश्च ये प्रिये। संवत्सरफल मुख्यं प्रभवादौ वरानने ॥ बहुतोयास्तथा मेघा बहुशस्या च मेदिनौ । बहुक्षोरास्तथा गावो व्याधिरोगविवर्जिताः ॥ प्रशान्ताः पार्थिवाश्चैव प्रभवे परिकीर्तिताः। १। "मुभिक्षं क्षेममारोग्यं सर्वे व्याधिविवर्जिताः। प्रशान्ता मानवास्तत्र बहुशस्या वसुन्धरा। हृष्टास्तुष्टा नना: सर्वे विभवे च वरानने" । २। “रोगा बहुविधाश्चैव मनुष्था वाजिकुञ्जराः। सर्व एव प्रनश्यन्ति शुक्र वर्षे वरानने” । ३। “उन्मत्तञ्च जगत् सर्व धनधान्यसमाकुलम् । नित्योत्सवः प्रजावृद्धिः प्रमोदे जायते प्रिये"। ४ । “नौरोगाश्च निराबाधा मानवा विगतहिषः । For Private And Personal Use Only Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६८४ ज्योतिस्तत्त्वम् । बहुक्षौरास्तथा गावः प्राजापत्ये वरानने” । ५ । “निरातङ्कं जगत् सर्वं धनयौवनगर्वितम् । अङ्गिरसि प्रजाः सर्वा Co महा 1 नित्योत्लाहा वराननं " । ६ । “सुभिक्षं ममारोग्यं वर्षाकाल ं सुशोभनम् । शस्यवृद्धिं विजानीयात् श्रौमुखे सुरवन्दिते" । ७ । “बहुचौरास्तथा गावो धान्यञ्च बलवत्तरम् । जायन्ते सर्वशस्यानि भावे वर्षे वरानने” । ८ । जायते सर्वं घृततैलरसादिकम् । प्रजानाञ्च भवेद्दृडिर्यूनि संवत्सरे शुभे । ८ । “निष्पत्तिः सर्वशस्यानां मध्या वातৰि कौत्तिता । इक्षुक्षौरगुड़ादौनां प्रवलत्वं वरानने” ॥ १० ॥ "सुभिक्षं क्षेममारोग्यं कार्पासस्य महार्घता । लवणं मधुगव्यञ्च ईश्वरे दुर्लभं प्रिये । ११ । “ सुभिचं चेममारोग्यं प्रशान्ताः पार्थिवाः प्रिये । तस्करोपहतं वित्तं बहुधान्ये वरानने" ॥ १२ । “राष्ट्रभङ्गव दुर्भिक्षं तस्करैथोपपोड़नम् । जानौयाद्विग्रहं घोरं प्रमाथिनि वरानने । १३ । " जायन्ते सर्वशस्यानि मेदिनौ निरुपद्रवा । लवणं मधुगव्यञ्च महावँ विक्रमे प्रिये” ॥ १४ । “कोद्रवा : शालिमुहाञ्च मक्कुमाषास्तथैव च । महार्घ जायते सर्वं वृषे च सुरवन्दिते” । १५ । “चनकामुहमाषाश्च अन्यच्च विदलं प्रिये । महार्घं जायते सर्वं चित्रभानौ वरानने” । १६ । “ सुभिक्षं क्षेममारोग्यं विश्वञ्च निरुपद्रवम् । व्यवहारो भवेत् हृष्टः स्वर्भानौ देवपूजिते । १७ । “अतिवृष्टिय जायेत धान्यस्याथ प्रपीडनम्। शस्यं भवति सामान्यं दारुणे सुरवन्दिते” । १८ । " बहुशस्थानि जायन्ते सर्वदेशे सुलोचने । सौराष्ट्रे लाटदेशे च पार्थिवे नात्र संशयः " | १८ | "दुर्भिक्षं जायते घोरं सर्वोपद्रवसंयुतम् । अनावृष्टिः समाख्याता व्यये संवत्सरे प्रिये” । २० । “उद्यतो वर्षणे मेघी जलं नैवोपजायते । महा सर्वजिद्दषं सर्वमेव वरानने” । २१ । “कोद्रवाः शालि For Private And Personal Use Only Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम् । ६८५ मुहाथ कङ्गमाषास्तथैव च। सुलभं जायते सुस्थं जगहै सर्वधारिणि" । २२ । “अनग्निप्रवला लोका धान्यौषधिप्रपौड़नम् । जायते मानुषे कष्ट विरोधिनि न संशयः” । २३ । “सर्वाः प्रजाः प्रपौद्यन्ते व्याधिः शोकश्च जायते। शिरोवक्षोऽक्षिरोगाश्च पापाधि विकृते जनाः" । २४। “उपद्रुतं जगत् सर्व तस्करैमषिकैः खगैः। पौड़िताश्च प्रजाः सर्वाः देशभङ्गा खरे प्रिये" । २५ । मुभिक्षं क्षेममारोग्यं शस्यं भवति शोभनम् । बहुक्षौरास्तथा गावो नन्दनं नन्दने प्रिये" । २६ । “अल्पतोयास्तथा मेघा वर्षन्ति खण्डमण्ड ले। नश्यन्ति सर्वशस्यानि विजये नात्र संशयः" । २७। "क्षत्रियाश्च तथा वैश्याः शूद्राथ नटनर्तकाः। पीड़ितास्ते वरारोहे जये सर्वे न संशयः ॥२८॥ "सरोगञ्च तथा देवि दाहज्वरसमन्वितम्। अभिभूतं जगत् सवें मन्मथे सुरवन्दिते”।२८। “ोषधान्यक्षयो देवि सर्वशस्यमहायता । व्यवहाराश्च नश्यन्ति दुर्मुखे दुर्मुखाः प्रजाः"॥ ३०। “पौड्यन्ते सर्वशस्यानि देश देशे शुचिस्मिते। हेमलम्बे प्रजाः सर्वाः क्षीयन्ते नात्र संशयः । ३१ । “तस्करैः पार्थिवैश्चैव अभिभूतमिदं जगत्। अर्को भवति सामान्यो विलम्ब तु भयं महत्” । ३३ । . "विषमस्थं जगत् सर्व विरोधे भय संप्लवम्। विकारी सर्वतोपायो मम वाक्यन्तु नान्यथा" ॥३३॥ "क्वचिदर्षति पर्जन्यो देशे संच्छिन्नमण्डलः । दुर्भिक्ष सर्वसैवर्षे व्यवहारो विपर्ययः” । ३४ । “दुर्भिक्षं जायते सर्वाः मेदिनी टुष्यति प्रिये। प्लवे प्लवन्ति तोयानि पौड़िता मानवा भुवि । ३५ । "सुवर्ण रूप्यधान्यानि जगत् सर्व सुशोभनम् । ब्राह्मगार वणिजस्तुष्टाः मुभिक्षे शुभवत् प्रिये'। ३६ । “सुभिक्षं क्षेममारोग्यं हप्ता गोब्राह्मणाः प्रिये। सुस्थिताः शोमने वर्षे प्रजा: सर्वाः सुलोचने" । ३७। “विषमस्थं जगत् सर्व व्याकुलं समु.] For Private And Personal Use Only Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम् । " दाहृतम् । जनानां जायते भद्रे क्रोधे क्रोधः परस्परम् |३८| " सर्वत्र जायते क्षेमं सर्वशस्य महार्घता । विवावसौ वरारोहे कार्पासस्य महार्घता " । ३८ | " पार्थिवैर्नप सैन्यैव समस्तः खण्डमण्डले । प्रपौयन्ते जनाः सर्वाः भयभीताः पराभवे” । ४० । “हृणधान्यानि पौड्यन्ते ग्रीष्मे वर्षति वासवाः । प्लवङ्गे पौड़िताः सर्वाः प्रजाश्च सुरवन्दिते” । ४१ । “ जायन्ते सर्वशस्यानि सुभिक्षं निरुपद्रवम् । सौम्यदृष्टिर्भवेद्राजा कालिके च शुभं वदेत्" । ४२ । “सुभिक्षं चेममारोग्यं सुखच्च निरुपद्रवम् । सौम्यदृष्टिर्भवेद्राजा सौम्ये सौख्यं प्रकीर्त्तितम् ” |४३| “ तोयपूर्णो भवेन्मेघो वर्षते च दिने दिने । निरुपद्रवाच राजानः सर्वसाधारणे प्रिये” । ४४ । “ वासवो वर्षते देवि ! देशे चाखण्डमण्डले । अहिच्छत्रे कान्यकुल विरोधिकृषिनाशकृत्” । ४५ । “अभिभूतं जगत् सर्वं क्क़ शैर्बहुविधैः प्रिये । मारुतेः फलदादेव परिवारिणि शोभने । ४६ । “निष्पत्ति: सर्वशस्यानां सुभिच भवति प्रिये । प्रमाथिनि जलोहारौ जलदो मोदते प्रजाः” । ४७ । “निष्पत्तिः सर्वशस्यानां सर्वशस्यमहार्घता । घृतं तैलसमं याति श्रानन्दे नन्दिनि प्रजाः” । ४८ । " कोद्रवा : शालिमुहाच पौद्यन्ते वरवर्णिनि । सर्वोघधौनि धान्यनि राचसे निष्ठुराः प्रजाः” । ४८ । “दुभिक्ष जायते घोरं धान्यौषधिप्रपोड़नम् । अनले च समाख्यातं नात्र कार्य्या विचारणा” । ५० । “देशभङ्गः सुदुर्भिच समासात् कथयाम्यहम् । पिङ्गले चारुपद्माचि दुर्भिक्ष नर्मदातटें" । ५१ | "गोमहिष्यो विनश्यन्ति ये चान्ये नटनर्त्तकाः । वासवी वर्ष देवि शस्यञ्च न हि जायते" | "तिलसर्षपमाषादिकापसानां महार्घता । गोमहिष्यः सुवर्णानि कांस्यताम्बाद्यशेषतः ॥ तत् सर्वं देवि विक्रीय कर्त्तव्यो धान्यसञ्चयः । तेन For Private And Personal Use Only Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम् । ६८७ धान्येन लोकोऽयं निस्तरिष्यति दुर्दिनम् । पार्थिवामोषकादौनाः कालयुतो प्रपौडिनाः'। ५२। "तोयपूर्णाः स्मृता मेघा बहुशस्या च मेदिनी। निष्ठुरा: पार्थिवा देवि सिद्धार्थे च वरानने” । ५३ । “अल्पतोयघनाश्चैव कौटका: प्रवला स्मृताः । विरुद्धाः पार्थिवा देवि रौद्रे संवत्सरे प्रिये" । ५४। “दुर्भिक्ष मध्यमं प्रोक्तं व्यवहारो न वर्तते। भवेद मध्यमा वृष्टि१मतौ समुपस्थिते” । ५५ । “दुर्भिक्ष आयते लोकाः सर्वे द्रविणवर्जिताः। प्राणिनां जायते हर्षो दुन्दुभौ वरवर्णिनि” । ५६ । "महिषौगोहिरण्यादिताम्रकांस्याद्यशेषतः। तत् सर्व देवि विक्रीय कर्तव्यो धान्य सञ्चयः ॥ रक्त संवत्सरे देवि करबुद्धिनराधिपः। मानवाः करचेष्टाश्च संग्रामे रुधिरं भवेत्” । ५७। "दुर्भिक्ष मरणं घोरं धान्यौषधिप्रपौड़नम्। पापरोगो भवेदेवि रवाख्येऽमरवन्दिनि"। ५८। “रोगी मरगदुर्भिक्ष विरोधीत्तरसङ्गुलम्। क्रोधे तु विषमं सर्व समाख्यातं हरप्रिये" । ५८ । “मेदिनौ लभते देवि सर्वभूतं चराचरम्। देशभङ्गय दुर्मिक्ष क्षये संक्षीयते प्रजाः ॥ सौराष्ट्र मालवे देशे दक्षिण कोङ्कने तथा। दुर्भिक्ष जायते घोरं क्षये संवत्सरे प्रिये ॥ कौमुदी नर्मदाद्याश्च यमुना नर्मदातटम् । विध्यायां सैन्धवञ्चापि विनश्यति न संशयः ॥ सिंहलं मध्यदेशच्च कालजरं तथैव च। क्षये क्षयन्ति सर्वाणि नान्य था वरवर्णिनि" । ६० । वराहसंहितायाम् “नक्षत्रेण सहोदयमस्त वा याति येन सुरराजमन्त्री। तत्संख्य कर्त्तव्य वर्ष मासक्रमेणैव । वर्षाणि कार्तिकादौनि आग्नेयाहयानुयोगौनि क्रमशस्त्रिभञ्च पञ्चममन्त्यमुपान्त्यञ्च विज्ञेयं नक्षत्रेण गुरुभुज्यमाननक्षत्रण। प्राग्नेयं कृचिका पञ्चमं फाल्गुनं वर्षम् अन्त्यमाविनम् उपान्त्य भाद्रम् । अन्त्योपान्त्यो त्रिभौ जेयो फाल्गु For Private And Personal Use Only Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६८८ ज्योतिस्तखम् । नश्च त्रिभो मतः। शेषा मासाहिभा जेया कृत्तिकादिव्यवस्थया। हे हे चित्रादिताराणां पूर्णपर्वेन्दुसङ्गते। समाचैवा. दयो जेया स्त्रिभैः षष्ठान्त्यसप्तमाः' इति सङ्कर्षणकाण्डाच्च । पूर्णपर्वेन्दुसङ्गते पौर्णमासीयुते हे हे तार तदेकवाक्यतया पूर्ववचने पौर्णमासी लाभः । यथा मासानां पौर्णमास्यां कत्तिकादिसम्बन्धात् कात्तिकादित्वं तथा वर्षाणामपि गुरोः कत्तिकादावस्तोदयसम्बन्धात् कार्तिकादित्वं तेन कत्तिका रोहिण्यो. रेकतस्मिन् गुरोरस्तोदयेऽन्यतरलाभे कार्तिकं वर्षम् एवं मार्गशौर्षादि। पत्र वर्ष हयघटकयोनक्षत्रयोरकतरस्मिन्वस्त गतो गुरुरन्यतरस्मिनुदेति तत्र का गतिरिति चेत् कार्तिको. त्तरं मार्गशीर्ष ततः पौषमित्यादिक्रमातिरिति। फलानि च। शकटानलोपजीविकपीड़ा व्याधिशोक: वृद्धिस्तु रता. पोतककुसुमानां कार्तिके वर्षे ॥ १॥ “सौम्येऽब्देनादृष्टि मंगाखुशलभाण्डजैच शस्यमाशः। व्याधिभयं मित्रैरपि भूपामां जायते वैरम्" ॥२॥ "शुभकब्जातः पौषो निहत्तवैराः परस्परं भूपाः। द्वित्रिगुणो धान्याय : पौष्टिककर्मप्रसिद्धिः” ॥ ३ ॥ "पिटपूजापरिधिौधे हार्दच सर्वभूतानाम् । आरोग्यष्टिधान्याध सम्पदो वित्तलाभश्च ॥ ४ ॥ “फाल्गुने वर्षे विद्यात् क्वचित् क्वचित् क्षेमवृष्ट्यादिशस्थानि। दौर्भाग्य प्रमदानां प्रबलाचौरा नृपाश्चोग्राः ॥ ५॥ "चैत्र मन्दा वृष्टिः प्रियमन्न क्षेममवनिपा मृदवः। विश्व कोषधान्यस्य भर्वात पौड़ा च रूपवताम्" ॥ ६ ॥ "वैशाखे विगतभया धर्मपरा: प्रमुदिता: प्रजाः सनृपाः । यज्ञक्रियाप्रवृत्तिनिष्पत्तिः सर्वशस्थानाम् ॥ ७॥ “ज्येष्ठे ज्ञातिकुलधर्मशेणौ श्रेष्ठा नृपाः खधर्मज्ञाः। पौद्यन्ते धान्यानि च हित्वा कलशमौजानि* ॥ ८॥ "भाषाढ़े जायन्ते भस्यानि काचित् दृष्टिरन्यत्न । योगर For Private And Personal Use Only Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम् । ६८९ क्षेमं मध्य शस्यव्यया भवन्ति भूपा:" ॥ ॥ श्रावणे वर्षे क्षेमं शस्यानि पाकमुपयान्ति। क्षुद्रा ये पार्थिवास्ते पौद्यन्ते ये च तद्भताः ॥ १०॥ भाद्रपदे वस्खोजं निष्पत्ति याति सर्वशस्यश्च । न भवत्यपरं शस्य क्वचित् सुभिक्षं क्वचिञ्च दुर्भिक्षम् ॥ ११॥ "पाखयुजेऽप्यजस्र पतति जलं प्रमुदिताः प्रजाः क्षेमम्। प्राणचयः प्राणभृतां सर्वेषामर्थबाहुख्यम् ॥ "रुद्रमैत्राकतिदिविश्वदेवोनविंशतिः । ११ । १७ । ८ । १५ । ७। १३ । १८ । सप्तभिः शेषितच्छाकात् क्रमाहर्षादिकं वदेत्। वर्षा धान्यं वणव शीतं धर्म समोरणम्। प्रजा. हहिं तत्क्षयच राजविग्रहमेव च ॥ रुद्रमैत्रङ्गतिथ्यद्रिविखदेवोनविंशतिः। एकादशसप्तदशनवपञ्चदशसप्तत्रयोदशोनवियतयः । तत्र सप्तभिई ते शकाब्दे एकावशेषे तहर्षे रुद्रसंख्या वर्षा मैत्रसंख्य धान्यमित्यादि। मालान्यायेन रुद्रमैत्राभ्यां क्षयविग्रही जेयौ। एवं हावशेषे मैवसंख्या वर्षादि। एवमन्यत्र । "नौवाकबुधमन्दारकाव्यचन्द्रमसः क्रमात्। राजा मन्त्री जलाधौशः शस्यपोऽद्रिहतात् शकात् ॥ अवापि मालान्यायेन सप्तहतशकाब्दे एकावशेषे जोवो राजा प्रर्को मन्त्री बुधी वर्षाधिपः शनिः शस्याधिपः झवशेषे रव्यादिरेवमन्यत्र । राजफले शौनक: मार्तण्डे । “परिशोषमेति सलिलं सोमे पयो विस्तरं चौणोजेऽपि च वर्षणं कथमपि जे च प्रभूतं पयः। पृथ्वी शस्यवती गुरौ भृगुसुते शस्यच नानाविधं मन्द प्राणिकबन्धशधवला वर्षाधिपे निश्चितम् । सम्नेशो जन्मराशौशो यस्मिन् वर्षे नृपो भवेत्। उच्चस्थो वा हर्षितो वा क्ररोऽपि शुभमादिशेत्। त्रिषु ते शाकवर्षे तु चतुर्भिः शेषिते क्रमात् । पावत्त विहि संवत्तं पुष्करं द्रोणमम्बुदम्। पावर्ती निर्जली मेधः संवतव वहदकः । पुष्करी दुष्करजलो द्रोणः शस्य. For Private And Personal Use Only Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७०० ज्योतिस्तत्त्वम् ! प्रपूरकः । पूर्वाषाढ़ां गतो भानुर्जीमूतैर्यदि दृश्यते । तदा त्रयोदशाहानि मिथुनादिषु वर्षति” ॥ भुजबलभौमे । “व्रजति यदि कुजः पतङ्गमार्गे घट इव भिन्नतलो जलं ददाति अथ भवति दिवाकराग्रतश्चेत् प्रलयघनानपि शोषयत्यवश्यम् । यावन्मार्त्तण्डसूनुश्चरति धनुरथो मन्मथं मौनकन्ये तावद्दुर्भिक्षपौड़ा भवति च मरणं क्षुत्पिपासादिघोरम् उर्वी निस्तुर्यशब्दाशवशिरपटले नर्त्तयन्ते पिशाचाः ग्रामाः शून्या भवेयुर्नरपतिरहिता ास्तिकङ्कालमाला । वक्रं करोति रविजी धरणीसुतो वा मूलहस्तमघरेवतिमैवभेषु । छत्रोपमङ्गपतनादि च सैनिकानां सर्वत्र लोक मरणं जलधौत देश: ''। यदा च सौरिः सुरराजमन्त्रिणा समेत्य तिष्ठेत् कचिट्टतमण्डले । तदाङ्गवङ्गान्धककोशलेषु त्रिभागशेषां कुरुते वसुन्धराम्। तिष्ठेतां यावदेकर्त्ते वाक्पत्यवनिजौ पदे । तावत् क्षुद्रोगसंग्रामात् प्रजानां चयमादिशेत् । श्रारभ्य शक्तप्रतिपत्तिथिं मार्गातु चैत्रकं गर्भोनोहारजलदेरिति प्राहृट्परोक्षणम् । यत्रतत्रं गतवति विधौ जायते तत्र गर्भः पश्चादस्मान्नवतिशत के चाहि तस्य प्रसूतिः” ॥ वराहः । “पञ्चम्यादिषु पञ्चषु कुम्भे के यदि भवति रोहिणौयोगः । अवमतमाधममध्यममतिमदम्भसां पातः । प्रतिपदि मधुमासे भानुवार: सितायां यदि भवति तदा स्यानिर्जला वृष्टिरब्दे । अविरतजलधारासान्द्रविन्दु प्रवाहैर्धरणितलमशेष व्याप्यते सोमवारे । अवनितनयवारे जारिष्टष्टिर्न सम्यक् बुधगुरुसितवारे शस्यमम्पत् प्रमोदः । जलनिधिरपि सौरे शुष्यते क्काम्बवृष्टिः सकलमिदमुदारेणाम्बवेद्यं पृथिव्याम् । श्राषाढ्यां पौर्णमास्यां सुरपतिककुभोवातिवातः सुहृष्टिम् । शस्यध्वंसं प्रकुय्यादिह दहनदिशो मन्ददृष्टिर्यमेन । नैर्ऋत्यां निष्फला स्यात् वरुपबहुजलो वायुना For Private And Personal Use Only Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्वम् । वायुकोपः कौवेश्यां यस्यपूर्णा भवति पमुदिता मेदिनी शम्भुनापि। रवः कर्कटसंक्रान्तौ ट्रेकाणत्रयभेदतः। आदिमध्यान्तभेदेन वर्षायाः कालनिर्णयः । विशयोजनविस्तीर्ण अतयोजनमायतम्। पाढकस्य भवेन्मानं मुनिभिः परिकौर्तितम्। युग्माजगोमौनगते शशाङ्क रविर्यदा कर्कटकं प्रयाति। जलं शताढ़ हरिकार्मुकेऽई वदन्ति कन्या मृगयोरशौतिम्। कुलौरकुम्भालि तुले शशाङ्के षड़भिश्च युक्तां नवतिं वदन्ति। समुद्रे दशभागा: स्यः षड़मागाथापि पर्वते । पृथिव्यां चतुरो भागान् सदा वर्षति वासवः। दशादिभिस्तु भागाः पूरयित्वा शतादिकम् । विंशत्या हारलब्धाङ्काः समुद्रादौ प्रकीर्तिताः"। यदा। १००। तदास ५० प ३० पृ २० यदा ५० स २५ प १५ पृ १० यदा ८० स ४० प २४ पृ १६ यदा ८६ स ४८ प २८ रेखात्रयम्। पृ १८ । रेखैका एवमाढ़ का जेयाः। साईदिनहयं कृत्वा पौषे पौषादिना बुधः । गणयेत् कालिकों दृष्टिमवृष्टिं वानिलक्रमात्। मतान्तरञ्च चापे च मौने परिवृत्तशाके। ज्येष्ठ शुचौ कर्कटके च सिंह कन्यातुलायां मकर च कुम्भे मार्गे स्वयं शुध्यति पौषमासः । शुचेनिशांश प्रथमेऽतिवृष्टिः शस्यानि सर्वाण्युपयान्ति सिद्धिम् । आये हितोये तिलमुगमाषा भागे तौये खलु शारदानि । चित्राखातौविशाखासु ज्य हे मासि निरभ्रता। तारखेव श्रावणे मासि यदि वर्षति वर्षति। शुचौ शुक्ल नवम्याचेत् उदेत्यर्को निरभकः। परिवेशो मध्यदिने चास्तं यातो घनाकृतः । वयं हिकमर्थकं पा दृष्टिमिष्टां समादिशेत्। अश्लेषायां गवो भानुमंदि वृष्टिं न मुञ्चति । मघापञ्चकमासाद्य करीत्येकार्णवां महीम्। चतुर्थी कर्कटस्या दृष्टिर्जानपदे यदि। विफलाः सर्वसंक्त शाः कर्षकाणां भवन्ति च । वृष्ट द्युभागे प्रथमे सुदृष्टि For Private And Personal Use Only Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७०२ ज्योतिस्तत्वम् । मवेत हितीये तिलकोटसर्पाः। दृष्टिस्तु मध्यापरमागहष्टनिश्छिद्रष्टिस्तु निशाप्रहत्ते। खातोमवेन्द्ररुद्रेषु प्राजापत्यो. तबासु च। सञ्चरन् जलदान् इन्ति भौमः संवर्तकानपि । चित्रां गते भृगौ जौवे सौरियुक्तोऽम्ब वर्षणम्। शुभायुक्तसिंहकुजे शोषं याति महाधनः। पापवर्षशुभायुक्ता तुलाशुको महार्घता। प्राकृषि शीतकरी भृगुपुवात् सप्तमराशिगतः शुभदृष्टः। सूर्यसुतानवपञ्चमगो वा सप्तमगर जलागमनाय । श्रीपतिव्यवहारनिर्णये। "माधे मासि च सप्तम्यां पञ्चम्यां फाल्गुनस्य च। चैवस्य तौयायां वैशाखप्रथमेऽहनि मेघस्त्र गर्जितं श्रुत्वा जलदस्य च दर्शने। प्रारभ्य चतुरो मासान् सम्यग्वर्षति वासवः ॥ सप्तम्यां स्वातियोगे यदि भवति नभो दृष्टचन्द्रार्कतारं विजेया प्राड़ेषा बहुजलविपुला सर्वशस्यानु. कूला। वर्षप्रश्ने सलिलराशिमाश्रित्य चन्द्रो लग्नं यातो भवति यदि वा केन्द्र गः शुक्लपक्षे। सौम्यदृष्टः प्रचुरमुदकं पापदृष्टोऽल्यममः माहटकाले सृजति हितदा चन्द्रवत् भार्गवोऽपि । प्रश्नात् सद्यो दृष्टिज्ञानम्। “यद्ये कराशौ वसतः सितेन्दुनो पयोऽतिपूर्णी कुरुते वसुन्धराम्। तयोश्च मध्ये यदि पद्मबान्धवो न संशयं शोषमुपैति मेदिनी। विनोपघातेन पिपौ. लिकानामण्डोपसंक्रान्तिरहिव्यवायः। द्रुमादिरोहच भुजङ्गमानां वृष्टिनिंदानानि गवां मतानि। रथ्यायां शिशवः सेतून् रवान् भेकांश्च कुर्वते पवनच यदा शौतो वात्यायाश्च विव नम्। गवां निरीक्षणं व्योनि तदाखेव प्रवर्षति । भौमपराक्रमे । “तरुशिखरषु गताः ककलासा गगनतलस्थिरष्टिः निपाताः। यदि गवां निरौक्षणमूर्द्धनिपतति वारिपतनमचिरेण। यदि स्थिता सहपटलेषु कुक्क रा रुवन्ति वा यदि विततं दिवोन्मुखाः दिवातलं मुदित पिनाकिदिङ्मुखा तथा For Private And Personal Use Only Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्वम् । क्षमा भवति मलौघसंलता निदाधवातातप उष्णधौतले रटन्ति मण्डकशिवाहिचातका: मयरकण्ठद्युति सूर्यमण्डले दिनत्रयं वा विपतन्ति भूतले" । वृहस्पतिः । “कुषौदं कृषिवाणिज्य प्रकुर्वीता स्वयं कृतम्। पापल्काले स्वयं कुर्वन्नसा लिप्यते हिजः ॥ राजे च दत्त्वा षड्भागं देवतानाच विंशकम् । त्रिंशद्भागच्च विप्राणां कृषि दत्त्वा न दोषभाक् ॥ तथा "मूषितं घातितं यत्र सौमायाश्च धमन्ततः । प्रकृतोऽपि भवेत् माक्षी प्रामस्तव न संशयः ॥ हारीतः। “अष्टागवं धर्महलं षड्गवं जीवितार्थिनाम्। चतुर्गवं नृशंसानां हिगवं ब्रह्मघातिनामिति विष्णुधर्मोत्तरे पाठः। “अहः पूर्वे हियामं वा धयाणां वाहनं स्मृतम्। विधामन्मध्यभागे च भागे चान्ते यथासुखम् ॥ उशनाः। “गोभिः प्रणाशितं धान्यं यो नरः प्रतियाचते। पितरस्तस्य मानन्ति नानन्ति च दिवौकसः ॥ ज्योतिषे । “शपूरीरवं मूल्यं पक्षादौ लक्षयेद्दधः। उक्तमूले समं विद्याच्छषे धान्यमध:क्रयः ॥ हस्ताशतभिषा पूर्वादि. वयरोहिण्यः । उत्तरादित्यवत्तिकामूलारेवत्यः होत्यायक्षरात् सूचिताः । रवी शनी कुजे वारे पौषे दर्शो भवेट यदि। तदा धान्यस्य मूलं स्यादेकहित्रिगुणं क्रमात् ॥ दर्श पौषस्य रात्रौ चेत् ज्येष्ठामूलाजलानि च । क्रमान्मल्यविद्धिः स्यात् धान्यानां वत्सरे तथा ॥ संक्रान्ति ऋक्ष तिथिवारयुक्त द्रव्याक्षरं रामहृतं भवेत्तु। एके समध समतां हितीये शून्ये महार्घ मुनयो वदन्ति ॥ यमाहिशकाग्निहुताशपूर्वा नेष्टाः क्रये विक्रयणे प्रशस्ता: पोष्णाश्विचित्राशतविष्णुवाता: क्रये हिता विक्रयणे निषिद्धाः ॥ विष्णुधर्मोत्तरे। "क्षिप्राणि यानि ऋक्षाणि चराणि च मृदूनि च। वाणिज्य तानि शस्यन्ते तिथिं रितां विवर्जयेत् ॥ प्रतिपदादशौषष्ठीनचनाथि For Private And Personal Use Only Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम् । ७०४ ध्रुवाणि च । कुषीदे वर्जनौयानि दिनं सूर्यसुतस्य च ॥ क्रयविक्रयनचत्राणि । “दर्शाष्टमीभूततिथिप्रजेश पूर्वोत्तरा केशवयाम्यचित्राः । क्रूराहविष्टिव्यतिपातयोगा नेष्टा गवां विक्रयचालनादौ ॥ श्रजं यमद्दन्दमहित्रयञ्च शक्रदयं वायुयुगं महेशः । कार्य्यो न चैतेषु धनप्रयोगो मृदौ गणे ब्राह्मसृणं न देयम् ॥ धनप्रयोगनिषेधः । अथाद्भ ुतम् । अह्न ुतसागरे पाथर्वणाद्भुतवचनं प्रकृतिविरुद्धमद्भुतवचनम् । प्रकृतिविरुडम तमापदः प्राक् प्रबोधाय देवाः सृजन्तौति । तेनापज्ज्ञानाय भूम्यादौनां पूर्वं स्वभावप्रच्यवो देवकर्त्तृकोऽत इति । एवञ्च बुधोदयपर्वणि ग्रहादौनां गणितागणितत्वेन प्रकृतानामपि यदुत्पतित्वं तद्भाक्त तत्कारणञ्च गर्गसंहिता - वार्हस्पत्ययोः । “अतिलोभादसत्याद्दा नास्तिक्याद्वाप्यधर्मतः । नरापचारात्रियतमुपसर्गः प्रवर्त्तते ॥ ततोऽपचारात्रियतमपवर्जन्ति देवताः । ताः सृजन्त्यह्न तांस्तास्तु दिव्यनाभसभूमिजान् । त एव विविधा लोके उत्पाता देवनिर्मिताः । विचरन्ति विनाशाय रूपैः सम्बोधयन्ति च ॥ तां परं न दर्शयेदित्याह विष्णुः । “नोत्पातं दर्शयेदिति” । तत्र वेलानचत्रमण्डलनिरूपणम् । यथा दौपिकायाम | "प्राद्दिविचतुर्थयामेषु द्युभिशोरस तेषु सर्वेषु अभिलाग्निशक्रवरुणा मण्डलपतयः शुभाशुभाभैश्च । श्रय्र्यन्नादिचतुष्कचन्द्रतुरमादित्येषु वायुर्भवेत् देवेज्याजविशाखयाम्ययुगले पिचादये चालनः । विश्वादित्रयधाढमैत्रयुगलेष्विन्द्रो भवेन्मण्डलः सर्पोपान्त्यमृगन्त्य मूलयुगले शानेष्वपामौश्वरः । पवनदहनो नेष्टो योगस्तयोरतिदुष्करः । सुरपवरुथौ शस्तौ योगस्तयोरतिशोभनः सवरुणमरुमिश्रः शक्रस्तथाग्निसमायुतः । फलविरचितः सेन्द्रो वायुस्तथाग्नियुतोऽम्बुपः । यन्मण्डलेऽह्न ुतं For Private And Personal Use Only Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्वम् । जातं शान्तिस्तद्देवताश्रया तथा शान्तियं कार्य मण्डलहयजात" ॥ विष्णुधर्मोत्तरे। “ग्रह वैकृतं दिव्यमान्तरीक्ष निबोध मे। उल्कापातो दिशां. दाहः परिवेशस्तथैव च ॥ गन्धर्वनगरञ्चैव वृष्टिश्च विकता तथा। एवमादीनि लोकेऽस्मिन् नामसानि विनिर्दिशेत्। चरस्थिरभवं भौमं भूकम्यमपि भूमिजम् । जलाशयानां वैकृत्यं भौमं तदपि कोर्तितम् । भौमं चाल्पफलं जेयं चिरेण परिपच्यते। नाभसं मध्यफलदं मध्यकालफलप्रदम्। दिव्य तीव्रफलं जेयं शौनकारि तथैव च। शीतोष्णताविपयामो ऋतूनां रिपुजं भयम् । पुष्प फले च विक्कतें राज्ञो मृत्यं तथा दिशेत् । प्रकालप्रभवा नार्य: कालातीता: प्रजास्तथा। विक्लता: प्रसवाश्चैव युग्मप्रसवनं तथा। होनाङ्गा अधिकाङ्गाश्च जायन्ते यदि वा त्रयः । पशवः पक्षिणश्चैव तथैव च सरीसृपाः। विनाशं तस्य देहस्य कुलस्य च विनिर्दिशेत् । प्रदोषे कुक्कुटारावो हेमन्ते चापि कोकिलाः । अर्कोदयेऽर्काभिमुखः खारावो नभयं दिशेत्। उलको वसते यव निपतेहा तथा रहे। ज्ञेयो एहपतेम त्यधननाशस्तथैव च। रध्रः कङ्कः कपोतच उलकः श्यन एव च। चिनश्च चर्मचिल्लश्च भासः पाण्डर एव च। एहे यस्य पतन्त्येते गेह तस्य विपद्यते । पक्षान्मासात्तथा वर्षान्मत्युः स्याट् ग्टहमेधिनः । पत्नयाः पुत्रस्य वा मृत्यु द्रव्यच्चापि विनश्यति । ब्राह्मणाय गृह दत्त्वा दत्त्वा तन्म ल्यमेव वा। गृहौयाद् यदि रोचेत शान्तिञ्चेमा प्रयोजयेत् । मांसास्थौनि समादाय श्मशानाद ग्ध्रवायसाः। श्वाशृगालोऽथवा मध्ये पुरस्य प्रविशन्ति चेत् । विकिरन्ति एहादो च. श्मशान सा महौ भवेत्। चोरेगा हन्यते लोकः परचक्रसमागमः। संग्रामश्च महाघोरो दुर्भिक्षं मरकन्तथा । अद्भुतानि प्रसूयन्ते तत्र देशस्य विद्रवः । अकाले For Private And Personal Use Only Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम् । फलपुष्याणि देशविद्रवकारणम्" । मत्स्यपुराणे । “प्रतिष्टिरनाष्टिर्दुर्भिक्षादिभयं मतम्। अनृतौ तु दिनादूई दृष्टि जया भयाय च । निग्भ्रे वाथ रात्री वा खेत यस्योत्तरेण तु । इन्द्रायुधं ततो दृष्ट्वा उल्कापात तथैव च। दिग्दाहपरिवेशी च गन्धर्वनगरं तथा। परचक्रभयं विद्याद्देशोपद्रवमेव च। भासो वनकुक्कटः। कंसनिधनसूचने हरिवंशः । “वक्रमनारकचक्रे चिवायां घोरदर्शनः। चलत्यपर्वणि महौ गिरोणां शिखराणि च ॥ बाणोत्याते स एव । “दक्षिणां दिशमास्वाय धूमकेतुः स्थितो भवेत्। वक्रमगारकचके कत्तिकासु भयङ्करः ॥ कृत्यचिन्तामणौ। “त्यता शौचविवेकतत्त्व वसुधा लोकाः क्षुधापौड़िताः विप्रा वेदहतास्तथाप्रचलिता वह्वाशिनो दुःखिताः। क्षोणी मन्दफला नृपाथ विकला: संग्रामघोरा मही प्रेताघातदुरन्तपौड़िततरा देवेज्यरातोर्युतौ। रतो शास्त्रोद्योगो मांसास्थिवशादिभिर्मरकः। धान्यहिरण्यत्वकफन्ल कुसुमाग्रे वर्षिते भयं विद्यात्। अनारपांशुवर्षे विनाशमुपयाति तबगरम्। उपलं विना जलधरैविकता वा यदा प्रागिनो वृध्या। छिद्र वाप्यतिष्टिं शस्थानामौति संजननम्"। बुधकौशिकसंवादे। "बल्वाः प्रपाते च फलं शरटस्य प्ररोहणे। शौर्षे राजत्रियोऽवाप्तिर्भानी चैश्वर्यमेव च । कर्णयोभूषणावाप्तिर्नेबयोर्बधुदर्शनम्। नासिकायाश्च सौगम्य व मिष्टान्नभोजनम्। कण्ठ चैव थियोऽवाप्ति जयोविभवो भवेत्। धनलाभो बाहुमूले करयोधनलयः। स्तनमूले च सौभाग्यं हृदि सौख्यविवई नम्। पृष्ठे नित्यं महीलाभः पावं. योबन्धुदर्शनम्। कटिहये वस्त्रलाभो गुह्य मृत्युसमागमः । जङ्घ चार्थक्षयो नित्यं गुदे रोगभयं भवेत्। अर्वोस्तु वाह. नावाप्तिर्जानुजऽर्थसंक्षयः। वामदक्षियोः पादोभ्रमण For Private And Personal Use Only Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम् । नियतं भवेत् । बल्वप्राः प्ररोहणे चैव पतने मरटस्य च । व्यत्यासाच्च फलचैव तद्ददेवं प्रजायते । बल्वयाः प्ररोहणं रात्रौ भरतस्य प्रपातनम् । निधनार्थाय भवति व्याधिपौडा विपय्यैयौ । पतनानन्तरचैवारोहणं यदि जायते । पतने फलमुत्कष्ट' रोहणेऽन्यत् फलं भवेत् । चारोडचीड वन अधोवत े च पातनम् । भवेदिष्टफलं तस्य तत्फलं जायते ध्रुवम् । स्पृष्टमात्रेण यः सद्यः सचेलं जलमाविशेत् । पञ्चगव्यप्राशनञ्च कुयादर्कावलोकनम् । बल्वोरूप सुवर्णस्य रक्तवस्त्रेण वेष्टयेत् । पूजयेद्गन्धपुष्पाद्यैस्तदग्रे पूर्णकुम्भके । पञ्चगव्यं पञ्चरत्न पञ्चामृत स पल्लवम् । पञ्चवृक्षकषायश्च निचिप्यावाहयेत्ततः । पूजयेद्गन्धपुष्पा दोर्लोकपालांस्तथा क्रमात् । मृत्युञ्जयेन मन्त्रेण समिद्धिः खदिरैः शुभैः । तिलैर्व्याहृतिभि हममष्टोत्तरसहस्रकम् । बल्वो गृहगोधिका । मृत्युञ्जयमन्त्रस्त्यम्बकमन्त्र इति विद्याकरः । गर्गसंहिताबाई स्प्रत्ययोः । "ये तेषु शान्तिं कुर्वन्ति न ते यान्ति पराभवम्। ये तु न प्रतिकुर्वन्ति क्रिययाश्रयान्विताः । दाभियाहा विमोहाहा विनश्यन्त्येव तेऽचिरात्" । पत्र निमित्तनिश्चयवतोsfaकारः अन्यथा दोष इत्याह मत्स्यपुराणम् । “भिन्नमण्डलवेलायां ये भवन्त्य,ताः क्वचित् । तत्र शान्तिद्दयं कार्य्यं निमित्ते सति नान्यथा । निर्निमित्तता शान्तिर्निमित्तमुपपादयेत्” । एतच्च तत्तद्विशेषविहितशान्तिविषयम् । अन्यथा वेलामण्डलसन्देहे शान्तिर्न स्यात् । चतएवोक्त योगियाज्ञवल्कयेन । “यत्र यत्र च संकीर्णमात्मानं मन्यते दिजः । तत्र तत्र तिलैर्होमो गायवना समुदाहृतः । गायत्रा प्रयतः शुद्धः सर्वपापैः प्रभुयते । शान्तिकामश्च जुहुयात् गायत्रौमचतैः शुचिः । हन्तुकामख नृपतेष्टतेन जुहुयात् शुचिः । सावित्रया शान्तिहो For Private And Personal Use Only Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३०८ ज्योतिस्तत्त्वम् । मां कुर्य्यात् पर्वसु नित्यशः । प्रणवव्याहृतिभ्याञ्च वाहाताहोमकर्मणि । प्रतिलोमा प्रयोक्तव्या फट्कारान्ताभिचारिके” । विश्वामित्रेणापि निमित्तसन्देहे अच्छा दौन्युक्तानि यथा । "कृच्छ्रचान्द्रायणादीनि शाभ्युदयकारणम् । प्रकाशे च रहस्य च संशयेऽनुक्त केऽस्फुटे" । मार्कण्डेयपुराणम् । "दिग्देशजनसामान्यं नृपसामान्यमात्मनि । नक्षत्रग्रहसामान्यं नरो भुङ्क्ते शुभाशुभम् । परम्पराभिरक्षाभिर्ग्रहदोषेषु जायते” । तथा । " तस्माच्छान्तिपरः प्राज्ञो लोकवादरतस्तथा । लोकवादांच शान्तीय ग्रहपीडासु कारयेत् । भूदीचानुपवासांश्च शस्तचैत्याभिवन्दनम् । कुर्य्यात् होमं तथा दानं श्राद्धं क्रोधविवर्द्धनम् । पद्रोहं सर्वभूतेषु मैत्रीं कुर्य्याच्च पण्डितः । वर्जयेदुषतीं वाचमतिवादास्तथैव च । ग्रहपूजाञ्च कुर्वीत सर्वपीडासु मानवः । एवं शाम्यन्त्यशेषाणि घोराणि दिनसत्तम । प्रयतानां मनुष्याणां ग्रहतत्यान्यनेकशः” । लोकवादाश्च तत्रैवोक्ता यथा । " श्राकाशाद्देवतानाञ्च देव्यादौनाच मौदात । पृथिव्यां प्रतिलोके च लोकवादा इति स्मृताः” । ते च सर्वभूतडाकिन्याद्यभिभवशान्त्यर्थं लौकिकौषधमन्त्रादयः विषहरौमङ्गलचण्डिका गौतादयः चैत्यचादौ चेवपालदेवतापूजा च । तथा चापस्तम्बः । “स्वौभ्योऽवरवर्णेभ्यो धन्र्मशास्त्रं प्रतीयादित्येक इति । धर्मशेषान् श्रुतिस्मृतिसदाचारष्वप्रसिद्धानिति नारायणोपाध्यायः । भूदो पात्र विना भूमौ गोस्तनं निष्पौड्य दुग्धोत्सर्गः । चैत्यः पूज्यत्वेन ख्यातो वृक्षः । तथा च बाणोत्पति हरिवंश: । "अनेकशाखचैत्यञ्च निपपात महीतले । अर्चितः सर्वकन्याभिर्दानवानां महात्मनाम्” ॥ उषतौमकल्याणौम् । अतिवादश्च पूज्यमतिक्रम्य भाषणम् । मत्स्यपुराणम्। " काकस्यै For Private And Personal Use Only Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम् । ७०८ करवश्वाव: प्रभाते दुःखदायकः। काको मैथुनकासत: खेतो वा यदि दृश्यते ॥ उलको वसते यत्र निपतेहा तथा रहे। ज्ञेयो गृहपतेमृत्युर्धननाशस्तथैव च ॥ वराहसंहितायाम् । "कौड़ानुरक्तो रतिमांसलुब्धो भौतो रजातः पतितो विहङ्गः। नासौ गृहस्थस्य विनाशहेतुर्दोषः समुत्याद्यत प्राहुरायाः ॥ ग्टहे पक्षिविकारेषु कु-चामरतर्पणम्। देवाः कपोता इति वा जप्तव्यं सप्तभिहिजैः ॥ गावश्च देया विविधा दिजानां सकामना वस्त्र युगोत्तरीयाः। एवंकृते पापमुपैति शान्तिं मृगैहिजैर्वापि निवेदितं यत्" ॥ हिजैः पक्षिभिः अपि नाऽन्यैरपि ।' भुजवल भौमे । “एकोषस्त्रयोगावः सप्ताखा नव दन्तिनः। सिंहप्रसूतिकाचैव कथिता: स्वामिघातका:" ॥ मास्यपुराणे। “अङ्गे दक्षिणभागे तु शस्तं विष्फ रणं भवेत् । अप्रशस्तं तथा वामे पृष्ठस्य हृदयस्य च ॥ लाञ्छनं पिटकं चैव ज्ञेयं विष्फ र्जितं तथा। विपर्ययेण विहितं सर्व स्त्रीणां फलं तथा ॥ अनिष्टचिङ्गोपगमे हिजानां कार्य सुवर्णेन च तर्पणं स्यात्” मिहप्रसूतिका गावः । शङ्खः। “दुःस्वप्नानिष्टदर्शनादौ घृतं हिरण्यञ्च दद्यादिति"। मात्स्य । “नमस्ते सर्वलोकेश नमस्ते भृगुनन्दन। कवे सर्वार्थसिद्यर्थ ग्रहाणाध्य नमोऽस्तु ते ॥ एवं शुक्रोदये कुर्वन् यात्रादिषु च कारयेत् । सर्वान् कामानवाप्नोति विष्णुलोके महीयते ॥ नमस्तेऽङ्गिरसां नाथ वाक्पतेऽथ वृहस्पते। करग्रहै: पौडितानाममृताय नमो नमः ॥ संक्रान्तावपि कौन्तेय यात्रास्त्रभ्युदयेषु च । कुर्वन् वृहस्पतेः पूजां सर्वान् कामान् समश्नुते ॥ वैष्णवामृते व्यासः । “ग्रहयः शान्तिकैश किं लिभ्यन्ति नरा हिज । महाशान्ति करः श्रीमांस्तुलस्या पूजितो हरिः ॥ उत्यातान् दारुणान् पुंसां दुर्निमित्तानने कशः । तुलस्या पूजितो भक्त्या For Private And Personal Use Only Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७१० ज्योतिस्तत्त्वम् । महाशान्तिकरो हरिः ॥ पत्र ब्रह्मपुराणौयो मन्त्रः । “नमस्ते बहुरूपाय विष्णवे परमात्मने स्वाहेति । छन्दोग परिशिष्टम् । “अथातो रजस्वलाभिगमने गोऽश्वभाय्यासु गमने यमजजनने विजातीयजनने वा काककङ्गग्टभ्रव कश्येनभासभिल्व कपोतानां गृहप्रवेशे महिषस्योपरि विश्रामणे एषामेव क्रियमाणे गृहद्वारारोहणे वा तेषु कल्पदृष्टेन विधिनाऽग्निमुपसमाधाय प्रायश्चित्ताण्याहुतौर्जुहोति पडताय चग्नये स्वाहा सोमाय विष्णवे रुद्राय वायवे सूर्य्याय मृत्यवे विश्वेभ्यो देवेभ्यः स्वाहेति स्थालीपाकडतान्यदिति ॥ कपोतं विशेषयति शौनकः । " रक्तपादः कपोताख्यो अरण्योकाः शुकच्छविः । स चेच्छालां विशेच्छाला समोपञ्च व्रजेद्यदि । अन्येषु गृहमध्ये वा वल्मोकस्योगमादिषु " ॥ कल्पदृष्टेन विधिना गृह्येोक्तेन प्रायश्चित्ताज्याहृतो: अद्भुतदोषप्रशमनार्थाः सप्तान्याहुतौः । अद्भुतायाग्नये स्वाहा इत्यादिमन्त्रैः तत्र स्थालीपाकेतिकत्तव्यतायां पायसचरुभिरेतेभ्यो देवेभ्यो जुहुयात् । छन्दोगपरिशिष्टम् । “पश्चात् घृतपायसेन ब्राह्मणान् भोजयित्वा गोवरं दत्त्वा शान्ति भवतीति गोवरं गोश्रेष्ठं दक्षिणां तां गां कृत्वा दोषशान्तिभवतीति” । तथाचोक्तम् । " गौर्विशिष्टतमा लोके देयेष्वपि निगद्यते । न ततोऽन्यद्दरं यस्मात्तस्माङ्गौर्वरमुच्यते " ॥ इन्दोग परिशिष्टम् । “यस्त्वषोमन्यतममापत्रः प्रायश्चित्तं न कुय्यात् तस्य गृहपतेर्मरणं सर्वस्वनाशो वा भवति तस्मात् प्रायश्चित्तं कर्त्तव्यं कर्मापवर्गे वामदेव्यगान शान्तिः शान्तिरिति" अपवर्गे समाप्तौ । वामदेव्यगानं शान्तिः काय्या प्रवृत्तिः प्रकरणसमात्यर्था । वार्हस्पत्ये । " शमयन्त्या सप्ताहात् कम्पादिक्कतं निमित्तमाखेव । श्रतिवर्षणोपवासव्रतदोचानप्यहवनानि” वराहः । “ये च न दोषं जनयन्त्युत्पातांस्तान्दतुस्वभावकृतान् For Private And Personal Use Only Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम् । ऋषिपुवकतैः लोकविद्यादेभिः समासोक्तः। तथा च मत्यपुराणम् । “ववाशनिमहौकम्पसख्यानिर्धातनिखनाः । परि. वेशरजोधमरनास्तिमयोदयाः । द्रुमेभ्योऽथ रसस्नेहमधुपुष्यफलोहमाः । गोपक्षिमदशि शिवाय मधुमाधवे । तारोएकापातकलुषं कपिलार्केन्दुमण्डलम्। अनग्निज्वलनं स्फेट धमरेणुमिवाकुलम् । रक्तपधारणा सध्या नभःक्षुब्धार्णवो. पमम्। सरितां चाम्बुसंशोषं दृष्ट्वा ग्रीमे शुभं वदेव। शकायुधपरौवेशी विद्युच्छुष्कविरोहणम्। कम्पोहर्तनवेकत्यं रसनं दरणं क्षितेः। नादपानसरसां दृष्टया भवनप्लवाः। पतनशादिगेहानां वर्षासु न भयावहम् ॥ हरिवंशे वर्षावर्णनायाम्। “क्वचित् कन्दरहासाढ्य शिलौन्धाभरणं कचित्" इति दर्शनात् वर्षास शिलौन्धोहमो न भयावहः । "दिव्यस्त्रीभूतगन्धवं विमानातदर्शनम्। ग्रहनक्षवताराणां दर्शनच दिवाम्बरे ॥ गोतवादिनिर्घोषो वनपर्वतमानुषु । शस्यधिरसोत्पत्तिरपापा: शरदि स्मृताः ॥ शौतानिलतुषारत्वं नर्दनं मृगपक्षिणाम्। रक्षीयवादिसत्वानां दर्शनं वागमानुषौ । दिशो धमान्धकाराच शलभा वनपर्वताः। उच्चैः सूर्योदयास्तत्व हेमन्ते शोभना मताः ॥ हिमपातामिलोत्यातविरूपा. इतदर्शनम्। दृष्ट्वाचमाभमाकाशं तारोल्कापातपिचरम् ॥ चिचागर्भोद्भवाः स्त्रौषु गोजावमृगपक्षिणाम् । पत्राङ्गुरलतानाच विकाराः शिशिरे शुभाः ॥ ऋतुस्वभावजा ह्येते दृष्टाः खतौ शुभावहाः। ऋतावन्यत्र चोत्पाता दृष्टास्ते भृशदारुणाः॥ उम्मत्तानाच या गाथाः शिशूनां चेष्टितञ्च यत् । स्त्रियो यच्च प्रभाषन्ते तत्र नास्ति व्यतिक्रमः॥ पूर्वञ्चरति देवेष पश्चादच्छति मानुषान् । नादेषिता वाग्वदति सत्या घेषा सरस्वती ॥ वृहस्पतिः । “ज्योतिर्ज्ञानं तथोत्पात. For Private And Personal Use Only Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७१२ ज्योतिस्तत्वम् । मविदित्वा तु ये नृणाम्। चावयन्त्यर्थलोभेन विनेयास्तेऽपि यत्नतः ॥ विनेया दण्डनीयाः । अथ यात्रा । मत्स्यपुराणे। "ऋक्षेषु षट्स शुद्धेषु ग्रहेष्वनु. ग्रहेषु च । प्रश्नकाले शुभे जाते परान् यायावराधिपः ॥ ऋक्षेषु षट्सु नाडौनक्षत्रेषु। दुर्ग्रहवतान्तु “अर्थो बनर्थतां याति दुर्भगाणां यथा विभो। विषमे तत्समुद्र तमस्माञ्चामृतकाझ्या । अस्मात् समुद्रमधनात्। भागुरिः । “दिगोशं हृदये ध्यात्वा गन्तव्याशामुखः स्थितः । अन्तःसमोरणे देहप्रवेशे समुपस्थिते। खस्तौति दक्षिणं पादमासनादवतारयेत्" राजमार्तण्डे। "व्रजेदिगौशं हृदये निधाय यथेन्द्रमैन्ट्रयामपराश्च तहत। सुशुक्लमाल्याम्बरभूवरेन्ट्रो विसर्जयेद्दक्षिण पादमादौ। म्रात: सिता. म्बरधरः सुमनाः सुवेश: संपूजितोऽमरगुरुविजमोदिगौशः। कत्वा प्रदक्षिणशिखं शिखिनं कृताशौर्गच्छेवरः शकुनमूचितकार्यसिद्धिः” विष्णुपुराणम् । “मानस्यपुष्पग्बाद्यैः पूज्यामनभिवाद्य च। न निष्क्रमेत् यहात् प्रानः सदाचारपरो नरः । यहाद् ग्रहान्तरं गर्गः सौम्नः सोमान्तरं भृगुः। शरक्षेपारहाजो वशिष्ठो नगरावहिः” ॥ यात्रानन्तरं वराहः । “संत्यजेजोजनागारं तथा शयनमन्दिरम् । दूरस्थं जलमध्यस्थं शयानं व्याधिपौड़ितम् ॥ गच्छन्तमपि यानस्थं ब्राह्मणं नाभिवादयेत्” ॥ वृहत्याबायां राजमार्तण्डे “प्राध्यामहानि मुनयः प्रवदन्ति सप्त याम्यामतौक शुभदानि दिनानि पञ्च। बौण्येव पश्चिमदिशि क्षितिनायकानां प्रस्थानकेषु दिवसत्रयमुत्तर स्याम् ॥ एतचायुक्तमित्याहुोराशास्त्रविदो बुधाः । यात्रां त्रिपञ्चसप्ताहा पुनर्भद्रेण योजयेत् ॥ वाञ्छितार्थफलावाप्तौ यात्रापरिसमाप्यते। जन्मः चाष्टमे चन्द्रे वारे भौमशनैश्चरे॥ प्रस्थितेऽपि न गन्तव्यमत्यस्तगहित दिने। जन्म जन्ममासे वा योग For Private And Personal Use Only Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम् । ७१३ በ छेदष्टमे विधौ ॥ प्रायुचयमवाप्नोति व्याधिश्च बधबन्धने ॥ विष्णुपुराणम् । “वर्षातपादिके छत्रौ दण्डौ रात्रप्रटवोषु च । - शरीरवाणकामो वै सोपानत्कः सदा व्रजेत् । नोई न तिय्यम्दूरं वा निरोचन् पर्यटेत् बुधः । युगमावं महोपृष्ठ नरी मच्छेद्दिलोकयन् ॥ चतुष्पथानमस्कुर्य्यात् चैत्य वृक्षं तथैव च। प्रश्न मनोरमाभूमाङ्गल्यद्रव्यदर्शनश्रवणे ॥ यदि वादरेण पृच्छति दैवन्न' निर्दिशेद्दिजयम्” ॥ यात्रा प्रश्नविधिः । “स्तनचरणतलोष्ठाङ्गुष्ठहस्तोत्तमाङ्गश्रवणवदन- नासा गुह्यरन्ध्राणि भूपः । स्पृशति यदि कराग्रेर्गण्डकव्यशकं वा द्युतिगतिशुभशब्दान् व्याहरन् शास्ति शत्रून् ” || प्रश्वे स्पर्शादिभिर्जयज्ञानम् । व्यासः । “चिरप्रवासयात्रायां गृहे कर्णस्य वेधने । चूड़ाकृतौ प्रतिष्ठायां भानुशुद्धिर्विधीयते ॥ आरोग्यमृचेण धनं चणेन काय्र्यस्य सिद्धि तिथिनाश्याश्च । राश्युह मे चाध्वनिसिद्दिमाहुः प्रायः शुभानि क्षणदाकरेण ॥ संवत्सर प्रदीपे । “सिंहे धनुषि मौने च स्थिते सप्ततुरङ्गमे । यात्रोद्दाहगृहारम्भचौरकर्माणि वर्जयेत्" ॥ एष यात्राप्रतिषेधो राजेतरपरः । " मार्गशौर्ष शुभे मासि यायादयात्रां महीपतिः । फाल्गुनं वाथ चैत्र वा मासं प्रति यथाबलम् " || इति मनुवचनात् । " श्रावणे भाद्रमासे युवतिग्टहगते चार्थलाभः प्रदिष्टो मासे पौषे तु यात्रा भवति नरपतेरर्थसिद्धिप्रदात्रौ ” इति राजमार्त्तण्डाच्च । " शुक्लाया स्याच्छुभे चन्द्रे कुजार्क भृगुराशिगे । तत्पचे शुभदा यात्रा कृष्णपक्षे ततोऽन्यथा ॥ यात्रायां पचशुद्धिः । " षष्ठाष्टमी वादशोषु न गच्छत् विदिनस्पृथि । पूर्णिमाप्रतिपद्दर्शरिक्लावमदिनेषु च ॥ तथा यामद्वितीयायां यात्रायां मरणं भवेत् । अजातचन्द्रा प्रतिपत्तिथिर्या सा सर्वथा सिद्धिकरौ न पुंसाम् ॥ कलो न चन्द्रा प्रतिपत्तिथिर्या सा सर्वदा सिद्दिकरौ नियुक्ता । For Private And Personal Use Only Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम्। प्रतिपत्सु प्रयातामा सिहिरेव न संशयः। द्वितीयायां शुमः पन्यास्त तौयायां जयौ भवेत्॥ बधवन्धनसंल शचतुर्थी नाव संशयः। पञ्चम्यामौप्सितार्थ: स्यात् षष्ठयां व्याधियुतो भवेत् । सप्तम्यामर्थलाभः स्यादष्टम्यामस्त्रपोड़नम्। नवम्यां मृत्युसंयोगान गन्तव्यं कदाचन ॥ दशम्यां भूमिलाभः स्यादेकादश्यामरोगिता। हादश्याञ्च न गन्तव्यं सर्वसिद्धा त्रयोदशौ ॥ चतुदश्यां पञ्चदश्यां गमनञ्च निषेधयेत्। संत्यजेहिवसे यात्रां सूयावार्कोन्दुवक्रिणाम् ॥ अष्टवर्गदशापाकेष्वनिष्टफलदस्य च । सूर्यदिनेऽध्वनि नाशचन्द्र शक्तिक्षयोऽर्थहानिश्च । ज्वलनासूपित्तरजः कौजे बुधे मुहृत्प्राप्तिः । जैवे धनजयलब्धिः शौके स्त्रीवस्त्रगन्धधनलाभान्॥ दैन्यबधबन्धरोगान प्राप्नोति दिने. ऽकपुत्रस्य । उपचयग्रहदिने सिद्धिः करेऽपि यायिन्यां भवति । सौम्येऽप्यनुपचयस्थे न भवति यात्रा शुभा यातुः । शुक्रादित्यदिने न वारुणदिशं न जे कुजे चोत्तरां मन्देन्दोश दिने न शक्रककुभं याम्यां गुरौ न व्रजेत् ॥ शूलानौति विलका यान्ति मनुजा ये सौख्यवित्ताशया भ्रष्टाशाः पुनराप्रतन्ति यदि ते शक्रेण तुल्या भपि। दिगौशाहे शुभा यात्रा पृष्ठाहे मरणं ध्रुवम् ॥ गर्गोऽपि। “दिगौशवारे गमनं प्रशस्त विहाय सौम्यं यदि जौविताशया॥ न वारदोषाः प्रभवन्ति रात्री विशेषतोऽर्कावनिभूशनौनाम्। गुणवति तिथा हक्षेऽनिष्टे दिवागमनं हितम्। निशि च भगुणैः शस्त यानं तिथिगुणवर्जिते" ॥ भतिथिगुणवर्जिते । “भतिथि कथितान् दोषान् प्राप्नोत्यतः प्रतिलोमगः ॥ गुणमपि तयोर्यस्मात् सम्यग्जगाद भृगुमुनिः। याम्यायने निशायात्रा शभा स्यादुत्तरे दिवा ॥ चन्द्रसूर्यो मृगादिस्थौ पूर्वी यायात्तथोत्तराम्। दक्षिण पश्चिमामाशां कर्यादौ तौ स्थितौ यदा। अन्यथा बधबधा For Private And Personal Use Only Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७१५ ज्योतिस्तत्त्वम् । दिल शमाप्रोत्यसंशयम्। योगिनी तु । "प्रतिपनवमी पूर्वे रामारुद्रास पावके । शरत्रयोदशौ याम्ये वेदामासाश्च नैऋते ॥ षष्ठी चतुर्दशौ पश्चात् वायव्यां मुनिपूर्णिमे । हितोया दशमौ यक्षे ऐशान्यामष्टमी कुहः ॥ योगिनी नवदण्डास्तु शेषा वा विशेषतः। दक्षसंमुखयोगिन्यां गमनं नैव कारयेत्। वामे शुभकरौ देवौ पृष्ठे सर्वार्थसाधनो" ॥ राहुभ्रमणचक्रम् । “पश्चाद: विधौ वह्नौ सौम्यां जे वायवे कुजे । रक्षो दिशि भृगौ याम्यां गुरावीश शनौ दिने ॥ राहुभमति यामाईदखगत्या च वामतः। प्रतीच्या वतिकोणे तु ततः सौम्यामतो स्पे॥ ततो प्राच्यामतो वायौ तस्माद याम्यां ततः शिवे। रवावेवमन्यवारेषामेवं क्रमण हि॥ दाते युद्धे विवादे च यत्रायां संमुखस्थितम्। राहु विवर्जयेत् यत्नाट् यदीच्छे त् कर्मणः फलम्” ॥ राहुसांमुख्यनिषेधः। “अखिहस्तगुरुमैत्रदेवतैः पौणविष्णुवमुशोतरश्मिभिः। यानमेभिरतिसुन्दरं विदुः सर्व एव मुनयस्तु नेतरैः ॥ चित्राश्लेषावाति विशाखा भरणौ पिशवत्तिकाः। नातिशुभदा प्रयाणे शेषाणि शुभाशुभानि धिध्यानि ॥ दग्धं शत्रपुरं सदग्निभमुदेत्यर्को न चेदुत्तरे रोहिण्याञ्च विशाखभे च न गमः पूर्वाह्नकाले शुभः। मध्याह्ने न शिवाहिमूलवलभि ष्वनिशेषेऽश्विनौहस्तापुष्थमरुत्सुचित्रशशिमैवान्त्ये न रानवादितः। रावे. मध्यमसत्तु पूर्वभरणी पित्रेषु शेषे निशो हादित्रितयादितिष्वपि जलं मध्यागरात्रात्ययोः। पुष्याहस्तमृगाच्युतेषु शुभदाः सर्वेऽप्रि कालास्तथा सार्वहारिकसंजितानि गुरुभं हस्ताखिमैत्राणि च। पूर्वाद्यग्निमघानुराधव सुभादोन्यत्र दण्डोऽन्तरे वायुग्न्योन स लव ऐक्यमनलप्राच्योस्तथान्याविदिक्। लग्ने दिग्बदनेऽतिदण्डगमन प्राच्यादि शूल विना For Private And Personal Use Only Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ०१६ ज्योतिस्तत्त्वम् । जेष्ठपदं सरोजनिलयः स्वादुत्तरा फल्गुनी” । प्रतिदह 'गमन' दण्डमुल्लङ्घय गमनम्। “दिशोरष्टमभागच विदिको गश्च कथ्यते । मेषाद्यास्त्रिभ्वमाज्ज्ञेयाः प्रागादि दिखाः ग्रहाः । शौर्षोदये समभिवान्छित काय सिद्धिः पृष्ठोदये विक लता चलचित्तता च । यातव्यदिङ्मुखगतस्य सुखेन सिवि मो भवति दिक्प्रतिलोमलग्न । केचिदाहुन यायात्तु श्रुत्यां प्राचान्तु दक्षिणे । अश्विन्यां पश्चिमे पुष्ये नोदौच्चां हस्तभे न तु | गुरुहस्ताश्विमेवाणि सर्वदिक्षु शुभं युजि । तो दिगभेददोषोsa वराहादेरसम्मतः” । नेशाजाग्निविशा खवाय्वहिमघायाम्यैः पराई न सच्चित्राह्यन्तकजं परप्रथमजं पिवप्रानिले चाखिले । राहुक्रूरयुगस्तसब्रिधितथोत्पातप्रदुष्ट च। युग्भमहिने निशि तिथावृक्षेऽप्यनिष्टे गमः । " ऋक्षे संयुतेऽन्तः प्रकोपो लक्ष्मीभ्रंशो राहुणार्केन योगः । केतुल्कानां पौड़िते देहनाथः क्कशो भौमे सोष्णरश्मात्मजे उपग्रहाख्य ऋक्षेषु वर्जयेद्गमनं नृपः । उपग्रहगतखीयजन्मर्त्ते न व्रजेत् क्वचित्" । उपग्रहाच सर्वतो भद्रचक्रे प्रागुक्ताः । “पूर्वोक्त जन्मकर्मादि नाड़ीनचत्रदोषवान् । याता शव याति विशुडो मवनाशकृत् । यात्रायां शोभनास्ताराः समाः कर्मान्त्यसंयुताः । यात्राभङ्गविधावसत्यथ भवेत् सोऽर्कात्रिकोणे विधौ । भौमाज्ज्ञादिषु वा बलिन्यध सुते गन्तव्य - दिक्पालतः " । सुते इत्यत्र शुभे इत्यपपाठ: । "यात्रादिगौशाद - यदि पञ्चमेऽन्यो गृहे ग्रहो वौर्य्ययुतोऽवतिष्ठेत् । यात्रोद्यतस्तत्र न याति याता तयोर्बलौयान्त्रयति स्व काष्ठाम्" इत्यनेन विरोधात् । “सर्वं शुभफलं नश्येद यात्राभङ्गे गतस्य च । व्यसनं प्राप्नोति महतौपातविनिर्गतोऽथवा मृत्युम् । वैष्टतिगमनेऽप्येवं वह स्पर्शऽप्युपदिशन्त्ये के” । व्यसनान्याह मनुः । “काम 1 For Private And Personal Use Only Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम् । जेषु प्रसक्तो हि व्यसनेषु महीपतिः । वियुज्यतेऽर्थधर्माभ्यां क्रोधजेष्वात्मनैव तु । मृगयाक्षो दिवास्वप्नः परोवादस्त्रियो मदः । तोत्रिकं वृथाय्या च कामजो दशको गगणः । पैशुन्यं साहसं द्रोह ईर्षास्यार्थदूषणम्। वाग्दण्डनञ्च पारुष्य क्रोधजोऽपि गयोऽष्टकः" । तौत्रिकं नृत्यगीतवाद्यानि त्रिणीति दश । पैशुन्यमविज्ञातपरदोषाविष्करणम् । साहसं साधोर्बन्धनादिना निग्रहः । द्रोही जिघांसा । ईर्षा अन्यगुणासहिष्णुता । श्रसूया परगुणेषु दोषाविष्करणम् । अर्थदूषणम् अर्थानामपहरणं देयानामदानञ्च । भौमपराक्रमे । “न विष्कुम्भो न वा गण्डो न व्यतीपात वैधृतौ । चन्द्रतारा बले प्राप्ते दोषागच्छन्त्य संमुखाः । गरवणिजविष्टिविवर्जितानि करणानि यातुरिष्टानि । गरमपि कैश्चिद्गदितं वणिजस्तु वणिक्क्रयास्त्रेव । पूर्वा तूत्तरां गच्छेत् मध्याह्ने पूर्वतो व्रजेत्। अपराह्न व्रजेत् याग्यां अर्द्धरात्र च पश्चिमाम् । नवम्यङ्गारको विष्टिः शनैश्चरदिनं तथा । व्यतीपातो न दुष्च स्यार्को दक्षिणे स्थितः । राशौ राशौ द्वादशेन्दोरवस्थाः प्रोक्ताः केचित् सुरिभिः प्रोषिताद्याः । यावोद्दाहाद्येषु कार्येषु ननं संज्ञातुख्यं तत्फलं चिन्तनौयम् । प्रवासनष्टाख्य नृताजयाख्या हास्यारतिक्रीडितसुतभुक्ताः। ज्वराचया कम्पितमूर्च्छिते द्विषट्कसंख्या हिमगोरवस्था : " । चन्द्रस्य द्वादशावस्था गणनमाह "अवप्रादिभुक्को डुधटासमूहादेदा : हताद्वाण समुद्र ४५ । भुक्तात् लब्धार्कशेषे शशिन: क्रियाद्या भवन्त्यवस्था गतगम्यरूपाः । सपादाः शूलभृद्दण्डा एकावस्था भवेत्ततः । स्खलग्न हौनान्यगुणान्वितापि प्रोतिं न यात्रा मनसः करोति । स्खलङ्कृता रूपगुणान्वितापि प्रभ्रष्टशीला वनितेव पुंसः । मौने कर्कियलनि च वृषे जन्मकालस्थपापे वामे वा दिग्बुनिश For Private And Personal Use Only ७१७ Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७१८ ज्योतिस्तत्त्वम् । 1 वलिनां जन्मलग्नाष्टमे वा वर्गे पापानुपचयकृतां वक्रिणां पृष्ठलग्ने पापान्तःस्थे न शुभमवलं जन्मलग्नानधीने” । वामे विपरीते । " घटमिथुन कुलोराच्चापगो मौनकन्या: खलु शुभभवनत्वाद्राशयः सप्त सौम्याः । अलिधटमृगसिंहाजास्तु पापाश्रयत्वान्मुनिभिरभिहितास्ते प्रायशः क्रूरभावा:" । अन्यत्र | " लग्ने कार्मुकमेषतौलिमिथुने कार्य्यं विलग्ने नृणां पञ्चास्ये मकरे तथा शनिग्टहे तद्दत्फलं वृश्चिके । सिंहे वा यदि गोधटेषु गमनं सर्वार्थसिद्दिप्रद स्यादामापतिषु प्रयाति सकलं कन्याषे मन्मथे” । तथा । " नेष्टं दिशन्ति मकराणि कुलोलग्ने मेषे घटे धनुषि दोघंकरौ हि यात्रा | युग्माङ्गना head वमर्थलाभो ज्योतिर्विदा सकलसिद्धिमुपैति लक्ष्मी: "। यात्रायां सामान्यलग्नविवेकः “मौने च कुटिलो मार्गा भवति तदंशेऽन्य राशि लग्नेऽपि । नौयानमाप्यलग्ने कार्य तेषां नवांशे वा । दिगादि बलिनो यथा । "ऐन्द्रयां मानुषराशयस्तु पशवो याम्ये सवौय्या पलिर्वारुण्यां बलयुक् तथैव बलिनः पानौयजश्चोत्तरे । सर्वे मानुषराशयो दिनबलारात्रौ स बौय्याचतुष्पादाः शेषगणास्तथैव बलिनः सन्ध्याइये कोर्त्तिताः। खराशिलग्नाष्टमन्लग्नयोश्च स्वशतुभाच्चतुग्टहोदये वा । तद्राशिगैर्वा गमनं विलग्ने तुल्य नराणां विषभक्षणेन । उपचयकरस्य वर्गः क्रूरस्यापि प्रशस्यते लग्ने । चन्द्रे वाप्युक्तन तु विपरीतस्य सौम्यस्य । याने भं जन्मराशेरुपचयमुदयारित्रिलाभच्च वेभिर्मित्र वश्यं स्वजम्म स्वनुग्टहयोर्यदुग्रहैर्मोनिरंशम् । स्थानं सौम्यस्य जन्मन्यभिमतफलदस्यापि यत्र नवच याग्यां त्यक्ताभिजिन शुभफलदखगेन्दोय या कालहोरा स्वाधिपतेदिशि राशि: लव इति यवनैः सदा कथितम् । तत् प्लवगो विनि हन्यादचिरेण महौपतिः शत्रून् सर्वधार: सर्वार्थसाधकः सर्व I For Private And Personal Use Only Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्वम् । मर्मस तथेटः। सर्वेषां वर्णानामभिजिमंजको मुहतः यात् । अष्टमो दिवस्था त्वभिजिमंतक: क्षणः । स ब्रह्मणो वरानित्यं कामफलप्रदः। चक्रमादाय गोविन्दः सर्वान्दोषावि. वन्तति । अभिजिव बुधे शस्तं याम्यान्तु गमने तथा। अन्य दिग्गमने शस्तं सर्वसिद्धिप्रदायकम्। वारप्रवृत्ते घटिका हिनिनाः कालाख्यहोरा पतयः शराप्ताः। दिने निशाया मृत्युवाणवृत्त्या निजाइनाथां पतयः प्रकल्पाः। रेखा पूर्वापरयोर्वारः सूर्योदयात् परस्तात् प्राक। देशान्तरयोजनमितविघटीभिः पादहीनाभिः। द्वादशाङ्गलिकाच्छङ्कोः समरा. विदिनाईके। छायापादानुसारेण रेखा खदेशयोजनम् । सुमेर्वादिस्तु लङ्कान्ता भूमिरेखास्ति तगतः। रोहितकमवन्तौ च तथा सबिहितं सरः। रेखादेश वनभातामपास्य खदे. शजाम्। हवा पध्या योजनानि खदेशान्तजानि वै। तत्काले तु नवहौपे दिग्बाङ्गुलशराङ्गनाः। तच्छोधनाद्भवत्यव सविंशच्छतयोजनम् । तत्पादहीनतो दण्डाइसविशत्पलाधिका । वारप्रवर्तन तस्मात् कालहोरा. विरेचनम्। दिनाधिपाद्यानिजषष्ठषष्ठाः सूर्यास्फजिजेजन्दुशनोज्यभौमाः" ॥ कर्मान्तरे तु वारप्रतिरुदयावधिरेव तथा च सूर्यसिद्धान्तः। “सूतकादिपरिच्छे दो दिनमासाब्द. पास्तथा। मध्यमग्रहमुक्तिश्च सावनेन प्रकीर्तिता। उदया. दोदयं भानो मसावनवासरा: ॥ भौमेति पिटदेवदिनव्यावृत्त्यर्थम् । अत्र दिनाधिपस्य रव्यादर्भाग्यं दिनं वाररूपं सावनगणनोक्त लोकव्यवहारोऽपि तथेति । “तिय॑गधः ऊईवदना होराः स्युः सूर्ययोगतः क्रमशः। वान्छितफलदोड. मुखौ हे शेषे चाशुभे यातुः ॥ यात्रायां होराफलम्। “सदग्रहस्य च देकाणे रत्नभाण्डान्वितेऽपि वा। फलपुष्पयुते यायाच्छुभ For Private And Personal Use Only Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७२० ज्योतिस्तत्वम्। ग्रहविलोकिते ॥ रत्नभाण्डान्वितौ यो धनुर्मध्यतुलादिमी देवाणः कर्कटाद्यश्च फलपुष्पयुतः स्मृतः ॥ नवभारी । तिग्मांशोहननाशो विलम्नसंप्राप्ते। कच्छ्रात् खग्रहगमः प्रभावमृदुता चन्द्रांशे ॥ कौजेऽग्निभयं वौधे मित्रप्राप्तिर्धना गमो जैथे। भोगविद्धिश्च शौक्रे भृत्य विनाशो रविसुतांश । यत् प्रोक्तं राश्युदये हादशभागेऽपि तत् फलं वाच्यम्" ॥ यच्च नवांशकविहितं तत्रिंशांवोदयेऽपि स्यात्। “पापः क्षोणी विधुरविदिनं यस्य जन्मपौड़ा होरा जन्माष्टमग्रहपतिर्जन्म प्रत्यनिष्टः। नौचस्थास्त गतपरजिता लग्नजन्मेशशत्रुलंग्ने नेष्टा: खचररहितं वक्रियुक्तञ्च केन्द्रम्" ॥ यात्रायां लग्नस्थग्रहनिर्णयः । शुन्य केन्द्रक्रियुक्तकेन्द्रनिशेषधश्च । होरालग्नम् । तथा च होराराश्यई लग्नयोः। विशाखानलतोयानि वैष्णवं भगदैवतम्। पुष्यः पौष्णं यम: सर्पो जन्म खर्कतः क्रमात् । अस्त गतादित्यमाह । “दिवसकरेणास्तमय: समागमञ्च शीतरश्मिमहितानां कुमुतादीनां युद्धं निगद्यतेऽन्योन्ययुक्तानाम् । रश्मिर्लोहितः श्यामः पुरुषः सूक्ष्मतारकः। अपसव्यक्कतो यश्च दक्षिणस्थः पराजितः। उदमार्गति: स्निग्धो विमलो विमलप्रमः ॥ वृद्रूपोऽतिशुलश्च विजयो कथितो ग्रहः । विपुल: स्निग्धो द्युतिमान् दक्षिणदिकस्थोऽपि जययुक्तः सर्वे नयिन उदकमंस्था दक्षिणदिक्स्यो जयो शुक्रः। ग्रहस्य यो यस्य हतस्य वश्याः पौड़ा समच्छन्ति त एव तस्य । संप्राप्त वीर्यस्य जये समृदा जयन्ति सर्वत्र मतं मुनीनाम् । रोऽप्यनुकूलस्थः शस्तोलग्ने शुभोऽपि नानिष्टः। केन्द्रत्रिकोणेषु शुभा: प्रशस्तास्त ष्वेव पापा न शुभप्रदाः स्युः। पापोऽपि कामं बलवान्वियोज्यः केन्द्रषु शून्येषु शिवा न यात्रा। स्थानेऽर्कः खस्य मृनोरुहामुपगतः शस्त इन्दुः स्वको ये भौमः सौरे बुधा. For Private And Personal Use Only Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम् । ०२१ देर शनिसितान्यस्य जीवोऽथ शुक्रः । सौम्यः स्वस्थानसंस्थः - शनिरपि तरणे रक्षका जन्म काले ॥ तालः स्यात् कारको वा सुहृदपि शुभलग्नजन्मेशयोर्यः” ॥ यात्रायां लग्नस्थग्रहाप वादः । तालानाह । “ जन्मसमये शशाङ्काद्ये ह्यपचयस्थिताः ग्रहाः केचित् । ते सर्गे तालाख्याः क्रूराः सौम्या व संचिन्त्याः ॥ लालाटिनि दिगधौशे दिग्वलिविहगे ललाटगे वापि । प्रतिभृगुजे प्रतिशभिजे कालाशुद्धौ संत्यजेद् यात्राम् ॥ यात्राईलग्न पूर्वस्यां तत्क्रमेण च खेचरान् । न्यस्य यात्रा ईदिक्स्थित्या पुरः खेटान् विलोकयेत्” ॥ एतत् स्पष्ट क्रमेण यथा । "लग्नेऽर्के व्ययलाभयो गुसुते कर्मस्थिते भूमिजे राह धर्मविनाशयो रविसुते द्यनेऽरिमूल्वोविधौ । बन्धौ ने सहजार्थयोः सुरगुरोरेवं ललाटोइवे योगे दिक्पतिभिः कृते चयभुजः प्रागादिकाष्ठां गताः । लग्न सौम्यगुरूप्राच्यां याम्यां खे कुजभास्करौ ॥ पश्चिमेऽस्त तथा सौरिं सौम्यां बन्धt विधुं सितम् । एवं दिग्वलिनो याने त्यजेद् यनाल्ललाटगान् ॥ लग्न े व्यया ये दशमेऽष्टधर्मे द्यनेऽरि मृत्वोहिबुके त्रिवित्ते | प्रतीपगा येषु सितेन्दुपुत्रौ प्राच्चादिकाष्ठासु न यातु रिष्टौ ॥ नौचगे ग्रहजिते प्रतिलोमे भार्गवे कलुषितेऽस्तगे वा । प्रस्थितो नरपति: प्रबलो वा चिप्रमेव वशमेति रिपूणाम् ॥ एवंविधेऽपि शुक्रे यायाद यदि चन्द्रजोऽनुकूलस्यः । प्रतिबुधयातस्य न परित्राण ग्रहाः शस्ताः ॥ राजमार्त्तण्डे । “सौम्यां लग्नगते बुधे शिवदिशं वाचस्पतावगमे प्राचीं तोच्णकरे कुजे च दशमे याम्यां प्रयातो नरः । श्रग्नयीं भृगुजे च शीतकिरणे बन्धुस्थिते वायवीं मन्दे सप्तमगे पश्चिमदिशं याति द्विषां वश्यताम् । नाशौचसूतकोत्सव दिवसाच यियासतां शुभदाः । उद्देगस्तपने सुखं शशधरे रोगो महौनन्दने लाभश्चन्द्रसुते गुरौ च कथितः ६ १ For Private And Personal Use Only Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७२२ ज्योतिस्तत्त्वम् । शके चलत्वं ध्रुवम्। मन्दं मन्दगतेगतागतविधौ जेया सदा पण्डितैरात्रौ पञ्चभिरति षड़भिरुदिता यात्राईयामात्मिका"। दैवज्ञमनोहरे। “वृषादो चन्द्रमा शेयो मेषादौ लग्नमेव हि। परियोज्य समं मिथ्या विभिर्भागं हरेत्ततः॥ शून्ये मृत्यु ईये हानिरेकाङ्के विजयी भवेत् ॥ इत्ये काङ्गो। भौमपराक्रमे । “दिनं तिथिं वारयुक्तं वनक्षत्रायोजितम् । सप्तभिश्च हरेशागं शेषे यात्रां विनिर्दिशेत् ॥ प्रथमे शोभना यात्रा हितोये लाभक्तद्भवेत्। तीये वित्तलाभः स्याञ्चतुर्थे सिहिरुत्तमा ॥ पञ्चमे मागविनः स्यात् षष्ठे निधनमेव च । उक्तं प्रत्ययमुनिना शून्ये श्रीः सर्वतमुखौ। अतिवलिनीन्दौ सुखगे गमनं यत्नाद्विवर्जयेन्नम्नात्। सप्ताइञ्च न यायाचिविधोत्यातेष्वनिष्टेषु ॥ वराहः। "देहः कोषो योऽधो वाह्य मन्त्रः शत्रुर्मार्गोऽथायुः। कर्ममाप्तिमन्त्री यात्रालग्नाद्भावाश्चिन्याः ॥ विलामवर्ज रविसौरिभौमा विघ्नन्ति नो कर्मणि सूर्यभौमौ। पुणन्ति सौम्याः परिहाय षष्ठमस्त भृगुम त्यविलग्नमिन्दुः ॥ केन्द्रकोणार्थगो नेष्टः क्षीणः पूर्ण: शुभः शशौ। सदैववायगः शस्तो न शस्तोऽन्त्यारिरन्धगः ॥ प्रादित्येन्दुमहौजराहुरविजैः संप्रस्थितो लग्नगैः क्षुत्तष्णा विषमव्यथामनुभवेद्रोगांश्च नानाविधान्। जौवः सोमसुतस्तथैव भृगुजो यात्रोदयस्थो यदा सा यात्रा धनभोगपुत्रसुखदा पुण्यैः कतैलभ्यते। कोषस्थाने नराणाममुरगुरुबुधे धर्मकामार्थलाभो वस्त्रोत्पत्तिच्च जोवे हृदि सुखमतुलं शत्रु पक्षक्षयच्च । पन. बन्ध सुदीर्घ क्षितिसुतसहितः कोषहानिञ्च भानुश्चन्द्रः कुर्यात् प्रयाणे प्रियजनसहितं राहुरुत्यातमुग्रम्" ॥ २॥ "प्रस्थाने भूमिपस्य चितितरविजी भानुना संप्रयुक्तौ शुक्रचन्द्रात्मजो वा सुरगुरुरथवा शौतरश्मियंदा वा। मासस्थाने स्थिताः For Private And Personal Use Only Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम् । RE A स्वर्नरपतिगमने सर्वकामार्थसिद्धि जित्वा शत्रूनशेषान् परिचरति रणे गोकुले पुङ्गवाभः " ॥ ३ ॥ " बन्धुस्थानगतो ददाति विपुलं भोगं गुरुर्भार्गवः शत्रयां क्षयमौहते नरपतेः सौख्यं तथा चन्द्रजः । हानिं कोषगतां करोति रविजः स्नेहचयं चन्द्रमा राहुर्भूमिसुतस्तोष्ण किरणः कुर्वन्ति दुःखं महत् ॥ ४ ॥ " जौवः पुत्रार्थलाभं जनयति भृगुजः सम्पदं स्थानलाभं प्रौतिं चैवोपपत्तिं कुमुदवनसुहृत् सूनुरर्थं प्रदत्ते । सूय्यैश्चन्द्रोऽथ भौमो दिनकरतनयः सिंहिकास्नुयुक्तः । सर्वे ते पञ्चमस्थाः स्वसुतभयकराः पार्थिवानां भवन्ति ॥ ५ ॥ " षष्ठस्थाने स्थिता - दिनकरतनयो भूमिपुत्रस्तथार्क: शोतांशुर्दैत्यमन्त्री रजनिकरसुतः सैंहिकेयोऽथ जोवः । कुर्वन्त्येतेऽर्थलाभं यदपि हृदि गतं सिध्यते तच्च कार्यं यत्रैषा पार्थिवानां परबलमथनौ सर्वकामादात्री " ॥ ६ ॥ " नेष्टाः शुक्रदिवाकरार्कतनया राहुस्तथा भूमिजः चिप्रं शत्रुवशं नयन्ति पुरुषं स्थाने स्थिताः सप्तमे । सौम्यो मित्रसमागमं सुरगुरुः काय्र्यार्थसिद्दि नृणाम् । चन्द्रः श्रेष्ठफलं ददाति नियतं यावोहमे भूभुजाम्” ॥ ७ ॥ " सूर्य्यो मृत्युं विधत्ते हिमरुचिरथवा शोकमुग्रं प्रदत्ते भौमो रोगञ्च बध रजनिकरसुतो भव्यदः क्लेशकञ्च । मृत्युं जीवोऽष्टमस्थः खलु दनुजगुरुः सूर्यपुत्रश्च कुर्य्यादग्ने शस्त्राद्विषादा बधमिह नियतं शस्त्रघातञ्च राहुः” ॥ ८ ॥ " शक्रोऽतिसौख्य नवमो बुधस्तु जोवोऽपि संरक्षयति प्रयातम् । चन्द्रार्कसौराः सह भूमिजेन कुर्वन्ति रोगान् सुबहून्नराणाम् ॥ ८॥ " कर्मस्थाने स्थितोSh: प्रचुरधनकरः पुष्टिः शोतरश्मिजीवः संग्रामकाले भवति विजयदः सौम्यशुक्रौ तथार्थम् । नित्यं यावोद्यतानां भवति विजयदः सर्वकार्येषु भौमो राहुर्वैकृत्यमुग्रं जनयति सरुजं दोर्घवामित्वमार्किः ॥ १० ॥ "भृगुसुतबुधजोवैश्चन्द्रसूर्या For Private And Personal Use Only Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७२४ ज्योतिस्तत्त्वम् । किभौव्रजति यदि नरेन्द्रः चिप्रमेकादशस्यैः । स जयति रिपुदर्पं स्वेच्छया वैरिशङ्को विचरति गृहमध्ये सिंहपोतो यथैकः” ॥ ११ ॥ “ रविस्तरुधिराक बुद्धिमोहं नराणां विदधति कुमुदेष्टः स्वेषु भेदेषु भेदम् । स जयति रिपुदर्पं भृत्य होनोऽप्यवश्यं यदि बुधगुरुशुक्रा दादशस्था भवन्ति ॥ १२ ॥ "तिथ्यादिषु निषिद्धेषु चन्द्रताराविलोमतः । उषां गोधूलि - योगं वा स्वौक्कृत्य गमनं भवेत् ॥ प्राच्यामुषां प्रतौच्याच गोधूलिं वर्जयेनृपः । दक्षिणे चाभिनिञ्चैवमुत्तरे च निशां तथा” ॥ व्यासः । " लग्नशुद्धिर्यदा नास्ति प्राप्तकालोऽतिवर्त्तते । श्रविशेषेण वर्णानां तदा गोधूलिरिष्यते ॥ धारक्तसन्धं रजनीविरामं वदन्त्यषायोगमिह प्रवीणाः । प्राहुः प्रयातेः सकलार्थसिद्धि संलचते हस्ततल स्थितेव ॥ सन्ध्यात पारुणितपश्चिमदिग्विभावे व्योम्नि स्फर हिरल तारकस निवेशे । रु गवां खुरपुटोद्गलितैरजोभिर्गोधूलिरेष कथितो भृगुजेन योग: " ॥ सूर्य सिद्धान्ते । " अर्थास्तमयात् सन्ध्या व्यक्तोभूता न तारका यावत् । तेजः परिहानिरुषा भानोरर्णोदयं यावत्" ॥ एतद्वचनैकवाक्यतया सन्ध्योषयोः सन्ध्या गोधूल्योरैक्यम् । अतएवोक्तं " सन्ध्या मुहूर्त्तमाख्यातं ह्रासवृद्दी समा स्मृता । लाभशत्रुसद्दजेषु यमारौ सौम्यशुक्रगुरवो बलयुक्ताः ॥ गच्छतो यदि ततोऽस्य धरित्रौ सागराम्बुवसना वशमेति ॥ धरित्रोयोगः । “केन्द्रोपगतेन गुरुणा वौचिते त्वयायचतुर्थ सिते । पापैरनवाष्टसप्तमगैर्वसुकिं न यदाप्नुयाहतः ॥ किंवसुयोगः । “शमिनि चतुर्थग्टहं समुपेते बुधसहितेऽस्तगते भृगुपुत्र । गमनमवाप्य पतिर्मनुजानां जयति रिपून् समरेण विनैव" ॥ विनासमरयोगः । “सितेन्दुजौ चतुर्थगौ निशाकरच सप्तमे । यदा तदा गतो नृपः प्रशास्त्यरौन् विना For Private And Personal Use Only Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्वम्। रणात् ॥ विनारण्योगः। “एकान्तरः भृगुजात् कुजाहा सौम्यो स्थिते सूर्यसुताद्गुरोर्वा। प्रध्वस्यतेऽरिन चिराइतस्य वेशाधिको भृत्य इवखरस्य" ॥ परिप्रध्वंसयोगः । “गुरुरुदये रिपुराशिगतोऽर्को यदि निधनेन च शौतमयूखः। भवति गतोऽत्र शशीव नरेन्द्रो रिपुवनिताननतामरसानाम्” ॥ शशिनरेन्द्रयोगः । “लग्नारिकर्महिवुकेषु शुभे क्षिते जे युनान्त्यलग्नरहितेष्व शुभग्रहेषु। यातुर्भयं न भवति प्रभवेत् समुद्र यद्यश्मनापि किमुतारिसमागमेषु ॥ शिलाप्रतरणयोगः । "मूर्तिवित्तसहजेषु संस्थिताः शुक्रचन्द्रसुततिग्मरश्मयः । यस्य यानसमये रणानले तस्य यान्ति शलभा इवास्यः" । अरिशलभयोगः। “शुक्रवाक्पतिबुधैर्धनसंस्थैः सप्तमे शशिनि लग्नगते । निर्गतो नृपतिरति कृतार्थो वैनतेयवदरौन् विनिए" ॥ अरिवैनतेययोगः। "विषमवान्त्येष्वबल: शपायान्द्रिबली यस्य गुरुश्च केन्द्र। तस्यारियोषाभरणः प्रियाणि प्रियाः प्रियाणां जनयन्ति सैन्ये" ॥. अरियोषाभरणयोगः। “वर्गोत्तमगते चन्द्र लग्ने वा चन्द्रवर्जिते। चतुराये. अष्टे नृपाहा विंशतिः स्मृताः" ॥ राजयोगः। “मेषादि. हादशराशौनां स्वीयनवांशस्थे लग्ने चन्द्रे च यत्र कुत्रापि स्थिते चन्द्रवजितैश्चतुरादिभिग्रहैवीक्षिते" ॥ अयमर्थः। हादशराशिषु लग्नस्य हादश एव स्वीयनवांशास्तत्र कुम्भ वर्जयित्वा एकादशैव स्थिता एवं चन्द्रस्यापि वृश्चिकवजनात् एकादशैव स्थानानि स्युरिति हाविंशतिः कुम्भलग्ने दोषदर्शनात् त्यागः । यथा। "न कुम्भलग्ने शुभमाह सत्यो न भागभेदान् यवना वदन्ति । वृश्चिकरामचन्द्रस्य नौचग्रहमिति चन्द्रपक्षे वृश्चिकवजैनम् ॥ सर्वैगंगनभ्रमणैट्टष्टे लग्ने, भवति महीपालः । पलिभिः शुभैः सर्वैविगतभयो दीर्घजीवी च”॥ जातकोत For Private And Personal Use Only Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६ ज्योतिस्तत्वम् । राजयोगः। "जातकोतनृपयोगगतानां प्रतिदिनं राज्यविवधिः । वातघर्णितमिवाणवयानं शात्रवं बलमुपैति विनाशम् ॥ राजयोगयात्राफलम्। “लाभार्थलग्नेषु शुभो रविश्वेद यस्यारसौरौ सहजेरिभे च। तस्यार्थकोषः समुपैति वृद्धि लोभो यथा प्रत्यहमर्थ बया" ॥ अर्थनियोगः । “लग्न गुरुर्बुधभूगू हिवुकात्मजस्थौ षष्ठी कुजातनयो दिनकृत्तृतीयः । चन्द्रश्च यस्य दशमो भवति प्रयातुस्तस्याभिवान्छितफलाप्तिरलं नृपस्य” ॥ फलाप्तियोगः। “गुरौ विलग्ने यदि वा शशाङ्के षष्ठे रवी कमंगतेऽपुवे। सितजयोबंन्धुसुतखयोश्च यात्राजनिवीव सुखानि धत्ते" ॥ यावाजनितीयोगः। “एकेन वा बुधहस्पतिभागवाणां योगो भवेअवमपञ्चमकाष्टकेषु। हाभ्यां वदन्ति मुनयोऽप्यधियोगमेव योगाधियोगमपरे त्रिभिरुद्दिशन्ति। योगेन ये नृपतयोऽरिपुरं प्रयान्ति क्षेमे गते गमनमागमनञ्च। कुर्युः। क्षेमं यशो विजयमर्थमथाधियोगे योगाधियोगगमने न जयहरिवौम्। एकस्मिवपि केन्द्रे यदि सौम्येन ग्रहोऽस्ति यात्रायाम्। जन्मनि कर्मगणे वा न शुभं प्राहुराचायाः त्रिकोण केन्द्रेषु भवन्ति सौम्या दुश्चिक्यलाभारिगृहेष पापाः। यस्य प्रयाणे तमुपैति रागादिपक्षलक्ष्मौरभिसारिकेव। महीभृतां योगवशात् फलोदयो हिजन्मनामृक्षगुणैस्तु जायते । शतन्धुरादेः शकुनिप्रभावतो जनस्थ शेषस्य मुहूर्तशक्तितः। मक्षिकाकचसिकतानुविधमनं दुर्गन्धं आयकडू रि यच्च दग्धम्। सुस्निग्धं शुचि रुचिरं मनोऽनुकूलं खाइन्नं बहुप्तिजं विजयाय यानकाले। प्राणादिकृतं तिलोदनं मत्स्यान् क्षौरमिति प्रदक्षिणम् । पाद्या नृपतियथा दिशं नक्षत्राभिहितञ्च सिद्धये ॥ एवञ्च “यात्रायां वर्जयेत् चौरं विवाद चौरभोजनम् । अवै कौड़ा दिवास्वप्न दुर्नि: For Private And Personal Use Only Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम् । ॐ. मित्तं कुभोजनम्" ॥ भोजने क्षौरवर्जनम् उत्तरदिगितर परम् । पूर्वादिप्राशनविधिः । भुजबलभौमः । “सर्पिस्तिलौदनझषैः पयसा च भुक्का पूर्वादिवारणरथाश्वनरे गतस्य । सोढुं प्रतापमरयो न नृपस्य शक्ता गन्धद्विपस्य शलभा इव दानगन्धम् । शुभाशुभानि सर्वाणि निमित्तानि स्युरेकतः । एकतस्तु मनो यातुस्तद्धि शुद्धं जयावहम् । रिक्तः कुम्भोऽनुकूलस्थः शस्त्रोऽम्भोऽर्थीयियासतः । चौय्यविद्या वणिज्यार्थमुद्यतानां विशेषतः । मेघाः शस्ता घनानिग्धा गजल हितशब्दिताः । अनुलोमातड़िच्छस्ता शक्रचापस्तथैव च । प्रशस्ते तथा ज्ञेये परिवेशप्रवर्षणे । जलजानि च पुष्पाणि देवदूर्वार्द्रगोमयम् । रूप्यताम् यवाः शस्ताः शवारुदितवर्जिताः । अनुलोमो वृषो नर्दन् धन्या गौर्महिषस्तथा । गमनप्रतिषेधाय गावः प्रत्यर सिस्थिताः । प्रागुदौच्योः शिवाः शस्ताः शान्ताः सर्वत्र पूजिताः । धूमिताभिमुखो हन्ति खरदौप्ता दिगोवरान् । मुक्तिप्राप्तिश्च सूर्य्याश्च फलं दिक्षु तथाविधम् । श्रङ्गारदौतधूमिन्यस्ताश्च मान्तास्ततो परा” ॥ दग्वादि दि निर्णयः । “विव्ययंवाग्रतः पच्चौ धुन्वन् ध्वांक्षो भयङ्करः । प्रत्युरस्युपसर्पस्तु संस्पृशं भयङ्करः । ध्वांचः पार्श्वद्दयेनापि शस्तापाचानुलोमगः । वामे शवशिवा कुम्भा दक्षिणे गोमृगद्दिजाः ॥ दौपिकायाम् | "नृहयात पवार भ्रस्त्रध्वज देहानवसूत्रयन् जयाय । सभयो विचरन् विना निमित्तं न शुभः खाभिमुखो भवन् निखनगाम् । इन्दरोमादितास्त्रस्ताः कलहामिषकाङ्गिणः । श्रपगान्तरितामत्तान् ग्राह्याः शकुनाः क्वचित् । fra: क्रोमादूई शकुनचरितं निष्फलं प्राहुरेके । तनानिष्ट प्रथमशकुने मानयेत् पञ्चवद्दा । प्राणायामान्नृपतिरशुभे षोड़व द्वितौये प्रत्यागच्छेत् स्वभवनमतो यद्यनिष्टिस्तृतीयः” ॥ मत्स्य For Private And Personal Use Only Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७२८ ज्योतिस्तत्त्वम् । पुराणे “दृष्ट्वा निमित्तं प्रथममङ्गल्यविनाशनम्। केशवं पूजा येहिहान् स्तवेन मधुसूदनम्। हितौये तु ततो दृष्टे प्रतोपे प्रविशेद् ग्राहम्। एहौति पुरतः शब्दः शस्यते न तु पृष्ठतः। गच्छति पश्चाच्छुभदः पुरस्ताञ्च विगर्हितः। उत्तानशय्यासनपादुकादि निष्ठुतिदुर्दर्शनमैथुनानि। नेष्टानि शब्दाश्च तथैव यातुरागच्छति स्वप्रविशस्थिराद्याः। विसर्जयति यद्येक एकच प्रतिषेधति । सविरोधोऽशुभायातुर्यायो वा बलवत्तरः । अनुलोमगते प्रदक्षिणसुरभो देहसुखेऽनिले गतः। तिमिरालिगभस्तिमालिरप्रसभं हन्ति बलानि विहिषाम्। ध्वजातपत्राम्बुधमनिपातक्षितौ प्रयाणे यदि मानवानाम् । उत्तिष्ठतो वाऽसुरमिति सङ्ग यातोऽथवा तपतेः याय। पौषादि चतुरो मासान् दृष्टिं दृष्ट्वा न संव्रजेत् । यस्तु संप्रस्थितो यात्रा ब्राह्मणानुपमन्यते। स्वकीयां परकीयां वा स्त्रियं पुरुषमेव च। ताड़यित्वा तु यो गच्छेत्तदन्तं तस्य जीवितम्। यात्राकाले तु संग्राले मैथुनं यो निसेवते। रोगातः क्षौणकायश्च स निवर्त्तत वा न वा। कृत्वा तु मैथुनं रात्री प्रभाते यः प्रति ते। नासौ प्रतिनिवर्त्तत दुःखच्च प्राप्नुयावरः। कटुतैलगुड़दौरपक्वमांसाशनन्तथा। भुवा यो यात्यसो मोहायाधित: स निवर्त्तते"। वराहपुराणे। "हणोदकाव्यषु वनेषु मत्ताः कौड़न्तु गावः स वृषा: स वत्साः । क्षौरं प्रमुञ्चन्तु मुखं स्वपन्तु शौतातपव्याधिभयैर्वियुक्ताः। इमं मन्वं विशुद्धात्मा जपेन्नित्यं समाहितः। गच्छन् तिष्ठन् वपन् जिवन् भुञ्जन् क्रौड़न् समुत्सृजन्। महाभयेषु सर्वेषु विषमेषु समेषु च। प्रयाणकाले च तथा श्रोतव्यमभयप्रदम् । मत्सासूक्ते "बलिकर्मणि यात्रायां प्रवेशे नववेश्मनः। महोत्सवे च माङ्गल्ये तत्र स्त्रीणां ध्वनिः शुभः”। ध्वनिरलुध्वनिः । दौपिकायाम्। सिद्धा For Private And Personal Use Only Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम् । मकादर्शपयोऽचनानि बढेकपखामिषपूर्ण कुम्भाः। उष्णीष भृङ्गारनृबद्यमानपुंयानवोगातपवारणानि" । भृङ्गारः कनका. लुका। “दधिमतरोचनाकुमा-ध्वजकन काम्बज तत्र पौठपडाः। सितषकुसुमायुवालिमौन हिजगणिकाप्तजनाश्च चारवेशाः । ज्वलितशिखिफलाक्षतेक्षुभक्ष्य हिरदमृदङ्गाङ्गश. चामरायुधानि। मरकत कुरु विल्वपद्मरागस्फटिकमणि प्रमु. खाश्च रत्नभेदाः। स्वयमथ रचितान्य यत्नतो वा यदि कथितानि भवन्ति मङ्गलानि । स जयति सकलां ततो धरित्रों ग्रहणशृगान्तमनश्रुतेरुपास्य निर्गतस्य तु हाराद्यैः” शिरसया. भिघातनम्। “छत्रध्वजादि वस्त्राणां पतनञ्च तथा शुभम्। करौशगर्भिणौ वापि भग्नभाण्डावलोकनम्। कार्पासौषधकृष्टवान्य लवालोवास्थितैलं वसापङ्गाङ्गारगुड़ाहिचर्मसकत: ल शायः सव्याधिताः। वान्तोन्मत्तजटोन्धनं टणतुषक्षत्क्षा. मतकावयो मुण्डाद्यतविमुक्त केशपतिता: काषायिणश्चाशुभाः । कुटुम्बकलहा एहज्वलनमात्तवं योषिताम्। विडालसमरं क्षुतं स्खलितमम्बरादेस्तथा। दुरुत्तामतिकोपिता महिषयोश्च युद्ध भवेत्। प्रयाणसमये नृणामभिमतार्थविच्छित्तये ॥ यान्यन मङ्गलामङ्गलानि निर्गच्छता प्रदिष्टानि। स्वप्नेऽपि तानि शुभाशुभानि विड़ लेपनं पुनर्धन्यम्। एकस्यां यदि चेद्रात्रौ शुभ वा यदि वाशुभम्” । तथा च मत्सापुराणे पुरुरवसा कृतम्। “कृतकृत्यो यथा कामं पूजयित्वा जनार्दनम्। स्वमन्त देवदेवस्य न्यवेदयत धार्मिकः” इति। दुःस्वप्राकथनं धन्यं पुनः प्रस्खापनन्तथा। प्रातःस्नान तिलोमो ब्राह्मणानाञ्च भोजनम्। स्तुतिश्च वासुदेवस्य तथा तस्य च पूजनम्। चक्षुस्पन्दं भुजस्पन्दं तथा दुःस्वप्नदर्शनम् । शत्रणाञ्च समुत्यानमवस्थ शमयाशु मे। अखत्यरूपी भगवान् प्रौयतां मे For Private And Personal Use Only Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७३० ज्योतिस्तत्वम् । जनार्दनः। मन्त्रेणानेन चाखत्थं प्रार्थयेहोषसूचने। चिन्ता दुष्टेन गोकेन व्याधिग्रस्तेन वा पुनः। कामशुष्कण चित्तेन स्वप्ने न फलभाग्भवेत्। अविज्ञातवरूपाणां नराणां ज्ञानहेतवे। स्वप्ने दृष्टानि वक्ष्यामि पुण्यपापोद्भवानि च। एव. चैषां सूचकत्वं न कारकत्वम् “पादित्यमण्डलं खप्ने चन्द्रं वा यदि पश्यति। व्याधिभ्यो मुच्यते रोगी अरोगी सुखमानयात्। दौपमन्त्र फलं वस्त्रं कन्यारत्नं रथध्वजम् । यस्तु पश्यति स्वप्रान्ते लभते चोत्तमां श्रियम्। उपानही च छवञ्च लब्धा यः प्रतिबध्यते। प्रसि वा निर्मलं तौक्षण मध्वान तस्य निर्दिशेत् । देवताश्च हिजा गाव: पितरो लिङ्गिनः स्त्रियः । यद्ददन्ति नरं स्वप्रे तत्तथैव भविष्यति। प्रारोहणं गोहयकुञ्जराणां प्रासादी लागव. नस्पतीनाम्। पारुह्य नौकां प्रतिरय वीणां भुवा कदित्वा ध्रुवमर्थलाभः । भक्षणचामांसस्य मत्मास्य पायसस्य च । दर्शनं रुधिरस्यापि सानं वा रुधिरेण च । मुरारुधिरमद्यानां पान चौरस्व शोभनम्। जोवतां भूमिपालानां मुहृदामपि दर्शनम् । उरगो वृथिकश्चैव जलौका दृश्यते यदि। तदा पुत्रादि लाभ: स्थादगम्यागमनै शुभम्। सर्वाणि शुक्लानि सुशोभनानि कार्यामभस्मास्थिकपालवर्जम् । सर्वाणि कृष्णानि विनिन्दितानि गोहस्तिदेवहिजवाजिवर्जम्। मरणं बन्धनं धन्यं वह्निदाहो ग्रहादिषु। शक्लपीताम्बरा नारौ शुक्लपौतानुलेपना। अवगृहति यं स्वप्ने तस्य स्यात् सर्वत: सुखम् । कृष्ण रक्ताम्बरा नारी रत्त कष्णानुलेपना। अवगृहति यं स्वप्ने व्याधिं मृत्युच्च निर्दिशेत। वराहक्षखरोष्ट्राणामारोहो महिषस्य च । भक्षणं पक्षिमांसानां तैलस्य कशरस्य च । नर्तनं इसनञ्चैव विवाहो गौतमेव च। तन्त्रीवाद्यविहौनानां वाद्यानामपि वादनम्। दिव्यान्तरौक्षभौमानामुत्पातानान्तु दर्दनम् । स्वप्ने पश्यति For Private And Personal Use Only Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir च्योतिस्तत्त्वम् । मलिनाम्बरधारित्वमभ्यङ्ग चात्मानं रक्ताम्बरविभूषणम् । वीरनग्नता । उमवाचरणं पातो दोलारोहय निन्दितः ॥ ७३१ इति खप्नफलम् । । "सर्वतः तुतमशोभनं स्मृतं गोक्षुतं मरणमेव करोति । केचिदाहुरफलं बलात् कृतं वृडपौनसितबालकृतञ्च ॥ वित्तं ब्रह्मणि काय्र्यसिद्धिरतुलाशक्रे हुताशे भयं याम्यमग्निभयं सुरद्दिषि कलिलभः समुद्रालये । वायव्यां वरवस्त्रगन्धसलिलं दिव्याङ्गना चोत्तरे । ऐशान्यां मरणं ध्रुवं निगदितं दिग्लक्षणं खञ्जने । ज्येष्ठौरुते क्षुतेऽप्येवमूचुः केचिच्च कोविदाः " ॥ विष्णुधर्मोत्तरे । विष्णोरित्यधिक्कत्य " नाम संकीर्त्तनं नित्यं क्षुतः प्रखलितादिषु । वियोगं शीघ्रमाप्नोति सर्वात्मा नाव संशयः ॥ अतएव विष्णुपुराणम् । “स्मृते सकलकल्याणभाजनं यत्र जायते । पुरुषन्तमजं नित्यं व्रजामि शरणं हरिम् ॥ युद्दयात्रायाम् । " यत्र ऋचे स्थितो राहुर्वदनं तद्दिनिर्दिशेत् । मुखात् पञ्चदशे ऋक्षे तस्य पृष्ठं प्रतिष्ठितम् । राहुभुक्तानि ऋचाणि जवपचे त्रयोदश । चयोदशरभो ग्यानि मृतपक्ष्यगतानि च ॥ मृतपक्षे सुखं तस्य गुदं जीवाईमध्यगम् । जौवपचे चपानाथे मृतपचे रखौ स्थिते ॥ तदा रणे शुभा यात्रा विपरीते तु हानिदा । चन्द्रादित्यौ यदा युक्तो जोवपचे व्यवस्थितौ ॥ तत्र क्षेमं जयोलाभो यात्राकाले न संशयः । मृतपक्षे यदा काले संस्थितौ चन्द्रभास्करौ ॥ तदा निर्भयो भङ्गो मृत्युर्यात्राफलं मतम् । जोवपचे स्थिते चन्द्रे काय्र्यः स्यादमृतोपमम् ॥ मृतपक्षे मृतं ज्ञेयं यतचन्द्रबलाबलम् । युद्धकाले यदा शीघ्रं यात्रायोगेन लभ्यते ॥ उत्पौ तु तदा शीघ्रं तत्कालेन्दुदिवाकरौ । इष्टा नायो हता धिष्यैः षष्ठिभागाप्तशेष के ॥ अश्विन्यादीन्दुभुक्तन योगात्तत्काल For Private And Personal Use Only Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७३२ ज्योतिस्तत्त्वम् । चन्द्रमाः । यथा चन्द्रस्तथा सूर्यः कर्तव्यश्चेष्ट कालिकः । अहीगवस्य मध्ये तो विनान्तौ धिध्यमण्डले ॥ सर्वेषु शुभकायेंषु यात्राकाले विशेषतः। दण्डैश्च पञ्चभौगशावेवं स्यादर्श क्रमात् ॥ लग्नवद भुक्तभाग्यस्य त्यागाच्छ षक्रमात् क्रमः" । इष्टा नाद्यः कर्मकालीनदण्ड संख्या सूर्योदयावधि गतरात्रिप्रविष्ट नक्षत्रदण्डसंख्यावधि वा सप्तविंशत्या पूरिता: षध्या यो लब्धः सोऽखिन्यादिचन्द्र भुक्त हत्या नक्षत्राशयुक्तः सप्तविंशा धिकश्वेत्तमपहाय यत् संख्यानं तेन नक्षत्रं तव चन्द्रः। यः शेषस्तत्रोदयावधि कर्मकालोनदण्डसंख्याया गतरात्रिप्रविष्टनक्षत्रदण्डसंख्यायोगात् यो भवति तत्संख्यदण्डा भोग्याः । सूर्यपचे सूर्यभुक्त नक्षत्राशयुक्तो लब्धाङ्ग इति विशेषः । “प्रवास: सुस्थता मृत्युहास्यं जायाज्वरोऽरतिः। नष्टता शून्यता क्रौड़ा सुप्तिभुक्तिश्च मेषतः। एताचे हादशावस्था शशाङ्कस्य दिने दिने। शुभाशुभेषु कार्येषु फलं नाम्यनुरूपतः” ॥ इति तत्कालौनराहु तत्कालचन्द्रादित्यव्यवस्था च यात्रायां निर्दिष्टव्या। हरिवंशे "मरणं सहमानानां युद्यतां विजयो ध्रुवम्” ॥ विदेशमतमात्रान्वेषणायं न गन्तव्यम् । यथा विष्णुपुराणम् । "ततःप्रभृति वै भ्राता भातुरन्वेषणे द्विजः । प्रयातो नश्यति तथा तन्त्र कार्य विजानता" ॥ ततः समस्तपृथिवीं द्रष्टुं गतानां हर्य खादीनां तदनुगामिनाञ्च तद्भातृणां सबलाखादौनाम् अनिवर्तनदर्शनात्। मत्यपुराणेऽपि। “ततःप्रभृप्ति न भ्रातुः कनौयान् मार्गमिच्छति। अन्विष्य दुःखमाप्नोति तेन तत् परिवर्जयेत् ॥ तिथावरित शुभदे च चन्द्रे पापेषु केन्द्राष्टमवर्जितेषु। ग्राम्य स्थिर वा निजभे सुलम्ने गृह विशेहा न निहत्तभूपः। परविषयपुगप्ती साधुदेवहिजखं कुलजनवनिताच माधिपो नोपरन्ध्यात्। विगतुरगशस्त्रा. For Private And Personal Use Only Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम् । __ ७३३ वार्तभौतांच हन्याच्छ भतिथिदिवसः इष्टसैन्यो विशेञ्च । पुष्टः शुक्रन्दुनौवे ध्रुवलघुवलभिहिष्णुमैत्रेन्दुपौणैः सम्लग्ने पापजन्मोदयपतिषु विरधारिगेन्दारसौम्यैः। बायारिस्थरथाष्टव्ययग्रहरहितैः सद्ग्रहै: केन्द्रकोणे वौयाव्ये क्षवियां मुदिनतिथिशभेन्दौ नृपस्याभिषेक: ॥ अथ छत्रचक्रम् । “पादौ चक्र खमालिख्य छत्रत्रयं सुशो. भनम्। अखिन्यादिलिखेत्तत्र सप्तविंशतिभानि च ॥ अखिन्यायं मघाद्यच्च मूसाद्यञ्च क्रमेण तु। उत्तरे पूर्वदचे च एतच्छतत्रयं मतम् । प्रतौचौमध्यरेखाग्रादेशान्यन्तं हयाधिपः । प्राग्नेय्यन्तं नराधोशो नैऋत्यन्तं गजाधिपः ॥ अखाध्यक्षो नराध्यक्षो गजाध्यक्षः क्रमेण तु। एषां छत्रविभागेन ज्ञातव्यच्च शुभाशुभम् ॥ अन्येषां भूभृतामहं यत्र छत्रे व्यव. स्थितम्। तच्छत्रं तस्य भूपस्य शभाशुभफलप्रदम् ॥ चामरं कलसी वीणा छत्रं दण्ड: पतग्रहः। पासनं कोलकं रज्जु - नवमेटाः प्रकीर्तिताः ॥ यस्य छत्रे स्थितः सौरिः भङ्गं तस्य विनिर्दिशेत्। फलप चामरादीनां प्रत्येकञ्च वदाम्यहम् ॥ चामरे चण्डता वायोरनादृष्टिस्तु जायते। दुर्भिक्षञ्च भवेहोरं प्रजापौड़ा न संशयः । कलसस्थे भवेद्युद्धं रणे भङ्गो महद्भयम् । घातपातादिकं सर्व जायते नात्र संशयः। वीणासंस्थेऽकतनये परानो विनश्यति । चलञ्चित्तो भवेद्राजा भयभोता च मेदिनो। यदा ऋक्षत्रये सौरिश्छवे दण्डे पतदग्रहे। तदा तस्य भवेद्वछत्रस्यापि न संशयः। पासनस्य भवेवाश पासनस्खे शनैश्चरे। युवराजक्षयः कौले बन्धनं रज्जुसंजिते। सौम्ययुक्तोऽतिचारस्थः शनिरुतफलो न हि। वक्रगः करयुतश्च सर्वकरं करोति सः। शनिराहुकुजादित्या यदा नौवेन्दुसंयुताः। उत्तराधीशराजो वै निश्चित छत्रभङ्गदाः । ६२ For Private And Personal Use Only Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७३४ ज्योतिस्तत्वम्। करचतुष्टयञ्चैव बुधचन्द्रेण संयुतम्। पूर्वच्चनविनायाय चूचित पूर्वमूरिभिः। एवं पापचतुष्कच यदा शुक्रन्दुसंयुतम् । दक्षिणाशापतेश्छविनाथी भाषितो बुधैः। एवमन्येषु राज्यषु यत्र यस्य च सम्भवः। उत्तग्रहसमायोगाश्छनभङ्गं विनिदिशेत्। यथा दुष्टफल: सोरिस्तथा सौम्य फलो गुरुः । भौमजौ गुरुराइ च रविचन्द्रौ बले समौ। यथा हानिकरा: क्रूरास्तथा सौम्या: शुभङ्गराः । क्रूरयुक्तो बुधः करचन्द्रः पूर्णस्तथाशभः। सौम्याः कराः यदा छवे दृष्ट्या वै छसंस्थिताः । छत्रभङ्गी भवेत्तस्य परचक्रागमेन च । नृपनामाक्षगोराहुः केतुर्वा यदि संस्थितः। छत्रभङ्गो भवेत्तस्य विषदानेन भूपतेः । मृगयां साहसं यात्रां कृष्णाखगजवाहनम् । विग्रहच त्यजेद्राजा छत्रस्थे क्रूरखेचरे ॥ एवं ज्ञात्वा यदा राजा करोति ग्रहशान्तिकम्। यदुक्तं यामले तम्ले तेन शान्तो भवेत्रपः । . अथ सिंहासनचक्रम् । "प्रथात: संप्रवक्ष्यामि चक्र सिंहा. सनत्रयम्। सप्तविंशतिनक्षत्रैरेकै कश्च नरात्मकम् ॥ अखिनौमघमूलाद्य पञ्चनाड़ो विभेदतः। अश्विन्याद्युत्तरे भागे मघाद्य पूर्वत: स्थितम् ॥ मूलाद्य दक्षिणे भागे ज्ञातव्यं नृपतित्रयम्। इतरेषु च वाद्यषु नृपमामक्षतो वदेत् ॥ शुभाशमिदं सर्वं यत्र यस्य शनिः स्थितः। नाडिकापञ्चवेधेन एकैकस्यासनं भवेत्॥ प्राधारमासनं पट्ट सिंह सिंहासनन्तथा। ग्रहैवेधवशाज्ञय सौम्यैः करैः शुभाशुभम् ॥ ऋक्ष आधारगे राजा अभिषितो यमासने। पराधीनगतं राज्य कुरुते नात्र संशयः॥ प्रासनस्थेन ऋक्षेण नौतियुक्तो भवेबृपः। प्रधानपुरुषो देवः प्रजाथान्ति करो भवेत् ॥ पट्टऋचे यदा राजा उपविष्टो नृपासने। पूर्वराजस्थितेस्तुल्यश्चिरं पाच For Private And Personal Use Only Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिस्तत्त्वम् । ७३५ यते महौम् ॥ सिंहरूपौ भवेद्राजा सिंहपासने स्थितः । संग्रामस्य प्रियो नित्यमसाध्यो मन्त्रिमण्डलैः ॥ सिंहासनगते धिट्ये तेजखौ भोषणाकृतिः । चलचित्तो महाक्रोधौ प्रजापौड़ाकरो नृपः ॥ तत्कालेन्दुगते ऋचे क्रूर निर्वेधनाड़िके । शुभावस्था शुभे लग्ने संस्थाप्यो नृप आसने ॥ ईदृशे च समायोगे उपविष्टो य भासने । उच्छाद्य शत्रु संघात मे कच्छव करोति सः ॥ क्रूर ग्रहगता नाड़ीमुपविष्टो य पासने । बन्धनं भूमिनाशय तथा मृत्युः प्रजायते ॥ आधार ऋक्षग: सौरि रनावृष्टि करोति च । दुर्भिक्षं रौरवं तत्र प्रजापौड़ा च जायते ॥ श्रासने च यदा सौरिर्युड भङ्गप्रदा भवेत् । अथवा व्याधिपौड़ा च मनोदुःखं प्रजायते ॥ पट्ट ऋते यदा सौरिः पहराज्ञौ विनश्यति । प्रियो वाथ कुमारो वा मन्त्रिबन्धुचयोऽपि वा ॥ सिंहे सिंहासने वापि यदा तिष्ठति सूर्यजः । तदा मृत्युने सन्देहो यदि शक्रसमो नृपः ॥ शनिराह्नर्कमा - हेया यदा चन्द्रेण संयुताः । यस्यासममता एवं तस्य रात्री भयङ्कराः ॥ क्रूरयुक्तोऽथ वक्रस्तु क्रूरनाड़ोगतोऽपि वा । श्रासने चन्द्रयोगेन कालरूपी शनैश्वरः । एवं शुभफलं दद्याहेवमन्त्रो न संशयः । करोति विपुलं राज्य यस्यासनगतो गुरुः ॥ इति वन्द्यघटौय हरिहरभट्टाचाय्यामन - श्रीरघुनन्दनभट्टाचाय्र्यविरचितं ज्योतिस्तत्त्व समाप्तम् । For Private And Personal Use Only Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मलमासतत्त्वम्। "प्रणम्य सच्चिदानन्द परमात्मानमौखरम्। मुनीन्द्राणां स्मृतेस्तत्व वक्ति औरघुनन्दनः ॥ मलिम्बुचे दायभागे संस्कारे शहिनिर्णये। प्रायश्चित्ते विवाहे च तिथौ जन्माष्टमौ. व्रते ॥ दुर्गोत्सवे व्यवहृतावकादश्यादिनिर्णये। तड़ागभवनोमग वृषोत्सर्गत्रये व्रते। प्रतिष्ठायां परीक्षायां ज्योतिष वास्तुयजके। दीक्षायामालिके कत्ये क्षेत्रे श्रौपुरुषोत्तमे ॥ सामश्राद्दे यजुःआहे शूद्रात्यविचारणे। इत्यष्टाविशतिस्थाने तत्त्व वक्ष्यामि यत्नतः ॥ प्रणम्य भारतौकान्तमज्ञानध्वान्त. भास्करम्। सतां मुदे स्मृतेस्तत्त्वे तत्त्व भाषे मलिम्बचे। मासशक्यं तथोत्पत्तिवाक्य दर्यादिकस्य च। प्रकृती विहाते. धर्मः पक्षादिकालनिर्णयः॥ चान्द्रसावननाक्षत्र सौराणाच निरूपणम् । तथा कर्मविशेषेषु चान्द्रादिमासनिर्णयः ॥ सिंहा. दिौ न यात्रा स्थाद्दशाष्टौ व्यसनानि च । दैवस्य लक्षणं कमसिद्धये दैवपौरुषो॥ कालच हेतवः कष्टो रिपुरध्य प्रदानकम्। अगस्त्यस्य मुनेर्वाच्यमुत्तरायणशक्लयोः ॥ चूड़ोपनयनं सन्ध्याकालेऽतोतेऽपि सा भवेत्। सौमन्तोन्नयनं जातेऽप्यपनायोत्तरावधि ॥ स्नाने च कार्तिकादेस्तु सौरचान्द्रविकल्पनम्। तदशती प्रतिनिधिर्माघस्नानविधिस्तथा ॥ मानतपणयोमध्वं प्रातःसन्ध्याकतिस्तथा। पौर्णमास्यन्तमासेन मूलकानामभक्षणम् ॥ सौरेण माधवनानं नाक्षवस्य प्रयोजनम्। चान्द्रसौरोक्त कार्याणां वाक्ये मासौ तथाविधौ । अन्यत्र मुख्यचान्द्रः स्यादद्योल्लेखस्य साधकम्। मासशब्दस्य दर्शान्त शक्यत्वे साधकान्तरम् ॥ तिथेलक्ष्म दिनत्वच धर्म For Private And Personal Use Only Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मसमारतत्वम् । भास्त्रेण बाध्यता। अर्थशास्त्र भीगानां विपुरुषत्वनिर्णयः ॥ त्रिंशत्तिथ्यात्मको मासो लग्नमानादिनिर्णयः। नाक्षत्रवत्म रायुमंताह प्राक् तिथी तथा । पाण्मासिकाब्दिके श्राद्दे चैनादेवान्द्रवाचिता। हेतुबन्यायचाव मेषादिराशिनिर्णयः । शक्तिप्राहकमानञ्च चैत्रादेरब्दवाचिता। महाज्यैष्ठौ विचारोऽत्र संवत्मरनिरूपणम् ॥ लक्षणं मलमासस्य तद्युग्मस्यैकहायने । विचारः सावनाहेन सहवारप्रवर्तनम् । क्षयमासा हिमासलं संचेपो मलमासके। दौक्षाकालविधानञ्च दीक्षा प्रतिप्रसूतिका । शूदस्योङ्कारयुमन्त्र निषेधश्च स्त्रिया पपि। सूतकेऽपि च पूजादिरशोचे विष्णु कीर्तनम् ॥ अधिमासे विवाहादिनिषेधस्य निरूपणम्। सपिण्डीकरणाद्वात् सिद्धिः स्यादाब्दिकस्य च ॥ ग्रहदौःख्यफलस्यापि द्रव्यादौ पाकनिर्णयः । मा शूदाधिकारच प्रायश्चित्तं मलिम्बुचे॥ दत्तनष्टवणदानं मचाया निरूपणम्। शूद्रस्थापि मघात्रामविभतीः पृथक् क्रिया ॥ मघानिमित्त के बाद पुत्रौ पिण्डं विवर्जयेत् । अपिण्ड कमघाशाहात् पक्षवादकतं भवेत् ॥ पार्वणासनदानादौ ये चात्र वेति भाषणम् । पर्य दासो गयायान्तु काल. दोषा प्रतीक्षणम् ॥ नवाब्राहकालय त्रिजन्मादिविवेचनम् । कासापरिविचारोऽत्र चातुर्मास्य व्रतं तथा ॥ ऋतुभेदात्तयोत्यात दोषाभावविनिर्णयः। काम्यं कृष्णस्य तुध्यर्थं प्रकर्त्तव्यं मुमुक्षुणा ॥ महादानस्य गणना तथा तस्य च लक्षणम्। व्रतं यमलमासा पिटपक्षमतक्रिया ॥ पखयुक् कृष्णपक्षीय शाबसम्यक् निरूपणम्। मलमासे त्वमावास्था प्रत्याब्दिकविवे. चनम् ॥ सपिण्डनस्यापकों गर्भवत्यादिहेतुकः। सन्यासप्रतिषेधच कलौ क्षत्रवियोर्भवेत् ॥ पुत्रेतरेण कत्र्तव्यमेकोद्दिष्टं मृताहनि। न पार्वणं कदाचित्त दर्यादिकमतस्य च ॥ मल: For Private And Personal Use Only Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७३८ मलमास तत्त्वम् । मासान्तरेऽपि स्यान्मलमासमृताब्दिकम् । निबन्धान् बहुधालोच्य निवध्यन्ते सतां सुदे” अथ मासशक्यम् । तत्र लघुहारीतः । “इन्द्राग्नी यत्र येते मासादिः स प्रकीर्त्तितः । अग्नीषोमो स्मृतौ मध्ये समाप्तौ पितृसोमकौ” ॥ यत्र शक्तप्रतिपदि । " तथाहि अमावास्यायाममावास्यया यजेत पौर्णमास्यां पौर्णमाख्या यजेत” इति श्रुतिविहितदर्शपौर्णमासयागयोः कर्मस्वरूपज्ञापक तोच समामनन्ति यथा “बाग्नेयाष्टाकपालोमावास्वायां पौर्णमास्यावाच्युतो भवति उपांशुयाजमन्तरा यजति ताभ्यामेवाग्नीषोमीयमेकादशकपालं पौर्णमासे प्रायच्छत् ऐन्द्रं दध्यमावास्यायाम् ऐन्द्रं पयोऽमावास्यायामिति” । ताभ्याम् आग्नेयाष्टाकपालोपांशुयाजाभ्यां तेनाग्ने याष्टाकपालीपांशुयाजाग्नीषोमीय एकादशकपाल यागास्त्रयः पौर्णमास्याम् आग्न' याष्टाकपालेन्द्र दधि-पयो यागास्त्रयोऽमावास्यायामित्यर्थः । प्रासु श्रुतिषु अमावास्या पौर्णमासौपदानि प्रतिपत्सहिततदुभयपराणि तत्र पूर्वयोर्यागारम्भः प्रतिपदोर्यागः तथा च "हे ह वै पौर्णमास्यौ हेमावास्ये तस्मात् प्रतिपद्युपवसन् यजेतापरेद्युः” । इति श्रुतिः अव पौर्णमास्यो पौर्णमासो प्रतिपदौ अमावास्येऽमावास्या प्रतिपदौ भातपथब्राह्मयेऽपि " पूर्वेद्युरग्नि गृह्णाति उत्तरमह जतोति । स्मृतयख यथा गोभिलः । " पचान्ता उपवस्तव्याः पञ्चादयोऽभियष्टव्याः” । पारस्करः । " पचादिषु स्थालीपाकं श्रपयित्वा दर्शपौर्णमासदेवताभ्यो जुहोतोति तथा कल्पसूत्रम् । “दर्शपौर्णमासाभ्यां मासं यजन्ते पञ्चादौ यडविस्तत्सर्वमिविति । अस्यार्थः । यावज्जीवकयोदेर्श पौर्णमासयोः प्रकृतौ भूतयोर्विक तौभूतो माससाध्यो दर्शपौर्णमासौ कौण्डपायिनामयमौयो पञ्चादौ यष्टव्यो । For Private And Personal Use Only Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७३८ मलमासतत्त्वम् । पत्र पक्षादौ यषिस्तत्सर्वस्मिन्निति । नमासीत्यनेन विकृतिगतेन पक्षादावित्यनेन प्रकृतीभूतयोरपि दर्शपौर्णमासयोः पक्षादिकालत्वमवधारितम्। यथा ज्योतिष्टोमे। हादशमतगोदक्षिणा विभाग: षोड़शलिजां तहिकतीभूते सवात्मके हादशाहसाध्ये शतेनाबिनोदौक्षयन्तीत्यादिदर्शनेन निर्णी यते। तत्र विभागं मनुरप्याह। “सर्वेषामहिनो मुख्यास्तनाहिनोऽपरे। बतौयिनस्तृतीयांशाचतुर्थाश्चैकपादिनः । दक्षिणा गोशतविभागाय श्रोतकात्यायनोऽपि पथ हादशहादशायेभ्यः षट्पद्वितीयेभ्यश्चतमश्चतस्रस्तुतीयेभ्यस्तिमस्तिस्र इतरम्य इत्यत्र षोड़शानामविजां चतुरचतुरः कृत्वा चत्वारी वर्गा इति तेन दर्श पौर्णमासयाजिना पक्षादियाजिनाच यत्र शक्लप्रतिपदि इन्द्राग्नौ हयेते समासादिः मध्ये मासमध्ये कष्यप्रतिपदि अग्नीषोमी हयेते इति कृत्वा स्मृतौ एवममावास्थायामपराहे पिण्डपित्यजेनाचरन्तौति अत्यन्तपिण्डपिव्यज्ञानाम्नौकरणहोमौयसोमाय पिटमते स्वाहेति मन्त्रप्रकाश्यौ पिटसोमको समाप्ती माससमाप्तौ अमावास्यायां इयेते इति कृत्वा स्मृताविति पत्र विशेषतो मासादिमध्यान्तकौर्तनात् शुक्ल प्रतिपदि दन्ति एव मासशब्दस्याभिधेयतायां मुनेः स्वरसोऽवगम्यते सावनसौरादौनां गौणतायामपौति। पत्र पर्वणो यस्तुरीयांश पाद्याः प्रतिपदस्त्रयः। यागकाल: स विज्ञेयः प्रातयुतौ मनीषिभिः ॥ इति वौधायनवचनेन ऋग्वे दिनां यागकालतया वोधितोऽपि दर्शपौर्णमास्यंशोऽनियततया न मासादिमध्यघटकः किन्तु पूर्वोक्त श्रुत्यादेश्छन्दोगपरिशिष्टात् गर्गवचनाच पर्वकालकरणपक्षेऽपि प्रतिपदि समापनस्यावश्यकतया प्रतिपदेव तद्घटिकेति। तथा च छन्दोगपरिशिष्टम्। “पचादावेव कुर्वीत सदा पक्षादिक For Private And Personal Use Only Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७४. मलमासतत्वम् । शुरुम् । पूर्वाह्न एव कुर्वीत विशेऽप्यन्य मनीषिणः॥ वि हितोयाबि पक्षादावेवेत्ययोगव्यवच्छेदपरं न त्वन्ययोगव्यवच्छ दपरम् । तथा कालादर्शकालमाधवौयप्रति दाक्षिणात्य वैदिकग्रन्थेषु गर्गः। “प्रतिपद्यप्रविष्टायां यदि चेष्टिः समाप्यते। पुनः प्रणीय कनेष्टिः कर्तव्या योगवित्तमः" । प्रणौयाग्निमिति शेषः । गोभिलोऽपि। "आवर्तने यदा सन्धिः पर्वप्रतिपदोमवेत् । तदर्याग इथेत परतश्चेत् परेऽहनि" । पूर्वाह्नापराविधाविभक्तादिनस्यावधित्वेनावर्तनमाह स्कन्द पुराणम्। पावर्तनात्तु पूर्वाह्नो द्यपराह्नस्ततः परम् । पाव नाहासरस्य छायायाः परिवर्तनात् ॥ प्राक् पूर्वाह्नः । अतएवोक्तम्। “अश्वत्थं वन्दयनित्यं पूर्वाह्न प्रहरहये। अत ऊर्ल्ड न वन्देत अश्वत्यन्तु कदाचन ॥ परतोऽपराले। विधाविभक्तदिनाभिप्राये तु लोकाक्षिः। “पूर्वाह्न मध्यमे वापि यदि पर्व समाप्यते। तदोपवास: पूर्वेद्युस्तदोग इयते ॥ अपराहऽथ वा रात्रौ यदि पर्व समाप्यते। उपोष्ण तस्मिन्नहनि खोभूते याग इष्यते ॥ उपोथेति नाहोरात्राभोजनपरम् । किन्तु क्वतेऽग्न्याधाने देवा यजमानस्य समोपमुपवसन्तौति उपबासशब्देनाग्न्याधानमुच्यते। तैत्तिरीय ब्राह्मणे तथा श्रुतेः यथा उपास्मिन् खोयक्ष्यमाणे देवता वसन्ति एवं विहानम्निमुपस्तृणाति। वृधशातातपः । “सन्धिश्चेदपराह्न स्यात् पादः प्रात: परेऽहनि । कुर्वाण: प्रतिपदागे तुरौयेऽपि न दुति ॥ ननु चान्द्रवत् सावनादिष्वपि विष्णुधर्मोत्तरे मासपदं सङ्केतितं यथा “चन्द्रमाः कृष्ण पक्षान्ते सूर्येण सह युज्यते। सत्रिकर्षादधारभ्य सन्निकर्षमथापरम् ॥ चन्द्रार्कयोबुधैर्मासचान्द्र इत्य. भिधीयते। सावने च तथा मासि त्रिंशत्सूर्योदयाः स्मृताः॥ आदित्यराशिभोगन सौरो मासः प्रकीर्तितः । सर्वपरि For Private And Personal Use Only Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७४१ मलमासतत्त्वम् । वर्त्तस्तु नाचत इति चोच्यते ॥ चन्द्रार्कयोः सत्रिकर्षात् दर्शात् । अथानन्तरं प्रतिपदमारभ्य अन्यथा सविकर्षमारभ्येति ब्रूयात् अपरं सन्निकर्षं यावत् तावत्कालञ्चान्द्रः । एतेन विकर्षादि सत्रिकर्षान्तो मास इति नारायणोपाध्यायमतं निरस्तम् । त्रिंशदहोरात्रात्मकः सावनः चादित्येक राशिभोगावच्छिन्नः सौरः सप्तविंशतिनक्षत्रावच्छित्रो नाचत्र इति चतुविधा मासाः । तथा च ब्रह्मसिद्धान्ते "चान्द्रः शक्तादि दर्शान्त: सावनस्त्रिशता दिनैः । एकराशौ रविर्यावत् कालं मासः सभास्करः । सर्वक्षपरिवत्तैस्तु नाक्षत्र इति चोच्यते ॥ मैवं चान्द्रसारसावननाचत्र मासोल्लेखित कर्मसु ते कोदृशा इत्याकाङ्क्षायां विष्णुधर्मोत्तरादिवचनस्य तत्परिचायकत्वेनोपपत्तौ मासशब्दस्य तत्र तत्र शक्तिग्राहकत्वे प्रमाणाभावात् । अनेकशक्तिकल्पने गौरवात् वक्ष्यमाणयुक्तिभ्यव चान्द्र एव शक्तिः । अथ कर्मविशेषे मासविशेषादिः । तच पितामहः । "शाब्दिके पिटकत्ये च मासञ्चान्द्रमसः स्मृतः । विवाहादौ स्मृतः सौरो यज्ञादो मावनो मतः ॥ प्रथमादिपरं यात्राग्रहचारपरम् । यत्कम सूर्य भोग्य राश्य लेखेन यश्च विशेष्योदगयनादिविहितं तत्परच अयनस्य सौरमासघटितत्वेन वच्यमाणत्वात् तच्च चूड़ोपनयनादि । द्वितौयादिपदं सवभृतिवृद्धिप्रायवित्तायुर्दाया शौच गर्भाधान पुंसवन सौ मन्तोन्नयननामकरणाद्यप्राशननिष्क्रमणचूड़ादिपरम् । तत्र चूड़ादावेकवैव सौरसावनग्रहणं पश्चादुपपादयिष्यामः । तथा च विष्णुधर्मो तरे । “अध्वायमच्च ग्रहचारकर्म सौरेया मानेन सदाध्यवस्येत् । सत्राण्युपास्यान्यथ सावनेन लोक्यञ्च यत्यादावहार कर्म ॥ अध्वायनम् अध्वगमनं यात्रेति यावत् । संवत्सर प्रदोपे । "सिं हे For Private And Personal Use Only Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७४२ मलमासतत्त्वम् । धनुषि मौने च स्थिते सप्त तुरङ्गमे। यात्रोक्षाहटहारनचौरकर्माणि वर्जयेत् ॥ एतमासत्रय यावानिषेधो राजतरपरः । राज्ञः कार्थ्यांनुरोधात् मवंदा यात्राविधानात्। यथा मनुः । "मामशौर्षे शुभे मामि यायाद्यानां महीपतिः। फाल्गुनं वापि चैत्र वा मासं प्रति यथावलम् ॥ अन्येष्वपि तु कालेषु यदा पश्येत् ध्रवं जयम् । तदा यायाहिय्येव व्यसने चोस्थितो रिपोः” ॥ व्यसनान्याह स एव। “कामजेषु प्रसक्तो हि व्यसनेषु महीपतिः। वियुज्यतेऽर्थधर्माभ्यां क्रोधजेष्वामानव तु ॥ मृगयाक्षो दिवास्वप्नः परीवादस्त्रियो मदः। तौर्यविक वृथाट्या च कामजो दशकी गणः ॥ पैशुन्यं साहसं द्रोह ईर्षामूयाथ दूषणम् । वाग्दण्ड जच्च पारथं क्रोधजोऽपि गणोऽष्टकः ॥ प्रक्षो घतक्रीड़ा। तौर्यत्रिक नृत्यगौतवाद्यानि बौणि । दश पेशन्यमविज्ञातपरदोषाविस्करणम्। साहसं साधोबन्धनादिना निग्रहः। द्रोहो जिघांसा ईर्षाऽन्यगुणासहिष्णुता। प्रसूया परगुणेषु दोषाविस्करणम् अर्थदूषणम् अर्थानामपहारः देयानामदानाच। अतएव दौपिकायाम्। “दैवहीनं रिपु जेतुं यायाहैवान्वितो नृपः। योज्या देवा. वितामात्या दैवहोने तथात्मनि ॥ व्यसनो विनष्टधर्मा विविधोत्पातपौड़ितो यश्च। पुरुषः स दैवहीनः कथितो दैवान्वितोऽन्यः ॥ पतएव याज्ञवल्क्यः । “दैवे पुरुषकारे च कमसिहयवस्थिता। तब देवमभिव्यक्तं पौरुषं पौर्वदैहिकम्" । अभिव्यक्तं फलोन्मुखोभूतम् । मनुपि । “युक्त दैवे च युज्योत जयप्रेस ये पतभौः। साम्ना दानेन भेटेन समस्तेरथवा पृथक् ॥ विजेतुं प्रयतेतारीन् न युद्धेन कदा. चन। अनित्यो विजयो यस्माद दृश्यते युधमानयोः। पराजयप संग्रामे तस्माद् युद्धं विवर्जयेत् । त्रयाणाम प्युपा For Private And Personal Use Only Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७४३ मलमासतत्त्वम् । यानां पूर्वोतानां परिक्षये। तथा युवेत संयत्तो विजयेत रिपून् यथा ॥ संयत्तः सम्यक्प्रयत्नवान्। कष्टरिपुमार स एव। “प्राज्ञ कुलौनं शूरम दक्षं दातारमेव च। कृतज्ञ तिमन्तञ्च कष्टमाहुररिं बधा:” ॥ कालोऽपि फल हेतुरित्याह मसापुराणम्। "दैवं पुरुषकारश्च कालश्च पुरुषोत्तम । वयमेतम्मनुष्याणां पिण्डितं स्यात् फलावहम्। कृषेष्टिसमायोगादृश्यन्ते फल सिद्धयः । तास्तु काले प्रदृश्यन्त नैवा. काले कथञ्चन" ॥ सत्राणि गवामयनादौनि माससंवत्सरसाध्यानि। लौक्यं व्यवहारकर्म भृतिबद्यादिकं मासेन यास्यसि मासेन दास्यसौत्यादिकम्। अगस्त्याध्यं दानं सौरण सिंहराशौ विधानात् । यथा ब्रह्मवैवर्ते "प्रप्राप्ते भास्करे कन्यां शेषभूतस्विभिदिनैः। अध्यं दयग्गस्याय गौड़देशनिवासिनः" ॥ नारसिंह। "शले तोयं विनिक्षिप्य सितपुष्पाक्षतैयुतम्। मन्त्रेणानेन वै दद्याइक्षिणाशामुखस्थितः । काशपुष्यप्रतीकाश अग्निमारुतसम्भव। मित्रावरुणयोः पुत्र कुम्भयोने नमोऽस्तु ते ॥ प्रार्थनन्तु। “प्रातापिषितो येन वातापिश्च महासुरः। समुद्रः शोषिती येन स मेऽगस्त्यः प्रसौ. दतु” ॥ गन्धादिकन्तु। अगस्त्याय नमः इत्यनेन देयं विशेषानुद्दे शे सामान्यतः प्राप्तत्वात दक्षिणाशामुवस्थित इति गन्धादावपि प्रयोगाङ्गकर्तधर्मल्वात् इति रत्नाकरः । तत्पनायमन्त्रस्तु। “लोपामुद्रे महाभागे राजपुत्रि पतिव्रते। एहाणायं मया दत्तं मैत्रावरुणि वल्लभे”। पाश्वलायनः । उद्गयाने अपूर्यमाणे पक्षे कल्याणे नक्षले चौड़कर्मोपनयनगोदानविवाहाः। विवाहः सार्वकालिक इत्येके । विवाहे विषयभेदमाइ गृहपरिशिष्टम्। धयेष्वेव विवाहेषु कालपरौक्षण' नाधर्म्यषु ॥ व्यक भुजबले। "ग्रहशहिमन्द For Private And Personal Use Only Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७४४ मलमासतत्वम् । मासायनर्तुंदिवसानाम्। अर्वाक् दशवर्षेभ्यो मुनयः कथयन्ति कन्यकानाम् ॥ ननु “चैवकृष्णहितौयायां तिसृष्वेवाष्टकासु च। मार्गे च फाल्गुने चैव प्राषाढ़े कार्तिके तथा। पक्षयोमाघमासस्य हितौयां परिवर्जयेत्। नाकालवृष्टौ कुर्वोत व्रतबन्धशुभक्रियाम"। इति भुजवलोक्त कथं सङ्गच्छता उपनयनस्याश्वलायनेनोत्तरायणशक्लपक्षयोंविधानात् पारस्करेणापि उदगमने पापूर्यमाण पक्षे पुण्याह इति कर्ममावे परिभाषितम् असमासकरणं गर्भाधानादिषु कालविशेषनियतेषु उदगयनादौनां यथासम्भवं नित्यत्वानित्यत्वप्रतिपादनामिति हरिशर्मा। गोभिलेनापि “उदगयने पूर्वपक्षे पुण्येऽहनि प्रागावर्तनादनः कालं विद्यात्” इति यामहयात्मक पूर्वाह्नमप्यधिकं परिभास्य यथा देशञ्चेति पुनः कृतं यथा देशमित्यनेन स्वरह्योतानां प्रौष्ठपद्याम् उपकर्मकरणस्यामावास्यायामपगह पिण्हपित्यजस्यान्यस्याप्येवंविधस्योदगयनादि विरुद्धविहितस्य ऋतुकालगभैस्पन्दम-पूर्वकालषष्ठमासादि विहिताभानपुंसवनसोमन्तोनयनादौनाञ्च दक्षिणायनादावननुप. पत्त्या ग्रहणम्। अथैवं यथा देशञ्चेति सूत्रमवायं तत्तहिशेषविधानादेव सिद्धेर्नायं दोषः। यथादिष्ट कालस्य क्रियायामादरार्थमुक्तं तेन तत्तत्कालातिपत्तौ केषाञ्चिल्लोपः यथा अष्टकापिण्ड पियज्ञादीनां विद्याकराशिककत्येऽपि। “प्रकाले चेत् कृतं कर्म काले तस्य पुनः क्रिया। कालातीतच यत् कुादकतं तहिनिर्दिशेत्” । यत् कर्म यस्मिन् काले विहितं तत्कालाभावेऽपि नाङ्गान्तराभाव इव तवाम्मानुष्ठानं नित्यकर्म यथाशक्तीत्युपदेशस्य कतिसाध्यागमात्रविशेषत्वात् कालस्यानुणदेयत्वान तथेति। तदुक्ताम् “अङ्गत्वेऽपि च कालस्य न त्यागोऽन्याङ्गवत् कुतः। अनुपादेयरूपत्वात् काले कम For Private And Personal Use Only Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मलमास तत्त्वम् | ७४५ विधीयते ॥ वचनात् कालातिपत्ती केषाञ्चित् प्रायवित्तं कृत्वाऽनुष्ठान' यथा सन्ध्यावन्दनादोनां तद्यथा सांख्यायनग्राम् । “ अरण्ये समित्पाणिः सन्ध्यामुपास्ते नित्यं वाग्यत उत्तरापराभिमुखोऽन्वष्टमदिशमानक्षत्रदर्शनात् श्रतिक्रान्तायां महाव्याहृतौः सावित्रौः स्वस्त्ययनादि जपित्वा एवं प्रातः प्राङ्मुखस्तिष्ठत्रा मण्डलदर्शनात्” इति । उत्तरापराभिमुखो वायुकोणाभिमुखः कोणं विवृणोति श्रन्वष्टमदिशमिति उभयदिमष्टमभागमिति यावत् । व्यासः । " सन्ध्याकाले व्यतीते तु न च सन्ध्यां समाचरेत् । गायत्रीं दशधा जष्ट्वा पुनः सन्ध्यां समाचरेत्” ॥ जपे स्मृतिः । " कृत्वोत्तानौ करौ प्रातः साथचाधो मुखौ करौ । मध्ये तिर्यक्करौ प्रोक्तौ जप एव मुदाहृतः । पितृदयितायामप्येवम् । यत्तु काशौखण्डम् । “विधिनापि कृता सन्ध्या कालातौता वृथा भवेत् । श्रयमेव हि दृष्टान्तो बन्ध्या स्त्रो मैथुनं यथा । इति तदक्कतप्रायचित्तपरम् | हरिहरपडतो। "यहागामिक्रियामुख्य कालस्याप्य न्तरालवत् । गौणकालत्वमिच्छन्ति केचित् प्राक्तनकमणि” । यहेति पचान्तरं प्राक्तनकायें मध्यकालवत् आमामिक्रियामुख्यकालस्यापि गौणकालत्वं तेन सायं सन्ध्याया रात्रिः प्रातःसन्ध्याकालय गौणकाल इत्यर्थः । एवमन्यत्रापि । अतएव इन्दोगपरिशिष्टम् । “संस्कारा अतिपत्येरन् स्वकालाश्चेत् कथञ्चन । हुत्वैतदेव कुर्वीत ये तूपनयनादधः” । एतदिति महाव्याहृतिहोमादिप्रायश्चित्तम् । अधः पूर्वम् । बृहद्राजमार्त्तखे । " या नाय्र्यज्ञतसौमन्ता प्रसूते च कदाचन । श्र निधाय तं बालं पुनः संस्कारमईति ॥ देवलः । " सकच्च संस्कृता नारौ सर्वगर्भेषु संस्कृता । यं यं गर्भं प्रसूयेत स गर्भः संस्कृतो भवेत् ॥ संस्कारक्रम नियममाह नारदः । " येषान्त ક For Private And Personal Use Only Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ०४६ मलमासतत्त्वम् । न कता: पूर्व संस्कारविधयः क्रमात्। कर्तव्या भाभिस्तेषां पैटकादेव तनात् ॥ अविद्यमाने पित्रर्थे खांशादुछ त्य वा पुनः। अवश्य कायाः संस्काराः नाभिः पूर्वसंस्कृतेः" । क्रमाद् भ्रातृणां येषामित्यनेन प्राप्तानां संस्काराणाञ्च पौर्वापर्यक्रमात् घाटक्रमस्तु सोदरविषयकः। विवाहे तथा दर्शनात्। कर्णवेधस्य संस्कारवाभावान्न तथा नियमः । वृहदाजमार्तण्ड कृतचिन्तामण्योर्माण्डव्यवचने तथा दर्शनात् यथा। यदापत्ययं तिष्ठेत् सम्भवोऽप्यपरस्य छ। कर्मघटकं विजानीयात् गर्हितं तत्रयस्य च ॥ इत्याशय योमध्ये शुद्धिर्यस्याथ वत्सर। वर्णवेधो हितस्तस्य नात्र ज्येष्ठादिभावना ॥ षटकर्णोत्पत्तिमाशय भानोः शुमा समेऽपि च । कर्णी वेध्यौ न दोषः स्यादन्यथा मरणम्भवेत्॥ भ्राभिरिति बहुवचनादन्येषां ग्रहणम् । अतएव नारायणपडतो “अष्टो संस्कारकम्माणि गर्भाधानमिव स्वयम्। पिता कुर्यात्तदन्ये वा तदभावेऽपि तत्क्रमात् इत्यत्नान्यो वेत्युक्तम् । न च प्रागुत्तागोभिलसूत्र उदगयनादावसमासकरणम् एकैकस्यानुगुण्खद्योत. नार्थ समुच्चयोपलब्धो महानभ्युदय इति भट्टनारायणव्याख्यान नात् दक्षिणायनकृष्णपक्षयोरप्युपनयनमिति वाच्य पूर्वोक्लाखलायनवचनेन चौड़कर्मोपनयनयोविशिष्य उदगयनशक्तपक्षयोर्विहितत्वात्। भोजराजेनापि। “माघादिमासषट्केषु शाङ्गिणः शयनावधि । चड़कर्म प्रकुर्वन्ति मुनयो व्रतमेव च*॥ इति व्रतमुपनयनम्। कत्यचिन्तामणौ दक्षिणायन निषेधोऽपि। “रात्रिभागः समाख्यातः खरांशोदक्षिणायनम् । व्रतबन्धादिकं तस्मात् चड़ाकर्म च वर्जयेत् ॥ तत्कथमुपनयनादिके विशिष्य मार्गादिकपणहितौयादिनिषेधः । उच्यते । दक्षिणायने वैश्यस्योपनयनविधानात् कृष्णपक्षे प्रायविस्तार For Private And Personal Use Only Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मलमासतत्त्वम् । मकोपनयनविधानाच तत्परः। न चात्राप्युदगयनाद्यपेक्षा। कते नि:संशये पापे इत्यादिनिन्दार्थवादेन विलम्बासहत्वात् एकदिनस्योपवासेन गमयितुं शक्यत्वात्। यथा गर्गः । "विप्रस्थ क्षत्रियस्यापि मौसौ स्यादुत्तरायणे। दक्षिणेच विशां कयं नानध्ययनसंक्रमे ॥ अनध्यायेऽपि कुर्वीत यस्य नैमित्तिकं भवेत् ॥ अपिना दक्षिणायनकृष्णपक्षयोः समुच्चयः नैमित्तिकं प्रायश्चित्तरूप पारस्करः । “विवाहोत्सवयज्ञेषु सौर मानं प्रशस्यते। पार्वणे त्वष्टकाबाई चान्द्रमिष्टं तथाब्दिके। अप यन्नपदमुदगयनादिविहितपश्यागाभिप्रायं पितामह विष्णुधर्मोत्तरोतसत्रपरश्च । गर्गः । "पायुर्दायविभाग प्रायश्चित्तक्रिया तथा। सावनेन तु कर्तव्या मन्त्राणामप्य - पासना" ॥ सूर्यसिद्धान्ते। “सूतकादिपरिच्छेदो दिनमा साब्दपास्तथा। मध्यमग्रहमुक्तिश्च सावनेन प्रकीर्तिता" ॥ मध्यमग्रभुक्तिोतिर्गणनाप्रसिद्धा। याज्ञवल्क्यः। "गर्भाधानमृतौ पुंसः सवनं स्पन्दनात् पुरा। षष्ठेऽष्टमे वा सौमन्तः प्रसवे जातकर्म च ॥ अहन्येकादशे नाम चतुर्थे मासि निष्क्रमः। षष्ठेऽवप्राथनं मासि चड़ा काया यथाकुलम् ॥ एवमेनः शमं याति वीजगर्भसमुद्भवम्” ॥ ऋतौ ऋतुकाले। यथा मनुः। “ऋतुकालाभिगामौ स्यात्” इति स च कालो यात्रवस्कयोक्तः। षोड़शनिशाः स्त्रीणां तासु युग्मास संविशेत् । तेन गर्भधारणयोग्यावस्थोपतक्षितः काल ऋतुः । सच रजोनिःसरणकालमारभ्य षोड़शाहोरात्रात्मकः ततश्व गर्भाधानसंस्कारोपक्रमे सावनगणनासिद्धा। पुंसवने चतुर्थे स्पन्दते ततः। इति वचनात् स्पन्दनात् पूर्व हतौयमास: काल: तत्र चतुर्थमासस्य सौरले चान्द्रत्वे वा निषेकमासस्थापि तथावे तदाद्यन्तदिननिषेके सत्यधिकन्यनकालयोगर्भस्पन्दन For Private And Personal Use Only Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७४८ मलमास तत्वम् । मनियत मापद्येत | सावने तु नियतं तेनात्रापि सावनगणनायुक्ता योषिद्यवहारसिडा च । ग्रहन्येकादशे नाम इत्यत्रापि " अशौचव्यपगमे नामधेयम्” इति विष्णुस्वात् । सूतकोत्तरदिनपरमेकादशपदं पूर्वोक्त सूर्य सिद्धान्तोक्तवचनेन सूतकस्व सावन दिन घटितत्वात् तदुत्तरकालस्यापि तथात्वं तस्माद्गर्भाधानपुंसवननामकरणेषु सावनदर्शनात् तत्साहचर्य्यात् सोमतोयनादावपि मासवर्ष गणनायां तथेति चतखड़ोपनयनादिषु वर्षगणना सावनेन शुभाशुभमणनन्तु सौरेणेति सिद्धम् । एवमेन इति एवमुक्तप्रकारगर्भाधानादिभिरेनः पापं वौजगर्भसमुद्भवं शुक्रशोणितसम्बन्धं गावव्याधिसंक्रान्तिनिमित्तं नाशं याति नित्यत्वेऽप्यानुषङ्गिकमेतत् । उपनयनोत्तरावधिमाह याज्ञवल्काः । " प्राषोड़शाच दाविंशाच्चतुर्विंशाश्च वत्सरात् । ब्रह्मचत्रविशां काल श्रोपनायनिकः परः" ॥ चाङ अभि विध्यर्थः । मय्यादाभिविधिसन्देहे काव्यान्वितत्वेनाभिविधेरेक बलवत्त्वात् एवमेव भट्टभाष्य सरलाभवदेव भट्टमिताक्षरा कुल्लकभट्टकल्पतरुस्मृतिसारप्रभृतयः । शूलपाणिरपि याज्ञवल्काटीकायामेव किन्तु प्रायवित्तविवेके मय्यादार्थकतामाह यमवचनात् । यथा “ पतिता यस्य सावित्री दशवर्षाणि पञ्च च । ब्राह्मणस्य विशेषेण तथा राजन्यवैश्ययोः । प्रायश्चित्तं भवेदेषां प्रोवाच वदतां वरः " ॥ कुल्लकभट्टप्रायवित्तकल्पतरुष्टत मप्येतत् । अत्र ब्रूमः । " औपनायनिकः कालः परः षोड़शवार्षिकः । द्वाविंशतिः परोऽन्यस्य स्वाञ्चतुर्विंशतिः परः" इति कल्पतरुष्टतव्यासवचनं परोऽन्त्यः षोड़शवार्षिक षोडशवर्षे वाप्य भूतः स्थित इति यावत् । तमधौष्टो भृतो भूतो भावौति ठक् वर्षस्या भविष्यतीति उत्तरपदवृडिः अधीष्टोऽध्येषणायुक्तो बुरुः भृतो भृतिग्टहोतो दासः । राजमार्त्तण्डे कत्यचिन्ता For Private And Personal Use Only Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मसमासतत्त्वम् । मगच मार्कण्डेयः। “विप्रस्य षोड़शाहर्षादात्री हाविंशतः परम्। वैवस्याटविकादब्दात् सावित्री पतनं भवेत् ॥ पष्टविकाचविंशतः। विष्णुधर्मोत्तरे। 'षोड़शाब्दा हि विप्रस्य राजन्यस्त्र हिविंधतिः। विंशतिः सचतुर्थी च वैश्यस्य परिकीर्तिता। सावित्री नातिवर्तेत प्रत जड निवर्तते । भाभ्यां षोडशवर्षाद्युपरि यमेन पञ्चदशवर्षोपरि यत् पतनमभिहितं तह जन्मप्रभृतिगणनाभ्यामविरुद्धम्। तथा च कत्वचिन्तामणौ माण्डव्यः। “व्रतबन्धविवाहे च वत्सरपरिकल्पनमाहुराचार्याः। प्राधानपूर्वमेके प्रसूतिपूर्व सदान्ये तु"। एवञ्च व्यासमार्कण्डेयादिवाक्य कवाक्यतया न्यायसिहतथा च पाषोड़शादित्यादावाडोऽभिविध्यर्थतेव तत्रापि गर्भातिरिक्त वर्षगणनासावनेनैव। यत्तु विजानामुपनयनमुपक्रम्य पेठौनसिवचनम्। हादश-षोड़शविंशतिश्चेदतोता अवरुद्धकाला भवन्तीति । तत् हादशवर्षाद्युपरि प्रत्यवायाल्पत्वज्ञापनपरमिति शून्नपाण्युपाध्यायाः पत्र महाव्याहृतिहोमः प्रायश्चित्तं तदुत्तरं व्रात्यप्रायश्चित्तमिति मैथिलास्तु । “विवाहादौ स्मृतः सोगे यन्नादौ सावनो मतः। शेषे कर्मणि चान्द्रः स्वादेष मासविधिः स्मृतः ॥ शेषे सौरादिविशेषोल्लेखरहित इत्याहुः । महावाक्यावस्था दक्षः। “चान्द्रेण तिथिकत्यन्तु यथाविहितमाचरेत्। कार्तिकादिनाने च चान्द्रसौरयोर्विकल्पनानुष्ठानं यथा कृत्यकौमुद्यां पितामहः । “कार्तिकस्य तु यत् स्नानं माघे मासि विशेषतः । कच्छादिनियमानाञ्च चान्द्रमानप्रमाणत:” पद्मपुराणम् “तुलामकरमेषेषु प्रातःसानं विधीयते। हविध मनचर्यच महापातकनाशनम् ॥ अवोदितानुदितहोमवदिकल्पेनानुष्ठानमिति हेमाद्रिः। कार्तिके मन्त्रस्तु। कार्तिकेऽहं करिष्यामि प्रातःमानं जनार्दन। प्रौत्यर्थं तव देवेश For Private And Personal Use Only Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मलमासतत्त्वम् । दामोदर मया सह । मया लक्ष्मया। स्कन्दपुराणे । "संप्राले मकरादित्ये पुण्ये पुण्यप्रदे सदा। कर्तव्यो नियमः कश्चित् व्रतरूपो नरोत्तमैः । प्रारब्धकार्तिकादिकाम्यस्त्राने तु व्याध्यादिनाऽसामर्थे पुत्रादिप्रतिनिधिना कारयितव्यम् । नानु. कल्पविधिना। नित्यस्नान एव तहिधानात् इति विद्याकरी युक्तञ्चैतत् । “जिह्मां त्यजेयुनिर्लाभमशतोऽन्येन कारयेत् । अनेन विधिराख्यात ऋत्विक् कर्षककर्मिणाम्" इति सम्भयबाणिज्ये याज्ञवल्क्यवचनात् जिलो मित्रवञ्चकः। तं निर्लाभ कत्वा त्यजेयुर्वहिष्कुर्युः । गारुड़े। “गङ्गायां येऽवगाहन्ते माधे मासि नराधिप। चतुर्युगसहस्रान्ते न पतन्ति सुरालयात् । दिने दिने सुवर्णानां सहस्रन्तु विशाम्पते । तेन दत्तं हि गङ्गायां यो माघे नाति मानवः” ॥ पद्मपुराणे। "मकरस्थे रवौ माघे प्रातःकाले सदा मुने। गोस्पदेऽपि जले मानं स्वर्गदं पापिनामपि ॥ स्वान्दे। "मकरस्थे रवौ माधे न नात्यनुदिते रवौ। कथं पापैः प्रमुच्येत कथं स त्रिदिवं व्रजेत्” । अनयोः सूर्योदयात् प्रागेव स्नानं प्रतीयते। तथा च सामान्यतः प्रातःस्नाने विष्णुः "प्रातःस्नाय्यरुणकिरणग्रस्तां प्राचौमवलोक्य सायात्" । दक्षोऽपि । “सध्यानानं निशान्ते तु मध्याहे तु ततः पुनः”। यत्त पद्मपुराणम् । “माघे मासि रटन्त्याप: किञ्चिदम्युदिते रवौ। ब्रह्मघ्नमपि चाण्डालं कं पतन्तं पुनीमहे" ॥ इति तद्रटन्त्याख्यचतुर्दशौविषयम् । यथा यमः। “माघे मास्यसिते पक्षे रटल्याख्या चतुर्दशी। तस्यासुदयवेलायां नाता नावेक्षते यमम् ॥ साता स्नानकारी। "अनर्काभ्युदिते काले माघे कृष्ण चतुर्दशौम्। स्नात्वा सन्तप्यतु यमान् सर्वपापैः प्रमुच्यते” ॥ अनर्काभ्युदित इति ईषदर्थे नञ् तो न उदयवेलायामित्यनेन विरोध इत्याहुस्तचिन्त्य For Private And Personal Use Only Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७५१ मलमासत त्वम् । "परवचनायोर्मध्ये सतारव्योमकाले तु तत्र सानं महाफलम्" इति समुद्रकरभाष्यकृतात् । किन्तु उदयवेलायामरुणोदयवेलायामित्यर्थः । किञ्चिदम्युदिते रवावित्यनेन माघप्रातःस्नानकालोतरावधित्वमुक्तम् । तथा वराह: "तेजः परिहानेरुषा भानोरोदयं यावत्" । अतएव “यो माघमास्युषसि सूर्यकराभिताने स्नानं समाचरति चारुनदीप्रवाहे। उद्धृत्य सप्तपुरुषान् पिटमाटवंश्यान् स्वर्ग प्रयात्यमरदेहधरो नरो. ऽसौ” ॥ इत्यत्र अषसि इत्यभिधाय सूर्यकराभितान इत्युक्तं मूर्योदयात् प्रागपि तत्करसम्भवात् न तु सूर्याभितान इत्युक्त विधिमाह पाझे। “माघमासमिमं पुण्यं नाम्यहं देव माधव । तीर्थस्यास्य जले नित्य प्रसीद भगवान् हरे ॥ दुःख. दारिद्रानाशाय श्रीविष्णोस्तोषणाय च । प्रातःस्नानं करोम्यद्य माघे पापप्रणाशनम् ॥ मकरस्थे रवी माधे गोविन्दाच्युतमाधव । मानेनानेन मे देव यथोक्त फलदो भव ॥ एतन्मन्त्र समुच्चार्य स्नायान्मौनं समाहितः । वासुदेवं हरिं कृष्णं श्रीधरञ्च स्मरेत्ततः ॥ दिवाकर जगनाथ प्रभाकर नमोऽस्तु ते। परिपूर्ण कुरुष्वेदं माघस्नानं महाव्रतम्” ॥ चान्द्रमाने तु मकराांस्कृष्ट काले मकरस्थे रवाविति मन्त्रो न पठनीयो. ऽसमवेतार्थत्वात् प्रात:नानेऽपि “यथाहनि तथा प्रातनित्य मायादनातुरः"। इति छन्दोगपरिशिष्टौयेनाहःसानधर्मातिदेशात् सध्यावन्दनोत्तरत्वं पद्मपुराणोय तदङ्गतर्पणस्य तद्यथा। "नित्यं नैमित्तिकं काम्यं त्रिविधं मानमिष्यते। तर्पणन्तु भवेत्तस्य अङ्गत्वेन व्यवस्थितम्" ॥ नित्यं प्रात्यहिकं प्रात. मध्याह्नसम्बन्धिनैमित्तिकमुपरागादिनिमित्त काम्यं तीर्थादौ क्रियमाणम् अतएव यद्यपि स्नानाङ्गं तर्पणं तत्प्रयोगान्तर्भवितुमईति तथापि सध्यानुष्ठानसत्वे तस्य वाचनिक सन्ध्योत्तरत्वं For Private And Personal Use Only Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . मतमासतखम् । चन्द्रग्रहाणादौ तु तदभावात् बामप्रयोगान्तर्गतत्वमिति छन्दोगाडिकादयः मध्यानानप्रयोगान्तर्गततवन्तु "तर्पगन्तु शचिः कुर्यात् प्रत्यहं सातको हिजः। देवेभ्यप ऋषिभ्यश्च पिलभ्यश्च यथाक्रमम्" इति शातातपोत प्रधानतर्पणस्य प्रकृतीभूतं नित्याग्निहोत्रमिव सत्राग्निहोमस्य तवाङ्गतर्पणे सध्योत्तरत्वं साक्षादुक्तम् । विकतावपि सम्भवप्राप्तम् । यथा ज्योतिष्टोमस्येव्युत्तरकालत्व विकृतीभूतसोमेऽप्यतिदेशप्राप्तम्। किञ्च रहमेधीय यागकालमध्ये पग्निहोत्रकास पागते तनपदार्थक्रमवाधेनाग्निहोत्रानुष्ठानं निर्णीतं तथा सानानन्तरं सन्ध्याकाल पागते तर्पणमकत्व व सध्यानुष्ठानं युक्तमिति विद्याकरवाजपेयौ व्यवहारोऽपि तथेति माघाधिकार गारड़े "मातरं पितरश्चापि भ्रातरं सुहृदं गुरुम्। यमुहिश्य निमज्जेत हादशांशं लभेत सः ॥ मार्कण्डेयः। “सितासितेषु यः सायात् माघे मासि युधिष्ठिर। न तेषां पुनराहत्ति: कल्पकोटिशतैरपि। दशकोटिसहस्राणि षष्टिकोव्यस्तथापराः॥ माधे मासि प्रयागे तु गङ्गायामुनसङ्गमे, ॥ वैष्णवामृते स्कन्दपुराणम् । “पौयान्तु समतौतायां यावद्भवति पूर्णिमा । माघमासस्य देवेश पूजाविष्णोविधीयते ॥ पौर्णमास्यन्तमाधमुपक्रम्य "पितृणां देवतानाच मूलकं नैव दापयेत्। ददबरकमानोति भुजौत ब्राह्मणो यदि ॥ ब्रामणो मूलकं भुक्का चरेश्चान्द्रायणं व्रतम्। अन्यथा याति नरकं क्षविटशूद्र एव च ॥ तथा “वरं भक्ष्यमभच्यञ्च पिबेदा गहितञ्च यत्। वर्जनौयं प्रयत्नेन मूलकं मदिरासमम् ॥ वैशाखमानन्तु सौरेण यथा भविष्थे "गवामप्रसूतानां लक्षं दत्त्वा तु यत् फलम् । तत्फलं लभते राजन् मेषे सात्वा तु जाझवीम् ॥ नाचत्रमासप्रयोजनं विष्णुधर्मोत्तरे। “नक्षत्रसनायनादि For Private And Personal Use Only Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७५३ मलमासतत्त्वम् । चेन्दीसिन कुर्याइगणात्मकेन" । नक्षत्रसत्राणि माससाध्य. यागविशेषाणि याधिकप्रसिहानि इन्दोरयनानि सोमायनाख्यसत्राणि इति समयप्रकाशः। एवं जन्मनक्षत्रे शनिभौमवार. फलं नाक्षत्रमासेन योग्यत्वात् यथा दौपिकायाम "जन्मन्यचे यदि स्यातां वारी भौमशनैश्चरौ। समास: कल्मषो नाम मनोदुःखप्रदायकः ॥ तस्मादेभिश्चान्द्रसौरसावननाक्षत्रमा मेषु कर्माणि विहितानि तत्परिचायकानि चन्द्रमाः कृष्णपक्षान्ते इत्यादि विष्णुधर्मोत्तराद्युक्तवचनानि न तु शक्तिग्राहकाणौति सिद्धम्। प्रलस्तत्तत्कर्मसङ्कल्पे “मासपक्षतिथौनाच निमित्तानाच सर्वशः। उल्लेखनमकुर्वाणो न तस्य फलभाग्भवेत् ॥ इति ब्रह्माण्डपुराणातन तत्तहिहितमास एव निर्देश्यः। पत्र चकारहयश्रुतेर्मासपक्षतिथीनाञ्चेति न निमित्तविशेषणं किन्तु खातन्त्रणेव यथासम्भवमुभयोरुल्लेखः । तथा च हैतनिर्णये दर्शथाहादौ कृष्णादिरेव मासो निर्देश्यः तस्य तत्तिथिपुरस्कारेणैव करणात् तदितरत्र सांवत्सरिकादौ शलादिरेव निर्देश्यः तस्य प्रयाणतिथिकर्तव्यत्वेन त्रिंशत्तिथिसाधारणतया तत्तत्तिथिनियत ब्रह्मपुराणास्पर्शादित्युक्तम् । वाइचिन्तामणावपि शादादिकम्मणि विशेषवचनं विना शुल्लादिरेव निबन्धुभिरादरणादित्युक्तम् । गङ्गावाक्यावल्यामपि वारुणीनाने मधुकृष्णात्रयोदश्यामिति वाक्यरचना। किच यदि सर्वकम्मणि मुख्यचान्द्रेणैव वाक्यरचना स्यात्तदाखयुक्कृष्णपक्षौयथाऽपि मुख्यचान्द्रत्वेन भाद्रपदप्रयोगः सम्भवति तवाखयुक्पदप्रयोगो मुनौनां व्यर्थः स्यात् तस्येदमेव प्रयोजनं यत्तेन निर्देशः । एवं विवाहादौ सौरेणाभिलापः एवञ्च सावने नाचवे च चैत्रादिनामानुल्लेखामख्यचान्द्रेणैव निर्देशः अतएव स्मतिसारे ब्रह्मपुराणम्। “तिथिक्कत्ये च कृष्णादिं व्रते शक्लादि. For Private And Personal Use Only Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७५४ मलभासतत्त्वम् । मेव च। विवाहादौ च सौरादिं मासं कृत्ये विनिर्दिशेत । सौर: सूर्यसंक्रमः । संकल्ये मासादिवदद्योल्लेवोऽपि "ब्राह्मणानुपामन्वयेत् खोऽद्येति वा श्राहमाचरिष्ये” इति शङ्खलिखितदर्शनात्। प्रद्यक्तष्णाष्टमों देवौमिति वचनात् अद्यचन्द्रार्कग्रहण मिति भविष्याच एतेनाहः पदस्य रात्रि परत्वाभावात् रात्री घेत अस्यां रात्री इति वक्तव्य नाद्येति मतं चिन्यं रात्रिपदो. लेखे मानाभावात् एवमने काहसाध्ये कर्मणि तिष्युल्लेखानन्तर मारभ्येत्यल्लेखः । अन्यथा तमासपक्षतिथिविशेषादौनां दिनास्तरासत्त्व नानन्वयः स्यात् । अथ दर्शान्तमासशक्यत्वे साधकान्तराणि। मसापुराणे। *प्रथमः खेतकल्पस्तु हितौयो नौललोहितः । इत्यादि चतुदशकल्पानुक्का “कौम्यः पञ्चदशो ब्रह्मन् पौर्णमासौ प्रजापतेः । षोड़शो नारसिंहस्तु” इत्यादिना ऊनविंशत् कल्पानुका “पिढकल्पस्तथान्ते तु या कुइब्रह्मणः स्मृता। इत्ययं ब्रह्मणो मासः सर्वपापप्रचाशनः। पादावेव हि माहात्मा यस्मिन् यस्य विधीयते । तस्य कल्पस्य तमाम विहितं ब्रह्मणा पुरा । अत्र ब्रह्मणोदन्तेि मासपदशक्रेतादन्येषामपि तथैव युक्तम् । श्रुतिरपि “पूर्व: पक्षो देवानामपरः पक्षः पितृणाम्" इति मासान्तर्गत शुक्लकष्णपक्षावेव पूर्वापरत्वेन विदधाति । संवत्सरप्रदीपे। षद्विशन्मत "तत्र पक्षावभौ मासे शुक्लकणी क्रमेण हि। चन्द्राधिकरः शुक्लः कृष्णचन्द्रक्षयात्मकः । पक्षत्याद्यास्तु तिथयः क्रमात् पञ्चदश स्मताः। दर्शान्ता: कृष्णपक्षे ताः यूर्णिमान्ताश्च शुक्लके"। पक्षति: प्रतिपत्। अमर कोष “पक्षौ पूर्वापरी शुक्लकृष्णौ मासस्तु तावभौ”। पत्र यदि दर्शान्तमात्र मासपदस्य शतिनं स्यात् तदा चान्द्रमास इत्येव विदध्यात्। मासविशेषवाचिनश्चैत्रादयोऽपि चान्द्रे For Private And Personal Use Only Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७५५ मलमासतत्त्वम्। मता वक्ष्यन्ते। चान्द्रे यौगिकोऽपि मासशब्दस्वथा हि मास. चन्द्रस्यायं वृहितास हेतुनक्षत्रभोगात्मकः क्रिया प्रचयः सूर्यमण्डलवियोगसंयोग इति चन्द्रवाचिहलन्तमामशब्दादन् प्रत्य. यान्तात् सिद्धः। तथा च गदसिंहः। “मूई न्यान्तो माषोमाने बौद्यन्तरेऽपि निर्दिष्टः। कालविशेषे दन्त्योमाश्चन्द्रकालयोस्तथा" इति। तिथिखरूपमाह सूर्यसिद्धान्तः । "पर्कादिनिःसृतः प्राची ययात्यहरहः शशी। भागैर्हादशभिस्तत् स्वात्तिधिश्चान्द्रमसं दिनम्” । द्वादशभिर्भागययाति. तदेव यानं तिथिः विनिःसृत इति शुक्लपक्षतिथ्यभिप्रायेण कृष्णपक्षे विप्रकष्टात् सद्रिकर्ष इत्यपि बोध्यम्। भागस्त्रिंशांशराशेरेकोऽशः । तथा च हेमाद्रिमारसंग्रहयोर्विष्णुधर्मोतरे। "विशांशकस्तथा राशेर्भाग इत्यभिधीयते । प्रादित्या. हिप्रकष्टस्तु भागं हादशकं यदा। चन्द्रमास्यात्तदा राम तिथिरित्यभिधीयते । तेनार्कापेक्षया चन्द्रस्य राशिहादशांशभोगेन एकातिथिरेवमपरापरापि सा चैकैककलाक्रियालवणा। तत्र प्रथमकलाक्रियारूपा प्रतिपत् एवं हितौयादिः। साच बहिरूपा चेत् शक्ला झासरूपा चेत् कृष्णेति न च "अष्टमांश चतुर्दश्याः क्षीणो भवति चन्द्रमाः। अमावास्याष्टमांश च ततः किल भवेदनुः" इति छन्दोमपरिशिष्टवचनाच्चतुर्दश्या: शेषयामे पञ्चदश्याः कलाया: क्षयारम्भात् एवं दन्तियामे श्राद्यकलाया उत्पत्तेविरोध इति वाच्यं तस्य दर्शवाहार्थं पारिभाषिकक्षयोत्यत्तिपरत्व न तु वास्तवं स्मतिज्योतिःशास्त्रोतागण नाविरोधात् उपनौव्यगोभिलविरोधाच। यथा गोभिलः । "सूर्याचन्द्रमसोर्यः परः सन्त्रिकर्षः सामावास्या" इति। परः मविकर्ष उपबंधो भावापनसमसूत्रपातन्यायेन एकांशावच्छे द्वेन एकराश्यावस्त्रानं स च दान्तक्षणेऽव्यभिचारी तथा च For Private And Personal Use Only Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मलमासतत्त्वम् । विरोधे न्याययुक्तस्य प्रामाण्यमाइ भविष्यपुराणम्। “मृत्य. थेन विरोधे हि अर्थशास्त्रस्य वाधनम्। परस्परविरोधे तु न्याययुक्त प्रमाणवत्" ॥ अर्थशास्त्रस्य मन्वादिप्रणीतराजनीत्यादिविषयस्य यदाह। “नागमन्तु यक्त पित्रा पूर्व तरैस्त्रिभिः। न तच्छ क्यमपाकत्तुं क्रमात्रिपुरुषागतम् । पित्रा पूर्वतरैः पितरमादाय पूर्वतरैरित्यर्थः। "अनागमन्त यो भुङ्क्तो बन्यब्दशतान्यपि। चौरदण्डन तं पापं दण्डयेत् पृथिवीपतिः' । इत्यनयोधर्मशास्त्रार्थशास्त्रयोविप्रतिपत्ती धर्मशास्त्रेण दण्ड विधायकमर्थशास्त्र वाध्यते ततव अर्थशास्त्रस्य त्रिपुरुषोयेतरपरत्वेन सङ्कोचः। वृहस्पतिः । "माहर्ता शोधयेद्भक्तिमागमञ्चापि संसदि। तत्सुतो भक्तिमेकैकां पौत्रादिषु न किञ्चन"। भुतिशोधनमाह कात्यायनः । "सागमो दीर्घकालच निश्छिद्रोऽन्यतगेनिभातः। प्रत्यर्थि. सविधान पञ्चाङ्गो भोग इष्यते । पिपौरुष विशेषमाह व्यासः । “प्रपितामहेन यदभुक्त तत्पुत्रेण विना च तम्। तो विना तस्य पित्रा च तस्य भोगस्त्रिपौरुषः”। इति प्रसङ्गादुक्तम्। वर्द्धमानोपाध्यायधृत ज्योतिर्वचनम्। “एकातिथि: कापि तदादि भूतातिधिस्ततौयेति तिथिप्रबन्धः। मासः सचान्द्रस्तिथिनानि यमाञ्चान्दी कलामाप्य सदा प्रवृत्तः । एकातिथिः प्रतिपत् तदातिभूता पञ्चदशौ यदि तौया भवति तदा प्रतिपदादिपञ्चदश्यन्तस्त्रिंशत्तिथिसमुदाय एको मासः एवं हितौयादि प्रतिपदन्तस्तृतीयादि हितोयान्त इति तस्य चान्द्रले हेतुमाह यस्माचान्द्रों कलां इक्षियाहत्वेन प्राप्य तिथिनाम्नि तिथिसमुदायात्मके प्रवृत्तस्तिथेरेकैककलाक्रिया. रूपत्वात् तथा च हेमाद्रिकालमाधवौययोः स्वान्दे प्रभासबडम्। प्रमा षोड़शभागेन देवि पोखा महाकला। For Private And Personal Use Only Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मलमासतवम् । ७५७ संखिता परमा माया देहिनां देहधारियो । श्रमादिपौर्णमास्यन्ता या एव शशिनः कलाः । तिथयस्ताः समाख्याता: षोड़शैव वरानने” । चन्द्रमण्डलस्य षोड़शभागेन परिमिता देहधारिणौ श्राधारशक्तिरूपा अमानाम्म्रौ महाकला प्रोक्ता क्षयोदयरहितत्वानित्या स्रक्सूत्रवत् सर्वानुस्युता तदन्याः पञ्चदशकलाः पौर्णमास्यन्ताः प्रतिपदादितिथिविशेषरूपा इति षोड़शैव कलास्तिथय इति सिद्दान्तशिरोमणौ । “तन्यन्ते कलिका यस्मात्तस्मात्तास्तिथयः स्मृताः । कलिकाः कलाः । सूर्यसिद्धान्ते । " नाडीषष्ट्या तु नाचत्रमहोरात्र प्रचचते । तचिंशता भवेन्मासः सावनोऽर्कोदयैस्तथा ॥ ऐन्दवस्तिथिभिस्तद्दत् संक्रान्त्या सौर उच्यते ॥ तत्रिशता नाचवदिनविंशता मासो नाचत्रमासः । तथा विंशताकोदयैस्तु राशिविशेषावस्थानवशेन लग्नस्य यावन्ति पलविपलानि रविभोग: स्वात् तदधिकषष्टिदण्डः सावनमहोरावं भवतीति तथा च सिद्धान्त सन्दर्भे "सावमं दण्डाः षष्टिरहः खलग्नखगुणांशाच्यास्तदैनम्भवेत्” दण्डाः षष्टिस्वलग्नखगुणांशाच्याः सावनमहस्तदैनञ्च तेन सावनेनयोः पय्यायता । ऐनमित्यनेन खलग्नमित्यव स्वपदेन रविभुज्यमानं प्रतौयते । खगुणांशास्त्रिंशांग प्रथमान्त तृतीयान्तपदैर्लग्न दण्ड- पलान्याह दौपिकायाम् । "रामो गवेदैर्जलधिस्तु मैत्र र्बाणो रसैः पञ्चखसागरैश्च । बाणः कुवे दैर्विषयोऽयुग्मः क्रमोत्क्रमान्मेषतुलादिमानम्” लग्नानां दिनभोगस्तु लग्नदण्डपलानि द्विगुणौकृतानि पलविपलरूपाणि पार्गिकाणि विशद्दिनन्यूनाधिकवशात् किश्चिदधिकन्यूनानि च ततच दिनं दिनं यानि यानि भुक्तानि तानि ख्युदय लग्नस्य रात्रिशेषप्रविष्टानि अवशिष्टानि दिवसोयानि । एवं तत्सप्तम लग्नपलविपलानि दिनशेषप्रविष्टानि I ६४ For Private And Personal Use Only Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७५८ मलमासलत्त्वम् । अवशिष्टानि रात्रिसम्बन्धौनि जात्वा प्राधन्तलग्नमानयुतामध्यलग्नपञ्चमानदिनराविमानान्यवधार्य प्रातःकालविभागादिनिणयः । अतः सावनसंवत्सरेण एकदिनाधिकवत्सगे नाक्षत्रो भवतीत्यनयोमदः । नाक्षत्रमासफलन्तु। आयुर्दाये स्मृतं प्रार्नाक्षत्र षष्टिनाडिकम्” इति तददिति त्रिशता एवं यत्किञ्चिविंशत्तिथ्यात्मकोऽयं मासशब्दः प्रयुक्तः स "एकाहन तु षण्मासा यदा स्युरपि वा विभिः । न्यूनाः संवत्सरचव स्थातां पाण्मासिके तदा" ॥ इति कात्यायनेनोक स्य “पारमासिकाब्दिके श्राद्दे स्यातां पूर्वेधुरेव ते। मासिकानि स्खकोये तु दिवसे हादशापि छ" इति हेमाद्रिमाधवाचार्यकृतपैठौनस्युक्त वचनस्य च विषये गौणमासपरिचायकः। पूर्वोक्तयुक्त्या शुक्ल प्रतिपदादेरेव मासशब्दाभिधेयत्वात् स्खकोये दिवसे मृताहे एवं पूर्वतिथौ पाण्मासिकाब्दिकविधानात् एकाहेन तु पाण्मामा इत्यत्रापि तथाथत्वात् पूर्वमततिथिं विहायापरमृतिथिमादाय मासवर्षगणना प्रसिद्धा। अतएवाधिकरणस्य कर्मत्वविवक्षया प्रागुतातमधौष्ट इत्यादिसूवेण मासिकाब्दिकपद-. सिद्धिः निमित्तसप्तम्यान्तु तदसम्भवात् न तथा एतेन पूर्वमृततिथिमादाय मासवर्षगणनेन मृतिथेः पूर्वतिथिं विहाय तत्पूर्वदिने मैथिलानां यत् पाण्मासिकदयकरणन्तद्देयमिति सिद्धान्तचिन्तामणो चान्द्रे मासि अन्यथा व्युत्पत्तिर्दर्शिता यथा। "मस्यन्ते परमौयन्ते खकालाहहिहानितः। मास एते स्मृता मासास्त्रिंशत्तिथिसमन्विता:" मासश्चन्द्रस्य वृद्धिक्ष. याभ्यां वकालाचन्द्रसम्बन्धि काला मस्यन्त इति मामा: । तस्मात् लप्तयोगदयालघुहारौतोतात् मासादिमध्यसमाप्ति कीर्तनात् प्रयोगोपाधिसहकतान्यासपदस्य दर्शान्त एव मुख्यत्वं सौरादिषु लक्षणया गोण्या वा प्रयोगोपपत्तेन रूदिशक्तिकल्पनेति । तदुक्तं For Private And Personal Use Only Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७५ मलमारतत्वम् । भट्टपादः लब्धात्मिका सतौ रूढिर्भवेद्योगापहारिणौ। कल्पनौया तु लभते नात्मानं योगवाधतः । न च सौरादिष्वपि चन्द्रादिक्रियाया अव्यभिचारालघुहारौतोक्तवहिष्णुधर्मोत्तराभिहितोपाधिचतुष्टयसहवताद्योगहयात् प्रवृत्तिरस्तु मासशब्दस्येति वाच्यं लघुहारीतीतस्वादिमध्यसमाप्तिकौतनखरसादुपाधित्व विष्णुधर्मोत्तरोतस्य तु तथात्वाभावात् न तथात्वमिति । वस्तुतस्तु चान्द्र एव मासे चन्द्रक्रियाया हक्षियरूपाया असा. धारणत्वेन प्रकृत्तिनिमित्तत्व सौरादौ तु सूर्यादिक्रियाणां तथेति। अतः कथं सौरादौ मासपदप्रयोगावसरः। तथा च शारीरकटोकायां वाचस्पतिमित्राः असाधारणत्वेन हि व्यपदेशा भवन्ति। यथा क्षितिजलपवनवौजादिसामग्रौसमवधानजन्माप्यकुरः शालिवौनजन्यत्वेन व्यपदिश्यते शाल्यङ्गुर इति न क्षित्वादिभिः तेषां कार्यान्तरेऽपि साधारण्यात् तहिं दर्शा. सवञ्चन्द्रक्रियाया असाधारखेन पौर्णमास्यन्तेऽपि कथं न प्रतिनिमित्तत्वमिति चेदुपाधित्वप्रतिपादकवचनाभावात् किन्तु ब्रह्मपुराणादौ प्रौष्ठपदूई कृष्ण पक्षादावश्वयुगादिप्रयोगातथा व गौण्यावसीयते इति। एतत् सर्व क्रियैव काल इति मतानुसारादुक्तं तदतिरितकालवादिमते तु सर्वत्र तत्तत्क्रियोपलक्षित: काल इति विशेषः। तथा च विष्णुपुराणे । “कालखरूपं रूपं तहिष्णो मैत्रेय वर्तते । विष्णुधर्मोत्तरे । “अनादिनिधन: कालो रुद्रः सङ्कर्षणात्मकः। कलनात् सर्वभूतानां स काल: परिकीर्तितः ॥ कलनात् लयकरणात् । तथा च विष्णुः । “ये समर्था जगत्यस्मिन् सृष्टिसंहारकारिणः । तेऽपि कालेन लोयन्ते कालो हि बलवत्तरः" ।। पथ चैत्रादि शब्दानां चान्द्रवाचिता। लघुहारीतः । "चक्रवत् परिवर्तेत सूर्य: कालवशादयतः। अतः सावत्सरं For Private And Personal Use Only Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७६० मलमासतत्त्वम् । श्राई कर्तव्यं मासचिड़ितम् ॥ मासचिकन्तु कर्तव्य पोषमाघाद्यमेव हि। यतस्तत्र विधानेन स मास: परिकीर्तितः । चान्द्रग्रहणे हेतुवनिगदमाह यतः सूर्यः कालवशाञ्चक्रवत् गतेमन्दत्वामन्दत्वाभ्यां गच्छत् तथा च एकराशिमुपभुनानो रविर्मेषादी मन्दगत्या कामप्येकां तिथिं हिस्मृशति तुलादौ शौघ्रगत्या कामप्य कां तिथिं न स्पृशति पति पूर्वन संशयः । उत्तरत्र कर्मणो लोप: स्यादतो मासचिह्नितं शक्लादिमासचिह्नितं कर्तव्यम् प्रब एकस्यास्तिथेहि त्वलोपयोरभावात् अथातः शुक्लादित्व कुत इति चेत् लघुहारौतेनैव इन्द्राग्नौत्यादिना निरुपपदमासशब्दस्य शुक्लादौ सङ्कतमभिधाय चक्रवदित्यभिधानात् एतेन "पार्वण त्वष्ट का श्राद्धे चान्द्रमिष्टं तथाब्दिके इति पारस्करौये पार्वणादिसाइचात् प्राब्दिकश्रादमपि कृष्णादिमासेनेति पाशात्यमतं निरस्तम्। हेतुवन्निगदाधिकरणन्तु प्रमाणलक्षणे यथा हेतुर्वागयते इति हेतुवन्निगदः शूर्पण जुहोति तेन धनं क्रियते इति अयते । अन हिशब्द श्रुतेः स्तुती च लक्षणाप्रसङ्गादनकरण त्वं शूर्प होमे हेतुरद्दिष्टः तथा च यद् यदनकरणं दादि तेन तेन होतव्यमिति प्राप्राधान्तः शूर्पस्य होम करणत्वं हतीयया श्रुत्याऽवगम्यते विध्यर्थस्य च न हेलपेक्षा तस्मात् शूर्पस्तुतिः । यत्तु हेतौ हिशब्द श्रुतिरिति तब न हि साक्षाादिना शक्यमनं कर्तुम् अथ शक्यं प्रणाल्या कथं तहिं श्रुतिः प्रवर्तिता हेतुवचनस्यानपेक्षप्रवर्तकवाक्यस्यैव श्रुतिता। तथा चाभिधातुं पदेऽन्यस्मिन् निरपेक्षरवाश्रुतिरिति । ननु शूर्पस्तुतावपि लक्षणा स्यात् । न हि तेनापि साक्षादनं क्रियते वाढं स्तुतिर्हि अनुवादकत्वाद् यथा प्राप्तलक्षणां सहेत। न विधिरपूर्वार्थकखात् । ततवान बन्यतुपलिखनं तत्प्रमादकतमिति मन्तव्यम् For Private And Personal Use Only Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मलमासतत्त्वम् । ७६१ अतएव महवार्त्तिकेनापि मे हेतुवनिगद्यन्ते हिशब्दादिभिर्नतु परमार्थतव प्रत्युक्तम् । एव यद्यपि " खताहनि तु कर्त्तव्यं प्रतिमासन्तु वारम्" । इत्यादिवचमोपात्तेषु मासिकश्राईषु तत्तन्मासोयतत्ततिथिविशेषविहितकर्मसु च हेतुवचिगदचिन्तनौय: दर्यादेस्तु वचनानुपात्तत्वात्राकाङ्गावसर इति । अतः सांवत्सरं श्राहमिति प्रदर्शनमात्रं तेन मासिकश्राह जन्मतिथि सत्यतत्तन्मासौय तत्तत्तिथि विशेषविहितकर्माण्येम्वेष्यं तत्र शकादेरविशेषात् पुनरनध्यवसायः स्यात् तत्रिरासार्थमाह पौषमाघा यमेव होति सपौषादिः कौहक् तस्य चान्द्रे वा कथं भक्तिरित्य वाह यतस्तव विधानेन शास्त्रेण तश्च इन्द्राग्नी इत्याद्युक्तमेवेतिश्राद्धविवेकक्कत् तत्र मनोरमं लघुहारौतोक्तौ तदुक्तवाक्यान्तरस्य हेतुत्वकल्पनाया अन्याय्यत्वात् । किन्तु विधानेन श्रुत्यादिना तथाच श्रुतिः । " सा वैशाखस्यामावास्या या रोहिण्या सम्बध्यते" इति । " पत्राश्विन्यथ भरणौ बहुलापादतश्च कीर्त्तितो मेषः । वृषभो बहुला शेष रोहिण्यञ्च मृगशिरसः । मृगशिरसोऽई चार्द्रा च पुनर्वसोखांशकास्त्रयो मिथुनम् । पादः पुनर्वसोरन्त्यः पुष्योऽश्लेषा च कर्कटः । सिंहोऽथ मघा पूर्व - फल्गुनीपाद उत्तरायाः । त छेषं हस्ता चित्राईञ्च कन्यकाख्यः । तौलिनि चिवाईं खातोपादत्रयं विशाखाः । भलिनि विशाखायाः पादस्तथानुराधान्विता ज्येष्ठा । मूलं पूर्वाषाढ़ा प्रथमस्वाप्युत्तरांशको धन्वौ । मकरस्तत्परिशेष ं श्रवणापूर्वं धनिष्ठाईम् । कुम्भोऽथ धनिष्ठाई शतभिषापादत्रयं पूर्वायाः । भाद्र पदाशेषस्तथोत्तरारेवतौमौनः” इति। राजमार्त्तण्डोक्त वृषराशिभोग्य रोहिणौन क्षत्रयुक्तामावास्या वैशाखस्येति प्रतिपादयन्ती श्रुतिश्चान्द्र एव शक्ति वोधयति सौरवेशाखे तदसम्भवात् । तथा हि "सूर्याचन्द्रमसोर्यः परः सन्निकर्षः सामावास्या" इति For Private And Personal Use Only Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ७६२ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir I मलमास तत्त्वम् । गोभिलसूत्राच्चन्द्रार्कयोरेक राश्य व स्थानममावास्येति वृषस्थरवावेव रोहिणीयुक्तामावास्यायाः सम्भवात् । कृत्यचिन्तामणौ व्यासः । “मौनादिस्थो रविर्येषामारम्भप्रथमचणे । भवेत्तेऽब्दे चान्द्रमासाद्या द्वादश स्मृताः । येषां शुक्लप्रतिपदादि दर्शान्तानाम् आरम्भप्रथमचणे श्राद्यक्रियाद्यसमये मौनमेषादिस्थो रविर्भवेत् । ते वर्षे चान्द्रमासाचे चवैशाखादि द्वादशसंज्ञकत्वात् दादश स्मृताः । न पुनर्मलमासेऽपि संज्ञान्तरम् । feng seaादिरिति त्वयोदशापि द्वादशसंज्ञका इति व्यासे - नोपदेशिको शक्लादि मासे चैवादि शक्तिरभिहितेति । तदुक्तं “शक्तिग्रहं व्याकरणोपमान कोषाप्तवाक्यादा वहारत । वाक्ा स्य शेषाद्दितेवेदन्ति सानिध्यतः सिद्धपदस्य वृड्डा: " । अतएव " षट्या तु दिवसैर्मासः कथितो वादरायणैः” । इति एकलक्षणशालित्वे न मौणमेकत्वमुक्तं मलमासेऽपि वसन्तादेर्मासइयात्मकत्वार्थम् । चातुर्मास्यादि व्रतान्तरालिक मलमासकर्त्तव्यत्वार्थञ्च न तु वास्तवमेकत्वार्थं श्रुतिस्मृतिविरोधात् । तथा च श्रुतिः " द्वादशमासाः संवत्सरः कचित्रयोदश मासा: संवत्सरः” इति त्रयोदशेत्यधिमा से स्मृतिः । "यस्मिन्रब्द द्वादशैकश्च यव्यः" इति । यत्र्यो मास इति यव्या मासाः स्वमेकः संवत्सर इति शतपथश्रुत्वा यव्यस्वमेकशब्दयोर्मास वर्षपर्यायोक्ता | यत्तु नृसिंहपुराणम्। “पञ्चमासान् हरौ सुप्ते देशे तत्व भयं भवेत् । ब्रह्महा च भवेद्राजा संग्रामे भयमाप्नुयात्” इति । तस्मिन्मिथुनार्क मलमासपाते तस्याप्याषादत्वात् तव हरिशयने सति दोषाभिधायकं तेन तत्र कर्कटे प्रकृताषाढ़ एवं हरिशयनम् । “तत्र यविहितं कर्म उत्तरे मासि कारयेत्” इत्येकमूलत्वात् । यत्र तु मिथुनार्के हरिशयन' तत्र कर्कटादौ मलमासपाते पञ्चमासत्वेऽपि न दोषः । For Private And Personal Use Only Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मसमासतत्त्वम् । चान्द्राषाढ़ादिष्वेव शयनादि विधानात् । तथा च मत्सर पुराणम् । “शेते विषणुः सदाषाढ़े भाटे च परिवर्तते । कार्तिके परिबुध्येत शलपक्षे हरदिने । सौरपरत्वे कर्कटादि शयनादौ सदेत्यनुपपत्तेः । ततश्च व्यासवचनान्मौनस्थरविप्रारब्धशक्लप्रतिपदादिदर्शान्तश्चैत्रो मास इति एवं वैशाखादिरपि । एतेन मौनस्थरविप्रारब्धादीनां गुरुत्वान्मौनस्थरव्यादौनां लघु. वात् “नाटहौतविशेषणा बुद्धिर्विशेथे चोपजायते” इति न्यायाच सौर एव शक्तिरिति निरस्त वचनस्य नातिभार इति न्यायात्। अतएव प्रमाणवन्त्यदृष्टानि कल्पयानि सुबइन्य. पौत्युक्तम् प्रतएव सौर कृष्णप्रतिपदादि पौर्णमास्यन्ते दायचैत्रादि पदप्रयोग: सगौख्या लक्षणया वा बेदितव्य इति चान्द्रवदुभयनोपदेशिकशोरभावात् एवं नानार्थतापि न तथा चान्द्र एव चैत्रादिपदानां शक्तौ नक्षत्रेण युक्तः कालः। सास्मिन् पौर्णमासौति संज्ञायामिति सूत्राभ्यां पाणिनेः खरसोऽवगम्यते। अतएव जयादित्येन परसूत्रे दशरात्रादि व्याहत्त्वर्थ मासाईमाससंवत्सराणाम इयं संजेति अभिधाय पौषमाषः पौषोऽईमासः पौषः संवत्सर इत्युदाहृतम् एतत्समय प्रकाशकतापि लिखित तत्र पुष्ययुक्ता पोर्णमासौ पोषो सास्मिन् मासे इति पौष एवं माघादिः अभिधानच "पुष्थयुक्ता पौर्णमासौ पोषौमासे तु यत्र सा नाम्ना सपोषा माघाद्याश्चैवमेकादशापरे”। एवमईमासेऽपि संवत्सरे तु विशेषो वराहसंहितादैवज्ञमनोहरकत्यांचन्तामणिषु नक्षवेण सहोदयमस्त याति येन सुरमन्त्रोतमन्न वक्तव्यम् वर्ष मासक्रमेगैव। वर्षाणि कार्तिकादौनि भाग्नेयायानुयोगौनि क्रम. शस्त्रिभञ्च पञ्चममन्त्यमुपान्त्यञ्च विज्ञेयम्। नक्षत्रेण गुरुभुज्यमाननक्षत्रेण भाग्नेयं कृत्तिका। पञ्चम फाल्गुनं वर्षम् For Private And Personal Use Only Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७६४ मलमास तत्त्वम् । "अन्त्योपान्त्यौ विभौ " अन्त्यमाश्विनम् उपान्त्यं भाद्रम् । ज्ञेयौ फाल्गुनच त्रिभो मतः । शेषामासाहिभाज्ञेयाः कत्तिकादि व्यवस्थया" इति वचनात् । "हे हे चित्रादि तारायां पूर्णपर्वेन्दुसङ्गते । मासाश्चैवादयो ज्ञेयास्त्रिकैः षष्ठान्तसप्तमाः” । इति सङ्घर्षणकाण्डाश्च । पूर्ण पर्वेन्दुसङ्गते पौर्णमासौसंयुते तदेकवाक्यतया पूर्ववचने पौर्णमासौलाभः यथा मासानां पौर्णमास्यां कृत्तिकादिसम्बन्धात् कार्त्तिकादित्व तथा वर्षाणां वृहस्पतेरस्तोदय सम्बन्धात् कार्त्तिकादित्वं तेन कृर्त्तिकारोहिण्योरेकतरस्मिन् वृहस्पतेरस्तोदयैकतरलाभे कार्त्तिकवर्षम् एवं मार्गशीर्षादि यत्र वर्षयघटकयोर्नचत्रयोरेकतस्मिन्रस्तंगतो गुरुरन्यस्मिन्नुदेति तत्र का गतिरिति चेत् कार्त्तिकोत्तरं मार्गशीर्षं तदुत्तरपौषमित्यादि क्रमागतिः । एव महाज्यैष्ठां ज्यैष्ठसंवत्सराभिधानम् अनया दिशा ज्ञेयम् । यथा राजमार्त्तण्डकत्यचिन्तामण्योः "ज्यैष्ठे संवत्सरे चैव ज्येष्ठमासस्य पूर्णिमा । ज्येष्ठाभेन समा युक्ता महाज्यैष्ठी प्रकौर्त्तिता" । संवत्सर शब्दोऽव वर्षमात्र पय्यायः । न तु संवत्सर परिवत्सर इदावत्सरानुवत्सर उदावत्सर पञ्चकान्तर्गतवत्सरविशे परः । तदवगमकन्तु " शकाब्दात् पञ्चभिः शेषात् समाद्यादिषु वत्सराः । सम्परौदानु पूवास तथोदापूर्वका मताः " । संवत्सरफलमुक्तं विष्णुधर्मोत्तरे । “संवत्सरे तथा दानं तिलस्य तु महाफलम् । परिपूर्वे तथा दानं यवानाञ्च द्विजोत्तमाः । इदा पूर्वेऽन्रवस्त्राणां धान्यानाश्चानु पूर्वके । उदासंवत्सरे दाम रजतस्य महाफलम् । ज्योतिर्विदस्त्विज्य मध्यात् प्रभवादेव सम्भवम् । ऊचुस्तद्दत् समाद्यादि वर्षाणामपि सम्भवम् " द्रव्यमध्याद्गुरुमध्य भोगगणनात् । प्रभवादि वर्षषष्टेः । गङ्गावाक्यावल्यामपि ज्यैष्ठे संवत्सरे इत्येव पाठः । किन्तु ज्येष्ठ For Private And Personal Use Only Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir । महा मलमासतत्त्वम् । संवत्सरपदार्थानभिरेव तत्रान्यथा व्याख्यातं ज्येष्ठानक्षत्रयुक्ता यदि ज्येष्ठौ पूर्णिमा संवत्सरे स्यात् तदा महाज्य ठो भवति संवत्सरस्तु संवत्सरपरिवत्सर इत्यादि पञ्चविधवारेषु वत्सरविशेष इति । तत्र ज्येष्ठ इत्यस्य संवमरविशेषेण स्यानर्थ क्यात् । एतेन तदृष्ट्वा कैश्चित् संवत्सरे यदि स्यात्विति परिकल्पा पठिमिति तडेयम् । तथा चातसागरे हादशवर्षफलप्रस्ताव क्रमशो विष्णुधर्मोत्तरवृद्ध गायं. वराहसंहितावचनानि "ज्य ठामूलोपगे जौवे वर्ष स्वाच्छकदैवतम् । पौड़ाकर धर्मभृतां सम्यक् श्रेष्ठमाहौभृताम् ॥ ज्येष्ठमूले च नक्षत्रे चरद्यदि वृहस्पतिः। ऐन्द्रः संवत्सरः स स्यात् सवभूताशिवप्रदः । शक्दैवतं ज्यं ठं वर्षे ज्येष्ठायाः शक्रदैवतत्वात्। एवमैन्द्रोऽपि “ज्य ठे जातिकुलश्रेणिश्रेष्ठानृपाः सर्वधर्मज्ञाः । “पौद्यन्ते सर्वधान्यानि हित्वा कङ्गशमौजानि"। शमौ शिम्बा तत्प्रभवमुद्रक लायादौनि। "माषादयः शमौधान्ये शूकधान्ये यवादयः” इत्यमरः। शेषवचनं कवचिन्तामणापि इत्यच चैत्रादौनां वर्षवाचित्वात् तयाहत्तवे सङ्कल्पबाक्येऽप्य मुके मासौत्य च्यते । एवं पक्षपदं तिथि पदञ्च शुक्लगुणहितौयादिसंज्ञकानां व्याहत्तये। अतएव भविष्यपुारगादी "माघे मासि सिते पक्षे सप्तमो कोटिभास्करा"। इत्युक्ताम् प्रतो माघशुक्लसप्तम्यामित्यादिवाक्यरचना मैघिलानां हेया। विद्याकरवाजपेयनापि विहिताविहितत्वसन्देहे क्रममावविरोधिरूपादविहितकरणादिहिताकरणऽपि महान् दोष इति करणमेव न्यायमित्यु लम् । तदस्तु प्रवतमनुसगमः । न च सोऽपि पोषमाघादी तादृशी व्यत्पत्तिः सम्भवति । पुष्यमधादियोगस्य सौर पौर्णमास्यामसम्भवात्तथा च गोभिलः । "सूर्याचन्द्रमसाय: परो विप्रकर्षः सा पौर्णमासौ” इत्यत्र For Private And Personal Use Only Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७६६ मलमास तत्त्वम् । पौर्णमास्यन्तयामे सूर्याचन्द्रमसोः सप्तमराश्यवस्थानरूपपरमविप्रकर्षनियमात् स च पुष्यकर्कटस्थे चन्द्रे धनुःस्थे रवौ न भवेत् षड़ष्टकेनावस्थानात् किन्तु मकरस्थे रवौ सम्भवति तत्र सप्तमेनावस्थानात् ततश्च सा व्युत्पत्तिश्चान्द्र एव पौषे न तु सौरे 1 तथा चान्द्र एव मास: पौषः एवं माघादिषु ज्ञेयम् । अतएव लघु हारीतेन प्रथमतः पौषमाघाद्यमेव हौत्युक्तं न च चैत्रादोति पोषमाघाश्विनेषु सोरेषु सर्वथा योगासम्भवात् चैत्रादो कदाचित् सौरेऽपि योगासम्भवात् तर्हि उक्तयोगाद्यौगिक चैत्रादिशब्दोऽस्तु किं मौनस्थरविप्रारब्धेत्यादिना रूढ़िकल्पनया मैवम् अन्त्योपान्त्या वित्याद्युक्तप्रकारेण रोहिण्यादी योगस्य व्यभिचारात् । न च तदत्यन्ताभावाभावरूपयोग्यतावशादपच अपि सूपकारः पाचक इतिवत् प्रत्रापि तथास्त्विति दोचितां युक्तम् इति वाच्यं व्यक्तिभेदेन कृत्तद्वितवाच्यायोग्यताभावात्तत्र योगकल्पनन्तु उदात्तादिखरसभेदज्ञापनाय यदुक्त भट्टपादैः " यत्रार्थस्य विसंवादः प्रत्यक्षेणोपपद्यते । स्वरमंस्कारमात्रार्था तब स्वात् पाणिनिस्मृतिः ॥ अथ सा वैशाखस्या तत्र मावास्या या रोहिण्या सम्बध्यते” इति श्रुतवैशाख एक एव चान्द्रः श्रोतः सौरास्तु माघादयो द्वादशैव श्रौतास्तथा च श्रुतिः । " तपस्तपस्यौ शैशिरावृतुः मधु माधवश्च वासन्तिकाष्टतुः शुक्रश्च शुचिश्च ग्रैष्माहृतुः । श्रथैतदुदगयनं देवानान्दिनम् ॥ नभाश्च नभस्यथ वार्षिकावृतुः इषय ऊर्ज शारदामृतुः सहाय सहस्यच हैमन्तिकातृतुः प्रथैतद्दक्षिणायनं देवानां रात्रिः” इति । अत्रायनस्य सोरत्वेन तदुघटक: तपतपस्यादीनामपि सौग्परतेति । अतो भूयसामनुरोधेन वैशाखादयः सौरवाचिनोऽवधाय्र्यन्ते मौनस्थरविप्रारब्ध त्यादौ सौरागमसापेक्षा चान्द्रावगतिरिति सोर एव मुख्य इति For Private And Personal Use Only Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मलमास तत्त्वम् । ७६७ जमूतवाहनोक्तं युक्तमिति तथा च "विरोधो यत्र वाक्यानां ་ प्रामाख्यं तत्र भूयसाम् । तुल्यप्रमाणसत्त्व े तु न्याय एवं प्रवर्त्तकः" इति तत्र “सा वैशाखस्यामावास्या या रोहिण्या सम्ब ध्यते इति श्रुत्या चान्द्र एवोपदेशिको शक्ति: मौरे तु लृप्त तपस्तपस्यावित्यादिश्रुत्वा पर्य्यायद्वारा शक्तिः कल्पना सा च क्लृप्तशक्तिविरोधाद्भवितुं नार्हतीति तपस्तपव्यादिरिति रयनारम्भकमासपरिचायकत्वमेव तथा च विष्णुपुराणं “मासः पचयेनोक्तो द्दौ मासावर्क जानृतुः । ऋतुवयच्चाप्ययनं द्वे अथने वर्ष संज्ञिते । तथा कर्कटादिस्थिते भानौ दक्षिणायनमुच्यते । उत्तरायणमप्युक्तं मकरस्थे दिवाकरे” दक्षिणमयनं गमनं रवेः । एवमुत्तरायणमिति । अतस्तस्याः शक्तिग्राहकत्वे प्रमाणाभावात् । एतन्मकरादिकर्कटाद्य कैपायननिरूपणं श्रौतस्मार्त्तकमर्थं धनुरकदौ सूर्य्यसिद्धान्ताभिहितोदगयनादिनिरूपणन्तु र विगत्य नुप्तारंग दिनमानादिज्ञानार्थमनयोर्न विरोधः । सौरप्रतीतिखापेक्षा चान्द्रप्रतीतिरित्यत्वापि " मोनादिस्थो रविर्येषामारम्भप्रथमचणे” । इत्यादिवाचनिकेऽर्थे लाघवानवकाशात् एतेन प्रयोगबाहुल्यात् सौर एव वाच्चो न तु चान्द्रः स्वल्पप्रयोगदर्शनादित्यपि परास्तम् अन्यथाऽचपादादिशब्दानामिन्द्रियचरणादिमात्रवाचकता स्यान्न विभो - तकरश्मयादिवाचकत्वं तदुक्तं वार्त्तिकक्वह्निः । "न चाल्पत्वबहुत्वाभ्यां प्रयोगाणां विशिष्यते । वाच्यवाचकभावोऽयमच पादादिशब्दवत् । विभीतकेऽप्यश्वशब्दो यद्यप्यल्पैः प्रयुज्यते । तथापि वाचकस्तस्य जायते शकटाङ्गवत्” ॥ शकटा चक्रवयधारकदण्डः । श्रुतौ सौरे वैशाखादिपदानामेकैकस्य बहुप्रयोगाभावाच्च व्यक्त ब्रह्मपुराणम् । “ चैत्रे मासि जगत् ब्रह्मा ससी प्रथमेऽहनि । शुकपत्ते समग्रन्तु तदा सूर्योदये सति ॥ #2 For Private And Personal Use Only Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ಅದ मलमास तवम् । प्रवर्त्तयामास तदा कालस्य गणनामपि । ग्रहानाशौनृतन् मासान् वत्सरान् वत्सराधिपान्” ॥ इत्यनेन मासत्वत्सराणां चान्द्रत्वमुक्तम् । ब्रह्मसिद्दान्तेऽपि " चैत्रसितादेरुदयाद्धानोवर्षमासयुगकल्पाः । सृष्ट्यादौ लङ्कायामिह प्रवृत्ता दिनेस" ॥ चैवसितादेवैत्रशुक्कू प्रतिपदस्तामारभ्येत्यर्थः । दिनस्तिथिभिः कृत्यरत्नाकरेऽप्येवम् । अथ मलमासः । ननु यथा सौर तिथिक्ष्यलाभे कर्मणि संशयः । तथा चान्द्रेऽपि मलमासे सति द्विश्चैवादिना मृततिथ्यादेर्हित्वात् पुनरपि कर्मणि संशयः स्यात् श्रचाप्याह लघुहागतः । “इन्द्राग्नो यत्र हयेते" इत्युक्ता " तमतिक्रम्यतु रविर्यदा गच्छेत् कथञ्चन । आयो मलिम्लुचो ज्ञेयो द्वितीयः प्रकृतः स्मृतः ॥ तस्मिंस्तु प्रकृते मासि कुय्यात् श्राद्धं यथाविधि । तथैवाभ्युदयं कार्यं नित्यमेकं हि सर्वदा ” ॥ यदा लं दर्शान्तमासमतिक्रम्य तत्पूर्वमासान्त्यक्षणवृत्तिराशिस्थः सन् सूर्योऽतिवाह्य गच्छेत् मासान्तरे श्यन्तरसंयोगं गच्छेत्तदाद्योऽतिक्रान्तो मासो मलिम्लुचो शेयः मलौ सन् म्लोचति गच्छतौति मलिम्लुचः अस्य मलित्वं कठशाखाश्वलायन ब्राह्मगाभ्यामग्रे स्फुटौ भविष्यति । हितोयस्तु प्रकृतः शुद्धः कर्माह - त्वात् तदेवोपपादयति तस्मिंश्चेति श्रत्रापि श्रहमित्यादिप्रदशनमात्रं वच्यमाणवचनजातात् ज्योतिषे । “श्रमावास्यादयं यत्र रविसंक्रान्तिवर्जितम् । मलमासः स विज्ञेयो विष्णुः स्वपिति कर्कटे”। अमावास्याद्दघम् श्रमावास्यान्त्यक्षणद्वयं रविसंक्रान्तिभ्यां क्रियोत्पत्तिरूपोत्तरसंयोगरूपाभ्यां यथाक्रमं वर्जितं तेन दर्शा - न्त्यचणइययोरेव क्रियोत्यत्त्युत्तरसंयोगाभ्यां यथाक्रमं संयोगे - नाधिमासः । संक्रान्तेरेकक्षणे क्रियोत्पत्तिरपरक्षणे पूर्वसंयोगनाथः उत्तरसंयोगोत्पत्तिचेति क्षणक्षये वृत्तित्वमिति For Private And Personal Use Only Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मसमासततम् । ७६० मीमांसकसिधान्तात्। एतेन क्षणचतुष्टयवादिनैयायिक मतानुसारिणा यदव दूषणन्तयमिति बाविवेकऽपि "प्रमावास्वादयं यत्र रविसंक्रान्तिवर्जितम्" इत्यत्रामावास्यापदेन तदन्तो लक्ष्यते । संक्रान्तिशब्देन क्रियाभिधीयते प्रथमा. वास्यान्त्यक्षण प्राक् क्षण एवं संक्रमणे प्रतिपदादेर्मासस्य लङ्घनं भवति तथा हि पूर्वदन्तिक्षण-प्राक्क्षणे संक्रमणे दर्शान्तक्षणे च राश्यन्तरसंयोगः पपरक्षणे च प्रतिपदारम्भे प्रतिपदादेर्मासस्य दर्शान्तहयकोडौकतस्य एकराश्यवस्थितेन रविणा लहनं भवति पूर्वदन्तिक्षणेच क्रियोत्पत्ती नैषा प्रक्रिया सम्भवतीत्युक्तम्। तन्मते तु पन्थामावास्यान्त्वक्षणे क्रियोत्पत्ती अमावास्थान्य क्षणहयस्य रविक्रिया वर्जितत्वाभावादेकराशिस्वरविणा चान्द्रमासलकानेऽपि मलमासाभावापत्तिरिष्टापत्तौ तु बतौयाब्दे मसमासपातनियमभङ्गप्रसङ्गः । पूर्वमासस्य मसमासत्वाभावेऽप्यपरस्य मिथुनादिस्थरव्यारब्धवेन हिराषाढत्वादि-प्रसव स्यादिति ततथामावास्यादयमित्यस्य पूर्वोक्ताव्याख्यायामपि प्रतिपदादेरेव यथा सन्नं भवति तथाभिहितम् प्रतो नामावास्यादित्वं तदन्तादित्व वा मासस्य तथात्वे वर्षे षसां मासानां लोप: स्यात् एकस्य दर्शस्य तदन्तस्य वा मासहयघटकत्वे दर्शान्तक्षणे संक्रान्ती पूर्वस्य परस्य च रविलचितत्वाभावे तौयाब्दे मलमासपातनियमभङ्गः स्यात् सदानी जातस्य मृतस्य वा कम्मणि मासविशेषानध्यवसायः स्थात् नानावचनसिह प्रतिपदादित्वञ्च मासस्य व्याहन्येत । गुरुचरणास्तु "देह वैपौर्णमास्यो हे प्रमावास्ये तस्मात् प्रतिपयुपवसन् यजेतापरेयुः" इति श्रुत्या ऐन्द्राग्नेययागातिथिधर्मयोगेनाजहवस्वार्थलक्षणया प्रमावास्यापदस्य शकुप्रतिपदमावास्यापरत्व संक्रान्तिपद स्यापि राश्यन्तरसंयोगरूपफल For Private And Personal Use Only Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 6७० मसमासतखम् । परत्वमाहुः । पमावास्याइयमित्यनेन उपलक्षणविशेषरभावेन पूर्वापराभ्याम् अमावास्याभ्यां परिचायितः । शुकप्रतिपदादिदन्तिकालो बोध्यते इत्यपरे। तेन पूर्वामावास्वाया उपलक्षणत्वे क्रियानन्वयित्वात तझापनामावात्। “मिथनस्थों यदा भानुरमावास्याइयं स्पृशेत् । इत्यत्रामावास्याहयामिति कर्मता न स्यात् । तस्याकों दर्शककराशौ दर्शयातिग इत्यभिधानचासङ्गतं स्यात् पूर्वामावास्याया उपक्षणत्वे पूर्वामावास्यान्तक्षणहत्तिराशिस्वः सन् सूर्योऽतिवाघ गच्छेदिति खोक्तव्याख्खाप्यनुपपन्नः स्वात्। एवमन्यान्यपि वचनानि व्याख्येयानि। गृह्यपरिशिष्टज्योति: घराशगे। “रविणा लवितो माससान्द्रः ख्यातो मलिम्बचः। तत्र यहिहितं कर्म उत्सरे मासि कारयेत्”। पराशरः। “पक्षयेऽपि संक्रान्तियदि न स्यात् सितासिते। तदा तमासविहितमुत्तर मासि कारयेत्”। पत्र लग्नमसंक्रमणच वस्तदा भवति यदा तन्मास तत्पूर्वमासान्वक्षणयोरेकराश्यवखितस्य तमासानन्तरमेव राश्यन्त्यरसंयोगः न त्वेकराशिस्थित मासव्यापनमात्र तथात्वे चतुर्दश्यामेकराशी संक्रान्तस्य प्रतिपत् प्रथमक्षणेऽपरराशौ तत्परराशी च हितौयायां प्रतिपदि वा रवेः संयोगेऽपरस्वापि मलमासता स्वात्। पतएव ज्योतिष "प्रमावास्यापरि. छिन रविसंक्रान्तिवर्जितम् । मलमासं विजानीयाहितं सर्वकर्मसु । तस्यार्को दर्शककराशौ दर्शयातिगः । अत्रैकराशिस्वार्कस्य दर्शहयातिगत्वमुखम् । एतच पूर्वोपदर्शितयोर्मासयोः पूर्वस्यैव सम्भवति न परस्य। मलमासकारणन्तु ज्योतिष। “दिवसस्य हरत्यः षष्टिभागमृतौ तदा । करोये कमहर छेदं तथैवैकञ्च चन्द्रमाः। एवमहवतीयानामन्दानामधि मासकम्। पौष जनयतः पूर्व पश्चाब्दान्ते तु पश्चिमम् । For Private And Personal Use Only Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मसमासतखम् । मसमासख चान्द्रत्वाताटकाइदिवसपदयोरपि तथात्वात् तिधिवाचकत्वं तथा च विशुधर्मोत्तरम्। तिधिनैकेन दिवसचान्द्रमाने प्रकीर्तितः। अहोरात्रेण चैकेन सावनो दिवसः स्मृतः। प्रत्र सोमयागे सवनवयस्वाहोरात्रसाध्यत्वात् तत्सम्बन्धिनं सावनमिति माधवाचार्यः । सूर्यसिद्धान्ते “तिथिचान्द्रमसं दिनम्" इति। समयप्रकाशे ज्योतिष "तिथिः शशाङ्कन्दिनम्" इति एतेन विष्णुधर्मोत्तरवचनमात्रप्रदर्थिना वाचस्पतिमित्रेण चान्द्रमाने तिच्या तत्तहिनगणना सित। दिवसण्या सिधिवाचकमिखन न किञ्चित् प्रमा तहि सूर्यावलिन चतर्याम सावं. तथैव हरव्यवहारादित्युक्तं हेयं पराऽपि दिवसपदस्वारानवाचित्वापत्ते व्यवहाराकालीयपरिभाषाया वैयर्थापत्या बलवत्त्वाञ्च । तेन दिवसस्य तिथेः षष्टिमा दसहमेक रविहरति छेदयति उत्तरे छेदमित्यभिधानात्। ततव ऋतौ मासहये षष्टिनाडीच्छेदादस्तिधे दमाकर्ष करोति। एवं चन्द्रोऽपि। एवमित्युतक्रमेय वर्षे हादशतिष्यात्मक-कासाकर्षादीरतीयानामब्दानामन्त पई बतौयं येषां ते तथा ग्रोम माधवादिषु षट्वेषु पूर्व माधवादि विकपतित पश्चाब्दान्ते तु पश्चिमं चावणादिविवपतित मनमासचन्द्रार्को जनयतः। ग्रीष्मे माधवादि पदके इति यदुवं तहसमाह मिहिरः। "माधवादिषु घटकेषु मासि दर्शवयं यदा। हिराषाढ़ः सवित्रेयः शेते तु श्रावणेऽच्युतः। द्विराषाढ़ी हिराषाढ़ादिः। श्रावणे सौरवावणे। तथा च ज्योतिषे "मिथुनस्थो यदा भानुरमावास्याहयं सभेत्। हिराषाढ़ः सविनेयो विष्णुः स्वपिति कर्कटे”। पमावास्याहयं तदन्त्य क्षणहयं सृशेत् संयुञ्जयात् न तन्मध्ये रायन्तरसंयोग इत्यर्थः। मनु कर्कटादित्रिकेऽधिमासपाते. For Private And Personal Use Only Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २००२ मलमासतखम् । तत्पूर्व मिथुन एव हरिशयनं तत् कथं माधवा दि षट्कमाने कर्कट तत्। तबाह राजमार्तण्डः। “क न्यासिंहकुलौरेषु यदा दर्शवयं भवेत्। पागामिनि तदा वर्षे कुलोरे माधवः खपत्" । माधवादित्रिकावणादिधिकाधिमामविवेचनमप्येतदर्थम् इदन्तु साईवर्षयाधिमासपातमौचित्यक्रमादुत क्वचित्तिथीनां झासबाहुल्येन दण्डषध्यधिकन्यू नदर्शनादुत्वकालन्यूनाधिककालेऽपि मलमासो भवतीति समयप्रकाशकत् । वस्तुतस्तु वैपरौत्य यतो न्यूनदण्डतिथेः प्रायिकत्वे तत्र तिथिक्षयस्य झटिल्युपलभ्यमानत्वात् खल्पकालेन तिष्यन्तर. सम्बन्धात् शौचं रविलखनप्रतोते: शीघ्रमेव मलमासो भवतीति अधिकदण्डतिर्थः प्रायिकवे तब तिधिक्षयस्य झटित्यनुपलभ्यमानत्वेनाधिकेनैव कालेन तिथ्यन्तरसम्बन्धात् विलम्बे. नैव रविलवनप्रतोचिरेणैव मलमासो भवतीति तथा च विणुधर्मोत्तरम्। “सौरसंवत्सरस्थान्ते मानेन शशिजेन तु। एकादशातिरिच्चन्ते दिनानि भृगुनन्दन । मासइये साष्टमासे तस्मान्मासोऽतिरिच्यते। स चाधिमासकः प्रोक्तः काम्यकर्मसु गर्हितः ॥ इदन्तु नियतम्। एकस्मादधिमासात्ततौयाव्द ऽधिमासान्तरमिति। यद्यपि "यां तिथिं समनुप्राप्य तुला गच्छति भास्करः। तयैव सर्वसंक्रान्तिर्यावन्मेषं न गच्छति ॥ इति राजमार्तण्डवचनात्तुलादिषणमासे तिथिहामावाहर्षे द्वादशहरिनुपपना तथापि मध्ये विषुवतो नुर्यान्यहानि तु वईयेत्। तैः सम्मयाधिको मासः यतत्येव त्रयोदश* ॥ इति यद्यपरिशिष्टवाको विषुवतोमेषतुलासंक्रान्योर्मध्ये मेषादिषण्मास एव तिथिहिता. अहर्गणने। मेषादिषल्मासे मन्दभुक्त्या सप्तदिनधिस्तुलादौ शौघ्रभुत्या दिनहयहासः इति तथा च। ज्योतिःयास्त्र "मेषादौनामाई न्दं षसां सप्ताष्ट For Private And Personal Use Only Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मसमासतत्त्वम् । ७७३ चन्द्रकम्। तुसादौनामष्टसप्तचन्द्रकन्तु लिखेत् पृथक् ॥ चन्द्र एक: पास्य वामागतिः। त्वविदां समयात व्युत्क्रमणाङ्का बोध्याः। तेन दिनविक्रमसघयाभ्यां मेषादिषट्के एव एकादशादितिथिहधिः। एवञ्च “गतेऽब्दहितये साई पञ्चपचे दिनहये। दिवसस्याष्टमे भागे पतत्येकोऽधिमासकः ॥ इति राजमार्तण्डोक्तः सप्तदशदिनाधिकाष्टमासाधिकवर्षहयेाधि मासः। स सौरे मासि सप्तदशदिनोत्तरं चान्द्रमासलङ्घनासम्भवात् सावनमानेन ज्ञेयः। तथा च विष्णुधर्मोत्तरप्रथमकाण्डम् । “सोरणाब्दस्तु मानेन यदा भवति भार्गव। साव. नेन च मानेन दिनषटकं प्रपूर्यते । सौरसंवत्सरे दिनपटकाधिक: सावनः संवत्सरो भवतीति। सौरमासाष्टका धिकवर्षहये सप्तदर्शदनानि वढन्ते। सावनक्रमेणेति पूर्वातविष्णुधर्मोत्तरोतसमानविषयतास्वेति। यत्तु पञ्चपञ्चाशदधिकनवशतशकाग्दे तुलासंक्रान्तिरमावास्यायां भूता ततो. ऽतिचारेण वृश्चिकसंक्रान्ति: प्रतिपदि पुनरपि ऋजगत्ला प्रमावास्थायां धनुः संक्रान्तिरिति दृष्टस्तुलायामधिवासोऽन्धुकभट्टेन लिखतः। पूर्वदर्शितविषये वृश्चिकस्थरव्युपसंक्रान्तमामशोषलोपोऽपि। अस्मिनब्दे वैशाखमलमासान्तरमित्यकम्। तत् सत्यं किन्तु तुलादित्यादी दृश्यमानोऽपि नायमधिमासः किन्तु उत्पातादधिमाससमानधर्मायम्। अतएव तत्र प्रतिपदि वृश्चिकसंक्रान्ती तन्मासस्य तुलास्थरव्यारब्धत्वेऽपि यांतिथिं समनुप्राप्यति “यदा वकातिचाराभ्यां सूर्यसंक्रम भवेत्। क्षत्रियाणाममुग्धारां तदा वहति मेदिनो” ॥ इति ज्योतिःशास्त्रात् वृश्चिकस्थरव्यारभाईत्वात्। तत्रानारोऽपि शङ्खवेलान्यायेन प्रत्यभिज्ञानाद्भवति मार्गशीर्षपदवाच्यता। अतिचारपदाच स्वस्थानमतीत्य चरतीति अमावास्यैव वृश्चिक For Private And Personal Use Only Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 898 मलमास तत्त्वम् । विसंक्रान्तिः स्वस्थानमवसौयते । वैशाखे तु तवाधिमाच पातः प्रकृतत्वात् वक्रातिचाराभ्यामिति रवेर्वक्रातिचारगत्य सम्भवात् मन्दशौघ्घ्रगतिभ्यामित्यर्थः । एवमाखिनाधिमासपाते तुलादौ पुनस्तथा पाते पूर्व एवाधिमासः प्रकृतत्वात् नोत्तरे चौत्पातिकत्वात् अन्यत् सर्वं पूर्ववदिति । यदा पुनरभावास्यायामेव तुला संक्रान्तिर्भूता न भूतो माधवादिषट्केऽधिमासपातस्तदनन्तरमतिचारेण प्रतिपदि चिक संक्रान्तौ भूतायाअपरा अपि संक्रान्तयो विषुवपय्र्यन्तं प्रतिपद्येव भवन्ति तदा पूर्वाधिमासात् साद्दितीय वर्ष सचितेरधिमासस्यावश्यम्भवात् । अन्यस्य चानुपलम्भात् तुलादित्य एवाधिमासी निर्णीयते । अतएव नाशङ्गितं कैश्चिदिदमिति कालविवेके जौमूतवाहन wer जिकनोऽप्येवं युक्तञ्चैतत् तथाहि ज्योतिषे “दशानां फाल्गुनादीनां प्रायो माघस्य च क्वचित् । नपुंसकत्वं भवति न पौषस्य कदाचन ॥ नपुंसकत्व मलमासत्वम् । तथा चोक्तम् । " असंक्रान्ती हि यो मासः कदाचित्तिथिवृचितः । कालान्तरात् समायाति स नपुंसक इष्यते ॥ शाण्डिल्योऽपि प्रायशो न शुभः सौम्यो ज्येष्ठश्वाषाढ़ कस्तथा । मध्यमौ चैत्रवैशाखावधिकोऽन्यः सुभिचक्कत्" ॥ सौम्यो मार्गशीर्षः अधिकोऽधिमासः । यत्तु ज्योतिः सिद्दान्तब्रह्मसिद्धान्तयोः " धटकन्यागते सूर्ये वृश्चिके वाथ धन्विनि । मकरे वाध कुम्भे वा नाघिमासं विदुर्बुधाः ॥ इति तदेकवर्षे मासद्दयें मलमासपाते ज्ञेयम् । धटस्तुला एतद्विषये ग्रीष्म प्रति माधवादिषु षट्सु इति नियमाभिधानम् । अतएव एकवर्षीया संक्रान्तमासावधिमासभानुलङ्घितमेदेनोपात्तौ तथा च काठकग्गृह्यम् । “चूड़ां मौजोबन्धनञ्च श्रग्न्याधेयं महालयम् । राजाभिषेकं काम्यञ्च न कुर्य्यादधिमासके । चूडां मौनी For Private And Personal Use Only Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मसमासतवम् । बबना प्रयाधेयं महासयम्। राजाभिषेकं काम्यञ्च न हांडानुसहित ॥ महासयम् कन्याकै श्राहम्। एतहिषय एव यावच कन्यातुलयोः क्रमादास्ते दिवाकरः । सावञ्च बाइकाल: स्थाच्छन्यं प्रेतपुरं तदा ॥ इत्यव तु क्रमादित्यनेन तच्छ्राद्धं तुलार्के विहितम् । भीमपराक्रमेऽपि । "अधिमासे दिनपाते धनुषि रवौ भामुलाविते मासि । चक्रिणि सुप्ते कुयायो माङ्गल्यं विवाहच॥ दिनपाते दिनक्षये तत् खरूपं कौम पानेऽपि । “दौ तिथ्यतावेकवार यत्र स स्याहि बचयः ॥ वशिष्ठः। “एकस्मिन् सावने त्वधि तिथौनां वितयं यदा। तदा दिनक्षयः प्रोक्तास्तव साहसिकं फलम् ॥ साहसिकं फलमिति माङ्गल्येतरवैदिककर्मपरम्। तथा च मत्स्यपुराणम् । “शतमिन्दुक्षये पुण्य सहस्रन्तु दिनचये"। कोर्मपाद्म-वशिष्ठ-वचनैकवाक्यतया सावन-दिनवहार-प्रवृत्तिः सूर्योदयावधिरेव सूर्यसिद्धान्तेऽपि "सूतकादिपरिच्छेदो दिनमासाब्दपास्तथा। मध्यमग्रहभुक्तिम सावनेन प्रकीर्तिता"। अब दिनाधिपस्य रव्यादेर्भाग्यं दिनं वाररूपं सावनगणनोक्तां ध्यवहारोऽपि तागेव तिथिविवेकेऽपि भवतु वारयोगे व्यस्त तिथेग्रहणं तस्य दिनहयेऽसम्भवादित्यु नाम्। सावनदिनमाह सूर्यसिद्वान्तः । “उदयादोदयाद्भानोभौमसावनवासगा। भोमेति पिवादिदिनव्यावृत्त्यर्थम्। यत्तु रेखा पूर्वापरयोरित्यादिना ज्योतिषे वारप्रवृत्तिरता तज्जयोतिःशास्त्रोक्तकालहोरादिज्ञापनार्थमिति ज्योतिस्तत्त्वे बहुधा विकृतम् । “नैवा. स्तमनमर्कस्य नोदयः सर्वदा सतः। उदयास्तमनाख्यं हि दर्शनादर्शनं रवेः ॥ ययंत्र दृश्यते भावान् स तेषामुदयः स्मृतः ॥ इति विष्णुपुराणात् दर्शनयोग्य कालादेव वारघटककर्मसु स एव काल इति । यत्त धटकन्यागत इत्यनेन कन्यागते For Private And Personal Use Only Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मसमासतत्त्वम् । मलमासनिषेधः । स तदुत्तरमेषगतमलमासान्तरपाते बोध्यः । अन्यन तु माधवादिषु षट्कोषु इत्यादिवचनात् क्रमसञ्चितत्वाच पाखिन एव मलमासः। न तु वान्ततुलादिषु तथा च पिता. महः “मासि कन्यागते भानुरसंक्रान्तो भवेद यदि। दैवं पत्रं तदा कर्म तुलार्के कर्तुरक्षयम् ॥ एवञ्च एकस्मिनन्दे मासहयस्य रविलङ्घने तदेकतरस्य मेषादिगतत्वे स एव मलमासः । घटकन्यागत इत्यादिवचनात् माधवादिषु षटकेषु पतितत्वाच्च। अत्रैव विषये शातातपः। “योदशाख्य श्रुतिराह मासं चतुर्दशः कापि न दृष्टपूर्वः। एकत्र मासहितयं यदि स्थावर्षेऽधिकं तत्र परोऽधिमासः ॥ तथा च श्रुतिः । “हादशमासाः संवत्सरः" इति। कालमाधवीये जावालिः। “एकस्मिबपि वर्षे च हो मासावधिमासको। प्रकृतस्तत्र पूर्वः स्यादुत्तरस्तु मलिम्लचः" ॥ प्रकृतः शुद्धः कर्माह इति यावत्। वर्षकत्ये "मासहयस्य मध्ये तु संक्रान्तिनं यदा भवेत्। प्रकृतस्तत्र पूर्वः स्यादुत्तरस्तु मालम्लुचः ॥ एकस्मिनब्दे तस्य मासहयस्य रविलवने तस्य मेषाद्यस्पष्टले तु पूर्व एव मलमास: क्रमसञ्चितत्वादन्यथा क्रमाभिधानमनर्थकं स्यात् कन्यागते माध. वादिषट्कपतितत्वाच्च । तथा च ज्योति: पराशरः । “कार्तिकादिषु मासेषु यदि स्यातां मलिम्लचो। सर्वकर्महर: प्रोतः पूर्वस्तत्र मालम्लुचः” ॥ राजमार्तण्डे । “अमावास्याइयं यत्र मासि मासि प्रवत्तते। उत्तरोत्तमो ज्ञेयः पूर्वस्तत्र मलिम्युचः ॥ न चैवं तमतिक्रम्येत्यादि लघुहारोतवाक्य मतिव्यापकमिति वाच्यं तस्यापवादनिराकृतत्व न विशेषणीयत्वात् तस्माद यां तिथिं समनुप्राप्य त्यादिवाक्यात्तत्तात्तथस्तत्त. द्राशरविसंक्रमणारम्भाहत्वात् वक्रातिचाराभ्यां फलाभावेन तत्तन्मासानां तत्रानारम्भेऽपि शङ्खवेलान्यायेन प्रत्यभिज्ञाना For Private And Personal Use Only Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७७७ मलमासतखन् । अवति तत्तन्यासपदवाचतेति चयमामेऽपि मोनादिस्थो रविरित्यादिव्यासोलरक्षण पूर्णतविषये सङ्गतिः। यत्र तु दर्श कन्यासंक्रान्तिभूता तुलामंक्रान्तिस्तु प्रतिपदि एवं प्रतिपदि वृश्चिकधनुःसंक्रान्ती ततस वक्रगत्या दर्श मकर कुम्भमौनसंक्रान्तय: प्रतिपदिमेषसंक्रान्तिस्तत्र कन्यायां मलमासः धनुषि क्षयो मौने भानुलचितः। तत्र क्षयमासस्य मार्गशीर्षमावत्वात्तदुत्तरमासानां भानुलकितावधिकानां पोषादित्वार्थे पूर्वराशिस्थरव्यारब्धत्वयोग्यतया तसङ्गतिः। ततश्च योग्यताअयणेन परस्तत्र मलिमच इत्यस्य विषये सति भानुलखितो. सरक्षयमासावधिकषु पूर्वस्तत्र मालम्लुच इत्यस्य विषये सति भानुलवितावधिकेषु क्षयमासोत्तरमामेषु समक्षणस्य नाव्याप्तिः । एवञ्चौत्पातिक तदनुरोधान व्यवहारः किन्तु पोसर्गिककालानुरोधादेव। तथा च संवत्सरप्रदौपे। “उत्पातन भवेद्यस्तु कालस्वातिक्रमः कचित्। न तत् स्याहावहाराङ्गमित्याह भगवान् हरिः ॥ न च वर्षहयात् परं तुलायाममावास्यायां हधिकादिषु मेषपर्यन्तेषु प्रतिपदि संक्रान्तौ तुलायां कार्तिक एव मलमासः। तदुत्तरत्र भानुलखितोत्तरवत् शङ्खवेलान्यायो नास्ति कथमिति वाच्यं क्षयमासयुताब्दे तु गत्यन्तराभावात् शङ्खवेलान्यायानुसरणं सत् सम्भवे तदनुसरणस्यान्याय्यत्वात्। यत्तु इदं वा किं यदन्यस्यां तिथौ संक्रान्तरुपधानं स्वरूपयोग्यता पुनरन्यस्यामिति तदपि चिन्यं ग्रहस्थितदण्डे घटस्य फलोपधानं स्वरूपयोग्यता पुनररण्यस्थदण्डेऽपोति। अथ तत्र दृढ़दण्डत्वेन धमिजननयोग्यतोभयसाधारगी विद्यते प्रतते तु कौशौति चेटेकशक्तिमत्व नैति ब्रूमः । सा च शक्तिः फलवलोब्रया क्षयमासयुताव्दे तु चैत्रोत्तरावैशाखस्तदुत्तरो ज्येष्ठ इत्यादिक्रमानुरोधेन चैत्र For Private And Personal Use Only Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७७८ मलमासतवम् । पूववर्ती फाल्गुनस्तत्पूर्ववर्ती माघ हत्यायनुरोधेन च एक दर्भान्तस्य कचिदपि शास्त्रे मासहितयत्वानभ्युपगमेन च यां तिथिं समनुप्राप्येति तत्र परोऽधिमास इति पूर्वस्तत्र मलि म्बुच इति धटकन्यागत इति उत्पातेन भवेद्यस्तु इत्यादिवचनपय्यालोचनया च यथायथं शास्त्रगम्यापीति । यदि जीमूतवाहनोत यां तिथिं समनुप्राप्येति वचनोक्तमात्र योग्यतावच्छेदकं स्यात् तदा यस्मिनन्दे कन्या संक्रान्तिरमावास्यायां तुला संक्रान्तिस्तु प्रतिपदि ततोऽमावास्यायान्तु दृचिक संक्रान्तिरमावास्यायामेव मेषावधिसंक्रान्तयो भूतास्ततः प्रतिपदि वृषसंक्रान्तिर्भूता तवाखिनो मानुलङ्घितः कार्त्तिकः क्षयः वैशाखो मलमास इति कार्त्तिके तद्योग्यतावच्छेदकस्याभावात् लक्षणासङ्गतिः स्यात् । तथा हि तुलासंक्रान्त्यवच्छिन्नतिथित्वस्य वृश्चिकादिसंक्रान्तियोग्यतावच्छेदकत्वेनैव विधानं प्रकृते तु तवा स्तौति । तृणारणिमणिस्थलेऽपि वजननयोग्यतायामेकशक्तिमत्तयैव व्यभिचाराभाव इत्युक्तम् । एवञ्च एकस्मिपि पापध्वसे प्रायवित्तस्याने कधोत्को र्त्तनमपि सङ्गच्छते। न च तत्र वैजात्येनापि सङ्गमयितुं शक्यते ध्वंसे तदभावात् । एतत् सर्व "मोमादिस्थो रविर्येषामारम्भप्रथमचणे । भवेत्तेऽब्दे चान्द्रमासाश्चैत्राद्या द्वादश स्मृताः ॥ इति व्यासवचनादवसौयते । तथा चोतं भट्टपादैः । "सिहानुगममात्र हि युक्त कर्त्तु परोक्षकैः । न सर्वलोकसितस्य लक्षणेन निवर्त्तनम्" इति । ननु एकस्य वयमासस्य मेषगतरविसंक्रान्तिः यस्मिन् शशिमासे भवति तचैवम् । एवं वैशाखाद्या हवादिसंक्रान्तियोगेनेति ब्रह्मगुप्तप्रतिपाद्य उभयलचणाक्रान्तत्वादुभयमासत्वं युक्तम् इति चेत्र तस्य व्यासवचनादिविरोधालक्षणपरत्वासङ्ग ते मलमासा व्यापनाच्च । न च "वत्सरान्तर्गत: For Private And Personal Use Only Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मलमासतवम् । 592 पाचो यज्ञानां कसनाशकृत् । मेऋत्यतिधानाद्यैः समाक्रान्तो विनामकः" इत्यादि ज्योतिःशास्त्रे पाषाढ़ादिनामशून्यत्वेन विनामकता मलमासस्योक्ता इति न तत्राव्याप्तिरिति वाच्य हिराषाढ़ : सविज्ञेय इत्यादिप्रयोगात् " तवं यद्दिहितं कर्म उत्तरे मासि कारयेत्" इत्यभिधानाश्च । तस्यान षाढ़ादित्वाभावे तत्र यविहितमित्यनुपपत्रं स्यात् व्यासोक्त लक्षणाक्रान्तत्वाच । किञ्च मलमासस्याषाढ़ादिनामशून्यत्वेन तस्य वक्ष्यमाणे काठकता वितरानुपजीवतीत्यभिधानं न सङ्गच्छते । इतरोपजीवनं हि तदा भवति यदि तस्याषाढ़ादित्व' स्यादिति तर्हि विनामकत्व कुत इति चेहिरुहनामकी विनामकस्तस्य मलिम्बुचादिनामकत्वात् । यद्दा सदपि नामासदेव तमासकर्मानर्हत्वात् रत्नकोषे तु समानान्तोऽधिमासक इत्येव पाठः । चयमासस्य हिमासत्व तत्र मृतस्य कर्मण्यनध्यवसायः स्यात् किं पूर्वो मास: किं बोत्तरी मास इति । न च कपालाधिकरणन्यायात् पूर्वोमास इति वाच्य तथात्व े तदुत्तरे मलमासपाते क्षयमासमृतस्य सप्तदशवाहानुपपत्तेः । वस्तुतस्तु तत्रैव कपालाधिकरणन्यायस्य विषयो यत्र क्रमिको पस्थितयोर्व्यक्त्योः प्रथमोपस्थितस्य ग्रहणम् अत्र तु व्यक्तभेदेन क्रमिकोपस्थित्वभावात् कथं तदवसरः । स च न्यायो दशमाध्याये चिन्तितो यथा वैष्णव्य एककपाल इति तौ कपालधर्माकाङ्क्षायाम् प्राग्नेयाष्टाकपालो भवति पौर्णमास्यामिति प्रकृतियागसम्बन्धिकपालधग्रहे यस्य कस्या -- येकस्य कपालस्य धर्मानुष्ठानोपकार सिद्धौ कस्येत्यपेक्षायां प्रथमोपस्थितत्वेन प्रथमकपालधर्मानुष्ठानमिति । न च तत्र "तिष्यडें प्रथमे पूर्वो द्वितीयार्थे तदुत्तरः । मासाविति बुधेश्चिन्त्यौ चयमासस्य मध्यगौ" ॥ इति वाक्ादावस्था भविष्यतौति वाच्यम् । For Private And Personal Use Only Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७८० मलमासतवम् । इदं वाक्यं दाक्षिणात्यसंग्रहकर्तुरेव न तु सुनेरिति न तवास्था। तथात्वे षष्टिदण्डात्मिकायास्तिथेः पराईस्य राविपतितले परमासौय पूर्वाईस्य च रानिपतितत्वे पूर्वमासौयस्याष्टकाश्राद्धादेर्लोपः किन्तु उत्तराधिमासपते क्षयमासीयतिथिपूर्वाई मृतस्य सप्तदशाहानुपपत्तिः। किश्च वक्ष्यमाणकाठकश्रुतो सोऽनायतन इत्यनेन मलमासस्याप्रतिनियतस्थानत्वात्तदन्यस्य पौषादेः प्रतिनियतस्थानत्वं प्रतीयते। तच पौषस्य मार्ग शौर्षोत्तरत्व माघपूर्ववर्तिवरूपम् एवमन्यवापि। एकस्य हिखे तत्रियमभङ्ग इति । अन्ये तुमासघटकानां त्रिंशत्तिथीनां पूर्वस्मिन्बई पूर्वासु पञ्चदशतिथिषु पूर्वो मास: हितोयाई परासु तासु उत्तरा इत्यर्थमुवा शक्लपक्षमृतस्य पूर्वमासे कृष्णपक्षमृतस्य परे कत्यमित्याहुः। तदतिमन्दं धनुषि चये पूर्वाब्दे मार्गशीर्षकष्णपक्षमतस्य पौषशलपक्षमृतस्य च कत्यलोपप्रसङ्गात् पूर्ववटुत्तरे मलमासपाते षयमासपूर्वाईमृतस्य सप्तदशवाहानुपपत्तेच। केचित्तु “यस्मिनाधिगते भानौ विपत्ति यान्ति मानवाः। तेषां तवैव कर्तव्या पिण्ड. दानोदकक्रिया* ॥ इति वचनं क्षयमासमृततिथिविषयतया व्याख्याय तुलादौ क्षये तत्र मृतस्य सौरकार्तिकादावेव थाहमाहुः। तदतीव मन्द तद्राशी वर्षान्तरे तत्तत्तिथ्य प्राप्ती प्रत्याब्दिकथाइलोपापत्तेः । यस्मिनाधिगते भामाविति तु प्राद्यसंवत्सरान्तावधिमासविषयम्। अथ श्राइविघ्ने समुत्पन्ने मृताहाविदिते तथा। एकादश्यां प्रकुर्वीत कृष्णपचे विशेषत:" ॥ इत्यत्र विदेर्लाभपरत्वमभ्युपेत्य कादश्यामेव सवापि बाइमिति चेव विदितपदस्य ज्ञातलब्धोभयपरत्वे वाक्यभेदापत्तेः विदितपदात् प्रयोगप्राचुर्येण ज्ञातस्यैव प्रथमोपस्थितत्वात् तत्परतया श्रौत्सर्गिकत्वादिति वदन्ति । वस्तुतस्तु For Private And Personal Use Only Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७८१ मलमापतत्त्वम् । लाभार्थस्त्र विदेनिष्ठायामिटप्रतिषेधाविदितप्रयोगानुपपत्ते: न च तिष्यई इति वाक्यं क्षयमासौयजन्ममरणमासमात्रव्यवस्थापकं न तु सर्वविषयकमिति वाच्यम् अस्मिन्बर्थे प्रमाणाभावात् तस्यापत्वेऽपि मासहयघटकानां त्रिंशत्तियौनां पूर्वाई शकपचे पौर्णमास्यन्तपूर्वमासस्य शुक्लपक्षीयकत्यं द्वितीयाई कृष्णपक्षे तादृशस्य परमासस्य शुक्लपक्षीयकत्यमिति। क्षयमासस्यापि मध्ये प्रक्कतमासवन्मासहयमिति। ततश्च जीमूतवाहनोत एव प्रकार: बाहादौ युक्तः। अतएवात्र समयप्रकाशश्रामविवेकमैथिलसंग्रहकारैरपि न किञ्चिदभिहितम् । ब्रह्मगुप्तलक्षणे वेकवर्षे संक्रान्तिशून्ययोर्मासयोरन्यतरस्य शुद्धतया तम्मासविहितकर्माहतायाः सर्वप्रामाणिकसिद्धतया तवा. व्याप्तिः यां तिथिं समनुप्राप्येति योग्यताविवक्षया तत्र समाधानमिति चेत्तहि व्यासवाक्ये तथा कल्पनया सर्वसिद्दौ किमनावाक्यादरेणेति दिक्। न च "मेषादिस्थे सवितरि यो मासः प्रपूर्यते चान्द्रः। चैत्रादिः स तु विज्ञेयः पूत्तित्वेिऽधिमासोऽन्यः" इति माधवाचार्यकृतज्योतिशास्त्रोक्तलक्षणमादरणीयम्। तथात्वे क्षयमासस्य परमासत्वे पूर्वमासस्य लोपः स्यात्। मिथुनादौ मलमासे। “मिथुनस्थो यदा भानुरमा. वास्याहयं सृशेत्। हिराषाढ़ः स विजेयः शेते तु श्रावणेऽच्युतः । इत्याद्युक्त हिराषाढ़ादित्वानुपपत्तिश्च स्यात् । प्रत्युतहिज्य ठत्वाद्यापत्तिर्भवेत्तस्मादाधुनिकज्योतिर्विहाक्यं पूर्वोक्तव्यासवचनविरोधादनादेयं प्रायिकत्वाभिप्रायेण वर्णनीयं वेति। चयमासलक्षणमाइतुर्योति:सिद्धान्त भोमपराक्रमौ। “असं. क्रान्तमासोऽधिमास: स्फुट: स्यात् हिसंक्रान्तमास: चयाख्यः कदाचित् । क्षयः कार्तिकादित्रयेनान्यदा स्यात्तदा वर्षमध्येऽधिमासइयं स्यात् । असंक्रान्तत्वेनैवाधिमासस्य हित्व For Private And Personal Use Only Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७८‍ मलमास तत्त्वम् | वस्तुतस्तु एकस्य मलमासत्वमपरस्य भानुलङ्घितत्वं पूर्वोपदर्शतकाठकग्टह्य भौमपराक्रमवचनैरुवेयमिति । तदयं संक्षेपः । शुक्लप्रतिपदादिरमावास्यान्तो रविलङ्घितो मासो मलमासः स च माधवादौ चोसर्गिकः कदाचित् कार्त्तिकादावपि प्रयच्चानिष्टकृत् माधवादि कार्त्तिकादि षट्कयोरपि तल्लचणयोगे माधवादेरेव तुलादि षट्क एवोभयमासे तलक्ष पयांगे पूर्व एव माधवादि षटक एव भाखिनवेयाखयोस्तलक्षपयोग पर एव मलमासः तनिस्तु भानुलङ्घितः | मलमासे श्राषाढ़ादेद्दित्वं भानुलङ्घिते तु नैतदिति विस्तरः । यत्तु “ यस्मिन्मा से न संक्रान्ति: संक्रान्तियमेव वा । मलमासः स विज्ञ यो मासे त्रिंशत्तमे भवेत्” । इति काठकग्गृह्ये हिसंक्रान्तमासस्य चयापरययस्य मलमासत्वाभिधानं तदेकमात्र संक्रान्तिरहितत्वगुणयोगाहौणम् । मलमासवह्निवाहादानत्वार्थम् । तथा च वार्हस्पत्यच्यो विर्धन्य । " पकत्र वर्षे अधिमासयुग्म यत्कार्त्तिकादिचितये चमाख्यम् । तद्दर्जनौयं वितयं प्रयत्नादिवाहयज्ञोत्सवमङ्गलेषु । यस्मिन् मासे न संक्रान्ति: संक्रान्तिद्दयमेव वा । संसर्पस्पतीमा सावधिमासख निन्दितः । अत्र ससर्पोऽसंक्रान्तत्वेनाधिमासवत् सर्वकर्मानहंतायां तदपवादेन मङ्गल्येतरकर्माईः सन् सम्यक् सर्पतौति माधवाचार्थः । अंहसः पापस्य पतिरिति तत्तथेति संसपांस्तो भानुचह्नित चयमासयोर्नाची कठशाखाश्वलायनब्राह्मणम् “अईमासा वै अधस्तात् सन्तोऽकामयन्त मासाः स्याम इति ते द्वादशाहं क्रतुमुपायन् त्रयोदशं ब्राह्मणं कृत्वा तस्मिन् मोदतिष्ठन् तस्मात् सोऽनायतन इतरानुपजीवतीति तस्मात् दादशाहस्य त्रयोदशेन ब्राह्मर्णेन भवितव्यमिति” । पस्यार्थो जयस्वामिना व्याख्यातः । तं चार्द्दमासास्त्रयोदश मलमासं ब्राह्मणं कृत्वा For Private And Personal Use Only १ Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मलमास तत्त्वम् । ७८३ दादशाहं क्रतुमुपायत् उपाहतवन्तस्तस्मिन्मलमासे मृष्ट्रा संमान्य किमित्याकाङ्गायाम् श्ररातोरित्यध्याहियते अरातीः पापानि समाज्य उदतिष्ठन् पापभारशून्या उत्थिता अभवनित्यर्थः । तत्र पापनिर्मार्जनार्थवादात् सम्भवत्कालान्तरं कर्म aa न कर्त्तव्यं न तु निरवकाशमिति अर्थवादाद्दिधिकल्पनाया: प्रतौतिवाधेनैवौचित्यात् प्रतो नित्यनैमित्तिकशान्तिकादेर्मलमासेन पर्युदासः सोऽनायतन इति नाप्यस्य चैत्रादिवत् प्रतिनियतस्थानमित्यर्थः । इतरानुपजीवतीति मासान्तरेषु चन्द्रचयदृषिभ्यां तस्वोपजननात् । आखलायनब्राह्मणं " प्राच्यां दिशि वै देवा सोमं राजानमक्रौषन् तस्मात् प्राच्यां दिशि क्रोणते त्रयोदशान्मासादक्रीणन् तस्मात्त्रयोदशो मासो नानुदिद्यते पापो हि सोमविक्रयोति”। अस्या यमर्थः यतोऽधिमासः सोमविक्रय प्रतोऽसावितर मासवानुविद्यते विद्यमानोऽपि कमानईत्वादस विवेत्यर्थः सोमविक्रय्यपि ऋत्विगन्तरवत् । अतएत्र पैठीनसिः । " श्रौतस्मार्त्तक्रियाः सर्वा द्वादशे मासि कीर्त्तिताः वयोदशे च सर्वास्ता निष्फला इति कौन्तिताः । तस्माचयोदशे मासि कुखात्ता न कथञ्चन। कुर्वनरकमाप्नोति कुय्यादाम बिनाशनम् ॥ द्वादशे प्रकृते वयोदशे मलमासे अल यन्मलमासस्य वयोदशत्वमुक्तं तदगत्या व्युत्क्रमगणनेन प्रकृतस्यैव चयोदशत्वं साहजिक तथा च "कचित्रयोदशेऽपि स्यादाद्यं सुक्का तु वत्सरम्" इति गृह्यपरिशिष्ट "मलं वदन्ति कालस्य मासं कालविटोऽधिकम् । नेहेताव विशेषेन्यामन्यत्रावश्यकाद्दिधेः " ॥ विशेषेज्यां वैशाखाद्युल्लेखेन विहितयागम् । श्रावश्यकात् निरवकाशात् । तथा च कालमाधवौये काठकगृहापरि शिष्टं "महालयाष्टका श्राचमुपाकमादिकर्म यत् । स्पष्टमासविशेषाख्य विहितं वर्जयेन्मले” ॥ स्पष्टमासविशेषेति चैत्रवैशाखादिमा सो लेखेन विहितमित्यर्थः 1 1 For Private And Personal Use Only Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७८४ मलमासतत्त्वम्। अथ दीक्षाकाल:। सा च मनमासे न कार्या यथागस्त्य संहितायाम्। “यदा ददाति सन्तुष्टः प्रसन्नवदनो मनुम् । अयमेव तथा चैवमिति कर्तव्यताक्रमः ॥ विशुदेशकालेषु शुहात्मा नियतो गुरुः । सङ्कल्पोपोधकर्त्तव्यमरारोपणं मुने ॥ कुर्यात्रान्दोमुखं श्रादमादौ च स्वस्तिवाचनम् । खरायोक्तप्रकारेण तदेतहिदधौत वे॥ मधुमासे भवेद् दुःखं माधवे रत्न सञ्चयः। मरणम्भवति ज्येष्ठे प्राषाढे बन्धुनाशनम् ॥ समृद्धिः श्रावणे ननं भवेडाद्रपदे क्षयः। प्रजानामाखिने मासि सर्वतः शुभमेव हि ॥ भानं स्यात् कार्तिके सौख्य मार्गशौर्षे भवत्यपि। पौषे जानक्षयो माघे भवेन्मेधा विवईनम् ॥ फाल्गुनेऽपि विवृद्धि: स्यान्मलमासं विवर्जयेत् । गुरौ रवौ दिने शुक्रे कर्त्तव्यं बुधसोमयोः ॥ अखिनोभरणीस्वातीविशाखाहस्तभेषु च। ज्येष्ठोत्तरत्येष्वेवं कुयान्मन्त्राभिषेकनम् ॥ शुक्लपक्षे च कृष्णे वा दौक्षा सर्वसुखावहा। पूर्णिमा पञ्चमी चैव हितीया सप्तमौ तथा ॥ त्रयोदशौ च दशमी प्रशस्ता सर्वकामदा। पञ्चाङ्ग शुद्धदिवसे सोदये शशितारयोः । गुरुशुक्रोदये शुद्धे लम्ने हादशशोधिते। चन्द्रतारानुकूले च शस्यते सर्वकर्मसु ॥ सूर्यग्रहण कालेन समानो नास्ति कश्चन । तत्र ययत्कतं सर्वमनन्तफलदं भवेत् ॥ न मासतिथिवारादिशोधनं सूर्यपर्वणि। ददातौष्टं रहोतं यत्तस्मिन् काले गुरो षु॥ सिद्धिर्भवति मन्त्रस्य विनायासेन सेव्यतः” ॥ मनु मन्त्रम्। पङ्गुरारोपणमागमप्रसिद्धम् । शुद्धकालत्वं दर्शयति । मधुमासेत्यादि। पञ्चाङ्गशुद्धदिवसे तिथिवारनक्षवकरगण्योगशुद्धदिवसे। तथा च महाकपिलपञ्चरात्रम्। “एवं नक्षत्र तिथ्यादी करणे योगवासरे। मन्त्रोपदेशो गुरुणा साधकस्य शुभावहः ॥ सोदये भशितारयोरिति जन्मचन्द्रावतारयोरा For Private And Personal Use Only Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मलमास तत्त्वम् । नुकूल्यसहिते गुरुशक्रोदये गुरुशुक्रानस्तमये । एतत्तु समयशान्तरो लक्षणम् । द्वादशोधिते द्वादशांशोधिते। ज्ञानमालायाम् । “रविसंक्रमणे चैव सूर्यस्य ग्रहणे तथा । तथा । " तत्र लग्नादिकं किञ्चित्र विचार्य्यं कथञ्चन । तत्त्वसारे । “यदेवेच्छा तदा दीक्षा गुरोराज्ञानुरूपतः । न तिथिर्न व्रतं होमो न स्रानं न जपः क्रिया ॥ दोक्षायाः कारणं किञ्चित् स्वेच्छयाप्ते तु सद्गुरौ” ॥ सिद्धमन्त्रगुरौ । दौपिकायाम् । “ध्रुवमृदुनक्षत्रगणे रविशुभवासरेषु सत्तिथौ सद्गुरौ दौचा स्थिर लग्ने शुभे चन्द्रे केन्द्र कोणे शुभे गुरौ धर्मे” । ध्रुवादि aौण्युत्तराणि रोहियौ च । मृदूनि चित्रानुराधा मृगशिरोरेवत्यः । केन्द्रं लग्नचतुर्थ सप्तदशकम् । कोणं नवपञ्चकम् । धर्मो नवमः । वौरतन्त्रे । “रोहिणी श्रवणार्द्रा च धनिष्ठा चोत्तरावयम् । पुष्यः शतभिषाकेऽर्को च दौचा नचवमिष्यते " ॥ अर्को हस्तः । रत्नावत्यां " योगाश्च प्रौतिरायुष्मान् सौभाग्यः शोभनो धृतिः । वह्निर्भुवः सुकर्मा च साध्यः शक्रय हर्षणः ॥ बरौयांच शिवः सिहो ब्रह्मा इन्द्रय षोड़श ॥ तथा “शुभानि करणानि स्युचायाञ्च विशेषतः । शकुन्धादोनि विष्टिष्व विशेषेण विवर्जयेत्” । शकुन्यादौनि शकुनिनागचतुष्पद किन्तुनानि । “कृष्णोऽष्टम्यां चतुर्दश्यां पूर्वपञ्चदिने तथा " । कृष्णं कृष्णपक्षे । कालोत्तरे "भूतिकामैः सिते सदा । अथ दोचायां प्रतिप्रसवः । राघवभदृष्टतसारसंग्रहे । * शिष्यस्त्रिजन्मदिवसे संक्रान्तौ विषुवायने । सत्तौर्थेऽर्कविषुग्रासे तन्तुदामनपर्वणोः ॥ मन्त्रदीक्षां प्रकुर्वाणो मासर्व्वादोन शोधयेत्” । तन्तुपर्व परमेश्वरोपवौतदानतिथिः श्रावणो पूर्णिमा । दामनपर्व दमनभञ्जनतिथिश्चैव शुक्ल चतुर्दशौ । कूर्मपुराणे हिमालयं प्रति देवीवाक्यम् । " यानि शास्त्राणि For Private And Personal Use Only Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७८६ मलमासतत्त्वम्। दृश्यन्ते लोकेऽस्मिन् विविधानि च। श्रुतिस्मृतिविरुडानि निष्ठा तेषां हि तामसो॥ करालभैरवञ्चापि यामलं वाममाश्रितम्। एवंविधानि चान्यानि मोहनार्थानि तानि तु ॥ मया सृष्टानि चान्यानि मोहायैषां भवार्णवे। तस्मात् सद्भिः श्रुतिस्मृतिविरुद्धे वम नि न कदाचित् पदं न्यस्तव्यम् । आयादिटुष्टमन्त्रप्रतीकारस्तु । "एषु दोषेषु सर्वत्र मायां काममथापि वा । क्षिवा चादौ थियं दद्यात् तह षणविमुक्ताये। तारसंपुटितो वापि दुष्टमन्त्रो विशुइति। यस्य तत्र भवद्भक्तिः सोऽपि मन्त्रोऽस्य सिद्धाति" ॥ भुवनेश्वरौपारिजातेऽपि । "मायावौजसमायुक्तः क्षिप्र सिद्धिप्रदो भवेत्। पिण्ड स्तु केवलो मन्त्री मायावौजोज्ज्वलोक्कतः । मायावौजात् भवेत प्राणो वौजञ्चैतन्यवीर्यवत्" ॥ नारदीये। “यदृच्छया श्रुतं मन्वं छद्मेनापि इठेन वा। पत्रेक्षितं वा गाथाच्च तमुपेत्या वनर्थकत्॥ प्रविश्य विधिवदोक्षामभिषेकावसानिकाम् । श्रुत्वा तन्वं गुरोर्लब्ध साधयेदौप्सितं मनुम्” ॥ अन्यत्रापि । "देशिकानुग्रहादेव देवता व्यक्तरूपिणी। गुर्वनुज्ञा: क्रियाः सर्वा निष्फलाः स्य यंतो ध्रुवम्” ॥ नारदोये। “कुर्वन्त्राचायशुश्रूषां मनोवाक्कायकर्मभिः। शुद्धभावो महोत्माहो बोहा शिष्य इति स्मृतः ॥ न तूपदेश्यः पुत्रस्तु व्यत्ययो वस्तुदस्तथा" ॥ व्यत्ययो परस्परविद्यादायौ। प्रयोगसार। "तत्रापि भक्तियुक्ताय पुत्राय वस्तुदाय च” । अन्यत्रापि “यथा देवे तथा मन्चे यथा मन्ने तथा गुरौ। यथा गुरो तथा स्वाम न्येष भतिक्रमः स्मृतः॥ पिङ्गलामते। “नाध्यातो नार्चितो मन्त्रः मुसिद्धोऽपि प्रसौदति। नाजप्तः सिद्धिदी लोके नाहुतः फलदो भवेत् ॥ पूजा होमी जपं ध्यानं तथा कर्मचतुष्टयम् । अत्यही साधकः बाध्यात् यत् सिमिच्छति ॥ होम For Private And Personal Use Only Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मलमासतत्त्वम् । खरोत्तरे । “चौर्णाचारव्रतो मन्त्री ज्ञानवान् सुसमाहितः । ब्रह्मनिष्ठो यातः ख्यातो गुरुः स्यानौतिको हि सः ॥ एतानि राघवभट्टष्टतानि । अथ स्त्रौशूद्रयोः प्रणवयुद्मन्त्रनिषेधः । नृसिंहतापनीये । " सावित्रीं प्रणवं यजुर्लक्ष्मीं स्वौशूद्रयोर्नेच्छन्ति । सावित्रों प्रणवं यजुर्लक्ष्मीं यदि स्त्रीशूद्रो जानीयात् स मृतोऽधोगच्छतौति" ॥ नेच्छन्तीति पर्यन्तं पराशरभाष्येऽपि गोविन्दभट्टष्टतम् । “स्वाहाप्रणवसंयुक्तं शूद्रे मन्त्रं ददद्दिजः । शूद्रो निरयमाप्नोति ब्राह्मणः शूद्रतामियात् ॥ अथ दोचितस्याशौचे जपाद्यधिकारः । मन्त्रमुक्तावल्याम् । "जपो देवाचनविधिः कार्य्या दौचान्वितैर्नरैः । नास्ति पापं यतस्तेषां सूतकं वा यतात्मनाम्” ॥ राघवभट्टष्टतं नारदवचनम् । “अथ सूतकिनः पूजां वच्याम्यागमचोदिताम् । स्नात्वा नित्यानि निर्वर्त्य मानस्याक्रियया तु वै ॥ वाह्यपूजाक्रमेणैव ध्यानयोगेन पूजयेत् । यदा कामौ न चेत् कामौ नित्यं पूर्ववदाचरेत् ॥ यत्तु नृसिंहकल्पे । सदा मन्त्रजपमुक्का “यदि स्यादशुचिस्तत्र स्मरन्भन्नं न तूञ्चरेत् । मनो हि सर्वजन्तूनां सर्वदैव शुचि स्मृतम्” ॥ इति तन्मूत्रोच्चाराद्यशौचपरम् । रामाईनचन्द्रिकाष्टतमन्त्रोत्तरेऽपि । “ अशुचिर्वा शुचिर्वापि गच्छस्तिष्ठन् खपनपि । मन्त्रैकशरणो विद्यान्मनसैव सदाभ्यसेत्” ॥ 1 अथा शोचे विष्णुकौर्त्तनम् । यथा “चक्रायुधस्य नामानि सदा सर्वत्र कौर्त्तयेत् । नाशोचं कीर्त्तने चास्य स पवित्रकरो यतः ॥ संवत्सरप्रदौपे । "न देशनियमस्तत्र न कालनियमस्तथा । नोच्छिष्टादो निषेधाऽस्ति हरेर्नामानि लुब्धक" ॥ तेन "नाशुचिर्देवर्षिपिढनामानि कौर्त्तयेत्” । इति विष्णुनामातिरिक्तपरम् । For Private And Personal Use Only ७८७ Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७८ मलमासतखम् । 'प्रथाधिमासे विवाहादिनिषेधः । भौमपराक्रमे । “पधिमासे विवाह यानां चड़ा तथोपनयमादि कुर्याव सावकाशं माङ्गल्यं न तु विशेषेज्याम्" पत्र विवाहादिकीर्तनं निरवकाशत्वेऽपि निषेधार्थम् । अन्यथा साधकाथमित्यनेनैव मिहेः । सावकाशञ्च सम्भवकालान्तरं कर्म प्रतो निरवकाशस्थानन्धगतिकस्य प्रतिप्रसवोऽर्थात् सूचितः। तथा च मलमासाधिकार काठकर धम्। “कालेऽनन्यगति नित्यां कुर्या बैमित्तिकी क्रियाम्"। वृहस्पतिः। “नित्यनैमित्तिके कुर्यात् प्रयत: सन् मलिम्बुचे। तीर्थस्नानं गजच्छायां प्रेतशाई तथैव ॥ नित्यमहरहः पुरस्कारविहितं मानसन्ध्यापञ्चमहायज्ञादि। काम्यमपि तथाविधसङ्कल्पितयत्किञ्चिद्रव्यदानशिवपूजादि। व्यक्तं भविष्ये। “कुयात् प्रात्यक्षिकं कर्म प्रयत्नेन मलिम्लुचे। नैमित्तिकच्च कुर्वीत सावकाशं न यद्भवेत् ॥ न च नित्य पदं यदकरणे प्रत्यवायस्तत्परम् । तथाले गजछायाप्रेतबाइयोरुपादानं व्यर्थ स्यात्। तथा च कालमाधवौये मत्स्यपुराणम् “वर्षे वाहरह: बाई दानश्च प्रतिवासरम्। गोभूतिलहिरण्यानां मासेऽपि स्यान्मालम्बुचे" ॥ एवञ्च दातव्यं प्रत्यहं पाने निमित्तेषु विशेषतः" इति याजवल्कयोल सङ्गच्छते। काठकगृह्य परिशिष्टम् ।, “प्रहत्तं मलमासात् प्राक् यत् कम्म न समापितम्। भागते मसमासेऽपि तत् समाप्यमसंशयम्"। ब्रह्मसिद्धान्ते। “पारब्ध कर्म यत् किञ्चित्तत् कायं हि मलिम्बुचे”। नैमित्तिक मासदिनसंवत्मरादिविशेषनियमशून्यावश्यकत्र्तव्यकादाचित्कनिमित्तोत्यन्नम्। अतएवाचारमाधवौये वौधायनेनास्यागन्तुकत्वेनोपादानमकरणे दोषाभिधानञ्च कृतं यथा “यस्य नित्यानि लुप्तानि तथैवागन्तुकानि च । विपद्ग्रस्तोऽपि न स्वर्ग गच्छेत्तु पतितो हि For Private And Personal Use Only Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७८९ मलमासतत्वम् । सः” ॥ तच्चान्यदयिकादि। "नैमित्तिकमथो वच्चे आइ. मभ्यदयार्थकम् । पुत्रजन्मनि तत् कार्य जातकर्मसमं नरैः" इति माकण्डेयपुराणात्। अन्यदप्येवं जातकर्मसममित्यनेन नाडीच्छेदात् प्रागपि कर्त्तव्यतोक्ता । अभ्युदयार्थकम् । अभ्य : दयप्रयोजनकम् । तथा च शातातपः । “पूर्वाह्न दैविक श्रा कार्यमभ्यदयार्थिना"। तेनात्रात्मशब्दप्रयोगो भान्तानामिति। जातकर्माद्यपि मलमासे कार्यम् । “जातकर्मान्त्यकर्माणि नवराई तथैव च। मघात्योदशौचाई श्राहायपि च षोडश ॥ चन्द्रसूर्यग्रहे वानं श्राहदानं तथा जपम् । कार्याणि मलमासेऽपि नित्वं नैमित्तिकं तथा" ॥ हेमाद्रिमाधवाचार्यकृतयमवचनात्। मघात्रयोदशौथावस्य मलमामकर्तव्यतायां निरवकाशत्व वौज तदब्दौयमासान्तरे तदलाभात्। यत्त गर्गवचनम् । “नामानप्राशनं चौड़ विवाह मौञ्जिबन्धनम् निष्क्रमम्। जातकर्मापि काम्यं वषविसर्जनम्। अस्तं गते गुरौ शुक्रे बाले वृद्ध मलिम्बुचे। उपायनमुपारम्भं व्रतानां नैव कारयेत् ॥ उपायनं प्रतिष्ठा। तबामकरणाब. प्राशननिष्क्रमणजातकर्मणां प्रधानकालाकतानां वेदितव्यम् । तदाह स एव । “नाम कर्म च जातेष्टिं यथाकालं समाचरेत् । अतिपातेऽपि कुर्वीत प्रशस्त मासि पुण्यदे" ॥ स्मृतिः । “श्रादजातकनामानि ये च संसारमाश्रिताः । मलिम्लचेऽपि कर्तव्या काम्या इष्टौश्च वर्जयेत्” ॥ संस्कारमाश्रिता: अन्नप्राशननिष्कमणादयः। इति माधवाचार्यः । अन्त्यकर्माणि वहनदहमोदकटानपिण्डदानास्थि सञ्चयनादौनि । नवाई "चतुर्थ पञ्चमे चैव नवमैकादशे तथा। यदत्र दौयते जन्तोस्तनवश्रामुच्यते” ॥ इति यमोक्वं तत्र चतुर्थादिग्रहणं मरणदिनावधौति । षोड़शवाहानि तु। “हादशप्रतिमास्यानि आद्य For Private And Personal Use Only Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मलमासतत्त्वम् । पारमासिके तथा । सपिण्डीकरणश्चैव इत्येतत् श्राधषोडशम्" इति कर्मप्रदीपोतानि। ननु मलमासे कृते सपिण्डौकरणे किमिति प्रतते मासि प्रतिसांवत्सरिकं न क्रियते। इति चेन "पूर्णसंवत्सरे बाई षोड़शं परिकीर्तितम्। तेनैव च सपिण्डत्वं तेनैवाब्दिकमिष्यते" ॥ इति हेमाद्रिकृतवचनात् । सक्कत् कृते कतः शास्त्रार्थ इति न्यायाच। एवमपवष्य सपिण्डौकरणे मृताहे प्रत्याब्दिकं न क्रियते । सपिण्डौकरणेनैव प्रत्या. ब्दिकसिडेः। अतएव याज्ञवल्कान। "मृतानि तु वर्तव्यं प्रतिमासन्तु वत्सरम्। प्रतिसंवत्सरञ्चैवमाद्यमेकादशेऽहनि । प्रतिसवारं श्राद्धं कर्त्तव्यमिति सामान्येनोक्तम् । न त्व कोद्दिष्टविशेषणेति सान्यादिभेदेन श्राइस्य नानात्वात्। एतेन मपिण्डीकरणापकर्षपक्षे वर्षान्ते सांवत्सरिक कार्य बाधकाभावादिति श्रीदत्तवाचस्पतिमित्रोक्तं हेयम्। बालग्रहभूत. अहनराधिपप्रबलतरशवुदुःसहरोगाभिभवाअत-दुःखाग्रादौ:स्थ्यादिनिमित्तकं शान्तिकार्मापि मलमासे कर्तव्यं विष्णु नापि । “शान्तिवस्त्वयनैर्दैवोपघातान् शमयेत् परचक्रोपघातांच" इत्युक्तं मलमासेऽपि कर्त्तव्यम् । शुद्ध कालप्रतीक्षायाममहत्व - नानन्यगतिकत्वात्। अतएव "प्रात्मानं सततं गोपायौत" इति श्रुतौ सततमुक्ताम् । ग्रहदौःस्थ्यफलपाकमाह मार्कण्डेयपुराणम् । “ट्रव्ये गोष्ठेषु भृत्येष महत्स तनयेषु च । भार्यायाश्च अहे दुष्टे भयं पुण्यवतां नृणाम् ॥ प्रात्मन्यथाल्पपुण्यानां सर्वत्रैवातिपापिनाम्। नैकत्रापि छपापानां नराणां जायते भयम्” ॥ तदयमर्थः । यस्य दौर्घजीवनादिजनकं बलवत्पुण्यमस्ति तेन तन्मरणाद्युन्म खमपि दुष्कर्मप्रतिहन्यते तत्प्रतिइतं सत् तत्पुवादेस्तत् प्रतिघातकं पुण्य नास्ति प्रत्यत तदनु. गुणमेव पापमस्ति तत्र तं हित्वा तत्पुनादेः पौड़ामावहतौति । For Private And Personal Use Only Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मलमासतत्त्वम् । ७१ बहुचरपरिशिष्टम्। “यथा शस्त्रप्रहाराणां कवचं विनि. वारकम्। एवं दैवोपघातानां शान्तिर्भवति वारणम्" । शान्तिर्धमहारा ग्रहदौःस्थ्यदुःखनादिसूचितैहिकानिष्टहेतु-दुरितनिवृत्तिः । स्वस्ति धर्महाराभिप्रेतार्थसिद्धिः तस्यायनं प्रापक यागदानादिमङ्गल हेतुगोरोचनादिद्रव्यधारणम्। प्राशौनिमित्तभूताभिवादनानि च। यथा कल्पतरौ यमः। “अभिवादयेत्त यः पूर्वमाशिषं न प्रयच्छति। तदुष्कतं भवेत्तस्य तस्माद्भोगं प्रपद्यते ॥ तस्मात् पूर्वाभिमाषौ स्याचाण्डालस्यापि धर्मवित्। सरां पिबेति वक्तव्यमेवं धर्मो न लुप्यते ॥ स्वस्तौति माह्मणे ब्रूयादायुष्मानिति राजनि। वईतामिति वैश्येषु शुद्रे त्वारोग्यमेव च ॥ वस्तौति प्रत्यभिवादनेतरपरम् । मन्वादिविरोधात् । “यत् सुखं विषु लोकेषु व्याधिव्यसन. वर्जितम् । यस्मिन् सर्वे स्थिता: कामाःसा वस्तीत्यभिसंजिता ॥ पाशिषः प्रवतत्वात् सा पायौः । अङ्गिराः। “अप्रणामक्ते शूद्रे खस्ति कुर्वन्ति ये विजाः। शूद्रोऽग्रे नरकं याति ब्राह्मण स्तदनन्तरम् ॥ ब्राह्मण इत्यनुवृत्ती मिताक्षरायां हारोतः । "क्षत्रियस्याभिवादनेऽहोरानमुपवसेदेवं बैश्यस्यापि शूद्रस्याभिबादने विरात्रमुपवसेत्” इति। अहोरात्रायुपवासश्रवणामुन्यन्तरोतविप्रदशकनमस्काररूपलघुप्रायश्चित्तन्तु प्रमादादिविषयं भ्रमकतनमस्कातविषयं वा। यथा मनुः । यदि विप्रः प्रमादेन शूद्रं समभिवादयेत् । अभिवाद्य दश विप्रांस्ततः पापैः प्रमुच्यते ॥ स्मृति: "मातुः पितुः कनीयांसं न नमेह य. साधिकः । नमस्कुर्य्याद गुरोः पत्नों चाळजायां विमातरम्” । स्मृत्यर्थसार। "स्त्रियो नमस्या वृद्धाश्य वयसा पत्युरेव ताः" । यतः पत्युर्वयसा ता स्त्रियो वृद्धाः अतः कनिष्ठा अपि नमस्याः । तनावस्थवन्दने इलायुधकृतम्। "चक्षुःस्पन्दं भुजस्पन्दं तथा For Private And Personal Use Only Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७८२ मलमास तत्त्वम् । । दुःखप्रदर्शनम् । शत्रूणाञ्च समुत्थानमश्वत्थ शमयाशु मे ॥ अश्वत्थरूपौ भगवान् प्रौयतां मे जनार्दन । दृष्ट्वा तु दूरत: पापं स्पृष्ट्वा लक्ष्मोविवर्द्धते ॥ प्रदक्षिणे भवेदायुः सदाश्वत्थ नमोऽस्तु ते ॥ शान्ति स्वस्त्यनयोः शूद्रस्याप्यधिकारः । तथा च अपिपालकारिकायां "स्मार्त्तं शूद्रः समाचरेत्” इति भविष्यपुराणवचनञ्च । “चतुर्णामपि वर्णानां यानि प्रोक्तानि श्रेयसे । धर्मशास्त्राणि राजेन्द्र शृणु तानि नृपोत्तम ॥ विशेषतश्च शूद्राणां पावनानां मनीषिभिः । श्रष्टादशपुराणानि चरितं राघवस्य च ॥ रामस्य कुरुशार्दूल धर्मकामार्थसिद्धये I यथोक्तं भारतं वीर पराशर्येण धीमता ॥ वेदार्थं सकलं योज्य "धर्मशास्त्राणि च प्रभो ॥ तस्य संस्कारमाच यमः । “शूद्रोऽप्येवंविधः प्रोक्तो विना मन्त्रेण संस्कृतः । न केनचित् समसृजत् छन्दसा तं प्रजापतिः " ॥ तं शूद्रं ब्रह्मपुराणम् । "विवाहमात्रं संस्कारं शूद्रोऽपि लभते सदा" । मावशब्दोऽव न विवाहेतर संस्कारनिवत्तैकपरः किन्त्वन्यत्र मम्वसम्बन्धनिषेधपरः । यमवचनेन गर्भाधानादिसंस्कारप्रतिपादनादिति शूलपाणिमहामहोपाध्यायाः । " श्रार्षक्रमेण सर्वत्र शूद्रावाजसनेयिनः” । इति महाजनपरिग्टहीतवचनाद यजुर्वेदविधिमैव ते कमी कुय्र्यः । पुराणान्याह विष्णुपुराणम्। "अष्टादश पुराणानि पुराणज्ञाः प्रचचते । ब्राह्मं पाद्मं वैष्णावच्च शैवं भागवतं तथा ॥ तथान्यन्नारदीयच्च मार्कण्डेयञ्च सप्तमम् । आग्नेयमष्टमचैव भविष्यं नवमं तथा ॥ दशमं ब्रह्मवैवर्त्त लेनमेकादशन्तथा । वाराहं द्वादशचैव स्कान्दश्चाव चयोदशम् ॥ चतुर्दशं वामनकं कौमें पञ्चदशन्तथा । मात्स्यञ्च गारुडचैव ब्रह्माण्डञ्च ततः परम् ॥ कौमें "अन्यान्युपपुराणानि मुनिभिः कथितान्यपि । तानि च नरसिंहनन्द्यादित्य कालिका For Private And Personal Use Only Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मलमासतत्त्वम् । ७८.३ पुराणादीनि यथा “प्राय' सनतकुमारो नारसिंहं ततः परम्। ढतोयं वायवीयच्च कुमारेण च भाषितम् ॥ चतुर्थशिवधर्माख्य ं साचावन्दीभाषितम् । दुर्वाससोक्तमायेय्र्यं नारदीयमतः परम् ॥ मन्दिकेश्वर युग्मच्च तथैवोसन सेरितम् । कापिलं वारुणञ्चाथ कालिकाह्वयमेव च ॥ माहेश्वरं तथा शाम्ब' दैवं सर्वार्थसिद्धिदम् । पराशरोक्तमपरं मारीचं भास्क - राह्वयम्" ॥ देवं देवीपुराणं तेन द्विजातिविहितविशेषकमेंतरसकलप्राप्तकर्मणि शूद्रस्याधिकारः । अतएव भारते धानुशासनिके पर्वणि " अहिंसकशुभाचारो देवता- द्दिजपूजकः । शूद्रो धर्मफलैरिष्टैः स्वधर्मैरेव युज्यते” ॥ चतएव शूद्रानुवृत्तौ मनुः । “धर्मेस त्रस्तु धर्मज्ञाः सतां वृत्तिमनुष्ठिताः । मन्त्रवजें न दुष्यन्ति प्रशंसां प्राप्नुवन्ति च " ॥ ये पुनः शूद्राः स्वधर्मवेदिनी धर्मप्राप्तिकामास्त्रैवर्णिकाचार मनिषिद्यमाश्रितास्ते वक्ष्यमाण नमस्कारेतरमन्त्ररहितं कर्म कुर्वाणान प्रत्यवायिन: ख्यातिभाजच भवन्ति एवमेव कुलकभहः । तथा “धर्मोपदेशं दर्पेण विप्राणामस्य कुर्वतः । तप्तमासेचयेत्तैलं वक्के श्रोत्रे च पार्थिवः " ॥ तथा " शक्तेनापि हि शूद्रेण न कार्य्यो धनसञ्चयः । शूद्रोऽपि धनमासाद्य ब्राह्मणानेव बाधते ॥ शूद्रस्य पूर्णाधिकारमाह जातूकर्णः । " वापीकूपतड़ागादिदेवतायतनानि च । प्रब्रप्रदानमारामाः पूर्त्तमित्यभिधीयते ॥ धारामः पुष्पफलोपचय हेतुर्भूभागः । " अग्निहोत्रं तपः सत्यं वेदानाच्चानुपालनम्। प्रातिथ्यं वैश्वदेवच इष्टमित्यभिधीयते ॥ ग्रहोपरागे यहानं पूर्त्तमित्यभिधीयते । इष्टापूर्त्तं दिजातीनां धर्मः सामान्य उच्यते । अधिकारी भवेच्छूद्रः पूर्त्ते धर्मे न वैदिके” ॥ वैदिके वेदाध्ययनसाध्ये | अग्निहोत्रादाविति रत्नाकरः । एवं स्त्रीणामपि पूर्णाधिकारः । यथा नारीत्यनुवृत्तौ बृहस्पतिः । 6 ට For Private And Personal Use Only Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ०८४ मलमास तत्त्वम् । "पितृव्यगुरु दौहिवान् भर्त्तुः स्वस्रौयमातुलान् । पूजयेत् - पूर्त्ताम्यां वृानाधातिथोन् स्त्रियः" ॥ एतेन जलाशयोसमें गोरवतरणानुमन्त्रणयोर्यजमानकर्तृकमन्त्रपाठः तत्रा मन्त्रतया स्त्रीशूद्रयोरनधिकारेण तद्वति यागेऽप्यनधिकारः । विशेबोपदेशविरहादिति देत निर्णयोक्ता निरस्तम् । अतएव तयोलायोत्सर्गादिग्रहयज्ञवेदौ- होमादिसमाचारः । चत्र होमो वह्नौ न साक्षात् कल्पतरुग्नाकरधृतापस्तम्बवचनात् । तद्यथा चारलवणाद्युपक्रम्य “ततमहुतानो न स्त्रो जुहुयात्रानु येतः" इति अनुपेतः अनुपनौतः किन्तु ब्राह्मणद्वारा करणीयः । " श्रौतस्मार्त्त क्रिया हे तो याहृत्विजः स्वयम्" इति याज्ञवल्कयोक्तेः । ऋत्विग्वादे नियुक्तौ च समौ सम्परि कौत्तितौ । यते स्वाम्याश्यात् पुखं हानिं वादेऽथ वा जयम् ॥ इति वृहस्पत्यतः । वैदिकेतरमन्त्रपाठे शूद्रादेरप्यधिकारः । वेदमन्त्रवर्ज शूद्रस्येति छन्दोगाडिका चार चिन्तामविष्टतस्मृती वेदेति विशेषणात् । " शूद्रोऽप्येवंविधः प्रोक्लो विना मन्त्रेष संस्कृतः । न केनचित् समसृजत् छन्दसा तं प्रजापतिः” इति यमस्मृतौ छन्दसा वेटेन इत्युक्तेश्व । तं शूद्रम् । पञ्चयज्ञस्नान श्रादेषु वैदिकेतरमन्त्रोऽपि निषिणः । शूद्रमधिकृत्य । " नमस्कारेण मन्त्रेण पञ्चयज्ञान हापयेत्” इति याज्ञवल्कयेन । "ब्रह्मचव विशामेव मन्त्रवत् स्नानमिष्यते । तूष्णोमेव हि शूद्रस्य सनमस्कारकं मतम्” इति योगियाज्ञवल्कयेन श्राद्धमधिकृत्य “प्रयमेव विधिः प्रोक्तः शूद्राणां मन्त्रवर्जितः । श्रमवस्य तु शूद्रस्य विप्रो मन्त्रेण गृह्यते" इति वराहपुराणौयेन च नमस्कारेणेति तृष्णोमिति मन्त्रवर्जित इत्यभिधानात् । अभियुक्तानां मन्त्रोऽयमिति समाख्यानं मन्त्रलक्षणमिति माधवाचाय्र्यः । प्रवच "श्रावयेश्चतुरो वर्षान् कृत्वा ब्राह्मण For Private And Personal Use Only Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७५ मलमासतत्वम् । मग्रतः । वेदस्याध्ययनं हौदं सच कायं महत् स्मृतम्” ॥ इति मोचधर्मो वेदस्य शूद्रावणमप्येतहिषयम्। शूद्रस्य पुरापादेरमध्ययनविधिमाह भविष्थे। “अध्येतव्यं न चान्येन ब्राधणं क्षत्रियं विना। श्रोतव्यमित शूद्रेण नाध्येतव्यं कदाचन" तथा "ब्राह्मणं वाचकं विद्यानन्यवर्णजमादरात् । श्रुत्वान्यवर्णजाद्राजन् वाचकावरकं ब्रजेत् ॥ तथा "ग्रन्थार्थ बुध्यमानस्तु समग्र कत्नशो नृप। ब्राह्मणादिषु वर्णेषु अर्पयन् विधिववृप ॥ य एवं वाचयेद्राजन् स ज्ञेयः सात्विको बुधः । तथा “सन्त्यज्य सर्वकर्माणि भक्तिधासमन्वितः । सततं पूजयन् यस्तु वाचकं श्रद्धया नृप । नित्यनैमित्तिके कार्ये गुरवे च ददत सदा। य एवं शृणुयाहौर: सजेयः सात्विको बुधैः" ॥ गुरवे च इत्यत्र वाचकायेति। कामधेनुकल्पतरू। वाराहे अयमेवेत्यस्य शूद्रमाननिष्ठत्वे शूद्रस्येत्यनेनैव सिहरमन्त्रस्येति विशेषणं यावदमन्वव्याप्ता) परिभाषार्थञ्च ततश्चामन्त्र कर्तकशाहहोमदानादि-कर्मसम्बन्धि मन्त्रेण विप्रो एधते सम्बध्यते । स्त्रियास्त्वमन्त्रकता “पमन्त्रा हि स्त्रियो मता" इति शुद्धिरत्नाकरकृतवौधायनवचनात् । अनुपनौतस्य श्राद्धातिरिक्त मन्त्रपाठनिषेधमाइ मनुः । नाभिव्याहारयेद् ब्रह्म खधानिनयनादृते। शूट्रेण हि समस्ताबद्यावहेदे न जायते" ॥ स्वधा थाई तबिनौयते सम्पाद्यते येन मन्त्र जातेन तस्मात् तेन स्त्रौशूद्रानुपनौतानां सर्वकर्मणि ट्रष्यदेवतानुष्ठानादिदृष्टप्रयोजनप्रकाशाय ब्राह्मणेन मन्त्रः पठनौयः। मन्त्रपाठजन्यादृष्टसिद्धिनमस्कारेण यथा वृहस्पतिः । "शौचं ब्राह्मगाशुश्रषा सत्यमक्रोध एव च । शूद्रकर्म तथा मन्त्रो नमस्कारोऽस्य दर्शितः" ॥ शूद्राधिकारे गोतमः । “धनुमतोऽस्य नमस्कारो मन्त्रः" इति। एवं मलमासे प्रायषित. For Private And Personal Use Only Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६ मलमासतखम् । मपि निरवकाशनैमित्तिकत्वेन कर्तव्यम् । “विहिसखाननुः छानाबिन्दितस्य च सेवनात्। प्रायश्चित्तं यत् क्रियते तमित्तिकमुच्यते ॥ इति द्वारस्पत्युकोः। प्रस्य च निरवकाशत्वम् अनारबप्रायश्चित्तस्य भुनानस्य पापहः। तथा चाङ्गिराः । "लते नि:संशये पापे न भुजौतानुपस्थितः। भुजानो वईयेत् पापमसत्यं पार्षदि ब्रुवन्” ॥ अनुपस्थितः परिषदित्यर्थः । अतएव दक्षः। "नैमित्तिकानि काम्यानि निपतन्ति यथायथा। तथातथैव कार्याणि न कालस्तु विधीयते ॥ मैमित्तिकानि काच्यानोति समानाधिकरणम्। निमित्तात् प्रहदौख्यदुःखनादेः कर्तव्यत्वेन प्रतीतानि नैमित्तिकानि निमि. तचिलदोषशान्तिकामनया क्रियमाणानि तान्येव काम्यानि न कालस्तु विधीयते इति उदगयनशकपक्षदिनपूर्वभागादिरूपः कालो नानुरुध्यते। तेन एतहातिरिक्त दक्षिणायनादौ निन्दिते मसिनचादौ च शान्तिकं कर्तव्यमिति। शान्तिकपौष्टिक वामतः। तथा दत्तनरिखस्वादाने स्तेयत्व श्रवणादारब्धदानसम्यादकत्वाञ्च मलमासेऽपि त यम्। तथाच विष्णुपुराणम्। “प्रमादतस्तु तवष्ट तावमात्र नियोजयेत् । अन्यथा खेययुक्तः स्थाईम्बादत्ते विनाशिनि ॥ ब्राह्मणायोसृष्टं ब्राह्मणसादकतं यदि चौरादिनापयिते तदा तावदेव पुनरमृज्य देयमिति दानसागरः। युक्ताश्चैतदित्यनेन पूर्ववचनोपात्तदत्तानुकर्षात् । तद्यथा "तस्मात् सर्वात्मना पाने दद्यात कनकमुत्तमम्। पावे पातयेहत्तं सुवर्ण मरकार्णवे। किचायथेत्यनेनैवादाने प्राप्ते त्वदत्त इति पुनरुपादानं व्यर्थं स्यात् । एतेनानुसष्ट हेमनाशेऽपि तावदुसज्य देयमिति मैथिलोक्त निरस्तम्। उत्सष्टाप्रतिपादितविषयमिति चण्डे. खरोऽपि साम्प्रदायिकास्तु। सर्वत्र एव सङ्कोचात् प्रायश्चित For Private And Personal Use Only Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मलमासतत्त्वम् । ७६७ माचरन्ति तेषां वाक्यन्तु । अद्य प्रमादनष्टहिरण्यतुल्यहिरखाप्रदानजन्यपापसमपापामुत्पत्तिकामदं प्रमादनष्टहिरण्यतुल्यहिरण्य मित्यादि दक्षिणा च अस्मन्मते प्रमादनष्टानन्तरम् पत्. सृष्टाप्रतिपादितेति विशेषः। वृहस्पतिः। “नित्यनैमित्तिके कुर्यात प्रयत: मन् मलिम्लुचे। तीर्थस्नानं गजच्छायां प्रेतबाई तथैव च” ॥ तीर्थस्नानमावृत्तम् । अनावृत्ते निषेधस्य वक्ष्यमाणत्वात। गजच्छायापदं तद्विहितकर्मपरम्। गज च्छाया वराहोला । "सैहिकेयो यदा भानं ग्रसते पर्वसन्धिषु । गजच्छाया तु सा प्रोक्ता तत्र श्राई प्रकल्पयेत्” ॥ पत्र च राहुवै इस्तीभूत्वा चन्द्रमसं असतोति श्रुतिमूलम् । सूर्यग्रहे चन्द्रग्रासस्थावश्यक इति मूलमूलिनोविरोध इति मैथिलाः। तथा च विष्णुधर्मोत्तरे। राहु प्रति भगवहाक्यम्। “पर्वकाले तु संप्राप्ते चन्द्राको छादयिष्यसि। भूमिच्छायागतश्चन्द्रं चन्द्रगोऽक कदाचन ॥ संच्छादयिष्यसि यदा तदा भावमवाप्सासि | साने जप्ये तथा होमे दाने श्राद्दे सुरार्चने । पुण्यः स कालो भविता नित्यमेवासुरेश्वर" ॥ नित्यं मलमासादिप्रतिषिद्ध कालेऽपि । वस्तुतस्तु सूर्यग्रहेऽपि साक्षात् श्रुतिरस्ति। तथा च समयप्रकाशे कठब्राह्मणम्। “हस्तौ वै भूत्वा वर्भानुरंशुभिरादित्वं तमसा पिदधातौति। अमावास्यां गते सोमे छाया या प्राख्न खो भवेत्। गजच्छाया तु सा प्रोता तत्र श्राद्ध प्रशस्यते” ॥ इति वचनात् अमावास्याश्राद्ध मलमासेऽपि कार्य इति मैथिलोत हेयम् एतह षणस्य वक्ष्यमाणत्वात्। अत्र ब्रह्मपुराणोल गजच्छायायोगो न गृह्यते कन्यामलमासे त्रयोदश्यां चित्रायामेव रवेरवस्थानेन तदसम्भवात् स च “योयो मघात्रयोदश्यां कुन्नरच्छायसंजितः। भवेन्मघायां संस्थे तु मशिन्यर्के करे स्थिते" । कर हस्तायां ततस्थे सूर्यो । मघासंस्थे For Private And Personal Use Only Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मलमासतत्त्वम् । चन्द्रे घेति मघावयोदश्यां कुचरछायसंनितो योगो भवति । प्रस्तावस्थामच सूर्यस्य कन्यादशमांशोत्तरकिञ्चिदधिकसपादवयोदशांशं यावत् । न चानेन कुन्नरच्छाययोगः सङ्केतितो न तु गजच्छायेति वाचं कुन्नरच्छायस्य गजच्छायादिका संचा जाता अत्रेतीतच्प्रत्ययेन गजच्छायाया अपि सङ्केतितत्वात् धुस्थरः कनकाद्वय इतिवत् । व्यक्तं कृत्यचिन्तामणौ। कृष्णपक्षे वयोदश्यां मघाखिन्दुः करे रविः । यदा तदा गजच्छाया आधे पुण्यैरवाप्यते ॥ न च मघात्रयोदश्यामित्यनेनैव सिद्ध मघायां संस्थितेत्यधिकमिति वाच्यम्। मधात्रयोदश्यामित्ये.' तावमानोस्तिथेरेकादशेऽपि मघायोगे कालान्तरेऽपि योगः स्यात् अतो मघाया वर्तमानत्वार्थ मघायां संस्थे शशिनौत्युक्त तहि एतदस्तु किं मघात्रयोदश्यामित्यत्र मघापदोपादानमिति चेत्। "थाह तेनापि कर्त्तव्य तैस्तैव्यैः सुसञ्चितैः । वयो. दश्यां प्रयत्नेन वर्षासु च मघासु च ॥ इति ब्रह्मपुराणोय. वचनान्तरस्थ-विधिवाक्यप्राप्त-चाइनिमित्तौभूतमघात्रयोदश्यामेव फलातिशयाय कुजरच्छायाख्ययोगो भवतीति न निमित्तान्तरम् इत्येतदर्थमेव हि अतएवोक्तवचने त्राचे पुण्यैरवाप्यते इत्युक्तं न तु श्राहाय निमित्तान्तरमिति तथा चाधिकरणमालायां "काम्यो गुणः श्रयमाणो नित्यम) विश्वत्याभिनिविशते इति न्यायाद् यथा गोदोहगुणो नित्य चमससाधनकमपां प्रणयन विकत्याभिनिविशत इत्युक्तं न तु गोदोहेन प्रणयनान्तरम्। तेन यदा कन्यादशमांशापराह्ने मघात्रयोदशीलाभस्तदा तत्परदिने तल्लाभेऽपि न कुञ्जरच्छाययोगः पूर्वादन एव मघात्रयोदशौथाइविधानात्। तथा च गृह्यपरिशिष्टम् । "ययास्त सविता याति पितरस्तामुपासते। तिथिन्तेम्योऽपरातो हि खयन्दत्तः स्वयम्भवा" ॥ एतेन कपालाधिकरण For Private And Personal Use Only Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मलमासतत्त्वम् । See न्यायादुभयदिने मध्याइलाभे पूर्वदिन एवैकोद्दिष्टवाइमिति मैथिलमतमपास्तम्। अन्यथा आपराह्निकपिटक्कत्येऽपि तयायात् पूर्वदिन एव लाभे ययास्तमिति वचनमनर्थकं स्यात्। म चैतहचनमेव तश्यायमूलमिति वाच्यम्। अपराह्नो हौति खोकतमबिगदेन पिटक्कत्ये तव्यायानवकाशात् तस्मादापरालिकेतरवाहेऽपि "शुक्लपक्षे तिथिर्गाद्या यस्यामभ्यदिती रविः । कृष्णपक्ष तिथिया यस्यामस्तमितो रविः ॥ इति विष्णुधर्मोत्तरवचनादेव व्यवस्था। तथा च कालमाधवौये व्यासः। “हितोयादिकयुग्मानां पूज्यता नियमादिषु । एको. हिष्टादि वृद्यादौ हामवृयादिदेशना" ॥ एकोद्दिष्टादि वृधादौ एकोद्दिष्टादि निमित्तीभूततिििवशेषस्य हृयादौ। हासहद्धौ चन्द्रस्य ताभ्यां शुक्लकषणपक्षी लक्ष्येते। प्रादिशब्दादापराह्निकपिटकत्येऽस्तगामिन्येव पूर्वोक्त ययास्तमिति वच. मात्। एवञ्च श्राद्धे निमित्तान्तरत्वेनानौकारागौड़ीयमैथिलाभ्यां कुचरच्छाययोग: फलातिथयार्थ इत्युक्तम् । ततश्च मघात्रयोदशौ बाई कत्वा परदिने कुचरच्छाययोगे बाई कत्तव्यमिति वाचस्पतिमित्रोक्तं हेयम्। एवञ्च ब्रह्मपुराणे तेस्तै द्रव्यैः सुसञ्चितैरित्यभिधानात् गुणविशेषे फलविशेषः स्यात् इति न्यायाञ्च यत्किञ्चिन्मधुनामिश्रमिति वचनाञ्च । "प्रोष्ठपद्यामतीतायां मघायुक्तां त्रयोदशौम्। प्राप्य थाई हि कर्तव्यं मधुना पायसेन च ॥ इति शङ्खवचनादौ पायसाभिधान फलातिथयार्थम्। अतएव शातातपेन “पितरः स्पृहयन्यन्त्रमष्टकासु मघासु च। तस्माद्दद्यात् सदोदयुक्तो विहत्सु ब्राह्मणेषु च ॥ इत्यवानमात्रमुक्तम्। मनुनापि । “यत्किञ्चिन्मधुना मिश्रं प्रदद्यात्त त्रयोदशौम् । तदप्यक्षय. मेव स्याइर्षासु च मघासु च । इत्यत्र यत्किञ्चिदित्युक्तम् । For Private And Personal Use Only Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८०० मसमासतत्त्वम् । यत्किचिदिति पप्रतिषिमिति कुल्ल कमः । यात्रवस्त्र नापि। “यहदाति गयास्थश्च सर्वमानत्यमनुते। तथा वर्षाः त्रयोदश्यां मघासु च विशेषतः ॥ इति तथा वर्षात्रयोदश्यां मघात्रयोदश्यां विशेषतो मघानक्षत्रयुक्तायां तस्यां यत्किञ्चिहोयते तत् सर्वमानन्त्यमनुते इति मिताक्षरा। देवलेनापि "ततोऽन बहुसंस्कार नैकव्यञ्जनववरः । चष्यपेयसम्हञ्च यथावटुपपादयेत् ॥ इति समुच्चय उक्तो न व्रोहि यवदिकल्पः। गुणप्रधानयोः समुच्चयस्यैव युतात्वात्। अतोऽत्र शूद्राणामप्यधिकारः। भविभक्तानामपि पृथक् मघावयोदश्यां श्रादमावश्यकम्। यथा क्वचिन्तामणौ। “विभक्ता अविभक्ता वा कुर्य्यः श्राइमविकम्। मघासु च तथान्यत्र नाधिकार: पृथग्विना" ॥ प्रदेविकं प्रत्याब्दिकै कोद्दिष्टम् । अन्यत्र कृष्णपक्षादौ नाधिकारो न नित्याधिकारः। “सपिण्डौकरणान्तानि यानि श्राद्धानि षोड़श। पृथङ्मैव सताः कुर्युः पृथगद्रव्या पि कचित्" इत्यवापिना समुचिता पृथक् द्रव्यस्य पुंसः। सपिण्डौकरणान्तानौति विशेषणात् तदुत्तरश्राद्वानां फलातिशयार्थत्वेन पृथक्त्वं प्रतीयते । एवञ्च श्राद्धाय विधिवाक्ये प्रोष्ठ पाई मघात्रयादशौश्रुत्या अर्थवादात् केवल त्रयोदशौथाई निरस्तम अथवादेन क्लप्तविधिसम्भवे तदनुगुणैव स्तुतिः क्रियत इति मघात्रयोदशौश्राद्धे तु पुत्रवता पिण्डा न देयाः । “भोजङ्गों तिथिमासाद्य यावचन्द्रार्कसङ्गमम्। तत्रापि महती पूजा कर्तव्या पिढदैवते। ऋक्षे पिण्डपदानन्तु ज्येष्ठपुतौ विवर्जयेत्” इति देवीपुराणात् । भौजङ्गौ पञ्चमी चन्द्रार्कसङ्गमोऽमावास्या पिटदैवते मघा याम्। एवञ्चापिण्ड केन मघात्रयोदशौथाइन सपिण्ड कस्याम्यश्वयुक् कृष्णपक्षश्राइस्य सिद्धिाधवात् अपिण्डकेऽपि For Private And Personal Use Only Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मलमास तत्त्वम् । पिच्हाङ्गानामपि निवृत्ति: । प्रधाननिवृत्तावज्रनिवृत्तेर्युलत्वात् । अतएव हेमाद्रिनव्यवर्धमानधृतशातातपवचनम् "पि निर्वापरहितं यत्तु श्राहं विधीयते । स्वधावाचनलोपोsa विकिरस्तु न लुप्यते । पचय्य दक्षिणा स्वस्ति सौमनस्य' तथास्त्विति । इति भविष्यपुराणेऽपौहग्वचनम् अक्षय्येति अक्षय्योदकदानम् । थथा छन्दोगपरिशिष्टम् । " प्रचखोदकदानन्तु मय दानवदिष्यते । षष्ठेप्रवनित्यं तत् कुय्याच चतुर्ष्या कदाचन" इति न चतुर्थ्येति तस्मै ते इत्यन्तस्य निषेधः प्रवेत्य वकारेण गोवसम्बन्धनाम्नां षष्ठान्तता प्रतीयते । अथय्यविधानात् स्वधानिषेधः । तेन “ये चात्र त्वामनुयांच त्वमनु तस्मै ते स्वधा" इत्यचय्योदकदाननिषेधः । ननु गोभिलेन ये चावत्वेति मन्त्रस्य तत्तत्स्थाने विशिष्योपदेशात् कथमचय्योदकदाने तत् प्रसक्तिरिति चेत् सत्यं “ बहूनामेकधर्मायामेकस्यापि यदुच्यते । सर्वेषामेव तत् कुखेादेकरूपा हि ते स्मृताः । इति वोधायनेनोक्लाकाङ्क्षया प्रसक्तेः प्रागुक्तपरिशिष्टवचनेनापि ज्ञाप्यते । ततब इन्दोगानामचय्योदकदानेतर हे कुशासनादि दाने सर्वत्रैवाविशेषाद ये चात्रत्वेति पाठ: विशिष्योपदेशस्तु प्रदर्शक इति अतएवानिरु भट्ट नापि सर्वत्र वाक्ये श्राविवेककृता चात्रोत्सर्गवाक ये चावत्वेति वाक्य लिखितम् । न चैवं सपिण्डकेनापिण्ड कसिद्धिरिति मिश्रोक्तं युक्तमिति वाच्यम्। अनयोरेकतरकरणे पिण्डदानतदभावान्यतराङ्गलोपस्यावश्यकत्वेनोभयवासाङ्गकरणानिष्पत्तेः । लाघवेनापिण्ड कस्यैवौचित्यात् । " मघायां पिण्डदानेन ज्येष्ठपुत्रो विनश्यति” इति निन्दाश्रुते । अथ पिण्ड निषेधस्य श्राङ्गत्वे किं मानमिति चेत् । "अविच्छिन्ने कथं भावे यत् प्रधानस्य पच्यते । प्रविज्ञातफलं कर्म तस्य प्रकरणाङ्गता ॥ ८०१ For Private And Personal Use Only Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८०२ मलमास तत्त्वम् । इति न्यायस्य भाव वदभावेऽप्यविशेषात् । अतएव षोडशिग्रहणाभावे क्रत्वर्थतया च यादृच्छिकग्रहण प्रसक्त्यभावाविषेधोऽयं न क्रत्वर्थः स्यादिति दायभागः । द्वैतनिर्णयेऽपि साग्निकौरसेन पितुः चयाहे पित्रादिविकस्य श्राडे ते तव मातामहादीनां श्रादाय न पुन: पार्वणारम्भः । वाजिनवत्तस्यानुष्ठानाप्रयोजकत्वादिति स्वोक्तेनाष्टकादौ पाट्‌पौरुषिकत्वेऽपि " कर्षसमन्वितं मुक्ता तथाद्य श्राषोडशम् । प्रत्याब्दिकच शेषेषु पिण्डाः स्युः षडितिस्थितिः ॥ इत्युक्ता चयाहे वैपुरषिकमात्राभिधानपरेण विरोधाच्च । मातामहादीनां बाई स्वतोऽनुष्ठानाप्रयोजकत्वञ्च । “पितरो यत्र पूज्यन्ते तत्र मातामहा ध्रुवम् । इत्यनेन पितृश्रादाधौनप्रवृत्तेः । एतेन aratदयां सपिण्डका पिण्ड को भय श्राद्ध पृथक् काय्यमिति निरस्तम् । न च पिण्डदानस्य श्राङ्गत्वेन प्राधान्यात् श्रावृत्तिरिति वाच्यम् । " अदेवं भोजयेत् श्रार्थ पिण्डमेकच निर्वपेत् ॥ इति मनुवचने "श्रामश्राद्धं यदा कुय्याद्दिधिनः श्राहृदः सुतः । न चाग्नौ करणं कुय्यात् पिण्डस्तेनैव निर्वपेत्” ॥ इति मत्स्यपुराणे श्राद्धं सपिण्डकं कृत्वा कुलसाहसमात्मना । विष्णुलोकं समुद्धृत्य नयेद्विष्णुपदं नरः ॥ इति याप्रकरणीयवायुपुराणे च पिण्डातिरिक्तस्यैव श्राहत्वको मादिति । न च "सह पिण्डक्रियायान्तु कृतायामस्य धर्मतः aaraar कार्यं पिण्डनिर्वपणं सुतैः” ॥ इति मनुवचने अत्रोत्सर्गस्येति कर्त्तव्यतोपदेशात् पिण्डदानस्य प्रधानत्वमिति वाच्यं प्रागुक्तमन्वादिवचनविरोधेन पिण्डपदस्य पितृपरत्वात् । तथा च " ततः प्रभृति पितरः पिण्डसंज्ञान्तु लेभिरे" इति मत्स्यपुराणं तस्मात् पिण्डनिर्वापणं पित्रे दानमित्यर्थ कम । न चैवमष्टकादिः पित्त: चयतिथित्वं तत्र पार्वणे कृते निरग्ने 1 ܬ For Private And Personal Use Only Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मसमासतवम् । ८०३ कोहिष्टाचरणमिति वाच्यम्। “यो कदिवसे स्यातामेको. द्दिष्टन्तु पावणम्। एकोद्दिष्ट निवृत्त्यैव पार्वणं विनिवर्तयेत्" पति। नध्यवर्धमानतवचनन प्रागेकोहिष्टविधानात्। नत्वेवं हधिबारे कते तहिने तदनन्तरमेकोद्दिष्ट पार्वणं वा भवेदिति व आभ्युदयिक नान्दौमुखविशेषणविशिष्टस्य पितुर्देवतात्वम् अन्यत्र केवलस्येति देवताभेदात् पार्वणानन्सरन्तु मार्कण्डेयपुराणेन नित्यवाई विकल्पविधानान नित्यबाहात् पार्वणसिद्धिः। यथा मार्कण्डेयपुराणम्। “नित्यक्रियां पितृणान्तु केचिदिच्छन्ति सत्तमाः। न पितृणां तथैवान्ये शेषं पूर्व. वदाचरेत् ॥ अथ पर्युदासविचारः। ननु भौजङ्गोतिथिमासाद्य इत्यत्रोपजीव्य वाभिया "रात्रौ श्राई न कुर्वीत राक्षसौ कौर्तिता हि सा। सन्ध्ययोरुभयोश्चैव सूर्ये चैवाचिरोदिते । प्रतिवत् पिण्डदानं विवर्जयेदिति पर्युदास इति चेन्न एतस्वातिदेशसभ्यत्वेन पयंदासासम्भवात्तथा हि पिण्डदानं विव येदित्यस्य पिण्डे तरं दद्यादित्यर्थत्वेऽनुवादकतापत्तिस्तदित. रस्थ प्रतिवहिकतिरिति न्यायलभ्यत्वात् किन्तु तदितरदाने. ऽपि कथं वा स न दीयते न च प्रापकविध्यभावादप्राप्तिर्विध्य. मावपि प्रतिवदिति न्यायात् प्राप्तः। एवं मघातिरिक्त पिण्डं दद्यादिति पयंदामेऽपि। न चैवं राबादौतगमास्वायां भाई कुयादित्या रावादावपि न कथं वामप्रसक्तिरिति वाच्यं न्यायविध्योरभावात् । पतएव राजमार्तण्डे निषेधातिक्रमादनिष्टफलमुलम् । यथा “संक्रान्त्यामुपवासेन पारणेन युधिष्ठिर। मघायां पिण्डदानेन ज्येष्ठपुत्री विनश्यति । सन्ध्याकालमाह वराहः। अहास्तमयात् सध्या व्यक्तीभूता तारका यावत् । तेजः परिहानेरुषाभानोरोदयं यावत् । For Private And Personal Use Only Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ८०४ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मलमास तत्त्वम् । योगियाज्ञवल्क्य: “ड्रासदृष्टौ तु सततं दिनरात्रप्रोर्यथाक्रमम् । सध्या मुहर्त्तमाख्याता हासे वृडौ समास्मृता ॥ ताहचादचिरोदितकालेऽपि मुहर्त्तमाचं " रात्रौ श्राइं न कुर्वीत राहोरन्यत्र दर्शनात् । सूर्योदयमुहर्ते च सन्ध्ययोरुभयोस्तथा ॥ इति मदनपारिजाते माधवाचार्यष्टतशातातपवचनाच्च । एतेनाचिरोदित इत्यव मैथिलानां मुहर्त्तद्दयवर्णनं हेयम् । अस्मादतिदेशस्यले न पर्युदासः । अतिदेशस्तुस्तन्त्ररत्ने । “प्रकृतात् कर्मणो यस्मात्तत् समानेषु कर्मसु । धर्मोऽति दिश्यते येन सोऽतिदेश इति स्मृतः ॥ न च यजतिषु ये यजामहं कुर्य्यान्नानुयाजेष्वित्यत्र क्रियान्तराभावादेकवाक्यतया उपजौव्यवाधभिया च पर्य्युदासोऽस्तु प्रकृते तु श्रमावास्वायां पितृभ्यो दद्याद्रात्रौ श्राह न कुर्वीत इति क्रियाया: पृथगभिधानात् तयोः सार्थकत्वाय गत्यन्तराभावात् रागातिदेशवदुपजीव्यवाधोऽस्तु इति वाच्यं न्यायनये यथा करोतोत्यव एक इत्यादौ च प्रतिप्रत्यययोरेकार्थत्वेऽपि सम्भेदेनान्यतरवैयर्थं तद्ददवापि अन्यथा नानाविधिकल्पने गौरवात् । अतएव और सचेत्रजयोः साग्न्योरेव पार्वणं न तु क्रियाभेदेऽपि मिरपेक्षेण विधियकल्पनम् । पौरसचेत्रजौ पुत्रौ विधिना पार्वणेन च । प्रत्यब्दमितरे कुर्य्यरिकोद्दिष्टं सुता दश" इति । "यत्र यत्र प्रदातव्यं सपिण्डीकरणात् परम् । पार्वलेन विधानेन देयमग्निमता सदा" ॥ इति जावालमत्स्यपुराणवचनाभ्यामिति । किञ्च प्रदग्धदहमन्यायेन यावदप्राप्त तावद्विधोयते इति "सर्वत्राख्यातसम्बन्धे श्रयमाणे पदान्तरे । विधिभक्त्युपसंक्रान्तेः स्यादातोरनुवादता” इति । भट्टन ये च सायं प्रातर्जुहोतोत्यनेन हवनस्याहरहः सिद्धर्यथा सायं प्रातर्भुवनममय दना जुहोतीत्यादौ दध्यादेः करणत्वमात्र विधेयम् । For Private And Personal Use Only Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मलमासतत्त्वम् । ८०५ "तहदौरसक्षेत्रज कत्र्तकप्रत्याब्दिकपार्वणविधिमनद्याग्निमत्कर्तकत्व विधीयते। एवमत तत्तविधिप्राप्तबाइकरणमनद्य सबौतरत्वमात्रविधेयमिति। अन्यथा प्रसज्यपक्षे “पूर्वाहे माटकं श्राद्धमपराओं तु पैटकम्। एकोदिष्टन्तु मध्याह्ने प्रातह चिनिमित्तकम्” ॥ इति ब्रह्मपुराणोक्तवचनेन अमावास्यादि विधीनामेकवाक्यतया श्राद्धमानस्य दिवामात्रकर्तव्यवाभावेनकोद्दिष्टस्य मध्याह्नमात्रकर्तव्यत्वे यत्रोभयदिनेमध्याहाप्राप्तिस्तत्र तस्य लोपे प्रत्यब्दमिति वोप्साभङ्गप्रसङ्गः। अपि चैवं “यस्यैतानि न दीयन्त प्रेतवाहानि षोड़श। पिशाचव ध्रुवं तस्य दत्तैः श्राद्दशतैरपि"। इति यमवचनेन षोड़शवाहासम्पत्त्या पित्रादौनां प्रेतत्वापरौहारामहाननर्थः स्यात्। पर्युदासपक्षे त्वमावास्यादिविधीनां रावीतरत्वेऽपराह्नादि विशेषविधौनां प्राशस्त्यपरत्वम्। तत्राप्येकवाक्यत्वे रानादौतरत्र विशेषणवैयर्थ्यम् । ततश्च प्रशस्तकालं विना रानादौतरकालेऽपि श्राइविधानान श्राइलोपः । अतएवापकर्षे एकाहे हादशाथ वेति वचनमपि सङ्गच्छते । अन्यथा मध्याह्नकालमानपरत्वे तन हादशथाहानुपपत्तेः । वस्तुतस्तु । वेदान्तकल्पतरावधिकरणमालायाच पर्युदासा. धिकरणस्य विषयवाक्यमेवं किल यते। "श्रावयेति चतुरचरम् पस्तु वौषडिति चतुरक्षर यजेति बाक्षर ये यजामहे इति पञ्चाक्षर यक्षरो वषट्कारः एष वै सप्तदश प्रजापतियंत्र यन्त्रेऽन्वायत्त इति ततो नानुयाजेषु ये यजामहं करोतौति । अत्र सप्तदशाक्षरो मन्त्रगण: प्रजापतित्वेन स्तयते সানিতি অাৰাময়িমৰমৰৰমনারपञ्चामकसप्तदशकलिङ्गशरीरसमष्टिरूपत्वात् यन्ने यन्त्रेऽन्वा. यत्तोऽनुगत इति । हि यत्किञ्चिद यन्त्रमनारम्याधौतेन वाक्येन For Private And Personal Use Only Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८०६ मलमासत्वम् । सर्वयज्ञेषु मन्त्रगणो विनियुक्त इति । यजतिषु ये यजामह करणत्वमुद्दिष्टं तदुपदिश्य चान्नातं नानुयाजेष्विति । पत्र संशयः किं विधायक प्रतिषेधकयोरवैयर्थ्यार्थम् विधिप्रतिषेधसन्निपाताद्दिकल्पः । किं वा पर्युदासोऽनुयाजातिरिक्तयाजेषु ये यजामहः कार्य इति । नन्वेवं विषयसौन्दय्यात् प्राप्तस्य शास्त्रीयेण निषेधेन कथं न विकल्प इति चेत् तात्कालिक श्रेयःसाधनत्व' प्रत्यक्षवोधित प्रतिषेधेन तु कालान्तरीयामिष्टहेतुत्व' प्राप्यत इति विषयभेदेन तुल्यार्थोपनिपाताभावात्र विकल्प इति तर्हि कथं वाध्यवाधकतेति चेत् यदिदानीं प्रहतस्य सुखं दृश्यते तत्तुल्यमेव चेद्दुःखं कालान्तरे भवेत्तर्हि व्यर्थोऽयं प्रतिषेधः स्यात् प्रवृत्तेदुःखकरत्ववत् निवृत्तेरपि सुखविगमहेतुत्वात् । ततख दृष्टात् सुखात् अधिकं दुःखमायत्यामिति विद्वांसं विभ्यतमास्तिकपुरुष शक्नोति रागतः प्रहतेर्निवारयितुं बलीयान् शास्त्रप्रतिषेधः । यथा लोके भुजङ्गायाङ्गुलिर्न देयेति प्रतिषेधस्य प्रतिषेध्यं प्रति बलवत्त्वात् इति न तया विकल्पमईतीति शास्त्रौयौ तु विधिनिषेधौ तुल्यबलतया षोड़शग्रहणाग्रहणवद्विकल्पते तत्र हि विधिदर्शनात् प्रधानस्योपकार भूयस्त्वं कल्पते निषेधदर्शनाश्च वैगुण्येऽपि फलसि - हिरवगम्यते । यथाह जैमिनिः । अर्थप्राप्तवदिति चेन तुल्यहेतुत्वादुभय' शब्दलक्षणम् । अल्पस्यार्थः अर्थात् विषयसौन्दखात् प्राप्तस्य मांसभोजनस्य यथा सर्वदा निषेधः तथा शास्त्रप्राप्तस्यापि स भवत्विति चेत्र प्रतिषेध्यस्य प्राप्तेः प्रतिषेध्यस्य च तुल्यप्रमाणकत्वात्तदेव दर्श्यते उभयमिति । उभयं प्रवृत्तिप्रतिषेधरूपं शब्दलक्षणं शब्दस्य प्रमाणकमित्यर्थः । यथातिराव षोडशिन गृह्णाति नातिरात्रे षोडशिनं गृह्णातीति षोडग्रौ सोमकपात्नविशेषः । ये तु ब्रुवते याहविक ग्रहणप्राप्तिनि. For Private And Personal Use Only Page #821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मसमासतत्त्वम् । ९०७ षेधोऽयं न विधित: प्राप्तस्येति तव वैधग्रहणस्थावैधग्रहणनिषेधस्य च युगपदुपसंहारासम्भवात् विकल्पाभावप्रसतोः क्रत्वर्थतया यादृच्छिकग्रहणप्रसत्यभावाविषेधोऽयं न क्रत्वर्थः स्यात् तस्मादुलानयाहिकल्प इति दायभागः। न च यागेषु ये यजा. महकरणं यावदयजति सामान्यहारा अनुयाज यजति विशेषसुपसर्पति तावदनुयाजगतेन निषेधेन तविषिमिति शोध. प्रवृत्ते: सामान्यशास्त्राहियेषनिषेधोऽयं बलवानिति वाचं यतो भवत्येवं विधिषु यथा बावणेभ्यो दधि दीयतां तक कोरिण्डन्यायेति तक्रविधिनं दधिविधिमपेचते प्रवर्तिता तु प्राप्तिपूर्वकत्वात् प्रतिषेधस्य ये यजामहकरपस्यान्यतोऽप्रा. तस्तविषेधेन निषेध्यप्राप्तौ तहिधिरपेक्षणीयः। न च सापे. बतया निषेधाहिधिरेव वलौयानित्यतुस्थशिष्टतया न विकल्पः किन्तु निषेधस्यैव वाध इति युक्त तथा सति निषेधशास्त्रं प्रमतगीतं स्यात्। न च तदयुक्त तुल्यं हि साम्प्रदायिकमिति न च नान्तरोनिचेतव्य इति वदनुवादकातास्विति वाचं নন্ত মুনীঘলিয়ায় মানী নয়ামাম चाच ये यजामहमावास्तथा यागेषु ये यजामाविधानादायाजानाञ्च तहावाब पर्युदासः । नानुयाजेष्वित्ययं यदि पर्युदासः स्यात्तदा सुवन्तेन सह नजो योगात् समासः स्यात् कात्यायनेन समासनियतस्य स्मृतत्वात् तस्मादिहितप्रतिषिसया विकल्प इति प्राप्तम् एवं प्राप्ते उच्यते युक्तं हि षोडधिअहणाग्रहणयोर्विकल्प इति न हि तवान्या गतिरस्ति विधिप्रतिषेधयोरुभयोरपि विशेषनिष्ठत्वेन पर्युदासासम्भवात्तेनाष्टदोषदुष्टोऽपि विकल्प पाश्रियते पक्षेऽपि प्रमाणोभावामाभूत् प्रमत्तगौततेति इह तु पर्युदासेनाप्युपत्तौ सम्भवन्त्यां विकलाश्रयणं तदयुक्तं “यत एव विकल्पोऽयं प्रतिषेधे प्रस: For Private And Personal Use Only Page #822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७०८ मलमास तत्त्वम् । ज्यते । अतस्तत्परिहाराय पर्य्यदासाश्रहो वरम् ॥ विक पेऽष्टौ दोषा एकादशीतत्त्व े ऽनुसन्धेयाः । एवं हि तदा नमः सम्बन्धोऽनुयाजेन सह तथा चानुयाजेतरेषु ये यजामहः काय्र्य इति । ततथानुयाजेतरेषु इत्युक्त के ते इति न ज्ञायते तो पर्यवसितं वाक्यम् । ततच येऽनुयाजादन्ये ते यागा इति वसा पूर्ववाक्यमपेक्षते न पृथक् पय्यैवस्वतौति । एवञ्च पूर्ववाक्य ये यजामहं प्रति शेषित्वेन वोधितानां यागानामनुखाजत्वं विशेषणमज्ञातमनेन प्राप्यते इति विविशेषित्वेन प्रतिषेधाभावात्र विकल्प इति । न चाभियुक्ततर पाणिनिविरोधे कात्यायनस्य नित्यसमासवादिनः सद्दादित्वं सम्भवति स हि विभाषाधिकारे समासमनुशास्ति । तथा च पूर्वमौमांसायां राद्दान्ताय: जैमिनि: I " अपि तु वाक्यशेषः स्यादन्याय्यत्वाद्विकल्पस्य विधौनामेकदेशः स्यादिति । एतदेव सूत्रमर्थद्वारा उत्तरमीमांसायां पठति भगवान् शङ्कराचार्यः अपि तु वाक्यशेषत्वादितरपर्युदासः स्वादिति । प्रतिषेधे विकल्पः स्यादिति । तस्मादनुयाजवर्जिते ये यजामह विधानमिति सिद्धम् । एवञ्च पूर्वोपदर्शित पर्युदासविषयवाक्ययोन्वायत्त इति करोतीति क्रियाभेदमनालोच्यानुयाजवाको क्रियान्तराभावादश्च पर्य्युदासता नान्यत्रेति यदुक्तं तद्देयमिति । तत यजातिषु ये यजामहं कुखानानुयाजेष्विति यल्लिखित तत् श्रुत्योस्तात्पय्यार्थमादायेति । अतएवोक्तम् । “प्राधान्यन्तु विधेर्यत्र प्रतिषेधेऽप्रधानता पर्युदासः स विज्ञेयो यत्रोत्तरपदेन नञ् । श्रप्राधान्यं विधेर्यत्र प्रतिषेधे प्रधानता । प्रसज्यप्रतिषेधोऽसौ क्रियया सह यत्र नञ्" । यद्यपि पर्युदस्तरात्रप्रादिषु श्राहादिकरणे विधेरौदासौन्यान फलं न वा प्रत्यवाय इति सिद्दान्तस्तथापि तद्दिषये यत्र दोषप्रायश्चित्तयोः श्रुतिस्तत्र For Private And Personal Use Only Page #823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मलमायतत्त्वम् । सत्तच्छास्त्रानुरोधात् इयोरपि कल्पनम् । यथा सगोत्रादि. विवाहसप्तमचन्द्रादि उपरागदर्शनादौ । ततश्च तथाविध. विषये सञः पर्युदासप्रसज्यप्रतिषधोभयपरत्वाहाक्यभेदकल्पनमपि प्रामाणिकम् । अतएव ऋतुकालाभिगमनं कुर्यात् पर्वणि वर्जयेदिति वृहस्पतिना ऋत्वभिगमननियमे पर्वणः पर्युदासे कृतेऽपि "चतुदश्यष्टमी चैव अमावास्या च पूर्णिमा। पर्वाख्येतानि राजेन्द्र रविसंक्रान्तिरेव च । स्त्रोतलमांससम्भोगौ पर्वखेतेषु यो नरः। विण्म त्रभोजनं नाम प्रयाति नरकं मृतः" इति विष्णुपुराणे निन्दया। "वेदोदितानां नित्यानां कर्मणां समतिक्रमे। सातकव्रतलोपे च प्रायश्चित्तमभोजनम्" ॥ इति मनतोन च यथाक्रमं रागप्राप्तगमननिषेधः प्रायश्चित्तञ्च सङ्गच्छते। अन्यथा तदुभयं न स्यात्। अतएव भोजराजः। “पौष चैत्रे कृष्णपक्षे नवान्नं नाचरेबुधः । भवे. जन्मान्तरे रोगो पितृणां नोपतिष्ठते" ॥ इति रोगौति निन्दाश्रवणात् प्रसज्यता नोपतिष्ठत इति श्रवणात् पर्युदासतेति । यत्तु ज्योतिष। “कर्म कुर्यात् फलावाप्ने चन्द्रादिशोभने बुधः । सुस्थकाले विदं सर्व नातः कालमर्पक्षते। चन्द्रे च शङ्ख लवणच्च तारे तिथावभद्रे सिततण्डुलांश्च । धान्यच दद्यात् करणवारे योगे तिलान् हेममणिञ्च लग्ने" ॥ इति देवलवचनात् प्रायश्चित्तानन्तरं कर्मोपदिष्टम्। अतएव “न सकलगुणसम्पत् लभ्यतेऽल्पैरडोभिर्बहुतरगुणयुक्ता योजयेन्मा. लेषु। प्रभवति हि न दोषो भूरिभावे गुणानां सलिललव इवाग्नेः संप्रदीप्तेन्धनस्य" ॥ इत्यनेन “कष्टाभौष्ट तुल्यसंख्य फले चेत् स्यातां नाशः फलयोंस्तत्र वाच्यः। वाच्यापंजिर्योऽतिरिक्तस्तयोः स्यात् सर्वस्थाने कल्पनैवं प्रदिष्टा' इति वादरायणवचनेन च प्रवर्त्तवे न तत्र पर्युदास इति । अतो विधि For Private And Personal Use Only Page #824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८१. मसमासत त्वम् । तेतरवारादौ विवाहादिः प्रवर्तते पन्यत्सधौभिर्भाव्यम् । मृनु कौशिकाग्निपुराणज्योतिःपराशराः । “पनादिदेवतां दृष्ट्वा शुचः स्युनष्टभार्गवे । मलमासेऽप्यनावृत्तं तीर्थस्नानमपि त्यजेत् ॥ पूर्वाईस्यार्थवादलेन विध्याकाङ्क्षायामुत्तराईस्थत्यजेदित्यन्वयेति उपस्थितत्वात्। हितोयापिना अनादिदेवतादर्शनस्य समुचितत्वाच्च। ततधानाहत्तिमित्यपि हितोयान्तत्वेन त्यजेदित्यन्वयपरत्वाब तीर्थवानमात्रेन्धितं किन्वनादिदेवतादर्शनेऽपि। ततस मलमासे देवदर्शनस्थानाहत. त्वेन वर्जनं युक्तम्। अतएव तबाप्तये मलमास वित्यतिदेशमाहुः। अन्यथा वर्जयेदित्यनेनैव सिमलमास वेत्यनर्थकं स्यात्। यथा वृहमनुपैठीनसिभगवः । बाले वा यदि वा वृट्वे शक्रे चास्तमुपागते । मलमास इवैतानि वर्ज. येहवदर्शनम् ॥ किचाहत्तदेवदर्शनस्यापि निषेधे तावत्कालमनादिदेवतानामपूज्यता प्रसज्येत। अतएव ज्योति:पराशरः । “अनादिदेवतार्चासु कालदोषो न विद्यते । नित्या. खभ्यासयोगेन तथैवैकादशीव्रते" ॥ पनादित्वञ्च पुराणमारतादिप्रसिद्धौपुरुषोत्तमौविखेखरप्रभृतित्वमिति। तेनानावृत्तमनादिदेवतादर्शनं तीर्थमानच्च शुक्रास्थे मलमासे च त्यजेत्। तीचिन्तामणो गयायां प्रतिप्रसवमाह वायुपुराणम् । “गयायां सर्वकालेषु पिण्ड दद्याहिचक्षणः। अधि. मासे जन्मदिने पस्ते च गुरुशक्रयोः। न त्यक्तव्यं गयात्रा सिंहस्थे च वृहस्पती" ॥ ननु जन्मदिने बाइनिषेधाभावात् कथं गयायां प्रतिप्रसव इति चेत्। “योदशी जन्मदिनञ्च नन्दां जन्मतारां सितवासरच। त्यत्वा हरीज्येन्दुकरान्यमैत्रध्रुवेषु च श्राइविधानमिष्टम् ॥ इति दीपिकायां जन्मदिने नवाबादिशाइनिषेधात् । हरिः श्रवणा। इज्यः पुथः For Private And Personal Use Only Page #825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मलमासतत्त्वम् । ८११ इन्दुमंगशिराः करी रस्ता अन्यो रेवती मैत्रोऽनुराधा ध्रुवगण उत्तरानयरोहिण्यः कर्माङ्गवाहस्य तु प्रधानानुरोधेन कर्त्तव्यतया तन न निषेधः। प्रतएव पुंसवनादिषु नन्दादिविधानं अथ नवाबम्। “सूर्ये चैव विशाखगे स्मरतिथौ पाप विजन्मान्विते। नन्दा मन्दमहोजकाव्यदिवसे पौषे मधौ कार्तिके। भेषूग्राहिशिवेषु विष्णु शयने कृष्णे शशिन्यष्टमे। बाई भोजनकं नवाबविहितं पुत्रार्थनाशप्रदम् ॥ सूर्ये चैव विशाखगे मार्गशीर्षस्य विंशतिदण्डाधिकप्रथमदिनत्रयावस्थिते सूर्या सरतिथौ वयोदश्याम्। पाप पञ्चमतारापये। उग्रः पूर्वावयमघाभरण्यः। अहिरलेषा। शिव पार्दा । भोजराजः । "ब्रह्मविष्णु सहस्पती-शशधरो मार्तण्ड पोष्णादितौ मैत्रे चित्रविशाखवायुधनभे मूलाखिवह्नौ तथा। शके वारुण ऋक्षके शुभदिने बाई नवं शस्यते नन्दाभागेवभूमिजेषु न भवेत् थाई नवाबोडवम्" ॥ ब्रह्मादय रोहिणीश्रवणपुथमृगशिरोहस्तारेवतोपुनर्वस्वनुराधाचित्राविशाखाखाती-धनिष्ठा-मूलाखिनौकत्तिकाज्य ष्ठाशतभिषाः । पत्र मूलाकविकाज्येष्ठाविधानात् वक्ष्यमाणाग्नेयादिनिषेधस्तु नवोदकशाहपरः। उत्तरादिवितयमपि इह ग्राह्य ध्रुवत्वेन प्रागुतदीपिकाकारवचनेन श्राइविधानात् वक्ष्यमाणदेवलवचनाच। “अश्लेषा वत्तिका ज्येष्ठा मूलाजपदकेषु च । भृगुभौमदिने रिततिथी नाद्यानबौदनम् ॥ अजपदं पूर्वभाद्रपदा एतवचनन्तु श्राद्धानधिकारिभक्षकमावपरम्। अन्यथा “प्रदक्षिणमनुव्रज्य भुञ्जौत पिसेवितम्। ब्रह्मचारी भवेत्तान्तु रजनी ब्राह्मणैः सह" इति याज्ञवल्कयोक्तस्य श्राइदिनमात्रकर्तव्योदीच्याङ्गस्य श्राहा. वशिष्टपतिपत्तिरूपभक्षणस्य नियमितस्य ज्येष्ठामूलयोः सर्वदा For Private And Personal Use Only Page #826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८१२ मलमास तत्त्वम् । वाधापच्या मुख्य कल्पे क्वचिदपि नवान्नश्राद्धं न स्यात् धन्यव तु प्रतिपाद्यगुणभूतत्वात् । प्रतिपत्तेर्गुणभूतस्य च प्रधानाप्रयोजकत्वात् उपवासाद्यनुरोधेन विशिष्टाभावस्य क्वचित्कत्वात्र सर्वदा बाधः । तन्नियमे किं मानमिति चेदापस्तम्बवचनम् । तद्यथा श्राद्धशेषमधिकृत्य " सर्वस्मात् ग्रासावर राईमश्रीयात्” इत्यत्र भूरिद्रव्यक्कृत्स्त्रवाचिसर्वशब्दश्रुतेः अन्यथा तार्थं स्यात् । व्यक्तमाह नव्यवर्द्धमानष्टतशिवरहस्यम् । " श्राद्धं कृत्वा तु यः शेषं नान्नमश्नाति मन्दधीः । लोभान्मोडाइयाहापि तस्य तन्निष्फलं भवेत् ॥ ब्रह्मपुराणे वराहः । " वृथिके शुक्लपक्षे तु नवान्नं शस्यते बुधैः । अपरे क्रियमाणं हि धनुष्येव कृतं भवेत् । धनुषि यत् कृतं श्राद्धं मृगनेत्रासु रात्रिषु । पितरस्तन गृह्णन्ति नवान्नामिषकाङ्क्षिणः ॥ अपरे कृष्णपक्षे | मृगो नेता प्रापयिता यासां रात्रौणामिति व्युत्पत्त्या । नक्षत्राब्रेतुरित्यनेनाद्विधानात्तत्पदं सिद्धम् । ततश्च मृगशिरः पूर्वार्डेन कृषिकशेषभागे रात्रप्रारम्भाश्ञ्चत्वारिंशद्दण्डावशिष्टषड्रावयो मृगनेत्रा इति । ज्योतिषे । “नवान' नैव नन्दायां न च सुप्ते जना ने 1 न कृष्णपक्षे धनुषि तुलायां नैव कारयेत्” ॥ इति न च सुप्ते जनार्दन इत्याश्विन शुक्लपक्षेतरपरम्। श्रश्विनाधिकारे । “शुक्लपक्षे नवं धान्यं पक्कं ज्ञात्वा सुशोभनम् । गच्छेत् क्षेत्री विधानेन गौतवाद्यपुरःसरः” ॥ इति ब्रह्मपुराणे श्राविधानात् । भोजराजः । " पोपे चैत्रे कृष्णपक्षे नवान्न ं नाचरेद्दुधः । भवेज्जन्मान्तरे रोगौ पितॄणां नोपतिष्ठते” ॥ अत्र धनुषौत्येकवाक्यत्वात् धनुषौति धनुःस्थार्कपरं साहचयाञ्चैवोऽपि सौरः । एवञ्च तुलायामित्यपि तुलाकंपरम् । यद्यपि " ब्रीहिपा के कर्त्तव्य' यवपाके च पार्थिव । न तावाद्यौ महाराज विना श्राद्ध कथञ्चन ॥ इति विष्णु For Private And Personal Use Only Page #827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मलमासतत्त्वम् । ८१३ धर्मोत्तरवचने या प्रति वीडियवपाकयोनिमित्तत्वं प्रतीयते । तथापि “नवोदके नवावे च गृहप्रच्छादने तथा। पितरः स्पृहयन्त्यबमष्ट कामु मधासु च ॥ तस्माद्यात् सदोदयुल्लो विहत्सु ब्राह्मणेषु च ॥ इति शातातपवचने पूर्वेकबहुषु वचनेषु च नवान्नस्य श्रुतनवान्न सत्वेनैवोभयसाधारणं निमित्तत्वं लाघवात् । अभिलापवाक्ये नवाबागमननिमित्तमिति नियोज्यं न तु यवाबागमादि अन्नञ्च शूकधान्यतण्डलविकार विशेष इति प्रायश्चित्तविवेकः। शूकधान्यविवेके लमरः । "माषादयः शमौधान्ये शूकधान्ये यवादयः ॥ इति शमो सिम्बा बौहिपाके यवपाके चेत्यभयोपादानं श्रादहयार्थम् । मन्येवं ब्रोहियवपाक कालवनवान्ने चेत्यस्य। “वृश्चिके शुक्लपक्षे च नवाब शस्यते बुधैः” इति वचनादय मध्यपरः काल प्रति चेत्र नवोदके नवान्ने चेत्यादौ सदेति श्रवणानित्यत्वे न बौहियवपाकयोरपि विष्णुवचनेन नित्यत्वाभिधानात् तयोरेकवाक्यतया। यथा “अमावास्यातिम्रोऽन्वष्टकामाघौगोष्ठपाव कष्ण त्रयोदशौ "ब्रोहियवपाको चेति। एतांस्तु बाद कालान् वै नित्यानाह प्रजापतिः। श्राइमेतेष्वकुर्वाणो नरक प्रतिपद्यते" ॥ वृश्चिके शुक्लपक्षे च इति तु धनुरादिपर्य दस्तेतरगौण कालमध्ये वृधिकस्य प्राशस्त्यमात्रार्थम् । न तु श्राहान्सरार्थमिति “शरहसन्तयोः केचिन्नवयनं प्रचक्षते। धान्यपाकवशादन्ये श्यामाको वनिनः स्मृतः” ॥ इत्यनेन शरह. सन्तविहितनवशस्येष्टेः। “श्यामाकैौहिभिश्चैव यवैरन्योन्यकालतः। प्राग्यष्टुं युज्यतेऽवश्य नववाग्रयणात्य यः” ॥ इति कालान्तरदर्शनात्। श्राद्धेऽपि तथेति। एवमेव श्रावचिन्ता. मणिकत्यतत्त्वार्णवौ। प्राग्रयणं नवशस्येष्टिः। नवोदके वर्षोपक्रके पार्दास्थरवाविति यावत्। “प्राहटकाले समायाते For Private And Personal Use Only Page #828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८१४ मलमासतत्त्वम् । रौद्र ऋचगते रवौ । नाड़ोवेधसमायोगे जलयोगं वदाम्यहम् ॥ पति रुद्रजामलात् । रौद्रमार्द्रा । अतएव नवोनवईमानधृतम्। “आर्द्रादितो विशाखान्तं रविचारेण वर्षति । तस्याच प्रथमपादेऽख वाचौ । यथा राजमार्त्तखे । मृगशिरसि निवृत्ते रौद्रपादेऽम्ब ुबाचौ । "ऋतुमति खलु पृथ्वी वर्जयेचोस्यहानि । यदि वपति कृषाण: क्षेत्रमासाद्य वौजं न भवति फलयोगः शस्य चाण्डालपाकः " ॥ व्योतिषे " तस्मिन् वारे महस्रांशुर्यत्काले मिथुनं व्रजेत् । अम्बुवासी भवेन्नित्यं पुनस्तत् कालवारयोः ॥ एतच्च प्रायिकं मत्यसूत । " धरण्या मृत्युमत्याच्च भूमिकम्पे तथैव च । चन्तरागमने चैव विद्यां नैव पठेवरः ॥ अन्तरागमने गुरुशिष्ययोर्मध्ये पश्वादिगमने । पशूनाह प्रायश्चित्तविवेकपैठीनसिः । " ग्राम्यारख्या चतुर्दश । गौवाविरजोऽश्वतरोगर्टभो मनुष्यचेति सप्तग्राम्याः पशवः । महिषवानर ऋचसरीसृपरुरुषतम् गायेति सप्तारण्याः पशवः” । इति तेन मनुष्यान्तरागमनेऽपि दोषव्यवहार: अनुज्ञापि न दोषः । " नाग्निब्राह्मणयोरन्तरे व्यपेयात् न गुरुशिष्ययोरनुज्ञया तु व्यपेत्” इति मदनपारिजातष्टतवशिष्ठवचनात् । तथा "आर्द्रायाः प्रथमे पादे चौरं पिबति यो नरः । अपि रोषान्वितस्तस्य तक्षकः किहरिव्यति ॥ नवाववाई भचणस्य न निमित्तत्वम् । किन्तु नवाब्रागमनस्यैव | "नक्षत्रग्रहपीडासु दुष्टस्वप्नावन्तोकने । इच्छाश्राहानि कुर्वीत नवशस्यागमे तथा” ॥ इति विष्णुपुराणात् । गोभिलभट्टभाष्ये श्रुतिः "गृहमेधो वोडियवाभ्यां शरदमन्तयोर्यजेत श्यामाकैर्वनौ वर्षा स्वापत्करूपेऽन्येन पुरात नैर्वा" इति । श्राड चिन्तामणौ च डारौत: "गृहमेधी शरद्दसन्तयोर्त्रीहियवाभ्यां यजेत वनौ वर्षासु श्यामकै रापत्कल्पे For Private And Personal Use Only Page #829 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मलमासतत्त्वम् । ८१५ ऽन्यः पुरातन इति एतच्छाहासंस्कृतधान्यजातेन पाहा. तरं निषिहम् । तथा च श्राहाधिकारे वराहपुराणम् । “प्रकसाग्रयणश्चैव धान्यजातं हिजोत्तम। राजामाषाननंच्चैव मसूरांश्च विवर्जयेत् ॥ अतः संस्कृतधान्यालामे प्रेतबाह दुग्धादिनापि कार्य प्रकतौ तथा दर्शनात्। यथा ब्रह्मपुराणम्। “पयोमूलफलैः शाकैः कृष्णपक्षे च सर्वदा। पराधौन प्रवासौ च निर्धनो वापि मानवः । मनसा भावशडेन श्रा दद्यात्तिलोदकम् ॥ अथ नवाबाचाधिकारिणामेव तथा नियमः तदनधिकारिणान्तु विधवावदकताप्रयणेनापि प्रेतबाधमिति। एवं भोजनेऽपि। तथा च "दत्वैव ब्राह्मणे. भ्यश्च हुत्वा वा वैखदेविकम्। प्रन्यो नवाबमनौयादिति वौधायनोऽब्रवीत् ॥ इति रेणुकाचार्यनव्यवईमानतवचनम्। भन्यो नवाबत्राकरणासमर्थः। देवीपुराणम् । "नवं कषरपूपाणि पायसं मधुषर्पिषो। वृथामांसं न चानो. यात् पिटदेवविवर्जितम् । नवं नवाबम्। शमः । “वृथा. कषरसंयावपायसा पूपसपकुलोः। भुक्ता विरावं कुर्वीत व्रतमेतत् समाहितः ॥ तेन देवपिनतिथिवजं कामतः सक्कदमौषां भक्षणे त्रिरात्र कषरादिसाहचर्येण नवाबेऽपि तथा। विष्णुपुराणम्। “प्राश्नौयाधिसंयुक्तं नवं विप्राभिमन्वितम् । प्रागुतदीपिकावाक्ये जन्मदिनजन्मतारानिषेधात् । नन्दायां भार्गवदिने प्रयोदश्यां विनम्मनि। पत्र बाई न कुर्वीत पुषदारधनक्षयात्" ॥ प्रत्यत्र विजन्मनौत्यस्य जन्मतिथिजन्म तारानम्मराशिरूप इत्यर्थः । इलायुधोऽप्येवम्। प्रागुतावयोदयों जन्मदिनच नन्दामित्यत्र दिनपदं तिथिपर निधिमन्दंथपाठात् चिजन्मनि विजन्मनक्षत्रमिति व्याख्यानं गुरुचरणानामपि प्रामाणिकम् । राजमार्तण्डात् यथा तारा For Private And Personal Use Only Page #830 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८१६ मलमासतत्त्वम् । प्रकरणे। "सर्वमङ्गलकार्याणि त्रिषु जन्मसु कारयेत् । विवादश्राद्धभैषज्ययात्राक्षौराणि वर्जयेत् ॥ दीपिकायां मैत्रे श्राद्धविधानादारुणगणे यन्मैत्रमिति पठितं तदनुराधा इति व्याख्यातञ्च वाचस्पतिमिशेण तद्द यम्। अतएव श्राइविवेककता। "दारुणञ्चोरगं रौद्रमैन्द्रं नैऋतमेव च । ऐन्द्रं ज्येष्ठेति लिखितम्। एवञ्च “नक्षत्रेऽपि न कुर्वीत यस्मिन् जाती भवेन्नरः। न प्रौष्ठयदयोः कार्य न चाग्नेये च भारत। दारुणेषु च सर्वेषु प्रत्ययौ च विवर्जयेत्" । इति श्राद्धाधिकारी महाभारतवचनं तत्प्रदर्शनमात्रम् । त्रिषु जन्मसु एव पूर्व निषिदत्वात् प्रौष्ठपदा पूर्वभाद्रपदा हितारकत्वात् द्विवचनम् इति श्रावविवेकवत्। ततश्च यत् वाचस्पति मिश्रेणाभिहित प्रौष्ठपदी पूर्वभाद्रपदोत्तरभाद्रपदौ इत्यत्रापि हेयम्। एतत्तारायाः पुंसि प्रयोगोऽप्य. माधुः स्त्रियां शेषाः। इति वक्ष्यमाणत्वात् “समधिनिष्ठाः स्युः प्रौष्ठपदाभाद्रपदास्त्रियः" इत्यमरकोषाञ्च। पूर्वभाद्रपदाया एव श्राइमधिकृत्य विष्णुधर्मोत्तरेण उग्रत्वेन निषेधाच। यथा “नक्षत्राणि तथैवात्र दारुणोग्राणि वर्जयेत् । नचोत्तरभाद्रपदाया अपि उत्तरावितय रौद्रगेहिणीयाम्य सर्पपिटभेषु चाग्निभे। श्मश्रुकर्म सकल विवर्जयेत् प्रेतकार्यमपि वद्धिमानरः” इति वचनाविषेध इति वा तैरेव कृतदेवलवचनविरोधात् यथा "उत्तराश्रवणतिष्थो मृगशीष : प्रजापतिः। हस्तः शतभिषस्वातौचित्रापित्रामथाखिभम् । नक्षत्राणि प्रशस्तानि सदैवैतानि पैटके। अपराधि च ऋक्षाणि उच्यन्ते कारणैः कचित्'। उत्तरास्तिस इति कल्पतरुः। अपराणि धनिष्ठादौनि कारणैर्मघामावास्यायोगादिभिः। . पूर्वलिखितदीपिकावचने ध्रुवत्वेन उत्तरा For Private And Personal Use Only Page #831 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मलमासतत्त्वम् । ८१७ विधानाच्च। ततस देवलादिवचनविरोधात् प्रेतकार्यमिति म प्रेताचपरं किन्तु पतितप्रेतसम्प्रदानकदासीघटोदकदानपरम्। अथ समयाशुद्धिः । ज्योतिःपराशरः । “अन्याधेयं प्रतिष्ठाञ्च यजदानव्रतानि च। देवव्रतवृषोत्सर्गचड़ाकरणमेखला: ॥ माङ्गल्यमभिषेकञ्च मलमासे विवर्जयेत्। बाले वा यदि वा वृद्ध शक्रे चास्तमुपागते॥ मलमास इवैतानि वर्जयेवदर्शनम्। पक्षं वृहस्तु पूर्वेण दशाहं पश्चिमेन तु ॥ प्रत्यग्बालो दशाहन्तु पूर्वेण च दिनत्रयम् ॥ पूर्वेणेति प्रातः प्रातः पूर्वदिशि दृष्ट्वा रविकिरणाच्छन्नतया न दृश्यते चेदग्रहसदा प्रागस्तमितः तत्रास्तमितात् प्राक् पक्षं वृद्धः। पश्चिमेनेति। एवं सायं सायम् अपरदिशि दृष्ट्वा रविकिरणाच्छन्नतया न दृश्यते चेदग्रहस्तदा प्रत्यगस्तमितस्तत्रास्तमितात् प्राक् दया वृक्षः। “हाविंशदिवसाधास्ते जीवस्य भार्गवस्य च। हासप्ततिर्महास्ते तु पादास्ते बादशक्रमात् ॥ इति ज्योतिर्विदुक्ताकालानन्तरमपरदिशि दृश्यते चेत्तदा दशाह प्रत्यग्वाल: पूर्वदिशि चेत्तदा दिनवयं प्राग्वाल इति भयन्त. रेणाह। “पक्षं वृद्धो महास्ते तु बालश्चात्र दशाहिकः । पादास्ते तु दशाहानि हो बालो दिनत्रयम्" ॥ अन मलमासादिकौतनं पुण्येतरकालोपलक्षणम् । बहनामेकधर्मागामिकस्यापि यदुच्यते। सर्वेषामेव तत् 'कुर्यादेकरूपा हि ते स्मृताः ॥ इति वौधायनवचनात्। अतएव प्रतिप्रसवे कालदोषो न विद्यते इति सामान्यत उक्तम् । तथा च गोभिलपारस्कराभ्यां कर्मणः कालपरिभाषायाम् उदगयने पूर्वपक्षे पुण्येऽहनि प्रागावर्तनादः कालं विद्यादिति उदगयने आपूर्यमाणपक्षे पुण्याहे इति सूत्राभ्याम् महो वासरस्य पुण्यत्वमुक्ताम्। For Private And Personal Use Only Page #832 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८१८ मलमासतखम् । अथ “विहितक्रियया साध्यो धर्मः पुंसो गुणो मतः । प्रतिषिद्धक्रियासाध्यः सगुणोऽधर्म उच्यते" ॥ इति तान्त्रिक रभिहितम्। "चिरध्वस्त फलायालं न कम्मातिशयं विना" इत्यनेन काम्यस्थलेऽपूर्वे शक्तिकल्पनावश्यकत्वेनान्यत्रापि । "स्थालीस्थास्तण्डुला एते सर्वे विल्लित्तिभागिनः। समकालाग्निसंयोगभागित्वात् प्रतिपनवत्" इति स्थालोपुलाकन्यायेन वैदिकलिङ्त्वावच्छेदेनापूर्वे शक्तिकल्पनात्। प्रतिपन्न हस्तमर्दनादिना स्फुटितत्वेन जातम् । कार्यनियोगापूर्वशब्दरचार्यमाणो धात्वर्थसाध्य वर्गादिफलसाधनात्मगुणो धर्म इति प्रभाकरैरभिहितम्। तत्कथमत: पुण्यत्वमिति चेत् तज्जनः नयोग्ये भातोऽयं पुण्यशब्दः। तथा च भट्टवार्तिकम् । “द्रयक्रियागुणादीनां धर्मत्वं स्थापयिष्यते। तेषामन्द्रियकत्वेऽपि न तादप्येण धर्मता। श्रेयः साधनता ह्येषां नित्यं वेदात् प्रतीयते। तादृप्येण च धर्मत्व तस्माबेन्द्रियगोचरः" इति । तादृप्यण स्वरूपत्वेन। तच्च पुण्यत्व यथा रिक्तादिदोषरहितत्व शोभनचन्द्रादिलञ्च तथा मलिनुचादिदोषरहितत्वमपि। तथा च रत्नाकरादितं न्यायरत्नवाक्यम्। पुणे शुद्ध तच्च मलिग्लुचगुरुशक्रबाल्यवृद्धास्तमयसिंहमकरान्यतरगुरुस्थिति पूर्वराश्यनागतातिचारिगुरुकवत्सरपूर्वराशिसमियमाणातिचारिगुरुकपक्षवयवक्रिगुरुकाष्टाविंशतिवासरकम्पा. द्यतोत्तरसप्ताहसिंहादित्यगुर्वादित्यपौषादिमास-चतुष्टयान्य. तमैकहित्रितदधिकान्यतमदिनहत्त्याकालिकाध्युत्तर एकविसप्ताहान्यतमदिननिषिद्धसमयान्यसमयत्वमिति । एषु प्रमाणं वक्ष्यामः । अत्र नव्यवर्द्धमानः। एकदिनितदधिकान्यतम. दिनवृत्त्या कालिकवट्युत्तरैत्रिसप्ताह इत्यत्र उत्तरदिनत्वस्य पूर्वदिननिरूप्यत्वात् उत्तरत्वपूर्वत्वयोविरुद्धतया नानात्वात् । For Private And Personal Use Only Page #833 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८१८ अतोऽग्रिमदिनादित्वप्राप्तिरिति जीवमिश्रेणाभिहितम् । चेकमेकदिनं वृष्यवच्छेदामवच्छेदाभ्यां भिन्नमिति वाच्य ं विशेष्योभूतदिन स्यैकत्वेन प्रत्यभिज्ञानविरोधेन उपाधिमात्रभेदात् अन्यथा अग्रावच्छिन्नवृक्षान्मूला व च्छिद्रह तस्याभेदेनेनान्याभावस्याव्याप्य वृत्तित्वप्रसङ्गादित्याह । तत्र दृष्टिदिनोत्तदिनस्य निषेधविषयत्वे दृष्टिदिनस्य कर्माता स्यात् । तस्मात् विशेष्याया दृष्टेरेवोत्तरत्वम् । न तु तदवच्छेदक दिनस्यापीति । तेनैकस्मिन् दिने बच्चा तहिनमात्रत्यागः द्वितीयदिनादौ तु अन्तिम दिनमारभ्य साहसप्ताहयोस्त्यागः । तथा च व्यासः । “को सख्या गर्जिते प्राहुर्व्रतोपनयनं बुधाः । न च दृष्टावधाकाले वृष्ट्या वा सप्तवासरान् ॥ आसप्तवासरासरानित्यव उपस्थितत्वादृष्टिकालमादाय सप्ताहगणना श्रासप्तवासरानिति अधिकसंख्या व्यवच्छेदार्थम् एतेन विध्यनुवादभिया अधिकसंख्या निरस्ता । पत्र वृष्ट्य त्तरमेव सप्ताहत्यागः एतद्दचनन्तु तोयादिदिवसौयाकालदृष्य भिप्रायेण । " अतो दिनेनेकदिनं त्याज्यं द्दितोयेन दिनत्रयम् । तृतोयेन च सप्ताहं त्यजेदकालवर्षणे ॥ इति न्यायरत्नपरिग्टहौतवाकोऽपि दिनेन दिनवृत्तिवर्षणेन एवं द्वितौयेनेत्यादौ ज्ञेयम् । अतएव न्यायरत्ने - ऽपि वृच्युत्तरत्वमुक्तं न तु दृष्टियुक्त दिनोत्तरत्वमिति । एकादिनिवृत्तित्वविशेषणं दिनात्पत्व बहुत्व ज्ञापनार्थमिति श्रीपतिव्यवहारनिर्णये । "प्राकालिकीं वृष्टिमवेच्य गन्ता पदं न गच्छेच्छुभमात्मनोच्छन् । चौरं व्रतञ्चापि शुभाभिलाषी कदापि नैव मनसापि कुय्यात् ॥ श्रत्र नो सख्या गर्जित इति प्राकालिको दृष्टिमवेक्ष्य इत्यादिश्रवणात् । "व्रतेऽह्नि पूर्वसन्ध्यायां वारिदो यदि गर्जति । व्रतन्तव तु नैव स्यादिति धर्मी व्यवस्थितः ॥ इति वचने पूर्वपदमपि कारणताग्राहक मलमासतवम् । For Private And Personal Use Only Page #834 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ur ८२० मसमासतत्त्वम् । त्वेन परसध्याव्यावर्तकम्। अन्यथा संक्रान्तिवद्वाविनिमितबेन परसध्यायां गर्जितेऽपि व्रतवैगुण्य स्यात एतेन पूर्वदिने सायंसन्ध्यागर्जनेऽपि परदिने व्रतनिषेध इति मैथिलमतं चिन्त्यमिति। सप्तम्यर्थानुपपत्तेः। गौतायां "मयैवैते पूर्व निहता निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्” इतिवत् खरूपाख्यान. परं वा पूर्वपदं कामरूपोयनिबन्धेऽप्येवम्। योगीश्वरः । "चतुर्मासे निवृत्ते तु चक्रपासी समुखिते। प्रकासष्टिं जानीयात् यावब सुप्यते हरिः ॥ पत्र यावद्विष्णुमहोसव इति जीमूतवाहनः पठति महोत्सवः फाल्गुनी पूर्णिमा इति व्याख्याति च। त्यचिन्तामणिभोजराजव्यवहारसमुच्चयश्रीधरसमुच्चयेषु । “पौषादिचतुरी मासान् या दृष्टिरकालजा। व्रतयज्ञादिकं तत्र वर्जयेत् सप्तवासरान् ॥ मार्गामासात् प्रतिमुनयो व्यासवामौकिगर्गासवं यावत् प्रवर्षणविधौ नेति कालं वदन्ति। नाडीजङ्घः सुरगुरुमुनिर्वक्ति वृष्टरकाली मासावतो न शुभफलदो पौषमाधौ न शेषाः मार्गादित्यवधौ पञ्चमौ नाभिविधौ व्यासवास्मोकिगर्गा इत्यत्र व्यासवामौकिशिथा इति जीमूतवाहनः पठति। एतानि राजमार्तण्डक्ल्यचिन्तामणौ च । एवं पचनये व्यवस्थिते येन सर्वपरिग्रहः स्यात् तस्यैव ग्रहणमिति न्यायेनाद्यः पक्षः श्रेयान् तदुत्तरन्तु पक्षहयमापदत्यन्तापहिषयमेवमन्यत्रापि। अतएव राजमार्तण्ड । “उक्तानि प्रतिषिद्धानि पुनःसम्भावितानि च। सापेक्षनिरपेक्षाणि श्रुतिवाक्यानि कोविदः. इति शेषचरणे मौमांस्यानोह कोविदैरिति अत्यचिन्तामणौ पाठः। यहा "स्पष्टस्य तु विधेर्नान्यैरुपसंहार इथते”। पति न्यायेन दोषातिशयार्थ एव सामान्यनिषेधे विशेषनिषेधः तत्रापि विशेष उत्तो वृहस्पतिना "वृष्टिः करोति दोषं ताक For Private And Personal Use Only Page #835 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मलमास तत्त्वम् । ८२९ वाकामसम्भवा रामः । यावत्र भवति याने नरपशुचरणाहिता वसुधा" । काश्यपः " ऋचैकमन्दिरगतौ यदि जीवभानू शक्रोऽस्तगः सुरवरेकगुरुव सिंहे । नारभ्यते व्रतविवाह प्रतिष्ठा चौरादिकर्म गमनागमनञ्च धीरैः” । ऋचैकमन्दिरमताविति विशिष्ट न पृथक् । तथा च । “एकराशिगतौ स्यातामेकर्त्तविषये यदि । गुर्वादित्यौ तदा त्यज्या यशोद्दाहादिकाः क्रियाः” । चातुर्मास्यव्रते तु प्रतिप्रसवमाह महाभारते । "चातुर्मास्यव्रतारम्भमस्त गेऽपि गुरौ भृगौ । खण्डे वापि तिथौ कुय्यात् एवमेव समापनम्” । वराहपुराणे । "भाषाढशुक्लवादश्यां पौर्णमास्यामथापि वा । चातुर्मास्यव्रतारम्भं कुर्य्यात् कर्कट संक्रमे । श्रभावेऽपि तुलार्केऽपि मन्त्रेण नियमं व्रतौ । कार्त्तिके शुक्तद्दादश्यां विधिवत्तत् समापयेत्” । महाभारते । " चतुद्दापि हि यञ्चोणं चातुर्मास्यव्रतं नरः । कार्त्तिके शुक्लपक्षे तु द्वादश्यां तत् समापयेत्” । अत्र द्वादश्यां यक्समापनमुक्त तत् द्वादश्यारम्भपक्ष एव ककर्कट संक्रमणतुलासंक्रमारम्भयोस्तु दृचिकार्के हरेरुत्थाने सति तद्दिषयञ्च अन्यथा तुलार्के समापने ककर्कटसंक्रमणारम्भे आषाढ़यारम्भे च चातुर्मास्यानुपपत्तेः । तुलार्कसमारम्भ तुलार्क व्याप्तानुपपत्तेख । प्रतएव पौर्णमास्यारम्भपक्षे तत्रैव समापनमुक्तम् । तथा च ममापुराणम् । “आषाढ़ग़ादि चतुर्मासं प्रातःस्रायो भवेन्नरः । विप्रेभ्यो भोजन दत्त्वा कार्त्तिक्या गोप्रदो भवेत्” । तत्र मन्त्रानाह सनत्कुमारः । " इदं व्रतं मया देव गृहीतं पुरतस्तव । निर्विघ्नां सिद्धिमाप्नोतु प्रसने त्वयि केशव । गृहोतेऽस्मिन् व्रते देव यद्यपूर्णे त्वहं म्रिये । तन्मे भवतु संपूर्ण त्वत्प्रसादाज्जनार्दन" । समाप्तौ तु " इदं व्रतं मया देव छतं प्रौत्यै तव प्रभो । न्यूनं संपूर्णतां यातु त्वत्प्रसादाज्जना For Private And Personal Use Only Page #836 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८२२ मलमास्तत्वम् । दंन । तुलार्कमात्रेऽप्येवं कर्तव्यं वर्षकत्ये नारदीयम् । “पद्रतेन क्षिपेद यस्तु मासं दामोदरप्रियम्। तिर्थक्योनिमवानोति सर्वधर्मवहिष्कृतः । व्रतोपवासनियमः कार्तिको यस्य गच्छति । देवो वैमानिको भूत्वास याति परमां गतिम् । गोविन्दमानसोल्लासे नारदीयम्। “न मत्स्यं खादयेन्मांस न कौम्यं नान्यदेव हि। चाण्डालो जायते राजन् कार्तिके मांसभक्षणात्। अमांसाशौ भवेदयस्तु गां स दद्याञ्च दधिणाम् । तथा "नित्यनाने इविदद्याविनेहे तशक्तवः । नित्यनाने प्रातःनाने वृतशतवो दक्षिणा देया। तथा "आमिषस्य परित्यागे सवत्मा कपिला तथा। एकान्तरे वजा देया फलाहारे च शालयः । शाकाहारे घृतं दद्यात् पात्र राजतमेव हि। सर्वेषामप्यभावे तु यधोक्तकरणं विना। विप्रवाक्यातथा सु व्रतस्योदयापलक्षणम् । वृथा विप्रवचो यस्तु राति मनुजः शुभे । प्रदत्त्वा दक्षिणां वापि स याति नरकं ध्रुवम्” । विप्रवाक्यमच्छिद्रावधारणं तदपि दक्षिणारूपं किञ्चिहत्त्वा पाह्यम् । तथा “निष्पावानाजमाषांश्च सुप्ते देवे जनार्दने । यो भक्षयति राजेन्द्र चाण्डालादधिको हिसः। कात्तिके तु विशेषेण राजमाषांश्च वर्जयेत्। निष्पावान्मुनिशार्दूल यावदाहत नारको। कदम्बानि पटोलानि वृन्ताकसहितानि च। न त्यजेत् कार्तिके मासि यावदाइत नारको । एतानि भक्षयेद् यस्तु मुप्ते देवे जनार्दने। शतजन्मार्जितं पुण्यं दहते नात्र संशयः”। निष्याव: खेतशिम्बिरिति वर्षकत्यं निष्याव: शिम्बिसदृशो दक्षिणापथे प्रसिद्ध इति कल्पतरुः । पटोलानि फलानि नपुंसकनिर्देशात्। अन्यत्र "पटोलस्तिताकः पटुः” इत्यमरकोषे पुंसि निर्दिष्टः । केचित्त कड़म्बानि इति पठन्ति। कड़म्बानि कलम्बोवेन प्रसिद्धानोति व्याख्यान्ति च। यद्यपि For Private And Personal Use Only Page #837 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मलमास तत्त्वम् | ८२३ "म वटधोडुम्बरनोपदधित्य मातुलङ्गानि वा भक्षयेत्” इति हातेन सामान्यतः कदम्बं निषिद्धं तथाप्यत्राधिकदोषाय पुनर्निषिद्धं मातुलङ्ग वीजपूरकमिति कल्पतरुः । महाभारते। न भीगादौ नृपानुपक्रम्य " एतैरन्येय राजेन्द्रेः पूरा मांसं न भक्षितम् । शारद कौमुदं मासं ततस्ते स्वर्गमाप्नुयुः । कौमुदन्तु विशेषेण शुक्लपक्षं नराधिप । वर्जयेत् सर्वमांसानि धर्मे च विधीयते” । कौमुद कार्त्तिकम् | ब्रह्मपुराणे कार्त्तिकमधिकृत्य " एकादश्यादिषु तथा तासु पञ्चसु रात्रिषु । दिने दिने च नातव्यं शौतलासु नदीषु च । वर्जितव्या तथा हिंसा मांसभक्षणमेव च । मांसभक्षणनिषेधे कार्त्तिकमासतच्छुक्लपञ्चतत् पञ्च दिनानि शक्ताशक्तभेदात् पापतारतम्यात् वा निषिद्धानि । ब्रह्माण्डपुराणे । " तुलायां तिलतैलेन सायंसन्ख्या समागमे । श्राकाशदीपं यो दद्यात् मासमेकं निरन्तरम् । सश्रौकाय श्रीपतये स श्रीमान् भुवि जायते । दामोदराय नभसि तुलायां लोलया सह । प्रदीपन्ते प्रयच्छामि नमोऽनन्ताय वेधसे । इति मन्त्रेण यो दद्यात् प्रदीपं सर्पिरादिना । श्राकाशे मण्डपे वापि स चाचयफलं लभेत् । विष्णुवेश्मनि यो दद्यात् कार्त्तिके मासि दीपकम् । अग्निष्टोमसहस्रस्य फलं प्राप्नोति मानवः ॥ विद्यापतिकृतवर्षकृत्ये कल्पलतायाच्च गार्ग्यः । " जौवादित्ये बाले शक्रे ऊङ्घ दशाहाम्माङ्गल्यं प्रतिष्ठां खातञ्च कुयात्” । माङ्गल्यं विवाहादि । खातं पुष्करिण्यादि । राजमार्त्तण्डे हारीतः “यात्रां चड़ां विवाहं श्रुतिविवरविधिं ग्रामसद्मप्रवेशं प्रासादोद्यानयन् सुरनरभवनारम्भविद्याप्रदानम् । मौजौबन्ध प्रतिष्ठां मणिवरकनकाधारणं कुर्वते ये । मृत्युस्तेषाञ्च सिंहे गुरुदिनकरयोरेकराशिस्थयोश्च" । सिंहे गुरुदिनकरयोः सिंहस्थे For Private And Personal Use Only Page #838 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८२४ मलमास तत्त्वम् । गुरौ रवौ च एकराशिस्थयोर्युगपत्तयोरेव तेषाञ्च सिंह इत्य तेर्षा हरौष्य इति पाठान्तरम् । हरौध्ये सिंहे । बृहस्पतौ । सोमशेखराख्यनिबन्धे । “वापीकूपतडागयागगमनचौर प्रतिष्ठाव्रतं विद्यामन्दिरकर्णवेधन महादानं वनं सेवनम् । तौर्थज्ञानविवाह देवभवनञ्चानादिदेवेचणं दूरेणैव जिजीविषुः परिहरेदस्तं गते भार्गवे” । दौपिकायाम् । “गुर्वादित्ये गुरौ सिंहे नष्टे शुक्रे मलिम्लुचे । याम्यायने हरौ सुप्ते सर्वकर्माणि वर्जयेत्” ॥ सर्वकर्माणोति वचनान्तरोक्षप्रातिखिक निषितकर्मपरं लाघवात् अन्यथा अतिप्रसङ्गापत्तेः । वृहद्राजमार्त्तण्डः । “ यात्रा- विवाह व्रतबन्ध वेश्मप्रासाद-चूड़ाकरणं हितैषी । नष्टे मृगौ नोपदिशेवराणां देवप्रतिष्ठामपि कर्णवेधम् । हित्वादां शुभकर्माणि कुर्य्यादस्तमिते सिते । विवाहं मेखलाबन्धं यात्राञ्च परिवर्जयेत्" ॥ अत्र यात्राञ्चेति चकारः पूर्ववचनोपात्तमुन्यन्तरोक्तप्रातिस्तिकनिषिचकर्माणि समुचि मोति । " वाले शुक्रे बडे शुक्रे नष्ट शक्रे जोवे नष्ट बाले औवे जौवे सिंहे सिंहादित्ये जीवादित्ये । तथा मलिम्लुचे मासि सुराचार्येऽतिचारगे । वापीकूपतड़ागादिक्रियाः प्रागुदितास्त्यजेत् " ॥ एवञ्च कालाशुद्दौ विद्यारम्भं न कुर्य्यात् तधान विष्णुधर्मोत्तरे । “संप्राप्ते पञ्चमे वर्षे प्रसुप्त जनार्दने । षष्ठीं प्रतिपदचैव वर्जयित्वा तथाष्टमम् ॥ रिक्तां पञ्चदशौचैव सौरिभौमादिनन्तथा । एवं सुनिश्चिते काले विद्यारम्भन्तु कारयेत् । पूजयित्वा हरिं लक्ष्मीं देवौञ्चापि सरस्वतीम् । स्वविद्यासूत्रकारांश्च स्वाञ्च विद्यां विशेषतः ॥ बृहस्पतिः । प्राङ्मुखो गुरुरासौनो वरुणाभिमुखं शिशम् । अध्यापयेच प्रथमं द्विजाशोभिः प्रपूजितम् ॥ अत्राधीतस्य दानमावश्यकम् । तथा च श्रुतिः । " योऽधीत्यार्थिभ्यो विद्यां For Private And Personal Use Only Page #839 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मलमासतस्त्वम् । ८२५ न प्रयुजेत स काहा स्यात् श्रेयसो द्वारमावृणुयात्” इति तहानच “अध्यापनेन व्याख्याय प्रतिलिख्यार्पणेन च । सम्भवत्यतो घोमह्निर्निबन्धः क्रियतेऽपि च इति ॥ एवमेव सरला । एवं शिष्यस्यापि गुरुषु दानत्वमाह लघुहारीतः । “एकमध्यवरं यस्तु गुरुः शिष्ये निवेदयेत् । पृथिव्यां नास्ति तद्द्रव्यं यद्दत्त्वा सोऽनृपो भवेत् ॥ लिङ्गपुराणे । " यच श्रुत्वान्यतः शास्त्रं संस्कारं प्राप्य व शुभम् । अन्यस्य जनयेत् कौत्तिं गुरोः स ब्रह्महा भवेत् ॥ विस्मरेथाथवा मौक्यात् योऽपि शास्त्रमनुत्तमम् । स याति नरकं घोरमचयं भौमदर्शनम् ॥ राजमार्त्तण्ड देवलः । “बाले वृद्धे तथैवास्ते कुरुते देत्यमन्त्रिणि । उद्दाहितायां कन्यायां दम्पत्योरेकनाशनम् ॥ चन्तक इति शेषः । राजमार्त्तण्ड | "सिंहे गुरौ परिणीता पतिमात्मानमात्मजान् हन्ति । क्रमशस्त्रिषु पित्रादिषु वशिष्ठगर्गादयः प्राहुः " ॥ पित्रादिषु सिंहघट कमघा पूर्वफल्गुन्युत्तरफल्गुनोप्रथमपादेषु । प्रतिप्रसवमाह शातातपः । “ माध्यां यदि मघा नास्ति सिंहे गुरुरकारणम्” । तत्रैव हेमाद्रिष्टतमाण्डव्यवचनम्। “श्रुतिवेधजातकान्नप्राशनचूड़ादिकः सर्वः । रविभवनस्थे जौवे कार्यो वज्र्यो विवाहस्तु” ॥ माध्यां मघायोगे तु ऋक्षेकमन्दिरगतावित्यादिना सर्वकर्म निषेधात् । पथैवं विवाहोऽपि श्रूयते । तथा च राजमार्त्तण्ड दत्तः । "गुरौ हरिस्थे न विवाहमाहुरीत गर्गप्रमुखा मुनीन्द्राः । यदा न माधौ मघसंयुता स्यात् तदा च कन्योद्दहनं वदन्ति " | प्रत्यच माध्यां मघायोगाभावेऽपि श्रुतिवेधादिमघास्थेऽपि गुरौ भवति विवाहस्तु गुरोर्मधा परित्यागादेव तथा च माण्डव्यः । " मघा ऋक्षं परित्यज्य यदा सिंहे गुरुर्भवेत् । तत्राब्दे कन्यका चोढ़ा सुभगा सुप्रिया भवेत् " ॥ वात्स्यायनः । “यात्री For Private And Personal Use Only Page #840 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८२६ मलमासतत्त्वम् । द्वाहप्रतिष्ठादिग्ग्रहचव्रतादिकम्। यत्नतो वर्जयेचव जौवे वनातिचारगे। कौर्तिभङ्गः प्रतिष्ठायां भयं चौरात्तथाध्वनि । चड़ोहाहे भवेन्मृत्युव्रते हानिर्भयं रहे। अतिचार विपक्ष: स्यात् वक्र पक्षचतुष्टयम्। न कुर्यात्तत्र यात्रादिगुरोर्वक्रातिचाग्योः”। गर्गः । “गुरोर्वक्रातिचार च वर्जयेत्तदनन्तरम् । यजव्रतविवाहादावष्टाविंशतिवासगन्”। माण्डव्यः । “यदा वक्रातिचाराभ्यां राशिं गच्छति वाक्पतिः। दिनानि सप्तविंशानि त्यक्त्वा कर्म समाचरेत् ॥ प्रवापि पूर्वः पूर्वः पक्षः श्रेयान् राशिं राश्यन्तरम् अन्यथा व्यर्थं स्यात् । पतएव न्यायरत्नेनापि पूर्वराशिगमिष्यमाणातिचारगुरुके इत्युक्ताम् । वृहद्राजमार्तण्डे । “वक्रातिचारोपगताः कुजाद्या यद्यन्य. राशौ परिवर्जनीयाः । यथाक्रमस्थाः स्वग्रहस्थिता वा न वर्जनौया यवना वदन्ति" ॥ व्यवहारसमुच्चये कत्यचिन्तामणी च हारीतः। “कृत्वातिचारं यदि पूर्वराशिं नायाति मन्त्री विबुधाधिपानाम्। यानं विवाहं व्रतबन्धगेहं सर्वं तदा हन्ति मतं मुनौनाम् ॥ अतिचारं गते जौवे वृषे वृश्चिककुम्भयोः । यज्ञोहाहादिकं कुर्यात्तत्र कालो न लुप्यते ॥ कृत्यकल्पलतायां वाचस्पतिमित्रैः "पूर्वराशिं यदा त्यक्त्वा अपूर्ण वत्सरे गुरुः । लुप्तकालः स विज्ञेयः परगेहं गतो यदा ॥ मौने मेष वृषे चैव तथा मिथुनकन्ययोः। अतिचारान दोषः स्याबियतं काललोपजः" ॥ हैतनिर्णये । “कन्याश्चिकमेषेष मन्मथ च झषे वृषे। अतिचारेषु कर्त्तव्यं विवाहादि बुधैः सदा" इति अमूलकमित्युक्तम्। वराहसंहितायाम्। “अतिचारं गते औवस्तत्रैव कुरुते स्थितिम्। तदा महातिचार: स्यात् लुप्तसंवत्सरक्रियः ॥ अतिचारेण यो राशिलवितो देवमन्त्रिणा। तदाद्यो वत्सरो लुप्तो योऽनहः सर्वकर्मम ॥ तत्र वर्षे कर्मणो For Private And Personal Use Only Page #841 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मलमास तत्त्वम् । ८२७ लुप्तत्वात् वसने लुप्त इति तदाह योऽमई इति । भुजवलभौमादिनिबन्धेषु । “शुभं भवनमासाद्य यदातिक्रमते गुरुः । अत्र संबद्धिता कन्या सुखं भर्त्तुः प्रमोदते । दीपिकायाम् । "त्रिकोणजाया धनलाभराशौ वक्रातिचारेण गुरुः प्रयाति । यदा तदा प्राह शुभे विलग्ने हिताय पाणिग्रहणं वशिष्ठः ॥ " त्रिकोणं नवपञ्चकम् । जायासप्तमं धनं द्वितीयं लाभ एकादशग्टहम् । रत्नकोषे । "पक्षो दशाहानि तथा त्रिपक्षी मासविभागः खलु षट्च मासाः । एषोऽतिचारः कथितो ब्रहाणां भौमादिकानां परतस्तु चारः " ॥ प्रतिष्ठाकाण्ड कल्पतरौ देवीपुराणम् । “यदा जौवे स्थिते सिंहे तथैव मकरस्थिते । देवारामतड़ागादिपुरोद्यानग्टहाणि च॥ विवाहादिमहाभाग भयदानि विनिर्दिशेत् ॥ यदा द्वादशगे जौवे श्रष्टमेवाथ भास्करे । प्रतिष्ठा कारिता विष्णोमहाभयकरौ मता" । कृत्यचिन्तामणौ देवौपुराणम् । “सिंहसंस्थं गुरु शुक्रं सर्वारम्भेषु वर्जयेत् । श्रारम्यच्च न सित महाभयकरं भवेत् ॥ कूपारामतड़ागेषु पुरोद्यानगृहेषु च । सिंहस्थं मकरस्थञ्च गुरुं यत्नेन वर्जयेत् ॥ कारको व्रजते नाशं सन्तानः क्षीयतेऽचिरात्” । गुणिसर्वस्खे | मकरगुरौ प्रवर्त्तकं नरसिंहपुराणम् । “विवाहो नैव कर्त्तव्यः सिंहसंस्थे गुरौ यदा । मकरस्थे च तत्कार्य्यं कल्याणं सर्वतो बुधैः” । तथा देवीपुराणम् । " मकरस्थो यदा जौवो वर्जयेत् पञ्चमांशकम् । शेषेष्वपि च भागेषु विवाहः शोभनो मतः” । एतutti व्यवहारपरिग्टहोतमिति कत्यचिन्तामणिः । एतेनैतदनाकर' भवति किन्तु मैथिलानामनाचा : इति स्वरसोऽवगम्यते । अतएव रत्नावल्यादिषु नौचस्य पुरावेत दोष उक्तः । गुरोनचस्थत्वमपि विमांशमकरराशेः पञ्चांगं यावदिति For Private And Personal Use Only Page #842 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८ मसमासतखम् । ज्योतिस्तत्त्वे जयम्। रत्नावल्याम्। “नौचस्थः सिंहगो वा यदा भवति गुरुः सूर्यरश्मौ च लौनः। संयुक्तो वा यदि स्यात् दशशतवृणिना क्षौणरूपोऽथ बालः। यात्रा गेहं विवाहो व्रतममररहं यजचड़ादि सर्व वापौ चोद्यानकूपं न भवति शुभदं यद यदिष्टच लोके । श्रीपतिरत्नमालायां कचिन्तामणौ च वात्माः । “शाखाधिपे वलिनि केन्द्रगतेऽथवास्मिन् वारस्य चोपनयनं कथितं हिजामाम्। नौचस्थितेऽरिग्रह गेऽथ पराजिते वा जौवे भगो व्रतविधिः स्मृतिकमहीनः । पस्य शाखाधिपस्य तेन सामगानां कुजवारेऽप्युपनयनं सामवेधाधिपो भौम इत्युक्तात्वात्। कामरूपौय निबन्धे स्मृति. सागरे देवौपुगणम्। “मकरस्थो यदा जीवस्तदा विंशहिनं त्यजेत। त्यक्त्वा तु षष्टिदिवसं कुर्यात् कर्माणि मानवः । रायमुकुटज्योति:कालकौमुद्याम्। यत्तु "मकरस्थं गुरु यत्नात् सिंहवत् परिवर्जयेत्। देवारामतड़ागेषु पुरोद्यानगृहेषु च । इत्यादि देवलवचनं तदपि सिंहवत् परिवर्जयेदित्यनेन यथा सिंहस्थस्य गुरोस्त्यज्यता तथा मकरस्थस्यापोति गम्यते। सिंहस्थगुरोर्मघायुक्तमाथ्यां सत्यामेव त्याज्यता अतो मकरस्थस्थापि गुरोस्तस्यामेव त्याज्यता इत्यवगम्यते। अतएव देवीपुराणम्। “यथा जीवस्थित सिंह तथैव मकरस्थिते । इत्यत्र यथा सथोपादान तदपि देशविशेष एव दूषणम् । तथा हि "गण्डक्या उत्तरे तोरे गिरिराजस्य दक्षिणे । सिंहवं मकरस्थञ्च गुरु यत्नेन वर्जयेत् । अतएवान्यदेशाभिप्रायेण । भौमपराक्रमे। "वापोकूपतड़ागादि निषि सिंहगे गुरौ। मकरस्थे तु तत्कायं न दोषः काललोपजः। कार्य मकरगे जौवे विवाद्यखितं बुधैः । न तु सिंहगते जौवे कु विप्रः कञ्चन"। अत्र पूर्वोत्तानरसिंहपुराणवचने मकरस्थमावे For Private And Personal Use Only Page #843 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मलमापतत्त्वम् । ८२६ विवाह उक्तः । अतएव तत्सारभूतं व्यवहारमात्र विवक्षितं श्रीपतिनामबुप्रति प्रतिज्ञाय समयाशुद्धौ मकरस्यहस्पतिदोषमनभिधाय केवलमुपनयने नौचस्थवृहस्पर्निषिद्धः । एतेन तनिर्णये श्रीपतिसंहितायां व्यवहारोपहितमेव वचनं न च व्यवहारविरुद्धमिति । एतेन मकरस्थ गुर्वादौ विवाहादिविधायकं वचनं तदाचारविरहादनादरणीयम् । इति वाच - स्पतिमिश्रोक्त हेयम् । प्रतिष्ठाव्यतिरिक्तम करस्थ गुरु कर्मनिषेधक श्रीपतिग्रन्थविरहात् । अथ तनिषेधकमुनिवचनानि प्रामाणिकान्तरष्टतत्वादुपादेयानीति चेत् तर्हि प्रतिप्रसववचनान्यपि तथा । एवञ्चातिचार विवाहादिनिषेधकवचनानि श्रीपतिना लिखितानि न तु तदपवादकानौति । तेन तान्यप्रामाणिकानौति यदुक्त तदपि हेयम् । प्रकृते पूर्वोक्तयुक्ते - स्तौल्यात् । भुजवलभौमे । “जोबोऽर्केण युतः करोति मरणं वालांशको भागुरिः । नचचैकगतो वदन्ति यवनाः पाद स्थितो देवलः । प्रायो गर्गपराशरादिमुनयो नेच्छन्ति चास्तं गते तस्मादस्तमिते सुरेन्द्रसचिवे नेष्टं विवाहादिकम् ॥ श्रीपतिरत्नमालायाम् । " प्रागुहतः शिशुर हस्त्रितयं सित: स्यात् पश्चाद्दशाहमितपञ्चदिनानि वृद्धः । प्राकपक्षमेव कथितोविशिष्ठ वस्तु पचमपि वृद्ध शिशुर्विवर्ज्यः” । वृद्धशिशुत्वगन्तेति कचित् पाठः । सितः शुक्रः इह पश्चाद्दिशि । राजमार्त्तण्डे । “भवेत् सन्ध्यागतः पश्चात् अस्तमैष्यन् दिनत्रयम् । दिनानि पञ्च पूर्वेण तत्कृते की वर्जयेत् । बाले वृद्ध े च सन्ध्यांशे चतुःपञ्चत्रिवासरान् । जीवे च भार्गवे चैव विवाहादिषु वर्जयेत् । बाले वृद्ध े च सन्ध्यायां नष्ट च भृगुनन्दने । दुर्भगा चासतो बन्ध्या मृत्युयुक्ता फलं क्रमात् । बाले च दुर्भगा नारौ हड नष्टमजा भवेत् । नष्टे च मृत्यु の For Private And Personal Use Only Page #844 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८३० मलमासतत्त्वम् । माप्नोति सर्वमेवं गुरावपि ॥ हाई पञ्च दिनत्वकीर्तनमप्यापहिषयम् । ज्योतिःपराशरेण। भृगोः पादास्तेऽपि दशाह विधानात् एवं गुरावपि । रत्नमालायां पक्षविधानात् तयोमते न सन्ध्यायाः पृथनिर्देशोऽपि वृष्यत्वेनव तद्ग्रहणात्। दौपिकायाम्। “गुर्वादित्य गुरौ सिंहे नष्ट शुक्र मलिम्लुथे। याम्यायने हरौ सुप्ते सर्वकर्माणि वर्जयेत् ॥ तत्रैव “नो शुक्रास्तेऽष्टमेऽर्के गुरुसहितरवौ जन्ममासेऽष्टमेन्दौ विष्टौ मासे मलाख्य कुजयशिदिक्से जन्मतारासु चाथ। नाडौनक्षत्रछौने गुसरविरजनीनाथताराविशुद्धौ प्रातः काया परीक्षा हितनुचरग्रहांशोदये शस्तलग्ने । ज्योतिष। “सिंहस्थे मकरस्थे च जोवे चास्तमिते तथा । सिंहस्थे तु रवी नैव परीक्षा शस्यते बुधैः" । गर्गः। “दाहे दिशाञ्चैव धराप्रकम्पे वचप्रपातेऽथ विदारणे वा। धूम तथा पांशुकरप्रपाते न कारयेन्माङ्गलिकादि कार्यम्। उल्कापाते च निर्घात तथैवाकालवर्षो। छिद्रे सूर्ये विनिर्दिष्टे न कुान्मङ्गलक्रियाम् । धमकेतौ समुत्पन्ने ग्रहणे चन्द्रसूर्ययोः ॥ ग्रहाणां सङ्गरे चैव न कुन्मिङ्गलक्रियाम्। हिसूयं वा त्रिसूयं वा दृष्ट्वा गगन मण्डले। रात्रौ शक्रधनुश्चैव मङ्गलानि विवर्जयेत्। दिग्दाहे दिनमेकञ्च ग्रहे सप्तदिनानि च। भूमिकम्पे च सम्भते नाहाणि परिवर्जयेत्। उल्कापाते च वितयं धमे पञ्चदिनानि च । वजपाते दिनमेकं वर्जयेत् सर्वकर्मसु ॥ काश्यपः । “वृहच्छिखा च सूक्ष्माया रक्त नौलशिखोज्वला । पौरुषौ च प्रमाणेन उल्का नानाविधा स्मृता। यदान्तरौथे बलवान् मारुतो मरुताहतः। पतत्य धः स निर्धातो जायते वायुसम्भवः” ॥ सशब्द इति शेषः। भोजराजः । “प्रहे रवीन्दो रवनिप्रकस्ये केतूहमोल्कापतनादिदोषे। व्रते दया. For Private And Personal Use Only Page #845 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मलमासतत्त्वम् । ८३१ हामि वदन्ति तज्ज्ञास्त्रयोदशाहानि वदन्ति केचित् ॥ केतवश्च शिखावन्तो व्योतींषि स्थिरास्य त्पातरूपाणि । ग्रहणकाले भूकम्पोल्कापातवज्ज्रपातादिदोषसमाहारे त्रयोदशाहम् अशुधम् । किञ्चिदूनतसमाहारेऽपि दशाहम् । ग्रहणाद्येकैकदोषे [areमिति वाचस्पतिमिश्राः । अत्र स्मृतिसागरष्टत वाहमिति सारसंग्रहे । राज्यादिक महासिद्धौ यज्ञदानतपःसु च । होमस्वाध्याययोश्चेव वर्जयेद्दशरात्रकम् ॥ लक्षहोमे महादाने वर्जयेत् सोमके मखे । तपःस्वाध्याययोश्चैव चिरारम्भे त्रयोदश ॥ इति व्यवस्था अन्यत्र | “ उल्कापाते भुवः कम्पे अकालवर्षमर्जिते । वञ्चकेतूहमोत्पाते ग्रहणे चन्द्रसूय्र्ययोः ॥ प्रयाचन्तु त्यजेत् क्षत्र: मप्तरात्रमतः परम् । ब्राह्मणः चत्रियो वैश्य स्त्यजेत् कर्म त्रिरात्रकम् ॥ शूद्रस्त्यक्त्वा चैकरावं सर्वकर्म समाचरेत्” ॥ पराशरः । “प्रयाणे सप्तरात्रं स्यात् विरावं व्रतबन्धने । एकरात्रं परित्यन्य कुयात् पाणिग्रहं ग्रहे” । भृगुः । " कम्पे राजनि सप्ताहो ब्राह्मणानां वहन्तथा । शूद्रस्वाईदिनं प्रोक्त सर्वकार्येषु वै भृगुः ॥ शूद्रस्थापद्विषयम् । कम्प इत्युपलक्षणम् । ग्रहणादावप्येवमेवान्यवैकन पठितत्वात् । भोजदेवव्यवहारसमुच्चये । " सर्व काय्र्यं न कुर्वीत गुरौ सिंहेऽस्त - ऽपि च । व्रतदौचे न कुर्वीत तमोयुक्त बृहस्पती ॥ तमोयुक्त राहुयुक्ते । व्रतदोचे इति नित्येतर कर्मोपलक्षणम् । तथा चस्मृतिसागरसार ज्योतिषम् । “ एकराशौ स्थितौ स्यातां यदि राहुहस्पतौ । विवाहव्रतयज्ञादि सर्वन्तत्र विवर्जयेत् ॥ मलमासाद्युपक्रम्य भविष्ये । "ऋक्षभेदेऽप्येकराशौ सम्पर्को यदि वानयोः । गुरोः राहोरपि तथा त्यजेदिद्दान्र संशयः ॥ wa गुरोर्लज्जितत्व हेतुः । तद्यथा " यत्र यत्र स्थितो जौवस्तमोयोगेन लज्जते । उपहासाय किं न स्यादसत्सङ्गो मनौ For Private And Personal Use Only Page #846 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८३२ मलमास तत्त्वम् । षिणाम्” ॥ इति । “प्रनिष्टे त्रिविधोत्पाते सिंहिकासूनदर्शने । सप्तरात्वं न कुर्वीत यात्रोद्दाहादिमङ्गलम् । इति दौपिकायामनिष्टमित्यभिधानात्। अनिष्टजनको स्पात एक सर्वकर्मानधिकारः । पूर्वलिखितभोजराजवचनेऽपि । “केतू. मोल्कापातनादिदोषे" इति दोषजनक एव तथोपरागे म यह लतः शुभेऽपि यात्रानिषेधाय सिंहिकेति पृथगुपादानम् । अत्र विवाहादावपि सप्तरात्रनिषेधात् पराशरोक्त खल्प कालनिषेध आपद्दिषयः । तेनानिष्टजन के भूमिकम्पादौ न दोषः । अतएव षट् कालिकायाम् । वराहेण उत्पातप्रकरणे प्रायः पदमभिहितम् । तथा च यः प्रकृतिविपय्यासः प्रायः संक्षेपतः स उत्पातः चितिव्योम दिव्यजातो यथोत्तरं गुरुतरो भवति प्राय इति ऋत्वादिप्रयुक्तविपय्यासव्यावृत्त्यर्थं यदाह “ये च न दोषं जनयन्युत्पातास्तान् ऋतुखभावकृतान् । ऋषिपुत्रैः कृतैः लोकविद्यादेतैः समासोक्तः । तथा च मत्स्यपुराणम् " वच्चाशनिमहोकम्पे सन्ध्या निर्घातनिखनाः । परिवेशरजो घूमरक्तार्कास्तमयोदयाः ॥ द्रुमेभ्योऽथ रसस्नेहमधुपुष्यफलोद्रमाः । गोपचिमदवडिव शिवाय मधुमाधवे ॥ तारोल्कापातकलुषं कपिलार्केन्दुमण्डलम् । अनग्निज्वलनं स्फोटं धूमरेणुनिराकुलम् । रक्तपद्मारुणासन्ध्या नमः क्षुब्धार्णवोपमम् ॥ सरिताचाम्ब संशोषं दृष्ट्वा ग्रोधमे शुभं वदेत् । शक्रायुधपरीवेशौ विद्युच्छुष्क विरोहणम् ॥ कम्पोद्दर्त्तन वैकृत्य रसनं दारणं चितेः । नद्युदपानसरसां वृष्ट्य, प्रभिरणप्लवाः ॥ पतनञ्चाद्रिगेहानां वर्षासु न भयावहम् । दिव्यस्त्रीभूतगन्धर्वविमानाद्भुतदर्शनम् ॥ ग्रहनचत्रताराणां दर्शनन्तु दिवाम्बरे । गौत वादित्रानर्वीषो वनपर्वतसानुषु । शस्यवृद्धौर सोत्पत्तिरपापा: शरदि मताः । शीतानिलतुषारत्वं नदनं मृगपचिणाम् । For Private And Personal Use Only Page #847 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मलमासतत्त्वम् । ८३३ रची यक्षादि सत्त्वानां दर्शनं वागमानुषौ । दिशो धूमान्धकाराय शलभा वनपर्वताः उच्चैः सूर्योदयास्तत्व हेमन्त शोभना मताः । हिमपाता निलोत्पात विरूवाद्भुतदर्शनम् । दृष्ट्वाष्ट्चनाभमाकाशं तारोल्कापातपिच्चरम् । चित्रागर्भोद्भवा स्त्रीषु गोजाश्व मृगपचिणाम्। पत्राङ्कुरलतानाञ्च विकारा: शिशिरे शुभाः । ऋतुस्वभावजा होते दृष्ट्वा स्वर्त्ती शुभावहाः । ऋतावन्यव चोत्पाता दृष्टास्ते भृशदारुणाः । उन्मत्तानाञ्च या गाथा शिशूनाञ्चेष्टितञ्च यत् । स्त्रियो यच्च प्रभाषन्त तस्व नास्ति व्यतिक्रमः । पूर्वश्चरति देवेषु पश्चागच्छति मानुषान् । नादेशिता वाग्वदति सत्यायेषा सरखतौ” । अतएव मनुनापि । “निर्घाते भूमिचलने ज्योतिषाञ्चोपसर्पणे । एतानाकालिकान् विद्यादनध्यायानृतावपि । अत्रानध्ययमार्थ मृतावपीत्युक्तम् । उत्पाते दोषभङ्गमाह श्रीपतिव्यवहारनिवन्धे । “अथ दिवसत्रयमध्ये मृदुजलपतनं यदा स्यात् तदोत्पातदोष' शमयेदित्याहुराचाय्याः ॥ वार्हस्पत्ये “शमयन्त्या सप्ताहात् कम्पादिक्कतं निमित्तमाखेव । अतिवर्षणोपवासव्रतदोचाजप्यहवनानि" । विष्णुधर्मोत्तरे । “शेतेऽच चतुरी मासान् यावद्भवति कार्त्तिकः । विशिष्टा न प्रवर्त्तन्त सदा यज्ञादिकाः क्रियाः । नाभिषेच्यो नृपचैते नाधिमा से कदाचन । सुप्ते च तथा कृष्णे विशेषात् प्राकृषि दिन” । भविष्योत्तरे । “सुप्ते मयि जगन्नाथे केशवे गरुड़ध्वजे । निहविवाहव्रतबन्धादि त क्रियाः सर्वाचातुर्वर्ण्यस्य भारत । चूड़ा संस्कार दोचणम् । यज्ञग्टहप्रवेशादि दानाचनप्रतिष्ठनम् । पुण्यानि यानि कर्माणि वर्जयेदक्षिणायने । सर्वास्तत्तद्दाका गणिताः पूर्वप्रातिस्त्रिकोक्ताः । एवं पुण्यानीति । अन्यथा विशेषवचनवैयर्थ्यादिति वदन्ति । भोजराजः । For Private And Personal Use Only Page #848 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir * मलमास तत्त्वम् । "वापौ - तड़ाग-गृह-गोपुर-देवसद्म प्रासादवारिमठकूप विवाहचै त्यान् । कर्त्तुं यथागमविधानविधिविधात्रा प्रोक्तस्तथैव कथयामि समासतोऽहम् । सुप्ते हरौ प्रकटशेषफणोपधाने लक्ष्मीकराजपरिमार्जितपादपद्मे । मौने रवौ धनुषि चास्तमिते तथेज्ये वास्तु क्रियाविधिरसौ मुनिभिर्निषिद्धः " । इज्यो गुरुः । नारदः । " वापौकूपतड़ागादि प्रतिष्ठायज्ञकर्म च । न कुबामलमासे च महादानव्रतानि च । दानपदं सामान्यदानपरमिति वदन्ति । तथा च स्मृतिः । " बस्ते सभ्यागते बाले भृगौ मासि मलिम्बुचे । देवतादर्शनं दान महादान' विवर्जयेत्” । लघुहारीतः । " भृगावस्ते गुरौ सिंहे गुर्वादिव्ये मलिम्लुचे । त्यजेत् दान महादानं व्रतं देवविलोकनम्” । एतद्दचनइयं कालविवेकेऽपि । अत्र दानमहादानयो रुपादानात् । किन्वियान् विशेषः । मरोचवचनोक्तरोगादौ दानमेव प्रतिप्रसूतं न तु महादानमिति । नाशयथोपाध्यायस्तु । मुमुक्षुणा त्वनभिसंहितफलदानम् । मलमासेऽपि कत्तव्यमेव महादानन्वनभिसहितफलमपि नेत्याहुः । कत्यचिन्तामयौ । दानमित्यत्र यानमिति पठन्ति । यानं यात्रामित्यर्थः । प्रागुक्तज्योतिः पराशरवचने मन्त्रमासनिषि । गणे दानपद महादानपरमिति शूलपाणिः । भवाकालि कमनध्याय इति स ज्योतिः स्यादनध्याय इति वचनयोः सन्ध्या गर्जनप्रकरणीययोविरोधः शक्ताशक्तभेदेन परिहरणीय इति केचित् उल्कासहचरितत्वेन महागर्जनविषयम् चाका लिकमिति । यथा मनुः । “विद्युत् स्तनितव्रजेषु महोल्कानाञ्च संप्लवे" इति वस्त्वर्थः । एतद्वचनं तिथितत्त्व विवृतम् । काला कालविषय इति हलायुधः । गर्नादि समाहारविषयमाकालिकमित्यपरे । आकालिक निमित्तमारभ्या परदिने For Private And Personal Use Only Page #849 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मलमासतत्त्वम् । ८३५ सकालपर्यन्तं सज्योतिः सौरनचनान्यतरज्योतिषा सह वर्तन्ते दिनमात्र रात्रिमानवेत्यर्थः। पथ रोगै दानादि। शातातपौयकर्मविपाके। "महापातकज चिई सप्तजन्मसु जायते। उपपापोद्भवं पञ्च बौखि पापसमुद्भवम्। दुष्कर्मजा नृणां रोगा यान्ति चैव क्रमाछमम्। जपैः सुरानोमैनस्तेषां शमो भवेत्। पूर्व जन्मकृतं पापं नरकस्य परिक्षये। वाधते व्याधिरूपेण तय कच्छादिभिः शमः । कुष्ठश्च राजयक्ष्मा च प्रमेही ग्रहणी तथा। मूबकच्छाश्मरीकाशा प्रतिसारभगन्दरौ। दुष्टवणं गण्डमाला पक्षाघातोऽक्षिनाशनम् । इत्येवमादयो रोगा महापापोद्भवाः स्मृताः। जलोदरयवत् प्लौह शूलरोगव्रणानि च। खासाजीर्णज्वरछर्दिभ्रममोहगलग्रहाः। रतावंदविसर्पाद्या उपपातोद्भवा गदाः। दण्डावतानकश्चित्रवपुःकम्पविचिकाः । वल्मीकपुण्डरीकाद्या रोगाः पापसमुद्भवाः । तथा “अर्श बाद्या तृणां रोगा प्रतिपापावन्ति हि। अन्ये च बहुधा रोगा जायन्ते रोगसङ्कराः। उच्यन्त हि निदानानि प्रायः चित्तानि च क्रमात्। महापापेषु सर्व स्यात् तदईन्तपपातके । दद्यात् पापेषु षष्ठयांशं कल्पंग व्याधिबलावलम्। लक्षमुच्चावचं पुष्प प्रदद्याद्देवताचने। दद्यात् दिजसहस्राय मिष्टान हिजभोजने । गोदाने च सवमा गौ: सुशीला च पर्याखनौ”। गोदानमधिकत्यादि पुराणम्। “प्ररोगश्चैव जायेत तेजखो च भवेबरः”। मनुः। “औषधान्यगदो विद्यादेवी च विविधा स्थितिः । तपसैव प्रसिधान्ति तपस्त षान्तु साधनम्"। अगदी नैरुज्यम्। शातातपः। यथा निदानं दोषोत्यः कर्मजो हेतुभिविना। महारम्भोऽल्पके हेतावन्तिमो दोषकर्मजः” । साराबल्याम्। “पथ्याशिनां मौलवतां नराणां सद्वृत्तिभाजां For Private And Personal Use Only Page #850 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ८३६ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मलमास तत्त्वम् । 'विजितेन्द्रियाणाम् । एवं विधानामिदमायुरव चिन्त्यं सदा वृडमुनिप्रवाद: । व्यक्तमाह याज्ञवल्काः । " वत्यधार से हयोगाद यथा दौपस्य संस्थितिः । विक्रियापि च दृष्टैवमकाले प्राणसंशयः । यथात्वविकलवर्त्यादि सत्त्व प्रचण्डवातादिना दोपनाशस्तथा सत्यप्यायुषि प्रशुभकर्मवशात्रोका दुर्गवर्त्मयुडापथ्याशित्वादिना प्राणनाश इति । श्रायुर्वेदे । "यथा शास्त्रञ्च निर्णीतो यथा व्याधि चिकित्सितः । न शमं याति यो व्याधिः समयः कर्मजो बुधैः” । तत् चिकित्सायां भोषटाचार्य: “ दानैर्दयादिभिरपि हिजदेवता गोगुर्वचनप्रणतिभिव जपैस्तपोभिः । इत्युक्त पुण्यनिचयैरुपचीयमानाः प्रापापजा यदि रुजः प्रशमं प्रयान्ति” । अतएव हेमाद्रिकतदान खण्डे तत्त द्रोगे तत्तद्दानाभिधानपूर्वक भगवद्दाक्यम् । "सुवर्णदानं सर्वेषां रोगाणां नाशकारणम् । तस्मात् सर्वप्रयत्नेन कर्त्तव्यं कमलोद्भव ” । कर्मदोषोभयजन्य व्याधौ च । “दानादिभिः कर्मभिरोषधौभिः कर्मचये दोषपरिचये च । सिध्यन्ति ये नवतां कथञ्चित् ते कर्मदोषप्रभवा गदास्तु” । अतएवोक्तम् । " प्रायश्चित्तमकृत्वा तु कर्म कुर्य्यान्न किञ्चन । अनिस्तीर्णमघ यस्मात् द्विगुणं परिपच्यते” । केवलदोषजे तु । “स्वहेतु दुष्टैरनिलादिदोषैरुपप्लुतैः खेषु परिस्वलद्भिः । भवन्ति ये प्राणभृतां विकारास्त दोषजा भेषजशुद्धिसाध्याः” । अथ मुमुक्षुक्कृत्यम् । मनुः । “इह चामुत्र वा काम्य प्रवृत्तं कर्म कौर्त्तते । निष्कामं ज्ञानपूर्वन्तु निवृत्तमुपदिश्यते । प्रवृत्तं कर्म संसेव्य देवानामेति सार्टिताम् । निवृत्तं सेव्यमा नन्तु भूतान्यत्येति पञ्च वै । कामनापूर्वकं कर्म शरीर प्रवृत्तिहेतुत्वात् प्रवृत्तं तदेव कर्म कामनारहितम् । पुनर्ब्रह्मज्ञानाभ्यासपूर्वकं संसारनिवृत्तिहेतुत्वात् निवृत्तमुच्यते । सार्टितां For Private And Personal Use Only Page #851 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८३७ मलमासतत्त्वम् । समानगतिताम् । ऋषेर्गत्यर्थात् पञ्चभूतान्यत्येति अतिक्रामति मोक्षं प्राप्नोतीत्यर्थः । विष्णुपुराणम् । “विशिष्टफलदा काम्या निष्क्रामाणां विमुक्तिदा" । भगवद्गोतापि । “युक्तः कर्मफलं त्यक्का शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकोम् । अयुक्तः कामकारण फले सक्तो निबध्यते” । युक्त ईश्वराय कर्माणि न फलाय इत्येवं समाहितः । फलं त्यक्का कर्माणि कुर्वन्निति शेषः । शान्ति मोक्षाख्यां नैष्ठिकीं निष्ठायां भवाम्। सत्वशविज्ञानप्राप्ति सर्व कर्मसन्यासन्ज्ञाननिष्ठाक्रमेणेति वाक्यमिति शेषः । अयुक्तस्तद्दहिर्मुखः कामकारेण कामप्रेरिततया कामत: प्रवृत्तेरिति यावत् । फले सक्तः मम फलाय इदं कर्म करोमौत्येवं फले सक्तो नियत' बन्ध' प्राप्नोति तथा चार्जुनं प्रति भगवद्दाक्यम् । “मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्म चेतसा । निरासौर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः " । सन्यस्य निचिप्य समर्प्य इति यावत् । अध्यात्म चेतसा विवेकबुद्या अहंकर्त्ता ईश्वराय भृत्यवत् करोमौत्मनया बुझा निरासौस्त्यक्तकामसङ्कल्पः । अतएव निर्ममो ममतारहितः । विगतज्वरः विगतसन्तापः । व्यक्तमाह स एव । " यत् करोषि यदश्नासि यत् जुहोषि ददासि यत् । यत् तपस्यसि कौन्तेय तत् कुरुष्व मदर्पणम्" । विष्णुपुराणे । “कर्माण्य सङ्कल्पित तत् फलानि सन्यस्य विष्णौ परमात्मरूपे । अवाप्य तां कर्ममहौमनन्ते तस्मिल्लयं ते त्वमलाः प्रयान्ति । तां कर्ममहीं भारतवर्षरूपाम् । एकादशस्कन्धे । "वेदोक्तमेव कुर्वाणो निःसङ्गोऽर्पितु मौखरे । नैष्कर्म्या लभते सिद्धिं रोचनार्था फलश्रुतिः " । वेदोक्तमेव कुर्वाणो न तु निषिदम् । ननु कर्मणि क्रियमाणे तमिवासत्तिस्तत् फलञ्च स्यात् न तु नैष्कम्यरूपा फलसिद्धिः । अपवाह निःसङ्ग इति अनभिनिवेशितवान् ईश्वरेऽर्पितु For Private And Personal Use Only Page #852 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८३८ मलमासतत्त्वम् । न फलोद्देशेन। अथ फलस्य श्रुतत्वात् कर्मणि कृते फलं भवत्येव इत्यत पाह रोचना इति। कर्मणि रुच्युत्पादनार्था अतएव पत्नी व फलश्रुतिरियं नृणां नाश्रयो रोचनं परम्। श्रेयो विवक्षया प्रोवा यथा भैषज्यरोचनम्। उत्प्रत्त्वैव हि कामेषु प्राणेषु स्वजनेषु च। पासतामनसो मा प्रात्मनोऽनर्थ हेतुषु। न तानविदुषः स्वार्थ भवाम्यतो जिना. ध्वनि। कथं युञ्जनात् पुनस्तेषु तांस्तमो विशतो बुधः । एवं व्यवस्थित केचिदविज्ञाय कुबुद्धयः। फलश्रुतिं कुसुमिता न वेदना वदन्ति हि" ॥ इयं फलश्रुतिन श्रेयः परमपुरुषार्थ. परा न भवति किन्तु वहिमखानां मोक्षविवक्षया पवान्तरकर्मफलैः कर्मस रुच्यत्यादनमात्रम्। यथा भैषज्ये औषधे रुच्यत्यादनम्। यथा “पिब निम्बं प्रदास्यामि खलु ते खण्डलड्ड कान्। पित्रैव मुक्ताः पिबति तितमप्यतिबालकः । पत्र तिमनिम्बादिपानख न खलु खण्डादिनाभ एव प्रयीजनम्। किन्वारोग्यम् । तथा वेदोऽप्यवान्तरफलैः प्रलोमयन् मोक्षायैव कर्माणि विधत्ते। ननु कर्मकाण्ड मोक्षस्य नामापि न श्रूयते कुत एवं व्याख्यायते। यथा श्रुतस्यैवाघटनादित्याह उत्पत्त्य ति हाभ्याम् उत्पत्त्या स्वभावत एव कामेषु पखादिषु प्राणेषु प्रायुरिन्द्रिय वल वौर्यादिषु खजनेषु पुवदारादिषु । परिपाकतो दुःखहेतुषु पतस्तान् स्वार्थ परमसुखमविदुषः प्रजामतो पतो न तान् प्रह्वीभूतान् बुधो वेदो यहोधयति सदैव श्रेय इति विश्वमितानित्यर्थः तानेवं भूतान् बजिनाध्वनि पाप वर्मनि देवादियोनौ भ्राम्यतः। पुनस्तमो भूतवृक्षादियोनौ विशत: पशुकाम इति चायुरिन्द्रियादिकाम इति च पुत्रादिकाम इति च कथं पुनस्तेषु स्वयं बुधो वेदो युञ्जयात् । तथासत्यनाप्तः स्यादिति भावः । कथं तहि कर्म For Private And Personal Use Only Page #853 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मलमास तत्त्वम् । ८३८ 1 ariant: कर्मफलपरतां वदन्ति तत्राह एवमिति व्यवस्थितम् । वेदस्याभिप्रायमविज्ञाय कुसुमिताम् अवान्तरफल - शेचनतया रमणौयां परमफलश्रुतिं वदन्ति कुतस्त कुबुद्धयः । तदाड हि यस्मात् वेदज्ञा व्यासादथः तथा न वदन्तीति अतएव निष्कामकर्मणात्मज्ञानमित्युक्तम् । यथा " अयमेव क्रियायोगो ज्ञानयोगस्य साधकः । कर्मयोगं विना ज्ञानं कस्यचिन्नैव दृश्यते” ॥ सोऽपि दुरितक्षयद्वारा न साचात् । तथा च "ज्ञानमुत्पद्यते पुंसां दयात् पापस्य कर्मणः । श्रुतिस्तमेव वेदार्थवचनेन ब्राह्मणा विविदिषन्ति ब्रह्मचर्येण तपसा दानेन श्रद्धया यतेनानशनेन चेति" तमात्मसाक्षात्कारम् । अतएव यज्ञादीनां ज्ञानशेषताञ्चावधार्य्यं निष्कामेषु कर्मसु प्रवर्त्तते । पण्डितेनापि मूर्खः काम्ये कर्मणि न प्रवर्त्तयितव्यः । इत्याह षष्ठस्कन्धे । “स्वयं निःश्रेयसं विद्वान् न वक्त्यज्ञाय कर्म हि । न राति रोगिणेऽपथ्यं वाव्क्तेऽपि भिषक्तम: ॥ राति ददाति । समय प्रदीपे श्रीदत्तः । "दास दासमलङ्कारमचं घड्ससंस्कृतम्। पुरुषोत्तमस्य तुष्ट्यर्थं प्रदेयं सार्वकालिकम् । यदयदिष्टतमं लोके यञ्चाप्यस्ति गृहे शुचि । तत्तष्ठ देयं तुष्यर्थं देवदेवस्य चक्रिणः ॥ इदं दानं ब्राह्मण सम्प्रदानकमेव विष्णुप्रीतिमुद्दिश्य एवं सर्वत्र दाने विष्णुप्रीतेः सामान्यतः श्रवणात् । विष्णुप्रोतो देवताधिकरणम्यायविरोध इति सेव स्वर्गवदधिकारिविशेषणत्वेन तव प्रसाधनादित्याह । ब्राह्मणसम्प्रदानकत्वे किं प्रमाणमिति चेत् बामनपुराणे तप्तम्मासभेदेन तत्तद्दानमभिधाय "विष्णोः प्रीत्यर्थमेतानि देयानि ब्राह्मणेष्वथ । देयानि विप्रमुख्येभ्यो मधुसूदनतुष्टये” ॥ इति चाभिधाय दासी दासमिति वचनद्दयाभिधानात् । विष्णुधर्मोत्तरेऽग्निपुराणे च । "यत्र यत्न भवेत् प्रौतिर्विषयेभ्यो " तथा For Private And Personal Use Only Page #854 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८४० मलमासतत्त्वम् । महामुने । तन्तमच्युतमुद्दिश्य विप्रेभ्यः प्रतिपादयेत् ॥ विष्णुधर्मोत्तरटतोयकाण्डे तु विष्णु सम्प्रदान कमेव दानम्। “विष्णोः शङ्खप्रदानेन वारुणं लोकमानयात्" ॥ इत्यादिना “क्षौरपल्लवसंयुतान् कलसान् सुविभूषितान्। दत्त्वा वै देवदेवाय वाजिमेधफलं भवेत्” ॥ इत्यन्तेन तत्तत्फलं तत्तहानमभिधायोक्तम्। “अकामः सात्त्विको लोको यत्किञ्चिहिनिवे. दयेत् । तेनेव स्थानमाप्नोति यत्र गत्वा न शोचते ॥ धर्मवाणिजिका मूढाः फलकामा नराधमाः । अर्चयन्ति नगन्नाथं ते कामानाप्नवन्त्यथ । अन्तवन्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम् ॥ पझ्या प्रतीच्छते देवः सकामेन निवेदितम्। मूर्छा प्रतीच्छते दत्तमकामेन हिजोत्तमैः” ॥ इति वामनपुगणवचने साद. कालि कमित्य ने न मलमासादावपि विष्णुप्रौत्यर्थं देयम्। अथ महादानलक्षणम् । मस्यपुराणे। "प्रथातः संप्रवक्ष्यामि महादानस्य लक्षणम्"। इत्यभिधाय । “पाद्यन्तु सर्वदानानां तुलापुरुषसंज्ञितम्। हिरण्यगर्भदानञ्च ब्रह्माण्डं तदनन्तरम् । कल्पपादपदानञ्च गोसहमञ्च पञ्चमम् । हिरण्यकामधेनुश्च हिरण्याश्व स्तथैव च। पञ्चलाङ्गल कश्चैव धरादानं तथैव च। हिरण्याश्वरथस्तहत् हेम हस्तिरथस्तथा। हादशं विष्णु चक्रञ्च ततः कल्पलतात्मकम्। सप्तसागरदानञ्च रत्नधेनुस्तथैव च। महाभूतघटस्तहत् षोड़शः परिकीर्तितः” । अत्र सामान्य लक्षणं सूत्रजपाङ्गकदानं महादानम् । विनायकादिपञ्चाशद्दे वताहीमाङ्गक वा। तथा च मत्स्यपुराणम् । विनायकादिग्रहलोकपालवस्खष्टकादित्यमरहणानाम्। ब्रह्मायुतेशानवनस्पतीनां स्वमन्चतो होमचतुष्टयं स्यात्। जप्यानि सूतानि तथैव चैषामनुक्रमेणापि यथा स्वरूपम्" इत्यादिना सूत जपहोमानयोश्च विधिः प्रत्येकं षोड़शतुलापुरुषप्रधाना For Private And Personal Use Only Page #855 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मलमास तत्त्वम् । ८४१ बुद्दिश्योक्ती न तु महादानत्वेन उद्दिश्येति । अतो नेतरेतराश्रयत्वम् । न तु कुण्डमण्ड पेतिकर्त्तव्यतायोगित्वं निकनीयलक्षणमचलमठदानेऽपि गतत्वात् । एवञ्च "कनकाव तिलानागादासोरथ महोग्टहाः । कन्या च कपिला धेनुर्महादामानि वै दश” । इति कूर्मपुराणोक्त महादानपदं गौंणम् । अन्यथा महाशक्तिकल्पनापत्तेः । कनकादि साधारणानुगतैकरूपाभावाच । न वैपरीत्यम् । अथ मलमासकर्त्तव्यव्रतम् । चातुर्मास्यव्रतमाषाढ़ाद्युल्लेखेन विहित यत् तदप्यारब्धं मलमासे कार्य्यम् । भाषाढ़ादि प्रतिदिन कर्त्तव्यत्वेन निरवकाशात्। " षष्ट्या तु दिवसेर्मासः कथितो वादरायणैः” इति ज्योतिःशास्त्रे पितामहेन एकमासत्वाभिधानाञ्च । यच्च “संवत्सरन्तु यः पूर्णमेकभक्तेन तिष्ठति । इत्यादौ माघाद्यनुल्लिखित संवत्सरव्रतमारब्ध तासमासेऽपि कर्त्तव्यम् । " क्वचिच्चयोदशमासाः संवत्सरः” इति श्रुतेः । यश्च प्रतिमास विहितः न माघाद्युल्लेखेन तन्मलमासेऽपि कर्त्तव्यम् । तथा च रम्भाटतौयाव्रते शिवरहस्थम् । “मासे मलिम्लुचेऽप्येवं यजेद्देवीं सशङ्कराम् । किन्तु नोदयापन कार्य्यमित्याह भगवान् शिवः । उदुयापन प्रतिष्ठा । व्रतारम्भोऽपि निषिद्धः । पूर्वनिरुक्तकाश्यपवचनात् । जेष्ठादिमासविशेषविहितं सावित्रोव्रतादिकन्तु सावकाशत्वान्मलमासे न कार्य्यम् । प्रकृत एव जैष्ठादौ कर्त्तव्यमिति । अथ पितृपक्षमृतक्रिया । हेमाद्रिकालमाधवौय संग्रयोनगरखण्डम् | "भाषाव्याः पञ्चमे पक्षे कन्या संस्थे दिवाकरे । यो वै वा नरः कुर्ययादेकस्मिन्नपि वासरे ॥ तस्य संवत्सरं यावत् तृप्ताः स्युः पितरो ध्रुवम् । नमो वाथ नभस्यो वा मल ७१ For Private And Personal Use Only Page #856 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८४२ मलमासतखम् । मामो यदा भवेत् ॥ सप्तमः पिपक्षः स्यादन्यत्रैव तु पञ्चमः। अत्र सप्तमस्य पिढपक्षत्वात्। *षध्या तु दिवसैर्मासः कथितो वादरायणैः” इत्यनेन त्रिंशता तिथिभिः पक्षत्वात् सप्तमस्य पञ्चमत्वाच्च। तदन्दे तत्र मृतस्य। “सपिण्डीकरणादूई यत्र यत्र प्रदीयते। तत्र तत्र वयं कुर्यात् वयित्वा मृताहनि ॥ अमावास्यां क्षयो यस्य प्रेतपक्षेऽथा पुनः। सपिण्डीकरणादूच तस्योक्तः पार्वणो विधिः । इति शलोक्तन प्रत्याब्दिक पार्वणविधिना कर्त्तव्यम्। न तु मलमासभाद्र कृष्णपक्षमृतस्य वर्षान्तरेऽश्व युक्रष्णपक्षेऽपि पावणं तस्य प्रेतपक्षमृतत्वाभावात् किन्ले कोद्दिष्टम् अत्र पार्वणो विधिः uাৰীনিন্ধননজীৱিৰিধিৰিনি অনুমানানয়: तन्त्र पूर्ववचनोक्तत्र पुरुषिकस्य मृताहे पर्युदस्तस्य पार्वणो विधिरित्यनेन प्रतिप्रसवात्। “पपुवा ये मृताः केचित्त इत्यत्र पार्वणनिषेधानुपपत्त्या कर्घसमन्वितमित्यत्र षट्पुरुषनिषेधेन च वैपुरुषिकत्व लाभाच्च। तस्मात्र पुरुषिकं युक्त. मिति । एवममावास्यादिमरणनिमित्तेन मातुरपि प्रत्या. ब्दिकं पार्वणविधिनैव। “अपुवा ये मृताः केचित् स्त्रियो वा पुरुषाश्च ये। तेषामपि च देयं स्यात् एकोद्दिष्टं न पार्वगाम् । इत्यापस्तखवचने पपुवा इति विशेषणोपदानात् सपुत्राणां पार्वणाभ्यनुज्ञानात्। एतच्च माटप्रतित्रयदैवतं कार्यम् । मा पितामयै प्रपितामबै पूर्ववब्राह्मणान् भोजयित्वा इत्य. बष्टकायां तथा दर्शनात् । प्रत्नावसानदिननिमित्तत्वेन पार्वणविधानात् छन्दोगैरपि मावादित्रिकाणां पाई कार्यम् । “न योषिताः पृथग्दद्यादवसानदिनादृते । इति छन्दोगपरिशिष्टेन विशेषतः प्रतिप्रसवात् एवं सपिण्डीकरणेऽपि। एतच मातापिनोरेव । तथा हेमाद्वितकात्यायनवचनम् । “सपिण्डौकर: For Private And Personal Use Only Page #857 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मलमास तत्त्वम् । बादूई पित्रोरेव हि पार्वणम् । पितृव्य भ्रातृमातृष्णामेकोद्दिष्टं सदैव तु ॥ मातृपदं सपत्नीमातृपरम् । पिढव्यादिसमभिव्याहारात् अत्र मातृपदस्य राजदन्तादित्वात् पनिपातः 1 अत्रानुज्ञाग्रहणाभिलापस्तु | श्रद्येत्यादि पितुरमावस्याक्षयनिमित्तक-पार्वणविधिक सांवत्सरिक श्राद्धार्थम् । अमुकगत्रस्य पितुरसुकदेवशर्मा पोऽमुकगोत्रस्य पितामहस्यामुकदेवशमीयोऽसुकगोत्रस्य प्रपितामहस्यामुक देवशमीय: पार्वणविधिक सांवत्सरिकाई कर्त्तव्ये पुरुरवो माद्रवसोर्विश्वेषां देवानां पार्वणविधिकवाद दर्भमयब्राह्मणयोरहं करिष्ये । एवमन्यत्राप्यूह्यम् । एवच्च सप्तमस्य पितृपक्षत्वादवयुकृष्णपक्षीयत्राह मलमासे न काय्र्यम् । अथ । श्व युक्त ष्ण पक्ष श्राद्दम् । ब्रह्मपुराणम्। "अश्वयुक्कृष्णपक्षे तु श्राद्धं कुय्याहिने दिने । विभागहीनं पक्षं वा विभागन्त्वमेव वा । दिनपदं तिथिपरं तत्तत्कीनिमित्त पौर्णमास्यन्त चैवादिद्दादशमास सम्बन्धित्वात् तिथिवान्द्रमसं दिनमित्यादिप्रागुक्तत्वाश्च । श्रईमेवेति भई कुर्य्यादेव इति नियमश्रुते रस्यावश्यकत्वम् । तच्च विभागस्यैव श्रईत्वे सम्भवति न तु पक्षस्य तथात्वे विभागकरणे अर्धमेवेति नियमानुपपत्तेः । श्रयाणां पूरणो भागस्त्रिभागस्त्रिभागदौनः पूर्वत्रिभाग हौन: विभाग: परस्त्रिभागः । तथा च विष्णुधर्मोत्तरे । “उत्तरादयनात् श्राच्च श्रेष्ठ ं स्यादक्षिणायनम् । चातुर्मास्यच्च तत्रापि प्रसुप्ते केशवे हितम् । प्रोष्ठपद्याः परः पचस्वत्रापि च विशेषतः । पञ्चम्यूर्द्धश्च तचापि दशम्य मतोऽप्यति । मघायुक्ता न तवापि शस्ता राजंस्त्रयोदशौ ” । एवञ्च प्रतिपदादिपञ्चदशक षष्ठप्रादिदशक एकादश्यादिपञ्चक त्रयोदश्यादिचिकतिथिखरू - पकल्प चतुष्टयविधानात् । प्रागुक्तनागर खण्डे यस कृच्छ्र । दविधानं For Private And Personal Use Only ८४३ Page #858 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८४४ मलमास तत्त्वम् । तत् कन्यास्थरविनिमित्तकम् । “अनेन विधिना बाई बिरबहस्येह निर्वपेत्। कन्याकुम्भवषस्थेऽर्के कृष्णपक्षे च सर्वदा” । इति मत्स्यपुराणोय कवाक्यत्वात्। तत्रैव प्राषाढ़ीयपञ्चमपक्षसम्बन्धे पतीव प्राशस्त्य तथा धादिपुराणम्। “पक्षान्तरेऽपि कन्यास्थ रवी श्राई प्रशस्यते। कन्यां गते पञ्चमे तु विशेषेणैव कारयेत् ॥ न तु पक्षमपक्षेऽपि सकहिधामम् । तथात्वे अई मेवेति नियमभङ्गप्रसङ्गः। पत्र विभागादिकल्पः शक्त्यपेक्षया । अन्यथा सम्भवति सघपाये गुरूपायत्वेनानुठानलक्षणमप्रामाण्यं स्यात् पक्षादिविधेः। न च तत एक फलभूमाः एका देया तिम्रो देयाः षड्देया इतिवत् कल्या इति वाच्य नित्यत्वादिति श्राइचिन्तामणिः । तब नित्यत्वेऽपि सन्ध्यावन्दने सूर्योपस्थानमुपक्रम्य कात्वायनः । “तदसंयुक्तापार्णिा एकपादई पादपि। कुर्यात् कृताञ्जलिर्वापि उडुवाहुरथापि वा” ॥ पत्र च गुरुलनुप्रयवसाध्यानां कथं विकल्प इत्याह स एव । “यत्र स्थान भूयस्व श्रेयसोऽपि मनीषिणः। भूयस्त्वं ब्रुवते तत्र छात् श्रेयो यवाप्यते” । नित्येऽप्यायास-बाहुल्यादुपात्तदुरितक्षयाणामानुषङ्गिक-फला. नाञ्च भूयस्त्वसम्भवादिति भावः । तदत्रापि तारतम्येन फलभूनः कल्पनीयत्वम्। न तु शक्त्वपेक्षया। तथात्वे “प्रभुः प्रथमकल्पस्य योऽनुकल्पे न वर्तते। न साम्परायिक तस्य दुर्मविद्यते फलम् ॥ इत्यनेन शक्तस्य होन कल्पकरणे फलानुदयः स्यात्। यत्तु “पारवेषु विषबानां जलाग्निभृगुपातिनाम् । चतुर्दश्यां भवेत् पूजा अमावास्यान्तु कामिको" । इति कन्यागतापरपक्षप्रकरणस्थ देवीपुरामवचनेन विशेषविधिमहिना अर्थादन्येषां तत्र पूजानिषेधाच्चतुर्दशोवर्जनमुक्तम् । तचिन्त्यम्। न ह्येतदचनादन्येषां पाई निषिद्यते। परि For Private And Personal Use Only Page #859 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मलमासतखम् । ८४५ संख्याप्रसङ्गात् किन्तु शस्त्रादिहतानां चात्रादौनां तत्र थाई विधीयते। श्राइविवेकेऽपि ब्रह्मपुराये प्रायोऽनशनेत्यादिना सकलकृष्णपक्षीयचतुर्दश्यां श्राधमभिधाय तदाखिने तर्पणीयाश्चतुर्दश्यां लुप्तपिण्डोदकक्रिया:" इति पुनरभिधानं तस्त्र इतनावादिविषयमित्यन्तेनीताम्। दैतनिर्णयेऽपि । इदं हि वाक्यममावास्यान्तु कामिकौत्य पसंहाराच चतुर्दश्यां शस्त्रहतानां नित्यतां विधत्ते न वशस्त्रहतानां श्राइमपि निषेधति । उभयपरत्वे वाक्यभेदापत्तेरित्युक्तम् । “कृष्णपक्षे दशम्यादौ वर्जयित्वा चतुर्दशीम् । श्राद्धे प्रशस्तास्तिथयो यथैता न तथेतराः" । इति मनतासामान्य कृष्ण पक्षचतुर्दशौनिषेधोऽपि नात्र सम्बध्यते। अखयुक्कष्णपक्षीयविशेषविधौ दिने दिने इति वीप्साया चतुर्दश्याः थाइविषय. खेन द्रागालिङ्गनात् । अन्यथा वीसां विहाय दिन इत्येव विदध्यात्। तेनैव सत्करणभङ्गात्। अन्यथा दिन इत्यपि व्यर्थं स्यात् । प्रकरणभेदाच्च । तथा च मौमांसासूत्रम् । "प्रकरणान्यत्वे प्रयोजनान्यत्वम्” इति पाश्चात्यनिर्णयामृतकालमाधवौययोरेतन्यायमूलं कार्णानिनिवचनम् । “नमस्यस्थापरे पक्षे श्राद्ध कुर्य्याहिन दिने। नैव नन्दादिवर्ज स्यान्नैव वा चतुर्दशौ" ॥ नभस्यस्येति मुख्य चान्द्रेण। अतएव बहद्राजमार्तण्डे मत्स्यपुराणवचनम् । “कन्यां गते सवितरि दिनानि दश पञ्च च । पार्वणेन विधानन श्राई तत्र विधीयते” ॥ इति न चैतनमोधराद्यलिखितत्वादमूलमिति बाचस्पतिमित्रोक्तं युक्तम्। भोजदेवलिखनादेवास्य समूलत्वात्। न च लक्ष्मोधरेणाप्येतन्निर्मूलमिति लिखितम् । एतेन थाहाय प्राप्तसामान्यक्कण पक्ष कल्पचतुष्टयविधानं न त्वश्वयुक्कृष्ण पक्षलेन निमित्तान्तरमित्यपि निरस्तम्। ब्रह्मपुराणे For Private And Personal Use Only Page #860 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८४६ मलमास तत्त्वम् । प्रकरणभेदात् सामान्य कृष्णपचाश्वयुक् कृष्ण पक्ष श्रावयोरकरणे निन्दाइयश्रवणाश्च । अन्यथा एकत्रोभयमभिधाय एकैव निन्दा विधीयते । एतेनैव " ऊई चतुर्थ्यायदहः सम्पद्यते” इति कात्यायनवचनात् यत् सकृत्करणं तत्पक्षचतुष्टयावरुहाश्विनापरपक्षेतरापरपक्षविषयम् । सामान्यविशेष न्यायादुक्तम् । तच्च यम् । अन्यथा ब्राह्मणेभ्यो दधि दौयतां तक्र कौण्डिन्याय इत्यवापि तक्रावरुद्द कौण्डिन्याय दधिवत्रिमित्तान्तरेऽपि काचनादि न देयं स्वात् । पश्वयुक्वष्णपक्षीयाष्टमौ वयोदश्योचतुर्ष्यष्टका मघात्रयोदशौ श्राश्वान्तरनिमित्तत्वेन भवन्मतेऽपि प्राप्तत्वात् । तदितरदिने ष्वे वाश्वयुक् कृष्ण पक्ष कल्प चतुष्टयविधानं स्यात् । न च दिने दिने इति वीप्सयेति न तथेति वाच्यम् अत्रापि " मासि मासि वोशनम्” इति श्रुतेः । वो युद्माकं पितणामिति शेषः । तस्मात् प्रकरणभेदेन निमित्तभेदादेववैवाश्वयुक् कृष्णपचे विधिवयप्रवृत्तिः । पञ्चचतुष्टयान्यतमकरणे तन्त्रादेव सिद्धिः । एतदकरणेऽपि सामान्यमासविहितं भवत्येवेति । अत्र ककल्पाश्रयणे तदनिर्वाहे सति कल्पातराश्रयणम् । व्रीहियववदुदितहोमवञ्च । इति यदुक्तं तदपि चिन्त्यम् । कल्पचतुष्टय विधानेनारम्भान्तरसम्भवात् । अन्यथेकादशे द्वादशे पिता नाम कुर्य्यादिति श्रुतेरेकादशेऽि नामकरणे चारब्ध तत्र राजादिक्कतविघ्न द्वादशाहेऽपि तत्करणं स्यात् । तथा द्वादशाहे सपिण्डने आरब्ध एकदिवप्रादिमासिके कृतेऽनन्तरं विघ्न तदानीं तत्कल्पासमापनात् भवन्मते च कल्पान्तराकरणे पित्रादौनां प्रेतत्वपरौहारो न स्यादिति । किन्त्वकं कमी यवेनारभ्य वैकल्पिकेन व्रीहिणा न समाप्यते इति दृष्टान्तार्थः । तथैकस्मिन् कल्पे भारब्ध तत्र विघ्न अनन्तरदिने सन्ध्यावन्दनादिवत् किमिति न क्रियते । इति For Private And Personal Use Only Page #861 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मलमासतत्त्वम् । ८४७ चैव। एकतिथ्य करणे प्रतितिथिकर्तव्यकल्पसमापनाभावात् अत्र कल्पान्तरोतो युक्तः। सन्ध्यावन्दने तु कल्पान्तराभावान तथेति। प्रत्यञ्चारब्धकल्पेऽप्यशक्ता अन्येन कार्यः। तथा च याचवल्काः। “जिलं त्यजेयुनिलाभमशतोऽन्येन कारयेत् । अनेन विधिराख्यात ऋत्विकृर्षिककर्मिणाम्" ॥ विद्याधरधृतम्। "तीर्थे तिथिविशेषे च गङ्गाथां प्रेतपक्षके। निषिद्धे दिने कुयातर्पणं तिलमिश्रितम् ॥ तिथिविशेषे अमावास्यायाम् । स्मृतिः "रविशकदिने चैव हादश्यां श्राववासरे। सप्तम्यां जन्मदिवसे न कुयात्तिलतर्पणम्” ॥ मत्स्यपुराणे । “सप्तम्यां निशि संक्रान्त्यां रविशुक्रदिने तथा। श्राद्ध जन्मदिने चैव न कुयात्तिलतपंणम् ॥ श्राने अमावास्याश्रावभिन्ने। “नौलषण्ड विमोक्षण अमावास्यां तिलोदकैः । वर्षासु दीपदानेन पितॄणामनृणो भवेत् ॥ इति मात्स्यात् । प्रतिप्रसवमाह स्मृतिः । “अयने विषुवे चैव मंक्रान्त्यां ग्रहणेषु च । उपाकर्मणि चोत्सर्गे युगादौ मृतवासरे ॥ रविसंक्रान्तिवारोऽपि न दोषस्तिलतर्पणे" ॥ स्कन्दपुराणे। “तीर्थमात्र तु कर्त्तव्यं तर्पणं सतिलोदकैः । अन्यथा तर्पयेद्यस्तु विष्ठायां स कमिर्भवेत् ॥ विशेषतस्तु जागव्यां सर्वदा तर्पयेत् पितृन् । स्मृतिः। निषिद्धदिनमासाद्य यः कुर्यात्तिलतर्पणम् । रुधिरं तद्भवेत्तोयं दाता च नरकं व्रजेत् ॥ एतच्च तीर्थव्यतिरिक्तजले “यो नित्यं तर्पयेत्तीर्थे पितॄन् कृष्ण तिलोदकैः। सबन्धान् मोचयित्वा तु स्वयं ब्रह्मपुरं व्रजेत् ॥ इति कात्यायनवचनात्। उक्तस्कन्दपुराणोयवचनाच। संवत्सरप्रदौपे। “प्रमावास्यास्तु कन्या: तीर्थप्राप्तौ तथा नृप। कृत्वा श्राई विधानेन दद्यात् षोड़शपिण्ड कम्” ॥ इति वायुपुराणौयस्तत्प्रयोगस्तिथितत्त्वे - ऽनुसन्धेयः। भृगुः । "वृद्धिश्राद्ध तथा सोममग्न्याधेयं महालयं For Private And Personal Use Only Page #862 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८४८ मलमासलत्वम् । राजाभिषेकं काम्यञ्च न कुर्यादानुलजिन्वे । वृशिवाइमिति सावकाशचित्राविषयम्। निरवकाशस्य पूर्व व्यवस्थापित. बात्। __ पथामावस्या। कुथुमिः । “संवत्सरातिरेको वै मासो यः स्थात्रयोदशः। तस्मिंस्त्रयोदशे शाई न कुर्यादिन्दुसंक्षये ॥ संवत्सरप्रदीपस्मृतिरत्नाकरयोः। “एकराशिस्थिते सूर्ये यदि दर्श हयं भवेत्। दर्शश्राई तदादौ स्यान्न परत्र मलिम्बुचे ॥ यत्तु “जातकर्मणि यत् श्राद्धं दर्शश्रा तथैव च। मलमासेऽपि तत् कास्य व्यासस्य वचनं यथा ॥ इति व्यासवचनं तत् पिण्डपिढयज्ञाख्याचपरम् । समाप्तौ पिटसोमकावित्यभिधाय तमतिक्रम्य तु रविरित्यनेन मलमासाभिधायकेन मलमासप्राप्तपित्यकमूलत्वात् । न पार्वणवाइपरम् । "असंक्रान्तेऽपि कर्तव्यमाब्दिकं प्रथमं हिजैः। तथैव मासिकं पूर्व सपिण्डौकरणं तथा" ॥ इति लघुहारोतवचने मासिकं पूर्वमित्यभिधानेन सपिण्डीकरणात् परं मासिकं कृष्णपक्षीयपार्वणं निवर्त्तते इत्यवगतः। प्रथमाब्दिकात् पूर्व मासिकमिति प्तमयप्रकाशव्याख्यानेऽपि तथैवार्थः । अन्यथा पूर्वमासिकवत् परमासिकदर्शवावस्यापि करणे पूर्वपदवैयर्थापत्तेः । “सपिण्डौकरणादूई यत् किञ्चित् श्राधिकं भवेत् । इष्ट वाप्यथ वा पूतं तन्न कुर्य्यान्मालम्लचे” इति वचनान्तरेण प्रतिषेधाञ्च। अथ वा व्यासवचनं भानुलवितक्षयमासाभिप्रायम्। तयोरपि पूर्वलिखित काठकग्रोन मलमासप्रयोगात्। तयोहिःकार्तिकत्वाद्यभावात्। “तत्र यदि हितं कर्म' उत्तर मासि कारयेत्” । इत्यस्याविषयत्वम् । मुख्य मलमासे प्राषाढ़ादेहित्वात्। तत्सम्भवः। एतेनापरे विति कृत्वा कुथुमिवचने "तस्मिंस्त्रयोदशे भाई न For Private And Personal Use Only Page #863 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मलमास तत्त्वम् । कुर्य्यादिन्दु संचये । इति पठित्वा व्यासवचनविरोधात् न कुय्योपतिष्ठते इति काश्मीरपाठो न्यायानिति हेमाद्रिणाभिचितं यत् तद्देयम् । समयप्रकाशक्कतापि । पमावास्यामृतस्य तु मध्ये मलमासपातेऽपि तत्र न मासिकम् इत्यभिधाय पूर्वोक्त कुथमिवचनं साधकत्वेनाभिहितं यत्तदपि हेयम् । तद्दचने अमावास्यामृतस्येति विशेषतोऽभिधानात् । न च "अब्दमम्बुघटं दद्यात् श्रवश्चामिषसंयुतम् । संवत्सरे विहछेऽपि प्रतिमासञ्च मासिकम्” । इति कुथुमिवचनान्तराभितिप्रेतमासिक डिनिषेधार्थं तद्दचनमिति वाच्यम् । तत्परत्वे प्रमाणाभावात् । किन्तु मलमासे प्रेतमासिकवृद्धिः पितृमासिकन्तु नास्तीति वचनयोरर्थः । पूर्वलिखितहारीतवचनार्थसमः । यत्तु तस्मि ंस्त्रयोदशं श्राहमिति पठितम् अमावास्वायां मृताहे मलमासे मासिकं न कुर्य्यादन्यत्र तु मलमासे प्रेतमासिकादिरिति । न चामावास्यायां पार्वणनिषेध इति वाच्यं पुरुषभेदेन तस्यानियत संख्यात्वात्ततोदशत्वानुपपत्तेः । पर्व चाग्रयणन्तथेति श्रमावास्यानिमित्तकस्य प्रतिप्रसवाञ्च । इति जीमूतवाहन व्याख्यातं तदपि चिन्त्यम् । श्रमावास्थामृतस्येतिविशेषाभावेन तदर्थकल्पने प्रमाणाभावात् । श्रमावास्या पार्वणस्य पुरुषभेदेनानियतसंख्यात्तात्रयोदशत्वानुपपत्यभिधानञ्च न सङ्गच्छते । यतो भवन्मतेऽपि एकद्दिवत्रादि मासिकानन्तरमासिकस्य त्रयोदशत्वानुपपत्तेः । अथ तत्र वत्सरापेचया पणपूरणन्यायेन वयोदशत्वमिति चेत "अनेन विधिना वा कुर्य्यात् संवत्सरः सकृत् । विश्वतुर्वा यथाशक्ति मासे मासे दिने दिने । इति देवलवचनेन संवारे प्रतिमासं श्राविधानात् तदपेचया अमावास्या श्राहस्यापि तन्त्रायात्रयोदशत्वमिति । इन्दुसंचय इत्यभिधानादपि तत्रिमित्तक For Private And Personal Use Only Page #864 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८५० मलमास तत्त्वम् । थेति । प्रशस्त श्राद्धमेवावगम्यते । न प्रेतश्राहमिति पर्वचाग्रयणन्तwa साग्निमात्रकर्त्तव्याग्रयण साहचर्ययात् पर्वपद दर्श यागपरम् । पिण्ड पिटयज्ञपरच । न पार्वणश्राद्धपरम् । तस्य कृष्णपक्षनिमित्तत्वेन पर्वनिमित्तत्वाभावात् । पूर्वोक्त । । तत्वादप्रतिषेधकनानावचनविरोधाश्च । अतएव मुन्यन्तरेर्नानादेशीयसंग्रहक्करिण्यमावास्यामृतस्यैव विशेषो नाभिहितः । श्राविवेकक्वद्भिरपि मलमासे पार्वणाभावो बहुप्रव न्वैरुक्तः । प्रथाधिमासे प्रत्याब्दिकादिविचारः । लघुहारीतः । * प्रत्यष्टं द्वादशे मासि कार्य्या प्रेतक्रिया बुधैः । क्वचित्तयोदशेऽपि स्यादाद्य मुक्का तु वत्सरम्" । प्रत्याब्दिकौ या प्रेतक्रिया सा हादशे मासि काय्या इत्युत्सर्गः । अत्र प्रेतपद प्रमोतमात्रपरम्। कचिन्मलमासे पतिते त्रयोदशेऽपि मासे कायाः । चाद्य सांवत्सरिक द्वादश एवं मलमासेऽपि काय्यें नलेकादशमासाभ्यन्तरे मलमासेऽपि तथात्वे दादशे मासि मृततिथ्यलाभात् । सपिण्डनानुपपत्तेः । अतएव द्वैतनिर्णये एतद्विषये विष्णुधर्मोत्तरेण त्रयोदशे मासिक श्रावमुक्तम् । यथा " संवत्सरस्य मध्ये तु यदि स्यादधिमासकः । तदा त्रयोदशे मासि का प्रतस्य वार्षिको” । सत्यव्रतेनापि । " संवत्स रस्य मध्ये तु यदि स्यादधिमासकः । तदा वयोदशं श्राह कार्य्यं तदधिकं भवेत्” । लघुहारीतः । "असंक्रान्तेऽपि कर्त्तव्यमाब्दिक प्रथम द्विजैः । तथैव मासिकं पूर्व सपिण्डोकरणन्तथा" । असंक्रान्त रखौ मलमासे इत्यर्थः । चाब्दिकं प्रथमं तच न्यूनादिकं सपिण्डीकरणस्य पृथङ्निर्देशात् । ततश्च "गर्भे वार्धुषिकृत्ये च मृतानां पिण्डकम् सु । सपिण्डौकरणे चैव नाधिमासं प्रचचते । इति यत् पुनः सपिण्डो For Private And Personal Use Only Page #865 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मलमासतत्त्वम् । ८५१ करणमभिहित तम्मलमासेऽपि गर्भाधानपुंसवनादिनिमित्तसपिण्डीकरणापकर्षार्थम्। अथ सपिण्डनापकर्षविचारः। अत्र केचित् । “यद. हर्वा हिरापद्येत" इति गोभिलसूत्रेण । “प्रेतसंस्कारकर्माणि यानि थाहानि षोड़श। यथा कालन्तु कार्याणि नान्यथा मुच्यते ततः”। इति लघुहारौतवचनादन्यथानुपपद्यमान वार्थमेवापकर्षो बोध्यते। गर्भाधानादि संस्कारा अन्नप्राश. नान्ता निरवकाशाः । *नैमित्तिकानि काम्यानि निपतन्ति यथा यथा। तथा तथैव कार्याणि न कालस्तु विधीयते । इत्यनेन तुल्य न्यायात्तन्मध्ये करणेऽप्यन्यथोपपना इति। न चैवं चड़ाकरणादौनामपि तुल्यन्यायतयानुष्ठाने यदहति निविषयं स्यादिति वाच्यम्। अधिमासके यात्रां विवाह चड़ा तथोपनयनादि कुर्यात्र सावकाश माङ्गल्यं न तु विशे. षज्याम् इत्यादी निरवकाशवेन संस्कारमात्रस्य कर्तव्यतायां चड़ाकरणादौनां शृङ्गग्राहिकतया निषेधावगमात् । ऋ कमन्दिरमतौ यदि जौवभान शुक्रोऽस्तगः सुरवरैकगुरुश्च सिंहे। नारभ्यते व्रतविवाहग्राइप्रतिष्ठा क्षौरादिकर्मगमना. गमनञ्च धौरैः”। इत्यादी सर्वत्र कालाशोचे चड़ाकरणादौनां विशेषतो निषेधावगमाञ्च। अन्नप्राशनान्तस्य क्वाप्यनुल्लेखात् नानास्मृतीनां मूलभूततत्तत्पदवन्नानाश्रुतीनां कल्पनायाञ्च गौरवात्। कालाशोचे चड़ादि न कार्यमिति। नैमित्तिकानि काम्यानौत्यस्यापवादकचड़ादौ निषेधः। तथा च महागुरौ प्रतीभूते किं सपिण्डनमपकर्षणीयम्। किं वा चड़ादेः स्वकालवाधेन कालान्तरे तत्करणीयम् इत्याकाझायां यदर्वेति वचनं मविषयमेव कुतो निर्विषयता। न चाकत· सपिण्डनस्य इड़िश्राद्धाभावात् तत् पूर्वेषाञ्च "ब्राह्मणादिहते For Private And Personal Use Only Page #866 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पक ८५२ मलमासतत्त्वम् । ताते पतिते सङ्गवजिते। व्यत्क्रमाञ्च मृते देयं येभ्य एव ददात्यसौ। इति परिगणितनिमित्तव्यतिरेकेण प्रकरणात् कृडियाहस्य का गतिरिति वाच्यम्। “न तत् पूर्व यतः प्रोक्तः सपिण्डनविधिः क्वचित्। वृदिशाइस्य लोप: स्यादुभयोरपि पक्षयोः । इति वल्लोप एव न चाङ्गवाधात् संस्काराणां वैगुण्यमिति वाच्च तत्तदेवाजवोधकविधौनां तदितरपरत्वादिति । अन्यथा गर्भाधानादि निमित्तत्वेनाप्यपकर्षे महाविप्लवापत्तेः । इत्याहुस्तश्चिन्त्यम्। “सपिण्डौकरणादूई प्रत: पार्वणभुग्भवेत्। वृहौष्टापूर्तयोग्यस्तु गृहस्थश्च ततो भवेत् । इति मस्यपुराण वचनान्महागुरौ प्रेतीभूते वृद्धिकर्म न युज्यते इति वचनाच महागुरुप्रतीभावमा वृद्धिकर्मानधिकारात् निरवकाशवृद्धार्थ मेवापकर्षो युक्तः । न च नैमित्तिकानोत्यादि दक्षवचनात् प्रतिप्रसव इति वाच्यम्। तस्य कालाशः प्रतिप्रसवरूपत्वात्। न च महागुरुप्रतीभावस्य कालाशुद्धित्वम् । "प्रमौतौ पितरौ यस्य देहन्तस्याशुचिर्भवेत्। नापि दैवं नवा. पैना यावत् पूर्णो न वत्सरः”। इति तल्लिखितदेवीपुराणवचनेन देहाशुद्धाभिधानात्। अतएव बलिवैखदेवाग्न्याधानारम्भे प्रतिप्रसवमाह छन्दोगपरिशिष्टम् । वलिकर्म प्रक्रम्य "एतद्ग्रहपतो प्रेते कुर्य्यादेकादशेऽहनि। प्रागैवैकादशात् श्राद्धात् सद्योजागरणादिकम्"। एतहलिकर्म तयुगनहवाहित्वात् वैश्वदेवस्यापि ग्रहणम्। एकादशाहात् एकाद. शाहक्रियमाणात्। जागरणादिकम् पग्न्याधानाङ्गम्। वस्तुसस्तु कालाशौचन्तु तदेव यत् सर्वान् पुरुषान् प्रति समानम् । यथा मलमासादि अन्यथा दशाहाशौचस्यापि कालाशौचत्वे तत्रापि नैमित्तिकानौतिवचनात् पुंसवनादि स्यात्। यदप्यभिहितं न तत् पूर्वमित्यनेन केवल वैश्वदेवाग्न्याधानसहित For Private And Personal Use Only Page #867 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मसमासतत्त्वम् । ८५३ वैखदेवो महागुरुनिपाते हिवाई विमा करणीयौ। तथा गर्भाधानाद्यन्नप्राशनान्ताः कर्त्तव्या इति तदपि न समोचौ. मम्। यथा यावचन हि वाचनिकम् इति न्यायात्तत्र तथास्तु। अत्र तु तथाविधवचनाभावात् कथं वृद्धिशाई विना पनप्राशनान्तकर्म सिविः । अतएव निर्णयामृते अन्नप्राशनाद्यर्थः सपिण्डीकरणापकर्ष इत्यभिहितम्। एतेन यदप्युक्तं गर्भाधानादिनिमित्तेनाप्यपकर्षे महाविप्लवापत्तेरिति तदपि पिन्त्यम् । यतो यव गर्भाधाने वृद्धिशाहमपि तत्र सुतरामपकर्षव्यवहारः। यत्र तु छन्दोगानां नास्ति वृद्धिश्राई तत्रापि वृदिशाहाभावे नैव न व्यवयिते इति किन्तु तत्राप्यपकर्षों युज्यते। गर्भाधानस्य विरूपत्वादिति। ननु निष्क्रमणान्नप्राशनयोः कथं वृद्धिश्राद्धमिति चेत् निष्क्रमणस्य गोभिलेनोक्तत्वात्। सर्वाण्येवान्वाहार्यवन्तीत्यनेन तत्र वृद्धिश्राइसिद्धेः। अन्नप्राशने च शौनकः। अथ पुण्योति षष्ठे तु मासेऽनप्राशनं भवेत् । कृत्वाभ्युदयिकं श्राई दधिमध्वाज्यसंयुतम् ॥ मत्यपुराणे । "अनप्राश च सौमन्ते पुत्रोत्पत्तिनिमित्तके। पुंसवने निषेके च नववेश्मप्रवेशने ॥ देववृक्षजलादीनां प्रतिष्ठायां विशेषतः। तीर्थ यात्रा वृषोत्सर्गे वृद्धिबाई प्रकल्पयेत् ॥ राजमार्तण्डे कत्यचिन्तामणौ च । “सुतोत्यत्तौ तथा श्राइमनप्राशनिके तथा। चड़ाकार्ये व्रते चैव नाम्नि पुंसवने तथा ॥ पाणिग्रहे प्रतिष्ठायां प्रवेशे नववेश्मनः । एतद्दतिकरं नाम ग्राहस्थस्य विधीयते ॥ एतेन “नाम कर्माणि बालानां चूडाकर्मादिके तथा"। इति विष्णुपुराणवचने चड़ाकर्मादिक इत्यादिपदात् उपनयनपरिग्रहः । तेन चूड़ाकरणात् प्राक् निष्क्रमणान्नप्राशनयोराभ्युदयिकं न कार्यम्। नामकरणे तु विशेषोपदेशादेव कर्तव्यता। न ७२ For Private And Personal Use Only Page #868 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८५४ मलमासतत्त्वम् । चादिपदस्य प्रकारार्थत्वात् निष्क्रमणादावपि कर्तव्यता नामकर्मणः पृथगुपादानवैयापत्तेः। इति वाचस्पतिमित्रोक्त निरस्तम् एवं “पनामौ न तिष्ठेत्तु क्षणमात्रमपि हिजः । अथ “पाश्रमेण विना तिष्ठन् प्रायश्चित्तौयते त्वसौ। जपे होम तथा दाने स्वाध्याये वा रत: सदा। नासो फलमवाप्रोति कुर्वाणोऽप्याश्रमाच्युतः ॥ इति दक्षवचनादपि प्रात्मविवा. हार्थमपकर्षों युक्तः। कन्याया अलाभ एव यथा कश्चित् स्थितिकता पैठौनसिना । यथा “अलामे चैव कन्यायाः सातकव्रतमाचरेत्"। भविष्थे। "चत्वारिंशहाराणां साष्टानाञ्च परे यदि। स्त्रिया वियुज्यते कचित् स तु रण्डाश्रमी मतः ॥ अष्टचत्वारिंशदब्दं वयो यावन पूर्यते। पुत्रभार्या वियुक्तस्य नास्ति यज्ञेऽधिकारिता" ॥ अथ सन्यासनिषेधविचारः। तत्राश्रमामाह पराशरभाष्ये ब्रह्मपुराणम्। “चत्वार पाश्रमाश्चैव ब्राहगास्य प्रकीर्तिताः । गाईख्य ब्रह्मचर्यच्च वानप्रस्थं त्रयो मताः ॥ क्षत्रियस्थापि कथिता आश्रमास्त्रय एव हि। ब्रह्मचर्यञ्च गार्हस्थ्यमात्रमं हितयं विशः। गार्हस्थ्यमुचितन्त्वे के शूट्रस्य क्षणमाचरेत्" । क्षणमुत्सवरूपम्। यत्तु “प्रव्रज्यावसिता यत्र वयोवर्णा हिजातयः । निर्वासं कारयेहि दासत्वं क्षत्रवैश्ययोः ॥ इति कात्यायनेनोक्तं तद्युगभेदादविरुधम् । प्रव्रज्यावसिताः प्रव्रज्यायुताः। प्रतएव "अश्वमेधं गवालम्भं सन्यासं पलपैटकम् । देवरेण सुतीत्पत्तिं कलौ पञ्च विवर्जयेत् ॥ इति कलौ सन्यासनिषेधकं क्षत्रियवैश्यविषयमिति । एवञ्च “आत्मन्यग्नौन् समाधाय ब्राह्मणः प्रव्रजेत् ग्रहात्" इति मनुवचनस्य "ब्राह्मणः क्षत्रियो वाथ वैश्योऽपि प्रव्रजेट ग्टहात्"। इति विश्वरूपलिखितस्य च युगभेदादविरोधे सम्भवति शूलपाणेर्याज्ञवल्कर For Private And Personal Use Only Page #869 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मसमारतत्वम् । ८५५ टोकायां शेषवचनानाकराभिधानं हेयम् । तत्कतप्रायश्चित्तविवेकतपूर्वोक्त कात्यायनवचनविरोध: स्यात् । मिताक्षरा. यान्तु। ब्राणाः प्रव्रजन्तौति श्रुतेः अग्रजन्मन एवाधिकारो न द्विजातिमात्रस्य। अन्ये तु त्रैवर्णिकानां प्रकृतत्वात् । त्रयाणां वर्णनां वेदानधीत्य चत्वार प्राश्रमा इति सूत्रकारवचनात् हिजातिमावस्यावृत्तिरिति लिखितम् । प्रथापुत्रस्य मृताहे न पावणम्। प्रचेताः। "प्रेतमासस्य यः पक्षस्तत्तिथौ प्रतिवमरम्। यावत् स्मरति पौत्रोऽपि एकमुद्दिश्य दापयेत् ॥ प्रेतमासस्य मृतमासस्य एकमुद्दिश्येति श्रवणात् अमावास्यामृतस्यापि पौत्रादिना पार्वणं न कर्त्तव्यम् । तथा चापस्तम्बः। “अपुत्रा ये मृताः केचित् स्त्रियो वा पुरुपाच ये। तेषामपि च देयं स्यात् एकोद्दिष्ट न पार्वणम् ॥ अतएव जावालेन प्रत्याब्दिकम् औरसक्षेत्रजाम्यामेव पावणं कर्तव्यमेव। यथा “ौरसक्षेत्रजौ पुत्रौ विधिना पार्वणेन च । प्रत्यब्दमितरे कुर्युरेकोद्दिष्टं सुता दश" ॥ प्रथाधिमासे मृतस्याधिमासे प्रत्याब्दिकं कर्त्तव्यम् । “मलिम्लचेऽपि संप्राप्ते ब्राह्मणो म्रियते यदि। ऊनाभिधेयो मासोऽसौ कथं कुर्यात्तदाब्दिकम् ॥ यस्मिनाशिगते भानो विपत्तिः स्यात् दिजन्मनः । तस्मिवेव प्रकुर्वीत पिण्डदानोदकक्रिया:" इति व्यासवचनामलमासमतस्य सौरेणेव प्रत्याब्दिकं सदा कर्तव्यमिति समयप्रकाशकत् । तत्र पूर्वोक्तयुक्त्या तुलादिषट्के यदि मलमासस्तदा मृतस्याब्दान्तरे कदाचिन्मृताहाप्राप्तौ शाहलीपापत्तेश्च । किन्तु व्यासवचनं तन्मासस्य पुनर्मलमासत्वे तत्रैव शाह नोत्तर इति विधायकम्। “मलमासमृतानान्तु श्राई यत् प्रतिवत्सरम्। मलमासेऽपि कर्त्तव्यं नान्येषान्तु कदाचन । इति कालमाधवौयतपैठौनसि For Private And Personal Use Only Page #870 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८५६ मलमासतत्त्वम् । वचनकमूलत्वात्। एवञ्च “जातकर्मणि यत् श्राद्धं नवाई तथैव च । प्रतिसंवत्सरं बाई मलमासेऽपि तत् स्मृतम्। प्रतिसंवत्सरं श्राद्धमशौचात् पतितञ्च यत् । मलमासेऽपि तत्कायमिति भागुरिभाषितम् ॥ इति वाचस्पतिमितिमेतहिषयं बोध्यम्। अनाभिधेयमिति ऊनमभिधेयं यस्य तत्तथा इति । तहिनामकत्ववद्याख्येयम् । “विरुई गुरुवाक्यस्य यदत्र भाषितं मया। तत् दन्तव्यं बुधैरेव स्मृतितत्त्व वुभुत्मया" . इति वन्यघटौयौहरिहरभट्टाचार्यात्मजोरघुनन्दन भट्टाचार्यविरचिते स्मृतितत्त्वे मलमासतत्व सम्पूर्णम् । For Private And Personal Use Only Page #871 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संस्कारतत्त्वम् । प्रणम्य सच्चिदानन्द भुक्तिमुक्तिप्रदायकम्। संस्कारतत्त्वं तत्प्रौत्यै वक्ति श्रीरघुनन्दनः । अथ संस्काराः । तत्र हारौतः । "गर्भाधानवदुपेतो ब्रह्मगर्म सन्दधाति पुंसवनात् पुंसौकरोति फलस्थापनात् मातापिटजं पापमानमपोहति रेतो रक्तगर्भोपघातः पञ्चगुणो जातकर्मणा प्रथममपोहति नामकरणेन हितीयं प्राशनेन तौयं चड़ाकरणेन चतुथें नापनेन पञ्चमम् एतेरष्टाभिः संस्कारैर्ग पघातात् पूतो भवतीति । गर्भाधानवत् गर्भाधानविधिना विष्णुर्योनिं कल्पयत्वित्यादिना। उपेत स्त्रियमुपगतः । ब्रह्मगर्भ संदधातौति ब्रह्म वेदः तद्ग्रहणयोग्य गर्भ सन्दधाति संजनयति पुंसौकरोति अव्यक्तलिङ्ग गर्भ पुमांस पुत्र विन्दखेति मन्त्रलिङ्गात्। फलस्थापनात् फलस्थापना कसौमन्तोनयनात् । मातापिट मातापिटदारा जात गर्भस्थस्याश्रयसंस्कारहारतेऽपत्यसंस्काराः । उपघात: पापसंहः पञ्चगुणः पञ्चप्रकारः। उपपातकः। जातिभ्रंशकरसङ्करीकरणापाव-करण मलिनीकरणरूपपापपञ्चकसंक्रान्त इति । खानञ्चात्र समावर्तनरूपमिति कल्पतरुः। अत्र दृष्टान्तमाहाङ्गिराः। “चित्र कर्म यथानेकैरङ्गरुन्मील्यते शनैः । ब्राह्मयमपि तहत् स्यात् संस्कारैर्विधिपूर्वकैः” । संस्काराणां नित्यवात् प्रतिनिधिमप्याह स्मृतिः । “अष्टौ संस्कारकर्माणि गर्भाधानमिव खयम्। पिता कुर्यात्तदन्यो वा तदभावेऽपि तत्क्रमात्”। अथ अग्निस्थापनम्। अनाग्निसाध्यसंस्कार छन्दोगानां For Private And Personal Use Only Page #872 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८५८ संस्कारतत्त्वम् । तविधिमाह गोभिलः। “पनुगुप्ता थप पाहत्य प्रागुदक् प्रवनं देशं समं वा परिसमूध उपसिष्य मध्यतः प्राचीं रेखामुनिख्य उदीचीच संहतां पश्चात् मध्ये प्राचौस्तिस उमिख्याभ्युक्षयेत् लक्षणादेषा सर्वत्रेति । अनुगुप्ता पाच्छादिताः। पतितादिभिरदृष्टा इति यावत्। प्राङ्नौचादिफलमाह यासंग्रह गोभिलपुत्रः। “प्राङ्नौच ब्रह्मवर्चस्यमुदङ्नौचं यशोत्तमम् । पित्र दक्षिणतो नौचं प्रतिष्ठालम्भकं समम्"। यशोत्तममित्यत्र सान्ता अग्यदन्ता इत्युक्तरदन्तोऽपि यशशब्दः गया. शिर इतिवत्। परिसमूद्य सर्वतः कुशः पांखादिकमपसार्य उत्तरस्यान्दिशि साईहस्तोपरि क्षिपेत्। परिसमूद्य वितस्तिबये उत्तरत उत्कर करोतीति हरिशर्मवचनात्। तत उपलेपन तत्र कारणमाह ह्यासंग्रहः। “इन्द्रेण वचाभिहतः पुरा वृत्तो महासुरः। मेदसा तस्य संक्तिबा तदर्थमुपलेपयेत् इति मध्यतः स्थण्डिलाभ्यन्तरे दक्षिणांशेन तु मध्यांशे उदग्गतैकविंशत्यङ्गुलरेखानुरोधात्। अन्यथा "कुरैः संमार्जयेद्भूमि शुद्धामादौ शुचिस्ततः। हस्तमात्रां चतुरस्रां गोमयेनोपले. पयेत्” इति भारहाजीयहस्तप्रमाणस्थण्डिले तदनुपपत्तेः । प्राची प्राम्गताम् उदीचौञ्च संहतां पश्चादिति। प्राग्गताया: पश्चिमे भागे संलग्नामुदगग्रां मध्ये उदग्गतायाः प्राची प्रागग्रास्तिसो रेखा उल्लिख्याभ्युक्षयेदिति। रेखाभ्य उस्थितमृत्तिकोइरणपूर्वकमभ्युक्षयेत्। उलिख्योवृत्याभ्युक्षयेदिति कात्यायनसूत्रात्। उत्करप्रक्षेपदेशमाह एह्यासंग्रहः। *उत्कर रह्यरेखाभ्योऽरनिमात्र निधापयेत्। हारमेतत् पदार्थानां प्रागुदीचां दिशि स्मृतम्" इति। परिसमूहनादि परिषे. कान्तं कर्म लक्षणसंज्ञकम्। तस्य लक्षणस्यात् प्रक्रिया सर्वत्र यत्र यत्राग्निप्रणयनं तत्र तत्र वोध्या । रेखाप्रमाण For Private And Personal Use Only Page #873 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संस्कारतत्त्वम् । ८५५ माह छन्दोगपरिशिष्टे कात्यायनः। “दक्षिणे प्राग्गतायास्तु प्रमाणं द्वादशाङ्गुलम्। तमललम्नायोदौचौ तस्या एवं नवो. तरम्। उदम्गतायाः संलग्नाः शेषाः प्रादेशमात्रिकाः। सप्त सप्ताङ्गुलांस्यका कुशेनैव समुलिखेत् । नरोत्तर नवाधिक हादशाङ्गुलमेकविंशत्यङ्गुलमित्यर्थः। शेषा उतारेखयोरवशिटास्तिस्रः कुशेनेति सर्वत्राभिसम्बध्यते। एवकारेण शाखा. न्तरोतस्फाव्यावृत्तिः । रेखाणां देवताव चाह स्मृतिः । "प्राम्गता पार्थिवी ज्ञेया धाग्नेयौ चाप्युदग्गता। प्राजापत्या तथा चन्द्रौ सौमौ च प्राक्कताः स्मृताः। पार्थिवौ पीतवर्णा स्यादाग्नेयो लोहिता भवेत्। प्राजापत्या भवेत् कृष्णा नौला चैन्द्री प्रकीर्तिता। खेतवर्णेन सौमौ स्यात् रेखाणां वर्णलचणम्"। अग्निस्थापनपर्यन्त सव्यहस्तप्रादेशस्य विधानमाह रह्यासंग्रहः। “सव्यं भूमौ प्रतिष्ठाप्य प्रोल्लिखेद्दक्षिणेन तु। तावनोत्थापयेत् पाणिं यावदग्नि निधापयेत्"। मानकर्ता रमाह छन्दोगपरिशिष्टे कात्यायनः। “मानक्रियायामुन्नायामनुक्ते मानकर्त्तरि। मानकद यजमानः स्याहिदुषामेष निश्चयः”। अङ्गुष्ठाङ्गलिमानमाह स एव। “अङ्गुष्ठाङ्गुलिमानन्तु यत्र यत्रोपदिश्यते। तत्र तत्र वृहत् पर्वग्रन्थिनिर्मिनुयात् सदा। यजमानासन्निधौ होमे तु साधारणालिमानं यथा कपिलपञ्चरात्रम्। “अष्टभिस्तैर्भवेत् ज्येष्ठ मध्यमं सप्तभियंवैः। कन्यसं षड़भिरुद्दिष्टमङ्गल मुनिसत्तमः" । तैः प्रक्रम्यमानयवैः। कन्यसं कनिष्ठम्। मानन्तु पाईन । . "षड्यवाः पाखसम्मिताः” इति कात्यायनवचनात्। अग्निस्थापनमन्त्रमाह गोभिलः। ओम् भूर्भुव: स्वरित्यभिमुखमग्निं प्रणयन्तौति। पग्निमभिमुखं होवभिमुखम्। प्रणयन्ति रेखोपरि स्थापयन्ति। प्राञ्चं नीत्वातत्यंस्थापयन्तीति For Private And Personal Use Only Page #874 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८६० संस्कारतत्त्वम् । हरिशधृतवचनात् । तत्प्रकारमा गृह्यासंग्रहे । "शुभं पावन्तु कांस्यं स्यात् तेनाग्नि' प्रणयेदुधः । तस्याभावे शरावेण नवेनाभिमुखच्च तम् । सर्वतः पाणिपादान्तः सर्वतोऽक्षिशिरो मुखः । विश्वरूपो महानग्निः प्रणीतः सर्वकर्मसु ” । एवच्चाग्नि प्रणयनानन्तर सर्वत इत्यस्य पाठो युज्यते प्रपौत इति मन्त्रलिङ्गात् अन्यथा स्थापनानन्तरमेतदभिधान व्ययं स्वात् । ताम्रपात्रमप्याह देवीपुराणम् । "ताम्म्रपाचे शरावे वा श्रानयित्वा हुताशनम् । अग्निप्रणयनं कुय्यात् यजमानसुखावहम्” इति । अविरपि । “ पात्रान्तरेण पिहिते ताम्रपात्रादिके शुभे । श्रग्निप्रणयन कुय्यात् शरावे ताहशेऽपि वा ॥ यत्तु “ शरावे भिन्नपात्रे वा कपाले वोल्मुके - ऽपि वा । नाग्निप्रणयनं कुय्यात् व्याधिहानिभयावहम् ॥ इति स्मृतिसागरष्टृतवचनं तत् मुख्यकांस्यादिमये समावे निषेधकमिति राघवभट्टः । छन्दोगपरिशिष्टम् । “जातस्य लक्षणं कृत्वा तं प्रणौय समिध्य च । श्रधाय समिधचैव ब्राह्मणमुपवेशयेत्” ॥ जातस्यारण्याद्युत्पत्राग्नेः इति साग्निकपरं प्रागुक्तरेखादि । तमग्नि क्रव्यादमग्नि प्रहि णोमि दूरं यमराज्य गच्छतुरिप्रवाह इति मन्त्रेण तस्याग्न े : क्रव्यादांश मन्त्रलिङ्गात् दक्षिणस्यां दिशि चिम्रा प्रपौय उक्तप्रकारेण स्थापयित्वा यद्यग्निस्थापनानन्तरं कर्मकाले वृथ्यादि शङ्कया संस्कृताग्निरन्यवानौयते तदा पुनर्भूसंस्कारः कर्त्तव्यः 1 समूह उपलिप्य उल्लिख्य उद्धृत्याभ्यु क्षयेत् एष संस्कारोऽनुगतोऽग्नौ भूय इति गृह्यान्तरात् । समिध्य ज्वालयित्वा समिधं तत्र तूष्णीं दत्त्वा वच्यमाणक्रमेण ब्राह्मणमुपवेशयेत् । समिलक्षणं तत्रैव । " नाङ्गुष्ठादधिका न्यूना समित्स्थूलतया कचित्। न निर्मुक्तत्वचा चैव नः स । For Private And Personal Use Only Page #875 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संस्कारतत्त्वम् । ८६१ कौटो न पाटिता ॥ प्रादेशाबाधिकानोना न तथा स्याहि. शाखिका। न सपत्रा न निर्वोया होमेषु च विजानता" ॥ विशाखिका विविधशाखायुक्ता। एवं समित्प्रक्षेपपूर्वकं स्वयं होता वा कता कतावेक्षणादिकमकरणाय ब्राह्मणमुपवेशयेत् । तदुक्तं गृह्यासंग्रहे। “छते च व्यवहारे च प्रव्रते यज्ञकम्मणि । यानि पश्य न्त्युदासौनाः कर्ता तानि न पश्यति॥ एक: कमनियुक्तः स्यात् द्वितीयस्त त्रधारकः। तौयं प्रश्नकं ब्रूयात्ततः कर्म समाचरेत् ॥ प्रव्रते प्रकष्टबते। एतद्वचनहेतोय ते पूर्ववचने. नोटासौना इति विशेष उक्तः । कमनियुक्त आचार्य: सच ब्रह्मान के होमकर्मणि ब्रह्मा। स्वयं होमाकरणे होतापि स्वयं प्रधानकर्माकरणे प्रतिनिधिरपि। तन्त्रधारकः पुस्तकधारकः। प्रवक्ता सदस्यः । अथ वरणविधिः । तेषामाचायादौनां होमसाध्ये कर्मणि होमारम्भात् पूर्वमानत्यर्थं यजमानेन स्वयं वरणं कार्यम् । "दानवाचनान्वारम्भणवरणव्रतप्रमाणेषु यजमानं प्रतीयात्" इति हरिशर्मतकात्यायनसूत्रात् तत्र ब्रह्मवरणं प्रथमतः । ज्योतिष्टोमे ब्रह्मोहारहोत्रध्वयित्यादिक्रमदर्शनेनान्यताकाझ्या दृष्ट कल्पनाया न्याय्यत्वात् सुगतिसोपानप्रभृतयोऽप्येवम् । धरणन्तु गन्धादिदानहारा प्रौतिमुत्पाद्य कर्मणाय प्रेरणम् । तब च "सर्वत्र प्रान,खो दाता ग्रहोता च उदछु खः" इति वचनात् यजमानस्य प्रान खत्वम् प्राचार्यादौनामुदधखत्वं प्रतीयते वरणविधिमाह कात्यायन: । प्रासनमाहा-ह साधु. भवानास्तामर्चयिष्यामो भवन्तम्” इति। आसनमाहाानीय संस्थाप्याह साधुभवानास्तामिति। साध्वर मास इति प्रतिवचनम् पर्चयिष्यामो भवन्तमिति पुनरुक्तोऽर्चयेति प्रतिवचनं सामर्थ्यादिति हरिशर्मा। For Private And Personal Use Only Page #876 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८६२ संस्कारतत्त्वम्। अथ ब्रह्मस्थापनम्। तच होटकर्तकमेव। अग्निमुपसमाधाय दक्षिणतो ब्रह्मासनमास्तौर्य इति कात्यायनेनैक करेंकलाभिधानात्। ब्रह्मोपवेशन प्रकारमाह गोभिलः । “अग्रे. गाग्नि परिक्रम्य दक्षिणतोऽग्न: प्रागग्रान् कुशानास्तौर्य तेषां पुरस्तात् प्रत्यन खस्तिष्ठन् सव्यस्य पाणेरङ्गाष्ठेनोपनिठया चाङ्गल्या ब्रह्मासनात्तसमभिसंग्रह्य दक्षिणापरमष्टमदेशं निरस्यति। निरस्तः परावसुः” इति। अप उपस्पश्याथ ब्रह्मासनमुपविशति पावसोः सदने सौदामौति अग्न्यभिमुखी वाग्यतः प्राञ्जलिरास्ते आकर्मणः पर्यवसानात् “भाषेत यजसंसिद्धि नायजियां वाच वदेत् यद्ययजियां वाचं वदेत्तदा वैष्णवीसच यजुर्वा जपेत अपि वा नमो विष्णवे इत्येवं ब्रयात् यावा उभयं चिकौर्षे डोत्र ब्रह्मत्वञ्चवैतेन कल्पेन छत्रमुत्तरासङ्ग सोदक कण्डलं दर्भवटुं वा ब्रह्मासने निधाय तेनैव प्रत्या त्यान्यथा चेष्टेदिति”। अस्यार्थः। अग्रेण पूर्वदिशा प्रद. क्षिणेनाग्नि गत्वा अग्नेर्दक्षिणस्यां दिशि प्रागग्रान् दर्भानास्तो-न्यच्चेष्टेदिति वक्ष्यमाणेन सम्बन्धः । न तु निरस्यतोत्यनेन । अत्र ब्रह्मेतिकर्तनिर्देशात् न च ब्रह्मेत्यासनेन सम्बन्धः उपवेशनात् पूर्व तत्सम्बन्धाभावात् अती दर्भास्तरणान्तं याज. मानिकम्। तत्र ब्रह्मासनस्थाने प्रास्तरणात् पूर्व वारिधारामाइ रह्यासंग्रहः । “उदग्धारामविच्छिवामग्निमारभ्य दक्षिणम्। दद्यात् ब्रह्मासनस्थाने सर्वकर्मसु नित्यशः” ॥ पत्र तु धारासहितमुदकपात्र रहौत्वा अग्नरुत्तरत: प्रभृतिदक्षणदेशं गत्वाऽनिमात्रान्तरिते देशे पूर्वाभिमुखं वारिधारादानमिति विशेषो भवदेवभट्टोक्त: ब्रह्मा तु तेषां पुरस्तात प्रास्तृतकुशानां पूर्वदिग्भागे तिष्ठन् अनुपविष्टः सव्यस्य वामस्य उपकनिष्ठया अनामिकया पासनात् यजमानास्तृतात् ढणं For Private And Personal Use Only Page #877 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संस्कारतत्त्वम् । ८६३ कुशप रहोत्वा दक्षिणापरं दक्षिणपश्चिमदेशम् अन्वष्टमम् उभयदिगष्टमभागं नैऋतमिति यावत् निरस्तः परावरित्यनेन प्रक्षिपतौति अप उपस्पृश्य दक्षिणपाणिना जलं स्पृष्ट्वा प्रथानन्तरमासने ब्रह्मासनलेन कल्पिते उपविशति पावसोः सदने सौदामौति मन्त्रेण एवमेव भट्टनारायण व्याख्यानात् तेषां पुरस्तादित्यादि श्रावसोः सदने सौदेत्यन्त यजमानकर्तकं सौदामोति प्रतिवचनं ब्रह्मकर्तृकमिति भवदेवभट्टकल्पनं कल्पनमेव सौदेति सूत्रानुपात्ताच्च। भाषेत यासंसिद्धिम् इति होवान्यथा क्रियमाणे कर्मणि तमिद्यर्थम् एतदेवं कुरु एतत् कृत्वा एतत् कुरु इत्यादि भाषेत प्राप्ययजियाम् प्रसंस्कृतां वदेद्यदि तदा वैष्णवी ऋक् इदं विष्णुरिति यजुर्विष्णोविराडमसौत्यादि नमो विष्णवे इति प्रकारत्रितयान्यतमप्रकारं प्रायश्चित्तमिति। यावेत्यशक्ती उत्तरासङ्गमुत्तरीयं दर्भवटुः कुशमयब्राह्मणः । स चापरिमितकुशदलैर्भवतीति भट्टभाष्यात् एकपत्रौ तान् कुशानित्यपि भवदेवमट्टलिखनाच्च। दलैव्यं वतियते तत्रापरिमितसंख्यात्वमाह छन्दोगपरिशिष्टम्। “यज्ञवास्तुनि मुध्याच स्तम्ब दर्मवटी तथा। दर्भसंख्या न विहिता विष्टरास्तरणेप्वपि" इति। एतच्छन्दोगपरम्। अन्येषां शान्तिदीपिका. याम्। “सप्तभिनवभिर्वापि साईहितयवेष्टितम्। भोकारेशैव मन्वेण हिजः कुर्यात् कुहिजम्" ॥ कर्मोपदेशिन्यान्तु नवभिरित्यत्र पञ्चभिरिति पाठः। एतदेकवाक्यतया “हिंगसत्याथ मध्ये वै अत्यान्तदेशतः। ग्रन्थिः प्रदक्षिणावर्तः स ब्रह्मग्रन्थिसंज्ञकम्” इति कालिकापुराणोक्तव्याख्येयम् । रखाकरे एह्यासंग्रहपरिशिष्टम्। "ऊईकेशो भवेद ब्रह्मा लम्ब. केशस्तु विष्टरः। दक्षिणावर्तको ब्रह्मा वामावर्तस्तु विष्टरः । एतेनैवेत्येवकारः स्वयं कर्तृकपक्षे आवमोः सदने सौदा For Private And Personal Use Only Page #878 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८६४ संस्कार तत्त्वम् । मौत्यस्य मन्त्रस्य ऊह प्रतिषेधोऽर्थः । स्वयञ्च दुभयं कुय्यादिति छन्दोग परिशिष्टात् । कृताकृतावेक्षणवत् स्वयं तत्कुशोपवेशनस्य कर्त्तव्यत्वात् कुशमयब्राह्मणादिप्रतिनिधिना तदुपपत्तेः तेनैव पूर्ववर्त्म नेति भट्टभाष्यम् । अथेति विशिष्टमानन्तर्यं द्योतयति तच्च द्रव्यानुपयोग क्रमेणाग्नेरुत्तरतः उदगग्रान् पूर्वक्रमेणासाद्य वोच्य प्रोक्ष्य चेति । अथानन्तरमन्यद्दक्ष्यमाणं कर्म चेष्टेत् कुर्य्यात् यजमानः । परस्मैपदं छन्दोवत्सूत्राणि भवन्तोत्य॒क्तोः । अथ द्रव्यासादनम् । तत्र कात्यायनः । " प्राञ्चमुदगग्नेकदगग्र समौपतः । तत्तथासादयेद्द्रव्यं यद्यथा विनियुज्यतं " ॥ इति भट्टभाष्ये धृतच्च । " द्रव्याणामुपक्लप्तानां होमीयानां यथाक्रमम् । मादयन् वौक्षणं कुर्य्यादद्भिरभ्य॒क्षणं तथा" ॥ छन्दागपरिशिष्टम् । " श्रान्यस्थालौ च कर्त्तव्या तेजसद्रवसम्भवा । माहेयौ वापि कर्त्तव्या नित्यं सर्वाम्मिक सु” ॥ अथ यदि प्रकृतकर्माणि चरुहोमस्तदा अस्मिन्नेव समये चरु प्पयेत् । गोभिलेन ब्रह्मस्थापनानन्तरं तद्दिधानात् । अथ चरु विधानम् । तत्र गोभिलः । " अथोदूखलमुषले प्रचात्य सूर्पञ्च पश्चादग्नेः प्रागग्रान् कुशानास्तौर्य्य उपसादयति अथ हविर्निवहेदिति । व्रीहौन् यवान् वा कांस्येन चरुस्वास्या वा अमुष्मैवायुष्टं निर्वपामीति देवतानामोद्देशः सक्कद्यजुषा विस्तृष्णोम् अथ पञ्चादवहन्तुमुपक्रमते दक्षिणोतराभ्यां पाणिभ्यां त्रिः फलोकतां स्तण्डुलांस्त्रिर्देवताभ्यः प्रचालयेत् हिर्मनुषेभ्यः सकृत् पितृभ्य इति पवित्रान्तर्हितांस्तण्डलानावपेत् कुशलशृतमिव स्थालीपाकं स्थापयेत् प्रदक्षिणमुदायुवन् शृतमभिवार्य्यं उदगुहास्य प्रत्यभिघारयेदिति ॥ अस्यार्थः उपसादयति स्थापयति देवतानामोद्देशं देवतानामो " For Private And Personal Use Only Page #879 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संस्कारतत्त्वम् । ८६५ शारणं यथा स्यात्तथा अमुष्मैत्वायुष्ट निर्वपामौत्यनेन उदूखलोपरि व्रौद्यादौन कांस्यादिना सक्तनिवपत्। अत्रामुष्मा इत्यत्र चतुर्यन्त नामोच्चारणम्। अतएव कात्यायन: । पसाविति नाम गृह्णाति। नारायणीयेऽपि “प्रदःपद हि यद्रूपं यत्र मन्वे हि दृश्यते। साध्याभिधानं तद्रूपं तत्र स्थाने नियोजयेत्। अतोऽदःपद एव नामोहो न तु विरूपाक्षजपादा. विमित्यादौ। एवञ्चाग्नये त्वायुष्टं निर्वपामौति सामगानाम्। यजुः प्रयोगो गोभिले निर्वापमानश्रुतेः यजुर्वेदिकसमन्त्र कग्रहणप्रोक्षणे सामगेन न कायें। यजुः परिभाषामाह जैमिनिः। "शेष यजुःशब्दः इति शेषे मन्त्रभिन्ने मन्त्रजाते। ततश्च यन्मन्त्रजातं प्रश्लिष्टपठितं गानपादभेदरहितं तद यजुरिति बहुदैवत्ये च बहुदेवतानामभि: प्रत्येक निर्वापः । अवनिर्वापो मन्त्रेणैव होमोऽपि पृथक् निर्वापपरिमाणन्तु होममंख्या शेषस्थित्यनुसारेणेत्याह छन्दोगपरिशिष्टम्। “देवतासंख्यया धनिर्वापांच पृथक् पृथक् । तूष्णों हिरेव ग्रहोयाहोमचापि पृथक् पृथक् । यावता होमनित्तिर्मवेडा यत्र कौर्तिता। शेषञ्चैव भवेत् किञ्चित्तावन्त निर्वपञ्चरुम। यद्यपि देवतासंख्ययेति वचनं चरुः समसनौयो य इत्युपक्रम्य पठितं तथाप्याकाहाया लाघवेन चरुसामान्यपरमिति। चरुविधौ तु विद्याकरवाजपेयौ। यत्र प्रयोजनामावनिश्चयस्तत्रैव तदुपादानादि लोपः। यत्रानुष्ठानवेलायामेव पुरुषदोषण प्रयोजनाभावो जायते तदा प्राक् तनिश्चयात् शास्त्रप्रापितः पदार्थो नियमापूर्वमानार्थमनुष्ठेय इति। अतएव यदा त्वालस्थादिना ब्रोधादिस्थाने तण्डुला एहोताः तदापि अवघातादि समाचरन्ति याचिका: पठन्ति च। “घाते न्यने तथा छिन्ने साबाय्ये मान्त्रिके तथा। यन्न मन्त्राः प्रयोलव्या मन्वा यज्ञार्थ ७३ For Private And Personal Use Only Page #880 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संस्कारतखम् । साधका:"। मान्त्रिके मन्बसाध्ये प्रवधातादी। न्यूने तत्काले मन्धपाठाभावेऽपि यज्ञकाले मन्त्राः पाव्याः। अस्मिंस्तु मन्त्रार्थज्ञानस्य नास्त्युपयोगः । इत्यमेवेदानी प्रयोगानुष्ठानमाह चरस्थालौयपरिमाणमाह छन्दोगपरिशिष्टम् । “तियंगूईसमिन्माना दृढ़ा नातिन्मुखी। मृण्मय्यौडम्बरी वापिचरुस्थालो प्रशस्यते । मप्रस्तार दौर्धाभ्यां प्रादेशप्रमाणा चरस्थालौ घोडु बरौतानमयो एषा पायसचरावपिन मिषिहा पयानुइतसारच सानपात्रे न दुथति" इति स्मृतिसागरकृतवचनाञ्च । अतएव सारदातिल के। "ततश्च संस्कृते वह्नौ गोचौरेण चरु पचेत् । मन्त्रेण क्षालिते पात्रे नवे तात्रमयादिके। दक्षिणोत्तराभ्यामिति दक्षिण उत्सरत उपरि ययोः पाण्योस्ताभ्यां मुषलं यहोवा इति शेषः । त्रिःफलोकतान् विधा वितुषोकतान् कण्डलप्रच्छटमाभ्यामिति शेषः । पवित्रान्तहितान् पवित्रम् अन्तर्हितं व्यवहित येषां तान्। तेन चरुस्थाल्यामुत्तरा पवित्र निःक्षिप्य तण्डलान् निक्षिपेत्। कुशल तमिवेति कुशलेन पाकनिपुणेन शृतं यथा न दग्ध नातिल नं न मन्दपक्कं तथा स्थालोपाकं यथा स्यात्तथा अपयेत् । अतएक छन्दोगपरिशिष्टम्। “खशाखोतचरः खिन्नो ह्यदग्धोऽकठिनः शुभः । न चातिशिथिल: पाको न च वौतरसो भवेत् । वौतरसो गालितमण्डः। प्रदक्षिणमुदायुवनिति प्रदक्षिणावत्तं यथा स्यात्तथा मेक्षणेन ऊई मौषन्मिययन्। युमिश्रणे इत्यस्य रूपमेतत्। शृतमित्यभिघाति स्फुटितम्। चरमाज्यश्रवणालाव्य उदगग्नेरुत्तरस्याम् उत्तार्य प्रत्यभिधारयेत् पुनई तेन तथा सेचयेत्। वृषोत्सर्गे तु अभिधारणहयात् पूर्व ज्वलदङ्गारेण विद्योतनयमाह छन्दोगपरिशिष्टम्। अधिशृतमवद्योत्य सुशृतञ्चाभिधारयेत्। एतेन सेचयेत् पश्चात् For Private And Personal Use Only Page #881 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संस्कारतत्त्वम् । ८६७ पुनरेवाभिघारयेत्” । मेक्षणादौनाह छन्दोगपरिशिष्टम् । “जातीय मियाप्रमाणं मेक्षणं भवेत् । वृत्तं वार्त्तञ्च पृथ्वग्रमवदानक्रियाक्षमम्” । इमाई प्रमाणं प्रादेशइयमिधमस्य प्रमाणं परिकल्पितमिति । तदई एषैव दव विशेषस्तु महासुवे । " दवदाङ्गलपृथ्वया तुरौयेण तु मेक्षणम् । मुषलोदूखले वा स्वायते सुदृढ़े तथा । इच्छाप्रमाणे भवतः सूर्प वैष्णवमेव च । भन तिर्य्यगू त्यादि वैणवमेव चेत्यन्तेन सर्वङ्गअभिधाय भूमिजप परिसमूहन हस्तविन्यासं कुर्य्यादित्युक्तम् । अथ भूमिजपादिविधानं तदाह चतुर्थे प्रथम का ण्डिकायां गोभिलः । “ पचादग्नेर्भूमौ न्यश्च पाणी प्रतिस्थाप्य” इति । भूमेर्भजामह इति वस्वन्तं रात्रौ धनमिति दिवेति इदमिति मन्त्रं वखन्तं विन्दते वसु इति रात्रौ दिवा क्रियमाणे कर्मणि धनमित्यन्तं जपेत् । विन्दते धनमिति । अत्र विन्यासे विशेषमा छन्दोगपरिशिष्टं "दक्षिणं वामतो वाद्यमात्माभिमुखमेव च । करं करेण कुर्वीत करणे न्यच्च कर्मणः । कृत्वाग्न्यभिमुखौ हस्तौ स्वस्थानस्थौ सुसंहतौ । प्रदक्षियं तथासोनः कुय्यात् परिसमूहनम् ” । करेणेति षष्ठायें तृतौया । दक्षिणस्तमधोमुखं तथाविधवामहस्तस्य पृष्ठोपरि भावे न विपर्यस्तमात्माभिमुखं भूमिनपे कुर्य्यादित्यर्थः । अग्न्यभिमुखौ नात्माभिमुखो स्वस्थानस्थौ न तु भूमिजपवद्दास्त सुसंतौ विस्तृत लग्नौ तथा चाग्नः परिसमूहनं विचिप्तावयवानाम् एकीकरणरूपं सुकरं स्यात् । एवमेव भट्टनारायणोपाध्यायौ | एतेन च दक्षिणहस्तेन कुशान् गृहौत्वेति भवदेव भट्ट लिखनं निष्प्रमाणम् । इमं स्तोममईते इति तृप्रचेन परिसमूहेदिति सूत्रस्य भाषेयम् एतदनुसारादेव ब्रह्मस्थापनानन्तरं भूमिनपपरिसमूहनादिति भवदेवभट्टवीरेश्वरोक्त युक्तम् । भट्टभाष्ये For Private And Personal Use Only Page #882 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८६८ संस्कारतत्त्वम् । तु भूमिजपं वाचेन परिसमूहनं कुर्यात् पवादब्रह्मोपवेशनमिति। सरलापरिशिष्ट प्रकाशयोस्तु भूमिजपानन्तरं चरुत्रपणमिनाम् । - प्रथास्तरणम्। “अग्निमुपसमाधाय कुणैः समस्त परिस्तृणुयात् पुरस्ताद्दक्षिणत: उत्तरत: पश्चादिति सर्वतस्वितं पञ्चावृतं वा बहुलमयुग्ममसंहतं प्रागप्रेमूलान्य च्छादयन्" इति अस्याधः उपसमाधाय ज्वालयित्वा समस्त सर्वतः पुरस्तादित्यनेन क्रमेस सर्वतः सर्वासु दिक्षु विकृतं पश्चात वा बहुलं बहुलवणकम् प्रयुग्मं युग्मभिवम् पसंतमसंलग्नं पृथक पृथक् त्रिहतं पञ्चावृतं वेत्यनेन अयुग्मे सिद्धे अयुग्ममित्य कावृतस्याप्रात्यर्थम्। तथा च ह्यान्तरम्। “सक्वचिर्वा प्रतिदिशं प्रदक्षिणमग्नि परिस्तुणातौति” एवमेव भट्टनारायणचरणाः । तत्र सक्कदाकृतमशता विषयम्। “पूर्वास्ततावृतानां मूलानि पश्चादाताम्छादयन् परिस्तृणुयात्। एवञ्च “प्रतिदिर्थ दर्भवयेणाहतानि कृत्वा तेषां मूतानि तथैवाच्छाद्य तेषां मूलानि तथैवाच्छादयेत् ततो दशदिक्ष स्वस्तिकान् दद्यात्" इति भवदेवभट्टः । अथ विंशतिकाष्ठिकाः। गोभिलः । अथेयान् कल्पयेत् खादिरान् पालाप्सान् वेति । तत्र छन्दोगपरिशिष्टम् । "प्रादेशहर्यामध्नस्य प्रमाणं परिकीर्तितम् । एवंविधा: सुरेवेभसमिधः . सर्वकर्मसु॥ समिधीऽष्टादशेयस्य प्रवदन्ति मनीषिणः। दर्श च पौर्णमासे च क्रियास्वन्यास विंशतिः ॥ इति। विंशतिकाष्ठिकारूपसमिधामङ्ग होमादिषु निषेधस्त व "अङ्गहोमसमित्तन्त्र गोष्यन्त्याख्येषु कर्मसु। येषाञ्चैत. दुपर्युक्तं तेषु तत् सदृशेषु च ॥ प्रक्षभङ्गादिविपदिजल होमा. दिकर्मणि। होमाहुतिषु सर्वासु नैतेष्विमो विधीयते । For Private And Personal Use Only Page #883 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संस्कारतत्त्वम् । मनोमाः सौमन्तोनयनचूड़ाकरणादौ विहिताः तेषु अन्यसौमन्तोवयनादेः प्रधानत्वात् । तथा द्विविधा हीमा यानिकप्रसिहाः विग्रहोमास्तबहीमाच। तत्र क्षिप्रहोमाः विप्र इयन्त इति ध्युत्पत्त्या सायं प्रात:मादयः तन्वहोमाच परिसमूहमवहिरास्तरणाधङ्गविस्तारयुक्तः। अत्र ये समिहविस्कास्तन्वहोमा: यश्च सुखप्रसवार्थ शोष्यन्तौ होमस्तषु येषाञ्च वैश्वदेव सायं प्रात मादौनामेतदिमाख्य द्रव्यम् उपरि पश्चात् अथ इभानुकल्पयेत इत्यनेन सूत्रेणोक्त तेषु वा तत्सदृशेषु विप्रहोमेषु इन निवृत्तिर्भवेदिति । पक्षभङ्गादिविपदि विवाहोत्तरगोभिलोतयानकालोनाक्षभङ्गादिविपनिमित्तहोमो जलहोमादिकमखिति। “लौकिके वैदिके चैव हुतोच्छिष्टे नले क्षिप्तौ। वैश्वदेवश्च कर्त्तव्यः पञ्चसूनापनुत्तये" ॥ इत्याद्युक्तजलक्षिप्तादिहोमेषु सोमरसाहुतिषु । प्रधाज्यसंस्कारः। गोभिलः। "वहिःसु स्थालोपाकमासाद्य इममग्नावाधायाज्य संस्कुरुते । पास्तौर्ष कुशेषु चर्क निधाय समिधमग्नावाधाय ज्वलनार्थत्वादमन्त्र कम्" ॥ तथा च कात्यायनः। “इमोऽप्येधार्थमेवाग्न हविराहुतिषु स्मृतः । प्राज्यमार राधासंग्रहे। “अग्निना चैव मन्त्रेण पवित्रण च चक्षुषा। चतुभिरेव यत् पूतं तदाज्यमिति च स्मृतम् । वृतं वा यदि वा तैलं पयो वा दधिकावकम्। भाज्यस्थाने नियुक्तायामाज्यशब्दो विधीयते ॥ एतहचनं यज्ञपार्शीयमपि। संस्कारविधिमाह गोभिलः। “ततः एव वहिषः प्रादेशमात्र कुरुते पोषधिमन्तर्धायाच्छिनत्ति न नखेन पविवेस्थौ वैष्णव्यो” इति। तत प्रास्तृतात् प्रादेशमात्र विस्तततर्जन्यङ्गटप्रमाणे। द्विवचनं दलापेक्षं “न त्वनन्तर्गर्भिणं सायं कौशं हिदलमेव च। मादेशमात्र विज्ञेयं पवित्र यत्र कुत्र For Private And Personal Use Only Page #884 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८७ संस्कारतखम् । चित् ॥ इति कात्यायनोतदिनपवित्र हित्वं तथाले प्रादेशमा प्रति व्यर्थं स्यात् पतएव कात्यायनोसोनेवाज्यस्योत्पवनार्थं यत्तदप्येलावदेव तुन एकवेन निर्दिष्टम् । अनन्तर्गर्भिणम् अन्तगर्भस्थाभावोऽनन्तर्गर्भ नट्युत्तम पन्तर्गर्भशून्यमित्यर्थः । “अनन्तस्तरणौ यौ तु कुणी प्रादेशसम्मितौ । चनखच्छेदिनी सानो सौ पवित्राभिधायको" ॥ इति शौनकवचनकवाकात्वात्। 'प्रत दलेऽपि कुमपदप्रयोगः । श्रीवधिमन्तर्धाय बौछादिमान्तरा छत्वा । गोमिक्षः। अथैने अहिरनुमाष्टिं विष्णोर्मनमा पूर्तस्थ" इति। एने पवित्र। सव्येन मूलप्रादेशे गृहीत्वा दक्षिणेनानुमृज्यात विणोरिति मन्त्रेण। गोभिलः। "संपूयोत्पुनात्युदगग्राभ्यां पवित्रा. भ्याम् अङ्गुष्ठाभ्याञ्चोपकनिष्ठाभ्यामभिसंध प्राशस्विरुत्पुनाति देवस्य वासवितोत्पुनावच्छिद्रेण पवित्रेण वसोः सूर्यस्य रश्मिभिः स्वाहा” इति सतत् जुहुयात् हिस्तष्णौमिति । संपूयप्रकृतमाज्यं “पवित्रमन्तराकत्वा स्थास्थामाज्यं समावपेत्" इत्येवं वक्ष्यमाणविधिना संपूयेति भट्टभाष्यम्। संपूय मक्षिकाद्यपनौयेति सरला उत्पुनात्यङ्घ शोधयेत्। तत्प्रकारमाह उदगग्राभ्यामिति । अङ्गुष्ठाभ्यामित्यादी हिवचनं पाणिइयार्थम् । एवमनेन प्रकारेणाभिसंयुज्य प्रतते पवित्रे प्राक्शः प्राम्गतं विरुत्पुनाति अग्नी वारवयं तं निक्षिपति। तत्प्रकारमाह मन्त्रेण सतत् विस्तष्णीम्। गोभिलः । अथैने अद्धिरभ्युक्ष्य अग्नावप्युत्सृजेदिति”। अपिरेवार्थे अथानन्तरमेवामुञ्चन एने पवित्र सव्येन राहीत्वा दक्षिणेनाभ्युख्य । गोभिल:। "प्रथैतदाज्यधिश्रित्य उदगुहासयेदेवमाज्यसंस्कारोऽपि भवतोति"। पाज्य ततपात्रम् अधिश्रित्य अग्नपरिकत्य उदक उत्तरतः उदासयेदवतारयेत् यत्रैवाज्यसंस्कारस्तन वायं For Private And Personal Use Only Page #885 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संस्कारतत्त्वम् । ८७ काम इति पत्र गर्भपात्रसंस्कारवत् संवत् संस्कृताज्यपात्रे यानि निविष्यन्ते तेषां संस्कारान्तरो नास्तीत्या ग्यासंग्रहः। यथा सौमन्तिनौ नारौ पूर्वगर्भेण संस्हाता। एवमाज्यस्य संस्कारः संस्कारविधि चोदितः ॥ भाखलायन. परिशिष्टम् । “सौमन्तोनयनं प्रथमे गर्भ सौमन्तोनयनसंस्कारो गार्भपात्रसंस्कारः" । इति श्रुतिरिति। गर्भपानयोरयं गाभपानः गर्भपात्रस्य तदाधारस्य स्त्रिया इति कल्पतरः । हालैतः । “सक संस्कृता नारौ सौमन्तेन कुलस्त्रियः। यं यं गर्भ प्रसूयन्ते स गर्मः संस्कृती भवेत् इति । गोभिलः । “पूर्व मान्धमपरस्थालौपाकः । इति । अत्र पूर्वापरदेशे स्थित्याज्यस्थालौपाकयोस्तथा व्यपदेशः तेन तौ पूर्वापरयोः स्थाप्यो तर प्रथमतोऽम्नेसत्तरस्यामासादनं ततः कर्मकाले सौक-याग्नेः पयात् । तथा च ग्राह्यान्तरम्। "होत्रन्योरन्तरा आज्यहविषौ पासादयेदिति । अथ सुवादिलक्षणम् । छन्दोगपरिशिष्टम्। “होमपावमनादेशे होमद्रव्यो खुवः स्मृतः । तथा “खादिरो वाथ पालाशो हिवितस्तिः सुवः स्मृतः । मुग्वाहुमात्रा वि या वृत्तस्तु प्रग्रहस्तयोः ॥ खदिरकाष्ठमिर्मितः पलाशकाष्ठनिर्मितो वा प्रधतेऽस्मिबिति प्रग्रहो दण्डः । स च वत्तुलः । "सुवाग्रे घ्राणवत् खातं हाङ्गुष्ठपरिमण्डलम्। जुद्धास्थानं शराववत्खातं सनिर्वाहं षडङ्गुलम्। सुवाग्रे नासारन्धवत् मध्यस्थितमर्यादम् अङ्गुष्ठयमितवालम् । जुबास्तु खातं शरावाकारं निःशेषबहुलसाधनतया निर्वाहपदवाच्यप्रणालोसहितं षडङ्गुलं जानौयात्। तेषां प्रायः कुशः कार्यः संप्रमार्गो जुहूषता। प्रतापनञ्च लिप्तानां प्रक्षाल्योणेन वारिणा ॥ सुवस चोर्कातिभेदाबहुवचनम्। पूर्वाभिमुखं . For Private And Personal Use Only Page #886 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८७२ संस्कारतत्त्वम् । मार्जनं कुशैः काव्यम् । घृतादिलेपवताम्तूष्णेन वारिया प्रचालन पूर्वकमग्नौ प्रतापनं काय्र्यम् । लेपरहितानान्तु प्रतापनं दर्भे सम्मार्जनमभ्युचयम् । पुनः प्रतापनमुत्तरतो निधानञ्च कुर्य्यात् तथा च कात्यायनः । " स्रुवं प्रतथ्य दर्भेः संमृज्याभ्युच्य पुनः प्रतप्य निदध्यात्” इति भाव्यादिसंस्कारं वारत्रयं कुय्यादिति भवदेवभट्टः । हरिणाप्येतत् प्रकरणे सक्कचिर्वेति वचनादित्युक्तम् । होमकाले पञ्चाङ्गुलांख्यका शङ्खमुद्रया धाय्य: स्रव: “पञ्चाङ्गलान् वहिस्थका धारयेच्छ मुद्रया” इति वचनात् । पाण्याहुतौ तु गोभिलः । “उत्तानेनैव हस्तेन चङ्गष्ठाग्रेण पीड़ितम्। संहताङ्गुलिपाणिस्तु वाग्यतो जुहुयाद्दविः” ॥ तत्र परिमाणे कात्यायनः । " पाण्याहुतिर्द्वादश पर्व पूरिका कंशादिना चेत् स्रुवमात्रपूरिका । देवेन तीर्थेन च हयते हविः स्संगारिणि स्वर्श्विषि तथ पावके ॥ अशक्तौ तु स्मृतिः । " श्रार्द्रामलकमानेन कुय्या होमहव लोन् । प्राणाइतिवलिश्चैव मृदं गात्रविशोधिनौम्” ॥ का त्यायनः । “यो नर्चिषि जुहोत्यग्नौ व्यङ्गारिणि च मानवः । मन्दाग्निरामयावौ च दरिद्रश्च स जायते ॥ तस्मात् समि होतव्यं नासमि कदाचन | आरोग्यमिच्छतामायुः श्रियमात्यन्तिकीं तथा ॥ जुहूषंश्च हृतौ चैव पाणिसूर्पस्फादारुभिः । न कुय्यादग्निधमनं न कुय्याहाजनादिना ॥ मुखेनैव धमेदग्निं मुखादेषोऽध्यजायते” ॥ नाग्निं मुखेनेति च यत् लौकिके योजयन्ति तत् । हि यस्मात् मुखात् मुखपठितमन्त्रात् एष संस्कृतोऽग्निः । ततच लौकिक इति तदितराग्निपरम् एतेन लौकिक इति श्रौताग्निभिन्नपरमिति मैथिलोक्तं हेयम् । जुहषंश्च हते चैवेत्यनेनोपक्रमवचनेन संस्क्रियमाण संस्कृताग्न्योरेव पाणिसूर्पादिनिषेधसुखेन मुखधमनस्य विहितत्वात् तदु For Private And Personal Use Only Page #887 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संस्कारतत्त्वम् । ८७३ व्यतिरिक्तस्यैव लौकिकशब्देनाभिधारणविधेरौचित्यात् आहि. तत्वस्यानुपस्थितश्च एवमेव गुरुचरणाः। यत्तु अग्निस्तु नामधेयादो होम सर्वत्र लौकिके इति छन्दोगपरिशिष्टवचने नामकरणाद्यर्थमनेलौकिकत्वमुक्त तन्त्र। खेऽम्नावन्यहोमः स्यादिति तस्यैव वचनान्तरेण साग्नेः पितुः स्त्रीयाग्नौ तत्करणनिषेधात् लौकिकाग्न्यन्तरमादाय तत्कर्तव्यताविधायकं न तु तदग्नेः संस्कारान्तरमपि लौकिकत्वप्रतिपादकमिति गोभिलः। "अम्निमुपसमाधाय परिसमूह्य दक्षिणजान्वतो दक्षिणेनाग्निं अदितेऽनुमन्यस्वेति उदकानलिं सिञ्चेत् अनुमते अनुमन्यस्खेति पश्चात् सरस्वत्यनुमन्यखेति उत्तरतः देवसवित: प्रसुवेति प्रदक्षिणमग्निं पर्युक्षेत् सचिर्वा पर्युक्षणान्तान् व्यतिहरबतिपर्युक्षणहोमीयमिति अग्निमुपसमाधाय काष्ठादिना प्रज्वाल्य परिसमूध विक्षिप्तावयवान् एकीकृत्य दक्षिणजान्वतो भूमिगतदक्षिणजानुः दक्षिणेनाग्निम् अग्नेर्दक्षिणे अदितेऽनुमन्यखेति मन्वेगा उदकाञ्जलिं प्राग्गतं सिवेत् अनुमत इत्यादिना । अग्नेः पश्चादुदगन्तं सिवेत् सरस्वत्यनुमन्यस्खेति आदिनाऽग्नेउत्तरतः प्राग्गतं सिञ्चेत्। टेवमवित: प्रसुवय जमित्यादिना प्रदक्षिणोऽग्नियथा स्यात्तथा उदकाञ्जलिना सिञ्चत वेष्टयेत् विति फलभूमाथ तत्र मन्त्रस्त्रिधोचार्यः मुख्याहत्तौ गुणावृत्तेर्युक्तत्वात पर्युक्षणान्तानिति बहुवचनं नित्वपक्षे दण्डवटुटकधारादिष्वादिरप्यन्तो भवतीति प्रतियुवन् अन्तइयं मियोकुर्वन् होमौयं होतव्यं पर्युक्षन् तज्जलेन स्पर्शयन्” इति । वेष्टनप्रकार उक्तः । अथ विरूपाक्षजपः। चतुर्थप्रपाठकीयप्रथमकाण्डिकायां गोभिलः । “वैरूराक्षः पुरस्ताद्धोमानामिति"। विरूपाक्षशब्दो विद्यतेऽत्र इति वैरूपाक्षः ओम्भूर्भुवः स्वरोमित्यादिको For Private And Personal Use Only Page #888 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संस्कारतखम् । मन्त्रः । होमानां वक्ष्यमाणप्रागुतानित्यनैमित्तिकानां पुरस्तात् जप्यः। अस्य क्षिप्रहोमे पर्युदासमाह छन्दोगपरिशिष्टम् । “न कुर्यात् क्षिप्रहोमेषु हिजः परिसमूहनम् । विरूपाक्षञ्च न जपेत् प्रपदच्च विवर्जयेत" ॥ क्षिप्रहोमेषु अब्रह्मकेषु सायं प्रात: शोष्यन्तौ होमादिषु ब्राह्मण इमं स्तोममईते इत्यादि मन्त्र करणकपरिसमूहनं न कुर्यात्। विरूपाक्षप्रददौ च त्यजेत् । प्रपदविधानमण्या गोभिलः । "काम्येषु च प्रपदः तपश्च तेजशेत्यादिकः। च एवार्थे तब विरूपाचजपात् पूर्व तत् पाठमाह स एव । तपश्च तेजश्चेत्यादि जपित्वा प्राणानायम्य तन्मना वैरूपाक्षमावृत्तो सेत् । तपश्च तेजश्चेत्यादि पित्वा वायुधारणपूर्वकं यं कञ्चिदर्थं साधयितुकामस्तन्मनास्तद्यायन् विरूपाक्षमन्त्र जमा वायुं रेचयेत्। प्रथ यदि काम्य कर्मार्थ कुण्डि का तदा प्रपदजपानन्तरम् इति भवदेवभट्टः । नित्यनैमित्तिकयो स्य पाठः। ततः सर्वकर्म. साधारणं विरूपाक्षजपान्तं कर्म । अथ प्रकृतं कर्म । तत्र वहेर्नामानि रह्यासंग्रह। “लौकिके पावको ह्यग्निः प्रथम: परिकल्पितः। अग्निस्तु मारतो नाम गर्भाधाने विधायते ॥ पुंसवने चन्द्रमाश्च शुङ्गाकर्मणि शोभन:। सोमन्ते मङ्गलो नाम प्रगल्लो जातकर्मणि ॥ नाम्नि स्यात् पाथिवो ह्यग्निः प्राशने च शुचिस्तथा। सत्यनामा च चड़ायां व्रतादेश समुद्भवः। गोदाने सूर्यनामा च केशान्ते ह्यग्निरचते ॥ वैश्वानरो विसर्गे तु विवाहे योजकः स्मृतः । गोदाने गोदानाख्यसंस्कार । “चतुर्थ्यान्तु शिखौ नाम तिरग्निस्तथा. परे”। अपर तिहोमादौ। “प्रायश्चित्ते विधुश्चैव पाकयन्त्रे तु साहसः । लक्षहोमे तु वह्निः स्यात् कोटिहोमे हुताशनः । पूर्णाहुत्यां मृड़ो नाम शान्तिके वरदस्तथा। पौष्टिके बलदश्चैव For Private And Personal Use Only Page #889 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संस्कारतत्वम् । ८७५ जोधोऽग्निवाभिचारके कोठे तु जठरो नाम क्रव्यादो मृतभक्षणे। पाइय चैव होतव्य यो यत्र विहितोऽनलः । प्रायश्चित्ते प्रायचित्तात्मकमहाव्यातिहोमादी। पाकयचे पाकाङ्गकहोमे वृषोत्सर्गग्रहप्रतिष्ठाहोमादौ। पौष्टिके दुर्गों सवाङ्गाहोमादौ ततधामुककर्मणि अग्ने त्वममुकमामासि इति नाम सत्वा पिनभश्मश्रुकेशाक्षः पौनाङ्गजठरोऽरुणः । छागस्थः साक्षसूत्रोगिः सप्ताचिः शक्तिधारकः”। इत्यादित्यपुराणोय ध्यानं छत्वा प्रमुकाम्ने डागच्छेत्यावाचामुकाम्नये नम इति पूजयेत्। “संपूजयेत्ततो वह्नि दद्यावाहुतीः क्रमात" इति मार्कसडेयपुराणात। चकहोमे विशेषमा गोभिलः । “पर्यस्वस्थालोपाके प्राज्यमानौयमेक्षणेनोपघातं होतुमेवोपक्रमते" इति अदितेऽनुमन्यस्वेत्येवं पर्युक्ष्य । स्थालीपाके चगै। प्राज्य प्रक्षिप्य मेक्षणेनोपघातम् उपहत्यावदाय। होतुमेवोपक्रमते पारभते। उपघातमिति हिंमार्थाच्चै ककर्मकादित्यनेन टतो. यन्तोपपदेन न मासिङ्गम् एवकारकरणमुपधात होमे अभिघारणक्षताद्यङ्गप्रतिषेधार्थम् । होतुमेवोपक्रमते नान्यतः । उपधातहोमलक्षणमाह एह्यासंग्रहे। "पाणिना मेक्षणेनाथ सुवेणैव तु यहविः । इयते चानुपस्तीर्य उपघात: स उच्यते। यापधात जुहुयाच्चरावाज्य समापयेत्। मेक्षणेन तु होतव्यं नाज्यभागौ नस्विष्टिवत्"। बहुदैवत्यचरुहोमे तु उपघात. होम एव । “चरी तु बहुदैवत्ये होमस्तस्योपघातवत्" इति परिशिष्ट प्रकाशवचनात् तत: प्रकृतहोमात् परापरयोस्त णों समित्प्रक्षेपमाह छन्दोगपरिशिष्टम्। “समिधादिषु होमेषु मन्लदैवतवर्जिता। पुरस्ताञ्चोपरिष्टाच इन्धनार्थं समिद्भवेत् । स्मृतिः। “मन्ने गोङ्कारपूतन स्वाहान्तेन विचक्षणः। स्वाहाबसाने जुहुयायायन् वै मन्त्रदेवताम्"। स्वाहान्तमन्त्र For Private And Personal Use Only Page #890 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८७६ संस्कारतत्त्वम् । खाहान्सर मास्तौति सरला। भट्टभाष्ये मन्त्र तन्त्रप्रकाश च। “नमोऽन्तेन नमो दद्यात् स्वाहान्ते विठमेव च। पूजा. यामाहुतौ चापि सर्वत्रायं विधिः स्मृतः"। हिठः स्वाहा इत्यागमविदः । गोभिलः। “भाज्याहुतिष्वाज्यमेव संस्कत्योपधात जुहुयात्राज्यभागौ न खिष्टिक्कत्। प्राज्याहुतिष्वनादेशे पुरस्तायोपरिष्टाच महाव्यावृतिहोमः यथा पाणिग्रहणे तथा चड़ाकर्मण्यपयने गोदाने" इति पाज्यमेव यथोलोन विधिमा संस्वात्य उपधातं मवेणोपहत्य जुहुयात् पाज्यमावकहोमेषु प्राज्यभागस्विष्टिकतामतिदेशप्राप्तानां निषेधः एवमाज्यमात्रक होमेषु तिहोमादिषु अनादेशे यत्र पुंसवन शुङ्गा. कर्म सौमन्तोनयनचड़ाकरणादिष पश्चादग्ने उदगग्रेषु दर्भवित्यादिनाऽग्निग्रहणं प्राप्तं विशिष्ट होमो नोपदिष्टः तत्र प्रधानकर्मणोऽशाभिमर्षणादेः पुरस्ताञ्चोपरिष्टाच महाव्याह. तिभिः भूर्भुवः स्वरिति तिमभि:मः कार्यः यथा पाणिग्रहण इति यथा पाणिग्रहणे महाव्यावृतिः पृथक् समस्ताभिश्चतुर्थी. मिति गोभिल सूवेण यथा पाणिग्रहणे चतस्रस्तथा चड़ादिष संस्काररूपेषु पूर्व पश्चाच्चतम्रयतस्रः महाव्याहृत्याहुतयः स्थरिति । चरुहामानन्तरन्तु गोभिलेन महाब्यातिभिराज्येन जहुयादिति सूत्राचोकहोमे पश्चान्महाव्याहृतिहोमः कर्तव्यो न तु पूर्वमिति। गोभिल: । “यावा उपस्तौर्णाभिधारितं जुहु. पेदाज्यभागावेव प्रथमं जुहुयात्। चतुम्हौतमाज्यं गृहीत्वा पञ्चावतन्तु भृगूणामम्नये स्वाहा इत्युत्तरत: सोमायेति दक्षिशत: प्राक्शी जुहुयादिति स वेण म चियदाज्यं प्रथमं गृह्यते तटुपस्तौणं यहविर्य हौत्वा अनन्तरमाज्य दौयते तदभिधारितं यदि तथाविधं होतुमिच्छेत्तदाज्यभागावेव प्रथमं जुहुयात्। मुचा होमस्तु अनेन ग्रहोतं जुह्वा जुहोतौति ग्रयान्तरात् For Private And Personal Use Only Page #891 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८ संस्कार तत्त्वम् । सुषेण स चि चतुर्द्धा गृहौतमाच्यम् । भृगूणां भृगुगोत्राणामिति सरला । पश्चार्षेयाणामिति गृह्यान्तरात् भावप्रवरायामिति भट्टभाष्यम् । भृगुगोवाणां भार्गव प्रवराणामिति भवदेवभट्टः । तेषां पञ्चवारं तथा गृहीत्वा अग्नये स्वाहेत्यनेनाग्न मध्यदेशादुत्तरे प्राम खधारया जुहुयात् उत्तरमागेयं दक्षिणे सौम्यं मध्येऽन्याहुतयः" इति सांख्यायन स्वात् तथैव दक्षिणभागे । सोमाय स्वाहेति जुहुयात् । ततः प्रक्कतदेवता चरुहोमानन्तरं स्विष्टिकहोममाह गोभिलः । " अथ विष्टिकृत उपस्तौर्थ्यारभ्योत्तरपूर्वार्द्धात् सकृदेव भूयिष्ठं हिरभिघारयेत् यद्यवापञ्चावत्र्ती स्यात् द्विरुपस्तौर्थ्यावदाय हिरवधारयेत् न प्रत्यनक्त्यवदानस्थानं यातयामताये अग्नये विष्टिकृते स्वाहेत्युत्तरपूर्वा जुहुयात् महाव्याहृतिभिराज्येनाभिजुहुयात् । प्राक् स्विष्टिकृत आवापोगणेष्वेकं परिसमूहनम् इमो वहि: पर्य्यचणमाज्यभागो सर्वेभ्यः समवदाय सक्कदेव सौदृष्टिकतं जुहोति हुत्वेतम्ले क्षणमनुहरेदिति । खिष्टिकदर्थं स्रचितस्रवं दत्त्वा चरोरुत्तरपूर्वार्थादोशानकोणरूपा प्रेक्षऐन बहुतरमेकवारं गृहीत्वा स चि स्थापयित्वा वारद्दयं घृतेन मेचयेत् पञ्चावदानपचे ष्टतत्र वद्दयेनोपस्तरणं सकृदविर्निक्षेपः पुन तेनाभिसेचनद्वयमिति । पत्र मेक्षणक्षतस्थानं घृतेन नावयेत् पुनर्यागार्थमेव तत् ततश्च यागायोग्यतारूपयातयामसायामपि न दोष इत्यर्थः । ततोऽग्नये स्विष्टिकृते स्वाहेत्यनेन ईशानकोणे जुहुयात्। ततो भूर्भुवः स्वरिति तिसृभिर्महाव्याहृतिभिद्दमः । अस्य चरुहोमे पश्चादुद्देशान्न प्राक्करण - मिति । श्रा उप्यत इत्यावापः प्रधान होमः स तु खिष्टिकोमात् प्राक् न तु पचदित्यर्थः । एवञ्च मुख्यहोमे त्वक्कते यदि चरुर्नष्टो दुष्टो वा तदाऽन्यः पाच्यः मुख्ये कृते यदि नाशदुष्टौ . ७४ For Private And Personal Use Only Page #892 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८७८ संस्कारतखम्। स्थातां तदाज्येनैव खिष्टिकोम प्रति सरता। गणेषु एकदानेकयागेषु एकमेव न प्रत्येक परिसमूहमादि उपलक्षणत्वादुदूखलमुषलाद्यपि एवं खिष्टिकहीमोऽपि सदुपलक्षणमेतत् महाव्याहत्यापोति सरला। अनुहरेत् पग्दो क्षिपेत् एवमुक्तप्रकारेण यथायथं समापयेत् । अयोदीच्यम्। अत्र गोभिलः । “समिधमाधायानुपर्म्युल्य तथैवोदकालीन् सिञ्चेत् पत्रमंस्था" इति मन्चे विशेषः। . प्रथ प्रायश्चित्तम्। होमानन्तरं वर्मगुखसमाधानार्थ प्रायश्चित्तं गोभिलानुक्तामपि तत्परिशिष्टो कुर्यात् तथा “यत्र व्याहृतिभि:मः प्रायश्चित्तात्मको भवेत्। चत-वस्तव विजेयाः स्त्रीपाणिग्रहणे यथा ॥ अथवा जातमित्येषा प्रानापत्यापि वाहुतिः। होतव्या विविकल्पोऽयं प्रायश्चित्तविधि: स्वत:" ॥ यत्र प्रायश्चित्तरूपो महाव्या इतिहोमो विधीयते सबा अतस पाहुतयो होतव्याः। यथा विवाहे तथा च गोभिलः । "महाव्यातिभिः पृथक् समस्साभिवतुर्थीमिति । अस्यार्थः । भूराद्याभियंस्ताभिस्तिमृभिस्तित्र पाहुती: भूभुवः स्वः वाहेति समस्ताभिवतुर्थी जुहुयात् अपि वा। अथवा प्रज्ञातं यदनाज्ञातमिति मन्त्रणाहुति:तव्या प्रजापतये वाहेति वा प्रायश्चित्तविधिर्विकल्पवयवान् मुनिभिः स्मृतः इत्यनेन पक्षान्तरं निरस्तम्। ततव भवदेवमहोत्तप्रायश्चित्ता. मकसाव्यायनहोमो निष्प्रमाणः भट्टनारायौर्गोभिलभाथे तदप्रमाणौलतत्वात्। ततश्च प्रायश्चित्तहोमा) सङ्कल्या अग्ने त्व विधुनामासोति नाम सत्वावाध संपूज्य समिधं प्रक्षिप्य "प्राज्यद्रव्यमनादेशे जुहोतिषु विधीयते इति छन्दोगपरिशिष्टात्। प्राज्यद्रव्यक होमत्वेन पूर्वापर महाव्याहृतिहोमः । तथा च गोभिन्तः । पान्याहुतिष्वनादेशे पुरस्ताचोपरि For Private And Personal Use Only Page #893 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संस्कारतखम् । ८७ शाच महाव्याहृतिम ति"। एवञ्च तिमभिर्महाव्याहृतिभिक्षुत्वा व्यस्तसमस्ताभिः प्रायश्चित्तरूपाश्चतस्र प्राहुतौई वा तिभिर्महाव्यातिभिहत्वा समित्प्रक्षेपेण प्रायश्चित्तं समापयेत्। अथ यज्ञवास्तुकरणम्। गोभिलः। “समिधमाधायानुपर्युक्ष्य यज्ञवास्तु करोति तत एव वर्हिषः कुशमुष्टिमादायाज्ये इविषि वाविरवदध्यादग्राणि मध्यानि मूलानि अक्तं रिहानाव्यन्तु वय इति। अथैनमहिरभ्युच्याग्नावपवर्जयेत् । वः पशूनामित्यादि इत्येतद् यन्त्रवास्तु इत्याचक्षत इति" समिधादानानुपर्युक्षणयोः सिहयोः पुनर्वचनं क्रमार्थम् । यन्नवास्तु इति वक्ष्यमाणस्य कर्मणो नामधेयम्। कथं करोतोबत पाह तत इति। ततस्तस्मादेव वहिष पास्तुतकुशात् कुममुष्टिमादायाज्येऽवदध्यात् मज्जयेत् न चेदाज्यमवशिष्टं हविषि चरावादध्यात् प्रमादिप्रदेशम् प्रतामिति मन्त्रेण खानमैदान्मन्वात्तिः। पथानन्तरमेवामुखन एवं कुशमुष्टिमद्भिः प्रणीतारिभ्युत्याग्नावपवर्जयेत् दाहयेत् यः पशूना. मिति मन्त्रेण तत एव वहिष इत्यारभ्य यदुक्तं तदयन्त्रवास्त्विति हरः कथयन्ति। एतत् प्रयोजनन्तु प्रतिपत्तिकर्मवेऽपि तद्रव्यनाशे एतत् कम्माप्राप्तावपि यत्रो यस्मिन् वसतौति अत्पत्तिप्रतिपाद्यासियर्थं कुशान्तरमुष्टिमादाय तस्कर्तव्य. मिति एवमेव भट्टभाथम्। अथ पूर्णाहुतिः। तत्र पूर्णाहुत्यां मुड़ो नामेति प्रागुतावचनात् मृड़नामानर्माम्नमावा संपूज्य दद्यादुस्थाय पूर्ण वै नोपविश्य कदाचनेति भविष्याग्निपुराणाभ्यामुखाय पूर्णाहुतिं कुर्यात्। अथ वन्दनादिकर्म। तत्र वशिष्ठः। “ऐशान्यामाहरेनमा For Private And Personal Use Only Page #894 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८८० संस्कारतत्त्वम् । स चाग्रेण स वेण वा। वन्दनं कारयेत्तेन शिरः कण्ठांशवेषु च॥ कस्यपश्येति मन्वेष यथानुक्रमयोगतः। ततः शान्ति प्रकुर्वीत अवधारणवाचनम् ॥ दक्षिणा च प्रदातव्या ग्रहाणाम विसर्जनम्" ॥ शान्तिः सामगानां वामदेव्यगानम्। तथा च गोभिलः । “अपवृत्ते कम्मणि वामदेव्यगानं शान्त्यर्थमिति"। अपहत्ते समाप्ते। गानाशक्ती विधा पाठमाह छन्दोगपरिशिष्टम्। “पर्युक्षणच सर्वत्र कर्तव्यमदितेऽन्विति। पत्ते च वामदेव्यस्य गानमित्यथवा विधा । मानं कुर्यादृचस्तिधेति वा पाठः। पवधारणमच्छिद्रावधारणम् । “च्छिद्रामिति यहाक्यं वदन्ति क्षितिदेवताः। प्रणम्य शिरसा ग्राह्यग्निष्टोमफलैः समम् ॥ इति शातातपपराशरवचनात्। अवधारणं तच दक्षिणादानानन्तरं कर्त्तव्यं न तु पाठक्रमादरः । "वृथा विप्रवचो यस्तु राति मनुजः शुभे। पदत्त्वा दक्षिणां वापि स याति नरकं ध्रुवम् ॥ इति नारदौयात् । अतएव भवदेवमहेनापि वामदेव्यमानानन्तरं दक्षिणाभिहिता न त्व. च्छिद्रावधारणात् परम्। होमदक्षिणा च स्वयं होटपले ब्रह्मणे देया। ब्राह्मणे दक्षिणा देया यत्र या परिकीर्तिता। कन्तिानुच्यमानायां पूर्णपानादिका भवेत् ॥ इति छन्दोगपरिशिष्टात्। गोभिलेनापि दर्शादियागमभिधाय पूर्णपात्र दक्षिणा तं ब्रह्मणे दद्यादित्युताम्। वान्तत्वेऽपि पुंस्त्वं छान्दसम् एतदनुसारात् कर्मान्त इति ब्रह्मसाध्य होमान्सपर न तु परिशिष्ट प्रकाशोजनामकरणादिप्रधानकर्मान्तपरम् चतः प्रधानकम्मंदक्षिणां कर्मोपदेष्ट्रे प्राचार्याय दद्यात्। यजमाने. तरहोवपक्षे तु ब्रह्महोटभेदेन दक्षिणा विशेषानुपादाने होमदक्षिणैव ब्रह्महोटभ्यां ग्रहौतव्या। स्वयमेव होटब्रह्मकरणे भन्यस्मै दद्यात् “विदध्याहोत्रमन्यहक्षिणाईहरो भवेत् । For Private And Personal Use Only Page #895 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संस्कारतत्त्वम् । ८८१ बच्चेदुभयं कुय्यादन्यस्मै प्रतिपादयेत् ॥ इति इन्दोगपरिशिष्टात् । पूर्णपात्रलक्षणन्तु गृह्यासंग्रहयज्ञपार्श्व परिशिष्ट प्रकाशयोः । " अष्टमुष्टिर्भवेत् कुचिः कुञ्चयोऽष्टौ तु पुष्कलम् । पुष्कलानि च चत्वारि पूर्णपात्र विधोयते ॥ अत्र षट्पञ्चाशदधिकशतद्दयमुष्टिमितं पूर्णपात्रम् । असम्भवे तु छन्दोगपरिशिष्टम् । " यावता बहुभोक्तुच टप्ति: पूर्णेन जायते । नावरात्र ततः कुर्य्यात् पूर्णपात्रमिति स्थितिः” ॥ अवराध न्यूनम् । ततः प्रागुक्तनारदीयाच्छिद्रावधारणं कुष्यात् । ततः साङ्गतार्थं तद्विष्णोरिति मन्त्रेण विष्णु ं स्मरेत् " प्रमादात् कुर्वतां की प्रच्यवेताध्वरेषु यत् । स्मरणादेव तद्दिष्णोः संपूर्ण स्यादिति श्रुतिः ॥ तद्दिष्णोरिति मन्त्रेण स्नायादप्स, पुनः पुनः । गायत्री वैष्णवो ह्येषा विष्णोः संस्मरपाय वै ॥ इति याज्ञवल्कयात् । ततो “गच्छध्वममरा: सर्वे गृहीत्वाचीं स्वमालयम् । सन्तुष्टा वरमस्माकं दत्त्व दानीं सुपूजिता: " ॥ इति विष्णुधर्मोत्तरौयेण विसर्जयेत् । अत्र सामान्यनिर्देशात् वशिष्ठवचने ग्रहाणामित्युपलक्षणम् । ततः “प्रौयतां पुण्डरीकाक्षः सर्वयज्ञेश्वरो हरिः । तस्मिंस्तुष्टे जगतुष्टं प्रौणिते प्रौणितं जगत्” ॥ इति मत्स्यपुराणौयं पठेत् इति सर्वहोमसाधारणेति कर्त्तव्यता । अथ विवाहः । तत्र पूर्वं यदि वाग्दानं क्रियते यदा अद्येत्यादि अमुकगोत्रस्यारोगिणोव्यङ्गस्यापतितस्याक्लीवस्याविवाहामुक गोत्रामुकीं देवों कन्यां दातुं तवाहं प्रतिजाने इति पिता ब्रूयात् । अस्मिन् कालेऽग्निसानिध्ये खात: खाते रोगिथि “अव्यङ्गेऽपतितेऽक्कौवे पिता कन्यां प्रदास्यति” इति । पितुरसन्निधाबे वाचादिभिरेवं प्रतिज्ञा कर्त्तव्या तत्सन्निधाने तु पूर्वोक्तं वाक्यम् । पितुरभावे कर्तन्तरस्यापि For Private And Personal Use Only Page #896 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २ संस्कारतत्वम् । न्योतिषे। “गुरोमं गोरसबाल्ये वाईके सिंहगे गुरौ। त्रिजौवेऽविंशेऽङ्गि गुर्वादित्ये दशाहिके। पूर्वराशावनायातातिचारिगुरुवमरे। प्रायाशिमन्तजीवस्य चातिचारे विपक्ष । कम्पाद्यपृतसप्ताहे नौचस्थेच्थे मलिम्बुचे। भानुलसितके मासि क्षये राहुयुते गुरौ पौषादिकचतुर्मासे चरणाशितवर्षणे। एकेनाहा चैकदिने हितोयेन दिनत्रये ॥ हतीयेन तु सप्ताहे मङ्गल्यानि जिजीविषुः । विद्यारम्भकर्णवेधी चड़ोपनयमोइवान् । तीर्थस्नानमनावृत्तं तथानादिसुरेक्षणम्। परौछारामयशांक पुरचरणदौक्षणे व्रतारम्भप्रतिष्ठे च ग्टहारम्भप्रवेशने । प्रतिष्ठारमणे देवकूपादेवर्जयन्ति च ॥ आखलायनः। *उदगयने बापू. र्यमाणे पक्षे कल्याणे नक्षत्रे चड़ोपनयनगोदानविवाहाः”। विवाहः सार्वकालिक इत्ये के। आपूर्वमाणे पक्षे मुलपचे। दशवर्षाम्वन्तर एवोदगयनाद्यपेक्षामाह भुजबलभौमः। “प्रहशहिमब्दशहिं मासायन दिवसानाम् । पर्वाक् दशवर्षेभ्यो सुनयः कथयन्ति कन्यकानाम् । एतत् परन्तु विज्ञेयमगिरो वचनं यथा। कालात्यये च कन्यायाः कालदोषो न विद्यते । मलमासादिकालानां विवाशये प्रयत्नतः। पुंसः प्रति सदा दोषात् सर्वदैव हि वज्यंता। रेवत्युत्तररोहिणीमृगशिरामूलानुराधामघाहस्तस्त्रातिषु तौलिषष्ठमिथुनेषूद्यम पाणिग्रहः। सप्ताष्टान्त्यवतिः शुमैगडुपतावेकादहिविगे कर स्त्यायषडष्टगैर्न तु भृगौ षष्ठे कुजे चाष्टमे" , पारस्करः । “कुमार्याः पाणिं गृहौयात् त्रिषु विषत्तरादिषु"। स्वाती मगशिरसि रोहिस्यां वेति । त्रिषु त्रिषत्तरादिषु नवखित्यर्थः । ৫নবন্ধিস্বযঘনিয়মমিনীষি লল। “ मघाचतुर्भाग नै तस्याद्य एव वा। रेवत्यन्ते चतुर्भागे विवाहः प्राणनाशकः” ॥ सप्तशलाकवेधमाह दौपिका । For Private And Personal Use Only Page #897 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संस्कारतत्वम् । ८८३ त्तिकादिचतुःसप्तरेखाराशौ। परिचमन बहाश्वेदेवरेखास्थो वैधः सप्तशाकमः। वैस्यस्य चतुर्थे अंश श्रवणादौ लिप्तिकाचतुष्टये च पभिजित् सत्स्ये खचरे विजेया रोहिणीविश्वा" । पभिजिति खचरेऽधिकदोषार्थमाह रोहिणोति मैतहर्शनायुतिवेधो निषिद्धः। “चन्द्रातिरिक्ताखचरैयद्यत्र वेधसम्भवः । चिताभूमि तदा नारी भर्वा सह विशेद्ध्वम्” इति माण्डव्यविरोधात्। दौपिकायां "कर्णवेधे विवाहे च व्रते पुंसवने तथा। प्राशने चायचूड़ायां विश्वमक्षं विवर्जयेत् ॥ तद्रूपं दशयोगमनमाह। “तिथ्यङ्गवेदैकदशोनविंशभैकादशाष्टादविंशसंख्याः । टोडुना सूर्य्ययुतोडुना च योगादमूचेद्दशयोगभङ्गः" । राजमार्तण्डः। “दम्पत्यो हिनवाष्टराशिरहिते दारानुकूले रवी चन्द्रे चाककुजाकिंशुक्रवियुते मध्येऽथ वा पापयोः। त्यक्षा च व्यतिपातवैधतिदिनं विष्टिञ्च रितां तिथिं क्रुराहायनचैवघोषरास्ते लग्नाशंके मानुषे। पापात् सप्तमगः शशौ यदि भवेत् पापेन युक्तोऽथ वा। यबेनापि विवर्जयेमुनिमते दोषी घयं कथ्यते। यात्रायां विपदो रहे सुतबधः क्षौरे घ रोगोद्भवो वैधव्यं विवहे व्रते च मरणं शूलञ्च पुंस्कर्मणि" ॥ अयं यामितवेधः । अस्यापवादमाह। “मूलत्रिकोणनिजमन्दिरगोऽथ तदौक्षिती वा। यामित्रवेधविहितानपहाय दोषान् दोषाकरः सुखमनेकविधं विधत्ते” । व्यासः । “रितासु विधवा कन्या दर्शऽपि स्याद्विवाहिता। शनवरदिने चैव यदि रिक्तातिथिर्भवेत्। तस्मिन् विवाहिता कन्या पतिसन्तानवहिनौ ॥ स्वरोदये। "विनाडौवेधनक्षत्रमशिन्या युगोत्तरा-इस्तेन्द्र-मूलवारुण्यः पूर्वभाद्रपदास्तथा याम्यसौम्यौ गुरुयोनिचित्रामित्रजलायम् । धनिष्ठा चोत्तरा भाद्रा मध्यनाड़ो व्यवस्थिता। कृत्तिका रोहिणी सर्पो मघा For Private And Personal Use Only Page #898 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८८४ संस्कारतत्त्वम् । स्वातीविशाखके उत्तरा श्रवणा पौष्ण पृष्ठनाड़ी व्यवस्थिता । प्राङ्नाच्या विध्यते भर्त्ता मध्यनायोभयं तथा । पृष्ठनाड़ोव्यधे कन्या म्रियते नात्र संशयः । प्रनष्टं जन्मभं यस्य तस्य नामर्श्वतो वदेत् । द्दयोर्जन्मभयोर्वेधे न कर्त्तव्यं कदाचन । एकराश्यादियोगे तु नाड़ौदोषो न विद्यते ॥ तद्यथा । "एकराशी च दम्पत्योः शुभं स्यात् समसप्तके । चतुर्थे दशमे चैव बतौयैकादशे तथा" || अन्यज्ज्योतिस्तत्त्वेऽनुसन्धेयम् । अत्र च । "पितृभ्यः पिता दद्यात् सुतसंस्कारकर्मसु । पिण्डानोइहनात्तेषां तदभावेऽपि तत्क्रमात् " ॥ इति छन्दोगपरिशिष्टात् । "कन्यापुत्र विवाहेषु प्रवेशे नववेश्मनः । नामकर्मणि वालानां चूड़ाकर्मादिके तथा । सौमन्तोन्नयने चैव पुत्रादिमुखदर्शने । नान्दोमुखं पितृगणं पूजयेत् प्रयतो गृहौ” इति विष्णुपुराणाच्च । कन्यापुत्रविवाहे पिता नान्दीमुखं कुर्य्यात् पितुदेशान्तरस्थत्वादित्ये अन्धेनापि प्रतिनिधिना नान्दोमुख श्राह कत्तंव्यम् । तदभावे पितुर्नाशे पातित्यादिना श्रादानधिकारित्वे वा तत्क्रमात् तस्य संस्कार्य्यस्य क्रमात् तेन स्वयं तदन्यो वा तत्पितृभ्यस्तन्मातामहेभ्यश्च श्राद्धं कुर्य्यात् । एतत् प्रपञ्चितं श्राद्यतत्त्वोद्दाहतत्त्वयोः । विष्णुः । " व्रतयज्ञविवाहेषु श्रव होमेऽर्चने जपे । श्रारब्ध सूतकं न स्यादनारब्धे तु सूतकम्। आरम्भो वरणं यज्ञे सङ्कल्पो व्रतजापयोः । नान्दीश्राह विवाहादौ श्राड पाकपरिष्क्रिया" | व्रतममावास्यादि आदिपदात् सायंप्रातर्होमपरिग्रहः । " प्रवृत्तं मलमासात् प्राक् यत् की न समापितम् । आगते मलमासेऽपि तत् समाप्यं न संशयः" इति काठकग्टह्यपरिशिष्टम् । आरब्धविवाहादिकं मलमासेऽपि कार्यम् अनारब्ध न काय्र्यम् । “अधिमास के विवाहं यात्रां चूड़ां तथोपनयनादि । न कुर्य्यात्र For Private And Personal Use Only Page #899 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संस्कारतत्वम् । ८८५ सावकाशमङ्गल्यं न तु विशेषज्यामिति" भौमपराक्रमात् । पत्र विवाहादि कोर्तनं निरवकाशमपि निषेधार्थम् अन्यथा सावकाशमित्यनेनैव सियर्थात् सावकाशश्च सम्भवत् कालान्तरमतो निरवकाशस्याप्यनन्य गतिकस्य प्रतिप्रसवोऽर्थाव सूचितः । जातकर्मादौ प्रतिप्रसवमा स्मृतिः। श्राद्दे जातकनामानि ये च संस्कारमाश्रिताः। मलिम्लचेऽपि कर्त्तव्याः काम्या इष्टौविवर्जयेत्” इति संस्कारा अन्नप्राशननिष्क्रमणा. व्य इति माधवाचार्यः। यत्तु “नामानप्राशनं चौड़े विवाह मौनिबन्धनम्। निष्क्रमं जातकर्माणि काम्यं वृषविसर्जनम्। अस्तं गते गुरौ शुक्रे बाले वृद्ध मलिम्लचे। उपायनमुपारम्भ व्रतानां नैव कारयेत्” इति गार्ग्यवचनं नामकरणादौनां वजनमुक्ती तबामकरणानप्राशनजातकर्माणामेकादशहादशप्रधानकालावतानां यहागामिक्रियामुख्ये त्यादिवचनात् । अ. न्तरालकर्तव्यानां न सावकाशं मङ्गल्यमित्युक्ता विषयकाणां वेदितव्यं तदाह स एव। "नामकर्म च जातञ्च यथाकालं समाचरेत् । प्रतिपातेऽपि कुर्वीत प्रशस्त मासि पुण्यदे" : तथा गर्भाधानपुंसवनसीमन्तोन्नयनानि कार्याणि “गर्भ वाईषि कत्ये च नाधिमासं विदुर्बुधाः” इति मनुवचनात् । मल्यसूक्तो। “भूकम्पादेन दोषोऽत्र वृद्धिश्राधे कृते सति । एतदनन्तरं क्षौरं कर्तव्यम्। “प्राज्ञया नरपतेहि जन्मनां दारकर्ममृतसूतकेषु च। बन्धमोक्षमथ दौक्षणेष्वपि क्षौरमिष्टमखिलेषु चोडुषु” इति श्रीपतिरत्नमालोक्तः। तद. नन्तरं कृतोहत्तस्राने जामातरि गृहप्राङ्गनमागते तस्य गन्धपुष्पादिवरणम्। दानवाचनाबारम्भ यावरण प्रमाणेषु यजमानं प्रतीयात्" इति हरिशर्मकृतवचने वरणप्रदानपरिणयन शुचिपरिकमाभिषेक कर्माणि शुभदे तिथौ विलम्ने For Private And Personal Use Only Page #900 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८८६ संस्कारतत्त्वम्। म भवन्ति किनाल्पपुण्यानामिति दीपिकायाञ्च वरणश्रुतेः । एतदनन्तर वरकन्ययोः पुष्पमालाध सवेन साम्म ख्याचरणरूपमुखचन्द्रिकामा हरिवंशे । “प्राशौभिवईयित्वा तु टेवर्षिः कृष्णमब्रवीत्। अमिरुतस्य वौयाख्यो विवाहः क्रियतां विभी। जम्बतमालिकां द्रष्टुं श्रद्धा हि मम जायते” । तामाह हारावलौ "जम्बलमालिका कन्या वरयोमुखचन्द्रिका”। दक्षिणात्यास्तु "पासने शयने दाने भोजने घस्त्रसंग्रहे । विवादे च विवाहे च क्षुतं सप्तसु शोभनम्"। मन्य. सूक्तं “वलिकमणि यात्रायां प्रवेशे नववेश्मनः। महोत्सव मङ्गल्ये तत्र स्त्रीणां शुभध्वनिः" । स्त्रीणां ध्वनि: उलुउलुध्यनि: गोतं वा। मत्स्य पुराणम्। “मङ्गल्यानि च वाद्यानि ब्रह्म घोषञ्च गीतकम्। ऋार्थं कारयेविहानमङ्गलविनाशनम् । . पथाहणम्। तत्र दानात् पूर्वमहणमाह मनुः । “आच्छाद्य चार्चयित्वा च श्रुतशीलवते स्वयम्। पाहय दानं कन्याया ब्राझो धर्मः प्रकीर्तितः । पाच्छाद्य रतवासोभ्यां कन्यां शलवासोभ्यां वरं परिधाप्य तच्च वरणदत्तवस्त्राभ्यामेव निष्पबमिति न पुनर्दोयते। अचयित्वा कन्यामलङ्कारादिना वरच गोभिलोक्तप्रकारादिना। तथा च चतुर्थप्रपाठके दशमका. ण्डिकायां गोभिलः। उत्तरतो गां वध्वाऽवतिष्ठेत् पहणा पुववासमा इति अहंगोयदेशस्योत्तरस्यां दिशि गां स्त्रीगवीम्। पुत्रवासमेति मातारुद्राणामिति मन्त्रलिङ्गात् बध्वा उपस्थानं कुर्यात् । तस्या एव गोरन्यस्या अश्रवणात् प्रणा पुत्रवासमा इति मन्त्रणाहणीयानामुपवेशने मन्चमाह स एव । इदमहमिमां पद्यां विराजमनाद्यायाधितिष्ठामि इति प्रतिष्ठमानो जपेद यौवमईयन्तः स्युः । इदमहमिति प्रतिष्ठमान जईस्तिष्ठन् जपेत्। जामाता यत्र देशे। एवं जामानादिकं पहयन्तः For Private And Personal Use Only Page #901 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संस्कारतत्वम् । ८८७ पूजयन्तः सम्पदावादिकाः स्युः। तेन इदमहमिति मन्वं तिष्ठन् पठित्वा जामाता पासने उपविशति। पहणप्रकार• माह स एव । “विष्टरपाबााचमनीयमधुपर्कान् एकैक. शस्विस्तिनिवेदयेरविति । विष्टरस्तु साहितयवामावर्त बलिताधोमुखाग्रा असंख्यातदर्भाः। तथा च एखासंग्रहः । "ऊईकेशो भवेद् ब्रह्मा लम्बकेशस्तु विष्टरः। दक्षिणावर्तको ब्रह्मा वामावर्तस्तु विष्टरः । इति छन्दोगपरिशिष्टम् । “दर्भसंख्या न विहिता विष्टरास्तरणेष्वपि । एवं पञ्चातिभवेद ब्रमा तदर्डेन तु विष्टरः । इति यदि समूलं तदा शाख्यन्तरीयम्। एतेन विष्टरे पञ्चविंशतिसंख्या भवदेव. भहोता निरस्ता। एवं विष्ट रग्रहणं उस्ताभ्यामपि यदुक्तां नदपि निरस्तम्। “यत्रोपदिश्यते कर्म कत्तुरङ्गं न चोयते। दक्षिणस्तव विज्ञ यः कर्मणां पारगः करः" इति छन्दोगपरिशिष्टात। पाद्यं पादचालनार्थमुदकम्। तथा चामरः । "पाद्यं पादाय वारिणि। अध्यं दध्यक्षतसुमनोयुक्त जलम् । साक्षत सुमनोयुक्तमुदकं दधिमिश्चितम्। अध्यं दधिमधुभ्याच मधुपर्का विधीयते। इति भभायधृतवचनात् । पाचमनीयमाचमनार्थमुदकम्। दधिमधुमात्रेण मधुपर्काभिधानं तासम्भवपरम्। तत्सम्भवे गोभिलः। मधुपर्क दधिमधुकृतं पिहित कांस्यस्थं कांस्थेनेति। पूर्ववचने पात्रा. नुपदेशात् कांस्यपानं विनापि मधुपर्को दौयते। तान् पञ्च विष्टरादौन द्रव्यविशेषान् एकैकयः प्रत्येक विस्त्रिःप्रतिपादनकालेऽहण कर्तारो निवेदयेरन् जापयेयुः। विष्टरादौनि निवे. दनौयानि। 'बिरुवा प्रतिग्राह्यतामिति सकत सर्वत्र वाक्य. शेषं कुर्यात् । पाद्या इति अपसम्बन्धात् स्त्रीबहुवचनमिति सरला तब। वौक्षणविधौ तन्मन्वे च अप इति श्रुत्या ग्रहो For Private And Personal Use Only Page #902 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संस्कारतखम् । तथा कल्पनानुपपत्तेः। “पादार्थमुदकं पाद्यं केवलं तोयमेव तत्। तत्तैजसेन पात्रेण शङ्खनापि निवेदयेत्” इति कालि. कापुराणात् “पाद्यं पादाय वारिणि" इत्युक्तेश्च । अतएव भट्टभाष्ये पाद्य पाद्य पाद्यमित्युक्तं विवाहानन्तरमहणमुत्वा गतेष्वित्येक इति वक्ष्यमाणसूत्रेण गोभिलोऽप्यागमनमात्र एव वराहणमुक्तवान्। तत्रैक इत्यनेन बहुवादिसम्मतत्वात् तत्काले वराहणं व्यवङ्गियते तत्प्रकारमाह। या प्रोषधौरित्य. दच्चविष्टरमास्तौयाप्युपविशति या औषधौरित्व नया ऋचा। उदञ्च मुदगग्रं विष्टरमास्तौर्य उपविशति। पादयोरन्यमधप्रास्तौर्य उपरिवादौ तृष्णों कुर्यादिति सरला। भट्टभाष्ये । तत: पादोपवेशने भवदेवमन्त्र लिखनं प्रमाणशून्यम् । ततः पाद्यजलप्रेक्षगमाह स एव। यतो देवौवित्यपः प्रेक्षेत। यतो देवौरिति मन्त्रे गापः पादप्रक्षालनमुदकं प्रेक्षेत । गोभिलः । "सव्यं पादमने निजे" इति सव्यं पाद प्रक्षालयेत् । “दक्षिणं पादमवनेनिजे" पति दक्षिणं प्रक्षालयेत् । तब जनाञ्जलि. निक्षेपं कुर्यात् एवं दक्षिणेऽपि । गोभिलः। पूवमन्यमपर. मन्यमित्य भौ शेषेण पूर्वमन्यमपरमन्य मुभाविति मन्त्रेण पूर्वप्रक्षालनाबशिष्टजलाञ्जलिलतेन उभयपादप्रक्षालनं कुर्यात् । गोभिलः । “अन्नस्य राष्ट्रिरमि" इति इत्यर्थं प्रतिटीयात् कांस्यपात्रेण दध्यक्षतादियुक्तां अलरूपमध्यम पत्रस्य गष्टिरसोति मन्त्रेणाञ्जली रहौत्वा शिरसि दद्यात् तथा च भट्टः भाष्ये शूलपाणितवचनात् । “कांस्येन वाहणीयस्य निनये. दध्यमञ्चलो”। गोभिलः । यशोऽम्रौत्याचमनीयमाचामेत् । यशोऽसौति मन्त्रमुच्चार्याचमनीयं जलमाचामत्। तच्च सक्क. मन्त्रेण ब्राह्मतीर्थेन भक्षयित्वा हिस्तष्णीं भक्षयेत् तत इन्द्रियाण्युपस्पृशेत् । गोभिलः। "यशसो यशोऽसौति मधुपर्क For Private And Personal Use Only Page #903 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संस्कारतत्वम् । ८८८ गृहौंयात्। यशसो यशोऽसौति मन्त्रेण रौयात्। तथा "यशसो भक्ष्योऽसि महसो भक्ष्योऽसि धौभक्ष्योऽसि श्रियं मयि धेहौति" नि:पिबेत्। तूष्णों चतुर्थमिति मन्वं प्रतिपानं पठित्वा वारवयं पिबेत् चतुर्थममन्त्रकं पिबेत्। इदानीं पानव्यवहाराभावात् जिघ्रति। तत पाचम्य गोर्मोक्षणं कारयेत। तथा च गोभिलः । प्राचान्तोदकाय गौरिति नापितस्त्रियात्। मुञ्च गां वरुणपाशाद्विषन्तं मेऽभिधेहि इति तं जह्यमुष्य चोभयोरुत्सृज गामत्त णानि पिबतूदकं ब्रूयात् । माता रुद्राणामनुमन्वयेदिति”। प्राचान्तोदकाय कृताचमनाय प्रक्ततत्वावराय। सप्तम्यर्थे चतुर्थी तेन वरे प्राचान्ते नापितः प्रकताया गोः समोपेऽवस्थितो गौरिति ब्रूयात्। एवं नापितेनोक्त तं श्रावयति वरो मुञ्च गामित्यादि । पत्र मेऽभिधे. होति शब्दप्रक्षेपात् मेऽभिधेहीति इत्येवप्रयोग: न तु निराकाझीकरणाय मोचये बन्धरिति। अमुष्य इत्यनेन कन्यादातुर्नाम निर्देश इति भट्टभाष्यम्। ततश्च भवदेवभट्टेन यदभिधेहौति प्रवेति पदं न लिखितम् अमुष्येत्यनहेन लिखितं कन्यादानानन्तरञ्च गौरित्यादि गवामन्त्रणपर्यन्तं लिखितं तयं भट्टभाष्यादिविरोधात् प्रमाणाभावाच। अहंणादित्वेन कन्यादानात् पूर्वमेव गोमोचनस्य युक्तत्वात्। मनुवचने पहयित्वे. त्यनेन अहणानन्तरमेव कन्यादानविरोधाच्च । ___अथ विवाहपरिपाटी। तत्र गोभिलः। "पुण्ये नक्षत्रे दारान् कुर्वीत । पुण्ये दोषरहिते नक्षत्रे ज्योतिःशास्त्रोक्ताप्रशस्ते रोहिण्यादौ सपिण्डादिदोषरहितां कन्यां स्वीकारण दारान् पत्नी कुर्वीतेति। एवम् "उदगयने पापूर्यमाणे पक्षे पुण्येऽहनि प्रागावर्तनादः कालं विद्यादिति तस्यैव सूत्रान्तरेण पुण्येऽहनौत्यनेनैव वारतिथिनक्षत्रयोगानां शुभसूचक For Private And Personal Use Only Page #904 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८६० संस्कारतत्त्वम् । त्वप्राप्तौ विवाहे पुण्ये नक्षत्रे इति पुनर्विधानमितरापेचया नक्षत्रस्य प्राधान्य द्योतनार्थम् । अत्र च विवाहात् पूर्व जातिकर्त्तृकस मन्त्रक कन्याभिषेकरूपस्य ज्ञातिको भट्ट भाष्येण काम्यत्वाभिधानेन इदानों तथा नाचरणत् तत्प्रमाणं न लिखितम् । कल्पतरुरत्नाकरयोगृह्य परिशिष्टम् । “कन्यां वरयमाणानामेष धर्मों विधीयते । प्रत्यखा बरयन्ति प्रति गृह्णन्ति प्राङ्म ुखाः” ॥ वरयन्ति गोत्रप्रवराभिधानपूर्वकं ददति प्रतिग्टहृन्तोति श्रवणात् । श्रतएव " सर्वत्र प्राखो दाता गृहोता च उदम ुखः । एष एव विधिर्दाने विवाहे च व्यतिक्रमः " ॥ इति प्रत्यक्ष खः सम्प्रदाता प्रतिग्रहौता प्राङ्म ुखः । तथा च "प्राङ्म ुखायाभिरूपाय वराय शुचिसन्निधौ । दद्यात् प्रत्यङ्म ुखः कन्यां क्षणे लक्षणसंयुते ॥ इति वचनाच्च । भवदेवtय सम्बन्धविबे के प्रवराभिधानमाह भविष्यपुराणम् । " तुला पुरुषदाने च तथैव हाटकाचले । कन्यादाने तथोत्सर्गे कीर्त्तयेत् प्रवरादिकम् ॥ हरिशर्मधृतम् आश्वलायनगृहापरिशिष्टम् । “शिवदत्तप्रपौत्री ब्रह्मदत्तपौत्री बिष्णदत्तपुत्रो यज्ञदत्ता कन्या शिवमित्रप्रपौवाय राममित्रपौत्राय विष्णुमित्रपुत्राय रुद्रमित्राय तुभ्यं सम्प्रदत्तेति" । सम्प्रदत्ता इत्यव दृष्टार्थत्वात् पुंवचसां तप्रत्ययार्था विवचितत्वेन सम्प्रददे इत्येवप्रयोगः । तथा च व्यासः । “ नामगोत्रे समुच्चार्य प्रदद्यात् श्रयान्वितः । परितुष्टेन भावेन तुभ्यं सम्प्रददे इति” स्वगामिफले तुभ्यं सम्प्रददे इति परगामिफले तु श्रहमस्मै ददानीति एवमाभाष्य दौयते इति छन्दोगपरिशिष्टदर्शनात् ददानीति वाच्यम् उभयपदिदाधातोः फलवत् कर्त्तर्य्यात्मनेपदम् अफलवत् कर्त्तरि परस्मैपदमिति पाणिनिश्रुतेः । अतएव श्रात्मनेपदपरस्मैपदयोरात्मनेपरी इति समाख्या For Private And Personal Use Only 9 Page #905 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संस्कारतत्त्वम् । ८८१ सङ्गच्छते। ददानौत्यस्य दद इति वर्तमानार्थता। अतएव सलदाह ददानौति मनुनाप्युक्त सङ्गच्छते । अनुमतिग्रहणार्थप्रार्थनार्थत्वे तु सकृत्वाभिधानमप्रयोजकमिति। श्राहादौ फलभागिनां गोवाद्युल्लेख दर्शनात् तदितरत्रापि तदुल्लेखाचारः। छन्दोगपरिशिष्टेऽहं पददर्शनादहं पदप्रयोगोऽपि। एवं श्राई "अमुकामुकगोत्र तत्तुभ्यमन्त्र स्खधा नमः" इति ब्रह्मपुराणदर्श मात्। देय विशेषणवेनेतच्छब्दप्रयोग इति। तत्र कन्या वरकुलयोः पाठककमात् ऋष्यशृङ्गोलशाब्दक्रमस्य बलवत्वात् बरकुलाभिधानानन्तरं कन्याकुलाभिधानसमाचारः । तथा च हेमाद्रिकृतम् ऋष्यशृङ्गवचनम्। ' "वरगोन समुचार्य प्रपितामहपूर्वकम् । नाम संकीर्तयेबिहान् कन्यायाचैव मेहि" ॥ इति धनञ्जयकृतसम्बन्धविवेकपरिशिष्टीयम् । “नान्दोमुखे विवाहे च प्रपितामहपूर्वकम् । वाक्यमुच्चारये. विहानन्यत्र पिढपूर्वकम्। एतदेव विरुञ्चायं कन्यां दद्याद् यथाविधि* ॥ नान्दौसमृधिरिति कथ्यते इति ब्रह्मपुराणात् नान्दोमुखे पुत्रादिसमृद्धिप्रधानरूपे विवाहे। विशेषणन्तु विधाहादेव पुत्रादिलाभविशेषज्ञापनाय। चस्त्वर्थ अन्यत्र प्राप्तपित्रादिक्रमव्यवच्छेदाय। नान्दोमुखपदस्य श्राइपरत्वे अनेकवचन प्राप्तपिलपूर्वकाभिलापवाधापत्तेश्च । ज्योतिःसारसमुभये। विवाहे तु दिवामागे कन्या स्यात् पुत्रवर्जिता । विवाहानलदग्धा सा नियतं स्वामिधातिनौ ॥ अतएव महाभारते । “रात्रौ दानं न शंसन्ति विना चाभयदक्षिणाम् । विद्यां कन्यां हिजश्रेष्ठा दौपमन्त्र प्रतिश्रयम् ॥ अभयदक्षिणाम् अभयदानम्। प्रतियः प्रवासिनामाश्रयः। विवाहे रात्री दानान्तरमप्याह देवलः। “राहुदर्शनसंक्रान्ति विवाहात्ययवृद्धिषु । नानदानादिकं कुर्युनिशि काम्यव्रतेषु च” ॥ ग्रहादि For Private And Personal Use Only Page #906 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८९२ संस्कारतत्वम् । दोषशान्त्यर्थं दामादिकन्तु विवाहात प्रागेव कर्त्तव्यम्। भगवत्या कविाण्या विवाहे तथा दर्शनात्। तथा च भारते । "चक्रः सामर्ययुमन्वैर्वध्वा रक्षां हिजोत्तमाः। पुरोहितोऽथवं. विहे जुहाव ग्रहशान्तये॥ हिरण्यरूप्यवासांसि तिलांच गुड़मिश्रितान्। प्रादाबेनश्च विप्रेभ्यो राजा विधिविदां वरः । ततो जोटकादिदोषे तत्तत् सूचनीयपापक्षयकाम इति वक्त व्यम्। अतएव दीपिकायां ये ग्रहारिष्टसूचका इत्यशम् । संवतः। “तां दत्वा च पिता कन्या भूषणाच्छादनासनैः। पूजयन् वर्गमानोति नित्यमुत्सवकृत्तिषु ॥ विष्णुपुराणच । "विशिष्टफलदा कन्या निष्कामाणां विमुक्तिदा ॥ निष्कामाणां मुक्तिप्रतिकूल कामेन रहितानाम्। तेन विष्णु प्रौति कामनया दानेन दोषः। “देयानि विप्रमुख्येभ्यो मधुसूदनतुष्टये” इति वामनपुराणे सामान्यतोऽभिधानात्। एवं पिव हे शेऽपि दानम् । तथा च विष्णुपुरापौयपिढगाथा। "ग्न वस्त्रमहौयानसर्वभोगादिकं वसु। विभवे सति विप्रेभ्यो योऽस्मानुद्दिश्य दास्यति ॥ याज्ञवल्करः। "ब्राह्मो विवाद प्राय दीयते शत्यलंचता। तज्जः पुनात्युभयत: पुरुषानेकविंशतिम्॥ इत्युक्त्वा चरतां धर्म सह या दीयतेऽर्थिने । सकाय: पावयेत्तज्जः षड्वंश्यांश्च महात्मना" ॥ पुनाति पित्रादौन् पापात् नरकाच समुद्धरति पुत्रादौन निष्पापान जनयति पात्मानमपि निष्पापं करोति। सह धर्म चरतामिति नियमं कृत्वा कन्या दोयते सकायः कः प्रजापतिर्देवताऽस्येति प्राजापत्यनामक इत्यर्थः । “पाच्छाद्य चार्चयित्वा च श्रुतशीलवते स्वयम् । पाइय दानं कन्याया ब्राह्मो धर्म: प्रकी. र्तित":। अत्र यहानपदं तद्दीयते यस्मै ग्रहणाय इति व्युत्पत्त्या सत्यल्युटो बहुलमिति ल्युटासिहमिति ग्रहणपरं न तु भाव For Private And Personal Use Only Page #907 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संस्कारतत्त्वम् । ८९३ साधनं तथात्वे दातुरेव विवाह कर्तृत्वापत्तेः। अत्र प्रत्ययार्थग्रहणनिमित्तौभूत-प्रत्यर्थत्यागेन सहककत्तकत्वमाह्वानस्य स्थितादिपदाध्याहारण वा व्यक्तम् । हरिवंशीयविशङ्गपाख्याने। "पाणिग्रहणमन्त्राणां विघ्नचक्रे सदुर्मतिः । येन भार्या हता पूर्वे कतोहाहा परस्य वै ॥ तोहाहा भार्या पाणिग्रहात् पूर्व कलेत्यर्थः । एवं "पाणिग्रहिका मन्त्रा नियतं दारलक्षणम्। सेषां निष्ठा तु विज्ञेया विहद्भिः सप्तमे पदे ॥ इति मनुवचनं विवागतसंस्कारविशेषार्थम् अतएव निछेत्यताम् । तथा च रवाकरः । “पाणिग्रहणिका मन्त्रा विवाहकमाङ्गभूताः" इति मनुः । “जातिभ्यो ट्रविणं दत्त्वा कन्यायै चैव शक्तितः । कन्याप्रदान स्वाच्छन्यादासुरो धर्म उच्चते" इति। कन्याप्रदानं कन्यायाः स्वीकरण मिति कुल्लू कभट्टः। खाच्छन्द्यात् स्वेच्छया। दानाधिकारमाह याज्ञवल्क्यः। “पिता पितामहो माता सकुल्यो जननी तथा। कन्याप्रदः पूर्वनाशे प्रक्कतिस्थः परः परः। अप्रयच्छन् समाप्नोति णहत्या मृताहतो। कामन्वभावे दातृणां कन्या कुर्यात् स्वयंवर' तथेत्यनेन नारदोता. मातामहाद्याः सूचिताः। तथा च नारदः । "पिता दद्यात् वयं कन्या भ्राता वानुमतः पितुः । मातामहो मातुलश्च सकुल्यो बान्धवस्तथा। मातात्वभावे सर्वेषां प्रकृती यदि वर्तते । तस्यामप्रकृतिस्थायां कन्यां दद्युः सनाभयः” । बान्धवः पितामहः याज्ञवल्क्य कवाक्यत्वात्। प्रन सकुल्यमातामहयोरिदोत क्रमोन ग्राह्यः पाठक्रमाच्छाब्दक्रमस्य बलवत्वात्। तस्यामित्यनेन मातुरूपस्थितत्वात्। सनामय इत्यनेन मातामहमातुलेतरसकुल्य उच्चते। प्रकृतिस्थः पातित्यादिदोषरहितः। देयद्रव्यस्य प्रेक्षणस्पर्शन आह हारोतः । "तस्मादगिरवोच्च दद्यादालभ्य चेति"। कालिकापुराणम् । For Private And Personal Use Only Page #908 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८८४ संस्कारतखम् । “यस्य यहोयते वस्त्रमलङ्कारादि किशन। तेषां दैवतमुच्चार्य कत्वा प्रोक्षणपूजने । सम्प्रदानार्चनमाह मनुः । “योऽचिंतं प्रतिरक्षाति दद्यादर्चितमेव वा। तावुभौ मच्छतः खर्ग नर. कन्तु विपर्यये"। योऽर्चा पूर्वकमेव ददाति यच प्रतिग्रही. ताऽर्चा पूर्वकमेव दातुः प्रतिगृह्णाति तावुभौ स्वर्ग गच्छतः । अनचिंतदानप्रतिग्रहणे तु नरकमिति कुलकभट्टः। ततश्चाचितमित्यस्य क्रियाविशेषणत्वात् पुरुषार्चापि प्रतीयते। अतएव देय ब्राह्मणी संपूज्य दद्यादिति मैथिलैगलम्। सम्प्रदानकरे जलपूर्वकं दानमाहापस्तम्बः । “सर्वास्थुदकपूर्वाणि दानानौति। मोतमः । “अन्तर्जानुकरं कला सकुशन्तु तिलोदकम्। फलांशमभिसन्धाय प्रदद्यात् अड्यान्वितः । कन्याया दैवत प्रतिग्रहप्रकारमाह विष्णुधर्मोत्तरम्। “कन्यादासस्तथा दासी प्राजापत्याः प्रकीर्तिताः। प्राजापत्याः प्रजापतिदेवताकाः तथा “भूमेः प्रतिग्रहं कुर्यात् भूमेः बत्वा प्रदक्षिणम् । करे मा तथा कन्यां दासीदासौ हिजोत्तमाः । करे गृह्य कर रहीवा। तदाहादित्यपुराणम्। “ओङ्कारमुच्चरन् प्राज्ञो द्रविणं शक्नुमोदनम्। महोयाक्षिणे इस्ते तदन्ते खस्ति कीर्तयेत्”। भोङ्कारस्थ स्वीकारार्थत्वात् तेनैवात्र ग्रहणमुक्ताम् । तथा च प्रोमित्यभ्युपगमे इति शाब्दिकाः स्वस्तौति दात्रभिमतलाभाविष्कारार्थम् । तथा चामरः स्वस्त्यायौः क्षेमपुण्यादाविति” मार्कण्डेयपुराणम्। “दातुरिष्टमभिध्यायन् प्रतिगृह्यादलोलुपः । विष्णुधर्मोत्तरे। “व्यस्य नाम रोयाहदानौति ततो वदेत्। तोयं दद्यात्तथा दाता दाने विधिरयं सातः। प्रतिग्रहौता सावित्रीं सर्ववैव च कोर्तयेत्। ततस्तु साई द्रव्येण तस्य द्रव्यस्य दैवतम्। समा. पयेत्ततः पश्चात् कामस्तुत्या प्रतिग्रहम् । व्यासः। “श्रद्दा For Private And Personal Use Only Page #909 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संस्कारतत्वम् । ८८५ युक्तः शुचिर्दान्तो दान दद्यात् सदक्षिणम्। प्रदक्षिणन्तु यहानं तवं निष्फलं भवेत् । दक्षिणाभिरुपतं हि कर्मसिध्यति मानवे। सुवर्णमेव सर्वासु दक्षिणास विधीयते । सुवर्ण काञ्चनमात्र नपुंसकनिर्देशात् । अध पाणिग्रहणम्। तत्र गोभिलः । "पाणिग्रहणे पुरस्ताच्छालाया उपलितेऽग्निरूपसमाहितो भवति । पाणिग्रहणे कर्तव्ये ग्यासमोपदेश उपसमाहितः स्थण्डिले रेखादि विरूपाक्षजपान्तं कर्म कला प्रकृतकर्मार्थ योजनामावाह. नेन समाहितोऽग्निपति। गोभिलः। "पथ जन्यानामको ध्रुवाचामपां कलसं पूरयित्वा सहोदकुम्भः प्राहतो वाग्यतो. ऽग्रेणाग्निं परिक्रम्य दक्षिणत उदा खोऽवतिष्ठते । अग्निस्थापनानन्तरं वरस्य सहायानां मध्ये एकोऽगाधजलेन घटं पुरयित्वा यतकुम्भो वस्त्राच्छादितदेहः प्रदक्षिणेनाग्निं वेष्टयित्वाऽग्निब्रह्मणादक्षिणस्यान्दिशि उदङ्मुखोऽवतिष्ठते । अवपूर्वस्तिष्ठतिरनुपविष्टतां बोधयति गोभिलः। “प्राजनेनान्यः” इति। प्रतोदेन सह कुम्भधाग्विदागत्य कुम्भधारिणः प्रागन्योऽवतिष्ठते। गोभिल: "शमोपलाशमिश्रान् लाजांचतुरनलिमात्रान् सूर्पणोपसादयन्ति पश्चादग्नेः" इति। शमी.. वृक्षपमिश्रितान् चतुरनलिपरिमितान् लाजान् अम्न: पश्चात् सूर्पस्थान् स्थापयन्ति बहुवचनात् कर्तुरनियमः । “पक्षतास्तु यवाः प्रोक्ता धाना भृष्टा भवन्ति ते। भृष्टास्तु बोहयो लाजा घटौखण्डिक उच्यते”। गोभिलः। तथा दृशत् पुवञ्च। दृशत् शिला पेषणाधाररूपा पुत्रः पेषणकरणरूपप्रस्तरस्तदुभयं पूर्ववदुपसादयन्तीत्यर्थः । अथ यस्याः पाणिं ग्रहीष्यन् भवति सशिरस्का माता भवति । यस्याः कन्याया जामाता पाणिं ग्रहौष्थन् भवति For Private And Personal Use Only Page #910 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८८६ संस्कारतत्त्वम् । पाणिग्रहणं करिष्यतीत्यर्थः। अथ तदारम्भदिने क्षारोहर्तना. नन्तरम् अविधवाहतमङ्गलोदकैः सा माता भवति तथा पाह. तेन वसनेन पतिः परिदध्यात् या प्रवन्तनित्येतयर्चा। पाहत. खरूपमाह। “ईषद्धोतं नवं शुभ्नं सदशं यत्र धारितम् । प्राइतं तहिमानीयात् सर्वकर्मसु पावनम्"। ईषत् सूक्ष्मम् । न धारितं न परिहितम् एवंभूतेन वस्त्रेण या प्रवन्तदिति मन्त्रेण परिधत्खेति श्रुतेः परिदध्यादित्यन्त तनिजर्थः। तेन परिधापयेदित्यर्थः। एवञ्च परिधापनानुरोधेन वध्वा उस्थितत्वं प्रतीयते। प्रतएव कटवहिषोमध्ये प्रापणानन्तरं वर. दक्षिणे उपविशतीत्युक्तम् । एतदधरौयवस्त्रपरिधापने उत्तरव प्राकृतमित्यनेनोत्तरौयलाभात् स्त्रीपरिधाने शक्तमित्यविवक्षितम्। “धारयेदथ रक्तानि नारी चेत् पतिसंयुता। विधवा च न रक्तानि कुमारी शलवाससौ" इति मस्यपुराणात्। परिधामप्रकारमाहतुः शङ्कलिखितौ। “न नाभिं दर्शयेत् कुलवधूरागुल्फाभ्यां व्यासः परिदध्यात् न स्तनो विवृतौ कुर्यात्" इति। वासो विन्यासविशेषस्तु तत्तद्देशाचारादवगन्तव्यः । रत्नाकरोऽप्य वम् । गोभिल: । “परिधत्तधत्तवासमेति प्रावृतां यज्ञोपवीतिनीम् अभ्युदानयन् जपेत् सोमोऽददगन्धर्वायेति” । प्रावृतां यज्ञोपवीतिनी यज्ञोपवीतवत् कृतोत्तरीयपरिधानात। तथोक्तं विद्याकरवाजपेयिकृतवचनेन यथा स्मृतिः । “यथा यज्ञोपवीतच धार्यते च हिजोत्तमैः । तथा सन्धार्यते यत्नादुत्तराच्छादनं शुभम्” । न तु यज्ञोपवौतिनौमित्यनेन स्त्रीणामपि कर्माङ्गत्वेन यज्ञो. पवीतधारणमिति हरिशर्मोक्तं युक्तम् । स्त्रीणां यज्ञोपवौतधारणानुपपत्तेः सरलाभभाष्ययोरप्येवम्। ततो वध. दक्षिणप्रवणं स्मृशेत्। "क्षुते निष्ठौविते वान्ते परिधानेऽशु For Private And Personal Use Only Page #911 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संस्कारतत्त्वम् । मोचने । कस्थ एषु नाचामेत् दक्षिणं श्रवणं स्पृशेत्” इति स्मृतेः । अभ्युदानयन् अग्नेरभिमुखौमानयन् जपेत् । सोमेददिति मन्त्रं पतिः पठेत् । गोभिलः । “ पश्चादग्नेः संवेष्टितं कटमेवं जातीयं वान्यं पदा प्रेरयन्तीं वाचयेत् । प्रमे पतियानः पन्याः कल्पतामिति” ॥ अग्नेः पश्चाद्धोरणरचितं कटं तन्जातीयमन्यग्रथितं वा वस्त्राच्छादितं पादेन प्रेरयन्तीं वधूं प्रमे पतियान इति वाचयेत् पतिः । स्वयं जपेदजपन्त्यां प्रास्या इति वषिोऽन्तं कटान्तं प्रापयेत् । पूर्वकटान्ते दक्षिणतः पाणिग्राहस्योपविशति । प्रमे इति मन्त्रं वाख्यात् लज्जया वाऽजपान्त्यां वध्वां स्वयमेव पतिः पूर्वमेव मन्त्र प्रमे इति स्थाने प्रास्या इत्यूहं कृत्वा जपति । अन्तशब्दः समीपवचनः । तेन कटवर्हिषोः समौपदेशम् अन्तरालरूपं प्रापयेत् । पत्युदक्षिणतः कटस्य पूर्वभागे कन्या उपविशति । दक्षिणेन पाणिना दक्षिणमं मन्वारब्धायाः षड़ाज्या हुतौर्जुहोति अग्निरेतु प्रथम इत्येतत् प्रभृतिभिरिति । अन्वारब्धाया इति कर्त्तर शः । सप्तम्यर्थे षष्ठौ । तेन पत्युर्दचिणस्कन्धं दक्षिणहस्तेनान्वारख्यायां संलग्नायां सत्याम् अग्निरेतु इत्यादि षडभिर्मन्त्रैः षडाच्या तौर्जुहोति वरः महाव्याहृतिभिः पृथक्समस्ताभिचतुर्थी महाव्याहृतिभिर्भूर्भुवः स्वरिति तिसृभिः प्रत्येकमाज्याहृतौर्जुहुयात् । हुत्लोपैत्य श्रवतिष्ठत इति हवनानन्तरम् उपेत्याज्वलिं वध्वा वधूवरावुपतिष्ठतः । अंशस्यर्शनात् कन्याया: होमानुकूल चेष्टावत्त्वात् समानकर्तृकत्वेन वा । अनुपृष्ठं पतिः परिक्रम्य दक्षिणत उदय, खोऽवतिष्ठते बध्वच्जलिं गृहीत्वा । अनुपृष्ठ पृष्ठ लचौकृत्य परिक्रम्य गत्वा तेन कन्यायाः पश्चाद्दत्र्त्मना तस्या दक्षिणं गत्वा वध्वज्ञ्जलिं दक्षिणहस्तेन गृहीत्वा उदङ्म ुखोऽवतिष्ठत् । एषोऽञ्जलिः ग्रहणपर्यन्तं For Private And Personal Use Only 2 Page #912 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८६८ संस्कार तत्त्वम् । ततश्चाजख्या स्थास्यति एतेन कन्यायाः प्रान खत्वमायाति । लभनान्तरं पाणिग्रहणपर्यन्तं कन्यालभनं पतिर्न त्यजेत् । तथा च भट्टभाष्यष्टतं गृह्यान्तरम् । “हुत्वाज्यमथ जायायामन्यारभ्याञ्ज्ञ्जलिम्पतिः । न विमुझेदनापत्सु यावत् पाणिग्रही जपः" इति । " पूर्वा माता लाजानादाय भ्राता वा वधूमाक्रामयेत्। श्रश्मानं दक्षिणेन प्रपदेन पाणिग्रही जपति इममश्मानमारोहा इति" । पूर्वदेशस्थाया वध्वा एव माता तथैव भ्राता अन्धो वा ब्राह्मणः प्रागासादितान् खाजान् सूर्पस्थान् गृहीत्वा वधू दृशत्पुत्रं दक्षिणपदाग्रेण क्रामयेत् । तदाक्रामणकाले इममश्मानमारोहा इति । वरो जपेत् । सत् संग्टहोतं लाजाज्ञ्जलिं स्वाता वध्वज्जलावावपति तं सोपस्तौर्णाभिघारितमग्नौ जुहोत्यवच्छिन्दत्यञ्जलिम् इयं मायुपव्रते इति एकवारम् अविक्षेपेण सम्यग्ग्टहोतं लाजाञ्जलिं वध्वजलो उपस्तौर्णाभिघारितमिति सिद्धये उपस्तरणाय वरो घृतस्रुवं वध्वज्जलौ ददातीति । ततो वध्वा माताभ्राताऽन्यो वा ब्राह्मणेो लाजान् ददाति तदुपय्यभिवारणाय घृतस्रुवद्दयं ददाति वरः" इति । चतुरावर्त्तपक्षे भृगुगोत्रो भार्गवप्रवरश्वेतदा पञ्चावर्त्ताय उपस्तरणे घृतस्रुवद्दयमिति विशेषः । एवमुपस्तौर्णाभिघारितं लाजाज्ञ्जलिभेदमकुर्वतौ वरेण इयमिति मन्त्रलिङ्गादि यं नापव्रते इति पठिते वधूः सुसमिचेऽग्नौ जुहुयात् । श्रय्र्यमणं नुदेवं पूषणमित्युत्तरयोः । उत्तरयोस्तथाविषयोलजष्टोमयोः । श्रय्र्यमणं नुदेवं पूषणं नुदेवमित्य तौ मन्त्रौ यथासंख्यं नियोक्तव्यौ हुते पतिर्यथेतं परिक्रम्य प्रदक्षिणमग्निं परिणयति मन्त्रवान् वा ब्राह्मणः कन्यला पितृभ्य इति” । हुते लाजाज्ञ्जली मन्त्रवान् ब्राह्मणः पतिर्यथापूर्वम् इतं गतं तथैव परिक्रम्य वध्वाः पश्चिमेन प्रत्यावृत्य For Private And Personal Use Only Page #913 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८८ संस्कारतत्त्वम् । प्रदक्षिणं यथा स्यात्तथा यातीति। मन्त्रलिङ्गाय कन्यला पिलभ्य इति मन्वं पठन् मधमग्नि परिणयति परिसर्वतो. भावेन नयेत् प्रदक्षिणं कारयेदित्यर्थः। यत्तु सरलायां पत्यु. रशक्ती अधोतवेदोऽन्यो वा परिणयतीत्युक्तं तन्मन्सलिङ्गविरो. धाइयवहारापरिग्रहौतत्वाच्च हेयम्। अनाग्निप्रदक्षिणे ला. जादौनां प्रदक्षिणमाह भट्टभाष्यता स्मृतिः । “लाजानाज्यं मुवं कुम्भं प्राजनाश्मानमेव च। प्रदक्षिणानि कुर्यातां दम्पतौनविनाग्मिकम् ॥ परिणीता तथैवावतिष्ठते यथाक्रामति तथा जपति तथावपति तथा जुहोति एवं नि:परि. णौता बधस्तथैवानुपृष्ठगमनेन भर्ना एहौतालिका प्रान खौ पवतिष्ठते। तथैव यथापूर्व तेनैव प्रकारेणाक्रामति अश्मानं दक्षिणप्रपदेन तथा जपति पाणिग्रहे इममश्मानमिति तथावपति वध्वञ्जली सदगृहीतलाजानामञ्जलिं तथा जुहोति उपस्तोर्णाभिघारितम् अविच्छिन्द त्यञ्जलिम् एवमनेन प्रकारेण विकत्वः प्रथमेन सह वित्वम्। उत्तरयोरित्यनेन इयोरेव मन्त्रोपदेशात् । सूर्पण शेषमनावावाप्य प्रागुदीचौमत्युत्क्रामत्ये कमिष इति दक्षिणेन प्रक्रम्य सव्येनानुक्रामन्तौ ताज्जाक्रममाणां पतिर्मा सव्येन दक्षिणमाक्रमेति ब्रुयात्। एवं सप्तपदाक्रमणे पाणिग्राहस्तथैवावतिष्ठते इति । सूर्पस्योत्तराई तवं दत्त्वा तदुपरि लाजशेषं निधाय तदुपरि तनुवद्वयमिति चतुरावतपक्षे। पञ्चावतपक्षे तु सुवहयोपरि लाजशेषदानमिति शेषः। ततश्च । अग्नये स्विष्टिकृते स्वाहेति सूर्पण जुहुयात् एतदनन्तरं सरलोक्त वामदेव्यगानं न युक्वं प्रमाणानुपदेशात्। लाजक्षेपानन्तरं प्रागुदौचौदिशमाभिमुख्येन दक्षिणपादपुरःसरेण गच्छ मावामपुरःसरेणेत्यु का एक मिष इत्यादिसप्तभिमन्यथाक्रमं सप्तम स्थानेषु वधूदक्षिण For Private And Personal Use Only Page #914 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८०० संस्कारतत्त्वम् । पादेन गत्वा तद्देशे वामपादेन न गच्छेत् । एवं षट्सु स्थानेषु नयेजामाता । एतदनन्तरं सखा सप्तपदौत्यनेन प्रार्थनं भवदेवभट्टोक्त गुणविष्णुनापि लिखितो मन्त्रो व्याख्यातथ ईक्षकान् प्रति मन्त्रयते सुमङ्गलौरियं वधूरिति विवाहं द्रष्टुमागतान् सुमङ्गलौरिति मन्त्रेण जामाता प्रार्थयेत् । अपरे - णाग्निमौदकोऽनुव्रज्य पाणिग्राहं मूई देशेऽवसिञ्चति तथेतरां समज्जन्तु इत्येतयर्था । चौदको गृहीतोदककुम्भः पूर्वस्थापितः सोऽग्नेः प्रादक्षिण्य ेन पश्चादागत्य समज्जयन्त्व तथा ऋचा मन्त्रलिङ्गाद्दरेण जप्यमानया मन्त्रान्ते कर्मादिसनिपात इति न्यायात् मन्त्रान्तरमभिषिञ्चेत् तथा तेनैव प्रकारेण भेदोपादानेन इतरां वरेतरां वधूं पृथगभिषिञ्चेत् इतरयासमस्याभिधानं स्यात्। तथाच गृह्यसूत्रम् । भेदे मन्त्रावृत्तिरसत्रिपातत्वात् एवमेव भट्टभाष्यम् । एतेन करणमन्वत्वात् कुम्भधारिणोऽयं पाठ्यः न सिच्यमानस्य नाविति तु युवयोरित्यर्थे छान्दसो व्यतयः इति सरलोक्तं मन्त्रलिङ्गाहर एवाभिषिञ्चतीति वौरेश्वरोक्तञ्च नोपादेयं व्यवहारविरोधात् । अवसिक्तायाः सव्येन पाणिनाज्ञ्जलिमुपोदग्टह्य दक्षिणेन पाणिना दक्षिणं पाणिं साङ्गुष्ठमुत्तानं गृहीत्वा एताः षट्पाणिग्रहणीया जपति गृम्भ्रामित इति । कन्यावसेचनस्य प्राक् प्राप्तत्वेनावसिक्ताया इति पुनरुपादानम् अवमेचनस्थानस्थाया एव हस्तग्रहणार्थम् । उपउद्गृा उपसा - मौप्य तेन मणिबन्धसमौपे ग्रहणमर्थाद्दामेन उत्तरतः साङ्गुष्ठदक्षिणस्य दचिणेन ग्रहणाभिधानात् । उद्ग्टह्याञ्जलिसका शाहचिणपाणिं विच्छिद्य वध्वा उत्तानं साङ्गुष्ठं दक्षिणं पाणिं दक्षिणेन पाणिना ग्टहीत्वा गृम्नामि ते इत्यादि षडृचः पतिः र्जपति । साङ्गष्ठमित्यनेन तर्जन्यादीनां ग्रहणम् उत्तानमित्यनेन करस्य पृष्ठग्रहणं प्रतीयते । समाप्तासुद्दहन्ति प्रागुदौच्चां For Private And Personal Use Only Page #915 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संस्कारश्वम् । શ્ दिशि ब्राह्मणकुतमभिरूपम् । समस्तासु पाणिग्रहण क्रियासु सतौषु ऐशान्यां दिश्यवस्थितं विद्यातपःसंयुक्त ब्राह्मण कुलं वधमुत्थाप्य नयेयुः तदभावे स्थानान्तर स्थितं तदभावे वेद्यवस्थितम् । तथा च गृह्यान्तरम् । अथोत्तर विवाह: प्रागुदौच्यामन्यत्र वा ब्राह्मण कुलं मन्त्रवदीति वेद्यां वेति । भट्टभाष्येऽप्येवम् । इदानीन्तु गोभिलोक्त ब्राह्मणग्टहगमनाभावात् भवदेवेन तथा न लिखितं किन्तु वेदिस्थ ब्राह्मणसमौपस्यापि शास्त्रार्थत्वात् सुकरत्वाच्च तत्कर्त्तुं युज्यते तत्राग्निरूपसमा - हितो भवति । लक्षणं कृत्वा तत्र ब्राह्मणगृहे अग्न्यन्तर: स्थापितो भवति तत्रैव वच्यमाणं कर्म कुर्य्यात् । इदानीन्तु तथाविधानाचरणात् वेद्यामेव पूर्वेस्थापिताग्नेः पश्चात् क कर्त्तव्यं न त्वग्न्यन्तरस्थापनम् । तथा च भट्टभाष्ये । वेद्यामेव चेत्तन्त्रेण स्यात् । ततच गणेष्वेकं परिसमूहन मिति वचनात् प्रधानमेव तत् कुखादित्युक्तम् । अपरेणाग्निमानडूहं लोहितं च प्राग्ग्रौवमुत्तरलोमास्तीर्णं भवति । अग्न ेः पश्वाहिश रक्तं प्राग्ग्रोव पूर्वशिरस्कम् उपरि लोमहषच उपवेशनार्थमास्तृतं भवति लोहिताभावेऽन्यवर्णमपि चण: प्राधान्यात् तस्य गुणत्वादिति भट्टभाष्यम् । इदानीन्तु " यत्राधर्मश्वतुष्पादः स्याद्धर्मः पादविग्रहः । कामिनस्तमसाच्छवा जायन्ते यत्र मानवाः । अहङ्कारगृहोताच प्रक्षौणस्नेहबान्धवाः । विप्राः शूद्रसमाचाराः सन्ति सर्वे कलौ युगे” । इति मत्स्यपुराणोक्त कलियुगस्वभावेन सम्यग्धर्माचरणरहितेनापि चर्मोपवेशनाद्यङ्गाभावेऽपि कर्म्मणः प्राधान्यादाज्यहोमादिकं क्रियते । गोभिलः । " तस्मिनेावाग्यतामुपवेशयन्ति सा खल्वस्तु एवमानक्षत्रदर्शनात् । प्रोक्ते नचत्रे बड़ाज्यातोर्जुहोति लेखासन्धिष्वेतत् प्रभृतिभिः । आहुते ७६ For Private And Personal Use Only Page #916 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८०२ संस्कारतत्वम्। राहुतेस्तु सम्पात मूर्षि वध्वा प्रवनयेत्। पाहुतेराहुहुतायाः सुवात् संलग्नः पततीति । सम्पातोऽत्र वृतविन्दुः तं प्रतिवारं वध्वा शिरसि निदध्यात्। हुत्वोत्याय उपनिक्रम्य ध्रुवं दर्शयति। ध्रुवर्मास ध्रुवाहं पतिकुले भूयासम प्रमुथासाविति पतिनाम रतौयादात्मनस । प्रतहोमानन्तरं परिवृताइहिर्वधं नौत्वा ध्रुवमसौति मन्त्रं पाठयन्। ध्रुवं नक्षवविशेष दर्शयति पतिः। अमुषासाविति पत्र षष्ठयन्तप्रथमान्सत्वेन पत्युरामनामोचारयेत् परुन्धतीधरहाहमस्मौति। एवञ्च सप्तर्षिनिकटवर्तिनी सूक्ष्मां तारां कहाहमस्मोति मात्रमन्वेण पश्येत्। न तु प्रागुतावहितेन । अथैनामनुमन्वयते ध्रुवाद्यौरित्येतयर्धा। अरुन्धती दर्शनानन्तर ध्रुवाद्योरिति पत्नों वोधयेत् पतिः । अनुमन्विता गुरु गोत्रेणाभिवादयेत् सोऽस्यावाग्विसर्गः । गुरुपति पतिरेको गुरुः स्त्रीणाम् इति वचनात्। गोवेष पलिगोत्रण "स्वगो. वानस्यते नारी विवाहात् सप्तमे पदे। पतिगोत्रण कर्तव्या तस्याः पिण्डोदकक्रिया" इति वचनात्। एतेन पिढगोत्रण भत्तुरभिवादनं सरला भवदेवभट्टाभ्यामुलं हेयम् । अभिवादयेत् मनाप्रकारेणाभिवादनं कुर्यात्। अभिवादने प्रत्यभिवादनस्यावश्यकत्वात् तदुक्तं प्रत्यभिवादनमपि क्रियते । तथा च मनुः । *अभिवादात् पर विप्रो ज्यायां समभिवादयन् । प्रसौ नामाइमस्मोति व नाम परिकौर्तयेत् । भोःशब्दं कोतवेदन्ते स्वस्य नाम्नोऽभिवादने। नाम्नां वरूपभावो हि भोभावो ऋषिमिः स्मृतः । प्रायुमान् भव सौम्येति वायो विप्रोऽभिवाहन प्रकारचास्य नानोऽन्ते वाचः पूर्वाक्षरः मतः। पभिवादात् परं भो अभिवादये इत्युच्चारणानन्तर. ममुकोऽहमम्मोत्यत्र स्वकीयं नाम परिसर्वतोभावेन देवशी For Private And Personal Use Only Page #917 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संस्कारतत्त्वम् । ६.३ ओन कौतयेत्। प्रवाभिवादये प्रति विशेषलाभो गोतमवचनात् यथा स्वं नाम प्रयोज्याह स्वयमभिवादय इति । अपायमित्यभिधानात् मनुवचनेऽयमित्यर्थेऽनौत्यव्ययं तेनामनीत्यव्ययं पुरोवर्तीत्यर्थः । एवञ्चाभिवादात् परमित्यनेनाभिवादय इत्यनन्तरप्राप्तस्य नामकौतनस्य मनतास्य विरोधागोतमोक्ताभिवादय इत्यन्तपाठी न ग्राह्यः। "वेदार्थोपनिबन्धृत्वात् प्राधान्यं हि मनोः स्मृतम्। मन्वर्थविपरीता पासा मतिनं प्रथस्यते इति वृहस्पतिवचनात् ततश्च कुवकभशूलपाण्युपाध्यायप्रतिभिः खनामादावभिवादय इति लिखितं युक्तम् । सरलाभवदेवभप्रभृतिभिरन्ते लिखितं हयम् । अभिवादने क्रियमाणे खोयनानोऽस्मोत्यस्यान्ते समोपेऽभिवाद्य सम्बोधनाय भोःशब्द कौतयेद् यतः । संबोध्यनाम्नां वरूपभावः प्रवृत्तिनिमित्तम् पात्मामात्रनिष्ठो यो धर्मः स एव भोभावः भोःशब्दस्य प्रतिनिमित्तधर्मों मुनिभिरुतः तेन संबोध्यनामस्थानीयं भारिति। ततवाभिपादयेत्वाममुकशाहमस्मि भो इत्यादिकं प्रयोज्यम प्रायुमामित्यभिवादने आते प्रत्यभिवादयित्वा अभिवाद्यायुष्मान् भव सौम्येति वाचः अस्य संबोध्यमानस्य नाम्नः शर्मादियुकस्यान्ते यः स्वरः स पूर्वाक्षर: न विच्छिनो वर्णागमः स एव तो वायः विमानकोऽनेनोचायः। “एकमात्रो भवेहवी हिमानी दीर्घ उच्यते। विमानस्तु तो जेयी व्यजनचाईमावकम् इत्युक्तः । तनायुष्मान् भव सौम्यामुकदेवशर्मन् एवमेव कुलकभः । एवाभिवादनेऽस्मोत्यस्य प्रत्यभिवादने च सौम्येत्यमा नाम्नश्च यदनभिधानं भवदेवभट्टग्रन्थे तन्त्र युक्तम्। मनुविरोधात् । अभिवादने य: पादग्रहणविन्यासविशेषो मनुना विहितः स वध्वस्तथानाचरणाबाभिहितः। सोऽस्यावाग्विसर्गः स For Private And Personal Use Only Page #918 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६०४ संस्कारत्वम् । एवाभिवाद एवास्या वध्वः वाग्विसर्गः वाक्प्रसरणं तस्मात् पूर्व मौनम् इदानीं मौनत्याग इति तावुभौ ततः प्रभृति विरात्रमचारलवणाशिनौ ब्रह्मचारिणौ भूमौ सह भयोयाताम् । विवाहात् प्रभृति दम्पतौ दिनत्रयं चारलवणवर्जितं भुञ्जानी मैथुनमकुर्वाणो सहैव यौयातां भूमाविति खट्टादेः प्रतिषेधार्थं न तु प्रस्तर कम्बलादोनामपौति । श्रथाई मित्याहुः । अस्मिन वसरे कन्या पित्रा विष्टरादिदाने नाहणं कर्त्तव्यं स्वागतेष्वित्ये को विवाहार्थमागतमात्र ष्वेवाणमित्येके इदानीं बहुवादिसम्मतमेव व्यवक्रियते । हविष्यानं प्रथमं परिजपितं भुञ्जीत । तत्र श्वशुरगृहे यदनं प्रथमं भुञ्जीत तन्माषकोद्रवादिरहितं वच्यमायान्त्रपाशेनेति मन्त्रेणाभिमन्त्रितं खो भूते वा समशनौयं स्थालीपाकं कुर्वीत । यदि विवाह यज्ञादिना महानिशा भूता तत्परदिने सम्यगशनार्थं क्रियते इति समशनीयं स्थालीपाक कुर्वीत । तस्य देवताग्निः प्रजापतिर्विश्वेदेवा अनुमतिरिति । तस्य समशनीयस्याग्न्याद्या देवताः । श्रसमासकरणं पृथनिर्वापहोमार्थं मेक्षणेन चायं होम: बहुदेवतत्वात् देवदत्तविशेषस्यैव भोजनीयत्वात् होमदेवतानां प्राधान्यात् त्रिः प्रचालनम् उद्धृत्य स्थालीपाकं व्युयैकदेशं पाणिनाभिमृषेदत्रपाशेन मनुनेति । उद्दृत्य पात्रान्तरे कृत्वा स्थालीपाकशेषं व्युह्यान्यपात्र े निधाय एकदेशं न सर्वमपि भाण्डस्थितमिति अपाशेन मनुनेति मन्त्रत्रयेण श्रवासावित्यत्र सम्बोधनविभक्त्या भार्य्या नाम प्रयोज्यमिति भट्टनारायणैरुक्तम् । ततञ्च यदसावित्येव भव'देवभट्टेनानुहेन मन्त्रेणोक्त गुण - विष्णुनाऽसावित्यहमिति व्याख्यातं तदयुक्त भट्टभाष्यविरोधात् त्वेति युष्मत्पदप्रयोगात् सम्बोधनार्थं बधनामप्रयोगस्य युक्तत्वाच्च । किन्विदानीं सममनोयचरुडोमाकरणा इवदेवभट्टेन न समशनौयचरु होमादिकं For Private And Personal Use Only Page #919 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संस्कारतत्त्वम् । सिखितं मयापि प्रयोगेन लिखनीयमिति। भुतोष्टिं वध्वै प्रदाय यथार्थ गौर्दक्षिणा इति पतिः परिजपितमन्न मयं किधि का उच्छिष्टसुश्चरितं वध्वे जायायै प्रदाय दत्ता हत्यर्थमन्यदपि भुनाचम्य यथार्थं वामदेव्यगानान्तं कृत्वा गौर्दक्षिणा ब्राह्मणे देया। यद्यशक्तोः कुलाचाराहा तहिन एव तिहोमादिचतुर्थी होमान्त कर्म क्रियते तदाऽभिमन्वितं कदलादिकं स्वमात्राय बधमाघ्रापयेत् ततो वामदेव्यगानान्तं कुर्यात्। अथ यानारोहणादि। तत्र गोभिलः। *यानमारोहन्यां शाल्मलिमित्येतामचं जपेत्” प्रकृतत्वात् पाणिग्राहको जपेत् एतामित्यवाथमिति चेव यथा प्राप्तविश्वादियानेऽप्येतामेवभूतामेव जपेत् । नासमवेतार्थपदस्य लोपमूहनं वा कुया. दिति। अध्वनि चतुष्पथान् प्रतिमन्वयेत् नदौश्च विषमाणि च महाक्षान् श्मशानञ्च माविदन् परिपन्थिनः" इति मार्ग गच्छंचतुष्पथानुद्दिश्य भाषेत विषमाण्युञ्चनौचत्वेन चौरव्याघ्रादिभयाहा विषमाणि अक्षभङ्गेऽनडुहिमोक्षे यानविप Uसे यत्रागतं पूर्व तत् त्यत्वाऽन्यत्र याने वा अन्यासु चौरध्याघ्रोपद्रव कतापत्सु यमेवाग्नि नयन्ति तमिन्धनेनादिना संधुक्ष्य भूरादिभिराज्येन हुत्वाऽन्यदक्षादिकं योजयित्वा यत्सते. चिदतिश्रिय इत्यूचा भाज्येनाभ्युक्षयेत् वामदेव्यं गौत्वारोहेत् । पाणिग्राहको वामदेव्य गौवा यानं बधमारोपयेदिति । पक्षभङ्गादिनिमित्तहोमस्य इदानीं तथाचाराभावात् भवदेवभट्टे न लिखितं मयापि प्रयोगन लेख्यं प्राप्तेषु वामदेव्यं वरः वध्वाः पतिः ग्रहं प्रथमप्राप्तौ वामदेव्य गोत्वा प्रवेशयेत् । गृहङ्गतां पतिपुत्रशोलसम्पदा ब्राह्मण्यो वरोऽप्यानडुहे चर्मणि उपवेशयन्तीह गावः प्रजायध्वमिति। शोलमाचारः सम्पत्रा For Private And Personal Use Only Page #920 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संस्कारतत्वम् । युक्ता यानादयतार्य सुषचर्मादौ इह गाव इति मन्त्रेण भर्ती जप्यमानेन गायत्रया वा स्थापयन्ति तस्याः कुमारमुपस्थ आदध्युः। तस्या वध्वाः कुमारम् अवतचौड़ बालकम् उपस्खे क्रोड़े उपवेशयेयुः। ब्राह्मण्यस्तो शकलोटान् यजलो भावपेयुः फलानि वा कुमाराय भालुकानि कदल्यादिफलानि वा ब्राह्मण्योऽज्ञलौ दधः। शके कर्दमे लुटन्तौति शकलोटा: कन्दकाः। उत्थाप्य कुमारं ध्रुवा पाज्याहुतौर्जुहोति । पशाविह कृतिध्रुवा पावश्यकाः। कथञ्चिद्ग्रहगमनाभावेऽपि खशुरटहनिवासेऽपि अवश्य होतव्या इति। अव हति स्वाहा इति इत्यादिप्रयोगः। न तु वाहायोगे चतुर्थी ति. होमेन प्रयुञ्जयात्। गोनाममु तथाष्टम चतुर्थ्यामर्थ्य इत्येतही नामसु हि इयते इति छन्दोगपरिशिष्टात्। तिहोमे धृत्यष्टकहोमे समाप्तासु समिधमाधाय यथा वयसं गुरून् गोत्रणाभिवाद्य यथार्थ समाप्तासु धृत्याज्याहुतिघु समिधमाधाय समिधं प्रक्षिप्य यथावयसं वयोऽधिकक्रमेण गुरून् दृष्टान् गोत्रेण खगो वेणाभिवाद्य पादवन्दनं कृत्वा वधमप्य वं कृत्वा यथार्थ प्राय चित्तहोमादिकमुदीच कर्म समापयेत् एवमुभयकर्तकाभिवादनं भट्टभाष्योक्तत्वात् यदि त्वशक्तः कुलाचाराहा तहिन एवं चतुर्थी होमः क्रियते तदा तत् समाप्तावेवोदीचं कर्मतम्लेण कर्त्तव्यम्। गोभिलः। “प्रथातचतुर्थीकमविवाहतिथ्यनन्तरं चतुर्थी तिथौ वक्ष्यमाणं कर्म वर्तिष्यत" इति वाक्यार्थः । प्रतः शब्दो हेत्वर्थे यत एतदकरणे यास्या: पापो लक्ष्मीरित्यादिदोषः शरीराबापति तत एतदवश्यं कर्तव्यम् अग्निमुपसमाधाय प्रायश्चित्ताहुतौर्जुहोति अग्नेः प्रायश्चित्त इति चतुचतुः अग्निसुषसमाधाय विवाहाग्निमिन्धनेन सन्धुक्ष्य प्रायश्चित्तलिङ्गमन्वैराज्याहुतौर्जुहोति भन्ने प्रायश्चित्त इति मन्त्रेण For Private And Personal Use Only Page #921 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संस्कारतत्त्वम् । चतुश्चतुरिति वौसा बोध्या वक्ष्यमाणपरिशिष्टस्वरसात् प्रथमा. हुतियं धा पठितम मन्त्रेणैव भवति प्रन्यासु तिसृष्वम्निपदस्थाने वायुचन्द्रसूर्याः क्रमशः कायाः एतावानेव विशेषः शेषं पूर्ववत् एवं चतसृष्वयाहुतिषु पापोरिति स्वात् कुतः प्रथमस्यैव मन्त्रस्याभ्यासोपदेशात् तस्य चाग्नेः स्थाने वायुचन्द्रसूया इत्येतावता विशेषोतत्वात् समस्य पञ्चमी बहुवदग्राह्य तथैव समस्य बहुवदग्निवायुचन्द्रसूर्य्या इत्यादि पञ्चमौमाहुती जुहुयादिति पवापि वौसा बोध्या जोति कथनादब्रापि पापी लक्ष्मीरित्यादिवदेव द्रष्टय हितोयपञ्चके पतिघ्नौति विशेषः शेषं पूर्ववत् हतीये पाहुतिपञ्चके अपुरोति विशेषः । चतुर्थेऽपसव्येति विशेषः। एतत् स्पष्टयति छन्दोगपरिशिष्टे कात्यायनः । “मन्त्राम्नायेऽग्नय इत्येतत् पञ्चकं लाघवार्थिभिः पठ्यते तत् प्रयोगे स्यान्मन्त्राणामेव विंशतिः। अग्निस्थाने वायुचन्द्रसूयान् बहुवा ध च। समस्य पञ्चमौसूचे चतुश्चतुरिति श्रुतेः। प्रथमे पञ्चमे पापो लक्ष्मौरिति पदं भवेत्। अपि पञ्चसु मन्त्रेषु इति मन्त्रविदो विदुः । हितौये च पतिनो स्यादपुति टतोयके। चतुर्थेऽपसव्येति इति प्राहुतिविंशकम् ॥ गोभिलः । पाहुतेराहुतेस्तु सम्पातमुदपात्रेऽवनयेत्। जलपात्रे क्षिपेदित्यर्थः। तेन एनां सकेशनखामभ्यज्य क्रामयित्वा भावयन्ति तेनान्यमित्रजलेन एनां बध क्षयित्वा सकेशनखामिति सर्वहोमाद्यनाथ क्रामयित्वाऽग्निस्थामाद्देशान्तरं गमयित्वा सावयन्ति नापयन्ति बहुवचनादनियतः कर्ता। ऊर्ल्ड विरावात् सम्भव इत्येके । प्रकतातिरानादूई सम्भवः संयोगो मैथुन कर्तव्यमित्य के प्राचार्या मन्यन्ते। अथ गर्भाधानम्। गोभिलः। “यदा ऋतुमती भवति उपरतशोणिता तदा सम्भवकालः”। ऋतुः प्रजाजननयोग्य For Private And Personal Use Only Page #922 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 205 संस्कारतत्त्वम् । कालः तत्रिमित्तेन नैमित्तिकं गमनं काय्र्यम् चकुर्वतः प्रत्थ* वायात्रियमः " ऋतुमतोन्तु यो भाय्यां सन्निधौ नोपसर्पति । अवाप्नोति स मन्दामा भ्रूणहत्या हताहती" इति स्मृतः । ज्योतिषे । "ज्येष्ठामूलामघाश्लेषारेवतोक्कृत्तिकाखिनी । उत्तरात्रितयं त्यक्ता पर्ववजें व्रजेदृतौ ॥ विष्णुपुराणम् । चतुः यष्टौ चैव अमावास्याथ पूर्णिमा । पर्वाण्येतानि राजेन्द्र रविसंक्रान्तिरेव च” ॥ याज्ञवल्काः । " षोड़शर्त्तर्निशास्त्रीयां सासु युग्मासु संविशेत्” । पत्र षोड़शाहोरात्रात्मककालस्य सावनत्वात् पुंसवननामकरणयोरपि सावनगणनायायुक्तत्वाच संस्कारमात्रे सावनगणनया व्यवहारच तथा च याज्ञवल्काः । गर्भाधानमृतौ पुंसः सवनं स्पन्दनात् पुरा । षष्ठेऽष्टमे वा सौमन्तः प्रसवे जातकर्म च । अहन्येकादशे नाम चतुर्थे मासि निष्क्रमः । षष्ठेऽनप्राशनं मासि चड़ा कार्य्या यथाकुलम् । एवमेनः शमं याति बीजगर्भसमुद्भवम् ॥ चतुर्थे स्पन्दते तत इति वचनात् स्पन्दनात् पूर्वमासत्त्रयं पुंसवनकालः । अत्र चतुर्थमासस्य सौरत्वे चान्द्रत्वे वा निषेककामस्यापि तथात्वे तदाद्यन्त दिन निषेके सति अधिकन्यूनकालयो गर्भस्पन्दनमनियत मापद्येत सावने तु नियतं तेनात्र सावनगणना युक्ता योषिद्यवहारसिद्धा च अहन्येकादशे नाम इत्यत्रापि शौचव्यपगमे नामधेयमिति विष्णुस्वात् । सूतकोत्तर दिनपरमेकादशदिनपदम् । " सूतकादिपरिच्छेदो दिनमासाब्दपास्तथा । मध्यमग्रहभुक्तिव सावनेन प्रकीर्त्तिता" इति सूर्यसिद्धान्तवचनेन सूतकस्य सावनदिनघटितत्वात् तदुत्तरदिनस्यापि तथात्वम् अतो दिनमासवर्षगणना सावनेमिति । शुभाशुभविवेचनन्तु सौरेण ज्योतिःशास्त्रात् । अतएव पितामहः । “विवाहादौ स्मृतः सौरो यज्ञादौ सावनो मतः । For Private And Personal Use Only Page #923 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संस्कारतत्त्वम् । ८.८ पत्र हितौयादिशब्दात संस्कमपरिग्रहः। गर्भाधाने सदा प्राधा वारा भीमरवौज्यका: । गोभिलः । “दक्षिणेन पाणिना उपस्थममिस्पृशेत्। विष्णुर्यानि कल्पयत्वेतयार्चा गर्भ धेहि सिनौ च समाप्यचौं सम्भवतः । कुत्सितदेशस्य सव्येन पाणिना शौचदर्शनात् तहारगाय दक्षिणेनेति। उपस्थं योनि स्पृशेत् विष्णु रिति मन्त्रेण प्रथमं ततो गर्भ धेहि मिनौवाली त्यादिमन्वेण च। मन्त्रान्त कर्मादिसत्रिपात इति न्यायात् पाठानन्तरं स्पर्शः न तु भवदेवभट्टोक्तं स्मृशन् जपति। ऋचौ समाप्यैव संयोगं कुरत: न मध्ये वामदेव्यजपः । देवलः । *सवञ्च संस्कृता नारौ सर्वगर्भेषु संस्कृता । तेन गर्भाधानपंसवनसौमन्तोनयनानि सकदेव कर्तव्यानि । छन्दोगपरिशिष्टम्। "विवाहादिकगणो य उक्लो गर्भाधान शुश्रुम यस्य चान्ते । विवाहादावेक मेवान कुर्य्यात् श्राई नादौ कर्मणः कर्मणः स्यात् । विवाहादि गर्भाधानान्तकर्मसु एकमेव आई न तु प्रतिकर्मादौ एकेनैव श्राइन कृतेन सर्वाणि श्राद्धवन्तौति । अन्तशब्दोऽवावयवार्थः दशान्तःपट इतिवत् समौपार्थे उपलक्षणं स्यात्। ततश्च विशेषणोपलक्षणसन्देहे विशेषणत्वेन ग्रहणं कार्यान्वितत्वात्। यत्त “निषककाले सोमे च सौमन्तोन्नयने तथा। ज्ञेयं पुंसवने चैव भाई कर्मामेव च ॥ इत्यनेन भविष्यपुगणेन श्राद्ध कर्माङ्गत्वेन विहितं तच्चान्दोगेतरपरम्। अतएव भवदेव नापि न लिखितम् । अत्र बाहोत्तरगमनेऽपि न दोषः उक्तभविष्यपुराणात्। "नित्ये नान्दोमुख श्राधे कृते दानाद्यवर्जनम्" इति वचनान्तराञ्च। अथ पुंसवनम् । गोभिलः । “टतौयस्य गर्भमासस्यादिमदेशे पुंसवनस्य काल: । गर्मे सति बतौयमासस्य प्रादिमदेशे For Private And Personal Use Only Page #924 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८१० संखारतत्त्वम् । दशमदिनाभ्यन्तरे ज्योतिःशास्त्रोक्त काले पुंसवनं काय्यैम् । प्रातः सशिर रिस्काप्लुता पश्चादग्नेरुदगग्रेषु केशेषु प्राच्युपविशति आता खाता पश्चात् पश्चिमदिशि प्राखो उपविशति पत्युर्दचिणतः दक्षिणतः पाणिग्राहकस्योपविशतोत्यन्यत्र दर्शनात् । पञ्चादित्यभिधानात् प्रग्निस्थापनं लभ्यते । तत्सार्थकत्वाय " श्राज्यं द्रव्यमनादेशे जहीतिषु विधीयते । मवस्य देवतायाः प्रजापतिरिति स्थितिः” इति इन्दोगपरिशिष्टोलद्रव्यादि लभ्यते । जुहोतिषु वनेषु । मन्त्रस्यानादेश प्रजापति: प्राजापत्यो मन्त्रः । समन्त्रः व्यानुत्यात्मकः । ततच विरूपाचजपान्तां कुण्डिकां समाप्य समित्प्रचेपादिमहाव्याहृतिभिर्होमं कृत्वा प्रजापतिदेवताकसमस्त महाव्याहृतिहोमं कुय्यात् । ततः प्रकृतं कर्म । तत्र गोभिलः । “पञ्चाब् पतिरवस्थाय दक्षिणेन पाणिना दक्षिणमंशमन्यवमृषानाहित नाभिदेशमभिस्सृशेत् पुमांसौ मित्रावरुणावित्येतयर्था उपा विष्टाया वध्वाः पश्चिमदेशं गत्वानुपविष्टः पतिर्दक्षिणहस्तेन तूष्णीं तस्या दक्षिणस्कन्धमवमृष्य वस्त्राद्यव्यवहितं नाभिं पुमांसाविति मन्त्रेण स्पृशेत् पथ यथार्थम् अनन्तरं वामदेव्यगानान्तं समापयेत् यदि त्वभक्तेर्देशाचागत् कुलाचाराहा एकस्मिन् दिने द्वितीय पुंसवनमपि क्रियते तदा गणेष्वेकं परिसमूहमम्" । यो वहि: पर्य्यचणमान्यभागः सर्वेभ्यः समवदाय सक्कदेव सौर्वािष्टकृतं सुहोतोति गोभिलसूत्रान्तरात् । उभयकर्मान्ते वामदेव्य गानाद्युदौच्यं कर्म कर्त्तव्यम् अतएव सरलायां दिनइये भट्टभाष्यभवदेवयोरेकदिने उभयकरणं लिखितम् । अथापरम् अथ प्रथमपुंसवन समाप्तिकालानन्तरं तदानीमपरमन्यत् पुंसवनं कार्य्यं प्रागुदीच्यां दिशि न्यग्रोधशङ्गामुभयतः फलामम्नानामकृत्रिमपरिमृष्टां For Private And Personal Use Only . Page #925 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संस्खारतत्वम् । ६११ पिसप्तभिर्यवोसैर्वा परिक्रीय उत्थापयेत्। यद्यसि सौमौ सोमाय वाव परिक्रौणामि यद्यसि वारुणी वारुणाय स्वावले परिक्रोणामि यद्यसि वसुभ्यः वसभ्यस्त्वापरिक्रोणामि यद्यसि रुद्रेभ्यो नट्रेन्यस्त्वापरिक्रोणामि यद्यसि प्रादित्येभ्य आदित्येभ्यस्वापरिक्रोणामियसिमराजयो महास्वापरिक्रोमामि यद्यसि विश्वेभ्यो देवेभ्यस्त्वापरिक्रोणामि पोषधयः सुमनसो भूत्वा पस्यां वौयं समाधत्त इयं कर्म करोथतीत्युत्थाप्य तृणैः परि. धायाहत्य वैहायसी निदधात् । वटत्तरीः पूर्वस्यां दिणि शक्कामुकुलितनवः । “लतानः पशवो यूढ़ः शङ्गेति परिकौवं ते । पतिव्रता व्रतवतौ ब्रह्मवन्धस्तथाश्रुतः" इत्युक्तोः। प्रशुतो वेदहौन: तां फलयुगलयुतामम्बानां कमिभिरव्याप्तां विरावृत्तः सप्तभिर्यवैर्मासैर्वा बिराढत्तै: क्रौत्वा रहीयात् । क्रय वक्षस्वामिनो न इक्षात् तेन वृक्षस्वामिने यवा माषा वा देयाः यवसोबादि सप्तभिमन्वैः। प्रतिमन्त्रञ्च गुड़कत्रयं दद्यात् । पोषधय पति मन्त्रेणोत्थाप्य च होवेष्टयिल्ला पानीयाकामयां निदध्यात्। दृशदं प्रक्षास्य ब्रह्मचारीव्रतवती वा ब्रनबन्धुः कुमारी वा अप्रत्याइरन्तौ पिनष्टि दृशदं शिलां पेषणार्थत्वेन सपुवां कुमारौ पढ़ा व्रतवती पतिव्रता अप्रत्याहरन्ती नियंकयुवकेण पेषणमकुर्वतो किन्तुछिनपुत्रकेण पुनः पुनः पेषणं कुर्वतो प्रात: सशिरस्कालता उदगग्रेषु कुशेषु प्राक्शिराः संविशति शेते शेषं सुगमम्। पश्चात् पतिरवस्थाय दक्षिणस्य पाणेरङ्गुष्ठेनोपकनिष्ठयाऽल्या । अभिसंग्रह दक्षिणनासिकाग्रेण तस्या नयेत्। पुमानम्लिः पुमानिन्द्र इत्येतया। पचाहध्वाः पश्चिमदिशि उपकनिष्ठयानामिकया तेनाङ्गुष्ठानामिकाभ्याम्। पिष्टां शुजां वस्त्रवहां रहौवा निष्पौड्य दक्षियनासारन्ध क्षिपेत् पुमानग्निरिति मन्त्रेण । For Private And Personal Use Only Page #926 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६१२ संस्कारतत्त्वम् । अथ यथार्थम् अनन्तरं दक्षिणायुदौयं कर्म कुर्यात् । पुंसवनकर्माधानकर्तुरसबिधानेऽन्येनापि कर्तव्यम्। “अष्टौ संस्कारकर्माणि गर्भाधानमिव स्वयम्। पिता कुर्यात्तदन्यो बा तथ्याभावेऽपि तत्क्रमात् ॥ इति स्मृतेः। भुजवले। "सुफलच्च करे कृत्वा स्थिरे तत्रासने तथा। ग्रह्योदितेन होमञ्च शान्तिश्चैव च कारयेत् ॥ सूत्रेण संग्रथ्य जीवं जातीच्च विद्रुमम् । गुवाकं रजतं हेम दद्यात् स्तनतटान्तरे । ततः प्रभूति नदौतौरं देवखातोदकं त्यजेत्। सध्याटर्न लरोर्मूलं तथा देवरहं त्यजेत् ॥ अथ सौमन्तोनयनम्। यदि पुंसवनं न कृतं तदा तस्मिवेष दिने प्रायश्चित्तात्मकमहाव्याहृति होम कला पुंसवनं कत्वा सौमन्त नयनं कार्यम्। तथा च नारदः । “येषान्तु न कताः पूर्व संस्कारविधयः क्रमात्। कर्तव्या वाढभिस्तेषां पैटकादेव तहनात् ॥ अविद्यमाने पिवाथै स्वांथादुत्व वा पुनः। पवश्व कार्याः संस्कारा भाटभिः पूर्वसंस्कृतैः” । क्रमात् भ्रातृणां संस्काराणाञ्च पौर्वापौर्यक्रमात् भ्राटक्रमस्तु सोदरविषयः । विवाहे तथा दर्शनात । छन्दोगपरिशिष्टम् । "देवतानां विपर्यासे जुहोतिषु कथं भवेत्। सर्व प्रायश्चित्तं कृत्वा क्रमेण जुहुयात् पुन: ॥ संस्कारा पतिपत्थेरन् खकालाच कथञ्चन। हुवेतदेव कुर्वीत ये तूपनयनादधः" । एतदित्यनेन सर्व प्रायश्चित्तमनुकष्ट तश्च प्रागेब विकृतम् । उभयकरणे तन्त्रेणैव मातृकापूजादि। *गणशः क्रियमाणे तु मारभ्यः पूजनं सक्कत्। सक्कदेव भवेत् श्राइमादौ न पृथगादिषु ॥ इति छन्दोगपरिशिष्टात् । गोभिलः। अथ सोमन्तकरणं प्रथमे गर्भ चतुर्थे मासि षष्ठेऽष्टमे वा। अथ पुंसवना. सत्तरं सौमन्तः केशरचनाविशेषः। वाशब्दे क्यान चतुर्थादि. For Private And Personal Use Only Page #927 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संखारतखम्। मासानां तुल्यवरिकरूपः किन्त पूर्वपूर्वकास: प्रशप्तः समर्थस्य क्षेपायोगादिति न्यायात् । ततो नवमासादौ प्रायश्चित्तं छत्वैवं कर्तबम् । प्रथमगर्भ इत्युपादानात्। यदि कश्चिदबत एतस्मिन् संस्कार गर्भनाशे पुनर्गोत्पत्ती पयं कालमियमो न किन्तु गर्भस्पन्दने सोमन्तोनयनं यावत्र बालप्रसवः इति शङ्कलिखितीतकालो ग्राधः। वृहद्राजमार्तण्डे । "यानार्थकतसौमन्ता प्रसूते च कथञ्चन। अङ्के निधाय तं बालं पुनः संस्कारमहति। षष्ठे मासेऽष्टमेऽहोज्यकुजदिनकतां मन्दे सभद्रे तिची मैत्रे मूले मगाङ्के करपिटपवने पोणविवियुग्म। पुष्याम्खादित्यरौद्रे युवतिहरिभषे हचिके वापि लग्ने चन्द्रे तारानुकूले शुभमपि नियतं स्थाश्च सौमन्तकर्म। मृगाजरहिते लग्ने नवांश पुंग्रहस्य च । केचिहदन्ति सौमन्तं तथा रितरे तिथौ”। गोभिलः। “प्रातः सशिर• स्कानुतोदगयेषु दर्भेषु प्राथुपविशति उतार्थमेतत्। पश्चात् पतिरवस्खाय युगमतमोडम्बरं शलाटुप्रथमावनाति पयमूर्नाबतो वृक्ष इति । अग्नेः पचात् पतिः स्थित्वा युगानि फलानि यंलिन् शलाटुप्रथे नौलस्तवके सयुगमान् मतुवन्तम् । तथा च महनारायणकृतं छन्दोगपरिशिष्टम्। “शताटु नोलमित्युत प्रथस्तवक उच्यते। कपुष्णिकाभित: केशा मूहि पश्चात् कपुष्णिकः ॥ इति एतहचनं नारायणोपाध्यायेन कृतम् । उडुम्बरभवमौडम्बरम्। पयमूर्जावतो वृक्ष इति मन्त्रेण भार्यायाः कण्ठे बध्नाति। पथ सौमन्तमू नयति भूरिति दर्भपिचलौभिरेव प्रथमं भुव इति हितौयं स्वरिति तौयम् । पथानन्तरं यत्र सिन्दूरं स्त्रौ ददाति तं सौमन्तं ललाटोह नयति भूरिति मन्त्रेण दर्भपिश्चलोभिस्तिभिः एकवारकरसाद यावन्त्युबयनानि तावतीभिरेव तिमभिरित्यर्थः। प्रथमा For Private And Personal Use Only Page #928 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८१४ संस्कारतत्वम् । दिपदानि तु व्यावतीनां पिजलौनाच पृथग्विनियोगार्थम् । पिनलौपवितम्। तथा च छन्दोगपरिशिष्टस् । “अनन्तगर्भिणं सायं कौशं हिदलमेव च । प्रादेशमान विजेयं पवित्र यत्र कुत्रचित्। एतदेव हि पिचल्या लक्षणं समुदाहृतम् । गोभिलः। - अथ वोरतरेण येनादितेरित्य तया"। बोर. स्तरन्त्यनेन युद्धमिति वौरतरः शरः। तथा च छन्दोगपरिशिष्टम्। "खाविच्छलाका शललो तथा वौरतरः शरः। तिलतण्डुलसम्पाकः कषरः मोऽभिधीयते ॥ ततः परेण येना. हितैरिति मन्त्रेण सौमन्तमू नयति इति पूर्वसूत्रादनुवर्तते । अथ पूर्णेन सूत्र चावण वाकाहमित्येतय । चानटाः । लेन सूत्रपूर्णेन वाकाहमिति मन्त्रेण सौमन्तमूई नयतीति शेषः त्रिःखेतया शलल्या यास्तेवाके सुमतय इति स्थानवितये शक्लन शे जाजन्तु कण्टकेन यास्ते इति मन्त्रेण सौमतमूई नयतौति शेषः। वषरस्थालोपाक उत्तरतस्तमवेक्षयेत् । कपर उक्र: खालीपाकवरः स उपरिदत्ततस्तं वध्वाः प्रदर्शन येत् स्थानौपाकपदं चरस्थाल्यां कषरस्य थपनार्थ मनुष्यार्थत्वात् हिःप्रक्षालनम्। ततश्च य: कश्चिन्महानसे अपयित्वा स्थापयेत्। किम्पश्य सौत्यु का प्रजामिति वाचयेत् किं पश्य. नौति पनिरुत्वा प्रजामित्यादिमन्च गर्मिणों वाच येत् । तमा वेक्षित वषरम् । वौरसूर्जवसूर्जीवपनौति ब्राह्मण्यो मङ्गल्यादि. भिर्वाग्भिरूपामोरन्। वौरान् विक्रान्तान् पुत्रान् सूत इति बोरसूरत्व भवेति वाक्य शेषः। प्रतिपदं स्यात् जीवतो दौर्धायुषः पुत्रान् सूत इति जीवसू: जौवत: पनौ जीवपत्नौ अवि. धवेत्यर्थः। एवं प्रकाराभिर्वाग्मिरनुनयेयुः। ततश्च महा. व्याहृतिभिहु वा पौडुम्बरफलस्तवकं कण्ठं वध्वा प्रजामिति वाचयेदित्यन्तं तन्वं कृत्वा व्याहृतिभिर्जमादितन्त्र समाफ येत्। ततो ब्राह्मण्य उपासोरन् । For Private And Personal Use Only Page #929 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संस्कारतत्वम् । अथ गोयन्तौडोमः। प्रथानन्तरं शोषन्ती शूलापनाम पासप्रसवा चावा होमः शोप्यन्तोमः कर्तव्य इति अषः। सुप्रसव प्रतिष्ठते वसो परिस्तोयाग्निमावाद्या. हुतीर्जुहोति या तिरपौत्येतया। विपश्चित् पुच्छमभवत् इति वस्तिोनिहार वस्तौ स्थित गर्ने प्रतीत्युपसर्गः । पारस्वोर्थाग्निमिति समिर पुनर्वचनं परिसंख्यामार्थं परिसरणमात्रमेव न तु ब्रह्मोपवेशनाद्यपौति। ततश्च क्षिप्रहोमः परितरणाज्यसंस्काराबकवाधिको पल्यत्वात् कालस्य । था तिचीत्थाम्या जुहोति । पुमानजं जनयिथते प्रसौ नमित्येतस्मिन् सर्धमानि देवदत्तशर्मा नाम स्वाहा इत्येवम्। अध जातकी। गोभिलः। “यदाम्मै कुमार जातमाचक्षौरन् पथ ब्रूयात् काचत नाभिकन्तनेन स्तनप्रतिधानेन चेति । अ पिने पुत्र नातं कथयेयुः शिष्यादयः । नाभिकन्तनेन स्तनप्रतिधानेन काइत इति पिता ब्रूयात् । नाभिछेदनमाला स्तनपानप्रतिषेधेन च बालकं प्रतिपालयत । तत: पिता परिस्तिवस्त्रसहितः मायात्। “जाते पुत्रे पितुः घानं सचेल न्तु विधीयते”। इति संवर्तात्। ततः पुत्रजन्मनिमित्तं हरियाई तन्त्रेण कुर्यात्। “नैमित्तिकमथो वक्ष्ये श्राहमभ्युदयार्थकम्। पुवनन्मनि तत्कायें जातकर्मसमं नरैः ॥ इति मार्कण्डेयपुराणात्। “सौमन्तोनयने चैव पुत्रादिमुखदर्शने। नान्दोमुखं पिटगणं पूजयेत् प्रयतो रहो" ॥ इति विष्णुपुराणवचनाच। साङ्गबाइकरणागतो अनोत्सर्गमात्र कर्तव्यम्। मिताक्षरायां पितामहः । "अशोचे तु समुत्पत्रे पुषजन्म यदा भवेत्। कर्तुस्तात्कालिको शद्धिरशः पुनरेव सः ॥ तात्कालिको पुत्रजन्मनिमित्तकालिको। दानदर्पणे वराहपुराणं "यावत्कालं सुते जाते न नाड़ी विद्यते For Private And Personal Use Only Page #930 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११६ संस्कारतखम् । पुनः। चन्द्रसूर्योपरागण तमाहुः समयं समम् । सत्यचिन्तामणो देवनः। “जाते पुवे पिता श्रुत्वा सचेलं मानमाचरेत्। ब्राह्मणेभ्यो यथाशक्ति दत्त्वा बालं विलोकयेत् । गर्गः । “श्रुत्वा बालस्य वै जन्म कृत्वा वेदोदिताः क्रियाः । अविनालं पश्येत्तं दत्वा कम फलान्वितम् ॥ पुनः बानमाहादिपुराणम्। “सूतके तु मुखं दृष्ट्वा जातस्य जनकस्ततः। कृत्वा सचेलं नानन्तु शरो भवति तत्क्षणात्। मोभिलः । “बौहियवो पेषयेत्तयैवाढता यथाशन क्रोशित सरत् पकधान्यं तदभाव हेमन्तिकं धान्यं यवालावे गोधमा: । तथा च छन्दोगपरिशिष्टम्। “यथोक्त वस्त्वसम्पत्तो पाच तदनुकारि यत् । यवानामिव गोधमा व्रीहिणामपि शालयः । उभयालाभे प्रत्येकम् । “यथा लाभोपपत्र वा रोप्येषु त विशेषतः ॥ इति याज्ञवल्कावचने पावे तदर्शनात् । अवाप्यशत्या तथा कल्पाते बटशङ्गा पेषणे या परिपाटौ तयावापि पेषयेत्। दक्षिणस्य पाणेराठेनोपकनिष्ठया चाङ्गल्याऽभि. संग कुमारस्य निखां निर्माटि श्यमाति। पिष्टौ बौद्धियवो दक्षिणहस्तानामिकाङ्गुष्ठाभ्यां रहोत्वा कुमारस्थ रसनायां निदधाति इयमाति मबेण तथैव मेधाजननं सर्पिः प्राशये. स्नातरूपेण चादाय कुमारसुखे जुहोति मेधान्ते मित्रावरुणामित्येतय सदसस्पतिमिति च। तथैव दक्षिणस्तानामिकाङ्गुष्ठाभ्यां कृतेन जातरूपेण कावनेन तं ग्रहोत्या मेधाजनन इतम्। शिशोराखे संदधाति प्रत्येकमग्भ्यां जुहोतोयनेन मन्त्रस्य वाहान्तवं प्राशयेदित्यनेन मुखाधिकरण व कन्ततनाभिमिति ब्रूयात् स्तनच प्रतिधत्तेति उतानिषेधविधिरय नाभिशब्दो नाभिनिकटनाडोपरः स्तनपदं तत्क्षौरपरम पता आईमसमालम्भनमादशरात्रात् जातकर्मण उपरि पसंस्थः। For Private And Personal Use Only Page #931 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संस्कारतत्त्वम् | १७ दशमदिनं व्याप्य अभिविधावां जातकर्म कृत्वा न खानाईता सद्यो जाते एनो नास्तीति वचनादिति सरला । अथ नामकरणम् । तत्र गोभिलः । " जननाद्दशराचे व्युष्टे शतरात्र े वा संवत्सरे वा नामधेयकरणम्” । व्युष्ट गते । तथा च श्रुतिः । “ एकादशे द्वादशे वाहनि पिता नाम कुर्य्यात्” एकादश इति मुख्यकल्पः । समर्थस्य चेपायोगात् इति न्यायात् । अतएव भट्टभाष्ये श्रुतिः । “नश्खः समुपासीत की समर्थस्य वो वेदेति । एतञ्च प्रशस्ततरतमपरपरकालकर्मेतरपरम् । अथ यस्तत् करिष्यन् भवति पञ्चादग्नेरुदम. ग्रेषु दर्भेषु प्रागुपविशति । अथेति जन्म गृहाभ्यन्तरे अन्यथा चन्द्रदर्शनात् प्राक् तद्दहिर्गमनं स्यात् । य इत्यनेन पितुरभावेऽन्योऽप्यधिकारो। अथ माता शुचिना वस्त्रेण कुमारमाच्छाद्य दक्षिणत उदञ्चं कर्मकर्ते प्रयच्छति उदक्शरसमनुपृष्ठ पविक्रम्योत्तरत उपविशति उदगग्रेषु कुशेषु श्राच्छाद्य चाडीषदर्थे तेन मुखवजें छादयित्वा दक्षिणतः पत्य ु दक्षिणतः स्थित्वा उदञ्च मुत्तानम् अनुपृष्ठं कर्तुः पश्चिमदेशं परिक्रम्य गत्वा । अथ जुहोति प्राजापतये तिथये नच्चत्राय देवतायै" इति । तिथये नक्षत्राय कुमारस्येति शेषः । देवतायै तिथिमनयोरित्यर्थः । तथा च बह्वृचग्गृह्यम् । " तन्मध्ये जुहु - याद यस्मिन् जातः स्वात् इति” ॥ तिथयः प्रतिपदाद्या: तद्देवताः ब्रह्मत्वष्टृ विष्णुयमसोम कुमार मुनिव सुपिशाचधमंरुद्रवायुमन्मथयक्षपितरः । पौर्णमास्यां विश्वेदेवाः । एषां होमे विशेषमा छन्दोगपरिशिष्टम् । "नामधेये मुनिवसुपिशाचाबहुवत्सदा । याच पितरो देवा यष्टव्या तिथिदेवताः ॥ तेन मुन्धादयो बहुवचनान्ता होतव्या इति शेषाः एकवचनान्ता होतव्याः । नचत्राख्य विन्यादौनि । देवता ज्योतिषे प्रवि For Private And Personal Use Only ་ Page #932 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११८ संस्कारतत्त्वम् । यमेत्यादि। पनाभिजितो भिनत्वात् अष्टविंशतिहोमे त नाभिजितो ग्रहणम् उत्तराषाढावेन अवणात्वेन च तदभिधानात्। तेन विरिञ्चिग्रहणम्। नक्षत्रहोमे छन्दोगपरि शिष्टम् । “पाग्नेया इंथ सर्पा हे विशाखा हे तथैव च । भाषाढ़ा हे धनिष्ठा हे अश्विन्या हे तथैव च। इन्हान्येतानि बहुववृक्षाणां जुहुयात् सदा ॥ इन्हदयं हिवच्छेषमवशिष्टान्यथैकवत्। कत्तिका हे विशाखा हे पाषाढ़ा धनिष्ठा हे एतानि हिकानि हिकानि भोमकत्तिकाभ्यः स्वाहा रोहिणीभ्यः स्वाहा इत्यादि बहुवचनयुक्तानि जुहुयात् शेषं इन्हदयं भाद्र. पदहयं फल्गुनौहयञ्च हिवचनयुक्त जुहुयात् शेषारयेकवचनयुक्तानि तद्देवता होमेऽपि विशेषः। “देवता अपि इयन्ते बहुवत् सपवस्त्रपः। देवाच पितरश्चैव हिवनाशिनी तथा ॥ देवा विश्वेदेवाः। गोभिलः । “तस्य च मुख्यान् प्राणान् स्मृशन् कोऽसि कतमोऽसि इत्येतन्मन्त्र जपात पाहस्मल मासं प्रविद्यासावित्वन्ते च मन्त्रस्य घोषवदाद्यन्तरन्तस्य दौर्धाभिनिष्ठानान्तकृतं नाम दध्यात्। कुमारस्य मुखभवान् वायन प्राणनिर्गमोपायभूतान् छिद्रविशेषसप्तमुखमक्षिणी नासिके कर्णाविति भाभिमुख्येन स्मृशन् काऽसौति मन्त्र जपत् आहस्पत्यं मासं प्रविशासावित्यत्रासाविति मन्त्रान्ते चासाविति च पदद्दयस्थाने सम्बोधनान्त नामोच्चारेयत्। कीदृशं कक. र्गादि पञ्चकटतौयादिवर्णान्यतमवर्णाद्यन्तरखं यरलवाद्यन्यतमवर्णमध्य दौर्घ हिमानम्। पाकारादि अभिनिष्टानो विसर्गः। एतदुभयान्यतरं यस्यान्त पर्थादसंबुद्धिप्रथमान्तप्रयोगः। अन्यविभक्तरसम्भवात् कृतं कदन्त यथा वलिध्वंसौ विश्वम्भर इत्यादि। तथा च गर्गः। “पादौ घोषवदक्षरान् यरलवान् मध्ये पुनः स्थापयेत् अन्त दौर्षविसर्जनीयसहित For Private And Personal Use Only Page #933 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संस्कारतत्वम् । १८ माम प्रयत्नात् तम्। ऋचे तिष्थकराखिसौम्यवसभे चित्रा. मुराधोत्तरे पौष्णे चादितिरोहिणीषु शभवत् पुंसां समैरशरैः। गोभिलः। “एतदतहितम्। एतबाम तहितरहितम् एतच्च स्वरह्योतत्वात् प्रशस्तपर कुलदेवानक्षत्रामिसम्बई पिता नाम कुर्यात् तदन्यो वा कुलवृधः" इति कल्पনমভুলিনিৰনালামানঘন্সৰস্থা। মন ননसम्बन्धेन नामकरणं शतपदचक्रानुरोधात् खनक्षत्रपादानुसारण तच्च देवशम्माापपदान्तत्वेन कर्त्तव्यम्। तथा च विष्णुपुराणम्। “तत नाम कुर्वीत पितैव दशमेऽहनि । देवपूर्व नराख्य हि शर्म वमादि संयुतम्” इति। नरमाचष्टे इति नराख्य नरनाम देवात् पूर्व तच्च विशिष्ट धर्मयुतम् । "धर्मा देवश्च विप्रस्य वर्मा वाता च भूभुजः। भूतिगुप्तव वैश्यस्य दासः शूट्रस्य कारयेत्"। इति यमवचने समुच्चयोपलयः “शर्मान्त ब्राह्मणस्य स्यात्” इति शातातपोयेन शर्मान्तता च । गोभिलः। “प्रयुग्दान्त स्त्रीणाम् । पयुक् अयुग्माक्षर दान्तं यथा यशोदा इत्यादि। “देवं गुरु गुरुस्थान क्षेत्र क्षेत्राधिदेवताम् । सिद्ध सिद्धाधिकारांश्च श्रौपूर्व समुदौरयेत् । इति राघवभतप्रयोगसारदर्शनात् । स्वर्गगामित्वादिना विहः भधिकारो येषां नराणामित्यनेन जोवतां श्रौशब्दादिल नानो न मृतानां तथेति शिष्टाचारः । गोभिलः । "मावे चैव प्रथमं नामधेयमाख्यायं यथार्थम् उदौयं वामदेव्यगानान्त कुयात् गौदक्षिणा सा च प्रधानस्य नामकर्मणः”। अथ निष्क्रमणम्। गोभिलः। “जननादयस्ततोयोन्यौत्रस्तस्य वतीयायां प्रात: सशिरस्कं कुमारमानाव्यातमिते सूर्य वौते लोहिते पनलिकत: पितोत्तिष्ठते"। कुमारस्य जननमारभ्य योज्योत्स्रो वृद्धियुक्ताः पचस्तस्य तौया. For Private And Personal Use Only Page #934 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८२० संस्कारतत्त्वम् । तिथौ प्रातः सशिरस्क' कुमार स्वापयित्वा प्रातनं मध्याह्नादी अस्तमिते सूर्ये विगते रक्तिमावस्थे काले सन्ध्योपर मे अच्चलि कृतः बहुव्रीहावाहिताग्निगणपाठात् कृताष्मलिरुपतिष्ठते चन्द्राभिमुख जई स्तिष्ठेत् । अथ माता शुचिना वस्त्रेण कुमारमाच्छाद्य दक्षिणे उदयं पित्रे प्रयच्छति उदक्रिसम् उदञ्च मुत्तानमिति भट्टभाष्यम् । उत्तरां गच्छन्तमिति सरला । अनुपृष्ठ परिक्रम्योत्तरतः अवतिष्ठते पत्युः पृष्ठस्य पश्चादुपक्रम्य मा उत्तरस्यां तिष्ठेत् पश्चिमाभिमुखी अथ अपति यत्ते सुसौमे हृदयमिति यथायं न प्रमोयते पुत्रोजनित्रा अधौति उदव मात्र प्रदाय यथार्थं मातर्बुदग्गतायां पिता यत्त इत्यादि पुवोजनिवा अधोत्यन्तमन्तदयं जवा उत्तानमुत्तरां गच्छन्तमुदशिरसं कुमार मात्र दत्त्वा वामदेव्यगानान्तं कुर्य्यात् । कृत्य चिन्तामणिः । “स्वस्वविधानतोऽर्कशशिनोरव्यं दापयेत्” कति छन्दोगेतरपरः । चन्द्रार्घस्तु चोगेदार्थवसंभूतेत्यादि । तत्र हिश्राहमाह गोभिलः । " सर्वाण्येवान्वाहाय्वन्ति । एतदग्टह्योक्ते कर्मणि सर्वाण्येवान्वाहाय्र्यवन्ति । अन्वाहार्थं नान्दोमुखश्राड दक्षिणा च तदुभययुक्तानि । तथा च गृह्यान्तरम् । " यच्छ्राद' कर्मणामादौ या चान्ते दक्षिणा भवेत् । आमावास्यं द्वितीय यदन्वाहार्यं विदुर्बुधाः” । माट पूजानन्तरमा क्रियमाणत्वात् श्राहस्य प्रधानकर्मानन्तरमाजियमाणत्वादचिणायाः पिण्डपितृयज्ञानन्तरमाहियमाणत्वादमावास्याश्राह्नस्यान्वाहाय्र्यत्वम् । न च वृहत् पत्र क्षुद्र पशुख स्त्यर्थं परिविश्यतोः । “सूय्र्यन्दोः कर्मणौये त तयोः श्राई न विद्यते” । इति इन्दोग परिशिष्टाच्चान्द्रकर्मत्वेन श्रापदासः कल्पतरुप्रभृतिभिरुक्तो युक्त इति वाच्यम् । पूर्वार्थानवलोकनात् । अतएव वृक्ष इरेति पञ्चच इति प्रकृते द्विती For Private And Personal Use Only . Page #935 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संस्कारतत्त्वम् । १२१ यथा ऋचा प्रादित्ये परिविश्यमाने पचततण्डमान् जुहुयात् पवखस्ययनकामः ढतीयया चन्द्रमसौति तिलतरहलान् क्षुद्रपशखस्त्ययनकामः इति सूत्राभ्याम्। परिविशति सूर्य स्त्यखादि वृहहाइनखस्त्ययनार्थं चन्द्रे च परिविशति प्रजमेषादि क्षुद्रपशुखस्त्ययनार्थ होमकर्महयमुन तयोः बाई नास्तौति परिशिष्ट प्रकाशः । बाइविवेकाऽप्य वम् । गोभिलः । "पथ ये पतऊह ज्योत्नः पक्ष: प्रथमोद्दिष्टा एव तेषु पितो. पतिष्ठत अपामजनों पूरयित्वाभिमुखचन्द्रमसां यददचन्द्रमसौति स ऋजु शुहुयात्"। हिस्तष्णौम् उत्सृज्य यथार्थ कियदि प्रत जल ज्योत्ना खेतत् कर्मा संवत्सरम् । तीयशुक्लपचाटूक शलपक्षेषु प्रथमोहिष्ट हतीयायां तियो वत्सरपर्यन्तं चन्द्राभिमुख: पिता सकञ्चन्द्रायाञ्जलिम्। भोम्यददचन्द्रमसौति मन्त्रेण दद्यात्। प्रथमोदित एवेति भट्टभाष्ये पाठः। तपते प्रथमोदिते चन्द्रमसि प्रतिपदि हितौयायां वैति व्याख्यातच । ततो वामदेव्यगानमच्छिद्रावधारणं कात्। प्रथानप्राशनम्। यद्यपि गोभिलरो पनप्राशनसंस्कारो नाभिहित: तथापि “अवस्य प्राशनं कार्य' मासि षष्ठोष्टमे वधः। स्त्रीणान्तु पञ्चमे मासि सप्तमे प्रजगौ मुनिः" । पति कचिन्तामणिधृतवचनेन सर्वशाखिकक वे नाकान्तिः । "यवानातं स्वशाखायां परोक्तमविरोधि च । विद्भिस्तदनुठेयमग्निहोवादिकमवत्" इति छन्दोगपरिशिष्टादन्यशाखोकाप्रकारेण छन्दोगेन कर्तव्यः। पूर्वापरति कत्तव्यताकलापस्तु खमयानुसारेण कार्यः। इति भट्टनारायणप्रभृतयः भुजवलभोमे। “षष्ठे मासि निशाकरे शुभकरे रितोतरे वा तिथौ सौम्यादित्वसितेन्दुजीवदिवसे पक्षे च कृष्णेतरे। प्राजेशादिति For Private And Personal Use Only Page #936 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३२ संस्कार तत्वम् । पोष्ण वैष्णव युगेई स्वादि षट्कोतरेराग्नेयाप्पतिपित्रमेषु नित रामन्त्रादिभच्यं शुभम्” । युगैरिति प्राजेशादौ प्रत्येक सम्ब ध्यते । कत्यचिन्तामणी । “दादशौ सप्तमौ नन्दा रिक्ता पचपर्वसु । बलमायुर्यशो हन्याच्छिशूनामत्रभक्षणम्" । भुजबलभौमे । “वृषइन्द्रधनु मौन कन्या लग्नेऽच भक्षणम् । विकीयाष्टघुगान्तेषु ग्रहा यद्यत्तथा फलम् । दुष्टः शशधरो लग्नात् षष्ठाष्टस्थोऽन्नभक्षणे” । मध्यपुरार्ण पक्ष प्रायें च सौमन्तं पुत्रोत्पत्तिनिमित्तके। पुंसवने निषेके च प्रवेशे नववेश्मनः । देवचजलादीनां प्रतिष्ठासु विशेषतः । तीर्थयात्रास दिश्राद्ध प्रकोर्त्तितम् । प्रकोर्त्तितम् । मार्कण्डेयः । "देवतापुरतस्तस्य पितुरवगतस्य । लड़तस्व दातव्यमचं पात्रे च काञ्चने ॥ मध्याज्य कनकोपेतं प्राथमं शंसतै ततः । कृतप्राशनमुल्लङ्ग मातुर्भालन्तु तं त्यजेत् ॥ देवाव्रतोऽथ विन्धस्य शिल्पभाण्डादिसर्वशः । शस्त्राणि चैव शास्त्राणि ततः पश्येत्तु लच्तणम् ॥ प्रथमं यत् स्पृशेद्दालः शिल्पभाण्ड स्वयं तथा । जौविका तस्य बालस्य तेनैव तु भविष्यति” ॥ श्रथ चूड़ाकरणम्। गोभिलः । अथातस्तृतीये वर्षे चूडाकरणम् । जननामन्तरं वर्त्तमानतृतीये वर्षे चूड़ाकरणमुदगयनादौनां समुचये बोडव्यम् । कणिका कपुच्छलाख्यः केशचड़ा तासां वक्ष्यमाणविधिना संस्कारकरणम् । चूड़ाकरणं कर्मणी नामधेयम् । अयं कालो मुख्यः गृह्येोक्तत्वात् । अत्रासामर्थेऽन्योऽपि कालः । यथा मनुः । “ चड़ा कभी दिजातीनां सर्वेषामेव धर्मतः । प्रथमेऽब्द हृतौये वा कर्त्तव्य श्रुतिदर्शनात्" इति। शङ्खलिखितौ । "हृतौये वर्षे चूडाकरणं पञ्चमे वैति” । ज्योतिष | "भयुग्माब्दे तथा मासि चूड़ा भौमथनौतरे । अर्केन्दुकालशहा च जन्ममासेन्दुमाह । रिक्शा ī For Private And Personal Use Only Page #937 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संस्कारतत्त्वम् । २२३ दधिमौषष्टौप्रतिपदर्जिते सिते" ॥ सिते शक्लपक्ष। दक्षः । *षष्ठाष्टमौपञ्चदशौ उभे पने चतुर्दशी। पत्र सविहितं पापं तैले मांसे भगे खुरे । अवणादित्यवानौचिवापुष्थाखिल चन्द्रभे। प्रादित्यरेवतौरस्तज्येष्ठामूले च चोड़कम् ॥ तुला. मेषसिंहकर्किश्चिकेतरलग्नके। पनापि तिथ्यादिविहवं विवर्जयेत्। “सूर्य दक्षिणमार्गगामिनि रौ असे निरंथे रवी शोणे शौतरुचौ महौजयमयोरि निशासध्ययोः । भुतोऽभ्यतातनौ नियुपसमयेऽलङ्कारयुक्त शिशौ क्षौराद्रोगभयं बदन्ति जवना मृत्यु तथान्ये जगुः ॥ भोजराजः । *उत्तरवन नि सवितरि चड़ाकरणं जगुः शभं जवनाः। चैत्रे मासि दिवाकरवारे शिखिसविधाने च ॥ रविवारतरत्र गर्गः । “जन्मवें जन्ममासे च युग्मे मासि च वत्सरे। न कुर्यात् प्रथमं क्षौरं विशेषाच्चैनपोषयोः ॥ ज्योतिषे । “कत्तिकास्वं रविं त्या ज्येष्ठे ज्येष्ठस्य कारयेत्। उत्सवानि च कार्याणि दिदिनानि च वर्जयेत् ॥ गोभिसः । "पुरस्ताकालाया उपलितेऽग्निरूपसमास्तिो भवतीति । व्यतार्थमेतत् । गोभिलः। तत्रैव तान्यु पकप्तानि भवन्ति । अत्र उपलिले देशे उपकप्तानि पग्निममोपे प्रासादितानि। तान्याह। एकविंशतिदर्भपिचल्यः उष्णोदकसौडम्बरः क्षुरः। प्रा. दर्शो वा क्षुरपाणि पित्र इति दक्षिणत: पिनत्यः पवित्राणि तानि सप्तसप्तकत्वा स्थानत्रये स्थाप्यानि। उष्णोदकं कंसमस्मिन् उष्णादककंमः । उडम्बरस्यायमोडम्बरस्तानमयः क्षुरः तदभावे प्रादर्शो दर्पणम् । दक्षिणतोऽम्नेरिति शेषः । आमा दमञ्च पूर्वस्मिन् पूर्वमिन्। गोभिलः। "प्रानडुडो गोमयः कषरस्थानौपाको वृथापाक इत्युत्तरतः" । पानहो हषजातः इधापको होमानुपयुक्तत्वात् संस्काररहितः। एतदुभयं प्राक् For Private And Personal Use Only Page #938 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८२४ संस्कारतत्वम् । संस्थमुत्तरतः मातं भवतीति ब्रोहियस्तिलमारिति पृथक्पात्राणि पूरयित्वा पुरस्तादुपनिदध्युः । इम्बधयवलात् द्रोहियमित्रैः पात्रहयं पूरयित्वा पुरस्तादग्नेः पुरतः स्थापयेत् । एवं तिलमारिति करणात् एषामलाभेऽन्येनापि पूरणमिति भभाष्यम् । इत्यादिबहुवचनान्ता गणस्य संसूचका इति पत्र वो बहुवचनादनियतकत्र्तकमासादनम् । गोभिल: । "कृषरो नापिताय सर्ववीजानि चेति । मिहत्ते कर्मणि कषगे बौधादिपावाणि च नापिताय देयानि प्रतिपत्तिस्वासादनप्रसङ्गादतोता। प्रथ माता शचिना वस्त्रेण कुमारमाच्छाद्य पवादम्मेरुदगग्रेषु दर्भेषु प्राच्य पविशति । प्रथाज्यसंस्कारानन्तरम् । प्राची प्रान खौ। अथ यस्तत् करिष्यन् भवति पश्चात् प्रान,खोऽवतिष्ठते । अथ शब्दः किञ्चित् कर्म मारयति तच कर्म यथा पाणिग्रहणे तथा चूडाकर्माणौति वचनात् चूड़ाकर्मणः पुरस्ताञ्चोपरिष्टाचतस्रो महाब्यातयो भवन्तौति भट्टनारायणः । पाणिग्रहणे तु महाव्याहृतिभिः पृथक् समस्ताभिचतुर्थोमिति गोभिलदर्शनात् व्यस्त समस्तमहाव्याहृतिहोम उक्तः। तेन यचडां करोति स व्यस्तसमस्तमहाव्याद्वतिहोमानन्तरं गृहीत. कुमारायाः पश्चात् प्रानुख अहस्तिष्ठति। अथ जपति पायमगात् सुरेणेति मविलारं मनसा ध्यायन् नापितं प्रेसमाणः । अथ अविस्थानानन्तरमेवायमगात् इति मन्वं सवितारं ध्यायन्। पितरसावलोकयन् जपति । उष्णेन वाय उदकेनधौति वायु मनसा ध्यायन् उष्णोदकं संप्रेक्ष्यमाणः । वायुं ध्यायन उष्णोदकपूर्ण कंसपावञ्चावलोकयन् उष्णेन वाय इति मन्त्र जपेत्। गोभिलः। “दक्षिणेन पाणिना अप मादाय दक्षिणां कपुष्णिकाम उन्दयति पाप उन्दन्तु जीवसे For Private And Personal Use Only Page #939 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संस्कारतत्वम् । 2२५ इति। कंसपात्राइक्षिणेन पाणिना अप पादाय कुमारस्य दक्षिणकपुष्णिका मुन्दयति ल दयति। कं शिरः शौता. तपादिरक्षणेन पुष्णाति इति कपुष्णिका शिरस उभयपालस्थकेशजटिका उच्यते । उक्तञ्च। “कपुष्णिकाऽभितः केशा मूङ्गि पथात् कपुच्छल मिति”। गोभिल: । “विष्णोदंष्ट्रोऽसौति पौडम्बरं सुरं प्रेक्षेत अादर्श वा” ॥ ौडम्बरं ताम्र तदलामे दर्पणं पश्यत विष्णोदंष्ट्रोऽसीति मन्त्रेण । ओषधे बायस्वैनमिति सप्तदर्भपिलौदक्षिणायां कपुष्णिकायामभिशिरोऽग्रा निदधाति। प्रासादितदर्भपिनलीमध्यात् सप्तपिचलीरहीत्वा दक्षिणायां कपुष्णि कायाम् ओषधे नायबैनमिति मन्त्रेण स्थापयति । अभिशिरोऽग्रा: शिरसोऽभिमुखाग्रा जई मूलाधो. ऽग्रा इत्यर्थः । गोभिलः । “ता वामेनाभिरय दक्षियपाणिना पौडम्बरं तुरं राहीत्वा दर्श वा निदधाति संलग्नं धारयति । येन पूषा वृहस्पतिरिति प्राञ्चं पोहत्य अप्रच्छिन्दन् सक्कत् यजुषा विस्तूष्णीम् ॥ वेन पूर्णत्यनेन मन्त्रेण वारत्रयं प्राच प्राम्गतं क्षरं कपुष्णिकादेशे प्रोहति प्रेरयति। अप्रच्छिन्दन केशच्छेदकुर्वन् एकवारं मन्त्रेण वारहयं तूष्णीम् अप्रच्छिन्दनिति क्षुरपक्षे। गोभिलः । “अथाय से न प्रच्छिद्यानडुहे गोमये निदधाति”। अनन्तरं लौहत्रेण कपुष्णिका केशान् दर्भपिञ्जलीसहितान् छित्वा ताभिः सह वषगोमये निदध्यात् । गोभिलः । “एतयैवावृता कपुच्छलम्” । अनयवाहता परौपाट्या कपुच्छलं संस्कुर्यात् अवटस्योपरि उव्रतशिरोऽवयवः कपुच्छलम् । गोभिलः। “एतयोत्तरां कपुष्णि काम् । एतया प्रक्रियया वाला कपुष्णिकां छिन्द्यात्। गोभिलः। "उन्दन् प्रभृतिष्वेवाभिनिवर्तयेत्। लदनादिकम पुनः कुर्यात् ॥ उन्दौलदने। उभाभ्यां पाणिभ्यां मूर्खानं परिरह्य जपत् ७८ For Private And Personal Use Only Page #940 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२६ संस्कारतत्त्वम् । मायुषं जमदग्नेरिति मूधानं कुमारस्य । एतयवाहता स्त्रियास्तषणों मन्त्रेण तु होमः । पाहता प्रक्रियया तूष्णोमनन्तरोता: मर्वे संस्कारा मन्बवर्ज भवति। "प्रमन्निका तु कार्येयं स्त्रीणामादशेषतः" इति मनुवचनात्। नूष्णोमता: क्रिया: स्त्रीणां विवाहस्तु समन्वकः” इति याज्ञवल्कावचनाच । होमस्तु मन्त्रेण तु शब्दश्चार्थे तेन हिवाश्च मस्त्रवदेव भवतौत्यर्थः। गोभिलः । “उदगग्नेसमध्य कुशलो कारयन्ति यथा गोलकुलकरसम्" उदक उत्तरतः उसप्य मत्वा कुमार कुशलोकारयन्ति नापितहस्तेन मुण्डयन्ति यथा गोत्रकुमा. चारस्तथा। राजमार्तण्डः । “प्राचीमुखः सौम्य मुखोऽपि भूत्वा कुर्य्याबरः क्षौरमनुत्बाट स्थ: । वृवगर्गः। "केशवमानर्तपुरं पाटलिपुत्रं पुरोमहिच्छत्राम् । दितिमदितिञ्च स्मरता क्षौरविधौ भवति कल्याणम्" । “गोमिल: । पानडुहे गोमवे केशान् कृत्वा अरखे गत्वा निखनकि । अषगोमये सर्वान् केशान् अवस्थाप्यारस्य नौला निखनन्ति बहुवचनादनियता कर्तकलं स्तम्बे हैके निदधाति। ह इति निपातः । एके आचायाः ब्रौहियवादिस्त म्बे निदधाति तान् केशान् प्रक्षिपन्तीत्यर्थः । यथार्थ गौदक्षिणा। यथार्थमुदीच्यं व्यस्तसमस्तमहाव्या हृतिहोमादि वामदेव्यगानान्तं कर्म समापयेत् दक्षिणा देया प्रधान कर्मणामित्यर्थः । . अथोपनयनम्। अत्र गोभिन्लः । “गर्भाष्टमेषु ब्राह्मणामुपनयेत्। गर्भकादशेषु क्षत्रियं गर्महादशेषु वैश्यम् । प्रा. षोड़शादनामा स्यानतीतः कालो भवति पाद्वाविंशात् क्षवि. यस्य आचतुर्विशाहेश्यस्य अत ऊर्छ पतितसावित्रीका भवन्ति। नैतानुपनयेयुर्नाध्यापयेयुर्न एभिर्विवाइयेयुः”। गर्भवर्षमष्टमं शेषां वर्षाणां तानि वर्षाणि गर्भाष्यमानि तेषु गर्भाष्ट्रमेषु वन For Private And Personal Use Only Page #941 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संस्कारतत्वम् । ८२७ मानं ब्राह्मण मुपनयेत्। अध्यापनार्थमाचार्यसमीपं नौयते थेन कर्मणा तदुपनयनमिति कर्मणो नामधेयं तेन कर्मणा योजयेत् । “एखोतकर्मणा येन समोपं नौयते गुरोः। वाली वेदाय तद्योगात् बालस्योपनय विदुः” इति स्मृतः। भाषो शादित्य भिविधावाङ्। तथा च विष्णुधर्मोत्तरम् । षोड. शाब्दो हि विप्रस्य राजन्यस्य हिविंशतिः। विंशतिः सचतुर्थी च वैश्यस्य परिकीर्तिता। सावित्री नातिवर्तेत प्रत ऊर्छ निवर्तते ॥ पत्र षोडशवर्षाणामुपनयनाङ्गता प्रतीयते । "पतिता यस्य सावित्री दशवर्षाणि पञ्च च। ब्राह्मणस्य विशेषेण तथा राजन्यवैश्ययोः ॥ प्रायश्चित्तं भवेदेषां प्रोवाच वदतां वरः" इति यमवचनेम तदनङ्गता प्रतीयते। प्रनयोगर्भजन्मगणनाभ्यामविरुद्धता। तथा च माण्डव्यः । "व्रतबन्धविवाहे च वमरपरिगणनमाहुराचार्य्याः । प्राधानपूर्वमेके प्रसूति पूर्व सहान्ये तु"। यत्तु हिजामामित्युपक्रम्य पैठौनसिधचनम्। “हादशषोडशविंशतिवेदतौला। प्रवाहकाला भवन्तीति” । तहादशवर्षाद्युपरि ब्राह्मणादौना महाव्याहृतिशेमरूप प्रायश्चित्तार्थ षोडशवर्षोपरि गुरुप्रायश्चित्तमिति । तथा च शङ्कलिखितौ। "व्रात्यचान्द्रायणचरेत् गीप्रदानञ्च कुर्यात् धान्द्रायणाशक्ती धेन्वष्टकं तन्मल्यं वा साईहाविंशतिकार्षापणा: गोमूल्यं कार्षापण एक: मिलित्वा साई बयो. विंशतिकार्षापणा देया:" ॥ पिटमारहितस्य निःस्वस्य देशोपलवादिना पतितसाधिवौकस्य वा विषये तु मनुविष्ण । "येषां हिजानां सावित्री नानुष्ठेत यथाविधि। तांबारयित्वा पौन कच्छ्रान् यथाविध्युपनाययेत्”। कच्छ प्राजापत्यम् । तचयाशती धेनुवयं तम्मूल्यं नवकार्षापणा वा देया: प्रकृत. मायबित्तान् प्रत्याह नैतानित्यादि। तत्र बहुवचनं तत्क For Private And Personal Use Only Page #942 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८२८ संस्कारतत्त्वम्। संसर्गिणां प्रायश्चित्तदर्शनार्थम् । तथा च स्मत्यन्त रम् । “व्रात्याचार्यस्य भुक्वान्नं कच्छ्रपादेन शुध्यति । यथोपनयते व्रात्यान् त्रिभिः कच्छ ः स शुध्यति" ॥ भुजवलभौमवत्यचिन्तामण्योः । "स्वातौशक्रधनाखिमित्रकरभे पौष्णेज्यचित्राहरिष्वेन्दो तोय. पती भगे दितिसुते भाद्रहये सागरे। केन्द्रस्थे भृगुजेऽङ्गिरः शशि शुभे चन्द्रे च तारे शुभे। कर्तव्यं व्रतकर्म मङ्गलतिथी वारा: सितार्केज्य काः॥ अदितिसुत उत्तरफल्गुनौ सागरः पूर्वाषाढ़ा। दौपिकायाम्। “जौवार्केन्टूडुशुद्धौ हरिशयनवहिर्भास्करे चोत्तरस्थे स्वाध्याये वेदवर्णाधिप इह शुभदे क्षौरभे नादितो च। प्रर्कशुक्रायन नग्ने रविमद नतिथि प्रोमा षष्ठाष्टमेन्दं नो जीवास्तातिचार सितगुरुदिन कालशुद्धौ व्रतं स्यात्”। रविमदनतिथिं सममीत्रयोदशी षष्ठाष्टमेन्द लग्नापेक्षया । प्रोमा त्य का कत्यचिन्तामणौ। “माघे द्रविणशौलाढ्यः फाल्गुने च दृढ़व्रतः। चैत्रे भवति मेधावी वैशाखे कोविदो भवेत् ॥ ज्येष्ठ गहननौतिन भाषाढ़े ऋतुभाजनः । गेषेष्वन्येषु रात्रिः स्यानिषि निशि च व्रतम्" राजमार्तण्डे । "पुनर्वसौ कृतो विप्रः पुन: संस्कारमहति । श्राखलायनः । "उदगयने प्राय॑माणे पक्षे कल्याणे नक्षत्रे चडोपनयन-गोदानविवाहाः। विवाहः सार्वकालिक इत्ये के" । प्रापूर्यमाणे पक्षे शुक्लपक्षे। वृद्धगर्गः। "स्मतिमुक्तानन ध्यावान् सप्तमीच त्रयोदशौम्। पक्षयोर्माघमासस्य वितीयां परिवर्जयेत्” । श्रीपतिव्यवहारसमुच्चये। “कार्तिकस्याखिनस्यापि फाल्गुनापाढ्योरपि । कृष्ण पक्षे हितौयायामनध्यायं विदुर्बधाः" ॥ भुजवलः । “चैत्रवणाद्वितीयायां तिसृष्वेवाष्ट कामु च मार्गे च फाल्गुने चैव प्राषाढ़े कार्तिके तथा। पक्षयोर्माघमासस्य हितीयां परिवर्जयेत् । नाकाल दृष्टौ कुर्वीत व्रतबन्ध शुभ For Private And Personal Use Only Page #943 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संस्कारतत्त्वम् । ८२८ क्रियाम" उपनयने उत्तरायणशलपक्षयोविधानात् कार्तिकादो कृष्णपक्षे च हितौयाया निषेधः पुन:संस्कारमहतो. त्युतप्रायश्चित्तरूपोपनयनपरः। वैखोपनयनपरच। तथा च गर्ग: । “विप्रस्य क्षत्रियस्थापि मौजौ स्याक्षिणायने । दक्षिणे च विद्यां कार्य नानध्याये न संक्रमे। अनध्यायेऽपि कुर्वीत यस्य नैमित्तिकं भवेत् । अपिना दक्षिणायन कृष्णपक्षयोः समुञ्चयः। नैमित्तिकं प्रायश्चित्तरूपम् । चैत्र शुक्लटतौया पाषाढशलदशमी मन्वन्तरादित्वेन निषिदा वैशाख शक्लतौया युगादिवेन निषिद्धा। षष्ठयामशुचिरुग्भार्यो रितासु बहुदोषभाक् । सामगानां कुजवारेऽप्यु पनयनं शाखाधिपत्वात्। तथा च "शाखाधिपे बलिनि केन्द्रगतेऽथ पास्मिन् वारेऽस्य चोपनयनं कथितं हिजानाम् । नौचस्थितेइरिरहगेऽथ पराजिते वा जोवे मुगावुपनयनः स्मृतिकर्मजोन” अस्य शाखाधिपस्व । त्यचिन्तामणौ। “जन्मोदये जम्मसु तारकासु मासेऽथ वा जन्मनि जन्मभे वा । व्रतेन विप्रो म बहुश्रुतोऽपि विद्याविशेषैः प्रथितः पृथिव्याम्। अस्त गते दैत्यगुरौ गुरौ वा ऋोऽपि वा पापयुतेऽप्यनुक्ते । व्रतोपनौती दिवसैः प्रणाशं प्रयाति देवैरपि रक्षितो यः”। उदये लग्ने व्रतेन उपनयनेन । गोभिलः। “यदहरुपैयन् माणवको भवति प्रारीचैनं तदह जयन्ति कुशलौकारयन्त्यालावयन्त्यलं कुर्वन्याहसेन वासमा समाच्छादयन्ति"। यदहर्यस्मिनहनि उपैष्यन् उपनयनं कारयिष्यन् माणवक उद्यतो भवति। माणवकोऽनधोतवेदः। “अनुचो माणवको ज्ञेय एनःकृष्णमृगः स्मृतः । करगौरमृगः प्रोक्तः समरः शल उच्यते"। प्राक् प्रातः । सच “चतस्रो घटिका प्रातररुणोदय उच्यते" इति ब्रह्मवैवर्तीताम्। भन घटिका दण्डः। नियामां रजनी प्राहुस्त्य का. For Private And Personal Use Only Page #944 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir .८.३० संस्कारतत्त्वम् । द्यन्तचतुष्टयम् । नाडीनां तदुभे सन्ध्ये दिवसाद्यन्तसंचिते । इति तत्रैवोशः । भोजयन्ति क्षौरादिकमिति शेषः तथा च ब्रह्मचारिकाण्ड कल्पतरुष्टतशङ्खलिखिती । "पयो यवाग्वा+ मिच्वाहाराः क्रमशो दिजातीनाम्" | कुशलोकारयन्ति मुण्डयन्ति श्राह्नावयन्ति स्रपयन्ति चाहतेना सूदितेन वाससा वक्ष्यमावेनाच्छादयन्ति परिधापयन्ति । अत्रैकवचनादधरौयमेतत् । उत्तरौयन्तु उपरिष्टादजिनं वच्यते। चौमं शानं वा ब्राह्मणस्य कार्पासं चचियस्य भाविक वैश्यस्य" 1 क्षुमा चतसो तस्या इदं चौम तसरादि । शानं शनतन्तुभकं तदुभयं ब्राह्मणस्य । गोभिलः । “ऐणेयरौरवाजानि अनिनानि” । एनः कृष्णमृगः करुगौरम्मृगः श्रजः छागः यथाक्रमं हिजानामेतान्यजिनानि । गोभिलः । “मुक्षका शतान्यो-TBAT:" | मुञ्जः शरः तासून: शनस्तद्भवा रसना मेखना तासूनौ । तथा च मनुः । "मौलो विहत्समा च्या काया विप्रस्य मेखला । चत्रियस्य च मौर्योज्या वैश्यस्य शनतान्तवो । मुनालाभे तु कर्त्तव्या कुशश्मान्त कवखजेः । विद्वताग्रन्थिमैकेन त्रिभिः पञ्चभिरेव वा । गोभिलः । “पार्णवैल्वाखत्थदण्डाः । पार्थः पालाशः । मनुः । " ब्राह्मणो वैल्वपालाशौ क्षत्रियो वाटखादिरौ। वैणवोडुम्बरौ वैश्यो दण्डानर्हन्ति धर्मतः । गृह्ये पार्णमात्रस्य ब्राह्मये विधानात् प्रतिगृह्येमित दण्डमिति मनुवचनान्तरे एकवचनश्रुतेरचैकदण्डधारणं न तु इन्द निर्देशादण्डइयधारणम् । मनुः " केशान्तिको ब्राह्मणस्य दण्डः कार्यः प्रमागतः । ललाटसम्मितो रामः स्यात्तु नासान्तिको विशः । ऋजवस्ते तु सर्वे स्रवणा: सौम्यदर्शनाः । अनुद्वेगकरा नृणां सत्वचो नाम्निदूषिताः” । अलाभे वा सर्वाणि सर्वेषाम् । स्वस्य स्वस्यातामे सर्वाणि For Private And Personal Use Only Page #945 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संसारतत्वम् । ८३१ सीमादौनि सर्वेषां ब्राह्मणादौनाम्। गोभिलः। “पुरस्ता. छालाया उपलितेऽनिरुपसमाहितो भवति । स्वष्टार्थमेतत् । गोभिलः । “अग्ने व्रतपते इति हुत्या पश्चादग्नेकदगग्रेषु दर्भेषु प्रागाचार्योऽवतिष्ठते। व्याहृतिभिराहुति चतुष्टये हुने भन्ने अतपते इति पञ्चाहुतौई वा प्राचार्यः पश्चादुदग्रेषु कुशेषु प्रान,ख आईस्तिष्ठेत्। अत्र हुत्वाचार्य इत्येककर्तृकत्वादेष एव इत्यातिष्ठेत्। होमकरणत्वान्मन्त्राणां होमकाराचार्यस्य मन्त्रपाठो न माणवकास्य । यत्र च ब्रह्मचारिणामुच्चारणं तत्र ब्रह्मचर्यमागामिति वाचयतीति वचनादग्ने बतपते व्रतं चरिथामौति मन्त्रलिङ्गेषु ऋतिकस्थानीयवान्माणवकस्य मन्त्रैरन्यादिप्रार्थना ब्रह्मचर्य नाचार्यस्य। तथा च । “यां वै काञ्चन ऋत्विज पाशिषमाशासते सा यजमानस्यैव इति भरता। तब ऋत्विक यजमानपदयोराचार्यमाणवकपरत्वे प्रमाणाभावात्। प्रतएव भटभाष्यम्। होमेन सहाचार्यसम्बन्धः कुतो हुत्वाचार्योऽवतिष्ठते इति वा प्रत्यययोगात् मन्वन्तु माणवको जपेत् कुतो मन्वलिङ्गात्। व्रतञ्चरिष्यामोत्याद्यत्तमपुरुषप्रयोगोऽन्यथानुपपद्यते। गोभिल: । “अन्त. रेणान्याचार्योमाणवकोऽञ्जलि क्षतोऽभिमुख पाचार्य उदगश्रेषु दर्भेषु अग्न्याचार्ययोमध्ये प्राचार्याभिमुखः सनवतिष्ठते इति योज्यम्। तस्य दक्षिणतोऽवस्थाय मन्त्रवान् ब्राह्मणोऽपामञ्जलिं पूरयति उपरिष्टादाचार्यस्य तस्य माणवकस्य दक्षिणस्यां दिश्यवस्थितो ब्राह्मणोऽधौतवेदः... सलिलावलि माणवकस्य पूरयित्वा उपरिष्टात् पश्चादाचार्यस्यानलिम् । गोभिल: । "प्रेक्ष्यमाणा अपत्यागन्चा समगन्महौति"। कं प्रेक्ष्यमाण: कोजपति। माणवकं प्रेक्ष्यमाण प्राचार्य आगन्त्रा समगम्महौति मन्वं जपति। खस्तिसञ्चरतादयमिति मन्त्र For Private And Personal Use Only Page #946 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८३२ संस्कारतत्त्वम् । लिङ्गात्। गोभिलः । "प्राचार्यो ब्रह्मचर्य मागामिति वाचयति । प्राचार्योमाणवकं पाठयतीत्यर्थः। कोनामा. सौति नामधेयं पृच्छति तस्याचार्योऽभिवादनौयम् । नामधेयं कल्पयित्वा देवताय नक्षत्राश्रयं गोत्राश्रयं वा इत्येके । अभिवादनौयम् अभिवादननिमित्तं नाम कल्पयित्वा तदानी. मेवाचार्यः कोमामासौति पृच्छेत्। तच्च देवताश्रयं कृष्णादिनक्षत्राश्रयं शतपदचक्रोक्तजन्मकालीननक्षत्रपादात् जेयम् । गोवाश्रय शाण्डिल्यादि। गोभिलः । “उत्सृज्यापामचलिराचार्यो दक्षिणेन पाणिना दक्षिणं साङ्गुष्ठं गृह्णाति। देवस्य से सवितुः प्रसवेऽखि नोर्वाहुभ्यां पुष्णो हस्ताभ्यांऽस्त रहाम्यसो” इति जलानलिं त्यत्वा गुरुदक्षिणेन ब्रह्मचारिदक्षिणपाणिमङ्गष्ठेन सह राति देवस्य होति मन्त्रेण । असाविति सम्बोधनविभत्या माणवकस्य नाम रल्लोयात् इदानीं ग्रहोतमाणवकहस्त स्याचार्यस्याग्निस्त हस्तमग्रहीदिति मन्चपाठे प्रमाणं गोभिले नास्ति अन्यत्र वोध्यम् । गोभिल: । "अथैनं प्रदक्षिगमावर्तयति सूर्यस्यावृतमखावृत वासाविति। तद्दे. शस्थ मेवेनं प्रत्यनुवं सन्त प्राक्षिण्येन प्रामुखं करोति सूर्यस्येति मन्त्रेण। प्रत्राप्यसावित्यत्र सम्बोधनान्तनामग्रहः । दक्षिणेन पाणिना दक्षिणमंशमवस्पृश्य अनन्तहितं नाभिदेशमभिस्पृशेत् प्राणानां ग्रन्थिरसौति प्रदक्षिणावर्ते माणवके प्रान खावस्थिते प्राचार्योऽस्य दक्षिणमंशं स्पृष्ट्वा अव्यवहितां नाभिं प्राणानामिति मन्त्रेण स्पृशेत्। अत्राप्यमुमिति पदस्थाने हितौयान्त नाम प्रयोज्यम् । गोभिलः । “उत्स्प्य नाभिदेशमभुव"। इति जपदिति वाक्यशेषः । उत्स्य करं सर्पतेर्गत्यर्थत्वात् ऊ करमुत्सृप्य ऊर्द्ध नौवा नाभिदेशं समोपार्था द्वितीया नाभिदेशसमीप एव उदरे करमवस्थाप्या: For Private And Personal Use Only Page #947 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संस्कारतत्त्वम् । ३३ भुव इति जपेत् । कुतो मन्त्रलिङ्गात् प्रभुवशब्देन जठरोऽग्निरुच्यते । तस्मान्नाभेरूतसृप्य करं नाभिदेशसमौप एवं उदर जठराग्निस्थानमालभ्या भुव इति जपेत् । इति महभाष्यदर्शमात् वायुदेवता इति भवदेवगुणाविष्णुक्तं निरस्तम् अइवविभ क्तिव्युत्पत्त्या प्रभुव इति समाख्या । अत्राप्यमुमिति पदस्थाने द्वितीयान्तं नाम प्रयोज्यम् उत्सृप्य हृदयदेश कृशन् इति । जठरादुत्सृप्य ऊर्ड्स नौत्वा करं हृदयमालभ्य क्कशन् इति अपेत् । कुशनशब्द ेन हृदय एवं पुरुषोयत उच्यते अतां हृदयदेशमालभ्य जपसौति तदधिष्ठातृत्वात् पुरुषस्य । तथा च श्रुतिः । " स एवैष श्राखादयतौति" । अत्राप्यमुमिति पदस्थाने द्विती यान्तं नाम प्रयोज्यम् । दक्षिणेन पाणिना दक्षिणमंशमालभ्य प्रजापतये त्वा परिददाम्यसाविति । श्रंशं माणवकस्येति शेषः । श्रन्तभ्य स्पृष्ट्वा प्रजापयेत्वेति जपेत् । श्रसाविति स्थाने सम्बोधनान्तनामग्रहणम्। गोभिलः । " सव्येन सव्यं देवाय वा सवित्रे परिददाम्यसाविति वामेन पाणिना ब्रह्मधारिणः सव्यमयं स्पृष्ट्वा देवायत्वेति जपेत् । श्रवासाविति स्थानं सम्बोधनान्त नाम प्रयोज्यम् । गोभिलः । “अथैन संप्रेषयति ब्रह्मचाय्यसाविति । समिधमाधेहि आपोशानं कर्म कुरु मा दिवास्वापमोरित्यपि सर्वत्र श्रीस्वामिति च ब्रूयात् । " यदुद्यति अस्तमिते समिधमादधाति तदिदमादिश्यते यच्च सायं प्रातः समिधमाधेष्टि” इति श्रुतावुक्तं तस्मात्रात्र तदवशिष्यते पुरस्ताश्चोपरिष्टाचाह्निः परिदधाति इति तदिदमादिश्यते सायं प्रातर्भोजनयोरपि पुरस्ताश्चोपरिष्टाच्च पृथमन्त्राभ्यामापोशानं हे ब्रह्मचारित्रिति । मन्त्रो तु शाख्यन्तरादुपादेयौ । अमृतोपस्तरणमसि खाहेति पुरस्तात् अमृतापिधानमसि स्वाहेति उपरिष्टात् इति यद्यद्दिहितं कर्म For Private And Personal Use Only Page #948 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir .३४ संस्कारतत्वम् । तत्तत् कुरु मा दिवाखाप्सोः दिवा स्वप्रमाकार्षीरित्यर्थः । माणवकः सर्वेष्वेव प्रथेषु बाढ़मोमिति वा प्रतिवचनं दद्यात् । तथा च छन्दोगपरि शष्टम्। "ब्रह्मचारिसमादिष्ट गुरुणा व्रतकमणि। वाढमोमिति वा ब्रूयात् तत्तथैवानुपालयन् ॥ भोभिन्नः। "उदगग्नेरुत्सृत्य प्रागाचार्य उपविशति उदगप्रेषु दर्भेषु" स्पष्टार्थमेतत् । प्रत्यनाणवको दक्षिणजान्वतो. अभिमुखमाचार्यमुदगग्रेषु दर्भेषु प्रत्यङ्गखो माणवको दक्षियआमु अक्तं तं भूमौ यस्य स आचााभिमुखं यथा स्वात्तथा उपविशति इति पूर्वेणान्वयः। उत्तरत एवाग्नेः अधनं निःप्रदक्षिणं मुश्चमेखलां परिहरन् वाचयति। इयं दुरून परिवाधमाना ऋतस्य गोपनौति च। अथ तथैवोपवि भाणवकम् इयं दुरुक्त परिवाधमाना इति ऋतस्य गोपनौति च मन्त्रहयं कटिदेशस्य मौजमेखला वारवयं परिधापयन् वाचति। पत्र परिधानस्यात्ताबपि सत्यां सक्कदेव मन्न. पाठः । एकद्रव्ये कम्माहत्तौ सकदेव मन्त्र पाचनं कवेति वचनात्। सञ्जालाभे कुशनेति प्रागुक्त रयानुनमपि । यज्ञोपवीतमस्मिन्नेव समये परिधापयेत्। मेखलामन्तर कार्यसमुत्तरौयं स्थात् विप्रस्योईहत विदिति मन्त: । पवित्र चामै प्रयच्छतौति जातूकर्णात्। यज्ञोपवीतिनं कुर्य्यादिति सांख्ययनाच। “मेखन्तामजिनं दण्डमुपवीतं कमण्डलुम् । अप्स प्रास्य विनष्टानि निगृहीतान्यामि मन्त्रवत् ॥ रति मनुवचनेन नोपवौताजिनयोरपि धारणे समन्चत्वावधारणा. दिरो तदनुपदेशात् शाखान्तगदुपादद्यात्। यज्ञोपवीत. मसि यज्ञस्य त्वोपवौसेनोपनेष्यामि प्रति भभाष्यम् । अस्मित्रेपावसरे अजिनमुत्तरौयमित्यापस्तम्बः। अजिनञ्च कृष्णसारधर्म प्रागुकत्वात्। अजिन ग्रहणमन्नस्तु ओम् मित्रस्य चक्षु. For Private And Personal Use Only Page #949 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संस्कारतखम् । २३५ वरणं बलौयस्तेजी यर्थात स्वविरं सद्धमनाहतस्य वसनं अविष्णुपवीतं वाजिनं दधेयमिति तैत्तिरीयशाखापठितो दृष्टव्य इति भभाष्यम्। एवञ्च दण्डाजिनोपवीतानि मेखलावेव धारयेत् इति याज्ञवल्कावचनं द्रव्यधारणविधायकम् । एतहमन्तरमाचमनं कुर्यात्। यज्ञोपवीतिना पाचान्तोदकेन कृत्यमिति गोभिलसूत्रात् प्राचामेदित्यनुवृत्तौ "शिखां बड्डा बसित्वा हे निर्णितो वाससौ शुभे। तूष्णौम्मत्वा समादाय मो गच्छक विलोकयन् ॥ इति देवलवचनाच। हरिशर्मा ऽप्येवम्। गोभितः। अथोपसौदत्यधौहिमोः सावित्री मे भवाननुब्रवील्लिनि । अनन्तरं तथैवोपदिष्टो माणवक उपमौदति कृताञ्जलिपुट प्राचार्य गतचखुरुपमयो भवति । अधौषि भीरित्यादि मन्त्रेण प्रधौहि अध्यापय सावित्रों अविटदेवताकां गायत्रीम्। भोरित्याचार्य सम्बोधनम् । मभावाप्येवम्। लमा प्रवाह पच्छः अईशः ऋक्शः इति। तस्मै माणवकाय भन्वाह प्रमुब्रूयात् पूर्व तावत् पच्छा पादशः ततोऽञ्चशः तत ऋक्यः। ऋक् य इत्यत्र सर्वामिति पाठः सरलायाम्। महाव्याकृतीश्च विकता: प्रोङ्कारान्ता: विकताः पृथक्क्कता: प्रोङ्कारान्ता इत्यत्र भूरोमिति भट्टभाथम्। भूरिति भवदेवभः । उभयमतग्राही वीरेश्वरस्तु भोम्भूरोमिति अन्ता अवसानभूताः । वार्ममस्मै दगड प्रयच्छन् वाचयति सुश्रव सुश्रुवसं माकुर्विति वा पलाशादिभवं दण्डं माणवकाय ददत् सुश्रवेति पाठयति। अथ भैत्यचरति। अथ शब्दस्त णोमादित्योपस्थानमग्निप्रदक्षिणञ्च शंसति । प्रतियोप्सितं दण्डमुपस्थापय भास्करम् । प्रदक्षिणं परीत्याग्नि चरमॆक्ष्य यथाविधि" ॥ इति मनुवचनात् । भिचासमूह भैल्यतचरति भावहति इत्यर्थः। मातरमवाग्ने For Private And Personal Use Only Page #950 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८३६ संस्कारतत्त्वम् । ये चान्ये सुद्धदो यावत्यो वा सविहिताः स्युः। याचते इत्यध्याहार्यम्। सुहदे स्निग्धहृदये खसाये तथा च मनुः "मातरं वा स्वसारं वा मातुर्वा भगिनी निजाम्। भिल्येत भिक्षां प्रथमां याचैनं नावमानयेत् ॥ सन्निहितास्तहे शस्थाः न तु प्रतिग्रहं गत्वा। भवति भिक्षां देहोति ब्राह्मणभिक्षा. प्रयोगः। तथा च मनुः। "भवत् पूर्व चरेत् भैक्ष्यमुपवौतो द्विजोत्तमः । भवन्मध्यन्तु राजन्यो वैश्यस्तु भवदुत्तरम् ॥ पादि. मध्यावसानेषु भवच्छब्दोपलहिता। ब्राह्मणक्षत्रियविशां मैक्ष्यचा यथाक्रमम् ॥ इति याज्ञवल्क्यवचनाच । प्राचार्याय भैक्ष्य प्रणिवेदयतो वेदयति समर्पयति भोरिति। प्राचार्याय निवेद्य प्रति यहोयादिति रावान्तरवचनात् । भक्ष्यं भोरिति निवेदनमन्त्रः। भक्ष्यस्य संस्कारार्थत्वात् प्राचार्याय निवेद्य खयं तदेव भुनौत। तथा च मनुः “समाहत्याथ तबैच्य यावदनममायया। निवेद्य गुरवेऽनौयात् प्राचार्य प्रान,ख: शुचि:"n प्राचार्याय माणवकाय भैक्ष्य प्रदाय कर्मशेषं समापयेत् इति तच्च सावित्रया चाहोमादिवक्ष्यमाणतत्तद् ग्रन्थात् तिष्ठत्यहः शेषं वागयतः। माणवकोऽह: शेषं संयत. वागास्ते। अस्तमिते समिधमादधाति अग्नये समिधम हार्षमिति। अस्तं गते सूर्ये समिध प्रादेशमानमग्नये समिधमहार्षमित्यनेनादधाति इयमेवात: प्रधानाहुतिः । ततश्चास्याः पुरस्तादुपरिष्टाच्च समिद्भवतीति। उक्लञ्च। “समिधादिषु होमेष मन्त्र दैवतवर्जिता। पुरस्ताञ्चोपविष्टाच इन्धनार्थ समिद्भवेत्” । समिद्धोमश्च सायं प्रातः कर्तव्यः तथा च मनुः । "दूरादाहृत्य समिधः सविदध्याविहायसे। माय प्रातच जुहुयादाहिताग्निरतन्द्रितः ॥ समिदाधानानन्तरञ्चाग्निमभिवादयेत्। तथा च ग्राह्यान्तरम्। उभयत्राग्नि समिध्य For Private And Personal Use Only Page #951 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संस्कारत त्वम् । હ मोत्रनामनी प्रोच्याभिवाद्यावार्य्यमभिवादयेत् । उभयत्र सायं प्रांतः । अभिवाद्यग्निमित्यन्वयः । त्रिरात्रमचारलवणाशौ भवति । स्पष्टार्थम् । तस्यान्ते सावित्रचरुः । तस्य उपनयनरूपव्रतस्य न तु सविधानाश्विरातस्य अव्यक्तशब्दस्य प्रधानेन सह सम्बन्धदर्शनात् । अन्यथा तस्यान्त इत्यवचनीयं स्यात् । अस्यान्त इति वक्तुं युक्तम् । भट्टभाष्येऽप्येवम् । ततचतुर्थेऽहनि सावित्रचरूरिति भवदेवभट्टोक्ता चतुर्थेऽह्नि सावित्रचरुः काय्र्य इति सरलोच हेयम् । सवितास्य देवता इति सावित्र: यथार्थं गौर्दचिथा । यथार्थम् उदोच्यं महाव्याहृत्यादि कर्म । इयं दक्षिणा उपनयनकर्मणः न तु सावित्रचरोः प्रधानस्य उपनयनको दक्षिणान्तरानभिधानात् । अतएव उपनयनान्तरमाचाय्याय वरो दक्षिणा इति गृह्यान्तरमिति सरला | वरोगौः । तथा चोक्तम। “गौर्विशिष्टतमा लोके वेदेष्वपि निगम्यते । न ततोऽन्यद्दरो यस्मात्तस्माद्रौर्वर उच्चते” ॥ इदानीमुपनयनातिरिक्तकव्रताचरणादन्यद्दतादि न लिखितम् । भवदेव भट्टेनापि न लिखितम् । गोभिलः । " सर्वत्राचार्ष तदशकं तेनारात् सत्यमुपागामिति” विशेषः । सर्वत्र सर्वेषां व्रतानामन्ते अयं मन्त्रे विशेषः । यत्र चरिष्यामि तवाचार्षमिति । यत्र तच्छकेयमित्यव तदद्मकमिति । यत्र तेना समिधामि तव तेनारात् समिषमिति यत्र उपैमौति तत्र उपागामिति । की क्रमस्तु । उपनयनम्रतान्ते सावित्र चरुहोमः । ततः स्विष्टिक्कडोमः । प्राकस्विष्टिकदावाप इति स्वात् । ततोऽग्ने व्रतपते व्रतमचाषं तत्ते प्रव्रवौमि तदशकं तेनारात् समिधमहमनृतात् सत्यमुपागां खाहेत्येवमुक्का होमकर्मसमाप्तो दक्षिणा गोदानमिति भट्टभाष्यम् । एतेन ब्रह्मचारियां जपमानं न होमो वचनाभावात् । खाहान्तानामपि For Private And Personal Use Only < Page #952 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संस्कारतत्त्वम् । होमदैवत इत्यादौनां जोमदर्शन मिति सरलो हेयम् । पम्ने व्रतपते इति हुला पचादुदगग्रेषु गर्भेषु प्रागाचार्योऽवतिष्ठते इति प्रागुतसूत्रे पम्ने व्रतपते इत्यादिमन्वस्तु चरिष्यामौत्यादि. पदस्थाने अचार्षमित्यादिपदोहमानोलोम होमादेः प्राप्तः । तन्मतेऽप्यचार्षमित्यस्य ब्रह्मचारिपाठवत् पूर्ववापि चरियामोति मन्त्रलिङ्गसार्थकत्वाय ब्रह्मचारिपाठी युक्तः। एवञ्चाम्ने व्रतपते व्रतमचामित्यादिहोमः समावर्तनमध्ये भवदेवमहोली न युक्तः । व्रतरिथामौत्यारम्भवत् व्रतमचार्षमित्वस्यापि व्रतसमापकरखे तस्यैवान्तताया एव युतात्वात् । अथ समावर्तनम्। ज्योतिषे। 'भौमभानुजयोर्वार नक्षत्रे च व्रतोदिते । ताराचन्द्रविशुद्धौ च समावर्तनमिष्यते । गोभिलः। "प्रथाप्लवनम् । अथ व्रतानन्तरमाप्लवनं मानं कुर्यादिति शेषः । उत्तरतः पुरस्तादाचार्य कुलस्य परिव्रतं भवति । आचार्यग्रहादुत्तरस्यां पूर्वयां वा सानार्थमावृतं सानं कुर्यात् । पम प्रागग्रेषु दर्भेषु उदगाचार्य उपविशति तत्राइते उदक् उदङ्मु खः प्राक् ब्रह्मचा गग्रेषु दर्भेषु । प्राक् प्रामु ख उपविशतीत्यन्वयः। सौषधिविआण्डाभिरद्भिगन्धवतीभिः शीतोष्णाभिराचार्योऽभिषिञ्चेत्। सर्वोषधयक्ष "बौहयः शालयो मुद्दा गोधमाः सर्षपास्तिलाः । यायोषधयः सप्त विपदोन्नन्ति धारिता:॥ इति छन्दोगपरिशिष्टोलास्ताभिः . सह या पापो विर्भाण्डा विपक्का उष्णौकतास्ता: सऊषधि.. विआण्डास्ताभिर्गन्धवतौभिनन्दनादिगन्धद्रव्ययुक्ताभिः शीतो. पाभिः शीतोदकमिश्रिताभिरिति भभाष्यम्। स्वयमिव तु मन्त्रवर्षो भवति । इव शब्द एवार्थे। स्वयमेव ब्रह्मचारी प्रात्मानमभिषिञ्चेत् आचार्यकर्त्तकाभिषेकस्तु परमतो यतो मम्लवर्णा भवन्ति। मन्त्रवोऽभिषेकमन्न लिङ्गं तच तेनार. For Private And Personal Use Only Page #953 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संस्कारतत्वम् । ८३४ मामभिषिचामि पति तेन मामभिषिश्चितमिति च । तहिधिमार येखरन्तरम्नयः प्रविष्टा प्रत्यपामचलिमवसिञ्चति । येऽपवरन्तरग्नय इति मन्त्रेण कासामपामचलिं ब्रह्मचारी अवसिञ्चति। कभूमौ कुतः अवसिञ्चति वचनात्। तमन्च स्वामितान् सृजामौति यदपामिति मन्त्रस्थाभितान् सृजामौति मन्बलिङ्गहयाच सर्वाधारत्वेन प्राप्तायां भूमौ त्यजति । यदपां घोरं यदपां क्रूरं यदपामग्रान्समिति च। अपामञ्जलिमव. मितौति वर्तते चकारात्। यो रोचनस्तमिह रक्षामोत्याলালমনিয়িনি। অন্ধনানামালিন যী ৰীল বুনি मन्त्रेण ब्रह्मचारी प्रात्मानमभिषिञ्चति । पोम यशसे तेजसे पति च। प्रात्मानमभिषिञ्चतीति वर्तते। तूणी चतुर्थम् । प्रात्मानमभिषिञ्चतौति वर्त्तते। अभिषेकः शिरसि कर्तव्यः शिरः प्रधानमनानामिति वचनात्। उपोत्थायादित्यमुपतिष्ठेत उधन् भानष्टिभिरित्येतत् प्रमृतिमन्त्रेण । प्राचार्य: समौपादुस्थाय उद्यवित्येतत् प्रभृतिमन्त्रेण मा हिंसौरित्यन्तमन्त्रेणादित्यमुतिष्ठेत उपानमन्त्रण चेत्यात्मनेपदम्। मेखलामवमुञ्चते उदुत्तमं वरुणमिति अवमुच्चते अधस्तादवतारयति अवशब्दोऽधस्तादर्थे। ब्राह्मणान् भोजयित्वा स्वयं भुक्ता के पश्मनु रोमनखानि वापयती शिखावर्जम् । भोजयित्वा स्वयं भुक्ता नापितेन मुण्डयौत। पत्र शिखावर्जमिति वच. नात् प्राक् सशिखं वपनमिति दर्शयति। उसञ्च। सशिखं चपनं कार्यमानामात् ब्रह्मचारिणामिति। साल्वालङ्कत्याहते वाससौ परिधाय सजमावनौत औरसि मयि रमखेति । पसत्य कुण्डलादिनामानं योजयित्वा पाइते। "ईषोतं नवं शुभ्र सदशं यत्र धारितम्। पाहतं तहिजानौयात् सर्वकर्मसु पावनम् । इति वशिष्ठोललक्षणे ईषत् सूक्ष्मम् । For Private And Personal Use Only Page #954 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४० संवारतत्वम् । न धारितं न परिधानादिक्कतम्। स प्रथितपुष्प पवनौत शिरसौति शेषः। श्रीरसौति मन्त्रेण नेवीस्थ नियतं मामित्युपानही। अवनौतेत्यनुवर्तते। उपानही चर्मपादुके योग्यत्वात्. पादयोः गन्धर्वोऽसीति मन्त्रेण वैणवं दण्डं रहाति वैणवं वंशप्रभवं गन्धर्वोऽसौति मन्त्रेण। प्राचार्य सपरिषत्कमभ्येत्याचार्य परिषदमौक्षतो यक्षमिव चक्षुषः प्रियो वोभूया. समिति। सपरिषल्क शिष्यादिसभासहितम् पश्येत्याभिमुख्येन गत्वाचार्य परिषदश्वेक्षते यसमिति मन्त्रेण। उपो. पविश्य मुख्यान् प्राणान् संस्पृशन् पोष्ठापिधानानकुलौति उपाचार्यसमौपे मुख्यान् प्राणान् मुखप्रभवान् वायून् संस्मृशन् सातकः। पोष्ठापिधानमिति मन्त्र जपेत्। अननमाचार्योऽर्हयेत् प्रवावसरे एवं स्नातकं विवाहोत्तवराहणविधिनाऽर्चयेत्। तदशक्तो गन्धपुष्याभ्याम्। गोयुक्तं रथमुपक्रम्य पक्षसोकूवरवाकराभिमषेत्। वनस्पतिविहड्डोहि भूया इति । पक्षसौ चक्र। कूवरं रथिकस्थानं वाकरं रथरेखेत्यर्थः । वनस्पतोति मन्त्रेणाभिमषेत्। स्पशेत्। प्रास्था ते अयतु जवानीत्यातिष्ठति। रथमारुह्य प्रास्था ते जयतु जेवानोति वनस्पते इत्यादि मन्त्रस्य चतुर्थपादेनातिष्ठति उपविशति प्राग्वा उदग्वाभिप्रयाय प्रदक्षिणमावत्या उपयाति । तेन रथेन प्रान,खो वा प्रयाय प्रकर्षण गत्वा उपयाति पाचार्यसमोपमागच्छति। उपयातायायमिति कोइनौयाः। उपयातायाचार्य समोपमागतायाध्यं देयामति कोहनौया प्राचार्या बाहुः। रथाभावेऽपि मन्त्र पाठाचार: चरकरणे तण्डलादाववघातादिवत्। अस्य कर्मणः समावर्तनसंज्ञापि। “गुरुणानुमतः स्नात्वा समावर्तों यथाविधि । उहहेत हिजो मायां सवर्णा लक्षणान्विताम्" इति मनतः। स्पष्टं शोनककारि कायाम् । “कुर्वीत हयमेवैत समावर्तन सनकम्"। .. For Private And Personal Use Only Page #955 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संस्कारतत्त्वम् । ८४१ - पथ नवग्रहप्रवेशवर्म। ज्योतिष । “ज्येष्ठापुनर्वसु युतं गृहारम्भोदितच यत्। तत् सर्व योजयेद्देश्मप्रवेश देवचिसका। रहारम्भे मत्यपुराणम्। “चन्द्रादित्य बलं नव्या लम्न शुभनिरोधितम्। स्तम्बोच्छायादिकर्तव्यमन्यत्र परिधर्जयेत्। पखिनौरोहिणीमूलमुत्तरात्रयमैन्दवम्। खालीहस्तानुराधा च रहारम्भे प्रशस्यते। वजव्याघातशूले च व्यतीपातातिमण्डयोः। विष्कुम्भगण्ड परिघवर्ज योगेषु कारयेत्। प्रादित्यभौमवर्जन्तु सर्वे वारा: शभावहाः । राजमार्तण्डः। “मादित्ये ज्यभरोहिणीमृगशिरचिवाधनिष्ठोत्तरा। पौण विष्णुगतानुराधपवन: शुजैः सुतारान्वितैः । सौम्यानां दिवसेऽथ पापरहिते योगे विरित तिथौ । विष्टिस्यक्त दिने वदन्ति मुनयो वेश्मादिकार्य शुभम । ज्योतिष । *उपविशाखामदितिश्च शक्र भुजङ्गमग्निश्च विहाय गेहम् । माम्बवलम्न सिरमन्दिरेषु कुचिभैयुतानिरीक्षितेषु । कृत्वाप्रतो हिजवरानथ पूर्णकुम्भ दध्यक्षतामफलपुष्पदलोपशोभम् । दवा हिरण्यवसनानि तथा हिजेभ्यो मङ्गत्वशान्तिनिलयं निलयं विशेष। विष्णुधर्मोत्तरे। “गोपुच्छविन्यस्तकरः प्रविशेञ्च रहं ग्रहो। अनुलिप्तः सुखौ सम्वौ सपत्नीकस्तथैव च। गोभिलः। “मध्येऽग्निमुपसमाधाय कृष्णेन गवा यजेताजेन वा छेतेन मपायसानां पायसेन वा। गव्ये रहस्य उपसमाधाय कुशण्डि कोतविधिनाग्निं स्थापयित्वा । पायसेन वा केवलेन रसमाज्यं मांसं पायसमिति संय याष्टरहोतं सहीत्वा जुहुयात्। वास्तोपते इति प्रथमा वामदेव्यर्धा महाव्याहतयः प्रजापतये इत्युत्तरीया रस घृतं मांसं संयय मित्रयित्वा केवलपायसं वा अष्टग्रहीत केवलमेचणेनाष्टवारान् रहौत्वा वास्तोस्पते प्रतिजानौति मन्त्रेण प्रथमाहुतिः । For Private And Personal Use Only Page #956 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४२ संसारतत्वम् । वामदे व्यवस्तिमस्ताभिस्तिमः महाव्यातिभि स्तिनस्ताभिस्तिसः महाव्याहुतिभिस्तिसः प्रजापतये इत्येका प्रथमोत्त. या इति पाहुतिभेदाथेम्। तप शब्दोऽप्यत्र देवताहोम. मन्त्रेभ्यो ज्ञेयाः । यावत्यस्तास्तावतौरुद्दिश्य निर्वापः ताथ पाद्यस्य वास्तोस्पतिः। वामदेव्यामिन्द्रः माव्यातीनामग्नि'वायुसूयाव्याहतौनाच सर्वेषामार्षथैव प्रजापतिः। "अग्नि युस्तथासूर्यो वृहस्पतिरपांपतिः । इन्द्रश्च विखेदेवाच देवता: समुदाहताः' इति संवर्तवचनात्। एतेन महाव्याहतौनां मथिव्यादि वाचकत्वात्। पृथिव्याद्यादेवता इति भूस्वाभुव. स्वाखस्ता इति च सरतादर्शनात् भवदेव नापि यत् भूस्वा. युष्टमित्यादि लिखितं तर यम्। तस्यैव स्थानान्तर महा. व्यांइतिहोमलिखने अग्न्यादौनां देवतात्वमिति लिखनात् प्रजापतिरुता एव। सूत्रे केवल पायसपक्षे च पोम् वास्तोपतये त्वायुष्ट निर्वपामोति बौनादिकमादाय एवमिन्द्राय प्रति त्रिभिः। अग्नये वायवे सूर्याय प्रजापतये इत्यष्टो निर्वापाः। ततः। सिद्धचरौ घृत मुबी दत्त्वा मेचणेनाष्टी प्रधानहोमाः। शेष स्थानौपाकावृताहुत्वा वलीन् हरेत् । प्रदक्षिणं प्रतिदिशमवान्तरदेशेष्वानुपूर्वेण व्यतिहरन्। हुवेति क्रमप्राप्तेऽप्यानन्तार्थम् । तेन प्रधानाहुतौह त्वा खिष्टिकास्वैव वलौन् हरेत् हुतशेषेणैव तदभावे पायसेन प्रतिदिशं सर्वासु दिक्ष क्रमेणाव्यवधानं कुर्वन् । यदि मुख्य चतुर्दिछ दत्वा विदिक्षु दीयते तदा व्यवधानता स्यात्। इन्द्रायेति पुरस्तात् वायवे इत्यवान्तरदेशे यमायेति दक्षिणत: पिसभ्य इत्यवान्तरदेशे वरुणायेति पश्चात् महाराजायेत्यवान्तरदेशे सोमायेत्युत्तरतः महेन्द्रायेत्यवान्तरदेश वासुकये इत्यधस्तात् का नमो ब्रह्मणे इति दिवि वलीन् हरदिति पूर्वसूवेगान्वयः। For Private And Personal Use Only Page #957 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संस्कारतत्त्वम् । ८४३ पन्यत् सुगमम्। नमस्कारेण वलौन् दद्यात् स च मन्वान्ते प्रयोज्य: पिसभ्य इत्यत्र षमां कुयात् "अमुष्मै नम इत्येवं वलिदानं विधीयते । वलिदानप्रदानार्थं नमस्कारः कतो यतः। बधाकार: पितृणान्तु इन्तकारो नृणां यतः। स्वधाकारेण मिनयेत् पिवं वलिमतः सदा" । इति छन्दोगपरिशिष्टात्। पधस्तावौचप्रदेश। दिवि प्राकाशे। "विश्वेभ्यश्चैव देवेभ्यो वसिमाकाश उत्क्षिपेत् । क्रमस्तु पग्निस्थापनादि प्रधानजोमान्त वत्वा बलोन् हरेत्। ततः विष्टिक्षदादि वामदेव्य. गानान्त कृत्वा दक्षिणां दद्यात् इति । . प्रथ ग्रहयज्ञः। दौपिकायाम्। “शुभग्रहाकवारेषु मृदुपिप्रध्रवेषु च। शुभराशिविलग्नेषु शुभं शान्तिकपौष्टिकम् । मृदुगण: चित्रानुराधा मृगशिरी रेवत्यः । क्षिप्रगणो लघुगणः । पुष्थाखिहस्ताध्रुवगणो रोहिण्यत्तरात्रयम्। “गोचरे वा विलग्ने वा ये पहारिष्ट सूचकाः। पूजयेत्तान् प्रयत्न पूजिताः स्युः शुभावहा:"। गोचरे खराश्यपेक्षया यदा कदापि । विलम्ने जन्मलग्ने सूचका न तुरिष्टकारकाः। तेन दुष्टग्रहसूचनीयदोषो. पशमनं फलम्। मक्यपुराणे । “उत्सवानन्दसन्तानयज्ञोहाहादि मङ्गले। मातरः प्रथमं पूज्याः पितरस्तदनन्तरम् । ततो मातामहानाच विश्वेदेवास्तथैव च । नान्दोमुख वारादिदोषो नास्ति। “नान्दौमुखे पिटवा संक्रान्त्यां ग्रहणहये। युगाद्यादि निमित्तेषु न वारतिथिदूषणम्" इति सत्यव्रतवचनात् । अत्र शूदस्याप्यधिकारः। स्मात् शूद्रः समाचरदिति वचनात् पस्य स्मार्त्तवेन प्रतिनिधिनाप्यारम्भः कर्तव्यः । "श्रोतं कर्म स्वयं कुर्य्यादन्योऽपि स्मार्समाचरेत् । अशक्ती श्रौतमप्यन्यः कुर्यादाचारमन्ततः” । इति शातातणयात्। अन्तत उपक्रमात् परतः। यात्रवल्काः। "श्रीकामः पान्तिकामो वा For Private And Personal Use Only Page #958 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६४४ संस्कारतत्वम् । ग्रहयनं समाचरत । वृध्यायुः पुष्टिकामो वा तथैवाभिचर: बपि। सूर्यः सोमो महीपुवः सोमपुत्रो वृहस्पतिः । शक्रः शनैश्चरो राहुः केतुति ग्रहाः स्मृताः। तानकात स्फाटिका. ट्रक्तचन्दनात् स्वर्णकादुभौ। रजतादयसः सौसात् कांस्यात् कार्याग्रहाः क्रमात्। स्वर्णैर्वा पटे लेख्या गन्धैमण्डलकेषु था। यथावर्ण प्रदेयानि वासांसि कुसुमानि च। गन्धान वलयश्चैव धूपो देयः सगुग्गुलुः। कर्तव्या मन्त्रवन्तम चरवः प्रतिदैवतम्। पासष्टेन इम देवा पग्निादिवः ककुत्। उहुध्यस्वेति च ऋची यथासंख्यं प्रकीर्तिताः। वृहस्पतेऽतियदय॑स्तयैवाबात परिश्रुतः। शबो देवी तथा काण्डात् केतुं कण्वविति क्रमात्। प्रकः पलाश: खदिरस्त्वपामार्गोऽथ पिप्पलः। उडम्बरः शमी दूर्वा कुमाश्च समिधः क्रमात् । एकैकस्याष्टशतमष्टाविंशतिरेव वा। होतव्या दधिसपिभ्यां दना क्षौरेण वा युताः। गुड़ौदनं पायसव विश्वं क्षौर. पष्टिकम् । दध्योदमं विश्वर्ण मांसं चित्रानमेव च । दद्याद प्रहकमाञ्चेदं हिजेम्यो भोजनं बुधः । शक्तितो वा यथालाभं सत्कृत्य विधिपूर्वकम्। धेनुः प्रसस्तथानडान् हेमवासो इयस्तथा। कृष्णा गौरायसं छाग एता वै दक्षिणा क्रमात् । यश्च यस्य सदा दुस्थः स तं यत्नेन पूजयेत् । ब्रह्मणेषां घरो दत्त: पूजिता: पूजयिष्यथ । ग्रहाधौना नरेन्द्राणामुच्छायः पतनानि च । भावाभावी च जगतस्तस्त्रात् पूज्यतमा ग्रहाः"। शान्तिधमहारा ऐहिकानिष्टनिहत्तिः। शाक्यर्थयागो मलिम्वचादिष्वपि कार्यः। "नैमित्तिकानि काम्यानि निपतन्ति यथायथा। तथातथैव कार्याणि न कालस्तु विधीयते इति दक्षवचनात्। नैमित्तिकानि काम्यानौति समानाधिकरणमिदम् । प्रहदौःस्थ्यव्याधिदुःखमादिनिमित्वान्नैमित्तिकानि For Private And Personal Use Only Page #959 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संस्कारतत्वम् । ४५ तच्छान्तिफलकत्वात् काम्यानि । श्री प्रहार्थयागस्तु न कार्यः पुध्यर्थत्वेन केवलकाम्यत्वात्। अतएव मत्स्यपुराणम् । वैशम्पायनमासोनमपृच्छच्छौनकः पुनः । सर्वकामाप्तये नित्यं कथं शान्तिकपौष्णिकम् ॥ वैशम्पायन उवाच। "श्रीकाम: शान्तिकामो वा तथा चाभिचरन् पुनः । येन ब्रह्मन् विधानेन तन्मे निगटतः शृणु" । इत्यपक्रम्य ब्रहयागाभिधानात्। दृष्टिकामहोमस्त्ववग्रानाशार्थत्वे शान्तिकः। केवलवृत्त्यर्थले पौष्टिकः। अयमपि साख्यात् परमशोचेऽपि कार्यः । “व्रत. यन्नविवाहेषु आहे होमेऽर्चने जपे। प्रारब्ध सूतकं न स्यात् पनारब्धे तु सूतकम्" इति विष्णुवचने व्रतशब्दस्य सङ्कल्पाङ्गककम्मपरत्वात्। “विवाहादौ च संस्कार डिवाहे कृते सति। सङ्कल्पे ग्रहशान्तौ च नाशौचं मन्यते बुधाः" इति निर्णयामृतकृतवचनाच । अत्र नान्दौथाई विवाहादावित्यनेन श्रावस्यारधार्थकत्वात् हिना ते इति श्रवणाञ्च विवाहो. पनयनादावब्रोसर्गात् परमशौच एव दोषाभावः। न वृद्धिथाहारम्भग्णादपौति । प्रवाग्निनामान्याह रावासंग्रहे । "पूर्णाहुत्यां मृड़ो नाम शान्तिके वरदस्तथा। पौष्टिके वलद. चैव क्रोधाग्निश्वाभिचारके" ॥ ग्रहाणाह सूर्य इत्यादि यद्यपि सवैजनसिहत्वात् ग्रहाणां बहवः शब्दा वाचकाः सन्ति शब्दो. पहितार्थोऽर्थोपहितः शब्दो वा देवता उभयथापि शब्दा. नियमादविनिगमना स्यात्। तथापि सूर्यासोममङ्गलबुधवृहस्पति शुक्रशनैश्वरराहु केतुपदेः पूजनं सर्वजनसिहत्वात् । उभौ बुधवृहस्पतौ। स्वैवर्णस्तामाद्यभावे यस्य ग्रहस्य यो वर्षा रक्तादिस्तैवर्णवर्णमाह मत्यपुराणम्। “संस्मरेद्रनामादित्य मङ्गारकसमन्वितम्। सोमशक्रो तथा खेतौ बुधजीवी श्व पिङ्गलौ। मन्दराह तथा कृष्णो धम्र केतुगणं विदुः" । For Private And Personal Use Only Page #960 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संस्कारतत्त्वम् । पिङ्गलो पोतो। धूम्र चन्द्रं नानावणे *सोमपुत्रो गुरुक्षेत्र तदुभौ पौत अतो इति। चित्राम केतव इति वशिष्ठसंहितास्कन्दपुराणगोभिलैकवाक्यत्वात्। तथा चामरसिंहः। "धूमधूमलौ कृष्णलोहित । गन्धैश्च रकचन्दनादिभिः । कृतेषु मण्डल के बु वर्तुलादिग्रहरूपेषु पूज्या इति शेषः । तथा च शान्तिदीपिकायाम्। “वर्तुलो भास्करः कार्यों यई चन्द्रो निशाकरः । अङ्गारकस्त्रिकोणस्तु बुधश्चापाकतिस्तथा। पना. कतिगुरुः कार्यचतुष्कोणस्तु भार्गवः । सर्पाकति: शनि: का- राहुस्तु मकराकृतिः। खनावतिस्तथा केतुः कार्यो मण्डलपूजन ॥ मण्डलकरणासामर्थ्य वैदिकामाह मत्यपुराणम्। “गर्भस्योत्तरपूर्वस्यां वितस्विहविस्तताम् । विप्र. इययुतां वेदी वितस्त्युच्छायसंयुताम्। संस्थापनाय देवानां चतुरस्रामुदलवाम्। अग्निप्रणयनं कृत्वा तस्यामावाहयेत् सुरान्" । गर्भस्य मण्डपगर्भस्य । ममापुराणं "मध्ये तु भास्कर विद्यात् लोहितं दक्षिणेन च । उत्तरस्थां गुरु विद्यादुधं पूर्वोत्त. रेण तु। पूर्वेण भार्गवं विद्यात् सोमं दक्षिणपूर्वके । पश्चिमेन शनि विद्याद्राहु दक्षिणपश्चिमे। पश्चिमोत्तरतः केतुं स्थापयेत् शुक्लतण्डलैः” ॥ अत्रैव पावायेहाहभिरिति दर्शनादावाहनं ध्याहृतिभिः शलतण्डुलैः कार्यम्। स्कन्दपुराणे। “जन्मभू. गोवभेतेषां वर्णस्थानमुखानि च। योऽज्ञात्वा कुरुते शान्तिं प्रहास्ते नावमानिताः ॥ उत्यनोऽक: कलिङ्गेषु यमुनायाच चन्द्रमाः । अङ्गारकस्त्ववन्त्यान्तु मगधाख्य हिमांशजः । सैन्धवेषु गुरुर्जातः शक्रो भोजकटे तथा। शनैश्चरस्तु सौराष्ट्र राहुराटिकापुरे । अन्तर्वेद्यां तथा केतुरित्येता प्रहभूमयः। पादित्यः काश्यपो गोव पात्रेयचन्द्रमा भवेत् ॥ भरद्वाजो भवेदोमस्तथावेयश्च सोमजः। गुरुः पूज्योजिरो गोत्रः शक्रो वै भार्गवस्तथा। शनिः काश्यप एवायं राहुः पैठौनसिस्तथा । केतवो जेमिनेयाच महा लोकहिते रताः । मस्यपुराणम् । "पादित्याभिमुखाः सर्वे साधिपप्रत्यधिदेवताः। स्थापनौया मुनिश्रेष्ठ नान्तरा न पराजु खाः" । प्रादित्यान्यान्यस्य र For Private And Personal Use Only Page #961 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संवारतत्वम् । २४७ स्थापितग्रहस्थान्तरालेऽन्यो ग्रहो न स्थापनीयः नाप्यादित्य. परानखाः कार्याः। प्रधिदैवतपूजा अयुतहोमादौ कार्या। कात्यायनः। तदोवजातोरजात्वा होमं यः कुरते नरः। म तस्य फलमानोति न च तुष्यन्ति देवताः। न हुतं न च संस्कारो न च यज्ञफलं लभेत् ॥ वशिष्ठगोभिलकात्यायनाः । "ब्राह्मणो मार्गवाचायौँ क्षत्रियावलोहितो। वैश्यो सोम. बुधौ चैव शेषान् शूद्रान् विनिर्दिशेत् ॥ वलयस्तु मत्स्यपुणे। गुडौदनं रवेदद्यात् सोमाय तपायसम्। संयावक कुजे दद्यात् चौरावं सोमस्नवे । दध्योदना जौवाय शक्राय तु तौदनम् । शनवराय अपरमाज मांसच राहवे। चित्री. दनञ्च केतुभ्यः सर्वभक्ष्यैः समर्चयेत् ॥ सर्वभक्ष्यस्तु तत्तव्यालामे यथालाभोपपत्रः। मन्चवन्तः। पोम् सूर्यायत्वायुष्टं निपामौति मन्त्र युक्ताः। यजुषां ग्रहणनिर्वापप्रोक्षणमन्त्रयुक्काः। ऋग्वे दिनान्तु निर्वापरोक्षणमन्वयुताः। चन्द्रश्यमाह गोभितः। “प्रथ हविनिर्वपति बोहोन यवान् वेति" तदनाभे शालिगोधमावपि पायो। “यथोलवस्त्वसम्पत्ती ग्राह्य तदनुकारि यत् । यवासुझाव भोधमा बौहोगामिव शालयः" इति छन्दोगपरिशिष्टात्। समिप्रमाणवे मत्स्यपुराणे। प्रादेश. मावा: सशिखा: सरकाः सपलाशिनौः। समिधः कल्पयेत् प्राज्ञः सर्वकर्मसु सर्वदा" तत्तममिदलाभे पैठौनमिः । “कारह. वल्कलपुष्यप्ररोहरसगन्धादौनां सादृश्येन प्रतिनिधिं कुर्यात् सर्वानाभे यवः प्रतिनिधिर्भवतीति काण्ड नालं प्ररोहोऽङ्करः । यव इति कल्पतरु पाठः। अवयवः इति नारायणोपाध्यायाः। पासष्टेनेत्यादयः क्रमेण सूर्यादिमन्त्राः । एकैकस्येति स्वरया. नुसारेण। चरुसमूहेनाज्यभागं कृत्वा चरुणां प्रत्येकमेकैकाहुतिमर्कादिक्रमेणार्कादिमन्चैहु त्वा पक्षात वनमन्त्रैरेव यथोबसंख्या होतव्या। इति शूलपाणिमहामहोपाध्यायाः । दूर्वा होमे दूर्वावयं ग्राधम्। सरदातिलके होमट्रव्यपरिमाणे टूर्वावयसमुद्दिष्टमिति दर्शनात्। चर्ण पकं तिलतण्डलच कषररूपं शनैश्चराय वषरमिति मत्यपुराणात्। मांसमाज पास मांसच राहवे" इति मन्यपुराणात्। चित्रा “मजा. For Private And Personal Use Only Page #962 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४२ संस्कारतत्वम् । क्षौरेण संस्विन्ना यवाच तिलतण्डलाः। प्रजाकर्णस्य रोन रक्ताचित्रान संजिता" ॥ इति दौपिकोक्तम्। यथा लाभमित्यनेन तत्तव्यालाभे भक्ष्यान्तरं देयम। सर्वभक्ष्यैः समर्चये. दिति मत्स्यपुराणात्। सत्कृत्य पाद्यादिना पूजयित्वा धेन्वादिदक्षिणा देया। तदभावे तु मत्स्यपुराणम् । “सुवर्णमथवा दद्यात् गुरुर्वा येन तुष्यति। तथा च मत्स्यपुराणम् । "यजमान: सपनौक ऋत्विजस्तान् समाहितः। दक्षिणाभिः प्रयत्नेन पूजयेतविस्मयः ॥ इत्यपक्रमात् गुरुर्वा येन तुष्यतीत्युपसंहारात्। तवैव लक्षहोमे। “दातव्या यजमानेन पूर्ववक्षिणा पृथक् । त्वराक्रोधविहौनेन ऋत्विगभ्यः शान्तचेतसा" ॥ इत्यतत्वात् ऋत्विग्भ्य एव दक्षिणा। “सूर्याय कपिलां धेन दद्याच्छल तथैन्दवे" ॥ इत्यादिषु तार्थ्य चतुर्थों। तन सूययागप्रतिष्ठाथं कपिलां धनुम् ऋविजे दद्यात्। गुडोदनादिभोजनमपि तस्यैव उपस्थितत्वात । एता दक्षिणा भोजित ब्राह्मगानामिति शूलपाणिव्याख्यानाच्च। "समन्त्रण प्रदातव्याः सर्वाः सर्वत्र दक्षिणा" इति मत्स्यपुराखात्। धेन्वादिदाने कपिले सर्वदेवानामित्यादि तत्तम्मन्त्रा: पाठ्याः। ते च प्रयोगे वक्ष्यते। ऋल्लिगभ्य इत्ययुतादिहोमविषयम्। अल्प होमेऽशतावेकोऽपि पृथक् । अतएव गुरुर्वा येन तुष्यतीत्युक्तं यश्चेति यत्नेन पूर्वोक्तादतिरिक्तोपचारेण अत. एव दीपिकायाम्। “एकै कस्याष्टशतमष्टाविंशतिरेव वा। होतव्या मधुपिभ्यां दना क्षौरेण वा युतम्”, पूजयिष्यथ त्वभौष्टवरदानन शतोदुस्थः ग्रहो यत्नतः पूजनीयः। यथा मत्स्य पुराणे। “सुस्थः स्वल्पोपचारेगा दुस्थः शक्त्याद्यपेक्षया । यत्नत: पूजनौयास्ते पूजिताश्चेत् शुभावहा:” ॥ तथा “यस्तु पाड़ाकरो नित्यमल्पवित्तस्य वा ग्रहः । स तं यत्नन संपूज्य शेषान प्यचयेवरः ॥ तस्मात् पौड़ाकरी नित्यं य एव भवति ग्रहः । तमेव पूजयेत्या हो वा बौन् वा यथाविधिः ॥ एकमप्यर्च येत्या ब्राह्मणं वेदपारगम्। दक्षिणाभिप्रयत्नेन न बहनल्पवित्तवान्" ॥ इति वन्द्य घटय-हरिहरभट्टाचार्यामजऔरष्नुनन्द नभट्टाचार्यविरचितं संस्कारतत्त्व समाप्तम् । For Private And Personal Use Only Page #963 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Serving Jinshasan 027352 gyanmardi @kobatirth.org For Private And Personal Use Only